________________
ठाणं (स्थान)
५०६
स्थान ४ : टि०५८-५६
५८, ५६ (सू० २५६-२५८)
महोत्सव के बाद जो प्रतिपदाएं आती हैं, उनको महा-प्रतिपदा कहा जाता है। निशीथ (१९१२) में इंद्रमह, स्कंदमह, यक्षमह और भूतमह इन चार महोत्सवों में किए जाने वाले स्वाध्याय के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। निशीथ-भाष्य के अनुसार इंद्रमह आषाढी पूर्णिमा को, स्कंदमह आश्विन पूर्णिमा को, यक्षमह कार्तिक पूर्णिमा और भूतमह चैत्री पूर्णिमा को मनाया जाता था।
चर्णिकार ने बतलाया है कि लाट देश में इंद्रमह श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता था। स्थानांग वृत्तिकार के अनुसार इंद्रमह आश्विन पूर्णिमा को मनाया जाता था।' वाल्मीकि रामायण से स्थानांग वृत्तिकार के मत की पुष्टि होती
आषाढी पूर्णिमा, आश्विन पूणिमा, कार्तिक पूर्णिमा और चैत्री पूर्णिमा को महोत्सव मनाया जाता था। जिस दिन से महोत्सव का प्रारम्भ होता, उसी दिन से स्वाध्याय बंद कर दिया जाता था। महोत्सव की समाप्ति पूर्णिमा को हो जाती, फिर भी प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय नहीं किया जाता। निशीथभाष्यकार के अनुसार प्रतिपदा के दिन महोत्सव अनुवृत्त (चालू ) रहता है। महोत्सव के निमित्त एकत्र की हुई मदिरा का पान उस दिन भी चलता है । महोत्सव के दिनों में मद्यपान से बावले बने हुए लोग प्रतिपदा को अपने मित्रों को बुलाते हैं, उन्हें मद्य-पान कराते हैं। इस प्रकार प्रतिपदा का दिन महोत्सव के परिशेष के रूप में उसी शृंखला से जुड़ जाता है।
____ उन दिनों स्वाध्याय न करने के कई कारण बतलाए गए हैं, उनमें एक कारण है-लोकविरुद्ध । महोत्सव के समय आगमस्वाध्याय को लोग पसंद क्यों नहीं करते ? यह अन्वेषण का विषय है।
अस्वाध्यायी की परम्परा का मूल वैदिक-साहित्य में ढूंढा जा सकता है। जैन-साहित्य में उसे लोकविरुद्ध होने के कारण मान्यता दी गई । आयुर्वेद के ग्रंथों में भी अस्वाध्यायी की परम्परा का उल्लेख मिलता है'.--
कृष्णेऽष्टमी तन्निधनेऽहनी द्वे, शुक्ले तथाऽप्येवमहद्धिसन्ध्यम् । अकालविद्युत्स्तनयित्नुघोषे, स्वतंत्रराष्ट्रक्षितिपव्यथासु ।। श्मशानयानायतनाहवेसु, महोत्सवौत्पातिकदर्शनेषु ।
नाध्येयमन्येषु च येषु विप्रा, नाधीयते नाशुचिना च नित्यम् ।। कृष्णपक्ष की अष्टमी और कृष्णपक्ष की समाप्ति के दो दिन (अर्थात् चतुर्दशी और अमावस), इसी प्रकार शुक्लपक्ष की (अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा), सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय, अकाल (वर्षा ऋतु के बिना) बिजली चमकना तथा मेघगर्जन होना, अपने शरीर तथा अपने सम्बन्धी तथा राष्ट्र और राजा के आपत्काल में, श्मशान में, सवारी (यात्राकाल) में, वध स्थान में तथा युद्ध के समय, महोत्सव तथा उत्पात (भूकम्पादि) के दिन, तथा जिन देशों में ब्राह्मण अनध्याय रखते हों उन दिनों में एवं अपवित्र अवस्था में अध्ययन नहीं करना चाहिए। देखें स्थानांग १०।२०,२१ का टिप्पण।
१. निशीथभाष्य, ६०६५ :
आसाठी इंदमहो, कत्तिय-सुगिम्हओ य बोधब्बो ।
एते महामहा खलु, एतेसिं चेव पाडिवया ॥ २. निशीथभाष्यचूणि, ६०६५ : इह लाडेसु सावण पोण्णिमाए
भवति इंदमहो। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र २०३ : इन्द्रमहः -अश्वयुक् पौर्णमासी ।
४. बाल्मीकि रामायण, किष्किधा काण्ड, सर्ग १६, श्लोक ३६ :
इन्द्रध्वज इवोद्भूतः, पौर्णमास्यां महीतले ।
आश्वयुक् समये मासि, गतथीको विचेतनः ।। ५. निशीथभाष्य, ६०६८ :
छणिया ऽवसेसएणं, पाडिवएसु विछणाऽणुसज्जति ।
महबाउलत्तणेणं, असारिताणं च सम्माणो॥ ६. सुश्रुतसंहिता, २१६,१०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org