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________________ ठाणं (स्थान) ९३७ स्थान १०: सूत्र १२८-१३४ १२८. असुरकुमाराणं जहण्णेणं दसवास- असुरकुमारणां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि १२८. असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। सहस्साई ठिती पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। इसी प्रकार स्तनितकुमार तक के सभी एवं जाव थणियकुमाराणं। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् । भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। १२६. बायरवणस्स तिकाइयाणं उक्कोसेणं बादरवनस्पतिकायिकानां उत्कर्षेण दश- १२६. बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ताः । स्थिति दस हजार वर्ष की है। १३०. वाणमंत राणं देवाणं जहणेणं दस- वानमन्तराणां देवानां जघन्येन दशवर्ष- १३०. वानमन्तर देवों की जघन्य स्थिति दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। सहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्त। हजार वर्ष की है। १३१.बंभलोगे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं ब्रह्मलोके कल्पे उत्कर्षेण देवानां दश १३१. बदालोककल्प पनि देवलोकन दस सागरोवमाइं ठिती पण्णता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। १३२. लतए कप्पे देवाणं जहणणं दस लान्तके कल्पे देवानां जघन्येन दश १३२. लान्तककल्प-छठे देवलोक में देवों की सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। जघन्य स्थिति दस सागरोपम की है। भाविभद्दत्त-पदं भाविभद्रत्व-पदम् भाविभद्रत्व-पद १३३. दसहिं ठाणेहिं जीवा आगमेसि- दशभिः स्थानः जीवा: आगमिष्यद्- १३३. दस स्थानों से जीव भावी कल्याणकारी भद्दत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- भद्रताय कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा कर्म करते हैं १. अनिदानता–भौतिक समद्धि के लिए अणिदाणताए, दिद्विसंपण्णताए, अनिदानतया, दृष्टिसम्पन्नतया, साधना का विनिमय न करना। जोगवाहिताए, खंतिखमणताए, योगवाहितया, क्षान्तिक्षमणतया, २. दृष्टिसंपन्नता–सम्यक्दृष्टि की आराधना । ३. योगवाहिता ६ ---समाधिजितिदियताए, अमाइल्लताए, जितेन्द्रियतया, अमायितया, पूर्ण जीवन । ४. क्षान्तिक्षमणता--समर्थ अपासत्थताए, सुसामण्णताए, अपार्श्वस्थतया, सुश्रमणतया, होते हुए भी क्षमा करना। ५. जितेन्द्रियता । ६. ऋजुता। ७. अपार्श्वस्थता--ज्ञान, पवयणवच्छल्लताए, प्रवचनवत्सलतया, दर्शन और चारित्र के आचार की शिथिपवयणउम्भावणताए। प्रवचनोद्भावनतया। लता न रखना । ८. सुधामण्य । ६. प्रवचन वत्सलता--आगम और शासन के प्रति प्रगाढ अनुराग। १०.प्रवचन-उद्भावनता आगम और शासन की प्रभावना। आसंसप्पओग-पदं आशंसाप्रयोग-पदम् आशंसाप्रयोग-पद १३४. दस विहे आसंसप्पओगे पण्णत्ते, तं दशविधः आशंसाप्रयोगः प्रज्ञप्ताः, १३४. आशंसाप्रयोग के दस प्रकार हैंतद्यथा १. इहलोक की आशंसा करना। इहलोगासंसप्पओगे, इहलोकाशंसाप्रयोगः, २. परलोक की आशंसा करना । परलोगासंसपओगे, परलोकाशंसाप्रयोगः, ३. इहलोक और परलोक की आशंस। करना। दुओलोगासंसप्पओगे, द्वयलोकाशंसाप्रयोगः, ४. जीवन की आशंसा करना। जीवियासंसप्पओगे, जीविताशंसाप्रयोगः, ५. मरण की आशंसा करना। मरणासंसप्पओगे, मरणाशंसाप्रयोगः, ६. काम [शब्द और रूप] की आशंसा कानासंसप्पओने, कामाशंसाप्रयोगः, करना। भोगासंसप्पयोगे, भोगाशंसाप्रयोगः, ७. भोग [गंध, रस और स्पर्श] की आशंसा करना। लाभासंसप्पओगे, लाभाशंसाप्रयोगः, ८. लाभ की आशंसा करना। प्रयासंसप्पओगे, पूजाशंसाप्रयोगः, ६. पूजा की आशंसा करना। सक्कारासंसप्पओगे। सत्काराशंसाप्रयोगः। १०. सत्कार की आशंसा करना। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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