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ri (स्थान)
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स्थान १० : टि० ४६
३. अन्तकृतदशा - यह आठवां अंग है। इसके आठ वर्ग हैं। इसके प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं। इसमें अन्तकृत — संसार का अन्त करने वाले व्यक्तियों का वर्णन है ।
४. अनुत्तरोपपातिकदशा - यह नींवा अंग है। इसमें पांच अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन है । ५. आचारदशा — इसका रूढ नाम है- दशाश्रुतस्कंध । इसमें पांच प्रकार के आचारों- ज्ञानआचार, दर्शनआचार, तपआचार और वीर्य आचार का वर्णन है ।
६. प्रश्नव्याकरणदशा - यह दसवां अंग है। इसमें अनेकविध प्रश्नों का व्याकरण है।
७-१०--- -वृत्तिकार ने शेष चार दशाओं का विवरण नहीं दिया है। 'अस्माकं अप्रतीता' - 'हमें ज्ञात नहीं हैं - ऐसा कहकर छोड़ दिया है।
४६. ( सू० १११ )
कर्मविपाकदशा -- वृत्तिकार के अनुसार यह ग्यारहवें अंग 'विपाक' का प्रथम श्रुतस्कंध है ।"
विपाक के दो श्रुतस्कंध हैं – दुःखविपाक और सुखविपाक । प्रत्येक में दस-दस अध्ययन हैं। वर्तमान में उपलब्ध विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध [दुःखविपाक ] के दस अध्ययन ये हैं
१. मृगापुत्र २. उज्झितक ३. अभग्नसेन ४. शकट ५. बृहस्पतिदत्त ६. नंदिवर्द्धन [ नदिषेण ] ७. उम्बरदत्त ८. शौरिकदत्त 8. देवदत्त १०. अंजू ।
दूसरे श्रुतस्कंध [ सुखविपाक ] के दस अध्ययन ये हैं
१. सुबाहु २. भद्रनंदी ३. सुजात ४. सुवासव ५. जिनदास ६. वैश्रमण ७. महाबल ८. भद्रनंदि ९. महश्चन्द्र
१०. वरदत्त ।
प्रस्तुत सूत्र में आए हुए नाम विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध ( दुःख विपाक ) के दस अध्ययनों के हैं। दूसरे श्रुतस्कंध के अध्ययनों की यहां विवक्षा नहीं की है। इससे पूर्ववर्ती सूत्र (१०।११० ) की वृत्ति में वृत्तिकार ने इसका उल्लेख करते हुए द्वितीय श्रुतस्कंध के अध्ययनों की अन्यत्र चर्चा की बात कही है।'
पूर्ववर्ती सूत्र की वृत्ति से यह भी प्रतीत होता है कि विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध का नाम 'कर्म विपाकदशा है।" कर्मविपाक दशा के अध्ययन उपलब्धविपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययन
१. मृगापुत्र २. गोतास
३. अण्ड
४. शकट
५. ब्राह्मण
६. नंदिषेण
७. शौरिक
८.
उदुंबर ६. सहस्रोद्दाह आभरक १०. कुमार लिच्छई
१. दस्थानांगवृत्ति पत्र ४८० तथा बन्धदशा द्विगृद्धिदशा दीर्घदशा संदीपक शाश्चास्माकमप्रतीता इति ।
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२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८० : कर्मविपाकदशाः विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धः ।
३. वही, पत्र ४८० : द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्प दशाध्ययनात्मक एव, न चासाविहाभिमतः उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति ।
मृगापुत्र उज्झितक
अभग्नसेन
शकट
बृहस्पतिदत्त
नंदिवर्द्धन
उम्बरदत्त
शौरिकदत्त
देवदत्ता
अंजू
४. स्थानांग वृत्ति ४८० : कर्म्मण:- अशुभस्य विपाक : फलं कर्मविपाकः तत्प्रतिपादका दशाध्ययनात्मकत्वादृशाः कर्म्म. विपाकदशाः विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमभूतस्कन्धः ।
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