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________________ ठाणं (स्थान) ३. जक्खाइ समणे णिग्गंथे थे हम विज्जमा अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथी हिं सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति । ४. उम्मायपत्ते समणे णिग्गंथे friथेहिम विज्जमाह अचेलए सचेलियाहि frain सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति ।" ५. ग्गिंथपव्वाइयए समणेणिग्गंथे furice अजिमाह अचेलए सचेलियाहि णिग्गंथीहिं सद्धि संवसमाणे णातिक्कमति । ११०. पंच संघरदारा पण्णत्ता, तं जहा - संमत्तं विरती, अपभादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं । आसव-संवर-पदं आश्रव-संवर-पदम् १०६. पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा - पञ्चाश्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा— मिच्छतं, अविरतो, पमादो, मिथ्यात्वं अविरतिः, प्रमादः, कषायाः, कसाया, जोगा । योगाः । दंड-पदं पंच दंडा पण्णत्ता, तं जहाअट्ठादंडे, अणद्वादंडे, हिंसादंडे, अकस्मादंडे, परिया सियादंडे | १११. ५८० ३. पक्षाविष्टः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलकाभिः निर्ग्रन्थिभिः सार्धं संवसन् नातिक्रामति । Jain Education International ४. उन्मादप्राप्तः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलकाभिः निर्ग्रन्थीभिः सार्धं संवसन् नातिक्रामति । ५. निर्ग्रन्थीप्रव्राजितकः श्रमणः निर्ग्रन्थः निर्ग्रन्थेषु अविद्यमानेषु अचेलकः सचेलकाभिः निर्ग्रन्थीभिः सार्धं संवसन् नातिक्रामति । पञ्च संवरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा—११०. सम्यक्त्वं, विरतिः, अप्रमादः, अकषायित्वं, अयोगित्वम् । दण्ड-पदम् पञ्च दण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअर्थदण्डः, अनर्थदण्डः, हिसादण्डः, अकस्माद्दण्डः, दृष्टिविपर्यासिकीदण्डः । For Private & Personal Use Only स्थान ५ : सूत्र १०६-१११ ३. यक्षाविष्ट निर्ग्रन्थ, अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर स्वयं अचेल होते हुए, सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता, ४. वायु प्रकोप आदि से उन्मत निर्ग्रन्थ, अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर, स्वयं अचेल होते हुए, सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता, ५. निर्ग्रन्थियों द्वारा प्रव्रजित निर्ग्रन्थ, अन्य निर्ग्रन्थों के न होने पर, स्वयं अचेल होते हुए, , सचेल निर्ग्रन्थियों के साथ रहता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता । आश्रव-संवर-पद १०६. आश्रवद्वार पांच हैं- १. मिथ्यात्व - विपरीत तत्त्वश्रद्धा, २. अविरति---अत्यागवृत्ति, ३. प्रमाद--आत्मिक अनुत्साह, ४. कषाय आत्मा का राग-द्वेषात्मक उत्ताप, ५. योग मन, वचन और काया का व्यापार । संवरद्वार पांच हैं— १. सम्यक्त्व सम्यक् तत्त्वश्रद्धा, २. विरति-त्यागभाव, ३. अप्रमाद आत्मिक उत्साह, ४. अकषाय-राग-द्वेष से निवृत्ति, ५. अयोग - प्रवृत्ति निरोध । दण्ड- पद १११. दण्ड पांच है १. अर्थदण्ड प्रयोजवनश अपने या दूसरों के लिए उस या स्थावर प्राणियों की हिमा करना, २ . अनर्थदण्ड निष्प्रयोजन हिंसा करना, ३ . हिंसादण्ड - यह मुझे मार रहा है, मारेगा या इसने मुझको मारा था इसलिए हिंसा करना, ४. अकस्मात् दण्ड एक के वध के लिए प्रहार करने पर दूसरे का वध हो जाना । ५. दृष्टिविपर्यासदण्डमित्र को अमित जानकर दण्डित करना । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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