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आमुख
प्रस्तुत स्थान आठ की संख्या से सम्बन्धित है। इसके उद्देशक नहीं हैं। इसमें जीवविज्ञान, कर्मशास्त्र, लोकस्थिति, गणव्यवस्था, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास, भूगोल आदि अनेक विषय संकलित हैं । वे एक विषय से सम्बन्धित नहीं हैं । उनमें परस्पर भी सम्बद्धता नहीं है।
मनुष्य की प्रकृति समान नहीं होती। कोई व्यक्ति सरल होता है, वह माया का आचरण नहीं करता । कोई व्यक्ति माया करता है और उसे अपना चातुर्य मानता है। जिसकी आत्मा में पाप के प्रति ग्लानि होती है, धर्म के प्रति आस्था होती है, कृत कर्मों का फल अवश्य मिलता है - इस सिद्धान्त के प्रति विश्वास होता है, वह माया करके प्रसन्न नहीं होता। उसके हृदय में माया शल्य के समान सदा चुभती रहती है। व्यवहार में भी माया का फल अच्छा नहीं मिलता। परस्पर का सम्बन्ध टूट जाता है। दोनों दृष्टियों से माया का व्यवहार उसके लिए चिन्तनीय बन जाता है । वह माया की आलोचना करता है, प्रायश्चित्त और तपःकर्म स्वीकार कर आत्मा को शुद्ध बनाता है।
कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो माया करके मन में प्रसन्न होते हैं। अपने अहं को और अधिक जगाते हैं। मैंने जो कुछ किया दूसरा उसको समझ ही नहीं पाया। ऐसी भावना वाले व्यक्ति कभी माया को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करते। वे सोचते हैं कि आलोचना करने से मेरी प्रतिष्ठा कम होगी, मेरा अपयश होगा। ऐसा सोचकर वे मायाचरण की आलोचना नहीं करते ।
अहं वस्तु से नहीं आता । अहं जागता है भावना से । अपनी भावना के द्वारा मनुष्य वस्तु में से अहं निकालता है। दूसरों से अपने को बड़ा समझने की भावना जाग जाती है या जगा दी जाती है, तब अहं अस्तित्व में आ जाता है और वह आकार ले लेता है । अहं का दूसरा नाम मद है । प्रस्तुत स्थान में आठ प्रकार के मद बतलाए गए हैं । जातक किसी-न-किसी जाति में पैदा होता ही है । उच्चजाति और नीचजाति का विभाजन ही मद का कारण बनता है । कुल का मद होता है। कामद होता है, मैं शक्तिशाली हूँ । रूप का मद होता है, मैं सबसे सुन्दर हूँ। तपस्या का भी मद हो सकता है, जितना मैंने तप किया है, दूसरे वैसा तप नहीं कर सकते। ज्ञान का भी मद हो सकता है, मैंने इतना अध्ययन किया है । ऐश्वर्य का मद होता है । ये मद मनुष्य को भटका देते हैं । मद करने वाले की मृदुता समाप्त हो जाती है।
माया और मद ये दोनों मनुष्य में मानसिक विकार पैदा करते हैं। जो व्यक्ति मन से विकृत होता है वह शरीर से भी स्वस्थ नहीं होता । बहुत सारे शारीरिक रोगों के निमित्त मानसिक विकार बनते हैं। रुग्णमन शरीर को भी रुग्ण बना देता है । मानसिक रोगों की चिकित्सा का उपाय है धर्म । माया की चिकित्सा ऋजुता और मद की चिकित्सा मृदुता के द्वारा हो सकती है। मानसिक विकार मिटने पर शारीरिक रोग भी मिट जाते हैं। कुछ शारीरिक रोग शारीरिक दोषों से भी उत्पन्न होते हैं, उनकी चिकित्सा आयुर्वेद की पद्धति से की जाती है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में चिकित्सा पद्धति के आठ अंग मिलते हैं । सूत्रकार ने आठ की संख्या में उनका भी संकलन किया है। इसी प्रकार निमित्त आदि लौकिक विषय भी इसमें संकलित है। *
१.८६, १०
२. ८ । २१
३. ८ । २६
४. ८।२३
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