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________________ ठाणं (स्थान) १४२ स्थान २: टि० १२५ अध्यक्ष नागार्जुन थे और वलभी वाचना के अध्यक्ष स्कंदिलाचार्य थे। वलभी वाचना में २५० अंकों की संख्या मिलती है। इसका उल्लेख ज्योतिष्करंड में हुआ है। उसके कर्ता वलभी वाचना की परम्परा के आचार्य हैं, ऐसा आचार्य मलय गिरि ने कहा है। उसमें काल के नाम इस प्रकार हैं लतांग, लता, महालतांग, महालता, नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, ऊहांग, ऊह, महाऊहांग, महाऊह, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। प्रत्येक संख्या पूर्व संख्या को ८४ लाख से गुणा करने से प्राप्त होती है। शीर्षप्रहेलिका में ७० अंक (१८७६५५१७६५५०११२५६५४१६००६६६६८१३४३०७७०७९७४६५४६४२६१६७७७४७६५७२५७३४५७१८६८१६) और १८० शून्य अर्थात् २५० अंक होते हैं। शीर्षप्रहेलिका की यह संख्या अनुयोगद्वार में दी गई संख्या से नहीं मिलती। जीव और अजीव पदार्थों के पर्यायकाल के निमित्त से होते हैं। इसलिए इसे जीव और अजीव दोनों कहा गया है। संख्यातकाल शीर्षप्रहेलिका से आगे भी है, किन्तु सामान्य ज्ञानी के लिए व्यवहार्य शीर्षप्रहेलिका तक ही है इसलिए आगे के काल को उपमा के माध्यम से निरूपित किया गया है। पल्योपम, सागरोपम, अवप्पिणी, उत्सप्पिणी-ये औपम्यकाल के भेद हैं। ___ शीर्षप्रहेलिका तक के काल का व्यवहार प्रथम पृथ्वी के नारक, भवनपति, व्यन्तर तथा भरत-ऐरवत में सुषमदुःषमा आरे के पश्चिम भागवर्ती मनुष्यों और तिर्यचों के आयुष्य को मापने के लिए किया जाता है। यजुर्वेद १७।२ में १ पर १२ शुन्य रखकर दस खर्व तक की संख्या का उल्लेख है। वहां शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रय त, अबंद, न्यबंद, समुद्र, अन्त, परार्द्ध तक का उल्लेख है। उस गणितशास्त्र में महासंख तक की संख्या का व्यवहार होता है। वे २० अंक इस प्रकार हैं-इकाई, दस, शत, सहस्र, दससहस्र, लक्ष, दस लक्ष, करोड़, दस करोड़, अरब, दस अरब, खरब, दस खरब, नील, दस नील, पद्म, दस पद्म, संख, दस संख, महा संख। १२५ (सू० ३६०) ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आकर, आश्रम, संवाह, सन्निवेश और घोषये शब्द बस्ती के प्रकार हैं। ग्राम-ग्राम शब्द के अनेक अर्थ हैं १. जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रसित करे अथवा जहां १८ प्रकार के कर लगते हों। २. जहां कर लगते हो। १. लोकप्रकाश सर्ग २६, श्लोक २१ के बाद पृ० १४४ : ज्योतिष्करंडवृत्तौ श्रीमलयगिरिपूज्या इति स्माहुः-- "इह स्कंदिलाचार्यप्रवृत्तौ (प्रतिपत्तौ) दुःषमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुभिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः स्थानयोः संघमेलकोऽभवत् तद्यथा-- एको बलभ्यामेको मथुरायां । तव च सूत्रार्थ—संघटने परस्परं वाचनाभेदो जातो, विस्मृतयो हि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेद इति न काचिद् अनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानी वर्तमानं माथुर---वाचनानुगतं, ज्योतिष्करंड सूत्रकर्ता चाचार्यों वालभ्यस्तत इदं संख्यानप्रतिपादनं बालभ्यवाचनानुगतमिति नास्यानुयोगद्वारादिप्रतिपादितसख्यास्थानः सह विसदृशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति । २. स्थानांगवृत्ति पत्र ८२॥ ३. (क) उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ : सति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामितिग्रामः । (ख) दशवकालिकहारिभद्रो टीका, पन १४७ : असति बुद्ध यादीन् गुणानिति ग्रामः । ४. (क) निशीथचूणि, भाग ३, पृष्ठ ३४६ : करादियाण गम्मो गामो। (ख) स्थानांगवृत्ति, पत्र ८२ : करादिगम्या ग्रामाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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