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________________ स्थान ४: सूत्र २४० ठाणं (स्थान) ३४८ एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा तद्यथासंकिण्णे णाममेगे भद्दमणे, संकीर्णः नामकः भद्रमनाः, 'संकिण्णे णाममेगे मंदमणे, संकीर्णः नामैकः मन्दमनाः, संकिण्णे णाममेगे मियमणे, संकीर्णः नामकः मृगमनाः, संकिण्णे णाममेगे संकिण्णमणे।। संकीर्णः नामैकः संकीर्णमनाः। इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं-१. कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन भद्र होता है, २. कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन मंद होता है, ३. कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं, किन्तु उनका मन मृग होता है, कुछ पुरुष संकीर्ण होते हैं और उनका मन भी संकीर्ण होता है। संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा १. मधुगुलिय-पिंगलक्खो, १. मधुगुटिक-पिङ्गलाक्षः, अणुपुब्व-सुजाय-दोहणंगूल्लो। अनुपूर्व-सुजात्-दीर्घलाङ्गलः। पुरओ उदग्गधीरो, पुरत उदग्रधीरः, सव्वंगसमाधितो भद्दो ॥ सर्वाङ्गसमाहितः भद्रः॥ २. चल-बहल-विसम-चम्मो, २. चल-बहल-विषम-चर्मा, थूलसिरो थूलएण पेएण। स्थूलशिरा: स्थूलकेन पेचेन। थूलणह-दंत-वालो, स्थूलनख-दन्त-बालः, हरिपिंगल-लोयणो मंदो॥ हरिपिङ्गल-लोचनः मन्दः ।। ३. तणुओ तणुयग्गीवो, ३. तनुकः तनुकग्रीवः, तणुयतओ तणुयदंत-णह-वालो। तनुकत्वक् तनुकदन्त-नख-बालः । भीरू तत्थुविग्गो, भीरु: त्रस्तोद्विग्नः, तासी य भवे मिए णामं ॥ त्रासी च भवेत् मृगः नाम ।। ४. एतेसि हत्थीणं थोवा थोवं, ४. एतेषां हस्तिनां स्तोकं स्तोकं, तु जो अणुहरति हत्थी। तु यः अनुहरति हस्ती। रूवेण व सीलेण व, रूपेण वा शीलेन वा, सो संकिण्णो त्ति णायवो॥ स संकीर्णः इति ज्ञातव्यः ।। ५. भद्दो मज्जइ सरए, ५. भद्र: माद्यति शरदि, मंदो उण मज्जते वसंतंमि। मन्दः पुनः माद्यति वसन्ते। मिउ मज्जति हेमंते, मृगः माद्यति हेमन्ते, संकिण्णो सव्वकालंमि॥ संकीर्ण: सर्वकाले ।। संग्रहणी-गाथा जिसकी आंखें मधु-गुटिका के समान भूरापन लिए हुए लाल होती हैं, जो उचित काल-मर्यादा से उत्पन्न हुआ है, जिसकी धूछ लम्बी है, जिसका अगला भाग उन्नत है, जोधीर है, जिसके सब अंग प्रमाण और लक्षण से उपेत होने के कारण समाहित [सुव्यवस्थित ] हैं, उस हाथी को भद्र कहा जाता है। जिसकी चमड़ी शिथिल, स्थूल और वलियों [रेखाओं] से युक्त होता है, जिसका सिर और पुच्छ-मूल स्थूल होता है, जिसके नख, दांत और केश स्थल होते हैं तथा जिसकी आंखें सिंह की तरह भूरापन लिए हुए पीली होती है, उस हाथी को मंद कहा जाता है। जिसका शरीर, गर्दन, चमड़ी, नख, दांत और केश पतले होते हैं, जो भारु और त्रस्त [घबराया हुआ] और उद्विग्न होता है तथा जो दूसरों को त्रास देता है उस हाथी को मृग कहा जाता है। जिसमें उक्त हस्तियों के रूप और शील के लक्षण मिश्रित रूप में मिलते हैं उस हाथी को संकीर्ण कहा जाता है। भद्र के शरद् ऋतु में, मंद के बसंत ऋतु में, मृग के हेमन्त ऋतु में और संकीर्ण के सब ऋतुओं में मद झरता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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