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________________ स्थान ४ : सूत्र २ ठाणं (स्थान) २६१ तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे दुःखक्षपः तपस्वी। तबस्सी । तस्य नो तथाप्रकारं तपो भवति, तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति, नो तथाप्रकारा वेदना भवति । णो तहप्पगारा वेयणा भवति। तथाप्रकार: पुरुषजातः निरुद्धेन पर्यायेण तहप्पगारे पुरिसजाए णिरुद्धणं सिध्यति बुद्ध्यते मुच्यते परिनिर्वाति परियाएणं सिज्झति 'बुज्झति सर्वदुःखानां अन्तं करोति, यथा—सा मुच्चति परिणिव्वाति° सव्व- मरुदेवा भगवतीदुक्खाणमंतं करेति, जहा—सा चतुर्थी अन्तक्रिया । मरुदेवा भगवतीचउत्था अंतकिरिया। बहुल होता है । वह रूखा, तीर का अर्थी, उपधान करने वाला, दुःख को खपाने वाला और तपस्वी होता है। उसके न तथाप्रकार का घोर तप होता है और न तथाप्रकार की घोर वेदना होती है। इस श्रेणि का पुरुष अल्पकालीन मुनिपर्याय के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वात होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है। इसका उदाहरण भगवती मरुदेवा है। यह चौथी अल्प कर्म के साथ आए हुए तथा अल्पकालीन मुनिपर्याय वाले पुरुष की अन्तक्रिया है। उण्णत-पणत-पदं उन्नत-प्रणत-पदम् २. चत्तारि रक्खा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारः रुक्षाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा उण्णते णाममेगे उण्णते, उन्नतो नामैकः उन्नतः, उण्णते णाममेगे पणते, उन्नतो नामैकः प्रणतः, पणते णाममेगे उण्णते, प्रणतो नामैक: उन्नतः, पणते णाममेगे पणते। . प्रणतो नामकः प्रणतः । उन्नत-प्रणत-पद २. वृक्ष चार प्रकार के होते हैं१. कुछ वृक्ष शरीर से भी उन्नत होते हैं और जाति से भी उन्नत होते हैं, जैसे--- शाल, २. कुछ वृक्ष शरीर से उन्नत, किन्तु जाति से प्रणत होते हैं, जैसे-नीम, ३. कुछ वृक्ष शरीर से प्रणत, किन्तु जाति से उन्नत होते हैं, जैसे-अशोक, ४. कुछ वृक्ष शरीर से भी प्रणत होते हैं और जाति से भी प्रणत होते हैं, जैसे-खैर। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष शरीर से भी उन्नत होते हैं और गुणों से भी उन्नत होते हैं, २. कुछ पुरुष शरीर से उन्नत, किन्तु गुणों से प्रणत होते हैं, ३. कुछ पुरुष शरीर से प्रणत, किन्तु गुणों से उन्नत होते हैं, ४. कुछ पुरुष शरीर से भी प्रणत होते हैं और गुणों से भी प्रणत होते हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा तद्यथाउण्णते णाममेगे उण्णते, उन्नतो नामैक: उन्नतः, 'उण्णते णाममेगे पणते, उन्नतो नामैकः प्रणतः, पणते णाममेगे उण्णते, प्रणतो नामैक: उन्नतः, पणते णाममेगे पणते। प्रणतो नामैक: प्रणतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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