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________________ ठाणं (स्थान) २२३ स्थान ३ : सूत्र ३६०-३६१ ३६०. तिहि ठाणेहिं महावट्ठीकाए सिया, त्रिभिः स्थानैः महावृष्टिकायः स्यात्, ३६०. तीन कारणों से महावृष्टि होती हैतं जहा-- तद्यथा १. किसी देश या प्रदेश में [क्षेत्र स्वभाव १. तस्सि च णं देसंसि वा पदेसंसि १. तस्मिंश्च देशे वा प्रदेशे वा बहवः से] पर्याप्त मात्रा में उदकयोनिक जीव वा बहवे उदगजोणिया जीवा य उदकयोनिकाः जीवाश्च पुदगलाश्च और पुद्गलों के उदक रूप में उत्पन्न और पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति उदकत्वाय अवक्रामन्ति व्युत्क्रामन्ति नष्ट होने तथा नष्ट और उत्पन्न होने से, विउक्कमति चयंति उववज्जति, च्यवन्ते उपपद्यन्ते, २. देव, नाग, यक्ष या भूत सम्यक् प्रकार २. देवा णागा जक्खा भूता २. देवा: नागाः यक्षाः भूताः सम्य से आराधित होने पर अन्यत्र समुत्थित, सम्ममाराहिता भवंति, अण्णत्थ गाराधिता भवंति, अन्यत्र समुत्थितं वर्षा में परिणत तथा बरसने ही वाले समुट्ठितं उदगपोग्गलं परिणयं उदकपुद्गलं परिणतं वर्षितुकामं तं उदक-पुद्गलों का उनके द्वारा उस देश वासिउकामं तं देसं साहरंति, देशं संहरन्ति में संहरण होने से, ३. अब्भवद्दलगं च णं समुट्ठितं ३. अभ्रबार्दलकं च समुत्थितं परिणतं ३. समुत्थित वर्षा में परिणत तथा बरसने परिणयं वासितुकामं णो वाउआए वर्षितुकामं नो वायुकायः विधुनाति ही वाले अभ्रवादलों के वायु द्वारा नष्ट न विधुणति होने सेइच्चेतेहि तिहिं ठाणेहि महावुट्टि- इति एतैः त्रिभिः स्थानः महावृष्टिकायः ।। इन तीन कारणों से महावृष्टि होती है। काए सिआ। स्यात् । अहुणोववण्ण-देव-पदं अधुनोपपन्न-देव-पदम् अधुनोपपन्न-देव-पद ३६१. तिहि ठाणेहं अहुणोववण्णे देवे त्रिभिः स्थानैः अधुनोपपन्न: देवः देव- ३६१. तीन कारणों से देवलोक में तत्काल उत्पन्न देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं लोकेषु इच्छेत् मानुषं लोकं अर्वाग् देव शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहता हब्वमागच्छित्तए, णो चेव णं आगन्तुम्, नो चैव शक्नोति अर्वाग् है, किन्तु आ नहीं सकतासंचाएति हन्वमागच्छित्तए, तं आगन्तुम्, तद्यथाजहा१. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु १. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु १. देवलोक में तत्काल उत्पन्न देव दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्धः ग्रथितः । कामभोगों में मूच्छित गृद्ध बद्ध तथा गढिते अन्झोववण्णे, से णं माणुस्सए अध्युपपन्नः, स मानुष्यकान् कामभोगान् आसक्त होकर मानवीय कामभोगों को न कामभोगे णो आढाति, णो परिया- नो आद्रियते, नो परिजानाति, नो अर्थ आदर देता है, न अच्छा जानता है, न णाति, णो अटुं बंधति, णो बध्नाति, नो निदानं प्रकरोति, नो प्रयोजन रखता, न निदान [उन्हें पाने का णियाणं पगरेति, णो ठिइपकप्पं स्थितिप्रकल्प प्रकरोति, संकल्प] करता है और न स्थिति प्रकल्प पगरेति, [उनके बीच रहने की इच्छा करता है, २. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु २. अधुनोपपन्नः देवः देवलोकेषु दिव्येषु २. देवलोक में तत्काल उत्पन्न, दिव्य दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे कामभोगेषु मूच्छितः गृद्धः ग्रथितः कामभोगों में मूच्छित गृद्ध बद्ध तथा गढिते अज्झोववण्णे, तस्स णं अध्युपपन्नः, तस्य मानुष्यकं प्रेम आसक्त देव का मानुष्य-प्रेम व्युच्छिन्न हो माणुस्सए पेम्मे वोच्छिण्णे दिव्वे व्युच्छिन्नं दिव्यं संक्रान्तं भवति, जाता है तथा उसमें दिव्य-प्रेम संक्रात हो संकते भवति, जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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