________________
ठाणं (स्थान)
६७४
स्थान १० : टि०१७-१८
१७. उदकमाला (सू० ३३)
उदकमाला का अर्थ है—पानी की शिखा–वेला। यह समुद्र के मध्य भाग में होती है। इसकी चौड़ाई दस हजार योजन की और ऊंचाई सोलह हजार योजन की है।'
१८. (सू० ४६)
अनुयोग का अर्थ है व्याख्या । व्याख्येय वस्तु के आधार पर अनुयोग चार प्रकार का है१. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग । द्रव्यानुयोग के दस प्रकार हैं
१. द्रव्यानुयोग—जीव आदि पदार्थों के द्रव्यत्व की व्याख्या। द्रव्य का अर्थ है-गुण-पर्यायवान पदार्थ । जो सहभावी धर्म है वे गुण कहलाते हैं और जो काल या अवस्थाकृत धर्म होते हैं वे पर्याय कहलाते हैं। जीव में ज्ञान आदि सहभावी गुण और मनुष्यत्व, बालत्व आदि पर्याय कृत धर्म होते हैं, अतः वह द्रव्य है।
२. मातृकानुयोग-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को मातृकापद कहते हैं। इसके आधार पर द्रव्यों की विचारणा करना मातृकानुयोग है।
___३. एकाथिकानुयोग-एकार्थवाची या पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या। जैसे—-जीव, प्राणी, भूत और सत्त्व-ये एकार्थवाची हैं।
४. करणानुयोग-साधनों की व्याख्या । एक द्रव्य की निष्पत्ति में प्रयुक्त होने वाले साधनों का विचार जैसे-घड़े की निष्पत्ति में मिट्टी, कभकार, चक्र, चीवर, दंड आदि कारण साधक होते हैं, उसी प्रकार जीव की क्रियाओं में काल, स्वभाव, नियति, कर्म आदि साधक होते हैं।
५. अर्पित-अनर्पित-इस अनुयोग के द्वारा द्रव्य के मुख्य और गौण धर्म का विचार किया जाता है।
द्रव्य अनेक धर्मात्मक होता है, किन्तु प्रयोजनवश किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसकी विवक्षा की जाती है। वह 'अर्पणा' है और शेष धर्मों की अविवक्षा होती है वह 'अनपर्णा' है। उमास्वाति ने अनेक धर्मात्मक द्रव्य की सिद्धि के लिए इस अनुयोग का प्रतिपादन किया है।
६. भावित-अभावित-द्रव्यान्तर से प्रभावित या अप्रभावित होने का विचार।
भावित-जैसे-जीव प्रशस्त या अप्रशस्त वातावरण से भावित होता है। उसमें संसर्ग से दोष या गुण आते हैं। यह जीव की भावित अवस्था है।
___अभावित --वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या में वज्रतंडुल का उदाहरण दिया है। यह या तो संसर्ग को प्राप्त नहीं होता या संसर्ग प्राप्त होने पर भी उससे भावित नहीं होता।
७. बाह्य-अबाह्य-वृत्तिकार ने बाह्य और अबाह्य के दो अर्थ किए हैं
(१) बाह्य-असदृश या भिन्न। जैसे-जीव द्रव्य आकाश से बाह्य है-चैतन्य धर्म के कारण उससे विलक्षण है। वह आकाश से अबाह्य भी है-अमूर्त धर्म के कारण उससे सदृश है।
(२) जीव के लिए घट आदि द्रव्य बाह्य हैं तथा कर्म और चैतन्य आन्तरिक (अबाह्य) है।'
नंदी सूत्र में अवधिज्ञान का बाह्य और अबाह्य की दृष्टि से विचार किया गया है । इससे इस अनुयोग का यह अर्थ फलित होता है कि द्रव्य के सार्वदिक (अबाह्य) और असार्वदिक (बाह्य) धर्मों का विचार करना।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४५५ : उदकमाला-उदकशिखा वेलेत्यर्थः,
दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भतः उच्चस्त्वेन षोडशसहस्राणीति, समुद्रमध्यभागादेवोत्थितेति।
२. तत्त्वार्थसूत्र ५।३१ : अपितानपित सिद्धेः । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५७ । ४. नंदीसूत्र (पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित) पृष्ठ ३१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org