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________________ ठाणं (स्थान) ३१२ स्थान ४ : सूत्र ७३-७६ देव-ठिड-पदं देव-स्थिति-पदम् देव-स्थिति-पद ७३. चउब्विहा देवाण ठिती पण्णत्ता, चतुर्विधा देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, ७३. देवताओं की स्थिति-(पदमर्यादा) चार तं जहातद्यथा प्रकार की होती हैदेवे णाममेगे, नामैकः, १. देव--राजास्थानीय, २. देवदेवसिणाते णाममेगे, देवस्नातकः नामैकः, स्नातक-अमात्य, ३. देव-युरोहितदेवपुरोहिते णाममेगे, देवपुरोहितः नामकः, शान्तिकर्म करने वाला, ४. देव-प्रज्वलनदेवपज्जलणे णाममेगे। देवप्रज्वलनः नामकः । मंगल पाठक। देवः संवास-पदं संवास-पदम् ७४. चउविहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधः संवास: प्रज्ञप्तः, तद्यथा- देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं देवः नामकः देव्या साध संवासं गच्छेत्, गच्छेज्जा, देवे णाममेगे छवीए सद्धि देवः नामैकः छव्या साधं संवासं गच्छेत. संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे छविः नामैकः देव्या साधू संवासं गच्छेत्, देवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा, छवी छविः नामकः छव्या साध संवासं गच्छेत्। णाममेगे छवीए सद्धि संवासं गच्छेज्जा। संवास-पद ७४. संवास (संभोग) चार प्रकार का होता है-१. कुछ देव देवी के साथ संभोग करते हैं, २. कुछ देव नारी या तिर्यञ्चस्त्री के साथ संभोग करते हैं, ३. कुछ मनुष्य या तिर्यञ्च-देवी के साथ संभोग करते हैं, ४. कुछ मनुष्य या तिर्यञ्च मानुषी या तिर्यञ्च स्त्री के साथ संभोग करते हैं। कसाय-पदं कषाय-पदम् कषाय-पद ७५. चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः कषायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ७५, कषाय चार हैं-१. क्रोधकषाय, कोहकसाए, माणकसाए, क्रोधकषायः, मानकषाय:, मायाकषायः, २. मानकषाय, ३. मायाकषाय, मायाकसाए, लोभकसाए। लोभकषायः। ४. लोभकषाय। एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणि- एवम्-नैरयिकाणां यावत् वैमानि- नारिकों से लेकर वैमानिकों तक के सभी याणं। कानाम् । दण्डकों में चारों कषाय होते हैं। ७६. चउपति द्विते कोहे पण्णत्ते, तं चतुः प्रतिष्ठितः क्रोधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ७६. क्रोध चतुःप्रतिष्ठित होता हैजहा आत्मप्रतिष्ठितः, परप्रतिष्ठितः, १. आत्मप्रतिष्ठित [स्व-विषयक]-जो आतपतिट्टिते, परपतिट्टिते, तदुभयप्रतिष्ठितः, अप्रतिष्ठितः । अपने ही निमित्त से उत्पन्न होता है, तदुभयपतिट्टिते, अपतिट्टिते। २.परप्रतिष्ठित [पर-विषयक]-जो दूसरे एवं—णेरइयाणं जाव वेमाणि- एवम् नैरयिकाणां यावत् वैमानिका- के निमित्त से उत्पन्न होता है, याणं। नाम् । ३. तदुभयप्रतिष्ठित--जो स्व और पर दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है, ४. अप्रतिष्ठित-जो केवल क्रोध-वेदनीय के उदय से उत्पन्न होता है, आक्रोश आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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