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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०४८-५२
इस कथा चतुष्टय में आसक्त रहने वाला मुनि आत्मलीन नहीं हो पाता। फलत: वह प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि से वंचित रहता है।
४८-५२ (सू० २४६-२५०)
प्रस्तुत आलापक में कथा का विशद वर्णन किया गया है। आक्षेपिणी आदि कथा चतुष्टय की व्याख्या दशवकालिकनियुक्ति, मूलाराधना, दशवकालिक की व्याख्याओं, स्थानांगवृत्ति, धवला आदि अनेक ग्रन्थों में मिलती है।
दशवकालिक नियुक्ति और मूलाराधना में इस कथा-चतुष्टय की व्याख्या समान है। स्थानांग वृत्तिकार ने आक्षेपणी की व्याख्या दशकालिक नियुक्ति के आधार पर की है। यह वृत्ति में उद्धृत नियुक्ति गाथा से स्पष्ट होता है। धवला में इसकी व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से मिलती है। उसके अनुसार-नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों और दूसरे समयों की निराकरणपूर्वक शुद्धि कर छह द्रव्यों और नव पदार्थों का प्ररूपण करने वाली कथा को आक्षेपणी कहा जाता है। इसमें केवल तत्त्ववाद की स्थापना प्रधान है।' धवलाकर ने एक श्लोक उद्धृत किया है उससे भी यही अर्थ पुष्ट होता है।
प्रस्तुत आलापक में आक्षेपणी के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनसे दशवकालिक नियुक्ति और मूलाराधना की व्याख्या ही पुष्ट होती है।
हमने आचार, व्यवहार आदि का अनुवाद वृत्ति के आधार पर किया है। इन नामों के चार शास्त्र भी मिलते हैं। कछ आचार्य इन्हें यहां शास्त्रवाचक मानते हैं। वृत्तिकार ने स्वयं इसका उल्लेख किया है। विशेष विवरण के लिए देखेंदसवेआलियं, ८१४९ का टिप्पण।
विक्षेपणी की व्याख्या में कोई भिन्नता नहीं है।
स्थानांग वृत्तिकार ने संवेजनी (संवेदनी) की जो व्याख्या की है, वह दशवकालिक नियुक्ति आदि ग्रन्थों की व्याख्या से भिन्न है। उनके अनुसार इसमें वैक्रिय-शुद्धि तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि का कथन होता है।
धवला के अनुसार इसमें पुण्यफल का कथन होता है। यह उक्त अर्थ से भिन्न नहीं है।
निर्वदनी की व्याख्या में कोई भिन्नता लक्षित नहीं होती। धवलाकार के अनुसार इसमें पाप फल का कथन होता है।
प्रस्तुत आलापक में निर्वेदनी कथा के आठ विकल्प किए गए हैं। उनसे यह फलित होता है कि पृण्य और पाप दोनों के फलों का कथन करना इस कथा का विषय है। इससे स्थानांग वृत्तिकार कृत संवेजनी की व्याख्या की प्रामाणिकता सिद्ध होती है।
१. स्थानांग, ४।२५४ । २. क-दशवकालिकनियुक्ति, गाथा १६५-२०१ ।
ख-मूलाराधना, ६५६,६५७ ।
ग-पट्खण्डागम, खंड १, पृष्ठ १०४, १०५। ३. षट्पण्डागम, भाग १, पृष्ठ १०५:
तत्थ अक्खेवणी णाम छद्दव्य-णव-पयत्थाणं सरूवं दिगंतर-समयांतर-णिराकरणं सुद्धि करेंती परुवेदि । ४. षट्खण्डागम, भाग १, पृ०१०६ :
आक्षेपणी तत्त्वविधानभूतां विक्षेपणी तत्त्वदिगन्तशुद्धिम्।
संवेगिनी धर्मफलप्रपञ्चां निर्वेगिनीं चाह कथां विरागाम् ।। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र २००: अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो
ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराधभिधानादिति ।
६. क-दशवका लिकनियुवित, गाथा २०० :
वीरिय विउव्वणिड्डी, नाण चरण दंसणाण तह इट्टी।
उवइस्सइ खलु जहियं, कहाइ संवेयणीइ रसो।। ख-मूलाराधना, ६५७ : संवेयगी पुण कहा, पाणचरित्त
तववीरिय इड्डिगदा। ७. षट्खंडागम, भाग १, पृष्ठ १०५ : संवेयणी णाम पुग्ण-फल
संकहा। काणि पुण्ण-फलानि ? तित्थयर-गणहर-रिसि-चक्कवट्टि
बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहरिद्धीओ। ८. षट्खंडागम, भाग १, पृष्ठ १०५ : णिव्वेयणी णाम-पाव-फल
सकहा । काणि पाव-फलाणी? णिरय-तिरिय-कुमाणुस-जोगीसु जाइ-जरा-मरण वाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि । संसार-सरीरभोगेसु वेरग्गुप्पाइणी णिब्वेयणी णाम ।
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