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________________ ठाणं (स्थान) ६७३ स्थान १०: टि०१५-१६ १५. (सू० २८) प्रस्तुत सूत्र में दस राजधानियों में दस राजाओं ने मुनिदीक्षा ली, इस प्रकार का सामान्य उल्लेख किया है। किन्तु किस राजा ने कहां दीक्षा ली, इसका कोई उल्लेख नहीं है और न ही राजधानियों तथा राजाओं का क्रमश: उल्लेख है। बृत्तिकार ने आवश्यक नियुक्ति और निशीथ भाष्य के आधार पर प्रस्तुत सूत्र की स्पष्टता की है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार चक्रवतियों के जन्म-स्थान इस प्रकार हैं १. भरत–साकेत । २. सगर-साकेत। ३. मघवा-श्रावस्ती। ४-८. सनत्कुमार, शांति, कुंथु अर और सुभूम-हस्तिनागपुर । ६. महापद्म-वाराणसी । १०. हरिषेण-कांपिल्य । ११. जय-राजगृह । १२. ब्रह्मदत्तकांपिल्य। इनमें सुभूम और ब्रह्मदत्त प्रव्रजित नहीं हुए थे। निशीथभाष्य में प्रस्तुत विषय भिन्न प्रकार से वणित है। उसके अनुसार बारह चक्रवर्ती दस राजधानियों में उत्पन्न हुए थे। कौन चक्रवर्ती किस राजधानी में उत्पन्न हुआ उसका स्पष्ट निर्देश वहां नहीं है। वहां केवल इतना सा उल्लेख प्राप्त है कि शांति, कथ और अर.---ये तीन एक राजधानी में उत्पन्न हुए थे और शेष नौ चक्रवर्ती नौ राजधानियों में उत्पन्न हुए, यह स्वतः प्राप्त हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में दस चक्रवर्ती राजाओं के प्रव्रज्या-नगरों का उल्लेख है, किन्तु उनके जन्म-नगरों का उल्लेख नहीं है। वृत्तिकार ने लिखा है कि जो चक्रवर्ती जहां उत्पन्न हुए वहीं प्रव्रजित हुए। इस नियम के आधार पर निशीथभाष्य का निरूपण समीचीन प्रतीत होता है। प्रस्तुत सूत्र में दस प्रव्रज्या-नगरों का उल्लेख है और उक्त नियम के अनुसार उनके उत्पत्ति-नगर भी वे ही हैं, तब वे दस होने ही चाहिएं। आवश्यक निर्यक्ति में किस अभिप्राय से चक्रवतियों के छह उत्पत्ति नगरों का उल्लेख किया है-यह कहना कठिन है। उत्तराध्ययन में इन दसों की प्रव्रज्या का उल्लेख है, किन्तु प्रव्रज्या नगरों का उल्लेख नहीं है।' १६. गोतीर्थ विरहित (सू० ३२) गोतीर्थ का अर्थ है-तालाब आदि में गायों के उतरने की भूमि। यह क्रमशः निम्न, निम्नतर होती है। लवण समुद्र के दोनों पाश्वों में पिचानवें-पिचानवें हजार योजन तक पानी गोतीर्थाकार (क्रमश: निम्न, निम्नतर) है। उनके बीच में दस हजार योजन तक पानी समतल है। उसी को 'गोतीर्थ विरहित' कहा गया है।' १. आवश्यकनियुक्ति गाथा ३९७ : जम्मण विणीअउज्झा सावत्थी पंच हत्यिणपुरंमि । वाणारसि कंपिल्ले रायगिहे चेव कंपिल्ले ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४५४ : द्वौ च सुभूमब्रह्मदत्ताभिधानी न प्रवजितौ। ३. (क) निशीथभाष्य गाथा २५६०, २५६१ : चंपा महुरा वाणारसी य सावत्थिमेव साएतं । हत्यिणपुर कंपिल्लं, मिहिला कोसंबि रायगिहं ।। सती कुंथू य अरो, तिग्णि वि जिणचक्की एकहिं जाया। तेण दस होति जत्थ व, केसव जाया जणाइण्णा ।। (ख) स्थानांगवृत्ति, पन ४५४ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५४ : ये च यत्रोत्पन्नास्ते तनव प्रव्रजिताः। ५. उत्तराध्ययन १८६३४-४३ ।। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५५ : गवां तीर्थ-तडागादाववतारमार्गो गोतीर्थं, ततो गोतीर्थमिव गोतीर्थ-अवतारवती भूमिः, तद्विरहित सममित्यर्थः, एतच्च पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यग्भिागत: परभागतश्च गोतीर्थरूपां भूमि विहाय मध्ये भवतीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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