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________________ ठाणं (स्थान) ६२७ सामायारी-पदं सामाचारी-पदम् १०२. दसविहा सामायारी पण्णत्ता, तं दशविधा सामाचारी जहा तद्यथा स्थान १० : सूत्र १०२-१०३ सामाचारी-पद प्रज्ञप्ता, १०२. सामाचारी के दस प्रकार हैं संगह-सिलोगो १. इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिया य णिसीहिया। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य णिमंतणा॥ उवसंपया य काले, सामायारी दसविहा उ। संग्रह-श्लोक १. इच्छा मिथ्या तथाकारः, आवश्यकी च नैषेधिकी। आप्रच्छना च प्रतिपृच्छा, छन्दना च निमन्त्रणा ।। उवसंपदा च काले, सामाचारी दशविधा तु ।। १. इच्छा--कार्य करने या कराने में इच्छाकार का प्रयोग। २. मिथ्या-भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना। ३. तथाकार--आचार्य के वचनों को स्वीकार करना। ४. आवश्यकी--उपाश्रय के बाहर जाते समय आवश्यक कार्य के लिए जाता हूं' कहना। ५. नैषेधिकी-कार्य से निवृत्त होकर आए तब मैं निवृत्त हो चुका हूं' कहना। ६. आपृच्छा —अपना कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ७. प्रतिपृच्छा-दुसरों का कार्य करने की आचार्य से अनुमति लेना। ८. छन्दना-आहार के लिए सामिक साधुओं को आमंत्रित करना। ६. निमंत्रणा—'मैं आपके लिए आहार आदि लाऊँ'---इस प्रकार गुरु आदि को निमंत्रित करना। १०. उनपसंदा--ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति के लिए कुछ समय तक दूसरे आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना। महावीर-सुमिण-पदं महावीर-स्वप्न-पदम् महावीर-स्वप्न-पद १०३. समणे भगवं महावीरे छउमत्थ- श्रमण: भगवान महावीरः छद्मस्थ- १०३. श्रमण भगवान् महावीर छद्मस्थकालीन कालियाए अंतिमराइयंसी इमे दस कालिक्यां अन्तिमरात्रिकायां इमान दश । अवस्था में रात के अन्तिम भाग में दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, महास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः, महास्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुए। तं जहा तद्यथा१. एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं १. एकं च महान्तं घोररूपदीप्तधरं १. महान् घोररूप वाले दीप्तिमान एक तालपिशाच [ताड जैसे लम्बे पिशाच] तालपिसायं सुमिणे पराजितं तालपिशाचं स्वप्ने पराजितं दृष्ट्वा को स्वप्न में पराजित हुआ देखकर प्रतिपासित्ता णं पडिबुद्धे। प्रतिबुद्धः । बुद्ध हुए। २. एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं २. एकं च महान्तं शुक्लपक्षकं पुंस्को २. श्वेत पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल पुसकोइलगं सुमिणे पासित्ता णं किलकं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः।। को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। पडिबुद्धे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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