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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : सूत्र ३४१-३४२
संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
संग्रहणी-गाथा १. पुव्वे णं असोगवणं, १. पूर्वे अशोकवन,
पूर्व में अशोक बन, 'दाहिणओ होइ सत्तवण्णवणं। दक्षिणे भवति सप्तपर्णवनम् ।
दक्षिण में सप्तपर्ण वन, अवरे णं चंपगवणं, अपरे चम्पकवनं,
पश्चिम में चम्पक वन, चूयवणं उत्तरे पासे॥ चूतवनमुत्तरे पावें ॥
उत्तर में आम्रवन। तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झ- तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे उन नन्दा पुष्करिणियों के ठीक बीच देसभागे चत्तारि दधिमुहगपव्वया चत्वारः दधिमुखकपर्वताः प्रज्ञप्ताः। में चार दधिमुख पर्वत हैंपण्णत्ता। ते णं दधिमुहगपध्वया चउटुिं ते दधिमुखकपर्वताः चतुःषष्ठि योजन- वे दधिमुख पर्वत ६४ हजार योजन ऊंचे जोयणसहस्साइं उड्ड उच्चत्तेणं, सहस्राणि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, एकं योजन- और हजार योजन गहरे हैं। वे नीचे, एग जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, सव्वत्थ सहस्रं उद्वेधेन, सर्वत्र समाः पल्यक- ऊपर और बीच में सब स्थानों में [चौड़ाई समा पल्लगसंठाणसंठिता; दस- संस्थानसंस्थिताः; दशयोजनसहस्राणि की अपेक्षा] समान हैं। उनकी आकृति जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं विष्कम्भेण, एकत्रिंशत् योजनसहस्राणि अनाज भरने के बड़े कोठे के समान एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च षट् च विविंशति योजनशतं परिक्षेपेण'; हैं। उनकी चौड़ाई दस हजार योजन की तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सर्वरत्नमयाः अच्छाः यावत् प्रतिरूपाः। है। उनकी परिधि ३१६२३ योजन की सव्वरयणामया अच्छा जाव
है। वे सर्व रत्नमय यावत् रमणीय पडिरूवा। तेसि णं दधिमुहगपन्वताणं उरि तेषां दधिमुखकपर्वतानां उपरि बहुसम- उन दधिमुख पर्वतों के ऊपर अत्यन्त बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा रमणीयाः भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः।। समतल और रमणीय भू-भाग हैं। पण्णत्ता। सेसं जहेव अंजणगपव्वताणं तहेव शेषं यथैव अञ्जनकपर्वतानां तथैव शेष वर्णन अंजन पर्वत के समान है। णिरवसेसं भाणियध्वं जाव चूतवणं निरवशेष भणितव्यम् यावत् चूतवनं उत्तरे पासे।
उत्तरे पावें। ३४१. तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले अंजणग- तत्र योसौ दाक्षिणात्यः अञ्जनकपर्वतः, ३४१. दक्षिण के अञ्जन पर्वत की चारों दिशाओं
पन्वते, तस्स णं चउदिसि चत्तारि तस्य चतुर्दिशि चतस्रः नन्दाः पुष्करिण्यः में चार नन्दा पुष्करिणियां हैंणंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--
१. भद्रा, २. विशाला, ३. कुमुदा, तं जहा.
भद्रा, विशाला, कुमुदा, पौण्डरीकिणी।। ४. पोंडरीकिणी। भद्दा, विसाला, कुमुदा, पोंडरीगिणी। ताओ णं णंदाओ पुक्खरिणीओ ता: नन्दाः पुष्करिण्यः एक योजन- शेष वर्णन पूर्व के अञ्जन पर्वत के समान एगं जोयणसयसहस्सं, सेसं तं चेव शतसहस्र, शेषं तच्चैव यावत् दधिमुखक- है। जाव दधिमुहगपन्वता जाव पर्वताः यावत् वनषण्डानि । वणसंडा।
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