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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि०६-१५
पुत्र ने पूछा---'मां ! ये गीत कैसे हैं ? मन नहीं चाहता इन्हें सुनने को।' मां बोली-'वत्स ! ये कर्ण-कटु हैं। हृदय को रुलाने वाले हैं। जो बच्चा पैदा हुआ था अब वह नहीं रहा।' पुत्र बोला-'मां, मैं नहीं समझा।' 'वह मर गया, उसकी मृत्यु हो गई' मां ने कहा । लड़के ने पूछा-'मृत्यु क्या होती है ?'
'जीवन की अवधि समाप्त होने का नाम मृत्यु है'-मां ने कहा। बालक ने पूछा- क्या मैं भी मरूँगा?' मां ने कहा'हां, जो पैदा होता है वह निश्चित मरता है। इसमें कोई अपवाद नहीं है।'
पुत्र बोला-'क्या इसका कोई उपचार है ?' मां ने कहा---'हां, है । भगवान अरिष्टनेमि इसके अधिकृत उपचारक हैं।'
एक बार अरिष्टनेमि वहां आए। थावरचापुत्र प्रवचन सुनने गया। प्रवचन से प्रतिबद्ध होकर, वह उनके शासन में प्रवजित हो गया। मुनि थावरचापुत्र ने कठोर साधना कर मोक्ष प्राप्त कर लिया।
वे ऐश्वर्य और प्रज्ञा-दोनों से उन्नत थे।
ऐश्वर्य से उन्नत और प्रज्ञा से प्रणत एक सिद्ध महात्मा अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक तालाब आया। विश्राम करने और पानी पीने के लिए वे वहां रुके। महात्मा तालाब के तट पर गये और जीवित मछलियां खाने लगे। शिष्यों ने भी गुरु का अनुकरण किया। महात्मा कुछ नहीं बोले। वे वहां से आगे चले। शिष्य भी चल पड़े। थोड़ी दूर चले कि एक तालाब आ गया। तालाब में मछलियां नहीं थीं।
महात्मा उसी प्रकार किनारे पर खड़े होकर निगली हुई मछलियों को पुनः उगलने लगे। शिष्य देखने लगे। उन्हें आश्चर्य हुआ। जितनी मछलियां निगली थीं वे सब जीवित थीं। शिष्य कब चूकने वाले थे। वे भी गले में अंगुली डाल कर मछलियां उगलने लगे, लेकिन बड़ी कठिनाई से वे एक-दो मछलियां निकाल सके, वे भी मरी हुई। महात्मा ने कहा'मूखों ! बिना जाने यों नकल करने से कोई बड़ा नहीं होता। प्रत्येक कार्य का रहस्य भी समझना चाहिए।'
शिष्य साधना की दृष्टि से ऐश्वर्ययुक्त थे किन्तु उनकी प्रज्ञा उन्नत नहीं थी।
ऐश्वर्य से प्रणत और प्रज्ञा से उन्नत वह एक दास था। स्वामि-भक्ति के कारण वह स्वामी का विश्वासपात्र बन गया। स्वामी उसकी बात का भी सम्मान करता था। एक दिन वह मालिक के साथ बाजार गया। एक बूढ़ा दास बिक रहा था। दास प्रथा के युग की घटना है। दास ने स्वामी से कहा-'इसे खरीद लीजिए।' स्वामी ने कहा-'इसका क्या करोगे ?' उसने कहा- मैं इससे काम लूंगा।' मालिक ने उसके कहने से उसे खरीद लिया। उसे उसके पास रख दिया।
वह उसके साथ बड़ा दयालुतापूर्ण व्यवहार करता था। बीमार होने पर सेवा करता और भी अनेक प्रकार की सुविधाएं देता। मालिक ने उसके प्रति अपनत्व भरा व्यवहार देखकर एक दिन उससे पूछा---'लगता है यह तुम्हारा कोई सम्बन्धी है ?' उसने कहा-'नहीं यह मेरा सम्बन्धी नहीं है।'
मालिक ने पूछा-'तो क्या मित्र है ?'
उसने कहा---'मित्र नहीं, यह मेरा शत्र है। इसने मुझे चुराकर बेचा था। आज जब यह बिक रहा था तो मैने पहचान लिया।
मालिक ने पूछा-'शत्र के साथ दयापूर्ण व्यवहार क्यों ?
उसने कहा-'मैंने संतों से सुना है, शत्र के प्रति प्रेम का व्यवहार करो। उसके प्रति दया रखो। बस ! मैं उसी शिक्षा को अमल में ला रहा हूं।'
दास ऐश्वर्य से प्रणत अवश्य था, किन्तु उसकी प्रज्ञा उन्नत थी।
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