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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४: टि०६-१५
ऐश्वर्य से उन्नत और दृष्टि से उन्नत आचार्य का प्रवचन सुनने के लिए अनेक बाल, युवक और वृद्ध व्यक्ति उपस्थित थे। प्रवचन का विषय थाब्रह्मचर्य । ब्रह्मचर्य की उपादेयता पर विविध दृष्टियों से विमर्श हुआ। श्रोताओं के मन पर उसकी गहरी छाप पड़ी। अनेकों व्यक्ति यथाशक्य ब्रह्मचर्य की साधना में प्रविष्ट हुए, जिनमें एक युवक और एक युवती का साहस और भी प्रशस्य था। दोनों ने महीने में पन्द्रह दिन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प किया। युवक ने कृष्णपक्ष का और युवती ने शुक्लपक्ष का। दोनों तब तक अविवाहित थे। संयोग की बात समझिए कि दोनों प्रणय-सूत्र में आबद्ध हो गए।
परस्पर के वार्तालाप से जब यह भेद प्रकट हुआ तो एक क्षण के लिए दोनों विस्मित रह गए। पति का नाम विजय था और पत्नी का नाम विजया। विजया ने कहा-'पतिदेव ! आप सहर्ष दूसरा विवाह कीजिए।' मैं ब्रह्मचारिणी रहूंगी। विजय की आत्मा भी पौरुष से उद्दीप्त हो उठी। वह बोला--क्या मैं ब्रह्मचारी नहीं रह सकता ? मैं रह सकता हूं। अपनी दृष्टि और मन को पवित्र रखना कठोर है, किन्तु जब इन्हें सत्य-दर्शन में नियोजित कर दिया जाता है तो कोई कठिन नहीं रहता।' दोनों सहज दशा में रहने लगे।
दोनों पति-पत्नि ऐश्वर्य से उन्नत थे, साथ-साथ ब्रह्मचर्य विषयक उनकी दृष्टि भी उन्नत थी।
ऐश्वर्य से उन्नत और दृष्टि से प्रणत विचारों की विशुद्धि के बिना मन निर्मल नहीं रहता। भर्तृहरि को कौन नहीं जानता। वे एक सम्राट थे और एक योगी भी थे। सम्राट की विरक्ति का निमित्त बनी उन्हीं की महारानी पिंगला। रानी पिंगला राजा से सन्तुष्ट नहीं थी। उसका मन महावत में आसक्त हो गया था। महावत वेश्या से अनुरक्त था। राजा को इसकी सूचना मिली एक अमरफल से। घटना यों है
एक योगी को अमरफल मिला । वह उसे राजा भर्तृहरि को देने के लिए लाया। भर्तहरि ने उसे स्वयं न खाकर अपनी रानी पिंगला को दिया। पिंगला के हाथों से वह महावत के हाथों में चला आया और महावत ने उसे वेश्या के हाथों में खाने के लिए थमा दिया। उस फल का गुण था कि जो उसे खाए वह सदा युवक बना रहे।
वेश्या अपने कार्य से लज्जित थी। उसे यौवन स्वीकार नहीं था। वह उस फल को राजा के सामने ले आई। राजा ने ज्यों ही उसे देखा, रानी के प्रति ग्लानि के भाव उभर आए। उसने कहा
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्ताः । अस्मात् कृते च परितुष्यति काचिदन्या,
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च । "जिसके विषय में मैं सतत सोचता हूं, वह मुझ से विरक्त है। वह दूसरे मनुष्य को चाहती है और वह दूसरा व्यक्ति किसी दूसरी स्वी में आसक्त है। मेरे प्रति कोई दूसरी स्त्री आसक्त है। यह मोह-चक्र है । धिक्कार है उस स्त्री को, उस पुरुष को, कामदेव को, इसको और मुझको।" राजा भर्तृहरि राज्य को छोड़ संन्यासी बन गए।
महारानी पिंगला ऐश्वर्य से उन्नत होते हुए भी ब्रह्मचर्य की दृष्टि से प्रणत थी।
ऐश्वर्य से प्रणत दृष्टि से उन्नत एक योगी हौज में स्नान कर रहे थे। उनकी दृष्टि हौजमें एक छटपटाते बिच्छ पर गिर पड़ी। सन्त का करुण हृदय दयार्द्र हो उठा। तत्काल वे उसके पास गए और हाथ में ले बाहर रखने लगे। बिच्छू इसे क्या जाने ? उसने अपने सहज स्वभाववश संत के हाथ पर डंक लगा दिया। भलाई का यह पारितोषिक कैसा? पीड़ा से हाथ प्रकम्पित हो उठा। बिच्छू
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