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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि०६१-१०८
नो बद्ध-पार्श्वस्पृष्ट-श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य पुद्गल 'नोबद्धपार्श्वस्पृष्ट' होते हैं। ६१ (सू० २३१)
पर्यादत्त-जो पुद्गल विवक्षित अवस्था को पार कर चुके हैं । अपर्यादत्त-जो पुद्गल विवक्षित अवस्था में हैं।
६२-६५ (सू० २३६-२४२)
पांचवें स्थान (सूत्र १४७) में आचार के पांच प्रकार बतलाए गए हैं-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपआचार और वीर्याचार । प्रस्तुत चार सूत्रों (२३६-२४२) में द्विस्थानक पद्धति से उन्हीं का उल्लेख है।
देखें-(५११४७ का टिप्पण)।
६६-१०८ प्रतिमा (सू० २४३-२४८)
प्रस्तुत ६ सूत्रों में बारह प्रतिमाओं का निर्देश है। चतुर्थ स्थान (४१६६-६८) में तीन वर्गों में इसका निर्देश प्राप्त है। पांचवें स्थान (५।१८) में केवल पांच प्रतिमाएं निर्दिष्ट हैं-भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोत्तरा।
समवायांगसूत्र में उपासक के लिए ग्यारह और भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाएं निर्दिष्ट हैं। वहां पर वैयावृत्त्य कर्म की ६१ प्रतिमाएं तथा ६२ प्रतिमाएं नाम-निर्देश के बिना निर्दिष्ट हैं। इस सूचि के अवलोकन से पता चलता है कि जैन साधना-पद्धति में प्रतिमाओं का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । वृत्तिकार ने प्रतिमा का अर्थ प्रतिपत्ति, प्रतिज्ञा या अभिग्रह किया है। शाब्दिक मीमांसा करने पर इसका अर्थ साधना का मानदण्ड प्रतीत होता है। साधना की भिन्न-भिन्न पद्धतियां और उनके भिन्न-भिन्न मानदण्ड होते हैं। उन सबका प्रतिमा के रूप में वर्गीकरण किया गया है। इनमें से कुछ प्रतिमाओं का अर्थ प्राप्त होता है और कुछ की अर्थ-परम्परा विस्मृत हो चुकी है। वृत्तिकार ने सुभद्राप्रतिमा के विषय में लिखा है कि उसका अर्थ उपलब्ध नहीं है।' उपलब्ध अर्थ भी मूलग्राही हैं, यह कहना कठिन है। वृत्तिकार ने समाधिप्रतिमा के दो प्रकार किए हैं -श्रुतसमाधिप्रतिमा और चरित्रसमाधिप्रतिमा।' उपधानप्रतिमा-उपधान का अर्थ है तपस्या। भिक्षु की १२ प्रतिमाओं और श्रावक की ११ प्रतिमाओं को उपधान
प्रतिमा कहा जाता है। विवेकप्रतिमा-प्रस्तुत प्रतिमा भेदज्ञान की प्रक्रिया है । इस प्रतिमा के अभ्यासकाल में आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया जाता है। इसका अभ्यास करने वाला क्रोध, मान, माया और लोभ की भिन्नता का अनुचिंतन (ध्यान) करता है। ये आत्मा के सर्वाधिक निकटवर्ती अनात्म तत्त्व हैं। इनका भेदज्ञान पुष्ट होने पर वह बाह्यवर्ती संयोगों की भिन्नता का अनुचिंतन करता है। बाह्य संयोग के मुख्य प्रकार तीन हैं-१. गण (संगठन), २. शरीर, ३. भक्तपान ।' इनका भेदज्ञान पुष्ट होने पर वह व्युत्सर्ग की भूमिका में चला जाता है।
१. समवाओ, ११११, १२।१। २. समवाओ, ६१।१। ३. समवाओ, ६१ तथा देखें समवाओ, पृ०२७३-२७४ का - टिप्पण। ४. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ :
प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञेतियावत् । (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र १८४ :
प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१:
सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१ :
समाधानं समाधिः-प्रशस्तभावलक्षणः तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदा-श्रुतसमाधिप्रतिमा
सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च। ७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६१:
विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानां गणशरीरभक्तपानादीनामनुचितानां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्रतिमा।
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