Book Title: Aagam 43 UTTARAADHYAYANAANI Moolam evam Vruttii
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [४३] उत्तराध्ययनानि (मूल)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । __ "उत्तराध्ययनानि" मलं एवं वृत्ति: । [मूलं + नियुक्ति: + शान्तिसूरि-रचिता वृत्तिः] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 11 (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 23/04/2015, गुरुवार, २०७१ वैशाख सुद ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४३], मूल सूत्र-[४] "उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [-], निर्युक्ति: [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४३], मूल सूत्र- [४] “उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Indimated Streetpheerassed byershiperide series श्रेष्ठि-देवचन्द्र लालभाई—जैनपुस्तकोद्धारे - प्रन्थाङ्क: ३३. श्रीजिनेन्द्रदेवानुमतप्रत्येकबुद्धादिकपिप्रणीतानि श्रुतकेवलिधुर्य श्रीमद्भद्रबाहुखाभिनिर्मुक्तिकानि वादिवेतालश्रीशान्तिसूरियविवृतान श्रीमन्त्युत्तराध्ययनानि । ( विभागः प्रथमः ) प्रसेधिका-देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारभाण्डागार संस्था विख्यातिकारकः -- शाह नगीनभाई घेलाभाई-जव्हेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मुम्बय्य शाह प्रथम संस्कारे प्रतय: ५०० उत्तराध्ययन० सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" नगीनभाई भेलाभाई जव्हेरी ४२६ जव्हेरी बाजार इत्यनेन 'निर्णयसागर ' मुद्रणास्पदे कोलमाटवीभ्यां २३ तमे गृहे रामचन्द्र वेस शेडगेद्वारा मुद्रापितं प्रकाशितं ] अस्य पुनर्मुद्रणाचाः सर्वेऽधिकारा एतद्भाण्डागारकार्यवाहकाणामायत्ताः स्थापिताः । [ मोहमयीपत्तने. वीरसंवत् २४४२. विक्रमसंवत् १९७२. क्राइष्टस्य सन् १९१६. वेतनं १५-० [Ra. 1-5-01 For P&P Only ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका १६४०+८८ मूलांक : ०००१ ००४९ ००९५ ०११५ ०१२८ ०१६० ०१७९ ०२०९ ०२२८ ०२९१ ०३२८ ०३६० अध्ययनं ०१ विनयसूत्तं ०२ परिषह विभक्तिः ०३चतुरंग ०४ असंस्कृतं ०५ अकाममरणियं (०४५७) ०६ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थियं ०७ औरभियं ०८ कापिलियं ०९ नमिप्रव्रज्या १० द्रुमपत्रकं ११ बहुश्रुतपूजा १२ हरिकेशियं पृष्ठांक ००२३ ०१४५ ૦૨૮૨ ०३७९ ०४५६ ०५०८ ०५४० ०५७० ०५९५ ०६३९ ०६८२ ०७०६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. उत्तराध्ययनानि मूल- सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक : ०४०७ ०४४२ ०४९५ ०५११ ०५३९ ०५६० ०६१४ ०७१३ bg3 ०८४७ ०९३६ अध्ययनं १३ चित्र १४ इषुकारिय १५ सभिक्षुकं १६ ब्रह्मचर्यं समाधिस्थानं १७ पापश्रमणियं १८ संयतियं १९ मृगापुत्रिकं २० महानिर्ग्रन्थिय २१ समुद्रपालितं २२ रथनेमियं २३ केशीगौतमियं २४ प्रवचनमाता पृष्ठांक: २०७४७ ०७८५ ०८२३ ०८३९ ०८६० 0263 ०८९९ ०९३१ ०९६२ ०९७५ ०९९३ १०२४ ~2~ मूलांक: ०९६३ १००७ १०५९ १०७६ १११२ ११८९ १२२६ १२४७ १३५८ १३८३ १४४४ १४६५ दीप- अनुक्रमाः १७३१ अध्ययनं २५ यज्ञकियं १२६ सामाचारी २७ खलुंकिय २८ मोक्षमार्गगतिः २९ सम्यक्त्वपराक्रमं ३० तपोमार्गगतिः ३१ चरणविधिः ३२ प्रमादस्थानं ३३ कर्मप्रकृतिः ३४ लेश्या अध्ययनं ३५ अणगारमार्गगतिः ३६ जीवाजीव-विभक्ति: ...आगमसूत्र [४३ ], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः पृष्ठांक: १०३९ १०६३ १०९३ ११०६ ११३७ ११९४ १२१८ १२३५ १२७७ १२९५ १३२३ १३३५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उत्तराध्ययनानि- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “उत्तराध्ययनानि सूत्र” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी उत्तराध्ययन-सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसुरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है। और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है। * हमारा ये प्रयास क्यों? : आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -1 दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-1| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~ 3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-1, नियुक्ति: [-] (४३) Kc+CACIR श्रेष्टिदेवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्के अहम् पूर्वोदृतजिनभाषितश्रुतस्थविरसंडब्धानि । श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंकलितनियुक्तियुतानि । श्रीशान्त्याचार्यविहितशिष्यहिताख्यवृत्तियुक्तानि । श्रीउत्तराध्ययनानि । C ISESAR शिवदाः सन्तु तीर्थेशा, विघ्नसङ्घातघातिनः । भवकूपोद्धृतो येषां, वाग् वरत्रायते नृणाम् ॥१॥ समस्तवस्तुविस्तारे, व्यासर्पत्तलयजले । जीयात् श्रीशासनं जैनं, धीदीपोद्दीसिवर्द्धनम् ॥२॥ यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पना विना । सा देवी संविदे नः स्तादस्तकल्पलतोपमा ॥३॥ For PARTMERVantuRONM wrancibansam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [-] निर्युक्ति: [-] व्याख्याकृतामखिलशास्त्रविशारदाना, सूच्यप्रवेधकधियां शिवमस्तु तेषाम् । रत्र गाढतरगूढविचित्रसूत्रग्रन्थिर्विभिद्य विहितोऽय ममापि गम्यः ॥ ४ ॥ अध्ययनानामेषां यदपि कृता भूर्णिवृत्तयः कृतिभिः । तदपि प्रवचनभक्तिस्त्वरयति मामत्र वृत्तिविधौ ॥ ५ ॥ इह खलु सकलकल्याणनिबन्धनं जिनागममवाप्य विवेकिनैवं विवेचनीयं यदुत महार्थोऽयं मनोरथानामध्य| पथभूतो भूरिजन्मान्तरोपचितपुण्यपरिपाकतो महानिधिरिव मयाऽधिगतः तथाहि — महति संसार मण्डलेऽस्मिन् मानसादिदण्डैरभिहन्यमानाः कष्टेनेष्टविशिष्टार्थी महापुरीमिव मनुजगतिमनुप्रविशन्ति जन्तवः, अनुप्रविश्यापि चास्यामौर्द्धरथ्यिका इवाकृतसुकृतसम्भारा निरीक्षितुमपि नैनं क्षमन्ते, किमङ्ग पुनरवामुमिति १, एतदवासी सर्वथा कृतार्थोऽस्मि, सम्भवति चास्यां स्वोपकारवत्परोपकारेऽपि शक्तिरिति नेदानीं युक्ता कदर्यता, किन्तु ?, भवितव्यमुदाराशयेन, परोपकारपूर्विकैव च खोपकारप्रवृत्तिरुदाराशयतां ख्यापयतीति परोपकार एवादितः प्रवर्तितुमुचितम् । सन्ति चास्मिन् महितमाहात्म्याः समीहितसम्पादकाश्च मणय इव चरणकरणादिगोचराचाराबङ्गानुयोगाः, न चैत इदानीं सम्यग्दर्शनादिहेतुं मिध्यात्वादिपिशाचशमनं धर्मकथात्मकोत्तराध्ययनानुयोगं रक्षाविधानमिवापहाय स्वयं ग्रहीतुमन्यस्मै वा दातुं युज्यन्ते, इत्यारभ्यत उत्तराध्ययनानुयोगः- तत्र च न तथाविधफलादिपरिज्ञान१ भिक्षाचराः । २ कृपणता । Education Intational Forest Use Only अध्ययनम् १ ~5~ ॥ १ ॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -1, नियुक्ति: [-] (४३) प्रत सूत्रांक [-] विकला प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः, तस्यास्तद्यापकत्वाद्, व्याप्यस्य च व्यापकाविनाभावित्वात् , अतः प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यङ्गमात्वात् फलयोगमङ्गलसमुदायार्थानुयोगद्वारतद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनानि याच्यानि । यथ शब्दस्याप्रमाणत्वमभिधाय । मतदभिधानस्यानर्थकत्वमिह कैश्चिदुक्तं, तदसाधु, शब्दस्याप्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमूलत्वेन सकलव्यवहाराणामुच्छेद प्रसङ्गात् , उक्तं हि-"लोकिकव्यवहारोऽपि, यस्मिन्न व्यवतिष्ठते । तत्र साधुत्वविज्ञानं, व्यामोहोपनिवन्धनम् ॥१॥" इति । तथा च शास्त्रादौ फलादिप्रतिपादिका पूर्वाचार्यगाथा-'तस्स फलजोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई । है तब्भेयनिरुत्तिकमपयोयणाईच बचाई ॥१॥'फलाभिलाषिणां च सकलप्रेक्षावतां प्रवृत्तिरिति प्रथमतः फलस्थाभि-3 धानं, तत्रापि किमिदं सम्बद्धमुतासम्बद्धमिति विचारत एव विपश्चितः प्रवर्तन्त इति तदनु योगस्य, इत्यादि क्रमप्रमायोजनं सर्वत्र योज्य, तत्र फलं कर्तुः श्रोतुश्चाव्यवहितं विनेयानुग्रहो यथावदर्थावबोधश्च, व्यवहितं पुनरुभयोरपि तदुत्तरोत्तरगुणप्रकर्षप्राप्त्याऽपवर्गावाप्तिरिति । योगः सम्बन्धः, स च हेतुतः फलतश्च, तत्र हेतुत उत्तराध्ययनानुयोगस्य साक्षात्कृतधर्माणः सूत्रकृत एव यथाखं प्रणेतारः ततस्तदवयोधिततदर्धास्तच्छिष्याः ततोऽपि तद्विने-12 यास्तावद् यावद् भगवान् भद्रबाहुः ततो भाष्यकृतस्ततश्चर्णिकृतः ततोऽपि वृत्तिकृतो यावदस्मद्गुरष इति गुरुपर्व-13 दाक्रमलक्षणः । फलतस्तूपायोपेयभावरूपः अभिहितफलस्योपेयत्वात् प्रस्तुतानुयोगस्य च तदुपायत्वादिति । ममाति १ तस्य फलयोगमङ्गलसमुदायार्थास्तथैव द्वाराणि । तद् (द्वार ) भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनानि च वाच्यानि ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] (४३) CGS - प्रत - सूत्रांक [-] - उत्तराध्य. विनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान् गमयति-प्रापयति शास्त्रस्थैर्य लालयति च-श्लेषयति तदेव शिष्यप्रशिष्यपरम्प-12 बृहद्वृत्तिः कारायामिति मङ्गलं, यद्वा मन्यन्ते अनापायसिद्धिं गायन्ति प्रवन्धप्रतिष्ठिर्ति लान्ति वाऽव्यवच्छिन्नसन्तानाः शिष्य प्रशिष्यादयः शास्त्रमस्मिन्निति मङ्गलम् , आदिमध्यावसानवर्तिनस्तस्योक्तरूपार्थप्रसाधकत्येन प्रसिद्धत्वात् , उक्तं ॥२॥ हि-तं मंगलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाय निद्दिढे ॥१॥ तस्सेव उ |थिजत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अबोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥ २॥" तच नामादिचतुर्भेद, तत्र मझलमिति नामैव नाममङ्गलं, स्थापनामङ्गलं मालाकारः, मकलानि च दर्पणादीनि, यथोक्तम्-“दप्पणहै भद्दासण वद्धमाण वरकलसमच्छसिरिवच्छा । सोच्छिय नंदावत्ता लिहिया अट्टह मंगलगा॥१॥" इति, द्रव्यमा वमङ्गले त्यावश्यकभाष्यानुसारतोऽवबोद्धव्ये । तत्र चेह भावमङ्गलेनाधिकारः, तय कृतमेव, नन्दिरूपत्वात् तस्य, नन्दिव्याख्यानपूर्वकत्वाच सकलानुयोगस्य, अपवादत उत्क्रमेणापि यदाऽनुयोगस्तदा भावत आदिमङ्गलं 'संजोगा विष्पमुकरस अणगारस्स' त्ति अणगारग्रहणं, मध्यमङ्गलं, 'कंपिले नयरे राया' इत्यादिनाऽनगारगुणवर्णनम् , अन्त्य १ दन्मङ्गलमादौ मध्ये पर्वन्ते च शास्त्रस्य । प्रथमं शास्त्रस्याविनपारगमनाय निर्दिष्टम् ॥१॥ तस्यैव तु स्थैर्याय मध्यममन्तिमं च तस्वैष । अव्यवच्छित्तिनिमितं शिष्यपशिष्यादिवशे ॥२॥ २ दर्पर्ण भद्रासनं वर्धमानो वरकलशो मरमः श्रीवत्सः । स्खसिको नन्द्या-12 वत्तों लिखितान्यष्टाष्ट मगलानि ॥१॥ दीप अनुक्रम - - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -1, नियुक्ति: [-] (४३) प्रत सूत्रांक [-] Pमालम् 'इइ पाउकरे बुद्धे' इत्यादिना बुद्धाद्यभिधानं । समुदायो-वर्णपदवाक्यश्लोकाध्ययनकदम्बकात्मकश्रुतस्क न्धरूपस्तस्याभिधेयोऽर्थः समुदायार्थः, स चेह धर्मकथात्मकः, विशेषतस्त्वेनं 'पढमे विणओं' इत्यादिना नियुक्ति कार एवं वक्ष्यति । द्वाराणीति प्रक्रमादनुयोगद्वाराणि, तत्र चानुगतमनुरूपं वा श्रुतस्य खेनाभिधेयेन योजन-सम्बFधनं तस्मिन् वाऽनुरूपोऽनुकूलो वा योगः श्रुतस्यैवाभिधानन्यापारोऽनुयोगः, तदुक्तम्-“अणुजोयणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेयेणं । वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥१॥" तस्य द्वाराणि-उपक्रमादीनि अनुयोगद्वाराणि तानि तद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनानि च 'तत्थज्झयणं पढम' मित्यत्र वक्ष्यामः । आह-प्रकृतोऽयमुत्तराध्ययनानुयोगः, तत्र किमेतान्युत्तराध्ययनान्यङ्गमङ्गानि श्रुतस्कन्धः श्रुतकन्धा अध्ययनमध्ययनानि उद्देशक उद्देशकाः १, उच्यते, नाझं नाङ्गानि, श्रुतस्कन्धो न श्रुतस्कन्धाः, नाध्ययनमध्ययनानि, नोद्देशको नोद्देशका इति । अस्य च नामनिक्षेपे 'उत्तराध्ययनश्रुतस्कन्ध' इति नाम, तत्रोत्तरं निक्षेप्तव्यमध्ययनं श्रुतस्कन्धश्च, तत्रोत्तरनिक्षेपाभिधानायाह भगवान् नियुक्तिकारः CAREERSTAN दीप अनुक्रम [-] १ अनुयोजनमनुयोगः सूत्रस्य निजकेन यदभिधेयेन । व्यापारो वा योगो योऽनुरूपोऽनुकूलो वा ॥१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं -1, नियुक्ति: [१] (४३) अध्ययनम् प्रत सूत्रांक [-] उत्तराध्य. नाम ठवणा दविए खित्त दिसा तावखित्त पन्नवए। पइकालसंचयपहाणनाणकमगणणओ भावे ॥१॥ बृहद्भुत्तिः18 व्याख्या-इह च सुपो यत्रादर्शनं तत्र सूत्रत्वेन छान्दसत्वात् लुक, तथोत्तरनिक्षेपप्रस्तावात् सूचकत्वात्सू त्रस्य 'कमउत्तरेण पगय' मित्युत्तरश्रवणाच 'नाम' ति नामोत्तरं 'ठवणं' ति स्थापनोत्तरमित्याद्यभिलापः कार्यः । तत्र नामोत्तरमिति नामैच यस्य था जीवादेरुत्तरमिति नाम क्रियते, स्थापनोत्तरमक्षादि, उत्तरमिति वर्णविन्यासो। वा, द्रव्योत्तरमागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे तयतिरिक्तं च, तत्र तयतिरिक्तं त्रिधा-सचिदत्ताचित्तमित्रभेदेन, तत्र सचित्तं पितुः पुत्रः, अचित्तं क्षीरात् दधि, मिश्रं जननीशरीरतो रोमादिमदपत्यम् , इह च द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यप्राधान्यविवक्षया पित्रादेवंभवनतश्च पुत्रादीनां द्रव्योत्तरत्वं भावनीयं, क्षेत्रोत्तरं मेर्वाद्यपेक्षया यदुत्तरं, यथोत्तराः कुरवः, यद्वा पूर्व शालिक्षेत्रं तदेव पश्चादिक्षुक्षेत्रं, दिगुत्तरमुत्तरा दिग, दि दक्षिणदिगपेक्षत्वादस्य, तापक्षेत्रोत्तरं यत्तापदिगपेक्षयोत्तरमित्युच्यते, यथा-सर्वेपामुत्तरो मन्दराद्रिः, प्रज्ञापकोत्तरं| यत् प्रज्ञापकस्य वाम, प्रत्युत्तरमेकदिगवस्थितयोर्देवदत्तयज्ञदत्तयोर्देवदत्तात् परो यज्ञदत्त उत्तरः, कालोत्तरः समया-13 १कयपवयणप्पणामो बुच्छ धम्माणुओगसंगहि । उत्तरज्झवणाणुओगं गुरुवएसाणुसारेण ॥१।। इत्येषा गाथाऽऽदौ नियुक्तिपुस्तके दृश्यते, न च व्याख्यातेत्युपेक्षिता, अनुबन्धादिदर्शितयोपयोगिवे (कृतप्रवचनप्रणामो वक्ष्ये धर्मानुयोगसंगृहीतम्। उत्तराध्ययनानुयोग गुरूपदेशानुसारेण) - इति संस्करणं नेयम्। दीप अनुक्रम [-] IN३॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१] (४३) प्रत सूत्रांक [-] दावलिका आवलिकातो मुहूर्त मित्यादि, सञ्चयोत्तरं यत्सञ्चयस्योपरि, यथा धान्यराशेः काष्ठं, प्रधानोत्तरमपि त्रिविध सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् , सचित्तप्रधानोत्तरमपि विधेय, तद्यथा-द्विपदं चतुष्पदमपदं च, तत्र द्विपदमनुत्तरपुण्यदो प्रकृतितीर्थकरनामायनुभवनतः तीर्थकरः, चतुष्पदमनन्यसाधारणशौर्यधैर्यादियोगतः सिंहः, अपदं रम्यत्वसुरसेव्य त्वादिभिर्जात्यजाम्बूनदादिमयी जम्बूद्वीपमध्यस्थिता सुदर्शनाजम्बूः, अचित्तमचिन्त्यमाहात्म्यश्चिन्तामणिः, मित्रं तीर्थकर एव गृहस्थावस्थायां सर्वालकारालकृतः, ज्ञानोत्तरं केवलज्ञानं, विलीनसकलावरणत्वेन समस्तवस्तुस्वभावाभासितया च, यद्वा श्रुतज्ञानं, तस्य स्खपरप्रकाशकत्वेन केवलादपि महर्द्धिकत्वात्, उक्तं च"सयणार्ण महिहीयं, केवलं तयणतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावणं ॥१॥" ति, क्रमोत्तरं क्रम-16 माश्रित्य यद्भवति, तचतुर्विधं-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतः परमाणोद्धिप्रदेशिकः ततोऽपि त्रिप्रदेशिकः एवं यावदन्त्योऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढात् द्विप्रदेशावगाढः ततोऽपि त्रिप्रदेCशावगाढः एवं यावदवसानवत्वेसङ्ख्येयप्रदेशावगाढः, कालत एकसमयस्थितेर्बिसमयस्थितिः ततोऽपि त्रिसमयस्थितिः एवं यावदसयेयसमयस्थितिः, भावत एकगुणकृष्णात् द्विगुणकृष्णः ततोऽपि त्रिगुणकृष्णः एवं यावदनन्तगुणकृष्णः, यतो वा-बायोपशमिकादिभावादनन्तरं यः क्षायिकादिर्भवति, 'गणणओत्ति गणनात उत्तरमेककाद् १ भुतहानं महद्धिक केवलं तदनन्तरम् । आत्मनश्च परेषां च यस्मात्तत्परिभावनम् ॥ १॥ K5%-5645645 दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [-] निर्युक्तिः [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः | द्विकस्ततोऽपि त्रिक एवं यावच्छीर्षप्रहेलिका, भायोत्तरं क्षायिको भावः, तस्य केवलज्ञानदर्शनाद्यात्मकत्वेन सकलौदयिकादिभावप्रधानत्वाद् । आह— एवमस्य प्रधानोत्तर एवान्तर्भावादयुक्तं भेदेनाभिधानं, यद्येवमत्यल्पमिदमुच्यते, एवं हि नामादिचतुष्टय एव सर्वनिक्षेपाणामन्तर्भावात्तदेवाभिधेयं तत इहान्यत्र च यन्नामादिचतुष्टयाधिकनिक्षे॥ ४ ॥ ॐ पाभिधानं तच्छिष्यमतिव्युत्पादनार्थं सामान्यविशेषोभयात्मकत्वख्यापनार्थे च सर्ववस्तूनामिति भावनीयमिति गाथार्थः ॥ १ ॥ इहानेकधोत्तराभिधानेऽपि क्रमोत्तरमेवाधिकरिष्यति, विषयज्ञाने च विषयी सुज्ञानो भवति इति मन्वानो यत्रास्य सम्भवो यत्र चासम्भवो यत्र चोभयं तदेवाह - जहण्णं सुत्तरं खलु उक्कोसं वा अणुत्तरं होइ । सेसाई उत्तराई अणुत्तराई च नेयाणि ॥ २ ॥ व्याख्या—जघन्यं सोत्तरं 'ख' अवधारणे, सोत्तरमेव 'उक्कोसं' ति उत्कृष्टं, वाशब्दस्यैवकारार्थस्य भिन्नक्रमत्वाद् अनुत्तरमेव भवति, 'शेषाणि' मध्यमानि 'उत्तराणि' इति अभादित्वेनाजन्तत्वात् मतुब्लोपाद्वोतरवन्ति अनुत्तराणि च ज्ञेयानि । द्रव्यक्रमोत्तरादीनि हि जघन्यान्येकप्रदेशिकादीनि उपरि द्विप्रदेशिकादिवस्त्वन्तरभावात् सोत्तराण्येव, तदपेक्षयैव तेषां जघन्यत्वात्, उत्कृष्टानि त्वन्त्यानन्तप्रदेशिकादीन्यनुत्तराण्येव, तदुपरि वस्त्वन्तराभावाद्, अन्यथोत्कृष्टत्वायोगात्, मध्यमानि तु द्विप्रदेशिकादीनि त्रिप्रदेशिकाद्यपेक्षया सोत्तराणि एक Education intimation For Fans Only अध्ययनम् १ ~ 11~ ॥ ४ ॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [-] निर्युक्तिः [२] प्रदेशापेक्षया त्वनुत्तराणि, उपरितनवस्त्वपेक्षयैव सोत्तरत्वात् इति गाथार्थः ॥ २ ॥ उत्तरस्यानेकविधत्वेन | येनात्र प्रकृतं तदाह- कमउत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाई तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुंति णायवा ॥ ३ ॥ व्याख्या -क्रमापेक्षमुत्तरं क्रमोत्तरं, शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः तेन प्रकृतम् - अधिकृतम्, इह च क्रमोत्तरेणेति भावतः क्रमोत्तरेण, एतानि हि श्रुतात्मकत्वेन क्षायोपशमिकभावरूपाणि तद्रूपस्यैवाऽऽचारातस्योपरि पठ्यमानत्वेनोत्तराणीत्युच्यन्ते, अत एवाह - ' आयारस्सेव उवरिमाई'ति एवकारो भिन्नक्रमः, ततश्चाचारस्योपर्येव - उत्तरकालमेव 'इमानी'ति हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षाणि पठितवन्त इति गम्यते, 'तुः' विशेपणे, विशेषश्चायं यथा-शय्यम्भयं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति, 'तम्हा उत्ति 'तुः' पूरणे, यत्तदोश्च नित्यमभिसम्बन्धः, ततो यस्मादाचारस्योपर्येवेमानि पठितवन्तस्तस्माद् 'उत्तराणि' उत्तरशब्दवाच्यानि, 'खलुः' वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा तत उत्तराण्येव 'अध्ययनानि' विनयश्रुतादीनि भवन्ति ' ज्ञातव्यानि' अवबोद्धव्यानि, प्राकृतत्वाच लिङ्गव्यत्यय इति गाथार्थः ॥ ३॥ आह— यथाचारस्योपरि पठ्यमानत्वेनोत्तरा Education intimational For Parts Only *%% % ~ 12 ~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [-], नियुक्ति: [३] (४३) बृद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. ण्यमूनि, तत्किं ? यत एवाचारस्य प्रसूतिरेषामपि तत एव अभिधेयमपि यदेव तस्य तदेवोतान्यथेति संशयाप४ नोदायाहअंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥४॥ व्याख्या--अङ्गाद्-दृष्टिवादादेः प्रभव-उत्पत्तिरेषामिति अङ्गप्रभवानि, यथा परीपहाध्ययन, वक्ष्यति हि-"कम्मप्पवायपुत्वे सत्तरसे पाहुडंमिजं सुत्तं । सनयं सोदाहरणं तं चेव इहपि णायचं ॥१॥" जिनभाषितानि यथा दुमपुष्पिकाऽध्ययन, तद्धि समुत्पन्न केवलेन भगवता महावीरेण प्रणीतं, यद्वक्ष्यति--"तंणिस्साए भगवं सीसाणं| देइ अणुसहि"ति, 'चः' समुच्चये, प्रत्येकबुद्धाश्च संवादश्च प्रत्येकबुद्धसंवादं तस्मादुत्पन्नानीति शेषः, तत्र प्रत्येकबुदद्धा-कपिलादयः तेभ्य उत्पन्नानि यथा कापिलीयाध्ययनं. वक्ष्यति हि-'धम्मदृया गीयं तत्र हि कपिलेनेति प्रक्रमः, संवादः-सङ्कतप्रश्नोत्तरवचनरूपस्तत उत्पन्नानि, यथा-केशिगौतमीयं, वक्ष्यति च-"गोतमसीओ य संवायसमुट्ठियं तु जम्हेय"मित्यादि । ननु स्थविरविरचितान्येवैतानि, यत आह चूर्णिकृत्-"सुत्ते थेराण अत्तागमो"त्ति १ कर्मप्रवादपूर्वे सप्तदशे प्राभृते यत्सूत्रम् । सनयं सोदाहरणं तदेवेहापि ज्ञातव्यम् ॥ १॥ २ तन्निनया भगवान् शिष्येभ्यो ददात्यदानुशास्तिम् । ३ धर्मार्थाय गीतम् । ४ गौतमकेशीसंवादतश्च समुत्थितं तु यस्मादिदम् । ५ सूत्रे स्थविराणामात्मागम इति । दीप अनुक्रम [-] ॥५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [४] (४३) M प्रत सूत्रांक [-] नन्यध्ययनेऽप्युक्तम्-"जस्स जेत्तिया सीसा उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए परिणामियाए चउबिहाए बुद्धीए | उबवेया तस्स तेत्तियाई पइण्णगसहस्साई" प्रकीर्णकानि चामूनि तत्कथं जिनदेशितत्वादिन विरुध्यते ?. उच्यते. | तथास्थितानामेव जिनादिवचसामिह रन्धत्वेन तद्देशितत्वाद्युक्तमिति न विरोधः । बन्ध-आत्मकर्मणोरत्यन्तसंश्लेपस्तस्मिन् , मोक्षः तयोरेवाऽऽत्यन्तिकः पृथग्भावस्तस्मिंश्च कृतानि, कोऽभिप्रायः?-यथा बन्धो भवति यथा च मोक्षस्तथा प्रदर्शकानि, तत्र बन्धे यथा-"आणाअणिहेसकरेति" मोक्षे यथा-"आणाणिहेसकरे"ति. आभ्यां Kा यथाक्रममविनयो विनयश्च प्रदर्श्यते, तत्राविनयो मिथ्यात्वाद्यविनाभूतत्वेन बन्धस्य विनयश्चान्तरपौरुषत्वेन मोक्षस्य कारणमिति तत्त्वतस्तौ यथा भवतस्तदेवोक्तं भवति, मोक्षप्राधान्येऽपि बन्धस्य प्रागुपादानमनादित्वोपदर्शनार्थ, यद्वा 'बंधे मोक्खे य त्ति' चशब्द एवकारार्थी भिन्नक्रमच, ततो बन्ध एव सति यो मोक्षस्तस्मिन् । कृतानि, अनेनानादिमुक्तमतव्यवच्छेदश्च कृतः, तत्र हि मोक्षशब्दार्थानुपपत्तिः सकलानुष्ठानवैफल्यापत्तिश्च, किमेवं कतिचिदेव ?, नेत्याह-पत्रिंशत्' पत्रिंशत्सङ्ख्यानि, कोऽर्थः-सर्वाणि उत्तराध्ययनानि इति गाथार्थः ॥४॥ इत्थं प्रसङ्गत उक्तरूपं संशयमपाकृत्याध्ययननिक्षेपं विनेयानुग्रहाय तत्पर्यायनिक्षेपातिदेशं चाह १ यस्य चावन्तः शिष्या औत्पत्तिक्या बनविक्या कर्मजया पारिणामिक्वा चतुर्विधया युखोपपेतास्तस्य तावन्ति प्रकीर्णकसहस्राणि १२ आज्ञाऽनिर्देशकरः । ३ आज्ञानिर्देशकरः। -194%A5- दीप अनुक्रम [-] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -1, नियुक्ति: [५] (४३) प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. नामं ठवणज्झयणे दवज्झयणे य भावअज्झयणे । एमेव य अज्झीणे आयज्झवणेविय तहेब ॥ ५॥ अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः | व्याख्या-'नाम ठवणज्झयणे'त्ति प्रत्येकमध्ययनशब्दसम्बन्धानामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं च-18 स्य भिन्नक्रमत्वाद् भावाध्ययनं च, तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्याध्ययनमागमतो ज्ञातानुपयुक्तः, नोमागमतो ज्ञशरी-12 ॥६॥ रभव्यशरीरे तद्व्यतिरिक्तं च पुस्तकादिन्यस्तं, भावाध्ययनमागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु प्रस्तुताध्ययनान्येव, आगमैकदेशत्वादेषाम् । एवं चाक्षीणमायः क्षपणाऽपि च तथैव, कोऽर्थः ?-अध्ययनवदेतान्यपि नामादिभेद-13/ भिन्नान्येव ज्ञेयानीति गाथार्थः ॥ ५॥ साम्प्रतं नामाध्ययनादीनि त्रीणि प्रसिद्धान्येवेति मन्यमानो नियुक्तिकारो |निरुक्तिद्वारेण नोआगमतो भावाध्ययनं व्याख्यातुमाहअज्झप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ व णवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छंति ॥६॥ व्याख्या-'अज्झप्पस्सत्ति सूत्रत्वादध्यात्ममात्मनि, कोऽर्थः !-खस्वभावे, आनीयतेऽनेनेति आनयनं प्रस्तावादात्मनोऽध्ययनं, निरुक्तिविधिना चात्माकारनकारलोपः, कुत एतदित्याह-यतः 'कर्मणां' ज्ञानावरणीयादी-1 दीनाम् 'अपचयः' चयापगमोऽभाव इत्यर्थः, 'उपचिताना' प्राग्वद्धानाम् 'अनुपचयश्च अनुपचीयमानताऽनुपादान मितियावत् , 'नवानां' प्रत्यग्राणां, कोऽर्थः ?-प्राग्बद्धानाम्, एतदुपयुक्तस्येति गम्यते, उपसंहारमाह-तस्मात् ।। दीप अनुक्रम - JABERatinintamational wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -1, नियुक्ति: [६] (४३) प्रत सूत्रांक [-] प्रारबद्धबध्यमानकर्माभावेनाऽऽत्मनः खस्खभावानयनाद्धेतोः अध्ययनम् इच्छन्ति' अभ्युपगच्छन्ति, पूर्वसूरय इति गम्यते, यद्वाऽध्यात्ममिति रूढितो मनः, तच प्रस्तावात् शुभं, तस्याऽऽनयनमध्ययनम् , आनीयते बनेन शुभं चेतः, ४ अस्मिन् उपयुक्तस्य वैराग्यभावात् , शेषं प्राग्वत् , नवरं वैराग्यभावात् कर्मणामिति क्लिष्टानामिति गाथार्थः ॥६॥ निरुक्त्यन्तरेणैतदेव व्याख्यातुमाहअहिगम्मति व अत्था अणेण अहियं व णयणमिच्छति ।अहियं वसाहु गच्छइ तम्हाअज्झयणमिच्छंति ७ व्याख्या-'अधिगम्यन्ते वा' परिच्छिद्यन्ते वा 'अर्था' जीवादयः अनेनाधिकं वा नयनं-प्रापणमर्थादात्मनि ज्ञानादीनामनेन इच्छन्ति, विद्वांस इति शेषः, 'अधिकम्' अर्गलं शीघ्रतरमितियावत्, 'वा' सर्वत्र विकल्पार्थः, साधु'त्ति साधयति पौरुषेयीभिर्विशिष्टक्रियाभिरपवर्गमिति साधुः 'गच्छति' यात्यर्थान्मुक्तिम् , अनेनेत्यत्रापि योज्यते, यस्मादेवमेवं च ततः किमित्याह-तस्मादध्ययनमिच्छन्ति, निरुक्तविधिनाऽर्थनिर्देशपरत्वाद्वाऽस्य, अयतेरेतेऽधिपूर्वस्याध्ययनम् , इच्छन्तीति चाभिधानं सर्वत्र सूत्रार्थावाधया व्याख्याविकल्पानां पूर्वाचार्यसम्मतत्वेनादुष्टत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥७॥ नामाक्षीणादित्रयं प्रतीतमेवेति दृष्टान्तद्वारेण भावाक्षीणमाहजह दीवा दीवसयं पईप्पए सो य दीप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति ॥ दीप अनुक्रम CO [-] RAI मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -1, नियुक्ति: [८] (४३) उत्तराध्य. अध्ययन बृहद्वृत्तिः व्याख्या-यथा दीपाहीपशतं 'प्रदीप्यते' ज्वलति सोऽपि च दीप्यते दीपो, न पुनरन्यान्यदीपोत्पत्तावपि क्षीयते, द तथा किमित्याह-दीपसमा आचार्या 'दीप्यन्ते' समस्तशास्त्रार्थविनिश्चयेन खयं प्रकाशन्ते 'परं च' शिष्यं 'दीप यन्ति' शास्त्रार्थप्रकाशनशक्तियुक्तं कुर्वन्ति, इह च 'तात्स्थ्यात् तद्यपदेश' इत्याचार्यशब्देन श्रुतज्ञानमेवोकं, भावाक्षीणस्य प्रस्तुतत्वात्तखैव चाक्षयत्वसम्भवादिति गाथार्थः ॥८॥ नामाऽऽयादयस्त्रयः सुज्ञाना इति भावायं व्याचष्टे ॥७॥ प्रत सूत्रांक [-] లలలలల दीप अनुक्रम 4-%CE भावे पसरथमियरो नाणाई कोहमाइओ कमसो। आउत्ति आगमुत्ति य लाभुत्ति य हुँति एगट्ठा ॥९॥ व्याख्या-भाये' विचार्य इति शेषः, प्रशस्तः मुक्तिपदप्रापकत्वेन 'इतरः' अप्रशस्तो भवनिवन्धनत्वेन, प्रक्रमा। दायः, किंरूपः पुनरयं द्विविधोऽपीत्याह-'ज्ञानादिः' आदिशब्दाद्दर्शनादिपरिग्रहः, 'कोहमाइओ'त्ति मकारस्था लाक्षणिकत्वात् क्रोधादिका, आदिशब्दान्मानादिपरिग्रहः, 'कमसो'त्ति आर्षत्वात् क्रमतः, किमुक्तं भवति -प्रशस्तो ज्ञानादिः, अप्रशस्तः क्रोधादिः । इह च ज्ञानादेः क्रोधादेश्च आयत्वमायविषयत्वाद्विषयविषयिणोरभेदोपचारेण आयते तमित्याय इति कर्मसाधनत्वेन वा, ज्ञानादिप्रशस्तभावायहेतुत्वाचाध्ययनमपि भावायः । 'तत्त्वभेदपर्यायेकाख्ये'ति पर्यायकथनमपि व्याख्यानमिति पर्यायानाह-आय इत्यागम इति च लाभ इति च भवन्त्येका ॥ ७ ॥ [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१] (४३) प्रत सूत्रांक [-] REOS र्थिकाः, शब्दा इति गम्यते, 'इति' प्रत्येकं पयर्यायखरूपनिर्देशार्थः, 'चः' समुच्चय इति गाथार्थः॥९॥ नामस्थापनाक्षपणे प्रसिद्ध इति द्रव्यक्षपणामाहपल्लत्थिया अपत्था तत्तो उप्पिट्टणा अपत्थयरी । निप्पीलणा अपत्था तिन्नि अपत्थाइ पुत्तीए ॥१०॥ ___ व्याख्या-पर्यस्तिका' प्रसिद्धा 'अपथ्या' अहिता, 'ततः' इति पर्यस्तिकात उत्प्राबल्येन पिट्टना उत्पिट्टनाउत्पिट्टनकादिना कुटनोस्पिट्टना अपथ्यतरा, 'निष्पीडना' अत्यन्तमावलनात्मिका 'अपथ्या' इति प्रस्तावादपथ्यतमा, सर्वत्र वस्त्रस्येति गम्यते, निगमयितुमाह-त्रीण्यपथ्यानि 'पोत्तीए'त्तिवस्त्रस्य, इह चाल्पाल्पतराल्पतमका-3 लत आभियनद्रव्यं क्षप्यत इति पर्यस्तिकादीनामपथ्यापथ्यतरापथ्यतमत्वं द्रव्यक्षपणत्वं चोक्तम्, अपथ्यानीति च निगमनं सामान्यस्याशेषविशेषसङ्ग्राहकत्वाददुष्टमिति गाथार्थः ॥ १०॥ भावक्षपणामाहअहविहं कम्मरयं पोराणं जं खवेइ जोगेहिं । एयं भावज्झयणं णेयत्वं आणुपुबीए ॥११॥ व्याख्या-'अष्टविधम् ' अष्टप्रकारं, क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणादि, रज इव रजो जीवशुद्धखरूपान्यधात्वकरणेन, इह चोपमावाचकशब्दमन्तरेणापि परार्थप्रयुक्तत्वात् अग्निर्माणवक इतिवदुपमानार्थोऽवगन्तव्यः, कर्मरज इति समस्तं वा पदं, 'पुराणम्' अनेकभवोपात्तत्वेन चिरन्तनं 'यत्' यस्मात् क्षपयति जन्तुः 'योगैः' भावाध्ययन दीप अनुक्रम [-] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-1, नियुक्ति: [११] (४३) CASS उत्तराध्य. बृहद्वत्तिः प्रत सूत्रांक चिन्तनादिशुभन्यापारः, तस्मादिदमेव भावरूपत्वात् क्षपणाहेतुत्वाद्भावक्षपणेत्युच्यते इति प्रक्रमः । प्रकृतमुपसंहर्तु-अध्ययनम् माह-एतद्' इत्युक्तपर्यायाभिधेयं भावाध्ययनं नेतव्यं' प्रापयितव्यम् 'आनुपूया' शिष्यप्रशिष्यपरम्परात्मिकायां, यद्वा-'नेतव्यं' संवेदनविषयतां प्रापणीयमानुपूर्व्या-क्रमेणेति गाथार्थः ॥ ११॥ तदित्थमुत्तराध्ययनानीति व्याख्यातम् , अधुना श्रुतस्कन्धयोनिक्षेपं प्रत्यध्ययनं नामान्याधिकारांश्च वक्तुमवसर इति तदभिधानाय प्रतिज्ञामाहसुयखंधे निक्खेवं णामाइ चउविहं परूवेउं । णामाणि य अहिगारे अज्झयणाणं पवक्खामि ॥१२॥ । व्याख्या-श्रुतं च स्कन्धश्चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् निक्षेपं नामादयश्चत्वारो विधा:-प्रकारा यस्य स तथा तं 'प्ररूप्य' प्रज्ञाप्य नामान्यधिकारांश्चाध्ययनानां प्रवक्ष्यामि इति गाथार्थः ॥१३॥ इह च श्रुतस्कन्धनिक्षेपस्थान्यत्र सुप्रपश्चितत्वात् प्रस्तावज्ञापनायैव श्रुतस्कन्धे निक्षेपं प्ररूप्येति नियुक्तिकृतोक्तं, न तु प्ररूपयिष्यत इति । स्थाना-1 शून्यार्थ किश्चिदुच्यते-तत्र श्रुतं नामस्थापनात्मकं क्षुण्णं, द्रव्यश्रुतं तु द्विविधम्-आगमनोआगमभेदात्, तत्र यस्य श्रुतमिति पदं शिक्षितादिगुणान्वितं ज्ञातं न च तत्रोपयोगः तस्य आगमतो द्रव्यश्रुतम् , 'अनुपयोगो ॥८॥ द्रव्य'मिति वचनात्, नोआगमतस्तु श्रुतपदार्थज्ञशरीरं भूतभविष्यत्पर्याय, तद्वयतिरिक्तं च पुस्तकादिन्यस्तम् अभिधीयमानं वा, भावश्रुतहेतुतया द्रव्यश्रुतं, तथा चाह-"भूतस्य भाविनो या भावस्य हि कारणं तु यलोके । CTC+%A5% दीप अनुक्रम [-] R मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-1, नियुक्ति: [१२] (४३) * * प्रत सूत्रांक [-] तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥१॥" भावश्रुतमप्यागमनोआगमभेदतो द्विधैव, तत्राऽऽगमतस्तज्ज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्त्वेतान्येव प्रस्तुताध्ययनानि, आगमैकदेशत्वात् क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वाचामीषामिति ॥ स्कन्धोऽपि नामस्थापनात्मकः प्रसिद्ध एव, द्रव्यस्कन्धः आगमततज्ज्ञोऽनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे , तद्यतिरिक्तो द्रुमस्कन्धादिः, भावस्कन्ध आगमतस्तज्ज्ञस्तत्रोपयुक्तः, नोआगमतः प्रक्रान्ताध्ययनसमूह इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ प्रतिज्ञातमनुसरनामान्याह *% % दीप अनुक्रम RAKCX विणयसुयं च परीसह चउरंगिजं असंचयं चेव । अकाममरणं 'नियंठि ओरॅब्भं काविलिंजं च ॥१३॥ णमिपवजे दुमपत्तयं च बहुसुर्यपुजं तहेव हरिएंसा चित्तसभूइ उसुऑरिज सभिक्खं समाहिठाणं च॥१४॥ पावसमणिजं तह संज॑ईज मियेचारिया नियंठिज। समुद्दपौलिज रहेनेमियं केसिगोय मिजं च ॥१५॥ समिईओ जन्नईज सामायारी तहा खलंकिजं । मुक्खगैइ अप्पमाओ तव चरण पमायठाणं च ॥१६॥ कम्मप्पयडी लेसी बोद्धवे खलु णगारमग्गे य । जीवाजीवविभत्ति छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ १७ ॥ [-] *** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं -1, नियुक्ति: [१३-१७] (४३) अध्ययनम् प्रत सत्रांक उत्तराध्य.४] व्याख्या-निगदसिद्धाः । नवरमाभिरध्ययनविशेषनामान्युक्तानि, एतन्निरुक्त्यादि च नामनिष्पन्ननिक्षेपप्रस्ताव निएवाभिधास्यते ॥ अधिकारानाह॥९॥ पढमे विणओ बीए परिसहा दुल्लहंगया तइए । अहिगारो य चउत्थे होइ पमायप्पमाएत्ति ॥ १८॥ मरणविभत्ती पुण पंचमम्मि विजा चरणं च छटुअज्झयणे ।रसगेहिपरिच्चाओ सत्तमे अमि अलोभे॥१९॥ निक्कंपया य नवमे दसमे अणुसासणोवमा भणिया । इक्कारसमे पूया तवरिद्धी चेव बारसमे॥२०॥ तेरसमे अ नियाणं अनियाणं चेव होइ चउदसमे। भिक्खुगुणा पन्नरसे सोलसमे बंभगुत्तीओ ॥२१॥ पावाण वज्जणा खलु सत्तरसे भोगितिविजहणटारे । एगुणि अप्परिकम्मे अणाहया चेव वीसइमे ॥२२॥ चरिया य विचित्ता इक्कवीसि बावीसिमे थिरं चरणं। तेवीसइमे धम्मो चउवीसइमे य समिइओ॥२३॥ बंभगुण पन्नवीसे सामायारी य होइ छवीसे । सत्तावीसे असढया अट्ठावीसे य मुक्खगई ॥ २४ ॥ एगुणतीस आवस्सगप्पमाओ तवो अहोइ तीसइमे। चरणं च इक्वतीसे बत्तीसिपमायठाणाई ॥२५॥ CASE% दीप अनुक्रम [-] D05 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [-1, नियुक्ति: [१८-२६] (४३) प्रत सूत्रांक [-] RSSCAMESCSCCSC तेत्तीसइमे कम्मं चउतीसइमे य हुंति लेसाओ। भिक्खुगुणा पणतीसे जीवाजीवा य छत्तीसे ॥२६॥ । व्याख्या-आसामर्थः सुखावगम एव । नवरं विनयमूलोऽयं धर्मः, यत आगमः-"मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा । साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, ततो उ पुष्पं च फलं रसोय ॥१॥ एवं धम्मस्स / विणओ मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, णीसेसं चाभिगच्छई ॥२॥" इत्यतः प्रथमाध्ययने विन-1 योऽधिकृतः, विनयवतश्च तेषु तेषु गुरुनियोगेषु प्रवर्तमानस्य कदाचित् परीषहा उत्पधेरन् ते च सम्यक् सोढव्या है इति द्वितीयाध्ययने परीपहा इत्यादि क्रमप्रयोजनमभ्यूधम्, अध्ययनसम्बन्धाभिधानप्रस्तावे चाभिधास्यामः। | उपसंहरन्नाह- . उत्तरज्झयणाणसो पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । इत्तो इक्विकं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥२७॥ __व्याख्या-उत्तराध्ययनानाम् 'एपः' अनन्तराभिहितखरूपः 'पिण्डार्थः' समुदायार्थः 'वर्णितः' उक्तः 'समासेन' सक्षेपेण, 'इतः' पिण्डार्थवर्णनाद् , अनन्तरमिति गम्यते, एकैकं 'पुनः' विशेषणे अध्ययनं 'कीर्तयि १मूलात् स्कन्धप्रभवो हमस्य, स्कन्धात् पश्चात्समुपयन्ति शाखाः । शाखाभ्यः प्रशाखा: (ताभ्यः) विरोहन्ति पत्राणि ततस्तु पुष्पं च |फलं रस ॥१॥ एवं धर्मस्य विनयो मूलं परमः स मोक्षः । येन कीर्ति श्रुतं शीनं नि:श्रेयसं चाभिगच्छति ॥ २॥ रसि दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-], निर्युक्ति: [२७] प्यामि' व्याख्याद्वारेण संशब्दयिष्यामीति गाथार्थः ॥ २७ ॥ तत्र चाद्यं विनयश्रुतमिति तस्य कीर्तनावसरः, न च तद् उपक्रमाद्यनुयोगद्वारतद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादनमन्तरेण शक्यं कीर्तयितुमिति मन्वानः प्रस्तुताध्ययन स्यानुयोगविधानक्रममर्याधिकारं चाह- तत्थऽज्झयणं पढमं विणयसुयं तस्सुवकमाईणि । दाराणि पनवेउं अहिगारो इत्थ विणणं ॥ २८ ॥ व्याख्या- 'तत्र' एतेष्यध्ययनेषु मध्ये अध्ययनं 'प्रथमस्' आद्यं विनयाभिधानकं श्रुतं विनयश्रुतं मध्यपदलोपी समासः, 'तस्य' इति विनयश्रुतस्य उपक्रमादीनि द्वाराणि 'प्ररूप्य' तद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादनद्वारेण प्रज्ञाप्य, एतदनुयोगः कार्य इति शेषः, अधिकारश्चात्र विनयेन तस्येहानेकधाऽभिधानात् । आह— 'पढमे विणओ' इत्यनेनैवोक्तत्वात् पुनरुक्तमेतद्, उभ्यते, शास्त्रपिण्डार्थविषयं तत्, एतच प्रस्तुतैकाध्ययनगोचरमिति न पौनरुक्त्यमिति गाथार्थः ॥ २८ ॥ अत्रापि 'प्ररूप्ये' यवसरज्ञापनार्थमेव निर्युक्तिकृतोक्तं, न तु प्ररूपयिष्यत इति, अनुयोगद्वारेपूक्तत्यात्, तदुक्तानुसारेण किञ्चिदुध्यते - इह चत्वार्यनुयोगद्वाराणि - उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयश्चेति, तद्भेदा यथाक्रमं द्वौ त्रयो द्वौ द्वौ चेति, निरुक्तिश्चैवम्-उपक्रमणं दूरस्थस्य सतो वस्तुनस्तैस्तैः प्रकारैः समीपानयनमुपक्रमः, नियतं निश्चितं वा नामादिसम्भवत्पक्षरचनात्मकं क्षेपणं न्यसनं निक्षेपः, अनुरूपं सूत्रार्था Education intamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र Forest Use Only अध्ययनम् [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १ “विनयश्रुत" आरभ्यते ~23~ ॥ १० ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत सूत्रांक [-] वाघया तदनुगुणं गमनं-संहितादिक्रमेण व्याख्यातुः प्रवर्तनमनुगमो, नयनम्-अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियतकधर्मावलम्बेन प्रतीतो प्रापणं नयः । क्रमप्रयोजनं च-नानुपादिभिासदेशमनानीतं शास्त्रं निक्षेप्तुं शक्यं, न चौघनिष्पन्नादिभिर्निक्षेपरनिक्षिप्तमनुगन्तुं, नापि सूत्राद्यनुगमेनाननुगतं नयैर्विचारयितुमित्ययमेवैषां क्रमः, तथा च पूज्याः-"दारेकमोऽयमेव उ निक्खिप्पर जेण णासमीवत्थं । अणुगम्मइ णाणत्थं णाणुगमो णयमयविहणो॥१॥" अत्र सङ्ग्रहश्लोका:-'उपक्रमोऽथ निक्षेपोऽनुगमश्च नयाः क्रमात् । द्वाराण्येतानि भिद्यन्ते, द्वेधा प्रेधा द्विधा द्विधा ॥१॥ उपक्रम उपक्रान्तिर्दूरस्थनिकटक्रिया । निक्षेपणं तु निक्षेपो, नामादिन्यसनात्मकः॥२॥ सूत्रस्थानुगतिश्चित्राऽनुगमो नयनं नयः । अनन्तधर्मणोऽर्थस्यैकांशेनेति निरुक्तयः ॥३॥ न्यासदेशागतं शारखं, हिन्यस्यते न्यस्तमेव तत् । अन्वीयतेऽन्विते नीतिस्तेनैतेपामयं क्रमः ॥४॥' इत्थं विनेयस्मरणार्थ भेदनिरुक्तिक्रम-IN प्रयोजनभाजि द्वाराणि वर्णितानि, तद्वर्णनाच फलादीनि याच्यानीति प्रतिज्ञातं निर्वाहितम् । सम्प्रसेभिरित्थं || प्ररूपितरेषामेव भेदप्रपञ्चनपुरस्सरं प्रक्रान्ताध्ययनं विचार्यते, तत्रोपक्रमो द्विधा--लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्राद्यो . नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतः पोढा, तत्र च नामतश्चिरतरकालभाविनः सन्निहितकाल एव करणं नामोपक्रमः,M एवं स्थापनोपक्रमोऽपि, द्रव्योपक्रमः सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिविधः, प्रत्येकोऽपि परिकर्मनाशभेदतो द्विविधः, १द्वारक्रमोऽयमेव तु निक्षिप्यते येन नासमीपस्थम् । अनुगम्यते नान्यस्तं नानुगमो नयमतविहीनः ।।१।। २ सोऽप्येकः परिकर्मविना .. दीप अनुक्रम [-] JABERatinintimals मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥११॥ सूत्रांक उक्तं च भाष्यकारेण-"णामाई छन्भेओ उवक्कमो दवओ सचित्ताई। तिविहो दुविहो य पुणो परिकमे वत्थुनासे य अध्ययनम् ॥१॥" तत्र परिकर्मणि सचित्तद्रव्योपक्रमोऽवस्थितस्यैव द्विपदचतुष्पदापदरूपस्य नरतुरगतरुप्रभृतिसचित्तवस्तुनोऽविवक्षिताचित्तकेशाद्यवयवस्य यथाक्रमं रसायनशिक्षायुर्वेदादिवशतः तथाविधकर्मोदयादेः कालान्तरभाविनो वयःस्थैर्य विनयनप्रसूनोद्मादिपरिणतिविशेषखापादनम् , अचित्तद्रव्योपक्रमः कनकादेः कटककुण्डलादिक्रिया, मिश्रद्रव्योपक्रमः सचित्तस्यैव द्विपदादेः अचित्तकेशादिसहितस खानादिसंस्कारकरणम् , एवं विनाशेऽपि द्रव्योपक्रमस्त्रिधा-तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमोऽवस्थितस्यैव सचित्तद्रव्यस्याविवक्षितपर्यायान्तरोत्पत्ति प्रत्यभिज्ञानिवर्तकमसिपरश्वादितःप्राक्तनपर्यायापनयनम् , अचित्तद्रव्योपक्रम एवमेवाचित्तस्य रजतादेः पारदादिसम्पर्कतः खरूपादिभ्रंशनं, मिश्रद्रव्योपक्रमोऽपि तथैव शङ्कशङ्खलाघलङ्कृतद्विरदादेः सचेतनस्य मुद्रादिभिरभिघातः। एवं क्षेत्राधुप-12 क्रमा अपि परिकर्मविनाशभेदतो विभेदाः, तत्र यद्यपि क्षेत्रं नित्यममूत च, ततो न तस्य परिकर्मविनाशी स्तस्तथापि ४ तदाधेयस्य जलादे वादिहेतुतस्तौ सम्भवत इत्युपचारतस्तदुपक्रमः, उक्तं च-"खित्तमरूवं णिचं ण तस्स परिक १ नामाविः षड्भेद उपक्रमो द्रव्यतः सचित्तादिः । त्रिविधो द्विविधश्च पुनः परिकर्मणि वस्तुनाशे च ॥ १॥ २ क्षेत्रमरूपं नित्यं न तस्य परिकर्म न च विनाशः । आधेयगतवशेनैव करणविनाशोपचारोऽत्र ॥१॥ नावोपक्रमण हलकुलिकादिभिर्वाऽपि क्षेत्रस्य । संमार्जनभूमिकर्म च पथितटाकादीनां च ॥ २॥ REFERE दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत सूत्रांक [-] |म्मणं ण व विणासो । आहेयगयवसेण उ करणविणासोवयारोऽथ ॥१॥ णावाए उवक्कमणं हलकुलियाईहि वावि खेत्तस्स । संमजभूमिकम्मे य पंथतलागाइयाणं च ॥२॥" कालो वर्तनादिरूपत्वेन द्रव्यपर्यायात्मक एव, द्रव्यपर्यायौ च नरसिंहवदन्योऽन्यसंवलितो, ततस्तद्वारेण तस्य गुणविशेषाऽऽधानविनाशावुपक्रमशब्दवाच्यौ, आह च-"जं वत्र्तणादिरूवो कालो दवाण घेव पज्जाओ। तो तकरणविणासे कीरइ कालोवयारो उ ॥१॥" आह-मनुष्यक्षेत्रे सूर्य क्रियान्यनयो वर्तनादिद्रव्यपरिणतिनिरपेक्षोऽद्धाकालाख्यः कालोऽस्ति, यथोक्तम्-"सूरंकि-12 रियाविसिट्टो गोदोहादिकिरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भण्णइ समयकखेत्तंमि समयाई ॥१॥" ति, तत्र का वार्ता ?, उच्यते, तस्थापि शङ्कछायादिना यथावत्परिज्ञानत ऋक्षादिचाररतिपाततश्चामूर्तत्वेऽपि परिकर्म-18 विनाशसम्भवादुपक्रमः, तथा च पूज्या:-"छायाइ नालियाइ व परिकम्मं से जहत्वविन्नाणं । रिक्खाईचारेहि य तस्स विणासो विवजासो ॥१॥" भावोपक्रमस्तु यद्यपि भावस्य पर्यायत्वात् तस्य च द्रव्यात् कथञ्चिदनन्यत्वातदुपक्रमाभिधानत उक्त एच, तथापि जीवद्रव्यपर्यायोऽभिप्रायाख्यो भावशब्दाभिधेयोऽस्ति, यदुक्तम्-"भावा १वर्तमाना० प्र.२ यर्सनाविरूपः कालो व्याणामेव पर्यायः । ततस्तत्करणविनाशयोः क्रियते कालोपचारोऽत्र ।। २ सूरक्रियाविशिष्टो| गोदोहादिक्रियासु निरपेक्षः। अद्धाकालो भण्यते समयक्षेत्रे समयादिः ॥ १ ॥ ३ डायया नालिकया वा परिकर्म तस्य यथार्थविज्ञानम् ।। ६ कक्षादिचारैश्च तस्य विनाशो विपर्यासः ॥१॥ दीप अनुक्रम - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-], नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत सूत्रांक [-] उत्तराध्य. 18/ भिख्याः पञ्च खरूपसत्तात्मयोन्यभिप्रायाः" इति, ततस्तस्य परचित्तवर्तिनः संवेदनाविषयतया विप्रकर्षवत इशिता-13 अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः कारादिना परिज्ञानतः सन्निहितकरणं ज्ञातस्स या तथाऽननुगुणानुगुणचित्रचेष्टातः कुपितप्रसन्नतापादनं भावो पक्रम एव, स चावश्यमिहाभिधेयः, तदन्तर्गतत्वात् गुरुभावोपक्रमस्य, तस्य च सकलानुयोगप्रथमानत्वात्, IN ॥१२॥ उक्तंच-"भण्णइ वक्वाणगं गुरुचित्तोषकमो पढम" ति, शेषोपक्रमाणामपि चैतदकत्वात् , तथा चाह-"जुर्स |गुरुमयगहणं को सेसोवकमोवयारोऽत्य ? । गुरुचित्तपसायत्थं तेऽवि जहाजोगमाजोजा ॥१॥ परिकम्मणासणाओ| देसे काले य जे जहा जोगा। तो ते दवाईणं कज्जाऽऽहाराइकजेसुं॥२॥” तत एतदभिधानाय द्रव्योपक्रमाद्भावोपक्रमः पृथगुच्यते, स च द्विविधः-प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् , तत्राप्रशस्तो ब्राह्मणीगणिकाऽमात्यदृष्टान्ततोऽवसेयः, प्रशस्तम शिष्यस्य श्रुतादिहेतोगुरुभावोन्नयनं, यत आह-"सीसो गुरुणो भावं जमुवक्कमए सुहं पसत्थमणो । सहियत्थं स पसत्थो इह भावोवकमोऽहिगतो ॥१॥" इत्युक्तो लौकिक उपक्रमः, शास्त्रीयस्त्वानुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधिकारसमवतारात्मकः, तत्रानुपूर्वी नामादिदशप्रकारा अन्यत्र प्रपञ्चत उक्का, इह पुनरुत्कीर्तनगण १ भण्यते व्याख्यानाङ्गं गुरुचित्तोपक्रमः प्रथमम् । २ युक्तं गुरुमतमहणं कः शेषोपक्रमोपचारोऽत्र । गुरुचित्तप्रसादाय तेऽपि यथायोगमायोग्याः ॥ १॥ परिकर्मनाशनाभ्यां देशे काले च ये यथा योग्याः । ततस्ते द्रव्यादीनां कार्या आहारादिकार्येषु ॥ २॥ ३ शिष्यो गुरोआँवं यदुपक्रमते शुभं प्रशस्तममाः । स्वहितार्थ स प्रशस्त इह भावोपक्रमोऽधिकृतः ॥ १॥ CR दीप अनुक्रम - P ॥१२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत सूत्रांक [-] नात्मिकया तयाऽधिकार इति सैव भण्यते-तत्रोकीर्तनं विनयश्रुतं परीपहाध्ययनं चतुरङ्गीयमित्यादि संशब्दनं, |गणनं सङ्ख्यानं, तब पूर्वानुपूर्वीपश्चानुपूर्वीअनानुपूर्वीभेदतस्विविध, तत्र पूर्वानुपूळ गण्यमानमिदमध्ययनं प्रथम, पश्चानुपूर्व्या षटत्रिंशत्तमम् , अनानुपूर्व्या त्वस्यामेबैकाद्यकोत्तरपत्रिंशद्गच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासतो द्विरूपोनसङ्ख्याभेदं भवति, उक्तं च-"एकाद्या गच्छपर्यन्ताः, परस्परसमाहताः । राशयस्त द्धि विज्ञेयं, विकल्पगणिते फलम् ॥१॥" इह चासम्मोहाय षट्पदाङ्गीकारतः प्रस्तारानयनोपाय उच्यते-तत्र चैकादीनि षडन्तानि षट् पदानि ६ स्थाप्यन्ते, तानि चान्योऽन्यं गुण्यन्ते, ततश्च जातानि सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि, तेषां चान्त्येन पदेन भागहारः, तत्र लब्धं विंशत्युत्तरं शतं १२०, इयन्तः षष्ठपकी पट्दा न्यस्यन्ते, तदधस्तावन्त एव क्रमेण पञ्चकचतुष्ककत्रिकद्विकककाः स्थाप्याः, इत्थं जातानि षष्ठपती सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि । ततो विंशत्युत्तरशतस्य पश्चकेन । भागहारः, तत्र च लब्धा चतुर्विंशतिः २४, तावत्सयाः पञ्चमपको क्रमेण पञ्चकचतुष्कत्रिकद्विकैकका न्यस्याः, जातं विंशत्युत्तरं शतं, तस्य चाधस्तादतनपतिस्थमङ्कमपहाय यथामहत्सङ्ख्यमकविन्यासः, तत्राग्रेतनपतिस्थः ॥पञ्चकस्तत्परित्यागतश्च सर्ववृहत्सङ्ख्यः षट्कश्चतुर्विंशतिवारानधः स्थाप्यते, ततखिकापेक्षया चतुष्को द्विकापेक्षया चत्रिक एककापेक्षया च द्विको बृहत्सङ्ख्यः तत एककश्च तावत एव वारान् न्यसनीयः, जातं पुनर्विशत्युत्तरं शतम् , एवमतनपतिस्थचतुष्कत्रिकहिकैकपरिहारतस्तथैव तावन्नेयं यावत्पश्चमपटावपि पूर्णानि सस शतानि विंशत्युत्तराणि। दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२८] (४३) अध्ययनम् प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. ततश्चतुर्विशतेश्चतुष्केण भागहारः, तत्र लब्धाः पद ६, ततश्चतुर्थपतौ तावन्त एवाधोऽधश्चतुष्कत्रिकद्विकैककाः स्था- बृहद्वृत्तिः प्याः, यावज्जाता चतुर्विंशतिः, ततश्चातनपतिस्थाङ्कपरिहारादिप्रागुक्तयुक्तित एव पतिः पूरणीया । भूयः षकस्य त्रिकेण भागहारः, ततश्च लब्धो द्विकः, ततस्तृतीयपसी द्वौ त्रिको पुनौवेव द्विको भूय एकको च द्वावधः स्थापनीयौ, ॥१३॥ अधस्ताच्च पुरःस्थिताकत्यागतो बृहत्सङ्ख्याङ्कन्यासतश्च विंशत्युत्तरसप्तशतप्रमाणेच पतिः पूरणीया। पड्भागहारलब्ध स द्विकस्य विभजने लब्ध एकः, ततो द्वितीयपसी द्विक एककश्चैको विरचनीयः, तदधश्च पुरोदितपुरस्थाङ्कपरिहारा|दिन्यायतस्तावत्सङ्ख्यैवं द्वितीयपतिः कार्या। प्रथमपतिस्तु पुरस्थाङ्कपरिहारतः पूरणीया। उक्त च-"गणितेऽन्त्यविभक्ते तु, लब्धं शेषैविभाजयेत् । आदावन्ते च तत्स्थाप्यं, विकल्पगणिते क्रमात् ॥१॥" इह च परस्परगुणनागतराशिर्गणितमुच्यते, शेषास्तु षट्कापेक्षया पञ्चकादयः, 'आदा विति च षष्ठपङ्की, 'अन्त' इति च पञ्चमादिपताविति। उक्ताऽऽMनुपूर्वी, सम्प्रति नाम, तत्र नमति-ज्ञानरूपादिपर्यायभेदानुसारतो जीवपरमाण्यादिवस्तुप्रतिपादकतया प्रवीभवतीति | नाम, तथा थाह-"ज पत्थुणोऽभिहाणं पजवभेयाणुसारितं नाम । पइभेयं जंणमए पइमेयं जाइ जंभणियं ॥१॥" तकनामादि दशनामान्तम्, इह तु पड्डिधनानौदयिकादिषड्भावरूपेणाधिकारः, तदन्तर्भूतक्षायोपशमिकभावे | श्रुतज्ञानात्मकत्वेन प्रस्तुताध्ययनस्यावतारात्, आह च--"छविहणामे भावे खोवसमिए सुर्य समोयरह । जं सुय१ यदस्सुनोऽभिधानं पर्यायभेदानुसारि तन्नाम । प्रतिभेदं यन्नमति प्रतिभेदं याति यद्भणितम् ॥ १॥२ डिधनानि भावे क्षायोपशमिके दीप अनुक्रम |॥ १३ ॥ - wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत सूत्रांक [-] Mणाणावरणक्योषसमज तयं सर्व ॥१॥" प्रमीयते-परिच्छियतेऽनेनेति प्रमाणं, तच द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्विध, तत्रास्य क्षायोपशमिकभाषरूपत्वेन भावप्रमाणेऽवतारः, यत आह–“दवाइ चउम्भेयं पमीयए जेण तं पमाणति । इणमज्झयणं भावोत्ति भावमाणे समोयरइ ॥ १॥" भावप्रमाणं च गुणनयसकायाभेदतनिधा, तत्रास्य गुणप्रमाण सङ्ख्याप्रमाणयोरेवावतारः, नयप्रमाणे तु यद्यपि श्रुतकेवलिनोक्तम्-'अहिगारो तिहि उ ओसण ति, तथा 'पत्थि दणएहि विहूणं सुत्तं अत्थो व जिणमए किंचि । आसज उ सोयारं गए णयविसारओ चूया ॥१॥ तथापि सम्प्रति तथाविधनयविचारणाव्यवच्छेदतोऽनयतार एच, तथा च तेनैव भगवतोक्तम्-“मूढनइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं । अपहुत्ते समोयारो नत्थि पहुत्ते समोयारो॥ १ ॥” तथा-"जावंति अज्जवयरा अपहुत्तं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पहुत्तं कालियसुयदिट्ठिवाए य ॥२॥" महामतिनाऽप्युक्तं-'मूढणयं तु न संपद णयप्पमाणेश्रुतं समवतरति । यत् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजं तकत् सर्वम् ॥ १॥ १ द्रव्यादिचतुर्भेदं प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति । इदमध्ययनं भाव इति भावमाने समवतरति ॥ १ ॥ २ अधिकारखिमिस्तु उत्सन्नमिति । ३ नास्ति नवैविहीनं सूत्रमर्थो वा जिनमते किश्चित् । आसाथ तु मोतारं नयान नयविशारदो घूयात् ॥ १॥ ४ मूढनविकं श्रुतं कालिकं तु न नयाः समवतरन्तीह । अपृथक्त्वे (अनुयोगानां ) समवतारः || नास्ति पृथक्त्वे समवतारः ॥शा यावदार्यवा अपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्य । ततोऽर्वाक् पृथक्त्वं कालिकथुते दृष्टिवादे च । ५ मूढनयं तु न | सम्प्रति नयप्रमाणेऽवतारस्तस्य. दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत ॥१४॥ सूत्रांक ऽवयारो से" । गुणप्रमाणं तु द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्रास्य जीवोपयोगरूपत्वाजीवगुणप्रमाणे - अध्ययनम् वतारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतरुयात्मकेऽस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणे, तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानाऽऽगमारात्मके प्रकृताध्ययनस्याप्तोपदेशरूपतयाऽऽगमनमाणे, तत्रापि लौकिकलोकोत्तरभेदे परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे सूत्रा र्थोभयात्मनि, तथा चाह-"जीवाणण्णतणओ जीवगुणेणेह भावओ नाणे । लोउत्तरसुत्तत्योभयागमे तस्स भावाओ 5॥१॥" तत्राप्यात्मानन्तरपरम्परागमभेदतखिविधे अर्थतस्तीर्थकरगणधरतदन्तेवासिनः सूत्रतस्तु स्खचिरतच्छिप्यताशिष्यानपेक्ष्य यथाक्रममस्यात्मानन्तरपरम्परागमेष्ववतारः, सङ्ख्याप्रमाणमनुयोगद्वारादिषु अपश्चितमिति तत एवावधारणीयं, तत्र चास्य परिमाणसङ्ग्यायामवतारः, तत्रापि कालिकश्रुतरष्टिवादश्रुतपरिमाणभेदतो द्विभेदायां कालिकथुतपरिमाणसङ्ख्यायां, दिवा रात्री च प्रथमपश्चिमपौरुष्योरेवैतत्पाठनियमात् , तत्रापि शब्दापेक्षया || सङ्ख्ययाक्षरपादश्लोकाद्यात्मकतया सङ्ख्यातपरिमाणात्मिकायां पर्यायापेक्षया स्वनन्तपरिमाणात्मिकायाम् , अनन्तगमपर्यायवादागमस्य, तथा चाह-"अणंता गमा अर्णता पजवा" इत्यादि । वक्तव्यता-पदार्थविचारः, सा च खपरोभयसमयभेदतनिधा, तत्र खसमयः-अर्हन्मतानुसारिशावात्मकः, परसमया-कपिलायभिप्रायानुवतिग्रन्थखरूपः || BI॥१४॥ उभयसमयस्तूभयमतानुगतशाखखभावः, तत्रास्य खसमयवक्तव्यतायामेवावतारः, खसमयपदार्थानामेवात्र वर्णनात्, १ जीवानन्यवाजीवगुणेनेह भावतो ज्ञाने । लोकोत्तरसूत्रार्थोभयात्मके तस्य भावात् । १ । २ अनन्ता गमा अनन्ताः पर्यवाः दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२८] (४३) प्रत सूत्रांक [-] यत्रापि परोभयसमयपदार्थवर्णनं तत्रापि खसमयवक्तव्यतैव, परोभयसमययोरपि सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतत्वेन खसमय६त्वात् , अत एव सर्याध्ययनानामपि खसमयवक्तव्यतायामेपावतारः, तदुक्तम्-"परसमओ उभयं वा सम्मद्दिहिस्स ससमओ जेणं । तो सबज्झयणाई ससमयवत्तवनिययाई ॥१॥" ति । अर्थाधिकारः 'पढमे विणओं' इत्यनेन स्वत एव नियुक्तिकताऽभिहित इति नोच्यते । इह च वक्तव्यता प्रतिसूत्राभिधेयार्थविषया, अर्थाधिकारस्तु 'अहिगारो इत्थ |विणएण' मित्यनेनैवाभिहितः । समवतारस्त्वानुपूर्व्यादिषु लाघवार्थं यथासम्भवमुक्त एव इति न पुनरुच्यते, उक्तं च-"अहुणा य समोयारो जेण समोयारियं पइद्दारं । विणयसुयं सोऽणुगतो लाघवओ ण उण वचेति ॥१॥" निक्षेपस्त्रिधा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च, आह च-"भण्णइ घेप्पइ य सुहं णिक्खेवपयाणु-14 सारओ सत्थं । ओहो नाम सुत्र्त निक्खेयचं तओऽवस्सं ॥१॥" (ओघः) अध्ययनादि सामान्यनाम, आह चओहो जं सामनं सुयाभिहाणं चउविहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य पत्तेयं ॥१॥णामादि चउम्मेयं | १ परसमय उभयं वा सम्यग्दृष्टेः स्वसमयो येन । ततः सर्वाण्यध्ययनानि स्वसमयवक्तव्यतानियतानि ॥१॥२ अधुना च समवतारो येन समवतारितं प्रतिद्वारम् । विनयश्रुतं सोऽनुगतो लापवतो न पुनर्वाच्य इति ॥१॥ ३ भण्वते गृह्यते च सुखं निक्षेपपदानुसारतः शास्त्रम् । 18 ओधो नाम सूत्रं निक्षेप्तव्यं ततोऽवश्यम् ॥ ३ ॥ ४ ओषो यत् सामान्यं श्रुताभिधानं चतुर्विधं तच्च । अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च प्रत्येकम् ।। ३०॥ नामादि चतुर्भेदं वर्णयित्वा भुतानुसारेण । विनयश्रुतमायोज्यं चतुर्वपि क्रमेण भावेषु ॥ ३१ ॥ येन शुभात्माध्ययनम दीप अनुक्रम [-] +SC ला मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ।। १५ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-] निर्युक्ति: [२८] वष्णेऊणं सुयाणुसारेणं । विणयसुयं आउज्जं चउसुंपि कमेण भावेसुं ॥ २॥ जेण सुहृप्पज्झयणं अज्झप्पाणयण महिय णयणं वा । वोहस्स संजमस्स य मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥ ३॥ अक्खीणं दिज्जतं अघोच्छित्तिणयतो अलोगो छ । आओ णाणाईणं झवणा पावाण कम्माणं ॥ ४ ॥ प्रकटार्थी एव, नवरं येन हेतुना शुभात्माध्ययनं शुभस्य- पुण्यस्यात्मन्याधिक्येनायनं गमनं ततो भवति, पठ्यते वा - 'सुहज्झप्पयणं'ति, तत्र शुभं सङ्केशाविरहितमध्यात्मं-मनः तत्रायनमर्थादात्मनः ततः, ( अध्यात्मस्यानयनं प्रापणमात्मनि ततो भवति ) तथाऽधिकं नयनं-प्रकर्षवत्प्रापणं, कस्य १ - बोधस्य-तत्त्वावगमस्य संयमस्य वा - पृथिव्यादिसंरक्षणात्मकस्य मोक्षस्य वा कत्ल कर्मक्षयलक्षणस्य ततो भवति, आत्मनीति गम्यते, 'ततः' तस्माद्धेतोः, प्राग्वदध्ययनमुच्यत इति शेषः, तथा 'अव्यवच्छित्तिनयतः' अव्यवच्छित्तिनयमाश्रित्य द्रव्यास्तिकनयाभिप्रायेणेत्यर्थः, 'अलोकवत्' इत्युपलक्षणत्वादलोकाकाशवदिति । नामनिष्पन्ननिक्षेपेऽस्य विनयश्रुतमिति द्विपदं नाम, ततो विनयस्य श्रुतस्य च निक्षेपः शास्त्रान्तर उक्तोऽप्यवश्यमिह वक्तव्यः । तत्र च विनयनिक्षेपो बहुवक्तव्य इति तमतिदेष्टुं श्रुतनिक्षेपस्तु न तथेति तमभिधातुमाहविणओ पुबुद्दिट्ठो सुयस्स चउक्कओ उ निक्खेवो । दव्वसुय निण्हगाइ भावसुय सुए उ उवउत्तो ॥ २९ ॥ ध्यात्मानयनम धिकनयनं वा बोधस्य संयमस्य च मोक्षस्य वा ततस्तदृध्ययनम् ॥ ३२ ॥ अक्षीणं दीयमानमव्यवच्छित्तिनयतोऽलोक | इव । आयो ज्ञानादीनां क्षपणा पापानां कर्मणाम् ॥ ३३ ॥ एताश्रतस्त्रोऽपि आवश्यक निर्युक्तिगाथाः सोपयोगतरा इति च संस्कृता ज्ञेयाः Education national Forest Use Only अध्ययनम् १ ~ 33~ ।। १५ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२९] (४३) प्रत सूत्रांक [-] व्याख्या-विनीयते-अपनीयतेऽनेन कर्मेति विनयः, सच पूर्व-दशवैकालिकविनयसमाधिनामाध्ययने उद्दिष्ट- 18 उक्तः पूर्वोद्दिष्टः, स्थानाशून्याथै तदुक्तमेव किश्चिदुच्यते-'विणयस्स य सुत्तस्स य णिक्खेबो होइ दुण्ह य चउको। दविणयम्मि तिणिसो सुवण्णमिति एवमातीते ॥१॥ लोकोवयारविणओ अत्थनिमित्तं च कामहेउं च । भयविणयप्रमोक्खविणओ विणओ खलु पंचहा ओ ॥२॥ अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिहिपूया य । लोगोवयार विणो देवयपूया य विभवेणं ॥३॥ अब्भासवत्तिछंदाणुवत्तणा देसकालदाणं च । अन्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च। अत्थकए ॥en एमेव कामविणओ भए य यच आणुपुषीए । मोक्खंमिवि पंचविहो परूवणा तस्सिमा होइ ॥५॥ दसणणाणचरित्ते तवे य तह ओवयारिए चेव । एसो य मोक्खविणओ पंचविहो होइ णायचो ॥६॥ दवाण सच १ विनयस्य च श्रुतस्य च निक्षेपोद्वयोश्च चतुष्कको भवति । द्रव्यविनये तिनिशः सुवर्णमिति एवमादिकः॥१॥र समाहीए इति द००९ का३ सुवण्णमिश्चेवमाईणि द०अ०९ नि०।४ लोकोपचारविनयोऽर्थनिमित्तं च कामहेतोश्च । भयविनयो मोक्षविनयो विनयः खलु पञ्चधा| शेयः ॥२॥अभ्युत्थानम जलिरासनदानं चातिथिपूजा च । लोकोपचारचिनयो देवतापूजा च विभवेन ॥ ३ ॥ अभ्यासवर्तिता छन्दोऽनुवर्तना| देशकालदानं च । अभ्युत्थानमजलिरासनदानं चार्थकते ॥ ४॥ एवमेव कामबिनयो भये च नेतव्य आनुपूा । मोक्षेऽपि पञ्चविधः प्ररूपणा तस्वयं भवति ॥ ५॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपसि च तथौपचारिके चैव । एष च मोक्षविनयः पञ्चविधो भवति ज्ञातव्यः ॥६॥ । द्रव्याणां सर्वभावा उपविष्टा ये यथा जिनेन्द्रैः। तसिसथा अदधाति नरो दर्शनविनयो भवति तस्मात् ।। ७ ॥ ज्ञान शिक्षते ज्ञानं गुणयति । *CROGRICUC454 दीप अनुक्रम [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२९] (४३) प्रत ॥१६॥ सूत्रांक [-] उत्तराध्यामाता भाषा उपइवा जे जहा जिर्णिदेहि । ते तह सहइ नरो दंसणविणओ भवइ तम्हा ॥ ७॥ नाणं सिक्खइ नाणं अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः गुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई। णाणी ण ण बंधइ णाणविणीओ हवइ तम्हा ॥८॥ अविहं कम्मचयं जम्हा || रित्तं करेइ जयमाणो । णवमण्णं च न बंधइ चरित्तविणओ हवइ तम्हा॥९॥ अवणेइ तवेण तम उवणेइ य सग्ग-1 मोक्खमप्पाणं । तवनियमनिच्छियमई तबोविणीओ हवइ तम्हा ॥ १० ॥ अह ओवयारिओ पुण दुविहो विणओ समासओ होइ । पडिरूवजोगजुंजण तहय अणासायणाषिणओ ॥११॥ पडिरूयो खलु विणओ काइयजोगो य वायमाणसिओ । अठ्ठचउबिहदुविहो परूवणा तस्सिमा होइ ॥ १२ ॥ अब्भुट्टाणं अंजलि आसणदाणं अभिग्गह किती य । सुस्सूसण अणुगच्छण संसाहण काय अट्ठविहो ॥ १३ ॥ हियमियअफरुसवाई अणुवीईभास बाइओ ज्ञानेन करोति कृत्यानि । ज्ञानी नवं न कनाति ज्ञानविनीतो भवति तस्मात् ।।८।। अष्टविध कर्मचयं यस्माद्रिक्तं करोति यतमानः । नवमन्यच न बध्नाति चारित्रविनयो भवति सस्मात् ॥ ९॥ अपनयति तपसा तम उपनयति च वर्गमोक्षमात्मानम् । तपोनियमनिश्रितमतिस्तपोविनीतो भवति तस्मात् ॥ १० ॥ अधौपचारिकः पुनर्द्विविधो विनयः समासतो भवति । प्रतिरूपयोगयोजनं तथा च अनाशातनाविनयः ॥ ११॥ प्रतिरूपः खलु विनयः कायिकयोगच. वाचिको मानसिकः । अष्टविधः चतुर्विधः द्विविधा प्ररूपणा तस्येयं भवति ॥ १२ ॥ अभ्युत्थानमजलिरासनदानमभिप्रहः कृतिकर्म च । शुभूषणमनुगमनं संसाधनं कायिकोऽष्टविधः ॥१३।। हितमितापरुषवादी अनुवीच्य भाषी वाचिको दीप अनुक्रम [-] ॥१६॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२९] (४३) EXAX** प्रत सूत्रांक [-] ४ विणओ । अकुसलमणोणिरोहो कुसलमणउदीरणा चेव ॥ १४ ॥ पडिरूवो खलु विणओ पराणुवित्तिमइओ है मुणेयचो । अप्पडिरूवो विणओ णायचो केवलीणं तु ॥ १५॥ एसो भे परिकहिओ विणओ पडिरूवलक्षणो तिविहो । बावन्नविहिबिहार्ण बिति अणासायणाविणयं ॥ १६ ॥ तित्थयर १ सिद्ध २ कुल ३ गण ४ संघ + ४५ किरिय ६ धम्म ७ णाण ८णाणीणं ९। आयरिय १० थेर ११ उबज्झाय १२ गणीणं १३ तेरस पयाई ॥ १७ ॥ अणसायणा य भत्ती बहुमाणो वण्णसंजलणया य । तित्थयराई तेरस चउग्गुणा होति बावन्ना ॥१८॥ स्पष्टार्थाः, नवरं 'तिनिशो' वृक्षविशेषः, लोकोपचारविनयः लोकपतिफलः, अर्थनिमित्तं चेति, विनय इति गम्यते, ततोऽर्थप्राप्तिहेतोरीश्वराद्यनुवर्तनमर्थविनयः, कामहेतोश्चेति इहापि विनय इति प्रक्रमः, ततश्च शब्दादिविषयसम्पत्तिनिमित्तं तथा तथा प्रवर्तनं कामविनयः, दुष्प्रवर्षनृपतिसामन्तादेः प्राणादिभयेनानुवर्तनं भयविनयः, इहहै लोकानपेक्षस्य श्रद्धानज्ञानशिक्षादिषु कर्मक्षयाय प्रवर्तनं मोक्षविनयः, स च दर्शनज्ञानचारित्रतपउपचारभेदात् विनयः । अकुशलमनोनिरोधः कुशलमनउदीरणैव ॥१४॥ प्रतिरूपः खलु विनयः परानुवृत्तिमयो मुणितव्यः । अप्रतिरूपो बिनयो ज्ञातव्यः केवलिनां तु ॥ १५ ॥ एष भवन्धः परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षणनिविधः । द्वापञ्चाशद्विधिविधानं ब्रुवतेऽनाशातनाविनयम् ॥ १६॥ तीर्थकर १ सिद्ध २ कुल ३ गण ४ सच ५ क्रिया ६ धर्म ७ ज्ञान ८ ज्ञानिनाम् ९ । आचार्य १० स्थबिर ११ उपाध्याय १२ गणिनां ५ १३ त्रयोदश पदानि ॥११॥ अनाशातना च भक्तिहुमानो वर्णसंचलनता च । तीर्थकराद्यास्त्रयोदश चतुर्गुणा भवति द्विपञ्चाशत् ॥ १८॥ दीप अनुक्रम [-] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1, नियुक्ति: [२९] (४३) प्रत सूत्रांक वृहद्वृत्तिः । ॥१७॥ उत्तराध्य. पञ्चप्रकारः, तत्र चौपचारिकोऽनुरूपव्यापारसम्पादनानाशातनाभेदतो द्विभेदः, तत्र चाये अभ्युत्थानम्-आगच्छति । अध्ययनम् गच्छति च दृष्टे गुरावासनमोचनम् , अभिग्रहो-गुरुविश्रामणादिनियमः, कृतिः-द्वादशावर्तादिवन्दनं, शुश्रूषणं 'ण पक्खओ ण पुरओ' इत्यादिविधिना गुरुवचनश्रवणेच्छा, पर्युपासनमित्यर्थः, अनुगमनम्-आगच्छतः प्रत्युद्गमनं, संसाधन-गच्छतः सम्यगनुप्रजनं, 'कुल' नागेन्द्रादिः 'गणः' कोटिकादिः, "क्रिया' अस्ति परलोकोऽस्त्यात्माऽस्ति च सकलक्लेशलेशाकलङ्कितं मुक्तिपदमित्यादिप्ररूपणात्मिकह गृह्यते, 'धर्मः' श्रुतचारित्रात्मकः 'ज्ञान' मत्यादि 'आचार्यः | ४ अनुयोगाचार्यः 'गणी' गणाचार्यः अनाशातना-मनोवाकायैरप्रतीपप्रवर्तनं, भक्तिः-अभ्युत्थानादिरूपा, बहुमानो-3 मानसोऽत्यन्तप्रतिवन्धः, वर्णनं वर्णः-श्लाघनं तेन सवलना-ज्ञानादिगुणोद्दीपना वर्णसंज्वलना ॥ श्रुतस्य चत्वारः परिमाणमस्येति चतुष्कः, सङ्ख्याया अतिशदन्तायाः कन्निति (पा०५-१-२२) कन् , तुशब्दश्चतुर्विधनिक्षेपोMऽवश्यं सर्वत्र वक्तव्य इति विशेषद्योतकः, उक्तं हि-"जत्थ उ जं जाणेजा णिक्खे णिक्खिवे निरवसेसं । राजस्थवि वि जाणिज्जा चउकयं निक्खिये तत्थ ॥१॥" निक्षेपो-न्यासः, तत्राययोः सुगमत्वात्तृतीयमाह-द्रव्यतो द्रव्यरूपं वा श्रुतं द्रव्यश्रुतम् , आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतोज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्त्वाह-निहुते-आग १ न पक्षतो न पुरतः । २ अथ एकोनविंशत्चमनियुक्तिगाथोपात्तस्य 'सुयस्स चउकाओ उ निक्लेवो' इत्यस्य व्याख्या. ३ यत्र तु यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेन्निरवशेषम् । यत्रापि नापि जानीयात् चतुष्ककं निक्षिपेत् तत्र । १।४ जत्थविय न जाणिज्जा' इत्यनुयोगद्वारेषु। ५. दीप अनुक्रम [-] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२९] (४३) T प्रत सूत्रांक [-] OCOGER-CA माभिहितमर्थमतिक्लिष्टकर्मोदयात् कुयुक्तिभिरपनयतीति निहबो-जमालिप्रभृतिः पश्चात्कृतश्रुतपरिणतिः, आदिशन्दात्पुरस्कृतश्रुतपरिणतिसत्त्वपरिग्रहः, भावश्रुतमप्यागमनोआगमभेदतो द्विधा, तत्रागमतोऽभिधातुमाह-भावतो भावरूपं वा श्रुतं भावश्रुतं,प्राकृतत्वादिह पूर्वत्र च बिन्दुलोपः, 'श्रुते' श्रुतविषये, 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमः, तत उपयुक्त एव, कोऽर्थः ?-वस्य श्रुतमिति पदं ज्ञातं तत्र चोपयोगः स भावश्रुतं, तदुपयोगानन्यत्वाद् , अम्युपयुक्तमाणवकामिवदिति गाथार्थः ॥ २९ ॥ उक्तावोधनामनिष्पन्न निक्षेपी, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः प्राप्तावसरः, तथापि स नोच्यते, यतः सति सूत्रेऽसौ सम्भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चानुगमभेद इति अनुगम एव तावदुपवर्ण्यते-द्विविधोऽनुगमः-निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च, तत्राद्यो निक्षेपनियुक्तिउपोद्घातनियुक्तिसूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमविधानतस्त्रिविधः, तत्र च निक्षेपनियुक्त्यनुगम उत्तरादिनिक्षेपप्रतिपादनादनुगत एव, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु द्वारगाथाद्वयादवसेयः, तबेदम्-"उद्देसे णिसे य णिग्गमे खेत्त काल पुरिसे य । कारण पचय लक्खण णए समोया रणाणुमए ॥१॥किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं के चिरं हवइ कालं?। कइ संतरमविरहियं भवागरिस फासण णिरुत्ती k॥२॥" एतदर्थः सामायिकनियुक्तितोऽवसेयः, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमस्तु सूत्रावयवव्याख्यानरूपत्वात् सूत्रस्प-1& १ उद्देशो निर्देशच निर्गमः क्षेत्र कालः पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययो लक्षणं नयः समवतारणाऽनुमतम् ॥ १॥ किं कतिविधं कस्य क केषु कथं कियविरं भवति कालम् । कतिसान्तरमविरहितं भवाकर्षाः स्पर्शना निरुक्तिः ॥२॥ दीप अनुक्रम CANCY [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२९] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१८॥ प्रत सूत्रांक ||१|| शिकनियुक्तेः सति सूत्रे सम्भवति, तच्च सूत्रानुगम एवेति तत्रैव वक्ष्यते । नन्वेवमस्थानमिदमस्येति कस्मादिहोद्देशः? अध्ययनम् उच्यते, नियुक्त्यनुगममात्रसामान्यात् , तदुक्तम्-" संपइ सुत्तप्फासियनिजुत्ती जं सुयस्त वक्खाणं । तीसेऽवसरो सा पुण पत्तावि ण भण्णए इहां ॥ १ ॥ किं जेणासइ सुत्ते कस्स तई तं जया कमप्पत्तो । सुत्ताणुगमो वोच्छं। होही तीस तया भाचो ॥ २॥ अत्थाणमियं तीसे जइ तो सा कीस भण्णई इहयं । सा भण्णइ निज्जुत्तीमेतसामपणओ नवरं ॥ ३॥" साम्प्रतं सूत्रानुगमः, तत्रालीकोपघातजनकत्वादिदोषरहितं निर्दोषसारत्वा(वत्त्वा)दिगुणान्वितं सूत्रमुचारणीयं, तवेदम्संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि आणुपुत्विं सुणेह मे ॥१॥ अस्य च संहितादिक्रमेण व्याख्या-तत्र चास्खलितपदोच्चारणं संहिता, सा चानुगतव, सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वात् , तथा चाह-"होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो"ति । पदं तु नामिकनपातिकादि खधि| १ सम्पति सूत्रस्पर्शकनियुक्तियत् श्रुतस्य व्याख्यानम् । तस्या अवसरः सा पुनः प्राप्ताऽपि न भण्वते इह । १ । किं १ येनासति सूत्रे ॥ कस्य सका तस्मात् यदा क्रमप्राप्तः । सूत्रानुगमो वक्ष्यते तदा भविष्यति तस्या भावः ॥२॥ अस्थानमिदं तस्या यदि तदा सा किं भण्यतेऽत्र । सा भण्यते नियुक्तिमात्रसामान्यतो नवरम् ॥ ३॥२ भवति कृतार्थ उक्त्वा सपदकाछेदं सूर्य सूत्रानुगमः । दीप अनुक्रम 4-591-950-5 [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || || अध्ययनं [१] Education intimational यैव भावनीयं पदार्थस्त्वयम् - अन्यसंयुक्तस्यासंयुक्तस्य वा सचित्तादिवस्तुनो द्रव्यादिना संयोजनं-संयोगः, स च संयुक्त संयोगादिभेदेनानेकधा पक्ष्यते, तस्मान्मात्रादिसंयोगरूपादौदविकादिक्लिष्टतरभावसंयोगात्मकाञ्च विविधैः -ज्ञानभावनादिभिर्विचित्रैः प्रकारैः प्रकर्षेण-परीपहोपसर्गादिसहिष्णुतालक्षणेन मुक्तो-भ्रष्टो विप्रमुक्तः, तस्य, 'जनगारस्ये'तिअविद्यमानमगारमस्येत्यनगार इति व्युत्पन्नोऽनगारशब्दो गृद्यते, यस्त्वव्युत्पन्नो रूढिशब्दो यतिवाचकः, यथोक्तम्'अनगारो मुनिर्मौनी, साधुः प्रत्रजितो व्रती । श्रमणः क्षपणश्चैव, यतिश्चैकार्थवाचकाः ॥ १॥' इति, स इह न गृह्यते, भिक्षुशब्देनैव तदर्थस्य गतत्वात्, तत्र चागारं द्विधा - द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्यागारमगैः- द्रुमदृपदादिभिर्निर्वृत्तं, | भावागारं पुनरगैः- विपाककालेऽपि जीवविपाकृतया शरीरपुद्गलादिषु वहिः प्रवृत्तिरहितैरनन्तानुबन्ध्यादिभिनिर्वृत्तं कषायमोहनीयं तत्र च द्रव्यागारपक्षे तन्निषेधे ततोऽनगारखाविद्यमानगृहस्येत्यर्थः, भावागारपक्षे स्वल्पताभिधायी, | ततः स्थितिप्रदेशानुभागतोऽत्यल्प कपाय मोहनीयस्येत्यर्थः, कषायमोहनीयं हि कर्म, न च कर्मणः स्थित्यादिभूयस्त्वे | विरतिसङ्गमः, यत आगमः - " सत्तेन्हं पयडीणं अम्भितरओ उ कोडिकोडीओ। काऊण सागराणं जइ लहइ चउण्हमनयरं ॥ १॥" इत्यादि, क्लिष्टतरभावसंयोग मुक्तत्वेनैव चास्य गतत्वे पुनरभिधानं कषायमोहनीयस्थातिदुष्टताख्यापनार्थ, १ सप्तानामपि प्रकृतीनामभ्यन्तरतस्तु कोटी कोट्याः । कृत्वा सागरोपमाणां यदि लभते चतुर्णामन्यतरत् ॥ १ ॥ For Parts at Le Only निर्युक्ति: [२९] ~40~ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. विशेष्यमाह-'भिक्षो रिति,अत्र च पचनपाचनादिव्यापारोपरमतः साधुर्भिक्षते तद्धर्मा चेत्यर्थे "सनाशंसभिक्ष उ"रिति अध्ययनम् (पा०३-२-१६८) ताच्छीलिक उप्रत्ययः, अस्य च वर्तमानाधिकारविहितत्वेऽपि 'सज्ञाप्रकारास्ताच्छीलिका बृहद्वृत्तिः इति भाष्यकारवचनाद्भिक्षशब्दस्त्रिकालविषयो यतिपर्यायः सिद्धो भवति, शेषविवक्षायां च षष्ठी, अथवा'अणगारस्सभिक्खुणो' ति अखेषु भिक्षुरखभिक्षुः-जात्सायनाजीवनादनात्मीकृतत्वेनानात्मीयानेव ऍहिणोऽन्नादि भिक्षत इतिकृत्वा, स च यतिरेव, ततोऽनगारश्वासावखभिक्षुश्च अनगाराखभिक्षुस्तस्य, किमित्याह-विशिष्टो विविधो। वा नयो-नीतिनिया-साधुजनासेवितः समाचारस्तं, बिनमनं वा विनतं णीयं से गई ठाणं' इत्याथागमात्, द्रव्यतो नीचैत्तिलक्षणं प्रदत्वं भावतश्च साध्वाचारं प्रति प्रवणत्वं 'प्रादुष्करिष्यामि' प्रकटयिष्यामि, कथमिसाह-13 पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव इत्यर्थे "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः" (पा. ५-१-१२९) कर्मणि चेति प्य, तस्य मच पित्करणसामर्थ्यात् स्त्रीत्ये "षिद् गौरादिभ्य"ति (पा०४-१-४१) ठीयानपूर्वी क्रमः परिपाटीतियावत् 4 तया, द्वितीया तु 'छन्दोवैत् सूत्राणी'ति न्यायतः छान्दसत्वे 'सुपां सुपो भवन्तीति वचनात् तृतीयार्थे, 'शृणुत आकर्णयत श्रवणं प्रत्यवहिता भवत, यद्वा शृणु 'इहेति जगति जिनमते वा, व्याख्यायेऽपि शिष्याभिमुखीकरणसमित्यर्थः । अनेन च परानखमपि प्रतिवोधयतो व्याख्यातुर्धर्म एवेति ख्यापितं भवति, तथा च वाचकः-"न १ दुहावित्वाहिकर्मवेन गृहिणोऽन्नादेश्च कर्मत्वं । २ नीचैः शय्यां गतिं स्थानम् ॥ १॥ ३ यू ख्याख्यौ नदी (१-४--३) सूत्रे भाष्ये । दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १ || अध्ययनं [१], भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् । ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ १ ॥" 'मे' मम विनयं विनतं वा प्रादुष्करिष्यत इति प्रक्रमः । उक्तः पदार्थस्तदभिधानात् सामासिकपदान्तर्गतः पदविग्रहश्च (उक्त (इति), ततश्चालनावसरः, सा च सूत्रार्थगतदूषणात्मिका, "सुत्तगयमत्थविसयं व दूसणं चालणं मयं तस्स” इति वचनात्, तत्र सूत्रचालना-संयोगस्यै विप्रमुक्तक्रियां प्रति कर्तृत्वात् संयोगादिति कथं पञ्चमी ?, अर्थचालना च 'विनयं प्रादुष्करिष्यामी'ति प्रतिज्ञातम्, उत्तरत्र च 'आणाऽणिद्देसकरे' इत्यादिना 'खड्याहिं चवेडाहिं' इत्यादिना च विपर्ययप्रतिपादनमपि दृश्यते इति कथं न प्रतिज्ञाक्षितिः १, प्रत्यवस्थानं - शब्दार्थन्यायतः परोपन्यस्तदोषपरिहाररूपं, यत आह- “सद्दत्यन्नायाओ परिहारो पचवत्थाणं" तत्र च यद्यपि संयोगेन विमुच्यमानो भिक्षुः कर्म तथापि कर्तृत्वेनात्र विवक्ष्यते, ततश्च तस्यें तं विप्रमुञ्चतो विश्लेषोऽस्तीति विश्लेषक्रियायां संयोगस्य ध्रुवत्वेनापादानत्वाश्याय्यैव पञ्चमी, अत एव विप्रमुक्त इत्यत्र कर्मकर्तुः कर्मवद्भावात् कर्मणि कोऽपि सिद्धो भवति इति न सूत्रदोषो, नाप्यर्थदोषः, यतो यद् यलक्षणं तत्तद्विपर्ययाभिधान एव तलक्षणमक्लेशेन ज्ञातुं शक्यमिति अत्र विनयाभिधानप्रतिज्ञानेऽप्यविनयाभिधानं, तथा च शय्यम्भवप्रणीताचारकथायामपि "वयछक कायछक' मित्यादिनाऽऽचार Education intemational १ सूत्रगतमर्थविषयं वा दूषणं चालनं मतं तस्य । २ संबन्धनसंयोगरूपं गुणमपेक्ष्येयं शङ्का, तस्य गुणत्वेन नाशात् स जहाति भिक्षुमिति निर्धारणात् । ३ शब्दार्थन्यायतः परिहारः प्रत्यवस्थानम् । ४ भिक्षोः । ५ गुणं संबन्धनसंयोगरूपं । ६ मातापित्रादेः संयोगिनः । निर्युक्ति: [२९] Forest Use Only ~42~ www.ncbrary.o मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२९] (४३) अध्यया प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. प्रक्रमेऽप्यनाचारवचनम् । अथवा एकमपीदं सूत्रमावृत्त्या 'श्वेतो धावती तिवदर्थद्वयाभिधायक, ततचायमन्योऽर्थः । -संयोगेन-कषायादिसम्पर्कात्मकेनाप्यविप्रमुक्तः-अपरित्यक्तः, संयोगाविप्रमुक्तस्तस्य, ऋणमिव कालान्तरक्लेशानुबृहद्वृत्तिः भवहेतुतया ऋणम्-अष्टप्रकारं कर्म तत् करोतीति, कोऽर्थः १-तथा तथा गुरुवचनविपरीतप्रवृत्तिभिरुपचिनोतीति ॥२०॥ ऋणकारस्तस्य, 'भिक्षोः' कषायादिवशतो जीववीयविकलस्य पौरुषत्रीमेव भिक्षां तथाविधफलनिरपेक्षतया भ्रमण पशीलस्य 'विनयं प्रादुष्करिष्यामी'ति “प्राकाश्यसम्भवे प्रादु"रिति वचनात् प्रादुःशब्दस्य सम्भवार्थस्थापि दर्शना दुत्पादयिष्यामि, सम्भवति हीदमध्ययनमधीयानानां गुरुकर्मणामपि प्रायो विनीताविनीतगुणदोषविभावनातो ज्ञानादिविनयपरिणतिः, अथवा विरुद्धो नयो विनयोऽसदाचार इत्यर्थः, तं प्रादुष्करिष्यामि-प्रकटयिष्यामि, कस्य ? 4-'भिक्षोः' उक्तन्यायेन भिक्षणशीलस्य, सम्यग-अविपरीतो योगः-समाधिः संयोगः, ततो विविधैः परीपहासहन-स गुरुनियोगासहिष्णुत्वालस्यादिभिः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्तो विप्रमुक्तः तस्य, शेष प्राग्वत । एवं चापिनयप्रतिपादनस्यापि प्रतिज्ञातत्वात् सर्वं सुस्थम् । अपरस्त्वाह-प्रतिज्ञातमपि विनयमभिधित्सोरप्रस्तुतम् , इदमपि बालप्रजल्पितं, यतः शास्त्रारम्भेऽभिधेयाद्यवश्यमभिधेयम् , अन्यथा प्रेक्षावयवृत्त्यसम्भवात् , तप्रदर्शनात्मकं चैतत् प्रतिज्ञानं, तथाहि- ॥२०॥ विनयं प्रादुष्करिष्यामीत्युक्ते विनयोऽस्याध्ययनस्याभिधेयः, तत्रादुष्करणं फलं, तथा चेदमुपेयम्, उपायश्चास्य । १ वैकत्र द्वयोः (२-२८५) इति भ्रमे_िकर्मकत्वादन द्वितीया. दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) मूलं [-] / गाथा || १ || अध्ययनं [१] . प्रस्तुताध्ययनम् इत्यनयोरुपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्ध इति च दर्शितं भवति, ततो नाप्रस्तुतत्वं प्रतिज्ञानस्येति स्थितम् । सम्प्रति सूत्राऽऽलापकनिष्पन्ननिक्षेपस्य सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तेश्व प्रस्ताव इति मन्यमानः संयोग इत्याचं पदं | स्पृशन्निक्षेप्तुमाह निर्युक्तिकृत् Education intol संजोगे निक्खेवो छक्को दुविहो उ दवसंजोगे । संजुत्तगसंजोगो नायवियरेयरो चैव ॥ ३० ॥ व्याख्या - 'संयोग' इति संयोगविषयः 'निक्षेपः' न्यासः, पट् परिमाणमस्येति षट्कः प्राग्वत्कन्, एतद्भेदाश्च नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्रकालभावाः प्रसिद्धत्वादुत्तरत्र व्याख्यानत उन्नीयमानत्वाच नोक्ताः, अत्र च - 'संहितादिर्यतो व्याख्याविधिः सर्वत्र दृश्यते । नामादिविधिनाऽऽरन्धुं न व्याख्या युज्यते ततः ॥ १ ॥ इत्याहुरविभाव्यैव, स्याद्वादं वादिनोऽपरे । यत्तदत्र निराकार्यमाचक्षाणेन तद्विधिम् ॥ २ ॥ स्वादस्तीत्यादिको वादः स्याद्वाद इति गीयते । नयौ न च विमुच्यायं, द्रव्यपर्यायवादिनौ ॥ ३ ॥ अतश्चैतद्वयोपेतं खं मतं समुदाहृतम् । सततत्त्वसंविद्भिः, स्याद्वादः परमेश्वरैः ॥ ४ ॥ ते हि तीर्थविधौ सर्वे, मातृकाख्यं पदत्रयम् । उत्पत्तिविगमभौन्यख्यापकं सम्प्रचक्षते ॥ ५ ॥ उत्पत्तिविगमावत्र, मतं पर्यायवादिनः । द्रव्यार्थिकस्य तु श्रौव्यं, मातृकारूपपदत्रये ॥ ६ ॥ ततश्च द्रव्यत्वमन्वयित्वेन, मृदो यद्वद् घटादिषु । तद्वदेवान्वयित्वेन, नामस्थापनयोरपि ॥ ७ ॥ अन्वयित्वं तु सर्वत्र, सङ्के निर्युक्ति: [३०] For Fans Only ~ 44~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३०] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. तान्नाम्न उच्यते । स्थापनायाश्च तद्रूपक्रियातो बुद्धितोऽपि वा ॥८॥ तन्नामस्थापनाद्रव्य निक्षेपैरनुवर्तितः । द्रव्या- अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः । मार्थिकनयो भावनिक्षेपादितरः पुनः ॥९॥ तथा च महामतिः-"तित्थयरवयणसंगहबिसेसपथारमूलबागरणी। दबढिओषि पजवणो य सेसा वियप्पा सिं ॥१०॥" तथा "नामंठवणादवियत्ति एस दबट्ठियस्स निक्खेवो। भावत्ति पजयट्ठिय परूषणा एस परमत्थो ॥११॥" यद्वा किन्नः किलैताभ्यां, किन्वेष विधिराश्रितः । यद्याख्या वस्तुतत्त्वस्य, योधायैव विधीयते ॥१२॥ तच नामादिरूपेण, चतूरूपं व्यवस्थितम् । नामाकान्तवादानामयुक्तत्वेन संस्थितेः ॥ १३ ॥ तथाहि-नामनय आह-यतो नाम विना नास्ति, वस्तुनो ग्रहणं ततः । नामैव तद्यथा कुम्भो, मृदेवान्यो न वस्तुनः ॥ १४ ॥ तथाहि-यत् प्रतीतायेव यस्य प्रतीतिस्तदेव तस्य खरूपं, यथा मृबतीतावेव प्रतीयमानस्य घटस्य मृदेव रूपं, नामप्रतीतादेव च प्रतीयते वस्तु, न च विनापि नाम निर्विकल्पकविज्ञानेन वस्तुप्रतीतिरस्तीति हेतोरसिद्धता, सर्वसंविदां वागूपत्वात् , तथा च भर्तृहरिः-"वागरूपता चेद्बोधस्य, व्युत्क्रामेतेह शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत, सा हि प्रत्सवमर्शिनी ॥१॥" यदि च नामरूपमेव वस्तु न स्यात् ततश्च तदवग-11 ॥२१॥ १ तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकरणिनी । द्रव्यार्थिकोऽपि पर्यायनयश्च शेषा विकल्पा अनयोः ॥ १॥ नाम स्थापना द्रव्यमित्येते || द्रव्याधिकस्य निक्षेपाः । भाव इति पर्यायार्थिकप्ररूपणैप परमार्थः ॥ २॥ दीप अनुक्रम % 2964-%25 JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३०] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| तावपि वस्तुनि संशयादीनामन्यतमदेव स्यात् , तथा च पूज्या:-"संसय विवजओ वाऽणज्झवसाओऽपि वा। ६ जहिच्छाए । होजऽत्थे पडिवत्ती न वत्थुधम्मो जया णामं ॥१॥" स्थापनानय आह-स्थापनेत्याकारः, ततश्च-181 प्रमाणमिदमेवार्थस्याऽऽकारमयतां प्रति । नामादिन विनाऽऽकार, यतः केनापि वेद्यते ॥१॥ तथाहि-नानोऽ-18 अर्थान्तरेऽपि वर्तयितुं शक्यत्वान्न तदुल्लेखेऽप्याकारावभासमन्तरेण नियतनीलाद्यर्थग्रहणमित्याकारग्रहण एव ग्रहात् सर्वस्य सिद्धमाकारमयत्वं, ततो ज्ञानज्ञेयाभिधानाभिधेयादिसकलमाकारारूपितमेव संव्यवहारावतारि, तद्विकलख खपुष्पस्वासत्त्वात् , उक्तं च पूज्यैः-"आंगारो चिय मइसद्दवत्थुकिरियाफलाभिहाणाई। आगारमयं सर्व जमणागारं तयं नत्थि ॥१॥ण पराणुमयं वत्थु आगाराभावओ खपुष्पं व । उवलंभववहाराभावाओ णाणगारं च ॥२॥" द्रव्यनय आह-यथा नामादि नाकारं, बिना संवेद्यते तथा । नाऽऽकारोऽपि बिना द्रव्यं, सर्व द्रव्यात्मकं ततः ॥१॥ तथाहि-द्रव्यमेव मृदादिनिखिलस्थासकोशकुशूलकुटकपालाद्याकारानुयायि वस्तु सत् , तस्यैव तत्तदाकारानुया-1 यिनः सद्बोधविषयत्वात्, स्थासकोशाद्याकाराणां तु मृद्रव्यातिरेकिणां कदाचिदनुपलम्भात् , तचोत्पादादिसकल। १ संशयो विपर्ययो वाऽनध्यवसायोऽपि वा यहच्छया । भवेदर्थे प्रतिपत्तिर्न वस्तुधर्मो यदा नाम ॥ १ ॥२ आकार एव मतिशब्दवस्तुक्रियाफलाभिधानानि । आकारमयं सर्व यदनाकारं तकत् नास्ति ॥१॥न परानुमतं वस्तु आकाराभावतः खपुष्पवत् । उपलम्भत्र्यवहाराभावतो नानाकारं च ॥ २॥ दीप अनुक्रम CRACKS [१] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २२ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], विकारविरहितं तथा तथाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वितं सम्मूच्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदवीजं द्रव्यमगृहीततरङ्गादिप्रमेदस्तिमितसरःसलिलवत्, आह च - "दबंपरिणाममेत्तं मोत्तणागारदरिसणं किं तं १ । उप्पायचयरहियं दवं | चिय निधियारंति ॥ १ ॥ आविच्भावतिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं । णिचं बहुरूपिय नडोब बेसंतरावण्णो ॥ २ ॥" भावनय आह- सम्यग् विवेन्यमानोऽत्र, भाव एवावशिष्यते । पूर्वापरविविक्तस्य, यतस्तस्यैव दर्शनम् ॥ १ ॥ तथाहि-- भावः पर्यायः, तदात्मकमेव च द्रव्यं, तदतिरिक्तमूर्तिकं हि तद् दृश्यमदृश्यं वा ?, यदि दृश्यं, नास्ति तयतिरेकेण अनुपलभ्यमानत्वात्, खरविषाणवत्, न हि वलितमीलितपटीकृतत्रुटितसङ्घटितादिविचित्र भवन वहिभूतमिह सूत्रादि द्रव्यमुपलभ्यमस्ति अदृश्यमपि नास्ति, तत्साधकप्रमाणाभावात् षष्ठभूतवत्, ततः प्रतिसमयमुदयव्ययात्मकं स्वयंभवनमेव भावाख्यमस्ति उक्तं च- "भांवत्थंतरभूयं किं दवं णाम? भाव एवायं । भवणं पइक्खणं चिय भावाबत्ती वित्तीय ॥ १ ॥" परमार्थतस्त्वयम् - संविन्निचैव सर्वापि, विषयाणां व्यवस्थितिः । संवेदनं च नामादिविकलं नानुभूयते ॥ तथाहि - घटोऽयमिति नामैतत् पृथुबुभादिनाऽऽकृतिः । मृद्द्रव्यं भवनं Education intemational १ द्रव्यपरिणाममात्रं मुक्त्वाऽऽकारदर्शनं किं तत् ? । उत्पादव्ययरहितं द्रव्यमेव निर्विकारमिति ॥ १ ॥ आविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामकारणमचिन्त्यम् । नित्यं बहुरूपमपिच नट इव वेषान्तरापन्नः ॥ २ ॥ २ भावार्थान्तरभूतं किं द्रव्यं नाम ? भाव एवायं (. वेदम् ) भवनं प्रतिक्षणमेव भाव उत्पत्तिर्विपत्तिश्च ।। १ ।। निर्युक्ति: [३०] For Fans Only ~ 47~ अध्ययनम् १ ।। २२ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३०] (४३) ** प्रत सूत्रांक ||१|| भावो, घटे दृष्टं चतुष्टयम् ॥ १॥ तत्रापि नाम नाकारमाकारो नाम नो विना । तौ विना नापि चान्योऽन्यमुत्तरा-श बपि संस्थिती ॥२॥ मयूराण्डरसे यद्ववर्णा नीलादयः स्थिताः । सर्वेऽप्यन्योऽन्यमुन्मिनास्तद्वन्नामादयो घटे ॥३॥ इत्थं चैतत् , परस्परसव्यपेक्षितयैवाशेषनवानां सम्यग्मयत्वात् , इतरथा 'उत्पादव्ययधीव्ययुक्तं सदि'ति प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रतीतसलक्षणानुपपत्तेश्च । किञ्च-शब्दादपि घटादेर्नामादिभेदरूपेणैव घटाद्यर्थे बुद्धिपरिणामो जायते, इत्यतोऽपि नामादिचतूरूपतैव सर्वस वस्तुनः, उक्तं च-"नामादिभेदसद्दत्यचुद्धिपरिणामभावओ णिययं । जं वत्थु अस्थि लोए चउपज्जायं तय सघं ॥१॥" ततश्च-चतुष्काभ्यधिकस्सेह, न्यासो योऽन्यस्य दयते । एतदन्तर्गतः सोऽपि, ज्ञातव्यो धीधनान्वितैः ॥ १॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । सम्प्रति नियुक्तिरनुश्रि (स्त्रि) यते-तत्र नामस्थापने आगमतो नोआगमतश्च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपश्च द्रव्यसंयोगः सुगम इति मन्वानो व्यतिरिक्तद्रव्यसंयोगमभिधातुमाह--'द्विविधस्त्वि'ति द्विविध एव, द्रव्येण द्रव्यस्य वा, 'स'मिति सङ्गतो योगः संयोगः, संयोगद्वैविध्यमेवाह-संयुक्तमेव संयुक्त कम्-अन्येन संश्लिष्टं, तस्य संयोगो-वस्त्वन्तरसम्बन्धः संयुक्तकसंयोगो ज्ञातव्यः, 'इतरेतर' इति इतरेतरसंयोगः, 18/चः समुच्चये 'एवः' अवधारणे, इत्थमेव द्विविध एष संयोग इति गाथासमासार्थः ॥ ३०॥ विस्तरार्थ त्वभिधित्सुः दायथोद्देशे निर्देश' इति न्यायतः संयुक्तकसंयोगं भेदेनाह १ नामादिभेदशब्दार्थबुद्धिपरिणामभावतो नियतम् । यदस्त्वस्ति लोके चतुष्पर्यायं तकत् सर्वम् ॥ २॥ **-- दीप अनुक्रम [१] % ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१] . संजुत्तगसंजोगो सच्चित्तादीण होइ दद्वाणं । दुममणुसुवण्णमाई संतइकम्मेण जीवस्स ॥ ३१ ॥ व्याख्या- 'संयुक्तकसंयोगः' अनन्तराभिहितखरूपः, 'सचित्तादीनां' सचित्ताचित्तमिश्राणां भवति द्रव्याणाम्, अमीषामुदाहरणान्याह - 'दुममणुसुवण्णमाइ 'ति अत्र मकारस्यालाक्षणिकत्वात् सुब्व्यत्ययाच 'द्रुमाणुसुवर्णादीनां' प्रत्येकं चादिशब्दसम्बन्धात्स चित्तद्रव्याणां द्रुमादीनाम् अचित्तद्रव्याणामण्वादीनां सुवर्णादीनां च मिश्रद्रव्यस्य तु सन्ततिकर्मणोपलक्षितस्य जीवस्य, अत्र चाण्वादीनां सुवर्णादीनामित्युदाहरणद्वयमचित्तद्रव्याणां सचित्तंमिश्र द्रव्यापेक्षया भूयस्त्वख्यापनार्थम् एतद्भूयस्त्वं च जीवेभ्यः पुद्गलानामनन्तगुणत्वात् उक्तं च- "जीवा पोग्गल समया दक्ष पएसा य पजवा चेव । थोवाऽणंताणंता विसेसमहिया दुवेऽणंता ॥ १ ॥ इति, अनेन च सचित्तादेः संयोगद्रव्यस्य त्रैविध्यात् संयुक्तकसंयोगस्य त्रैविध्यमुक्तमिति गाथार्थः ॥ ३ ॥ तत्र द्रुमादीनां सचित्तसंयुक्तद्रव्य| संयोगं विवरीतुमाह मूले कंदे खंधे तया य सालेपवालपत्तेहिं । पुप्फफलेबीएहि अ संजुत्तो होइ दुममाई ॥ ३२ ॥ व्याख्या- 'मूले कन्दे स्कन्धे' इति सर्वत्र सूत्रत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी, ततश्च 'मूलेन' अधःप्रसर्पिणा खावयवेन १ जीवाः पुत्राः समया द्रव्याणि प्रदेशाश्च पर्यायाश्चैव । स्तोका अनन्ता अनन्ता विशेषाधिकानि द्वावनन्तौ ॥ १ ॥ Forsy निर्युक्ति: [३१] ~49~ अध्ययनम् १ ॥ २३ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३२] (४३) 3496 प्रत सूत्रांक ||१|| |'कन्देन' तेनैव मूलस्कन्धान्तरालवर्तिना 'स्कन्धेन' स्थुडेन 'त्वचा' छविरूपया 'साले'त्ति एकारोऽलाक्षणिकः, ततः 'शालाप्रवालपत्रैः' शाखापल्लवपलाशैः, फले इत्यत्राप्येकारस्तथैव, ततः 'पुष्पफलबीजैश्च' प्रसिद्धैरेव 'संयुक्तः' सम्बद्धो भवति 'दुममाइत्ति' मकारोऽलाक्षणिकः ततो द्रुमादिः, आदिशब्दाद्गुच्छगुल्मादिश्च संयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः । स हि प्रथममुद्गच्छन्नकरात्मकः पृथिव्याः संयुक्त एव मूलेन संयुज्यते, ततो मूलसंयुक्तक एव कन्देन, कन्दसंयुक्त एव स्कन्धेन एवं त्वक्शाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजैरपि पूर्वसंयुक्त एवोत्तरोत्तरैः संयुज्यते इति भावनीयम् , नन्वेवं द्रुमादेव्यत्वात् संयुक्तकसंयोगस्य च गुणत्वात्कथं द्रुमादिरेव स इति, अत्रोच्यते, धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वादेवमुक्तमित्यदोषः, र एवमुत्तरभेदयोरपीति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ अण्वादीनामचित्तसंयुक्तकद्रव्यसंयोगं स्पष्टयितुमाह एगरस एगवण्णे एगेगंधे तहा दुफासे अ । परमाणू खंधेहि अ दुपएसाईहि णायवो ॥ ३३ ॥ व्याख्या--एकः-अद्वितीयस्तिक्तादिरसान्यतमो रसोऽस्येति एकरसः, तथैकः कृष्णादिवर्णान्यतमो वर्णोऽस्पति एकवर्णः, एवम् 'एकगन्धः' सुगन्धीतरान्यतरगन्धान्वितः, 'एगे' इत्येकारस्थालाक्षणिकत्वात् , तथा द्वौ चावि-11 रुद्धौ स्निग्धशीताद्यात्मको स्पर्शावस्येति द्विस्पर्शः, चशब्दः खगतानन्तभेदोपलक्षकः, क एवंविधः ? इत्याहपरमः-सदन्यसूक्ष्मतरासम्भवात् प्रकर्षवान् स चासावणुश्च परमाणुः, उपलक्षणत्वाद् घणुकादिश्च, 'स्कन्धैश्च' स्कन्धश दीप अनुक्रम RRORSEAST [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २४॥ ब्दाभिधेयः, कैरियाह-द्वी प्रदेशावारम्भकावस्येति द्विप्रदेशो-अणुकः, स आदिउँपां त्रिप्रदेशादीनामचित्तमहास्क-18/ अध्ययनम् न्धपर्यन्तानां ते तथा तैः, घशब्दात्परमाण्वन्तरैर्वर्णान्तरादिभिश्च, संयुज्यमान इति गम्यते, 'विज्ञेयः' विशेषेणसङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तभाविभावनात्मकेनावबोद्धव्यः, पाठान्तरतो ज्ञातव्यः, अचित्तसंयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः, अयमर्थः-कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥ इत्येवंलक्षणपरमाणुयंदा ज्यणुकादिस्कन्धपरिणतिमनुभवति तदा रसादिसंयुक्त एव थणुकादिभिः स्कन्धैः। संयुज्यते, यदा वा तिक्ततादिपरिणतिमपहाय कटुकत्वादिपरिणति प्रतिपद्यते तदापि वर्णादिभिः संयुक्त एव कटुकत्वादिना संयुज्यते इति संयुक्तसंयोग उच्यते । अत्र च कृष्णपरमाणुः कृष्णत्वमपहाय नीलत्वं प्रतिपयत इत्येको भङ्गः, एवं रक्तत्वं पीतत्वं शुक्लत्वं चेति चत्वारः, तथाऽयमेव रसपञ्चकगन्धद्वयाविरुद्धस्पर्शस्तारतम्यजनितैश्च सस्थान एवं द्विगुणकृष्णत्वादिभिः परमाण्वन्तरद्विप्रदेशादिभिश्च योजनाद्विवक्षावशतः सङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तात्मिका भङ्गरचनामवाप्नोति, एवं वर्णान्तररसस्पर्शगन्धखगततारतम्ययुक्तोऽपि, तथा द्विप्रदेशादिश्च । यच-'घण्णरसगंधफासा पोग्गलाणं च लक्खणं' इत्यादिसूत्रेषु वर्णस्यादित्वेन दर्शनेऽपि 'एगरएगवण्णे'ति रसस्य प्रथमत उपादानं तदनानुपूर्त्या अपि व्याख्याङ्गत्वेन गाथावन्धानुलोम्येन वेति भावनीयम् । सुपर्णादीनां च प्राच्यवर्णकासंयु| १ वर्णगन्धरसस्पर्शाः पुद्गलानां च लक्षणम् । दीप अनुक्रम [१] ॥२४॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| कानामेव विशिष्टयर्णिकादिभिः संयोगोऽचित्तसंयुक्तकसंयोग उक्तानुसारेण सुज्ञान एवेति नियुक्तिकृता न व्याख्यात इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ दृष्टान्तपूर्वकं सन्ततिकर्मणा जीवस्य मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग व्यक्तीकर्तुमाहजह धाऊ कणगाई सभावसंजोगसंजुया हुंति । इअ संतइकम्मेणं अणाइसंजुत्तओ जीवो ॥ ३४॥ __ व्याख्या-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथा 'धातवः' कनकादियोनिभूता मृदादयः कणगाइति सूत्रत्वाकनकादिभिः, आदिशब्दात्ताम्रादिभिश्च, किमित्याह-समावेन संयोगः-प्रकृतीश्वराद्यर्थान्तरन्यापारानपेक्षयोपलक्ष्यानुपलक्ष्यरूपो यः सम्बन्धस्तेन संयुता-मिश्रिताः खभावसंयोगसंयुताः भवन्ति' विद्यन्ते 'इती त्यमुनैवार्थान्तरनिरपेक्षत्वलक्षणेन प्रकारेण सन्ततिः-उत्तरोत्तरनिरन्तरोत्पत्तिरूपःप्रवाहस्तयोपलक्षितं कर्म-ज्ञानावरणादि सन्ततिकर्म तेन, न विद्यते आदि:-प्राथम्यमस्येत्यनादिः स चेह प्रक्रमात्संयोगस्तेन 'स' मिति 'अण्णोण्णाणुगयाणं इमं च तं चत्ति विभयणमजुत्त' इत्यागमाद्विभागाभावतो युक्तः-श्लिष्टोऽनादिसंयुक्तः स एव अनादिसंयुतकः, यद्वा-संयोगः-संयुक्तं ततोऽनादिसंयुक्तमस्येति अनादिसंयुक्तकः, क इत्याह-जीवति जीविष्यति जीवितवांश्चेति जीवः, मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग इति प्रक्रमः, इदमुक्तं भवति-जीवी बनन्तकर्माणुवर्गणाभिरावेष्टितप्रवेष्टितो|ऽपि न खरूपं चैतन्यमतिवर्तते, न चाचैतन्यं कर्माणव इति तयुक्ततया विवक्ष्यमाणोऽसौ संयुक्तकमिश्रद्रव्यं, १ अन्योऽन्यानुगतयोरिदं च तच्चेति विभजनमयुक्तम् । दीप अनुक्रम wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३५] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. ततोऽस्य कर्मप्रदेशान्तरैः संयोगो मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग उच्यते, इह च जीवकर्मणोरनादिसंयोगस्य धातुकनकादि-अध्ययनम् संयोगदृष्टान्तद्वारेणाभिधानं तद्वदेवानादित्वेऽप्युपायतो जीवकर्मसंयोगस्वाभावख्यापनार्थम् , अन्यथा मुक्त्यनुष्ठानवबृहद्वृत्तिः काफल्यापत्तेरिति भावनीयमिति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ उक्तः संयुक्तकसंयोगः, इतरेतरसंयोगमाह॥ २५॥ इयरेयरसंजोगो परमाणूणं तहा पएसाणं । अभिपेयमणभिपेओ अभिलावो चेव संबंधो ॥३५॥ व्याख्या-इतरेतरस्य-परस्परस्य संयोगो-घटना इतरेतरसंयोगः 'परमाणूनाम्' उक्तरूपाणां, तथा प्रकर्षणसूक्ष्मातिशयलक्षणेन दिश्यन्ते-कथ्यन्त इति प्रदेशा:-धर्मास्तिकायादिसम्बन्धिनो निर्विभागा भागास्तेपाम्,४ 'अभिपेयं ति प्राकृतत्वादभिप्रेतः, इतरेतरसंयोग इति योज्यते, एवमुत्तरत्रापि, अभिप्रेतत्वं चास्वाभिप्रेतविषयत्वाद्, एतद्विपरीतोऽनभिप्रेतः, अभिलप्यते-आभिमुख्येन व्यक्तमुच्यतेऽनेनार्थ इत्यभिलापो-वाचकः शब्दस्तद्विषयत्वात् अभिलापः, चः समुच्चये, 'एवः' अवधारणे, सम्बन्धशब्दानन्तरं चैतौ योज्यौ, ततः सम्बन्धन-सम्बन्धः, स चैवं स्वस्तामित्वादिरनेकधा वक्ष्यमाणः, एतावद्भेद एवायमितरेतरसंयोग इति चावधारणस्थार्थ इति गाथासमासार्थः ॥ ३५॥ परमाणूनां संयोगमाहदुविहो परमाणूणं हवइ य संठाणखंधओ चेव । संठाणे पंचविहो दुविहो पुण होइ खंधेसु ॥ ३६॥ दीप अनुक्रम ॥२५॥ [१] rantangionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३६] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्या-द्वौ विधौ प्रकारावस्येति द्विविधः-द्विभेदः, कोऽसौ !-'परमाणूनाम्' इति परमाणुसम्बन्धी, प्रक्रमादितरेतरसंयोगो भवति, 'चः पूरणे, कथं द्विविध इत्याह-'संठाणखंघतो'त्ति संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुद्गलात्मकं वस्त्विति संस्थानम्-आकारविशेषः ततस्तमाश्रित्य, 'स्कन्धतः स्कन्धमाश्रित्य, चः समुचये, 'एवः' भेदावधारणे । द्विविधस्यापि प्रत्येक भेदानाह-संस्थाने' संस्थानविषयः 'पञ्चविधः' पञ्चप्रकारः 'द्विविधः' द्विप्रकारः, पुनःशब्दो वाक्यान्तरोपन्यासे भवति 'स्कन्धेषु' स्कन्धविषय इति गाधार्थः ॥३६ ॥ इह च संस्थानस्कन्धभेदद्वारक एवायमितरेतरसंयोगभेद इति तदभिधानमुचितं, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायतः संस्थानभेदाभिधानप्रस्तावेऽप्यल्पवक्तव्यत्वात् स्कन्धभेदं हेतुभेदद्वारेणाहपरमाणुपुग्गला खल्लु दुन्नि व बहुगा य संहता संता। निवत्तयंति खंधं तं संठाणं अणिस्थत्थं ॥३७॥ व्याख्या-परमाणुपुद्गलौ खलु द्वौ वा बहव एव बहुकाः-त्रिप्रभृतयः, ते च परमाणुपुद्गलाः 'संहताः' एकपिण्डता-12 मापन्नाः सन्तो 'निर्वर्तयन्ति' जनयन्ति, किमित्याह-'स्कन्धं' बणुकादिकम् , अनेन च द्विपरमाणुजन्यतया बहुपर-13 ४ माणुजन्यत्वेन च स्कन्धस्य द्विभेदत्वमुक्तं, खलुशब्दोऽत्र विशेषं द्योतयति, स चायम्-इह रूक्षः स्निग्धो वा एकगुणः सम्बध्यमानो द्विगुणाधिकेनैव खखरूपापेक्षया सम्बध्यते, न तु समगुणेनैकगुणाधिकेन वा, किमुक्तं भवति ? एकगुणस्निग्धस्त्रिगुणस्निग्धेन सम्बध्यते त्रिगुणस्निग्धः पञ्चगुणस्निग्धेन पञ्चगुणस्निग्धः सप्तगुणस्निग्धेनेत्यादि, तथा द्विगुण दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७] (४३) प्रत 564-% सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. स्निग्धश्चतुर्गुणस्निग्धेन चतुर्गुणस्निग्धः षड्गुणस्निग्धेनेत्यादि, एवमेकगुणरूक्षत्रिगुणरूक्षेण त्रिगुणरूक्षः पञ्चगुणरूक्षे- अध्ययनम् णेत्यादि, तथा द्विगुणरूक्षश्चतुर्गुणरूक्षेण चतुर्गुणरूक्षः पड्गुणरूक्षेणेत्यादि, एवं द्विगुणाधिकसम्बन्धो भावनीयः, न बृहद्वृत्तिः त्वेकगुणस्निग्ध एकगुण स्निग्धेन द्विगुणस्निग्धेन वा सम्बध्यते द्विगुणस्निग्धो द्विगुणस्निग्धेन त्रिगुणस्निग्धेन या यावद२६॥ नन्तगुणस्निग्धोऽप्यनन्तगुणस्निग्धेन समगुणेनैकगुणाधिकेन वा, एवमेकगुणरूक्ष एकगुणरूक्षेण द्विगुणरूक्षेण वा द्विगुणरूक्षो द्विगुणरूक्षेण त्रिगुणरूक्षेण वा यावदनन्तगुणरूक्षोऽप्यनन्तगुणरूक्षेण समगुणेनैकगुणाधिकेन वेति, ४. अन्ये त्वाहुः-एकगुणादि खस्थानापेक्षया द्विगुणेन रूपाधिकेन सम्बध्यत इति, अयमत्र विशेषः खलुशब्देन सूच्यते, है तथा चैककस्य स्वस्थानापेक्षया द्विगुणो द्विक एव स च रूपाधिकखिक एव इति त्रिगुणेनैवैकगुणस्य सम्बन्धः, तथा द्विगुणस्य पञ्चगुणेन त्रिगुणस्य सप्तगुणेन चतुर्गुणस्य नवगुणेन पञ्चगुणस्सैकादशगुणेनेत्यादि, उक्तं च-"समनिद्धयाइ बंधो न होइ समलुक्खयावि य न होई । वेमाइनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥” तथा “दोण्ह जहण्णगुणाणं निद्धाणं तह य लुक्खदवाणं । एगाहिएवि य गुणे ण होति बंधस्स परिणामो ॥२॥णिद्धविउणाहिएणं बंधो १ समस्निग्धतया बन्धो न भवति समरूक्षतयाऽपि च न भवति । विमात्रस्निग्धरूझवेन बन्धस्तु स्कन्धयोः ॥ १॥ २ द्वयोर्जप-10 न्यगुणवोः स्निग्धयोस्तथैव रूक्षद्रव्ययोः । एकाधिकेऽपि च गुणे न भवति बन्धस्य परिणामः ॥१॥ सिग्धेन द्विगुणाधिकेन बन्धः स्निग्धस्य भवति द्रव्यस्य । रूओण द्विगुणाधिकेन च रूक्षस्य समागमं प्राप्य ।। २ ॥ -8-2-53-456 दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| निद्धस्स होइ दधस्स । लुक्स विउणाहिएण य लुक्खस्स समागमं पप्प ॥३॥" निग्धरूक्षपरस्परबन्धविचारणायां तु समगुणयोर्विपमगुणयोर्वा जघन्यवर्जयोर्वन्धपरिणतिरिति विशेषः । तथा चाह-"पति णिद्धलुक्खा विसमगुणा अहव समगुणा जेऽपि । वज्जित्तु जहन्नगुणे बझंती पोग्गला एवं ॥१॥” इत्यादि, येन विशेषण संस्थानात् स्कन्धस्य भेदेनोपादानं तमाविष्कतुंमाह-'तं संठाणंति' प्राकृतत्यादेवं पाठः, तस्व-स्कन्धस्य संस्था-11 नम्-आकारस्तत्संस्थानम् , अनेन-हदि विवर्तमानतया प्रत्यक्षेण परिमण्डलादिनाऽनन्तरोक्तप्रकारेणेत्यमित्थं ६ तिष्ठति इत्थंस्थं, न तथा अनित्थंस्थम्, अनेन नियतपरिमण्डलाद्यन्यतराकारं संस्थानं शेषोऽनियताऽऽकारस्तु स्कन्ध इत्यनयोर्विशेष इत्युक्तं भवति । आह-स्कन्धानामपि परस्परं बन्धोऽस्ति, यदुक्तम्-“ऐमेव य खंधाणं दुपएसाईण बंधपरिणामो"त्ति अतः किं न तेषामपीतरेतरसंयोग इहोक्तः, उच्यते, उक्त एव, तेषां प्रदेशसद्भावात् , प्रदेशानां च 'इयरेतरसंजोगो परमाणूणं तहा पएसाणं' इत्यनेन तदभिधानादिति गाथार्थः ॥ ३७॥ संस्थानभेदानाह| परिमंडले य बट्टे तसे चउरंसमायए चेव । घणपयर पढमवज्जं ओयपएसे य जुम्मे य ॥ ३८॥ १ अध्येते निग्धरूक्षौ विषमगुणी अथवा समगुणौ यावपि । वर्जयित्वा जघन्यगुणौ बध्यन्ते पुगला एवम ॥१॥२ एवमेव च स्कन्धानां द्विप्रदेशादीनां बन्धपरिणामः । दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३८] (४३) प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. 5 ब्याख्या-लिङ्गं व्यभिचार्यपी' ति प्राकृतलक्षणात् सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः, ततः परिमण्डलं, प्रक्रमात् संस्थान- अध्यय बृहद्धृत्तिः मेवमुत्तरत्रापि, तब पहित्ततावस्थितप्रदेशजनितमन्तःशुपिरं, यथा बलकस्य, चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुचये, वृत्तं तदेवान्तःशुपिरविरहितं यथा कुलालचक्रस्य, व्यत्रं-त्रिकोणं, यथा शृङ्गाटकस्य, चतुरखं-चतुष्कोणं, यथा कुम्भिकायाः, आयतं-दीर्घ, यथा दण्डस्य, चः पूर्वभेदापेक्षया समुचये 'एव' अवधारणे, तत इयंत एव संस्थानभेदाः, 'घणपयर'त्ति धनं च प्रतरं च धनप्रतरं, प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, सर्वेत्र च प्रतरपूर्वक एव घनः प्ररूप्यते, इहापि तथैवोपदर्शयिष्यते,13 ततः प्रतरघन इति निर्देशः प्रासः, अल्पाक्ष(चूत)रत्वात्तु घनशब्दस्य पूर्वनिपातः, ततश्चैकैकं परिमण्डलादि प्रतरं धनं च, भवतीति गम्यते, तथा प्रथमम्-आद्यं वर्जयति-सजतीति प्रथमवर्ज-परिमण्डलरहितं वृत्तादिसंस्थान-| चतुष्कमित्यर्थः 'ओयपएसे यत्ति ओजःप्रदेशं च-विषमसङ्ख्यपरमाणुकं 'जुम्मे य' ति प्रक्रमाद् युग्मप्रदेशं च, उभयत्र चः समुच्चये । इह च घनप्रतरभेदमेव वृत्तादीत्थं भिद्यते, ततः प्रतरवृत्तमोजःप्रदेशं युग्मप्रदेशं च, तथा धनवृत्तमोजःप्रदेशं युग्मप्रदेशं च, एवं व्यस्रादिष्वपि चतुर्विधं भावनीयं, परिमण्डलं वर्जनीयं च, समसङ्ख्याणुष्वेव तस्य सम्भवेनैवंविधभेदासम्भवात् , तथा च द्विविधमेव परिमण्डलमिति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ इह च परिमण्डलादि प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्टं च, तत्रोत्कृष्टं सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसङ्ख्यप्रदेशावगाढं चेत्येकरूपतयाऽनुक्तमपि सम्प्रदाहयाज्ज्ञातुं शक्यमिति तदुपेक्ष्य जघन्यं तु प्रतिभेदमन्यान्यरूपतया न तथेति तदुपदर्शनार्थमाह *SSRCE ||१|| दीप अनुक्रम - २७॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मतं मूलं [-1/ गाथा ||१|| । नियुक्ति : [३९-४१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| पंचग बारसगं खलु सत्तग बत्तीसगं तु वदमि।तिय छक्कग पणतीसा चत्तारि य हुँति तंसंमि ॥३९॥ नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे। तिगद्गपन्नरसेवि य छच्चेव य आयए हुंति ॥४॥ पणयालीसा बारस छन्भेया आययंमि संठाणे । वीसा चत्तालीसा परिमंडलि हुँति संठाणे ॥११॥ व्याख्या-आसामर्थः स्पष्ट एव, नवरमायते षड्भेदाभिधानमव्यापित्वेन प्रागनुद्दिष्टस्यापि श्रेणिगतभेदद्वयस्थाधिकस्य तत्र सम्भवात् , तथा परिमण्डलादिवेऽपि संस्थानानां वृत्तादिभेदानामोज प्रदेशप्रतरादीनामनन्तरोद्दिष्टत्वात् प्रत्यासचिन्यायेन यथाक्रमं पञ्चकादिभिः प्रथममुपदर्शनं, पश्चात् परिमण्डलभेदद्वयस्य । तत्रौजःप्रदेशप्रतरवृत्तं पञ्चाणुनिष्पन्नं पञ्चाकाशप्रदेशावगाढं च, तत्रैकोऽणुरन्तरेव स्थाप्यते, चतसृषु पूर्वादिदिक्षु चैकैकः, स्थापना १ युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशप्रदेशं द्वादशप्रदेशावगाढं च, तत्र हि चतुर्यु प्रदेशेषु निरन्तरमन्तश्चतुरोऽणू निधाय तत्परिक्षेपेणाष्टौ स्थाप्यन्ते, स्थापना २, ०० ओजःप्रदेशं घनवृत्तं सप्तप्रदेश PO) सप्तप्रदेशावगाढंच, तथैवम्-तत्रैव पञ्चप्रदेशे ०००० प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्थाणोरुपरि-11 टादधस्ताचैकैकोऽणुरवस्थाप्यते,ततो द्वयसहिताः ०००० पश्च सप्त भवन्ति ३, युग्मप्रदेशं घनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेशं द्वात्रिंशत्प्रदेशावगाढं च, तत्र प्रतरवृत्तो- ०० पदर्शितद्वादशप्रदेशोपरि द्वादशा ॐरॐ55555 दीप अनुक्रम E-%E%-456459 I [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३९-४१] (४३) प्रत ॥२८॥ olo सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. न्ये, तदुपरि चत्वारोऽधस्ताच तायन्स -यवाणवः स्थाप्या, एते मीलिता द्वात्रिंशद्भवन्ति ।। ओजःप्रदेशं प्रतरत्र्यसं | त्रिप्रदेशं त्रिप्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्यनिरन्तरमणुद्वयं विन्यस्याऽऽद्यस्याध एकोऽणुः स्थाप्यः, स्थापना १ बृहद्भुत्तिः | ० युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यसं पटप्रदेशं षदप्रदेशावगाडं च, तत्र च तिर्यग्निरन्तरं त्रयोऽणवः स्थाप्यन्ते तत Jआवस्याधस्तादधऊयभावेन द्वयं द्वितीयस्य त्वध एकोऽणुःस्थाप्यः, स्थापना २ [. ओजःप्रदेशं घनत्यत्रं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशं पश्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढंच, तत्र च तिर्य निरन्तराः पञ्चाणवो न्यस्यन्ते, तेषां चाधोऽधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वारस्त्रयो द्वावेकचाणुः स्थाप्यन्ते, स्थापना, अस्य च प्रतरस्योपरि सर्वपशिष्वन्यान्यपरमाणुपरिहारेण - दादश, तथैव तेषामुपर्युपरिषद् त्रय एकति क्रमेणाणवः स्थायाः, तेषां स्थापनाः, गना न एते मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति ३, oood युग्मप्रदेशं घनत्र्यसं चतुष्प्रदेशं 09 चतुष्प्रदेशावगाढं च, तत्र च प्रतर-19 त्र्यन एव त्रिप्रदेशे एकतरस्योपर्यकोHऽणुर्दीयते, ततो मीलिताश्चत्वारो भवन्ति ४ । ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं नवप्रदेश नवप्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्य दीप अनुक्रम ०० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||१|| नियुक्ति : [३९-४१] (४३) च नव प्रत सूत्रांक ||१|| ००/खिगुणा मिरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः पतयः स्थाप्याः, स्थापना-गान युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं च चतुष्प्रदेशं चतुष्प्र-181 देशावगाढं च, तत्र चतिर्यग्निरन्तरं द्विप्रदेशे द्वे पली स्था ओजःप्रदेशं घनचतुरखं सप्तविंशतिप्रदेश सानियत, स्थापना २, शावगाढं च, तत्र ०० । प्रदेशस्य प्रतरचतुरस्रस्यैवाध उपरि च तथैव नव नवा- 1०1०1०णवःस्थाप्याः,ततदानव सप्तविंशतिर्भवति ३, युग्मप्रदेशं घनचतुरस्रम् अष्टप्रदेशमष्टप्रदेशावगाढंच, तत्र चतु- प्रदेशस्य प्रतरस्यैवोपरि चत्वारोऽन्ये स्थायाः, ततो द्विगुणाश्चत्वारोऽष्टी भवन्ति ४ । ओजःप्रदेशं श्रेण्यायतं त्रिप्रदेशं त्रिप्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्यग निरन्तरास्त्रयोऽणवः स्थाप्याः, स्थापना १, | युग्मप्रदेशं श्रेण्यायतं द्विप्रदेश द्विप्रदेशावगाढं च, तत्र च तथैवाणुद्वयं न्यस्यते, स्थापना २, । 10. ओजःप्रदेशं प्रतरायतं पञ्चदशप्रदेश पञ्चदशप्रदेशावगाडं च, तत्र प्राग्वत् पतित्रये पञ्च पञ्चाणवः स्थाप्या, स्थापना ३, नानानानान युग्मप्रदेशं प्रतरायतं पदप्रदेश षट्प्रदेशावगाई च, तत्र च प्राग्वत् पतिद्वये त्रयस्खयोऽणवः | गाना स्थायाः, स्थापना ४, 161 ओजःप्रदेश बनायतं पक्षचत्वारिंशत्प्रदेश पञ्चच-| न त्वारिंशत्प्रदेशावगाढं -च, तत्र पञ्चदशप्रदेशस्य प्रतरायतस्यैवाध उपरि च तथैव पञ्चदश पञ्चदशा-००० णवः स्थाप्याः, ततत्रिगुणाः पञ्चदश पञ्चत्वारिंशद्भ-11 ल दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २९ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १ || अध्ययनं [१], Education intimatio वन्ति ५, युग्मप्रदेशं धनायतं द्वादशप्रदेशं द्वादशप्रदेशावगाढं च तत्र च षट्प्रदेशस्य प्रतरायत्तस्यैवोपरि तथैव तावन्तोऽणवः स्थाप्याः, ततो द्विगुणाः षट् द्वादश भवन्ति ६ । परिमण्डलमुक्तन्यायतो द्विभेदमेव, तत्र प्रतरपरि मण्डलं विंशतिप्रदेशं विंशतिप्रदेशावगाढं च तत्र च प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु चत्वारश्चत्वारो विदिक्षु चैकैकः स्थाप्यः, मीलिताश्चैते विंशतिर्भवन्ति, स्थापना - १, 0000 घनपरिमण्डलं चत्वारिंशत्प्रदेशं चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं च तत्र च तस्या एव विंशतेरु- 100 100 परि तथैव विंशतिरन्या स्थाप्यते, विंशतिश्च द्विगुणा चत्वारिंशद्भवन्ति २ । इत्थं चैषां प्ररू पणमितोऽपि न्यूनदेशतायां यथोक्तसंस्थानासम्भवात्, न चैतान्यतीन्द्रियत्वेनातिशायिगम्य- 0000 त्वात् सर्वथाऽनुभवमारोपयितुं शक्यन्ते, स्थापनादिद्वारेण च कथञ्चिच्छक्यानीति तथैव ०००० दर्शितानीति गाथात्रयभावार्थः ॥ ३९-४०-४१ ॥ उक्तः परमाणूनामितरेतरसंयोगः, सम्प्रति तमेव प्रदेशानामाह धम्माइपएसाणं पंचण्ह उ जो पएससंजोगो । तिण्ह पुण अणाईओ साईओ होति दुण्हं तु ॥ ४२॥ व्याख्या -- धर्मादीनां - धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां प्रदेशाः - उक्तरूपा धर्मादिप्रदेशास्तेषां 'पञ्चानाम्' इति सम्बन्धिनां धर्मादीनां पञ्चसङ्ख्यत्वेन पञ्चसङ्ख्यानां 'तुः' पुनरर्थः, संयोग इति गम्यते, स च श्रुतत्वाद्धर्मादिभिः स्कन्धैस्तथा तदन्तर्गतैर्देशैः प्रदेशान्तरैश्च सजातीयेतरैः, असौ किमित्याह-प्रदेशानां संयोगः प्रकृतत्वादितरेतरसंयोगारूयः For Fans Only निर्युक्तिः [३९-४१] ~61~ अध्ययनम् १ ॥ २९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४२] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| प्रदेशसंयोगः, उच्यते इति शेषः, अस्यैव विभागमाह-त्रयाणां पुनः' पुनःशब्दस्य विशेषद्योतकत्वात् धर्माधर्माकाशप्रदेशानां धर्मादिभिरेव त्रिभिस्तेषामेव देशैः प्रदेशान्तरैश्च प्रकृतत्वादितरेतरसंयोगः 'अनादिः' आदिविकलः सदा संयुक्तत्वादेषां, 'सादिक आदियुक्तो भवति 'द्वयोः' पारिशेष्याजीवप्रदेशपुद्गलप्रदेशयोः, तथाहि-संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते संसारिजीवप्रदेशाः कर्मपुद्गलप्रदेशाच परस्परं धर्मादिप्रदेशैश्च सह, तुशब्दो विशेष द्योतयति, स चायं-जीवप्रदेशानां धर्मादित्रयदेशप्रदेशापेक्षया पुगलस्कन्धाद्यपेक्षया च सादिसंयोगः,धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षया त्वनादिः, पुद्गलप्रदेशानामपि धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षयाऽनादिः, शेषापेक्षया तु सादिः । इह च धर्मादिस्कन्धानां तद्देशानां च यः परस्परं संयोगः सन प्रदेशसंयोगमन्तरेणेति तदभिधानत एवोक्तो मन्तव्यः, अप्रदेशस्य तु परमाणोधर्मादिभिः संयोग उक्तानुसारतः सुज्ञान एव इति नोक्त इति गाथार्थः ॥४२॥ उक्त प्रदेशानामितरेतरसंयोगः, सम्प्रत्यभिप्रेतानभिप्रेतभेदरूपं तमेवाह अभिपेयमणभिपेओ पंचसु विसएसु होइ नायवो। अणुलोमोऽभिप्पेओ अणभिप्पेओअ पडिलोमो ४३ MI व्याख्या-'अभिपेय' ति अभिप्रेतः 'अनभिप्पेओ' ति चस्य गम्यमानत्वादनभिप्रेतश्च, प्रक्रमादितरेतरसंयोगः, किमित्याह-'पञ्चसु' विषयेषु शब्दादिपञ्चकगोचरे, अर्थादिन्द्रियमनसां तद्ब्रहणप्रवृत्ती प्राखग्राहकभावः, स चाभिप्रेतार्थविषयोऽभिप्रेतः अनभिप्रेतार्थविषयस्त्वनभिप्रेतः भवति ज्ञातव्यः, आह-अस्त्वेवाभिप्रेतानभिप्रेतार्थविषयत्वेनाभिप्रेतः अनभिप्रेतश्चेतरेतरसंयोगः, अभिप्रेतानभिप्रेतायौँ तु काविति, अत्रोच्यते, 'अनुलोम' इन्द्रियाणां प्रमोदहे दीप अनुक्रम JABERatinintamational wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उतराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], Education intemational |तुतयाऽनुकूलश्रव्यकाकलीगीतादिरभिप्रेतः, अनभिप्रेतश्च प्रतिलोम उक्तविपरीतकाकखरादिरिति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ इह गाथापश्चार्द्धन मनोनिरपेक्षप्रवृत्त्यभावेऽपीन्द्रियाणां प्राधान्यमाश्रित्य तदपेक्षयाऽभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थ उक्तः, सम्प्रति मनोऽपेक्षया समेवाह सव्वा ओसहजुती गंधजुत्ती य भोयणविही य । रागविहि गीयवाइयविही अभिप्पेयमणुलोमो ॥४४॥ व्याख्या- 'सर्वाः समस्ताः कोऽर्थः १ - इन्द्रियाणामनुकूलाः प्रतिकूलाश्च, अस्य चौपधयुक्त्यादिभिः प्रत्येकं सम्बन्धः, ततश्च औषधादीनाम् - अगुरुकुङ्कुमादीनां सज्जिकाराजिकादीनां च युक्तयो-योजनानि समविषमविभागनीतयो वा औषधयुक्तयः, गन्धानां गन्धद्रव्याणां श्रीखण्डादीनां ल्हसणादीनां च युक्तयः गन्धयुक्तयः ताथ, भोजनस्य -अन्नस्य विधयः- शाल्योदनादयः कोद्रवभक्तादयश्च भेदाः भोजनविधयः ते च, 'रागविहिगीयवादयविहि' चि सूत्रत्वाद्वचनव्यत्यये रागविधयश्च गीतवादित्रविषयश्च रागविधिगीतवादित्रविधयः, तत्र रञ्जनं रागः- कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादनं तद्विधयः- विग्धत्वादयो रूक्षत्वादयश्च गीतवादित्रविधय इति अत्र विधिशब्दस्योभयत्र योगात्, गीतं गानं तद्विधयः कोकिलारुतानुकारित्वादयः काकखरानुविधायित्वादयश्च वादित्रम् - आतोद्यम्, इह चोपचारातध्वनिः तद्विधयो - मृदङ्गादिखनाः केवलकरटिकादिखनाश्च चशब्दो नृत्तादिविधिसमुचयार्थः, एते किमित्याह - 'अभिप्पेयं' ति अभिप्रेतार्था उच्यन्ते कीदृशाः सन्त इत्याह- अनुलोमाः, कोऽर्थः ? शुभ अशुभा For Fasten निर्युक्ति: [४३] ~63~ अध्ययनम् १ ॥ ३० ॥ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/गाथा ||१|| नियुक्ति: [४४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| वा मनोऽनुकूलतया प्रतिभासमानाः, एतेनैतदप्याह-यथैत एव देशकालावस्थादिवशतो विचित्राभिसन्धितया जन्तूनां मनसोऽननुलोमाः सन्तोऽनभिप्रेतोऽर्थः । इत्थं व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिमाश्रित्येन्द्रियापेक्षया मनोऽपेक्षया च भेदेनाभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थो व्याख्यातः, अथवाऽनन्तरगाथापश्चार्द्धनाविशेषेणेन्द्रियाणां मनसश्चानुकूलोऽभिप्रेतोऽर्थः इतरस्त्वनभिप्रेत उक्तः, एतद्गाथयाऽपि स एव विशेषतो दर्शित इति व्याख्येयम् , अत्र च सर्वा इति सर्वप्रकारा अनुलोमा इति चेन्द्रियमनसामनुकूलाः, शेष प्राग्वत् । उपेक्षणीयस्य विहानभिधानं नयस्य कस्य|चिन्मतेनानभिप्रेत एव तस्यान्तर्भावादिति गाथार्थः ॥४४॥ उक्तोऽभिप्रेतानभिप्रेतभेदरूप इतरेतरसंयोगः, साम्प्रतममुमेवामिलापविषयमाह| अभिलावे संजोगो दवे खित्ते अ कालभावे अ । दुगसंजोगाईओ अक्खरसंजोगमाईओ ॥४५॥ व्याख्या-'अभिलापः' उक्तखरूपः, तद्विषयः 'संयोगः' प्रक्रमादमिलापेतरेतरसंयोगः, अयं च त्रिधा सम्भवति, तत्रैकोऽभिलापस्याभिलाप्येन द्वितीयोऽभिलाप्यस्यामिलाप्यान्तरेण तृतीयो वर्णस्य वर्णान्तरेण । तत्राद्योऽभि-|| लाप्यस्य द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधत्वात् 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषयः, स चार्थाद् घटादिशब्दस्य पृथुबुनोदरोंद्याकारपरि- आणतद्रव्येण वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धः, एवं 'क्षेत्रे च' क्षेत्रविषयः, आकाशध्वनेरवगाहदानलक्षणक्षेत्रेण 'काल-II 13 भावे' इति समाहारद्वन्द्वः, ततः 'काले' कालविषयः समयादिश्रुतेर्वर्तनादिव्यायेन कालपदार्थेन, 'भावे च' भावविषय 2025%2500-45440 दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [४५] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. औदयिकादिवचसो मनुष्यत्वादिपर्यायण, चशब्दोऽत्र पूर्वत्र च समुचये । द्वितीयमाह-द्विकस्य संयोगो द्विकस- अध्ययनम् योगः स आदिर्यस्य त्रिकसंयोगादेः सोऽयं द्विकसंयोगादिकः, इहाभिलापसंयोगस्य त्रिविधत्वात् तत्र चाद्यसाम् न्तरमेवोक्तत्वात् तृतीयस्य चाभिधास्वमानत्वाद् अर्थाद् द्विकग्रहणेनाभिलाप्यद्वयमेव गृह्यते, तत्र विकसंयोगो यथा॥३१॥ स च स च तौ, त्रिकसंयोगो यथा-सच तौ च ते, अत्र तौ च ते चेत्युक्ते स च स च तथा सच तो चेत्यनुक्ता-18 दवप्येकत्राभिलाप्यार्थद्वयमन्यत्र चाभिलाप्यात्रियं सह प्रतीयते, अभिलापसंयोगत्वं चास्यामिलापद्वारकत्वादभि लाप्येन सह प्रतीतेः । तृतीयमाह-अक्षरे च अक्षराणि च अक्षराणि तेषां संयोगः अक्षरसंयोगः स आदिर्यस्योदासत्ताधशेषवणेधर्मसंयोगस्य सोऽयमक्षरसंयोगादिकः, मकारोऽलाक्षणिकः, तत्राक्षरयोः संयोगो यथा-क इति, अक्ष-18 राणां संयोगः यथा श्रीरिति, उदात्तादिवर्णधर्मसंयोगास्तु खधिया भावनीयाः, अस्याप्यभिलापसंयोगत्वं वणोंदीनां कश्चिदभिलापानन्यत्वेन तदात्मकत्वात् , यद्वाऽक्षरसंयोग इत्यनेन सर्वोऽपि व्यजनसंयोग उक्तः, आदिशब्देन त्वर्थसंयोगः, एतद्विशेषणं च द्विकसंयोगादिरिति योजनीयम् , अन्यत् प्राग्वत्, द्रव्यसंयोगत्वं चास्वामिलापस्थर द्रव्यत्वात् , द्रव्यत्वं चास्य स्पर्शवत्त्वेन गुणाश्रयत्वात् , वक्ष्यति हि-"गुणाणमासओदवं" ति, न च स्पर्शवत्त्वमसिद्ध, प्रतिघातजनकत्वात् , तथाहि-यत् प्रतिघातजनक तत्स्पर्शवत् दृष्टं, यथा लोष्टादि, प्रतिघातजनकश्च शब्दः, १ गुणानामाश्रयों द्रव्यमिति दीप अनुक्रम ॥३१॥ [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/गाथा ||१|| नियुक्ति: [४५] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| 15 अन्यथा तथाविधशब्दश्रुतावनुभवसिद्धश्रोत्रान्तःपीडाया असम्भवादिति गाथार्थः ॥४५॥ उक्तोऽभिलापविषय इतरेतरसंयोगः, सम्प्रति सम्बन्धनसंयोगरूपस्य तस्यावसरः, सोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतश्चतुर्धा, तत्र द्रव्यसं-1|| योगसम्बन्धनमाह| संबंधणसंजोगो सञ्चित्ताचित्तमीसओ चेव । दुपयाइ हिरण्णाई रहतुरगाई अ बहुहा उ ॥ ४६॥ | व्याख्या-सम्बध्यते प्रायो ममेदमित्यादिवुद्धितोऽनेनास्मिन् वाऽऽत्माऽष्टविधेन कर्मणा सहेति सम्बन्धनः स चासौ संयोगश्च सम्बन्धनसंयोगः, 'सचित्ताचित्तमीसओ चेव' ति प्राग्वत् सुपो लुकि सचित्तोऽचित्तो मिश्रकः, चः समुच्चये, एवः भेदावधारणे, यथाक्रममुदाहरणान्याह द्विपदेत्यादिना, सचित्ते द्विपदादिः, आदिशब्दाचतुष्पदापदपरिग्रहः, तत्र च द्विपदसंयोगो यथा-पुत्री, चतुष्पदसंयोगो यथा-गोमान् , अपदसंयोगो यथा-पनसवान् ।।४। अचित्ते हिरण्यादिः, आदिशब्दान्मणिमुक्तादिग्रहः, स च हिरण्यवानित्यादि । मिश्रे रथयोजितस्तुरगः मध्यपदलोपे स्थतुरगस्तदादिः, आदिशब्दाच्छकटवृषभादिपरिग्रहः, स च रथिक इत्यादि, 'चः' समुच्चये, 'बहुधा तु' इति बहुप्रकार एब, तुशब्दस्वकारार्थत्वातू, इह च सचित्तविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगोऽपि सचित्त इत्यादि सर्वत्र भावनीयम् । आह-यदि सचित्तादिविषयत्वादसौ सचित्तादिरिति व्यपदिश्यते, एवं सत्यात्मन एवासौ तैः सह, तत उभयनिष्ठत्वात्तेनापि किं न व्यपदिश्यते ?, उच्यते, यवाङ्करादिवदसाधारणेनैव व्यपदेशः, आत्मनश्च सर्वैरप्यमीभि दीप अनुक्रम SHERA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ।। ३२ ।। ★ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], रसाविति तस्य साधारणत्वान्न तेनेह व्यपदेशः पृथिव्यादिभिरिवाकुरस्येति न दोषः, एवमुत्तरत्रापि, इति गाथार्थः ॥ ४६ ॥ अमुमेव क्षेत्रकालभावविषयमभिधित्सुराह Education intol खेत्ते काले य तहा दुहवि दुविहो उ होइ संजोगो । भावंमि होइ दुविहो आएसे चेवणारसे ॥ ४७ ॥ व्याख्या- 'क्षेत्रे' क्षेत्रविषयः, 'काले च' कालविपयश्च 'तथा' इति तेनागमप्रसिद्धप्रकारेण 'द्वयोरपि' इत्यनयोरेव क्षेत्रकालयोः 'द्विविधः' द्विभेदः, चशब्दो भावम्मि इत्यत्र योक्ष्यते, भवति संयोगः प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगः, न च क्षेत्रे काले इत्युक्ते द्वयोरपीति पौनरुक्त्याद् दुष्टं, लोकेऽपि हस्तिन्यश्वे च द्वयोरपि राज्ञो दृष्टिरित्येवंविधप्रयोगदर्शनाद, 'भावे च' भावविषयश्च, संयोग इति संटकः, भवति द्विविधः, कथं क्षेत्रादिद्वैविध्य मित्याह - 'आएसे चेवSणापसे' ति आङिति मर्यादया-विशेषरूपानतिक्रमात्मिकया दिश्यते कथ्यत इति आदेशो - विशेषस्तस्मिन्, तदन्यस्त्वनादेशः - सामान्यं, पूर्वत्र चैत्रशब्दयोः समुवयावधारणार्थयोर्भिन्नक्रमत्वात्तस्मिंश्चैव तत्र क्षेत्रविषयोऽनादेशे यथा - जम्बूद्वीपजोऽयम्, आदेशे तु यथा - भारतोऽयं, कालविषयोऽनादेशे यथा - दौष्यमि कोऽयम्, आदेशे तु वासन्तिकोऽयं, भावविषयोऽनादेशे भाववानयम्, आदेशे त्वौदविकादिभाववानिति । सामान्यावगमपूर्वकत्वाद्विशेषावगमस्यैवमुदाहियते, निर्युक्तौ तु विपर्ययाभिधानं जम्बूद्वीप इति सामान्यमपि लोकापेक्षया विशेषो भरत१ अस्मदुक्तानादेशादेशक्रमाद्विपर्ययेण आदेशानादेशेतिक्रमेण. निर्युक्ति: [४६] Forest Use Only ~67~ अध्ययनम् १ ॥ ३२ ॥ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], मिति विशेषोऽपि मगधाद्यपेक्षया सामान्यमित्यादिरूपेण सर्वत्र सामान्यविशेषयोरनियतत्वख्यापनार्थ भावे च भवति द्विविध इति भिन्नवाक्यताऽभिधानमनन्तरग्रन्थस्यैतद्विषयत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ४७ ॥ अत्र क्षेत्रका | लगतयोरा देशानादेशयो रल्पवक्तव्यत्वेन सम्प्रदायादपि सुज्ञानत्वात् तद्विषयः सम्बन्धनसंयोगोऽपि सुज्ञान एवेति मत्वा भावगतादेशानादेशविषयं तमभिधित्पुरुक्तहेतोरेव प्रथममनादेशविषयं भेदत आहओदइअ ओवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य । परिणाम सन्निवाए छविहो होअणासो ॥४८॥ व्याख्या -- तत्रोदयः - शुभानां तीर्थकरनामादिप्रकृतीनाम् अशुभानां च मिध्यात्वादीनां विपाकतोऽनुभवनं तेन निर्वृत्तः औदयिकः, क्वचित्तु 'उदयिए' त्ति पठ्यते तत्र च पदावसानवर्तिन एकारस्य गुरुत्वेऽपि विकल्पतो लघुत्वानुज्ञानात् नात्र छन्दोभङ्गः, उक्तं हि "ईहियारा बिंदुजुया एओ सुद्धा पयावसामि । रहवंजणसंजोए परंमि लहुणो विभासा ॥ १ ॥ विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्वाप्युदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निर्वृत्त औपशमिकः, क्षय:- कर्मणामत्यन्तोच्छेदः तेन निर्वृत्तः क्षायिकः स च, तथा क्षयश्च-अभाव उदयावस्थस्य उपशमश्च- विष्कम्भितोदयत्वं तदन्यस्य क्षयोपशमी ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः स च परीति-सर्वप्रकारं नमनं - जीवानामजीवानां Education infamational १ कचिदत्र प्राकू 'आविट्ठो आएसंमि बहुविद्दे सरिस नाणचरणगए। सामिप्तपचयामि चैव किंचित्तओ वुच्छं ||१||" एषा गाथा दृश्यते, न य व्याख्याता सूचिता वेत्युपेक्षिता २ इधिकारी बिन्दुयुक्तौ एओ (एकारौकारी) शुद्धी पदावसाने रव्य जनसंयोगे परस्मिन् लघवो विभाषया ॥ १ ॥ निर्युक्ति: [४७] Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्याच जीवत्वादिखरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवनं परिणामः, 'एदोद्रलोपा विसर्जनीयस्येति विसर्गलोपः, 'स' मिति अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः सिंहतरूपतया नीति-नियतं पतनं-गमनं, कोऽर्थः?-एकत्र वर्तनं, सन्निपातः-औदयिकादिभावानामेव द्यादिसंयोगः, 'च' सर्वत्र समुचये, इत्थं षड् विधा:-प्रकारा अस्येति पड्डिधो भवति 'अनादेशः' सामान्य, सामान्यत्वं चौदयिकादीनां गतिकषायादिविशेषेष्वनुवृत्तिधर्मकत्वाद्, अनादेशंस्य षड्विधत्वे तद्विपयः संयोगोऽपि पडिध इत्युक्तं भवति इति गाथार्थः ॥४८॥ इदानीमादेशविषयं तमेव भेदत आहआएसो पुण दुविहो अप्पिअववहारऽणप्पिओ चेव । इक्किको पुण तिविहो अत्ताण परे तदुभए य ॥४९॥ व्याख्या-आदेशः' अभिहितरूपः, पुनःशब्दो विशेषणे, 'द्विविधः' द्विभेदः, कथमित्याह-'अप्पियववहा-12 रणप्पिओ चेव' ति व्यवहारशब्दोऽत्र डमरुकमणिन्यायेनोभयत्र सम्बध्यते, ततश्चार्पित इति व्यवहारो यस्मिन् सोऽयमर्पितव्यवहारः, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, अनर्पितव्यवहारस्तु तद्विपरीतः, तत्रार्पितो नाम क्षायिका|दिर्भावः खाधारे भाववति ज्ञाताध्यमित्यादिरूपेण ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वा वचनव्यापारेण यात्रा स्थापितः, अनर्पितस्तु वस्तुनः साधारणत्वेऽपि निराधार एव प्ररूपणाधै विवक्षितो यथा-सर्वभावप्रधानः क्षायिको भावः । अनयोरपि ॥३३॥ | भेदानाह-एकैकः' इत्यर्पितव्यवहारः अनर्पितव्यवहारश्च पुननिविधः, कथमित्याह-'अत्ताण' ति आपत्वा-11 दात्मनि परमिन् तयोरात्मपस्योरुभयं तस्मिंश्च, विषयसप्तम्यश्चैताः, ततो विषयत्रैविध्येनानयोस्वैविध्यम् , दीप अनुक्रम RSSCRe24 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||२|| नियुक्ति: [४९] (४३) * प्रत सूत्रांक लाइहाण्यादेशभेदाभिधानद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य भेद उक्तो भवति, तत्र चानर्पितस्य प्ररूपणामात्रसत्त्वेऽप्यर्पितप्रतिपक्षवेनैवात्रोपादानम्, अतो वस्तुतस्तस्यासत्त्वान्न तेन कस्यचित्संयोगसम्भव इति न तद्भेदेन संयोगभेदः. अर्पितस्य त्वात्मपरोभयार्पितभेदतवैविध्यात् तद्भदेन त्रिविधः सम्बन्धनसंयोग इति गाथार्थः॥४९॥ तत्राऽऽत्मा अर्पितसम्बन्धनसंयोगमाह1 ओवसमिए य खइए खओवसमिए य पारिणामे अ। एसो चउबिहो खल नायवो अत्तसंजोगो ॥५०॥ | व्याख्या-औपशमिके चस्य भिन्नक्रमत्वात् क्षायिके च क्षायोपशमिके च सर्वत्र सम्यक्त्वादिरूपे जीवस्य (ख)भावे तथा तेनागमोक्तप्रकारेण चस्यास्यापि भिन्नक्रमत्वात् परिणामे च जीवत्वाधात्मके च, सर्वत्र संयोग | इति प्रक्रमः, पठ्यते च-'खओवसमिए य पारिणामे य' ति स्पष्टमेव, 'एषः' अनन्तरोक्त औपशमिकादिसंयोगः ट्र'चतुर्विधः' चतुष्प्रकारः, 'खलु' निश्चितं ज्ञातव्यः' अवयोद्धव्यः, 'आत्मसंयोगः' इत्यात्माप्तिसम्बन्धनसंयोगः, अत्र ह्यात्मशब्देनार्पितभाव एव धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वादुक्तः, तथा च वृद्धाः-एए हि जीवमया भवंति. ए-1 एस भावेसु जीवो नन्नो हवई' तदात्मक इत्यर्थः, ऑपशमिकादिभावानां च प्रागनादेशतोक्तावप्यत्रादेशत्वेनाभिधान सम्यक्त्वादिविशेषनिष्ठत्वेन विवक्षितत्वाद् भावसामान्यापेक्षया वेति गाथार्थः ॥५०॥ किञ्च१ तह य परिणामे इति पाठमपेक्ष्येयं व्याख्या. २ एते हि जीवमया भवन्ति, एतेभ्यो भावेभ्यो जीवो नान्यो भवतीति. 25*5* ||१|| दीप अनुक्रम *% % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||१|| नियुक्ति: [५१] (४३) अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. जो सन्निवाइओ खलु भावो उदएण वजिओ होइ । इक्कारससंजोगो एसो चिय अत्तसंजोगो ॥५१॥ बृहद्वृत्तिः 181 व्याख्या-यः सान्निपातिकः 'खलु' पाक्यालङ्कारे भावः 'उदयेन' औदयिकभावेन 'वर्जितः' रहितो भवति, एका दश-एकादशसङ्ख्याः संयोगा-द्वयादिमीलनात्मका यस्मिन् स एकादशसंयोगः, सूचकत्वात् सूत्रस्यैतद्विषयो यः संयोगः, एषोऽपि, न केवलमापशमिकादिसंयोग इत्यपिशब्दार्थः, 'चः' पूरणे, 'आत्मसंयोगः' प्राग्वदात्मार्पितसं योगः, एकादशसंयोगाथैवं भवन्ति-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकानां चतुपर्णी पट् द्विकसंयोगादश्चत्वारखिकसंयोगा एकश्चतुष्कसंयोगः, एते चमीलिता एकादशेति गाथार्थः ॥५१॥ वाह्यार्पितसम्बंधनसंयोगमाहहै लेसा कसायवेयण वेओ अन्नाणमिच्छ मीसं च । जावइया ओदइया सबो सो बाहिरो जोगो ॥५२॥ है व्याख्या-'लेश्या' लेश्याध्ययनेऽभिधास्थमानाः, कषायाश्च वक्ष्यमाणाः 'वेदना' च सातासातानुभवात्मिका कषायवेदनं, प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, 'वेदः' पुंज्युभयाभिलाषाभिव्ययः, मिथ्यात्वोदयवतामसदध्यवसायात्मकं सत् ज्ञानमप्यज्ञानम्, उक्त हि-"जह दुचयणमवयणं कुच्छियसीलं असीलमसईए । भण्णइ तह नाणपि हु मिच्छहिहिस्स |अन्नाणं ॥१॥" अत एव मिथ्यात्वोदयभाविवादस्यौदयिकत्वं, तहलिकेष चार्पितत्वविषक्षया वाद्यार्पितत्वमिति १ यथा दुर्वधनमवचनं कुत्सितं शीलमशीलमसत्याः । भण्यते तथा ज्ञानमपि मिध्यादृष्टेरज्ञानम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम ॥ ३४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/गाथा ||१|| नियुक्ति: [१२] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| भावनीयं, 'मिथ्ये' ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य मिथ्यात्वम्-अशुद्धदलिकखरूपं, 'मिथ' शुद्धाशुद्धदलिकखभावं, चशब्दः शेषौदयिकभेदसमुच्चये, अत एवोपसंहारमाह-'यावन्तो' यत्परिणामा औदयिकाः, भावा इति गम्यते, प्रक्र-13 मादेतद्विषयो यः संयोगः 'सर्वः' निर्विशेषः सः 'वाह्यः परः तद्विषयत्वाद्, बायसंयोग इति प्रकृतत्वात्सम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति शेषः, इहापि बायशब्देन प्राग्वद् बाह्यार्पित उक्तः । आह-'भावा भवन्ति जीवस्यौदयिकः पारिणामिकश्चैव' इतिवचनादौदयिकोऽपि जीवभावत्वेन जीवार्पित एवेति कथं बाये कर्मण्यर्पित इति, अत्रोच्यते, कर्मानुभवनमुदयः, अनुभवनं चानुभवितरि जीवेऽनुभूयमाने च कर्मणि स्थितं, तत्र यदाऽनुभवितरि जीये विवक्ष्यते तदोदयः जीवगतो लेश्यादिपरिणामः प्रयोजनमस्खेत्यौदयिकः-कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणो विपाक एवं तमाश्रित्य कर्मणि बाह्येऽर्पितत्वमिहौदयिकमावस्योक्तं, यदा त्वनुभूयमानस्थतया विवक्ष्यते तदोदये-कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणे भव औदयिको लेश्याकषायादिरूपो जीवपरिणामः, तदाश्रयणेन चोच्यते-भावा भव|न्ति जीवस्यौदयिक इत्यादि । इहापि चादेशान्तरेण वक्ष्यति-'छबिहो अत्तसंजोगों' ति 'सर्वः स' इति चैकवचनं वाहसंयोगस्य विधीयमानतया प्राधान्यात् प्रधानानुयायित्वाच व्यवहाराणामिति गाथार्थः ॥५२॥ उभयापितस-12 सम्बन्धनसंयोगमाह १ यत्परिमाणा इति स्थात्, परिणामस्य परिमाणताऽर्थोऽत्र था। दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३५ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], जो सन्निवाइओ खलु भावो उदएण मीसिओ होइ । पन्नारससंजोगो सवो सो मीसिओ जोगो ॥५३॥ ॥ व्याख्या—यः सान्निपातिकः खलु भावः 'उदयेन' औदयिकभावेन 'मिश्रितः' संयुतो भवति, कियत्सङ्ख्य इत्याह-पञ्चदश संयोगा अस्मिन्निति पञ्चदशसंयोगः सर्वः सः किमित्याह-आत्मकर्मणोर्मिश्रत्वात्तदर्पितभावा अप्यौदयिकसहितौपशमिकादयो मिश्राः, ततस्तद्विषयत्वात्संयोगोऽपि मिश्रः, स एव मिश्रको योगः प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगो ज्ञेय इति शेषः, ते च पञ्चदश संयोगा औदयिकममुञ्चता औपशमिकादिपञ्चकस्य द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगतः कार्याः, तत्र चत्वारो द्विकसंयोगाः पद त्रिकसंयोगाश्चत्वारश्चतुष्कसंयोगा एकः पञ्चकसंयोग एते च मीलिताः पञ्चदश, भावना तु वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ पुनरात्मसंयोगादीनेव प्रकारान्तरेणाभिधित्सुः प्रस्तावनामाहबीओऽवि य आएसो अत्ताणे बाहिरे तदुभए य । संजोगो खलु भणिओ तं कित्तेऽहं समासेणं ॥ ५४॥ Education Inational व्याख्या - द्वितीयोऽपि च न केवलमेक एव इत्यपि शब्दार्थः, चः पूरणे, 'आदेशः प्रकारः, प्रस्तावात् प्ररूपणीयः कीदृश इत्याह-आत्मनि नाह्मे तदुभयस्मिंश्च, संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः, 'खलु' निश्चितं 'भणित' उक्तो, गणधरादिभिरिति गम्यते, अनेन च गुरुपारतन्त्र्यमाविष्करोति, 'तम्' इति द्वितीयमादेशं 'कीर्तये' संशब्दये' ' वर्त १ चान्द्रमतेन णिज उभयपदभावात् आत्मनेपदम् । निर्युक्ति: [५३] For Fans at Use Only ~73~ अध्ययनम् १ ॥ ३५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| मानसामीप्ये वर्तमानव वे' (पा०३-३-१३१) ति भविष्यत्सामीप्ये लट्, 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशः, 'समासेन' संक्षेपेणेति गाथार्थः ॥ ५४॥ तत्र तावदात्मसंयोगमाह ओदइय ओवसमिए खइए य तहा खओवसमिए या परिणामसन्निवाए अछविहो अत्तसंजोगो॥५५॥1 8| व्याख्या-'औदयिके' औदयिकविषये, एवम् औपशमिके च क्षायिक तथा क्षायोपशमिके च परिणामसन्निपाते च, सर्वत्र संयोग इति प्रक्रमः, तत एष पड्विधः' पडेदः, आत्मभिः-आत्मरूपैः संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः आत्म- संयोगः, न चैषामेकैकेनात्मनः संयोगः सम्भवति, अपि तु द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिर्वा, तत्र द्वाभ्यां क्षायिकेण सम्यक्त्वेन ज्ञानेन वा पारिणामिकेन च जीवत्वेन,त्रिभिरौदयिकेन देवगत्यादिना क्षायोपशमिकेन मत्यादिना पारिणामिKA केन च जीवत्वेन, चतुर्भिस्त्रिभिरे(वमेव चतुर्थेनीपशमिकेन क्षायिकेण या सम्यक्त्वेन, पञ्चभिर्यदा क्षायिकसम्यग्दृष्टिरे वोपशमश्रेणिमारोहति तदौदयिकेन मनुष्यत्वेन क्षायिकेण सम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकेन मत्यादिना औपशमिकेन चारित्रेण पारिणामिकेन जीवत्वेनेति, अत्रच त्रिकमक एकः चतुष्कभकी च द्वावेते त्रयोऽपि गतिचतुष्टयभाविन इति नतिचतुष्टयेन भिद्यमाना द्वादश भवन्ति, उक्तं च-"ओदइय खओवसमो तइओ पुण पारिणामिओ भावो। एसोपढमरियप्पो १ औदयिका बायोपशमिकः तृतीयः पुनः पारिणामिको भावः । एष प्रथमविकल्पो देवानां भवति ज्ञातव्यः ॥१॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१५] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य देवाणं होइ नायचो ॥१॥ ओदेइय खओवसमोओवसमियपारिणामिओवीओ। उदइयखझ्यपारिणामियखओक्समो अध्ययनम् भवे तइओ ॥२॥ एए चेव बियप्पा णरतिरिणरएसु हुँति बोद्धबा । एए सबै मिलिया वारस होती भवे भेया ॥३॥" पञ्चभिमनुष्यस्यैव, तस्यैव तथोपशमश्रेण्यारम्भकत्वात् , तस्यामेव च तत्सम्भवात् , तथा चाह-"ओदइए ओवसमिएम ॥३६॥ खओवसमिए खए य परिणामे । उवसमसेढिगयस्सा एस वियप्पो मुणेयबो॥" अन्यथाऽपि च त्रिभिः सम्भवति, ततद्यथा-औदयिकेन मनुष्यत्वेन क्षायिकेण ज्ञानेन पारिणामिकेन जीवत्वेन, अयं च केवलिनाम् , उक्तं हि-"उदैइय खइयप्परिणामिय भावा होंति केवलीणं तु" प्रागुक्तभावोभयेन च सिद्धानामेव, उक्तं हि-"खाइय तह परिणामा सिद्धाणं होति नायबा" एवं चैते पञ्चकत्रिकद्विकसंयोगभङ्गाखयः पूर्वे च द्वादशेति मीलिताः पञ्चदश सम्भवन्ति, एत एव चाविरुद्धसान्निपातिकभेदाः पञ्चदश तत्र तत्रोच्यन्ते, तथा चाहुः-"एएं संजोएणं भावा पन्नरस होति नायबा। &ा १औदयिकः भायोपशमिक औपशमिकः पारिणामिको द्वितीयः । औदविकः क्षायिकः पारिणामिकः क्षायोपशमिको भवेत्तृतीयः | WIn॥ एत एवं विकल्पा नरतियपरकेषु भवन्ति बोद्धव्याः । एते सर्वे मिलिता द्वादश भवन्ति भवे भेदाः ॥३॥ २ औदायिक औपश | मिकः क्षायोपशमिकः क्षायिकश्च पारिणाभिकः । उपशमणिगतस्यैष विकल्पो मुणितव्यः ॥१॥ ३ औयिकः क्षायिकः पारिणा- ॥३६॥ लामिको भाषा भवन्ति केवलिनामेव । ४ क्षायिकस्तथा पारिणामः सिद्धानां भवतो ज्ञातव्यौ। ५ एते संयोगेन भावाः पञ्चदश भवन्ति । ज्ञातव्याः । केबलिसिद्धोपशमश्रेणिषु सर्वासु च गतिषु ॥१॥ दीप अनुक्रम wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| केवलिसिद्धवसमसेडिएसु सवासु य गईसु ॥१॥" आह-एवं सान्निपातिकेनैवात्मनः सदा संयोगसम्भवात् कथं षड्विधत्वमात्मसंयोगस्य ?, उच्यते, सहभावित्वेऽपि भावानां यदैकस्स प्राधान्यं विवक्ष्यते तदैकेनाप्यात्मसंयोगसम्भव इत्यदोष इति गाथार्थः ।। ५५ ॥ बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाहनामंमि अखित्तमि अनायवो बाहिरोय(उ)संजोगो।कालेण बाहिरो खलु मीसोऽवि य तदुभए होइ॥५६॥ व्याख्या-'नासा' बस्त्वभिधायिध्वनिखभावेन, चकारात् द्रव्येण क्षेत्रेण चाकाशदेशात्मकेन, प्राकृतत्वात तृतीयार्थ सप्तमी, प्रकृतत्वात् संयोगः, किमित्याह-ज्ञातव्यः बाद्यविषयत्वाद् 'बाह्यः, तुः पुनरर्थेः 'संयोग' इति दासम्बन्धनसंयोगः, 'कालेन' इति चस्य गम्यमानत्वात् कालेन च समयाऽऽवलिकादिना, तत एव संयोगो-बाय-14 सम्बन्धनसंयोगः 'खलु'निश्चितं, ज्ञातव्य इति योज्यम्, इदमिहदम्पर्यम्-यः पुरुषादेर्देवदत्तादिनामा सम्बन्धोऽयं । हा देवदत्त इत्यादिः द्रव्येण च दण्डीत्यादिः क्षेत्रेणारण्यजो नगरज इत्यादि कालेन दिनजो रजनिज इत्यादि, स सर्यो । नामादिभिपिरेवेति बाह्यः सम्बन्धनसंयोगः, भावेन तु संयोग आत्मसंयोगत्वेनोक्त एव, भवितुरनन्यत्वात् भावस्था अन्यथा तस्याभावत्वप्रसङ्ग इतीह तस्यानभिधानं, तथा कालेन बाब इति च भिन्नवाक्यताकरण केषाञ्चिन्मतेन कालस्यासत्त्वख्यापनार्थ, यद्वा नाम्नि क्षेत्र इति च विषयससम्येत्र, यो हि येन सह भवति स तद्विषय एवेतिकृत्वा । आह-नामोऽप्यमिलापत्वात् तद्विषयोऽपि संयोगोऽभिलापसयोगः, स चोक्त एवेति कथं न पौनरुत्यम् !, उम्यते, दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३७ ॥ अभिलापसामान्यविषयोऽभिलापसंयोगः, अयं तु सम्बन्धनसंयोगस्य प्रकृतत्वात् तस्य च सकपायजीवसम्बन्धित्यात्, वक्ष्यति हि "संबंधणसंजोगो कसायबहुलस्स हो जीवस्स” त्ति, कस्यचिन्नाम्न्यप्यभिष्वङ्गसम्भवादभिॐ ष्वङ्गहेत्वभिलापविषय एवेति न पौनरुक्त्यं, 'मीसोऽवि य' त्ति 'अपिः' पुनरर्थे, 'चः' पूरणे, ततो मिश्रविषयत्वान्मिश्रः संम्बन्धनसंयोगः पुनर्ज्ञातव्यः, यः कीदृगित्याह- 'तदुभए' ति प्राग्वत्तदुभयेन आत्मवालक्षणेन तदुभयस्मिन् वोक्तरूप एव भवति, यः संयोग इति शेषः, यथा -क्रोधी देवदत्तः क्रोधी कौन्तिको मानी सौराष्ट्रः क्रोधी बासन्तिकः, अत्र क्रोधादिभिरौदयिक भावान्तर्गतत्वेनात्मरूपैर्नामादिभिस्त्वात्मनोऽन्यत्वेन वाह्यरूपैः संयोग इत्युभयसम्बन्धनसंयोग उच्यते । नन्वेवं न कदाचिन्नामादिविकलैरौदयिकादिभिरौदयिका दिरहितैर्वा नामादिभिरात्मनः संयोग इति सर्वदोभयसम्बन्धनसंयोग एव प्राप्तः, सत्यमेतत्, किन्तु वक्तुरभिप्रायवैचित्र्यात्कदाचिदौद विकादिभिः | कदाचिन्नामादिभिः कदाचित्तदुभयेन संयोगविवक्षेति नात्मपरोभयसम्बन्धनसंयोगत्रयविरोध इति गाथार्थः ॥ ५६ ॥ प्रकारान्तरेण बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाह ratnamation आयरिय सीस पुत्तो पिया य जणणी य होइ धूया य। भज्जा पड़ सीउण्हं तमुज्जछायाऽऽयवे चैव ॥ ५७ ॥ व्याख्या - आङित्यभिव्यात्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चविधाचारं चरत्याचारयति वा परान् आचर्यते वा मुक्त्यर्थि निर्युक्ति: [५६] Forest Use Only ~77 ~ अध्ययनम् १ ॥ ३७ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], Education intemational | मिरासेव्यत इति आचार्यः, 'अन्यत्रापी' तिवचनात् कर्तरि कर्मणि वा कृत्यप्रत्ययः, तथा शासितुं शक्यः शिष्यः पुनाति || पितुराचारानुवर्तितयाऽऽत्मानमिति पुत्रः पाति-रक्षत्यपत्यमिति पिता स च जनयति-प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी सा च भवति बाह्यसम्बन्धनसंयोगविषयत्वाद्वाह्यसम्बन्धनसंयोग इति वृद्धाः, इदं च सर्वत्र योज्यं, दोग्धि च केवलं जननीं स्तन्यार्थमिति दुहिता, ततश्च "दुहितरि घो हिलोपश्च' इतिवचनादादेर्घत्वे हिलोपे च 'उदूत् सुपुष्पोत्सवोत्सुकदुहितृषु" इति वचनात् उत ऊत्त्वे च धूया, सा च चकारत्रयं पूरणे, भ्रियते-पोप्यते भर्त्रेति भार्या पाति-रक्षति तामिति पतिः स्त्यायते धातूनामनेकार्थत्वात् कठिनीभवत्यस्मिन् जलादीति शीतम् उपति - दहति जन्तुमिति उष्णं तमयति-खेदयति जनलोचनानीति तमः औणादिकोऽसन्, 'उज्ज' त्ति आर्षत्वादुद्योतयतीति उद्द्योतः पचादित्वादच्, यति छिनत्ति वाऽऽतपमिति छाया, आ-समन्तात्तपति संतापयति जगदिति आतपः, चशब्दो राजभृत्याद्यनुक्ताशेष सम्बन्धिसमुच्चये, लक्षणानुपपत्तौ च सर्वत्र नैरुक्तो विधिः, सुपश्च यत्राश्रवणं तत्र प्राग्यलुक्, इदमत्रै दम्पर्यम् - आचार्यः शिष्यादन्यत्वेन वाह्यः, ततो यस्तेन शिष्यस्य संयोगः- शिष्य इत्युक्तिरवश्यमाचार्यमाक्षिपति यस्यायं शिष्य इत्याक्षेप्याक्षेपकभावलक्षणः स वाद्येनेतिकृत्वा बाह्यसम्बन्धनसंयोगः, ततस्तद्विषय आचार्योऽप्युपचारात्तथोच्यते, एवं शिष्योऽप्याचार्यादम्यत्वेन वाह्यः, तेनाप्याचार्यस्य यः संयोगः- आचार्य इत्युक्ति१ कृत्यल्युटो बहुलम् इति ३-३-११३ सूत्रोक्तबहुलभावार्थभूतम्. For Fans Only निर्युक्ति: [५७] ~78~ wwwbryor मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 /गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| भरवश्यं शिष्यमाधिपति यस्यायमाचार्य इत्याक्षेप्याक्षेपकभावरूपः सोऽपि बायनेतिकृत्वा वायसम्बन्धनसंयोगः, अध्ययनम उत्तराध्य. ततस्तद्विषयः शिष्योऽप्युपचारात् तथोच्यते, एवं पुत्रपित्रादिद्वयेष्वपि भावनीयं, सर्वत्र सामान्येन परस्पराक्षेप्वाक्षेबृहद्वृत्तिः Kापकभावः सम्बन्धः, विशेषनिरूपणायां त्याचार्यशिध्यभापतीनामुपकार्योपकारकभावः पितृपुत्रजननीदुहितॄणां जन्वजनकभावः (०१०००) शीतोष्णादीनां च विरोधः सम्बन्धः, अत एव च विशेषाद् द्रव्यसंयोगत्वेऽप्यस्य भेदेनोपादानमिति गाथार्थः ॥ ५७ ॥ सम्प्रति संयोगप्रक्रमेऽप्याचार्यशिष्यमूलत्वादनुयोगस्य तयोः खरूपमाहआयरिओ तारिसओजारिसओ नवरि हुज्ज सो चेव । आयरियस्सवि सीसो सरिसो सवेहिवि गुणेहिं ५८ ___ व्याख्या-आचार्यः 'तादृशः' तथाविधः, यारशः क इत्याह-यारशो 'नवर' मिति यदि परं भवेत् 'सचेव' |ति चः पूरणे, स एव-आचार्य एव, किमुक्तं भवति ?-आचार्यस्थाचार्य एवान्यः सदृशो भवति, न पुनरना18| चायः, आचायेंगुणानामन्यत्राविद्यमानत्वात् , न बाचार्यादन्यः षटत्रिंशतसङ्ख्यगणिगुणसमन्वित इहास्ति, तत्सम-1 इन्वितत्वे वन्योऽपि तत्त्वत आचार्य एवेति । अथ क एते षटूत्रिंशद्गुणाः?, उच्यन्ते, प्रत्येकं चतुष्प्रकारा अष्टी गणिसम्पदो द्वात्रिंशत् , तत्र चाचारादिचतर्विधविनयमीलनात पत्रिंशद्भवन्ति. उक्तं च-"अट्टविहा गणिसंपर चउ-II गुणा नवरि होति बत्तीसा । विणओ य च उभेओ छत्तीस गुणा हवंतेए ॥१॥" तत्राष्टी गणिसम्पद इमाः१ अष्टविधा गणिसंपत् चतुर्गुणा नवरं भवन्ति द्वात्रिंशत् । विनयश्च चतुर्भदः पर्द्धिशद्गुणा भवन्त्येते ॥१॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| आचारसम्पत् १ श्रुतसम्पत् २ शरीरसम्पत् ३ वचनसम्पत् ४ वाचनासम्पत् ५ मतिसम्पत् ६ प्रयोगमतिसम्पत् ७ सङ्ग्रहपरिक्षासम्पत् ८, तथा चाह-"आयरिसुयसरीरे वैयणे पायणमतीपतोगमती। एएसु संपया खल अट्ठमिया संगहपरिष्णा ॥१॥ तत्र चाचारसम्पत् चतुर्धा-संयमभुवयोगयुक्तता १ असम्प्रग्रहता २ अनियत वृत्तिः ३ वृद्धशीलता चेति ४, तत्र संयमः-चरणं तस्मिन् ध्रुवो-नित्यो योगः-समाधिस्तधुक्तता, कोऽर्थः -सन्तजातोपयुक्तता संयमधुवयोगयुक्तता १, असम्प्रग्रहः-समन्तात् प्रकर्षेण जात्यादिप्रकृष्टतालक्षणेन ग्रहणम्-आत्म नोऽवधारणं सम्प्रग्रहस्खदभावोऽसम्प्रग्रहः, जात्याद्यनुत्सिततेत्यर्थः, २, अनियतवृत्तिः-अनियतविहाररूपा ३, वृद्धदशीलता-वपुषि मनसि च निभृतखभायता निर्विकारतेतियावत् ४,१॥श्रुतसम्पचतुर्धा-बहुश्रुतता १ परिचितसू प्रता २ विचित्रसूत्रता ३ घोषविशुद्धिकरणता ४ च, तत्र बहुश्रुतता-युगप्रधानागमता १परिचितसूत्रता-उत मक्रमवाचनादिमिः स्थिरसूत्रता २ विचित्रसूत्रता-खपरसमयविविधोत्सर्गापवादादिवेदिता ३ घोषविशुद्धिकर-2 दवता-उदात्तानुदात्तादिखरशुद्धिविधायिता ४, २। शरीरसम्पञ्चतुर्धा-आरोहपरिणाहयुक्तता १ अनवत्राप्यता २ परिपूर्णेन्द्रियता ३ स्थिरसंहननता च ४, इह चाऽऽरोहो-दैथ्य परिणाहो-विस्तरः ताम्यां तुल्याभ्यां युक्तताऽऽरोह-/ परिणाहयुक्तता १ अविद्यमानमवत्राप्यम्-अवत्रपणं लज्जनं यस्य सोऽयमनपत्राप्यः, यद्वाऽवत्रापयितुं-उज्जयितुमदाहा क्यो वाऽवत्राप्यो-उज्जनीयः न तथाऽनवत्राप्यतद्भावोऽनवत्राप्यता . उभयत्राहीनसर्वाङ्गत्वं हेतुः परि दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३९ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], Education intemational | पूर्णेन्द्रियता - अनुपहतचक्षुरादिकरणता ३ स्थिरसंहननता - तपःप्रभृतिषु शक्तियुक्तता ४, ३ । वचनसम्पचतुर्भेदा-आदेयवचनता १ मधुरवचनता २ अनिश्रितवचनता ३ असन्दिग्धवचनता ४, तत्राऽऽदेयवचनता-सकलजनयाह्मवाक्यता १, मधुरं रसवद् यदर्थतो विशिष्टार्थवत्तयाऽर्थावगाढत्वेन शब्दतश्चापरुषत्वसौ खर्यगाम्भीर्यादिगुणोतत्वेन श्रोतुराहादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा तद्भावो मधुरवचनता २ अनिश्रितवचनता - रागाद्यकलुषितवचनता ३ असन्दिग्धवचनता - परिस्फुटवचनता ४, ४ । वाचनासम्पचतुर्धा - विदित्वोद्देशनं १ विदित्वा समुद्देशनं २ परिनिर्वाप्य वाचना ३ अर्थनिर्यापणेति ४, तत्र विदित्वोद्देशने विदित्वा समुद्देशने ज्ञात्वा परिणामिकत्वादिगुणोपेतं शिष्यं यद् यस्य योग्यं तस्य तदेवोद्दिशति समुद्दिशति वा, अपरिणामिकादावपक्कघटनिहितजलोदाहरणतो दोपसम्भवात् २, परीति-सर्वप्रकारं निर्वापयतो निरो निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः- पूर्वदत्तालापकादि सर्वात्मना खात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना सूत्रप्रदानं परिनिर्वाण्यवाचना ३, अर्थ:-सूत्राभिधेयं वस्तु तस्य निरि|ति भृशं यापना- निर्वाहणा पूर्वापरसाङ्गत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमना निर्यापणा ४, ५ । मति| सम्पत् अवग्रहेहापायधारणारूपा चतुर्द्धा, अवग्रहादयश्च तत्र तत्र प्रपञ्चिता एवेति न वित्रियन्ते ६ । प्रयोगमति| सम्पच्चतुर्धा - आत्मपुरुषक्षेत्रंवस्तुविज्ञानात्मिका, तत्राऽऽत्मज्ञानं - वादादिव्यापारकाले किममुं प्रतिवादिनं जेतुं मम For Fans Only निर्युक्ति: [५८] ~81~ अध्ययनम् १ ॥ ३९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८] (४३) प्रत सूत्रांक AASA ||१|| शक्तिरस्ति नवा इत्यालोचनं १, पुरुषज्ञानं-किमयं प्रतिवादी पुरुषः साङ्ख्यः सौगतोऽन्यो वा ?, तथा प्रतिभादिमानितरो वेति परिभावनं २, क्षेत्रज्ञानं-किमिदं मायाबहुलमन्यथा वा ? तथा साधुभिरभावितं भावितं वा नगरादीति विमर्शनं ३, वस्तुज्ञानं-किमिदं राजाऽमात्यादि सभासदादि वा वस्तु दारुणमदारुणं भद्रकमभद्रकं वेति निरूपणं४,७॥ सङ्ग्रहपरिज्ञा तु बालदुर्बलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रहणलक्षणैका १ निषद्यादिमालिन्यपरिहाराय फलकपीठोपादानाऽऽत्मिका द्वितीया २ यथासमयमेव स्वाध्यायोपधिसमुत्पादनप्रत्युपेक्षणभिक्षादिकरणात्मिका तृतीया ३ प्रत्राजकाध्यापकरत्नाधिकादिगुरूणामुपधिवहनविश्रामणसंपूजनाभ्युत्थानदण्डकोपादानादिरूपा चतुर्थीति ४,८। इत्युक्ता अष्टौ चतुर्गुणा आचारादिगणिसम्पदः, विनयस्तूत्तरत्राचार्यविनयप्रस्तावेऽभिधास्यते, इति गतं प्रासङ्गिकं, प्रकतमुच्यते-तत्राऽऽचार्यस्य खरूपमभिहितं, शिष्यस्याह-आचार्यस्य, अपिभिन्नक्रमः, ततः शिष्योऽपि, न केवलमाचार्यस्तारशो यादशो नवरं स एवेति वचनादाचार्य इत्यपिशब्दार्थः, 'सदृशः तुल्यः, सर्वैरपि न कतिपयरेव, कैः'गुणैः' साधारणैः शान्त्यादिभिरिति गम्यते, यद्वा लक्षणे तृतीया, ततः सर्वैरपि खगुणैर्लक्षितः शिष्य आचार्यस्य सदृश इति योज्यं, सारश्यं च खगुणमाहात्म्यविभूतित उभयोरपि यथोक्तान्वर्धयुक्त(त्व)मेय, अथवाऽऽचार्यस्यापीति अपरेवकारार्थत्वात् खगुणोपलक्षितः शिष्यः सदृश एव-अनुरूप एव, अनुरूपार्थस्यापि सदृशशब्दस्य दर्शनात् , यथा|ऽऽत्मसदृशं कुर्याः, कुलानुरूपमित्यर्थः, अननुरूपस्तु तत्त्वतोऽशिष्य एवेति भावः, अथ के अमी शिष्यगुणाः,? 455555 दीप अनुक्रम JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१], उच्यन्ते, 'भावंवियाणण मणुयत्तणा उ भत्ती गुरूण बहुमाणो । दक्खत्तं दक्खिण्णं सीलं कुलमुजमो लज्जा ॥ १ ॥ सुस्सूसा पडिपुच्छा सुणणं गहणं च ईहणमवाओ । घरणं करणं सम्म एमाई होति सीसगुणा ॥२॥' इति गाथार्थः ॥ ५८ ॥ इत्थमनुयोगोपयोगित्वादाचार्यशिष्ययोः खरूपमुक्तं, प्रकारान्तरेणोभयसम्बन्धनसंयोगमाह--- एवं नाणे चरणे सामित्ते अप्पणो उ (य) पिउणोत्ति । मज्झं कुलेऽयमस्स य अहयं अभिंतरो मिचि ॥५९॥ निर्युक्ति: [५८] व्याख्या – 'एवम्' अनन्तरोक्तवाह्य संयोगवदाक्षेप्याक्षेपकभावेन 'ज्ञाने' ज्ञानविषयः 'चरणे' चरणविषयः, आत्मन उमयसम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति वृद्धाः, अत्र भावना - ज्ञानेनात्मभूतेन संयोगो, ज्ञानमित्युक्तिर्निराश्रयस्य निर्विउपयस्य च ज्ञानस्यासम्भवादवश्यं ज्ञानिनं ज्ञेयं चाऽऽक्षिपतीति, ज्ञानाक्षिसेन च ज्ञेयेन वालेन सद्द्वारकः संयोग इस्युभयसंयोगः । एवं चरणेनाप्यात्मभूतेनोक्तवत्तदाक्षिसेन चर्यमाणेन च वासेन संयोग इत्युभयसम्बन्धनसंयोगः, जय| माक्षेप्याऽऽक्षेपकभावे उभयसम्बन्धनसंयोग उक्तः, अमुमेष प्रकारान्तरेणाह - 'खामित्वेनं खामित्वविषयः, समयसम्बन्धनसंयोग इति प्रक्रमः, किंरूप इत्याह- 'आत्मनः' मम 'चः' पूरणे, 'पितुः' जनकस्य, पुत्र इति गम्यते, एवं| विधोछेखव्यज्ञये, अत्रात्मनः पित्रा सहात्मकद्वारकः खखामिभावलक्षणः सम्बन्धः, तत्पुत्रेण परद्वारकः, मम पितुरपं, १ भावविज्ञानमनुवर्त्तना तु भक्तिर्गुरूणां बहुमानः । दक्षत्वं दाक्षिण्यं शीलं कुठमुयमो राजा ॥ १ ॥ शुश्रूषा प्रविष्टा श्रवणं मह विषपायः धरणं करणं सम्यक् एवमाथा भवन्ति शिष्वगुणाः ॥ २ ॥ मायं कुलस्य अहवं अन्दरोझिति व (स्वास). For Full ~ 83~ अध्ययनम् 1180 11 www.jacibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || || अध्ययनं [१], Education infamational पुत्र इति पितृद्वारेणासावितिकृत्वा तत उभयद्वारकत्वादुभयविषयसंयोग उभयसम्बन्धनसंयोगः, इतिशब्दो मम पितुः पिता मम भ्रातुः पुत्रः मम दासस्य कम्बल इत्येवंप्रकारसम्बन्धान्तरव्यञ्जकान्योल्लेखसूचकः अनेन लौकिके खामित्व उभयसम्बन्धनसंयोग उक्तः, लोकोत्तरमेवाह-मम 'कुले' नागेन्द्रादावयं साध्वादिरिति गम्यते, यद्वा कुलमेव कुलकं तस्य, 'चः' समुचये योक्ष्यते, ततोऽहमेव अहकम् अभ्यन्तरः 'अस्मि' भवामि, चशब्दादयं च साध्वादिरित्येवंविधोल्लेखद्वयव्यङ्ग्य एषोऽप्युभयसम्बन्धनसंयोग इति वृद्धाः अत्र हि मच्छन्दवाच्यस्य कुलेन सहा"त्मद्वारकः खखामिभाव सम्बन्धः, कुलान्तर्वर्तिना च साध्वादिना परद्वारको, मम कुलेऽयमिति कुलद्वारकत्वादस्य, ततोऽयमपि प्राग्वदुभयसम्बन्धनसंयोगः, इहापि इतिशब्दोऽयं मम गुरोः साध्वादिरित्याद्येवंप्रकारसम्बन्धान्तरव्यञ्जकान्योल्लेखसूचकार्थः, इह चोलेखद्वयाभिधानमेकत्राप्यनेकोल्लेख सम्भवख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ५९ ॥ | पुनरन्यथा तमेवाह पञ्चयओ य बहुविहो निवत्ती पञ्चओ जिणस्सेव । देहा य बद्धमुक्का माइपिइसुआइ अ हवंति ॥ ६० ॥ व्याख्या - प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः - ज्ञानकारणं घटादिः, सर्वथा निरालम्बनज्ञानाभावेन तदविनाभावि - त्वात् ज्ञानस्य, ततस्तमाश्रित्य चकारात् ज्ञानतश्च - ज्ञानं चाश्रित्य 'बहुविधः' बहुप्रकारः, प्रक्रमादात्मनो यः संयोगः स उभयसम्बन्धनसंयोगः, तद्वहुत्वं च प्रत्ययानां तद्विशिष्टज्ञानानां च बहुविधत्वात्, तथा च वृद्धाः - घटं Forest Use Only निर्युक्ति: [५९] ~ 84~ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६०] (४३) हवृत्तिः प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. प्रतीत्य घटज्ञानं पटं प्रतीत्य पटज्ञानम् एवमादीनि प्रत्ययात् ज्ञानानि भवन्ति, तथा च सति ज्ञानेनात्मद्वारको, ममेदं अध्ययनम् ज्ञानमिति,प्रत्ययेन परद्वारको, मम ज्ञानस्यायं विषय इति ज्ञानद्वारकत्वात्तस्य, तत उभयविषयत्वादुमयसम्बन्धनसं-12 योगः। आह-एवं केवलिनोऽप्युभयसंयोग एवेति, अत्रोच्यते, 'निर्वृत्तिः' इत्युत्तरत्रैवकारस्य भिन्नक्रमत्वान्नित्तिरेच ॥४१॥ -सकलावरणक्षयादुत्पचिरेव प्रत्ययो जिनस्य, जिनसम्बन्धिज्ञानखेति गम्यते, इदमाकूतम्-छमस्थज्ञानं हि मत्यादिकं लन्धिरूपतयोत्पन्नमप्युपयोगरूपतायां बाथमपि घटादिकमपेक्षते, तथाहि-घटं प्रतीत्य घटज्ञानं पदं प्रतीत्य पटज्ञानं, ४ केवलिनस्तु ज्ञानं लन्धिरूपतयोत्पन्नं पुनरुपयोगरूपतां प्रति न वाझं घटादिकमपेक्षते, तज्ज्ञानस्योत्पत्तिसमकालमेव द सकलातीतानागतदूरान्तरितस्थूलसूक्ष्मार्थयाधात्म्यवेदितयैवोपयोगभावात् , यदुक्तम्-"उभयावरणाईतो केवलवरPणाणदंसणसहायो । जाणइ पासद य जिणो सर्व णेयं सयाकालं॥१॥" ततः केवलज्ञानस्य सर्वत्र सततोपयो8|गेन नोपयोगं प्रति वाद्यापेक्षेति निवृत्तिरेव प्रत्ययः, ततो न छद्मस्थज्ञानस्येव प्रत्ययत उभयसंयोगः। आह-उक्त एव ज्ञानस्योभयसंयोगः, तत् किं पुनरुच्यते ?, सत्यम् , उक्तः स तत्राक्षेप्याक्षेपकभावेन, इह त्वेकस्यापि वस्तुन उपा-14 धिभेदेनानेकसम्बन्धसम्भवण्यापनाय जन्यजनकभावेनोच्यते इति न दोपः । उभयसम्बन्धनसंयोगमेव पुनः खखा-IAll ॥४१॥ मिभावनाह-दिहान्ते-उपचीयन्ते पुद्गलैरिति देहाः-कायाः ते च बद्धा-इह जन्मनि जीवेन सम्बद्धा मुक्का १ उभयावरणातीतः केवलवरज्ञानदर्शनस्वभावः । जानाति पश्यति च जिनः सर्व शेयं सदाकालम् ॥१॥ ACCESS ||१|| दीप अनुक्रम JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६०] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| अन्यजन्मनि तेनैवोज्झिता अनयोर्द्वन्द्वे बद्धमुक्ताः, 'माइपितिसुयाइ' ति णो जसशसोर्लोपे' आपत्वाय लोपे दीर्घ इति दीर्घत्वस्थाभावे पितृमातृसुतादयः, आदिशब्दाद् भ्रातृभगिन्यादयो, बद्धमुक्ता इत्यत्रापि योज्यते, चशब्दोऽयं व समुच्चये, एते च किमित्याह-'भवंति' ति जायन्ते, प्राग्वदुभयसम्बन्धनसंयोगः, जीवस्येति गम्यते. इयमत्र भावना-बद्धा देहा मात्रादयश्चात्मरूपाः, तत्र देहात्मनोः क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगतत्वेन मात्रादयश्चात्यन्तस्नेहविष-11 यतयाऽऽत्मवद्रश्यमानत्वेन, मुक्तास्तूभयेऽपि बाधाः, तत्र देहा आत्मनः पृथग्भूतत्वेन मात्रादयश्च तथाविधस्नेहा विषयतयाऽऽत्मवददृश्यमानत्वेन, अतो देहर्मात्रादिभिश्च बद्धमुक्तैः खखामिभावलक्षणसम्बन्धो जीवस्योभयसम्बदन्धनसंयोगः। आह-देहादयो मुक्ताश्च खखामिविषयाश्चेति विरुद्धमेतत् , एवमेतद् , यदि भावतोऽपि मुक्ताः स्युः, अथ * भावतोऽप्यहमेषां स्वामी ममैते खमितिभावाभावान्मुक्ता एव ते , नन्वेवमैहिकेवष्यमीवपरापरोपयोगवत आत्मनो न सततमेवं भावोऽस्तीति कथं तेष्वपि तद्विषयता ?, अथ तेष्वेवं भावाभावेऽपि व्युत्सर्गाकरणतस्तद्विषयत्वम् , एतदिहापि समानं, व्युत्सर्गीकरणत एव तद्विषयत्वस्खेहापि विवक्षितत्वादिति गाथार्थः ॥६॥ इत्थमनेकधा है सम्बन्धनसंयोग उक्तः, अयं च कीदृशस्य कस्य भवतीत्साहसंबंधणसंजोगो कसायबहुलस्स होइ जीवस्स । पहुणो वा अपहुस्स व मज्झंति ममजमाणस्स ॥१॥ व्याख्या-'सम्बन्धनसंयोगः' उक्तरूपः, कषायाः-क्रोधादयस्तैर्बहुलस्य-व्यासस्य, प्रभूतकषायस्येत्यर्थः, 'भवति' XXX25-5*5*6625 दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६१] (४३) अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. जायते, कस्य -जीवस्य, पुनः कीरशस्य ?-प्रभवति-सम्बन्धिवस्तु तत्र तत्र खकृत्ये नियोक्तुं समर्थो भवतीति प्रभु- स्तस्य वा 'अप्रभोर्वा' उक्तविपरीतस्य, वाशब्दो समुच्चये, उभयोरपि संयोगसाम्य प्रति कारणमाह-'मज्झति ममबृहद्धत्तिः जमाणस्स' ति ममेदं नगरजनपदादीति ममत्वमाचरतः, इदमुक्तं भवति-सत्यसति वा मत्सम्बन्धितया बासव॥४२॥ वस्तुनि तत्त्वतोऽभिष्वक एव सम्बन्धनसंयोगः, अनेन च काका कषायबहुलत्वे हेतुरुक्तः, कषायबहुलस्येति च हैब्रुवता कषायद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य कर्मवन्धहेतुत्वं ख्यापितं भवति, आह-मिथ्यात्वादयो हि बन्धहेतवः, तत्कथं कषायसत्तामात्रेणैव तद्धेतुख्यापनम् ?, उच्यते, तेषामेव तत्र प्राधान्यात्, तत्प्राधान्यं च सत्तारतम्येनैव वन्धतारम्यात्, उक्तं च-"जहभागगया मत्ता रागाईणं तहा चउकम्मे" इति, बाहुल्यापेक्षं च शुक्ला बलाकेत्यादिवत् कषायवहुलस्य जीवस्येत्युच्यते, ततोऽकषायहेतुकत्वेऽप्यौपशमिकादिभावे नामादिसंयोगानामजीवविषयत्वेऽपि च शीतोष्णादिविरोधिसंयोगानां सम्बन्धनसंयोगत्वं न विरुध्यते । आह-एवमभिप्रेतानभिप्रेतसंयोगयोरपि तत्वतः सकषायजीवविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगत्वप्राप्तिः, सत्य, तथापीन्द्रियमनसोः साक्षात्तावुक्ती, अयं तु जीवस्येति न दोषः। अन्यस्त्वाह-संयुक्तकसंयोगोऽपि द्विष्ठत्वेनेतरेतरस्यैव तथेतरेतरसंयोगोऽपि खपरधर्मः संयुक्तत्वात् सर्ववस्तुनः संयुक्तस्यैवेति नानयोः प्रतिविशेषः, एवमेतत्, तथाऽप्येकस्कन्धताऽऽपन्नद्रव्यविषयः संयुक्तकसंयोगः, इतरेतर१ यतिभागगता मात्रा रागादीनां तथा चतुर्षु कर्मसु. RECEKAR दीप अनुक्रम [१] ॥४२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| संयोगस्तु तथाऽन्यथा च, तत्र परमाणुसंयोगस्तथा प्रदेशादिसंयोगस्तु प्रायोऽन्यथेति युक्त एव तयोर्भेदः, एवं तह परमाणुसंयोगस्य संयुक्तकसंयोगादभेदोऽस्तूभयोरपि एकस्कन्धताऽऽपन्नद्रव्यविषयत्वात् , अयमपि न दोषः, यतो निष्पाद्यमानविषय इतरेतरसंयोगः, परिमण्डलादिसंस्थितद्रव्यस्य तेनैव (वि)निष्पाद्यमानत्वात् , संयुक्तसंयोगस्तु प्रायो निष्पन्नद्रव्यविषयः, निष्पन्नं हि मूलादिरूपेण वृक्षादिद्रव्यं कन्दादिना युज्यते, इत्यस्यनयोर्विशेष इति गाथार्थः । ॥६१॥ इत्थं सम्बन्धनसंयोगः खरूपत उक्तः, सम्प्रति तस्यैव फलतः प्ररूपणापूर्वकं विप्रमुक्तस्येति प्रकृतसूत्रपदं व्याख्यानयन् यथा ततो विषमुक्ता भवन्ति यच तेषां फलं तदाहसंबंधणसंजोगो संसाराओ अणुत्तरणवासो । तं छित्तु विप्पमुक्का माइपिइसुआइ ये हवंति ॥ ६॥ व्याख्या-'सम्बन्धनसंयोगः' उक्तरूपः, संसरन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिजन्तव इति संसारस्तस्मात् , न विद्यते उत्तरणं -पारगमनमस्मिन् सतीत्यनुत्तरणः, स चासी वासश्च-अवस्थानमनुचरणवासः, अनुत्तरणवासहेतुत्वादायुघृतमित्यादिवदनुत्तरणवासः, अथवा 'अनुत्तरणवासोति आत्मनः पारतत्र्यहेतुतया पाशवत् पाशः, ततोऽनुत्तरणश्वासी पाशश्चर अनुत्तरणपाशः, उभयत्र च सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः, अनेन संसाराबस्थितिः पारवश्य वा सम्बन्धनसंयोगथार्थतः फलमुक्तं, 'तम्' एवंविधं सम्बन्धनसंयोगम् , अर्यादौदयिकभावविपर्य मात्रादिविषयं च 'छित्त्वा' द्विधा १ टीका-साहू मुका तओ तेणं । दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| Jus Education intimatio अध्ययनं [१], विधाय निर्णाश्येतियावत् किमित्याह - विप्रमुक्ताः श्रुतत्वादनन्तरोक्तसम्बन्धनसंयोगादेव के ते ? - 'साधवः' अनगाराः, येनैवं तेन किमित्याह-मुक्ताः 'ततः' संसारात्, तद्धेतुकत्वात्तस्य, 'तेन' हेतुना, अनेन च गाथापश्चा धेन सम्बन्धच्छेदनलक्षणेन प्रकारेण विप्रमुक्ता भवन्ति, तेषां च फलं मुक्तिरित्यर्थत उक्तं भवति । यच्च विप्रमुक्तस्येत्येकत्वप्रक्रमेऽपि विप्रमुक्ता इतीह बहुवचनं तदेवंविधभिक्षोः पूज्यत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ६२ ॥ एवं 'संजोगे निक्खेबो' इत्यादिमूलगा थोपक्षिप्तसंयुक्तकसंयोगेतरेतरसंयोगभेदतो द्विविधं द्रव्यसंयोगं निरूप्य तत्र संयुक्तकसंयोगं सचित्तादिभेदतस्त्रिविधम् इतरेतरसंयोगं तु परमाणुप्रदेशाभिप्रेतानभिप्रेताभिलापसम्बन्धनविधानतः षडि धमभिधाय सम्बन्धनसंयोग एव च साक्षात् कर्मसम्बन्धनिबन्धनतया संसारहेतुरिति तत्याज्यतां च सम्प्रति तत्प्रतिपादनत एवान्यदुक्तप्रायमिति मन्वानः क्षेत्रादिनिक्षेपम विशिष्टमतिदेष्टुमाहसंबंधणसंजोगे खित्ताईणं विभास जा भणिया । खित्ताइसु संजोगो सो चेव विभासियो अ ( उ ) ॥ ६३ ॥ व्याख्या -- सम्बन्धनसंयोगे क्षेत्रादीनाम्, आदिशब्दात् कालभावपरिग्रहः, विविधा - आदेशानादेशादिभेदादनेकभेदा भाषा विभाषा, या इति प्रस्तुतपरामर्शः, 'भणिता' अभिहिता, 'क्षेत्रादिषु' क्षेत्रादिविषयः संयोगः प्रथमद्वार- ॐ ॥ ४३ ॥ गाथासूचितः, स चैव विभाषितव्यः, 'तुः' पूरणे, संयोगत्वं चात्र विभाषाया वचनरूपत्वाद्वचनपर्यायाणां कथञ्चिद्वाच्यादभेदख्यापनार्थमुक्तं, ततोऽयमर्थः सम्बन्धनसंयोगविषयक्षेत्रादिविभाषायां यत्संयोगखरूपमुक्तम्, इहापि For Final P निर्युक्ति: [६२] ~ 89~ अध्ययनम् १ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 /गाथा ||२|| नियुक्ति: [६३] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| तदेव वक्तव्यं, चकारखानुक्कसमुचयार्थत्वात् , संयुक्तकसंयोगः सम्भवन्त इतरेतरसंयोगशेषभेदाश्च वाच्याः, तत्र क्षेत्रस्य संयुक्तकसंयोगो यथा-जम्बूद्वीपः खप्रदेशसंयुक्तक एव लवणसमुद्रेण युज्यते, इतरेतरसंयोगः क्षेत्रप्रदेशानामेव परस्परं धर्मास्तिकायादिप्रदेश संयोगः, एवं कालभावयोरपि नेयमिति गाथार्थः ॥ ६३ ॥ इह चोक्तनीया सम्बन्धनसंयोग एव साक्षादुपयोगी, इतरेषां तु तदुपकारितया तेपामपि कथञ्चित्याज्यतया च शिष्यमतिव्युत्पा-12 दनाय चोपन्यास इति भावनीयम् । उक्तः संयोगः, तदभिधानाच व्याख्यातं प्रथमसूत्रम्॥शासम्प्रति यदुक्तं 'विनयं ५ प्रादुष्करिष्यामी ति, तत्र बिनयो धर्मः, स च धर्मिणः कथश्चिदभिन्न इति धर्मिद्वारेण तत्स्वरूपमाहआणानिदेसयरे, गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से विणीएत्ति वुच्चइ ॥२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-आङिति खखभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाऽभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञा-भगवदभिलिहितागमरूपा तस्या निर्देश-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनमाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेस्पेवमा स्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्ठानो वा आज्ञानिर्देशकरः, यद्वाऽऽज्ञा-सौम्य ! इदं कुरु इदं च मा कार्षीरिति गुरुवचनमेव, तस्या निर्देश-इदमित्थमेव करोमि इति निश्चयाभिधानं तत्करः, आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोघिमित्याज्ञानिर्देशतर इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद्भगवद्वचनस्य व्याख्याभेदाः सम्भवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतुतया पालाबलादिवोधोत्पादनार्थत्वाचास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्र प्रदर्शयिष्यन्ते, तथा 'गुरूणां' गौरवार्हाणामा दीप अनुक्रम [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||३|| नियुक्ति : [६३...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः | ॥४॥ प्रत सूत्रांक ||३|| चार्यादीनामुप-समीपे पतनं-स्थानमुपपात:-ग्वचनविषयदेशावस्थानं तत्कारका-तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादेशा- अध्ययनम् दिभीत्या तद्यवहितदेशस्थायीतियावत्, तथेनितं-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद्भूशिरःकम्पादि आकार:-स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः, आह च-"अयेलोयणं दिसाणं वियंभणं साडयस्स संठवणं । आसणसिढिलीकरणं पट्ठियलिंगाई एयाई॥१॥" अनयोद्वन्द्वे इङ्गिताकारौ तौ अर्थाद्गुरुगती सम्यक् प्रकर्पण जानाति इङ्गिताकारसम्प्रज्ञः, यद्वा-इङ्गिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचारादिगिताकारशब्देनोक्तं, तेन सम्पन्नो-युक्तः, 'स' इत्युक्तविशेषणान्वितः 'विनीतः' विनयान्वितः, 'इति' सूत्रपरामर्श, उच्यते, तीर्थकृणधरादिभिरिति गम्यते, अनेन च खमनीषिकाऽपोहमाह इति सूत्रार्थः ॥२॥ इह विनयोऽभिधित्सितः, स च विपर्ययाभिधान एव तद्विविक्ततया सुखेन ज्ञातुं शक्यत इत्यविनयं धर्मिद्वारेणाहआणाऽनिदेसकरे, गुरुणमणुवयायकारए । पडिणीए असंबुद्धे, अविणीएत्ति वुच्चइ ॥३॥ (सूत्रम्) व्याख्या-पादद्वयं प्राग्वत्, नवरं नयोजनायतिरेकतो व्याख्येयं, 'प्रत्यनीकः' प्रतिकूलवर्ती शिलाऽऽक्षे-IMIn४ ॥ पककूलवालकश्रमणवत्, दोषानीकं प्रति वर्तत इति प्रत्यनीकः, किमित्येवंविधोऽसावित्याह-'असम्बुद्धः' अनव१ अवलोकनं विशां विजृम्भणं शाटकस्य संस्थापनम् । आसनशिथिली (श्लथी करणं प्रस्थितलिशान्येतानि ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||४|| नियुक्ति : [६३...] (४३) प्रत सूत्रांक * ||४|| गततत्त्वः, 'अविनीतः' अविनयवान् 'इत्युच्यते' इति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ साम्प्रतं दृष्टान्तपूर्वकमिहेवास्य सदोषतामाह18||जहा सुणी पुईकण्णी, णिक्कसिजइ सवसो। एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरि निकसिजइ ॥४॥(सूत्रम्) व्याख्या-'यथा' इत्युपदर्शने, श्वसितीति शुनी, स्त्रीनिर्देशोऽत्यन्तकुत्सोपदर्शकः, पूती-परिपाकतः कुथि-12 तगन्धौ कृमिकुलाकुलत्याधुपलक्षणमेतत् , तथाविधौ कौँ-श्रुती यस्याः पक्करक्तं वा पूतिस्तद्याप्ती कणौं यस्याः सा पूतिकर्णा, सकलावयवकुत्सोपलक्षणं चैतत् , सा चेशी शुनी किमित्याह-निष्काश्यते' निर्यास्यते बहिनिःसायेत इतियावत् , कुतः १-'सबसों' ति सर्वतः सर्वेभ्यो गोपुरगृहागणादिभ्यः सर्वान् वा हतहतेत्यादिविरूक्षवचनलतालकुटलेष्टुघातादिकान् प्रकारानाश्रित्य 'छन्दोवत् सूत्राणि भवन्तीति छान्दसत्वाच सूत्रे शस्प्रत्ययः । उपनयमाह-एवम्' अनेनैव प्रकारेण, दुष्टमिति-रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं-खभावः समाधिराचारो वा यस्खासौ दुःशीलः, प्रत्यनीकः प्राग्वत् , मुखेनारिमावहति मुखमेव वेहपरलोकापकारितयाऽरिरस्य मुधैव वा कार्य विनवा-2 रियो यस्यासी मुखारिसुधारिा-बहुविधासम्बद्धभाषी, सूत्रत्वाद्वा 'मुहरि' त्ति मुखरो-बाचाटो निष्काश्यते 'सर्वतयार इतीहापि योज्यते, ततश्च सर्वतो निष्काश्यते, सर्वथा कुलगणसङ्घसमवायवहिर्वर्ती विधीयत इति सूत्रार्थः ॥४॥ * दीप अनुक्रम JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४५ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||५|| अध्ययनं [१], आह-दौः शील्यनिमित्त एवायमविनीतस्य दोषः, प्रत्यनीकतामुखरत्वयोरपि तत्प्रभवत्वात् तत्र चैत्रमनर्थहेतो किमसौ प्रवर्तत इति, जत्रोच्यते, पापोपहतमतित्वेन तत्रैवास्याभिरतिरितिकृत्वा, तामेव दृष्टान्तपूर्विकामाहकणकुंडगं जहित्ता णं, विद्वं भुंजइ सूयरो । एवं सीलं जहित्ता णं, दुस्सिले रमइ मिए ॥५॥ (सूत्रम्) Education intemational व्याख्या -- कणाः - तन्दुलास्तेषां तन्मिश्रो वा कुण्डकः- तत्क्षोदनोत्पन्नकुक्कुसः कणकुण्डकस्तं 'हित्वा' पाठान्तरतस्त्यक्त्वा वा 'विष्ठां' पुरीषं 'भुङ्क्ते' अभ्यवहरति 'सूकर' इति गतसूकरो, यथेति गम्यते, एवं 'शीलम् उक्तरूपं 4 प्रस्तावाच्छोभनं 'हित्वा' प्राग्वच्यक्त्वा वा दुष्टं शीलं दुःशीलं तस्मिन् भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशस्य दुष्टं शीलमस्येति दुःशीलतद्भावो दौः शील्यं तस्मिन्, उभयत्र दुराचारादी 'रमते धृतिमाधत्ते मृग इव मृगः अज्ञत्वादविनीत इति प्रक्रमः, इदमत्र हृदयं यथा मृग उद्गीर्णासिपुत्रिक गौरिगायन पुरुषहेतु कमायती मृत्युरूपमपायमपश्यन्नज्ञः, एवमयमपि दौः शील्य हेतु कमागामिनं भवभ्रमणलक्षणमपायमनालोकयन्नज्ञ एवं सन् गर्तासूकरोपमः सदा पुष्टिदायिकणकुण्डकसदृशं शीलमपहाय विवेकिजनगर्हिततया विष्ठोपमे दुःशीले दौःशील्ये वा रमते, इह च दृष्टान्तेऽपि विभुक्त्यभिरतिरेवार्धत उक्ता तदविनाभावित्वात्तस्याः, यद्वा शुभपरिहारेणाशुभाश्रयणमुभयत्रापि सादृश्यनिमित्तमस्तीति नोपमानोपमेयभावविरोध इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ उक्तोपसंहारपूर्वकं कृत्योपदेशमाह निर्युक्ति: [६३...] Forest ~93~ अध्ययनम् १ ॥ ४५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||६|| अध्ययनं [१], सुणियाभावं साणस्स, सूयरस्त नरस्स य। विणए ठविज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ ६॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'अभाव' नञः कुत्सायामपि दर्शनादशोभनं भावं सर्वतो निष्काशनलक्षणं पर्याय 'साणस्स' त्ति प्राकृतत्वादिवेत्यस्य गम्यमानत्वात् शून्या इव 'सूकरस्य' उक्तन्यायेन शूकरोपमस्य नरस्य, 'चः' पूरणे, यद्वा शून्याः शूकरस्य च दृष्टान्तस्य नरस्य च दार्शन्तिकस्याशोभनं भावं त्रयाणामप्युक्तरूपं श्रुत्वा, किमित्याह- 'विनये' वक्ष्यमाणस्वरूपे, स्थापयेदात्मानम्, आत्मनैवेति गम्यते, 'इच्छन्' वान्छन् 'हितम् ऐहिकमामुष्मिकं च पथ्यम् 'आत्मनः' स्वस्थ, इह च पुनर्दृष्टान्ताभिधानमुपसंहारत्वेनाविनये शिष्यस्याशुभभावस्योत्पादनार्थत्वेन वा नाप्रकृतमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ यतथैवं ततः किमित्याह Education intimation तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिलभे जओ । बुद्धउत्ते नियागट्ठी, न निक्कसिजड़ कण्हुइ ॥७॥ (सूत्रम्) व्याख्या—'तस्माद्' इति यस्मादविनयदोपदर्शनादात्मा विनये स्थापनीयस्तस्मात् विनयम् 'एषयेत्' अनेकार्थत्वेन धातूनां पर्यवसितवृत्या वा कुर्यात् एवं ह्यात्मा विनये स्थाप्यत इति, किं पुनरस्य विनयस्य फलं ? येनैवमत्रात्मनोऽवस्थापनमुद्दिश्यत इत्याशङ्क्याह-- 'शीलम्' उक्तरूपं 'प्रतिलभेत' प्राप्नुयात् 'यत' इति विनयात् अनेन | विनयस्य शीलावासिः फलमुक्तम्, अस्यापि किं फलमित्याह- बुद्धैः - अवगत तत्त्वैस्तीर्थकरा दिभिरुक्तम्- अभिहितं, निर्युक्ति: [६३...] For Fans Only ~94~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं -1/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [६३...] (४३) उत्तराध्य. अध्ययन बृवृत्तिः ॥४६॥ प्रत सूत्रांक ||७|| तच तन्निजमेव निजकं च-ज्ञानादि तस्यैव बुद्धरात्मीयत्वेन तत्त्वत उक्तत्वात् , बुद्धोक्तनिजकं, तदर्थयते-अभिलप- तीत्येवंशीलः बुद्धोक्तनिजकार्थी सन् , पठन्ति च-'बुद्धवुत्ते णियागट्टि त्ति' बुद्धः-उक्तरूपैयुक्तो-विशेषेणाभिहितः, स च द्वादशाङ्गरूप आगमस्तस्मिन् स्थित इति गम्यते, यद्वा बुद्धानाम्-आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः, पुत्ता य सीसा य समं विहित्ता' इति वचनात्, स्वरूपविशेषणमेतत् , नितरां यजनं यागः-पूजा यस्मिन् सोऽयं । नियागो-मोक्षः, तत्रैव नितरां पूजासम्भवात् , तदर्थी सन् , किमित्याह-'न निष्काश्यते' न बहिष्क्रियते, कुत-४ श्चिद् गच्छगणादेः, किन्तु विनीतत्वेन सर्वगुणाधारतया सर्वत्र मुख्य एवं क्रियते इति भावः, इति सूत्रार्थः ॥७॥ कथं पुनर्विनय एषयितव्य इत्याहणिसंते सिया अमुहरि, बुद्धाणमंतिए सया। अट्रजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्राणि उ वजए॥८॥(सूत्रम्)। दी व्याख्या-नितराम्-अतिशयेन शान्तः-उपशमवान् अन्तः क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्ताकारतया निःशान्तः 'स्वाद' भवेत् , तथा 'अमुखारिः' प्राग्वत् अमुखरो वा सन् 'बुद्धानाम्' आचार्यादीनाम् 'अन्तिके' समीपे, न तु विनयभीयाऽन्यथैव 'सदा' सर्वकालमर्यते-गम्यत इति अर्थः, अर्तेरौणादिकस्थन् (उषिकुपिगार्तिभ्यस्थन् उ० 1 २-४) स च हेय उपादेयश्चोभयस्याप्यर्यमाणत्वात् , तेन युक्तानि-अन्वितानि अर्थयुक्तानि, तानि च हेयोपादे-14 १ पुत्रांश्च शिष्यांच समं विभज्य (विधाय). दीप अनुक्रम ॥४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||८|| नियुक्ति : [६३...] (४३) '.40 प्रत सूत्रांक ||८|| याभिधायकानि, अर्थादागमवचांसि, यद्वा-मुमुक्षुभिरर्यमानत्वादों-मोक्षस्तत्र युक्तानि-उपायतया सतानि | अर्थ वा-अभिधेयमाश्रित्य युक्तानि यतिजनोचितानि 'शिक्षेत' अभ्यस्येत् , अपश्चितज्ञपिनेयानुग्रहाय व्यतिरेकत आह-निरर्थकानि' उक्तविपरीतानि डित्थडवित्थादीनि, यद्वा वैश्यिकवात्स्यायनादीनि स्वीकथादीनि या 'तुः। पुनरर्थे 'वर्जयेत्' परिहरेत् , इह च निशान्त इत्यनेन प्रशमादीनामुपलक्षितत्वात् तेषां च दर्शनाविनामावित्वाद् दर्शदिनस्य च जिनोक्तभाव श्रद्धानरूपत्वात् तस्यैव दर्शनविनयत्वात् अर्थतो दर्शनविनयो दर्शितः, उक्तं हि प्राक्-“दवाण सवभावा उवाइट्टा जे जहा जिणिंदेहिं । तं तह सद्दहइ णरो दंसणविणओ हवति तम्हां ॥१॥" शेषेण तु श्रुत-18 ज्ञानशिक्षाऽभिधायिना ज्ञानदर्शन(ज्ञान)विनय उक्तः, तत्खरूपमाह-"णाणं सिक्खदणाणं गुणेइ णाणेणे" ति KK सूत्रार्थः॥८॥ कथं पुनरर्थयुक्तानि शिक्षेतेत्साह अणुसासिओ न कुप्पिजा, खंति सेवेज पंडिए। बालेहिं सह संसम्गि, हासं कीडं च वजए ॥९॥ (सूत्रम्) PI व्याख्या-'अनुशिष्ट' इति अर्थयुक्तानि शिक्ष्यमाणः कथञ्चित् स्खलितादिषु गुरुभिः परुषोक्त्याऽपि शिक्षितः 'न कुप्येत्' न कोपं गच्छेत् , किं तर्हि कुर्यादित्याह-क्षान्ति' परुषभाषणादिसहनात्मिका 'सेवेत' भजेत, पण्डातबुद्धिः सा सजाताऽस्येति पण्डितः, तथा 'व' चालैः शीलहीन, पार्थस्थादिभिः 'सह' समं 'संसम्गि' ति प्राकृ-IM १ विनयव्याख्यानावसरे टीकायां नियुक्तेः गाथे क्रमेण सप्तमी अष्ठमी च. २ खुदेहिं इति टीका. ३ पण्डा तत्त्वानुगा बुद्धिरित्युक्तेः. दीप अनुक्रम CASSESHendence मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1 / गाथा ||९|| नियुक्ति : [६३...] (४३) उत्तराध्य. % बृहदृत्तिः प्रत ॥४७॥ % सूत्रांक PLEAD % ||९|| तत्वात्संसर्ग, हसनं हासस्तं, क्रीडां च अन्ताक्षरिकाप्रहेलिकादानादिजनितां च वर्जयेत्' परिहरेत् सर्वेषामप्येषा अध्य विशिष्टशिक्षाक्षितिहेतुत्वात् लोकागमविरुद्धत्वाचेति सूत्रार्थः ॥९॥ पुनरन्यथा विनयमाहमा य चंडालियं कासी, बहुयं मा य आलवे।कालेण य अहिजित्ता, तत्तो झाइज इकओ ॥१०॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'मा' निषेधे 'चः' समुचये, चण्ड:-क्रोधस्तद्वशादलीकम्-अनृतभाषणं चण्डालीकं, भयालीकाद्युपलक्षणमेतत्, यद्वा-चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, स चातिक्रूरत्वाचण्डालजातिस्तस्मिन् भवं| चाण्डालिक कर्मेति गम्यते, अथवा अचण्ड ! सौम्य ! अलीकम्-अन्यथात्वविधानादिभिरसत्यं, गुरुवचनमागमं चेति गम्यते, 'मा कार्षीः' मा विधाः, भगवदुद्दिष्टतिलोत्पाटकखेच्छालापिगोशालकवत् , बहेव बहुकम्-अपरिमित ४ मालजालरूपं 'मा च' इति प्राग्वत् , आङिति-हयादिकथाऽभिव्यात्या लपेत्-भाषेत, बबालापनात् ध्यानाध्यय-3 नक्षितिवातक्षोभादिसम्भवात् , किं पुनः कुर्यादित्याह-कालः अध्ययनाद्यवसरः प्रथमपौरुष्यादिस्तेन, 'चः' पुन-18 भरर्थे, 'अधीत्य' पठित्वा, प्रच्छनायुपलक्षणमेतत् , 'ततः' अध्ययनात्, अनन्तरमिति गम्यते, 'ध्यायेत्' चिन्तयेत्, 'एकक' इति भावतो रागद्वेषादिसाहित्यरहितः, द्रव्यतस्तु विविक्तशय्यादिसंस्थः, इत्थं हि चाण्डालिककरणाद्यनुहत्थानमधीतार्थस्थिरीकरणं च कृतं भवतीति भावः । इह च पादत्रयेण साक्षाद्वाग्गुप्तिरुक्ता, ध्यायेदित्यनेन मनोगुप्तिः, % दीप अनुक्रम 1 % ॥४७॥ % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१०|| नियुक्ति: [६३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| आयपादोत्तरव्याख्यानद्वयेन तु कायगुप्तिरपि, एताश्च चारित्रान्तर्गता एव, यदुक्तम्-"पणिहाणजोगजुत्तो पंचहि समितीहि तिहिं गुत्तीहिं । एस चरित्चायारो अट्टविहो होइ णायचो॥ १ ॥" न च चारित्राचारस्तत्त्वतश्चरित्रविनयादतिरिच्यते इति देशतस्तस्याप्यनेनाभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ इत्थमकृत्यनिषेधः कृत्यविधिश्वोपदिष्टः, कदाचिदेतद्विपर्ययसम्भये च किं करणीयमित्याह आहच्च चंडालियं कहु,न निण्हविज कण्हुइ। कडं कडंति भासिज्जा, अकडं नो कडंति य॥११॥ (सूत्रम्)। SI व्याख्या-'आहत्य' कदाचित् चण्डाली च चाण्डालिकं चोक्तरूपं यद्वा चण्डश्चालीकं च चण्डालीक द्रकृत्वा' विधाय 'न निन्हुबीत' न कृतमेवेति नापलपेत्, कदाचिदपि, यदा परैरुपलक्षितो यदा या नोपलक्षित स्तदापीत्यर्थः, किं तर्हि कुर्यादित्याह-कृतं' विहितं चाण्डालिकादि 'कृतमिति' इति कृतमेव, न भयलजादिभिरक तमपि 'भाषेत' ब्रूयात् , 'अकृतं' तदेवाविहितं 'नो कृतमिति' अकृतमेव भाषेत, न तु मायोपरोधादिना कृत||मपि, अन्यथा मृपावादादिदोपसम्भयात्, उपलक्षणत्वाचास्य बहनालपनकालाध्ययनादिविपर्ययसम्भवेऽप्येतदेव ट्र कृत्यम् , इदं चात्राकृत-कथञ्चिदतिचारसम्भवे लज्जाद्यकुर्वन् खयं गुरुसमीपमागत्य-'जह बालो जंपंतो कज्जम | १ प्रणिधानयोगयुक्तः पञ्चभिः समितिमिस्तिसृभिर्गुप्तिभिः । एष चारित्राचारोऽष्टविधो भवति ज्ञातव्यः ॥१॥ २ यथा बालो || जल्पन कार्यमकार्य च जुकं भणति । तत् तथाऽऽलोचयेत् मायामदविषमुक्तस्तु ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/ गाथा ||११|| नियुक्ति: [६३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||११|| उत्तराध्य. कजं च उज्जुयं भणति । तं तह आलोएजा मायामयविप्पमुको उ ॥१॥ इत्याद्यागममनुस्मरन् कथञ्चित् परेः अध्ययनम् बृहद्धृत्तिः प्रतीतमप्रतीतं वा मनःशल्यं यथावदालोचयेत्, ततश्चानेनान्तरतपोऽन्तर्गताऽऽलोचनाख्यप्रायश्चित्तभेदाभिधा-1|| नम् , अनेन च शेषतपोभेदानामप्युपलक्षितत्वात् तपोविनयमाह इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ इहैवं पुनः पुनरुपदेशश्रव॥४८॥ दाणाद् यदेव गुरोरुपदेशस्तदैव प्रवर्तितव्यं निवर्तयितव्यं चेति स्यादाशङ्का, तदपनोदायाह मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दट्टमाइन्ने, पावगं परिवजए ॥१२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'मा' निषेधे, गलि:-अविनीतः, स चासावश्चश्च गल्यश्वः स इव, कशतीति कशस्तम् , उपलक्षणत्वात् कशमहारं, 'पचनं' प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयमुपदेश, प्रस्तावाद्गुरूणाम्, 'इच्छेत्' अभिलपेत् , 'पुनः पुनः' वारं वारं, कोऽभिप्रायः ?-यथा गल्यश्वो दुर्विनीततया न पुनः पुनः कशप्रहारं विना प्रवर्तते निवर्तते वा, नैवं भवताऽपि प्रवृत्तिनिवृत्त्योः पुनः पुनर्गुरुवचनमपेक्षणीयं, किन्तु 'कसं व दट्टमाइण्णे'त्ति इयशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् कशं-चर्मयष्टिं दृष्ट्वाऽऽकीर्णो-विनीतः, स चेह प्रस्तावादश्वः स इव, सूचकत्वात् सूत्रस्य, सुशिष्यो गुरोराकारादि दृष्ट्वा, पापमेव पापक, गम्यमानत्वादनुष्ठानं परिवर्जयेत्' सर्वप्रकारं परिहरेत् , उपलक्षणत्वादितरचानुतिष्ठेत् , पठन्ति च-'पावगं || ॥४८॥ पडिबजर' त्ति तत्र च पुनातीति पावकं-शुभमनुष्ठानं 'प्रतिपद्येत' अङ्गीकुर्यात , इहापि प्राग्यदितरत् परिहरेत् , किमुक्तं भवति ?-यथाऽऽकीर्णोऽश्वः कशग्रहणादिनाऽऽरोहकाभिप्रायमुपलभ्य कशेनाताडित एव तदभिप्रायानुरूपं दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१२|| नियुक्ति: [६४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| प्रवर्तते निवर्तते वा, तथा सुशिष्येगा(प्योड)प्याकारादिभिराचार्याशयमवगम्य, वचनेनाप्रेरित एव प्रवर्तते, मा भूदन्यथाऽऽरोहकस्खेव गुरोरायास इति सूत्रार्थः ॥ १२॥ अत्र च नियुक्तिकृत् गल्याकीर्णो व्याचिख्यासुः 'तत्त्वमेदपर्यायाख्या' इति तत्पर्यायानाहगंडी गली मराली अस्से गोणे य हुंति एगट्टा । आइन्ने य विणीए य भदए वावि एगद्रा ॥ ६ ॥ ___ व्याख्या-गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो विहायोगमनेनेति गण्डिः, गिलसेव केवलं न तु वहति गच्छति येति गलिः, नियत इव शकटादौ योजितो राति च-ददाति लत्तादि लीयते च भुवि पतनेनेति |मरालिः, अमी च 'अथे' तुरगे 'गोणे च' बलीबई भवन्ति 'एकार्थाः' एकोऽर्थो-दुष्टतालक्षणः अनन्तरोक्तनीत्या प्रत्दातिनिमित्तभेदेऽप्यमीपामितिकृत्वा । 'आकीर्यते' व्याप्यते विनयादिभिर्गुणैरिति आकीर्णः 'चः' पूरणे, विशेषण नीतः-प्रापितः प्रेरकचित्तानुवर्तनादिभिः श्लाघादीति विनीतः, भाति-शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिईतिमिति भद्रः स एव भद्रका, चशब्द इहाप्य गोणे चेति विषयानुवृत्यर्थः, अपिशब्द इह पूर्यत्र चानुक्तपर्यायान्तरसमुच्चयार्थः, 'एकार्था' इति प्राग्वदिति गाथार्थः ।। ६४ ॥न चैवं गल्याकीर्णतुल्यशिष्ययोर्गुरोरायासजननाजनने एवं गुणदोषी, किन्तु गलिसदृशस्थानाश्रयत्वादेराकीर्णतुल्यस्य चित्तानुगतत्वादेः सम्भव इति तद्वशतः कोपनप्रसादने अपि, अत एचाह दीप अनुक्रम [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1 / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [६४] (४३) उत्तराध्य. बृद्धृत्तिः ॥४९॥ प्रत सूत्रांक ||१३|| अध्ययनम् अणासवा थूलवया कुसीला मिउंपि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लेहु दक्खोववेया पसायएते हु दुरासयपि ॥ १३ ॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'अणासव' ति आ-समन्तात् शृण्वन्ति-गुरुवचनमाकर्णयन्तीत्याश्रवा न तथा प्रतिभासाविषयस्य 2 तस्याश्रवणादनाश्रवाः, पठ्यते च-'अणासुण' ति अस्यार्थः स एव, स्थूलम्-अनिपुणं यतस्ततो भाषितया वचो येषां| ते स्थूलवचसः 'कुशीला' इति दुःशीलाः, 'मृदुमपि' अकोपनमपि कोमलालापिनमपि वा 'चण्डं' कोपनं परुषभा-टी पिणं वा 'प्रकुर्वन्ति' प्रकर्षेण विदधति 'शिष्याः' विनेयाः, सम्भवति येवंविधशिष्यानुशासनाय पुनः पुनर्वचनात्मक खेदमनुभवतो मृदोरपि गुरोः कोप इति । इत्थं गलितुल्यस्व दोषमभिधायेतरस्य गुणमाह-चित्तं-हृदयं प्रक्रमात् || प्रेरकस्यानुगच्छन्ति-कसपाताननपेक्ष्य जात्याश्चवदनुवर्तयन्तीति चित्तानुगाः 'लघु' शीघ्रमेव दक्षस्य भावो दाक्ष्यम्अविलम्बितकारित्वं तेन 'उववेय' त्ति उपपेता-युक्ता दाक्ष्योपपेताः 'प्रसादयेयुः सप्रसादं कुर्युः 'ते' इति शिष्याः, I'दुः' पुनरथेंः, दुःखेनाऽऽश्रयन्ति तमतिकोपनत्वादिभिरिति दुराश्रयस्तमपि, प्रक्रमाद्दरूं, किं पुनरनुत्कटकषायमित्सपि-14 शब्दार्थः । अत्रोदाहरणं चण्डरुद्राचार्यशिष्यः, तत्र च सम्प्रदायः-अवंतीजणवए उजेणीणयरीए ण्हवणुज्जाणे | १ अवन्तीजनपदे उज्जयिनीनगर्या सपनोद्याने साधवः समवमृताः, तेषां सकाशे एको युवा उदात्तवेषो क्यस्यसहित उपागतः, स तान् | 中中中中中六十六中六中於六十 दीप अनुक्रम [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१३|| नियुक्ति: [६४...] (४३) * * * प्रत सूत्रांक ||१३|| साहुणो समोसरिया, तेसिं सगासं एगो जुवा उदत्तवेसो वयंससहिओ उवागतो, सो ते बंदिऊण भणति-भय । दाअम्हे संसाराउ उत्तारेह, पथयामित्ति, एस एमेव पवंचेतित्ति काऊण 'घृष्यतां कलिना कलिरिति चंडरह आयरियं उपदिसंति, एस ते नित्थारेहित्ति, सोऽवि य सभावेणं फरुसो, तओ सो बंदिऊण भणइ-भगवं ! पवावेह | (हि)ममंति, तेण भणितो-छारं आणेहत्ति, आणिए लोयं काऊण पचाविओ, वयंसगा से अद्धीई काऊण पडिगया, तेऽवि उवस्सयं नियगं गया, विलंपिए सूरे पंथं पडिलेहेइ, परं पञ्चूसे बच्चामित्ति विसजिओ, पडिलेहिउमागओ, पचूसे निग्गया, पुरतो वचति(त्ति) भणितो, वचंतो पंथातो फिडितो चंडरुद्दो खाणुए पक्खलितो, रुसिएण हा दुट्टसेहत्ति दंडएण मत्थए आहतो, सिरं फोडितं, तहावि सम्मं सहइ, विमले पहाए चंडरुद्दण रुहिरोग्गलंतमुद्धाणो । १ वन्दित्वा भणति-भगवन्त: मां संसारादुत्तारयत, प्रव्रजामीति, एष एवमेव प्रवचयते इतिकृत्वा चण्डरुद्रमाचार्यमुपविशन्ति(उपदर्शयन्ति), दएष त्वां निस्तारयिष्यति, सोऽपि च स्वभावेन परुषः, ततः स वन्दित्वा भणति-भगवन् ! प्रत्राजय मामिति, तेन भणित:-क्षारं (भस्म) आनयेति, आनीते लोचं कृत्वा प्रत्राजितः, वयस्यकास्तस्याधृति कृत्वा प्रतिगताः, तेऽपि उपाश्रयं निजं गताः, विलम्बिते (किञ्चिच्छेपे) सूर्ये पन्धान प्रतिलेखय(खे)ति, परं प्रत्युषसि बजाव इति विसृष्टः, प्रतिलिस्थागतः, प्रत्युषसि निर्गतौ, पुरतो बजेति भणितः, व्रजन पथः स्फिटिततश्चण्डरुद्रः स्थाणी प्रस्खलितः, रुप्टेन हा दुष्टशैक्ष ! इति दण्डेन मस्तके आहतः, शिरः स्फोटितं, तथाऽपि सम्यक् सहते, विमले प्रभाते |चण्डरुद्रेण गलगुधिरमूर्धा दृष्टः, हा दुष्टं कृतमिति संवेगमापनेन क्षमितः । दीप अनुक्रम [१३] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१४|| दीप अनुक्रम [१४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ५० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१४|| अध्ययनं [१], Education intimational दिट्ठो, हा ! दुहु कथंति संवेगमावण्णेण खामिओ ॥ एवं गुरुप्रसादात् चण्डरुद्राचार्य शिष्यस्येव सकलसमीहितावासिरिति मत्त्रा मनोवाक्कायैर्गुरुचित्तानुवृत्तिपरैर्भाव्यमिति, अनेनानन्तरेण च सूत्रेण प्रतिरूपयोगयोजनात्मक औपचारिको विनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कथं पुनर्गुरुचित्तमनुगमनीयमित्याह--- णापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए। कोहं असचं कुविजा, धारिजा पियमप्पियं ॥१४॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'नापृष्टः ' कथमिदम् ? इत्याद्यजल्पितः, गुरुणेति गम्यते, 'व्यारणीयात्' वदेत्, तथाविधं कारणं विना, 'किञ्चित्' स्तोकमपि, पृष्टो वा न 'अलीकम्' अनृतं वदेत्' कारणान्तरेण च गुरुभिरतिनिर्भत्सितोऽपि न तावत् क्रुध्येत् कथञ्चिदुत्पन्नं या क्रोधम् 'असत्य' तदोत्पन्नकुविकल्पविफलीकरणेन 'कुर्वीत' विदध्यात् कथम् ? - 'धारयेत्' स्थापयेत्, मनसीति शेषः, 'पियमप्पियं' ति इवाप्योर्गम्यमानत्वात् प्रियमिवेष्टमिव सदा गुणकारणतया अप्रियमपि कर्णकटुकतया तदाऽनिष्टमपि, गुरुवचनमिति गम्यते, अत्र श्लोकपूर्वार्धन याचा यथा गुरुरनुवर्तनीयः तथोक्तमुत्तरार्धेन तु मनसेति, अथवा नापृष्ट इति न गुरुणैव किन्तु येन केनचिदपीत्यादिक्रमेण पादत्रयं सामान्येन प्राग्यन्नेयं, नवरं क्रोधम् उपलक्षणत्वान्मानादिकषायं चोत्पन्नमसत्यं कुर्वीत, क्रोधासत्यतायामुदाहरणसम्प्रदायः -- | केस्सवि कुलपुत्तयस्स भाया बेरिएण वावाइओ, तओ सो जणणीए भण्णइ पुत्त ! पुत्तषाययं घायमुत्ति, तओ सो १ कस्यापि कुलपुत्रकस्य भ्राता वैरिणा व्यापादितः, ततः स जनन्या भण्यते पुत्र ! पुत्रघातकं घातयेति ततः स तेन जीवप्राई Forest Use Only निर्युक्तिः [६४...] ~ 103~ अध्ययनम् १ ।। ५० ।। www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१४|| नियुक्ति : [६४...] (४३) 4%-0-592 प्रत सूत्रांक ||१४|| तेण जीवग्गहो गिहिऊण जणणीसमीवमुवणीओ, भणिओ अणेण-भायघाययं ! कहिं ते आहणामित्ति, तेण 21 भणिओ-जहिं सरणागया आहम्मंति, तेण जणणी अवलोकिया, ताए भषणइ-ण पुत्त ! सरणागया आहम्मंति, तेण भण्णइ-कहं रोसं सफलं करेमित्ति, तेण भण्णइ-ण पुत्त ! सवत्थ रोसो सफलो कजद, पच्छा सो तेण विसजिओ॥ एवं क्रोधमसत्यं कुर्वीत,मानादिविफलीकरणे उदाहरणान्यागमादवधारणीयानि, इत्थमुदितानां क्रोधादीनां विफलीकरणमुपदिष्टं, सम्प्रति यथैषामुदय एव न स्यात् तथोपदेष्टुमाह-'धारयेत्' खरूपेणावधारयेत्, न तद्वतशतो राग द्वेपं वा कुर्यात्, 'प्रिय' प्रीत्युत्पादक शेपजनापेक्षया स्तुत्यादि, 'अप्रिय' तद्विपरीतं निन्दादि, तत्रोदाहरणसम्प्रदाया-अंसियोबहुए जयरे तिन्नि भूयवाईया रायाणमुवगया भणंति-अम्हे असिव उपसमेमोत्ति, राइणा भणियं-सुणिमो केणोबाएणंति, तत्थेगो भणइ-अस्थि महेगं भूयं, तं सुरूवं विऊ-4 5गृहीत्वा जननीसमीपमुपनीता, भणितोऽनेन भातृघातक ! कुत्र त्वामाहत्मीति, तेन भणित:-यन्त्र शरणागता माइन्यन्ते, तेन जननी अवलोकिता, तया भण्यते-पुत्र ! न शरणागता आहन्यन्ते, तेन भण्यते-कथं रोषं सफलं करोमीति, तया भण्यते-न पुत्र ! सर्वत्र रोषः | | सफलः क्रियते, पश्चात्स तेन बिपृष्ठः। L१ अशिवोपते नगरे त्रयो भूतवादिका राजानमुपगता भणन्ति-वयमशिवमुपशमयान इति, राज्ञा भणितं शृणुमः केनोपायेनेति, तत्रैको भणति-अस्ति ममैको भूतः, स सुरूपं विकुऱ्या गोपुररथ्यादिषु पर्यटति, सो न निभालयितव्यः, स निभालितो रुष्यति, यः पुनस्तं दीप अनुक्रम [१४] marwaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१४|| दीप अनुक्रम [१४] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ।। ५१ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १४ || अध्ययनं [१], Education intimation बिऊणं गोपुररत्थाइसु परियडर, तं न पिहालेयवं, तं निहालियं रुसइ, जो पुण तं निहालेति सो विणस्सर, जो पुण पिच्छिऊण अहोमुहो ठाइ सो रोगाओ मुचइ, राया भगति - अलाहि एएण अइरोसणेणंति । विइओ भणतिमहचयं भूयं महतिमहालयं रूवं बिउवति, लंबोयरं विवृतकुक्षिं पंचशिरं एगपादं विसिद्धं विस्सरुवं अट्टहासं मुयंत गायंतं पणचंतं तं विकृतरूपं दद्दूणं जो पहसति पयंचेति वा तस्स सत्तद्दा सिरं फुट्टर, जो पुण तं सुहाहिं वायाहिं अभिनंदति धूवपुप्फाईहिं पूएइ सो सबहाऽऽमयातो मुम्बइ, राया भणइ - अलमेएपि । ततितो भणइ-ममवि एवंविहमेव णातिविसेसकरं भूयमत्थि, प्रियाप्रियकारिणं दरिसणादेव रोगेहिंतो मोचयति, एवं होउत्ति, तेण तहाकए असिवं उवसंतं । एवं साधूवि असारूप्यत्वे सति शब्दादिप्रतिकूलत्वे च परेहिं परिभूयमाणो पवंचिज्जमाणो निभालयति स विनश्यति, यस्तं प्रेक्ष्याधोमुखस्तिष्ठति स रोगान्मुच्यते, राजा भणति अलमेवेनातिरोषणेनेति । द्वितीयो भणति मामकीनो भूतो महातिमहालयं रूपं विकुर्वति, लम्बोदरं विवृतकुक्षि पञ्चशिरस्क मेकपादं विशिखं विस्वरूपं ( विश्वरूपम्) अट्टाट्टहासं मुञ्चत् गायत् प्रनृत्यत्, तं विकृतरूपं दृष्ट्वा यः प्रहसति प्रवश्यते वा तस्य सप्तधा शिरः स्फुटति यः पुनस्तं शुभाभिर्वाग्भिरभिनन्दति धूपपुष्पादिभिः पूजयति स सर्वथाऽऽमयात् मुच्यते, राजा भणति अलमेतेनापि । तृतीयो भणति ममाप्येवंविध एव, नातिविशेषकरः भूतोऽस्ति, प्रिया| प्रियकारिणं दर्शनादेव रोगेभ्यो मोचयति, एवं भवत्विति, तेन तथा कृते अशिवमुपशान्तम् । एवं साधुरपि असारूप्यत्वे सति शब्दादिप्रतिकूलत्वे च परैः परिभूयमानः प्रववयमानो ह्स्यमानो वा स्तूयमानो वा पूज्यमानो वा तत् प्रियाप्रियं सहेत १ For Fans Only निर्युक्तिः [६४...] ~ 105~ अध्ययनम् ॥ ५१ ॥ ww.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१५|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| मासिजमाणो वा तथा थुषमाणो वा पूइजमाणो वा तं प्रियाप्रियं सहेत । अनेन च मनोगुत्यभिधानाचारित्रविनय उक्त इति मन्त्रार्थः॥१४॥ आह-क्रोधासत्यताकरणादिमिरात्मदमनोपाय उक्तः, तत्र च बायेष्वपि दमनीयेष सत्सु किमिति तस्यैव दमनोपाय उद्दिश्यते ? किं वा तहमने फलमिति, अत्रोच्यतेहै| अप्पामेव दमेयबो,अप्पा हु खलु दुद्दमो।अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥१५॥ (सूत्रम्)। व्याख्या-अतति-सन्ततं गच्छति शुद्धिसङ्क्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा तमेव 'दमयेत्' इन्द्रियनोइन्द्रिसायदमेन मनोज्ञेतरविषयेषु रागद्वेषवशतो दुष्टगजमिवोन्मार्गगामिनं स्वयं विवेकाहशेनोपशमनं नयेत, पठन्ति च-का || अप्पा चेव दमेयचोति स्पष्टं, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-आत्मैव, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'खलु' इति यस्मात् | 'दुर्दमः' दुर्जयः, ततस्तहमने दमिता एव वाबदमनीया इति, न तहमनमुपदिश्यत इति भावः, उक्तं हि-"सबकामप्पे जिए जिय", का पुनरेवं गुण इत्साह-आत्मा 'दान्त' उपशममानीतः, मुखमस्यास्तीति सुखी, भवति, क-10 अस्मिन्' इत्यनुभूयमानायुषि विनेयाध्यक्षे 'लोके' भवे 'परत्र च' इत्यागामिनि भवान्तरे, दान्ताऽऽत्मानो हि परम-18 र्षय इहैव सुरैरपि पूज्यन्ते, अदान्ताऽऽत्मानस्तु चौरपारदारिकादयो विनश्यन्ति, तथा-"संदेण मओ रूवेण पयंगो महुयरो (य) गंधेणं । आहारेण य मच्छो बज्झइ फरिसेण य गइंदो॥१॥" तद्विपर्ययतस्तु-इह परत्र च नन्दन्ति, तत्र १ सर्वमात्मनि जिते जितम् । २ शब्देन मृगो रूपेण पतङ्गो मधुकरश्च गन्धेन । आहारेण च मत्स्यो बध्यते स्पर्शेन च गजेन्द्रः॥१॥ दीप अनुक्रम [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| दीप अनुक्रम [१५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ५२ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१५|| अध्ययनं [१], चोदाहरणम्-दो भायरो चोरा, तेसिं उबस्सए साहुणो वासावासं उवागया, तेहिं वासारतपरिसमत्तीए गच्छंतेहिं तेसिं चोराणं अन्नं वयं किंपि अपडिवज्जमाणाणं रतिं न भोत्सवंति वयं दिण्णं । अन्नया तेहिं उद्दाइएहिं सुबहुयं गोमाहिसं आणियं तत्थ अन्ने महिसं मारेउं पइउमारद्धा, अन्ने मज्जस्स गया, मंसइत्ता संपहारेन्ति-अद्धगे मंसे विसं पक्खिवामो तो मज्जइत्ताणं दाहामो, तओ अम्हं सुबहु गोमाहिसं भागेण आगमिस्सर, मज्जइत्तावि एवं चेव सामत्थेहिंति, एवं तेहिं विसं पक्खित्तं, आइयो य अत्थं गतो, ते भायरो न भुत्ता, इयरे परोप्परं विससंजुत्तेण मज्जमंसेण उबभुत्तेण मया, मरिऊण य कुगई गया, इयरे इह परलोए य सुहभागिणो जाया, एवं ताब जिभिदियदमे, Education intimational १ द्वौ भ्रातरौ चौरी, तयोरुपाश्रये साधवो वर्षावासमुपागताः, तैर्वर्षारात्रपरिसमाप्तौ गच्छद्भिस्तयोः चोरयोरन्यत् किश्विङ्गतमप्रतिपद्यमानयो रात्रौ न भोक्तव्यमिति व्रतं दत्तम् । अन्यदा तैरुद्धावितैः सुबहुकं गोमाहिषमानीतं, तत्रान्ये महिषं भारयित्वा पक्तुमारब्धाः, अन्ये मद्याय गताः, मांसीयाः संप्रधारयन्ति - अर्धे मांसे विषं प्रक्षिपामः ततो मयीयेभ्यो दास्यामः, ततोऽस्माकं सुबह गोमाहिषं भागेनागमिसध्यति, मधीया अपि एवमेव संप्रधारयन्ति एवं तैर्विषं प्रक्षिप्तम्, आदित्यञ्चास्तं गतः, तौ भ्रातरौ न मुक्ती, इतरे परस्परं विषसंयुक्तेन मद्यमांसेनोपमुक्तेन मृताः, मृत्वा च कुगतिं गताः, इतरौ इह परलोके च सुखभागिनौ जातौ, एवं तावत् जिह्वेन्द्रियदमे, एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु, आत्मा दान्तः सुखी भवति अस्मिन् लोके परत्र च ॥ निर्युक्तिः [६४...] For Fans Only ~ 107~ अध्ययनम् १ ।। ५२ ।। www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१६|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| एवं सेसेसुपि इंदिएसु, 'अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य' इति सूत्रार्थः ॥ १५॥ किं पुनः परिभावयनात्मानं दमयेदित्याह वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य ॥१६॥(सूत्रम्) व्याख्या-'वर' प्रधानं 'मे' मया 'आत्मा' अभिहितरूपस्तदाधाररूपो या देहः, 'दान्त' इति दमं ग्राहितः असमअसचेष्टातो व्यावर्तितः, केन हेतुना ?-'संयमेन पञ्चाश्रवविरमणादिना, 'तपसा च' अनशनादिना, चशब्दो द्वयोरप्यनपेक्षितायां मुक्तिहेतुताविरहात् परस्परसापेक्षतासूचनार्थः सम्यग्ज्ञानसमुच्चयार्थो वा, विपर्यये दोषद-पटी शनायाह-'मा' प्राग्वत् , 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशः, 'परैः' आत्मव्यतिरिक्तः 'दम्मंतो'त्ति आर्षत्वाद्दमितः, कैः'बन्धनः वर्धादिविरचितमयूरवन्धादिभिः 'वधैश्च' लतालकुटादिताडनैः,अत्रोदाहरणं सेयणओ गंधहत्थी-अडबीए हत्थिजूहं महलं परिवसइ, तत्व जूहवती जाए जाए गयकलभए विणासेइ, तत्थेगा करिणी आवण्णसत्ता चिंतेइ-जइल कहंचि गयकलभतो जायइ, सोऽवि एतेण विणासिजिहित्तिकाउं लंगती ओसरइ, जूदाहियेण जूहे छुब्भइ, पुणो | १ सेचनको गन्धहस्ती, अटव्यां हस्तियूथं महत् परिवसति, तत्र बूथपतिर्जातान जातान गजकलभकान बिनाशयति, तत्रैका करिणी आपन्नसत्त्वा चिन्तयति-यदि कथञ्चिदू गजकलभको जायते (जनिष्यते) सोऽप्येतेन विनरक्ष्यते इतिकृत्वा शनैः शनैः(खजन्ती)अवसर्पति, यूथाधिपेन यूथे क्षिप्यते, पुनरपसर्पति, ततो द्वितीयतृतीयदिवसे यूथेन मिलति, तत एकमृण्यानमपदं दृष्टं, सा तत्राश्रिता, परिचिताश्चानया दीप अनुक्रम [१६] LEARCACANCYCLCCA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१६|| नियुक्ति: [६४...] (४३) उत्तराध्य. अध्ययनम् प्रत बृहद्वृत्तिः ॥५३॥ सूत्रांक ||१६|| ओसरइ, ताहे वितियततियदिवसे जूहेण मिलइ, ताहे एगं रिसिआसमपयं दिटुं, सा तत्थ अल्लीणा संवणिया य अणाए रिसओ, सा पसूया गयकलहं, सो तेहिं रिसिकुमारहिं सहिओ पुप्फारामं सिंचइ, सेयणउत्ति से नाम कयं, वयत्थो जातो, जूहं दवण जूहपतिं हेतूण जूहंण पडिवण्ण, गंतूण य अणेण सो आसमो विणासितो. 'नो अन्नावि कावि एवं काहितित्ति । ताहे ते रिसितो रुसिया, पुप्फफलगहियपाणी सेणियस्स रण्णो सयासं उबगया, कहियं चऽणेहि-एरिसो सवलक्षणसंपुण्णो गंधहत्थी सेयणतो णाम, सेणिओ हथिगहणाय गतो, सो य हत्थी देवयाए परिगहितो, ताहे(ए) ओहिणा आभोइयं-जहा अवस्स एसो घेप्पति, ताहे ताए सो भण्णइ-पुत्त ! बरं ते अप्पा दंतो, ण यऽसि परेहिं दंमतो बंधणेहिं वहेहि य, सो एवं भणिो सयमेव रत्तीए गंतण आलाणखभं अस्सितो।। १अषयः, सा प्रसूता गजकलभ, सतैः कपिकुमारैः सहित: पुष्पारामं सिञ्चति, सेचनक इति तस्य नाम कत, वयःस्थो जातः, यूथं रहा यूथपति हत्वा यूथमनेन प्रतिपन्न, गत्वा चानेन स आश्रमो विनाशितः, मा अन्याऽपि काऽप्येवं कार्थीदिति । ततस्ते ऋषयो रुष्टाः, पाणिगृहीतपुष्पफलाः श्रेणिकस्य राज्ञः सकाशमुपगताः, कथितं चैमिः-ईदृशः सर्वलक्षणसंपूर्णो गन्धहस्ती सेचनको नाम, श्रेणिको हस्तिग्रहणाय गतः, स च हस्ती देवतया परिगृहीतः, ततः (तया) अवधिना आभोगितं (अवलोकित)-यथा अवश्यमेपो प्रहीष्यते, ततस्तया स भण्यतेपुत्र ! वरं सव (वया) आत्मा दान्तः, न चासि परैर्दम्यमानो बन्धनैर्वधैश्च, स एवं भणितः स्वयमेव रात्रावागत्यालानस्तम्भमाश्रितः । CAR दीप अनुक्रम [१६] ॥५३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||१७|| नियुक्ति: [६४...] (४३) REAK प्रत सूत्रांक ||१७|| यथा हि अस्य स्वयंदमनान्महागुणः तथा मुक्त्यर्थिनोऽपि विशिष्टनिर्जरातः, इतरथा त्वकामनिर्जरातो न तथेति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ गुर्वनुवृत्त्यात्मकं प्रतिरूपविनयमाहपडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा।आवि वा जइवा रहस्से, नेव कुजा कयाइवि ॥१७॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'प्रत्पनीकम् ' इति प्रतिकूलं, चः पूरणे, चेष्टितमित्युपस्कारः, भावप्रधानत्याद्वा निर्देशस्य प्रत्सनीकत्वं, केषाम् ?-'बुद्धानाम्' अवगतवस्तुतत्त्वानां गुरूणामितियावत् , कया ?-वाचा, किं त्वमपि किञ्चिजानीपे ? इत्येवंरूपया विपरीतप्ररूपणायां प्रेरितस्त्वयैवैतदित्वमस्माकं प्ररूपितमित्याद्यात्मिकया बा, अथवा 'कर्मणा' संस्तारकातिक्रमणकरचरणसंस्पर्शनादिना 'आविः' जनसमक्षं प्रकाशदेश इतियावत् , यदिवा 'रहस्ये विविक्तोपाश्रयादी 'न' इति निषेधे 'एवः' अवधारणे, स च 'शत्रोरपि गुणा प्रायाः, दोषा वाच्या गुरोरपी'ति कुमतनिराकरणार्थः, कुर्यात्' इति विदध्यात् , 'कदाचित् ' परुषभाषणादावपि इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ पुनः शुश्रूपणात्मकं तमेवाह-15 ण पक्खओण पुरओ, व किच्चाण पिट्टओ। न जुजे उरुणा ऊरु, सयणे ण पडिस्सुणे ॥१८॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'न पक्षतः' दक्षिणादिपक्षमाश्रित्य, उपविशेदिति सर्वत्रोपस्कारः, तथोपवेशने तत्पनिसमावेशतः तत्साम्यापादनेनाविनयभावात् , गुरोरपि वक्रावलोकने स्कन्धकन्धरादिवाधासम्भवात् , न 'पुरतः' अग्रतः, तत्र दीप अनुक्रम [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [82] उत्तराध्य. वृत्तिः ॥ ५४ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१८|| अध्ययनं [१], वन्द कजनस्य गुरुवदनानवलोकनादिनाऽप्रीतिभावात्, 'नैव' इति पूर्ववत्, कृतिः-वन्दनकं तदर्द्धन्ति कृत्याः 'दण्डादित्वाद् यप्रत्ययः' ते चार्थादाचार्यादयस्तेषां 'पृष्ठतः' पृष्ठदेशमाश्रित्य द्वयोरपि मुखादर्शने तथाविधरसवत्ताऽभावादिदोषसंभवात्, 'न युज्यात् ' न सङ्घट्टयेद् अत्यासन्नोपवेशादिभिः, 'उरुणा' आत्मीयेन, 'उरुं' कृत्यसम्बन्धिनं, | तथाकरणेऽत्यन्ताविनयसम्भवात् उपलक्षणं चैतत् शेषाङ्गस्पर्शपरिहारस्य, 'शयने' शय्यायां शयित आसीनो वेति शेषः किमित्याह-न प्रतिशृणुयात्, किमुक्तं भवति ?-कदाचिच्छय्यागतो गुरुणाऽऽकारित उक्तो वा लं प्रति न तथास्थित एवावज्ञया कुर्म एवमित्यादिवचनतः प्रतिजानीयात् किन्तु गुरुवचनसमनन्तरमेव सम्भ्रान्तचेता विनयविरचितकूराञ्जलिः समीपमागत्य पादपतनपुरस्सरमनुगृहीतोऽहमिति मन्यमानो भगवन्निच्छामोऽनुशिष्टिमिति वदेदिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ पुनखमेवाह Education intimation नेव पहत्थियं कुज्जा, पक्खपिंडं व संजए। पाए पैसारिए वावि, न चिट्ठे गुरुणंतिए ||१९|| सूत्रम् ) व्याख्या - नैव 'पर्यस्तिकां' जानुजङ्घोपरिवत्रवेष्टनाऽऽत्मिकां कुर्यात्, 'पक्षपिण्डं या' वायकायपिण्डात्मकं, 'संयतः' साधुः, तथा पादौ प्रसारयेत् वाऽपि नैव, वा समुच्चयार्थः, अपिः किं पुनरित इतो विक्षिपेदिति निदर्शनार्थः, अन्यथ-' न तिष्ठेत् ' नाऽऽसीत, क १-गुरूणामन्तिके इति, प्रक्रमादतिसन्निधौ, किन्तूचितदेश एव, अन्य१ पसारे तो वाषि प्र० । निर्युक्ति: [६४...] For Fans Only ~111~ अध्ययनम् १ ॥ ५४ ॥ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -]/ गाथा ||१९|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१९|| थाऽविनयदोषसम्भवात् , अथवा 'पाए पसारिए वावित्ति पाठात् पादौ प्रसारितौ वाऽपि, कृत्वेति शेषः, एकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रसार्य वा न तिष्ठेद्गुरूणामन्तिके उचितप्रदेशेऽपीति, उपलक्षणं चैतद्दण्डपादिकाऽवष्टम्भादीनामिति सत्रार्थः ॥ १९ ॥ पुनः प्रतिश्रवणविधिमेव सविशेषमाह आयरिएहिं वाहितो, तुसिणीओ ण कयाइवि। पसायट्टी नियागट्टी, उवचिट्ठ गुरुं सया॥२०॥(सूत्रम्) व्याख्या-'आचार्यैः उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिभिः 'वाहितो ति व्याहृतः-शब्दितः 'तुसिणीओ'त्ति तूष्णीकः तूष्णीशीलः 'न कदाचिदपि' ग्लानाद्यवस्थायामपि, भवेदिति गम्यते, किन्तु-'धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरण-1& धर्मनिर्यापी । गुरुवदनमलयनिसृतो वचनरसश्चन्दनस्पर्शः॥१॥ इति प्रसादोऽयं यदन्यसद्भावेऽपि मामादिशन्ति गुरव इति प्रेक्षितुम्-आलोचितुं शीलमस्येति प्रसादप्रेक्षी, पाठान्तरतः 'प्रसादार्थी' वा गुरुपरितोषाभिलाषी 'णियागट्ठी ति पूर्ववत् , 'उपतिष्ठेत' मस्तकेनाभिवन्द इत्यादि बदन् सविनयमुपसप्पेत् , गुरुं 'सदा' सर्वकालमिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ तथाआलवंते लवंते वा, ण णिसीजा कयाइवि। चइत्ता आसणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे॥२१॥ (सूत्रम्) व्याख्या-आङिति ईपलपति-वदति 'लपति वा' वारं वारमनेकधा वाऽभिदधति 'न निषीदेत्' न निषण्णो दीप अनुक्रम [१९] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२१|| दीप अनुक्रम [२१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२१|| Education intam अध्ययनं [१], उत्तराध्य. भवेत्, 'कदाचिदपि' व्याख्यानादिना व्याकुलतायामपि, किन्तु ? ' त्यक्त्वा' अपहाय 'आसनं' पादपुण्डनादि, धिया राजते धीरः, अक्षोभ्यो वा परपहादिभिः, 'यत' इति यतो यत्नवान् 'जतं' ति प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपे तस्य च द्वित्वे बृहद्वृत्तिः १ यदुरव आदिशन्ति तत् 'प्रतिशृणुयात्' अवश्यविधेयतया अभ्युपगच्छेदितियावत्, यद्वा यत इति यत्र गुरवः, तत्र गत्वेति गम्यते, 'यात्रा' संयमयात्रां प्रस्तावाद् गुरूपदिष्टां प्रतिशृणुयादिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ पुनः प्रतिरूपविनयमेवाऽऽह ॥ ५५ ॥ निर्युक्ति: [६४...] आसणगओ ण पुच्छिज्जा, णेव सिजागओ कया। आगम्मुक्कुडुओ संतो, पुच्छिजा पंजली गडे ||२२|| (सूत्रम्) व्याख्या- 'आसनगतः' इति आसनासीनो न पृच्छेत्, सूत्रादिकमिति गम्यते नैव 'शय्यागत' इति संस्तारकस्थितः, तथाविधावस्थां विनेत्युपस्कारः, 'कदाचिदपि बहुश्रुतत्वेऽपि किमुक्तं भवति ? - बहुश्रुतेनापि संशये सति न न प्रष्टव्यं पृच्छताऽपि नावज्ञया, सदा गुरुविनयस्थानतिक्रमणीयत्वात् तथा चाऽऽगमः - "जहांहिजग्गी जलणं नमसे, णाणा हुईमंतपयाहिसितं । एवायरियं उपचिट्ठएजा, अनंतणाणोवगओऽवि संतो ॥ १ ॥ किं तर्हि कुर्या - दिल्लाह- 'आगम्य' गुर्वन्तिकमेल 'उत्कुटुक' इति मुक्तासनः कारणतो वा पादपुञ्छनादिगतः सन् शान्तो वा 'पृच्छेत्' पर्यनुयुञ्जीत, सूत्रादिकमितीहापि गम्यते, प्रकर्षेण- अन्तः प्रीत्यात्मकेन कृतो विहितोऽञ्जलिः - उभयकरमी१ यथाऽऽहिताग्निं नमस्यति नानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्यमुपतिष्ठेतानन्यज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ १ ॥ For at Use Only ~113~ अध्ययनम् ॥ ५५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||२२|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२२|| लनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच कृतशब्दस्य परनिपातः, 'पंजलिउड'त्ति पाठे च प्रकृष्टं-भावान्विततयाऽअलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुट इति सूत्रार्थः ।। २२ ॥ ईदृशस्य शिष्यस्य गुरुणा यत् कृत्यं तदाह एवं विणयजुत्तस्स,सुतं अत्थं तदुभयं । पुच्छमाणस्स सिस्सस्स, वागरिज जहासुयं ॥२३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'एवम्' इत्युक्तप्रकारेण 'विनययुक्तस्य' विनयान्वितस्य 'सूत्र' कालिकोत्कालिकादि 'अर्थ च तस्यैवाभिधेयं तदुभयं' सूत्रार्थोभयं 'पृच्छतः' जीप्सतः 'शिष्यस्य' खयंदीक्षितस्योपसम्पन्नस्य वा 'व्यागृणीयात्' विविधममिव्याप्त्याऽभिदध्यात् न्याकुर्याद्वा प्रकटयेत्, यथा-येन प्रकारेण श्रुतम्-आकर्णितं, गुरुभ्य इति गम्यते, न तु खबुद्ध्यैवोत्प्रेक्षितमित्यभिप्रायः, अनेन च-'आयारे सुयविणए विक्खिवणे चेव होइ बोद्धचे । दोसस्स य निग्याए । जाविणए चउहेस पडिपत्ती ॥१॥" इत्यागमाभिहितचतुर्विधाचार्यविनयान्तर्गतस्य 'मुत्तं अत्थं च तहा हियकर णिमस्सेसयं च वाएइ । एसो चउविहो खलु मुयविणओ होइ णायचो ॥ १॥ सुतं गाहेति उजुत्तो अत्थं च सुणा-1 १ आचारे श्रुतविनये विक्षेपणे वैव भवति बोद्धव्यः । दोषस्य च निर्याते विनये चतुर्धेवा प्रतिपत्तिः ॥११॥२ सूत्रमर्थ च तथा हितकर निःशेषं च वाचयति । एष चतुर्विधः खलु श्रुतबिनयो भवति ज्ञातव्यः ॥ १॥ सूत्र बाहयत्युद्युक्तोऽर्थ च आवयति प्रयत्नेन । यद्यस्य भवति । ४ योग्यं परिणाम्यादि (आभित्य) तत्तु श्रुतम् ॥ २ ॥ निश्शेषमपरिशेषं यावत्समानं च ताबडाचयति । एप श्रुतविनयः स्खलु निर्दिष्टः पूर्वसूरिभिः ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [२२] 56 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२३|| दीप अनुक्रम [२३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ।। ५६ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२३|| अध्ययनं [१], बए पयत्तेणं । जं जस्स होइ जोगं परिणामगमाइ तं तु सुयं ॥ २ ॥ निस्सेसमपरिसेसं जाव समत्तं च ताव वाएइ । एसो सुयविणओ खलु निदिट्ठो पुत्रसूरीहिं ॥ ३ ॥ इत्याद्यागमाभिहितस्य श्रुतविनयस्य साक्षादभिधानं, यच विनयं प्रादुष्करिष्यामीति प्रतिज्ञाय 'अच्मुद्वाणं अंजलि' तथा 'दंसणणाणचरिते' इत्यादिना ग्रन्थेनेष न तस्य शुद्धखरूपाभिधानं, किन्तु 'णिसंते सिया अमुहरी' इत्यादि लिङन्तादिपदैरुपदेशरूपतया तदपि प्रसङ्गत एव यथायोग|माचार्य विनयोपदर्शनपरमिति भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ पुनः शिष्यस्य वाग्विनयमाह - Education intimational मुसं परिहरे भिक्खू न य ओहारिणीं वए। भासादोसं परिहरे, मायं च वज्जए सया ||२४|| (सूत्रम्) व्याख्या – 'मृषा' इत्यसत्यं भूतनिवादि 'परिहरेत्' सर्वप्रकारमपि त्यजेत् भिक्षुः, 'न च' नैव 'अवधारणी' गम्यमानत्वाद् वाचं गमिष्याम एव वक्ष्याम एव इत्येवमाद्यवधारणात्मिकां 'वदेत्' भाषेत, किंबहुना ? 'भाषादोपम्' अशेषमपि वाग्रदूषणं सावधानुमोदनादिकं परिहरेत्, न च कारणोच्छेदं विना कार्योच्छेद इत्याह-मायां, चशब्दात् क्रोधादींश्च तद्धेतून वर्जयेत् 'सदा' सर्वकालमिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ किञ्च निर्युक्तिः [६४...] विज पुट्टो सावळं, न निरटुं न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्संतरेण वा ॥ २५॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'न लपेत्' न वदेत् 'पृष्ट' इति पर्यनुयुक्तः 'सावद्यं' सपापं न 'निरर्थम्' अर्थविरहितं दशदाडिमादि For P ~ 115~ अध्ययनम् १ ॥ ५६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः org Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२५|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२३|| एष वन्ध्यामुतो यातीत्यादि वा 'न' नैव, म्रियतेऽनेन राजादिविरुद्धेनोचारितेनेति मर्म तद्गच्छति वाचकतयेति मर्मगं, 8 वचन मिति सर्वत्र शेषः, अतिसक्लेशोत्पादकत्वात् तस्या , अत्राह च-"तहेवे काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा हवाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरोसि नो वए ॥१॥ एएणऽपणेण अटेणं, परो जेणुवहम्मई । आयारभावदोसण्णू , पण तं भासेज पण्णवं ॥२॥" 'आत्मार्थम् ' आत्मप्रयोजनं 'परार्थ वा परप्रयोजनम् 'उभयस्स'त्ति आत्मनः परस्य च, प्रयोजनमिति गम्यते 'अंतरेण वत्ति विना वा प्रयोजनमित्यपस्कारः, भाषादोष परिहरेदित्यनेनैव गते पृष्टविष-| यत्वादस्यापौनरुक्त्यं, यद्वा भाषादोपो जकारमकारादिरेव तत्र गृह्यत इति न दोषः, सूत्रद्वयेन चानेन वाग्गुप्त्यमिधानतश्चारित्रविनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ इत्थं खगतदोषपरिहारमभिधायोपाधिकृतदोपपरिहारमाहसमरेसु अगारेसुं, गिहसंधिसु अमहापहेसु । एगो एगित्थीए सद्धिं, नेव चिट्टेन संलवे ॥२६॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'समरेषु' खरकुटीपु, तथा च पूर्णिकृत्-'समैरं नाम जत्थ हेला लोयारा कम्मं करेंति' उपलक्षण वादस्यान्येप्यपि नीचास्पदेषु 'अगारेषु' गृहेषु 'गृहसन्धिषु च गृहद्वयान्तरालेषु च 'महापथेषु' राजमार्गादी, |किमित्याह-'एकः' असहायः एका-असहाया सा चासौ स्त्री च एकरी तया 'साई' सह 'नैव तिष्ठेत् ' अर्सल १ तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक इति वा । व्याधिमन्तं वाऽपि रोगी इति, सेनं चौर इति नो वदेत ॥शा एतेनान्येनार्थेन, पये दायेनोपहन्यते । आधारभावदोषज्ञो, न तद्भाषेत प्रज्ञावान् ॥ २ ॥२ समरं नाम थत्रावस्तात् लोहकाराः फर्म कुर्वन्ति । दीप अनुक्रम [२३] - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [२६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२६|| अध्ययनं [१], ॥ ५७ ॥ पन्नेव चोर्द्धस्थानस्थो न भवेत्, 'न संलपेत्' न तयैव सह संभाषं कुर्यात्, अत्यन्तदुष्टतोद्भावनपरं चैकग्रहणम्, अन्यथा ससहायस्यापि ससहायया अपि च स्त्रिया सहावस्थानं सम्भाषणं चैवंविधास्पदेषु दोषायैव, प्रवचनमालिन्यादिदोपसम्भवात्, अथवा सममरिभिर्वर्तन्त इति समरा द्रव्यतो जनसंहारकारिणः संग्रामाः भावात्तु स्त्रीणामरि8 भूतस्यात् ज्ञानादिजीवखतत्त्वघातिनः तासामेव या दृष्टिसम्बन्धाः, तत्रेह भावसमरैरधिकारः, सप्तमी चेयं, ततोऽयं भावार्थ:- द्रव्यसमरा हि न स्युरपि प्राणापहारिणः, भावसमरास्तु ज्ञानादिभावप्राणापहारिण एव, विशेषतस्त्वेका कितायां, तत एवमेतेष्वपि दारुणेषु भावसमरेषु सत्सु नैक एकत्रिया सार्द्धमगारादिषु तिष्ठेत् संलपेद्वा, अनेनापि चारित्रविनय एवोक्तः, उपदेशाधिकाराच न पौनरुक्त्यम् एवमन्यत्रापि भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ कदाचित् स्खलिते च गुरुभिः शिक्षितो यत्कुर्यात् तदेवाह - जं मे बुद्धाणुसासंति, सीएण फरुसेण वा । मम लाभुत्ति पेहाए, पयओ य (तं) पडिस्सुणे ॥२७॥ (सूत्रम् ) व्याख्या -- यन्मां बुद्धा 'अनुशासन्ति' शिक्षां ग्राहयन्ति 'शीतेन' सोपचारवचसा, 'शीलेन वे'ति पाठः, तत्र शीलं महाव्रतादि उपचारात्तज्जनकं वचोऽपि शीलं तेन, यहा 'शील समाधी' ततः शीलेन- समाधानकारिणा-भद्र ! भवादृशामिदमनुचितमित्यादिना, 'परुषेण' कर्कशेन, उभयत्र वचसेति गम्यते, तत् 'प्रतिशृणुयात्' विधेयतया अङ्गीकुर्यादित्युत्तरेण सम्बन्धः, किमभिसन्धायेत्याह-मम 'लाभः' अप्राप्तार्थप्राप्तिरूपः, यन्मामनाचारकारिणममी शास Education Intamational For Fans Only निर्युक्तिः [६४...] ~ 117~ अध्ययनम् ॥ ५७ ॥ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||२७|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| पन्तीति 'पेहाएत्ति' एकारस्थालाक्षणिकत्वात् प्रेक्ष्य-आलोच्य प्रेक्षया वा एवंविधबुद्ध्या 'पयतो'त्ति प्रयतः-प्रयत्न वान् , पदतो वा-तथाविधानुस्मर्यमाणसूत्रालापकादिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ किमिह परत्र चात्यन्तोपकारि गुरुव|चनमपि कस्यचिदन्यथा सम्भवति ?, येनैवमुपदिश्यते इत्याह अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य पेरणं । हियं तं मन्नए पन्नो, वेस्सं भवइ असाहुणो॥ २८ ॥ (सूत्रम् ) | व्याख्या-'अनुशासनम्' उक्तरूपम् ‘ओवाय ति उपाये-मृदुपरुषभाषणादी भवमोपाय, यद्वा 'ओबायंति' सूत्रत्वात् उपपतनमुपपातः-समीपभवनं तत्र भवमोपपातं-गुरुसंस्तारास्तरणविश्रामणादिकृत्यं 'दुष्कृतस्य च' कुत्सिताचरितस्य प्रेरणं-हा ! किमिदमित्थमाचरितमित्याद्यात्मकं, गुरुविहितमिति गम्यते, 'हितम्' इहपरलोकोपकारि, तदित्यनुशासनादि मन्यते 'प्राज्ञः' प्रज्ञायान् द्वेष्यं द्वेपोत्पादकं भवति' जायते, कस्य ?-'असाधोः' अपगतभावसाधुत्वस्य, तदनेनासाधोर्गुरुवचनस्याप्यन्यथात्वसम्भव उक्त इति सूत्रार्थः ।। २८ ॥ अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाहहियं विगयभया बुद्धा, फरुसमप्पणुसासणं । वेस्सं तं होइ मूढाणं, खंतिसुद्धिकरं पयं ॥२९॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'हितं' पथ्यं 'विगतभयाः' सप्तभयरहिताः 'बुद्धाः' अवगततत्त्वाः, मन्यन्त इति शेषः, 'परुषमपि' कर्कशमपि, अनुशासनं शिष्याणां गुरुविहितमिति प्रक्रमः, 'द्वेष्य' द्वेषोत्पादि 'तद्' इत्यनुशासनं भवति 'मूढानाम् | दीप अनुक्रम [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||२९|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२९|| उत्तराध्य अज्ञानानां, क्षान्ति:-क्षमा शुद्धिः-आशयविशुद्धता सत्करणं, यद्वा-क्षान्तेः शुद्धिः-निर्मलता शान्तिशुद्धिसत्करम् , अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः अमुढानां विशेषतः क्षान्तिहेतुत्वाद् गुर्वनुशासनस्य, मार्दवादिशुद्धिकरत्वोपलक्षणं चैतद्, अत एव पद्यते-गम्यते । गुणैज्ञोनादिभिरिति पदं-ज्ञानादिगुणस्थानमित्यर्थः, अथवा-परुषमपीत्सपिशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च हितमप्यायत्यां ॥५८॥ |विगतभयाद् 'बुद्धाद्' आचार्यादेः, उत्पन्नमिति शेषः, परुषं यच्छुत्यसुखदमनुशासनं, तत्किमित्याह-द्वेष्यं तद्भवति मूढानां, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ पुनर्विनयमेवाहआसणे उवचिट्ठिज्जा, अनुच्चेऽकुकुर थिरे । अप्पुत्थाई निरुत्थाई, निसीजा अप्पकुकुई ॥३०॥ (सूत्रम्) व्याख्या-आसन' पीठादि वर्षा ऋतुबद्धे तु पादपुग्छनं तत्र पीठादी 'उपतिष्ठेत्' उपविशेत् , 'अनुचे| द्रव्यतो नीचे भावतस्त्वल्पमूल्यादी, गुर्वासनात् इति गम्यते, 'अकुकचे' अस्पन्दमाने, न तु तिनिशफलकबत् कि|श्चिचलति, तस्य शृङ्गाराङ्गत्वात् , 'स्थिरे' समपादप्रतिष्ठिततया निश्चले, अन्यथा सत्त्वविराधनासम्भवात्, इदृश्य४प्यासने अल्पमुत्थातुं शीलमस्खेति अल्पोत्थायी, प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशील, निरुत्थायीन निमित्तं, ॥५८॥ दाविनोत्थानशीलः, उभयत्रान्यथाऽनवस्थितत्वसम्भवात् , एवंविधश्च किमित्याह-निपीदेत्' आसीत, 'अप्पकु-II कुइ' ति अल्पस्पन्दनः, करादिभिरल्पमेव चलन् , यद्वा-अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, ततश्चालपम्-असत् , कुक्कु दीप अनुक्रम [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [३०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३०|| अध्ययनं [१], Education intemational यंति कौल्कुचं- करचरणभ्रूभ्रमणाद्यस चेष्टात्मकमस्येत्यल्पकौत्कुचः, अनेनाप्यौपचारिकविनयः प्रकारान्तरेणोक्त इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ सम्प्रति चरणकरणविनयात्मिकामेषणासमितिमाह-arr क्खिमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥ ३१॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'काले ' ति सप्तम्यर्थे तृतीया, काले प्रस्तावे 'निष्क्रामेत्' गच्छेत् भिक्षुः, अकालनिर्गमे आत्मक्लामनादिदोषसम्भवात् तथा कालेन च 'प्रतिक्रामेत्' प्रतिनिवर्त्तेत, भिक्षाटनादिति शेषः, इदमुक्तं भवति - अलाभेऽपि - जलाभोति न सोइजा, तवोत्ति अहियासए' इति समयमनुस्मरन्, अल्पं मया लब्धं न लब्धं वेति लाभार्थी नाटज्ञेव तिष्ठेत् किमित्येवमत आह- 'अकाल' तत्तत्क्रियाया असमयं चेति, यस्माद्विपर्ययकाले प्रस्तावे प्रत्युप्रेक्षणादिसम्बन्धिनि 'कालमिति तत्तत्कालोचितं क्रियाकाण्डं 'समाचरेत् कुर्यात्, अन्यथा कृषीवल कृषीक्रियाया | इवाभिमतफलोपलम्भासम्भव इति गर्भार्थः, अनेन च कालनिष्क्रमणादी हेतुरुक्तः, प्रसङ्गात् शेषक्रियाविषयतया वा नेयं, समुचयार्थश्च तदा चशब्द इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ निर्गतश्च यत्कुर्यात्तदाह परिवाडिए ण चिट्टिजा, भिक्खू दत्तेसणं चरे। पडिरूवेण एसिप्ता, मियं कालेण भक्खए ॥३२॥ (सूत्रम्) व्याख्या 'परिपाटी' गृहपतिः, तस्यां 'न तिछेत् न पङ्किस्थगृहभिक्षोपादानायैकत्रावस्थितो भवति, तत्र १ अलाभ इति न शोचेत् तप इत्यध्यासीत । For Fans Only निर्युक्तिः [६४...] ~ 120~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||३२|| नियुक्ति: [६४...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ५९॥ प्रत सूत्रांक ||३२|| दायकदोषाऽनवगमप्रसङ्गात् , यद्वा-पङ्क्त्यां -मोक्तुमुपविष्टपुरुषादिसम्बन्धिन्यां न तिष्ठेत् , अप्रीत्यदृष्टकल्याणतादि- अध्ययनम् दोषसम्भवात् , किञ्च ? 'भिक्षुः' यतिः, दत्तं-दानं तस्मिन् गृहिणा दीयमाने 'एषणां' तद्गतदोषान्वेषणात्मिका 'चरेत् ' आसेवेत, 'चरतिः आसेवायामपि वर्त्तते' इति वचनात् , अनेन ग्रहणैषणोक्ता, किं विधाय दत्तषणां चरेत् ?-'प्रतिरूपेण' प्रधानेन रूपेणेति गम्यते, यवा-प्रतिप्रतिबिम्ब चिरन्तनमुनीनां यद्रूपं तेन, उभयत्र पतद्ग्रहादिधारणात्मकेन सकलान्यधार्मिकविलक्षणेन, न तु 'वखं छत्र छात्रं पात्रं यष्टिं च वर्जयेद् भिक्षुः । वेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न भिक्षाऽपि ॥१॥' इत्यादिवचनाकर्णनाद् विभूषणात्मकेनैपयित्वा,अनेन च गवेषणाविधिरुक्तः, ग्रासैपणाविधिमाह-'मितं' परिमितमतिभोजनात् खाध्यायविधातादिबहुदोषसंभवात् , 'कालेन' इति- णमोकारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं। सज्झायं पट्टवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥१॥' इत्याद्यागमोक्तप्रस्तावेनाद्रुताविलम्बितरूपेण वा 'भक्षयेत्' भुञ्जीतेति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ यत्रान्यभिक्षुकासंभवस्तत्र बिधिरुक्तः, यत्र तु पुराऽऽयातान्यभिक्षुकसम्भवस्तत्र विधिमाह नाइदूरे अणासपणे,नन्नेसिं चक्खुफासओ। एगो चिट्रेज भत्तट्रलंबित्ता तं नइक्कमे॥३३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'नातिदूरं' सुवव्यत्ययात् नातिदूरे-अतिविप्रकर्षवति देशे, तिष्ठेदिति सम्बन्धः, तत्र च तन्निर्गमावस्था-16 १ नमस्कारेण पारयित्वा कृत्वा (च) जिनसंतवम् । स्वाध्यायं प्रस्थाप्य विश्राम्येन् क्षणं मुनिः ।। १॥ दीप अनुक्रम [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||३३|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३३|| नानवगमप्रसाद् एषणाशुद्धषसम्भवाच, तथा 'अणासपणे'त्ति प्रसज्यप्रतिषेधार्थत्वात् नमोऽनासन्ने प्रस्तावान्नाति-31 निकटवर्तिनि भूभागे तिष्ठेत् , तत्र पुराप्रविष्टापरभिक्षुकाप्रीतिप्रसक्तेः 'नान्येषां' भिक्षुकापेक्षया परेषां गृहस्थानां |'चक्षुःस्पर्शत' इति सप्तम्यर्थे तसिः, ततः चक्षुःस्पर्श-दृग्गोचरे चक्षुःस्पर्शगो वा दृग्गोचरगतः 'तिष्ठेत् ' आसीत,12 किन्तु विविक्तप्रदेशस्थो यथा न गृहिणो विदन्ति,यदुत-एष भिक्षुको निष्क्रमणं प्रतीक्षत इति,तथा एगो'त्ति किम-13 मी मम पुरतः प्रविष्टा इति तदुपरि द्वेषरहितः 'भक्ता' भोजननिमित्तं, न च 'लंपित्त'त्ति उलथ्य, 'तम्' इति | भिक्षुकम् , 'अतिक्रामेत्' प्रविशेत् , तत्रापि सैदप्रीत्यपवादादिसम्भवाद् । इह च मितं कालेन भक्षयेदिति भोजन-1 मभिधाय यत्पुनर्भिक्षाटनाभिधानं तत् ग्लानादिनिमित्तं स्वयं वा बुभुक्षावेदनीयमसहिष्णोः पुनर्भमणमपि न दोपा-र येति ज्ञापनार्थम् , उक्तं च--"जब तेण न संथरे । तओ कारणमुप्पण्णे,भत्तपाणं गवेसए॥१॥"इत्यादि, सूत्रार्थः॥३३॥ पुनस्तद्गतविधिमेवाभिधित्सुराह नाइउच्चे नाइनीए, नासन्ने नाइदूरओ। फासुयं परकडं पिंडं, पडिगाहिज्ज संजए॥३४॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'नात्युच्चे' प्रासादोपरिभूमिकादौ नीचे वा-भूमिगृहादौ, तत्र तदुत्क्षेपनिक्षेपनिरीक्षणासम्भवाद् दायकापायसम्भवाच, यद्वा 'नात्युचः' उच्चस्थानस्थितत्वेन ऊकृतकन्धरतया वा द्रव्यतो भावतस्त्वहो । अहं १ यदि तेन न संस्तरेत् । ततः कारण उत्पन्ने, भक्तपानं गवेषयेन् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३३] %24 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||38|| दीप अनुक्रम [३४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ६० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३४|| अध्ययनं [१], Education infamational लब्धिमानिति मदाध्मातमानसः, नीचोऽत्यन्तावनतकन्धरो निम्नस्थानस्थितो वा द्रव्यतः भावतस्तु न मयाऽद्य कि ञ्चित् कुतोऽप्यवासमिति दैन्यवान्, उभयत्र वा समुच्चये, तथा 'नासन्ने' समीपवर्तिनि 'नातिदूरे' अतिविप्रकर्षवति प्रदेशे स्थित इति गम्यते, यथायोगं जुगुप्साशङ्कषणाशुद्धयसम्भवादयो दोषाः, अथवा अत एव नासन्नो नातिदू रगः, प्रगता असव इति सूत्रत्वेन मतुलोपादसुमन्तः - सहजसंसक्किजन्मानो यस्मात् तत् प्रायुकं, परेण गृहिणाssत्मार्थं परार्थे वा कृतं- निर्वर्त्तितं परकृतं, किं तत् ? - पिण्डस्' आहारं 'प्रतिगृहीयात् ' स्वीकुर्यात्, 'संयतः' यतिरिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ इत्थं सूत्रद्वयेन गवेषणाग्रहणैषणाविषयं विधिमुक्त्वा प्रासैपणाविधिमाह अप्पपाostrate वा, पडिच्छन्ने य संबुडे । समयं संजओ भुंजे, जयं अप्परिसाडियं ॥ ३५॥ (सूत्रम्) व्याख्या -- अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, तथेहापि सूत्रत्वेन मत्वर्थीयलोपात् प्राणाः प्राणिनस्ततश्चाल्पा- अविद्यमानाः प्राणाः प्राणिनो यस्मिंस्तदल्पप्राणं तस्मिन् अवस्थितागन्तुकजन्तुविरहिते, उपाश्रयादाविति गम्यते, तथा अल्पानि - अविद्यमानानि बीजानि - शाल्यादीनि यस्मिंस्तदल्पवीजं तस्मिन् उपलक्षणत्वाश्चास्य सकलैकेन्द्रियविरहिते, ननु चाल्पप्राण इत्युक्ते अल्पवीज इति गतार्थ, बीजानामपि प्राणत्वाद्, उच्यते, मुखनासिकाभ्यां यो निर्गच्छति वायुः स एवेह लोके रूढितः प्राणो गृह्यते, अयं च द्वीन्द्रियादीनामेव संभवति, न बीजाद्येकेन्द्रियाणामिति कथं गतार्थता ?, तत्रापि 'प्रतिच्छन्ने' उपरिप्रावरणान्विते, अन्यथा सम्पातिमसत्वसम्पातसम्भवात् 'संवृते' पार्श्वतः For FPs Use Only निर्युक्तिः [६४...] ~ 123~ अध्ययनम् १ ॥ ६० ॥ www.pincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1 / गाथा ||३५|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| | कटकुट्यादिना सङ्कटद्वारे, अटव्यां कुडङ्गादिषु वा, अन्यथा दीनादियाचने दानादानयोः पुण्यवन्धप्रद्वेषादिदर्शनात्, संवृतो वा सकलाश्रयविरमणात् , 'समकम् ' अन्यैः सह, न त्वेकाक्येव रसलम्पटतया समूहासहिष्णुतया वा, अत्राह च-"साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज जहकम। जइ तत्थ कोइ इच्छेजा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ॥१॥'त्ति, गच्छस्थितसामाचारी चेयं गच्छस्यैव जिनकल्पिकादीनामपि मूलत्वख्यापनायोक्ता, उक्तं हि-'गच्छे थिय निम्मा ओ' इत्यादि, यद्वा 'समय'ति सममेव समकं-सरसविरसादिष्वभिष्वङ्गादिविशेषरहितं, सम्यग् यतः संयतः यतिरित्यर्थः, 'भुञ्जीत' अश्नीयात् 'जय'ति यतमानः 'अप्परिसाडिय'ति परिसाटविरहितमिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ यदुक्तं 'यतमान इति, तत्र बाग्यतनामाहसुकडंति सुपक्कंति, सुछिन्नं सुहडे मडे । सुनिट्ठिए सुलवित्ति, सावजं वजए मुणी ॥ ३६॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'सुकृतं' सुष्टु निर्वर्तितमन्नादि 'सुपक्कं' घृतपूर्णादि, 'इतिः' उभयत्र प्रदर्शने, 'सुच्छिन्नं' शाकपत्रादि 'सुहत शाकपत्रादेतिक्तत्वादि घृतादि वा सूपविलेपिकादीनां, तथा 'मडे'त्ति प्रक्रमात् सुष्टु मृतं घृतायेव सक्तुदसूपादी, तथा सुष्टु निष्ठितमित्यतिशयेन निष्ठां-रसप्रकर्षपर्यन्तात्मिकां गतं, 'सुलहित्ति सर्वैरपि रसादिभिः प्रकारैः । शोभनमिति, 'इतिः' एवंप्रकारार्थः, एवंप्रकारमन्यदपि सावधं प्रक्रमाद्वचो, वर्जयेन्मुनिः। यद्वा-सुष्टु कृतं यदनेनारातः १ साधून ततः प्रीत्या निमन्वयेत् यथाक्रमम् । यदि तत्र कोऽपीच्छेत् तेन सार्ध तु भुजीत ॥ १ ॥ २ गच्छ एव निर्मातः. दीप अनुक्रम [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||३६|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| उत्तराध्यप्रतिकृतं, सुठु पक्कं मांसाशनादि, सुच्छिन्नोऽयं न्यग्रोधपादपादिः, सुहृतं कदर्यादर्धजातं, सुहतो वा चौरादिः, सुमृतोऽयंअध्ययनम् दि प्रत्यनीकधिग्वर्णादिः, सुनिष्ठितोऽयंप्रासादकूपादिः, 'सुलट्ठि'त्ति शोभनोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सायचं वचो वर्जयेन्मुनिः । निरवयं तु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपकमस्य वचनविज्ञानादि, सुच्छिन्नं स्नेह निगडादि, सुहृतमुप॥१॥ करणमशियोपशान्तये, सुहतं वा कर्मानीकादि, सुमृतमस्य पण्डितमरणमर्तुः, तथा सुनिष्ठितोऽसौ साध्याचारविषये, 'सुलढित्ति शोभनमस्य तपोऽनुष्ठानमित्यादिरूपं, कारणतो वा-"पयंत्तपक्केत्ति व पकमालवे, पयत्तछिन्नत्ति व छिन्नमालवे । पयत्तलहेत्ति व कम्महे उयं, पहारगाढेति व गाढमालवे ॥१॥" इत्याप्तोपदेशात् प्रयत्नकृतपक्कादिरूपं वदेदपीति, असिंच पक्षे प्रतिरूपयोगयोजनात्मको वाचिकविनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ विनय एवादरख्यापनाय सुविनीतेतरोपदेशदानतो यद्गुरोर्भवति तदुपदेशयितुमाहटारमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । बालं सम्मइ सासंतो, गलिअस्समिव वाहए ॥ ३७॥ (सूत्रम्)। व्याख्या-'रमते' अभिरतिमान् भवति, 'पण्डितान्' विनीतविनेयान् , 'शासत्' इत्याज्ञापयन् कथञ्चित् प्रमा-1 दस्खलिते शिक्षयित्वा, गुरुरिति शेषः, कमिव कः ? इत्याह-'हयमिव' अश्वमिव, कीरशम् ?-भाति भन्दते वा १प्रयनपक इति या पकमालपेत् , प्रयत्नच्छिन्न इति वा छिन्नमालपेत् । प्रयत्नलष्ट इति वा कर्महेतुकं, प्रहारगाढ इति वा गाठमालपेत् ॥१॥ दीप अनुक्रम [३६]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३७|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३७|| भद्रस्त-कल्याणावह 'वाहकः' अश्वन्दमः, 'बालम्' अज्ञं 'श्राम्यति' खिद्यते शासत् , स हि सकृदुक्त एव न ४ कृत्येषु प्रवर्तते, तत इदं कुरु इदं च मा कार्षीरित्यादि पुनः पुनस्तमाज्ञापयन् शिक्षयित्वा, कमिव कः? इत्याह-'ग-4 लिम्' उक्तरूपमश्वमिव वाहक इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ गुरोः श्रमहेतुत्वमुद्भावयन् बालस्याभिसन्धिमाह खड्डयाहिं चवेडाहिं, अक्कोसेहि वहेहि य । कल्लाणमणुसासंतं, पावदिदित्ति मन्नइ ॥ ३८॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'खडकाभिः' टक्कराभिः 'चपेटाभिः' करतलाघातः 'आक्रोशैः' असत्यभाषणैः 'बधैश्च' दण्डिकादिघातैः, चशब्दादन्यैश्चैवंप्रकारैर्दुःखहेतुभिरनुशासनप्रकारस्तमाचार्य 'कल्याणम्' इहपरलोकहितम् 'अनुसासन्तं' शिक्षयन्तं, पापा दृष्टिः-बुद्धिरस्पेति पापदृष्टिः, अयमाचार्य इति मन्यते, यथा-पापोऽयं मां हन्ति निघृणत्वात् , चारकपालकवत्, पठन्ति च-खड्डया में' इत्यादि, अत्र व्यवच्छेदफलत्वाद् वाक्यस्य खड्कादय एव मम नापरं किञ्चित् समीहितमस्तीत्यभिसन्धिना कल्याणमनुशासन(त)माचार्य पापदृष्टिं मन्यते, यदा-वाग्भिरप्यनुशास्त्रमानोऽसौ खडकादिरूपा वाचो मन्यत इति सूत्रार्थः ॥ ३८॥ गुरोरतिहितत्वं प्रचिकाशयिपुर्विनीताभिसन्धिमाहपुत्तो मे भाय नाइत्ति, साहू कल्लाण मन्नइ। पावदिट्ठि उ अप्पाणं, सासंदासं व मन्नइ ॥३९॥(सूत्रम्)। व्याख्या-पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति, अत्रेवार्थस्य गम्यमानत्वात् पुत्र इवेत्यादिबुद्याऽऽचार्यों मामनुशास्तीति दीप अनुक्रम [३७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३९|| दीप अनुक्रम [३९] उत्तराध्य. बृहद्वत्तिः ।। ६२ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३९|| अध्ययनं [१], ratnamation 'साधुः' सुशिष्यः 'कल्याणं' कल्याणहेतुमाचार्यमनुशासनं वा मन्यते स हि विवेचयति शिष्यः - सौहार्दादसों मां शास्ति, दुर्विनीतत्वे हि मम किमस्य परिहीयते ?, ममैव त्वर्थभ्रंश इति । बालोऽप्येवं किं न मन्यत इत्याह- 'पापदृष्टिस्तु' कुशिष्यः पुनरात्मानं 'साम'ति प्राकृतत्वाद्धितानुशासनेनापि शास्यमानं दासमिव मन्यते यथा असौ दासवन्मामाज्ञापयति, ततोऽस्य शास्त्ररि पापदृष्टिताऽभिसन्धिरेव सम्भवतीति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ विनयसर्व| खमुपदेष्टुमाह ण को आयरियं, अप्पाणंपिण कोवए । बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥४०॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'न कोपयेत्' न कोपोपेतं कुर्यात्, आचार्यम् उपलक्षणत्वादपरमपि विनयार्हम्, 'आत्मानमपि' गुरुभिरतिपरुषभाषणादिनाऽनुशिष्यमाणं न कोपयेत् कथञ्चित् सकोपतायामपि 'बुद्धोपघाती' आचार्योपघातकृत् 'न स्यात्' न भवेत् तथा न स्यात् तुद्यते - व्यथ्यतेऽनेनेति तोत्रं - द्रव्यतः प्राजनको भावतस्तु तद्दोषोद्भावकतया (व्यथोपजनकं वचनमेव, सद् गवेषयति किमहममीषां जात्यादिदूषकं वच्मि ? इत्यन्वेषयतीति तोत्रगवेषकः, प्रक्रमादुरूणां न स्यादिति चादरख्यापनार्थत्वान्न पुनरुक्तं, यदुक्तं - बुद्धोपघाती न स्यात्तत्रोदाहरणं - कश्चिदाचार्यादिगणिगुणसम्पत्समन्वितो युगप्रधानः प्रक्षीणप्रायकर्माऽऽचार्योऽनियतविहारितया विहर्तुमिच्छन्नपि परिक्षीणजङ्घावलः क्वचिदेकस्थान एवावतस्थे तत्रत्यश्रावकजनेन चैतेषु भगवत्सु सत्सु तीर्थं सनाथमिति विचिन्तयता तद्वयोऽवस्थासमुचितस्त्रि Forsy निर्युक्तिः [६४...] ~127~ अध्ययनम् १ ॥ ६२ ॥ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा |४|| नियुक्ति: [६४...] (४३) *% प्रत सूत्रांक ||४०|| A4 ग्धमधुराहारादिभिः प्रतिदिवसमुपचर्यते स्म, तच्छिष्याच गुरुकर्मतया कदाचिदचिन्तयन् , यथा-कियचिरमयमजजमोऽस्माभिरनुपालनीयः, ततस्तमनशनमादापयितुमिच्छयोऽतिभक्तश्रावकजनानुदिनदीयमानमुचितमशनादि तस्मै न समर्पयामासुः, अन्तप्रान्तादि च समुपनीय सविषादमिव तत्पुरत उक्तवन्तः-किमिह कुर्मः १, यदीदृशामपि भवतामुचितमशनादिनामी विवेकविकलतया सदपि सम्पादयितुमीशते, श्राद्धानभिदधति च, यथा-अत्यन्तनिःस्पृह|तया शरीरयापनामपि प्रत्यनपेक्षिणः प्रणीतं भक्तपानमाचार्या नेच्छन्ति, किन्तु संलेखनामेव विधातुमध्ययस्यन्तीति। ततस्ते तद्वचनमाकार्य मन्युभरनिभृतचेतसस्तमुपसृत्य सगद्दं जगदुः-भगवन् ! भुवनभवभावखभावावभासिवर्हत्सु चिरतरातीतेष्वपि प्रतपत्सु भवत्सु भुवनमवभासयदिवाभाति, तत्किमयमत्र भवद्भिरकाल एव संलेखनाविधिरारब्धः?, न च वयममीषां निर्वेदहेतव इति मन्तव्यं, यतः-शिरःस्थिता अपि भवन्तो न भारमस्माकममीपां वा शिष्याणां - कदाचिदादधति, ततस्तैरिक्तिहरवगतं-यथाऽस्मन्शियमतिविजृम्भितमेतत् , किममीपामप्रीतिहेतुना प्राणधारणेन ? न खलु धर्मार्थिनां कस्यचिदप्रीतिरुपादयितुमुचितेति चेतसि विचिन्त्य मुकुलितमेव तत्पुरत उक्कं-कियचिरमजजमैरस्माभिरुपरोधनीयास्तपखिनो भवन्तश्च, तद्वरमुत्तमाचरितमुत्तमार्थमेव च प्रतिपद्यामहे इति तानसी संस्थाप्य | भक्तमेव प्रत्याचचक्षे । इत्येवं बुद्धोपघाती न स्यादिति सूत्रार्थः ॥४०॥ एवं तापदाचार्य न कोपयेदित्युक्तं, कथञ्चित कुपिते वा यत् कृत्यं तदाह दीप अनुक्रम [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४१॥ दीप अनुक्रम [४१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ६३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४१|| अध्ययनं [१], आयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएणं पसायए । विज्झविजा पंजलिउडे, वएजा न पुणोत्ति य॥। ४१॥ (सूत्रम्) व्याख्या - ' आचार्यम्' उक्तखरूपम्, उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिकमपि 'कुपितम्' इति सकोपमनुशासनोदासीनताभिः, -' पुरिसजाएत्रि तहा विणीयविणयम्मि णत्थि अभियोगो । सेसंमि उ अभिओगो जणवयजाए जहा आसे ॥ १ ॥ इत्यागमात् कृतवहिष्कोपं वा दृष्यप्रदानादिना 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'पत्तिएण 'ति आर्षत्वात् प्रतीतिः प्रयोजनमस्येति प्रातीतिकं-शपधादि, अपिशब्दस्य चेह लुप्तनिर्दिष्टत्वात् तेनापि प्रसादयेत् इदमुक्तं भवति-गुरुकोपहेतुकम बोध्याशातनामुक्त्यभावादिकं विगणयन् यया तया गत्या तत्प्रसादनमेवोत्पादयेत् सर्वमपि वा प्रतीत्युत्पादकं वचः प्रातीतिकं तेन प्रसादयेत्, यद्वा 'पत्तिएणं'ति प्रीत्या साम्नैव, न भेददण्डाद्युपदर्शनेन एतदेवाह - 'विध्यापयेत्' कथञ्चिदुदीरितकोपानलानप्युपशमयेत्, प्रकर्षेण - अन्तः प्रीत्यात्मकेन कृतो विहितोऽञ्जलिः-उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच कृतशब्दस्य परनिपातः, प्रकृष्टं वा भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्पेति प्राञ्जलिपुटः, इत्थं कायिकं मानसं च विध्यापनोपायमभिधाय वाचिकं वक्तुमाह-'वदेत्' श्रूयात् न पुनरिति, चशब्दो भिन्नक्रमः, वदेदित्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः- कथञ्चित् कृतकोपानपि गुरून् विध्यापयन् वदेत् १ पुरुषजातेऽपि तथा विनीतविनये नास्त्यभियोगः । शेषे त्वभियोगो जनपदजाते यथाऽवे ॥ १ ॥ For Fans Only निर्युक्ति: [ ६४...] ~ 129~ अध्ययनम् १ ॥ ६३ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||४|| नियुक्ति: [६४...] (४३) ** प्रत सूत्रांक ||४१|| यथा-भगवन् । प्रमादाचरितमिदं मम क्षमितव्यं, न पुनरित्यमाचरिष्यामीति सूत्रार्थः ॥४१॥ साम्प्रतं यथा निर|पवादतयाऽऽचार्यकोप एव न स्यात् तथाऽऽहधम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहाऽऽयरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥४२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-धर्मेण-क्षान्त्यादिरूपेणार्जितम्-उपार्जितं धर्मार्जितं, न हि क्षान्त्यादिधर्मविरहित इमं प्राप्नोतीति,'चः' पूरणे, विविधं विधिवद्वाऽवहरणमनेकार्थत्वादाचरणं व्यवहारस्तं-यतिकर्तव्यतारूपं, 'बुद्धैः' अवगततत्त्वैः आचरितं, 'सदा सर्वकालं, 'त'मिति सदावस्थिततया प्रतीतमेव 'आचरन्' व्यवहरन्, यद्वा-यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् सुव्यत्ययाच धर्मार्जितो बुद्धराचरितश्च यो व्यवहारस्तमाचरन् कुर्वन् , विशेषेणापहरति पापकर्मेति व्यवहारस्तं, व्यवहारविशे षणमेतत् , एवं च किमित्याह-'गर्हाम्' अविनीतोऽयमित्येवंविधां निन्दां 'नाभिगच्छति न प्राप्नोति, यतिरिति गम्यते। दायद्वा-आचार्यविनयमनेनाह, तत्र धर्मादनपेतो धयों-न धर्मातिक्रान्तः, 'जियं च ववहार'ति प्राकृतत्वाचस्य भिन्न क्रमवाजीतव्यवहारश्च, अनेन चागमादिव्यवहारव्यवच्छेदमाह, अत एव 'बुद्धः' आचाराचरितः सदा-सर्वकालं त्रिकालविषयत्वात् जीतन्यवहारस्य, य एवंविधो व्यवहारस्तं व्यवहारं-प्रमादात् स्खलितादी प्रायश्चित्तदानरूपमाच-18 रन् 'गही' दण्डरुचिरयं निघृणो वेत्येवंरूपां जुगुप्सां नाभिगच्छति, आचार्य इति शेषः, न चायं निजक उपकारी दीप अनुक्रम [४१] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४२|| नियुक्ति: [६४...] (४३) अध्ययनम् उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४॥ प्रत सूत्रांक ||४२|| CBCHECASEASCAMECTS या मम विनेय इति न दण्डनीय इति ज्ञोपनार्थं च धर्म्यजीतविशेषणं, पठन्ति च-'तमायरंतो मेहावि'त्ति सुगममे- वेति सूत्रार्थः ॥४२॥ किंबहुना?मणोगयं वक्तगयं, जाणित्ताऽऽयरियस्स उ।तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए॥४३॥(सूत्रम्)| व्याख्या-मनसि-चेतसि गत-स्थितं मनोगतं तथा वाक्य-वचनरचनात्मनि गतं वाक्यगतं, कृत्यमिति शेषः, वाक्यग्रहणं तु पदस्थापरिसमाप्ताभिधायित्वेन क्वचिदप्रयोजकत्वात् , 'ज्ञात्या' अवबुध्य 'आचार्यस्य' विनयाहस्य गुरोः, तुशब्दः कायगतकृत्यपरिग्रहार्थः, 'तत्' मनोगतादि 'परिगृह्य' अङ्गीकृत्य 'वाचा' वचसा इदमित्थं करोमीत्यात्मकेन 'कर्मणा' क्रियया तन्निर्वर्तनात्मिकया तदुपपादयेत्-विदधीत, पठन्ति च-मणोरुई पकरुई, जाणित्ताऽऽय-I& रियस्स उ'अत्र च मनसिरुचिः-अभिलापस्तामाचार्यस्य ज्ञात्वा-इदममीषां भगवतामभिमतमित्यवगम्य, वाक्ये रुचिःपर्यवसितकार्यवाञ्छा तां च, शेषं प्राग्वत् , अनेन सूक्ष्मो विनय उक्त इति सूत्रार्थः॥४३॥ स चैवं विनीतविनयतया यादृक् स्यात्तदाहवित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोयए । जहोवइटुं सुकडं, किच्चाई कुबई सया ॥४४॥ (सूत्रम् ___ व्याख्या-'वित्ते' इति विनीतविनयतयैव सकलगुणाश्रयतया प्रतीतः प्रसिद्ध इतियावत् , 'अचोइए'त्ति यथा हि दीप अनुक्रम [४२] ॥१४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||४४|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४४|| हवलवद्विनीतधुर्यः प्रतोदोत्क्षेपमपि न सहते, कुतस्तनिपतनम् ?, एवमयमप्यचोदित एवं प्रतिप्रस्तावं गुरुकृत्येषु प्रव तत इति कुतः प्रेरितत्वमस्य ?, 'निलं' सदा, न कदाचिदेव, खयं प्रवर्तमानोऽपि प्रेरितोऽनुशयवानपि सादिति | कदाशङ्कापनोदायाह-क्षिप्रम्' इति शीघं भवति 'सुचोयए' ति शोभने प्रेरयितरि, गुराविति गम्यते, सोप|स्कारत्वाच क्षिप्रमेव प्रेरके सति कृत्येषु वर्तते, नानुशयतो विलम्बितमेव, पठ्यते च-वित्ते अचोइए खिप्पं, पसन्ने थाम करें' इति, अत्र च 'प्रसन्नः' प्रसत्तिमान् , नाहमाज्ञापित इत्यप्रसन्नो भवति, किन्तु ममायमनुग्रह इति मन्यते,R क्षिप्रमेय च तत्कुरुते, 'थामवंति स्थाम-बलं तद्वान् , किमुक्तं भवति ?-सति बले करोति, असति च सद्भावमेवाऽऽख्याति, यथाऽहमनेन कारणेन न शक्नोमीति । क्षिप्रमपि कुर्वन् कदाचिद्विपरीतमविहितं वा विदध्यात् तद्वयवच्छेदायाह-'यथोपदिष्टम्' उपदिष्टानतिक्रमण, 'सुकृतं' सुष्टु परिपूर्ण कृतं यथा भवत्येवं कृत्यानि 'करोति' निर्वर्तयति, सदा सता वा शोभनेन प्रकारणेति सूत्रार्थः॥४४ ॥ सम्प्रत्युपसंहर्तुमाह- . णच्चा णमइ मेहावी, लोए कित्ती य जायइ। किच्चाणं सरणं होई, भूयाणं जगई जहा ॥४५॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'ज्ञात्वा' अनन्तरमखिलमध्ययनार्थमवगम्य 'नमति' तत्कृत्यकरणं प्रति प्रवीभवति 'मेधावी' एतदध्ययनार्थावधारणशक्तिमान् मर्यादावर्ती वा, तद्गुणं वक्तुमाह-लोके कीर्तिः-सुलब्धमस्य जन्म निस्तीर्णरूपो भवोदधिरनेनेत्यादिका श्लाघा चशब्द:-'एकदिग्व्यापिनी कीर्तिः, सर्वदिग्व्यापकं यशः' इति प्रसिद्धेर्यशश्चेति समुचि-II दीप अनुक्रम [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1 / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [६४... (४३) अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४५|| उत्तराध्य. नोति, उभयमपि प्रक्रमान्नन्तुरेव 'जायते' प्रादुर्भवति, स एव भवति 'कृत्यानाम्' उचितानुष्ठानाना कलुषान्तःकर-12 गवृत्तिभिरविनीतपिनयैरतिदूरमुत्सादितानां 'शरणम्' आश्रय इत्यर्थः, केषां केव ?-'भूतानां' प्राणिनां 'जगती' वृद्धृत्तिः पृथ्वी यथेति सूत्रार्थः॥४५॥ ननु विनयः पूज्यप्रसादनफलः, ततोऽपि च किमवाप्यत इत्याह पूजा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुवसंथुया । पसन्ना लंभइस्संति, विउलं अट्रियं सुयं ॥४६॥ (सूत्रम्) A व्याख्या-पूजयितुमर्हाः पूज्या-आचार्यादयः 'यस्य' इति विवक्षितशिष्योपदर्शक सर्वनाम 'प्रसीदन्ति' तुष्य४न्ति 'सम्बुद्धवाः सम्यगवगतवस्तुतत्त्वाः, पूर्व-वाचनादिकालादारतो न तु वाचनादिकाल एव, तत्कालविनयस्य कृत-2 है प्रतिक्रियारूपत्वेन तथाविधप्रसादाजनकत्वात् , संस्तुता-विनयविषयत्वेन परिचिताः सम्यक्स्तुता वा सद्भूतगुणो कीर्तनादिभिः पूर्वसंस्तुताः, शेषविनयोपलक्षणमेतत् , 'प्रसन्ना' इति सप्रसादाः, पठ्यते च-सम्पन्नाः' ज्ञानादिगुणपरिपूर्णाः सम्यग्-अविपरीता प्रज्ञा येषां ते सत्प्रज्ञा वा, 'लम्भयिष्यन्ति' प्रापयिष्यन्ति, किमिलाह-'विपुलं'विस्ती म्, अर्यत इत्यर्थो-मोक्षः स प्रयोजनमवेत्यार्थिक, तदस्य "प्रयोजन" (पा०५-१-१०९) मिति ठकु, अथवा-3 अर्थः स एव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीत्यार्थिकः, अत इनिठना (पा०५-२-११५)विति ठन् , 'श्रुतम्' अकोपाप्रकी कादिभेदमागम, न तु हरहरिहिरण्यगर्भादिवत् साक्षात् खर्गादिकम् , अनेन पूज्यप्रसादस्यानन्तरफलं श्रुतमुक्त, म्यवहितकलं तु मुक्तिरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ सम्प्रति श्रुतावाप्ती तसैहिकफलमाह %256456254 दीप अनुक्रम [४५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४७|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४७|| स पुजसत्थे सुविनीयसंसए, मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया । तवोसमायारीसमाहिसंवुडे, महज्जुई पंच वयाइँ पालिया ॥४७॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'स' इति शिष्यः प्रसादितगुरोरधिगतश्रुतः पूज्यं-सकलजनश्लाघादिना पूजाई शास्त्रमस्येति पूज्यशास्त्रः, विनीतस्य हि शास्त्रं सर्वत्र विशेषेण पूज्यते, यदि वा प्राकृतत्वात्पूज्यः शास्ता गुरुरस्खेति पूज्यशास्तृकः, विनीतो| हि विनेयः शास्तारं पूज्यमपि विशेषतः पूजां प्रापयति, अथवा पूज्यश्चासौ शस्त्रश्च सर्वत्र प्रशंसास्पदत्वेन पूज्यशस्तः, सुष्टु-अतिशयेन विनीत,-अपनीतः प्रसादितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमर्पणेन संशयो-दोलायमानमानसात्मकोऽस्खेति सुविनीतसंशयः, सुविनीता वा संसत्-परिषदस्पेति सुविनीतसंसत्कः, विनीतस्य हि खयमतिशयविनीतैव परिपद्धविति, 'मणोरुई 'त्ति मनसः-चेतसः प्रस्तावाद् गुरुसम्बन्धिनी रुचिः-प्रतिभासोऽस्मिन्निति मनोरुचिः, 'तिष्ठति' आस्ते, विनयाधिगतशास्त्रो हि न कथञ्चिद्गुरूणामप्रीतिहेतुरिति, तथा 'कम्मसंपय'त्ति कर्म-क्रिया दशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृतिरितिकर्तव्यता तस्याः सम्पत्-सम्पन्नता तया, लक्षणे तृतीया, ततः कर्मसम्पदोपलक्षितस्तिष्ठतीति द सम्बन्धः, हेतौ वा तृतीया, मनोरुचित्वापेक्षया च हेतुत्वम्, अथवा मनोरुचितेव मनोरुचिता तिष्ठति-आस्ते कर्मणां-ज्ञानावरणादीनां सम्पद्-उदयोदीरणादिरूपा विभूतिः कर्मसम्पद् , अस्येति गम्यते, तदुच्छेदशक्तियुक्ततयाऽस्य प्रतिभासमानतयेव तत्स्थितेरुपलक्ष्यमाणत्वात्, पठ्यते च-'मणोरुइति तत्र मनसो रुचिः-अभिलापोयसिं दीप अनुक्रम 4%25% [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [६४...] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४७|| उत्तराध्य. स्तन्मनोरुचि-खप्रतिभासानुरूपं यथा भवत्येवं तिष्ठति, कया ?-कर्मसम्पदा' यत्यनुष्ठानमाहात्म्यसमुत्पन्नपुला-ट्र अध्ययनम् है कादिलब्धिसम्पत्त्या, पठन्ति च-'मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपर्य' तत्र च मनोरुचितफलसम्पादकत्वेन मनोरुचितां कर्मसम्पदं-शुभप्रकृतिरूपाम् , अनुभवन्निति शेषः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'मणिच्छियं संपयमुत्तमं गय'त्ति इह च ॥६६॥[सम्पदन्यथाख्यातचारित्रसम्पदं, अन्यत् सुगममेव, तपसः-अनशनाद्यात्मकस्य सामाचारीति-समाचरणं, यद्वा-तपश्च &सामाचारी च-यक्षतो वक्ष्यमाणखरूपा समाधिश्च-चेतसः खास्थ्यं तैः संवृतः-निरुद्धाश्रवः तपःसामाचारीसमा-| धिसंवृतः, यद्वा-तपःसामाचारीसमाधिभिः संवृतं-संवरणं यस्य स तथाविधः, महती युतिः-तपोदीप्तिस्तेजोलेश्या वाऽस्येति महाद्युतिः, भवतीति गम्यते, किं कृत्वेत्याह-'पञ्च प्रतानि' प्राणातिपातविरमणादीनि, 'पालयित्वा'निर|तिचारं संस्पृश्येति सूत्रार्थः॥४७॥ पुनरस्वैहिकमामुष्मिकं च फलं विशेषेणाह स देवगंधवमणुस्सपूइए, चइत्तु देहं मलपंकपुवयं । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वाऽप्परए महिड्डिए ॥४८॥ तिबेमि॥ R॥६६॥ व्याख्या-'स' तार विनीतविनयः, देवैः-वैमानिकज्योतिष्कैः गन्धश्च-गन्धर्वनिकायोपलक्षितैय॑न्तरभुवनपतिभिः मनुष्यैश्च-महाराजाधिराजप्रभृतिभिः पूजितः-अर्चितो देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः, 'स्वक्त्वा' अपहाय 'देहं' शरीरं दीप अनुक्रम [४७] JAMERatinintimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| 'मलकपुषर्य'ति जीवशुद्धयपहारितया मलवन्मलः स चासौ 'पावे यजे वेरे पंके पणए यत्ति वचनात् पश्च कममलपङ्कः स पूर्व-कार्यात् प्रथमभावितया कारणमस्येति मलपकपूर्वक, यद्वा-'माओऽयं पिऊसुकंपत्ति वचनात् रक्तशुक्रे एव मलपक्की तत्पूर्वक, 'सिद्धो वा' निष्ठितार्थो वा 'भवति' जायते 'शाश्वतः' सर्वकालावस्थायी, न तु परपरिकल्पिततीर्थनिकारादिकारणतः पुनरिहागमवानशाश्वतः, सावशेषकर्मवांस्तु देवो वा भवति, अप्परए'त्ति अल्पमितिअविद्यमानं रतमिति-क्रीडितं मोहनीयकर्मोदयजनितमस्येति अल्परतो-लवसप्तमादिः, अल्परजा वा प्रतनुवध्यमानकर्मा, महती-महाप्रमाणा प्रशस्या वा ऋद्धिः-चक्रवर्तिनमपि योधयेत् इत्यादिका विकरणशक्तिः तृणाग्रादपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपा वा समृद्धिरस्वति महर्द्धिकः, देवविशेषणं वा, 'इतिः' परिसमाप्तावेवमर्थे का, एतावद्विन यश्रुतमनेन वा प्रकारेण 'ब्रवीमि' इति गणभूदादिगुरूपदेशतः, न तु खोप्रेक्षया इति ॥४८॥ उक्तोऽनुगमः, 18|| सम्प्रति चतुर्थमनुयोगद्वारं नया इति, नयति-अनेकांशात्मक वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयति नीयते । हवा तेन तस्मिंस्ततो वा नयनं वा नयः-प्रमाणप्रत्युत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः, उक्त च-"से नयइ तेण तहि का ततोऽहवा वत्थुणो व जंणयणं । बहुहा पज्जायाण संभवओ सो णतो णामं ॥१॥" ननु सन्त्वमी नयाः, एषां तु । १ पापं वर्ष वैरं पङ्कः पनकच. २ मातुरातवं पितुः शुक्रम् . ३ स नयति तेन तत्र का ततोऽथवा वस्तुनो वा यन्नयनम् । बहुम पर्यायाणां संभवतः स नयो नाम ॥ १॥ दीप अनुक्रम [४८] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४८|| नियुक्ति : [६४...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४८|| -OCOCCASCLASSES क इहोपयोगः !, उच्यते, उपक्रमेणोपक्रान्तस्य निक्षेपेण च यथासम्भवं निक्षिप्तस्य अनुगमेनानुगतस्य चास्यैवाध्यय-131 नस्य विचारणा, उक्तं च-"संबंधोवक्कमतो समीवमाणीय णत्वणिक्खेवं । सत्थं तोऽणुगम्मइ णएहि जाणाविहाणेहिं ॥१॥" अस्तु नयैर्विचारणा, साऽपि प्रतिसूत्रं समस्ताध्ययनस्य वा ?, न तावत् प्रतिसूत्रं, प्रतिसूत्रं नयावतारनिषेधस्यात्रैवाभिधानात्, अथ समस्ताध्ययनस्य, तदपि न, सूत्रव्यतिरिक्तस्य तस्थासम्भवाद्, उच्यते, यदुक्तंप्रतिसूत्रं नयावतारनिषेध इति, तदित्यमेव, यत्तु सूत्रव्यतिरिक्तस्याध्ययनस्यैवासम्भव इति, तदसत्, कथञ्चित् समुदायस्य समुदायिभ्योऽन्यत्वात् , शिबिकावाहकपुरुषसमूहवत् , इतरथा प्रत्येकावस्थाविलक्षणकार्यानुदयप्रसाद, | अस्त्वेवं तथाऽपि किमस्य समस्तनयैर्विचार उत कियद्भिरेव ?, न तावत् समस्तैरिति पक्षः क्षमः, तेषामसङ्ख्यत्वेन तैर्विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् , तथाहि-यावन्तो वचनमार्गास्तावन्त एव नयाः, यथोक्तम्-"जावइया वयणपहा | तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया नयवाया तावइया चेव परसमया ॥१॥" न च निजनिजामिप्रायविर| चितानां वचनमार्गाणां सङ्ख्याऽस्ति, प्रतिप्राणि भिन्नत्वादभिप्रायाणां, नापि कियद्भिरिति वक्तुं शक्यम् , अनवस्थाप्रसङ्गात् , सङ्ख्यातीतेषु हि तेषु यावदेभिर्विचारणा क्रियते तावदेभिरपि किं नेत्यनवस्थाप्रेरणायां न नैयत्याव ॥६७॥ १ संबन्धोपक्रमतः समीपमानीय न्यस्तनिक्षेपम् । शास्त्र ततोऽनुगम्यते नयैर्नानाविधानैः ॥१॥ २ यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव | भवन्ति नयबादाः । यावन्तो नयवादास्तावन्त एवं परसमयाः ॥ १॥ RECENROCCOCK दीप अनुक्रम [४८] पा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| ४/स्थापकं हेतुमुत्पश्यामः, अघापि स्थाद्-असञ्चयेयत्वेऽप्येषां सकलनयसङ्घाहिभिर्नयैर्विचारः, ननु तेषामप्यनेकविधत्वात् 31 पुनरनवस्थैव, तथाहि-पूर्वविद्भिः सकलनयसङ्ग्राहीणि सप्त नयशतानि विहितानि, यत् प्रतिबद्धं सप्तशतारं नयच-14 काध्ययनमासीत् , तत्सङ्ग्राहिणः पुनादश विध्यादयो, यत्रतिपादकमिदानीमपि नयचक्रमास्ते, तत्सङ्ग्राहिणोऽपि सप्त नैगमादयो, यावत् तत्सङ्ग्रहेऽपि द्वयमेवेति सङ्घाहिनयानामपि तेषामनेकविधत्वात् पूर्ववदनवस्थैव, अय संक्षिप्तरुचित्वादेर्दयुगीनजनानामनेकविधत्वेऽपि सङ्घाहिनयानां द्वयेनैव विचारोन शेषैरिति नानवस्था, ननु द्वयमपि3 द्रव्यपर्यायार्थशब्दव्यवहारनिश्चयज्ञान क्रियादिभेदेनानेकधैवेति तत्रापि स एवानवस्थालक्षणो दोष इति, अत्र प्रतिविधीयते-इहाध्ययने विनयो विचार्यते, स च मुक्तिफलः, ततो यदेवास्य मुक्तिप्राप्तिनिवन्धनं रूपं तदेव विचारणीयं, तच ज्ञानक्रियात्मकमेवेति ज्ञानक्रियानयाभ्यामेव विचारो न पुनरन्यैरिति । तत्र ज्ञाननय आह-ज्ञानमेव मुक्त्यवा-18 सिनिवन्धनं, तथा च तलक्षणाभिधायिनी नियुक्तिगाथा-"णायंमि गिहियवे अगिण्हियवंमि चेव अत्थंमि। जइयत्वमेव इह जो उपएसो सो णो नाम ॥१॥" अस्याश्चार्थः-'ज्ञाते' बुद्धे 'गिहियधि'त्ति गृह्यते-उपादीयते कार्यार्थिभिरिति ग्रहीतव्यः, कार्यसाधक इत्युक्तं भवति, उक्तं हि-गेज्झो सो कजसाहतो होइ' तस्मिन् , अग्रही-13 तव्यः-तद्विपरीतः, स च हेय उपेक्षणीयश्च, उभयोरपि कार्यासाधकत्वात्, तस्मिंश्च, 'चः' समुचये, 'एवं' इति । १ ग्राह्यः स (यः) कार्यसाधको भवति । दीप अनुक्रम [४८] RAKES मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४८|| नियुक्ति : [६४...] (४३) वृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४८|| पूरणे, कस्मिन् पुनीयेऽप्राधे बैत्याह-'अत्यमित्ति अयंत इत्यर्थः तस्मिन्-द्रव्ये गुणे वा, यत आह-"अंत्यो दवं उत्तराध्य. [ गुणो बावि" 'यतितव्य'मिति यतः कार्यः, किमुक्तं भवति ?-ग्राबः ग्रहीतग्यः इतरच परिहतेव्यः, 'एवः' अवधा-18|| रणे, स च व्यवहितसम्बन्धः, ततोऽयमर्थः-ज्ञात एव ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये वाऽर्थे यतितव्यम् , अन्यथा प्रवर्तमानस्य टी ॥६८।। फलविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युच्यते-“सम्यगज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धि"रिति, अज्ञानस्यैव च बहुदोषत्व-120 प्रदर्शनात् , यतो बालेरप्यु ष्यते-"अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति दायेनाऽऽवृतो लोकः ॥१॥" आगमोऽप्येवमेवावस्थितः, यतस्तत्र कर्मनिर्जरणाधीना मुक्तिरुक्ता, कर्मनिर्जरणे च ज्ञानPमेवाऽऽत्यन्तिको हेतुः, तद्विरहितानां तामलिप्रभृतीनां कष्टानुष्ठायिनामपि अल्पफलत्वाभिधानात्, उक्तं हि-जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥१॥" यदपि दर्शनसत्तायां चारित्ररहितस्यापि' सिझंति चरणरहिया सणरहिया न सिझंति' इत्यागमेन मुक्तिप्रतिपादनं, तदपि ज्ञानप्राधा-[2] न्यख्यापनपरं, दर्शनरहितस्य हि द्वादशाङ्गमप्यज्ञानमेवेति न तत्र कष्टक्रियासम्भवेऽपि मुक्तिः, दर्शनोत्पत्ती तु क्रियां विनाऽपि मरुदेव्यादीनामिव सम्यग्ज्ञानमात्रादेव मुक्त्यवासिरित्यर्थप्रतिपादकत्वादस्य, अत एव बहुश्रुतपूजाध्ययने Pun६८॥ १ अर्थो द्रव्यं गुणो वाऽपि । २ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटिमिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्यासमात्रेण ॥ १॥ ३ सिध्यन्ति धरणरहिता दर्शनरहिता न सिध्यन्ति । CASEXSAGACSC दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| 4%ARANGA बहुश्रुतस्यैव तथा तथा पूज्यताभिधानं, तथा च प्रयोगः-यद् येन विना न भवति तत् तन्निबन्धनमेव, यथा बीजाद्य४ विनाभावी तन्निवन्धन एवापुरः, ज्ञानाविनाभाविनीच मुक्त्यवाप्तिः, 'इती' सेवं यः उपदेशः' सर्वस्य ज्ञाननिवन्धनत्वाभिधानरूपः, स किमिस्याह-'नय' इति प्रस्तावात ज्ञाननयः, नामेति वाक्यालङ्कारे, उक्तं हि-इति जोत्ति एवमिह जो उपएसो जाणणाणतो सो ति । अयं च ज्ञानदर्शनचारित्रतपउपचारात्मनि पञ्चविधे विनये ज्ञानदर्शनविनयावेवेच्छति, चारित्रतपउपचारविनयांतु तत्कार्यत्वात् तदायत्तत्वाच गुणभूतानेवेति गाथार्थः ॥ क्रियानयस्त्वाह-"ससिपि नयाणं बहुविवत्तवयं निसामेत्ता । तं सवणयविसुद्धं जंचरणगुणट्टिओ साहू ॥१॥" 'सर्वेषामपी'ति नैगमादिन योत्तरोत्तरभेदानामविशुद्धानां विशुद्धानां च, किं पुनर्मूलनयानां विशुद्धानामेवेत्सपिशब्दार्थः, 'नयानाम्' उक्तरूपाणां जबहवो विधा:-प्रकारा यस्यां सा बदुविधा तां, 'वक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एव उभयनिरपेक्षं चो(वो)भयं, यदिवा द्रव्यं पर्यायाः प्रकृतिः पुरुषो विज्ञानं शून्यमित्यादिखखाभिप्रायानुरूपार्थप्रतिपादनपरां निशम्य-आकर्ण्य, किमित्याह'तदिति वक्ष्यमाणं सर्वे निरवशेषास्ते च ते नयाच सर्वनयास्तेषां, विशुद्ध-निर्दोषतया सम्मतं, यत् किमित्याह-चर्यत इति चरणं-चारित्रं, गुणः साधनमुपकारकमित्यनन्तरं, ततश्चरणं चासौ गुणश्च निर्वाणासन्तोपकारितया चरणगुणस्तस्मिन् स्थितः-तदासेवितया निविष्टः, 'साधु'रिति साधयति पौरुषेयीभिः क्रियाभिरपवर्गमित्यन्वर्थनामतयोच्य-13 १ इति य इति-एवमिह व उपदेशो शाननथः सः । दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||४८|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत ADCACHAR सूत्रांक उत्तराध्य. ते, अस्यायमाशयः-बहुविधायामपि वक्तव्यतायां क्रियात एव फलप्राप्तिः, तथाहि-तृत्त्यर्थी जलादिकमवलोकयन्नपि अध्ययनम् न यावत् पानादिक्रियायां प्रवृत्तस्तावत्तृप्तिलक्षणफलमवाप्नोति, अत एव सम्यग्ज्ञानमपि तदुपयोगितयैव विचार्यते, 4 बृहहृत्तिः तथा च तद्विचारप्रवृत्तैरुक्तम्-"न याभ्यामर्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यत" इति, आगमोऽप्ये 5 वमेवावस्थितः, यतस्तत्रापि क्रियाविकलं विफलमेव ज्ञानम. उक्तं हि-"जहाँ खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सुग्गईए ॥१॥" यदि च ज्ञानमेव मुक्तिसाधनं ज्ञानाविनाभाव्यनुत्तरदर्शनसम्पत्समन्वितानां दशाहसिंहादीनामपि स्यात्, अथ चाधोगतिगामिन एवैते धूयन्ते, यतल आह-"दसारसीहस्स य सेणियस्स, पेढालपुत्तस्स य सच्चइस्स । अणुत्तरा दसणसंपया तया, विणा चरिणहरं गई। गया ॥ १॥" किञ्च-यदि ज्ञानमेव मुक्तिकारणमिप्यते, तदा यदुच्यते-विहरति मुहूर्तकालं, देशोनां पूर्वकोटिं च' दाइत्येतदपि विरुध्येत, ज्ञानेषु निखिलवस्तुविस्तरपरिच्छेदकरूपतां विभ्रत् केवलज्ञानमेवोत्तममिति तत्समनन्तरमेव || मुक्त्यवाप्ती कथं विहरणसम्भवः ?, अतः सत्यपि ज्ञाने शैलेश्यवस्थाऽवासी सर्वसंवररूपक्रियाऽनन्तरमेव मुक्त्य| वाप्तिरिति क्रियाया एव मुक्तिकारणत्वं, प्रयोगश्चात्र-यद् यत्समनन्तरभावि तत् तत्कारणं, यथा पृथिव्यादिसामग्र्य १ यथा खरश्चन्दनभारवाही भारस्थ भागी नैव चन्दनस्य । एवमेव ज्ञानी चरणेन हीनो ज्ञानस्य भागी नैव सद्तेः॥१॥२ दशाई-1 | सिंहस्य च श्रेणिकस्य पेढालपुत्रस्य च सत्यकिनः । अनुत्तरा दर्शनसंपद् तदा विना चारित्रेणाधमां गतिं गताः ।। १॥ ||४८|| BREARSHA दीप अनुक्रम [४८] ॥६९।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४... (४३) प्रत सूत्रांक नन्तरभावी पृथिव्यादिकारणोऽङ्करः, क्रियाऽनन्तरभाविनी च मुक्तिरिति, अयं च पञ्चविधेऽपि विनये चारित्रतप-LI उपचारविनयानेवेच्छति, ज्ञानदर्शनविनयौ तु तत्कारणत्वाद् गुणभूतावेवेति । आह-एवं सति किं ज्ञानं तत्त्वमस्तु, 51 आहोखित् क्रिया ?, उच्यते, परस्परसव्यपेक्षमुभयमिदं मुक्तिकारणं, निरपेक्षं तुन कारणमिति तत्त्वम्, एतदर्थाभिधायिका चेयमेव गाथा 'सबेसिपि नयाणं' इत्यादि, इह च गुणशब्देन ज्ञानमुच्यते, 'बहुविधवक्तव्यताम्' उक्तरूपां नामादीनां कः कं साधुमिच्छतीसेवंरूपां वा, निशम्य-श्रुत्वा 'तत् सर्वनय विशुद्धं तत् सर्वनयसम्मत ५ यचरणगुणस्थितः साधुरिति, अयमभिप्रायः-यत्तावद् ज्ञानवादिनोक्तम्-यद् येन विना न भवति तत्तनिवन्धनमेव, ४ है यथा बीजाद्यविनाभावी तन्निवन्धन एवाकरः, ज्ञानाविनाभाविनी च मुक्तिरिति, अत्राविनाभावित्वमनैकान्तिको हैं हेतुः, तथाहि-यथाऽनेन ज्ञाननिवन्धनत्वं मुक्तेः साध्यते, तथा क्रियानिवन्धनत्वमपि, यथा हि ज्ञानं विना नास्ति मुक्तिरिति ज्ञानाविनाभाविनी एवं क्रियामपि विना नासौ भवतीति तदविनाभावित्वमपि समानमेवेति कथं 8 दानोभयनिवन्धनत्वसिद्धिः, तथा चाह-"णाणं सविसयनिययं ण णाणमिण कजनिष्फत्ती । मग्गण्णू दिटुंतो| PM होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥१॥ जाणतोऽवि य तरिउ काइयजोगं न जुजई जो उ । सो बुज्झइ सोएणं एवं नाणी का १ ज्ञान खविषयनियतं न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः । मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति सचेष्टोऽचेष्टश्च ॥ १॥ जानन्नपि तरीतुं कायिकयोगं न युनक्ति वस्तु । स उहाते श्रोतसा एवं ज्ञानी चरणहीनः ॥ १ ॥ SACRACEBCACANORA NAGARIKARAKis ||४८|| दीप अनुक्रम [४८] A- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] (४३) अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४८|| 84% उत्तराध्य. चरणहीणो॥२॥" न च मरुदेव्यादीनामपि सर्वसंवररूपा क्रिया नास्ति, एवं क्रियावादिनाऽपि-'यद् यत्समन- ॐन्तरभावि तत् तत्कारणं, यथा पृथिव्यादिसामयनन्तरजन्मा तत्कारणोऽहरः, तथा च क्रियानन्तरभाविनी मुक्तिरिति यो हेतुरुपन्यस्तः सोऽप्यनेकान्तिकः, यतः स एवं वाच्यः-पदा शैलेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपा क्रिया यदनन्तरं ॥७॥ मयमा मुक्त्यवाप्तिस्तदा ज्ञानमस्ति या न वेति ?, नास्ति चेच्छलेश्यवस्थाऽपि कथम् , न हीयं केवलज्ञानं विनाऽवाप्यते, अथास्येय तदा सकलभावस्वभावावभासि केवलज्ञानम् , एवं च सति कथमुभयाविनाभाषित्वेऽपि नोभयफलत्वं मुक्तः, उक्तंच-"सहचारित्तेऽवि कह कारणमेगं न उण एग" आह-एवं ज्ञानक्रिययोः प्रत्येकं मुक्तेरवापिका शक्तिरसती कथं समुदायेऽपि भवति !, न हि यद् येषु प्रत्येकं नास्ति तत्तेषां समुदायेऽपि भवति, यथा प्रत्येकमसत् समुदिताखपि सिकतासु तैलं, प्रत्येकमसती च ज्ञानक्रिययोः मुक्केरयापिका शक्तिः, तदुक्तम्-'पत्तेयेमभावाओ निषाणं | समुदियासुविण जुत्तं । णाणकिरियासु बुलु सिकयासमुदाय तिलं व ॥१॥', उच्यते, स्यादेवं यदि सर्वथा प्रत्येक तयोर्मुक्त्यनुपकारितोच्येत, यदा तु तयोः प्रत्येक देशोपकारिता समुदाये तु सम्पूर्णहेतुतोच्यते तदा न कश्चिदोषः, आह च-“वीसुंण सबहु चिय सिकयातिलं व साहणाभावो । देसोषकारिया जा सा समवायमि संपुण्णा ॥१॥"| १ सहचारित्वेऽपि कथं कारणमेकं न पुनरेकम् । २ प्रत्येकमभावात निर्वाणं समुदितयोरपि न युक्तम् । शानक्रिययोर्वक्तुं सिकवासमुदाये तैलमिव ।। १॥ ३ विष्वग् न सर्वथैव सिकतातैलवत्साधनाभावः । देशोपकारिता या सा समवाये संपूर्णा ॥१॥ % % दीप अनुक्रम [४८] % ॥७०॥ 45 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||४८|| नियुक्ति : [६४...] (४३) प्रत सूत्रांक अतः स्थितमेतत्-जानक्रिये समुदिते एव मुक्तिकारणं न तु प्रत्येक मिति तत्त्वं, तथा च पूज्या:-"णाणाहीणं सर्व तणाणणओ भणति किं च किरियाए । किरियाए चरणनओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥१॥" कचित् सौच्या शैल्या क्वचिदधिकृतप्राकृतभुवा, कचिच्चार्थापत्त्या कचिदपि समारोपविधिना। कचिचाध्याहारात् कचिदविकलप्रक्रमवलादियं व्याख्या ज्ञेया क्वचिदपि तथाऽऽसायवशतः ॥ १॥ इति श्रीशान्तिसूरिविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां विनयभुतागय प्रथममध्ययनं समाप्त ॥ ||४८|| प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [४८] १ज्ञानाधीनं सर्व माननयो भणति किं च क्रियया । । क्रियायाश्चरणनयः तदुभयग्रहश्च सम्यक्त्वम् ॥४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - १ परिसमाप्तं ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६५] (४३) अध्ययन -२ 4 प्रत CE+ सूत्रांक ||४८|| R ॥श्रीजिनाय नमः । नमः सर्वविदे । व्याख्यातं विनयश्रुताख्यं प्रथममध्ययनम्, इदानी द्वितीयं ब्याण्यायते, अस्य ४चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने विनयः सप्रपञ्चः पञ्चप्रकार उक्तः, स च कि खस्थावस्थैरेव समाचरितव्य उत| दीपरीषहमहासैन्यसमरसमाकुलितमनोभिरपि?, उभयावस्वैरपीति ब्रूमः । ननु तर्हि केऽमी परीपहाः, किंरूपाः, किश्चालम्बनमुररीकृत्यैतेषु सत्खपि न विनयविलचनमित्याशङ्कापोहाय परिपहास्ततखरूपादि चाभिधेयमित्यनेन सम्बन्धेनायातस्थास्य महार्थस्य महापुरस्येव चतुरनुयोगद्वारखरूपमुपवर्णनीयं, तत्र च नामनिष्पन्ननिक्षेपस्य परीषह इति नाम, अतस्तन्निक्षेपदर्शनायाह भगवान्नियुक्तिकारःहोणासो परीसहाणं चउबिहो दुविहो य(उ)दबंमि । आगमनोआगमतो नोआगमओय सो तिविहो॥६५॥ | व्याख्या-नियतं निश्चितं वाऽऽसनं-नामादिरचनात्मक क्षेपणं न्यासो-निक्षेप इत्यर्थः, अयं च केषामित्याह-परीति-समन्तात् खहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीपहास्तेषां, चत्वारो विधा:प्रकारा अस्येति चतुर्विधो, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे इत्यनारत्य द्रव्यपरीषहमाह'द्विविधो' द्विभेदः, तुः पूरणे, भवति 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः, प्रक्रमात्परिषहः, स च 'आगमणोआगमतो' त्ति आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्त इत्यागमस्वरूपमतिपरिचितमिति परिहत्य नोआगमत १ अधिकार उपवर्णने वा इत्यध्याहार्यम् । - RECAX 5 दीप अनुक्रम [४८] -१० RRC 7 - 0 + मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] “उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २ "परिसह" आरभ्यते ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २, मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६६] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| उत्तराध्य. आह-नोआगमतस्तु' नोआगमं पुनराश्रित्य 'स' इति परीषहः 'त्रिविधः' त्रिप्रकार इति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ परिषहा ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः त्रैविध्यमेवाह जाणगसरीर भविए तत्वइरिने य से भवे दुविहे । कम्मे नोकम्मे या कम्ममि य अणुदओ भणिओ ॥६६॥ ॥७२॥ व्याख्या-जाणगसरीर' त्ति ज्ञायको ज्ञो वा तस्य शरीर ज्ञायकशरीरं ज्ञशरीरं वा जीवरहितं सिद्धशिलातलगता निषीधिकागतं वा अहो ! अमुना शरीरसमुच्छूयेणोपात्तेन परीपह इति पदं शिक्षितम् , अयं धृतघटोऽभूदितिवत्संभाव्यमानं, तथा भविय'त्ति शरीरशब्दस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनोभयत्र संबन्धात् भव्यशरीरं, तत्र भविष्यति-तेन तेनावस्थात्मना सत्ता प्राप्स्यति यः स भव्यो जीवस्तस्य शरीरं यदद्यापि परीपह इति पदं न शिक्षते एष्यति तु शिदक्षिष्यते तदयं घृतघटो भविष्यतीतिवत्संभाव्यमानं नोआगमतो द्रव्यपरीपहा, 'तबतिरित्ते य'त्ति ताभ्यां-जशरीर भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्त-पृथग्भूतः तयतिरिक्तः, सच प्रकृतत्वाद द्रव्यपरिपहो भवेत्, 'द्विविधः' द्विभेदः, कथ-1 मित्याह-क्रियते-मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानुगतेनात्मना निवर्त्यत इति कर्म तत्र-ज्ञानावरणादिरूपे, 'नोकर्मणि च' तद्विपरीतरूपे, चः समुच्चये, दीर्घत्वं च 'हखदीघी मिथ' इति प्राकृतलक्षणात्, तत्राद्यमाह-कर्मणि विचार्य, ४॥७२॥ चः पूरणे, द्रव्यपरीषहः 'अनुदयः' उदयाभावः, प्रक्रमात् परीषहवेदनीयकर्मणामेव, 'भणितः' उक्त इति गाथार्थः ॥६६॥ द्वितीयभेदमाह दीप अनुक्रम [४८] A मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६७] (४३) 4% % % प्रत सूत्रांक %% ||४८|| णोकम्ममि य तिविहो सच्चित्ताचित्तमीसओ चेव । भावे कम्मस्सुदओ तस्स उदाराणिमे हुँति ॥६७॥ | व्याख्या-नोकर्मणि पुनर्विचार्य, चस्य पुनरर्थत्याहव्यपरीपहः 'त्रिविधः'त्रिभेदः, सचित्ताचित्तमीसओ'त्ति लुप्सनिर्दिष्टत्वाद्विभक्तेः सचित्तोऽचित्तो मिश्रक इति, समाहारो वा सचित्ताचित्तमिश्रकमिति, प्राकृतत्वाय पुंलिङ्गता; चः खगतानेकभेदसमुच्चये, एवोऽवधारणे इयन्त एवामी भेदाः, तत्र नोकर्मणि सचित्तद्रव्यपरीषहो गिरिनिर्झरजलादिः अचित्तद्रव्यपरीषहचित्रकचूर्णादिर्मिश्रद्रव्यपरीषहो गुडाकादि, अयस्यापि कर्माभावरूपत्वात् क्षुत्परीपहजनकत्याच, इत्थं पिपासादिजनकं लवणजलाद्यप्यनेकधा नोकर्मद्रव्यपरीपह इति खधिया भावनीयं, भावपरीषह आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु नोशब्दस्खैकदेशवाचित्वे आगमैकदेशभूतमिदमेवाध्ययनं, || निषेधवाचित्वे तु तदभावरूपः परीपहवेदनीयस्य कर्मण उदयः, तथा चाह-'भावे कम्मस्स उदओ' त्ति कर्मणइति परीपहवेदनीयकर्मणां बहुत्वेऽपि जात्यपेक्षयकवचननिर्देशः 'तस्य च' भावपरीषहस्य 'द्वाराणि' व्याख्यानमुखानि 'इमानि' अनन्तरवक्ष्यमाणानि भवन्तीति गाथार्थः ॥ ६७ ॥ तान्येवाह-. कत्तो कस्सै व देवेसमोऔर अहिआँस नए यवतणा कालो। खितुद्देसे पुच्छा निदेसे सुत्तफासे या॥१८॥ व्याख्या-'कुत' इति कुतोऽङ्गादेरिदमुद्धृतं १, 'कस्स' इति कस्य संयतादेरमी परीषहाः २,'द्रव्यम्' इति किममी दीप अनुक्रम [४८] *5-2015 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| उत्तराध्य-18 यामुत्पादक द्रव्यं ३, 'समवतार' इति क कर्मप्रकृतौ पुरुषविशेषे वाऽमीषां सम्भवः १४, 'अध्यास' इति कथममी-18 परीपहा दापामध्यासना सहनात्मिका १५, 'नय' इति को नयः कं परीषहमिच्छति १.६चः समुचये, 'वर्तना' इति ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः कति क्षुदादयः एकदैकस्मिन् खामिनि वन्ते ७, 'काल' इति कियन्तं कालं यावत् परीषहास्तित्वं ८, 'खेत्ते' त्ति ॥७३॥ कतरस्मिन्कियति वा क्षेत्रे ९, 'उद्देशों' गुरोः सामान्याभिधायि वचनं १०, 'पृच्छा' तजिज्ञासोः शिष्यस्य प्रश्नः ११, 'निर्देशः' गुरुणा पृष्टार्थविशेषभाषणं १२, 'सूत्रस्पर्शः' सूत्रसूचितार्थवचनं १३, 'चा' समुचये, इति गाथासमासाथैः ॥ ६८ ॥ तत्र कुत इति प्रश्नप्रतिवचनमाहकम्मप्पवायपुवे सत्तरसे पाहुडंमि जे सुत्तं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहपि णायवं ॥ ६९ ॥ व्याख्या-कर्मणः प्रवादः-प्रकर्षण प्रतिपादनमस्मिन्निति कर्मप्रवादं तच्च तत् पूर्व च तस्मिन् , तत्र बहूनि प्राभृतानीति कतिथे प्राभृते इत्याह-सप्तदशे प्राभृते-प्रतिनियतार्थाधिकाराभिधायिनि, यत् 'सूत्र' गणधरप्रणी तश्रुतरूपं 'सनयं' नैगमादिनयान्वितं, 'सोदाहरणं' सदृष्टान्तं, 'तं चेच' ति चः पूरणे एवोऽवधारणे, ततस्तदेव ॥७३ ॥ पाइहापि' परीपहाध्ययने 'ज्ञातव्यम्' अवगन्तव्यं, न त्वधिक, किमुक्तं भवति -निरवशेषं तत एवेदमुद्धृतं न पुनर न्यत इति गाथार्थः ॥६५॥ कस्मेति यदुक्तं तदुत्तरमाह दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [७०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| तिण्हपि णेगमणओ परीसहो जाव उज्जुसुत्ताओ। तिण्हं सद्दणयाणं परीसहो संजए होइ ॥७॥ LI व्याख्या-'त्रयाणामपि' अविरतविरताविरतविरतानां न तु विरतस्यैव नैगमनयः 'परीषहः क्षुदादिरिति, ट्रमन्यत इति शेषः, त्रयाणामपि परीपहवेदनीयासातादिकर्मोदयजनितस्य क्षुधादेस्तत्सहनस्य च यथायोगं सकामा कामनिर्जराहेतोः सम्भवाद् , अनेकगमत्वेन चास्य सर्वप्रकारसङ्घाहित्वात् , 'जाव उज्जुसुत्ताउ'त्ति सोपस्कारत्वादहवं यावजुसूत्रः, कोऽर्थः -सङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रा अपि त्राणामपि परीषहं मन्यन्ते, एकैकनयस शतभेददत्वेनैतझेदानामपि केषाञ्चित् परीषहं प्रति नैगमेन तुल्यमतत्वात् , 'त्रयाणां' त्रिसङ्घयानां, केषाम् :-शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः, शाकपार्थिचादिवत् समासः, तेषां-शब्दसमभिरूढवम्भूतानां, मतेनेति शेषः, परीषहः 'संयते | विरते भवति “मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिपोढव्याः परीपहा" (तत्त्वा० अ०९ सू०८) इति लक्षणोपेतनिरुपचरित परीषहशम्दवृत्तेस्तत्रैव सम्भवादिति गाथार्थः ॥ ७० ॥ द्रव्यद्वारमधिकृत्य नयमतमाह& पढमंमि अट्ट भंगा संगहि जीवो व अहव नोजीवो । ववहारे नोजीवो जीवदवं तु सेसाणं ॥७॥ व्याख्या-'प्रथमे प्रक्रमानैगमनये अष्टौ भङ्गाः,सहि "णेगेहि माणेहिं मिणइत्ती णेगमस्स नेरुत्ती” इतिलक्षणादने१ नैकर्मानमिनोतीति नैगमस्य निरुक्तिः (आ. नि.) दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [७१] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| उच्चराध. धा कारणमिच्छन् यदैकेन पुरुषादिना चपेटादिना परीषह उदीयते तदा परीषहवेदनीयकर्मोदयनिमित्तत्वेऽपि तस्य परीषहा तदविवक्षया जीवेनासौ परीषह उदीरित इति वक्ति १, यदा बहुभिस्तदा जीवैः २, यदा अचेतनेनैकेन दृषदादिनाध्ययनम् बृहदृत्तिः राजीवप्रयोगरहितेन तदाऽजीवन ३, यदा तैरेव बहुभिस्तदा अजीवैः४, यदैकेन लुब्धकादिना वाणादिनेकेन तदा जीवेनाजीवेन च ५, यदा तेनैकेनैव बदुमिः वाणादिभिस्तदा जीवनाजीवश्च ६, यदा बहुभिः पुरुषादिभिरेकं शिलादिकमुक्षिप्य क्षिपद्भिस्तदा जीवैरजीवेन च ७, यदा तु तैरेव मुद्रादीन् बहून् मुञ्चद्भिस्तदा जीवैश्चाजीवैश्वेति ८ 'सहे' सङ्घहनाम्नि नये विचार्यमाणे जीवो 'या' अथवा नोजीवो हेतुरिति प्रक्रमः, किमुक्तं भवति ?-जीवद्रव्येणाजीवद्रव्येण वा परीषह उदीयते, स हि "संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासतो बेंती"ति वचनात् सामान्यग्राहित्वेनैकत्वमेवेच्छति न पुनर्द्वित्वबहुत्वे, अस्यापि च शतभेदत्वाद्यदा चिद्रूपतया सर्व गृह्णाति तदा जीवद्रव्येण, यदा त्वचिद्रूपतया तदा अजीवद्रव्येण, व्यवहारे व्यवहारनये 'नोजीव' इति अजीयो हेतुः, कोऽर्थः -अजीवद्रव्येण परीषह दाउदीर्यत इत्येकमेव भङ्गमयमिच्छति, तथाहि- "वचंड विणिच्छियत्थं ववहारो सबदवेसुं" इति तल्लक्षणं, तत्र च विनिश्चित मित्सनेकरूपत्वेऽपि वस्तुनः सांव्यवहारिकजनप्रतीतमेव रूपमुच्यते, तद्राहकोऽयम्, उक्तं च ॥७४ ।। १ संगृहीतपिण्डितार्थ संग्रहवचनं समासतो ब्रुगते (आ०नि०) २ प्रजति विनिश्चितार्थ व्यवहारः सधंद्रव्येषु । दीप अनुक्रम [४८] ला JABERatini मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [७१] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| "भमराइ पंचवण्णाई णिच्छिए जम्मि वा जणवयस्स । अत्थे विनिच्छओ जो विनिच्छियत्थुत्ति सो गेझो १॥ यहुयर| उत्ति व तं चिय गमेह संतेऽवि सेसए मुयइ । संववहारपरतया बवहारो लोगमिच्छंतो ॥२॥" ति, ततोऽयमाशयः- 'कालो सभाव नियई पुषकयं पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव उ समासो होति सम्मत्तं ॥१॥ इत्या-1 गमवचनतः सर्वस्यानेककारणत्वेऽपि कर्मकृतं लोकवैचित्र्यमिति प्रायः प्रसिद्धेर्यत् कर्म कारयिष्यति तत्करिष्याम Pl इत्युक्तेश्च कर्मैव कारणमित्याह, तबाचेतनत्वेनाजीव एवेति । 'जीवदवं'तुशब्दस्सैवकारार्थत्वात् जीवद्रव्यमेव 'शेषाणाम् ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवम्भूतानां पर्यायनयानां मतेन, हेतुरिति गम्यते, अयमर्थः-जीवद्रव्येण परीपह उदीर्यत इत्येष एवैषां भङ्गोऽभिमतः, ते हि पर्यायास्तिकत्वेन परीषयमाणमेव परीषहमिच्छन्ति, परीषहणं चोपयोगात्मकम् , उपयोगस्य च जीवखामाच्यात् जीवद्रव्यमेव सन्निहितमव्यभिचारि च कारणं, तद्विपरीतं तु अजीवद्रव्य दण्डादीत्यकारणं, जीवद्रव्यमिति तु द्रव्यग्रहणं पर्यायनयस्यापि गुणसंहतिरूपस्य द्रव्यस्येष्टत्वात् , तदुक्तम्-“पर्यायनयोऽपि द्रव्यमिच्छति गुणसन्तानरूप"मिति गाथार्थः ।। ७१॥ सम्प्रति समवतारद्वारमाह L१ भ्रमयदीन पञ्चवर्णान निश्चिते (नच्छति) यस्मिन् वा जनपदस्य । अर्थे विनिश्चयो यो विनिश्चितार्थ इति स प्रायः ॥१॥ बहुत्तरक प्रति दिया तमेव गमयति संतोऽपि शेषान्मुञ्चति । संव्यवहारपरतया व्यवहारो लोकमिच्छन् ||२|| १ कालः सभाको नियतिः पूर्वकवं पुरुषकारण * मेकान्तात् । मिध्यावं त एव समासतो भवति सम्यक्त्वम् ॥ १॥ +%2555453 + दीप अनुक्रम [४८] JABERatinintimationa ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४८॥ दीप अनुक्रम [४८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ७५ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४८...|| अध्ययनं [२], Education intimational समोयारो खलु दुविहो पयडिपुरिसेसु चैव नायबो । एएसिं नाणत्तं वृच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ७२ ॥ व्याख्या--' समवतारः खलु द्विविधः' इति खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् द्विविध एव, द्वैविध्यं च विषयभेदत इति तमाह-प्रकृतयश्च पुरुषाश्च प्रकृतिपुरुषास्तेषु, कोऽर्थः १ - प्रकृतिषु ज्ञानावरणादिरूपासु पुरुषेषु, चशब्दात् बीपण्डकेषु च तत्तद्गुणस्थानविशेषवर्तिषु 'एवेति पूरणे, 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, 'एतेषां' प्रकृत्यादीनां 'नानात्वं' भेदं वक्ष्ये 'अथ' अनन्तरम् 'आनुपूर्व्या' क्रमेणेति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ तत्र प्रकृतिनानात्वमाहणाणावर वेए मोहंमिय अंतराइए चेव । एएसुं बावीसं परीसहा हुंति णायवा ॥ ७३ ॥ व्याख्या -- ज्ञानावरणे वेद्ये मोहे चान्तरायिके चैव एतेषु चतुर्षु कर्मसु वक्ष्यमाणस्वरूपेषु द्वाविंशतिः परीषदा भवन्ति ॥ ७३ ॥ अनेन प्रकृतिभेद उक्तः, सम्प्रति यस्य यत्रावतारस्तमाह पन्नान्नाणपरिसहा णाणावरणंमि हुंति दुन्नेए । इक्को य अंतराए अलाहपरीसहो होइ ॥ ७४ ॥ व्याख्या - प्रज्ञा चाज्ञानं च प्रज्ञाज्ञाने ते एवोत्सेकबैकृव्याकरणतः परीषद्यमाणे परीपहौ, 'ज्ञानावरणे' कर्मणि भवतो 'हो' एतौ तदुदयक्षयोपशमाभ्यामनयोः सद्भावाद्, एकश्च ( ग्रन्थाग्रम् २०००) 'अन्तराये' अन्तरायकमण्यलाभपरीपो भवति, तदुदयनिबन्धनत्वादलाभस्येति गाथार्थः ॥ ७४ ॥ मोहनीयं द्विधेति यत्र तद्वेदे वेदनीये च यत्परिषहावतारस्तमाह--- For First Use Only निर्युक्ति: [७२] ~152~ परीपहाध्ययनम् २ ॥ ७५ ॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [-]/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [७५-७७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| अरई अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सक्कारपुरकारे चरित्तमोहंमि सत्तेए ॥७५॥ अरईइ दुगुंछाए पुंवेय भयस्स चेव माणस्स। कोहस्स य लोहस्स य उदएण परीसहा सत्त ॥७६ ॥ दंसणमोहे दसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को । सेसा परीसहा खल्लु इक्कारस वेयणीजंमि ॥७७॥ ब्याख्या-'अरतिः' इति अरतिपरीपहः, एवमुत्तरेष्यपि परीषहशब्दः सम्बन्धनीयः, 'अचेल' त्ति प्राकृतत्वाद्विजन्दुलोपः, अचेलं, 'स्त्री नैपेधिकी याचना चाक्रोशः सत्कारपुरस्कारः' सप्तैते वक्ष्यमाणरूपाः परीपहाः, 'चरित्रमोहे' चरित्रमोहनाग्नि मोहनीयभेदे, भवन्तीति गम्यते, तदुदयभावित्वादेषां ॥ चारित्रमोहनीयस्यापि बहुभेदत्वाद्यस्य तद्भेदयोदयेन यत्परीपहसद्भावस्तमाह-'अरतेः' अरतिनाम्नश्चारित्रमोहनीयभेदस्य, अचेलस्य जुगुप्सायाः, 'पुंवेय'त्ति सुपो लोपात् पुंवेदस्य, भयस्य चैवं मानस क्रोधस्य लोभस्य च उदयेन परीपहाः सप्त, इह चारत्युदयेनारतिपरीपहः जुगुप्सो दयेनाचेलपरीषह इत्यादि यथाक्रम योजना कार्येति, तथा दर्शनमोहे 'दर्शनपरीषहः' वक्ष्यमाणरूपो, 'णियमसो'त्ति १ आपत्वेन नियमात् भवेद् 'एकः' अद्वितीयः, 'शेषाः एतदुद्धरिताः, परीषहाः पुनः एकादश 'वेदनीये' वेदनीयनानि कर्मणि संभवन्तीति गाथात्रयार्थः ।। ७५-७६-७७ ॥ के पुनस्ते एकादशेत्साह दीप अनुक्रम [४८] marwaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||84|| दीप अनुक्रम [४८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ७६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४८...|| अध्ययनं [२], पंचैव आणुपुवी चरिया सिज्जा वहे व (य) रोगे य । तणफासजलमेव य इक्कारस वेयणीजंमि ॥७८॥ व्याख्या – 'पञ्श्चैव' पञ्चसंख्या एव, ते च प्रकारान्तरेणापि स्युरित्याह- 'आनुपूर्व्या' परिपाठ्या, क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकाख्या इति भावः चर्य्या शय्या वधश्व रोगश्व तृणस्पर्शी जल एव च इत्यमी एकादश वेदनीयकर्म|ण्युदयवति परीषहा भवन्तीति शेष इति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ सम्प्रति पुरुषसमवतारमाह Jus Education intimatio बावीसं बायरसंपराए चउदस य सुडुमरागंमि । छउमत्थवीयराए चउदस इक्कारस जिणंमि ॥७९॥ व्याख्या – 'द्वाविंशतिः' द्वाविंशतिसङ्ख्याः प्रक्रमात्परपहाः 'बादरसंपराये' बादरसम्परायनानि गुणस्थाने, किमुक्तं भवति ? - वादरसम्परायं यावत्सर्वेऽपि परीषहाः सम्भवन्ति, 'चतुर्दश' चतुर्दशसङ्ख्याः, चः पूरणे, 'सूक्ष्मसंपराये' सूक्ष्मसम्परायनाम्नि गुणस्थाने, 'सप्तानां' चारित्रमोहनीयप्रतिबद्धानां दर्शनमोहनीयप्रतिबद्धस्य चैकस्य तत्रासम्भवादिति भावः, 'छद्मस्थवीतरागे' छद्मस्थवीतरागनाम्नि गुणस्थाने, 'चतुईश' उक्तरूपा एब, 'एकादश' एकादशसङ्खयाः 'जिने' केषलिनि, वेदनीयप्रतिबद्धानां क्षुदादीनामेव तत्र भावादिति गाथार्थः ॥ ७९ ॥ अधुना अध्यासनामाह सणसणीजं तिन्हं अग्गहणऽभोयण नयाणं । अहिआसण बोद्धवा फासुय सहुज्जुसुताणं ॥८०॥ निर्युक्ति: [ ७८ ] For Fans Only ~154~ परीषहाध्ययनम् २ ।। ७६ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| व्याख्या-एण्यत इत्येषणम्-एपणाशुद्धं, अनेषणीयं-तद्विपरीतं, सोपस्कारत्वाद्यदनादि तस्य, यद्वा 'सुपा सुपो भवन्तीति न्यायादेषणीयस्य अनेषणीयस्य च, 'अग्गहणऽभोयण'त्ति अग्रहणम्-अनुपादानं, कथश्चिदू ग्रहणे वा अभोजनम्- अपरिभोगात्मकं त्रयाणाम्' अर्थान्नैगमसङ्कहव्यवहाराणां नयानां मतेनाध्यासना बोद्धव्येति सम्बन्धः, अमी| हि स्थूलदर्शिनः बुभुक्षादिसहनमन्नादिपरिहारात्मकमेवेच्छन्ति, 'फासुग सहुजुसुत्ताणं'ति शब्दनयानां त्रयाणामृजुसूत्रस्य च मतेन प्रासुकमन्नादि उपलक्षणत्वात् कल्प्यं च गृहतो भुञानस्याप्यध्यासनेति प्रक्रमः; ते हि भावप्रधानतया भावाध्यासनामेव मन्यन्ते, सा च नाभुआनस्यैव, किन्तु शास्त्रानुसारिप्रवृत्त्या समतावस्थितस्य प्रासुकमेषणीयं च ४ धर्मधूर्वहनार्थं भुजानस्थापीति गाथार्थः ।। ८०॥ सम्प्रति नयद्वारमाह जं पप्प नेगमनओ परीसहो वेयणा य दुण्हं तु ।वेयण पडुश्च जीवे उज्जुसुओ सदस्स पुण आया ॥८॥ - व्याख्या-'यद् वस्तु गिरिनिर्झरजलादि प्राप्य'आसाद्य क्षुदादिपरीपहा उत्पद्यन्ते नैगमो-नैगमनयो यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् तत्परीषह इति वक्तीति शेषः, स खेवं मन्यते-यदि तत् क्षुदाधुत्पादकं वस्तु न भवेत्तदा क्षुदादय एव । न स्युः, तदभावाच किं केन सखत इति परीषहाभाव एव स्यात् , ततस्तद्भापभावित्वात् परीपहख तत् प्रधानमिति । तदेव परीपहः, प्रस्थकोत्पादककाष्ठप्रस्थकवत्, आह-नैकगमत्वान्नैगमस्य कथमेकरूपतव परीषहाणामिहोता, उच्यते, शतशाखत्वादस्य न सर्वभेदाभिधानं शक्यमिति कश्चिदेव क्वचिदुच्यते, एवं शेषनयेष्वपि यथोक्ताशङ्कायां । दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||84|| दीप अनुक्रम [४८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ।। ७७ । “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४८...|| अध्ययनं [२] Ja Education intimational वाच्यमिति । 'वेदना' क्षुदादिजनिता असातवेदना, चशब्दात्तदुत्पादकं च परषहः, 'द्वयोस्तु' पारिशेष्यात् सङ्ग्रहव्यबहारयोः पुनर्मतेनेति गम्यते, अयं चानयोरभिप्रायः- यदि तावद्द्विरिनिर्झरजलादि क्षुदादिवेदनाजनकत्वेन परीषद्दः, कथमिव क्षुदादिवेदना न परीषहो, निरुपचरितं परीषद्यत इति परीषद्दलक्षणं वेदनाया एव सम्भवति, उपचरितं तु गिरिनिर्झरजलादौ, तात्त्विकवस्तुनिबन्धनश्रोपचार इति तदभावे तस्याप्यभाव एव स्यात्, 'वेदनां' क्षुदायनुभवा|त्मिकां 'प्रतीत्य' आश्रित्य जीवे परीषह इति ऋजुसूत्रः मन्यत इतीहापि गम्यते, अयमस्वाशयः - सति हि निरुपचतिलक्षणान्वितेऽपि परीषहे स एव परीपहोsस्तु, किमुपचरितकल्पनया ?, ततो निरुपचरितलक्षणयोगाद्वेदनैव परीषदः, सा च जीवधर्मत्वाज्जीवे नाजीव इति वेदनां प्रतीस जीवे परीषह उच्यते, न तु पूर्वेषामिवाजीवेऽपीति, 'शब्दस्ये' ति शब्दाख्यनयस्य साम्प्रतसमभिरूढैवम्भूतभेदतस्त्रिरूपस्य मतेनात्मा - जीवः, परीपह इति प्रक्रमः, पुनःशब्दो विशेषं द्योतयति, विशेषश्च परीषहोपयुक्तत्वम्, अयं द्युपयोगप्रधानः, उपयोगश्चात्मन एवेति परीषहोपयुक्त आत्मैव परीपह इति मन्यते इति गाथार्थः ॥ ८१ ॥ इदानीं वर्त्तनाद्वारमाह वीसं उक्कोसपए वहंति जहन्नओ हवइ एगो । सीउसिण चरिये निसीहिया य जुगवं न वहंति ॥ ८२ ॥ व्याख्या - विंशतिः उत्कृष्टपदे चिन्त्यमाने परीषहाः वर्त्तन्ते, युगपदेकत्र प्राणिनीति गम्यते, 'जघन्यतः' जघन्य| पदमाश्रित्य भवेदेकः परीपहः, ननृत्कृष्टपदे द्वाविंशतिरपि किं नैकत्र वर्त्तन्त इत्याह- 'सीउ सिण 'ति शीतोष्णे चर्या For Fans Only निर्युक्ति: [८१] ~ 156~ परीषहाध्ययनम् २ ॥ ७७ ॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८२] (४३) 44 प्रत सूत्रांक ||४८|| |नषेधिक्यौ च 'युगपद्' एककालं 'न वर्त्तते' न भवतः, परस्परं परिहारस्थितिलक्षणत्वादमीषां, तथाहि-न शीतमुष्णे न चोष्णं शीते न चर्यायां नैषेधिकी नैपेधिक्यां वा चर्येत्यतो योगपद्यनामीषामेकत्रासम्भवान्नोत्कृष्टतोऽपि द्वाविंशतिरिति,आह-नैपेधिकीयत्कथं शय्याऽपि न चर्यया विरुध्यते ?, उच्यते, निरोधयाधादितस्त्वनिफादेरपि । तत्र सम्भवापेधिकी तु खाध्यायादीनां भूमिः, ते च प्रायः स्थिरतायामेवानुज्ञाता इति तस्या एव चर्यया विरोध इति गाथार्थः ।। ८२ ।। कालद्वारमाहवासग्गसो अतिण्हं मुहुत्तमंतं च होइ उज्जुसुए । सदस्स एगसमयं परीसहो होइ नायवो ॥८३॥ व्याख्या-वासग्गसो यति आर्षत्वाद्वर्षाग्रतः, कोऽर्थः ?-वर्षलक्षणं कालपरिमाणमाश्रित्य, परीपहो भवति इति गम्यते, चः पूरणे, 'त्रयाणां' नैगमसङ्ग्रहव्यवहारनयानां मतेन, ते ह्यनन्तरोक्तन्यायतस्तदुत्पादकं वस्त्वपि परीपहमिच्छन्ति, तचैतावत्कालस्थितिकमपि सम्भवत्येवेति, 'मुत्तमंतं च' इति प्राकृतत्वादन्तर्मुहुः पुनर्भवति, प्रक्रमात्परीषहः, ऋजुसूत्रे ऋजुश्रुते वा-विचार्यमाणे, स हि प्रागुक्तनीतितो वेदना परीषह इति वक्ति, सा चोपयोगा-12 त्मिका, उपयोगश्च 'अंतुमुहुत्ताउ परं जोगुवओगा न संतीति वचनात् आन्तर्मुहूर्तिक एव, 'शब्दस्य' साम्प्रतादित्रिभेदस्य मतेनैकसमयं परीपहो भवति 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, स युक्तनीतितो वेदनोपयुक्तमात्मानमेव परीषदं मनुते, १ अन्तर्मुहर्चात्परतो योगोपयोगा न सन्ति । दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८३] (४३) | परीपहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४८|| उत्तराध्य. स चैतस्य पर्यायात्मकसवा प्रतिसमयमन्यान्य एव भवतीति समयमेवैतन्मतेन परीषहो युक्त इति गाथार्थः ॥ ८३॥ वर्षानतः त्रयाणां परीपह' इति यदुक्तं, तदेव दृष्टान्तेन दृढयितुमाहबृहद्वृत्तिः कंडू अभत्तच्छंदो अच्छीणं वेयणा तहा कुच्छी । कासं सासं च जरं अहिआसे सत्त वाससए ॥८४॥ ॥ ७८ ॥18 व्याख्या-'कंडू' कण्डूतिम् , 'अभक्तच्छन्द' भत्तारुचिरूपम् 'अक्ष्णोः' लोचनयोः, वेदनां दुःखानुभवं, सर्वत्र द्वितीयार्ये प्रथमा, 'तथे ति समुच्चये, 'कुच्छित्ति सुव्यत्ययात् कुक्ष्योर्वेदनां-शूलादिरूपां 'काशं श्वासं च ज्वरं' त्रयमपि प्रतीतमेव 'अध्यास्त इति अधिसहते, सप्त वर्षशतानि यावत् । अनेन तु सनत्कुमारचक्रवयुदाहरणं सूचित, स हि महात्मा सनत्कुमारचक्रवर्ती शक्रप्रशंसाऽसहनसमायातामरद्वयनिवेदितशरीरविकृतिरुत्पन्नवैराग्यवासनः पटप्रान्तावलमतृणपदखिलमपि राज्यमपहायाभ्युपगतदीक्षः प्रतिक्षणमभिनवाभिनवप्रवर्द्धमानसंवेगो मधुकरवृत्त्यैव यथो|पलब्धानपानोपरचितप्राणवृत्तिरनन्तरोक्तसप्लोहण्डकण्डादिवेदनाविधुरितशरीरोऽपि संयमान मनागपि सञ्चचाल, पुनस्तत्सत्त्वपरीक्षणायातभिषग्वेषामरोपदर्शितद्वादशांशुमालिसमानुल्यवयवश्च तत्पुरतः 'पुचि कडाणं कम्माणं बेहत्ता' इत्यादि संवेगोत्पादकमागमवचः प्ररूपयन् स्वयमागत्य शक्रेणाभिवन्दित उपबंहितथेति गाथार्थः ॥८४॥ सम्प्रति ॥क परीषह इति क्षेत्रविषयप्रश्नप्रतिवचनमाह १ पूर्व कृताना कर्मणां वेदयित्वा । दीप अनुक्रम [४८] ॥७८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं -1/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८५] (४३) प्रत सूत्रांक ||४८|| लोए संथारंमि य परीसहा जाव उज्जुसुत्ताओ। तिण्हं सदनयाणं परीसहा होइ अत्ताणे ॥५॥ el व्याख्या-लोके संस्तारके च परीषहाः 'जाय उज्जुसुत्ताउति सूत्रत्वात् ऋजुसूत्र यावदू, अस्य च पूर्वार्द्धस्य सूचकत्वादविशुद्धनैगमस्य मतेन लोके परीषहाः, तत्सहिष्णुयतिनिवासभूतक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकान न्तरत्वात् , इत्थमपि च व्यवहारदर्शनाद, एवमुत्तरोत्तरादिविशुद्धविशुद्धतरतद्भेदापेक्षया तिर्यग्लोकजम्बूद्वीपभरतदक्षिणार्द्धपाटलीपुत्रोपाश्रयादिपु भावनीयं, यावदत्वन्तविशुद्धतमनगमस्य यत्रोपाश्रयैकदेशे अमीषां सोढा यतिस्तत्रामी इति, एवं व्यवहारस्थापि, लोकव्यवहारपरत्वादस्य, लोके च नेह वसति प्रोषित इति व्यवहारदर्शनात्, सङ्ग्रहस्य संस्तारके परीपहाः, स हि संगृहातीति सङ्ग्रह इति निरुक्तिवशात् सङ्ग्रहोपलक्षितमेवाधारं मन्यते, संस्तारक एव च ट्रा यतिशरीरप्रदेशैः सञ्जयते न पुनरुपाश्रयैकदेशादिरिति संस्तारक एवास्य परीषहाः, ऋजुसूत्रस्य तु वेष्वाकाशप्रदेशेप्वात्माऽवगाढसेष्वेव परीपहाः, संस्तारकादिप्रदेशानां तदणुभिरेव व्याप्तत्वात् , तत्रावस्थानाभावात् , त्रयाणां शब्दनयामा परीपहो भवति आत्मनि, खात्मनि व्यवस्थितत्वात्सर्वस्थ, तथाहि-सर्व वस्तु खात्मनि व्यवतिष्ठते सत्वाद् यथा चैतन्यं जीये, आह-किमेवं नयाख्या ?, निषिद्धा बसौ, यदुक्तम्-'णत्धिं पुडुत्ते समोयारों'त्ति, उच्यते, दृष्टि१ नास्ति पृथक्त्वे समवतारः। दीप अनुक्रम [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] (४३) ध्ययनम् प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. |वादोद्धृतत्वादस्य न दोषः, तथा च प्रागुक्तम्-'कम्मप्पवायपुछे' त्यादि, दृष्टिवादे हि नयैर्व्याख्येत्यत्रापि तथैवामि-2 परीषहा धानमिति गाथार्थः ॥ ८५ ॥ इदानीमुद्देशादिद्वारत्रयमल्पवक्तव्यमित्येकगाथया गदितुमाहबृहद्वृत्तिः + उद्देसो गुरुवयणं पुच्छा सीसस्स उ मुणेयवा । निद्देसो पुणिमे खलु बावीसं सुत्तफासे य॥८६॥ | ॥७९॥ व्याख्या-उद्दिश्यत इति उद्देशः, क इत्याह-गुरुवचनं गुरोः विवक्षितार्थसामान्याभिधायक पचो, यथा प्रस्तुतमेव 'इह खलु बावीसं परीसहति 'पृच्छा शिष्यस्य तु गुरुद्दिष्टार्थविशेषजिज्ञासोर्विनेयस्थ, तुः पुनः प्रक्रमाद्वचनं । 'मुणितव्या ज्ञातव्या, यथा 'कयरे खलु ते बावीस परीसहा?' इति, निर्देशश्चेति निर्देशः-पुनः इमे खलु द्वाविंशतिः, परीषहा इति गम्यते, अनेन च शिष्यप्रश्नानन्तरं गुरोर्निर्वचनं निर्देश इत्यादुक्तं भवति, अत्र चैवमुदाहरणद्वारेणाभिधानं पूर्वयोरप्युक्तोदाहरणद्वयसूचनार्थ वैचित्र्यख्यापनार्थ चेति किञ्चिन्यूनगाथार्थः ॥८६॥ इत्थं 'कुत' इत्यादिद्वादशद्वारवर्णनादवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति 'सूत्रस्पर्श' इति चरमद्वारस्य सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपस्य चावसरः, तचोभयं सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सुत्रमुच्चारणीयं, तवेदम्है 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खल बावीसं परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया जे भिक्खू सुच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिवयंतो पुट्टो नो विनिहन्नेजा। PARASAKCakck [१] दीप अनुक्रम GAR ॥७९॥ [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [१] / गाथा ||४८...|| मा नियुक्ति: [८६] (४३) प्रत सूत्रांक PI व्याख्या-श्रुतम् आकर्णितमवधारितमितियावत् 'मे' मया 'आयुष्मन्निति शिष्यामवणं, कः कमेवमाह ?, सुधर्मखामी जम्बूखामिनं, किं तत् श्रुतमित्याह-'तेने ति त्रिजगत्प्रतीतेन ‘भगवता' अष्टमहाप्रातिहार्यरूपसमग्रैदश्चर्यादियुक्तेन, एवं मित्यमुना वक्ष्यमाणन्यायेन 'आख्यातं सकलजन्तुभाषाभिव्यात्या कथितम् , उक्तं च-"देवा देवीं नरा नारी, शवराश्चापि शावरीम् । तिर्यश्चोऽपि हि तैरश्ची, मेनिरे भगवद्विरम् ॥१॥" किमत आह-'इहे'-18 #ति लोके प्रवचने वा 'खलुः' वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, तत इहैव-जिनप्रवचन एव द्वाविंशतिः परीषहाः. सन्तीति | है गम्यते, अत्र च श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना खयमवधारितमेव अन्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात् , उक्तं च-"किं एत्तो पावयरं सम्म अणहिगयधम्मसन्मायो । अन्नं कुदेसणाए कट्टतरायमि पाडेइ ॥१॥"त्ति, 'मये'त्यनेनार्थतोऽनन्तरागमत्वमाह, 'भगवते'त्यनेन च वक्तुः केवलज्ञानादिगुणवत्वसूचकेन प्रकृतवचसः४ प्रामाण्यं ख्यापयितुं वक्तुः प्रामाण्यमाह, वत्कृप्रामाण्यमेव हि वचनप्रामाण्ये निमित्तं, यदुक्तम्-"पुरुषप्रामाण्यमेव शब्दे दर्पणसङ्कान्त मुखमिवीपचारादभिधीयते” 'तेने ति च गुणवत्वप्रसिध्ध्यभिधानेन प्रस्तुताध्ययनस्य प्रामाण्यनिश्चयमाह, संदिग्धे हि वक्तुर्गुणवत्त्वे वचसोऽपि प्रामाण्ये संदिघेतेति, समुदायेन तु आत्मीद्धत्यपरिहारेण गुरुगुणप्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना विधेया, एतद्भक्तिपरिणामे च विद्यादेरपि फलसिद्धिः, यदुक्तम्-"आयरियभत्ति १ किमेतस्मात्पापकरं। सम्यगनधिगतधर्मसद्भावः । अन्यं कुदेशनया कष्टतरागसि पातयति ॥१॥२ आचार्यभक्तिरागेण विद्या मआश्च सिध्यन्ति प्रकार [१] दीप अनुक्रम [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] (४३) प्रत सूत्रांक [१] उत्तराध्य-रणात राएण विजा मन्ता य सिझंति" अथवा-आउसंतेणं'ति भगवद्विशेषणम् , आयुष्मता भगवता, चीरजीविनेत्यर्थो, परीषहा मङ्गलवचनमेतत् , यद्वा-'आयुष्मतेति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्धारयता, न तु मुक्तिमवाप्यापि तीर्थनिकारादि- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः दर्शनात्पुनरिहायातेन, यथोच्यते कैश्चित्-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, neभवं तीर्थनिकारतः ॥ १॥" एवं हि अनुन्मूलितनिःशेषरागादिदोषत्वात्तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात, निःशेषोन्मूलने हि रागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव इति। यदिवा-'आवसंतेणं'ति मयेत्यस्य विशेषणं, तत आङिति-मुरुदर्शितमदिया बसता, अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादायतित्वरूपत्वाद्गुरुकुलबासस्य तद्विधानमर्थत उक्तं, ज्ञानादिहेतुत्वात्तस्य, उक्तं च-"णाणस्स होइ भागी थिरयरतो दसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलबासं न मुंचंति ॥१॥"अथवा 'आमुसंतेण' आमृशता भगवत्पादारविन्दं भक्तितः करतलयुगादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसमस्तशास्त्रेणापि गुरुविधामणादिविनयकृत्यं न मोक्तव्यम् , उक्तं हि-"जहांहिअग्गी जलणं नमसे, णाणादुईमंतपयाहिसितं । एवाय-IM पारियं उबचिट्ठएजा, अणतणाणोषगतोऽपि संतो॥१॥"त्ति, यहा-'आउसंतेणं'ति प्राकृतत्वेन तिव्यत्ययादाजुपमाणेन-श्रवणविधिमर्यादया गुरून् सेवमानेन, अनेनाप्येतदाह-विधिनयोचितदेशस्थेन गुरुसकाशात् श्रोतव्यं, न १ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथिकं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥१॥ २ यथाऽऽहिताग्निज्वलनं ४ नमस्यति नानाहुतिमन्नपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्यमुपतिष्ठेतानन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [४९] ॥८ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] (४३) प्रत सूत्रांक [१] तु यथाकथञ्चिद् ,गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षदुत्थितेभ्यो वा सकाशात् , यथोच्यते-"परिसुटियाण पासे सुणेइ सो विषयपरिभंसि"त्ति, यदुक्तं 'भगवता आख्यातं द्वाविंशतिः परीषहाः' सन्तीति, तत्र किं भगवता अन्यतः पुरुषविशेषाद-13. पौरुषेयागमात् खतो या अमी अवगता इत्याह-श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन 'पवेइय'त्ति सूत्रत्वात् प्रविदिताः, तत्र श्राम्यतीति श्रमण:-तपखी तेन, न तु 'ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥' इतिकणादादिपरिकल्पितसदाशिववदनादिसंसिद्धेन, तस्य देहादिविरहात् तथाविधप्रहै यत्नाभावेनाऽऽख्यानायोगाद् , उक्तं च-“वर्यणं न कायजोगाभावेण य सो अणादिसुद्धस्स । गहणम्मिय नो हेतू सत्थं अत्तागमो कह णु ॥१॥" 'भगवतेति च समग्रज्ञानेश्वर्यादिसूचकेन सर्वज्ञतागुणयोगित्वमाह, तथा च यत् कैश्चिदुच्यते-'हेयोपादेयतत्त्वस्य, साध्योपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदकः॥१॥' इति, तयुदस्तं भवति, असर्वज्ञो हि न यथावत्सोपायहेयोपादेयतत्त्वविद्भवति, प्रतिप्राणि भिन्ना हि भावानामुपयोगशक्तयः, तत्र कोऽपि कस्यापि कथमपि काप्युपयोगीति कथं सोपायहेयोपादेयतत्त्ववेदनं सर्वज्ञतां विना सम्भवतीति, 'महावीरेणे' ति शक्रक|तनाना चरमतीर्थकरेण, 'काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण, अनेन च नियतदेशकाल कुलाभिधायिना सकलदेशकालकला-14 १ पर्षदुत्थितानां पार्वे शृणोति स विनयपरिभ्रंशी । २ वचनं न काययोगाभावे न च सोऽनादिशुद्धस्य । पहणे न च हेतुः शास्त्रमात्मागमः दीप अनुक्रम [४९] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [४९] उत्तराध्य. वृत्तिः ॥ ८१ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४८...|| अध्ययनं [२] Education intemational व्यापिपुरुषाद्वैतनिराकरणं कृतं भवति, तत्र हि सर्वस्यैकत्वादयमाख्याताऽस्मै व्याख्येयमित्यादिविभागाभावत आख्यानस्यैवासम्भव इति, 'प्रविदिताः' प्रकर्षेण खयंसाक्षात्कारित्वलक्षणेन ज्ञाताः अनेन बुद्धिव्यवहितार्थपरिच्छेदवादः परिक्षिप्तो भवति, स्वयमसाक्षात्कारी हि प्रदीपहस्तान्धपुरुषवद्वयतिरिक्तबुद्धियोगोऽपि कथं कञ्चनार्थं परिच्छेत्तुं क्षमः स्याद् १, एवं चैतदुक्तं भवति - नान्यतः पुरुषविशेषादेतेऽवगताः, स्वयंसम्बुद्धत्वाद्भगवतः नाप्यपौरुपेयागमात् तस्यैवासम्भवाद्, अपौरुषेयत्वं ह्यागमस्य स्वरूपापेक्षमर्थप्रत्यायनापेक्षं वा ?, तत्र यदि स्वरूपापेक्षं तदा ताल्वादिकरणव्यापारं विनैवास्य सदोपलम्भप्रसङ्गः, न चावृतत्वात् नोपलम्भ इति वाच्यं तस्य सर्वथा नित्यत्वे आवरणस्याकिञ्चित्करत्वात्, किञ्चिकेरत्वे वा कथञ्चिदनित्यत्वप्रसङ्गाद्, अथार्थप्रत्यायनापेक्षम्, एवं कृतसङ्केता वालादयोऽपि ततोऽर्थं प्रतिपद्येरन्निति नापौरुषेयागमसम्भव इति । ते च कीदृशा इत्याह-- ' यानि 'ति परीपहान् 'भिक्षुः' उक्तनिरुक्तः, 'श्रुत्वा' आकर्ण्य, गुर्वन्तिक इति गम्यते, 'ज्ञात्वा' यथावदवबुद्ध्य, 'जित्वा' पुनः पुनरभ्यासेन परि| चितान् कृत्वा 'अभिभूय' सर्वथा तत्सामर्थ्यमुपहत्य, भिक्षोश्चर्या विहितक्रियासेवनं भिक्षुचर्या तथा 'परिव्रजन् समन्ताद्विहरन् 'स्पृष्टः' आश्लिष्टः प्रक्रमात्परीषहेरेव, 'नो' नैव 'विनिहन्येत' विविधैः प्रकारैः संयमशरीरोपघातेन विनाशं प्राप्नुयात् पठन्ति च ' भिक्खायरियाए परिवयंतो 'ति भिक्षाचर्यायां- भिक्षाटने परित्रजन्, उदीर्यन्ते हि Forest Use Only निर्युक्ति: [८६] ~164~ परीषहाध्ययनम् ॥ ८१ ॥ ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६...] (४३) प्रत सूत्रांक [१] भिक्षाटने प्रायः परीपहाः, उक्तं हि--"भिक्खायरियाए वावीसं परीसहा उदीरिजंति"त्ति, शेष प्राग्वत् । इत्युक्तः उद्देशः, पृच्छामाह कयरे ते खलु बावीसं प० जे० व्याख्या-'कयरे' किंनामानः 'ते' अनन्तरसूत्रोद्दिष्टाः 'खलुः' वाक्यालङ्कारे, शेष प्राग्यदिति ॥ निर्देशमाह इमे खलु ते बावीसं प० जे० व्याख्या-'इमे' अनन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षाः इमे'ते' इति ये त्वया पृष्टाः,शेषं पूर्ववत् ॥ तंजहा-दिगिंछापरीसहे १ पिवासापरीसहे २ सीयपरीसहे ३ उसिणपरीसहे ४ दसमसगपरीसहे 2 ५ अचेलपरीसहे ६ अरइपरीसहे ७ इत्थीपरीसहे ८ चरियापरीसहे ९निसीहियापरीसहे १० सिज्जाअपरीसहे ११ अक्कोसपरीसहे. १२ वहपरीसहे १३ जायणापरीसहे १४ अलाभपरीसहे १५ रोगपरीसहे. १६ तणफासपरीसहे १७ जल्लपरीसहे १८ सक्कारपुरकारपरीसहे १९ पपणापरीसहे २० अन्नाणपरीसहे । ६२१ सम्मत्तपरीसहे २२ । १ भिक्षाचर्यायां द्वाविंशतिः परीषहा उदीयन्ते ॥१॥ दीप अनुक्रम [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६...] (४३) उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१] व्याख्या-'तयः'त्युदाहरणोपन्यासार्थः दिगिञ्छापरीषहः १, पिपासापरीषहः २, शीतपरीपहः ३, उष्णपरीपहःपरीपहा|४, दंशमशकपरीषहः ५, अचेलपरीपहः ६, अरतिपरीपहः ७, स्त्रीपरीपहः ८, चर्यापरीषहः ९, नैषेधिकीपरीषहः ध्ययनम् |१०, शय्यापरीषहः ११, आक्रोशपरीपहः १२, वधपरीवहः १३, याचनापरीषहः १४, बलामपरीपहः १५, सेमपरीपहः १६, तृणस्पर्शपरीपहः १७, जलपरीषहः १८, सत्कारपुरस्कारपरीषहः १९, प्रज्ञापरीपहः २०, अज्ञानपरी-1 पहः २१, दर्शनपरीषहः २२ । इह च 'दिगिंछ'त्ति देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते, सैवात्यन्तव्याकुलत्वहेतुरप्यसंयमभी-12 रुतया आहारपरिपाकादिवाञ्छाविनिवर्त्तनेन परीति-सर्वप्रकारं सात इति परीपहः दिगिंछापरीपहः ८ एवं पातुमिच्छा पिपासा सैव परीपहः पिपासापरीपहः २, 'श्यैङ्गतावि' त्यस्य मत्यर्थत्वात्क-रिक्तः, ततो 'द्रवमूर्तिस्पर्शयोः श्यः | ((पा० ६-१-२४) इति संप्रसारणे स्पर्शयाचित्वाच 'इयोऽस्पर्श' (पा०८-२-७) इति नत्वाभावे शीत-शिशिरःला स्पर्शस्तदेव परीषहः शीतपरीपहः ३, 'उष दाह' इत्यस्यौणादिकनक्प्रत्ययान्तस्य उष्णं-निदाघादितापात्मकं तदेवी परीपहः उष्णपरीषहः ४, दशन्तीति दंशाः पचादित्वादच , मारयितुं शक्नुवन्ति मशकाः, देशाच मशकाच देशमश-147 काः, यूकायुपलक्षणं चैतत् , त एव परीषहो देशमशकपरीपहः ५, बचेस-चेलाभावो जिनकल्पिकादीनाम् अन्येषां तु ॥८२॥ मिनमल्पमूल्यं च चेलमप्यचेलमेव, अवस्त्राशीलादिवत् , तदेव परीषहोऽचेलपरीषहः ६, रमणं रतिः-संयमविषया| धृतिः तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः अरतिषरीषहः ७, स्त्यायतेः स्तृणोतेर्वा टि दित्त्वाच डीपि स्त्री सैव तद् दीप अनुक्रम [४९] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६...] (४३) 4 प्रत सूत्रांक [१] तरागहेतुगतिविभ्रमेशिताकारविलोकनेऽपि-वगुरुधिरमांसमेदलायबस्थिशिराबणैः सुदुर्गन्धम् । कुचनयनजघनवदनोरुमूञ्छितो मन्यते रूपम् ॥१॥ तथा-निष्ठीवितं जुगुप्सत्यधरस्वं पिबति मोहितः प्रसभम् । कचजधनपरिश्रा नेच्छति तन्मोहितो भजते ॥२॥ इत्यादिभावनातोऽभिधास्थमाननीतितश्च परिषदमाणत्वात्परीपहः स्त्रीपरीपहः द, चरणं चर्या-ग्रामानुग्राम विहरणात्मिका सैव परीषहः चर्यापरीपहः ९, निषेधनं निषेधः पापकर्मणां गमनादि क्रियायाश्च स प्रयोजनमस्या नैपेधिकी-स्मशानादिका खाध्यायादिभूमिःनिषद्येतियावत् सैव परीषहो नैषेधिकीपरीपहः 1/१०, तथा शेरतेऽस्यामिति शय्या-उपाश्रयः सैव परीषहः शय्यापरीषहः ११, आक्रोशनमाकोशः-असत्यभाषात्मकः सह 15एव परीपहः आक्रोशपरीपहः १२, हननं वधः-ताडनं स एव परीपहो वधपरिषहः १३, याचनं याच्या प्रार्थनेत्यर्थः,12 सैव परीषहो याचापरीपहो१४, लभनं लाभो न लाभोऽलाभः-अभिलषितविषयाप्राप्तिः स एव परीषहः अलाभपरी-12 |पहः १५, रोगः-कुष्ठादिरूपः स परीषहो रोगपरीषहः १६, तरन्तीति तृणानि, औणादिको नक् इखत्वं च, तेषां स्पर्शः तृणस्पर्शः स एव परीषहस्तृणस्पर्शपरीषहः १७, जल्ल इति मलः स एव परीषहो जलपरीषहः १८, सत्कारोवस्त्रादिभिः पूजनं पुरस्कार:-अभ्युत्थानासनादिसम्पादनं, यद्वा सकलैवाभ्युत्थानाभिवादनदानादिरूपा प्रतिपत्तिरिह १ सत्कारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कारः, ततस्तावेव स एव वा परीपहः सत्कारपुरस्कारपरीषहः १९, प्रज्ञापरीषहः अज्ञानपरीपहथ प्राग्भाविताओं, नवरं प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा-स्वयंविमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः, तथा| दीप अनुक्रम [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८६...] (४३) उत्तराध्य. प्रत 1८३॥ सूत्रांक ||१|| मज्ञायते वस्तुतत्त्वमनेनेति ज्ञानं-सामान्येन मत्यादि तदभावोऽज्ञानं २०-२१, दर्शन-सम्यग्दर्शनं तदेव क्रियादिवा- परीपहा दिना विचित्रमतश्रवणेऽपि सम्यक् परिषयमाणं-निश्चलचित्ततया धार्यमाणं परीपहो दर्शनपरीपहः, यद्वा दर्शनशब्देन | ध्ययनम् बृहद्धृत्तिः दर्शनव्यामोहहेतुरैहिकामुष्मिकफलानुपलम्भादिरिह गृह्यते, ततः स एव परीपहो दर्शनपरीषहः २२॥ इत्थं नामतः परीषहानभिधाय तानेय खरूपतोऽभिधित्सुः संवन्धार्थमाहपरीसहाणं पविभत्ती, कासवेण पवेइया। तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुत्विं सुणेह मे ॥१॥ (सूत्रम्) व्याख्या-परीपहाणाम्' अनन्तरोक्तनाम्नां 'प्रविभक्तिः' प्रकर्षण-खरूपसम्मोहाभावलक्षणेन विभागः-पृथक्ता काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण महावीरेणेतियावत् , 'प्रवेदिता' प्ररूपिता 'तामिति काश्यपप्ररूपितां परीपहनविभक्तिं भे' इति भवताम् ' 'उदाहरिष्यामि' प्रतिपादयिष्यामि' 'आनुपूा ' क्रमेण शृणुत 'मे' मम प्रक्रमाद्दाहरतः, शिष्यादरख्यापनार्थं च काश्यपेन प्रवेदितेति वचनमिति सूत्रार्थः॥ १ ॥ इह चाशेपपरीपहाणां क्षुत्परीपह एव। दुःसह इत्यादितस्तमाह ॥८३॥ दिगिछापरियावेण, तवस्सी भिक्खु थामवं । न छिंदे न छिंदावए, न पए न पयावए ॥२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-दिगिन्छा-उक्तरूपा तया परितापः-सर्वाङ्गीणसन्तापो दिगिम्छापरितापस्तेन, छिदादिक्रियापेक्षा हेतौ दीप अनुक्रम [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२|| नियुक्ति : [८६...] (४३) प्रत 3 सूत्रांक -% ||२|| तृतीया, पाठान्तरं 'दिगिछापरिगते' बुभुक्षाव्याप्ते 'देहे' शरीरे सति, तपोऽस्यास्तीति अतिशायने विनिस्तपखीविकृष्टाष्टमादितपोऽनुष्ठानवान् , स च गृहस्थादिरपि स्यादत आह-'भिक्षुः' यतिः, सोऽपि कीरक्-स्थाम-बलं तदस्य संयमविषयमस्तीति स्थामवान् , भूनि प्रशंसायांवा मतुपप्रत्ययः, अयं च किमित्याह-न छिन्यात्' न द्विधा विदध्यात्, खयमिति गम्यते, न छेदयेद्वा अन्यैः, फलादिकमिति शेषः, तथा न पचेत् खयं, न चान्यैः पाचयेत् , उपलक्षणत्वाच नान्यं छिन्दन्तं वा पचन्तं वाऽनुमन्येत, तत एव च न खयं क्रीणीयात् नापि कापयेत् न च परं क्रीणन्तमनुमन्येत, छेदस्य हननोपलक्षणत्वात् क्षुत्पपीडितोऽपि न नवकोटीशुद्धिवाधां विधत्ते इति गाथार्थः ॥२॥ कालीपत्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए । मत्तन्नोऽसणपाणस्स, अदीणमणसो चरे ॥३॥(सूत्रम्) व्याख्या-काली-काकजचा तस्याः पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च तनूनि भवन्ति ततः कालीपर्वाणीव पर्वाणिजानुकूपरादीनि येषु तानि कालीपर्वाणि, उष्ट्रमुखीवन्मध्यपदलोपी समासः, तथाविधैरोः-शरीरावयवैः सम्यका-II शते-तपःश्रिया दीप्यत इति कालीपर्वाङ्गसङ्काशः, यद्वा प्राकृते पूर्वापरनिपातस्थातत्रत्वादामो दग्ध इत्यादिवत् अवदियवधर्मेणाप्यवयविनि व्यपदेशदर्शनाचाङ्गसन्धीनामपि कालीपर्वसदृशतायां कालीभिः सकाशानि-सरशान्यङ्गानि यस स तथा, स हि विकृष्टतपोऽनुष्ठानतोऽपचितपिशितशोणित इत्यस्थिचर्मावशेष एवंविध एव भवति, अत एव च 'कृशः' कृशशरीरः, धमनयः-शिरास्ताभिः सन्ततो-व्याप्तो धमनिसंततः, एवंविधावस्थोऽपि मात्रां-परिमाणरूपा जानाति % दीप अनुक्रम [११] -5-र wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [८७-८८] (४३) ध्ययनम् उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः ॥८४॥ प्रत सूत्रांक ||३|| | इति मात्राज्ञो-नातिलौल्यतोऽतिमात्रोपयोगी, कस्येत्याह-अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि पीयत इति पान-सौवीरा-14 दि अनयोः समाहारेऽशमपानं तस्य, तथा 'अदीणमणसों' ति सूत्रत्वाददीनमनाः अदीनमानसो वा-अनाकुलचित्तः | 'चरेत्' संयमाध्वनि यायात् , किमुक्तं भवति -अतिवाधितोऽपि क्षुधा नवकोटीशुद्धमप्याहारमवाप्य न लौल्यतोऽतिमात्रोपयोगी तदप्राप्तौ वा दैन्यवान् इत्येवं शुत्परिषह्यमाणा क्षुत्परीषहः सोढो भवतीति सूत्रार्थः । सम्प्रति प्रायद्वारगाथोपक्षिप्तं सूत्रस्पर्श इति त्रयोदशद्वारं व्याचिख्यासुः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमाह'सुत्तफासे यत्ति । तथाकुमारए नई लेणे, 'सिला पंथे महल्लए । तावस पडिमा सीसे, अगणि निवेअ मुग्गरे ॥ ८७॥ वणे रामे पुरे भिक्खे, संथारे मल्लधारणं । अंगविजा सुए भोमे, सीसस्सागमणे इय ॥ ८८॥ व्याख्या-तत्र सूत्रस्पर्शश्चेति द्वारोषक्षेपः, कुमार इत्यादिना च तद्वर्णनं स्पष्टमेव, नवरं कुमारकादिभिः प्रत्येक द्वाविंशतेरपि परीपहाणामुदाहरणोपदर्शनं, तथाहि-'कुमारकः' क्षुल्लकः, 'लेणं ति लयनं गुहा महहए'त्ति आर्यरक्षितपिता, सूत्रस्पर्शित्वं चास्य सूत्रसूचितोदाहरणप्रदर्शकत्वादिति किश्चिदधिकगाथाद्वयार्थः ।। ८७-८८१ इदानीं नियुक्तिकार एव 'न छिन्दे'इत्यादिसूत्रावयवसूचितं कुमारकेत्यादिद्वारोपक्षिसं च क्षुत्परीषहोदाहरणमाह दीप अनुक्रम [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [८९] (४३) * 0 प्रत *-20- सूत्रांक ||३|| उजेणी हत्थिमित्तो भोगपुरे हत्यिभूखुड्डो अ। अडवीइ वेयणट्टो पाओवगओ य सादिव्वं ॥ ८९॥ - व्याख्या-उज्जयिनी हस्तिमित्रो भोगकटकपुरं हस्तिभूतिक्षुलकचाटव्यां वेदनाः पादपोपगतश्च सादिव्यं-देवसनिधानमिति गाथाक्षरार्थः ॥ ८९ ॥ भावार्थो वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं उजेणीए नगरीए हस्थिमित्तो नाम गाहाबई, सो मतभजिओ, तस्स पुत्तो हस्थिभूह नाम दारगो, सो तं गहाय पवइओ ते अन्नया कयाइ उजेणीओ भोगकडं पत्थिया, अडविमज्झे सो खंतो पाए खयकाए विद्धो, सो असमत्थो जातो, तेण ||साहुणो बुत्ता-वचह तुभेऽवि ताव नित्थरह कतारं, अहं महया कडेण अभिभूतो, जब ममं तुम्भे वहह तो भजिहिह, ४||अहंभत्तं पञ्चकखामि, निबंधेण ट्रितोएगपासे गिरिकंदराए भत्तं पञ्चकखाउं । साधू पट्ठिया, सो खुडतो भणति-अह-12 दापि इच्छामि, सो तेहिं बला नीतो, जाहे दुरं गतो ताहे वीसंमेऊण पचइए नियत्तो, आगतो खंतस्स सगासं, खंत-18 । १ तस्मिन् काले तसिगम् समये उज्जयिन्यां नगर्या हलिमित्रो नाम गाधापतिः, स मृतभार्यः, तस्य पुत्रो हस्तिभूति म दारका, स सं| गहीत्वा प्रबजितः । तौ अन्यदोजयिनीतो भोगकटं प्रस्थियौ, अटवीमध्ये स वृद्धः पादे कीलकेन विद्धा, सोऽसमर्थों जातः, तेन साधव उक्ताः-व्रजत यूवमपि तावत् निस्सरत कान्तारम् , अहं महता कष्टेनामिभूतो, यदि मां यूर्य बहत तदा विनश्क्ष्यथ, अहं भक्तं प्रत्याख्यामि, निर्बन्धेन स्थितः एकपा गिरिकन्दरायां भक्तं प्रत्याख्याय । साधवः प्रस्थिताः, स क्षुल्लको भणति-अहमपीच्छामि (सार्धं स्थातुं तेन ) स तैलानीतः, यदा दूरं गतस्तदा विश्रभ्य प्रत्रजितान् निवृत्तः, आगतो घृद्धस्य ।। 4 दीप अनुक्रम [१२] - 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [८९] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३|| उत्तराध्य. एण भणियं-तुमं कीस आगओ ?, इहं मरिहिसि, सोऽवि धेरो वेयणत्तो तदिवसं चेव कालगतो, खुडगो न चेव परीपहा जाणइ जहा कालगतो। सो देवलोएसु उववण्णो, पच्छा तेण ओही पउत्ता-किं मया दत्तं तत्तं वा?,जावतं सरीरयं ध्ययनम् पेच्छद खुहर्ग च, सो तस्स खुडगस्स अणुकंपाए तहेव सरीरगं अणुपविसित्ता खुट्टएण सद्धिं उलावितो अच्छदा ॥८५॥ तेण मणिओ-वचह पुत्त ! भिक्खाए, सो भणइ-कहिं ?, तेण भण्णइ-एए धयणिग्गोहादी पायवा, एएसु तन्निवासी पागवंतो, जे तव भिक्खं देहिति, तहत्ति भणिउं गतो, धम्मलामेति रुक्खहेस, ततो सालंकारो हत्थो णिग्ग-1 |च्छिउं भिक्खं देइ, एवं दिवसे दिवसे भिक्खं गिण्हतो अच्छितो जाव ते साहुणो तंमि देसे दुभिक्खे जाए पुणोषि उज्वेणिगं देसं आगच्छंता तेणेव मग्गेण आगया वितिए संवच्छरे, जाव तं गया पएसं, खुडगं पेच्छंति परिसस्स: ___सकाश, वृद्धेन भणितम्-चं किमागतः, इह मरिष्यसि, सोऽपि स्थविरो वेदनातः तदिवस एव कालं गतः, शुल्लको नैव जानाति यथा दकालगतः। स देवलोके उत्पन्नः, पश्चात्तेनावधिः प्रयुक्तः किं मया दत्तं तप्तं वा ?, यावत्तच्छरीरकं प्रेक्षते क्षुल्लकं च, स तस्य क्षुल्लकस्यानुक म्पया तथैव शरीरकमनुप्रविश्य क्षुल्लकेन साधं उल्लापयन् तिष्ठति, तेन भणित:-ब्रज पुत्र ! भिक्षाये, स भणति-क?, तेन भण्यते-एते धवन्यप्रोधादयः पादपाः, एतेषु तन्निवासिनः पाकवन्तः, ये तुभ्यं भिक्षा दास्यन्ति, तथेति भणित्वा गतः, धर्मलाभयति वृक्षाणामधस्तात् , ततः । सालङ्कारो हस्तो निर्गय भिक्षां ददाति, एवं दिवसे दिवसे भिक्षां गृह्णन् स्थितः यावचे साधवस्तस्मिन् देशे दुर्भिक्षे जाते पुनरपि उज्जयिनी-14 देशमागच्छन्तः तेनैव मार्गेणागताः, द्वितीयस्मिन् संवत्सरे, यावत्तं प्रदेशं गताः, क्षुल्लक प्रेक्षन्ते, वर्षस्यान्ते । दीप अनुक्रम [१२] द्र JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [८९] (४३) प्रत सूत्रांक ||४|| Kiअंते, पुच्छितो भणइ-खंतोऽवि अच्छइ, गया जाय सुकं सरीरयं पेच्छंति, तेहिं नायं-देवेण होऊणमणुकंपा कइ-18 लिया होहित्ति । खतेण अहियासितो परीसहो ण खुट्टएण, अहया खुडएणवि अहियासितो, ण तस्स एवं भावो भवइ-जहाऽहं न लभिस्सामि भिक्खं, पच्छा सो खुडगो साहहिं नीओ। यथा च ताभ्यामयं परीपहः सोढस्तथा। साम्प्रतस्थमुनिभिरपि सोढव्य इत्यैदम्पर्यार्थः । उक्तः क्षुत्परीपहः, एवं चाधिसहमानस्य न्यूनकुक्षितयैषणीयाहारार्थ : दिवा पर्यटतः श्रमादिभिरवश्यंभाविनी पिपासा, सा च सम्यक सोढव्येति तत्परीषहमाहहै तओ पुट्रो पिवासाए, दुगुंछी लद्धसंजमे।सीओदगंण सेवेजा, वियडस्सेसणं चरे ॥४॥(सूत्रम्) व्याख्या-तत' इति क्षुत्परीपहात् तको वा उक्तविशेषणो भिक्षुः 'स्पृष्टः' अभिद्रुतः 'पिपासया' अभिहितखरूपया 'दोगुंछी ति जुगुप्सी, सामर्थ्यादनाचारस्येति गम्यते, अत एव लन्धः-अवाप्तः संयमः-पञ्चाश्रवादिविरमणात्मको येन स तथा, पाठान्तरं वा 'लजसंजमेत्ति' लजा-प्रतीता संयमः-उक्तरूपः एताभ्यां खभ्यस्ततया सात्मीभावसमु-11 पगताभ्यामनन्य इति स एव लज्जासंयमः, पठ्यते च 'लज्जासंजए'त्ति, तत्र लजया सम्यग्यतते-कृत्यं प्रत्यादृतो । भवतीति लज्जासंयतः, सर्वधातूनां पचादिषु दर्शनात् , स एवंविधः किमित्याह-शीतं-शीतलं, खरूपस्थतोयो १ पृष्टो भणति-वृद्धोऽपि तिष्ठति, गता यावत् शुष्कं शरीरक प्रेक्षन्ते, तैतिं-देवीभूयानुकम्पा कृताऽभविष्यत् इति । वृद्धेनाध्यासितः परी-2 पहो न क्षुलकेन, अथवा भुलकेनापि अध्यासितः, न तस्वैवं भावोऽभूत्-यथाऽहं न लप्स्ये निक्षा, पश्चात्स क्षुल्लकः साधुभिर्नीतः । दीप अनुक्रम [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [५४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ८६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा || ५ || अध्ययनं [२], पलक्षणमेतत्, ततः स्वकीयादिशस्त्रानुपहतम्, अप्रासुकमित्यर्थः तच तदुदकं च शीतोदकं, 'न सेवेत' न पानादिना भजेत, किन्तु 'वियडस्स'त्ति विकृतस्य चयादिना धिकारं प्रापितस्य प्रामुकस्येतियावत् प्रक्रमादुदकस्य 'एसणं'ति चतुर्थ्यर्थे द्वितीया, ततश्चैषणाय - गवेषणार्थ 'चरेत्, तथाविधकुलेषु पर्यटेत्, अथवा एषणाम् - एषणासमितिं चरेत्, चरतेरासेवायामपि दर्शनात् पुनः पुनः सेवेत, किमुक्तं भवति ?- एकवारमेषणाया अशुद्धावपि न पिपासातिरेकतोsनेपणीयमपि गृहस्तामुलइयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ कदाचिजनाकुल एव निकेतनादौ लज्जातः स्वस्थ एव चैवं विदधीतेत्यत आह Education intemational छिन्नावासु पंथेसुं, आउरे सुपिवासिए । परिसुकमुहे दीणे, तं तितिक्खे परीसह ||५|| (सूत्रम्) व्याख्या - छिन्नः - अपगतः आपातः - अन्यतोऽन्यत आगमनात्मकः अर्थाज्जनस्य येषु ते छिन्नापाताः, विविक्ता इत्यर्थः, तेषु, 'पथिषु' मार्गेषु, गच्छन्निति गम्यते, कीदृशः सन्नित्याह-'आतुरः' अत्यन्ताकुलतनुः, किमिति ?, यतः सुष्ठु - अतिशयेन पिपासितः तृषितः सुपिपासितः, अत एव च परिशुष्कं विगतनिष्ठीवनतयाऽनाईतामुपगतं मुखमस्येति परिशुष्कमुखः स चासौ अदीनश्च दैन्याभावेन परिशुष्कमुखादीनः 'त'मिति तृपरीषदं 'तितिक्षेत' सहेत पठ्यते च - 'सबतो य परिघपत्ति' सर्वत इति सर्वान् मनोयोगादीनाश्रित्य चः पूरणे 'परित्रजेत्' सर्वप्रकारसंयमाध्वनि यायात् उभयत्रायमर्थी-विविक्तदेशस्थोऽप्यत्यन्तं पिपासितोऽस्वास्थ्यमुपगतोऽपि च नोक्तविधि - निर्युक्ति: [८९...] For Parts Only ~174~ परीषहाध्ययनम् २ ॥ ८६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [५४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) [१] / गाथा ||५|| अध्ययनं [२] मुल्लङ्घयेत् ततः पिपासापरीपहोऽध्यासितो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ इदानीं नदीद्वारमनुसरन् 'सीओदगं न सेवेजा' इत्यादिसूत्रावयवसूचितं निर्युक्तिकृत् दृष्टान्तमाह उज्जेणी धणमित्तो पत्तो से खुड्डओ अ धणसम्मो । तण्हाइतोऽपीओ कालगओ एलगच्छपहे ॥ ९० ॥ व्याख्या--उज्जयिन्यां धनमित्रः 'से' इति तस्य पुत्रः क्षुल्लकश्च घनपुत्रंशम्र्मा 'तण्हाए तो 'ति तृषितोऽपीतः कालगत एडकाक्षपथ इत्यक्षरार्थः ॥ ९० ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायाद्वसेयः, स चायम् एत्थ उदाहरणं किंचि पडिवक्खेण किंचि अणुलोमेण । उज्जेणी नाम नयरी, तत्थ घणभित्तो नाम वाणियतो, तस्स पुत्तो घणसम्मो नाम दारतो, सो घणमित्तो तेण पुत्त्रेण सह पवइओ । अन्नया ते साहू मज्झण्हवेलाए एलगच्छपहे पट्टिया, सोऽवि खुड्डगो तण्हाइतो एति, सोऽवि से खन्तो सिणेहाणुरागेण पच्छओ एति, साहुणोऽवि पुरतो वचंति, अन्तरावि नदी समावडिया, पच्छा तेण बुच्चइ एहि पुत्त । इमं पाणियं पियाहि, सोऽवि खंतो नई उत्तिन्नो चिंतेति य-म Education intimational १ अत्रोदाहरणं किञ्चित्प्रतिपक्षेण किश्विदनुलोमेन । उज्जयिनी नाम नगरी, तत्र धनमित्रो नाम वणिक्, तस्य पुत्रो धनशर्मा नाम दारकः, स धनमित्रस्तेन पुत्रेण सह प्रन्नजितः । अन्यदा ते साधवो मध्याहवेलायामेलकाक्षपये प्रस्थिताः, सोऽपि शुकस्तृषित एति सोऽपि तस्य पिता नेहानुरागेण पञ्चादायाति, साधवोऽपि पुरतो व्रजन्ति, अन्तराऽपि नदी समापविता, पश्चात्चेनोच्यते--एहि पुत्रेदं पानीयं पिव सोऽपि वृद्धो नदीमुत्तीर्णचिन्तयति च मनागपसरामि । निर्युक्ति: [९०] For Fans Only ~175~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [९०] (४३) 6 हवृत्तिः प्रत 2--% सूत्रांक ||५|| उत्तराध्यणागं ओसरामि, जावेस खुडओ पाणियं पियइ, मा मे संकाए न पाहित्ति एगते पडिच्छइ, जाव खुडतो पत्तो ण ण परीषहापियति, केइ भणंति-अंजलीए उखित्ताए अह से चिंता जाया-पियामित्ति, पच्छा चिंतेइ-कहमहं एए हालाहले ध्ययनम् जीवे पिविस्सं ?, ण पीयं, आसाए छिनाए कालगतो, देवेसु उववण्णो, ओहि पउत्तो, जाव खुड्डगसरीरं पासति, ॥ ८७॥ तहिं अणुपचिट्ठो, खंतं ओलग्गति, खंतोऽवि एतित्ति पत्थितो, पच्छा तेण तेर्सि देवेणं साहूणं गोउलाणि विउधि है याणि, साहूवि तासु बइयासु तकाईणि गिण्हन्ति, एवं वईयापरंपरेण जाव जणवयं संपत्ता, पच्छिलाए बईयाए तेण देवेण विटिया पम्हुसाविया जाणणनिमित्तं, एगो साहू णियचो, पेच्छति विटियं, पत्थि वइया, पच्छा तेहिं णायं-सादिचंति, पच्छा तेण देवेण साहुणो बंदिया, खंतो न बंदिओ, तओ सर्व परिकहेइ, भणइ-एएण | १ यावदेष क्षुल्लकः पानीयं पिबति, मा मम शङ्कया न पास्वतीति एकान्ते प्रतीक्षते, यावत्क्षुल्लकः प्रातः नदी, न पिबति, केचिद्भणन्ति-अञ्ज[लावुत्क्षिप्तायामथ तस्य चिन्ता जाता-पिबामीति, पश्चात् चिन्तयति-कथमहमेतान हालाहलान, जीवान् पास्ये?, न पीतम् , आशायां छिन्नायां कालगतः, देवेषूत्पन्नः, अवधिः प्रयुक्तः, यावत् क्षुल्लकशरीरं पश्यति, तत्रानुप्रविष्टः, वृद्धमवलगति, वृद्धोऽपि एतीति प्रस्थितः, पश्चात्तेन देवेन तेभ्यः साधुभ्यो गोकुलानि विकृर्वितानि, साधबोऽपि तासु प्रजिकासु तक्रादीनि गृह्णन्ति, एवं प्रजिकापरम्परफेण यावज्जनपदं संप्राप्ता पश्चिमायां व्रजिकावां तेन देवेन विण्टिको विस्मारिता ज्ञाननिमित्तम् , एक साधुर्निवृत्तः, पश्यति विण्टिका, नास्ति जिका, पश्चात्तै-18 ति-सादिन्यमिति, पश्चात् तेन देवेन साधवो वन्दिताः, वृद्धो न वन्दितः, ततः सर्व परिकथयति, भणति-एतेनाई। % दीप अनुक्रम [१४] JABERatinintamational marwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [१०] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| अहं परिचत्तो-तुम णं पाणियं पियाहित्ति, जदि मे तं पाणियं पियं होन्तं तो संसारं भमंतो, पडिगतो। एवं अहियासेयवं । इत्यवसितः पिपासापरीपहः, क्षुत्पिपासासहनकर्शितशरीरस्य च नितरां शीतकाले शीतसम्भव इति तत्परीषहमाहचरंतं विरयं लूह, सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं विहन्निजा, पावदिट्टी विहन्नइ ॥६॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'चरन्तम्' इति ग्रामानुग्राम मुक्तिपथे वा ब्रजन्तं, धर्ममासेवमानं वा, 'विरतम् ' अग्निसमारम्भादेनिवृत्तं विगतरतं वा 'लूह'ति स्नानस्निग्धभोजनादिपरिहारेण रूक्षं, किमित्याह-शृणाति इति शीतं, 'स्पृशति' | अभिद्रवति, चरदादिविशेषणविशिष्टो हि सुतरां शीतेन वाध्यते, 'एकदेति शीतकालादौ प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ वा, ततः किम् ?-'न' नैव वेला-सीमा मर्यादा सेतुरित्यनर्थान्तरं, ततश्चातीति शेषसमयेभ्यः स्थविरकल्पिकापेक्षया जिन-12 18 कल्पिकापेक्षया च स्थविरकल्पाचातिशायिनी वेला शक्त्यपेक्षतया च सर्वधानपेक्षतया च शीतसहनलक्षणा मर्यादा दातां विहन्यात् , कोऽर्थः-अपध्यानस्थानान्तरसर्पणादिभिरतिक्रामेत् , किमेवमुपदिश्यत इत्याह-पासयति पातय-13 ति वा भवावर्त इति पापा तादृशी दृष्टि:-बुद्धिरस्पेति पापदृष्टिः 'विहन्नई' इति सूत्रत्वाद्विहन्ति-अतिक्रामत्यतिवेला १ परित्यक्तः त्वमिदं पानीयं पिवेति, यदि मया तत्पानीयं पीतमभविष्यत्तदा संसारमनमिष्यम् , प्रतिगतः, एवमध्यासितव्यम् । २ नेदं पदत्रयं प्रत्यन्तरे. दीप अनुक्रम [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [९०...] (४३) ध्ययनम् प्रत सूत्रांक CAN ||७|| उत्तराध्य. मिति प्रक्रमः, अयमत्र भावार्थः-पापदृष्टिरेवोक्तरूपमर्यादातिक्रमकारी, ततः पापबुद्धिकृतत्वादस्य सद्बुद्धिभिः परि- | परीषहा नहारो विधेयः, पठ्यते च–'नाइवेलं मुणी गच्छे, सुचा णं जिणसासणं' तत्र वेला-खाध्यायादिसमयात्मिका तामबृहद्वृत्तिः " तिक्रम्य शीतेनाभिहतोऽहमिति 'मुनिः तपखी न 'गच्छेत्' स्थानान्तरमभिसत् , 'सोचेति श्रुत्या णमिति वा॥८ ॥ क्यालङ्कारे 'जिनशासन' जिनागमम्-अन्यो जीवोऽन्यश्च देहस्तीजतराश्च नरकादिषु शीतवेदनाः प्राणिभिरनुभूतपूर्वा इत्यादिकमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ अन्यचण मे णिवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विजइ । अहं तु अग्गि सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए ॥७॥(सूत्रम्)| व्याख्या-न 'मे' मम नितरां वार्यते-निषिध्यतेऽनेन शीतवातादीति निवारणं-सौधादि 'अस्ति' विद्यते, तथा [छवि:-त्वक त्रायते-शीतादिभ्यो रक्ष्यतेऽनेनेति छवित्राणं-यखकम्बलादिन विद्यते, वृद्धास्तु निवारणं-वस्त्रादि तथा छवि:-वक्त्राणं न विद्यते-न भवति, असौ हि शीतोष्णादीनां ग्राहिकेति व्याचक्षते, अतः 'अहमित्यात्मनिभादेशः तुः पुनरथैः, तद्भावना च येषां निवारणं छवित्राणं वा समस्ति ते किमिति अग्नि सेवेयुः, अहं तु तदभावाद त्राणः तकिमन्यत्करोमीत्यग्नि सेवे 'इतीत्येवं 'भिक्षुः' यतिः 'न चिन्तयेत् 'न ध्यायेत् , चिन्तानिषेधे च | सेवन दूरापास्तमिति सूत्रार्थः ॥७॥ इदानी लयनद्वारं, तत्र च नातिवेलं मुनिर्गच्छेदि'त्यादिसूत्रावयवसू-18 चितं दृष्टान्तमाह दीप अनुक्रम [५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [११] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| रायगिहमि वयंसा सीसा चउरो उ भद्दबाहुस्स । वेभारगिरिगुहाए सीयपरिगया समाहिगया ॥९॥ हा व्याख्या-राजगृहे नगरे वयस्याः शिष्याश्चत्वारस्तु भद्रबाहोभारगिरिगुहायां शीतपरिगताः समाधिगता इत्य क्षरार्थः ॥ ९१ ॥ भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तवेदम्8. रायगिहे णयरे चत्तारि वयंसा वाणियगा सहवाहियया, ते भहवाहस्स अंतिए धर्म सोचा पवइया, ते सुर्य बहुं| अहि जित्ता अन्नया कयाइ एगल्लविहारपडिमं पडिवन्ना, ते समावत्तीए विहरता पुणोषि रायगिहं नयरं संपत्ता, हेमंतो य वदृति, ते य मिक्खं काउं तइयाए पोरिसीए पडिनियत्ता, तेसिं च वैभारगिरितेणं गंतवं, तत्थ पढमस्स गिरिगुहादारे चरिमा पोरिसी ओगाढा, सो तत्थेव ठिओ, बिययस्स उजाणे, ततियस्स उजाणसमीवे, चउत्थस्स नगरभासे चेव, तत्थ जो गिरिगुहन्भासे तस्स निरागं सीयं सो सम्म सहतो खमंतो अ पढमजामे चेव कालगतो, एवं १ राजगृहे नगरे चत्वारो वयस्था वणिजः सहवृद्धाः, ते भद्रबाहोरन्तिके धर्म श्रुत्वा प्रत्रजिताः, ते भुतं बहधीय अन्यदा कदाचित ★ एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपन्नाः, ते समापत्त्या (भवितब्यतया ) विहरन्तः पुनरपि राजगृह नगरं संप्राप्ताः, हेमन्तच वर्तते, ते च मिक्षा कृत्वा तृतीयायां पौरुष्या प्रतिनिवृत्ताः, तेषां च वैभारगिरिमार्गेण गन्तव्यं, तत्र प्रथमस्य गिरिगुहाद्वारे चरमा पौरुष्यवगाढा, स तत्रैव । टू स्थितः, द्वितीयस्योद्याने, तृतीयस्योद्यानसमीपे, चतुर्थस्य नगराभ्यासे चैव, तत्र यो गिरिगुहाभ्यासे तस्य निरन्तरायं शीतं स सम्यक * सहमानः क्षममाणध प्रथमवाम एव कालमतः, एवं. दीप अनुक्रम [५६] - - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||८|| नियुक्ति: [९१...] (४३) प्रत सूत्रांक ||८|| उत्तराध्य. जो नगरसमीवे सो चउत्थे जामे कालगतो, तेसिं जो नगरमासे तस्स नगरुण्हाए न तहा सीअं तेण पच्छा काल- परीपहा गतो, ते सम्मं कालगया, एवं सम्म अहियासियो जहा तेहिं चउहिं अहियासियं ॥ इदानीं शीतविपक्षभूतमुष्ण || मिति यदिवा शीतकाले शीतं तदनन्तरं ग्रीष्मे उष्णमिति तत्परीषहमाह॥ ८॥ उसिणपरितावेण, परिदाहेण तजिओ। प्रिंसु वा परितावेणं, सायं ण परिदेवए॥८॥ (सूत्रम्) व्याख्या-उष्णम्-उष्णस्पर्शवत् भूशिलादि तेन परितापः तेन, तथा 'परिदाहेन' पहिः खेदमलाभ्यां वहिना | वा अन्तश्च तृष्णया जनितदाहखरूपेण 'तर्जितः' भसितोऽत्यन्तपीडित इतियावत् , तथा 'ग्रीष्मे वाशब्दात् शरदि दावा 'परितापेन' रविकिरणादिजनितेन तर्जित इति सम्बन्धः, किमित्याह-सात' सुखं, प्रतीति शेषः, न परिदेवेत् , | किमुक्तं भवति ?-'नारीकुचोरुकरपल्लयोपगूढैः क्वचित्सुखं प्राप्ताः । क्वचिदङ्गारज्वलितैस्तीक्ष्णैः पक्काः स्म नरकेषु॥१॥ इत्यादि परिभावयन् हा ! कथं मम मन्दभाग्यस्य सुखं स्यादिति प्रलपेत् , यद्वा-'सात मिति सातहेतुं प्रति, यथा हाहा! कथं कदा वा शीतकालः शीतांशुकरकलापादयो वा मम सुखोत्पादकाः सम्पत्स्यन्त इति न परिदेवतेति सूत्रार्थः18 ॥८॥ उपदेशान्तरमाह Pl८९॥ यो मगरसमीपे स चतुर्थे यामे कालगतः, तेषां यो नगराभ्यासे तस्य नगरोमणा न तथा शीतं तेन पचात्कालगतः, ते सम्यक ४ कालगताः, एवं सम्यगध्यासितव्यं यथा तैश्चतुर्भिरण्यासितम् । ॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [५८] - এ % %% % % % “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) [१] / गाथा ||९|| अध्ययनं [२] उहाहिततो मेहावी, सिणाणं नाभिपत्थए । गायं न परिसिंचेज्जा, न विंजिज्जा य अप्पय॥ ९ ॥ (सूत्रम्) व्याख्या – 'उष्णाभितप्तः' उष्णेनात्यन्तं पीडितो 'मेधावी' मर्यादानतिवर्ती 'स्त्रानं' शौचं देशसर्वभेदभिन्नं 'नाभिप्रार्थयेत् नैवाभिलषेत्, पठन्ति च- 'णोऽवि पत्थर' ति अपेर्भिन्नक्रमत्वात् प्राथैयेदपि न, किं पुनः कुर्यादिति 2, तथा 'गात्रं' शरीरं 'न परिषिञ्चेत्' न सूक्ष्मोदकविन्दुभिराद्रकुर्यात्, 'न वीजयेच' तालवृन्तादिना 'अप्पयंति आत्मानम्, अथवाऽल्पमेवाल्पकं, किं पुनर्वह्निति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ साम्प्रतं शिठाद्वारमनुस्मरन् 'उसिणपरितावेणे-' त्यादिसूत्रावयवसूचितमुदाहरणमाह तगराइ अरिहमित्तो दत्तो अरहन्नओ य भद्दा य । वणियमहिलं चइत्ता तत्तंमि सिलायले विहरे ॥ ९२ ॥ Education intimational निर्युक्तिः [९२] व्याख्या - तगरायामर्हन्मित्रो दत्तोऽर्हन्नकश्च भद्रा च वणिग्मां त्यक्त्वा तप्ते शिलातले 'विहरे 'ति व्यहापदिति गाथाक्षरार्थः ॥ ९२ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् तेरा नयरी, तत्थ अरिहमितो नाम आयरिओ, तस्स समीवे दत्तो नाम बाणियओ महाए भारियाए पुत्त्रेण य १ तगरा नगरी, तत्रार्हन्मित्रनामा आचार्यः, तस्य समीपे दत्तो नाम वणिक्कू भद्रया भार्यया पुत्रेण For Fans Only ~ 181~ www.janbay.o मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [५८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ९० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||९|| अध्ययनं [२] अरहन्नएंण सद्धिं पवइओ, सो तं खुड्डगं ण कयाइ भिक्खाए हिंडावेर, पढमालियाईहिं किमिच्छएहिं पोसेति, सो सुकुमालो, साहूण अप्पत्तियं, ण तरंति किंचि भणिउं । अन्नया सो खंतो कालगतो, साहूहिं दो तिन्नि वा दिवसे दाउ भिक्खस्स ओयारिओ, सो सुकुमालसरीरो गिम्हे उबरिं हिठ्ठा य उज्झति पासे य, तिण्हाभिभूतो छायाए बीसमंतो पउत्थवतियाए वणिय महिलाए दिट्ठो, ओरालसुकुमालसरीरोत्तिकाउं तीसे तर्हि अज्झोववाओ जाओ, चेडीए सद्दावितो, किं मग्गसि ?, भिक्खं, दिण्णा से मोयगा, पुच्छितो कीस तुमं धम्मं करेसि ?, भणइ -सुहनिमित्तं, सा भणइ तो मए चैव समं भोगे भुंजाहि, सो य उण्हेण तज्जिओ उवसग्गिजंतो य पडिभग्गो भोगे भुंजति । सो साहूहिं सबहिं मग्गितो ण दिट्ठो अप्पसागारियं पविट्टो, पच्छा से माया उम्मत्तिया जाया पुत्तसोगेण, णयरं परिभ्रमंती Education intimational १ चाईनकेन सार्धं प्रव्रजितः, स तं क्षुल्लकं न कदाचित् भिक्षायै हिण्डयति, प्रथमालिकादिभिः क्रिमिच्छकैः पोषयति, स सुकुमाल:, साधूनामप्रीतिकं, न तरन्ति किञ्चिद्भणिम् । अन्यदा स वृद्धः कालगतः, साधुभिः द्वौ श्रीन् वा दिवसान् दत्वा भिक्षावायघतारितः, स सुकुमालशरीरो ग्रीष्मे उपरि अधस्ताव दाते पार्श्वयोग्य, तृष्णाभिभूतश्छायायां विश्राम्यन् प्रोषितपतिकया वणिग्महेलया दृष्टः, उदारमुकुमालशरीर इतिकृत्वा तस्यास्तत्राभ्युपपातो जातः, चेटचा शब्दितः, किं मार्गयसि ?, भिक्षां, दत्तास्तस्मै मोदकाः, पृष्टः कथं स्वं धर्म करोषि ?, भणतिसुखनिमित्तं सा भणति तदा मचैव समं भोगान् भुडदव, स चोष्णेन तर्जितः उपसर्ग्यमाणञ्च प्रतिभग्नो भोगान् भुनक्ति । स साधुभिः सर्वत्र मार्गितः न दृष्टोऽल्पसागारिकं प्रविष्टः, पश्चात्तस्य मातोत्मत्ता जाता पुत्रशोकेन, नगरं परिभ्राम्यन्ती अर्हन्नकं विलपन्ती यं यत्र पश्यति निर्युक्ति: [९२] For False ~ 182~ परीषहाध्ययनम् २ || 80 || www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||९|| नियुक्ति: [१२] (४३) **** प्रत ** सूत्रांक ||९|| * अरहन्नयं विलवंती जं जहिं पासइ 'तं तहिं सवं भणति-अत्थि ते कोइ अरहन्नओ दिहो ?, एवं विलवमाणी भमइ, जाव अन्नया तेण पुत्तेण ओलोयणगएण दिठ्ठा, पचभिन्नाया, तहेव ओयरित्ता पाएसु पडिओ, तं पिच्छिऊण तहेव | सत्यचित्ता जाया, ताहे भण्णइ-पुत्त । पचयाहि, मा दुग्गइं जाहिसि, सो भणइ-न तरामि कार्ड संजमं. जदि पर। अणसणं करेमि, एवं करेहि, मा य असंजओ भवाहि, मा संसारं भमिहिसि, पच्छा सो तहेव तत्ताए सिलाए। सपाओवगमणं करेइ, मुटुत्तेण सुकुमालसरीरो उण्हेण चिलाओ, पुर्वि तेण नाहियासिओ पच्छा तेण हियासितो। एवं ४ अहियासियचं ॥ उष्णं च ग्रीष्मे तदनन्तरं वर्षासमयः, तत्र च दंशमशकसम्भव इति तत्परीषहमाह पुट्ठो य दंसमसएहिं, समरे व महामुणी। नागो संगामसीसे व, सूरे अभिभवे परं॥१०॥(सूत्रम्) व्याख्या-'स्पृष्टः' अभिद्रुतः 'चः' पूरणे दंशमशकैः, उपलक्षणत्वात् यूकादिभिश्च 'समरे वत्ति 'एदोदुरलोपा १ तं तत्र सर्व भणति-अस्ति स कोऽपि (येन) अन्नको दृष्टः, एवं विलपन्ती भ्राम्यति, यावदन्यदा तेन पुत्रेण अवलोकनगतेन दृष्टा, प्रत्यभिज्ञाता, तथैवोत्तीर्य पादयोः पतितः, तं प्रेक्ष्य तथैव स्वस्थचित्ता जाता, तदा भण्यते-पुत्र ! प्रव्रज, मा दुर्गतिं यासीः, सभणति-न शक्रोमि | कर्तुं संयम, यदि परमनशनं करोमि, एवं कुरु, मा चासंयतो भूः, मा संसारं भ्रमीः, पञ्चास तथैव तप्तायां शिलायर्या पादपोपगमनं करोति, मुहूर्तेन सुकुमालशरीर उष्णेन विलीनः, पूर्व तेन माध्यासितः पश्चात्तेनाध्यासितः । एवमध्यासितव्यम् । * * दीप अनुक्रम [५८] * wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [९२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| उत्तराध्य. विसर्जनीयस्येति रेफात् , ततः सम एव-तदगणनया स्पृष्टास्पृष्टावस्थयोस्तुल्य एव, यद्वा समन्तादरयः-शत्रवोपरीषहा दि यस्तित्समरं तस्मिन्निति संग्रामशिरोविशेषणं, वेति पूरणे, 'महामुनिः' प्रशस्तयतिः, किमित्याह-'णागो संगाम- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः सीसे वेति इयार्थस्य वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वान्नाग इव-हस्तीव संग्रामस्य शिर इव शिरः-प्रकर्षावस्था संग्रामशिरस्त॥९१॥ स्मिन् 'शूरः' पराक्रमवान् , यद्वा शूरो-योधः, ततोऽन्तर्भावितोपमार्थत्वाद्वाशब्दस्य च गम्यमानत्वात् शूर-3 बद्वाऽभिहन्यात् , कोऽर्थः ?-अभिभवेत् 'परं' शत्रुम् , अयमभिप्रायः यथा शूरः करी यद्वा यथा वा योधः शरैस्तुद्य मानोऽपि तदगणनया रणशिरसि शत्रून् जयति, एवमयमपि दंशादिभिरभिडूयमानोऽपि भावशत्रु-क्रोधादिकं जयेसादिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ यथा च भावशपुर्जेतव्यस्तथोपदेष्टुमाह ण संतसे ण वारिजा, मणंपिणो पउस्सए। उवेहे नो हणे पाणे, भुंजते मंससोणिए॥११॥(सूत्रम्) व्याख्या-'न संत्रसेत् ' नोद्विजेत् , दशादिभ्य इति गम्यते, यद्वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेत्तैस्तुद्यमानोऽपि, | अज्ञानीति शेषः, 'न निवारयेत् ' न निषेधयेत् , प्रक्रमाईशादीनेव तुदतो, मा भूदन्तराय इति, मनः-चित्तं तदपि, भा॥९१ आस्तां वचनादि, 'न प्रदूषयेत् ' न प्रदुष्टं कुर्यात् , किन्तु 'उबेहे 'त्ति उपेक्षेत-औदासीन्येन पश्येद् , अत एव न |हन्यात् 'प्राणान् ' प्राणिनो 'भुजानान्' आहारयतो मांसशोणितम् , अयमिहाशयः-अस्यन्तबाधकेष्वपि दंशका दीप अनुक्रम [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||११|| नियुक्ति: [९३] (४३) प्रत सूत्रांक ||११|| दिषु-शृगालवृकरूपैश्च, नदधिोरनिष्ठुरम् । आक्षेपत्रोटितस्त्रायु, भक्ष्यन्ते रुधिरोक्षिताः॥१॥ खरूपैः श्यामशव लालपुच्छैर्भयान्वितैः । परस्परं विरुध्यद्भिर्विलुप्यन्ते दिशोदिशम् ॥२॥ काकरामादिरूपैश्व, लोहतुण्डैबलान्विहै तैः । विनिकृष्टाक्षिजिह्वात्रा, विचेष्टन्ते महीतले ॥३॥ प्राणोपक्रमणेोरैर्दुःखैरेवंविधैरपि । आयुष्यक्षपिते नैव, नि यन्ते दुःखभागिनः॥४॥ इत्यादि, तथा असंज्ञिन एते आहारार्थिनश्च भोज्यमेतेषां मच्छरीरं बहुसाधारणं च यदि | भक्षयन्ति किमत्र प्रद्वेषेणेति च विचिन्तयन् तदुपेक्षणपरो न तदुपघातं विदध्यादिति सूत्रार्थः॥११॥ इदानीं पथिद्वारं, तत्र 'स्पृष्टो दंशमशकै रित्यादिसूत्रसूचितमुदाहरणमाहचंपाए सुमणुभदो जुवराया धम्मघोससीसोय पंथंमि मसगपरिपीयसोणिओ सोऽवि कालगओ ॥१३॥ व्याख्या-चम्पायां सुमनोभद्रो युवराजो धर्मघोपशिष्यश्च पथि मशकपरिपीतशोणितः सोऽपि कालगत इति गाथाक्षरायः ॥ ९३ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्ती चंपाए नयरीए जियसनुस्स रपणो पुत्तो सुमणभद्दो जुवराया, धम्मपोसस्स अन्तिए धर्म सोऊण निषिपणका मभोगो पषइतो, ताहे चेव एगल्लविहारपडिमं पडिवन्नो, पच्छा हेट्ठाभूमीए बिहरन्तो सरयकाले अडवीए पडिमागतो | १ चम्पायां नगर्या जितशत्रो राज्ञः पुत्रः सुमनोभद्रो युवराजः, धर्मघोषस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निर्विष्णकामभोगः प्रनजितः, तदैव एकाकिविहारप्रतिगां प्रतिपन्नः, पश्चाधोभूमौ बिहरन शरत्कालेऽटव्या प्रतिमागतः दीप अनुक्रम [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१२|| नियुक्ति: [९३] (४३) परीवहान ध्ययनम् उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥९२॥ प्रत सूत्रांक ||१२|| रतिं मसएहिं खजइ, सो ते ण पमजइ, सम्मं सहइ, रत्तीए पीयसोणितो कालगतो । एवं अहियासेयव्वं इत्यवसितो दंशमशकपरीपहः॥ अधुना अचेलः संस्तैस्तुद्यमानो वस्त्रकम्बलाद्यन्वेषणपरोन स्यादित्यचेलपरीषहमाहपरिजुन्नेहि वत्थेहि, होक्खामित्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं, इइ भिक्खु न चिंतए॥१२॥(सूत्रम्) व्याख्या-परिजीर्णैः समन्तात् हानिमुपगतैः 'वस्वैः' शाटकादिभिः 'होक्खामित्ति' इतिर्भिन्नक्रमः ततो भविष्यामि 'अचेलका' चेलविकलः अल्पदिनभाषित्वादेषामिति भिक्षुर्न विचिन्तयेत्, अथवा 'सचेलकः' चेलान्वितो। भविष्यामि, परिजीर्णवखं हि मां दृष्ट्वा कश्चित् श्राद्धः सुन्दरतराणि वखाणि दास्यतीति भिक्षुर्न चिन्तयेत् , इदमुक्त भवति-जीर्णवस्त्रः सन्न मम प्राक्परिगृहीतमपरं वस्त्रमस्ति न च तथाविधो दातेति न दैन्यं गच्छेत् , न चान्यलाभसम्भावनया प्रमुदितमानसो भवेदिति सूत्रार्थः ।।१२।। इत्थं जीर्णादिवत्रतया अचेलं स्थविरकल्पिकमाश्रित्याचेलपरीषह उक्तः, सम्प्रति तमेव सामान्येनाह एगया अचेलए होइ, सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं णच्चा, नाणी णो परिदेवए॥१३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'एकदा' एकस्मिन् काले जिनकल्पप्रतिपत्तौ स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभववादौ वा सर्वथा चेलाभावेन स १ रानी मशकैः खाद्यते, स तान् न प्रमार्जयति, सम्यक् सहते, रात्रौ पीतशोणितः कालगतः। एवमध्यासितव्यम् । दीप अनुक्रम [६१] SEARCSCk0 ॥१२॥ JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| जाति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन जीर्णादिवस्त्रतया वा 'अचेलक' इति अवस्त्रोऽपि भवति, पठ्यते च अचेलए सयं होइ'त्ति तत्र खयम्-आत्मनैव न पराभियोगतः, 'सचेलः' सवस्त्रश्चाप्येकदा स्थविरकल्पिकत्वे तथाविधालम्बनेनावरणे सति, यद्येवं ततः किमित्याह-एतदि'त्यवस्थौचित्सेन सचेलत्वमचेलत्वं च धर्मो-यतिधर्मः तस्मै हितम्-उपकारकं धर्महितं 'ज्ञात्वा' अबबुद्धय, तत्राचेलकत्वस्य धर्महितत्वमल्पप्रत्युपेक्षादिभिः, यथोक्तम्-"पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमाणं अरहन्ताणं भगवंताणं अचेलए पसत्थे भवइ, तं जहा-अप्पा पडिलेहा१,। वेसासिए रूबे २, तवे अणुमए ३, लाघवे पसत्थे४, विउले इंदियनिग्गहे ५"त्ति, सचेलत्वस्य तु धर्मोपकारित्वमन्याप्रचारम्भनिवारकत्वेन संयमफलत्वात् , 'ज्ञानी' नना एवं प्रायस्तियनारकाः तद्भवभयादेव च मया सन्त्यपि वासांस्यपा स्यन्त इत्येवं बोधवानो परिदेवयेत् , किमुक्तं भवति ?-अचेलः सन् किमिदानीं शीतादिपीडितस्य मम शरणमिति न | दैन्यमालम्बेत इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ इह च केचिन्मिथ्यात्वाकुलितचेतस इदमित्थं महार्थकर्मप्रवादपूर्वोद्धृतहै प्रस्तुताध्ययनाधीतमपि सचेलत्वं तथा-सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपश्चेतीह सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थाय, स्मृतं चीव|रधारणम् ॥ १ ॥ जटी कूर्ची शिखी मुण्डी, चीवरी नग्न एव च । तप्यन्नपि तपः कष्ट, मौल्याद्धिस्रो न सिद्धयति ४. १ पञ्चभिः स्थानैः पूर्वपश्चिमयोरहतीभगवतोरचेलकर प्रशस्तं भवति, तद्यथा--अरूपा प्रत्युपेक्षा १ वैश्वासिकं रूपं २ तपोऽनुमतं ३ लाघवं प्रशस्त ४ विपुल इन्द्रियनिग्रहः ५ दीप अनुक्रम [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९३] (४३) परीपहा ध्ययना ९३।। प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. ॥२॥ सम्यगज्ञानी दयावांस्तु, ध्यानी यस्तप्यते तपः । ननश्चीवरधारी वा, स सिद्धयति महामुनिः॥३॥ इति । वाचकवचनानूदितं चानुचितमित्याहुः, तान् प्रति वक्तुमुपक्रम्यते-इह यो यदर्थी न स तन्निमित्तोपादानं प्रत्यनारतो, बृहद्वृत्तिः यथा घटार्थी मृत्पिण्डोपादानं प्रति, चारित्रार्थिनश्च यतयस्तन्निमित्तं च चीवरमिति, न चास्यासिद्धत्वं, तद्धि तस्य । तदनिमित्ततया स्यात् , सा च तत्रास्य वाधाविधायितयौदासीन्येन वा ?, न तावद्वाधाविधायितया, यतोऽसौ पचमप्रतविघातकत्वेन संसक्तिविषयतया कषायकारणत्वेन वा ?, यदि पञ्चमवतविघातकत्वेन, तदपि कुतः?, युक्तित इति चेत् , नन्वियं खतन्त्रा सिद्धान्ताधीना वा ?, यदि खतत्रा ततः सलोमा मण्डूकश्चतुष्पात्त्वे सत्युत्प्लुत्य गमनात्, ६ मृगवत् , अलोमा वा हरिणः, चतुष्पात्त्वे सत्युप्लुत्य गमनात्, मण्डूकवदित्यादिवन निर्मूलयुक्तेः साध्यसाधक-10 है| त्वम् , उक्तं हि-“यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः, कुशलैरनुमातृभिः। अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ॥ १॥" सिद्धान्ता धीनयुक्तिस्तु तथाविधसिद्धान्ताभावादसम्भविनी, अथास्त्यसौ 'गामे वा नगरे वा अप्पं या बहुं वा जाव नो परिगिण्हेजा' इत्यादिः, तदनुगृहीता युक्तिश्च-यद्यत्परिग्रहखरूपं तत्तदुपादीयमानं पञ्चमत्रतविधाति, यथा धनधान्यादि, परिग्रहवरूपं च चीवरमिति, नन्वसिद्धोऽयं हेतुः, तथाहि-परिग्रहखरूपत्वमस्य किं मूर्छाहेतुत्वेन धारणादिमात्रेण या ?, यदि मूर्छाहेतुत्वेन, शरीरमपि मूर्छाया हेतुर्न वा ?, न तावदहेतुः, तस्वान्तरङ्गत्वेन दुर्लभतरतया दीप अनुक्रम [६२] ॥१३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [६२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१३|| अध्ययनं [२], Jus Education intimatio च विशेषतस्तद्धेतुत्वाद्, उक्तं च- "अह कुणसि थुलवत्थाइएस मुच्छं ध्रुवं सरीरेऽवि । अक्वेज्जदुलभतरे काहिसि गुच्छं "विसेसेण ॥ १ ॥” अथास्तु तन्निमित्तमेतत् तर्हि चीवरवत्तस्यापि किं दुस्त्यजत्वेन मुक्त्यङ्गतया वा न प्रथमत एव परिहारः १, दुस्त्यजत्वेन चेत् तदपि किमशेषपुरुषाणामुत केषाञ्चिदेव ?, न तावदशेषपुरुषाणां दृश्यन्ते हि बहवो वह्निप्रवेशादिभिः शरीरं परित्यजन्तः, अथ केषाञ्चित्, तदा वस्त्रमपि केषाञ्चित् दुस्त्यजमिति तदपि न परिहार्य, मुक्त्यतापक्षाश्रयणे च किं चीवरेणापराद्धम् ?, तस्यापि तथाविधशक्तिविकलानां शीतकालादिषु खाध्यायायु|पष्टम्भकत्वेन मुक्यङ्गत्वाद्, अभ्युपगम्य च मूर्च्छाहेतुत्वमुच्यते न हि निगृहीतात्मनां क्वचिन्मूर्च्छाऽस्ति, तदुक्तम्- "सर्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खणपरिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, णायरंति ममाइउं (यं ) ॥१॥" ति, नापि धारणादिमात्रेण, एवं हि शीतकालादौ प्रतिमाप्रतिपश्यादिषु केनचिद्भक्त्यादिनोपरि क्षितस्यापि चीवरस्य परिग्रहताप्रसङ्गः, अथ तत्र स्वयंग्रहाभावाददोषः, तर्हि खयंग्रहः परिग्रहत्वे हेतुः तथा च कुण्डिकाद्यपि नोपादेयं दृष्टेष्टविरोधि चेदम्, अथ तंत्र मूर्च्छाया अभावादपरिग्रहत्वम्, एवं सति संयमरक्षणायोपादीयमाने चीवरे तदभावात्तदस्तु, १ अथ करोषि स्थूलवस्त्रादिषु मूर्च्छा भुवं शरीरेऽपि । अक्रेयदुर्लभतरे करिष्यसि मूर्च्छा विशेषेण ॥ १ ॥ २ मूर्च्छाहेतुः शरीरं ३ सर्वत्रोपधिना बुद्धाः, संरक्षणपरिप्रहे । अपिचात्मनोऽपि देहे नाचरन्ति ममायितुम् (तम् ) ॥ १ ॥ Forest Use Only निर्युक्ति: [९३] ~189~ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [१३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. उक्तं च-“पि वत्थं व पाय वा, कवल पायपुछणं । तंपि संजमलज्जट्टा, घरंति परिहरंति य ॥११॥" । अथ संस-1 परीपहाबृहद्भुत्तिः | तिविषयतया, यद्येवमाहारेऽपि सा किमस्ति नास्ति का?, न तायन्नास्ति, कृमिकण्डूपदाधुत्पातस्य तत्र प्रतिप्राणि ध्ययनम् प्रतीतत्वात् , अथास्ति परं यतनया न दोषः, तदितरत्रापि तुल्यं । कषायकारणत्वेन चेत् , तत्किमात्मनः परेषां ॥९४॥ वा?, यद्यात्मनस्तदा श्रुतमपि केषाञ्चिदहङ्कारहेतुत्वेन कपायकारणमिति तदपि नोपादेयं स्यात् , अथ विवेकिनार न तदहतिहेतुः, "प्रथमं ज्ञानं ततो दये"ति नीतितो धर्मोपकारि चेति तदुपादानं, चीवरेऽपि समानमेतत् , अथ चीवरख धर्मानुपकारित्वादतुल्यता, ननु कुत एतदवसितं, किमचीवरास्तीर्थकृत इति श्रुतेरुत जिनकल्पाकर्ण-14 सनात् 'जिताचेलपरीपहो मुनि' रिति वचनतो वा?, न तावदायो विकल्पः, सूत्रे हि तीर्थकृतामचीवरत्वं कदाचि-|| तत्सर्वदा वा ?, कदाचिचेको वा किमाह , कदाचिदस्माकमप्यस्याभिमतत्वात् , अथ सर्वदा, तन्न, 'सवेऽवि एगदू सेण निग्गया जिणवरा उ चउवीस' मिति वचनात् , अथ तत्र 'एगदोसेणं' तिपाठः, सर्वेऽपि संसारदोषण एकेन निगेता इतिकृत्वा, नन्वेवमनवस्था, सर्वत्र सर्वैरपि खेच्छारचितपाठानां सुकरत्वात् , किं च-तीर्थकृतामचीवरत्वे | तेषामेव तद्धर्मोपकारीति निश्चयोऽस्तु, नापरेषां, न हि यदेव तेषां धर्मोपकारि तदेवेतरेषामपि, अन्यथा यथा न | ॥९४ ॥ १ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोञ्छनम् । तदपि संयमलजार्थ, धारयन्ति परिभुजन्ति च ॥१॥ २ सर्वेऽप्येकदूष्येण निर्गता जिनवरास्तु चतुर्विंशतिः। दीप अनुक्रम [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २, मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [१३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| ते परोपदेशतः प्रवर्त्तन्ते यथा च छद्मस्थावस्थायां परोपदेशं दीक्षां वा न प्रयच्छन्ति, तथाऽन्यैरपि विधेयमिति मूल-2 दच्छेद एव तीर्थस्य, उक्तं च-"न परोवएसविसया ण य छउमत्था परोवएसपि । देति न य सिस्सवग्गं दिक्खंति जि णा जहा सचे॥१॥ तह सेसेहि य सव्वं कर्ज जइ तेहिं सवसाहम्मं । एवं च को तित्थं ?ण चेदचेलत्ति को गाहो', ॥२॥" अथ जिनकल्पाकर्णनात् , तत्र हि न किञ्चिदुपकरणमिति चीवरस्याप्यभावः, तथा च न तस्य धदोपकारिता, ननु जिनकल्पिकानामुपकरणाभावः प्रवादतः आगमतोवा, न तावदाद्यपक्षो, न हि वसति किलात्र वटवृक्षे रक्ष इत्यादिनिर्मूलप्रयादानां प्रमाणता, नाप्यागमतः, तेषामपि तत्र शक्त्यपेक्षयोपकरणप्रतिपादनात् , तदुक्तम्-"जिणप्पियादओ पुण सोबहओ सबकालमेगंतो। उवगरणमाणमेसिं पुरिसावेक्खाएँ बहुभेयं ॥१॥" अथवा अस्तु जिनकल्पिकानामुपकरणाभावः, तथापि धृतिशक्तिसंहननश्रुतातिशययुक्तानामेव तवतिपत्तिः अथ रथ्यापुरु-12 पाणामपि ?, यद्याद्यो विकल्पस्तक्किमेवंविधाः सम्प्रत्यपि सन्ति न बा ?, सन्ति चेदुपलब्धिलक्षणप्राप्सा उपलभ्येरन् , अनुपलब्धिलक्षणप्राप्ताश्च कुतः सत्त्वेन निश्चीयन्ते ?, अथ न सन्ति, तादृशामेव जिनकल्पप्रतिपत्तिः, तहि | | १ न परोपदेशविषया न च छदास्थाः परोपवेशमपि । ददति न च शिष्यवर्ग वीक्षयन्ति जिना यथा सर्वे ॥११॥ तथा शेषैरपि सर्व कार्य | |यदि वैः सर्वसाधर्म्यम् । एवं च कुतस्तीर्थ 'न चेदचेला इति क आग्रहः ॥१॥ २ जिनकल्पिकादयः पुनः सोपधयः सर्वकालमेकातः । उपकरणमानमेतेषां पुरुषापेक्षया बहुभेदम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [६२] SARS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [९३] (४३) उत्तराध्य. वृथैव "मर्णपरमोहिपुलाए आहारग खबग उपसमे कप्पे। संजमतिय केवलि सिज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना ॥१॥" परीपहा इत्यासवचनानाश्रयणं, यदि तु रथ्यापुरुषाणामपीति कल्प्यते, तिरश्चामपि तत्कल्पनाऽस्तु, अथ देशविरतिभाज एव ध्ययनम् वातात इति न तेषां तत्प्रतिपत्तिः, तर्हि सर्वविरतिस्तत्कारणं, तथा च तद्वता एकेन यत्कृतं तत्किमखिलैरपि तद्वद्भिराच॥९५॥ रणीयमथ तथाविधशक्तियुक्तैरेव', यद्यायो विकल्पस्तदैकस्मिन् मासपण्मासादिकं तपश्चरत्यन्यैरपि तवरणीयं स्वाद्, अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि जिनकल्पोऽपि तथाविधशक्तियुक्तैरेव प्रतिपत्तव्यः, अथ तथाविधशक्तिविकलानां तत्तपश्चरतां बहुतरदोषसम्भव इति न तच्चरणं, तदिहापि तुल्यं, तथाहि-सम्भवत्येवेदानीन्तनयतीनां तथाविधशक्तिसंहननविकलतया हिमकणानुषक्तशीतादिषु बहुतरदोपहेतुकमन्यारम्भादिकं तथा तथाविधाच्छादनाभावतः शीतादिखेदितानां शुभध्यानाभायेन सम्यक्त्वादिविचलनम् , उक्तं च वाचकैः-"शीतवातातपैदशैर्मशकैश्चापि खेदितः।मा 20 सम्यक्त्वादिपु ध्यानं, न सम्यक संविधास्यति ॥१॥" यच्च 'जिताचेलपरीपहो मनि' रिति वचनतो न चीवरं ध-11 मोपकारीति, तत्र जिताचेलपरीषहत्वं चेलाभावेनैवाहोश्चिदेषणाशुद्धतत्परिभोगेनापि ?, यदि चेलाभावेनैव, ततः क्षुत्परीपहजयनमप्याहाराभावेनैवेति व्रतग्रहणकाल एवानशनमायातम् , एतच भवतोऽपि नाभिमतं, ततः परि-- शुद्धोपभोगितया जिताचेलपरीषहत्वमिति द्वितीय एव पक्षः, स चास्मत्पथवत्यैवेति न कुतोऽपि चीवरस्य धर्मानु१ मनः (पर्यायः) परमावधिः पुलाक आहारकः भपक उपशमकः (जिन) कल्पः। संयमत्रिक केवलित्वं सिद्धिश्च जम्बो व्युच्छिन्नाः॥१॥ SEARN प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [६२] 400-564 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| पकारित्वनिश्चयः, अथ परेषां कषायकारणत्वेन चारित्रवाधकत्वं चीवरस्य, तर्हि धर्मादयोऽपि कस्यचित् कपायकारणं न वा?, न तावन्न, तेऽपि कस्यचित्कषायहेतव इति चीवरयत्तेऽपि हातव्याः, आह च-"अस्थि य किं किंचिजए जस्स व कस्स य कसायबीजं तं । वत्थु ण होज? एवं धम्मोऽवि तुमे ण घेतवो ॥१॥ जेण कसायणिमित्तं जिणोऽवि गोसालसंगमाईणं । धम्मो धम्मपरावि य पडिणीयाणं जिणमयं च ॥२॥" अथैषां मुक्त्यतया कषायहेतुत्वेऽपि न हेयता, तदिहापि समानम् , उक्तं च वाचकसिद्धसेनेन-"मोक्षाय धर्मसिद्धपथै, शरीरं धार्यते यथा। शरीरधारणार्थ च, भैक्षग्रहणमिष्यते ॥ १॥ तचैवोपग्रहार्थाय, पात्रं चीवरमिष्यते । जिनैरुपग्रहः साघोरिष्यते न परिग्रहः ॥२॥” इत्यादि । औदासीन्येनापि न चीवरस्य चारित्रं प्रत्यनिमित्तता, तस्य तदुपकारित्वात् , यच यत्रोप-13 कारिन तत्तस्मिन्नदासीनं, यथा तन्त्वादयः पटे, चारित्रोपकारि च चीवरं, तथाहि-संयमात्मकं चारित्रं, न च तस्य तत्परिहारेण शुद्धिरस्ति, आगमश्च-"किं सक्षमोवयारं करेइ वत्थाइ जइ मई सुणसु । सीयत्ताणं ताणं जलणतणग १ अस्ति च किं किश्चित् जगति यस वा फस्य वा कषायबीजं तत् । वस्तु न भवेत् । एवं धर्मोऽपि त्वया न ग्रहीतव्यः ॥१॥ येन कषायनिमित्तं जिनोऽपि गोशालसंगमकादीनाम् । धर्मो धर्मपरा अपिच प्रत्पनीकानां जिनमतं च ॥२।। २ किं संयमोपकार करोति वखादि यदि मतिः शृणु । शीतत्राणं श्राणं ज्वलनतुणगतानां सत्वानाम् ॥११॥ तथा निशि चतुष्कालं स्वाध्यायध्यानसाधनमृषीणाम् । हिममहिकावर्षाMsवश्यायरजआदिरक्षानिमित्तं तु ॥२॥ दीप अनुक्रम [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. याण सत्ताणं ॥१॥ तह निसि चाउकालं सज्झायज्झाणसाहणमिसीणं । हिममहियावासोसारयाइरक्खाणिमित्त || परीषहा तु ॥२॥" इत्यतः स्थितमेतत्-चारित्रनिमित्तं चीवरमिति नासिद्धता हेतोः, विरुद्धत्वानकान्तिकत्वे तूक्तानुसारतः ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः " परिहत्तेव्ये । ततश्च 'निग्रन्थानामगलज्ञानयुतैस्तीर्थकृद्विरुक्तानि। सम्यगनतानि यस्मान्नग्रन्थ्यमतः प्रशंसन्ति ॥१॥ रागाद्यपचयहेतुं नैर्ग्रन्ध्यं खप्रवृत्तितस्तेषाम् । तदृद्धिरतोऽवश्यं वस्त्रादिपरिग्रहयुतानाम् ॥२॥' इत्यादि दुर्मतिपरिस्पटन्दितमपकर्णनीयम् ॥ सम्प्रति 'महलेत्तिद्वारं, तत्र च 'एयं धम्महियं न.' त्यादिसूत्रसचितं दृष्टान्तमाह वीयभय देवदत्ता गंधारं सावयं पडियरित्ता । लहइ सयं गुलियाणं पज्जोएण णी(णाणि)ओजेणिं॥९॥ दहण चेडिमरणं पभावई पवइत्तु कालगया । पुक्खरकरणं गहणं दसउरपजोयमुयणं च ॥ ९५॥ माया य रुदसोमा पिया य नामेण सोमदेवत्ति ।भाया य फग्गुरक्खिय तोसलिपुत्ता य आयरिया ॥९६|| सिंहगिरि भद्दगुत्ते वयरक्खमणा पढित्तु पुवगयं । पवाविओ य भाया रक्खियखमणेहि जनओ य॥१७॥ R ॥१६॥ | व्याख्या-चीतभये देवदत्ता गन्धारं श्रावकं प्रतिजागर्य लभते शतं गुलिकानां प्रद्योतेनानीतोजयिनी, दृष्ट्वा * चेटीमरणं प्रभावती प्रमज्य कालगता पुष्करकरणं ग्रहणं दशपुरप्रद्योतमोचनं च, माता च रुद्रसोमा पिता च नाना 4 % दीप अनुक्रम [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| सोमदेव इति भ्राता च फल्गुरक्षितः तोसलिपुत्राश्चाचार्याः सिंहगिरिभद्रगुप्ताभ्यां च वज्रक्षमणात्पठित्वा पूर्वगतं प्रत्राजितश्च भ्राता रक्षितक्षमणैर्जनकश्चेति गाथाचतुष्टयाक्षरार्थः ॥९४-९५-९६-९७ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदाया18दवसेयः, स चायम्-जीवसामिपडिमायत्तवयं दसपुरुष्पत्तिं च माणिऊणं ताव भाणियचं जाव अजवयरसामिणो स यासे णव पुवाणि दसमस्स य पुवस्स किंचि अहिजिऊण अज्जरकृखिया दसपुरमेव गया, तत्थ सबो सयणवग्गो पचापितो-माया भाया भगिणी,जो सो तस्स खंतो सोऽवि तेसिं अणुरागेणं तेहिं चेव सम्मं अच्छद, णो पुण लिंगं | |गण्हइ लजाए, किह समणतो पवइस्सं १, इत्थं मम धूयातो सुण्हातो णतुगीतो, तार्सि पुरतो ण तरामि णग्यो अच्छिउं, एवं सो तत्थ अच्छइ, बहुसो आयरिया भणंति, ताहे सो भणति-जह मम जुवलएणं कुंडियाए छत्तेणं | उवणाहि जन्नोवइएण य समं पधावेह तो पघयामि,पचइतो सो पुण चरणकरणसज्झार्य अणुयत्तहि गिबहाविय १ जीवत्स्वामिप्रतिमावक्तव्यतां दशपुरोत्पत्ति च भणित्वा तावद्भणितव्यं यावदार्यवस्वामिनः सकाशे नव पूर्वाणि दशमस्य च पूर्वस्य | | किश्चिदधीत्यार्यरक्षिता दशपुरमेव गताः, तत्र सर्वः खजनवर्ग:प्रवाजित:--माता भ्राता भगिनी, यः स तेषां पिता सोऽपि तेषामनुरागेण || | तत्रव सम्यक् तिष्ठति, न पुनर्लिङ्गं गृहाति लजया, कथं श्रमणकः प्रब्रजिष्यागि, अत्र मम दुहितर: स्नुषा नतारः, तास पुरतो न शकोमि| नम्नः स्थातुम् , एवं स तत्र तिष्ठति,बहुश आचार्या भणन्ति, तदा स भणति-यदि मां युगलकेन कुण्डिकया छत्रेण उपानद्यां यज्ञोपवीवेन । |प समं प्रत्राजयत तदा प्रजामि, प्रबजितः स पुनश्चरणकरणस्वाध्यायमनुवर्तयद्धिप्राहयितव्यः, 4-950--56-04-41-594%-94544 दीप अनुक्रम [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२ मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्यचो , ताहे ते भणंति-अच्छह तुम्भ कडिपट्टएणं, सोऽपि धेरो भणइ-छत्तएणं विणा ण तरामि अच्छिउँ, छत्तयपि, कापरीषहाकरगेण विणा दुक्खं उच्चारपासवणं वोसिरिज, वंभसुत्तगंपि अच्छउत्ति, अवसेसं सर्व परिहरइ । अन्नया य चेहयाई ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः दिउं गया, आयरिया चेडगरूवाणि गाहंति, भणह-सवे वंदामो एग छत्तइल मोतुं, एवं भणितो, ताहे सो जाणति ॥९ ॥ 18/-इमे मम पुत्ता णतुया य वन्दिजंति, अहं कीस न बंदिजामि?, ताहे भणति-किमहं अपवइओत्ति, ताणि भणति-किं पवइयगाणोवाणहकरगभसुत्तछत्तगाणि भवंति ?, ताहे सो जाणति-एयाणिवि ममं पडिचोएंति, ता छडेमि, ताहे पुत्तं भणति-अलाहि पुत्तगा! छत्तेणं, ताहे ते भणंति-अलाहि, जाहे उण्हं होहिति ताहे कप्पो उवरिं करेहत्ति, एवं ताणि मोतुं करइलं, तत्थ से पुत्तो भणति-मत्तएणं चेव सन्नाभूमि गम्मइ, एवं जन्नोवइयं च मुयइ, ____१ तदा ते भणन्ति-तिष्ठत यूर्य कटीपट्टकेन, सोऽपि स्थविरो भणति-छत्रेण विना न शक्नोमि स्थानु, छत्रमपि, करण विना दुःख| मुच्चारप्रश्नवणं व्युत्सर्दु, ब्रह्मसूत्रमपि तिष्ठत्विति, अवशेष सर्व परिहरति । अन्यदा च चैत्यानि वन्दितुं गताः, आचार्याश्वेट (लिम्भ) रूपाणि मायन्ति,भणत-सर्वान् वन्दामहे एक छत्रिणं मुक्खा, एवं भणिवस्तदा स जानाति- इमे मम पुत्रा नप्तारश्च बन्धन्ते, अहं कथं न बन्ये, X ॥९७॥ तदा भणति-किमहमप्रवजित इति', तानि भणन्ति-किं प्रत्रजितानामुपानत्करकब्रह्मसूत्रच्छत्राणि भवन्ति , सदा स जानाति एतान्यपि मा प्रतिचोदयन्ति, तत् त्यजामि, तदा पुत्र भणति-अलं पुत्र ! छत्रेण, तदा ते भणन्ति–अलं, यदोष्णं भविष्यति तदा फल्पं उपरि कुर्या इति, |एवं तानि मुक्त्वा करकवन्तं, वत्र तस्य पुत्रो भणति-मात्रकेणैव संज्ञाभूमिः गम्यते, एवं यज्ञोपवीतं च मुश्चति, 24 - - दीप अनुक्रम [६२] - - 20-% wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] (४३) ** प्रत सूत्रांक ||१३|| ताहे आयरिया भणंति-को चा अम्हे न जाणइ जहा बंभणा, एवं ताणि तेण मुक्काणि, पच्छा ताणि पुणो भणंतिसचे चंदामो मोत्तूण कडिपट्टाइल, ताहे सो रुट्ठो भणति-सह अजयपजएहिं मा बन्दह, अन्ने पंदिहंति मम, एय कडिपट्टयं न छडेमि, तत्थ य साहू भत्तपच्चक्खायतो, ताहे तस्स निमित्तं कडिपट्टबोसिरणठ्याए आयरिया भणंति -एयं महाफलं हवइ जो साधु वहइ, तत्थ य पढमपबड्या सन्निया-तुमे भणिजह-अम्हे एयं वहामो, एवं ते उब ट्टिया, तत्थ य आयरिया भणंति-अम्हं सयणवग्गो मा णिज्जरं पावउ ?, भो तुम्भे चेव सवे भणह अम्हे चेव वहामो, हताहे सो थेरो भणति-किं पुत्ता! एत्थ बहुतरया णिज्जरा, आयरिया भणंति-बाद, किं एत्य भणियचं ?, ताहे आसो भणति-तो खाइ अहंपि वहामि, आयरिया भणंति-एत्थ उवसग्गा उप्पजंति, चेडरूवाणि लग्गति, १ तदा आचार्या भणन्ति-को बाऽस्मान् न जानाति यथा ब्राह्मणाः, एवं तानि तेन मुक्कानि, पश्चात्तानि पुनर्भणन्ति-सर्वान् वन्दामहे | मुक्त्वा कटीपट्टकवन्तं, तक्षा स रुष्टो भणति-सह आर्यकार्यकैः (पितृपितामहै:) मा वन्दिध्वम् , अन्ये वन्दिष्यन्ते मह्यम् , एतं कटीपट्टकं न छर्दयामि, तन्त्र च साधुः प्रत्याख्यातभक्तः, तदा तन्निमित्तं कटीपट्टकव्युत्सर्जनार्थाय आचार्या भणन्ति-एतत् महाफलं भवति यस्साधुं वहति, तत्र च प्रथमप्रबजिताः संज्ञिताः (संकेतिताः)-यूयं भणेत-वयं वहाम एनम् , एवं ते उपस्थिताः, तत्र चाचार्या भणन्ति-अस्माकं खजन-1 वर्गो मा निर्जरां प्रापत् ततो यूयं सर्वे भणथ-वयमेव वहामः, तदा स स्थविरो भणति-किं पुत्र ! अत्र बहुतरा निर्जरा, आचार्या भणन्ति-बाद, किमत्र भणितव्यं , तदा स भणति-तत् कथयाहमपि वहामि, आचार्या भणन्ति-अत्रोपसर्गा उत्पद्यन्ते, चेटरूपाणि लगन्ति | दीप अनुक्रम [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] (४३) *** परीषडा ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१३|| *** उत्तराध्य. यदि तरसि अहियासिउँ वहाहि,अह णाहियासेसि ताहे अम्हं न सुंदरं भवति, एवं सो थिरो कओ, जाहे सो उक्खित्तो 18 साहू मग्गओ वचइ, पछओ संजईओ ठिआतो, ताहे खुडगा भणिआ-एताहे कडिपट्टयं मुयह, ताहे सो मुत्तुमारद्धो, बृहद्वृत्तिः ताहे अन्नेहिं भणिओ-मा मोचिहि,तत्थ से अन्नेण कडिपट्टओ पुरओ काऊण दोरेण बद्धो,ताहे सो लजिओ तं वहइ, ॥९८॥ मग्गओ मम पिच्छंति सुण्हाओ अ, एवं तेणवि उपसग्गो उडिओत्तिकाऊण बूढ़, पच्छा आगतो तहेव, ताहे आयरिया भणति-किं अज खंता! इमं, ताहे सो भणइ-सोएस अब्ज पुत्त ! उवसग्गो उवडिओ, आणेह साडयं, ताहे भणइ |-किं व साडएणंति ?, जं दट्ठवं तं दिटुं, चोलपट्टओ चेव मे भवउ, एवं ता सो चोलपटुंपि गिहाविओ। तेण पुर्व अचेलपरीसहो नाहियासितो पच्छाऽहियासिओत्ति ॥ अचेलस्य चाप्रतिबद्धविहारिणः शीतादिभिरभिभूयमानत्वेनारतिरप्युत्पद्येतातस्तत्परीपहमाह १ यदि शतोष्यधिसोढुं वह, अथ नाघिसहसे तदाऽस्माकं न सुन्दरं भवति, एवं स स्थिरः कृतः, यदा स उरिक्षप्तः साधुर्मार्गतः प्रजाति, पश्चात् संयत्यः स्थिताः,तदा क्षुल्लकैः भणिता:-अधुना कटीपट्टकं मुञ्चत, तदा स मोक्तुमारब्धः, तदाऽन्यैर्भणितः-मा मुचः, तत्र तस्यान्येन कटीपट्टकः पुरतः कृत्वा दवरकेण पक्षा,सदा स लत्रितसं वहति, पृष्ठतो मम पश्यन्ति स्नुषाश्च,एवं तेनापि उपसर्ग उस्थित इतिकत्वा ब्यूह, पश्चादाग- तस्तथैव, तदाऽऽचार्या भणन्ति-किमद्य पितरिदम् , तदा स भणति-स एपोऽय पुत्र ! उपसर्ग उत्थितः, आनयत शाटक, तदा भणति-किंवा शाटकेनेति, यइष्टव्यं तदृष्टं,चोलपट्टक एव मे भवतु,एवं तावत्स चोलपट्टकमपि माहितः। तेन पूर्वमचेलपरीपहो नाध्यासितः, पश्चाध्यासितः । दीप अनुक्रम [६२] ९८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१४|| नियुक्ति: [९४-९७] (४३) प्रत ********* सूत्रांक गामाणुगामं रीयंतं, अणगारमकिंचणं । अरई अणुप्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं ॥१४॥ (सूत्रम्) व्याख्या-प्रसते बुद्धादीन् गुणान् इति ग्रामः स च जिगमिषितः अनुग्रामश्च-तन्मार्गानुकूलः अननुकूलगमने । प्रयोजनाभावाद् प्रामानुग्रामं, यद्वा ग्रामश्च महान् अणुग्रामश्च स एव लघुामाणुग्रामम् , अथवा-ग्राममिति रूढिशब्दत्वादेकस्माद्रामादन्यो ग्रामः ततोऽपि चान्यो ग्रामानुग्राममुच्यते, नगरोपलक्षणमेतत् , ततो नगरादींश्च, किमित्याह-रीयंत ति तिब्यत्ययाद्रीयमाणं-विहरन्तम् 'अनगारम्' उक्तस्वरूपम् 'अकिञ्चनं' नास्य किञ्चन प्रतिबन्धा स्पदं धनकनकाद्यस्तीत्यकिञ्चनो-निष्परिग्रहः, तथाभूतम् 'अरतिः' उक्तरूपा 'अनुनविशेत्' मनसि लब्धास्पदा : द् भवेत् , 'त'मित्यरतिस्वरूपं तितिक्षेत' सहेत परीषह मिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तत्सहनोपायमेवाह-- अरई पिटुओ किच्चा,विरओ आयरक्खिए। धम्मारामे निरारंभे,उवसंते मुणी चरे ॥१५॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'अरति' संयमविषयां मोहनीयकर्मप्रकृतिरूपां पृष्ठतः कृत्वा कोऽर्थः १-धर्मविघ्नहेतुरियमितिमत्या तिरस्कृत्य, किमित्याह-'विरतः' हिंसादिभ्य उपरतः, आत्मा रक्षितः दुर्गतिहेतोरपध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः, |४||आहिताम्यादिषु दर्शनात् तान्तस्य परनिपातः, आयो वा-जानादिलामो रक्षितोऽनेनेत्यायरक्षितः, धर्म-श्रुतध- दौ आङित्यभिव्याप्त्या रमते-रतिमान् भवतीति धर्मारामः, वद्वा-धर्म एव सततमानन्दहेतुतया प्रतिपाल्यतया ||१४|| दीप अनुक्रम [६३] **** *** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) -- प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्य. वा आरामो धर्मारामस्तत्र, स्थित इति गम्यते, निर्गत आरम्भाद्-असत्क्रियाप्रवर्तनलक्षणात् निरारम्भः 'उपशान्तःपरीषहाक्रोधाद्युपशमात् 'मुनिः' सर्वविरतिप्रतिज्ञाता चरेत्, 'पंलिओचमं झिजइ सागरोवमं, किमंग पुण मन्झ इम ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः हमणोदुहति विचिन्तयन्संयमाध्वनि यायात्, न पुनरुत्पन्नारतिरपि अवधावनानुप्रेक्षी भवेद् । इह च विरतादि॥ ९९ ॥ विशेषणानि अरतितिरस्करणफलतया, यद्वा यत एव विरतोऽत एवात्मरक्षित इत्यादिहेतुफलतया नेयानीति सूत्रार्थः ४॥ १५ ॥ इदानीं तापसद्वारमनुस्मरन् 'अरई अणुप्पवेसे' इत्यादिसूत्रसूचितमुदाहरणमाह अयलपुरे जुवराया सीसो राहस्स नगरीमुजेणिं । अज्जा राहखमणा पुरोहिए रायपुत्तो य ॥ ९८॥ कोसंबीए सिट्ठी आसी नामेण तावसो तहियं । मरिऊण सूयरोरग जाओ पुत्तस्स पुत्तोत्ति ॥ ९९ ॥ ___ व्याख्या-अचलपुरे युवराजः शिष्यो राधस्य नगरीमुज्जयिनीम् आर्या राधक्षमणाः पुरोहितो राजपुत्रश्च कौशाम्ब्यां |श्रेष्ठी आसीन्नाम्ना तापसः तत्र मृत्वा 'सूयरोरगो' चि सुपो लोपः शूकर उरगो जातः पुत्रस्य पुत्र इति गाथाद्वयाक्षरार्थः ॥ ९८-९९॥ एतदर्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम्१ पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं किमङ्ग पुनर्ममेदं मनोदुःखमिति । दीप अनुक्रम WIL९९॥ [६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) प्रत RACK CAKCCCCCCX सूत्रांक ||१५|| | अचलपुरं नाम पतिवाणं, तत्थ जियसत्तू राया, तस्स पुत्तो जुवराया, सो राहायरियाण अंतिए पपइओ। सोय अन्नया विहरंतो गतो तगरं नगरिं, तस्स य राहायरियस्स सझंतेवासी अजराहखमणा णाम उजेणीए विहरंति, तओ आगया साहुणो तगरं, गया राहसमीवं, ते पुच्छिया-निरुवसग्गति, भणंति-रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य बाहिति,X है तस्स जुवरायपचतियगस्स सो रायपुत्तो भत्तिजतो, मा संसारं भमिहितित्ति आपुच्छिऊण आयरिए गओ उज्जेणि, भिक्खवेलाए उग्गाहेऊण पट्टितो, आयरिएहि भणिओ-अच्छाहि, सो भणइ-न अच्छामि, नवरं दाएह तं पडणीयघरं, चेलगो भणिओ-वच दाएहि, तेण दाइयं, सो तत्थ गतो, वीसत्यो पविठ्ठो, तत्थ ते दोऽवि अच्छंति, ते तं पिच्छिऊण उठ्ठिया, तेणयि महया सद्देणं धम्मलाभियं, ते भणंति-अहो! लटुं पचायगो अम्हंतेण गतो, वंदामोत्ति, १ अचलपुरं नाम प्रतिष्ठान, तत्र जितशत्रू राजा, तस्य पुत्री युवराजः, स राधाचार्याणामन्तिके प्रबजितः । स चान्यदा बिहरन गतसागरां नगरी, तस्य च राधाचार्यस्य सद्योऽन्तेवासिनः आर्यराधक्षमणा नामोज्जयिन्यां विहरन्ति तत आगताः साधवस्तगरां,गता राघसमीप, | ते पृष्टा निरुपसर्गमिति, भणन्ति-राजपुत्रः पुरोहितपुत्रश्च बाधेते, तस्य युवराजपत्रजितस्य स राजपुत्रो भातृव्यः, मा संसार भ्रमीदिल्या-15 पृच्छयाचार्यान् गव उज्जयिनी, भिक्षावेलायामुद्राय प्रस्थितः, आचार्य णित:-तिष्ठ, स भणति-न तिष्ठामि, परं दर्शयत्त तदू प्रत्यनी कगृहं, क्षुल्लको भणित:-प्रज दर्शय, तेन दर्शितं, स तत्र गतः, विश्वस्तः प्रविष्टः, तत्र तौ द्वाबपि तिष्ठतः, तौ तं प्रेक्ष्योत्थिती, तेनापि ६] महता शब्देन धर्मलामितं, तौ भणत:-अहो लष्टं प्रप्रजितोऽस्माकं मार्गेणागतः, बन्दावह इति, दीप अनुक्रम [६४] 944 % 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] “उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) परीषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्या भणति ते-आयरिया ! सुन्भे गाइउं जाणह ?,तेण भणियं-आमं जाणामो, तुम्भे वाएह,ते आढत्ता, जाय ण जाणंति, तेण भण्णइ-एरिसगा चेव तुम्मे कोलियगा, ण किंचि जाणह, ते रुट्टा उद्धाइया, तेण घेत्तुं तेर्सि णिजुद्ध जाणत- बृहद्वृत्तिः एण सधे संधी खोइया, पढमं ताप पिट्टिया, ते हम्मंता राडि करेंति, परियणो जाणइ-सो एस पचरभो हम्मतो ॥१०॥ राडि करेइ, सोऽवि गतो, पच्छा तेहिं दिहा, णवि जीवंति, णवि मरंति, णबरं णिरिकुखंति एकेक दिट्टीए, पच्छा रण्णो सिटुं पुरोहियस्स य-जहा कोऽवि पवइयगो,तेण दोऽवि जणा संखलेतूण मुक्का, पच्छा राया सबबलेणागतो प-11 बइगाण भूले, सोऽवि साहू एकपासे अच्छा परियटुंतो, राया आयरियाणं पाए पडिओ, पसायमावजह, आयरिओ मणइ-अहं न याणामि, महाराय ! इत्य एगो साहू पाहुणो, जइ परं तेण होजा, राया तस्स मूलमागतो, पचभि १ भणतस्ती-आचार्या ! यूयं गातुं जानीथ, तेन भणितम्-ओम् जानीमः, युवा वादयतं, तावाटतो, यावन्न जानीतः, तेन भण्येतेएतादृशावेव युवां कोलिकी, न किश्चिजानीयः, तौ रुष्टौ उद्धावितो, तेन गृहीत्वा तयोः नियुद्धं जानता सर्वे सन्धयो विसंयोजिताः, प्रथमं तावत्पिट्टितौ, तौ हन्यमानौ राटी कुरुतः, परिजनो जानाति स एष प्रबजितो हन्यमानो राटी करोति, सोऽपि गतः, पञ्चात्तैदृष्टी, नैव जीवतो नैव नियेते, पर निरीक्षेते एकैकं दृष्ट्या, पश्चाद् राजे शिष्टं पुरोहिताय च-यथा कोऽपि प्रबजितः, तेन द्वावपि जनौ विश्व- हलय्य मुक्ती, पश्चाद् राजा सर्वबलेनागतः प्रत्रजितानां मूले, सोऽपि साधुरेकपाचे तिष्ठति परावर्त्तमानः, राजा आचार्याणां पादयोः पतितः, प्रसादमापयध्वं, आचार्यों भणति-अहं न जानामि, महाराज! अत्रैकः साधुः प्राधूणकः, यदि परं तेन भवेत् , राजा तस्म मूलमागतः, प्रत्यभि दीप अनुक्रम [६४] ॥१०॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| दीप अनुक्रम [६४] Jus Education intam “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१५|| अध्ययनं [२], त्राओ य, ततो तेण साहुणा भणितो-धिरत्थु ते रायत्तणस्स, जो तुमं अप्पणो पुत्तभंडाणवि निग्गहं न करेसि, पच्छा राया भण- पसायं करेह, मणइ-जइ परं पवयंति तो णं मोक्खो, अन्नहा नत्थि, राइणा पुरोहिण य भण्णइ एवं होउ, पचयंतु, पुच्छि भणति-पवयामो, पुवं लोओ कतो, पच्छा मुक्का, पवइया । सो य रायपुत्तो निस्संकिओ चैव धम्मं करेह, पुरोहियपुत्तस्स पुण जाइमओ, अम्हे महाए पचाविया, एवं ते दोऽवि कालं काऊण देवलोगेसु उपवन्ना । इओ य कोसंबीए नयरीए तावसो णाम सेट्ठी, सो मरिऊण नियघरे सूबरो जाओ, जातिस्सरो, ततो तस्स चैव दिवसगे पुत्तेहिं मारितो, पच्छा तहिं चैव घरे उरगो जाओ, तर्हिपि जाइस्सरो जातो, तत्थडवि अंतो घरे मा खाहितित्ति मारितो, पच्छा पुणोऽवि पुत्तस्स पुत्तो जातो, तत्थवि जाई सरमाणो चिंतेइ निर्युक्ति: [९८-९९] १- ज्ञान, ततस्तेन साधुना भणित: धिगस्तु तब राजत्वं यस्त्वमात्मनः पुत्रभाण्डानामपि निग्रहं न करोषि पचाद् राजा भणति प्रसादं कुरु, भणति यदि परं प्रत्रजतः तदाऽनयोर्मोक्षः, अन्यथा नास्ति, राज्ञा पुरोहितेन च भण्यते-- एवं भवतु, प्रव्रजतां पृष्टौ भणतः प्रव्रजाबः, | पूर्व छोचः कृतः, पञ्चान्मुक्ती, प्रत्रजितौ । स च राजपुत्रो निश्शङ्कित एव धर्म करोति, पुरोहितपुत्रस्य पुनर्जातिमदः, आवां बलात्यन्त्राजितौ, एवं तौ द्वावपि कालं कृत्वा देवलोकेपूत्पत्नी । इता कौशाम्ध्यां नगर्या तापसो नाम श्रेष्ठी, स मृत्वा निजगृहे शूकरो जातः, जातिस्मरः, ततस्तस्यैव दिवसे पुत्रैर्मारितः पश्चासत्रैव गृहे उरगो जातः, तत्रापि जातिस्मरो जातः, तत्रापि अन्तर्गृहे मा खादीदिति मारितः, पञ्चात्पुनरपि पुत्रस्य पुत्रो जातः, तत्रापि जातिं स्मरंचिन्तयति कथमहमात्मनः खुषामम्वामिति व्याहरामि पुत्रं वा तातमिति For Fans Only ~203~ ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्य. किहमहं अप्पणो सुण्हं अंमंति वाहरिहामि, पुत्तं वा तायंति, पच्छा मूयत्तणं करेइ, पच्छा महंतीभूओ साहूणं परीपहा माध्ययनम् अलीणो, धम्मोऽणेण सुतो। इतो य सो विजाइयदेवो महाविदेहे तित्थयरं पुच्छइ-किमहं सुलहबोहिओ दुलभबृहद्वृत्तिः वोहिओत्ति ?, ततो सामिणा भणितो-दुल्लभबोहिओऽसि, पुणोऽवि पुच्छइ-कत्थऽहं उववजिउकामो ?, भगवयार ॥१०॥ हामण्णइ-कोसंबीए मयस्स भाया भविस्ससि, सो य मओ पवइस्सइ, सो देवो भगवंतं बंदिऊण गओ मूयगस्स-1 गासं, तस्स सो बहुयं दधजायं दाऊण भणइ-अहं तुज्झ पिउघरे उबवजिस्सामि, तीसे य दोहलओ अंवएहिं भवि-17 |स्सइ, अमुगे पचए अंबगो सयापुप्फफलो को मए, तुमं ताए पुरओ णामगं लिहिज्जासि, जहा-तुभं पुत्तो भविस्सइ, जइ तं मम देसि तो ते आणेमि अंबफलाणित्ति, तओ ममं जायं संतं तहा करिज्जासि जहा धम्मे संबु-| १पश्चान्मूकल्यं करोति, पश्चात् महद्भूतः साधूनाश्रितः, धर्मोऽनेन श्रुतः, । इतच स घिग्जातीयदेवो महाविदेहे तीर्थकरं पृच्छति-किमई | सुलभबोधिको दुर्लभबोधिक इति ?, ततः स्वामिना भणितः दुर्लभबोधिकोऽसि, पुनरपि पृच्छति-कुत्राहमुत्पत्तुकामो', भगवता भण्यते| कौशाम्न्यां मूकस्य भ्राता भविष्यसि, स च मूकः प्रनजिष्यति, स देवो भगवन्तं वन्दित्वा गतो मूकसकार्श, तस्मै स बहु द्रव्यजातं दत्वा | भणति—अहं तव पितृगृहे उत्पत्स्ये, तस्याश्च दोहदः आप्रेभविष्यति, अमुकस्मिन् पर्वते आम्रः सदापुष्पफलः कृतो मया, त्वं तस्याः पुरतो ||१०१॥ नामकं लिखेः, यथा-सब पुत्रो भविष्यति, यदि तं मह्यं ददासि तदा तुभ्यमानयामि आम्रफलानीति, ततो मां जावं सन्वं वथा कुर्याः | यथा धर्म संभोत्स्य दीप अनुक्रम [६४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| झामित्ति, तेण पडिवण्णे गतो देवो । अन्नया कतिवयदिवसेसु चइऊण तीए गम्भे उववण्णो, अकाले अंबदोहलो जाओ, स मूयगो णामग लिहति-जइ मम गम्भं देसि ता आणेमि अंबगाणि, ताए भण्णइ-दिज्जत्ति, तेण आणिआणि अंबफलाणि, अवणीओ दोहलो, कालेण दारगो जाओ, सो तं खुड्डगं चेच होतं साहूण पाएसु पाडेइ, सो धाहातो करेति, ण य वंदति, पच्छा संतपरितंतो मूगो पवइतो, सामण्णं काऊण देवलोगं गतो, तेण ओही पउत्ता, जाव णेण सो दिट्टो, पच्छा णेण तस्स जलोयरं कयं, जेण ण सक्केति उहिउं, सबवेजेहिं पचखातो, सो । देवो डोंबरूवं काऊण घोसंतो हिंडइ-अहं वेजो सबवाही उवसमेमि, सो भणइ-मज्झं पोट्टे सजवेहि, तेण भणियं-तुभ असज्झो वाही, यदि परं तुमं ममं चेव ओलग्गसि तो ते सिज्झामि, सो भणति-बच्चामि, तेण सज्झ १ इति, तेन प्रतिपन्ने गतो देवः । अन्यदा कतिपयेषु दिवसेषु कयुत्वा तस्या गर्भे उत्पन्नः, अकाले आनदोहदो जातः, स मूको नामकं लिखति-यदि मह्यं गर्भ ददासि तदानयाम्याम्रान , तया भण्यते-दास्य इति, तेनानीतान्याम्रफलानि, अपनीतो दोहवः, कालेन दारको जातः, स तं बालकमेव सन्तं साधूनां पादयोः पातयति, स धावनं करोति, न च वन्दते, पश्चात् प्रान्तपरिक्षान्तो मूकः प्रत्रजितः, आमण्यं कूत्वा देवलोकं गता, तेनावधिः प्रयुक्तः, यावदनेन स दृष्टः, पश्चादनेन तस्य जलोदरं कृतं, येन न शाशोत्युत्थातुं, सर्ववैद्यैः प्रत्याख्यातः, स | देवो डोम्बरूपं कृत्वा घोषयन हिण्डते-अहं वैद्यः सर्वव्याधीन उपशमयामि, स भणति-मम उदरं नीरोगय, तेन भणित-तवासाध्यो |व्याधिः, यदि परं वं मामेवावलगसि तदा तब साधयामि, स भणति-प्रजिष्यामि, सेन साथितः, दीप अनुक्रम [६४] दमक%E4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) परीषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्य. वितो, गेतो तेण सद्धिं, तेण तस्स सत्थकोसगो अलवितो, सो ताए देवमायाए अतीव भारितो, जाच पबइया एगंमि पएसे पढ़ति, विजेण भण्णाइ-जइ पचयसि तो मुयामि, सो तेण भारेण अतीव परिताविजंतो चिंतेइ-वरबृहद्वृत्तिः मे पञ्चइउं, भणइ-पचयामि, पञ्चइओ, देवे गतेणाचिरस्स उपवइओ, तेण देवेण ओहिणा पिच्छिऊण सो चेव ॥१२॥ से पुणोऽवि वाही कओ, तेणेव उवाएण पुणोऽवि पवाविओ, एवं एकसिं दो तिन्नि बारा उप्पवइतो, तइया हैवाराए गच्छइ देवोऽपि तेणेव समं, तणभारं गहाय पलित्तयं गामं पविसति, तेण भण्णइ-किं तणभारएण पलित्तं गामं पविससि ?, तेण भण्णइ-कहं तुम कोहमाणमायालोभसंपलितं गिहिवासं पविससि', तहावि न संबुज्झइ, पच्छा दोऽवि गच्छन्ति, नवरं देवो अडवीए उपहेणं संपट्टितो, तेण भण्णइ-कहं एत्तो तं पंथं मोतूण पविससि , । १ गतसेन सार्ध, तेन तस्मिन शस्त्रकोषक: आपवितः, स तया देवमायया अतीव भारितः, यावत् प्रनजिता एकस्मिन् प्रदेशे पठन्ति, वैयेन भण्यते-यदि प्रजजसि तदा मुञ्चामि, स तेन भारेण अतीव परिताप्यमानश्चिन्तयति-वर मे प्रवजितुं, भणति-अनजामि, प्रवजितो, देवे गतेऽचिरेणोत्मत्रजितः, तेन देवेनावधिना ट्वा स एव तस्य पुनरपि व्याधिः कृतः, तेनैवोपायेन पुनरपि प्रनाजितः, एवं सकृत् द्वौ बीन बारान् उरमब्रजितः, तृतीये वारे गच्छति देवोऽपि तेनैव समं, तृणभारं गृहीत्वा प्रदीप्तं ग्राम प्रविशति, तेन भण्यते-किं तृणभारेण प्रदीप्तं ग्राम प्रविशसि १, तेन भण्यते-कथं वं क्रोधमानमायालोमसंप्रदीप्तं गृहिवासं प्रविशसि ?, तथापि न संधुभ्यते, पश्चात् द्वावपि गच्छतः, नवरं देवोऽढल्यामुत्पथेन संप्रस्थितः, तेन भण्यते-कथमितस्त्वं पन्थानं मुक्त्वा प्रविशसि ?, दीप अनुक्रम [६४] ॥१०२॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| देवेणे भण्णइ-कहं तुम मोक्खपहं मोत्तूर्ण संसाराडविं पविससि ?, तहावि न संबुज्झइ, पुणो एगंमि देवकुले वाण मंतरो अचितो हिहाहुत्तो पडइ, सो भणइ-अहो वाणमंतरो ! अधण्णो अपुण्णो य जो उबरिहुत्तो को अच्चियो होय हेटाहुत्तो पडइ, तेण देवेण भण्णइ-अहो! तुमंपि अधण्णो जो उप्पराहुत्तो ठविओ अचणिज्जे य ठाणे पुणो पुणो ६ उप्पवयसि, तेण भण्णइ-कोऽसि तुम, तेण मूयगरूवं दंसियं, पुचभयो से कहितो, तो सो भणइ-को पचओ ?, जहाऽहं देवो आसि, पच्छा सो देवो तं गहाय गओ वेयपच्चयं, सिद्धाययणं कूडं च, तत्थ तेण पुर्व चेव संगारो कतिलओ जहा-यदि अहं न संबुज्झेज तो एयं ममश्चयं कुंडलजुयलं णामयंकियं सिद्धाययणपुक्खरिणीए दरिसिज्जासि, तेण से दंसियं, सो तं कुंडलं सनामंकियं पिच्छिऊण जाइस्सरो जातो, संबुद्धो पघाइतो जाओ, संजमे है १ देवेन भण्यते-कथं त्वं मोक्षपथं मुक्त्वा संसाराटवीं प्रविशसि ?, तथापि न संबुध्यते, पुनरेकस्मिन् देवकुले व्यन्तरोऽर्चितोऽवस्तापतति, स भणति-अहो व्यन्तरोऽधन्योऽपुण्या य उपरि कृतोऽचिंतच अधः पतति, तेन देवेन भण्यते-अहो त्वमप्यधन्यो य उपरि | स्थापितोऽर्चनीये च स्थाने पुनः पुनरुत्प्रव्रजसि, तेन भण्यते-कोऽसि त्वं ?, तेन मूकरूपं दर्शितं, पूर्वभवश्च तस्मै कथितः, ततः स भणति का प्रत्ययः ।, यथाऽहं देव आसं, पश्चात्स देवसं गृहीत्वा गतो वैतात्यपर्वतं, सिद्धायतनकूट च, तत्र तेन पूर्व चैव संकेस: कतो यथा kil-यहं न संबुध्येय तदेतत् मामकीनं कुण्डलयुगलं नामादितं सिद्धायतनपुष्करिण्यां दर्शयः, तेन तस्मै दर्शितं, स तत् कुण्डलं खनामाकितं | प्रेक्ष्य जातिस्मरो जातः, संबुद्धः प्रत्रजितो जातः, संयमे च दीप अनुक्रम [६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||१६|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) * परीषहा| ध्ययनम् प्रत * सूत्रांक * ||१६|| उत्तराध्य से रती जाया, पुर्व अरती आसि, पच्छा रती जाया ॥ उत्पन्नसंयमारतेश्च स्त्रीभिरुपनिमयमाणस्य तदभिलाष बृहद्वृत्तिः प्रादुःप्यादतस्तत्परीषहमाह संगो एस मणुस्साणं, जाओलोगंसि इथिओ। जस्स एया परिणाया, सुकडं तस्स सामपणं१६(सूत्रम्) ॥१०॥ CI व्याख्या-सजन्ति-आसक्तिमनुभवन्ति रागादिवशगा जन्तयोऽत्रेति सङ्गः 'एषः' अनन्तरं वक्ष्यमाणो 'मनुष्याणां पुरुषाणां, तमेवाह-'या' इत्यविशेषाभिधानं ततो याः काश्चन मानुष्यो देव्यस्तिरश्चयो वा, 'लोगंसित्ति लोके तिर्यग्लोकादी 'खियो' नार्यश्च, एताच हावभावादिभिः अत्यन्तमासक्तिहेतयो मनुष्याणामित्येवमुक्तम् , अन्यथा| हि गीतादिष्वपि सजन्त्येव मनुष्याः, मनुष्योपादानं च तेपामेव मैथुनसंज्ञातिरेकः प्रज्ञापनादौ प्ररूपित इति, अतः किमित्याह-'यस' इति यतेः 'एताः' खियः परीति-सर्वप्रकारं ज्ञाताः परिज्ञाताः, तत्र जपरिज्ञयेह परत्र च महानर्थहेतुतया विदिताः, तथा चाममः-"विभूसा इत्थिसंसग्गी, पणीयं रसभोयणं । णरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउड़ जहा ॥१॥" प्रत्याख्यानपरिज्ञया च, तत एव च प्रत्याख्याताः, 'मुकडं ति सुकृतं सुष्टानुष्टितं, पाठान्तरतः -'सुकरें' वा सुखेनैवानुष्ठातुं शक्यं 'तस्स' त्ति सुव्यत्ययात्तेन 'सामण्णं ति श्रामण्य-व्रतं, किमुक्तं भवति ? १ तस्य रतिर्जाता, पूर्वमरतिरासीत् , पश्चाद्र तिर्जाता । २ विभूषा स्त्रीसंसर्गः प्रणीवरसभोजनम् । नरस्यात्मगवेषिणो विषं तालपुटं यथा ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम * ॥१०३॥ [६१] ***** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१६|| नियुक्ति: [९८-९९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| अवद्यहेतुत्यागो हि व्रतं, रागद्वेषावेव च तत्त्वतस्तद्धेतू , उक्तनीतितश्च न स्त्रीभ्यः परं तन्मूलमिति तत्प्रत्याख्यानत एव सुकृतत्वं श्रामण्यस्य, यथोक्तनीतितः स्त्रिय एव दुस्त्यजाः, ततस्तत्त्यागे त्यक्तमेवापरमिति तत्प्रत्याख्यानतः सुकृतत्वं श्रामण्यस्योच्यते, वक्ष्यति हि-"एए उ संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव हवंति सेसा । जहा महासागर|| मुत्तरित्ता, णई भवे अवि गंगासमाणा ॥१॥” इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ अतः किं विधेयमित्याह एवमाणाय मेहावी, पंकभूयाउ इत्थीओ। नो ताहि विणिहपिणज्जा, चरे अत्तगवेसए ॥१७॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'एवम्' इत्यनन्तरोक्तेन प्रकारेणासन्तासक्तिहेतुत्वलक्षणेन 'आज्ञाय खरूपाभिव्याप्सा अवगम्य । || 'मेधावी' अवधारणशक्तिमान् पङ्कः-कर्दमः तद्भूताः-मुक्तिपथप्रवृत्तानां विवन्धकत्वेन मालिन्यहेतुत्वेन च तदुपमाः, तुरवधारणार्थः, ततः पङ्कभूता एव स्त्रियः, पठ्यते च-'एवमादाय मेहावी जहा एया लहुस्सगति 'एवम्', अनन्तर एव वक्ष्यमाणमर्थम् 'आदाय' बुद्ध्या गृहीत्वा मेधावी, तमेवाह-'यथे'त्युपदर्शने, 'एताः' स्त्रियः 'लहुस्सग'त्ति तुच्छाशयत्वादिना लव्यः, ततः किमित्याह-'नो' नैव 'ताभिः' 'स्त्रीमिः' 'विनिहन्यात्' विशेषेण| संयमजीवितव्यव्यपरोपणात्मकेनातिशयेन च-सामस्त्यतदुच्छेदरूपेणातिपातयेत्, आत्मानमिति गम्यते, कृत्यमाह-14 'चरेत्' धर्मानुष्ठानमासेवेत, आत्मानं गवेषयते-कथं मयाऽऽत्मा भवान्निस्तारणीय इत्यन्वेषयते आत्मगवेषकः, १ एतांस्तु सङ्कान समविक्रम्य सुखोत्तारा एव भवन्ति शेषाः । यथा महासागरमुत्तीर्य नदी भवेदपि गङ्गासमाना ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [६१] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] (४३) परीपहा प्रत सूत्रांक ||१७|| उत्तराध्य. 'सिद्धिः खरूपापत्ति'रिति वचनात् सिद्धि; आत्मा, ततः कथं ममासौ स्थादित्यन्येपकः आत्मगवेपको, यद्वा है। आत्मानमेव गवेषयते इत्यात्मगवेषकः, किमुक्तं भवति ?-चित्रालङ्कारशालिनीरपि खियोऽवलोक्य तदृष्टिन्यासस्य ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः 14 दुष्टतावगमात् झगिति ताभ्यो गुपसंहारत आत्माऽन्वेष्टेव भवति, उक्तं हि-"चित्तभित्तिं ण णिज्झाए, नारिं ॥१०॥ वा सुअलंकियं । भक्खरंपिव दट्टणं, दिहि पडिसमाहरे ॥१॥” इति सूत्रार्थः ॥ १७॥ सम्प्रति प्रतिमाद्वारं विवृण्यन् 'यस्यैताः परिज्ञाता' इत्यादिसूत्रसूचितं चैदंयुगीनजनदाढ्योत्पादकं दृष्टान्तमाह- . उसभपुरं रायगिहं पाडलिपुत्तस्स होइ उप्पत्ती । नंदे सगडाले थूलभद्द सिरिए वररुई य ॥ १०॥ तिण्हं अणगाराणं अभिग्गहो आसि चउण्ह मासाणं वसहीमित्तनिमित्तं को कहि वुत्थो ? निसामेह १०१ गणियाघरम्मि इको वुत्थो बीओ उ वग्धवसहीए । सप्पवसहीइ तइओ को दुकरकारओ इत्थं ? १०२ वग्यो वासप्पो वा सरीरपीडाकरा उ भइयत्वा । नाणं व दसणं वा चरितं(य) व न पच्चला भित्तुं ॥१०३॥ भयवंपिथूलभद्दो तिखे चंकम्मिओन उण छिन्नो। अग्गिसिहाए वुत्थो चाउम्मासे न उण दहो १०४ अन्नोऽवि य अणगारोभणमाणोऽहंपि थूलभद्दसमो। कंबलओ चंदणयाइ मइलिओ एगराईए ॥१०॥ १ भित्तिचित्रं न निध्यायेत् , नारी वा खलकृताम् । भास्करमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [६६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [ ६६ ] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१७|| अध्ययनं [२], व्याख्या - वृषभपुरं राजगृहं पाटलिपुत्रस्य भवत्युत्पत्तिः, नन्दः शकडालः स्थूलभद्रः सिरियको वररुचिश्च, त्रयाणामनगराणां अभिग्रह आसीत् 'चउन्हं मासाणं' सुव्यत्यया चतुर्षु मासेषु वसतिमात्रनिमित्तं कः कुत्रोषितः १ | निशामयत-गणिकागृह एको द्वितीय उपितस्तु व्याघ्रवसतौ सर्पवसतौ तृतीयः, को दुष्करकारकोऽत्र १, तेषु मध्ये व्याघ्रो या सप्प वा शरीरपीडाकरौ तु भक्तव्यौ, ज्ञानं वा दर्शनं वा चारित्रं वा न प्रत्यलौ मेनुं, भगवानपि स्थूलभद्रः तीक्ष्णे- निशितासिधारादौ चमितो न पुनरिच्छन्नः, अग्निशिखायामुषितश्चातुर्मास्यां न पुनर्दग्धः, अन्योऽपि चानगारो भणन्नहमपि स्थूलभद्रसमः कम्बलकश्चन्दनिकायाम्-उच्चारभूमौ मलिनित इति गाथाषट्कार्थः ॥ १००-१०५ ॥ एतदर्थस्तु बृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् ििखइप्पइट्टियं णाम नयरं, तत्थ वत्थुमि खीणे चणगपुरं णिविहं, ततो उसहपुरं, ततो रायगिहं, ततो चंपा, ततो पाडलिपुत्तं दबाइ भाणियचं जाव सगडाले पंचत्तमुपगते णंदेण सिरितो भणितो- कुमांरामच्चत्तणं पडिबजाहि, सो भणइ-मम भाया जेडो थूलभद्दी बारसमं वरिसं गणिया घरं पविट्टस्स, सो सद्दावितो भणइ-चिंतेमि, राया भणइ uttaration १ पूर्व क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरं, तत्र वस्तुनि क्षीणे चणकपुरं निविष्टं, तत ऋषभपुरं, ततो राजगृहं, ततञ्चम्पा, ततः पाटलीपुत्रमित्यादि भणितव्यं यावत् शकटाले पञ्चत्वमुपगते नन्देन श्रीयको भणितः कुमारामात्वत्वं प्रतिपयख स भणति मम भ्राता ज्येष्ठः स्थूलभद्रो द्वादशं वर्ष गणिकागृहं प्रविष्टस्य स शब्दितो भणति चिन्तयामि, राजा भणति- निर्युक्ति: [१००-१०५] Fürsten ~ 211~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१७|| दीप अनुक्रम [ ६६ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१०५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१७|| अध्ययनं [२], असोगवणियाए चिंतेहि, सो तत्थ अतिगतो चिंतेति-केरिसं भोगकजं वखित्ताणं ?, पुणरवि णरगं जातियवं होहित्ति, एए णाम परिणामदुस्सहा भोगत्ति पंचमुट्ठियं लोयं काऊण पाऊयं कंबलरयणं छिंदिता रओहरणं काउं रण्णो मूलं गतो, एवं चिंतियं, राया भणइ सुचिंतियं, विणिग्गतो, राया चिंतेड़-पिच्छामि किं कवडत्तणेण गणियाघरं पविस्सह यत्ति ? पासायतलगओ पेच्छइ, नवरं मयगकलेवरस्स जणो ओसरइ, मुहाणि य ठएइ, सो मज्झेण गतो, राया भणइ| णिविणकामभोगो भगवंति सिरिओ ठावितो । सो संभूयगविजयस्स मूले पवतितो, थूलभद्दसामीवि संभूयविजयाणं मूले घोरागारं तवं करेइ, विहरंता पाडलिपुत्तं आगया, तिष्णि अणगारा अभिग्गहे गिण्हंति - एको सीहगु Education intimation १ अशोकवनिकायां चिन्तय, स तत्रातिगतञ्चिन्तयति--कीदृशं भोगकार्य व्याक्षिप्तानां ?, पुनरपि नरके यातव्यं भविष्यतीति एते नाम परिणामदुस्सहा भोगा इति पञ्चमौष्टिक लोचं कृत्वा प्रावृतं कम्बलरनं छित्त्वा रजोहरणं कृत्वा राज्ञो मूलं गतः, एतचिन्तितं राजा भणतिसुचिन्तितं विनिर्गतः, राजा चिन्तयति पश्यामि किं कपटेन गणिकागृहं प्रविशति न वेति ?, प्रासादतलगत: प्रेक्षते, नवरं मृतककलेवरात् जनोऽपसरति, मुखानि च स्थगयति, स मध्येन गतः, राजा भणति - निर्विण्णकामभोगो भगवानिति श्रीयकः स्थापितः । स संभूतविजयस्य मूळे प्रत्रजितः, स्थूलभद्रस्वाम्यपि संभूतविजयानां मूले घोराकारं तपः करोति, विहरन्तः पाटलीपुत्रमागताः, त्रयोऽनगारा अभिग्रहान् गृहन्ति-एक: सिंहगुहायां, कले निर्युक्ति: [१००-१०५] For Fast Use Only ~ 212~ परीषहाध्ययनम् २ ॥१०५॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७|| हाए, 'तं पेहंतओ सीहो उवसंतो, अन्नो सप्पगुहाए, सोऽवि दिट्ठीविसो उवसंतो, थूलभद्दो कोसाघरे, सा तुट्टा, परीसहपराजिओ आगोत्ति, भणइ-किं करेमि ?, उज्जाणघरे ठाणं देहि, दिन्नं, रति सच्चालङ्कारविभूसिया आगया, चाडुयं पकया, सो मंदरोपमो अकंपो, ताहे सम्भावेण पडिसुणेइ, धम्मो कहितो, साविगा जाया, भणति-जति रायसेणं अन्नेणं समं वसेजा, इयरहा बंभचारिणीवयं गिण्हति । ताहे सीहगुहाओ आगओ चत्तारि मासे उपवास है। काऊणं, आइरिएहिं ईसत्ति अम्भुट्टिओ, भणिओ य-सागयं दुकरकारगस्सत्ति, एवं सप्पईत्तोऽवि, थूलभद्दसामी तत्थेव गणियाघरे भिक्खं गिण्हइ, सोऽपि चउमासेसु पुषणेसु आगतो, आयरिया संभमेण उठ्ठिया, भणिओ य-सागय ते अइदुक्करदुक्करकारगस्सत्ति, ते भणंति दोण्णिवि-पेच्छह आयरिया रागं वहति अमचपुत्तोत्ति, वितियए वरिसारत्ते | १ तं प्रेक्षमाणः सिंह उपशान्त:, अन्यः सर्पविले, सोऽपि दृष्टिविष उपशान्त:, स्थूलभद्रः कोशागृहे, सा तुष्टा, परीधहपराजित आगत ४ इति, भणति-किं करोमि ?, उद्यानगृहे, स्थानं देहि, दत्त, रात्रौ सर्वालङ्कारविभूषिता आगता, चाटु प्रकृता, स मन्दरोपमोऽकम्प्रः, तदा सद्भावेन प्रतिशृणोति, धर्मः कथितः, आविका जाता, भणति-यदि राजवशेनान्येन समं वसेयम् , इतरथा ब्रह्मचारिणीत्रतं गृह्णाति । तदा सिंहगुहाया आगतश्चतुरो भासान् उपवासं कृत्वा, आचारीपदित्यभ्युत्थितः, भणितश्च-स्वागतं दुष्करकारकस्येति, एवं सर्पविलसत्कोऽपि, ४ स्थूलभद्रस्वामी तत्रैव गणिकागृहे भिक्षां गृह्णाति, सोऽपि चतुर्यु मासेषु पूर्णषु आगतः, आचार्याः संभ्रमेणोत्थिताः, भणितश्च-स्वागतं | तेऽतिदुष्करदुष्करकारकस्येति, तौ भणवो द्वावपि-पश्यत आचार्या रागं वहन्ति अमात्यपुत्र इति, द्वितीये वर्षाराने दीप अनुक्रम [६६] RSS RSS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] (४३) प्रत HEESANCSCRSA सूत्रांक उत्तराध्य. 18| सीहगुहाखमणो भणति-गणियाघरं वचामित्ति अभिग्गहं गिण्हइ, आयरिया उवउत्ता, वारिओ, अप्पडि- परीपहा सुणंतो गतो, वसही मग्गिया, दिण्णा, सा सम्भावेण ओरालियसरीरा विभूसिया अविभूसिया वा, सुणति धम्म, ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः सो तीसे सरीरे अज्झोववन्नो, ओभासइ, सा ण इच्छति, भणति-जति नबरि किंचि देसि, किं देमि, सयसहस्सं, ॥१०६॥ सो मग्गिउमारद्धो, वालविसये सावतो, जो तहिं जाइ तस्स सयसहस्समुलं कंबलं देइ, तहिं गतो, तेण दिपण | सहरायाणएणत्ति, एगत्थ चोरेहिं पंथो बद्धो, सउणो वासति-सयसहस्संति, चोरसेणावई जाणइ, नवरि संजय पेच्छइ, बोलीणो, पुणो वासति-सयसहस्सं गतं, तेण सेणावइणा गंतूण पलोइओ, सम्भावं पुच्छिओ भणतिअस्थि कंवलो, गणिकाए णेमि, मुको गतो, तीसे दिण्णो, ताए चंदणिकाए छूढो, सो भणइ-मा विणासेहि, सा1 १ सिंहगुहाक्षपणो भणति-गणिकागृहं व्रजामीति अभिग्रहं गृह्णाति, आचार्या उपयुक्ताः, वारितः, अप्रतिशृण्वन् गतः, वसतिर्मागिता, दत्ता, सा सद्भावनोदारशरीरा विभूषिता अविभूपिता वा, शृणोति धर्म, स तस्याः शरीरेऽध्युपपन्नः, अवभासयति (याचते), सा नेच्छति, भणति-यदि नवरं किञ्चिददासि, किं ददामि ?, शतसहनं, स मार्गयितुमारब्धः, नेपाल विषये श्रावकः यतत्र याति तस्मै शतसहस्रमूल्य कम्बलं ददाति, तत्र गतः, तेन दत्तं श्राद्धेन राज्ञेति, एकत्र चौरैः पन्था बद्धः, शकुनो वासयति-शतसहसमिति, चौरसेनापतिर्जानाति, नवरं संयतं प्रेक्षते, वलित:, पुनर्वासयति-शतसहस्रं गतं, तेन सेनापतिना गत्वा प्रलोकितः, सद्भावः पृष्टो भणति-अस्ति कम्बलः, गणिकायै नयामि, मुक्तो गतः, तस्यै दत्तः, तथा चन्दनिकायां (व!गृहे) निक्षिप्तः, स भणति-मा विनिनेशः, सा ||१७|| दीप अनुक्रम [६६] ॥१०६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] (४३) म प्रत सूत्रांक ||१७|| भणई-तुमंपि एरिसओ चेव होहिसि, उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामि अणुसडिं, गतो, पुणो आलोएत्ता विहरह। आयरिएणं भणिओ-एवं दुकरदुकरकारओ थूलभद्दो पुर्षि खरिका (दुअक्सरिया) इच्छद, इदाणी सही जाया, अदिठ्ठ-M दोसा तुमे पत्थियत्ति उवालद्धो, एवं चेव विहरंति। सा गणिका रहियस्स रण्णा दिण्णा, तं अक्खाणं जहा णमोकारे।। जहा थूलभद्देणित्थीपरीसहो अहियासितो तहा अहियासियचो, ण उ जहा तेण णो अहियासितोत्ति ।। अयं चैकत्र। वसतस्तथा स्त्रीजनसंसर्गतो मन्दसत्त्वस्य भवति अतो नैकस्थेन भाव्यं, किन्तु चर्यापरीपहः सोढव्य इति तमाहएग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि, णिगमे वा रायहाणीए ॥ १८ ॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'एक एवं' ति रागद्वेषविरहितः 'चरेत्' अप्रतिबद्धविहारेण विहरेत्, सहायवैकल्यतो बैकस्तथाविधगीतार्थो, यथोक्तम्-"ण यो लभिजा णिउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणतो समं वा । एकोऽवि पावाई विवजयंतो, विहरेज कामे असज्जमाणो ॥१॥" 'लाढे' ति लाढयति प्रासुकैपणीयाहारेण साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति १ भणतित्वमप्येतादृश एव भविष्यसि, उपशाम्यति लब्धबुद्धिः, इच्छागि अनुशास्ति, गतः, पुनरालोच्य विहरति । आचार्येण भणित:एवं दुष्करदुष्करकारकः स्थूलभद्रः पूर्व ब्यक्षरिका इच्छति, इदानीं भारी जाता, अदृष्टदोषा त्वया प्रार्थितेति उपालब्धः, एवमेव विहरन्ति । सा गणिका रथिकाय राज्ञा दत्ता, तदास्थानक यथा नमस्कारे (आवश्यकवृत्तौ)। यथा स्थूलभद्रेण स्त्रीपरिषहोऽध्यासितस्तथाऽध्यासितव्यः, न तु यथा है तेन नाध्यासित इति।२ न चापि लभेत निपुणं सहायं, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयम्, विहरेत् कामेषु असजन १ दीप अनुक्रम [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१८|| नियुक्ति: [१००-१०५] (४३) उत्तराध्य. बृहबृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥१०७|| ||१८|| लाढः, प्रशंसाभिधायि वा देशीपदमेतत् , पठ्यते च-'एग एगे चरे लाद' ति, तत्र चैकः-असहायः प्रतिमाप्रतिपन्नादिः परीषहास चैको रागादिवैकल्याद्' 'अभिभूय' निर्जित्य 'परीषहान् क्षुदादीन् , क पुनश्चरेदित्याह-'ग्राम' चोक्तरूपे 'नगरे वा'|| करविरहितसन्निवेशे 'अपिः' पूरणे निगमे वा' वणिग्निवासे 'राजधान्यां' वा प्रसिद्धायाम् , उभयत्र वाशब्दानुवृत्तः, कामडम्बायुपलक्षणं चैतद्, आग्रहाभावं चानेनाहेति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ पुनः प्रस्तुतमेवाह असमाणो चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहिं, अनिकेओ परिवए ॥१९॥ (सूत्रम्) F व्याख्या-न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्याश्रयामूञ्छितत्वेन अन्यतीर्थिकेषु वाऽनियतविहारादिनेससमानः असदृशो, यद्वा समानः-साहङ्कारो न त त्यसमानः, अथवा '(अ)समाणों' त्ति प्राकृतत्वादसन्निवासन् , यत्रास्ते तत्राप्यसंनिहित एवेति हृदयं, सन्निहितो हि सर्वः खाश्रयस्योदन्तमावहति अयं तु न तथेत्येवंविधः सन् 'चरेत् , अप्रतिबद्धविहारतया विहरेत् 'भिक्षुः' यतिः, कथमेतत् स्यादित्याह-नैय कुर्यात् 'परिग्रह' प्रामादिषु ममत्वबुद्ध्यात्मकम् , अत्राह च-"गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं ण कर्हिचि कुज्जा", इदमपि यथा स्यात्तथाह-'असंसक्तः' असम्बद्धो 'गृहस्थैः' गृहिभिः 'अनिकेतः' अविद्यमानगृहो, नैकत्र बद्धास्पदः, 'परिव्रजेत्' सर्वतो विहरेत् , न ॥१०॥ (ना) नियतदेशादौ गृहिसम्पर्कः, एकत्र बद्धास्पदत्वे नियतदेशादिविहारितायां वा स्यादपि ममत्वबुद्धिः, तदभावे १ प्रामे कुले वा नगरे वा देशे, ममत्वभाव न कुत्रचित्कुर्यात् । दीप अनुक्रम [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [१०६] (४३) प्रत सूत्रांक 444442294564 &ातु निरवकाशैवेयमिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ अत्र च शिष्यद्वारमनुसरन् 'असमाणो चरे' इत्यादिसूत्रसूचि तमुदाहरणमाहकोल्लयरे वत्थवो दत्तो सीसो अ हिंडओ तस्स । उवहरइ धाइपिंडं अंगुलिजलणा य सादिवं ॥१०६॥ | व्याख्या-कोलयरें' कुल्लयरनानि नगरे वास्तव्यः, आचार्य इति शेषः, दत्तः शिष्यश्च हिण्डकः तस्य उपहरति धात्रीपिण्डमङ्गुलिज्वलनाच सादेव्यमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १०६ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्कोलयरेनयरेवत्थवा सङ्गमधेरा आयरिया, दुम्भिक्खे तेहिं संजया विसज्जिया,तं णगरंणवभागेकाऊण जंघाबलपरिहीणा विहरन्ति, णगरदेवया य तेसिं किर उवसंता, तेसिं सीसो दत्तो नाम आहिंडितो, चिरेणं कालेणं उदंतवाहतो आगतो, सो तेसिं पडिस्सयं ण पविहो णिययावासत्ति, भिक्खषेलाए उवग्गाहियं हिंडताणं संकिलिस्सति, कुंढो सहकुलाई माण दावेइत्ति, तेहिं णायं, एगत्थ सिटिकुले रेवतियाए गहियतो दारतो, छम्मासा रोवंतस्स, आइरिएहिं चप्पुडिया कोल्लकर नगरे वास्तव्याः संगमस्थविरा आचार्याः, दुभिक्षे तैः संयता विसृष्टाः, तन्नगरं नव भागान कृत्या परिक्षीणजवाबला विहरन्ति, नगरदेवता च तेषु किलोपशान्ता, तेषां शिष्यो दत्तो नामाहिण्डकः, चिरेण कालेनोदन्तवाहक आगतः, स तेषां प्रतिभयं न प्रविष्टोX | नित्सवास इति, भिक्षावेलायामोपप्रहिक हिण्डमानयोः संक्लिश्यति, कुण्ट: श्राद्धकुलानि न दर्शयतीति, तैत्तिम्, एकत्र अप्टिकुले रेवतिफया गृहीतो दारकः, षण्मासा रुदतः, आचार्यैश्च पुटिका ||१९|| ॐ**50*5-262326252527 दीप अनुक्रम [६८] CHEKA JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [१०६] (४३) उत्तराध्या प्रत सूत्रांक ||१९|| किया, मा रोवत्ति, वाणमंतरीए मुक्को, तेहिं तुट्ठहिं पडिलाहिया जहिच्छिएणं, सो विसजितो, एयाणि कुलाणित्ति, परीपहा आयरिया सुचिरं हिंडिऊण अंतपंतं गहाय आगया, समुद्दिट्टा, आवस्सए आलोयणाए आलोएहि, भणति-तुम्भेहिं ध्ययनम् बृहद्वृत्ति समं हिंडिओ मि, धाईपिंडो ते भुत्तो, भणति-अह सुहमाई पिच्छहत्ति पदुट्टो, देवयाए अद्वरत्ते वासं अंधकारो या ॥१०॥ | विगुवितो, एसो हीलेइत्ति, आयरिएहि भणिओ-अतीहित्ति, सो भणइ-अंधकारोत्ति, आयरिएहिं अंगुली दाइया,[६] सा पजलिया, आउट्टो आलोएइ, आयरियावि से णवभागे कहेंति ॥ ततश्च यथा महात्मभिरमीभिः सङ्गमस्थविरश्वर्यापरीपहोऽध्यासितः तथान्यैरपि अध्यासितव्य इति ॥ यथा चायं ग्रामादिश्वप्रतिबद्धेनाधिसह्यते एवं नैपेधिकीपरीषहोऽपि शरीरादिष्वप्रतिबद्धेनाधिसहनीय इति तमाहसुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले य एगओ। अकुकुए निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥२०॥ (सूत्रम्) I व्याख्या-शबानां शयनमस्मिन्निति श्मशानं तस्मिन्-पितृवने, (पा०५-१-२) श्वभ्यो हितमिति वाक्ये | १ कृता-मा रोविहीति, व्यन्तर्या मुक्तः, तैस्तुष्टैः प्रतिलम्भिता यथेप्सिसेन, स विसृष्टः, एतानि कुलानीति, आचार्याः सुचिरं हिण्डिवाऽन्तप्रान्तं गृहीत्वा आगताः, भुक्ताः, आवश्यके आलोचनायामालोचय, भणति-युष्माभिः समं हिण्डितोऽसिस, धात्रीपिण्डस्त्वया भुक्तः, भणति-अध सूक्ष्माणि प्रेक्षध्वमिति प्रद्विष्टः, देवतया अर्धरात्रे वर्षा अन्धकार च विकुर्विते, एष हीलतीति, आचार्भणितः-आयाहीति, स भणति-अन्धकारमिति, आचार्यैरङ्गुलिर्दर्शिता, सा प्रज्वलिता, आवृत्त आलोचयति, आचार्या अपि तस्मै नव भागान् कथयन्ति दीप अनुक्रम [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [१०६] (४३) % % प्रत सूत्रांक % ||२०|| 'उगवादिभ्यो यदि'त्यत्र (पा०५-१-२) 'शुनः संप्रसारणं वा दीर्घत्व'मिति (वार्तिकं ५-१-२) वचनतो यति संप्रसारणे दीर्घत्वे च शून्यम्-उद्वसं तच तत् अगारं च शून्यागारं तस्मिन्वा, वृश्यत इति. वृक्षः तस्य मूलं-अधोभूभागो वृक्षमूलं तस्मिन्वा, 'एकः' उक्तरूपः स एवैककः, एको वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः, एकं वा कर्मसाहित्य| विगमतो मोक्षं गच्छति-तत्प्राप्तियोग्यानुष्टानप्रवृत्तेर्यातीत्येकगः, 'अकुक्कुचः' अशिष्टचेष्टारहितो 'निषीदेत् तिष्ठेत् , 'न च' नैव वित्रासयेत् 'परम्' अन्यं, किमुक्तं भवति ?-पंडिमं पडिवजिया मसाणे, णो भायए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतयोरए य णिचं, ण सरीरं चाभिकंखए सभिक्खू ॥ १॥ इत्यागममनुस्मरन् श्मशानादावप्येककोऽप्यनेकभयानकोपलम्भेऽपि न स्वयं संविभीयात्, न च विकृतस्वरमुखविकारादिभिरन्येषां भयमुत्पादयेत, यद्वा 'अकु-|| कुए'त्ति अकुत्कुचः कुन्थ्वादिविराधनाभयात्कर्मबन्धहेतुत्वेन कुत्सितं हस्तपादादिभिरस्पन्दमानो निपीदेत्, न च 'वित्रासयेत्' विक्षोभयेत् ' परम् ' उन्दूरादि, मा भूदसंयम इति सूत्रार्थः ॥२०॥ तत्र च तिष्ठतः कदाचिदुपसम्र्गोत्पत्तौ यत् कृत्यं तदाहतत्थ से चिट्ठमाणस्स, उवसग्गेऽभिधारए । संकाभीओ न गच्छेजा, उद्वित्ता अण्णमासणं ॥२१॥(सूत्रम्) व्याख्या--'तत्र' इति श्मशानादौ 'से' तस्य तिष्ठतः, पठ्यते च-'अच्छमाणस्स' त्ति आसीनस्य उप-सामीप्येन १ प्रतिमा प्रतिपद्य श्मशाने न विभेति भवभैरवाणि दृष्ट्वा । विविधगुणतपोरतश्च नित्यं न शरीरं चाभिकाङ्कने स भिक्षुः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [६९] CHAR %A5-% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [१०७] (४३) प्रत सूत्रांक ||२१|| उत्तराध्य. सुज्यन्ते-तिर्यग्मनुष्यामरैः कर्मवशगेनात्मना क्रियन्त इत्युपसर्गाः ते 'अभिधारयेयुः' अन्तर्भावितेवार्थत्यादभिधार-1 परीपहा. हानि येयुरिव, कोऽर्थः ?-उत्कटतयाऽत्यन्तोरिसक्तरिपुवत् अभिमुखीकुर्युरिव, यथैते सज्जा वयं तत् प्रगुणीभूयाभिमुखैः ध्ययनम् स्थेयमिति, यद्वा सोपस्कारत्वात् सूत्राणामुपसर्गाः सम्भवेयुः ततस्तानभिधारयेत्-किमते ममाचलितचेतसः कर्तु- २ मलमिति चिन्तयेत्, पठ्यते च-'उबसग्गभयं भये' इति सुगम, 'शङ्काभीत इति' तत्कृतापकारशकातो भीतः-12 त्रस्तो 'न गच्छेत्' न यायादुत्थाय, कोऽर्थः -तत् स्थानमपहाय अन्यदपरं आस्यते अस्मिन्निति आसन-स्थानमिति मसूत्रार्थः ॥ २१ ॥ अग्निद्वारमधुना, तत्र च 'शङ्काभीतो न गच्छेज'त्ति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन् उदाहरणमाह- । निक्खंतो गयउराओ कुरुदत्तसुओ गओ य साकेयं पडिमाट्रियस्स कुडिया आगया अग्गि जालिंति १०७ 2 व्याख्या-'निष्क्रान्तः' प्रत्रजितो गजपुरात् कुरुदत्तसुतो गतश्च साकेतं प्रतिमास्थितस्य 'कुडिय' ति हतगवेषका (आगता) अग्निं शिरसि ज्यालयन्ति इति गाथाक्षरार्थः ॥ १०७ ।। भावार्थस्तु बृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्-४ हत्थिणाउरे णयरे कुरुदत्तसुत्तो णाम इभपुत्तो तहारूवाणं थेराणमंतिए पबतितो, सो कयाइ एगल्लविहारप-| C ॥१०९॥ डिम पडियण्णो, साएयस्स णयरस्स अदूरसामंते चरिमा ओगाढा, तत्व पडिमं ठिओ चचरे, तओ एगातो १ हस्तिनापुरे नगरे कुरुदत्तमुतो नामेभ्यपुत्रमाथारूपाणां स्थविराणामन्ति के प्रबजितः, स कदाचित् एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपन्नः, साकेतस्थ नगरस्यादूरसमीपे घरमा (पौरुषी) अवगाढा, तत्रैव प्रतिमा स्थितश्चवरे, तत एकस्मात् % दीप अनुक्रम [७०] Hirwaniorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२२|| नियुक्ति: [१०] (४३) प्रत सूत्रांक ||२२|| Kगामातो गावितो हिरियातो, तेण ओगासेण णीयातो, जाव मग्गमाणा कुढिया आगया, जाव साहू दिवो, तत्थ दुवे पंथा, पच्छा ते ण जाणंति-कयरेण मग्गेण णीयातो?, ते साई पुच्छंति-कयरेण मग्गेण णीयाओ ?, ताहे सो भगवं न वाहरति, तेहिं रुडेहिं न वाहरतित्तिकाऊण तस्स सीसे मट्टियाए पालिं बंधिऊण चियागते अंगारे घेत्तूण सीसे छूढा, गया य, सो भगवं सम्म सहइ ॥ तेन स यथा सम्यक् सोढो नैषिधिकीपरीषहः तथाऽन्यैरपि साधुभिः सहनीय इति ॥ नैषेधिकीतश्च खाध्यायादि कृत्वा शय्यां प्रति निवर्तेतातस्तत्परीषहमाह उच्चावयाहि सिजाहिं, तवस्सी भिक्खू थामवं णाइवेलं विहणिज्जा, पावदिदी विहण्णइ ॥२२॥(सूत्रम्) KI व्याख्या-ऊर्द्व चिता उचा, उपलिसतलायुपलक्षणमेतत् , यद्वा शीतातपनिवारकत्वादिगुणैः शय्यान्तरोपरिलास्थितनोचाः, तद्विपरीतास्ववचाः, अनयोईन्द्वे उच्चावचाः, नानाप्रकारा वोचावचास्वाभिः 'शय्याभिः' वसतिमिः 'तपस्वी' प्रशखतपोऽन्वितो, भिक्षुः प्राग्यत्, 'स्थामवान् शीतातपादिसहनं प्रति सामर्थ्यवान् 'नातिवेलं' खाध्यायादिवेलातिक्रमेण 'विहन्यात् हनेर्गतावपि वृत्तरत्राहं शीतादिभिरभिभूत इति स्थानान्तरं गच्छेत् , यद्वा 'अतिवेलाम्' १ प्रामात् गावो हृताः, तेनावकाशेन नीताः, यावन्मार्गयमाणा हृतगवेषका आगताः, यावत्साधुईष्टः, तत्र द्वौ पन्थानौ, पश्चात्ते न जानन्ति-कतरेण मार्गेण नीताः, ते साधुं पृच्छन्ति- कतरेण मार्गेण नीताः , तदा स भगवान् न व्याहरति, नै रुष्टैनै ध्याहरतीतिकृत्वा | तस्य शीर्षे मृत्तिकया पाली बदा चितागतानङ्गारान गृहीत्वा (ते) शीर्षे क्षिप्ताः, गताच, स भगवान् सम्यक् सहते दीप अनुक्रम [७१]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२३|| दीप अनुक्रम [७२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥११०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२३|| अध्ययनं [२], | अन्यसमयातिशायिनीं मर्यादां - समतारूपामुच शय्यामवाप्याहो ! सभाग्योऽहं यस्येदशी सकल सुखोत्पादिनी मम शय्येति अवचावासौ वा अहो ! मम मन्दभाग्यता येन शय्यामपि शीतादिनिवारिकां न लभे इति हर्षविषादादिना 'न विहन्यात् नोलङ्घयेत् किमित्येवमुपदिश्यत इत्याह-'पावदिट्ठी विन्नइ' ति प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ किं पुनः कुर्यादित्याह Education infamational पइरिकमुवस्सयं लछु, कल्लाणं अदुव पावगं । किमेगरायं करिस्सइ ?, एवं तत्थ हियासए ॥२३॥ ( सूत्रम् ) व्याख्या – 'पइरिकं' ख्यादिविरहितत्वेन विविक्तमन्यावाधं वा 'उपाश्रयं' वसतिं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'कल्याण' शोभनम् 'अदुव'त्ति अथवा 'पाप' पांशुत्कराकीर्णत्वादिभिरशोभनं किं ?, न किश्चित्, सुखं दुःखं चेति गम्यते, एका रात्रिर्यत्र तदेकत्र 'करिष्यति' विधास्यति ? कल्याणः पापको बोपाश्रय इति प्रक्रमः कोऽभिप्रायः ? - केचित् पुरोपचितसुकृता विविधमणिकिरणोद्योतितासु महाधनसमृद्धासु महारजतरजतोपचितभित्तिषु मणिनिर्मितोरुस्तम्भासु तदितरे तु जीर्णविशीर्णभूनकटकस्थूणापटलसंवृवद्वारासु तृणकचवरतुषमूषकोत्करपांशुवुस भस्मविण्मूत्राव सङ्कीर्णासु श्वन कुलमार्जारमूत्रप्रसेकदुर्गन्धियाजन्म वसतिषु वसन्ति मम त्वचैवेयमीदृशी श्वोऽन्या भविष्यतीति किमत्र हर्पेण विषादेन वा ?, मया हि धर्मनिर्वाहाय विविक्तत्वमेवाश्रयस्थान्वेष्यं किमपरेण ?, 'एवमित्यमुना प्रकारेण 'तत्रे' ति कल्याणे पापके वाऽऽश्रये 'अध्यासीत' सुखं दुःखं वाऽधिसहेत, प्रतिमाकल्पिकापेक्षं चैकरात्रमिति, स्थविरकल्पिका निर्युक्ति: [१०७] Forest Use Only ~ 222~ परीपहाध्ययनम् ॥११०॥ ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [१०८-१०९] (४३) प्रत सूत्रांक ||२३|| पेक्षया तु कतिपया रात्रयः, दिवसोपलक्षणं च रात्रिग्रहणमिति सूत्रार्थः ॥२॥ अत्र निर्वेदद्वारम् , इह च अदुव पावर्ग' इति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन् उदाहरणमाह नियुक्तिकारः- . कोसंबी जण्णदत्तो सोमदत्तो य सोमदेवो य । आयरिय सोमभूई दुण्हपि य होइ णायवं ॥१०८॥ सन्नाइगमण वियडवेरग्गा दोवि ते नईतीरे । पाओवगया नईपूरएण उदहिं तु उवणीया ॥ १०९ ॥ व्याख्या-कौशाम्बी यज्ञदत्तः सोमदत्तश्च सोमदेवश्च आचार्यः सोमभूतियोरपि च भवति ज्ञातव्यः, खज्ञातिगमनं विकटवैराग्यात् द्वावपि तौ नदीतीरे पादपोपगती नदीपूरकेणोदधि तूपनीतौ इति गाथाद्वयाक्षरार्थः॥ १०८ 4-१०९ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसे यः, स चायम्| कोसंबीए णयरीए जण्णदत्तो धिज्जाइओ, तस्स दो पुत्ता-सोमदत्तो सोमदेवो य, ते दोऽपि निविण्णकामभोगा पछतिया सोमभूई अणगारस्स अंतिए, बहुस्सुथा बहुआगमा य जाया, ते अन्नया य सन्नायपल्लिमागया, तेसिं मायापियरो उज्जेणि गतेलिया, तहिं च विसए धिजाइणो वियर्ड आवियंति, तेहिं तेसि वियर्ड अन्नेण दवेण मेलेऊण १ कौशाम्ब्यां नगर्या यादतो बिग्जातीयः, तस्य द्वौ पुत्री-सोमदत्तः सोमदेवश्च, ती द्वावपि निविणकामभोगी प्रत्रजितौ सोमभूते| रनगारस्य अन्तिके, बहुश्रुतौ बह्वागमौ च जातो, चौ अन्यदा च संज्ञातपल्लीमागतो, तयोर्मातापितराबुञ्जयिनीं गतौ, तत्र च विषये धिग्जातीया विकटमापिबन्ति, तैस्ताभ्यां विकटमन्येन द्रव्येण मेलयित्वा दीप अनुक्रम [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२४|| नियुक्ति: [१०८-१०९] (४३) प्रत सूत्रांक ||२४|| उत्तराध्य.|| दिणं, केऽवि भणंति-वियर्ड चेव अयाणताण दिणं, तेहिवि य तं विसेसं अयाणमाणेहिं पीयं, पच्छा वियडता का ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः जाया, ते चिंतेति-अम्हहिं अजुत्तं कयं, पमाओ एस, वरं भत्तं पचक्खायंति ते एमाए णदीए तीरे तीसे कट्ठाण उरि पाओवगया, तत्थ अकाले वरिसं जायं, पूरो य आगतो, हरिया, बुज्झमाणा य उदएण समुदं णीया । तेहिं ॥११॥ समं अहियासियं, अहाउयं पालियं, सेजापरीसहो अहियासितो समविसमाहि सेजाहिं । एवं एसो अहियासियबोत्ति ॥ शय्यास्थितस्य तदुपद्रवेऽप्युदासीनस्य तथाविधशय्यातरोऽन्यो वा कश्चिदाकोशेदतस्तत्परीषहमाह-- अकोसेज परो भिक्, न तेसिं पइ संजले। सरिसो होई बालाणं, तम्हा भिक्खून संजले ॥२४॥(सूत्रम्) * व्याख्या-'अक्कोसेज' ति आक्रोशेत्-तिरस्कुर्यात् 'परः' अन्यो धर्मापेक्षया धर्मवाब आत्मव्यतिरिक्तो वा भिक्षु' यति, यथा धिग्मुण्ड ! किमिह त्वमागतोऽसीति !, 'न तेसिं' ति सुपो वचनस्य च व्यत्ययान्न तस्मै 'प्रतिसबलेत्' निर्यातने प्रतिभूतश्चाक्रोशदानतः सवलते, तन्निर्यातनाथ देहदाहलौहित्यप्रत्याक्रोशाभिघातादिभिरग्नि&ा १ दत्तं, केचिदणन्ति-विकटमेव अानानाभ्यां दत्तं, ताभ्यामपि च तद्विशेषमजानानाभ्यां पीतं, पश्चाद्विकटातौं आती, सौ चिन्तयतः -आवाभ्यामयुक्तं कृतं, प्रमाद एषः, वरं भक्तं प्रत्याख्यातमिति ताबेकस्या नद्यास्तीरे तस्याः काष्ठानामुपरि पादपोपगतो, तत्राकाले वर्षा जाता, ॥११॥ ४. पूरश्चागतः, हतौ उपमानौ चोदकेन समुद्रं नीती । ताभ्यां सम्बगध्यासितं, यथायुष्क पालितं, शथ्यापरीषहोऽध्यासितः समविषमामिः शय्याभिः, एवमेषोऽध्यासितव्य इति । दीप अनुक्रम [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२४|| नियुक्ति: [१०८-१०९] (४३) प्रत सूत्रांक ||२४|| वन दीप्येत, सज्वलनकोपमपि न कुर्यादिति सज्वलेदित्युपादानं, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-सदृशः' समानो भवति, सवलन्निति प्रक्रमः, केषां !-'वालानाम्' अज्ञाना, तथाविधक्षपकवत् , यथा-कश्चित् क्षपको देवतया गुणैरावर्जितया दासततमभिवन्यते, उच्यते च-मम कार्यमावेदनीयम् , अन्यदैकन धिरजातिना सह योद्धमारब्धः, तेन च बलवतार क्षुत्क्षामशरीरो भुवि पातितः ताडितश्च, रात्री देवता वन्दितुमायाता, क्षपकस्तूष्णीमास्ते, ततवासी देवतयाऽभिहितो-भगवन् । किं मयाऽपराद्धं, स प्राह-न तस्य त्वया दुरात्मनो ममापकारिणः किञ्चित्कृतं, सा चावादीत्-न मया विशेषः कोऽप्युपलब्धो यथाऽयं श्रमणोऽयं च धिग्जातिरिति, यतः कोपाविष्टौ द्वावपि समानी सम्पन्नाविति, ततः सती प्रेरणेति प्रतिपन्नं क्षपकेणेति । उक्तमेवार्थ निगमयितुमाह-'तम्ह' ति यस्मात्सरशो भवति वालानां तस्मा|द्भिक्षुने सवलेदिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ कृत्योपदेशमाह सोच्चा णं फरुसा भासा,दारुणे गामकंटए।तुसिणीओ उवेक्खिज्जा, ण ताओ मणसी करे॥२५॥(सूत्रम्) ___ व्याख्या-'श्रुत्वा' आकर्ण्य, णमिति वाक्यालङ्कारे 'परुषाः' कर्कशाः 'भाषा' गिरो दारयन्ति मन्दसत्त्यानां संयमविषयां धृतिमिति दारणाः ताः, ग्रामः-इन्द्रियग्रामस्तस्य कण्टका इव प्रामकण्टका:-प्रतिकूलशब्दादयः, कण्टकत्वं चैषां दुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्गप्रवृत्तिविघ्नहेतुतया च, तदेकदेशत्वेन परुषभाषा अपि तथोक्ताः, भाषाविशेषणत्वेऽपि चात्राविष्टलिङ्गत्वात् लिङ्गता, 'तूष्णीकः' तूष्णीशीलो न कोपात् प्रतिपरुषभाषी, एवंविधश्च -- --- दीप अनुक्रम [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२५|| नियुक्ति: [१०८-१०९] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥११२॥ प्रत सूत्रांक ||२५|| जो सहइ हु गामदए अक्कोसपहारतजणाओ यत्ति इत्यागमं परिभावयन् 'उपेक्षेत' अवधीरयेत् , प्रक्रमात्परुष- परीषहाभाषा एव, कथमित्याह-न ता मनसि कुर्यात् , तद्भाषिणि द्वेषाकरणेनेति भाव इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ इदानी || ध्ययनम् मुद्गरद्वारं व्याचिख्यासुः 'सुच्चा णन्ति सूत्रसूचितमुदाहरणमाहरायगिहि मालगारो अजुणओ तस्स भज्ज खंदसिरी।मुग्गरपाणी गोट्टी सुदंसणो वंदओणीइ ॥११॥ व्याख्या-राजगृहे मालाकारोऽर्जुनकस्तस्य भार्या स्कन्दश्रीः मुद्गरपाणिर्यक्षो गोष्ठी सुदर्शनो वन्दको 'निरेति'वन्दनार्थं निर्गच्छतीति गाथाक्षरार्थः ॥ ११ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवगम्यः, स चायम् रायगिहे णयरे अजुणगो नाम मालागारो परिवसति, तस्स मज्जा खंदसिरी णामा, तस्स रायगिहस्स णयरस्स बहिया मोग्गरपाणी नाम जक्खे अजुणगस्स कुलदेवयं, तस्स मालागारस्स आरामस्स पन्थे चेव जक्खो । अन्नया। खंदसिरी भत्तं तस्स भत्तारस्स णेउं गया, अग्गाई पुष्फाई घेर्नु घरं गच्छति, मोग्गरपाणिघरए य ट्ठियाए दुललि-* १ यः सहते प्रामकण्ठकान आक्रोशप्रहारान तर्जनाश्च । २ राजगृहे नगरे अर्जुनो नाम मालाकारः परिवसति, तस्य भार्या स्कन्दश्रीनांनी, तस्माद्राजगृहानगरादहिर्मुद्गरपाणिर्नाम यक्षः अर्जुनस्य कुलदेवता, तस्य मालाकारस्य आरामस्य पथि चैव यक्षः । अन्यदा स्कन्दश्रीः भक्त तस्मै भर्ने नेतुं गता, अनाणि पुष्पाणि गृहीत्वा गृहं गच्छति, गुगरपाणिगृहे च स्थितायां दुर्ललितायां 6 दीप अनुक्रम [७४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२५|| नियुक्ति: [११०] (४३) PORENA प्रत सूत्रांक ||२५|| याए गोट्ठीएहिं छहिं जणेहिं दिहा, ते भणति-एसा अजुणमालागारस्स भजाऽपडिरूवा, गिण्हामो णं, तेहिं सा । गहिया, छवि जणा तस्स जक्खस्स पुरतो भोगे भुंजंति, सोऽवि मालागारो णिचकालमेव अग्गेहि वरेहिं पुप्फेहिं जक्वं अचेइ, अचिउकामो ततो आगच्छद, ताए ते भणिया-एसो मालागारो आगच्छति तो तुम्भे मए किं विसज्जेहिह?, तेहिं। जणायं-एयाए पियं, तेहिं भणियं-मालागारं बंधामो, तेहिं सो बद्धो अबहोडेण, जक्खस्स पुरतो बंधिऊण पुरतो चेव से x भारियं भुजंति, सा य तस्स भत्तारस्स मोहुप्पाइयाई इत्थिसहाई करेइ, पच्छा सो मालागारो चितेति एवं अहं जक्खं पणिचकालमेव अग्गेहिं बरहिं पुप्फेहि अचेमि, तहावि अहं एयस्स पुरतो चेव एवं कीरामि, जइ एत्थ कोइ जक्खो होतो तो अहं न कीरतो, एवं सुबत्तं एवं कर्ट णत्यि एत्थ कोइ मोग्गरपाणी जक्खो, ताहे सो जक्खो अणुकंपंतो १ गोष्ठीकैः पर्जिनदृष्टा, ते भणन्ति-एषाऽर्जुनमालाकारस्य भार्याऽप्रतिरूपा, गृह्णीम एतां, तैः सा गृहीता, पडपि जनास्तस्य यक्षस्य १ पुरतो भोगान मुखन्ति, सोऽपि मालाकारो नित्यकालमेवानवरैः पुष्पैर्यक्षमर्चति, अर्चितुकामस्तत आगच्छति, तया ते भणिताः-एष मालाकार आगरछति तत् यूयं मां किं विसृजत, तैतिम्-एतस्याः प्रियं, तैर्भणित-मालाकार बनीमः, तैः स बद्धोऽवखोटकेन, यक्षस्य पुरतो बद्धा पुरत एव तस्य भार्या भुञ्जन्ति, सा च तस्य भर्तुर्मोहोत्पादकानि स्त्रीशब्दानि करोति, पश्चात् स मालाकारश्चिन्तयति-एनमहं यक्षं नित्यकालमेव अवरैः पुष्पैरर्चयामि, तथाप्य तस्य पुरत एवं लाम्पामि, यवत्र कोऽपि यक्षोऽभविष्यत्तदाऽहं नाक| मिष्यम्, एवं मुव्यक्तमेतत् काष्ठं, नास्यत्र कोऽपि मुद्रपाणियक्षः, तदा स यक्षोऽ नुकम्पयन् दीप अनुक्रम [७४] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [७४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ११३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२५|| अध्ययनं [२], मालागारस्स सरीरमणुपविट्ठो, तडतडस्स बंधे छेत्तूण लोहमयं पलसहस्सनिफन्नं मोग्गरं गहाय अण्णाइट्ठो समाणो ते छप्पि इत्थिसत्तमे पुरिसे घाति, एवं दिने दिने छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएमाणे विहरह, जणवतोऽवि रायगिहातो णगरातो ण ताव णिग्गच्छइ जाव सत्त घातियाई । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं भगवं महावीरे समोसरिए, जाव सुदंसणो सेट्ठी बंदतो णीह, अजुणपण दिट्ठो, सागारपडिमं ठिओ, न तरह अक्कमिउं, परिपेरतेहि भमित्ता परिसंतो, अज्जुणतो सुदंसणं अणमिसाए दिट्ठीए अवलोएद, जक्खोऽवि मोग्गरं गहाय पडिगओ, पडितो अज्जुणतो, उडिओ य तं पुच्छर-कहिं गच्छसि ?, भणइ-सामिं बंदिउं, सोऽवि गतो, धम्मं सोचा पचतितो । रायगिहे Education Intational १ मालाकारस्य शरीरमनुप्रविष्टः, त्रटनटदितिवन्धान् हिरवा लोहमयं सहस्रपलनिष्पन्नं मुद्ररं गृहीत्वा अन्याविष्टः ( परायत्तः ) सन् तान् पढपि स्त्रीसप्तमान् पुरुषान् घातयति, एवं दिने दिने पट् स्त्रीसप्तमान् पुरुषान् घातयन् विचरति, जनपदोऽपि राजगृहात् नगरान्न तावन्निर्गच्छति यावत्सप्त घातितानि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवान् महावीरः समवसृतः यावत् सुदर्शनः श्रेष्ठी बन्दको निरेति, अर्जुनेन दृष्टः, साकारप्रतिमां स्थितः, न शक्नोत्याक्रमितुं परिपर्यन्तेषु भ्रान्त्वा परिश्रान्तः, अर्जुनः सुदर्शनमनिमेषया रक्षा अवलो कयति, यक्षोऽपि मुङ्गरं गृहीत्वा प्रतिगतः पतितोऽर्जुनः, उत्थित तं पृच्छति गच्छसि ?, भगति स्वामिनं वन्दितुं सोऽपि गतः, धर्म श्रुत्वा प्रब्रजितः, राजगृहे निर्युक्तिः [११०] For Fasten ~228~ परीषहाध्ययनम् २ ॥११३॥ www.ncbrary.org v मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [ ७५ ] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२६|| अध्ययनं [२], Education into भिक्खं हिंडतो सयणमारगोत्ति लोएणं अक्कोसिजर णाणापगारेहिं अक्कोसेहिं, सो सम्मं सहद, सहतस्स केवलणाणं समुप्पण्णं ॥ एवमन्यैरपि साधुभिः आक्रोशपरीषहः सोढव्यः ॥ कश्चिदाक्रोशमात्रेणातुध्यन्नधमाधमो वधमपि विदध्यादिति वधपरीषहमाह हओण संजले भिक्खू, मणंपिणो पउस्सए । तितिक्खं परमं णच्चा, भिक्खुधम्मंमि चिंतए ||२६|| (सूत्रम्) व्याख्या- 'हृतः' यष्ट्यादिभिः ताडितो 'न सवलेत् कायतः कम्पनप्रत्याहननादिना वचनतश्च प्रत्याक्रोशदानादिना भृशं ज्वलन्तमिवात्मानं नोपदर्शयेत्, भिक्षुः 'मनः' चित्तं तदपि 'न प्रदूषयेत्' न कोपतो चिकृतं कुर्वीत, किन्तु 'तितिक्षा' क्षमां- 'धर्मस्य दया मूलं न चाक्षमावान् दद्यां समाधते । तस्माद्यः क्षान्तिपरः स साधयत्युत्तमं धर्मम् ॥ १ ॥' इत्यादिवचनतः 'परमा' धर्मसाधनं प्रति प्रकर्षवती 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'भिक्षुधर्मे' यतिधर्मे, यद्वा भिक्षुधर्म क्षान्त्यादिकं वस्तुखरूपं वा चिन्तयेत्, यथा- क्षमामूल एवं मुनिधर्मः, अयं चास्मन्निमित्तं कम्र्मोपचिनोति, अस्मदोष एवायम्, अतो नेमं प्रति कोप उचित इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ अमुमेव प्रकारान्तरेणाह - समणं संजयं दंतं, हण्णिज्जा कोऽवि कत्थवि । नत्थि जीवस्स नासुत्ति, ण तं पेहे असा हुवं ॥२७॥ (सूत्रम् ) १ मिक्षां हिण्डमान: खजनमारक इति लोकेनाक्रोश्यते नानाप्रकारैराक्रोशः स सम्यक् सहते, समानस्य केवलज्ञानं समुत्पन्नम् | For Fans Only निर्युक्तिः [११०] ~ 229~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [ ७६ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ११४ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२७|| अध्ययनं [२], Education infamational व्याख्या--'सम' श्रमणं सममनसं वा - तथाविधवधेऽपि धर्मं प्रति प्रहितचेतसं, श्रमणश्च शाक्यादिरपि स्यादित्याह-'संयतं' पृथ्व्यादिव्यापादननिवृत्तं सोऽपि कदाचिलाभादिनिमित्तं बाह्यवृत्यैव सम्भवेदत आह-'दान्तम्' इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन हन्यात्' ताडयेत्, 'कोऽपि' इति तथाविधोऽनार्यः 'कुत्रापि ग्रामादौ तत्र किं विधेयमित्याहनास्ति 'जीवस्य' आत्मन उपयोगरूपस्य 'नाशः' अभावः, तत्पर्यायविनाशरूपत्वेन हिंसाया अपि तत्र तत्राभिधानाद, 'इती' यस्माद्धेतोः न 'त' मिति घातकं प्रेक्षेत असाधुमर्हति यत्प्रेक्षणं भ्रुकुटिभङ्गादियुक्तं तदसाधुवत्, किन्तु * रिपुजयं प्रति सहायोऽयमितिधिया साधुवदेव प्रेक्षेतेति भावः, अथवा अपेर्गम्यमानत्वान्न तं प्रेक्षेतापि असाधुना तुल्यं वर्त्तते इति असाधुवत् किं पुनरपकारायोपतिष्ठेत् संक्लिश्नाति वा?, असाधुर्हि सत्यां शक्तौ प्रत्यपकारायोपतिष्टते असत्यां तु विकृतया दशा पश्यति सक्लेशं वा कुरुत इत्येवमभिधानं, पठ्यते च-'न य पेहे असाधुयं' ति चकारस्यापिशब्दार्थस्य भिन्नक्रमत्वात् प्रेक्षेतापि न चिन्तयेदपि न, काम् ? 'असाधुत' तदुपरि द्रोहखभावतां, पठन्ति च 'एवं पेहिज्ज संजतो' इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ अधुना वणेत्ति द्वारं, तत्र 'हतो न सज्यलेदि' त्यादि सूत्रमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाहसावत्थी जियसत्तू धारणि देवी य खंदओ पुत्तो। धूआ पुरंदरजसा दत्ता सा दंडईरण्णो ॥ १११ ॥ मुणिसुवयंतेवासी खंदगपमुहा य कुंभकारकडे । देवी पुरंदरजसा दंड पालग मरूए य ॥ ११२ ॥ For Fans Only निर्युक्तिः [११०] ~ 230~ परीषहाध्ययनम् ૨ ॥११४॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२७|| नियुक्ति: [१११-११३] (४३) 48- प्रत सूत्रांक ||२७|| पंचसया जंतेणं वहिआ उ पुरोहिएण रुट्रेणं । रागद्दोसतुलग्गं समकरणं चिंतयंतेहिं ॥ ११३ ॥ व्याख्या-श्रावस्ती जितशत्रुर्धारिणी देवी च स्कन्दकः पुत्रो दुहिता पुरन्दरयशा दत्ता सा दण्डकिराजाय, मुनिसुव्रतान्तेवासिनः स्कन्दकप्रमुखाश्च कुम्भकारकटे देवी पुरन्दरयशा दण्डकिः पालकः मरुकश्च पञ्च शतानि यन्त्रेण घातितानि तुः पूरणे पुरोहितेन रुप्टेन पालकेन रागद्वेषयोस्तुलाप्रमिव-तदनभिभाव्यत्वेन रागद्वेषतुलानं 'समकरणं माध्यस्थ्यपरिणामं भावयद्भिः, खकार्य साधितमिति शेषः, इति गाथात्रयाक्षरार्थः ॥१११-११२-११३॥ भावार्थस्तु । सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् सावत्थीए नयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, तीसे पुत्तो खंदओ णाम कुमारो, तस्स भगिणी पुरंदरजसा, सा लाकुंभकारकडे नयरे दंडगी नाम राया तस्स दिना, तस्स य दंडकिस्स रण्णो पालगो णाम मरुतो पुरोहितो। अन्नया| सावत्थीए मुणिसुवयसामी तित्थयरो समोसरिओ, परिसा निग्गया. खंदतोऽपि निग्गतो, धम्मं सोचा सावगो जाओ। | १ श्रावस्त्यां नगर्चा जितशत्रू राजा, धारिणी देवी, तस्याः पुत्रः स्कन्दको नाम कुमारः, तस्य भगिनी पुरन्दरयशाः, सा कुम्भकारकटे नगरे दण्डकी नाम राजा तस्मै दत्ता, तस्य च दण्डकिनो राज्ञः पालको नाम ब्राह्मणः पुरोहितः । अन्यदा श्रावस्त्यां मुनिसुव्रतस्वामी तीथेकरः समवसृतः, पर्षन्निर्गता, स्कन्दकोऽपि निर्गतः, धर्म श्रुत्वा श्रावको जातः । दीप अनुक्रम [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [ ७६ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥११५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२७|| अध्ययनं [२], अन्न सो पालकमरुतो दूयत्ताए आगतो सावस्थि नयरिं, अत्थाणिमज्झे साहूणं अवणं वयमाणो खंदणं निष्पिट्टपसिणवागरणो कतो, पतोसमावण्णो, तप्पभिरं चैव खंदगस्स छिद्दाणि चारपुरिसेहिं मग्गाविंतो बिहरह जाव खंदगो पंचजणसएहिं कुमारोलग्गएहिं सद्धिं मुणिसुवयसामिसगासे पचतितो, बहुसुतो जातो, ताणि चैव से पंच सयाणि सीसत्ताए अणुष्णायाणि । अन्नया खंदओ सामिमापुच्छह-वथामि भगिणीसगासं, सामिणा मणियंउवसग्गो मारणंतितो, भणइ-आराहगा विराहगा वा १, सामिणा भणियं-सबै आराहगा तुमं मोतुं, सो भणइ-लठ्ठे, जदि एत्तिया आराहगा, गओ कुंभकारकडं, मरुपण जहिं उज्जाणे ठिओ तहिं आउहाणि भूमियाणि, राया बुग्गाहिओ-जहा एस कुमारो परीसहपराइतो एएण उवाएण तुमं मारिता रज्जं गिव्हिहित्ति, जदि ते विपञ्चतो Education intimational १ अन्यदा स पालको ब्राह्मणो दूततायै आगतः श्रावस्तीं नगरीम्, आस्थानिकामध्ये साधूनामवर्ण बदन स्कन्दकेन निष्पृष्टम अव्याकरणः कृतः, प्रद्वेषमापन्नः, तरप्रभृत्येव स्कन्दकस्य छिद्राणि चारपुरुषैर्मायन विहरति यावत्स्कन्दकः पञ्चभिर्जनशतैः कुमारावलगकैः सार्धं मुनिसुव्रतस्वामिसकाशे प्रव्रजितः, बहुश्रुतो जातः साम्येव पञ्च शतानि तस्मै शिष्यतयाऽनुज्ञातानि । अन्यदा स्कन्दकः स्वामिनमापृच्छति - व्रजामि भगिनीसकाशं, स्वामिना भणितम् उपसर्गे मारणान्तिकः, भणति — आराधका विराधका वा १, स्वामिना भणितं सर्वे आराधकास्त्वां मुक्त्वा स भणति-लष्टं ययेतावन्त आराधकाः, गतः कुम्भकारकटं, मरुकेण यत्रोयाने स्थितः तत्रायुधानि गोपितानि, राजा ज्युद्वाहितः यथैष कुमारः परीपद्दपराजित एतेनोपायेन त्वां मारयित्वा राज्यं ग्रहीष्यतीति, यदि तत्र विप्रत्ययः निर्युक्ति: [१११-११३] For Fans Only ~ 232~ परीषहाध्ययनम् २ ॥११५॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२७|| नियुक्ति: [१११-११३] (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| उजाणं पलोएहि, आउहाणि ओलइयाणि दिवाणि, ते बंधिऊण तस्स चेय पुरोहियस्स समप्पिया, तेण सवे परि सजंतेण पीलिया, तेहिं सम्मं अहियासियं, तेसिं केवलणाणं उप्पणं सिद्धा य । खंदतोऽवि पासे धरिओ, लोहियचि8/रिकाहिं भरिजंतो सबतो पच्छा जंते पीलितो णिदाणं काऊण अग्गिकुमारेसु उबवण्णो। तंपि से रयहरणं रुहिरलितं परिसहत्थोत्ति काउं गिद्धेहिं पुरंदरजसाते पुरतो पाडियं.सावितदिवस अधिर्ति करेइ जहा साधू ण दीसंति, तं च णाए| दिट्ठ, पचभिन्नाओ य कंबलो, णिसिजातो छिण्णातो, ताए चेय दिण्णो, ताए नायं-जहा ते मारिया, ताए सिंसितो| राया-पाव ! विणट्ठोऽसि,ताए चिंतियं-पपयामि, देवेहिं मुणिसुच्चयसगास नीया, तेणवि देवेण णगरं दहूं सजणवयं, अजषि दंडगारपणंति भण्णइ । अरण्णस्स य यणाख्या भवति, तेन द्वारगाथायां वनमित्युक्तम् । एत्थ तेहिं साहहिं| १ उद्यानं प्रलोकय, आयुधान्यवलगितानि (गोपितानि ) दृष्टानि, ते बध्वा तस्मायेव पुरोहिताय समर्पिताः, तेन सर्वे पुरुषयरेण पीलिताः, तैः सम्यगध्यासितं, तेषां केवलज्ञानमुत्पन्न सिद्धाध । स्कन्दकोऽपि पावे धृतः, रुधिरच्छटामिनियमाणः सर्वतः पश्चात् यत्रे पी लितो निदानं कृत्वाऽमिकुमारेपूत्पन्नः । तदपि तस्य रजोहरणं रुधिरलिप्तं पुरुषहस्त इतिकृत्वा गृ]ः पुरन्दरयशसः पुरतः पातितं, साऽपि दतद्दिवसेऽधृति करोति यथा साधवो न दृश्यन्ते, तच्चानया दृष्ट, प्रत्यभिज्ञातच कम्बलः, निषद्याश्छिन्नाः, तथैव दत्तः, तया ज्ञातं यथा ते मासरिताः, तया खिसितो राजा-पाप ! विनष्टोऽसि, तथा चिन्तितं-प्रवजामि, देवैर्मुनिसुव्रतसकाशं नीता, तेनापि देवेन नगर दग्धं सजनवजम् । || अद्यापि दण्डकारण्यमिति भण्यते । अरण्यस्य च वनाख्या भवति । अत्र तैः साधुभि 1563 दीप अनुक्रम [७६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२८|| नियुक्ति: [१११-११३] (४३) C बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२८|| 3 उत्तराध्य. वहपरीसहो अहियासितो सम्मं, एवं अहियासेयचं, ण जहा खंधएण णाहियासियं ।। परैरभिहतस्य च तथाविधी- परीषहापधादि प्रासादि च सदोपयोगि यतेर्याचितमेव भवतीति यायापरीषहमाह Hध्ययनम् दुकरं खलु भो ! णिचं, अणगारस्स भिक्खुणो। सवं से जाइयं होइ, नस्थि किंचि अजाइयं ॥२८॥(सूत्रम्) ॥११॥ M व्याख्या-दुःखेन क्रियत इति दुष्कर-दुरनुष्ठानं, खलुर्विशेषणे निरुपकारिण इति विशेष द्योतयति, 'भो' इसूत्यामवणे 'नियं' सर्वकालं, यावजीवमित्यर्थः, अनगारस्य भिक्षोरिति च प्राग्वत्, किं तत् दुष्करमित्याह-यत् 'स-18 म्' आहारोपकरणादि 'से' तस्य याचितं भवति, नास्ति 'किञ्चिद्' दन्तशोधनाद्यपि अयाचितं, ततः सर्वस्यापि है वस्तुनो याचनमिति गम्यमानेन विशेष्येण दुष्करमित्यस्य सम्बन्ध इति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ ततश्च गोयरग्गपविट्ठस्स, हत्थे नो सुप्पसारए । सेओ अगारवासोत्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥२९॥(सूत्रम्) टू व्याख्या-गोरिव चरणं गोचरो, यथाऽसौ परिचितापरिचितविशेषमपहायैव प्रवर्त्तते तथा साधुरपि भिक्षार्थ, तस्यायं-प्रधानं यतोऽसौ एषणायुक्तो गृह्णाति न पुनगौरिख यथा कथञ्चित् , तस्मिन् प्रविष्टो गोचरायप्रविष्टः तस्य, ॥११६॥ 'पाणिः' हस्तो 'नो' नैव सुखेन प्रसार्यते पिण्डादिग्रहणार्थ प्रवर्त्यत इति सुप्रसारः स एव सुप्रसारकः, कथं हि नि-17 १ वधपरीपहोऽध्यासितः सम्यक, एवमध्यासितव्यं, न यथा स्कन्दकेन नाध्यासितम् । दीप अनुक्रम [७७] %25- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||२९|| नियुक्ति : [११३...] (४३) C प्रत सूत्रांक ||२९|| ONTACRORGANGANGA रुपकारिणा परः प्रतिदिन प्रणयितुं शक्यः, उत्तरतिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाद् 'इती'त्यस्माद्धेतोः 'श्रेयान्' अतिशयप्रशस्यः 'अगारवासो' गार्हस्थ्यं, तत्र हि न कश्चिद्याच्यते, खभुजार्जितं च दीनादिभ्यः संविभज्य भुज्यते, 'इतीयेतद्भिक्षुःन चिन्तयेद, यतो गृहवासो वहुसावधो निरवद्यवृत्त्यर्थं च तत्परित्यागः, ततः वयंपचनादिप्रवृत्तेभ्यो गृहिभ्यः पिण्डादिग्रहणं न्याय्यमिति भाव इति सूत्रार्थः ॥२९॥ साम्प्रतं रामद्वारं, तत्र 'दुकरं खलु भो ! णिचं' इति । सूत्रमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह - जायणपरीसहमि बलदेवो इत्थ होइ आहरणं । व्याख्या-याचापरीषहे बलदेवोऽत्र भवत्याहरणम्-उदाहरणम् । अत्र सम्प्रदाय: जया सो वासुदेवसवं वहतो सिद्धत्येणं पडिबोहिओ कण्हस्स सरीरगं सकारेउं कयसामातितो लिंग पडिवजिउ तुंगीसिहरे तवं तप्पमाणो माणेण-कहि भिवाण भिक्खडं अल्लीसं ?, तेण कट्ठाहाराईण भिक्खं गिण्हइ, न गामं नयरं वा अल्लियति । तेण सो णाहियासितो जायणापरीसहो, एवं न कायब्वं, अन्ने भणंति-बलदेवस्स भिक्खं | १णोऽपरतः .... क्यम् २ यदा स वासुदेवशव वहन सिद्धार्थेन प्रतियोधितः कृष्णस्य शरीरकं सत्कार्य (संस्कृत्य ) कुवसामायिको लिङ्गं प्रतिपद्य तुङ्गिशिखरे तपः तपन मानेन-क भृत्यान् भिक्षार्थमाश्रयिष्ये ?, तेन काष्ठाहारकादिभ्यो भिक्षा गृहाति, न प्रामं नगरं वाऽऽभयते । तेन स माध्यासितो याचनापरीधहः, एवं न कर्तव्यम् । अन्ये भणन्ति-बलदेवस्य भिक्षा दीप अनुक्रम [७८] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥११७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३०|| अध्ययनं [२], भमंतस्स बहुओ जणो तस्स रूपेणावखित्तो ण किंचि अन्नं जाणइ, तचित्तो चैव चिह्न, तेण सो न हिंडह गामा- | गरादि, जहागयपहियाहिंतो चेव भिक्खं जायतित्ति, एस जायणापरीसहो पसत्थो । एवं शेषसाधुभिरपि याज्या| परीपहः सोढव्यः ॥ याज्याप्रवृत्तथ कदाचिल्लाभान्तरायदोपतो न लभेतापीत्यलाभपरीपहमाह परेसु गास मेसिज्जा, भोयणे परिणिट्टिए । लद्धे पिंडे आंहरिजा, अलद्धे नाणुतप्पए ॥३०॥ (सूत्रम् ) व्याख्या - 'परेषु' इति गृहस्थेषु 'ग्रास' कबलम् अनेन च मधुकरवृत्तिमाह, 'एपयेद्' गवेषयेत्, भुज्यत इति भोजनम् - ओदनादि तस्मिन् 'परिनिष्ठिते' सिद्धे, मा भूत्प्रथमगमनात्तदर्थं पाकादिप्रवृत्तिः, ततश्च 'लब्धे' गृहिभ्यः प्राप्ते 'पिण्डे' आहारे 'अलब्धे वा' अप्राप्ते वा नानुतप्येत संयतः, तद्यथा - अहो ! ममाधन्यता यदहं न किञ्चिलभे, उपलक्षणत्वालब्धे वा लब्धिमानहमिति न हृप्येत्, यद्वा लब्धेऽप्यल्पेऽनिष्टे वा सम्भवत्येवानुताप इति सूत्रार्थः॥ ३० ॥ किमालम्बनमालम्ब्य नानुतप्येतेत्याह अजेवाहं ण लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंविक्खे, अलाभो तं न तज्जए ॥३१॥ (सूत्रम्) Education intimational निर्युक्तिः [११३...] १ भ्राम्यतो बहुजनस्तस्य रूपेणाक्षिप्तः न किञ्चिदन्यत् जानाति, तचित्तचैव तिष्ठति, तेन स न हिण्डते प्रामाकरादिषु यथागतपधिकादिभ्य एव भिक्षां याचते इति, एप याचनापरीपहः प्रशस्तः । २ अलद्धे वा नाणुतप्पेन संजय (टीका) For Fans Only ~236~ परीपहाध्ययनम् २ ॥११७॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११३...] (४३) * प्रत सूत्रांक * * ||३१|| व्याख्या-'अद्यच' अस्मिन्नेवाहन्यहं 'न लभे' न प्राप्नोमि, 'अपिः' सम्भावने, सम्भाव्यत एतत् 'लाभः' प्राप्तिः| 'ब' आगामिनि दिने 'स्याद् भवेत् , उपलक्षणं श्व इत्यन्येधुरन्यतरेधुर्वा मा वा भूदित्यनास्थामाह, य एवम्' उक्तप्रका-18 रेण 'पडिसंविक्खें' ति प्रतिसमीक्षतेऽदीनमनाः अलाभमाश्रित्यालोचयति, 'अलाभः' अलाभपरीपहः तं 'न तर्ज-18 यति' नाभिभवति, अन्यथाभूतस्त्वभिभूयत इति भावः ॥ ३१ ॥ अत्र लौकिकमुदाहरणम् वासुदेवपलदेवसबगदारुगा अस्सबहिया अडवीए नग्गोहपायवस्स अहे रतिं वासोक्गया, जामग्गहणं, दारुगस्स पढमो जामो, कोहो पिसायरूवं काऊण आगतो, दारुगं भणइ-आहारत्थीऽहं उवागओ, एए सुत्ते भक्खयामि, युद्धं वा देहि, दारुगेण भणियं-बाद, तेण सह संपलग्गो, दारुगो य तं पिसायं जहा जहा न सकेइ णिहणिउं तहा है। |तहा रुस्सति, जहा जहा रस्सद तहा तहा सो कोहो बहुति, एवं सो दारुगो किच्छपाणो तं जामगं निचाहेइ, प-121 च्छा सचगं उहावेइ, सचगोऽवि तहेव पिसाएण किच्छपाणो कतो, ततिए जामे बलदेवं उहवेइ, एवं बलदेवोऽपि १ वासुदेवबलदेवसत्यकदारुका अश्वापहृता अटल्या न्यग्रोधपादपस्वाधो रात्री वासभुपागताः, यामग्रहणं, दारुकस्य प्रथमो यामः, क्रोधः | |पिशाचरूपं कृत्वाऽऽगतः, दारुक भणति-आहारार्थ्यहमुपागतः, एतान् सुप्रान् भक्षयामि, युद्धं वा देहि, दारुकेण भणितं-बाडं, तेन सह | संप्रलग्नः, दारुकश्च तं पिशाचं यथा यथा न शक्नोति निहन्तुं तथा तथा रुष्यति, यथा यथा रुष्यति तथा तथा स क्रोधो वर्धते, एवं स दारुकः कृच्छ्र-1 प्राणस्त याम निर्वहति, पश्चात्सत्यकमुत्थापयति, सत्यकोऽपि तथैव पिशाचेन कृच्छ्रप्राणः कृतः, तृतीये यामे बलदेवमुत्थापयति, एवं बलदेवोऽपि दीप अनुक्रम *** * [८०] * * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११४] (४३) प्रत सूत्रांक ||३१|| उत्तराध्य चउत्थे जामे वासुदेवं उट्ठवेइ, वासुदेवो तेण पिसाएण सहेव भणितो, वासुदेवो भणति-मं अणिजिउं कहं मम स-II परीषहा हाए खाहिसि ?, जुद्धं लग्गं, जहा जहा जुज्झइ पिसाओ तहा तहा वासुदेवो अहो बलसंपुण्णो अयं मल्लो इति ध्ययनम हतूसए, जहा जहा तूसए तहा तहा पिसाओ परिहायति, सो तेण एवं खविओ जेण घेत्तुं उयट्टीए छूढो, पभाए ॥११॥ पस्सए ते भिन्नजाणुकोप्परे, केणंति पुठ्ठा भणति-पिसाएण, वासुदेवो भणति-स एस कोवो पिसायरूपधारी मया पसंतयाए जितो, उयहिणीए णीणेऊण दरिसिओ । इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति 'पुरे'तिद्वारं, 'पुरा' इति पूर्वस्मिन् काले कृतं कर्मेति गम्यते, तत्र च 'णाणुतप्पेज्ज संजएत्ति' सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह किसिपारासरढंढो अलाभए होइ आहरणं ॥ ११४ ॥ व्याख्या-कृषिप्रधानः पारासरः कृषिपारासरो जन्मान्तरनाम्ना 'ढण्ढ' इति ढण्ढणकुमारः 'अलाभके' अलाभ| परीषहे भवत्याहरणमिति गाथापश्चार्धाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्६१ चतुर्थे यामे वासुदेवमुत्थापयति, वासुदेवस्तेन पिशाचेन तथैव भणितः, वासदेवो भणति-मामनिर्जित्य कथं भग सहायान् भविष्यसि ?, युद्ध लमं, यथा यथा युध्यते पिशाचस्तथा तथा वासुदेवः अहो बलसंपन्नोऽयं मल्ल इति तुष्यति, यथा यथा तुष्यति तथा तथा पिशाचः परि-II ॥११८॥ हीयते, स तेनैवं अपितः वेन गृहीत्वा कट्यां (जवायां) क्षितः, प्रभाते तान् भिन्नजानुकूपरान् पश्यति, केनेति पृष्टा भणन्ति-पिशाचेन, दवासुदेवो भणति-स एप कोपः पिशाचरूपधारी मया प्रशान्ततया जितः, जलाया निष्काश्य दर्शितः । दीप अनुक्रम [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११४] (४३) % % % प्रत सूत्रांक ||३१|| % एगंमि गामे एगो पारासरो नाम, तम्मि य अन्ने पारासरा अत्थि, सो पुण किसीए कुसलो अहवा सरीरेण किसो तेणं किसिपारासरो, सो य तम्मि गामे आउत्तियं राउलियं चरिं वाहेइ, ते य गोणादी दिवसं छापल्लया भत्तवेलं पडिच्छंति, पच्छा ते भत्तेवि आणीए मोएउकामे भणइ-एकेक हलबंभं देह, तो पच्छा भुंजह, तेहिं छहिंवि हलसएहि बहुयं वाहियं, तेण तहिं बहुयं अंतराइयं बद्धं, मरिऊण य सो संसारं भमिऊण अनेण सुकयविसेसेण वासुदेवस्स। पुत्तो जातो ढंढोत्ति, अरिहनेमिसयासे पचइतो, (ग्रन्थानम् ३०००) अंतरायं कम उदिन्नं, फीयाए बारवईए हिंडतो र न लभति, कहिचिवि जया लभति तदा जंवा तं वा, तेण सामी पुच्छितो, तेहिं कहियं जहावत्तं, पच्छा तेण अभिग्गहो गहितो, जहा-परस्स लाभो न गिण्हियन्यो । अन्नया वासुदेवो पुच्छइ तित्थयरं-एएसिं अट्ठारसण्हं समणसाह १ एकस्मिन् प्रामे एका पाराशरो नाम, तस्मिंश्चान्ये पाराशराः सन्ति, स पुनः कृषौ कुशलोऽथवा शरीरेण कृशस्तेन कृषिपाराशरः। (कृशपाराशरः), स च तस्मिन् प्रामे आयुक्तिक राजकुलिक चारिं बाहयति, ते च गवादयो दिवसे छायार्थिनः भक्तबेला प्रतीच्छन्ति, | पश्चातान भक्तेऽपि आनीते मोक्तुकामान भणति-एकैक हलकर्ष दत्त ततः पश्चात भुवं, तैः पतिरपि हलशरीर्षहु वाहितं, तेन बहु तत्रान्तराविकं | बद्धं, मृत्वा च स संसार भ्रान्त्वा अन्येन सुकृतविशेषेण वासुदेवस्य पुत्रो जातो डण्ड इति, अरिष्टनेमिनः सकाशे प्रबजितः, अन्तरायं कर्मोदीर्ण, ६ स्फीतायां द्वारिकायां हिण्डमानो न लभते, कचिदपि यदा लभते तदा यद्वा तद्वा, तेन स्वामी पृष्ठः, : कथितं यथावृत्तं, पश्चात् तेनाभिग्रहो गृहीतः, यथा-परस्य लाभो न ग्रहीतव्यः । अन्यदा वासुदेवः पृच्छति तीर्थकरम्-एतस्यामष्टादशश्रमणसाहस्या % दीप अनुक्रम [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११४] (४३) प्रत सूत्रांक 253 ||३१|| उत्तराध्य. स्सीणं को दुकरकारतो?, तेहिं भणियं, जहा-ढंढो अणगारो, अलाभपरीसहो कहिओ, सो कहिं?, सामी भणइ-णगरि परीपहा पविसंतो पेच्छिहिसि, दिठ्ठो पविसंतेणं, हत्धिखंधाओ ओवरिऊण बंदिओ, सो य इकेण इभेण दिट्ठो, जहा महप्पा ध्ययनम् बृहद्वृत्ति एस जो वासुदेवेण वंदितो, सो य तं चेव घरं पविट्ठो, तेण परमाए सद्धाए मोयगेहि पडिलाभितो, भमिऊण सा॥११९॥ मिस्स दावइ पुच्छइ य-जहा मम अलाभपरीसहो खीणो, पच्छा सामिणा भण्णति-ण खीणो, एस वासुदेवस्स लाभो, तेण परलाभ न उवजीवामित्तिकाउं अमुच्छियस्स परिठ्ठवितस्स केवलणाणं समुप्पण्णं । एवं अहियासियब्यो अलाभपरीसहो जहा ढंढेण अणगारेण ॥ अलाभाचान्तप्रान्ताशिनां कदाचिद्रोगाः समुत्पद्येरनिति रोगपरीषहमाहणच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेदणाए दुहट्टिए । अदीणो ठावए पण्णं, पुटो तत्थऽहियासए ॥३२॥(सूत्रम्) ___ व्याख्या-'ज्ञात्या' अधिगम्य 'उत्पत्तिकम् ' उद्भूतं, दुःखयति इति दुःखः प्रस्तावात् ज्वरादिरोगस्तं 'वेदनया' को दुष्करकारकः!, तैर्भणितं यथा-ढवणोऽनगार:, अलाभपरीषहः कथितः, सक?, स्वामी भणति-नगरी प्रविशन प्रेक्षयिष्यसे, दृष्टः2 दप्रविशता, इस्तिस्कन्धाववतीय वन्दितः, स चैकेनेभ्येन दृष्टो, यथा महात्मैष यो वासुदेवेन बन्दितः, स च तदेव गृहं प्रविष्टः, तेन परमया ४ श्रद्धया मोदकैः प्रतिलम्भितः, भ्रान्त्वा खामिने दर्शयति, पृच्छति च-यथा ममालाभपरीषहः क्षीणः १, पश्चात् स्वामिना भण्यते-न क्षीणः ॥११॥ एष वासुदेवस्य लाभः, तेन परलाभं नोपजीवामीतिकृत्वाऽमूर्छितस्य परिष्ठापयतः केवलज्ञानं समुत्पन्नम् । एवमध्यासितव्योऽलाभपरीषहो यथा उण्टेनानगारेण दीप अनुक्रम [८०] ES मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३२|| अध्ययनं [२], स्फोट पृष्ठग्रहाद्यनुभव रूपया दुःखेनात्तः- पीडितः क्रियते स्म दुःखार्चितः एवंविधोऽपि 'अदीनः' अविक्लवः ' स्थापयेत्' दुःखार्चितत्वेन चलन्तीं स्थिरीकुर्यात् 'प्रज्ञा' स्वकर्मफलमेवैतदिति तत्त्वधियं, 'स्पृष्ट' इत्यपेर्तुसनिर्दिष्टत्वात् व्याप्तोऽपि राजमन्दादिभिः, यद्वा पुष्ट इव पुष्टो व्याधिभिरविक्लवतया 'तत्रेति' प्रज्ञास्थापने सति रोगोत्पाते वा 'अध्यासीत' अधिसहेत, प्रक्रमाद्रोगजनितदुःखमिति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ स्यादेतत्-चिकित्सया किं न तदपनोदः क्रियते ? इत्याह तेगिच्छं नाभिनंदिजा, संचिक्खऽत्तगवेसए। एयं खु तस्स सामवणं, जं न कुज्जा न कारवे ॥३३॥ (सूत्रम् ) Education infamational व्याख्या- 'चिकित्सा' रोगप्रतिकाररूपां 'नाभिनन्देत् ' नानुमन्येत अनुमतिनिषेधाच दुरापास्ते करणकारणे, 'समीक्ष्य' स्वकर्मफलमेवैतत् भुज्यत इति पर्यालोच्य यद्वा 'संचिक्ख'त्ति 'अवां सन्धि लोपो बहुलमि' कारलोपे 'संचिक्खे' समाधिना तिष्ठेत, न कूजनकर्करायतादि कुर्यात्, आत्मानं - चारित्रात्मानं गवेषयति-मार्गयति कथमयं मम स्यादित्यात्मगवेषकः, किमित्येवमत आह- 'एतद्' अनन्तरमभिधास्यमानं 'खु'ति खलु, स च यस्मादर्थः, ततो यस्मादेतत् 'तस्य' श्रमणस्य 'श्रामण्यं' श्रमणभावो यन्न कुर्यान्न कारयेत् उपलक्षणत्वान्नानुमन्येत्, प्रक्रमात् चिकित्सां, जिनकल्पिकाद्यपेक्षं चैतत्, स्थविरकल्पापेक्षया तु 'जं न कुजा' इत्यादी सावद्यमिति गम्यते, अयमत्र निर्युक्ति: [११४] For Fans Only ~ 241~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११५] (४३) प्रत सूत्रांक ||३३|| उत्तराध्य. भावः-यस्मात्करणादिभिः सायद्यपरिहार एव श्रामण्यं, सावद्या च प्रायश्चिकित्सा, ततस्तां नाभिनन्देद्, एतदप्यो- परीपहा त्सर्गिकम् , अपवादतस्तु सावद्याऽप्येषामियमनुमतैव, यदुक्तम्-"काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण या बृहद्वृत्तिः उज्जमिस्सं । गणं व णीतीइ पि सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ इदानीं| ॥१२॥ भिक्षेति द्वारं, तत्र च 'तिगिच्छं णाहिणंदिजा' इति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह महुराइ कालवेसिय जंबुय अहिउत्थ मुग्गसेलपुरं । राया पडिसेहेइ जंबुयरूवेण उवसग्गं ॥ ११५ ॥ व्याख्या-मथुरायां कालवेसिको जम्बुकोऽभ्युषितो मुद्सेलं पुरं राजा प्रतिषेधयति जम्बुकरूपेण उपसर्गमिति । गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु सम्प्रदायावगम्यः, स चायम् महुराए जियसन्तुणा रण्णा काला नाम वेसाऽपडिरूवंति काउं ओरोहे छूढा, तीसे पुत्तो कालाए कालवेसिओ कुमारो, सो तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोऊण पवतितो, एगलविहारपडिमं पडिवण्णो, गतो मुग्गसेलपुरं, १ करिष्याम्यच्छित्तिमथवाऽभ्येष्ये तपोवि (पउप) धानेषु चोयस्यामि । गणं वा नीत्या अपि सारयिच्यामि, सालम्बसेवी समुपैति मोक्षम|॥१२०॥ दा(शुद्धिम् ) ॥ १ ॥२ मथुरायां जितशत्रुणा राज्ञा कालानानी वेश्याऽप्रतिरूपेतिकृत्वाऽवरोधे क्षिप्ता, तस्याः पुत्रः कालायाः कालवेशिकः | कुमारः, स तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके प्रत्रजितः, एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपन्नः, गतो मुद्गशैलपुरं, दीप अनुक्रम [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११५] (४३) प्रत सूत्रांक ||३३|| तिहिं तस्स भगिणी हयसनुस्स रण्णो महिला, तस्स साहुस्स अरसिया, ततो तीए भिक्खाए सह ओसई दिन्नं, सो य अहिगरणंति भत्तं पचरुखाति । तेण य कुमारत्ते सियालाणं सह सोऊण पुच्छिया ओलग्गिया-केसि एस सद्दो || सुचति , ते भणति-एए सियाला अडविवासिणो, तेण भण्णति-एए बंधिऊण मम आणेह, तेहिं सियालो बंधिऊण आणितो, सो तं हणइ, सो हम्मतो खिंखिएइ, ततो सो रतिं विंदाइ, सो सियालो हम्मतो मतो, अकामणिजराए पाणमंतरो जाओ, तेण वाणमंतरेण सो भत्तपचक्खातो दिट्टो, ओहिणा आभोइओ, इमो सोत्ति आगंतूण सपिलिय सियालिं विरचिऊण खिंखियंतो खाइ, राया तं साधं भत्तपचक्खाययंतिकाउं रकखावेति पुरिसेहिति, मा कोइ से उबसगं करिस्सइत्ति, जाव ते परिसा तं थाणं ऐंति ताय तीए सीआलीए खइतो, जाहे ते पुरिसा ||४|| । १ तत्र तस्य भगिनी हतशत्रो राज्ञो महिला, तम्य साधोरासि, ततस्तया भिक्षया सहौषधं दत्त, स चाधिकरणमिति भक्तं प्रत्याख्याति । बातेन च कुमारत्वं शृगालानां शरद श्रुत्वा पृष्टा अवलगका:-केषामेष शब्दः श्रयते, ते भणन्ति-एते शृगाला अटवीवासिनः तेन भण्यतन |एतान् बद्धा मम (पाधे) आनयत, तैः शगालो बवाऽऽनीता, स तं हन्ति, सहन्यमानः खिखिकरोति, ततः स रति विन्दति, स शृगालो हन्यमानी मृता, अकामनिर्जरया व्यन्तरो जाता, तेन व्यन्तरेण स प्रत्याख्यातभक्तो दृष्टः, अवधिनाऽऽभोगिता, अयं स इत्यागस सबालकां शृगाली विकुळ (विरच्य, खिशिर्वन् खादति, राजा तं साधं प्रत्याख्यातभक्त इतिकृता रक्षयति पुरुषैः, मा कश्चित्तस्थापसग करिष्यतीति (कार्षीदिति), यावत्ते पुरुषास्तत् स्थानमायान्ति तावत्या शृगाल्या खादितः, यदा ते पुरुषाः दीप अनुक्रम [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३४|| नियुक्ति: [११५...] (४३) परीपहाध्ययनम् राध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१२॥ प्रत सूत्रांक ||३४|| ओस्सरिया ताहे सई करेंती खाति, जाहे आगया ताहे न दीसति, सोऽपि उबसग्गं सम्म सहति खमति, एवं अहियासेयव्वं ॥ रोगपीडितस्य शयनादिषु दुःसहतर(तृणस्पर्श इत्येतदनन्तरं तत्परीपहमाहअचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सुयमाणस्स, हुजा गायविराहणा ॥३४॥(सूत्रम्) व्याख्या- अचेलकस्य रूक्षस्य संयतस्य तपखिन इति प्राग्बत् , तरन्तीति तृणानि-दर्भादीनि तेषु शयानस्योपलक्षणत्वात् आसीनस्य वा भवेत् गात्रस्य-शरीरस्य विराधना-विदारणा गात्रविराधना, अचेलकत्वादीनि तु तपखिविशेषणानि मा भूत्सचेलस्य तृणस्पर्शासम्भवेनारूक्षस्य तत्सम्भवेऽपि स्निग्धत्वेनासंयतस्य च शुपिरहरिततृणोपादानेन तथाविधगात्रविराधनाया असम्भव इति ॥ ३४ ॥ ततः किमित्याहआयवस्स निवाएणं, तिदुला हवइ वेयणा। एयं णच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतजिया ॥३५॥(सूत्रम्) व्याख्या-'आतपस्य' धर्मस्य नितरां पातो निपातस्तेन 'तिउल' ति सूत्रत्वात्तौदिका, यद्वा श्रीन्-प्रस्तावात् मनोवाकायान् विभाषितण्यन्तत्वात् चुरादीनां दोलतीव स्वरूपचलनेन त्रिदुला, पाठान्तरस्तु-अतुला विपुला वा भवति वेदना, एवं च किमित्याह-'एतद्' अनन्तरोकं पाठान्तरतः 'एवं' ज्ञात्वा 'न सेवन्ते' न भजन्ते, आस्तर१ अपसूतास्तदा शब्दं कुर्वती खादति, यदा आगताः तदा न दृश्यते, सोऽप्युपसर्ग सम्यक् सहते क्षमते, एवमध्यासितव्यम् । दीप अनुक्रम [८३] & ॥१२॥ 2016 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३५|| नियुक्ति: [११६] (४३) प्रत सूत्रांक CAS ||३५|| णायेति गम्यते, तन्तुभ्यो जातं तन्तुजं, पठ्यते च-तंतय'ति तत्र तत्रं-वेमविलेखन्याञ्छनिकादि तस्माजातं । तब्रजम् , उभयत्र पखं कम्बलो वा, तृणस्तर्जिताः-निर्भसिंताः तृणतर्जिताः, किमुक्तं भवति ?-यद्यपि तणैरत्यन्त-IM विलिखितशरीरस्य रविकिरणसम्पर्कसमुत्पन्नखेदवशतः क्षतक्षारनिक्षेपरूपैव पीडोपजायते तथाऽपि-प्रदीप्ताङ्गारकल्पेषु, बजकुण्डेष्वसन्धिपु । कूजन्तः करुणं केचित् , दह्यन्ते नरकामिना ॥१॥ अग्निभीताः प्रधायन्तो, गत्वा वैतरणी नदीम् । शीततोयामिमां ज्ञात्वा, क्षाराम्भसि पतन्ति ते ॥२॥ क्षारदग्धशरीराश्च, मृगवेगोत्थिताः पुनः । असिप वन यान्ति, छायायां कृतबुद्धयः॥ ३ ॥ शक्त्यष्टिप्रासकुन्तैश्च, खड्गतोमरपट्टिशैः। छिद्यन्ते कृपणास्त्र, पतनिर्यातकम्पितैः ॥ ४॥' इत्यादिका रौद्रतरा नरकेषु परवशेन मयाऽनुभूता वेदनातत्कियतीयं ?, भूयांच लाभः स्ववशस्य सम्यक् सहन इति परिभावनातो न तत्परिजिहीर्षया वस्त्रं कम्बलादिकमुपाददते, जिनकल्पिकापेक्षं चैतत् , ४ स्थविरकल्पिकाश्च सापेक्षसंयमत्वात्सेवन्तेऽपीति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ अत्र संस्तारद्वारमनुसरन् 'तिउला हवइ वेयण'त्ति सूत्रसूचितमुदाहरणमाहसावत्थीइ कुमारो भद्दो सो चारिओत्ति वेरज्जे । खारेण तच्छियंगो तणफासपरीसहं विसहे ॥११॥ 1 व्याख्या-श्रावस्त्यां कुमारो भद्रः स 'चारिकः' चर इति वैराज्ये क्षारेण तक्षिताङ्गः तृणस्पर्शपरीपहं 'विसहे'त्ति है। विषहते, स्मेति विशेष इति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायावसेयः, स चायम् दीप अनुक्रम [८४] SACREC% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र सूत्रान्ते यत् ||११७||” मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र ||११६|| एव वर्तते ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३५|| नियुक्ति: [११६] (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| उत्तराध्य. सावत्थीए नयरीए जियसत्तू रपणो पुत्तो भद्दो नाम, सो निविषणकामभोगो तहारूवाणं थेराणमंतिते पवतितो, परीपहाकालेण य एगलविहारपडिमं पडिवण्णो, सो विहरतो वेरजे चारिउत्तिकाऊण गहिओ, सो य पंतायेऊण खारेण ध्ययनम् बृहद्वृत्तिःपटातच्छिओ, सो दम्भेहिं वेढिऊण मुको, सो दम्भेहिं लोहियसंमीलिएहिं दुक्खाविजंतो सम्म सहइ । एवं शेषसाधु॥१२॥ भिरपि सम्यक् सोढग्यः तृणस्पर्शपरीपहः ॥ तृणानि च मलिनान्यपि कानिचित् स्युरिति तत्सम्पकोत् खेदतो I विशेषेण जलसम्भव इत्यनन्तरं तत्परीषहमाहकिलिन्नगाए पंकेणे, मेहावी व रएण वा। प्रिंसु वा परितावेणं, सायं नो परिदेवए ॥३६॥ (सूत्रम्) व्याख्या-क्लिन्नमनेकार्थत्वाद्धातूनां निचितं पाठान्तरतः क्लिष्टं वा-बाधितं गात्रं-शरीरमस्येति क्लिन्नगात्रः क्लिएगात्रो या, मेधावी-बाहितो वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थइ । वोकतो होइ आयारो, जढो हवइ संज-| मो॥१॥' इत्यागममनुस्मरन्न स्नानरूपमर्यादानतिवर्ती, केन पुनः क्लिन्नगात्रः क्लिष्टगात्रो वेत्साह-पकेन' ।१ श्रावस्त्यां नगर्या जितशत्रो राज्ञः पुत्रो भद्रो नाम, स निर्विण्णकामभोगः तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके प्रत्रजितः, कालेन चैकाकि-11 [विहारप्रतिमा पतिपन्नः, स विहरन वैराग्य चारिक इतिकृत्वा गृहीतः स च पीडयित्वा (पियित्वा) तक्षितः (सिक्तः) क्षारण, स दवेष्टयित्वासा मुक्तः, सदमैं रुधिरसंमिलितैर्दुःश्यमानः सम्यक् सहते । २ ब्याधिमान् वाऽरोगो वा सानं यस्तु प्रार्थयते । व्युत्क्रान्तो भवत्याचारस्त्यक्तो | भवति संयमः ॥ २॥ SARDA%ESCAMPCAT दीप अनुक्रम [८४] JABERatin intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [८५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३६|| अध्ययनं [२], वा खेदाईमलरूपेण 'रजसा' या तेनैव काठिन्यं गतेन पांशुना वा, भिन्नकालत्वाच्चानयोर्वा ग्रहणं, 'धिंसु व 'ति ग्रीष्मे, वाशब्दाच्छरदि वा, परि:- समन्तात्तापः परितापस्तेन, हेतौ तृतीया, किमुक्तं भवति ? - परितापाठयवेदः प्र| स्वेदाच पङ्करजसी ततः क्लिन्नगात्रता क्लिष्टगात्रता वा भवति, एवंविधश्च किमित्याह - 'सातं' सुखम् आश्रित्येति शेषः 'नो परिदेवेत्' न प्रलपेत्-कथं कदा वा ममैवं मलदिग्धदेहस्य सुखानुभवः स्यात् १, इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ किं तर्हि कुर्यादित्याह - Education intemational वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मणुत्तरं । जाव सरीरभेओत्ति, जलं कारण धारए ॥ ३७ ॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'वेदयेत्' सहेत, जलजनितं दुःखमिति प्रक्रमः कीदृशः सन् इत्याह-निर्जरणं निर्जरा-कर्मणामात्यन्तिकः क्षयस्तामपेक्षते - कथं ममासौ स्यादित्यभिलपतीति निर्जरापेक्षी, क एवं कुर्यादित्याह - आराद्धेयधर्मेभ्यो यात इत्यार्यस्तं 'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं नास्त्युत्तरं प्रधानमन्यदस्मादित्यनुत्तरस्तं गम्यमानत्वात् प्रसन्नो-भावभिक्षुरित्यर्थः सम्प्रति सामथ्र्यक्तमध्यर्थमादरख्यापनाय निगमनव्याजेन पुनराह - 'जाब सरीरभेओ' ति सूत्रत्वात् 'यावत्' इति मर्यादायां शरीरस्य भेदो - विनाशस्तं मर्यादी कृत्य, किमित्याह-'जल' कठिनतापन्नं मलम् उपलक्षणत्वात् पङ्करजसी च 'कायेन' शरीरेण धारयेत, दृश्यन्ते हि केचिदिन्द्राग्निदग्धानीय गिरिशिखराणि विच्छाय कृष्ण देहाः शीतोष्णवातातपादिभिः परिशोषितपरिदग्धोपहतशरीराः रजोऽवगुण्डितमलदिग्धदेहाः, अकामनिर्जरातश्च न कश्चित्तेषां निर्युक्ति: [११६] For Fans Only ~ 247~ www.r मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३७|| नियुक्ति: [११७] (४३) प्रत सूत्रांक ||३७|| उत्तराध्य. गुणो, मम तु सम्यक् सहमानस्य महान् गुण इति मत्वा न तदपनयनाय लानादि कुर्यात् , यतः-"न शक्यं परीषहाबृहद्वृत्तिः निर्मलीकर्तु, गात्रं खानशतैरपि । अश्रान्तमेव श्रोतोभिरुहिरनवभिर्मलम् ॥१॥" पठ्यते च-बेइंतो निजरापे-४ हित्ति वेदयमानः-सहमानः, शेषं प्राग्वद्, अत्र केचिच्चतुर्थपादमधीयते, 'जलं काए पा उबटे ति अत्रोद्वर्त्तनग्रहण॥१२३॥ मुद्वर्तयेदपि न, किं पुनः लायात् ?, यद्वा-वेइजत्ति विद्यात्-जानीयाद्धर्ममाचारम्, अर्थाद्यतीनां, ज्ञात्वा च । ह'ज्ञानस फलं विरतिरिति जलं कायेन धारयेत् , तथा 'वेयंतो'त्ति विदन्-जानानोऽन्यत्तथैवेति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ अत्र 'मलधारिणो'त्ति द्वारमनुसरन् ‘सायं णो परिदेवए' इति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह चंपाएँ सुनंदो नाम सावओ जल्लधारणदुगुंछी । कोसंबीइ दुगंधी उप्पण्णो तस्स सादिवं ।। ११७॥ KI व्याख्या-चंपायां सुनन्दो नाम श्रावको जलधारणजुगुप्सी कौशाम्च्यां दुर्गन्धिरुत्पन्नः, तस्य सादिव्यं-सदेवत्वदामित्यक्षरार्थः ॥ ११८ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् चंपाए नयरीए सुनन्दो नाम वाणियगो साबगो, अवण्णाए चेव जो जं मग्गेइ साहू तस्स तं चेव देह ओसहभे४॥ सज्जाइयं सत्तुगाइयं च, सबभडिओ सो, तस्स अन्नया गिम्हे सुसाहूणो जलपरिदिद्धंगा आवर्ण आगया, तेर्सि १ चम्पायां नगर्या सुनन्दो नाम वणिक् श्रावकः, अवज्ञयैव वो यन्मार्गयति साधुस्तस्मै तदेव ददाति औषधभैषज्यादिकं सक्तुकादिक च, सर्वभाण्डिकः सः, तस्यान्यदा भीष्मे सुसाधवो जलपरिदिग्धाना आपणमागताः, तेषां दीप अनुक्रम [८६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र सूत्रान्ते यत् ||११८||” मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र ||११७|| एव वर्तते ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३७|| नियुक्ति: [११७] (४३) प्रत सूत्रांक गंधो जलस्स ताण ओसहाणं गंधमभिभविउ उकलति, तेण सुगंधदधभाविएण चिंतियं-सवं लटुं साहूण जदिणाम जलं उचहिता तो सुंदरं होतं, एवं सो तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालगतो कोसंबीए नयरीए इन्भ-10 कुले पुत्तत्ताए आगतो, सो निविष्णकामभोगो धम्मं सोऊण पञ्चतितो, तस्स तं कम्ममुदिन्नं, दुरभिगंधो जातो, तओ जतो जतो वच्चति तो तओ उड्डाहो, पच्छा साहूहि भणितो-तुम मा णिग्गच्छ उड्डाहो, पडिस्सए अच्छाहि, रति देवयाए सो काउस्सगं करेइ, पच्छा देवयाए सुगंधोकतो, सो जहा नाम कोपडाण वा अन्नेसिं वा विसिट्टदवाण जारिसो गंधो तारिसो गंधो जातो, पुणोऽवि उड्डाहो, पुणोऽवि देवयाराहणं, साभाषियगंधो जातो। तेण | ||३७|| दीप अनुक्रम [८६] १ गन्धो जलस्य तेषामौषधानां गन्धममिभूबोच्छलति, तेन सुगन्धद्रव्यभावितेन चिन्तितं-सर्व लष्टं साधूनां यदि नाम जल्लमुदवर्तिष्यन्त तदा सुन्दरमभविष्यत्, एवं स तस्मात् स्थानादनालोचितप्रतिक्रान्तः कालगतः कौशाम्भ्यां नगर्या मिभ्यकुले पुत्रतया आगतः, स 8 निर्विष्णकामभोगो धर्म श्रुत्वा प्रवजितः, तस्य तत्कर्मोदीण, दुरभिगन्धो जातः, ततो यतो यतो व्रजति ततस्तत उड्डाहः (अपभ्राजना), पश्चात् साधुभिर्भणित:-त्वं मा यासीः उदाहः, प्रतिपय तिष्ठ, रात्रौ देवतायाः स कायोत्सर्ग करोति, पश्चाद्देवतया सुगन्धीकृतः, स यथा | नाम कोष्ठपुटानां वा अन्येषां वा विशिष्टद्रव्याणां यादृशो गन्धस्तादृशो गन्धो जातः, पुनरप्युद्दाहः, पुनरपि देवताराधनं, स्वाभाविकKगन्धो जातः । तेन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३८|| नियुक्ति: [११७] (४३) बृहद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३८|| उत्तराध्य. पाहियासिनो जलपरीसहो । एवं शेषसाधुभिर्न करणीयम् ॥ जल्लोपलिप्तश्च शुचीन् सक्रियमाणान् पुरस्क्रियमा-18/परीषहाजणांचापरानुपलभ्य सत्कारपुरस्काराभ्यां स्पृहयेदतस्तत्परीषहमाह ध्ययनम् अभिवादण अब्भुटाणं, सामी कुजा निमंतणं । जे ताई पडिसेवंति, न तेसिं पीहए मुणी॥३८॥(सूत्रम्) ॥१२४॥ व्याख्या-'अभिवादनं' शिरोनमनचरणस्पर्शनादि पूर्वमभिवादये इत्यादिवचनं 'अभ्युत्थान' ससम्भ्रममासन-21 मोचनं 'खामी' राजादिः 'कुर्यात् ' विदधीत 'निमन्त्रणम्' अब भवद्भिर्भिक्षा मदीयगृहे ग्रहीतव्येत्यादिरूपं, 'ये द इति खयूथ्याः परतीर्थिका वा 'तानि' अभिवादनादीनि 'प्रतिसेवन्ते' आगमनिषिद्धान्यपि भजन्ते, न तेभ्यः स्पृहयेत् यथा सुलब्धजन्मानोऽमी य एवमेवंविधैरभिवादनादिभिः सक्रियन्त इति 'मुनिः' अनगार इति| 5 सूत्रार्थः ॥ ३८॥ किंच अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अण्णाएसि अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झिज्जा, नाणुतप्पिज पण्णवं॥३९॥(सूत्रम्) है व्याख्या-उत्कण्ठितः सत्कारादिषु शेत इत्येवं शील उत्कशायीन तथा अनुत्कशायी, यद्वा प्राकृतत्वादणुकजापायी सर्वधनादित्वादिनि, कोऽर्थः-न सत्कारादिकमकुर्वते कुष्यति, तत्सम्पत्ती वा नाहङ्कारवान् भवति, यत १नाध्यासितो जलपरीषहः । दीप अनुक्रम [८७]] TRI॥१२४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३९|| नियुक्ति: [११७] (४३) प्रत सूत्रांक ||३९|| उक्तम्-"पलिमंथ महं वियाणिया, जावि य बंदण पूयणा इह । सुहुमे सले दुरुद्धरे, इति संखाइ मुणी ण मजइ ॥१॥"| न वा तदर्थं छद्म तत्र वा गृद्धिं विधत्ते, अत एवाल्पा-स्तोका धर्मोपकरणप्राप्तिमात्रविषयत्वेन न तु सत्कारादिकामिबातया महती अल्पशब्द स्थाभाववादित्वेनाविद्यमाना वा इच्छा-वाञ्छा वा यस्येति अल्पेच्छः, इच्छायाश्च कषायान्त गतत्वेऽपि पुनरल्पत्वाभिधानं बहुतरदोषत्वोपदर्शनार्थम् , अत एव च अज्ञातो जातिथुतादिभिः एषति-उञ्छति अर्थात् पिण्डादीत्यज्ञातैषी, कुतः पुनरेवम् ?, यतः 'अलोलुपः' सरसौदनादिपु न लाम्पट्यवान् , एवं विधोऽपि सरसाहारभोजिनोऽपरान् वीक्ष्य कदाचिदन्यथा स्यात् अत आह-सरसेपु-रसवत्खोदनादिपु, पाठान्तरतो-रसेषु वा' मधुरादिषु 'नानुगृध्येत् नाभिकाहां कुर्वीत, रसद्धियर्जनोपदेशश्च तद्गृद्धित एव बालिशानामभिवादनादिस्पृहासम्भवात्, तथा न 'तेभ्यो' रसगृद्धेभ्यः स्पृहयेन्मुनिः, पाठान्तरतच नानुतप्येत् तीर्थान्तरीयानपत्यादिभिः || सक्रियमाणानवेक्ष्य, किमेतत्परित्यागेनाहमत्र प्रत्रजितः ? इति, प्रज्ञा-हेयोपादेयविवेचनात्मिका मतिस्तद्वान् । अनेन सत्कारकारिणि तोपं न्यत्कारकारिणि च द्वेषमकुर्वताऽयं परीषहोऽध्यासितव्य इत्युक्तं भवतीति सूत्राथैः। &|॥ ३९ ॥ अत्र 'अङ्गविद्येति द्वारमनुसरन् सूत्रोक्तमर्थ व्यतिरेकोदाहरणेन स्पष्टयन्नाह महुराइ इंददत्तो पुरोहिओसाहुसेवओ सिट्री। पासायविजपाडण पायच्छिज्जेंदकीले य ॥ ११८ ॥ | १ वितं महत् विजानीयातू याऽपि च बन्दना पूजनेह । सूक्ष्मं शल्यं दुरुखरमिति संख्याय मुनिर्न माधति ॥ १ ॥ AL-स दीप अनुक्रम [८८] 26L-5-7-5 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३९|| नियुक्ति: [११८] (४३) प्रत सूत्रांक ||३९|| उत्तराध्य. मथुरायामिन्द्रदत्तः पुरोहितः साधुसेवकः श्रेष्ठी प्रासादविद्यापातनं पादच्छेदश्चेन्द्रकीले चस्स भिन्नक्रमत्वादिति परीषहा. || गाथासंस्कारः ॥ ११९ ॥ एतदर्थश्व सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः । | चिरकालपइट्ठियाए महुराए इंददत्तेणं पुरोहिएणं पासायगएणं हेतुणं साधुस्स वच्चंतस्स पाओ ओलंबितो सीसे 8 ॥१२५०कतोत्तिकाउं, सो य सावएण सिटिणा दिट्ठो, तस्सामरिसो जाओ, दिटुं भो! एएण पावेणं साहुस्स उपरि पादो कतोत्ति, तेण पइण्णा कया-अवस्स मए एयरस पादो छिदेयबो, तस्स छिद्दाणि मग्गइ, अलभमानो अन्नया आय४. आिण सगासे गंतूण वंदिचा परिकहेइ, तेहिं भण्णइ-का पुच्छा, अहियासेयचो सकारपुरकारपरीसहो, तेण 4 भणियं-मए पइण्णा कएलिया, आयरिएहि भण्णइ-एयस्स पुरोहियस्स किं घरे बट्टइ ?, तेण भषणइ-एयस्स पुरोहियस्स पासाओ कपलतो, तस्स पवेसणे रणो भत्तं करेहित्ति, तेहिं भण्णइ-जाहे राया पविसइ तं पासायं १चिरकालप्रतिष्ठितायां गधुरायामिन्द्रवन पुरोहितेन प्रासादगतेन अवस्वान साधोर्गच्छतः (उपरि) पायोऽवलम्वितः, शीर्षे कृत इति-12 कृत्वा, स च आवकेण श्रेष्विना दृष्टः, तस्यामो जातः, दृष्टं भो! एतेन पापेन साधोरुपरि पादः कृत इति, तेन प्रतिज्ञा कृता-अवश्यं मया ४ एतस्य पादश्छेत्तव्यः, तस्य छिद्राणि मार्गयति, अलभमानोऽन्यदा आचार्याणां सकाशे गत्वा वन्दित्वा परिकथयति, तैर्भण्यते-का पृच्छा, अभ्यासितव्यः सत्कारपुरस्कारपरीषहः, तेन भणित-मया प्रतिज्ञा कृता, आचार्यभण्यते-एतस्य पुरोहितस्य किं गृहे वर्तते , तेन भण्यतेएतेन पुरोहितेन प्रासादः कारितः, तस्य प्रवेशने राज्ञो भक्तं करिष्यतीति, तैर्भण्यते यदा राजा प्रविशति तं प्रासादं दीप अनुक्रम [८८] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र सूत्रान्ते यत् ||११९||” मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र ||११८|| एव वर्तते ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३९|| नियुक्ति: [११८] (४३) प्रत सूत्रांक ||३९|| हताहे तुर्म रायं हत्थेण गहेऊण अवसारिजासि जहा-पासाओ पडति, ताहेऽहं पासाय विजाए पाडिस्सं, तेण तहाला कयं, सेटिणा राया भणितो-एएण तुम्भे मारिया आसि, रुटेण रण्णा पुरोहितो सावगस्स अप्पितो, तेण तस्स | इंदकीले पादो कतो, पच्छा छिन्न(नो), एवं काउं ईयरो विसजितो। तेण णाहियासितो सकारपुरकारपरीसहो इति॥ यथा तेन श्राद्धेनासौ न सोढो न तथा विधेयं, किन्तु साधुवत्सोढव्यः, इह पूर्वत्र च श्रावकपरीपहाभिधानमायन-14 है यचतुष्टय मतेनेति भावनीयम् , उक्तं हि प्राक्-"तिण्हपि णेगमनतो परीसहो जाव उज्जसुत्तातो"त्ति, अङ्गं चात्र पादो, विद्या च प्रासादपातनविद्या ॥ साम्प्रतमनन्तरोक्तपरीषहान् जयतोऽपि कस्यचिज्ज्ञानावरणापगमात् प्रज्ञाया उत्कर्षे अपरस्य तु तदुदयादपकर्षे उत्सेकवैक्लव्यसम्भव इति प्रज्ञापरीपहमाह__ से नूणं मए पुवं, कम्माऽणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्रो केणइ कण्हुई ॥४॥ अह पच्छा उइज्जंति, कम्माऽणाणफलाकडा। एवमासासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं ॥४१॥(सूत्रम्) | १ तदा त्वं राजानं हस्तेन गृहीत्वाऽपसारयः यथा-प्रासादः पतति, तदाऽहं प्रासाई विद्यया पातयिष्यामि, तेन तथा कृतं, श्रेष्ठिना राजा भणित:-एतेन यूयं मारिवा अभविष्यन् , रुष्टेन राज्ञा पुरोहितः श्रावकायार्पितः, तेन तस्येन्द्रकीले पादः कृतः, पश्चात् छिन्नः, एवं कत्वेतरो विसष्टः । तेन नाध्यासितः सत्कारपुरस्कारपरीषद इति । २लोहमओ काऊण सो छिनो प० अधिकम् । ३ त्रयाणामपि । नैगमनयः परीषदो बावजुसूत्रात् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [११८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४०-४१|| उत्तराध्य. व्याख्या-सेशब्दो मागधप्रसिद्धयाऽथशब्दार्थ उपन्यासे, 'नून' निश्चितं 'मये ति आत्मनिर्देशः 'पूर्व' प्राक् || परीपहा क्रियन्त इति कर्माणि तानि च मोहनीयादीन्यपि सम्भवन्त्यत आह-अज्ञानम्-अनवबोधस्तत्फलानि ज्ञानाव- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः रणरूपाणीत्यर्थः 'कृतानि' ज्ञाननिन्दादिभिरुपार्जितानि, यदुक्तम्-ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैय, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः । उप॥१२॥ घातैश्च विघ्नेश्च, ज्ञाननं कर्म बध्यते ॥१॥ 'मये'त्यभिधानं च खयमकृतस्योपभोगासम्भवाद् , उक्तं च-"शुभाशु भानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः । खयमेवोपभुज्यन्ते, दुःखानि च सुखानि च ॥१॥" कुत एतदित्याह-येन हेतुना अहं 'नाभिजानामि' नाभिमुख्येनावबुद्धये पृष्टः केनचित् स्वयमजानता जानता वा 'कण्हुईत्ति सूत्रत्वात् | कस्मिंश्चित् सूत्रादौ वस्तुनि वा, प्रगुणेऽपीत्यभिप्रायः। न हि स्वयं खच्छस्फटिकवदतिनिर्मलस्य प्रकाशरूपस्यात्मनोप्रकाशकत्वं किन्तु ज्ञानावृतियशत एव, उक्तं हि-तत्र ज्ञानावरणीयं नाम कर्म भवति येनास्य । तत्पञ्चविधं ज्ञानमावृतं रविवि में धैस्तथा ॥१॥" अथवा 'से नूण ति सेशन्दः प्रतिवचनवाचिनोऽथशब्दस्यार्थे, स हि केनक्कि-IA |श्चित्पर्यनुयुक्तः तथाविधविमर्शाभावेन खयमजानन् कुत एतन्ममाज्ञानमिति चिन्तयन् गुरुवचनमनुसृत्यात्मानमात्मदानव प्रति वक्ति, 'से' इत्यथ 'नूनं' निश्चितमेतत् , शेष प्राग्वत् । आह-यदि पूर्व कृतानि कर्माणि किं न तदेय वेदि- १२६| तानि ?, उच्यते, अथेति वक्तव्यान्तरोपन्यासे 'पश्चाद्' अवाधोत्तरकालम् 'उदीयन्ते' विपच्यन्ते कर्माण्यज्ञानफलानि ।। कृतानि, अलर्कमूषिकविषविकारवत् तथाविधद्रव्यसाचिव्यादेव तेषां विपाकदानात् , ततस्तद्विघातायैव यलो विधेयो । दीप अनुक्रम [८९-९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [११८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४०-४१|| न तु विषादः, 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'आश्वासय' खस्थीकुरु, कम् ?-आत्मानं, मा वैक्लण्यं कृथा इत्यर्थः, उक्तमेवर हेतुं निगमयन्नाह-ज्ञात्वा कर्मविपाकं, कर्मणां कुत्सितविपाकम् । इत्थं प्रज्ञाऽपकर्षमाश्रित्य सूत्रद्वयं व्याख्यातम् , एतदेव तदुत्कर्षपक्ष एवं व्याख्यायते-प्रशोत्कर्षवतैवं परिभावनीयं-से' इत्युपन्यासे नूनं मया पूर्व 'कर्माणि' अनुष्ठानानि ज्ञानप्रशंसादीनि, ज्ञानमिह विमर्शपूर्वको बोधः, तत्फलानि कृतानि येनाहं ना अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्यान्नाऽपि-पुरु-र सापोऽप्यभिजानामि 'पृष्टः' पर्यनुयुक्तः 'केनापि' अविवक्षितविशेपेण, सर्वेणापीत्यर्थः, 'कस्मिंश्चिद्'यत्र तत्रापि वस्तुनि, अथे'त्युत्कर्षानन्तरम् 'अपत्य'त्ति अपथ्यानि आयतिकटुकानि कर्माण्यज्ञानफलानि 'उदिज्जति'त्ति सूत्रत्वात्तिसाव्यत्ययेनोदेष्यन्ति, वर्तमानसामीप्ये वर्तमानबद्वा(पा. ३-३-१३१)इत्यनेन वर्तमानसामीप्ये या लटि उदी-11 Xयन्ते, सनिहितकाल एवोदेष्यन्तीत्यर्थः, अयं चाशयः-उत्सेको हि ज्ञानावरणकारणमवश्यवेयं च तत, तददये च कुतो ज्ञानम् ?, अनियते बाऽस्मिन्क उत्सेकः?, इत्येषमालोचयन्नाश्वासय-प्रज्ञावलेपावलुप्सचेतनमात्मानं स्वस्थीकुरु ज्ञात्वा कर्मविपाकम् , इह च तत्रन्यायेन युगपदर्थद्वयसम्भवः, तत्रं च दैर्यप्रसारिताः तन्तवः, ततो यथा तदेकमनेकस्य तिरश्चीनस्थ तन्तोः सङ्घाहि तथा यदेकेनानेकार्थस्याभिधानं स तनन्याय इति सूत्रद्वयार्थः॥४०-४१॥ अत्र सूत्रद्वारं, सूत्रं चागमः, अस्मिंश्च प्रस्तुतसूत्रसचितमुदाहरणमाहउजेणी कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए । इंदो आउयसेसं पुच्छइ सादिवकरणं च ॥१२०॥ दीप अनुक्रम [८९-९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र नियुक्ति-क्रमे एक क्रमांकस्य मुद्रणदोषात् क्रमांकस्य परिवर्तनं दृश्यते ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४० -४१|| दीप अनुक्रम [८९-९०] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥१२७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| अध्ययनं [२], व्याख्या – उज्जयणी कालक्षपणाः सागरक्षपणाः सुवर्णभूमौ इन्द्रः आयुष्कशेषं पृच्छति सादिव्यकरणं चेति गाथा - क्षरार्थः ॥ १२० ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायात् ज्ञातव्यः, स चायम् उate कालगारिया बहुसुया, तेसिं सीसो न कोई इच्छइ पढिउं, तस्स सीसस्स सीसो बहुसुओ सागरखमणो णाम सुवण्णभूमीए गच्छेणं विहरह, पच्छा आयरिआ तत्थ पलाइउं गया सुवण्णभूमि, सो य सागरखमणो अणुओगं कहइ, पण्णा परीसहं न सहइ, भणइ खंता ! गयं एवं तुम्भ सुयखंधं ?, तेण भण्णइ-गयंति, तो सुण, सो सुणावेउं पयत्तो । ते य सेज्जायरणिबंधे कहिए तस्सिस्सा सुवण्णभूमि जतो चलिया, लोगो पुच्छति विंदं गच्छंतंको एस आयरिओ गच्छइ ?, तेण भण्णइ-कालगा जायरिया, तं जणपरंपरएण फुर्सतं कोई सागरसमणस्स संपत्तं, जहा-कालगा आयरिआ आगच्छति, सागरखमणो भणइ--खंतग ! सचं मम पितामहो आगच्छति ?, तेण निर्युक्ति: [१२०] १ उज्जयिन्यां कालकाचार्या बहुश्रुताः, तेषां शिष्यो न कोऽपि इच्छति पठितुं तस्य शिष्यस्य शिष्यो बहुश्रुतः सागरक्षपणो नाम सुवर्णभूमी गश्छेन विहरति, पञ्चादाचार्यास्तत्र पलाय्य गताः सुवर्णभूमौ स च सागरक्षपणोऽनुयोगं कथयति, प्रज्ञापरीपदं न सहते, भणति वृद्ध ! ४ गत एष तव श्रुतस्कन्धः १, सेन भण्यते गत इति, ततः शृणु, स श्राववितुं प्रवृत्तः । ते च शय्यातरेण निर्वन्धेन कथिते तच्छिष्याः सुवर्णभूमिर्यतः (ततः) चलिताः, लोकः पृच्छति वृन्दं गच्छन्तं- क एष आचार्यो गच्छति ?, तेन भण्यते - कालकाचार्याः, तत् जनपरम्परकेण स्पृशत् कर्णयोः (वृत्तान्तं) सागरश्रमणस्य संप्राप्तं, यथा-कालकाचार्या आगच्छन्ति, सागरक्षपणो भणति वृद्ध ! सत्यं (श्रुतं) मम पितामह आगच्छति ?, तेन For ~ 256~ परीषहाध्ययनम् २ ॥१२७॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [१२०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४०-४१|| tick द भण्णंति-ण जाणं, मयावि सुर्य, आगया य साहुणो, सो अन्भुडिओ, सो तेहिं साधूहि भण्णति-खमासमणा केर इहागया , पच्छा सो संकिओ भणइ-खंतो परं इको आगओ, न उण जाणामि खमासमणा, सो पच्छा। खामेति, भणति-मिच्छामिदुकडं जं एत्थ मए आसादिया, पच्छा भणति-खमासमणा! केरिसं अहं वक्खाणेमि?, खमासमणेण भण्णति-लटुं, किन्तु मा गचं करेहि, को जाणति !, कस्स को आगमोत्ति ?, पच्छा धूलिणाएण चिक्खिलपिंडएण य आहरणं करेंति । न तहा कायचं जहा सागरखमणेण कयं । ताण अजकालगाण समीयं सको य आगंतु णिओयजीवे पुच्छति, जहा अजरक्खियाणं तहेब जाच सादिवकरणं च ॥ इदं च प्रज्ञासद्भावमङ्गीकृत्यो-12 दाहरणमुक्तं, तदभावे तु खयमभ्यूबमिति ॥ इदानी प्रज्ञाया ज्ञानविशेषरूपत्वात्तद्विपक्षभूतत्वादज्ञानस्य तत्परीषह-13 माह, सोऽप्यज्ञानभावाभावाभ्यां द्विधैव, तत्र भावपक्षमङ्गीकृत्येदमुच्यते| १ भण्यते-न जाने, मयाऽपि श्रुतम् , आगताच साधवः, सोऽभ्युत्थितः, स तैः साधुभिर्मण्यते-क्षमागणाः केचिदिहागताः', पश्चात सशङ्कितो भणति-युद्धः परमेक आगतः, न पुनर्जानामि क्षमाश्रमणा (इति), स पश्चात् क्षमयति, भणति-मिथ्या मे दुष्कृतं यदत्र मया आशातिताः, पश्चात् भणति-अमाश्रमणाः ! कीदृशमहं व्याख्यानयामि !, क्षमाश्रमणेन भव्यते-लष्ट, किन्तु मा गर्व कार्षीः, को जानाति ? कस्य क आगम इति, पश्चालिशातेन कर्दमपिण्डेन च दृष्टान्तं कुर्वन्ति । न तथा कर्तव्यं यया सागरक्षपणेन कृतं । तेषामार्यकालकानां | समीपे शकच आगल्य निगोदजीवान् पृच्छति, यथा आरक्षितानां तथैव यावत् सादिव्यकरणं च ।। दीप अनुक्रम [८९-९०] **** * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४२-४३|| नियुक्ति: [१२०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४२ -४३|| उत्तराध्य. निरट्रगंमि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो। जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्म कल्लाण पावगं ॥४२॥(सूत्रम्) ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः है| तवोवहाणमायाय, पडिम पडिवजओ । एवंपि मे विहरओ, छउमण गियद्दति ॥ ४३ ॥ (सूत्रम् ) ॥१२८॥ व्याख्या-'णिरटुगंमित्ति अर्थः-प्रयोजनं तदभावो निरर्थं तदेव निरर्थक तस्मिन् सति, 'विरतः' निवृत्तः, है कस्मात् -मिथुनस्य भावः कर्म वा मैथुनम्-अग्रल तस्मात् , आश्रयान्तरविरतावपि यदस्योपादानं तदस्यैवातिगृद्धिहेतुतया दुस्त्यजत्वात् , उक्तं हि-"दुपंचया इमे कामा' इत्यादि, सुष्टु संवृतः सुसंवृतः-इन्द्रियनोइन्द्रियसंवरणेन, यः साक्षात्' इति परिस्फुटं नाभिजानामि 'धर्म' वस्तुखभावं 'कल्लाण'त्ति बिन्दुलोपाकल्याणं शुभं 'पापकं' वा तद्विपरीतं, वेत्यस्य गम्यमानत्वात् , यद्वा धर्मम्-आचारं कल्यः-अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति(अणति)-प्रज्ञापयतीति कल्याणो-मुक्तिहेतुस्त, पापकं वा नरकादिहेतुम् , अयमाशयः-यदि विरतौ कश्चिदर्थः सिधेन्नैयं ममाज्ञानं भवेत्।। कदाचित् सामान्यचर्ययय न फलावाप्तिरत आह-तपो-भद्रमहाभद्रादि उपधानम्-आगमोपचाररूपमाचाम्लादि| 'आदाय' स्वीकृत्य चरित्वेतियावत् 'प्रतिमा' मासिक्यादिभिक्षप्रतिमा 'पडिजिय'त्ति प्रतिपद्याजीकृल्प, पठ्यते च- १२८॥ 'पडिम पडिवजओ'त्ति प्रतिपद्यमानस्य-अभ्युपगच्छतः, 'एवमपि' विशेषचर्ययाऽपि, आस्तां सामान्यचर्ययेत्सपि १ दुष्पत्यजा इमे कामाः । दीप अनुक्रम [९१-९२] 4g wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४२-४३|| नियुक्ति: [१२०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४२-४३|| दशब्दार्थः 'बिहरतोत्ति निष्प्रतिबन्धत्वेनानियतं विचरतः छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकर्म 'न निवर्तते' नापतीति |भिक्षुःन चिन्तयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः । अज्ञानाभावपक्षे तु समस्तशास्त्रार्थनिष्कनिकपोपलकल्पना(ता यामपि न दपाध्मातमानसो भवेत् , किन्तु-'पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरीनन्त्यम् । श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः कथं व. बुद्धया मदं यान्ति !, ॥१॥' इति परिभावयन् विगलितावलेपः सन्नेवं भावयेत्-'णिरट्टयं सूत्रद्वयम् , अक्षरगमनिका सैव, गवरं 'निरहयंमिऽवि' निरर्थकेऽपि प्रक्रमात् प्रज्ञावलेपे रतो, मैथुनात् सुसंवृतः सन्निरुद्धात्मा सन् योऽहं 'साक्षात् ' समक्षं नाभिजानामि धर्म कल्याणं पापकं वा, अयमभिप्राय:-'जे एग जाणति से सच जाणति (जे सर्व जाणति) से एगं जाणति'इत्यागमात् छद्मस्थोऽहमेकमपि धम्म वस्तुखरूपं न तत्वतो वेद्मि, ततः साक्षाद्भावखभावायभासि चेन्न विज्ञानमस्ति किमितोऽपि मुकुलितवस्तुखरूपपरिज्ञानतोऽवलेपनेति भावः, तथा तपउपधानादि* भिरप्युपक्रमणहेतुभिः उपक्रमयितुमशक्ये छानि दारुणे वैरिणि प्रतपति कः किल ममाहङ्कारावसर इति सूत्रद्वयार्थः । 8/॥४२-४३ ।। साम्प्रतमावृत्त्या पुनः सूत्रद्वारमङ्गीकृत्य प्रकृतसूत्रोपक्षिप्तमज्ञानसद्भाव उदाहरणमाह परितंतो वायणाए गंगाकूले पिया असगडाए । संवच्छरेहऽहिजइ बारसहि असंखयज्झयणं ॥ १२१ ॥ दीप अनुक्रम [९१-९२] १ य एकं जानाति स सर्व जानाति यः सर्व जानाति स एक जानाति । wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४२ -४३|| दीप अनुक्रम [९१-९२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥ १२९ ॥ 6 “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४३|| अध्ययनं [२], व्याख्या- 'परितान्तः' खिन्नो वाचनया गङ्गाकूले पिताऽशकटायाः संवत्सरैरधीते द्वादशभिरसंस्कृताध्ययनमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १२१ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् गंगा दोन साहू पचया भायरो, तत्थ एगो बहुसुतो एगो अप्पसुतो, तत्थ जो सो बहुसुतो सो सीसेहिं सुत्तत्थनिमित्तमुवसप्पंतेहिं दिवसतो विरेगो नत्थि, रतिंपि पडिपुच्छणसिकखगाईहिं सुइयं न लहइ, जो सो अप्प★ सुतो सो रतिं सर्व सुयइ । अन्नया कयाई सो आयरिओ णिद्दापरिखेतितो चिंतेति-अहो मे भाया पुण्णवंतो जो सुयइ, अम्हं पुण मंदपुण्णाणं सुइउपि ण लग्भइ, तेण णाणावरणिजं कम्मं बद्धं, सो तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालमासे कालं किया देवलोएस उबवण्णो । तओ चुतो इहेव भारहे वासे आहीरपरे दारतो जातो, कमेण वहितो जोवणत्थो वीवाहितो, दारिया जाया, अतीव रूपवती, सा य भद्दकन्नया । कयाइ ताणि पियापुत्ताणि Education intol १ गङ्गाकू ही साधू प्राजितौ भ्रातरौ तत्रैको बहुश्रुत एकोऽल्पश्रुतः, तत्र यः स बहुश्रुतः स शिष्यैः सूत्रार्थनिमित्तमुपसर्पद्भिर्विवसतः क्षणो नास्ति, रात्रावपि प्रतिप्रच्छना शिक्षणादिभिः खपितुं न लभते यः सोऽल्पश्रुतः स रात्रीं सर्वा खपिति । अन्यदा कदाचित्स आचार्यो निद्रापरिखेदितश्चिन्तयति- अहो मम भ्राता पुण्यवान् यः स्वपिति, अस्माभिः पुनर्मन्दपुण्यैः स्वपितुमपि न लभ्यते, तेन ज्ञानावरणीयं कर्म बद्धं, स तस्मात् स्थानात् अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा देवलोकेषूत्पन्नः । ततञ्युतः इहैव भारते वर्षे आभीरगृहे दारको जातः, क्रमेण वृद्धो यौवनस्थो विवाहितः, दारिका जाता, अतीव रूपवती, सा च भद्रकन्यका । कदाचित् ते पितापुत्र्यौ निर्युक्ति: [१२१] For Fans Only ~260~ परीषदाध्ययनम् २ ॥१२९॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१२१] (४३) COCKS प्रत सूत्रांक ||४२-४३|| ४ अन्नहिं आहीरेहिं समं सगडं घयस्स भरेऊण णगरि विकिणणट्ठा पत्थिआणि, साय कण्णया सारत्थं तस्स सगडस्स करेइ, ततो ते गोवदारया तीए रूवेणाक्खित्ता तीसे सगडस्स अच्भासयाई सगडाई खेडंति तं पलोइंता, ताई सवाति सगडार्ति उप्पहेणं भग्गाई, तओ तीए नामं कयं-असगडत्ति, असगडाए पिया असगडपिया। तस्स तं चेव वरग्गं जायं, तं दारियं परिणावेउं सर्व च घरसारं दाऊण पचतितो। तेण तिण्णि उत्तरज्झयणाणि जाव अहीयाणि, ताब असंखे उदितु तं णाणावरणं कम्ममुदिन्नं, गया दो दिवसा अंबिलछटेण, न एगो सिलोगो ठाति, आयरिएहि भण्णति-उद्देहि जा एयमज्झयणमसंखयमणुण्णविजति, सो भणति-एयस्स केरिसो जोगो ?, आयरिया भणति-14 जाव न उठेति ताय आयंबिलं, सो भणति-अलाहि मे अणुण्णाए गं, एवं तेण अदीणेण आयंबिलाहारेणं वारसहिं १ अन्वैराभीरैः समं शकटं धृतेन भृत्वा नगरी विक्रयणाय प्रस्थिते, सा च कन्यका सारधित्वं तस्य शकटस्य करोति, ततस्ते गोपदारकाः | तस्या रूपेणाक्षिप्ताः तस्याः शकटस्वाभ्यासे शकटानि खेटयन्ति तां प्रलोकयन्तः, तानि सर्वाणि शकटानि उत्पथेन भानि, ततस्तस्या नाम | कृतम्-अशकटेति, अशकटायाः पिता अशकटापिता । तस्य तदेव वैराग्योत्पादकं जातं, तो दारिको परिणाय्य सर्व च गृहसारं दवा प्रवजितः । तेन त्रीणि उत्तराध्ययनानि यावधीतानि, तावद् असंख्येय उद्दिष्टे तज् ज्ञानावरणं कर्मोदीर्ण, गतौ द्वौ दिवसौ आचाम्लषष्ठेन (युग्मेन), १ नैकः श्लोकस्तिष्ठति, आचार्भण्यते-उत्तिष्ठ यायदेतदध्ययनमसंख्येयकमनुज्ञायते, स भणति-एतस्य कीदृशो योगः ?, आचार्या भणन्ति यावन्नोत्तिष्ठते तावदाचारलं, स भणति-अलं ममानुज्ञया, एवं तेनादीनेनाचामाम्लाहारेण द्वादशभिः । १०गोऽवि आलायगो प्र० । दीप अनुक्रम [९१-९२] % 9 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१२२] (४३) XSE परीषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४२ % -४३|| उत्तराध्य. संवच्छरेहिमहिझियमज्झयणमसंखयं, खवियं तं कम्म, सेसं लहुं चेव अहिजियं ॥ एवमज्ञानपरीषहः सोढव्यः, बृहद्वृत्तिः प्रतिपक्षे च भीमद्वारं, तत्राप्येतत्सूत्रसूचितमिदमुदाहरणं इमं च एरिसं तं च तारिस पिच्छ केरिसं जायं?। इय भणइ थूलभद्दो सन्नाइघरं गओ संतो ॥१२॥ ॥१३० व्याख्या-'इदं चेति द्रव्यम् 'ईदृशमिति स्तम्भमूलस्थितमतिप्रभूतं च, अतिशयज्ञानित्येन तस्य हदि विपरिवर्त जमानतया द्रव्यस्वेदमा निर्देशः, 'तचेति तस्याज्ञानतः परिभ्रमणं 'तादृशमिति विप्रकृष्टदुर्गदेशान्तरविपर्य, पश्य की18 दृशं ? केन सदृशं ? जातं, न केनापि, कश्चिद्गृहे सति द्रव्ये द्रव्यार्थी बहिौम्यति ?, इति भावः, 'इती'त्येवं भणति द स्थूलभद्रः 'स्वज्ञातिः' अत्यन्तसुहृत्तद्हं गतः सन्निति गाथार्थः ॥ १२२ ॥ सम्प्रदायश्चात्रPा थूलभद्दो आयरिओ बहुसुतो, तस्स एगो पुचिं मित्तो होत्था, सन्नायगोऽवि य । सो सूरी विहरतो तस्स घरं गतो महिलं पुच्छति-सो अमुको कहिं गतोत्ति ?, सा भणइ-वाणिजेणं, तं च घरं पुर्षि लटुं आसि, पच्छा सडियपडियं, जायं, तस्स पुविल एहिं एगस्स खंभस्स हेटा भूमीए दर्ष निहेलयं, तं सो आयरितो णाणेण जाणति, पच्छा तेणं १ संवत्सरैरधीतमध्ययनमसंख्यक, अपितं तत् कर्म, शेष लष्वेवाधीतम् । २ स्थूलभद्र आचायों बहुभुतः, तस्यैकः पूर्वमित्रमभूत् , सज्ञातीयोऽपि च । स सूरिविहरन तस्य गृहं गतो महेलां पृच्छति-सोऽमुकः क गत इति, सा भणति-वाणिज्याय, तत्र गृहं पूर्व लष्टमासीत्, [पश्चाच्छटितपतितं जातं, तस्य पूर्वजैः एकस्य स्तम्भस्याधस्ताद् भूमौ द्रव्यं निहितं, तत्स आचार्यों मानेन जानाति, पश्चात्तेन % दीप अनुक्रम [९१-९२] SCORESC456 ॥१३०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१२२] (४३) - प्रत - सूत्रांक ओहुतं हत्थं काउं भषणति-'इमं च एरिसं तं च तारिसमित्यादिगाथा' इमं च एरिसं दबजायं, सो अण्णाणेणं ममइ, एवं च भणमाणे जणो जाणति, जहा-घरमेव पुचि लट्ठ इयाणिं तु सडियपडियं दटुं अणिच्चयाणिरुवणत्थं भयवं दंसेइ । सो य आगतो, महिलाए सिटुं-जहा थूलभद्दो आगतो आसि, सो भणति-थूलभद्देण किंचि भणियं?, ण किंचि, णवरं खंभहुत्तं हत्थं दायतो भणियाइओ-'इमं च एरिसमित्यादि, तेण पंडिएण णायं-जहा एत्थ अवस्स। किंचि अत्थि, तेण खाणियं जाव णाणापगाररयणाण भरियं कलसं पेच्छइ । तेण णाणपरीसहो णाहियासिओ ॥ नैवं दोशेषसाधुभिः कर्तव्यम् । इह च प्रज्ञाज्ञानयोर्भावाभावाभ्यां सूत्रे परीपहत्वेनोपयर्णनं नियुक्ती चाज्ञानपरीपहे तथै-ले बोदाहरणद्वयोपवर्णनमन्यत्रापि यथासम्भवमेवं भावनीयमिति ज्ञापनार्थ ॥ साम्प्रतमज्ञानाद्दर्शनेऽपि संशयीत कश्चि-2 दिति तत्परीपहमाह १ सत्संमुखं हस्तं कृत्वा भण्यते-इदं चेदृशं तच्च तादृशमित्याविगाथा, इदं पेशं द्रव्य जातं, सोऽज्ञानेन भ्राम्यति, एवं च भणति जनो जानाति, यथा-गृहमेच पूर्व लष्टमिदानीं तु शटितपतितं दृष्ट्वा अनित्यतानिरूपणार्थ भगवान दर्शयति । स चागतः, महेलया शिष्ट| यथा स्थूलभद्र आगत आसीत् , स भणति-स्थूलभद्रेण किश्चित् भणितं !, न किञ्चित् , नवरं स्तम्भसंमुखं हस्तं दर्शयन् भणित१ वान्-इदं चेदृशमित्यादि, तेन पण्डितेन शातं--यथाऽत्रावश्यं किञ्चिदस्ति, तेन खानितं यावन्नानाप्रकाररभृतं कलशं पश्यति । तेन ज्ञानपरीषहो नाध्यासितः । । ||४२-४३|| दीप अनुक्रम [९१-९२] * % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४४|| नियुक्ति: [१२२] (४३) 25% प्रत % सूत्रांक % ||४४|| उत्तराध्य. णत्थि णूणं परे लोए, इवी वावि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओमित्ति, इइ भिक्खूण चिंतए॥४४॥(सूत्रम्) नापरीपहाव्याख्या-'नास्ति' न विद्यते 'नून' निश्चितं 'परलोको' जन्मान्तरमित्यर्थः, भूतचतुष्टयात्मकत्वाच्छरीरस्य, तस्य | बृहद्वृत्तिः पाचहैव पातात, चैतन्यस्य च भूतधर्मभूतत्वात् , तदतिरिक्तख चात्मनःप्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमानत्वाद्, 'ऋद्धिा ' तपो-18 ॥१३॥ * माहात्म्यरूपा, अपिः पूरणे, कस्य-तपखिनः, सा च आमशीपध्यादिः-'पादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधयः क्षणा स्कुर्युः । त्रिभुवन विस्मयजननान् दद्युः कामांस्तृणाग्राद्वा ॥१॥ धर्माद्रलोमिश्रितकाञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् । ६ अद्भुतभीमोरुशिलासहस्रसम्पातशक्तिश्च ॥२॥ इत्यादिका च, तस्या अप्यनुपलभ्यमानत्वादिति भावः, 'अदुव'त्ति अथवा, किंबहुना?-वञ्चितोऽस्मि भोगानामिति गम्यते 'इती'त्यमुना शिरस्तुण्डेनोपवासादिना यातनात्मकेन धर्मानुष्ठानेन, उक्तं च-"तपांसि यातनाचित्राः, संयमो भोगवञ्चना" इत्यादि, 'इती'त्यनन्तरमुपदर्शितं भिक्षुः 'न चिन्त येत्' न ध्यायेत् , परिफल्गुरूपत्वादस्य, तथाहि-यत्ताबदुक्तं-'भूतचतुष्टयात्मकत्वाच्छरीरस्य जन्मान्तराभाव' इति, दातदसत्, न हि शरीरस्य जन्मान्तरानुयायित्वमस्माभिरुच्यते, किन्त्वात्मनः, न च भूतधर्म एव चैतन्ये आत्मव्यपदेशः, तस्य तद्धर्मत्वेनोत्तरत्र निपेत्स्यमानत्वात् , यदपि ऋद्विर्या तपखिनो नास्ति, तदपि वचनमात्रमेव, अथात्मन । ॥१३॥ ऋद्धीनां चाभावे अनुपलम्भो हेतुरुक्तः, सोऽपि खसम्बन्धी सर्वसम्बन्धी वा?, तत्र न तावदात्मनोऽभावे खसम्बन्ध्यनुपलम्भो हेतुः, खयं तस्य घटादिबदुपलभ्यमानत्वात् , यथैव हि घटादिगता रूपादय उपलभ्यन्ते, तथा आत्म * दीप अनुक्रम [१३] -* मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४४|| नियुक्ति: [१२२] (४३) 5+% प्रत E3%- सूत्रांक ||४४|| गता अपि ज्ञानमुखादय इति नात्र महदन्तरमुत्पश्यामः, उक्तं चाश्वसेनवाचकेन-"आत्मप्रत्यक्ष आत्माऽय"मित्यादि, अथायं न दृग्गोचर इति नास्तीत्युच्यते, नायमप्येकान्तो, यतस्तेनैवोक्तम्-"न च नास्तीह तत् सर्व चक्षुषा यन्न गृह्यते," अन्यथा चैतन्यमपि न दृग्गोचर इति तस्याप्यसत्त्वं स्यात् , अथ तत् खसंविदितमिति सदुच्यते, अयमपि तथाभूत एवेति सन्नस्तु, उक्तं हि-"अस्त्येव चात्मा प्रत्यक्षो, जीवो यात्मानमात्मना । अहमस्मीति संवेत्ति, रूपादीनि यथेन्द्रियैः ॥१॥" इति, किंबहुना ?, यथा चैतन्यमस्तीत्यभ्युपगम्यते तथाऽऽत्माप्यभ्युपगन्तव्यः, तथा चाह-"ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथा ज्ञानेन गृह्यते । ज्ञाता खस्थः परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम् ॥१॥” इति । अथ सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भ आत्माभावे हेतुः, अयमप्यसिद्धः, अहमस्मीति प्रत्ययेन प्रतिप्राणि खात्मनः केवलिनां च सर्वात्मनामुपलम्भस्य प्रतिषेदुमशक्यत्वात् । एवमृद्धीनामप्यभावे सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भोऽसिद्धः, स्वसम्बन्धी तु नियतदेशकालापेक्षोऽन्यथा वा?, प्रथमपक्षे को वा किमाह , कचित्कदाचित्तासामनुपलम्भस्य (उपलम्भस्य) चास्माकमपि संमतत्वात् , द्वितीयपक्षे पुनरनैकान्तिकता, देशादिविप्रकष्टानामनुपलम्भेऽपि सत्त्वात् , दृश्यते च कचित् कदाचित् चरणरेणुस्पर्शादितो रोगोपशमादि, ततश्चेहापि कालान्तरे महाविदेहादिषु सर्वकालमृद्ध्यन्तराणामपि सम्भवस्थानुमीयमानत्वात् , यदपि-वञ्चितोऽस्मीति भोगसुखानामनेन शिरस्तुण्डमुण्डनोपवासादिना यातनात्मकेन धर्मानुष्ठानेनेति, तदप्यसमीक्षिताभिधानं, भोगसुखाना दुःखानुषक्तत्वेन तत्त्ववेदिनामनादेयत्वात् , तथा च वात्स्यायनोऽप्याह -* दीप अनुक्रम - [९३] -3 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४४|| नियुक्ति: [१२२] (४३) उत्तराध्य. बृहद्भुत्तिः प्रत ॥१३२॥ सूत्रांक ||४४|| "तद्यथा-विपसम्पृक्तमन्नमनादेयमेवं दुःखानुषक्तं सुखमनादेय"मिति, प्रयोगश्च-यद्विपक्षानुषिद्धं न तत्तत्त्वतस्तदेव, परीषहायथा विषव्यामिश्रमन्नम् , अतृप्सिकाङ्क्षाशोकादिनिमित्तं च वैषयिकं सुखं, न चास्यासिद्धता, कालत्रये यथायोगम-18 | ध्ययनम् तृत्यादीनां प्रतिप्राणि खसंविदितत्वात् , नापि तपसो यातनात्मकत्वं, मनइन्द्रिययोगानामहान्येव तत्प्रतिपादनात्, उक्तं हि-"मनइन्द्रिययोगानामहानिचोदिता जिनैः । यतोऽत्र तत्कथं तस्य, युक्ता स्यात् दुःखरूपता!॥१॥" शिरस्तुण्डमुण्डनादेश्च किञ्चित्पीडात्मकत्वेऽपि समीहितार्थसम्पादकत्वेन न दुःखदायकता, यदुक्तम्-"दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ, कायपीडाऽप्यदुःखदा । रत्नादिवणिगादीनां, तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥१॥” प्रयोगश्च-यदिष्टार्थप्रसाधकं न तत्कायपीडात्मकत्वेऽपि दुःखदायि, यथा रत्नवणिजामध्वश्रमादि, इष्टार्थप्रसाधकं च तपः, न चास्याप्यसिद्धता, प्रशमहेतुत्वेन तपसस्तत्परिपक्तितारतम्यात्परमानन्दतारतम्यस्यानुभूयमानत्वेन तत्प्रकर्षे तस्यापि प्रकर्षानुमानात्, प्रयोगश्च-यत्तारतम्येन यस्य तारतम्यं तस्य प्रकर्षे तत्प्रकर्षों, यथाऽग्नितापप्रकर्षे तपनीयविशुद्धिप्रकर्षः, अनुभूयते च | साप्रशमतारतम्येन परमानन्दतारतम्यं, लोकप्रतीतत्वाचेति सूत्रार्थः॥४४॥ तथा अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सइ।मुसं तेएवमाहंसु, इति भिक्खून चिंतए॥४५॥(सूत्रम् ॥१३२॥ है। व्याख्या-'अभूवन्' आसन् 'जिनाः' रागादिजेतारः, अस्तीति विभक्तिप्रतिरूपको निपातः, ततश्च विद्यन्ते जिनाः, अस्य कर्मप्रयादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्भुततया वस्तुतः सुधर्मखामिनैव जम्बुस्खामिन प्रति प्रणीतत्वात् , तत्काले च दीप अनुक्रम [९३] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| दीप अनुक्रम [४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५ || अध्ययनं [२], Education intimational जिनसम्भवादित्यमुक्तं, विदेहादिक्षेत्रान्तरापेक्षया वेति भावनीयं, 'अदुवे 'ति अथवा, अपिः भिन्नक्रमो 'भविस्सह'त्ति वचनव्यत्ययाद्भविष्यन्ति, जिना इत्यपि 'मृषा' अलीकं, 'ते' जिनास्तित्ववादिनः, 'एवम्' अनन्तरोक्तन्यायेन 'आहंसु' ति आहुः ब्रुवत इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्, जिनस्य सर्वज्ञाधिक्षेपप्रतिक्षेपादिषु प्रमाणोपपन्नतया प्रतिपादनात् तदुपदेशमूलत्वाच्च सकलैहिकामुष्मिकव्यवहाराणामिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ इदानीं शिष्यागमनद्वारं, तत्र च 'नत्थि नूणं परे लोए' इति सूत्रावयवसूचितमुदाहरणमाह ओहाविउकामोऽवि य अज्जासादो उ पणीयभूमीए । काऊण रायरूवं पच्छा सीसेण अणुसिद्धो ॥ १२३ ॥ व्याख्या- 'अवधावितुकामोऽपि उन्निष्क्रमितुकामोऽपि, चः पूरणे, आर्याषाढस्तु 'पणितभूमौ' व्यवहारभूमौ | हट्टमध्य इत्यर्थः कृत्वा राजरूपं पश्चाच्छिष्येणानुशिष्ट इति गाथाक्षरार्थः ॥ १२३ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् - अथ भूमी अजासाठा णामायरिया बहुस्सुया बहुसीसपरिवारा य, तत्थ गच्छे जो कालं करेइ तं निज्जावैति भत्तपचखाणाइणा, तो बहवो णिज्जामिया । अन्नया एगो अप्पणतो सीसो आयरतरेण भणितो-देवलो१ अस्ति वत्सभूमी आर्याषाढा नामाचार्या बहुता बहुशिष्यपरीवाराश्च तत्र गच्छे यः कालं करोति तं निर्यामयन्ति भक्तप्रत्याख्यानादिना, ततो बहवो नियमिताः । अन्यदा एक आत्मीयः शिष्य आदरतरेण भणित:-देवली For Parts Only निर्युक्ति: [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~267~ g Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१२३] (४३) प्रत सूत्रांक * * ||४५|| उत्तराध्य. गांतो आगंतूण मम दरिसणं देज्जासु, ण य सो आगतो वक्खित्तचित्तत्तणओ, पच्छा सो चिंतेइ-मुबहुं कालं किलि- परीषहा टोऽहं, सलिंगेणं चेव ओहावद, पच्छा तेण सीसेण देवलोगगएण आभोईतो, पेच्छह-ओहायेतं, पच्छा तेण तस्साध्ययनम् बृहद्वृत्तिः पहे गामो विउवितो णडपेच्छा य,सो तत्थ छम्मासे पेक्खंतो अच्छितो, ण छुहं ण तण्हं कालं वा दिवप्पभावेण ॥१३॥ एति, पच्छा तं संहरिउं गामस्स बर्हि विजणे उजाणे छद्दारए सवालंकारविभूसिए विउचति संजमपरिक्खत्थं, दिहा तेण ते, गिण्हामि एसिमाहरणगाणि, बरं सुहं जीवंतोत्ति, सो एगं पुढविदारयं भणइ-आणेहि आभरणगाणि, सो भणइ-भगवं! एग ताव मे अक्खाणयं सुणेहि, तओ पच्छा गिहिज्जासि, भणइ-मुणेमि, सो भणइ-एगो कुंभकारो, सो मट्टियं खर्णतो तडीए अर्कतो, सो भणइ १० कादागत्य मह्यं दर्शनं दद्याः, न च स आगतो ब्याक्षिप्तचित्तत्वात् , पश्चात्स चिन्तयति-सुबहुकालं क्लिष्टोऽहं, स्खलिङ्गेनैवावधावति, पश्चात्तेन शिष्येण देवलोकगतेनाभोगितः, पश्यति-अवधावन्तं, पश्चातेन तस्य पथि प्रामो विकुर्वितः नटप्रेक्षणकं च, स तत्र पग्नासान प्रेक्षमाणः स्थितः, न क्षुध न तृष्णां कालं वा दिव्यप्रभावेण वेदयति, पश्चात्तन् संहत्य प्रामाहिर्विजने उद्याने षड् दारफान | |१३३॥ सर्वालङ्कारविभूषितान विकुर्वति संयमपरीक्षार्थ, दृष्टास्तेन ते, गृह्णाम्येषामाभरणानि, वरं सुखं जीवन्निति, स एकं पृथ्वीदारक भणति-आनय * आभरणानि, स भणति-भगवन् ! एकं तावन्ममाख्यानक शृणु, ततः पश्चात् गृहीयाः, भणति-शृणोमि, स भणति-एकः कुम्भकारः, दस मृत्तिका खनन तथ्याऽऽक्रान्तः, स भणति-: * दीप अनुक्रम [१४] 4 % JABERatinintammational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१२४] (४३) XX प्रत सूत्रांक ||४५|| जेण भिक्खं बलिं देमि, जेण पोसेमि नायए । सा मे मही अक्कमइ, जायं सरणओ भयं ॥ १२४॥ __ ब्याख्या-'जेण'त्ति प्राकृतशैल्या यया भिक्षा बलिं ददामि, यथाक्रमं भिक्षुदेवेभ्य इति गम्यते, 'जेणति यया : पोषयामि 'नायए'त्ति ज्ञातीन् , सा 'मेत्ति मां मही 'आक्रामति' अवष्टनाति 'जातम्' उत्पन्नं, शरणतो भयम् इति । श्लोकार्थः ॥ १२४ ॥ अयमिहोपनयः-चौरभयादहं भवन्तं शरणमागतः, त्वं च एवं विलुम्पसि, ततो ममापि जातं शरणतो भयम् , एवमुत्तरत्राप्युपनया भावनीयाः, तेणं भण्णइ-अइपंडिययाइतोऽसित्ति घेतूण आभरणगाणि पडि-18 ग्गहे छूढाणि । गओ पुढविकाइतो, इयाणिं आउकाओ बीओ, सोऽवि अक्खाणयं कहेइ-जहा एगो तालायरो कहाकहओ पाडलओ णाम, सो अन्नया गंगं उत्तरंतो उपरि बुट्टोदएण हीरति, तं पासिऊण जणो भणइ बहुस्सुयं चित्तकह, गंगा वहइ पाडलं । बुज्झमाणग! भदं ते, लव ता किंचि सुहासियं ॥ १२५॥ व्याख्या-'बहुश्रुतं' बहुविद्य 'चित्रकथं नानाकथाकथकं गङ्गा वहति 'पाडलं' पाटलनामकम् , उलमानक ! १ तेन भण्यते-अतिपण्डितबादिकोऽसीति गृहीत्वाऽऽभरणानि प्रतिग्रहे क्षिप्तानि । गतः पृथ्वीकायिकः, इदानीमकायो द्वितीयः, सोऽण्याख्यानकं कथयति-यथैकस्तालाचरः कथाकथकः पाटलो नाम, सोऽन्यदा गङ्गामुत्तरन् उपरि पृष्ठोदकेन हियते, तं दृष्ट्वा जनो भणति दीप अनुक्रम [९४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१२५] (४३) परीषहाध्ययनम् बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४५|| उत्तराध्य. भद्रं ते, 'लप ब्रूहि 'ता' इति तावद्यावदद्यापि दूरं न नीयस इति भावः, 'किञ्चित्' अत्यल्पं 'सुभाषितं' सूक्तमि- ति श्लोकार्थः ॥ १२५ ।। सोऽवादीत् जेण रोहंति बीयाणि, जेण जीयंति कासया । तस्स मझे विवजामि, जा० ॥ १२६ ॥ ॥१३॥ __व्याख्या-'येन' जलेन रोहन्ति' प्रादुर्भवन्ति बीजानि, येन 'जीवन्ति' प्राणधारणं कुर्वन्ति 'कर्षकाः' कृषीवलाः तस्य मध्ये 'विवजामि'त्ति विपद्ये म्रिये, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२६ ॥ तस्सवि तहेव गिण्हति । टीएस आउक्कातो गतो, इयाणिं ते उक्कातो तइतो, तहेब अक्खाणयं कहे इ-एगस्स तावसस्स अग्गिणा उडओ दहो, पच्छा सो भणति जमहं दिया य राओ य, तप्पेमि महसप्पिसा । तेण मे उडओ दवो, जा० ॥१२७ ॥ 81 व्याख्या-यमहं दिवा च रात्रौ च 'तर्पयामि' प्रीणयामि मधुसर्पिषा, तेनार्थादमिना मे 'ओटजः' तापसाश्रमो हदग्धो, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२७ ॥ अथवा | १ तस्यापि तथैव गृह्णाति । एषोऽस्कायो गतः, इदानी तेजस्कायस्तृतीयः, तथैव आख्यानकं कथयति-एकस्य तापसस्य अमिना उटजी दग्धः, पश्चात् स भगति दीप अनुक्रम [९४] ॥१३४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४५ || दीप अनुक्रम [४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५ || अध्ययनं [२] वग्घस्स मए भीएणं, पावगो सरणं कओ । तेण दहं ममं अंगं, जा० ॥ १२८ ॥ व्याख्या- ' वग्घस्स' त्ति मुख्यत्ययात् 'व्याघ्रात् ' पुण्डरीकात् मया भीतेन 'पावकः' अभिः शरणीकृतः, तेनानंशरीरं मम दग्धं, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२८ ॥ तस्संवि तहेब गिण्हइ । एस तेउक्काओ, इयाणिं वाउकाओ चउत्थो, तहेव अक्खाणयं कहेति-जहा एगो जुवाणो घणनिचियसरीरो, सो पच्छा वाएहिं गहितो, | अत्रेण भण्णति लंघणपवणसमत्थो पुढं होऊण संपई कीस ? । दंडयगहियग्गहत्थो वयंस! को नामओ वाही ? ॥ १२९ ॥ व्याख्या - लङ्घनम् - उत्प्लुत्य गमनं प्लवनं घावनं तत्समर्थः पूर्व भूत्वा साम्प्रतं 'कीस' त्ति कस्मात् 'दण्डयगहियग्गहत्थो' ति प्राकृतत्वात् गृहीतदण्डाग्रहस्तो, गच्छसीति गम्यते, तदयं ते वयस्य ! किंनामको व्याधिरिति गाथार्थः ॥ १२९ ॥ स प्राह जिट्टासाढेसु मासे, जो सुहो वाइ मारुओ । तेण मे भज्जए अंगं, जा० ॥ १३० ॥ Education intol निर्युक्ति: [ १२८] १ तस्वापि तथैव गृह्णाति । एष तेजस्कायः, इदानीं वायुकायश्चतुर्थः, तथैव आख्यानकं कथयति-यथैको युवा धननिचितशरीरः, स पश्चाद्वातेन गृहीतः अन्येन भण्यते For Fasten ~ 271~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१३०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| उत्तराध्य. व्याख्या-ज्येष्ठापाडयोर्मासयोर्यः शुभशैत्यादिगुणान्वितत्वेन शोभनो वाति 'मारुतो' वायुः, तेन (मे मम) परीपहा भज्यतेऽहं तस्य मेषोन्नतिसम्भवत्वेन वातप्रकोपादिति भावः, एवं च जातं शरणतो भयं, घाहितानां हिध्ययनम् बृहद्वृत्तिः शरणमयमिति श्लोकार्थः ॥ १३०॥ अथवा॥१३५॥ जेण जीवंति सत्ताणि, निरोहमि अणंतए । तेण मे भजए अंगं, जायं० ॥१३१॥ है ब्याख्या-'जेण' इत्यादि, येन वातेन जीवन्ति सत्त्वानि 'निरोधे प्रक्रमाद्वातस्य 'अनन्तके अपरिमिते, तेन में भज्यतेऽहं जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥१३॥ तस्सवि तहेव गिण्हइ । एस वाउक्काओ गतो, इयाणि वणस्सइकाइतो पंचमो, तहेव अक्खाणं कहेति, जहा एगमि रुक्खे केसिपि सउणाण आवासो, तहियं पिल्लगाणि जायाणि, पच्छा रुक्खभासाओ वल्ली उठ्ठिया, रुक्खं वेडंती उबरि विलग्गा, वेल्लीअणुसारेण सप्पेण विलग्गिऊण ते पिलगा खइया, पच्छा सेसगा भणन्ति जाव वुच्छं सुहं बुच्छं, पादवे निरुबद्दवे । मूलाउ उट्रिया वाल्ली, जा०॥ १३२ ॥ १ तस्यापि तथैव गृह्णाति । एष वायुकायो गतः, इदानी वनस्पतिकायिकः पञ्चमः, तथैवाख्यानं कथयति-यथा एकस्मिन वृक्षे केषा-1X341 शिदपि शकुनानामावासः, तत्रापत्यानि जातानि, पश्चात् वृक्षाभ्यासात् वल्ली उत्थिता, वृक्षं वेष्टयन्ती उपरि विलग्ना, वल्लयनुसारेण सर्पण विलग्य तान्यपत्यानि खादितानि, पश्चात् शेषा भणन्ति दीप अनुक्रम [९४] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३२] (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| I. व्याख्या-यावदुषितं सुखमुषितं पादपे निरुपद्रवे, इदानीं मूलादुत्थिता वली ततो वृक्षादेव तत्त्वतो भयं, स| दाचोक्तनीत्या शरणमिति जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः॥ १३२ ॥ तस्सवि तहेव गिणइ । एस वणस्सतिकातो गतो, इयाणि तसकाओ छटो, तहेव अक्खाणयं कहेइ-जहा Kाएकं नगरं परचक्केण रोहियं, तत्थ व बाहरियाए मायंगा, ते अम्भितरएहिं णीण्णिजंति, बाहिं परचकेण घेप्पति, पग्छा केणवि अन्नण भषणति| अभितरया खुभिया, पिल्लंति (य) बाहिरा जणा। दिसं भयह मायंगा !, जा०॥ १३३ ॥ व्याख्या-'अभ्यन्तरकाः' नगरमध्यवर्तिनः 'क्षुभिताः' परचक्रात्रस्ताः 'प्रेरयन्ति' निष्काशयन्ति, मा भूदनादिक्षय एभ्यो वा भेदः, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततो 'बाह्याश्च' परचक्रलोका उपद्रवन्ति, भवत इति गम्यते, नगरसत्का एत इति, अतो दिशं भजत मातङ्गाः!, यतो जातं शरणतो भयं, नगरं हि भवतां शरणं, तत एव भयमिति श्लोकार्थः ॥१३३ ॥ अथवा-एगव नयरे सयमेव राया चोरो पुरोहिओ भंडिति (डोत्ति), ततो दोषि विहरंति, पच्छा लोओ अन्नमन्नं भणति १ तस्यापि तथैव गृह्णाति । एष वनस्पतिकायिको गतः, इदानीं त्रसकायः पष्ठः, तथैवाख्यानकं कथयति-यथैक नगरं परचक्रेण रुद्धं, तत्र च बाहिरिकायां मातकाः, तेऽभ्यन्तरैनिष्काश्यन्ते, बहिः परचक्रेण गृह्यन्ते, पश्चात्केनाप्यन्येन भण्यन्ते- २ एकत्र नगरे स्वयमेव राजा | चौरः पुरोहितो भण्डकः, ततो द्वावपि विहरतः, पचालोकोऽन्थोऽन्य भणति दीप अनुक्रम [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३४] (४३) *% प्रत सूत्रांक % ||४५|| 64-90 % उत्तराध्य. जत्थ राया सयं चोरो, भंडिओ य पुरोहिओ। दिसं भयह नायरिया!, जायं० ॥ १३४॥ परीषहा व्याख्या-यत्र राजा खयं चौरः-खपुरं मुष्णाति, भण्डकश्च पुरोहितः, अतो दिशं भजत नागरका ! जातं शरबृहद्धृत्तिः तणतो भयमिति श्लोकार्थः॥ १३४ ॥ ॥१३॥ अहवां एगस्स धिज्जातियस्स धूया, सा य जोवणत्था, पडिरूपदंसणिज्जा, सो धिजातितो तं पासिऊण अज्झोववष्णो, तीसे करण अतीव दुबलीभूतो, बंभणीए पुच्छितो-णिबंधे कए, कहियं, ताए भण्णति-मा अधिई करेसु, तहा करेमि जहा केणइ पओएण संपत्ती हबति, पच्छा धूयं भणइ-अम्ह पुर्वि दारियं जक्खा भुंजंति, पच्छा वरस्स दिजद, तो तव कालपक्खच उद्दसीए जक्खो एही, मा तं विमाणेसु, मा य तत्व तुमं उज्जोयंकाहिसि, तीएवि जक्खकोउहलेण दीवओ सरावेण ठवितो नीतो. सोय आगतो, सो तं परिमुंजिऊण रति किलंतो पासुत्तो, ____१ अथवा एकस्य धिग्जातीयस्य दुहिता, सा च यौवनस्था, अप्रतिरूपदर्शनीया, स धिग्जातीयतां दृष्ट्वाऽभ्युपपन्नः, तस्याः कृते अतीव दुर्बलीभूतः, ब्राह्मण्या पृष्ठः-निर्बन्धे कते कधितं, तया भण्यते-माऽधृति कार्षीः, तथा करिष्यामि यथा केनचिरपयोजनेन संपत्तिर्भविष्यति, पञ्चाइ हितर भणति-अस्माकं पूर्व दारिकां यक्षा भुसते, पश्चाद्वराय दीयते, ततस्त्यां कृष्णपक्षचतुर्दश्यां यक्ष एष्यति, मा ते जाविमस्थाः, मा च तत्र त्वमुद्योतं कार्षीः, तथाऽपि यक्षकौतूहलेन दीपः शरावेण स्थगितो नीतः, स चागतः, स तां परिभुज्य रात्रौ। छान्तः प्रसुप्तः, दीप अनुक्रम ACTRONG [९४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३५] (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| इमाए कोउएण सरावं फेडियं, नवरं पेच्छइ पियरं, ताए नायं-जं होइ तं होउ, इच्छाए भुंजामि भोए, पच्छा ताई रहकिलंताई उग्गए सूरे न पडिबुझंति, पच्छा बंभणी मागहियं भणइ-- अइरुग्गयए य सूरिए, चेइयथूभगए य वायसे। भित्तीगयए य आयवे, सहि ! सुहिओहुजणो न बुज्झइ॥ व्याख्या-अचिरोद्गतके च सूर्ये, कोऽभिप्रायः ?-प्रथमोदिते रखौ, चैत्यस्तूपगते च यायसे, अनेनोचे विवखतीत्साह, भित्तिगते चातपे, अनेन चोचतर इति, सखि ! सुखितोहुर्वाक्यालङ्कारे जनो'न बुध्यते' न निद्रां जहाति, अनेनात्मनो दुःखितत्वं प्रकटयति, सा हि भर्तृविरहदुःखिता रात्री न निद्रा लब्धवतीति मागधिकार्थः ॥ १३५॥ पच्छा सा तीसे धूया पडिसुणित्ता पडिभणति मागहियंतुम एव य अम्म हे! लवे,मा हु विमाणय जक्खमागयोजक्खहडए हुतायए,अन्निं दाणि विमग्ग ताययं॥ व्याख्या-त्वमेव चाम्ब !-मातः हे इत्यामत्रणे 'अलापीः उक्तवती शिक्षासमये यथा-'मा हुत्ति मैव 'विमाणय'त्ति ____ १ अनया कौतुकेन शरावं स्फेटितं, नवरं पश्यति वातं, तया ज्ञात-बद्भवति तद्भवतु, इच्छया भुजे भोगान , पश्चात्ती रतिकान्तौ ४ उगते सूर्ये (अपि) न प्रतिबुध्येते, पश्चाद् ब्राह्मणी मागधिका भणति-२ पश्चात्तस्याः सा दुहिता प्रतिभुत्य प्रतिभणति मागधिकाम् दीप अनुक्रम [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३७] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥१३७॥ ||४५|| विमंस्था विमुखं कृथा यक्षमागतं, यक्षाहतको हुत्ति खलु तातकोऽन्यमिदानीं 'विमार्गय' अन्वेषय तातकमिति माग- परीपहाधिकार्थः ॥ १३६ ॥ पच्छा सा धिज्जाइणी भणइ ध्ययनम् नवमास कुच्छीइ धालिया, पासवणे पुलिसे य महिए। धूया मे गेहिए हडे, सलणए असलणए य मे जायए ॥ १३७॥ व्याख्या-नव मासान् कुक्षौ धारिता या, प्रश्रवणं पुरीषं च मर्दितं यस्या इति गम्यते, 'धूय'त्ति दुहिता च, गम्यमानत्वात्तया, 'मे' मम 'गेहको' भर्ती 'हतः' चौरितोऽतो हेतोः, शरणकमशरणकम् , अपकारित्वान्मे जातमिति है। मागधिकार्थः ॥ १३७ ॥ अहंवा एगेण धिज्जाइएण तलायं खणावियं, तत्थेव पालीए देसे देउलमारामो कतो, तत्य तेण जन्नो पबत्तिओ, छगलका जत्थ मारिजंति । अन्नया कयाइ सो घिजाइतो मरिऊण छगलको चेवायाओ, सो य चित्तूण अप्पणिजेहिं प्रत्तेहिं तस्स चेव तलाए जन्ने मारिणिजति, सो य जाईस्सरो णिजमाणो अप्पणिज्जियाएर १ पश्चात् सा धिग्जातीया भणति-१२ अधवैकेन धिरजातीयेन तटाकं खानितं, तत्रैव पाल्यां देशे देचकुलमारामः (च) कृतः, तत्र तेन ॥१३७॥ यज्ञः प्रवर्तितः, अजा यत्र मार्यन्ते । अन्यदा कदाचित् स धिग्जातीयो मृत्वा छगलकश्चैवायातः, स च गृहीत्वाऽऽत्मीयैः पुत्रैः तस्यैव का टू तटाके यज्ञे मारयितुं नीवते, स च जातिस्मरी नीयमान आत्मीयया दीप अनुक्रम [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| दीप अनुक्रम [४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५|| अध्ययनं [२], Jus Education intimatio भांसाए बुबुयह अप्पणा चैव सोयमाणो, जहा मम चैव मए पवत्तियं, एवं सो वेवमाणो साहुणा अतिसयणाणिणा एगेण दीसति, तेण भणियं सयमेव य लुक्ख लोविया, अप्पणिआ य वियड्डि खाणिया । ओवाइलओ यसि, किं छेला ! वेवेति वाससी ? ॥ १३८ ॥ व्याख्या - स्वयमेव च - आत्मनैव च 'रुक्ख'त्ति सुन्लोपादृक्षा रोपिताः, भवतेति गम्यते, आत्मीया च 'वियहि'त्ति देशीवचनतः तडागिका खानिता, याचितस्य प्रार्थितस्य प्राप्तेरुपरि देवेभ्यो देयमुपयाचितं तेनैव लब्धः - अवसरः दुरापत्वेनोपयाचितलब्धः स एवोपयाचितलब्धकोऽसि त्वमिति, किं छगलक ! 'वेवेति वाससि ? - आरससीति | मागधिकार्थः ॥ १३८ ॥ तो सो छगलको तेण पढिएणं तुण्डिको ठिओ, तेण धिजाइएण चिंतियं किंपि पचइयगेण पढियं, तेण एस तुण्डिको ठिओ, तओ सो तबस्सि भणति-किं भगवं । एस छगलको तुम्भेहिं पढियमेते चैव तुण्डिको निर्युक्ति: [ ९३८] १ भाषया बुवुत्करोति आत्मनैव शोचन, यथा ममैव मया प्रवर्तितम् एवं स वेपमानः साधुना अतिशयज्ञानिना एकेन दृश्यते, तेन भणितं - २ ततः स छगलकस्लेन पठितेन तूष्णीकः स्थितः, तेन घिग्जातीयेन चिन्तितं किमपि प्रब्रजितकेन पठितं, तेनैष तूष्णीकः स्थितः, ततः स तपस्विनं भणति - किं भगवन् ! एष छगलको युष्माभिः पठितमात्रे एव तूष्णीकः Forest Use Only ~277~ www.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१३८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| उत्तराध्य. ठिओ, तेण साहुणा तस्स कहियं-जहा एस तुम्भ पिया, किमभिण्णाणं ?, तेण भणियं-अहंपि जाणामि, किं पुण, परीषहा एसो कहिहिइ, तेण छगलगेण पुवभवे पुत्तेण समं निहाणगं निहिय, तं गंतूण पाएहिं खडखडेइ, एयमभिन्नाणं, ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः पच्छा तेण मुको, साहुसमीवे धम्मं सोउण भत्तं पञ्चक्खाएऊण देवलोयं गतो। एवं तेण सरणमिति काउं तडागारामे ॥१३८॥ जण्णो य पवत्तिओ, तमेव असरणं जायं । एवंविधोऽत्र समवतार:-एवं तुम्हं अम्हे गया सरणं । इह च पूर्वक मनुष्यजातेस्रसस्य स्मरणार्थमुदाहरणत्रयमिदं तु तिर्यग्जातेरिति भावनीयम् । सो तहेव तस्स आहरणगाणि |चित्तूण सिग्घं गंतुं समाढत्तो पंथे, णवरि संजई पासति मंडियंटिबिडिफियं, तेण सा भण्णइ कडए ते कुंडले य ते, अंजियक्खि ! तिलयते य ते । पवयणस्स उड्डाहकारिए! दुट्टा सेहि ! कतोऽसि आगया? ॥ १३९ ॥ स्थितः, तेन साधुना तस्मै कथितं-यथैप तब पिता, किरमिज्ञानम् ?, तेन भणितम्-अहमपि जानामि, किं पुनरेष कथयिष्यति, ४ तेन उगलकेन पूर्वभवे पुत्रेण समं निधानं निहितं, तद्गता पादाभ्यां खटत्कारयति, एतदभिज्ञान, पश्चात् तेन मुक्तः, साधुसमीपे धर्म श्रुत्वा | दभक्त प्रत्याख्याय देवलोकं गतः । एवं तेन शरणमितिकृत्या तटाकारामो यज्ञश्च प्रवर्तिती, त एवाशरणं जातम् । एवं युष्मान् वयं गताः शरणं । स तथैव तस्याभरणानि गृहीत्वा शीघ्रं गन्तुं समारतः पथि, नवरं संयती पश्यति अलङ्कारोङ्कटा, तेन सा भण्यते दीप अनुक्रम [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३९] (४३) ॐ प्रत सूत्रांक ||४५|| व्याख्या-कटके च 'ते' तप कुण्डले च ते अजिताक्षि । तिलकश्च 'ते' त्वया कृतः, प्रवचनस्य उद्वाहकारिके! दुष्टशिक्षिते कुतोऽस्थागतेति मागधिकार्थः ॥ १३९ ॥ दर्शनपरीक्षार्थं च साध्वीविकरणं । सैवमुक्ता सतीदमाह राईसरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतोऽविन पाससि ॥१४॥ PL व्याख्या--राजिकासर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यस्यात्मनो विल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसीति श्लोका थैः ॥ १४० ॥ तथासमणोऽसि संजओ असि, बंभयारी समलेठुकंचणे। वेहारियवाअओय ते, जिटुज! किं ते पडिग्गहे? १४१ ब्याख्या-श्रमणोऽसि संयतोऽसि बहिर्वृत्त्या ब्रह्मचारी समलोष्ठकाञ्चनो विहारिकवातकश्च ते-यथाऽहं वैहारिक है इत्यादिरूपो ज्येष्ठार्य ! कि 'ते' तव पतग्रहक इति श्लोकार्थः ॥ १४१॥ एवं ताए उहाहितो समाणो पुणोऽवि गच्छति, णवरं पेच्छति खंधावारमितं, तस्स किर णीवट्टमाणो दंडियस्सेव सबहुत्तो गतो, तेण हस्थिखंधा ओरुहित्ता वंदितो भणिओ य-भय ! अहो परमं मंगलं निमित्तं च जं साहू अज मए दिट्ठो, भयवं ! ममाणुग्गहत्थं | १एवं तया निर्भसितः सन पुनरपि गच्छति, नवरं पश्यति स्कन्धावारमायान्त, तस्मात् किल निवर्तमानो दण्डिकस्यैव सपक्षं गतः, द तेन हस्तिस्कन्धादवतीर्य वन्दितः भणितश्च-भगवन् ! अहो परमं मजलं निमित्तं च यत्साधुरय मया दृष्टः, भगवन् ! ममानुपदार्थ दीप अनुक्रम [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१४१] (४३) उत्तराध्य. बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥१३९॥ ||४५|| फोसुयएसणिजं इमं मोयगादि संबलो घेप्पति, सो णिच्छइ, भायणे आभरणगाणि छूढाणि मा दीसिहिति, तेण परीषडादंडिएण बला मोडिऊण पडिग्गहो गहिओ, जाव मोयगे छुहति ताव पेच्छइ आभरणयाणि, तेण सो खरंटिओध्ययनम् उवालद्धो य, पुणोऽवि संबोहिओ-जहा न जुज्जर तुम्हं एवं विपरिणामो, मज्झं च अणागमणकारणं सुणेसु-संकेतदिवपेमा बिसयपसत्ताऽसमत्तकत्तबा । अणहीणमणुयकज्जा नरभवमसुहं न इंति सुरा ॥१॥ पच्छा दिवं देवरूवं काऊण पडिगतो। तेण पुर्षि दसणपरीसहो नाहियासितो, पच्छा अहियासितो॥ एवं शेषसाधुभिरपि सहनीयो दर्शनपरीपहः ॥ इहोदाहरणोपदर्शकत्वात् प्रकृतनियुक्तेः कथं सूत्रस्पर्शकत्वमिति यत्कैश्चिदुच्यते, तदयुक्तं, सूत्रसूचितार्थाभिधायित्वात् तस्याः, तदभिधानस्य तत्त्वतः सूत्रव्याख्यानरूपत्वेन सूत्रस्पर्शकत्वादिति । किं च-कालीपवंगसंकासे'इत्यादिना क्षुदादिभिरत्यन्तपीडितस्यापि यत्परीषहणमुक्तं, तत्र मन्दसत्वस्य कस्यचिदश्रद्धानात् सम्य-14 क्वविचलितमपि सम्भवेदिति तदृढीकारार्थ दृष्टान्ताभिधानमर्थतः सूत्रस्पर्शकमिति व्यक्तमेवैतत्, न च केषाश्चि १ प्रासुकैषणीयमिदं मोदकादि शम्बलो गृह्यता, स नेच्छति, भाजने आभरणानि क्षिप्तानि मा दशाँति, तेन दण्डिकेन बलादामोट्य प्रतिग्रहो गृहीतः, यावन्मोदकान् क्षिपति तावत्पश्यति आभरणानि, तेन स तिरस्कृतः उपालब्धश्च, पुनरपि संबोधितः यथा न युज्यते । ॥१३९॥ | युष्माकमेवं विपरिणामः, मम चानागमनकारणं शृणु--संक्रान्तदिव्यप्रेमाणो विषयप्रसक्ताः असमाप्तकर्त्तव्याः । अनधीनमनुजकार्या नरभवमशुभं नायान्ति मुराः ॥ १॥ पश्चादिव्यं देवरूपं कृत्वा प्रतिगतः । तेन पूर्व दर्शनपरीषहो नाभ्यासितः पश्चात् अभ्यासितः ॥ दीप अनुक्रम [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४६|| नियुक्ति: [१४१] (४३) प्रत सूत्रांक दिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादर्वाकालभावितेत्यन्योकत्वमाशङ्कनीयं, स हि भगवांश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली काल-18 प्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्केति ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थोपसंहारमाह एए परीसहा सवे, कासवेण पवेइया।जे भिक्खू ण विहणिजा, पुट्ठो केणइ कण्हुइ ॥ ४६॥(सूत्रम्)। IFI व्याख्या-एते' अनन्तरमुपदर्शितखरूपाः, 'परीपहाः' क्षुदादयः सर्वे' द्वाविंशतिसंख्या अपि न तु कियन्त लाएव 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरेण 'प्रवेदिताः' प्ररूपिता, 'जे'चि यानुक्तन्यायेन ज्ञात्वेति शेषः, 'मिक्षुः' यतिन चैव 'विहन्येत' पराजीयेत, कोऽर्थः -संयमात्पात्येत, 'स्पृष्टो' बाधितः केनापि प्रक्रमाद्वाविंशतेरेकतरेण दुर्जयेनापि परीषहेण 'कण्हुइ'त्ति कुत्रचित् देशे काले वा इति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ इतिः परिसमाप्ती, ब्रवीमीति सुधर्मखामी जम्बूखामिनमाह । नयाः पूर्ववत् । इति श्रीशान्तिसूरिविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां द्वितीयमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ||४६|| %AKAR दीप अनुक्रम [९५] द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ Dinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २ परिसमाप्तं ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४१] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| नमः श्रुतदेवतायै । उक्तं परिपहाध्ययनं, सम्प्रति चतुरङ्गीयमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तराध्ययने परीषहसहनमुक्तं, तच किमालम्बनमुररीकृत्य कर्त्तव्यमिति प्रश्नसम्भवे मानुषत्वादिचतुरङ्गदुर्लभत्वं तदालम्ब नमनेनोच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्णनीयानि तावद्यावन्नामनिद पन्नो निक्षेपः, तत्र च चतुरङ्गीयमिति द्विपदं नाम, अतश्चत्वारो निक्षेप्तव्याः अहं च, न चैकं विना चत्वार इसेक शाएव तावनिक्षेपमहतीति मन्वान आह नियुक्तिकृत् णामंठवणादविए माउयपय संगहिकए चेव । पज्जव भावे य तहा सत्तेए इक्कगा इंति ॥ १४२॥ ६ व्याख्या-इहैककशब्दस्सैकत्र निर्दिष्टस्वापि प्रक्रान्तत्वेन सर्वत्र सम्बन्धात्, नामैककः स्थापनैकको द्रव्यैकका, 'मा है उयपय'त्ति सुपो लोपान्मातृकापदैकका सङ्ग्रहैकका, 'चः' समुच्चये, एवेति पूरणे, 'पजवति प्राग्वत् पर्यवैकका 'भावे' भावकका, 'चः' पूर्ववत् , तथेति शेषाणामपि निरूपचरितवृत्तितया तुल्यत्वमाह, उपसंहर्तुमाह-'सप्तैते' अनन्तरोक्ता एकका भवन्ति, एतद्व्याख्या च दशवकालिकनियुक्तावेव नियुक्तिकृता कृतेत्यत्रोदासितं, स्थानाशू-10 न्याथै तु तदुक्तमेव किश्चिदुच्यते-तत्र नामैकको यस्यैकक इति नाम, स्थापनैकका पुस्तकादिन्यस्त एककाकः, द्रन्यै-18 ककः सचित्तादिनिधा-तत्र सचित्त एककः पुरुषादिरर्थः, अचित्तः फलकादिः, मिश्रो वनादिविभूषितः पुरुषादिरेक, & मातृकापदैकका 'उप्पण्णे वा विगमे दबा धुवे इ वा इति, एषां मातृकावत्सकलवालयमूलतयाऽवस्थिताना-12 RECCCCCCCIA दीप अनुक्रम [९५] S wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ३ "चतुरंगिय" आरभ्यते ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४२] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराय. मन्यतरद्विवक्षितम् , अकाराद्यक्षरात्मिकाया वा मातृकाया एकतरोऽकारादिः, सङ्घहैककः येनैकेनापि ध्वनिना बहवः वाचतुरङ्गीया संगृह्यन्ते, यथा जातिप्राधान्ये श्रीहिरिति, पर्यायैककः शिवकादिरेककः पर्यायो, भावककः औदयिकादिभावा- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः 18/नामन्यतमो भाव इति गाथार्थः ॥ १४२ ॥ इत्थमविनाभाविताऽऽक्षिप्तमेककं निक्षिप्य प्रस्तुतमेव चतुष्कं ॥१४१॥ निक्षेनुमाह दणामं ठवणा दविए खित्ते काले य गणण भावे यानिक्खेवो य चउण्हं गणणसंखाइ अहिगारो॥१४३॥ A व्याख्या-तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, 'द्रव्ये विचार्ये सचित्ताचित्तमिश्राणि द्रव्याणि चतुःसङ्ग्यतया विवक्षितानि, क्षेत्रे' चतुःसङ्ख्यापरिच्छिन्ना आकाशप्रदेशा यत्र वा चत्वारो विचार्यन्ते, 'काले च' चत्वारः समयावलिकादयः कालभेदाः यदा वा अमी व्याख्यायन्ते, गणनायां चत्वार एको द्वौ प्रयश्चत्वार इत्यादिगणनान्तःपातिनो, भावे च चत्वारो मानुषत्वादयोऽभिधास्यमाना भावाः, एषां मध्ये केनाधिकारः, उच्यते, गणनासत्ययाऽधिकारः, किमुक्त भवति ?-गणनाचतुर्भिरधिकारः, तैरेव वक्ष्यमाणानामङ्गानां गण्यमानतया तेषामेवोपयोगित्वादिति गाथार्थः॥१४३॥ इदानीमङ्गनिक्षेपमाह P॥१४॥ णामंगं ठवणगंदवंगं चेव होइ भावंगं । एसो खल्लु अंगस्सा णिक्खेवो चउविहो होइ ॥ १४४ ॥ दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], ___ मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४४] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| - व्याख्या-नामाकं स्थापना द्रव्याङ्गं चैव भवति भावाङ्गम् , एतत् खलु 'अङ्गस्सा' इति प्राकृतत्वात् अङ्गस्य । है निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथासमासार्थः ॥ १४४ ॥ अत्र च नामस्थापने प्रसिद्धत्वादनाश्त्य द्रव्याजमभिधित्सुराह गंधंगमोसहंगं मजाउजसरीरजुद्धंगं । एत्तो इक्विकपि य णेगविहं होइ णायत्वं ॥१४५॥ व्याख्या-गन्धानम् ' औषधानम् , 'मजाउजंसरीरजुद्धंग'ति बिन्दोरलाक्षणिकत्वादनशब्दस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धात् मद्याक्रमातोद्यानं शरीराङ्गं युद्धाङ्गमिति पविधं द्रव्याङ्गम् , 'एत्तो'त्ति सुव्यत्ययादेषु-गन्धाङ्गादिषु ६ मध्ये एकैकमपि च अनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १४५ ॥ भावार्थ तु विवक्षुराचार्यों 'यथोद्देश ४ निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य गन्धाङ्गं प्रतिपादयन्नाहजमदग्गिजडा हरेणुअ सबरनियंसणियं सपिणियं । रुक्खस्स य बाहितया मल्लियवासिय कोडी अग्घई ओसीरहरिबेराणं पलं पलं भद्ददारुणो करिसो। सयपुष्फाणं भागो भागो य तमालपत्तस्स ॥१४७॥ एयं पहाणं एवं विलेवणं एस चेव पडवासो । वासवदत्ताइ कओ उदयणमभिधारयंतीए ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [९५] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४६-१४८] (४३) ॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य व्याख्या-तत्र 'जमदग्निजटा' बालकः 'हरेणुका' प्रियजुः 'शवरनिवसनक' तमालपत्रं, 'सपिणिमय'ति पिन्नि-पि- चतुरङ्गीया 18||निका ध्यामकाख्यं गन्धद्रव्यं तया सह सपिन्निक, वृक्ष्यस्य च वाया त्वक् चातुर्जातकाचं प्रतीतैव 'मल्लियवासिय'ति अध्ययनम् बृहद्वतिः मलिका जातिस्तद्वासितमनन्तरोक्तद्रव्यजातं, चूर्णीकृतमिति गम्यते, कोटिम् 'अग्घेई'त्ति अहति, कोटिमूल्याइभवति,|| ॥१४॥IPमहार्धतोपलक्षणं चैतत् ॥ १४६ ॥ तथा 'ओसीरं प्रसिद्धं, 'हीरो' वालकः, पलं पर्लेमनयोः, तथा 'भद्रदारो' ७/देवदारोः कर्षः, 'सबपुष्फार्ण'ति वचनव्यत्ययात् शतपुष्पाया भागो, भागश्च तमालपत्रस्य, भाग इह पलिका मात्रम् ॥ १४७ ॥ अस माहात्म्यमाह-एतत् स्नानमेतद्विलेपनमेष चैव पटवासः 'वासवदत्तया' चण्डप्रद्योतदुहित्रा 'कृतो' विहितः 'उदयनं' वीणावत्सराजम् 'अभिधारयन्त्या' चेतसि बहन्त्या, जनेन परचित्ताक्षेपकत्वमस माहा-18 म्यमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ १४८ ॥ औषधाङ्गमाहदुन्नि य रयणी माहिंदफलं च तिण्णि य समूसणंगाई। सरसं च कणयमूलं एसा उदगढमा गुलिआ॥ एसा उ हरइ कंडु तिमिरं अवहेडयं सिरोरोगं । तेइज्जगचाउस्थिग मूसगसप्पावरद्धं च ॥ १५०॥ 4 ॥१४॥ व्याख्या-द्वे रजन्यौ' पिण्डदारुहरिने 'माहेन्द्रफलं च' इन्द्रयवाः, त्रीणि च समूषणं-त्रिकटुकं तस्वाहानि-17 सुण्ठीपिप्पलीमरिचद्रव्याणि, 'सरसं च' आई 'कनकमूलं' बिल्वमूलमेषा 'उदकाष्टमे'त्युदकमष्टमं वखां सा तथा दीप अनुक्रम RECCCCESS BREKARE [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३] मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४९-१५०] (४३) प्रत सूत्रांक 18 'गुटिका' चटिका, अस्याः फलमाह-एपा तु हन्ति कण्डं तिमिरम् 'अवहेडयन्ति अर्द्धशिरोरोगं समस्तशिरोव्यर्थ, तेइज्जगचाउत्थिग'त्ति सुब्लोपे तार्तीयीकचातुर्थिकी, रूढ्या ज्वरो, 'मूषकसापराद्धम्' उन्दरादिदष्टं, चः समुच्चय : * इति गाथाद्वयार्थः ॥ १४९-१५०॥ मद्याङ्गमाहसोलस दक्खा भागा चउरो भागा य धाउगीपुप्फे । आढगमो उच्छरसे मागहमाणेण मजंग ॥१५॥12 व्याख्या-षोडश द्राक्षा भागाश्चत्वारो भागाश्च धातकीपुष्पे' धातकीपुष्पविषयाः 'आढगमोत्ति आपत्वादाऽ5-13 ढककः 'इक्षुरसे' इक्षुरसविषये, आढकः इह केन मानेनेत्याह-'मागधमानेन' दो असती पसती उ' इत्यादिरूपेण | 'मद्याझं' मदिराकारणं भवतीति गाथार्थः ॥ १५१ ।। आतोयाङ्गमाह एग मुगुंदा तूरं एग अहिमारुदारुयं अग्गी । एगं सामलीपुंडं बद्धं आमेलओ होइ ॥ १५२ ॥ व्याख्या-'एकमुकुन्दा तूर्यम्' इति एकैव मुकुन्दा वादिनविशेषो गम्भीरखरत्वादिना तूर्यकार्यकारित्वात् तूर्यम् , अनेनास्याविशिष्टमातोद्याङ्गत्वमेवाह, किमेवैकैव मुकुन्दा तूर्यम् ?, सोपस्कारत्वाबधैकमभिमारस्य वृक्षविशेषस्य दारुकंकाष्ठमभिमारदारुकम् 'अग्निः' विशेषतोऽग्निजनकत्वाद्, यथा वा 'एकं शाल्मलीपोण्ड' शाल्मलीपुष्पं बद्धमामोडको : द्वे असत्यौ प्रसृतिस्तु MUSBACHARACT ||४६|| दीप अनुक्रम -१ १४ [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५२] (४३) उत्तराध्य. ॥१४॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| ४ भवति, आमोडकः पुष्पोन्मिश्रो बालबन्धविशेषः, स्फारत्वादस्य, इत्थं दृष्टान्ताभिधायितयेदं व्याख्यायते, प्रसङ्गतो चतरडीया वाऽग्यज्ञामोडकाङ्गयोरप्यभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ १५२ ॥ शरीराङ्गमाह ध्ययनम् सीसं उरो य उदरं पिट्टी बाहा य दुन्नि ऊरू. य । एए खलु अटुंगा अंगोवंगाइ सेसाई ॥ १५३ ॥ व्याख्या-'शिरश्च उरः, चः प्राग्वद् , उदरं 'पिटित्ति प्राकृतत्वात्पृष्ठ बाहू द्वौ उरू च एतान्यष्टाङ्गानि, प्राग्वल्लिअन्यत्ययः, 'खलुः' अवधारणे, एतान्येवाशानि, अझोपाझानि 'शेषाणि' नखादीनि, उपलक्षणत्वादुपाशानि च कर्णा-10 दीनि, यत उक्तम्-"होंति उवंगा कण्णा णासच्छी जंघ हत्य पाया य । णह केस मंसु अंगुलि ओट्ठा खलु अंगुवंगाई ॥१॥” इति गाथार्थः ॥ १५३ ॥ साम्प्रतं युद्धाङ्गमाहजाणावरणपहरणे जुद्धे कुसलत्तणं च नीई अ । दक्खत्तं ववसाओ सरीरमारोग्गया चेव ॥ १५४ ॥ व्याख्या-जाणावरणपहरणे'त्ति यानं च-हस्त्यादि, तत्र सत्यपि न शक्नोत्यभिभवितुं शत्रुम् अत आवरणं-कवचादि, सत्यप्यावरणे प्रहरणं बिना किं करोतीति प्रहरणं च-खगादि, यानावरणप्रहरणानि, यदि युद्धे कुशलत्वं :नास्ति किं यानादिना ! इति 'युद्धे' सङ्ग्रामे 'कुशलत्वं च' प्रावीण्यरूपं, सत्यप्यस्मिन्नीतिं बिना न शत्रुजयनम् १ भवन्त्युपाङ्गानि कौँ नासाऽक्षिणी जले हस्तौ पादौ च । नखाः केशाः श्मश्रूणि अङ्गुलय ओष्ठी सल्वङ्गोपाङ्गानि ॥ १ ॥ इडर दीप अनुक्रम [९५] ॥१४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५४] (४३) ** प्रत * सूत्रांक ||४६|| * अतो 'नीतिश्च' अपक्रमादिलक्षणा, सत्यामपि चास्यां दक्षत्वाधीनो जयः ततो 'दक्षत्वम्' आशुकारित्वं, सत्यप्यस्सि|निर्व्यवसायस्य कुतो जय इति 'व्यवसायो' व्यापारः, तत्रापि यदि न शरीरमहीनाझं ततो न जय इति शरीरम्अर्थात् परिपूर्णाङ्ग, तत्राप्यारोग्यमेव जयायेति 'आरोग्गय'त्ति अरोगता, चः समुच्चये, एवोऽवधारणे, ततः समुदितानामेवैषां युद्धाङ्गत्वमिति सूत्रार्थः ॥ १५४ ॥ भावाङ्गमाह| भावंगपि य दुविहं सुअमंग चेव नोसुयंगं च । सुयमंगं बारसहा चउविहं नोसुअंगं च ॥ १५५॥ व्याख्या-भावाङ्गमपि च द्विविध 'सुयमङ्गं चेव'त्ति श्रुताङ्गं चैव नोश्रुताच, श्रुताङ्गं द्वादशधा-आचारादि, भावाजता चास्य क्षायोपशमिकभावान्तर्गतत्वात् , उक्तं-हि-"भावे खओवसमिए दुवालसंगपि होइ सुयणाणं'ति, चतुर्विधम्' चतुष्प्रकारं नोश्रुताङ्गं तु, नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थत्वात् अश्रुताचं पुनः, मकारश्च सर्वत्रालाक्षणिक इति गाथार्थः ॥ १५५ ॥ एतदेवाहमाणुस्सं धम्मसुई सद्धा तवसंजमंमि विरिअंच। एए भावंगा खलु दुल्लभगा हुंति संसारे ॥१५६ ॥ व्याख्या-'मानुष्यम्' मनुजत्वम् , अस्य चादावुपन्यास एतद्भाव एव शेषाङ्गभाषात् , 'धर्मश्रुतिः' अईत्प्रणीत१ भावे क्षायोपशमिके द्वादशाङ्गमपि भवति श्रुतज्ञानमिति * दीप अनुक्रम * [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५६] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१४४॥ प्रत सूत्रांक 4 ||४६|| -0 धर्माकर्णनं, 'श्रद्धा' धर्मकरणामिलापः, तपः-अनशनादिः तत्प्रधानः संयमः-पञ्चाश्रवविरमणादिस्तपःसंयमः, मध्य- चतुरङ्गीया पदलोपी समासः, तपश्च संयमश्च तपःसंयममिति समाहारो वा तस्मिन् , 'वीर्य च' वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्था | ध्ययनम् शक्तिः, अस्य च द्विष्ठस्याप्येकत्वेन विक्षितत्वान्नोक्तसङ्ख्याविरोधः, एतानि भावाङ्गानि, 'खलु' निश्चितम् दुर्लभकानि भवन्ति संसारे, लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वाद् , एतच्चानुक्तावपि सर्वत्र भावनीयमिति गाथार्थः ॥१५६॥ इह द्रव्याङ्गेषु शरीराचं भावानेषु च संयमः प्रधानमिति तदेकार्थिकान्याहअंग दसभाग भेए अवयवाऽसगल चुण्ण खंडे अ।देस पएसे पवे साह पडल पजवखिले अ॥१५७ ॥ दया य संजमे लज्जा, दुगुञ्छाऽछलणा इअ । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरि एगट्ठिया पया ॥१५८॥ व्याख्या-अहं दशभागो भेदोऽवयवोऽसकलसूर्णः खण्डो देशःप्रदेशः पर्व शाखा पटलं पर्यवखिलं चेति शरीराग-IXI पर्याया इति वृद्धाः। ब्याख्यानिकस्तु अविशेषतोऽमी अङ्गपर्यायाः, तथा दशभाग इति दशा भाग इति च मिन्नादेव पर्यायाचित्साह । चः समुचये, सूत्रत्वाच सुपः कचिदश्रवणमिति ॥ संयमपर्यायानाह-दया च संयमो लजा जुगु-IPI प्साऽछलना, इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शकः पर्यन्ते योक्ष्यते, तितिक्षा चाहिंसा च हीश्चेत्सेकार्थिकानि-अभिन्नाभिधेयानि पदानि सुबन्तशब्दरूपाणि, पर्यायाभिधानं च नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमिति गाथाद्वयार्थः ॥१५७-१५८॥ ॥१४४॥ क्षेत्रादिदुर्लभत्वोपलक्षणं चेह मानुष्यत्वादिदुर्लभत्वाभिधानमित्यभिप्रायेणाह दीप अनुक्रम [९५] JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५९] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| माणुस्स खित्त जाई कुल रूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा संजमो अ लोगमि दुलहाई॥१५९॥ । व्याख्या-'मानुष्यम्' मनुष्यभावः 'क्षेत्रम्' आर्य जातिः' मातृसमुत्था 'कुल' पितृसमुत्थम् 'रूपम् ' अन्यूनाङ्गता 'आरोग्य' रोगाभावः 'आयुष्यं' जीवितं 'बुद्धिः' परलोकप्रवणा 'श्रवणं' धर्मसम्बद्धम् 'अवग्रहः' तदवधारणम् , अथवा श्रवणाः-तपखिनः तेषामवग्रहः-मुन्दरा एत इत्यवधारणं श्रवणावग्रहः, श्रद्धा संयमश्च प्राग्वत् , एतानि लोके दुर्लभानि, प्राक् चतुर्णा दुर्लभत्वमुक्तम् , इह तु मानुषत्वं क्षेत्रादीनामायुष्कपर्यन्तानामुपलक्षणं, श्रवणं च बुद्ध्यवग्रहयोः, पुनश्च मानुषत्वादीनामिहाभिधानं विशिष्टक्षेत्रादियुक्तानामेवैषां मुक्त्यात्वमिति ख्यापनार्थम् , दाचिदेतत्स्थाने पठन्ति "इन्दियलद्धी निवत्तणा य पजत्ति निरुवहय खेमं । धाणारोग्गं सद्धा गाहग उवओग अटो य ॥१॥" 'इन्द्रियलब्धिः' पञ्चेन्द्रियप्राप्सिः 'निवर्त्तना च' इन्द्रियाणामेव निष्पादना 'पर्याप्सिः' समस्तपर्या-1 सिता 'णिरुबय'त्ति निरुपहतम् , उपहतेरभावात् , सा च गर्भस्थस्य कुजत्वादिभिर्जातस्य च भित्त्यादिभिः, 'क्षेमम्' देशसौस्थ्यम् 'भ्राणम्' सुभिक्षं विभयो वा आरोग्यम् नीरोगता 'श्रद्धा' उक्तरूपा 'ग्राहकः' शिक्षयिता गुरुः 'उपयोगः' खाध्यायाधुपयुक्तता 'अर्थः' धर्मविषयमर्थित्वम् , एतानि दुर्लभानीति गम्यते, इह च पुनः श्रद्धाग्रहणं तन्मूलत्वादशेषकल्याणानां तस्या दुर्लभतरत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ १५९॥ यदुक्तं-'मनुष्यादिभावाङ्गानि दुर्लभानि' इति, तत्र मानुष्याजदुर्लभत्वसमर्थनाय दृष्टान्तमा(ताना)ह 2YKARX दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. चुल्लग पासग धन्ने जूए रयणे अ सुमिण चक्के य । चम्म जुगे परमाणू दस दिहंता मणुअलंभे ॥१६०॥ चतुरङ्गीया बृहद्वृत्तिः ___ व्याख्या-'चोल्लगे' परिपाटीभोजनम् , पाशको धान्य द्यूतं रत्वं च 'सुमिणत्ति खप्नः चक्रं च चर्म युगं परमा- ध्ययनम् णुर्दश दृष्टान्ता 'मणुयलम्भे'त्ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य मनुजत्वप्राप्ताविति गाथासमासार्थः ॥ १६० ॥ व्यासार्थस्तु ॥१४५॥ वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् | "बभदत्तस्स एगो कप्पडितो ओल [य] ग्गतो बहुसु आवईसु अवत्यासु य सचत्य सहातो आसि, सो व रज पत्तो, दोबारससंवच्छरितो अहिसेतो, कप्पडिओ तत्थ अल्लियावपि न लहइ, ततो अणेण उवातो चिंतितो-उवाहणाउ पर्व-12 घेऊण धयवाहेहि समं पहावितो, रण्णा दिहो, उइण्णेणं अवगूहितो, अन्ने भणंति-तेण दारपाल सेवमाणेण बार-14 समे संवच्छरे राया दिट्ठो, ताहे राया तं दणं संभंतो, इमो सो बरातो मम सुहदुक्खसहायगो, एत्ताहे करेमि वित्ति, ताहे भणइ-किं देमिति, सोऽपि भणति-देहि करचोल्लए घरे घरे जाव सर्वमि भरहे णिढियं, ताहे पुणोऽपि हा १ ब्रह्मदत्तस्यैकः कार्पटिकोऽवलगको बहीष्वापत्सु अवस्थासु च सर्वत्र सहाय आसीत् , स च राज्यं प्राप्तः, द्वादशसांवत्सरिकोऽभिषेकः, कार्पटिकस्तत्राश्रयणमपि न लभते, ततोऽनेनोपायश्चिन्तितः-उपानहः प्रबध्य ध्वजवाहकैः समं प्रधावितः, राज्ञा दृष्टः, अवतीर्णेनावगूढः | १४५॥ अन्ये भणन्ति-तेन द्वारपाल सेवमानेन द्वादशे वर्षे राजा दृष्टः, तदा राजा तं दृष्ट्वा संभ्रान्तः, अयं स वराकः मम सुखदुःखसहायः, अधुना करोमि वृत्ति, तदा भणति-किं ददामीति , सोऽपि भणति-देहि करभोजनं गृहे गृहे यावत्सर्वस्मिन् भरते निष्ठितं (भवति), तदा पुनरपि दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३] मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| तुम्ह घरे आढयेऊण भुंजामि, राया भणइ-किं ते एएण, देसं ते देमि, तो सुहं छत्तच्छायाए हत्थिखंधवरगतो KIहिंडिहिसि, सो भणइ-किं मम एहहेण आउट्टेण ?, ताहे से दिण्णो चोल्छगो. तो पढमदिवसे रायाणो घरे जिमितो.15 तेण से जुवलयं दीणारो य दिण्णो, एवं सो परिवाडीए सुसजेसु राउलेसु बत्तीसाए रायवरसहस्सेसु, तेसिं खद्धार मोइया, तत्थ य णयरीए अणेगाओ कुलकोडीओ, णगरस्स चेव सो कया अंतं काही?, ताहे गामेसु, ताहे पुणो । भारहवासस्स । अवि सो वषेज अंतं, ण य माणुसत्तणाओ भट्टो पुणो माणसत्तर्ण लहा ॥ 'पासगसि चाणकस्स सुवण्णं णत्थि, ताहे केणवि उवाएण विढविजा सुवण्णं, ताहे जंतपासया कया, केई भणंति-वरदिग्णया, ततो एगो दुक्खो पुरिसो सिक्खवितो, दीणारथालं भरियं, सो भणइ-यदि ममं कोइ जिण । १ तब गृहादारभ्य भुजे, राजा भणति-किं ते एतेन ?, देश तुभ्यं ददामि, ततः सुखं छनच्छायया हविवरस्कन्धगतो हिण्डिष्यसे, स भणति-किं ममैतावताऽऽकुठून , तदा तस्मै दत्तं करभोजनं, ततः प्रथमदिवसे राज्ञो गृहे जिमितः, तेन तस्मै युगलक दत्तं दीनारश्च, एवं स परिपाट्या सुसजेषु राजकुलेषु द्वात्रिंशति वरराजसहस्रेषु, तैरतिशयेन भोजितः, तत्र च नगर्यामनेकाः कुलकोट्यः, नगरस्यैव स कदा अन्तं करिष्यति , तदा प्रामेषु, तदा पुनर्भरतवर्षस्य । अपि स प्रजेदन्तं, न च मानुष्याष्टः पुनर्मानुष्यं लभते १॥ पाशका इति, चाण क्यस्य सुवर्ण नास्ति, तदा केनाप्युपायेन अर्जनीयं सुवर्ण, तदा यत्रपाशकाः कृताः, केचिद्भणन्ति-परबत्ताः, तत एको दक्षः पुरुषः ट्र शिक्षितः, दीनारस्थालः भृतः, स भणति-यदि मां कोऽपि जयति दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) वृहबृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. तो थाल गिपहउ, तो अह अहं जिणामि तो एग दीणारं जिणामि, तस्स इच्छाए जंतं पडति अतोन तीरद जिणि, चतुरङ्गीया 18जह सो ण जिप्पइ एवं माणुसलंभोऽपि । अवि णाम सो जिप्पेज ण य माणुसाओ भट्ठो पुणो माणुसत्तणं २॥ ध्ययनम् 'धण्णे'त्ति जत्तियाणि भरहे घण्णाणि ताणि सचाणि पिडियाणि, एत्थ पत्थो सरिसवाण छूढो, ताणि सवाणि ॥१४॥ अयालियाणि, तत्थेगा जुषणा थेरी सुप्पं गहाय ते विणेजा, पुणोऽवि पत्थं पूरेज्जा ?, अवि सा दिवपसाएण पूरेज, न वि माणुसत्तणं ३॥ 'जूए' जहा एगोराया, तस्स सभा अट्ठोत्तरखंभसयसन्निविट्ठा, जत्थ अत्याणियं देइ, एकेको य खंभो अट्ठसयंसितो, तस्स रण्णो पुत्तो रजकंखी चिंतेइ-थेरो राया, मारेऊणं रजं गेण्हामि, तं चामचेण णायं, तेण रण्णो सिटुं, तओ | १ तदा स्थालं गृहातु, अथ अहं जयामि तदा दीनारमेकं जयामि, तस्वेच्छया यवं पतति, अतो न शक्यते जेतुं, यथा स न जीयते एवं मानुष्यलाभोऽपि । अपि नाम स जीयेत न च मानुष्याष्टः पुनर्मानुष्यम् २॥ धान्यानीति, थावन्ति भरते धान्यानि तानि सर्वाणि पिण्डितानि, अत्र प्रस्थः सर्षपाणां निक्षिप्तः, तानि सर्वाणि मिश्रितानि, तत्रैका वृद्धा स्थविरा सूर्प गृहीत्वा तानि पृथकुर्यात् , पुनरपि प्रखं पूरयेत् ?, अपिटी सा दिध्यप्रसादेन पूरयेत् नैव मानुभ्यम् ३ ।। द्यूतम्-यधैको राजा, तस्य सभा अष्टोत्तरस्तम्भशतसन्निविष्टा, यत्र आस्थानिकां करोति, १४६॥ | एकैकश्च स्तम्भोऽष्टशांत्रिकः, तस्य राज्ञः पुत्रो राज्यकाड्डी चिन्तयति-स्थविरो राजा, मारयित्वा राज्यं गृहामि, तमामात्येन ज्ञातं, तेन राज्ञे शिष्टं, ततो दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| रायो तं पुतं भणति-अम्हंजो ण सहइ अणुकर्म सो जूयं खेलइ, जो जिणइ रजं से दिजइ, कह पुण जिणियचं ?, उभं एगो आतो, अवसेसा अम्हं आया, जइ तुर्म एगेण आएण अट्ठसयस्स खंभार्ण एकेक अंसियं अट्ठसयवारा जिणसि तो तुज्ज्ञ रज, अवि देवया विभासा ४॥ । 'रयणे' जहा एगो बाणियो वुहो, रयणाणि से अत्धि, तत्थ य महे अन्ने वाणियया कोडिपडागातो उन्भेति, सो| ण उन्भवेति, तस्स पुत्तेहिं थेरे पउत्थे ताणि रयणाणि विदेसीवणियाण हत्थे विकीयाणि, वरं अम्हेऽवि कोडिपडागाद ओ उम्भवेंता, तेऽवि वाणियगा समंततो पडिगया पारसकूलाईणि, थेरो आगतो, सुयं जहा विक्कीयाणि, ते अंबाडे इ, लहुं रयणाणि आणेह, ताहे ते सवतो हिंडिउमाढत्ता, किं ते सघरयणाणि पिंडिजा?, अवि य देवप्पभावेणऽपि य विभासा ५॥ । राजा तं पुत्रं भणति-अस्माकं (वंशे) योन सहते अनुक्रमं स यूतं क्रीवति, यो जयति राज्यं तस्मै दीयते, कथं पुनर्जेतव्य , सबैका आयः अवशेषा अस्माकं आयाः, यदि त्वमेकेनायेन अष्टशतस्य स्तम्भानामेकैकमनिमष्टशतकारान् जयसि ततस्तव राज्यम् । अपि देवता विभाषा ४॥ रानीति, यथैको वणिक् वृद्धः, रत्नानि तस्य सन्ति, तत्र च महे अन्ये वणिज: कोटीपताका ऊर्ध्वयन्ति, स नोर्थयति, तस्य पुत्रैः | स्थविरे प्रोषिते तानि रत्नानि विदेशवाणिजा हस्ते विक्रीतानि, बरं वयमपि कोटीपताका ऊययन्तः, तेऽपि वणिजः समन्ततः प्रतिगताः पारस कूलादीनि, खविर आगतः, श्रुतं यथा विक्रीतानि, तान् तिरस्कुरुते लघु रत्नानि आनयत, तदा ते सर्वतो हिण्डितुमारब्धाः, किं ते दासरत्नानि पिण्डयेयुः अपि च देवप्रभावेणापि च विभाषा ५॥ दीप अनुक्रम CRED [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१४७॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| 'सुविणए'त्ति एरोण कप्पडिएण सुविणते चंदो गिलितो, कप्पडियाण य कहियं, ते भणंति-संपुण्णचंदमंडलस- चतुरङ्गीया ध्ययनम् रिसं पोलियं लहेसि, लद्धा धरछाइणियाए, अण्णेणावि दिट्ठो, सो पहाऊण पुप्फफलाणि गहाय सुषिणयपाढयस्स कहेइ, तेण भणिय-राया भविस्ससि । इओ य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो अपुत्तो, सो य निधिण्णो अच्छइ8 जाव आसो अहिवासितो आगतो, तेण तं दणं हिसियं पयक्षिणीकतो य, तओ य विलइओ पहे, एवं सो राया जातो । ताहे सो कप्पडिओ सुणेइ, जहा तेणवि दिट्ठो एरिसो सुविणतो, सो आएसफलेण किर राया है जातो, सो चिंतेइ-पचामि जत्थ गोरसो, तं पिबेत्ता सुयामि, जाव पुणोऽवि तं सुमिणं पेच्छामि, अवि पुणो सो पेच्छेज्जा ण माणुसातो ६॥ १ वन इति, एकेन काटिकेन स्वप्ने चन्द्रो गिलितः, कार्पटिकेभ्यश्च कथितं, ते भणन्ति-संपूर्णचन्द्रमण्डलसदृशीं पोलिका लास्यसे, लब्धा गृहच्छादनिकया, अन्येनापि दृष्टः, स सात्वा पुष्पफलानि गृहीत्वा स्वप्नपाठकाय कथयति, तेन भणितं-राजा भविष्यसि । इतश्च सप्तमे दिवसे तत्र राजा मृतोऽपुत्रः, स च निर्विणस्तिष्ठति यावदश्वोऽधिवासित आगतः, तेन तं दृष्ट्वा हेषितं प्रदक्षिणीकृतश्च, १४७॥ ततश्च विलगितः पृष्ठे, एवं स राजा जातः । तदा स कार्पटिकः शृणोति, यथा तेनापि दृष्ट ईदृशः स्वपः, स आदेशफलेन किल राजा है जातः, स चिन्तयति-व्रजामि यत्र गोरसम् , तत् पीत्वा स्वपि मि, यावत्पुनरपि स्वप्नं तं पश्यामि, अपि पुनः स पश्येत् न मानुषाम् ६॥ दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], 'चक्के'ति दारं, इंदपुरं नाम नगरं, इंददत्तो नाम राया, तस्स दट्ठायं वराणं देवी बावीसं पुत्ता, अन्ने भणति - एकाए चैव देवीए पुत्ता, राइणो पाणसमा, अन्ना एका अमचधूबा, सा परं परिणतेण दिट्ठिलिया, अन्नया कयाति रिउण्हाया समाणी अच्छद, रायणा दिट्ठा, कस्स एसत्ति, तेहिं भणियं तुम्ह देवी एसा, ताहे सो ताए समं एकरतिं वसितो, सा य रिउण्हाया, तीसे गन्भो लग्गो, सा य जमचेण भणिलिया - जया तुमे गन्भो आइतो होइ तथा ममं साहेजस, ताहे तस्स कहियं, दिवसो मुहुत्तो जं च राएण उल्लविओ सायंकारो, तेण तं पत्तए लिहियं, सो सारवेद, णवण्हं मासाणं दारतो जातो, तस्स दासचेडाणि तद्दिवसं जायाणि, तंजहा-अग्गियतो पवइतो बहुलिया सागरो य, तेण सहजायगाणि, तेण कलाइरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइयातो गणियप्पहाणातो कलाओ गाहि ratnamation १ चक्रमिति द्वारम् इन्द्रपुरं नाम नगरम् इन्द्रदत्तो नाम राजा, तस्येष्टानां वराणां देवीनां द्वाविंशतिः पुत्राः, अन्ये भणन्तिएकस्या एक देव्याः पुत्राः, राज्ञः प्राणसमाः, अन्यैकाऽमात्यदुहिता, सा परं परिणयता दृष्टा, अन्यदा कदाचितुनाता सती तिष्ठति, राज्ञा दृष्टा, कस्येपेति, तैर्भणितं - तब देव्येषा, तदा स तया सममेकरात्रमुषितः, सा च ऋतुखाता, तस्या गर्भो लमः, सा चामात्येन भणिताऽऽसीत् यदा तव गर्भ उत्पन्नो भवति, तदा मां कथयेः, तदा तस्मै कथितं दिवसो मुहूर्त्तश्च यच राज्ञाऽऽलप्तः सत्यङ्कारः, तेन सत् पत्रके लिखितं, स गोपयति, नवसु मासेषु दारको जातः, तस्य दासचेटास्तद्दिवसे जाताः, तद्यथा-अग्निकः पर्वतो बाहुलः सागरख, तेन सहजाताः, तेन कलाचार्यायोपनीतः, तेन लेखादिका गणितप्रधानाः कखा ग्राहितः, निर्युक्ति: [१६०] For Fans Only ~ 296 ~ yog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) चतुरङ्गीया ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. तो, जाहे ताओ गाहेति आयरिया ताहे ताणि कहिति विउल्लति य, पुर्वपरिचरण ताणि रोलिंति, तेण ताणि चेव हण गणियाणि, गहियातो कलातो। ते अन्ने बाबीसं कुमारा गाहिजंता आयरियं पिटुंति, अवयणाणि य भणंति, वृहात्त । जति सो आइरितो पिटेति ताहे गंतूण माऊणं साहिति, ताहे ताओ आयरियं खिसंति-कीस आणसि ?, किं सुल॥१८॥ भाणि पुत्तजम्माणि ?, अतो ते ण सिक्खिया। इओय महुराए जियसनू राया, तस्स सुया निब्बुईनाम दारिया, सा| रणो अलंकिया उवणीया, राया भणइ-जो ते रोयइ भत्तारो, तोताए णायं-जो सूरो वीरो विकतो सो मम भत्तारो होइ, सो पुण रजं दिजा, ताहे सा बलं वाहणं गहाय गया इंदपुरं नयरं, तस्स इंददत्तस्स रपणो बढे पुत्ता, इंददत्तो तुट्टो चिंतेइ-णूणं अन्नहितो राईहि लट्ठयरो, आगया, ततो तेण ऊसियपडायं नयरं कारियं, तत्थ एगमि १ यदा तान् ग्राहयति आचार्यस्तदा ते कर्पयन्ति व्याकुलयन्ति च, पूर्वपरिचयेन ते लुठन्ति, तेन ते नैव गणिताः, (न) गृहीताः कलाः । तेऽन्ये द्वाविंशतिः कुमारा प्राममाणा आचार्य पिट्टयन्ति, अवचनानि च भणन्ति, यदि स आचार्यः पिट्टयति तदा गत्वा मातृभ्यः || कथयन्ति, तदा ता आचार्य खिसन्ति-कथमाहंसि ?, किं पुत्रजन्मानि सुलभानि !, अतस्ते न शिक्षिताः । इतश्च मथुरायां जितशत्रू राजा, तस्य सुता नितिनानी दारिका, सा राज्ञोऽलङ्कतोपनीता, राजा भणति-यस्तुभ्यं रोचते (स) भर्ता, ततस्तया ज्ञापितं-यः शूरो वीरो विक्रान्तः स मम भर्ती भवति, स पुना राज्यं दद्यात् , तदा सा बलं बाहनं (च) गृहीत्वा गता इन्द्रपुर नगरं, तस्येन्द्रदत्तस्य राज्ञो बहवः पुत्राः, इन्द्रदत्तस्तुष्टश्चिन्तयति-नूनमन्येभ्यो राजभ्यो लष्टतरः, आगता, ततस्तेनोरिछूतपताकं नगर कारितं । तत्रैकस्मि दीप अनुक्रम १४८॥ [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], Jan Education intimational अक्खे अटु चकाणि, तेसिं पुरओ ठिया घीउलिया, सा अच्छिमि विधियचा, तभी इंददत्तो राया संनद्धो निग्गओ सह पुत्तेहिं, साथि कण्णा सवालंकारविभूसिया एगंमि पासे अच्छ, सो रंगो रायाणो ते य दंडभडभोइया जारिसो दोवईए, तत्थ रण्णो जेट्टपुत्तो सिरिमाली नाम कुमारो, सो भणिओ-पुत्त ! एसा दारिया रजं च घेत, अतो विधेहि पुतलियंति, ताहे सो अकयकरणो तस्स समूहस्स मज्झे धणुं चेव गिहिउँ न तरह, कहवि णेण गहियं, तेण जओ बचाउ तओ वथउ ति मुको सरो, सो चक्के अभिडिऊण भग्गो, एवं कस्सति एवं अरगं बोलीणो कस्सति दोण्णि, अन्नेसिं बाहिरेण चैव णी, ताहे राया अद्धितिं पकतो - अहो ! अहं एएहिं घरिसितोत्ति, ततो अमचेण भणितो कीस अधिदं करेसि ?, राया भणइ-एएहिं अहं अप्पहाणो कतो, अमयो भणइ-अत्थि अन्नो तुम्ह पुत्तो मम धूयाए १. अक्षेऽष्ट चक्राणि, तेषां पुरतः स्थिता शालभञ्जिका, सा अक्ष्णि वैधव्या, तत इन्द्रदत्तो राजा सन्नद्धो निर्गतः सह पुत्रैः साऽपि कन्या सर्वालङ्कारविभूषिता एकस्मिन् पार्श्वे तिष्ठति स रनो राजानः ते च दण्डभटभोजिका यादृशो द्रौपद्याः, तत्र राज्ञो ज्येष्ठपुत्रः श्रीमाली नाम कुमारः, स भणित: --- पुत्र ! एपा दारिका राज्यं च प्रहितव्यम्, अतो विध्य पुतलिकामिति, तदा सोऽकृतकरणस्तस्य समूहस्य मध्ये धनुरेव महीतुं न शक्नोति, कथमपि अनेन गृहीतं, तेन यतो ब्रजतु ततो व्रजत्विति मुक्तः शरः, स चक्रे आस्फाल्य भग्नः, एवं कस्यचित् एकमरकं व्यतिक्रान्तः कस्यचिट्ठी, अन्येषां बाह्य एव निरेति, तदा राजाऽपूर्ति प्रगतः अहो अहमेतैः घर्षित इति, ततोऽमात्येन भणित:कथमधृतिं करोषि ?, राजा भणति – एतैरहं अप्रधानः कृतः, अमात्यो भणति — अस्ति अन्यस्तव पुत्रो मम दुहितु Forest Use Only निर्युक्ति: [१६०] ~298~ ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) सन्द्र प्रत सूत्रांक ||४६|| %A % उत्तराध्यतणतो, सुरिंददत्तो नाम, सो समत्थो विधिउं, अभिण्णाणाणि य से कहियाणि, कर्हि !, सो दरसितो, ततो राइणा चतुरङ्गीया बृहद्वृत्तिः अवगृहितो भण्णति-जुत्तं तब अट्ठ रहचके भेत्तूण पुत्तलिय अञ्छिमि विधेता रजं सुकलत्तं निव्वुई दारियं संपावित्तए. ध्ययनम् तओ कुमारो जहा आणवेहित्ति भणिऊण ठाणं ठाइऊणं घणुं गेण्हति, ताणिवि दासरुवाणि चाउहिसिं ठियाणि ॥१४॥ रोडंति, अन्ने य उभयपासिं गहियखग्गा दो जणा, जइ कहवि लक्खस्स चुकइ ततो सीसं छिंदेयचंति, सोऽपि उज्झातो पासे ठितो भयं देह-मारिजसि जइ चुकसि, ते बाबीसंपि कुमारा मा एसो विधिस्सइत्ति ते विसेसलुंठणाणि विग्याणि करेंति, तओ ताणि चत्तारि ते य दो पुरिसे बावीसं च कुमारे अगणितो ताणं अट्टहँ रहच-18 काणं अंतरं जाणिऊण तंमि लक्खे निरुद्धाए दिट्ठीए अन्नं मयं अकुणमाणेण सा धीउलिया वामे अञ्छिमि विद्धा, १. स्तनयः सुरेन्द्रदत्तो नाम, स समर्थो व्यद्धम् , अभिज्ञानानि च तस्मै कवितानि, क', स दर्शितः, ततो राज्ञाऽवगूढो भण्यते-- | युक्तं तवाष्ट रथचक्राणि भित्त्वा पुत्तलिकामक्ष्णि विद्धा राज्यं सुकलत्रं निर्वृति दारिका संप्राप्तुं, ततः कुमारो यथाऽऽज्ञापयतीति भणित्वा स्थानं स्थित्वा धनुहाति, तेऽपि दासाश्चतसृषु दिक्षु स्थिता विघ्नं कुर्वन्ति, अन्यौ चोभयपार्श्वयोः गृहीतखको द्वौ जनौ, यदि कथमपि लक्षात् स्वलति ततः शीर्ष छेत्तव्यमिति, सोऽप्युपाध्यायः पार्थे स्थितो भयं ददाति-मारयिष्यसे यदि स्खलसि, ते द्वाविंशतिरपि कुमारा मा एष ॥१४९॥ व्यत्स्यतीति ते विशेषलुण्ठनानि विज्ञान (च) कुर्वन्ति, ततस्ते चत्वारः तौ च द्वौ पुरुषौ द्वाविंशतिं च कुमारानगणयन् तेषामष्टानां रथच|काणामन्तरं ज्ञात्वा तस्मिन् लक्ष निरुद्धया दृष्ट्या अन्यत् मतं (मनः) अकुर्वता सा पुत्तलिका बामेऽणि विद्धा, % % दीप अनुक्रम [९५] 4560% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| तो लोगेण ओक्किटिकलणायकलयलोम्मिस्सो साहुक्कारो कतो, जहा तं चक्कं दुक्खं भेत्तुं एवं माणुस्सत्तर्णति ॥ - 'चम्मे'त्ति एगो दहो जोयणसयसहस्सविच्छिन्नो चम्मावणद्धो, एग से मज्झे छिई, जत्थ कच्छभस्स गीवा मायइ, तत्थ कच्छभो वाससए गए गीवं पसारेइ, तेण कहवि गीवा पसारिया, जाव तेण छिड्डेण गीवा निग्गया, तेण जोइस दिहें कोमुईए पुप्फफलाणि य, सो गतो, सयणिजगाणं दाएमि, आणित्ता सहओ घुलति, णवि पेच्छति, अवि सो माणुसातो ८॥ 'जुगे'त्ति पुर्वते होज जुर्ग अवरते तस्स होज समिला उ। जुगछिडंमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥१॥ १ ततो लोकेनोत्कृष्टिकलनादकलकलोन्मिनः साधुकारः कृतः । यथा तच्चक्रं दुःखं भेत्तुमेवं मानुषत्वमिति ७ ॥ चर्मेति, एको दो योजनशतसहस्रविस्तीर्णश्चीवनद्धः, एकं तस्य मध्ये छिद्रं, यत्र कच्छपस्थ ग्रीवा माति, तत्र कच्छपो वर्षशते गते प्रीवा प्रसारयति, तेन कथमपि ग्रीवा प्रसारिता, यावत्तेन छिद्रेण श्रीवा निर्गता, तेन ज्योतिर्दष्टं कौमुद्यां पुष्पफलानि च, स गतः, खजनान् दर्शयामि, आनीय सर्वतो भ्राम्यति, नैव प्रेक्षते, अपि स मानुषात् ८॥ युगमिति, पूर्वान्ते भवेद् युगमपरान्ते तस्य भवेत् समिला तु । युगच्छिद्रे प्रवेश इति संशयितो भानुरुयलाभः ॥१॥ दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यहि समिला पन्भट्ठा सागरसलिले अणोरपारंमि । पविसेजा जुगछिडं कहवि भमंती भमंतम्मि ॥२॥ सा चंडवा- चतुरङ्गीया यपीईपणोलिया अपि लभेज जुगछिडं। ण य माणुसाउ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥३॥इति गाथाभ्यो ध्ययनम् बृहद्धृत्तिः जुगोदाहरणमवसेयम् ॥ ॥१५०॥18| इयाणि परमाणू, जहा एगो खंभो महप्पमाणो, सो देवेण चुण्णेऊणं अविभागिमाणि खंडाणि काऊण णलि याए पक्खित्तो, पच्छा मंदरचूलियाए ठाऊण फूमितो, ताणि णट्ठाणि, अस्थि कोऽवि ?, तेहिं चेष पुग्गलेहिं तमेव || खंभं णिवत्तेज्ज ? णो इणमढे समटे, एस अभावो, एवं भट्ठो माणुसातो ण पुणो । अहवा सभा अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, सा कालंतरेण झामिया पडिया, अत्थि पुण कोऽपि ?, तेहिं चेव पोग्गलेहिं करेजा, णोत्ति, एवं माणुस्संग दुलभं ॥ लद्धेऽवि मानुष्यत्वे श्रुतिरपि दुर्लभेति दर्शयन्नाह १ यत्र (दि) समिला प्रभ्रष्टा सागरसलिलेऽनर्वापारे । प्रविशेयुगच्छिद्रं कथमपि भ्राम्यति भ्राम्यन्ती ॥२।। सा चण्डवातवीचिप्रणोदिताऽपि लभेत युगच्छिन्द्रम् । न च मानुषाद्धष्टो जीवः प्रतिमानुषं लभते ॥३॥ इदानीं परमाणु:-यथैका स्तम्भो महाप्रमाणः, स* देवेन चूर्णयित्वा अविभागान् खण्डान कृत्वा नलिकायां प्रक्षिप्तः, पञ्चान्मन्दरचूलिकायां स्थित्वा फूलतः, ते नष्टाः, अस्ति कोऽपि ॥१५०॥ तारेव पुलस्तमेव स्तम्भ निर्वतयेत् , न एषोऽर्थः समर्थः, एपोऽभावः, एवं भ्रष्टो मानुषान्न पुनः । अथवा सभा अनेकसम्भशतसमि विष्टा, सा कालान्तरे ध्माता पतिता (च), अस्ति पुनः कोऽपि ?, तैरेव पुद्रलैः कुर्यात् ? नेति, एवं मानुषं दुर्लभं ।। लब्धेऽपि दीप अनुक्रम [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०R-१६१] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| आलस्स मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता। भय सोगा अन्नाणा वक्खेव कुऊहला रमणा॥१६०॥ एएहिं कारणेहिं लभ्रूण सुदुल्लहपि माणुस्सं ।न लहइ सुई हिअरि संसारुत्तारिणिं जीवो ॥ १६१ ॥ व्याख्या-आलस्यात्' अनुद्यमखरूपात्, न धर्माचार्यसकाशं गच्छति न शृणोति च इति सर्वत्र शेषः, 'मोहात्' गृहकर्त्तव्यताजनितवैचित्यात्मकात् हेयोपादेयविवेकाभावात्मकाढा, 'अवज्ञातो यथा किममी मुण्डश्रमणा जान|न्ति ? इति, 'अवर्णाद्वा' साध्वश्लाघात्मकात् यथाऽमी मलदिग्धदेहाः सकलसंस्काररहिताः प्राकृतप्रायवयस इत्या-2 |दिरूपात् , 'स्तम्भात्' जात्यादिसमुत्थादहकारात् कथमहं प्रकृष्टतरजातिरेनमुपसप्पोमीत्यादिरूपात् , 'क्रोधाद्' अप्रीतिरूपात् आचार्यादिविषयात् , महामोहोपहतो हि कश्चिदाचार्यादिभ्योऽपि कुप्यति, 'प्रमादात्' निद्रादिरूपात् , कधिद्धि निद्रादिप्रमत्त एवाऽऽस्ते, 'कृपणत्वात्' द्रव्यन्ययासहिष्णुत्वलक्षणात् , यद्यहममीषामन्ति के गमिष्या-|| म्यवश्यंभावी द्रव्यव्यय इति वरं दूरत एषां परिहार इति, 'भयात्' कदाचिन्नरकादिवेदनाश्रवणोत्पन्नसाध्वसात् , निःसत्त्वो हि नरकादिभयमावेदयन्तीत्यमी इति भयान्न पुनः श्रोतुमिच्छति, 'शोकाद्' इष्टवियोगोत्थदुःखात् , कश्चिद्धि प्रियप्रणयिनीमरणादौ शोचन्नेवास्ते, 'अज्ञानात्' मियाज्ञानात्-'न मांसभक्षणे दोषो, न मये न च मैथुने' इत्यादिरूपात्, 'ब्याक्षेपादू' इदमिदानी कृत्यमिदं च इदानीमिति बटुकृत्यव्याकुलतात्मकात् , 'कुतूहलादू' इन्द्रजा दीप अनुक्रम %A4% 2ॐकार [९५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित............आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | मूल संपादने अत्र मुद्रण अशुद्धित्वात् नियुक्ति-क्रम "१६०" द्वीवारान् लिखितं ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| __ नियुक्ति: [१६०R-१६१] (४३) चतुरङ्गीया ॥१५॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. लायवलोकनगोचरात् , 'रमणात्' कुर्कुटादिक्रीडात्मकात्, कचित्सुपोऽश्रवणं प्राग्वत्, प्रक्रान्तार्थनिगमनायाह 'एभिः'अनन्तरोक्तखरूपैः 'कारणैः' आलस्यादिहेतुभिः 'लदण सुदुल्लहंपि' ति अपेभिन्नक्रमत्वालन्ध्याऽपि 'सुदुर्लभम्' ध्ययनम् बृहदृत्तिः अतिशयदुरापं 'मानुष्यं' मनुजत्वं 'न लभते' न प्राप्नोति श्रुति' धर्माकर्णनात्मिका, कीदृशीम् !-'हितकरीम्' | दाइह परत्र च तध्यपथ्यविधायिनीम् , अत एव संसारादुत्तारयति-मुक्तिप्रापकत्वेन निस्तारयति इति संसारोत्तारणी|| तां 'जीव' जन्तुः इति गाथार्थः ॥१६०-१६१॥ इत्थं धर्मश्रुतिदुर्लभत्वमभिधाय तल्लाभेऽपि श्रद्धादुर्लभत्वमाहमिच्छादिट्टी जीवो उवइटुं पवयणं न सहइ । सद्दहइ असब्भावं उवइटुं वा अणुवइटुं ॥ १६२ ॥ सम्मदिट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहइ । सद्दहइ असब्भावं अणभोगा गुरुनिओगा वा ॥१६३|| हा व्याख्या-मिथ्या इति-विपरीता दृष्टि:-बुद्धिरस्पेति मिथ्याष्टिः, जीवः 'उपदिष्टं' गुरुभिराख्यातं 'प्रवच नम् आगमं 'न श्रद्धत्ते' इदमित्थमिति न प्रतिपद्यते, कदाचित्तद्विपरीतमपि न श्रद्दधातीत्याह-'श्रद्धत्ते' तथेति प्रतिपद्यते, किं तदित्याह-अविद्यमानाः सन्तः-परमार्थसन्तो भावा-जीवादयोऽभिधेयभूता यस्मिन् तदसद्भावम् , |सर्वव्याप्यादिरूपात्मादिप्रतिपादकं कुप्रवचनमिति गम्यते, 'उपदिष्टं परेण कथितं, वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्यात् ॥१५॥ अनुपदिष्टं वा-खयमभ्यूहितमिति गाथार्थः ॥१६२॥ इत्थं श्रद्धादुर्लभत्वमभिधाय साम्प्रतं लब्धाया अप्युपघातसम्भवमाह-संम' गाहा, तथा सम्यक् इति-प्रशंसार्थोऽपि निपातः, यद्वा समञ्चति-जीवादीनवैपरीत्येनाव AASPARSEX दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१... ] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], Jus Education intam गच्छति इति सम्यक् तथा दृष्टिः अस्येति सम्ययदृष्टिः जीव उपदिष्टं प्रवचनं, तुशब्दो मिध्यादृष्टितः सम्यगदृष्टेर्विशेषमाह, 'श्रद्धते' निःशङ्कं प्रतिपद्यते, तत्किमसौ प्रवचनमेव श्रद्धत्ते इत्याह-श्रद्धत्ते 'असद्भावम्' उक्तस्वरूपम् 'अनाभोगात्' अज्ञानात्, तथा 'गुरवः' धर्माचार्यास्तेषां नियोगः-व्यापारणं गुरुनियोगस्तस्माद्वा, कश्विद्धि सम्यगृष्टिर्विशेषतो जीवादिखरूपानवगमाद् गुरुप्रत्ययाच्चातत्त्वमपि तत्त्वमिति प्रतिपद्यते । तदेवं प्रथमगाथया मिथ्यात्व हेतुकत्वमश्रद्धानस्योक्तम्, द्वितीयगाथथा पुनस्तदभावेऽप्यना भोगगुरुनियोगहेतुकत्वं, तथा च मिथ्यात्वादितद्धेतूनां व्यापित्वाद श्रद्धानभूयस्त्वेन श्रद्धानदुर्लभतोक्ता भवतीति गाथाद्वयपरमार्थः ॥ १६३ ॥ ननु किमेवंविधा अपि केचिदयन्त सृजनः सम्भवेयुः १ ये खयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरूपदेशतोऽन्यथापि प्रतिपद्येरन्, एवमेतत्, तथाहि - जमालिप्रभृतीनां निह्नवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्ततया खयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थ प्रतिपन्नाः, उक्तं हि "तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स एवं भासतस्स एवं पण्णवेमाणस्स एवं परुवेमाणस्स अत्थि एगयया समणा णिग्गंधा एयमहं सहहंति पत्तियंति रोयंति" इत्यादि । के पुनरमी असद्भावं प्रतिपन्ना इत्याह निर्युक्तिः [१६२-१६३] १ ततस्तस्य जमालेरनगारस्य एवमाख्यायत एवं भाषमाणस्य एवं प्रज्ञापयत एवं प्ररूपयतः सन्त्येके श्रमणा निर्मन्थाः (ये) एनमर्थं अति प्रतियन्ति रोचन्ते । For Fans Only ~304~ www.jacibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६४] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. बहुरयपएसअवत्तसमुच्छ दुगतिगअबद्धिगा चेव । एएसिं निग्गमणं तुच्छामि अहाणुपुवीए ॥१६॥ चतुरङ्गीया बृहद्धतिः व्याख्या-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः' इति न्यायात् बहुषु-क्रियानिष्पत्तिविषयसमयेषु रताः, कोऽर्थः ?- ध्ययनम् बहुषु एव समयेषु क्रियानिष्पत्तिरित्यसद्भाव प्रतिपन्नाः १, 'पएसि' चि सूचकत्वादस्य अन्त्यप्रदेशजीववादिनः अन्त्य ॥१५॥ एव प्रदेशो जीव इत्यभ्युपगताः २, अव्यक्ताः-'सत्या सत्यभामे तिवत् अव्यक्तवादिनः, न अत्र व्यक्त्या यति-|| स्यमयतिर्वा इत्यादिरूपतया वस्तु विज्ञातुं शक्यं, ततः सर्वमव्यक्तमेवेति प्रतिज्ञावन्तः ३, 'समुच्छ' ति सूत्र-|| त्वात् सामुच्छेदाः, तत्र समिति-सामस्त्येन निरन्वयात् उदिति-ऊर्च क्षणादुपरि भवनात् छेदो-नाशः समुच्छे दस्तं विदन्ति तत्त्वधिया सामुच्छेदाः, एषां द्वन्द्वे बहुरतप्रदेशाव्यक्तसामुच्छेदाः, द्विकं-क्रियाविषयमेकसमयम-13 दानुभूयमानमिह गृह्यते, तत्प्रतिज्ञातारोऽप्युपचारात् द्विकाः, एवं त्रिक-जीवाजीयनोजीवराशिवयं तदभ्युपगन्ता रोऽपि तथैव त्रिकाः, बद्धं-जीवप्रदेशैरन्योऽन्याविभागेन संपृक्तं न बद्धम्-अवद्धम् , अर्थात्कर्म, तदभ्युपगमविपयमेषामस्तीति अवद्धिकाः, एषां द्वन्द्वे विकत्रिकावद्धिकाः, चः समुच्चये, एवेति पूरणे । अत्र कः कस्य शिष्य इत्याशङ्काऽपोहाथमेतन्निर्गमाभिधित्सया सम्बन्धमाह-एएसिं' एतेषामनन्तरमुपदर्शितानां, निर्गमन-यस्य यत॥१५॥ उत्पत्तिः तदात्मकं 'वक्ष्यामि' परिभाषिष्ये, 'अर्थ'त्यानन्तर्ये 'आनुपूर्व्या क्रमेणेति गाथार्थः ॥१६४ ॥ प्रतिज्ञातमेवाह दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६५-१६६] (४३) FACTSCA प्रत सूत्रांक ||४६|| बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ ॥१६५॥ गंगाए दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती । थेरा य गुटुमाहिल पुटुमबद्धं परूविति ॥ १६६ ॥2 Fol व्याख्या-'बहुरताः' उक्तरूपाः, जमालेः प्रभवः-एतत्तीर्थापेक्षया प्रथमतः उपलब्धिरेषां, न पुनः सर्वथोत्पत्तिदरच, प्रागप्येवंविधाभिधायिसम्भयात् , ते अमी जमालिप्रभवाः, 'जीवपएसा य' ति प्रस्तावात्प्रदेश इत्यन्त्यप्रदेशो जीवो येषां ते प्रदेशजीवाः, प्राकृतत्वाच व्यत्ययः, ते च तिष्यगुप्तात्, 'अव्यक्ताः' अव्यक्तवादिनः आषाढात्, सामुच्छेदा अश्वमित्रात्, 'गङ्गात्' इति गङ्गाचार्यात्, द्वे क्रिये बदन्ति द्वेक्रियाः, 'छलुग' ति षट्पदार्थप्रणयनादुलूक गोत्रत्वाच पडुलूकस्तस्मात् , त्रिभी राशिभिर्दीव्यन्ति-जिगीषन्तीति त्रैराशिकास्तेषामुत्पत्तिः, 'स्थविराश्च' स्थिरीद करणकारिणः 'गोहामाहिल'त्ति गोष्ठमाहिलाः 'स्पृष्टम्' कक्षुकवत् छुसम् 'अबद्धम्' न क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगतं, कर्मेति गम्यते, 'परूपयन्ति' प्रज्ञापयन्ति, तत्कालापेक्षया लट्, बहुवचनं च पूज्यत्वात् , तच स्थविरत्वं च पूर्वपर्यायापेक्षया, अनेन च गोष्ठमाहिलादबद्धिकानामुत्पत्तिरित्युक्तं भवति इति गाथाद्वयार्थः ॥ १६५-१६६ ॥ यथा बहुरता जमालिप्रभवाः तथा चाहजिट्टा सुदंसण जमालि अणुज सावत्थि तिंदुगुजाणे।पंच सया य सहस्सं ढंकेण जमालि मुत्तूणं ॥१६७॥ व्याख्या-अक्षरार्थः सुगमः, नवरम् , 'अणुजत्ति अनवद्याङ्गी॥१६७॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् 34- % दीप अनुक्रम [९५] % % % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३] मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) - - उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१५॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| तेणं' कालेणं तेणं समएणं कुंडपुरं नयरं, तत्थ सामिस्स जेहा भगिणी सुदंसणा नाम, तीए पुत्तो जमाली, सोचतुरङ्गीया सामिस्स मूले पबइओ पंचहिं सएहिं समं, तस्स य भजा सामिणो धूया अणुजंगीनामा बीयं णाम पियदंसणा, ध्ययनम् सावि तमणु पचतिया सहस्सपरिवारा, तहा भाणियई जहा पण्णत्तीए, एकारस अंगा अहीया, सामिणा अणु-II पणातो सावस्थि गतो पंचसयपरिवारो, तत्थ यतिंदगुजाणे कोहगे चेतिते समोसढो, तत्थ से अंततेदि रोगो का उप्पण्णो, ण तरइ वइट्टतो अच्छिउं, ताहे सो समणे भणइ-मम सेजासंथारगं करेह, तेहिं काउमारद्धो, पुणो |x/ अधरो भणति-कतो ? कजति ?, ते भणंति-न कओ, अजवि कजति, ताहे तस्स चिंता जाया-जण्णं समणे| भगवं. आइक्खति 'चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए जाव निजरिजमाणे निजिण्णे' तं च मिच्छा, | १ तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुण्डपुरं नगर, तत्र स्वामिनो ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना नाम, तस्याः पुत्रो जमालिः, स स्वामिनो मूले प्रबजितः पञ्चभिः शतैः समं, तस्य च भार्या स्वामिनो दुहिताऽनवद्याङ्गीनाम्री द्वितीयं नाम प्रियदर्शना, साऽपि तमनु प्रबजिता सहस्रपरिवारा, तथा भणितव्यं यथा प्राप्ती, एकादशाङ्गान्यधीतानि, खामिनाऽनुज्ञातः श्रावस्तीं गतः पञ्चशतपरीवारः, तत्र च विन्दुकोद्याने कोष्टके चैत्वे समवसृतः, तत्र तस्य अन्तप्रान्तै रोग उत्पन्नः, न शक्नोति उपविष्टः स्थातुं, तदा स श्रमणाम भणति-मम शय्यासंस्तारकं कुरुत, तैः N ॥१५॥ कर्तुमारब्धः, पुनरधीरो भणति-कृतः ? क्रियते, ते भणन्ति-न कृतः, अद्यापि क्रियते, तदा तस्य चिन्ता जाता-यत् अमणो भगवान् आल्याति-चलत् चलितमुदीर्यमाणमुदीर्ण यावनिर्जीर्यमाणं निर्जीण, तच्च मिथ्या, दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| * इम परक्यमेव दीसति-सेजासंथारए कजमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए, जम्हा णं एवं तम्हा चलणमाणेऽधि अचलिए उदीरिजमाणेवि अणुदीरिए णिजरिजमाणेवि अणिजिण्णे, एवं संपेहेह, एवं संपेहिता निग्गंथे सहावे, सिद्दावित्ता एवं बयासी-जणं समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ-चलमाणे चलिए, उदीरिजमाणे उदीरिए, जाव णिजरिजमाणे णिजरिए, तं गं मिच्छा, इमं पचक्खमेव दीसइ-सिज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे, जाव तम्हा जाणं अणिजिपणे । तए णं जमालिस्स एवमाइक्खमाणस्स अत्धेगतिया जिग्गंथा एयमटुं सद्दति, अत्येगइया नो मति .जे सहहंति ते णं जमालिं चेव अणगारं उवसंपज्जित्ता थे विहरंति, तत्र ये न श्रद्दधति ते एवमाहुः-भग-18 चन् ! भवतोऽयमाशयः-यथा घटः पटो नैव, पटो वा न घटो यथा। क्रियमाणं कृतं नैव, कृतं न क्रियमाणकम् ॥१॥ प्रयोगथ-यौ निश्चितभेदी न तयोरेक्यं, यथा घटपटयोः, निश्चितभेदे च कृतक्रियमायके, अत्र चासिद्धो हेतुः,12 १ इदं प्रत्यक्षमेव दृश्यते शय्यासंस्तारकः क्रियमाणोऽकृतः, संस्तीर्यमाणोऽसंस्तीणा, यस्मादेवं तस्मात् चलपि अचलितमुदीर्यमाणमपि अनुदीर्ण निर्यिमाणमप्यनिर्जीणम् , एवं संप्रेक्षते (विचारयति ), एवं संप्रेक्ष्य निर्धन्याम् शब्दयति, शब्दयित्वा एक्मवादीत्यदू श्रमणो भगवान महावीर एवमाख्याति-चलत् चलितमुदीर्यमाणमुदीर्ण गावत् निर्यमाणं निर्जीर्ण, तत् मिथ्या, इदं प्रत्यक्षमेव । दृश्यते--शय्यासंस्तारकः क्रियमाणोऽकृतः, याक्त्तस्मात् अनिर्णिम् । तसो जमालेरेवमाख्यायत: सत्येकका निर्मन्था एनमर्थ भरपति, सन्त्येकका न अयति, ये अधति ते जमालिमेवानमारमुपसम्पच विहरन्ति, * * दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| सत्तराध्य. तथाहि-कृतक्रियमाणके किमेकान्तेन निश्चितभेदे १ अथ कथञ्चिद्, यद्येकान्तेन तत्किं तदैक्ये सतोऽपि करणप्र- चतुरङ्गीचा बृहद्वृत्तिः सङ्गतः १ उत क्रियानुपरमप्राप्ते २ राहोखित् प्रथमादिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्ते ३ रथ क्रियावैफल्याऽऽपदितितो ४ दीर्घक्रियाकालदर्शनानुपपत्तेर्वा ५१, तत्र न तावत्सतोऽपि करणप्रसङ्गत इति युक्तम् , असत्करणे हि . ॥१५॥ खपुष्पादेरेव करणमापद्यत इति कथञ्चित्सत एव करणमस्माभिरभ्युपगतं, न चाभ्युपगतार्थस्य प्रसअनं युज्यते १, नापि क्रियानुपरमप्राप्तः, यत इह क्रिया किमेकविषया भिन्नविषया बा?, यद्येक विषया न कश्चिद्दोषः, तत्र हि यदि द कृतं क्रियमाणमुच्यते तदा तन्मतेन निष्पन्नमेव कृतमिति तस्यापि क्रियमाणतया क्रियानुपरमप्राप्सिलक्षणो दोषः। स्थात् , न तु क्रियमाणं कृतमित्युक्ती, तत्र क्रियाऽऽवेशसमय एव कृतत्वाभिधानात् , उक्तं हि-"क्रियाकालनिष्ठा-1 Sकालयोरक्य"मिति, अथेवमपि कृतक्रियमाणयोरैक्ये कृतस्य सत्त्वात् सतोऽपि करणे तदवस्थः प्रसङ्गः, तदसत्, x पूर्व हि लब्धसत्ताकस्य क्रियायामयं प्रसङ्गः स्यात् , न तु क्रियासमकालसत्तावासी, अथ भिन्नविषया क्रिया तदा |सिद्धसाधनं, प्रतिसमयमन्यान्यकारणतया बस्तुनोऽभ्युपगमेन भिन्नविषयक्रियानुपरमस्यास्माकं सिद्धत्वात् २, अथ प्रथमादिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्तेरिति पक्षः, क्रियमाणस्य हि कृतत्वे प्रथमादिसमयेष्यपि सवादुपलम्भ:2 प्रसज्यत इति, तदपि न, तदा हि शिवकादीनामेव क्रियमाणता, ते चोपलभ्यन्ते एव, उक्तं च-"अन्नारम्भे अन्नं १ अन्यारम्भेऽन्यत् कथं दृश्यतां यथा घटः पटारम्भे शिवकादयो न कुम्भः कथं श्यतां स तवद्धायाम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| कह दीसउ ? जह घडो पडारम्भे । सिक्कादतो ण कुम्भो कह दीसउ सो तदद्धाए ॥१॥" घटगताभिलापतया चि मूढः शिवकादिकरणेऽपि घटमहं करोमीति मन्यते, तथा चाह-"पईसमयकज्जकोडीनिरवेक्खो घडगयाभिलात सोऽसि । पइसमयकजकालं थूलमइ घडं मिलाएसि ॥१॥" ३, नापि क्रियावफल्याऽऽपत्तितो, यतः प्रागेव प्राप्त-14 सत्ताकस्स करणे क्रियावैफल्यं स्यात्, न तु क्रियमाणकृतत्वे, तत्र हि क्रियमाणं क्रियापेक्षमिति तस्याः साफल्यमेव, अनेकान्तवादिनां च केनचिद्रूपेण प्रारू सत्त्वेऽपि रूपान्तरेण करणं न दोपाय ४, दीक्रियाकालदर्शनानुपप-18 रित्यपि न युक्तं, यतः शिवकायुत्तरोत्तरपरिणामविशेषविषय एव दीर्घ क्रियाकालोपलम्भो न तु घटक्रियाविषयः, उक्तं हि- “पईसमउप्पण्णाणं परोप्परविलक्षणाण सुबहणं । दीहो किरियाकालो जइ दीसइ किंथ कुंभस्स? ॥१॥" ५। अथ कथञ्चिनिश्चितभेदे कृतक्रियमाणे, तत्तीर्थकदुक्तमेव, निश्चयव्यवहारानुगतत्वात् तहचसः, तत्र च निश्चयनयाऽऽश्रयेण कृतक्रियमाणयोरभेदो, यदुक्तम्-"क्रियमाणं कृतं दग्धं, दद्यमानं स्थितं गतम् । तिष्ठच्च गम्यमानं च, निष्ठितत्वात् प्रतिक्षणम् ॥१॥" व्यवहारनयमतेन तु नानात्वमप्यनयोः, तथा च क्रियमाणं १ प्रतिसमयकार्यकोटीनिरपेक्षो घटगवामिलापोऽसि । प्रतिसमयकार्यकालं स्थूलमतिर्घटं मेलयसि (पटे गृह्णासि ) ॥११॥ २ प्रतिसमयोहै पनाना परस्परविलक्षणानां सुबहूनाम् । दीर्घः क्रियाकालो यदि दृश्यते किमय कुम्भस्य ॥१॥ दीप अनुक्रम [९५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यकृतमेव, कृतं तु स्वास्क्रियमाणं क्रियाशसमये, क्रियोपरमे पुनरक्रियमाणमिति उक्त, च-तेणेहं कजमाणं नियमेण चतुरङ्गीया कयं कयं तु भवणिज । किञ्चिदिह कजमाणं उबरवकिरियं व होजाहि ॥१॥ किश्च भवतो मतिः-क्रिया- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः त्यसमय एवाभिमतकार्यभवनं, तत्रापि प्रथमसमयादारभ्य कार्यस कियत्यपि निष्पत्तिरेष्टव्या, अन्यथा कथ-18 ॥१५५॥ मकस्मादन्त्यसमये सा भवेद् ?, उक्तं च-आद्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं किश्चिद्यदा पटे । अन्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं स्थान पटोदयः ॥ १॥ तस्मादाद्यद्वितीयाऽऽदितन्तुयोगात्प्रतिक्षणम् । किश्चित्किञ्चिदुतं तस्य, यदुतं तदुतं ननु ॥२॥" इह प्रयोगः-यद्यस्याः क्रियायाः आधसमये न भवति तत्तस्या अन्त्यसमयेऽपि न भावि, यथा घटक्रिया-2 दिसमयेऽभवन्पटः, न भवति च कृतक्रियमाणयोर्भेदे क्रियादिसमये कार्यम् , अन्यथा घटान्त्यसमयेऽपि पटोत्पत्तिः स्थात् , एवं च-'यथा वृक्षो धवथेति, न विरुद्धं मियो द्वयम् । क्रियमाणं कृतं चेति, न विरुद्धं तथोभयम् । ॥१॥ प्रयोगवन्ययेनाविनाभूतं न तत्तत एकान्तेन भिद्यते, यथा वृक्षत्वाद्धवत्वं, कृतत्वाविनाभूतं च क्रियमाणत्वमिति । सकललोकप्रसिद्धत्वाच घटपटयोः तदाश्रयेणैवमुक्तं संस्तारकादावपि योज्यं, तत् प्रतिपद्यख भगवन् ! 'चलमाणे चलिए' इत्यादि तीर्थकृद्धचोऽत्यन्तमवितथमिति । स चैवमुच्यमानोऽपि न प्रतिपन्नवान् , ततश्च- १५५॥ १ तेनेह क्रियमाणं नियमेन कृतं कृतं तु भजनीयम् । किश्चिदिह क्रियमाणमुपरतक्रियं वा भवेत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम CRG [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| जाहेण द्वाति ताहे ते णिग्गंथा जमालिस्स अंतिआतो जहा पण्णत्तीए जाव सामि उपसंपज्जित्ता णं विहरंति। साऽपि य णं पियदसणा ढकस्स कुम्भकारस्स घरे ठिया, सा आगया चेदयनंदिया ताहे पचंदिया, तंपि पण्णवे. ४सावि विप्पडिवण्णा तस्स नेहाणुरागेण, पच्छा आगया अजाणं परिकहेइ, तं च ढंक भणति, सो जाणइ-जहा| एसा विप्पडिवना नाहचतेणं, ताधे सो भणति-अहं ण याणामि एवं विसेसयरं, एवं तीसे अन्नया कयाइ सज्झायपोरिसिं करेंतीए तेणं भायणाणि उच्चत्तंतेणं ततो हुत्तो इंगालो छूढो, जहा तीसे संघाडी एगदेसंमि दहा, सा भणइ-इमा अज! संघाडी दहा, ताहे सो भणति-तुम्भे चेव पण्णवेह-जह उज्झमाणमडझं, केण तुझं संघाडी|| दहा , जतो उजुसुयणयमयातो वीरजिर्णिदवयणाचलंबीणं जुजेज इज्झमाणं डझं पोर्नु ण तुझंति, ततो तहत्ति|४ १ यदा न तिष्ठति तदा ते निर्मन्या जमालेरन्तिकात् यथा प्रज्ञप्ती यावत् स्वामिनमुपसंपय विहरन्ति । साऽपि च प्रियदर्शना ढकस्य ४ कुम्भकारस्य गृहे स्थिता, सा आगवा चैत्यमन्दिका वदा प्रवन्दिका, तामपि प्रज्ञापयति, साऽपि विप्रतिपन्ना तस्य स्नेहानुरागेण, पश्चादागता आर्याभ्यः परिकथयति, तं च दक्षं भणति, स जानाति-यथैषा विप्रतिपन्ना नाथत्वेन, तदा स भणति-अहं न जानामि एनं विशेघव्यतिकरम् , एवं तस्या अन्यदा कदाचित् स्वाध्यायपौरुषी कुर्वन्यासन भाजनान्युदर्तयता ततः सकाशात् अङ्गारः क्षिप्तः, यथा तस्याः संघाटी एकदेशे दग्धा, सा भणति-इयमार्य! संघाटी दग्धा, तदा स भणति-यूयमेव प्रज्ञापयत-अथ दयमानमदग्धं, केन युध्माकं संघाटी । दग्धा, यत जुसूत्रनवमतात् वीरजिनेन्द्रवचनावलम्बिना युज्येत दयमानं दुग्धं वक्तुं न युष्माकमिति, ततस्तथेति दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पडिसुणेति, इच्छामो अजो! सम्म पडिचोयणा, ताहे सा गंतूण जमालिं पण्णवेति, सो जाहे ण गिण्हति, ताहे सह- चतुराया मेस्सपरिवारा सामि उपसंपजित्ता णं विहरह। इमोऽपि ततो लहुंचेव गतो चंपं णयरिं, सामिस्स अदूरसामंते ठिबाध्ययनम् सामि भणति-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थावकमणेणं ॥१५॥ अवकंता, णो खलु अहं तहा छउमत्थो भवित्ता छउमत्थावकमणेणं अवकते, अहं णं उप्पण्णणाणदसणधरे अरहा | |जिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवकते, तए णं भगवं गोयमो जमालिं एवं बयासी-णो खलु जमाली! केव-है। शलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलेसिया भसि वा जाव कर्हिसि आवरिजद वा निवारिजति बा, जदि णं तुम जमाली! उप्पण्णणाणदसणधरे तो णं इमाई दो वागरणई वागरेहि-सासए लोए ? असासए?, सासए जीवे असासए ?, तए णं १ प्रतिशृणोति, इच्छाम आर्य ! सम्यक् प्रतिचोदना, तदा सा गत्वा जमालि प्रज्ञापयति, स यदा न गृह्णाति तथा सहसपरिवारा खामिनमुपसंपद्य विहरति । अयमपि ततो लम्वेव गतश्चम्पा नगरी, स्वामिनोऽदूरसमीपे खित्वा स्वामिनं भणति-यथा देवानुप्रियाणां बह्वोऽन्तेवासिनः श्रमणा निर्मन्थाः छपाथा भूत्वा छद्मस्थावक्रमणेनावक्रान्ताः, नो खल्वहं तथा उद्यस्थो भूत्वा छद्मस्थावक्रमणेनावकान्तः, अहमुत्पन्नज्ञानदर्शनधरोऽनि जिनः केवली भूखा फेवल्यवक्रमणेनावक्रान्तः, ततो भगवान् गौतमो जमालिभेवमवादी-नो खलु जमाले !|४|॥१५॥ केवलिनो ज्ञानं वा दर्शनं वा शैले (न) वा स्तम्भे (न)वा यावत्कचिदपि आत्रियते वा निवार्यते वा, यदि जमाले ! त्वमुत्पन्नज्ञानदर्शनधरस्तदा इमे द्वे व्याकरणे व्याकुरु-शाश्वतो लोकोऽशाश्वतः ?, शाश्वतो जीवोऽशाश्वतः १, ततः दीप अनुक्रम [९५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| से जमाली भगवया गोयमेणं एवं बुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव णो संचाएति भगवतो गोयमस्स किंचिवि. पमोक्खमक्खाइत्तएत्ति तुसिणीए संचिहति, जमालित्ति समणे भगवं महावीरे जमालि एवं बयासी-अस्थि णं जमाली! मम बहवे अंतेवासी छउमत्था जेणं पहू एवं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं, नो चेव णं एयप्पयार भासं भासित्तए, जहा णं तुमं, सासए लोए जमाली!, जन्न कयाइ णासीन कयाइ ण भवइ न कयाइ न भविस्सइ। भुवं च भवइ भविस्सइ य धुवे जाव णिचे, असासए लोए जमाली!, जंणं उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ । माओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली!, जंण कयाइ नासी जाव णिचे, असासए, जपणं रतिते भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवति. तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवति, मणुस्से भवित्ता जोणीए देवे १ स जमालिभंगवता गौतमेनैवमुक्तः सन् शशितः काडिनो यावन्न शक्रोति भगवतो गौतमस्य किश्चिदपि प्रमोक्षमाख्यातुमिति । तूष्णीकः सतिष्ठते, जमाले ! इति श्रमणो भगवान महावीरो जमालिमेवमवादी-सन्ति जमाले ! मम बहवोऽन्तेवासिनश्छदास्था ये प्रभव एतम्याकरणं व्याकर्तुं, यथाऽहं, नो चैव एतत्प्रकारां भाषां भापितुं, यथा त्वं, शाश्वतो लोको जमाले !, यत् न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न ४ भवति न कदाचिन्न भविष्यति, बभूव च भवति भविष्यति च धुवो वावन्नित्या, अशाश्वतो लोको जमाले!, यत् उत्सर्पिणी भूत्वा अवसर्पिणी भवति अवसर्पिणी भूत्वा उत्सर्पिणी भवति, शाश्वत्तो जीवो जमाले !, यत् न कदाचिन्नासीत् यावन्नित्यः, अशाश्वतो, यत् नैरविको भूत्वा || तिर्यग्योनिको भवति, तिर्यम्योनिको भूत्वा मनुष्यो भवति, मनुष्यो भूत्वा योन्या को RRC दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] (४३) उत्तराध्य बृहदृत्तिः ॥१५७॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| भवति, तते णं से जमाली सामिस्स एवं आइक्खमाणस्स एयमटुं णो सद्दहति, असहते सामिस्स अंतियातोशचतुरङ्गीया अवकमति, अवकमेत्ता बहूर्हि असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणेkध्ययनम् उप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणति, बहुहिं छहमादीहिं भावेति, भाविता अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेइ, झोसित्ता तीसं भत्ताई अणसणयाए छेदेति, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालमासे कालं किचा लंतए कप्पे तेरससागरोवमद्वितिकेमु देवेसु देवकिब्धिसेसु देवेसु देवताए उबवणे । एवं |जहा पण्णत्तीए, जाव अंतं काहिति । एयाए दिट्टीए बहुए जीवे रया तेण बहुरयत्ति भण्णति, अहवा बहुसु समयेसु । कजसिद्धिं पडुब रया-सत्ता बहुरया इति । यथा जीवप्रदेशास्तिष्यगुप्तात् तथाऽऽह १ भवति, ततः स जमालिः खामिन एवमाख्यायत्त एनमर्थ न अद्धत्ते, अश्रद्दधन स्वामिनोऽन्तिकात् अपक्राम्यति, अपम्प बहुभिरसद्भावोद्भावनाभिर्मिथ्यात्वाभिनिवेशैवात्मानं च परं च तदुभयं च व्युदाहयन् व्युत्पादयन् पनि वर्षाणि भामण्यपर्यायं पाल-1 यति, बहुभिः षष्पाष्ठमादिभिर्भावयति, भावयित्वा अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं क्षपयति, क्षपयित्वा विंशतं भक्तानि अनशनितया हाछेदयति, छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताप्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा लान्तके कल्पे त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु देवेषु देवकि-1 [विकेषु देवेषु देवतयोत्पन्नः । एवं यथा प्रज्ञप्ती यावदन्त करिष्यति । एतस्यां दृष्टौ बहवो जीवा रतास्तेन बहुरत इति भण्यते, अथवा बहुपु समयेषु कार्यसिद्धिं प्रतीत्य रताः-सक्ता बहुरता इति । SAEXSASAKSCR दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] (४३) प्रत सूत्रांक CRECIRCROSSESS ||४६|| रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुवि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा नयरि मित्तसिरी कूरपिंडादि ॥१६॥ व्याख्या-अक्षरार्थः क्षुण्णो ॥१६८ ॥ भावाऽर्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् बीतो सामिणो सोलसवासातिं उपाडियणाणस्स तो उप्पण्णो । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गुणसिले चेतिए वसू णाम भगवंतो आयरिया चोहस्सपुषी समोसढा, तस्स सीसो तीसगुत्तो णाम, सो आयप्पयायपुचे इम आलायगं अज्झाएइ-'एगे भंते ! जीवपएसे जीवेत्ति वत्तवं सिया ,णो इणमटे समट्टे, एवं दो जीवप्पएसा तिपिण संखेजा असंखेजा वा जाव एगपएसूणेऽवि य णं जीवे णो जीवेत्ति बत्तवं सिया, जम्हा कसिणे पडिपुण्णलोगागा-1 सप्पएससमतल्लप्पएसे जीवेत्ति वत्तव'मित्यादि, एत्थ सो विपडिवनो, जदि सवे जीवप्पएसा एगप्पएसहीणा जीवनवएसं ण लहंति तो णं सो चेच एगे जीवप्पएसे जीवत्ति, तद्भावभायित्वात् जीवववएसस्सत्ति, स चैवं विषदमानः १ द्वितीयः स्वामिन उत्पाटितज्ञानात् षोडशवर्षाणि सदोत्पन्नः । तसिमन् काले तस्मिन समये राजगृहे गुणशीले चैये बसवो नाम | भगवन्त आचार्याश्चतुर्दशपूर्षिण: सभवमृताः, तेषां शिष्यस्तिष्यगुप्तो नाम, स आत्मप्रवादपूर्व इममालापकमध्येति ‘एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ?, नैषोऽर्थः समर्थः, एवं द्वौ जीवप्रदेशौ त्रयः संख्येया असंख्येया वा, यावदेकप्रदेशोनोऽपि च जीयो नो जीव | इति वक्तव्यं स्थान , यस्मात् कृत्स्नः प्रतिपूर्णलोकाकाशप्रदेशसमतुल्यप्रदेशो जीव इति वक्तव्यमित्यादि, अत्र स विप्रतिपन्नः, यदि सर्वे |जीवप्रदेशा एकप्रदेशहीना जीवन्यपदेशं न लभन्ते तदा स चैव एको जीवप्रदेशो जीव इति, जीवव्यपदेशस्वेति दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६|| उत्तराध्य. स्थविरैरभाणि-भद्र ! भवतोऽयमाशयः-यथा संस्थान एवास्ति, घटस्तेन तदात्मकः । तदन्त्यदेश एवास्ति, जीवस्तेन ॥ तदात्मकः ॥१॥ प्रयोगश्च-यस्मिन्नेव सति यद्भवति तत्तदात्मकं, यथा संस्थान एव सति भवन् घटस्तदात्मकः, चतुरङ्गीया म ध्ययनम् अन्त्यदेश एव च सति भवत्यात्मा, अत्रासिद्धो हेतुः, तथाहि-कधमात्मनोऽन्त्यप्रदेशे एव सति भावः ?, अथ शेषप्रदे॥१५॥ शेषु सत्सु अप्यसी नास्तीति, तत्किमस्य शेषप्रदेशानां च कश्चिद्विशेषोऽस्ति न वा १, नास्ति चेकिंन शेषप्रदेशभावे ऽप्यस्य सद्भावः, अथास्ति चेत् , स किं पूरणत्व १ मुपकारित्व २ मागमाभिहितत्वं ३वा?, यदि पूरणत्वं तत्किं वस्तुतो| विवक्षातो वा ?, वस्तुतश्चेत्किमस्यैव पूरणत्वं ? न शेषप्रदेशानाम् । अथास्यैव अन्त्यत्वाद् , अन्त्यत्वमप्यात्मप्रदेशापेक्षं दातदवष्टधाकाशप्रदेशापेक्षं वा', न तावदात्मप्रदेशापेक्षम्, आत्मप्रदेशानां कथञ्चित्पाथोवदावत्तेमानत्वेनानवस्थिता-18 नामयमन्त्योऽनन्त्यश्चायमिति विभागाभावात् , ये पुनरष्टौ स्थिराः ते मध्यवर्तिन एव, नापि तदवष्टब्धाकाशप्रदेशापेक्षं, जातपामशेषदिक्षु पर्यन्तसम्भवेनैकस्यैवान्त्यत्वाभावात् , देशान्तरसंचारे चानवस्थितत्वात्, न च वस्तुतोऽन्त्यस्यैव पूरणत्वं, द्वितीयादीनामपि पूरणवाद्, अन्यथा तथा तथा व्यपदेशानपपत्तेः, विवक्षातोऽपि न, यतोऽसौ खस्याशेषपुरुषाणां वा ?, यद्यशेषपुरुषाणां नेय नियता, न हि.सर्व एव भवदभिमतमेकं पूरणमाचक्षते, नापि खस्य, यतोऽस्या अपि कुतो||१५८॥ सानियतत्वम् ?, अथान्त्यत्वाद् एतदपि कुतो नियतम् ?, 'एगे भन्ते ! जीवप्पएसे जीवत्ति वत्तवं सिया ! इत्यादिनिरूप-12 ४ाणायां पर्यन्तभवनात् , तन्नियमोऽपि कुतो?, विवक्षानियमात् , एवं सति चक्रकाख्यो दोषः, तथाहि-विवक्षानैयस्य-र दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] (४३) प्रत सूत्रांक 2 % ||४६|| मन्त्सत्वात् , तन्नैयत्वं च निरूपणायां पर्यन्तभवनात् , तन्नियमोऽपि विवक्षानियमादिति, एवं सति चक्रवत् पुनः पुनरावर्त्तते इति, यदि च पूरणत्वमन्त्यस्य विशेषः तदा तच्छेषप्रदेशापेक्षमेवेत्यन्त्याविनाभावित्वे तदपिनाभाबित्वमपि । बलादापततीति सकलप्रदेशाविनाभावित्वात्तद्वात्मकत्वसिद्धिः, नाप्युपकारित्वं विशेषः, यतस्तदन्येषामपि कथं न ?, किमात्मप्रदेशा एव न ते , यद्वाऽऽत्मप्रदेशत्वेऽप्येकका इति, न तावदाद्यः पक्षः, अशेषाणामात्मप्रदेशत्वेन वादिनतिवादिनोरिष्टत्वात् , अथात्मप्रदेशत्वेऽप्येकका इति, एकत्वं त्वन्मतान्त्यप्रदेशसहायकाभावात् परस्परसाहायकविरहतो वा', यदि त्वन्मतान्त्यप्रदेशसहायकाभावात् शेषप्रदेशानामनुपकारित्वं, त्वन्मतस्यान्त्यस्यापि तत्साहायका सत्त्वात् तदस्तु, युक्तं च बहूनामुपकारित्वम् , एकस्य तु तदभावो, यदुक्तम्-"जुत्तो य तदुवयारो देसूणे ण उ पएस-1 कामेत्तमि । जह तंतूणमि पडे पडोवयारो न तंतुंमि ॥१॥" नापि परस्परसहायकासच्चात् , यतस्त किं त्वत्कल्पितान्त्यप्रदेशतो न्यूनत्वे तदभावे वा ?, यदि न्यूनत्ये तत्किं शक्तितोऽवगाहनातो वा!,न तावच्छक्तितः, एकपटतन्तूनामिवैकात्मप्रदेशानां तम्यूनत्वायोगात्, नाप्यवगाहनातः, सर्वेषामप्यमीषामेकैकाकाशप्रदेशावगाहित्वेन तुल्यत्वात् , तदभावपक्षे चान्त्यप्रदेशस्येव शेषप्रदेशानामप्यात्मोपकारित्वं सिद्धमेव, आगमाभिहितत्वं च विशेषकमुच्यमानं तदन्यतामेव सूचयति, यतः स्फुटमेवागमवचनं "कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्लपएसे जीवत्ति बत्तयं सिय" त्ति, ततश्च१ युक्तश्च तदुपधारो देशोने न तु प्रदेशमात्रे । यथा तन्तूने पटे पटोपचारो न तन्तौ ॥१॥ दीप अनुक्रम %-8 [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. 1 भवन्सर्वखदेशेषु, पटो यद्वत्तदात्मकः । भवन्सर्वखदेशेषु, तद्वदात्मा तदात्मकः ॥१॥ प्रयोगश्च-यो यावत्खप्रदेशा- चतुरङ्गीया बृहद्वृत्तिः ६ विनाभावी स तदात्मको, यथा घटः, सकलखप्रदेशाविनाभावी च जीव इति, एवं च प्रज्ञाप्यमानोऽपि जाहे ना ध्ययनम् ठाइ, ताहे से काउस्सग्गो कतो, एवं सो बहूहिं असम्भावभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं परं उभयं ॥१५९॥ च बुग्गाहेमाणो गतो आमलकप्पं नयरिं, तत्थ अंबसालवणे ठितो, तस्य मित्तसिरीनाम समणोबासतो, तप्पमुहा गाहमाण |य अण्णेऽवि णिग्गया आगया साहुणोति, सोऽपि जाणति-जहा एए णिण्हगत्ति, पच्छा सो पण्णवेति, सोऽवि जाणति, तथावि माइहाणेणं गतो धम्म सुणति, सो ते ण विरोहेति पण्णवेहामि णं, एवं सो कम्म पडिच्छंतो जाव तस्स संखडी विउला विच्छिण्णा जाया, ताहे ते निमंतिया, तुन्भे चेव मम घरे पादाद्याक्रमणं करेह, एवं ते आगया, ताहे तस्स णिविट्ठस्स तं विउलं खजयं णीणियं, ताहे सो एकेकातो खंडं खंडं च देति, कूरस्स १ यदा न तिष्ठति, तदा तस्य कायोत्सर्गः कृतः, एवं स बहुभिरसद्भावभावनाभिर्मिध्यात्वाभिनिवेशैश्चात्मानं परमुभयं च म्युबाहयन गत आमलकरपा नगरी, तत्राप्रशालबने खितः, तत्र मित्रश्रीनाम श्रमणोपासका, तत्प्रमुखाश्चान्येऽपि निर्गता आगताः साधव इति, सोऽपि जानाति- यथा एते निहवा इति, पचास प्रज्ञापयति, सोऽपि आनाति, तथापि मातृस्थानेन (मायया) गतो धर्म शृणोति, स तान न विरो-IM॥१५॥ 8 धयति प्रज्ञापयिष्यामि एतान् , एवं स कर्म प्रतीच्छन् यावत्तस्य संखण्डी विपुला विस्तीर्णा जाता, तदा ते निमश्रिताः, यूयमेव मम गृहे * पादावधारणं कुरुत, एवं ते आगताः, तदा तेभ्यो निविष्टेभ्यः तद्विपुलं खाद्यमानीतं, तदा स एकैकस्मात् खण्डं खण्डं च ददाति, कूरस्य kkc * दीप अनुक्रम ** [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| ISIकुसणस्स वत्थस्स, ते जाणंति-एस पच्छा पुणो दाहिति, पच्छा पाएसु पडितो, सयणं च भणति-पंदेह, साहू पडिलाभिया, अहो अहं धन्नो ! जं तुम्भे ममं व घरमागया, ताहे भणति-किह धरिसिया ? अम्हे, ताहे सोम भणति-पाणु तुम्भं सिद्धंतो पजंतवयवमेत्ततोऽवयवी, यदि सच्चमिणं तो का विहंसणा ? मिच्छमिहरा उ, तुम्भे मए ससिद्धतेण पडिलाभिया, जदि गवरि वद्धमाणसामिस्स तणएण सिद्धतेण तो पडिलामि, एत्थ संबुद्धा, इच्छामो अज्जो ! संमं पडिचोयणा, ताहे पच्छा सावरण पडिलाभिया, मिच्छादुकडं च णं कयं, एवं ते सवे संबोहिया आलोइयपडिकंता विहरंति ॥ यथा अव्यक्ता आषाढात्तथाऽऽहसियवियपोलासाढे जोगे तदिवसहिययसूले य । सोहम्मि नलिणगुम्मे रायगिहे पुरि य बलभद्दे १६९/४ ___ व्याख्या-अक्षरार्थः सुगमः ॥ १६९ । भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् १ सूपस्य वस्त्रस्य, ते जानन्ति-एष पश्चात् पुनस्पति, पश्चात् पादयोः पतितः, स्वजनं च भणति-वन्दध्वं, साधवः प्रतिलम्भिताः, अहो अहं धन्यो ययूयं ममैव गृहमागताः, तथा भणन्ति-किं धर्षिता वयं , तदा स भणति-ननु युष्माकं सिद्धान्तः पर्यन्तावयवमात्रोऽवयवी, यदि सत्यमिदं तदा का विधर्षणा ?, मिध्यादुष्कृतमितरथा तु, यूयं मया खसिद्धान्तेन प्रविलम्भिताः, यदि नवरं वर्धमानखामिनः सत्केन सिद्धान्तेन तदा (युष्मान्) प्रतिलम्भवामि, अत्र संबुद्धाः, इच्छाम आर्य! सम्यक् प्रतिचोदना, तदा पश्चात् श्रावकेण प्रतिलम्भिताः, मिथ्यादुष्कृतं च कृतम्, एवं ते सर्वे संदोधिता आलोचितप्रतिक्रान्ता विहरन्ति । दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] (४३) KER ॥१६॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. | तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो दो बाससयाणि चोइसुत्तराणि सिद्धिं गयस्स, ततो ततितो उप्पन्नो। चतुरङ्गीया सेयविया णयरी, पोलासं उज्जाणं, तत्थ अज्जासाढा णाम आयरिया वायणायरिया य, तेर्सि च बहवे सीसा आगा- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः ढजोगपडिवन्नया अज्झायंति, तेर्सि रतिं विसूइया जाया, णिरुद्धा वाएण, ण दे(चे)व कोइ उबढवितो जाव काल गया, सोहम्मे णलिणिगुम्मे विमाणे उबवण्णा, ओहि पउंजंति, जाव पेच्छंति तं सरीरगं, ते य साहुणो आगाढजोगपडिवण्णगा, एएऽविण जाणंति, ताहे तं चेव सरीरं अणुपविट्ठो, पच्छा उट्ठवेन्ति, रत्तियं पकरेह, एवं तेणY तेसिं दिवप्पभावेणं लहुं व समाणिय, पच्छा णिप्फण्णेसु तेसु भणंति-खमह भंते ! जमेत्थ मए असंजएण वंदाबिया, अई अमुगदिवसं कालगतिलतो, एवं सो खामेत्ता गतो, तेऽवि तं सरीरगं छद्देऊण इमे एयारूवे अभत्थिए। | १ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणाद्भगवतः वे वर्षशते चतुर्दशोत्तरे सिद्धिं गतात् , तदा तृतीय उत्पन्नः । श्वेताम्बी नगरी, पोलासमु चान, तत्र आर्यापाढा नाम आचार्या वाचनाचार्याश्व, तेषां च बहवः शिष्या आगाढयोगप्रतिपन्ना अधीयन्ते, तेषां रात्री विसूचिका जाता, दि निरुता (निरुद्धचेष्टा) बातेन, नैव कोऽप्युस्थापितः यावत्कालगताः, सौधर्मे नलिनीगुल्मे विमाने उत्पन्नाः, अवधि प्रयुजम्ति, यावत्प्रेक्षन्ते तच्छरीरक, तांश्च साधून आगाढयोगप्रतिपन्नान , एतेऽपि न जानन्ति, तदा तदेव शरीरमनुप्रविष्टाः, पश्चादुत्थापयन्ति, वैरात्रिकं प्रकुरुत, ॥१६॥ एवं तेन तेषां दिव्यप्रभावेण लध्वेव समापितं, पश्चात् निष्पन्नेषु वेषु भणन्ति-अमवं भगवन्तः ! बदत्र मयाऽसंयतेन वन्दनं दापिताः, अह|| ममुकस्मिन् दिने कालगतः (आसीत् ), एवं स क्षगयित्वा गतः, तेऽपि कच्छीरकं त्यक्त्वा इमान् एतद्रपान अभ्यर्थिवान (संकल्पान ) दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] (४३) प्रत - सूत्रांक %95 ||४६|| सवेवि पडिवन्ना-एचिरं कालं असंजतो वंदिओत्ति, ताहे अश्वत्तभावं भाति, जहा सर्व अवत्तं भणेजाह, संजतोऽवि वा देवोऽवि वा, मा मुसावाओ भवेज्जा असंजयवंदणं च, जहा तुम ममं ण पत्तियसि, जह संजतो ण || वा, तुमंपि एवं भाणियचो, एवं संजती देवी वा, एवं विभासा । एवं ते असम्भावेणं अप्पाणं परं उभयं च बुग्गा-4 हेमाणा विहरंति । अनुशासितुमारब्धाश्च स्थविरैः-यथा देवानांप्रिया । इदं युष्माकमाकूर्त-यस्मान्न शक्यते का, किचिज्ज्ञानेन निश्चयः । तस्मादब्यक्तमेवास्तु, वस्तुतत्त्वाविनिश्चयात् ॥१॥ प्रयोगश्च-यत् ज्ञानं न तन्निश्चयकारि, यथेद-18 माचार्यगोचरं ज्ञानं, ज्ञानं चेदं यत्यादिविषयं वेदनम् , अनिश्चयकारित्वे च ज्ञानस्य निश्चयाधीनत्वात् वस्तुव्यक्तेरव्यक्तत्वसिद्धिः, ननु चेदमनुमानं ज्ञानमेव, ततश्चैतदपि निश्चयकारि न वा', यदि निश्चयकारि तर्हि यथाऽस्य ज्ञानत्वेऽपि निश्चयकारिता तथा ज्ञानान्तराणामपीति विपर्ययसाधनात् विरुद्धो हेतुः, अथ न निश्चयकारि वृथाऽस्य प्रयोगः, ख-12 साध्यनिश्चयाकरणात् , शेषज्ञानानां चानिषिद्धव निश्चयकारिता, किश्च-यज्ज्ञानं न तन्निश्चयकारीति प्रतिज्ञायां सर्वथा निश्चयकारित्वाभावः साध्यते कथञ्चिद्वा ?, यदि सर्वथा तदा श्रुतज्ञानस्यापि ज्ञानत्वादनिश्चयकारित्वे खर्गा-14 १ सर्वेऽपि प्रतिपन्नाः, इयचिरं कालमसंयतो वन्दित इति, तदाऽव्यक्तभावं भावयन्ति, यथा सर्वमव्यक्तं भणेत, संयतोऽपि वा देवोऽपि दबा, मा मृपावादो भवेत् असंयतवन्दनं च, यथा ख मा न प्रत्येषि-यथा संयतो न वा ?, त्वमप्येवं भणितब्यः, एवं संयती देवी वा, एवं || विभाषा, एवं ते असद्भावेनात्मानं परमुभयं च युद्बाहयन्तो विहरन्ति % दीप अनुक्रम [९५] %95 % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] (४३) बृहदत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पवर्गसाधकत्वेन तदुपदर्शितेषु तपःप्रभृतिष्वप्यनिश्चयात् कथं न शिरोलुश्चनादेरानर्थक्यम् ?, अथ तस्य खयमनिश्चय- चतुरङ्गीया कारित्वेऽपि तहतरि तीर्थकृति प्रत्ययात्तस्यापि निश्चयकारितेति न दोषः, तर्हि किं न तत एवालयविहारादिदर्शनेन यत्यादिष्वपि तद्भावनिश्चयावन्दनाविधिः, उक्तं च-"जई जिणमयं पमाणं मुणित्ति ता बज्झकरणसंसुद्धं । देवपि वंदमाणो विमुद्धभावो विमुद्धो उ॥१॥" सर्वथा निश्चयकारित्वाभावे च ज्ञानस्य प्रतिदिनोपयोगिनि भक्तपाना-18 दावपि भक्ष्याभक्ष्यादिविभागाभाव एव प्राप्तो, यत उक्तम्-'को जाणइ किं भत्तं किमतो किं पाणयं जलं मजं?112 किमलावू माणिकं किं सप्पो चीवरं हारो॥१॥ को जाणति किं सुद्धं किमसुद्धं किं सजीवमजीवं। किं भक्खं किमभक्खं ? पत्तमभक्खं ततो सत्रं ॥ २॥" अथ कथञ्चिदेव निश्चयकारित्याभावः साध्यते, यतः प्रतिसमयमन्याकान्यसक्ष्मपरिणामरूपेण भक्तादिन नितुं शक्यं, स्थिरस्थूलरूपतया च निधीयत एवेति नोक्तदोपः, एवं सति यत्यादिष्वप्यान्तरपरिणामरूपेणानिश्चयो बहिर्वेषादिरूपेण तु निश्चय एवास्तु, अथ यत्यादिषु प्रकृताचार्यवत् अन्यथादावमपि सम्भवति, एतदरिष्टाऽऽदिवशतो भक्तादिष्वपि समानम् , यदि च निश्चयनयेन निश्चयस्य कमशक्यत्वाद। १ यदि जिनमतं प्रमाण मुनिरिति ताद्वाहाकरणसंशुद्धम् । देवमपि वन्दमानो विशुद्धभावो विशुद्ध एव ।।१।। २ को जानाति किं भक्तं कृमयः किं जलं पान मद्यम् । किमलाबु माणिक्यं किं सर्पश्चीवरं हार: ? ॥१॥ को जानाति किं शुद्धं किमशुद्धं कि सजीवमजीवम् । किं भक्ष्य। किमभक्ष्य ? प्राप्तमभक्ष्यं तत: सर्वम् ॥ २॥ दीप अनुक्रम [९५] ANGA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] (४३) प्रत सूत्रांक हुशो दृष्टिसंवादं भक्तादिज्ञानं व्यवहारतो निश्चयकारि, तर्हि यत्यादिज्ञानमपि तत एव तथाऽस्तु, युक्तं चैतत् , छद्मस्थावस्थायां व्यवहारनयाश्रयत्वात् सर्वप्रेष्ठानाम् , अन्यथा हि तीर्थोच्छेदप्रसङ्गाः, तदुक्तम्-"छेउमस्थसमयचजा ववहारणयाणुसारिणी सदा । तं तह समायरंतो सुज्झइ सबोवि सुद्धमई(मणो) ॥१॥ जइ जिणमयं पवजह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । ववहारणउच्छेए तित्थुच्छेओ जतोऽवस्सं ॥२॥" ततश्च-बहुशो दृष्टिसंवाद, सत्यं संन्यवहारतः । भक्तादिष्विव विज्ञानं, वस्तु व्यक्तं तदिष्यताम् ॥ १॥ प्रयोगश्च-यत् ज्ञानं बहुशो दृष्टिसंवादं तत्सत्यं, यथा भक्तादिज्ञानं, बहुशो दृष्टिसंवादं च यत्यादिज्ञानम् , इत्याद्यनुशिष्यमाणा अपि यदा तु न गुरुवचनमिष्टवन्तः | तोहे अणिच्छन्ता य बारसविहेणं काउरसग्गेणं उग्घाडिया, जाहे रायगिहं गयरिं गया, तत्थ मोरियवंसप्पसूतो बल-|| भद्दो नाम राया समणोवासतो, तेण ते आगमिया-जहा इहं आगमियत्ति, ताहे तेणं गोहा आणत्ता-पञ्चह गुण ||४६|| दीप अनुक्रम [९५] १ छद्मस्थसमयचर्या व्यवहारनयानुसारिणी सर्वा । ता तथा समाचरन् शुध्यति सर्वोऽपि शुद्धमतिः (विशुद्धमनाः ) ॥१॥ यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं तदा मा ग्यवहारनिश्चयौ मुञ्चत । व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यम् । २ तदा अनिच्छन्तश्च द्वादशविर्धन कायोसर्गेण उद्घाटिताः, यदा राजगृह नगरं गताः, नत्र मौर्यवंशप्रसूतो बलभद्रो नाम राजा श्रमणोपासकः, तेन ते ज्ञाताः, यथेहागता इति तदा तेनारक्षका आज्ञप्ताः,-व्रजत गुण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १६२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], सिलए पचतियगा, ते इहं आणेह, ता तेहिं आणीया भणिया य-लहुं कडगमद्देण मद्दह, ताहे हत्थीहिं कडपहि य आणिएहिं भणति अम्हे जाणामो जहा तुमं सावतो, सो भणति-कहिंथ सावतो ?, तुब्भेत्थ केऽवि चोरा णु चारिगा णु अभिमरा णु ?, ते मणंति-अम्हे समणा निग्गंधा, सो भणति-किह तुग्भे समणा ?, तुम्मे अवत्ता, तुन्भे समणा वा चारिगा वा अपि समणोवासतो वा ण या, तम्हा पडिवजह वबहारणयं, ततो ते संबुद्धा लज्जिया पडिवण्णा णिस्संकिया समणा णिग्गंथा मोति, ताहे अंबाडिया, खरेहि य मउएहि य मए तुम्ह संबोहणा कर्य, मुक्का खामिया य ॥ यथा सामुच्छेदा अश्वमित्रात्तथाऽऽह मिहिलाए लच्छिघरे महागिरि कोडिन्न आसमित्तो अ । उणमणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य ॥ १७० ॥ व्याख्या -- सुगमा ॥ १७० ॥ एतद्भावार्थाभिव्यञ्जकस्तु सम्प्रदायोऽयम् -- ' सामिस्से दो वाससयाणि वीसुत्तराणि Education into निर्युक्ति: [ १६९ ] १ शीले प्रब्रजिताः, तानिहानयत, ततस्तैरानीता भणिताञ्च - लघु कर्दकमन मर्दयत, तदा हस्तिषु कटकेषु चानीतेषु भणन्ति-वयं जानीमो यथा त्वं श्रावकः, स भणति - कुत्रान श्रावकः ?, यूयमत्र केऽपि चौरा नु चारिका नु अभिमरा नु ?, ते भणन्ति-वयं श्रमणा निर्मन्थाः, स भणति कथं यूयं श्रमणाः १, यूयमव्यक्ताः, यूयं श्रमणा वा चारिका वा ?, अहमपि श्रमणोपासको वा न वा, तस्मात् ४ ॥ १६२॥ प्रतिपद्यध्वं व्यवहारनयं, ततस्ते संबुद्धा लज्जिताः प्रतिपन्नाः - निश्शङ्किताः श्रमणा निर्मन्थाः स्म इति, तदा तिरस्कृताः, खरैश्च मृदुभिश्च मया युष्माकं संबोधनार्थाय कृतं मुक्ताः क्षानिवाश्च । २- स्वामिनः द्वे वर्षशते विंशत्युत्तरे For Fast Use Only ~325~ चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| सिद्धिं गयस्स, तो चउत्थो उप्पण्णो, मिहिलानयरीए लच्छीगिह चेइयं, महागिरी आयरिया, तत्व तेसिं सीसो कोडिन्नो, तस्सवि आसमित्तो सीसो, सो पुण अणुप्पवाए पुवे उणियवत्थु, तत्व छिण्णछेयणयवत्तवयाए आलावतो जहा—सधे पडुप्पन्नसमयणेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव चेमाणियत्ति,' एवं तस्स तंमि वितिगिफ्छा जाया-जहा सबे संजया वोच्छिजिस्संति, एवं सचेसि समुच्छेदो भविस्सइत्ति, ताहे तस्स तत्थ थिरं चित्तं जायं, दाभण्यते चाचार्ययथा-भद्र! तवायमाशयः-अस्ति कारणमुत्पादे, विनाशे नास्ति कारणम् । उत्पत्तिमन्तः सर्वेऽपि, विनाशे नियतास्ततः ॥१॥ प्रयोगश्च-ये यद्भाव प्रत्यनपेक्षास्ते तद्भावनियताः, यथा अन्त्या कारण||सामग्री खकायेंजनने, अनपेक्षाश्च विनाशं प्रति भावाः, अत्र च विनाशनयत्यं भावानां किं वैश्रसिकं विनाशमाश्रित्य || नसाध्यते प्रायोगिकं वा ?, यदि वैश्रसिकं किं सर्वथा कथञ्चिद्वार, कथञ्चित्पक्षे सिद्धसाधनं, सरस्तरङ्गवत्सततमुदय व्ययवत्त्वेन केषाश्चित्पर्यायाणां तद्रूपेण वस्तुषु वैश्रसिकविनाशनयत्यस्य सिद्धत्वाद्, अथ सर्वथा विनाशः साध्यते । | १ सिद्धिगतात् , तदा चतुर्थ उत्पन्नः, मिथिलानगर्या लक्ष्मीगृहं चैत्यं, महागिरय आचार्याः, तत्र तेषां शिष्यः कोण्डिन्यः, तस्याप्यश्वकामित्र: शिष्यः, स पुनरनुपवादे पूर्व निपुर्ण वस्तु, तत्र छिन्नच्छेदनकवक्तव्यताया आलापको यथा-सर्वे प्रत्युत्पन्नसमयनैरयिका व्युच्छेत्स्यन्ति, दएवं यावद्वैमानिका इति, एवं तस्य तस्मिन् विचिकित्सा जाता-यथा सर्वे संयता ब्युच्छेत्स्यन्ति, एवं सर्वेषां समुच्छेदो भविष्यतीति, तदा तस्य तत्र स्थिरं चि जातं, दीप अनुक्रम [९५] 4G मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१६३॥ Education into “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], ध्ययनम् तर्हि प्रत्यक्ष निराकृतः पक्षो, द्रव्यरूपेणावस्थितस्यैव वस्तुनो दर्शनात्, अन्यथा द्वितीयादिसमयेषु वस्तुनोऽभावप्रसङ्गः, चतुरङ्गीया वस्त्वन्तरोत्पत्तेरदोष इति चेत् किं न तद्भेदेन प्रतिभाति १, अथ माया गोलकवत्सादृश्यात्, तन्न, प्रत्यक्षेणैकत्वग्रहादेव भेदाप्रतिभासात्, अथ भ्रान्तमेवैकत्वग्राहि प्रत्यक्षम्, एवं च सति चक्रकाख्यो दोषः, एकत्वग्राहिणो हि प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वं प्रकृतानुमानप्रामाण्ये, तब सादृश्याद्भेदाप्रतिभासे, स चैकत्वग्राहिणः प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वे, तदपि प्रकृतानुमानप्रामाण्ये इति तदेवावर्त्तते, ऐहिकामुष्मिकव्यवहारविलुभिश्च सर्वथा नाशे, तथा चाह - "तित्ती समो किलामो सारिक्ख विपक्खपचयाईणि । अज्झयणं झाणं भावणा य का सबणासम्मि ? || १|| अन्नन्नो पइगासं भोत्ता अन्नोन्नंसोवि का तित्ती ? । गन्तादओवि एवं इय संववहारवोच्छिती ॥२॥ अथ सन्तानाश्रयो व्यवहारः, सन्तानोऽपि सन्तानिभ्यः किं भिन्नो नवा ?, यदि भिन्नो वस्तुसन्न वा १, यदि न वस्तुसन्, किं तेन शशविषाणेनेव कल्पितेन ?, वस्तुसस्वेऽपि क्षणिकोऽक्षणिको वा ?, यद्यक्षणिकस्तेनैव प्रकृतानुमानव्यभिचारः, क्षणिकत्वे च तदयस्यैव व्यवहार बिलुप्तिः, अथाभिन्नः, तथाहि सदशापरापरक्षणप्रबन्धः सन्तानः, स च सन्तानिन एव, तदसत्, यतः सर्वथोच्छेदे प्राग्भावित्वमेव कारणस्य कारणत्वं, तेच विसदृशक्षणापेक्षयाऽपि समानमिति कथं सरशक्षणस्यैवोत्पत्तिः १ येन तत्प्रबन्धः निर्युक्ति: [१७०] १ तृप्तिः श्रमः मः सादृश्यं विपक्षः प्रत्ययादीनि । अध्ययनं ध्यानं भावना च का सर्वनाशे ? ॥१॥ अन्योऽन्यः प्रतिमासं भोक्ताऽन्योऽन्यः का तृप्तिः ? गन्त्रादयोऽन्येवमिति संव्यवहारव्युच्छित्तिः ॥ २ ॥ २ अन्ते न सोऽवि (वि०) Forest Use Only ~327~ ॥ १६३॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| सन्तान उच्यते, अथ सदृशक्षणस्यैवोत्पत्तिदृष्टा, तर्हि वस्तु कथंचित् स्थितिमदपि दृष्टमिति तथैवास्तु, सजातीयेत-RAM रव्यावृत्तवस्तुवादिनां च न किञ्चित्तात्त्विकं सादृश्यम् , अतात्त्विकं च खपुष्पमिव न तत्त्वविचारोपयोगि, पूर्वापरविनि ठितकक्षणाभ्युपगमे च सन्तानिनोऽप्यसन्त एवेत्ययुक्तस्ततो भेदाभेदविचारः, अथ प्रायोगिकं विनाशमाश्रित्य भावानां विनाशनयत्यं साध्यते, तर्हि तस्य हेत्वन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वेनानपेक्षत्वमसिद्धम् , तथाहितक्किं विनाशहेतूनामसामोदथ, वैवोत्कृतकत्वे विनाशस्थापि विनाशप्रसङ्गतो वा, यद्यसामर्थ्यात्तति विना-1 शस्य तुच्छरूपतया कर्तुमशक्यत्वेन वस्त्वन्तरोत्पादव्यापृतत्वेन वा ?, तत्राद्यपक्षे विनाशस्य तुच्छरूपत्वमसिद्ध, यतो जनानामुत्तरावस्थोत्पाद एवं पूर्वावस्थाप्रच्युतिर्नान्या, यदुक्तम्- "कपालानां तु उ(समु)त्पादः, स एव च घटव्ययः । अन्यो न दृश्यते नाशो, मध्ये कुम्भकपालयोः॥१॥" न चानयोरेकत्वे विरोधो, निमित्तभेदोदयत्वाद् , यदुक्तम्-"एकत्वेऽपि बिरुद्धत्वं, न चोत्पादविनाशयोः । निमित्तभेदभूतत्वान्नप्तृपुत्रपितृत्ववत् ॥ १॥" सिद्धे चैकत्वे |पूर्वविनाशाभूत एपोत्तरोत्पाद इत्यनयोस्तुल्य एव हेतुव्यापारः, ततो भावान्तरोत्पादच्यावृतत्वेनेसपि प्रत्युक्तम् , |उक्तं च-"अन्यदुत्तरसम्भूतिः, पूर्वनाशाविनाकृता । नाविनाश्य ततः पूर्व, प्रकुर्याद्धे तुरुत्तरम् ॥१॥" अथ वैयपात् खयं हि विनश्चरखभावो भाव इति किं तस्य विनाशहेतुना ?, नन्वेवं नाशखभावत्वाद्वस्तुन उत्पाद एव न|| स्थात् , नाशोत्पादयोर्विरुद्धत्वेन त्वयाऽभ्युपगतत्वाद् , अविरुद्धताभ्युपगमे वा जैनमतानुप्रवेशः, यदपि-कृत दीप अनुक्रम [९५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] (४३) वृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यकत्वे विनाशस्थापि विनाशप्रसङ्ग' इति, तदप्यत एव न दोपाय, तथाहि-कपालोत्पादस्यैव कपालत्वं, कपालोत्पा-चतुरङ्गीया दश्च कपालेभ्यो नान्य इति तेषामेव विनाशः, स चोभयसम्मत एव, न च कृतकेनावश्यं विनष्टव्यं, सम्यग्दर्शना- ध्ययनम् दिकृतत्वे सिद्धत्वादिपर्यायाणामविनाशित्वाद् , अविनाशित्वं च साद्यपर्यवसितत्वात्तेषाम् , उभये हि पर्यायाः-४ ॥१६॥ स्थिरा अस्थिराश्च, यदुक्तम्-"स्थिरः कालान्तरस्थायी, पर्यायोऽक्षणभङ्गुरः । क्षणिकश्च क्षणादूईमतिष्ठन्नस्थिरो मतः ॥१॥" ततश्च-यस्मान्नाशोऽपि जन्मेव, कादाचित्कः सहेतुकः। तस्मान्न सर्वथैवामी, भायाः क्षणविनश्वराः 5॥१॥ प्रयोगश्च-यत्कादाचित तत्सहेतुकं, यथोत्पादः, कादाचिकत्वं च विनाशस्य उत्पत्तिक्षणानन्तरमेव भावात् , समकालभावित्वे च विनाशामातत्वेनोत्पादाभावे सर्वशून्यतापत्तेः, इह विनाशस्य कादाचित्कत्वमापाद्य है तबलेन सहेतुकत्वमापादितं, तच्च परप्रसिद्धानेव हेतूनपेक्ष्य, खप्रसिद्ध्या तु न किञ्चिदहेतुकं नाम, द्रव्यादिचतुष्ट यापेक्षत्वेन सर्वस्य तद्धेतुकत्वात् , तत् प्रतिपद्यख पर्यायनयाङ्गीकारतः कथञ्चिदुल्छेदि वस्तु, द्रव्यार्थिकनयाश्रय-|| दाणाच कथञ्चिन्नित्यमिति, तथा च पूज्या:-"जमणंतपज्जवमयं वत्धुं भवणं च चित्तपरिणामं । ठीतिभवभंगरूवं है णिचाणिचाई तोऽभिमतं ॥१॥ सुखदुक्खवंधमोक्खा उभयनयमयाणुवतिणो जुत्ता। एगयरपरिचाए इय (ह) संवच १ यदनन्तपर्यायमयं वस्तु भवनं च चित्रपरिणामम् । स्थितिभवभङ्गरूपं नित्यानित्यानि ततोऽभिमतानि ॥ १॥ सुखदुःखबन्धमोक्षा उभयनयमतानुवृत्तेयुक्ताः । एकतरपरित्यागे इति (ह) संव्यवहारब्युच्छित्तिः ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] (४३) ** दर%22% प्रत सूत्रांक ||४६|| हारवोच्छित्ती ॥२॥" एवं प्रज्ञाप्यमानोऽपि यतो नेच्छति ततोऽसौ निहवोत्ति णाऊण उग्घाडितो, सो समुच्छे यणवायं वागरंतो हिंडेति जहा-सुण्णो लोगो भविस्सति, असम्भावभावणाहिं भावितो रायगिहं गतो, तत्थ ४ खंडरक्खा आरक्खिया समणोवासया, ते य सुंकवाला, ते य आगमिलिया, तेहिं मारिउमारद्धा, ताहे ते भीया भणंति-अम्हहि सुयं जहा तुम्मे सहा तहावि एत्तिए असंजए संजए मारेह, ते भणंति-जे ते पवइगा ते वोच्छिण्णा अन्ने चोरा या चारिया वा जाव सयमेव विणस्सिहिह, को तुन्भे विणासेति !, तुम्भं चेव सिद्धंतो, जइ परं सामिस्स सिद्धतेण ते चेय तुम्भे, तेहिं चेव अम्हहिं विणासेजह, जतो तं चेव वत्थु कालादिसामग्गिं पप्प पढमसमयिकत्तेण |चोच्छिजइ दुसमयकत्वेण उपजति, एवमाइ, तिसमयणेरड्या वोच्छिज्जति चउसमया उप्पजंति, एवं पंचसमयग १ निदव इति ज्ञात्वोद्घाटितः, स सामुच्छेदनवादं व्याकुर्वन हिण्डते, यथा-शून्यो लोको भविष्यति, असद्भावभावनाभिर्भावयन् राज* गृहं गतः, तत्र खण्डरक्षा आरक्षकाः श्रमणोपासकाः, ते च शुल्कपालाः, ते च ज्ञातवन्तः, तैर्मारयितुमारब्धाः, तदा ते भीता भणन्ति अस्माभिः श्रुतं यथा यूर्य श्राद्धास्तथापीयतः असंयतान (इब) संबतान मारयत, ते भणन्ति-ये ते प्रत्रजितास्ते व्युच्छिन्ना अन्ये चौरा वा चारिका बा, यावत् स्वयमेव चिनझ्यय, को युष्मान् विनाशयति !, युष्माकमेव सिद्धान्तः, यदि पर स्वामिनः सिद्धान्तेन त एवं यूयं तैश्चैवास्माभिविनाश्यन्ते, यतस्तदेव वस्तु कालादिसामग्री प्राप्य प्रथमसामयिकत्वेन ट्युच्छिद्यते द्वितीयसामयित्वेनोत्पद्यते, एवमादि, त्रिसमयनैरविका ब्युच्छियन्ते चतुःसामयिका उत्पद्यन्ते, एवं पञ्चसमयगता KA दीप अनुक्रम XRAS [९५] JARE wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] उत्तराध्य. वृति: ॥१६५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], यांवि, एत्थं सो वितिगिच्छंतो खणिगवायं पण्णवेद, एत्थ ते संबुद्धा भणंति-इच्छामो अजो ! सम्मं पडिचोयणा एवमेवं तदृत्ति, एवं ते संबोहिया मुक्का खामिया पडिवण्णा य ॥ यथा गङ्गाद् द्विक्रियास्तथा चाहनइखेडजणव उलग महगिरि घणगुत्त अजगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातवो तीरमणिनाप ॥ १७१ ॥ व्याख्या -क्षुण्णा ॥ १७१ ॥ सम्प्रदायश्चायम् सांमिस्स अट्ठवीसाई दोवाससयाई सिद्धिं गयस्स तो पंचमतो उप्पण्णो, उलुगा नाम गई, तीसे तीरे उल्लुगतीरं नगरं, बीए तीरे खेडत्थाम, (ग्रन्थाग्रम् ४०००) तत्थ महागिरीणं आयरियाणं सीसो धणगुत्तो नाम, तस्स सीसो गंगदेवो णाम आयरितो, सो पुषिमे तडे उल्लुगतीरे णयरे, आयरिया से अवरिमे तडे, ताहे सो सरदकाले आयरियं बंदतो उच्चलितो, सो य उवरितो खलीडो, तस्स उल्लुगं गई उत्तरंतस्स सा खली उण्हेण डज्झति, हेट्ठा य सीयलेण पाणिएण Education intimational निर्युक्ति: [ १७१] १ अपि अन स विचिकित्सयन् क्षणिकवाद प्रज्ञापयति, अत्र ते संबुद्धा भणन्ति - इच्छाम आर्य ! सम्यक् प्रतिचोदना, एवमेवं तथेति, एवं ते संबुद्धा मुक्ताः क्षामिताः प्रतिपन्नाच । २ स्वामिनोऽष्टाविंशति वर्षशते च सिद्धिगतान् वदा पञ्चम उत्पन्नः कानानी नदी, तस्यास्तीर उल्लुकतीरं नगरं, द्वितीये वीरे खेटस्थाम, तत्र महागिरीणामाचार्याणां शिष्यो धनगुप्तो नाम, तस्य शिष्यो गङ्गदेवो नामाचार्यः, स पौरस्त्ये तटे उल्लुकतीरे नगरे, आचार्यास्तस्य पाश्चाले तटे, तदा स शरत्काले आचार्याणां वन्दनाय उच्चलितः, स चोपरि खल्वाटः, तस्योल्लुकनदीमुत्तरतः सा खछतिरुष्णेन दृह्यते, अधस्ताच शीतलेन पानीयेन For Fast Use Onl ~ 331~ चतुरङ्गीया ध्ययनम् श् | ॥१६५॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७१] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| सीयं, ताहे सो चिंतेति-जहा सुत्ते भणियं-एगा किरिया बेइज्जति-सीया उसिणा घा, अहं दो किरियातो वेएमि, तो दो किरिआओ एगसमएण वेइजंति, ताहे आयरियाण साहइ, तेहिं भणियं-मा अजो! पण्णवेहि, णस्थि एवं जं एगसमएण दो किरिआओ बेइजंति, तथाहि तवाशया-तथा प्रतीयमानत्वात्छेतं श्वेततया यथा । योगपद्येन किं नेष्टमुपयोगद्वयं तथा ? ॥१॥ प्रयोगश्च-यद्यथा प्रतीयते तत्तथाऽस्ति, यथा श्रेतं श्वेततया, प्रतीयते च योगपद्येनोपयोगद्वयं, नन्वत्र योगपद्येनोपयोगद्वयप्रतीतिः किं क्रमानुपलक्षणमात्रेण यद्वैकत्रोपयुक्तस्थान्यत्राप्युपयोगनिश्चयेन ?, यदि क्रमानुपलक्षणमात्रेण, तदाउनैकान्तिको हेतुः, उत्पलपत्रशतव्यतिभेदादिषु प्रतीयमानस्यापि योगपद्यस्थाभावात् , अथ तत्र सूच्याः सूक्ष्मत्वेनाशुसञ्चारित्वेन च समयादिगत एव क्रमः, स च समयादिसौम्यान लक्ष्यत इति योगपद्याभि-IN मानः, एवं सत्यत्रापि मनसोऽतीन्द्रियत्वेन सूक्ष्मत्वादत्यन्तास्थिरतयाऽऽशुसञ्चारित्वाच शिरश्चरणगतत्वगिन्द्रियदेशयोः15 सञ्चरणक्रमः समयादिसौक्षम्यान लक्ष्यते, तत उपयोगयोगपद्याभिमान इत्यस्तु, उक्तं च-"सुहुँमासुचलं चितं"ति, तथा "समयादिसुहुमयातो मनसि जुगवंपि भिण्णकालंपि । उप्पलदलसयहं व जह व तमलायचति ॥१॥" । १ शीतं, तदा स चिन्तयति-यथा सूत्रे भणितम्-एका क्रिया वेद्यते-शीवा उष्णा वा, अई द्वे किये वेदयामि, ततो द्वे क्रिये एकसमयेन वियेते, तदा आचार्यान् कथयति, नैर्भणित-मा आर्य ! प्रज्ञापय, नास्त्येतत् यत् एकसमयेन द्वे किये येते । २ सूक्ष्ममाशुचलं चित्तमिति ।। |३ समयादिसीक्ष्म्यात मन्यसे युगपदापि भिन्नकालमपि । उत्पलदलशतवेधमिव यथा वा तदलातचक्रमिति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [९५] % 12-% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 332~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १६६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], Education intol किञ्च यत्रेन्द्रियपञ्चकमपि सञ्चरन्मनोदुर्लक्षं, अत एव दीर्घा शुष्कां तिलशष्कुलिका भक्षयतो बुद्धस्य पञ्च ज्ञानानि समुत्पन्नानीति कैश्चिदुच्यते, तत्रैकेन्द्रियस्य देशान्मनः सञ्चरंलक्षिष्यत इति दुराशयम्, इह च सञ्चरणमुपयोगगमनम्, अन्यथा शरीरव्यापिनः तस्य सञ्चारायोगात्, अथात्रानुमानसिद्धः क्रम इति यौगपद्याभाव:, तथाहि--यत् क्रियावत् तत् क्रमेणैव देशान्तरस्कन्दि, यथाऽऽदित्यः क्रियावञ्च सूच्यादि, इदमपि समानमत्रापि, यो दूरदेशौ न तयोर्युगपदेकस्य सञ्चारो यथा हिमवद्विन्ध्यशिखरयोर्देवदत्तस्य, दूरदेशी च शिरश्चरणगतत्व गिन्द्रियदेशावित्यनुमानेन मनसः क्रमसञ्चारसिद्धेः, स्थादेतद्— आगमसिद्धमुपयोगयौगपद्यं, न च तद् युगपन्मनसः सञ्चारं विनेति न मनसः क्रमसवारसाधकानुमानोत्थानम्, आगमसिद्धता चास्य बहुबहुविधादिग्राहित्वाभिधानेनावग्रहादीनामनेकग्रहणस्य तत्रोक्तत्वात्, तदभिधानाच युगपदनेकोपयोगताऽप्युक्तैवेति, नन्यत्रानेकग्रहणं किं सामान्यविशेषाणां ग्रहणमपेक्ष्य केवलविशेषाणां वा १, न तावदाद्यः पक्षो यतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपेण विलक्षणत्वं सामान्यविशेषाणां तथा चाह-य एकत्र ग्रहण| परिणामः स नान्यत्रेति कथं युगपत्सामान्यविशेषग्रहणम् १, अथ द्वितीयः पक्षः, उक्तं हि “विशेषाणां व्यावृत्तिरूपेणाविलक्षणत्वात् युगपद्वहूनामपि ग्रहणम्, 'तन्न, विरुद्धत्वादस्य, तथाहि - विशेषाश्चाविलक्षणाश्चेति परस्परविरुद्धं वचः, अथ भिन्नेष्वपि विशेषेष्वभिन्नं सामान्यमिति तद्रूपेण तेषां ग्रहणम् इदमस्मदिष्टमेव, उक्तं च- "उसिणेयं सीयेयं ण विभागेणोवओगदुगमिहं । होज्जा समदुगगहणं सामन्नं वेयणामेत्तं ॥ १ ॥ " न चैवमनेकग्रहणं युगपदनेकोपयो१ उष्णेयं शीतेयं न विभागेनोपयोगद्वयमिष्टम् । भवेत् समकं द्विकग्रहणं सामान्यं वेदनामात्रम् ॥ १ ॥ For Fans Only निर्युक्तिः [१७१] ~333~ चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ॥१६६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७१] (४३) ॐe+ प्रत सूत्रांक ||४६|| गित्वाविनाभावि येन तदभिधानात्तदप्युक्तं भवेत् , तथा च पूज्या:-"बहुबहुविहाइगहणे णणूवओगबहुआ सुएऽभिFilहिया । तमणेगग्गहणं चिय उवओगाणेगया णत्थि ॥१॥” अथैकत्रोपयुक्तस्थान्यत्राप्युपयोगनिश्चयेनेति पक्षः, सो ऽपि न, यस्माद्यधन्यत्रोपयुक्तमपि मनोऽन्यत्राप्युपयुज्यमानं निश्चीयेत तदा क्वचित् व्याक्षिसमनाः पुरः सन्निहितप-14 दार्थान्तरेऽप्युपयोग लक्षयेत् , न चैवं, तदुक्तम्-"अन्नविणिउत्तमन्नं विणितोगं लहति जइ मणो तेणं । हत्यि ठियपि || पुरतो किमन्नचित्तो न लक्खेइ ? ॥१॥” ततश्च स्थितमेतत्-गोवहितचित्तस्य, नोपयोगो यथा गजे । शीतोपयुक्तचित्तस्य, नोपयोगस्तथाऽऽतपे॥१॥प्रयोगश्च-य एकत्रावहितचित्तो न सोऽन्यस्य ग्राहको, यथा गवाहितचित्तो हस्तिनः, शीतावहितचित्तश्च शीतवेदनाकाले जीवः, इत्थं संज्युपयोगमाश्रित्योक्तं, सामान्येन तु-कारणं परिणाम्ये-10 कोपयुक्तनिजशक्तिकम् । तदैवाशक्तमन्यस्मिन्नुपयुक्तं(योक्तुं) मृदादिवत् ॥१॥ प्रयोगश्च-यत्परिणामि कारणमेकत्रोपयुCक्तशक्तिकं न तदेव तदन्यत्रोपयुज्यते, यथा घटोपयुक्ता मृत् शरावादिष, शीतवेदनोपयुक्तश्च तत्काले जीवः, उक्तं च-४ "उवओगमतो जीवो उपउज्जइ जेण मि तं कालं । सो तम्मओपओगो होइ जहिंदोवओगम्मि ॥१॥ सो तदुका बहुबहुविधादिग्रहणे ननूपयोगबहुता श्रुतेऽभिहिता । तदनेकग्रहणमेव उपयोगानेकता नास्ति ॥ १ ॥ २ अन्यविनियुक्तमन्य विनियोग ४ लभते यदि मनस्तेन । हस्तिनं स्थितमपि पुरतः किमन्यचित्तो न लक्षयति ॥ १॥ ३ उपयोगमयो जीव उपयुज्यते येन यस्मिन् तस्मिन् है काले । स तन्मयोपयोगो भवति ययेन्द्रोपयोगे ॥ १॥ स तदु rn- दीप अनुक्रम [९५] **** wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७१] (४३) चतुरङ्गीया ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य वओगमेत्तोवउत्तसत्तित्ति तस्समंत्तो य । अत्यंतरोवओगं जाउ कहं केण वंसेण ? ॥२॥" एवं प्रज्ञाप्यमानोऽपि असैद्द- हतो असम्भावभावणाए अप्पाणं परं उभयं च बुग्गाहेति, साहुणो पण्णवेति, परंपरेण सुर्य आयरिएहिं, वारिओ, हजाहे ण हाइ ताहे उग्घाडितो, सो हिंडतो रायगिहं गतो, महातकोतीरप्पभे पासवणे, तत्थ मणिणागो णाम ॥१६७॥ दाणागो, तस्स चेइए ठाइ सो, तत्थ य परिसामज्झे कहेति-जहा एवं खलु जीवा एगसमएण दो किरिया एंति, ताहे तेण णागेण तीसे चेव परिसाए मज्झे भणितो-मा एयं पण्णवणं पण्णवेहि, ण एसा पण्णवणा सुट्ट दुहुसेहा !, अहं एचिरं कालं वद्धमाणसामिस्स मूले सुणामि-जहा एगा किरिया वेदिजइ, तुमं विसिट्टतरातो जातो?, १. पयोगमात्रोपयुक्तशक्तिरिति तत्समाप्तश्च । अर्थान्तरोपयोग यातु कथं केन वांऽशेन ? ॥२॥२ तस्समं चेच (वि) । ३ अभधन असद्भावभावनया आत्मानं परमुभयं च व्युबाहयति, साधून प्रज्ञापयति, परम्परकेण श्रुतमाचाः , वारितः, यदा न विष्वति तदो-18 द्घाटितः, स हिण्डमानो राजगृहं गतः, महातपस्तीरप्रभ प्रस्रवणं, तत्र मणिनागो नाम नागः, तरूप चैये तिष्ठति सः, तत्र च पर्षमध्ये कथयति-यवैवं खलु जीवा एकसमवेन द्वे क्रिये वेदयन्ति, तदा तेन नागेन तस्या एवं पैषदो मध्ये भणित:-मा एतां प्रज्ञापना | प्रजिज्ञपः, नैषा प्रज्ञापना सुन्दरा दुष्टशैक्ष!, अहमियचिरं कालं वर्धमानस्वामिनः मूलेऽशृणव-यथैका किया वेचते, त्वं विशिष्टतरको जात: दीप अनुक्रम [९५] %A4-%A54646 ॥१६७॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...]/ गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७२] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| तो छह एवं वायं, मा ते दोसेण सेहामि, एयं ते ण सुंदर, भगवया एत्य चेव समोसरिएण यागरियं, एवं सो / पण्णवितो अभुवगतो, उवढिओ भणति-मिच्छामि दुक्कडं ॥ यथा षडुलूकात् त्रैराशिकानामुत्पत्तिस्तथाऽऽहपुरिमंतरंजि भुयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । परिवाय पुट्टसाले घोसण पडिसेहगा वाए ॥१७॥ ___ व्याख्या-स्पष्टा ॥ १७२ ॥ सम्प्रदायस्त्वयम् पंचसया चोयाला सिद्धिं गतस्स बीरस्स तो तेरासियदिट्ठी उप्पण्णा, अंतरंजिया णाम णयरी, तत्थ भूयगुहं णाम इयं, तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिया, तत्थ बलसिरीणाम राया, तेसिं पुण सिरिगुत्ताणं थेराणं सही (सेहो)। य रोहगुत्तो नाम, सो पुण अन्नगामे ठियल्लतो, पच्छा तत्तो एति । तत्थ य एगो परिवायगो पोट्टं लोहपट्टेण बंधेऊण जंबुसाहं च गहाय हिंडति, पुच्छिओ भणति-णाणेणं पोट्टे फुट्टति, तो लोहपट्टेण बद्धं, जंबूसाला य जहा| | १ ततस्त्यजैन बादं, मा तव दोषेण शिक्षयामि, एतत्तव न सुन्दरं, भगवताऽत्रैव समवसृतेन व्याकृतम्, एवं स प्रज्ञापितोऽभ्युपगतवान , उपस्थितो भणति-मिच्या मे दुष्कृतम् । २ पञ्चसु शतेषु चतुश्चत्वारिंशदधिकेषु सिद्धिं गताद्वीरान् तदा त्रैराशिकरष्टिरुत्पन्ना, अन्तरञ्जिका नाम नगरी, तत्र भूतगुह नाम चैत्यं, तत्र श्रीगुप्ता नाम आचार्याः स्थिताः, तत्र बलश्रीनाम राजा, तेषां पुनः श्रीगुप्तानां स्थविराणां शैक्षश्च रोहगुप्तो नाम, स पुनरन्यनामे स्थितः, पश्चात् तत आयाति । तत्र चैकः परिश्राद् उदरं लोहपटेन बदा जम्बूशाखां च गृहीत्वा हिण्डते, पृष्टो। भणति--ज्ञानेनोदरं फुटति, ततो लोहपट्टेन बद्ध, जम्यूशाला च यथाऽत्र दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१६८॥ talk % % *% “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], एत्थं जंबूंदीचे णत्थि मम पडिवादी, ताहे तेण पडहतो णीणावितो, जहा सुण्णा परप्पवाया, तस्स य लोगेणं पोट्टसालो णामं कथं, पच्छा तेण रोहगुण वारियं मा वाएह पडहयं, अहं से वायं देमि, एवं सो पडिसेहिता गतो आयरियाणं आलोएप्ति, एवं मे पडहगो खोभितो, आयरिया भणति दुहु कयं, सो बिज्जावलिओ वाए पराजिओऽवि विजाहिं उट्ठेति, आह च निर्युक्ति: [ १७२] विच्छ्रय सप्पे मूसग मिगी वराही य कागि पोयाई । एयाहिं विज्जाहिं सो उ परिव्वायगो कुसलो ॥ १७३॥ व्याख्या—सुगमा ॥ १७३ ॥ सो भगद किं सका एसाहे णिलोकिउं ?, ताहे तस्स आयरिया इमातो विज्जातो. सिद्धिलियातो दिंति तस्स पडिवक्खा मोरिय नउलि बिराली बग्घी सीही य उल्लुगि ओवाइ। एयाओ विजाओ गिव्ह परिद्वायमहणीओ ॥ १७४॥ ११ जम्बूद्वीपे नास्ति मम प्रतिवादी, तदा तेन पटहो दापितः - यथा शून्याः परप्रवादाः, तस्य च लोकेन पोट्टशालो नाम कृतं पञ्चात्तेन रोहगुप्तेन वारितं मा वीबदः पटहम्, अहमेतस्मै वाद ददामि एवं स प्रतिषिध्य गत आचार्वेभ्य आलोचयति, एवं मया पटहः क्षोभितः, आचार्या भणन्ति दुष्ठु कृतं स विद्यावलिको वादे पराजितोऽपि विद्याभिरुत्तिष्ठते, स भणति - किं शक्यमधुना निलातुं तदा तस्मै आचार्या इमा विद्याः सिद्धा ददति तस्य प्रतिपक्षाः For Fast Use Only ~ 337~ चतुरङ्गीया ध्ययनम् waryra मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ॥૬॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| SRDSKKROCKStore व्याख्या-सुगमा ॥ १७४ ॥रयहरणं च से अभिमंतिऊण दिन्नं, जइ अन्नपि उठेति ततो रयहरणं भमाडेजाहि, अजज्जो होहि सि, इंदेणऽपि ण सक्का जेउं, तो एयातो विज्जातो गहाय गतो समं, भाणियं चणेणं-एस किं जाणति ?, एयस्सेच पुवपक्खो होउ, परिवायतो चिंतेति-एए णिउणा, अतो एयाण चेव सिद्धतं गेण्हामि, जहा मम दो रासी-जीवरासी अजीवरासी य, ताहे इयरेण तिन्नि रासी कया, सो जाणइ-जहा एएण मम सिद्धंतो गहितो, तेण तस्स बुद्धिं परिभूय तिन्नि रासी ठविया-जीवा अजीवा णोजीवा य, जीवा-संसारत्थाई अजीवा। |-घडाई णोजीवा-घरकोलियाच्छिन्नपुच्छाई, दिटुंतो दंडो, जहा दंडस्स आदि मज्झो अगं च, एवं सवभावावि तिविहा, एवं सो तेण णिप्पिट्ठपसिणवागरणो कतो, ताहे सो परिवायगो रुहो विच्छुए मुयति, ताहे पडिमले मोरे | १ रजोहरणं च तस्मै अभिमन्य दत्तं, यद्यन्यदप्युत्तिष्ठते तवो रजोहरणं भ्रामयः, अजय्यो भविष्यसि, इन्द्रेणापि न शक्यो जेतुं, तत एता विद्या गृहीत्वा गतः सभा, भाणितं चानेन-एष किं जानाति ?, एतस्यैव पूर्वपक्षो भवतु, परित्राट् चिन्तयति-एते निपुणाः, अत एतेषामेव सिद्धान्तं गृहामि, यथा मम द्वौ राशी-जीवराशिरजीवराशिश्च, तदा इतरेण त्रयो राशयः कृताः, म जानाति-यथैतेन मम सिद्धान्तो गृहीतः, तेन तस्य बुद्धि परिभूय त्रयो राशयः स्थापिता:-जीवा अजीवा नोजीवान, जीवा:-संसारस्थादयः अजीवाः--घटादयः नोजीवाः गृहकोकिलाच्छिन्नपुच्छादयः, दृष्टान्तो दण्डो, यथा दण्डस्य आदिमध्यममं च, एवं सर्वभाषा अपि त्रिविधाः, एवं स तेन निष्पृष्टप्रश्नव्याककारणः कृतः, तदा स परिवाद रुष्टो वृश्चिकान मुञ्चति, तदा प्रतिमल्लान् मयूरान् 4%4%95 दीप अनुक्रम [९५] %E75 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| %A4%95E5% मुर्यद, तेहिं विच्छुएहिं हएहिं पच्छा सप्पे मुयइ, ताहे तेर्सि पडिघायए णउले मुयति, ताहे उंदरे तेसिं मजारे, ताहे मिगे तेसिं वग्घे, ताहे सूयरे तेर्सि सिंहे, ताहे कागे तेसिं उलूगे, ताहे पोयार्गि, पोयागी सउलिया, तीसे | संपाती-ओलावी, एवं जाहे ण तरइ ताहे गद्दभी मुक्का, तेण य सा रयहरणेण आहया, ताहे तस्सेय परिवायगस्स उरि छरित्ता गया, ताहे सो परिचायगो हीलिजंतो णिच्छूढो, एवं सो तेणं परिवायगो पराजितो, ताहे आगतो आयरियस्स सगासे, आलोएइ, ताहे आयरिएहिं भणियं-कीस ते उठ्ठिएण ण भणियं? –णत्थि तिन्नि रासी, एयस्स बुद्धिं परिभूय मए पण्णविया, ता इयाणिपि गंतु भणादि, सो णेच्छति, मा उम्भावणा होहित्ति ण पडिसुणेइ, पुणो पुणो भणिओ भणइ-को व एत्थ दोसो, किं च जायं? जद तिण्णि रासी भणिया, अस्थि चेव तिन्नि १ मुथति, श्चिकेषु हतेषु पश्चात् सर्पान मुञ्चति, तवा तेषां प्रतिघाताय नकुलान् मुञ्चति, तदा मूषकान तेषां मार्जारान , तदा मगान् तेषां व्याघ्रान , तदा शुकरान तेषां सिंहान , तदा काकान् तेषामुलूकान , तदा शकुनिकाः, (पोताक्यः शकुनिकाः ) तास उल्ला(उला)वकान् , एवं यदा न शक्रोति तदा गर्दभी मुक्ता, तेन च सा रजोहरणेनाहता, तदा तस्यैव परिव्राजकस्योपरि हदित्वा गता, तदा |स परिवाद हील्यमानो निष्काशितः, एवं स तेन परिवाद पराजितः, तदा आगत आचार्यस्य सकाशे. आलोचयति, तदा आचार्य णितं- कथं त्वयोत्तिष्ठता न भणितं-न सन्ति त्रयो राशयः, एतस्य बुद्धिं परिभूय मया प्रज्ञापिताः, तत् इदानीमपि गत्वा भण, स नेच्छति, मा अपभ्राजना भूदिति न प्रतिशृणोति, पुन: पुनर्भणितो भणति-को वाऽत्र दोषः १, किं च जातं? यदि त्रयो राशयो भणिताः, सन्त्येव त्रयो SANSAR -% दीप अनुक्रम 0 [९५] 425% ॥१५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) प्रत सूत्रांक रासी, अज्जो ! असम्भावो तित्थयराण य आसायणा, तहावि ण पडिबजति, एवं सो आयरिएहि समं संपलग्गो, ताहे आयरिया रायउलं गया, भणंति-तेण मम सीसेण अवसिद्धंतो भणितो. अम्हं दवे चेव रासी. इयाणि सो विपडिवण्णो, तो तुम्भे अम्हं वायं सुणेजाह, तं पडिसुगंति, तत्थ रायसभाए मज्झे रणो पुरतो आयडिया ततस्तं श्रीगुप्तगुरुरवोचत्-भद्राभिधत्ख, प्रत्युवाच-'यस्मादजीवबज्जीवानोजीवोऽपि विभिद्यते । तथैवाध्यक्षगम्यत्वादस्तु राशित्रयं ततः ॥१॥ प्रयोगश्च-यद्यतो विलक्षणं तत्ततो भिन्नं, यथा जीवादजीवो, विलक्षणश्च जीवानोजी-2 वः, ततश्च जीवाजीची द्वौ नोजीवश्चेति राशित्रयसिद्धिः, गुरुराह-असिद्धोऽयं हेतुः, यस्माजीवानोजीवस्य वैलक्षण्यं लक्षणभेदेन देशभेदेन वा ?, न तावलक्षणभेदेन जीवलक्षणानां स्फुरणादीनां त्वदभिमते नोजीवेऽपि जीवदेशे गृहलो कि(कोलि)कात्रुटितपुच्छादावभेदेन दर्शनात् , नापि देशभेदेन, स हि जीवात् पृथग्भावे भवेदन्यथा वा?, यदि पृथग्भावे दस किं विश्रसातः प्रयोगतो वा ?, विश्रसातश्चेत् पुद्गलानामिव नोजीवानां खतश्चटनविचटनधर्मत्वेनान्यसम्बन्धि ||४६|| दीप अनुक्रम XAXX [९५] ४] १ राशयः, आर्य ! असदावः तीर्थकराणां चाशातना, तथापि न प्रतिपद्यते, एवं स आचार्य: समं संप्रलमः, तदा आचार्या राजकुलं | BI गताः, भणन्ति-तेन मम शिष्येणापसिद्धान्तो भणितः, अस्माकं द्वावेव राशी, इवानी स विप्रतिपन्नः, ततो यूयमस्माकं बादं शृणुव, तत् | Mप्रतिशृणोति, तत्र राजसभाया मध्ये राज्ञः पुरत आपतितं Manmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. नामन्यत्र सञ्चारतः सुखदुःखाद्यात्मधर्मसङ्कीर्णतापत्तिः, तदुक्तम्-"अह खंघो इव संघायभेयधम्मा स तोऽवि चतुरङ्गीया सबेसि । अवरोप्परसंचारे सुहाइगुणसंकरो पत्तो॥१॥" तथात्वे च कृतनाशाकृताभ्यागमो, अथ प्रयोगतस्तन्न, ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः KIअमनद्रव्यत्वादिभिर्नभस इव जीवस्य खण्डशो विनाशयितुमशक्यत्वात् , तथात्वे वा सर्वेनाशादिदोषप्रसङ्गः, उक्तं च-1 ॥१७॥ "देवामुत्तत्ता कयभावादविकारदरिसणातो य । अविणासकारणेहि नभसोच न खंडसो णासो ॥१॥णासे य सबनासो जीवस्स ण सो य जिणमयचातो। तत्तो य अणिम्मोक्खो दिक्खावेफलदोसोय ॥२॥" किञ्च-अयं कुतो निश्चीयते ?, अथ गृहकोलिकाच्छिन्नपुळशरीरान्तराले जीवस्यासत्त्वात् , तदसत्त्वं च तदग्रहणात् , तर्हि तत्तदग्रहणमौदारिकशरी-|| दररूपेण सर्वथा वा ?, न तावदाद्यः पक्षो, यतो न जीवस्यौदारिकमेवैकं शरीरं येन तदग्रहणेन तदसत्त्वनिश्चयः स्यात् , द्वितीयपक्षे पुनरनैकान्तिकमग्रहणं. दीपरश्मीनामिव भित्त्यादिकमन्तरेण बिनौदारिकशरीरमशरीरस्य सूक्ष्मशरीरस्य वा सतोऽपि जीवस्याग्रहणात् , तथा चोक्तम्-"गज्झामोत्तिगयातो णागासे जह पदीवरस्सीतो। तह जीवलक्ख-4 ASKAREENACA * दीप अनुक्रम * ॥१७॥ [९५] | १ अथ स्कन्ध इव संघातभेदधर्मा स तदापि सर्वेषाम् । अपरापरसंचारे सुखादिगुणसांकर्य प्राप्तम् ॥ १ ॥ २ अमूर्तद्रव्यत्वात् अक तकत्वात् अविकारदर्शनाच । अविनाशकारणत्वास नभस इव न खण्डशो नाशः ॥ १॥ नाशे च सर्वनाशो जीवस्य न सच जिनमतत्यागः ।। 18 ततश्चानिर्मोक्षो दीक्षावैफल्यदोषश्च ॥ २॥ ३ ग्राह्या मूर्तिगतत्वात् न आकाशे यथा प्रदीपरश्मयः । तथा जीवलक्ष मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [१५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [3], णाई देहे ण तयंतरालंमि ॥ १ ॥ देहरहियं न गिण्हइ णिरतिसतो णातिसुडुमदेहं च । ण य से होइ विवाहा जीवस्स भवंतराले च ॥ २ ॥” अर्थान्यिथेति पक्षः, तत्र चापृथग्भूतोऽपि भिन्नदेश इति पुच्छादि नोजीवो जीवाद्विलक्षणः, उच्यते, इहापि पुच्छादेनोंजीवत्वं स्वल्पतरप्रदेशत्वेन समभिरूढन्याश्रयणेन वा ?, यद्यल्पतरप्रदेशत्वेन तदा पुच्छवत् शेषावयवानामेकैकशो नोजीवता अजीवावयवानां च नो अजीवतेति राशिचहुत्वम्, अथ यथा जीवाजीवानां बहुत्वेऽपि जात्याश्रयणात् न राशिबहुत्वं तथा तदेकदेशानामपि तथापि राशिचतुष्टयापत्तिः, उक्तं च- "एवं च रासतो ते ण तिष्णि चत्तारि संपसजंति । जीवा तहा अजीवा णोजीवा णोअजीवा य ॥ १॥" अथाभिन्नलक्षणत्वादजीवान्नोअजीवो न भिद्यते इति न दोषः, तर्हि तद्वदेव जीवान्नोजीवोऽपि न भेत्स्यतीति राशिद्वयसिद्धिः, यत्तु समभिरूढनयाश्रयणेनेति त (तन्मतानभिज्ञेनोक्तं, स हि जीवदेशं नोजीवमिच्छन्नपि न राशिभेदमिच्छति, सर्वन यानामपि चैकमत्य मन्त्रार्थे, सर्वनयमतत्वे च जिनमतस्य किमेकतरनयमतेन ?, तदुक्तम्, “ य रासिभेयमिच्छति तुमं व णोजीवमिच्छमाणोऽवि । अन्नोवि णतो णेच्छइ जीवाजीवाहियं किंचि ॥ १॥ इच्छउ व समभिरुढो देसं णोजीच मेगण Education intemational १ णानि देहे न तदन्तराले ||१|| देहरहितं न गृह्णाति निरतिशयः नातिसूक्ष्मदेहं च । न च तस्य भवति विबाधा जीवस्य भवान्तराल इव ||२|| २ एवं च राशयस्ते न त्रयश्चत्वारः संप्रसज्यन्ते । जीवास्तथा अजीवा नोजीवा नोअजीवाश्च ॥ १ ॥ ३ न च राशिभेदमिच्छति त्वमिव नोजीवमिच्छन्नपि । अन्योऽपि नयो नेच्छति जीवाजीवाधिकं किञ्चित् ॥ १ ॥ इच्छतु वा समभिरूढो देशं नोजीवमेकन निर्युक्ति: [१७४] For First Use Only ~342~ Jacibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. दि इयं तु । मिच्छत्तं संमत्तं सबनयमयावरोहेणं ॥२॥" ततश्च-सहाजीवेन तद्देशो, यथैको लक्षणक्यतः । सह जीवेनाचतुरङ्गाया बृहद्वृत्तिः तद्देशः, तथैको लक्षणैक्यतः॥१॥ प्रयोगश्च-यद्येनैकलक्षणं न तत्ततो भिन्नं, यथा अजीवानोअजीवः, एकलक्षणच नोजीवो जीवेनेति, एवं सम्यग् गुरुभिः सहोक्तिप्रत्युक्तिकया, जहा एगदिवसं तहा छम्मासा गया, ताहे राया भणइ ॥१७॥ ४-मम रज सीयति, ताहे आयरिएहि भणियं-इच्छाए मए एचिरं कालं धरितो, इताहे णं पासह कलं दिवसे आगते समाणे णिग्गहामि, ताहे पभाए भणइ-कुत्तियायणे परिक्खिजउ, तत्थ सबदवाणि अस्थि, आणेह-जीवे अजीवे नोजीवेताहे देवयाए जीवा अजीवा दिन्ना, नोजीवे णस्थित्ति भणति, अजीवे वा पुणो देति, एवमादिगाणं चोयालसएण पुच्छाण णिग्गहितो, णयरे य घोसियं-जयइ महइ महा बद्धमाणसामित्ति, सो य निविसओ कओ.15 पच्छा णिण्हतोत्ति काऊण उग्घाडितो, छट्टतो एसो, तेण वेसेसियसुत्ता कया, छैउलूगो य गोत्तेणं, तेण छलूओत्ति १ विकं तु। मिध्यावं सम्यक्त्वं सर्वनयमतावरोधेन ||२|| २ यथैको दिवसस्तथा षण्मासा गताः, तदा राजा भणति-मम राज्यं सीदति, । तदाऽऽचार्भणितम्-इच्छया मयैतावचिरं कालं धृतः, अधुना पश्यत कल्ये दिवस आगते सति निगृहामि, तदा प्रभाते भणति-कुत्रिकापणे. परीक्ष्यता, तत्र सर्वद्रव्याणि सन्ति, आनय-जीवान् अजीवान नोजीवान् , तदा देवतया जीवा अजीवा दत्ताः, नोजीवा न सन्तीति भणंति, अजीबान्वा पुनर्ददाति, एवमादिभिधतुश्चत्वारिंशदधिकशतेन पृच्छाभिनिगृहीत्तः, नगरे च घोषितं-जयति महातिमहान वर्धमानस्वामीति, स च निर्विषयः कृतः, पश्वानिहव इतिकृत्वा उद्घाटितः, षष्ठ एषः, तेन वैशेषिकसूत्राणि कृतानि, पडुलूकश्च गोत्रेण, वेन षडुलूक इति दीप अनुक्रम ॥१७॥ [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| kokGESCORR" जातो, चोयालसयं पुण इम-तेण छ मूलपयत्था गहिया, तंजहा-दवगुणकम्मसामण्णविसेससमवाया, तत्थ दचं का Kाणवहा, तंजहा-पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासं कालो दिसा जीवो मण, गुणा सत्तरस, तंजहा-रूवं रसो गंधो| फासो संखा परिमाणं पुहुत्तं संजोगो विभागो परतं अपरत्तं बुद्धी सुहं दुक्खं इच्छा दोसो पयत्तो, कम्मं पंचहाउक्खेवणं वक्खेवणं आउंदणं पसारणं गमणं च, सामण्णं तियिहं -महासामन्नं सत्तासामन्नं, सामन्नविसेससामण्णं । तत्र महासामान्यं षट्खपि पदार्थेषु पदार्थत्वबुद्धिकारि, सत्ता सामान्यं त्रिपदार्थसहुद्धिविधायि, सामान्यविशेषसामान्यं द्रव्यत्वादि, अन्ये तु ब्याचक्षते-त्रिपदार्थसत्करी सत्ता, सामान्यं द्रव्यत्यादि, सामान्यविशेषः पृथिवीत्वादिः, विसेसो एगविहो, एवं समवाओऽवि, अन्ने भणंति-सामन्नं दुविहं-परमपरं च, विसेसो दुविहो-अंतबिसेसो | १ जातः, चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं पुनरिदम्-तेन पट् मूलपदार्था गृहीताः, तद्यथा-द्रव्यं गुणः कर्म सामान्य विशेषाः सम वायः, तत्र द्रव्यं नवधा, तद्यथा-पृथ्वी आपः वेजो वायुराकाशं कालो दिन जीवो मनः, गुणाः सप्तदश, तद्यथा-रूपं रसो गन्धः का स्पर्शः सङ्ख्या परिमाण पृथक्त्वं संयोग विभागः परत्वमपरत्वं बुद्धिः सुखं दुःखमिच्छा द्वेषः प्रयनः, कर्भ पञ्चधा-तरक्षेपणमपक्षेपणमा कुधनं प्रसारणं गमनं च, सामान्य विविध महासामान्य सत्तासामान्य सामान्यविशेषसामान्य (च), विशेष एकविधः, एवं समवायोऽपि । | अन्ये भणन्ति-सामान्य द्विविध-परमपरं च, विशेषों द्विविध:--- अन्त्यविशेषश्च दीप अनुक्रम [९५] JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] (४३) चतुरङ्गीया ध्ययनम् बृद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यय अणंतविसेसो य, एते छत्तीसं, एककमि चत्तारि विगप्पा, पुढवी अपुढवी नोपुढवी णोअपुढवी, एवमवादिष्वपि, तत्थ पुढविं देहत्ति मट्टिया देति, अपुढविं देहत्ति तोआइ, णोपुढवी देहति न किंचि देति, पुढविवइरिचं वा पुणो देइ, नो अपुढविं देहित्ति न किंचि देति, एवं जहासंभवं विभासा ॥ स्थविराश्च गोष्ठमाहिलाः स्पृष्टमबद्धं प्ररूप॥१७२॥ यन्ति यथा तथाऽऽह दसपुरनगरुच्छुघरे अजरक्खिय पुसमित्ततियगं च । गुट्टामाहिल नव अट्ट सेसपुच्छा य विंझस्स १७५ व्याख्या-अस्याः संस्कारः सुकरः ॥ १७५ ॥ अर्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चावश्यकचूर्णिणतोऽवगन्तव्यः, नवरमिहोपयोगि किश्चिदुच्यते पंचसया चुलसीया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अबद्धियाण दिट्टी, दसपुरनयरे समुप्पण्णा ॥१॥ ते देवि १ अनन्त्यविशेषश्च, एते पत्रिंशत् , एकैकस्मिंश्चत्वारों विकल्पा:-पृथ्वी अपृथ्वी नोवृथ्वी नोअपृथ्वी, ततः पृथ्वी देहीति मृत्तिका || भाददाति, अपृथ्वी देहीति तोयादि, नोपृथ्वी देहीति न किश्चिददाति, पृथ्वीव्यतिरिक्त वा पुनर्ददाति, नोअपृथ्वी देहीति न किश्चिरदाति, एवं यथासंभवं विभाषा ।२ पञ्च शतानि चतुरशीत्यधिकानि वदा सिद्धिगतात् वीरात् । अवद्धिकानां दृष्टिदशपुरनगरे समुत्पन्ना C ॥१॥ ते देवे KARACC दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], देवंदिया रक्खिजा दसपुरं गया, महुराए अकिरियवाई उट्टितो, जहा णत्थि माया णत्थि पिया एवमादिणाहियवादी, तत्थ संघसमवातो कतो, तत्थ पुण वादी णत्थि, ताहे इमेसिं पर्यट्टियं, इमे य जुगप्पहाणा, ताहे आगया, तेसिं साहेति, ते य महला, ताहे तेहिं गोट्ठामाहिलो पट्टिओ, तस्स य वायलद्धी अस्थि, सो गतो, सो तेण वाए पराजितो, सोऽवि ताव तत्थ सहेहिं आभट्ठो वरिसारते ठितो अच्छति, ततो आयरिया समिक्खंति, को गणहरो हवेज्जा ?, ताहे दुम्बलियापुस्तमित्तो समिक्खितो, जो पुण तेसिं सयणवग्गो सो बहुओ, तेसिं गोहामाहिलो वा फग्गुरक्खितो या अणुमतो, गोट्ठामाहिलो आयरियाण माउलओ, तत्थ आयरिया सबै सदावित्ता दि तं करेंति - णिष्फावकुडो तेलकुडो घयकुडो य, ते पुण हेट्ठा होता कया गिप्फाचा सधे णेंति, तेलमवि णेति ratnamation १ न्द्रवन्दिता रक्षितार्या दशपुरं गताः, मथुरायामक्रियावादी उत्थितः - यथा नास्ति माता नास्ति पिता एवमादिनास्तिकवादी, तत्र सङ्घसमवायः कृतः, तत्र पुनर्वादी नास्ति, तदाऽमीभ्यः प्रवर्त्तितम् इमे च युगप्रधानाः, तदा आगताः, तेभ्यः कथयति, ते च महान्तः, तदा तैर्गोष्ठमाहिल: प्रेषितः, तस्य च वादलब्धिरस्ति स गतः तेन स वादे पराजितः, सोऽपि तावत्तत्र श्राद्धर्विज्ञतः वर्षांरात्रे स्थितोऽभूत्, तत आचार्याः समीक्षन्तेको गणधरो भवेत् ?, तदा दुवैलिकापुष्पमित्रः समीक्षितः, यः पुनस्तेषां खजनवर्गः स बहुः, तेषां गोष्ठमाहिलो वा फल्गुरक्षितो वाऽनुमतः गोष्टमाहिल आचार्याणां मातुलः, तत्राचार्याः सर्वान् शब्दयित्वा दृष्टान्तं कुर्वन्ति-निष्पावकुट: तैलकुटो घृतकुटध, ते पुनरवाङ्मुखीकृता निष्पावाः सर्वे निर्यन्ति, तैलमपि निरेति निर्युक्ति: [१७५] For Fans Only ~ 346~ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७५] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. तत्थ पुण अवयवा लग्गति, घयकुडे बहुं चेव लग्गति, एवमेवाहमजो! दुबलियापूसमित्वं पइ सुत्तत्थतदुभएसु चतुरङ्गीया 1 णिप्फावकुडसमाणो जातो, फग्गुरक्खियं पति तेखकुडसमाणो, गोहामाहिलं पद घयकुडसमाणो, एवमेसी सध्ययनम् बृद्धृत्तिः सुत्तेण अत्थेण य उववेतो तुम्भं आयरितो होउ, तेहिं सवं पडिच्छियं, इयरोऽपि भणितो-जहाऽहं वट्टितो ॥१७३॥ फग्गुरक्खियस्स गोट्ठामाहिलस्स तहा तुम्भेहि वि वट्टियबं, ताणिवि भणियाणि-जहा तुम्मे ममं पट्टियाइंतहा एयस्सवि बट्टेजाह, अषिय-अहं कए वा अकए या ण रूसामि एस ण खमिहित्ति, एवं दोषि वग्गे अप्पाहेत्ता भत्तं पचक्खाय कालगया देवलोगं गया, इयरेणऽपि सुयं-जहा आयरिया कालगया, ताहे आगतो पुच्छइ-कोसी गणहरो ठवितो ?, कुडगदिदंतो य सुतो, ताहे वीसु पडिस्सए ठाइऊण पच्छा आगतो, ताहे तेहिं सोहि अभु १ तत्र पुनरवयवा लगन्ति, धृतकुटे बवेव लगति, एवमेवाहमार्या ! दुर्बलिकापुष्पमित्रं प्रति सूत्रार्थतदुभयेषु निष्पावकुटसमानो जावः फल्गुरक्षितं प्रति तैलकुटसमानः, गोष्ठमाहिलं प्रति घृतकुटसमानः, एवमेष सूत्रेणार्थेन चोपपेतो युष्माकमाचार्यों भवतु, तैः सर्व प्रती| सितम् , इतरोऽपि भणितो-यथाऽहं वृत्तः फल्गुरक्षिते गोधमाहिले तथा युष्माभिरपि वर्तितव्यं, तेऽपि च भणिताः-यथा यूयं मयि | ॥१७॥ वृत्तास्तथैतस्मिन्नपि वर्तयेत, अपि च-अहं कृते वा अकृते वा नारुपमेष न क्षमिष्यते इति, एवं द्वावपि वौँ संदिश्य भक्तं प्रत्याख्याय कालगता | देवलोकं गताः, इतरेणापि श्रुतं-यथाऽऽचार्थाः कालगताः, तदाऽऽगतः पृच्छति-को गणधरः स्थापितः ।,कुटदृष्टान्तश्च श्रुतः, तदा विष्वक्प्रतिभये |स्थित्वा पश्चादागतः, सदा तैः सर्वैरभ्यु 4 दीप अनुक्रम %-% [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७५] (४३) प्रत सूत्रांक *222-RAM ||४६|| द्वितो, इह चेव ठाह, ताहे णेच्छद, सोऽवि बाहिं ठितो अन्नाणि बुग्गाहेति, ताणि न सके । इतो य आयरिया अत्य-IN पोरिसिं करेंति, सोण सुणइ, भणइ-तुम्भेत्थ णिप्फावकुडा कहेह, तेसु उहितेस विंझो अणुभासति, अहमे कम्मप्पवाए पुचे कम्म पण्णविजति, जीवस्स य कम्मस्स य कह बंधो, तत्थ ते भणति-बद्धं पुढं णिकाईय, बद्धं जहा सुइकलाबो, पुढे जहा घणणिरंतरातो कयाओ, णिकाईयं जहा तावेऊण पिट्टिया, एवं कम्मं रागदोसेहिं जीवो पढम बंधइ, पच्छा तं परिणाम अमुंचंतो पुढे करेति, तेणेच संकिलिट्रपरिणामेण तं अमुंचंतो किंचि णिकाएति, णिकाईयं |णिरुवक्कम, उदएण णवरि वेइजइ, अनहा तंण घेइजति, ताहे सो गोहामाहिलो वारेति, एत्तियं ण भवति, अण्णयावि अम्हेहिं सुयं-जह एत्तियं कम्मं बद्धं पुढे णिकाचियं एवं भो मोक्खो ण भविस्सति, तो खाइ किह बज्झइ १, भणइ-सुणेह १त्थितः, इह चैव तिष्ठत, तदा नेच्छति, सोऽपि बहिःस्थितोऽन्यान् ब्युदाहयति, तान्न शक्नोति । इतश्चाचार्या अर्थपौरुषी कुर्वन्ति, स न शृणोति, भणति-यूयमत्र निष्पावकुटाः कथयत, तेपूत्थितेषु विन्ध्योऽनुभाषते, अष्टमे कर्मप्रवादे पूर्व कर्म प्रज्ञाप्यते, जीवस्य च कर्मणश्च ला कर्थ बन्धः १, तत्र ते भणन्ति-पद्धं स्पृष्टं निकाचित, बर्च यथा सूचीकलापः, स्पृष्ट यथा धनेन निरन्तराः कृताः, निकाचितं यथा तापयित्वा | पिट्टिताः, एवं कर्मापि रागद्वेषाभ्यां जीवः प्रथमं बनाति, पश्चात्तं परिणामममुञ्चन् स्पृष्टं करोति, तेनैव संक्लिष्टपरिणामेन तममुञ्चन् किचिनिकाचयति, निकाचितं निरुपकमम् , उदयेन नवरे वेद्यते, अन्यथा तन्न वेद्यते, तदा स गोष्ठमाहिलो वारयति, एतावत् न भवति, अन्यदाऽप्यस्माभिः चर्त-ययेतावत् कर्म बद्धं स्पृष्टं निकाचितम् एवं भो मोक्षो न भविष्यति, तदा कथय कथं बध्यते, भणति-शृणुत दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ। एवं पुटुमबद्धं जीवं कम्मं समन्नेइ ॥ १७६ ॥ चतुरङ्गीया ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः | व्याख्या-जहा सो कंचुकिणं पुरिस फुसति, ण उण सो कंचुओ सरीरेण समं बद्धो, एवं चेव कम्मपि पुटुं, णटू उण बद्धं जीवपएसेहिं समं, जस्स बद्धं तस्स कम्मसंसारवुच्छित्तीण भविस्सति, ताहे सो भणति-एत्तियं आय- ३ ॥१७॥ रिएहिं अम्हं भणियं, एसो ण याणति, ताहे सो संकितो समाणो पुच्छतो गतो, मा भए अन्नहा गहियं हवेज्जा, ताहे पुच्छिया आयरिया, तैरुक्तम्-यथा तस्यायमाशयः-यतो यद्धेत्स्यते तेन, स्पृष्टमात्रं तदिथ्यताम् । कञ्चकी कञ्चुकेनेव, दि कर्म भेत्स्यति चात्मनः ॥१॥ प्रयोगः-यद्येन भविष्यत्पृथग्भावं तत्तेन स्पृष्टमात्र, यथा कचुकः कथुकिना, भविष्यत्पृथ ग्भावं च कर्म जीवेन, अत्र प्रष्टव्योऽयम्-कञ्चुकवत्स्पृष्टमात्रता कर्मणः किमेकैकजीवप्रदेशपरिवेष्टनेन सकलजी|वप्रदेशप्रचयपरिवेष्टनेन वा ?, यद्येकैकजीवनदेशपरिवेष्टनेन तत्किमिदं परिवेष्टनं मुख्यमौपचारिकं वा ?, यदि मुख्य सिद्धान्तविरोधः, मुख्यं हि परिक्षेपणमेव परिवेष्टनम् , एवं च भिन्नदेशस्य कर्मणो ग्रहणं, सिद्धान्ते तु यत्राकाशदेशे | १ यथा स कथुकिन पुरुष स्पृशति, न पुनः स कञ्चकः शरीरेण समं बद्धः, एवमेव कर्मापि स्पृष्टं न पुनर्बद्धं जीवप्रदेशैः समं, यस्य | बद्धं तस्य कर्मसंसारब्युच्छित्ती न भविष्यतः, तदा स भणति-एतावदाचार्यैरस्मभ्यं भणितम् , एष न जानाति, तदा स शङ्कितः सन् अच्छको गता, मा मयाऽन्यथा गृहीतमभविष्यत् (भूत), तदा पृष्ठा आचार्याः । दीप अनुक्रम ॥१७॥ [९५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] (४३) % % प्रत % सूत्रांक % ||४६|| % A%ष्टकर व आत्मप्रदेशोऽवगाढः तेन तत्रैवावगाढं कर्म गृह्यते इत्युक्तम् , अत एवाह शिवशर्माचार्यः-"एगपएसोगाढं| सषपएसेहि कम्मुणो जोगं । गेहद जहुत्तहेऊ साईयमणाइयं वावि ॥१॥" अथौपचारिकं यथा हि काकी कचद केनेवावष्टब्धवावृतश्च, एवं जीवप्रदेशा अपि कर्मप्रदेशरिति मुख्यपरिवेष्टनाभावेऽपि तेषां तत्परिवेष्टनमुच्यते, तर्हि स्फुटैवासादिष्टबन्धसिद्धिः, अस्माकमप्यनन्तकर्माणुवर्गणाभिरात्मप्रदेशानामुक्तरूपपरिवेष्टनस्यैव बन्धत्वेनेष्टत्वात्, आगमधात्र-“एगेमेगे आयपएसे अणंताणताहिं कम्मवग्गृहिं आवेढियपरिवेढियत्ति,' ततश्च विपर्ययसाधनाद्विरुद्धो हेतुः। सकलजीवप्रदेशप्रचयपरिवेष्टनेनेत्यस्मिन्नपि पक्षे भिन्नदेशकर्मग्रहणेन तथैव सिद्धान्तविरोधः, तथा तत्र बहिः प्रदेशबन्ध एवं कर्मणः सम्भवति, ततश्च मलस्खेव न तस्य भवान्तरानुवृत्तिः, एवं च पुनर्भवाभावः, सिद्धानां | वा पुनर्भवाऽऽपत्तिः, न च मलस्य शरीरेण स्पृष्टतया दृष्टान्तवैषम्यं, शरीरात्मप्रदेशानामन्योऽन्यमविभागेनावस्थाहै ना, अन्यथा हि मृणाल स्पर्शाद्यनुभवाभावप्रसङ्गः, किच-इयं देहान्तः सातादिवेदना सनिवन्धना निर्निवन्धना . वा १, निर्निवन्धना चेकिन सिद्धानामपि , सनिबन्धनत्वे च किं पयःपानादिष्टहेत कैव यद्वा कर्मनिवन्ध-18 नापि, यदाऽऽधः पक्षस्तर्हि बहिर्वेदनापि दृष्टा बाह्यहेतु कैवेति किं कर्मकल्पनया ?, अथ कर्महेतुकाऽपि तर्हि १ एकप्रदेशावगाढं सर्वप्रदेशैः कर्मणो योग्यम् । गृहाति यथोक्तहेतोः सादिकमनादिकं वाऽपि ॥१॥२ एकैक आत्मप्रदेशोऽन्तानन्ताभिः कर्मवर्गणाभिरावेष्टिवपरिवेष्टित इति ।। दीप अनुक्रम [९५] wwjaneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] (४३) *% उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१७५॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| % % तत्किं यत्रैव स्थितं तत्रैव वेदनानिवन्धनमुतान्यत्रापि ?, यदि तत्रैव तर्हि त्वन्मतेन बहिरेवैतदयस्थितमित्यन्तः साता-लातुर ध्ययनम् दिवेदनोच्छेदप्रसङ्गः, अथान्यत्रापि तद्वेदनानिवन्धनं तर्हि किं नैकात्मस्थितं सर्वात्मस्खपि, उक्तं च-"जइ वापिस भिन्नदेसंपि वेयणं कुणइ कम्ममेवं ते । कह अन्नसरीरगयं ण वेयणं कुणति अन्नस्स? ॥१॥" तथा च कृतनाशाकताभ्यागमप्रसङ्गः, अथ येनैव कृतं तस्यैव तन्निबन्धनं, तथापि पादवेदनायां शिरोवेदनाऽऽपत्तिः, अथ सञ्चारित्वातस्यान्तरप्यवस्थानमिति नान्तः सातादिवेदनोच्छेदप्रसङ्गः, एवं तर्हि न कशकतुल्यता, तस्य बहिरेव नियतत्वात् , युगपदुभयत्र वेदनाऽभावप्रसङ्गश्च, यथा च बहिःस्थमन्तःसञ्चारितया वेदनाहेतुरेवमन्तःस्थितं बहिःसञ्चारितया तहेतुरिति विपर्ययकल्पनाऽपि किं न ?, नियामकाभावात् , सञ्चारित्वे च कर्मणो वायोरिव न भवान्तरानुवृत्तिः, तदुक्तम्-"णे भवंतरमण्णेई सरीरसंचारतो तदणिलो च"त्ति, किञ्च-काञ्चनोपलयोरपि पृथग्भायोऽस्ति । वा न था ?, न तावन्नास्ति प्रत्यक्षतस्तद्दर्शनात्, अस्तित्वे च यथा भविष्यत्पृथग्भावित्वेऽपि तयोरविभागावस्थानेन स्पृष्टमात्रता तथा जीवकर्मणोरपि स्यात्, न च काञ्चनसत्व तत्र पूर्व नास्ति, चाकचिक्यदर्शनात्प्रत्यक्षतः, तथा यत्र यन्नास्ति न तस्य तत उत्पादः, सिकताभ्य इव तैलस्पेत्यनुमानतश्च तत्सिद्धेः, ततश्च–'यत्र यवेदनाहेतुः, कर्म ॥१७५।। १ यदि वाऽपि भिन्नदेशमपि वेदनां करोति कर्म एवं ते । कथमन्वशरीरगतं न वेदनां करोयन्यस्य ? ॥ १ ॥२ न भवान्तरमन्वेति शरीरसञ्चारतस्तदनिल इव । % % दीप अनुक्रम % [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], तत्रस्थमेव तत् । सर्वत्र वेदनाहेतुः कर्म सर्वत्रगं ततः ॥ १ ॥ प्रयोगश्च यत्र यद्वेदना निमित्तं कर्म तत्रस्थमेव तद्, अन्यथा दर्शितन्यायेनातिप्रसङ्गाद्, वेदनाहेतुश्च सर्वत्रात्मप्रदेशेषु कर्म इत्याद्याचार्योक्तं तेणं गंवण सिद्धं, एत्तियं भणियं आयरिएहिं एवं पुणरवि सो संलीणो अच्छर, समप्पड ततो खोभेहामि । अन्नया नवमे पुढे पच्चक्खाणे साहूणं जावज्जीवाए तिविहं तिविण पाणातिवायं पञ्चकखामि, एयं पचक्खाणं वणिज्जर, ताहे सो भणति - अवसिद्धंतो, ण होति एवं पुण, कहं कायचं ?, सुणेह पञ्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायवं । जेसिं तु परीमाणं तं दुहुं होइ आसंसा ॥ १७७॥ Education into व्याख्या - स पञ्चक्खामि पाणाइवार्य अपरिमाणाए तिविहं तिविहेणं, एवं सवं आवकहियं किं निमित्तं परिमाणं न कीरति ?, जो सो आसंसादोसो सो णियत्तितो भवति, जावजीवाए पुण भणतेण परिमाणेण अष्भुवगयं भवति, जहाऽहं हणिस्सामि पाणाई, एतन्निमित्तं अपरिमाणाएं कायवं ॥ स चैवं वदविन्ध्येनाभिदधे - यथाऽयं निर्युक्ति: [१७६] १ तेन गत्या शिष्टम् एतावत् भणितमाचार्यैः एवं पुनरपि स संलीनस्तिष्ठति, समाप्यतां ततः क्षोभयिष्यामि । अन्यदा नवमे पूर्वे प्रत्याख्याने साधूनां यावज्जीवतया त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि, एतत् प्रत्याख्यानं वर्ण्यते, तदा स भणति अपसिद्धान्तः, न भवत्येवं पुनः कथं कर्त्तव्यं ?, शृणुत । सर्व प्रत्याख्यामि प्राणातिपातमपरिमाणतया त्रिविधं त्रिविधेन, एवं सर्व यावत्कथिकं किं निमित्तं परिमाणं न क्रियते १ यः स आशंसादोषः स निवर्त्तितो भवति, यावज्जीवतया पुनर्भणता परिमाणेनाभ्युपगतं भवति, यथाऽहं हनिव्यामि प्राणादीन् एतन्निमित्तमपरिमाणेन कर्त्तव्यं For Fasten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [ ९५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१७६॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], Education intimational भवदाशयः -- सावधि स्यादभिष्वनि, रहिणामित्वरं यथा । प्रत्याख्यानं तथा चेदं यावज्जीवं यतेरपि ॥ १ ॥ प्रयोगः- यत्परिमाणवत् प्रत्याख्यानं तत्साभिष्वङ्गं यथा गृहिणामित्वरप्रत्याख्यानं, परिमाणवच यतेरपि यावज्जीवं सर्व| सावद्यप्रत्याख्यानमित्ययमनैकान्तिको हेतुः तथाहि -किमत्र परिमाणवत्त्वमात्रेण साभिष्वङ्गता साध्यते उत आशं सयाऽपि १, प्रथमपक्षे किं यतेरद्धाप्रत्याख्यानमस्ति न वा १, यद्यस्ति किं पौरुष्यादिपदोपेतमितरथा वा १, यदि पौरुष्यादिपदोपेतं किं न परिणामवत्त्वेन साभिष्वङ्गता ?, अथ न समतास्थितत्वात् तर्हि परिमाणवत्त्वमनैकान्तिकम्, अथानभिमतमेव तत्र पौरुष्यादिपदोपादानम्, एवं सति प्रत्रज्यादिन एवानशनापत्तिः तथा च "गिप्फादिया य सीसा दीदो परिवालितो य परियातो' इत्याद्यागमविरोधः, न चाद्धाप्रत्याख्यानं नास्त्येव यतेरिति पक्षः, 'अणोगतमइकंत' इत्यागमेन तस्याभिधानात् द्वितीयपक्षे तु नैवमस्याशंसा – यथा भवान्तरे सावद्यमहं सेविष्ये, येन साभिष्वङ्गता स्यात् यदपि यावज्जीवेति पदोचारणं तदपि व्रतभङ्गभयादेव तदुक्तम्- "वर्थभंगभयाउ थिय जावजीवंति णिहिं" किञ्च परिणामवत्त्वेन साभिष्वङ्गतां साधयतस्तवाकूतमपरिमाणं प्रत्याख्यानमिति, तत्र च नत्रा परिमाणाभावमात्रमुच्यते वस्त्वन्तरविधिर्वा ?, यदि परिमाणाभावमात्रं तदा तस्याभिष्वङ्गहेतुत्वेनैव निषेधः, तद्धेतुत्वं १ निष्पादिताश शिष्याः दीर्घः परिपालितच पर्यायः । २ अनागतमतिक्रान्तं । ३ प्रतभङ्गभयादेव यावज्जीवमिति निर्दिष्टम् ॥ For Fans Only निर्युक्तिः [१७७] ~353~ चतुरङ्गीया ध्ययनम् ॥१७६॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७७] (४३) %951 प्रत सूत्रांक ||४६|| च तस्यानकान्तिकमनन्तरमेवोक्तमिति किं तनिषेधेन', अथ वस्त्वन्तरविधिस्तत्र वस्त्वन्तरं शक्तिरनागताद्धा वा?, यदि शक्तिस्तत्र किं यावच्छक्तिस्तावन्मम प्रत्याख्यानम् अथ यावति विषये शक्तिस्तावतीति ?, प्रथमपक्षे शकनक्रियापरिमाणपरिमितत्वात् प्रत्याख्यानस्य परिमाणवत्वमेवोक्तं भवतीति खवचनविरोधः, प्रत्याख्यानानवस्था चैवं, शक्तेरनियतत्वात् , तथा चातीचारासत्त्वं, तदसत्त्वे च प्रायश्चित्ताभावः, द्वितीयपक्षे तु प्राणवधाद्यन्यतरविरतावपि संयतत्वापत्तिः, शक्त्यपेक्षत्वात्तद्धेतुप्रत्याख्यानस्य, उक्तं च-"एत्तियमेची सत्तित्ति णातियारो ण यावि पच्छित्तं । ण य सन्वव्वयनियमो एगेण य संजयत्तन्ति ॥१॥" अथानागताद्धा तत्रापि किं भावः प्रसाण्यानं ग्यजन या १,नk तावद् व्यञ्जन खनादावपि तदुचारणे प्रत्याख्यानप्रसङ्गात् प्रमादतः शक्तिवैकल्यतो वा व्यञ्जनस्खलने तदभावापपत्तेच, ततः प्रथमपक्ष एवावशिष्यते, तत्र च सदा सावधमहं न सेविष्ये इति तस्य भाव उत कदाचिदिति ?, यदि आद्यपक्षस्तदा मृतस्यापि तत्सेवायामपरिपूर्णप्रतिज्ञत्वेन प्रतभङ्गप्रसङ्गः, तथा सिद्धानामपि संयतत्वापत्तिः, सकलानागताद्धाप्रत्याख्यानधारित्वात् । एवं च 'सिद्धे नो चारित्ती नो अचारित्ती' इत्यागमविरोधः, अथ द्वितीयपक्षस्तत्र किं यथा भावस्तथा व्यञ्जनमथान्यथा ?, यदि यथा भावस्तथा व्यञ्जनम् एवं सति विज्ञातविषयादेरेव प्रत्याख्यान १ एतावन्मात्रा शक्तिरिति नातीचारो न चापि प्रायश्चित्तम् । न च सर्वव्रतनियम एकेनापि संयतत्वमिति ॥१॥२ सिद्धा नो चारित्रिणो नो अचारित्रिणः ॥ . . . दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [१५] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥ १७७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| अध्ययनं [३], मन्यथा तद्भङ्गप्रसङ्गः, ततश्च जीवन्नहं सावद्यं न सेविष्ये मृतस्य तु कर्मोदयखाभाव्यादवश्यं भाविन्यविरतिरित्ययमेव तस्य भावः तथा च यथाभावं व्यञ्जनोचारणे बलादापतितं यावज्जीवेति, तथा च जीवनावधित्वादपरिमाणत्वहानिः, अन्यथा व्यञ्जनोचारणमिति पक्षे च परिस्फुटैव मृषाभाषिता, ज्ञात्वा अन्यथाभिधानात् उक्तं च- "जो पुण अव्ययभावं मुणमाणोऽवस्सभाविणं भणति । वयमपरिमाणमेवं पथक्खं सो मुसाबाई ॥ १ ॥ " ततश्च- 'नाशंसातो यतस्तस्य, यावज्जीवेति पठ्यते । किन्तु भङ्गभयादेव, तस्मादस्तु यथास्थितम् ॥ १ ॥ प्रयोगश्च यत्र नाशंसा न | तत्सावधित्वेऽपि साभिष्वङ्गं, यथा कायोत्सर्गो, न विद्यते च यतिप्रत्याख्याने यावज्जीवेति पदेऽप्याशंसेति, इत्यादि जहां आयरिएहिं भणियं तहा सबै भणति, जहा एत्तियं भणियं आयरिएहिं जेऽवि अन्ने थेरा बहुस्सुया अन्नगच्छेला तेऽवि पुच्छिया, एत्तियं चैव भणंति, ताहे भणति-तुम्भे किं जाणह ?, तित्थयरेहिं एत्तियं भणियं, तेहिं भणियं - तुमं न जाणसि, जाहे ण ट्ठाइ ताहे संघसमवातो कतो, देवयाए काउस्सग्गो कतो, जा सहिया सा Education intemational १ यः पुनरव्रतभावं गुणन अवश्यभाविनं भणति । व्रतमपरिमाणमेत्रं प्रत्यक्षं स मृषावादी ॥ १ ॥ २ यथा आचार्यैर्भणितं तथा सर्वे भणन्ति, यथैतावद्भणितमाचार्यैः येऽपि अन्ये स्थविरा बहुश्रुता अन्यगच्छीयास्तेऽपि पृष्टाः, एतावदेव भणन्ति, तदा भणति-यूयं किं जानीथ ?, तीर्थकरैरेतावत् भणितं, तैर्भणितं त्वं न जानीषे यदा न तिष्ठति तदा संघसमवायः कृतः, देवतायै कायोत्सर्गः कृतः, या श्राद्धा सा निर्युक्ति: [१७७] For Fans Only ~355~ चतुरङ्गीया ध्ययनम् ॥ १७७॥ www.jancibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७७] (४३) SARSA प्रत सूत्रांक ||४६|| आगयो, भणइ-संदिसहत्ति, ताहे भणिया-वच तित्थयरं पुच्छ, किं ?, जं गोठ्ठामाहिलो भणइ तं सचं ?, दुबआलियाप्पमडो संघोज भणइ तं सचं, ताहे सा भणति-मम अणुवलं देह, काउस्सग्गो दिनो. ताहे सा गया. तित्थयरो पुच्छितो, तेहिं बागरियं-जहा संघो सम्मावाई, इयरो मिच्छावादी, निण्हवो एस सत्तमो, ताहेक आगया, भणिो -ओस्सारेह, संघो सम्मावादी, एस मिच्छावादी निण्हवो, ताहे सो भणति-एसा अप्पिहिया वराई, का एयाए सत्ती गंतूण १,तीसेऽपि ण सद्दहति, ताहे पूसमित्ता भणंति-जहा अज्जो। पडिवजउ, मा उग्घाडिजिहिसि, णेच्छति, ताहे सो संघेणं बज्झोकतो बारसविहेणं संभोएणं, तंजहा-'उबहि १ सुय २ || भत्तपाणे ३ अंजलीपग्गहे ति य ४। दायणा य ५ णिकाए य ६ अब्भुट्ठाणेत्ति आवरे ७॥१॥ किकम्मस्स य १ आगता, भणति-संदिशतेति, तदा भणिता गच्छ तीर्थकरं पृच्छ, किम् !, यगोष्ठमाहिलो भणति तत्सत्यम् । दुईलिकाप्रमुखः संघो यद्भणति तत्सत्यम् ?, तदा सा भणति–मानुबलं दत्त, कायोत्सगों दत्तः, तदा सा गता, तीर्थकरः पृष्टः, ताकृतं-यथा सङ्घः ६ सम्यग्वादी, इतरो मिथ्यावादी, निद्वव एष सप्तमः, तत आगता, भणित:-उत्सारयत, संघः सम्यग्वादी, एष मिथ्यावादी निहवः, तदा स भणति-एषाऽल्पर्द्धिका बराकी, कैतस्याः शक्तिर्गन्तुं ?, तस्या अपि न श्रद्दधाति, तदा पुष्पमित्रा भणन्ति-यथा आर्य ! प्रतिपद्यता, मा उघाटिप्ताः, नेच्छति, तदा स संघेन बायः कृतो द्वादशविधात् संभोगात्, तद्यथा-उपधिःश्रुतं भक्तपाने अञलिपग्रह इति च । दानं च। |निकाचना च अभ्युत्थानमिति चापरम् ॥ १॥ कृतिकर्मणश्च करणे दीप अनुक्रम [९५] 4% % x मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६|| उत्तराध्य करणे बेयविश्वकरणे इय ९ । समोसरणसन्निसेवा १० कहाए य ११ निमंतणा १२ ॥२॥' एस वारसविहो, चतुरङ्गीया सत्तरभेतो जहा पंचकप्पे ॥ इत्युक्ता अल्पतरविसंवादिनो निहवाः, प्रसङ्गत एव बहुतरविसंवादिनं बोटिकमाह- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः कारहवीरपुरं नयरं दीवगमुजाण अजकण्हे अ । सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थेराण कहणा य ॥ १७८॥ ॥१७॥ व्याख्या अक्षरार्थः सुगमः ॥ १७८ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् छवाससएहिं णवोत्तरेहि सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पन्ना ॥१॥ तेणं कालेणं ट्रातेणं समयेणं रहवीरपुरं कन्वर्ड, तत्थ दीवगं णाम उजाणं, तत्थ अज्जकण्हा आयरिया समोसढा । तस्थ एगो र सिवई णाम साहस्सिमलो, सो रायाण उवगतो. तुम ओलग्गामित्ति, जा परिक्खामित्ति, रायाए अन्नया भणितो वच माइपरे सुसाणे किण्हचउद्दसीए बलिं देहि, सुरा पसुतो दिनो, अन्ने य पुरिसा भणिया-एयं बीहाविजाह, १ वैयावृत्यकरण इति । समवसरणसन्निपद्या कथा व निमश्रणा ॥२॥ एष द्वादशविधः, सप्तदशभेदो यथा पञ्चकल्पे । २ पसु वर्षशतेषु नवोत्तरेषु सिद्धिं गतात् वीरात् । तदा बोटिकानां दृष्टी रथवीरपुरे समुत्पन्ना ॥शा तस्मिन् काले तस्मिन् समये रथवीरपुरं कर्बट,तत्र दीपकं ॥१७॥ नामोद्यानं, तत्र आर्यकृष्णा आचार्याः समवस्ताः । तत्रैकः शिवभूतिनामा सहस्रमल्लः, स राजानमुपगतः, स्वामवलगामीति, यावत्परीक्ष इति, राक्षाऽन्यदा भणितः-वज मानुगृहे श्मशाने कृष्णचतुर्दश्यां बलिं देहि, सुरा पशुश्च दत्तौ, अन्ये च पुरुषा भणिता:-एनं भापयध्वं, दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [3], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| सो गंतूण माइबलिं दाऊण छुहिओमित्ति तत्थेव सुसाणे तं पसुं पओलित्ता खाइ, ते य गोहा सिवारसिपहि समंता भैरवं रवं करेंति, तस्स रोमुम्भेओऽवि न कजा, तआ अभुडिओ गतो, तेहिं सि, वित्ती दिन्ना । अन्नया सो राया दंडे आणवेति-जहा मडुरं गेण्हह, ते सबबलेणं उद्धाईया, ततो अदूरसामंतेणं गंतूण भणंति-अम्हे ण पुच्छियं-कयरं महुरं वचामो, राया व अविण्णवणिजो, ते गुंगुयंता अच्छंति, सियभूई आगतो भणति कि भो ! अच्छह ?, तेहिं सिटुं, तो भणति-दोऽवि गिण्हामो समं चेच, ते भणंति-ण सका, दो भागिएहिं एकेतुकाए बहू कालो होतित्ति, सो भणति-जं दुज्जयं तं मम देह, भणितो जा णिजाइ, भणइ-सूरे त्यागिनि विदुषि च वसति जनः स च जनाद्गुणी भवति । गुणवति धनं धनाच्छी: श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यम् ॥१॥ एवं भणित्ता १ स गत्वा मातृबलि दत्त्वा बुभुक्षितोऽस्मीति तत्रैव श्मशाने तं पशु पक्त्वा खादति, ते च पुरुषाः शिवारसितैः समन्ताद्धैरवं वं कुर्वन्ति, तस्य रोमोझेदोऽपि न क्रियते, तदाऽभ्युत्थितो गतः, तैः शिष्टं, वृत्तिर्दत्ता । अन्यदा स राजा दण्डिकान् आज्ञापयति-यथा| मधुरां गृहीत, ते सर्वबलेनोद्धाविताः, ततोऽदूरसामन्ते गत्वा भणन्ति-अस्माभिर्न पृष्टं-कतरां मधुरां प्रजामः, राजा राविज्ञप्यः, ते ४ ८ कान्दिशीकास्तिष्ठन्ति, शिवभूतिरागतो भणति-कि भोस्तिष्ठत ?, तैः शिष्टं, ततो भणति-द्वे अपि गृहीमः समकमेव, ते भणन्ति-न शक्ये, 1द्विभागिकैः एकैकस्याः (पहणे) बहुः कालो भवतीति, स भणति-या दुर्जया तो मह्यं दत्त, भणितो यावनिर्याति, भणति-एवं भणित्वा दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पहावितो पंडुमहुरंतेणं, तत्व पञ्चंताणि ताविउमारद्धो, दुग्गे ठितो, एवं ताव जाव णगरसेसं जायं, पच्छा णग- चतुरङ्गीया बृहद्वृत्तिः रमवि गहियं ओवइत्ता, ततो णिवेइयं तेण रण्णो, तुटेण भणियं-किं देमि?, सो चिंतियं भणति-जं मए ध्ययनम् गहियं तं सुगहिय, जहिच्छतो भविस्सामि, एवं होउत्ति । एवं सो य बाहिं चेय हिंडतो अडरत्ते आगच्छति । ॥१७९॥ वाण वा, तस्स भज्जा ताव ण जेमेइ सुयति या जाव णागतो भवति, सावि णिविण्णा । अन्नया मायरं सा वडे ति-तुम्ह पुत्तो दिवसे २ अहुरत्ते एति, अहं जग्गामि, छुहातिया अच्छामि, ताहे ताए भणइ-मा दारं देजाहि, अहं अज जग्गामि, सो दारं मम्गति, इयरीय अंबाडितो, भणितो य-जत्थ इमाए बेलाए उग्घाडियाणि तत्थ वच, तस्स भवियवयाए तेण मग्गंतेण उग्घाडितो साहुपडिस्सतो दिवो, तत्थ गतो, वंदति, भणइ-पवावेह मए,४ १ प्रधावितः पाण्डुमधुराध्वना, तत्र प्रतान्तांस्तापयितुमारब्धः, दुर्गे स्थितः, एवं तावद्यावत् नगरशेषं जातं, पश्चान्नगरमपि गृहीतमवतीर्य, ततो निवेदितं तेन राज्ञे, तुष्टुन भणितं- किं ददामि ?, स चिन्तितं (चिन्तयित्वा) भणति-यन्मया गृहीतं तत्सुगृहीतं, यादृच्छिको भविहयामि, एवं भवत्विति । एवं स च बहिरेव हिण्डमानोऽर्धरात्र आगच्छति वा न वा, तस्य भार्या तावन्न जेमति स्वपिति वा यावन्नागतो भवति,४ साऽपि निर्विण्णा । अन्यदा भावरं सा कलहयति-युष्माकं पुत्रो दिवसे दिवसे अर्धरात्रे आयाति, अहं जागर्मि, क्षुधाती तिष्ठामि, तदा तया भण्यते-मा द्वारं दाः, अहमद्य जागर्मि, स द्वारं मार्गयति, इतरया निर्भसितः, भणितश्च-यत्रास्यां वेलायामुद्घाटितानि (द्वाराणि)* तत्र ब्रज, तस्य भवितव्यतया तेन मार्गयता उद्घाटितः साधुप्रतिश्रयो दृष्टः, तत्र गतो, वन्दते, भणति—प्रवाजयत मां, दीप अनुक्रम [९५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [3], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] (४३) प्रत सूत्रांक ||४६|| नेच्छंति, सयं लोओ कतो, ताहे से लिंग दिन्नं, ते विहरिया । पुणोऽवि आगयाणं रण्णा कंबलरयणं से दिन्नं, आय-13 INIरिएण-किं एएग जईणं, किंगहियंति भणिऊण तस्स अणापुच्छाए फालियं, णिसेजातो कयातो, ततो स कसा इतो । अण्णया जिणकप्पिया वण्णिजंति जहा-जिणकप्पिया य दुविहा पाणीपाया पडिग्गहधरा या पाउरणम-15 पाउरणा एकेका ते भवे दुविहा ॥१॥ इत्यादि, सो भणइ-किं एस एवं ण कीरद, तेहिं भणियं-एस वोविच्छिन्नो, ममं ण वोच्छिज्जइत्ति सो चेव परलोगस्थिणा काययो । तत्रापि सर्वथा निष्परिग्रहत्वमेव श्रेयः, सूरिमिरुबातम्-धर्मोपकरणमेवैतत्, न तु परिग्रहस्तथा ॥ जन्तवो बहवस्सन्ति, दुर्दशी मांसचक्षुपाम् । तेभ्यः स्मृतं दयाथे। तु, रजोहरणधारणम् ॥१॥ आसने शयने स्थाने, निक्षेपे ग्रहणे तथा । गात्रसङ्कुचने चेष्टं, तेन पूर्व प्रमार्जनम् ॥२॥ तथा-सन्ति सम्पातिमाः सत्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवत्रिका ॥३॥ किंच-भवन्ति जन्तवो यस्मादन्नपानेषु केचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थ, पात्रग्रहणमिष्यते ॥४॥ अपरं १ नेच्छन्ति, स्वयं लोचः कृतः, तदा तस्मै लिङ्गं दत्तं, ते विहृताः । पुनरप्यागतेषु राज्ञा कम्बलरनं तस्मै दत्तं, आचार्येण-किमेतेन यतीनां ?, किं गृहीतमिति भणित्वा तमनापृच्छय स्फाटितं, निषद्याः कृताः, ततः स कथायितः । अन्यदा जिनकल्पिका वर्ण्यन्ते, यथा जिनकल्पिकाच द्विविधाः पात्रपाणयः प्रतिमहधराश्च । सप्रावरणा अधावरणा एकैकास्ते भवेयुविधाः ॥ १॥ स भणति-किमेष एवं न* सक्रियते ?, तैर्भणितम् एष व्युच्छिन्ना, मम न ब्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्तव्यः । दीप अनुक्रम [९५] Protest मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] (४३) उत्तराध्य- प्रत ॥१८॥ सूत्रांक ||४६|| च-सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपश्वेतीह सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थाय, स्मृतं चीवरधारणम् ॥५॥ शीतवातातपै- चतुरङ्गीया देशैमेशकैवापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्थति ॥६॥ तस्य त्वग्रहणे यत् स्यात् , | ध्ययनम् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानध्यानोपघातो वा, महान् दोषस्तदैव तु ॥ ७॥ यः पुनरतिसहिष्णुतयैतदन्तरेणापि न धर्मबाधकस्तस्य नेतदस्ति, तथा चाह-“य एतान् वर्जयेद्दोपान् , धर्मोपकरणारते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याहै जिन इव प्रभुः॥१॥" स च प्रथमसंहनन एव, न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कम्मोदयेण चीवराइयं छहेत्ता गतो, तस्स उत्तरा भइणी, उजाणे ठियस्स दिया गया, तं च दट्टण तीएवि चीवरातियं सर्व छड़ियं, ताहे भिक्खाए पविठ्ठा, गणियाए दिट्ठा, मा अम्ह लोगो विरजिहित्ति उरे से पोत्ती बद्धा, सा णेच्छति, तेण भणियं-अच्छउ एसा तब देवयादिना । तेण य दो सीसा पचाबिया-कोडिण्णो कोट्टवीरो य, तो सीसाण परंपरफासो जातो॥ एतदर्थोपसंहारिके भाष्यगाथे १ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गतः, तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वन्दिका गता,तच दृष्ट्वा तयाऽपि चीवरादिकं सर्व त्यक्तं, तदा ॥१८॥ भिक्षायै प्रविष्टा, गणिकया दृष्टा, माऽस्मासु लोको विरहीत् इति उरसि तस्याः पोतिका बद्धा, सा नेण्छति, तेन भणित-तिष्ठतु पपा तव है देवतादत्ता । तेन च द्वौ शिष्यी प्रवाजितौ-कौण्डिन्यः कोट्टवीरश्न, ततः शिष्याणां परम्परास्पों जातः ।। दीप अनुक्रम [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६..|| नियुक्ति: [१७८], भाष्यं [१,२] (४३) प्रत सूत्रांक -CA ||४६|| ऊहाए पन्नत्तं बोडियसिवभूइउत्तराहि इमं । मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुष्पन्नं ॥१॥ बोडियसिवभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना ॥२॥ व्याख्या-'ऊहया' खवितकात्मिकया 'प्रज्ञत' प्ररूपित, बोटिकश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन शिवभूतिश्च बोटिकशिवभूतिः स चोत्तरा च तद्भगिनी बोटिकशिवभूत्युत्तरे ताभ्याम् 'इदम्' अनन्तरोक्तं, यत्रास्योत्पत्तिस्तदाह-मिथ्यादर्शनम् 'इणमोति आर्षत्वादिदं रथवीरपुरे समुत्पन्नम् ॥ बोटिकशिवभूतेबाटिकलिङ्गस्य ४ भवत्युत्पत्तिः, पठ्यते च-'बोडियलिङ्गस्स आसि उप्पत्ती, तत्र च कौण्डिन्यकोट्टवीरी परम्परा-अव्यवच्छिन्नशिप्यपशिष्यसंतानलक्षणा तस्याः स्पर्शो यत्र तत्परम्परास्पर्श यथा भवत्येवमुत्पन्नी, अनेन कौण्डिन्यकोट्टवीराभ्यां | बोटिकसन्तानस्योत्पत्तिरुक्ता भवतीति गाथाद्वयार्थः ॥ १-२॥ इयता ग्रन्थेन श्रद्धादुर्लभत्वमुक्तम् , अस्थाथ सम्य४ क्त्यरूपत्वात् सम्यक्त्वपूर्वकत्वाच संयमस्य तस्याप्यनेनैव दुर्लभत्वमुक्तमेयेति भावनीयं । तथा चत्वारीत्यङ्गमित्यस्य च व्याख्याने चतुरशेभ्यो हितं तत्खरूपव्यावर्णनेन चतुरङ्गीयमिति व्युत्पत्तिः सुज्ञानवेति नियुक्तिकृता नोपद-18 सर्शिता । गतो नामनिष्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तबचत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणिह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमि य वीरियं ॥१॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'चत्वारि चतुःसङ्ख्यानि परमाणि च तानि प्रत्यासन्नोपकारित्वेन अङ्गानि च मुक्तिकारणत्वेन परमाझा दीप अनुक्रम [९५] FORAKAS- TO wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति : [१७८...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१८॥ प्रत सूत्रांक ||१|| CHAKSCHEKAX नि 'दुर्लभानि' दुःखेन लभ्यन्त इतिकृत्वा दुष्प्रापाणि 'इह' अस्मिन्संसारे, कस्य ?-जायत इति जन्तुस्तस्य देहिन । ध्ययनम् | इत्यर्थः, पठ्यते च-'देहिन' इति, कानि पुनस्तानि ?-मनसि शेते मानुषः, अथवा मनोरपत्यमिति वाक्ये “मनोर्जातायभूयती पुक् च" (पा०४-१-१६१) इत्यजि प्रत्यये पुगागमे च मानुषस्सद्भायः मानुषत्वं-मनुजभावः, 'श्रवणं' श्रुतिः, सा च 'अर्थप्रकरणादिभ्यः सामान्यशब्दा अपि विशेषेऽवतिष्ठन्ते' इति न्यायाधर्मविषया, श्रद्धाऽपि तत एव धर्मविषया, 'संयमे आश्रयविरमणाद्यात्मनि, चः समुच्चये भिन्नक्रमः, ततो विशेषेणेरयति-प्रवर्त्तयति आत्मानं तासु तासु क्रियाखिति वीर्य च-सामर्थ्य विशेष इति सूत्रार्थः ॥१॥ तत्र यथा मानुषत्वं दुर्लभं तथा दर्शयितुमाहसमावपणाणं संसारे, णाणागोत्तासु जाइसु। कम्मा णाणाविहा कटु, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥(सूत्रम्) व्याख्या-'सम्' इति समन्तात् आपन्नाः-प्राप्ताः समापन्ना णं इति वाक्यालङ्कारे, केत्याह-संसारे, तत्रापि क?-नाना इत्यनेकार्थः, गोत्रशब्दश्च नामपर्यायः, ततो नानागोत्रासु-अनेकाभिधानासु जायन्ते जन्तव आस्थिति जातयः-क्षत्रियाद्याः तासु, अथवा जननानि जातयः ततो जातिषु-क्षत्रियादिजन्मसु नाना-हीनमध्यमोत्तमभेदे-|| नानक गोत्रं यासु तासथा तासु, अत्र हेतुमाह-क्रियन्त इति कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि 'नानाविधानि' अनेकप्रकाराणि 'कृत्वा' निर्वर्त्य 'पुढो'त्ति पृथग भेदेन, किमुक्तं भवति ?-एकैकशः, 'विस्संभिय'त्ति विन्दोरलाक्षणिकत्वाद् | दीप अनुक्रम सा ॥१८शा [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| विश्व-जगद् विभूति-पूरयन्ति कचित्कदादिदुत्पत्त्या सर्वजगद्व्यापनेन विश्वभृतः, उक्तं च-“कत्थि किर सो पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽपि । जम्मणमरणाबाहा जत्थ जिएहि न संपत्ता ॥१॥" इदमुक्तं भवति-अवाप्यापि मानुदापत्वं सकतविचित्रकर्मानुभावतः पृथगजातिभागिन्य एव भवन्ति, का:-'प्रजाः' जनसमूहरूपाः, तदनेन प्रासमानु-1 पत्वानामपि कर्मवशाद्विविधगतिगमनं मनुषत्वदुर्लभत्वे हेतुरुक्तः, यद्वा संसारे कर्माणि नानाविधानि कृत्वा पृथगिति भिनासु नानागोत्रासु-अनेककुलकोयुदपलक्षितासु जातिपु-देवाद्युत्पत्तिरूपासु समापना:-सम्प्राप्ता वत्तेन्त | द इति गम्यते, णेति प्राग्वत्, 'विश्रम्भिताः' सजातविश्रम्भाः सत्यः प्रक्रमाकर्मखेव तद्विपाकदारुणत्वापरिज्ञानात् | काः -प्रजायन्ते इति प्रजा:-प्राणिन इति सम्बन्धः, तदनेन प्राणिनां विविधदेवादिभवभवनं मूलत एव मनुज-II त्वदुर्लभत्वे कारणमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥२॥ अमुमेवार्थ भावयितुमाह एगया देवलोएसु, नरएसुवि एगया। एगया आसुरे काये, आहाकम्मेहिं गच्छइ ॥३॥ (सूत्रम्) cा व्याख्या-'एकदा' इत्येकस्मिन् शुभकर्मानुभवकाले दीयन्तीति देवाः तेषां लोकाः-उत्पत्तिस्थानानि देवगत्या-13 दिपुण्यप्रकृत्युदयविषयतया लोक्यन्त इतिकृत्वा तेषु देवलोकेषु, नरान् कायन्ति-योग्यतयाऽऽह्वयन्तीति नरकाः तेषु रत्नप्रभादिषु नारकोत्पत्तिस्थानेषु, अपिशब्दस्य चार्थत्वात्तेषु च, 'एकदा' अशुभानुभवकाले, तथा 'एकदा' तथावि १ नास्ति किल स प्रदेशो लोके वालापकोटीमात्रोऽपि । अन्ममरणाबाधा यत्र जीवैर्न संप्राप्ताः ।।१।। दीप अनुक्रम [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) ॥१८२॥ प्रत सूत्रांक ||३|| 45-45% 2451-5 धभावनाभाषितान्तःकरणावसरे, असुराणामयमासुरस्तम्-असुरसम्बन्धिनं, चीयत इति कायस्तं, निकायमित्यर्थः, चतुरङ्गीया बालतपःप्रभृतिभिरपि तत्प्राप्तिरिति दर्शनार्थं देवलोकोपादानेऽपि पुनरासुरकायग्रहणम् , अथया देवलोकशब्दस्य ध्ययनम् है सौधर्मादिषु रूढत्वात्तदुपादानमुपरितनदेवोपलक्षणम् , इदं चाधस्तनदेवोपलक्षणमिति न पौनरुक्त्यम्, 'आहाकम्मेहिंति आधानम्-आधाकरणमित्यर्थः, तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि तैः, किमुक्तं भवति ?-स्वयंविहितैरेय सरागसंयममहारम्भासुरभावनादिभिर्देवनारकासुरगतिहेतुभिः क्रियाविशेषः यथाकर्मभिर्वा-तत्तद्गत्यनुरूपचेष्टितैः|४ 'गच्छति' याति, इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ तथाएगया खत्तिओ होइ, तओ चंडालबुक्कसो । तओ कीडपयंगों य, तओ कुंथ पिवीलिया॥४॥(सूत्रम् ) व्याख्या-'एकदेति मनुष्यजन्मानुरूपकर्मप्रकृत्युदयकाले 'खत्तियत्ति 'क्षण हिंसायां' क्षणनानि क्षतानि तेभ्यस्वायत इति क्षत्रियो-राजा भवति, 'तत' इति तदनन्तरं तको वा प्राणी 'चण्डालः' प्रतीतः, यदि वा शूद्रेण ब्रामण्यां जातश्चण्डालः, 'वोकसो' वर्णान्तरभेदः, तथा च वृद्धाः-"भणेण सुद्दीओ जातो णिसाउत्ति बुचति, बंभणेण वेसीए । जातो अंबटोत्ति वुचति, तत्थ णिसाएणं जो अंबट्ठीते जातो सो बुक्कसो भण्णति" इह च क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयः ॥१८॥ १ ब्राह्मणेन शूद्रयां जातो निषाद इत्युच्यते, ब्राह्मणेन वैश्यायां जातोऽम्वष्ठ इति उच्यते, तत्र निषादेन योऽम्बष्ठ्यां जातः स बुकसो दीप अनुक्रम [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) * CAR प्रत ***** सूत्रांक ||४|| चण्डालग्रहणान्नीचजातयो बुक्सग्रहणाञ्च सङ्कीर्णजातय उपलक्षिताः, 'ततो' मानुषत्वादुद्धृत्येति शेषः, 'कीट' प्रतीतः पतङ्गः' शलभः, चः समुच्चये, ततस्तको वा 'कुन्थू पिपीलिकत्ति, चशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् कुन्थुः पिपीलिका च, भवतीति सर्वत्र सम्बध्यते, शेषतिर्यग्भेदोपलक्षणं चैतदिति सूत्रार्थः ॥४॥ किमित्थं पर्यटन्तस्ते निर्विद्यन्ते न वेत्याहएवमाबद्दजोणीसुं, पाणिणो कम्मकिविसा । ण णिविजंति संसारे, सबढेसु व खत्तिया ॥५॥(सूत्रम्) कम्मसंगेहि संमूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मति पाणिणो ॥६॥(सूत्रम्)| | व्याख्या एवम्' अमुनोक्तन्यायेन आवर्त्तनम् आवतः-परिवर्त इति योऽर्थो, युवन्ति-मिश्रीभवन्ति कार्मणशरीरिण औदारिकादिशरीरैरासु जन्तवो जुषन्ते सेवन्ते ता इति वा योनयः, आवर्तोपलक्षिता योनयः आवयोनयः तासु, 'प्राणिनः' जन्तवः, कर्मणा-उक्तरूपेण किल्बिषा:-अधमाः कर्मकिल्विषाः, प्राकृतत्वाद्वा पूर्वापरनिपातः, किल्लिपाणि-क्लिष्टतया निकृष्टान्यशभानुवन्धीनि कर्माणि येषां ते किल्बिषकर्माणः, 'न निर्षियन्ते' कदैतद्विमुक्ति४/रिति नोद्विजन्ते, क या आवर्त्तयोनयः? इत्याह-संसारे' भये, केष्विव के न निर्षियन्ते ? इत्याह-सर्वे च ते अर्ध्यन्त द इत्यर्थाश्च-मनोज्ञशब्दादयो धनकनकादयो वा सर्वार्थास्तेष्विव 'क्षत्रियाः' राजानः, किमुक्तं भवति ?-यथा मनोज्ञान || शब्दादीन् मुआनानां तेषां तर्षोऽभिवर्धते, एवं तासु तासुः योनिषु पुनः पुनरुत्पत्त्यां सस्यां कलंफलीभावमनुभव * दीप अनुक्रम [९९] ** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--1 / गाथा ||१-६|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ॥१८३॥ ||५-६|| तामपि भवाभिनन्दिना प्राणिनामिति, कथमन्यथा न तत्प्रतिघातार्थमुद्यच्छेयुरिति भावः । पाठान्तरं या-'सघहर Bध्ययनम् इस खत्तिय'त्ति इवो भिन्नक्रमः, ततः सर्वैः शयनादिभिरर्थः-प्रयोजनमस्खेति सर्वार्थः क्षत्रियः, स चार्थाद्धष्टराज्यः तद्वत् , ततो यथाऽसौ न निर्विद्यते, अर्थात्सर्वार्थान् प्रार्थयमानः, तथैतेऽपि प्राणिनः सुखान्यभिलपन्तोऽनिर्विद्यमानाच, कम्मभिः-ज्ञानावरणीयादिभिः सनाः-सम्बन्धाः कर्मसङ्गास्तैः, यद्वा कर्माणि-उक्तरूपाणि तत्तक्रियाविशेपात्मकानि वा, तथा सज्यन्तेऽमीषु जन्तव इति सङ्गाः-शब्दादयोऽभिष्वङ्गविषयाः, ततश्च कर्माणि च साश्च कर्मसङ्गाः तः सम् इति भृशं मूढाः-वैचित्यमुपागताः सम्मूढाः, 'दुःखम्' असातात्मकं जातमेपामिति दुखिताः, कदाचित्तन्मानसमेव स्थादत आह-बहुवेदनाः' बह्वयो वेदनाः-शरीरब्यथा येषां ते तथा, मनुष्याणामिमा मानुष्या न तथाऽमानुष्याः, तासु-नरकतिर्यगाभियोग्यादिदेवदुर्गतिसम्बन्धिनीपु 'योनिषु' अभिहितरूपासु 'विनिहन्यन्ते' विशेषेण निपात्यन्ते, अर्थात्कर्मभिः, कोऽर्थः-न तत उत्तारं लभन्ते 'प्राणिनः' जन्तवः, तदनेन सत्यप्यावृत्त निर्वेदाभावात् कर्म संगसंमूढाः दुःखहेतुनरकादिगत्यनुत्तरणेन प्राणिनो मनुजत्वं न लभन्त इत्युक्तमिति सूत्रद्वयार्थः ॥५-६॥ कथं तर्हि तदवाप्तिः ? इत्याह A ॥१८॥ कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुवी कयाइ उ।जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥७॥(सूत्रम् ) व्याख्या-'कर्मणां' मनुजगतिविबन्धकानाम् 'तुः' पूर्वस्माद्विशेषद्योतकः 'पहाणाए'त्ति प्रकृष्ट हानम्-अपगमः दीप अनुक्रम [१०० SAR -१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-]/गाथा ||७|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| प्रहाणं तस्यायो-लाभः प्रहाणायः तस्मिन् , यद्वा सूत्रत्वात् प्रहाणौ प्रहान्या वा तद्विबन्धकानन्तानुबन्ध्यादिकर्मसु ग्रहीणेषु, कुतश्चिदीश्वरानुग्रहादेस्तदप्राप्तेः, अन्यथा हि तद्वैफल्यापत्तिः, एतेन-'अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् , श्वभ्रं वा वर्गमेव वा ॥१॥' इत्यपास्तं भवति, अर्थ कथं पुनस्तेषां ग्रहाणिरित्याह-४ 'आनुपूया' क्रमेण न तु शगिरसेव, तयापि 'कयाइ उत्ति तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्कदाचिदेव न सर्वदा, 'जीवा' प्राणिनः 'शुद्धिम्' क्लिष्टकर्मविगमात्मिकाम् अनु-तद्विघातिक पगमस्य पश्चात्प्राप्ताः 'आददते' खीकुर्वन्ति मनुष्यतां, पाठान्तरतश्च जायन्ते मणुस्सयंति सुव्यत्ययान्मनुष्यतायां, तदैव तन्निर्वर्तकमनुजगत्यादिकर्मोदयादिति दभावः, अनेन मनुजत्वविवन्धककर्मापगमस्य तथाविधकालादिसव्यपेक्षत्वेन दुरापतया मनुषत्वदुर्लभत्वमुक्तमिति |सूत्रार्थः ॥७॥ कदाचिदेतदवाप्सौ श्रुतिः सुलभैव स्यादत आहमाणुस्सं विग्गहं लड़े, सुती धम्मस्स दुल्लहा। जं सोचा पडिवजंति, तवं खंतिमहिंसयं ॥८॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'माणुस्सं'ति सूत्रत्वान्मानुष्यकं मनुष्यसम्बन्धिनं विशेषेण गृह्यते आत्मना कर्मपरतन्त्रेणेति विग्रहस्तं | ४ मनुजगत्याधुपलक्षितमौदारिकशरीरं 'लढुंति अपेर्गम्यमानत्वात् लब्ध्वापि, 'श्रुतिः' आकर्णनं, कस्स ?-धारयति जदुर्गती निपततो जीवानिति धर्मः, तथा च वाचकः-"प्राग्लोबिन्दुसारे सर्वाक्षरसन्निपातपरिपठितः। धृ धरदाणाऽर्थो धातुस्तदर्थयोगाद्भवति धर्मः॥१॥ दुर्गतिभयप्रपाते पतन्तमभयकरदुर्लभत्राणे । सम्यक् चरितो यस्मा दीप अनुक्रम [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-]/गाथा ||८|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||८|| उत्तराध्य. द्धारयति ततः स्मृतो धर्मः ॥२॥” तस्व-एवमन्वर्थनासो धर्मख 'दुर्लभा दुरापा प्रागुक्तालस्वादिहेतुतः, स च- चतुरङ्गीया 'मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानक चापराह्ने । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः दृष्टः ॥१॥' इत्यादिसुगतादिकल्पितोऽपि स्याद् अप्तस्तदपोहायाह-यं धर्म श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते' अङ्गीकुर्वन्ति तपः ॥१८॥ अनशनादि द्वादशविधम् 'क्षान्ति' क्रोधजयलक्षणां मानादिजयोपलक्षणं चैपा, 'अहिंसयन्ति' अहिंस्रताम्-अहिंसन-18 शीलताम् , अनेन च प्रथमत्रतभुक्तम् , एतच शेषप्रतोपलक्षणम् , एतत्प्रधानत्वात्तेषाम् , एतद्वृत्तितुल्यानि हिं शेषकतानि, एवं च तपसः क्षान्त्यादिचतुष्कस्य महाव्रतपञ्चकस्य चाभिधानाद्दशविधस्थापि यतिधर्मास्याभिधानम् , इह च यद्यपि श्रुतेः शान्दं प्राधान्यं तथापि तत्त्वतो धर्म एव प्रधान, तस्या अपि तदर्थत्वादिति, स एव यच्छब्देन परामृश्यते, अथवा काका नीयते-'यद्' यस्मात् श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते तपःप्रभृति नाश्रुत्वा 'सुच्चा जाणति कला, सोचा जाणति पावगं' इत्याचागमात् , तत एवमतिमहार्थतया दुरापेयमिति सूत्रार्थः ॥८॥ श्रुत्सवाप्तावपि श्रद्धादुल्लेभतामाहआहञ्च सवणं ल॰, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा णेयाउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ॥९॥ (सूत्रम्) पर IP॥१८॥ व्याख्या-'आह' इति कदाचित् 'श्रवणम्' प्रक्रमाद्धर्माकर्णनम् , उपलक्षणत्वान्मनुष्यत्वं च लब्ध्वेति, अपि१ श्रुत्वा जानाति कल्याणं श्रुत्वा जानाति पापकम् दीप अनुक्रम [१०३] CACACACADAGA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||९|| ___ नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| शब्दस्य गम्यमानत्वात् लब्ध्वापि-अवाप्यापि 'श्रद्धा' रुचिरूपा प्रक्रमाद्धर्मविषयैव 'परमदुर्लभा' अतिशयदुरापा, कुतः पुनः परमदुर्लभत्वमस्सा इत्याह-'श्रुत्वा' आकर्ण्य न्यायेन चरति-प्रवर्तते नैयायिका, न्यायोपपन्न इत्यर्थः, |तं 'मार्गम्' सम्यग्दर्शनाद्यात्मकं मुक्तिपथं वहयः नैक एव, परि इति सर्वप्रकारं 'भस्सईत्ति भ्रश्यन्ति-च्यवन्ते प्रक्रमान्नैयायिकमार्गादेव, यथा जमालिप्रभृतयो, यच्च प्रासमप्यपैति तचिन्तामणिवत् परमदुर्लभमेयेति भावः । इहैव केचिन्निववक्तव्यतां व्याख्यातवन्तः, उचितं चैतदप्यास्त(प्यस्ति) इति सूत्रायः ॥ ९॥ एतत्त्रयावाप्तावपि संयमवीर्यदुर्लभत्वमाह सुई च लड़े सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणाऽवि, णो य णं पडिवजह ॥ १०॥ (सूत्रम्) . व्याख्या-श्रुति चशब्दान्मनुष्यत्वं च 'लढुंति प्राग्वल्लब्ध्वापि, श्रद्धां च वीर्य प्रक्रमात् संयमविषय, पुनःश ब्दस्य विशेषकत्वाद्विशेषेण दुर्लभ, यतः बहवः नैक एव रोचमाना अपि-न केवलं प्रासमनुष्यत्वाः शृण्वन्तो वेत्यपिशब्दार्थः, श्रद्दधाना अपि, नो चेति चशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैव 'पा'मिति वाक्यालङ्कारे अथवा 'णो य 'न्ति सूत्र-18 त्वानो एतं पडिवजति'त्ति तत एव प्रतिपद्यन्ते चारित्रमोहनीयकम्र्मोदयतः, सत्यकिश्रेणिकादिवन कर्तुमभ्युपगच्छजन्तीति सूत्रार्थः ॥१०॥ सम्प्रति दुर्लभस्यास्य चतुरङ्गस्य फलमाह दीप अनुक्रम [१०४] wjaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) द्र प्रत सूत्रांक ||१०|| उत्तराध्य. माणुसत्तमि आयाओ, जो धम्म सोच्च सरहे । तवस्सी वीरियं लहूं, संवुडो निद्धणे रयं ॥११॥(सूत्रम्) चतुरङ्गीया माध्ययनम् बृहद्वृत्तिः 17 व्याख्या-'मानुषत्वे' मनुजत्वे 'आयातः' आगतः, किमुक्तं भवति ?--मानुषत्वं प्राप्तो, य इत्यनिर्दिष्टखरूपो|| ॥१८५|| य एवं कश्चिद्धम॑ श्रुत्वा 'सद्दहे'त्ति श्रद्धत्ते-रोचयते 'तपखी' निदानादिविरहितया प्रशस्थतपोऽन्वितः, कथं ?'वीर्य' संयमोद्योगं लब्ध्या 'संवृतः' स्थगितसमस्ताश्रयः, स किमित्याह-णिभुणे'त्ति निर्धनोति-नितरामपनयति रज्यते अनेन स्वच्छस्फटिकवच्छुद्धखभावोऽप्यात्माऽन्यथात्वमापाद्यत इति रजः-कर्म बध्यमानक बद्धं च, तदपनयनाच मुक्तिं प्राप्नोतीति भावः, उभयत्र लिप्स्यमानसिद्धी चे (पा. ३-३-७) ति लट्, इह च श्रद्धानेन सम्यक्त्वमुक्तं, तेन च ज्ञानमाक्षिसं, प्रदीपप्रकाशयोरिव युगपदुत्पादात्तयोः, तथा च 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (तत्त्वा० अ. १-स. १) इति न विरुध्यत इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ इत्यमांमुष्मिकं मुक्तिफलमुक्तम् , इदानीमिहय फलमाहसोही उजुभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठति । णिव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तेव पावए ॥ १२ ॥ (सूत्रम्)|47 व्याख्या-'शुद्धिः कपायकालुष्यापगमो, भवतीति गम्यते, 'ऋजुभूतस्य' चतुरङ्गप्राप्त्या मुक्ति प्रति प्रगुणीभूतस्य, तथा च 'धर्मः' क्षान्त्यादिः 'शुद्धस्य' शुद्धिप्राप्तस्य 'तिष्ठति' अविचलिततयाऽऽस्ते इति, अशुद्धस्य तु कदाचित्कपायोदयात्तद्विचलनमपि स्यादित्साशयः, तदवस्थितौ च 'निर्वाणं' निर्यतिनिर्वाणं खास्थ्यमित्यर्थः 'परमं प्रकृष्टम् SACRICA दीप अनुक्रम [१०५] H ॥१८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||१२|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| Kएगमासपरियाए समणे वतरियाणं तेयल्लेसं बीईवयति' इत्याद्यागमेनोक्तं 'नवास्ति राजराजस्य तत्सुख'मित्यादिना च वाचकवचनेनानूदितं 'याति' प्राप्नोति, क इव ?-'घयसित्तेवत्ति इवस्य भिन्नक्रमत्वात् घृतेन सिक्तो घृतसिक्तः पुनातीति पावकः-अग्निः, लोकप्रसिद्ध्या, समयप्रसिद्ध्या तु पापहेतुत्वात्पापकः तद्वत् , स च न तथा तृणादिभिदादीप्यते यथा घृतेनेत्यस्य धृतसिक्तस्य निर्देतिरनुगीयते, ततो विशेषेणास्स दृष्टान्तत्वेनाभिधानमिति भावनीयं, यद्वानिर्वाणमिति जीवन्मुक्तिं याति,-निर्जितमदमदनानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम्। विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ १॥ इति वचनात् , कथंभूतः सन् ?-घृतसिक्तपावक इव-तपस्तेजसा ज्वलितत्वेन घृततपिता-1 निसमान इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ पठन्ति च नागार्जुनीयाः-"चउद्धा संपयं लबुं, इहेव ताव भायते । तेयते तेज-18 संपन्ने, घयसित्तेव पावए ॥१॥ ति" तत्र चतुर्धा-चतुष्प्रकारां संपदा-सम्पत्तिं प्रक्रमान्मनुष्यत्वादिविषयां लब्ध्वा 0 xइहैव लोके तावद् , आस्तां परत्र, 'भ्राजते' ज्ञानधिया शोभते, 'तेजते' दीप्यते तेजसा-अर्थात्तपोजनितेन सम्प-13 नो-युक्तस्तेजःसम्पन्नः, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ इत्थमामुष्मिकमैहिकं च फलमुपदर्य शिष्योपदेशमाहविगिंच कम्मुणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए । पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्डे पक्कमती दिसं ॥१३॥ (सूत्रम्) ब्याख्या-'विगिञ्च'त्ति वेविग्धि पृथक् कुरु 'कर्मणः' प्रस्तावान्मानुषत्वादिविबन्धकस्य 'हेतुम्' उपादानका१ एकमासपर्यायः श्रमणी व्यन्तराणां तेजोलेश्या व्यतित्रजति ।। दीप अनुक्रम [१०७]] SAGAR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. रण-मिथ्यात्वाविरत्यादिकं, तथा यशोहेतुत्वाद्यशः-संयमो विनयो वा, यदुक्तम्-"एवं धम्मस्स विणओ, मूलं पर- चतुरङ्गीया ||मो से मोक्खो। जेण कित्तिं सुयं सिघं, णीस्सेसं चाभिगच्छद ॥१॥” इति, तत् 'सचिन' भृशमुपचितं कुरुध्ययनम् वृद्धृत्तिः किया ?-क्षान्त्या, उपलक्षणत्वान्मार्दवादिभिश्च, ततः किं स्थादित्याह-पाढवं' ति पार्थिवमिव पार्थिव शीतोष्णादि॥१८६॥ परिपहसहिष्णुतया समदुःखसुखतया च पृथिव्यामिव भवं, पृथिवी हि सर्वसहा, कारणानुरूपं च कार्यमिति भायो, यदि वा पृथिव्या विकारः पार्थिवः, स चेह शैलः, ततश्च शैलेशीप्राप्त्यपेक्षयाऽतिनिश्चलतया शैलोपमत्वात्परप्रसि या वा पार्थिव शरीरंतनं हित्वा' सक्त्वा ऊर्व दिशमिति सम्बन्धः, 'प्रक्रामति' प्रकर्षण गच्छति येन भवानिति उपस्कारो, यद्वा सोपस्कारत्वात् सूत्राणामेवं नीयते-यत एवं कुर्वन् भव्यजन्तुरूर्व दिशं प्रक्रामति दततस्त्वमतिढचेता इत्थमित्थं च कुर्वित्युपदिश्यते, प्रकामतीति वर्तमानसामीप्ये वर्तमान निर्देश आसन्नकलावाप्ति-10 सूचक इति सूत्रार्थः ॥ १३॥ इत्थं येषां तद्भव एव मुक्त्यवाप्तिस्तान् प्रत्युक्तं, येषां तु न तथा तान्प्रत्याहविसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तर उत्तरा। महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणोच्चयं ॥१४॥(सूत्रम्) अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउविणो । उद्धं कप्पेसु चिटुंति, पुवा वाससया बहू ॥ १५ ॥ (सूत्रम्) ॥१८६॥ हा १. एवं धर्मस्य विनयो मूलं परमोऽसौ मोक्षः । येन कीर्ति श्रुतं शीनं निःश्रेयसं बाधिगच्छति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१०८] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||१४-१५|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) ***** प्रत सूत्रांक ||१४-१५|| * व्याख्या-'बिसालिसेहिति मागधदेशीयभाषया विसदशैः-खस्वचारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमापेक्षया विभिन्नैः 'शीलैः' प्रतपालनात्मकैरनुष्ठानविशेषः, किम् ?-इज्यन्ते पूज्यन्त इति यक्षाः, यान्ति वा तथाविधर्द्धिसमुदयेऽपि । क्षयमिति यक्षाः, ऊर्ध्वं कल्पेषु तिष्ठन्तीति उत्तरेण सम्बन्धः, 'उत्तरोत्तराः' उत्तरोत्तरविमानवासिनः, उत्तरो वा उप-IM रितनस्थानवर्युत्तरः-प्रधानो येषु तेऽमी उत्तरोत्तराः 'महाशुक्ला' अतिशयोज्वलतया चन्द्रादित्यादयः, त इव 'दीप्यमानाः' प्रकाशमानाः, अनेन शरीरसम्पदुक्ता, सुखसम्पदमाह-'मन्यमाना' मनसि अवधारयन्तः शब्दादिविषयावाप्तिसमुत्पनरतिसागरावगाढतयाऽतिदीर्घस्थितितया बा, किम् ?-न पुनश्चवनम् अपुनध्यवस्तम्-अधस्तिर्यगादिघूत्पत्त्यभावं, यदुक्तं 'मन्यमाना अपुनध्यव'मिति, तत्रोक्तमेव हेतुं सूत्रकृदाह-'अप्पिया' इत्यादिना, 'अप्पिताः' प्राकृतसुकतेन ढौकिता इव, केषाम् १-काम्यन्ते-अभिलप्यन्ते इति कामा देवानां कामा देवकामा:-दिव्याङ्ग-2 नाङ्गस्पर्शादयः, 'कामरूवविउविणोत्ति सूत्रत्वात्कामरूपचिकरणा-यथेष्टरूपाभिनिवर्तनशक्तिसमन्विताः, कुर्वन्ति हि ते उत्तरवैक्रियाणि समवसरणागमनादिषु तथा तथेति, येऽपि प्रयोजनाभावान्न कुर्वन्ति तेषामपि शक्तिरस्त्ये|वेत्येवमुच्यते, 'ऊर्च' कल्पोपरिवर्तिषु वेयकेष्वनुत्तरविमानकेषु च कल्पेषु सौधर्मादिषु यदि वा-ऊर्ध्वम्-उपरि कल्प्यन्ते विशिष्टपुण्यभाजामवस्थितिविषयतयेति सौधर्मादयो त्रैवेयकादया सर्वेऽपि कल्पा एव तेषु 'तिष्ठन्ति | मायुःस्थितिमनुपालयन्ति पूर्वाणि-वर्षसप्ततिकोटि लक्षषट्पञ्चाशत्कोटिसहस्रपरिमितानि बहूनि, जघन्यतोऽपि पल्यो * * दीप अनुक्रम [१०९-११०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||१४-१५|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) C प्रत सूत्रांक ||१४-१५|| उत्तराध्य. पमस्थितित्वात् , तत्रापि च तेषामसङ्खयेयानामेव सम्भवात् , एवं वर्षशतान्यपि बहूनि, पूर्ववर्षशतायुषामेव चरण-18 चतुरङ्गीया बृहहृत्तिः| योग्यत्वेन विशेषतो देशनौचित्यमिति ख्यापनार्थमित्थमुपन्यास इति सूत्रार्थः ॥ १४-१५ ॥ तत्किमेषामेतावदेव || ध्ययनम् फलमित्याशङ्कयाह॥१८७॥ तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसंजोणिं, से दसंगेऽभिजायइ॥१६॥(सूत्रम्) व्याख्या-तत्र' तेषूक्तरूपोत्पत्तिस्थानेषु 'स्थित्वा' इत्यासित्वा यथास्थानम्' इति यद्यस्य खानुष्ठानानुरूपं दायदिन्द्रादिपदं तस्मिन् यक्षाः 'आयुःक्षये' खजीवितावसाने 'च्युताः' भ्रष्टाः 'उबेन्ति'त्ति उपयन्ति मनुषाणामियं , मानुषी तां योनिम्' उत्पत्तिस्थानं, तत्र च 'से' इति स सावशेषकुशलकर्मा कधिजन्तुः दशाङ्गानि भोगोपक-12 रणानि वक्ष्यमाणान्यस्येति दशाङ्गः अभिजायते, एकवचननिर्देशस्तु विसदृशशीलतया कश्चिदशाः कश्चिन्नवाहादिदूरपि जायत इति वैचित्र्यसूचनार्थः, यद्वा 'से' इति सूत्रत्वात् तेषां दशानामझानां समाहारो दशाङ्गी, प्राकृतत्वाच पुंसा निर्देशः, 'अभिजायते' उपभोग्यतयाऽऽभिमुख्येनोत्पद्यत इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ कानि पुनर्दशाज्ञानीत्याहखित्तं वत्थु हिरपणं च, पसवो दासपोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववजह ॥१७॥ मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोत्ते य वण्णवं । अप्पायके महापन्ने, अभिजाय जसो बले ॥१८॥ (सूत्रम्) RECAUTICALOCALA दीप अनुक्रम [१०९-११०] CESCASEOCELCOHOROCK मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] /गाथा ||१७-१८|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७-१८|| व्याख्या-'क्षि निवासगयोः क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्रं-ग्रामारामादि सेतुकेतूभयात्मकं वा, तथा वसदन्त्यस्मिन्निति वास्तु-खातोच्छ्रितोभयात्मकं 'हिरण्य' सुवर्णम् , उपलक्षणत्वात् रूप्यादि च, 'पशवः' अश्वादयः, दास्यते-दीयते एभ्य इति दासाः-पोष्यवर्गरूपास्ते च पोरुसंति-सूत्रत्वात्पौरुषेयं च-पदातिसमूहः दासपौरुषेयं, चत्वारः' चतुःसङ्ख्याः, अत्र हि क्षेत्रं वास्त्विति चैको हिरण्यमिति द्वितीयः पशव इति तृतीयो दासपौरुषेयमिति 3 | चतुर्थः, एते किमित्याह-काम्यत्वात् कामाः-मनोज्ञशब्दादयः, तद्धेतवः स्कन्धाः पुद्गलसमूहाः ततः कामस्कन्धाः, टू है यत्र भवन्तीति गम्यते, प्राकृतत्वाञ्च नपुंसकनिर्देशः, 'तत्र' तेषु कुलेषु 'से' इति स 'उपपद्यते' जायते । अनेन है चैकमङ्गमुक्तं, शेषाणि तु नवाकान्याह--मित्राणि-सहपांशुक्रीडितादीनि सन्त्यस्येति मित्रवान् , ज्ञातयः-खजनाः 18 सन्त्यस्येति ज्ञातिमान् भवति, उच्चैः-लक्ष्म्यादिक्षयेऽपि पूज्यतया गोत्र-कुलमस्येत्युञ्चैर्गोत्रः, चः समुचये, वर्णः-18 दश्यामादिः स्निग्धत्वादिगुणैः प्रशस्योऽस्येति वर्णवान् , 'अल्पातका' आतङ्कविरहितो नीरोग इत्यर्थः, महती है प्रज्ञाऽस्पेति महाप्रज्ञः-पण्डितः, 'अभिजात' विनीतः, स हि सर्वजनाभिगमनीयो भवति, दुर्विनीतस्तु शेषगुणा-12 |न्वितोऽपि न तथेति, अत एव च 'जसो'त्ति यशस्वी, तथा च सति 'बले'त्ति बली कार्यकरणं प्रति सामर्थ्यवान् , ६ उभयत्र सूत्रत्वान्मत्वर्थीयलोपः, एकैकोऽपि हि मित्रत्वादिगुणस्तत्तत्कार्याभिनिवर्तनक्षमः, किं पुनरमी समुदिताः?, शरीरसामर्थ्याचेह बलीति ॥ १७-१८॥ तरिकमेवंविधगुणसम्पत्समन्वितं मानुषत्वमेव तत्फलमित्याह LEGACANCCCESS RECENSECASCAREERCASSES दीप अनुक्रम [११२-११३] wwjanatarary.om vमुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१९|| उत्तराध्य. भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुत्विं विसुद्धसद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ॥१९॥(सूत्रम्) चतुरङ्गीया | व्याख्या-भुक्त्वा' आसेव्य 'मानुष्यकान्' मनुष्यसम्बन्धिनः भुज्यन्त इति भोगाः-मनोज्ञशब्दादयस्तान् ,ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः है अविद्यमानं प्रतिरूपमतिप्रकर्षवत्त्वेनानन्यतुल्यमेषामित्यप्रतिरूपाः तान् , 'यथायुः' आयुषोऽनतिक्रमेण पूर्व-पूर्वज॥१८८॥ मविशुद्धो निदानादिरहितत्वेन 'सद्धर्मः(मा) शोभनो धर्मोऽस्खेति विशुद्धसद्धर्मा, केवलत्वाच 'धर्मादनिच् केवला' दिति (पा०५-४-१२४ ) इत्यनिच् भवति, 'केवलाम् ' अकलकां 'बोधि' जिनप्रणीतधर्माप्रासिलक्षणां 'बुद्धा अनुभूय प्राप्येतियावत् ॥ १९ ॥ ततोऽपि किमित्याहचउरंगं दुल्लभं मच्चा, संजमं पडिवजिया। तवसाधुतकम्मंसे, सिद्धे भवति सासए ॥२०॥ तिबेमि (सूत्रम्) व्याख्या-चतुर्णामझानां समाहारश्चतुरङ्गी तामभिहितस्वरूपां दुर्लभा दुष्प्रापां 'मत्वा' ज्ञात्वा 'संयम सर्वसावधयोगविरतिरूपं 'प्रतिपद्य' आसेच्य, 'तपसा' बाह्येनान्तरेण च धुतम्-अपनीतं, कम्मंसित्ति-काम्मेनहैन्थिकपरिभाषया सत्कर्मानेनेति धुतकौशः, तदपनयनाच बन्धादीनामप्यर्थतोऽपनयनमुक्तमेव, यद्वा धुताः कर्मणोऽशा-भागा येन स तथाविधः, किमित्याह-सिद्धो भवति, स च किमाजीविकमतपरिकल्पितसिद्धवत् ॥१८॥ पुनरिहैति उत नेत्यत आह-शाश्वतः शश्वद्भवनात् , शश्वद्भवनं च पुनर्भवनिवन्धनकर्मवीजात्यन्तिकोच्छेदात्, तथा चाह-"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नारः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाकरः ॥ १॥" दीप अनुक्रम [११४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [१७८...] (४३) इति, इह पुनस्तस्येहागमनकल्पनमतिमोहविलसितं, तथा च स्तुतिकृत्-"दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठः । मुक्तः खयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥" इति सूत्रार्यः |॥ २०॥ इतिः परिसमासौ, ब्रवीमि प्राग्वदिति । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वदेव । इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां तृतीयमध्ययनं समाप्तमिति ॥ प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [११५] तृतीयमध्ययनं समासम् ।। wwjanatarary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययन- ३ परिसमाप्तं ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [१७९] (४३) प्रत सूत्रांक +RREEPECIAL ||२०|| ॥ ॐ नमः ॥ उक्तं तृतीयमध्ययनम् , अधुना चतुर्थावसरः, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने | चत्वारि मनुष्यत्वादीन्यङ्गानि दुर्लभान्युक्तानि, इह तु तत्प्राप्तावपि महते दोपाय प्रमादो महते च गुणायाप्रमाद इति मन्यमानः प्रमादाप्रमादी हेयोपादेयतयाऽऽह । इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि || PI प्राग्वद् न्यावर्णनीयानि तावद् यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रमादाप्रमादमिति नाम, ततश्च प्रमाद इत्यप्रमाद इति च ॥ निक्षेप्तव्यमित्युभयनिक्षेपप्रतिपिपादयिषयाऽऽद्द नियुक्तिकृत् नामंठवणपमाओ दवे भावे य होइ नायवो । एमेव अप्पमाओ चउबिहो होइ नायबो ॥ १७९॥ व्याख्या–णामंठवणपमाए'त्ति, प्रमादशब्द उभयत्र सम्बध्यते, ततश्च नामप्रमादः स्थापनाप्रमादः, 'द'इति । द्रव्यप्रमादः 'भावे यत्ति भावप्रमादश्च भवति ज्ञातव्यः, 'एवमेवेति नामस्थापनाद्रव्यभावभेदत एव अप्रमादश्चतुविधो भवति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥१७९॥ इह च नामस्थापने प्रतीते इत्यनादृत्य द्रव्यभावप्रमादावभिधित्सुराहमज्ज विसय कसाया निदा विगहा य पंचमी भणिया। इअपंचविहो एसो होइ पमाओ य अपमाओ १८० | व्याख्या--माद्यन्ति येन तत् मद्य, यशागम्यागम्यवाच्यावाच्यादिविभागं जनो न जानाति, अत एवाह-- "कार्याकार्ये न जानीते, वाच्यावाच्ये तथैव च । गम्यागम्ये च यन्मूढो, न पेयं मद्यमित्यतः॥१॥" विषीदन्ति-धर्म प्रति MAHARASOILEASERAPRAKAR दीप अनुक्रम [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ४ "प्रमादाप्रमाद" आरभ्यते ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [१८०] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| उत्तराध्या 18/नोत्सहन्त एतेष्विति विषयाः, यद्वाऽऽसेवनकाले मधुरत्वेन परिणामे चातिकटुकत्वेन विषस्योपमा यान्तीति विषयाः, असंस्कता. अत एवाविवेकिलोकाऽऽसेविता विवेकिलोकपरित्यक्ताच, तदुक्तम्-"आपातमात्रमधुरा विपाककटवो विषोषमाला बृद्धृत्तिः विषयाः। अविवेकिजनाऽऽचरिता विवेकिजनवर्जिताः पापाः ॥१॥" कथ्यतेऽस्मिन् प्राणी पुनः पुनरावृत्तिभावम॥१९॥ नुभवति कषोपलकष्यमाणकनकवदिति कषः-संसारस्तस्मिन् आ-समन्तादयन्ते-गच्छन्त्येभिरसुमन्त इति कषायाः, यद्वा कषाया इव कषायाः, यथा हि तुवरिकादिकषायकलुषिते वाससि मजिष्ठादिरागः श्लिष्यति चिरं चायतिष्ठते तथैतत्कलुषित आत्मनि कर्म सम्बध्यते चिरतरस्थिति के च जायते, तदायत्तत्वात् तस्थितः, उकं हि शिवशर्मणा"जोगा पयडिपएसं ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ" इत्यादि, एतहुष्टता च निरुक्त्यैव भाविता, "णिद्दति नितरां द्रान्ति-गच्छन्ति कुत्सितामवस्थामिहामुत्र चानयेति निद्रा, तद्वशाद्धि प्रदीपनकादिषु विनाशमिहैवानुभवन्ति, |धर्मकार्येष्वपि शून्यमानसत्वान्न प्रवर्तन्ते, तथा चाह-"जांगरिया धम्मीणं अहमीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहिवभ-18 गिणीए अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥१॥" विरूपा स्त्रीभक्तचौरजनपदविषयतयाऽसम्बद्धभाषितया च कथा विकथा, तत्प्रसको हि-सरगुणदोषोदीरणादिभिः पापमेवोपार्जयति, अत एवाह वाचक:-"यावत् परगुणदोषपरिकीतेने ॥१९॥ १ योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतः करोति । २ जापत्ता धर्मिणामधर्मिणां च सुप्तता श्रेयसी । बत्साधिपभगिन्यै अचकथत् जिनो जयन्त्यै ॥१॥ दीप अनुक्रम [११५] 4%458 wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [१८०] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्ध घ्याने व्यग्रं मनः कर्तुम् ॥१॥" इह च चूर्णिकृतेन्द्रियाण्येव पञ्चमप्रमादतया व्याख्यातानि, तत्र च विषयग्रहणेऽपि पुनरिन्द्रियग्रहणं विषयेष्वपीन्द्रियवशत एव प्रवर्सन्त इति तेषामेवातिदुष्टताख्यापक, महासामा अपि खेतद्वशादुषघातमानुवन्ति, आह च याचक:-"इह चेन्द्रियप्रसक्ता निधनमुपजग्मुः। तद्यथा-गायः सत्यकि कर्द्धिगुणं प्राप्तोऽनेकशास्त्रकुशलोऽनेकविद्याबलसम्पन्नोऽपी"त्यादि । एते च तत्तत्पुद्गलोपचितद्रव्यरूपतया विवक्ष्यमाणा द्रव्यप्रमाद आत्मनि च रागद्वेषपरिणतिरूपतया विवक्षिता भावप्रमाद इति हृदयम् , अत एव न भावप्रमादः पृथगुक्तः । उपसंहारमाह-'इती'त्यनन्तरमुपदर्शितः पञ्चविधः-पश्चप्रकारः 'एष' इति जाइहवोच्यमानतया प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो 'भवति' विद्यते प्रकर्षेण माद्यन्त्यनेनेति प्रमादः अप्रमादय तदभावरूपः पञ्चविधो, भावस्य चैकत्वेऽपि प्रतिषेध्यापेक्षया पञ्चविधत्वमिति गाथार्थः ॥ १८० ॥ प्रस्तुतयोजनामाह६ पंचविहो अपमाओ इहमज्झयणमि अप्पमाओ यावणिजए उ जम्हा तेण पमायप्पमायति ॥ १८१ ॥ व्याख्या-पञ्चविधः चशब्दस्तद्गतभेदसूचकः प्रमादः 'इह'अस्मिन्नध्ययने अप्रमादश्च पञ्चविधो पर्यते, तुशब्दोऽन्याध्ययनेभ्यो विशेष द्योतयति, यस्माद्धेतोस्तेन प्रमादाप्रमादमित्येतदुच्यत इति गाथार्थः ॥ १८१॥ भइत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवति, तदम् दीप अनुक्रम [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१] (४३) R.असस्त्र प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । बृहद्वृत्तिः एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कन्नू विहिंसा अजया गर्हिति ?॥ १॥ (सूत्रम्) ॥१९॥ व्याख्या-संस्क्रियत इति संस्कृतं न तथा शक्रशतैरपि सतो बर्द्धयितुं त्रुटितस्य वा कर्णपाशवदस्य सन्धातुम| शक्यत्वात् , किं तत् ?--जीवितं' प्राणधारणरूपं, ततः किमित्याह-मा प्रमादीः, किमुक्तं भवति -यदीदं कथञ्चित् संस्कर्तुं शक्यं स्यात् चतुरन्यवातावपि न प्रमादो दोषायैव स्यात् , यदा त्विदमसंस्कृतं तदैतत्परिक्षये प्रमादिनस्तदतिदुर्लभमिति मा प्रमादं कृथाः, कुतः पुनरसंस्कृतम् ?-जरया-वयोहानिरूपया उपनीतस्य-प्रक्रमामृत्युसमीपं प्रापितस्य, प्रायो हि जरानन्तरमेव मृत्युरित्येवमुपदिश्यते, हुर्हेती, यस्मान्न अस्ति-विद्यते त्राण-शरणं येन मृत्युतो रक्षा स्यात् , उक्तं च वाचकः-"मङ्गलैः कौतुकर्योगैर्विद्यामन्त्रैस्तथौषधैः । न शक्ता मरणात् त्रातुं, | सेन्द्रा देवगणा अपि ॥१॥" यद्वा स्यादेतत्-वार्द्धके धर्म विधास्वामीत्याशङ्कयाह-जरामुपनीत:-प्रापितो गम्य |मानत्वात् खकम्मभिर्जरोपनीतस्तस्य नास्ति त्राणं, पुत्रादयोऽपि हि न तदा पालयन्ति, तथा चात्यन्तमवधीरणा|| स्पदस्य न धर्म प्रति शक्तिः श्रद्धा या भाविनी, यदा त्राणं येनासावपनीयते पुनर्योवनमानीयते न तारकरणमस्ति, ततो यावदसौ (त्वां) नासादयति तावद्धर्मे मा प्रमादी, उक्तं हि-“तयावदिन्द्रियबलं जरया रोमैने बाध्यते दीप अनुक्रम [११६] ★ ॥१९॥ JABERatinintamational rwaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| निकिता नियुक्ति: [१८१...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| प्रसभम् । तावच्छरीरमूच्छी त्यक्त्वा धर्मे कुरुष्व मतिम् ॥ १॥" जरोपनीतस्य च त्राणं नास्तीत्यत्राट्टणो दृष्टान्तः, तत्र च सम्प्रदायः। उजेणी नयरी जियसत्तू राया, तस्स अट्टणो मलो, सबरजेसु अजेतो। इतो य समुद्दतडे सोपारयं णयर, तत्थ सिंहगिरी राया, सोय मल्लाणं जो जिणति तस्स बहुंदर देति, सोय अट्टणो तत्थ गंतण वरिसे बरिसे पडागं हरति,४ राया चिंतेइ-एस अन्नाओ रज्जाओ आगंतूण पडागं हरति, एसा मम ओहावणचि पडिमलं मग्गति, तेण मच्छितो एगो दिहो वसं पियंतो, बलं च से विन्नासिय, णाऊण पोसितो, पुणरवि अट्टणो आगतो, सो य किर मल्लजुद्धं होहितित्ति अणागते चेव सगातो गयरातो अप्पणो पत्थयणस्स बयलं भरेऊणं अवाबाहेणं एति, संपत्तो सोपारय, | जुद्धे पराजिओ मच्छियमल्लेणं, गतो सयं आवासं चिंतेइ-एयस्स वुही तरुणस्स मम हाणी, अन्नं मग्गइ मलं, १ उन्नयिनी नगरी जितशत्रू राजा, तस्यानो मल्लः, सर्वराज्येषु अजेयः । इतश्च समुद्रतटे सोपारकं नगरं, तत्र सिंहगिरी राजा, सच महानां यो जयति तस्मै बहु द्रव्यं ददाति, स चाट्टनस्तत्र गत्वा वर्षे वर्षे पताकां हरति, राजा चिन्तयति-एपोऽन्यस्मात् राज्यादागत्य पताकां हरति, एषा ममापभाजनेति प्रतिमई मार्गवति, वेन मात्स्यिक एको दृष्टः वसां पिबन , बलं च तस्य जिज्ञासितं, ज्ञात्वा पोषितः, पुनरप्यटनः आगतः, स च किल मल्लयुद्धं भविष्यतीति अनागत एव स्वस्मात् नगरात् आत्मनः पथ्यनस्य बलीवर्द भृला अव्यायाधेनाथाति, संप्राप्तः सोपारक, युद्धे पराजितो मात्स्यिकमलेन, गतः खकमावासं चिन्तयति-एतस्य वृद्धिस्तरुणस्य मम हानिः, अन्य मार्गयति मलं, AASARASWAROKAR * दीप अनुक्रम [११६] 07- 4- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१...] (४३) बृहद्वृत्तिः 5 प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. सुणेति सुरवाए अस्थित्ति, एतेणं भरुकच्छहरणीगामे दूरेलकूवियाए करिसतो दिहो, एकेणं हत्थेणं हलं वाहेइ, असंस्कृता. एक्केणं फलहीतो उप्पाडेति, तं दण ठितो, पेच्छामि ताव से आहारेति, आपल्ला मुक्का, मजा य से भत्तं गहाय । आगया, पत्थिया, कूरस्स उभजिय घडतो पेच्छति, जिमितो सण्णाभूमि गतो, तत्थ परिक्खइ, सर्व संबंहि, स चेया-1४॥ ॥१९२॥ |लियंमि वसहि तस्स घरे मग्गति, दिजा। इतो य संकहा य, पुच्छइ-का जीविका १, तेण कहिए भणति-अहं अट्टणो तुम इस्सरं करेमित्ति, तीसे महिलाए कप्पासमोलं दिन्नं, सा य उवलेद्दा, उजेणिए गया, तेणवि वमण विरेयणाणि कयाणि, पोसितो णिजुद्धं सिक्वावितो, पुणरवि महिमाकाले तेणेव विहिणा आगतो, पढमदिवसे | दाफलहियमलो, मच्छियमल्लोवि, जुद्धे एको अजितो एको अपराजितो, रायाचि बीयदिवसे होहित्ति अतिगतोला १ शृणोति सुराष्ट्रायामस्तीति, एतेन भगुकच्छधरणीपामे दूर कूपिकायाः कर्षको दृष्टः, एकेन हस्तेन हलं वाहयति, एकेन कर्पासानुत्पादय-III ति, तं दृष्ट्वा स्थितः, प्रेक्षे तावदस्याहारमिति, बलीवदौं मुक्ती, भार्या च तस्य भक्तं गृहीत्वाऽऽगता, प्रस्थिता, फरस्म संपूर्ण(उद्भिद्य) घटं प्रेक्षते | जिमितः संशाभूमि गतः, तत्र परीक्षते, सर्व संवृतं, सवैकालिके वसति तस्य गृहे मार्गयति, दत्ता। इतश्च संकथा च, पृच्छति-का जीविका ! तेन कथिते भणति-भहमनस्त्वामीश्वरं करोमीति, तस्यै महिलायै कर्पासमूल्यं दत्तं, सा च संतुष्टा, उज्जयिन्यां गता (सा बलीवदोन | प्रगुणम्योजयिनी गता ), तेनापि वमनविरेचनानि कृतानि, पोषितो निबुद्ध शिक्षितः, पुनरपि महिमकाले तेनैव विधिना आगतः, प्रथमदिवसे कर्पास (फलही) महो, मात्स्यिकमलोऽपि, युद्धे एकोऽजितः एकोऽपराजितः, राजाऽपि द्वितीयविवसे भविष्यतीति अतिगतः २ हरेल. ३. हिअवही । ४ उबल्ला सबछेदा । उबलद्धा। 2 दीप अनुक्रम [११६] - % * * * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~384~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१...] (४३) 2-59-45 प्रत सूत्रांक ||१|| इमेवि सए २ आलए गया, अट्टणेण फलहियमलो भणितो-कहेहि पुत्ता ! जं ते दुक्खावियं , तेण कहियं, मक्खित्ता मलितो सेएणं पुणण्णवीकतो, मच्छियस्सवि राणा संमद्दगा विसज्जिया, भणइ-अहं तस्स पिउणोऽपि ण वीहमि, सो को पराओ ?, बीयदिवसे समजुद्धा, तईयदिवसे अंबप्पहारो णीसहो पइसाहं ठितो मच्छितो, अट्टणेण|| भणितो-फलहित्ति, तेण फलिहग्गहेण कहितो सीसे कुंडिकागाहेण, सकारितो गतो उजेणिं । तत्थ य विमुक्कजुज्झ-1 दवावारो अच्छति, सो य महल्लोत्तिकाउं परिभूयए सयणवम्गेणं, जहा-अयं संपयं ण कस्सइ कजस्स खमोत्ति, पच्छा से सो माणेणं तेसिं अणाउच्छाए कोसंबिए णयरिए गतो, तत्थ वरसमेत्तं उवरेगमतिगतो रसायणं उवजीवेति, सो ? बलिट्ठो जातो, जुद्धमहे पवत्तेति, रायमलो पिरंगणो णाम, तं णिहणति, पच्छा राया मण्णुइतो-मम मलो| १ इमावपि स्वस्मिन् स्वस्मिन् आलये गतौ, अट्टनेन फलहिमलो भणित:-कथय पुत्र ! यत्ते दुःखितं, तेन कथितं, म्रक्षित्वा मर्दितः सेकेन पुनर्नवीकृतः, मात्स्यिकायापि राज्ञा संमईका विसृष्टाः, भगति-अहं तस्य पितुरपि न विभेमि, स को वराकः ?, द्वितीय दिवसे समयुद्धौ, तृतीयदिवसे प्रहारातों निस्सहः वैशासं स्थितो मात्स्यिकः, अट्टनेन भणित:-फलहिरिति, तेन पाणिपादेण कृष्टः शीर्षे कुण्डिकाप्राहेण, सत्कृतो गत उज्जयिनी । तत्र च विमुक्त युद्धव्यापारस्तिष्ठति, स च वृद्ध इतिकृता परिभूयते खजनवर्गेण, यथाऽयं साम्प्रतं न कस्मैचित् कार्याय क्षम इति, पचास मानेन ताननाछच कौशाम्न्यां नगर्या गतः, तत्र वर्षमात्रमुपरेक(नियापारता )मतिगतो रसायनमुपजीवति, स| बलिमो जातः, युद्धमहे प्रवर्तते, राजमहो निरजनो नाम, तं निहन्ति, पश्चाद् राजा मन्युयितो मम मझ दीप अनुक्रम [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य आगंतूणा विहणितोत्ति ण पसंसई, रायाणे य अपसंसंते सवो रंगो तुहिको अच्छति, इतोय अट्टणेण राइणो जाणण- असंस्कृता. राणिमित्तं भण्णति-'साहह वण! सउणाणं साहह भोसउणिगा सउणिगाणं । णिहतो णिरंगणो अट्टणेण णिक्खित्तसत्थेणं । बृहद्धृत्तिः ४ ॥१॥' एवं भणियमेचे राइणा एस अहणोत्तिकाउं तुटेण पूजितो, दवं च से पज्जत्तियं आमरणंतियं दिण्णं, सयणवग्गो। ॥१९॥ दय से तं सोउं तस्स सगासमुवगतो, पायवडणमाईहिं पत्तियावेउं दवलोभेणं अलियावितो, पच्छा सो चिंतेइ-मम एते दवलोभेण अलियाति, पुणोऽवि मम परिभविसतित्ति, जरापरिगतो अहंण पुणो सुमहलेणावि पयत्तेण सकिस्स जुवत्तं काउं, तं जावऽववि सचेट्टो ताव पचयामित्ति संपहारेउं पञ्चतितो ॥ एवं जरोपनीतस्वाट्टनस्येवान्यस्यापि न त्राण-बन्धुभिः पालनं जरातो वा रक्षणम् , 'एव' मित्येवं प्रकारं पाठान्तरतः-एनं वा-अनन्तरोक्तमर्थ 'विजानी-1 हि' विशेषेण विविध वा अवबुध्यस्ख, तथैतच वक्ष्यमाणं जानीहि, यथा 'जनाः' लोकाः 'प्रमत्ताः' प्रमादपराः, IN १ आगन्तुकेन विद्दत इति न प्रशंसति, राशि चाप्रशंसति सर्वो रङ्गस्तूष्णीकस्तिष्ठति, इतश्चाटनेन राज्ञो ज्ञापननिमित्तं भण्यते-कथय | वन ! शकुनेभ्यः कथयत भोः शकुनिकाः ! शकुनिकान् । निहतो निरजनोऽट्टनेन निक्षिप्तशस्त्रेण ॥ १॥ एवं भणितमात्रे राज्ञा एषोऽहन | PI R ॥१९॥ इतिकत्वा तुष्टेन पूजितः, द्रव्यं च तस्मै पर्याप्तमामरणान्तिकं दत्त, स्वजनवर्गच तस्य तत् श्रुत्वा तस्य सकाशमुपगतः, पादपतनादिभिः | प्रत्याय्य द्रव्यलोभेनाश्रितः, पश्चात्स चिन्तयति-मामेते द्रश्यलोभेनाश्रयन्ति, पुनरपि मां पराभविष्वन्तीति, जरापरिगतोऽहं न पुनः सुमह18| ताऽपि प्रयनेन शक्ष्यामि यौवनं कर्तुं, तद्याबदद्यापि सचेष्टस्तावत्पनजामीति संप्रधार्य प्रबजितः । दीप अनुक्रम [११६] 4562564 8 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||१|| _ नियुक्ति: [१८१...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उभयत्र सूत्रत्वादेकवचनं, 'कम्' अर्थ प्रक्रमात् त्राणं, नु इति वितर्के, विविधम्-अनेकधा हिंसा-हिंसनशीलाः,13 आर्यत्वाद्वा वीति-विश्रब्धान् खेषु खेपूत्पत्तिस्थानेष्वनाकुलमवस्थितान् जन्तून् हिंसन्तीति विहिंसाः, तथा अयता:तत्तत्पापस्थानेभ्योऽनुपरताः 'गहिन्ति त्ति सूत्रत्वाद् गमिष्यन्ति, ग्रहीष्यन्ति वा-खीकरिष्यन्ति, किमुक्तं भवति?६ एवमेतेप्रमत्तादिविशेषणान्विता जनाः स्वकृतरीदग्भिः कर्मभिर्नरकादिकमेव यातनास्थानं गमिष्यन्ति ग्रहीष्यन्ति वा. दयद्वैवं नीयते-असंस्कृतं जीवितमिति मा प्रमादीरित्यादि (दौ) गुरुणोक्त कदाचिच्छिष्यो वदेत्-बहुरयं जनः प्रमत्तः, तद्वदहमपि भविष्यामीत्याशय गुरुराह-भद्र ! एवं जानीहि जनः प्रमत्तो विहिंस्रोऽयतः 'कन्नु'त्ति कामप्यवक्तव्यां नरकादिगतिमसौ गमिष्यति ग्रहीष्यति वा, अतः किं तव विवेकिन एवंविधजनव्यवहाराश्रयणेन ?, सूत्रत्वाच्चैकत्वेऽपि बहुवचनमिति सूत्रार्थः ॥ १॥ असंस्कृतं जीवितमित्युक्तम् , अतस्तद् व्याचिख्यासुराह नियुक्तिकृत् उत्तरकरणेण कयं जं किंची संखयं तु नायवं । सेसं असंखयं खलु असंखयस्सेस निज्जुत्ती ॥ १८२॥ MI व्याख्या-मूलतः खहेतुभ्य उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं विशेषाधानात्मक करणमुत्तरकरणं तेन कृतं-निर्वर्तितं, 'यत्किञ्चिदि'त्यविवक्षितघटादि, यत्तदोर्नित्यमभिसम्बन्धात् तत् संस्कृत, तुः अवधारणे, स चैवं योज्यते-यदुत्तरकरणकृतं तदेव संस्कृतं ज्ञातव्यं, 'शेषम्' अतोऽन्यत्संस्कारानुचितं विदीर्णमुक्ताफलोपममसंस्कृतमेव, खलुशब्द| स्यैवकारार्थत्वात् , असंस्कृतमित्यस्य सूत्रावयवस्य 'एषा' वक्ष्यमाणलक्षणा नियुक्तिः, बहुवक्तव्यतया च प्रतिज्ञानम् , दीप अनुक्रम [११६] SACARROR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८२] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. अथवा यथाऽऽचारपञ्चमाध्ययनस्य 'आवन्ती'त्यादानपदेन नाम तथा अस्याप्यसंस्कृतमिति नाम, ततश्चासंस्कृतना- असंस्कृता. मोऽस्यैवाध्ययनस्यैषा नामनिष्पन्ननिक्षेपनियुक्तिस्तत्प्रस्ताव एव व्याख्यातव्येति गाथार्थः ॥१८२॥ सम्प्रति संस्कृत प्रतिषेधादसंस्कृतं विज्ञायत इति संस्कृतशब्दस्य निक्षेपो वाच्यः, तत्र च यद्यपि समित्युपसर्गोऽप्यस्ति तथाऽपि ॥१९४॥ [ धात्वर्थद्योतकत्यात्तस्य करणस्यैव चात्र धात्वर्थात्तदेव निक्षेमुमाह नियुक्तिकृत् नामंठवणार्करणं खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु करणंमी णिक्खेवो छबिहो होइ ॥१८३ ।। व्याख्या-नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालः 'तथैवेति तेनैव वस्तुरूपतालक्षणेन प्रकारेण 'भावे य'त्ति भावश्च, एष एव-अनन्तरोक्तः, खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'करण' करणविषये 'निक्षेपों न्यासः पविधो भवति, किमुक्त भवति ?-नामकरणादिभेदेन निक्षिप्यमाणं षड्विधमेव करणं भवतीति गाथार्थः ॥ १८३ ॥ तत्र च नामकरणं करणमिति नामैव नानो वा करणं नामकरणं-प्रियङ्करशुभङ्करायभिधानाधानं, यदिवा नामतः करणं नामकरणं, यत्पूज्यनामापेक्षया पूजादिविधानं, स्थापनाकरणम्-अक्षनिक्षेपादि, यो वा यस्य करणस्याकारः, तथा च भाष्यकृत् || 18 | "णाम णामस्स व णामतो य करणंति णामकरणंति । ठवणाकरणं नासो करणागारो य जो जस्स ॥१॥" द्रव्यकरणं तु द्रव्यमेव क्रियत इति करणं, कृत्यल्युटोऽप्यन्यत्रापीति (कृत्यल्युटो बहुलम् पा०३-३-१३३) कर्मण्यपि १ नाम नानो वा नामश्च करणमिति नामकरणमिति । स्थापनाकरणं न्यासः करणाकारण यो यस्य ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [११६] JABERatinintamational vमुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| ल्युटो दर्शनात् , भाषसाधनपक्षे तु द्रव्येण द्रव्यस्य द्रव्ये या यथासम्भवं क्रियात्मकं करणं, तथा चाह-तं तेणं तस्स तंमि व संभवतो उ किरिया मया करणं । दबस्स व दवेण व दमि व दबकरणंति ॥ १॥" तचागमनोट्रआगमभेदतो द्विधा, तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतस्तु शरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदानिधा,* प्रतत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यकरणे प्रतीते एवेत्सनादत्य तद्व्यतिरिक्तमाहदवकरणं तु दुविहं सन्नाकरणं च नोय सन्नाए । कडकरणमट्टकरणं वेलूकरणं च सन्नाए ॥१८४॥ व्याख्या-द्रव्यकरणं, तुशब्दो नोआगमत इदमिति विशेषद्योतकः, 'द्विविध' द्विप्रकारं संज्ञाफरणं च* हैणो य सण्णाए'त्ति करणमिति प्रक्रमात् , चशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च नोसंज्ञाकरणं च । तत्र संज्ञाकरणमाह कटकरणं' कटनिर्वतकं चित्राकारमयोमयं पाइलगादि, 'अर्थकरणम्' अर्थाभिनिवर्तकमधिकरण्यादि येन , ४द्रम्मादि निष्पाद्यते, अर्थार्थ वा करणमर्थकरणं यत्र राज्ञोऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, अर्थ एष वा तैरुपायैः क्रियत इत्यर्थकरणं, वेलुकरणं च रूतपूणिकानिवर्तकं चित्राकारमयं घेणुशलाकादि, 'संज्ञायां' संज्ञाकरणे, आह-नामकर-13 सणसंज्ञाकरणयोः कः प्रतिविशेषो ?, न हि नामसंज्ञाशब्दयोरर्थान्तरविषयत्वमुत्पश्यामः, उच्यते, इह नामकरणं करणमित्यभिधानमात्रं, संज्ञाकरणं तु यत्रान्वर्थोऽस्ति, संज्ञाकरणेपु हि कटकरणादिषु क्रियतेऽनेनेति करणमि १ तत्तेन तस्य तस्मिन्या संभवतस्तु क्रिया मता करणम् । द्रव्यस्य वा द्रव्येण वा द्रव्ये या द्रव्यकरणमिति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११६] ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १॥ अध्ययनं [४], निर्युक्ति: [१८४] उत्तराध्ययनुगतोऽर्थः प्रतीयते, द्रव्यरूपाणि चैतानि, करणमितिरूढ्या तु संज्ञाकरणान्युच्यन्ते, आह च भाष्यकृत् - "सन्ना नामंति मई तण्णो णामं जमहिहाणं ॥ जं वा तयत्थवियले कीरति दवं तु दवणपरिणामं । पेलुकरणादि बृहद्वत्ति: न हि तं तयत्थसुन्नं ण वा सहो ॥ १ ॥ ज ण तदत्यविहीणं तो किं दबकरणं १. जतो तेणं । दक्षं कीरति सन्नाकरणंति य करणरूढीओ ॥ २ ॥” नोसंज्ञाकरणं तु यत्करणमपि सन्न तत् संज्ञया रूढं, उक्तं हि-पोसन्नाकरणं पुण |दवस्सारूढ करणसन्नंपी" ति गाथार्थः ॥ १८४ ॥ एतदेव भेदतोऽभिधातुमाह ॥ १९५॥ नोसन्ना करणं पुण पओगसा वीससा य बोद्धवं । साईअमणाईअं दुविहं पुण विस्ससाकरणं ॥ १८५ ॥ व्याख्या - नोसंज्ञाकरणं पुनः 'पओगसा वीससा यति सूत्रत्वात् प्रयोगतो विश्रसातश्च बोद्धव्यं तत्र प्रयोगःजीवव्यापारः तद्धेतुकं करणं प्रयोगकरणं, उक्तं च- "होई पओगो जीववावारो तेण जं विणिम्माणं । सज्जीवमजीवं वा पओगकरणं तयं बहुहा ॥ १ ॥” एतद्विपरीतं तु विश्रसाकरणं, तत्र पश्चादुक्तमप्यल्पवक्तव्यमिति विश्रसाकरण १ संज्ञा नामेति मतिस्तन्नो नाम यदभिधानम् ।। यद्वा तदर्थविकले क्रियते द्रव्यं तु द्रवणपरिणामम् । बेणुकरणादि नैव तत् तदर्थशून्यं न वा शब्दः ॥ १ ॥ यदि न तदर्थविहीनं तदा किं द्रव्यकरणं १ यतस्तेन द्रव्यं क्रियते संज्ञाकरणमिति च करणरूढितः ॥ २ ॥ २ नोसंज्ञाकरणं पुनर्द्रव्यस्यारूढकरणसंज्ञमपि । ३ भवति प्रयोगो जीवव्यापारः तेन यद्विनिर्माणम् । सजीवमजीवं वा प्रयोगकरणं तकत् बहुधा ॥ १ ॥ Education into For Fans Only असंस्कृता. ~ 390~ ४ ॥ १९५॥ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८६] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| माह-सहादिना वर्त्तते सादिकं ततोऽन्यत्त्वनादिकमिति भेदतो द्विविध, पुनरिति मूलभेदापेक्षया, विश्रसाकरणम्उक्तरूपमिति गाथार्थः ॥ १८५ ॥ तत्रानादिकं वक्तुमाहधम्माधम्मागासा एवं तिविहं भवे अणाईयं । चकख़ुअचखुप्फासे एयं दुविहं तु साईयं ॥ १८६॥ व्याख्या-धर्माधर्माकाशानामन्योऽन्यसंवलनेन सदाऽवस्थानमनादिकरणं, न हि तत्कदाचिन्नासीनास्ति न भविप्यति बा, उक्तं हि-"धम्माधम्मणहाणं अणाइसंहायणाकरणं" न च करणमनादि च विरुद्धमिति वाच्यं, यतोऽत्रान्योअन्यसमाधानं करणमभिप्रेत, न त्वन्योऽन्यनिर्वर्तनम् , आह च-"अन्नोऽनसमाहाणं जमिहं करणं ण णिवत्ती". इहा च धर्माधर्माकाशानां करणमिति वक्तव्ये कथञ्चित्क्रियाक्रियावतोरभेददर्शनार्थमनुकूलितक्रियत्वख्यापनार्थ वा धर्माधर्माकाशाः करणमित्युक्तम् , 'एतद्' अनन्तरोक्तं 'त्रिविधं त्रिप्रकारं भवेत्' स्यात् अनादिकं, करणमिति प्रक्रमः । इत्थमनादिकं पचानिर्दिष्टमपि पश्चानुपूर्यपि व्याख्यानमिति ख्यापनाय उक्तं, सम्प्रति तु सादिकमाह-'चक्खुमच-18 दक्खुप्फासे'त्ति स्पर्शशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततश्चक्षुषा स्पृश्यते-गृह्यमाणतया युज्यत इति चक्षुःस्पर्श-स्थूलपरि तिमत्पुद्गलद्रव्यम् अतोऽन्यदचक्षुःस्पर्शम् , 'एयं दुविहं तु'त्ति एतद्विविधमेव, तुशब्दस्वकारार्थत्वात् सादिकमिति गाथार्थः ॥ १८६ ॥ इदमेव द्वितयं व्यक्तीकर्तुमाह १ धर्माधर्मनभसामनादिसंघातनाकरणम् । २ अन्योऽन्यसमाधानं यदिह (तत्) करणं न निर्वृत्तिः ।। दीप अनुक्रम [११६] IndiaTary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१९६॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा || १ | निर्युक्ति: [१८७] खंधेसु अ दुपए साइएस अब्भेसु अब्भरुक्खेसुं । णिष्फण्णगाणि दव्वाणि जाणि तं वीससाकरणं ॥ १८७॥ व्याख्या- 'स्कन्धेषु च ' परमाणुसञ्चयात्मकेषु द्विप्रदेशादिकेषु आदिशब्दात्त्रिप्रदेशादिपरिग्रहः, परमाणवचानेनैवोपलक्षिताः, 'अस्रेषु' प्रतीतेषु 'अभ्रवृक्षेषु' तद्विशेषेष्वेव वृक्षाकारेषु, उपलक्षणं चैतदिन्द्रधनुरादीनां तथा च सम्प्रदायः चक्खुप्फासियं जं चक्खुसा दीसर, तं पुण अम्मा अम्भरुक्खा एवमाइ' । दृश्यते च 'अग्मेसु विजमादीसुति, तत्र च यदि विद्युत्प्रतीतैव गृह्यते तदा तस्याः सजीवत्वात्तच्छरीरस्य चौदारिकशरीरकरणाख्यप्रयोगकरणत्वप्रसक्तिः, अथ विद्योतन्त इति विद्युन्ति तानि आदिर्येषां तानि विद्युदादीन्यभ्राणि तेष्वित्यभ्रविशेषणतया व्याख्यायते, आदिशब्दाच धूम्रादिपरिग्रह इति, तदा नोक्तदोषः, परमप्रातीतिकं, सामायिक निर्युक्तौ चात्रादीन्येव विश्रसाकरणमुक्तं, तद्यथा-"वैक्खुसमचक्खुसंपि य सादियं रूविवीससाकरणं । अब्भाणुप्पभितीणं बहुहा संघाय - भेयकयं ॥ १ ॥ "ति, नेह तत्त्वनिश्चयः, तेषु द्विप्रदेशादिष्वभ्रादिषु वा किमित्याह - निष्पन्नान्येव निष्पन्नकानि, जीवव्यापारं विनैव भेदसङ्घाताभ्यां लब्धसत्ताकानि द्रव्याणि तद्विश्रसाकरणं सादि, चाक्षुषमचाक्षुषं वेति प्रक्रमः, द्विप्र| देशादिकरणानि हि सङ्घाताद् भेदात् सङ्घातभेदाभ्यां च विनाऽपि जीवप्रयोगं निष्पद्यन्ते निष्पन्नान्यपि च न चक्षुषा ४ ॥ १९६ ॥ १ चक्षुःस्पर्श यचक्षुषा दृश्यते, तत्पुनरभ्राणि अभ्रवृक्षा एवमायाः २ चाक्षुषमषानुषमपि च सादिकं रूपिविश्वसाकरणम् । अभ्राणुप्रभृतीनां बहुधा संघातभेदकृतम् ॥ १ ॥ Education intol For Fans Only असंस्कृता ~392~ ४ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| वीक्ष्यन्ते इत्यचाक्षुषं विश्रसाकरणम् , अभ्रादिकरणानि तु खयं निष्पद्यन्ते चक्षुषा च वीक्ष्यन्त इति चाक्षुषं विश्रसाकरणम् , अत्र च पश्चादुद्दिष्टस्यापि यदचाक्षुषस्व प्रथममभिधानं तत्प्राग्वत्पश्चानुपूर्येति गाथार्थः ॥ १८७ ॥ सम्प्रति प्रयोगकरणमाह-. दुविहं पओगकरणं जीवेतर मूल उत्तरं जीवे । मूले पंचसरीरा तिसु अंगोवंगणामं च ॥१८८॥ व्याख्या-द्विविधं' द्विभेद-प्रयोगकरणं 'जीवत्ति' जीवप्रयोगकरणम् 'इयरे'त्ति अजीवप्रयोगकरणं, तत्र जीवनउपयोगलक्षणेन यदीदारिकादिशरीरमभिनिर्वयेते तजीवप्रयोगकरणं, तब द्विधा-मूलकरणमुत्तरकरणं च, तत्र 'मूल' इति मूलकरणे विचार्यमाणे 'पञ्च' इति पञ्चसङ्ख्यावच्छिन्नानि विशीयन्ते-उत्पत्तिसमयतःप्रभृति पुद्गलविचटनाद्विनश्य-18 ६न्तीति शरीराणि-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि, इह च विषयविषयिणोरभेदोपचारेण करणविषयत्वाच्छरी-|| राण्यपि करणमुक्तं, मूलत्वं चोत्तरोत्तरावयवब्यक्त्यपेक्षया, ततश्च यदवययविभागविरहितमौदारिकॅशरीराणां प्रथमम-| भिनिर्वर्त्तनं तत् मूलकरणं, 'तिसु अंगोवंगणामं चेति, चशब्दः प्रकृतमनुकर्षति, तचेह प्रक्रमादुत्तरकरणमेवानुकृप्यते, । ततश्च त्रिघु-औदारिकवैक्रियाहारेषु तैजसकार्मणयोस्तदसम्भवादशोपाङ्गनामैवोत्तरकरणमिति सम्बन्धः, अत्र चागोपाङ्गनामशब्देनाङ्गोपाङ्गनामकर्मनिवर्तितान्यङ्गोपाङ्गानि गृह्यन्ते, कार्य कारणोपचारात्, आह च भाष्यकृत्-“सज्जीवं १ सजीवं मूलोत्तरकरणं मूलकरणं यदादौ । पञ्चाना देहानामुत्तरमावित्रिकस्यैव ॥ १ ॥ % दीप अनुक्रम [११६] % % ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मुलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८९-१९०] (४३) उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः ॥१९७॥ प्रत सूत्रांक ||१|| मूलुत्तरकरणं मूलकरणं जमादीए । पंचण्हं देहाणं उत्तरमादीतियस्सेव ॥१॥” इति गाथार्थः ॥ १८८ ॥ कानि असंस पुनस्तान्यज्ञानीत्याह सीसमुरोयरपिट्टी दो बाहू अ हुँति ऊरू अ। एए अटुंगा खलु अंगोवंगाइँ सेसाइँ ॥ १८९ ॥ हुँति उवंगा कण्णा नासऽच्छी जंघ हत्थ पाया या अंगोवंगा अंगुलिनहकेसामंसु एमाइ ॥१९०॥ व्याख्या-तत्राद्या प्राग्वत् , नवरम् अङ्गोपाङ्गानि उपलक्षणत्वादुपाङ्गानि च शेषाणि, तानि वक्ष्यन्त इति शेषः, तत्रोपाङ्गानि कौँ नासे अक्षिणी जके हस्तौ पादौ च, अङ्गोपाङ्गानि अङ्गुलयो नखाः केशाः स्मश्रु 'एवमादीनि' एवं-18 प्रकाराण्युत्तरकरणं, वृद्धास्त्वङ्गान्यपि मूलकरणमिति मन्यन्ते, आपेक्षिकत्वाच मूलोत्तरत्वयोरुभयथाऽप्यविरोध इति । गाथाद्वयार्थः ॥ १८९-१९० ॥ इदमेवान्यथाऽऽहतेसिं उत्तरकरणं बोद्धवं कण्णखंधमाईयं । इंदियकरणा ताणि य उवधायविसोहिओ हुंति ॥ १९१॥ व्याख्या-'तेषाम् ' आद्यानां त्रयाणां शरीराणामुत्तरकरणं 'बोद्धव्यम्' अवगन्तव्यं, 'कण्णखंधमादीय'ति । तत्रौदारिकस्य कर्णयोध्यापादनं स्कन्धस्य च मर्दनादिना दृढीकरणम् , आदिशब्दाद्दन्तरागादिकरणपरिग्रहः, एवं वैक्रियस्थापि, आहारकख तु नास्त्येव, गमनादिना वा तस्याप्युत्तरकरणमिति प्राचं । तथा इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां दीप अनुक्रम [११६] wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 394~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [१९१] | करणानि अवस्थान्तरापादनानि इन्द्रियकरणानि तानि च 'उपघातविशुद्धितः' उपघातात् विशुद्धेव भवन्ति, तत्रोपघाताद्विपाद्यभ्यवहारतोऽन्धवधिरताद्यापादनानि विशुद्धितश्च ब्राह्मीसमीराअनादिना स्पष्टताद्यापादनान्युतरकरणं भवति, पठ्यते च- 'इंदियकरणं च तह'ति अत्र चैकवचनान्ततया सर्व व्याख्येयमिति गाथार्थः ॥ १९१ ॥ अथवाऽन्यथा करणमुच्यते | संघायणपरिसाडणउभयं तिसु. दोसु नत्थि संघाओ । कालंतराइ तिग्रहं जहेव सुतंमि निद्दिट्टं ॥ १९२॥ व्याख्या- 'संघायणे 'ति संहन्यमानानां - संयुज्यमानानामौदारिका दिपुद्गलानां तैजसकार्मणपुद्गलैः सह यदात्मनस्तत्तत्पुद्गलग्रहणात्मिकासु तदनुकूलक्रियासु वर्त्तनात्मकं प्रयोजकत्वं सा सङ्घातना, तथा परि:-समन्ताच्छटतां| पृथग्भवता मौदारिकादिपुद्गलानां यदात्मनस्तान्प्रति ततच्छरीरविमोक्षात्मकं प्रयोजकभवनं सा परिशाटना, उभावभिहिताववयवावस्येति उभयं सङ्घातनापरिशाटनाकरणं । किमिदं त्रयमपि पञ्चस्वप्यौदारिकादिषु अथान्यथेत्याहत्रिष्वाद्येषु, किमुक्तं भवति ? - औदारिकवै क्रियाहारकेषु, 'द्वयोः ' तैजसकार्म्मणयोः, किमित्याह – 'नास्ति' न विद्यते, कोऽसौ ? - सङ्घातः, तदैभावाच सङ्घातनापि नास्तीति भावः, सा हि प्रथमत उत्पद्यमानस्य जीवस्य तैलभृततततापिकाप्रक्षिप्तापूपवत् तैलसदृशानौदारिका दिपुद्गलानाददानस्यैवौदारिकादिष्वपि वर्ण्यते न च तैजसकार्मणयोः प्रथमत उपादानसम्भवः, अनादिसंहतिमत्यात्तयोः, परिशाटना तु शैलेशी चरमसमये, प्रतिसमयं सङ्घातना परिशाटनोभयं च सम्भ Education intimationa For Fans Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१९८॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १ || अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [१९२] ४ वत्येव, कालान्तरादि त्रयाणामित्यस्यायमर्थः त्रयाणां सहानापरिशाटनोभयेषां काल:- कियत्कालं सतना परि- असंस्कृता. | शाटनोभयं चेत्येवमात्मकः अन्तरं च सङ्घातनायाः सकृदवासी पुनः कियता कालेनावासिरेवंरूपम्, एवं परिशाटनाया उभयस्य च, आदिशब्दात् सादित्यानादित्वे च किमित्याह -- 'यथैवे 'ति येनैव प्रकारेण 'सूत्रे' सामायिकाध्ययने 'निर्दिष्टा' इति आर्यत्वात् 'निर्दिष्टं' प्रतिपादितमिति गाथार्थः ॥ १९२ ॥ एतचातिदिष्टमपि निर्युक्तिकृता विनेयानुग्रहार्थं सम्प्रदायत उच्यते स चायम् एयाणि तिन्निवि करणाणि कालतो मग्गिजंति-तत्थोरालियसंघायकरणं एगसमइयं, जं पढमसमओववन्नगस्त, जहा तेले ओगाहिमतो छूढो तप्पढमयाए आइयति, एवं जीवोऽवि उववज्जंतो पढमे समये गेण्हति ओरालियसरीरपाओग्गाई दवाई, न पुण मुंचति किंचिवि, परिसाडणावि समओ, मरणकालसमए एगंततो मुंचति न गिण्हति, मज्झिमकाले किंचि गेण्हर किंचि मुंचति, जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमऊणं, उकोसेणं तिन्नि पलिओयमाई १ एतानि त्रीण्यपि करणानि कालतो मृग्यन्ते तत्रीदारिकसंघातकरणमेकसामयिकं यत्प्रथमसमयोत्पन्नस्य, यथा तैलेऽवगाहकः क्षिप्तस्तस्प्रथमतयाऽऽदते, एवं जीवोऽपि उत्पद्यमानः प्रथमे समये गृह्णाति औदारिकशरीरप्रायोग्याणि द्रव्याणि न पुनर्मुञ्चति किञ्चिदपि । परिशाद्नाऽपि समयः (म्), मरणकालसमये एकान्ततो मुध्यति न गृह्णाति मध्यकाले किञ्चिगृहाति किश्विन्मुश्वति, जघन्येन हकभवग्रहणं त्रिसमयोनम्, उत्कृष्टेन त्रीणि पत्योपमानि ratnamation For Fans Only ॥१९८॥ ~396~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| 4ASSOCTS. समऊणाणि,-दो विग्गहमि समया समओ संघायणाय तेहूर्ण । खुड्डागभवग्गहणं सचजहन्नो ठितीकालो ॥१॥ उकोसो समऊणो जो सो संघयणासमयहीणो। किह ण दुसमयविहीणो साडणसमए विहीणंमि ! ॥२॥ भण्णति । जाभवचरिमंमिवि समए संघायसाडणा चेव । परभवपढमे साडणमतो तदूणो ण कालोत्ति ॥३॥ जइ पुरपढमे साडोर णिबिग्गहतो य तंमि संघातो। णणु सन्चसाडसंघायणातो समए विरुद्धातो ॥ ४ ॥ आचार्य आह-जम्हा विगच्छमाणं विगयं उप्पजमाणमुप्पन्नं । तो परभवादिसमए मोक्खादाणाण ण विरोहो ॥५॥ चुतिसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खतो जहातीतो। जद परभवोविण तर्हि तो सो को होउ संसारी ॥६॥णणु जह विग्गहकाले 2 देहाभावेऽपि परभवग्गहणं । तह देहाभामिवि होजेहभवोऽपि को दोसो ? ॥७॥ चिय विग्गहकालो १ समयोनानि-द्वौ विप्रहे समयौ समयः संघातनायाः तैरूनम् । क्षुल्लकभवग्रहणं सर्वजघन्यः स्थितिकालः ॥ १॥ उत्कृष्टः समयोनः यः स संघातनासमयहीनः । कथं न द्विसमयविहीनः शाटनसमये विहीने ॥२॥ भण्यते भवचरमेऽपि समये संघातशाटने एव । परभवप्रथमे शाटनमतस्तवूनो न काल इति ॥ ३ ॥ यदि परभवप्रथमे शाटो निर्षिमहत्तश्च तस्मिन् संघातः । ननु सर्वशाटसंघातने समये विरुद्धे ॥ ४ ॥ यस्माद्विगच्छद्विगतमुत्पद्यमानमुत्पन्नम् । सतः परभवादिसमये मोक्षादानयोने विरोधः ॥ ५॥ च्युतिसमये नेहभव इहदेहविमोक्षतो यथाऽतीतः । यदि परभवोऽपि न तत्र तत: स को भवतु संसारी ॥६॥ ननु यथा विग्रहकाले देहाभावेऽपि परभवग्रहणम् । तथा देहाभावेऽपि भवेदिहभवोऽपि को दोषः ॥ ७॥ यत एव विग्रहकालः दीप अनुक्रम [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~397~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य देहोभावेऽवि तो परभवो सो। चुतिसमए उ ण देहो न विग्गहो जइ स को होउ ॥८॥ इदाणिं अंतरं-Mअसंस्कृता. संघायंतरकालो जहण्णयं खुड्यं तिसमऊणं । दो विग्गइंमि समया तइयो संघायणासमओ ॥९॥ तेहूर्ण खुडभव है। बृहद्वृत्तिः ४ा परिउ परभवमविग्गहेणं वा । गंतूण पढमसमए संघाययतो स विष्णेओ ॥१०॥ इदाणि संघायपरिसार्डतरं-उस-1 ॥१९॥ दयंतरं जहणं समओ णिबिग्गहेण संघाए । परमं सतिसमयाति तेत्तीसं उदहिणामाई॥११॥ अणुभविउं देवा दिसु तेत्तीसमिहागयस्स ततियंमि। समए संघाययतो दुविहं साडतरं वोच्छं ॥ १२॥ खुड(डा)गभवग्गहणं जहण्णमु कोसयं च तेत्तीसं । तं सागरोवमाई संपुण्णा पुषकोडी य॥१३॥ आह-इह क्षुल्लकमवग्रहणं पूर्णमौदारिकसवेंशा-1 टियोर्जघन्यमन्तरमुक्तं, तब 'परभवपढमे साडो' इति वचनात्समयोनमेव प्राप्नोतीति कथं न विरोधः १, उच्यते, निश्चयनयमतमिदं 'परभवपढमे साडोंति, स शुत्तरपर्यायोत्पादमेव पूर्वस्य विनाशमेवाह विगच्छदेव च विगतमुत्प १ देहाभावेऽपि ततः परभवः सः । च्युतिसमये तु न देहो न विग्रहो यदि स को भवतु ॥ ८॥ इदानीमन्तर-संघातान्तरकालो बाजधन्यं शुल्कस्त्रिसमयोनः । द्वौ विमहे समयौ तृतीयः संघातनासमयः ॥९॥ तैरूनं श्रुतकभवं धृत्वा परभवमविप्रहेण वा । गत्या H ॥१९९॥ प्रथमसमये संघातयतः स विशेयः॥१०॥ इदानी संघातपरिशाटान्तरम्-उभयान्तर जघन्य समयो निर्विग्रहेण संधाते । परमं सत्रिसमयास्त्रयस्त्रिंशदुधयः ॥ ११ ॥ अनुभूय देवादिषु त्रयस्त्रिंशतमिहागतस्य तृतीये । समये संघातयतो द्विविधं शाटान्तरं वक्ष्ये ॥ १२ ॥ MIक्षुलकभवग्रहणं जघन्यमुत्कृष्टं च त्रयविंशत् । तत् सागरोपमाणि संपूर्णानि पूर्वकोटी च ॥ १३ ॥ दीप अनुक्रम [११६] JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] (४३) *** * प्रत सूत्रांक ||१|| धमानमेव चोत्पन्नं, यत उक्तम्-"जम्हा विगच्छमाणं विगय"मित्यादि, तथा चास्य य एवोत्तरभवोत्पादः स एव पूर्वभवपरित्यागः, एवं च यदैवोत्तरभयौदारिकपुद्गलानां सङ्घातस्तदैव पूर्वभवौदारिकपुद्गलानां शाट इति परभवप्रथमसमय एयैतदभिप्रायेण शाटः, व्यवहारनयमतेन त्वन्य एवोत्तरस्योत्पादः अन्य एव च पूर्वस्य विनाशो, विनष्टस्यैव च विनष्टता उत्पन्नस्यैव चोत्पन्नता, ततो न य एवोत्तरभवोत्पादः स एव पूर्वभवपरित्यागः, एवं चान्यदेवोत्तरभवी दारिकपुद्गलानां सङ्घातोऽन्यदैव च पूर्वभवीदारिकपुद्गलानां शाटः, ततो नास्य परभवप्रथमसमय एव सछातशाटी, है किन्तु पूर्वभवान्त्यसमय एव शाटः उत्तरभवाद्यसमय एवं सङ्घातः, तथा च निश्चयव्यवहारनयात्मकत्वाजिनम तस्य यदाऽसौ क्षुलकभव उत्पद्यते तदा व्यवहारनयस्याश्रयणात्पूर्वभवान्त्यसमय एव शाटो विवक्ष्यते, यदा तु तत उद्वर्त्तते तदा निश्चयनयानीकरणात्परभवप्रथमसमय एषोत्पाद इति परिपूर्णमेव क्षुलकभवग्रहणमौदारिकसर्वशाटयो४|| जघन्यमन्तरमिति न कश्चिद्विरोधः । इदाणि विउवियस्स-वेउवियसंघातो समतो सो पुण विउवणादीतो। | ओरालियाण अहवा देवादीणाइगहणंमि ॥१॥ उक्कोसो समयदुगं जो समय विउविउ मतो वितिए । समए सुरेसु । १ इदानी चैक्रियस्य-वैक्रियसंघातः समयः स पुनर्विकुर्वणादेः । औदारिकाणामथवा देवादीनामादिमहणे ॥ १॥ पत्कृष्टः समयद्विकं यः समयं विकुळ मृतो द्वितीये । समये सुरेषु *** दीप अनुक्रम [११६] * * * * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०॥ सूत्रांक ||१|| वचंद णिविग्गहओ य जंतस्स ॥ २॥ उभयग्गहणं समतो सो पुण दुसमयविउबियमयस्स । परमतराई संघाय- असंस्कृता. समयहीणाई तेत्तीसं ॥३॥ वेउचियसरीरपरिसाडणकालोऽवि समयतो चेव ॥ इदाणिं अंतरं-वेउषियसरीरसंघायंतरं जहण्णणं एग समयं, सोऽवि य पढमसमए विउब्विय मयस्स विग्गहेणं तइए समए बेउविएसु देवेसु संघायंतस्स भवति, अहवा ततियसमए विउधिय मयस्स अविग्गहेणं देवेसु संघायंतस्स, संघायपरिसाडंतरं जहण्णेणं समय एव, सो पुणोऽचिर विउविय मयस्स अविग्गहेणं संघायंतस्स भवति । साडस्स अंतरं-जहन्नेणं अंतोमुहुतं । |तिण्डषि एतेर्सि उकोसेणं अर्णतं कालं-वणस्सइकालो। इदाणिं आहारयस्स-आहारे संघाओ परिसाडो य समयं 4 समो होइ । उभयं जहण्णमुक्कोसयं च अंतोमुहुत्तं तु ॥१॥ बंधणसाडुभयाणं जहन्नमंतोमुहुत्तमंतरणं । उको| जति निर्विप्रहत्तश्च गछतः ।। २ ।। उभयग्रहण समयः स पुनद्वौं समयौ विकुष्यं मृतस्य । परमतराणि संघातसमयहीनानि | प्रयस्त्रिंशत् ॥ ३॥ वैफियशरीरपरिशाटनकालोऽपि समय एव । इदानीमन्तरं-क्रियशरीरसंघातान्तरं जधन्येनैक: समया, सोऽपि च प्रथमसमये बिकुर्य मृतस्य विप्रहेण तृतीये समये वैक्रियेषु देवेषु संघातयतो भवति, अथवा तृतीयसमये विकुऱ्या मृतस्याविप्रहेण देवेषु BIRan संघातयतः संघातपरिशादान्तरं जघन्येन समय एव, स पुनरचिरं विकुळ मृतस्य अविपहेण संघातयतो भवति । शाटस्वान्तरं-जघन्ये नान्तर्मुहूर्त । त्रयाणामप्येतेषामुत्कृष्टेनानन्तः कालो-वनस्पतिकालः । इदानीमाहारकप-आहारके संघातः परिशाटन समयः समो भवति । ४) उभयं जपन्यमुत्कष्ट चान्तर्मुहूर्तमेव ॥ १ ॥ बन्धनशाटोभयानां जघन्यमन्तर्मुहूर्तमन्तरम् । उत्कृ दीप अनुक्रम [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९३-१९४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| काRESS सेणमवह पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण ॥२॥ तेयाकम्माणं पुण संताणाणादितो ण संघातो। भवाण होज साडो सेलेसीचरिमसमयंमि ॥ ३॥ गतं जीवमूलप्रयोगकरणम् , उत्तरप्रयोगकरणमाह| इत्तो उत्तरकरणं सरीरकरणं पओगनिप्फन्नं । तं भेयाऽणेगविहं चउविहमिणं समासेणं ॥ १९३॥ | संघायणा य परिसाडणा य मीसे तहेव पडिसेहो। पडसंखसगडथूणा उद्दतिरिच्छाण करणं च ॥१९॥ ___ व्याख्या-'इत' इति मूलप्रयोगकरणादनन्तरम् 'उत्तरकरण मिति उत्तरप्रयोगकरणम् , उच्यते इति गम्यते, तत्कतरदित्याह-शरीरं च तत्करणं च तां तां क्रियां प्रति साधकतमत्वेन शरीरकरणं तस्य प्रयोगः-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजजीववीर्यजनितो व्यापारों तेन निष्पन्नं शरीरकरणप्रयोगनिष्पन्नम् , अत एव शरीरनिष्पत्त्यपेक्षया ऽस्योत्तरत्वमिति भावनीयं, 'तत्' इत्युत्तरकरणं 'भेदात्' इति भेदमाश्रित्य 'अनेकविधम्' अनेकप्रकारम् , इदमत्र है तात्पर्यम्-संसारिणां कार्याणि विसदृशरूपाणि बहूनि दृष्टानि, अतस्तत्साधनैरपि करणैर्वहुभिरेव भवितव्यं, नापाः पुद्गलपरावतों देशोनः ॥२॥ तैजसकार्मणयोः पुनः संतानानावितों न संघातः । भव्यानां भवेत् शाटः शैलेशीचरमसमये ॥३॥ का उभयं अनादिणिहणं संतं भब्वाण होज केसिंथि । अन्तरमनादिभावाञ्चन्तविजोगवो न यसि ॥४॥] उभयमनादिनिधनं सान्तं भव्यान भवेत्केषाश्चित् । अन्तरमनादिभावादत्यन्ताचियोगतो नैवानयोः ॥ ४ ॥ XXRXXXKARMA दीप अनुक्रम [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९३-१९४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. ४न च तानि विस्तरतो वक्तुं शक्यानि अत आह–'चतुर्विध' चतूरूपम् , 'इदम्' इत्युत्तरकरणं, समासेन, उच्यत असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः इति शेषः, तदेवाह-सङ्घातना च' संघातनाकरणं 'परिशाटना च' परिशाटनाकरणं 'मिस्से'त्ति मिश्रं सछातनाप-४ पारिशाटनाकरणं तथैव 'प्रतिषेधः' इति सङ्घातनापरिशाटनाशून्यम् , अमीषां चोदाहरणानि दर्शयन्नाह–पटे सहा-|| ॥२०१॥ तनैव तन्तुसङ्घातनिष्पन्नत्वात्तस्य, शङ्ख परिशाटनैव परिशाध्यमानत्वादेवाख, शकटे उभयं यतस्तत्र किञ्चित्सवात्सते, कीलिकादि किश्चिच परिशाट्यतेऽधिकत्वगादि, स्थूणानामुभयाभावः, तथा च 'उहतिरिच्छाणं'ति भावप्रधानत्वा-18 सदस्योर्ध्वतियक्त्वयोः करणं, चशब्दान्त्रमनोन्नमनादि च तत्रोत्तरकरणं च, न तु सातनापरिशाटना च, आह इदमप्यजीवानां क्रियत इत्यजीवकरणमेव, तत्कथमस्थ जीवकरणत्वेनोपन्यासः १, उच्यते, जीवेन क्रियत इति विव-11 क्षया जीवकरणत्वेनेदमुक्तमित्यदोष इति गाथार्थः ॥ १९३-१९४ ॥ अजीवप्रयोगकरणमाह• अजियप्पओगकरणं दवे वण्णाइयाण पंचण्हं । चित्तकर(ण)कुसुभाईसु विभासा उ सेसाणं ॥१९५॥ व्याख्या-अस्याक्षरार्थः सुगमः ॥ १९७ ॥ भावार्थस्त्वयं- णिजीवाणं कीरइ जीवप्पओगओ तंत। |वषणादि रूबकम्मादि वावि तदजीवकरणन्ति ॥१॥ उक्तं द्रव्यकरणं, क्षेत्रकरणमाह ॥२०॥ ण विणा आगासेणं कीरइ जं किंचि खित्तमागासं । वंजणपरिआवन्नं उच्छुकरणमाइअंबहुहा ॥१९६॥ १ यद्यनिर्जीवानां क्रियते जीवप्रयोगतस्तत्तत् । वर्णादि रूपकर्मादि वाऽपि तदजीवकरणमिति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११६] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र नियुक्ति-गाथा १९५ व्याख्या मध्ये यत् ||१९७|| मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र ||१९५|| एव वर्तते ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९६] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| IKI व्याख्या-आह-नित्यत्वात्क्षेत्रस्य करणं न संगच्छते तत्कथं क्षेत्रकरणसम्भवः', उच्यते, न बिनाऽऽकाशेन 'क्रियते' निर्वय॑ते 'यदि ति यस्मात् 'किञ्चिदपि' अल्पमपि धणुकस्कन्धादि, अतस्तत्वाधान्याद् द्रव्यकरणमपि। क्षेत्रकरणमुच्यते इत्युपस्कारः, ननु यद्याकाशेन विना न किञ्चित् क्रियते तदाऽऽकाशकरणतैयास्तु कथं क्षेत्रकरजाणता ?, उच्यते, 'क्षेत्रम्' इति क्षेत्रशब्दवाच्यमाकाशं, तथा च पर्यायशब्दत्वादनयोरित्थमभिधानमदुष्टमेवेति भावः, तच व्यअनं-शब्दस्तस्य पर्यायः-अन्यथा च भवनं व्यञ्जनपर्यायः तमापन्न-प्राप्त व्यञ्जनपर्यायापन्नम् , 'उच्छुकरणदामाइय'ति प्रक्रमान्मकारस्य चागमिकत्वादिक्षुक्षेत्रकरणादिकं 'बहुधा' बहुप्रकारम् , एकत्वेऽपि क्षेत्रपेक्षुक्षेत्रकरणादिरूपेणामिलापस्य बहुप्रकारत्वात् , तथा च सम्प्रदायः-पंजणपरियावनं णाम जं खेत्तंति अभिलप्पति तंजहाउच्यखेतकरणं सालिखेत्तकरणं तिलखित्तकरणं एवमादि' अथवा यस्मिन् क्षेत्रे करणं क्रियते वयेते वा तत् क्षेत्रकरण-10 मिति गाथार्थः ॥ १९६ ॥ इदानीं कालकरणमाहकालो जो जावइओ जं कीरइ जंमि जंमि कालंमि । ओहेण नामओ पुण हवंति इकारसक्करणा ॥१९७॥ व्याख्या-कालो 'यः' समयादिवत्परिमाणः यत्करणनिष्पत्तावपेक्षाकारणत्वेन व्याप्रियते, किमुक्तं भवति?४ यस्य भोजनादेविता घटिकाद्वयादिना कालेन निष्पत्तिस्तस्य स एव कालः करणं, तस्यैव तत्र साधकतमत्वेन 4 १ व्यजनपर्यावापन्नं नाम यरक्षेत्रमित्यभिलप्यते, तद्यथा-इक्षुक्षेत्रकरणं शालिक्षेत्रकरणं तिलक्षेत्रकरणमेवमादि । * दीप अनुक्रम [११६] % % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९७] (४३) असंस प्रत सूत्रांक २०२॥ ||१|| उचराध्य. 13/विवक्षितत्वात् , यदि वा यत्करणं 'क्रियते' निष्पाद्यते यस्मिन् यस्मिन् काले तस्य स एव कालः करणं कालकरणम् , दि अत्राधिकरणसाधनत्वेन विवक्षितत्वात्करणशब्दस्य, 'ओघेने ति नामादिविशेषानपेक्षमेतत्कालकरणं, तथा च वृद्धाःबृहद्वृत्तिः 'कालकरणं जं जावतिएण कालेण कीरति, जंमि वा कालंमित्ति, इहापि कालस्याकृत्रिमत्वेन करणासम्भवादित्यमुपन्यासः, नामतः पुनर्भवन्त्येकादश 'करणानि' कालविशेषरूपाणि चतुर्यामप्रमाणानि, करणत्वं चैषां तत्तक्रियासाधकतमत्वादिति गाथार्थः ॥ १९७ ॥ कानि पुनस्तानीत्याहबवं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोअणं । गराइ वणियं चेव, विट्ठी हवइ सत्तमी ॥ १९८॥ सउणि चउप्पयं नागं, किंसुग्घं करणं तहा। एए चत्तारि धुवा, सेसा करणा चला सत्त ॥ १९९ ॥ व्याख्या-वयं च बालवं चैव कौलवं स्त्रीविलोचनं गरादि वणिजं चैव विष्टिर्भवति सप्तमी । शकुनि चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नं करणं तथा, 'एतानीति शकुन्यादीनि चत्वारि 'ध्रुवाणी'त्यवस्थितानि, शेषाणि करणानि 'चलानि'अनवस्थितानि ससेति श्लोकद्वयार्थः ॥ १९८-१९९ ॥ कस्य पुनः क्व ध्रुवत्वमित्याह|किण्हचउद्दसिरतिं सउणि पडिवजए सया करणं। इत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं नाग किंछुग्धं ॥ २०॥ १ काळकरणं वद्यावता कालेन कियते, यस्मिन्या काल इति । + + दीप अनुक्रम [११६] ॥२०२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 404~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १ || अध्ययनं [४], निर्युक्ति: [२००] व्याख्या – कृष्णचतुर्दश्या रात्रौ शकुनिः प्रतिपद्यते, खरूपमिति शेषः, किं कदाचिदेवेत्याह- 'सदा' सर्वकालम्, अनेनास्यावस्थितत्वमाह, करणं प्राग्वद्, अत ऊर्द्ध 'यथाक्रमं यथापरिपाटि 'खलुः' अवधारणे ततो यथाक्रममेव, चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नमिति, तत्रामावास्यायां दिने चतुष्पदं रात्रौ नागं प्रतिपदि च दिने किंस्तुघ्नमिति गाथार्थः ॥ २०० ॥ सप्तविधकरणानयनोपायप्रतिपादिकेयं पूर्वाचार्य गाथा - "पैक्खतिहितो दुगुणिया दुरूवहीणा य सुकपक्खमि । सत्तहिए देवसियं तं चिय रूवाहियं रतिं ॥ १ ॥ एसाऽत्य भावणा - अभिमयदिणंमि करणजाणणत्थं पक्खतिहितो दुगुणियत्ति-अहिगयतिहिं पडुच अतीयातो दुगुणिज्जंति, जहा सुद्धचउत्थीए दुगुणा अट्ठ हवंति, 'दुरुबहीणं' ति, सत्तहिए देवसियं करणं हवद, एत्थ य भागा छचेव, तओ ववाइयकमेण चउप्पहरियकरणभावेण | चउत्थिय दिवसे तो वणियं हवद, तं चिय रूवाहियं 'रतिं'ति रतीए विट्टी, कण्हपक्खे दोरुवा ण पाडिजंति, एवं १ पक्षतिथयों द्विगुणिता द्विरूपहीनाश्च शुकपक्षे । सप्तहृते दैवसिकं तदेव रूपाधिकं रात्रौ ॥ १ ॥ एषाऽत्र भावना - अभिमतदिने करणज्ञानार्थं पक्षतिथयो द्विगुणिता इति- अधिकृततिथिं प्रतीत्यावीता द्विर्गुण्यन्ते, यथा शुचतुर्थ्यां द्विगुणा अष्ट भवन्ति, द्विरूपहीनमिति सप्तहृते देवसिकं करणं भवति, अत्र च भागाः पढेव, ततो बवादिक्रमेण चतुष्प्राहरिककरणभावेन चतुर्ध्या दिवसे तद्वणिजं करणं भवति, तदेव रूपाधिकं रात्राविति रात्रौ विष्टिः । कृष्णपक्षे द्वे रूपे न पायेते, एवं Education intemational For Fast Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२००] (४३) .. * प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. सर्वत्थ भावणा कायवा, भणियं च-"किण्हनिसितईयदसमी सत्तमि चाउद्दसीसु अह विट्ठी । सुक्कचउत्थिक्कारसि- असंस्कृता. बृहदृत्तिः णिसि अट्ठमी पुषिणमा य दिवा ॥१॥" लौकिका अप्याहुः-"कृतरा सदिया दर भूतदिवा, शुचराष्टदिवैकरपूर्ण दिवा । यदि चन्द्रगतिश्च तिथिश्च समा, इति विष्टिगुणं प्रवदन्ति बुधाः ॥२॥" "सुद्धस्स पडियद निसि पंचमि-IXI ॥२०॥ दिणि अट्ठमीऍ राई तु । दिवसस्स बारसी पुषिणमाय रत्तिं बवं होति ॥ १ ॥ बहुलस्स चउत्थीए दिवा य तह सत्तमीऍ रतिपि । एकारसीए दिबसे बकरणं होइ नायचं ॥२॥" इति सम्प्रदायार्थः ॥ प्रागुद्दिष्ट | | भावकरणमाहदभावकरणं तु दुविहं जीवाजीवेसु होइ नायवं । तत्थ उ अजीवकरणं तं पंचविहं तु नायचं ॥ २०१॥ - व्याख्या-भावा-पर्यायः तस्य करणं भावकरणं, तत्पुनः तुशब्दस्य पुनरर्थत्वात् 'द्विविध' द्विभेदं, कथमित्याह १ सर्वत्र भावना कर्त्तव्या, भणितं च (वाणिज) कृष्णनिशि तृतीयादशमीसप्तमीचतुर्दशीष्वय विष्टिः । शुकचतुर्येकादशीराग्योः अष्ट| मीपूर्णिमयोर्दिवा ॥१॥२ किति कृष्णपक्षे त्रिति तृतीयातियौ रेति रात्री सेति सप्तम्यां दिवेति दिवसे देति दशम्या रेति रात्रौ भूतेति चतुर्दश्यां दिवेति दिवसे श्विति शुक्लपक्षे चेति चतुर्ध्या रेति रात्रौ अष्टेत्यष्टम्यां दिवेति दिवसे एकेति एकादश्यां रेति रात्रौ पूर्णेति पूर्णिमायां है दिवा । ३ शुद्धस्य प्रतिपदि निशि पञ्चमीदिने अष्टम्यां रात्रौ तु । दिवसे द्वादश्याः पूर्णिमाया रात्रौ बयं भवति ॥१॥ कृष्णस्य चतुर्ध्या || दिवा च तथा सप्तम्या रात्रावपि । एकादश्या दिवसे ववकरणं भवति ज्ञातव्यम् ।। CACA *** * दीप अनुक्रम [११६] * : *** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| दजीवाजीवेषु भवति 'ज्ञातव्यम्' अवबोद्धव्यं, किमुक्तं भवति ?-जीवविषयमजीवविषयं च, तत्राल्पवक्तव्यत्वाद जीवभावकरणमेवादावुपदर्शयति-तत्थ जमजीवकरण ति तत्र-तयोयोर्मध्ये यदजीवकरणं तत् 'पञ्चविधं तु' पञ्च-| प्रकारमेव 'ज्ञातव्यम्' अबसेयमिति गाथार्थः ॥ २०१॥ एतदेव स्पष्टयितुमाह वण्णरसगंधफासे संठाणे चेव होइ नायव्वं । पंचविहं पंचविहं दुविहष्टविहं च पंचविहं ॥ २०२॥ व्याख्या-वर्णरसगन्धस्पर्श संस्थाने चैव, उभयत्र विषयसप्तमी, सतो वर्णादिविषयं भवति ज्ञातव्यम् , अजीवकरणमिति प्रक्रमः, तत्र वर्णः पञ्चविधः-कृष्णादिः, रसः पञ्चविधस्तिक्तादिः, गन्धो द्विभेदः-मुरभिरितरश्च, स्पर्शोऽष्टविधा-कर्कशादिः, संस्थानं पञ्चविध-परिमण्डलादि, एतद्भेदात्करणमप्येतद्विषयमेतावद्भेदमेव, अत एवाह-'पञ्च-M विध मित्यादि, ननु द्रव्यकरणात्कोऽस्य विशेषः १, उच्यते, इह पर्यायापेक्षया तथाभवनमभिप्रेतं, द्रव्यकरणे तु द्रव्यस्यैव तथा तथोत्पादो द्रव्यास्तिकमतापेक्षयेति विशेषः, उक्तं च-"अपरप्पओगज (ओ) जं अजीवरूवादि। पजयावत्थं । तमजीवभावकरणं तप्पज्जाअप्पणावेखं ॥ १ ॥ को दधविस्ससाकरणाउ बिसेसो इमस्स ? नन १ अपरप्रयोगजं (तो) यदजीवरूपादि पर्यायावस्थम् । तदजीवभावकरणं तत्पर्यायात्मनोऽपेक्षया ॥१॥ को द्रव्यविश्रसाकरणाद्विशेषोऽस्य ?. ननु भणितम् । इह पर्यायापेक्षया द्रव्यार्थिकनयमतं तच ॥ २॥ दीप अनुक्रम [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०३] (४३) असंस्कृता. उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०॥ प्रत सूत्रांक ||१|| भणियं । इह पजयऽवेक्खाए दवट्ठियनयमयं तं च ॥२॥” इति गाथार्थः ॥ २०२ ॥ उक्तमजीवभावकरणं, साम्प्रतं जीवभावकरणमाहजीवकरणं तु दुविहं सुयकरणं चैव नो य सुयकरणं । बद्धमबद्धं च सुअंनिसीहमनिसीहबद्धं तु ॥२०३॥ व्याख्या-जीवभावकरणं पुनः, तुशब्दस्य पुनरर्थत्वात् , 'द्विविधं' द्विप्रकारं, श्रुतस्य करणं श्रुतकरणं, भावकरणत्वं चास्य श्रुतस्य क्षायोपशमिकभावान्तर्गतत्वात् , चैवेति पूरणे, 'णो य सुयकरण ति चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धत्वात् नोश्रुतकरणं च । तत्राद्यमभिधित्सुराह-'बद्धं' प्रथितम् 'अबद्धं च एतद्विपरीतं श्रुते' श्रुतविषयं, करणमिति प्रक्रमः, तत्र च 'णिसीहमणिसीहबद्धं तु'त्ति बद्धं द्विविध-निशीथमनिशीथं च, तुशब्दबानयोरबद्धस्य च लौकिकलोकोत्तरभेदसूचकः, ततश्च निसीथं रहसि यत्पठ्यते व्याख्यायते या, तच लोकोत्तरं निशीधादि लौकिकं| बृहदारण्यकादि, अनिशीथमेतद्विपरीतं, तच लोकोत्तरमाचारादि लौकिकं पुराणादि, अबद्धमपि लौकिकलोको|त्तरभेदेन द्विभेदमेव, तत्र लोकोत्तरं यथैका मरुदेव्यत्यन्तस्थावरा सिद्धा खयम्भरमणे मत्स्यपद्मयोर्यलयवानि सर्वे|संस्थानानि सन्ति, विष्णुकुमारमहर्योजनलक्षप्रमाणशरीरविकरणं कुरुडविकरुडी कुणालायां स्थितावतिवृष्टया च तन्नाशः तयोधाशुभानुभावात्सप्तमनरकपृथिवीगमनं कुणालानाशाच भगवतो वीरस्य प्रयोदश्यां समायां केवलज्ञानोत्पत्तिरित्यादि अनेकप्रकारमाचार्यपरम्परायातं, लौकिकं त्वबद्धं द्वात्रिंशहडिकाः षोडश करणानि पश्च स्थानानि, दीप अनुक्रम [११६] ॥२०४।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| तद्यथा-आलीढं प्रत्यालीढं वैशाखं मण्डलं समपदं च, तत्रालीढं दक्षिणं पादमग्रतः कृत्वा वामपादं पृष्ठतः सारयति, अन्तरं द्वयोरपि पादयोः पञ्च पदानि, एतद्विपरीतं तु प्रत्यालीढं, वैशाखं पुनः पाणी अभ्यन्तरतः कृत्वा सम श्रेण्या व्यवस्थापयति, अग्रिमतलौ बहिर्भूतौ कायौं, मण्डलं द्वावपि पादौ दक्षिणवामतोऽवसायं ऊरू आकुञ्चति, दियथा मण्डलं भवति, अन्तरं चत्वारि पादानि, समपदं पुनः स्थान द्वावपि पादौ समौ नैरन्तर्येण स्थापयति. एतानि पञ्च स्थानान्यवद्धानि, शयनकरणं च षष्टमिति गाथाक्षरार्थः ॥ २०३ ॥ उक्तं श्रुतकरणमधुना नोश्रुतकरणमाह नोसुयकरणं दुविहं गुणकरणं तह य झुंजणाकरणं । गुण तवसंजमजोगा जुंजण मणवायकाए य २०४ FI ब्याख्या-इह च नोशब्दस्य सर्वनिषेधाभिधायित्वात् श्रुतकरणं यन्न भवति तन्नोश्रुतकरणं, तच द्वेधा-गण-12 करणं 'तथा च' तेनैव नोश्रुतत्वलक्षणेन प्रकारेण योजनाकरणं च, एतत्खरूपमाह-'गुण'त्ति प्रक्रमाद् गुणकरणं, किमित्याह-तपश्च संयमश्च तपःसंयमी तयोरात्मगुणयोर्योगाः-तत्करणरूपा व्यापारास्तपःसंयमयोगाः, किमुक्त भवति ?-तपःकरणम्-अनशनादि संयमकरणं च-पञ्चाश्रवविरमणादि गुणकरणमुच्यते, गुणत्वं च तपःसंयमयोः कम्मनिर्जराहेतुत्वेनात्मोपकारित्वात् , 'झुंजण'त्ति योजनाकरणं 'मणबयणकाए यति चशब्दोऽवधारणे, विषयसप्तमी चेयं, ततो मनोवाकायविषयमेय, तत्र मनोविषयं सत्यमनोयोजनाकरणादि चतुर्धा, वाग्विषयमपि सत्यवाग्योजनाकरणादि चतुर्धेष, कायविषयं त्वौदारिककाययोजनाकरणादि सप्तधा, ततश्च द्वाभ्यां चतुष्काभ्यां सप्तकेन च मीलि K%2454645* दीप अनुक्रम [११६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १॥ अध्ययनं [४], निर्युक्ति: [२०५] | तेन पञ्चदशविधं योजनाकरणं, योजयति तत्पञ्चदशविधमपि कर्म्मणा सहात्मानमिति, आह च- "भणवयणकायकिरिया पन्नरसविद्दा उ जुंजणाकरण" मिति गाथार्थः ॥ २०४ ॥ येन करणेनात्र प्रकृतं तदाहकम्मगसरीरकरणं आउअकरणं असंख्यं तं तु । तेणऽहिगारो तम्हा उ अप्पमाओ चरितंमि ॥२०५॥ व्याख्या- 'कर्मकशरीरकरणं' कार्मणदेहनिर्वर्त्तनं, तदपि ज्ञानावरणादिभेदतोऽनेकविधमिलाह- 'आयुः करणम्' इति आयुषः पञ्चमकर्म्मप्रकृत्यात्मकस्य करणं- निर्वर्त्तनमायुःकरणं, तत्किमित्याह- 'असंखयं तं तु'ति तत्पुनरायुःकरणमसंस्कृतं -नोत्तरकरणेन त्रुटितमपि पटादिवत्सन्धातुं शक्यं यतः - "फुट्टाँ तुट्टा व इहं पडमादी संघयंति णयणिउणा । सा कावि णत्थि पीई संधिज्जइ जीवियं जीए ॥ १॥" एवं च 'स्वरूपतो हेतुतो विषयतश्च व्याख्ये ति | खरूपतो हेतुतश्च 'उत्तरकरणेण कयमित्यादिना प्रन्थेन व्याख्यातम् अनेन त्वायुष्ककरणस्यासंस्कृतत्वोपदर्शनेन विषयतः, इदानीं तूपसंहारमाह- 'तेणऽहिगारो' ति 'तेने 'त्यायुः कर्मणाऽसंस्कृतेनाधिकारः, 'तम्हा उ'ति तस्मात् तुशब्दोऽवधारणार्थः, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, ततोऽयमर्थः - यस्मादसंस्कृतमायुः कर्म तस्मात् 'अप्रमाद एव' प्रमादाभाव एव, 'चरित्र' इति चरित्रविषयः कर्त्तव्य इति गाथार्थः ॥ २०७ ॥ एवं च व्याख्यातं संस्कृतम्, १ मनोवचनकायक्रिया पथादशविधं तु योजनाकरणम् । २ स्फुटिताम्बुटिता वा इह पटादयः संदधति नयनिपुणाः । सा काथि - नास्ति नीतिः संधीयते जीवितं यया ॥ १ ॥ Education intimational For Fans Only असंस्कृता. ~410~ ४ ॥२०५॥ www.pincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२०५] (४३) *** प्रत सूत्रांक ||२|| एतद्विपरीतं चासंस्कृतमिति । सम्प्रति सूत्रमनुश्रियते-तत्र चासंस्कृतं जीवितमिति जरोपनीतस्य न त्राणमिति च | मा प्रमादीरित्युक्तेऽर्थस्थापि पुरुषार्थतया सकलैहिकामुष्मिकफलनिबन्धनतया च तदुपार्जनं प्रत्यप्रमादो विधेय इति केषाश्चित्कदाशयः, यत आह-"धनैर्दुष्कुलीनाः कुलीनाः क्रियन्ते, धनैरेव पापात्पुनर्निस्तरन्ति । धनिभ्यो विशिष्टो न लोकेऽस्ति कचिद्धनान्यर्जयध्वं धनान्यर्जयध्वम् ॥१॥” इति, तन्मतमपाकर्तुमाह जे पावकम्मेहि धणं मणुस्सा, समाययंतीअमति गहाय । पहाय ते पास पयहिए नरे, वेराणुबद्धा नरय उवेंति ॥२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'य' इति ये केचनाविवक्षितस्वरूपाः 'पापकर्मभिः' इति पापोपादानहेतुभिरनुष्ठानैः 'धन' द्रव्यं 'मनुष्याः' मनुजाः, तेषामेव प्रायस्तदर्थोपायप्रवर्तनादित्यमुक्तं, 'समाददते' स्वीकुर्वन्ति, 'अमतिम्' इति प्राग्वन्ननः कुत्सायामपि दर्शनात् कुमतिम्-उक्तरूपा गहायत्ति गृहीत्वा सम्प्रधार्य, पठ्यते च-'अमयं गहाये'ति अशोभनं | मतममतं-नास्तिकादिदर्शनम्, अथवा अमृतमिवामृतम्-आत्मनि परमानन्दोत्पादकतया तच प्रक्रमाद्धनं पहाय'त्ति १ दन्यसकारवान् स्यात् , स्याद्वा संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति न्यायमाभित्य नामिसंज्ञोद्देशेन गुणविधानात् गुणाभावान आत्मनेपदे | |एवं, धातुर्वा पिपायावात्मनेपदी कस्यचिन्मते स्यात् तुदादौ वा, कर्मणि प्रयोगातु न तत्कल्पनं । * दीप अनुक्रम [११७] * * Mangionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 411~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [११७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥ २०६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [२०५] प्रकर्षेण तन्मध्यादल्पस्याप्यग्रहणात्मकेन हित्वा -- त्यक्त्वा 'तानि ति धनैकरसिकान् 'पश्य' अवलोकय, विनेयमेवाह, 'पर्यट्टिएत्ति आर्यत्वात् स्वत एवाशुभानुभावतः प्रवृत्तान् प्रवर्त्तितान्या, प्रक्रमात्पापकर्मोपार्जितधनेनैव, मृत्युमुखमिति गम्यते, 'नरान्' पुरुषान्, पुनरुपादानमादरख्यापकमेकान्तक्षणिकपक्षनिरासार्थं वा, एकान्तक्षणिकपक्षे हि न येरेव धनमुपार्जितं तेषामेव प्रवर्त्तनं, तथा च बन्धमोक्षाभावश्चेति भावः, एतच पश्य वैरं कर्म्म 'बेरे' बजे य कम्मे य' इति वचनात् तेन अनुबद्धाः सततमनुगताः 'नरक' रत्नप्रभादिकं नारकनिवासम् 'उपयान्ति' तद्भवभावितया सामीप्येन गच्छन्ति, त एव मृत्युमुखप्रवृत्ता इति प्रक्रमः, यदि वा पाशा इव पाशाः - ख्यादयस्तेषु प्रवृत्तास्तैर्वा प्रवर्त्तिताः पाशप्रवृत्ताः पाशप्रवर्त्तिता वा नरकमुपयान्तीति सम्बन्धः, ते हि द्रव्यमुपाये ख्यादिष्वभिरमन्ते, तदभिरत्या च नरकगतिभाज एव भवन्तीति भावः, शेषं प्राग्वत् । तदनेन सूत्रेण धनमिहैव मृत्युहेतुतया परत्र च नरकप्रापकत्वेन तत्त्वतः पुरुषार्थ एव न भवतीति तत्यागतो धम्मै प्रति मा प्रमादीरित्युक्तं भवति, नरकप्राप्तिलक्षणश्चापायो न प्रत्यक्षेणावगम्येते (म्यत इती) हैव मृत्युलक्षणापायदर्शनमुदाहरणं, तत्र च वृद्धसम्प्रदायः - ऐगंमि नयरे एगो चोरो, सो रर्त्ति विभवसंपण्णेसु घरेसु खत्तं खणिउं सुबहुं दचिणजायं घेतुं अप्पणो घरेगदेसे कूबं सयमेव खणित्ता १ वैरं वज्रे च कर्मणि च । २ एकस्मिन्नगरे एकधारः, स रात्रौ विभवसंपन्नेषु गृहेषु क्षत्रं खनित्वा सुबहु द्रव्यजातं गृहीत्वाऽऽत्मनो गृहैकदेशे कूपं स्वयमेव खनित्वा Education intemational For Fans Only असंस्कृता. ~ 412~ ४ ॥२०३॥ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२०५] (४३) प्रत सूत्रांक *ASESASUR 9-50-14-% ||२|| तत्थं दविणजायं पक्खिवइ, जहिच्छियं च सुकं दाऊण कण्णगं विवाहेउं पसूयं संति रतिं उद्दवेत्ता तत्थेवागडे पक्खिवह, मा मे भजा चेडरूवाणि य परूढपणयाणि होऊण रयणाणि परस्स पयासेस्संति, एवं कालो वञ्चति ।। अण्णया तेणेगा कण्णया विवाहिया अतीव रूवस्सिणी, सा पसूया संता तेण ण मारिया, दारगो य, सो अट्ठपरिसो जाओ, तेण चिंतियं-अइचिरं कालं विधारिया, एयं पुवं उद्दघेउं पच्छा दारयं उद्दविस्संति, तेण सा उद्दवेउ अगडे पक्खित्ता, तेण य दारगेण गिहाओ निग्गच्छिऊण धाधाकया, लोगो मिलिओ, तेण भण्णइ-एएण मम माया मारियत्ति, रायपुरिसेहिं सुयं, तेहिं गहितो, दिट्ठो कूवो दवभरितो, अट्ठाणि य सुबहूणि, सो बंधिऊण रायसमें समुवणीतो जायणापगारेदि, सवं दवं दवावेऊण कुमारेण मारितो॥ एवमन्येऽपि धनं प्रधानमिति तदर्थ १ नत्र द्रव्यजातं प्रक्षिपति, यथेप्सितं च शुल्क दत्त्वा कन्यका विवाद्य प्रसूता सन्तीमपद्राव्य रात्री तवैवावटे प्रक्षिपति, मा मम भार्या४ श्रेटरूपाणि च प्ररूढप्रणयानि भूत्वा रत्नानि परम्मै प्राचीकशनिति, एवं कालो ब्रजति । अन्यदा तेनैका कन्यका विवोढा अतीव रूपवती, सा। प्रसूता सन्ती तेन न मारिता, दारकच, सोऽश्वर्यों जाता, तेन चिन्तितम्-अतिचिरं कालं विधता, एनां पूर्वमपद्राव्य पश्चाद्दारकमपद्रोण्यामीति, तेन साउपद्राब्याक्टे प्रक्षिप्ता, तेन च दारकेण गृहात् निर्गत्य हाहारवः (कृतः), लोको मिलितः, तेन भण्यते-एतेन मम माता मारितेति, | राजपुरुषैः श्रुतं, तैर्गृहीतः, दृष्टः कूपो द्रव्यभृतः, अर्थाश्व सुबहवः, स बढ़ा राजसभा समुपनीतो थातभाप्रकारैः, सर्व द्रव्यं दापयित्वा कुमारेण मारितः % दीप अनुक्रम [११७] * * * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [११८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||३|| निर्युक्तिः [२०५] | प्रवर्त्तमानास्तदपहा ये हैवानर्थावापलितो नरकमुपयन्तीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ इदानीं कर्मणामवन्ध्यतामभिदधत् | प्रकृतमेवार्थ द्रडयितुमाह तेणे जहा संधिमुहं गहीए, सकम्मुणा किच्च पावकारी। एवं पया पिच्छ इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि ॥३॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'स्तेनः ' चौरः यथेति दृष्टान्तोपदर्शने सन्धिः क्षत्रं तस्य मुखमिव मुखं द्वारं तस्मिन् 'गृहीतः' आत्तः 'स्वकर्मणा' आत्मीयानुष्ठानेन, किम् ? - ' कृत्यते' छिद्यते, 'पापकारी' पातकनिमित्तानुष्ठानसेवी, कथं पुनरसौ कृत्यत इति चेद्-अत्रोच्यते सम्प्रदायः एमि नयरे एगो चोरो, तेण अभिज्जतो घरगस्स फलगचियस्स पागारकविसीसगसंनिहं खत्तं खणियं खत्ताणि अणेगागाराणि - कलसागिई नंदावत्तसंठियं पउमागिदं पुरिसागि च, सो य तं कविसीसगसंठियं खत्तं खणंतो घरसामिए णिवेईओ, ततो तेण अद्धपविट्ठो पाएसु गहितो, मा पविट्ठो संतो पहरणेण पहरिस्सतित्ति, पच्छा १ एकस्मिन्नगरे एकऔर:, तेनाभेयस्य गृहस्य चितफलकस्य प्राकारकपिशीर्षकसंनिभं क्षत्रं खातं, क्षत्राण्यनेकाकाराणि - कलशाकृति नन्दावर्तसंस्थितं पद्माकृति पुरुषाकृति च स च तत् कपिशीर्षकसंस्थितं क्षत्रं खनन् गृहस्वामिना निवित्तः, ततस्तेनार्धप्रविष्टः पादयोर्गृहीतः, मा प्रविष्टः सन् प्रहरणेन प्रहार्षीदिति, पश्चा Education intemational For First Use Only असंस्कृता. ~414~ ॥२०७॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [२०५] (४३) प्रत सूत्रांक 5 ||३|| चोरणवि बाहिरत्येण हत्थे गहिओ, सो तेहिं दोहिषि बलवंतेहिं उभयहा कहिजमाणो सयंकियपागारकविसीसगेहिं फालिजमाणो अत्ताणो विलवित्ति ॥ एवममुनवोदाहरणदर्शितन्यायेन 'प्रजाः' हे प्राणिनः ! 'पेच्छत्ति प्रेक्षध्वं, प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययः, एतच्च यत्रापि नोच्यते तत्रापि भावनीयम् , 'इह' अस्मिन् 'लोके' जन्मनि, आस्तां परलोक इत्यपिशब्दार्थः, 'कृतानां' खयंविरचितानां 'कर्मणां' ज्ञानावरणादीनां न मोक्ष' न मुक्तिः, ईश्वरादेरपि तद्विमोचनं प्रत्यसामर्थ्याद् , अन्यथा सकलसुखित्वाद्यापचेः, इदमुक्तं भवति-यथाऽसावर्थग्रहणवाञ्छया प्रवृत्तः खकृतेनेव क्षत्रखननात्मकोपायेन कृत्यते, न तस्य खकृतकर्मणो विमुक्तिः, एवमन्यस्यापि तत्तदनुष्ठानतोऽशुभकारिणो| न ततो विमुक्तिः, किन्तु तदिहापि विपच्यत एवेति, पठ्यते च-'एवं पया पेच इहं चत्ति, इहापि कृत्यत इति सम्बध्यते, कृत्यत इव कृत्यते तथाविधवाधानुभवनेन, काऽसौ ?-प्रजा, क-'प्रेत्य' परभये, 'इहं चेति इहलोके, किमिति प्रेत्येत्युच्यते-यावता इह कृतमिहेवापगतमत आह-यत् 'कृतानां कर्मणां मोक्षो नास्ति ॥ (ग्रन्थानम् है ५०००) इह परत्र वा वेद्यमेवावश्यं कर्मति, अहवा एवं पया पेच इहंपि लोए, ण कम्मुणो पीहति तो कयातील एवं प्रजा! आमन्त्रणपदमेतत् , प्रेत्येह लोके च यतःप्राणिनः कृत्यन्ते 'ता' इति ततो हेतोः 'कदाचित् ' कस्मिं। १० चौरेणापि बायस्थेन हस्ते गृहीतः,स ताभ्यां द्वाभ्यामपि बलवयामुभयतः कृष्यमाणः स्वयंकृतप्राकारकपिशीर्षकैः पाट्यमानोऽत्राणो |विलपतीति । 25 दीप अनुक्रम [११८] %% %%% wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [२०५] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०॥ प्रत सूत्रांक ||३|| |श्चित्काले 'नेति निषेधे 'कम्मुणो'त्ति कर्मणे प्रस्तावात् कुत्सितानुष्ठानाय स्पृहयेत्-नाभिलायमपि कुर्याद् आस्तां असंस्कृता. तत्करणमित्याकूतं, तदभिलषणस्यापि बहुदोषत्वात , तथा च वृद्धाः एगमि नयरे एगेण चोरेण रतिं दुरवगाढे पासाए आरोढुं विमग्गेण खत्तं कयं, सुपडं च दबजायं णीणिय, णियघरं चऽणेण संपावियं । पहायाए रयणीए ण्हाय समालद्ध सुद्धं वासो तत्थ गतो, को किं भासतित्ति जाणणत्यं, जइ तावज लोगो में ण याणिस्सइ ता पुणोवि पुषटिइए चोरिस्सामीत्ति संपहारिऊण तंमि य खत्तट्ठाणे गओ, तत्थ य लोगो बहू मिलितो संलवति-कहं दरारोहे पासाए आरोढुं विमग्गेण खत्तं कयं कहं च खुहलएणं| खत्तदुवारेणं पविट्ठो?, पुणो य सह दचेण णिग्गओत्ति । सो सुणेउं हरिसितो चिंतेइ-सञ्चमेयं, किहऽहं एएण निग्गतोत्ति 1, अप्पणो उदरं च कडिं च पलोएउं खत्तमुहं पलोएति । सो य रायनिउत्तेहिं पुरिसेहिं कुसलेहिं जाणितो, | १ एकस्मिन् नगरे एकेन चौरेण रात्री दुरबगाई प्रासादभारुह्य विमार्गेण क्षत्रं कृतं, सुबहु च द्वन्यजातं नीतं, निजगृहं चानेन संप्राहै पितं । प्रभातायां रजन्यां स्नात्वा समालभ्य शुद्ध वासस्तत्र गतः, कः किं भाषत इति मानार्थ, यदि तावदद्य लोको मां न ज्ञास्यति तदा पुनरपि पूर्वस्थित्या चोरविण्यामीति संप्रधार्य तस्मिंश्च क्षत्रस्थाने गतः, तत्र च बहुर्लोको मिलितः संलपति-कथं दुरारोहं प्रासाघमारुह्य | विमार्गेण क्षत्रं कृतं १, कथं च क्षुलकेन क्षत्रद्वारेण प्रविष्टः १, पुनश्च सह द्रव्येण निर्गत इति । स श्रुत्वा इष्टचिन्तयति-सत्यमेतत्, कथम-| हमेतेन निर्गत इति ?, आरमन पदर च कटी च प्रलोक्य अत्रमुखं प्रलोकयति । स च राजनियुक्तः पुरुषैः कुशलैतिः , दीप अनुक्रम [११८] X ROONI मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [२०५] (४३) प्रत सूत्रांक ||३|| शारायणो उवणीतो सासितोय ॥ एवं पापकर्मणामभिलषणमपि सदोषमिति न विदधीतेति सूत्रार्थः ॥ ३॥ इह तानां कर्मणामवन्ध्यत्वमुक्तं, तत्र च कदाचित् खजनत एव तन्मुक्तिर्भविष्यति, अमुक्ती वा विभज्यैवामी धनादिवद् भोक्ष्यन्त इति कश्चिन्मन्येत अत आह संसारमावन्न परस्स अट्रा, साहारणं जं च करेति कम्म। कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उति ॥४॥(सूत्रम्) ब्याख्या-पाठान्तरेऽपि पापकर्मस्पृहणं सदोषमिति निषिद्धं, ततस्तत्रापि स्यादेतत्-यथेह सर्व साधारणं तथाऽमुष्मिन्नपि भविष्यत्यत आह-'संसार'सूत्रं, संसरणं-संसारः-तेषु तेपूचावचेषु पर्यटनं तम् आपन्न:-प्रासः, 'परस्य' आत्मव्यतिरिक्तस्य पुत्रकलत्रादेः, 'अर्थात्' इति अर्थ-प्रयोजनमाश्रित्य 'साधारण जं च'त्ति चस्य वाशब्दाथत्वाद् भिन्नक्रमत्वाच साधारणं वा यदात्मनोऽन्येषां चैतद् भविष्यतीत्यभिसन्धिपूर्वकं करोति' निर्वर्त्तयति भवान् , कर्महेतुत्वात् कर्म क्रियत इति वा कर्म-कृष्यादिकर्म तस्मैव कृष्यादेः 'ते' तव हे कृष्यादिकर्मकर्तः । Wil'तस्य' परार्थस्य साधारणस्य वा, तशब्दोऽपिशब्दार्थः, आस्तामात्मनिमित्तं कृतस्पेत्यभिप्रायः, 'वेदनं' वेदो विपाकः | १ राज्ञ उपनीतः शिक्षा प्रापितश्च । २.XX दीप अनुक्रम [११८] Planatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११९] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥ २०९॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| निर्युक्तिः [२०५] तत्तत्कर्मफलानुभवनं तत्काले 'न' इति निषेधे, अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नैव 'बान्धवाः' खजनाः, यदर्थे तत्कर्म्म कृतवान् करोषि वा ते 'Tarai' बन्धुभावं तद्विभजनापनयनादिना 'उवेंति' चि उपयन्तीति, यतश्चैवमतस्तदुपरि प्रेमादिप्रमादपरिहारतो धर्म एवावहितेन भाव्यं तथाविधाभीरव्यंसकवणिग्वत् । तथा च वृद्धा: एगंमि नयरे एगो वाणियगो अंतरावणेसुं ववहरइ, एगा आभीरी उज्जुगा दोरूवर घेतूण कप्पासनिमित्तमुत्रद्विया, कप्पासो य तथा समग्धो वहति, तेण वाणियएण एगस्स रूवस्स दो बारा तोलेडं कप्पासो दिन्नो, सा जाणइ - दोहवि रूवगाण दिनोत्ति, सा पोट्टलयं बंधिऊण गया, पच्छा वाणियतो चिंतेति-एस रुषगो मुहा लद्धो, ततो अहं एवं उपभुंजामि, तेण तस्स रूवगस्स समियं घयं गुलो विकिणिउं घरे विसज्जिउं भज्जा संलत्ता- घयपुण्णे १ एकस्मिन्नगरे एको वणिगू अन्तैरापर्णेषु (आपणान्तरेषु ) व्यवहरति, एका आभीरी ऋजुका द्वौ रूप्यकौ गृहीत्वा कर्पासनिमित्तमुपस्थिता, कर्पासच तदा समयों वर्त्तते, तेन वणिजा एकस्य रूप्यकस्य द्वौ बारौ तोलयित्वा कर्पासो दत्तः, सा जानाति द्वयोरपि रूप्यकयोर्दत्त इति सा पोट्टलिकां बद्धा गता, पञ्चाद्वणिक चिन्तयति — एष रूप्यको मुधा लब्धः, ततोऽमेनमुपभुञ्जे, तेन वस्त्र रूप्यकस्य युगपत् घृतगुड विक्रीय ( क्रीत्वा ) गृहे विस भार्या संलप्ता घृतपूर्णान् uttaration Fürsten असंस्कृता. ~418~ ४ ॥ २०९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [२०५] (४३) % प्रत % सूत्रांक % ||४|| 4 करेजासित्ति, ताए कया घयपुण्णा, जामाउगो से सवयंसो आगतो, सो ताए परिवेसितो घयपुण्णेहिं, सो भुजिउं गतो, वाणियतो पहाणपयतो भोयणत्थमुवगतो, सो ताए परिवेसितो साभाविएण भत्तेण, भणति-किन कया ४|घयउरा ?, ताए भण्णति-कया, परं जामाउएण सवयंसेण खतिया ?, सो चिंतेति-पेच्छ जारिसं कर्य मया, सा चराई आमीरी पंचेउं परनिमिर्च अप्पा अबुन्नेण संजोईओ, सो य सचिंतो सरीरचिंताए णिग्गतो, गिम्हो य वट्टति, सो मज्झण्हवेलाए कयसरीरचिंतो एगस्स रुक्खस्स हेट्ठा वीसमति, साहू य तेणोगासेण भिक्खणिमित्तं जाति, तेण सो भषणति-भगवं! एत्थं रुक्खच्छायाए विस्सम मया समाणंति, साहुणा भणियं-तुरियं मए णियकज्जेण गंतवं बणिएण भणियं-किं भयवं ! कोऽपि परकजेणावि गच्छद, साहुणा भणियं-जहा तुम चिय भज्जाइनिमित्तं किलि १ कुर्या इति, तया कृता घृतपूर्णाः, जामाता तस्य सवयस्य आगतः, स शया परिवेषितो घृत्तपूर्णैः, स भुक्त्या गतः, वणिक् स्नातप्रयतो भोजनार्थमुपगतः, स तया परिवेषितः स्वाभाविकेन भक्तेन, भणति-किं न कृता घृतपूर्णाः १, तथा भण्यते-कृताः, परं जागात्रा सवयस्येन खादिताः, स चिन्तयति-पश्य यादृशं कृतं मया, सा वराकी आभीरी बञ्चयित्वा परनिमित्तमात्माऽपुण्येन संयोजितः, सच सचिन्तः शरीरचिन्तायै निर्गतो, प्रीष्मश्च वर्तते, स मध्याह्नवेलायां कृतशरीरचिन्त एकस्य वृक्षस्याधस्तात् विशाम्यति, साधुश्च तेनावकाशेन | भिक्षानिमिचं याति, तेन स भण्यते-भगवन्नन्न वृक्षच्छायायां विश्राभ्य मया सममिति, साधुना भणित-स्वरितं मया निजकार्याय गन्तव्यं, वणिजा भणित-कि भगवन् ! कोऽपि परकार्यावापि गच्छति !, साधुना भणित-यथा त्वमेव भार्याविनिमित्तं 8 % दीप अनुक्रम [११९] 4- 59-2- JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [२०५] (४३) उत्तराध्या बृहद्वृत्तिः ॥२१॥ प्रत 44A4 सूत्रांक । ससि, स मर्मणीव स्पृष्टः, तेणेव एक्कवयणेण संबुद्धो भणति-भयवं ! तुम्हे कत्थ अच्छह ?, तेण भण्णइ-उज्जाणे, असंस्कृता. ततो तं साहुं कयपजत्तियं जाणिऊण तस्स सगासं गतो, धम्म सोउं भणति-पवयामि जाव सयणं आपुच्छिऊणं, गतो णिययं घरं, बंधवे भजं च भणइ-जहा आवणे ववहरंतस्स तुच्छो लाभगो, ता दिसावाणिज करेस्सामि, दो य सत्यवाहा, तत्थेगो मुल्लभंडं दाऊण सुहेण इहपुरं पावेह, तत्थ विढते ण किंचि गिण्हति, वीओ न किंचि मुल्लभंड देति, पुवविदत्तं च विलुपेति, तं कयरेण सह वचामि ?, सयणेण भणियं-पढमेण सह वच्चसु, तेहिं सो समणुण्णातो बंधुसहितो गओ उज्जाणं, तेहि भण्णति-कयरो सत्यवाहो ?, तेण भण्णति-णणु परलोगसत्यवाहो एस साहू असोग-1 छायाए उचविट्ठो णियएणं भंडेणं ववहारावेइ, एएण सह निवाणपट्टणं जामित्ति पचइतो ॥ यथा चायं वर्णिक १ किश्यसि, तेनैवैकवचनेन संबुद्धो भणति-भगवन्तो ! यूयं कुत्र तिष्ठय ?, तेन भण्यते-उद्याने, ततसं साधु कृतपर्याप्तिकं हात्वा तस्य सकाशं गतः, धर्म श्रुत्वा भणति-प्रवजामि यावत्स्वजनमापृच्छय, गतो निजं गृहं, बान्धवान् भार्या च भणति-यथा आपणे व्यवहरतस्तुच्छो लाभस्ततो विशावाणिज्यं करिष्यामि, द्वौ च सार्थवाही, तत्रैको मूल्यभाण्डं दत्त्वा सुखेनेष्टपुरं प्रापयति, तत्रोपार्जितान्न किश्चि-|| हाति, द्वितीयो न किचिन्मूल्यभाण्ड वदाति, पूर्वोपार्जितं च विलुम्पति (आच्छिनत्ति), तत्कतरेण सह प्रजामि', खजनेन भणिता-४॥२१०॥ प्रथमेन सह ब्रज, तैः स समनुज्ञातो बन्धुसहितो गत उद्यान, तैर्मण्यते-कतरः सार्थवाहः, तेन भण्यते-ननु परलोकसार्थवाह एष साधुरशोकच्छायायामुपविष्टो निजेन भाण्डेन व्यवहारयति, एतेन सह निर्वाणपत्तनं यामीति प्रश्नजितः। ||४|| दीप अनुक्रम [११९] wwjanorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [११९] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [२०५] | स्वजनस्वतस्त्वमालोचयम् प्रब्रज्यां प्रत्याहतः, तथाऽन्यैरपि विवेकिभिर्यतितव्यं, तथा च वाचक:- "रोगाघ्रातो दुःखा|र्द्दितस्तथा खजनपरिवृतोऽतीव । कणति करुणं सवाप्यं रुजं निहन्तुं न शक्तोऽसौ ॥ १ ॥ माता भ्राता भगिनी भार्या पुत्रस्तथा च मित्राणि । न घ्नन्ति ते यदि रुजं स्वजनवलं किं पृथा बहसि ? ॥ २ ॥ रोगहरणेऽप्यशक्ताः प्रत्युत धर्म्मस्य ते तु विनकराः । मरणाच न रक्षन्ति खजनपराभ्यां किमभ्यधिकम् ? ॥ ३ ॥ तस्मात् स्वजनस्यार्थे | यदिहाकार्यं करोषि निर्लज्ज ! | भोक्तव्यं तस्य फलं परलोकगतेन ते मूढ ! ||४|| तस्मात् स्वजनस्योपरि सङ्ग परिहाय निर्वृतो भूत्वा । धर्मं कुरुष्व यत्नाद्यत्परलोकस्य पश्येदनम् ॥ ५ ॥” इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ इत्थं तावत् स्वकृतकर्म्मभ्यः | खजनान्न मुक्तिरित्युक्तम्, अधुना तु द्रव्यमेव तन्मुक्तये भविष्यतीति कस्यचिदाशयः स्यादत आहवित्ते ताणं न लभे पत्ते, इमंभि लोए अदुवा परत्थ । दीवपणट्टे व अनंतमोहें, नेयाउयं दद्रुमदमेव ॥ ५ ॥ ( सूत्रम् ) व्याख्या – 'वित्तेन' द्रविणेन 'त्राणं स्वकृतकर्मणो रक्षणं 'न लभते' न प्राप्नोति इति कीदृक १-'प्रमत्तः मद्यादिप्रमादवशगः, क १- 'इमंमि त्ति अस्मिन्ननुभूयमानतया प्रत्यक्ष एव 'लोके' जन्मनि, 'अदुवे 'ति अथवा 'परत्रे' ति परभवे, कथं पुनरिहापि जन्मनि न त्राणाय १, अत्रोच्यते वृद्धसम्प्रदायः Jus Education intimatio For Parts Only wr मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| उत्तराध्य. एगो किल राया इंदमहाईए कम्हि ऊसये अत्तपुरे निग्गच्छंते घोसणं घोसावेइ-जहा सधे पुरिसा नयरातो निग्ग-1 असंस्कृता. बृहद्वृत्तिःच्छंतु, तत्थ पुरोहियपुत्तो रायवल्लभो वेसाघरमणुपविटो घोसिएऽवि ण णिग्गतो, सो रायपुरिसेहिं गहितो, तेण वल्लभेण न तेसिं किंचि दाऊण अप्पा विमोइतो, दप्पायमाणो विवदंतो रायसगासमुवणीतो, राइणावि वज्झो आणचो, पच्छा पुरोहिओ उवट्टितो भणति-सवस्सपि य देमि मा मारिजउ, तोऽपि ण मुक्को, मूलाए भिन्नो। एवमन्येऽपि न वित्तेन शरणमिहैव तावदामुवन्ति, आस्तामन्यजन्मनि, तन्मूर्छावतः पुनस्तस्याधिकतरं दोषमाह|'दीवे'त्यादि वृत्ताई, तत्र च दीवमित्येतत्पदं संस्कारमनपेक्ष्येव निक्षेसुमाह नियुक्तिकृत् दुविहो य होइ दीवो दवदीवो अभावदीवो य । इकिकोऽवि अ दुविहो आसासपगासदीवो अ॥२०६॥ I व्याख्या-'द्विविधश्च' द्विभेद एव भवति, दीवेति प्राकृतपदोपात्तोऽर्थो, द्रव्यभावभेदात् , तथा चाह-दबदीवो य भावदीयो यत्ति, पुनरयमेकैकोऽपि द्विविधः, द्वैविध्यमेवाह-'आसास त्ति आश्वासयति अत्यन्तमाकुलितानपि १ एकः किल राजा इन्द्रमहादौ कस्मिंश्चिदुत्सवे स्वकीयपुरे निर्गच्छति घोषणां घोषयति-यथा सर्वे पुरुषा नगरान्निर्गच्छन्तु, तत्र पुरोहितपुत्रो राजवल्लभो वेश्यागृहमनुप्रविष्टो घोषितेऽपि न निर्गतः, स राजपुरुपैगृहीतः, तेन वल्लभेन तेभ्यः किञ्चिदत्त्वाऽऽत्मा न विमोचित्तः, दीयमाणो विवपन राजसकाशमुपनीतः, राज्ञाऽपि वध्य आज्ञप्तः, पश्चात्पुरोहित उपस्थितो भगति-सर्वस्वमपि च ददामि मा। | मीमरः, तदापि न मुक्तः, शूलायां भिन्नः । दीप अनुक्रम [१२०] -koki-in - el-k JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [२०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| जनान् स्वस्थीकरोतीत्याश्वासः, स एव दीवत्तिपदसम्बन्धात् प्राकृतस्य शतमुखत्वादावासद्वीप इति भवति, तथा दप्रकाशयति-घनतिमिरपटलावगुण्ठितमपि घटादि प्रकटयतीति प्रकाशः, सर्वधातूनां पचादिषु दर्शनात् , स चासो दीप्यत इति दीपश्च प्रकाशदीपः, स च भवति दीवत्तिपदयाच्य इति गाथार्थः ॥ २०६ ॥ पुनरनयोरपि भेदमाहसंदीणमसंदीणो संधिअमस्संधिए अ बोद्धव्वे । आसासपगासे अ भावे दुविहो पुणिक्विको ॥ २०७॥ | व्याख्या-संदीयते-जलप्लावनात् क्षयमामोतीति सन्दीनः, तदितरस्त्वसन्दीनः, तथा 'संजोगिमे यति संयोगिमः, यस्तैलवयैनिसंयोगेन निर्वृत्तः, असंयोगिमश्च तद्विपरीत आदित्यविम्बादिः,सोक एव प्रकाशक इति 'ज्ञात-13 व्यः' अवबोद्धव्यः, पठ्यते च-सन्धियमस्सन्धिए य योद्धचे' इहापि सन्धितः' संयोजितः, तद्विपरीतस्तु 'असन्धितः असंयोजितः, 'आसासपगासे य'त्ति आश्वासद्वीपः प्रकाशदीपश्च, यथाक्रमं चेह सम्बन्धः, तत्रावासद्वीपः सन्दीनासन्दीनः, प्रकाशदीपथ संयोगिमासंयोगिम इति, अयं च द्रव्यत एवेति व्यामोहापनयनायाह-'भावेऽपि' भाववि-13 पयोऽपि, 'दुविह'त्ति द्विधा, 'पुन'रिति प्रथमभेदापेक्षम् , एकैकः' इत्याश्वासद्वीपः प्रकाशदीपश्च, इदमुक्तं भवति१ वयिमखचिमादयः ( उ० ३५०) इति सूत्रादिमो न्यकादेरण्याकृतिगणवाद्गवं च । २ संधानं संधा सा जाताऽस्येवि संधितः । दीप अनुक्रम [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| 2-%% अध्य. यथा द्रग्यतोऽपारनीरधिविमझानां कदा कदैतदन्तः स्थात् इत्याकुलितचेतसामाश्वासनहेतुराश्चासद्वीपा, एवं संसा-असंस्कृता रसागरमपारमुत्तरीतुमनसामत्यन्त मुझेजिताना मव्यानामाश्वासनहेतुः सम्यग्दर्शनं भायाश्वासद्वीपः, तत्र हि द्रव्यद्वीप, बृहद्वात्तापदइव वीचिभिः कुवादिभिरमी नोधन्ते नापि मकरादिभिरिवानन्तानुवन्धिभिः क्रोधादिभिरतिरौद्रैरप्युपबूयन्ते, यथा ॥२१२॥ च तव्याश्वासद्वीपः प्लाव्यमानतयैकः सम्दीनः तथाऽयमपि भावावासद्वीपः सम्यग्दर्शनात्मकः कश्चित् क्षायोपश |मिक औपशमिको वा पुनरनन्तानुबन्ध्युदये मिथ्यात्वोदयेन जलोत्पीलेनेव प्लाव्यते, ततस्तनिवन्धनैर्जलचरैरिवाने६. कद्वन्द्वैरुपताप्यत इति सन्दीन उच्यते, यस्तु क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणो न जलोत्पीलेनेव मिथ्यात्वोदयेनाक्रम्यते अतर एव च न ततस्थल निबन्धनापायैः कथञ्चिधुज्यते असावसन्दीनो भाषद्वीपः, तथा यथैव तमसाउन्धीकृतानामपि । प्रकाशदीपः तत्प्रकाश्यं वस्तु प्रकाशयति एवमज्ञानमोहितानां ज्ञानमपीति भावप्रकाशदीप उच्यते, अयमप्येक संयोगिमोऽन्यश्चान्यधा, तत्र यः श्रुतज्ञानात्मको भावदीपः अक्षरपदपादश्लोकादिसंहतिनिवर्तितः स संयोगिमः, यस्त्वन्धनिरपेक्षी निरपेक्षतया च न संयोगिमः स केवलज्ञानात्मकोऽसंयोगिमो भावदीप इति गाथार्थः ॥ २०७॥ .. ॥२१२॥ व्याख्यातं सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या दीवत्ति सूत्रपदम् , अत्रच प्रकाशदीपेनाधिकृतं, ततश्च 'दीवप्पण? वति' प्रकसण मष्टो-रष्टयगोचरतां गतः प्रणष्टी दीपोऽस्येति प्राकृतत्वारपणष्टदीपः, आहिताच्यादेराकृतिगणत्वाद्वा दीपप्रणष्टः तदिति दृष्टान्ता, मत्र सम्प्रदाय: दीप अनुक्रम [१२०] %% 25 wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [२०७] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| जहाँ केर धातुवाश्या सदीवगामगि इधर्ण च गहाय विलमणुपपिहा, सौ तेर्सि पमाएण दीयो अम्गीवि विज्झासो, ततो ते पिज्ज्ञायदीपग्गीया गुहातममोहिया इतो ततो सधतो परिभमंति, परिममंता अपडियारमहाविसेहिं सपेहि उमा दुरुत्तरे अहे नियडिया, तत्व णिहणमुवगया ॥ एवं अनन्तः-अपर्यवसितः, तद्भवापेक्षया |प्रायस्तस्यानपगमात् , मुखते पेनासी मोहो-ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयात्मकः, ततवानन्तो मोहोऽस्येति अन समोहः, किमित्याह-णेयाउय'ति निश्चित आयो-लाभो न्यायो-मुक्तिरित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति नैयायिकस्त, सम्यगदर्शनादिकं मुक्तिमार्गमिति गम्यते, 'दहुँ' ति अन्तर्भूतापिशब्दार्थत्वादृष्ट्वाऽपि-उपलभ्याप्यदृष्ट्वेव भवति, तदर्शनफलाभावात् , अथवा 'जबहुमेव'त्ति प्राकृतत्वादद्रष्टव भवति, इदमत्राकूतम्-यथैष गुहान्तर्गतः प्रमादात् प्रण दीपः प्रथममुपलब्धवस्तुतत्वोऽपि दीपाभावे सदद्रष्टेष जायते, तथाऽयमपि जन्तुः कथञ्चित् कर्मक्षयोपशमादेः | | सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिमार्ग भाषप्रकाशदीपतः श्रुतज्ञानात्मकात् रडाऽपि पित्तादिग्यासक्तितस्तदाबरणोदयादद्रष्टेच भवति, तथा च न केवलं खतत्राणाय वित्तं न भवति, किन्तु कथञ्चित् त्राणहेतुं सम्यग्दर्शनादिकमप्यवाप्तमुपह १ यथा केचिद्धातुवादिनः सदीपका अग्निमिन्धनं च गृहीत्वा बिलमनुप्रविष्टाः, स तेषां प्रमादेन दीपोऽग्निरपि विध्यातः, ततस्ते भविष्यातदीपाभयो गुहातमोमोहिता इतस्ततः सर्वतः परिभ्राम्यन्ति, परिभ्राम्यन्तोऽप्रतीकारमहाविषैः सर्दष्टा दुरुत्तरे गर्ने निपतिताः, तत्रैव [ निधममुपगती। दीप अनुक्रम [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१२१] उत्तराध्य. वृत्तिः ॥२१३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||६|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [२०७] न्तीति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ एवं धनादिकमेव सकलकल्याणकारि भविष्यतीत्याशङ्कायां तस्य कुगतिहेतुत्वं कर्म्मणश्चावन्ध्यत्वमुपदश्य यत् कृत्यं तदाह Education intimational सुत्ते आवी पडिबुद्धजीवी, नो विस्ससे पंडिय आसुन्ने घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरऽप्पमत्तो ॥ ६ ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या--'सुप्तेषु' द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु धम्मै प्रत्यजाग्रत्सु, चः पादपूरणे, 'चशब्दः समाहारेतरेतरयोगसमुच्चयावधारणपादपूरणाधिकवचनादिष्विति वचनात् अपिः सम्भावने, ततोऽयमर्थः सुतेष्वप्यास्तां जाग्रत्सु च, किमित्याह-प्रतिबुद्धं प्रतिबोधः द्रव्यतो जाग्रत्ता भावतस्तु यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमस्तेन जीवितुं प्राणान् धर्नु शीलमस्येति प्रतिबुद्धजीवी, यदि वा प्रतिबुद्धो-द्विधाऽपि प्रतिबोधवान् जीवतीत्येवंशील:- प्रतिबुद्धजीवी, कोऽभिप्रायः ? - द्विधा प्रसुप्तेष्वपि अविवेकिषु न गतानुगतिकतयाऽयं स्वपिति, किन्तु प्रतिबुद्ध एव यावज्जीवमास्ते, तत्र च द्रव्यनिद्राप्रतिषेधे अगडदत्तोदाहरणं, तत्र च वृद्धवाद: उणीए जियस रणो अमोहरहो नाम रहितो, तस्स जसमती नाम भज्जा, तीसे अगडदत्तो नाम पुत्तो, १ उज्जयिन्यां जितशत्रो राज्ञोऽमोघरथो नाम रथिकः, तस्व यशोमती नाम भार्या, तस्था जगडदत्तो नाम पुत्रः Fürsten असंस्कृता. ~426~ ४ ॥२१३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| तस्स य बालभावे चेव पिया उवरतो। सो य अन्नया अभिक्खणं रोयमाणिं मायरं पुच्छइ, तीए निम्बंधेण कहियं18/जहा एस अमोहपहारी रहिओ तुह पिउसन्तियं रिद्धिं पत्तो, तं च पञ्चक्खकडुयं, तुमं च अकयविजं दई अंतो IC अईव डज्झामि, तेण भणियं-अत्थि कोइ जो मं सिक्खावेति, तीए भणियं-अस्थि कोसंबीए दढप्पहारी नाम पिउ मित्तो, गतो कोसंविं, दिवो दढप्पहारी ईसत्थसत्थरहचरियाकुसलो आयरितो, तेण पुत्तो विव णिप्फाइओ ईसत्थे | 8 कुंतादिपाडियके जंतमुके य अन्नासुवि कलासु । अण्णया गुरुजणाणुषणातो सिद्धविज्जो सिक्खादसणं काउं रायकुलं गतो, तत्थ य असिक्खेडयगहणाइयं जहासिक्खियं सर्व दाइयं, जहा सधो जणो हयहियओ जातो, राया भणइनस्थि किंचि अच्छेरयं, नेव य विम्हितो. भणति-किं किं ते देमि?, तेण विनवितो-सामि तुम्भे मर्म साधुकारंण १ तस्य च बालभाव एवं पितोपरतः । स चान्यदाऽभीक्ष्णं रुदतीं मातरं पृच्छति, तया निबन्धेन कथितं- यथेषोऽमोघप्रहारी रथिकस्तव पितृसत्को अरद्धि प्राप्तः, तच प्रत्यक्षकटुकं, त्वां चाकृतविद्यं दृष्ट्वाऽन्तोऽतीव दो, तेन भणितम्-अस्ति कश्चित् यो मां शिक्षयति, क्या भणितम्-अस्ति कौशाम्ब्यां दृढप्रहारी नाम पितुमित्रं, गतः कौशाम्बी, दृष्टो दृढप्रहारी इण्वस्त्रशस्त्ररथचर्याकुशल आचार्यः, तेन पुत्र इव * निष्पादित इष्वने कुन्तादिषु प्रत्येकं यत्रमोक्षे च अन्यास्वपि कलासु । अन्यदा गुरजनानुज्ञातः सिद्धविद्यः शिक्षादर्शनं कारयितुं राजकुलं गतः, तत्र चासिखेटकग्रहणादिकं यथाशिक्षितं दर्शितं सर्व, यथा सवों जनो हृतहदयो जातः, राजा भणति-नास्ति किञ्चिदाश्चर्य, नैव च विस्मितः, भणति-किं किं तुभ्यं ददामि ?, तेन विज्ञप्तः-स्वामिन् ! मशं साधुकार न EXXX दीप अनुक्रम [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१२१] उतराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२१४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||६|| निर्युक्तिः [२०७...] अध्ययनं [ ४ ], देहं किं मे अनेण दाणेणंति ? । अहिंस चेव देसकाले पुरजणवरण राया विष्णविओ-देवाणुप्पियाणं पुरे असुयपुत्रं संधिछेज्जं संपयं च दवहरणं परिमोसो य केणवि कथं, तं अरहंतु णं देवाणुप्पिया ! नगरस्स सारक्खणं काउं, ततो आणतो राइणा नगरारक्खो - सतरतस्स अमितरे जहा घेष्पति तहा कुणसुति, तं च सोऊण एस थको मम गमणस्सत्ति परिगणतेण विनवितो राया, जहा-अहं सत्तरत्तस्स अभ्यंतरे चोरे सामि ! तुष्भपायमूलं उवणेस्सामि, तं च वयणं रायणा पडिसुर्य, अणुमन्नियं च एवं कुणसुत्ति । तओ सो हट्टमाणसो निग्गतो रायकुलातो, चिंतियं च णेणं-जहा दुइपुरिसतकरा पाणागाराइट्ठाणेसु णाणाविहलिंगवेसपढिच्छन्ना भमंति, अतो अहमेयाणि ठाणाणि अप्पणा चारपुरिसेहि य मग्गावेमि, मग्गावेऊण निग्गतो नयरातो, निदाइऊण इकतो एकरस सीयलच्छायस्स Education intimational १ ददासि किं मम अन्येन दानेनेति ? । अस्मिन्नेव देशका पुरजनपदेन राजा विशप्तः देवानुप्रियाणां पुरेऽश्रुतपूर्वः संधिच्छेदः साम्प्रतं च द्रव्यहरणं परिमोपञ्च केनापि कृतः, तदर्हन्ति देवानुप्रियाः ! नगरस्य संरक्षणं कर्त्तुं तत आज्ञप्तो राज्ञा नगरारक्षः सप्तरात्रस्याभ्यन्तरे यथा गृह्यते तथा कुर्विति, तच श्रुत्वा एषोऽवसरो मम गमनस्येति परिगणयता विज्ञप्तो राजा, यथा-अहं सप्तरात्रस्याभ्यन्तरे भीरान् खामिन् ! तव पादमूलमुपनेष्यामि तच वचनं राशा प्रतिश्रुतम् अनुमतं चैवं कुर्विति । ततः स दृष्टष्टमानसो निर्गतो राजकुलात् चिन्तितं खानेन यथा दुष्ट पुरुषतस्कराः पाचागारादिस्थानेषु नानाविधलिङ्गवेषप्रतिच्छन्ना भ्राम्यन्ति, अतोऽहमेतानि स्थानान्यात्मना चारपुरुषैश्च मार्गवामि, मार्गयित्वा निर्गतो नगरात् निर्गत्य एकस्यां दिशि) एकस्य शीतलच्छायस्थ For Fans Only असंस्कृता ~428~ ४ ॥२१४॥ wr मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| सहयारस्स पायबस्स हा णिविट्ठो दुव्बलमयलवत्थो, चोरगहणोवायं चिंतयंतो अच्छति, णपरि जंकिंपि मुणमुणायंतोतं चेव सहयारपायवरछायमुवगतो परिवायतो, अंबपलवसाहं भंजिऊण णिविट्ठो, दिहो य तेण ओबद्धपि-12 डितो दीहजंघो, दट्टण य आसंकितो हियएण-पावकम्मसूयगाई लिंगाई, Yणं एस चोरोत्ति, भणितो य सो परिवायगेण-वच्छ ! कुतो तुम किंनिमित्तं वा हिंडसि ?, ततो तेण भणियं-भयवं! उज्जेणीतो अहं पक्खीणविभवो हिंडामि, तेण मणियं-पुत्त ! अहं ते विउलं अत्थसारं दलयामि, अगलदत्तो भणति-अणुग्गहिओऽम्हि तुम्भेहिं । एवं च अदंसणो गतो दिणयरो, अइकता संझा, कहियं तेण तिदंडातो सत्थयं, बद्धो परियरो, उहितो भणतिगरं अइगच्छामोत्ति, सतो अगलदतो ससंकितो तं अणुगच्छद, चिंतेति य-एस सो सकरोत्ति, पविट्ठो णयर, तत्थ १ सहकारस्य पादपस्वाधरतान्निविष्टो दुर्बलमलिनवस्त्रः, चौरग्रहणोपायं चिन्तयंस्तिष्ठति, नवरं यत्किमपि जल्पन तामेव सहकारपाद६ पच्छायामुपगतः परिव्राजकः, आम्रपलवशाखां भक्त्वा निविष्टः, दृष्टश्च तेनावबद्धपिण्डिको दीर्घजबः, दृष्ट्वा च आशक्तिो हृदयेन पापकर्मसूचकानि लिङ्गानि, नूनमेष चौर इति, भणितश्च स परित्राजकेन-वत्स ! कुतस्त्वं किंनिमित्तं वा हिण्डसे ?, ततः तेन भणितं भगवन् ! उज्जयिनीतः अहं प्रक्षीणविभवो हिण्डे, तेन भणितं-पुत्र ! अहं तुभ्यं विपुलमर्थसारे ददामि, अगडदचो भणति-अनुगृहीतोऽस्मि द युष्माभिः । एवं चादर्शनं गतो दिनकरः, अतिकान्ता सन्ध्या, कृष्टं तेन त्रिदण्डात् शस्त्रक, बद्धः परिकरः, उत्वितो मणति-नगरमतिगच्छाव इति, ततोऽगडदत्तः सशक्तिसमनुगच्छति, चिन्तयति च-एष स तस्कर इति, प्रविष्टो नगर, तत्र दीप अनुक्रम [१२१] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) 1- उत्तराध्य. R वृहद्वृत्तिः । प्रत ॥२१५॥ % सूत्रांक ||६|| यं उत्ताणणयणपेच्छणिजं कस्सवि पुण्णविसेस सिरिसूयगं भवणं, तत्थ य सिरिवच्छसंठाणं संधि छेत्तूण अतिगतो असंस्कृता. परिवायतो, णीणीयातो अणेगभंडभरियातो पेडातो, तत्थ य तं ठवेऊण गतो,अगडदत्तेण चिंतियं-अंतगमणं करेमि, | ताव य आगतो परिवायतो जक्खदेउलातो सइएलए दालिद्दपुरिसे घेत्तूण, तेण ते य ताओ पेडातो गिहाविया, निद्धाइया य सबे नयरातो, भणति य परिवायतो-पुत्त ! इत्थ जिण्णुज्जाणे मुदुत्तागं निहाविणोयं करेमो जाव रत्ती गलति, तत्तो गमिस्सामोत्ति, ततो तेण लवियं-ताय! एवं करेमत्ति, ततो तेहिं पुरिसेहिं ठवियाओ पेडातो, णिहावसं । च उयगया, तो सो य परिवायतो अगलदत्तो य सेजं अत्थरिऊण अलियसुईयं काऊण अच्छंति । तओ य अगलदत्तो सणियं उद्देऊण अवकतो रुक्खसंछण्णो अच्छति, ते य पुरिसा निहावसं गया जाणिऊण वीसंभघाइणा परिवायएण १च उत्ताननयनप्रेक्षणीय कस्यापि पुण्यविशेषश्रीसूचकं भवनं, तत्र च श्रीवत्ससंस्थान सन्धि छिस्थाऽतिगतः परिमाजकः, अनेकभाण्ड-| भृताः पेटा निष्काशिताः, तत्र च तं स्थापयित्वा गतः, अगडदत्तेन चिन्तितम्-अन्तगमनं करोमि १, तावश्चागतः परित्राजको यक्षदेवकुलात् | सदा भ्राम्यतः (स्वकीयान) दरिद्रपुरुषान गृहीत्वा, तेन च तैः ताः पेटा प्राहिताः, निर्गताश्च सर्वे नगरात् , भणति च परिव्राजक:-पुत्र! ॥२१॥ अत्र जीर्णोद्याने मुहूर्त निद्राविनोद कुर्मो याबद्रात्रिर्गच्छति ततो गमयिभ्याम इति, ततस्तेन लत-सातैवं कुर्म इति, ततस्तैः पुरुषैः स्थापिताः पेटाः, निद्रावर्श चोपगताः, ततः स च परिव्राजकोऽगडदत्तश्च शय्यामास्तीर्य अलीकस्खपितं कृत्वा तिष्ठतः । ततश्चागढदत्तः शनैरुत्थायापकान्तो वृक्षसंछन्नस्तिष्ठति, ते च पुरुषा निद्रावशं गताः ज्ञात्वा विश्रब्धघातिना परिव्राजकेन % दीप अनुक्रम [१२१] %% % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| मारिया, अगलदत्तं च तत्थ सत्थरे अपेच्छमाणो मग्गिउं पयत्तो, मग्गंतो य साहापच्छाइयसरीरेण अभिमुहमा-1 गच्छतो अंसदेसे असिणा आहतो, गाढपहारीकतो पडितो, पञ्चागयसन्नेण य भणितो अगलदत्तो-पच्छ! गिण्ह इमं असिं, वच्च मसाणस्स पच्छिमभाग, गंतूण संतिजाघरस्स भित्तिपासे सदं करेजासि, तत्थ भूमिघरे मम भगिणी वसति, ताए असिं दाएजसु, सा ते भजा भविस्सति , सबदवस य सामी भविस्ससि, अहं पुण गाढपहारो अइकंतजीवोत्ति । गओ य जगलदत्तो असिलहि गहाय, दिवा य सा ततो भवणवासिणीविव पेच्छणिज्जा, भणइ य-कतो तुमंति?, दाइतो अगलदत्तेण असिलट्टी, विसन्नवयणहिययाए सोयं निगृहंतीए ससंभमं अतिनीतो दासंतिजाघर, दिनं आसणं, उपविट्ठो अगलदत्तो ससंकितो, से चरियं उवलक्खेइ य, सा अतिआयरेण सयणिज रएइ, १ मारिताः, अगडदत्तं च तत्र संस्तारेऽप्रेक्षमाणो मार्गयितुं प्रवृत्तः, मार्गयंश्च शास्त्राच्छन्नशरीरेणाभिमुखमागल्छन् अंसदेशेऽसिनाऽऽहतो, गाढपहारीकृतः पतितः, प्रत्यागतसंझेन च भणितोऽगडदत्तः-वत्स गृहाणेममसि, ब्रज श्मशानस्य पश्चिमभागं, गत्वा शान्त्या_गृहस्य है भित्तिपार्धे शब्दं कुर्याः, तत्र भूमिगृहे मम भगिनी वसति, तस्यै असि दर्शयः, सा तब भार्या भविष्यति, सर्वद्रव्यस्य च स्वामी भवि व्यसि, अहं पुनर्गाढप्रहारोऽतिक्रान्तजीव इति । गतश्चागडदत्तोऽसियष्टिं गृहीत्वा, दृष्वा च सा तत्र भवनवासिनीव प्रेक्षणीया, भणति चककृतस्त्वमिति , पर्शितोऽगवत्तेनासियष्टिः, विषण्णवदनहृदयया शोक निगृहन्त्या ससंभ्रममतिनीतः शान्त्यार्यागृह, दत्तमासनम् , उपविष्टोऽगVवत्तः सशक्तिः , तस्याश्चरितमुपलक्षयति च, सा अत्यादरेण शयनीयं रचयति, दीप अनुक्रम [१२१] JAMERatinintamational wwwsaneiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) संस्कृता. बृहद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक ||६|| उत्तराध्य- मणइ य-त्य वीसामं करेह, तमो न सो निद्दावसमुषगतो वक्खित्तचित्ताए, अन्नं ठाणं गंतूण ठिओ पच्छन्नं, तहि | Nta सबणिजे पुषसजिया सिला, सा ताए पाडिया चुणिया व सेजा, सा य हट्टतुट्ठमाणसा भणति-हा हो| भाउपायगोत्ति, अगडदत्तोऽपि ततो गिद्धाइऊण वालेसु घेतूण भणति-हा दासीए धीए को मं घायइति', तो ॥२१॥ सा पाएसु नियडिया सरणाऽऽगयामिति मणंती, तेणासासिया, मा वीहहित्ति । सो त घेत्तृण गतो राउलं, पूजितो दारणा पुरजणवएण य, भोगाण य भागीजातोत्ति ॥ एवं अन्नेऽवि अपमत्ता इहेब कल्लाणभाइणो भवंति। उक्तो द्रव्य सुसेषु प्रतिबुद्धजीयिनो दृष्टान्तः, भावसुसेषु तु तपखिनः, ते हि मिथ्यात्वादिमोहितेष्वपि जनेषु यथायदवगमपूर्वकमेव संयमजीवितं धारयन्तीति, एवंविधश्च किं कुर्यादित्याहन विश्वस्तात् , प्रमादेव्षिति गम्यते, किमुक्त भवति ?-बहुजनप्रत्तिदर्शनासेऽनर्यकारिण इति न विश्रम्भवान् भवेत् , 'पण्डितः' प्राग्वत् , आशु-शीप्रमुचि १ भणति च-अन्न विश्राम कुरु, ततो न स निद्रावशमुपगतो ब्याक्षिप्तचित्ततया, अन्यत् स्थानं गत्वा स्थितः प्रच्छन्न, वत्र च शयनीये पूर्वसजिता शिला, सा तया पातिता चूर्णिता च शव्या, सा च दृष्टतुष्टमानसा भणति-हा हतो भ्रातृघातक इति, अगदत्तोऽपि ततो निर्गत्य वालेषु गृहीला भणति-हा दाला पिया ( वासि ! ईदग्धिया) को मां पातयतीति, ततः सा पादयोनिपतिता शरणाऽऽगवाऽस्मीति मणन्ती, तेनाश्वासिता, मा मैषीरिति । स तां गृहीत्वा गतो राजकुलं, पूजितो राज्ञा पुरजनपदेन च, भोगानां चाऽऽभागीजात इति ॥ एक्मन्येऽपि अप्रमत्ता इहैव कल्याणभागिनो भवन्ति दीप अनुक्रम [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| तकर्तव्येषु यतितव्यमिति प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति-आशुप्रज्ञः, किमिति आशुप्रज्ञः, यतो घूर्णयन्तीति घोराः-निरनु कम्पाः, सततमपि प्राणिनां प्राणापहारित्वात् ,क एते?-'मुहूर्ताः' कालविशेषाः,कदाचिच्छारीरपलाद पोरा अप्यमी न प्रभविष्यन्तीत्यत आह-'अबलं' बलविरहितं न मृत्युदायिनो मुहूर्तान् प्रति सामर्थ्यवत् किं तत् ?-शरीरम् , एवं तर्हि किं कृत्यमित्याह-'भारण्डपक्खीव चरऽप्पमत्तो इति पतत्यनेनेति पक्षः सोऽस्यास्तीति पक्षी भारण्डश्चासौ पक्षीस च भारण्डपक्षी स यद्वदप्रमत्तश्चरति तथा त्वमपि प्रमादरहितश्चर-विहितानुष्ठानमासेवख, अन्यथा हि यथाऽस्य भार-4 8|ण्डपक्षिणः पक्ष्यन्तरेण सहान्तवेर्तिसाधारणचरणसम्भवात् स्वल्पमपि प्रमाद्यतोऽवश्यमेव मृत्युः तथा तवापि संयमजीवितादू भ्रंश एवं प्रमाद्यत इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्छा परिणायमलावधंसी॥७॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'चरेत्' गच्छेत् 'पदानि' पादविक्षेपरूपाणि 'परिशङ्कमानः' अपायं विगणयन् , किमित्येवमत आह'यत्किञ्चिद् ' गृहस्थसंस्तवाद्यल्पमपि पाशमिव पाशं संयमप्रवृत्ति प्रति खातन्त्र्योपरोधितया 'मन्यमानो' जानानः, यद्वा 'चरेदिति संयमाध्वनि यायात् , किं कुर्वन् ?--‘पदानि' स्थानानि, धर्मस्येति गम्यते, तानि च मूलगुणादीनि दीप अनुक्रम [१२२] ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| उत्तराध्य. परिशकमानों' मा ममेह प्रवर्तमानस्य मूलगुणेषु मालिन्य स्खलना वा भविष्यतीति परिभावयन् प्रवर्चेत, 'जं किंचि संस्कृता. वृहदृत्तिः त्ति यत्किञ्चिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन पाशमिव पाशं मन्यमानः, ॥२१७॥ दातदयमुभयत्राभिप्रायः यथा भारण्डपक्षी अपरसाधारणान्तर्वर्तिचरणतया पदानि परिशश्वमान एव चरति यत्कि श्चिद्दवरकादिकमपि पाशं मन्यमानः तथाऽप्रमत्तश्चरेत् , ननु यदि परिशमानश्चरेत्तर्हि सर्वथा जीवितनिरपेक्षेणैव 2 प्रवर्तितव्यं, तत्सापेक्षतायां हि कदाचित्कथञ्चिदुक्तदोषसम्भव इत्याशङ्कयाह-'लाभंतरे'त्यादि वृत्ताद्ध, लम्भनं । लाभः-अपूर्वार्थप्रासिः अन्तरं-विशेषः, लाभश्चासावन्तरं च लाभान्तरं तस्मिन् सतीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-यावद्विशिष्टविशिष्टतरसम्यगज्ञानदर्शनचारित्रावासिरितः सम्भवति तावदिदं 'जीवितं' प्राणधारणात्मक हयित्वा'अन्नपानो-IM पयोगादिना वृद्धिं नीत्वा, तदभावे प्रायस्तदुपक्रमणसम्भवादित्यमुक्तं, 'सुहा पियासा य वाही यत्ति वचनात् क्षुदा-14 दीनामप्युपक्रमणकारणत्वेनाभिधानादू, इह च बृंहयित्वेव बृहयित्वेति व्याख्येयम् , अन्यथाघसंस्कृतं जीवितमिति विरुध्यत इति भावनीयं, ततः किमित्याह-'पश्चात् लाभविशेषप्राप्त्युत्तरकालं 'परिण्णाय'त्ति सर्वप्रकारैरवबुध्य * जयचंद नेदानी प्राग्वत्सम्यग्दर्शनादिविशेषहेतुः,तथा च नातो निर्जरा,न हि जरया व्याधिना वा अभिभूतं तत् तथा-४॥२१७॥ द्रविधधमोधानं प्रति समर्थम् , उक्तं हि-"जरा जाव ण पीलेति.वाही जायण वहति । जाबिंदिया ण हायंति, ताब १ जरा यावन्न पीडयति व्याधिर्यावन्न वर्धते । यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| धम्मं समायरे ॥१॥" एवं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय ततः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च भक्तं प्रत्याख्याय, सर्वथा जीवितनिर-1 पेक्षो भूत्वेति भावः, मलवदत्यन्तमात्मनि लीनतया मल:-अष्टप्रकारं कर्म तदपध्वंसत इत्येवंशीलः मलाप-13 ध्वंसी-मलविनाशकृत् , स्यादिति शेषः, ततो यावल्लाभ देहधारणमपि गुणायैवेति भावः, यद्वा जीवितं हयित्वा लाभान्तरे-लामविच्छेदेऽन्तर्बहिच मलाश्रयत्वान्मला-औदारिकशरीरं सदपध्वंसी स्थात् , कोऽर्थः-जीवितं सजे द, इदमुक्तं भवति-अयमस्यैको हि गुणो मानुष्यमवाप्य लभ्यते धर्म इति भावयन् यावदितस्तल्लाभः तावदिदं दि बृंहयेत् , लाभविच्छेदं सम्भाव्य संलेखनादिविधानतस्त्यजेत् ॥ इह च यावल्लाभधारणे मण्डिकचौरोदाहरणं, तत्र च सम्प्रदायः विनायडे नयरे मंडितो नाम तुण्णातो परदबहरणपसत्तो आसी, सोय दुगहो मित्ति जणे पगासेतो जाणुदेसेण णिचमेव अद्दयालेवलित्तेण रायमग्गे तुण्णागस्स सिप्पमुवजीवति, चंकमतोऽपि य दंडघरिएणं पारण किलि-|| ||स्संतो कहिंवि चंकमति, रतिं च खत्तं खणिऊण दबजाय घेत्तूण णगरसंनिहिए उजाणेगदेसे भूमिघरं, तत्थ णिक्खि-18 १ बेनाकतवे नगरे मण्डिको नाम तन्तुवायः परद्रव्यहरणप्रसक्त आसीत् , सच दुष्टपणोऽस्मीति जने प्रकाशयन जानुदेशेन नित्य||मेव भाद्रकलेपलिसेन राजमार्ग तन्तुवायस्य शिल्पमुपजीवति,चक्रम्यमाणोऽपि च धृतदण्डेन पादेन हिश्यम् कचिदपि चकूकम्यते, रात्री चx अनं खनित्वा द्रव्यजातं गृहीत्वा नगरसन्निहिते उद्यानैकदेशे भूमिगृहं, तत्र निक्षि EXAXSAXXX दीप अनुक्रम [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 435~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| उतराध्य. वति, तत्थ व से भगिणी कन्नगा चिट्ठति, तस्स भूमिघरस्स मज्झे कुवो, जं च सो चोरो दोण पलोभेउ सहाय असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः दववोढारं आणेति तं सा से भगिणी अगडसमीवे पुवणत्थासणे णिवेसेउं पायसोयलक्खेण पाए गिहिऊण तम्मि कूचे पक्खिवइ, ततो सो तत्थेव विवजाइ, एवं कालो बच्चति नयर मुसंतस्स, चोरगाहा तंण सकिंति गिहिउं, ॥२१८॥ तओ नयरे उवरतो जातो । तत्थ मूलदेवो राया, सो कहं राया संवुत्तो ?--उज्जेणीए नयरीए सच्चगणियापहाणा देवदत्ता नाम गणिया, तीए सद्धि अयलो नाम वाणियदारतो विभवसंपण्णो मूलदेयो य संवसह, तीए मूलदेवो इट्ठो, गणियामाऊए अयलो,सा भणति-पुत्ति ! किमेएणं जूइकारेणंति ?, देवदत्ताए भण्णति-अम्मो! एस पण्डितो, * तीए भपणइ-किं एस अम्ह अभहियं विण्णाणं जाणति, अयलो बाहत्तरिकलापंडिओ एव, तीए भषणति-वच्छ । 2 १. पति, तत्र च तस्य भगिनी कन्या तिष्ठति, तस्य भूमिगृहस्य मध्ये कूपः, यं च स चौरो द्रव्येण प्रलोभ्य सहायं द्रव्यवोढारमान-| यति तं सा तस्य भगिनी अक्टसमीपे पूर्वन्यस्तासने निवेश्य पादशौचमिषेण पादौ गृहीत्वा तस्मिन कूपे प्रक्षिपति, ततः स तत्रैव विपयते, एवं कालो ब्रजति नगरं मुष्णतः, चीरमाहातं न शक्रवन्ति ग्रहीतुं, ततो नगरे उपरको (उपद्रवो)जातः । पत्र मूलदेवो राजा, सार कथं राजा संवृत्तः ' जयिन्यां नगर्या सर्वगणिकाप्रधाना देवदत्ता नाम गणिका, तया सार्धमचलो नाम वणिग्दारको विभवसंपन्नो २१८॥ मूलदेवश्च संवसति, तथा मूलदेव इष्टः, गणिकामातुरचलः, सा भणति-पुत्रि ! किमेतेन छूतकारेण ? इति, देवदत्तया भण्यते-- अम्ब ! एष पण्डितः, सया भण्यते-किमेपोऽस्मन् अम्यधिकं विज्ञानं जानाति , अचलो द्वासप्ततिकलापण्डित एव, तया का दाभण्यते-बसे! RAKAR: दीप अनुक्रम [१२२] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [१२२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||७|| निर्युक्तिः [२०७...] Education intimational अध्ययनं [ ४ ], | अयलं भण-देवदत्ताए उच्छु खाइउं सद्धा, तीए गंतूण भणितो, तेण चिंतियं-कओ खु ताई अहं देवदत्ताए पणतितो, तेण सगडं भरेऊण उच्छुयलट्टीण उबणीयं, ताए भण्णति - किमहं हत्यिणी ?, तीए भणियं चच्च मूलदेवं भण-देवदत्ता उच्छु खाइउं अहिलसति, तीए गंतूण से कहियं, तेण य कइ उच्छुलट्ठीतो उल्लेडं गंडलीतो काउंचाउज्जायगादिसुवासियातो कार्ड पेसियाओ, तीए भण्णति - पिच्छ विष्णाणंति, सा तुहिक्का ठिया, मूलदेवस्स पओसमावण्णा अथलं भणति -अहं तहा करेमि जहा मूलदेवं गिहिस्सित्ति, तेण असयं दीणाराण तीए भाडिणिमित्तं दिन्नं, तीए गंतुं देवदत्ता भण्णति-अज्ज अयलो तुमे समं बसिही, इमे दीणारा दत्ता, अवरण्हवेलाए गंतुं | भणति-अयलस्स कज्जं तुरियं जायं तेण गामं गतोत्ति, देवदत्ताए मूलदेवस्स पेसियं, आगतो मूलदेवो, तीए समाणं १ अचलं भण-देवदत्ताया इन खादितुं श्रद्धा, तथा गत्वा भणितः, तेन चिन्तितं-के इक्षवः (के खलु) ते अहं देवदत्तया प्रणयितः, तेन शकटं भूत्वा इष्टीनामुपनीतं, तथा भण्यते किमहं हस्तिनी ?, तया भणितं त्रज मूलदेवं भण- देवदत्ता इभुं खावितुमभिलध्यति, तथा गत्वा तस्मै कथितं तेन च कतिचिदिनुयष्टयो निस्वचीकृत्य खण्डीकृत्य चातुर्जातकादिसुवासिताः कृत्वा च प्रेषिताः, तया भण्यते— पश्य विज्ञानमिति सा तूष्णीका स्थिता, मूलदेवे प्रद्वेपमापन्नाऽचलं भणति अहं तथा करोमि यथा मूलदेवं महीष्यसीति, तेनाष्टशतं दीनाराणां तस्यै भाटीनिमित्तं दत्तं तया गत्वा देवदत्ता भण्यते - अद्याचलस्त्वया समं वत्स्यति इमे च दीनारा दत्ता, अपराह्नवेछायां गत्वा भणति -अचलस्य कार्य त्वरितं जातं तेन ग्रामं गत इति, देवदत्तया मूलदेवाय प्रेषितं ( वृतं), आगतो मूलदेव:, तथा समं For Parts Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) उत्तराध्य प्रत सूत्रांक ||७|| अच्छा, गणिया माऊए अयलो य अप्पाहितो, अन्नाओ पविठ्ठो बहुपुरिससमग्गो वेढिउं गम्भगिहं, मूलदेवो अइ- असंस्कृता. वृत्तिः संभमेण सयणीयस्स हिट्ठा णिलुको, तेण लक्खितो, देवदत्ताए दासचेडीतो संवुत्तातो अचलस्स सरीरऽम्भंगादि | घेणु उवडिया, सो य तंमि चेव सयणीए ठियनिसन्नो भणइ-इत्थ चेव सयणीए ठियं अभंगेहि, तातो भणंति-II ॥२१९॥ विणासिजइ सयणीयं, सो भणइ-अहं एत्तो उकिट्ठतरं दाहामो, मया एवं सुविणो दिहो, सयणीयऽभंगणउचलणपहाणादि कायचं, ताहि तधा कयं, ताहे पहाणगोल्लो मूलदेवो अयलेण बालेसु गहाय कहितो,संलत्तो यऽणेण-बच मुकोऽसि, इयरहा ते अज अहं जीवियस्स विवसामि, जदि मया जारिसो होजाहि ता एवं मुच्चेज्जाहि(ति) अयलाभिहितो तओ मूलदेवो अवमाणितो लजाए निग्गओ उजेणीए, पत्थयणविरहितो बेनायडं जतो पत्थितो, एगो से १. तिवति, गणिकामाता च अचलः संदिष्टः, अन्यस्मात् ( अन्येन द्वारेण ) प्रविष्टः बदुपुरुषसममो वेष्टयित्वा गर्भगृह, मूलदेवोऽतिसंभ्रमेण शयनीयस्वाधस्तान्निलीनः, तेन लक्षितः, देवदत्तया दासपेटयः समुक्ताः भचलम शरीराभ्यनादि गृहीत्वोपस्थिताः,स च तस्मिन्मेव शयनीये स्थितनिषण्णो भणति-अत्रैव शयनीये स्थितमभ्यङ्गय,ता भणन्ति-विनाश्यते शयनीयं, स भणति-अहमित उत्कृष्टतरं दास्यामि, मयैवं स्वप्नो दृष्टः, शयनीयाभ्यङ्गनोद्वर्तनसानादि कर्त्तव्यं, तामिस्तथा कृतं, तदा मानविलेपनादों मूलदेवोऽचलेन वालेषु गृहीत्वाऽऽ- २१९॥ कृष्टः, संलप्तश्चानेन--ब्रज मुक्तोऽसि, इतरथा तेऽद्य जीवितस्य व्यवस्यामि, यदि माशो भवेतदेवं मुरिति अचलाभिहितस्ततो मूलदे-12 दिनोऽवमतो लनया निर्गत उज्जयिन्याः, पध्यदनरहित: घेवातदं यतः प्रस्थित्ता, एकतास्य दीप अनुक्रम [१२२] S2453 JABERatnam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||७|| ___ नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| पुरिसो मिलितो, मूलदेयेण पुच्छितो-कहिं जासि ?, तेण भण्णति-विण्णायतडमि, मूलदेवेण भषणति-दोऽपि सम वचामोत्ति, तेण संलत्तं-एवं भवउत्ति, दोऽवि पट्ठिया,अंतरा य अडवी, तस्स पुरिसस्स संबलं अस्थि, मूलदेवो विचिंऐतेह-एसो मम संबलेण संविभागं करेहित्ति, इहि सुते परे ताए आसाए वचति, ण से किंचि देह, तइयदिवसे |छिण्णा अडवी, मूलदेवेण पुग्छितो-अस्थि एत्थ अभासे गामो, तेण भण्णति-एस णाइदूरे पंथस्स गामो, मूलदेवेण भणितो-तुम कत्थ वससि, तेण भण्णति-अमुगत्थ गामे, मूलदेवेण भणितो-तो खाइअहं एवं गार्म ६वचामि, तेण से पंथो उवदिट्टो, गओ तं गाम मूलदेवो, तत्थऽणेण भिक्खं हितेण कुम्मासा लद्धा, पवण्णो य कालो बद्दति, सो य गामातो निगच्छह, साहू य मासखमणपारणएण भिक्खानिमित्तं पविसति, तेण व संवेगमा| १ पुरुषो मिलितः, मूलदेवेन पृष्ठः-क यासि ?, सेन भण्यते-बेनाकतटे, मूलदेवेन भण्यते-द्वावपि समं ब्रजाव इति, तेन संलपम्-15 एवं भवविति, द्वावपि प्रस्थिती, अन्तरा चाटबी, तस्य पुरुषस्य शम्बलमस्ति, मूलदेवो विचिन्तयति-एष मम शम्बलेन संविभाग करिष्यति, इदानी श्वः परेयुः तयाऽऽशया व्रजति, न तस्मै किश्चिदाति, तृतीयविवसे छिनाइटवी, मूलदेवेन पृष्टः-अस्त्पत्राभ्यासे | प्रामः १, तेन भण्यते-एष नातिदूरे पथो मामः, मूलदेखेन भणितः-वं कुत्र वससि १, तेन भण्यते--अमुष्मिन् मामे, मूलदेवेन | भणितः तदा कथया (गच्छा) हमेनं ग्राम प्रजामि, तेन तस्मै पन्था उपविष्टः, गतस्तं प्रामं मूलदेवः, तत्रानेन निक्षां हिण्डमानेन कुल्माषा लब्धाः, प्रपन्नाव (संपन्नश्च ) कालो वर्तते, स च प्रामानिर्गच्छति, साधुध मासक्षपणपारणकेन भिक्षानिमितं प्रविशति, तेन च संवेगमा दीप अनुक्रम [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति : [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| उत्तराध्य. वण्णेणं पराए भत्तीए तेहिं कुम्मासेहिं सो साधू पडिलाभितो, भणियं चऽणेणं-'धन्नाणं खु नराणं कोम्मासा हुंति असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः साहुपारणए 'देवयाए अहासन्निहियाए भषणति-पुत्त ! एतीए गाहाए पच्छद्धे जं मग्गसि तं देमि, 'गणियं च ४ देवदत्तं दंतिसहस्सं च रजं च ॥१॥ देवयाए भण्णति-अचिरेण भविस्सतित्ति, ततो गतो मूलदेवो वेन्नायर्ड, ॥२२०॥ तित्थ खत्तं खणंतो गहितो, यज्झाए नीणिजइ, सत्य पुण अपुत्तो राया मओ, आसो अहियासिओ, मूलदेवसगासदिमागतो, पहिदायणं रजे अहि सित्तो राया जाओ, सो पुरिसो सद्दाविओ, सो अणेण भणितो-तुझं तणियाए आसाते आगतो अहं, इहरहा अहं अंतराले चेव विवजंतो, तेण तुझं एस मया गामो दत्तो, मा य मम सगासं एजसुत्ति, पच्छा उजेणीएण रण्णा सद्धिं पीति संजोएति, दाणमाणसंपूतियं च काउं देवदत्तं अणेण मग्गितो, तेण पचुवगा-IN १. पन्नेन परया भक्त्या तैः कुल्माषैः स साधुः प्रतिलम्भितः, भणितं चानेन-'धन्यानामेव नराणां कुल्माषाः साधुपारणके भवन्ति' | देवतया यथासन्निहितया भण्यते--पुत्र ! एतस्या गाधायाः पश्चार्थेन यन्मार्गयसि तददामि-गणिकां च देवदत्ता दन्तिसहस्रं च राज्यं ५ | च ॥ १ ॥' देवतया भण्यते-अचिरेण भविष्यतीति, ततो गतो मूलदेवो बेन्नातलं, तत्र क्षत्रं खनन् गृहीतः, वध्यायां नीयते, तत्र पुनः अपुत्री राजा मृतः, अश्वोऽधिवासितः, मूलवेवसकाशमागतः, पूष्ठिदानं राज्ये ऽभिषिक्तो राजा जातः, स पुरुषः शब्दिवः, सोऽनेन ॥२२०॥ भणितः-स्वत्सत्कयाऽऽशया आगतोऽहम् , इतरथा अहमन्तराल एव व्यपत्स्ये, तेन तुभ्यमेष मया प्रामो दत्तः, मा च मम सकाशमायासी-४ रिति, पश्चादुज्वविनीवेन राज्ञा साध प्रीति संयोजयति, दानमानसत्कारं (सम्पूजिता) च कृत्वा देवदत्तामनेन मार्गितः, तेन प्रत्युपका दीप अनुक्रम [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत Arkoke सूत्रांक ||७|| रसंधिएण दिण्णा, मूलदेवेण अंतेउरे छूढा, ताए समं भोगे अँजति । अन्नया अयलो पोयवहणेण तत्थागतो, सुकेकी विजते भंडे जातिं पाए दवणूमणाणि ठाणाणि ताणि जाणमाणेण मूलदेवेण सो गिण्हावितो,तुमे दवंणूमियंति पुरिसेहिं बद्धिऊण रायसयासमुवणीतो, मूलदेवेण भण्णति-तुम मम जाणसि ?, सो भणति-तुम राया को तुम न जाणइ, तेण भण्णइ-अहं मूलदेवो, सकारिउ विसज्जितो, एवं मूलदेवो राया जातो। ताहे सो अण्णं णगरारक्खियं ठवेति, सोऽपि न सको चोर गिणिहउं, ताहे मूलदेवो सयं णीलपडं पाउणिऊण रतिं णिग्गतो, मूलदेवो र । अणजंतो एगाए सभाए णिविण्णो अच्छति, जाब सो मंडियचोरो आगंतूण भणति-को इत्थ अच्छति ?, मूल देषेण भणियं-अहं कप्पडितो, तेण भण्णइ-एहि मणूस करेमि, मूलदेयो उहितो, एगमि ईसरघरे खत्तं खयं, सुबहुं| | १. रसन्धिना दत्ता, मूलदेवेनान्तःपुरे न्यस्ता, तया सम भोगान् भुनक्ति । अन्यदाऽचलः पोतवाहनेन तत्रागतः, शुल्कीये भाण्डे विद्यमाने यानि पात्रेषु द्रव्यगोपनानि स्थानानि तानि जानता मूलदेवेन स प्राहितः, त्वया द्रव्यं गोपितमिति पुरुषैद्धा राजसकाशमुपनीतः, मूलदेवेन भण्यते-त्वं मां जानासि ?, स भणति-वं राजा त्वां को न जानाति ?, तेन भण्यते-- अहं मूलवेवः, सत्कृत्य विसृष्टः, एवं मूलदेवो राजा जातः । तदा सोऽन्य मगरारक्षक स्थापयति, सोऽपि न शक्तचौर गृहीतुं, तदा मूलदेवः स्वयं नीलपटं| प्रावृत्य रात्रौ निर्गतः, मूलदेवोऽज्ञायमान एकस्यां सभायां निषण्णस्तिष्ठति, थावत्स मण्डिकऔर आगल्य भणति-कोऽत्र तिष्ठति ?, मूल-४ देवेन भणितम्-अई कार्पटिका, तेन भण्यते-एहि मनुष्यं करोमि, मूलदेव उत्थितः, एकस्मिन्नीश्वरगृदे क्षत्रं खातं, मुबहु दीप अनुक्रम [१२२] - AR wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| उत्तराध्यादेषजायं णीणेऊण मूलदेवस्स उवरिं चडाविउं पट्ठिया नयरवाहिरियं, जातो मूलदेवो पुरतो, चोरो असिणा कहि- असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः एण पिट्टओ एइ, संपत्ता भूमिघरं, चोरो तं दर्ष णिहिणिउमारद्धो, भणिया अणेण भगिणी-पयस्स पाहुणयस्स पायसोयं देहि, ताए कूवतडसन्निविटे आसणे संणिवेसितो, ताए पायसोयलक्खेण पाओ गहिओ कूवे खुहामित्ति, जाव अतीय सुकुमारा पाया, ताए नायं-जहेस कोइ भूयपुधरजो विहलियगो, तीए अणुकंपा जाया, तो ताए पायतले सन्नितो णस्सत्ति, मा मारिजिहिसित्ति, ततो पच्छा सो पलातो.ताए बोलो कतो गट्ठो णट्रोत्ति. सो अर्सि कहिऊण मग्गतो लग्गो, मूलदेवो रायप्पहे अइसन्निकिलृ णाऊण चचरसिवंतरितो ठितो, चोरो तं सिवलिंगं एस | १ द्रव्यजातं नीत्वा मूलदेवस्योपरि घटापयित्वा (आरोग) प्रस्थिती नगरवाहिरिका, यातो मूलदेवः पुरतः, पौरोऽसिना कृष्टेन (सह ) पृष्ठत आवाति, संप्राप्तौ भूमिगृहं, चौरस्तत् द्रव्यं निहितुमारब्धः, भणिता अनेन भगिनी-एतस्मै प्राघूर्णकाय पादशौचं दादेहि, तया कूपतटसन्निविष्ट आसने सनिवेशितः, तया पादशौचमिषेण पादो गृहीतः कूपे क्षिपामीति, यावदतीव सुकुमारौ पादी, जा तथा शातं-यथा एप कश्चित् भूतपूर्वराज्यो राज्यभ्रष्टः, तस्या अनुकम्पा जाता, ततस्तया पादतले संशितो नश्यति, मा मारयिष्यसीति, | ततः पश्चात्स पलायितः, तया रावः (पूत्कारः ) कृतः नष्टो नष्ट इति, सोऽसिं का पृष्ठतो लमः, मूलदेवः राजपथेऽतिसंनिकृष्टं ज्ञात्वा चत्वरशिवान्तरितः स्थितः, चौरस्तत् शिवलिङ्गमेष दीप अनुक्रम [१२२] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) 2562-% प्रत % सूत्रांक ||७|| दपुरिसोत्ति काउं कंकग्गेण असिणा दुहा काऊण पडिनियत्तो, गतो भूमिघरं, तत्थ पसिऊण पहायाए रयणीए तओ निग्गंतूण गतो वीहि, अंतरावणे तुण्णागतं करेति, रायणा पुरिसेहि सहावितो, तेण चिंतियं-जहा सो पुरिसो Yणं न मारितो, अवस्सं च सो एस राया भविस्सइत्ति, तेहिं पुरिसेहि आणितो, रायणा अन्भुटाणेण पूइतो, आसणे निवेसावितो, स बहुं च पियं आभासिउं संलत्तो-मम भगिणीं देहित्ति,तेण दिना, विवाहिया, रायणा भोगा य से संपदत्ता,कइसुवि दिणेसु गएसु रायणा मंडितो भणिओ-दवेण कजंति, तेण सुबहुंदबजायं दिण्णं, रायणा संपूइतो,अण्णया पुणो मग्गितो पुणोऽपि दिण्णं,तस्स य चोरस्स अतीवर सकारसम्भाणं पउंजति, एएण पगारेण सर्व दर्व दवावितो, भगिणी से पुच्छति, ताए भषणति-इत्तियं वित्तं, ती पुचायेइयलक्खाणुसारेण सर्व दवायेऊणं मंडितो सूलाए आरोपितो। दृष्टान्तानुवादपूर्वकोऽयमिहोपनयः-यथाऽयम १ पुरुष इतिकृत्वा कलाप्रेणासिना विधा कृत्वा प्रतिनिवृत्तः, गतो भूमिगृहं, तत्रोषित्वा प्रभातायां रजन्यां ततो निर्गत्य गतो वीथिम् , अन्तरापणे तन्तुवायत्वं करोति, राज्ञा पुरुषैः शब्दितः, तेन चिन्तितं-यथा स पुरुषो नूनं न मारितः, अवश्यं च स एष राजा भविष्यतीति, तैः पुरुषैरानीतः, राज्ञाऽभ्युत्थानेन पूजितः, आसने निवेशितः, स बहु प्रियं चाभाच्य संलत:-मा भगिनी देहीति, | तेन दत्ता, विवाहिता, राज्ञा भोगाश्च तस्मै संप्रदत्ताः, कतिपयेष्वपि दिनेषु गतेषु राशा मण्डिको भणितः-द्रव्येण कार्यमिति, तेन सुबहु ४ द्रव्यजातं दत्तं, राज्ञा संपूजितः,अन्यदा पुनर्मानितः पुनरपि दत्तं, तस्य च चौरस्थातीव सरकारसन्मानं प्रयुनक्ति, एतेन प्रकारेण सर्व द्रव्य दापितं, भगिनी तस्या अपृच्छचत, तथा भण्यते-एतावत् वित्तं, ततः पूर्वावेदिवलक्ष्यानुसारेण सर्व दापयित्वा मण्डिकः झूलायामारोपितः। दीप अनुक्रम [१२२] vमुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||८|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः २२२॥ प्रत सूत्रांक ||८|| कार्यकार्यपि मण्डिको यावल्लाभं मूलदेयनृपतिना धारितः तथा धर्मार्थिनाऽपि संयमोपहतिहेतुकमपि जीवितं निर्ज-असंस्कृता. रालाभमभिलपता तलाभं यावद्धार्यमिति, न च तद्धारणे संयमोपरोध एव, यथाऽऽगमं हि प्रवृत्तस्य तत्तदुपष्टम्भकमे-है। वेति भावनीयम् , इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ सम्प्रति यदुक्तं 'जीवितं बृंहयित्वा मलापध्वंसी स्वादिति तत्किं खातन्त्र्यत एव उताायधेत्याह छंदंणिरोहेण उवेति मुक्खं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। पुवाइ वासाइ चरऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेति मुक्खं ॥८॥ (सूत्रम्) व्याख्या-छन्दो-यशसस्य निरोधः छन्दोनिरोधः-स्वच्छन्दतानिषेधः तेन 'उपैति' उपयाति 'मोक्ष' मुक्ति, किमुक्तं भवति ?-गुरुपरतन्त्रतया खाग्रहाग्रहयोगितां विना तत्र प्रवर्तमानोऽपि सक्लेशविकल इति न कर्मवन्धमाक्, किन्त्वविकलचरणतया तन्निर्जरणमेवाप्नोति, अप्रवर्त्तमानोऽपि चाहारादिष्वाग्रहग्रहाकुलितचेताः 'छहमदसमें'-14 त्यादिवचनादनन्तसंसारिताधनर्थभागेव भवति, तत्सर्वथा तत्परतन्त्रेणैव मुमुक्षुणा भाव्यं, तस्यैष सम्यगज्ञानादि- २२२॥ सकलकल्याणहेतुत्वाद् , उक्तं च-"णाणस्स होइ भागी थिरयरतो दसणे चरित्ते य । धण्णा आवकहाए गुरुकु मानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||८|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||८|| |लवासं न मुंचंति ॥१॥" यहा छन्दसा-गुर्वभिप्रायेण निरोधः-आहारादिपरिहाररूपः छन्दोनिरोधः तेनयोक्त न्यायतो मुक्त्यवाप्तिः, तत्तद्वस्तुविषयाभिलाषात्मिका इच्छा वा छन्दः तन्निरोधेन मुक्तिः, तस्या एव तद्विवन्धकतत्वात् , तथा च लौकिका अन्याहु:-"श्लोकार्धन हि तद्वक्ष्ये, यदुक्तं अन्धकोटिभिः । तृष्णा च सं(चेत्सं) परित्यक्ता, प्राप्तं च परमं पदम् ॥१॥" अथवा छन्दो वेद आगम इत्यनान्तरं, ततः छन्दसा 'आणाए चिय चरण'मित्यादिना निरोधः-इन्द्रियादिनिग्रहात्मकः छन्दोनिरोधः तेनोपैति मोक्षं, न तु सर्वथा जीवितं प्रत्यनपेक्षतया, तथा च समयविद:-"सर्वत्थ संजमं संजमातो अप्पाणमेव रक्खिज्जा । मुच्चइ अइवायातो पुणोऽवि सोही ण याविरती र |॥१॥" अत्रोदाहरणमाह-अश्वो यथा 'शिक्षितो वल्गनप्लषनधाबनादिशिक्षा प्राहितो वृणोति-आच्छादयति शरीरकमिति वर्म-अश्वतनुत्राणं तद्धरणशीलो वर्मधारी, शिक्षितथासौ वर्मधारी च शिक्षितवर्मधारी, अनेन । ६ शिक्षकतत्रतयाऽस्य खातन्त्र्यापोहमाह, ततोऽयमर्थः-यथाऽश्वः खातच्यविरहात्प्रवर्त्तमानः समरशिरसि न वैरि-1 भिरुपहन्यत इति तन्मुक्तिमामोति, खतवस्तु प्रथममशिक्षितो रणमवाप्तस्तैरुपहन्यते, अत्र च सम्प्रदायाजाएगणे रायणा दोण्हवि कुलपुत्ताणं दो आसा दिण्णा सिक्खावणपोसणत्थं, तत्थेगो कालोचिएण जवसजोगासणेणं | १ सर्वत्र संघर्म संयमात् आत्मानमेव रक्षेत् । मुच्यतेऽतिपातात पुनरपि प्रद्धिनं चाविरतिः ॥ १॥२ एकेन राजा द्वाभ्यामपि कुलपुत्राभ्यामची ती दत्ती शिक्षणपोषणार्थ, तत्रैकः कालोचितेन यवसयोगासनेन दीप अनुक्रम [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~445~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-]/गाथा ||८|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्धत्तिः प्रत ॥२२३॥ सूत्रांक ||८|| संरक्खमाणो धावियलालियवग्गियाईयातो कलातो सिक्खायेइ, बीओ को एयरस इहजवसजोगासणं दाहिइत्ति असंस्कृता. घरट्टे वाहेइ ण तु सिक्खायेइ, सेसं अप्पणा भुंजति । संगामकाले उवट्ठिए ते रण्णा वुत्ता-तेसु चेवास्सेसु आरोढुं झत्ति आगच्छह, संपत्ता, भणिया य राइणा-पविसह संगाम, तत्थ पढमोऽसो सिक्खागुणत्तणतो सारहियमणुयत्तमाणो संगामपारतो जातो, दुइओ विसिसिक्खाभावतोऽसब्भावभावणाभावियत्तणओ गोधूमर्जतगजुत्त इव तत्थेव भभिउमाढतो, तं च परा उवलक्खेउं हयसारहिं काऊण गृहीतवन्तः ॥ दृष्टान्तानुवादपूर्वकोऽयमुपनय:यथाऽसारश्वः तथा धर्मार्थ्यपि खातयविरहितो मुक्तिमवाप्नोति, अत एव च 'पूर्वाणि 'उक्तपरिमाणानि 'वर्षाणि वत्सराणि, कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया (पा०२-३-५), किमित्याह-'चर' इति सततमागमोक्तक्रियामासेवख, कथम्?-13 !'अप्रमत्तः' गुरुपारच्यापहारिप्रमादपरिहा, 'तम्ह'त्ति तस्मात् अप्रमादचरणादेव, मन्यते जानाति जीवादीनिति मुनिः-सपखी 'क्षिप्रं' शीघ्रम् उपैति मोक्ष, ननु छन्दोनिरोधोऽपि तत्त्वतोऽप्रमादात्मक एवेति कथं न पुनरुक्तदोषः ?, १ संरक्षन धावनलालितवल्गनादिकाः कलाः शिक्षयति, द्वितीयः क एतस्मै इष्टयवसयोगासनं ददातीति घरट्टे वाहयति न तु शिक्षयति || शेषमात्मना मुझे । संपामकाले उपस्थिते ती राझोकी-तयोरेवाश्वयोरारुह्य झटिल्यागकछतं, संप्राप्ती, भणिती च राज्ञा-प्रविशतं संपाम, तत्र Hea m २२३॥ प्रथमोऽश्वः शिक्षागुणत्वात् सारथिमनुवर्तमानः संग्रामपारगो जातः, द्वितीयो विशिष्टशिक्षाभावात् असढ़ावभावनाभावितत्वात् गोधूमयनक2ीयुक्त इव तत्रैव भ्रमितुमारब्धः, तच परे उपलक्ष्य हतसारथिं कृत्वा गृहीतवन्तः । दीप अनुक्रम [१२३] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [१२४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||९|| निर्युक्तिः [२०७...] अध्ययनं [४], उच्यते, अप्रमाद एवादरः कार्य इति ख्यापनार्थत्वादध्ययनार्थोज्जीवनार्थत्वाच्चास्य न पौनरुक्त्यमिति भावनीयं, पूर्वाणि वर्षाणीति च एतावदायुषामेव चारित्रपरिणतिरिति दर्शनार्थमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ ननु यदि छन्दोनिरोधेन मुक्तिः, अयमन्त्यकाल एव तर्हि विधीयतामित्याशङ्कवाह, यद्वा यदि पश्चान्मलापध्वंसी स्यात् तदैव छन्दोनिरोधादिकमपि तद्धेतुभूतमस्त्वत आह Education intimation स पुवमेवं ण लभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीदति सिढिले आउयंमि, कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ ९ ॥ ( सूत्रम्) व्याख्या- 'स' इति यत्तदोर्नियाभिसम्बन्धात् यः प्रथममेवाप्रमत्ततया भावितमतिर्न भवति स तदात्मकं छन्दोनिरोधं 'पुवमेवं' ति एवं शब्दस्यात्रोपमार्थत्वात्पूर्वमिवान्त्यकालात् मलापध्वंससमयाद्वा अभावितमतित्वात् 'न | लभेत्' न प्राप्नुयात्, सम्भावने लिट्, ततश्च लाभसम्भावनाऽपि न समस्ति, किं पुनस्तलाभ इति, 'पश्चात् ' अन्त्य - काले मलापध्वंससमये वा, 'एसोबम'ति एषा-अनन्तरमभिहितखरूपा उप-सामीप्येन मीयते - परिच्छिद्यते स्वयंप्रसिद्ध्या अपरमप्रसिद्ध वस्त्वनयेत्युपमा, केषां ?- शाश्वता इव वदितुं शीलमेषामिति शाश्वतवादिनः, उष्ट्रक्रोशिवत् कर्त्तर्युपमाने ( पा-३-२-१९ ) इति णिनिः, तेषां शाश्वतवादिनाम् - आत्मनि मृत्युमनियतकालभाविनमपश्यताम्, For Full www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||९|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| राध्य. इदमिहाकृतं-यो हि छन्दोनिरोधमुत्तरकालमेव करिष्यामीति वक्ति सोऽवश्यं शाश्वतवादी, स चैवं प्रज्ञाप्यते- असंस्कृता. यथा भद्र ! इदानीं भवतस्तत्कालात्पूर्वमसावुक्तहेतुतो न समस्ति, तथोत्तरकालमप्यसौ प्रमादिनस्तव न भवितेति, बृहद्वृत्तिः यदि वा एपा उपमेति-उपेत्युपयोगपूर्वक मेति ज्ञानमुपमा-सम्प्रधारणा यदुत पश्चाद्धर्म करिष्यामः इति शाश्व॥२२॥ तवादिना-निरुपक्रमायुषां, ये निरुपक्रमायुष्कतया शाश्वतमिवात्मानं मन्यन्ते तेषां युज्येतापि, न तु जलयुगु-1 है दसमानायुषां, तथा चासावुत्तरकालमपि छन्दोनिरोधमनाप्नुवन् 'विषीदति' कथमहमकृतसुकृतः सम्प्रत्यनर्वाक्-४ पारं भवाम्भोधि भ्राम्यन् भविष्यामीत्येवमात्मकं वैक्लव्यमनुभवति, कदा ?-शिथिलयति-आत्मप्रदेशान् मुञ्चति|| ४/आयुषि' मनुष्यभवोपग्राहिण्यायुःकर्मणि, 'कालोवणीय'त्ति कालेन-मृत्युना खस्थितिक्षयलक्षणेन वा समयेनो पनीतः-उपढौकितः तस्मिन् , क ? इत्याह-शरीरस्य' औदारिककायात्मकस्य 'भेदे' सर्वपरिशादतः पृथग्भावे, तदिदमैदम्पर्यम्-आदित एव न प्रमादवद्भिर्भाव्यं, तथा चाह-“गमनं किमद्य किं श्रः कदाऽपि वा सर्वथा ) ध्रुवं कापि । इति जानन्नपि मूढस्तथापि मोहात्सुखं शेते ॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥९॥ किं पुनः पूर्वमिव पश्चादपि छन्दोनिरोधं न लभत इत्याह ॥२२॥ खिप्पं न सकेइ विवेगमेउं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। समेच्च लाभं समता महेसी, आयाणरक्खी चरमप्पमत्तो ॥१०॥(सूत्रम्) दीप अनुक्रम [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) * प्रत सूत्रांक ||१०|| *% व्याख्या-क्षिप्रं तत्क्षण एव 'न शक्नोति' न समर्थो भवति, किं कर्तुम् ?-'एतुं' गन्तुं प्राप्नुमितियावत् , कम् ?'विवेक' द्रव्यतो बहिःसङ्गपरित्यागरूपं भावतस्तु कषायपरिहारात्मकं, न बकृतपरिकमा झगिति तत्परित्यागं कर्नु मलम् , अत्रोदाहरणं ब्राह्मणीट्रिा एंगो मरुतो परदेसं गंतूण साहापारतो होऊण सविसयमागतो, तस्सऽनेण मरुतेण खद्धपलालितोत्तिकाउं दारिका दत्ता, सो य लोए दक्खिणातो लहति, परे विभवे बहुति तेण तीसे भारियाए सुबहुं अलंकारं कारियं, सा निचमंडिया अच्छइ, तेण भण्णइ-एस पर्चतगामो, ता तुम एयाणि आमरणगाणि तिहिपवणीसु आविंधाहि, कहिं । चोरा उवगच्छेजा तो सुहं मोविजंति, सा भणइ-अहं ताए वेलाए सिग्धमेव अवणेस्संति । अन्नया तत्थ चोरा पडिया, तमेव णिचमडियागिहं अणुपविट्ठा, सा तेहिं सालंकिया गहिया, सा य पणीयभोयणत्ता मंसोवचितपाणि-3 पाया ण सक्के कड़गाईणि अवणेउं, ततो चोरोहिं तीसे हत्थे छेत्तण अयणीया, मेण्हिउंच निग्गया ॥ एवमन्यो-|| १एको ब्राह्मणः परदेशं गत्वा शाखापारगो भूत्वा स्वविषयमागतः, तस्यान्येन ब्राह्मणेन प्रचुरेपलालित इतिकृत्वा दारिका दत्ता, स च । लोकात् दक्षिणा लभते, अतिशयेन वर्धमाने विभवे तेन तस्या भार्यायाः सुबहवोऽलकाराः कारिताः, सा नित्यं मण्डिता तिष्ठति, तेन || भण्यते-एष प्रत्यन्तनामः, तत्त्वमेतानि आभरणानि तिधिपर्वसु परिधेहि, कदाचिौरा उपगच्छेयुस्तदा सुखं गोप्यन्ते, सा भणति-अहं तस्यां वेलायां शीघ्रमेवापनेष्यामीति । अन्यदा तन्त्र चौराः पतिताः, तदेव नित्यमण्डितागृहमनुप्रविष्ठाः, सा तैः सालङ्कारा गृहीता, सा, च प्रणीतभोजनत्वात् उपचितमांसपाणिपादा न शक्नोति कटकादीन्यपनेतुं, तत: चौरैतस्या हस्तौ छित्त्वा अपनीतानि, गृहीत्वा च निर्गताः। CXCC दीप अनुक्रम [१२५] *** %2525 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| उत्तराध्य भाऽपि प्रागकृतपरिका न तत्काल एव विवेकमेतुं शक्नोति, मलापध्वंसस्तु तथा सति दूरापास्त एवेति, न च मरुदेबृहद्वृत्तिः ब्युदाहरणं तत्राप्यभिधेयम् , आश्चर्यरूपत्वादस्य, न ह्येवं तीवभावा बहवः सम्भवन्ति, यत एवं तस्मात् 'सम्' इति । दिसम्यकप्रवृत्या 'उत्थायेति च पश्चाच्छन्दो निरोत्स्याम इत्यालस्थत्यागेनोद्यम विधाय, तथा 'पहाय कामे'त्ति प्रकर्षण ॥२२५॥ -मनसाऽपि तदचिन्तनात्मकेन 'हित्वा'त्यक्त्वा कामान् इच्छामदनात्मकान् 'समेत्य सम्यग्ज्ञात्वा 'लोक' समस्त प्राणिसमूह, कया ?-'समतया' समशत्रुमित्रतया कचिदरक्तद्विष्टतयेतियावत्, तथा च महर्षिः सन् महः-एकान्तोत्सवरूपत्वान्मोक्षस्तमिच्छतीत्येवंशीलो महेषी वा, किमुक्तं भवति ?-विषयाभिलापविगमान्निर्निदानः सन् आत्मानं|| रक्षत्यपायेभ्यः कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशील आत्मरक्षी, यद्वाऽऽदीयते-स्वीक्रियते आत्महितमनेनेत्यादानः-संयमः तद्रक्षी 'चरमप्पमत्तो'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततश्चराप्रमत्तः-प्रमादरहितः, इह च प्रमादपरिहारापरिहारयोरहि-IN ४ कमुदाहरणं वणिग्महिला, तत्र च सम्प्रदायःहै एगो वणिगमहिला पउत्थपतिया सरीरसुस्सूसापरा दासभयगकम्मकरे णिजणिजभियोगेसु न नियोजयति, न य तसिं कालोववन्नं जहिच्छं आहारं भतिं वा देति, ते सत्वे नहा, कम्मतपरिहाणीए विभवपरिहाणी, आगतो वाणियओ, ||२२५॥ ____१ एका वणिग्महिला प्रोषितपतिका शरीरशुश्रूषापरा दासभृतककर्मकरान् निजनिजाभियोगेषु न नियोजयति, न च तेभ्यः कालोपपन्न ६ यथेष्टमाहारं भृति वा ददाति, ते सर्वे नष्टाः, कर्मान्तपरिहाण्या विभवपरिहाणिः, आगतो बणिक, दीप अनुक्रम [१२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| एवंविहं पस्सिऊण पच्छा तेण णिच्छूढा। अण्णं तु पुक्खलेणं सुकेणं वरेति, लद्धा य ण, तेण तीसे णियगा भण्णतिजइ अप्पाणं रक्खद ता परिणेमित्ति, ताए यऽमुणियपरमत्थाए दुग्गयकन्नगाए सोउं नियगा भण्णंति-रक्खामि(क्खि-|| हिइ)अप्पगं, सा तेण विवाहिया, गतो वाणिज्जेणं, सावि दासभयगकम्मकरातीणं संदेसं दाउं तेसिं पुहिकाइकाले भोयणं देइ, महुराहिं च वायाहिं उच्छाहेइ, भई च तेर्सि अकालपरिहीणं देइ, ण य णियगसरीरसुस्सूसापरा, एव-14 मप्पाणं रक्खंतीए भत्ता उवागओ, सो एवंविहं पस्सिऊण तुहो, तेण सवसामिणी कया । इत्थं तावदिहैव गुणाया-8 प्रमादो दोपाय च प्रमादः आस्तामन्यजन्मनीत्यभिप्रायेणात्रैवेहिकोदाहरणाभिधानमिति परिभावनीयमिति सूत्रार्थः KI॥१०॥ प्रमादमूलं च रागद्वेषाविति सोपायं तत्परिहारमाह मुहुं मुहं मोहगुणे जयंतं, अणेगरुवा समणं चरंतं । फासा फुसंती असमंजसं च, ण तेसु भिक्खू मणसा पउस्से ॥११॥ (सूत्रम्) १ एवंविधं दृष्ट्वा पश्चात्तेन निष्काशिता । अन्यां तु पुष्कलेन शुल्केन वृणुते, लब्धा चानेन, तेन तस्या निजका भण्यन्ते-यद्यात्मानं रक्षति | तर्हि परिणयामीति, तस्याश्चाज्ञातपरमार्थाया दुर्गतकन्यायाः श्रुत्वा निजका भणन्ति-रक्षिष्यति आत्मानं, सा तेन विवाहिता, गतो वाणिन्याय, साऽपि दासभृत्यकर्मकरादिभ्यः संदेशं दापयित्वा (संगृहा) तेभ्यः पूर्वाहादिकाले भोजनं ददाति, मधुरामिश्च वाचाभिरुत्साहयति, भृतिं च है तेभ्योऽकालपरिहीणां ददाति, न च निजशरीरशुश्रूषापरा, एवमात्मानं रक्षन्त्या भोपागतः, स एवंविधं दृष्ट्वा तुष्टः, तेन सर्वस्वामिनी कृता । दीप अनुक्रम [१२५] Rainrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -१२|| दीप अनुक्रम [१२६ -१२७] उतराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२२६॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||११-१२|| अध्ययनं [ ४ ], Education intimation मंदाय फासा बहुलोभणिज्जा, तहप्पगारेसुम णं ण कुंजा | रक्खेज कोहं विणएज माणं, मायं ण सेवेज पहिज्ज लोहं ॥ १२ ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- ' मुहूर्मुहुः' वारं वारं सततप्रवृत्त्युपलक्षणमेतत्, मोहयति - जानानमपि जन्तुमाकुलयति प्रवर्त्तयति चान्यथेहेति मोहः तस्य गुणाः मोहगुणाः- तदुपकारिणः शब्दादयः, तान् 'जयंतं' अभिभवन्तं, किमुक्तं भवति १अविच्छेदतस्तज्जयप्रवृत्तं यद्वा कथञ्चिन्मोहनीयात्सन्तोदयत एकदा तैः पराजितमपि पुनः पुनखज्जयं प्रति प्रवर्त्तमानं न तु तत एव विमुक्तसंयमोद्योगम्, 'अनेकरूपाः' अनेकमिति - अनेकविधं परुषविषम संस्थानादिभेदं रूपं स्वरूपमेपामिति अनेकरूपाः, श्रमणं चरन्तं प्राग्वत्, 'फास' चि स्पृशन्ति खानि खानीन्द्रियाणि गृह्यमाणतया इति स्पर्शा:शब्दादयस्ते 'स्पृशन्ति' गृह्यमाणतयैव सम्बन्ति, 'असमंजसम्' अननुकूलमिति क्रियाविशेषणमेतत्, चशब्दोऽवधारणे, असमञ्जसमेव, अथवा स्पर्शनविषयाः - स्पर्शाः स्पृशन्ति, स्पर्शोपादानं चास्यैव दुर्जयत्वाद्यापित्वाच्च, न 'तेषु' स्पर्शेषु 'भिक्षुः' मुनिः, मनसा उपलक्षणत्वाच्च वाचा कायेन च, यद्वाऽपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वान्मनसाऽपि आस्तां वाचा कायेन वा, 'पदूसे' ति प्रदूष्येत् प्रद्विष्याद्वा, किमुक्तं भवति ?--कर्कश संस्तारकादिस्पर्शादौ हन्तोपतापिता वयमेतेनेति न चिन्त निर्युक्तिः [२०७...] For Fans Only ~452~ असंस्कृता. ४ ॥२२६॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||११-१२|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -१२|| येत् नैव वा वदेत्परिहरेद्वा तमिति॥'मंदा येति सूत्रं, तथा मन्दायन्तीति मन्दाः-हिताहितविवेकिनमपि जनमन्यता नयन्तीतिकृत्वा, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुचये, स्पर्शाः प्राग्वच्छन्दादयः, बहन् लोभयन्ति-विमोहयन्तीति बहु-12 १ लोभनीयाः 'अन्यत्रापी (कृत्यल्युटी बहुलम् ) ति वचनात् कर्तर्यनीयः, अनेनात्याक्षेपकत्वमुक्त, 'तहप्पगारेसुत्ति, अपेर्गम्यमानत्वात्तथाप्रकारेवतिबहुलोभनीयेष्वपि मृदुस्पर्शमधुररसादिषु 'मनः' चित्तं न कुर्यात्, अथवा धातूनामनेकार्थत्वान्न निवेशयेत्, यद्वा सङ्कल्पात्मकमेव मनः, ततो मन इति सङ्कल्पमपि न कुर्यात्न विदध्याद् आस्तां तत्प्रवृत्तिमिति, अथवा मन्दबुद्धित्वान्मन्दगमनत्वाद्वा मन्दाः-स्त्रियः ता एव स्पर्शप्रधानत्वात् स्पशाः, ततश्च महैन्दाश्च स्पर्शाः, पहूनां कामिना लोभनीयाः-गृद्धिजनका बहुलोभनीयाः यास्तासु 'तहप्पगारेसु'त्ति लिङ्गव्यत्ययात्त-17 याप्रकारासु बहुलोभनीयासु मनोऽपि न कुर्याद् , इह च स्त्रीणामेव बहुतरापायहेतुत्वादित्थमुच्यते, तथा चाह"स्पर्शेन्द्रियप्रसक्ताच, बलवन्तो मदोत्कटाः। हस्तिवन्धकिसंरक्ता, वध्यन्ते मत्तवारणाः॥१॥" इति । एवं च पूर्वसूत्रेण द्वेषस्य परिहार उक्तः, अनेन च रागस्य, स तु कथं भवतीत्यत आह-रक्षयेत्' निवारयेत् , कम् ?-'क्रोधम्। अग्रीतिलक्षणं, 'विनयेत् ' अपनयेत् 'मानम् ' अहङ्कारात्मकं, 'मायां' परवञ्चनबुद्धिरूपां न कुयोत्, 'प्रजयात्र परित्यजेत् 'लोभम् ' अभिष्यजखभावं, तथा च क्रोधमानयोद्धेषात्मकत्वान्मायालोमयोष रागरूपत्वात्तन्निग्रह एव तत्परिहतिरिति भावनीयम् । अथवा स्पर्शपरिहारमभिदधता चतुर्थव्रतमुक्तं, तब 'अपभचेरं घोर पमायं दुरहिट्ठग'ति-13 १ अब्रह्मचर्य धोरै प्रमादं दुरधिष्ठितम् । दीप अनुक्रम [१२६-१२७]] * * ** JABERatinintamational wwsaneiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||११-१२|| नियुक्ति: [२०७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -१२|| उत्तराध्य. वचनान्महाप्रमादरूपस्थानमणो निरोधकृदिति, तदभिधानाद्धिंसादिनिरोधोऽप्युक्त एवेति, अनेनार्थतो मूलगुणाभि-असंस्कृता. बृहद्धत्तिः धानं, रक्षेत् क्रोधमित्यादिना च पिण्डादिकमयच्छते यच्छते वा न कषायवशगो भवेदित्युत्तरगुणोक्तिरिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ११-१२ ॥ सम्प्रति यदुक्तं-'तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे' इत्यादि, तत्कदाचिचरकादिष्यपि भवेत् अत आह॥२२७॥ यद्वैतावता चारित्रशुद्धिरुक्ता, सा च न सम्यक्त्वविशुद्धिमपहायातस्तदर्थमिदमाह जे संखया तुच्छपरप्पवादी, ते पेजदोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मुत्ति दुगुंछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीरभेए ॥ १३ ॥ तिबेमि (सूत्रम्) व्याख्या-'थे' इति अनिर्दिष्टस्वरूपाः, संस्कृता इति न तात्त्विकशुद्धिमन्तः किन्तूपचरितवृत्तयः, यद्वा संस्कृ-16 तागमप्ररूपकत्वेन संस्कृताः, यथा सौगताः, ते हि खागमे निरन्ययोच्छेदमभिधाय पुनतेनैव निर्वाहमपश्यन्तः परमाथेतोऽन्वयि द्रव्यरूपमेव सन्तानमुपकल्पयांवभूवुः, साजधाश्चैकान्तनित्यतामुक्त्वा तत्त्वतः परिणामरूप पाव| पुनराविर्भावतिरोभायावुक्तवन्तो, यथा वा-'उक्तानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भावितानि च । सापेक्षनिरपेक्षाणि, ॥२२७॥ ऋषिवाक्यान्यनेकशः ॥१॥' इतिवचनाद्वचननिषेधनसम्भवादिभिरुपस्कृतस्मृत्यादिशास्त्रा मन्वादयः, अत एवं 18'तुच्छत्ति तुच्छा यदृच्छाभिधायितया निःसाराः 'परप्पवाइ'त्ति परे च ते स्वतीर्थिकव्यतिरिक्ततया प्रवादिनच दीप अनुक्रम [१२६-१२७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१२८] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [ - ] / गाथा ||१३|| निर्युक्तिः [२०७...] परप्रवादिनः, ते किमित्याह- 'पेज दोसाणुगया' प्रेमद्वेषाभ्यामनुगताः प्रेमद्वेषानुगताः, तथाहि सर्वथा संवादिनि भगवद्वचसि निरन्वयोच्छेदैकान्त नित्यत्वादिकल्पनं वचननिषेधनसम्भावनादि वा न रागद्वेषाभ्यां विनेति भावनीयम्, अत एव च 'परज्झ'त्ति देशीपरत्वात्परवशा रागद्वेषग्रहग्रस्तमानसतया न ते खतन्त्राः, यदि त एवंविधास्ततः किमित्याह'एते' इति अर्हन्मतबाह्याः, अधर्महेतुत्वादधर्म्मः, 'इती'समुनोछेखेन 'दुर्गुछमाणो'त्ति जुगुप्समानः उन्मार्गानुया| यिनोऽमी इति तत्स्वरूपमवधारयन्, न तु निन्दन्, निन्दायाः सर्वत्र निषेधात्, तदेवंविधश्च किं कुर्यादित्याह - 'काक्षेत्' अभिलषेत् 'गुणान्' सम्यग्दर्शनचारित्रात्मकान् भगवदागमाभिहितान् किं नियतकालमेवोतान्यथे| त्याह-यावच्छरीरात्-औदारिकात्पञ्चप्रकाराद्वा भेदः - पृथग्भावः शरीरभेदो, मरणं विमुक्तिर्वतियावद्, अनेनेहैव | समुत्थानं कामग्रहाणादि च तत्त्वतः, अन्यत्र तु संवृत्तिमदित्युक्तम्, एवं च काङ्क्षात्मक सम्यक्त्वा तिचारपरिहाराभिधानतः समक्त्वशुद्धिर्वेति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ इति परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, ते च पूर्ववत् ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां प्रमादाप्रमादनामकं चतुर्थमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ॥ 11 ॥ 11 Education intemational ሆ በ ॥ For Farina Pat Use Only ~ 455 ~ ון मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं ४ परिसमाप्तं Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१२८] *%%% “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ५ ], मूलं [ - ] / गाथा || १३...|| निर्युक्ति: [२०८] उत्तराध्ययनेषु पञ्चममध्ययनम् । ॥ उक्तं चतुर्थमध्ययनं साम्प्रतं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः -- अनन्तराध्ययने 'कात् गुणान् यात्रच्छरीरस्य भेद इत्यभिदधता मरणं यावदप्रमादोऽनुवर्णितः, ततो मरणकालेऽप्यप्रमादो विधेयः, स च मरणविभागपरिज्ञानत एव भवति, ततो हि बालमरणादि हेयं हीयते पण्डितमरणादि चोपादेयमुपादीयते, तथा च तचतोऽप्रमत्तता जायते इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वार चतुष्टयमुपवर्ण्य तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे 'अकाममरणीयम्' इति नाम, तत्र च काममरणप्रतिपक्षोऽकाममरणम्, अतः कामानां मरणस्य च निक्षेपः कार्यः, तत्र काममरणयोर्निक्षेपं प्रतिपादयितुमाह नियुक्तिकृत् कामाण उणिक्खेवो चउविहो छविहो य मरणस्स | कामा पुबुद्दिट्ठा पगयमभिप्पेय कामेहिं ॥ २०८ ॥ व्याख्या - काम्यन्त इति कामास्तेषां तुः पूरणे, निक्षेपश्चतुर्विधः, षड्विधश्च मरणस्य, भवतीत्युभयत्र गम्यते, तत्र कामाः पूर्वोद्दिशः पूर्व- श्रामण्यपूर्वकनानि दशवैकालिकद्वितीयाध्ययने उद्दिष्टाः - कथिताः, तत्र तेषामनेकधा वर्णनात्, यैरत्र प्रकृतं तान् दर्शयितुमाह-'प्रकृतम्' अधिकृतम्, 'अभिप्रेतकामैः' इच्छाकामैरिति गाथार्थः Education intemational Forest १८०% ~456~ www.lincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं ५ "अकाममरणीय" आरभ्यते Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२०] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| Ki ओहे'त्ति ओघमरण-सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मकं भवति, भवमरणं-यनारकादेनरकादिभवविषयतया विवक्षितं, 'तम्भविय'त्ति तद्भाविकमरणं यस्मिन्नेव मनुष्यभवादौ मृतः पुनस्तस्मिन्नेवोत्पद्य यन्म्रियते इति व्याख्यानि*काभिप्रायो, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'तं भावमरणं दविह-ओघमरणं तब्भवमरणं च, तथा तद्भवमरणखरूपं च 'जो जम्मि|| भवग्गणे मरई। तत्र च 'ओहे तब्भवमरणे' इति पाठो लक्ष्यते । इह चैषां येनाधिकारस्तमाह-'मणुस्सभविएणीति मनुष्यभवभाविना भवमरणान्तर्वर्तिना मनुष्यभविकमरणेनाधिकारः-प्रकृतम् , इति गाथार्थः ॥२०९॥ सम्प्रति विस्तरतो मरणवक्तव्यताविषयं द्वारगाथाद्वयमाहमरणविभत्तिपरूवण अणुभावो चेव तह पएसगं। कइ मरइ एगसमयं? कइखुत्तो वावि इकिके ? ॥२१०॥ मरणमि इक्कमिक्के कइभागो मरइ सव्वजीवाणं? । अणुसमय संतरं वा इकिकं किञ्चिरं कालं ?॥ २११ ॥ व्याख्या-तत्र मरणस्य विभक्तिः-विभागस्तस्य प्ररूपणा-प्रदर्शना मरणविभक्तिप्ररूपणा, कार्येति शेषः, अनुभागश्च-रसः, स च तद्विषयस्यायुःकर्मणः, तत्रैव तत्सम्भवात् , मरणे हि तदभावात्मनि कथं तत्सम्भव इति भावनीयम् , एवेति पूरणे, तथा प्रदेशानां-तद्विषयायुःकर्मपुद्गलात्मकानाम् अग्रं-परिमाणं प्रदेशाग्रं, वाच्यमिति गम्यते, दीप अनुक्रम [१२८] *MKK For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: અહી પ્રતનું પાનું ૨૨કા૨ આવશે, સ્કેન કરનારની ભૂલ થી પાનું ૨૩૦/૧ બે વખત સ્કેન થઇ ગયેલ છે ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--1 / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१०-२११] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| Ki ओहे'त्ति ओघमरण-सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मकं भवति, भवमरणं-यनारकादेनरकादिभवविषयतया विवक्षितं, 'तम्भविय'त्ति तद्भाविकमरणं यस्मिन्नेव मनुष्यभवादौ मृतः पुनस्तस्मिन्नेवोत्पद्य यन्म्रियते इति व्याख्यानि* काभिप्रायो, वृद्धास्तु ब्याचक्षते-'तं भावमरणं दुविहं-ओघमरणं तब्भवमरणं च, तथा तद्भवमरणस्वरूपं च 'जो जम्मि भवग्गणे मरई। तत्र च 'ओहे तब्भवमरणे' इति पाठो लक्ष्यते । इह चैषां येनाधिकारस्तमाह-'मणुस्सभविएणीति मनुष्यभवभाविना भवमरणान्तर्वर्तिना मनुष्यभविकमरणेनाधिकारः-प्रकृतम् , इति गाथार्थः ॥२०९॥ सम्प्रति विस्तरतो मरणवक्तव्यताविषयं द्वारगाथाद्वयमाहमरणविभत्तिपरूवण अणुभावो चेव तह पएसगं। कइ मरइ एगसमयं? कइखुत्तो वावि इकिके ? ॥२१०॥ मरणमि इक्कमिक्के कइभागो मरइ सव्वजीवाणं? । अणुसमय संतरं वा इकिकं किञ्चिरं कालं ?॥ २११ ॥ व्याख्या-तत्र मरणस्य विभक्तिः-विभागस्तस्य प्ररूपणा-प्रदर्शना मरणविभक्तिप्ररूपणा, कार्येति शेषः, अनुभागश्च-रसः, स च तद्विषयस्यायुःकर्मणः, तत्रैव तत्सम्भवात् , मरणे हि तदभावात्मनि कथं तत्सम्भव इति भावनीयम् , एवेति पूरणे, तथा प्रदेशानां-तद्विषयायुःकर्मपुद्गलात्मकानाम् अग्रं-परिमाणं प्रदेशाग्रं, वाच्यमिति गम्यते, दीप अनुक्रम [१२८] *MKK FRPHATARPrvanusooni मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-1 / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१२-२१३] (४३) अकाम प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. कति' कियन्ति मरणानि, अङ्गीकृत्य इति शेषः, म्रियते-प्राणांस्त्यजति, जन्तुरिति गम्यते, 'एगसमय'ति सुव्यत्ययात् बृहद्वृत्तिः ।। एकस्मिन् समये 'कइखुत्तो'त्ति कतिकृत्वः कियतो वारान् , 'वा' समुच्चये, अपिः पूरणे, 'एकेकंति' एकैकस्मिन् वक्ष्यमालणभेदे मरणे म्रियते इति योज्यम् , 'मरणे' वक्ष्यमाणभेद एवैकैकस्मिन् 'कतिभागो'त्ति कतिसङ्ख्यो भागो म्रियते, 'सर्व जीवानाम् ' अशेषजीवानाम् 'अणुसमयंति प्रतिसमयं निरन्तरमितियावत् , अन्तरं-व्यवधानं सहान्तरेण वर्तत इति सान्तरं, या विकल्पे, किमुक्तं भवति ?-एषु कतरनिरन्तरं सान्तरं वा ?, तथैकैकं "कियचिरं' कियत्परिमाणं 3 कालं सम्भवतीति गाथाद्वयाक्षरार्थः ॥ २१०-२११॥ भावार्थ तु खत एवं वक्ष्यति नियुक्तिकारः-तत्र च 'यथो-13 हेशं निर्देश' इति न्यायतः प्रथमं द्वारमाश्रित्याहआवीचि ओहि अंतिय वलायमरणं वसहमरणं च । अंतोसल्लं तब्भव बालं तह पंडियं मीसं ॥ २१२॥ छउमत्थमरण केवलि वेहाणस गिद्धपिट्टमरणं च । मरणं भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमणंच ॥२१३॥ व्याख्या-इह च मरणशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् आवीचिमरणम् १ अवधिमरणम् २ 'अन्तिय'त्ति आर्ष-11 त्वादत्यन्तमरणं ३ 'वलायमरणं'ति तत एव बलन्मरणं ४ वार्त्तमरणं च ५ अन्तःशल्यमरणं ६ तद्भवमरणं ७ बालमरणं ८ तथा पण्डितमरणं ९ मिश्रमरणं १० छद्मस्थमरणं ११ केवलिमरणं १२ 'वेहाणसं'ति तत एव वैहायसमरणं दीप अनुक्रम [१२८] KAMAKA ॥२३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| १३ गृध्रपृष्ठमरणं १४ 'मरणं भत्तपरिण'त्ति भक्तपरिज्ञामरणम् १५ इङ्गिनीमरणं १६ पादपोपगमनमरणं १७ चेति गाथाद्वयार्थः ॥ २१२-२१३ ॥ सम्प्रत्यतिबहुभेददर्शनान्मा भूत् कस्यचिदश्रद्धानमिति सम्प्रदायगर्भ निगमनमाहसत्तरसविहाणाई मरणे गुरुणो भणंति गुणकलिआ। तेसिं नामविभत्तिं वुच्छामि अहाणुपुवीए ॥२१॥ | व्याख्या-ससदश-सप्तदशसङ्ख्यानि विधीयन्ते-विशेषाभिव्यक्तये क्रियन्त इति विधानानि-भेदाः 'मरणे' मरणविषयाणि 'गुरवः' पूज्यास्तीर्थकृगणभृदादयो 'भणन्ति' प्रतिपादयन्ति, गुणैः-सम्यग्दर्शनज्ञानादिभिः कलितायुक्ता गुणकलिताः, न तु वयमेव इत्याकूतं, वक्ष्यमाणग्रन्थसम्बन्धनार्थमाह-'तेषां' मरणानां नानाम्-अभिधानानामनन्तरमुपदर्शितानां विभक्तिः-अर्थतो विभागो नामविभक्तिस्तां 'वक्ष्ये' अभिधास्से, 'अर्थ'सनन्तरमेव आनुपूा-क्रमेणेति गाथार्थः ॥ २१४ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाहअणुसमयनिरंतरमवीइसन्नियं तं भणंति पंचविहं । दवे खित्ते काले भवे य भावे य संसारे ॥ २१५॥ व्याख्या-'अणुसमय' समयमाश्रित्य, इदं च व्यवहितसमयाश्रयणतोऽपीति मा भूद्धान्तिरत आह-निरन्तरं, न सान्तरम् , अन्तरालासम्भवात् , किं तदेवंविधम् ?–'अवीइसंनियंति प्राकृतत्वादा-समन्ताद्वीचय इव वीचयः प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरायुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदाऽऽवीचि, ततश्चा दीप अनुक्रम [१२८] JintainstmNOT मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१५] (४३) मरणाध्य. ॥२३॥ प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्याचीचीति संज्ञा संजाता अस्मिंस्तारकादित्वात् 'तदस्य सातं तारकादिभ्य इतजि' (पा०५-२-४६) त्यनेनेत्यावीबृहद्भुत्तिः चिसंज्ञितम् , अथवा वीधि-विच्छेदस्तदभावादबीचि तत्संज्ञितम् , उभयत्र प्रक्रमान्मरणं, यद्वा संज्ञितशब्दः प्रत्येक-2 मभिसम्बध्यते, ततश्च अनुसमयसंज्ञित-निरन्तरसंज्ञितम् अवीचिसंज्ञितमिति एकाधिकान्येतानि, 'तदि' त्यावीचिमरणं 'भणन्ति' प्रतिपादयन्ति पञ्चविधं' पञ्चप्रकारं, गणधरादय इति गम्यते, अनेन च पारतव्यं द्योतयति, तदेवाह-'दवेत्ति द्रव्यावीचिमरणं 'खेत्तेत्ति क्षेत्रावीचिमरणं 'काले'त्ति कालावीचिमरणं भवे यत्ति भवाबीचिमरणं च 'भावे य'त्ति भावावीचिमरणं च, संसार इत्याधारनिर्देशः, तत्रैव मरणस्य सम्भवात् , तत्र द्रव्यावीचिमरणं नाम यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात् प्रभृति निजनिजायुःकर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनाद्विचटनं, तच्च नारकादिभेदाचतुर्विधम् , एवं नरकादिगतिचातुर्विध्यापेक्षया तद्विपयं क्षेत्रमपि चतुर्दैव, ततस्तत्वाधान्यापेक्षया क्षेत्रावीचिमरणमपि चतुर्द्धव, 'काल'इति यथाऽऽयुष्ककालो गृह्यते, न त्वद्धाकालः, तस्य देवादिष्वसम्भवात् , स च देवायुष्ककालादिभेदाचतुर्विधः, ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया कालावीचिमरणमपि चतुर्विधम् , एवं नरकादिचतुर्विधभवा पेक्षया भयावीचिमरणमपि चतुर्धेव, तेषामेव च नारकादीनां चतुर्विधमायुःक्षयलक्षणं भावं प्राधान्येनापेक्ष्य भावा-IMIR३॥ दावीचिमरणमपि चतुर्थैव वाच्यमिति गाथार्थः ॥ २१५ ॥ अधुनाऽवधिमरणमाह-. एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चेव मरइ पुणो। दीप अनुक्रम [१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१६] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| व्याख्या-'एवमेव' यथाऽऽवीचिमरणं द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदतः पञ्चविधं, तथाऽवधिमरणमपीत्यर्थः । तत्वरूपमाह-यानि मृतः, सम्प्रतीति शेषः, तानि चैव 'मरइ पुणो'त्ति आर्षत्वात्तिव्यत्ययेन मरिष्यति पुनः, किमुक्तं । भवति ?-अवधिः-मर्यादा, ततश्च यानि नारकादिभवनिवन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तद् द्रव्यावधिमरणं, सम्भवति हि गृहीतोज्झितानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणम् , परिणामवैचित्र्याद्, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयं । पश्चाद्धेनाऽऽत्यन्तिकमरणमाह एमेव आइयंतियमरणं नवि मरइ ताइ पुणो ॥ २१६ ॥ व्याख्या-'एवमेव' अवधिमरणवदात्यन्तिकमरणमपि द्रव्यादिभेदतः पञ्चविधं, विशेषस्त्वयम्-'गावि मरइ ताइ ४ त पुणोति अपिशब्दस्दैवकारार्थत्वान्नैव तानि द्रव्यादीनि पुनर्मियते, इदमुक्तं भवति-यानि नरकाद्यायुष्कतया कर्म दलिकान्यनुभूय म्रियते मृतो वा न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यति, एवं क्षेत्रादिष्वपि वाच्यं, त्रीण्यपि चामून्यवीच्यविध्यात्यन्तिकमरणानि प्रत्येकं पञ्चानां द्रव्यादीनां नारकादिगतिभेदेन चतुर्विधत्वाविंशतिभेदानीति गाथार्थः ॥२१६ साम्प्रतं बलन्मरणमाहसंजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदियविसयवसगया मरति जे तं वस तु ॥२१७॥ दीप अनुक्रम [१२८] -- Next मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१७] (४३) 09k मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्या व्याख्या-संयमयोगाः-संयमव्यापारास्तैस्तेषु या विषण्णाः संयमयोगविषण्णा अतिदुश्चरं तपश्चरणमाचरितुमबृहद्वृत्तिः क्षमाः व्रतं च मोक्तुमशक्नुवन्तः कथञ्चिदस्माकमितो मुक्तिरस्त्विति विचिन्तयन्तो म्रियन्ते यत्तद्वलतां-संयमानिवसमानानां मरणं वलन्मरणं, तुर्विशेषणे, भग्नव्रतपरिणतीनां तिनामेवैतदिति विशेषयति, अन्येषां हि संयमयोगाना॥२३२॥ मेवासम्भवात् कथं तद्विपादः ? तदभावे च तदिति । पश्चार्द्धन यशार्तमाह-इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां विषयाः मनोज्ञरूपादय इन्द्रियविषयास्तद्वशं गताः-प्राप्ता इन्द्रियविषयवशगताः स्निग्धदीपकलिकाऽवलोकनाकुलितपतङ्गवत् नियन्ते यत्तद्वशार्तमरणं, कथञ्चिद्रव्यपर्याययोरभेदादेवमुच्यते, एवं पूर्वत्रापि भावनीयं, तुशब्द एषामप्यध्यवसानभेदतो वैचित्र्यख्यापनार्थ इति गाथार्थः ॥ २१७ ॥ अन्तःशल्यमरणमाह लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुचरिअंीजे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुँति ॥२१॥ द गारवपंकनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न कहति । दसणनाणचरिते ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥ २१९ ॥ व्याख्या-तत्र 'लजया' अनुचितानुष्ठानसंवरणाऽऽत्मिकया 'गौरवेण च' सातर्द्धिरसगौरवात्मकेन, मा भून्ममा- लोचनाईमाचार्यमुपसर्पतस्तद्वन्दनादिना तदुक्ततपोऽनुष्ठानासेयनेन च ऋद्धिरससाताभावसम्भवः इति, 'बहुश्रुतम-13 देन वा' बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्धरिष्यति ? कथं चाहमस्मै बन्दनादिकं दास्यामि ? अपना दीप अनुक्रम [१२८] रीमा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१८-२१९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| जना हि इयं मम इत्यभिमानेन, अपिः पूरणे, ये गुरुकर्माणो 'न कथयन्ति' नालोचयन्ति, केषाम् ?-'गुरूणाम्' आलोचनार्हाणामाचार्यादीनां, किं तद् ?-'दुश्चरित' दुरनुष्ठितम् इति सम्बन्धः, 'न हु' नैव 'ते' अनन्तरमुक्तरूपा आराधयन्ति-अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधका भवन्ति, ततः किमित्याह-गौरवं पङ्क इव | कालुप्यहेतुतया तस्मिन् निबुडा-इति प्राकृतत्वानिममा इव निममाः तक्रोडीकृततया, लज्जामदयोरपि प्रागुपादाने यदिह गौरवस्योपादानं तदस्यैवातिदुष्टताख्यापनार्थम् , 'अतिचारम्' अपराधं ये 'परस्य' आचार्यादेः न कथयन्ति, किंविषयम् ? इत्याह-दर्शनज्ञानचारित्रे' दर्शनज्ञानचारित्रविषयं, तत्र दर्शनविषयं शङ्कादि ज्ञानविषयं कालाति क्रमादि चारित्रविषय समित्यननुपालनादि, शल्यमिव शल्यं कालान्तरेऽप्यनिष्टफल विधानं प्रत्ववन्ध्यतया, सह तेन हसशल्यं तब तम्मरणं च सशल्यमरणम्-अन्तःशल्यमरणं भवति, 'तेपा' गौरवपकमनानामिति गाथाद्वयार्थः । ॥२१८-२१९ ॥ अस्यैवात्यन्तपरिहार्यतां ख्यापयन् फलमाह एयं ससल्लमरणं मरिऊण महब्भए दुरंतंमि । सुइरं भमंति जीवा दीहे संसारकंतारे ॥ २२०॥ ___ व्याख्या-'एतद्' उक्तखरूपं सशल्यमरणं यथा भवति तथेत्युपस्कारः, सुव्यत्ययाद्वा एतेन-सशल्यमरणेन 'मृत्वा' स्वक्त्वा प्राणान्, के ?-जीवा इति सम्बन्धः, किम् ?-'सुचिरं भ्रमन्ति' बहुकालं पर्यटन्ति, क-संसारः कान्तारमिवातिगहनतया संसारकान्तारः तस्मिन्निति सण्टकः, कीशि १-महद्भयं यस्मिन् तन्महाभयं तस्मिन् , तथा दीप अनुक्रम [१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--1/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२१] (४३) अकाम उत्तराध्य बृहद्धृत्तिः ॥२३॥ * मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ||१३|| * दुःखेनान्त:-पर्यन्तो यस्य तहुरन्तं तस्मिन् , तथा 'दीर्घ अनादौ केषाञ्चिदपर्यवसिते चेति तत् सर्वथा परिहर्तव्यमे-IN बेति भाव इति गाथार्थः ॥ २२० ॥ तद्भयमरणमाहमोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ २२१॥ | व्याख्या-'मुक्त्या' अपहाय, कान् ?-'अकम्मभूमगनरतिरिए चि सूत्रत्वात् अकर्मभूमिजाच ते देवकुरूत्तरकु दिपूत्पन्नतया नरतियश्चश्च अकर्मभूमिजनरतियञ्चस्तान् , तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः, तथा 'सुरगणांश्च सुरनिकायान् , किमुक्तं भवति ?-चतुर्निकायवर्तिनोऽपि देवान् , निरयो-नरकः तस्मिन् भवा नैरयिकाः, इहापि, चशब्दानुवृत्तेस्तांश्च मुक्त्वेति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यग्मनुष्येष्वेवोत्पत्तेः, 'शेषाणाम् ' एतदुद्धरितानां कर्मभूमिजनरतिरश्था 'जीवानां' प्राणिनां तद्भवमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः, तद्धि यस्मिन् भवे वर्तते । जन्तुस्तद्भवयोग्यमेयायुर्वट्वा पुनस्तत्क्षयेण प्रियमाणस्य भवति, तुशब्दस्तेषामपि समयेयवर्षायुषामेवेति विशेषख्या-11 पकः, असञ्जयेयवर्षायुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामिव देवेष्येवोत्पादः, तेषामपि न सर्वेषां, किन्तु 'के-12 पाश्चित् ' तद्भवोत्पादानुरूपमेवायुःकर्मोपचिन्वतामिति गाथार्थः ॥ २२१ ॥ अत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु 'मोतूण ओहि-|| मरणं' इत्यादिगाथा दृश्यते, न चास्या भावार्थः सम्यगवबुध्यते, नापि चूर्णिकृताऽसौ व्याख्यातेति उपेक्ष्यते ॥ सम्प्रति बालपण्डितमिश्रमरणखरूपमाह दीप अनुक्रम [१२८] ॥२३३॥ * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१२८] Jan Extrator ॐषॐ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [ - ] / गाथा || १३... || निर्युक्ति: [२२२] अविश्यमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं बिंति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥ २२२॥ व्याख्या - विरमणं विरतं - हिंसाऽनृतादेरुपरमणं न विद्यते तद् येषां तेऽमी अविरताः तेषां मृतिसमयेऽपि देशविरतिमप्रतिपद्यमानानां मिथ्यादृशां सम्यग्दृशां वा मरणमचिरतमरणं - बालमरणमिति ब्रुवत इति सम्बन्धः, तथा 'विरतानां' सर्व सावद्यनिवृत्तिमभ्युपगतानां मरणं 'पण्डित' मिति प्रक्रमात्पण्डितमरणम्, 'विति'त्ति ब्रुवते तीर्थकरगणधरादयः, जानीहि 'बालपण्डितमरण' मिति मिश्रमरणं, पुनःशब्दः पूर्वापेक्षया विशेषं द्योतयति, देशात् सर्वविषयापेक्षया स्थूलप्राणिव्यपरोपणादेर्विरता देशविरतास्तेषामिति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ एवं चरणद्वारेण बालादि| मरणत्रयमभिधाय ज्ञानद्वारेण छद्मस्थमरणकेवलिमरणे प्रतिपादयितुमाह |मणपज्जवोहिनाणी सुअमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलिमरणं तु केवलिणो ॥ २२३॥ व्याख्या—मनः पर्यवज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च ज्ञानिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् श्रुतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्च 'म्रियन्ते' प्राणांस्त्यजन्ति ये 'श्रमणाः' तपखिनः छादयन्ति छद्मानि - ज्ञानावरणादीनि तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः तेषां मरणं छद्मस्थमरणमेतत्, इह च प्रथमतो मनःपर्यायनिर्देशो विशुद्धिकृतप्राधान्यमङ्गीकृत्य चारित्रिण एवं तदुपजायत इति स्वामिकृतप्राधान्यापेक्षो वा, एवमवध्यादिष्वपि यथायोगं खधियैव हेतुरभिधेयः, केवलिमरणं तु ये केव For Parson Free Only www.noltrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--1/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२४] (४३) अकाम मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. लिनः-उत्पन्नकेवलाः सकलकर्मपुद्गलपरिशाटतो म्रियन्ते तज्ज्ञेयमिति शेषः, उभयत्राभेदनिर्देशः प्राग्वदिति गाथार्थः ॥ २२३ ॥ साम्प्रतं वैहायसगृध्रपृष्ठमरणे अभिधातुमाहबृहद्वृत्तिः गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट उब्बंधणाइ वेहासं । एए दुन्निवि मरणा कारणजाए अणुण्णाया ॥ २२४ ॥ ॥२३॥ | व्याख्या-'गृद्धाः' प्रतीतास्ते आदियेषां शकुनिकाशिवादीनां तैर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरिकरमादिशरीरानुप्रवेशेन च गृधादिभक्षणं, तत् किमुच्यत इत्याह-'गिद्धपिट्टत्ति गृप्रैः स्पृष्ट-स्पर्शनं यस्मिस्तद्धस्पृष्टम् , यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणस्यादुदरादि च मर्तुस्मिंस्तद्ध्रपृष्ठम् , स खलक्तकपूणिकापुटप्रदानेनाप्यात्मानं गृध्रादिभिः पृष्ठादी भक्षयतीति, पश्चान्निर्दिष्टस्यापि चास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम् , 'उबंधणाइ वेहासंति' उत्-ऊवं वृक्षशाखादौ वन्धनमुन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्वन्धनादि 'वेहास'न्ति प्राकृतत्त्वाद्यलोपे बहायसम् ,उद्धस्य हि विहा यस्खेव भवनमिति तत्प्राधान्यविवक्षयेत्थमुक्तम् । आह-एवं गृप्रपृष्ठस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वैहायसिकेऽन्तर्भावः, सत्य- हमेतत् , केवलमल्पसत्त्वरध्यवसातुमशक्यताख्यापनार्थमस्य भेदेनोपन्यासः, ननु-"भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण पत्थि हु बिसेसो । अत्ताणमि परमि य तो बजे पीडमुभएवि ॥१॥" इत्यागमः, एते चानन्तरोक्त मरणे १ भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नास्त्येव विशेषः । आत्मनि परस्मिंश्च ततो वर्जयेत् पीडामुभयोरपि ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१२८] २३४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| आत्मविघातकारिणी, तथा चात्मपीडाहेतुरिति कथं नागमविरोधः ?, अत एव च भक्तपरिज्ञानादिषु पीडापरिहाराय 'चत्तारि विचित्ताई विगईणिजहियाई'इत्यादिसंलेखनाविधिः पानकादिविधिश्च तत्र तत्राभिहितः, दर्शनमालिन्यं चोभयत्रेत्याशङ्कयाह-एते' अनन्तरोक्ते 'वे अपि' गृध्रपृष्ठवहायसाख्ये मरणे 'कारणजाते' कारणप्रकारे दर्शनमालिन्यपरिहारादिके उदायिनूपानुमृततथाविधाचार्यवत् अनुज्ञाते, तीर्थकृद्गणधरादिभिरिति, अनेन |च सम्प्रदायानुसारितां दर्शयन्नन्यथाकथने श्रुताशातनाया अतिदुरन्तत्वमाह इति गाथार्थः ॥ २२४ ॥ साम्प्रतमत्यमरणत्रयमाहभत्तपरिपणा इंगिणी पाओवगमंच तिणि मरणाई । कन्नसमज्झिमजेट्टा धिइसंघयणेण उ विसिट्टा २२५/ व्याख्या-भक्तं-भोजनं तस्य परिज्ञा-ज्ञपरिज्ञयाउनेकधेदमस्माभिर्भुक्तपूर्वमेतद्धेतुकं चायद्यमिति परिज्ञान, प्रत्याख्यानपरिजया च "सद्धं च असणपाणं चउविहं जा य बाहिरा उवही । अभितरं च उबहिं जायजीवं च वोसिरे ॥१॥” इत्यागमवचनाचतुर्विधाहारस्य वा यावज्जीवमपि परित्यागात्मकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिज्ञोच्यते, इयते-प्रतिनियतप्रदेश एव चेष्ट्यते अस्यामनशनक्रियायामितीगिनी, पादै:-अधःप्रसर्पिमूलात्मकः पिबति पादपो-वृक्षः, उप १ चत्वारि विचित्राणि निढविकृतीनि । २ सर्व चाशनपानं चतुर्विधं यश्च बाह्य उपधिः । अभ्यन्तरं चोपधि यावज्जीवं च व्युत्सृजति । |३ वाशब्दः पूर्वगाथोक्तसोपध्याहारत्यागसूचार्थः । दीप अनुक्रम [१२८] - thak Jimtashmah मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२३५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [ - ] / गाथा || १३... || निर्युक्ति: [ २२५] शब्दवोपमेतिवत्सारयेऽपि दृश्यते, ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमं, किमुक्तं भवति ? - यथैव पादपः क्वचित् कथञ्चिन्निपतितः सममसममिति चाविभावयन्निश्वलमेवास्ते, तथाऽयमपि भगवान् यद् यथा समविषमदेशेष्वङ्गमुपाङ्ग वा प्रथमतः पतितं न तत्ततश्चलयति, तथा च प्रकीर्णकृत् णिचल णिप्पडिकम्मो णिक्खिवए जं जहिं जहा अंगं । एयं पादोत्रगमं णीहारिं वा अणीहारिं ॥ १ ॥ पातोवगमं भणियं सम विसमो पायवोच जह पडितो। णवरं परप्पतोगा कंपेज जहा फलतरूच ॥ २ ॥ चः समुच्चये, इह चैवंविधानशनोपलक्षितानि मरणान्यप्येवमुक्तानि, अत एवाह- त्रीणि मरणानि, एतत्स्वरूपं च यथेदं विधेयं यच्चात्र सपरिकर्म्म अपरिकर्म्म च इत्यादिकं सूत्रकार एवोत्तरत्र तपोमार्गनाम्नि त्रिंशत्तमाध्ययनेऽभिधास्यत इति नियुक्तिकृता नोक्तम् । द्वारनिर्देशा- चावश्यं किञ्चिद्वाच्यमिति मत्वेदमाह-'कण्णस' त्ति सूत्रत्त्वात् कनिष्ठं- लघु जघन्यमितियावत्, मध्यमं - लघुज्येष्ठयोधर्मध्ये भावि, ज्येष्ठम् - अतिशय वृद्धमुत्कृष्टमित्यर्थः, एषां द्वन्द्वः तत एतानि, धृतिः-संयमं प्रति चित्तखास्थ्यं संहननंशरीरसामर्थ्यहेतुः वज्रऋषभनाराचादि ताभ्यां प्राकृतत्त्वाच्चैकवचननिर्देशः, समाहाराश्रयणाद्वा, तुशब्दात्सपरिकर्म्मा १ निश्चलो निष्प्रतिकर्मा निक्षिपति यद्यत्र यथाऽङ्गम् । एतत्पादपोपगमनं निर्दारं वाऽनिर्दारम् ॥ १ ॥ पादपोपगमनं भणितं समो विषमो वा पादप इव यथा पतितः । नवरं परप्रयोगात् कम्पेत यथा फलतरुवत् ॥ २ ॥ mundemational For Panther अकाम मरणाध्य. ~469~ ५ ॥२३५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२५] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| परिकर्मतादिभिश्च विशेषेविशिष्टानि-विशेषवन्ति, इदमुक्तं भवति-यद्यपि त्रितयमप्येतत् "धीरेणऽवि मरियचं कापुरिसेणवि अवस्स मरियो । तम्हा अवस्समरणे बरं खुधीरत्तणे मरिउं ॥१॥ संसाररंगमज्झे धीवलसंनद्धवद्धकच्छातो। वाहतूण मोहमलं हरामि आराहणपडागं ॥२॥जह पच्छिमम्मि काले पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं । पच्छा निच्छयपत्थं | उमि अध्भुजयं मरणं ॥३॥" इति शुभाशयवानेव प्रतिपद्यते, फलमपि च विमानिकतामुक्तिलक्षणं त्रयस्यापि समानं, तथा चोक्तम्-“ऐयं पञ्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्मं । बेमाणितो व देवो हवेज अहवाऽवि सिज्झिज्जा ॥१॥" तथापि विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमधृतिमतामेव तत्प्राप्तिरिति कनिष्ठत्त्या दिस्तद्विशेष उच्यते, तथाहि-भक्तपरिज्ञामरणमार्यिकादीनामप्यस्ति, यत उक्तम्-"सेवावि य अजाओ सत्वेऽवि य पढमसंघयणवजा । ४ सवेऽवि देसविरया पञ्चक्खाणेण उ मरंति ॥१॥" अत्र हि प्रत्याख्यानशब्देन भक्तपरिवोक्ता, तत्र प्राक् पादपो-| पगमनादेरन्यथाऽभिधानात्, इङ्गिनीमरणं तु विशिष्टतरधृतिसंहननवतामेव सम्भवतीत्यार्यिकादिनिषेधत एवायसी १धीरेणापि मर्तव्यं कापुरुषेणाप्यवश्यं मर्तव्यम् । तस्मादवश्यमरणे वरमेव धीरत्वेन मर्तुम ।। १ ॥ संसाररङ्गमध्ये धृतिघलसन्नद्धव-18 कक्षाकः । हत्वा मोहमलं हराम्याराधनापताकाम् ॥ २॥ यथा पश्चिमे काले पश्चिमतीर्थकरदेशितमुदारम् । पश्चान्निश्चयपथ्यमुपैमि अभ्युद्यतं मरणम् ॥ ३ ॥२ एतत्प्रत्याख्यानमनुपाल्य सुविहितः सम्यक् । वैमानिको वा देवो भवेधवाऽपि सिध्येत् ॥ ४ ॥३ सर्वा अपि चायाः | सर्वेऽपि च प्रथमसंहननवर्जाः । सर्वेऽपि देशविरताः प्रत्याख्यानेनैव प्रियन्ते ॥ १॥ SC AC दीप अनुक्रम [१२८] Jimtaurahman C मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२५] (४३) अकाम बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. कायते, पादपोपगमनं तु नाम्नैव विशिष्टतमधृतिमतामेवेत्युक्तप्रायं, ततश्च वज्रऋषभनाराचसंहननिनामेवैतत् , उक्तं हि "पढमंमि य संघयणे वट्टते सेलकुडसामाणे । तेसिपि य वोच्छेओ चोदसपुवीण वोच्छेए ॥१॥" कथं चान्यथैवं विधविशिष्टधृतिसंहननाभावे-'पुखभवियवरेणं देवो साहरइ कोऽपि पायाले । मा सो चरिमसरीरो न वेयणं किंपि ॥२३॥ पावेजा ॥१॥'तथा 'देवो नेहेण नयइ देवारण्णं व इंदभवणं वा । जहियं इटा कंता सबसुहा इंति सुहभाया ॥२॥ उप्पण्णे उपसग्गे दिवे माणुस्सए तिरिक्खे य । सधे पराजिणित्ता पाओवगया परिहरंति ॥३॥ पुवावरउत्तरेहिं । दाहिणयाएहिं आवडतेहिं । जह नवि कंपइ मेरू तह झाणातो नवि चलंति ॥४॥” इति मरणविभक्तिकृदुक्तं महासामर्थं सम्भवि, किञ्च-तीर्थकरसेवितत्वाच पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्वं, इतरयोश्चाविशिष्टसाधुसेवितत्वादन्यथात्वं, तथा चावादि-"सचे सचद्धाए सवण्णू सव्वकम्मभूमीसु । सबगुरू सबहिया सच्चे मेरूसु अहिसित्ता ॥१॥ १ प्रथमे च संहनने वर्तमाने शैलकुख्यसमाने । तस्यापि च व्युच्छेदश्चतुर्दशपूर्विणां ज्युच्छेदे । ॥१॥२ पूर्वभविकवरेण देवः संहरति कोऽपि पाताले। मा स चरमशरीरो न वेदना कामपि प्राप्नुयात् ॥ १॥ ३ देवः स्नेहेन नयति देवारण्यं वेन्द्रभवनं वा । यत्रेष्टाः कान्ताः सर्वसुखा भवन्ति शुभभावाः ॥ २ ॥ ४ उत्पन्नानुपसर्गान् दिव्यान मानुष्यकान् तैरश्वांश्च । सर्वान् पराजित्य पादपोपगताः परिहरन्ति ॥३॥ | ॥२३॥ ५ पूर्वापरोत्तरैर्दक्षिणवातैश्वापतद्भिः। यथा नापि कम्पते मेरुस्तथा ध्यानानापि चलन्ति ॥ ४॥ ६ सर्वे सर्वाद्धायां सर्वज्ञाः सर्वकर्मभूमिषु । सर्वगुरवः सर्वहिताः सर्वे मेरुषु अभिषिक्ताः ॥१॥ - दीप अनुक्रम [१२८] - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१२८] Jam Euston “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १३...|| निर्युक्ति: [२२६] अध्ययनं [ ५ ], | सर्वाहिं लद्धीहिं सधेऽयि परीसहे पराजित्ता । सवेऽवि य तित्थयरा पातोवगया उसिद्धिगया ॥ २ ॥ अबसेसा अणगारा तीयपडुप्पण्णऽणागया सबे । केती पातोवगया पचवार्णिगिणिं केती ॥ ३ ॥” इति कृतं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ २२५ ॥ इत्थं प्रतिद्वारगाथाद्वयवर्णनात् मूलद्वारगाथायां मरणविभक्तिप्ररूपणाद्वारमनुवणितम्, अधुनाऽनुभाव प्रदेशाग्रद्वारद्वयमाह सोवकमोअ निरुवक्कमो अ दुविहोऽणुभावमरणंमि । आउगकम्मपएसग्गणंतणंता परसेहिं ॥ २२६ ॥ - सहोपक्रमेण - अपवर्तनाकरणाख्येन वर्तत इति सोपक्रमच, निर्गत उपक्रमान्निरुपक्रमश्च द्विविधो, द्वैविध्यं चोक्तभेदेनैव, कोऽसौ ? - अनुभाव - अनुभागः, क्व १- 'मरणे' इत्यर्थात् मरणविषयायुषि तत्र हि सप्तभिरष्टभि र्वाऽऽकर्मैर्गवामिव मरुषु जलगण्डूषग्रहणरूपैर्यत्पुद्गलोपादानं तदनुभागोऽतिदृढ इत्यपवर्तयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते, यत्तु षद्भिः पञ्चभिश्चतुर्भिर्वा आगृहीतं दलिकं तदपवर्तनाकरणेनोपक्रम्यते इति सोपक्रमं न चैतदुभयमप्यायुःक्षयात्मनि मरणे सम्भवति, तथा एति याति च इत्यायुस्तन्निबन्धनं कर्म्म आयुः कर्म तस्य विभक्तुमशक्यतया प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तेषामत्रं - परिमाणमायुःकर्म्मप्रदेशाग्रम्, अनन्तानन्ताः - अनन्तानन्तसङ्ख्या परिमिता मरणप्रक्रमेऽप्यर्थादायुः पुद्गलास्तद्विषयत्वाच मरणस्यैवमुपन्यासः, किमेतावन्तः कृत्खेऽप्यात्मनि ?, अत आह— 'पएसेहिं' ति १ सर्वाभिः लब्धिभिः (युताः) सर्वानपि परीषदान् पराजित्य । सर्वेऽपि च तीर्थकराः पादपोपगतास्तु सिद्धिं गताः ||२||| अवशेषा अनगारा अतीतप्रत्युत्पन्नागताः सर्वे । केचित्पादपोपगताः प्रत्याख्यानेङ्गिन्यौ केचित् ॥ ३ ॥ For Par Tarettery.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१२८] उत्तराध्य. बृहदुतिः ॥२३७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १३...|| अध्ययनं [ ५ ], प्रक्रमात् सुब्व्यत्ययाचात्मप्रदेशेषु, आत्मप्रदेशो कैकस्तत्प्रदेशैरनन्तानन्तैरावेष्टितः संवेष्टितः, तथा च वृद्धव्याख्या ---- इदाणिं पदेसग्गं- अनंताणंता आउगकम्मपोग्गला जेहिं एगमेगो जीवपएसो आवेढिय परिवेढितो, इति गाथार्थः ॥ २२६ ॥ सम्प्रति कति म्रियन्ते एकसमयेनेतिद्वारमाह दुन्निव तिन्नि व चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरणंमि । कइ मरइ एगसमयंसि विभासावित्थरं जाणे ॥ २२७॥ सवे भवत्थजीवा मरंति आवीइअं सया मरणं । ओहिं च आइअंतिय दुन्निवि एयाइ भयणाए ॥ २२८ ॥ ओहिं च आइअंतिअ वालं तह पंडिअं च मीसं च । छउमं केवलिमरणं अनुन्नेणं विरुज्झति ॥ २२९ ॥ Euston Inimation निर्युक्ति: [२२७-२२९] व्याख्या - द्वे वा त्रीणि वा, वाशब्दस्योत्तरत्रानुवृत्तेः चत्वारि वा पञ्च वा मरणानि वक्ष्यमाणविवक्षातः प्रक्रमादेकस्मिन् समये सम्भवन्ति, आवीचिमरणे सतीति शषः, अनेन चास्य सततावस्थितत्वमेतदविवक्षया च तद्वयादिभेदपरिकल्पनेसाह, कति म्रियन्त एक समये ? इति चतुर्थद्वारस्य विशेषेण भाषणं विभाषणं विभाषाव्याख्या विविधैर्या प्रकारर्भाषणं विभाषा-भेदाभिधानं तथा विस्तरः- प्रपञ्चस्तं विस्तरं जानीहि जानीयाद्वा, निगमनमेतत्, प्रस्तुतमेवार्थ प्रकटयितुमाह - 'सर्व' निरवशेषाः, तत् किं मुक्तिभाजोऽपीत्याह – 'भवस्थजीवाः ' भवन्त्यस्मिन् कर्म्म१ इदानीं प्रदेशाप्रम् - अनन्तानन्ता आयुः कर्मपुरला चैरेकैको जीवप्रदेश आवेष्टितः परिवेष्टितः For Part ~473~ अकाम मरणाध्य. ५ ॥२३७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] Jam Euston “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १३... || अध्ययनं [५], वशवर्तिनो जन्तय इति भवः तत्र तिष्ठन्ति भवस्थाः ते च ते जीवाश्चेति विशेषणसमासः, म्रियन्ते, आवीचिकमवीचिकं वा मरणमाश्रित्येति शेषः, यद्वा विभक्तिव्यत्ययादावीचिकेन मरणेन म्रियन्ते 'सदा' सर्वकालं, 'ओहिं च'त्ति अवधिमरणं, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च 'आश्यंतिय' न्ति आत्यन्तिकमरणं च द्वे अप्येते 'भजनया' विकल्पनया, किमुक्तं भवति ? - यद्यप्यावीचिमरणवत् अवध्यात्यन्तिकमरणे अपि चतसृष्वपि गतिषु सम्भवतः तथाऽप्यायुःक्षयसमय एव तयोः सम्भवान्न सदाभावः, अत आवीचिकमरणमेव सदेत्युक्तम्, अनेनावीचिमरणस्य सदाभावेन लोके मरणत्वेनाप्रसिद्धिः अविवक्षायां हेतुरुक्त इति भावनीयं । सम्प्रति 'दोन्निवि' इत्यादि व्यक्तीकरोति- 'ओहिं च आइयंतिय'ति, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततोऽवधिमरणमात्यन्तिकमरणं च, 'वाल' बालमरणं च तथेत्युत्तरभेदापेक्षया समुचये, 'पण्डितं च' पण्डितमरणं, 'मिश्रं च' बालपण्डितमरणं च चशब्दाद्वैहायसगृपृष्ठमरणे, भक्तपरिज्ञेज्ञिनीपादपोपगमनानि च, 'अन्योऽन्येन' परस्परेण विरुध्यन्ते, युगपदसम्भयात्, तत्र चाविरतस्यावध्यात्यन्तिकमरणयोः अन्यतरद्वालमरणं चेति द्वे, तद्भयमरणेन सह त्रीणि, बशार्तेन चत्वारि, कथञ्चिदात्मघाते च वैहायसगृध्रपृष्ठयोरन्यतरेण पञ्च, आहवलन्मरणान्तः शल्यमरणे अपि बालमरणभेदावेव, यत आगमः - "बालमरणे दुवालसविहे पन्नचे, तंजहा - बलावमरणे १ बालमरणं द्वादशविधं प्रज्ञमं, तद्यथा-वलन्मरणं for Py Parro निर्युक्ति: [२२७-२२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२७-२२९] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. सट्टमरणे अंतोसलमरणे तम्भवमरणे गिरिपडणे तरुपडणे जलप्पवेसे जलणप्पवेसे विसभक्खणे सत्थोवहणणे हाणसे अकामगिद्धपढे"त्ति, एतेषु च यद्यपि गिरिपतनादिषट्कस्य वैहायस एवान्तर्भावः तथापि बलन्मरणान्तःशल्यमरणयोः प्रक्षेपे मरणाच्या कथं नोक्तसङ्ख्याविरोधः?, उच्यते, इहाविरतस्यैव बालमरणं विवक्षितम् , उक्तं हि-'अविरयमरणं वालमरण अनयो॥२३८॥ इस्त्वेकत्र संयमस्थानेभ्यो निवर्तनम् , अन्यत्र मालिन्यमानं विवक्षितं, न तु सर्वथा विरतेरभाव एवेति कथं बालमरणे सम्भवः?, तथा छद्मस्थमरणमपि विरतानामेव रूढमिति नोक्तसङ्ख्याविरोधः, एवं देशविरतस्यापि यादिभङ्गभावना कार्या, नवरं वालमरणस्थाने वालपण्डितमरणं वाच्यं, विरतस्य त्ववध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् पण्डितमरणं चेति द्वे, छद्मस्थकेवलिमरणयोश्चान्यतरदिति त्रीणि; भक्तपरिज्ञङ्गिनीपादपोपगमनानामन्यतरेण सह चत्वारि, कारणिकस्य तु है। वहायसगृध्रपृष्ठयोरन्यतरेण सह पञ्च, दृढसंयमं प्रत्येवमुक्त, शिथिलसंयमस्य त्ययध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् , कुत- श्चित्कारणाद्वैहायसगृध्रपृष्ठयोश्चान्यतरदिति द्वे, कथञ्चिच्छल्यसम्भवे चान्तःशल्यमरणेन सह श्रीणि, बलन्मरणेन । सह चत्वारि. छमस्थमरणेन तु पञ्च, पण्डितमरणस्य यथोक्तभक्तपरिज्ञानादीनां वा विशुद्धसंयमत्वादस्वाभाव एवेति ॥२३॥ आह-विरतस्यावस्थाद्वयेऽपि तद्भवमरणप्रक्षेपे कथं न षष्ठमरणसम्भवः, उच्यते, विरतस्य देवेष्येवोत्पाद इति तत्र-13 १० वशार्त्तमरणमन्तःशल्यमरणं तद्भवमरणं गिरिपतनं तरुपतनं जलप्रवेशो ज्वलनप्रवेशो विषभक्षणं शस्त्रोपहननं वैहायसं गधष्ठमिति । दीप अनुक्रम [१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३०] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| वोत्पत्त्यभाषान्न तद्भवमरणसम्भव इति गाथात्रयार्थः ॥ २२७-२२८-२२९ ॥ गतं कति म्रियन्त एकसमय इति द्वारम् , इदानी कतिकृत्वो म्रियते एकैकस्मिन् ? इति द्वारमाहसंखमसंखमणंता कमो उ इक्किकगंमि अपसत्थे । सत्तट्टग अणुबंधो पसत्थए केवलिंमि सई ॥ २३०॥ व्याख्या-'संखमसंखंति आर्षत्वात् सङ्ख्याः-समयाताः असङ्ख्या-अविद्यमानसङ्ख्याः अनन्ता-अपर्यवसिता, वारा इति प्रक्रमः, 'कमो उति क्रमः-परिपाटी, तुशब्दश्च कायस्थितेरल्पबहुत्वापेक्षयाऽयं ज्ञेय इति विशेषद्यो-18 तकः, 'एकेकगमिति एकैकस्मिन् 'अप्रशस्ते' बालमरणादौ निरूप्यमाणे, तत्र सामान्येन पञ्चेन्द्रियाविरतदेशविरती च सङ्ख्याताः, शेषाः पृथिव्युदकाग्निवायुद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः असवयाताः, वनस्पतयोऽनन्ता, एते हि कायस्थित्यपेक्षया यथाक्रमं बहुबहुतरबहुतम स्थितिमाज इतिकृत्वा । प्रशस्ते कति वारा नियत इत्साह-'सत्तट्ठगति सप्त वाऽष्ट वा सप्ताष्टास्ते परिमाणमस्येति सप्ताष्टकः, कोऽसौ ?-'अनुबन्धः' सातत्येन भवनं तन्मरणानामिति, ततोऽयमर्थ:-सप्त वा अष्ट वा वारा म्रियते, क-प्रशस्तके' सर्वविरतिसम्बन्धिनि पण्डितमरणे, इह च चारित्रस्य निरन्तरमवाप्त्यसम्भवात् तद्वत एव च प्रशस्तमरणभावादाद् व्यवधानमपि देवभवैराश्रीयते, 'केवलिनि' यथाख्यातचारित्रवति समुत्पन्नफेवले 'सई ति सकृदेकमेव मरणमिति गाथार्थः ॥ २३० ॥ उक्तं कति कृत्वो नियत एकैकस्मिन्निति द्वारं, सम्प्रति कतिभाग एकैकस्मिन्मरणे नियत इति द्वारमाह दीप अनुक्रम [१२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| 1 -0 उत्तराध्य. मरणे अणंतभागो इकिके मरइ आइमं मोत्तुं । अणुसमयाई नेयं पढमचरिमंतरं नत्थि ॥ २३१॥ | अकामबृहद्वृत्तिः | व्याख्या-'मरणे' प्रागुक्तरूपे अनन्तभाग एकैकस्मिन् म्रियते, किं सर्वस्मिन्नपि ? नेत्याह-'आदिमम्' आवीचि मरणाध्य. मरणं, तस्यैवाद्यत्वात् , 'मुक्त्वा' अपहाय, इयमत्र भावना-शेषमरणखामिनो हि सर्वजीवापेक्षया अनन्तभाग एवेति ॥२३९॥ तेवनन्तो भागो नियत इत्युच्यते, आवीचिमरणखामिनस्तु सिद्धविरहिताः सर्व एव जीवाः, ते चानन्ता इतिकृत्वाऽनन्तभागहीनाः सर्वे जीवा नियन्ते इत्युच्यते । उक्तं कतिभागो म्रियते एकैकस्मिन्निति द्वारम् , अधुनाउनुस-II मयद्वारमाह-'अणुसमय'त्ति समयं समयमनु अनुसमयं, वीप्सायामव्ययीभावः, ततश्चानुसमय-सततम् , 'आदि' प्रथममावीचिमरणं 'ज्ञेयम्' अवबोद्धव्यं, यावदायुस्तस्य प्रतिपादनात् , शेषाणां त्वायुपोऽन्त्यसमय एवैकत्र भावादनुसमयतानभिधानं, बहुसमयविषयत्वादनुसमयतायाः, तथा च वृद्धव्याख्या-"पढमे जाय आउं धरइ सेसाणं एगसमयं जहि मरई" न च 'मासं पायोवगया' इत्यागमेन विरोधः, तत्र पादपोपगमनशब्देन निश्चेष्टताया एवाभिधानात् , मरणस्य तु तत्राप्यायुखुटिसमय एव सद्भावात् , तुः पूरणे । गतमनुसमयद्वारम् , इदानीं सान्तरद्वारमाह-तत्र ॥२३९॥ प्रथमचरमयोरन्तरं-व्यवधानं 'नास्ति' न विद्यते, प्रथमस्यावीचिमरणस्य सदा सम्भवात् , चरमस्य भवापेक्षया केव लिमरणस्य पुनर्भरणाभावादिति भाव इति गाथार्थः ।। २३१ ॥ शेषाणामपि किमेवमित्याहIS १ प्रथमं यावदायुर्धारयति शेषाणामेकसमयो यत्र प्रियते 8 -2 दीप अनुक्रम [१२८] -2 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३२] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| सेसाणं मरणाणं नेओ संतरनिरंतरो उ गमो। साई सपजवसिया सेंसा पढमिल्लुगमणाइ ॥ २३२ ॥ . व्याख्या-शेषाणां मरणानाम्-अवधिमरणादीनां पञ्चदशानां ज्ञेयः, सहान्तरेण-व्यवधानेन वर्तत इति सान्तरः, निष्क्रान्तोऽन्तरान्निरन्तरश्च, तुःशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात् , उक्तं हि-"तुशब्दो विशेषणपादपूरणावधारणसमुच्चयेषु" कोऽसौ ?-गम्यते अनेन वस्तुखरूपमिति गमः-प्ररूपणा, इदमुक्तं भवति–यदाऽन्यतरद्वालमरणादिकं प्राप्य म्रियते मृत्वा च भवान्तरे मरणान्तरमनुभूय पुनस्तदेवाप्नोति तदा सान्तरमिति प्ररूपणा, यदा तु बालमर-11 णादिकमवाप्य पुनस्तदेवाव्यवहितमाग्नोति तदा निरन्तरं भवति, तत्प्ररूपकत्वाचेह गमोऽपि सान्तरो निरन्तरश्चेत्युक्तः । सम्प्रति गाथापश्चार्धन कालद्वारमाह-सादीनि च सपर्यवसितानि च सादिसपर्यवसितानि 'शेपाणि षोडश वक्ष्यमाणापेक्षया अवधिमरणादीनि, एकसामयिकतायास्तेषामभिहितत्वात् , प्रवाहापेक्षया तु शेषभङ्गोपलसाक्षणमेतत् , प्रवाहतोऽपि भङ्गत्रयपतितानि शेषमरणानि सम्भवन्ति, तथा च वृद्धाः-"बालमरणाणि अणाइयाणि Vावा अपजयसियाणि या, अणादियाणि वा सपजवसियाणि. पंडियमरणाणि पुण साइयाणि सपजवसियाणि" मुक्त्यवाप्तौ तदुच्छित्तिसम्भवादिति भावः, 'पढमिल्लुगं'ति प्रथमकम्-आवीचिमरणम् 'अनादि' आदिरहितं प्रया-11 १ बालमरणानि अनादिकानि वा अपर्यवसितानि वा, अनादिकानि वा सपर्यवसितानि, पण्डितभरणानि पुन: सादिकानि सपर्यवसितानि हर दीप अनुक्रम [१२८] -98- FARPATISEMANDwony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३] (४३) अकाम मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ।२४०॥ SC ||१३|| हापेक्षयेतिभावः, प्रतिनियतायुःपुद्गलापेक्षया तु साद्यपि सम्भवति, उपलक्षणत्याचासापर्यवसितंच अभव्यानां, भव्यानां पुनः सपर्यवसितमपीति गाथार्थः ॥ २३२ ॥ सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दर्शयन्नात्मौद्धत्यपरिहारायाह । भगवान् नियुक्तिकारःसवे एए दारा मरणविभत्तीइ वण्णिआ कमसो।सगलणिउणे पयत्थे जिणचउदसपुवि भासंति ॥२३३॥ | व्याख्या-'सर्वाणि' अशेषाणि 'एतानि' अनन्तरमुपदर्शितानि 'द्वाराणि' अर्थप्रतिपादनमुखानि 'मरणविभक्तेः' मरणविभक्त्यपरनामोऽस्मैवाध्ययनस्य 'वर्णितानि' प्ररूपितानि, मयेति शेषः, 'कमसो'त्ति प्राग्वत् क्रमतः, आहएवं सकलापि मरणवक्तव्यतोक्ता उत नेत्याह-सकलाश्च-समस्ता निपुणाश्च-अशेषविशेषकलिताः सकलनिपुणाः तान् पदार्थान् इह प्रशस्तमरणादीन जिनाच-केवलिनः चतुर्दशपूर्विणश्च-प्रभवादयो जिनचतुर्दशपूर्विणो 'भाषन्ते' व्यक्तमभिदधति, अहं तु मन्दमतित्वान्न तथा वर्णयितुं क्षम इत्यभिप्रायः, खयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यचतुर्दशपूयु- ४॥२४०॥ पादानं, तत्तेषामपि षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यख्यापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त | इति प्रेर्यानवकाश एवेति गाधार्थः ॥ २३३ ॥ इहैव प्रशस्ताप्रशस्तमरणविभागमाहएगंतपसत्था तिपिण इत्थ मरणा जिणेहि पण्णत्ता। भत्तपरिपणा इंगिणी पाउवगमणं च कमजिटुं॥२३४॥ -% दीप अनुक्रम [१२८] % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२३४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्या-एकान्तेन-नियमेन प्रशस्तानि-लाप्यानि 'श्रीणि त्रिसङ्खयानि 'अ' एतेष्वनन्तराभिहितेषु मरणेषु मरणानि 'जिन' केवलिभिः 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, तान्येवाह-भक्तपरिज्ञा इङ्गिनी 'पायवगमणं' चेति पादपोपगमनं च, इदमपि त्रयं किमेकरूपमित्याह-क्रमेण-परिपाट्या ज्येष्ठम्-अतिशयप्रशस्य क्रमज्येष्ठं यथोत्तरं प्रधानमितिभावः । शेषमरणान्यपि यानि प्रशस्तानि तेषामत्रैवान्तर्भावः, इतराणि कानिचित् कथञ्चित् प्रशस्तानि, अपराणि | तु सर्वथैवाप्रशस्तानीति गाथार्थः ॥ २३४ ॥ इह च येनाधिकारस्तदाहइत्थं पुण अहिगारोणायबो होइ मणुअमरणेणं । मुत्तुं अकाममरणं सकाममरणेण मरियत्वं ॥ २३५॥ व्याख्या-'अत्र' एतेषु मरणेषु, पुन शब्दो वाक्योपन्यासार्थः, अधिकारो ज्ञातव्यो भवति मनुजमरणेन, किमुक्तं भवति ?-मनुष्यभवसम्भविना पण्डितमरणादिना, तान्येव प्रत्युपदेशप्रवृत्तेः । सम्प्रत्युक्तार्थसंक्षेपद्वारेणोपदेशसर्व खमाह-मुक्त्वाऽकाममरणं-बालमरणाद्यमप्रशस्तं 'सकाममरणेन' भक्तपरिज्ञादिना प्रशस्तेन मर्तव्यमिति गाथार्थः। F॥२३५ ॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम् अण्णवंसि महोहंसि, एगे तरइ दुरुत्तरं । तत्थ एगे महापणे, इमं पण्हमुदाहरे॥१॥ व्याख्या-अो-जलं विद्यते यत्रासावर्णवः, अर्णसो लोपश्चेति (पा०५-२-१०९ वार्तिकं ) वप्रत्ययः सकारलोपश्च, स च द्रव्यतो जलधिर्भावतश्च संसारः तस्मिन् , कीशि ?-'महोघंसि'त्ति महानोधः-प्रवाहो द्रव्यतो जल दीप अनुक्रम [१२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१२९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २४२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || अध्ययनं [ ५ ], निर्युक्तिः [२३५...] सम्बन्धी भावतस्तु भवपरम्परात्मकः प्राणिनामत्यन्तमाकुलीकरणहेतुः चरकादिमतसमूहो वा यस्मिन् स महौघः तस्मिन् महत्त्वं चोभयत्रागाधतयाऽदृष्टपरपारतया च मन्तव्यं, तत्र किमित्याह – 'एक' इत्यसहायो रागद्वेषादिस|हभावविरहितो गौतमादिरित्यर्थः, 'तरति' परं पारमाप्नोति, तत्कालापेक्षया वर्त्तमान निर्देशः, 'दुरुत्तरं 'ति विभक्तिव्यत्ययाद्दुरुत्तरे - दुःखेनोत्तरितुं शक्ये, दुरुत्तरमिति क्रियाविशेषणं वा न हि यथाऽसौ तरति तथाऽपरैर्गुरुकर्म्मभिः सुखेनैव तीर्यते, अत एव एक इति, सङ्ख्यावचनो वा, एक एव - जिनमतप्रतिपन्नाः, न तु चरकादिमताकुलित चेतसोऽन्ये तथा तरितुमीशत इति, 'तत्रे'ति गौतमादौ तरणप्रवृत्ते 'एक' इति तथाविधतीर्थकर नामकर्मोदयादनुत्तरावाप्तविभूतिरद्वितीयः, किमुक्तं भवति ? - तीर्थकरः, स होक एवं भरते सम्भवतीति, 'महापणे'ति महती - निरावरणतयाऽपरिमाणा प्रज्ञा- केवलज्ञानात्मिका संचित् अस्येति महाप्रज्ञः स किं इत्याह- 'इमम्' अनन्तरवक्ष्यमाणं ★ हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षं प्रक्रमात्तरणोपायं, 'पति स्पष्टम् - असन्दिग्धं, पठ्यते च 'पहंति पृच्छयत इति प्रश्न- प्रष्टव्यार्थरूपम् 'उदाहरे'त्ति भूते लिट्, तत उदाहरेद्र - उदाहृतवान्, पठ्यते च - 'अण्णवंसि महोघंसि एगे तिष्णे दुरुत्तरं 'ति, अत्र मुख्यत्यये विशेषः, ततश्च - अर्णवान्महौघादुरुत्तरात् तीर्ण इव तीर्णः - तीरप्राप्त इतियोगः, एको घातिकर्म्मसाहित्य रहितः, 'तत्रे'ति सदेवमनुजायां परिषदि, एकोऽद्वितीयः, स च तीर्थकदेव, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ यदुदाहृतवांस्तदेवाह - Eporation demat For Paren अकाम मरणाध्य. ~ 481 ~ ५ ॥२४१॥ www.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-1/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| संतिमे य दुवे द्वाणा, अक्खाया मारणंतिया। अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा ॥२॥ व्याख्या-सन्तीति प्राकृतत्वात् वचनव्यत्ययेन स्तो-विद्यते 'इमे' प्रत्यक्षे, चः पूरणे, पठ्यते च 'संतिमेए'त्ति स्त एते, मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्रापि यत्र नोच्यते तत्र भावनीयं, 'द्वे' द्विसद्धये तिष्ठन्त्यनयोर्जन्तव इति स्थाने । 'आख्याते' पुरातनतीर्थकृद्भिरपि कथिते, अनेन तीर्थकृतां परस्परं वचनाव्याहतिरुपदर्शिता, ते च कीरशे ?-'मार-18 तिएत्ति मरणमेवान्तो-निजनिजायुषः पर्यन्तो मरणान्तः तस्मिन् भवे मारणान्तिके, ते एव नामत उपदर्शयति'अकाममरणम्' उक्तरूपमनन्तरवक्ष्यमाणरूपं च, वक्ष्यमाणापेक्षया चः समुच्चये, एवेति पूरणे, 'सकाममरणम्' |उक्तरूपं वक्ष्यमाणखरूपं च तथेति सूत्रार्थः ॥२॥ केषां पुनरिदं कियत्कालं च ? इत्यत आह वालाणं अकामं तु, मरणं असतिं भवे । पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सतिं भवे ॥३॥ व्याख्या-बाला इब वालाः सदसद्विवेकविकलतया तेपाम् 'अकामं तु'त्ति तुशब्दस्वकारार्थत्वात् अकाममेव मरणमसकृद-वारंवारं भवेत, ते हि विपयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव नियन्ते, तत एव च भवाटवीमटन्ति, 'पण्डि-1 तानां चारित्रवतां सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकामं सकाममिव सकामं मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया, तथात्वं चोत्सवभूतत्वात् तादृशां मरणस्य, तथा च वाचक:-"सञ्चिततपोधनानां नित्यं व्रतनियमसंयमरतानाम् । उत्सवभूतं दीप अनुक्रम [१३०] FARPATRISTMAIDwony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) अकाम मरणाध्य. प्रत ROCESSORCE सूत्रांक ||३|| उत्तराध्य. मन्ये मरणमनपराधवृत्तीनाम् ॥१॥" न तु परमार्थतः तेषां सकाम-सकामत्वं, मरणाभिलाषस्थापि निषिद्धत्वाद् , 18| उक्तं हि-"मा मा हु विचिंतेजा जीवामि चिरं मरामि य लहुंति । जइ इच्छसि तरिउं जे संसारमहोदहिमपारं बृहद्वृत्तिः ॥१॥"ति, तुः पूर्वापेक्षया विशेषद्योतका, तब 'उत्कर्षण' उत्कर्षांपलक्षितं, केवलिसम्बन्धीत्यर्थः, अकेयलिनो हि ॥२४२॥ संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि, मुक्त्यवाप्तिः इतः स्यादिति, केवलिनस्तु तदपि नेच्छन्ति, आस्तां भवजीवितमिति, तन्मरणस्योत्कर्षेण सकामता सकृद्' एकवारमेव भवेत् , जघन्येन तु शेषचारित्रिणः सप्लाष्ट वा बारान् भवेदित्याकूतमिति सूत्रार्थः ॥३॥ यदुक्तं-स्त इमे द्वे स्थाने तत्राद्यं तावदाह तस्थिमं पढ़मं ठाणे, महावीरेण देसियं । कामगिहे जहा बाले, भिसं कराणि कुम्वति ॥ ४॥ व्याख्या-तत्रे'ति तयोरकाममरणसकाममरणाख्ययोः स्थानयोर्मध्ये 'इदम्' अनन्तरमभिधास्थमानरूपं 'प्रथमम' आद्यं स्थानं, 'महावीरेणे ति चरमतीर्थकृता, 'तत्रैको महाप्रज्ञः' इति मुकुलितोक्रभिव्यक्त्यर्थमेतत् , 'देशितं' प्ररूपित, किं तत् इत्याह-'कामेपु' इच्छामदनात्मकेषु 'गृद्धः अभिकाढावान् कामगृद्धो 'यथा' इत्युपप्रदर्शनार्थः, 'बाल' इत्युक्तरूपो 'भृशम्' अत्यर्थ 'क्रूराणि रौद्राणि, कर्माणीति गम्यते, तानि च प्राणव्यपरोपणादीनि 'कुछ तित्ति करोति-क्रिययाऽभिनिवर्तयति, शक्तावशक्तावपि क्रूरतया तन्दुलमत्स्यवन्मनसा कृत्वा च प्रक्रमादकाम एय ॥४|म्रियते इति सूत्रायः ॥ ४॥ इदमेव ग्रहणकवाक्यं प्रपञ्चयितुमाह १मा मैव विचिन्तयेः जीवामि चिरं प्रिये च लघु इति । यदीच्छसि तरीतुं संसारमहोदधिमपारम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१३१] ... २४शा FARPATRISTMAIDwony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [१३३] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||५|| अध्ययनं [ ५ ], निर्युक्तिः [२३५...] जे गिद्धे कामभोगे, एगे कूडाय गच्छइ । न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमारती ॥ ५ ॥ व्याख्या- 'य' इत्य निर्दिष्टखरूपो गृद्धः, काम्यन्त इति कामाः भुज्यन्त इति भोगाः ततश्च कामाश्च ते भोगाश्च कामभोगाः तेपु-अभिलषणीयशब्दादिषु यद्वा कामौ च शब्दरूपाख्यौ भोगाश्च स्पर्शरसगन्धाख्याः कामभोगाः तेषु, उक्तं हि - "कामा दुबिहा पण्णत्ता-सहा रूवा य, भोगा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-गंधा रसा फासा यत्ति, 'एकः' कश्चित् क्रूरकर्म्मा तन्मध्यात् कूटमिच कूटं - प्रभूतप्राणिनां यातनाहेतुत्वान्नरक इत्यर्थः यथैव हि कूटनिपतितो मृगो व्याधैरनेकधा हन्यते, एवं नरकपतितोऽपि जन्तुः परमाधार्मिकैरिति, तस्मै कूटाय, गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यां ( पा० २-३-१२ ) वित्यादिना चतुर्थी, 'गच्छति' याति यद्वा यो गृद्धः 'कामभोगेष्विति कामेषुस्त्रीसङ्गेषु भोगेषु धूपनविलेपनादिषु स 'एकः' सुहृदादिसाहाय्यरहितः कूटाय गच्छति, अथवा कूटं द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यतो मृगादिबन्धनं, भावतस्तु मिथ्याभाषणादि, तस्मै गच्छतीत्यनेकार्थत्वात् प्रवर्तते, स हि मांसादि| लोलुपतया मृगादिबन्धनान्यारभते, मिथ्याभाषणादीनि चासेवत इति, प्रेरितश्च कैश्चिद्वदति-'न में' इति न मया 'दृष्टः' अवलोकितः, कोऽसौ ? - 'परलोको' भूतभाविजन्मात्मकः, कदाचिद्विषयाभिरतिरप्येवंविधैव स्यादत आहचक्षुषा-लोचनेन दृष्टा-प्रतीता चक्षुर्दष्टा 'इय' मिति तामेव प्रत्यक्षां निर्दिशति, रम्यतेऽस्यामिति रतिः - स्पर्शनादि - १ कामा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः शब्दा रूपाणि च भोगास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथागन्धा रसाः स्पर्शाश्च । Euston Intimation For Panther मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१३४] उत्तराध्य. बृहद्वृतः ॥२४३॥ Jan Educator “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||६|| अध्ययनं [ ५ ], निर्युक्तिः [२३५...] सम्भोगजनिता चित्तग्रहत्तिः, तस्यायमाशयः - कथं दृष्टपरित्यागतोऽदृष्टपरिकल्पन याऽऽत्मानं विप्रलभेयमिति सूत्रार्थः । | ॥ ५ ॥ पुनस्तदाशयमेवाभिव्यञ्जयितुमाह हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया । को जाणइ परे लोए ?, अस्थि वा नस्थि वा पुणो ॥ ६ ॥ व्याख्या - हसन्ति तेनावृत्य मुखं नन्ति वा घात्यमनेनेति हस्तस्तम् आगताः - प्राप्ताः हस्तागताः, उपमार्थोऽत्र गम्यते, ततो हस्तागता इव खाधीनतया, क एते १- 'इमे' प्रत्यक्षोपलभ्यमानाः काम्यन्त इति कामाः - शब्दादयः, | कदाचिदागामिनोऽप्येवंविधा एव स्युरित्याह- काले सम्भवन्तीति कालिका:- अनिश्चितकालान्तरप्राप्तयो ये 'अनागता' भाविजन्मसम्बन्धिनः कथं पुनरमी अनिश्चितप्राप्तय इत्याह-'को जाणइति उत्तरस्य पुनःशब्दस्येह सम्बन्धनात् कः पुनर्जानाति ?, नैव कश्चित्, यथा-परलोकोऽस्ति नास्ति वेति, अयं चास्याशयः - परलोकस्य सुकृतादिकर्मणां वाऽस्तित्वनिश्चयेऽपि 'को हि हस्तगतं द्रव्यं पादगामि करिष्यती 'ति न्यायतः क इव हस्तागतान् कामानपहाय कालिककामार्थ यतेत, तत्त्वतस्तु परलोकनिश्चय एव न समस्ति तत्र प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः, अनुमानस्य तु प्रवृत्तावपि गोपालघटिकादिधूमादभ्यनुमा नवदन्यथाऽप्युपलम्भनान्निश्चायकत्वासम्भवान्न ततस्तदस्तित्वनिश्चयो नास्ति| त्वनिश्चयो वा, किन्तु सन्देह एव, न त्वयमेवं विवेचयति यथाऽवासा अपि कामा दुरन्ततया त्यक्तुमुचिताः, दुर For P&Fit Only अकाम मरणाध्य. ~ 485 ~ ५. ॥२४३॥ tur मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||६|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| Iकन्तत्वं च तेषां शल्यविषादिभिरुदाहरणैः प्रतीतमेव, तथा च वक्ष्यति-"सलं कामा विसं कामा, कामा आसीपिसो-1 वमा। कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दुग्गतिं ॥१॥" न हि विषादीनि मुखमधुराण्यप्यायतिविरसतया विवेकिभिन हीयन्ते, यदपि परलोकसन्देहाभिधानं तदपि न पापपरिहारोपदेशं प्रति बाधकं, पापानुष्ठानस्येहैव चौरपारदारिकादिषु महानर्थहेतुतया दर्शनात् , परलोकनास्तित्वानिश्चये च तत्रापि तथानर्थहेतुतया सम्भाव्यमानत्वाल्मीककरप्रवेशनादिवत् प्रेक्षावद्भिः परिहर्तुमुचितत्वात् , न च परलोकास्तित्वं प्रति सन्देहः, तनिश्चायकानुमानस्य तदहर्जातबालकस्तनाभिलाषादिलिङ्गबलोत्पन्नस्य तथाविधाध्यक्षवदव्यभिचारित्वेन तत्र तत्र समर्थितत्वादित्यलं प्रसझेनेति सूत्रार्थः॥६॥ अन्यस्तु कथञ्चिदुत्पादितप्रत्ययोऽपि कामान् परिहर्तुमशक्वन्निदमाह जणेण सहिं होक्खामि, इति वाले पगम्भइ । कामभोगाणुरागणं, केसं संपडिवजा ॥ ७॥ व्याख्या-जायत इति जनो-लोकस्तेन 'सार्द्ध' सह भविष्यामि, किमुक्तं भवति ?-बहुजनो भोगासझी तदहमपि तद्गतिं गमिष्यामि, यद्वा 'होक्खामित्ति भोक्ष्यामि-पालयिष्यामि, यथा शयं जनः कलत्रादिकं पालयति तथाऽहमपि, न हीयान् जनोज्ञ इति 'बालः' अज्ञः 'प्रगल्भते' धार्यमवलम्बते, अलीकवाचालतया च खयंनष्टः परानपि नाशयति, न विवेचयति यथा-किमुन्मार्गप्रस्थितेनाविवेकिजनेन बहुनाऽपि ? मम विवेकिनः प्रमाणीकृतेन 1, स्वकृत१शल्यं कामा विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः । कामान् प्रार्थयन्तोऽकामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ १॥२ प्रमाणीकरणेनेति, दीप अनुक्रम [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||७|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः मरणाध्य. प्रत ॥२४४॥ सूत्रांक 15645 ||७|| कर्मफलभुजो हि जन्तवः, स चैवं कामभोगेषु-उक्तरूपेषु अनुरागः-अभिष्वङ्गः कामभोगानुरागः तेन 'क्लेशम् ' इह परत्र च विविधवाधात्मकं 'सम्प्रतिपद्यते' प्रामोतीति सूत्रार्थः ॥ ७॥ यथा च कामभोगानुरागेण क्लेशं संप्रतिपद्यते तथा वक्तुमाह तओ दंड समारभति, तसेसुं थावरेसु य । अट्ठाए य अणट्टाए, भूयगाम विहिंसह ॥८॥ __व्याख्या-तत' इति कामभोगानुरागात् 'सेइति स धार्यवान् दण्ड्यते संयमसर्वखापहरणेनात्मा अनेनेति & दण्डो-मनोदण्डादिस्तं 'समारभते' प्रवर्तत इति, केषु !-त्रस्यन्ति-तापाद्युपतप्तौ छायादिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति साः-द्वीन्द्रियादयस्तेषु, तथा शीतातपाद्युपहता अपि स्थानान्तरं प्रत्यनभिसर्पितया स्थानशीलाः स्थावरास्तेषु च, अर्थः-प्रयोजनं वित्तावात्यादिः तदर्थमर्थाय, चस्प व्यवहितसम्बन्धत्वात् अनर्थाय च-यदात्मनः सुहृदादेवों नोपयुज्यते, ननु किमनर्थमपि कश्चिद्दण्डं समारभते, एवमेतत् तथाविधपशुपालवत् , तत्र सम्प्रदायः-यथैकः पशुपालः प्रतिदिनं मध्याह्नगते रयी अजासु महान्यग्रोधतरं समाश्रितासु तत्थुत्ताणतो णिविष्णो वेणुविदलेण अजोगीर्णकोलास्थिभिः तस्य वटस्य पत्राणि छिद्रीकुर्वन् तिष्ठति, एवं तेन स बटपादपः प्रायसश्छिद्रपत्रीकृतः, अन्नया तत्थेगो रायपुत्तो दातियधाडितो तच्छायसमस्सितो पेच्छए य तस्स बडस्स सर्वाणि पत्राणि छिद्रितानि, तो तेण सो १ तत्रोत्तानको निविष्ठो वेणुविदलेन, अन्यदा तत्रैको राजपुत्रो दायादधाटितः तच्छायासमाश्रितः प्रेक्षते च तस्य वटस्य, ततस्तेन स % % दीप अनुक्रम [१३५] % ॥२४४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||८|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||८|| पसुपालतो पुच्छितो-केणेयाणि पत्राणि छिद्दीकयाणि ?, तेण भण्णइ-मया, एयाणि क्रीडापूर्व छिद्रितानि, तेण सो बहुणा दबजाएण विलोभेउ भण्णति-सकेसि जस्साह भणामि तस्स अच्छीणि छिद्देउं ?, तेण भण्णति-छुड अब्भासत्यो होउ तो सकेमि, तेण णयरं नीतो, रायमग्गसन्निविटे घरे ठवितो, तस्स रायपुत्तस्स भाया राया, सो तेण मग्गेण अस्सवाहणियाए णिज्जद, एएण भण्णति-एयस्स अच्छीणि पाडेहित्ति, तेण य गोलियधणुयएण तस्स णिग्गच्छ-4 माणस्स दोषि अच्छीणि पाडियाणि, पच्छा सो रायपुत्तो राया जातो, तेण य सो पसुपालो भण्णति-ब्रूहि वरं, किं ते प्रयच्छामि, तेण भण्णति-मज्झ तमेव गामं देहि जत्थ अच्छामि, तेण सो दिण्णो, पच्छा तेण तम्मि पञ्चतगामे उच्छू रोविओ तुंबीतो य, निष्फण्णेसु तुवाणि गुले सिद्धिउं तं गुडतुंवयं भुक्त्वा २ गायति स-अट्टमट्टं च ा १ पशुपालः पृष्टः-केनैतानि पत्राणि छिद्रीकृतानि ?, तेन भण्यते-मयैतानि । तेन स बहुना द्रव्यजातेन विलोभ्य भण्यते-शकोपि| यस्याहं भणामि तस्याक्षिणी छिद्रयितुम् , तेन भण्यते-सुष्टु अभ्यासस्थो भवेयं तदा शकुयाम , तेन नगरं नीतः, राजमार्गसन्निविष्टे गृहे स्थापितः, तस्स राजपुत्रस्य भ्राता राजा, स तेन मार्गेणाश्ववाहनिकया याति, एतेन भण्यते-एतस्याक्षिणी पातयेति, तेन च गोलिकधनुषा तस्य निर्गच्छतो वे अप्यक्षिणी पातिते, पश्चात्स राजपुत्रों राजा जातः, तेन च स पशुपालो भण्यते-तेन भण्यते-मम तमेव प्रामं देहि दयत्र तिष्ठामि, सेन स (ती) दत्तः, पश्चात्तेन तस्मिन् प्रत्यन्तप्रामे इक्ष रोपितस्तुम्च्या , निष्पन्नेषु तुम्बानि गुडे पक्त्वा तत् गुडतुम्बकं | भुक्त्वा गायति चासौ-अट्टमट्टं च दीप अनुक्रम [१३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥८॥ दीप अनुक्रम [१३६ ] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||८|| अध्ययनं [ ५ ], निर्युक्तिः [२३५...] उत्तराध्य.सिखिज्जा, सिक्खियं ण णिरत्थयं । अट्टमट्टपसाएण, भुंजए गुडतुंवयं ॥ १॥ तेण ताणि वडपत्ताणि अणद्वार छिदिबृहद्वृतिः याणि, अच्छीणि पुण अट्ठाए पाडियाणि । दण्डमारभत इत्युक्तं, तत्किमसावारम्भमात्र एवावतिष्ठते इत्याह'भूयगामं 'ति भूताः प्राणिनस्तेषां ग्रामः - समूहस्तं विविधैः प्रकारैर्हिनस्ति व्यापादयति, अनेन च दण्डत्रयव्यापार उक्त इति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ किमसौ कामभोगानुरागेणैतावदेव कुरुते ? उतान्यदपीत्याह ॥२४५॥ हिंसे वाले मुसाबाई, माईले पिसुणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयंति मन्नइ ॥ ९ ॥ व्याख्या - हिंसनशीलो हिंस्रः अनन्तरोक्तनीत्या, तथैवंविधश्च सन्नसौ 'बालः' उक्तरूपो 'मृषावादी'ति अलीकभाषणशीलः, 'माइले 'ति माया -परवञ्चनोपायचिन्ता तद्वान् 'पिशुनः' परदोषोद्घाटकः 'शठः' तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमन्यथा दर्शयति, मण्डिकचौरवत्, अत एव च भुञ्जानः 'सुरां' मयं 'मांसं' पिशितं 'श्रेयः' प्रशस्यतरमेतदिति मन्यते, उपलक्षणत्वात् भाषते च-'न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुन इत्यादि, तदनेन | मनसा वचसा कायेन चासत्यत्वमस्योक्तमिति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ पुनस्तद्वक्तव्यतामेवाह - कासा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणह, सिसुनागुव्व महियं ॥ १० ॥ Jm Eusto १. शिक्षेत शिक्षितं न निरर्थकम् । अट्टमट्टप्रसादेनं, भुज्यते गुडलुम्बकम् ॥ १ ॥ तेन तानि वटपत्राणि अनर्थाय छिद्रितानि, अक्षिणी पुनरर्थाय पातिते For Par अकाम ~ 489~ मरणाध्य. ॥२४५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||20|| दीप अनुक्रम [१३८] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१०|| निर्युक्ति: [२३५...] अध्ययनं [ ५ ], व्याख्या – 'कायस'त्ति सूत्रत्वात् कायेन शरीरेण वचसा - वाचा उपलक्षणत्वात् मनसा च 'मत्तो' दृप्तः, तत्र कायमत्तो मदान्धगजवत् यतस्ततः प्रवृत्तिमान्, यद्वाऽहोऽहं बलवान् रूपवान् वेति चिन्तयन् वचसा स्वगुणान् ख्यापयन् अहोऽहं सुखर इत्यादि वा चिन्तयन् मनसा च मदाध्मातमानसः अहोऽहमवधारणाशक्तिमानिति वा मन्वानो 'वित्ते'द्रविणे 'गृद्धो' गृद्धिमान्, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततः स्त्रीषु च गृद्धः, तत्र वित्ते गृद्ध इति अदत्तादानपरिग्रहोपलक्षणं, तद्भावभावित्वात्तयोः, स्त्रीषु गृद्ध इत्यनेन मैथुनासेवित्वमुक्तं, स हि स्त्रियः संसारसर्वस्वभूता इति मन्यते, तथा च तद्वचः - 'सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचनाः ॥ १ ॥ ' तदभिरतिमांश्च मैथुनासेव्येव भवति, स एवंविधः किमित्याह - 'दुहतो' ति द्विधा- द्वाभ्यां रागद्वेषात्मकाभ्यां वहि|रन्तःप्रवृत्त्यात्मकाभ्यां वा प्रकाराभ्यां सूत्रत्वाद्विविधं वा इहलोकपरलोकवेदनीयतया पुण्यपापात्मकतया बा, 'मलम्' अष्टप्रकारं कर्म्म 'संचिनोति' बन्नाति, क इव किमित्याह - 'शिशुनागो' गण्डूपदोऽलस उच्यते स इव मृत्तिकां स हि सिग्धतनुतया वही रेणुभिरवगुण्ड्यते, तामेव चाश्नीते इति वहिरन्तश्च द्विधापि मलमुपचिनोति, तथाऽयमपि एतदृष्टान्ताभिधाने त्वयमभिप्रायो- यथाऽसौ वहिरन्तश्चोपचितमलः खरतर दिवाकर करनिकरसंस्पर्शतः शुष्यन्निहैव क्लिश्यति विनाशं चाप्नोति, तथाऽयमप्युपचितमलः आशुकारिकर्म्मवशत इहैव जन्मनि क्लिश्यति विनश्यति चेति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाह For Paren मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित अत्र सूत्रान्ते यत् ||११|| लिखितं तत् मुद्रणदोष:, अत्र सूत्र ||१०|| एव वर्तते आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 490 ~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक || 88 || दीप अनुक्रम [१३९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२४६॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||११|| निर्युक्ति: [२३५] तओ पुट्ठो आर्यकेण, गिलाणो परितप्यति । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणो ॥ ११ ॥ व्याख्या- 'ततो' र्त्ति तकः ततो वा दण्डारम्भणाथुपार्जितमलतः स्पृष्टः, केन ?- 'आतङ्केन' आशुघातिना शूलविसूचिकादिरोगेण तत्तदुः खोदयात्मकेन वा 'ग्लान' इति मन्दोऽपगतहर्षो वा परीति सर्वप्रकारं तप्यते, किमुक्तं भवति ?-वहिरन्तश्च खिद्यते, 'प्रभीत' इति प्रकर्षेण त्रस्तः, कुतः १ - 'परलोगस्स' त्ति परलोकात् सुध्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे षष्ठी, किमिति ? - क्रियत इति कर्म क्रिया तदनुप्रेक्षत इत्येवंशीलः कर्मानुप्रेक्षी, यत इति गम्यते, कस्य ? - आत्मनः, स हि हिंसालीकभाषणादिकामात्मचेष्टां चिन्तयन्न किञ्चिन्मया शुभमाचरितं, किन्तु सदैवाजरामरवचेष्टितमिति चिन्तयंश्वेतस्यातङ्कतश्च तनावपि खिद्यते भवति हि विषयाकुलितचेतसोऽपि प्रायः प्राणोपरमसमयेऽनुतापः, तथा चाहु:-- “भवित्रीं भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत्किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् ॥ १ ॥” इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाह - ( ग्रन्थाग्रम् ६००० ) १२ ॥ सुया मे णरए ठाणा, असीलाणं च जा गती । बालाणं क्रूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥ व्याख्या -'मुय'ति श्रुतानि - आकर्णितानि 'मे' इति मया 'नरके' सीमन्तकादिनानि कानि ? - 'ठाणा' इति १ प्राकृतानुकरणमेतदिति प्रतिभाति । For Ph अकाम मरणाध्य. ~ 491~ ५ ॥२४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [१४० ] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ५ ], मूलं [ - ] / गाथा ||१२|| निर्युक्ति: [२३५] लिङ्गव्यत्ययेनोत्पत्तिस्थानानि घटिकालयादीनि येष्वतिसंपीडिताङ्गा दुःखमाकृष्यमाणाः वहिर्निष्क्रामन्ति जन्तवः, यद्वा नरके - रत्नप्रभा दिनरक पृथिव्यात्मके स्थानानि - सीमन्तकाप्रतिष्ठानादीनि कुम्भीवैतरण्यादीनि वा, अथवा स्थानानि - | सागरोपमादिस्थित्यात्मकानि तत्किमियताऽपि परितप्यत इत्यत आह- 'अशीलानाम्' अविद्यमानसदाचाराणां या गतिर्नरकात्मिका सा च श्रुतेति सम्बन्धः कीदृशानाम् १- 'बालानाम्' अज्ञानां क्रूरकर्म्मणां' हिंस्रमृषाभाषकादीनां, कीदृशी गतिरित्याह-प्रगाढा नामात्युत्कटतया निरन्तरतया च प्रकर्षयत्यो 'यत्र' यस्यां गतौ वेद्यन्त इति वेदनाःशीतोष्णशाल्मल्या श्लेषणादयः, तदयमस्याशयः - ममैवंविधानुष्ठानस्येदृश्येव गतिरिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ तथा तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मे तमणुस्सुधं । आहाकम्मेहिं गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्पति ॥ १३ ॥ व्याख्या- 'तत्रे 'ति नरकेषु उपपाते भवमोपपातिकं 'स्थानं' स्थितिः 'यथा' येन प्रकारेण, भवतीति शेषः, 'मे' | मया तदित्यनन्तरोकपरामर्शे 'अनुश्रुतम्' अवधारितं, गुरुभिरुच्यमानमिति शेषः, औपपातिकमिति च ब्रुवतोऽस्वायमाशयः- यदि गर्भजत्वं भवेत् भवेदपि तदवस्थायां छेदभेदादिनारकदुःखान्तरम्, औपपातिकत्ये त्वन्तर्मुहूर्तानन्तरमेव तथाविधवेदनोदय इति कुतस्तदन्तरसम्भवः १, तथा च- 'आहाकम्मे हिं'ति आधानमाधाकरणम्, आत्मनेति गम्यते, तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि तैः आधाकर्मभिः स्वकृतकर्मभिः, यद्वाऽऽर्षत्वात्, 'आहेति' आधाय कृत्वा, कर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव कर्म्मभिः 'गच्छन्' यान् प्रक्रमान्नरकं, यद्वा- 'यथाक Juston Timation For Par मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१३|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) आमरणाम प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. मभिः' गमिष्यमाणगत्यनुरूपैः तीव्रतीव्रतराद्यनुभावान्वितैर्गच्छंस्तदनुरूपमेव स्थानं, 'स' इति वालः, 'पश्चादि'त्याबृहद्वृत्तिः IAयुपि हीयमाने 'परितप्यते' यथा धिङ् मामसदनुष्ठायिनं, किमिदानी मन्दभाग्यः करोमि ? इत्यादि शोचत इति । सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ अमुमेवार्थ दृष्टान्तद्वारेण दृढयन्नाह॥२४७॥ जहा सागडिओ जाणं, संमं हिचा महापहं । विसमं मग्गमोतिषणो, अक्खभग्गंमि सोयह ॥१४॥ व्याख्या-'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, शक्नोति शक्यते वा धान्यादिकमनेन वोढुमिति शकटं तेन चरति शाकटिकः-गलीवाहकः 'जाणं'ति जाननवबुध्यमानः 'समम्' उपलादिरहितं 'हित्वा'त्यक्त्वा, कम् ?-महांश्चासौ विस्तीर्णतया प्राधान्येन च पन्थाश्च महापथः, 'ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे (पा०५-४-७४) इत्यकारः समासान्तस्तं, 'विषमम्' उपलादिसलं 'मार्ग' पन्थानं 'ओतिन्नो'त्ति अवतीर्ण:-गन्तुमुपक्रान्तः, पठ्यते च-'ओगाढो'त्ति तत्र, चावगाढ आरूढः प्रपन्न इति चैकोऽर्थः, अनीते नवनीतादिकमित्यक्षो-धूः तस्य भङ्गो-विनाशः अक्षभङ्गः तस्मिन् , पाठान्तरतश्चाक्षे भने, शोचते यथा धिम् मम परिज्ञानं यजाननपीथमपायमवाप्तवानिति सूत्रार्थः ॥ १४॥ सम्प्रत्युपनयमाह एवं धम्म विउकम्म, अहम्म पडिवजिया। वाले मचुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयह ॥१५॥ व्याख्या-'एव'मिति शाकटिकवद् 'धर्म' क्षान्त्यादिकं यतिधर्म सदाचारात्मकं वा 'विउक्कम्म'त्ति व्युत्क्रम्य दीप अनुक्रम [१४१] ॥२४७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--1/ गाथा ||१५|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| विशेषेणोलल्य न धर्मोऽधर्मः, न विपक्षेऽपि वर्तते इति धर्मप्रतिपक्षः, तं-हिंसादिकं 'प्रतिपद्य' अभ्युपगम्य / 'बालः' अभिहितरूपो मरणं-मृत्युस्तस्य मुखमिव मुखं मृत्युमुख-मरणगोचरं 'प्रासो' गतः, किमित्याह-अक्षे भन्न इव शोचति, किमुक्तं भवति ?-यथा-अक्षभने शाकटिकः शोचति तथाऽयमपि स्वकृतकर्मणामिहैव मारणान्तिकवेदनात्मकं फलमनुभवन्नात्मानमनुशोचति, यथा हा किमेतजानताऽपि मयैवमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ॥१५॥ शोचना-12 नन्तरं च किमसौ करोतीत्याह तओ से मरणंतंमि, वाले संतस्सई भया । अकाममरणं मरई, धुत्ते वा कलिणा जिए ॥ १६ ॥ व्याख्या-तत'इत्यातकोत्पत्ती यच्छोचनमुक्तं तदनन्तरं 'से' इति स मरणमेवान्तो मरणान्तस्तस्मिन् , उपस्थित इति शेषः, 'बालों' रागाद्याकुलितचित्तः 'संत्रस्यति' समुद्विजते विभेतीतियावत् , कुतः १-'भयात् ' नरकगतिग-2 मनसाध्वसाद, अनेनाकामत्वमुक्तं, स च किमेवं विभ्यत् मरणाद्विमुच्यते ? उत नेत्याह-अकामस्य-अनिच्छतो मरण|मकाममरणं तेन, सूत्रे चार्यत्वाद्वितीया, "म्रियते' प्राणांस्त्यजति, क इव कीदृशः सन् ?-'धूर्त इव' द्यूतकार इव, वाशब्दस्योपमार्थत्वात् , 'कलिना' एकेन, प्रक्रमात् दायेन, जितः सन्नात्मानं शोचति, यथा खयमेकेन दायेन जितः| | सन्नात्मानं शोचति तथाऽसावपीत्वरैर्विपाककटुभिः सङ्क्लेशबहुलैर्मनुज भोगैर्दिव्यसुखं हारितः शोचन्नेव नियत इति | सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ प्रस्तुतमेवार्थ निगमयितुमाह दीप अनुक्रम [१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१७|| _ नियुक्ति: [२३५...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२४॥ मरणाध्य प्रत सूत्रांक ||१७|| एवं अकाममरणं, बालाणं तु पवेइयं । इत्तो सकाममरणं, पंडियाण सुणेह मे ॥ १७ ॥ व्याख्या-'एतद्' अनन्तरमेव दुष्कृतकर्मणां परलोकाद्विभ्यतां यन्मरणमुक्तं तदकाममरणं, वालानामेव, तुशब्दस्यैवार्थत्वात् , 'प्रवेदितं' प्रकर्षण प्रतिपादितं, तीर्थकृद्गणधरादिभिरिति गम्यते। पण्डितमरणप्रस्तावनार्थमाहएत्तोत्ति इतोऽकाममरणादनन्तरं 'सकाममरणं पण्डितानां सम्बन्धि 'शृणुत' आकर्णयत 'मे' मम, कथयत इत्युपस्कारः इति सूत्रार्थः॥१७॥ यथाप्रतिज्ञातमाह मरणपि सपुण्णाणं, जहा मे तमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं, संजयाणं वुसीमओ ॥१८॥ | व्याख्या-मरणमपि आस्तां जीवितमित्यपिशब्दार्थः, 'पुण कर्मणि शुभेइत्यस्माद्धातोः 'उणादयो बहुल' (पा. ॥३-३-१)मिति बहुलवचनाद्भावे क्यपि पुण्यम् , उक्तं हि-"पुर्ण कर्मणि निर्दिष्टः शुभविशेषप्रकाशको धातुरयम् । भावप्रत्यययोगाद्विभक्तिनिर्देशसिद्धमेतद्रूपम् ॥१॥" सह तेन वर्तन्त इति सपुण्यास्तेषां न त्वन्येषामपुण्यवतां, किं सर्वमपि ?, नेत्याह-'यथा' येन प्रकारेण 'मे' मम, कथयत इति गम्यते, तदित्युपक्षेपः, तत्रोपात्तम् 'अनुश्रुतम्' अवधारितं, भवद्भिरिति शेषः, सुठु प्रसन्नं मरणसमयेऽप्यकलुषं कषायकालुष्यापगमान् मनः-चेतो येषां ते सुप्रसन्नमनसःमहामुनयस्तेपां ख्यातं-खसंबेदनतः प्रसिद्धं सुप्रसन्नमनःख्यातं, यहा-'सुप्पसन्नेहि अक्खाय' अत्र च सुष्टु प्रसन्नैः१ अत्र पूर्वार्धे चतुर्थपञ्चमपठाः पा: उत्तरार्धेऽष्टचाः दीप अनुक्रम [१४५] २४८) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||१८|| नियुक्ति : [२३५...] (४३) 185%25A5% प्रत सूत्रांक ||१८|| पापपट्टापगमनेनात्यन्तनिर्मलीभूतैः, शेषतीर्थकृद्भिरिति गम्यते, आख्यातं । पठ्यते च 'विप्पसण्णमणापाय'ति, तत्र च विशेषेण विविधैर्वा भावनादिभिः प्रकारैः प्रसन्ना-मरणेऽप्यपहतमोहरेणुतयाऽनाकुलचेतसो विप्रसन्नाः, तत्सम्बन्धि मरणमप्युपचाराद्विप्रसन्नं, न विद्यते आघातः तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिनामात्मनश्च विधिवत् संलिखितशरीरतया यस्मिंस्तदनाघातं, केषां पुनरिदम् ?, उच्यते-'संयतानां' समिति-सम्यग् यतानां-पापोपरतानां, चारित्रिणामित्यर्थः, 'बुसीमतो'त्ति, आपत्त्वादृश्यवतां वश्य इत्यायत्तः, स चेहात्मा इन्द्रियाणि वा, वश्यानि विद्यन्ते येषां वे अमी वश्यवन्तः तेषाम् , अयमपरः सम्प्रदायार्थ:-बसंति वा साहुगुणेहिं वुसीमंतः, अहवा बुसीमा-संविग्गा तेर्सि'ति एतचात् पण्डितमरणमेव, ततोऽयमर्थः-यथैतत् संयतानां वश्यवतां विप्रसन्नमनाघातं च सम्भवति, न तथाऽपुण्यप्राणिनाम् । 'अन्ते समाहिमरणं अभवजीवा ण पाति'त्ति वचनात्, विशिष्टयोग्यताभाजामेव तत्त्रा|प्तिसम्भवादिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ यथा चैतदेवं तथा दर्शयितुमाहन इमं सब्वेसु भिक्खूमुं, ण इमं सब्वेसु गारिसु । नानासीला य गारस्था, विसमसीला प भिक्खुणो ॥१९॥ - व्याख्या-'ने'त्यवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नैव 'इद'मिति पण्डितमरणं 'सबेसु भिक्खुसुति सूत्रत्वात् सर्वेषां भिक्षूणां परदत्तोपजीविनां अतिनामितियावत् , किन्तु केषाश्चिदेव परोपचितपुण्यानुभाववतां भावभिषणां, तथा च | १ वसन्ति वा साधुगुणैः वसीमन्तः, अथवा वशिमानः संविनास्तेषामिति । २ अन्ते समाधिमरणमभव्यजीवा न प्रामुवन्ति दीप अनुक्रम [१४६] 25%XSAX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [१४७] उत्तराध्य. बृहद्वतिः ॥२४९॥ Amadom “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१९|| निर्युक्ति: [२३५...] अध्ययनं [ ५ ], गृहस्थानां दूरापास्तमेव, अत एवाह - नेदं पण्डितमरणं 'सधेसु गारिसु' चि सर्वेषामगारिणा गृहिणां, चारित्रिणामेव तत्सम्भवात्, तथात्वे च तेषामपि तत्त्वतो यतित्वाद्, उभयत्र विषयसप्तम्यन्ततया वा नेयं, यथा चैतदेवं तथोपपत्तित आह-नाना - अनेकविधं शीलं - प्रतं स्वभावो वा येषां ते नानाशीलाः 'अगारस्था' गृहस्थाः, तेषां हि नैकरूपमेव शीलं किन्त्वनेकभङ्गसम्भवादनेकविधं, देशविरतिरूपस्य तस्यानेकधाऽभिधानात् सर्वविरतिरूपस्य च तेष्वसम्भवात् 'विषमम्' अतिदुर्लक्षतयाऽतिगहनं विसदृशं वा शीलमेषां विषमशीलाः, के ते १- भिक्षवः, न हि सर्वेऽप्यनिदानिनोऽविकलचारित्रिणो वा तत्कालं म्रियन्ते जिनमतप्रतिपन्ना अपि, तीर्थान्तरीयास्तु दूरोत्सारिता एव तेषु हि गृहिणस्तावदत्यन्तं नानाशीला एव यतः केचिद्गृहाश्रमप्रतिपालनमेव महात्रतमिति प्रतिपन्नाः, अन्ये तु सप्त शिक्षापदशतानि गृहिणां प्रतमित्याद्यनेकधैव ब्रुवते, भिक्षवोऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव, यतस्तेषु केषा| ञ्चित्पञ्चयमनियमात्मकं व्रतमिति दर्शनम्, अपरेषां तु कन्दमूलफलाशितैव इति, अन्येषामात्मतत्त्वपरिज्ञानमेवेति विसदृशशीलता, न च तेषु कचिदविकलचारित्रसम्भव इति सर्वत्र पण्डितमरणाभाव इति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ विषमशीलतामेव भिक्षूणां समर्थयितुमाह संति एगेहि भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सम्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥ व्याख्या- 'सन्ति' विद्यन्ते 'एकेभ्यः' कुप्रवचनेभ्यो भिक्षुभ्यः 'गारत्थ'ति सूत्रत्वादगारस्थाः संयमेन-देश For Parnasse Ord अकाममरणाध्य. ~ 497~ ॥२४९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-1/ गाथा ||२१|| _ नियुक्ति: [२३५...] (४३) ******* प्रत सूत्रांक ||२१|| विरयात्मकेनोत्तराः-प्रधानाः संयमोत्तराः, कुप्रवचनभिक्षवो हि जीवाद्यास्तिक्यादपि बहिष्कृताः सर्वथाऽचारित्रिदाणथेति कथं न सम्यग्दृशो देशचारित्रिणो गृहिणस्तेभ्यः संयमोत्तराः सन्तु १, एवं सत्यगारस्थेष्वेव तदस्त्वित्यत आह-'अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्य' इति अनुमतिवर्जसर्वोत्तमदेशविरतिप्राप्तेभ्योऽपि साधवः संयमोत्तराः, परिपूर्णसंयमत्वात्तेषां, तथा च वृद्धसम्प्रदायः-एगो सावगो साहुं पुच्छति-सावगाणं साहूणं किमंतरं?, साहुणा भण्णतिसरिसवमंदरंतरं, ततो सो आउलीहूओ पुणो पुच्छति-कुलिंगीणं सावगाण य किमंतरं?, तेण भण्णति-तदेव सरिसवमंदरंतरंति, ततो समासासितो, जतो भणियं-"देसे कदेसविरया समणाणं सावगा सुविहियाणं । जेसिं परपासंडा सतिमपि कलं न अग्छति ॥ १॥" तदनेन तेषां चारित्राभावदर्शनेन पण्डितमरणाभाव एव समर्थित इति | सत्रार्थः ॥२०॥ ननु कुप्रवचनभिक्षवोऽपि विचित्रलिङ्गधारिण एवेति कथं तेभ्योऽगारस्थाः संयमोत्तराः, अत आह चीराजिणं निगिणिणं, जडी संघाडि मुंडिणं । एयाईपि न तायंति, दुस्सीलं परियागतं ॥२१॥ व्याख्या-चीराणि च-चीवराणि अजिनं च-मृगादिचर्म चीराजिनं 'णिगिणिणं'ति सूत्रत्वान्नाश्यं 'जडि'त्ति १ एकः श्रावकः साधुं पृच्छति-श्रावकाणां साधूनां (च) किमन्तरम् ?, साधुना भण्यते-सर्षपमन्दरान्तरम् , ततः स व्याकुलीभूतः पुनः पृच्छति-कुलिङ्गिनां श्रावकाणां च किमन्तरम् ?, तेन भण्यते तदेव सर्षपमन्दरान्तरमिति, ततः समाश्वस्तः, यतो भणितम्देशैकदेशविरताः श्रमणानां श्रावकाः मुविहितानाम् । येषां परपाषण्डाः शतीमपि कलां नार्यन्ति ॥१॥ * * दीप अनुक्रम [१४९] SAntaram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||२१|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२५॥ प्रत सूत्रांक ||२१|| भावप्रधानत्वानिर्देशस्य जटित्वं, सङ्घाटी-वस्त्रसंहतिजनिता 'मुंडिणं ति यत्र शिखाऽपि खसमयतश्छिद्यते, ततः प्रा अकामग्वत् मुण्डित्वं, "एतान्यपीति निजनिजप्रक्रियाविरचितबतिवेषरूपाणि लिङ्गान्यपि, किं पुनर्गार्हस्थ्यमित्यपिशब्दार्थः, किमित्याह-नैव त्रायन्ते भवाद्दुष्कृतकर्मणो वेति गम्यते, कीदृशम् !-'दुःशीलं' दुराचारं 'परियागयंति मरणाध्य. पर्यायागतं-प्रव्रज्यापर्यायप्राप्तम् , आपत्वाच्च याकारस्बैकस्य लोपः, यद्वा-'दुस्सीलंपरियागय'ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततो दुःशीलमेव दुष्टशीलात्मकः पर्यायस्तमागतं दुःशीलपर्यायागतं, न हि कषायकलुषचेतसो बहिर्बकवृत्तिरतिकष्टहेतुरपि नरकादिकुगतिनिवारणायालं, ततो न लिङ्गधारणादि विशिष्टहेतुरिति सूत्रार्थः ॥ २१॥ आहकथं गृहाद्यभावेऽप्यमीषां दुर्गतिरिति ?, उच्यते| पिंडोलए व दुस्सीलो, नरगाओ न मुचइ । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कमति दिवं ॥२२॥ व्याख्या-'पिंडोलए बत्ति वाशब्दोऽपिशब्दार्थः, ततश्च 'पिडि सङ्घाते' पिण्ड्यते तत्तद्गृहेभ्य आदाय सङ्घात्यत इति पिण्डः तमबलगति-सेवते पिण्डावलगो-यः खयमाहाराभावतः परदत्तोपजीवी सोऽपि, आस्तां । गृहादिमानित्यर्थः, दुःशीलः प्राग्वत् , 'नरकात्' खकर्मोपस्थापितात् सीमन्तकादेन मुच्यते, अत्र चोदाहरणं तथा ॥२५॥ विधद्रमकः, तत्र च-सम्प्रदायः-रायगिहे णयरे एगो पिंडोलओ उज्जाणियाए विणिग्गए जणे भिक्खं हिंडइ, ण १ राजगृहे नगरे पकः पिण्डावलगः उद्यानिकायै विनिर्गते जने भिक्षा हिण्डते, न दीप अनुक्रम [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||२२|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२२|| यं तस्स केणइ किंचि दिण्णं, सो तेसिं वैभारपञ्चयकडगसन्निविट्ठाण पचतोपरि चडिऊण महतिमहालयं सिलं चालेइ, एएसि उवरिं पाडेमित्ति रोहन्झाई विछुट्टिऊण ततो सिलातो निवडितो सिलातले संचुण्णियसबकातो य| मरिऊण अप्पइट्ठाणे णरए समुप्पन्नो । तर्हि किमत्र तत्त्वतः सुगतिहेतुरित्याह-'भिक्खाए वत्ति भिक्षामत्ति अकति वा भिक्षादो भिक्षाको, वा विकल्पे, अनेन यतिरुक्तः, गृहे तिष्ठति गृहस्थः स का, शोभनं निरतिचारतया सम्यग्भावानुगततया च प्रतं-शीलं परिपालनात्मकमस्येति सुत्रतः, 'कामति' गच्छति 'दिवं' देवलोक, मुख्यतो मुक्ति-18 हेतुत्वेऽपि व्रतपरिपालनस्य दिवं क्रामतीत्यभिधानं जघन्यतोऽपि देवलोकप्राप्तिरिति ख्यापनार्थम् , उक्तं हि"अविरोहियसामण्णस्स साहुणो सायगस्स य जहण्णो । उववातो सोहम्मे भणितो तेलोकदंसीहिं ॥१॥" अनेन व्रतपरिपालनमेव तत्त्वतः सुगतिहेतुरित्युक्तमिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ यद्भूतयोगाद्गृहस्थोऽपि दिवं कामति तत्तुमाह-- अगारिसामाइयंगाई, सड्डी कारण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं, एगराई न हावए ॥ २३ ॥ १. च तस्मै केनचित् किञ्चित्त, स तेषु वैभारगिरिकटकसन्निविष्टेषु पर्वतस्योपरि चटित्वा ( आरुह्य ) अतिमहतीं शिलां चालयति, ४ एतेषामुपरि पातयामीति रौद्रध्यायी विछुट्य ततः शिलातो निपतितः शिलातले संचूर्णितसर्वकायच मृत्वाऽप्रतिष्ठाने नरके सभुररान्नः। तर अविराद्धभामण्यस्य साधोः श्रावकस्य च जघन्येन । उपपातः सौधर्मे भणितखैलोक्यदर्शिभिः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१५० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-1/गाथा ||२३|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) अकाम उत्तराध्य. बृहदृत्तिः मरणाध्य. प्रत ॥२५॥ सूत्रांक ||२३|| व्याख्या-अगारिणो-गृहिणः सामायिक-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपं तस्याङ्गानि-निःशङ्कताकालाध्ययना-2 णुप्रतादिरूपाणि अगारिसामायिकाङ्गानि, 'सहित्ति सूत्रत्वात् श्रद्धा-रुचिरस्थास्तीति श्रद्धावान् , कायेनेत्युपलक्षणत्वान्मनसा वाचा च 'फासइति स्पृशति सेवते, पोषणं पोषः, स चेह धर्मस्य तं धत्त इति पोषधः-आहारपोषधादिः, तं 'दुहतो पक्ख'न्ति तत एव द्वयोरपि सितेतररूपयोः पक्षयोश्चतुर्दशीपूर्णिमास्यादिषु तिथिषु 'एगराई | ति अपेर्गम्यमानत्वादेकरात्रमपि, उपलक्षणत्वाचैकदिनमपि, 'न हावए'त्ति न हापयति-न हानि प्रापयति, रात्रिग्रहणं च दिवा ब्याकुलतया कर्तुमशनुवन् रात्रावपि पोषधं कुर्यात् , इह च सामायिकाङ्गत्वेनैव सिद्धेर्यदस्य भेदेनोपादानं तदादरण्यापनार्थमदुष्टमेव, यद्वा-यत एवं गृहस्थोऽपि सुव्रतो दिवं कामति अतोऽगारी सामायिकाहानि । स्पृशेत् पोषधं च न हापयेदित्युपदेशपरतया व्याख्येयमिति सूत्रार्थः ॥ २३॥ प्रस्तुतमेवार्थमुपसंहर्तुमाह एवं सिक्खासमावन्नो, गिहवासेऽवि सुब्वओ। मुचति छविपवाओ, गच्छे जक्खसलोगयं ।। २४ ॥ ___ व्याख्या-'एवम्' अमुनोक्तन्यायेन शिक्षया-व्रतासेवनात्मिकया समापन्नो-युक्तः शिक्षासमापन्नो गृहवासेड़| पि, आस्तां प्रव्रज्यापर्याय इत्यपिशब्दार्थः, 'सुनतः' शोभनत्रतो मुच्यते, कुतः ?-छविः-त्वक् पर्वाणि च-जानुकूपरादीनि छविपर्व तद्योगादौदारिकशरीरमपि छविपर्व ततः, तदनन्तरं च 'गच्छेदू' यायात् यक्षा-देवाः समानो| लोकोऽस्येति सलोकस्तद्भावः सलोकता यक्षः सलोकता यक्षसलोकता ताम् , इयं च देवगतावेव भवतीत्यथोद्देव दीप अनुक्रम [१५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [१५२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [ - ] / गाथा ||२४|| निर्युक्ति: [२३५...] गतिमिति, अनेन च पण्डितमरणावसरेऽपि प्रसङ्गतो वालपण्डितमरणमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ साम्प्रतं प्रस्तुतमेव पण्डितमरणं फलोपदर्शनद्वारेणाह अह जे संबुडे भिक्खू, दुण्हमेगयरे सिया । सव्वदुक्खपहीणे या देवं वावि महिहिए ।। २५ ।। व्याख्या- 'अथे 'त्युपप्रदर्शने 'य' इत्यनुद्दिष्ट निर्देशे 'संवृत' इति पिहितसमस्तावद्वारः 'भिक्षु'रिति भावभिक्षुः, स च द्वयोरन्यतरः- एकतरः 'स्यात्' भवेद्, ययोर्द्वयोरन्यतरः स्यात् तायाह- सर्वाणि - अशेषाणि यानि दुःखानि श्रुत्पिपासेष्ट वियोगानिष्टसंयोगादीनि तैः प्रकर्षेण पुनरनुत्पत्त्यात्मकेन हीनो-रहितः सर्वदुःखग्रहीणः, स्यादिति सम्बन्धः, यद्वा-सर्वदुःखानि प्रहीणान्यस्येति सर्वदुःखप्रहीणः, आहिताश्यादेश कृतिगणत्वात् निष्ठान्तस्य परनिपातः, स च सिद्ध एव, ततः स या देवो वा, अपिः सम्भावने, सम्भवति हि संहननादिवैकल्यतो मुक्त्यनवाप्तौ देवोऽपि स्वादिति, की ? - महती ऋद्धिः - सुखादिसम्पदस्येति महर्द्धिक इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ आह-गृह्णीमो देवो वा स्यादिति, यत्र चासौ देवो भवति तत्र कीदृशा आवासाः ? की शाश्च देवा १ इत्याह । उत्तराई विमोहाई, जुइमंताणुपुब्वसो । समाइण्णाइ जक्खेहिं, आवासाइ जसंसिणो ॥ २६ ॥ दीहाउया दित्तिमंतां, समिद्धा कामरूविणो । अरुणोवधन्नसंकासा, भुज्जो अचिमालिप्पभा ॥ २७ ॥ १ भण्णवरेत्ति टीका २ रिद्धिमंता इति टीका । Eporation nation For Parts Only netary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥२६ -२७|| दीप अनुक्रम [१५४ -१५५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२५२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || २६-२७|| अध्ययनं [ ५ ], व्याख्या- 'उत्तरा' उपरिवर्तिनोऽनुत्तरविमानाख्याः, सर्वोपरिवर्तित्वात्तेषा, विमोहा इवाल्पवेदादिमोहनीयोदयतया विमोहाः, अथवा मोहो द्विधा- द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतोऽन्धकारो भावतश्च मिथ्यादर्शनादिः, स द्विविधोऽपि सततरलोद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र सम्भवेन विगतो येषु ते विमोहाः, द्युतिः- दीप्तिरन्यातिशायिनी विद्यते येषु ते द्युतिमन्तः, 'अणुपुवसो'त्ति प्राग्वदनुपूर्वतः क्रमेण विमोहादिविशेषणविशिष्टाः, सौधर्म्मादिषु बनुतरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया प्रकर्षवन्त्येव विमोहत्वादीनि, 'समाकीर्णा' व्याप्ता 'यक्षेः' देवैः, आ-समन्ताइसन्ति तेष्वित्यावासाः, प्राकृतत्वाच्च सर्वत्र नपुंसकतया निर्देशः, देवास्तु तत्र 'यशस्विनः' श्लाघान्विताः, दीर्घसागरोपमपरिमिततया आयुरेषामिति दीर्घायुषः, 'ऋद्धिमन्तो' रत्नादिसम्पदुपेताः, 'समिद्धा' अतिदीप्ताः, 'कामरूपिणः कामः -- अभिलाषस्तेन रूपाणि कामरूपाणि तद्वन्तः, विविधर्वक्रियशक्त्यन्विता इत्यर्थः, न चैतदनुत्तरेष्यनुपपन्नं विशेषणमिति वाच्यं विकरणशक्तेस्तत्रापि सत्त्वात्, 'अधुनापपन्नसङ्काशाः प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णयुत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति, 'भूयोऽर्चिमालिप्रभा' इति, भूयः शब्दः प्राचुर्ये, ततः प्रभूतादित्यदीप्तयो न ह्येकस्यैवादित्यस्य तादृशी द्युतिरस्तीति भूयोग्रहणमिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ २७ ॥ उपसंहर्तुमाहताणि ठाणाइ गच्छति, सिक्खित्ता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संतिपरिनिब्बुडा ॥ २८ ॥ व्याख्या- 'तानि' अभिहितरूपाणि तिष्ठन्त्येषु सुकृतिनो जन्त इति स्थानानि आवासात्मकानि 'गच्छन्ति' For Paren निर्युक्तिः [२३५...] ~ 503~ अकाम मरणाध्य. ५ ॥२५२॥ Tantrary or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||२८|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२८|| यान्ति, उपलक्षणत्वागता गमिष्यन्ति च, उपलक्षणं चैतत् सौधादिगमनस्य, तत्रापि तेषां केषाश्चिद्गमनसम्भवात् , 'शिक्षित्वा' अभ्यस्य 'संयम' सप्तदशभेदं 'तपों' द्वादशभेदं, क इत्याह-'भिक्खाए वा गिहत्थे वत्ति प्राकृतत्वादचनव्यत्ययेन भिक्षाको वा गृहस्थो वा भावतो यतय एवेतियावत् , अत एवाह-'जे'इति ये शान्या-उपशमेन परिनि वृताः-शीतीभूता विध्यातकषायानलाः शान्तिपरिनिर्वृताः, यद्वा-ये केचन 'सन्ति' विद्यन्ते परिनिर्वृताः, अत्रच देवो वा स्यादित्येकवचनप्रक्रमेऽपि यद्बहुवचनाभिधानं तद्याप्त्यर्थ, ततो न य एक एवेश्वराद्यनुगृहीतः स एव सम्यग्दर्शनादिमानपि दिवं कामति किन्तु सर्वोऽपि इत्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ एतचाकण्यं मरणेऽपि यथाभूता महात्मानो भवन्ति तथाऽऽह तेसिं सुचा सपुजाणं, संजयाणं वुसीमओ । ण संतसंति मरणंते, सीलबंता बहुस्सुआ ॥२९॥ व्याख्या-'तेषाम् ' अनन्तराभिहितस्वरूपाणां भावभिषणां 'श्रुत्वा' आकर्योक्तरूपस्थानावाप्तिमिति शेषः, कीदृशाम् ?-'सत्पूज्यानां सतां पूजार्हाणां, सती वा पूजा येषां ते सत्पूजास्तेषां 'संयतानां संयमवतां 'वुसीमओ'त्ति प्राग्वत् , 'न संत्रस्यन्ति' नोद्विजन्ते, कदा ?-मरणे मरणेन वाऽन्तो मरणान्तस्तस्मिन् आवीचीमरणापेक्षया वाऽन्त्य-8 मरणे, प्राकृतत्वाच परनिपातः, समुपस्थित इति शेषः, 'शीलवन्तः' चारित्रिणो 'बहुश्रुता' विविधागमश्रवणावदाती दीप अनुक्रम [१५६] PAHELAX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 504~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||२९|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) उत्तराध्य. अक बृद्धृत्तिः मरणाध्य प्रत ॥२५ सूत्रांक ||२९|| कृतमतयः, इदमुक्तं भवति य एवाबिदितधार्मिकगतयोऽनुपार्जितधर्माणश्च त एव मरणादुद्विजन्ते, यथा-कास्माभिर्मृत्वा गन्तव्यमिति, उपार्जितधर्माणस्तु धर्मफलमवगच्छन्तो न कुतोऽप्युद्विजन्ते, यथा-कास्माभिर्मृत्वा गन्तव्यं, यदुक्तम्-"चरितो निरुपक्लिष्टो धम्मो हि मयेति निर्वृतः खस्थः । मरणादपि नोद्विजते कृतकृत्योऽस्मीति धर्मात्मा ॥१॥” इति सूत्रार्थः ॥ २९॥ इत्थं सकामाकाममरणस्वरूपमभिधाय शिष्योपदेशमाह तुलिया विसेसमायाय, दयाधम्मस्स खंतिए । विप्पसीइज मेधावी, तहाभूएण अप्पणा ॥ ३०॥ व्याख्या-'तोलयित्वा' परीक्ष्यात्मानं धृतिदाादिगुणान्वितमिति गम्यते, 'विशेष' प्रक्रमाद्भक्तपरिज्ञादिकं | मरणभेदम् 'आदाय' बुद्ध्या गृहीत्वाऽभ्युपगम्येतियावत् , दयाप्रधानो धर्मो दयाधम्मो-दशविधयतिधर्मरूपः तस्य सम्बन्धिनी या क्षान्तिस्तया, उपलक्षणत्वात् मार्दवादिभिश्च, 'विप्रसीदेत्' विशेषेण प्रसन्नो भवेत् , न तु मरणादुद्विजेतेति भावः, 'मेधावी' मर्यादावी 'तथाभूतेन' उपशान्तमोहोदयेन, यदिवा-यथैव मरणकालात्यागनाकुलचेता अभूत् मरणकालेऽपि तथैवावस्थितेन तथाभूतेनात्मना स्वयमयमपरकल्पोऽपि विप्रसीदेत्-कषायपकापगमतः खच्छतां भजेत् न तु कृतद्वादशवर्षसंलेखनतथाविधतपस्विवन्निजाङ्गुलीभङ्गादिना कपायितामवलम्बेत मेधावी, किं कृत्वा-तोलयित्वा बालमरणपण्डितमरणे, ततश्च 'विशेष' बालमरणात् पण्डितमरणस्य विशिष्टत्वलक्षणमादायराहीत्वा तथा दयाधर्मस्येति, चशब्दस्य गम्यमानत्वात्, दयाधर्मस्य च-यतिधर्मस्य विशेष-शेषधर्मातिशायित्वल दीप अनुक्रम [१५७] ॥२५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||३०|| नियुक्ति: [२३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| क्षणमादायेति सम्बन्धः, कया विप्रसीदेत् ?-क्षान्त्या, तथाभूतेनेति निष्कषायेणात्मनोपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥३०॥ विप्रसन्नश्च यत् कुर्यात्तदाह तओ काले अभिप्पेए, सही तालीसमंतिए । विणएज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए ॥३१॥ | व्याख्या-तत' इति कषायोपशमानन्तरं 'काले' मरणकाले 'अभिप्रेते' अभिरुचिते, कदाच मरणमभिप्रेतम् !, यदा योगा नोत्सर्पन्ति, 'सहित्ति प्राग्वत् श्रद्धावान् , तारशमिति भयोत्थं 'अन्तिके' समीपे गुरूणां मरणस्य वा 'विनयेद् ' विनाशयेत् , कम् ?-लुनाति लीयन्ते वा तेषु यूका इति लोमानि तेषां हों लोमहर्षस्त-रोमाञ्चं, हा ! मम मरणं भविष्यतीति भयाभिप्रायसम्प्राप्यं, किंच-'भेदं' विनाशं 'देहस्य' शरीरस्य का दिव काढेत् , स्यक्ततत्परिकर्मत्वात् , अथवा 'तालिस'न्ति सुव्यत्ययात् तादृशो यादृशः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकाले संलेखनाकाले वा अन्तकालेऽपि तादृशः श्रद्धावान् सन् , उक्तं हि-'जाए सद्धाए णिक्खंतो, परियायठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालेजत्ति, || ईदृशव परीषहोपसर्गजं लोमहर्षे विनयेदिति सम्बन्धः इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ निगमयितुमाह| अह कालंमि संपत्ते, आघायाय समुच्छयं । सकाममरणं मरति, तिहमन्नयरं मुणी ॥ ३२ ॥ तिबेमि व्याख्या-'अथेति मरणाभिप्रायानन्तरं 'काल'इति मरणकाले सम्प्रासे 'णिप्फोइया य सीसा' इत्यादिना क्रमेण १ यया अद्धया निष्कान्तः, पर्यायस्थानमुत्तमम् । वामेवानुपालयेत् । ३ निष्पादिताच शिष्याः दीप अनुक्रम [१५८] । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~5064 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-]/ गाथा ||३२|| नियुक्ति : [२३५...] (४३) - - अकाम - मरणाध्य. - पृहात ॥२५॥ प्रत सूत्रांक ||३२|| समायाते 'आघायाय'त्ति आर्षत्वात् आघातयन् संलेखनादिभिरुपक्रमणकारणैः समन्ताद् घातयन्-विनाशयन् , कं?-समुच्छ्रयम्-अन्तः कार्मणशरीरं बहिरौदारिकं, यद्वा-'समुस्सतं'ति सुब्ब्यत्ययात्समुच्छ्यस्याघाताय-विनाशाय काले सम्प्राप्त इति सम्बन्धनीयं, किमित्याह-सकामस्य-उक्तनीत्या साभिलाषस्य मरणं सकाममरणं तेन म्रियते, त्रयाणां-भक्तपरिक्षेगिनीपादपोपगमनानामन्यतरेण, सूत्रत्वात् सर्वत्र विभक्तिव्यत्ययः, 'मुनि' तपखीति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ इतिः परिसमाप्ती, प्रवीमीति प्राग्वत् ॥ साम्प्रतं नयास्तेऽपि पूर्ववत् । इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायामुत्तराध्ययनटीकायामकाममरणाख्यं पञ्चममध्ययनं समासमिति ॥ - -- 4 % दीप अनुक्रम [१६० % पश्चममध्ययनं समाप्तम् ॥ %% ॥२५४॥ अत्र अध्ययनं-५ परिसमाप्तं ~507~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१६०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३२... || निर्युक्ति: [२३६] अध्ययनं [६], ॥ उक्तं पञ्चममध्ययनं, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने मरणविभक्तिरुक्ता, तत्रापि चानन्तरं पण्डितमरणं, तच्च 'विरयाण पंडियं वेति'त्ति वचनाद्विरतानामेव, न चैते विद्याचरणविकला इति तत्खरूपमनेनोच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्य महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्तीत्यादिचर्यस्तावद्याविन्नाम निष्पन्न निक्षेषे क्षुल्लक निर्मन्थीयमिति नाम, ततः क्षुल्लकस्य निर्ग्रन्थस्य च निक्षेपः कार्यः, तत्र क्षुल्लकस्य विपक्षो महान्, तदपेक्षत्वात् क्षुल्लकस्य, इति तन्निक्षेपे निक्षिप्तमेव तद्भवतीत्यभिप्रायेणाह - नामं ठवणा दविए खित्ते काले पहाण पइ भावो । एएसि महंताणं पडिवक्खो खुल्या हुंति ॥ २३६ ॥ व्याख्या - अत्र नामस्थापने क्षुण्णे, महच्छन्दश्च प्रक्रमात् सर्वत्र गम्यते, तत्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो द्रव्यमहत् | नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तं द्रव्यमहद् अचित्तमहास्कन्धो दण्डादिकरणेन यश्चतुर्भिः समयैः सकललोकमापूरयति, क्षेत्रमहत् लोकालोकव्याप्याकाशं, कालमहद् अनागताद्धा, प्रधानमहत्रिधा - सचित्तमचित्तं मित्रं च, तत्र सचित्तं द्विपदं चतुष्पदमपदं च तत्र द्विपदं तीर्थंकृत् चतुष्पदं सरभः अपदं पद्मादिदोत्पन्नं पद्मम्, अचित्तं चिन्तामणिः, मिश्र तीर्थकृदेव राज्याभिषेकादिष्वलङ्कृतः, प्रतिमहत्- यदन्यापेक्षया महदुच्यते, यथा सर्वपाञ्चनकश्चनकाद्वदरमित्यादि, भावमहत् प्राधान्यतः क्षायिको भावः कालतः पारिणामिकोऽनाद्यनन्तजीवाजीवत्वादिरूपत्वा For Panther मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं ६ “क्षुल्लकनिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१६०] उत्तराध्य बृहद्वृत्ति: ॥२५५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३२... || निर्युक्तिः [२३७] अध्ययनं [६], तस्य आश्रयतः औदयिको बहुतरजीवाश्रयत्वात् तस्य, तथा च वृद्धा: - " आसयओ ओदयितो भावो, तंमि भावे बहुतरा जीवा यति" पारिणामिकाविवक्षया चैतत् सम्भाव्यते, अतः पारिणामिक एवाश्रयतो महान् अशेषजीवाजीवद्रव्याश्रयत्वात् प्रस्तुतमर्थमाह-- 'एतेषाम्' अनन्तरमुक्तानां नामादिमहतां 'प्रतिपक्षी' विपक्षः क्षुलकानि भवन्ति, तत्रापि नामस्थापने प्रतीते, द्रव्यतः परमाणुः, क्षेत्रतः आकाशप्रदेशः, कालतः समयः, प्राधान्यतः सचि४ चाचित्त मिश्रभेदतस्त्रिधा, तत्र सचित्तं द्विपदमाहारकं शरीरं चतुष्पदं सिंहः अपदं लवकपुष्पम् अचित्तं हीरकः, मिश्र जन्मसमयानन्तरमलङ्कृतस्तीर्थकृत, प्रतिक्षुलकमा मलकाद्वदुरं बदराञ्चनक इत्यादि, भावक्षुलकं क्षायिको भावः, उक्तं हि वृद्धेः – “सबैत्थोवा जीवा खाइए भावे, बहंति" सांसारिकसत्वापेक्षं चैतद्, अन्यथोपशमिक एवं सर्वस्तोकतया भावक्षुलकं सम्भवतीति गाथार्थः ॥ इत्थं क्षुल्लकनिक्षेपमभिधाय निर्ग्रन्थनिक्षेपमाह Euston Inman निक्खेवो नियंमि चविहो दुविहो य दबंमि । आगमनोआगमओ नोआगमतो य सो तिविहो २३७ व्याख्या- 'निक्षेपो' न्यासः 'णियमिति निर्ग्रन्थे निर्ग्रन्थविषयः 'चतुर्विधो' नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्विविधो भवति द्रव्ये आगमनोआगमतश्च तत्रागमतः प्राग्वत्, नोआगमतश्च 'स' इति ॥२५५॥ | निर्मन्थः 'त्रिविधः त्रिभेद इति गाथार्थः ॥ त्रैविध्यमेवाह १ आयत औदयिको भावः तस्मिन् भावे बहुतरा जीवा वर्त्तन्ते । २ सर्वस्तोका जीवाः क्षायिके भावे वर्त्तन्ते For Par सुलकनि ग्रन्थीयम्. ६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| जाणगसरीरभविए तवतिरित्ते य निण्हगाईसुं । भावमि नियंठो खलु पंचविहो होइ नायवो ॥ २३८॥ | व्याख्या-जाणगसरीरभविए'त्ति ज्ञशरीरनिर्ग्रन्थो भव्यशरीरनिर्ग्रन्थश्च पश्चात्कृतपुरस्कृतनिर्ग्रन्धपर्यायतयाऽयं घृतकुम्भ इत्यादिन्यायतः प्राग्वद्भावनीयः, तद्वयतिरिक्तश्च निवादिषु, आदिशब्दात् पार्श्वस्थादिपरिग्रहः, भावनिग्रन्थोऽप्यागमतो नोआगमतच, तत्रागमतस्तथैव, नोआगमतस्तु खत एवाह नियुक्तिकृत्-भावे निर्ग्रन्थः, खलु क्यालङ्कारे, 'पञ्चविधः' पञ्चभेदो भवति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ पञ्चविधनिर्ग्रन्थस्वरूपं च वृद्धसम्प्रदायादवसेयं, स चायम्-जोआगमतो णियंठत्ते यट्टमाणा पञ्च, तंजहा-पुलाए बकुसे कुसीले णियंठे सिणाए । पुलातो पंचविहो, जो आसेवणं प्रति, गाणपुलातो दरिसणपुलाओ चरित्तपुलातो लिंगपुलातो अहासुहुमपुलागोत्ति । पुलागो णाम असारो, जहा धन्नेसु पलंजी, एवं णाणसणचरित्तणिस्सारत्तं जो उबेति सो पुलागो, लिंगपुलागो लिंगाउ पुलागी होतो, अहासुहुमो य एएसु चेव पंचसुवि जो थोवं थोवं विराहेति, लद्धिपुलाओ पुण जस्स देविंद| १ नोआगमतो निर्ग्रन्थत्वे वर्तमानाः पञ्च, तद्यथा-पुलाको यकुश: कुशीलो निम्रन्थः स्नातकः । पुलाकः पञ्चविधः-य आसेवनां प्रति, ज्ञानपुलाको दर्शनपुलाकश्चारित्रपुलाकः लिङ्गपुलाकः यथासूक्ष्मपुलाक इति । पुलाको नाम असारो, यथा धान्येषु पल जी, एवं ज्ञानदर्शनचारित्रनिस्सारत्वं य उपैति ल पुलाकः, लिङ्गपुलाको लिङ्गात् पुलाकीभवन , यथासूक्ष्मश्च एतेष्वेव पश्चखपि यः स्तोक स्तोक विराधयति, लब्धिपुलाकः पुनर्यस्य देवेन्द्र दीप अनुक्रम [१६० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) प्रत सूत्रांक 3 ||३२|| उत्तराध्य. रिद्धिसरिसा रिद्धी, सो सिंगणादियकजे समुप्पणे चक्कबटिपि सबलवाहणं चुण्णेउं समत्थो । बउसा सरीरोपकरण-31 क्षुल्लकनिबृद्वृत्तिः निविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिताः अविविक्तपरिवाराः छेदशवलचारित्तजुत्ता णिग्गंथा बउसामन्धीयम. भण्णंति, ते पंचविहा, तंजहा-आभोगवकुसा अणाभोगबकुसा संवुडबकुसा असंवुडबकुसा अहासुहुमबकुसा। ॥२५॥ आभोगवकुसा आभोगेण जो जाणतो करेइ, अणाभोगेण अयाणतो, संबुडो मूलगुणाइसु, असंवुडो तेसु चेव, अहासुहुमबकुसो अच्छासु पूसिया अवणेति सरीरे वा धूलिमाइ अवण्णेति । कुत्सितं शीलं यस्य पञ्चसु प्रत्येकं ज्ञानादिषु, सो कुसीलो दुविहो-पडिसेवणाकुसीलो कसायकुसीलो, सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेक्णा पडिट्र सेवणा पंचसु णाणाइसु, कसायकुसीलो जस्स पंचसु णाणाइसु कसाएहिं विराहणा कजति सो कसायकुसीलोत्ति। १०र्द्धिसदृशा ऋद्धिः, सशृङ्गनादितकार्ये समुत्पन्ने चक्रवर्त्तिनमपि सबलवाहनं चूरयितुं समर्थः । बकुशाः छेदशबलचारित्रयुक्ता निर्मन्था । बकुशा भण्यन्ते, ते पञ्चविधाः, तद्यथा-आभोगबकुशा अनाभोगबकुशाः संवृतबकुशा असंवृतबकुशा यथासूक्ष्मवकुशाः । आभोगवकुशो आभोगेन यो जानन् करोति, अनाभोगेनाजानन् , संवृतो मूलगुणादिषु, असंवृतस्तेष्वेव, यथासूक्ष्मबकुशः अक्ष्णोः पुष्पिकामपनवति शरीराद्वा ॥२५६॥ लावल्यादिकमपनयति । स कुशीलो द्विविधः-प्रतिसेवनाकुशीलः कषाबकुशीलः, सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना पञ्चसु. | ज्ञानादिषु, कषायकुशीलो यस्य पञ्चसु ज्ञानादिषु कषायैर्विराधना क्रियते स कपायकुशील इति । % दीप अनुक्रम [१६० 82% AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) 2-25 प्रत सूत्रांक ||३२|| णियंठो अभितरवाहिरगंथणिग्गतो, सो उवसंतकसातो खीणकसातो वा अंतोमुडुत्तकालितो, सो पंचविहो-पढमसमयणियंठो अपढमसमयनियंठो, अहवा चरमसमयनियंठो अचरमसमयनियंठो अहासुहुमणियंठोत्ति, अंतोमुहुत्तणियंठकालसमयरासीए पढमसमए पडियज्जमाणो पढमसमयनियंठो, सेसेसु समयएसु वट्टमाणो अपढमसमयनियंठो, चरमे-अंतिमे समए वट्टमाणो चरमसमयणियंठो, अचरमा-आदिमज्झा, अहासुहुमो एएसुसवेसुवि। सिणातो-स्नातको मोहणिज्जाइघातियचउकम्मावगतो सिणातो भषणति, सो पंचविहो-अच्छवी असबलो अक-र मंसो संसुद्धणाणदंसणधरो अरहा जिणो केवली, अच्छवी-अव्यथकः, सबलो सुद्धासुद्धो एगंतसुद्धो असबलो, अंशा-अवयवाः कर्मणस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो, संसुद्धाणि णाणदंसणाणि धारेति जो सो संसुद्धणाणदं १ निर्गन्थः अभ्यन्तरवाह्यग्रन्थनिर्गतः, स उपशान्तकषायः क्षीणकषायो वा अन्तर्मुहूर्त्तकालिक;, स पञ्चविधः--प्रथमसमयनिर्मन्थः अप्रथमसमयनिम्रन्थः अथवा चरमसमयनिम्रन्थः अचरमसमयनिम्रन्थः यथासूक्ष्मनिम्रन्थ इति । अन्तर्मुहूर्त्तनिर्मन्धकालसमयराशौ प्रथ-र मसमयं प्रतिपद्यमानः प्रथमसमयनिम्रन्थः, शेषेषु समयेषु वर्तमानोऽप्रथमसमयनिम्रन्थः, चरमे-अन्तिम समये वर्तमानश्चरमसमयनि-11 ग्रन्थः, अचरमा-आदिमध्याः, यथासूक्ष्म एतेषु सर्वेष्वपि । मोहनीवादिधातिचतुष्कर्मापगतः स्मातको भण्वते, स पञ्चविधः-अच्छविः | अशवल: अकर्माशः संशुद्धज्ञानदर्शनधरः अर्हन जिनः केवली, शबलः शुद्धाशुद्धः एकान्तशुद्धोऽशबलः,-अपगता यस्मात सोडदार्माशः, संशुद्धे ज्ञानदर्शने धारयति यः स संशुद्धज्ञान २.सरकार दीप अनुक्रम [१६०] AantaratUPIL For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) पत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२५७॥ क्षुल्लकनिग्रन्थीयम्. प्रत सूत्रांक -* ||३२|| सणधरो, पूजामहतीति अरहा, अधवा नास्स रहस्सं विद्यत इति अरहा, जितकषायत्वाजिनः, एसोपंचविहो सिणा- यगो। आह च भाष्यकृत् तत्व णियंठालातो बकुसकुसीलो णियंठ पहातो य । तत्थ पुलाओ दुविहो आसेवण लद्धितो चेव ॥१॥ पुलागवकुसकुसीला नियंठसिणायगा य णायचा । एएर्सि पंचण्हवि होइ विभासा इमा कमसो ॥२॥ तत्थ पुलातो दुविहो लद्धिपुलातो तहेव इयरो वा । लद्धिपुलातो संघाइकज इयरो य पंचविहो ॥३॥ णाणे दंसणचरणे लिंगे अहसुहुमए य णायचो। णाणे दंसणचरणे तेसिं तु विराहण असारो ॥ ४ ॥ लिंगपुलातो अन्नं णिकारणतो करेति सो लिंगं । मणसा अकप्पियाईणिसेवओ होयहासुहुमो॥५॥ सरीरे उपकरणे वा बाउसियतं दुहा समक्खायं । सुक्किलवत्थाणि धरे देसे सधे सरीरं मि ॥६॥ आभोगमणाभोगं संवुडमसंबुडे अहासुहुमे । सो दुविहोऽवी बउसो पंचविहो होइ णायचो ॥७॥ आभोगे जाणतो करेति दोसं तहा अणाभोगे । मुलुत्तरेहि संबुडो विवरीय असंबुडो होति ॥ ८॥ अच्छिमुहमजमाणो होइ अहासुहुमतो तहा वउसो । पडिसेवणाकसाए होइ कुसीलो दुहा एसो ॥९॥ णाणे दंसणचरणे तवे य अहसुहुमए य बोद्धचे। पडिसेवणाकुसीलो पंचविहो ऊ मुणेयषो ॥१०॥ १० दर्शनधरः । एष पञ्चविधः सातकः । २ भाष्य प्राय एतदनुगतमेवेति न संस्कृतम् दीप अनुक्रम [१६०] -*- 55 AIMEducatan intimational For ParaTREPIVaauinone मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) GK- 10-*- प्रत सूत्रांक ||३२|| णाणादी उवजीवति जहसुहुमो अहा इमो मुणेयचो । सातितो राग बञ्चति एसो तबञ्चरणी ॥११॥ एमेव कसायंमिवि पंचविहो होइ ऊ कुसीलो उ । कोहेणं विजाति पउंजए एय माणादी ॥१२॥ एमेव दंसणंमिवि सावं पुण देति ऊ चरित्तंमि । मणसा कोहाईणि उ करेइ अह सो अहासुहुमो ॥१३॥ पढमापढमा चरिमे अचरिम सुहुमे य होंति णिग्गंथे । अच्छवि अस्सबले या अकम्मसंसुद्ध अरहजिणो॥१४॥ ते च संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः, एते पुलाकादयः पञ्च निर्ग्रन्थविशेषाः एभिः संयमादिभिरनुगमविकल्पः साध्या भवन्ति, तत्र संयमे तावत् पुलाकवकुश कुशीलाः एए तिण्णिवि दोस संजमेसु-सामाइते छेओवठ्ठावणीए य, कसायकुसीला दोसु-परिहारविसुद्धीए सुहुमसंपराए य इति सम्प्रदायः । प्रज्ञप्तिस्त्वाह-कसायकुसीले णं पुच्छा ?, सामाइयसंजमे वा हुज्जा, जाव मुहुमसंपरायसंजमे वा हुजा, णो अहक्खायसंजमे हुजा, णियंठा सिणायगा य एए दोऽवि अहक्खायसंजमे"! पुलागवकुसपडिसेवणाकुसीला य उक्कोसेणं अभिन्नदसपुरधरा कसायकुसीलनिर्ग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरौ । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु नवमपूर्वे, | १ एते त्रयोऽपि द्वयोः संयमयोः-सामायिके छेदोपस्थानीये च, कषायकुशीला द्वयोः-परिहारविशुद्धौ सूक्ष्मसंपराये च । कषायकुशीलः पृच्छा, सामायिकसंयमे वा भवेत् यावत्सूक्ष्मसंपरायसंयमे वा भवेत् , न यथाख्यातसंयमे भवेत् , निम्रन्थाः स्नातकाचैते द्वयेऽपि यथाख्या|तसंयमे । पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलाश्चोत्कृष्टेनाभिन्नदशपूर्वधराः । दीप अनुक्रम [१६०] -KRE-EX For ParaTREPVIROIN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 514~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) वीयम. प्रत सूत्रांक ||३२|| उत्तराध्य. बकुशकुशीलनिर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः, श्रुतापगतः केवली स्नातक इति सम्प्रदायाभिप्रायः । प्रज्ञप्त्यभिप्राबृहद्भत्तिः यस्तु-"पुलाए णं भंते ! केवतियं सुयं अहिजेजा, गोयमा । जहणणेणं णवमस्स पुषस्स तइयं आयारवरवू, उकोसेणं नव पुबाई अहिजेज्जा" । इदानी प्रतिसेवना-पश्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनस्य च पराभियोगाला॥२५॥ कारेण अन्यतमत् प्रतिसेवमानः पुलाको भवति, मैथुनमेवेत्येके, प्रज्ञप्तिस्तु-"पुलाए णं पुच्छा, जाव मूलगुणे पडि है सेवेमाणे पंचण्हं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा, उत्तरगुणे पडिसेवेमाणे दसविहस्स पञ्चक्खाणस्स अन्नयरं पडि सेवेज्जा" बकुशो द्विविधः-उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्च, तत्रोपकरणाभिष्यक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तः विशेषयुक्तोपकरणकाङ्क्षायुक्तो नित्यं तत्प्रतिकारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति, शरीराभिष्वक्त|चित्तो विभूषार्थ तत्प्रतिकारसेवी शरीरवकुशः । प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु काश्चिद्विराधनां प्रतिसेवते, प्रज्ञसिस्तु-"बैकुसे णं पुच्छा, जाव णो मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए हुज्जा, पडिसेव दीप अनुक्रम [१६०] 41 १ पुलाको भदन्त ! कियत् श्रुतमधीयेत?, गौतम! जघन्येन नवमस्य पूर्वस्व तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षेण नव पूर्वाणि भधीयेत । २ पुलाकः | पृच्छा, यावत् मूलगुणान् प्रतिसेवमानः पश्चानामाश्रवाणामन्यतरं प्रतिसेवेत, उत्तरगुणान प्रतिसेवमानो दशविधस्य प्रत्याख्यानस्यान्यतरन् प्रतिसेवेत । ३ वकुशः पृच्छा, यावन्नो मूलगुणप्रतिसेवको भवेत् उत्तरगुणप्रतिसेवको भवेत् प्रतिसेवना FORF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१६०] Jan Education in “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३२...|| निर्युक्तिः [२३८] अध्ययनं [६], णांकुसीले जहा पुलाए" कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्खातकानां प्रतिसेवना नास्ति । तीर्थमिदानीं सर्वेषां तीर्थङ्कराणां तीर्थेषु भवन्ति, एके त्वाचार्या मन्यन्ते - पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलास्तीर्थे नित्यं, शेषास्तु तीर्थेऽतीर्थे वा । 'लिङ्ग'| मिति लिङ्गं द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं च, भावलिङ्गं प्रतीत्य सर्वे निर्ग्रन्थलिने भवन्ति, द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः । | लेश्याः पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्या भवन्ति, वकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वा अपि कषायकुशीलस्य परिहारविशुद्वेस्तिस्र उत्तराः, सूक्ष्मसम्परायस्य निर्ग्रन्थस्त्रातकयोश्च शुक्लेव केवला भवति, अयोगः शैलेशीप्रतिपन्नोऽलेश्यो भवति, प्रज्ञप्तिस्तु - "पुलांए णं पुच्छा, जाव तिसु लेसासु होजा, तंजहा- तेउलेसाए पम्हलेसाए सुक्कलेसाए, एवं बउसस्सवि, | एवं पडिसेवणाकुसीलस्सवि । कसायकुसीले पुच्छा, जाव छसु लेसासु होज्ज"त्ति । उपपातः पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु | देवेषु सहस्रारे, बकुशप्रति सेवना कुशीलयोर्द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिष्वच्युते कल्पे, कषायकुशीलनिर्ग्रन्थयोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिषु सर्वार्थसिद्धे, सर्वेषामपि जघन्यं पल्योपमपृथक्त्वस्थितिषु सौधर्मे, प्रज्ञप्तिस्तु "कैसायकुसीले जहा पुलाए, णवरं उक्कोसेण अणुत्तरविमाणेसु, नियंठे णं एवं चेव, जाव बेमाणिएसु उववजमाणे अजहष्णमणुको सेणं १. कुशीलो यथा पुलाकः । २ पुलाको भदन्त ! पृच्छा, यावत्तिसृषु लेश्यासु भवेत्, तद्यथा—तेजोलेश्यायां पद्मलेश्यायां शुकुलेश्यायाम्, एवं वकुशस्यापि एवं प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि । कषायकुशीले पृच्छा ?, यावत् पद्सु लेश्यासु भवेत् इति । ३ कषायकुशीलो यथा पुलाकः, नवरमुत्कर्षेण अनुत्तरविमानेषु निर्मन्थ एवमेव, यावद्वैमानिकेपूत्पद्यमानः अजघन्योत्कृष्टे For Parent www.ncb मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~516~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) बृद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३२|| उत्तराध्य. 18 अणुत्तरविमाणेसु उववज्जति," स्नातकस्य निर्वाणमिति । स्थानम्-असङ्ख्येयानि संयमस्थानानि कपायनिमित्तानि क्षुल्लकान भवन्ति, तत्र सर्वजघन्यानि संयमलब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः, ती युगपदसयेयानि स्थानानिन्थीयम्, गच्छतः, ततः पुलाको ब्युच्छिद्यते, कषायकुशीलस्ततोऽसङ्ख्येयानि स्थानान्येकाकी गच्छति, ततः कषाय१२५९॥ कुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसञ्जयेयानि स्थानानि गच्छन्ति, ततो बकुशो ब्युच्छिद्यते, ततोऽप्यसंख्येयानि l स्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकुशीलो व्युच्छिद्यते, ततोऽसङ्ख्ययानि स्थानानि गत्वा कषायकुशीलो व्युच्छिद्यते, अत ऊर्द्धमकपायस्थानानि गत्वा निग्रन्थः प्रतिपद्यते, सोऽप्यसङ्खधेयानि स्थानानि गत्या व्युच्छिद्यते, प्रज्ञप्तिस्तु-"णियंHठस्स णं भंते ! केवइया णं संजमठाणा पन्नत्ता , गोयमा ! एगे अजहण्णमुक्कोसए संजमठ्ठाणे पण्णत्ते" अत एवं | ऊर्द्धमेकमेव स्थानं गत्वा सातको निर्वाणं प्राप्नोति, एषां संयमलब्धिरुत्तरोत्तरस्थानन्तगुणा भवतीति एप सम्प्रदायः। [भाष्यकारोऽप्याह संयम सुय पडिसेवण तित्थे लिंगे य लेस उववाए। ठाणं च पति विसेसो पुलागमाईण जोएजा ॥१॥ पुलाग बकुसकुसीला सामाइयछेयसंजमे होति । होति कसायकुसीलो परिहारे सुहुमरागे य॥२॥ णिग्गंथो य सिणातो अहखाए संजमे मुणेयहो । दसपुत्वधरुकोसा पडिसेव पुलाय बउसा य ॥३॥ | १. नानुत्तरविमानेषु उत्पद्यते।२ निर्मन्थस्य भदन्त ! कियन्ति संयमस्थानानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम! एकं अजघन्योत्कृष्ट संयमस्थानं प्रज्ञप्तम् || दीप अनुक्रम [१६० ॥२५९॥ For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२३८] (४३) E% प्रत सूत्रांक ||३२|| चोइसपुवधरातो कसायणियंठा य होति णायचा । ववगयसुतो य केवलि मूलासेवीपुलाओ य ॥४॥ चित्तलवत्थासेवि बलाभिओगेण सो भवति बउसो । मूलगुण उत्तरगुणे सरीरवउसो मुणेयवो ॥५॥ पहाय कसायकुसीले निग्गंथाणं च नत्थि पडिसेवा । सच्चेसुं तित्थेसं होति पुलागादि य णियंठा ॥६॥ लिंगे उ भावलिंगे सोर्सि दवलिंग भयणिज्जा । लेसाउ पुलागस्स य उवरिलातो भवे तिण्णि ॥७॥ बकुसपडिसेवगाणं सपा लेसाउ होंति णायवा। परिहारविसुद्धीणं तिण्हुवरिला कसाए उ ॥८॥ णिग्गंथसुहुमरागे सुक्का लेसा तहा सिणाएसुं । सेलेसिं पडिवण्णो लेसातीए मुणेयवो ॥९॥ पुलागस्स सहस्सारे सेवगवउसाण अचुए कप्पे । सकसायणियंठाणं सबढे पहायगो सिद्धो॥१०॥ पुलागकुसीलाणं सवजहण्णाई होति ठाणाई । वोलीणेहिं असंखेहि होइ पुलागस्स योच्छित्ती॥११॥ कसायकुसीलो उवरिं असंखिजाई तु तत्थ ठाणाई । पडिसेवणबउसे वा कसायकुसीलो तोऽसंखा ॥१२॥ वोच्छिपणे उ बउसो उवरि पडिसेवणा कसाओ य । गंतुमसंखिजाई छिज्जइ पडिसेवणकुसीलो ॥१३॥ उवरि गंतुं छिजति कसायसेवी ततो हु सो णियमा । उद्धं एगठ्ठाणं णिग्गंथसिणायगाणं तु ॥१४॥ अत्र च यत्पुलाकादीनां मूलोत्तरगुणविराधकत्वेऽपि निर्ग्रन्थत्वमुक्तं तज्जघन्यजघन्यतरोत्कृष्टोत्कृष्टतरादिभेदतः । संयमस्थानानामसङ्ख्यतया तदात्मकतया च चारित्रपरिणतेरिति भावनीयं । यदप्येषां संयमित्वेऽपि षड्लेश्याभिधानं दीप अनुक्रम [१६० orPHOTaERVaimum only wrencibrarma मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१६०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२६०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३२...|| निर्युक्ति: [२३९] अध्ययनं [६], तदप्याद्यानां भावपरावृत्तिमपेक्ष्य 'आगांरभावमायाए वा से सिया परिभागमायाए वा से सिया' इत्याद्यागमप्रामाण्यादविरुद्धमेव इत्यलं प्रसङ्गेनेति ॥ सम्प्रति निर्युक्तिरनुत्रियते, तत्र च 'भावे निर्ग्रन्थः खलुः पञ्चविधो भवति । | ज्ञातव्यः' इत्यनेन वाह्याभ्यन्तरहेतुका निर्ग्रन्थभेदा उक्ताः, साम्प्रतं त्वान्तरसंयमस्थान निबन्धनांस्तद्भेदानाह - उक्कोसो उ नियंठो जहन्नओ चेव होइ णायवो । अजहन्नमणुकोसा हुंति णियंठा असंखिजा ॥ २३९ ॥ व्याख्या - उत्कृष्यत इत्युत्कर्षः स एवोत्कर्षकः कोऽर्थः १ - उत्कृष्टो निर्मन्थो, जघन्यकश्चैव भवति ज्ञातव्यः, तथा 'अजहण्णमणुकोस'त्ति अजघन्या अनुत्कृष्टा भवन्ति निर्ग्रन्थाः असङ्ख्येयाः, संयमस्थानापेक्षया च निर्मन्थानां जघन्यत्वमुत्कृष्टत्वमजघन्यानुत्कृष्टत्वं वा ज्ञेयं, तथा च वृद्धाः - जी उकोसएस संजमट्ठाणेसु वद्धति सो उक्कोसगणियंटो भण्णति, एवं जहण्णओ जहण्णएस, सेसो अजहन्नमणुकोस'त्ति गाथार्थः । इह च निर्गतो ग्रन्थान्निर्ब्रन्थ इति ग्रन्थमेव भेदाभिधानद्वारेणाह Jain Education intimational दुविहो य होइ गंथो बज्झो अभितरो य नायवो। अंतो य चउदसविहो दसहा पुण बाहिरो गंथो २४० व्याख्या- 'द्विविधश्व' द्विभेदो भवति ग्रश्यते बध्यते कषायवशगेनात्मनेति ग्रन्थः, अथवा प्रध्नाति -बभात्या१ आकारभावमादाय (मात्रा) वा सा ( तस्याः ) स्यात् प्रतिभागमादाय (मात्रया) वा सा स्यात् । २ य उत्कृष्टेषु संयमस्थानेषु वर्त्तते स उत्कृष्टकनिर्बन्धो भण्यते, एवं जघन्यो जघन्यकेषु, शेषा अजघन्योत्कृष्टाः For PP Use On क्षुल्लकनिग्रन्थीयम्. ~519~ ॥२६० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१६०] Jgn Education in “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [ - ] / गाथा || ३२...|| निर्युक्ति: [२४०] त्मानं कर्मणेति ग्रन्थः, तद्वैविध्यमेवाह - वहिर्भवो बालोऽभ्यन्तरश्च 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, तत्र च 'अंतो अ'त्ति अन्तः शब्दोऽधिकरणप्रधानमव्ययं, चः पूरणे, ततश्चान्तरिति मध्ये यो ग्रन्थोऽभ्यन्तर इत्यर्थः, स किमित्याह-'चतु देशविधः' चतुर्दशभेदो 'दशधा' दशप्रकारः, पुनःशब्दो विशेषद्योतकः, 'बाहिरो'त्ति बायो ग्रन्थ इति गाथार्थः ॥ तत्रान्तरस्य चतुर्दश भेदानाह कोहो माणो माया लोभे पिज्जे तहेव दोसे य । मिच्छन्त वेअ अरइ रइ हास सोगे य दुग्गंछा ॥ २४९ ॥ व्याख्या- 'क्रोधः' अप्रीतिलक्षणः, 'मानः' अहमितिप्रत्यय हेतुः, 'माया' खपरव्यामोहोत्पादकं शाठ्यं, 'लोभो' द्रव्याद्यभिकाङ्क्षा, 'प्रेम' प्रियेषु प्रीतिहेतुः, 'तथैवे' त्यान्तरग्रन्थरूप एव, कोऽसौ ? - 'दोषश्च' उपशमत्यागात्मको विकारो, द्वेष इत्यर्थः । इह च यद्यपि प्रेम मायालोभरूपं द्वेषश्च क्रोधमानात्मकः तथापि तयोः पृथगुपादानं कथञ्चित् सामान्यस्य विशेषेभ्योऽन्यत्वख्यापनार्थे, 'मिथ्यात्वं' तत्त्वार्थाश्रद्धानं तच्च षट्टिः स्थानैर्भवति, तानि च नास्ति न नित्य इत्यादीनि तदुक्तम्-- "णत्थि ण णिचो ण कुणति कयं ण वेएति णत्थि पेवाणं । णत्थि य मोक्खोवाओ इम्मिच्छतस्स ठाणाई ॥ १ ॥ " 'वेदः' स्त्रीवेदादिविधा, 'अरतिः' संयमेऽप्रीतिः, 'रतिः' असंयमे प्रीतिः, आह च- "इत्थीवेयाईओ तिषिहो वेओ य होइ योद्धयो। अरती य संजमंमी होइ रती संजमे यादि ॥ १ ॥" 'हासो' विस्मयादिषु १ नास्ति न नित्यो न करोति कृतं न वेदयति नास्ति निर्वाणम् । नास्ति च मोक्षोपायः षड् मिध्यात्वस्य स्थानानि ॥ १ ॥ २ खीवेदा| दिकस्त्रिविधो वेदश्व भवति बोद्धव्यः । अरतिश्च संयमे भवति रतिः असंयमे चापि ॥ १ ॥ For PP Use On मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [१६०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२६२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३२... || निर्युक्ति: [२४१] अध्ययनं [६], वक्रविकाशात्मकः, 'शोक' इष्टवियोगात् मानसं दुःखं, 'भयम्' इहलोकभयादि सप्तधा, तथा चाह - "इहपरलोयादाणे आजीवेंसिलोय तह अकम्हा य। मरणभयं सत्तमयं विभासमेएस बोच्छामि ॥ १ ॥ इहलोगभयं च इमं जं मणुयाइओ सरिसजाईओ । बीहेइ जं तु परजाइयाणं परलोयभयमेयं ॥ २ ॥ आयाणत्थो भण्णति मा हीरिज्जत्ति तस्स जं बीछे। आयाणभयं तं तू आजीचोमेण जीवेऽहं ॥ ३ ॥ असिलोगभयं अयसो होति जकम्हाभयं तु अणिमित्तं । मरियवस्त उ भीए मरणभयं होइ एवं तु ॥ ४ ॥" 'जुगुप्सा' अस्नानादिमलिनतनुसाधुहीलना, तथा चाह - अण्हाणमाइएहिं साधुं तु दुगंछति दुगुंडे ति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं बाह्यग्रन्थभेदानाह | खेत्तं वत्थू धणधन्नसंचओ मित्तनाइसंजोगो । जाणसयणासणाणि अ दासीदासं च कुवियं च ॥ २४२ ॥ व्याख्या - 'क्षेत्रं' सेत्यादि, 'वास्तु' खातादि, धनं हिरण्यादि, धान्यं च शाल्यादि तयोः सञ्चयो - राशिर्धनधान्यसञ्चयः, मित्राणि च सहवर्द्धितानि ज्ञातयश्च खजनाः तैः संयोगः-सम्बन्धो मित्रज्ञातिसंयोगः, यानानि च - Jgn Education intimal १ इहपरलोकादानानि आजीवाश्लोकौ तथाऽकस्माच्च । मरणभयं सप्तमकं विभाषामेतेषां वक्ष्यामि ॥ १ ॥ इहलोकभयं चेदं यन्मनुजादितः सदृराजा तितो विभेति यत्तु परजातिभ्यः परलोकभयमेतत् ||२|| आदानमर्यो भण्वते मा हार्षीदिति तस्माद्यद्विभेति आदानभयं तत्तु आजीवोऽयमे न जीविष्याम्यहम् || ३ || अश्लोकभयमयशो भवत्यस्माद्भयं त्वनिमित्तम् । मर्त्तव्यात्तु भीते मरणभयं भवत्येतत्तु ||४|| २ अस्नानादिकैः साधुं तु जुगुप्सते जुगुप्सा । For PP Use Only क्षुल्लकनिग्रन्थीयम् ~ 521~ ॥२६१|| jancibrar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [--] / गाथा ||३२...|| नियुक्ति: [२४२] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| शिचिकादीनि शयनानि च-पल्यङ्कादीनि आसनानि च-सिंहासनादीनि यानशयनासनानि, चः समुच्चये, दास्य:४ अङ्कपतिताः दासा अपि तथाविधा एव अनयोः समाहारः, चः प्राग्वत् , 'कुवियं च'त्ति कुप्यं च-विविधं गृहोप स्करात्मकम् । अत्र च धनधान्यसञ्चयो मित्रज्ञातिसंयोगश्चेति द्वौ शेषाश्चाष्टेति दशविधो वायग्रन्थ इति गाथार्थः । है। निगमयितुमाह| सावजगंथमुक्का अभितरवाहिरेण गंथेण । एसा खलु निजुत्ती खुड्डागनियंठसुत्तस्स ॥ २४३ ॥ | व्याख्या-सहायद्येन-दोषेण वर्तत इति सावद्यः स चासौ ग्रन्थश्च सावद्यान्धस्तेन मुक्ताः सावद्यग्रन्थमुक्ताः, अनेन च रजोहरणमुखवस्त्रिकावर्षाकल्पादेर्दशविधबाह्यग्रन्थान्तर्गतत्वेऽपि धर्मोपकरणत्वेनानवद्यतयाऽमुक्तावपि |निम्रन्थत्वमुक्तम् , एवं च मा भूत्कस्यचिद्यामोहो-बायेनैव सावद्यग्रन्थेन मुक्ता इत्साह-आभ्यन्तरवाखेन ग्रन्थेन, न तु वाह्येनैव, मुक्ता इति शेषः, 'एषा' अनन्तरोक्ता 'खलु' निश्चितं निरिति-निश्चिताधिका वा युक्तिरस्यामिति निद युक्तिः-नामनिष्पन्न निक्षेपनियुक्तिरित्यर्थः, कस्खेत्याह-'खुड्डागणियंठसुत्तस्सत्ति क्षुल्लकनिम्रन्थनामकं सूत्र तसेति गाथार्थः ॥ इत्युक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरा|ध्ययनसूत्रे 'मुनिः सकाममरणं म्रियते' इत्युक्तं, स च मननान्मुनिरिति ज्ञान्येव, ये त्वज्ञानिनस्ते किमित्याह जावंतविजा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारंमि अणतए ॥१॥ दीप अनुक्रम [१६०] JINEducatam For F IFancibanara मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~522~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||१|| __ नियुक्ति: [२४३...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२६२॥ प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्या-'यावन्तो' यत्परिमाणा वेदनं विद्या-तत्त्वज्ञानात्मिका न विद्या अविद्या-मिथ्यात्वोपहतकुत्सित- क्षुलकनिज्ञानात्मिका तत्प्रधानाः पुरुषाः अविद्यापुरुषाः, अविद्यमाना वा विद्या येषां ते अविद्यापुरुषाः, इह च विद्याशब्देन मेन्थीयम्. प्रभूतश्रुतमुच्यते, न हि सर्वथा श्रुताभावः जीवस्य, अन्यथा अजीवत्वप्रासेः, उक्तं हि-"सधजीवाणपि व गं अक्खरस्सऽणंतभागो णिधुघाडितो, जदि सोऽवि आवरिजेज तो णं जीवो अजीवत्तणं पायेजा" । 'सर्वे'अखिलाः 'ते'इत्यविद्यापुरुषा, 'दुक्खसंभव'त्ति दुःखस्य सम्भवो येषु ते दुःखसम्भवाः, यद्वा दुःखं करोति दुःखयति ततो दुःखय-3 तीति दुःख-पापं कर्म ततः सम्भवः-उत्पत्तिर्येषां ते दुःखसम्भवाः, एवंविधाः सन्तः किमित्याह-'लुप्यन्ते' दारियादिभिर्बाध्यन्ते 'बहुशः' अनेकशो 'मूढा' हिताहितविवेचनं प्रत्यसमर्थाः, क -संसरणं-तिर्यग्नरकादिषु भवेषु । भ्रमणं संसारः तस्मिन् , कीशि १-'अनन्तके' अविद्यमानान्ते, अनेन चानन्तसंसारिकतादर्शनेन तारशा पण्डितमरणाभाव उक्तः, अध्ययनार्थापेक्षया तु निन्धखरूपज्ञापनार्थ तद्विपक्ष उक्त इति भावनीयम् । इह चायमुदाहरणसम्प्रदाय:-एगो गोधो दोगयेण वाइतो गेहाओ णिग्गतो, सर्व पुहवि हिंडिऊण जाहेण किंचि लहति ताहे पुण-| D२१२॥ १ सर्वजीवानामपि चाक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटितः, यदि सोऽपि आत्रियेत सदा जीवोऽजीवत्वं प्रामुयात् ।२ एको गोधः (अलसः) दौर्गोन पातितो गृहानिर्गतः, सर्वा पृथ्वी हिण्डयित्वा यदा न किञ्चित् लभते तदा पुन दीप अनुक्रम [१६१] AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) प्रत सूत्रांक रवि घरं जतो णियत्तो, जाव एगमि पाणवाडगसमीवे गामदेवकुलियाए एगरत्तिं वासोवगतो जाव पेच्छइ ताव देवउलियाओ एगो पाणो निग्गतो चित्तघडहत्थगतो, सो एगपासे ठातिऊणं तं वियडघर्ड भणति-लहु घरं सज्जेहि, एवं जं जं सो भणति तं चिय घडो करेइ, जाव सयणिज, इत्थीहिं सद्धिं भोगे भुंजति, जाव पहाए पडिसाहरति । जातेण गोहेण सो दिट्ठो, पच्छा चिंतेइ-कि मज्झ बहुएण भमिएण १, एतं चेव ओलग्गामि, सो तेण ओलग्गिओ, आराहितो भणति-किं करेमि ! ति, तेण भण्णति-तुम्ह पसाएण अहंपि एवं चेव भोगे भुंजामि, तेण भण्णतिकिं विजं गेण्हसि ? उताहु बिज्जाएऽभिमंतियं घडं गेण्हसि , तेण विजासाहणपुरचरणभीरुणा भोगतिसिएण य| ||१|| दीप अनुक्रम [१६१] १. रपि गृहं यतः ( ततः) निवृत्तः, यावदेकस्य चाण्डालपाटकस्य समीपे प्रामदेवकुलिकायामेकरात्रं वासमुपगतः, यावत्प्रेक्षते ताबद्देवकुलिकातः एकः पाणः (चाण्डालः ) निर्गत चित्रपटहस्तगतः, स एकस्मिन् पार्श्वे स्थित्वा तं विकृत (साधित ) घर्ट भणति-लघु गृह सजय, एवं यद्यत्स भणति तदेव घटः करोति, यावच्छयनीयं, श्रीभिः सार्ध भोगान् भुनक्ति, यावत्प्रभाते प्रतिसंरति । सेन गोधेन स| [रष्टा, पश्चात् चिन्तयति-किं मम बहुना भ्रान्तेन, एनमेवावलगामि, स तेनावलगिता, भाराद्धो भणति-किं करोमीति , सम भण्यत दिसब प्रसादेन अहमप्येवमेव भोगान मुखे, तेन भव्यते-किं विद्या गृहणासि उनाहो विद्ययाऽभिमश्रितं घट गृह्णासि ?, तेन विद्यासाभनपुरी-|| रणभीरुणा भोगदृषितेन च AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv Giancibansar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~524~ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| पतराय भण्णति-विजाभिमंतियं घडयं देहि, तेण से विजाए अभिमंतिऊण घडो दिण्णो, सो तं गहाय गतो सगाम, तत्थ क्षुलकनि |बंधूहिं सहवासेहिवि समं जहारुइयं भवणं विगुरुवियं, भोगे तेहिं सह भुंजतो अच्छति, कम्मंता य से सीदिउमा-AAR वृद्धृत्तिः । दरद्धा, गवादओ य असंगोविजमाणा प्रलयीभूताः, सो य कालंतरेण अतितोसएण तं घडं खंधे काऊण एयस्स | ॥२॥l पभावेण अहं बंधुमज्झे पमोयामि, आसवपीतो पणचितो, तस्स पमाएण सो घडो भग्गो, सो य विजाकओ उव | भोगो णट्ठो, पच्छा ते गामेयगा प्रलयीभूतविभवाः परपेसाईहिं दुक्खाणि अणुभवंति, जति पुण सा विजा गहिया होता ततो भग्गेवि घडे पुणोवि करेंतो। एवं अविजाणरा दुक्खाणि संभूताः क्लिश्यन्ते, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति"ते सवे दुक्खमजिया" इह च मकारोऽलाक्षणिकः, अर्जितम्-उपार्जितं दुःखं यैस्तेऽर्जितदुःखाः, प्राकृतत्वान्निष्ठान्तस्य परनिपातः, शेष प्राग्वत् , यद्वा यावन्तो 'विद्यापुरुषा' विद्याप्रधानाः पुरुषास्ते सर्व 'अदुःखसम्भवाः' अविद्य १ भण्यते-विद्याभिमन्त्रितं घटं देहि, तेन तस्मै विद्ययाऽभिमख्य घटो दत्तः, स तं गृहीत्वा गतः स्वग्राम, तत्र बन्धुभिः सहवासिभिरपि | समं यधारुचितं भवन विकुचितं, भोगस्तैिः सह भुजामस्तिष्ठति, कर्मकराश्च तस्य सीदितुमारब्धाः, गवादयाचासंगोप्यमानाः प्रलयीभूताः स च कालान्तरे अतितोषेण तं पदं स्कन्धे कृत्वा एतस्य प्रभावेणाहं बन्धुमध्ये प्रमोदे, पीतासवः प्रणर्तितः, तस्य प्रमादेन स घटो भनः, स]& २५शा च विद्याकृत उपभोगो नष्टः, पश्चात् ते प्रामेयकाः प्रलयीभूतविभवाः परप्रैषादिभिर्दुःखान्यनुभवन्ति, यदि पुनः सा विद्या गृहीताऽभविष्यत्तदा । भन्नेऽपि घटे पुनरप्यकरिष्यत् । एवमविद्यानरा दुःखानि ( समनुभवन्तः ) लिश्यन्ते । दीप अनुक्रम [१६१] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/गाथा ||२|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| मानदुःखोत्पत्तयः, असुमेवार्थ व्यतिरेकेणाह-मूढा' अज्ञानाऽऽकुलितमतय एव लुप्यन्ते बहुशः संसारेऽनन्तक इति, काका वा व्याख्येयं, दृश्यन्ते हि यानपात्रिण इहैव मोहाद्वयालुप्यमानाः, तथा च वृद्धाः-जहा समुद्दे वाणिया दुबासायाहयजाणवत्ता दिसामूढा खणेण अंतोजलगयपञ्चयमासाएऊण भिन्नपोया महानीतिकलोलेहिं बुज्झमाणा कुम्मग-IRI लमगराईहिं विलुप्पंति, एवं तेऽवि अविजा बहुसो मूढा सारीरमाणसहिं महादुक्खेहिं विलुप्पन्तीति सूत्रार्थः । यतश्चैवं | ततो यत्कृत्यं तदाह समिक्ख पंडिए तम्हा, पास जाइपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेजा, मित्तिं भूएहिं कप्पए ॥२॥ व्याख्या-'समीक्ष्य' आलोच्य 'पण्डितो' हिताहितविवेकभाक् 'त(ज)म्ह'त्ति यस्मादेवमविद्यावन्तो लुप्यन्ते तस्मात, पाठान्तरतश्च तस्मात् , समीक्ष्य मेधावी-मर्यादावर्ती, किं तत् समीक्ष्येत्याह-पाशा-अत्यन्तपारवश्यहेतवः कलत्रादिसम्बन्धास्त एव तीव्रमोहोदयादिहेतुतया जातीनाम्-एकेन्द्रियादिजातीनां पन्धानः-तत्यापकत्वान्मार्गाः पाशजातिपथाः तान् 'बहून्' प्रभूतान् अविद्यावतां विलुप्तिहेतून् , किमित्याह-आत्मना' स्वयं न तु परोपरोधादिना, सद्भयो -जीवादिभ्यो हितः-सम्यग् रक्षणप्ररूपणादिभिः सत्यः-संयमः सदागमो वा तमेषयेत्-गवेषयेत् , एषयंश्च सत्यं किं कुर्याद् इत्याह-'मैत्री' मित्रभावं 'भूतेषु' पृथिव्यादिषु जन्तुषु 'कल्पयेत् ' कुर्यात् , पठ्यते वा-'अत्तठ्ठा सचमेसेज्जा' II १ यथा समुद्रे वणिजो दुर्वाताहतयानपात्रा दिग्मूढाः क्षणेन जलान्तर्गतपर्वतमासाद्य भिन्नपोता महावीथिकल्लोलेरुह्यमानाः कूर्ममकरा३ दिमिविलृप्यन्ते, एवं तेऽप्यविद्यामूढाः बहुशो शारीरमानसैर्महादुःखैः विलुप्यन्ते । दीप अनुक्रम [१६२]] PAKRA 454 AIMEducatan intimational For F un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / गाथा ||३-४|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) उत्तराध्य. साक्षुल्लकनि बृहद्भुत्तिः प्रत ॥२६॥ सूत्रांक ||३-४|| % इह च यस्मादविद्यावन्तः संसारे लुप्यन्ते तस्मात् 'मय्येव निपतत्वेतज्जगदुश्चरितं हि यत् । मतसुचरितयोगेन, स वैदू कल्याणभाजनम् ॥१॥ इति शाक्यादिपरिकल्पिताविद्यापरिहारेणात्मार्थमेव, न तु परार्थ, सत्यमेषयेद् , अपरक प्रन्धीयम् तस्यापरत्रासक्रमणेन परार्थानुष्ठानस्यानर्थकत्वाद्, अन्यत् प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ अपरं चमाया पिया पहुसा भाया, भजा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥३॥ एयमहुँ सपेहाए, पासे समियदसणे । छिंद गेहिं सिणेहं च, ण कंखे पुब्वसंथपं ॥४॥ व्याख्या-तत्राद्यसूत्रपूर्वाध स्पष्ट, नवरं स्नुषा-वध्वः, पुत्राश्च उरसि भवा औरसाः खयमुत्पादिताः, आस्तां जात४.पुत्रादयः, किमित्याह-'नालं' न समर्थाः 'ते' मात्रादयो मम 'त्राणाय' रक्षणाय, कथंभूतस्य ?-'लुप्यमानस्य |छिद्यमानस्य, केन ?-'खकर्मणा' खकृतेन ज्ञानावरणादिना, किमुक्तं भवति ?-खकर्मविहितां बाधामनुभवतः एते मात्रादयो न त्राणायेति, एवमात्मकमनन्तरोक्तमर्थ-वस्तु 'सपेहाए'त्ति प्राकृतत्वात् संप्रेक्षया-सम्यग्रबुद्धया खप्रेक्षया वा, 'पासे'त्ति पश्येदवधारयेत् , शमितं दर्शनं प्रस्तावात् मिथ्यात्वात्मकं येन स तथोक्तः, यदिवा सम्यक् ॥२६४|| इतं-गतं जीवादिपदार्थेषु दर्शनं-दृष्टिरस्पेति समितदर्शनः, कोऽर्थः १-सम्यग्दृष्टिः सन् , ततश्च 'छिंद'त्ति छिन्यात्, हैसूत्रत्यात्तिब्यत्ययः, एवं सर्वत्रानुच्यमानोऽप्ययं भावनीयः, 'गृद्धिं' विषयाभिकाला 'स्नेहं च' खजनादिषु प्रेम 'न नैव 'कालेद्' अभिलपेदू, अपेर्गम्यमानत्वात् कावेदपि न, किं पुनः कुर्यादिति भावः । 'पूर्वसंसवं' पूर्वपरिचयमे % % दीप अनुक्रम [१६३-१६४] % % -% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| ग्रामोषितोऽयमित्यादिकं, यतो न कश्चिदिह परत्र वा त्राणाय खकर्मणा विलुप्यमानस्य धर्म विनेति भाव इति सूत्रद्वयार्थः ॥ अमुमेवार्थ विशेषतोऽनूयास्यैव फलमाह गवासं मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं । सब्वमेयं चइत्ता णं, कामरूवी भविस्ससि ॥५॥ । व्याख्या-गाववाश्वान गवावं, ‘गवाश्वप्रभृतीनि चेति (पा०२-४-११) समाहारः, तत्र गावो-वाहदोहोप-15 ४ लक्षिताः अश्वाः-तुरगाः, पशुत्वेऽप्यनयोः पृथगुपादानं अत्यन्तोपयोगित्वेन प्राधान्यात्, तथा मणयश्च-मरकतादयः कुण्डलानि च-कर्णाभरणानि मणिकुण्डलम् , उपलक्षणं चैतच्छेषालङ्काराणां वर्णादीनां च, पश्यन्ति प्रसूयन्ते वा सापशवः-अजैड़कादयः, दासाच-गृहजातादयः पोरुसं तिसूत्रत्वात् पुरुषाणां समूह इत्यर्थः, 'पुरुषावधविकारसमूह'यो-21 |दिना ढकि पौरुषेयं च-पदात्यादिपुरुषसमूहो दासपौरुषेयं, यद्वा 'दासपोरस'ति दासपुरुषाणां समूहो दासपौरुषं, पुरुषाद् ढक न भवति, ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधेरभावात् , 'सर्च' निरवशेष 'एतद्' अनन्तरोक्तं 'त्यक्त्वा । |हित्या, संयममनुपाल्येत्यभिप्रायः, किमित्याह-कामरूपी' अभिलषितरूपविकरणशक्तिमान भविष्यसि, इहैव वैक्रियकरणाद्यनेकलब्धियोगात् परत्र च देवभावावाप्तेरिति सूत्रार्थः ॥ पुनः सत्यखरूपमेव विशेषत आह थावरं जंगमं चेव, धणं धणं उबक्खरं । पच्चमाणस्स कम्मेहिं, नालं दुक्खाउ मोयणे ॥६॥ अम्भत्थं सवओ सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उधरए ॥७॥ १ पुरुषाधविकारसमातेनकृतेषु इति भाष्यकारप्रयोगात्, २ नैषा व्याख्याता दीप अनुक्रम [१६५] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~528~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / गाथा ||६-७|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) उत्तराध्य. क्षुल्लकनिग्रन्थीयम्. प्रत बृहदृत्तिः सूत्रांक ॥२६५॥ ||६-७|| व्याख्या-'अब्भत्थं'ति अध्यात्ममात्मनि यद्वर्तते, यदिवा अध्यात्म-मनः तस्मिंस्तिष्ठत्यध्यात्मस्थं, सूत्रत्वाद्वर्ण- लोपः, तह प्रस्तावात् सुखादि 'सर्वतः' इष्टसंयोगानिष्टसंप्रयोगादिहेतुभ्यो, जातमिति गम्यते, 'सर्व' निरवशेष 'दृष्ट्वा' या प्रियवादिखरूपेणावधार्य, तथा 'पाणे'त्ति चस्य गम्यमानत्वात् प्राणांश्च-प्राणिनश्च 'पियादए'त्ति आत्मवत् सुखप्रियत्वेन प्रिया दया-रक्षणं येषां तान् प्रियदयान् , प्रिय आत्मा येषां तान् प्रियात्मकान् वा, दृष्ट्वा इत्यत्रापि सम्बन्धनीयं, ततः किमित्याह-'न हन्यात्' नातिपातयेत् , उपलक्षणत्वान्नापि घातयेत् न वा अन्तं समनुजानीयात् ,प्राणिन इति जातावेकवचनं, पाठान्तरतश्च-प्राणिनां प्राणान्-इन्द्रियादीन् , कीदृशः सन् ? इत्याह-भयं च उक्तखरूपं, वैरै चप्रद्वेषः भयवैरमिति समाहारस्तस्मादुपरतो निवृत्तः सन् , यदिवा-अध्यात्मस्थशब्दस्याभिप्रेतपर्यायत्वेन रूढत्वादध्यात्मस्थं-यद्यस्याभिमतं, तच सुखमेव, 'सर्वत' इति सर्वाभ्यो दिग्भ्यः सर्वेभ्यो वा मनोऽभिमतशब्दादिभ्यो जातं सर्व शारीरं मानसं च यथा तबेष्टं तथाऽन्येषामपि प्राणिनामित्युपस्कारः, 'दृष्ट्वा' अवधार्य, इहापि चस्य गम्यमानत्वात् प्राणान् प्राणप्राण्यभेदोपचारात् प्रियदयांश्च, रष्ट्त्यत्रापि योज्यते, अन्यत् प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं प्राणातिपातलक्षणाश्रवनिरोधमभिधाय शेषावनिरोधमाह आयाणं नरयं दिस्स, नायइज्ज तणामवि । दोगुंछी अप्पणो पाते, दिन्नं भुजेज भोपणं ॥८॥ व्याख्या-आदीयत इत्यादानं-धनधान्यादि "कृत्यल्युटोऽन्यत्रापी"ति (कृत्यल्युटो बहुलम् पा०३-३-११३) दीप अनुक्रम [१६६-१६७] ॥२६५॥ AIREDuratan international For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||८|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||८|| xiकर्मणि ल्युट्, आपत्वादादानीयं वा, नरककारणत्वान्नरकं दृष्ट्वा, किमित्याह-'नाददीत' न गृह्णीत न स्वीकुर्यादितियावत् , 'तणामवि'त्ति तृणमपि, आस्तां रजतरूप्यादि, कथं तर्हि प्राणधारणमित्याह-दोगुंछी'त्याद्यध, जुगुप्सते आत्मानमाहारं विना धर्मधुराधरणाक्षममित्येवंशीलो जुगुप्सी, आत्मनः इति आत्मसम्बन्धिनि पात्रे-भाजने प्राप्ते वा भोजनसमय इति शेषः, 'दत्त' निसृष्टं, गृहस्थैरिति गम्यते, 'भुजेजत्ति भुञ्जीत भोजनम्-आहारं, अनेनाहारस्थापि भावतोऽखीकरणमाह, जुगुप्सिशब्देन तदप्रतिबन्धदर्शनात्, ततश्च परिग्रहाश्रवनिरोध उक्तः, तदेवं तन्मध्यपतितस्तद्रहणेन गृह्यत' इति न्यायात् मृषावादादत्तादानमैथुनात्मकायत्रयनिरोध उक्तः, यद्वा 'सत्यमिच्छेदिति सत्यशब्देन साक्षात्संयममपि बदता मृषावादनिवृत्तिराक्षिप्ता, तद्वारेणापि तस्य सत्यत्वात्, आदानमित्यादिना तु साक्षाददत्तादानविरतिरुक्ता, आदानं हि ग्रहणमेव रूढं, तच्चादत्तखेति गम्यते, तं 'नरकं' नरकहेतुं दृष्ट्वा नाददीत तृणमप्यदत्तमितीहापि गम्यते, 'गवास'मित्यादिना तु परिग्रहाश्रयनिरोधः, तन्निरोधाभिधानाच नापरिगृहीता स्त्री भुज्यत इतिकृत्वा मैथुनाश्रवनिरोधोऽप्युक्त एव । नन्वेवं खयं त्यक्तगवादिपरिग्रहस्य परकीयं चानाददानस कथं प्राणवृत्तिः, इत्याह-जुगुप्स्यात्मनः पात्रे दत्तं भुञ्जीत भोजनमिति, पात्रग्रहणं तु ब्याख्याद्वयेऽपि मा भूत् निष्परिग्रहतया पात्रस्याप्यग्रहणमिति कस्यचिद् व्यामोह इति ख्यापनार्थ, तदपरिग्रहे हि तथाविधलब्ध्यायभावेन पाणिभोक्तृत्वाभावादहिभाजन एव भोजनं भवेत् , तत्र च बहुदोषसम्भवः, तथा च शय्यम्भवाचार्यः-"पच्छा दीप अनुक्रम [१६८] JIREairamXI For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [१६९ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२६६॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||९|| अध्ययनं [६], निर्युक्तिः [२४३...] कम्मं पुरेकम्मं, सिया तत्थ ण कप्पइ । एयमहं ण भुंजंति, णिग्गंधा गिहिभायणे ॥ १ ॥” इति सूत्रार्थः ॥ एवं पञ्चाश्रयविरमणात्मके संयम उक्ते यथा परे विप्रतिपद्यन्ते तथा दर्शयितुमाह इहमेगे उ मनंति, अप्पञ्चक्रखाय पावगं । आयरियं विदित्ता गं, सब्वदुक्खा विमुञ्चइ ॥ ९ ॥ व्याख्या- 'इहे' त्यस्मिन् जगति मुक्तिमार्गविचारे वा 'एके' केचन कपिलादिमतानुसारिणः 'तुः' पुनरर्थे 'मन्यन्ते' अभ्युपगच्छन्ति, उपलक्षणत्वात्प्ररूपयन्ति च यथा 'अप्रत्याख्याय' अनिराकृत्य 'पापक' प्राणातिपातादिविरतिमकृत्यैव 'आयरियं'ति सूत्रत्वात् आराद्यातं सर्वकुयुक्तिभ्य इत्यार्य-तत्त्वं तद् 'विदित्वा' ज्ञात्वा 'सर्वदुः खेभ्य' आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकलक्षणेभ्यः खपरिभाषया शारीरमानसेभ्यो वा 'मुच्यते' पृथग् भवति, तथा चाह“पञ्चविंशतितत्रज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ १ ॥ " यद्वाऽऽचरणमाचरितं तत्ततक्रियाकलापः, पाठान्तरतश्च - 'आचारिक' निजनिजाचारभवमनुष्ठानमेव, तद्विदित्वा स्वसंवेदनतोऽनुभूय सर्वदुःखाद्विमुध्यते, एवं सर्वत्र ज्ञानमेव मुक्त्यङ्गं, न चैतश्चारु, न हि रोगिण दूबीपधादिपरिज्ञानतो भावरोगेभ्यो ज्ञानावरणादिकर्मभ्यो महाव्रतात्मकपञ्चाङ्गोपलक्षितां क्रियामननुष्ठाय मुक्तिः ॥ ते चैवमनालोचयन्तो भवदुःखाकुलिता वाचालतयैवमात्मानं स्वस्थयन्ति तथा चाह १ पश्चात्कर्म पुरः कर्म स्यात्तत्र न कल्पते । एतदर्थं न भुञ्जते निर्मन्था गृहिभाजने ॥ १ ॥ २ अर्थतो युग्मरूपत्वान्नात्र सूत्रार्थ इति, एवमग्रेऽपि । Jain Education intimal For Para Pral Use Only क्षुल्लकनिग्रन्थीयम्. ~531~ ॥२६६ ॥ www.ancibrary un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||20|| दीप अनुक्रम [१७०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१०|| निर्युक्तिः [२४३...] अध्ययनं [६], भता अकरिता य, बंधमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेणं, समासासेंति अप्पमं ॥ १० ॥ व्याख्या- 'भणन्तः' प्रतिपादयन्तः, प्रक्रमात् ज्ञानमेव मुक्त्यङ्गमिति, 'अकुर्वन्तश्च' मुक्तत्युपायमनुष्ठानं, बन्धमोक्षौ|उक्तरूपौ तयोः प्रतिज्ञा-अभ्युपगमः तद्वन्तः, सूत्रत्वाचेना निर्देश, अस्ति बन्धोऽस्ति च मोक्ष इत्येवंवादिन एवं केवलं, न तु तथाऽनुष्ठायिनः, वाचि वीर्यम् - आत्मशक्तिर्वाग्रवीर्य वाचालतेति यावत्, तदेवानुष्ठानशून्यं वाग्वीर्यमात्रं तेन 'समाश्वासयन्ति' विज्ञानादेव वयं मुक्तिगामिन इति स्वास्थ्यं प्रापयन्ति, कम् ? - आत्मानमिति सूत्रार्थः ॥ यथा चैतन्न चारु तथा स्वत एवाह Jain Education intimation न चिता तायए भासा, कओ विजाणुसासणं । विसण्णा पावकम्मेहिं, बाला पंडियमाणिणो ॥ ११ ॥ व्याख्या- 'न' नैव 'चित्रा' प्राकृतसंस्कृतादिरूपा आर्यविषयं ज्ञानमेव मुक्त्यङ्गमित्यादिका वा 'त्रायते' रक्षति, पापेभ्य इति गम्यते, केत्याह- भाष्यत इति भाषा वचनात्मिका, स्यादेतत्-अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रमहौषधीनां प्रभाव इत्यघोरादिमत्रात्मिका वाक् त्राणाय भविष्यतीत्याह, कुतो ? विदन्त्यनया तत्त्वमिति विद्या - विचित्रमन्त्रा|त्मिका तस्या अनुशासनं शिक्षणं विद्यानुशासनं प्रायते पापाद्भवाद्वा ?, न कुतोऽपि तन्मात्रादेव मुक्तौ शेषानुष्ठानवैयर्थ्यप्रसङ्गादिति भावः । अत एव ये तदपि श्राणायेति वदन्ति ते या शास्तदेवाह - विविधम्- अनेकप्रकारं सन्नामना विषण्णाः केषु ? - पावकस्मेहिं' ति पापकर्मसु पापहेतुषु हिंसाद्यनुष्ठानेषु, सततं तत्कारितयेति भावः, यद्वा For Para Prata Use Only ancia मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 532~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||११|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) उत्तराध्य. क्षुल्लकनिन्धीयम् बृहदत्तिः ॥२६७॥ प्रत सूत्रांक ||११|| विषण्णा-विषादं गताः पापकर्मभिः-पापानुष्ठानः यथा कथमेवमनुष्ठायिनो वयं भविष्याम इति, पठन्ति च-'विसन्ना पायकिचेहि ति तथैव, कुतस्त एवंविधा इत्याह-'बाला' रागद्वेषाकुलिताः पण्डितमात्मानं मन्यन्ते इत्येवंशीलाः पण्डितमानिनः, ये हि वालाः पण्डितमानिनश्च न स्युस्ते खयं सम्यगजानानाः परं पृच्छेयुः तदुपदेशतश्च तानि परिहरेयुः न तु विषण्णा एवासीरन् , ये तु बालाः पण्डितमानिनश्च ते खयमजानाना अपि जानानमन्यमात्मन्यभिमानतोऽनुपासमाना एवंविधा एव भवन्तीति सूत्रार्थः ॥ साम्प्रतं सामान्येनैव मुक्तिपथपरिपन्थिनां दोषदर्शनायाह जे के सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्यसो । मणसा कायवकेणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा ॥१२॥ व्याख्या-ये केचित् 'शरीरे ' शरीरविषये 'सक्ता' बद्धाग्रहाः, क ? इत्याह-वर्णे' सुस्निग्धगौरत्वादिके 'रूपे च' सुसंस्थानतायां, चशब्दात् स्पर्शादिषु, वखाद्यभिष्वकोपलक्षणं चैतत् , 'सवसो'त्ति सूत्रत्वात् सर्वथा-सर्वैः खयंकरणकारणादिभिः प्रकारैः, मनसा कथं वर्णादिमन्तो वयं भविष्याम ? इत्यभिसन्धिना, वचसा रसायनादिप्रश्नात्मकेन, चशब्दात् कायेन च रसायनाधुपयोगेन, एवेति पूरणे, पठ्यते च-'कायवकेणं'ति कायश्च-शरीरं वाक्यं चवचनं कायवाक्यं तेन, 'सर्वे' निरवशेषा गुरुपादुकातो मुक्तिः नास्ति वा मुक्तिरित्यादिवादिनोऽपि न केवलमार्यादि ॐॐॐ दीप अनुक्रम [१७१] २६७॥ wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~533~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [--] / गाथा ||१२|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) +% प्रत AC% सूत्रांक ||१२|| विदित्वा दुःखाद्विमुक्तिरितिवादिन एवेति भावः, 'ते' इति ये अप्रत्याख्याय पापमित्यादिवादिनी 'दुःखसम्भवाः इहान्यजन्मनि च दुःखभाजनं इति सूत्रार्थः ॥ यथा चैते दुःखभाजनं तथा दर्शयन्नपदेशसर्वस्खमाह- आवण्णा दीहमदाणं, संसारंमि अणंतए । तम्हा सव्वदिसं पस्सं, अप्पमत्तो परिब्वए ॥१३॥ व्याख्या-'आपन्नाः' प्राप्ताः 'दीर्घम्' अनाद्यनन्तमध्वानमिवाध्यानम्-उत्पत्तिप्रलयरूपं, अन्यान्यभवभ्रमणेन-11 कत्रावस्थितेरभावात् , क ?-'संसारे नरकादिगतिचतुष्टयात्मके 'अनन्तके' अविद्यमानान्ते, अपर्यवसितानन्तका|यिकाद्युपलक्षितत्वेनेति गर्भः, 'तम्ह'त्ति यस्मादेवमेते मुक्तिपरिपन्थिनो दुःखसम्भवाः तस्मात् 'सबदिसं'ति सर्वदि शः-प्रस्तावादशेषभावदिशः, ताश्च पृथिव्याद्यष्टादशभेदाः, उक्तं च-'पुढवि जलजलणवाया मूला खंधग्गपोरवीया य । ४ बितिचउपणिदितिरिया यणारया देवसंघाया ॥१॥ संम्मुच्छिमकम्माकम्मभूमिगणरा तहंतरद्दीवा। भावदिसा दिस्सइ संसारी णियममेयाहि ॥२॥” 'पश्यन् ' अवलोकयन् 'अप्रमत्तः' प्रमादविरहितः, यथेषामेकेन्द्रियादीनां विराधना न भवति तथा 'परिव्रजेः' संयमाध्वनि यायाः, यद्वा-संसारापन्नानां सर्वदिशः पश्य, दृष्ट्वा चाप्रमत्तो-निद्रा-2 दिप्रमादपरिहारतो यथतासु न पर्यटसि तथा परिव्रजेःसुशिष्येति सूत्रार्थः ॥ यथा चाप्रमत्तेन परिजितव्यं तथा ४ दर्शयितुमाह १ पृथ्वी जलज्वलनवाता मूलानि स्कन्धाप्रपर्वबीजानि च। द्वित्रिचतुष्पच्चेन्द्रियतिर्यशश्च नारका देवसंघाताः ॥१|| संमूर्षिछमकर्माकर्मभूदामिगनरास्तथाऽऽन्तरद्वीपाः । भावदिशः दिश्यते यत्संसारी नियमादेताभिः ॥२॥ दीप अनुक्रम [१७२] टर For ParaanaSPIwata-montv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~534~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / गाथा ||१४|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१४|| उत्तराध्य पहिया उलुमायाय, नावकखे कयाइवि । पुम्बकम्मकखयट्ठाए, इमं देहमुदाहरे ॥१४॥ व्याख्या-बहिय'त्ति बहिः, कोऽर्थः १-बहिर्भूतं भवादिति गम्यते, ऊर्ध्वं सर्वोपरिस्थितम् अर्थान्मोक्षमादाय-II क्षुल्लकनिबृहद्वृत्तः गृहीत्वा मयतदर्थ यतितव्यमिति निश्चित्य बुद्धया सम्प्रधार्येतियावत् , अथवा बहिः-आत्मनो बहिर्भूतं धनधान्यादि ग्रन्धीयम्, ॥२६॥18 ऊर्ध्वम्-अपवर्गमादाय-गृहीत्वा, हेयत्वेनोपादेयतया च ज्ञात्वेतियावत् , 'नावकाङ्केत्' विषयादिकं नाभिलषेत्, न दवचिदभिष्वङ्गं कुर्वीतेति तात्पर्य, 'कदाचिदपि' उपसर्गपरीपहाकुलिततायामपि, आस्तामन्यदा, एवं सति शरीरधारण मध्ययुक्तमेव, एतद्धारणे सत्याकालासम्भवात् , तस्यापि चात्मनो बहिर्भूतत्वात् अत आह-पुत्यायढे, पूर्व-पूर्व कालभावि तब तत्कर्म च पूर्वकर्म तस्य क्षयः तदर्थमिम-प्रत्यक्षं 'देह' शरीरं 'समुद्धरेट्' उचिताहारादिभोगतः परिपा६लयेत्, तद्धारणस्य विशुद्धिहेतुत्वात् , तत्पाते हि भवान्तरोत्पत्तावविरतिरपि स्यात्, उक्तं च-"सर्वत्थ संजमं| है संजसातो अप्पाणमेव रक्खेजा। मुञ्चति अतिवायातो पुणो विसोहीण याविरती ॥१॥" ततः शरीरोद्धरणमपि तु/निरभिष्वङ्गतयैव विधेयमिति सूत्रार्थः ॥ यथा च देहपालनेऽपि नाभिष्यङ्गसम्भवः तथा दर्शयितुमाह विविच्च कम्मणो हे, कालखी परिवए । मायं पिंडस्स पाणस्स, कडं लड़ण भक्खए ॥१५॥ व्याख्या-विविच्य' पृथकृत्य 'कर्मणो' ज्ञानावरणादेः 'हेतुम्' उपादानकारणं मिथ्यात्वाविरत्यादि, कालम्-3॥२५॥ १ सर्वत्र संथमं संयमादात्मानमेव रक्षेत् । मुच्यतेऽतिपातात् पुनर्विशुद्धिर्न चाविरतिः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१७४] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| दीप अनुक्रम [१७५] Jan Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१५|| निर्युक्तिः [२४३...] अध्ययनं [६], अनुष्ठानप्रस्तावं काङ्क्षत इत्येवंशीलः कालकाङ्क्षी, 'परित्रजे' रिति पूर्ववत्, पठन्ति च 'विगिंच कम्मुणो हेउ'न्ति अत्र च 'वेविग्धि' परित्यजेत्युपदेशान्तरतया व्याख्येयं मात्रां यावत्या संयमनिर्वाहस्तावती, ज्ञात्येति गम्यते, कस्य :'पिण्डस्य' ओदनादेरन्नस्य 'पानस्य च ' आयामादेः, खाद्यखाद्यानुपादानं च यतेः प्रायस्तत्परिभोगासम्भवात्, कृतम् - आत्मार्थमेव निर्वर्तितं, गृहिभिरिति गम्यते, प्रक्रमात्पिण्डादिकमेव 'लब्ध्वा' प्राप्य 'भक्षयेद्' अभ्यवहरेदिति सूत्रार्थः ॥ कदाचिद्भुक्तशेषं धारयतोऽभिष्वङ्गसम्भवः स्यादित्याह सन्निहिं च न कुव्विज्जा, लेवमायाय संजए। पक्खी पत्तं समायाय, निरवेक्खो परिव्व ॥ १६ ॥ व्याख्या - सम्यग् - एकीभाषेन निधीयते - निक्षिप्यतेऽनेनाऽऽत्मा नरकादिष्विति सन्निधिः - प्रातरिदं भविष्यती-| | त्याद्यभिसन्धितोऽतिरिक्ताशनादिस्थापनं तं च न कुर्वीत, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुच्चये, 'लेवमायाय'त्ति लेपः-शकटाक्षादिनिष्पादितः पात्रगतः परिगृह्यते, तस्य मात्रा - मर्यादा, मात्राशब्दस्य मर्यादावाचित्वेनापि रूढत्वात्, यथोक्तम्- " ईषदर्थक्रियायोगे, मर्यादायां परिच्छदे । परिमाणे धने चेति, मात्राशब्दः प्रकीर्तितः ॥ १॥” लेपमात्रतथा, किमुक्तं भवति ? -लेपमेकं मर्यादीकृत्य न खल्पमप्यन्यत् सन्निदधीत, यद्वा परिमाणार्थोऽयं मात्राशब्दः, लक्षणे तृतीया, ततोऽयमर्थ:- लेपमाश्रयेति यावता पात्रमुपलिप्यते तावत्परिमाणमपि सन्निधिं न कुर्वीत, आस्तां बहुमित्यभिप्रायः, 'संयतो' यतिः, किमित्येवं पात्राद्युपकरणसन्निधिरपि न कर्तव्य इत्याह- 'पक्खि' त्ति पक्षीव पक्षी, यथा पक्षी For PP Use On ancibrary s मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-]/ गाथा ||१६|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥२६॥ सूत्रांक ||१६|| पतन्तं त्रायत इति पत्रं-पक्षसञ्चयं 'समादाय' गृहीत्वा व्रजति, एवं भिक्षुरपि 'पत्ति पात्रमुपलक्षणत्वाच्छेपोप- दुलकनिकरणं चादाय परिबजेदिति सम्बन्धः, कीडग् ?-निरपेक्षो' निरभिलाषः, तस्य वा विनाशादौ शोकाकरणतो निर-मा पेक्षो-निरभिष्या , तथा च प्रतिदिनमसंयमपलिमन्धभीरुतया पात्रायुपकरणसन्निधिकरणेऽपि न दोष इत्यर्थः, ग्रन्थीयम्. अथवा यदि लेपपमात्रयाऽपि सन्निधिं न कुर्वीत कथमागामिनि दिने भोक्तव्यमित्याह-पक्षीव निरपेक्षः, पात्रं पतहादिभाजनमत्तन्निर्योगं च समादाय प्रजे-भिक्षार्थ पर्यटेद् , इदमुक्तं भवति-मधुकरवृत्त्या हि तस्य निर्वहणं, तरिक तस्य सन्निधिना ? इति सूत्रार्थः । सम्प्रति यदुक्तं कृतं लब्ध्या भक्षयेदि ति, तत्र कथं तल्लाभ इति तदुपायमाहयद्वा-यदुक्तं 'निरपेक्षः परिप्रजेदिति तदभिव्यक्तीकर्तुमाह एसणासमिओ लज्जू, गामे अनियओचरे । अप्पमत्तो पमत्तेहि, पिंडवातं गवेसए ॥१७॥ व्याख्या-एषणायाम्-उत्पादनग्रहणग्रासविषयायां सम्यगितः-स्थितः समितः एपणासमितः, प्राधान्याञ्च इहैषणाया एवोपादानं, प्रायस्तद्भावे ईर्याभाषादिसमितिसम्भव इति ज्ञापनार्थ वा, अनेन निरपेक्षत्वमुक्तं, 'लज्जू'त्ति लज्जा-संयमस्तदुपयोगानन्यतया यतिरपि तथोक्तः, आपत्वाचैवं निर्देशः, ग्रामे उपलक्षणत्वान्नगरादौ च 'अनियतः ॥२६॥ अनियतवृत्तिः 'चरेदू' विहरेत् , अनेनापि निरपेक्षतैवोक्ता । चरंश्च किं कुर्यादित्याह-'अप्रमत्तः' प्रमादरहितः सन् 2 पमत्तेहिति प्रमत्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः, ते हि विषयादिप्रमादसेवनात् प्रमत्ता उच्यन्ते, 'पिण्डपातं' भिक्षा 'गवेषयेद्' दीप अनुक्रम [१७६] ला For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~537~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [--1/ गाथा ||१८|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) *** प्रत सूत्रांक ***** ||१८|| अन्वेषयेदिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं प्रसक्तानुप्रसक्त्या संयमखरूपमुक्तं, तदुक्तौ च निर्घन्धखरूपं, सम्प्रत्यत्रैवादरोत्पादनार्थमाह एवं से उयाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदसी अणुत्तरनाणदंसणधरे। __ अरहा णायपुत्ते भयवं वेसालीए वियाहिए ॥ १९॥ त्तिमि ॥ | व्याख्या-'एवम् ' अमुना प्रकारेण 'से' इति भगवान् ‘उदाहु'त्ति उदाहृतवान् 'अनुत्तरज्ञानी' सर्वोत्कृष्टज्ञानवान् । ननु चानुत्तरज्ञानीति मत्वर्थीयेन न भवितव्यं, बहुव्रीहिणैव तदर्थस्योक्तत्वात् , सत्यम् , अनुत्तरज्ञानशब्दोऽयं गौरखरशब्दवत् संज्ञाप्रकार एव, केवलज्ञानवाचकत्वात् अस्य, ततो गौरखरेघदरण्यमित्यादिवन्न दोषः, नास्योत्तरमस्तीत्यनुत्तरं तथा पश्यतीत्यनुत्तरदर्शी, सामान्यविशेषग्राहितया च ज्ञानदर्शनयोर्भेदः, यत उक्तम्-"जं सामण्णग्गहणं दसणमेयं बिसेसियं नाणं"ति, अनुत्तरे ज्ञानदर्शने युगपदुपयोगाभावेऽपि लब्धिरूपतया धारयतीत्यनुत्तरज्ञानदर्शनधरः । ननु प्रागुक्ताभ्यां विशेषणाभ्यामस्थार्थस्योक्तत्वात् कथं न पौनरुक्त्यम् !, उच्यते, अस्थान्याभिप्रायत्वात् , अत्र हि अनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदीति भेदाभिधानेन ज्ञानदर्शनयोर्मिनकालमाह, ततश्च मा भूदुपयोगवल्लन्धिद्वयमपि भिन्नकालभावीति व्यामोह इत्युपदिश्यते ज्ञानदर्शनधरः, अर्हति देवादिभ्यः पूजामित्यर्हन् , स चार्थात्तीर्थकृत् , ज्ञातः-उदा१ यत्सामान्यग्रहणं दर्शनमेतत् विशेषितं ज्ञानम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१७८] SEXRRC * * Fatani For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र सूत्रक्रमांक ||१८|| वर्तते, मूल संपादने मुद्रणदोषात् ||१९|| इति लिखितं ~ 538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-1/ गाथा ||१८|| नियुक्ति: [२४३...] (४३) बृहद्भुत्तिः प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. रक्षत्रियः स चेह प्रस्तावात् सिद्धार्थः तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः-वर्तमानतीर्थाधिपतिर्महावीर इतियावत् 'भगवान्' क्षुल्लकनि समग्रेश्वर्यादिमान् , 'वेसालीय'त्ति विशाला:-शिष्याः तीर्थ यशःप्रभृतयो वा गुणा विद्यन्ते यस्येति विशालिकः "इनि 18ठना" (अत इनि उनी पा०५-२-११५) विति ठन् , यद्वा विशालेभ्यः-उक्तखरूपेभ्यो हित इति हितार्थे ठन्प्रत्ययः KAIन्धीयम्॥२७॥ (तस्मै हितम् पा०५-१-५), ततश्च विशालीयः वियाहिए'त्ति व्याख्याता सदेवमनुजासुरायां पर्षदि विशेषेणा नन्यसाधारणात्मकेनाख्याता-कथयिता, केचित्त्वधीयते-'एवं से उदाहु अरिहा पासे पुरिसादाणीए भगवं बेसा लीए बुद्धे परिणिव्वुए'त्ति स्पष्टमेव, नवरमर्हन्निति सामान्योक्तावपि प्रक्रमात् महावीरः, पश्यति समस्तभावान् केवदलालोकेनावलोकत इति पश्यः, तथा पुरुषश्चासौ पुरुषाकारवर्तितया आदानीयश्च आदेयवाक्यतया पुरुषादानीयः, पुरुषविशेषणं तु पुरुष एवं प्रायस्तीर्थकर इति ख्यापनार्थ, पुरुषैर्वाऽऽदानीयो ज्ञानादिगुणतया पुरुषादानीय इति । सूत्रार्थः ॥ इतिः परिसमाप्ती, अवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, ते च पूर्ववद्वाच्याः। इति श्रीशा-IP दन्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां षष्टमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ॥ ॥ ॥ ॥४॥ ||१८|| ACANCERBALKA दीप अनुक्रम [१७८] ॥ इति श्रीशान्त्याचायिटीकायां श्रीक्षलकनिम्रन्थीयं पष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-६ परिसमाप्तं ~539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [--] / गाथा ||१८...|| नियुक्ति: [२४४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१८|| व्याख्यातं क्षलकनिन्धीयं षष्ठमध्ययनं, साम्प्रतं सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने निर्ग्रन्थत्यमुक्तं, तच रसगृद्धिपरिहारादेव जायते, स च विपक्षेऽपायदर्शनात् , तच दृष्टान्तोपन्यासद्वारेणैव परिस्फुट भवतीति रसगृद्धिदोषदर्शकोरभ्रादिदृष्टान्तप्रतिपादकमिदमध्ययनमारभ्यते, इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातस्याध्ययन|स्योपक्रमादिद्वारचतुष्टयमुपवण्यं तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे उरभ्रीयमिति नाम, अत उरभ्रनिक्षेपमाहनिक्लेवो उ उरब्भे चउबिहो दुविहो य होइ दवमि । आगमनोआगमओ नोआगमओ असो तिविहो। व्याख्या-'निक्षेपः' न्यासः, तुः पूरणे, 'उरञ' उरभ्रविषयः 'चतुर्विधः' चतुष्प्रकारः, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे एव इति द्रव्योरभ्रमाह-द्विविधो भवति 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः, आगमनोआगमतः, तत्रागमत उरभ्रशब्दार्थज्ञः तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतः पुनः, चस्य पुनरर्थत्वात् , 'स' इति द्रव्योरभ्रः 'त्रिविधः | त्रिभेद इति गाथार्थः ।। त्रैविध्यमेवाहजाणगसरीरभविए तबइरिते असो पुणो तिविहो। एगभविअ बद्धाऊ अभिमुहओनामगोए अ॥२४५॥ व्याख्या-ज्ञशरीरोरन उरभ्रशब्दार्थज्ञस्य सिद्धशिलातलगतं शरीरमुच्यते, भव्यशरीरोरभ्रस्तु यस्तावदुरभ्रशब्दार्थ न जानाति कालान्तरे च ज्ञास्यति तस्य यच्छरीरं, 'तद्वयतिरिक्तश्च ताभ्यां-ज्ञशरीरभव्यशरीरोरभ्राभ्यां व्यतिरिक्तो दीप अनुक्रम [१७८] - - JUNERISmalnima मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - "औरभीय" आरभ्यते ~540~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [१७८] उत्तराध्य. वृत्तिः ॥२७१ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१८... || निर्युक्तिः [ २४५] Jan Education Inmational अध्ययनं [७], भिन्नः तद्वयतिरिक्तः, चः समुच्चये, 'स' तद्व्यतिरिक्तः पुनः 'त्रिविधः' त्रिभेदः, त्रैविध्यमेवाह - एकस्मिन् भवे तस्मि - नेवातिक्रान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भवे उरभ्रतयोत्पत्स्यते, तथा स एवोरभ्रायुर्वन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति बद्धायुकउच्यते, तृतीयमाह - 'अभिमुहतो नामगोए य'त्ति आर्यत्वादभिमुखनामगोत्रश्च तत्राभिमुखे-ससम्मुखे अन्तर्मुहूर्तानन्तरभावितया नामगोत्रे उरभ्रसम्बन्धिनी यस्य स तथोक्तः, अन्तर्मुहूर्तानन्तरमेवोरभ्रभवभावीति | गाथार्थः ॥ भावोरभ्रमध्ययननामनिबन्धनं चाह - उरभाउणामगोयं वेयंतो भावओ उ ओरभो । तत्तो समुट्टियमिणं उरब्भिजन्ति अज्झयणं ॥ २४६ ॥ व्याख्या— उरभ्र- ऊरणकः तस्यायुश्च नाम च गोत्रं चोरभ्रायुर्नामगोत्रं, यदुदयादुरभ्रो भवति, 'वेदयन्' अनुभवन् 'भावतो' भावमाश्रित्योरभ्रः, तुशब्दः पर्यायास्तिक मतमेतदिति विशेषणार्थः, 'ततो' भावोरभ्राद् दृष्टान्ततयेहाभिधेया|त्समुत्थितम् - उत्पन्नमिदमिति प्रस्तुतं यस्मादिति गम्यते, 'उरन्भिज्जं 'ति उरश्रीयं ग्रहादित्वाच्चैषिकठप्रत्ययः 'इती ति तस्माद् अध्ययनं प्रागुक्तनिरुक्तमुच्यत इति शेष इति गाथार्थः ॥ उरभ्रस्यैव चेह प्रथममुच्यमानत्वाद्वहुवक्तव्यत्याचेत्थ - मुक्तम्, अन्यथा हि काकिण्यादयोऽपि दृष्टान्ता इहाभिधीयन्ते एव, तथा चाह नियुक्तिकृत्ओरब्भे अ कागिणी अंबए अ वबहार सागरें चेव । पंचेए दिट्टंता उरविभजमि अज्झयणे ॥ २४७ ॥ For Paren औरश्री ~ 541~ याध्य. ७ ॥२७१ ॥ janciran urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२४८] (४३) 2016-09 प्रत सूत्रांक व्याख्या-'उरभ्र' उक्तरूपः 'काकिणिः' विंशतिकपर्दकाः 'उरच्भे य'त्ति चशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् काकिणिश्च 'अंबए यत्ति आम्रकं च-आम्रफलं, व्यवहारश्च-क्रयविक्रयरूपो वणिग्धर्मः, चस्य गम्यमानत्वात् , सागरश्च-समुद्रः, चः सर्वत्र समुच्चये, एवोऽवधारणे, भिन्नक्रमश्चैवं योज्यते-पञ्चैवैते न तु न्यूनाधिकाः 'दृष्टान्ता' उदाहरणानि 'उरभ्रीये'। 18 उरभ्रीयनाम्न्यध्ययन इति गाथार्थः ॥ सम्प्रति यदर्थसाधादुरभ्रस्य दृष्टान्तता तदुपदर्शनायाह आरंभे रसगिद्धी दुग्गतिगमणं च पञ्चवाओ य । उवमा कया उरब्भे उरब्भिज्जस्स निजुत्ती ॥ २४८॥ व्याख्या-आरम्भणं आरम्भः-पृथिव्याधुपमर्दः, रसेषु-मधुरादिषु गृद्धिः-अभिकाङ्क्षा रसगृद्धिः, दुर्गतिगमनं च-18 नरकतिर्यगादिषु च पर्यटनं, प्रत्यपायश्चेहैव शिरश्छेदादिः, वक्ष्यति हि "सिरं छेत्तूण भुजति'त्ति शिरश्छेदादातरौद्रो-2 पगतस्य दुर्गतिपाते दुःखानुभवनादिरुपमा-सादृश्योपदर्शनरूपा, प्रक्रमादेभिरेवारम्भादिभिरथैः 'कृता' विहिता 'उरभ्रे उरभ्रविषया, इदमुक्तं भवति-साम्प्रतक्षिणो हि विषयामिषनवस्तांस्तानारम्भानारभन्ते, आरभ्य चोपचितकर्मभिः कालशौकरिकादिवदिहैव दुःखमुपलभ्य नरकादिकां कुगतिमाप्नुवन्तीत्युरभ्रोदाहरणता इहोपदयते, काकिण्यादिसाधर्म्यदृष्टान्तोपलक्षणं चेतद्, 'उरभ्रीयस्य नियुक्ति'रिति निगमनमेतदिति गाथार्थः । इत्ययसितो नामनिष्प-IK ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवतीत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् जहाऽऽएसं समुद्दिस्स, कोइ पोसेज एलयं । ओयणं जवसं देजा, पोसेजावि सयंगणे ॥१॥ ||१८|| दीप अनुक्रम [१७८] मर For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२४८...] (४३) उत्तराध्य. औरभीयाध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥२७२।। सूत्रांक COLSCRkRDER ||१|| व्याख्या-'यथे'त्युदाहरणोपन्यासे, आदिश्यते-आज्ञाप्यते विविधव्यापारेषु परिजनोऽस्मिन्नायात इत्यादेशः-अ- भ्यर्हितः प्राहुणकस्तं 'समुद्दिश्य' आश्रित्य यथाऽसौ समेष्यति समागतश्चैनं भोक्ष्यत इति 'कश्चित् ' परलोकापाय- |निरपेक्षः 'पोषयेत् ' पुष्टं कुर्यात् 'एलकम् ' ऊरणकं, कथमित्याह-'ओदन' भक्तं, तद्योग्यशेषानोपलक्षणमेतत् , यवस' मुद्गमाषादि 'दद्यात् ' तदग्रतो ढोकयेत् , तत एव पोषयेत् , पुनर्वचनमादरख्यापनाय, अपिः सम्भावने, सम्भाव्यत एवैवंविधः कोऽपि गुरुकर्मेति, 'खकाङ्गणे' स्वकीयगृहाङ्गणे, अन्यत्र नियुक्तकाः कदाचिन्नौदनादि दास्यन्तीतिखकाङ्गण इत्युक्तं, यदि वा 'पोसेजा विसयंगणे'त्ति विशन्त्यस्मिन् विषयो-गृहं तस्याङ्गणं विषयाङ्गणं तस्मिन् , अथवा है विषयं-रसलक्षणं वचनव्यत्यया विषयान्या गणयन-संप्रधारयन् धर्मनिरपेक्ष इति भावः, इहोदाहरणं सम्प्रदायादवसेयं, जहेगो ऊरणगो पाहुणयणिमित्तं पोसिज्जति, सो पीणियसरीरो सुण्हातो हलिद्दादिकयंगरागो कयकपणचूलतो कुमा४रगा य तं नाणाविहेहिं कीलाविसेसेहिं कीलाति, तं च वच्छगो एवं लालिजमाणं दट्टण माऊए णेहेण य गोवियं | दोहएण य तयणुकंपाए मुकमवि खीरं ण पिवति रोसेणं, ताए पुच्छिओ भणति-अम्मो ! एस णंदियगो सवेहि १ यथैक ऊरणकः प्राघूर्णकनिमित्तं पोयते, स पीनशरीरः सुखातो हरिद्रादिकृताङ्गरागः कृतकर्णचूलकः कुमाराध तं नानाविधैः क्रीडाविशेषैः क्रीडयन्ति, तं च वत्स एवं लास्यमानं दृष्ट्वा मात्रा मेहेनैव गोपितं दोहकेन च तदनुकम्पया मुक्तमपि क्षीरं न पिधति रोपेण, तया पुष्टो भणति-अम्ब ! एष नन्दितका सबै दीप अनुक्रम [१७९] ॥२७२॥ wwwnorarycom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~543~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], __ मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२४९] (४३) प्रत CACACK सूत्रांक ||२|| नाएएहि अम्हसामिसालेहिं अहहिं जवसजोगासणेहिं तदुवओगेहिं च अलंकारविसेसेहिं अलंकारितो पुत्त इव परिपालिजति, अहं तु मंदभग्गो सुक्काणि तणाणि काहेवि लभामि, ताणिषि ण पज्जत्तगाणि, एवं पाणियंपि, ण यमं कोऽवि लालेति । ताए भण्णति-पुत्त ! | आउरचिन्नाई एयाई, जाई चरइ नंदिओ। सुक्कत्तणेहिं लाढाहि, एयं दीहाउलक्खणं ॥ २४९ ॥ जहा आउरो मरिउकामो जं मग्गति पत्थं वा अपत्थं वा तं दिजति से, एवं सो गंदितो मारिजिहिति जदा तदा पेच्छिहिसि, इति सूत्रार्थः॥ ततोऽसौ कीदृशो जातः ? किं च कुरुते ? इत्याह तओ स पुढे परिब्बूढे, जायमेदे महोयरे । पीणिए विपुले देहे, आदेसं परिकखए ॥२॥ व्याख्या-तत' इत्योदनादिदानाद्धेती पञ्चमी, 'स' इत्युरनः 'पुष्ट' उपचितमांसतया पुष्टिभाक् 'परिवृढः' प्रभुः १ रेतरस्मत्स्वामिश्यालैरायैर्यवसयोग्याशनैस्तदुपयोगैश्वालङ्कारविशेषैरलड्कृतः पुत्र इव परिपाल्यते, अहं तु मन्दभाग्यः शुष्काणि तृणानि कदापि लभे, तान्यपि न पर्याप्तानि, एवं पानीयमपि, न च मां कोऽपि लालयति । तया भण्यते-पुत्र ! आतुरचिह्नानि एतानि, यानि चरति नन्दिकः । शुष्कतृणैर्यापर्यतत् दीर्घायुर्लक्षणम् ॥ १॥ यथा आतुरो म कामो यन्मार्गयति पध्यमपथ्यं वा तहीयते तस्मै, एवं स नन्दिको मारयिष्यते यदा तदा प्रेक्षयिष्ये दीप अनुक्रम [१८० ला AIMEducatan intamational For F un Pencitinnar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 544~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३|| उत्तराध्य. समर्थ इतियावत् 'जातमेदा' उपचितचतुर्थधातुः अत एव 'महोदरः' बृहजठरः 'प्रीणितः तर्पितः, यथासमयमुप-1 औरभी ढौकिताहारत्वात् , एभिरेष च हेतुभिः 'विपुले' विशाले 'देहे' शरीरे सति “यस्य च भाषेन भावलक्षण"मिति (पा. बृहद्वृत्तिः सायाध्य.७ २-३-३७) सप्तमी, किमित्याह-आदेशं प्रतिकावति' प्रतिपालयति, पाठान्तरतः 'परिकाति' इच्छति, न चास्य ॥२७३॥ तत्त्वतः प्रतिपालनमिच्छा वा सम्भवति, अतः प्रतिकातीव प्रतिकासतीत्युपमार्थोऽवगन्तव्यः, एवं परिकासतीत्य त्रापि, इति सूत्रार्थः ॥ स किमेवं चिरस्थायी स्थादित्याह___ जाव न एजति आएसो, ताव जीवति सेद्धही । अह पत्तमि आएसे, सीसं छेत्तूण भुजति ॥३॥ व्याख्या-'यावदिति कालावधारणे 'नेति' नायाति, कोऽसौ ?-आदेशः, तावत् नोत्तरकालं जीवति' प्राणान् , धारयति, 'सेऽहि'त्ति अकारप्रश्लेषात् स इत्युरभ्रोऽदुःखी सुखी सन् , अथवा वध्यमण्डनमिवास्यौदनदानादिनीति तत्त्वतो दुःखितैवास्येति दुःखी, 'अह पतमि आएसे' अथानन्तरं 'प्राप्ते' आगते आदेशे श्रिता अस्मिन् प्राणा दि इति शिरः तच्छित्त्वा-द्विधा विधाय भुज्यते, तेनैव खामिना पाहुणकसहितेनेति शेषः । सम्प्रति सम्प्रदायशेषमनुहै स्त्रियते-ततो सो वच्छगो तं नंदियगं पाहुणगेसु आगएस वधिज्जमाणं दर्दु तिसितोऽवि भएणं माऊए थर्ण णाभि १ ततः स वत्सतं नन्दितकं प्राघूर्णकेष्वागतेषु वध्य (हन्य)मानं दृष्ट्वा तृषितोऽपि भयेन मातुः सन्यं नाभि दीप अनुक्रम [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~545~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१८२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४|| अध्ययनं [७], निर्युक्तिः [२४९...] लसंति, ताए भण्णति- किं पुत्त ! भयभीतोऽसि ?, णेहेण पण्यंपि मं ण पियसि, तेण भण्णइ-अम्म ! कतो मे थणाभिलासो ?, णणु सो बरातो गंदितो अज केहिवि पाहुणएहिं आग एहिं ममं अग्गतो विणिग्गयजीहो विलोलनयणो विस्सरं रसंतो अत्ताणो असरणो मारितो, तम्भयातो कतो मे पाउमिच्छा ?, ततो ताए भण्णति-पुत ! णणु तदा चेव ते कहियं, जहा आउरचिण्णाई एवाई०, एस तेसिं विवागो अणुपत्तो। एस दितो इति सूत्रार्थः ॥ इत्थं दृष्टान्तमभिधाय तमेवानुवदन् दार्शन्तिकमाह जहा खलु से ओर भे, आएसाए समीहिए। एवं वाले अहम्मिट्टे, ईहति निरयाज्यं ॥ ४ ॥ व्याख्या- 'यथा' येन प्रकारेण 'खलु' निश्चयेन 'स' इति प्रागुक्तस्वरूप उरभ्रः 'आदेशाय' आदेशार्थं 'समीहितः ' कल्पितः सन् यथाऽयमस्मै भवितेत्यादेशं परिकाङ्क्षति इत्यनुवर्तते, 'एवम्' अमुनैव न्यायेन 'वालः' अज्ञोऽधर्मा-धर्म| विपक्षः पापमितियावत् स इष्ट:-अभिलषितोऽस्येत्यधर्मिष्ठः, आहिताश्यादेश कृतिगणत्वादिष्टशब्दस्य परनिपातः, यद्वा १० लण्यति, तया भण्यते किं पुत्र ! भयभीतोऽसि ?, स्नेहेन प्रस्तुतामपि मां न पिबसि, तेन भण्यते-अम्ब! कुत्तो मे स्तन्याभिलाष: ?, ननु स वराको नन्दिकोऽय केष्वपि प्राचूर्णकेण्यागतेषु ममाग्रतो विनिर्गतजिल्हो बिलोलनयनो विस्वरं रसन् अत्राणोऽशरणो मारितः, तद्भया कुतो मे पातुमिच्छा ?, ततस्तया भण्यते पुत्र ! ननु सदैव तुभ्यं कथितं यथा- आतुरचिह्नान्येतानि०, एष तेषां विपाकोऽनुप्राप्तः । एष दृष्टान्तः । Jam Euston mana For Par मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||५-७|| _ नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत 1564 सूत्रांक ||५-७|| उत्तराध्य. ऽधर्मगुणयोगादधर्मोऽतिशयेनाधर्मोऽधर्मिष्ठः, ईहत इवेहते वाञ्छतीव तदनुकूलचारितया, किं तत् ?-'नरकायुष्क औरभ्री नरकजीवितमिति सूत्रार्थः ॥ उक्तमेवार्थ प्रपञ्चयितुमाहबृहद्वृत्तिः याध्य. ७ हिंसे बाले मुसाबाई, अहाणमि विलोवए । अण्णदत्तहरे तेणे, माई कण्डहरे सदे ॥५॥ ॥२७॥ इत्थीविसयगिद्धे य, महारंभपरिग्गहे । भुंजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे ॥६॥ अयककरभोई य, तुंदिले चिय लोहिए । आउयं नरए खे, जहाऽऽएस व एलए ॥७॥ व्याख्या-हिनस्तीत्येवंशीलो हिंस्रः-खभावत एव प्राणन्यपरोपणकृत् 'बालः' अज्ञः, पाठान्तरश्च क्रुध्यति-हेतुमन्तरेणापि कुप्यतीत्येवंधर्मा क्रोधी, मृषा-अलीकं वदति-प्रतिपादयतीत्येवंशीलो मृपावादी, 'अध्वनि' मार्गे| |'विलुम्पति' मुष्णातीति विलोपकः, यः पथि गच्छतो जनान् सर्वखहरणतो लुण्टति, 'अण्णदत्तहरि ति अन्येभ्यो । दत्तं-राजादिना वितीर्ण हरति अपान्तराल एवाच्छिनत्त्यदत्तहरः, अन्योऽदत्तम्-अनिसृष्टं हरति-आदत्ते अन्यादत्तहरः-ग्रामनगरादिषु चार्यकृत् , अत एव 'बाल' अज्ञः, विस्मरणशीलस्मरणार्थमेतदिति न पौनरुक्त्यं, सर्वावस्थासु वा बालत्वख्यापनार्थ, पाठान्तरश्च 'सेनः' तैन्येनैवोपकल्पितात्मवृत्तिः, यद्वा-अन्यादत्तहरः अन्यादत्तं ग्रन्थिच्छेदा दिनोपायेनापहरति स्तेनः क्षत्रादिखननेनेति विशेषो, 'मायीं' वञ्चनैकचित्तः, 'कण्हुहरः' कण्हु कस्वार्थ हरिष्यामीद त्येवमध्यवसायी 'शठः' वक्राचारः । तथा स्त्रियश्च विषयाश्च स्वीविषयाः तेषु गृद्धः-अभिकासावान् स्त्रीविषयगृद्धः,3|| दीप अनुक्रम [१८३ 1॥२७४ा -१८५]] JmtamatarHit मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५-७|| दीप अनुक्रम [१८३ -१८५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||५-७|| निर्युक्ति: [२४९..] Jam Euston Intimana अध्ययनं [७], चः प्राग्वत्, महानू- अपरिमितः आरम्भः अनेकजन्तूप घातकृयापारः परिग्रहश्च - धान्यादिसञ्चयो यस्य स तथोक्तः, 'भुआनः' अभ्यवहरन्, 'सुरां' मदिरां, 'मांस' पिशितं, 'परिवृढे' त्ति परिवृढः प्रभुरुपचितमांसशोणिततया तक्रिया| समर्थ इतियावत्, अत एव परान् अन्यान् दमयति-यत्कृत्याभिमतकृत्येषु प्रवर्तयतीति परन्दमः, किंच-अज:-- छागस्तस्य कर्करं यचनकवद्भक्ष्यमाणं कर्करायते तचेह प्रस्तावान्मेदोदन्तुरमतिपक्कं वा मांसं तद्भोजी या, अत एव 'तुन्दिल:' जातबृहज्जठरः, चितम् - उपचयप्राप्तं लोहितं शोणितमस्येति चितलोहितः, शेषधातूपलक्षणमेतत्, 'आयुः' जीवितं, 'नरके' सीमन्तकादौ काङ्क्षति तद्योग्य कर्म्मारम्भितया, कमिव क इव १ इत्याह-- 'जहाएसं व | एडएत्ति आदेशमिव यथैडकः-उक्तरूपः । इह च 'हिंसे' इत्यादिना सार्धश्लोकेनारम्भ उक्तः, 'भुंजमाणे सुर' मित्यादिना चार्थद्वयेन रसद्धि:, 'आयुष्क' मित्यादिना चार्थेन दुर्गतिगमनं, तत्प्रतिपादनाञ्चार्थतः प्रत्यपायाभिधानमिति | सूत्रत्रयार्थः ॥ इदानीं यदुक्तम् 'आयुर्नरके काङ्क्षती' ति, तदनन्तरमसौ किं कुरुत इत्याह - यद्वा साक्षादैहिकापा|यदर्शनायाह आसणं सघणं जाणं, वित्ते कामाणि भुंजिया । दुस्साहढं धणं हिचा बहुं संचिणिया रयं ॥८॥ ततो कम्मगुरू जंतू, पक्षुप्पण्णपरायणे । अएच्च आगया 'कंबे, मरणंतंमि सोयति ॥ ९ ॥ १ आगया एसेत्ति टीका । For Par मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥८-९|| दीप अनुक्रम [१८६ -१८७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२७५॥ Euston In “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ८-९|| अध्ययनं [७], व्याख्या - आसनं शयनं यानमिति प्राग्वत्, नवरं भुक्त्वेति सम्बन्धनीयं, 'वित्ते'त्ति वित्तं द्रव्यं, 'कामान्' मनो| ज्ञशब्दादीन् 'भुक्त्वा' उपभुज्य, दुःखेनात्मनः परेषां च दुःखकरणेन सुष्ठु - आदरातिशयेनाहृतम् - उपार्जितं दुःखाहतं, यद्वा । | प्राकृतत्वात् दुःखेन संहियते-मील्यते स्पेति दुःसंहृतं 'धनं' द्रव्यं हित्वा' आसनाद्युपभोगेन द्यूताद्यसद्व्ययेन च त्यक्त्वा, तथा च मिथ्यात्वादिकर्मबन्धुहेतुसम्भवाद् 'बहु' प्रभूतं 'सञ्चित्य' उपाय 'रजः' अष्टप्रकारं कर्म, ततः किमित्याह-'ततो 'ति ततो रजःसञ्चयात् तको वा सञ्चितरजाः, कर्म्मणा गुरुरिव गुरुः अधोनरकगामितया कर्म्मगुरुः, 'जन्तुः' प्राणी 'प्रत्युत्पन्नं' वर्त्तमानं तस्मिन्परायणः - तन्निष्ठः प्रत्युत्पन्नपरायणः, 'एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः' इति | नास्तिक मतानुसारितया परलोक निरपेक्ष इतियावत्, 'अएव 'त्ति अजः पशुः, स चेह प्रक्रमादुरभ्रस्तद्वत् 'आगयाएसे' ति प्राकृतत्वादागते- प्राप्ते आदेशे-प्राहुणके, एतेन प्रपञ्चितज्ञविनेयानुग्रहायोक्तमेवोरभ्रदृष्टान्तं स्मारयति, किमित्याह'मरणान्ते' प्राणपरित्यागात्मनि, अवसाने शोचति, किमुक्तं भवति ? – यथाऽऽदेशे आगते उरन उक्तनीत्या शोचति, तथाऽयमपि धिङ मां विषयव्यामोहत उपार्जितगुरुकर्माणं, हा ! केदानीं मया गन्तव्यमित्यादिप्रलापतः खिद्यते, | अत्यन्तनास्तिकस्यापि प्रायस्तदा शोकसम्भवादिति सूत्रद्वयार्थः ॥ अनेनैहिकापाय उक्तः, सम्प्रति पारभविकमाहतओ आउ परिक्खीणे, चुतदेहा विहिंसगा । आसुरियं दिसं बाला, गच्छति अवसा तमं ॥ १० ॥ व्याख्या- 'ततः ' शोचनानन्तरं 'तको वा' उपार्जितगुरुकर्म्मा 'आउ'ति आयुषि तद्भवसम्बन्धिनि जीविते For Panther निर्युक्ति: [ २४९...] ~ 549~ औरश्री याध्य. ७ ॥२७५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति : [२४९...] (४३) - ---- R प्रत सूत्रांक ||१०|| परिक्षीणे सर्वथा क्षयं गते, कदाचिदायुःक्षयस्याऽऽवीच्चिमरणेन प्रागपि सम्भवादेवमुच्यते, 'च्युतः' भ्रष्टो 'देहात्' शरीरात् , पाठान्तरतस्तु 'च्युतदेहो' अपगतेहत्यशरीरः ''विहिंसकः' विविधप्रकारः प्राणिघातकः, 'आसुरिय'ति | ४ अविद्यमानसूर्याम् , उपलक्षणत्वाद्रहनक्षत्रविरहितांच, दिदश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक् ताम्, अर्थात् भाव दिशम् , अथवा रौद्रकर्मकारी सर्वोऽप्यसुर उच्यते, ततश्चश्वासुराणामियमासुरी या तामासुरीयां दिशं, नरकगतिमिहै यर्थः, 'वालः' अज्ञो गच्छति-याति 'अवशः' कर्मपरव-शो, वचनव्यत्ययाच सर्वत्र बहुवचन निर्देशो व्याप्तिख्याप नार्थों वा, यथा नैक एवंविधः किन्तु बहव इति, 'तमी ति तमोयुक्तत्वात् तमः, देवगतेरप्यसूर्यत्वसम्भवात् तद्वयविच्छेदाय दिशो विशेषणं, ततोऽर्थान्नरकगतिम् , उक्तं हि--"णिचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरणक्खत्ता" इत्यादिखरूपख्यापकं वा द्वितीयं व्याख्यानमिति सूत्रार्थः ॥ सम्म्प्रति काकिण्यासदृष्टान्तद्वयमाह जहा कागिणीए हेणं, सहस्सं हारए नरो। अभपत्थं अंबगं भोचा, राया रजं तु हारए ॥ ११॥ व्याख्या-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'काकिण्ठायाः' उक्तरूपायाः 'हे'ति हेतोः कारणात् ‘सहस्र' दश| शतात्मकं, कापिणानामिति गम्यते, 'हारयेत् ' नाशयतन्त् 'नरः' पुरुषः । अत्रोदाहरणसम्प्रदायः १ नित्यान्धकारतमसा व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्राः । दीप अनुक्रम [१८८] OKASERec-CA ASINEditational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-1 / गाथा ||११|| __ नियुक्ति: [२४९...] (४३) उत्तराध्य.X प्रत सूत्रांक ||११|| एगो दमगो, तेण वित्तिं करतेण सहस्सं काहावणाण अज्जियं, सो य तंगहाय सत्येण समं सगिहं पत्थितो, तेण औरचीभत्तणिमित्तं रूबगो कागिणीहि भिन्नो, ततो दिणे दिणे कागिणीए भुंजति, तस्स य अवसेसा एगा कागणी, सा दायाध्य.७ वृहदत्तिःविस्मारिया. सत्ये पहाविए सो चिंतेति-मा मे रूवगो भिदियघो होहित्तिणउलगं एगत्थ गोवेर्ड कागिणीणिमित्तं । ॥२७६॥ णियत्तो, सावि कागिणी अन्नेण हडा, सोऽवि णउलतो अण्णेण दिट्ठो ठविजंतो, सोवि तं घेत्तूण णडो, पच्छा सो घरं गतो सोयति । एस दिलुतो, तथा 'अपथ्यं' अहितम् 'आम्रकम्' आम्रफलं 'भुक्त्वा' अभ्यवहत्य 'राजा' इति नृपतिः 'राज्यं पृथिवीपतित्वं, i'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमश्च, तेन हारयेदेव, सम्भवत्येव अस्यापथ्यभोजिनो राज्यहरणमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् १एको द्रमकः, तेन गृत्ति कुर्वता सहस्रं कार्षापणानामर्जितं, स च तद् गृहीत्वा सार्थेन समं स्वगृहं प्रस्थितः, तेन भक्तनिमित्तं । रूप्यकः काकिणीभ्यो भिन्नः, ततो दिने दिने काकिण्या मुळे, तस्य चावशेषा एका काकिणी, सा विस्मृता, सार्थे प्रधाविते स चिन्तयतिमा मे रूप्यको भेत्तव्यो भविष्यतीति नकुलकमेकत्र गोपयित्वा काकिणीनिमित्त निवृत्तः, साऽपि काकिणी अन्येन हृता, सोऽपि नकुलकोऽन्येन रष्टः स्थाप्यमानः, सोऽपि तं गृहीत्वा नष्टः, पश्चात्स गृहं गतः शोचति । एष दृष्टान्तः । दीप अनुक्रम [१८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~551~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-1 / गाथा ||११|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) CAKAC प्रत सूत्रांक ||११|| जहा कस्सद रण्णो अंबाजिण्णेण विसूइया जाया, सा तस्स वेजेहिं महता जत्तेण तिगिच्छिया, भणितो य-14 जदि पुणो अंबाणि खासि तो विणस्सति, तस्स य अतीव पीयाणि अंबाणि, तेण सदेसे सधे अंबा उच्छादिया। अण्णया अस्सवाहणियाए णिग्गतो सह अमञ्चेण, अस्सेण अवहरिओ, अस्सो दूरं गंतूण परिस्संतो ठितो, एगंमि दवणसंडे चूयच्छायाते अमचेण वारिजमाणोऽवि णिविट्ठो, तस्स य हेट्टे अंबाणि पडियाणि, सो ताणि परामुसति, पच्छा अग्घाति, पच्छा चक्खिउं णिबुहति, अमचो वारेह, पच्छा भक्खेउं मतो । इति सूत्रार्थः॥ ४ इत्थं रष्टान्तमभिधाय दाष्टॉन्तिकयोजनामाह एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए । सहस्सगुणिया भुजो, आउँ कामा य दिब्विया ॥१२॥ व्याख्या-'एवं' काकिण्याम्रकसदृशा मनुष्याणाममी मानुष्यकाः, गोत्रप्रत्ययान्तत्वात् “गोत्रचरणाहुनि"ति १ यथा कस्यचित् राज्ञ आनाजीणेन विसूचिका जाता, सा तस्य वैद्यैर्महता यत्नेन चिकित्सिता, भणितश्च-यदि पुनराम्राणि खादिप्यसि तदा विनवयसि, तस्य चातीच प्रियाणि आम्राणि, तेन स्वदेशे सर्वाण्याम्राण्युत्सादितानि । अन्यदा अश्ववाहनिकायै निर्गतः सहा-|| मायेन, अश्वेनापहृतः, अश्वो दूर गत्वा परिश्रान्तः स्थितः, एकस्मिन् वनखण्डे चूतच्छायायाममात्येन वार्यमाणोऽपि निविष्टः, ॥ तस्य चाधस्तात् आम्राणि पतितानि, स तानि परामृशति, पश्चादाजिघ्रति, पश्चात् स्वादयितुं निस्पृशति, अमात्यो पारयति, 15 पश्चाक्षयित्या मृतः। दीप अनुक्रम [१८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~552~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [--] / गाथा ||१२|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत २७७॥ सूत्रांक ||१२|| (पा०४-३-१२६) बुञ् 'कामाः' विषयाः, 'देवकामाना' देवसम्बन्धिनां विषयाणाम् 'अन्तिके समीपे, अन्तिकोपादानं | औरश्री|च दूरेऽनवधारणमपि स्यादिति, किमित्येवम् ?, अत आह-'सहस्रगुणिताः सहस्रेस्ताडिता 'भूयः' अतिशयेन बहु, बहून्याध्य.७ वारानित्यर्थः, मनुष्यायुःकामापेक्षयेति प्रक्रमः, अनेनैषामतिभूयस्त्वं सूचयन् कार्षापणसहस्रराज्यतुल्यतामाह, 'आयुः जीवितं, कामाश्च-शब्दादयः, 'दिविय'त्ति दिवि भवा दिव्याः “थुप्रागपागुदप्रतीचो यदि"ति (पा०४-२-१०१)। | यत् , त एव दिव्यकाः, इह चादौ 'देवकामाण अंतिए'त्ति काममात्रोपादानेऽपि 'आउं कामा य दिविय'त्ति आयुपोऽप्युपादानं तत्रत्यप्रभायादीनामपि तदपेक्षयैवंविधत्वख्यापनार्थ, या 'सूचनात् सूत्र'मिति पूर्वत्राप्यायुषः सूचितत्वाददोष इति सूत्रार्थः ।। मनुष्यकामानामेव काकिण्याम्रफलोपमत्वं भावयितुमाह अणेगवासानउया, जा सा पण्णवओ ठिई । जाई जीयंति दुम्मेहा, जाण घाससयाउए ॥ १३ ॥ व्याख्या-अनेकानि-बहूनि तानि चेहासङ्ख्ययानि वर्षाणि-वत्सराणि तेषां नयुतानि-सङ्ख्या विशेषाणि वर्षेनयुलाग्यनेकानि च तानि वर्षनयुतानि च अनेकवर्षनयुतानि "खरोऽन्योऽन्यस्य” इति प्राकृतलक्षणात् सकाराकारदीपत्वम् , एवमन्यत्रापि खरान्यत्वं भावनीयं,यदिवाऽनेकानि वर्षनयुतानि येषु तान्यनेकवर्षनयुतानि, उभयत्रार्थात् पल्यो-17 पमसागरोपमाणीतियावत् , नयुतानयनोपायस्त्वयम्-चतुरशीतिवर्षलक्षाः पूर्वाङ्ग, तच पूर्वाशन गुणितं पूर्व, पूर्व | (क्रमणकानविंशतिवारान् चतुरशीतिलक्षाहतं नयुताझं,नयुताङ्गमपि चतुरशीतिलक्षाभिताडितं नयुतं,केवमुच्यत इत्या। दीप अनुक्रम [१९० Xxx MIREairatam For PF d ancibraryमाय मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [--] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) -05 प्रत सूत्रांक XAM ||१३|| ह-या से'ति प्रज्ञापकः शिष्यान् प्रत्येवमाह-या सा भवतामस्माकं च प्रतीता, प्रकर्षेण ज्ञायते वस्तु सतत्त्वमनयेति | प्रज्ञा-हेयोपादेयविवेचिका बुद्धिः सा विद्यतेऽस्यासौ प्रज्ञावान् , 'अतिशायने मतुप' अतिशयश्चास्या हेयोपादेययोः हानोपादाननिबन्धनत्वमिहाभिमतं ततश्च क्रियाया अप्याक्षिप्तत्वात् यदिवा निश्चयनयमतेन क्रियारहिता प्रज्ञा|ऽप्यप्रवेति प्रज्ञयैव क्रियाऽऽक्षिप्यते ततः प्रज्ञावान् ज्ञानक्रियावानित्युक्तं भवति, तस्य प्रज्ञावतः स्थीयतेऽनयाऽर्थात् | देवभव इति स्थितिः-देवायुः, अधिकृतत्वात् दिव्यकामाश्च, तानि च कीदृशीत्याह-यान्यनेकवर्षनयुतानि दिव्यस्थितेर्दिव्यकामानां च विषयभूतानि 'जीयन्ते' हार्यन्ते, तद्धेतुभूतानुष्ठानानासेवनेनेति भावः, पाठान्तरतो 'हारयन्ति वा,' के ते?-दुष्टा-विपर्ययादिदोषदुष्टत्वेन मेधा-वस्तुस्वरूपावधारणशक्तिरेषां ते दुर्मेधसः, विषयैर्जिता जन्तव इति गम्यते, कदा पुनस्तानि दुर्मेधसो विषयीयन्त इत्याह-ऊने वर्षशतायुपि, अनेनायुषोऽल्पत्वात् मनुष्यकामानामप्यल्पतामाह, यदिवा प्रभूते द्यायुषि प्रमादेनेकदा हारितान्यपि पुनर्जीयेरन् , अस्मिंस्तु संक्षिप्तायुष्येकदा हारितानि हारितान्येव, भगवतश्च वीरस्य तीर्थे प्रायो न्यूनवर्षशतायुष एव जन्तव इतीत्थमुपन्यासः, अयं चात्र भावार्थः-अल्पं मनुष्याणामायुर्विषयाश्चेति काकण्यानफलोपमाः, देवायुर्देवकामाश्वातिप्रभूततया कापणसहस्र१ भूमनिन्दाप्रशंसासु, नित्ययोगेऽतिशायने । संबन्धेऽस्ति विवक्षायां, भवन्ति मतुबादयः ।। १ ।। इत्युक्तेः -04- दीप अनुक्रम [१९१] 244-2- Forum मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/ गाथा ||१४|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) उत्तराधयाना" प्रत सूत्रांक ||१४|| राज्यतुल्याः, ततो यथा द्रमको राजा च काकण्याम्रफलकृते कार्षापणसहस्रं राज्यं च हारितवान् , एवमेतेऽपि दुर्म- औरची प्राधसोऽल्पतरमनुष्यायुःकामार्थे प्रभूतान् देवायुःकामान् हारयन्तीति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति ग्यवहारोदाहरणमाहबृहद्वृत्तिः जहा य तिणि वणिया, मूलं घेतूण निग्गया। एगोऽस्थ लभते लाभ, एगो मूलेण आगओ ॥१४॥ ॥२७८10 1 व्याख्या-'यथा' इति प्राग्वत् , 'चः' प्रतिपादित दृष्टान्तापेक्षया समुच्चये, त्रयो 'यणिजः' प्रतीताः 'मूलं' राशि दिनीवीमितियावत् गृहीत्वा 'निर्गताः' स्वस्थानात्स्थानान्तरं प्रति प्रस्थिताः, प्राप्ताश्च समीहितं स्थानं, तत्र च गता नाम 'एको' पणिककलाकुशलः 'अत्र' एतेषु मध्ये 'लभते' प्राप्नोति 'लाभ' विशिष्टद्रव्योपचयलक्षणम् , 'एक'|| तेष्वेवान्यतरो यस्तथा नातिनिपुणो नाप्यत्यन्तानिपुणः समूलेणे'ति मूलधनेन यावत् गृहान्नीतं तावतैयोपलक्षितः 'आगतः' खस्थानं प्राप्त इति सूत्रार्थः ॥ तथा एगो मूलंपि हारिता, आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे विजाणह ॥१५॥ व्याख्या-'एकः' अन्यतरःप्रमादपरो द्यूतमद्यादिवत्यन्तमासक्तचेताः 'मूलमपि उक्तरूपं हारयित्वा' नाशयित्वा 'आगतः' प्रासः खस्थानमित्युपस्कारः, एवं सर्वत्रोदाहरणसूचायां सोपस्कारता द्रष्टव्या, 'तत्र' तेषु मध्ये वणिक एव वाणिजः। अत्र च सम्प्रदायः| जहा एगस्स बाणियगस्स तिन्नि पुत्ता, तेण तेसिं सहस्सं सहस्सं दिनं काहावणाणं, भणिया य-एएण वयहरि-31॥२७८॥ | १ यथैकस्य वणिजखयः पुत्राः, तेन तेभ्यः सहस्रं सहस्र दत्त कार्पापणानां, भणिताश्च-एतेन व्यवहत्य दीप अनुक्रम [१९२] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/गाथा ||१५|| नियुक्ति : [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक 45 ||१५|| ऊण ऐत्तिएण कालेण एजाह, ते तं मूलं घेत्तूण णिग्गया सणगरातो, पिथप्पिधेसु पट्टणेसु ठिया, तत्थेगो भोयणच्छायणवजं जूयमजमंसवेसावसणविरहितो विहीए ववहरमाणो विपुललामसमन्नितो जातो, वितितो पुण मूलमयि देचंतो लाभगं भोयणच्छायणमल्लालंकारादिसु उवभुजति, ण य अचादरेण बवहरति, ततितो न किंचि संबव हरति, केवलं जूयमजमसवेसगंधमलतंबोलसरीरकियासु अप्पेणेव कालेण तं दचं मिट्टवियंति, जहावहिकालस्स दसपुरमागया। तत्थ जो छिन्नमूलो सो सबस्स असामी जातो, पेसए उवचरिजति, बितितो घरवावारे णिउत्तो भत्त पाणसंतुट्टोण दायबमोत्तचेसु ववसायति, ततितो घरवित्थरस्स सामी जातो। केति पुण कहंति-तिन्नि वाणियगा, ६ पत्तेयं २ यवहरंति, तत्थेगो छिन्नमूलो पेसत्तमुवगतो, केण वा संचवहारं करेउ?, अच्छिन्नमूलो पुणरवि वाणिजाए| भवति, इयरो बंधुसहितो मोदए, एस दिट्टतो। १ इयता कालेनागच्छत । ते तन्मूल्यं गृहीत्वा निर्गताः खनगरात, पृथक पृथक् पत्तनेषु स्थिताः, तत्रैको भोजनाच्छादनवर्ज यूतमद्यमांसवेश्याव्यसनविरहितो वीभ्यां व्यवहरन विपुललाभसमन्वितो जातः, द्वितीयः पुनः मूलमपि द्रव्यायमाणो लाभं भोजनाच्छादनमाल्यालङ्कारादिपूपभुले, न चात्यादरेण व्यवहरति, तृतीयो न किञ्चित्संव्यवहरति, केवलं यूतमद्यमांसवेश्यागन्धमाल्यताम्बूलशरीरक्रियासु अल्पेनैव कालेन तव्यं निष्क्षिप्तमिति, यथावधिकालेन स्वपुरमागताः। तत्र यश्छिन्नमूलः स सर्चस्वाखामी जातः, प्रेष्ये उपचर्यते, द्वितीयो गृहन्यापारे नियुक्तो भक्तपानसंतुष्टो न दातव्यभोक्तव्येषु व्यवस्यति, तृतीयो गृहविस्तारस्य स्वामी जातः । केचित्पुनः कथयन्ति-त्रयो वणिजः प्रत्येक प्रत्येक व्यवहरन्ति, तत्रैकश्छिन्नमूलः प्रेष्यत्वमुपगतः, केनैव संव्यवहारं करोतु ?, अच्छिन्नमूल: पुनरपि वाणिज्यायै भवति, इतरो बन्धु-4 सहितो मोदते, एष दृष्टान्तः । २० मविदवंतो 565 दीप अनुक्रम [१९३] AIMEducatan intimational For Parasta a Prvata una con मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~556~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/ गाथा ||१६|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| उत्तराध्य-18 सम्प्रति सूत्रमनुत्रियते-'व्यवहारे' व्यवहारविपया 'उपमा' सादृश्यं 'एषा' अनन्तरोक्ता एवं' वक्ष्यमाणन्यायेन औरधीधर्मे धर्मविषयामेवोपमा 'विजानीत' अवबुध्यध्वमिति सूत्रार्थः ॥ कथमित्याह याध्य.७ | माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥ १६ ॥ ॥२७९ व्याख्या-'मानुषत्वं' मनुजत्वं भवेत्' स्यात् मूलमिव मूलं, स्वर्गापवर्गात्मकतदुत्तरोत्तरलाभहेतुतया, तथा लाभ इव लाभः मनुजगत्यपेक्षया विषयसुखादिभिर्विशिष्टत्वात् 'देवगतिः' देवत्वावाप्तिर्भवेत् , एवं च स्थिते किमि-13 लल्याह-'मूलच्छेदेन' मानुषत्वगतिहान्यात्मकेन 'जीवानां प्राणिनां 'नरकतिर्यक्त्वं' नरकत्वं तिर्यक्त्वं च तद्गत्या त्मकं 'ध्रुवं निश्चितम् , इहापि सम्प्रदायः-ति न्नि संसारिणो सत्ता माणुस्सेसु आयाता, तत्थेगो मद्दवजवादिगुणसंपन्नो मज्झिमारंभपरिग्गहजुत्तो कालं काऊण काहावणसहस्समूलत्थाणीयं तमेव माणुस्सत्तं पडिलहति, वितितो पुण सम्मईसणचरित्तगुणसुपरिट्टितो सरागसंजमेण लद्धलाभवणिय इव देवेसु उववन्नो, ततितो पुण हिंसे बाले| मुसावाती इचेतेहिं पुवभणितेहिं सावजजोगेहिं बट्टिउं छिन्नमूलवणिय इव णारगेसु तिरिएसु वा उववज्जतित्ति सूत्रार्थः। त्रयः संसारिणः सत्त्वा मानुषेष्वायाताः, तत्रैको मार्दवार्जवादिगुणसंपन्नो मध्यमारम्भपरिग्रहयुक्तः कालं कृत्वा कार्षापणसहसमूलस्था-1 नीयं तदेव मानुषत्वं प्रतिलभते, द्वितीयः पुनः सम्यग्दर्शनचारित्रगुणसुपरिस्थितः सरागसंयमेन लब्धलाभवणिगिव देवेषूत्पन्नः, तृतीयः४ |पुनहिंस्रो वालो मृषावादीत्येतैः पूर्वभणितैः सावद्ययोगैः वर्तित्वा छिन्नमूलबणिगिव नारकेषु तिर्यक्षु वोत्पद्यते इति । %% % % दीप अनुक्रम [१९४] % % 45% JMEDuratim intimatinid Far.PramREPrvato usconti मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-1 / गाथा ||१७|| नियुक्ति : [२४९...] (४३) 0-१० प्रत -- सूत्रांक -- ||१७|| यथा मूलच्छेदेन नरकतिर्यक्त्वप्राप्तिः तथा स्वयं सूत्रकृदाह दुहओ गती बालस्स, आवती वहमलिया। देवतं माणुसत्तं च, जंजिए लोलुआसढे ॥१७॥ व्याख्या-'दुहतो'त्ति द्विधा द्विप्रकारा, गम्यत इति गतिः, सा चेह प्रक्रमान्नरकगति स्तिर्यग्गतिश्च, कस्येत्याहबालस्य' द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यामाकुलितस्थ, 'आवई'त्ति आगच्छत्यापतति वधः-प्राणिघातः, उपलक्षणत्वान्महारम्भमहापरिग्रहानृतभाषणमायादयश्च मूलं-कारणं यस्याः सा वधमूलिका, यदिवा-द्विधा गतिर्वालस्य, भवतीति गम्यते, 4 तत्र च गतस्य 'आवईति आपत्, सा च कीदृशीत्याह-वधो-विनाशस्ताडनं वा मूलम्-आदिर्यस्याः सा वधमूलिका, वधग्रहणाच्छेदभेदातिभारारोपणादिपरिग्रहः, लभन्ते हि प्राणिनो नरकतिर्यक्षु विविधा वधाचापदः, किमिस्येवम् !, अत आह-'देवत्वं देवभवं 'मानुषत्वं' मनुजभवं 'यद' यस्मात् 'जितो' हारितो 'लोलयासढे'त्ति लोलतापिशितादिलाम्पट्यं तद्योगाजन्तुरपि तन्मयत्वख्यापनार्थ लोलतेत्युक्तः, शाठ्ययोगाच्छठः-विश्वस्तजनवञ्चकः, ततो? लोलता चासौ शठश्च लोलताशठः, इह च लोलता पञ्चेन्द्रियवधाधुपलक्षणं, तथा च नरकहेतुत्वाभिधानमेतत् , यदुक्तम्-"महारंभयाए महापरिग्गयाए कुणिमाहारेणं पंचेंदियवहेणं जीवा णेरयाउयं णियच्छंति" शठ इत्यनेन तु शाठ्यमुक्तं, तच तिर्यग्गतिहेतुः, उक्तं च-"माया तैर्यग्योनस्थे" (तत्त्वार्थे अ०६-सू०१७) ति, अतश्चायमाशयः । १ महारम्भतया महापरिग्रहतया मांसाहारेण पञ्चेन्द्रियवधेन जीवा नैरयिकायुर्निवमयन्ति । . दीप अनुक्रम [१९५] 4- For ParaTREPMAnumoney मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||१८|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१८|| उत्तराध्य.४-यतोऽयं बालो लोलताशठः ततो नरकगतितिर्यग्गतिनिवन्धनाभ्यां लोलताशठत्वाभ्यां देवत्वमनुजत्वे हारितस्या- औरचीनियोक्तरूपा द्विविधैय गतिः सम्भवति, एवं च मूलच्छेदेन जीवानां नरकतिर्यक्त्वमुच्यते, मूलं हि मनुष्यत्वं लाभश्च देवत्वम् , उभयोरपि तयोहारणादिति सूत्रार्थः ॥ पुनर्मूलच्छेदमेव समर्थयितुमाह याध्य. ७ ॥२८॥ ततो जिए सई होइ, दुविहं दुग्गतिं गते । दुल्लहा तस्स उम्मजा, अन्हाए सुचिरादवि ॥१८॥ व्याख्या-ततः' देवत्वमानुषत्वजयनात् तको वा बालः 'जिय'त्ति व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्य जित एव | सतित्ति सदा भवति 'द्विविधां' नारकतिर्यग्भेदां, दुनिन्दायां, दुष्टा-निन्दिता गतिर्दुर्गतिस्तां गतः' प्राप्तः, सदा|जितत्वमेवाभिव्यनक्ति-'दुर्लभाः' दुष्प्रापाः 'तस्ये ति देवमनुजत्वे हारितवतो बालस्य 'उम्मजत्ति सूत्रत्वादुन्मजनमुन्मजा-नरकतिर्यग्गतिनिर्गमनात्मिका, स्यादेतत्-चिरतरकालेनोन्मजाऽस्य भविष्यति, अत आह-'अद्धायां काले अर्थादागामिन्यां, किं खल्पायामेव ?, इत्याह-सुचिरादपीत्सद्धाशब्देनैव कालाभिधानात् सुचिराच्छन्दः प्रभूतत्वमेवाह, ततोऽयमर्थः-अनागताद्धायां प्रभूतायामपि, बाहुल्याचेत्यमुक्तम् , अन्यथा हि केचिदेकभवेनैव तत उद्धृत्य मुक्तिमप्यामुवन्त्येवेति सूत्रार्थः ॥ इत्थं पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्याङ्गमिति पश्चादुक्तेऽपि मूलहारिण्युपनय-14॥२८॥ मुपदय मूलप्रवेशिन्यभिधातुमाह-यद्वा विपक्षापायपरिज्ञानतयैवोपादेये प्रवृत्तिरिति पश्चादुक्तमपि मूलहारिणमादावुपदर्येतदाह दीप अनुक्रम [१९६] AIMEducatan intimation For ParaanaEPIwaalpontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 559~ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१९|| एवं जियं सहाए, तुलिया चालं च पंडियं । मूलियं ते पविस्संति, माणुसं जोणिमिति जे ॥१९॥ व्याख्या-'एवम्' उक्तनीत्या 'जिए'त्ति सुव्यत्ययाजितं लोलतया शाठ्येन च देवमनुजत्वे हारितं बालमिति प्रक्रमः, 'सपेहाए'त्ति सम्प्रेक्ष्य सम्यगालोच्य, तथा तोलयित्वेव तोलयित्वा-गुणदोषवत्तया परिभाव्य, यदिवैवं जितं ४सम्पग-अविपरीता प्रेक्षा-बुद्धिः सम्प्रेक्षा तया तोलयित्वा, कम् ?-'बालं' चस्स भिन्नक्रमत्वात् 'पण्डितं च तद्विपरी-|| तम् ,अथवा मनुष्यदेवगतिगामिनम् , इह च द्वितीयव्याख्यायामेवं जितमिति बालस्य विशेषणं, न तु पण्डितस्य, असम्भवात् , तथा च सति मूले भवं मौलिक-मौलधनं ते प्रवेशयन्तीव प्रवेशयन्ति, मूलप्रवेशकवणिकसरशास्त इत्यभिप्रायः, ये किमित्याह-'माणुस्संति मनुष्याणामियं मानुषी तां योनिम्' उत्पत्तिस्थानम् 'आयान्ति' आगच्छन्ति, चालत्वपरिहारेण पण्डितत्वमासेवमाना ये त इति सूत्रार्थः । यथा च मानुषीं योनिमायान्ति तथा चाह वेमायाहिं सिक्खाहिजे नरा गिहि सब्वया। उर्विति माणुसं जोणी, कम्मसच्चा हुपाणिणो ॥२०॥ व्याख्या-विविधा मात्रा-परिमाणमासां विमात्राः-विचित्रपरिमाणाः ताभिः परिमाणविशेषमाश्रित्य विसरशीभिः 'शिक्षाभिः' प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासरूपाभिः, उक्तं हि-"चउहि ठाणेहिं जीवा मणुयाउं बंधति, तंजहा-1 पगतिभद्दयाए पगतिविणीययाए साणुकोसयाए अमच्छरियाए"त्ति 'ये इत्यविवक्षितविशेषाः 'नराः' पुरुषाः, १ चतुर्भिः स्थान वा मनुजायुर्वनन्ति, तद्यथा-प्रकृतिभद्रकतया प्रकृतिविनीततया सानुक्रोशतया अमत्सरितया । दीप अनुक्रम [१९७] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 560~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [१९८ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२८१॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२०|| निर्युक्ति: [२४९...] Jain Education intimat अध्ययनं [७], 'गृहिणथ' ते गृहस्थाः 'सुत्रताश्च' घृतसत्पुरुषत्रताः, ते हि प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासानुभावत एव न विपद्यपि विषीदन्ति सदाचारं वा नावधीरयन्तीत्यादिगुणान्विताः, इदमेव च सतां व्रतं, लौकिका अप्याहुः- “विपद्युचैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां, प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् । असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यस्तनुधनः सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् १ ॥ १ ॥” आगमविहितव्रतधारणं त्वमीषामसम्भवि, देवगति+ हेतुतयैव तदभिधानात् त ईदृशाः किमित्याह-उपयन्ति 'माणसं' ति मानुषीं मानुषसम्बन्धिनीं 'योनिम्' उक्तरूपां कर्म्मणा - मनोवाक्कायक्रियालक्षणेन सत्या - अविसंवादिनः कर्म्मसत्याः, 'हुः' अवधारणे, ततः कर्म्मसत्या एव सन्तः, तदसत्यतायास्तिर्यग्योनिहेतुत्वेनो कत्वात् तथा च वाचकः- “धूर्ता नैकृतिकाः स्तब्धा, लुब्धाः कार्पेटिकाः शठाः। विविधां ते प्रपद्यन्ते, तिर्यग्योनिं दुरुत्तराम् ॥ १॥" इत्यादि, पाठान्तरतश्च 'कर्मसु' अर्थान्मनुष्यगतियोग्यक्रिया४ रूपेषु सक्ता - अभिष्वङ्गवन्तः कर्मसक्ताः प्राणिनः - जीवाः, इह च नरग्रहणेऽपि प्राणिग्रहणं देवादिपरिग्रहार्थमिति न पुनरुक्तम् । यदिवा- विमात्रादिभिः शिक्षाभिर्ये नरा गृहिसुत्रताः यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् ते मानुषीं योनिमुपयान्ति, किमित्येवम् ?, अत आह- 'कम्मसच्चा हुपाणिणो' त्ति हुशब्दो यस्मादर्थे, यस्मात् सत्यानि - अवन्ध्यफलानि ॥२८१॥ कर्माणि - ज्ञानावरणादीनि येषां ते सत्यकर्माणः प्राणिनः, निरुपक्रमकर्म्मापेक्षं चैतदिति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति | लब्धला भोपनयमाह - For Paren औरश्री याध्य. ७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-1 / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) - प्रत सूत्रांक Ke- ||२१|| जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियते अतिच्छिया । सीलवंता सविसेसा, अद्दीणा जंति देवयं ॥ २१॥ व्याख्या-येषां तु' येषां पुनः 'विपुला' निःशङ्कितत्वादिसम्यक्त्वाचाराणुव्रतमहात्रतादिविषयत्वेन विस्तीर्णा | 'शिक्षा' ग्रहणासेवनात्मिका, अस्तीति गम्यते, मूले भवं मौलिक-मूलधनमिव मानुषत्वं, त एवंविधाः, विउट्टियत्ति अतिट्टियत्ति अतिच्छियत्ति पाठनयेऽपि अतिक्रान्ताः-उल्लखितवन्त इत्यर्थः, यद्वाऽतिक्रम्य-उल्लङय, कीरशाः सन्तः-शीलं-सदाचारः अविरतसम्यग्दृशां विरतिमतां तु देशसर्वविरमणात्मकं चारित्रं तद्विद्यते येषां ते शील६वन्तः, तथा सह विशेषण-उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तिलक्षणेन वर्तन्त इति सविशेषाः, अत एव 'अदीनाः कथं वयममुदत्र भविष्याम इति वैक्लव्यरहिताः परिषहोपसर्गादिसम्भवे वा न दैन्यभाज इत्यदीनाः 'यान्ति' प्राप्नुवन्ति, देवभावो देवता सैव दैवतं । ननु तत्त्वतो मुक्तिगतिरेव लाभः, तकिमिह तत्परिहारतो देवगतिरुक्तेति ?, उच्यते, सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वात् , मुक्तेश्चेदानी विशिष्टसंहननाभावतोऽभावाद्देवगतेश्च "छेवढेण उ गम्मइ चत्तारि उ जाव आदिमा कप्पा" इति वचनाच्छेदपरिवर्तिसंहननिनामिदानींतनानामपि सम्भवादेवमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ प्रस्तुतमेवार्थ निगमयन्नुपदेशमाह| एवं अदीणवं भिक्खु, अगारिंच विजाणिया । कहन्नु जिञ्चमेलिक्खं, जिच्चमाणो न संविदे ॥ २२ ॥ १ सेवाःन तु गम्यते चत्वारो यावदादिमाः कल्पाः 7- दीप अनुक्रम [१९९] LAXXREAK JAINEducatan intamatiane For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~562~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [--] / गाथा ||२२|| _ नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२२|| उत्तराध्य. व्याख्या-एवम्' अमुना न्यायेन लाभान्वितं 'अदीणवन्ति दीवतो दीनवन्तं न तथाऽदीनवन्तम्-अदीनं, औरधी * दैन्यरहितमित्यर्थः 'भिक्षु' यतिम् 'अगारिणं' च गृहस्थं 'विज्ञाय' विशेषेण तथाविधशिक्षावशादेवमनुजगामित्वबृहदृत्तिः लक्षणेन 'ज्ञात्वा' अवगम्य, यतमान इति शेषः, 'कथम् ? केन प्रकारेण ?, न कथञ्चिदित्यर्थः, 'नुः' वितर्के, 'जिचं' ॥२८२॥ जाति सूत्रत्वात् जीयेत-हार्यंत विवेकी, तत्प्रतिकूलैः कपायोदयादिभिरिति गम्यते, 'ईदृक्षम्' अन्तरोक्तं देवगत्यात्मकं || लाभं जिचमाणो'त्ति वाशब्दस्य गम्यमानत्वाजीयमानो या-हार्यमाणः, तैरेव कषायादिभिः 'न संविदे'त्ति सूत्रत्वान्न । संवित्ते-न जानीते यथाऽहमेभिर्जीये इति, कथं न्वितीहापि योज्यते, ततोऽयमर्थः-कथं नु न संवित्ते, संवित्त एव, जानीत एव ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिजया च तन्निरोधं प्रति प्रवर्तत एव, इत्येवं च वदन् काकोपदिशति-यत एवं ततो यूयमप्येवं जानाना यथा न देवगतिलक्षणं लाभं जीयेध्वं कपायादिभिस्तथा यतध्वं, कथञ्चिजीयमानाश्च सम्यम् । |विज्ञाय तत्प्रतीकारायैव प्रवर्तध्यमिति, यद्वा-एवमदीनवन्तं भिक्षुमगारिणं च विज्ञाय यतमानो 'जिय'ति जीयते हार्यते अतिरौटैरिन्द्रियादिभिः आत्मा तदिति ज्ञेयं, तच्चेह प्रक्रमान्मनुष्यदेवगतिलक्षणम्, 'एलिक्खं ति सुब्व्यत्ययादादीदृक्षोऽभिहितार्थाभिज्ञः कथं नु जीयमानो न संवित्ते?, अपितु संवित्त एव. संविदानश्च यथा न जीयेत तथा||॥२८॥ यतेतेत्यभिप्रायः । अथवा-एवमदीनयन्तं भिक्षमगारिणं च लब्धलाभ विज्ञाय यतमानः कथं नु'जिचं'ति आपत्वाजी-1 यते-हार्यते, विषयादिभिरिति गम्यते, ईधं देवगतिलक्षणं लाभमिति शेषः, अयमाशयो-यदि लभमाना न विज्ञाताः दीप अनुक्रम [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 563~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [--] / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) 2451-550% प्रत सूत्रांक ||२३|| स्युर्लाभो वा न तथाविधस्तदा जयनमपि स्यात् , यदा तु लभमानौ भिक्ष्वगारिणौ दृश्येते लाभश्च देवत्वलक्षणः तदा कथमयं जानानोऽपि जन्तुर्जीयते ?, अत आह-जीयमानो न संवित्ते, किमुक्तं भवति ?-ययसी जीयमानो Kजानीयात्तदा तदुपायपरतया न जीयेत, यदा त्वसौ विषयव्यामोहतो न जानीते तदा जीयत एवेति किमत्र चित्रम् || इति सूत्रार्थः ॥ समुद्रदृष्टान्तमाह जहा कुसग्गे उदयं, समुद्देण समं मिणे । एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए ॥ २३ ॥ हा व्याख्या-'यथा' इति दृष्टान्तोपन्यासे, कुशो-दर्भविशेषस्तस्याग्रं-कोटिः कुशाग्रं तस्मिन् 'उदक' जलं, तकिमित्याह-'समुद्रेण' इति 'तात्स्थ्यात्तव्यपदेश' इतिन्यायात् समुद्रजलेन 'सम' तुल्यं 'मिनुयात्' परिच्छिन्द्यात् , तथा किमित्याह-'एवम् ' उक्तनीत्या 'मानुष्यकाः कामाः' मनुष्यसम्बन्धिनः कामा-विषयाः, मानुष्यविशेषणं|| तु तेषामेवोपदेशार्हत्वाद्विशिष्टभोगसम्भवाच, 'देवकामानां' दिव्यभोगानाम् 'अन्तिके' समीपे, कृता इति शेषः, दूरस्थितानां हि न सम्यगवधारणमित्येवमाह, किमुक्तं भवति ?-यथाऽज्ञः कश्चित् कुशाग्रस्थितं जलबिन्दुमालोक्य समुद्रवन्मन्यते, एवं मूढाश्चकवादिमनुष्यकामान् दिव्यभोगोपमान् अध्यवस्यन्ति, तत्त्वतस्तु कुशाग्रजल-12 बिन्दोरिव समुद्रान्मनुष्यकामानां दिव्यभोगेभ्यो महदेवान्तरमिति सूत्रार्थः ।। उक्तमेवार्थ निगमयन्नुपदेशमाह कुसग्गमित्ता इमे कामा, सन्निरुहंमि आउए । कस्स हेर्ड पुरा काउं, जोगक्खेमं न संघिदे? ॥२४॥ दीप अनुक्रम [२०१] AKES For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/ गाथा ||२४|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२८॥ प्रत सूत्रांक ||२४|| ब्याख्या-कुशाग्रशब्देन कुशाग्रस्थितो जलबिन्दुरुपलक्ष्यते, तन्मात्रा:-तत्परिमाणाः 'इमें इति प्रत्यक्षाः 'कामाः' औरभीप्रकृतत्वान्मनुष्यविषयाः, कदा य इत्याह-'सन्निरुद्धे' अत्यन्तसंक्षिसे, यद्वा सम्-एकीभावेन निरुद्धे-अध्यवसाना याध्य.७ दिभिरुपक्रमणकारणैरवष्टब्धे 'आयुपि' जीविते, अनेन मनुष्यायुषोऽल्पतया सोपक्रमतया वा कामानामल्पत्यमुक्तं, समृद्धवाद्यल्पतोपलक्षणं चैतद्, अस्मिंस्त्वर्थ उक्ते दिव्यकामास्तु जलधिजलतुल्या इत्यर्थागम्यते, 'कस्स हेउंति सूत्रत्वात् कं हेतु-कारणं 'पुरा काउंति तत एव पुरस्कृत्य-आश्रित्य, अलब्धस्य लाभो-योगो लब्धस्य च परिपालनं ४ -क्षेमोऽनयोः समाहारो योगक्षेमं, कोऽर्थः १-अप्राप्तविशिष्टधर्मप्राप्ति प्राप्तस्य च परिपालनं 'न संवित्ते' न जानीते, जन इति शेषः, तदसंवित्ती हि मनुष्यविषयाभिष्यङ्ग एव हेतुः, ते च धर्मप्राप्यदिव्यभोगापेक्षयैवंप्रायाः, ततस्तत्त्यागतो विपयाभिलाषिणापि धर्म एव यतितव्यमित्यभिप्रायः, यद्वा-यतः कुशाग्रमात्रा-दर्भप्रान्तबदत्यल्पा इमे कामाः, तेऽपि न पल्योपमादिपरिमिती द्राधीयस्यायुपि, किन्तु 'सन्निरुद्धे' संक्षिप्ते आयुषि, ततः 'कस्स हेउंति कस्माद्धेतोः पुरस्कृत्येव पुरस्कृत्य मुख्यतयाऽङ्गीकृत्य, असंयममिति शेषः, योगक्षेमम्' उक्तरूपं न संविते, भावार्थस्त्वभिहित एवेति । ४|सूत्राथैः । इत्थं दृष्टान्तपञ्चकमुक्तं, तत्र च प्रथममुरभ्रदृष्टान्तेन भोगानामायतायपायबहुलत्वमभिहितम् , आयती चापासायबहुलमपि यन्न तुच्छ न तत्परिहर्तुं शक्यत इति काकिण्यामफलरष्टान्ततस्तुग्छत्वं, तुच्छमपि च लाभल्छेदात्मकव्य-13 वहारविज्ञतयाऽऽयव्ययतोलनाकुशल एव हातुं शक्त इति बणिग्व्यवहारोदाहरणम् , आयव्ययतोलनाऽपि च दीप अनुक्रम [२०२]] 8-60 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~5654 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [--] / गाथा ||२५|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२५|| CAREERESCREEN कथं कर्तव्येति समुद्रदृष्टान्तः, तत्र हि दिव्यकामानां समुद्रजलोपमत्वमुक्तं, तथा च तदुपार्जनं महानायोऽनुपार्जनं तु महान् व्यय इति तत्त्वतो दर्शितमेव भवति ॥ इह च योगक्षेमासंवेदने कामानिवृत्त एव भवतीति तस्य दोपमाह इह कामानियहस्स, अत्तढे अवरज्झति । सुच्चा नेयाउअं मग्गं, जं भुजो परिभस्सति ॥२५॥ व्याख्या-'इह' इति मनुष्यत्वे जिनशासने वा, प्राप्त इति शेषः, कामेभ्योऽनिवृत्तः-अनुपरतः कामानिवृत्तः | | तस्यात्मनोऽर्थ आत्मार्थ:-अयमानतया वर्गादिः 'अपराध्यति' अनेकार्थत्वाद्धातूनां नश्यति, यद्वा-आत्मैवार्थ आत्मार्थः स एवापराध्यति, नान्यः कश्चिदात्मव्यतिरिक्तोऽर्थः सापराधो भवति, उभयत्र दुर्गतिगमनेनेति भावः। आह-विषयवाञ्छाविरोधिनि जिनागमे सति कथं कामानिवृत्तिसम्भवः १, उच्यते, 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'नैयायिक न्यायोपपन्नं 'मार्ग' सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिपथं यद् 'भूयः पुनरपि परिनश्यति, कामानिवृत्तित इति शेषः, कोऽभिप्रायः ?-जिनागमश्रवणात् कामनिवृत्तिं प्रतिपन्नोऽपि गुरुकर्मत्वात् प्रतिपतति, ये तु श्रुत्वापि तदप्रतिपन्नाः श्रवणं |च येषां नास्ति ते कामानिवृत्ता एवेतिभावः । यद्वा-यदसौ कामानिवृत्तः सन् श्रुत्वा नैयायिक मार्ग भूयः परित्रश्यति-मिथ्यात्वं गच्छति तदस्यात्मार्थ एव गुरुकर्मापराध्यति, अनेन मा भूकस्यचिन्मूढस्य सिद्धान्तमधीत्याप्यु दीप अनुक्रम [२०३ For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-]/गाथा ||२६|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२८॥ प्रत सूत्रांक ||२६|| त्पथस्थितान् विलोक्य सिद्धान्त एव दोष इति तदनपराधित्वमुक्तं, पठ्यते च-पत्तो णेयाउयंति स्पष्टमिति औरचीसूत्रार्थः ॥ यस्तु कामेभ्यो निवृत्तस्तस्य गुणमाह याध्य.७ इह कामा नियहस्स, अत्तट्टे नावरज्झति । पूतिदेहनिरोहेणं, भवे देवेत्ति मे सुयं ॥ २६॥ व्याख्या-इह कामेभ्यो निवृत्तः कामनिवृत्तः तस्यात्मार्थः-खर्गादिः 'नापराध्यति' न भ्रश्यति, आत्मलक्षणो वाऽर्थों न सापराधो भवति, किं पुनरेवं ?, यतः-पूतिः-कुथितो देहः-अर्थादौदारिकं शरीरं तस्य निरोधः-अभाषः पूतिदेहनिरोधः तेन 'भवेत् ' स्यात् , प्रकृतत्वात् कामनिवृत्तो 'देवः' सौधर्मादिनिवासी सुरः, उपलक्षणत्वात् सिद्धो वा, इती'त्येतत् मया 'श्रुतम्' आकर्णितं, परमगुरुभ्य इति गम्यते, अनेन स्वर्गाद्यवाप्तिः आत्मार्थानपराधे निमित्तमुक्तमिति सूत्रार्थः । ततश्च यदसावाप्नोति तदाह दही जुती जसो वन्नो, आउं सुहमणुत्तरे । भुज्जो जत्थ मणुस्सेसुं, तत्थ से उववजति ॥२७॥ व्याख्या-ऋद्धिः कनकादिसमुदायः 'द्युतिः' शरीरकान्तिः 'यश' पराक्रमकृता प्रसिद्धिः 'वर्णः' गाम्भीर्यादिगुणैः श्लाघा गौरा दिवा 'आयुः' जीवितं 'सुखं यथेप्सितं विषया(ग्रन्धानम् ७०००)वाप्सावाल्हादः, न विद्यते उत्तरं |-प्रधानमस्मादित्यनुत्तरम् , इदं च सर्वत्र योज्यते, 'भूयः' पुनः, देवभवापेक्षमेतत्, तत्रापि ह्यानुत्तराण्येबैतान्यस्य सम्भ-11 वन्ति यत्र' येषु 'मनुष्येषु' मनुजेषु 'तत्र' तेषु 'से'त्ति सोऽधशब्दार्थोवा, ततोऽनन्तरम् 'उत्पद्यते' जायत इति सूत्रार्थः ॥ दीप अनुक्रम [२०४] IR॥२८४॥ AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||२८-३०|| नियुक्ति: [२४९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२८-३०|| एवं कामानिवृत्त्या यस्यात्मार्थोऽपराध्यति स वालः इतरस्तु पण्डित इत्यर्थादुक्तम् ॥ सम्प्रति पुनरनयोरेव साक्षात्खरूपं फलं चोपदर्शयन्नुपदेशमाह बालस्स पस्स बालतं, अहम्म पडिवजिआ। चिच्चा धम्म अहम्मिढे, नरएसयवजह ॥ २८॥ धीरस्स पस्स धीरतं, सब्बधम्माणुवत्तिणो। चिच्चा अधम्म धम्मिढे, देवेसु उववजह ॥ २९ ॥ तुलिआण बालभावं, अबालं चेव पंडिए । चइऊण बालभावं, अबालं सेवए मुणी ॥३०॥ सिबेमि॥ की व्याख्या-'बालस्य' अज्ञस्य 'पश्य' अवधारय 'बालत्वम् ' अज्ञत्वं, किं तदित्याह-'अधर्म' धर्मविपक्षं विषया-|| सिक्तिरूपं प्रतिपद्य' अभ्युपगम्य, पठ्यते च-पडिवजिणोति प्रतिपादिनोऽवश्यंप्रतिपद्यमानस्य 'स्यत्वा' अप हाय 'धर्म' विषयनिवृत्तिरूपं सदाचारं 'अहमिटे'त्ति प्राग्वत् 'नरके' सीमन्तकादावुपलक्षणत्वात् अन्यत्र वा दुर्गताबुत्पद्यते ॥ तथा धीः बुद्धिस्तया राजत इति धीरः-धीमान् परीषहाधक्षोभ्यो वा धीरः तस्य 'पश्य' प्रेक्षख धीरत्वं' धीरभावं, सर्व धर्म क्षान्त्यादिरूपमनुवर्तते तदनुकुलाचारतया वीकुरुत इत्येवंशीलो यस्तस्य सर्वधर्मानुवर्ति-IX नः, धीरत्वमेवाह-'त्यक्त्वा' हित्वा अधर्म-विषयाभिरतिरूपमसदाचारं 'धम्मिट्टे'त्ति इष्टधा , यदिवा-अतिशकायेन धर्मवानिति, इष्टनि "विन्मतोलंगि" (पा०५-३-६५)ति मतुब्लोपे धर्मिष्ठ इति, देवेषूपपद्यत इत्याह || इयतश्चैवमतो यद्विधेयं तदाह-'तोलयित्वा' इति प्राग्वत 'बालभाव चालत्वम् 'अबालेति भावप्रधानत्वान्निर्दे शस्यावालत्वं धीरत्वं, 'चः' समुच्चये, एवेति प्राकृतत्वादनुस्खारलोपः 'एवम्' अनन्तरोक्तप्रकारेण 'पण्डितः' बुद्धिमान् ? दीप अनुक्रम [२०६-२०८] AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥२८ -३०|| दीप अनुक्रम [२०६ -२०८] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२८-३०|| अध्ययनं [७], उत्तराध्ययक्त्वा 'बालभावं' बालत्वम् 'अवालं'ति अवालत्वं 'सेवते' अनुतिष्ठति 'मुनिः' यतिरिति सूत्रत्रयार्थः ॥ 'इतिः' परिसमाप्तौ प्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्यदेवेति सूत्रार्थः ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यवृहद्वृत्तिः | विरचितायामुत्तराध्ययनटीकायामुरखीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ ॥२८५॥ ॐ निर्युक्तिः [२४९...] ॥ इति श्रीशान्त्याचार्य विहितशिष्य हितावृत्तियुतमुरनीयाख्यं सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥ For Pr ~ 569~ औरश्री याध्य. ७ ॥२८५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं ७ परिसमाप्तं Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||३०...|| नियुक्ति: [२५०] (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| ॥ व्याख्यातं उरत्रीयाण्यं सप्तममध्ययनं, सम्प्रत्यष्टममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने रसगृद्धेरसायबहुलत्वमभिधाय तत्त्याग उक्तः, स च निर्लोभस्यैव भवतीति इह निर्लोभत्वमुच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनाया-10 तस्यास्वाध्ययनस्यानुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद् यावन्नामनिष्पन्न निक्षेपे कापिलीयमिति नाम, अतः कपिलनिक्षेपमाहनिकखेवो कविलंमी चउबिहो दुबिहो य दवंमि । आगमनोआगमओ नोआगमओ य सो तिविहो २५०४ व्याख्या-'निक्षेपः' न्यासः 'कपिले' कपिलविषयः 'चतुर्विधः' चतुष्प्रकारो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् , तत्राये प्रतीते, 'द्विविधः' द्विभेदो भवति 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः, द्वैविध्यमेवाह--आगमतो नोआगमतः, तत्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो नोआगमतश्च स 'त्रिविधः' त्रिभेद इति गाथार्थः ॥ त्रैविध्यमेवाहजाणगसरीरभविए तबतिरित्ते य सो पुणो तिविहो। एगभविअवद्धाउअ अभिमुहओ नामगोए अ २५१ | व्याख्या-कपिलशब्दार्थज्ञशरीरं पश्चात्कृतपर्यायं ज्ञशरीरमित्युच्यते, तदेव द्रव्यकपिलो, 'भविय'त्ति भव्यशरीरं पुरस्कृतकपिलशब्दार्थज्ञतात्मकपर्यायं द्रव्यकपिलः, तद्यतिरिक्तश्च, स तद्यतिरिक्तद्रव्यकपिलः पुनः 'त्रिविधः' त्रिभेदः, त्रैविध्यमेवाह-एकमविको बद्धायुकोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति गाथार्थः ।। भावकपिलमाहकविलाउणामगोयं वेयंतो भावओभवे कविलो। तत्तो समुट्रियमिणं अज्झयणं काविलिजंति ॥ २५२ ॥ दीप अनुक्रम [२०८] RACKS मर wwfamitimary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं-८ "कापिलीय" आरभ्यते ~570~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||३०...|| नियुक्ति: [२५२] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२८॥ याध्य.८ प्रत *% सूत्रांक % ||३०|| % व्याख्या-कपिलायुर्नामगोत्रं 'वेदयन् ' अनुभवन् 'भावतः' भावमाश्रित्य भवेत् कपिलः, 'ततः' तस्मात् समु- कापिलीत्थितम् 'इदं' प्रस्तुतम् अध्ययनं 'काविलिज्जत्ति कापिलीयमिति, उच्यत इति शेष इति गाथार्थः ॥ कथं पुनरिदं । कपिलात्समुत्थितमित्याहकोसंबी कासवजसा कविलो सावस्थि इंददत्तो य । इन्भे य सालिभद्दे धणसिद्धि पसेणई राया ॥२५३॥ कविलो निच्चियपरिवेसिआइ आहारमित्तसंतुटे।वावारिओ(य) दुहि मासेहिं सो निग्गओ रत्तिं ॥२५॥ दक्खिपणे पत्थंतो बद्धो अतओ अ अप्पिओ रणो।राया से देइ वरं किं देमी केण ते अत्थो ? ॥२५५॥ जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पववति । दोमासकयं कजं, कोडिएवि न निहियं ॥ २५६ ॥ कोडिंपि देमि अजेत्तिभणइ राया पहिटमुहवण्णोसोऽवि चइऊण कोडिं समणो जाओ समिअपावो२५७ छम्मासे छउमत्थो अट्ठारस जोयणाइ रायगिहे । बलभद्दप्पमुहाणं इक्कडदासाण पंचयमे ॥ २५८ ॥ अइसेसे उप्पण्णे होही अट्रो इमोत्ति नाऊणं । अद्धाणगमणचित्तं करेइ धम्मट्रया गीयं ॥ २५९ ॥ ॥२८६॥ आसामक्षराधैः सुगम एष, नवरं 'निचियपरिवेसियाए'त्ति नैत्यिकपरिवेपिकया-प्रतिदिननियुक्तभक्तदाज्या वावारितोत्ति व्यापारितो-नियुक्तः 'दुहिं मासेहिति द्वाभ्यां माषकाभ्यां, "तादर्थं चतुर्थी" (वार्त्तिकम्) 'दक्खि दीप अनुक्रम [२०८] % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~571~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-1 / गाथा ||३०...|| नियुक्ति: [२५३-२५९] (४३) %* *** प्रत सूत्रांक ||३०|| घणं'ति प्राकृतत्वादक्षिणां 'पहट्टमुहवण्ण'त्ति प्रहृष्टः-प्रहर्षवान् मुखवर्णो-मुखच्छाया यस्य स तथा, मुखस्य प्रहृष्टत्वादुपचारात्तद्वोऽपि प्रहृष्ट उक्तः, यद्वा प्रहृष्टमुखस्येव मुखवणो यस्य स तथा, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, मानसत्वाच हर्षादीनां मुखस्यापि प्रहृष्टत्वं रूढित इति भावनीयम् । 'इक्डदासाणंति इक्कडदासजातीनाम् 'अति शेषे' अतिशये होही अटो इमोत्ति भविष्यति अर्थः-प्रयोजनम् 'अयं' पूर्वसङ्गतिकचौरशतपञ्चकप्रतिबोधलक्षण ६ इति ज्ञात्वा च 'अद्धाणगमणचित्त'ति अध्वा-मार्गस्तद्गमने चित्तम्-अभिप्रायोऽध्वगमनचित्तं तत्करोतीव करोति, तत्त्वतो हि केवलित्वेनामनस्कत्वान्न तस्याभिप्रायकरणसम्भवः, 'धम्मट्टय'ति आपत्वाद्धर्मार्थ-तत्त्वावबोधतस्तेषां धर्मः स्यादित्येवमर्थ 'गीयंति चस्य गम्यमानत्वाद्गीतं च-खरग्रामानुगतगीतिकानिवद्धमिदमेवाध्ययनं करोतीति दियोगः, वर्तमाननिर्देशस्तु सूत्रस्य त्रिकालगोचरतामाह, यदिवा-'गीत'मिति खराधनुगमनेन शब्दितमिदमिति गम्यते । भावार्थः कथानकादवसेयः, तत्र च सम्प्रदायः| तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीए णयरीए जितसत्तू राया, कासवो बंभणो चोदसविज्जाठाणपारगो, रायणो । बहुमतो, वित्ती से उबकप्पिया, तस्स जसा णाम भारिया, तेसिं पुत्तो कविलो णाम, कासवो तंमि कविले खुड-| तस्मिन् काले तस्मिन् समये कौशाम्च्यां नगया जितशत्रु राजा, काश्यपो ब्राह्मणः चतुर्दशविद्यास्थानपारगः, राज्ञो बहुमतः, वृत्तिस्तसौ उपकल्पिता, तस यशा नाम भार्या, तयोः पुत्रः कपिलो नाम, काश्यपस्तस्मिन् कपिले क्षुल्लक दीप अनुक्रम [२०८] * For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-1/ गाथा ||३०...|| नियुक्ति: [२५३-२५९] (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| उत्तराध्य. लए चैव कालगतो, ताधे तंमि मए तं पयं रायणा अण्णस्स मरुयगस्स दिण्णं, सो य आसेण छत्तेण य धरिजमा- कापिलीबृहद्धृत्तिः पण वचा, तं दळूण जसा परुण्णा, कविलेण पुच्छिया, ताए सिटुं-जहा पिया ते एवंविहाए इड्डीए णिगच्छियाइओ, तेण भण्णति-कथं १, सा भणति-जेण सो विजासंपण्णो, सो भणइ-अहंपि अहिज्जामि, सा भणइ-इहं तुम याध्य.८ ॥२८७॥ टीमच्छरेण ण कोइ सिक्खवेति, वञ्च सावत्थीए नयरीए पिइमित्तो इंददत्तो णाम माहणो सो ते सिक्खायेहित्ति । सो गतो तस्स सगासं, तेण पुच्छितो-कोऽसि तुमं?, तेण जहावत्तं कहियं, सो तस्स सगासे अहिजिउं पयत्तो। तत्थ सालिभद्दो णाम इन्भो, सो से तेण उवज्झाएणणे बतियं दवावितो, सो तत्थ जिमितो २ अहिजइ, दासचेडी य तं परिवेसेइ । सो य हसणसीलो तीए सद्धिं संपलग्गो, तीए भण्णइ-तुमे मे पीतो, ण य ते किंचिवि, णवरि मा १ एव कालगतः, तदा तस्मिन् मृते तत्पदं राज्ञाऽन्यस्मै मरुकाय (ब्राह्मणाय ) दत्तं, स चाश्वेन छत्रेण च ध्रियमाणेन ब्रजति, तं दृष्ट्वा यशाः प्ररुदिता, कपिलेन पृष्टा, तया शिष्टं यथा पिता तबैवंविधया या निर्गतवान् , तेन भण्यते-कथम् ?, सा भणति-येन स | विद्यासंपन्नः, स भणति-अहमप्यधीये, सा भणति-इह त्वां मत्सरेण न कोऽपि शिक्षयति, ब्रज श्रावस्त्यां नगर्या पितृमित्रमिन्द्रदत्तो नाम | ब्राह्मणः स खां शिक्षयिष्यतीति । स गतस्तत्सकाश, तेन पृष्ट:-कुतोऽसि त्वं ?, तेन यथावृत्तं कथितं, स तत्सकाशेऽध्येतुं प्रवृत्तः । तत्र | R॥२८७॥ शालिभद्रो नाम इभ्यः, अथ स तेन उपाध्यायेन नैयिकं दापितः, स तत्र जिमितो २७ध्येति, दासचेटी च तं परिवेषयति । स च हसनशीलतया सार्ध संघलनः, नया भण्यते-वं मे प्रियः, न च तव किञ्चिदपि, नवरं मा -SCRky दीप अनुक्रम [२०८] ForParaTREPWatmonth मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 573~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||३०...|| नियुक्ति: [२५३-२५९] (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| सिजासि, पोत्तमुलणिमित्तं अहमण्णेहिं २ समं अच्छामि, इयरहाहं तुज्झ आणाभोज्जा । अण्णया दासीण महो दुक्का सा तेण समं णिविण्णिया, णिहंसा न लहइ, तेण पुच्छिया-कतो ते अरती ?, तीए भण्णति-दासीमहो उयद्वितो, ममं पत्तपुप्फाइमोलं णस्थि, सहीजणमझे विगुप्पिस्सं, ताहे सो अधिति पगतो, ताए भण्णति-मा अद्धितिं करेहि, एत्थ धणोणाम सिट्ठी, अप्पभाए चेव जे णं पढमं बद्धावेइ से दो सुवण्णए मासए देइ, तस्थिमं || गंतूण तं वद्धावेहि, आमंति तेण भणियं । तीए लोभेण मा अण्णो गच्छिहित्ति अतिपभाए पेसितो, वच्चंतो य आरक्खियपुरिसेहिं गहितो बद्धो य । ततो पभाए पसेणइस्स रण्णो उवणीतो, राइणा पुच्छितो, तेण सभायो कहितो, रायणा भणितो-जं मग्गसि तं देमि, सो भणति-विचिंतिउं मग्गामि, रायणा तहत्ति भणिए असो १रुषः, पोतमूल्यनिमित्तमहमन्यैरन्यैः समं तिष्ठामि, इतरथाऽहं तवाज्ञाभोन्या । अन्यदा दासीनां महो ढोकते, सा तेन समं निर्विणा, निद्रां सा न लभते, तेन पृष्टा-कुतस्तेऽरतिः ?, तया भण्यते-दासीमह उपस्थितः, मम पत्रपुष्पादिमूल्यं नास्ति, सखीजनमध्ये विजुगुप्स्ये, तदा सोऽधृति प्रगतः, तया भण्यते-माऽधृति कार्षीः, अत्र धनो नाम श्रेष्ठी, अतिप्रभात एवं यः एनं प्रथमं वर्धयति तस्मै द्वौ सुवर्णमाषको ददाति, तत्रेमं गत्वा त्वं वर्धापय, ओमिति तेन भणितं । तया लोभेन माऽन्यो गम इत्यतिप्रभाते प्रेषितः, प्रचारक्षकपुरुषैर्गृहीतो [AI बद्धश्च । ततः प्रभाते प्रसेनजितो राज्ञः उपनीतः, राज्ञा पृष्टः, तेन सद्भावः कथितः, राज्ञा भणित:-यन्मार्गयसि तद्ददामि, स भणति|विचिन्त्य मार्गयामि, राज्ञा तथेति भणिते अशो दीप अनुक्रम [२०८] %ER AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~574~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-1 / गाथा ||३०...|| नियुक्ति : [२५३-२५९] (४३) R प्रत सूत्रांक ECHAR ||३०|| उत्तराध्य. गणियाए चिंतेउमारद्धो-कि दोहिं मासेहिं साडिगाभरणे पडिवासिगा जाणवाहणाउजाणोवभोगा मम वयस्साणं निकापिली पवागयाण घरंभज्जाचउट्ठयं जंचण्णं उयउजं?, एवं जाव कोडीएविण ठाएति।चिंतंतो सुहज्झवसाणो संवेगमावण्णो वृहद्वृत्तिः याध्य.८ जाई सरिऊण सयंबुद्धो सयमेव लोयं काऊण देवयादिण्णगहियायारभंडगो आगतो रायसगासं, रायणा भण्णति॥२८ ॥ किं चिंतियं ?, सो भणति-जहा लाभो तहा लोभो' कण्ठ्यः, राया भणति-कोडिपि देमि अजोति भणति राया पहमुहवण्णो । सोऽवि चइऊण कोडिं जातो समणो समियपायो॥१॥ छम्मासा छउमत्थो आसि । इत्तो य रायगिहस्स नयरस्स अंतरा अट्ठारसजोयणाए अडवीए बलभद्दपामोक्खा इकडदासा णाम पंच चोरसया अच्छंति, णाणेण जाणियं-जहा ते संखुझिस्संति, ततो पट्टितो संपत्तो य तं पएसं, सोहिएण (साहिएण)य दिट्ठो कोवि एतित्ति आस १. कवनिकायां चिन्तयितुमारब्धः-किं द्वाभ्यां मासाभ्यां शाटिकाभरणे प्रतिवेशिका यानवाहनातोयानामुपभोगा (नानि उद्यानोपभोगाः) मम वयस्याना पर्वागतानां गृहं भार्योपकरणं यच्चान्यत् उपयोग्यम् , एवं यावत् कोट्याऽपि न तिष्ठति । चिन्तयन् शुभाध्यवसानः | संवेगमापनो जाति स्मृत्वा स्वयंबद्धोलो स्वयमेव कृत्वा देवतादत्तगृहीताचारभाण्डक आगतो राजसकाश, राज्ञा भण्यते-किं चिन्तितम् ।। *स भणति-यथा लाभतथा लोभः (लाभाहोभः प्रवर्धते । द्विमासकनकेनार्थः कोट्यान निवर्त्तते ॥ १॥)। राजा भणति-कोटीमपि ॥२८८|| Xददामि आये इति भणति राजा प्रमुखवर्णः । सोऽपि त्यक्त्वा कोटी जातः अमणः शमितपापः ॥१॥ पण्मासान छन्ग्रस जाता। इतश्च राजगृहस्व नगरस्य अन्तरा ( अवकाशे) अष्टादशयोजनायामटव्यां बलभद्रप्रमुखा इकडदासा नाम पञ्च चौरशतानि तिष्ठन्ति, ज्ञानेन हात-यथा ते संभोत्स्यन्ते, ततः प्रस्थितः संप्राप्तश्च तं प्रदेश, शोधितेन (शोधकेन ) च दृष्टः कोऽप्येतीत्यासका दीप अनुक्रम [२०८] म ASHREDiatomindinsational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२०९] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [२५३-२५९] अध्ययनं [८], णीभूतो नाओ जहा समणगोत्ति, अम्हं परिभविडं आगच्छति, रोसेण व गहितो सेणावइसमीवं णीतो, तेण भण्णति -मुयह एयंति, ते भणति खेलामो एतेणंति, तेहिं भण्णति-नचसु समणगोत्ति, सो भणइ-वायंतगो णत्थि, ताहे तावि पंचवि चोरस्याणि ताले कुट्टेति सोऽवि गायति ध्रुवगं, "अधुवे असासयंमी, संसारंमि दुक्खपउराए । किं णाम तं होज कम्मयं ? जेणाहं दुग्गई ण गच्छेजा ॥ १ ॥ एवं सवत्थ सिलोगन्तरे धुवगं गायति 'अधुवेत्यादि,' तत्थ केइ पढमसिलोगे संबुद्धा, केइ बीए, एवं जाव पंचवि सया संबुद्धा पचतियत्ति । इत्यभिहितः सम्प्रदायोऽवसितश्च नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं तचेदम् Jain Education Intimation अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए । किं नाम होज तं कम्मर्थः जेणाहं दुग्गइं न गच्छेजा ॥ १ ॥ व्याख्या -- स हि भगवान् कपिलनामा खयंबुद्धवीरसङ्घातसम्बोधनायेमं ध्रुवकं सङ्गीतवान्, ध्रुबकलक्षणं चेदम्१० भीभूतः, ज्ञातो यथा अमणक इति, अस्मान् पराभवितुमागच्छति, रोपेण च गृहीतः सेनापतिसमीपं नीतः तेन भण्यते - मुचैनमिति, ते भगन्ति क्रीडाम एतेनेति, तैर्भण्यते नृत्य श्रमणकेति, स भणति-वादको नाति, तदा तान्यपि पञ्चापि चौरशतानि तालाम् कुट्टय न्ति, सोऽपि गायति ध्रुवकम् - अधुवे अशाश्वते संसारे प्रचुरदुःखे । किं नाम तद्भवेत्कर्म १ येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम् ॥१॥ एवं सर्वत्र लोकाअन्तरे भुवकं गायति अधुषेत्यादि, तत्र केचित् प्रथमलोके संबुद्धाः केचिद्वितीये, एवं यावत्पश्वापि शतानि संबुद्धानि प्रब्रजिताः इति । For Parent मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) Ke - बृहदृत्तिः - प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. 'ज गिजइ पुर्व चिय पुण पुणो सबकववधेसु । धुवयंति तमिह तिविहं छप्पायं चउपयं दुपयं ॥१॥" तत्र ध्रुवो-यर कापिलीएकास्पदप्रतिबद्धो न तथाऽध्रुवः तस्मिन् , संसार इति सम्बन्धः, भ्रमन्ति ह्यस्मिन् अनेकेषु उच्चावचस्थानेषु जन्तवः, तेषां । याध्य. कचिदनुत्पन्नपूर्वत्वाभावाद्, उक्तं च वाचकैः-"रङ्गभूमिन सा काचिच्छुद्धा जगति वर्तते । विचित्रैः कर्मनेपथ्यर्यत्र ॥२८॥ दिसत्त्वेने नाटितम् ॥१॥" इति, शाश्वतं-नित्यम् अविद्यमानं शाश्वतमस्मिन्निति अशाश्वतस्तस्मिन् , संसार एव, अशा श्वतं हि सकलमिह राज्यादि, तथा च हारिलवाचकः-'च लंराज्यैश्चर्य धनकनकसारः परिजनो, नृपाद्वालुभ्यं च चलममरसौख्यं च विपुलम् । चलं रूपाऽऽरोग्यं चलमिह चरं जीवितमिदं जनो दृष्टो यो चै जनयति सुखं सोऽपि सहि चलः ॥२॥" यद्वा-ध्रुवो-नियो न तथाऽधुवस्तस्मिन् , एवं च कियकालावस्थायित्वमप्याशयेत अत आह-10 शश्वद्भवनाच्छाश्वतः न तथाऽशाश्चतस्तस्मिन् , शश्चयने हि धादिक्षणावस्थितिरपि सम्भवेत् , तनिषधे तु तस्या अपि निषेधात्पर्यायार्थतया तडित्सम्पातवत् क्षणमात्रावस्थायिनीत्युक्तं भवति, एकार्थ वा पदद्वयम् , उपदेशत्वादतिशयख्यापकत्वाचन पौनरुक्त्यं, क पुनः ईदृशि ?-संसरन्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनो जन्तव इति संसारस्तस्मिन् , 'दुक्खपउराए'त्ति प्रबुराण्येव प्रचुरकाणि-प्रभूतानि दुःखानि शारीरमानसानि यस्मिन् स तथा तस्मिन् ,प्राकृतत्वाच सूत्रे एवं ॥२८॥ निर्देशः, यद्वा दुःखानां प्रचुरः आयो-लाभो यस्मिन् स तथा तस्मिन, 'कि'मिति प्रभे? 'नामेति संभावनायां वाक्यालङ्कारे १ यद्गीयते पूर्वमेव पुनः पुनः सर्वकाव्यबन्धेषु । धुत्रकमिति तदिह त्रिविध पद्पदं चतुष्पदं द्विप (च)॥१॥ दीप अनुक्रम [२०९] For PAHATEEPIVanupontv wiancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~577~ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| या भवेत् ' स्यात् तत् क्रियत इति कर्म तदेव कर्मकम्-अनुवान, यत् कीगित्साह-येन कर्मणा हेता (पा०२-३ २३) तृतीया' अहमित्यात्मानं निर्दिशति, 'दुर्गति' नरकादिकां 'ण गच्छेज'ति न गच्छेयं-न यायां, पठन्ति च-जे णाधं दुग्गईतो मुवेज'त्ति सुगमम् , अब भगवतश्छित्रसंशयत्वेऽपि मुक्तिगामितया दुर्गत्यसत्त्वेऽपि च प्रतियोध्या XI पूर्वसङ्गतिकापेक्षमित्वमभिधानं, नागार्जुनीयास्तु प्रथमपदमेवं पठन्ति-'अधुमि मोहगहणए' तत्र मुखतेऽनेन जानजनपि जन्तुरिति मोहो-दर्शनमोहनीपादिः तेन गहनो-गुपिलो मोहगहनः स एव मोहगहनास्तस्मिन्निति सूत्रार्थः।। एवं च भगवतोद्गीते तेऽप्येनमेव ध्रुवकं प्रत्युगायन्ति तालं च कुट्टयन्ति, तैश्च प्रत्युद्गीते भगवानाहविजहित्तु पुब्वसंजोग न सिणेहं कहिंचि कुब्विजा । असिणेह सिणेहकरेहिं दोसपउसेहि मुच्चई भिक्खू ॥२॥ | व्याख्या-'विहाय' विशेषेण-तदननुस्मरणाद्यात्म केन हित्वा-यक्त्वा, कमित्याह-पुरा परिचिता मातृपित्रादयः A पूर्वशब्देनोयन्ते तत तैः, उपलक्षगत्वादन्यैश्व खजनधनादिभिः संयोगः-सम्बन्धः पूर्वसंयोगतं, ततः किमित्याह न 'नेहम् ' अभियङ्ग कचिद्वाऽभ्यन्तरे वा वस्तुनि 'कुचिजत्ति कुर्वीत, तथा च को गुण इत्याह-असिणेह'त्ति प्राकृतत्वाद्विसर्जनीयलोयेऽनेह:-अविद्यमानप्रतिवन्धः, 'सिणेहकरेहि ति सुम्यत्ययादपेर्गम्यमानत्वाच स्नेहकरेवपि -लेहकरणशीलेप्पपिपुत्रकलत्रादिषु, आस्तामन्येन्नित्यपिशब्दार्थः, 'दोपदैः' अपराधस्थानः 'मुच्यते'त्यज्यते, किमुक्त भवति -निरतिचारचारित्रो भवति, अमुक्तस्नेहो हि कलवाद्यभिषङ्गात् दोषपदमतिचाररूपमाप्नुयाद्, 'भिक्षु दीप अनुक्रम [२१०] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~578~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [२११] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२९० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३ || अध्ययनं [८], निर्युक्तिः [२५९...] रिति साधुः, पाठान्तरतश्च 'दोपप्रदोषैः' तत्र दोषैः - इहैव मनस्तापादिभिः प्रदोषैश्च परत्र नरकगत्यादिभिरिति सूत्रार्थः ॥ पुनर्यदसौ कृतवांस्तदाह तो नाणदंसणसमग्गो हियनिस्साए य सव्वजीवाणं । तेसिं विमोक्खणट्टाएँ भासइ मुणिवरो विगयमोहो ३ व्याख्या- 'तो' त्ति ततोऽनन्तरं, भाषते मुनिवर इति सम्बन्धः, स च कीदृग्र ? - ज्ञायतेऽनेन विशेषात्मना वस्त्विति ज्ञानं, दृश्यतेऽनेन सामान्यरूपेण वस्त्विति दर्शनं ताभ्यां प्रस्तावात् केवलाभ्यां समग्रः समन्वितः, यदिवा प्राकृतत्वात्समये - परिपूर्ण ज्ञानदर्शने यस्यासौ समग्रज्ञानदर्शनः, किमर्थमसौ भापत इत्याह- 'हियणिस्सेसाए' इति सूत्रत्वात् | हितः पथ्यो भावाऽऽरोग्यहेतुत्वात् निःश्रेयसो-मोक्षः, हितश्वासौ निःश्रेयसश्च हितनिःश्रेयसस्तस्मै, यद्वा प्राकृतत्वादेव निश्शेषं समस्तं हितं सम्यग्ज्ञानादि, तस्यैव तत्त्वतो हितत्वात्, ततो निश्शेषं च तद्धितं च निश्शेषहितं तस्मै, कथं नाम निश्शेषहितावाप्तिः स्यादिति, चशब्दो भिन्नक्रमः, तेषामित्यत्र योज्यते, केषाम् ? - 'सर्वजीवानाम्' अशेषप्राणिनां 'तेषां च पञ्चशतसङ्ख्यचौराणां विमोक्षणम्-अष्टविधकर्मणः पृथक्करणं तदेवार्थ:-प्रयोजनं * विमोक्षणार्थस्तस्मै तन्निमित्तं भाषते इति वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत्, यद्वा- 'भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्व' मितिवचनात् तस्यापि तदा वर्तमानतैवेति तत्कालत्वस्य विवक्षितत्वान्न दोषः, 'मुनिवरः' मुनिप्रधानः, बिगतो- विनष्टो मोहो यस्य यस्माद्वा स तादृक् । इह च विगतमोहवचनेन चारित्रमोहनीयाभावतो यथाख्यात Jain Education intimational For Parent कापिली याध्य. ८ ~ 579~ ||२९० ॥ vaनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], __ मूलं [-]/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) * TEASE प्रत % सूत्रांक ||४|| चारित्रमुकं । ननु हियणिस्सेसाए य सघजीवाणबीयुक्तौ तसि विमोक्खणट्टाएँ इत्यतिरिच्यते, न, तानेवोद्दिश्यास्थ भगवतः प्रवृत्तिरिति प्रधानत्वात् पुनस्त द्विमोक्षणार्थताऽभिधानं, दृश्यते हि-'ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात' | इति सामान्योक्तावपि पुनः प्रधानस्याभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ यदसी भाषते तदाह सवं गं कलहं च विप्पज हे तहाविहं भिक्खू । सब्वेसु कामजाएसु पासमाणोन लिप्पई ताई॥४॥ व्याख्या-'सर्वम्' अशेष ग्रन्थं' बाह्यमाभ्यन्तरं च, तत्र बाह्यं धनादि, आभ्यन्तरं मिथ्यात्वादि, कलहहेतुत्वा. कलह:-क्रोधस्तं, चशब्दान्मानादीच, अभ्यन्तरग्रन्थरूपत्वेऽपि चैषां पृथगुपादानं बहुदोषख्यापनार्थ, 'विप्पजहे'त्ति || विप्रजयात्-परित्यजेत् 'तथाविध मिति कर्मबन्धहेतुं, न तु धर्मोपकरणमपीत्यभिप्रायः, पाठान्तरतश्च-तथाविधो, 'भिक्षुः' यतिस्तस्यैवैविधधर्माहत्वादेवमभिधानम् , अन्योक्त्या या त एवैवमुच्यन्ते, ततश्च किं स्यादि-1 त्याह-'सर्वेषु' अशेषेषु 'कामजातेपु' मनोज्ञशब्दादीनां प्रकारेषु समूहेषु वा 'पासमाणोति पश्यन् प्रेक्षमाणो, विपाककटुकात्मकं तद्विषयं दोषमिति गम्यते, न लिप्यते' कर्मणा नोपदिखते, कामदोषज्ञस्य तेषु प्रायः प्रवृत्तेरभावादिति भावः, तायते त्रायते वा रक्षति दुर्गतरात्मानम् एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽवश्यमिति तायी त्रायी वेति | सूत्रार्थः ॥ इत्थं ग्रन्थत्यागिनो गुणमभिधाय व्यतिरेके दोषमाहभोगामिसदोसविसन्ने हियनिस्सेयसवुद्धिवोच्चत्थे । बाले य मंदिए मूढे बज्झइ मच्छिया व खेल मि ॥५॥ १ विपज्जत्थे प्र० % दीप अनुक्रम [२१२] AIMEducatantntansational wlancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~580~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२५९.... (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| उत्तराध्य व्याख्या-भुज्यन्त इति भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादयः ते च ते आमिषं चात्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगामिषं तदेव 8 कापिलीबृहद्वृत्तिः दूपयत्यात्मानं दुःख लक्षणविकारकरणे न भोगामिपदोपस्तस्मिन् विशेषेण सन्नो-निमनो भोगामिपदोपविषण्णः, यद्वा याध्य.८ भोगामिपस्य दोषा भोगामियदोषाः ते च तदासक्तस्य विचित्र क्लेशा अपयोत्पत्ती च तत्साल नोपायपरतया व्याकु॥२९॥ लवादयस्तैपिण्णो-विपादं गतो भोगामिपदोपविषण्णः, आह च-"जया य कुटुंबस्ता, कुततीहि विहम्मइ ।। हत्थीव बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पड़ ॥१॥ पुत्तदारपरिक्तिण्णो, मोहसंताणसंतता । पंकोसण्गो जहा णागो, स पच्छा परितप्पति ॥२॥"ति । 'हियणिस्सेसबुद्धियोचत्थे'त्ति हितः-एकान्तपथ्यो निःश्रेयसो-मोक्षः अनयोः कोधारये हितनिःश्रेयसः,-या हितो-यथाभिलाषितविषयावास्याऽभ्युदयः निःश्रेयसः स एव तयोर्द्वन्द्वः, ततश्च तत्र तयोवा 'बुद्धिः' तत्प्रावपायविषया मतिः तस्यां विपर्ययवान् सा वा विपर्यस्ता यस्य स हितनिःश्रेयसबुद्धिविषयेस्तः18 विपर्यस्त हितनिःश्रेयसबुद्धिी, विपर्यस्तशब्दस्य तु परनिपातः प्राम्पत् , यद्वा विपर्यस्ता हिते निःशेषा बुद्धिर्यस्य स तथा, बालश्च-अज्ञः 'मंदिए'त्ति सूत्रत्वान्मन्दो-धर्मकार्यकरणं प्रत्यनुद्यतः 'मूढों' मोहाकुलितमानसः, स एवंविधः | किमियाह-'बध्यते' लिप्यतेऽर्धाज्ञानावरणादिकर्मणा मक्षिकेव 'खेले श्लेष्मणि, रजसेति गम्यते, इदमुक्तं भवति-- १ यदा च कुकुटुम्बस्य कुततिमिहिन्यते । हस्ती बन्धने बद्धः स पश्चासरितप्यते ॥ १ ॥ पुत्रदारपरिकी! मोदसंतानसंततः । पावसन्नो यथा नागः स पश्चात्परितप्यते ॥२॥ दीप अनुक्रम [२१३] Co-2-- 0 ॥२९ ॥ k For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~581~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२१४] Jan Educatio “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||६|| अध्ययनं [८], निर्युक्ति: [२५९...] यथाऽसौ तत्निग्धतागन्धादिभिराकृष्यमाणा तत्र मज्जति, मना च रेण्वादिना बध्यते, एवं जन्तुरपि भोगामिषे मनः कर्मणेति सूत्रार्थः ॥ ननु यद्येवममी भोगाः कर्मबन्धकारणं किं नैतान् सर्वेऽपि जन्तवस्यजन्तीत्याहदुष्परिचया इमे कामा नो सुजहा अधीरपुरसहि । अह संतिःसुब्बा साहू जे तरंति अतरं वणिया व ॥६॥ व्याख्या - दुःखेन - कृच्छ्रेण परित्यज्यन्ते - परिहियन्त इति दुष्परित्यजाः 'इमे' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाः 'कामाः' भोगाः 'नो' नैव 'सुजह'त्ति सूत्रत्वात् सुखेन-अनायासेन हीयन्त इति सुहानाः-मुत्यजाः, विपसम्पृक्त लिग्धमधुरान्नवद्, कैः ? - 'अधीरपुरुषः' अबुद्धिमद्भिरसवैर्वा नरैः, पुरुषग्रहणं तु ये तावदल्पवेदोदयतया सुखेनैव त्यक्तारः सम्भवन्ति तैरप्यमी न सुखेन त्यज्यन्ते, आस्तामतिदारुण श्री पण्डकवेदोदवाऽऽकुलितैः स्त्रीनपुंसकैरिति । यचेह दुष्परित्यजा इत्युक्त्वा पुनर्न सुहानाः इत्युक्तं तदत्यन्त दुस्त्यजताख्यापकं प्रपञ्चितज्ञविनेयानुपाहकं वेति अपुनरुक्तमेव, अवीरग्रहणेन तु धीरैः सुत्यजा एवेत्युच्यते, अत एवाह - 'अर्थ' इत्युपन्यासे 'सन्ति' विद्यन्ते शोभनानि सम्यग्ज्ञानाधिष्ठितत्वेन व्रतानि हिंसाविरमणादीनि येषां ते सुव्रताः, शान्त्या बोवलक्षिताः सुत्रताः शान्तिसुव्रताः, इह च सन्तीति शेषः, साधयन्ति पौरुषेयीभिः क्रियाभिर्मुक्तिमिति साधवः, ये किमित्याह-ये 'तरन्ति' परपरावाध्याऽतिक्रामन्ति, कम् ? - 'अतरे' तरीतुमशक्यं विषयगणं भवं वा, क इव ? - वणिज इव, वाशब्दस्येदेवार्थत्वात्, यथा हि वणिजोऽतरं नीधि यानपात्रादिनोपायेन तरन्ति एवमेतेऽपि धीरा व्रतादिनोक्त रूपमतरम्, अधीरैवेोकनीतितोऽस्य दुखरत्वात् पठन्ति For Parent ancibraryur मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 582~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) कापिली याध्य. प्रत सूत्रांक ||७|| उत्तराध्या च-'जे तरंति वणिया व समुद्द'मिति, स्पष्टम् , उक्तं च केनचित्-"विषयगणः कापुरुषं करोति वशवर्तिनं न सत्पुरुषम्। वनाति मशकमेव हि लूतातन्तुर्न मातङ्गम् ॥१॥” इति सूत्रार्थः ॥ किं सर्वेऽपि साधवोऽतरं तरन्ति उत नेत्याहबृहद्वृत्तिः दिसमणा मु पगे बदमाणा पाणवहं मिया अजाणता । मंदा निरयं गच्छति बाला पावियाहिं दिहीहिं॥७॥ ॥२९॥ | व्याख्या-श्राम्यन्ति-मुक्त्यर्थ खिद्यन्त इति श्रमणाः-साधवः 'मु' इत्यात्मनिर्देशार्थत्वाद्वयमिति 'एके' केचन तीर्थान्तरीयाः 'बदमानाः'खाभिप्रायमुद्दीपयन्तो 'भासनोपसम्भाषाज्ञानयनविमत्युपनिमन्त्रणेषु वदः' (पा०१-३-४७) इत्यनेन भासने आत्मनेपदं, प्राणा-उक्तरूपास्तेषांवधो-घातस्तमजानन्त इति सम्बन्धः, मृगाइच मृगाःप्राग्वत् , अजानन्त इति ज्ञपरिज्ञया के प्राणिनः ? के च तेषां प्राणाः ? कथं वा वधः ? इत्यनवबुध्यमानाः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तद्वधमप्रत्याचक्षाणाः, अनेन च प्रथमत्रतमपि न विदन्ति आस्तां शेषाणीत्युक्तं भवति, अत एव मन्दा इव मन्दा मिध्यात्वमहारोगग्रस्ततया 'निरयं' पाठान्तरतो 'नरकं वा' प्रतीतं गच्छन्ति-यान्ति, बाला इव वाला-हेयोपादेयविवेकविकलत्वात् 'पापियाहिति प्रापयन्ति नरकमिति प्रापिकास्ताभिः, यद्वा-पापा एव पापिकाताभिः, परस्परविरोधादिदोषात् स्वरूपेणैव कुत्सिताभिः, 'न हिंस्यात् सर्वभूतानी'त्याद्यभिधाय 'श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूति- काम' इत्यादिपरस्परविरुद्धार्थाभिधायिनीभिः, पापहेतभिर्वा पापिकाभिदृष्टिभिः-दर्शनाभिप्रायरूपाभिः 'ब्रह्मण ब्राह्मणमालभेत, इन्द्राय क्षत्रियं, मरुद्भयो वैश्यं, तपसे शूद्रं, तथा च-'यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् ।। दीप अनुक्रम [२१५] ॥२९२॥ For ParaTREPIVaauinone tioncibansar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 583~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||८|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) R प्रत सूत्रांक ||८|| आकाशमिव पङ्केन, न स पापेन लिप्यते ॥१॥' इत्यादिकाभिर्दयादमवहिष्कृताभिः, तद्वहिष्कृतानां हि विविधवल्कलवेषादिधारिणामपि न केनचित्पापात् परित्राणं, तथा च वाचक:-"चर्मवल्कलचीराणि, कूर्चमुण्डजटाशिखाः । न व्यपोहन्ति पापानि, शोधको तु दयादमौ ॥१॥” इति सूत्रार्थः । अत एवाह सूत्रकृत्मान हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज कयाइ सव्वदुक्खाणं । एवमारिएहिमक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो ब्याख्या-'न हु' नैव 'प्राणवध प्राणघातं, मृषाधुपलक्षणं चैतत् , 'अणुजाणे'त्ति अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् ४ है अनुजानन्नपि, आस्तां कुर्वन् कारयन् वा, 'मुच्येत'त्यज्येत , सम्भावनेलिट (ङ), ततो मुक्तिसम्भावनाऽपि नास्तीत्युक्तं भवति, 'कदाचित् ' कस्मिंश्चिदपि काले, कैर्मुच्येत? इत्याह-'सबदुक्खाणं ति दुःखयन्तीति दुःखानि-कम्माणि सर्वाणि चतानि दुःखानि च सर्वदुःखानि तैः, सुव्यत्ययाच तृतीयार्थे पष्ठी, यद्वा सर्वदुःखैः-नरकादिगतिमाविभिः शारीरमानसैः। क्लेशैः, ततः प्राणातिपातनिवृत्ता एव श्रमणास्त एव चातरं तरन्ति न वितर इत्युक्तं भवति, किमेतत् त्वयैवोच्यते । इत्साह-एवारिएहिति 'एवम्' उक्तप्रकारेणाऽऽयः-सकलहेयधर्मेभ्यो दूरं यातैस्तीर्थकरादिभिराचार्या आख्यातकथितं, ये कीदृश इत्याह-'य' आर्यैराचार्यैर्वाऽयं 'साधुधर्मो' हिंसानिवृत्त्यादिः 'प्रज्ञप्तः' प्ररूपितः, अयमित्यनेन चात्मनि वर्तमानं तेषां प्रज्ञाप्यचौराणां प्रत्यक्षं साधुधर्म निर्दिशतीति सूत्रार्थः ॥ यद्येवं ततः किं कृत्यम् ? इत्याहपाणे य नाइवाइजा से समियत्ति वुचई ताई । तओ से पावयं कम्म निजाइ उद्गं व थलाओ॥९॥ दीप अनुक्रम [२१६] ASHASABK . For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~584~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| उत्तराध्य. व्याख्या-पाणे य णातिवाएजत्ति चशब्दो व्यवहितसम्बन्धः, ततश्च प्राणान्-इन्द्रियपञ्चकादीन् नातिपात- कापिली येत् , यस्त्विति गम्यते, चशब्दात् कारणानुमत्योरपि निषेधः, मृषावादादिनिवृत्युपलक्षणं चैतत् , किमिति प्राणा-3 बृहद्वृत्तिः याध्य.८ नातिपातयेदित्याह-'से'त्ति यः प्राणानातिपातयिता स 'समितः' समितिमान् इति 'उच्यते' अभिधीयते, कीदृशः| ॥२९॥ सन् ? इत्याह-'त्रायी' इत्यवश्यं प्राणित्राता, समितत्वेऽपि को गुणः १, उच्यते-'ततः' इति तस्मात् समितात् हा से' इत्यथ 'पापकम् ' अशुभं 'कर्म' ज्ञानावरणादि नियाति' निर्गच्छति, पठन्ति च-णिग्णाईत्ति अत्र देशीपदादत्वादधोगच्छति, किमिव ?-उदकमिय, कुतः ?-'स्थ लाद' अत्युन्नतप्रदेशात् , अनेन च पूर्ववद्धस्य कर्मणोऽभाव उक्तः, न लिप्यते त्रायीति च बद्धमानस्येति न पौनरुक्त्यं, पापग्रहणं चास्यावश्यंतयाऽभावस्यापकं, पुण्यस्य हि संहननादिदोषान्मुक्त्यनवाप्तेर्देवाद्युत्पत्ती सम्भयोऽपि स्यात् , अन्यथा हि पुण्यस्यापि वर्णनिगडप्रायतया विनिर्गम एव विनिर्मुक्तिरिति सूत्रार्थः ॥ यदुक्तं-'प्राणान्नातिपातयेदिति तदेव स्पष्टयितुमाह जगनिस्सिएहिं भूपहिं तसनामेहिं धावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंड मणसावयसाकायसा चेव ॥१०॥ व्याख्या-जगत्-लोकस्तस्मिन् निश्रितानि-आश्रितानि जगनिश्रितानि तेषु भूतेषु' जन्तुषु 'तसनामेसुत्ति R॥२९६ सनामकम्मादयवत्सु द्वीन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु' तन्नामकर्मोदयवर्तिपु पृथिव्यादिषु, चः समुच्चये, 'नो' नैव तेर्सि' ति तेषु रक्षणीयत्वेन प्रतीतेषु 'आरभेत कुर्यात् दण्डनं दण्डः स चेहातिपातात्मकस्तं, 'मणसावयसाकायसा चेव' SA-ORKER.* दीप अनुक्रम [२१७] JAIMEducatan intimations For PF ciancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~585~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||20|| दीप अनुक्रम [२१८] Jan Educatio “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१०|| निर्युक्ति: [२५९...] अध्ययनं [८], ति आपत्यात् मनसा वचसा कायेन, चशब्दः शेषभङ्गोपलक्षकः, ततक्ष - यथा मनसा वचसा कायेन च दण्डं नारभते तथा नाऽऽरम्भयेत् न चारभमाणानप्यन्याननुमन्येत 'एवः' अवधारणे भिन्नक्रमश्थ, अत एव नो इत्यस्यानन्तरं योजितः, पठ्यते च - 'जगणिस्तियांण भूयाणं, तसाणं थावराण य णो तेसिमारभे दंडं' ति गतार्थमेव, अपरे तु 'जगणिस्सिएडी'त्यादि तृतीयान्ततयैवाधीयते, तत्र च जगन्निश्रितैर्भूतैखसैः स्थावरैश्च हन्यमानोऽपीति शेषः, नैव तेप्यारभेत दण्डम्, उज्जयनीश्रावकपुत्रवत्, अत्र च सम्प्रदायः- उजेगीए साबगडतो चोरेहिं हरिउं मालव के सूयगारस्त हत्थे विकीतो, लायगे मारयसु, ण मारयामीति हत्थीपादत्तासवसीसारकखणं करणं चेति । स एवं प्राणत्यागेऽपि सत्त्वानपरोवी, एवमन्त्रैरपि यतितव्यमिति सूत्रार्थः ॥ उक्ता मूलगुणाः, सम्प्रत्युत्तरगुणा वाच्याः, तेष्वप्येपणासमितिः प्रधानेति तामाह सुडेसणा उ णच्चा णं तत्थ ठवेज भिक्खू अध्याणं । जाताए घासमेसिजा रसगिद्धे न सिया भिखाए ११ व्याख्या - शुद्धाः शुद्धिमत्यो दोषरहिता इत्यर्थः, ताश्च ता एवणाश्च- उद्गमैवणाद्याः शुद्धेषणाः, एषणाः सप्त संस्पृटायाः, तद्यथा - 'संसद्धमसंसट्टा उद्धड तह अप्पलेवडा चेव । उग्गहिया पग्गहिया उज्झिषधम्माय सत्तमिय ॥ १ ॥ ति १] उज्जयिन्यां श्रावतञ्चरेत्वा मालव के सूपकाराणां हस्ते विक्रीतः, पारापतान् नारय, न मारयामीति हस्तिपादत्रासनं शीर्पारक्षणं करणं च २ संसृष्टाऽसंसृष्टोद्धृता तथाऽललेपा चैव अगृहीता प्रगृहीतोज्झितवर्मा च सप्तमिका ॥ १ ॥ For Paren ancibrary s मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 586~ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [--1/ गाथा ||११|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) उत्तराध्य. बृहदृत्तिः याध्य.८ प्रत ॥२९॥ सूत्रांक ||११|| एतासु च शुद्धषणाः पञ्च, जिनकल्पिकापेक्षमेतत् , उक्तं हि तदधिकारे-पंचसु गहो दोसु अभिग्गहों'त्ति, एताश्च कापिली|'ज्ञात्वा' अवबुध्य, किमित्याह-'ज्ञानस्य फलं विरतिरिति 'तो'त्येषणासु 'स्थापयेत्' निवेशयेत् , भिक्षत इत्येवं|धा तत्साधुकारी चेति भिक्षुः सन् 'आत्मानं खं, किमुक्तं भवति -अनेषणापरिहारेणेषणाशुद्धमेव गृह्णीयात् , तदपि किमर्थमित्याह-'जायाए'त्ति यात्रायै संयमनिर्वहणनिमित्तं 'घासंति ग्रासमेषयेद्-गवेपयेत् , उक्तं हि-"जह सगडक्खोवंगो कीरति भरवहणकारणा गवरं । तह गुणभरवहणत्थं आहारो बंभयारीणं ॥१॥ति, एषणाशुद्धमप्यादाय कथं भोक्तव्यमिति प्रासैषणामाह-रसेपु-स्निग्धमधुरादिषु गृद्धो-गृद्धिमान् रसगृद्धो 'न स्यात्' न भवेत् , |'भिक्खाए'त्ति भिक्षादो भिक्षाको वा, अनेन रागपरिहार उक्तः, द्वेषपरिहारोपलक्षणं चैतत् , ततश्च रागद्वेषर(हितो मुजीतेत्युक्तं भवति, यदुक्तम्-"रागद्दोस विमुत्तो भुंजेज्जा णिज्जरापही"ति, सूत्रगर्भार्थः ॥ अमृद्धश्च रसेषु यत्कुर्यात्तदाहपंताणि चेव सेविजा सीयपिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा जवणड्डा निसेवए मंधु ॥१२॥ ब्याख्या-'प्रान्तानि' नीरसानि, अन्नपानानीति गम्यते, चशब्दादन्तानि च, एवोऽवधारणे, स च भिन्नक्रमः M२९४॥ १पञ्चसु ग्रहो द्वयोरभिग्रह इति । २ यथा शकटाक्षोपाङ्गः क्रियते भारवहनकारणात् नवरम् । तथा गुणभरवहनार्थमाहारो ब्रह्मचारिजाणाम् । ३ रागद्वेषविमुक्तो भुजीत निर्जराप्रेक्षी । दीप अनुक्रम [२१९] For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-] / गाथा ||१२|| __ नियुक्ति: [२५९...] (४३) - *- *- प्रत *- सूत्रांक *- ||१२|| * सेविजा इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततश्च प्रान्तान्यन्तानि च सेवेतैव न त्वसाराणीति परिष्ठापये, गच्छनिर्गतापअक्षया या प्रान्तानि चैव सेवेत, तस्य तथाविधानामेव ग्रहणानुज्ञानात् , कानि पुनस्तानीत्याह-'सीयपिंड'ति शीतलः पिण्डः-आहारः, शीतश्चासौ पिण्डश्च शीतपिण्डस्तं, शीतोऽपि शाल्यादिपिण्डः सरस एव स्यात् अत आह'पुराणा' प्रभूतवर्षधृताः 'कुल्मापाः' राजमाषाः, एते हि पुराणा अत्यन्तपूतयो नीरसाश्च भवन्तीत्येतद्हणम् , उपलक्षणं चैतत् पुराणमुद्रादीनां, 'अदु' इति अथवा 'बुकस' मुद्गमापादिनखिकानिष्पन्नमन्नमतिनिपीडितरसं वा KI'पुलाकम् ' असारं वलचनकादि, वा समुच्चये, 'जवणट्टत्ति यापनार्थ-शरीरनिर्वाहणार्थ, वा समुच्चये, उत्तरत्र योक्ष्यते, दा'सेवए'त्ति सेवेतोपभुजीत, यापनार्थमित्यनेनैतत सूचितं-यदि शरीरयापना भवति तदैव निपेवेत, यदि त्वतिवातो कादिना तद्यापनैव न स्यात्ततो न निवेत्तापि, गच्छगतापेक्षमेतत् , तन्निर्गतश्चैतान्येव यापनार्थेमपि निषेवेत, मन्थु वा-बदरादिचूर्णम् , अतिरूक्षतया चास्य प्रान्तत्वं, सेवेतेति सम्बन्धः, पठ्यते च-'जवणवाए णिसेवए मथु| ति, तथैव नवरं मन्थुमित्यत्र चशब्दो लुप्तनिर्दिष्टो द्रष्टव्यः, असारवस्तूपलक्षणं चोभयत्र मन्थुग्रहणं, पुनः क्रियाऽभिदधानं च न सकृदेवावाप्सान्यमूनि सेवेत किन्त्वनेकधाऽपीतिख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः । यदुक्तं-'शुद्धषणाखात्मानं । स्थापयेदिति, तद्विपर्यये वाधकमाहजे लक्षणं च मुविणं च अंगविजं च जे पउंजंति। न ह ते समणा बुचंति एवं आयरिएहिं अक्खापं ॥१॥ -* दीप अनुक्रम [२२०] * -* For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~588~ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||१३|| __ नियुक्ति: [२५९... (४३) कापिली याध्य.८ प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य.8 व्याख्या-'ये' इति प्राग्वत् , 'लक्षणं च' शुभाशुभसूचकं पुरुषलक्षणादि, रूढितः तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि लक्षणं, दि तद्यथा-अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गती यानं खरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥१॥ 'खप्नं चे'त्यत्रापि रूढितः स्वप्नस्य शुभाशुभफलसूचकं शाखमेव, तद्यथा-'अलङ्कृतानां द्रव्याणां, वाजिवारणयोस्तथा। ॥२९५॥ वृषभस्य च शुक्लस्य, दर्शने प्रामुयाद्यशः ॥१॥ मूत्रं या कुरुते खप्ने, पुरीषं चापि लोहितम् । प्रबुध्येत तदा कश्चि लभते सोऽर्थनाशनम् ॥२॥' 'अंगविजं च'त्ति अविद्यां च शिरःप्रभृत्यङ्गस्फुरणतः शुभाशुभसूचिका 'सिरफुरणे किर रज' इत्यादिकां विद्या, प्रणवमायावीजादिवर्णविन्यासात्मिकां या, यद्वा-अङ्गानि-अङ्गविद्याव्यावर्णिणतानि भीमान्तरिक्षादीनि विद्या 'हलि!२ मातङ्गिनी स्वाहा' इत्यादयो विद्यानुवादप्रसिद्धाः, ततश्चाङ्गानि च विद्याश्चाङ्गविद्याः, प्राग्यद् वचनव्यत्ययः, 'चः' सर्वत्र वाशब्दार्थः, ये प्रयुञ्जते-व्यापारयन्ति, पुनर्ये इत्युपादानं लक्षणादिभिः पृथक् सम्बन्धसूचनार्थ, ततश्च प्रत्येकमपि लक्षणादीनि ये प्रयुञ्जते, न तु समस्तान्येव, ते किमित्याह-'न हु' नैव 'ते' एवंविधाः 'श्रमणाः' साधवः 'उच्यन्ते' प्रतिपाद्यन्ते, इह च पुष्टालम्बनं विनतयापारणत एवमुच्यते, अन्यथा करवीरलताभ्रामकतपखिनोऽप्येवंविधत्वापत्तेः, एवमायः आचार्यै 'आख्यातं' कथितम् , अनेन यथावस्थितवस्तुवादितयाऽऽत्मनि परापवाददोपं व्यपोहत इति सूत्रार्थः । ते चैवंविधा यदवामुवन्ति तदाह-- इह जीवियं अनियमित्ता पम्भट्ठा समाहिजोगेहिं । ते कामभोगरसगिहा उववजति आसुरे काए ॥ १४ ॥ SC+%ASAX दीप अनुक्रम २२१] ॥२९५॥ XX For wrandibansar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~589~ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [--] / गाथा ||१४|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) 4% % प्रत % सूत्रांक ||१४|| व्याख्या-यह' अस्मिन् जन्मनि जीवितं' असंयमजीवितम् 'अनियम्य' द्वादशविधतपोषिधानादिनाऽनियव्य | प्रभ्रष्टाः' च्युताः, केभ्यः ?-'समाहियोगेहि ति समाधिः-चित्तखास्थ्यं तत्प्रधाना योगा:-शुभमनोवाक्कायव्यापाराः समाधियोगाः, यद्वा समाधिश्च-शुभचित्तैकाग्रता योगाश्च-पृथगेव प्रत्युपेक्षणादयो व्यापाराः समाधियोगाः तेभ्यः, अनियन्त्रितात्मनां हि पदे पदे तदभ्रंशसम्भव इति, 'ते' अनन्तरमुक्ताः कामभोगेषु अभिहितखरूपेषु रसः-अत्यन्तासक्तिरूपस्तेन गृद्धा:-तेष्वभिकालावन्तः कामभोगरसगृद्धाः, यद्वा रसाः-पृथगेच शृङ्गारादयो वा, भोगान्तर्गतत्वेऽपि चैषां पृथगुपादानमतिगृद्धिविषयताख्यापनार्थम् 'उपपद्यन्ते' जायन्ते 'आसुरे' असुरसम्बन्धिनि काये, असुरनिकाये इत्यर्थः, इदमुक्तं भवति-एवंविधाः किश्चित् कादाचित्कमनुष्ठानमनुतिष्ठन्तोऽप्यसुरेष्वेवोत्पद्यन्ते इति सूत्रार्थः ॥ ततोऽपि च्युतास्ते किमामुवन्तीत्याह| तत्तोऽविय उवद्वित्ता संसारं बहुं परियडंति । बहुकम्मलेवलित्ताणं वोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ॥ १५ ॥ व्याख्या-'ततोऽपि च' असुरनिकायाद् 'उद्धृत्य' तत्परित्यागेनान्यत्र गत्वा 'संसारं चतुर्गतिरूपं बहुशब्दस्य | 'बहुपूपे घृतं श्रेय' इत्यादिषु विपुलवाचिनोऽपि दर्शनाद्वहुं-विपुलं विस्तीर्णमितियावत् , बहुप्रकारं वा चतुरशीतियोनिलक्षतया 'अणुपरियंति'त्ति अनुपरियन्ति, सातत्येन पर्यटन्तीत्यर्थः, पठन्ति च-'अणुचरंति'त्ति स्पष्टं, किंच-बहूनि १ अणुपरियति इति टीका दीप अनुक्रम [२२२] JaintairatamiN For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~590~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [--1/ गाथा ||१५|| __ नियुक्ति: [२५९... (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्य |च तान्यनन्ततया कर्माणि च-क्रियमाणतया ज्ञानावरणादीनि यहुकर्माणि तानि लेप इस लेपो बहुकम्मेणां या कापिली लिप-उपचयो बहुफर्मलेपस्तेन लिप्ता-उपचिता बहुकर्मलेपलिप्तास्तेपा 'बोधिः' प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिः भवति बृहद्वृत्तिः जायते 'सुदुर्लभा' अतिशयदुरापा, 'तेषाम् ' इति ये लक्षणादि प्रयुञ्जते, पठन्ति च-'बोही जत्थ सुदुलहा तेर्सि'ति | याध्य.८ ॥२९॥ बोधिर्यत्र-संसारे सुदुलेभा तेषाम्-अनुपरियतामिति योजनीयं, यतश्चैवमुत्रगुणविराधनायां दोषस्ततस्तदाराधना यामेव यतितव्यमितिभावः इति सूत्रार्थः ॥ आह-किममी द्रव्यश्रमणा जानन्तोऽप्येवं लक्षणादि प्रयुञ्जते ?, उच्यते,15 लोभतः, अत एव तदाकुलितस्यात्मनो दुष्पूरतामाहहै कसिणंपि जो इस लोयं पडिपुन्नं दलेज एगस्स । तेणावि से ण संतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया ॥१६॥ | व्याख्या-'कृत्स्नमपि' परिपूर्णमपि यः' सुरेन्द्रादिः 'इम' प्रत्यक्षं 'लोकं' जगत् 'परिपूर्ण' धनधान्यहिरण्यादिभृतं ४'दलेज'त्ति दद्यात् , किंबहुभ्यः ? इत्याह-एकस्स'त्ति एकस्मै कस्मैचित् कथञ्चिदाराधितवते, 'तेनापि' धनधा-18 द न्यादिभृतसमस्तलोकदायकेन, हेतौ तृतीया, 'से' इति स 'न सन्तुष्येत्' न दृष्येत् , किमुक्तं भवति ?-ममैतावद्ददशताऽनेन परिपूर्णता कृतेति न तुष्टिमामुयात् , उक्तं हि-"न वह्निस्तृणकाप्ठेपु, नदीभिर्वा महोदधिः। न चैवात्माऽथे-12 सारेण, शक्यस्तर्णयितुं क्वचित् ॥॥ यदि स्याद्रवपुष्णोऽपि. जम्बद्वीपः कथञ्चन । अपर्याप्तः प्रहर्षाय, लोभातस्य ॥१५॥ जिनेः स्मृतः ॥२॥" 'इतिः' एवमर्थे, एवम्-अमुनोक्तन्यायेन दुःखेन-कृच्छ्रेण-पूरयितुं शक्यः दुष्पूरः दुप्पूर एव | दीप अनुक्रम [२२३] AIMEducatan intimational For PATREPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) ***** प्रत सूत्रांक ||१७|| ॥ दुष्पूरकः 'इमे'त्ति अयं प्रत्यक्षः 'आत्मा' जीवः, एतदिच्छायाः परिपूरयितुमशक्यत्वादिति सूत्रार्थः ॥ किमिति न 15 सन्तुष्यतीति खसंविदितं हेतुमाह जहा लाभो तहा लोभो लाभा लोभो पवहति । दोमासकयं कर्ज कोडीएवि न निट्ठियं ॥१७॥ PI व्याख्या-'यथा' येन प्रकारेण 'लाभः' अर्थावासिः 'तथा' तेन प्रकारेण 'लोभः' गाद्धर्यमभिकालेतियावत् , भव तीति शेषः, किमेवमित्याह-लाभालोभः 'प्रवर्धते' प्रकर्षण वृद्धिं भजते, इह च लाभाल्लोभः प्रवर्द्धत इति वचना यथा तथेत्यत्र वीप्सा गम्यते, ततश्च-यथा यथा लाभस्तथा तथा लोभो भवतीत्युक्तं भवति, लाभाल्लोभः प्रवर्द्धत # इत्यपि कुत इत्याह-द्वाभ्यां-द्विसङ्ख्याभ्यां मापाभ्यां-पञ्चरक्तिकामानाभ्यां क्रियते-निष्पाद्यत इति द्विमापकृतम् , |आपत्वाद्वर्तमानकाले क्तः, 'कार्य' प्रयोजनं, तचेह दास्याः पुष्पताम्बूलमूल्यरूपं 'कोट्याऽपि' सुवर्णशतलक्षात्मिकया ४'न निष्ठित' न निष्पन्नं, तदुत्तरोत्तरविशेषवाम्छात इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति यदुक्तं-द्विमाषकृतं कार्य कोट्याऽपि दान निष्ठित'मिति, तत्र तदनिष्ठितिः स्त्रीमूलेति तत्परिहार्यतोपदर्शनायाह नो रक्खसीसु गिजझेजा गंडवच्छासु गचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता खेल्लंति जहा व दासेहिं ॥१८॥ | व्याख्या-'नो' नैय राक्षस्य इव राक्षस्यः-खियः तासु, यथा हि राक्षसो रक्तसर्वखमपकर्षन्ति जीवितं च प्राणिनामपहरन्ति एवमेता अपि, तत्त्वतो हि ज्ञानादीन्येव जीवितं च अर्थश्च (सर्वखं) तानि च ताभिरपहियन्त एव, तथा दीप अनुक्रम [२२५] 5*52525 FOFO wiancibansar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~592~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-]/ गाथा ||१८|| नियुक्ति: [२५९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२९७ याध्य.८ प्रत सूत्रांक ||१८|| च हारिल:-“वातोडूतो दहति हुतभुग्देहमेकं नराणां, मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव । ज्ञानं शीलं विनयवि- कापिलीभवौदार्यविज्ञानदेहान् , सर्वानर्थान् दहति वनिताऽऽमुष्मिकानैहिकांश्च ॥१॥” 'गिज्झेजति गृद्धयेद्-अभिकाजाचान् भवेत् , कीदृशीषु ?-'गंडवच्छासु'त्ति गण्ड-गडु, इह चोपचितपिशितपिण्डरूपतया गलत्पूतिरुधिरार्द्रतासम्भवाच तदुपमत्वाद्गण्डे कुचायुक्तौ ते वक्षसि यासां तास्तथाभूतास्तासु, वैराग्योत्पादनाथ चेत्थमुक्तं, तथाऽनेकानि-अनेकसङ्ख्यानि चञ्चलतया चित्तानि-मनांसि यासां ता अनेकचित्तास्तासु, आह च-"अन्यस्याङ्के ललति विशदं चान्यमालिङ्गव शेते, अन्य वाचा चपयति हसत्यन्यमन्यं च रौति । अन्यं द्वेष्टि स्पृशति कशति प्रोणुते| वाऽन्यमिष्टं, नार्यो नृत्यत्तडित इव धिक चञ्चलाश्चालिकाश्च ॥१॥” तथा 'जाओ'त्ति याः 'पुरुष' मनुष्यं, कुलीन-18 |मपीति गम्यते, 'प्रलोभ्य' त्वमेव मे शरणं त्वमेव च प्रीतिकृदित्यादिकाभिर्वाग्भिविप्रतार्य क्रीडन्ति, 'जहा व'-12 ति वाशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् यथैव दासः, एबागच्छ मा यासीरित्यादिवितथोक्तिप्रभृतिभिः क्रीडाभिविलसन्तीति सूत्रार्थः ॥ पुनस्तासामेवातिहेयतां दर्शयन्नाहनारीसु नो पगिझिजा इत्थीविष्पजहे अणगारे । धम्मं च पेसल णच्चा तत्थ ठवेज भिक्खु अप्पाणं ॥१९॥||॥२९७॥ | व्याख्या-'नारीषु' स्त्रीषु 'नो' नैव 'प्रगृध्येत्' प्रशब्द आदिकर्मणि ततो गृद्धिमारभेतापि न, किं पुनः कुर्यादिति भावः, 'इत्थी विप्पजहे 'त्ति स्त्रियो विविधैः प्रकारः प्रकर्षेण च जहाति-त्यजतीति स्त्रीविप्रजहः, उणादयो बहु दीप अनुक्रम [२२६] For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं [-1 / गाथा ||२०|| _ नियुक्ति: [२५९...] (४३) 45-964 प्रत सूत्रांक ||२०|| |लमिति (पा०३-३-१) बहुलवचनाच्छः, यद्वा-'इस्थिति स्त्रियो 'विष्पजहे'त्ति विप्रजयात्, पूर्वत्र च नारी४/ग्रहणान्मनुष्यस्त्रिय एवोक्ता, इह च देवतिर्यकसम्बन्धिन्योऽपि त्याज्यतयोच्यन्ते इति न पौनरुक्त्यमुपदेशत्वाद्वा, 'अनगारः' प्राग्वत् , किं पुनः कुर्यादित्याह-'धर्ममेव' ब्रह्मचर्यादिरूपं, चस्यावधारणार्थत्वात् , 'पेशलम्' इह परत्र चैकान्तहितत्वेनातिमनोज ज्ञात्या' अवबुध्य, 'तत्र' इति धर्मे 'स्थापयेत्' निवेशयेद् 'भिक्षुः' यतिः आत्मानं विषयामिलापनिषेधत इति सूत्रार्थः ॥ अध्ययनार्थोपसंहारमाहइइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपणेणं । तरिहिंति जे उ काहिंति तेहिं आराहिया दुवे लोगु२०त्तिमि? | व्याख्या-'इति' अनेन प्रकारेण 'एपः' अनन्तरमुक्तरूपः 'धर्मः' यतिधर्मः आङिति सकलतत्व रूपाभिव्याप्त्या ख्यातः-कथितः आख्यातः, केनेत्याह-'कपिलेन' इत्यात्मानमेव निर्दिशति, पूर्वसङ्गतिकत्वादमी मवचनतः प्रतिपद्यन्तामिति, 'चः' पूरणे, 'विशुद्धप्रज्ञेन' निर्मलावबोधेन, अतोऽर्थसिद्धिमाह-'तरिहिंति'त्ति तरिष्यन्ति, भवार्णवमिति शेषः, 'ये' इत्यविशेषाभिधानं, 'तुः पूरणे, ततो विशेषत एव तरिष्यन्ति, ये 'करिष्यन्ति' अनुष्ठास्यन्ति, प्रक्रमादमुं धर्मम् , अन्यञ्च 'तैः' 'आराधितौ' सफलीकृतौ 'वी' द्विसङ्ख्यौ लोको, इहलोकपरलोकावित्यर्थः, इह महाजनपूज्यतया परत्र च निःश्रेयसाभ्युदयप्रायेति सूत्रार्थः ।। 'इतिः' परिसमाप्ती त्रवीमि इति नयाश्च प्राग्वदिति॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायां विशेषटीकायामिदमष्टममध्ययनं व्याख्यातं कापिलं नाम ॥ दीप अनुक्रम २२८] %25%A9-%252 % mtashmall vमुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- ८ परिसमाप्तं ~594~ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/ गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२६०-२६३] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| एत्तराध्य. अथ नवममध्ययनम् । नमिप्रववृद्धृत्तिः ॥ उक्तमष्टममध्ययनं, साम्प्रतं नवममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने निर्लोभत्वमुक्तम् , ज्याध्य.९ ह इह तु तदनुष्ठितेः इहैव देवेन्द्रादिपूजोपजायत इति दयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्ट॥२९८॥ यवर्णनं पूर्ववद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपेऽन्वर्थानुगतं नमिप्रत्रज्येतिनाम, अतो नमः प्रव्रज्यायाश्च निक्षेपो वाच्य इत्युभयनिक्षेपाभिधानायाह नियुक्तिकृत् निक्खेवो उ नमिमि चउबिहो दु० ॥२६०॥ जाणग०॥ २६१ ॥ नमिआउनामगोयं वेयंतो भावतो नमी होइ। तस्स य खल पवजा नमिपत्नजति अज्झयणं ॥ २६२॥ पवजानिक्खेवो चउबिहो अन्नतिथिगा दवे । भावंमि उ पवजा आरंभपरिग्गहचाओ ॥ २६३ ॥ | व्याख्या-'निक्षेपः' न्यासः, 'तुः' पूरणे, 'नमौ' नमिविषयः 'चतुर्विधः' चतुर्भेदो नामादिः, तत्र च नामस्थापने सुगमे, 'द्विविधः' द्विभेदो भवति 'द्रव्ये' द्रव्यविषयः, तमेवाह-आगमनागमता, तत्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नो-IPR९८॥ आगमतश्च स 'त्रिविधः' त्रिभेदः, 'जाणगसरीरभविए तबइरित्ते यत्ति नमिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् जशरीरनामभव्यशरीरनमिस्तद्वयतिरिक्तनमिश्च, 'स' तयतिरिक्तनमिर्भवेत् त्रिविधः-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, दीप अनुक्रम २२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - ९ "नामिप्रव्रज्या" आरभ्यते ~595~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||२०...|| नियुक्ति : [२६०-२६३] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| एतत्वरूपं च प्राग्वत् , तथा नम्यायुर्नामगोत्रं वेदयन् भावतो नमिभवति, 'तस्य नमः 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे, 'प्रत्रज्या' वक्ष्यमाणखरूपा, इहाभिधीयत इत्युपस्कारः, अतश्च 'नमिप्रव्रज्ये ति नमिप्रमज्याख्यमिदमध्ययनमेव प्रस्तुतमुच्यत इति शेषः, प्रव्रज्यानिक्षेपश्चतुर्विधो नामादिः, नामस्थापने प्राग्वत् , अन्यानि च तान्यनहत्प्रणीततीर्थादन्यत्वेन तीर्थानि च-निजनिजाभिप्रायेण भवजलधेः तरणं प्रति करणतया विकल्पितत्वेनान्यतीर्थानि तेषु भवा अन्यती|र्थिकाः, अध्यात्मादेराकृतिगणत्वाट्टक, तेच शाक्यसरजस्कादयः, 'द्रव्ये' विचार्य, प्रव्रज्येति सम्बन्धः, प्रव्रज्यायोगाच त एव प्रप्रज्येत्युच्यते, यथा दण्डयोगात् पुरुषोऽपि दण्ड इति, इह चान्यतीर्थिकशब्देन विवक्षितभावविकलतैव सूचिता, ततोऽन्यतीथ्योः खतीर्था वा प्रव्रज्यापर्यायशून्या द्रव्यप्रघ्रज्येति भण्यन्ते, अत एवाह-भावे तु विचार्यमाणे प्रत्रज्या आरम्भश्च-पृथिव्याधुपमर्दः परिग्रहश्च-मूर्छा आरम्भपरिग्रही तयोस्त्यागः-परिहारः आरम्भपरिग्रहत्यागः, न तु बहिर्वेषधारणाद्यवेति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ इह च यद्यपि नमिप्रवज्यैव प्रक्रान्ता, तथापि यथाऽयं प्रत्येकबुद्धस्त थाऽन्येऽपि करकण्डादयस्त्रयस्तत्समकालसुरलोकच्यवनप्रव्रज्याग्रहणकेवलज्ञानोत्पत्तिसिद्धिगतिभाजः इति प्रसङ्गतो। ६/पिनेयवैराग्योत्पादनार्थं तद्वक्तन्यतामपि विवक्षुरिदमाह नियुक्तिकृत् करकंड कलिंगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो। नमीराया विदेहेसु, गंधारेसु य नग्गई ॥ २६ ॥ वसभे अ इंदकेऊ वलए अंवे अ पुफिए बोही। करकंडु दुम्मुहस्सा नमिस्स गंधाररपणो अ॥२६५॥ MSO- 4400- 46-4-48-40 FEEEEEEEEEE. दीप अनुक्रम [२२८] FOPARDASTIHD Dmony मलसत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मलं एवं शान्तिसरि-विरचिता वत्तिः ~596~ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-1 / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२६४-२७३] (४३) उत्तराध्य. बहद्धतिः ॥२९९॥ ज्याध्य.९ प्रत सूत्रांक ||२०|| मिहिलावइस्स णमिणो छम्मासायंक विजपडिसेहो। कत्तिअसुमिणगर्दसणअहिमंदरनंदिघोसे अ२६६ नमिपत्रदुन्निवि नमी विदेहा रजाई पयहिऊण पवइआ। एगो नमितित्थयरो एगो पत्तेयबुद्धो अ॥ २६७ ॥ जो सो नमितित्थयरो सो साहस्सिय परिवुडो भयवं । गंथमवहाय पवइ पुत्तं रज्जे ठवेऊणं ॥२६॥ बीओवि नमीराया रजं चइऊण गुणसयसमग्गं । गंथमवहाय पवइ अहिगारों एत्थ बिइएणं ॥२६९॥2 पुप्फुत्तराउ चवणं पवजा होइ एगसमएणं । पत्तेयबुद्धकेवलि सिद्धि गया एगसमएणं ॥ २७० ॥ सेअं सुजायं सुविभत्तसिंग, जो पासिआ वसहं गुट्ठमज्झे। रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिआ णं, कलिंगरायावि समिक्ख धम्मं ॥ २७१ ॥ जो इंदकेउं समलंकियं तु, दटुं पडतं पविलुप्पमाणं । रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिआ णं, पंचालरायावि समिक्खधम्मं ॥ २७२ ॥ ॥२९९॥ बुद्धिं च हाणि च ससीव दटुं, पूरावरेगं च महानईणं । अहो अणिचं अधुवं च नच्चा, पंचालरायावि समिक्ख धर्म ॥ २७३ ॥ दीप अनुक्रम [२२८] For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~597~ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-1 / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) * प्रत सूत्रांक ||२०|| बहुआणं सद्दयं सुच्चा, एगस्स य असदयं । वलयाण नमीराया, निक्खंतो मिहिलाहिवो ॥ २७४ ॥ जो चूअरुक्खं तु मणाभिरामं, समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं । रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिआ णं, गंधाररायावि समिक्ख धम्मं ॥ २७५ ॥ जया रजं च रटुं च, पुरं अंतेउरं तहा। सबमेअं परिच्चज, संचयं किं करेसिम ? ॥ २७६ ॥ जया ते पेइए रज्जे, कया किच्चकरा बहू । तेसिं किञ्च परिच्चज, अज किच्चकरो भवं ॥ २७७ ॥ *जया सवं परिच्चज, मुक्खाय घडसी भवं । परं गरहसी कीस ?, अत्तनीसेसकारए ॥ २७८ ॥ मुक्खमग्गं पवन्नेसु, साहसु बंभयारिसु । अहिअत्थं निवारितो, न दोसं वत्तुमरिहसि ॥ २७९ ॥ | एतदर्थस्तु प्रायः सम्प्रदायादवसेय इति तावत् स एवोच्यते-चंपानयरीए दहिवाहणो राया, चेडगधूया पउमावती देवी, तीसे दोहलो-किहाहं रायपणेवत्येण णेवत्थिया उजाणकाणणाणि विहरेजा ?, सा उल्लगसरीरा जाया, राया पुच्छति, ताधे राया य सा य जयहथिमि आरूढा, राया छत्तं धरेइ, गया उजाणं, पढमपाउसंच, सीयलएणं १ चम्पानगर्या दधिवाहनो राजा, चेटकदुहिता पद्मावती देवी, तस्या दौहृदः-कधमहं राजनेपथ्येन नेपध्यिता उद्यानकाननानि विहरेयं ?, 15सा क्षीणशरीरा जाता, राजा पृच्छति, तदा राजा च सा च जयहस्तिनि आरूढा, राजा छत्रं धारयति, गतोयानं, प्रथमप्रायद च, शीतलेन | दीप अनुक्रम [२२८] JMEDICTomTI FILPATTESTIMommony mitram.orm मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः ॥३०॥ सूत्रांक ||२०|| मट्टियागंधेणं हत्थी अभाहतोवणं संभरति, नियहो वणाभिमुहो पयातो, जणो ण तरति ओलगिउं, दोवि अडवि है। पवेसियाई, राया बडरुक्खं पेच्छइ, देवि भणइ-एयस्स वडस्स हेट्टेण जाहित्तिति ता तुमं साखंगण्हेज्जासि, ताए पडि ज्याध्य.९ सुष, ण तरति, राया दक्खो तेण साहा गहिया, सो उत्तिण्णो, णिराणंदो गतो चपं । सावि य इत्थिया णीया णिम्माणुसं | अडविं, जाच तिसायितो पेच्छति दहं महतिमहालयं, तत्थ ओइन्नो अभिरमति हत्थी, इमावि सणियं २ उहण्णा तला| गातो, न दिसातो जाणइ एक्काए दिसाए सागारं भत्तं पञ्चक्खाइत्ता पहाविया, जाव दूरंगया ताव तावसो दिट्ठो, तस्सी मूलं गया, अभिवातितो, पुच्छति-कसोऽसि अम्मो इहं आगया ?, ताहे कहेइ-अहं चेडगस्स धूया, जाव इहं हथिणा आणीया, सो य तावसो चेडगनियल्लतो, तेण आसासिया-मा वीहेहित्ति, ताहे से वणफलाणि दाऊणं एकाए १ मृत्तिकागन्धेन हत्यभ्याहतो वनं स्मरति, निवृत्तो बनाभिमुखः प्रयातः, जनो न शक्नोत्यवलगितुं, द्वावप्यटवी प्रवेशिती, राजा वटवृक्षं प्रेक्षते, देवी भणति-एतस्य बटस्याधस्तनेन यास्थतीति तत्त्वं शाखां गृहीयाः, तया प्रतिश्रुतं, न शकोति, राजा दक्षस्तेन शाखा गृहीता, स उत्तीर्णो, निरानन्दो गतश्चम्पाम् । साऽपि च स्त्री निर्मानुषां नीता अटवी, यावत्तृषितः प्रेक्षते हदं महातिमहालय, वत्रा ॥३०॥ वतीर्णोऽभिरमते हस्ती, इयमपि शनैः अवतीर्णा तडाकात्, न दिशो जानाति एकया दिशा साकारं भक्तं प्रत्याख्याय प्रधाविता, यावरं गता | तावत्तापसो दृष्टः, तस्य मूलं गता, अभिवादितः, पृच्छति-कुतोऽसि अम्ब ! इहागता , तदा कथयति-अहं चेटकस्य दुहिता, यावदत्र तिनाऽऽनीता, स च तापसधेटकप निजकः, तेनाश्वासिता मा भैपीरिति, तदा तस्यै पनफलानि दस्वैकया दीप अनुक्रम [२२८] AIMEducatan intarntational For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/ गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) * प्रत ***** सूत्रांक ||२०|| दिसाए अडवीओ णीणिया, एत्तोहितो हलच्छित्ता भूमी तं न अक्कमामो, एसो दंतपुरस्स विसतो दंतचको राया, तातो अडवीतो णिग्गया, दन्तपुरे अजाणं मूले पचाया, पुच्छियाए गम्भो ण अक्खातो, पच्छा णाए मयहरिकाणं आलोएति, वियाया समाणी सह णाममुद्दाए कंबलरयणेण य सुसाणे उज्झति, पच्छा मसाणपाणो, तेण गहितो, भजाए अप्पितो, अवकिन्नतोत्ति नामं कयं, सा अजातीए पाणीए समं मेत्तिं करेइ,साअज्जा ताहि संजईहिं पुच्छिया कहिं गम्भो ?, भणइ-मयगो जातो, ता मे उज्झितो, सो तत्थ संवहति । ताहे दारगरूवेहि समं रमइ, सो ताणि ६ डिकरवाणि भणइ-अहं तुम्भं राया ममं करं देह, सो लुक्खकच्छूए गहितो, ताणि भणइ-ममं कंडूयह, ताहे से करकंडुत्ति नाम कयं, सो ताए संजईए अणुरत्तो, साय से मोयए देइ, जं च भिक्खं लटुं लहेइ । संवडिओ सो सुसाणं । दिशाऽटव्या निष्काशिता, अतो हलकृष्टा भूमिः तां नाक्रमामहे, एष दन्तपुरस्य विषयो दन्तचको राजा, तस्या अटव्या निर्गता, दन्तपुरे आर्याणां मूले प्रनजिता, पृष्ठया गों नाल्यातः, पश्चाजाते महत्तरिकाभ्य आलोचयति, विजाता सती सह नाममुद्रया कम्बलरत्नेन च श्मशाने उज्झति, पश्चात् श्मशानचाण्डालः, तेन गृहीतः, भार्यायै अर्पितः, अवकीर्णक इति नाम कृतं, साऽऽर्या तया चाण्डाल्या समं मैत्री करोति, साऽऽर्या ताभिा संयतीभिः पृष्ठा-क गर्भः ?, भणति-मृतो जातस्ततो मयोज्झितः, स तत्र संवर्धते । तदा दारकरूपैः समं रमते, ते Bासतानि डिम्मरूपाणि भणति-अहं युष्माकं राजा मह्यं कर दत्त, स रूक्षकच्छा गृहीतः, तानि भणति-मां कण्हयत, तदा तस्य करकण्डरिति || 2 नाम कृतं, स तस्यां संपलामनुरक्तः, सा च तस्मै मोदकान् ददाति, यच भिक्षा लष्टां लभते । संवृद्धः स श्मशानं *** दीप अनुक्रम [२२८] % JAIMEducatan intimation For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~600~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) ज्याध्य.९ प्रत % सूत्रांक % ||२०|| % उत्तराध्य- रक्खेति, तत्थ दो संजया तं मसाणं केणति कारणेन अतिगता, जाव एगत्य बंसकुडंगे दंडगं पेच्छंति, तत्थ एगोनिमिप्रमबृहद्वृत्तिः दिदंडलक्खणं जाणति, सो भणति-जो एयं दंडगं गिण्हति सो राया होतित्ति, किंतु पडिच्छियहोति जाव अन्नागिरी चचारि अंगुलाणि वहति ताहे जोग्गोत्ति । तं तेणं मायंगचेडएणं मुयं, एक्केण भिजाइएण य, ताधे सो घिजाइयिगो ॥३०॥ अप्पसागारियं तस्स चउरंगुलं खणिऊण छिंदेइ, तेण य चेडएण दिट्ठो, सो उहालिओ, सो तेण घिजाइएण करणं दणीतो भणइ-देहि दंडग, सो भणइ-मम मसाणे, ण देमि, विजाइजो भणिओ-अन्नं गिण्ह, सो णिच्छइ. भणति य-एएण मम कजंति, सो दारगो न देइ, ताहे सो दारगो पुच्छिओ-किं न देहि, भणई य-अहं एयस्स दंडगस्स पहावेण राया होहामिति, ताहे कारणिया हसिऊणं भणंति-जया तुमं राया होजासि तया एयस्स तुम K १ रक्षति, तत्र द्वौ संवत्तौ तं श्मशान केनचित्कारणेनातिगतो, यावदेकत्र वंशजाल्यां दण्डं प्रेक्षासे, तत्रैको दण्डलक्षणं जानाति, सभणति व एनं दण्डं गृहीयात् स राजा भवतीति, किं तु प्रतीक्षितव्य इति यावदन्यांश्चतुरोऽङ्गुलान् वर्धते, तदा योग्य इति । तस्तेन माप्तङ्गाचेटेन श्रुतम् , एकेन धिग्जातीयेन च, तदा स धिग्जातीयोऽस्पसागारिके तस्य चतुरो लान खात्वा छिनत्ति, तेन च चेटेन दृष्टा, सोऽपहृतः, स धिम्जातीयेन तेन करणं नीतो भणति-देहि पण्डं, स भणति-मम श्मशाने, न ददामि, धिग्जातीयो भणितः-अन्यं गृहाण, स| नेच्छति, भणति च-एतेन मम कार्यमिति, स दारको न ददाति, तदा स दारकः पृष्टः-किं न ददासि , भणति च-अहमेतस्य दण्डस्य प्रभावेण राजा भविष्यामीति, तदा कारणिका हसित्वा भणन्ति-यदा त्वं राजाऽभविष्यस्तदैतस्मै त्वं % दीप अनुक्रम [२२८] %%% %%% For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~601~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-1 / गाथा ||२०...|| नियुक्ति : [२७४-२७९] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| Miगोमं देजासि, पडिवण्णो सो, तेण धिज्जाइएण अन्ने धिज्जाइया गहिया-जहा एवं मारित्ता हरामो, तं तस्स पियार दसुयं, ताणि तिन्निवि गट्ठाणि जाव कंचणपुरं गयाणि । तत्थ राया मरइ अपुत्तो, आसो अहियासितो, तस्स वाहिं है सुर्यतस्स मूलं आगओ, पयाहिणीकाऊण ठितो, जाब णायरा पिच्छंति लक्खणजुत्तं, जयजयसदो कतो, गंदीतुरं आहयं, इमोवि जंभंतो उडिओ, वीसत्थो आसं बिलग्गो, पवेसिजइ, मायंगो त्ति धिज्जाइगा ण देंति पसं, ताहे तेण दंडरयणं गहियं, तंजलिउमारद्धं, ते भीया ठिया, ताहे तेण वाडहाणगा हरिएसा धिज्जाइया कया, उक्तं च-"दधिवाहनपुत्रेण, राज्ञा तु करकण्डुना ।वाटहानकवास्तव्याश्चण्डाला ब्राह्मणीकृताः ॥१॥" तस्स य धरनामं अयकिन्नगोत्ति, आपच्छा से तं चेव चेडगकयणामं पतिठ्ठियं करकंडुत्ति । तर्हि सो भिजातितो आगतो, देहि मम गार्म, भणति-1 १प्राममदास्यः, प्रतिपन्नः सः, तेन धिग्जातीयेन अन्ये धिग्जातीयाः स्वपक्षीकृता:-यथैनं मारयित्वा हरामः, तत्तस्य पित्रा श्रुतं, ते हयोऽपि मष्टा यावत्काञ्चनपुरं गताः । तत्र राजा मृतः अपुत्रः, अन्धोऽधिवासितः, तस्व बहिःसुप्तस्य मूलमागतः, प्रदक्षिणीकृत्य स्थितः यावन्नागराः प्रेक्षन्ते लक्षणयुक्तं, जयजयशब्दः कृतः, नन्दीतूर्यमाहतम् , अयमपि जम्ममाण उस्थितः, विश्वस्तोऽश्वं विलनः, प्रवेश्यते, मातङ्ग* इति धिग्जातीया न ददति प्रवेश, तदा तेन दण्डरनं गृहीतं, तज्ज्वलितुमारब्धं, ते भीताः स्थिताः, सदा तेन बादधानका हरिकेशा धि ग्जातीयाः कृताः । तस्य च गृहनामाषकीर्णक इति, पश्चात् तस्य तदेव चेटककृतं नाम प्रतिष्टितं करकण्हूरिति । तत्र स धिग्जातीय आगतः, है देहि मह्यं प्राम, भणति दीप अनुक्रम [२२८] AnEducatamintamatuindi For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~602~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-1 / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| उत्तराध्य. |जो ते रुचति, सो भणइ-मम चंपाए घरं, तो तहिं देहि, ताहे दधिवाहणस्स लेहेइ-देहि मम एगं गाम, अहं तुझं नमिप्रा रुचइ गाम वा नगरं वा तं देमि, सो रुट्ठो दुट्ठमायंगो अप्पाणं ण जाणइत्ति, जो ममं लेहं देइत्ति । दूएण पडिआगएण बृहद्वृत्तिः ब्याध्य.९ कहियं, करकंडू कुवितो, चंपा रोहिया, जुद्धं वट्टति, ताए संजईए सुर्य, मा जणक्खओ होहितित्ति करकंडूं ओrroral ॥३०२॥ नारित्ता रहस्सं भिंदियत्ति, एस तव पियत्ति, तेण ताणि अम्मापियरो पुच्छियाणि, तेहिं सम्भावो कहितो, माणेणं णान। ओसरइ, ताहे सा चंपंअइगया, रण्णो घरं अतीति, णाया पायपडियाओ दासीओ परुष्णातो, रायणावि सुर्य, सोज्न आगतो, वंदित्ता आसणं दाऊण तं गम्भं पुच्छति, सा भणइ-एसो जो एसणयरं रोहित्ता अच्छइ, तुहो णिग्गतो, मिलितो, दोवि रजाणि तस्स दाऊण दहिवाहणो पचतितो। करकंडू य महासासणो जातो, सो य किर गोउलप्पितो १ यस्तुभ्यं रोचते, स भणति-मम चम्पायां गृहं, तत्तत्र देहि, तदा दधिवाहनाय लेखयति-देहि मह्यमेकं मामम् , अहं तुभ्यं यद्रोचते प्रामो वा नगरं वा तहदामि, स रुष्टो दुष्टमातङ्ग आत्मानं न जानातीति, यो मह्यं लेखं ददातीति । दूतेन प्रत्यागतेन कथितं, करकण्डू कुपितः, चम्पा रुद्धा, युद्धं वर्तते, तया संयत्या धुतं, मा जनक्षयो भविष्यतीति करकण्डूमपसार्य रहस्यं भेदितवती--एप तब पितेति, तेन तो मातापितरी पृष्टी, ताभ्यां सद्भावः कथितः, मानेन नापसरति, तदा सा चम्पामतिगता, राज्ञो गृहमति, माता पादपतिता दावा प्रवितात, राज्ञापि श्रुतं, सोऽण्यागतो, वन्दित्वाऽऽसनं दत्त्वा तं गर्भ पृच्छति, सा भणति-एष य एतनगरं रूद्धा तिष्ठति, तुष्टी निगता, मीलितो, हे अपि राज्ये तस्मै दत्वा दधिवाहनः प्रत्रजितः । करकण्डूध महाशासनो जातः, स च किल गोकुलप्रियः दीप अनुक्रम [२२८] For Free repcitrama मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~603~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: २७४-२७९] (४३) R प्रत -52-%256 सूत्रांक अणेगाणि तस्स गोउलगाणि जायाणि जाव सरयकालेण एगं गोवच्छयं घोरगत्तं सेयं तं पेच्छइ, भणति य-एयस्स मायरं ६मा दुहेजाहि, जया वद्वितो हुज्जा तया अण्णाणं गावीणं दुद्धं पाएजाह, ते गोवा पडिसुणंति, सो उच्चत्तविसाणो| खद्धवसभो जातो, राया पेच्छति, सो जुद्धिक्कओ जातो, पुणो कालेण राया आगतो पेच्छति-महाकायं जुण्णं चसमं, सापडएहिं परिघट्टयंत, गोये पुच्छह-कर्हि सो वसहोति !, तेहिं सो दाइतो, पेच्छंतओ विसायं गतो, अणिचयं चिंतितो संबुद्धो 'सेयं सुजायं० सुत्तं, 'गोटुंगणस्स.' गाहा, 'पोराण' गाथा १॥ इत्तो पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरं| नयरं, तत्थ दुम्मुहो राया, सो य इंदकेउं पासति लोगेण महिजंतं अणेगकुडभीसहस्सपडिमंडियाभिरामं, पुणो अ विलुत्तं पडियं च मुत्तपुरीसाण मज्झे, सोऽवि संबुद्धो पवतितो 'जो इंदकेउं सुयलंकियं तु' सोऽवि विहरति २॥ १ अनेकानि तस्य गोकुलानि जातानि यावच्छरत्काल एकं गोवत्सं घोरगात्रं श्वेतं तं प्रेक्षते, भणति च एतस्य मातरं मा धीक्षिष्ट, यदा वृद्धो भवेत् तदाऽन्यासां गा हुग्धं पाययेत, ते गोपाः प्रतिशृण्वन्ति, स उच्चविषाण: समर्थवृषभो जातः, राजा पश्यति, स युद्ध एकको जातः, ते पुनः कालेन राजाऽऽगतः पश्यति-महाकायं जीर्ण वृषभ, हस्खमहिषीभिः परिघट्यमानं, गोपान् पृच्छति-क स वृषभ इति !, तैः स दर्शितः, पश्यन् विषादं गतः, अनित्यतां चिन्तयन् संबुद्धः 'श्वेतं सुजातं.' सूत्र गोष्ठाङ्गणस्य० गाथा 'पुराण' गाथा १॥ इतः पाञ्चालेषु जनपदेषु काम्पील्यपुरं नगरं, तत्र दुर्मुखो राजा, स चेन्द्रकेतुं पश्यति लोकेन मद्यमानमनेकपताकासहस्रपरिमण्डिताभिरामं, पुनश्च विलु। पतित्तं च मूत्रपुरीषयोर्मध्ये, सोऽपि संबुद्धः प्रत्रजितः 'य इन्द्रकेतुं खलतं तु०' सोऽपि विहरति २॥ ||२०|| 5 CACANCCCCCASE दीप अनुक्रम [२२८] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 604~ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२२८] उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥१०३॥ Jin Educato “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || २०...|| अध्ययनं [९], | हुआ य विदेहे जणवए महिलाए य णयरीए णमी राया, तस्स दाहो जातो, देवी चंदणं घसति, बलियाणि खलखलिंति, सो भणति कण्णाघातो होइ, देवीए एकेक अवर्णेतीए सचाणि अवणीयाणि, एकिकं टियं, तं राया पुच्छर - ताणि वलयाणि न खलखलिंति ?, सा भणति-अवणीयाणि, सो तेण दुक्खेण अम्भाहतो परलोगाभिनुहो चिंतेतिबहुयाणं दोसो ण एगस्स, जइ य एयातो रोगाओ मुच्चामि तो पञ्चयामि, तया य कतियपुण्णिमा वहृति, एवं सो चिंतिंतो पासुत्तो, पभायाए श्वणीए सुमिणए पासति - सेयं नागरायं मंदरोवरि च अत्ताणमारूढं णंदिघोसतूरेण य विवोहितो हट्टतुट्ठो चिंतेइ - अहो पहाणो सुविणो दिट्ठोत्ति, पुणो चिंतइ कहिं मया एवंगुणजातितो पञ्चतो दि| पुवोत्ति चिंतयंतेण जाती संभरिया, पुढं माणुसभवे सामण्णं काऊण पुप्फुत्तरे बिमाणे उववण्णो आसि, तत्थ देवते निर्युक्ति: [२७४-२७९] १ इतच विदेहे जनपदे मिथिलायां च नगर्यां नमी राजा, तस्य च दाहो जातः, देवी चन्दनं धर्षति, वलयानि शब्दं कुर्वन्ति, स भणति कर्णाघातो भवति, देव्यैकैकमपनयन्त्या सर्वाण्यपनीतानि, एकैकं स्थितं, तो राजा पृच्छति — तानि बलयानि न खटत्कुर्वन्ति ?, सा भणति अपनीतानि, स तेन दुःखेनाभ्याहतः परलोकाभिमुखञ्चिन्तयति — बहूनां दोषो नैकस्य, यदि चैतस्माद्रोगान्मुच्ये तदा प्रजामि, तदा च कार्त्तिक पूर्णिमा बर्त्तते, एवं स चिन्तयन् प्रसुतः, प्रभातायां रजन्यां स्वप्ने पश्यति वेतं नागराजं मन्दरस्योपरि चात्मानमारूढं, नन्दीघोषतूर्येण च विबोधितों दृष्टदुष्टश्चिन्तयति-अहो प्रधानः स्वप्नो दृष्ट इति, पुनश्चिन्तयति--क मयैवंगुणजातीयः पर्वतो दृष्टपूर्व इति चिन्तयता जातिः स्मृता, पूर्व मनुष्यभवे श्रामण्यं कृत्वा पुष्पोत्तरे विमान उत्पन्न आसं तत्र देवत्वे For Prata Use Only ~605~ नमिप्रत्र ज्याध्य. ९ ॥२०३॥ wwjanciran ang मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| मंदरो जिणमहिमाइसु आगएण दिद्वपुरोत्ति संबुद्धो पतितो 'बहुयाण-' सिलोगो ३ ॥ इओ य गंधारजणविसएसु पुरिसपुरं णाम नयरं, तत्थ णग्गती राया, सो य अन्नया अणुजत्तं णिग्गतो पेच्छइ-चूर्य कुसुमियं, तेणेगा मंजरी गहिया, एवं खंधावारेणं लयंतेणं कट्ठायसेसो कतो, पडिनियत्तो पुच्छति-कहिं सो चूयरुक्खो ?, अमचेण अक्खातो एसोत्ति, तो किह कट्ठाणि कतो', भणति-तुष्भेहिं एका मंजरी गहिया, पच्छा सवेणवि जण गहिया, सो चिंतेइ-एवं रजसिरित्ति, जाब रिद्धी ताव सोहति, अलाहि 'जो चूय०' गाहा, सोऽपि विहरति ४॥ चत्सारिवि |विहरमाणा खिइपतिट्ठिए णयरे चाउद्दार देउलं, पुषेण करकंडू पविट्ठो, दुम्मुहो दक्खिणेण, किह साहुस्स अन्नामुहो है अच्छामित्ति तेण वाणमंतरेण दक्षिणपासेवि मुहं कयं, नमी अवरेण, तओऽवि मुहं कयं, गंधारो उत्तरेण, तमोऽबि | १ मन्दरो जिनमहिमादिष्वागतेन दृष्टपूर्व इति संबुद्धः प्रव्रजितः 'बहूना० श्लोकः ३ ॥ इतच गान्धारजनविषयेषु पुरुषपुरं नाम नगर, तत्र नम्गती राजा, स चान्यदाऽनुयात्रं निर्गतः पश्यति-चूतं कुसुमितं, तेनैका मञ्जरी गृहीता, एवं स्कन्धावारेणाददानेन काष्ठावशेषः कृतः, ६ प्रतिनिवृत्तः पृच्छति-क स चूतवृक्षः !, अमात्येनाख्यात एष इति, तदा कथं काष्ठीकृतः ?, भणति-युष्माभिरेका मजरी गृहीता, पश्चात्स वेणापि जनेन गृहीता, स चिन्तयति-एवं राज्यश्रीरिति, यावदृद्धिस्तावच्छोभते, अलम् 'यभूत०' गाथा, सोऽपि विहरति ४ ॥ चत्वारोऽपि विहरन्तः क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे चतुरि देवकुलं, पूर्वेण करकण्डूः प्रविष्टः, दुर्मुखो दक्षिणेन, कथं साधोः पराङ्मुखस्तिष्ठामीति तेन व्यन्तरेण दक्षिणपाधेऽपि मुखं कृतं, नमिरपरेण, ततोऽपि मुखं कृतं, गान्धार उत्तरेण, ततोऽपि दीप अनुक्रम [२२८] 5-04 - 355 -* - * For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~606~ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) सत्तराध्य. ताच बृहद्वृत्तिः ॥३०॥ -AE ज्याध्य.९ प्रत सूत्रांक ||२०|| मुंह कयं । तस्स किर करकंडुस्स आबालत्तणा सा कंडू अत्थि चेव, तेण कंडूयगं गहाय मसिणं कण्णो कंडूइतो, तं नमि तेण एगत्व संगोवियं, तं दुम्मुहो पेच्छइ, सो भणइ-'जया रजं.' सिलोगो, जाव करकंडू पडिययणं न देति ताव । णमी वयणसमकं इमं भणइ-'जया ते पेतिते रज्जे 'सिलोगो, कि तुम एयस्स आउत्तगोत्ति भणति, ताहे गंधारो भणति-'जया सर्व परिचज.' सिलोगो, ताहे करकंडू भणति-'मोक्खमग्गपवण्णाणं.' सिलोगो "रूसऊ वा परो मा वा विसं वा परियत्तउ । भासियत्वा हिया भासा, सपक्वगुणकारिया ॥१॥” इत्येष सम्प्रदायः । एष एव च गाथाकदम्बकभावार्थः, अक्षरार्थस्तु स्पष्ट एव, नवरं मिथिला नाम नगरी, तस्याः पतिः-खामी मिथिलापतिस्तस्य, अनेनान्येषामपि तत्पतीनां सम्भवात् तद्वयवच्छेदमाह, 'नमे' नमिनाम्नः, 'छम्मासायंकविजपडिसेहो ति षण्मासानातको-दाहज्वरात्मको रोगः षण्मासातकः तत्र वैद्यैः-भिषग्भिः प्रतिषेधो-निराकरणम् , अचिकित्स्योऽयमित्यभि-1 धानरूपः षण्मासातङ्कवैद्यप्रतिषेधः, 'कत्तियत्ति कार्तिकमासे 'सुविणगर्दसणंति' खन्न एव खाकस्तस्मिन् दर्शनं VI १ मुखं कृतं । तस्य किल करकण्डोः आबाल्यात् सा कण्डूरस्ति चैत्र, तेन कण्डूयनं गृहीत्वा ममृणं कौँ कण्डूयिती, तत्तेनैकत्र संगो-IK|| पितं, तदुर्मुखः पश्यति, स भणति-यदा राज्यं० श्लोकः, यावत्करकण्डूः प्रतिवचनं न ददाति तावत् नमिर्वचनसममिदं भणति-यदा ते फे राज्ये० श्लोकः, किं त्वमेवस्यावर्तक इति भणति, तदा गान्धारो भणति-यदा सर्व परित्यज्य शोका, तदा करकण्र्भणतिमोक्षमार्गप्रपन्नानां शोकः । रुष्यतु वा परो मा वा विष वा पर्यतु । भाषितव्या हिता भाषा स्वपक्षगुणकारिणी (का)॥१॥ दीप अनुक्रम [२२८] % AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~607~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२२८] Jain Education i “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || २०...|| अध्ययनं [९], खप्रदर्शनम्, अभूदिति शेषः, कः १, यः 'अहिमंदर'ति अहिमन्दरयोः नागराजाचलराजयोः 'नंदिघोसे यत्ति' द्वादशतूर्यसङ्घातो नन्दी तस्या घोषः, स च स्वप्नमवलोकयतो जातः, तेन चासौ प्रतिबोधितः इत्युपस्कारः । इह च मिथिलापतिर्नमिरित्युक्तौ मा भूत्तथाविधस्य तीर्थकरस्यापि नमेः सम्भवाद्यामोह इति 'द्वौ नमी वैदेही' इत्याद्युक्तं । तथा 'पुण्फुत्तरातो' ति पुष्पोत्तरविमानाश्यवनं-भ्रंशनम्, एकसमयेनेति योज्यते, प्रत्रज्या च- निष्क्रमणं भवत्येकसमयेनैव तथा प्रत्येकम् - एकैकं हेतुमाश्रित्य 'बुद्धाः' अवगततत्राः प्रत्येकबुद्धाः, 'केवलिनः' उत्पन्नकेवलज्ञानाः, 'सिद्धिगताः' मुक्तिपदप्राप्ताः, त्रयाणामपि कर्मधारयः, एकसमयेनैवेति चतुर्णामपि समसमयसम्भवात् । तथा 'सेयं । सुजायं'ति श्रेतं वर्णतः सुजातं प्रथमत एवाहीनसमस्ताङ्गोपाङ्गतया, सुष्ठु - शोभने विभक्ते - विभागेनावस्थिते शृङ्गेविषाणे यस्य स तथा तमू, ऋद्धिं बलोपचयात्मिकाम् अनृद्धिः - तस्यैव बलापचयतस्तर्णकादिपरिभवरूपां 'समुपेहिया णं' ति सम्यगुत्प्रेक्ष्येति पर्यालोच्य पाठान्तरतः 'समुत्प्रेक्षमाणो वा कलिङ्गराजोऽपीत्यत्रापिशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये । तथा 'इन्द्रकेतुम्' इन्द्रध्वजं 'प्रविलुप्यमान' मिति जनैः खखवस्त्रालङ्कारादिग्रहणतः इतश्चेतश्च विक्षिप्यमाणं । तथा 'पूरावरेयं' ति पूरः- पूर्णता अपरेको रिक्तताऽनयोः समाहारे पूरावरेकं । तथा 'समञ्जरी पलवपुप्फचित्तं' सह मअरीभिः प्रतीताभिः पलवैश्व-किशलयैर्यानि पुष्पाणि-कुसुमानि वैश्वित्र:- कर्बुरः मञ्जरीपत्रपुष्प चित्रस्तं यद्वा सहमअपलय पुष्पैर्वर्तते यः स तथा चित्र-आश्चर्योऽनयोर्विशेषणसमासः, 'समिक्ख'त्ति आर्यत्वात् समीक्षते पर्यालोचयति, For Paren निर्युक्ति: [२७४-२७९] ~809~ wancibanya मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/ गाथा ||२०...|| नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) नमिप्र बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२०|| उत्तराध्य. अनेकार्थत्वादनीकुरुते वा, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् , यद्वा 'समिक्ख'त्ति समैक्षिष्ट समीक्षितवान् 'धर्म' यतिधर्म यदा 'ते' त्वया 'पैतृके' पितुरागते राज्ये कृता-विहिताः कृत्यामि कुर्वन्ति-अनुतिष्ठन्ति कृत्वकरा-नियोगिनो । बहवः-प्रभूताः, तदैव कृत्यकरत्वं खयं तव कर्तुमुचितमासीदित्युपस्कारः, 'तेषामिति कृत्यकराणां कृत्यं-परापराधप॥३०५॥ |रिभावनादि कर्तव्यं 'परित्यज्य' बताङ्गीकारादपहाय अद्य 'कृत्यकरो नियुक्तक:-अन्यदोषचिन्तको 'भवान्' त्वं, कि| मिति जात इति शेषः । तथा 'मोक्खाय घडसी'ति प्राकृतत्वान्मोक्षाय-मोक्षार्थ 'घटते' चेष्टते, तथा 'अत्तणिस्सेसकारए' त्ति आत्मनो निःशेषमिति-शेषाभावं प्रक्रमात् कर्मणः करोति-विधत्त इत्यात्मनिःशेषकारकः, यद्वा 'णिस्सेस'त्ति | निःश्रेयसो मोक्षस्तत्कारको । 'मोक्षमार्ग' मुक्त्यध्वानं 'प्रतिपन्नेषु' अङ्गीकृतवत्सु साधुषु ब्रह्मचारिषु 'अहियत्यति | अहितार्थ 'निवारयन्' निषेधयन् 'न दोष' परापवादलक्षणमस्येति शेषः, 'वक्तुम्' अभिधातुमर्हसि, यथा हि भवान अहितान्निवारयन् , कथं गर्हसीत्यादि, एवं नमिरपि अद्य कृत्य करो भवानिति कृत्यकरत्वलक्षणादहितान्निवारयति, तथा दुर्मुखोऽपि सञ्चयं किं करोषि इति सञ्चयत एवाहितान्निषेधयतीति नायं परापवाद इति वक्तुमुचितं, यद्वा- ४ा अहियत्थं णिवारितोत्ति सुव्यत्ययादहितार्थानिवारयन्तं न 'दोष'मिति मतुब्लोपान्न दोषवन्तं वक्तुमर्हसि, तथा चाषेम्-"रूसऊ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तउ । भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥१॥"| दीप अनुक्रम [२२८] ॥३०५॥ AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~609~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||१|| _ नियुक्ति: [२७४-२७९] (४३) - प्रत सूत्रांक ||१|| | इत्यवसितो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम् चहऊण देवलोगाओ उवधन्नो माणुसंमि लोगंमि । उघसंतमोहणिज्जो सरती पोराणियं जाई॥१॥ व्याख्या-च्युक्त्वा 'देवलोकात्' प्रतीतात् , 'उत्पन्नः' जाप्तः 'मानुषे' मानुषसम्बन्धिनि 'लोके' प्राणिगणे उपशान्तम्-अनुदयं प्राप्तं मोहनीयं-दर्शनमोहमीयं यस्यासाघुपशान्तमोहनीयः 'स्मरति चिन्तयति, स्मेति शेषः, वर्तमाननिर्देशो वा प्राग्वत् , कामित्याह-पोराणियंति पुराणामेव पौराणिकी, विनयादित्वात् ठक्, चिरन्तनीमित्यर्थः, 'जातिम्' उत्पत्ति, देवलोकादाविति प्रक्रमः, तद्गतसफलचेष्टोपलक्षणं घेह जातिरिति सूत्रार्थः । ततः |किमित्याह जाई सरितु भयचं सहसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे । पुस ठवितु रज्जे अभिनिक्खमति नमी राया ॥२॥ व्याख्या-'जातिम्' उक्तरूपां स्मृत्वा, भगशब्दो यद्यपि धैर्यादिष्वनेकेषु अर्थेषु वर्तते, यदुक्तं-"धैर्यसौभाग्यमाहात्म्ययशोऽर्कश्रुतधीश्रियः । तपोऽर्थोपस्थपुण्येशप्रयत्नतनवो भगाः॥१॥” इति, तथापीह प्रस्तावादुद्धिवचन एव गृह्यते, ततो भगो-बुद्धिर्यस्यास्तीति भगवान्, सहत्ति-खयमात्मनैव सम्बुद्धः-सम्यगवगततत्त्वः सहसम्बुद्धो, नान्येन प्रतियोधित इत्यर्थः, अथवा 'सहसति आपत्वात् सहसा-जातिस्मृत्यनन्तरं झगित्सेव बुद्धः, केत्याह दीप अनुक्रम [२२९]] *CARE %A5%- For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~610~ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) उत्तराध्य. बृहदृत्तिः -% ज्याध्य.९ प्रत सूत्रांक ||२|| अनुत्तरे' प्रधाने 'धर्म' चारित्रधर्म 'पुत्र सुतं 'स्थापयित्वा' निवेश्य, क-राज्ये 'अभिनिष्कामति' धर्माभिमुख्येन नमिप्रनगृहस्थपर्यायान्निर्गच्छति, मेतीमापि शेषः, ततश्च प्रबजितवानित्यर्थः, प्राग्वत् तिव्यत्ययेन या व्याख्येयं, 'नमिः' IP नमिनामा राजा पृथिवीपतिरिति सूत्रार्थः ।। स्यादेतत्, कुत्रावस्थितः कीदृशान् वा भोगान् भुक्त्वा सम्बुद्धः १ किया वाभिनिष्क्रामन् करोती साह सो देवलोगसरिसे अंतेउरवरगतो वरे भोए । भुंजित्तु णमी राया बुद्धो भोगे परिचयइ ॥३॥ व्याख्या-'सः' इत्यनन्तरमुदिष्टः 'देवलोगसरिसे'त्ति देवलोकभोगैः सदृशा देवलोकसदृशाः, मयूरव्यंसकादित्वाम्मध्यपदलोपी समासः, अंतउरवरगतो ति बरं-प्रधानं तच तदन्तःपुरं च परान्तःपुरं तत्र गतः-स्थितो वरा-31 |न्तःपुरगतः, प्राकृतत्वाच वरशब्दस्य परनिपातः, वरान्तःपुरं हि रागहेतुरिति तद्गतस्य तस्य भोगपरित्यागाभिधानेन जीवषीर्योलासातिरेक उक्तः, तत्रापि कदाचिद्वराः शब्दादयो न स्युः तत्सम्भवे वा सुबन्धुरिख कुतश्चिनिमित्तान KI भुञ्जीतापीत्याह-वरान्' प्रधानान् 'भोगान्' मनोज्ञशब्दादीन् 'भुक्त्वा' आसेव्य 'नमिः' नमिनामराजा 'बुद्धः' विज्ञाततत्त्वः 'भोगान्' उक्तरूपान् परित्यजति, स्पेति शेषः । इह पुनर्भोगग्रहणमतिविस्मरणशीला अप्यनुमाया ॥३०६॥ एवेति ज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः॥किंभोगानेव सक्त्वाऽभिनिष्क्रान्तवान् ? उतान्यदपीत्साहमिहिलं सपुरजणवयं बलमोरोहं च परियणं सब्वं । चेचा अभिनिक्खंतो एगतमहिडिओ भयवं ॥४॥ दीप अनुक्रम [२३० JAINEducatan intimational For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~611~ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-1/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [२७९,..] (४३) प्रत सूत्रांक ||४|| व्याख्या-'मिथिला' मिथिलानाम्नी नगरी, सह पुरैः-अन्यनगरर्जनपदेन च वर्तते या सा तथोक्का तां न त्वेकामेय, 'वलं' हस्त्यश्चादि चतुरङ्गम् 'अवरोधं च अन्तःपुरं 'परिजन' परिवर्ग 'सर्व' निरवशेष, न तु तथाविधप्रतिबन्धानास्पदं किञ्चिदेव 'स्वक्त्वा' अपहाय 'अभिनिष्क्रान्तः' प्रत्रजितः, 'एगंत'त्ति एक:-अद्वितीयः कर्मणामन्तो यस्मिनिति, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, तत एकान्तो-मोक्षस्तम् 'अधिष्ठितः' इव आश्रितवानिवाधिष्ठितः, तदुपाय सम्यग्दर्शनायासेवनादधिष्ठित एव वा, इहैव जीवन्मुक्त्यवासेः, यद्वैकान्त-द्रव्यतो विजनमुद्यानादि भावतश्च सदा al"एकोऽहं न च मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ दृश्योऽस्ति यो मम ॥१॥" इति | भावनात एक एवाहमित्यन्तो-निश्चय एकान्तः, प्राग्वत् समासः, तमधिष्ठितः, 'भगवान्' इति धैर्यवान् श्रुतवान् है वेति सूत्रार्थः ॥ तत्रैवमभिनिष्कामति यदभूत्तदाह-यदिवा यदुक्तं 'सर्व परित्यज्याभिनिष्क्रान्त' इति, तत्र कीहक् तत् त्यज्यमानमासीदित्याह४ कोलाहलगम्भूतं आसी मिहिलाए पच्चयंतमि । तइया रायरिसिम्मि नमिम्मि अभिनिक्खमंतमि ॥५॥ Pा व्याख्या-कोलाहल:-विलपिताऽऽक्रन्दितादिकलकलः कोलाहल एव कोलाहलकः स भूत इति-जातो यस्मिंस्तत्। कोलाहलकभूतम् आहितादेराकृतिगणवान्निष्ठान्तस्य परनिपातः, यदिवा भूतशब्द उपमार्थः, ततः-कोलाहलकभूतमिति कोलाहलकरूपतामिवापन्नं हा तात ! मातरित्यादिकलकलाकुलिततया 'आसीत् अभूत् मिथिलायां, सर्व गृह-15 782%AACE%ACARE दीप अनुक्रम [२३२]] JAIMEducatan intimations For PRATEEnviruinony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~612~ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], __ मूलं [--1/ गाथा ||५|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||५|| ESCCACK उत्तराध्य. विहारारामादीति प्रक्रमः, क्व सति ?-प्रत्रजति' प्रव्रज्यामाददाने 'तदा' तस्मिन् काले, राजा चासो राज्यावस्था-1 माश्रित्य ऋषिश्च तत्कालापेक्षया राजर्षिः, यदिवा राज्यावस्थायामपि ऋषिरिव ऋषिः-क्रोधादिषड्वर्गजयात् , ज्याध्य.९ तथा च राजनीति:-"कामः क्रोधस्तथा लोभो, हर्षो मानो मदस्तथा । षड्वर्गमुत्सृजेदेनं, तस्मिंस्त्यक्ते सुखी नृपः १३०७॥ 15॥१॥” तस्मिन् 'नमौ' नमिनाम्नि, 'अभिनिष्क्रामति' गृहात् कषायादिभ्यो वा निर्गच्छतीति सूत्रार्थः ॥ पुनरत्रान्तरे यदभूत्तदाह अन्भुद्वियं रायरिसिं, पब्बजाठाणमुत्तमं । सको माहणरूवेणं, इमं वयणमव्यवी ॥६॥ व्याख्या-'अभ्युत्थितम्' अभ्युद्यतं 'राजर्षि' प्राग्वत् प्रवज्यैव स्थानं तिष्ठन्ति सम्यग्दर्शनादयो गुणा अस्मिन्नितिकृत्वा प्रव्रज्यास्थानं, प्रतीति शेषः, 'उत्तम प्रधान, सुब्ब्यत्ययेन सप्तम्यर्थे वा द्वितीया, ततः प्रव्रज्यास्थान उत्तमे 'अभ्युपगतं' तद्विषयोधमवन्तं 'शकः' इन्द्रो 'माहनरूपेण' ब्राह्मणवेषेण, आगत्येति शेषः, तदा हि तस्मिन् महात्मनि प्रव्रज्यां ग्रहीतुमनसि तदाशयं परीक्षितुकामः स्वयमिन्द्र आजगाम, ततः स 'इदं वक्ष्यमाणम् , उच्यत इति | वचनं-वाक्यम् 'अब्रवीत् उक्तवानिति सूत्रार्थः ॥ यदुक्तवांस्तदाह ॥३०७॥ किं नु भो अज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला । सुचंति दारुणा सद्दा, पासाएसु गिहेसु अ॥७॥ IN व्याख्या-'किम्' इति परिप्रश्नेनु' इति वितर्के 'भो' इत्यामन्त्रणे 'अद्य' एतस्मिन् दिने 'मिथिलायां' नगयों कोला दीप अनुक्रम [२३३]] JAINEducatan intamations For PAHATEEPIVanupontv wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~613~ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) र प्रत सूत्रांक ||७|| हलकेन-बहलकलकलात्मकेन सङ्कुलाः-व्याकुलाः कोलाहलकसंकुलाः 'श्रूयन्ते' इत्याकर्ण्यन्ते 'शब्दा' ध्वनय इति सम्बन्धः, ते च कदाचिद्वन्दिवृन्दोदीरिता अपि स्युः तन्निराकरणायाह-दारयन्ति जनमनांसीति दारुणाः-विलपिताऽऽक्रन्दितादयः, व पुनस्ते ?-'प्रासादेषु' सप्तभूमादिषु 'गृहेषु' सामान्यवेश्मसु, यद्वा 'प्रासादो देवतानरेन्द्राणा'मितिवचनात् प्रासादेषु देवतानरेन्द्रसम्बन्धिष्वास्पदेषु 'गृहेषु' तदितरेषु चशब्दात्रिकचतुष्कचत्वरादिषु चेति सूत्रार्थः ॥ ततश्च एयम निसामित्ता, हेउकारणचोइओ। ततो णमी रायरिसी, देविदं इणमब्यवी ॥९॥ | व्याख्या-'एनम्' अनन्तरोक्तम् 'अर्थ' इत्युपचारादर्थाभिधायिनं ध्वनि निशम्य' आकर्ण्य हिनोति-गमयति । विवक्षितमर्थमिति हेतुः, स च पञ्चावयववाक्यरूपः, कारणं च-अन्यथाऽनुपपत्तिमात्रं ताभ्यां चोदितः-प्रेरितः हेतुकारणचोदितः, कोलाहलकसङ्कला दारुणाः शब्दाः श्रूयन्त इत्यनेन हि उभयमेतत् सूचितं, तथाहि-अनुचितमिदं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति प्रतिज्ञा, आक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वादिति हेतुः, प्राणव्यपरोपणादिवदिति दृष्टान्तः, यद्यदाक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुस्तत्तद्धर्मार्थिनोऽनुचितं, यथा प्राणव्यपरोपणादि, तथा चेदं भवतोऽभिनिष्क्रमणमित्युपनयः, तस्मादाक्रन्दादिदारुणशब्दादिहेतुत्वादनुचितं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति निगमनमिति पञ्चावयवं है। वाक्यमिह हेतुः, शेषावयवविवक्षाविरहितं त्वाक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वं भवदभिनिष्क्रमणानुचितत्वं विनाऽनुपपन्न दीप अनुक्रम [२३५] RECARBOOK * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र सूत्रक्रम ८ वर्तते, मूल संपादने स्खलनत्वात् तस्य क्रम “९" मुद्रितं ~614~ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||९|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) उत्तराध्य. नमिप्रत्र बृहद्धृत्तिः ज्याध्य.९ ॥३०॥ प्रत सूत्रांक ||९|| मिति एतावन्मात्रं कारणम् , अनयोस्तु पृथगुपादानं प्रतिपाद्यभेदतः साधनवाक्यवैचित्र्यसूचनार्थ, तथा चाह श्रुतके- वली-'कत्थवि पंचावयवं दसहा वा सव्वहा ण पडिसिद्धं । ण य पुण सर्व भण्णइ हंदी सवियारमक्खायं ॥१॥" तथा-"जिणवयणं सिद्धं चेव भण्णती कत्थती उदाहरणं । आसज उ सोयारं हेऊवि कहिंचि बोत्तचो ॥२॥" अथवाऽन्वयव्यतिरेकलक्षणो हेतुः, उपपत्तिमात्रं तु दृष्टान्तादिरहितं कारणं, यथा निरुपमसुखः सिद्धो ज्ञानानावाधप्रकर्षात्, अन्यत्र हि निरुपमसुखासम्भवात् नोदाहरणमस्ति, दृष्टान्तश्च प्रकृष्टमत्यादिज्ञानानाबाधाः परमसुखिनो मुनय इति ज्ञानानाबाधप्रकर्षः निरुपमसुखत्वे हेतुरुच्यते, तथा च पूज्याः-"हेतू अणुगमवइरेगलक्षणो सज्झवत्थुपज्जातो। आहरणं दिटुंतो कारणमुववत्तिमेत्तं तु ॥१॥” इह हि आक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वमेव हेतुः, तस्योक्तन्यायेनान्वयान्वितत्वात् , सति चान्वये व्यतिरेकस्यापि सम्भवात् , इदमेव चान्वयव्यतिरेकविकलतया विवक्षितमुप-14 |पत्तिमात्रं कारणम्, एवं सर्वत्र कारणभावना कार्येत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतमेव सूत्रमनुत्रियते, 'ततः' प्रेरणाऽनन्तरं| 'नमिः' नमिनामा राजर्षिः 'देवेन्द्र' शक्रम् 'इदं वक्ष्यमाणम् 'अत्रवीत् उक्तवानिति सूत्रार्थः ॥ किं तदुक्तवानित्याह १ कुत्रापि पश्चावयवं दशधा या सर्वथा न प्रतिषिद्धम् । न च पुनः सर्व भण्यते हन्दि सविचारमाख्यातम् ॥ १॥ जिनवचनं सिद्धमेव भण्यते कुत्रचिदुदाहरणम् । आसाद्य तु श्रोतारं हेतुरपि कुत्रचिद्वक्तव्यः ॥ २ ॥२ हेतुरनुगमन्यतिरेकलक्षणः साध्यवस्तुपर्यायः आहरणं दृष्टान्तः कारणमुपपत्तिमात्रं तु ॥१॥ दीप अनुक्रम [२३६] ॥३०८॥ AIMEducatan intamanna For ParaanaSPIwaapontv wrancibaram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~615~ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| ACCOCOCCCCCCCCCC मिहिलाए चेइए वच्छे, सीतच्छाए मणोरमे । पत्तपुप्फफलोवेते, यहणं बहुगुणे सता॥१०॥ ब्याख्या-मिथिलायां' पुरि चयनं चितिः-इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पायुपचयः, तत्र साधुरित्यन्ततः प्रज्ञादेराकृतिगणत्वात् खार्थिकेऽणि चैत्यम्-उद्यानं तस्मिन् , 'वच्छे'त्ति सूत्रत्वाद्धिशब्दलोपे वृक्षैः शीता-शीतला छाया यस्य तच्छीतच्छायं तस्मिन् , मनः-चित्तं रमते-धृतिमानोति यस्मिन् तन्मनोरम-मनोरमाभिधानं तस्मिन्, पत्रपुष्पफलानि प्रतीतानि तैरुपेतं-युक्तं पत्रपुष्पफलोपेतं तस्मिन् , 'बहूनां प्रक्रमात् खगादीनां, बहवो गुणा यस्मात्तत् तथा : तस्मिन् , कोऽर्थः -फलादिभिः प्रचुरोपकारकारिणि 'सदा' सर्वकालमिति सूत्रार्थः । तत्र किमित्याह वाएण हीरमाणंमि, चेइयंमि मणोरमे । दुहिया असरणा अत्ता, एए कंदति भो! खगा ॥१०॥ । व्याख्या-'वातेन वायुना 'हियमाणे इतस्ततः क्षिप्यमाणे, वातश्च तदा शक्रेणैव कृत इति सम्प्रदायः, चिति-2 रिहेष्टकादिचयः, तत्र साधुः-योग्यश्चित्सः प्राग्वत् , स एव चैत्यस्तस्मिन् , किमुक्तं भवति ?-अधोवद्धपीठिके उपरि चोच्छ्रितपताके 'मनोरमे' मनोऽभिरतिहेती, वृक्ष इति शेषः, दुःखं सजातं येषां ते दुःखिताः 'अशरणाः' त्राणनारहिता अत एव 'आर्ताः' पीडिताः 'एते' प्रत्यक्षाः 'क्रन्दन्ति' आक्रन्दशब्दं कुर्वन्ति 'भो' इत्यामन्त्रणे 'खगाः'। पक्षिणः । इह च किमद्य मिथिलायां दारुणाः शब्दाः श्रूयन्ते ? इति यत्खजनजनाक्रन्दनमुक्तं तत् खगक्रन्दन१ साक्षादाकृतिगणत्वेनानुक्तेः ROCOCCC दीप अनुक्रम [२३७] JAIMEducatan For Paraswatau Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | मूल संपादने अत्र स्खलनत्वात “१०" इति सूत्रक्रम द्वीवारान् मुद्रितं ~616~ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१०R|| दीप अनुक्रम [२३८] सरा “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१०|| ॥३६॥ प्रायम्, आत्मा च वृक्षकल्पः, तत्त्वतो हि नियतकालमेव सहावस्थितत्वेन उत्तरकालं च खखगतिगामितया द्रुमाश्रितखगोपमा स्वामी स्वजनादयः, उक्तं हि - "यद्वद्र दुमे महति पक्षिगणा विचित्राः कृत्वाऽऽश्रयं हि निशि | यान्ति पुनः प्रभाते । तद्वज्जगत्यसकृदेव कुटुम्बजीवाः सर्वे समेत्य पुनरेव दिशो भजन्ते ॥ १ ॥” इति, ततश्चाऽऽक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वं हेतुत्वेनाभिधीयमानमसिद्धम्, एते हि खजनादयो यातेर्यमाणडुमविचिप्यत्वगा इव ४ खखप्रयोजनहानिमेवाऽऽशङ्कमानाः क्रन्दन्ति, आह च- " आत्मार्थ सीदमानं खजनपरिजनो रौति हाहारवार्तोभार्या चात्मोपभोगं गृहविभवसुखं स्वं च यस्याश्च कार्यम् । क्रन्दयन्योऽन्यमन्यस्त्विह हि बहुजनो लोकयात्रानिमित्तं, यो वाऽन्यस्तत्र किञ्चिन्मृगयति हि गुणं रोदितीष्टः स तस्मै ॥ १ ॥ एवं चाऽऽक्रन्दादिदारुणशब्दानामभिनिष्क्रमणहेतुकत्वमसिद्धं, स्वप्रयोजनहेतुकत्वात् तेषां तथा च भवदुक्ते हेतुकारणे असिद्धे एवेत्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ ततश्च Excation Inte अध्ययनं [९], एयम निसामिता, हेउकारणचोइओ । ततो गर्मि रायरिसिं, देविंदो इणमव्यवी ॥ ११ ॥ व्याख्या - एनमर्थ निशम्य हेतुकारणयोः - अनन्तरसूत्रसूचि तयोश्चोदितः - असिद्धोऽयं भवदभिहितो हेतुः कारणं चेत्यनुपपत्त्या प्रेरितः हेतु कारणचोदितः, ततो नमिं राजपि देवेन्द्रः 'इदं' वक्ष्यमाणम् अब्रवीत् इति सूत्रार्थः ॥ किं तदित्याह - For Par Only निर्युक्ति: [२७९...] ~617~ नमिप्रत्र ज्याध्य. ९ ॥३०९ ॥ etrary.com मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [ २४० ] Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१२|| निर्युक्तिः [२७९...] अध्ययनं [९], एस अग्णी अ बाओ अ, एयं इज्झति मंदिरं । भगवं ! अंतेउरंतेणं, कीस णं नावपिक्खह ॥ १२ ॥ व्याख्या -- 'एप' इति प्रत्यक्षोपलभ्यमानः 'अग्निश्च' वैश्वानरः 'वातश्च' पवनस्तथा 'एतदिति प्रत्यक्षं 'दह्यते' भस्मसात् क्रियते, प्रक्रमाद्वातेरितेनाभिनैव, 'मन्दिरं' वेश्म, भवत्सम्बन्धीति शेषः, भगवन्निति पूर्ववद्, 'अन्तेउरंतेणं ति अन्तः पुराभिमुखं 'कीस 'त्ति कस्मात् ? 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'नावप्रेक्षसे' नावलोकसे । इह च यद्यदात्मनः स्वं तत्तद्रक्षणीयं यथा ज्ञानादि, स्वं चेदं भवतोऽन्तःपुरमित्यादिहेतुकारणभावना प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ ततश्च 'एयं' सूत्रं (१३) प्राग्वत् ॥ किमब्रवीत् ? इत्याह सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंचणं । मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे इज्झर किंचणं ॥ १४ ॥ व्याख्या- 'सुख' यथा भवत्येवं 'वसामः' तिष्ठामः 'जीवामः' प्राणान् धारयामः, येषां 'मो' इत्यस्माकं 'नास्ति' न विद्यते 'किञ्चन' वस्तुजातं, यतः- एकोऽहं न च मे कश्चित् खपरो वाऽपि विद्यते । यदेको जायते जन्तुर्नियतेऽप्येक एव हि ॥ १ ॥” इति न किञ्चिदन्तःपुरादि मत्सत्कं यतश्चैवमतो 'मिथिलायाम्' अस्यां पुरि दह्यमानायां न मे दाते 'किञ्चन' खल्पमपि, मिथिलाग्रहणं तु न केवलमन्तःपुराद्येव न मत्सम्बन्धि किन्त्वन्यदपि खजनजनादि स्वस्थकर्मफलभुजो हि जन्तवः तथा तथाऽस्मिन् भ्राम्यन्तीति किमत्र कस्य स्वं परं चेति ख्यापनार्थं । ततश्चानेन For PP Use On jancibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~618~ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१५ -१६|| दीप अनुक्रम [२४३ -२४४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३१०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १५-१६ || अध्ययनं [९], प्रागुक्तहेतोरसिद्धत्वमुक्तम्, तत्त्वतो ज्ञानादिव्यतिरिक्तस्य सर्वस्यावकी यत्वादित्यादिचर्चः प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ एतदेव च भाषयितुमाह Education intimational चतपुत्तलन्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विजई किंचि, अप्पियंपि न विजइ ॥ १५ ॥ बहुं खु मुणिणो भद्दं, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वतो विप्पमुक्कस्स, एगंतमणुपस्सओ ॥ १६ ॥ व्याख्या - त्यक्ताः परिहताः पुत्राश्च सुताः कलत्राणि च दारा येन स तथा तस्य, अत एव 'निर्व्यापारस्य' | परिहतऋषिपाशुपाल्यादिक्रियस्य 'भिक्षोः' उक्तरूपस्य 'प्रियम्' इष्टं 'न विद्यते' नास्ति किञ्चिद' अल्पमपि, 'अप्रियमपि' अनिष्टमपि 'न विद्यते' नास्ति, प्रियाप्रियविभागास्तित्वे हि सति पुत्रकलत्रत्यागं न कुर्यादेव, तयोरेवातिप्रतिबन्धविषयत्वादिति भावः, एतेन यदुक्तं नास्ति किञ्चनेति तत्समर्थितं तत् स्वकीयत्वं हि पुत्राद्यत्यागतोऽभिव्यङ्गतः स्यात् स च निषिद्ध इति, एवमपि कथं सुखेन वसनं जीवनं वेत्याह-'बहु' विपुलं 'खुः' अवधारणे, बब 'मुनेः' तपखिनः 'भद्रं कल्याणं सुखं वा 'अनगारस्य' 'भिक्षोः' इति च प्राग्वत्, 'सर्वतः ' बाह्यादभ्यन्तराच, यद्वा| खजनात् परिजनाथ 'विप्रमुक्तस्य' इति पूर्ववत्, 'एकान्तम्' 'एकोऽहमित्याद्युक्तरूपैकत्वभावनात्मकम् 'अनुपश्यतः' पर्यालोचयत इति सूत्रद्वयार्थः ॥ पुनरपि 'ए' सूत्रं प्राग्वत् (१७) - पागारं कारता णं, गोपुरहालगाणि य । उस्सूलए सयग्धी य, ततो गच्छसि खत्तिया ! ॥ १८ ॥ निर्युक्तिः [२७९...] For Par Pra Use Ont ~619~ नमिव ज्याध्य. ९ ॥३१०॥ www.janciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९]. मूलं [-] / गाथा ||१७-१८|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७ -१८|| व्याख्या-प्रकर्षेण मर्यादया च कुर्वन्ति तमिति प्राकारस्तं-धूलीष्टकादिविरचितं 'कारयित्वा' विधाप्य 'गोपुराहालकानि च तत्र गोभिः पूर्यन्त इति गोपुराणि-प्रतोलीद्वाराणि, गोपुरग्रहणमर्गलाकपाटोपलक्षणम् , अदालकानि-14 प्राकारकोष्ठकोपरिवर्तीनि आयोधनस्थानानि 'उस्सूलय'त्ति खातिका परबलपातार्थमुपरिच्छादितगर्ता या 'सयग्धी यत्ति शतं प्रन्तीति शतभ्यः, ताश्च यत्रविशेषरूपाः, 'ततः' एवं सकलं निराकुलीकृत्य 'गच्छसीति तिव्यत्ययाइच्छ, क्षताबायत इति क्षत्रियस्तत्सम्बोधनं हे क्षत्रिय !, हेतूपलक्षणं चेदं, स चाय-यः क्षत्रियः स पुररक्षा प्रत्यवहितः, यथोदितोदयादिः, क्षत्रियश्च भवान् , शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ ततः 'एयं' (१९) सूत्रं प्राग्वत् । सई णगरि किचा, तवसंवरमग्गलं । खतिं निउणपागारं, तिगुस्सं दुप्पधसयं ॥२०॥ धणुं परकम किचा, जीवं च ईरियं सदा घिई च केयणं किच्चा, सच्चेणं परिमंथए ॥२१॥ तवनारायजुत्तेणं, भेत्तूर्ण कम्मकंचुअं । मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चति ॥ २२ ॥ व्याख्या-'श्रद्धां' तत्त्वरुचिरूपामशेषगुणाधारतया 'नगरी'पुरी 'कृत्वा' हृदि विधाय, अनेन च प्रशमसंवेगादीनि । गोपुराणि कृत्वेत्युपलक्ष्यते, अर्गलाकपाटं तर्हि किमित्याह-तपः-अनशनादि बाह्यं तत्प्रधानः संवर:-आश्रवनिरोसाधलक्षणस्तपःसंवरस्तं, मिथ्यात्वादिदुधुनिवारकत्वेन अर्गला-परिघस्तत्प्रधानं कपाटमप्यर्गलेत्युक्तं, ततोऽर्गलाम्-अर्गलाकपाटं कृत्वेति सम्बन्धः, प्राकारः क इत्याह-शांति क्षमा निपुणमिव निपुणं-शत्रुरक्षण प्रति श्रद्धाविरोध्यनन्तानु दीप अनुक्रम [२४५-२४६] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~620~ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||१९-२२|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) उत्तराध्य. प्रत RST-MARC--- सूत्रांक ॥१९ -२२|| अवन्धिकोपोपरोधितया 'प्राकारं' शालं, कृत्येति सम्बन्धः, उपलक्षणं चैषां मानादिनिरोधिनां मार्दवादीनां, तिसृभिः- नमिनबृहद्वृत्तिः अट्टालकोथलकशतमीसंस्थानीयाभिर्मनोगुप्त्यादिभिर्गुप्तिभिः गुप्तं त्रिगुतं, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, प्राकारस्य वि ज्याध्य.९ शेषणं, अत एव दुःखेन प्रधृष्यते-परैरभिभूयत इति दुष्प्रधर्षः स एव दुष्प्रधर्षकस्तं, पठन्ति च-खंति निउणं पागारं ॥३११॥1:|तिगुत्तिदुप्पधंसयंति, स्पष्टं । इत्थं यदुक्तं 'प्राकारादीन् कारयित्वे ति तत्प्रतिवचनमुक्तं, सम्प्रति तु प्राकाराहालके-14 प्ववश्यं योद्धव्यं, तथ सत्सु प्रहरणादिषु प्रतिविधेये च वैरिणि सम्भवत्यत आह-'धनुः' कोदण्डं 'पराक्रम' जीव-21 |वीर्योल्लासरूपमुत्साहं कृत्वा 'जीवां च' प्रत्यञ्चां च 'ईर्याम्' ईर्यासमितिमुपलक्षणत्वाच्छेपसमितीश्च 'सदा' सर्वकालं, तद्विरहितस्य जीववीर्यस्याप्यकिञ्चित्करत्वात् , 'धृतिं च धर्माभिरतिरूपां 'केतनं' शृङ्गमयधनुर्मध्ये काष्ठमयमुष्टिकात्मकं, ननु तदुपरि लायुना निवध्यते इदं तु केन बन्धनीयमित्याह-'सत्येन' मनःसत्यादिना 'पलिमंथए'त्ति बनीयात्, ततः किमित्याह-'तपः' पडूविधमान्तरं परिगृह्यते, तदेव कर्म प्रत्यभिमेदितया 'नाराचः' अयोमयो बाणस्तद्युक्तेन प्रक्रमात् धनुषा, 'भित्त्या' विदार्य कर्म-ज्ञानावरणादि कक्षुक इव कर्मकचकस्तं, इह कर्मकञ्चकग्रहणेनैवात्मैवोद्धतो वैरीत्युक्तं भवति, वक्ष्यति च-"अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पडियसुपट्टियन्ति, कर्मणस्तु कशुकत्वं तद्गतमिथ्यात्वादिप्रकृत्युदयव- |॥३१॥ कार्तिनः श्रद्धानगरमुपरुन्धत आत्मनो दर्निवारत्वात् , 'मुनिः प्राग्वत , कर्मभेदे जेयस्य जितत्वात् विगतः सङ्कामो यस्य | यस्माद्वेति विगतसङ्ग्रामः-उपरताधिनः सन् , भवन्त्यस्मिन् शारीरमानसानि दुःखानीति भवः-संसारस्तस्मात् परिमु दीप अनुक्रम [२४७-२५०] AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~621~ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||२३-२४|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२३-२४|| च्यते, एतेन च यदुक्तं-'प्राकारं कारयित्वे'त्यादि, तत्सिद्धसाधनम् , इत्थं श्रद्धानगररक्षणाभिधानात् भवतश्च तत्त्वतPस्तदविज्ञतेति चोक्तं भवति, न च भवदभिमतप्राकारादिकरणे सकलशारीरमानसक्लेशवियुक्तिलक्षणा मुक्तिरवाप्यते, इतस्तु तदवाप्तिरपीति सूत्रत्रयार्थः ॥ एवं च तेनोक्ते 'एय' २३ सूत्रं प्राग्वत् ।पासाए कारइत्ता ण, वढमाणगिहाणि य । वालग्गपोइयाओ य, तओ गच्छसि खत्तिया ! ।।२४ ॥ व्याख्या-प्रसीदन्ति नृणां नयनमनांसि येषु ते प्रासादास्तान् उक्तरूपान् 'वर्द्धमानगृहाणि च' अनेकधा वास्तुवियाऽभिहितानि 'बालग्गपोइयातो यत्ति देशीपदं बलभीवाचकं, ततो वलभीश्च कारयित्वा, अन्ये त्वाकाशतडाग६ मध्यस्थितं क्षुलकप्रासादमेव 'वालग्गपोइया यत्ति देशीपदाभिधेयमाहुः, ततस्ताश्च क्रीडास्थानभूताः कारयित्वा, ततोऽनन्तरं गच्छ क्षत्रिय !। एतेन च यः प्रेक्षावान् स सति सामर्थे प्रासादादि कारयिता यथा ब्रमदत्तादिः, प्रेक्षावांश्च सति सामर्थे भवान् , इत्यादिहेतुकारणयोः सूचनमकारीति सूत्रार्थः ॥ एवं च शक्रेणोक्त 'एय' २५ सूत्रप्राग्वत् ।___ संसयं खलु सो कुणइ, जो मग्गे कुणई घरं । जत्थेव गंतुमिच्छेजा, तत्थ कुविज सासयं ॥ २६ ॥ व्याख्या-संशीतिः संशयः-इदमित्थं भविष्यति नवेत्युभयांशावलम्बनः प्रत्ययस्तं, 'खलुः' एक्कारार्थः, ततः संशयमेव स कुरुते-यथा मम कदाचिद्गमनं भविष्यतीति, यो मार्गे कुरुते गृहं, गमननिश्चये तत्करणायोगाद्, अहं तु न संशयित इत्याशयः, सम्यगदर्शनादीनां मुक्तिं प्रत्यवन्ध्यहेतुत्वेन मया निश्चितत्वादवाप्सत्वाचं, यदि नाम दीप अनुक्रम [२५१-२५२] ल Homelbnama मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~622~ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/ गाथा ||२६|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्धतिः R प्रत सूत्रांक ॥३१२॥ ||२६|| न संशयितस्तथापि किमिहैव गृहं न कुरुषे अत आह-'यत्रैव' विवक्षितप्रदेशे 'गन्तुं' यातुम् 'इच्छेत्' अभिलपेत् नमिप्रत्रतत्यत्ति व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्य तत्रैव-जिगमिषितप्रदेशे 'कुर्वात' विदधीत खस्य-आत्मन आश्रयो वेश्म ज्याध्य.९ खाश्रयस्तं, यद्वा शाश्वतं-नित्यं, प्रक्रमाद्हमेव, ततोऽयमर्थः-इदं तावदिहावस्थानं मार्गावस्थानप्रायमेव, यत्र तुला जिगमिपितमस्माभिस्सत् मुक्तिपदं, तदाश्रयविधाने च प्रवृत्ता एव वयं, ततस्तत्करणे प्रवृत्तत्वात्कथं प्रेक्षावत्त्वक्षतिः,K तथा च यः प्रेक्षावानित्यायपि तत्त्वतः सिद्धसाधनतयैवावस्थितमिति सूत्रार्थः ॥ ततः पुनरपि 'एय' (२७) सूत्रं प्राग्वत् । आमोसे लोमहारे य, गंठिभेए य तकरे । णगरस्स खेम काऊणं, ततो गच्छसि खत्तिया! ॥ २८ ॥ व्याख्या-आ-समन्तात् मुष्णन्ति-स्तैन्यं कुर्वन्तीत्यामोषास्तान् , लोमानि-ोमाणि हरन्ति-अपनयन्ति प्राणिनां ये ते लोमहाराः, किमुक्तं भवति -अतिनिखिंशतया आत्मविघाताशङ्कया च प्राणान् विहत्यैव ततः सर्वखमपहरन्ति, तथा च वृद्धाः-लोमहाराः प्राणहारा इति, तांश्च, प्रन्थि-द्रव्यसम्बन्धिनं भिन्दन्ति-घुर्घरकद्विकर्तिकादिना विदारयन्तीति अन्धिभेदास्तान् , चशब्दो भिन्नक्रमः, ततस्तदेव कुर्वन्तीति तस्कराः-सर्वकालं चौर्यकारिणस्तां-X च, यत आहुवैयाकरणा:-'तद्हतोः करपत्योश्चौरदेवतयोः सुट् तलोपश्च' (६-१-१५७ वार्चिके) इह चोत्साघेति गम्यते 'प्रविश्य पिण्डी' मित्युक्तौ भक्षयेतिवत् , यद्वा सप्तम्येवेयं बहर्थे चैकवचनं, ततश्चामोषादिषूपताप दीप अनुक्रम [२५४] JINEducational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~623~ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२९ -३०|| दीप अनुक्रम [२५७ -२५८] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२९-३०|| अध्ययनं [९], कारिषु सत्सु 'नगरस्य' पुरस्य 'क्षेमं' सुस्थं 'कृत्वा' विधाय 'ततः' तदनन्तरं गच्छ क्षत्रिय !, एतेनापि यः सधर्मां | नृपतिः स इहाधर्म्मकारिनिग्रहकृत्, यथा भरतादिः, सधर्म्मनृपतिश्च भवानित्यादिहेतुकारणसूचना कृतैवेति सूत्रार्थः ॥ इत्थं शक्रोक्ती 'ए' २९ सूत्रं प्राग्वत् । - Jain Education intimation अस तु मणुस्सेहिं, मिच्छादंडो पउंजइ । अकारिणोऽत्थ बज्झति, मुचई कारओ जणो ।। ३० ।। व्याख्या---' असकृद्' अनेकधा, 'तुः' एवकारार्थः, ततश्वासकृदेव 'मनुष्यैः' मनुजैः 'मिथ्या' व्यलीकः, किमुक्तं | भवति ? - अनपराधिष्वज्ञानाहङ्कारादिहेतुभिरपराधिष्विव दण्डनं दण्डः - देशत्यागशरीरनिग्रहादिः 'प्रयुज्यते' व्यापायेते, कथमिदमित्याह - 'अकारिणः' आमोपाद्यविधायिनः 'अत्र' इत्यस्मिन् प्रत्यक्षत उपलभ्यमाने मनुष्यलोके 'बध्यन्ते' निगडादिभिर्नियन्त्रयन्ते 'मुच्यते' त्यज्यते 'कारकः' विधायकः, प्रकृतत्वादामोषणादीनां, 'जनः' लोकः, तदनेन यदुक्तं प्राग्- 'आमोषकाद्युत्सादनेन नगरस्य क्षेमं कृत्वा गच्छेति, तत्र तेषां ज्ञातुमशक्यतया क्षेमकरणस्याप्यशक्यत्वमुक्तं, यत्तु यः सधर्मेत्यादि' सूचितं, तत्रापरिज्ञानतोऽनपराधिनामपि दण्डमादधतां सधर्मनृपतित्वमपि तावचिन्त्यमित्यसिद्धता हेतोरिति सूत्रार्थः ॥ 'एय' ३१ सूत्रं प्राग्वत्, नवरमियता स्वजनान्तःपुरपुरादिप्रासादनृपतिधर्मविषयः किमस्वाभिष्वङ्गोऽस्ति ? नेति चेति विमृश्य सम्प्रति द्वेषाभावं विवेक्तुमिच्छुर्विजिगीषुतामूलत्वात् द्वेषस्य तामेव परीक्षितकामः शक्र इदमुक्तवान् निर्युक्तिः [२७९...] For Paren ~ 624~ www.janbrand मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३१ -३२|| दीप अनुक्रम [२५९ -२६०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३१३॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३१-३२|| अध्ययनं [९], Jan Education indamational जे केइ पत्थिवा तुम्भं, नानमंति नराहिवा ।। वसे ते ठावइसा णं, तओ गच्छसि खत्तिया ! ॥ ३२ ॥ व्याख्या - ये केचित् इति सामस्त्योपदर्शकं 'पार्थिवा:' भूपालाः, 'तुम्भं'ति तुभ्यं 'नानमन्ति' न मर्यादया प्रीभवन्ति, तुभ्यमिति च नमतियोगेऽपि चतुर्थीदर्शनात्, 'मात्रे पित्रे च सवित्रे च नमामी' त्यादिवददुष्टमेव, पठ्यते च - 'तुब्भं'ति, तत्र च तवेति शेषविवक्षया पष्ठी, 'नराहिवा' इत्यत्र अकारो 'इखदीर्घा मिथ' इतिलक्षणात्, ततश्च हे 'नराधिप !' नृपते ! 'वशे' इत्यात्मायत्तौ 'तानि 'ति अनानमत्पार्थिवान् ' स्थापयित्वा' निवेश्य कृत्वेतियावत्, ततो गच्छ क्षत्रिय ! । इहापि यो नृपतिः सोऽनमत्पार्थिवनमयिता, यथा भरतादिः, इत्यादिहेतुकारणे अर्थतः आक्षिसे इति सूत्रार्थः ॥ एवं तु सुरपतिनोक्ते 'एय' ३३ सूत्रं प्राग्वत् । - जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे । एवं जिणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ ३४ ॥ अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ ।। अप्पाणमेव अप्पाणं, जिणित्ता सुहमेहति ॥ ३५ ॥ पंचिदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चैव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जितं ॥ ३६ ॥ व्याख्या- 'य' इत्यनुद्दिष्ट निर्देशे 'सहस्रं' दशशतात्मकं सहस्राणां प्रक्रमात् सुभटसम्बन्धिनां 'सङ्ग्रामे युद्धे 'दुर्जये' दुरापपरपरिभवे 'जयेद्' 'अभिभवेत्, सम्भावने लिट्, 'एकम्' अद्वितीय 'जयेत' यदि कथञ्चिज्जीववीर्योल्लासतोऽभिभवेत्, कम् ? - 'आत्मानं' स्वं दुराचारप्रवृत्तमिति गम्यते, 'एषः' अनन्तरोक्तः 'से' इति तस्य जेतुः सुभटदश For PP Use On निर्युक्तिः [२७९...] ~ 625~ नमिप्रत्र ज्याध्य. ९ ॥३१३॥ jancibrary um मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३३-३६|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३३-३६|| शतसहस्रजयात् 'परमः' प्रकृष्टः 'जय' परेषामभिभवः, तदनेनाऽऽत्मन एवातिदुर्जयत्वमुक्तं, तथा च-'अप्पाणमेव'त्ति तृतीयार्थे द्वितीया, ततश्चाऽऽत्मनैव सह 'युध्यख' सामं कुरु, यद्वा युद्धेरन्तर्भावितण्यर्थत्वात् युध्यखेति योधयस्व, कम् ?-आत्मानं, इहाप्यात्मनैव सहेति शेषः, किं ?, न किञ्चिदित्यर्थः, 'ते' तव 'युद्धेन' सङ्ग्रामेण, 'बाह्यत' । इति वावं पार्थिवादिकमाश्रित्य, यदिवा बाह्यत इति तृतीयाथै तसिः, ततो बाह्येन युद्धेनेति सम्बध्यते, एवं च 'अप्पाणमेव त्ति आत्मनवान्यव्यतिरिक्तेनाऽऽत्मानं स्वं 'जइत्त'ति जित्वा 'सुखम्' ऐकान्तिकात्यन्तिकमुक्तिसुखात्मकम् 'एधते' इत्यनेकार्थत्वाद्धातूनां प्राप्नोति, अथवा 'सुहमेहए'त्ति शुभं-पुण्यमेधते-अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् वृद्धि । नयति। कथमात्मन्येव जिते सुखावासिरित्याह-'पञ्चेन्द्रियाणि' श्रोत्रादीनि 'क्रोधः' कोपः 'मानः' अहङ्कारः 'माया' निकृतिः तथैव 'लोभश्च' गायलक्षणः 'दुर्जयः' दुरभिभवः, 'चः समुचये, 'एव' इति पूरणे, अतति-सततं गच्छति है। तानि तान्यध्यवसायस्थानान्तराणीति व्युत्पत्तेः आत्मा-मनः, सर्वत्र च सूत्रत्वात् नपा निर्देशः, 'सर्वम्' अशेषमिन्द्रियादि, उपलक्षणत्वान्मिथ्यात्वादि च, 'आत्मनि' जीवे 'जिते' अभिभूते 'जित मिति अभिभूतमेव । ननु मनसि जिते । जितान्येवेन्द्रियादीनीति किं पृथक तजयाभिधानेन ?, सत्यं, तथापि प्रत्येकं दुर्जयत्वख्यापनाय पृथगुपन्यास इत्य-: दोषः, यद्वा-'दुजयं चेव अप्पाणं'ति चकारी हेत्वर्थः, 'एवः' अवधारणे भिन्नक्रमश्च आत्मशब्दादनन्तरं द्रष्टव्यः, १ नपुंसकत्वेनेत्यर्थः दीप अनुक्रम [२६१-२६२] AIMEducatan indarhatiane narjancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~626~ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||36 -३८|| दीप अनुक्रम [२६५ -२६६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३१४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३७-३८|| अध्ययनं [९], ततश्च यस्माद् 'आत्मैव' जीव एव दुर्जयः ततः सर्वमिन्द्रियाद्यात्मनि जिते जितम्, अनेन चेन्द्रियादीनामेव दुःखहेतुत्वात्तजयतः सुखप्राप्तिः समर्थिता भवति । एवं च फलोपदर्शनद्वारेणैवंविधैव विजिगीपुता श्रेयसीत्याचष्टे, ततथ यो नृपतिरित्याद्यपि तत्त्वतो विजिगीषुत्वदर्शनात् सिद्धसाधनतया प्रत्युक्तमिति सूत्रार्थः ॥ भूयोऽपि 'ए' ३७ सूत्रं प्राग्वत् । नवरमनन्तरपरीक्षातो द्वेषोऽप्यनेन परिहृत इति निश्चित्य जिनप्रणीतधर्मं प्रति स्थैर्ये परीक्षितुकामः शक्र इदमवोचत् Jan Education intimanal जइत्ता विउले जन्ने, भोत्ता समणमाहणे । दत्त्वा भोच्चा य जट्ठा य, ततो गच्छसि खत्तिया ! ॥ ३९ ॥ व्याख्या- 'जइत्त'त्ति याजयित्वा विपुलान्' विस्तीर्णान् 'यज्ञान्' यागान् 'भोजयित्वा' अभ्यवहार्य श्रमणाश्व-निर्ग्रन्थादयो ब्राह्मणाश्च द्विजाः श्रमणत्राह्मणास्तान्, 'दत्त्वा' द्विजादिभ्यो गोभूमिसुवर्णादीन् भुक्त्वा च मनोज्ञशब्दादीन् दृष्ट्वा च राजर्षिवावासी स्वयं यागान् ततो गच्छ क्षत्रिय, अनेन यद्यत्प्राणिप्रीतिकरं तत्तद्धर्माय, यथा हिंसोपरमादि, प्राणिप्रीतिकराणि चामूनि यागादीनीत्यादिहेतुकारणे सूचिते एवेति सूत्रार्थः ॥ शक्रवचनानन्तरम् 'एय' ३९ सूत्रं प्राग्वत् । निर्युक्तिः [२७९...] जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए । तस्सावि संजमो सेओ, अदितंस्सवि किंचणं ॥ ४० ॥ व्याख्या - यः सहस्रं सहस्राणां दशलक्षात्मकं मासे मासे 'गवां' प्रतीतानां 'दए'त्ति दद्यात्, 'तस्यापि' एवं For PP Use On ~627~ नमित्र + ज्याभ्य. ९. ॥३१४॥ www.ancibrary s मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३९ -४०|| दीप अनुक्रम [२६७ -२६८] Jain Educator “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||३९-४०|| अध्ययनं [९], विधस्य दातुर्यदि कथञ्चिचारित्रमोहनीयक्षयोपशमेन 'संयमः' आश्रवादिविरमणात्मकः स्यात् तदा स एव 'श्रेयान्' अतिशयप्रशस्यः, कथंभूतस्यापि ? - 'अददतोऽपि अयच्छतोऽपि 'किञ्चन' खल्पमपि वस्तु यद्वा 'तस्सावित्ति तस्मादप्युक्तरूपाद्दातुरवधित्वेन विवक्षितात् संयच्छति - प्राणिहिंसादिभ्यः सम्यगुपरमतीति सर्वधातूनां पचादिषु | दर्शनादिति संयमः - संयमवान्, साधुरित्यर्थः, 'श्रेयान्' प्रशस्यतरः, अथवा तस्यापि दातुः प्रक्रमात् गोदानधर्मात् 'संयमः' उक्तरूपः श्रेयान् शेषं पूर्ववत्, गोदानं चेह यागाद्युपलक्षणम्, अतिप्रभूतजना चरितमित्युपात्तम्, एवं च संयमस्य प्रशस्यतरत्वमभिदधता यागादीनां सावद्यत्वमर्थादावेदितं तथा च यज्ञप्रणेतृभिरुक्तम् - "पट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥ इयत्पशुवधे च कथमसावद्यता नाम ?, तथा दानान्यप्यशनादिविषयाणि धम्र्मोपकरणगोचराणि च धर्माय वर्ण्यन्ते, यत आह-" अशनादीनि दानानि, धर्मोपकरणानि च । साधुभ्यः साधुयोग्यानि देयानि विधिना बुधैः ॥ १ ॥ " शेषाणि तु सुवर्णगोभूम्यादीनि प्राण्युपमर्दहेतुतया सावद्यान्येव, भोगानां तु सावद्यत्वं सुप्रसिद्धं । तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्यसिद्धो हेतुः, प्रयोगश्च यत्सावद्यं न तत् प्राणिप्रीतिकरं यथा हिंसादि, सावद्यानि च यागादीनि इति सूत्रार्थः ॥ 'एयमहं | ४१ सूत्रं प्राग्वत् । नवरमित्थं जिनधर्मस्थैर्यमवधार्य प्रव्रज्यां प्रति दृढोऽयमुत नेति परीक्षणार्थं शक्र इदमवादीत्घोरासमं चन्ता णं, अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ, भवाहि मणुयाहिवा ! ॥ ४२ ॥ For PP Use On निर्युक्तिः [२७९...] ~ 628~ www.anciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||४१-४२|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) उत्तराध्य. प्रत वहदृत्तिः सूत्रांक ॥३१५॥ ॥४१ -४२|| व्याख्या-'घोरः' अत्यन्तदुरनुचरः, स चासावाश्रमश्च आङिति-खपरप्रयोजनाभिव्यात्या श्राम्यन्ति-खेदमनु- नमि भवन्त्यस्मिन्नितिकृत्वा घोराश्रमो-गार्हस्थ्यं, तस्वैवाल्पसत्त्वैर्दुष्करत्वात् , यत आहुः-"गृहाश्रमसमो धर्मो, न भूतो न ज्याध्य.९ भविष्यति । पालयन्ति नराः शूराः, क्लीवाः पाखण्डमाश्रिताः॥१॥" तं त्यक्ता अपहाय 'जहित्ता णं'ति कचित् पाठः, तत्र च हित्वा-'अन्यत्' एतद्व्यतिरिक्तं कृषिपाशुपाल्यादि अशक्तकातरजनातिनिन्दितं 'प्रार्थयसे' अभिलपसि, 'आश्रम' प्रव्रज्यालक्षणं, नेदं क्लीवसत्त्वानुचरितं भवाशानामुचितमित्यभिप्रायः । तर्हि किमुचितमित्याह-'इह' अस्मिन्नेव गृहाश्रमे, स्थित इति गम्यते, पोषं-धर्मपुष्टिं धत्त इति पोषधः-अष्टम्यादितिथिषु प्रतविशेषः, तत्र रतःआसक्तः पोषधरतः 'भवाहित्ति भव, अणुव्रताधुपलक्षणमेतद्, अस्यैव चोपादानं पोषधदिनेष्ववश्यंभावतस्तपोऽनुछानख्यापकं, यत आह आससेनः-"सर्वेष्वपि तपोयोगः, प्रशस्तः कालपर्वसु । अष्टम्यां पञ्चदश्यां च, नियतं पोषधं|| बसेद् ॥१॥" इति 'मनुजाधिप !' नृपते ! । अत्र च घोरपदेन हेतुराक्षिप्तः, तथाहि-यद्यद् घोरं तत्तद् धर्मा र्थिनाऽनुष्ठेयं, यथाऽनशनादि, तथा चायं गृहाश्रमः, शेषमेतदनुसारतोऽभ्यूह्यमिति सूत्रार्थः ॥ ततश्च-'एय' सूत्र ४॥४३॥ प्राग्वत्। |॥३१५॥ मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजइ । न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥४४॥ व्याख्या-मासे मासे' इति वीप्सायां द्विर्वचनं, 'तुः' इहोत्तरत्र चैवकारार्थः, ततश्च मासे मास एव, न त्वेकस्मि दीप अनुक्रम [२६९-२७०] AIMEducatan international मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~629~ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/ गाथा ||४३-४४|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४३ -४४|| नेव मासेऽर्धमासादो वेति, 'यः कश्चिद् 'बालः' अविवेकः 'कुशाग्रेणैय' तृणविशेषप्रान्तेन भुङ्क्ते, एतदुक्तं भवतियावत् कुशाग्रेऽवतिष्ठते तावदेवाभ्यवहरति नातोऽधिकम् , अथवा कुशाग्रेणेति जातायेकवचनं, तृतीया तु ओदनेनासी भुङ्ग इत्यादिवत् साधकतमत्वेनाभ्यवहियमाणत्वेऽपि विवक्षितत्वात् , 'न' इति निषेधे 'स' इति यः कुशाग्रेजेस एवंविधकष्टानुष्ठाय्यपि सुष्टु-शोभन: सर्वसायद्यविरतिरूपत्वादाङिति-अभिव्याया ख्यातः-तीर्थकरा४ादिभिः कथितः खाख्यातः तथाविधो धर्मो यस्य सोऽयं वाख्यातधर्मा तस्य, चारित्रिण इत्यर्थः, 'कला' भागम अर्धति' अर्हति, 'षोडशी' पोडशपूरणामित्युक्तं भवति, किं पुनस्तुल्योऽधिको वा ?, षोडशांशसमोऽपि न भवति, ततो यदुक्तम्-'यद्यद् घोरं तत्तद्धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयमनशनादिवदिति, अत्र घोरत्वादित्यनैकान्तिको हेतुः, घोरस्थापि खाख्यातधर्मस्यैव धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयत्वाद्, अन्यस्य त्वात्मविघातादिवत् , अन्यथात्वात् , प्रयोगश्चात्र-यत् खाख्यातधर्मरूपं न भवति घोरमपि न तद्धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयं, यथाऽऽत्मवधादिः, तथा च गृहाश्रमः, तद्रूपत्वं चास्य सापद्यत्वादिसावदित्यलं प्रसङ्गेन । शेपं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ।। 'एय' ४५ सूत्रं प्राग्वत् । नवरं यतिधर्मे दृढोऽयमिति निश्चित्य दुरन्तोऽयमभिष्यङ्ग इति तदभावं परीक्षितमपि पुनः परीक्षितुमिदमिन्द्र उवाचहिरण्णं सुवर्ण मणिमोसं, कंसं दूसं च बाहणं । कोसं च वहइत्ता णं, तओ गच्छसि खत्तिया! ॥ ४६ ।। व्याख्या-हिरण्यं स्वर्ण 'सुवर्ण' शोभनवर्ण' विशिष्टवर्णिकमित्यर्थः, यद्वा हिरण्यं-घटितवर्णमितरनु सवर्ण, k दीप अनुक्रम [२७१-२७२] KEX For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~630~ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||४५-४६|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४५ -४६|| - उत्सराध्य. मणयश्च-इन्द्रनीलादयो मुक्ताश्च-मौक्तिकानि मणिमुक्तं, तथा 'कास्य' कांस्पभाजनादि 'दूष्य' वस्त्राणि, 'चः' वगता- नमिप्रश्न नेकभेदसंसूचकः, 'वाहनं' रथाश्वादि, पठन्ति च-'सवाहणं'ति सह वाहनैर्वर्तत इति सवाहनं हिरण्यादीति सम्बन्धः । बृहद्धृत्तिः ज्याध्य,९ N'को' भाण्डागारं चर्मलताद्यनेकवस्तुरूपं 'बहावइत्ता 'ति वृद्धि प्रापय्य ततः समस्तवस्तुविषयेच्छापरिपूर्ती गच्छ ॥३१॥ क्षत्रिय !, अयमाशयः-यः साकाहो नासो धर्मानुष्ठानयोग्यो भवति, यथा मम्मणवणिक, साकासश्च भवान् , आकावणीयहिरण्यादिवस्त्वपरिपूर्तः, तथाविधद्रमकवदिति । शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ ततः 'एयं' ४७ सूत्रं प्राग्वत् । सुवपण रूप्पस्स य पब्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अर्णतया ॥४८॥ पुढवी साली जवा चेव, हिरणं पसुभिस्सह । पडिपुन्नं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥ ४९ ॥ व्याख्या-सुवर्ण च रूप्यं च सुवर्णरुप्यमिति समाहारस्तस्य, 'तुः' पूरणे, यद्वाऽऽपत्वाद्विभक्तिलोपः, तुशब्दः समुच्च|ये, ततः वर्णस्य रूप्यस्य च पर्वता इव पर्वताः-पर्वतप्रमाणाः राशयो 'भवन्ति' भवेयुः, पर्वतप्रमाणत्वेऽपि च लघुपर्वत-41 प्रमाणा एव स्युरत आह-सिया हुत्ति स्यात्-कदाचित् , हुरवधारणे भिन्नक्रमच, ततः कैलाससमा' एव कैलासपर्वत- ॥३१॥ तुल्या एव, न त्वन्यलघुपर्वतप्रमाणाः, तेऽपि 'असङ्ख्यकाः सङ्ग्याविरहिताः, न त द्वित्रा एव, नरस्य लुब्धस्य, उपल-11 क्षणत्वात् खियाः पण्डकस्य या, न तैः कैलाशसमैरपि सुवर्णरूप्यपर्वतैः 'किश्चिदपि' अल्पमपि परितोपोत्पादनं प्रति दीप अनुक्रम [२७३-२७४] CHAKAKKAR ar For PAHATEEPIVanupontv wlancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~631~ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४७ -४९|| दीप अनुक्रम [२७५ -२७७] Jain Education intimat “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ४७-४९|| अध्ययनं [९], क्रियत इति शेषः, पठ्यते च 'न तेणं'ति अत्र च सूत्रत्वाद्वचनव्यत्ययः, कुतः पुनरिदमित्याह- 'इच्छा' अभिलाषः 'दु'रिति यस्मादाकाशेन समा- तुल्या आकाशसमा 'अनन्तिका' अन्तरहिता, तथा चैतदनुवादी वाचक:- "न तुष्टिरह शताज्जन्तोर्न सहस्रान्न कोटितः । न राज्यान्नैव देवत्वान्नेन्द्रत्वादपि विद्यते || १ ||" किं सुवर्णरूप्ये केवले एव नेच्छापरिपूर्तये इत्याशङ्कयाह-'पृथ्वी' मही 'शालयः' लोहितशाल्यादयः 'यवाः' प्रतीताः, 'चः' शेषधान्यसमुच्चयार्थः, 'एवः' अवधारणे स च भिन्नक्रमो नेत्यस्यानन्तरं योक्ष्यते, 'हिरण्यं' सुवर्ण, ताम्रायुपलक्षणमेतत्, 'पशुभिः' गवा| वादिभिः 'सह' साथै 'प्रतिपूर्ण' समस्तं पठन्ति च- 'सवं तं'ति सर्वम्-अशेषं न तु कियदेव तत्-पृथिव्यादि 'न' इति नैव 'अलं' समर्थ, प्रक्रमादिच्छापरिपूर्तये 'एकस्य' अद्वितीयस्य जन्तोरिति गम्यते, 'इति' एतत् श्लोकद्वयोक्तं 'विज'त्ति सूत्रत्वाद् विदित्वा यद्वा 'इती' यस्माद्धेतोः 'विद्वान्' पण्डितः 'तपः' द्वादशविधं 'चरेत्' आसेवेत, तत एव निःस्पृहतयेच्छा परिपूर्तिसम्भवादितिभावः । अनेन च सन्तोष एव निराकाङ्गतायां हेतुः, न तु हिरण्यादिवर्धनमित्युक्तं, तथा च हिरण्यादि वर्धयित्येत्यत्र यदनुमानमुक्तं, तत्र साकाङ्क्षत्व लक्षणो हेतुरसिद्धः, न चाकाङ्क्षणीयवस्त्व परिपूर्तस्तस्य सिद्धत्वं सन्तुष्टतया ममाऽऽकाङ्क्षणीयवस्तुन एवाभावादिति सूत्रार्थः ॥ भूयोऽपि 'एयं' ५० सूत्रं प्राग्वत् । नवरमविद्यमानविषयेषु विषयवाञ्छाविनिवृत्तोऽयमिति निश्चित्य सत्सु तेष्वभिष्वङ्गोऽस्ति उत न वेति | विवेचयितुमिन्द्र उवाच - For PP Use On निर्युक्तिः [२७९...] ~632~ www.ncb मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-1 / गाथा ||५०-५१|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) 3 प्रत उत्तराध्यबृहद्वृत्तिः ॥३१७॥ ज्याध्य. %A9- सूत्रांक % ||४७-४९|| अच्छेरगमभुदए, भोए जहितु पत्थिवा ! । असंते कामे पत्थंसि, संकप्पेण विहम्मसि ॥५१॥ व्याख्या-'अच्छेरगति आश्चर्य वर्तते, यत् त्वमेवंविधोऽपि 'अब्भुदए'त्ति अद्भुतकान् आश्चर्यरूपान् 'भोगान्' कामान् 'जहासि' त्यजसि, पठ्यते च-'चयसित्ति, 'पार्थिव !' पृथिवीपते !, पाठान्तरतश्च क्षत्रिय !, अथवा ['अम्भुयए'त्ति अभ्युदये, ततश्च यदभ्युदयेऽपि भोगांस्त्वं जहासि तदाश्चय वर्तते, तथा तत्त्यागतश्च 'असतः' अविद्यमानान् कामान् 'प्रार्थयसे' अभिलपसि यत्तदप्याश्चर्यमिति सम्बन्धः, अथवाऽधिकस्तवात्र दोषः, 'सङ्कल्पेन' उत्तरोत्तराप्राप्तभोगाभिलापरूपेण विकल्पेन 'विहन्यसे' विविधं वाध्यसे, एवंविधसङ्कल्पस्यापर्यवसितत्याद्, उक्तं हि-४ | "अमीषां स्थूलसूक्ष्माणामिन्द्रियार्थविधायिनाम् । शक्रादयोऽपि नो तृति, विशेषाणामुपागताः ॥ १॥" यद्वा| 'अच्छेरगमन्भुदए'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततश्च-आश्चर्याद्भुतयोरेकार्थत्वेऽप्युपादानमतिशयख्यापनार्थम्-अतिशयाद्भुतान् भोगान् जहासि पार्थिव ! असतश्च कामान् प्रार्थयसि यत्तत्सङ्कल्पेनैव उक्तरूपेण विहन्यसे-बाध्यसे, कथं बन्यथा विवेकिनस्तवैतत् सम्भवेत् ? । अनेन च यः सद्विवेको नासौ प्राप्तान विषयानप्राप्ताकाङ्क्षया परिहरति, यथा ब्रह्मदत्तचक्रवादिः, सद्विवेकश्च भवानित्यादिनीत्या हेतुकारणे सूचिते इति सूत्रार्थः ॥ तदनु एवं' ५२ सूत्रं प्राग्वत् । सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोपमा । कामे पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गई ॥ ५३॥ व्याख्या-शलति-देहान्तश्चलतीति शल्य-शरीरान्तःप्रविष्टं तोमरादि शल्यमिव शल्यं, के ते?-काम्यमानत्वात् दीप अनुक्रम [२७५-२७७]] 2562-10-0-%% % JAINEducatanlidamational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~633~ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [९], मूलं [-] / गाथा ||५२-५३|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५२-५३|| कामाः-मनोज्ञशब्दादयः, यथा हि शल्यमन्तश्चल द्विविधवाधाविधायि तथैतेऽपि, तत्त्वत एषामपि सदा वाधाविधायित्वात् , तथा वेवेष्टि-व्याप्नोतीति विषं-तालपुटादि, विपमिव विषं कामाः, यथैव हि तदुपभुज्यमानं मधुरमिसापातसुन्दरमिवाऽऽभाति, अथ च परिणतावतिदारुणमेवमेतेऽपि कामाः, तथा कामाः आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विषमस्येत्याशीविषस्तदुपमाः, यथा बयमहरवलोक्यमानः स्फुरन्मणिफणाभूपित इति शोभन इव विभाव्यते, स्पर्शनादिभिरनुभूयमानश्च विनाशायैव भवति तथैतेऽपि कामाः, किंच-कामान् 'प्रार्थयमाना' अभिलपन्तोऽपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् प्रार्थयमाना अपि 'अकामा' इष्यमाणकामाभावात् 'यान्ति'गच्छन्ति 'दुर्गति' दुष्टां नरकादिगति, तदनेन न केवलं शल्यादिवदनुभूयमाना एवामी दोपकारिणः, किन्तु प्रार्थ्यमाना अपीत्युक्तं भवति । तथा च-'यः सद्विवेको नासो प्राप्तमप्राप्तकालया' इत्यादी सद्विवेकत्वमनैकान्तिको हेतुः, न हायमेकान्तः यथा प्राप्तमप्राप्तार्थे न परिहियते, प्राप्तस्याप्यपायहेतोः तदुच्छेदकाप्राप्त्यर्थ विवेकिभिः परिहियमाणत्वाद् , अनभ्युपगतोपालम्भश्चार्य, मुमुक्षूणां कचिदा-101 कावाया एवासम्भवात्, उक्तं हि-'मोक्षे भये च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः' इति सूत्रार्थः ॥ कथं पुनः कामान् ? प्रार्थयमाना दुर्गतिं यान्ति ?, अत आह अहे चयह कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइपडिग्चाओ, लोहाओ दुहओ भयं ॥५४॥ व्याख्या-'अधों' नरकगतौ 'प्रजति' गच्छति 'क्रोधेन' कोपेन, 'मानेन' अहङ्कारेण 'अधमा' नीचा गतिः, भव-4 दीप अनुक्रम [२८०-२८१] Lk-- + मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~634~ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [--] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) बृहद्वृत्तिः ज्याध्य.९ प्रत सूत्रांक ||५४|| उत्तराध्यतीति गम्यते, 'माय'त्ति सुव्यत्ययात् 'मायया' परवञ्चनात्मिकया गतेः-प्रस्तावात् सुगतेः प्रतिघातो-विनाशो नमिपत्र गतिप्रतिघातो भवति, 'लोभाद्गार्यलक्षणात् 'दुहतो'त्ति द्विधा द्विप्रकारम्-ऐहिकं पारत्रिकं च भविष्यति अस्मा दिति भयं-दुःखं, तदाशङ्कातः साध्वसं वा, कामेषु हि प्रार्थ्यमानेष्ववश्यंभावी क्रोधादिसम्भवः, स चेय् इति । ॥३१८॥ कथं न तत्प्रार्थनातो दुर्गतिगमनमित्यभिप्रायः । यद्वा-सर्वमपि यदिन्द्रेणोक्तं तत् कषायानुपातीति तद्विपाकानुव नमिदमिति सूत्रार्थः ॥ एवं बहुभिरप्युपायैस्तमिन्द्रः क्षोभयितुमशक्तः किमकरोदित्याहअवउज्झिऊण माहणरुवं विउरुब्विऊण इंदत्तं । वदति अभित्थुणंतो इमाहि महुराहि वग्गृहि ॥५५॥ अहो ते णिजिओ कोहो, अहो माणो पराइओ। अहो ते णिरकिया माया, अहो लोभो वसीको ॥५६॥ ___ अहो ते अजवं साहू, अहो ते साहु ! महवं । अहो ते उत्तमा खंती, अहो ते मुत्ति उत्तमा ।। ५७॥ अवउझिय'त्ति अपोय त्यक्त्वा 'ब्राह्मणरूपं' धिग्वर्णवेषं 'विउरुविऊणं'ति विकृत्य 'इन्द्रत्वम्' उत्तरक्रियरूपमिन्द्रस्वभावं 'वन्दते' अनेकार्थत्वात् प्रणमति 'अभिष्टुवन्' आभिमुख्येन स्तुतिं कुर्वन् , 'आभिः' अनन्तरं वक्ष्यमाणाभिः । 'मधुराभिः' श्रुतिसुखाभिः' 'यग्गूर्हिति आर्षत्वाद्वाग्भिः-बाणीभिः, तद्यथा-'अहो' इति विस्मये 'ते' इति त्वया है। ॥३१८॥ नितराम्-अतिशयेन जितः अभिभूतः निर्जितः 'क्रोध कोपः, यतस्त्वमनमत्पार्थिववशीकरणप्रेरणायामपि न क्षुभित इत्यभिप्रायः, तथा 'अहो' 'ते' त्वया 'मानः' अहमितिप्रत्ययहेतुः 'पराजितः' अभिभूतः, यस्त्वं मन्दिर अपार दीप अनुक्रम [२८२]] JAINEducatan intamational For PF wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~635~ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||५५-५७|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५५ -५७|| दह्यते इत्याधुक्तेऽपि कथं मयि जीवतीदमिति नाहतिं कृतवानिति, तथा 'अहो ते णरकिय'त्ति प्राकृतत्वान्निराकृता-अपास्ता माया, यस्त्वं पुररक्षाहेतुपु प्राकाराहालकोच्छूलकादिषु निकृतिहेतुकेष्वामोषकोच्छेदनादिषु च ना मनो निहितवान् , तथा च अहो ते लोभो 'वशीकृत' इति नियत्रितः, यस्त्वं हिरण्यादि वर्द्धयित्वा गच्छेति सहेतुकमभिहितोऽपीच्छाया आकाशसमत्वमेवोदाइतवान् , अत एव अहो 'ते' तव 'आजवम्' ऋजुत्वं 'साधु' शोभनम् , अहो ते साधु 'मार्दय' मृदुत्वम् , अहो ते 'उत्तमा' प्रधाना 'क्षान्तिः' कोपोपशमलक्षणा, अहो ते 'मुक्तिः' निर्लोभता उत्तमा, व्यत्ययनिर्देशस्त्वनानुपूर्यपि प्ररूपणाऽङ्गमितिकृत्वेति सूत्रत्रयार्थः ॥ इत्थं गुणोपवर्णनद्वारेणाभिष्टुत्य सम्प्रति । फलोपदर्शनद्वारेण स्तुवन्नाह| इहंऽसि उत्तमो भंते !, पेचा होहिसि उत्तमो। लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिद्धिं गच्छसि नीरओ ।। ५८॥ PI व्याख्या-'इह' अस्मिन् जन्मनि 'असि' भवसि 'उत्तमः' प्रधानः, उत्तमगुणान्वितत्वात् , 'भंतेत्ति पूज्याभिधानं प्रेत्य' परलोके भविष्यसि उत्तमः, कथमित्याह-लोकस्य-चतुर्दशरज्वात्मकस्य 'उत्तमम् उपरिवर्ति लोकोत्तमम् है उत्तम' देवलोकाद्यपेक्षया प्रधानम् , अथवा 'लोगोत्तममुत्तमति मकारोऽलाक्षणिकः, ततो लोकस्य लोके वा उत्तमोत्तमम्-अतिशयप्रधानं लोकोत्तमोत्तम, तिष्ठसस्मिन् नातः परं गच्छतीति स्थानं, किं तदित्याह-'सिद्धिं'। xमुक्तिं 'गच्छसि त्ति सूत्रत्वाद्गमिष्यसि, निगेतो रजसः-कर्मण इति नीरजा इति सूत्रार्थः । उपसंहारमाह दीप अनुक्रम [२८३ -२८५] For wiancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~636~ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/गाथा ||५९|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) उत्तराध्य. ज्याध्य.९ प्रत सूत्रांक ||५९|| एवं अभित्थुणंतो रायरिसिं उत्तमाएँ सद्धाए । पायाहिणं करेंतो पुणो पुणो बंदती सको ॥ ५९॥ व्याख्या-'एवम्' अमुनोक्तन्यायेन अभिष्टुवन् 'राजर्षिम्' उक्तरूपं, प्रक्रमान्नमिम् , 'उत्तमया' प्रधानया 'श्रद्धया' बृहदृत्तिःभक्त्या 'पायाहिण'न्ति प्रदक्षिणां 'कुर्वन्' विदधत् पुनः पुनः 'वन्दते' प्रणमति 'शकः' पुरन्दर इति सूत्राथेंः ॥ अन॥३१॥ न्तरं च यत् कृतवांस्तदाह तो वंदिऊण पाए चकंकुसलक्खिए मुणिवरस्स । आगासेणुप्पतिओ ललियचवलकुंडलतिरीडी ॥६॥ व्याख्या-'ततः' तदनन्तरं, पाठान्तरतश्च 'स' इति शको वन्दित्वा पादौ चरणौ, चक्रं चाङ्कुशश्च प्रतीतावेच, तत्प्रधानानि लक्षणानि ययोस्तौ तथा, मुनिवरस्य नमिनाम्न इति प्रक्रमः, तत 'आकाशेन' नभसा उदिति-ऊध्ये देवलोकाभिमुखं पतितो गत उत्पतितः, ललिते च ते सविलासतया चपले च चञ्चलतया ललितचपले तथाविधे कुण्डले कर्णाभरणे यस्यासौ ललितचपलकुण्डलः, स चासौ किरीटी च-मुकुटवान् ललितचपलकुण्डलकिरीटी इति सूत्रार्थः । स एवंविधः खयमिन्द्रेणाभिष्ट्रयमानः किमुत्कर्ष मनस्याप्तवान् उत नेत्याहप्र णमी णमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वइदेही, सामण्णे पज्जुवडिओ ॥ ६१॥ ब्याख्या-नमिर्नमयति-भावतः प्रवीभवन्तमात्मानं स्वतत्त्वभावनया विशेषतःप्रगुणयति, न तूसिक्ततां नयति, तत्कालापेक्षया लट्, कथंभूतः सन् ?-'साक्षात्' प्रत्यक्षतामुपगम्य 'शक्रेण' इन्द्रेण 'चोइतो'त्ति प्रेरितः 'त्यक्त्वा', दीप अनुक्रम [२८७] ॥३१९॥ AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~637~ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [९], मूलं [-]/गाथा ||६१|| नियुक्ति: [२७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| अपहाय 'गेहं गृहं 'वइदेहीत्ति सूत्रत्वाद्विदेहा नाम जनपदः सोऽस्यास्तीति विदेही विदेहजनपदाधिपो, न त्वन्य एच कश्चिदिति भावः, यद्वा-विदेहेषु भवा चैदेही-मिथिला पुरी, सुब्ब्यत्ययात्तां च त्यक्त्वेति सम्बन्धनीयं, 'श्रामण्ये श्रमणभावे 'पर्युपस्थितः' उद्यतः, अभूदिति शेषः, यद्वा-नमिर्नमयति संयम प्रति प्रवणीकरोत्यात्मानं, कीदृशः ?शक्रेण प्रेरितः, कथं ?-साक्षात् वयं, न त्वन्यपार्थप्रहितसन्देशकादिना,श्रामण्ये पर्युपस्थितः, न तु तत्प्रेरणातोऽपि धर्म प्रति विप्लुतोऽभूदितिभाव इति सूत्रार्थः । किमेष एवैवंविधः ? उतान्येऽपीत्याहएवं करिति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । विणियति भोगेसु, जहा से णमिरायरिसि ॥६२॥ तिबेमि व्याख्या-'एवम्' इति यथतेन नमिना निश्चलत्वं कृतं तथाऽन्येऽपि कुर्वन्ति, उपलक्षणत्यादकार्पः करिष्यन्ति च, न त्वयमेव, निदर्शनतयैवास्योपात्तत्वात् , कीदृशाः पुनरन्येऽप्येवं कुर्वन्ति ?-'सम्बुद्धाः' मिथ्यात्वापगमतोऽवगतजीवाजीवादितत्त्वाः 'पण्डिताः' सुनिश्चितशास्त्रार्थाः 'प्रविचक्षणाः' अभ्यासातिशयतः क्रियां प्रति प्रावीण्यवन्तः, तथाविधाश्च सन्तः किं विदधति ?-'विनिवर्तन्ते' विशेषेण तदासेवनादुपरमन्ति, केभ्यः ?-'भोगेसुत्ति भोगेभ्यः, किंवत् ?-यथा स 'नमिः' नमिराजर्षिः निश्चलो भूत्वा तेभ्यो निवृत्त इति, यद्वोपदेशपरमेतत् , यत एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः, एवमिति कथमित्याह-भोगेभ्यो विनिवर्तन्ते, विशेषेण-अत्यन्तनिश्चलतालक्षणेन निवर्तन्ते भोगेभ्यो, यथास 'नमिः' नमिनामा राजर्षिः, ततो भवद्भिरप्येवंविधैरित्थमेव विधेयमिति सूत्रार्थः। इतिः' परिसमासौ | 'ब्रवीमि' इति पूर्ववत् । नयाश्च प्राग्वदिति ॥ इति श्रीशान्त्याचा० मुत्तरा०शिष्य नवममध्ययनं समाप्तमिति ॥ दीप अनुक्रम [२८९]] For PRATEEnviruinony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- ९ परिसमाप्तं ~638~ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८०-२८२] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३२०॥ प्रत सूत्रांक SAGAR ||२|| अथ द्रुमपत्रकं दशममध्ययनम् । द्रुमपत्रक॥ व्याख्यातं नमिप्रव्रज्याख्यं नवममध्ययनम् , अधुना दशममध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहा-16 मध्ययनं. नन्तराध्ययने धर्मचरणं प्रति निष्कम्पत्वमुक्तं, तबानुशासनादेव प्रायो भवति, न च तदुपमा विना स्पष्टमिति प्रथमतः उपमाद्वारेणानुशासनाभिधायकमिदमध्ययनम् , अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयमुपदश्यते, यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे द्रुमपत्रकमिति द्विपदं नाम, अतो द्रुमस्य पत्रस्य च निक्षेपमाह निक्खेवो उ दुममि चउविहो० ॥ २८० ॥ जाणग० ॥ २८१ ॥ दुमयाउनामगोयं वेयंतो भावओ दुमो होइ । एमेव य पत्तस्सवि निक्खेवो चउविहो होइ ॥ २८२ ॥ | व्याख्या-'निक्षेपः' न्यासः 'तुः' पूरणे 'द्रुमे' द्रुमविषयः 'चतुर्विधः' नामादिः, विविधो भवति द्रव्ये आगमतो| नोआगमतश्च, स त्रिविधः-ज्ञशरीरभव्यशरीरद्रुमस्तद्यतिरिक्तश्च, स पुनविविधः-एकमविको बद्घायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, इमायुर्नामगोत्रं वेदयन् भावतो दुमो भवति, एवमेव च पत्रस्यापि चतुर्विधो भवति निक्षेप इति ||BI गाथात्रयाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु पूर्ववत्, अन्वर्थनामतामस्थादर्शयन्नाह दुमपत्तेणोवम्मं अहाठिईए उवक्रमेणं च । इत्थ कयं आइंमी तो तं दुमपत्तमज्झयणं ॥ २८३ ॥ दीप अनुक्रम [२९० AIMEducatan intimational For Free ANTancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १० "द्रुमपत्रक" आरभ्यते ~639~ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥६२॥ दीप अनुक्रम [२९०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||६२...|| अध्ययनं [१०], Jan Education indamation व्याख्या - दुमो - वृक्षः तस्य पर्ण-पत्रं तेनौपम्यम् - उपमा, प्रक्रमादायुषः, केन पुनर्गुणेनौपम्यमित्याह - 'यथास्थित्या' वकालपरिपाकतः पातरूपया, तथा उपक्रमणं - दीर्घकालभाविन्याः स्थितेः खल्पकालताऽऽपादनमुपक्रमः, कोऽर्थः १- पाकादारत एव वातादिनाऽवस्थितिविनाशनं तेन चात्राध्ययने 'कृतं विहितम् 'आदी' प्रथमं यस्मात् | ततः द्रुमपत्रमित्यध्ययनमिदम् उच्यते इति शेषः इति गाथार्थः ॥ यथा चास्य समुत्थानं तथा दर्शयंस्त्रयोविंशतिसङ्ख्यं गाथाकदम्बकमाह- मगहापुरनयराओ वीरेण विसजणं तु सीसाणं । सालमहासालाणं पिट्टीचंपं च आगमणं ॥ २८४ ॥ पवजा गागिलिस्स थ नाणस्स य उप्पया उ तिण्हंपि । आगमणं चंपपुरिं वीरस्स अवंदणं तेसिं ॥ २८५॥ चंपाइ पुण्णभदंमि चेइए नायओ पहिअकित्ती । आमंतेउं समणे कहेइ भयवं महावीरो ॥ २८६ ॥ अट्ठविहकम्ममहणस्स तस्स पगईविसुद्धलेसस्स । अट्ठावए नगवरे निसीहिए निट्टिअटुस्स ॥ २८७ ॥ उसभस्त भरहपिउणो तेलुक्कपयासनिग्गयजसस्स । जो आरोढुं वंदइ चरिमसरीरो अ सो साहू २८८ साहुं संवासेइ अ असाहुं न किर संवसावेई । अह सिद्धपवओ सो पासे वेअड्डसिहरस्स ॥ २८९ ॥ चरिमसरीरो साहू आरुहइ नगवरं न अन्नोति । एयं तु उदाहरणं कासीअ तहिं जिणवरिंदो ॥ २९०॥ निर्युक्ति: [२८३] For Para Prat Use Only ~640~ niryur मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [--] / गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३२१॥ प्रत सूत्रांक ||२|| सोऊण तं भगवओ गच्छइ तहि गोअमो पहिअकित्ती । आरुहइ तं नगवरं पडिमाओ बंदइ जिणाणं २९१ दुमपत्रकअह आगओ सपरिसो सविड्डीए तहिं तु वेसमणो। वंदित्तु चेइयाई अह वंदइ गोअमं भयवं ॥२९॥ मध्ययनं. अह पुंडरीअनायं कहेइ तहि गोयमो पहियकित्ती । दसमस्स य पारणए पवावेसीअ कोडिन्नं ॥२९३॥ तस्स य वेसमणस्सा परिसाए सुरवरो पयणुकम्मो। तं पुंडरीयनाय गोयमकहिअंनिसामेइ ॥२९॥ चित्तूण पुंडरीअं वग्गुविमाणाओ सो चुओ संतो। तुंबवणे धणगिरिस्सा अजसुनंदासुओ जाओ २९५४ दिन्ने कोडिन्ने या सेवाले चेव होइ तइए य । इकिकस्स य तेसिं परिवारो पंच पंच सया ॥ २९६ ॥ हेछिल्लाण चउत्थं मझिल्लाणं तु होइ छटुं तु । अट्टममुवरिल्लाणं आहारो तेसिमो होइ ॥ २९७ ॥ कंदाई सञ्चित्तो हिटिल्लाणं तु होइ आहारो । बीआणं अञ्चित्तो तइआणं सुक्कसेवालो ॥ २९८ ॥ तं पासिऊण इडिं गोयमरिसिणो तओ तिवग्गावि । अणगारा पवइआ सप्परिवारा विगयमोहा २९९|| ॥३२॥ एगस्स खीरभोअणहेऊ नाणुप्पया मुणेयवा । एगस्स परिसादसणेण एगस्सय य जिणंमि ॥ ३०॥ केवलिपरिसं तत्तो वच्चंतागोयमेण भणिआ य । इउ एह वंदह जिणं कयकिच्च जिणेण सो भणिओ ३०१ दीप अनुक्रम [२९० RRRRRRK wwwrammam.au मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~641~ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||६२...|| नियुक्ति : [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| सोऊण तं अरहओ हियएणं गोयमोऽवि चिंतेइ । नाणं मे न उपज्जइ भणिओ य जिणेण सो ताहे ३०२ . चिरसंस, चिरपरिचिों चिरमणुगयं च मे जाण । देहस्स य भेयंमि य दुण्णिवि तुल्ला भविस्सामो ३०३| Kजह मन्ने एअमटुं अम्हे जाणामु खीणसंसारा । तह मन्ने एअमटुं विमाणवासीवि जाणंति ॥ ३०४ ॥ ६ जाणगपुच्छं पुच्छइ अरहा किर गोयमं पहिअकित्ती। किं देवाणं वयणं गिझं आतो जिणवराणं? ३०५/४/ सोऊण तं भगवओ मिच्छायारस्स सो उवट्ठाइ। तन्नीसाए भयवं सीसाणं देइ अणुसिद्धिं ॥ ३०६ ॥ है व्याख्या-एतच्चाक्षरार्थ प्रति स्पष्टमेव, नवरं मगधापुरनगरं-राजगृहं, तस्यैव तत्कालापेक्षया मगधासु प्रधानपुर वादविद्यमानकरत्वाच, तथा 'णायओ पहियकित्ति'त्ति नायकः सकलजगत्वामी ज्ञात एव वा ज्ञातक-उदारक्षत्रियः,न्यायतो वा प्रथिता-सकलजगत्प्रत्याख्याता कीर्तिर्यस्य स तथा, प्रकृत्या-खभावेन विशुद्धा-असन्तनिर्मला लेश्या शुक्ललेश्या यस्य स तथा, 'णिसीहिय'त्ति निषिध्यन्ते-निराक्रियन्ते अस्यां कौणीति नैषेधिकी-निर्वाणभूमिः, 'कृत्यल्युटोऽन्यत्रापि' (पा-३-३-११३) इत्यपिग्रहणवलात् ल्युट्, निष्ठितार्थस्य-समाप्तसकलकत्यस्य यद्वा निषेधेसकलकर्मनिराकरणलक्षणे भवा नैषेधिकी-मुक्तिगतिस्तया निष्ठितार्थो यस्तस्य ऋषभस्य-ऋषभनाम्नः, स चान्योऽपि | सम्भवति अत आह-भरतपितुरिति, 'वन्दते' स्तौति प्रक्रमान्नषेधिकी प्रतिमा वा,तथा साधु 'समिति भृशं वासयति । दीप अनुक्रम [२९० For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~642~ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति : [२८४-३०६] (४३) % % प्रत सूत्रांक % ||६२|| % उत्तराध्य. संवासयति, कोऽर्थः ?-रात्रि दिवं चावस्थापयति, नोऽसाधु संहरणादिनाऽऽनीतमपि 'किल' इति परोक्षासवाद- दुमपत्रक तसूचकः, 'अर्थ' इत्युपन्यासे सिद्धोपलक्षितः पर्वतः सिद्धपर्वतः 'तास्थ्यात्तव्यपदेश' इति तदधिष्ठायकदेवताविशेष बृहद्वृत्तिः मध्ययनं. एवोक्तः, यद्वा तत्तीर्थानुभाव एवायं यदसाधोस्तत्रावस्थानमेव न सम्पद्यते, तथा च 'चरमशरीरः साधुः आरोह॥३२२॥ ती'त्यत्र पदप्रचारेणेति गम्यते, 'उदाहरणं' कथनं 'कासी'त्ति अकाद्, अनेन चैवंविधदेवप्रवादोत्थानकारणमुक्तं । घेत्तूण पुंडरीयम्' इत्यादिना च प्रसङ्गागतं वैरस्वामिजन्मोक्तं, तथा 'तं पासिऊण इहिन्ति तामिति-प्रतीतामेव भगवति जवाचारणरूपलब्धिरूपां, तथा 'तिबग्गावित्ति त्रयो वर्गा येषां ते त्रिवर्गाः, तेऽपि प्रक्रमादिन्नकोण्डिन्यशैवलिनस्त्रयोऽपि, नैको द्वौ येत्यपिशब्दार्थः, अणगार'त्ति अविद्यमानगृहाः,ते च तापसादयोऽपि स्युरत आह-प्रकर्षण अजिता-मिथ्यात्वादिभ्यो विनिर्गताः प्रत्रजिताः, तथा एगस्स खीरभोयणहेउ'त्ति क्षीरानभोजनमेव विशुद्धाध्यव सायविशेषोत्पत्तिनिबन्धनतया हेतु:-कारणं क्षीरभोजनहेतुः, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, तमाश्रित्येति शेषः, पाणाणुप्पय'त्ति ज्ञानस्योत्पादनमुत्पत् 'सम्पदादित्वात् क्विप' (पा०३-३-९४)जानोत्पत् , तथा 'चिरसंसट्ठन्ति चिर-12 प्रभूतकालं संसृष्टः-स्वखाम्यादिसम्बन्धेन सम्बधो यस्तं, 'चिरपरिचितः' सहवासनादिना स पूर्वो यस्तम् , उभयत्र | ॥२२॥ दाविस्पष्ट पटुबिस्पष्टपटुरितिवत् सह सुपेत्यत्र सुपेति योगविभागात समासः, चिरमनुगतमभिप्रायानुवर्तिनमात्मानाम ति शेषः, 'ममे त्यात्मनिर्देशः, ततः प्रभूतमोहनीयाच्छादिततया न ते ज्ञानोत्पत्तिरित्यभिप्रायः 'देहस्य तु' शरीरस्य । दीप अनुक्रम [२९०] %AE%E 0 AIMEducatan intimational For PF wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~643~ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) R-3-EXC प्रत सूत्रांक ||६२|| ६'भेदे' विनाशे द्वायप्यायां 'तुल्यौ' मुक्तिपदप्राप्त्या समौ भविष्यावः' इति मा त्वमधृतिं कृथा इति भावः, 'यथा' येन : प्रकारेण यथा 'मन्ने'त्ति आषेत्वात् पुरुषव्यत्ययः, ततो मन्यसे त्वम् एनं ज्ञानावाप्तिलक्षणम् 'अर्थ' वस्तु 'वयं' जानीमा अवबुध्यामहे, किंविशिष्टाः सन्तः ? इत्याह-क्षीणः-पुनर्भवाभावतः संसारो येषां ते क्षीणसंसाराः, तेन प्रकारेण| तथा, व्यवच्छेदफलत्वात् तथैव, किमिसाह-'मन्ने ति प्राग्वत्, मन्यसे 'एनमर्थम्' अनन्तरोक्तं 'विमानवासिनोऽपि दादेवा 'जानन्ति' अवबुध्यन्ते, एवं च यथा क्षीणसंसारा जानन्ति तथा विमानवासिनोऽपि जानन्तीत्याशयवतः क्षीणसंसारिणां च परिज्ञानं प्रति साम्यमभिमतमित्यहो तब विवेकितेत्युपालब्धः । तथा 'जाणगपुच्छं'ति ज्ञायक-। पृच्छया पृच्छति, न हि तस्य भगवतः समस्तज्ञेयविषयविज्ञानचक्षुषः कचिदविज्ञानमस्ति, किन्तु गौतमं प्रतिबोधय-1 नित्थमुपालभते, तथा यथा किम् ?-दीव्यन्ति-क्रीडन्ति देवाः तेषां वचनं वचो 'गिज्झं'ति ग्राबमुपादेयम् , 'आतो ल(ग्रन्थाग्रं ८०००)ति आपत्वादाहोखित् , जिनानां वरा:-प्रधानाः जिनवराः य उत्पन्नकेवलास्तीर्थकृतस्तेषां , तद ननैकमस्मत्परिज्ञानस्य देवपरिज्ञानस्य च साम्यापादनम्, अपरं तु साम्ये सत्यपि 'देहस्स य भेयंमी दोण्णिवि तुला ६/भविस्सामो'त्ति अस्मद्वचनतः शतशोऽपि श्रुतान्न विनिश्चयमपि विहितवान् , देववचनात्तु सकृदप्याकर्णितात् तथेति । प्रतिपद्याष्टापदं प्रति प्रयात इत्यहो ते मोहविजृम्भितमित्युक्तं भवति । श्रुत्वा तदुपालम्भवचो भगवतः सम्बन्धि 'मिच्छाचारस्स'त्ति आपत्वान्मिथ्याचारादू-उक्तरूपागम्यमानत्वात् प्रतिक्रमितम् 'उपतिष्ठति' उद्यच्छति । 'तन्निश्रये ति। दीप अनुक्रम [२९० LOCAL For F un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~644~ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥३२॥ सूत्रांक ||६२|| गौतमनिश्रया 'अनुशिष्टिं शिक्षाम्। एतद्भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं पिट्ठीचंपा। द्रुमपत्रकणाम णयरी, तत्थ सालो राया, महासालो जुवराया, तेसिं सालमहासालाणं भगिणी जसवती, तीसे पिढरो भत्तारो, जसवतीए अत्ततो पिढरपुत्तो गागलीणाम कुमारो। तत्थ वद्धमाणसामी समोसढो सुभूमिभागे उजाणे,सालो णिग्गतो, धम्मं सुच्चा भणति-जंणवरं महासालं रजे ठावेमि, सो अतिगतो, तेण आपुच्छितो महासालो भणति-अहंपि संसारधम्मसुधारणात भउविग्गो जहा तुम्भे इहं मेढीपमाणं तहा पाइयस्सवि, ताहे गागलिं कंपिलातो सद्दावेऊण पट्टो बद्धो अभिसित्तो य राया जातो। तस्स माया कंपिल्लपुरे णयरे दिपिणलिया पिढरस्स, तेण ततो सहावितो, सो पुण तेसिं दो सिरियातो कारेति, जाव ते पबतिया, सा भगिणी समणोवासि या जाता,तए णं ते समणा होतगा, एकारस अंगाई अहिजिया। १ तस्मिन् काले तस्मिन् समये पृष्ठचम्पा नाम नगरी, तत्र शालो राजा, महाशालो युवराजः, तयोः शालमहाशालयोर्भगिनी यश-| खती, तस्याः पिठरो भर्ता, यशोमत्या आत्मजः पिठरपुत्रः गागलिनामा कुमारः । तत्र वर्धमानस्वामी समवसृतः मुभूमिभागे उद्याने, | शालो निर्गतः, धर्म धुत्वा भणति-यमवर महाशालं राज्ये स्थापयामि, सोऽतिगतः, तेनापृष्टो महाशालो भणति-अहमपि संसारभयोद्विग्नो यथा यूयमत्र मेढीप्रमाणाः तथा प्रबजितस्यापि, तदा गागलि काम्पील्यात् शदयित्वा पट्टो बद्धोऽभिषिक्तश्व राजा जातः । तस्य माता है। काम्पील्यपुरे नगरे दत्ता पिठराय, तेन सकः शब्दितः, स पुनस्तयोर्दै शिबिके कारयति, यावत्तौ प्रबजिती, सा भगिनी श्रमणोपासिका जाता, ततस्तौ श्रमणौ जाती, एकादशानानि अधीतवन्तौ । दीप अनुक्रम [२९०] -- AIMEducatan intimational For ParaTREPWAuOnly wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~645~ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक KHERI ||६२|| तते णं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहं णाम | णयर, तत्थ सामी समोसढो, ताहे सामी पुणोऽपि णिग्गतो चंपं पहावितो, ताहे सालमहासाला सामि आपुच्छंति४ अम्हे पिट्टीचंपं वच्चामो जदि णाम ताण कोवि बुझेजा, सम्मत्तं वा लभेज्जा, सामीवि जाणति-जहा ताणि संबु झिहिंति, ताहे सामिणा गोयमसामी से बिइजओ दिण्णो, गोयमसामी पिट्ठीचंपं गतो, तत्थ समोसरणं, गागली ॥पिढरो जसबती य णिग्गयाणि, भगवं धम्म कहेइ, ताणि धम्म सोऊण संविग्गाणि, ताधे गागली भणति-जं णवरं अम्मापियरो आपुच्छामि, जेट्टपुत्तं च रजे ठवेमि, ताणि आपुच्छियाणि भणंति-जइ तुम संसारभउविग्गो अम्हेवि, ताधे सो पुत्तं रजे ठावित्ता अम्मापितीहि समं पचहतो, गोयमसामी ताणि घेत्तूण चंपं वच्चइ । तेसिं सालमहासालाणं | १ ततः श्रमणो भगवान महावीरो बहिर्जनपदविहारं विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, तत्र स्वामी समवसृतः, तदा स्वामी पुनरपि निर्गतश्चम्पां प्रधावितः, तदा शालमहाशालौ स्वामिनमापृच्छताम्-आवां पृष्ठचम्पां बजावः यदि नाम कोऽपि | तेषां बुध्येत, सम्यक्त्वं वा लभेत, स्वाम्यपि जानाति-यथा ते संभोत्स्यन्ते, तदा स्वामिना गौतमस्वामी तयोद्धितीयको दत्तः, गौतमस्वामी पृष्ठचम्पां गतः, तत्र समवसरणं, गागली पिठरो यशोमती च निर्गताः, भगवान् धर्म कथयति, ते धर्म श्रुत्वा संविघ्नाः, तदा गागलिर्भणति-यन्नवरं मातापितरावापृच्छामि, ज्येष्ठं पुत्रं च राज्ये स्थापयामि, तावापृष्टौ भणत:-यदि त्वं संसारभयोद्विम आवामपि, तदा स पुत्र राज्ये स्थापयित्वा मातापितृभ्यां समं प्रत्रजितः, गौतमस्वामी तान् गृहीत्वा चम्पां व्रजति । तयोः शालमहाशालयोः दीप अनुक्रम [२९० AIMEducatan intimational For Fun wlancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~646~ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) उत्तराध्य. दुमपत्रक मध्ययनं. प्रत बृहद्वृत्तिः ॥३२॥ सूत्रांक ||६२|| पथं वचंताणं हरिसो जाओ-जधा संसारं उत्तारियाणि, एवं च तेसिं सुहेणं अज्झवसाणेणं केवलणाणं उप्पण्णं, इयरेसिपि चिंता जाया-जहा एएहिं अम्हे रजे ठावियाणि संसारातो य मोइयाणि, एवं चितंताणं सुभेणं अज्झवसाणेणं| तिण्डंपि केवलणाणं उप्पण्णं । एवं ताणि उप्पण्णणाणाणि चंपं गयाणि, सामि पायाहिणं करेमाणाणि तित्थं । पणमिऊण केवलिपरिसं पहावियाणि, गोयमसामीवि भगवं वंदिऊण तिक्खुत्तो पयाहिणीकाऊण पाएमु पडितो, उढिओ भणति-कहिं वह ?, एह तित्थयरं वंदह, ताधे सामी भणइ-मा गोयमा! केवली आसाएहि, ताहे आउट्टो खामेति, संवेगं च गतो । तत्य गोयमसामिस्स संका जाया-णाहं ण सिन्झिस्सामित्ति, एवं गोयमसामीवि चिंतेति । इओ य देवाण संलाबो बट्टइ-जो अट्ठावयं विलम्गति चेइयाणि य वंदति धरणिगोयरो सो १ पन्थानं प्रजतोहो जातः, यथा-संसारादुत्तारितानि, एवं च तयोः शुभेनाध्यवसायेन केवलज्ञानमुत्पन्नम् ,अन्येषामपि चिन्ता जाता -यथा एतैर्वयं राज्ये स्थापिताः संसाराच मोचिताः, एवं चिन्तयतां शुभेनाध्यवसायेन त्रयाणामपि केवलज्ञानमुत्पन्नम् । एवं ते उत्पन्नज्ञानाचम्पां गताः, स्वामिनं प्रदक्षिणां कुर्वन्तः तीर्थ प्रणम्य केवलिपर्षदं प्रधाविताः, गौतमस्खाम्यपि भगवन्तं पन्दित्वा त्रिकृत्वः प्रदक्षिणी-| कृत्य पादयोः पतिता, उस्थितो भणति-कुत्र ब्रजथ, एत तीर्थकरं वन्दध्वम् , तदा स्वामी भणति-मा गौतम ! केवलिन आशातय, तदा वृत्तः क्षमयति, संवेगं च गतः । तत्र गौतमखामिनः शहा जाता-नाहन सेत्स्यामि इति, एवं गौतमस्वाम्यपि चिन्तयति । इतश्च पाना संलापो वर्त्तते-योऽष्टापदं विलगति चैयानि च वन्दते धरणिगोचरः स 4 दीप अनुक्रम [२९०] -9-4 ॥३२४॥ AIMEducatan intamaniind For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~647~ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| __नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) * प्रत * सूत्रांक ||६२|| तेण भवग्गहणेणं सिज्झइ, ताधे सामी तस्स चित्तं जाणति ताबसाण य संबोहणयं, एयस्सवि घिरता भविस्सतित्ति । दोवि कयाणि भविस्संति, एयस्सवि पचतो तेवि संबुझिस्संति'त्ति, सोऽवि सामि आपुच्छइ, अठ्ठावयं जामित्ति, तत्थ भगवया भणियं-बच अट्टापयं चेइयाण वंदतो, तए णं भगवं हतुट्टो वंदित्ता स गतो, तत्व य अट्ठावए जणवायं सोऊणं तिण्णि तावसा पंचपंचसयपरिवारा पत्तेयं अट्ठावयं विलग्गामोत्ति तत्व किलिस्संति, कोडिनो दिन्नो , || सेवाली, जो कोडिन्नो सो चउत्थं २ काऊण पच्छा मूलकंदाणि आहारेति सचित्ताणि, सो पढम मेहलं विलग्गो, दिण्णो छठं छठेणं काऊणं परिसडियं पंडुपत्ताणि आहारेइ, सो वीर्य मेहलं विलग्गो, सेवाली अट्ठमं २ काऊण जो सेवालो सयं मइलतो तं आहारेइ, सो तइयं मेहलं विलग्गो, एवं तेवि ताव किलिस्संति । भयवं च गोयमे KI १ तेन भवग्रहणेन सिध्यति, तदा स्वामी तस्य चित्तं जानाति तापसानां च संबोधन, एतस्यापि स्थिरता भविष्यतीति । अपि कृते भविष्यतः, एतस्यापि प्रत्ययः तेऽपि संभोत्स्यन्ते इति, सोऽपि स्वामिनमापृच्छति-अष्टापदं यामीति, तत्र भगवता भणितं-प्रजाष्टापदं चैत्यानि बन्दस, ततो भगवान हन्तुष्टो बन्दित्वा स गतः, तत्र चाष्टापदे जनवादं श्रुत्वा प्रवस्तापसाः पञ्चपञ्चशतपरिवाराः प्रत्येकमष्टापदं विलगाम इति | सत्र लिश्यन्ति-कौडिन्यो दत्तः शैवालः, यः कौडिन्यः स चतुर्थ चतुर्थेन कृत्वा पश्चान्मूलकन्दानाहारयति सचित्तान् , स प्रथमा मेखला विलमः, दत्तः षष्ठं षष्ठेन कृत्वा परिशटितपाण्डपत्राणि आहारयति, स द्वितीयां मेखलां विलग्नः, शैवालोऽष्टमाष्टमेन कृत्वा यः शेवालः स्वयं मलीनितस्तमादारयति, स तृतीयां मेखला बिलमः, एवं तेऽपि तावविश्यन्ति । भगवांश्च गौतम दीप अनुक्रम [२९०] For PF wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~648~ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) - बृहद्वृत्तिः प्रत ॥३२५॥ - सूत्रांक - ||६२|| ओरालसरीरे हुययहतडियतरुणरविकिरणसरिसए तेएणं,ते तं इत पेच्छेत्ता ते एवं भणंति-एस किर एत्थ थुलतो समणो * बिलग्गिहिति ?, जं अम्हे महातबस्सी सुक्का मुक्था न तरामोत्ति विलग्गिउं, भगवं च गोयमे जंघाचारणलद्धीए । मध्ययनं. लूयातंतुपुडगंपि णीसाए उप्पयति, जाव ते पलोयंति-एस आगओत्ति, एसो अईसणं गतोत्ति, ताहे ते विम्हिया , जाया पसंसंति, अच्छंति य पलोयंता, जति ओयरति तो एयस्स बयं सीसा, एवं ते पडिच्छता अच्छंति । सामीवि चइयाणि वंदित्ता उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे पुढषिसिलापट्टए तुयट्टो असोगबरपायवस्स अहे तं रयणि बासाए । उवागतो। इओ य सकस्स लोगपालो वेसमणो, सोवि अट्टाययचेइयवंदतो एति, सो चेइयाणि बंदित्ता गोयमसामि बंदति, ताहे सो धम्मं कहेति, भगवं अणगारगुणे परिकहिउँ पबत्तो, अंताहारा पंताहारा एवं वण्णेति, | उदारशरीरः हुतवहतडित्तरुणरविकिरणसदृशेन तेजसा, ते तमायान्तं प्रेक्ष्य ते एवं भणन्ति-एष किलात्र स्थूरः श्रमणो विलगिष्यति', यं वयं महातपखिनः शुष्का बुभुक्षिता न शकमो विलगितुं, भगवांश्च गौतमो जलाधारणलब्या लूतातन्तुपुटकस्यापि निभ-13 योत्पतति, यावत्ते प्रलोकयन्ति-एष आगत एषोऽदर्शनं गत इति, तदा ते विस्मिता जाताः प्रशंसन्ति, तिष्ठन्ति च प्रलोकयन्तः, यदि अव ॥३२५॥ तरति तदा एतस्य वयं शिष्याः, एवं ते प्रतीम छन्तः तिष्ठन्ति । स्वाम्यपि. चैत्यानि वन्दित्वोत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे पृथ्वीशिलापट्टके त्वग्वर्तितः अशोकवरपादपस्याधस्ता रजनीं वासार्थमुपागतः । इतश्च शक्रस्य लोकपालो वैश्रमणः, सोऽपि अष्टापद चैत्यवन्दक पति, स चैत्यानि | वन्दित्वा गौतमस्वामिनं बन्दते, तदा स धर्म कथयति, भगवान् अनगारगुणान् परिकथयितुं प्रवृत्तः, अन्ताहाराः प्रान्ताहारा एवं वर्णयति, दीप अनुक्रम [२९०] K A AIMEducatan intimational ForParaTREPWatmonth मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~649~ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| समणो चिंतेति-एस भगवं एरिसे साहुगुणे वण्णेइ, अप्पणो य से इमा सरीरसुकुमारया जारिसा देवाणवि णस्थि, भगवं तस्स आकूतं नाउं पुंडरीयं नाम अज्झयणं पण्णवेइ, जहा-पुक्खलावतीविजए पुंडरिगिणीए णगरीए णलिणिगुम्मर उजाणं, तत्थ णं महापउमे नाम राया होत्था, पउमावती देवी, ताणं दो पुत्ता-पुंडरीए कंडरीए य, सुकुमारा जाव पिडिरूवा, पुंडरीए जुवराया होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं घेरा भगवंतो जाव णलिणिगुम्मे उजाणे समो- सढा, महापउमे णिग्गए, धम्मं सोचा भणति- नवरं देवाणुप्पिया ! पुंडरीयं कुमारजे ठवेमि, अहासुहं मा पडिबंधा करेहि, एवं जाव पुंडरीए राया जाए जाव विहरइ। तते णं से कंडरीष कुमारे जुबराया जाए। तए णं से महापउमे है |राया पुंडरीयं रायं आपुच्छति-तए णं से पुंडरीए सिवियं णीणेइ, जाव पबतिते, णवरं चोइसपुवाई अहिजति, G १ वैश्रमणश्चिन्तयति-एष भगवान् ईदृशान् साधुगुणान् वर्णयति, आत्मनश्चास्यैषा शरीरसुकुमारता यादृशी देवानामपि नास्ति, भग-3 वान तस्याकूतं ज्ञात्वा पुण्डरीकनामाध्ययनं प्रज्ञापयति, यथा-पुष्कलाबतीविजये पुण्डरीकियां नगर्या नलिनीगुल्ममुद्यान, तत्र महापयो नाम राजाऽभवत् , पद्मावती देवी, तयोद्वी पुत्री--पुण्डरीकः कण्डरीकन, सुकुमालौ यावत्प्रतिरूपौ, पुण्डरीको युवराजोऽभवत् । तस्मिन् । | काले तस्मिन् समये स्वषिरा भगवन्तो यावन्नलिनीगुल्म उद्याने समयमृताः, महापद्मो निर्गतः, धर्म धुत्वा भणति-यन्नवर देवानु- | प्रियाः ! पुण्डरीक कुमार राज्य स्थापयामि,यथासुखं मा प्रतिबन्धं कार्षीः, एवं यावत्पुण्डरीको राजा जातः यावद्विहरति । ततः स कण्डरीका Clकुमारो युवराजो जातः । ततः स महापद्मो राजा पुण्डरीकं राजानमापृच्छति-ततः स पुण्डरीक: शिविकामानयति, यावत्प्रत्र जितः, नवरं चतुर्दश पूर्वाण्यध्येति, दीप अनुक्रम [२९०] For ParaTREPWAuOnly liancibaram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 650~ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| दीप अनुक्रम [२९०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३२६ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||६२...|| अध्ययनं [१०], बहूहिं छट्टममहातबोवहाणेहिं बहूणि वासाणि सामण्णं पालिऊणं मासियाए संलेहणाए सद्धिं भत्तारं शोसित्ता जाव सिद्धे । अन्नया य ते येरा पुषाणुपुषिं जाव पुंडरिगिणीए समोसडा, परिसा णिग्गया, तए णं से पुंडरीए राया कण्डरीएणं जुवरण्णा सद्धिं इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्ठे जाव गए, धम्मकहा, जाव से पुंडरीए सावगधम्मं पडिवण्णे, जाव पडिगए साबए जाए। तए णं से कंडरीए जुवराया थेराणं धम्मं सोचा हट्ठे जाव जहेदं तुज्झे वदह, जं नवरं देवाणुप्पिया ! पुंडरीयं रायं आपुच्छामि, तए णं जाव पञ्चयामि, अहासुहं पञ्चयह। तते गं से कंडए जाव धेरे णमंसति श्राणं अंतितातो पडिनिक्खमति २ सा तमेव चाउघंटं आसरहं दुरूहति, जाव पच्चोरुहति, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उबागच्छति, करयल जाव पुंडरीयं रायं एवं व्यासी एवं खलु मए देवाणुप्पिया ! Jain Education intimal १ बहुभिः षष्ठाष्टममहातपउपधानैर्वहूनि वर्षाणि श्रामण्यं पालयित्वा मासिक्या संलेखनया षष्टिं भक्तान् जोषवित्वा यावत्सिद्धः । अन्यदा च ते स्थविरा: पूर्वानुपूर्व्या यावत्पुण्डरीकियां समवसृताः पर्षन्निर्गता, ततः स पुण्डरीको राजा कण्डरीकेन युबराजेन सार्धं अस्याः कथाया लब्धार्यः सन् दृष्टो यावद्रतः, धर्मकथा, यावत्स पुण्डरीकः श्रवकधर्मं प्रतिपन्नः, यावत् प्रतिगतः श्रावको जातः । ततः स कण्डरीको युवराजः स्थविरेभ्यो धर्म श्रुत्वा हृष्टः यावत् यथैतत् यूयं वदथ, यन्नवरं देवानुप्रियाः ! पुण्डरीकं राजानमापृच्छामि ततो यावत्प्रत्रजामि, यथासुखं प्रब्रज । ततः स कण्डरीको यावत्स्थविरान् प्रणमति २ स्थविराणामन्तिकात् प्रतिनिष्कामति २ तमेव चातुर्घण्टमश्वरथमारोइति यावत्प्रत्यवतरति, यत्रैव पुण्डरीको राजा तत्रैवोपागच्छति, करतल यावत् पुण्डरीकं राजानमेवमवादीत् एवं खलु मया देवानुप्रियाः 1 निर्युक्ति: [ २८४-३०६] For PP Use On ~651~ दुमपत्रकमध्ययनं. ॥ ३२६॥ janibraryur मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) % प्रत % सूत्रांक ||६२|| A राणं अंतिए जाव धम्मे णिसंते, से य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तए णं अहं देवाणुप्पिया ! संसा-21 कारभविगेभीए जम्मणमरणाणं इच्छामि गं तुझेहि अणुण्णाए समाणे थेराण अंतिए जाव पचतित्तएत्ति । तए से पंडरीप राया एवं क्यासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणि थेराणं अंतिए जाव पश्याहि. अहणं तुम महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचिस्सामि, तए णं से कंडरीए पुंडरियस्स रपणो एयमढें णो आढाति णो परिजा-II णति तुसिणीए संचिटइ, तए णं से कंडरीए पुंडरीयं दोचंपि तचंपि एवं वयासी-इच्छामि गं देवाणुप्पिया! जाव ४ा पचहत्तएत्ति । तए णं से पुंडरिए राया कंडरीयं कुमारं जाहे णो संचाएद विसयाणलोमाहिं बहहिं आघवणाहिया पपणवणाहि य सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा ४ ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउवेगकरीहि १ स्थचिराणामन्तिके यावत् धर्मो निशमितः, स च धर्म ईप्सितः प्रतीप्सितोऽभिरुचितः, ततोऽहं देवानुप्रियाः ! संसारभयोद्विग्नः भीतो जन्म(जरा)मरणेभ्यः इच्छामि युष्माभिरनुज्ञातः सन् स्थविराणामन्तिके यावत्प्रत्रजितुमिति । ततः स पुण्डरीको राजैवमवादीत-मा त्वं देवा-2 नुप्रिय ! इदानीं स्थविराणामन्तिके यावत्प्रव्रज, अहं पुनस्त्वां महता २ राज्याभिषेकेणाभिषिञ्चामि, ततः स कण्डरीकः पुण्डरीकस्य राज्ञ एनमर्थ || नाद्रियते न परिजानाति, तूष्णीकः संतिष्ठते, ततः स कण्डरीकः पुण्डरीकं राजानं द्वित्रिरपि एवमवादीत्-इच्छामि देवानुप्रियाः! यावत्प्र अजितुमिति । ततः स पुण्डरीको राजा कण्डरीकं कुमारं यदा न शक्नोति विषयानुलोमाभिश्च बहुभिराख्यापनाभिश्च प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञपना1 मिन विज्ञपनाभिश्चाख्यातुं वा ४ तदा विषयप्रतिकूलाभिः संयमभयो।गकरीभिः दीप अनुक्रम [२९०] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~652~ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः ॥३२७॥ प्रत सूत्रांक ||२|| पण्णवणांहि य पष्णवेमाणे २ एवं वयासी-एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए एवं जहा / दुमपत्रकपडिकमणे जाव सचदुक्खाण अंतं करेति, किंतु अहीव एगंतदिट्ठीए खुरो इव एगंतधाराए लोहमया वा जवा चावयवा || मध्ययनं. वालुयाकवले इव निस्साए गंगा वा महानई पडिसोयगमणाए महासमुद्दे इव भुयाहि दुरुत्तरेहिं तिक्खं चंकमियई। गरुयं लंघियचं असिधारं च तवं चरियवं, णो य खलु कप्पई जाता! समणाणं णिग्गंधाणं पाणाइवाए वा जाय मिच्छादसणसल्लेति वा १८ आहाकम्मेति वा उहेसेति वा मिस्सजाए वा अज्झोयरए पूइए कीए पामिचे अच्छेजे अणिसिढेर अभिहडे या ठइयए वा कतारभत्तए इ वा दुभिक्खभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा पाहुणगमत्तेत्ति वा सिज्जातरपिंडे इ वा । रायपिंडे इ वा मूलभोयणे इ वा कन्दभोयणे इ वा फलभोयणे इ वा बीयभोयणे इ वा हरियभोयणे इ वा भोत्तए वा १ प्रज्ञापनाभिश्च प्रज्ञापयन् २ एवमवादीत्-एवं खल जात! निन्थे प्रवचने सत्येनुत्तरे कैवलिके एवं यथा प्रतिक्रमणे यावत्सर्व-8 दुःखानामन्तं करोति, किन्त्वहिरिवैकान्तदृष्टा क्षुरप्र इवैकान्तधारया लोहमया वा यवानर्वितव्या वाल्लुकाकवला इव निरास्वादः गङ्गामहानदीव प्रतिश्रोतोगभनाय महासमुद्र इव भुजाभ्यां दुरुत्तरः तीक्ष्णं चङ्गमितव्यं गुरुकं लकवितब्यमसिधारं च तपः चरितव्यं, नो च खलु कल्पते | जात ! अमणानां निम्रन्थानां प्राणातिपातो वा यावन्मिध्यादर्शनशस्वमिति वा आधार्मिकमिति वा औदेशिकमिति वा मिश्रजातमिति वा ॥२७॥ अध्यवपूरकमिति वा पूति क्रीतं प्रामित्यमाच्छेद्यम निःसृष्टमभ्याहृतं वा स्थापितं वा कान्तारभक्तं वा दुर्भिक्षभक्तं वा ग्लानभक्तं वा प्रापूर्णकभक्तं वा शय्यातरपिण्डो वा राजपिण्डो वा मूलभोजनं वा कन्दभोजनं वा फलभोजनं वा बीजभोजनं वा हरितभोजनं वा भोक्तुं वा दीप अनुक्रम [२९०] AIMEducatan intimational For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~653~ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| पायए वा. तमं च णं जाया ! सुहसमुचिते णालं सीतं नालं उण्हं नालं खुहा णालं पिवासा नालं चोरा नालं बाला णालं दंसा णालं मसगा णालं वात्तियपित्तियसिंभियसन्निवाइयविविहे रोगायके उच्चावए वा गामकंटते वा बावीस परीसहोवसग्गे उदिण्णे सम्मं अहियासित्तएत्ति,तं नो खलु जाता! अम्हे इच्छामो तुझं खणमवि विप्पओगं,तं अच्छाही ताब जाया ! अणुभवाहि रजसिरिं, पच्छा पचहिसि । तए णं से कंडरीए एवं वयासी-तहेव णं देवाणुप्पिया ! जणं तुज्झे वयह, किं पुण देवाणुप्पिया ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोयपडिबद्धाणं परलोगपरंमुहाणं विसयतिसियाणं दुरणुचरे पागयजणस्स, धीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स णो खलु इत्थं किंचि दुकरकरणाए, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! जाव पचतित्तएत्ति । तए णं तं कंडरीयं पुंडरीए राया जाहे णो संचाएति १ पातुं वा, त्वं च जात ! सुखसमुचितः नालं शीतं नालमुष्णं नालं क्षुत् नालं पिपासा नालं चौरा नालं ब्याला नालं दंशा नालं मशका नालं वातिकपैत्तिकश्लैष्मिकसान्निपातिकान् विविधान् रोगातङ्कान उच्चावचान वा प्रामकण्टकान् वा द्वाविंशति परीषहोपसर्गान् उदीर्णान सम्यगध्यासितुमिति, तन्न खलु जात! वयमिच्छामस्तव क्षणमपि विप्रयोग, तत्तिष्ठ तावन्नात ! अनुभव राज्यश्रियं पश्चात् प्रव्रजेः । ततः स कण्डरीक एवमवादीत्-तथैव देवानुप्रियाः ! यद्यूयं वदथ, किं पुनर्देवानुप्रियाः ! निम्रन्थं प्रावचनं क्लीवानां कातराणां कापुरुषाणामिहलोकप्रतिबद्वानां परलोकपराङ्मुखानां विषयतृषितानां दुरनुचरं प्राकृतजनस्य, धीरस्य निश्चितस्य व्यवसितस्य न खलु अत्र किश्चित् दुष्करं कर्तु, तदिच्छिामि देवानुप्रियाः ! यावत् प्रबजितुमिति । ततस्तं कण्डरीक पुण्डरीको राजा यदा न शक्नोति दीप अनुक्रम [२९० की JanEducatam For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~654~ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||६२|| पुडराए राया धम्म उत्तराध्य. बहहिं आघवणाहि य ४ आघवित्तए चा ४ ताधे अकामए चेव णिक्खमणं अणुमण्णित्था । तए णं से पुंडरीए कोडंबि जयपुरिसे सद्दावेद २ एवं वयासी-जहा महामइग्धं महारिहं णिक्खमणमहिमं करेह, जाव पवतितो। तओसामाइयमाइ दियाई एकारस अंगाई अहि जियाई, बहुहिं चउत्थच्छट्टट्ठमाईहिं तवोवहाणेहिं जाब विहरइ । अन्नया तस्स कंडरीयस्स ४ ॥३२८ अंतेहि य पंतेहि य जाव रोगायंके पाउम्भूए जाव दाहवकंतीए यावि विहरति । तते णं ते थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुषाणुपुर्षि चरमाणा गामाणुगामं विहरमाणा पुंडरिगिणीए नलिणिवणे समोसढा, तए णं से पुंडरीए राया दाइमीसे कहाए लढे समाणे जाव पज्जुवासइ, पत्थुया धम्मकहा भगवया, तते णं से पुंडरीए राया धर्म सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ २ ता कंडरीयं वंदइ नमसइ २ कंडरीयस्स सरीरं सघाबाहं सरुयं पासति २ १ बहुभिराख्यापनाभि ४ श्राख्यातुं वा ४ तदा अकाम एव निष्क्रमणमन्वमंत । ततः स पुण्डरीकः कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति २] एवमवादीत-यथा महामहार्य महार्ह निष्क्रमणमहिमानं कुरुत, यावत्प्रवजितः । ततः सामायिकादीन्येकादशाङ्गान्यधीतानि, बहुभिश्चतुर्थषष्ठाष्टमादिभिः तपउपधानैर्यावद्विचरति । अन्यदा तस्य कण्डरीकस्य अन्तैश्च प्रान्तैश्च यावत् रोगातङ्काः प्रादुर्भूता यावद् दाहव्युत्कान्तिश्चापि विहरति । ततस्ते स्खविरा भगवन्तोऽन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्व चरन्तो प्रामानुप्रामं विहरन्तः पुण्डरीकिण्यां नलिनीवने समबमृताः, ततः सः पुण्डरीको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् यावत् पर्युपास्ते, प्रस्तुता धर्मकथा भगवता, ततः स पुण्डरीको राजा धर्म धुत्वा यत्रैव कण्डरी-14 |कोऽनगारस्तत्रयोपागच्छति २ कण्डरीकं वन्दते प्रणमति २ कण्डरीकस्य शरीरं सव्यावा, सरुज पश्यति २ दीप अनुक्रम [२९०] RRES5% ॥३२८॥ का AIMEducatan intamational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 655~ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| __ नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| जेणेव थेरा तेणेब उबागच्छइ, थेरे बंदति २ एवं वयासी-अहं णं भंते ! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहि । रातगिच्छिएहिं फासुयएसणिज्जेहिं अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं तिगिच्छं आउंटामि,तुज्झे णं भंते ! मम जाण सालासु समोसरह, तते णं थेरा पुंडरीयस्स रपणो एयमढे पडिसुणेति २ जाव जाणसालासु विहरति । तए णं से पुंडरीए कंडरीयस्स तिगिच्छं आउंटेइ, तए णं तं मणुन्नं असणं ४ आहारतस्स समाणस्स से रोगायंके खिप्पा| मेव उबसंते हढे जाए आरोगे बलियसरीरे, तओ रोगायंकाओ मुक्केऽपि समाणे तंसि मणुण्णंसि असणे ४ मुच्छिए जाव अज्झोववण्णे विविहे य पाणगंसि, णो संचाएति बहिया अब्भुजएणं विहारेणं विहरित्तएत्ति । तते णं से है पुंडरीए इमीसे कहाए लट्टे समाणे जेणेव कंडरीए तेणेव उवागच्छति २ कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं | १ यत्रैव स्थविरास्तत्रैवोपागच्छति, खविरान् वन्दते २ एवमयादीत्---अहं भदन्ताः! कण्डरीकस्थानगारस्य यथाप्रवृश्चिकित्सितैः प्रासुकैषणीयैर्यथाप्रवृत्तरौषधभैषज्यभक्तपानैश्चिकित्सां कारयानि, यूयं भदन्ताः ! मग यानशालामु समवसरत, ततः स्थविराः पुण्डरीकस्य दराज्ञ एनमर्थ प्रतिशृण्वन्ति २ यावद्यानशालामु विचरन्ति । ततः स पुण्डरीकः कण्डरीकस्य चिकित्सा कारयति,ततस्तत् मनोज्ञमशन ४ मा हारयतः सतः तस्य रोगातकाः क्षिप्रमेवोपशान्ता हृष्टो जातः अरोगो बलिकशरीरः, ततो रोगातश्कात् मुक्तोऽपि सन् तस्मिन् मनोशेऽशने ४४ मूर्छितो यावदध्युपपन्नः विविधे च पानके, न शक्नोति बहिरभ्युद्यतेन बिहारेण विहर्तुमिति । ततः स पुण्डरीकोऽस्याः कथाया लब्धार्थः सन् यत्रैव कण्डरीकस्तत्रैवोपागच्छति २ कण्डरीक त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण दीप अनुक्रम [२९०] 452655 For PAHATEEPIVanupontv wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 656~ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| दीप अनुक्रम [२९०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३२९॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||६२...|| अध्ययनं [१०], करेति २ बंदति २ एवं वयासी-घण्णेऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया ! एवं सपुण्णोऽसि णं कयत्थे कयलक्खणे सुलद्धे णं तब | देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मे जीवियफले, जण्णं तुमं रजं च जाव अंतेडरं च विच्छत्ता जाब पase, अहणणं अहण्णे अकयपुण्णे जाव माणुस्सए भवे अणेगजाइ जरामरणरोगसोगसारीर माणसपका मदुक्खवेयणावसणसयउवद्दवाभिभूए अधुवे अणीइए असासए संज्झभरागसरिसे जलबुध्यसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निहे सुमिणगदंसणोवमे विज्जुलयाचंचले अणिचे सडणपडणविद्धंसणधम्म के पुर्वि वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियवइति, तहा माणुस्वयं सरीरगंपि दुक्खाययणं विविवाहितयसन्निकेयं अद्वियकछुट्टियं सिराण्हारुजालओणद्धसंविणद्धं मट्टियभंडं व दुखलं असुइकिलिडं अणिद्वंपि य सक्षकालं संठप्पयं जराघुणियं जज्जरघरं व सडणपडणविद्धंसणधम्मयं पुत्रिं वा Jain Education Intl १ करोति २ वन्दते २ एवमवादीत्-धन्योऽसि त्वं देवानुप्रिय ! एवं सपुण्योऽसि कृतार्थः कृतलक्षणः सुलब्धं तव देवानुप्रिय ! मानुष्यं जन्म जीवितफलं यवं राज्यं च यावदन्तःपुरं च विच्छये यावत्प्रत्रजितः, अहमधन्योऽकृतपुण्यो यावन्मानुष्यो भवः अनेकजातिजरा| मरणरोगशोक शारीरमानसिकप्रकामदुःखवेदनाध्यसनशतोपद्रवाभिभूतोऽभुवोऽनैत्यिकोऽशाश्वतः सन्ध्याश्वरागसदृशः जलबुद्बुदसमानः कुशा| प्रजलबिन्दुसन्निभः स्वप्नदर्शनोपमो विद्युताचञ्चलोऽनित्यः शदनपतनविध्वंसनधर्मकः पूर्व वा पञ्चाद्वाऽवश्यं विग्रहातव्य इति, तथा मानुष्यकं शरीरमपि दुःखायतनं विविधव्याधिशतसन्निकेतमस्थिकाष्ठोत्थितं सिरास्नायुजालावनद्धसंविनद्धं मृत्तिकाभाण्डवदुर्बलमशुचिसंष्टिमनिष्टमपि च सर्वकालं संस्थाप्यं जराघूर्णितं जर्जरगृहवत् शटनपतनविध्वंसनधर्मकं पूर्व वा निर्युक्ति: [२८४-३०६] Parma Prsata Use On ~657~ दुमपत्रक मध्ययनं. १० ॥३२९॥ ancibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| पिच्छा वा अवस्सविप्पजहियवं, कामभोगावि य णं माणुस्सगा असुई असासया वंतासया एवं पित्ता० खेला. सुका. सोणियासवा उच्चारपासवणखेलसिंघाणवंतपित्तसुक्कसोणियसमुम्भवा अमणुण्णपु [द] रूयमुत्तपूतिपुरीसपुण्णा मयगंधुस्सासअसुभणिस्सासउषीयणगा बीभच्छा अप्पकालिया लघुस्सगा कलमलाहिया सुदुक्खा बहुजणसाहरणा परि|किलेसकिच्छदुक्खसज्झा अबुहजणणिसेषिया सदा साधुगरहिणिजा अर्णतसंसारवडणा कडुगफलविवागा चुदलिय |अमुंचमाणा दुक्खाणुवंघिणो सिद्धिगमणबिग्घा पुर्विवा पच्छा वा अवस्स विप्पजहियया भवंति,जेऽपि यण रजे हिरणे सुवणे य जाव साबइज्जे सेऽवियणं अग्गिसाहिए चोरसाहिएरायसाहिए दाइयसाहिए अधुवे अणितीए असासए पुर्षि बापच्छा वा अवस्सविप्पजहियचे भविस्सतित्ति, एवंविहम्मि रजे जाव अंतेउरे व माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए४ १ पश्चाद्वाऽवश्यं विप्रहातव्यम , कामभोगा अपि च मानुष्यका अशुचयोऽशाश्वता वान्तानवाः एवं पित्ता० श्लेष्मा. शुक्रा० शोणिता श्रवा उचारप्रस्रवणश्लेष्मसिद्धानवान्तपित्तशुक्रशोणितसमुद्भवा अमनोज्ञपूयमूत्रपूतिपुरीषपूर्णा मृतगन्धोच्छासाशुभनिःश्वासोद्वेजका बीभत्सा अल्पकालीना लघुस्खकाः कश्मलाधिकाः सुदुःखा बहुजनसाधारणाः परिक्लेशकुच्छ्रदुःखसाध्या अबुधजननिषेविताः सदा साधुगर्हणीया अनन्तसहै सारवर्धनाःकटुकफलविपाकाः चुडलीव अमुच्यमानाः दुःखानुवन्धिनः सिद्धिगमनविनाः पूर्व वा पश्चाद्वाऽवश्यं विप्रहातव्या भवन्ति, यदपि च राज्यं हिरण्यं सुवर्ण च यावत्खापतेयं तदपि चाग्निस्वाधीनं चौरस्वाधीनं राजखाधीनं दायादुखाधीनमधुवमनित्यमशाश्वतं पूर्व वा पश्चाद्वाऽवश्यं विप्रहातव्यं भविष्यतीति, एवंविधे राज्ये यावदन्तःपुरे च मानुष्यकेषु च कामभोगेषु भूछित्तो ४ दीप अनुक्रम [२९० AIMEducatan intamational For PHOTOSPNandipontv Siencitinnar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~658~ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३३॥ प्रत १० सूत्रांक ||६२|| णो संचाएमि जाव पवयित्तए, तं धण्णेऽसि गं तुम जाव सुलद्धे पं मणुयजम्मे, जणं पचइए । तते णं से कंडरीए । दुमपत्रकपुंडरीएणं एवं बुत्ते तुसिणीए संचिट्ठति, ततेणं से पुंडरीए दोचंपि तचंपि एवं बयासी-धण्णेऽसि तुमं अहं मध्ययनं. अहण्णे। तएणं से दोबपि तचंपि एवं बुत्ते समाणे अकामए अवसंबसे लजाए य गारवेण य पुंडरीयरायं आपुच्छइ, थेरेहिं सद्धिं पहिया जणवयविहारं विहरई । तए णं से कंडरीए थेरेहिं सद्धिं किंचि कालं उग्गं उग्गेणं विहरित्ता तओ| पच्छा समणतणनिविणे समणत्तणणिभत्थिए समणगुणमुक्कजोगे घेराणं अंतियातो सणियं २ पचोसकई, जेणेव पुंडरगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स रण्णो भवणे जेणेव असोगवणिया जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढविसिलावट्टए तेणेव उवागच्छति २ जाव सिलापट्टयं दुरुहइ २ ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति । तए णं | १न शक्रोमि यावत्प्रवजितुम् , सङ्घन्योऽसि त्वं यावत् सुलब्धं मानुषं जन्म यत्नजितः । ततः स कण्डरीकः पुण्डरीकेणैवमुक्ता तूष्णीकः संतिष्टते, ततः स पुण्डरीकः द्विनिरपि एबमबादीत्-धन्योऽसि त्वमहमधन्यः । ततः स द्वितिरप्येवमुक्तः सन्नकामोऽवशवशो लजया च | गौरवेण च पुण्डरीक राजानमापूच्छति, स्थविरैः सार्ध बहिर्जनपदविहारं विहरति । ततः स कण्डरीकः स्थविरैः सार्थ फश्चित्कालमुप- IIMon | मुप्रेण विहत्य ततः पश्चात् श्रामण्यनिर्विणः श्रामण्यनिरिसतः मुक्तामणगुणयोगः स्थविराणामन्तिकात शनैः २ प्रत्यवच्याकति, यत्रैव || FIपुण्डरीकिणी नगरी यत्रैव पुण्डरीकस्य राज्ञो भवनं यत्रैवाशोकवनिका यत्रैवाशोकवरपादपो यत्रव पृथ्वीशिलापट्टकस्तत्रैवोपागच्छति २ यावच्छिलापट्टकमारोहति २ अपहतमनःसंकल्पो यावद्यायति । ततः दीप अनुक्रम [२९० % 4- For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~659~ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| पुंडरीयस्स अम्मधाई तत्थागच्छति, जाव तं तहा पासति रपुंडरीयस्स साहति, सेऽवि यणं अंतेउरपरिवालसंपरिबुडे तत्थागच्छति २ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाय धण्णेऽसि णं सर्व जाव तुसिणीए, तए णं पुंडरीए एवं वया सी-अट्ठो भंते ! भोगेहि?, हंत अट्ठो, तए णं कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ कलिकलुसेणेवाभिसित्तोरायाभिसेएणं जाव दरजं पसासेमाणे विहरति। तए णं से पुंडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ २ चाउजामं धम्म पडिबजइ २ कंडरी यस्स आयारभंडगं सबसुहसमुदयंपिव गिण्हति २ इमं अभिग्गहं गिण्हति-कप्पति मे राणं अंतिते धम्म पडिवजेत्ता पच्छा आहारं आहारित्तएत्तिकटुथेराभिमुहे णिग्गए। कंडरीयस्स उतं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स णो सम्म परिणयं, वेयणा पाउम्भूया उजला विउला जाव दुरहियासा, तए णं से रजे य जाव अंतेउरे य मुच्छिए जाव १ पुण्डरीकस्य धात्री तत्रागच्छति, यावत्तं तथा पश्यति २ पुण्डरीकाय कथयति, सोऽपि च अन्तःपुरपरिवारसंपरिघृतस्तत्रागच्छति २ |त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं यावद्धन्योऽसि सर्व थावत्तूष्णीकः, ततः पुण्डरीक एवमवादीत्-अर्थो भदन्त ! भोगैः ?, हन्तार्थः, ततः कौटु|म्बिकपुरुषान् शब्दयति २ कलिकलुषेणाभिषिक्तो राजाभिषेकेण याबद्राज्य प्रशासयन् विहरति । ततः स पुण्डरीकः स्वयमेन पञ्चमौष्टिकं लोचं| । करोति २ चातुर्यामं धर्म प्रतिपद्यते २ कण्डरीकस्याचारभाण्डं सर्वसुखसमुदायमिव गृह्णाति २ इममभिप्रहं गृहाति-कल्पते मम स्थवि राणामन्तिके धर्म प्रतिपय पश्चादाहारमाहारयितुमितिकृत्वा स्थविराभिमुखो निर्गतः । कण्डरीकस्य तु तत्प्रणीतं पानभोजनमाहारितस्य न सम्यक् परिणतं, वेदना प्रादुर्भूता उज्ज्वला विपुला यावइरध्यास्या, ततः स राज्ये च यावदन्तःपुरे च मूछितो याव दीप अनुक्रम [२९०] %-%AX For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~660~ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति : [२८४-३०६] (४३) उत्तराध्यः प्रत सूत्रांक ||२|| 18 अझोपवण्णे अट्टदुहट्टवसट्टे अकामए कालं किच्चा सत्तमीपुढवीए तेत्तीससागरोवमट्टिईए जाए । पुंडरीएऽवि यणं दुमपत्रकबृहद्वृत्तिः हथरे पप्प तेसिं अंतिते दोचंपि चाउज्जामे धम्मे पडियजति, अट्ठमखमणपारणगंसि अदीणे जाव आहारेई, तेण य का-४|| | मध्ययनं. लाईकंतसीयललुक्खअरसविरसेणं अपरिणतेण बेयणादुरहियासा जाया, तए णं से अधारणिज्जमितिकट्ठ करयलपरिग्ग॥३३॥ S पाहियं जाव अंजलि कगु णमोऽत्धुणं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं नमोऽत्थु ण थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोबएसयाणं पुर्विपि य प मए थेराणं अंतिते सवे पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए जाव सधे अकरणिज्जे दि जोगे पच्चक्खाए, इयाणिपि तेसिं चेवणं भगवंताणं अंतिते जाव सर्व पाणातिवायं जाव सर्व अकरणिज्जं जोग पञ्चक्खामि, जंपि य मे इमं सरीरगं जाव एयपि चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामित्ति, एवं आलोइयपडिकते. १० ध्युपपन्नः आतंदुःखार्तवशातः अकामः कालं कृत्वा सप्तमी पृथ्वीं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकां गतः । पुण्डरीकोऽपि च स्थविरान् प्राप्य तेषामन्तिके द्विरपि चातुर्यामं धर्म प्रतिपद्यते, अष्टमक्षपणपारणे अदीनो यावदाहारयति, तेन च कालातिक्रान्तशीतलाक्षारस-12 विरसेन अपरिणतेन वेदना दुरण्यासा जाता, ततः सोऽधारणीयमितिकृत्वा करतलपरिगृहीतं यावदलं कृत्वा नमोऽस्तु अर्हन्यः भगवयो ॥३३॥ यावत्संप्राभ्यो नमोऽस्तु खविरेभ्यो भगवन्यो मम धर्माचार्येभ्यो धर्मोपदेशकेभ्यः, पूर्वमपि मया स्थविराणामन्तिके सर्वः प्राणातिपातः | प्रत्याख्यातो यावजीवतया यावत्सर्वोऽकरणीयो योगः प्रत्यारुषातः, इदानीमपि तेषामेव भगवतामन्तिके यावत्सर्वं प्राणातिपातं यावत्सर्वमकरणीय योग प्रत्याख्यामि, यदपि च मे इदं शरीरमेतदपि यावत् चरमैरुच्छ्वासनिःश्वासैव्युत्सृजामीति एवमालोचितप्रतिक्रान्तः दीप अनुक्रम [२९० For ParaTREPWAauonly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~661~ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| __नियुक्ति : [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||६२|| PKIसमाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सबढसिद्धे तेत्तीससागरोवमाऊ देवे जाए, तो चहत्ता महाविदेहे सिज्झिहित्ति । ता मा तुर्म दुव्बलत्तं बलियत्तं वा गिण्हाहि, जधा सो कंडरीओ तेणं दोयलेणं अट्टदुहवसहो। सत्तमीए उववण्णो, पुंडरीतो पडिपुण्णगलकवोलो सबट्ठसिद्धे उबवण्णो, एवं देवाणुप्पिया ! बलितो दुब्बलो या अकारणं, इत्थ झाणणिग्गहो कायबो, झाणणिग्गहो परमं पमाणं । तत्थ वेसमणो अहो भगवया आकयं नायति। ४) एत्थ अतीव संवेगमावण्णोत्ति वंदित्ता पडिगतो । तत्थ वेसमणस्स एगो सामाणितो देवो, तेण तं पुंडरीयज्झयणं ओगाहियं पंचसयाणि संमत्तं च पडियण्णोत्ति, केई भणंति-जंभगो सो। ताहे भगवं कलं चेइयाणि वंदित्ता पचोरुहति,ते तायसा भणंति-तुझे अम्हाणं आयरिया अम्हे तुभं सीसा, सामी भणति-तुज्झं अम्हं च तिलोयगुरू आयरिया, १ प्राप्तसमाधिः कालमासे कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धे प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुर्देवो जातः, ततश्युत्वा महाविदेहेषु सेत्स्यतीति । तन्मा वं दुर्वलत्वं बलिवं वा गृहाण, यथा स कण्डरीकस्तेन दौर्बल्येन आनदुःखावशाः सप्तम्यामुत्पन्नः, पुण्डरीकः परिपूर्णगलकपोलः सर्वार्थसिद्धे ति उत्पन्नः, एवं देवानुप्रिय ! बली दुबलो वाऽकारणमत्र ध्याननिग्रहः कर्तव्यः, ध्याननिग्रहः परमं प्रमाणं । तत्र वैश्रवणोऽहो भगवताऽऽकू ज्ञातमिति अत्रातीव संवेगमापन्न इति वन्दित्वा प्रतिगतः । तत्र वैश्रमणस्वैकः सामानिको देवस्तेन तत्पुण्डरीकमध्ययनमवगाहित पञ्चशतानि द्रा (शतवारा) सम्यक्त्वं च प्रतिपन्न इति, केचिद्भणन्ति–जृम्भकः सः । तदा भगवान् प्रभाते चैत्यानि वन्दित्वा प्रत्यवतरति, ते तापसा | भणन्ति-यूयमस्माकमाचार्या वयं युष्माकं शिष्याः, स्वामी भणति---युष्माकमस्माकं च त्रिलोकगुरव भाचार्याः, दीप अनुक्रम [२९० JAIMEducatani For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~662~ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| 12 ते भणति-तुभवि अन्नो आयरिओ?, ताहे सामी भगवओ गुणधवणं करेइ, ते पवइया, देवयाए लिंगाणि |उवणीयाणि, ताहे ते भगवया सद्धिं वचंति, भिक्खावेला य जाया, भगवं भणति-किं आणिज्जउ !, ते भणंति दुमपत्रकबृहद्वृत्तिः पायसो,भगवं च सवलद्धिसंपुष्णो पडिग्महगं महुसंजुत्तस्स पायसस्स भरित्ता आगतो, ताहे भणति-परिवाडीए ठाह, मध्ययन ॥३३२॥ ते ठिया, भगवं च अक्खीणमहाणसितो,ते धाया,ते सुट्टयरं आउट्टा,ताहे सयमाहारेति,ताधे पुणरवि पट्ठविया। तेसिंच सेवालभक्खगाणं जेमंताणं चेव केवलणाणं उप्पण्णं, दिण्णस्स वग्गे छत्ताइच्छत्तं पेच्छंताणं, कोडिन्नस्स यग्गे सामि दण उबवणं । गोयमसामी पुरओ पकडमाणो सामि पयाहिणीकरेति, तेवि केवलिपरिसं पहाविया, गोयमसामी, भणइ-एध सामि बंदह, सामी भणइ-गोयमा! मा केवली आसाएहि, गोयमसामी आउदो मिच्छादुक्कडं करेति। १ ते भणन्ति---युष्माकमप्यन्य आचार्यः ?, तदा स्वामी भगवतो गुणस्तपनं करोति, ते प्रव्रजिताः, देवतया लिङ्गान्युपनीतानि, तदा ४ ते भगवता साधं व्रजन्ति, भिक्षावेला च जाता, भगवान् भणति-किमानीयताम् ?, ते भणन्ति-पायसः, भगवांश्च सर्पलब्धिसंपूर्णः प्रति प्रहं मधुसंयुक्तस्य पायसस्य भृत्याऽऽगतः, तदा भणति-परिपाट्या तिष्ठत, ते खिताः, भगवांश्चाक्षीणमहानसिकः, ते भोताः, ते सुषु आवजिताः, तदा स्वयमाहारयति, सदा पुनरपि प्रस्थापिताः तेषामथ शैवालभक्षकाणां जिमतामेव केवलज्ञानमुत्पन्नं, दत्तस्य वर्गे छातिच्छन्त्री ॥३३॥ [पश्यता, कोडिन्यस्य वर्गे खामिनं उत्पन्नम्। गौतमस्वामी पुरतः प्रकर्षन स्वामिनं प्रदक्षिणीकरोति, तेऽपि केवलिपर्षद प्रधाविता |गौतमखामी भणति-एत स्वामिनं वन्दध्वं, स्वामी भणति--गौतम! मा केवलिन आशातय, गौतमस्वामी आवृत्ती मिध्यादुष्कृत करादि । दीप अनुक्रम [२९० JAIMEducatan intimate For PF Arrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~663~ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-]/ गाथा ||६२...|| _ नियुक्ति: [२८४-३०६] (४३) प्रत %%%45544 सूत्रांक ||२|| तओ गोयमसामिस्स सुहुयरं अधिती जाया, ताधे सामी गोयम भणति-किं देवाणं वयणं गिझं ? आतो जिणाणं ?, |गोयमो भणति-जिणवराणं, तो कीस अधिति करेसि ?, ताधे सामी चत्तारि कडे पण्णवेइ, तंजहा-मुंबकडे |X विदलकडे चम्मकडे कंबलकडे, एवं सामीवि गोयमसामीतो कंवलकडसमाणो, किंच-चिरसंसट्ठोऽसि मे गोयमा 18 जाव अविसेसमणाणता भविस्सामो, ताधे सामी दुमपत्तयं नाम अज्झयणं पण्णवेइ । देवो वेसमणसामाणितो ततो चइत्ता णं तुंबवणसन्निवेसे धणगिरीणाम गाधावई, सोय पवतिउकामो, तस्स य मायापियरो वारेति, पच्छा, सो जत्थ २ बरेंति तत्थ २ विष्परिणामेति जहा अहं पवइउकामो, तस्स य तयणुरूवस्स गाहाबतिस्स धूया सुणदा णाम, सा भणइ-ममं देह, ताधि सा दिण्णा, तीसे य भाया अज्जसमितो णाम पुवपचतितो, तीसे य सुर्णदाए कुच्छिसि] १ ततो गौतमस्वामिनः सुष्ठुतराऽधृतिर्जाता, तदा स्वामी गौतम भणति-किं देवानां वचनं पाहमुत जिनानाम् ?, गौतमो भणति|जिनवराणां, तदा कुतोऽधृतिं करोषि ?, तदा स्वामी चतुरः कटान् प्रज्ञापयति, तद्यथा-शुम्बकटो विदलकटश्चर्मकटः कम्बलकटः, एवं | स्वाम्यपि गौतमस्वामिनमाश्रित्य कम्बलकटसमानः, किं च-चिरसंसृष्टोऽसि मम गौतम ! यावन् अविशेषौ अनानात्वौ भविष्यावः, तदा स्वामी दुमपत्रीयमध्ययनं प्रज्ञापयति । देवो वैश्रमणसामानिकततश्युत्वा तुम्बवनसन्निवेशे धनगिरिनाम गाथापतिः, स च प्रत्रजितुकामः, तस्य | च मातापितरौ वारयतः, पश्चात्ती यत्र यत्र वरर्यतः तत्र तत्र विपरिणमयति यथा अहं प्रनजितुकामः, तसा च तदनुरूपस्य गाथापतेदुहिता। 6सुनन्दा नाम, सा भणति-मां दत्त, तदा सा दत्ता, तस्याश्च भ्राता आर्यसमितो नाम पूर्वप्राजिता, तस्याश्च सुनन्वायाः कुक्षी %%% दीप अनुक्रम [२९०] AIMEducatan international For PF wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~664 ~ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२९१] उत्तराध्य. मुद्धतिः ॥ ३३३॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || अध्ययनं [१०], सो देवो उबवण्णो, ताधे भणति घणगिरी-एस ते गन्भो विइजिओ होहिइ, सो सीहगिरिस्स पासे पचतितो, इमोवि णवण्हं मासाणं दारतो जातो ॥ इत्यादि भगवद्वैरिखामिकथा आवश्यकचूर्णितोऽवसेया इत्युक्तो नाम निष्पन्ननिक्षेपः, | सम्प्रति सूत्रालापक निष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सतीत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं तवेदम् दुमपत्तए पंडयए जहा, निवडइ राइगणाण अचए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१॥ व्याख्या- दुमो - वृक्षस्तस्य पत्र - पलाशं तदेव तथाविधावस्थां प्राप्यानुकम्पितं द्रुमपत्रकं 'पंडुयए'त्ति आर्षत्वात् पाण्डुरकं कालपरिणामतस्तथाविधरोगादेर्वा प्राप्तव लक्षभावं, येन प्रकारेण यथा, 'निपतति' शिथिलवृन्तबन्धनत्वाद भ्रश्यति, प्रक्रमात् द्रुमत एव, रात्रिगणानां दिनगणाविनाभावित्वादुपलक्षणत्वाद्वा रात्रिन्दिवससमूहानाम् 'अत्यये' अतिक्रमे, 'एवम्' इत्येवंप्रकारं 'मनुष्याणां' मनुजानां, शेषजीयोपलक्षणं चैतत्, 'जीवितं ' आयुः, तदपि हि रात्रिन्दिवगणानामतिक्रमे यथास्थित्या स्थितिखण्डका पहारात्मकेनाध्यवसायादिना जनितेनोपक्रमणेन वा जीवप्रदेशेभ्यो भ्रश्यतीत्येवमुच्यते, यतश्चैवमतोऽत्यन्तनिरुद्धः कालः समयस्तम् अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात्समयमध्यास्तामावलिकादि, 'गौतम' इति गौतमसगोत्रस्येन्द्र भूतेरामन्त्रणं 'मा प्रमादी' मा प्रमादं कृथाः, शेषशिष्योपलक्ष Jan Education Intimal १ स देव उत्पन्नः, तदा भगति धनगिरिः- एष तव गर्भो द्वितीयको भविष्यति, स सिंहगिरेः पार्श्वे प्रब्रजितः । अयमपि नव मासेषु दारको जातः, निर्युक्तिः [२८४-३०६] For Para Prata Use Only ~665~ द्रुमपत्रक मध्ययनं. १० ॥ ३३३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३०७-३०९] (४३) **50* 5 प्रत सूत्रांक ||१|| 0 च गौतमग्रहणम् , उक्तं हि नियुक्तिकृता-'तणिस्साए भगवं सीसाणं देइ अणुसडिं,' अत्र च पाण्डुरकपदाक्षिप्त यौवनस्याप्यनित्यत्वमाविश्चिकीर्षुराह नियुक्तिकृत्. परियडियलावण्णं चलंतसंधिं मुयंतबिंटागं । पत्तं च वसणपत्तं कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥ ३०७ ॥ जह तुब्भे तह अम्हे तुब्भेवि अ होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुरवत्तं किसलयाणं ॥३०॥ दिनवि अस्थि नवि अ होही उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कया भवियजणविबोहणट्टाए । व्याख्या-परिवर्तितं-कालपरिणत्याऽन्यथाकृतं लावण्यम्-अभिरामगुणात्मकमस्येति परिवर्तितलावण्यं, यतो न तस्य प्रागिव सौकुमार्यादि विद्यते, तथा चलन्तः-शिथिलीभवन्तः सन्धयो-यस्मिंस्तत्तथा, अत एव 'मुयंत-0 बटागं'ति मुञ्चत्-त्यजत् सामध्योद् वृक्षं वृन्तकं-पत्रबन्धनं यस्य तत मञ्चद्वन्तकं. वृन्तस्य वृक्षमोचने पत्रस्य पतनर्मच, भवतीति पतदित्युक्तं भवति, 'पत्रं' (च) पणे, व्यसनम्-आपदं प्राप्त व्यसनप्राप्त तथा काल:-प्रक्रमात् पतनप्रस्तान वस्तं प्रासं-गतं कालप्राप्तं "भणति' अभिधत्ते, गीयत इति गाथा तां-छन्दोविशेषरूपां ॥ तामेवाह'यथा' इति सादृश्ये, ततो यथा यूयं सम्प्रति किशलयभावमनुभवथ निग्धादिगुणैर्गर्वमुद्बहथ अमानुपह४ सथ, तथा वयमप्यतीतदशायां, तथा यूयमपि च भविष्यथ यथा वयमिति, जीर्णभावे हि यथा वयभिदानी विव दीप अनुक्रम [२९१] *25*** AIREDuratan insanmadina For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~666~ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२९२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ||३३४|| “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्ति: [३०९...] अध्ययनं [१०], र्णविच्छायतयोपहास्यानि, एवं यूयमपि भावीनीति, 'अप्पाहेर'त्ति उक्तन्यायेनोपदिशति पितेव पुत्रस्य 'पतत्' भ्रश्यत् 'पाण्डुरपत्रं' जीर्णपत्रं 'किसलयानाम्' अभिनवपत्राणां । ननु किमेवं पत्रकिसलयानामुल्लापः सम्भवति ? येनेदमुच्यते, अत आह- 'नैयास्ति' नैव विद्यते, नैव भविष्यति उपलक्षणत्वात् नैव भूतः कोऽसौ ? - 'उल्लापः ' वचनं, १) केषां ? - 'किशलयपाण्डुपत्राणाम्' उक्तरूपाणां, आर्षत्वाच्च यलोपः, तदिह किमेवमुक्तमित्याह – 'उपमा' उपमितिः, खलु एवकारार्थत्वात्, ततः उपमैव, 'एषा' अनन्तरोक्ता 'कृता' विहिता 'भवियजणविवोहणट्टाए' ति | प्रतीतमेव । यथेह किशलयानि पाण्डुपत्रेणानुशिष्यन्ते तथाऽन्योऽपि यौवन गर्वितोऽनुशासनीयः, तथा चैतदनुवादिना वाचकेनावाचि-'परिभव. से किमिति लोकं जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम् । अचिरात् त्वमपि भविष्यसि यौवनगर्व किमुद्वहसि ? ॥ १ ॥ तदेवं जीवितयौवनयोरनित्यत्वमवगम्य न प्रमादो विधेय इति गाथात्रयार्थयुक्तसूत्रगर्भार्थः ॥ | पुनरायुषोऽनित्यत्वं ख्यापयितुमाह- Education intemational कुसग्गे जह ओसविंदुए, थोवं चिट्ठति लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं० ॥ २ ॥ • व्याख्या – कुशो - दर्भसदृशस्तृणविशेषः, तनुतरत्वाच्च तस्योपादानं, तस्याग्रं- प्रान्तस्तस्मिन्, 'यथा' इत्युपमानदर्शक:, अवश्यायः- शरत्कालभावी लक्ष्णवर्षस्तस्य विन्दुरेव विन्दुकः अवश्यायबिन्दुकः, 'स्तोकम्' अल्पकालमिति गम्यते, 'तिष्ठति' आस्ते, 'लम्बमानकः' मनाय निपतद्, बद्धास्पदो हि कदाचित् कालान्तरमपि क्षमतेत्येवं विशे For Para Prata Use Only द्रुमपत्रक मध्ययनं. १० ~667~ | ॥३३४ ॥ janibrary मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति : [३०९...] (४३) -CREE E प्रत सूत्रांक ||३|| ४ व्यते, 'एवम्' इत्युक्तसरशं 'मनुजानां' मनुष्याणां, मनुजग्रहणं च प्राग्वत् , 'जीवियं ति जीवित, यत एवं ततः। समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नुपदेशमाह इइइसरियंमि आउए, जीवितए बहुपचवायए । विहुणाहि रयं पुराकई, समयं ॥३॥ व्याख्या-'इति' इत्युक्तन्यायेन 'इत्वरे' अयनशीले, कोऽर्थः?-खल्पकालभाविनि, एति-उपक्रमहेतुभिः अनपवयतया यथास्थित्यैवानुभवनीयतां गच्छतीति आयुः, तचैवं निरुपक्रममेव तस्मिन्, तथाऽनुकम्पितं जीवितं । जीवितकं चशब्दस्य गम्यमानत्वात् तस्मिंश्च, अर्थात् सोपक्रमायुषि, बहवः-प्रभूताः प्रत्यपाया-उपघातहेतवोऽध्यवसाननिमित्तादयो यस्मिंस्तत्तथा, अनेन चानुकम्प्यताहेतुराविष्कृतः, एवं चोक्तरूपद्रुमपत्रोदाहरणतः कुशाग्रजलविन्दूदाहरणतश्च मनुजायुर्निरुपक्रमं सोपक्रम चेत्वरम् , अतोऽस्यानित्यतां मत्वा 'विधुनीहि जीवात् पृथक् कुरु रजः कर्म 'पुरेकर्डति' पुरा-पूर्व तत्कालापेक्षया कृतं-विहितं, तद्विधुवनोपायमाह-समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः, पठन्ति च-एवं मणुयाण जीविए एत्तिरिए बहुपचवायए'त्ति सुगममेवेति सूत्रार्थः ॥ स्यात्-पुनर्मनुष्यभवावाप्ताबुद्यस्याम इत्याहहै। दलहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेणवि सध्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो, समय० ॥४॥ व्याख्या-'दुर्लभो' दुरवापः, 'खलुः' विशेषणे, अकृतसुकृतानामिति विशेष द्योतयति, 'मानुषों' मनुष्यसम्बन्धी - . दीप अनुक्रम [२९३] K.-- O- C 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~668~ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२९४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३३५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||४|| निर्युक्ति: [३०९...] दुमपत्रक 'भवो' जन्म 'चिरकालेनापि' प्रभूतकालेनापि, आस्तामल्पकालेनेत्यपिशब्दार्थः, 'सर्वप्राणिनां सर्वेषामपि जीवानां, न तु युक्तिगमनं प्रति भव्यानामित्र केषाञ्चित् मनुजभवावासिं प्रति सुलभत्वविशेषोऽस्ति, किमेवमत आह- मध्ययनं . 'गाढा' विनाशयितुमशक्यतया दृढाः 'च' इति यस्मात्, 'विपाककम्मुणों'त्ति विपाकाः - उदयाः कर्मणां मनुष्यगतिविधातिप्रकृतिरूपाणां यत एवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ कथं पुनर्मनुत्रत्वं दुर्लभं यद्वा यदुक्तं 'सर्वप्राणिनां दुर्लभं मनुजत्व' मिति, तत्र एकेन्द्रियादिप्राणिनां तद्दुर्लभत्वं दर्शयितुकामः कार्यस्थितिमाह - १० पुढवीकायमइगओ उक्कोसं जीवो य संवसे । कालं संखातीयं समयं गोयम !मा पसाए ॥ ५ ॥ Parano || ६ || क्काय० ॥ ७ ॥ वाक्काय० ॥८॥ वर्णसहकाय० उक्को सं० । कालमर्णतदुरंतं समयं ०९ बेईदियकाय उक्को० । कालं संखिज्जसण्णियं समयं० ॥ १०॥ तेईदिय० ॥ ११ ॥ चरिदिय० ॥ १२ ॥ पंचिंदिय कायमगओ उकोसं० । सत्तभवग्गहणे समर्थ० ॥ १३ ॥ देवे गरए य गओ, उकोसं० । एक्केकभवरगहणे, समयं ॥ १४ ॥ व्याख्या - पृथ्वी - कठिनरूपा सैव कायः शरीरं पृथ्वीकायस्तमतिशयेन मृत्वा २ तदुत्पत्तिलक्षणेन गतः - प्राप्तः अतिगतः, 'उक्कोसं 'ति उत्कर्षतो 'जीवः' प्राणी 'तुः' पूरणे 'संवसेत्' तद्रूपतवैवावतिष्ठेत 'काल' सङ्ख्यातीतं, असङ्ख्यमित्यर्थः यत एवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति । एवमप्काय तेजस्कायवायुका यसूत्रत्रयमपि व्याख्येयं Jain Education intimal For Paren ||३३५|| ~669~ anciar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||५-१४|| नियुक्ति : [३०९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५-१४|| तथा वनस्पतिसूत्रं च, नवरं कालमनन्तमिति, अनन्तकायिकापेक्षमेतत् , प्रत्येकवनस्पतीनां कायस्थितेरसङ्ख्यातत्वात्, तथा दुष्टोऽन्तोऽस्पेति दुरन्तस्तम् , इदमपि साधारणापेक्षयैव, ते खत्यन्ताल्पवोधतया तत उद्धृता अपिन प्रायो विशिष्ट Mमानुपादिभवमोमुवन्ति। इह च 'कालं सङ्ख्यातीत मिति विशेषानभिधानेऽप्यसङ्ख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानम् ,'अनन्तमिति चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणमित्यवगन्तव्यं, यत आगमः-"अस्संखोसप्पिणिउस्सप्पिणीउ एगेंदियाण उचउपहं । ता चेव ऊ अणंता वणस्सतीए उ बोद्धवा ॥१॥" तथा द्वे-द्विसङ्खये इन्द्रिये-स्पर्शनरसनाख्ये येषां ते द्वीन्द्रिया:-कृम्यादयः,तत्कायमतिगत उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् कालं सङ्खयेयसज्ञित-सङ्ख्यातवर्षसहस्रात्मकम् , अतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः।। एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये ॥ तथा पञ्च इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि येषां ते तथा, ते चोत्तरत्र देवनारकयोरभिधानात् मनुष्यत्वस्य दुर्लभत्वेन प्रक्रान्तत्वात्तिर्यश्च एव गृह्यन्ते, तत्कायमतिगतः, तत्कायोत्पन्न इत्यर्थः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् सप्त वा अष्ट वा सप्साष्टानि तानि च तानि भवग्रहणानि च-जन्मोपादानानि सप्ताष्टभवग्रहणानि यतः अतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः। तथा देवान्नरयिकांश्च अतिगत उत्कर्षतो जीवस्तु संयसेत् एकैकभवग्रहणं, ततः परमवश्यं नरेषु तिर्यक्षु वोत्पादात् । यद्वा 'उकोसति उत्कृष्यते तदन्येभ्य इत्युत्कर्षस्तमुत्कृष्टं कालं-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपममानम् , 'एगेगभवग्गहणं'ति अपेर्गम्यमानत्वादेकै - -- दीप अनुक्रम [२९५-३०४] -- % AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~670~ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [--1 / गाथा ||५-१४|| नियुक्ति: [३०९...] (४३) दुमपत्रक बृद्धृत्तिः प्रत -5 मध्ययनं. सूत्रांक % ||५-१४|| उत्तराध्य. कभवग्रहणमपि संवसति, अतो जीवः संवसेत् अतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रदशकार्थः ॥ उक्तम- वार्थमुपसंहर्तुमाह एवं भवसंसारे संसरति सुभासुभेहिं कम्मेहिं । जीवो पमायबहुलो, समय० ॥१५॥ ॥३२६॥ व्याख्या-'एवम्' उक्तप्रकारेण पृथिव्यादिकायस्थितिलक्षणेन भवा एव-तिर्यगादिजन्मात्मकाः संस्रियमाणत्वात्। संसारो भवसंसारस्तस्मिन् , 'संसरन्ति'-पर्यटन्ति शुभानि च-शुभप्रकृत्यात्मकानि अशुभानि च-अशुभप्रकृतिरूपाणि शुभाशुभानि तैः 'कर्मभिः' पृथ्वीकायादिभवनिबन्धनैः 'जीवः' प्राणी प्रमादैबहुलो-व्याप्तः प्रमादबहुलः, यद्वा बहून्-भेदान् लातीति बहुलो मद्याद्यनेकभेदतःप्रमादो-धर्म प्रत्यनुद्यमात्मको यस्य स बहुलप्रमादः, सूत्रे च व्यत्ययनिर्देशःप्राग्वत् ,इह चायमाशयः-यतोऽयं जीवः प्रमादबहुलः सन् शुभाशुभानि कर्माण्युपचिनोति,उपचित्य च तदनुरूपासु गतिप्याजवंजप्रवीभावमुपगम्य भ्राम्यति, ततो दुर्लभवात् पुनर्मानुषत्वस्य प्रमादमूलत्वाच सकलानर्थपरम्परायाः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः । एवं मनुजभवदुर्लभत्वमुक्तम्, इदानीं तदवाप्तावप्युत्तरोत्तरगुणावाप्तिरतिदुरापेवेत्साह लहणवि माणुसत्तणं, आयरित्तणं पुणरावि दाल्लभं । यहये दसुया मिलेक्खुया, समय० ॥१६॥ लकूणऽवि आरियत्तर्ण, अहीणपंचिंदियया हदल्लहा । विगलिंदियता हु दीसह, समयं ॥१७॥ अहीणपंचिदियत्तंपि से लहे, उत्तमधम्मसुती हु दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं०॥ १८॥ दीप अनुक्रम [२९५ +14-10 -३०४] For PF wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~671~ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||१६-२०|| नियुक्ति: [३०९...] (४३) *% % प्रत सूत्रांक ||१६-२०|| 8-2-45 लणवि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्त० समय० ॥१९॥ धम्मपि हु सरहंतया, दुल्लभया कारण फासया । इह कामुगुणेहिं मुच्छिया, समयं ॥२०॥ | व्याख्या-'लब्ध्वाऽपि' प्राप्यापि 'मानुपत्वं' इदं तावदतिदुर्लभमेव कथञ्चित्तु लब्ध्वाऽपीत्यपिशब्दार्थः, आर्यत्वं' मगधाद्यार्यदेशोत्पत्तिलक्षणं 'पुनरपि भूयोऽपि, आकारस्त्वलाक्षणिकः, 'दुर्लभं' दुरवापं, किमिति ?, अत आह-बहवः-प्रभूता दस्यवो-देशप्रत्यन्तवासिनश्चौराः 'मिलेक्खु यत्ति म्लेच्छा-अव्यक्तवाचो, न यदुक्तमायैरवधार्यते, ते च शकयवनशवरादिदेशोद्भवाः, येष्यवाप्यापि मनुजत्वं जन्तुरुत्पद्यते, एते च सर्वेऽपि धर्माधर्मगम्यागम्यभक्ष्याभक्ष्यादिसकलार्यव्यवहारबहिष्कृतास्तिर्यप्राया एवेति समयमपि गौतम! मा प्रमादी। इत्थमार्यदेशोत्पत्तिरूपमार्यत्वमतिदुर्लभ, तथाविधमपि लब्ध्वाऽपि 'आर्यत्वम्' उक्तरूपम् , अहीनानि-अविकलानि पञ्चेन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि यस्य दास तथा तद्भावोऽहीनपञ्चेन्द्रियता 'हुः' अवधारणे भिन्नक्रमच, दुर्लभा एव, यद्वा हुः पुनरर्थे, अहीनपञ्चेन्द्रियता पुन दुलभा, इहैव हेतुमाह-विकलानि-रोगादिभिरुपहतानीन्द्रियाणि येषां तद्भायो विकलेन्द्रियता, हुरिति निपातोऽनेकाथतया च बाहुल्यसूचकः, ततश्च यतो बाहुल्येन विकलेन्द्रियता रश्यते ततो दुर्लभैवाहीनपञ्चेन्द्रियता, तथा च समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः। तथा कथञ्चिदहीनपश्चेन्द्रियतामप्युक्तन्यायतोऽतिदुर्लभामपि 'स' इति जन्तुः 'लभेत' प्रामुयात्, तथाऽप्युत्तमः-प्रधानो यो धर्मस्तस्य 'श्रुतिः' आकर्णनात्मिका या सा तथा, 'हुः' अवधारणे भिन्नक्रमश्व, ततो दुर्लभैव, -% A दीप अनुक्रम [३०६-३१० T RE For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~672~ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१६ -२०|| दीप अनुक्रम [ ३०६ -३१०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३३७|| Jain Education i “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १६-२० || अध्ययनं [१०], | किमिति -यतः कुत्सितानि च तानि तीर्थानि कुतीर्थानि च शाक्यौलुक्यादिप्ररूपितानि तानि विद्यन्ते येषामनुष्ठेयतया | स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनस्तान्नितरां सेवते यः स कुतीर्थिनिषेवको जनो-लोकः, कुतीर्थिनो हि यशःसत्काराधेषिणो यदेव प्राणिप्रियं विषयादि तदेवोपदिशन्ति, तत्तीर्थकृतामप्येवंविधत्वात् उक्तं हि "सत्कारयशोलाभार्थिभिश्च मूढैरिहान्यतीर्थकरैः । अवसादितं जगदिदं प्रियाण्यपध्यान्युपदिशद्भिः ॥ १॥” इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्सेविनां च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः १, पठ्यते च - 'कुतित्थिणिसेवए जणे 'ति स्पष्टः, एवं च तद्दुर्लभत्वमवधार्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः । किंच लब्ध्वाऽपि उत्तमधर्मविषयत्वादुत्तमा तां 'श्रुतिम्' उक्तिरूपां 'श्रद्धानं' तत्वरुचिरूपं 'पुणरावि'त्ति पुनरपि 'दुर्लभ' दुरापम्, इहैव हेतुमाह - मिथ्याभावो मिथ्यात्वम् अतत्वेऽपि तत्वप्रत्ययरूपं तं निषेवते यः समिध्यात्वनिषेवको जनो - लोकः, अनादिभवाभ्यस्ततया गुरुकर्मतया च तत्रैव प्रायः प्रवृत्तेः, यत एवमतः समयमपि गौतम १ मा प्रमादीः । अन्यच - 'धर्म' प्रक्रमात् सर्वज्ञप्रणीतम् 'अपिः' भिन्नक्रमः 'हुः' वाक्यालङ्कारे, ततः 'श्रद्दधतोऽपि कर्तुमभिलषन्तोऽपि दुर्लभकाः कायेन शरीरेण उपलक्षणत्वान्मनसा याचा च, 'स्पर्शका' अनुष्ठातारः, कारणमाह - 'इह' अस्मिन् जगति 'कामगुणेषु' शब्दादिषु 'मूर्च्छिता' मूढाः, गृद्धिमन्त इत्यर्थः, जन्तव इति शेषः, प्रायेण पश्येष्वेव विषयेष्वभिष्वङ्गः प्राणिनां यत उक्तम्- "प्रायेण हि यदपश्यं तदेव चातुरजनप्रियं भवति विषयातुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषयाः ॥ १ ॥” पाठान्तरतः कामगुणैर्मूर्च्छिता इव मूर्च्छिताः, विलुप्तधर्म For Parent निर्युक्तिः [३०९...] ~673~ द्रुमपत्रक मध्ययनं. १० ||३३७|| www.anciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||२१-२६|| नियुक्ति: [३०९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२१-२६|| SEX काविषयचैतन्यत्वात् , यतश्चैवमतो दुरापामिमामविकलां धर्मसामग्रीमवाप्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्र पञ्चकार्थः ॥ अन्यच सति शरीरे तत्सामर्थे च सति धर्मस्पर्शनेति तदनित्यताऽभिधानद्वारेणाप्रमादोपदेशमाहही परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरगा (य) भवंति ते। से सोयबले य हायइ, समयं ॥२१॥ परि० चक्खुबले०॥ २२ ॥ घाणवले० ॥२३॥० रसणवले.॥२४॥फासवले ॥२५॥ सव्ववले ॥२६॥ व्याख्या-'परिजीयति' सर्वप्रकारां वयोहानिमनुभवति 'ते' तव शरीरमेव जरादिभिरभिभूयमानतयाऽनुकम्पनीयमिति शरीरकं, यद्वा 'परिजूरइति 'निन्देजूर' इति प्राकृतलक्षणात् परिनिन्दतीवाऽऽत्मानमिति गम्यते, यथा-धिग्मां की जातमिति, किमिति ?-यतः 'केशाः शिरसिजाः, उपलक्षणत्वात् लोमानि च पाण्डुरा एव पाण्डुरका भवन्ति, पूर्व जननयनहारिणोऽत्यन्तकृष्णाः सम्प्रति शुक्लतां भजन्ते 'ते' तय, पुनस्तेशब्दोपादानं भिन्नवाक्यत्वात् उपदेशाधिकारत्वाचादुष्टम् , एवमुत्तरत्रापि, तथा 'से' इति तत् यत् पूर्वमासीत् श्रोत्रयोः-कर्णयोबलं-दूरादिशब्दश्रवणसामय श्रोत्रबलं, 'चा' समुच्चये, 'हीयते' जरातः क्षयमुपैति, यद्वा-शरीरजीर्णताऽवस्था-14 भाव्येतद्यमपि योज्यं, यथा-परिजीयते शरीरकं तथा च सति केशाः पाण्डुरका भवन्ति 'से' इत्यथ श्रोत्रवलं हीयते यतः ततः शरीरस्य तत्सामर्थ्यस्य चास्थिरत्वात् समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः । एवं सूत्रपञ्चकमपि नेयं मानवरमिह प्रथमतः श्रोत्रोपादानं प्रधानत्वात् , प्रधानत्वं च तस्मिन् सति शेषेन्द्रियाणामवश्यं भावात् पटुतरक्षयोपश-18 दीप अनुक्रम [३११ -३१६] AIMEducatan intainational For PHOTOSPNandipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~674~ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||२१-२६|| नियुक्ति : [३०९...] (४३) उत्तराध्य. दमपत्र प्रत बृहद्वृत्तिः मध्ययन सूत्रांक ॥१३८॥ ||२१-२६|| मजत्वाच, तथोपदेशाधिकारादुपदेशस्य च श्रोत्रग्राह्यत्वात् । तथा च 'सर्ववल मिति सर्वेषा-करचरणायत्रयवानां खखव्यापारसामय, यद्वा सर्वेषां मनोवाकायानां ध्यानाध्ययनचक्रमणादिचेष्टाविषया शक्तिरिति सूत्रषट्रकार्थः ॥ जरातः शरीराशक्तिरुक्ता, सम्प्रति रोगतस्तामाह__अरई गंडं विसईया, आयका विविहा फुसंतिते। विहडइ विद्धंसह ते सरीरयं, समय० ॥ २७ ॥ व्याख्या-'अरतिः वातादिजनितश्चित्तोद्वेगः 'गण्ड' गडु, विध्यतीव शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका-अजीविशेषः, आङिति सर्वात्मप्रदेशाभिव्याया तङ्कयन्ति-कृच्छ्रजीवितमात्मानं कुर्वन्तीत्यातङ्काः-सद्योघातिनो रोग|विशेषाः 'विविधाः' अनेकप्रकाराः 'स्पृशन्ति' परामृशन्ति 'ते' तव, शरीरकमिति गम्यते, ततश्च 'विपतति' विशेषेण बलापचयादपैति 'विध्वस्यते' जीवविप्रमुक्तं च विशेषेणाधःपतति ते शरीरकम् , अतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः, सर्वत्र च वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् । केशपाण्डुरत्वादिकं यद्यपि गौतमे न सम्भवति तथापि तन्निश्रया शेषशिष्यप्रतिबोधनार्थत्वाददुष्टमिति सूत्रार्थः ॥ यथा चाप्रमादो विधेयस्तथा चाह बुञ्छिद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं | से सञ्चसिणेहवजिए, समयः ॥ २८॥ ॥३३८॥ व्याख्या-वोच्छिद'त्ति विविधैः प्रकारैरुत-प्राबल्येन छिन्द्धि-अपनय व्यच्छिन्द्धि, कम् ?-'नेहम्' अभिष्वा, कस्य सम्बन्धिनम् ?-आत्मनः, किमिय :-'कुमुदमिव' चन्द्रोद्योतविकाश्युत्पलमिव 'सारइयं वचि सूत्रत्वाच्छरदि भव ।। दीप अनुक्रम [३११ -३१६] AIMEducatan intimational For F un wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~675~ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [३१८] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२८|| अध्ययनं [१०], शारदं, वेत्युपमार्थो भिन्नक्रमश्च प्राग् योजितः 'पानीयं' जलं, यथा तत् प्रथमं जलमग्नमपि जलमपहाय वर्तते तथा | त्वमपि चिरसंसृष्टचिरपरिचितत्वादिभिर्मद्विपयस्नेहवशगोऽपि तमपनय, अपनीय च 'से' इत्यथानन्तरं सर्वस्नेहवर्जितः सन् समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः । इह च जलमपहायैतावति सिद्धे यच्छारदशब्दोपादानं तच्छारदजलस्येव स्नेहस्याप्यति मनोरमत्वख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ किञ्च - Jan Education indamatorial चित्रा ण घणं च भारियं, पव्वइओ हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणोवि आविए, समयं० ॥ २९ ॥ व्याख्या—'त्यक्त्वा' परिहृत्य 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'धनं' चतुष्पदादि चशन्दो भिन्नक्रमः, ततो 'भार्या च' कलत्रं च 'प्रब्रजितः' गृहान्निष्क्रान्तः 'हिः' इति यस्मात् 'सी'ति सूत्रत्वेनाकारलोपात् 'असि' भवसि 'अणगारियं'ति अनगारेषु-भावभिक्षुषु भवमानगारिकमनुष्ठानं, चस्य गम्यमानत्वात् तच प्रतिपन्नवानसीति शेषः, यद्वा प्रत्रजितः - प्रतिपन्नः 'अणगारिय'ति अनगारिताम्, अतो 'मा' इति निषेधे, 'वान्तम्' उद्गीर्ण 'पुणोवि 'त्ति पुनरपि 'आविए' ति आपिब, किन्तु समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ कथं च वान्ताऽऽपानं न भवतीत्याह-अवशिय मितबंध, विजलं चैव धणोहसंचयं । मा तं विइयं गवेसए, समयं० ॥ ३० ॥ व्याख्या- 'अपोष' त्यक्त्वा, मित्राणि च सुहृदो बान्धवाच - खजना इति समाहारे मित्रवान्धवं, 'विपुलं' विस्तीर्ण 'चः' समुचये भिन्नक्रमथ 'एव' इति पूरणे, ततो धनं- कनकादिद्रव्यं, तस्वौघः- समूहस्तस्य सञ्चयो - राशी - निर्युक्तिः [३०९...] For PP Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~676~ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [--] / गाथा ||३०|| नियुक्ति : [३०९...] (४३) उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥३३९॥ प्रत सूत्रांक ||३०|| ACSCROSSES करणं धनौघसञ्चयस्तं च, मा 'तदिति' मित्रादिकं, द्वितीयं, पुनर्ग्रहणार्थमिति गम्यते, 'गवेषय' अन्वेषय, तत्परित्या-II दुमपंचकगात् श्रामण्यमङ्गीकृत्य पुनस्तदभिष्वङ्गवान् मा भूः, त्यक्तं हि तद्वान्तोपमं तदभिष्यङ्गश्च बान्ताऽऽपानप्राय इत्यभिप्रायः, मध्ययनं. किन्तु समयमपि गौतम! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। इत्थं प्रतिवन्धनिराकरणार्थमभिधाय दर्शनविशुद्धयर्थमिदमाह ण हु जिणे अज दीसइ, बहुमए दीसह मग्गदेसिए । संपइ नेआउए पहे, समय० ॥३१॥ भी व्याख्या-'न हु' नैव 'जिनः' तीर्थकृद् 'अद्य' अस्मिन् काले 'दृश्यते' अवलोक्यते, यद्यपीति गम्यते, तथापि 'बहुमए'त्ति पन्थाः, स च द्रव्यतो नगरादिमार्गः, भावतस्तु सातिशयश्रुतज्ञानदर्शनचारित्रात्मको मुक्तिमार्गः, तत्रेह भावमार्गः परिगृह्यते, 'दृश्यते' उपलभ्यते 'मग्गदेसिय'त्ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य मार्गत्वेन अर्थान्मुक्तेदेशितो-जिनः कथितो मार्गदेशितः, अयमाशयः यद्यपि सम्प्रति जिनो न दृश्यते तदुपदिष्टस्तु मागों दृश्यते, न चैवंविधोऽयमतीन्द्रियार्थदर्शिनं जिनं विना सम्भवति इत्यसन्दिग्धचेतसो भाविनोऽपि भव्या न प्रमाद |विधास्वन्तीति, अतः 'सम्प्रति इदानीं सत्यपि मयीति भावः, 'नैयायिके' निश्चितमुक्त्याख्यलाभप्रयोजने 'पथि: मार्ग समयमपि गौतम ! केवलानुत्पत्तितः संशयविधानेन मा प्रमादीः, यवा-त्रिकालविषयत्वात् सूत्रस्य भाषि- ॥३३॥ भन्योपदेशकमप्येतत्, ततोऽयमर्थः-यथाऽऽद्यमार्गोपदेशकं नगरं चापश्यन्तोऽपि पन्थानमवलोकयन्तस्तस्याविच्छि-12 नोपदेशतस्तत्प्रापकत्वं निश्चिन्वन्ति तथा यद्यप्यद्य जिन उपलक्षणत्वान्मोक्षच नैव दृश्यते तथाऽपि तद्देशितः|| दीप अनुक्रम [३२०] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~677~ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [३०९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३१|| पन्था-मार्यमाणत्वात् मार्गो-मोक्षस्तस्य 'देसिय'त्ति सूत्रत्वाद्देशको मार्गदेशको दृश्यते, ततस्तस्यापि तत्प्राकन मामपश्यद्भिरपि भाविभव्यैनिश्चेतव्यं, यतश्चैवं भाविभव्यानामुपदिश्यते अतः सम्प्रतीत्यादि प्राग्वत् , द्विविधाडवि तावदित्थं व्याख्या सूचकत्वात् सूत्रस्येति गाथार्थः ।। अत्रैवार्थे पुनरुपदिशन्नाह अवसोहिय कंटगापह, ओइन्नोऽसि पहं महालयं गच्छसि मम्गं वि सोहिया, समपं०॥ ३२॥ व्याख्या-'अवसोहियत्ति अवशोध्य-अपसाये पृथकृत्य परिहत्येतियावत् , कम् ?-'कंटयापहंति आकारोडलाक्षणिकः, कण्टकाश्च द्रव्यतो बब्बूलकण्टकादयः भावतस्तु चरकादिकुश्रुतयस्तैराकुलः पन्थाः कण्टकपथस्तं, तब अवतीर्णोऽसि अनुप्रविष्टो भवसि 'पहंति पन्थानं 'महालयंति महान्तं महतां वाऽऽलयः-आश्रयो महाया. स च द्रव्यतो राजमार्गः भावतस्तु महद्भिस्तीर्थकरादिभिरप्याश्रितः सम्यग्दर्शनादिमुक्तिमार्गसं, कश्चिदवतीर्ण ऽपि मार्ग न गच्छेत् अत आह-'गच्छसि'-यासि मार्ग, न पुनरवस्थित एवासि, सम्यग्दर्शनायनुपालनेन शक्ति मार्गगमनप्रवृत्तत्वाद्भवतः, तत्राप्यनिश्चयेऽपायप्राप्तिरेव स्यात् इत्याह-'विशोध्य' इति विनिश्चित्य, तदेवं वना सन् समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ एवं च पूर्वेण दर्शनविशुद्धिमनेन च मार्गप्रतिपत्तिमभिधाय तत्प्रतिपत्तावपि कस्यचिदनुतापसम्भव इति तन्निराचिकीर्षयाऽऽह अवले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए, समय० ॥ ३३ ॥ दीप अनुक्रम [३२१] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~678~ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३३|| दीप अनुक्रम [३२३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१४०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३३|| अध्ययनं [१०], Jain Education intimal व्याख्या -- 'अवलः' अविद्यमानशरीरसामर्थ्यः 'यथा' इत्यौपम्ये भारं वहतीति भारवाहकः 'मा' निषेधे 'मग्गे' त्ति मार्ग 'विसमे' ति विषमं मन्दसत्वैरतिदुस्तरम् 'अवगाहिय'ति अवगाद्य प्रविश्य त्यक्ताङ्गीकृतभारः सन्निति गम्यते, 'पश्चात्' तत्कालानन्तरं 'पश्चादनुतापकः' पश्चात्तापकृत्, भूरिति शेषः, इदमुक्तं भवति यथा कश्विद्देशान्त| रगतो बहुभिरुपायैः खर्णादिकमुपार्ज्य खगृहाभिमुखमागच्छन्नतिभीरुतयाऽन्य वस्त्वन्तर्हितं स्वर्णादिकं स्वशिरस्यारोप्य कतिचिद्दिनानि सम्यगुद्वहति, अनन्तरं च कचिदुपलादिसङ्कले पथि अहो ! अहमनेन भारेणाऽऽक्रान्त इति तमुत्सृज्य | स्वगृहमागतः अत्यन्तनिर्धनतयाऽनुतप्यते किं मया मन्दभाग्येन तत्परित्यक्तमिति १, एवं त्वमपि प्रमादपरतया त्यक्तसंयमभारः सन्नेवंविधो मा भूः, किन्तु समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ वह्निदमयापि निस्तरणीयमल्पं च निस्तीर्णमित्यभिसन्धिनोत्साहभङ्गोऽपि स्यादिति तदपनोदायाह तिणो इसि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ? । अभितुर पारं गमित्तए, समयं० ॥ ३४ ॥ व्याख्या- 'तिष्णो हु सित्ति तीर्ण एवासि, अर्णवमिवार्णवं 'मह'ति महान्तं गुरुं किमिति प्रश्ने पुनरिति वाक्यो पन्यासे, ततः किं पुनस्तिष्ठसि ?, 'तीर' पारम् ' आगतः' प्राप्तः, किमुक्तं भवति ?-भव उत्कृष्टस्थितीनि वा कर्माणि भावतोऽर्णव इत्युच्यते स च द्विविधोऽपि त्वयोतीर्णप्राय एव इति केन हेतुना तीरप्रासोऽप्यौदासीन्यं भजसे १, नैवेदं | तवोचितमित्याशयः । किन्तु 'अभितुर' त्ति अभि-आभिमुख्येन त्वरख शीघ्रो भव, 'पारं' परतीरं भावतो मुक्तिपदं 'गमि For Parent निर्युक्ति: [ ३०९...] ~679~ दुमपत्रक मध्ययनं. १० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||३५|| नियुक्ति: [३०९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| तए'त्ति गन्तुम् , अतश्च समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ अथापि स्यात्-मम पारप्राप्तियोग्यतैव न समस्ति, अत आह-अथवा शेषशिष्यापेक्षया किमखाप्रमादस्य फलम् ? यत्पुनः पुनरयमुपदिश्यते इत्याह| अकलेवरसेणिमूसिया, सिद्धिं गोयम! लोयं (य) गच्छसि । खेमं च सिवं अणुत्तरं, समय० ॥ ३५॥ KI व्याख्या-कलेवर-शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषामकडेवरा:-सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिययोत्तरोत्तरशुभपरिणादमप्राप्तिरूपया ते सिद्धिपदमारोहन्ति (तां), क्षपकश्रेणिमित्यर्थः । यद्वा कडेवराणि-एकेन्द्रियशरीराणि तन्मयत्वेन तेषां श्रेणिः कडेवरश्रेणिः-शादिविरचिता प्रासादादिष्वारोहणहेतुः, तथा च या न सा अकडेवरश्रेणिः-अनन्तरोक्तरूपैव ताम् 'उस्सिय'त्ति उत्सृतां, गमिष्यसीति सम्बन्धः, यद्वा 'उस्सिय'त्ति उच्छ्रित्येवोच्छ्रित्य-उत्तरोत्तरसंयमस्थानावाप्त्या तामुच्छ्रितामिय कृत्वा 'सिद्धिम्' इति सिद्धिनामानं 'गोयम ! लोयं गच्छसि' त्ति प्राग्वल्लोकं गमिष्यसि, संशयव्यवदिच्छेदफलत्वाचास्य गमिष्यस्येव, 'क्षेमं' परचक्रायुपद्रवरहितं 'चः' समुच्चये भिन्नक्रमश्च, 'शिवमनुत्तरं च तत्र शिवम शेषदुरितोपशमेन अनुत्तरं नास्योत्तरमन्यत् प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं, सर्वोत्कृष्टमित्यर्थः, यतश्चैवं ततः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ सम्प्रति निगमयन्नुपदेशसर्वखमाह बुद्धे परिणिचुए चरे, गाम गए नगरे व संजए। संतिमग्गं च वहए, समयं०॥ ३६॥ व्याख्या-'बुद्धः' अवगतहेयादिविभागः 'परिनिर्वृतः' कषायाफ्युपशमतः समन्तात् शीतीभूतः 'चरेः' आसे HARKHABAR दीप अनुक्रम [३२५] For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~680~ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], मूलं [-] / गाथा ||३७|| नियुक्ति: [३०९...] (४३) दूमपत्रक मध्ययन प्रत सूत्रांक ||३७|| उत्तराध्य. वख, संयममिति शेषः, 'गामति सुपो लोपात् ग्रामे 'गतः' स्थितो नगरे वा, उपलक्षणत्वादपण्यादिषु वा, कि मुक्तं भवति ?-सर्वस्मिन्ननभिष्वङ्गवान् , सम्यग् यतः-पापस्थानेभ्य उपरतः संयतः, शाम्यन्त्यस्यां सर्वदुरितानीति | बृहद्वृत्तिः शान्तिः-निर्वाणं तस्या मार्गः-पन्थाः, यद्वा शान्तिः-उपशमः सैव मुक्तिहेतुतया मार्गः शान्तिमार्गो, दशविधधर्मो॥३४१॥ पलक्षणं शान्तिग्रहणं, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततो बृंहयेश्च-भव्य जनप्ररूपणया वृद्धिं नयेः, ततः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ॥ इत्यं भगवदभिहितमिदमाकर्ण्य गौतमो यत् कृतवांस्तदाह बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमट्ठपदोवसोहियं । राग दोसंच 'छिदिया, सिदिगई गए गोयमे ॥ ३७॥ तिबेमि ।। ___ व्याख्या-'बुद्धस्य' केवलालोकावलोकितसमस्तवस्तुतत्वस्य प्रक्रमाच्छ्रीमन्महावीरस्य 'निशम्य आकर्ण्य 'भाषि-17 तम्' उक्तं, सुष्ठ-शोभनेन नयानुगतत्वादिना प्रकारेण कथितं-प्रबन्धेन प्रतिपादितं सुकथितम् , अत एवार्थ-11 प्रधानानि पदानि अर्थपदानि तैरुपशोभितं-जातशोभमर्थपदोपशोभितं 'राग' विषवाद्य भिष्पकं 'द्वेषम्' अपकारि- ण्यप्रीतिलक्षणं 'चः' समुचये 'छित्त्वा' अपनीय 'सिद्धिगति' मुक्तिपतिं 'गतः' प्राप्तः 'गौतमः' इन्द्रभूतिनामा भग- वत्प्रथमगणधर इति सूत्रार्थः ॥ इतिः' परिसमाप्ती 'ब्रवीमि' इति पूर्ववत्, इत्युक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, ते च पूर्ववदिति श्रीशान्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां दशममध्ययनं समाप्तं ॥ दीप अनुक्रम [३२७] ४शा AIMEducatan intimation For PF trancibansar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-१० परिसमाप्तं ~681~ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-1 /गाथा ||३७...|| नियुक्ति: [३१०] (४३) प्रत सूत्रांक ||३७|| अथ बहुश्रुतपूजाख्यमेकादशमध्ययनम् । उक्तं दशममध्ययनं, साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तराध्ययनेऽप्रमादार्थमनुशासनमुक्तं, तब विवेकिनैव भावयितुं शक्यं, विवेकश्च बहुश्रुतपूजात उपजायत इति बहुश्रुतपूजोच्यते इत्यनेन सम्बन्धे नाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि प्ररूपयितव्यानि, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे 'बहुसूत्रपूजा बहुश्रुत४ पूजे ति वा नाम, अतस्त निक्षेपप्रतिपिपादयिषयेदमाह नियुक्तिकृत् बहु सुए पूजाए यतिण्हपि चउकओ य निक्लेवो । दवबहुगेण बहुगा जीवा तह पुग्गला चेव ॥३१०॥ | व्याख्या-'बहु'त्ति बहोः 'सुए'त्ति शतमुखत्वात् प्राकृतस्य सूत्र य श्रुतस्य वा 'पुयाए यत्ति पूजायाश्च 'त्रयाणामपि' अमोषां पदानां 'चतुष्कस्तु' चतुष्परिमाण एक 'निक्षेपः' न्यासः, स च नामादिः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यतस्तु बह्वभिधातुमाह-'दवबहुएम'त्ति आर्षत्वात् द्रव्यतो बहुत्वं द्रव्यवहुत्वं तेन 'बहुकाः' प्रभूताः 'जीवा' उपयोगलक्षणाः, तथा 'पुद्गलाः' स्पर्शादिलक्षणाः, चशब्दः पुदलानां जीवापेक्षया बहुतरत्वं ख्यापय ति, ते खेकैकस्मिन् संसारिजीवप्रदेशेऽनन्तानन्ता एव सन्ति, 'एवः' अवधारणे, जीपपुद्गला एव द्रव्यवह वः, तत्र धर्माधर्माऽऽकाशानामेकद्रव्यत्वात् कालस्यापि तत्त्वतः समयरूपत्वेन बहुत्वाभावादिति गाथार्थः॥ XKA- 25 दीप अनुक्रम [३२७]] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - ११ "बहुश्रुतपूजा" आरभ्यते ~682~ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||३७...|| नियुक्ति: [३११] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ર૪રા प्रत सूत्रांक ||३७|| भावबहुएण बहुगा चउदस पुवा अणंतगमजुत्ता।भावे खओवसमिए खइयमि य केवलं नाणं॥ ३११॥ बहुश्रुतपूव्याख्या-'भावबहुगेण ति प्राग्वत् भाववहुत्वेन 'बहुग'त्ति बहुकानि 'चतुर्दश' चतुर्दशसङ्ख्यानि 'पुच'त्ति जाध्ययनं. पूर्वाण्युत्पादपूर्वादीनि 'अर्णतगमजुत्त'त्ति अनन्ता-अपर्यवसिता गम्यते वस्तुखरूपमेभिरिति गमा-वस्तुपरिच्छेदप्र-| काराः नामादयस्तैर्युक्तानि-अन्वितान्यनन्तगमयुक्तानि, पर्यायाधुपलक्षणं च गमग्रहणम् , उक्तं हि-"अणंता गमा अपंता पजवा अणंता हेतू' इत्यादि, अनेनतदात्मकत्वात् पूर्वाणां तेषामप्यानन्त्यमुक्तं, क पुनरमूनि भावे वर्तन्ते । येन भावबहून्युच्यन्ते इत्याह-भाष' इत्यात्मपर्याये क्षायोपशमिके चतुर्दश पूर्वाणि वर्तन्ते इति प्रक्रमः, आह-किंन क्षायिके भावे किञ्चिद्भावबहु , अस्तीत्याह- क्षायिके च' कर्मक्षयादुत्पन्ने पुनः केवलज्ञानम् , अनन्तपर्यायत्वात् , तदपि। भावबहुकमिति गाथार्थः । उक्तं बहु, सम्प्रति सूत्रं श्रुतं याऽऽहदवसुय पोंडयाइ अहवा लिहियं तु पुत्थयाईसुं । भावसुयं पुण दुविहं सम्मसुयं चेव मिच्छसुयं ३१२/ व्याख्या--'दवसुय'त्ति अनुखारलोपात् द्रव्यसूत्रं द्रव्यश्रुतं च, तत्राऽऽयं पुण्डजादि, द्वितीयमाह-'अथया' इति पक्षान्तरसूचकः, ततो द्रव्यश्रुतं 'लिखितम्' अक्षररूपतया न्यस्त पुस्तकादियु, तुशब्दाद् भाष्यमाणं वा द्रव्यश्रुतमुच्यते,11 १ अनन्ता गमा अनन्ताः पर्यवा अनन्ता हेतवः । दीप अनुक्रम [३२७] ॥३४२॥ AIMEducatan intimational For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~683~ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-]/ गाथा ||३७...|| नियुक्ति: [३१३-३१४] (४३) प्रत सूत्रांक ||३७|| है भावश्रुतं पुनः 'द्विविधं द्विभेदं 'सम्यक्श्रुतं चैव' इति प्राग्यत् ततो मिथ्याश्रुतं चेति गाथार्थः ॥ एतत्वरूपमाह भवसिद्धिया उ जीवा सम्मइिट्ठी उ जं अहिजति । तं सम्मसुएण सुयं कम्मट्टविहस्स सोहिकरं ३१३/ 4 मिच्छट्टिी जीवा अभवसिद्धी य जं अहिजंति । तं मिच्छसुएण सुयं कम्मादाणं च तं भणियं ॥३१४॥ NI व्याख्या-भवे भव्या वा सिद्धिरेषामिति भवसिद्धिका भव्यसिद्धिका था, 'तुः' अवधारणे, एत एष 'जीवाः' प्राणिनः, तेऽपि 'सम्मदिही उत्ति सम्यग्दृष्टय एव 'यत्' इति श्रुतम् 'अधीयते' पठन्ति 'तं सम्मसुएण'त्ति सम्यक्थुतशब्देन 'श्रुतम्' इति प्रक्रमाद् भावश्रुतम् , उच्यते इति शेषः । आह-भाष्यमाणत्वेनास्य कथं न द्रव्य||श्रुतत्वम् ?, उच्यते, अनेनेतजनित उपयोग एवोपलक्षित इति न दोषः, एवमन्यत्रापि भावनीयं । तन्माहात्म्य-| माह-कम्मट्ठविहस्स'त्ति अष्टविधकर्मणः शुद्धिकरम्' अपनयनकर्त। मिथ्याश्रुतमाह-मिथ्यादृष्टयो जीवाः, भव्या इति गम्यते, 'अभव्यसिद्धयश्च' अभव्याः यदधीयते तत् 'मिथ्याश्रतेन' मिथ्याश्रुतशब्देन 'श्रुतम्' इतीहापि भावश्रुतं भणितमिति सम्बन्धः, कर्म-ज्ञानावरणादि आदीयते-खीक्रियतेऽनेन जन्तुभिरिति कर्मादान-कर्मोपादानहेतुः, चः' समुच्चये, 'तत्' श्रुतं 'भणितम्' उक्तमिति गाथाद्वयार्थः ॥ इदानी पूजा, साऽपि नामादिभेदतश्चतुर्धेव, तत्राxऽऽद्ये सुगमे, द्रव्यपूजामाह दीप अनुक्रम [३२७] For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~684~ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||३७...|| नियुक्ति: [३१५] (४३) - - -- -- प्रत - सूत्रांक ||३७|| उत्तरा ईसरतलबरमाडंबिआण सिवइंदखंदविण्हूणं । जाकिर कीरइ पूआ सा पूआ दवओ होइ ॥ ३१५॥ बहुश्रुतपू दि व्याख्या-ईश्वरश्च-द्रव्यपतिः तलवरश्च-प्रभुस्थानीयो नगरादिचिन्तकः, मडम्ब-जलदुर्ग तस्मिन् भवो माडबृहतिः जाध्ययन म्बिकः-तद्भोक्ता स च ईश्वरतलवरमाडम्बिकास्तेषां, तथा शिवश्च-शम्भुः इन्द्रश्च-पुरन्दरः स्कन्दश्च-स्वामिकार्ति॥३॥ केयः विष्णुश्च-वासुदेवः शिवेन्द्रस्कन्द विष्णवस्तेषां, या किल क्रियते पूजा सा पूजा 'द्रव्यतः' द्रव्यनिक्षेपमाश्रित्य ६ भवति, द्रव्यपूजेति योऽर्थः, किलशब्दस्त्विहापारमार्थिकत्वख्यापकः, द्रव्यतोऽपि हि भावपूजाहेतुरेव पूजोच्यते, टाइयं तु द्रव्यार्थमप्रधाना वा पूजेति द्रव्यपूजा, अतोऽपारमार्थिक्येच, एतदभिधानं तु द्रव्यशब्दस्यानेकार्थत्वसूचकमिति गाधार्थः ॥ भावपूजामाह तित्थयरकेवलीणं सिद्धायरिआण सवसाहपां । जाकिर कीरइ पूआ सा पूआ भावओ होइ ॥ ३१६ ॥ KI व्याख्या-तीर्थराश्च-अर्हन्तः केवलिनश्च-सामान्येनैवोत्पन्न केवला: तीर्थकरकेवलिनस्तेषां, सिद्धाचार्याणां प्रतीतानां, तथा सर्वसाधूनां, का?-या किल 'क्रियते' विधीयते पूजा सा पूजा 'भावतः' भावनिक्षेपमाश्रित्य । ॥३४॥ भवति, किलशब्दः परोक्षाप्तवादसूचका, तीर्थङ्करादिपूजा हि सर्वाऽपि क्षायोपशमिकादिभाववर्तिन एव भवतीति । दभावपूजेय, यत्तु पुष्पादिपूजाया द्रव्यस्तवत्यमुक्तं तद् द्रव्यैः-पुष्पादिभिः स्तव इति व्युत्पत्तिमाश्रित्य सम्पूर्णभाव स्तबकारणत्वेन वेति गाथार्थः ॥ सम्प्रति प्रसुतोपयोग्याह दीप अनुक्रम [३२७] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~685~ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सुत्रांक ||१|| जे किर चउदसपुवी सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा। जा तेसिं पूया खलु सा भावे ताइ अहिगारो ३१७/ | व्याख्या-'ये' प्राग्वत् 'किल' इति वाक्यालङ्कारे 'चतुर्दशपूर्विणः' चतुर्दशपूर्वधराः सर्वाणि-समस्तानि यान्यक्षराणि-अकारादीनि तेषां सन्निपातनं-तत्तदर्थाभिधायकतया साङ्कत्येन घटनाकरणं सर्वाक्षरसन्निपातः स विद्यते अधिगमविषयतया येषां तेऽमी सर्वाक्षरसन्निपातिनः 'निपुणाः' कुशलाः, या 'तेषां चतुर्दशपूर्विणां 'पूजाादा उचितप्रतिपत्तिरूपा, उपलक्षणं चेयं शेषबहुश्रुतपूजायाः, प्राधान्याचास्या एवोपादानं, 'खलु' निश्चितं, सा 'भावे' घभावविषया, 'तया' बहुश्रुतपूजालक्षणया भावपूजया इह 'अधिकारः प्रकृतमिति गाथार्थः । इत्युक्तो नामनिष्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम्A संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । आयारं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्बि सुणेह मे ॥१॥ व्याख्या-संयोगाद्विप्रमुक्तस्यानगारस्य भिक्षोः आचरणमाचार:-उचितक्रिया विनय इतियावत् , तथा च वृद्धाः'आयारोत्ति वा विणओत्ति वा एगट्टत्ति स चेह बहुश्रुतपूजात्मक एव गृह्यते, तस्या एवात्राधिकृतत्वात् , तं 'प्रादुकरिष्यामि' प्रकटयिष्यामि आनुपयों, शृणुत 'मे' मम कथयत इति शेषः इति सूत्रार्थः ॥ इह च बहुश्रुतपूजा १ आचार इति वा विनय इति वा एकाएँ। । दीप अनुक्रम [३२८] JANEairator मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~686~ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [--] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [३१७] (४३) बहुश्रुतपू जाध्ययनं. प्रत सूत्रांक ||२|| उत्तराध्य. प्रक्रान्ता, सा च बहुश्रुतखरूपपरिज्ञान एव कर्तुं शक्या, बहुश्रुतखरूपं च तद्विपर्ययपरिज्ञाने तद्विविक्तं सुखेनैव । ज्ञायत इत्सबहुश्रुतखरूपमाहबृद्धृत्तिः जे यावि होद निधिजे, धद्धे लुछे अनिग्गहे । अभिक्खणं उल्लवई, अविणीए अवहुस्सुए ॥२॥ ॥३४४॥ व्याख्या-'जे यावित्ति यः कश्चित्, चापिशब्दौ भिन्नक्रमायुत्तरत्र योध्येते, 'भवति' जायते निर्गतो विद्यायाः सम्यकशास्त्रावगमरूपायाः निर्विद्यः, अपिशब्दसम्बन्धात् सविद्योऽपि, यः 'स्तब्धः' अहवारी 'लुब्धः' रसादिरद्धि मान् , न विद्यते इन्द्रियनिग्रहः-इन्द्रियनियमनात्मकोऽस्येति अनिग्रहः 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः उत्-प्राबल्येनासदम्बद्धभाषितादिरूपेण लपति-वक्ति उलपति 'अविनीतच' विनयविरहितः 'अबहुस्सुए'त्ति यत्तदोर्नित्याभिससम्बन्धात् सोऽबहुश्रुतः, उच्यते इति शेषः, सविद्यस्याप्यबहुश्रुतत्वं बाहुश्रुत्यफलाभावादिति भावनीयम् , एतद्वि|परीतस्त्वर्थाद् बहुश्रुत इति सूत्रार्थः ॥ कुतः पुनरीशमबहुश्रुतत्वं बहुश्रुतत्वं वा लभ्यत इत्याह अह पंचहिं ठाणेहिं. जेहिं सिक्खा ण लम्भइ । थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सेण य॥३॥ अह अट्ठहिं ठाणेहि, सिक्खासीलेत्ति बुबह । अहस्सिरे सयादंते, न य मम्ममुयाहरे ॥४॥ नासीले ण विसीले, ण सिया अइलोलुए। अकोहणे सचरए, सिक्खासीलेत्ति चुचद ॥५॥ 'अर्थ' इत्युपन्यासार्थः 'पञ्चभिः' पञ्चसहयैः तिष्ठन्त्येषु कर्मवशगा जन्तप इति स्थानानि तैः, 'येः' इति वक्ष्य दीप अनुक्रम ॥३४४॥ [३२९] AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~687~ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||३-५|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||३-५|| माहेंतुभिः-शिक्षणं शिक्षा ग्रहणासेवनात्मिका न लभ्यते' नावाप्यते, तैरीदृशमबहुश्रुतत्वमवाप्यत इति शेषः, कैः पुनः सा न लभ्यते ? इत्याह-'स्तम्भात्' मानात् 'क्रोधात्' कोपात् 'प्रमादेन' मद्यविषयादिना 'रोगेण' गलत्कुष्ठादिना 'आलस्पेन' अनुत्साहात्मना, शिक्षा न लभ्यत इति प्रक्रमः, चः समस्तानां व्यस्तानां च हेतुत्वमेषां द्योतयति ॥ इत्थमबहुश्रुतत्वहेतूनभिधाय बहुश्रुतत्वहेतूनाह-अथाष्टभिः स्थानः शिक्षायां शीलः-खभावो यस शिक्षा वा शीलयति-अभ्यस्यतीति शिक्षाशीलः-द्विविधशिक्षाभ्यासकृद्, इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शकः, उच्यते तीर्थदिकृद्गणधरादिभिरिति गम्यते, तान्येवाह-'अहस्सिरेत्ति "तृन इर" इति प्राकृतलक्षणादहसनशीलः अहसिता-न सहे तुकमहेतुकंवा हसन्नेवास्ते, सदा सर्वकालं 'दान्तः'इन्द्रियनोइन्द्रियदमवान्, 'न च'नैव 'मम'परापभ्राजनाकारि कुत्सितं जात्यादि 'उदाहरेत् ' उद्घट्टयेत् । 'न' नैव 'अशीलः' अविद्यमानशीलः, सर्वथा विनष्टचारित्रधर्म इत्यर्थः, न 'विशीलः। विरूपशीलः, अतीचारकलुषितव्रत इतियावत् , 'न खात्' न भवेद्, इह पूर्वत्र च सम्भावने लिट्, 'अतिलोलुपः' अतीव रसलम्पटः, 'अक्रोधनः' अपराधिन्यनपराधिनि वा न कथञ्चित् क्रुध्यति, सत्यम्-अवितथभाषणं तस्मिन् । रतः-आसक्तः सत्यरतः इति, निगमयितुमाह-शिक्षाशील 'इति' इत्यनन्तरोक्तगुणभाग उच्यते, स च बहुश्रुत एव भवतीति भावः । इह च स्थानप्रक्रमेऽप्येवमभिधानं धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वख्यापनार्थ, विशेषाभिधायि-11 त्वाच्च क्वचित् केपाश्चिदन्तर्भावसम्भवेऽपि पृथगुपादानं, परिहारद्वयमपीदमुत्तरत्रापि भावनीयमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ दीप अनुक्रम [३३०-३३२]] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~688~ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||६-१३|| नियुक्ति: [३१७] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३४५॥ प्रत सूत्रांक ||६-१३|| किञ्च-अबहुश्रुतत्वे बहुश्रुतत्वे वाऽविनयो विनयश्च मूलकारणं, तत्त्वत उक्तहेतूनामप्यनयोरेवान्तर्भावात्, न च | बहुश्रुतपू. अविनीतविनीतयोः खरूपमविज्ञाय तो ज्ञातुं शक्याविति यः स्थानैरविनीत उच्यते यैश्च विनीतस्तान्यभिधातुमाह-४ जाध्ययनं. अह चोदसहि ठाणेहिं, वमाणो उ संजए। अविणीए वुच्चती सो उ, णिब्वाणं च ण गच्छा ॥६॥ अभिक्खणं कोही भवइ, पबंधं च पकुव्वइ । मित्तिज्जमाणो बमति, सुयं लबूण मजइ ॥७॥ अवि पायपरिक्खेबी, अवि मित्तेसु कुप्पति । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासह पावगं ॥८॥ पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुढे अनिग्गहे । असं विभागी अचियत्ते, अविणीएत्ति बुचड़ ।। ९॥ अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीएत्ति वुच्चइ । नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥१०॥ अप्पं च अहिक्खिवति, पबंधं च ण कुव्वइ । मित्तिजमाणो भजति, सुर्य लढुं न मज्जति ॥११॥ नय पावपरिक्वेवी, न य मित्तेमु कुप्पति । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासह ॥ १२॥ कलहडमरवज्जए, बुद्धे (अ) अभिआइए । हिरिमं पडिसंलीणो, सुविणीएत्ति युच्चद ॥ १३ ॥ व्याख्या-'अथ' इति प्राग्वत , चतुर्भिरधिका दश चतुर्दश तेषु चतुर्दशसङ्ख्येषु स्थानेषु, सूत्रे तु सुळ्यत्ययेन ॥३४५॥ | सप्तम्यर्थे तृतीया, 'वर्तमानः' तिष्ठन् 'तुः' पूरणे 'संयतः' तपखी, अविनीत उच्यते, 'सतु' इत्यपिनीतः पुनः, |किमित्याह-'निर्वाणं च' मोक्षं, चशब्दादिहेय ज्ञानादींश्च 'न गच्छति' न प्राप्नोति ॥ कानि पुनश्चतुर्दश स्थानानी 464-564 दीप अनुक्रम [३३३-३४०] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~689~ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||६-१|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||६-१३|| |त्याह-अभीक्ष्णं' पुनः पुनः, यद्वा-क्षणं क्षणममि अभिक्षणम्-अनवरतं 'क्रोधी' क्रोधनः भवति, सनिमित्तमनिमित्तं वा कुप्यन्नेवास्ते, 'प्रबन्धं च' प्रकृतत्वात् कोपस्यैवाविच्छेदात्मकं 'पकुछइत्ति प्रकर्षेण कुरुते, कुपितः सन् २ सान्त्वनैरनेकैरपि नोपशाम्यति, विकथादिषु याऽविच्छेदेन प्रवर्तनं प्रबन्धस्तं च प्रकुरुते, तथा 'मेत्तिजमाणो'त्ति मित्रीयमाणोऽपि मित्रं ममायमस्त्वितीप्यमाणोऽपि अपिशब्दस्य लुसनिर्दिष्टत्वात् 'वमति' त्यजति, प्रस्तावान्मि यितारं मैत्री या, किमुक्तं भवति ?-यदि कश्चिद्धार्मिकतया वक्ति-यथा त्वं न वेत्सीत्यहं तव पात्रं लेपयामि, तितोऽसौ प्रत्युपकारभीरतया प्रतिवक्ति-ममालमेतेन, कृतमपि वा कृतघ्नतया न मन्यत इति वमतीत्युच्यते, तथा & 'सुर्य'ति अपेर्गम्यमानत्वात् श्रुतमपि-आगममपि 'लब्ध्वा' प्राप्य 'माद्यति' दर्प याति, किमुक्तं भवति?-श्रुतं हि मदापहारहेतुः, स तु तेनापि दृप्यति । तथा 'अपिः' सम्भावनायां, सम्भाव्यत एतत् , यथाऽसौ पापैः-कथञ्चित् र समित्यादिषु स्खलितलक्षणैः परिक्षिपति-तिरस्कुरुत इत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी, आचार्यादीनामिति गम्यते, तथा अपिः' भिन्नक्रमः, ततः 'मित्रेभ्योऽपि' सुहृद्भ्योऽप्यास्तामन्येभ्यः 'कुप्यति' क्रुध्यति, सूत्रे तु चतुर्थ्यर्थे सप्तमी, "कुधिदुहेाऽसूयार्थानां यं प्रति कोप" (पा.१-४-३७) इत्यनेनेह चतुर्थीविधानात् , तथा 'सुप्रियस्यापि' अतिवल्लभ-IN स्थापि मित्रस्य रहसि' एकान्ते 'भाषते' वक्ति पापमेव पापकं, किमुक्तं भवति ?-अग्रतः प्रियं वक्ति पृष्ठतस्तु प्रति १ प्राकृतानुकरणमेतत् , मित्रस्येयं मित्रीया ता क्रियमाण इति वा । दीप अनुक्रम [३३३-३४०] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 690~ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||६-१३|| दीप अनुक्रम [३३३ -३४०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३४६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||६-१३ || अध्ययनं [११], Jan Education intimanal सेवकोऽयमित्यादिकमनाचारमेवाविष्करोति । तथा प्रकीर्णम् - इतस्ततो विक्षिप्तम्, असम्बद्धमित्यर्थः वदतिजल्पतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवादी, वस्तुतत्त्वविचारेऽपि यत्किञ्चनवादीत्यर्थः, अथवा यः पात्रमिदमपात्रमिदमिति वाऽपरीक्ष्यैव कथञ्चिदधिगतं श्रुतरहस्यं वदतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवादी इति, प्रतिज्ञया वा - इदमित्थमेव इत्येकान्ताभ्युपगमरूपया चदनशीलः प्रतिज्ञावादी, तथा 'दुहिल'त्ति द्रोहणशीलो- द्रोग्धा, न मित्रमप्यनभिदुद्यास्ते, तथा 'स्तब्धः' तपव्यहमित्याद्यहङ्कृतिमान्, तथा 'लुब्धः' अन्नादिष्यभिकाङ्क्षावान्, तथा 'अनिग्रहः' प्राग्वत्, तथाऽसंविभजनशीलः असंविभागी नाऽऽहारादिकमवाप्यातिगर्द्धनोऽन्यस्मै खल्पमपि यच्छति, किन्त्वात्मानमेव पोषयति, तथा 'अचियते 'ति अप्रीतिकरः- दृश्यमानः सम्भाप्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेबोत्पादयति, एवंविधदोषान्वितः अविनीत उच्यते इति निगमनम् । इत्थमविनीतस्थानान्यभिधाय विनीतस्थानान्याह - अथ पञ्चदशभिः स्थानैः सुष्ठु - शोभनो विनीतो विनयान्वितः सुविनीत इत्युच्यते, तान्येवाह- 'नीयावित्ति'त्ति नीचम् - अनुद्धतं यथा भवत्येवं नीचेषु वा शय्यादिषु वर्तत इत्येवंशीलो नीचवर्ती - गुरुषु न्यगवृत्तिमान्, यथाऽऽह - "नीयं सेजं गई ठाणं, णियं च आसणाणि य। णियं च पाय वंदेज्जा, णीयं कुजा य अंजलि ॥१॥' 'अचपलः' नाऽऽन्धकार्य प्रत्यस्थिरः, | अथवाऽचपलो-गतिस्थानभाषाभावभेदतश्चतुर्धा, तत्र - गतिचपलः- दुतचारी, स्थानचपलः तिष्ठन्नपि चलनेवास्ते १ नीचां शय्यां गतिं स्थानं नीचानि चासनानि च । नीचं पादौ वन्देत नीचं च कुर्याचा खलिम् ।। १ ।। For Parent निर्युक्ति: [३१७] ~691~ बहुश्रुतपु जाध्ययनं. ११ ॥३४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||६-१३|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||६-१३|| हस्तादिभिः भाषाचपलः-असदसभ्यासमीक्ष्यादेशकालप्रलापिभेदाचतुर्दा, तत्र असद्-अविद्यमानमसभ्यं-खरपरुषा|दि असमीक्ष्य-अनालोच्य प्रलपन्तीत्येवंशीला असदसभ्यासमीक्ष्यप्रलापिनस्त्रयः, अदेशकालप्रलापी चतुर्थः अतीते - कार्य यो वक्ति-यदिदं तत्र देशे काले वाऽकरिष्यत् ततः सुन्दरमभविष्यद्, भाषचपलः सूत्रेऽर्थे वाऽसमाप्त एवं योऽन्यद् गृह्णाति, 'अमायी' न मनोज्ञमाहारादिकमवाप्य गुर्वा दिवञ्चकः, 'अकुतूहलः' न कुहुकेन्द्रजालाद्यवलोकनपरः, 'अल्पं च' इति स्तोकमेव 'अधिक्षिपति' तिरस्कुरुते, किमुक्तं भवति ?-नाधिक्षिपत्येव तावदसौ कश्चन, अधि-13 क्षिपन् वा कञ्चन कङ्कटेकरूपं धर्म प्रति प्रेरयन्नल्पमेवाधिक्षिपति, अभाववचनो वाऽल्पशब्दः, तथा च वृद्धाः“अल्पशब्दो हि स्तोकेऽभावे च", ततो नैव कश्चनाधिक्षिपति, 'प्रबन्ध' चोक्तरूपं न करोति, "मित्रीय्यमाणः || उक्तन्यायेन 'भजते' मित्रीयितारमुपकुरुते, न तु प्रत्युपकारं प्रत्यसमर्थः कृतघ्नो वा, श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति, किन्तु मददोषपरिज्ञानतः सुतरामवनमति, 'नच' नैव 'पापपरिक्षेपी' उक्तरूपः, न च मित्रेभ्यः कृतज्ञतया कथश्चिदपराधेऽपि कुप्यति, अप्रियस्यापि मित्रस्य रहसि 'कलाण'त्ति कल्याणं भापते, इदमुक्तं भवति-मित्रमिति यः प्रति पन्नः स यद्यप्यपकृतिशतानि विधत्ते तथाऽप्येकमपि सुकृतमनुस्मरन् न रहस्यपि तद्दोषमुदीरयति, तथा चाहदिला"एकसकतेन दुष्कृतशतानि ये नाशयन्ति ते धन्याः । न त्वेकदोपजनितो येषां कापः स च कृतघः॥१॥" इति. कलहश्व-वाचिको विग्रहः डमरं च-प्राणिघातादिभिस्तद्वर्जको, 'बुद्धो' बुद्धिमान् , एतच सर्वत्रानुगम्यत एवेति| दीप अनुक्रम [३३३-३४०] AanEdirational For F un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~692~ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||६-१३|| नियुक्ति: [३१७] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||६-१३|| उत्तराध्य.न प्रकृतसङ्ख्याविरोधः, 'अभिजातिए'त्ति अभिजातिः-कुलीनता ता गच्छति-उत्क्षिप्तभारनिर्वाहणादिनेत्यभि जातिगः, ही:-लज्जा सा विद्यतेऽस्य हीमान् , कथञ्चित् कलुषाध्यवसायतायामप्यकार्यमाचरन् लजते, 'प्रतिसंलीन गुरुसकाशेऽन्यत्र वा कार्य विना न यतस्ततश्चेष्टते, प्रस्तुतमुपसंहरन्नाह-मुबिनीतः' सुविनीतशब्दवाच्यः 'इति ॥३४७॥ इत्येवंविधगुणान्वितः उच्यते, इति सूत्राष्टकार्थः ॥ यश्चैवं विनीतः स कीटक् स्यादित्याह बसे गुरुकुले निश्चं, जोगवं उचहाण । पियंकरे पियवाई, से सिक्खं लद्धमरिहति ॥१४॥ | व्याख्या-वसेत् आसीत क?-गुरूणाम्-आचार्यादीनां कुलम्-अन्वयो गच्छ इत्यर्थः गुरुकुलं तत्र, तदाज्ञोपललक्षणं च कुलग्रहणं, 'नित्यं' सदा, किमुक्तं भवति?-यावज्जीवमपि गुर्वाज्ञायामेव तिष्ठेत् , उक्तं हि-"णाणस्स होइ भागी"|3 इत्यादि, योजनं योगो-व्यापारः, स चेह प्रक्रमाद्धर्मगत एव तद्वान् , अतिशायने मतुप, यहा योगः-समाधिः सोऽ-- स्थास्तीति योगवान्, प्रशंसायां मतुप, उपधानम्-अङ्गानाध्ययनादौ यथायोगमाचाम्लादितपोविशेषस्तद्वान्, यद्यस्योपधानमुक्तं न तत् कृच्छभीरुतयोत्सृज्यान्यथा वाऽधीते शृणोति बा, प्रियम्-अनुकूलं करोतीति प्रियङ्करः, कश्चित् केनचिदपकृतोऽपि न तत्प्रतिकलमाचरति. किन्तु ममैव कर्मणामयं दोष इत्यवधारयन्नप्रियकारिण्यपि प्रिय-1॥३४७|| मेव चेष्टते, अत एव च 'पियवाईत्ति केनचिदप्रियमुक्तोऽपि प्रियमेय वदतीत्येवंशीलः प्रियवादी, यद्वा-'प्रियङ्करः। १ज्ञानस्य भवति भागी । (विरपरको बसणे चरित्ते य । धण्णा आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १ ॥) दीप अनुक्रम [३३३-३४०] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~693~ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१४|| दीप अनुक्रम [३४१] Jan Educatio “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [११], मूलं [ - ] / गाथा ||१४|| निर्युक्ति: [३१७] आचार्यादेरभिमताहारादिभिरनुकूलकारी, एवं 'प्रियवाद्यपि' आचार्याभिप्रायानुवर्तितयैव वक्ता, तथा चास्य को गुण इत्याह- 'स' एवंगुणविशिष्टः 'शिक्षां' शास्त्रार्थग्रहणादिरूपां 'लब्धुम' अवाम् 'अर्हति' योग्यो भवतीति, अनेनैव अविनीतस्त्येतद्विपरीतः शिक्षां लब्धुं नार्हतीत्यर्थादुक्तं भवति, तथा च यः शिक्षां लभते स बहुश्रुतः इतर | स्त्वबहुश्रुत इति भाव इति सूत्रार्थः । एवं च सविपक्षं बहुश्रुतं प्रपञ्चतोऽभिधाय प्रतिज्ञातं तत्प्रतिपत्तिरूपमाचारं तस्यैव स्तवद्वारेणाह— | जहा संखंमि पयं निहियं, दुहओवि विराय । एवं बहुस्सुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहा सुयं ।। १५ ।। व्याख्या- 'यथा' इति दृष्टान्तोपन्यासे 'शङ्खे' जलजे 'पयो' दुग्धं 'निहितं' न्यस्तं' दुहओवि'त्ति द्वाभ्यां प्रका | राभ्यां द्विधा, न शुद्धतादिना स्वसम्वन्धिगुणलक्षणेनैकेनैव प्रकारेण, किन्तु स्वसम्बन्ध्याश्रय सम्वन्धिगुणद्वय लक्षणेन प्रकारद्वयेनापीत्यपिशब्दार्थः, 'विराजते' शोभते, तत्र हि न तत् कलुषीभवति, न चाम्लतां भजते, नापि च परिस्रबति, 'एवम् अनेन प्रकारेण बहुश्रुते 'भिक्खु'त्ति आर्षत्वाद् भिक्षी- तपखिनि, 'धर्मः' यतिधर्मः 'कीर्तिः' श्लाघा 'तथा' इति धर्मकीर्त्तिवत् 'श्रुतम्' आगमो, विराजत इति सम्बन्धः, किमुक्तं भवति ? यद्यपि धर्मकीर्तिश्रुतानि निरुपलेपतादिगुणेन स्वयं शोभाभाञ्जि तथापि मिथ्यात्वादिका लुप्यविगमतो निर्मलतादिगुणेन शङ्ख इव पयो बहुश्रुते स्थितान्याश्रयगुणेन विशेषतः शोभन्ते, तान्यपि हि न तत्र मालिन्यम् अन्यथाभावं हानिं वा कदाचन प्रतिपद्य For Para Prata Use Only rancibrary and मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~694~ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [३१७] (४३) बहुश्रुतपू प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्यन्ते, अन्यत्र त्वन्यथाभूतभाजनस्थपयोवदन्यथाऽपि स्युः, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'यथे' त्यौपम्ये, 'संखमि' संखभायणे पर्य' खीरं 'निहितं' ठवितं न्यस्तमित्यर्थः, दुहतो' उभयतो संखो खीरं च, अहवा ठवंतओखीरं च, संखेण परिस्सवबृहद्वृत्तिः " ति ण य अंबीभवति, 'विरायति' सोभति, 'एव'मुपसंहारे अणुमाणे वा 'बहुसुओ' सुत्तत्थविसारतो, जानक इत्यर्थः, ॥३४॥ 'तस्स' एवं भिक्खुभायणे दितस्स धम्मो भवति कित्ती जसो तथा सुयमाराधियं भवति, अपत्ते दिंतस्स असुयमेव भवति, अहवा इहलोए परलोए य सोहइ पत्तदाई, अहवा एवंगुणजाइए भिक्खू बहुस्सुए भवति, धम्मो कित्ती जसो य हबइ, सुयं से (सुयमाराहियं) हवइ, अहवा इहलोए परलोए य विरायइ, अहवा सीलेण य सुएण य" इति सूत्रार्थः ॥ पुनर्बहुश्रुतस्तवमाह- .. जहा से कंबोयाणं, आइन्ने कंथए सिया । आसे जवेण पवरे, एवं हवइ बहस्सए॥१६॥ ___ व्याख्या-'यथा' येन प्रकारेण 'स' इति प्रतीतः 'काम्बोजानां कम्बोजदेशोद्भवानां प्रक्रमादश्वानां, निर्धारणे षष्ठी, 'आकीर्णः' व्याप्तः, शीलादिगुणैरिति गम्यते, 'कन्थकः' प्रधानोऽयो, यः किल दृपच्छकलभृतकुतुपनिपतनध्वनेने सनस्पति, 'स्यात्' भवेत् 'अश्वः' तुरङ्गमः 'जवेन वेगेन 'प्रवरः' प्रधानः 'एवम्' इत्युपनये तत ईरशो भवति बहुश्रुतः, जिनधर्मप्रपन्ना हि वतिनः काम्बोजा इवाश्थेषु जातिजयादिभिर्गरम्यधार्मिकापेक्षया श्रुतशीलादिभिवेरा एव, अयं त्वाकीर्णकन्यकाश्ववत् तेष्वपि प्रवर इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किश्व दीप अनुक्रम [३४२] HAG ३४८॥ Sc AIMEducatonintimational For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~695~ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७|| जहाइन्नसमारूढे, सूरे दढपरक्कमे । उभओ नंदिरोसेणं, एवं हवइ बहुस्सुए ॥१७॥ व्याख्या-यथा आकीर्ण-जासादिगुणोपेतं तुरङ्गमं सम्यगारुढः-अध्यासितः आकीर्णसमारुढः, सोऽपि कदाचित कातर एव स्यादत आह-'शरः' चारभटः दृढ़ः-गाढः पराक्रमः-शरीरसामर्थ्यात्मको यस्य स तथा, 'उभउत्ति उभयतो वामतो दक्षिणतश्च यद्वाऽग्रतः पृष्ठतश्च नन्दीघोषण' द्वादशतूर्यनिनादात्मकेन, यद्वा आशीर्वचनानि नान्दी जीया-IM स्त्वमित्यादीनि तद्घोषेण बन्दिकोलाहलात्मकेन, लक्षणे तृतीया, एवं भवति बद्दश्रुतः, किमुक्तं भवति-यथैवंविधः शूरो न केनचिदभिभूयते न चान्यस्तदाश्रितः, तथाऽयमपि जिनप्रवचनतुरङ्गाश्रितो रयत्परवादिदशेनेऽपि चात्रस्तः तद्विजयं च प्रति समयः उभयतश्च दिनरजन्योःखाध्यायघोषरूपेण खपक्षपरपक्षयोवा चिरं जीवत्वसौ येनानेन प्रब-12 चनमुद्दीपितमित्याद्याशीर्वचनात्मकेन नान्दीघोषेणोपलक्षितः परतीर्थिभिरतीव मदावलिप्तैरपि नाभिभवितुं शक्यः, न चात्र प्रतपत्येतदाश्रितोऽन्योऽपि कथञ्चिज्जीयत इति सूत्रार्थः ॥ तथा जहा करेणुपरिकिपणे, कुंजरे सहिहायणे । बलवंते अप्पडिहए, एवं भवइ बहुस्सुए ॥१८॥ व्याख्या-यथा' करेणुकाभिः-हस्तिनीभिः परिकीर्णः-परिवृतो यः स तथा, न पुनरेकाक्येव 'कुअरः' हस्ती पष्टिायनान्यस्येति षष्टिहायनः-पष्टिवर्षप्रमाणः, तस्य हि एतावत्कालं यावत् प्रतिवर्ष बलोपचयः ततस्तदुपचय इत्येवमुक्तम् , अत एव च 'बलवंतेत्ति बलं-शरीरसामर्थ्यमस्यास्तीति बलवान् सन् अप्रतिहतो भवति, कोऽर्थः ?नान्यैर्मदमुखैरपि मताजैः पराङ्मुखीक्रियते, एवं भवति बहुश्रुतः, सोऽपि हि करेणुभिरिव परप्रसरनिरोधिनीभिरौत्प दीप अनुक्रम [३४४] AIMEducatan intimatemal For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~696~ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||१८|| नियुक्ति: [३१७] (४३) बहुश्रुतपू बृहद्धृत्तिः जाध्ययन प्रत सूत्रांक ||१८|| उत्तराध्य.सिक्यादिबुद्धिभिर्विद्याभिश्च विविधाभितः पटिहायनतया चात्यन्तस्थिरमतिः, अत एव च बलवत्वेनाप्रतिहतो भवति, दर्शनोपहन्तृभिर्वहुभिरपि न प्रतिहन्तुं शक्यत इति सूत्रार्थः ।। अन्यथ | जहा से तिक्खसिंगे, जापखंधे विरायइ । वसभे जूहाहिवती, एवं भवति बहुस्सुए ॥ १९॥ ॥३४९॥ व्याख्या-यथा स तीक्ष्णे-निशिताने शुक्ने-विपाणे यस्य स तथा, जातः-अत्यन्तोपचितीभूतः स्कन्धः-प्रतीत एवास्येति जातस्कन्धः, समस्तासोपानोपचितत्वोपलक्षणं चैतत् , तदुपचये हि शेषाङ्गान्युपचितान्येवास्य भवन्ति, 'विराजते' विशेषेण राजते-शोभते 'वृषभः' प्रतीतो, यूथस्य-गवां समूहस्याधिपतिः-खामी यथाधिपतिः सन् , एवं भवति । बहुश्रुतः, सोऽपि हि परपक्षभेत्तृतया तीक्ष्णाभ्यां खशाखपरशास्त्राभ्यां शृङ्गाभ्यामियोपलक्षितः गच्छगुरुकार्यधुरा धरणधीरेयतया च जातस्कन्ध इव जातस्कन्धः, अत एव च यूथस्य-साध्वादिसमूहस्याधिपतिः-आचार्यपदवीं| दगतः सन् विराजते इति सूत्रार्थः ॥ अन्यच्च जहा से तिक्खदाढे, ओदग्गे दुप्पहंसए । सीहे मियाण पवरे, एवं भवइ बहस्सुए ॥ २०॥ व्याख्या-यथा स तीक्ष्णा:-निशिता दंष्ट्राः-प्रतीता एव यस्य स तीक्ष्णदंष्ट्रः, 'उदनः उत्कट उदग्रवयःस्थितत्वेन वा उदग्रः, अत एव 'दुप्पहंसए'त्ति दुष्प्रधर्ष एव दुष्प्रधर्षक:-अन्यैर्दुरभिभवः 'सिंह' केशरी 'मृगाणाम् ' आरण्यप्राणिनां 'प्रवरः प्रधानो भवति, एवं भवति बहुश्रुतः, अयमपि हि परपक्षभेत्तृतया तीक्ष्णदंष्ट्राभिरिव नैगमादि HERA दीप अनुक्रम ॥३४९॥ [३४५] For PHOTREPiwanipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 697~ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| नयः प्रतिभादिगुणोदप्रतया च दुरभिभवः इत्यन्यतीर्थानां मृगस्थानीयानां प्रवर एवेति सूत्रार्थः ॥ अपरं च जहा से वासुदेवे, संखचक्रगदाधरे । अप्पडिहयवले जोहे, एवं भवह बहुस्सुए ॥२१॥ - व्याख्या-यथा स 'वासुदेवः विष्णुः, शङ्खश्च-पाञ्चजन्यः चक्रं च-सुदर्शनं गदा च-कौमोदकी शङ्खचक्रगदास्ताधारयति-वहतीति शङ्खचक्रगदाधरः, अप्रतिहतम्-अन्यैः स्खलयितुमशक्यं बलं-सामर्थ्यमस्वेत्यप्रतिहतबलः, किमुक्त भवति -एक सहजसामर्थ्यवानन्यच तथाविधायोधान्वित इति, युध्यतीति योधः-सुभटो भवति, एवं भवति बहुश्रुतः, सोऽपि ोकं खाभाविकप्रतिभाप्रागल्भ्यवान् अपरं शङ्खचक्रगदाभिरिव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैरुपेत इति, योध इव योधः कर्मवैरिपराभवं प्रतीति सूत्रार्थः ॥ अपरं| जहा से चाउरते, चक्कवट्टी महिहिए । चोदसरयणाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥२२॥ | व्याख्या-यथा स चतसृष्यपि दिक्ष्वन्तः-पर्यन्त एकत्र हिमवानन्यत्र च दिक्त्रये समुद्रः खसम्बन्धितयाऽस्पेति चतुरन्तः, चतुर्भिर्वा-हयगजरथनरात्मकैरन्तः-शत्रुविनाशात्मको यस्य स तथा, 'चक्रवर्ती' षट्खण्डभरताधिपः, महती ऋद्धिः-समृद्धिरस्येति महर्द्धिकः-दिव्यानुकारिलक्ष्मीकः, चतुर्दश च तानि रत्नानि च चतुर्दशरत्नानि, तानि चामूनि-सेणावइ गाहावइ पुरोहिय गय तुरंग बहुइग इत्थी । चकं छत्तं चम्म मणि कागिणी खग्ग दंडो य ॥१॥ १ सेनापतिः गाथापतिः पुरोहितो गजस्तरको वर्धकिः ली। चक्र छत्रं चर्म मणिः काकिणी खदो दण्डश्च ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३४७] ALSO RESEARC JanEaicatonind For F un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~698~ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||२२|| नियुक्ति: [३१७] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३५०॥ बाजाध्ययन ११ प्रत सूत्रांक ||२२|| तेषामधिपतिः चतुर्दशरत्नाधिपतिः, ‘एवं भवति बहुश्रुतः' सोऽपि खासमुद्रमहीमण्डलख्यातकीर्तिः तिसृषु दिक्ष- | बहुश्रुतपू. न्यत्र च बन्दीभूतविद्याधरवृन्द इति दिक्चतुष्टयव्यापिकीर्तितया चतुरन्त उच्यते, चतुर्भिर्वा दानादिधम्मैरन्तःकर्मवैरिविनाशोऽस्येति चतुरन्तः, ऋद्धयश्चामोषध्यादयश्चक्रवर्तिनमपि योधयेदित्येवंविधपुलाकलब्ध्यादयश्च महत्य एवास्य भवन्ति, सन्ति चास्यापि चतुर्दशरत्नोपमानि सकलातिशयनिधानानि पूर्वाणीति कथं न चक्रवर्तितुल्यता:स्वेति सूत्रार्थः ॥ अन्यच जहा से सहस्सक्खे, वजपाणी पुरंदरे । सके देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥२३॥ व्याख्या-यथा स सहस्रमक्षीण्यस्येति सहस्राक्षः-सहस्रलोचनः, अत्र च सम्प्रदायः-'सहस्सक्खत्ति पंच मंतिसया देवाणं तस्स, तेसिं सहस्सं अच्छीणं, तेसिं नीईए विक्कमति, अहवा जं सहस्सेणं अच्छीणं दीसति तं सो : | दोहिं अच्छीहि अब्भहियगरागं पेच्छतीति । यजं-बज्राभिधानमायुधं पाणावस्येति वज्रपाणिः, लोकोक्त्या च पूर्दारणात् पुरन्दरः, क ईरगित्याह-शको 'देवाधिपतिः' देवानां खामी, एवं भवति बहुश्रुतः, सोऽपि हि श्रुतज्ञानेना-17 शेषातिशयरतनिधानतुल्येन लोचनसहस्रेणेव जानीते, यश्चैवं तस्यैवंविधत्वोपलक्षणं, वज्रमपि लक्षणं पाणी सम्भ- ३५०॥ १ पञ्च मन्त्रिशतानि देवानां तस्य, तेषां सहस्रमणां, तेषां नीती विक्रमते, अथवा यत्सहस्रेणाक्षणां दृश्यते तत् स द्वाभ्यामक्षिभ्याम-14 भ्यधिकतरं प्रेक्षते इति । दीप अनुक्रम [३५०] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~699~ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [३१७] (४३) SAXCCCk प्रत सूत्रांक ||२३|| वतीति वज्रपाणिः, पूश्च शरीरमप्युच्यते, तद्विकृष्टतपोऽनुष्ठानतो दारयतीव दारयतीति पुरन्दरः, शक्रवत् देवैरपि धर्मेऽत्यन्तनिश्चलेतया पूज्यत इति तत्पतिरप्युच्यते, तथा चाह-"देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो"ति है। सूत्रार्थः ॥ अपि च जहा से तिमिरविद्धंसे, उत्तिटुंति दिवागरे । जलते इव तेएणं, एवं भवइ बहुस्सुए ॥ २४ ॥ व्याख्या-यथा सः तिमिरम्-अन्धकारं विध्वंसयति-अपनयति तिमिरविध्वंसः, 'उत्तिष्ठन्' उद्गच्छन् 'दिवाकरः | सूर्यः, स हि ऊर्य नभोभागमाक्रामन्नतितेजस्वितां भजते अवतरंस्तु न तथेत्येवं विशिष्यते, यद्वा उत्थान-प्रथममुद्गमनं तत्र चायं न तीन इति तीव्रत्याभावख्यापकमेतत् , अन्यदा हि तीनोऽयमिति न सम्यग् दृष्टान्तः स्यात् 'ज्वलन्निव' ज्याला मुश्चन्निव 'तेजसा महसा, एवं भवति बहुश्रुतः, सोऽपि बज्ञानरूपतिमिरापहारकः संयमस्थानेषु ४ विशुद्धविशुद्धतराध्यवसायत उपसर्पस्तपस्तेजसा च ज्वलन्निव भवतीति सूत्रार्थः ॥ अन्यच-. जहा से उड्डुवई चंदे, नक्वत्तपरिवारिए । पडिपुण्णे पुण्णिमासीए, एवं भवइ बहुस्सुए ॥ २५ ॥ व्याख्या-यथा सः उडूनां-नक्षत्राणां पतिः-प्रभुः उद्धपतिः, क इत्याह-'चन्द्रः शशी, 'नक्षत्रैः' अश्विन्या-13 रदिभिः, उपलक्षणत्वाद्हैस्ताराभिश्च परिवारः-परिकरः सातोऽस्येति परिवारितः नक्षत्रपरिवारितः 'प्रतिपूर्णः' १ देवा अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः । दीप अनुक्रम [३५१] CASS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 700~ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||२५|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||२५|| कर उत्तराध्य. समस्तकलोपेतः, स चेक् कदा भवति ? अत आह-पौर्णमास्याम् । इह च चन्द्र इत्युक्ते मा भून्नामचन्द्रादायपि बहुश्रुतपू. सम्प्रत्ययः इत्युहुपतिग्रहणं, उदुपतिरपि च कश्चिदेकाक्येव भवति मृगपतिवत् अत उक्तं नक्षत्रपरिवारितः, सोऽबृहद्वृत्तिः जाध्ययन प्यपरिपूर्णोऽपि द्वितीयादिषु सम्भवतीति परिपूर्णः पौर्णमास्यामित्युक्तं, एवं भवति बहुश्रुतः, असावपि हि नक्ष-14 ॥३५१॥ त्राणामियानेकसाधूनामधिपतिः तथा तत्परिवारितः सकलकलोपेतत्वेन प्रतिपूर्णश्च भवतीति सूत्रार्थः ॥ अपरं च __जहा से सामाइयाणं, कोडागारे सुरक्खिए । नाणाधषणपडिप्पुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २६ ॥ व्याख्या-यथा स 'सामाइयाणं ति समाजः-समूहस्तं समवयन्ति सामाजिकाः-समूहवृत्तयो लोकास्तेषां, पठन्ति च-'सामाइयंगाणं ति तत्र च श्यामा-अतसी तदादीनि च तानि अङ्गानि च उपभोगाङ्गतया श्यामाधशानि धान्यानि तेषां 'कोठागारे'त्ति कोष्ठा-धान्यपल्यास्तेपामगारं-तदाधारभूतं गृहम् , उपलक्षणत्वादन्यदपि प्रभूतधान्यस्थानं, यत्र प्रदीपनकादिभयात् धान्यकोष्ठाः क्रियन्ते तत् कोष्ठागारमुच्यते, यदिवा कोष्ठान आ-समसन्तात् कुर्वते तस्मिन्निति कोष्ठाकारः, “अकर्तरि च कारके सज्ञाया" (पा. ३-३-१९)मिति घन, तथा सुष्टु प्राहरिकपुरुषादिव्यापारणद्वारेण रक्षितः-पालितो दस्युमूषिकादिभ्यः सुरक्षितः, स च कदाचित् प्रतिनियतधान्य- ॥३५॥ विषयोऽप्रतिपूर्णश्च स्थात् अत आह-नाना-अनेकप्रकाराणि धान्यानि-शालिमुद्रादीनि तैः प्रतिपूर्णो-भृतः नानाधान्यप्रतिपूर्णः, आद्यपक्षे तु विशेषणे नपुंसकलितया नेये, एवं भवति बहुश्रुतः, असावपि सामाजिकलोकाना दीप अनुक्रम [३५३] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 701~ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||२६|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||२६|| CNGRESC+ मिव गच्छवासिनामुपयोगिभिर्नानाधान्यैरिवानोपाङ्गप्रकीर्णकादिभेदैः श्रुतज्ञानविशेषैः प्रतिपूर्ण एव भवति, सुरक्षितश्च प्रवचनाधारतया, यत उक्तम्-"जेणे कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खेह" इत्यादीति सूत्रार्थः ॥ अपि च जहा सा दुमाण पवरा, जंबूनाम सुदंसणा । अणाढियस्स देवस्स, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २७ ॥ व्याख्या-यथा सा ह्रमाणां मध्ये प्रवरा-प्रधाना जम्बूः नाना-अभिधानेन सुदर्शना नाम सुदर्शना, न हि यथेयममृतोपमफला देवाद्याश्रयश्च तथाऽन्यः कश्चिद् द्रुमोऽस्ति, दुमत्वं फलव्यवहारश्चास्यास्तत्प्रतिरूपतयेव, वस्तुतः पार्थिवत्वेनोक्तत्वात् , वज्रवैडूर्यादिमयानि हि तन्मूलादीनि तत्र तत्रोक्तानि, सा च कस्खेत्याह-'अनाहतस्य' अनारतनानो 'देवस्य' जम्बूद्वीपाधिपतेय॑न्तरसुरस्य आश्रयत्वेन सम्बन्धिनी, एवं भवति बहुश्रुतः, सोऽपि अमृतोपमफलकल्पश्रुतान्वितो देवादीनामपि च पूज्यतयाऽभिगमनीयः शेषद्रुमोपमसाधुषु च प्रधान इति सूत्रार्थः । अन्यच जहा सा नईण पवरा, सलिला सागरंगमा । सीया नीलवंतपवहा, एवं हवह बहुस्सुए ॥२८॥ व्याख्या-यथा सा 'नदीनां सरितां 'प्रवरा प्रधाना सलिलं-जलमस्यामस्तीति. अर्शआदेराकृतिगणत्वादचि १ यस्मिन् कुलं स्वाधीनं तं पुरुषमादरेण रक्ष दीप अनुक्रम [३५२] + kot Tancibrarya मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~702~ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-1 / गाथा ||२८|| नियुक्ति: [३१७] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ११ ॥३५२॥ प्रत सूत्रांक ||२८|| CARSALSACANCCa सलिला-नदी, सागर-समुद्रं गच्छतीति सागरङ्गमा-समुद्रपातिनीत्यर्थः, न तु क्षुद्रनदीवदपान्तराल एव विशीर्यते, बहुश्रुतपू. 'शीता' शीतानाम्नी, नीलवान-मेरोरुत्तरस्यां दिशि वर्षधरपर्वतस्ततः प्रभवति पाठान्तरतः प्रवहति वानीलवत्प्रभवा जाध्ययन नीलवत्प्रवहा था, 'एवं शीतानदीवद्भवति बहुश्रुतः, असावपि हि सरितामिवान्यसाधूनामशेषश्रुतज्ञानिनां वा मध्ये प्रधानो विमलजलकल्पश्रुतज्ञानान्वितश्च, तथा सागरमिव मुक्तिमेवासी गच्छति, तदुचितानुष्ठान एवास्य प्रवृत्तत्यात्, न खन्यदर्शनिनामिव देवादिभव एवास्य विवेकिनो वाञ्छा, तथा च कथमस्य तेषामिय प्रायोऽपान्तरालावस्थानं १, नीलबत्तुल्याच उच्छ्रितोच्छूितमहाकुलादेवास्य प्रसूतिः, कथमिवान्यथैवंविधयोग्यतासम्भव इति सूत्रार्थः । किञ्च जहा से नगाण पवरे, सुमहं मंदरे गिरी । नाणोसहीपजलिए, एवं हवह वहस्सए ॥ २९॥ व्याख्या-यथा स 'नगाना' पर्वतानां मध्ये 'प्रवरः' अतिप्रधानः सुमहान्' अतिशयगुरुरत्युच इतियावत्, 'मन्दरः' मन्दराभिधानः, कः पुनरसौ ? इत्याह-गिरिः, किमुक्तं भवति ?-मेरुपर्वतः, 'नानौषधिभिः' अनेकविधविशिष्टमाहात्म्यवनस्पतिविशेषरूपाभिः प्रकर्षण ज्वलितो-दीप्तः नानीपधिप्रज्वलितः, ता सतिशायिन्यः प्रज्वलन्त्य | ४|| एवासत इति तद्योगादसायपि प्रज्वलित इत्युक्तः, यद्वा-प्रज्वलिता नानौषधयोऽस्मिन्निति प्रज्वलितनानापधिः, प्रज्वलितशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वत्, 'एवम्' इति मन्दरवत् भवति बहुश्रुतः, श्रुतमाहात्म्येन घसावत्यन्त दीप अनुक्रम [३५५] AIMEducatan intimational For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 703~ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-] / गाथा ||२९|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||२९|| स्थिर इति शेषगिरिकल्पापरस्थिरसाध्वपेक्षया प्रवर एव भवति, तथाऽन्धकारेऽपि प्रकाशनशक्त्यन्विता आमोंदषध्यादयस्तत्रातिप्रतीता एवेति सूत्रार्थः ॥ किंबहुना? जहा से सयंरमणे, उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुण्णे, एवं भंवइ बहुस्सुए ॥३०॥ व्याख्या-यथा स 'खयम्भूरमणः' खयम्भूरमणाभिधानः 'उदधिः समुद्रः अक्षयम्-अविनाश्युदकं-जलं यस्मिन् । स तथा, नानारलेः-नानाप्रकारैर्मरकतादिभिः प्रतिपूर्णो-भृतः नानारनप्रतिपूर्णः, एवं भवति बहुश्रुतः, अयमपि प्रक्षयसम्यगज्ञानोदको नानाऽतिशयरनवांश्च भवति, यदिवाऽक्षत उदयः प्रादुर्भावो यस्य सोऽक्षतोदय इति । सूत्रार्थः । साम्प्रतमुक्तगुणानुवादतः फलोपदर्शनतश्च तस्मैव माहात्म्यमाह समुहगंभीरसमा दुरासया, अचकिया केणइ दुप्पहंसया। सुयस्स पुषणा विउलस्स ताइणो, खवेत्तु कम्मं गइमुत्तमं गया ॥ ३१॥ व्याख्या-'समुदगंभीरसम'त्ति आर्षत्वानाम्भीर्येण-अलब्धमध्यात्मकेन गुणेन समा गाम्भीर्यसमाः समुद्रस्य ५ गाम्भीर्यसमाः समुद्रगाम्भीर्यसमाः, 'दुरासयति दुःखेनाश्रीयन्ते-अभिभवबुद्धवाऽऽसाधन्ते वा-जेतुं सम्भाग्यन्त । दानापीति दुराश्रया दुरासदा वा, अत एव 'अचक्किय'त्ति अचकिता:-अत्रासिताः, 'केनचिदिति परीपहादिना परप्रवादिना वा, तथा दुःखेन प्रधय॑न्ते-पराभूयन्ते केनापीति दुष्प्रधर्षास्त एव दुष्प्रधर्षकाः, क एवंविधाः? SARKAR दीप अनुक्रम [३५६] AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 704~ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [११], मूलं [-1 / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [३१७] (४३) प्रत सूत्रांक ||३१|| उत्तराध्य. इत्याह-'सुयस्स पुण्णा विउलस्स'त्ति-सुव्यत्ययाच्छूतेन-आगमेन पूर्णाः-परिपूर्णा विपुलेन-अङ्गानझादिभेदतो वि-II | बहुश्रुतपू. बृहद्धृत्तिः स्तीर्णन तायिनः त्रायिणो वा, एवंविधाश्च बहुश्रुता एव, तानेव फलतो विशेषयितुमाह-क्षपयित्वा' विनाश्य 'कर्म' जाध्ययन. ज्ञानावरणादि, गम्यत इति गतिस्ताम् 'उत्तमा प्रधानां, मुक्तिमितियावत् , 'गताः' प्राप्ताः, उपलक्षणत्वाद्गच्छन्ति ॥३५॥ गमिष्यन्ति च । इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचननिर्देशः, पूज्यताख्यापनार्थ व्याप्तिप्रदर्शनार्थ चेति सूत्रार्थः । इत्थं बहुश्रुतस्य गुणवर्णनात्मिकां पूजामभिधाय शिष्योपदेशमाह तम्हा सुयमहिडेजा, उत्तमहगवेसए । जेणऽप्पाणं परं चेव, सिद्धिं संपाउणिजासि ॥ ३२ ॥ तिमि ॥ व्याख्या-यस्मादमी मुक्तिगमनावसाना बहुश्रुतगुणाः तस्मात् 'श्रुतम्' आगमम् 'अधितिष्ठेत्' अध्ययनश्रवणचिन्तनादिनाऽऽश्रयेत् , उत्तमः-प्रधानोऽर्थः-प्रयोजनम्-उत्तमार्थः, स च मोक्ष एव तं 'गवेषयति' अन्वेषयतीति उत्तमार्थगवेषकः, वेन किं स्यादित्याह-'येन' श्रुताश्रयणेन 'आत्मानं' व 'परं' चान्यं तपस्व्यादिकं 'एवः' अव-13 धारणे भित्रक्रमश्च सम्प्रापयेदित्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततः 'सिद्धिं' मुक्तिगतिं 'संपाउणिजासि'त्ति सम्यक प्राप-14 ॥३५३।। येदेव, नेह कश्चित् सन्देह इति सूत्रार्थः । इतिः' परिसमाप्तौ 'ब्रवीमि' इति पूर्ववत् , उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नया-12 दस्तेऽपि पूर्ववदेव ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायामेकादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [३५८] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-११ परिसमाप्तं ~ 705~ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३२|| नियुक्ति: [३१८-३२०] (४३) & प्रत सूत्रांक ||३२|| अथ द्वादशं हरिकेशीयमध्ययनम् । व्याख्यातमेकादशमध्ययनमधुना द्वादशमारभ्यते,अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने बहुश्रुतपूजोक्ता,इह तु बहुश्रुतेनापि तपसि यत्नो विधेय इति ख्यापनार्थ तपःसमृद्धिरुपवर्ण्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्थास्याध्ययनस्य चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वत् तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपेऽस्य हरिकेशीयमिति नाम, अतो हरिकेशनिक्षेपमाह नियुक्तिकत् ___ नाम ठवणादविए० ॥ ३१८ ॥ जाणयसरीरभविए० ॥ ३१९ ॥ हरिएसनामगोअं वेअंतो भावओ अ हरिएसो। तत्तो समुट्रियमिणं हरिए-सिजति अज्झयणं ॥३२०॥ हरिकेशे निक्षेपश्चतुर्विधो नामादिः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्विविधो भवति 'द्रव्ये' द्रव्यविषयः-आगमनोआग-1 मतश्च,तत्र आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतश्च स त्रिविधो-ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तश्थ, स पुनः त्रिविधःएकविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, हरिकेशनामगोत्रं वेदयन् भावतस्तु हरिकेश उच्यते, ततोऽभिधेयभू. तात् समुत्थितमिदं हरिकेशीयं इत्यध्ययनमुच्यते इति शेषः, इति गाथात्रयार्थः ॥ सम्प्रति हरिकेशवक्तव्यतामाह नियुक्तिकृत् पुवभवे संखस्स उ जुवरन्नो अंतिअं तु पञ्चज्जा । जाईमयं तु काउं हरिएसकुलंमि आयाओ॥३२१॥ % % दीप अनुक्रम [३५९]] % * For F un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १२ "हरिकेशिय" आरभ्यते ~706~ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३२,,,|| नियुक्ति: [३२१-३२७] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| 'उत्तराध्य. महुराए संखो खलु पुरोहिअसुओ अ गयउरे आसी । दट्टण पाडिहरं हुयवहरत्थाइ निक्खंतो ॥३२२॥ हरिकेशीबृहद्वत्तिः हरिएसा चंडाला सोवाग मयंग बाहिरा पाणा । साणधणा य मयासा सुसाणवित्तीय नीया य ३२३ । यमध्ययजम्मं मयंगतीरे वाणारसिगंडितिदुगवणं च । कोसलिएसु सुभदा इसिवंता जन्नवाडंमि ॥ ३२४॥ नम्.१२ बलकुट्टे बलकोहो गोरी गंधारि सुविणगवसंतो । नामनिरुत्ती छणसप्प संभवो दुंदुहे बीओ ॥३२५॥ भदएणेव होअवं पावइ भद्दाणि भदओ । सविसो हम्मए सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चइ ॥ ३२६ ॥ इत्थीण कहित्थ वट्टई, जणवयरायकहित्थ वट्टई। पडिगच्छह रम्म तिंदुअं, अइसहसा बहुमुंडिए जणे ॥ | एतदक्षरार्थः सुगम एव, णवरं 'अंतियं तु' इति अन्तिके-समीपे, 'तुः' पूरणे, 'पाडिहेरं'ति प्रतिहारो-दौवारिकस्तद्वत्सदा सन्निहितवृत्तिर्देवताविशेषोऽपि प्रतिहारस्तस्य कर्म प्रातिहाय, तोह हुतवहरथ्यायाः शीतलत्वं, तथा हरिकेशाचाण्डालाः श्वपाकाः मातङ्गा बाह्याः पाणाः श्वधनाश्च मृताशाः श्मशानवृत्तयश्च नीचाश्चेत्येकार्थिकाः तथा 'मयक्तीरे'त्ति मृतेव मृता विवक्षितभूदेशे तत्कालाप्रवाहिणी सा चासो गका च मृतगङ्गा तस्यास्तीरं तस्मिन् ॥३५४॥ तऋषिवान्ता-ऋपित्यक्ता, तथा भद्र एवं भद्रको यो न कस्यचिदशुमे प्रवर्तते, भद्राणि-कल्याणानि, तथा खीणा, कथा तासां नेपथ्याभरणभापादिविषया 'अत्र' अस्मिन् यत्याश्रमे प्रवर्तते, 'जणवयरायकहत्ति जनपदकथा मालयकादि MA5%83 दीप अनुक्रम [३५९]] For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~707~ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३२,,,|| नियुक्ति: [३२१-३२७] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| देशप्रशंसानिन्दात्मिका राजकथा च राज्ञां शौर्यादिगुणवर्णनादिरूपा, 'पडिगच्छह'त्ति तिय्यत्ययात् प्रतिगच्छा-121 मो-निवर्तावहे, 'अयी त्यामन्त्रणे 'सहसे'त्यपर्यालोच्य, कोऽर्थः १-अपरीक्षितयोग्यताविशेषो, 'बहुर्मुण्डितो जनो द मुण्डमात्रेणेव गृहीतदीक्षः प्रायो जनो, गृहीतभावदीक्षस्तु खल्प एवेति भावः ॥ तथेहाद्यगाथाया एवं पादद्वयं द्वितीयगाथया स्पष्टीकृतं, ततस्तृतीयपादः स्पष्ट एवेति, शेषगाथाभिश्चतुर्थपादस्य पर्यायदर्शनतस्तत्सूचितार्थाभिधानतश्चाभिव्यअनं । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तत्र च सम्प्रदाया-महुराए नयरीए संखो नाम जुवराया, सो धम्म | सोउं पचतितो, विहरंतो य गयउरं गओ। तहिं च भिक्खं हिंडतो एगं रत्थं पत्तो, सा य किर अतीव उण्हा मुम्मुरसमा, उहकाले ण सकति कोऽवि बोलेउ, जो तत्थ अजाणंतो उफंदति सो विणस्सति, तीसे पुण णाम चेव हुयवहरत्था, तेण साहुणा पुरोहियपुत्तो पुच्छितो-एसा रत्था निवहति ?, सो पुरोहियस्स पुत्तो चिंतेतिएस डझउत्ति निवहति इइ बुत्तं, सो पटिओ, इयरो य अलिंदडिओ पेच्छति अतुरियाए गईए वचत तं, सोह १ मथुरायां नगर्या शहो नाम युवराजः, स धर्म धुत्वा प्रश्नजितः, विहरंश्व गजपुरं गतः । तत्र च भिक्षा हिण्डमान एका रथ्यां | प्राप्तः, सा च किलातीवोष्णा मुर्मुरसमा, उष्णकाले न शक्नोति कोऽपि व्यतिक्रमितु, यस्तत्राजानान उत्पन्दते स विनश्यति, तस्याः | पुनर्नामैव हुतबाहरच्या, तेन साधुना पुरोहितपुत्रः पृष्टः- एषा रथ्या निर्वहति , स पुरोहितस्य पुत्रश्चिन्तयति-एष दह्यतामिति निर्यहतीति उक्त, स प्रस्थितः, इतरश्चालिन्दकस्थितः प्रेक्षते अवरितया गया वजन्तं तं, स दीप अनुक्रम [३५९]] AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 708~ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३२,,|| नियुक्ति: [३२१-३२७] (४३) ४ हरिकेशी उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३५५ यमध्यय. प्रत सूत्रांक ||३२|| आसंकाए उइण्णो तं रत्थं, जाय सा तस्स तवष्पभावेणं सीतीभूया, आउट्टो-अहो इमो महातबस्सी मए आसादितो, उजाणट्ठियं गन्तुं भणति-भगवं ! मए पावकम्मं कयं, कहं वा तस्स मुंचेजामि ?, तेण भण्णति-पवयह, पधइतो, जातिमयं रूवमयं च काउं मओ, देवलोगगमणं, चुओ संतो मयगंगाए तीरे बलकोट्टा नाम हरिएसा, तेर्सि अहिबई बलकोट्टो नाम, तस्स दुबे भारियाओ-गोरी गंधारी य, गोरीए कुञ्छिसि उववण्णो, सुमिणदसणं, वसंतमासं पेच्छति, तत्थ कुसुमियं चूयपाय पेच्छइ, सुमिणपाढयाणं कहियं, तेहिं भषणति-महप्पा ते पुत्तो भविस्सति, समएण पसूया, दारगो जाओ कालो विरूओ पवनवजाइरूवमयदोसेणं, बलकोहेसु जाउत्ति बलो से | मानामं कयं, भंडणसीलो असहणो । अण्णया ते छणेण समागया भुंजंति सुरं च पिवंति, सोऽवि अप्पियणियं | १ आशङ्कयाऽवतीर्णस्तां रथ्यां, यावत्सा तस्य तपःप्रभावेण शीतीभूता, आवृत्तः-अहो अयं महातपस्वी मया आशातितः, उद्यानस्थितं गत्वा भणति-भगवन् ! मया पापकर्म कृतं, कथं वा तस्मात् मुच्येय', तेन भण्यते-प्रव्रज, प्रबजितः, जातिमई रूपमदं च | कृत्वा मृतो, देवलोकगमनं, मयुतः सन् मृतगङ्गायास्तीरे बलकोट्टा नाम हरिकेशाः, नेपामधिपतिलकोट्टो नाम, तस्य भार्ये-गारी गान्धारी च, गीर्याः कुक्षी उत्पन्ना, स्वप्नदर्शनं, वसन्तमासं प्रेक्षते, तत्र कुसुमितं चूतपादपं पश्यति, स्वप्नपाठकेभ्यः कथितं, तैर्भण्यते--- महात्मा ते पुत्रो भविष्यति, समये प्रसूता, दारको जात:-कालो विरूपः पूर्वभवशातिरूपमददोषेण, बलकोट्टेषु जात इति बलस्तस्य नाम । कृत, भण्डनशीलोऽसहनः । अन्यदा ते क्षणे समागता मुजसे सुरां च पिबन्ति, सोडव्यग्रीतिक REACE दीप अनुक्रम [३५९]] ॥३५५|| AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~709~ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३२,,,|| नियुक्ति: [३२१-३२७] (४३) % प्रत सूत्रांक ||३२|| करेइत्ति निच्छूडो अच्छति समंतओ पलोएंतो, जाव अही आगतो, उडिया सहसा सर्छ, सो अही जेहिं मारिओ, हा अण्णमुहुत्तस्स भेरुंडसप्पो आगतो,भेरुंडो नाम दिवगो, भीया पुणो उठ्ठिया, णाए दिवगोत्तिकाऊण मुक्को,बलस्स चिंता जाया-अहो सदोसेण जीवा किलेसभागिणो भवंति, तम्हा-'भहएणेब होयचं, पावति महाणि भद्दओ । सविसो || |हम्मती सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुचति ॥१॥" एवं चिंततो संबुद्धो पतिओ। विहरंतो वाणारसिं गओ,उजाणं तेंदुयवणं, | तेंदुगं नाम जक्खाययणं, तत्थ गंडीतेंदुगो नाम जक्खो परिवसति, सो तत्व अणुण्णवेडं ठितो, जक्खो उवसंतो, अण्णो जक्खो अण्णहिं बणे वसति, तत्थवि अण्णे बहू साहूणो ठिया, सो य गंडीजक्खं पुच्छति-ण दीससि ?, पुणाई तेण भणियं-साहुं पज्जुवासामि, तत्थ य तेंदुएण दिट्टो, सोऽवि उवसंतो, सो भणति-ममवि उजाणे वहये| | १ करोतीति निष्काशितस्तिष्ठति समन्ततः प्रलोकयन् , चावदहिरागतः, उस्थिताः सहसा सर्वे, सोऽहिरेतैारितः, अन्यस्मिन्मुहूर्वे | भेरुण्डसर्प आगतः, भेरुण्डो नाम दिव्यकः, भीताः पुनरुस्थिताः, ज्ञाते दिव्यक इति कृत्वा मुक्तः, बलस्य चिन्ता जाता-अहो खदोषेण| जीवाः केशभागिनो भवन्ति, तस्मान्-भद्रफेनैव भाव्यं, प्राप्नोति भद्राणि भद्रकः । सविषो हन्यते सों, भेरुण्डसत्र मुच्यते ॥ १॥ एवं चिन्तयन् 'संबुद्धः प्रत्रजितः । विहरन वाणारसीं गतः, उद्यानं तिन्दुकवनं, तिन्दुकं नाम यक्षायतनं, तत्र गण्डीतिन्दुको नाम यक्षः परिवसति, स तत्रानुज्ञाप्य स्थितः, यक्ष उपशान्तः, अन्यो यक्षोऽन्यत्र वने वसति, तत्राप्यन्ये बहवः साधवः स्थिताः, स च गण्डीयक्षं | पृच्छति-न दृश्यसे ?, पुनस्तेन भणितं-- साधु पर्युपासे, तत्र च तिन्दुकेन दर्शितः, सोऽप्युपशान्तः, स भणति-ममाप्युद्याने बहवः दीप अनुक्रम [३५९]] 4%A4-%A5 For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 710~ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३२,,|| नियुक्ति : [३२१-३२७] (४३) हरिकेशी यमध्यय. प्रत नम्. १२ सूत्रांक ||३२|| उत्तराध्य. साहू ठिया, एहि पासामो, ते गया, तेऽवि समावत्तीए साहुणो विकहमाणा अच्छंति, ततो सो जक्खो इमं भणति- 18'इत्थीण कहऽत्थ वट्टइ, जणवयरायकहत्थ वट्टई । पडिगच्छह रम्म तेंदुर्ग, अइसहसा बहुमुंडिए जणे ॥ १॥' अह बृहद्वृत्तिः दि अण्णया जक्खाययणं कोसलियरायधूया भद्दा नाम पुप्फधूवमादी गहाय अचिरं निग्गया पयाहिणं करेमाणा तं दहण ॥३५६॥ कालं विगरालं छित्तिकाऊण णिहति, जखेण रुटेण अण्णइट्ठा कया, णीया नीयघरं, आवेसिया भणति ते-णवरं मुंचामि जइणं तस्सेव देह, तं च साहति-जहा एईए सो साहू ओदूढो, रपणावि जीवउत्तिकाऊण दिण्णा, महत्तदरियाहिं समं तत्थाणीया, रतिं ताहि भण्णति-बच पतिसगासंति, पविट्ठा जक्खाययणं, सो पडिम ठिओ णेच्छति, ताहे जक्खोवि इसिसरीरं छाइऊण दिवरूवं दंसेति, पुणो मुणिरूवं, एवं सवरतिं लंबिया, पभाए णेच्छ एत्ति * १ साधवः स्थिताः, यावः पश्यावः, ती गती, तेऽपि भवितव्यतया साधवः विकथयन्तस्तिष्ठन्ति, ततः स यक्ष इदं भणति स्त्रीणां कथाऽत्र वर्तते, जनपदराजकथाऽत्र वर्त्तते । प्रतिगच्छाबो रम्यतेन्दुकं, अतिसहसा वहुर्मुण्डितो जनः ॥ १॥ अथान्यदा यक्षाय-1 दतन कौशलिकराजदुहिता भद्रानाम पुष्पधूपादि गृहीत्वाऽर्चयितुं निर्गता प्रदक्षिणां कुर्वती तं दृष्ट्वा कृष्णविकरालं थूत्कृत्य निष्ठीवति, मायक्षेण रुष्टनान्याविष्टा कृता, नीता निजगृहं, आविष्टा भणति तान्-परं मुश्वामि योनां तस्मायेव दत्त, तच कथयति-यर्थतया स साधु- राशातितः (यूत्कृतः), राशाऽपि जीवस्वितिकृत्वा दत्ता, महत्तराभिः समं तत्रानीता, रात्रौ ताभिर्मण्यते-ग्रज पतिसकाशमिति, प्रविधा यक्षा-| हायतनं,स प्रतिमां स्थितो नेच्छति,तदा योऽपि ऋपिशरीरं छादयित्वा दिव्यरूपं दर्शयति, पुनर्मुनिरूपं,एवं सर्वा रावि विडम्धिता,प्रभाते भच्छतीति दीप अनुक्रम [३५९]] ॥५ ॥ AIMEducatan intaimahima For ParaTREPIVaauinone wlancibrammam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~711~ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३२१-३२७] (४३) प्रत सुत्रांक ||१|| काऊणं पविसंती सघरं पुरोहिएण राया भणिओ-एसा रिसिभज्जा बंभणाणं कप्पइत्ति, दिण्णा तस्सेव । सो य जणे दिक्खिजिउकामो सा अण्णेण लद्धा, सावि जण्णपत्तित्तिकाऊण दिक्खिया । इत्युक्तः सम्प्रदायोऽवसितश्च नामनिप्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः, स च सूत्रे सति सम्भवत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम्__सोवागकुलसंभूओ, गुणुत्तरधरो मुणी । हरिएस बलो नाम, आसि भिक्खू जिइंदिओ॥१॥ श्वपाका:-चाण्डालास्तेषां कुलम्-अन्वयस्तस्मिन् सम्भूतः-समुत्पन्नः श्वपाककुलसम्भूतः, तक्किं तत्कुलोत्पत्त्यनुरूप एवायमुत नेत्याह-गुणेषूत्तराः-प्रधाना गुणोत्तराः-ज्ञानादयः तान् धारयति गुणोत्तरधरः, पठन्ति च-'अणुत्तरघरे'त्ति, तत्र न विद्यते उत्तरम्-अन्यत्प्रधानमेषामित्यनुत्तराः, ते च प्रक्रमात्प्रकर्षप्राप्ता ज्ञानादय एव गुणास्तान् धारयत्यनुत्तरघरो, यद्वा अनुत्तरान् गुणान धारयतीत्यनुत्तरधर इति मयूरध्यसकादिषु द्रष्टव्यो, मुणति-प्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुणिः, श्वपाककुलोत्पन्नोऽपि कदाचित्सवासादिनाऽन्यथैव प्रतीतः स्यादत आह-हरिकेशः सर्वत्र हरिकेशतवैव प्रतीतो बलो नाम-बलाभिधानः आसीद्-अभूत् , तस्य च मुनित्वं प्रतिज्ञामात्रेणापि स्यादत आह १ कृत्वा प्रविशन्ती खगृह पुरोहितेन राजा भणित:-एषा ऋषिभार्वा ब्राह्मणानां कल्पते इति, दत्ता तस्मायेव । स च यज्ञे दीक्षयितुकामः साऽन्ये (ने)न लब्धा, साऽपि यज्ञपनीतिकृत्वा दीक्षिता।। दीप अनुक्रम [३६० For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~712~ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [३२६,,] (४३) उत्तराध्य. बहादत्तिः ॥३५७॥ प्रत सूत्रांक ||२|| भिक्खूति भिनत्ति-यथाप्रतिज्ञातेनानुष्ठानेन क्षुधमष्टविधं वा कर्मेति भिक्षुः, अत एव जितानि-वशीकृतानीन्द्रि- हरिकशीयाणि-स्पर्शनादीन्यनेनेति जितेन्द्रिय इति सूत्रार्थः ॥ तथा यमध्यय| इरिएसणभासाए, उच्चारसमिसु य । जओ आयाणणिक्खेिवे, संजओ सुसमाहिओ ॥२॥ ईरणमी-,एण्यत इत्येपणा अनयोर्द्वन्द्वस्ततस्ताभ्यां सहिता भाष्यत इति भाषा ईयपणाभाषेति मध्यपदलोपी नम्. १२ समासः, तस्यां, तथा उच्चारं-पुरीपपरिष्ठापनमपीहोचार उक्तः, प्रश्रवणपरिष्ठापनोपलक्षणं चैतत् , तद्विषया समितिः-13 सम्यग्गमनं, तत्र सम्यक्प्रवर्तनमितियावत् , उधारसमितिः, तस्यां च, यतत इति यतो-यत्नवान् , तथा आदानं हा च-ग्रहणं पीठफलकादेनिक्षेपश्च-स्थापनं तस्यैव आदाननिक्षेपं, तत इहापि चकारानुवृत्तेस्तस्मिंश्च, इह च 'उच्चारस-4 मिएसु'त्ति एकत्वेऽपि बहुवचनं सूत्रत्वात् , समितिशब्दश्च मध्यव्यवस्थितो डमरुकमणिरियाद्यन्तयोरपि सम्बध्यते. ततश्च ईयांसमितावेषणासमिती भापासमितावादाननिक्षेपसमिताविति योज्यं, यद्वा ईर्येपणाभाषोच्चारसमितिष्विसेकमेव पदं, 'भासाए' इति च एकारोऽलाक्षणिकः, स चैवं कीगित्याह-संयतः-संयमान्वितः सुसमाहितःसुष्टुसमाधिमानिति सूत्रार्थः ॥ तथा मणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइंदिओ। भिक्खडा भइज्जमि, जन्नवाडमुवडिओ ॥३॥ मनोगुस्या-मनोनियन्त्रणात्मिकया गुप्तः-संवृतो मनोगुप्तो, मध्यपदलोपी समासः, मनो गुप्तमस्येति वा मनोगुप्तः,13 दीप अनुक्रम [३६१] 4% 84%-55 ॥३५७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~713~ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) ***** प्रत सूत्रांक आहिताभ्यादित्वाच गुप्तशब्दस्य परनिपातः, एवं वारगुप्तो-निरुद्धवाक्प्रसरः, कायगुसः असत्कायक्रिया विकलो, जितेन्द्रियः प्राग्यत्, पुनरुपादानमस्य कादाचित्कत्वनिराकरणार्थमतिशयख्यापनार्थं वा, 'भिक्षार्थ' भिक्षानिमित्तं, न तु निष्प्रयोजनमेय, निष्प्रयोजनगमनस्यागमे निषिद्धत्वात् , 'बंभइमि'त्ति ब्रह्मणां-बामणानामिज्या-यजन यस्मिन् सोऽयं ब्रोज्यस्तस्मिन्, 'जण्णवार्ड'ति यज्ञवाटे यज्ञपाटे वा 'उपस्थितः' प्राप्त इति सूत्रार्थः ॥ तं च तत्रा|ऽऽयान्तमवलोक्य तत्रत्यलोका यदकुवस्तदाह तं पासिऊणमिळतं, तवेण परिसोसियं । पंतोवहिउवगरणं, उवहसंति अणारिया ॥४॥ 'त'मिति बलनामानं मुनि 'पासिऊर्णति दृष्ट्वा-निरीक्ष्य 'एजंत'न्ति आयान्तमागच्छन्तं तपसा-पठाष्टमादिरूपेण परि-समन्ताच्छोषितम्-अपचितीकृतमांसशोणितं कृशीकृतमितियावत् परिशोषितं, तथा प्रान्तं-जीर्णमलिनत्वादिभिरसारमुपधिः-वर्षाकल्पादिः स एव च उपकरणं-धर्मशरीरोपष्टम्भहेतुरखेति प्रान्तोपध्युपकरणस्तं, यद्वोपधिः स एवोपकरणम्-औपग्रहिकं, द्वन्द्वगर्भश्च बहुव्रीहिः, 'उवहसंति'त्ति उपहसन्ति आर्याः-उक्तनिरुक्ता न तथा अनार्याः, यद्वा अनार्या-म्लेच्छाः, ततश्च साधुनिन्दादिना अनार्या इव अनार्या इति सूत्रार्थः ॥ कथं पुनरनार्याः ।, 13 कथं चोपहसितयन्तस्ते ? इत्याह जाइमयं पडिथद्धा, हिंसगा अजिइंदिया। अवंभचारिणो वाला, इमं वयणमच्यची ॥५॥ *** ||३|| दीप अनुक्रम [३६२] ** ४ For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~714~ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) -१०-१ उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३५॥ प्रत सूत्रांक ||६|| कयरे आगच्छई दित्तस्वे, काले विकराले फुकनासे। | हरिकेशीओमचेलए पंसुपिसायभूए, संकरदूसं परिहरिय कंठे ॥ ६॥ कायमध्ययजातिमदो-जातिदप्पो यदुत ब्राह्मणा वयमिति तेन प्रतिस्तब्धाः पाठान्तरतः प्रतिवद्धा वा ये ते तथा, 'हिंसकाः' प्राण्युपमईकारिणः 'अजितेन्द्रिया' न वशीकृतस्पर्शनादयोऽत एवाब्रह्म-मैथुनं तच्चरितुं-आसेवितुं शीलं नम्. १२ धम्मों वा येषां तेऽमी अब्रह्मचारिणो, वर्ण्यते हि तन्मते मैथुनमपि-धार्थ पुत्रकामस्य, स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन, तत्र दोषो न विद्यते ॥१॥' तथा 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ती'त्यादि, अत एव बाला इब बालक्रीडितानुकारिष्वग्निहोत्रादिषु तत्प्रवृत्तेः, उक्तं हि केनचिद्-"अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेति लक्ष्यते” ईदृशास्ते किमिस्याह-'इदं' वक्ष्यमाणलक्षणं 'वचनं वचः 'अबवित्ति आर्षत्वाद्वचनव्यत्ययेन अब्रुवन्-उक्तवन्तः । किं तदित्याह'कयरे'त्ति कतरः, एकारस्तु प्राकृतत्वात् , तथा च तल्लक्षणं-'ए होति अयारंते' इत्यादि, एवमन्यत्रापि, आगच्छति |-आयाति, पठ्यते च-'को रे आगच्छत्ति, ते ह्यन्योऽन्यमाहुः-कोऽयमीक्रे' इति लघोरामवणं साक्षेपवचनेषु च दृश्यते, 'दित्तरूवेत्ति दीप्तं रूपमस्येति दीप्तरूपः, दीप्तवचनं त्वतिबीभत्सोपलक्षकम् , अत्यन्तदाहिषु स्फोटकेषु ॥३५८॥ शीतलकव्यपदेशयत्, विकृततया चा दुर्दर्शमिति दीप्तमिव दीप्समुच्यते, कालो वर्णतो विकरालो दन्तुरतादिना भयानकः पिशाचवत् स एव विकरालकः, 'फोक'त्ति देशीपदं, ततश्च फोका-अग्रे स्थूलोन्नता च नासाऽस्येति फोक दीप अनुक्रम [३६५] CACA For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 715~ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) -HS R प्रत सूत्रांक CHECCCCCC ||६|| नासः, अवमानि-असाराणि लघुत्वजीर्णत्वादिना चेलानि-वस्त्राण्यस्येत्यवमचेलकः, पांशुना-रजसा पिशाचवडूतो-जातः पांशुपिशाचभूतः, गमकत्वात्समासः, पिशाचो हि लौकिकानां दीर्घश्मश्रुनखरोमा पुनश्च पांशुभिः समविध्वस्त इष्टः, ततः सोऽपि निष्परिकर्मतया रजोदिग्धदेहतया चैवमुच्यते, 'संकरे ति सङ्करः, स चेह प्रस्तावात्तृणभस्मगोमयाजारादिमीलक उक्करुडिकेतियावत् तत्र दुष्यं-वस्त्रं सङ्करदुष्यं, तत्र हि यदत्यन्तनिकृष्टं निरुपयोगि तल्लोकैरुत्सृज्यते, ततस्तत्प्रायमन्यदपि तथोक्तं, यद्वा उज्झितधर्मकमेवासौ गृह्णातीत्येवमभिधानं, 'परिहरिय'त्ति परिवृत्त्य, निक्षिप्येत्यर्थः, क ?-'कण्ठे' गले, स ह्यनिक्षिप्तोपकरण इति स्वमुपधिमुपादायैव भ्राम्यति, अत्र कण्ठैकपार्श्वः कण्ठशब्द इति कण्ठे परिवृत्त्येत्युच्यत इति सूत्रद्वयार्थः । इत्थं दूरादागच्छन्नुक्तः, सन्निकृष्टं चैनं किमूचुरित्याह-12 कपरे तुम इय अदंसणिज्जे ?, काए व आसा इहमागओऽसि?। ओमचेलगा पंसुपिसायभूया, गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओऽसि ? ॥७॥ कतरस्त्वं, पाठान्तरश्च-कोरे त्वम् , अधिक्षेपे रेशब्दः 'इती' त्येवमदर्शनीयो-द्रष्टुमनहः, 'कया वा' किंरूपया वा ?, 'आसा इहमागओऽसित्ति 'अचां सन्धिलोपौ बहुल'मितिवचनादेकारलोपो, मकारश्चागमिकः, तत आशयावाछया 'इह' अस्मिन्यज्ञपट्टके आगतः-प्राप्तोऽसि-भवसि, अवमचेलकः पांसुपिशाचभूत इति च प्राग्वत्, पुनर-1 नयोरुपादानमत्यन्ताधिक्षेपदर्शनार्थ, गच्छ-प्रत्रज, प्रक्रमादितो यज्ञवाटकात्, 'खलाहित्ति देशीपदमपसरेत्यस्यार्थे । दीप अनुक्रम [३६५] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~716~ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३५९॥ प्रत सूत्रांक ||७|| वर्त्तते, ततोऽयमर्थः-अस्मदृष्टिपथादपसर, तथा किमिह स्थितोऽसि त्वं ?, नैवेह त्वया स्थातव्यमिति भाव इति । हरिकेशीसूत्रार्थः ॥ एवमधिक्षिप्तेऽपि तस्मिन् मुनी प्रशमपरतया किश्चिदप्यजल्पति तत्सान्निध्यकारी गण्डीतिन्दुकयक्षो यद-| यमध्ययचेष्टत तदाहजक्खो तहिं तिदुपरुक्खवासी, अणुकंपओ तस्स महामुणिरस । नम्.१२ पच्छायइत्ता नियगं सरीरं, इमाई वयणाई उदाहरित्था ॥ ८॥ KI यक्षो-व्यन्तरविशेषः, तस्मिन् अबसर इति गम्यते, तिन्दुको नाम वृक्षस्तद्वासी, तथा च सम्प्रदाया-तस्स तिदुगवणस्स मज्झे महंतो तिंदुगरुक्खो, तहि सो वसति, तस्सेव हेट्ठा चेइयं, जत्थ सो साहू चिट्ठति । 'अणुकपउत्ति अनुशब्दोऽनुरूपार्थे ततश्चानुरूपं कम्पते-चेष्टत इत्यनुकम्पक:-अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः, कस्येत्याह-'तस्य' हरिकेशवलस्य 'महामुनेः' प्रशस्थतपखिनः 'प्रच्छाध' प्रकर्षणावृत्य निजकम्-आत्मीयं शरीरं, कोऽभिप्रायः -तपखिशरीर एवाविश्य स्वयमनुपलक्ष्यः सन्निमानि-वक्ष्यमाणानि 'वचनानि' वांसि 'उदाहरित्य'त्ति उदाहार्षीदुदातवानित्यर्थः, इति सूत्रार्थः ।। कानि पुनस्तानि !, इत्याह समणो अहं संजउ भयारी, विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले, अन्नस्स अट्ठा इहमागओमि ॥९॥ दीप अनुक्रम [३६६] ॥३५९।। For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~717~ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| वियरिजइ खजइ भुजई य, अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । जाणाहि मे जायणजीविणुत्ति, सेसावसेसं लहओ तबस्सी ॥ १० ॥ श्रमणो-मुनिः 'अह'मित्यात्मनिर्देशः, किमभिधानत एवेत्याशङ्कयाह-सम्यग् यतः संयतः-असद्व्यापारेभ्य उपरतः, अत एव च ब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्यवान् , तथा विरतो निवृत्तः, कुतो ?-धनं च पचनं च परिग्रहश्च धनपचनपरिग्रहमिति समाहारः तस्मात् , तत्र धनं चतुष्पदादि पचनमाहारनिष्पादनं परिग्रहो द्रव्यादिषु मूर्छा, अत एव च परस्मै प्रवृत्तंपरैः खार्थ निष्पादितत्वेन परप्रवृत्तं तस्य, तुरवधारणे, ततः परप्रवृत्तस्यैव, न तु मदर्थ साधितस्येति भावः, 'भिक्षाकाले' भिक्षाप्रस्तावे, कदाचिदकालोऽयं ब्रूयादित्येवमुक्तं, 'अन्नस्य' अशनस्य 'अट्ठत्ति सूत्रत्वादाय, भोजनार्थमिति । भावः, 'इह' अस्मिन् यज्ञवाटके आगतोऽस्मि, अनेन यदुक्तं-कतर त्वं किमिहागतोऽसि ?, तत्प्रतिवचनमुक्तम्, एवमुक्ते च ते कदाचिदभिदध्युः-नेह किञ्चित् कस्मैचिद्दीयते न वा देयमस्त्यत आह-वितीर्यते' दीयते दीनानाथादिभ्यः खाद्यते खण्डखाद्यादि, भुज्यते च भक्कसूपादि, अद्यत इत्पन्नं स सर्वमपि सामान्येनोच्यते, तदप्यल्पमेव खादत आह-'प्रभूतं' बहु, प्रभूतमपि परकीयमेव स्यात् , अत आह-भवतां युष्माकमेव सम्बन्धि 'एतदिति प्रत्यक्षं, तथा च 'जानीत' अवगच्छत 'मे'त्ति सूत्रत्वान्मां 'जायणजीविणो'त्ति याचनेन जीवनं-प्राणधारणमस्येति याचन दीप CE अनुक्रम [३६९]] %-- For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~718~ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३६०॥ प्रत सूत्रांक ||१०|| जीवनं, आषत्वादिकारः, पठ्यते च-'जायणजीवणों'त्ति, इतिशब्दः खरूपपरामर्शकः, तत एवंखरूपं, यतश्चैवमतो हरिकेशीमह्यमपि ददध्वमिति भावः, कदाचिदुत्कृष्टमेवासौ याचत इति तेषामाशयः स्यादत आह, अथवा जानीत मां याच यमध्ययनजीविनं-याचनेन जीवनशील, द्वितीयाथै षष्ठी, पाठान्तरे तु प्रथमा, 'इती यस्माद्धेतोः, किमित्याह-शेषावशेषम्उद्धरितस्याप्युद्धरितम् , अन्तप्रान्तमित्यर्थः, लभतां प्राप्नोतु, तपखी-यतिराको वा भवदभिप्रायेण, अनेनात्मानं ४ नम्.१२ |निर्शितीति सूत्रद्वयार्थः । एवं यक्षेणोक्ते यज्ञवाटवासिनः प्राहु: उवक्खड भोयण माहणाणं, अत्तट्टियं सिद्धमिहेगपक्खं । नऊ वयं एरिसमन्नपाणं, दाहामु तुझं किमिहं ठिओऽसि ॥ ११ ॥ 'उपस्कृतं' लवणवेसवारादिसंस्कृतं 'भोयण'त्ति भोजनं माहनानां-ब्राह्मणानां आत्मनोऽर्थः आत्मार्थस्तस्मिन् । भवमात्मार्थिकं, ब्रामणेरप्यात्मनैव भोज्यं न त्यन्यस्मै देयं, किमिति ?, यतः सिद्धं-निष्पन्नं 'इह' अस्मिन् यज्ञे एकः पक्षो-ब्राह्मणलक्षणो यस्य तदेकपक्षं, किमुक्तं भवति ?-यदस्मिन्नुपस्क्रियते न तद्ब्राह्मणव्यतिरिक्तायान्यस्मै दीयते, ३६०॥ विशेषतस्तु शद्राय, यत उक्तम्-"न शुद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्ट न हविः कृतम् । न चास्योपदिशेद् धर्म, न चास्य प्रतमादिशेत् ॥१॥" यतश्चैवमतो 'नतु' नैव वयमीरशमुक्तरूपं अन्नं च-ओदनादि पानं च-द्राक्षापानाद्य दीप अनुक्रम [३६९]] AIMEducatan intimational For PF rajancibaram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~719~ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||११|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| नपानं 'दाहामो'त्ति दास्यामः 'तुझं ति तुभ्यं, किमिह स्थितोऽसि!, नैवेहावस्थितावपि तब किश्चिदिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ यक्ष आह थलेसु बीयाई वयंति कासया, तहेव निन्नेसु य आसंसाए । एयाइ सद्धाइ दलाह मजलं, आराहए पुण्णमिणं खु खितं ॥१२॥ 'स्थलेषु' जलावस्थितिविरहितेषूचभूभागेषु 'वीजानि गोधूमशाल्यादीनि 'वपन्ति' रोपयन्ति 'कासग'त्ति कर्षकाः कृषीवलाः, 'तथैव' यथोचस्थलेप्येवमेव 'निम्नेषु च'नीचभूभागेषु च 'आससाए'त्ति आशंसया-यद्यत्यन्तप्रवर्षणं भावि तदा स्थलेषु फलावाप्तिरथान्यथा तदा निम्नेष्वित्येवमभिलाषात्मिकया, एतयेवतया-एतदुपमया, कोऽर्थः १-उक्तसारूपककासातल्यया 'श्रद्धया'याप्छया 'दला ति ददध्वं मो. किमक्तं भवति ?-यद्यपि भवतां निझोपमत्त्व-| बुद्धिरात्मनि मयि तु स्थलतुल्यताधीः तथापि मद्यमपि दातुमुचितम् , अथ स्याद्-एवं दत्तेऽपि न फलावाप्तिरित्याह-आराहए पुण्णमिणं खु'त्ति खुशब्दस्यावधारणार्थस्य भिन्नक्रमत्वादाराधयेदेव-समन्तात्साधयेदेव, नात्रान्यथाभावः, 'पुण्य' शुभमिदं-परिदृश्यमानं क्षेत्रमिव क्षेत्र पुण्यशस्यप्ररोहहेतुतया, आत्मानमेव पात्रभूतमेवमाह, पठ्यते । च-'आराहगा होहिम पुण्णखेत्त'न्ति आराधका-आवर्जका गम्यमानत्वात्पुण्यस्य भवत, अनेन दानफलमाह, कुत! द एतदित्याह-इदं पुण्यक्षेत्रं-पुण्यप्राप्तिहेतुः क्षेत्रं यत इति गम्यते, इति सूत्रार्थः ॥ यक्षवचनानन्तरं त इदमाहुः दीप अनुक्रम [३७१] AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 720~ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||१३|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) T - 5 बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| -5- हरिकेशीउत्तराध्य. खित्ताणि अम्हं विइयाणि लोए, जहिं पकिन्ना विरुहंति पुण्णा । यमध्ययजे माहणा जाइविज्जोववेया, ताई तु खिसाई सुपेसलाई ॥१३॥ 'क्षेत्राणी'ति क्षेत्रोपमानि पात्राण्यस्माकं 'विदितानि' ज्ञातानि, वर्तन्त इति गम्यते, 'लोके' जगति 'जहि तिनम.१२ ॥३६॥ वचनव्यत्ययायेषु क्षेत्रेषु प्रकीर्णानीय प्रकीर्णानि-दत्तान्यशनादीनि 'विरोहन्ति' जन्मान्तरोपस्थानतः प्रादुर्भवन्ति । 'पृणोनि' समस्तानि, न तु तथाविधदोपसद्भावतः कानिचिदेव, स्यादेतद्-अहमपि तन्मध्यवत्यैवेत्याशवाह-ये। 'ब्राह्मणा' द्विजाः, तेऽपि न नामत एव, किन्तु जातिश्च-ब्राह्मणजातिरूपा विद्या च-चतुर्दशविद्यास्थानात्मिका ताभ्याम् 'उववेय'त्ति उपेता-अन्यिता जातिविद्योपेताः, 'ताई तुति तान्येव क्षेत्राणि 'सुपेसलाणिति सुपेशल नाम शोभनं प्रीतिकरं वा इति वृद्धाः, ततश्च सुपेशलानि-शोभनानि प्रीतिकराणि वा, न तु भवादशानि शद्रजाद्वितीनि, शुद्रजातित्वादेव वेदादिविद्याबहिष्कृतानीति, यत उक्तम्-"सममश्रोत्रिये दानं, द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे । सहस्रगुणमाचार्य, अनन्तं वेदपारगे ॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥ यक्ष उवाच ॥३६॥ कोहो य माणो य वहो य जेसि, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । ते माहणा जाइबिजाविहीणा, ताई तु खित्ताई सुपावयाई ॥ १४ ॥ 'क्रोधश्च' रोषः 'मानश्च' गर्यः, चशब्दान्मायालोभी च, 'बधश्च' प्राणिपातो 'येषामिति प्रक्रमाद्भवतां र SCARSXXX दीप अनुक्रम %* K20% [३७२] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~721~ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१४|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१४|| ब्राह्मणानां 'मोसं'ति मृषा-अलीकभाषणं 'अदत्तंति पदेऽपि पदैकदेशस्य दर्शनात्सत्यभामा सत्येतिवत् अदत्तादानमुक्तं, चशब्दान्मैथुनं, 'परिग्रहश्च' गोभूम्यादिस्वीकारः, अस्तीति सर्वत्र गम्यते, 'ते' इति क्रोधाधुपेता यूयं ब्राह्मणा जातिविद्याभ्यां विहीना-रहिता जातिविद्याविहीनाः, क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वर्ण्यव्यवस्था, यत उक्तम्-"एकवर्णमिदं सर्वे, पूर्वमासीधुधिष्ठिर ! । क्रियाकर्मविभागेन, चातुर्वर्ण्य व्यवस्थितम् ॥ १॥ ब्राह्मणो ब्रह्म|चर्येण, यथा शिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाममात्र स्थादिन्द्रगोपककीटवत् ॥ २॥" न चैवंविधक्रिया ब्रह्मच त्मिका कोपाद्युपेतेपु तत्त्वतः सम्भवत्यतो न तावजातिसम्भवः, तथा विद्यापि सच्छावात्मिका, सच्छास्त्रेषु च सर्वेष्वहिंसादिपञ्चकमेव वाच्यं, यत उक्तम्-“पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ १॥" तद्युक्तत्वं च तत्तज्ज्ञानादेव भवति, ज्ञानस्य तु विरतिः फलं रागाद्यभावश्च, यत उक्तम् -"तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति ? शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥"| न चैवमन्याद्यारम्भिषु कोपादिमत्सु च भवत्सु विरते रागाद्यभावस्य च सम्भयोऽस्ति, न च निश्चयनयमतेन फलर हितं वस्तु सत् , तथा च निश्चयो यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसदित्साह, ततः स्थितमेतत्-'ताई तु'त्ति तुरविधारणे भिन्नक्रमश्च, ततश्च तानि भवद्विदितानि ब्राह्मणलक्षणानि क्षेत्राणि सुपापकान्येव, न तु सुपेशलानि, दीप अनुक्रम [३७३] For PAHATEEPIVanupontv wlancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~722~ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१५|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५|| क्रोधाद्युपेतत्वेनातिशयपापहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ।। कदाचित्ते वदेयुः-वेदविद्याविदो वयमत एव च नाखणजातय- उत्तराध्य. हरिकेशीतत्कथं जातिविद्याविहीना इत्युक्तवानसीत्साहबृहद्वृत्तिः तुन्भित्थ भो! भारहरा गिराणं, अटुं न याणाह अहिज वेए। यमध्यय. ॥३६॥ उच्चावयाई मुणिणो चरंति, ताई तु खित्ताई सुपेसलाई ॥१५॥ नम्. १२ यूयमत्रेति-लोके 'भो' इत्यामन्त्रणे भारं धरन्तीति भारधराः, पाठान्तरतो वा-'भारवहा' वा, कासां ?-'गिरी'ादा वाचा,प्रक्रमादिसम्बन्धिनीनाम् , इह च भारस्तासां भूयस्त्वमेव, किमिति भारधरा भारवहा वेति उच्यते, यतोऽर्थम्अभिधेयं न जानीथ-नावबुध्यध्वे 1, 'अहिज'त्ति अपेर्गम्यमानत्वादधीत्यापि वेदान् ऋग्वेदादीन् , तथाहि-आत्मा वा रेज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" तथा "कर्मभिर्मृत्युमृषयो निषेदुः, प्रजावन्तो द्रविणमन्विच्छमानाः, अथापरं कर्मभ्योऽमृतत्वमानशुः,-परेण नाकं निहितं गुहायां, विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति । वेदाहमेनं पुरुषं महान्तं, तमेव विदित्वा अमृतत्वमेति ॥ १ ॥ नान्यः पन्थाः अयनाये' त्यादिवचनानां यद्यर्थवेत्तारः स्युस्तत्किमित्थं यागादि कुर्वीरन् ?, ततस्तत्त्वतो वेदविद्याविदो भवन्तो न भवन्ति, तत्कथं जातिविद्यासम्पन्नत्वेन क्षेत्रभूताः स्युः ।। दकानि तहि भवदभिप्रायेण क्षेत्राणीत्याह-उचावयाईति उच्चावचानि-उत्तमाधमानि मुनयश्चरन्ति-भिक्षानिमित्त पापयटान्त गृहाणि, ये इति गम्यते, न तु भवन्त इव पचनाद्यारम्भप्रवृत्तयः,त एव परमार्थतो वेदार्थ विदन्ति, तत्रापि दीप अनुक्रम [३७४] भक्षानिमित्तं/*/॥३६॥ AIMEducatan intammational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~723~ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१६|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) -% %+ प्रत + सूत्रांक ||१६|| भैक्षवृत्तरेव समर्थितत्वात् , तथा च वेदानुवादिनः-"चरे माधुकरी वृत्तिमपि म्लेच्छकुलादपि । एकानं नैव मुजीत, बृहस्पतिसमादपि ॥१॥" यदिवोचावचानि-विकृष्टाविकृष्टतया नानाविधानि, तपांसीति गम्यते, उच्चव्रतानि वा| शेषत्रतापेक्षया महाप्रतानि ये मुनयश्चरन्ति-आसेवन्ते, न तु यूयमिवाजितेन्द्रिया अशीला या, तान्येव मुनिलक्ष-RI णानि क्षेत्राणि सुपेशलानीति प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ इत्थमध्यापर्क यक्षेण निर्मुखीकृतमवलोक्य तच्छात्राः प्राहुः अज्झावयाणं पडिकूल भासी, पभाससे कि सगासि अम्हें । अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं, न य णं दाहामु तुम नियंठा!॥ १६ ॥ अध्यापयन्ति-पाठयन्तीत्यध्यापकाः-उपाध्यायास्तेषां प्रतिकूल-प्रतिलोमं भाषते वक्तीत्येवंशीलः प्रतिकूलभाषी सन् प्रकर्षण भापसे-भूपे प्रभाषसे, किमिति क्षेपे,'दुरित्यक्षमायां, ततश्च धिम् भवन्तं न वयं क्षमामहे यदित्य भवान् ब्रूते सकाशे-समीपे 'अम्ह'ति अस्माकम् , अपिः सम्भावनाया, 'एतत्' परिदृश्यमानं 'विनश्यतु' कथितत्यादिना खरूपहानिमाप्नोतु 'अन्नपानम्' ओदनकाधिकादि, 'नच' नैव 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे 'दाहामुत्ति दास्यामस्तव हे निर्ग्रन्थ !-निष्किञ्चन !, गुरुप्रत्यनीको हि भवान्, अन्यथा तु कदाचिदनुकम्पया किञ्चिदन्तप्रान्तादि दद्यामोऽपीति भाव इति सूत्रार्थः ॥ यक्ष आह + दीप अनुक्रम + [३७५] For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~724~ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-1 /गाथा ||१७|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) उत्तराध्यबृहद्वृत्तिः ॥३६॥ प्रत सूत्रांक ||१७|| समिईहिं मनं सुसमाहियस्स, गुत्तीहि गुत्तस्स जिइंदियस्स। | हरिकेशीजइ मे न दाहित्य अहेसणिज, किमज जन्नाण लभित्थ लाभं? ॥१७॥ यमध्ययसमितिभिः-ईसिमित्यादिभिर्मषं सुष्टु समाहिताय-समाधिमते सुसमाहिताय गुप्तिभिः-मनोगुप्त्यादिभिर्गुप्ताय नम्. १२ |जितेन्द्रियायेति च प्राग्वत्, सर्वत्र च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, 'यदी'त्यभ्युपगमे 'में मह्यं 'मझतीत्यस्य व्यवहितत्वात् ४ क्रिया प्रति पुनरुपादानमदुष्टमेव 'न दाखथन वितरिप्यथ, 'अर्थ'त्युपन्यासे आनन्तये वा, 'एषणीयम्' एपणाविशुद्धमन्नादिकं, किं न किञ्चिदित्यर्थः, 'अज'त्ति अद्य ये यज्ञास्तेषामिदानीमारब्धयज्ञानां, यद्वा 'अज'त्ति हे आयाँ! यज्ञानां 'लभित्यत्ति सूत्रत्वाल्लप्स्यध्वे-प्राप्स्यध्वं 'लाभ' पुण्यप्राप्तिरूपं, पात्रदानादेव हि विशिष्टपुण्यावाप्तिः, अन्यत्र तु तथाविधफलाभावेन दीयमानस्य हानिरेव, उक्तं हि-"दधिमधुघृतान्यपात्रे क्षिप्सानि यथाऽऽशु नाशमुपयान्ति । एवमपात्रे दत्तानि केवलं नाशमुपयान्ती ॥१॥" ति सूत्रार्थः ॥ इत्थं तेनोक्ते यदध्यापकप्रधान आह तदुच्यतेके इत्थ खत्ता उवजोइया वा, अज्झावया वा सह खंडिएहिं। ॥३६॥ एवं खु दंडेण फलेण हंता, कंठमि धिसूण खलिज जो णं ॥१८॥ के 'अत्रे'त्येतस्मिन् स्थाने 'क्षत्राः' क्षत्रियजातयो वर्णसङ्करोत्पन्ना वा तत्कर्मनियुक्ताः 'उवजोइय'त्ति ज्योतिषः। दीप अनुक्रम [३७६] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~725~ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||१८|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) ** ** प्रत सूत्रांक ||१८|| * समीपे ये त उपज्योतिषस्त एवोपज्योतिष्का:-अग्निसमीपवर्त्तिनो महानसिका ऋत्विजो वा 'अध्यापकाः' पाठकाः, ते वा उभयत्र या विकल्पे 'सहेति युक्ताः, कैः-'खण्डिकैः' छात्रैः, ये किमित्याह-एनं' श्रवणकं 'दण्डेन' वंशयध्यादिना 'फलेन' बिल्लादिना 'हंते'ति हत्वा-ताडयित्वा यद्वा 'दण्डेनेति कूपराभिघातेन 'फलेन' च मुष्टिप्रहारेणेति वृद्धाः, ततश्च 'कण्ठे' गले 'गृहीत्वा' उपादाय 'खलेज'त्ति स्खलयेयुः-निष्काशयेयुः, 'योति वचनव्यत्ययाये इत्यमेतदभिघाते निष्काशने वा शक्काः, 'णमिति वाक्यालङ्कारे इति सूत्रार्थः ॥ अत्रान्तरे यदभूत्तदाह अज्झावयाणं वयणं सुणित्ता, उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा। दंडेहिं वित्तेहिं कसेहिं चेव, समागया तं इसिं तालयंति ॥१९॥ अध्यापकानाम्-उपाध्यायानाम्, एकत्वेऽपि पूज्यत्वाद्वहुवचनं, 'वचनम्' उक्तरूपं श्रुत्वा' आकये 'उद्धाविता दि वेगेन प्रसृताः 'तत्र' यत्रासौ मुनिस्तिष्ठति 'बहवः' प्रभूताः 'कुमारा' द्वितीयवयोवर्तिनश्छात्रादय इति गम्यते, ते हि क्रीडनकपरा इत्यहो कीडनकमागतमिति रभसतो 'दण्डैः' वंशयष्टयादिभित्रै:-जलजवंशात्मकः 'कशैः' वध्र विकारः, चः समुच्चये, एवेति पूरणे, 'समागताः' सम्प्राप्ता मिलिता वा तमृषि-मुनि 'ताडयन्ति' प्रन्ति, सर्वत्र 18 वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् इति सूत्रार्थः ।। असिंचावसरे * * दीप अनुक्रम [३७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 726~ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) उत्तराध्य वृवृत्तिः ॥३६॥ प्रत सूत्रांक ||२०|| SEKANA रण्णो तहिं कोसलियस्स धूया, भत्ति नामेण अणिदियंगी। हरिकेशीतं पासिया संजय हम्ममाणं, कुद्धे कुमारे परिनिश्ववेद ॥२०॥ यमध्यय'राज्ञों नृपतेस्तत्र-यज्ञवाटे कोशलायां भवः कोशलिकस्तस्य 'धूय'त्ति दुहिता भद्रेति 'नाम्ना अभिधानेन । 'अनिन्दिताङ्गी' कल्याणशरीरा 'त' हरिकेशवलं 'पासिय'त्ति दृष्ट्वा 'समय'त्ति संयतं तस्यामप्यवस्थायां हिंसादेः नम्. १२ सम्यगुपरतं 'हन्यमानं दण्डादिमिस्ताब्यमानं 'कुद्धान्' कोपवतः 'कुमारान्' उक्तरूपान् 'परिनिर्वापयति' कोपा-४ निविध्यापनात् समन्तात् शीतीकरोति उपशमयतीतियावदिति सूत्रार्थः ॥ सा च तान् परिनिर्वापयन्ती तस्य है। माहात्म्यमतिनिःस्पृहतां चाह देवाभिओगेण निओइएणं, दिन्ना मु रण्णा मणसा न झाया। नरिंददेविंदऽभिवदिएणं, जेणामि वंता इसिणा स एसो॥२१॥ एसो हु सो उग्गतको महप्पा, जिइंदिओ संजओं बंभयारी। जो मे सया निच्छई दिजमाणी, पिउणा सयं कोसलिएण रपणा ॥ २२ ॥ महाजसो एस महाणुभागो, घोरपओ घोरपरकमो य। मा एयं हीलह अहीलणिजं, मा सब्वे तेएण भे निदहिजा ॥२३॥ दीप अनुक्रम [३७९] ॥३६४॥ AIMEducatan intamational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~727~ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||२१-२३|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२१-२३|| IF देवस्य-अमरस्याभियोगो-बलात्कारो देवाभियोगस्तेन 'नियोजितेन' व्यापारितेन न त्वप्रियेतिकृत्वा 'दिन्ना है मुत्ति दत्ताऽस्मि, अहं यस्मै इति गम्यते, दत्ता च केन -राज्ञा-प्रक्रमात्कौशलिकेन, तथापि 'मणस'त्ति अपेर्गम्य मानत्वान्मनसाऽपि-चित्तेनापि 'न ध्याता' न चिन्तिता नाभिलषितेतियावत् , प्रक्रमादेतेन मुनिना, कीदृशेन ?नरेन्द्राश्च-नृपतयो देवेन्द्राच-शक्रादयो नरेन्द्रदेवेन्द्रास्तैरभि-आभिमुख्येन वन्दितः-स्तुतो नरेन्द्रदेवेन्द्राभिवन्दितस्तेन, अनभिध्याताऽपि नृपोपरोधतः स्वीकृता खादत आह-येनास्म्यहं 'वान्ता' त्यक्ता 'ऋषिणा' मुनिना, स एष युष्माभिर्यः कदर्थयितुमारब्धः, ततो न कदर्थयितुमुचित इति भावः, पुनरिममेवाथै समर्थयितुमाह-एसो हु सो'त्ति, एष एव स न मनागप्यत्र संशयः, उग्रं-उत्कटं दारुणं वा कर्मशत्रून् प्रति तपः-अनशनाद्यस्येति उग्रतपाः, दू अत एव महान्-प्रशस्यो विशिष्टवीर्योल्लासत आत्मा अस्येति महात्मा, जितेन्द्रियः संयतो (०९०००) ब्रह्म चारी च प्राग्वत्, स इति क ? इत्याह-यो 'मिति मां 'तदा' तस्मिन् विवक्षितसमये 'नेच्छति' नाभिलपति दीयमाना' निसृज्यमानां, केन ?-'पित्रा' जनकेन 'स्वयं आत्मना, न तु प्रधानप्रेषणादिना, तेनापि कीदृशा ?कौशलिकेन राजा, न वितरजनसाधारणेन, तदनेन विभूतावपि निःस्पृहत्वमुक्त, पुनस्तन्माहात्म्यमाह-'महा-४ यसा' अपरिमितकीर्तिः 'एप' प्रत्यक्षो मुनिमहानुभाग:-अतिशयाचिन्त्यशक्तिः, पाठान्तरतो महानुभावो घा, तत्र चानुभावा-शापानुग्रहसामर्थ्य, 'घोरव्रतो' धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः 'घोरपराक्रमश्च' कषायादिजयं प्रति रौ दीप अनुक्रम [३८०-३८२] REGACHAR For PaHATRAPiwanipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 728~ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||२१-२३|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) हरिकेशी प्रत वृहद्वृत्तिः यमध्यय सूत्रांक नम्.१२ ||२१-२३|| उत्तराध्य. द्रसामध्यों, यतोऽयमीक् ततः किमित्याह-मा' इति निषेधे 'एनं' यति 'हीलयत' अवधूतं पश्यत 'अहील- नीयम्' अवज्ञातुमनुचितं, किमित्यत आह-मा सर्वान-समस्तांस्तेजसा-तपोमाहात्म्येन 'भे' भवतो निर्धाक्षीद् भस्मसात्कार्षीद् , अयं हि हीलितो यदि कदाचिद्रुप्येत्तदा सच भस्मसादेव कुर्यादिति भाव इति सूत्रत्रयार्थः ॥ अत्रा॥३६५॥ सन्तरे मा भूदेतस्या वचनं मृषेति यद्यक्षः कृतवांस्तदाह एयाइं तीसे वयणाई सुचा, पत्तीइ भद्दाइ सुभासियाई। इसिस्स वेयावडियट्टयाए, जक्खा कुमारे विणिवारयति ॥ २४ ॥ ते घोररूबा ठिअ अंतलिक्खे, असुरा तहिं तं जण तालयंति। ते भिन्नदेहे रुहिरं वमंते, पासित्तु भद्दा इणमाहु भुजो ॥ २५ ॥ 'एतानि' अनन्तरोक्तानि 'तस्याः' अनन्तरोक्तायाः 'वचनानि' भाषितानि 'श्रुत्वा' निशम्य 'पल्याः' यज्ञवाटकादधिपतेः सोमदेवपुरोहितस्य, तस्यैव वा मुनेरिति गम्यते, 'भद्राया' भद्राभिधानायाः 'सुभाषितानि' सूक्तानि वच नानीति योज्यते, ऋषेः-तस्यैव तपखिनः 'चेयावडियठ्ठयाए'त्ति सूत्रत्वाद्वैयावृत्त्यार्थमेतत् प्रत्यनीकनिवारणलक्षणे प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमर्थ यक्षाः, यक्षपरिवारस्य बहुत्वात् बहुवचनं, कुमारान् प्रक्रमात्तानेवोपहन्तॄन् 'विनिपातयन्ति' विविधं नितरां पातयन्ति-भूमौ विलोलयन्ति, पठ्यते च-'विणिवारयतित्ति विशेषेणोपहति | दीप अनुक्रम [३८०-३८२] KBESCCE Montact मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 729~ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||२४-२५|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) 5**** प्रत सूत्रांक ||२४-२५|| *** कुर्वतो निराकुर्वन्ति, तथा 'ते' इति यक्षाः 'घोररूपा' रौद्राकारधारिणः 'ठिय'त्ति स्थिताः 'अन्तरिक्षे' आकाशे |'असुरा' आसुरभावान्वितत्वात् त एव यक्षाः 'तस्मिन्' यज्ञवाटे 'तम्' उपसर्गकारिणं 'जन' छात्रलोकं 'ताडयन्ति' नन्ति, ततस्तान कुमारान् भिन्ना-विदारिताः प्रक्रमाद्यक्षप्रहारैर्देहाः-शरीराणि येषां ते भिन्नदेहास्तान रुधिरं-शोणितं वमतः-उद्विरतः 'पासित्त'त्ति दृष्ट्वा 'भद्रा' सैव कौशलिकराजदुहिता 'इदं वक्ष्यमाणं 'आहुति वचनव्यत्ययेनाह ब्रूते 'भूयः' पुनरिति सूत्रद्वयार्थः ॥ किं तदित्याहलागिरि नहिं खणह, अयं दंतेहिं खायह । जायतेयं पायेहिं हणह जे भिक्खु अवमन्नह ॥२६॥ आसीविसोउगतवो महेसी,घोरवओ घोरपरकमो याअगणिं व पक्खंद पयंगसेणा,जे भिक्खु भत्तकाले बहेह सीसेण एयं सरणं उबेह, समागया सव्वजणेण तुम्हे। जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा, लोगपि एसो कुविओ डहिज्जा ॥२८॥ 'गिरि पर्वत 'नखै' कररुहैः 'खनथ' विदारयथ, इह च मुख्यखननक्रियाद्यसम्भवादिववतिमन्तरेणाप्युपमार्थो गम्यते, ततश्च खनथेव खनथ, 'अयो' लोहं 'दन्तैः' दशनैः खादथेव खादथ, जाततेजसम्-अमिं पादैः-चरणैर्हथेवहथ, ताडयथेत्यर्थः, ये वयं किं कुर्मः इत्याह-ये यूयं भिक्षु प्रक्रमादेनं 'अवमन्नह'त्ति अवमन्यध्वे-अवधीरयथ, अन-15 र्थिफलत्वात् भिवपमानखेति भावः, कथमिदमित्याह-आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विषमस्येत्यासीविषः-आसीविषलब्धि *** दीप अनुक्रम [३८३-३८४] ******* For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~730~ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥२६ -२८|| दीप अनुक्रम [ ३८५ -३८७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३६६ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || २६-२८|| अध्ययनं [१२], Jan Education intimatinal मानू, शापानुग्रहसमर्थ इत्यर्थः यद्वा आसीविष इव आसीविषः, यथा हि तमत्यन्तमवजानानो मृत्युमेषानोति, एवमेनमपि मुनिमवमन्यमानानामवश्यं भाषि मरणमित्याशयः, कुतः पुनरयमेवंविधो ?, यतः- उग्रतपाः प्राग्वत्, 'महेसि 'त्ति महान् - बृहन् शेषखर्गाद्यपेक्षया मोक्षस्तमिच्छति--अभिलषतीति महदेपी महर्षिर्वा, घोरनतो घोरपराक्रमश्च पूर्ववत्, यतश्चैवमतः 'अगणिं व'त्ति अग्निं ज्वलनं, वाशब्द हवार्थो भिन्नक्रमश्च ततः 'पक्खंद'त्ति प्रस्कन्दथेव - आक्रामधेय, केव ? - 'पतंगसेणत्ति उपमार्थस्य गम्यमानत्वात्पतङ्गानां शलभानां सेनेव सेना - महती सन्ततिः पतङ्गसेना तद्वत्, यथा हि असौ तत्र निपतन्त्याशु घातमाप्नोत्येयं भवन्तोऽपीति भावः, ये यूयमनुकम्पितं भिक्षु भिक्षुकं 'भक्तकाले' भोजनसमये, तत्र दीनादेरवश्यं देयमिति शिष्टसमयो यूयं तु न केवलं न यच्छत किन्तु तत्रापि 'वध'ति विध्यथ-ताडयथ, अयमाशयो - यतोऽयमासीविपादिविशेषणान्वितो मुनिरतो गिरिनखखननादिप्रायमेव यदेनं भक्तकालेऽपि भक्तार्थिनमित्थं विध्यथ । अथ स्वकृत्योपदेशमाह-'शीर्षेण' शिरसा 'एनं' मुनिं 'शरणार्थी' रक्षणार्थमाश्रयमुपेत- अभ्युपगच्छत, किमुक्तं भवति ? - शिरः प्रणामपूर्वकमयमेवास्माकं शरणमिति प्रपद्यध्वं 'समागताः' सम्मिलिताः 'सर्वजनेन' समस्तलोकेन, सहार्थे तृतीया, 'यूयं' भवन्तो, यदीच्छत-अभिलषत 'जीवि तं' प्राणधारणात्मकं धनं वा द्रव्यं, न तस्मिन् कुपिते जीवितव्यादिरक्षाक्षममन्यच्चरणमस्ति किमित्येवमत आह'लोकमपि भुवनमध्येष कुपितः क्रुद्धो 'दहेद' भस्मसात्कुर्यात्, तथा च वाचकः-- "कल्पान्तोग्रान लवत्प्रज्वलनं For PPU निर्युक्तिः [३२७...] ~ 731~ हरिकेशी यमध्यय नम्. १२ ॥ ३६६॥ janibrary मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२६ -२८|| दीप अनुक्रम [३८५ -३८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || २६-२८|| अध्ययनं [१२], तेजसैकतस्तेषाम् ॥ १ ॥” तथा लौकिका अप्याहुः- “न तत् दूरं यदथेषु, यवानी यच मारुते । विषे च रुधिरप्रासे, साधौ च कृतनिश्रये ॥ १ ॥” इति सूत्रत्रयार्थः ॥ सम्प्रति तत्पतिस्तान् यादृशान् ददर्श दृष्ट्वा च यदचेष्टत तदाहअवहेडिपिसि उत्तमंगे, पसारियाबाहु अकम्मचिट्टे । Jgn Education intammational निर्युक्ति: [३२७...] निभेरियच्छे रुहिरं वमते, उमुहे निग्गयजीहनित्ते ॥ २९ ॥ ते पासिया खंडिय कट्टभूए, विमणो विसन्नो अह माहणो सो । इसिं पसाएइ सभारियाओ, हीलं च निंदं च खमाहू भंते ! ॥ ३० ॥ 'अवे' त्यो 'हेडिय'ति हेठितानि बाधितानि, किमुक्तं भवति ? - अधोनामितानि, पठन्ति च 'आवडिए' त्ति तत्र सूत्रत्वादवकोटितानि - अघस्तादामोटितानि 'पट्टि त्ति पृष्ठं यावत् तदभिमुखं वा सन्ति- शोभनान्युत्तमाङ्गानि येषां ते अवहेठितपृष्ठसदुत्तमाङ्गाः अबकोटित पृष्ठसदुत्तमाङ्गी वा प्राग्यन्मध्यपदलोपी समासस्तान्, 'पसारियाबहुअकम्मचिट्ठ' त्ति प्रसारिता- विरलीकृता बाहवो भुजा यैर्येषां वा ते तथा ततस्ते च ते अकर्मचेष्टाश्च - अविद्यमानकर्महेतुव्यापारतया प्रसारितवाह कर्म्मचेष्टास्तान्, यद्वा क्रियन्त इति कर्माणि अग्नौ समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विपया चेष्टा कर्मचेष्टेह गृह्यते, 'निभेरियत्ति प्रसारितान्यक्षीणि-लोचनानि येषां ते तथोक्तास्तान्, रुधिरं वमद् -- उद्गिरत् 'उहंमुह' ति ऊर्ध्वमुखान्-उन्मुखीभूतवान्, अत एव निर्गतानि निःसृतानि जिह्वाश्च प्रतीता नेत्राणि For PP Use Only ~732~ ancibran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||२९-३०|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ||२९ -३०|| उत्तराध्य. च-नयनानि जिह्वानेत्राणि येषां ते तथा तान्, 'तानित्युक्तरूपान् 'दृष्ट्वा' अवलोक्य 'खंडिय'त्ति आर्षत्वात्सुपो हरिके टलुकि खण्डिकान्-छात्रान् काष्ठभूतान्-अत्यन्तनिश्चेष्टतया काष्ठोपमा विगतमिव विगतं मनः-चित्तमस्येति विमनाः, यमध्यय विषण्णः-कथममी प्रवणीभविष्यन्तीति चिन्तया व्याकुलितः 'अथेति दर्शनानन्तरं 'ब्राह्मणो द्विजातिः 'स' इति । ॥३६७॥ सोमदेवनामा 'ऋषि' तमेव हरिकेशवलनामानं मुनि 'प्रसादयति' प्रसत्तिं ग्राहयति, सह भार्यया-पच्या तयेव भद्राभिधानया वर्तते इति सभार्याकः, कथमित्याह-हीलां च-अवज्ञा निन्दांच-दोषोद्घट्टनं 'खमाह'त्ति क्षमख सहस्व 'भंतेति' सूत्रद्वयार्थः॥ पुनः स प्रसादनामेवाह बालेहिं मूढेहिं अयाणएहि, जं हीलिया तस्स खमाह भंते!। महप्पसाया इसिणो हवंति, न हु मुणी कोचपरा हवंति ॥ ३१ ॥ | पालैः-शिशुभिर्मूढैः-कषायमोहनीयोदयाद्विचित्तता गतैः अत एव चाज्ञैः-हिताहितविवेकयिकलैः 'यदि'त्युपत्र-14 दर्शने 'हीलिताः' अवज्ञाताः 'तस्स'त्ति सूत्रत्वात् तत् 'खमाह'त्ति क्षमध्य भदन्त !, अनेनैतदाह-यतोऽमी शिशवो | मूढा अज्ञानाथ तत्किमेषामुपरि कोपेन ?, यतोऽनुकम्पनीया एवामी, उक्तं च केनचिद्-"आत्मद्रुहममयोद, मूढम-| |ज्झितसत्पथम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकार्चिष्मदिन्धनम् ॥१॥" किं च-महान् प्रसादः-चित्तप्रसत्तिरूपो येपां ते दीप अनुक्रम [३८८-३८९] For Sincitana मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 733~ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३१|| महाप्रसादा ऋषयः-साधयो भवन्ति, व्यतिरेकमाह-'न हुत्ति न पुनर्मुनयो-यतयः 'कोपपराः' क्रोधवशगा| भवन्ति, भिन्नवाक्यत्वाच मुनिग्रहणमदुष्टमेवेति सूत्रार्थः । मुनिराह पुदिव च इहि च अणागयं च, मणप्पओसो न में अस्थि कोई। जक्खा हु वेयावडियं करिति, तम्हा हु एए निहया कुमारा ॥ ३२ ॥ 'पुत्विं च'त्ति पूर्व च पुरा इदानीं च-अस्मिन् काले 'अणागयं चेति अनागते च भविष्यत्काले मनःप्रद्वेषः-चित्तानु-14 शयलक्षणो न 'में ममास्तीत्युपलक्षणत्वादासीद्भविष्यति च, 'कोऽपी'सल्पोऽपि, इह च भाविनि प्रमाणाभावेऽपि 'अनागतं प्रत्याचक्ष' इति वचनादनागतस्यापि तस्य निपिद्धत्वाच्छ्रतज्ञानवलतः कालत्रयपरिज्ञानसम्भवाचैवमभिधान, पठन्ति च 'पुष्विं च पच्छा व तहेव मज्झे' तत्र च पूर्व वा पश्चाद्वेति विहेठनकालापेक्षं तथैव मध्ये विहेठनकाल एव, न च कुमारावहेठनादिदर्शनात्प्रत्यक्षविरुद्धता शङ्कनीया, 'यक्षा' देवविशेषा 'हुरिति यस्माद्वैयावृत्त्यंप्रत्सनीकप्रतिघातरूपं 'कुर्वन्ति' विदधति, 'तम्हति तस्मात् हुरवधारणे ततस्त स्मादेव हेतोरेते-पुरोवर्तिनो नितरां हताः-ताडिता निहताः कुमाराः, न तु मम मनःप्रद्वेषोऽत्र हेतुरिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति तद्गुणाकृष्टचेतस उपाध्यायप्रमुखा इदमाहुः SCKOOR दीप अनुक्रम [३९०] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~734~ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) हरिकेशीयमध्यय. नम्. १२ प्रत सूत्रांक ||३३|| उत्तराध्य. अत्थं च धम्मं च विषाणमाणा, तुम्भे नवि कुप्पह भूइपन्ना । तुम्भं तु पाए सरणं उवेमो, समागया सव्वजणेण अम्हे ॥३३॥ बृहद्वृत्तिः अर्यत इत्यों-ज्ञेयत्वात्सर्वमेव वस्तु, इह तु प्रक्रमाच्छुभाशुभकर्मविभागो रागद्वेषविपाको वा परिगृह्यते, यद्वा ॥३६॥ अर्थः-अभिधेयः स चार्थाच्छाखाणामेव तं, चशब्दस्तद्गतानेकभेदसंसूचकः, धर्म:-सदाचारो दशविधो वा यतिध- जम्मस्तं च 'वियाणमाणे'त्ति विशेषेण विविधं या जानन्तः-आगच्छन्तो यूयं 'नापि नैव कुप्यथ-क्रोधं कुरुध्वं, विभूतिप्रज्ञा इति, भूतिमङ्गलं वृद्धी रक्षा चेति वृद्धाः, प्रज्ञायतेऽनया घस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा, ततश्च भूतिः-मङ्गलं सर्व मङ्गलोत्तमत्वेन वृद्धिर्वा वृद्धिविशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञा-बुद्धिरस्पेति भूतिप्रज्ञः, अतश्च 'तुम्भ तुति तुशब्दस्येवकारार्थत्वात् युष्माकमेव पादौ-चरणी शरणमुपेमः-उपगच्छामः समागताः-मिलिताः, केन सह ?-सर्वेपूजनेन, वयमिति सूत्रार्थः ॥ किंच__ अचेमु ते महाभागा, न ते किंचन नाचिमो। भुंजाहि सालिमं करं, नाणार्वजणसंजुयं ॥ ३४ ॥ 'अर्चयामः' पूजयामते-तव सम्बन्धि सर्वमपीति गम्यते, प्रविश पिण्डिमित्युक्ते यथा गृहमिति भक्षयेति च, महाभाग ! अतिशयाचिन्त्यशक्तियुक्तत्वेनेति, नैव ते तब किञ्चिदिति चरणरेवादिकमपि नार्चयामो-न पूजयामो, अपि तु सर्वमर्चयामः, अस्य च पूर्वणव गतार्थत्वे पुनरभिधानमन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सुखावगमो भवतीतिकृत्वा, दीप अनुक्रम [३९२] kekoADCCCCX AIMEducatan intimational For Free wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 735~ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||३४|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| अथवा अर्चयामस्ते इति सुव्यत्त्ययात्त्वाम् , अनेन खतस्तस्य पूज्यत्वमुक्त, उत्तरेण तु तत्खामित्वमपि पूज्यताहेतुरिति, तथा भुलेतो गृहीत्वेति गम्यते 'शालिमन्ति शालिमयं, कोऽर्थः-शालिनिष्पन्नं 'कूरम्' ओदनं नानाव्यजनैः-अनेकप्रकारर्दध्यादिभिः संयुतं-सम्मिश्रं नानाव्यञ्जनसंयुतं, न त्वेकमेवेति सूत्रार्थः ॥ अन्यच इमं च मे अस्थि पभूयमन्नं, तं भुंजसू अम्ह अणुग्गहहा। बादति पडिच्छइ भत्तपाणं, मासस्स ऊ पारणए महप्पा ॥ ३५॥ है 'इदं च प्रत्यक्षत एव परिदृश्यमानं 'मे'ममास्ति-विद्यते 'प्रभूतं'प्रचुरमन्नं-मण्डकखण्डखाद्यादि समस्तमपि भोजनं, यत्प्राक् पृथगोदनग्रहणं तत्तस्य सन्निप्रधानत्वख्यापनार्थ, तद्भवास्माकमनुग्रहार्थ-वयमनुगृहीता भवाम इति हेतोः, एवं च तेनोक्त मुनिराह-'बाढम्' एवं कुर्म इतीत्येवं त्रुवाण इति शेषः, 'प्रतीच्छति' द्रव्यादितः शुद्धमिति गृह्णाति, दूभक्तपानमुक्तरूपं, 'मासस्स उति मासादेव, यद्वा अन्त इत्यध्याहियते, ततश्च मासस्यैवान्ते यत्पार्यते-पर्यन्तः क्रियते * गृहीतनियमस्यानेनेति पारणं तदेव पारणकं, भोजनमित्युक्तं भवति, तस्मिन्-तनिमित्तं, 'निमित्तात्कर्मसंयोगे सप्तमीति' (पा०२-३-३६ वार्तिकम् ) सप्तमी, माहात्म्येति प्राग्वत् इति सूत्रार्थः । तदा च तत्र यदभूत्तदाह तहियं गंधोदयपुष्फवासं, दिव्या तहिं वसुहारा य बुट्टा। पहया दुंदुहीओ सुरेहिं, आगासे अहोदाणं च धुई ॥ ३६ ॥ FARISMARRIGAN दीप अनुक्रम [३९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 736~ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||३६|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| उत्तराध्य. 'तहिय'ति तस्मिन् मुनौ भक्तपानं प्रतीच्छति यज्ञवाटे वा गन्धः-आमोदस्तत्प्रधानमुदक-जलं गन्धोदकं तच्च हरिकेशीपुष्पाणि च-कुसुमानि तेषां वर्ष-वर्षणं गन्धोदकपुष्पवर्ष, सुरैरिति सम्बधात् कृतमिति गम्यते, दिव्या-श्रेष्ठा ४ यमध्ययहात्त यदिवा दिवि-गगने भया दिव्या, 'तहिति तस्मिन्नेव नान्यत्र, अनेन कथमियतामेकत्र कल्याणानां मीलक इत्य-15 ॥३६॥ न्यत्रैवान्यतरत्कल्याणान्तरं भविष्यतीत्याशङ्का निराकृता, वसु-द्रव्यं तस्य धारा-सततपातजनिता सन्ततिव- नम्. [सुधारा सा च 'वृष्टे'ति पातिता, सुरेरित्यत्रापि सम्बध्यते, तथा प्रकर्षेण हताः-ताडिताः प्रहताः, के तेहै। 'दुन्दुभयो' देवानकाः, उपलक्षणत्वाच्छेषातोद्यानि च, कैः ?-'सुरैः' देवैः, तथा तैरेव 'आकाशे' नभसि 'अहो' इति || विस्मये, विस्मयनीयमिदं दानं, कोऽन्यः किलैवं शक्नोति दातुं ?, एवं दत्तं सुदत्तमिति च 'घुष्टं संशब्दितमिति सूत्रार्थः । तेऽपि ब्राह्मणा विस्मितमनस इदमाहुः सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई। सोवागपुत्तं हरिएससाहुं, जस्सेरिसा इहि महाणुभागा ॥ ३७॥ 'साक्षात्' प्रत्यक्षं 'खु'रिति निश्चित अवधारणे या ततः साक्षादेव 'दृश्यते' अवलोक्यते, कोऽसौ ?-तपो-लो-1॥३६॥ कप्रसिद्ध्या व्रतमुपवासादिवो तस्य विशेषो-विशिष्टत्वं माहात्म्यमितियावत्तपोविशेषो, 'न' नैव दृश्यते 'जाति-18 विशेषो' जातिमाहात्म्यलक्षणः 'कोऽपी'ति खल्पोऽपि, किमित्येवमत आह-यतः खपाकपुत्र:-चाण्डालसुतो हरि दीप अनुक्रम [३९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 737~ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||३४|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) केशश्चासौ मातङ्गत्वेन प्रसिद्धत्वात् साधुश्च यतित्वाद्धरिकेशसाधुः, पठ्यते च-'सोवागपुत्तं हरिएससाहुन्ति, अत्र च । ४ पश्यतेति शेषः, कदाचिदन्य एव कश्चिदत आह-यस्वेदशी-दृश्यमानरूपा ऋद्धिः-देवसन्निधानात्मिका सम्पत् महानुभागा-सातिशयमाहात्म्या, जातिविशेषे हि सति सर्वोत्तमत्वाद्राझणजातेस्तद्वतामस्माकमेव देवा वैयावृत्त्यं कुर्यरिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ साम्प्रतं स एव मुनिस्तानुपशान्तमिथ्यात्वमोहनीयोदयानिव पश्यन्निदमाह किं माहणा! जोइसमारभंता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा। जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुदिह कुसला वयंति ॥ ३८॥ 3 किमिति क्षेपे, ततो न युक्तमिदं, यत् 'माहना' ब्राह्मणा ! 'ज्योतिः' अग्निं 'समारभमाणाः' प्रस्तावाद्यागकर-| णतः प्रवर्त्तमानाः, यागं कुर्वन्त इत्यर्थः, 'उदकेन' जलेन 'सोहिंति शुद्धिं निर्मलता 'पहिय'त्ति बायां, कोऽर्थों - वामहेतुका, यागं हि समारभमाणजेलेन या शुद्धिार्यते तत्र यागलाने एव तत्त्वतो हेतुत्वेनेष्टे, ते च भवदभिमते बाये एवेति 'विमार्गयथ' विशेषेणान्वेषयथ, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-यद्यूयं मार्गयथ बायां-बाबहे तुकां विशुद्धिं, न तत् सुदृष्ट-सुष्टु प्रेक्षितं 'कुशलाः' तत्त्वविचारं प्रति निपुणा 'वदन्ति' प्रतिपादयन्तीति सूत्रार्थः ॥ द यथा चैतत् सुदृष्टं न भवति तथा खत एवाह AAAACK प्रत सूत्रांक ||३७|| दीप अनुक्रम [३९६] SAIREarnatamd ana For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 738~ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||३९|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३९|| उत्तराध्य. कुसं च जूवं तणकहमग्गि, सायं च पायं उदयं फुसंता। हरिकेशीपाणाई भूयाई विहेडयंता, भूजोऽवि मंदा! पकरेह पावं ।। ३९॥ बृहद्वृत्तिः IN 'कुशं च दर्भ च 'यूपं प्रतीतमेव तृणंच-वीरणादि काष्ठं-समिदादि तृणकाष्ठम् अग्नि-प्रतीतं, सर्वत्र परिगृह्णन्त इति यमध्यय॥३७॥ शेषः, 'सायं' सन्ध्यायां, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'पाय'ति प्रातश्च प्रभाते उदकं-जलं 'स्पृशन्त': आचमनादिषु नम्. १२ परामृशन्तः 'पाणाई ति प्राणयोगात् प्राणिनो यद्वा प्रकर्षणानन्तीति–वसन्तीति प्राणा:-द्वीन्द्रियादयः, सम्भवन्ति हि जले पूतरकादिरूपास्त इति, 'भूयाई' इति भूतान्-तरून् 'भूताश्च तरवः स्मृता' इति वचनात्, पृथिव्या| केन्द्रियोपलक्षणं चैतत् 'बिहेडयंति'त्ति विहेठयन्तो-विशेषेण विविध वा बाधमानाः विनाशयन्त इत्यर्थः, किमित्याह-'भूयोऽपि' पुनरपि, न केवलं पुरा किन्तु विशुद्धिकालेऽपि जलानलादिजीवोपमहतो 'मन्दा' जडाः 'प्रकुरुथ' प्रकर्षणोपचिनुथ यूयं, किं तत् ?-पापम्-अशुभकर्म, अयमाशयः-कुशला हि कर्ममलपिलयात्मिका तात्त्विकी मेष शुद्धिं मन्यन्ते, भवदभिमतयागनाने च यूपादिपरिग्रहजलस्पर्शाविनाभावित्वेन भूतोपमहेतुतया प्रत्युत कर्ममलोपचयनिवन्धने एवेति नातः तत्सम्भव इति कथं तद्धेतुकशुद्धिमार्गणं सुरष्टं ते बदेयुः, तथा च वाचकः-18३७०॥ "शीचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा, भावशुद्धयात्मकं शुभम् । जलादिशौचं यत्रेष्ट, मूढविस्थापकं हि तदि ॥१॥" ति सूत्राथः ।। इत्थं तद्वचनतः समुत्पन्नशङ्कास्ते यागं प्रति तावदेवं पप्रच्छु: दीप अनुक्रम [३९८] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 739~ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||४०|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४०|| कहं चरे भिक्खु ! वयं जयामो?, पावाई कम्माई पणुल्लयामो। अक्खाहि णे संजय जक्खपूइआ, कहं सुजटुं कुसला वयंति॥४०॥ 'कथं' केन प्रकारेण 'चरित्ति 'विभाषा कथमि लिङ् च इति(पा०३-३-१४३)लिङि वचनव्यत्यये वचनव्यत्ययाचरेमहि-यागार्थ प्रव”महि, हे भिक्षो!-मुने ! क्यमित्यात्मनिर्देशः, तथा यजामों' यागं कुर्मः, कथमिति योगः १, पापानि -अशुभानि कर्माणि पुरोपचिताविद्यारूपाणि 'पणुल्लयामोत्ति प्रणुदामःप्रेरयामो, येनेति गम्यते, 'आख्याहि' कथय 'नः अस्माकं 'संयतः' पापस्थानेभ्यः सम्यगुपरतः 'यक्षपूजित' यक्षार्चित!, किमुक्तं भवति-यो खस्मद्विदितः कर्मप्रणोदनोपायत्वेन यागः स युष्माभिर्दूषित इति भवन्त एवापरं यागमुपदिशन्तु, कदाचिदविशिष्टमेव यजनमुपट्रादिशेदित्याशङ्कयाह-'क' केन प्रकारेण 'खिष्टं' शोभनं यजनं 'कुशला' उक्तरूपा 'वदन्ति' प्रतिपादयन्ति, 'न तं 'सुदिदं कुसला वयंति'त्ति कुशलमुखेनैव मुनिना दूषितमिति तैरपि तथैव पृष्टमिति सूत्रार्थः ॥ मुनिराह छज्जीवकाए असमारभंता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इत्थिउ माण मायं, एयं परिन्नाय चरंति देता ॥ ४१ ॥ पड् जीवकायान्-पृथिव्यादीन् 'असमारभमाणा' अनुपमईयन्तः 'मोसंति मृषा अलीकभाषणं 'अदत्तं चेत्यदत्तादानं चानासेवमानाः-अनाचरन्तः परिग्रह-मूछी स्त्रियो-योषितो 'माण'त्ति मानम्-अहङ्कारं मायां-परव दीप अनुक्रम [३९९] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~740~ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-1 /गाथा ||४१|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) उत्तराध्य. बृद्धृत्तिः ॥३७१॥ प्रत सूत्रांक ||४१|| चनात्मिका तत्सहचारित्वात्कोपलोभी च, 'एतद् अनन्तरोक्तं परिग्रहादि 'परिज्ञाय' ज्ञपरिझया सर्वप्रकारं ज्ञात्वा हरिकेशीप्रत्याख्यानपरिक्षया च प्रत्याख्याय 'चरेज दन्त'त्ति वचनव्यत्ययाचरेयुर्यागे प्रवर्तेरन् , भवन्त इति गम्यते, पठन्ति । यमध्यय|च-'चरन्ति दंत'त्ति अत्र च यत एवं दान्ताश्चरन्त्यतो भवद्भिरप्येवं चरितव्यमिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ प्रथमप्रश्न-1 प्रतिवचनमुक्तं, शेषप्रश्नप्रतिवचनमाह नम्. १२ सुसंचुडा पंचहि संवरेहि, इह जीवियं अणवकंखमाणो। वोसहकाओ सुइचत्तदेहो, महाजयं जयई जन्मसिद्ध ॥ ४२ ॥ सुधु संवृतः-स्थगितसमस्ताश्रवद्वारः सुसंवृतः, कैः ?-पञ्चभिः-पञ्चसङ्खवैः संवरैः-प्राणातिपातविरत्यादिवतैः | 'इहे' त्यस्मिन् मनुष्यजन्मनि, उपलक्षणत्वात्परत्र च 'जीवितं' प्रस्तावादसंयमजीवितम् 'अनवकालन्' अनिच्छन्, यद्वा अपेर्गम्यमानत्वाजीवितमपि-आयुरप्यास्तामन्यद्धनादि, अनयकाबन्, यत्र हि व्रतवाधा तत्रासी जीवितमपि न गणयति, अत एव व्युत्सृष्टो-विविधैरुपायैर्विशेषेण वा परीषहोपसर्गसहिष्णुतालक्षणेनोत्सृष्टः-त्यक्तः कायः-शरीरमनेनेति व्युत्सृष्टकायः, शुचिः---अकलुपततः स चासौ त्यक्तदेहश्च-अत्यन्तनिष्प्रतिकर्मतया शुचित्यक्तदेहो महान् | ॥३७१॥ जयः-कर्मशत्रुपराभवनलक्षणो यस्मिन् यज्ञश्रेष्ठेऽसौ महाजयस्तं, क्रियाविशेषणं या महाजयं यथा भवत्येवं यजते 21 यतिरिति गम्यते, ततो भवन्तोऽप्येवमेव यजन्तामिति भावः, तिवचनव्यत्ययेन वा 'जयइत्ति यजता, कमि-17 CCCCCC दीप अनुक्रम [४०० AAREauratan international wlancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~741~ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४२|| त्याह-'जग्णसेटुंति प्राकृतत्वाच्छ्रेष्ठयज्ञं, श्रेष्ठवचनेन चैतद्यजन एव खिष्टं कुशला वदन्ति, एप एव च कर्मप्रणोदनोपाय इत्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ यदीडग्गुणः श्रेष्ठयज्ञं यजते अतस्त्वमपीडग्गुण एव, तथा च तं यजमानस्य कान्युपकरणानि को या यजनविधिरित्यभिप्रायेण त एवमाहुः के ते जोई के व ते जोईठाणा?, का ते सूया किं च ते कारिसंग। एहा य ते कयरा संति भिक्खू !, कयरेण होमेण हुणासि जोई ?॥४३॥ है कि, अयमर्थः-किरूपं 'ते' तब 'ज्योति'रिति अग्निः 'के व ते जोइठाणे'त्ति किंवा ते-तव ज्योतिःस्थानं यत्र ज्योतिनिधीयते, का श्रुवो ?-घृतादिप्रक्षेपिका दयः, 'किं च'त्ति किंवा करीषः-प्रतीतः स एवाङ्गम्-अझ्युद्दीपनकारणं करीषाङ्गं येनासौ सन्धुक्ष्यते, एधाश्च-समिधो यकाभिरग्निःप्रज्वाल्यते, 'ते' तव कतरा इति-काः ? 'संति' त्ति चस्य गम्यमानत्वाच्छान्तिश्च-दुरितोपशमनहेतुरध्ययनपद्धतिः कतरेति प्रक्रमो, 'भिक्षु' इति भिक्षो ! कतरेण है 'होमेन' हवनविधिना, समेन धावतीत्यादिवत् तृतीया, जुहोषि-आहुतिभिः प्रीणयसि, किं-ज्योति:-अमिम् , षड्जीवनिकायसमारम्भनिषेधेन बस्सदभिमतो होमः तदुपकरणानि च पूर्व निषिद्धानीति कथं भवतो यजनसम्भवः? इति सूत्रार्थः ॥ मुनिराह दीप अनुक्रम [४०१] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~742~ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||४४|| नियुक्ति : [३२७...] (४३) हरिकेशी यमध्यय नम्.१२ प्रत सूत्रांक ||४४|| उत्तराध्य. तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंग । कम्म पहा संजमजोग संती, होमं हुणामी इसिणं पसत्यं ॥ ४४ ॥ बृहद्वृत्तिः 'तपो' बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं 'ज्योतिः' अग्निः, यथा हि ज्योतिरिन्धनानि भस्मीकरोत्येवं तपोऽपि भावेन्धनानि॥३७२॥ कर्माणि, जीवो-जन्तुज्योतिःस्थानं, तपोज्योतिषस्तदाश्रयत्वात् , युज्यन्ते-सम्बन्ध्यन्ते खकर्मणेति योगाः-मनो वाकायाः श्रुवः, ते हि शुभव्यापाराः स्नेहस्थानीयाः, तपोज्योतिपो ज्वलनहेतुभूताः तत्र संस्थाप्यन्त इति, शरीरं करीषा, तेनैव हि तपोज्योतिरुद्दीप्यते, तद्भावभावित्वात्तख, 'कर्म' उक्तरूपं एधास्तस्यैव तपसा भस्मीभावनयनात् , 'संजमजोग'त्ति संयमयोगाः-संयमव्यापाराः शान्तिः सर्वप्राण्युपद्रयापहारित्वात्तेषां, तथा 'होम'न्ति होमेन जुहोति तपोज्योतिरिति गम्यते, ऋषीणां-मुनीनां सम्बन्धिना 'पसत्थंति प्रशस्तेन जीवोपघातरहितत्वेन विवेकिभिः श्लाषितेन सम्यक्चारित्रेणेति भावः, अनेन च कतरेण होमेन जुहोषि ज्योतिरिति प्रत्युक्तमिति सूत्रार्थः ॥ तदेतेन 'किं माहना जोइसमारहंता' इत्यादिना लोकप्रसिद्धयज्ञानां स्नानस्य च निषिद्धत्वायज्ञखरूपं तैः पृष्टं कथितं च मुनिना ॥ इदानी खानस्वरूपं पिच्छिषय इदमाहुः के ते हरए के य ते संतितित्थे, कहंसि पहाओ व रयं जहासि। आयक्खणे संजय जक्खपूहया, इच्छामु नाउँ भवओ सगासे ॥४५॥ SACAREERSELECC CCCE%%%% दीप अनुक्रम [४०२] X॥३७२॥ % AIMEducatan intamational For Fun wlancibanam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~743~ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४५|| करते-तव 'इदः' नदः?, 'के च ते संतितित्थे'त्ति किं च ते-तव शान्त्यै-पापोपशमननिमित्तं तीर्थ-पुण्यक्षेत्र शान्तितीर्थम् , अथवा 'कानि च' किंरूपाणि 'ते' तव 'सन्ति' विद्यन्ते 'तीर्थानि' संसारोदधितरणोपायभूतानि, लोकप्रसिद्धतीर्थानि हि त्वया निषिद्धानीति, तथा च 'कर्हिसि पहाओ बे' ति वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात्कस्मिन् वा खातःशुचिर्भूतो रज इव रजः-कर्म जहासि-त्यजसि त्वं ?, गम्भीराभिप्रायो हि भवांस्तत् किमस्माकमिव भवतोऽपि इदतीर्थ एव शुद्धिस्थानमन्यद्वेति न विन इति भावः, 'आचक्ष्व' व्यक्तं वद संयत ! यक्षपूजित ! 'इच्छामः' अभिलपामो 'ज्ञातुम्' अवगन्तुं 'भवतः' तब 'सकाशे' समीपे इति सूत्रार्थः ॥ मुनिराह धम्मे हरए बंभे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसनलेसे । जहिं सि पहाओ विमलो विसुद्धो, सुसीभूओ पजहामि दोसं ॥ ४६॥ एयं सिणाणं कुसलेण दिडं, महासिणार्ण इसिणं पसत्यं ।। जहिं सि पहाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तम ठाणं पत्ति ॥४७॥ तिमि इति हरिकेशी वारसमं अज्झयणं सम्मत्तं ।।१२।। 'धर्मः' अहिंसाद्यात्मको हृदः कर्मरजोऽपहन्तृत्वाद्रलेति-ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ, तदासेवनेन हि सकलमलमूलं रागद्वेषावुन्मूलितावेव भवतः, तदुन्मूलनाच न कदाचिन्मलस्य सम्भवोऽस्ति, सत्याधुपलक्षणं चैतत् , तथा चाह दीप अनुक्रम %95 [४०३] AIREDuratan intamational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~744~ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१२], मूलं [-]/ गाथा ||४६-४७|| नियुक्ति: [३२७...] (४३) प्रत ELESED सूत्रांक ||४६-४७|| उत्तराध्य. "ब्रमचर्येण सत्येन, तपसा संयमेन च । मातङ्गर्षिर्गतः शुद्धि, न शुद्धिस्तीर्थयात्रया ॥१॥" अथवा 'ब्रह्मेति ब्रह्मचर्य- हरिकेशी. बृहद्भुत्तिः दावन्तो मतुब्लोपादभेदोपचाराद्वा साधय उच्यन्ते, सुब्ब्यत्ययाच्चैकवचनं, 'संति' विद्यन्ते तीर्थानि ममेति गम्यते, यमध्यय यम उक्तं हि-"साधूनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ॥१॥" किं । च-भवत्प्रतीततीर्थानि प्राण्युपम हेतुतया प्रत्युत मलोपचयनिमित्तानीति कुतस्तेषां शुद्धिहेतुता, तथा चोक्तम्- नम्. १२ "कुर्याद्वर्षसहस्रं तु, अहन्यहनि मजनम् । सागरेणापि कृत्लेन, वधको नैव शुद्धयति ॥ १॥" इदशान्तितीर्थे एव विशिनष्टि-'अनापिले' मिथ्यात्वगुप्तिविराधनादिभिरकलुषे अनाविलवादेवात्मनो-जीवस्य प्रसन्ना-मनागप्यकलुषा पीताद्यन्यतरा लेश्या यस्मिंस्तदासप्रसन्नलेश्य तस्मिन् , अथवा आप्ता-प्राणिनामिह परत्र च हिता प्राप्ता वा तैरेव प्रसन्नलेश्या-उक्तरूपा यस्मिंस्तदाप्तप्रसन्नलेश्यं तस्मिन्नेवंविधे धर्महदे, ब्रह्माख्यशान्तितीर्थे च, यदा ब्रह्मशब्देन ब्रह्मचर्यवन्त उच्यन्ते तत्पक्षे वचन विपरिणामेन विशेषणद्वयं व्याख्येयं, 'जहिंसित्ति यत्रास्मि सात इव खातः-अत्यन्तशुद्धिभवनाद्विमलो-भावमलरहितोऽत एवाति(य)विशुद्धो-गतकलङ्कः, 'मुसीतीभूओ'त्ति सुशीतीभूतो रागाद्युत्पत्ति ॥३७३॥ |विरहतः सुष्टु शैयं प्राप्तः, पठ्यते च-'सुसीलभूओ'त्ति सुष्टु-शोभनं शीलं-समाधानं चारित्रं वा भूता-प्राप्तः सुशीलदभूतः 'प्रजहामि' प्रकर्षेण सजामि दूषयति-विशुद्धमप्यात्मानं विकृति नयतीति दोपः-कर्म तं, अनेनेतदाह ममापि इदतीर्थ एव शुद्धिस्थानं परमेयं विधे एवेति, निगमयितुमाह-एतदित्यनन्तरमुक्तं 'खान' रजोहीनं 'कुशलैः' दीप अनुक्रम - [४०४ - -४०५] - JAIMEducatan intamations For PATREPvanumony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~~745~ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४६ -४७|| दीप अनुक्रम [ ४०४ -४०५] Jain Educato “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४६-४७|| अध्ययनं [१२], | प्रागुक्तरूपैर्दृष्टं - प्रेक्षितमिदमेव च महात्रानं, न तु युष्मत्प्रतीतम्, अस्यैव सकलमलापहारित्वाद्, अत एव चेदं ऋषीणां । प्रशस्तं - प्रशंसास्पदं, न तु जलखानवत्सदोषतया निन्द्यम्, अस्यैव फलमाह -- 'जहिंसि' त्ति सुब्व्यत्ययाद्येन स्नाता विमला विशुद्धा इति च प्राग्वत् महर्षयो- महामुनय उत्तमं स्थानं-मुक्तिलक्षणं 'प्राप्ताः' गता इति सूत्रद्वयार्थः ॥ इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववद्, गतोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्ते च प्राग्यदेव | श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां द्वादशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ १२ ॥ निर्युक्ति: [३२७...] ॥ इति श्रीशान्याचार्यकृतायां शिष्य हितायामुत्तराध्ययनटी० द्वादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Para Prata Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - १२ परिसमाप्तं ~746~ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४६ -४७|| दीप अनुक्रम [४०४ -४०५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३७४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४७....|| अध्ययनं [१३], अथ त्रयोदशाध्ययनम् । व्याख्यातं हरिकेशीयं नाम द्वादशमध्ययनम् अधुना त्रयोदशममारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः -- इहानअन्तराध्ययने श्रुतवत्तपस्यपि यत्तो विधेय इति ख्यापयितुं तपःसमृद्धिरभिहिता, इह तु तत्प्राप्तावपि निदानं परिहर्त्तव्यमिति दर्शयितुं यथा तत् महापायहेतुस्तथा चित्रसंभूतोदाहरणेन निदर्श्यत इति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वार चतुष्टयचर्चा प्राग्वद्यावन्नामनिप्पन्ननिक्षेपे चित्रसंभूतीयमिति नाम, अतश्चित्रसंभूतनिक्षेपा| भिधानायाह नियुक्तिकृत् - Jan Education intimal चित्ते संभूअंमि अ निक्खेवो चउक्कओ दुहा दवे। आगमनोआगमओ नोआगमओ अ सो तिविहो ॥३३० जाणगसरीरभविए तवतिरित्ते य सो पुणो तिविहो । एगभविअ वद्धाऊ अभिमुहओ नामगोए य ॥३३१ ॥ चित्तेसंभूआउं वेअंतो भावओ अ नायवो । तत्तो समुट्ठिअमिणं अज्झयणं चित्तसंभूयं ॥ ३३२ ॥ गाथात्रयं स्पष्टमेव, नवरं 'चित्तेसंभूयाउं'ति एकारोऽलाक्षणिकः, 'ततः समुत्थित' मिति ताभ्यां - चित्रसम्भू निर्युक्ति: [ ३३०-३३२] For Parent ~ 747 ~ चित्रसंभू तीयाध्य. १३ ॥ ३७४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १३ "चित्रसंभूतिय" आरभ्यते अत्र मूल-संपादने निर्युक्तिगाथा क्रमांकने किञ्चित् स्खलना दृश्यते, मया निर्युक्ति-गाथा २२८, २२९ न दृष्टं Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||४७....|| नियुक्ति: [३३३-३३५] (४३) 455 62-% % प्रत % सूत्रांक % ||४६-४७|| % ताभ्यामभिधेयभूतामागतं, 'तेसुं'ति च पाठे तयोः 'समुत्थित मिति भवं चित्रसंभूतीयं, 'वृद्धाच्छः' इति (पा० |४-२-११४ ) छप्रत्यये वृद्धसज्ञा तु 'वा नामधेयं यस्येति (वा नामधेयस्य वृद्धसंज्ञा वक्तव्या । वार्तिक) वचनात् ॥ सम्प्रति काविमौ चित्रसंभूतौ ? केन चानयोरत्राधिकारः ? इत्याशङ्कयाहसागेए चंडवडिंसयस्स पुत्तो अआसि मुणिचंदो। सोऽवि अ सागरचंदस्स अंतिए पवए समणो॥३३३॥ तण्हाछुहाकिलंतं समणं दद्दूण अडविनीहुत्तं । पडिलाहणा य वोही पत्ता गोवालपुत्तेहिं ॥ ३३४ ॥ तत्तो दुन्नि दुगळं काउं दासा दसन्नि आयाया। दुन्नि अ उसुआरपुरे अहिगारो बंभदत्तेणं ॥ ३३५॥ | गाथात्रयमस्याप्यक्षरार्थः स्पष्ट एव, णवरं पवए समणो'त्ति प्राब्राजीत् समानं मनोऽस्येति समनाः-सर्वत्रारक्तद्विष्टचित्तः सन् , यद्वा श्राम्यतीति श्रमणः-तपस्वी सन् , निश्चयनयापेक्षं चैतत् , "मेरेइए णेरइएसु उववजति" इत्यादिवत् , तथा 'अडविणीहुत्त'ति अटवीनिःसृतम् , अरण्यानिष्क्रान्तमित्यर्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यः, तच्चेदम्-अस्ति कोसलालङ्कारभूतं साकेतं नाम नगरं, तत्र चाभूदधिगतजीवाजीवादितत्त्वश्चन्द्रावतंसको नाम राजा, तस्य च धारिणी देवी, तदङ्गजो मुनिचन्द्रः, स च राजाऽन्यदा समुत्पन्नसंवेगस्तमेव सुतं राज्येऽभिषिच्य प्रवज्यामशिश्रियत्, १ नैरयिको नैरयिकेषूत्पद्यते % % दीप अनुक्रम % [४०४ -४०५] % For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~748~ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४६ -४७|| दीप अनुक्रम [४०४ -४०५] उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः | ॥३७५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || ४७....|| अध्ययनं [१३], Jan Education intimational प्रतिपाल्य च प्रव्रज्यामपगतमलकलङ्कोऽपवर्गमगमत् । अन्यदा च सागरचन्द्राचार्या बहुशिष्यपरिवृतास्तत्रागताः निर्गतश्च मुनिचन्द्रनृपतिस्तद्वन्दनाय, दृष्टाश्चानेन सूरयः, स्तुत्वा च तानुपविष्टस्तदन्तिके, श्रुतश्च तत्कथितो विशुदूधर्मः समुत्पन्नश्चास्य तत्करणाभिलाषः, ततः स्वसुतं राज्ये निवेश्य प्रतिपन्नोऽसौ श्रामण्यं गृहीता चानेन ग्रहणासेवनोभयलक्षणा शिक्षा, प्रवृत्ताश्चान्यदा सुसार्थेन सगच्छाः सागरचन्द्रसूरयोऽध्वानं, मुनिचन्द्रमुनिश्च तैः समं व्रजन् गुरुनियोगादेकाक्येव भक्तपाननिमित्तं कचित्प्रत्यन्तग्रामे प्राविशत् प्रविष्टे चास्मिन् प्रवृत्तः सार्थो गन्तुं, प्रचलिताः सहानेन सूरयो, विस्मृतश्चायमेषां प्रस्थितश्च क्षणान्तरेण गृहीतभक्तपानस्तदनुमार्गेण, पतितश्च मूढदिक्चक्रवालः सार्थगवेषणापरो, मार्गात्परिभ्रष्टो भ्रमदनेकशार्दूलजालां द्विपकदम्बकभज्यमानशालशलकीप्रभृतितरुनिकरामनवक्पारतया च संसारानुकारिणी विन्ध्याटवीं, तत्र चासौ परिभ्रमन् गिरिकन्दराण्यतिक्रामन्नतिनिम्नोव्रतभूभागान् पश्यन् भयानकानेकद्वीपितरक्षाच्छमहादिश्वापदान् उत्तीर्णस्तृतीयदिने, तदा च क्षुत्क्षामकुक्षिः शुष्कोठकण्ठतालुरेकत्र वृक्षच्छायायां मूर्च्छावशनष्टचेष्टो दृष्टश्चतुर्भिर्गोपालदारकैः, उत्पन्ना अमीषामनुकम्पा, सिक्तस्त्वरितमागत्य गोरसोन्मिश्रदृतिजलेन, पायितोऽसौ तदेव समाश्वस्तश्च नीतो गोकुलं, प्रतिजागरितश्च तत्कालोचितकृत्येन, प्रतिलाभितः प्रासुकान्नादिना, कथितस्तेषामनेन जिनप्रणीतधर्मः, गृहीतश्चायमेतैर्भाव गर्भ, गतश्वासौ विवक्षितस्थानं, तं च मलदिग्धदेहमवलोक्य द्वयोः समजनि जुगुप्सा, तदनुकम्पातः सम्यक्त्वानुभावतश्च निर्वर्त्तितं Parana Prata Use On निर्युक्ति: [३३३-३३५ ] ~749~ चित्रसंभू तीयाध्य. १३ ॥ ३७५॥ janciran urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३३-३३५] (४३) प्रत सुत्राक बकक ॥१॥ चतुभिरपि देवायुः, जग्मुश्च देवलोकं, ततथ्युतौ चाकृतजुगुप्सौ तु कतिचिद्भवान्तरिती द्वाविपुकारपुरे द्विजकुले जातो, तद्वक्तव्यता च इषुकारीयनाम्यनन्तराध्ययनेऽभिधास्यते, यौ च द्वौ जुगुप्सको तौ दशार्णजनपदे ब्राह्मणकुले दासतयोत्पन्नौ, तयोश्च य इह ब्रह्मदत्तो भविष्यति तेनात्राधिकारी, निदानस्यैवात्र वक्तुमुपक्रान्तत्वात्तेनैव च तद्विधानाद, द्वितीयस्य तु प्रसङ्गत एवाभिधीयमानत्वात् , इह च नामनिष्पन्ननिक्षेपे प्रस्तुते प्रसङ्गतोऽर्थाधिकारोऽप्युक्त इति | गाथात्रयभावार्थः । उक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इति सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम् जाईपराजिओ खलु कासि नियाणं तु हस्थिणपुरंमि। चुलणीइ भदत्तो उववन्नो नलिण (पउम) गुम्माओ ॥१॥ 'जातिपराजितः' इति जाया-प्रस्तावाचाण्डालाख्यया पराजितः-अभिभूतः, स हि वाराणस्यां हस्तिनागपुरे च वक्ष्यमाणन्यायतो नृपेण नमुचिनामा च द्विजेन चाण्डाल इति नगरनिष्कासनन्यकारादिना पुरा जन्मन्यपमानित | इत्येवमुक्तः, यद्वा जातिभिः-दासादिनीचस्थानोत्पत्तिभिरुपर्युपरिजाताभिः पराजित इति-पराभवं मन्यमानोऽहो! अहमधन्यो यदित्थं नीचाखेव जातिषु पुनः पुनरुत्पन्न इति, 'खलु' वाक्यालङ्कारे, स चैवंविधः किमित्याह'कासि'त्ति अकार्षीत् , किमित्याह-'निदान' चक्रवर्तिपदावाप्तिर्मम भवेदित्येवमात्मक 'तुः' पूरणे, केदं कृतवान् ? दाइत्याह-'हत्थिणपुरंमि'त्ति हस्तिनागपुरे, चुलन्यां ब्रह्मदत्तः 'उबवण्णो'त्ति उत्पन्नः 'पद्मगुल्मात्' इति नलिनगुल्मवि दीप अनुक्रम [४०७] - - *KE JAINEducatan intarnational For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~750~ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-] /गाथा ||१|| नियुक्ति : [३३५...] (४३) १३ प्रत सुत्राक उत्तराध्य. मानाच्युत्येति शेषः, इति सूत्राक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वयम्-स हि ब्रह्मदत्तः पूर्वजन्मनि वाराणस्था संभूतनामा चण्डाल-चित्रसंभू चित्रश्च तज्ज्येष्ठ आसीत् , तत्र च नमुचिनामा ब्राह्मणो ममान्तःपुरमपधर्षितमनेनेत्युत्पन्नकोपेन राज्ञा समर्पितो बृहद्वृत्तिः मारणनिमित्तं मातङ्गाधिपस्य तत्पितुः, उक्तश्चायमेतेन-यदि मत्सुती सकलकलाकलापकुशलौ विधत्से ततोऽस्ति में ॥३७॥ ते जीवितमन्यथा नेति, प्रारब्धं च तदर्थनाऽनेन तह एवातिगुप्तस्थानस्थितेन तदध्यापन, ग्राहितौ तौ व्याक रणवीणापुरःसराः सकला अपि कलाः, अन्यदा च शुश्रूषापरायां तन्मातरि मोहोदयादयमुपपतित्वमाजगाम, ज्ञातस्तजनकेन, इष्टश्च मारयितुं, ज्ञातं तत्ताभ्यां, ज्ञापितं चास्मै, उपाध्यायोऽयमावयोस्ततो मा भूदस्यापदिति, तदव गमाच पलायितोऽसौ ततः स्थानात्, प्रासो हस्तिनागपुरं, कृतः सनत्कुमारचक्रवर्त्तिना मन्त्री । इतश्च ती चित्रदिसंभूतौ सातिशयगीतकलाक्षिसतरुणीजनात्यासक्तिहेतुतया त्याजितस्पृश्यास्पृश्य विभागौ जनेन राज्ञे निवेदिती, यथा-3 ८ विनाशितं नगरमाभ्यां, निषिद्धस्तेन नगरस्थान्तस्तत्प्रचारः, कदाचिच तावतिकुतूहलतया कौमुदीमहषिलोकनार्थमागतो, दृष्टौ जनेन, कदर्थितावत्यर्थ, प्रवत्रजतुश्च तत एवोत्पन्नवैराग्यौ, जातौ विकृष्टतपोनिष्टप्तदेही, प्राप्साश्चाभ्यां तेजोलेश्यादिलब्धयः, समापत्तितश्च गतौ हस्तिनागपुरं,प्रविष्टो मासक्षपणपारण के तत्र भिक्षा) संभूतयतिः, दृष्टव नमु] 31॥३७६॥ चिना, जातोऽस्य चेतसि दुरध्यवसायो-मदुश्चरितमयं प्रकाशयिष्यतीति, निर्भत्सितो-धिग मुण्ड चाण्डाल ! क नगर-४ स्वान्तःप्रविष्टोऽसि ? इत्यादिनिष्ठरवचोभिः, प्रहत इष्टकोपलश कलादिभिस्तत्परिजनेन, तदनु च समस्तलोकेन, दीप अनुक्रम [४०७] AIMEducatonintamational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 751~ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३५...] (४३) .२.४ ५ 254C२-* कुपितश्चासौ तेभ्यः समस्तजनदहनक्षमामसह्यतेजोलेश्यां मोक्तुमुपचक्रमे, तत्र च मुखविनिर्यद्बहलधूमपटलान्धकारितदिकचक्रवाले व्याकुलितः सान्तःपुरः सनत्कुमारचक्रवर्ती सकलो नगरलोकश्च समायातस्तत्पार्थे, तवृत्तान्तश्रवणतश्चित्रश्च, प्रारब्धस्तैरनेकधा सान्त्वनवचनैरुपशमयितुं, तथाऽपि तत्रात्मानमस्मरत्यतिकोपवशगे भगवति मा भूदस्माकमकस्माद्भस्मीभवनमिति स्त्रीरत्नसहितो महीपतिस्तं क्षमयाम्बभूव, यथा-भगवन् ! क्षमितव्यमस्माकमिदमिति, अस्मिंश्चान्तरे स्त्रीरलकोमलालकस्पर्शसमुत्पन्नतदभिलाषो विगलितानुशयश्चाण्डालजातिरेव ममैवमनेकधा कदर्थनाहेतुरिति चिन्तयश्चित्रयतिना निवार्यमाणोऽपि यदि ममास्य तपसः फलमस्ति तदाऽन्यजन्मनि चक्रवर्तित्वमेव मम भूयाद् येनाहमप्येवं ललितललनाविलासास्पदमुत्तमजातिश्च भवामीति निदानवशगोऽनशनं प्रपेदे । ततः स तपोऽनुभावतो नलिनगुल्मविमाने वैमानिकत्वेनाजनि, ततश्च च्युतश्चलन्यां ब्रह्मदत्तः समुत्पेदे । क ? इत्याह कंपिल्ले संभूओ। 'काम्पिल्य' इति पञ्चालमण्डलस्य तिलक इव काम्पिल्यनाम्नि नगरे 'संभूत' इति पूर्वजन्मनि संभूतनामा । है अमुं पादमतिकान्तसूत्रोत्तरपादद्वयं चैतद्गदितार्थप्रसङ्गायातार्थान्तराभिधानद्वारतः स्पृशन् सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमाह नियुक्तिकृत् *** अनुक्रम [४०] ** For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 752~ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३६-३३८] (४३) प्रत सत्राक उत्तराध्य. राया य तत्थ बंभो कडओ तइओ कणेरदत्तोत्ति । राया य पुप्फचूलो दीहो पुण होइ कोसलिओ ॥३३६॥ चित्रसंभूतिएए पंच वयंसा सवे सह दारदरिसिणो भोच्चा । संवच्छरं अणूर्ण वसंति इक्विकरजंमि ॥ ३३७ ॥ राया य बंभदत्तो धणुओ सेणावई अ वरधणुओ। इंदसिरी इंदजसा इन्दुवसु चुलणिदेवीओ ॥ ३३८॥ ॥३७७॥ HI राजा च तत्र पाञ्चालेषु काम्पिल्ये 'ब्रह्म'इति ब्रह्मनामा कासीजनपदाधिपः कटकस्तृतीयः कुरुषु गजपुराधिपतिः कणेरुदत्त इति राजा च अङ्गेषु चम्पाखामी पुष्पचूलो यः किल ब्रह्मपल्याश्चुलिन्या भ्राता, 'दीर्घ' इति दीर्घ पृष्ठः पुनर्भवति कौशलिकः साकेतपुराधिपतिः। एतेऽनन्तरोक्ताः पञ्च बयस्याः 'सर्वे' समस्ताः सह दारान् पश्यशान्तीत्येवंशीलाः सहदारदर्शिनः, किमुक्तं भवति -एककालकृतकलत्रस्वीकाराः समानवयस इतियावत् 'भोच'त्ति भूत्वा संवत्सरं वर्षम् 'अन्यून' परिपूर्ण 'वसन्ति' आसते, तत्कालापेक्षया वर्तमानता, 'एकैकराज्ये' एकैकसंवदन्धिनि नृपतित्वे । एष तावद्गाथाद्वयार्थः, तृतीयगाथा तु तात्पर्यतो व्याख्यायते-ब्रह्मराजस्वेन्द्रश्रीप्रमुखाश्चतस्रो देव्यः, तत्र च चुलन्याः पुत्रोऽजनि, धनुर्नाम्नः सेनापतेरपि तत्रैवाहनि सुतः समुदपादि, कृतानि द्वयोरपि मङ्गल-8|॥३५ कौतुकानि, दत्तानि च दीनानाथेभ्यो दानानि, विहितं च खसमये राजपुत्रस्य ब्रह्मदत्त इति नाम, इतरस्य तु वरधनुरिति, कालक्रमेण च जाती कलाग्रहणोचितौ, माहिती सर्वा अपि कलाः, अस्मिंश्चान्तरे मरणपर्यवसान दीप अनुक्रम [४०७] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~753~ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ ४०७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१३], तथा जीवलोकस्य मृतो ब्रह्मराजः कृतमौर्द्धदेहिकम्, अतिक्रान्तेषु च कतिपयदिनेषु तद्वयस्यैरभिषिक्तो राज्ये ब्रह्मदत्तः, पर्यालोचितं च तैः यथैष नाद्यापि राज्यधुराधरणधौरेय इति पालयितुमुचितः कतिचित्संवत्सराणि निरोपितस्तैस्तत्र दीर्घपृष्ठः, गताः खस्वदेशेषु कटकादयः, जातश्च सर्वत्राप्रतिहतप्रवेशतया दीर्घपृष्ठस्य सह चुलन्या सम्बन्धः, ज्ञातं चैतदन्तःपुरपालिया, न्यवेदि च तथा धनुर्नाम्नः सेनापतिमन्त्रिणः सकलमपि तद्वृतं, निरूपितस्तेन वरघनुर्यथा न कदाचित्कुमारस्त्वया मोक्तव्य इति, आरब्धश्वासौ तथैवानुष्ठातुम्, अन्यदा चायं विदितदीर्घपृष्ठचुलनीवृत्तान्तः केनचिदुपायेनामू निवारयामीति विजातिशकुनिकसग्रहण कमानीय कुमारयोपनिन्ये, तचातिनियमितमादायान्तः पुरस्यान्तः किलान्योऽपि य एवं दुष्टशीलः सोऽस्माभिरित्थं नियन्त्रणीय इति तौ स्वयं स्वसहचरैश्च डिभैरुद्घोषयन्तौ प्रतिदिन मितश्चेतश्च भ्रमितुमारब्धौ उपलब्धं च तत्ताभ्यामनुष्ठीयमानं दीर्घपृष्ठेन, कुपितश्चासौ कुमा* राय, भणिता च चुलनी - यथाऽयमुपायेन केनापि विनाश्यतां यतो न विषकन्दल इवैष उपेक्षितः क्षेमङ्करोऽस्माकं भवितेति, प्रतिपन्नं च तत्तया दुरन्ततया मोहोदयस्य, निरूपितश्च ताभ्यामुपायः - यथाऽस्मै पुष्पचूलमातुलेन खदुहिता पुष्पचूला नाम पूर्वदत्तेति तामसौ परिणाय्यते, कार्यते चैतच्छयनाय जतुगृहम् एतच तम्मश्रितमशेषमपि तथैवान्तःपुररक्षिकया निवेदितं धनो:, तेनापि विनष्टमेतदिति पर्यालोच्य कुमारसंरक्षणाय प्रयत्नः कर्तुमुपचक्रमे, तथाहि - पृष्टोऽसावनेन दीर्घपृष्ठो यथा वयमिदानीं वृद्धास्तत्किमिदानीमपरेण ?, युष्माभिरनुज्ञाता धर्ममेवैतत्कालो निर्युक्ति: [३३६-३३८] Jan Education in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः For Para Pren ~754~ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [--1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३६-३३८] (४३) बृहदृत्तिः प्रत सत्राक ॥९॥ उत्तराध्य. चितं कुर्मः, तेनालोचितं-यथैष दुरात्मा दूरस्थो न सुन्दर इति, उक्तश्च यथैतत्वद्नहितमखिलमपि राज्यं विनश्य-चित्रसं सत इहैव स्थितो जपहोमदानादिभिर्धर्ममुपचिनु, तेन चोक्तं यदादिशन्ति भवन्तः, इत्युक्त्वा च गतः खगृह, कारित है। चानेन भागीरथ्यास्तटे खनिवासस्थानं, निरूपितं तत्र सत्रं, खानिता च तत्र प्रत्ययिकपुरुषैर्जतुगृहं यावत्सुरङ्गा, ज्ञापि- तीया ॥३७८॥ ताऽसी यरधनोः, इतश्च गणितं तत्परिणयनलमं, निष्पन्नं च जतुगृह, प्रेपिता चमत्रिवचनतोऽन्यैव कन्यका मातुलेन, समागतो लग्नदिनः, कृतं सर्वसमृद्धयोपयमनं, शायितश्च रजन्यां जतुगृहे कुमारः, प्रदीपितं च तद्वार एव सुप्तजनायां | रजन्यां, ज्ञातं चासन्नस्थितेन वरधनुना, उत्थापितः कुमारो, दृष्टं च सर्वतः प्रदीसमेतेन, उक्तश्च वरधनुः-मित्र ! किमिदानी क्रियतामिति, तेनोक्तं-मा भैपीः, यतः प्रतिविहितमत्र तातेन, अत्रान्तरे चागतं नागकुमारद्वयानुकारि भुवनमु|द्भिद्य पुरुपद्वयम् , अभ्यधाच तत्-मा भैष्टाम् , आवां हि धनोहजातौ दासचेटको, तरिक्रयतां प्रसादो, निर्गम्यतां सुरङ्गामार्गेण, इत्युक्तौ च तौ गतौ सुरङ्गाद्वारं, दृष्टं च तत्र प्रधानमथद्वयम् , उक्तं च ताभ्यां चेटकाभ्याम्एतावारुह्य देशान्तरापक्रमणेनात्मानं रक्षतां दीर्घपृष्ठाद्भवन्तौ यावत्कचिदवसरः शुभो भवति, ततस्तद्वचनमाकण्य कि किमेतत् ? इत्याकुलितचेतसो ब्रह्मदत्तस्य कथितः सर्वोऽपि वरधनुना चुलनीवृत्तान्तः, अभिहितं च-यथेदमेवेदानी ||३७८॥ प्राप्तकालमिति, विनिर्गतौ च तत्प्रधानमश्चयुगलमारुह्येति तृतीयगाथातात्पयोर्थः । एवं च प्राप्तावसरा प्रदत्तपहिण्डी, ततस्तत्र ये कन्यालाभा ये च तत्पितरस्तदुपदर्शनाय गाथापञ्चकमाह दीप अनुक्रम [४०] %ALL JAINEducatan intamational For PF wiancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 755~ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३९-३४३] (४३) - - - प्रत सुत्राक ॥१॥ चित्ते अविज्जुमाला विज्जुमई चित्तसेणओ भद्दा । पंथग नागजसा पुण कित्तिमई कित्तिसेणोय ॥३३९॥ देवी अनागदत्ता जसवइ रयणवइ जक्खहरिलो य । वच्छी अचारुदत्तो उसभो कच्चाइणीय सिला ३४० धणदेवे वसुमिते सुदंसणे दारुए य निअडिल्ले । पुत्थी पिंगल पोए सागरदत्ते अ दीवसिहा ॥३४१॥ कंपिल्ले मलयवई वणराई सिंधुदत्त सोमा य । तह सिंधुसेण पज्जुन्नसेण वाणीर पइगा य ॥ ३४२॥ हरिएसा गोदत्ता कणेरुदत्ता कणेरुपइगा य । कुंजरकणेरुसेणा इसिवुड्डी कुरुमई देवी ॥ ३४३ ॥ इदं च सोपस्कारतया व्याख्यायते-'चित्रश्च' चित्रनामा जनकस्तदुहितरौ विद्युन्माला विद्युन्मती च, तथा चित्रसेनकः पिता भद्रा च तदुहिता, तथा पन्धकः पिता नागजसा कन्यका, पुनः समुच्चये, तथा कीर्तिमती कन्या कीर्तिसेनश्च तत्पिता । तथा देवी च नागदत्ता यशोमती रत्नवती च, पिता च सर्वासामपि यक्षहरिलः, 'चः' समुचये, वच्छी च कन्या चारुदत्तः पिता, तथा वृपभो जनकः, कात्यायनसगोत्रा तत्सुता शिला नाम । तथा । धनदेवो नाम वणिक अपरश्च वसुमित्रोऽन्यश्च सुदर्शनो दारुकश्च निकृतिमान्' मायापरः, चत्वारोऽमी कुकुटयुद्धव्यदतिकरे मिलितास्तत्र च पुस्ती नाम कन्यका, तथा पिङ्गला नाम कन्या पोतश्च तत्पिता, सागरदत्तश्च वणिक तद दीप अनुक्रम [४०७] AIMEducatan intimational For Pro Fariancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~756~ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [४०७] %96% “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १॥ अध्ययनं [१३], उत्तराध्य. ४ ङ्गजा च दीपशिखा । तथा काम्पिल्यः पिता मलयवती दुहिता, तथा वनराजी नाम कन्या तजनकश्च सिन्धुदत्तः, तथा तस्यैवान्या सोमा च नाम कन्या, तथा सिन्धुसेनप्रद्युम्नसेनयोर्यथाक्रमं वानीरनाझी प्रतिकाभिधाना चेति, बृहद्वृत्तिः पठ्यते च 'प्रतिभा वे 'ति, द्वे दुहितरी । तथा हरिकेशा गोदत्ता करेणुदत्ता करेणुपदिका च, 'कुंजरकरेणुसेण' चि सेनाशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात्कुअरसेना करेणुसेना च, ऋषिवृद्धिः कुरुमती च देवी सकलान्तःपुरप्रधाना अष्टौ ₹ कुरुमती च स्त्रीरतं, ब्रह्मदत्तेनावाप्तेति सर्वत्र शेषः, अतिप्रसिद्धत्वाच तदैतज्जनकनाम्नामनभिधानमिति गाथापपञ्चकार्थः ॥ अधुना येषु स्थानेषु असौ भ्रान्तस्तान्यभिधातुमाह ॥३७९॥ कंपिल्लं गिरितडगं चंपा हत्थिणपुरं च साएयं । समकडगं ओसाणं (नंदोसा) वंसीपासाय समकडगं ॥ ३४४॥ समकडगाओ अडवी तण्हा वडपायवंमि संकेओ । गहणं वरधणुअस्स य बंधणमक्कोसणं चैव ॥ ३४५॥ सो हम्मई अमच्चो देहि कुमारं कहिं तुमे नीओ ? । गुलियविरेयणपीओ कवडमओ छड्डओ तेहिं ॥ ३४६ ॥ ३ ॥ १७९॥ तं सोऊण कुमारो भीओ अह उप्पहं पलाइत्था । काऊण थेररूवं देवो वाहेसिअ कुमारं ॥ ३४७ ॥ | वडपुरगबंभथलयं वडथलगं चेव होइ कोसंबी । वाणारसि रायगिहि गिरिपुर महुरा य अहिछत्ता॥ ३४८ ॥ ॐ Jan Education Intamatonal For PP Use On निर्युक्ति: [३३९-३४३] ~757~ चित्रसंभू तीयाध्य. १३ Sanibrary or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३४४-३५४] (४३) वणहत्थी अकुमारं जणयइ आहरण वसणगुणलुद्धो। वच्चंतो अ पुराओ(वडपुरओ)अहिछत्तं अंतरा गामो | गहणं नईकुडंगं गहणतरागाणि पुरिसहिअयाणि । देहाणि पुण्णपत्तं पिअं खुणो दारओ जाओ ॥३५०॥ सुपइट्रे कुसकुंडि भिकुंडिवित्तासिअंमि जिअसत्तू । महराओ अहिछत्तं वच्चंतो अंतरा लहइ ॥३५१॥ इंदपुरे रुद्दपुरे सिवदत्त विसाहदत्त धूआओ। बडुअत्तणेण लहइ कन्नाओ दुन्नि रजं च ॥३५२॥ रायगिहमिहिलहत्थिणपुरं च चंपा तहेव सावत्थी । एसा उ नगरहिंडी बोद्धवा बंभदत्तस्स ॥ ३५३ ॥ रयणुप्पया य विजओ बोद्धवो दीहरोसमुक्खे य । संभरणनलिणिगुम्मं जाईइ पगासणं चेव ॥३५४ ॥ प्रत सुत्राक ॥१॥ दीप अनुक्रम [४०७] गाथा एकादश, आसामपि तथैव व्याख्या, काम्पिल्यं पुरं यत्रास्य जन्म, ततोऽसौ गतो गिरितटकं सन्निवेश तस्माचम्पां ततो हस्तिनागपुरं चानन्तरं च साकेत साकेतासमकटकं, ततश्च नन्दिनामकं संनिवेशं, ततोऽवश्यानकं । नाम स्थानं, ततोऽपि चारण्यं परिभ्रमन् वंशीति-वंशगहनं तदुपलक्षितं प्रासादं वंशीप्रासाद, ततोऽपि समकटकं ॥3 समकटकादटवीं, तां च पर्यटतो ब्रह्मदत्तस्य तृडतिशयतः शुष्ककण्ठोष्ठतालुताऽजनि, ततस्तेनोक्तो वरधनुः-भ्रातः! JAIMEducatan intiniational For P F anditional मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 758~ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ ४०७] उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥ ३८० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१३], Jain Education intimational बाधते मां तृद, तदुपाहर कुतोऽपि जलम् अत्रान्तरे दृष्टोऽनेन निटकवर्त्ती वटपादपः, शायितस्तत्र शीतलच्छाये तत्पल्लवोपरचितश्रस्तरे ब्रह्मदत्तः कृतश्च वरधनुना तेन सह सङ्केतः यथा यदि मां कथञ्चिद्दीर्घप्रहितपुरुषाः प्राप्स्यन्ति ततोऽहमन्योक्त्याऽभिज्ञानं करिष्ये, तत इतस्त्वया पलायितव्यमिति, गतोऽसौ जलान्वेषणाय, दृष्टं चैकत्र पद्मिनीखण्डमण्डितं सरः, गृहीतं च पद्मिनीपत्रपुटके जलं, प्रवृत्तस्य च ब्रह्मदत्ताभिमुखमागन्तुं ग्रहणं तद्वटासन्नदेशे, कथञ्चिदुपलब्धतदपसरण वृत्तान्तैर्दीर्घपृष्ठ प्रहित पुरुषैरतिरोपवद्भिर्वरधनोर्बन्धनं वल्लीवितानेन आक्रोशनं चैव दुष्टवचसा कृतं । अन्यच स हन्यते मुष्टिमहारादिभिरमात्यो - वरधनुः, भण्यते च — यथा 'देही'ति ढौकय कुमारमरे ! | दुराचार ! व पुनरसौ नीतस्त्वया राजपुत्र इति १, अत्रान्तरे सङ्केतमनुसरता पठितमिदमनेन - 'सहकारमञ्जरीमनुधावति मधुपो विमुच्य मधु मधुरम् । कमले कलयन् पश्चात्सङ्कोचकृतां खतनुबाधाम् ॥ १ ॥' 'गुलीयविरेयणपीतो 'ति प्राकृतत्वात्पीतविरेचनगुलिकः, स हि तैर्ग्रहीतुमुपक्रान्तोऽन्यथाऽऽत्मनो विमुक्तिमनवगच्छन् पूर्वलब्धां विरेचनगुटिकां प्रथममेव पयसा पीतवान्, विरक्तच तया, जाताश्च मुखे फेनबुदबुदाः, एवं च कपटेन सृतः कपटमृतो मृत इति 'छर्दितः' त्यक्तस्तैः । इतश्च तत्पठितं श्रुत्वा कुमारो 'भीतः' इति त्रस्तः 'अर्थ' अनन्तरम् ' उप्प - 'ति उत्पथेन 'पलायित्यत्ति पलायितवान्, तथा च तं पलायमानमवलोक्य कृत्वा स्थविररूपं देवः किमस्य सत्त्वमस्त्युत नेति परीक्षणार्थं 'वाहेसिअ'त्ति वाहितवान् व्यंसितवानित्यर्थः कुमारं । ततश्च परिभ्रमतो वटपुरकं For Para Pren निर्युक्ति: [३४४-३५४] ~759~ चित्रसंभू तीयाध्य १३ ॥३८० ॥ www.janciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ ४०७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१|| अध्ययनं [१३], तस्माच ब्रह्मस्थलकं वटस्थलकं चैव भवति विश्रामविषयः कौशाम्बी वाराणसी राजगृहं गिरिपुरं मथुरा अहिच्छत्रा च। ततोऽपि गच्छताऽरण्यानीं प्रविष्टेन दृष्टास्तापसाः प्रत्यभिज्ञातश्च तैर्ब्रह्मराजस्यास्मन्निजकस्य सुत इति, धृतश्चातुर्मासीं तत्र च तापसकुमारकैः सह क्रीडतैकस्मिन् दिनेऽवलोकितो वनहस्ती, समुत्पन्नं च नृपसुतसुलभमस्य कुतूहलं, प्रारब्धश्च विविधगजशिक्षाभिरसुं खेदयितुं, आरूढश्व निष्पन्दीकृत्य तत्पृष्ठं प्रवृत्तश्चासौ कुमारापहरणाय, वीक्षितश्च कियदपि दूरं गतेनैकस्तरुः, लग्नश्च तदधो व्रजति हस्तिनि विटपैकदेशे कुमारः, अपक्रान्ते च करिणि ततस्तरोरुत्तीर्य विमूढदिग्भागो श्रमितुमारेमे, भ्राम्यंवारण्याद्विनिर्गत्य गतो बटपुरं, बटपुराच प्रस्थितः श्रावस्तिं गच्छंश्च प्रासस्तथाविधमेकमन्तरा ग्रामं, उपविष्टश्च तन्निकटविटपिनि विश्रमितुं दृष्टश्चैकेन तत्रत्यश्रेष्ठिना, नीतश्च तेन स्वं गृहं कृतं चाभ्यागतकर्त्तव्यं, परिणायितश्च नैमित्तिकादेशतः खदुहितरं, उपचरितश्च भुजगनिमकसदृशैर्विविधवसनैर्लमेन्द्रनीलादिप्रधानमणिभिः कटककेयूरकुण्डलादिभिश्चाभरणैः, ततस्तद्गुणलुब्धमानसः स्थितस्तत्रैव कियत्कालं, जनयति तदा तद्दुहितरि कुमारं । इतश्च प्राप्ताः कृतान्तानुकारिणो दीर्घपृष्ठप्रहितपुरुषाः, प्रारब्धाः समन्ततस्तमवलोकितुं, उपलब्धतद्वृत्तान्तश्च नष्टस्तद्भयात्, प्रचलितश्च सुप्रतिष्ठपुराभिमुखं गन्तुं तत्र च मिलितः कश्चिद्विटः कार्पेटिको, दृष्टं चाभिमुखमागच्छत् किञ्चित् तथाविधं मिथुनकं दृष्ट्वा च तदङ्गनां उदाररूपां कुमारमयमवोचत्-यदि युष्मत्प्रसादतः कथञ्चिदेनां कामयेय इति, ततस्तदुपरोधाचे नोक्तं-प्रविश तर्हि वंशीकुड, For PP Use On निर्युक्ति: [३४४-३५४] ~760~ ancibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३४४-३५४] (४३) Sak ॥३८१॥ उत्तराध्य स्थितः पथि कुमारः प्राप्तं च मिथुनं, उक्तस्तत्पतिः-मदीयं कलत्रमिह गर्भशलाभ्याहतमास्ते तद्विसर्जय क्षणमेकं चित्रसंभू खकीयपनी, विसर्जिता चासौ तेनानुकम्पापरेण, दृष्टश्च तयाऽसौ, जातस्तस्यापि तदनुरागः, प्रवृत्तं च तयोर्मोहबृहद्वृत्तिः नकं, एवं च कियतीमपि वेलामतिक्रम्य विनिर्गताऽसौ कुडङ्गात् , उक्तं चात्मानं ख्यापयितुं कुमारं प्रति, यथा तीयाध्य. गहनं नदीकुडझं ततोऽपि गहनतराण्येव गहनतरकाणि पुरुषहृदयानि भवन्ति, अयं चानेन ध्वनितोऽर्थः-यथा ४ वयं जानीमः स्त्रीहृदयान्यतिगहनानि भवचित्तेन च तान्यपि जितानीत्युक्त्वा पतिं प्रत्याययितुमाह-'देहाणि'न्ति देहीदानी 'पूर्णपात्रम्' अक्षतभृतभाजनं प्रियं खलु 'नः' अस्माकं यद्दारको जात इति, ते (इति) वक्तव्ये यन्न है इत्युक्तं तदैक्यं द्योतयितुं, इत्युक्त्वा च तया धूर्त्या गृहीतं ब्रह्मदत्तोत्तरीयं, गता च पत्यैव सह, ततश्च निर्गतोऽसौ कुडङ्गात्कृतपरिहासः प्रवृत्तो गन्तुं, प्रासः सुप्रतिष्ठं, तत्र च कुस कुण्डी नाम कन्या 'भिकुंडिवित्तासियंमि जियसत्तुं'ति आपत्वादुभयत्र सुब्व्यत्ययः, 'भिकुण्डिवित्रासिताद्' भिकुण्डिनामनृपतिनिष्काशितात् 'जितशत्रो' जितशत्रुनामनृपतेः सकाशान्मथुरातोऽहिच्छत्रां व्रजन् 'अन्तरे' अन्तराले 'लभते' प्राप्नोति । तथेन्द्रपुरे शिवदत्तो नाम रुद्रपुरे चल विशाखदत्ताभिधानस्तदुहितरौ 'बटुकत्वेन' दीर्घपृष्ठपुरुषभीत्या कृतब्राह्मणवेषेण लभते कन्ये द्वे राज्यं च । ततो राज-IP॥३८॥ गृहं मिथिला हस्तिनागपुरं चम्पां तथैव श्रावस्तीम् , अभ्रमीदिति शेषः 'एपा तु' अनन्तरमुपदर्शिता नगरहिण्डि-18 वोद्धव्या ब्रह्मदत्तस्येति ॥ एवं च भ्रमतोऽस्य मिलिताः कटककरेणुदत्तादयः पितृवयस्याः, गृहीताः कियन्तोऽपि SSENCSC-% अनुक्रम [४०७] For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 761~ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [३४४-३५४] (४३) ** प्रत ***** सत्राक ||२| प्रत्यन्तराजानः, समुत्पन्नं चक्ररलं, प्रारब्धस्तदुपदर्शितमार्गेण दिग्विजयः, प्राप्तः काम्पिल्ये, निर्गतस्तदभिमुखं दीर्घपृष्ठो, लग्नमनयोरायोधनं, विनिपातितोऽसौ ब्रह्मदत्तेन, एवं च बोद्धव्यस्तस्य दीर्घपृष्टविषयरोपमोक्षश्च, अत्रान्तरे मिलिताः परिणीतकन्यापितरः, समुत्पन्नानि च यथाऽवसरं शेषरत्नानि, साधितं षट्खण्डमपि भरतं, प्राप्ताश्च नवापि निधयः, परिणतं चक्रवर्तिपदं, एवं च सुकृतफलमुपभुञ्जतोऽतिक्रान्तः कियानपि कालः, अन्यदा चोपनीतं देवतया मन्दारदाम, समुत्पन्नं तद्दर्शनादस्य जातिस्मरणं-अनुभूतानि मयैवंविधकुसुमदामानि, अहं हि नलिनगुल्मविमाने देवोऽभवं ॥ इत्येकादशनियुक्तिगाथार्थः । इत्थं तावत्काम्पिल्ये संभूतश्चक्रवर्ती जातः, चित्रस्य तु का वार्तेत्याह चित्तो पुण जाओ पुरिमतालंमि । सिटिकुलंमि विसाले धम्म सोऊण पब्वइओ ॥२॥ पादत्रय, चित्रः पुनर्जातः पुरिमताले, स हि चित्रनामा महर्षिः तत्र संभूतिनाम्नि भ्रातरि तथाऽनशनं प्रतिपन्नवत्यहो दुरन्तो मोहश्चित्रा कर्मपरिणतिश्चञ्चलं चित्तमित्यादि विचिन्त्य चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याख्यातवान् , मृत्वा च पण्डितमरणेन समुत्पन्नस्तत्रैव नलिनगुल्मनाम्नि विमाने, ततस्तत्र खस्थितिमनुपाल्योत्पन्नः पुरिमतालपुरे, तत्रापि । क्वेत्याह-'श्रेष्टिकुले' वणिप्रधानान्वये 'विशाले' विस्तीर्णे पुत्रपौत्रादिवृद्धिमति, प्राप्तवयाश्च तथाविधस्थविरसन्निधौ । * दीप अनुक्रम [४०८] ** ** For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~762~ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [ ४०९ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ||३८२|| “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||३|| निर्युक्ति: [३५५] 'धर्म' यतिधर्म क्षान्त्यादिकं 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'प्रत्रजितः प्रब्रज्यां प्रतिपन्नवान् इति सूत्रभावार्थः ॥ ततः ४ चित्रसंभूकिमित्याह- तीयाध्य १३ कंपनिय समागया दोऽवि चित्तसंश्रूया । सुहदुकखफल विवागं कहिंति ते इक्कमिकस्स ॥ ३ ॥ काम्पिल्ये च नगरे - ब्रह्मदत्तोत्पत्तिस्थाने 'समागतौ' मिलितौ द्वावपि चित्रसंभूतौ जन्मान्तरनामतः 'सुखदुःखफलविपार्क' सुकृतदुष्कृतकर्मानुभवरूपं 'कहंति 'ति कथयतः स्मेति शेषः, ततश्च कथितवन्तौ तौ चित्रजीवयति-ब्रह्मदत्तो 'एकमेकस्स'ति एकैकस्य परस्परमितियावत् इति सूत्राक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु निर्युक्तिकृतोच्यतेजाईइ पगास निवेयणं च जाईपयासणं चित्ते । चित्तस्स य आगमणं इढिपरिचागसुतत्थो ॥ ३५५ ॥ तदा हि जातिस्मरणोपलब्धवजातीनां 'दासा दसन्नये आसी' इत्यादिना सार्द्धश्लोकेन जनाय प्रका शनं निवेदनं च य इमं द्वितीयश्लोकं पूरयति तस्मै राज्यार्द्धमहं प्रयच्छामीति विहितवान् ततस्तदर्थिना जनेनोद्धुप्यते, तद् ग्रामनगराकारादिषु पठ्यमानं चाकर्णितं कर्ण्यपकर्ष्या चित्रजीवयतिना, ततस्तथाविधज्ञानातिशयोउपयोगतः स्वजातीरुपलभ्य जातोऽस्याभिप्राय यथा गत्वा तं जन्मान्तरनिजभ्रातरं संभूतजीवमवबोधयामीति, प्रस्थितस्ततः स्थानात् प्राप्तः क्रमेण काम्पिल्यं, स्थितस्तद्वहिरुयाने, श्रुतश्चारपट्टिकपरिपठ्यमानः सार्द्धश्लोकः, पूरितश्चानेन द्वितीयश्लोकः, अवधारितश्चारघट्टिकेन, घावितश्चासौ नृपसकाशं राज्यलोमेन, पठितं चैतेन तत्पुरतः, Jain Education intimational For Parts Use On ॥ ३८२॥ ~763~ janibraryup मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) 82%A5%25-25 प्रत सूत्रांक ||३|| परिपूर्ण श्लोकद्वयं, जातस्तदाकर्णनात्तस्य चित्तावेशः, निरुद्धश्च तजनितमूर्च्छयाऽऽश्वासमार्गो, निमीलितं लोचनयुगलं, लुठितः स आसनात्, निपतितो भुवि, किमेतत् किमेतदित्यादिनाऽऽकुलितः सर्वोऽपि तत्परिच्छदः, दृष्टश्च तेनारपट्टिकः, ताडितः पार्णिप्रहारादिभिः, आरटितमेतेन-न मयैतत्पूरितं न मयेति, किन्त्वन्येनैव भिक्षुणैतत्क|लिकन्दमूलेनेति, अत्रान्तरे लब्धा चेतना, प्राप्तं च खास्थ्यं चक्रवर्तिना, उक्तं च-कासौ श्लोकपूरयिताऽऽस्त इति ?, कथितस्तयतिकरो यथा-केनचिद् भिक्षुणैतत्पूरितं न त्यमुनेति, पृष्टं च पुनरनेन हर्षोत्फुल्लनयनयुगलेन-क तर्थसाविति, कथितमारघहिकेन-देव! मदीयवाटिकायां, एतच्चाकर्ण्य प्रचलितः सबलवाहनः सकलान्तःपुरसमन्वितश्च तद्दर्शनाय, प्राप्तस्तदुद्यानं, दृष्टो मुनिः, वन्दितः सबहुमानं, उपवेशितश्चैकासने, पप्रच्छतुः परस्परमनामयं, कथयामासतुश्च यथाखमनुभूतसुखदुःखफलविफाकं, तत्कथनानन्तरं च वर्णिता निजसमृद्धिश्चक्रवर्तिना, प्ररूपितस्तद्विपाकदर्शनतस्तत्परित्यागश्चित्रयतिना, एतावानेव प्रस्तुताध्ययनसूत्रस्यार्थोऽभिधेय इति सूत्रनियुक्तिगाथयो - वार्थः । सम्प्रति यदुक्तं-'सुखदुःखफलविपाकं तो कथयामासतु रिति, तत्र चक्रवर्ती यथा कथयामास तथा संबधपुरस्सरमाह चकवट्टी महिड्डीओ, बंभदत्तो महायसो। भायरं बहुमाणेण, इमं वयणमब्यवी॥४॥ आसिमो भायरा दोऽवि, अन्नमन्नवसाणुगा। अन्नमन्नमणूरत्ता, अन्नमन्नहिएसिणो ॥५॥ % E दीप अनुक्रम [४०९]] 5 For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 764~ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||8-6|| दीप अनुक्रम [४१० -४१३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३८३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४-७|| अध्ययनं [१३], Jan Education national दासा दसन्नये आसी, मिआ कालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीराए, सोवागा कासिभूमिए ॥ ६ ॥ देवाय देवलोगंमि, आसि अम्हे महिहिआ । इमा णो छट्टिया जाई, अन्नमन्त्रेण जा विणा ॥ ७ ॥ चक्रवर्ती 'महर्द्धिकः' बृहद्विभूतिर्ब्रह्मदत्तो महायशाः 'भ्रातरं' जन्मान्तरसोदर्य 'बहुमानेन' मानसप्रतिबन्धेन 'इदं' वक्ष्यमाणलक्षणं 'वचनं' वाक्यं 'अब्रवीद्' इत्युक्तवान् यथा 'आसिमो'त्ति अभूवावां भ्रातरौ द्वावपि 'अन्योऽन्यं' परस्परं 'बसाणुग'त्ति वशम् - आयत्ततामनुगच्छन्तौ यो तावन्योऽन्यवशानुगौ, तथा 'अन्योऽन्यमनुरक्तौ' अतीव स्नेहवन्तौ, तथा अन्योऽन्य हितैषिणौ' परस्परशुभाभिलाषिणौ, पुनः पुनरन्योऽन्यग्रहणं च तुल्यचित्ततातिशयख्याप नार्थ, मकारश्च सर्वत्रालाक्षणिकः । केषु पुनर्भवेष्यित्थमायामभूवेत्याह- दासी 'दशाण' दशार्णदेशे 'आसि'त्ति अभूव, मृगौ 'कालिञ्जरे' कालिञ्जरनाम्नि नगे, हंसौ 'मृतगङ्गातीरे' उक्तरूपे, 'श्वपाकौ' चाण्डालौ 'कासिभूमिति काशीभूम्यां काश्यभिधाने जनपदे, देवौ च देवलोके सौधर्माभिधानेऽभूव 'असे'त्ति आवां महर्द्धिकौ, न तु किल्विपिकी, 'इमा मे'ति 'इमा णो'त्ति वा उभयत्रेयमावयोः पष्ठधेव पष्ठिका जातिः कीदृशी येत्याह-- 'अन्नमनेणं' ति अन्योऽन्येन परस्परेण या विना, कोऽर्थः १ - परस्परसाहित्यरहिता, वियुक्तयोर्यकेति भाव इति सूत्रचतुटयार्थः ॥ इत्थं चक्रवर्त्तिनोके मुनिराह कम्मा नियाणष्पगडा, तुमे राय ! विचितिया। तेोसें फळविवागेणं, विप्पओगमुवागया ॥ ८ ॥ For Porr Use Only निर्युक्तिः [३५५...] ~765~ चित्रसंभू तीयाध्य १३ ||३८३॥ ancirayur मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥८॥ दीप अनुक्रम [४१४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||८|| अध्ययनं [१३], निर्युक्तिः [३५५...] 'कर्माणि' ज्ञानावरणादीनि नितरां दीयन्ते-लूयन्ते दीयन्ते वा खण्ड्यन्ते तथाविधसानुबन्धफलाभावतस्तपःप्रभृतीन्यनेनेति निदानं साभिष्वङ्गप्रार्थनारूपं तेन प्रकर्षेण कृतानि विहितानि निदानप्रकृतानि, निदानवशनिबद्वानीति योऽर्थः त्वया राजन् ! विचिन्तितानीति, तद्धेतुभूतार्त्तध्यानादिध्यानतः कर्माण्यपि तथोच्यन्ते 'तेषाम्' एवंविधकर्मणां फलं चासौ विपाकश्च शुभाशुभजनकत्वलक्षणः फलविपाकस्तेन, यद्वा कर्माणि-अनुष्ठानानि 'णियाणपयड' चि निदानेनैव शेषशुभानुष्ठानस्याच्छादितत्वात्प्राग्वत्प्रकटनिदानानि त्वया राजन् ! विचिन्तितानि कृतानी| तियावत्, तेषां फलं क्रमात्कर्म तद्विपाकेन 'विप्रयोगं' विरहं 'उपागतो' प्राप्तौ किमुक्तं भवति ? - यत्तदा त्वयाऽस्मन्निवारितेनापि निदानमनुष्ठितं तत्फलमेतद् यदावयोस्तथाभूतयोरपि वियोग इति सूत्रार्थः ॥ इत्थमवगतवियोगहेतुश्चक्री पुनः प्रश्नयितुमाह सचसो अपगडा, कम्मा भए पुरा कडा ते अज परिभुंजामो, किं तु चित्तेवि से तहा १ ॥ ९ ॥ सत्यं - मृपाभाषापरिहाररूपं शौचम् - अमायमनुष्ठानं ताभ्यां प्रकटानि - प्रख्यातानि कर्माणि - प्रक्रमाच्छुभानुष्ठानानि शुभप्रकृतिरूपाणि वा मया पुरा कृतानि यानीति गम्यते तानि 'अद्य' अस्मिन्नहनि शेषतद्भवकालोपलक्षणं चैतत् 'परिभुंजामो' त्ति परिभुओ-तद्विपाकोपनतस्त्रीरत्नादिपरिभोगद्वारेण वेदये, यथेति गम्यते किमिति प्रश्ने, 'नु' इति वितकें, 'चित्रोऽपि' चित्रनामाऽपि, कोऽर्थः ? - भवानपि 'से' इति तानि तथा परिभुजे ?, नैव भुङ्क्ते, For PP Use On jancibrary ang मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~766~ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||९|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) बृत्तिः प्रत सत्रांक ||९|| उत्तराध्य. भिक्षुकत्वाद्भवतः, तथा च किमिति भवताऽपि मयैव सहोपार्जितानि शुभकर्माणि विफलानि जातानीत्याशय इति चित्रसंभूहे सूत्रार्थः ॥ मुनिराह तीयाध्य. सब्ब सुचिण्णं सफल नराणं, कडाण कम्माण न मुक्खु अत्थि । ॥३८४॥ अत्थेहि कामेहि अ उत्समेहिं, आया ममं पुण्णफलोववेओ ॥१०॥ जाणाहि संभूय ! महाणुभाग, महिहियं पुण्णफलोववेयं । चित्तपि जाणाहि तहेव रायं !, इड्डी जुई तस्सवि अप्पभूआ ॥ ११ ॥ महत्थरूवा चयणप्पभूया, माहाणुगीया नरसंघमझे। जं भिक्खुणो सीलगुणोचवेया, इहऽनयंते समणोऽम्हि जाओ॥१२॥ 'सर्व' निरवशेष 'सुचीण' शोभनमनुष्ठितं, तपःप्रभृतीति गम्यते, चीर्णशब्दस्य 'सुचीर्ण प्रोपितत्रत'मित्यादिरूढितः साधुत्वं, सह फलेन वर्तत इति सफलं, नराणामिति, उपलक्षणत्वादशेषाणामपि प्राणिनां, किमिति , यतः कृतेभ्यः-अर्थादवश्यवेद्यतयोपरचितेभ्यः कर्मभ्यो न 'मोक्षः' मुक्तिरस्तीति ,ददति हि तानि निजफलमवश्य-R॥३८॥ |मिति भावः, प्राकृतत्वाच सुव्यत्ययः, स्यादेतत्-त्वयैव व्यभिचार इत्याह-'अर्थः' द्रग्यरर्थेवा-प्रार्थनीयः, वस्तु-1 भिरिति गम्यते, कामेश्व-मनोज्ञशब्दादिभिः 'उत्तमैः' प्रधानः, लक्षणे तृतीया, तत एतदुपलक्षितः सन्नात्मा मम 6 - 4 दीप अनुक्रम [४१५] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~767~ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||१०-१२|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) प्रत सूत्रांक -१२|| पुण्यफलेन-शुभकर्मफलेनोपपेतः-अन्वितः स पुण्यफलोपपेतः इति ॥ यथा त्वं 'जानासि' अवधारयसि 'संभूत ! पूर्वजन्मनि संभूताभिधान ! 'महानुभाग बृहन्माहात्म्यं 'महर्द्धिक' सातिशयविभूतियुक्तम् अत एव पुण्यफलोपेतं चित्रमपि 'जानीहि' अवबुयख तथैव' अविशिष्टमेव 'राजन् ! नृप!, किमित्येवमत आह-ऋद्धिः-सम्पत् द्युतिःदीप्तिस्तस्यापीति-जन्मान्तरनामतश्चित्राभिधानस्य, ममापीति भावः, चशब्दो यस्मादर्थे, ततो यस्मात्प्रभूता-बद्धीत्यर्थः, यद्वाऽऽत्मा मम पुण्यफलोपेत इति, अनेन चित्र एवात्मानं निर्दिशति, तथा जानीहि संभूत इत्यादौ आत्मेत्यनुवर्तते, अर्थवशाच विभक्तिपरिणामः, ततश्चैवं योज्यते-हे संभूत ! यथा त्वमात्मानं महानुभागादिविहै शेषणविशिष्टं जानासि तथा चित्रमपि जानीहि, चित्रनाम्रो ममापि गृहस्थभावे एवंविधत्यादेवेति भावः, शेष प्राग्वत् ॥ यदि तवाप्येवंविधा समृद्धिरासीत् तत्किमिति प्रत्रजित इत्याह-महान्-अपरिमितोऽनन्तद्रव्यपर्या यात्मकतयाऽर्थः-अभिधेयं यस्य तन्महाथै रूपं-खरूपं न तु चक्षुरायो गुणः, ततो महाथै रूपं यस्याः सा तथा, & महतो वाऽर्थान-जीवादितत्त्वरूपान् रूपयति-दर्शयतीति महार्थरूपा, 'वयणप्पभूयति वचनेन अप्रभूता अल्पभूता वा-अल्पत्वं प्राप्ता वचनाल्पभूता वचनात्प्रभूता वा स्तोकाक्षरेतियावत् , केयमीरशीत्याहू-गीयत इति गाथा, सा चेहार्थाद्धर्माभिधायिनी सूत्रपद्धतिः, अन्विति-तीर्थकृद्गणधरादिभ्यः पश्चाद्गीता अनुगीता, कोऽर्थः ?-तीर्थकरादिभ्यः श्रुत्वा प्रतिपादिता स्थविरैरिति शेषः, अनुलोमं वा गीताऽनुगीता, अनेन श्रोत्रनुकूलैच देशना क्रियत| दीप अनुक्रम [४१६-४१८] AIMEducatoninternational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 768~ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१३], मूलं [--]/ गाथा ||१०-१२|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) प्रत १३ सूत्रांक -१२|| उत्तराध्य. इति ख्यापितं भवति । केत्याह-नराणां-पुरुषाणां सद्यः-समूहस्तन्मध्ये, गाथामेव पुनर्विशेषयितुमाह-'या' चित्र गाथां 'भिक्षयः' मुनयः शीलं-चारित्रं तदेव गुणः, यद्वा गुणः पृथगेय ज्ञानं, ततः शीलगुणेन शीलगुणाभ्यांतीयाध्य. बृहद्वृत्तिः वा-चारित्रज्ञानाभ्यामुपेताः-युक्ताः शीलगुणोपेताः 'इह' अस्मिन् जगति 'अअयंते'त्ति अर्जयन्ति पठनश्रवणत॥३८५४ दानुष्ठानादिभिरावर्जयन्ति । यद्वा 'जं भिक्खुणों' इत्यत्र श्रुत्वेति शेपः, ततो यां श्रुत्वा 'जयंत'त्ति 'इह' अस्मिन् | जिनप्रवचने 'यतन्ते' यत्नवन्तो भवन्ति, सोपस्कारत्वात्सा मयाऽप्याकर्णिता, ततः 'श्रमणः' तपखी अस्मि अहं जातो, न तु दुःखदग्धत्वादिति भावः, पठ्यते च-'सुमणो'त्ति सुमनाः शोभनमना इति सूत्रत्रयार्थः ॥ इत्थं मुनिनाऽभिहिते ब्रह्मदत्तः स्खसमृद्धया निमन्त्रयितुमाह उच्चोभए महुकक्के य यंभे, पवेइया आवसहा य रम्मा । इमं गिहं वित्तधणप्पभूयं, पसाहि पंचालगुणोववेयं ॥१३॥ नहेहि गीएहि य वाइएहिं, नारीजणाहिं परिवारयंतो। मुंजाहि भोगाई इमाई भिक्खू, मम रोअई. पवजा हु दुक्ख ॥१४॥ उच्चोदयो मधुः कर्कः, चशब्दान्मध्यो ब्रह्मा च पञ्च प्रधानाः प्रासादाः प्रवेदिताः, मम वर्द्धकिपुरःसरैः सुरैरुप-12 नीता इत्यर्थः, 'आवसथाच' शेषभवनप्रकारा 'रम्याः' रमणीयाः, पाठान्तरतश्च आवसथाः अतिरम्याः-मुरम्या ॥३८५॥ दीप अनुक्रम [४१६-४१८] For ParaTRERNamunony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~769~ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [--] / गाथा ||१३-१४|| नियुक्ति : [३५५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३ -१४|| वा, एते तु यत्रैव चक्रिणे रोचते तत्रैव भवन्तीति वृद्धाः, किञ्च-'इदं' प्रत्यक्षं 'गृहम्' अवस्थितप्रासादरूपं वित्त प्रतीतं तच तद्धनं च-हिरण्यादि तेनोपेतं-युक्तं वित्तधनोपेतं, पठन्ति च 'चित्तधणप्पभूयं ति, तत्र प्रभूतं-बहु दचित्रम्-आश्चर्यमनेकप्रकारं वा धनमस्मिन्निति प्रभूतचित्रधनं, सूत्रे तु प्रभूतशब्दस्य परनिपातः प्राग्वत्, 'प्रसाधि' प्रतिपालय पञ्चाला नाम जनपदस्तस्मिन् गुणा-इन्द्रियोपकारिणो रूपादयस्तैरुपेतं पञ्चालगुणोपेतं, किमुक्तं भवति ?-3 पश्चालेषु यानि विशिष्टवस्तूनि तान्यस्मिन् गृहे सर्वाण्यपि सन्ति, तदा पञ्चालानामत्युदीर्णत्वात्पञ्चालग्रहणम् , अन्यथा हि भरतेऽपि यद्विशिष्टवस्तु तत् तद्देह एव तदासीत् ॥ किं च णदेहिति द्वात्रिंशत्पात्रोपलक्षितै स्यैर्नृत्यै -विविधाङ्गहारादिखरूपैर्गीतैः-ग्रामखरमूर्च्छनालक्षणैः, चस्स भिन्नक्रमत्वात् , 'वाइएहिति वादित्रैश्च मृदङ्गमुकुन्दादिभिः 'नारीजनान्' स्त्रीजनान् 'परिवारयन्' परिवारीकुर्वन् , पठ्यते च-पवियारियंतों त्ति प्रविचारयन्: | सेवमानो, 'भुआहित्ति भुल भोगानिमान्-परिदृश्यमानान् , सूत्रत्वात् सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः, भिक्षो !, इह तु यद्गजतुरङ्गमाद्यनभिधाय स्त्रीणामेवाभिधानं तत् स्वीलोलुपत्वात्तस्य, तासामेव वाऽत्यन्ताक्षेपकत्वख्यापनार्थे, कदाचिचित्रो वदेदित्थमेव सुखमित्याह-मयं रोचते' प्रतिभाति प्रव्रज्या, 'हुः' अवधारणे भिन्नक्रमश्च, दुःखमेव, न मनागपि सुखं, दुःखहेतुत्वादिति भाव इति सूत्रद्वयार्थः । इत्थं चक्रिणोक्ते मुनिः किं कृतवान् ? इत्याह COCOM दीप अनुक्रम [४१९-४२०] JAINEducatan intamanimal For PHOTOSPINAauipontv wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~~770~ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) चित्रसंभू उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥३८॥ प्रत सूत्रांक ||१५|| तं पुवनेहेण कयाणुरागं, नराहिवं कामगुणेसु गिर्छ । धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही, चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था ॥ १५ ॥ 'तं' अमदत्तं 'पूर्वलेहेन' जन्मान्तरप्ररूढप्रणयेन 'कृतानुराग' विहिताभिष्य 'नराधिपं राजानं 'कामगुणेपुतीयाध्य, अभिलप्यमाणशब्दादिषु 'गृद्धम्' अभिकालान्वितं 'धर्माश्रितः' धर्मस्थितः 'तस्य' इति चक्रिणः हितं-पथ्यम् अनुप्रेक्षते-पर्यालोचयतीसेवंशीलो हितानुप्रेक्षी-कथं नु नामास्य हितं स्यादिति विचिन्तनपरचित्रजीपयतिरिदं वाक्य |पाठान्तरतो वचनं या 'उदाहरित्य'त्ति 'उदाहतवान्' उक्तवानिति सूत्रायः ॥ किं तदुदाहतवानित्याहसव्वं विलचियं गीयं, सव्वं नई विषणा । सब्बे आभरणा भारा, सब्चे कामा दुहावहा ॥१६॥ बालाभिरामेसु दुहावहेसु, न तं सुहं कामगुणेसु राप विरत्तकामाण तबोधणाणं, जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ॥१७॥ 'सर्वम्' अशेषं विलपितमिव विलपितं निरर्थकतया रुदितयोनितया च, तत्र निरर्थकतया मत्तबालकगीतवत् रुदितयोनितया च विरहावस्थमृतप्रोषितभर्तृकागीतवत् , किमित्याह-गीतं' गानं, तथा सर्व 'नृत्य' गात्र-3 विक्षेपणरूपं विडम्बितमिव विडम्बितं, यथा हि यक्षाविष्टः पीतमद्यादिवा यतस्ततो हस्तपादादीन् विक्षिपति, एवं नृत्यनपीति, तथा सर्वाणि 'आभरणानि' मुकुटाङ्गदादीनि 'भाराः' तत्त्वतो भाररूपत्वात्तेषां, तथाविधवनिताभर्तृ दीप अनुक्रम [४२१] For janeitramar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~771~ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||१६-१७|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) प्रत * सूत्रांक ||१६ कारितसुवर्णस्थगितशिलापुत्रकाभरणवत्, सर्वे 'कामाः' शब्दादयो 'दुःखावहाः' मृगादीनामिवायती दुःखावाKAप्तिहेतुत्वात् , मत्सरेणूंविषादादिभिश्चितन्याकुलत्वोत्पादकत्वान्नरकादिहेतुत्वाचेति । तथा बालानां-विवेकरहि* तानाममिरामाः-चित्ताभिरतिहेतवो ये तेषु 'दुःखावहेषु' उक्तन्यायेन दुःखप्रापकेषु न तत्सुखं 'कामगुणेषु' मनो शब्दादिषु, सेव्यमानेबिति शेषः, 'राजन् !' पृथ्वीपते ! 'विरत्तकामाण'त्ति प्राग्वत् , कामविरक्तानां-विषयपरा|शुखानां तप एव धनं येषां ते तपोधनास्तेषां यत्सुखमिति संवन्धः, 'मिथूणां' यतीनां शीलगुणयोर्वा सूत्रत्वाद् रतानां' आसक्तानामिति सूत्रद्वयार्थः ॥ वालेत्यादिसूत्रं चूर्णिकृता न व्याख्यातं, कचित्तु दृश्यत इत्यस्माभिरुन्नीतं ॥ सम्प्रति धर्मफलोपदर्शनपुरःसरमुपदेशमाह- . नरिंद जाई अहमा नराणं, सोवागजाई दुहओ गयाणं । जहिं वयं सव्वजणस्स बेसा, वसीअ सोवागनिवेसणेसु ॥१८॥ तीसे अ जाईइ उ पावियाए, वुच्छा मुसोवागनिवेसणेसुं।। सव्वस्स लोगस्स दुगुणिज्जा, इहं तु कम्माई पुरेकडाई ॥ १९ ॥ सो दाणि सिं राय ! महाणुभागो महिडिओ पुषणफलोववेओ। चइत्तु भोगाई असासयाई, आयाणहे अभिनिक्खमाहि ॥२०॥ -१७|| AAAAAA दीप अनुक्रम [४२२-४२३] **% % % % For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~772~ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१८ -२०|| दीप अनुक्रम [ ४२४ -४२६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२८७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१८-२०|| अध्ययनं [१३], in Education Intimational 'नरेन्द्र !' चक्रवर्त्तिन् ! जायन्तेऽस्यामिति जातिः 'अधमा' निकृष्टा 'नराणां' मनुष्याणां मध्ये 'श्वपाकजातिः' चाण्डालजातिः 'दुहतो 'ति द्वयोरपि 'गतयोः' प्राप्तयोः, किमुक्तं भवति ? - यदाऽऽवां श्वपाकजातावुत्पन्नौ तदा सर्वजनगर्हिता जातिरासीत्, कदाचित्तामवाप्याप्यन्यत्रैवोषितौ स्यातामित्याह - यस्यां वयं प्राग्वच बहुवचनं, 'सर्वजनस्य' अशेषलोकस्य 'द्वेष्यौ' अप्रीतिकरौ 'वसीय'त्ति अवसाय-उपितों केषु ? – श्वपाकानां निवेशनानि - गृहाणि | श्रपाकनिवेशनानि तेषु कदाचित्तत्रापि विज्ञानविशेषादिनाऽहीलनीयावेव स्यातामित्याह तस्यां च जातौ श्रपाकसम्बन्धिन्यां च, 'तुः' विशेषणे, ततश्च जात्यन्तरेभ्यः कुत्सितत्वं विशिनष्टि, पाषैव पापिका तस्यां कुत्सितायां, पापहेतुभूतत्वेन वा पापिका तस्यां प्रापिकायां वा नरकादिकुगतेरिति गम्यते, 'बुच्छे' ति उषिती 'मु' इत्यावां, केषु ? - श्वपाकनिवेशनेपु, कीदृशौ ? - सर्वस्य लोकस्य 'जुगुप्सनीय' हीलनीयौ 'इ' इत्यस्मिन् जन्मनि 'तुः' पुनरर्थस्तत इह पुनः 'कर्माणि' शुभानुष्ठानानि 'पुरेकडाई 'ति पूर्वजन्मोपार्जितानि विशिष्टजात्यादिनिबन्धनानीति शेषः, तत उत्पन्नप्रत्ययैः पुनस्तदुपार्जन एव यत्रो विधेयो न तु विषयाभिष्वङ्गव्याकुलितमानसैरेव स्थेयमिति भाव इति । यतश्चैवमतः 'सः' इति यः पुरा संभूतनामाऽनगार आसीद 'इदानीम्' अस्मिन् काले 'सि'त्ति पूरणे यद्वा 'दाणिसिं 'ति देशीयभापयेदानीं राजा महानुभागो महर्द्धिकः पुण्यफलोपेतश्च सन् दृष्टधर्म फलत्वेनाभिनिष्क्रामेति संबन्धः, अथवा सोपस्कारत्यायत् स एव त्वमिदानीं राजा महानुभागताद्यन्वित इह जातस्तत्कर्माणि पुराकृतानीति For Para Prata Use Only निर्युक्तिः [३५५...] ~ 773~ चित्रसंभू तीयाध्य. १३ ॥३८७॥ wanaum मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||१८-२०|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) CCCCROSS प्रत सूत्रांक ||१८ पूर्वेण संवन्धः, कोऽर्थः !-पुराकृतकर्मविजृम्भितमेवैतत् , कथमन्यथा तथाभूतस्यैवंविधसमृद्ध्यवाप्तिरिति भावः, यतश्चैवमतोऽभिनिष्क्रामेति संवन्धः, किं कृत्वेत्याह-'त्यक्त्वा' अपहाय भुज्यन्त इति भोगाः-द्रव्यनिचयाः कामा वा तान् 'अशाश्वतान्' अनित्यान् आदीयते-सद्विवेकखत इत्यादानः-चरित्रधर्मस्त द्धेतोरभिनिष्क्राम-आभिमुख्येन प्रत्रजितो भव, गृहस्थतायां हि न सर्वविरतिरूपचारित्रसम्भव इति भावः, पठन्ति च-'आयाणमेवा अणुचिंतयाही ति, स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ क एवमकरणे दोष इत्याह-- इह जीविए राय ! असासयंमि, धणियं तु पुण्णाइँ अकुब्बमाणो। से सोअई मचुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परंमि लोगे ॥ २१ ॥ इह 'जीविते' मनुष्यसम्बन्धिन्यायुषि राजन् ! 'अशाश्वते' अस्थिरे 'धणियं तुति अतिशयेनैव न तु ध्वजपट-11 प्रान्ताद्यन्यास्थिरवस्तुसाधारणतया 'पुण्यानि' पुण्यहेतुभूतानि शुभानुष्ठानान्यकुर्वागः 'सः' इति पुण्यानुपार्जका 'शोचते' दुःखातः पश्चात्तापं विधत्ते, मृत्युः-आयुःपरिक्षयस्तस्स मुखमिव मुखं मृत्युमुख-शिथिलीभवन्धनाद्यवस्था तदुपनीतस्तथाविधकर्मभिरुपढौकितो मृत्युमुखोपनीतः सन् 'धर्म' शुभानुष्ठानम् 'अकृत्वा' अननुष्ठाय परंमि'त्ति चस्य गम्यमानत्वात् परस्मिंश्च 'लोके' जन्मान्तररूपे, गत इति शेषः, नरकादिषु बसह्यासातवेदनार्दितशरीरः -२०|| दीप अनुक्रम [४२४-४२६] CMMA JAINEducatamine For PAHATEEPIVanupontv A ncibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~774~ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) चित्रसंभूः सत्तराध्य बृहद्वृत्तिः n૨૮૮૪ प्रत सूत्रांक ||२१|| शशिनृपतिवत्किं न मया तदैव सदनुष्ठानमनुष्ठितमिति खिद्यत एवाधर्मकारीति सूत्रार्थः ॥ स्वादेतत्-मृत्युमुखो|पनीतस्य परत्र वा दुःखाभिहतस्य खजनादयस्त्राणाय भविष्यन्ति, ततो न शोचिष्यन्ते इत्याशङ्कयाह तीयाध्य. जहेह सीहो व मियं गहाय, मनू नरं नेइ हु अंतकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालंमि तंमंसहरा भवंति ॥ २२॥ न तस्स दुक्खं विभयंति नायओ, न मित्तवग्गा न सुआ न बंधवा । इको सय पचणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। २३॥ 'यथे'पीपम्ये 'इहेति लोके 'सिंहः' मृगपतिः, वेति पूरणे, यद्वा वाशब्दोऽयं विकल्पार्थे, ततो व्यानादिर्वा| 'मृगं' कुरङ्गं 'गृहीत्वा' उपादाय प्रक्रमात्खमुखं परलोकं वा नयतीति सम्बन्धः, एवं 'मृत्युः कृतान्तः 'नरं' पुरुष नयति 'हुः' अवधारणे, ततो नयत्येव, कदा ?-अन्तकाले जीवितव्यावसानसमये, किमुक्तं भवति ?-यथाऽसौ सिंहेन नीयमानो न तस्मै अलम् , एवमयमपि जन्तुर्मुत्युना, कदाचित्खजनस्तत्र साहाय्यं करिष्यत्यत आह-न तस्यमृत्युना नीयमानस्य माता वा पिता वा 'भाय'त्ति वाशब्दखेह गम्यमानत्वाद्धाता वा 'काले तस्मिन्' जीविता-13॥३८॥ न्तरूपे अंश-प्रक्रमाजीवितव्यभागं धारयन्ति-मृत्युना नीयमानं रक्षन्तीसंशधराः, यथा हि नृपादी खजनसवख|मपहरति खद्रविणदानतः खजनादिभिस्तद्रक्ष्यते नैवं खजीवितव्यांशदानतस्तजीवितं मृत्युना नीयमानम्, उक्त दीप अनुक्रम [४२७] AIMEducatan international For PF wiancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~775~ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [--] / गाथा ||२२-२३|| नियुक्ति : [३५५...] (४३) प्रत 5*% सूत्रांक ||२२-२३|| हि-"न पिता भ्रातरः पुत्रा, न भार्या न च बान्धवाः। न शक्ताः मरणाप्रातुं, शक्काः संसारसागरे ॥१॥" इति, अथवाउंशो-दुःखभागस्तं हरन्ति-अपनयन्ति ये तेऽशहरा भवन्तीति, इदमेवाभिव्यनक्ति, आद्यव्याख्याने तु स्यादेतद-जीवितारक्षणेऽपि दुःखांशहारिणो भविष्यन्त्यत आह-न तस्य-मृत्युना नीयमानस्य तत्कालभाविना दुःखेनासन्तपीडितस्य दुःखं शारीरं मानसं वा 'विभजन्ति' विभागीकुर्वन्ति 'ज्ञातयः' दूरवर्तिनः खजना न 'मित्रवर्गा' सुहत्समूहा न 'सुताः पुत्रा न 'बान्धवाः' निकटवर्तिनः खजनाः, किन्तु एक:-अद्वितीयः 'खयम्' आत्मना 'प्रत्यनुभवति' वेदयते 'दुःखं क्लेशं, किमिति !, यतः 'कारमेव' उपार्जयितारमेय 'अनुयाति' अनुगच्छति, किं तत् ?कर्म, येन तत्कृतं तस्यैव फलमुपनयतीति भाव इति सूत्रद्वयार्थः ॥ इत्थमशरणत्वभावनामभिधायैकत्वभावनामाह चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खितं गिह धणधन्नं च सव्वं । कम्मप्पचीओ अवसो पयाई, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥२४॥ तं इक्वगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं दहि पावगेणं । भला य पुत्तावि य नायभो अ, दायारमन्नं अणुसंकमंति ॥ २५ ।। 'त्यक्त्वा' उत्सृज्य 'द्विपदं च भार्यादि 'चतुष्पदं च हस्त्यादि क्षेत्रम्' इक्षक्षेत्रादि 'गृह' धवलगृहादि I'धण'त्ति धनं-कनकादि 'धान्यं' शाल्यादि, चशब्दाद् वस्त्रादि च, 'सर्व' निरवशेष, ततः किमित्याह-कर्मेवात्मनो % % % दीप अनुक्रम [४२८-४२९] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~~776~ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२४ -२५|| दीप अनुक्रम [४३० -४३१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३८९ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२४-२५|| अध्ययनं [१३], Jain Education Intimational द्वितीयमस्येति कर्मात्मद्वितीयः 'अवशः' अखतन्त्रः प्रकर्षेण याति प्राप्नोति प्रयाति, कं ? - 'परम्' अन्यं 'भर्व' जन्म 'सुंदर'त्ति विन्दुलोषात् 'सुन्दर' स्वर्गादि 'पापकं वा' नरकादि, स्वकृतकर्मानुरूपमिति भावः ॥ तत्र किमन्यदर्श - निनामिव सशरीर एव भवान्तरं यात्युत अन्यधेति ?, उच्यते, औदारिकशरीरापेक्षयाऽशरीर एव, तर्हि तत्त्यक्त्वेत्यत्र का वार्त्तेत्याह- 'तद्' इति यत्तेन त्यक्तम् 'एकम्' अद्वितीयं तद्द्द्वितीयस्य जन्तोरन्यत्र सङ्क्रमणात् तुच्छम्असारमत एव कुत्सितं शरीरं शरीरकम्, अनयोस्तु विशेषणसमासः, 'से' तस्य भवान्तरगतस्य संबन्धि चीयन्तेमृतकदहनाय इन्धनानि अस्यामिति चितिः काष्ठरचनात्मिका तस्यां गतं स्थितं चितिगतं दग्ध्वा 'तुः' पूरणे 'पावकेन' अग्निना भार्या च पुत्रोऽपि च ज्ञातयश्थ 'दातारम्' अभिलपितवस्तुसम्पादयितारमन्यम् 'अनुसङ्क्रामन्ति' उपसर्पन्ति, ते हि गृहमनेनावरुद्धमास्त इति तद्वहिर्निष्काश्य जनजादिना च भस्मसात्कृत्य कृत्वा च लौकिकत्यान्याक्रन्द्य च कतिचिद्दिनानि पुनः स्वार्थतत्परतया तथाविधमन्यमेवानुवर्त्तन्ते, न तु तत्प्रवृत्तिमपि पृच्छन्ति, आस्तां तदनुगमनमित्यभिप्राय इति सूत्रद्वयार्थः ॥ किञ्च निर्युक्तिः [३५५...] उवणिजाई जीवियमप्पमायं, यण्णं जरा हरइ नरस्स रायं ! | पंचाला ! वयणं सुणाहि मा कासि कम्माई महालयाई ।। २६ ।। 'उपनीयते' ढोक्यते प्रक्रमान्मृत्यवे तथाविधकर्मभिः 'जीवितम्' आयुः 'अप्रमाद' प्रमादं विनैव, आधीचीमर Para Prata Use Only ~777~ चित्रसंभू तीयाध्य १३ ॥३८९ । www.ncbrand मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-1 / गाथा ||२६|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) 62 प्रत सूत्रांक 60-% ||२६|| णतो निरन्तरमित्यभिप्रायः, सत्यपि च जीविते वर्ण' सुस्निग्धच्छायात्मकं 'जरा' विश्रसा 'हरति' अपनयति 'नरस्य' मनुष्यस्य 'राजन् !' चक्रवर्तिन् !, यतश्चैवमतः 'पञ्चालराज!' पञ्चमण्डलोद्भवनृपते! 'वचन' वाक्यं 'शृणु आकर्णय, किं तत् ?-मा कार्की, कानि ?-'कर्माणि' असदारम्भरूपाणि 'महालयाणि'त्ति अतिशयमहान्ति, महान् वा लयः-कर्माश्लेषो येपु तानि, उभयत्र पञ्चेन्द्रियव्यपरोपणकुणिमभक्षणादीनीति सूत्रार्थः ॥ एवं मुनिनोक्ते नृपतिराह अहंपि जाणामि जहेह साहू!, जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा भवंति, जे दुज्या अजो! अम्हारिसेहिं ॥२७॥ अहमपि, न केवलं भवानित्यपिशब्दार्थः, 'जानामि' अवबुध्ये, तथा इति शेषः, 'यथा' येन प्रकारेण 'इह' अस्मिन् जगति साधो! यत् 'मे' मम त्वं 'साधयसि' कथयसिवाक्यम्' उपदेशरूपं वचः 'एतत्' यदनन्तरं भवतोतं, सत् किं न विषयान् परित्यजस्थत आह-'भोगाः' शब्दादयः 'इमें प्रत्यक्षाः 'सङ्गकराः' प्रतिबन्धोत्पादका भवन्ति ये। यत्तदोश्च नित्याभिसम्बन्धात्ते दुःखेन जीयन्ते-अभिभूयन्ते इति दुर्जयाः दुस्त्यजा इतियावत् 'अजो'त्ति आर्य ! अस्मारशैः, गुरुकर्मभिर्जन्तुभिरिति गम्यते, पठ्यते च-'अहंपि जाणामि जो एत्थ सारों' पादत्रयं तदेव, अहमपि । दीप अनुक्रम [४३२] For PaHATRAPiwanipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~~778~ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||२८-२९|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) 4% A तीयाध्य. प्रत सूत्रांक ||२४ -२५|| उत्तराध्य. जानामि योऽत्र सारो-यदिह मनुजजन्मनि प्रधानं चारित्रधर्मात्मकं, चस्य गम्यमानत्वात् , यच मे त्वं साधयसि, चित्रसंभू. शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ।। किञ्चबृहद्वृत्तिः हथिणपुरंमि चित्ता! दहणं नरवई महिड्डियं । कामभोगेसु गिद्धेणं नियाणमसुभं कई ॥२८॥ ॥३९॥ तस्स मे अप्पडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं । जाणमाणोऽवि जं धम्मं, कामभोगेसु मुच्छिओ ॥२९॥ हस्तिनागपुरे 'चित्ता' इति आकारोऽलाक्षणिकः, हे 'चित्र !' चित्रनामन् सुने ! दृष्ट्वा 'नरपति' सनत्कुमारनामानं चतुर्थचक्रवर्त्तिनं 'महर्द्धिक' सातिशयसम्पदं 'कामभोगेषु' उक्तरूपेषु 'गृद्धेन' अभिकाङ्क्षावता 'निदान' जन्मान्तरे |भोगाशंसात्मकम् ‘अशुभ अशुभानुबन्धि 'कृतं निवर्त्तितमिति ॥ कदाचित्तत्र कृतेऽपि ततः प्रतिक्रान्तः स्यादत आह'तस्स'त्ति सुब्व्यत्ययेन तस्मात् निदानात् 'मे' मम 'अप्रतिक्रान्तस्य' अप्रतिनिवृत्तस्य, तदा हि त्वया बहुधोच्यमा नेऽपि न मचेतसः प्रत्यावृत्तिरभूदिति, 'इदमेतादृशम्' अनन्तरवक्ष्यमाणरूपं 'फलं' काय, यत् कीरगिलाह-'जाणमादणोऽविपत्ति प्राकृतत्वात् 'जाननपि' अवबुध्यमानोऽपि यदहं 'धर्म' श्रुतधर्मादिकं कामभोगेषु मूर्छितः-गृद्धा, तदेत-X॥३९०॥ कामभोगेपु मूछेनं मम निदानकर्मणः फलम् , अन्यथा हि 'ज्ञानस्य फलं विरति'रिति कथं न जानतोऽपि धमोनुष्ठानावाप्तिः स्यादिति भाव इति सूत्रद्वयार्थः ॥ पुनर्निदानफलमेवोदाहरणतो दर्शयितुमाह दीप अनुक्रम [४३०-४३१] SADAGA wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~779~ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/ गाथा ||३०|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३०|| नागो जहा पंकजलावसन्नो, दट्टुं धलं नाभिसमेइ तीरं। एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, न भिक्खुणो मग्गमणुब्वयामो ॥ ३०॥ 'नाग' हस्ती 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शकः पङ्कप्रधानं जलं पङ्कजलं यत्कलमुच्यते तत्रावसन्नो-निमग्नः पङ्कजलावसन्नः सन् 'रष्टा' अवलोक्य 'स्थल' जलविकलभूतलं 'न' नैव 'अभिसमेति' प्राप्नोति 'तीर' पारम्, अपेर्गम्यमानत्वात्तीरमप्यास्तां स्थलमिति भावः, इत्येवंविधनागवत् वयमित्यात्मनिर्देशे 'कामगुणेषु' उक्तरूपेषु 'गृद्धाः मूञ्छिता न 'भिक्षोः' साधोः 'मार्ग' पन्धानं सदाचारलक्षणम् 'अनुव्रजामः' अनुसरामः । अमी हि पङ्कजलोपमाः कामभोगाः, ततस्तत्परतवतया न तत्परित्यागतो निरपायतया स्थलमिव मुनिमार्गमवगच्छन्तोऽपि पङ्कजलावमनगजवद्वयमनुगन्तुं शक्नुम इति सूत्रार्थः ॥ पुनरनित्यतादर्शनाय मुनिराह अचेह कालो तूरंति राइओ, न यावि भोगा पुरिसाण निया। उविच भोगा पुरिसं चयंति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ॥ ३१ ॥ 'अत्येति' अतिक्रामति कालः यथाऽऽयुःकालः, किमित्येवमुच्यते ?, अत आह-'वरन्ति' शीघ्रं गच्छन्ति | रात्रयः' रजन्यः दिनोपलक्षणं चैतत . ततोऽनेन जीवितव्यस्थानित्यवमुक्तम् , उक्तं हि-"क्षणयामदिवसमासच्छसाटन गच्छन्ति जीवितदलानि । इति विद्वानपि कथमिह गच्छसि निद्रायर्श रात्री १ ॥१॥" अथवा 'अपेति' अतीय। दीप अनुक्रम [४३६] Forum मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~780~ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [३५५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३१|| उत्तराध्य. याति, कोऽसौ ?-कालः, कुत एतत् ?-यतस्त्वरन्ति रात्रयो, न चापि भोगाः पुरुषाणां 'नित्साः शाश्वताः, अपे चित्रसंभूबृहद्वृत्तिः भिन्नक्रमत्वान केवलं जीवितमुक्तिनीतितो न नित्यं, किन्तु भोगा अपि, यत उपेत्य स्खप्रवृत्त्या न तु पुरुषाभि-A तीयाध्य. प्रायेण भोयाः पुरुषं 'त्यजन्ति' परिहरन्ति, कमिय क इवेत्साह-'दुर्म' वृक्षं यथा क्षीणानि-विनष्टानि फलानि ॥३९१॥ यस्थासी क्षीणफलतं, 'वा' इत्यौपम्ये, उक्तं हि-"पिव मिव विव वा इवार्थ" भिन्नक्रमश्चार्य, ततः 'पक्षीव' विहग इव, ६ फलोपमानि हि पुण्यानि, ततस्तदपगमे क्षीणफलं वृक्षमिव पुरुषं पक्षिबद्भोगा विमुञ्चन्तीति सूत्रार्थः॥ यत एवमत: जईऽसि भोगे चइडं असत्तो, अजाई कम्माई करेहि रायं!। धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकंपी, तं होहिसि देवो इओ विउब्बी ।। ३२ ।। यदि तावदसि त्वं भोगान् 'त्यक्तुम्' अपहातुम् 'अशक्तः' असमर्थः, पठ्यते च-'जइ तंसि भोगे चइतुं असत्ते'त्ति,81 यदि चैवं तावत्कर्तुं न शक्तस्ततः किमित्याह-'आर्याणि' हेयधर्मेभ्यः-अतिनिखिंशतादिभ्यो दूरयातानि शिष्टजनो|चितानीतियावत् 'कर्माणि' अनुष्ठानानि कुरु राजन् ! 'धर्म' प्रक्रमाद्हस्थधर्म सम्यग्दष्टयादिशिष्टाचरिताचारलक्षणे स्थितः सन् 'सर्वप्रजानुकम्पी' समस्तप्राणिदयापरः, ततः किं फलमित्याह-ततः' इत्यार्यकर्मकरणाद् भविप्यसि 'देवः' वैमानिकः 'इतः' इत्यस्मान्मनुष्यभवादनन्तरं 'बिउबित्ति वैक्रियशरीरवानित्यर्थ इति वृद्धाः, गृहस्थ दीप अनुक्रम [४३७] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 781~ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [४३८] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३२|| निर्युक्तिः [३५५...] अध्ययनं [१३], धर्मस्यापि सम्यक्त्व देशविरतिरूपस्य देवलोकफलत्वेनोक्तत्वादिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ एवमुक्तोऽपि यदाऽसौ न किञ्चित्प्रतिपद्यते तदा तदविनेयतामवधार्य मुनिराह न तुज्झ भोगे चईऊण बुद्धी, गिद्धोऽसि आरंभपरिग्गहेसुं । मोहं कओ इति विप्पलायो, गच्छामि रायं ! आमंतिओऽसि ॥ ३३ ॥ 'ने'ति प्रतिषेधे तब 'भोगान्' शब्दादीन् उपलक्षणत्वादनार्यकर्माणि वा, 'चइऊण'त्ति त्यक्तुं यद्वा सोपस्का रत्वाद्भोगांस्त्यक्त्वा धर्मो मया विधेय इति 'बुद्धिः' अवगतिः, किन्तु 'गृद्धः' मूर्च्छितः 'असि' भवसि केषु ?'आरम्भपरिग्रहेषु' अवद्यहेतुषु व्यापारेषु चतुष्पदद्विपदादिखीकारेषु च 'मोहं'ति मोघं निष्फलं यथा भवति एवं, | सुव्यत्ययाद्वा मोघो - निष्फलो मोहेन वा पूर्वजन्मनि मम भ्राताऽऽसीदिति लेहलक्षणेन 'कृतः' विहितः एतावान् 'विप्रलापः ' विविधव्यर्थवचनोपन्यासात्मकः, सम्प्रति तु 'गच्छामि' व्रजामि राजन् ! आमन्त्रितः - संभाषितः, अनेकार्थत्वाद्धातूनां पृष्टो वा 'असि' भवसि अयमाशयः - अनेकधा जीवितानित्यत्वादिदर्शनद्वारेणानुशिष्यमाणस्यापि ते न मनागपि विषयविरक्तिरित्यविनेयत्वादुपेक्षेव श्रेयस्करी, उक्तं हि " मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्व - गुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु" ( तच्चा० अ० ७-सू० - ६ ) इति सूत्रार्थः ॥ इत्थमुक्त्वा गते मुनौ ब्रह्मदत्तस्य | यदभूत्तदाह For Prata Use Only Francibran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~782~ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [-]/गाथा ||३४|| नियुक्ति: [३५५R-३५९] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३९२॥ प्रत सूत्रांक पंचालरायाऽविय बंभदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं । चित्रसंभूअणुत्तरे भुंजिय कामभोगे, अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो ।। ३४ ॥ 'पंचालराआऽविय'त्ति 'अपि' पुनरर्थः, 'चः' पुरणे, ततः पञ्चालराजः पुनर्बह्मदत्तो-असदत्ताभिधानः 'साधोः|| तीयाध्य. तपखिनः 'तस्य' अनन्तरोक्तस्य 'वचनं हितोपदेशदर्शकं वाक्यम् 'अकृत्वा' बजतन्दुलबद्गुरुकौतयाऽत्यन्तदुर्भेदवादननुष्ठाय 'अनुत्तरान्' सर्वोत्तमान् ‘भुङ्क्त्वा ' अनुपाल्य 'कामभोगान्' उक्तरूपान् 'अनुत्तरे' स्थित्यादिभिः सकलनरकज्येष्ठेऽप्रतिष्ठान इतियावत् 'स' ब्रह्मदत्तः 'नरके' प्रतीते 'प्रविष्टः' तदन्तरुत्पन्नः, तदनेन निदानस्य नरकपर्यवसानफलत्वमुपदर्शितं भवतीति सूत्रार्थः ॥ इह चास्य शेषवक्तव्यतासूचिका अपि नियुक्तिगाथाः पञ्च दृश्यन्ते, ||३४|| तद्यथा दीप अनुक्रम [४४०] इत्थीरयणपुरोहियभिजाणं वुग्गहो विणासंमि । सेणावइस्त भेओ वक्कमणं चेव पुत्ताणं ॥ ३५५॥४ संगाम अत्थि भेओ मरणं पुण चूयपायवुजाणे।कडगस्स य निन्भेओ दंडो अपुरोहियकुलस्स ३५६|| जउघरपासायंमि अ दारे य सयंवरे अ थाले आतत्तोअआसए हथिए अ तह कुंडए चेव ॥३५७॥1 ॥३९२॥ कुकुडरहतिलपत्ते सुदंसणो दारुए य नयणिल्ले । पत्तच्छिजसयंवर कलाउ तह आसणे चेव ॥ ३५८ ॥ C For PRATEEnviruinony wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 783~ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१३], मूलं [--] / गाथा ||३५|| नियुक्ति: [३५५R-३५९] (४३) %* *% प्रत सूत्रांक % % ||३५|| कंचुयपजुण्णंमि अ हत्थो वणकुंजरे कुरुमई अ । पए कन्नालंभा बोद्धवा बंभदत्तस्स ॥ ३५९ ॥ एतास्तु विशिष्टसम्प्रदायाभावान्न वित्रियन्ते ॥ सम्प्रति प्रसङ्गत एव चित्रवक्तव्यतोच्यते चित्तोऽवि कामेहिं विरत्तकामो, उदत्तचारित्ततवो महेसी। अणुत्तरं संजम पालइत्ता, अणुत्तरं सिद्धिगई गओ ॥ ३५ ॥ तिमि ॥ ॥चित्तसंभूइजं समत्तं ॥१३॥ 'चित्रोऽपि' जन्मान्तरनामतश्चित्राभिधानस्तपस्व्यपि, अत्रापि 'अपिः' पुनरर्थे, ततश्चित्रः पुनः 'कामेभ्यः | अभिलषणीयशब्दादिभ्यो विरक्तः-पराङ्मुखीभूतः कामः-अभिलाषोऽस्पेति विरक्तकामः उदात्तं-प्रधानं चारित्रं चसर्वविरतिरूपं तपश्च-द्वादशविधं यस्य स उदात्तचारित्रतपाः, पाठान्तरतः-उदग्रचारित्रतपा वा महेषी महर्षिा, अनुत्तरं सर्वसंयमस्थानोपरिवर्तिनं 'संजम'त्ति संयमम्-आश्रवोपरमणादिकं पालयित्वा' आसेव्य 'अनुत्तरी सर्वलो8 काकाशोपरिवर्तिनीमतिप्रधानां वा 'सिद्धिगति' मुक्तिनाम्नी गति 'गतः' प्राप्त इति सूत्रार्थः ॥ इति' परिसमाप्ती, नवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्ते च पूर्ववत् । इत्याचार्य श्रीशान्तिसूरिकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीका चित्रसंभूतीयं त्रयोदशमध्ययनं समासमिति ॥१३॥ %* दीप अनुक्रम [४४१] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-१३ परिसमाप्तं ~ 784~ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-1 / गाथा ||३५...|| नियुक्ति: [३६०-३६१] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३९३॥ १४ प्रत सूत्रांक ||३५|| अथ चतुर्दशमिषुकारीयमध्ययनम्। इषुकारीय मध्ययन. व्याख्यातं त्रयोदशमध्ययनं चित्रसम्भूतीयम् , अधुना चतुर्दशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तराध्ययने मुख्यतो निदानदोष उक्तः प्रसङ्गतो निर्निदानतागुणश्च, अत्र तु मुख्यतः स एवोच्यते इत्यनेन सम्बधेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चानुयोगद्वारचतुष्टयचर्चः प्राग्वत्तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे इषुकारीयमिति नाम, अत इषुकारनिक्षेपमभिधातुमाह नियुक्तिकृत् उमुआरे निक्लेवो चउ० ॥ ३६० ॥ जाण ॥ ३६१॥ उसुआरनामगोए वेयंतो भावओ अ उसुआरो । तत्तो समुट्रियमिणं उसुआरिजंति अज्झयणं ॥३६॥ गाथात्रयं स्पष्टमेव, नवरमिषुकाराभिलापेन नेयं, तथा यदिघुकारात्समुत्थितं तत्तस्मै प्रायो हितमेव भवतीति | P३९३॥ इपुकाराय हितमिषुकारीयमुच्यते, प्राधान्याच राज्ञा निर्देशः, अन्यथा पडूभ्योऽप्येतत्समुत्थानं तुल्यमेवेति ॥ सम्प्रति कोऽयमिपुकार इति तद्वक्तव्यतामाह नियुक्तिकृत् दीप अनुक्रम [४४१] JAINEducatan intimational For ciancibanam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १४ "इषुकारिय" आरभ्यते ~ 785~ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| दीप अनुक्रम [४४१] Jan Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||३५...|| अध्ययनं [१४], | पुवभवे संघडिआ संपीआ अन्नमन्नमणुरत्ता । भुत्तूण भोगभोए निग्गंथा पवए समणा ॥ ३६३ ॥ काऊण य सामन्नं पउमगुम्मे विमाणि उववन्ना । पलिओवमाइं चउरो ठिई उक्कोसिआ तेसिं ॥ ३६४|| तत्तो य चुआ संता कुरुजणवयपुरवरंमि उसुआरे । छावि जणा उववन्ना चरिमसरीरा विगयमोहा ॥ ३६५॥ राया उसुयारो या कमलावइ देवि अग्गमहिसी से भिगुनामे य पुरोहिय वासिट्टा भारिआ तस्स ३६६ | उसुआरपुरे नयरे उसुआरपुरोहिओ अ अणवञ्चो । पुत्तस्स कए बहुसो परितप्यंती दुअग्गावि ॥ ३६७॥ | काऊण समणरूवं तहिअं देवो पुरोहिअं भणइ । होहिंति तुज्झ पुत्ता दुन्नि जणा देवलोगचुआ ॥ ३६८ ॥ तेहि अ पवइअवं जहा य न करेह अंतरायं पहे । ते पवइआ संता बोहेहिंती जणं बहुअं ॥ ३६९ ॥ तं वयणं सोऊणं नगराओ निंति ते वयग्गामे । वहू॑ति अ ते तहिअं गाहिंति अ णं असम्भावं ३७० एए समणा धुत्ता पेयपिसाया य पोरुसादा य । मा तेसिं अलिअहा मा भे पुत्ता ! विणासिज्जा ॥३७१ ॥ दटुण तहिं समणे जाई पोराणिअं च सरिऊणं । बोहितऽम्मापिअरं उसुआरं रायपुत्तं च ॥ ३७२ ॥ सीमंधरो य राया भिगू अ वासिट्ट रायपत्ती य । बंभणी दारगा चैव छप्पेए परिनिव्वुआ ॥ ३७३ ॥ For PP Use Only निर्युक्तिः [३६३-३७३] ~786~ rancibrary and मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| दीप अनुक्रम [४४१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३९४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||३५...|| अध्ययनं [१४], Jan Education Intamational आसामक्षरार्थः स्पष्ट एव, नवरं 'संघडिय'त्ति सम्यग घटिताः परस्परं सेहेन संबद्धा वयस्या इतियावत्, तेऽपि | कदाचिद्विगलितान्तरप्रीतयोऽपि दाक्षिण्याजनलज्जादितस्तथा स्युरत आह- 'संप्रीताः' सम्यगान्तरप्रीतिभाजः, तथा 'अन्योऽन्यमनुरक्ताः' अतिशयख्यापनफलत्वादत्यन्त लेह भाजः, अथवा 'संघडिय'त्ति देशीपदमव्युत्पन्नमेव मित्राभिधायि, प्रीतिर्वाला अनुरागस्तु भावतः प्रतिबन्धः, पठयते च - 'घडियाउ' ति घटिता-मिलिताः, तथा 'भोगभोगे 'ति भोक्तुं योग्या भोग्या ये भोगास्तान् भोग्यभोगान् भोगभोगान् वाऽतिशायिनो भोगान्, पाठान्तरतः कामभोगान् वा, 'णिग्गंथा पचए समण'ति निर्ग्रन्थाः - त्यक्तग्रन्थाः 'प्रात्रजन्' प्रत्रज्यां गृहीतवन्तः, ततथ 'श्रमणाः ' तपखिनोऽभूवन्निति शेषः । 'दुयग्गावित्ति देशीपदं प्रक्रमाच द्वावपि दम्पती, तथा 'अन्तरायं' विघ्नं 'हे' ति अनयोः, तथा 'णिति'त्ति निर्यन्ति आधिक्येन गच्छन्ति कं १ प्रजामं' गोकुलप्रायग्रामं प्रत्यन्तग्राममित्यर्थः, 'गाहिंति अणं असम्भाव' ति ग्राहयतोऽसद्भावमसन्तम् असुन्दरं वाऽर्थ-साधुप्रेतत्वादिलक्षणं प्रेताः 'पिशाचाश्च' पिशाचनिकायोत्पन्नाः 'पौरुषादार्थ' प्रस्तावात्पुरुषसम्बन्धिमांसभक्षका राक्षसा इतियावत्, 'तेसिं' ति सूत्रत्वात् तान् 'अडियह'त्ति आलीयेताम् — आश्रयतां किमित्यत आह-मा 'मे' भवन्तौ पुत्रौ विनश्येतामिति । अत्र चेषुकारमिति राज्यकालनाम्ना सीमन्धरश्चेति मौलिकनाम्नेति सम्भावयामः इति गाथैकादशकावयवार्थः ॥ For Parent निर्युक्तिः [३६३-३७३] ~787~ इषुकारीय मध्ययनं. १४ ॥ ३९४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||३५...|| नियुक्ति: [३६३-३७३] (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| भावार्थस्तु सम्प्रदायादयसेयः, स चायं-जे ते दोन्नि गोवदारया साहुअणुकंपयाए लद्धसंमत्ता कालं काऊण देवलोगे उववन्ना, ते तओ देवलोगाउ चइउं खिइपइटियनयरे इब्भकुले दोवि भायरो जाया, तत्थ तेर्सि अन्नेवि चत्तारि इच्भदारगा वयंसिया जाया, तत्थवि भोगे भुंजिउं तहारूवाणं थेराणं अंतिते धम्म सोऊण पवइया, सुचिरकालं संयम अणुपालेऊण भत्तं पञ्चक्खाउँ कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पउमगुम्मे विमाणे छावि जणा चउपलिओवमठितिया देवा उबवण्णा, तत्थ जे ते गोववजा देवा ते चइऊण कुरुजणवए उसुयारपुरे नयरे एगो उसुयारो णाम राया जातो, वीओ तस्सेव महादेवी कमलावईनाम संवुत्ता, ततिओ तस्स चेव राइणो भिगुणाम पुरोहितो संवुत्तो, चउत्थो तस्स चेष पुरोहियस्स भारिया संयुत्ता पसिठ्ठा मोत्तेण जसानामं । सो य भिगु अणवचो गाई तप्पए १ यौ तौ द्वौ गोपदारको साध्वनुकम्पया लब्धसम्यक्त्वो कालं कृत्वा देवलोके उत्पनी, ती ततो देवलोकाश्युत्वा क्षितिप्रतिष्टिते दानगरे इन्यकुले द्वावपि भ्रातरौ जाती, तत्र तयोरन्येऽपि चत्वार इभ्यदारका बयस्या जाताः, तत्रापि भोगान भुक्त्वा तथारूपाणां स्थवि राणामन्तिके धर्म श्रुत्वा प्रत्रजिताः, सुचिरकालं संयममनुपाल्य भक्तं प्रत्याख्याय कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे पद्मगुल्मे विमाने पद्धपि जनाः चतुष्पल्योपमस्थितिका देवा उत्पन्नाः, तत्र ये ते गोपवर्जा देवास्ते च्युत्वा कुरुजनपदे इघुकारपुरे नगरे एक इषुकारो नाम राजा जातः, द्वितीयस्तस्यैव महादेवी कमलावती नाम संवृत्ता, तृतीयस्तस्यैव राशों भृगु म पुरोहितः संवृत्तः, चतुर्थस्तस्यैव पुरोहितस्य भार्या संघृत्ता वाशिष्ठा गोत्रेण यशा नाम । स च भृगुरनपत्यो गाढं ताम्यति %AARAK दीप अनुक्रम [४४१] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~788~ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||३५...|| नियुक्ति: [३६३-३७३] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३९५॥ १४ प्रत सूत्रांक ||३५|| RECRSC अवचनिमित्तं, उवायणए देवयाणि पुच्छइ नेमित्तिए । ते दोऽवि पुवभवगोवा देवभवे वट्टमाणा ओहिणा जाणिउ इधुकारीयजधा अम्हे एयस्स भिगुस्स पुरोहियस्स पुत्ता भविस्सामो, तओ समणरूवं काऊण उवगया भिगुसमीयं, भिगुणा " मध्ययनं. सभारिएण बंदिया, सुहासणत्था य धम्म कहेंति, तेहिं दोहिवि सावगवयाणि गहियाणि, पुरोहिएण भण्णति-2 भगवं! अम्हं अवचं होजत्ति ?, साहूहिं भण्णति-भविस्संति दुवेऽवि दारगा, ते य डहरगा चेव पवइस्संति, तेसिं| तुम्भेहिं वाघाओ ण कायद्यो पद्ययंताणं, ते सुबहुं जणं संघोहिस्संतित्ति भणिऊण पडिगया देवा, णातिचिरेण चइऊण य तस्स पुरोहियस्स भारियाए वासिट्ठीए दुये उदरे पञ्चायाया, ततो पुरोहितो सभारितो नगरविणिग्गतो पर्चतगामे ठितो, तत्थेय सा माहिणी पसूया, दारगा जाया, तओ मा पचइस्संतित्ति काउं माया वित्तेहि १ अपत्यनिमित्तं, उपयाचयति देवताः पृच्छति नैमित्तिकान् । ती द्वावपि पूर्वभवगोपी देवभवे वर्तमानौ अवधिना ज्ञात्वा यथा आवा४|मेतस्य भूगोः पुरोहितस्य पुत्री भविष्यावः, ततः श्रमणरूपं कृत्बोपगती भृगुसमीपं, भृगुना सभार्येण वन्दिती, सुखासनस्थी च धर्म कथ-|| यतः, वाभ्यां द्वाभ्यामपि श्रावकत्रतानि गृहीतानि, पुरोहितेन भण्यते-भगवन् ! आवयोरपत्र भविष्यतीति?, साधुभ्यां भण्वते-भविष्यतो द्वावपि दारकी, सौ च बालकायेव प्रजिष्यतः, तयोर्युवाभ्यां व्याघातो न कर्तव्यः प्रव्रजतोः, तो सुबहुं जनं संबोधयिष्यत इति ||॥३९५|| | भणिवा प्रतिगतौ देवी, नातिचिरेण च्युत्वा च तस्यैव पुरोहितस्य भार्याया वाशिष्ठया द्वौ उदरे प्रत्यायाती, ततः पुरोहितः सभार्यो नगरवि-12 निर्गतः प्रान्तमामे स्थितः, तत्रैव सा ब्राह्मणी प्रसूता, दारको जाती, ततो मा प्रत्राजिष्टामितिकृत्या मातापितृभ्यां C दीप अनुक्रम [४४१] NI For anwrrencibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~789~ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| दीप अनुक्रम [४४१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || ३५...|| अध्ययनं [१४], Education intemational बुग्गांहिज्जंति-जहा एए पञ्चइयगा दिवरूवाई घेतुं मारंति, पच्छा तेसिं मंसं खायंति, मा तुम्भे कयाई एएसिं | अलियस्सह । अन्नया ते तम्मि गामे रमता वाहिं निग्गया, इओ य अद्धाणपडिवण्णा साहू आगच्छति, ततो ते दारगा साहू दहूण भयभीया पलायंता एगम्मि वडपायचे आरूडा, साहूणो समावतीए गहियभत्तपाणा तम्मि चैव वडपायवहिडे ठिया, मुहुत्तं च वीसमिऊणं भुंजिउं पयत्ता, ते वडारूढा पासंति साभावियं भत्तपाणं, नत्थि मंसंति तओ चिंतिउं पयत्ता- कत्थ अम्हेहिं एयारिसाणि रूपाणि दिवपुवाणित्ति ?, जाई संभरिया, संबुद्धा, साहुणो | वंदिउं गया अम्मापि समीचं, मायावित्तं संबोहिऊण सह मायावित्ते पञ्चया, देवी संबुद्धा, देवीए राया संबोहिओ, १ व्युद्वाह्येते यथैते प्रत्रजितका दिव्यरूपाणि गृहीत्वा मारयन्ति, पश्चात् तेषां मांसं खादन्ति, (तत्) मा यूयं कदाचित् एतेषामाश्रयत। | अन्यदा ते तस्मिन् प्रामे रममाणी बहिर्निर्गतो, इतञ्चाध्वप्रतिपन्नाः साधव आगच्छन्ति, ततस्तौ दारकौ साधून दृष्ट्वा भयभीतौ पलायमानी एकस्मिन् वटवृक्षे आरूढी, साधवो भवितव्यतया गृहीतभक्तपानास्तस्मिन्नेव बटपादपेऽधस्तात् स्थिताः, मुहूर्त्त च विश्रम्य भोक्तुं प्रवृत्ताः, तौ वटारूडौ पश्यतः स्वाभाविक भक्तपानं नास्ति मांसमिति ततश्चिन्तितुं प्रवृत्तौ - कावाभ्यामीदृशानि रूपाणि दृष्टपूर्वाणीति ?, जातिः स्मृता, संबुद्धौ साधून वन्दित्वा गतौ मातापितृसकाशं मातरपितरं संबोध्य सह मातापितराभ्यां प्रब्रजितौ, देवी संबुद्धा, देव्या राजा संबोधितः, तावपि प्रत्रजितौ, एवं ते पडपि केवलज्ञानं प्राप्य निर्वाणमुपगता इति । For Para Prata Use Only निर्युक्तिः [३६३-३७३] ~790~ janibrary or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||१-३|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) बृहद्वृत्तिः १४ प्रत सूत्रांक ||१-३|| उत्तराध्यताणिवि पवइयाणि, एवं ताणि छावि केवलणाणं पाविऊण णिचाणमुवगयाणित्ति ॥ इह तु सूत्रोक्तस्याप्यर्थ- इषुकारीयस्वाभिधानं प्रसङ्गत इत्यदोषः । उक्को नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तवेदम् | मध्ययनं. देवा भवित्ताण पुरे भवमी, केई चुया एगविमाणवासी। ।।३९६॥ पुरे पुराणे इसुयारनामे, खाए समिद्ध सुरलोगरम्मे।॥ १॥ सकम्मसेसेण पुराकएणं, कुलेसु उग्गे (सुदत्ते०)मय ते पसूआ। निविण्णसंसारभया जहाय, जिणिदमग सरणं पवन्ना ॥२॥ पुमत्तमागम्म कुमार दोऽवि, पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती। विसालकित्ती य तहेसुआरो, रायऽत्थ देवी कमलाबई य ॥३॥ 'देवा' सुराः 'भूत्वा' उत्पद्य 'पुरे भवंमिति अनन्तरातीतजन्मनि 'केचित्' इत्यनिर्दिष्टनामानः 'च्युताः' भ्रष्टाः एकस्मिन् पद्मगुल्मनाम्नि विमाने वसन्तीत्येवंशीला एकविमानवासिनः 'पुरे' नगरे 'पुराणे चिरन्तने इषुकारनानि 'ख्याते' प्रथिते 'समृद्धे' ऋद्धिमत्यत एव 'सुरलोकरम्ये' देवलोकबद्रमणीये । ते च किं सर्वथोपभुक्तपुण्या एव तत-1 M३९६॥ श्युता उतान्यथेत्याह-खम्-आत्मीयं कर्म-पुण्यप्रकृतिलक्षणं तस्य शेषम्-उद्धरितं खकर्मशेषस्तेन, लक्षण तृतीया, 'पुराकृतेन' पूर्वजन्मान्तरोपार्जितेन 'कुलेषु' अन्वयेषु 'उदात्तेषु' उचेषु 'चः' पूरणे, 'ते' इति ये देवा भूत्वा दीप अनुक्रम [४४१] For PHOTOSPNandipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 791~ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||१-३|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) -syikNA प्रत सूत्रांक ||१-3|| च्युताः 'प्रसूताः' उत्पन्नाः, 'निविष्ण'त्ति आर्पत्वात् 'निर्विण्णाः' उद्विग्नाः, कुतः ?-संसारभयात् , 'जहाय'त्ति परिदत्यज्य, भोगादीनिति गम्यते, किमित्याह-'जिनेन्द्रमार्ग' तीर्थकृदुपदर्शितं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मुक्तिपथं ।। 'शरणम्' अपायरक्षाक्षममाश्रयं प्रपन्नाः' अभ्युपगता इत्यध्ययनार्थसूचनम् । कश्च किरुपः सन् जिनेन्द्रमार्ग शरणं प्रपन्न इत्याह-'पुंस्त्वं' पुरुषत्वम् 'आगम्य' प्राप्य 'कुमार'त्ति 'कुमारी' अकृतपाणिग्रहणौ द्वौ, 'अपिः' पूरणे, सुलभबोधिकत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ चानयोः पूर्वमुपादानम् , पुरोहितस्तृतीयस्तस्य जसा च नाना पत्नी चतुर्थः, 'विशालकीर्तिश्च' विस्तीर्णयशाश्च तथेपुकारो नाम राजा पञ्चमः, 'अत्र' एतस्मिन् भवे 'देवी' इति प्रधानपनी, प्रक्रमात्तस्यैव राज्ञः कमलावती नाना पष्ठ इति सूत्रत्रयार्थः ॥ सम्प्रति यधैतेषु जिनेन्द्रमार्गप्रतिपत्तिः कुमारयोर्जाता तथा दर्शयितुमाह जाईजरामचुभयाभिभूया, बहिं विहाराभिणिविट्ठचित्ता। संसारचक्कस्स विमुक्खणट्ठा, दळूण ते कामगुणे विरत्ता ॥४॥ पियपुत्तगा दुन्निवि माहणस्स, सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स। सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई, तहा सुचिपणं तव संजमं च ।। ५॥ | जाति:-जन्म जरा-विश्रसा मृत्युः-प्राणत्यागलक्षणस्तेभ्यो भयं-साध्वसं तेनाभिभूतौ-बाधितौ जातिज-14 दीप अनुक्रम [४४२-४४४] *-* AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~792~ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |18-4|| दीप अनुक्रम [४४५ -४४६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४-५|| Jan Education Inama अध्ययनं [१४], ||३९७ ॥ उत्तराध्य. * रामृत्युभयाभिभूतौ पाठान्तरतश्च जातिजरामृत्युभयाभिभूते सत्यर्थात् संसारिजने वहिः संसाराद्विहारः- स्थानं | वहिर्विहारः, स चार्थान्मोक्षस्तस्मिन्नभिनिविष्टं बद्धाग्रहं चित्तम्- अन्तःकरणं ययोस्ती, तथा संसारचक्रमिव चक्रं बृहद्वृत्तिः भ्रमणोपलक्षितत्वात्संसारचक्रं तस्य विमोक्षणार्थ- परित्यागनिमित्तं 'दृष्ट्डा' निरीक्ष्य साधूनिति शेषः, यद्वा 'दृष्ट्वे'ति प्रेक्ष्य मुक्तिपरिपन्थिनोऽमी कामगुणा इति पर्यालोच्य 'ती' अनन्तरोक्ती 'कामगुणेत्ति सुव्यत्ययात् 'कामगुणेभ्यः' | शब्दादिभ्यो विषयसप्तमी वा 'विरक्तौ' पराङ्मुखीभूतौ प्रियौ-पलभौ तौ च तौ पुत्रावेव पुत्रकौ द्वावपि नैक एव |इत्यपिशब्दार्थः 'माहनस्य' ब्राह्मणस्य 'स्वकर्मशीलस्य' यजनयाजनादिखकीयानुष्ठाननिरतस्य 'पुरोहितस्य' शान्तिकर्तुः 'सरित'त्ति स्मृत्वा 'पोराणिय'त्ति सूत्रत्वात्पुराणामेव पौराणिकीं चिरन्तनीं 'तत्रे'ति सन्निवेशे कुमारभावे बा | | वर्त्तमानाविति शेषः 'जाति' जन्म तथा 'सुचिण्णं'ति सुचीर्णे सुचरितं वा निदानादिनाऽनुपहतत्वात् तपः - अनश | नादिः, प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, संयमं च तपःसंयममिति समाहारद्वन्द्वो वा अत्र कामगुणविरक्तिरेव जिनेन्द्रमार्गप्रतिपत्तिरिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ततस्तौ किमकार्शम् १ इत्याह ते कामभोगे असजमाणा, माणुस्सएसुं जे यावि दिव्या । मुक्खाभिकखी अभिजायसडा, तानं उवागम्म इसे उदा || ३ || 'it' पुरोहितपुत्र 'कामभोगेषु' उद्धरूपेषु 'अयजमान' चि असं सजती-कुर्ती 'मानुष्यकेषु' मनुजसम्प For PP Use On निर्युक्तिः [३७३...] ~ 793~ | इषुकारीय मध्ययनं. १४ ॥३९७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-]/गाथा ||६|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सुत्रांक ||६|| न्धिषु, ये चापि 'दिव्याः' देवसम्बन्धिनः कामभोगास्तेपु चेति प्रक्रमः, 'मोक्षाभिकाशिणौ मुक्त्यभिलापिणौ अभिजातश्रद्धौ' उत्पन्नतत्त्वरुची 'तातं' पितरमुपागम्य 'इदं' वक्ष्यमाणं 'उदाहुत्ति उदाहरताम् । तयोहि साधुदर्शनानन्तरं ।। कास्माभिरित्थंभूतानि रूपाणि पुराऽपि दृष्टानीति चिन्तयतोऑतिस्मरणमुत्पन्नं, ततो जातवैराग्यौ प्रव्रज्याभिमुखावात्ममुक्कलीकरणाय तयोश्च प्रतिबोधोत्पादनाय वक्ष्यमाणमुक्तवताविति सूत्रार्थः । यच ताबुक्तवन्तौ तदाह असासयं दह इमं विहारं, बहुअंतरायं न य दीहमा। तम्हा गिर्हसिं न रई लभामो, आमंतयामो चरिसामु मोणं ॥७॥ 'अशाश्वतम्' अनित्यं दृष्ट्वा 'इम' प्रत्यक्षं विहरणं विहारं, मनुष्यत्वेनावस्थानमित्यर्थः, मण्यते हि-“भोगभोगाई मुंजमाणे विहरति"त्ति, किमित्येवमत आह-बहवः-प्रभूता अन्तरायाः-विना व्याध्यादयो यस्य तद्न्त रायं, बह्वन्तरायमपि दीर्घत्वा(ोद्धा )वस्थायि स्यादित्याह-'न च' नैव 'दीप' दीर्घकालस्थित्या 'आयुः जीवितं, सम्प्रति पल्योपमायुष्कताया अप्यभावात् , यत एवं सर्वमनित्यं तस्माद् 'गिहंसिन्ति 'गृहे' वेश्मनि न रति' धृति 'लभामो'त्ति लभावहे-प्रामुवः, अतश्च 'आमन्त्रयावहे' पृच्छाव आवां यथा 'चरिष्यामः' आसेविष्यावहे 'मौन' मुनिभावं संयममिति सूत्रार्थः ॥ एवं च ताभ्यामुक्ते दीप अनुक्रम [४४७] Jaintairate For ParaTREPWAuOnly wrencibrarma मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~794~ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-]/ गाथा ||८-९|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) इषुकारीय. मध्ययन उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३९॥ SACANCY % प्रत सूत्रांक ||८-९|| अह तायो तत्थ मुणीण तेसिं, तवस्स वाघायकर वयासी। इमं वयं वेयविओ वयंति, जहा न होई असुआण लोगो ॥८॥ अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुसे परिठ्ठप्प गिहंसि जाया| भुचा ण भोए सह इत्थियाहिं, आरणगा होह मुणी पसस्था ॥९॥ 'अर्थ' अनन्तरं तायते-सन्तानं करोति पालयति च सर्यापद्भ्य इति तातः स एव तातकः 'तत्र तस्मिन् संनिवेशेऽवसरे वा 'मुन्यो' भावतः प्रतिपन्नमुनिभावयोः 'तयोः' कुमारयोः 'तपसः' अनशनादेः उपलक्षणत्वाच्छेषसद्धर्मानुष्ठानस्य च 'व्याघातकर' वाधाविधायि, वचनमिति शेषः, 'वयासि'त्ति अबादीत्, यदवादीत्तदाह-इमां वाचं वेदविदो 'बदन्ति' प्रतिपादयन्ति, यथा-'न भवति' न जायते 'असुतानाम्' अविद्यमानपुत्राणां 'लोकः' परलोका, तं विना पिण्डप्रदानायभावे गत्याद्यभावात् , तथा च वेदवच:-'अनपत्यस्य लोका न सन्ति", तथाऽन्यैरप्युक्तम्-"पुत्रेण जायते लोकः, इत्येपा वैदिकी श्रुतिः । अथ पुत्रस्य पुत्रेण, स्वर्गलोके महीयते ॥१॥" तथा-"अपुत्रस्य गति स्ति, खर्गो नैव च नैव च । गृहिधर्ममनुष्ठाय, तेन खग गमिष्यति ॥१॥" यत एवं तस्माद् 'अधीत्य' पठित्वा 'वेदान्' ऋग्वेदादीन् 'परिवेष्य' भोजयित्वा 'विप्रान्' ब्राह्मणान् , तथा पुत्रान् । 'प्रतिष्ठाप्य' कलाकलत्रग्रहणादिना गृहस्थधर्मे निवेश्य, कीदृशः पुत्रान् ?-गृहे जातान्, न तु गृहीतप्रतिपन्नका 4- *-- - दीप अनुक्रम [४४९-४५० ॥३९८॥ AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~795~ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||१०-१५|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक दीन् , पाठान्तरे च-पुत्रान् परिष्ठाप्य' खामित्वेन निवेश्य गृहे 'जाय'त्ति हे जाती-पुत्रौ !, तथा 'भुक्त्वा' भुक्त्वा 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'भोगान्' शब्दादीन् सह 'स्त्रीभिः' नारीभिस्ततोऽरण्ये भवी आरण्यो, 'अरण्याण्णो वक्तव्यः' (अरण्याण्णः । वार्तिकं) इति णप्रत्ययः, आरण्यावेव आरण्यको-आरण्यकत्रतधारिणौ 'होहति भवतंसम्पद्येथां युवा 'मुनी' तपखिनौ 'प्रशस्तो' श्लाघ्यो, इत्थमेव ब्रह्मचर्याद्याश्रमव्यवस्थानात्, उक्तं हि-"ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथे"ति, इह च 'अधीत्य वेदानित्यनेन ब्रह्मचार्याश्रम उक्तः परिवेष्येत्यादिना च गृहस्थाश्रमः आरण्यकाचित्यनेन च वानप्रस्थाश्रमः मुनिग्रहणेन च यत्याश्रम इति सूत्रद्वयार्थः ॥ इत्थं तेनोके कुमारको यदकार्टी तदाह सोअरिंगणा आयगुणिधणेणं, मोहानिला पजलणाहिएण। संतत्तभावं परितप्पमाणं, लोलुप्पमाणं बहुहा बहुं च ॥१०॥ पुरोहियं तं कमसोऽणुणत, निमंतयंतं च सुए धणेणं । जहक्कम कामगुणेहिं चेव, कुमारगा ते पसमिक्ख वकं ॥११॥ वेआ अधीआ न भवति ताणं, भुत्ता दिया निति तमं तमेणं । जाया य पुत्ता न हवंति ताणं, को नाम ते अणुमन्निज एवं ॥१२॥ दीप अनुक्रम [४५१-४५६] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 796~ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१० -१५|| दीप अनुक्रम [ ४५१ -४५६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥३९९ ॥ Jdoration “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१० -१५|| अध्ययनं [१४], खमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा । संसारमुक्are विपक्खभूआ, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ १३ ॥ परिव्ययंते अनियतकामे, अहो अ राओ परितप्यमाणे । अन्नप्पमत्ते घणमेमाणे, पप्पुत्ति मधुं पुरिसो जरं च ॥ १४ ॥ इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच इमं अकिथं । तं एवमेवं लालप्यमाणं, हरा हरंतित्ति कह पाओ ? ।। १५ ।। निर्युक्तिः [३७३...] सुतवियोगसम्भावनाजनितं मनोदुःखमिह शोकः स चाग्निरिव शोकाभिस्तेन, आत्मनो गुणा आत्मगुणाः-कर्मक्षयोपशमादिसमुद्भूताः सम्यग्दर्शनादयस्त इन्धनमिवेन्धनं दाखतया यस्य स तथा तेन, अनादिकालसहचरितत्वेन रागादयो वाऽऽत्मगुणास्त इन्धनमुद्दीपकतया यस्य स तथा तेन, मोहो मूढताऽज्ञानमितियावत् सोऽनिल इव मोहानिलस्तस्मादधिकं महानगरदाहादिभ्योऽप्यर्गलं प्रज्वलनं - प्रकर्षेण दीपनमस्येति अधिकप्रज्वलनः, यद्वा प्रज्वलनेनाधिक इतराइयपेक्षया यस्तेन, पूर्वत्र प्राकृतत्वादधिकशब्दस्य परनिपातः, तथा समिति - समन्तात् तप्त इव तसः अनिर्वृतत्वेन भावः - अन्तःकरणमस्येति संतप्तभावस्तम्, अत एव च 'परितप्यमानं समन्ताद्दह्यमानम्, अर्थात् शरीरे दाहस्यापि शोकावेशत उत्पत्तेः, लोलुप्यमानं तद्वियोगशङ्काशोत्पन्न दुःखपरशुभिरतिशयेन हृदि छिद्य For Paren ~ 797 ~ इषुकारीय मध्ययनं १४ ॥ ३९९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१४], मूलं [-/ गाथा ||१०-१५|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१० मानं, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'लोलुप्यमाण'ति लालप्यमानं-'भरणपोपणकुलसंताणेसु य तुम्भे भबिस्सह'त्ति, 'बहुधा' 18/अनेकप्रकारं 'बहुँ' च प्रभूतं यथा भवत्येवं लोलुप्यमानं लालप्यमानं वेति सम्बन्धः, 'पुरोहितं' 'पुरोधसं 'त'मिति दप्रक्रान्तं 'कमसो'त्ति क्रमेण-परिपाट्या 'अनुनयन्तं' खाभिप्रायेण प्रज्ञापयन्तं निमन्त्रयन्तं च-ती भोगैरुपच्छन्दयन्तं | H'सुतौ' पुत्री 'धनेन' द्रव्येण यथाक्रमं प्रक्रमानतिक्रमेण 'कामगुणैः' अभिलपणीयशब्दादिविषयैः, पाठान्तरतःभकामगुणेषु वा, 'चः' समुचये 'एवं' इति पूरणे, कुमारको तावनन्तरप्रक्रान्ती 'प्रसमीक्ष्य' प्रकर्षणाज्ञानाच्छादितमप्रतिमालोच्य 'वाक्यं वचो वक्ष्यमाणमुक्तवन्ताविति गम्यते । किं तदित्याह 'वेदाः' ऋग्वेदादयः 'अधीताः' पठिता न भयन्ति' जायन्ते 'त्राणं' शरणं, तदध्ययनमात्रतो दुर्गतिपतनरक्षणासिद्धेः, उक्तं हि तैरपि-"अकारणमधीयानो, ब्राह्मणस्तु युधिष्ठिरः । दुष्कुलेनाप्यधीयन्ते, शीलं यस्य स रोचते ॥१॥" तथा-"शिल्पमध्ययनं नाम, वृत्तं ब्राह्मण-A ४ लक्षणम् । वृत्तस्थं ब्राह्मणं प्राहुर्नेतरान् वेदजीवकान् ॥२॥” तथा 'भुज त्ति अन्तर्भावितण्यर्थत्वाड्रोजिताः 'द्विजा' ब्राह्मणाः 'नयन्ति' प्रापयन्ति तमोरूपत्वात्तमो-नरकतत्तमसा-अज्ञानेन यद्वा तमसोऽपि यत्तमस्तस्मिन्-अतिरौद्रे | रौरवादिनरके णमिति वाक्यालङ्कारे, ते हि भोजिताः कुमार्गप्ररूपणपशुवधादाय कर्मोपचयनिबन्धने असयापारे में प्रवत्तेन्त इत्यसत्प्रवर्तनतस्तद्भोजनस्य नरकगतिहेतुत्वमेव, अनेन च तेषां निस्तारकत्वं दूरापास्तमित्यर्थादुक्तं, तथा 'जाताश्च उत्पन्नाः 'पुत्राः सुता न भवन्ति त्राणं' शरणं नरकादिगती निपततामिति गम्यते, उक्तं हि तन्मतानुसा दीप अनुक्रम [४५१-४५६] mtantna rammam.au मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 798~ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||१०-१५|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक SSC- उत्तराध्य. रिभिरपि-“यदि पुत्राद्भवेत्वों , दानधर्मो न विद्यते । मुषितस्तत्र लोकोऽयं, दानधर्मों निरर्थकः ॥१॥ बहुपुत्रा दुली इषुकारीयदि गोधा, ताम्रचूडस्तथैव च । तेषां च प्रथम खर्गः,पश्चाल्लोको गमिष्यति ॥२॥" यतश्चैवं ततः को नाम ? न कश्चित्सम्भा मध्ययनं. हात्तव्यते यस्ते-तवानुमन्येत-शोभनमिदमित्यनुजानीयात्सविवेक इति गम्यते, 'एतद् अनन्तरमुक्तं वेदाध्ययनादित्रित॥४०॥ यमिति, भुक्त्वा भोगानिति च चतुर्थोपदेशप्रतिवचनमाह-क्षणमात्रं सौख्यं येषु ते तथा, बहुकालं नरकादिषु दुःखं शारीरं मानसं च येभ्यस्ते तथाविधाः, कदाचित्खल्पकालमपि सुखमतिशायि स्याद् दुःखं त्वन्यथेति खल्पकालमपि तद्वहुकालभाविनोऽपि दुःखस्योपहन्तृ स्यादत आह-प्रकामम्-अतिशयेन दुःखं येभ्यस्ते तथा, 'अनिकामसौख्याः |अप्रकृष्टसुखाः, ईदृशा अप्यायती शुभफलाः स्युरत आह-संसारान्मोक्षो-विश्लेषः संसारमोक्षो निवृत्तिरित्यर्थस्तस्य विपक्षभूताः-तत्प्रतिबन्धकतयाऽत्यन्तप्रतिकूलाः, किमित्येवंविधास्ते इत्याह-खनिरिख खनिः-आकरः 'अनर्थानाम्। इहपरलोकदुःखावाप्तिरूपाणां, तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च ततः खनिरेव, के एवंविधाः ?-'कामभोगाः' उक्तरूपाः, अनर्थखनित्यमेव स्पष्टयितुमाह-परिव्रजन' विषयसुखलाभार्थमितस्ततो भ्राम्यन् 'अनिवृत्तकामः' अनुपरतेच्छः सन् ॥४०॥ 'अहो य राओ'त्ति आर्षत्वाचस्य च भिन्नक्रमादहि रात्रौ च अहर्निशमितियावत् 'परितप्यमानः' तदवाप्त्यै समन्ता-18 चिन्ताग्मिना दबमानः, अन्ये-सुहत्वजनादयः, अथवाऽनं-भोजनं तदर्थं प्रमत्तः-तत्कृत्यासक्तचेता अन्यप्रमत्तः अन्न दीप अनुक्रम [४५१-४५६] CASNACSC JAIMEducatantnasana wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~799~ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-1 / गाथा ||१६|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक प्रमत्तो वा 'धन' वित्तं 'एसमाणे'त्ति 'एषयन्' विविधोपायेगवेषयमाणः 'पप्पोत्ति' प्राप्नोति 'मृत्यु' प्राणत्याग, कोऽसौ ?-पुरुषः 'जरांच' वयोहानिलक्षणाम् । किञ्च-इदं च मेऽस्ति रजतरूप्यादि इदं च नास्ति पनरागादि, इदं च में मम 'कृत्यं कर्तव्यं गृहप्राकारादि, इदमकृत्यमारब्धमपि वणिज्यादि न कर्तुमुचितं 'त'मिति पुरुष४ मेयमेव-वृथैव 'लालप्यमानम्' अत्यर्थ व्यक्तवाचा बदन्तं हरन्ति-अपनयन्त्यायुरिति हराः-दिनरजन्यादयो व्याधिविशेषा वा 'हरन्ति' जन्मान्तरं नयन्ति, उपसंहर्तुमाह-'इती'त्यस्माद्धेतोः 'कथं' केन प्रकारेण 'प्रमादः' अनुद्यमः प्रक्रमाद्धर्मे कर्तुमुचित इति शेषः, इति सूत्रपदार्थः ॥ सम्प्रति तो धनादिभिर्लोभयितुं पुरोहितः प्राह घणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं कए तप्पइ जस्स लोगो, तं सब्व साहीणमिहेव तुझं ॥१६॥ 'धनं' द्रव्यं 'प्रभूतं' प्रचुर 'सह स्त्रीभिः' समं नारीभिः 'स्वजनाः पितृपितृव्यादयः, तथा 'कामगुणाः' शब्दादयः 'पगामत्ति 'प्रकामाः' अतिशायिनः 'तपः' कष्टानुष्ठानं कृते' निमित्तं 'तप्यते' अनुतिष्ठति 'यस्य धनादेः दा'लोकः' जनस्तत् 'सम्' अशेषं 'स्वाधीनम्' आत्मायत्तम् 'इहैव' अस्मिन्नेव गृहे 'तुझंति सूत्रत्वाधुवयोः, यद्यपि च तयोः स्त्रियस्तदा न सन्ति तथाऽपि तदवाप्तियोग्यताऽस्तीति तासामभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ तावाहतुः ||१६|| दीप अनुक्रम [४५७] ForParaTREPwamontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~800~ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-1 / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) इषुकारीब मध्ययनं. प्रत सूत्रांक ||१७|| उत्तराध्य. धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण या कामगुणेहिं चेव । बृहद्वृत्तिः समणा भविस्सामु गुणोहधारी, बहिं विहारा अभिगम्म भिक्खं ॥ १७॥ 'धनेन' द्रव्येण किं ?, न किञ्चिदित्यर्थः, धर्म एवातिसात्विकैरुह्यमानतया धूरिव धूधर्मधुरा तदधिकारे॥४०१॥ तत्प्रस्तावे खजनेन या कामगुणैश्चैव ?, तथा च वेदेऽप्युक्त-"न प्रजया न धनेन त्यागेनैकेनामृतत्वमानशु"रित्यादि, ततः 'श्रमणी' तपखिनौ भविष्यावः, गुणोघं-सम्यग्दर्शनादिगुणसमूहं धारयत इत्येवंशीली गुणौषधारिणी बहि:ग्रामनगरादिभ्यो वहिवर्तित्वाद् द्रव्यतो भावतश्च कचिदप्रतिबद्धत्वाद् विहारः-विहरणं ययोस्तो बहिबिहारी अप्रतिबद्धविहारावितियावत् 'अभिगम्य' आश्रित्य 'भिक्षा' शुद्धोछां तामेवाहारयन्ताविति भाव इति सूत्रार्थः॥ आत्मा-2 स्तित्वमूलत्वात्सकलधर्मानुष्ठानस्य तन्निराकरणायाह पुरोहितः जहा य अग्गी अरणीऽसंतो, खीरे घयं तिल्लमहा तिलेसु। एमेव जाया सरीरंमि सत्ता, संमुच्छई नासह नावचिट्टे ॥ १८ ॥ 'यथे' त्यौपम्ये चशब्दोऽवधारणे, यथैव 'अग्निः' वैधानरः 'अरणिउ'त्ति अरणितः-अग्निमन्धनकाया 'असन् अविद्यमान एव संमूर्छति, तथा क्षीरे घृतं तैलमथ तिलेषु, एवमेव 'हे जातो' पुत्रौ ! 'सरीरंसि'त्ति शरीरे काये हासत्त्वाः' प्राणिनः 'समुच्छंति'त्ति संमूर्छन्ति, पूर्वमसन्त एव शरीराकारपरिणतभूतसमुदायत उत्पद्यन्ते, तथा चाहुः दीप अनुक्रम [४५८] ॥४०१॥ For ParaTREPWAauonly FArrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~801~ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-]/ गाथा ||१८|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१८|| "पृथिव्यपस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, एतेभ्यश्चैतन्यं, मद्यानेभ्यो मदशक्तिवत्", तथा 'नासा'त्ति नश्यन्ति-अनप-| दलवत्प्रलयमुपयान्ति 'णावचिठे'त्ति न पुनः अवतिष्ठन्ते-शरीरनाशे सति न क्षणमप्यवस्थितिभाजो भवन्ति, यद्वा शरीरे सत्यप्यमी सत्या नश्यन्ति, नावतिष्ठन्ते, जलवुदुदवत् , उक्तं हि-"जलबुद्धदवज्जीवाः" अत्र च प्रत्यक्षतोडनुपलम्भ एव प्रमाणं, न बसौ शरीरे शरीरव्यतिरिक्तो वा भवान्तरप्राप्तौ प्रत्यक्षत उपलभ्यत इति नास्ति, शशविपाणवदिति भाव इति सूत्रार्थः ।। कुमारकावाहतुः नो इंदियग्गिज्झु अमुत्तभावा, अमुत्तभावा चिय होइ निच्चो। अज्झत्यहेर्ड निययऽस्स बंधो, संसारहेउं च वयंति बंधं ॥ १९ ॥ 'नो' इति प्रतिषेधे इन्द्रियैः-श्रोत्रादिभियः-संवेद्य इन्द्रियग्राह्यः, सत्त्व इति प्रक्रमः, असत्त्यादेवायमिन्द्रियाग्राह्य इत्याशङ्कयाह-'अमूर्तभावात्' इन्द्रियग्राह्यरूपाद्यभावात् , अयमाशयः-यदिन्द्रियग्राह्यं सन्नोपलभ्यते तदसदिति निश्चीयते, यथा प्रदेशविशेषे घटो, यत्तु तद्बाह्यमेव न भवति न तस्यानुपलम्भेऽप्यभावनिश्चयः, पिशाचादिवत् , तद्विषयानुपलम्भस्य संशयहेतुत्वात् , न च साधकबाधकप्रमाणाभावात् संशयविषयतैवास्त्विति वाच्यं, तत्साधकस्यानुमानस्य सद्भावात् , तथाहि-अस्त्यात्मा अहं पश्यामि जिघ्रामीत्याद्यनुगतप्रत्ययान्यथानुपपत्तेः, आत्माभावे हीन्द्रियाण्येव द्रष्टुणि स्युः, तेषु च परस्परं विभिन्नेष्यहं पश्यामि जिघ्रामीत्यादिरनुगतोऽहमितिप्रत्ययोऽनेकेष्विव । दीप अनुक्रम [४५९] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~802~ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) - - प्रत सूत्रांक ||१९|| उत्तराध्य. प्रतिपत्तृषु न स्यात् , उक्तं हि-"अहं शृणोमि पश्यामि, जिब्राम्याखादयामि च । चेतयाम्यध्यवस्यामि, बुध्यामी- इषुकारीयवृहद्धत्तिः है येवमति सः॥१॥” वृद्धास्तु व्याचक्षते-अमूर्त्तत्वान्नोइन्द्रियग्राह्यो, नोइन्द्रियं च मनो, मनश्चात्मैव, अतः मध्ययनं. खप्रत्यक्ष एवायमात्मा, कस्मात् ?, उच्यते, त्रैकाल्यकार्यव्यपदेशात् , तद्यथा-कृतवानहं करोम्यहं करिष्या॥४०२॥ म्यहमुक्तवानहं ब्रवीम्यहं वक्ष्याम्यहं ज्ञातवानहं जानेऽहं ज्ञाखेऽहमिति योऽयं त्रिकालकार्यव्यपदेशहेतुरहंप्रत्ययो | नायमानुमानिको न चागमिकः, किं तर्हि ?, प्रत्यक्षकृत एवायम् , अनेनैवात्मानं प्रतिपद्यख, नायमनात्मके घटा-14 दावुपलभ्यत इति, तथाऽमूर्तभावादपि च भवति नित्यः, तथाहि-यद्रव्यत्वे सत्यमूर्त तन्नित्यं, यथा व्योम, अमूर्त-13 चायं द्रव्यत्वे सत्यनेन विनाशानयस्थाने प्रत्युक्ते, न चैवममूर्तत्वादेव तस्य बन्धासम्भवः सम्भवे या सर्वस्य सर्वदा तत्प्रसङ्ग इति वाच्यं, यतः 'अज्झत्थहेउं णिययऽस्स बंधो' अध्यात्मशब्देन आत्मन्था मिथ्यात्वादय इहोच्यन्ते, तततद्धेतुः-तन्निमित्तोऽपरस्थहेतुकृतत्वेऽतिप्रसङ्गादिदोपसम्भवान्नियतो-निश्चितो न संदिग्धो, जगद्वैचित्र्यान्यधानुपपत्तेः, 'अस्य' जन्तोर्वन्धः-कर्मभिः संश्लेषः, यथा ह्यमूर्तस्यापि व्योम्नो मूतैरपि घटादिभिः सम्बन्धः एवमस्याप्यमूर्त| स्यापि मूतरपि कमेभिरसी न विरुध्यते, तथा चाह-"अरूपं हि यथाऽऽकाशं. रूपिद्रव्यादिभाजनम् । तथा वरूपी ४०॥ जीवो, रूपिकमोदिभाजनम् ॥१॥" इति, मिथ्यात्वादिहेतत्वाचन सर्वस्य सर्वदा तत्प्रसङ्ग इत्यदापा, एव। नाहियेषामेव मिथ्यात्वादित हेतुसम्भवस्तेपामेवासौ न तु तद्विरहितानां सिद्धानामपि, तथा संसार:-चतुगतिप-16 दीप अनुक्रम [४६०] JAIMEducatam intamational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~803~ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-1 / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२०|| Pर्यटनरूपस्तद्धेतुं च-तत्कारणं वदन्ति 'बन्ध' कर्मवन्धम् , एतेनामूर्तत्वायोम्न इव निष्क्रियत्वमपि निराकृतमिति सूत्रार्थः ॥ यत एवमस्त्यात्मा नित्योऽत एव च भवान्तरानुयायी तस्य च बन्धो बन्धादेव मोक्ष इत्यतः जहा वयं धम्ममजाणमाणा, पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। ओरुज्झमाणा परिरक्खयंता, तं व भुजोऽवि समायरामो ॥२०॥ | 'यथा' येन प्रकारेण वयं 'धर्म' सम्यग्दर्शनादिकम् 'अजानानाः' अनववुध्यमानाः 'पावं' पापहेतुं 'पुरा' पूर्व कर्म' क्रियाम् 'अकासित्ति अकार्म कृतवन्तः 'मोहात्' तत्त्वानवबोधात् 'अवरुध्यमानाः' गृहानिर्गममलभमानाः 'परिरक्षमाणाः' अनुजीविभिरनुपाल्यमानाः 'तद्' इति पापकर्म 'नेव'त्ति नैव 'भूयोऽपि' पुनरपि 'समाचरामः' अनुतिष्ठामो, यतः सम्प्रत्युपलब्धमेवास्माभिर्वस्तुतत्त्वमिति भावः, सर्वत्र च 'अस्मदो द्वयोश्चेति (पा०१-२-५९) द्वित्वेऽपि बहुवचनमिति सूत्रार्थः ॥ अन्यच__ अभाहयंमि लोगंमि, सचओ परिवारिए । अमोहाहिं पडतीहिं, गिहंसि न रई लभे ॥२१॥ 'अभ्याहते' आभिमुख्येन पीडिते 'लोके' जने 'सर्वत्र' सर्वासु दिक्षु 'परिवारिते' परिवेष्टिते 'अमोघाभिः' अव-18 ध्यामिः प्रहरणोपमाभिः 'पतन्तीभि' आगच्छन्तीभिः 'गिहंसित्ति गृहे तस्य चोपलक्षणत्वाद् गृहवासे न 'रतिम्' *%A5% दीप अनुक्रम [४६१]] For INSancibianura मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~804~ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-1 / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्भुत्तिः ॥४०॥ M प्रत सूत्रांक ||२१|| आसक्ति 'लभे'त्ति लभावहे, यथा हि वागुरया परिवेष्टितो मृगोऽमोफैश्च प्रहरणैाधेनाभ्याहतो न रतिं लभते, इधुकारीयएवमावामपीति सूत्रार्थः ॥ भृगुराह-(ग्रन्थानम् १००००) मध्ययनं. केण अम्भाहओ लोओ, केण वा परिवारिओ । का वा अमोहा वुत्ता!, जाया ! चिंतावरो हुमि ॥२२॥ केन व्याधतुल्येनाभ्याहतो लोकः ?, केन वा वागुरास्थानीयेन परिवारितः, का वा 'अमोघा' अमोघप्रहरणो १४ पमा अभ्याहतिक्रियां प्रति करणतयोक्ता, ? 'जातौ ! पुत्रौ चिन्तापरः 'हुमि त्ति भवामि, ततो ममावेद्यतामयमर्थ र इति भाव इति सूत्रार्थः ।। तावाहतुः मञ्चुणाऽभाहओ लोओ, जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय! बियाणह ॥२३॥ 'मृत्युना' कृतान्तेनाभ्याहतो लोकः, तस्य सर्वत्राप्रतिहतप्रसरत्वात् , जरया परिवारितः, तस्या एव तदभिधातयोग्यतापादनपटीयस्त्वात् , अमोघा 'रयणि'त्ति रजन्य उक्ताः, दिवसाविनाभावित्वात्तासां दिवसाच, तत्पतने बवश्यंभावी जनस्याभिघातः, एवं तात ! 'विजानीत' अवगच्छतेति सूत्रार्थः । किञ्च जा जा बघा रयणी, न सा पडिनियतई । अहम्मं कुणमाणस्स, अहला जति राइओ ॥ २४ ॥ जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनियसई । धम्मं तु च कुणमाणस्स, सफला जति राहओ ॥ २५॥ या या 'वचति' ब्रजति 'रजनी' रात्रिरुपलक्षणत्वादिनं च न सा 'प्रतिनिवर्त्तते' पुनरागम्छति, तदागमने हि दीप अनुक्रम H॥४०३॥ [४६२] SantarataliAama For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~805~ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१४], मूलं [--] / गाथा ||२४-२५|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२४-२५|| %ACROSAROKAR सर्वदा सैवैका जन्मरात्रिः स्यात्ततो न द्वितीया मरणरात्रिः कदाचित्प्रादुष्प्यात् , ताश्चाधर्म कुर्वतो जन्तोरिति गम्यते अफला यान्ति रात्रयः, अधर्मनिवन्धनं च गृहस्थतेत्यायुपोऽनित्यत्वादधर्मकरणे च तस्य निष्फलत्वात्तत्परित्याग एव श्रेयानिति भावः । इत्थं व्यतिरेकद्वारेण प्रव्रज्याप्रतिपत्तिहेतुमभिधाय तमेवान्वयमुखेनाह-'जा जेत्यादि पूर्ववत्, नवरं 'धम्म च' ति चशब्दः पुनरर्थे धर्म पुनः कुर्यतः सफला धर्मलक्षणफलोपार्जनतो, न च प्रतप्रतिपत्ति बिना धर्म इत्यतो व्रतं प्रतिपत्स्यावहे इत्यभिप्राय इति सूत्रद्वयार्थः । इत्थं कुमारवचनादाविर्भूतसम्यक्त्वस्तद्वचनमेव पुरस्कुर्वन् भृगुराहएगओ संवसित्ता णं, दुहओ संमत्तसंजुया । पच्छा जाया! गमिस्सामो, भिक्खमाणा कुले कुले ॥२६॥ एकतः' एकस्मिन् स्थाने 'समुष्य' सहवासित्वा 'दुहतो'त्ति द्वयं च द्वयं च द्वये आवां युवांच, व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं |पुरुषप्राधान्याच पुंलिङ्गता, 'सम्यक्त्वसंयुताः सम्यक्त्वेन-तत्त्वरुचिलक्षणेन संयुताः-सहिताः, उपलक्षणत्वाद्देशविभारत्या च 'पश्चादू' यौवनावस्थोत्तरकालं, कोऽर्थः ?-पश्चिमे वयसि, 'जाती' पुत्रौ ! 'गमिष्यामः' प्रजिष्यामो वयं ग्रामनगरादिष, मासकल्पादिक्रमेणेति शेषः, अर्थाच प्रवज्यां प्रतिपद्य, 'भिक्षमाणाः' याचमानाः, पिण्डादिकमिति गम्यते, क-'कुले कुले' गृहे गृहे न त्वेकस्मिन्नेव वेश्मनि, किमुक्तं भवति-अज्ञातोच्छवृत्त्येति सूत्रार्थः॥ कुमारावाहतु: दीप अनुक्रम [४६५-४६६] For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~806~ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||२६-२८|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) इपुकारीय. मध्ययनं. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२६-२८|| उत्तराध्य. जस्सऽस्थि मजुणा सक्खं, जस्स वऽस्थि पलायणं । जो जाणइ न मरिस्सामि, सो छ कंखे सुए सिया ॥२७॥ अजेव धम्म पडिवजयामो, जहिं पवना न पुणभवामो। अणागय नेव य अस्थि किंची, सद्धाखमं नो विणइत्सु रागं ।। २८॥ ॥४०॥ । 'यस्य' इत्यनिर्दिष्ट स्वरूपस्य 'अस्ति' विद्यते 'मृत्युना' कृतान्तेन 'सख्यं मित्रत्वं, यस्य चास्ति 'पलायनं' नशनं, हामृत्योरिति प्रक्रमः, तथा 'जो जाणइत्ति यो जानीते यथाऽहं न मरिष्यामि, 'सो हु कंखे सुए सिय'त्ति स एव 'काति' प्रार्थयते 'श्वः' आगामिनि दिने स्यादिदमिति गम्यते । न च कस्यचिन्मृत्युना सह सख्यं ततो वा पलायनं तदभावज्ञानं वा अतोऽद्यैव 'धर्म' प्रक्रमाद्यतिधर्म 'पडियजयामो'त्ति 'प्रतिपद्यामहे' अङ्गीकुर्महे, तमेव फलो-2 पदर्शनद्वारेण विशिनष्टि-'जहिंति आर्षत्वाद्यं धर्म 'प्रपन्नाः' आश्रिताः 'ण पुणब्भवामो'त्ति न पुनर्भविष्यामो-न पुनर्जन्मानुभविष्यामः, तन्निवन्धनभूतकर्मापगमात् , जरामरणाद्यभावोपलक्षणं चैतत् , किञ्च-'अनागतम्' अप्राप्त नैव चास्ति किञ्चिदिति मनोरममपि विषयसौख्यादि अनादौ संसारे सर्वस्य प्राप्तपूर्वत्वात्ततो न तदर्थमपि गृहावस्थान युक्तमिति भावः, यद्वा 'अनागतम्' आगतिविरहितं नैव चास्ति किंचित् , किन्तु सर्वमागतिमदेव जरामरणादि-1 व्यसनजातं, ध्रुवभाविवादस्य भवस्थानां, यद्वाऽनागतं यत्र मृत्योरागतिनास्ति तन्न किश्चित्स्थानमस्ति, यतश्चैवमतः श्रद्धा-अभिलापः क्षम-युक्तमिहलोकपरलोकयोः श्रेयःप्राप्ति निमित्तमनुष्ठानं कर्तुमिति शेषः, 'ण' इति नोड दीप अनुक्रम [४६७-४६९] ४०४॥ AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~807~ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||२९-३०|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२९-३०|| |स्माकं 'विनीय' अपसार्य, कं ?-'राग' खजनाभिष्वज्ञलक्षणं, तत्त्वतो हि कः कस्य खजनो न वा खजन इति, उक्तं दिच-"अयं णं'भंते ! जीवे एगमेगस्स जीवस्स माइत्ताए (पियताए) माइत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए सुण्हत्ताए भजताए दहिसयणसंबंधसंथुयत्ताए उववण्णपुष्वे ?, हंता गोयमा !, असतिं अदुवा अणंतखुत्तो"त्ति, इति सूत्रद्वयार्थः ॥ ततस्तयोर्वचनमाकर्ण्य पुरोहित उत्पन्नव्रतग्रहणपरिणामो ब्राह्मणी धर्मविघ्नकारिणी मत्वेदमाह पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो, वासिद्धि भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहई समाहि, छिन्नाहिं साहाहिं तमेव खाणुं ॥२९॥ पंखाविहणो व जहेव पक्खी, भिच्चविणो व रणे नरिंदो। विवन्नसारो वणिउव्व पोए, पहीणपुत्तोमि तहा अहंपि ॥३०॥ प्रहीणी-प्रभ्रष्टौ पुत्रौ यस्मात्स प्रहीणपुत्रः, अथवा प्राकृते पूर्वापरनिपातसातव्रत्वात्पुत्राभ्यां प्रहीण:-त्यक्तः पुत्रप्रहीणः तस्य 'हुः' पूरणे 'नास्ति' न विद्यते 'वासः' अवस्थान, मम गृह इति गम्यते, वाशिष्टि!-वशिष्टगोत्रोद्भवे, गौरवख्यापनार्थ गोत्राभिधानं, तच कथं नु नाम धर्माभिमुख्यमस्याः स्यादिति, भिक्षाचर्यायाः-भिक्षाटनस्य, | १ अयं भदन्त ! जीव एकैकस्य जीवस्य मातृतया (पितृतया ) भ्रातृत्तया पुत्रतया दुहितृतया स्नुषातया भार्यातया सुहृत्स्वजनसम्बहिन्धसंस्तुततया उत्पन्नपूर्वः ?, हन्त गौतम ! असकृत् अथवाऽनन्तकृत्वः।। RECEMERGASCRACKS दीप अनुक्रम [४७०-४७१] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~808~ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२९ -३०|| दीप अनुक्रम [४७० -४७१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४०५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२९-३०|| अध्ययनं [१४], Jan Education Intiational उपलक्षणं चैतद् व्रतग्रहणस्य कालः - प्रस्तावो वर्त्तत इति शेषः । किमित्येवमत आह-'शाखाभिः ' प्रतीताभिः 'वृक्षः' द्रुमः 'लभते' प्राप्नोति 'समाधिं' स्वास्थ्यं, 'छिन्नाभिः' द्विधाकृताभिः शाखाभिः 'तमेव' वृक्षं यस्ताभिः समाधिमाप्तवान् 'खाणुं'ति स्थाणुं जनोऽप्युपदिशतीत्युपस्कारः, यथा हि तास्तस्य शोभासंरक्षण सहायकृत्यकरणादिना | समाधिहेतवः एवं ममाप्येती सुतावतस्तद्विरहितोऽहमपि स्थाणुकल्प एवेति किं ममैवंविधस्य खपरयोः कञ्चिदु|पकारमपुष्णत एव गृहवासेनेत्यभिप्रायः । किञ्च - पक्षाभ्यां - पतत्राभ्यां विहीनो-विरहितः पक्षविहीनः, 'वा' दृष्टान्तान्तरसमुचये, यथा 'इद्द' अस्मिँल्लोके 'पक्षी' विहङ्गमः पलायितुमप्यशक्त इति मार्जारादिभिरभिभूयते । तथा | भृत्याः पदातयस्तद्विहीनो, वा प्राग्वत्, 'रणे' सङ्ग्रामे 'नरेन्द्रः' राजा शत्रुजनपराजयस्थानमेव जायते, तथा विपन्न:विनष्टः सारो-हिरण्यरत्वादिरस्येति विपन्नसारो वणिक सांयात्रिको, वेति प्राग्वत्, 'पोते' प्रवहणे भिन्न इति गम्यते नार्वाय् न च परत इत्युदधिमध्यवर्त्ती विषीदति, पुत्रप्रहीणोऽस्मि तथाऽहमपि, कोऽर्थः ?--पक्षभृत्यार्थसारभूताभ्यां सुताभ्यां विरहितोऽहमप्येवंविध एवेति सूत्रद्वयार्थः ॥ वाशिष्टयाह--- निर्युक्तिः [३७३...] सुसंभिया कामगुणा इमे ते, संपिंडिया अग्गरसा पभूया । भुंजामु ता कामगुणे पगामं, पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ॥ ३१ ॥ सुष्ठु - अतिशयेन संभृताः - संस्कृताः सुसंभृताः, के ते ! - 'कामगुणा' वेणुवीणाकणितकाकलीगीतादयः 'इमे' For Para Prata Use Only ~809~ इषुकारीय मध्ययनं १४ ॥४०५॥ www.anciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक इति खगृहवर्तिनः, तान् प्रत्यक्षतया निर्दिशति, 'ते' तव तथा 'संपिण्डिताः' सम्यकपुञ्जीकृताः 'अग्गरस'त्ति चश-16 ब्दस्य गम्यमानत्वादण्या रसाश्च-प्रधाना मधुरादयश्च प्रभूताः-प्रचुराः, कामगुणान्तर्गतत्वेऽपि रसानां पृथगुपादानमतिगृद्विहेतुत्वाच्छन्दादिष्यपि चैषामेव प्रवर्तकत्वात् ,कामगुणविशेषणं या अग्र्या रसास्त एव शृङ्गारादयो वा येषु ते तथा, वृद्धास्त्वाहुः-रसाना-सुखानामग्रं रसायं ये कामगुणाः, सूत्रे च प्राकृतत्वादनशब्दस्य पूर्वनिपातः, 'भुंजामो'त्ति भुञ्जीमहि 'तत् तस्मादमी सुसंभृतादिविशेषणविशिष्टास्ते च स्वाधीनाः सन्ति, 'कामगुणान्' उक्तरूपान् 'प्रकामम्' अतिशयेन, ततो भुक्तभोगाः 'पश्चाद' इति वृद्धावस्थायां 'गमिष्यामः' प्रतिपत्स्यामहे 'प्रधानमार्ग' महापुरुषसेवितं प्रव्रज्यारूपं मुक्तिपथमिति सूत्रार्थः ॥ पुरोहितः प्राह भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ णे वओ, न जीवियट्ठा पजहामि भोए। लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं, संचिक्खमाणो चरिसामि मोणं ॥ ३२॥ 'भुक्ताः' सेयिताः 'रसाः' मधुरादयः, उपलक्षणत्वाच्छेषकामगुणाश्च, यद्वा रसा इह सामान्येनेवाखाधमानत्वानोगा भण्यन्ते 'होति'त्ति हे भवति !, आमन्त्रणवचनमेतत् , 'जहाति' त्यजति 'नः' इत्यस्मान् वयः शरीरावस्था कालकृतोच्यते, सा चेहाभिमतक्रियाकरणक्षमा गृह्यते, ततश्च यतो भुक्ता एवानेको भोगा क्यवाभिमतक्रियाकरणक्षमं जहाति, उपलक्षणत्वाजीवितं च, ततो यावन्नैतत्त्यजति ताबद्दीक्षा प्रतिपद्यामह इत्यभिप्रायः, ROSCOMSAARCLEARS ||३१|| दीप अनुक्रम [४७२]] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~810~ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||३२|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| सत्तराध्य. हातत्किं वयःस्थैर्याद्यर्थ दीक्षा प्रतिपद्यसे ?, उच्यते हि कैश्चित् दीक्षा वयःस्थैर्यादिविधायिनीत्याशङ्कयाह-'न' इति इषुकारीयबृहद्वृत्तिः द निषेधे जीवितम्-असंयमजीवितम् , उपलक्षणत्वाद्वयश्च तदर्थ 'प्रजहामि' प्रकर्षण त्यजामि 'भोगान्' शब्दादीन् , किन्तु 'लाभम्' अभिमतवस्त्वातिरूपम् 'अलाभं च तदभावरूपं 'सुखम्' अभिलपणीयविषयसम्भोगजं, चस्य | मध्ययनं. ॥४०६॥ भिन्नक्रमत्वाद् 'दुःखं च बाधात्मक 'संचिक्खमाणोति समतया ईक्षमाणः-पश्यन, किमुक्तं भवति ?-लाभा- १४ लाभयोस्तथा सुखदुःखयोरुपलक्षणत्वाजीवितमरणादीनां च समतामेव भावयन् 'चरिष्यामि' आसेविष्ये, किं तत् ?'मौन' मुनिभावं, ततो मुक्त्यर्थमेव मम दीक्षाप्रतिपत्तिरिति भाव इति सूत्राथैः । वाशिष्टयाह माह तुम सोदरियाण संभरे, जुन्नो व हंसो पडिसोयगामी। भुंजाहि भोगाई मए समाण, दुक्खं खु भिक्खायरिया विहारो॥३॥ 'मा' इति निषेधे 'हूः' इति वाक्यालङ्कारे त्वं सोदरे शयिताः सोदाः , 'सोदराद्य इति (पा०४-४-१०९) यः। प्रत्ययः, ते च समानकुक्षिभवा भ्रातरस्तेषाम् ,उपलक्षणत्वाच्छेपखजनानां भोगानां च, 'संभरे'त्ति अस्मापीः, क इव 2-3 'जुण्णो व हंसो'त्ति इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् 'जीर्णः' वयोहानिमुपगतो 'हंस इव' प्रधानपक्षीव प्रतिकूलं स्रोतः ॥४०६॥ प्रतिस्रोतस्तद्गामी सन् , किमुक्तं भवति ?-यथाऽसौ नदीस्रोतस्यतिकष्टं प्रतिकूलगमनमारभ्यापि तत्राशक्तः पुनरनु-I स्रोत एवानुधावति, एवं भवानपि दुरनुचरं संयमभारं वोडमसमर्थः पुनः सहोदरादीन् भोगान् वा मरिष्यति, दीप अनुक्रम [४७३] भी Jmtamoh मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~811~ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) S प्रत सूत्रांक ||३३|| तिदिदमेवास्तु, भुज भोगान् मया 'समाण'ति सह 'दुःख'मिति दुःखहेतुः 'खु' इति खलु निश्चितं 'भिक्षाचर्या'। मिक्षाटनं 'विहारः' प्रामादिष्वप्रतिबद्धविहारो, दीक्षोपलक्षणं चैतदिति सूत्रार्थः ॥ पुरोहित आह जहा य भोई तणुयं भुयंगे, निम्मोअणि हिच पलाह मुत्तो। एमे जाया पजहंति भोए, तेऽहं कह नाणुगमिस्समिक्को ? ॥ ३४ ॥ छिदित्तु जालं अबलं व रोहिया, मच्छा जहा कामगुणे पहाय । धोरेयसीला तवसा उदारा, धीरा हु भिक्खायरियं चरंति ॥ ३५॥ यथा हे भवति ! पठ्यते च-'भोगि'त्ति हे भोगिनि ! तनुः-शरीरं तत्र जातां तनुजां भुजङ्गमः' सर्पः 'निर्मो-४ चिनी' निर्माकं हित्वा 'पर्येति' समन्ताद्गपछति 'मुक्तः' इति निरपेक्षोऽनभिष्वक्त इत्यर्थः, 'एमए'त्ति एवमेती, पठ्यते च 'इमेति'त्ति अत्र च तथेति गम्यते, ततस्तथेमौ 'ते' तव 'जातौ' पुत्री 'पजहंति' प्रजहीतः प्रकर्षण त्यजतो भोगान् , ततः किमित्याह-तो भोगांस्त्यजन्ती जाती अहं कथं न अनुगमिष्यामि प्रवज्याग्रहणेनानुसरिष्यामि ६'एक' अद्वितीयः । यदि तावदनयोः कुमारकयोरपीयान् विवेको यन्निर्मोकवदत्यन्तसहचरितानपि भोगान् हाभुजङ्गबत्त्यजतस्तक्किमिति भुक्तभोगोऽप्यहमेतान्न त्यक्ष्यामि ?, किंवा ममासहायस्य गृहवासेनेति भावः । तथा नाछित्त्वा' द्विधाकृत्वा तीक्ष्णपुच्छादिना 'जालम्' आनायम् 'अबलमिव' जीर्णत्वादिना निःसारमिव, बलीयोऽपीति दीप अनुक्रम [४७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~812~ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| दीप अनुक्रम [४७६ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४०७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३५|| निर्युक्तिः [३७३...] अध्ययनं [१४], गम्यते, 'रोहिताः' रोहितजातीया: 'मत्स्या' मीनाथरन्तीति सम्बन्धः, 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शने, यत्तदोश्च नित्यसम्वन्धात्तथेति गम्यते, ततस्तथा जालप्रायान् कामगुणान् 'हाय' परित्यज्य धुरि वहन्ति धौरेयास्तेषामिव शीलम् - उत्क्षिप्तभारवाहितालक्षणं स्वभावो येषां ते धौरेयशीलाः 'तपसा' अनशनादिना 'उदाराः' प्रधानाः 'धीराः ' सत्यवन्तः हुरिति यस्मादू भिक्षाचर्या 'चरन्ति' आसेवन्ते, व्रतग्रहणोपलक्षणमेतद्, अतोऽहमपीत्थं व्रतमेव ग्रहीष्ये इति भाव इति सूत्रद्वयार्थः । इत्थं तत्प्रतिबोधिता ब्राह्मण्याह Jgn Education Intimation नहेव कुंचा सकता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा । पति पुता य प य मज्झं, तेऽहं कहं नाणुगमिस्समिक्का ? ॥ ३६ ॥ 'नभसीव ' आकाश इव 'क्रौञ्चाः' पक्षिविशेषाः 'समतिक्रामन्तः' तांस्तान् देशानुल्लङ्घयन्तः 'ततानि' विस्तीर्णानि | 'जालानि' बन्धनविशेषरूपाण्यात्मनोऽनर्थहेतुन् 'दलयित्वा' भित्त्वा 'हंस'त्ति चशब्दस्य गम्यमानत्वाद्धसाथ | 'पलिंति 'त्ति परियन्ति - समन्ताद्गच्छन्ति 'पुत्रौ च' सुतौ 'पतिश्च' भर्त्ता मम सम्बन्धिनो, गम्यमानत्वादेतत् (नं) जालोपमविपयाभिष्वङ्गं भित्त्वा नभःकल्पे निरुपलेपतया संयमाध्यनि तानि तानि संयमस्थानानि अतिक्रामन्तस्तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका सती १, किन्त्वनुगमिष्याम्येव, एवंविधवयसां हि स्त्रीणां भर्त्ता वा पुत्रो वा गतिरिति, यदिवा जालानि भिरखेति हंसानामेव संबध्यते, समतिक्रामन्तः स्वातत्र्येण गच्छन्त इति तु क्रौञ्चानां, ततश्च क्रौञ्चोदा For Parent इषुकारीय मध्ययनं. १४ ~813~ ॥४०७ ॥१ wancibraryup मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३६|| निर्युक्तिः [३७३...] अध्ययनं [१४], हरणमजातकलत्रादिवन्धनसुतापेक्षं, हंसोदाहरणं तु तद्विपरीतपत्यपेक्षमिति भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं चतुर्णामप्येकवाक्यतायां प्रत्रज्याप्रतिपत्तौ यदभूत्तदाह पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सुचाऽभिनिक्लम्म पहाय भोए । कुटुंबसारं विलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी ॥ ३७ ॥ वंतासी पुरिसोरायं !, न सो होइ पसंसिओ । माहणेण परिचत्तं, घणं आदाउमिच्छसि ॥ ३८ ॥ तु, सव्वं वावि धणं भवे । सव्वंपि ते अपज्जन्तं, नेव ताणाय तं तव ॥ ३९ ॥ हिसि । जया तथा वा, मणोरमे कामगुणे पहाय । स गं इको हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विजई अज्जमिहेह किंचि ॥ ४० ॥ Jain Education intimates 'पुरोहितं' पुरोधसं 'तम्' इति भृगुनामानं 'ससुतं' पुत्रद्वयान्वितं 'सदारं' सपत्नीकं 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'अभिनिक्रम्य' गृहान्निर्गत्य 'प्रहाय' प्रकर्षेण त्यक्त्वा 'भोगान्' शब्दादीन् प्रत्रजितमिति गम्यते, 'कुटुम्बसारं' धनधान्यादि विपुलं च- विस्तीर्णतया उत्तमं च प्रधानतया विपुलोत्तमं 'तदिति यत्पुरोहितेन त्यक्तं गृह्णन्तमिति शेषः, 'राय'ति राजानं नृपतिम् 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः 'समुवाच' सम्यगुक्तवती 'देवी' कमलावती नाम तदग्रमहिषी, | किमुक्तवतीत्याह-वान्तम्- उद्गीर्णमशितुं भोक्तुं शीलमस्येति वान्ताशी 'पुरुषः' पुमान्, य इति गम्यते, 'राजन् !' For Para Pren www.ncb मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~814~ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३७ -४०|| दीप अनुक्रम [४७८ -४८१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || ३७-४०|| अध्ययनं [१४], Jain Education intimational ॥ ४०८ ॥ उत्तराध्य. ॐ नृप ! न स 'भवति प्रशंसितः' वाषितो विद्वद्भिरिति शेषः स्यादेतत् कथमहं वान्ताशीत्यत आह-त्राह्मणेन * 'परित्यक्तं' परिहतं 'धनं' द्रव्यम् 'आदातुं' गृहीतुमिच्छसि परिहृतधनं हि गृहीतोज्झितत्वाद्वान्तमिव तत्तदाबृहद्वृत्तिः दातुमिच्छंस्त्वमपि वान्ताशीव न चेदमुचितं भवादृशामित्यभिप्रायः । अथवा काक्का नीयते - राजनू ! वान्ताशी यः स प्रशस्यो न भवत्यतो ब्राह्मणेन परित्यक्तं धनं त्वमादातुमिच्छसि नैवेद्भवत उचितं यतस्त्वमप्येवं वान्ताशितयाऽसाध्य एव भविष्यसीति काक्कर्थः ॥ किं ? - 'सर्व' निरवशेषं 'जगद्' भुवनं भवेदिति सम्बन्धः, 'यदी त्यस्यायमर्थः- न संभवत्येवैतत् कथञ्चित्सम्भवे वा 'तुहन्ति तब सर्वे वाऽपि धनं रजतरूप्यादिद्रव्यं भवेत् यदि तवेतीहापि योज्यते, तदा सर्वमपि 'ते' तब 'अपर्याप्तम्' अशक्तम्, इच्छा परिपूर्ति प्रतीति शेषः, आकाश समत्वेन तस्या अपर्यवसितत्वात् तथा नैव 'त्राणाय' जरामरणाद्यापदपनोदाय 'तदिति सर्वे जगद्धनं वा भवति ते, इह च पुनः पुनः सर्वशब्दस्य युष्मदश्योपादानं भिन्नवाक्यत्वादपुनरुक्तमिति भावनीयं पूर्वेण गर्हितत्वमनेन चानुपकारितां पुरोहितधनाद्यग्रहणहेतुमादर्श्य सम्प्रत्यनित्यतां तद्धेतुमाह- 'मरिष्यसि प्राणांस्त्यक्ष्यसि 'राजन्!" नृप ! 'यदा तदा वा' यस्मिंस्तस्मिन् वा कालेऽवश्यमेव मर्त्तव्यं, 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु' रिति, उक्तं हि — कश्चितावस्यया दृष्टः श्रुतो वा शङ्कितोऽपि वा । क्षितौ वा यदिवा स्वर्गे, यो जातो न मरिष्यति ॥ १॥" तत्रापि च कदाचिदभिलपितवस्त्वादायैव मरिष्यतीत्यत आह- 'मनोरमान्' चित्ताहादकान् 'कामगुणान्' उक्तरूपान् 'प्रहाय' प्रकर्षेण १ For Prata Use Only निर्युक्तिः [३७३...] ~815~ इषुकारीय मध्ययनं. १४ ॥४०८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [--] / गाथा ||३७-४०|| नियुक्ति : [३७३...] (४३) । प्रत सूत्रांक ||३७-४०|| त्यक्त्वा 'त्वम्' एकाक्येव मरिष्यसि, न किञ्चिदन्यत्त्वया सह यास्थतीत्यभिप्रायः। तथा 'एको हुत्ति एक एव अद्वितीयः 'धर्म एव' सम्यग्दर्शनादिरूपः 'नरदेव !' नृप ! 'त्राणं' शरणमापत्परिरक्षणे क्षमं न विद्यते' नास्ति | 'अन्य' अपरम् 'इहेहे ति वीप्साभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थ, 'किञ्चिदिति खजनधनादिकं,यदिया इहेति लोके 'इहे'त्यस्सिन मृत्यौ धर्म एवैकखाणं, मुक्तिहेतुत्वेन, नान्यत्किञ्चित् , ततः स एवानुष्ठेय इति भाव, इति सूत्रचतुष्टयाथैः। यतश्च धर्मारते नान्यत्राणमतः नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा, संताणछिन्ना चरिसामि मोणं । अकिंचणा उजुकडा निरामिसा, परिग्गहारंभनियत्तऽदोसा ॥४१॥ दवग्गिणा जहा रण्णे, इज्झमाणेसु जंतुसुं। अन्ने सत्ता पमोयंति, रागहोसवसं गया ॥ ४२॥ एवमेव वयं मूढा, कामभोगसुमुच्छिया । डज्झमाणं न बुज्झामो, रागहोसग्गिणा जगं ॥ ४३ ॥ भोगे भुच्चा वमित्ता य, लहुभूयविहारिणो । आमोअमाणा गच्छति, दिया कामकमा इव ॥४४॥ इमे य बद्धा फंदंति, मम हत्थजमागया । वयं च सत्ता कामेसु, भविस्सामो जहा इमे ॥ ४५ ॥ सामिसं कुललं दिस्सा, वज्झमाणं निरामिसं । आमिसं सबमुज्झित्ता, विहरिस्सामो निरामिसा ।। गिडोवमे य मचा णे, कामे संसारवडणे । उरगो सुवण्णपासिब्व, संकमाणो तणुं चरे ॥४७॥ दीप अनुक्रम [४७८-४८१] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~816~ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४१ -४८|| दीप अनुक्रम [४८२ -४८९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥४०९ ॥ in Education th “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४१-४८|| अध्ययनं [१४], नागुव्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए । इति एत्थं महारायं ।, उसुआरिति मे सुयं ॥ ४८ ॥ ''ति निषेधे, 'अह'मित्यात्मनिर्देशे 'रमे' इति रतिमवाप्नोमि 'पक्खिणि पंजरे वत्ति वाशब्द औपम्ये भिन्नकमश्च ततः 'पक्षिणीव' शकुनिकेय सारिकादिः 'पअरे' प्रतीत एव, किमुक्तं भवति ? - यथाऽसौ दुःखोत्पादिनि पञ्जरे । न रतिं प्राप्नोति एवमहमपि जरामरणाद्युपद्रवविद्रुते भवपअरे न रमे, अतरिछन्नसन्ताना प्रक्रमाद् विनाशित लेहसन्ततिः सती, छिन्नशब्दस्य सूत्रे परनिपातः प्राग्वत्, 'चरिष्यामि' अनुष्ठास्यामि 'मौन' मुनिभावम्, अविद्यमानं किञ्चनं द्रव्यतो हिरण्यादि भावतः कपायादिरूपमस्या इत्यकिञ्चना, अत एव ऋजु मायाविरहितं कृतम् - अनुष्ठितमस्या इति ऋजुकृता, कथं चैवंभूतेत्याह- निष्क्रान्ता आमिषाद् - गृद्धिहेतोरभिलपितविपयादेः निर्गतं वा आमिउपमस्या इति निरामिषा, 'परिग्गहारंभणियत्तदोस'ति, प्राकृतत्वात् पूर्वापरनिपातोऽतन्त्रमिति, परिग्रहारम्भयोदपा:- अभिष्वङ्गनिस्तृशतादयस्तेभ्यो निवृत्ता- उपरता परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता यद्वा परिग्रहारम्भनिवृत्ता अत एव चादोपा - विकृतिविरहिता, अनयोर्विशेषणसमासः । अपरं च 'दवाग्निना' दावानलेन यथा 'अरण्ये' बने 'दामानेषु' भस्मसात्क्रियमाणेषु 'जन्तुषु' प्राणिषु 'अन्ये' अपरे 'सत्त्वाः' प्राणिनोऽविवेकिनः 'प्रमोदन्ते' प्रकर्षेण हृष्यन्ति, किमित्येवंविधास्ते इत्याह-- रागद्वेपयोर्वशः- आयत्तता रागद्वेपवशस्तं गताः - प्राप्ताः । ' एवमेव ' ति विन्दोरलाक्षणिकत्वादेवमेव वयं 'मूढ'त्ति 'मूढानि' मोहवशगानि 'कामभोगेषु' उक्तरूपेषु 'मुच्छियति मूर्छितानि गृद्धानि For Parent निर्युक्तिः [३७३...] ~817~ इपुकारीयमध्ययनं. ६.४ ॥ ४०९ ॥ ancibrary a मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१४], मूलं [--] / गाथा ||४१-४८|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक 4-5 ॥४१-४८|| दह्यमानमिव दखमानं न 'बुध्यामहे' नायगच्छामो रागद्वेपावमिरिव रागद्वेषाग्निस्तेन, किं तत् ?-'जगत् प्राणिसमूह, यो हि सविवेको रागादिमांश्च न भवति स दावानलेन दह्यमानानन्यसत्त्वानवलोक्य अहमप्येवमनेन दहनीय इति तद्रक्षणोपायतत्पर एव भवति, न तु प्रमादवशगः सन् प्रमोदते, यस्त्वत्यन्तमज्ञो रागादिमांच स आयतिमचिन्तयन् हृष्यति न तु तदुपशमनोपाये प्रवर्तते, ततो वयमपि भोगापरित्यागादेवंविधान्येवेति भावः। ये त्वेवंविधा न भवन्ति ते किं कुर्वन्तीत्याह-'भोगान् मनोजशब्दादीन् 'भोच'त्ति 'भुक्त्वा' आसेव्य पुनरुत्तरकालं| 'वान्त्वा च' अपहाय विपाकदारुणत्वालघु:-वायुस्तद्वद्भूतं-भवनमेषां लघुभूताः, कोऽर्थः -वायूपमाः तथाविधाः सन्तो विहरन्तीत्येवंशीलाः लघुभूतविहारिणः-अप्रतिवद्धविहारिण इत्यर्थः, यद्वा लघुभूतः-संयमस्तेन विहन्तुं शील येषां ते तथाविधाः, आ-समन्तान्मोदमाना हृष्यन्त आमोदमानाः, तथाविधानुष्ठानेनेति गम्यते, गच्छन्ति विव/क्षित स्थानमिति शेषः, क इव ?-'दिया कामकमा इय'त्ति इवशब्दो भिन्नक्रमस्ततो द्विजा इव-पक्षिण इय काम:अभिलापस्तेन कामन्तीति कामक्रमाः, यथा पक्षिणः स्वेच्छया यत्र यत्रावभासते तत्र तत्रामोदमाना भ्राम्यन्ति एवमेतेऽप्यभिष्वङ्गस्य परतन्त्रताहेतोरभावाद्यत्र यत्र संयमयात्रानिर्वहणं तत्र तत्र यान्तीत्याशयः । पुनर्वहिरास्थां निराकुर्वन्त्याह-'इमे' इत्यनुभूयमानतया प्रत्यक्षाः शब्दादयः, 'चः' समुच्चये 'बद्धाः' नियन्त्रिता अनेकथोपायै रक्षिता इत्यर्थः, एते किमित्याह-स्पन्दन्त इव स्पन्दन्ते अस्थितिधर्मतया, ये कीरश इत्याह-'मम हत्थजमाग दीप अनुक्रम [४८२-४८९] JanEducatamanna मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~818~ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१४], मूलं [--] / गाथा ||४१-४८|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) समराध्य.iwषाचमन सामानसमा -- उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः प्रत * सूत्रांक ॥४१॥ ॥४१-४८|| यत्ति 'ममे' त्यात्मनिर्देशे उपलक्षणत्वात्तव च 'हस्तं' करम् , आर्य ! अद्य वा 'आगताः' प्राप्ताः, कोऽर्थः ?-खवशाः, इपुकारीय. आत्मनोजतां दर्शयितुमाह-वयं च सत्त'त्ति वयं पुनः 'सक्तानि' संबद्धानि अभिष्यनयन्तीत्यर्थः, अबहुत्वेप्यस्मदोर्द्वयोश्चेति (पा०-१-२-५९) बहुवचनं, 'कामेषु' अभिलपणीयशब्दादिपु, एवं विधेष्वपि चामीष्वभिष्वङ्ग इति | मध्ययनमोहविलसितमिति भावः, यद्वा 'इमे चेति चशब्दाद्वयं च स्पन्दामह इव स्पन्दामहे आयुषश्चञ्चलतया परलोकगमनाय, शेपं तथैव, यत एवमतो भविष्यामो यथेमे पुरोहितादयः, किमुक्तं भवति ?-यथाऽमीभिश्चञ्चलत्वमवलोक्यते परिसक्तास्तथा वयमपि त्यक्ष्याम इति । स्यादेतद्-अस्थिरत्वेऽपि सुखहेतुत्वात्किमित्यमी त्यज्यन्ते इत्याह सहामिषेण-पिशितरूपेण वर्तत इति सामिपस्तं कुललमिह गृधं शकुनिकां वा 'दृष्ट्वा' अवलोक्य 'याध्यमानं' पीड्यघामानं पक्ष्यन्तरैरिति गम्यते, निरामिषम्-आमिपविरहितमन्यथाभूतं दृष्ट्वेति गम्यते, 'आमिपम्' अभिष्वङ्गहेतुं धन धान्यादि 'सर्व' निरवशेषम् 'उज्झित्वा' त्यक्त्वा 'विहरिस्सामो'त्ति विहरिष्याम्यप्रतिवद्धविहारितया चरिष्यामीत्यर्थः, 'निरामिपा' परित्यक्ताभिष्वङ्गहेतुः । उक्तानुवादेनोपदेष्टुमाह-गृद्धेणोपमा येषां ते गृद्धोपमास्तानुक्तन्यायेन, 'तुः' समुच्चये भिन्नक्रमश्च योक्ष्यते, ज्ञात्वा' अवबुध्य, णमिति प्राग्वत् ,कान् ?-प्रक्रमाद्विषयामिपवतो लोकान् ‘कामाश्च 31 विषयांश्च 'संसारवर्द्धनान्' संसारवृद्धिहेतून ज्ञात्वेति सम्बन्धः,अथवा कामयन्त इति कामा इति व्युत्पत्त्या कामयोगाद्वाऽत्यन्तरद्धिख्यापनार्थ कामा विषयिण एवोक्ता अतस्तान् गृद्धोपमान् संसारवर्द्धनांश्च ज्ञात्वा किमित्याह-'उरगो| दीप अनुक्रम [४८२-४८९] 255-56-9454-555 AIMEducatan intimalsina For PHOTOSPNandipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~819~ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४१ -४८|| दीप अनुक्रम [४८२ -४८९] Jan Education in “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४१-४८|| अध्ययनं [१४], सुवण्णपासे वत्ति इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् आर्यत्वाच 'उरग इव' भुजग इव 'सौपर्णेयपार्थे' गरुडसमीपे 'शङ्कमानः ' भयत्रस्तस्तन्विति - स्तोकं मन्दं यतनयेतियावत् 'चरेः' क्रियासु प्रवर्त्तख, अस्यायमाशयः - यथा सौपर्णेयोपमैविषयैर्न बाध्यसे तथा संयममासेवख ततश्च किमित्याह-'णागोष' अर्द्ध स्पष्टम्, आशयश्चायं यथा नागः बन्धनं वरत्रान्दुकादि 'छित्त्वा' द्विधा विधायात्मनो 'वसतिं विन्ध्याटवीं व्रजति, एवं भवानपि कर्मबन्धनमुपहत्यात्मनो वसतिः कर्मविगमतः शुद्धो यत्रात्माऽवतिष्ठते सा च मुक्तिरेव तां प्रजेः अनेन दीक्षायाः प्रसङ्गतः फलमुक्तम् । एवं चोपदिश्य निगमयितुमाह - 'एतद्' यन्मयोक्तं 'पथ्यं' हितं 'महाराज !' प्रशस्यभूपते ? 'इषुकार !' इकारनामन् !, एतच न मया खमनीषिकयैवोच्यते, किन्तु 'इति' इत्येतन्मया 'श्रुतम्' अवधारितं साधुसकाशादिति गम्यत इति सूत्राष्टकार्थः ॥ एवं च तद्वचनमाकर्ण्य प्रतिबुद्धो नृपः ततश्च यत्तौ द्वावपि चक्रतुस्तदाहचता विपुलं रजं, कामभोगे अ दुच्चए। निव्विसया निरामिसा, निन्नेहा निष्परिग्गहा ॥ ५० ॥ सम्मं धम्मं वियाणित्ता, चिया कामगुणे चरे । तवं पगिज्झऽहक्वायं घोरं घोरपरकमा ! ॥ ५१ ॥ 'त्यक्त्वा' प्रहाय 'विपुल' विस्तीर्ण 'राष्ट्र' मण्डलं, पाठान्तरतो राज्यं वा 'कामभोगांव' उक्तरूपान् 'दुस्त्यजानू' दुष्परिहारान् 'निर्विषयौ' शब्दादिविषयविरहितौ अत एव निरामिषौ यद्वा विषयो- देशस्त द्विरहितौ राष्ट्रपरित्यागतः कामभोगयागतश्च निरामिषौ-अभिष्वङ्गहेतुविरहितौ, कुतः पुनरेवंविधौ १, यतो 'निःस्नेही' निष्प्रति For Par Pal Use On निर्युक्तिः [३७३...] ~820~ * मैं % %% %% # मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः अत्र गाथा क्रमांकने मूलसंपादने किञ्चित् स्खलनं अस्ति यत् गाथाक्रम ||४९ || स्थाने गाथाक्रम ||१०|| इति मुद्रितं Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||५०-५१|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥४१॥ ||५०-५१|| बन्धौ ‘निष्परिग्रहौ' क्वचिदविद्यमानखीकारौ 'सम्यग् अविपरीतं 'धर्म' श्रुतचारित्रात्मकं 'विज्ञाय' विशेषतोऽव- इएकारीयबुद्धध 'चेच'त्ति त्यक्त्वा 'कामगुणान्' शब्दादीन् 'वरान्' प्रधानान् पूर्वविशेषणैर्गतार्थत्वेऽपि पुनरभिधानमति | मध्ययनं. शयख्यापकं, 'तपः' अनशनादि 'प्रगृह्म' अभ्युपगम्य 'यधाख्यातं येन प्रकारेण तीर्थकरादिभिः कथितं 'घोरम्' अत्यन्तदुरनुचरं घोरकर्मा-चैरिणः प्रति रौद्रः पराक्रमो धर्मानुष्ठानविषयसामर्थ्यात्मको ययोता तथा देवीनूपौ। तथैव च कृतवन्ताविति शेष इति सूत्रद्वयार्थः ।। सम्प्रति समस्तोपसंहारमाह एवं ते कमसो वुद्धा, सम्वे धम्मपरायणा । जम्ममचुभउब्विग्गा, दुक्खस्संतगवेसिणो ॥५२॥ सासणि विगयमोहाणं, पुदिव भावणभाविया । अचिरेणेव कालेण, दुवस्संतमुवागया ॥ ५३॥ राया सह देवीए, माहणो उ पुरोहिओ। माहणी दारगा चेव, सम्ये ते परिनिव्वुडि ॥२४॥ तिबेमि ॥१४॥ ॥ उसुआरिजं चउहसमं ॥ 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'तानि' अनन्तरमुक्तरूपाणि पडपि 'क्रमशः' अभिहितपरिपाट्या 'बुद्धानि' अवगततत्त्वानि 'सर्वाणि' अशेषाणि 'धर्मपरायणानि' धर्मैकनिष्ठानि, पठ्यते च-'धम्मपरंपर'त्ति परम्परया धर्मो येषां है |॥४१॥ तानि परम्पराधर्माणि, प्राकृतत्वाञ्च परम्पराशब्दस्य परनिपातः, तथा हि-साधुदर्शनात्कुमारकयोः कुमारयच-| नात्तस्पिनोस्तदवलोकनारकमलावत्यास्ततोऽपि च राज्ञ इति परम्परयैव धर्मप्राप्तिः, जन्ममृत्युभयेभ्यः-उक्तरूपेभ्य दीप अनुक्रम [४९०-४९१] AIMEducatan intimational For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~821~ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१४], मूलं [-] / गाथा ||५२-५४|| नियुक्ति: [३७३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५२-५४|| एवोद्विग्नानि-प्रस्तानि जन्ममृत्युभयोद्विग्नानि 'दुःखस्य' असातस्यान्तः-पर्यन्तस्तद्वेपकाणि तदन्वेषकाणि सापेक्षस्थापि समासो यथा देवदत्तस्य गुरुकुलमिति । पुनस्तद्वक्तव्यतामेवाह-'शासने दर्शने विगतमोहानाम्-अर्हतां 'पूर्वमित्यन्यजन्मनि भावनया-अभ्यासरूपया भावितानि-वासितानि भावनामावितानि, यद्वा भाविता भावना यैस्तानि भावितभावनानि, पूर्वोत्तरनिपातस्यातन्त्रत्वाद् , अत एवाचिरेणैव-खल्पनैव कालेन 'दुःखस्यान्तं' मोक्षम् 'उपा*गतानि' प्राप्तानि, सर्वत्र च प्राकृतत्वात्पुंल्लिङ्गनिर्देशः । मन्दमति स्मरणायाध्ययनार्थमुपसंहर्तुमाह-राजा' इपुकारः सह 'देव्या' कमलावत्या ब्राह्मणश्च पुरोहितो भृगुनामा ब्राह्मणी तत्पनी यसा दारको तत्पुत्रौ चैवेति पूर्ववत्सदिवाणि तानि 'परिनिर्वृतानि' कर्माम्युपशमतः शीतीभूतानि मुक्तिं गतानीतियावदिति सूत्रत्रयार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्ती प्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्ते च पूर्ववत् ॥ MarSTREATRA-STREATMENTRASRA-Te---METABORan इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां चतुर्दशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ACCCCCCCANCHECKR दीप अनुक्रम [४९२-४९४] For PAHATEEPIVanupontv Wiancibrarma मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-१४ परिसमाप्तं ~822~ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५२ -५४|| दीप अनुक्रम [४९२ -४९४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४१२ ॥ Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||४८...|| अध्ययनं [१५], अथ पञ्चदशं सभिक्षुकमध्ययनम् । व्याख्यातं चतुर्दशमध्ययनं सम्प्रति पञ्चदशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने निर्निदानतागुण उक्तः, स च मुख्यतो भिक्षोरेव, भिक्षुश्च गुणत इति तद्गुणा अनेनोच्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववद्व्यावर्ण्यानि तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे सभिक्षुकमिति नाम, तत्र च सशब्दो भिक्षुशब्दश्च दशवैकालिक एव निक्षिप्तस्तथाऽपि स्थानाशून्यार्थ भिक्षुनिक्षेपमाह नियुक्तिकृत् निर्युक्ति: [३७४-३७५] निक्खेव भिक्खुमी चव्विहो० ॥ ३७४ ॥ जाणयसरीरभविए तबइरिते अ निपहगाईसु । जो भिंदेड़ खुहं खलु सो भिक्खू भावओ होइ ३७५ 'निक्षेपः' न्यासः frat विचार्ये चतुर्विधो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्विविधो भवति द्रव्ये विचार्य आगमतो नोआगमतः, तत्रागमतो भिक्षुपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतश्च स त्रिविध:- 'जाणगसरीरभविए' ति ज्ञशरीर भव्यशरीरे तयतिरिक्तश्च तत्राद्यौ युगमावेव, तयतिरिक्तस्तु द्रव्यभिक्षुर्निहवादिषु, आदि For PP Use Only ~823~ सभिक्षुकमध्ययनं. ॥४१२॥ ancirayur मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं १५ "सभिक्षुक" आरभ्यते Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [३७४-३७५] (४३) प्रत सूत्रांक ||५२-५४|| शब्दात्सरजस्कादिषु चान्यतरो विवक्षित इति गम्यते, द्रव्यत्वं चास्य रागादिलक्षणक्षुद्रेत्तृत्वाभावात् , भावभिक्षुमाह-यो भिनत्ति' विदारयति क्षुधं खलु' अवधारणे भिन्नक्रमश्थ, ततः स एव भिक्षुर्भावतो भवतीति गाथाद्वयार्थः । इह च भिनत्तीत्युक्तमतः कर्तृकरणकर्मभिः प्रयोजनं, सकर्मकत्वाद्भिदेः, अत आह भेत्ता य भेअणं वा नायवं भिदियवयं चेव । इकिकपि अ दुविहं दवे भावे अ नायत्वं ॥ ३७६ ॥ रहकारपरसुमाई दारुगमाई अ दवओ इंति । साह कम्मऽविहं तवो अभावंमि नायवो ॥३७७॥ रागद्दोसा दंडा जोगा तह गारवा य सल्ला याविगहाओ सण्णाओ खुहं कसाया पमाया य ॥३७॥ ₹ भेत्ता च कर्ता यो भिनत्ति, भेदनं करणं येन भिनत्ति 'वा' समुच्चये 'ज्ञातव्यं' बोद्धव्यं भेत्तव्यमेव भेत्तव्यक कर्म यद्भिद्यते, 'चः समुच्चये, 'एव' इति पूरणे, 'एकैकमपि चेति भेत्ता भेदनं भेत्तव्यकं च 'द्विविधं' द्विभेदं द्रव्ये भावे च विचार्यमाणे 'ज्ञातव्यम्' अवगन्तव्य। तत्र द्रव्ये 'रहगारपरसुमाइ'त्ति आदिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धाद् ६ रथकार:-तक्षकस्तदादिद्रव्यतो भेत्ता, आदिशब्दादयस्कारादिपरिग्रहः, परशु:-कुठारस्तदादिन्यतो भेदनम् , आदिशब्दाद् घनादयो गृह्यन्ते, 'दारुगमाई यत्ति दारुक-काष्ठं तदादि च द्रव्यतो भेद्यम् , आदिशब्दालोहादि दीप अनुक्रम [४९२-४९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~824~ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [३७६-३७८] (४३) प्रत सूत्रांक ||५२-५४|| उत्तराध्य. परिग्रहः, भवन्तीति सर्यापेक्षं बहुवचनम् । 'साधुः' तपस्वी 'कर्म' ज्ञानावरणादि 'अष्टविधम्' अष्टप्रकारं 'तपश्च' सभिक्षुक अनशनादि भाये विचार्य भेत्ता भेत्तव्यं भेदनं च क्रमेण ज्ञातव्यम् । इत्थं 'जो भिंदई खुहं खलु' इति ग्रहणकवाक्यं बृहद्वृत्तिः । R मध्ययनं. गतं, भिनत्तीति व्याख्याय क्षुधं व्याख्यातुमाह-रागद्वेषौ' उक्तरूपी 'दण्डाः' मनोदण्डादयो 'योगा' करणकारणानुम-19 ॥४१३॥ तिरूपाः, पठन्ति च-'रागद्दोसा छुहं दंडा' अत्र च 'छुहंति क्षुध-बुभुक्षा उच्यते, तथा 'गौरवाणि च ऋद्धिगौरवादीनि १५ 'शल्यानि च' मायाशल्यादीनि 'विकथाः'स्त्रीकथादयः सज्ञाः' आहारसज्ञादयः,'खुह'ति एतद्भावभाविवादष्टविधकमरूपायाः क्षुधः एतान्यपि श्रुदित्युच्यन्ते, प्राकृतत्वाच नपा निर्देशः, 'कषायाः क्रोधादयः 'प्रमादाच' मद्यादयः क्षुदिति सम्बन्धनीयमिति गाथात्रयार्थः ॥ उपसंहर्तुमाहएयाइं तु खुहाई जे खलु भिंदंति सुवया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी उविति अयरामरं ठाणं ३७९ 'एतानि' रागादीनि 'खुहाईति क्षुच्छब्दवाच्यानि ये खलु 'मिदंति' विदारयन्ति, खलुशब्द एवकारार्थो भिन्दन्त्येवेति शोभनानि अनतिचारतया व्रतानि-प्राणातिपातविरत्यादीनि येषां ते सुत्रताः 'ऋषयः' मुनयः,ते किमित्याह- ॥४१॥ |भिन्नः कर्मेवातिदुर्भेदतया अन्धिः कर्मग्रन्धियैस्ते तथाविधाः 'उपयान्ति' प्राप्नुवन्ति 'अजरामरं स्थानं' मुक्तिपद|मिति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् दीप अनुक्रम [४९२-४९४] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~825~ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७९] (४३) मोणं चरिस्सामि समिञ्च धम्म, सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने। संथवं जहिज अकामकामे, अन्नायएसी परिव्वए स भिक्खू ॥१॥ प्रत सुत्राक ॥१॥ मुनेः कर्म मौनं तच सम्यक्चारित्रं 'चरिस्सामोत्ति सूत्रत्वात् चरिष्यामि-आसेविष्ये इत्यभिप्रायेणेत्युपस्कारः, 'समेत्य' प्राप्य 'धर्म' श्रुतचारित्रभेदं दीक्षामित्युक्तं भवति, 'सहितः सम्यग्दर्शनादिभिरन्यसाधुभिर्वेति गम्यते, स्वस्मै हितः स्वहितो वा सदनुष्ठानकरणतः, कश्चैवम् ?-ऋजुः-संयमस्तत्प्रधानं ऋजु वा-मायात्यागतः कृतम्-अनुष्ठानं यस्येति ऋजुकृतः, ईदृक्क इत्याह-निदानं-विषयाभिष्वङ्गात्मकं, यदिवा' 'निदान बन्धने' ततश्च करणे ल्युट्, नि-18 दादान-प्राणातिपातादिकर्मबन्धकारणं छिन्नम्-अपनीतं येन स तथा, क्तान्तस्य परनिपातः प्राग्वत्प्राकृतत्वात् , छिन्न-13 निदानो वा अप्रमत्तसंयत इत्यर्थः, 'संस्तवं' पूर्वसंस्तुतैर्मात्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च श्वश्वादिभिः परिचयं 'जयात् दा त्यजेत् , 'शकि च लिङ' (शकि लिङ् च पा-३-३-१७३) इत्यनेन शक्याथै लिङ्, ततः संस्तवं हातुं शक्तो य इति, एवं लिङर्थभावना सर्वत्र कार्या,तथा कामान्-इच्छाकाममदनकामभेदान् कामयते-प्रार्थयते यः स कामकामो न तथा अकामकामः, यद्वाऽकामो-मोक्षस्तत्र सकलाभिलापनिवृत्तेस्तं कामयते यः स तथा. अत एव अज्ञातः-तपखिता-IN दिभिर्गुणैरनवगतः एषयते-प्रासादिकं गवेषयतीत्येवंशीलोऽज्ञातैपी 'परिव्रजेद्' अनियतविहारितया विहरेत् 'स भि दीप अनुक्रम [४९५] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~826~ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥४१४|| सूत्रांक ||२|| खुत्ति' यत्तदोर्नियाभिसम्बन्धाद् य एवंविधः स भिक्षुः, अनेन सिंहतयैव विहरणं भिक्षुत्वनिधन्धनमुक्तमिति र सभिः सूत्रार्थः ॥ तच सिंहतया विहरणं यथा स्यात्तथा विशेषत आह राओवरयं चरिज लाडे, विरए वेदवियाऽऽयरक्खिए। पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, जे कम्हिवि न मुच्छिए स भिक्खू ॥२॥ रागः-अभिष्वङ्गः उपरतो-निवृत्तो यस्मिंस्तद्रागोपरतं यथा भवत्येवं 'चरेद्' विहरेत् , क्तान्तस्य परनिपातः | प्राग्वत् , अनेन मैथुननिवृत्तिरुक्ता, रागाविनाभावित्वान्मैथुनस्य, यद्वाऽऽवृत्तिन्यायेन 'रातोवरय'ति राज्युपरतं 'चरेत्' भक्षयेदित्यनेनैव रात्रिभोजननिवृत्तिरप्युक्ता, 'लाढे'त्ति सदनुष्ठानतया प्रधानो विरत:-असंयमानिवृत्तः, अनेन च संयमस्याक्षेपात्प्राणातिपातनिवृत्तिः सावधवचननिवृत्तिरूपत्वाद्वाक्संयमस्य मृपाबाद निवृत्तिश्चाभिहिता वेदितव्या, वेद्यतेऽनेन तत्त्वमिति चेदः-सिद्धान्तस्तस्य वेदनं वित्तया आत्मा रक्षितो-दुर्गतिपतनात्रातोऽनेनेति वेदविदात्मरक्षितः, यद्वा वेदं वेत्तीति वेदवित् , तथा रक्षिता आयाः-सम्यग्दर्शनादिलाभा येनेति रक्षितायः, रक्षि ॥४१४॥ तशब्दस्स परनिपातः प्राग्वत्, 'प्राज्ञः' हेयोपादेयवुद्धिमान् 'अभिभूय' पराजित्य परीषहोपसोनिति गम्यते, 'सर्व' समस्तं गम्यमानत्वात्प्राणिगणं पश्यति-आत्मवत्प्रेक्षत इत्येवंशीलः, अथवाऽभिभूय रागद्वेषौ सर्व वस्तु समतया दीप अनुक्रम [४९६] AIMEducatan International For PAHATEEPIVanupontv trancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~827~ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३|| पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदशी, यदिया सर्व दशति-भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वदंशी, उक्तं हि-“पडिग्गह संलिहिताण, टू लेवमायाएँ संजए । दुग्गंधं वा सुगंधं वा, सर्व मुंजे ण छड्डए ॥१॥" अत एव यः कसिंश्चित्सचित्तादिवस्तुनि न मूछितः-प्रतिबद्धः, एतेन परिग्रहे निवृत्तेरभिधानमप्रतिवद्धश्च कथमदत्तमाददीत ? इत्यदत्तादाननिवृत्तेश्च, तथा च काय एवं मूलगुणान्वितः स भिक्षुरित्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ अन्यच अकोसवहं विदित्तु धीरे, मुणी चरे लाहे निचमायगुत्ते। _ अब्बग्गमणे असंपहिढे, जो कसिणं अहिआसए स भिक्खू ॥३॥ आक्रोशनमाक्रोश:-असभ्यालापो वधो-घातस्ताडनं वा, अनयोः समाहारद्वन्द्वे आक्रोशवधं तद्विदित्वा खकृतकर्मफलमेतदिति मत्वा 'धीरः' अक्षोभ्यः सम्यक् सोढेतियावत् 'मुनिः' यतिः 'चरेत्' पर्यटेद् अनियतविहारतयेति गम्यते, ततश्चानेनाक्रोशवधचर्यापरीषहसहनमुक्तं, 'लाढे'त्ति प्राग्वत् , 'नित्यम्' इति सदा 'आत्मा' शरीरम् , आत्मशब्दस्य शरीरवचनस्यापि दर्शनात्, उक्तं हि-"धर्मधृत्यनिधीन्द्वकत्वक्तत्त्वखार्थदेहिषु । शीलानिलमनोयत्नेकवीर्येष्वात्मनः स्मृतिः ॥१॥” इति, तेन गुप्त आत्मगुप्तो-न यतस्ततः करणचरणादिविक्षेपकृत् , यद्वा गुप्तोरक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन स तथा, अव्ययम्-अनाकुलमसमक्षसचिन्तोपरमतो मनः-चित्तमस्येत्यव्य १ पतहहं संलिख्य लेपमात्रया संयतः । दुर्गन्धि वा सुगन्धं वा सर्व भुङ्क्ते न त्यजति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [४९७] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~828~ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-]/गाथा ||४|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) उत्तराध्य. बृद्धृत्तिः कद सभिक्षुकमध्ययनं. ॥४१५॥ प्रत सूत्रांक ||४|| अमना न संप्रहृष्टः असंप्रष्ट:-आक्रोशादिषु न प्रहर्षवान्, यथा कश्चिदाह-"कश्चित् पुमान् क्षिपति मां परिरूक्षवाक्यैः, श्रीमत्क्षमाभरणमेत्य मुदं ब्रजामि" इत्यादि, प्रकृतोपसंहारमाह-यः कृत्वम्' उत्कृष्टादिभेदतः समस्तमाक्रोशवधम् 'अध्याते' सहते समतयेति गम्यते, स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ किंच पंतं सयणासणं भइत्ता, सीउपहं विविहं च दंसमसगं। अव्वग्गमणे असंपहिहे, जो कसिणं अहिआसए स भिक्खू ॥४॥ 'प्रान्तम्' अवमं शयनं च-संस्तारकादि आसनं च-पीठकादि शयनासनम् उपलक्षणत्वादोजनाच्छादनादि च 'भुक्त्या' सेवित्वा शीतं चोष्णं च शीतोष्णम्-उक्तरूपं, चस्य गम्यमानत्वात्तच सेवित्वा 'विविधं च नानाप्रकारं| दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकं प्राग् व्याख्यातमेव प्राप्येति शेषो, मत्कुणाद्युपलक्षणं चैतत् , अव्यग्रमना असंप्रष्टो यः कृत्स्नमध्यास्ते स भिक्षुरिति प्राग्वत् । इह च प्रान्तं शयनासनं भुक्त्येति अतिसात्त्विकतादर्शनार्थ, प्रान्तशयना|दितायां हि मुदुःसहाः शीतादयः, अनेन शीतोष्णदंशमशकपरीषहसहनमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ अपरं च नो सक्कियमिच्छई न पूअं, नोवि य बंदणगं कुओ पसंस।। से संजए सुव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू ॥५॥ 'नो' निषेधे 'सत्कृतं' सत्कारमभ्युत्थानानुगमादिरूपम् इच्छति' अभिलपति, प्राकृतत्वाथ सूत्रे दीघनिर्देशः, दीप अनुक्रम [४९८] ॥४१५॥ JIREairatannel For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~829~ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], __ मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||4|| CSCORREY न 'पूजा' वखपात्रादिभिः सपर्या, 'नो अपि च' इति नैव च 'बन्दनक' द्वादशावादिरूपं, कुतः 'प्रशंसा' निजगुणोत्कीर्तनरूपां ?, नैवेच्छतीत्यभिप्रायः, 'सः' एवंविधः सम्यग् यतते सदनुष्ठानं प्रतीति संयतोऽत एव च सुव्रतः, सुव्रतत्वाच 'तपस्वी' प्रशस्यतपाः, तथा च सहितः सम्यगज्ञानक्रियाभ्यां, यद्वा सह हितेन-आयतिपथ्येन 5 द अर्थादनुष्ठानेन वर्चत इति सहितः, तत एव चात्मानं-कर्मविगमाच्छुद्धखरूपं गवेषयति-कथमयमित्थंभूतो भवेदित्यन्वेषयते यः स आत्मगवेषकः, यद्वा आयः-सम्यग्दर्शनादिलाभः सूत्रत्वादायतो वा-मोक्षत गवेषयतीत्याय-12 गवेषक आयतगवेषको वा यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ अनेन सत्कारपुरस्कारपरीपहसहनमुक्तं, सम्प्रति खीपरी-[2] पहसहनमाह जेण पुणो जहाइ जीवियं, मोहं वा कसिणं नियच्छई। नरनारि पयहे सया तबस्सी, न य कोहलं उबेइस भिक्खू ॥६॥ येन हेतुना, पुनःशब्दोऽस्य सर्वथा संयमघातित्वविशेषद्योतका, 'जहाति' त्यजति 'जीवितं' संयमजीवितं 'मोहं वा' मोहनीयं या कपायनोकषायादिरूपं 'कृत्स्नं' समस्तं कृष्णं वा शुद्धाशयविनाशकतया 'नियच्छति' वनाति तदेवंविधं नरश्च नारी च नरनारि 'प्रजह्यात्' प्रकर्षण त्यजेत् यः 'सदा' सर्वेकालं तपसी, न च 'कुतूहलम्' अभु दीप अनुक्रम [४९९]] JAIREDuratani मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~830~ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [--] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सुत्रांक ||६|| वक्तभोगतायां स्यादिविषयं कौतुकम् , उपलक्षणत्वाद्भुक्तभोगताया स्मृति च, 'उपैति' गच्छति स भिक्षरिति सूत्रार्थः सभिक्षुकउत्तराध्य. दाइत्थं परीपहसहनेन भिक्षुत्वसमर्थनात् सिंहविहारित्वमुक्त्वा तदेव पिण्डविशुद्धिद्वारेणाह मध्ययन छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्वं, सुविणं लक्खणं दंड वत्थुविज । अंगविगारं सरस्सविजयं, जो विजाहिं न जीवई स भिक्ख ॥७॥ ॥४१६॥ छेदनं छिन्नं बसनदशनदादीनां, तद्विषय शुभाशुभनिरूपिका विद्याऽपि छिन्नमित्युक्ता, एवं सर्वत्र । "देवेस। उत्तमो लाभो" इत्यादि, तथा 'सरं ति खरखरूपाभिधानं, "सज्जं रखद मयूरो, कुकडो रिसभं सरं । हंसो खति ४गंधार, मज्झिमं तु गवेलए ॥२॥” इत्यादि,तथा-"सज्जेण लहइ विर्ति, कयं च न विणस्सई । गायो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होइ वल्लहो ॥१॥ रिसहेण उ ईसरियं, सेणावचं धणाणि य ।" इत्यादि । तथा भूमिः-पृथ्वी भूमौ भवं भौम-भूकम्पादिलक्षणं, यथा-"शब्देन महता भूमियंदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्थ, राजा राष्ट्र च पीध्यते ॥१॥" इत्यादि । तथा अन्तरिक्षम्-आकाशं तत्र भवम् आन्तरिक्षं-गन्धर्वनगरादिलक्षणं,यथा-"कपिलं शस्य १देवेपूत्तमो लाभः (कोणेषु) २ पहुं रौति मयूरः कुट मपभं वरम् । हंसो रौति गान्धारं मध्यमं तु गोलकः ॥ १॥3॥४१॥ C३ पजेन लभते बृत्तिं कृतं च न विनश्यति । गावः पुत्राच मित्राणि च नारीणां भवति बलभः॥१॥ ऋषमेण खवये सेनाप-1 तित्वं धनानि च। SCORRACADERED दीप अनुक्रम [५०० AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~831~ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-]/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) प्रत सुत्रांक ७IN घाताय, माजिष्टे हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते, बलक्षोभ न संशयः॥१॥ गन्धर्वनगरं स्निग्धं, सप्राकारं सतोरणम् । सौम्या दिशं समाश्रित्य, राज्ञस्तद्विजयङ्करम् ॥२॥” इत्यादि । तथा 'ख' खप्नगतं शुभाशुभकथनं, यथा-"गायने रोदनं ब्रूयानर्तने वधवन्धनम् । हसने शोचनं ब्रूयात्पठने कलहं तथा ॥१॥" इत्यादि । तथा |'लक्षणं' स्त्रीपुरुषयोर्यथा-"चक्खुसिणेहे सुहितो दंतसिणेहे य भोयणं मिह । तयणेहेण य सोक्खं णहणेहे होइ परमधणं ॥१॥" इत्यादि, गजादीनां च यथायथं वालुकाप्यादिविहितम् । तथा 'दंड'त्ति 'दण्डः' यष्टिस्तत्वरूपकधनम् , “एकैपत्वं पसंसंति, दुपञ्चा कलहकारिय"त्ति, इत्यादि । तथा 'वास्तुविद्या प्रासादादिलक्षणाभिधायिशास्वात्मिका "कुटिला भूमिजाश्चैव, वैनीका द्वन्द्वजास्तथा । लतिनो नागराश्चैव, प्रासादाः क्षितिमण्डनाः ॥१॥ सूक्ताः पदविभागेन, कर्ममार्गेण सुन्दराः । फलावाप्तिकरा लोके, भङ्गभेदयुता विभोः ॥२॥ अण्डकैस्तु विविकास्ते, निर्गमैश्चारुरूपकैः । चित्रपत्रैर्विचित्रैश्च, विविधाऽऽकाररूपकैः ॥३॥” इत्यादि । तथा 'अङ्गविकार' शिर:स्फुरणादिस्तच्छुभाशुभसूचकं शास्त्रमप्यङ्गविकारो यथा 'दक्षिणाक्षिस्पन्दने प्रियं भविष्यतीत्यादि । तथा खरः-पोदकीशिवादिरुतरूपस्तस्य विषयः-तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः, यथा-"गतिस्तारा खरो वामः, पोदक्याः १ चक्षुःस्नेहन सुखितो दन्तस्नेहेन च भोजनमिष्टम् । त्वक्लेहेन च सौख्यं नखस्नेहेन भवति परमधनम् ॥ १॥ पालकादिविहित प्र०।२ एकपर्वा प्रशंसन्ति द्विपर्वा केशकारिणी। दीप अनुक्रम [५०१] AIMEducatan intamanna For ParaTREPWAuOnly wiencitana मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~832~ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-]/गाथा ||८|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः प्रत ४१७॥ सुत्राक ॥८॥ शुभदः स्मृतः । विपरीतःप्रवेशे तु, स एवाभीष्टदायकः ॥१॥" तथा-"दुर्गास्वरत्रयं स्याज्ज्ञातव्यं शाकुनेन नैपु | सभिक्षुक ण्यात् । चिलिचिलिशब्दः सफलः सुसु मध्यश्चलचलो विफलः ॥१॥” इत्यादि । ततो य एताभिर्विद्याभिन जीवति मध्ययनं. नैता एव जीविकाः शुभाशुभाः प्रकल्प्य प्राणान् धारयति स भिक्षुरिति सूत्रार्थः । अनेन निमित्तलक्षणोत्पादनादोपरिहार उक्तः, सम्प्रति मन्त्रादिरूपतद्दोषपरिहारायाह मंतं मूलं विविहं विजचिंत, वमणविरेयणधृमनित्तसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिब्बए स भिक्खू ॥ ८॥ 'मत्रम्' ॐकारादिखाहापर्यन्तो होकारादिवर्णविन्यासात्मकस्तं, 'मूलं' सहदेवीमूलिकाकल्पादि तत्तच्छास्त्रविहितं मूलकम वा 'विविधं' नानाप्रकारं 'वैद्यचिन्तां' वैद्यसम्बन्धिनी नानाविधौषधपथ्यादिव्यापारात्मिका, विविधामित्यत्रापि डमरुकमणिन्यायेन योज्यते, वमनम्-उद्गिरणं विरेचनं-कोष्ठशुद्धिरूपं धूम-मनःशिलादिसम्बन्धि नेति-नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकमिह समीराअनादि परिगृह्यते, स्नानम्-अपत्यार्थ मत्रौषधिसंस्कृतजलाभिषेचन, ४१७॥ वमनादीनां च नानायसानानामिह कृतसमाहाराणां निर्देशः, 'आउरे सरणं ति, सुव्यत्ययाद् 'आतुरस्य' रोगादिपीडितस्य 'शरणं" स्मरणं हा तात ! हा मातः ! इत्यादिरूपं 'चिकित्सितं च' आत्मनो रोगप्रतीकाररूपं 'तद्' इति । दीप अनुक्रम [५०२] AIMEducatan intimation For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~833~ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-] / गाथा ||९|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) *** *5 प्रत सुत्रांक MAR %2 ||९|| यदनन्तरमुक्तं परिनाय'त्ति ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिजया च प्रत्याख्याय 'परिव्रजेत्' सर्वप्रकारं संयमाध्वनि यायाधः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ अपरं च खत्तियगणउग्गरायपुत्ता, माहणभोई य विविहा य सिप्पिणो। नो तेसि वयह सिलोगपूअंतं परिन्नाय परिग्बएस भिक्ख ॥९॥ क्षत्रियाः-हैहेयाद्यन्वयजा गणा:-मल्लादिसमूहाः उग्राः-आरक्षकादयः राजपुत्राः-नृपसुताः, एपो द्वन्द्वः, 'माहनभोगिकाः' तत्र माहना ब्राह्मणास्तथा भोगेन-विशिष्टनेपथ्यादिना चरन्ति भोगिका:-नृपतिमान्याः प्रधानपुरुषाः, 'विविधाश्च' नानाप्रकाराः 'शिल्पिनः' स्थपतिप्रभृतयः, पठन्ति च-सिप्पिणोऽपणे तत्र चान्ये इति शिल्पिविशेषणमुभयत्र च य इति शेषः, 'नो' नैव तेषां क्षत्रियादीनां 'बदति' प्रतिपादयति, के ?-श्लोकपूजे श्लोक-श्लाघां यथते शोभना इति, पूजां च-यथैतान् पूजयतेति, उभयत्र पापानुमत्यादिमहादोषसम्भवात् , किंतु 'तदिति श्लोकपूजादिकं द्विविधयाऽपि परिजया परिज्ञाय परिबजेद्यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ अनेन वनीपकत्वस्य परिहार उक्तः, साम्प्रतं संस्तवपरिहारमाह गिहिणो जे पव्वइएण दिहा, अप्पब्बईएण व संथुया हविजा। तेसिं इहलोयफलट्टयाए, जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥१०॥ दीप अनुक्रम [५०३] 0 %*** * RORMSRL ** AIMEducatantntarnational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~834~ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-1 / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) 34 हान म प्रत सूत्रांक * ||१०|| उत्तराध्य. त 'गृहिणः' गृहस्था ये 'प्रबजितेन' गृहीतदीक्षेण दृष्टा उपलक्षणत्वात्परिचिताश्च 'अप्रबजितेन वा' गृहस्थाव- सभिक्षुकस्थेन सह 'संस्तुताः' परिचिता भवेयुहिणो य इति सम्बन्धः 'तेसिति 'तैः' उभयावस्थयोः परिचितैहिभिः ।। मध्ययनं. बृहद्धृत्तिः इहलौकिकफलार्थ बस्नपात्रादिलाभनिमित्तं यः 'संस्तवं' परिचयं न करोति स भिक्षुरिति सूत्रार्थः॥ तथा॥४१॥ सयणासणपाणभोयणे, विविहं खाइमसाइमं परेसिं । अदए पडिसेहिए नियंठे, जे तत्थ ण पओसई स भिक्खू ॥११॥ ‘शयनासनपानभोजन'मिति शयनादीनि प्रतीतानि विविधम्' अनेकप्रकारं 'खादिमखादिम'मिति खादिम-II पिण्डखजूरादि खादिमम्-एलालबझादि, उभयत्र समाहारः, 'परेसिति 'परेभ्यः' गृहस्थादिभ्यः 'अदईत्ति अददन्यः 'प्रतिषिद्धः कचित् कारणान्तरे याचमानो निराकृतः सः 'निर्ग्रन्थः' मुक्तद्रव्यभावग्रन्थो यः 'तत्र' इत्यदाने 'न प्रदुष्यति' न प्रद्वेषं याति पुनर्दास्यतीत्यभिधायकक्षपकर्षिवत्स भिक्षुरिति सूत्रार्थः । अनेन क्रोधपिण्डपरिहार ४/ उक्तः, उपलक्षणं चैतदशेषभिक्षादोषपरिहारस्य, इदानीं प्रासैषणादोपपरिहारमाहजं किंचाहारपाणगं विविहं, खाइमसाइमं परेसिं लहूं। ॥४१८॥ जो तं तिविहेण माणुकंपे, मणवयकायसुसंवुढे जे स भिक्खू ॥ १२॥ 'यत् किञ्चित्' अल्पमपि 'आहारपानम्' अशनपानीयं विविधं 'खाइमसाइमति चस्य गम्यमानत्वात् खादि-15 - 4 दीप अनुक्रम [५०४] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~835~ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-1 / गाथा ||१२|| नियुक्ति : [३७९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| मखादिमं च उक्तरूपं 'परेसिं ति 'परेभ्यः' गृहस्थेभ्यः 'लढुं'ति 'लब्ध्वा' प्राप्य यः 'तंति सुब्ब्यत्ययात्तेनाहारा-1 दिना 'त्रिविधेन' मनोवाकायलक्षणेन प्रकारत्रयेण नानुकम्पते, कोऽर्थः ?-ग्लानवालादीनोपकुरुते न स भिक्षुरिति वाक्यशेपः, यस्तु मनोवाकायैः सुष्टु संवृतो निरुद्धतथाविधाहाराधभिलापः सुसंवृता या मनोवाकाया यस्येति सुसंवृत मनोवाकायः, तत एव ग्लानादीननुकम्पत इति गम्यते, स भिक्षुः, यदिया 'नानुकम्पते' इत्यत्र 'ना' पुरुषोऽनुकदम्पते [नानुरूपो न कम्पते] मनोवाकायसुसंवृतः सन् स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ अनेनार्थतो गृद्धयभावाभिधानादङ्गाकारदोषपरिहार उक्तः, सम्प्रति धूमपरिहारमाह आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोद्गं च । नो हीलए पिंडं नीरस तु, पंतकुलाणि परिचए स भिक्खू ॥ १३ ॥ आयाममेव आयामकम्-अयश्रावणं चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये खगतानेकभेदख्यापको वा, एव' इति प्राग्वत्, 'यबोदनं च' यवभक्तं 'सीय ति शीतं-शीतलमन्तप्रान्तोपलक्षणं चैतत् , सोवीर-आचाम्लं यवोदकं च-यवप्रक्षालन पानीयं सोवीरयवोदकं, तथ 'नो हीलयेत्' घिगिदं किमनेनामनोज्ञेनेति न निन्देत् , पिण्ड्यते-सङ्घात्यते, कोऽर्थः ? -गृहिभ्यः उपलभ्य संमील्यत इति पिण्डस्तमायामकायेव 'नीरसं' विगताखाद 'तुः' अप्यर्थस्ततो नीरसमपि, अत एव 'प्रान्तकुलानि तुच्छाशयगृहाणि दरिद्रकुलानि वा यः परिप्रजेत्स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ अन्यच 9-4 % 4 दीप अनुक्रम [५०६] AIMEducatan intaniathma For PAHATEEPIVanupontv wiancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~836~ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१५], मूलं [-] / गाथा ||१४|| नियुक्ति: [३७९...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४१९॥ १५ प्रत सूत्रांक ||१४|| सहा विविहा भवंति लोए, दिव्या माणुसया तहा तिरिच्छा। सभिक्षुकभीमा भयभेरवा उराला, जो सुच्चा ण विहिजई स भिक्खू ॥१४॥ मध्ययनं. 'शब्दाः' ध्वनयः 'विविधाः' विमर्शप्रद्वेषादिना विधीयमानतया नानाप्रकाराः भवन्ति' जायन्ते 'लोके' जगति 'दिव्याः' देवसम्बन्धिनः 'मानुष्यकाः' मनुष्यसम्बन्धिनस्तथा 'तैरश्वाः' तिर्यकसम्बन्धिनः 'भीमाः' रौद्राः भयेन । भैरवाः-अत्यन्तसाध्वसोत्पादका भयभैरवाः 'उदाराः' महान्तो यः 'श्रुत्वा' आकर्य प्रक्रमादुक्तविशेषणविशिष्टानेव शब्दान् 'न व्यथते' न बिभेति धर्मध्यानतो न चलति वास भिक्षुरिति सूत्रार्थः । अनेनोपसर्गसहिष्णुत्वं सिंहविहारितायां निमित्तमुक्तं, सम्प्रति समस्तधर्माचारमूलं सम्यक्त्वस्थैर्यमाह वायं विविहं समिच्च लोए, सहिए खेयाणुगए अ कोवियप्पा। पन्ने अभिभूय सम्बदंसी, उवसंते अविहेडए स भिक्खू ॥१५॥ 'वाद' च खखदर्शनाभिप्रायवचनविज्ञानात्मकं 'विविधम्' अनेकप्रकार, धर्मविषयेऽपि बनेकधा विवदन्ते, यथोक्तं"सेतुकरणेऽपि धर्मो भवत्यसेतुकरणेऽपि किल धर्मः । गृहवासेऽपि च धर्मो बनेऽपि वसतां भवति धर्मः ॥१॥ ॥४१९॥ मुण्डस्य भवति धर्मस्तथा जटाभिः सयाससां धर्मः" इत्यादिरूपं 'समेत्य' ज्ञात्वा लोके सहितः स्वहितो वा प्राग्वत् खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः-संयमस्तेनानुगतो-युक्तः खेदानुगतः 'चः' पूरणे कोविदः-लब्धशास्त्रपरमार्थ आत्माऽ दीप अनुक्रम [५०८] JANEarata For ParaTREPIVAROIN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~837~ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५१० ] Jan Educato “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१६|| निर्युक्तिः [३७९...] अध्ययनं [१५], स्येति कोविदात्मा, 'पण्णे अभिभूय सङ्घदंसी उवसंतेत्ति प्राग्यत्, 'अविहेठकः' न कस्यचिद्विवाधको यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ तथा असिपजीवी अगि अमित्ते, जिइंदिओ सव्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहु अपभक्खी, चिचा गिहं एगचरे स भिक्खू ॥ १६ ॥ तिबेमि || ॥ सभिक्खू अज्झयणं ॥ १५ ॥ शिल्पेन - चित्रपत्रच्छेदादिविज्ञानेन जीवितुं शीलमस्येति शिल्पजीवी न तथाऽशिल्पजीवी 'अग्रहः' गृहविरहितः तथा अविद्यमानानि मित्राणि-अभिष्वङ्गदेतवो वयस्था यस्यासावमित्रः, जितानि - यशीकृतानि 'इन्द्रियाणि' श्रोत्रादीनि येन स तथा, 'सर्वतः बाह्यादभ्यन्तराच ग्रन्थादिति गम्यते, विविधैः प्रकारैः प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्तः, तथा अणवः| खल्पाः सबलननामान इतियावत् कषायाः क्रोधादयो यस्येति सर्वधनादित्यादिनि प्रत्ययेऽणुकषायी, प्राकृतत्वात्सूत्रे ककारस्य द्वित्वं यद्वा उत्कपायी - प्रबलकषायी न तथाऽनुत्कषायी अल्पानि - स्तोकानि लघूनि निःसाराणि निष्पावादीनि भक्षयितुं शीलमस्येति अल्पलघुभक्षी, सूत्रे तिव्यत्ययः प्राग्वत्, 'त्यक्त्वा' अपहाय गृहं द्रव्यभावभेदभिन्नम्, एको - रागद्वेषविरहितः तथाविधयोग्यतावासावसहायो वा चरति - विहरत्येकचरो यः स भिक्षुः, अनेनैकाकिविहार उपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्तौ त्रयीमीति पूर्ववदेव, नया अपि पूर्ववदेव ॥ ॥ इति श्री शान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां पञ्चदशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ १५ ॥ For ProPr tanc मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - १५ परिसमाप्तं ~838~ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [-]/ गाथा ||१६...|| नियुक्ति: [३७९] (४३) उत्तराध्य. अथ षोडशं ब्रह्मचर्यसमाधिनामकम् । दश ब्रह्मा बृहद्वृत्तिः AA समाधिः ॥४२०॥ प्रत सूत्रांक ||१६|| % उक्त पञ्चदशमध्ययनम् , अधुना पोडशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तराध्ययने भिक्षुगुणा उक्ताः, ते छाच तत्त्वतो ब्रह्मचर्यव्यवस्थितस्य भवन्ति, तदपि च ब्रह्मगुप्तिपरिज्ञानत इति ता इहाभिधीयन्ते इत्यनेन सम्बन्धे नायातस्यास्याध्ययनस्य चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद्यावन्नामनिष्पन्न निक्षेपे दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानमिति नाम, ततो दिशादिपदानां पञ्चानां निक्षेपः कर्त्तव्यः, तत्र च नैककाद्यभाये दशसम्भव इत्येककनिक्षेपमाह नियुक्तिकृत् __णामंठवणादविएमाउयपयसंगहेक्कए चेव । पजव भावे अतहा सत्तेए इक्वगा हुंति ॥ ३७९ ॥ | एतदर्थस्तु चतुरङ्गीयाध्ययन एव कथित इति न प्रतन्यते ॥ एतदनुसारतश्च द्वयादिनिक्षेपः सुकर एवेति तमुपेक्ष्यैव दशनिक्षेपमाहदससु अ छक्को दवे नायव्बो दसपएसिओखंधो। ओगाहणाठिईए नायब्वों पजवदुगे अ॥३८०॥ दशसु च निक्षेसव्येषु षट्को निक्षेप इति गम्यते, स च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् , तत्र नामस्था-18 % दीप अनुक्रम [५१०] ४२०॥ AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १६ "ब्रह्मचर्यसमाधि" आरभ्यते ~839~ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [-] / गाथा ||१६...|| नियुक्ति: [३८०] (४३) ACCORLS प्रत सूत्रांक ||१६|| कापने क्षपणे, 'दषेत्ति द्रव्यविषयेषु दशसु विचार्यमाणेपु 'ज्ञातव्यः' अवगन्तव्यः दश प्रदेशाः परिमाणमस्येति दशप्र|देशिकः स्कन्धो दशोच्यते, दशपरमाणुद्रव्यनिष्पन्नत्वात् , तथा 'ओगाहणाटिईए'त्ति स्कन्ध एवावगाहनायां चिन्स-|| मानः प्रक्रमाद्दशप्रदेशावगाढः क्षेत्रदशोच्यते, स्थिती च दशसमयस्थितिकः स एव कालदशोच्यते, उपलक्षणं चैत-13 सर्य, यत आह चूर्णिकृत्-"द्रव्यदश दश सचित्तादीनि द्रव्याणि, क्षेत्रदश दशाकाशप्रदेशाः, कालदश दश समया , इति ज्ञातव्याः," 'पजवत्ति पर्याया दशसङ्ख्यत्वेन विवक्षिता भावदश [क्षये] (कये) पर्याया इत्याह-द्विके च|| 5 जीवाजीवरूपे 'चः' पूरणे, तत्र जीवपर्याया विवक्षया कषायादयः, अजीवपर्यायाश्च पुद्गलसम्बन्धिनो वर्णादय इति । गाथार्थः ॥ इदानी ब्रह्मनिक्षेपमाह भमि(मी) उ चउक्कं ठवणाबंभंमि बंभणुप्पत्ती। दवंमि वत्थिनिग्गहु अन्नाणीणं मुणेयव्वो ॥ ३८१ ॥ भावे उ वस्थिनिग्गहु नायव्वो तस्स रक्खणट्टाए। ठाणाणि ताणि वजिज जाणि भणियाणि अज्झयणे॥ 'वभमि उत्ति ब्रह्मणि पुनर्विचार्ये 'चउकति चतुष्को नामस्थापनाद्रव्यभायभेदान्निक्षेप इति गम्यते, तत्र नामब्रह्म यस्य ब्रह्मेति नाम, स्थापनाब्रह्मणि ब्राह्मणोत्पत्तिर्वक्तव्या, यथाऽऽचारनाग्नि प्रथमाझे "एका मणुसजाई रजु १ एका मनुष्यजातिः राज्योत्पत्तौ च द्वे कृते वृषभस्य । तिस्रश्च शिल्पवाणिज्ये भावकधर्म चतस्रः ॥ १॥ ॐॐॐॐkkk दीप अनुक्रम [५१०] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~840~ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५१०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४२१॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१६... अध्ययनं [ १६ ], प्पत्तीय दो कया उसमे । तिन्नि य सिप्पवणिए सावगधम्मंमि चचारि ॥ १ ॥" इत्यादिना निर्युक्तिकृताऽभि हिता, 'द्रव्ये वस्तिनिग्रहः' उपस्थनिरोधमात्रम् 'अज्ञानिनां' मिध्याशां दशत्रह्मचर्य समाधिस्थानावगमशून्याना 'मुणितव्यः' प्रतिज्ञातव्यो ब्रह्मेति प्रक्रमः, 'भावे उ'ति भावे पुनर्विचार्ये वस्तिनिग्रहो 'ज्ञातव्यः' अवगन्तव्यः, कस्य सम्बन्धीत्याह - 'तस्य' इति ब्रह्मणो 'रक्षणार्थाय' रक्षणप्रयोजनाय 'स्थानानि विविक्तशयनासनसेवनादीनि तानि 'वर्जयेत्' परिहरेद्यस्तस्येति प्रक्रमः, स च ज्ञान्येव, तानि कानीत्याह — यानि 'भणितानि' उक्तानि 'अध्ययने' इहैव प्रक्रान्त इति गाथाद्वयार्थः ॥ चरणनिक्षेपमाह Jan Education intimation चरणे छक्को दव्वे गइचरणं चैव भक्खणेचरणं । खित्ते काले जंमि उ भावे उ गुणाण आयरणं ॥ ३८३ ॥ चरणविषयः 'पङ्कः पपरिमाण उक्तरूपो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्ये गतिरूपं चरणं गतिचरणं ग्रामादिगमनात्मकमित्यर्थः, 'चः' समुचये भिन्नक्रमच 'एवेति पूरणे, 'भक्खणेचरणं ति एकारोऽलाक्षणिकस्ततो भक्षणचरणं, चरणशब्दस्योभयार्थत्वात् पठ्यते हि 'चर गतिभक्षणयोः' इति, तथा 'खेत्ते काले जंमिति यस्मिन् क्षेत्रे काले वा चरणं चर्यते व्यावर्ण्यते वा तत्क्षेत्रचरणं कालचरणं चेति प्रक्रमः, भावे तु 'गुणानां' मूलोत्तरगुणरूपाणाम् 'आचरणम्' आसेवनमिति गाथार्थः ॥ समाधिनिक्षेपमाह निर्युक्तिः [३८१-३८२] For Parent ~841~ दशब्रह्म समाधिः, १६ ॥४२१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [-]/ गाथा ||१६...|| नियुक्ति: [३८४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| समाहीइ चउक्कं दव्वं दव्वेण जेण उ समाही। भावमि नाणदंसणतवे चरित्ते अ नायव्वं ॥ ३८४ ॥MA समाधौ ‘चउकति प्राग्यच्चतुष्को नामादिनिक्षेपः, तत्र नामस्थापने प्रसिद्धे, 'द्रव्य'मिति द्रव्यसमाधिः 'द्रव्येण' माधुर्यादिगुणान्वितेन 'येन' हेतुना 'तुः' पूरणे 'समाधिः' खास्थ्यमुपजायते तदेव समाधिहेतुत्वात्समाधिरिति । 'भावंमि णाणदसणतये चरिते अति सूत्रत्वाद्भावे ज्ञानदर्शनतपांसि चरित्रं च खस्वरूपाविरोधेनावस्थानात्समा|धिज्ञातव्यः, यद्वा ज्ञानं च दर्शनं च तपश्चेति समाहारः ततो ज्ञानदर्शनतपसि चरित्रे च, प्रक्रमाद्यः समाधिःअमीषामेव परस्परमविरोधेनावस्थानं स भावसमाधिरिति ज्ञातव्यमिति गाथार्थः ॥ स्थान निक्षेपमाह|() () ( ) 0 0 () (१३) हानामंठवणादविए खित्तद्धा उद्दउबरई वसही। संजमपग्गह जोहे अचलगणणसंधणा भावे ॥ ३८५॥ दि सर्वत्र स्थानमिति योजनीयं, नामस्थानमित्यादि, तत्र नामस्थानं प्रतीतं, स्थापनास्थानं तु यो यद्गुणोपेतो यस्मि-2 नाचार्यादिपदे स्थाप्यते स एव तिष्ठत्यस्मिन् स्थान इति स्थापनास्थानमुच्यते, 'द्रव्यस्थानम्' आकाशम् , अत्र हिट जीवादिद्रव्याणि तिष्ठन्तीति, क्षेत्रस्थानमप्याकाशमेव, यतः क्षेत्रमाकाशं तथाकाश एव तिष्ठति, उक्तं हि-'आकाशं तु । खप्रतिष्ठित मिति, अद्धास्थानमर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्ररूपं समयक्षेत्रं, तत्रैव समयावलिकाद्युपलक्षितस्याद्धाकालस्य स्थितेः, 'ऊर्द्धस्थान' यत्रोझै स्थीयते, तच कायोत्सर्गः, "उपरतिस्थान' यत्र सर्वसावद्यविरतिरवाप्यते, 'वसतिस्थानं' यत्र CCCCCCCESS दीप अनुक्रम [५१०] For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~842~ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [३८५] (४३) उत्तराध्य. प्रत सुत्राक [१] य. खीपण्डकादिदोपविकले यतिनिवासः, संयमस्थानं-शुभशुभतराध्यवसायविशेषा येषु संयमस्यावस्थितिः, प्रग्रह- दशब्रह्म 1 स्थानं यद्यस्यायुधस्य ग्रहणस्थानं, योधस्थानम्-आलीढप्रत्यालीढादि, अचलस्थानं यस्मिन्न मनागपि चलनसम्भ-X बृहद्वृत्तिः समाधिःवः, तच मुख्यतो मुक्तिरेव, गणनास्थानं यत्रककादी शीपप्रहेलिकावसाने गणनाऽवतिष्ठते, 'संधण'त्ति सन्धानस्थानी ॥४२२॥ यत्र देशे त्रुटितमुक्तावल्यादेरेकत्वं विधीयते, 'भावस्थानम्' औदयिकादिभावानां यथाखमवस्थानविपय इति 18 गाथार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम्हा सुअं मे आजसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु धेरोहिं भगवतेहिं दसवंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सुच्चा निसम्म संजमबहुले संयरबहुले समाहियहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तभयारी सया अप्पमत्ते विहरिजा ॥१॥ 8 श्रुतं मयाऽऽयुष्मंस्तेन भगवतैवम् 'आख्यातं' कथितं, कथमित्याह-सोपस्कारत्वात्सूत्रस्य यथेति गम्यते, ततो यह क्षेत्रे प्रबचने वा 'खलु' निश्चयेन स्थविरैः-गणधरैः 'भगवद्भिः' परमैश्वर्यादियुक्तैर्दशब्रह्मचर्यसमाधिकास्थानानि 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, कोऽभिप्रायः ?-नेपामियं खमनीपिका, किन्तु भगवताऽप्येवमाख्यातं मया श्रुतं ॥२॥ ततोऽत्र मा अनास्थां कृथाः, तान्येय विशिनष्टि-'ये' इति यानि ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि भिक्षुः 'श्रुत्वा' आकर्ण्य | शब्दतः 'निशम्य' अवधार्थितः 'संजमवहुले त्ति संयमम्-आश्रयविरमणादिकं बहु इति-बहुसङ्खवं यथाभवत्येवं दीप अनुक्रम [५११] FOPATIREm Daw any मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~843~ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [३८५] (४३) प्रत सुत्राक KARSAACOCKRABORDS [१] लाति-गृह्णाति, कोऽभिप्रायः ?-विशुद्धविशुद्धतरं पुनः पुनः संयमं करोतीति संयमबहुला, मयूरव्यंसकादित्वावात्समासः, यदिवा बहुलः-प्रभूतः संयमोऽस्येति बहुलसंयमः, सूत्रे पूर्वापरनिपातस्यातन्त्रत्वात् , अत एव संचरः आश्रयद्वारनिरोधः तद्बहुलो बहुलसंवरो वा, तत एव समाधिः-चित्तस्वास्थ्यं तद्वहुलो बहुलसमाधिर्वा, 'गुप्तः' मनोबाकायगुप्तिभिः, गुप्तत्वादेव च गुप्तानि विषयप्रवृत्तितो रक्षितानि इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि येन स तथा, तत एव गुप्त नवगुप्तिसेवनात् 'ब्रह्मेति ब्रह्मचर्य चरितुम्-आसेवितुं शीलमस्येति गुप्तब्रह्मचारी 'सदा' सर्वकालम् 'अप्रमत्तः' प्रमादविरहितः 'विहरेत्' अप्रतिवद्धविहारितया चरेत् ॥ एतेन संयमबहुलत्वादि दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानफलमुक्तम् , एतद विनाभावित्वात्तस्येति सूत्रार्थः ॥ है। कयरे खलु धेरेहिं भगवंतेहिं दसबंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, इमे खलु ते जाव विहरिजा, तंजहा-1 विवित्ताई सयणासणाई सेविजा से निग्गंथे, नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवह दासे निग्गंधे. तं कई इति चेदायरियाह-निग्गंथस्स खलु इस्थिपसुपंडगसंसत्ताई सपणासणाई सेव-18 माणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभिज्जा, उम्मायं या पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हविजा, केवलिपन्नत्साओ धम्माओ वा भसिज्जा, तम्हा नो| इधिपसुपंडगसंसत्ताई सपणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गंधे ॥१॥ 4-9- दीप अनुक्रम % [५१२] 9%-* Criminary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~844~ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) प्रत सुत्राक [१] उत्तराध्य कतराणीत्यादिप्रश्नसूत्रम् इमानीत्यादि निर्वचनसूत्रं च प्राग्वत् , तान्येवाह-'तं जहे' त्यादि, तद्यथे' त्युपन्यासे | दशब्रह्म विविक्तानि' स्त्रीपशुपण्डकाकीर्णत्वविरहितानि, शय्यते येषु तानि शयनानि च-फलकसंस्तारकादीनि, आस्थते । बृहद्वृत्तिः दियेषु तानि आसनानि च-पादपीठपुम्छनादीनि शयनासनानि, उपलक्षणत्वात्स्थानानि च 'सेवेत' भजेत यः सः समाधिः ॥४२॥ निन्धः' द्रव्यभावग्रन्धान्निष्कान्तो भवतीति शेपः । इत्थमन्वयेनाभिधायाव्युत्पन्नपिनेयानुग्रहायामुमेवार्थ व्यतिरे कणाह-'नो' नैव स्त्रियश्च-दिव्या मानुष्यो वा पशवश्च-अजैडकादयः पण्डकाश्च-नपुंसकानि स्त्रीपशुपण्डकास्तैः संसक्तानि-आकीर्णानि स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि 'शयनासनानि' उक्तरूपाणि 'सेविता' उपभोक्ता भवति, तदित्यनन्तरोक्तं 'कथं' केनोपपत्तिप्रकारेण?, 'इति चेद्' एवं यदि मन्यसे, अत्रोच्यते-निग्रन्थस्य खलु निश्चितं स्त्रीपशुप ण्डकसंसक्तानि शयनासनानि 'सेवमानस्य' उपभुानस्य 'बंभयारिस्स'त्ति अपिशब्दस्य गम्यमानत्वादू ब्रह्मचारिणो-13 दाऽपि सतो ब्रह्मचर्ये 'शङ्का वा' किमेताः सेवे उत नेत्येवंरूपा, यदिवा इहान्येपामिति गम्यते, ततः शङ्का पाऽन्येषां यथा किमसावेवंविधशयनासनसेवी ब्रह्मचार्युत नेति, 'काला' वा ख्याधभिलापरूपा 'विचिकित्सा वा धर्म प्रति चि-1 त्तविप्लुतिः 'समुत्पद्यते' जायते, अथवा शङ्का रूयादिभिरत्सन्तापहृतचित्ततया विस्मृतसकलाप्तोपदेशस्य “सत्सं वच्मि 2 ४२शा हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गालोचनाः॥१॥" इत्यादिकुविकल्पान् विकल्पयतो[४॥ मिथ्यात्वोदयतः कदाचिदेतत्परिहार एव न तीथकृद्भिरुक्तो भविष्यत्ति, एतदासेवने वा यो दोष उक्तः स दोष एव न C4-150-%ACC दीप अनुक्रम [५१२] For P DO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~845~ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१] / गाथा ||--11 नियुक्ति: [३८५...] (४३) 4445C प्रत %C4 सूत्राक भवतीत्येवरूपः संशय उत्पद्यते, काटा वा तत एव हेतोः "प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरः १ । प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणापि चेतसा ॥१॥” इत्याद्यभिधायकान्यान्यनीलपटादिदर्शनामहरूपा, विचिकित्सा वा-धर्म प्रतिकिमेतावतः कष्टानुष्ठानस्य फलं भविष्यति न वा ? तद्वरमेतदासेवनमेवास्त्वित्येवंरूपा, 'भेद' या विनाशं चारित्रस्येति गम्यते, 'लभेत' प्रामुयात् , 'उन्मादं वा' काममहात्मकं प्रामुयात् स्त्रीविषयाभिलाषातिरेकतस्तथाविधचित्तविप्लवसं-| भवात् , 'दीर्घकालिकं वा प्रभूतकालभावि रोगश्च-दाहज्यरादिरातङ्कश्च-आशुघाती शूलादि रोगातक् 'भवेत्' स्यात्, संभवति हि ख्याद्यभिलाषातिरेकतोऽरोचकत्वं ततश्च ज्वरादीनि, केवलिप्रज्ञप्तात् 'धर्मात्' श्रुतचारित्ररूपात् है। समस्ताद् 'भ्रश्येत्' अधःप्रतिपतेत् , कस्यचिदतिक्लिष्टकर्मोदयात्सर्वथा धर्मपरित्यागसम्भवात् , यत एवं तस्मादित्यादिनिगमनवाक्यं प्रकटार्थमेवेति सूत्रार्थः ॥ उक्तं प्रथमं समाधिस्थानं द्वितीयमाह नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कह कहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा मेयं वा लभिजा उम्मायं वा पाउणिजा दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा नो इत्थीणं कहं कहि जा ॥२॥ नो स्त्रीणामेकाकिनीनामिति गम्यते, 'कथा' वाक्यप्रवन्धरूपा, यदिवा स्त्रीणां कथा,-"कर्णाटी सुरतोपचा % दीप अनुक्रम AC-CA [५१२] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~846~ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [२] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) १६ प्रत सुत्राक हत्तराध्य18 रचतुरा लाटी विदग्धप्रिया" इत्यादिका, अथवा जातिकुलरूपनेपथ्यभेदाचतुर्धा स्त्रीकथा, तत्र जातिव्रह्मण्यादिःसाद नामादिशब्रह्मट्रकुलम्-उग्रादि रूपं-महाराष्ट्रिकादि संस्थान-नेपथ्यं-तत्तद्देशप्रसिद्ध, तां कथयिता भवति से निग्गथे'त्ति या बृहद्धृत्तिः | एवंविधः स निर्ग्रन्थः । शेषं प्रश्नप्रतिषचनाभिधायि पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ तृतीयमाह समाधि ॥४२॥ IN नो इत्थीहिं सद्धिं संनिसिजागए विहरित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाह-निग्गंधस्स खलुका उत्थीहिं सद्धिं संनिसिज्जागयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा चितिगिच्छा वा समुप्पजिजा|| दाभयं वा लभिजा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायंक हविजा केवलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीहिं सद्धिं संनिसिजागए विहरइ ॥३॥ P नो खीभिः 'सार्द्ध सह सम्यग निषीदन्ति-उपविशन्त्यस्यामिति संनिपद्या-पीठाद्यासनं तस्यां गतः-स्थितः संनिषद्यागतः सन् 'विहर्ता' अवस्थाता भवति, कोऽर्थः -खीभिः सहकासने नोपविशेत् , उत्थिताखपि हि तासु मुहूर्त तत्र नोपवेष्टव्यमिति सम्प्रदायः, य एवंविधः स निर्ग्रन्धा, न त्वन्य इत्यभिप्रायः, शेष प्रश्नप्रतिवचना-15 * भिधायि पूर्ववदिति सूत्रार्थः॥ चतुर्थमाह ४२४॥ १ निर्माधित्तियः स निपन्यो न त्वन्याभिप्रायस्तत्कथमित्यादिप्राग्वदिति सूत्रार्थः । दीप अनुक्रम [५१३] AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~847~ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [४] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) प्रत सत्रांक [४] नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहं इति चेदावरियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाइंजाव निज्झाएमाणस्स बंभचेरे संका वा कंखा था वितिगिच्छा वा समुप्पजिज्जा भेयं वा लभिज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिजा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं इंदियाई। निज्झाइ॥४॥ नो खीणां 'इन्द्रियाणि' नयननासिकादीनि मनः-चित्तं हरन्ति दृष्टमात्राण्यप्याक्षिपन्तीति मनोहराणि, तथा मनो रमयन्तीति दर्शनानन्तरमनुचिन्यमानान्याहादयन्तीति मनोरमाणि 'आलोकिता' समन्तादृष्टा 'निाता दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयिता, यथा-अहो ! सलवणत्वं लोचनयोः, ऋजुत्वं नासावंशस्वेत्यादि, यद्वा 'आङीषदर्थे' तत 'आलोकिता' ईषद्रष्टा 'निाता' प्रबन्धेन निरीक्षिता भवति यः स निग्रन्थः, अन्यत्प्रतीतमेवेति सूत्रार्थः ॥ पञ्चममाह| नो निग्गंधे इत्थीणं कुडुतरंसि वा दूसंतरंसि वा भित्तिअंतरंसि वा कूहयस वा रुइयसई वा गीयसई वा हसियसई वा थणियसई वा कंदियसई वा विलवियसदं वा सुणित्ता हवइ से निग्गथे, तं कहं इति चेदायरियाह-इत्थीणं कुडुतरंसि वा दूसंतरंसि वा भित्तिअंतरंसि वा जाब विलवियसई चा सुणमाणस्स दीप अनुक्रम 456- 4 [५१५] - RS* 2 For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~848~ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [9] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) बृहद्वृत्तिः समाधिः प्रत सुत्राक उत्तराध्य. भयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा भेयं वा लभिज्जा उम्मायं वा पाउ- दशब्रह्म Kाणिज्जा दीहकालिय वा रोगायक हविना केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ जाव भंसिजा, तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीर्ण कुटुंतरंसि वा जाव सुणेमाणे विहरिजा ॥५॥ ॥४२५॥ नो स्त्रीणां कुड्यं-खटिकादिरचितं तेनान्तरं-व्यवधानं कुड्यान्तरं तस्मिन् वा, दुष्यं-वस्त्रं तदन्तरे वा, यवनि-12 कान्तर इत्यर्थः, भित्तिः-पक्केष्टकादिरचिता तदन्तरे, वाशब्दः सर्वत्र विकल्पाभिधायी, स्थित्वेति शेषः, 'कूजितशब्द वा' विविधविहगभाषयाऽव्यक्तशब्दं सुरतसमयभाविनं रुदितशब्दं वा' रतिकलहादिकं मानिनीकृतं 'गीतशब्दं वा' पञ्चमादिहुतिरूपं 'हसितशब्दं वा' कहकहादिकं 'स्तनितशब्दं वा' रतिसमयकृतं 'ऋन्दितशब्दं वा' प्रोपितभर्तृकादिकृताक्रन्दरूपं 'बिलपितशब्द वा' प्रलापरूपं श्रोता योन भवति स निग्रन्धः, शेषं स्पष्टमिति सूत्रार्थः ॥ षष्ठमाह नो निग्गथे पुब्वरयं पुश्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ, तं कहं इति चेदायरियाह-निग्गंधस्स खलु इस्थीणं पुब्वरयं पुब्बकीलियं अणुसरमाणस्स भयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्प-I|४२५/. जिजा भेयं वा लभिजा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं पुब्वरयं पुब्वकीलियं अणुसरिजा ॥६॥ दीप अनुक्रम [५१६] AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~849~ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [६] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [३८५...] (४३) S - -- A %% प्रत % सुत्राक (B) नो निम्रन्थः पूर्वस्मिन्-गृहावस्थालक्षणे काले रत-रूयादिभिः सह विषयानुभवनं पूर्वरतं, 'पूर्वक्रीडितं वा । ख्यादिभिरेव पूर्वकालभावि दुरोदरादिरमणात्मकं वाशब्दस्य गम्यमानत्वात् , 'अनुस्मत्ती' अनुचिन्तयिता भवति, | शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ सप्तममाह नो पणीय आहारं आहारित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाह-नि. पणीयं पाणभोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिन्ना भेयं वा लभिजा उम्मायं वा पाउणिजा दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीय आहारं आहारिज्जा ॥७॥ 'नो' नैव प्रणीतं' गलद्विन्दु, उपलक्षणत्वादन्यमप्यत्यन्तधातूद्रेककारिणम् 'आहारम्' अशनादिकम् 'आहारशयिता' भोक्ता भवति यः स निर्ग्रन्थः, शेषं व्याख्यातमेव, नवरं 'प्रणीतं पानभोजनम्' इति पानभोजनयोरखोपा दानम् , एतयोरेव मुख्यतया यतिभिराहार्यमाणत्वात्, अन्यथा खाद्यखाद्ये अप्येवंविधे वर्जनीये एवेति सूत्रार्थः॥ अष्टममाह| नो अइमायाए पाणभोयणं आहारित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाह- अइमायाए पाण-IAL भोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा भेयं वा % % दीप अनुक्रम [५१७] JINEducational For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~850~ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [C] दीप अनुक्रम [५१९] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [८] / गाथा || --II अध्ययनं [१६], निर्युक्ति: [३८५...] लभिजा उम्मायं वा पाणिना दीहकालियं वा रोगार्थकं हविज्जा केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंधे अइमायाए पाणभोयणं भुंजिला ॥ ८ ॥ उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः 'नो' नैव 'अतिमात्रया' मात्रातिक्रमेण, तत्र मात्रा - परिमाणं, सा च पुरुषस्य द्वात्रिंशत्कलाः स्त्रियाः पुनरष्टा॥४२६॥ ७ विंशतिः, उक्तं हि "बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥ १ ॥" अतिक्रमस्तु तदाधिक्यसेवनं 'पानभोजनं' प्रतीतमेव 'आहारयिता' भोक्ता भवति यः स निर्ग्रन्थः, शेषं तथैवेति सूत्रार्थः ॥ नवममाह - नो विभूसावाई हव से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाह - विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स अभिलस्सणिजे हवद, तओ णं तस्स इत्थिजणेणं अभिलसिजमाणस्स भयारिस्स बंभचेरे संका वा कंवा वा वितिमिच्छा वा समुप्यज्जिज्जा भेयं वा लभिजा उम्मायं वा पाउणिज़ा दीहकालियं वा रोगायेकं हविज्जा केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निरगंधे विभूसाणुवाई सिया ॥ ९ ॥ 'नो' नैव विभूषणं विभूषा – शरीरोपकरणादिषु स्त्रानधावनादिभिः संस्कारस्तदनुपाती, कोऽर्थः १ - तत्कर्त्ता भवति यः स निर्ग्रन्थः, तत्कथमिति चेदुच्यते- 'विभूसावत्तिए'त्ति विभूषां वर्त्तयितुं विधातुं शीलमस्येति विभूषा१ द्वात्रिंशत् किल कवला आहारः कुक्षिपुरको भणित: पुरुषस्य महेलाया अष्टाविंशतिर्भवेयुः कवलाः ॥ १ ॥ Jan Education intimal For Prata Use Only दशब्रह्म समाधिः १६ ~851~ ||४२६ ॥ jancibrary or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) प्रत सुत्राक वर्ती, ताच्छीलिको णिन् , स एव विभूषावर्तिकः, स किमित्याह-विभूषितम्-अलतं सानादिना संस्कृतमितियावत् शरीरं-देहो यस्य स विभूषितशरीरः, तथा च 'उज्ज्वलवेषं पुरुषं दृष्ट्वा स्त्री कामयते' इति वचनायुवतिजनप्रार्थनीयो भवति, आह च सूत्रकारः-'इत्थिजणस्स अहिलसणिजे हवईत्ति, ततः को दोष इत्याह-'ततः' खीजनाभिलषणीयत्वतः, णमिति प्राग्यत्, 'तस्य निर्ग्रन्थस्य 'स्त्रीजनेन' युवतिजनेनाभिलष्यमाणस्य-प्रार्थ्यमानस्य ब्रह्मचारिणोऽपि ब्रह्मचर्ये शङ्का वा, यथा किमेतास्तावदित्वं प्रार्थयमाना उपभुले?, आयतौ तु यद्भावि तद्भवतु, उतश्वि- त्कष्टाः शाल्मलीश्लेष्मादयो नरक एतद्विपाका इति परिहरामीत्येवंरूपः संशयः, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः।। दशममाह नो सहरूवरसगंधफासाणुवाई हवह से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाह-निग्गंधस्स खलु सहरूवरसगधफासाणुवाइयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा भेयं वा लभिज्जा ४ उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ जाव भंसिज्जा, तम्हाद खलु नो निग्गंधे सहरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ से निग्गंथे, दसमे बंभचेरसमाहिठाणे हवह ॥१०॥ | 'नो' नैव शब्दो-मन्मनभाषितादि रूपं-कटाक्षनिरीक्षणादि चित्रादिगतं वा ख्यादिसम्बन्धि रसो-मधुरादिरभिबृंहणीयो गन्धः-सुरभिः स्पर्शः-स्पर्शनानुकूलः कोमलमृणालादेरेतानभिष्वङ्गहेतून् अनुपतति-अनुयातीसेवंशीलः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवति यः स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेदित्यादि सुगम, दशमं ब्रह्मचर्यसमा %%CES दीप अनुक्रम 259 % [५२०] JIREOGohammtimatena FILPATTEETHAImony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~852~ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१०] / गाथा ||१-१०|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) वृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१०] उत्तराध्य. घिस्थानं भवतीति निगमनम्॥ इह च प्रत्येक ख्यादिसंसक्तशयनादेः शङ्कादिदोपदर्शनं तदत्यन्तदुष्टतादर्शकं प्रत्येकमपा- दशब्रह्म यहेतुतां प्रति तुल्यबलत्वख्यापकं चेति सूत्रार्थः ॥ भवन्ति य इत्थ सिलोगा, तंजहा॥४२७॥ __'भवन्ति' विद्यन्ते 'अत्रेति उक्त एपार्थे, किमुक्तं भवति ?-उक्ताभिधायिनः श्लोकाः' पद्यरूपाः, 'तद्यथा' इत्युपप्रदर्शने। जं विवित्तमणाइन्नं, रहियं थीजणेण य । बंभचेरस्स रक्खडा, आलयं तु निसेवए ॥१॥मणपल्हायजण-12 राणी, कामरागविवहणी । बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए ॥२॥ समं च संथवं थीहि, संकहं च अभि क्खणं । बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवजए ॥३॥ अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं । बंभचेररओ थीणं, सोअगिज्झं विवजए ॥ ४॥ कुइयं रुइअंगीयं, हसियं थणिय कंदियं । वंभचेररओ थीणं, सोअगिज्झं। द विवज्जए ॥५॥हासं खिईं रई दप्पं, सहसावत्तासियाणि य । बंभचेररओ थीणं, नाणुचिंते कयाइवि ॥३॥ पणीयं भत्तपाणं च, खिप्पं मयविवहणं । बभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवज्जए ॥७॥ धम्मलद्धं मियं । काले, जत्तत्थं पणिहाणवं । णाइमत्तं तु भुजिज्जा, बंभचेररओ सया ॥८॥ विभूसं परिवज्जिज्जा, सरी दीप अनुक्रम [५२१] JAREacatandan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~853~ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१०] / गाथा ||१-१०|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१-१०|| रिपरिमंडणं । बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारस्थं न धारए ॥९॥ सद्दे रूवे य गंधे य, रसे फासे नदेखा पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवजए ॥१०॥ जमित्यादिसूत्राणि दश । यः 'विविक्तः' रहस्यभूतस्तत्रैव वास्तव्यख्याद्यभावाद् 'अनाकीर्णः' असङ्कलस्तत्तत्प्रयोजनागतख्याधनाकुलत्वात् , 'रहितः' परित्यक्तोऽकालचारिणा चन्दनश्रवणादिनिमित्तागतेन स्त्रीजनेन, चशब्दात्पदण्डकैः पिड्गादिपुरुषैच, प्रक्रमापेक्षया चे व्याख्या, अन्यत्रापि चैवं प्रक्रमाद्यपेक्षत्वं भावनीयम्, उक्तं हि-18 "अर्थात् प्रकरणालिङ्गादौचित्याद्देशकालतः । शब्दार्थाः प्रविभज्यन्ते, न शब्दादेव केवलात् ॥१॥" 'ब्रह्मचर्यस्य उक्तरूपस्य 'रक्षार्थ पालननिमित्तम् 'आलयः' आश्रयः, सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राग्यत्, यत्तदोनित्यसम्बन्धात्तं 'तुः' परणे निपेवतें भजते॥शामना-चित्तं तस्य प्रल्हादः अहो! अभिरूपा एता इत्यादिविकल्पज आनन्दतं जनयतीति मनःप्रहादजननी ताम् , अत एव कामरागो-विषयाभिष्वङ्गतस्य विवर्द्धनी-विशेषेण वृद्धिहेतुः कामरागविवर्द्धनी तां, शेपं स्पष्टं, नवरं, 'स्त्रीकथा' "तद्वकं यदि मुद्रिता शशिकथा" इत्यादिरूपां ॥२॥ 'समं च' सह 'संस्तव' परिचयं स्त्रीभिर्निपद्या प्रक्रमादेकासनभोगेनेति गम्यते, 'संका च' ताभिरेव समं सन्ततभाषणात्मिकाम् 'अभीक्ष्णं' पुनः पुन 'णिचसो'त्ति नित्यमन्यत्स्पष्टम्॥शाअङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि प्रत्यङ्गानि-कुचकक्षादीनि संस्थानं-कटीनिविष्टक ॐ वक्रादीनि दीप अनुक्रम [५२२-५३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~854~ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१-१०|| दीप अनुक्रम [५२२ -५३१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१०] / गाथा ||१-१०|| अध्ययनं [१६], Jain Education intimational उत्तराध्य. ॥४२८॥ रादिसन्निवेशात्मकम्, अमीषां समाहार निर्देशः, अङ्गप्रत्यङ्गयोर्वा संस्थानम् - आकार विशेषोऽङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं चारुशोभनम् उल्लपितं च- मन्मनभाषितादि तत्सहगतमुखादिविकारोपलक्षणमेतत् प्रेक्षितं च-अर्द्धकटाक्षनिरीक्षितादि बृहद्वृत्तिः उलपितप्रेक्षितं ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां सम्बन्धि चक्षुषा गृद्यत इति चक्षुर्यायं सद्विवर्जयेत् किमुक्तं भवति ? - चक्षुपि हि सति रूपग्रहणमवश्यंभाषि, परं तद्दर्शनेऽपि तत्परिहार एव कर्त्तव्यो न तु रागवशगेन पुनः पुनस्तदेव वीक्षणीयमिति, उक्तं हि "असेका रूपमद्दहुँ, चक्खुगोयरमागयं । रागद्दोसे उ जे तत्थ, ते बुहो परिवज्जए ॥१॥ ॥४॥ कुइयंसूत्रं प्रायो व्याख्यातमेव, नवरं कुड्यान्तरादिष्विति शेषः ॥ ५ ॥ हाससूत्रमपि तथैव, नवरं 'रतिं' दयिताङ्गसङ्गजनितां प्रीतिं 'दर्प' मनखिनीमानदलनोत्थं गर्व 'सहसाऽवत्रासितानि च पराङ्मुखदयितादेः सपदि त्रासोत्पादकान्यक्षिस्थगनमर्मघट्टनादीनि पठ्यते च- 'हस्सं दप्पं रई कि सह भुत्तासियाणि य' अत्र च 'सहेति स्त्रीभिः सार्द्ध भुक्तानि च-भोजनानि आसितानि च-स्थितानि भुक्तासितानि शेषं स्पष्टं, नवरं सर्वत्र पूर्वकृतत्वं प्रक्रमादपेक्षणीयम् ॥ ६ ॥ पणीयंसूत्रं निगदसिद्धमेव, नवरं मद:- कामोद्रेक इह गृह्यते, तस्य विवर्द्धनम् - अतिबृंहकतया विशेषतो वृद्धिहेतुं परिवर्जयेत् ॥ ७ ॥ धर्मादनपेतं धर्म्यमेपणीयमित्यर्थः 'लब्धं' प्राप्तं गृहस्थेभ्य इति गम्यते, न तु खयमेवोपस्कृतं पठ्यते च, 'धम्मलद्ध' ति धर्मेण हेतुनोपलक्षणत्वाद्धर्मलाभेन वा न तु कुण्डलादिकरणेन लब्धं धर्मलच्धं, १ अशक्यं रूपमद्रष्टुं चक्षुर्गोमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥ १ ॥ For Prata Use Only निर्युक्ति: [३८५...] ~855~ दशब्रह्म समाधिः. १६ ॥४२८|| ancibrary मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१०] / गाथा ||१-१०|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१-१०|| पठ्यते च-'धर्मलढुं'ति धर्म:-उत्तमः क्षमादिरूपः, यथाऽऽह वाचकः-'उत्तमः क्षमामार्दवार्जनसत्यशौचसंयमत-12 पस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः"(तत्त्वार्थे अ०९ सू०६) इति, ते 'लन्धु' प्रामुं, कथं ममायं निरतिचारः स्यात् इति, 'मितम्' 'अद्भूमसणस्स' इत्याद्यागमोक्तमानान्वितमाहारमिति गम्यते, 'काले प्रस्तावे 'यात्रार्थ संयमनिर्वाहणाथै न तु रूपाद्यर्थ प्रणिधानवान्' चित्तस्वास्थ्योपेतो न तु रागद्वेषवशगो भुञ्जीत 'न' इति निषेधे मात्रामतिक्रान्तः अतिमात्रः अतिरिक्त इत्यर्चस्तं, यदिवा ईषदर्थे क्रियायोगे, मर्यादायां परिच्छद' इत्यादिना मात्राशब्दस्य मर्यादार्थस्यापि दर्शनाद् हा अतिमात्रम्' अतिक्रान्तमर्याद, तुशब्दस्वैवकारार्थत्वाद्व्यवहितसम्बन्धत्वाच नैव 'भुञ्जीत' अभ्यवहरेद् ब्रह्मचर्य रतः आसक्तो ब्रह्मचर्यरतः 'सदा' सर्वकालं, कदाचित्कारणतोऽतिमात्रस्याप्याहारस्यादुष्टत्वात् ॥८॥'विभूषाम्' उपक-12 |रणगता-मुत्कृष्टवखाद्यात्मिक परिवर्जयेत्' परिहरेत् 'शरीरपरिमण्डन' केशश्मश्रुसमारचनादि ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः/21 दशृङ्गारार्थ' विलासार्थ 'न धारयेत्' न स्थापयेत् न कुर्यादितियावत् ॥९॥ 'सद्दे' सूत्रं स्पष्टमेव, नवरं काम:-इच्छाम दनरूपस्तस्य द्विविधस्यापि गुणाः-साधनभूता उपकारका इतियावत्, उक्तं हि-गुणः साधनमुपकारकं' कामगुणा-% दास्तानेवंविधान् शब्दादीनिति सूत्रदशकार्थः ॥१०॥ सम्प्रति यत्प्राक् प्रत्येकमुक्तं शङ्का वा स्यादित्यादि तहृष्टान्ततः *स्पष्टयितुमाह आलओ धीजणाइन्नो, धीकहा य मणोरमा । संथवो चेव नारीण, तासिं इंदियदरिसणं ।। ११ ।। कुइयं रुइयं गीयं, हसियं भुत्तासियाणि य । पणीयं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं ॥१२॥ SOMETHORS दीप अनुक्रम [५२२-५३१] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~856~ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१६], मूलं [१०] / गाथा ||११-१३|| नियुक्ति: [३८५...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||११ गत भूसणमिटुं च, कामभोगा य दुजया। नरस्सऽत्तगवेसिस्सा, विसं ताल उडं जहा ॥ १३ ॥ दशब्रह्म नवरं 'संस्तवः' परिचयः, स चेहाप्येकासनभोगेनेति प्रक्रमः, कूजितादीनि हसितपर्यन्तानि कुड्यान्तराद्यवस्थि समाधिः||तिनिषेधोपलक्षणानि, भुक्तासितानि च स्मृतानीति शेषः, तत्र भुक्तानि-भोगरूपाणि आसितानि-रूयादिभिरेय सहावस्थितानि, हास्याद्युपलक्षणं चैतत् , गात्रभूषणमिष्टं चेति, चशब्दोऽपिशब्दार्थः, तत इष्टमप्यास्तां विहितं, १६ तथा काम्यन्त इति कामाः भुज्यन्त इति भोगाः विशेषणसमासस्ते चेष्टाः शब्दादयः, नरस्योपलक्षणत्वात्स्यादेश्च आत्मगयेषिणः 'विष' गरल: 'तालपुटं' सद्योघाति यत्रौष्ठपुटान्तर्वर्तिनि तालमात्रकालविलम्बतो मृत्युरुपजायते, यथे'त्यौपम्ये, ततोऽयमर्थः-यथैतद्विपाकदारुणं तथा स्त्रीजनाकीर्णालयाद्यपि, शङ्कादिकरणतः संयमात्मकभावजीवितस्पेतरस्य च नाशहेतुत्वादिति सूत्रत्रयार्थः ॥ सम्प्रति निगमयितुमाह दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए। संकाठाणाणि सब्वाणि, वज्जिज्जा पणिहाणवं ॥ १४ ॥४ धम्माराम चरे भिक्खू, धिमं धम्मसारही। धम्मारामरए दंते, बंभचेरसमाहिए ॥ १५ ॥ दुःखेन जीयन्त इति दुर्जयास्तान् 'कामभोगान्' उक्तरूपान् 'णिचसो'त्ति नित्यं 'परिवर्जयेत्' सर्वप्रकारं त्यजेत् ॥२९॥ 'शङ्कास्थानानि च' अनन्तरोक्तानि, पूर्वत्र चस्प भिन्नक्रमत्वात् 'सर्वाणि' दशापि वर्जयेद् , अन्यथा आज्ञाऽनवस्था-18 मिथ्यात्वविराधनादोपसम्भवः 'प्रणिधानवान्' एकाग्रमनाः । एतबर्जकश्च किं कुर्यादित्याह-धर्म आराम इव पाप दीप अनुक्रम [५३२-५३४] For Trandibanara मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~857~ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१६], मूलं [१०] / गाथा ||१४-१५|| नियुक्ति : [३८५...] (४३) RKAR प्रत सूत्रांक ॥१४ -१५|| का सन्तापोपततानां जन्तूनां निर्वृत्तिहेतुतयाऽभिलषितफलप्रदानतश्च धर्मारामस्तस्मिन् 'चरेत्' गच्छेत् प्रवर्ततेतिया|वत्, यद्वा धर्मे आ-समन्ताद्रमत इति धर्मारामः 'संचरेत्' संयमाध्वनि यायाद् भिक्षुः प्राग्वत् 'धृतिमान्' धृतिःचित्तखास्थ्यं तद्वान् , स चैवं धर्मसारथि:-"ठिओ उ ठावए परं" इति वचनादन्येषामपि धर्म प्रवर्चयिता, ततोऽन्यानपि धर्मे व्यवस्थितानुपलभ्य विशेषतो धर्मारामे रतः-आसक्तिमान् धर्मारामरतः, तथा च 'दान्तः' उपशान्तो ब्रह्मचर्ये समाहितः-समाधानवान् ब्रह्मचर्यसमाहित इति सूत्रद्वयार्थः ॥ ब्रह्मचर्यविशुद्धयर्थोऽयं सर्वोऽप्युपक्रम इति तन्माहात्म्यमाह| देवदाणवगंधब्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा । भयारिं नमसंति, दुष्करं जे करंति तं ॥ १६ ॥ देवा:-ज्योतिष्कवैमानिकाः दानवाः-भुवनपतयः गन्धर्वयक्षराक्षसकिन्नराः-प्यन्तरविशेषाः समासः सुकर एव, उपलक्षणं चैतद्भूतपिशाचमहोरगकिंपुरुषाणाम् , एते सर्वेऽपि 'ब्रह्मचारिणं' ब्रह्मचर्यवन्तं यतिमिति शेषः, 'नमस्यन्ति' नमस्कुर्वन्ति 'दुष्करं' कातरजनदुरनुचरं 'जे' इति यः 'करोति' अनुतिष्ठति 'तदिति प्रक्रमाब्रह्मचर्यमिति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति सकलाध्ययनार्थोपसंहारमाह एस धम्मे धुवे नियए, सासए जिणदेसिए। सिद्धा सिझंति चाणेणं, सिज्झिस्संति तहापरे ॥ १७॥ त्ति बेमि ॥ दीप अनुक्रम [५३५-५३६] * For PATREPvanumony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~858~ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१७|| दीप अनुक्रम [५३८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ||४३०॥ Jan Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [१०] / गाथा ||१७|| अध्ययनं [ १६ ], ॥ बंभचेरसमाहिठाणअज्झयणं समत्तं १६ ॥ ‘एषः' इत्यनन्तरोक्तः ‘धर्मः' ब्रह्मचर्यलक्षणः, ध्रुवः परप्रवादिभिरप्रकम्प्यतया प्रमाणप्रतिष्ठित इतियावत् 'नित्यः' अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावो द्रव्यार्थितया 'शाश्वतः शश्वदन्यान्यरूपतया उत्पन्न (:) पर्यायार्थितया यद्वा 'नित्यः' त्रिकालमपि सम्भवात् 'शाश्वतः' अनवरतभवनात्, एकार्थिकानि वा नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुक्तानि, जिनैःतीर्थकृद्भिर्देशितः- प्रतिपादितो जिनदेशितः, अस्यैव त्रिकाल गोचरफलमाह-'सिद्धाः पुरा अनन्तासूत्सर्पिण्यवसपिंणीषु सिद्धयन्ति 'चः' समुचये महाविदेहे इहापि वा तत्कालापेक्षया 'अनेन' इति ब्रह्मचर्यलक्षणेन धर्मेण सेत्स्यन्ति तथा 'परे' अन्येऽनन्तायामनागताद्धायामिति सूत्रार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्ते च पूर्ववत् ॥ ॥ श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां षोडशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ For Prate One निर्युक्ति: [ ३८५...] ~859~ दशना समाधिः १६ ॥४३०॥ www.mary.p मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - १६ परिसमाप्तं Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], __ मूलं [१०...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [३८७-३८९] (४३) 54% अथ सप्तदशं पापश्रमणीयमध्ययनम् । % प्रत सूत्रांक ||१७|| %%% व्याख्यातं पोडशमध्ययनम् , अधुना सप्तदशमारभ्यते, अस्ख चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने ब्रह्मचर्यगुप्तय उक्ताः, ताश्च पापस्थानवर्जनादेवासेवितुं शक्यन्ते इति पापश्रमणखरूपाभिधानतस्तदेवात्र काक्कोच्यत इत्यनेन सम्बधेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य च चतुरनुयोगद्वारप्ररूपणा प्राग्वत्तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपेऽस्य पापश्रमणीयमिति | नाम, अतः पापस्य श्रमणस्य च निक्षेपमाह नियुक्तिकृत् MI पावे छक्कं दवे सचित्ताचित्तमीसगं चेव । खित्तमि निरयमाई कालो अइदुस्समाईओ ॥ ३८७ ॥ भावे पावं इणमो हिंस मुसा चोरिअंच अब्बभीतत्तो परिग्गहो चिअ अगुणा भणिआ य जे सुत्ते३८८ समणे चउक्कनिक्खेवओ उ दव्बंमि निहगाईआ। नाणी संजमसहिओ नायब्वो भावओ समणो३८९ | 'पापे' पापविषयः 'छक्कंति षट्कः पदपरिमाणो नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदान्निक्षेप इति गम्यते,तत्र च नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्ये विचार्ये आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तु व्यतिरिक्तमाह-'सचित्ताचित्तमीसगं % % दीप अनुक्रम [५३८] % Corian For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं -१७ "पापश्रमणीय" आरभ्यते ... मूल संपादने नियुक्तिक्रमे किञ्चित् स्खलना संभाव्यते, यत् मया नियुक्ति ||३८६|| न दृष्टं ~860~ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [१०...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [३८७-३८९] (४३) बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१७|| उत्तराध्य. चेवत्ति, इह च पापमिति योज्यते, प्राकृतत्वाचोभयत्र बिन्दुलोपः, तत्र सचित्तद्रव्यपापं-यद्द्विपदचतुष्पदापदेषु पापश्रम मनुष्यपशुवृक्षादिष्वसुन्दरम् , अचित्तद्रव्यपापं-तदेव जीवविप्रयुक्तं चतुरशीतिपापप्रकृतयो वा वक्ष्यमाणाः, मिश्र-31 द्रव्यपापं-तथाविधद्विपदायेवाशुभवस्वादियुक्तं तत्शरीराणि वा जीववियुक्तैकदेशयुक्तानि, सन्ति हि जीवशरी णा०१७ ॥३१॥ रेष्वपि जीववियुक्ता नखकेशादयस्तदेकदेशाः, उक्तं हि-"तस्सेव देसे चिए तस्सेव देसे अणुवचिए"त्ति, जीवप्रदेशा|पेक्षमेव हि तत्र चितत्वमनुपचितत्वं च विवक्षितं, पापप्रकृतियुक्तो वा जन्तुरेव मिश्रद्रव्यपापमुच्यते, 'चेवेति । प्राग्वत् , क्षेत्रे विचार्ये 'पापं नरकादिपापप्रकृत्युदयविषयभूतं यत्र तदुदयोऽस्ति, 'काल' इति कालपापं-दुष्प-14 मादिको यत्र कालानुभावतः प्रायः पापोदय एव जन्तूनां जायते, आदिशब्दादन्यत्र वा काले यत्र कस्यचिजन्तो-11 स्तदुदयः, भावे विचारयितुमुपक्रान्ते पापम् 'इदम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं 'हिंस'त्ति हिंसा प्रमत्तयोगात्प्राणव्यप-IN हारोपणं 'मृषा' असदभिधानं 'चौर्य च' तैन्यम् 'अब्रह्म' मैथुनं ततः 'परिग्रहः' मूर्छात्मकः 'अपिः' समुच्चये 'चः || पूरणे 'गुणाः' सम्यग्दर्शनादयस्तद्विपक्षभूताः अगुणाः-मिथ्यात्वादयो दोषाः, नमो विपक्षेऽपि दर्शनादमित्रादिवत् , भणिताः' उक्ताः, 'तुः' समुच्चये व्यवहितक्रमश्च, अगुणाश्च ये 'सूत्रे आगमे अन्यत्र इहैव वा प्रस्तुताध्ययने । 'श्रमणे ॥॥ श्रमणविषयः 'चतुष्कनिक्षेपकः' नामादिः 'तुः' पूरणे नामस्थापने पूर्ववत् , द्रव्ये निहवादय एव निवादिकाः १ तस्यैव देशश्चितः तस्यैव देशोऽनुपचितः दीप अनुक्रम [५३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~861~ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [१०...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [३८७-३८९] (४३) SAR प्रत सूत्रांक ||१७|| AREL उक्तरूपाः 'ज्ञानी' प्रशंसायां मत्वर्थीयोत्पत्तेः प्रशस्तज्ञानवान् समिति-सम्यक् सदनुष्ठानप्रवृत्त्या यमनं-पापस्थानभ्य उपरमणं संयमचारित्रमितियावत्तेन सहित:-युक्तः संयमसहितो ज्ञातन्यो भावतः श्रमण इति गाथात्रयार्थः॥ सम्प्रति प्रस्तुते योजयन्नाह- .. जे भावा अकरणिजा इहमज्झयणमि वन्निअ जिणेहिं । ते भावे सेवंतो नायवो पावसमणोत्ति ३९० ये 'भावाः संसक्तापठनशीलतादयोऽर्थाः 'अकरणीयाः' कर्तुमनुचिताः 'इह' प्रस्तुतेऽध्ययने 'वन्निय'त्ति वर्णिताः प्ररूपिताः 'जिनैः' तीर्थकृद्भिस्तान् भावान् 'सेवमानः' अनुतिष्ठन् 'ज्ञातव्यः' अयबोद्धव्यः पापेन-उक्तरूपेणोपल|क्षितः श्रमणः पापश्रमणः, इतिशब्दः पापश्रमणशब्दस्य खरूपपरामर्शक इति गाथार्थः ॥ एतद्विपरीतास्तु श्रमणाः, तेषां फलमाहएयाई पावाई जे खलु वजंति सुव्वया रिसओ। ते पावकम्ममुक्का सिद्धिमविग्घेण वच्चंति ॥३९१॥ 8 एतानि' एतदध्ययनोक्तानि 'पापानि' पापहेतुभूतानि शयालुतादीनि 'ये' इत्यनिर्दिष्टरूपाः 'खलुः' बाक्या लङ्कारे 'वर्जयन्ति' परिहरन्ति सुव्रता ऋषयः पूर्ववत् , ते पापं च तत्कर्म च पापकर्म तेन उपलक्षणत्यात्पुण्यकर्मणा च मुक्ताः-त्यक्ताः पापकर्ममुक्ताः 'सिद्धिं' सिद्धिगतिम् 'अविनेन' अन्तरायाभावेन 'वचंति'त्ति 'प्रजन्ति' गच्छ|न्तीति गाथार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तभेदम् दीप अनुक्रम C [५३८] For PRATEEnviruinony मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~862~ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-]/ गाथा ||१-२|| नियुक्ति: [३९१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१-२|| उत्तराध्य. जे केइ उ पब्वइए नियंठे, धम्म सुणित्ता विणओववन्ने । पापश्रमसुदुल्लहं लहिउ बोहिलाभ, विहरिज पच्छा य जहामुहं तु ॥१॥ बृहद्वृत्तिः णा०१७ सिजा दढा पाउरणं मि अत्थि, उपपजई भुत्तु तहेव पाउँ । ॥४३२॥ जाणामि जं वहइ आउसुत्ति, किं नाम काहामि सुरण भंते ! ॥२॥ HI 'यः कश्चित्' इत्यविवक्षितविशेषः 'तुः' पूरणे, पठन्ति च-'जे के इम'त्ति, तत्र च 'इमे'त्ति अयं 'प्रत्रजितः' |निष्क्रान्तः निर्ग्रन्थः प्राग्वत् , कथं पुनरयं प्रत्रजित इत्याह-'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं श्रुत्वा' निशम्य विनयेन-ज्ञान-13 ६दर्शनचारित्रोपचारात्मकेनोपपन्नो-युक्तो विनयोपपन्नः सन् ‘सुदुर्लभम्' अतिशयदुष्प्रापं 'लभिउंति लब्ध्या 'बोधि लाभ' जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिरूपम् , अनेन भावप्रतिपत्त्याऽसौ प्रबजित इत्युक्तं भवति, स किमित्याह-विहरेत्' चरेत् , 'पश्चात्' प्रजजनोत्तरकालं 'चा' पुनरों विशेषद्योतकस्ततश्च प्रथमं सिंहवृत्त्या प्रव्रज्य पश्चात्पुनः 'यथासुखं' यथा | यथा विकधादिकरणलक्षणेन प्रकारेण सुखमात्मनोऽवभासते तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद्यथासुखमेव शृगालवृत्त्यैव बिह रेदित्यर्थः, उक्तं हि-"सीहत्ताए णिक्खंतो सीयालत्ताए विहरति"त्ति, स च गुरुणाऽन्येन या हितैपिणाऽध्ययन S४३२॥ साप्रति प्रेरितो यक्ति तदाह-'शय्या' वसतिः 'बढा' वातातपजलायुपद्रवैरनभिभाव्या. तथा 'प्रावरणं' वोकल्पादि| १सिंहतया निष्कान्तः शृगालतया विहरति CAKC24 दीप अनुक्रम [५३९-५४० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~863~ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-] / गाथा ||१-२|| नियुक्ति: [३९१...] (४३) 4560 प्रत सूत्रांक ||१-२|| 'मे' ममास्ति, किञ्च-'उत्पद्यते' जायते 'भोक्तुं' भोजनाय तथैव 'पातुं' पानाय यथाक्रममशनं पानं चेति शेषः, तथा 'जानामि' अवगच्छामि यद्वर्त्तते' यदिदानीमस्ति 'आयुष्मन्निति प्रेरयितुरामन्त्रणमिति, एतस्माद्धेतोः किं नाम ?, न किञ्चिदित्यर्थः, 'काहामि'त्ति करिष्यामि 'श्रुतेन' आगमेनाधीतेनेत्यध्याहारः, 'भंते'त्ति पूज्यामन्त्रणम् , इह च प्रक्रमाक्षेपे, अयं हि किलास्याशयो यथा ये भवन्तो भदन्ता अधीयन्ते तेऽपि नातीन्द्रियं वस्तु किञ्चनावबुध्यन्ते, किन्तु ?, साम्प्रतमात्रेक्षिण एव, तच्चैतावदस्माखेवमप्यस्ति, तत्किं हृदयगलतालुशोषविधायिनाऽधीतेनेति ?, एवमध्यवसितो यः स पापश्रमण इत्युच्यत इतीहापि सिंहावलोकितन्यायेन संवध्यत इति सूत्रद्वयार्थः ॥ किंच जे केइ उ पवईए, निदासीले पगामसो। भुचा पिचा सुहं सुबई, पावसमणित्ति बुचई ॥३॥ यः कश्चित्प्रत्रजितः 'निद्राशीलः' निद्रालुः 'प्रकामशः' बहुशो 'भुक्त्वा' दध्योदनादि 'पीत्वा' तक्रादि 'सुखं| यधा भवत्येवं सकलक्रियानुष्ठाननिरपेक्ष एव 'खपिति' शेते, पठ्यते च-वसई'त्ति 'वसति' आस्ते प्रामादिषु, स इत्यम्भूतः किमित्याह-पापश्रमण इति 'उच्यते' प्रतिपाद्यत इति सूत्रार्थः ॥ इत्थं न केवलमनधीयान एव पापश्रमण उच्यते, किन्तु आयरियउबज्झाएहि, सुझं विणयं च गाहिए । ते चेव खिसई वाले, पावसमणित्ति बुचई ॥४॥ आचार्योपाध्यायैः 'श्रुतम्' आगममर्थतः शब्दतश्च 'विनयं च उक्तरूपं 'ग्राहितः' शिक्षितो यैरिति गम्यते दीप अनुक्रम [५३९-५४० AIREDuratan intimational For wrancibaram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~864~ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [३९१..] (४३) प्रत सूत्रांक ||४|| उत्तराध्यतानेव' आचार्यादीन् 'खिंसति' निन्दति वाल' विवेकविकलो गम्यमानत्वाद्यः स पापश्रमण इत्युच्यत इति सूत्रार्थः॥ पापश्रमबृहद्वृत्तिः । है इत्थं ज्ञानाचारनिरपेक्षं पापश्रमणमभिधाय दर्शनाचारनिरपेक्षं तमेवाह णा०१७ न आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पई। अप्पडिपूअए थडे, पावसमणित्ति बुचई ॥५॥ l आचार्योपाध्यायानां 'सम्यम्' अवैपरीसेन 'न परितप्यते' न तत्तप्तिं विधत्ते, दर्शनाचारान्तर्गतवात्सल्यविर हितो न तत्कार्येष्वभियोगं विधत्त इति भावः, 'अप्रतिपूजकः' प्रस्तावादहंदादिपु यथोचितप्रतिपत्तिपराङ्मुखः 'स्तब्धः'। द गर्वाध्मातः केनचित्प्रेर्यमाणोऽपि न तद्वचनतः प्रवर्तते यः स पापश्रमण इत्युच्यत इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति चारित्रा-४ चारविकलं तमेवाह५. संमद्दमाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजए संजय मन्नमाणे, पावसमणित्ति बुचई ॥६॥ दसंथारं फलगं पीढं, निसिजं पायकवलं । अप्पमज्जियमारुहई, पावसमणित्ति वुचई ॥ ७॥ दवद्वस्स चरई, पमत्ते अ अभिक्षणं । उल्लंघणे अ चंडे अ, पावसमणित्ति बुचई ॥८॥ पडिलेहेइ पमत्तो, अवउज्न पायक- ४३३॥ बलं । पडिलेहाअणाउत्ते, पावसमणित्ति बुच्चई ॥९॥ पडिलेहेइ पमत्ते, से किंचि हु निसामिआ । गुरुं । Gपरिभावए नियं, पावसमणित्ति बुच्चई ॥१०॥ बहुमाई पमुहरी, बढ़े लुढे अणिग्गहे । असंविभागी अचि यत्ते, पावसमणित्ति वुबई ॥११॥ विवायं च उदीरेइ, अधम्मे अत्तपण्हहा । बुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणित्ति। दीप अनुक्रम [५४२] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~865~ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-]/गाथा ||६-१४|| नियुक्ति: [३९१...] (४३) 2-% %*- *- प्रत सूत्रांक ||६-१४|| बुचई ॥ १२॥ अधिरासणे कुकुईए, जत्थ तत्थ निसीअई। आसणंमि अणाउत्ते, पावसमणित्ति बुचई॥१३॥ ससरक्खपाओ सुअई, सिज्जं न पडिलेहई । संथारए अणाउत्तो, पावसमणित्ति बुचई ॥ १४ ॥ | 'समर्दन्' हिंसन् 'प्राणानिति प्राणयोगात् प्राणिनः-द्वीन्द्रियादीन् 'बीजानि' शाल्यादीनि 'हरितानि च दूर्वाAऽङ्करादीनि, सकलैकेन्द्रियोपलक्षणमेतत् , स्पष्टतरचैतन्यलिङ्गत्वाचैतदुपादानम् , अत एवासंयतस्तथाऽपि 'संजय मन्नमाणे त्ति सोपस्कारत्वात्संयतोऽहमिति मन्यमानः, अनेन च संविग्नपाक्षिकत्वमप्यस्य नास्तीत्युक्तं, पापश्रमण इत्युच्यते ॥ तथा 'संस्तारै' कम्बल्यादि 'फलकं' चम्पकपट्टादि 'पीठम्' आसनं 'निपद्यां' खाध्यायभूम्यादिकां यत्र निषद्यते 'पादकम्बलं' पादपुन्छनम् 'अप्रमृज्य' रजोहरणादिनाऽसंशोध्य उपलक्षणत्वादप्रत्युपेक्ष्य च 'आरोहति' समाक्रामति यः स पापश्रमण इत्युच्यते ॥ तथा 'दवदयस्स'त्ति द्रुतं द्रुतं तथाविधालम्बनं विनाऽपि त्वरित २ 'चरति' गोचरचर्यादिषु परिभ्राम्यति, 'प्रमत्तश्च' प्रमादवशगश्च भवतीति शेषः 'अभीक्ष्णं' वारं वारम् 'उलङ्घनश्च' वालादीनामुचितप्रतिपत्त्यकरणतोऽधःकर्ता 'चण्डश्च' क्रोधनः, यद्वा 'प्रमत्तः' अनुपयुक्त ईर्यासमिती उलङ्घनश्च वत्सडिम्भादीनां चण्डश्चारभटवृत्त्याश्रयणतः, शेपं तथैव ॥ तथा 'प्रतिलेखयति' अनेकार्थत्वात्प्रत्युपेक्षते प्रमत्तः सम् 'अवउझइत्ति 'अपोज्झति' यत्र तत्र निक्षिपति, प्रत्युपेक्षमाणो वा अपोज्झति, न प्रत्युपेक्षत इत्यर्थः, किं तत् ?-पाद *- * दीप अनुक्रम [५४४-५५२]] - * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~866~ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-] / गाथा ||६-१४|| नियुक्ति: [३९१...] (४३) पापश्रम णा०१७ ॥४३४॥ प्रत सूत्रांक ||६-१४|| उत्तराध्य. कम्बलं पात्रकम्बलं या प्रतीतमेव, समस्तोपध्युपलक्षणं चैतत्, स एवं 'प्रतिलेखनाऽनायुक्तः' प्रत्युपेक्षानुपयुक्तः, शेष सथैव ॥ तथा प्रतिलेखयति प्रमत्तः सन् 'किंचि हु'त्ति 'हु:' अपिशब्दार्थः, ततः किञ्चिदपि विकथादीति गम्यते, बृहद्वृत्तिः है। णिसामिति 'निशम्य आकर्ण्य तत्राक्षिसचित्ततयेति भावः, 'गुरुपरिभासय'त्ति गुरुन् परिभापते-विवदते गुरुपरिभाषकः, पाठान्तरतो गुरुपरिभावकः, 'नित्यं सदा, किमुक्तं भवति -असम्यक्प्रत्युपक्षमाणोऽन्यद्वा वितथमाचरन् गुरुभिश्चोदितस्तानेय विवदतेऽभिभवति वाऽसभ्यवचनैः, यथा-खयमेव प्रत्युपेक्षध्वं, युप्माभिरेव वयमित्थं शिक्षितास्ततो युष्माकमेवैप दोष इत्यादि, शेषं तथैव, गुरुपरिभाषकत्वं प्रमत्तत्वस्य च निशमनहेतुत्वं पूर्वस्माद्विशेष इति न पौनरुक्त्यम् ॥ किश्च-'बहुमायी प्रभूतवञ्चनाप्रयोगवान् प्रकर्षण मुखरःप्रमुखरः स्तब्धो लुब्ध इति च प्राग्वत्, अविद्यमानो निग्रहः-इन्द्रियनोइन्द्रियनियत्रणात्मकोऽस्येत्यनिग्रहः, संविभजति-गुरुग्लानवालादिभ्य उचितमशदानादि यच्छतीत्येवंशीलः संविभागी न तथा य आत्मपोषकत्वेनैव सोऽसंविभागी, 'अचियत्तेति गुर्यादिष्वप्री तिमान् , शेपं पूर्ववत् ॥ अन्यच्च-विरूपो वादो विवाद:-वाकलहस्तं 'चः' पूरणे 'उदीरेइ'त्ति कथञ्चिदुपशान्तमप्युशासनादिना वृद्धि नयति, 'अधर्मः' अविद्यमानसदाचारः 'अत्तपण्हह'त्ति आत्मनि प्रश्नः आत्मप्रश्नस्तं हन्त्यात्म- प्रश्नहाः, यदि कश्चित्परः पृच्छेत्-किं भवान्तरयायी आत्मा उत नेति ?, ततस्तमेव प्रश्नमतियाचालतया हन्ति, यथा : -नास्त्यात्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वात्, ततोऽयुक्तोऽयं प्रश्नः, सति हि धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त इति, पठ्यते दीप अनुक्रम [५४४-५५२]] ४३४ा PHOTREPwamonth मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~867~ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-1 /गाथा ||६-१४|| नियुक्ति: [३९१...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६-१४|| च-'अत्तपण्णह'त्ति तत्र च आत्तां-सिद्धान्तादिश्रवणतो गृहीतामाता या इहपरलोकयोः सद्बोधरूपतया हिता प्रज्ञाम्-आत्मनोऽन्येषां वा बुद्धिं कुतर्कव्याकुलीकरणतो हन्ति यः स आत्तप्रज्ञाहा आसप्रज्ञाहा था, 'बुग्गहे'त्ति व्युद्हे दण्डादिधातजनिते विरोधे 'कलहे' तस्मिन्नेव वाचिके 'रक्तः' अभिष्वक्तः, शेपं प्राग्वत् ॥ अपरं च अस्थिरासनः, कुकुचः कुकुचो वा द्वयमपि पूर्ववत् , 'यत्र तत्र' इति संसक्तसरजस्कादावपीत्यर्थः 'निषीदति' उपविशति 'आसने पीठादी 'अनायुक्तः' अनुपयुक्तः सन् , शेषं प्राग्वत् ॥ तथा सह रजसा वर्तते इति सरजस्को तथाविधौ पादौ यस्य स तथा 'स्वपिति' शेते, किमुक्तं भवति?-संयमविराधनां प्रत्यभीरुतया पादावप्रमृज्यैव शेते, तथा शय्यां' वसतिन प्रतिलेखयति, उपलक्षणत्वान्न च प्रमार्जयति, 'संस्तारके' फलककम्बलादी, मुप्त इति शेषः, 'अनायुक्तः' "कुकुडिपायपसारण आयामेउं पुणोवि आउंटे" इत्याद्यागमार्थानुपयुक्तः, अन्यत्तथैवेति सूत्रनवकार्थः । इदानीं तपआचारातिक्रमतः पापश्रमणमाह दुद्धदहीविगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अरए अ तवोकम्मे, पावसमणित्ति धुचई ॥ १५ ॥ अत्यंतंमि य सूरंमि, आहारेइ अभिक्खणं । चोहओ पहिचोएइ, पावसमणित्ति वुचई ॥ १६ ॥ आयरियपरिचाई, परपासंडसेवए । गाणंगणिए दुभूए, पावसमणित्ति वुचई ॥ १७ ॥ । १ कुकुटीवत्पादप्रसारणं आयम्य (विस्तार्य) पुनरपि आकुश्चयेत् । दीप अनुक्रम [५४४-५५२]] JAINEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv arencitinama मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~868~ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-] / गाथा ||१५-१७|| नियुक्ति: [३९१...] (४३) पापश्रम णा०१७ प्रत सूत्रांक ॥१५ -१७|| उत्तराध्य दुग्धं च-क्षीरं दधि च-तद्विकार एव दधिदुग्धे, सूत्रे च व्यत्ययः प्राग्वद्, विकृतिहेतुत्वाद्विकृती, उपलक्षण- बृहद्धत्तिः18/त्वाद् घृताद्यशेषविकृतिपरिग्रहः, 'आहारयति' अभ्यवहरति 'अभीक्ष्णं' वारं वारं, तथाविधपुष्टालम्बनं विनाऽपीति | दभावः, अत एव 'अरतश्च' अप्रीतिमांश्च 'तपःकर्मणि' अनशनादौ, शेष प्राग्वत् ॥ अपि च-'अत्यंतमि यत्ति ॥४३५॥ 'अस्तान्ते' अस्तमयपर्यन्ते, 'चः' पूरणे, उदयादारभ्येति गम्यते, 'सूर्ये भाखति आहारयत्यभीक्ष्णं, किमुक्तं भवति ? प्रातरारभ्य सन्ध्यां यावत्पुनः पुनर्भुले, यदिवा 'अत्यंतमयंमि यत्ति अस्तमयति सूर्ये आहारयति, तिष्ठति तु किमुटूच्यते ? इति भावः, किमेकदैवेत्साह-'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः, दिने दिने इत्युक्तं भवति, यदि चासौ केनचिगीतार्थ साधुना चोद्यते, यथा-आयुष्मन् ! किमेवं त्वयाऽऽहारतत्परेणैव स्थीयते !, दुर्लभा खल्वियं मनुजत्वादिचतुरङ्गसामग्री, तत एनामवाप्य तपस्येयोद्यन्तुमुचितमिति, ततः किमित्याह-'चोइओ पडिचोएइत्ति चोदितः सन् प्रतिचोदयति यथा कुशलस्त्वमुपदेशकर्मणि न तु खयमनुष्ठाने, अन्यथा किमेवमवगच्छन्नपि भवान्न विकृष्टं तपोऽनुतिति ?, शेषं तथैव । 'आचार्यपरित्यागी' ते हि तपःकर्मणि विपीदन्तमुद्यमयन्ति, आनीतमपि चान्नादि वालग्लानादिभ्यो दापयन्त्यतोऽतीवाहारलौल्यात्तत्परित्यजनशीलः परान्-अन्यान् पापण्डान्-सौगतप्रभृतीन् 'मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया' इत्यादिकदभिप्रायतोऽत्यन्तमाहारप्रसक्तांस्तत एव हेतोः सेवते-तथा तथाऽपसर्पतीति परपापण्ड|सेवकः, तथा च खेच्छाप्रवृत्ततया 'गाणंगणिए'त्ति गणागणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणहणिक इत्या 1962SSCR4 दीप अनुक्रम [५५३-५५५] ॥४३५।। For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~869~ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१५ -१७|| दीप अनुक्रम [५५३ -५५५] Jan Educator “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १५-१७ || अध्ययनं [१७], गमिकी परिभाषा, तथा चागमः -- "छम्मासऽब्भंतरतो गणा गणं संकर्म करेमाणो " इत्यादि, अत एव च 'दुर्निंन्दायां', ततश्च 'दुः' इति निन्दितं भूतं - भवनमस्येति दुर्भूतः, दुराचारतया निन्द्यो भूत इत्यर्थः, अपरं तथैवेति सूत्रत्र्यार्थः ॥ सम्प्रति वीर्याशिचारविरहतस्तमेवाह- निर्युक्ति: [ ३९१...] सयं गेहं परिचज्ज, परगेहंसि बावरे। निमित्तेण य ववहरई, पावसमणित्ति दुबई ॥ १८ ॥ संनाइपिडं जेमेह, निच्छई सामुदाणियं । गिहिनिसिज्जं च वाहेइ, पावसमणित्ति दुबई ॥ १९ ॥ स्वमेव स्वकं, निजकमित्यर्थः, 'गेहूं' गृहं 'परित्यज्य' परिहत्य प्रत्रज्याङ्गीकरणतः 'परगेहे' अन्यवेश्मनि 'वावरे 'ति व्याप्रियते-पिण्डार्थी सन् गृहिणामासभावं दर्शयन् खतस्तत्कृत्यानि कुरुते, पठ्यते च- 'ववहरे 'ति तत एव हेतोर्व्यवहरति- गृहिनिमित्तं क्रयविक्रयव्यवहारं करोति, 'निमित्तेन च' शुभाशुभसूचकेन 'व्यवहरति' द्रव्यार्जनं करोति, अपरं च पूर्ववत् । अपि च- 'सन्नाय'त्ति खज्ञातयः स्वकीयखजनास्तैर्निजक इति यथेप्सितो यः स्निग्धमधुरादिराहारो दीयते स खज्ञातिपिण्डस्तं 'जेमति' भुङ्क्ते, 'नेच्छति' नाभिलपति समुदानानि - भिक्षास्तेषां समूहः सामुदानिकम्, 'अचित्त हस्तिधेनोष्ठक् ( पा०४-२-४७ ) इति ठक्, बहुगृहसम्बन्धिनं भिक्षासमूहमज्ञातोञ्छमितियावत्, गृहिणां निषद्या- पर्यङ्कतूल्यादिका शय्या तां च 'वाहयति' त्ति सुखशीलतयाऽऽरोहति, शेषं तथैवेति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरनुक्तरूपदोषासेवनपरिहारयोः फलमाह - For Parent ~870~ wiancibran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [--] / गाथा ||१९-२१|| नियुक्ति: [३९१...] (४३) प्रत -- सूत्रांक CREDERAS ||१९ -२१|| उत्तराध्य. एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे, रूबंघरे मुणिपवराण हिडिमे । अयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव पापश्रमपिरत्थलोए ॥२०॥जे वज एए उ सदा उ दोसे, से सुब्वए होइ मुणीण मज्झे । अयंसि लोए अमयं व बृहद्वृत्तिः पूइए, आराहए दुहओ लोगमिणं ॥२१॥ तिबेमि॥ णा०१७ ॥४३॥ ॥ पावसमणिज्जं ॥ १७ ॥ 'एतादृशः' याश उक्तः 'पञ्चेति पञ्चसङ्ख्यः कुत्सितं शीलमेषां कुशीला:-पार्श्वस्थादयः समाहृताः पञ्चकुशीलं तद्वदसंवृतः-अनिरुद्धाश्रयद्वारः पञ्चकुशीलासंवृतो रूपं-रजोहरणादिकं वेषं धारयति रूपधरः सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्वि-४ है दुनिर्देशः, 'मुनिप्रवराणाम्' अतिप्रधानतपखिना 'हिटिमो' अधस्ताद्वर्ती, अतिजघन्यसंयमस्थानवनित्यानिकृष्ट इत्यर्थः । एतत्फलमाह-'अयंसि'त्ति अस्मिन् 'लोके' जगति 'विषमिव'त्ति गर इव 'गर्हितः' निन्दितो, भ्रष्टप्रतिज्ञो हि प्राकृतजनैरपि निन्द्यते धिगेनमिति, अत एव न स 'इह' इतीह लोके 'न। ति नापि परत्र लोके, परमार्थतः सन्निति शेषः, यो हि नैहिकमामुष्मिकं वा कञ्चन गुणमुपार्जयति स तद्गणनायामप्रवेशतस्तत्त्वतोऽविद्यमान एवेति। VI४६॥ | यः 'बजेयति' परित्यजति 'एतान्' उक्तरूपान् 'सया उ'त्ति सदैव दोषान् यथासुखविहारादिपापानुष्ठानरूपान् स: तथाविधः 'सुव्रतः' निरतिचारतया प्रशस्यव्रतो भवति मुनीनां मध्ये, किमुक्तं भवति?-भावमुनित्वेनासी मुनि - दीप अनुक्रम [५५७-५५९] A CS AIMEducatan intamational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~871~ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१७], मूलं [-] / गाथा ||१९|| नियुक्ति : [३९१...] (४३) प्रत मध्ये गण्यते, तया वाऽस्मिन् लोके 'अमृतमित्र' सुरभोज्यमिव 'पूजितः' अभ्यर्हित आराधयति 'दुहतो लोगमिण-3 दति इहलोकपरलोकभेदेन द्विविधं लोकम् ‘इणं ति इममनेन चातिप्रतीततया प्रत्यक्षं निर्दिशतीति, इहलोके च सकललोकपूज्यतया परलोके च सुगत्यवाः, ततः पापवर्जनमेव विधेयमिति भाव इति सूत्रद्वयार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्ती, वीमीति पूर्ववत् , नया अपि तथैव ॥ इति श्रीशान्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां सप्तदशमध्ययनं समासमिति ॥ सूत्रांक -२१|| ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटी सप्तदशमध्ययनं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [५५७-५५९] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-१७ परिसमाप्तं ~872~ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-1 / गाथा ||१९...|| नियुक्ति: [३९२-३९४] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्धृत्तिः १४३७॥ सूत्रांक ॥१९ -२१|| अथ संवतीयाख्यमष्टादशमध्ययनम् । संयतीया ध्य. १८ उक्तं सप्तदशमध्ययनम् , अधुनाऽष्टादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने पापवर्जनमुक्तं, तच्च संयतस्यैव, स च भोगर्द्धित्यागत एवेति स एव संजयोदाहरणत इहोच्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य च चतुरनुयोगद्वारप्ररूपणा प्राग्वद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे संजयीयमिति नाम, ततः सञ्जयशब्दनिक्षेपायाह नियुक्तिकृत् निक्खेवो संजइज्जमि चउ०॥ ३९२॥ जाणगसरीरभविए.॥३९३ ॥ संजयनाम गोयं वेयंतो भावसंजओ होइ । तत्तो समुट्रियमिणं अज्झयणं संजइजति ॥ ३९४ ॥ गाथात्रयं व्याख्यातप्राय, नवरं 'णिक्खेवो संजइजमिति निक्षेपः' न्यासः सञ्जयीयाध्ययने अर्थात्सज्जयस्येति । गम्यते । तथा च तृतीयगाथायां 'संजयनाम गोयं यंतो' इत्युक्तं तत' इति सञ्जयादभिधेयभूतात् 'समुस्थितम् ॥४३॥ उत्पन्नम् इदं अध्ययनं सञ्जयीयमिति, तस्माद्धेतोरुच्यत इति गाथात्रयार्थः । इत्युक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति | सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तवेदम् दीप अनुक्रम [५५७-५५९] INRN For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १८ "संजयिय" आरभ्यते ~873~ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३९५] (४३) प्रत सुत्रांक ||१|| कंपिल्ले नयरे राया, उदिन्नवल वाहणे । नामेणं संजओ नाम, मिगवं उवनिग्गए ॥१॥ काम्पिल्ये नगरे 'राजा' नृपतिरुदीर्णम्-उदयप्राप्तं बलं-चतुरङ्गं वाहनं च-गिल्लिथिल्यादिरूपं यस्य सोऽयमुदीवर्णवलवाहनः, यद्वा वलं-शरीरसामर्थ्य वाहनं-जावादि, पदात्युपलक्षणं चैतत् , स च 'नाना' अभिधानेन सञ्जयः 'नाम' इति प्राकाश्ये, ततोऽयमर्थः-संजय इति नाम्ना प्रसिद्धो, मृगव्यां-मृगयां प्रतीति शेषः, उप-सामीप्येन निर्गतो-निष्क्रान्त उपनिर्गतस्तत एव नगरादिति शेष इति सूत्रार्थः ॥ स च कीटग् विनिर्गतः किं च कृतवानित्याह हयाणीए गयाणीए, रहाणीए तहेव य । पायत्ताणीए महया, सचओ परिवारिए ॥२॥ मिए छुभित्ता हयगओ, कंपिल्लुज्जाणकेसरे । भीए संते मिए तत्थ, वहेइ रसमुच्छिए ॥३॥ पाठसिद्धं, नवरं पदातीनां समूहः पादातं तस्थानीकं-कटकं पादातानीकं तेन, सुडव्यत्ययः प्राग्वत् , एवं पूर्वेप्यपि, 'महता' बृहत्प्रमाणेन मृगान् क्षित्वा 'कंपिल्लुजाणकेसरि'त्ति तस्यैव काम्पील्यस्य नगरस्य सम्बन्धिनि केशर नाम्युद्याने 'भीतान्' प्रस्तान् सतो 'मितान्' परिमितान् 'तत्र' तेषु मृगेषु मध्ये 'वहेइति व्यथति हन्ति वा, शरैहै रिति गम्यते, रसः-तत्पिशिताखादस्तत्र मूच्छितो-गृद्धो रसमूर्छित इति सूत्रद्वयार्थः ॥ अमुमेवाणे सूत्रस्पर्शिकनि युक्त्या स्पष्टयितुमाह18 कंपिल्लपुरवरंमि अ नामेणं संजओ नरवरिंदो। सो सेणाए सहिओ नासीरं निग्गओ कयाइ ॥३९५॥ दीप अनुक्रम [५६० For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~874~ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति : [३९६] (४३) बृत्तिः प्रत सुत्रांक ||३|| उत्तराध्य. हयमारूढो राया मिए छहिताण केसरुजाणे । ते तत्थ उ उत्तत्थे बहेइ रसमुच्छिओ संतो॥ ३९६ ॥ संयतीया गाथाद्वयं प्रतीतमेव, नवरमिह नासीर-मुगयां प्रति 'उत्रस्तान्' अतिभीतानिति गाथाद्वयार्थः ॥ अत्रान्तरे ध्य. १८ यदभूत्तदाह सूत्रकृत्॥४३८॥ अह केसरंमि उजाणे, अणगारे तबोधणे । सज्झायझाणजुत्तो, धम्मज्झाणं झियायह ॥४॥ अप्फोघमंडवमी, झायई झवियासवे । तस्सागए मिए पासं, वहेइ से नराहिये ॥५॥ 'अथ' अनन्तरं केशरे उद्यानेऽनगारस्तपोधनः स्वाध्यायः-अनुप्रेक्षणादिर्ध्यान-धर्मध्यानादि ताभ्यां युक्तो-यथाकालं तदासेवकतया सहितः खाध्यायध्यानयुक्तोऽत एव 'धर्मध्यानम्' आज्ञाषिजयादि 'झियायईत्ति ध्यायति चिन्तयति, क ?-'अप्फोयमंडयंमिति अप्फोवमण्डबमिति वृक्षाद्याकीणे, तथा च वृद्धाः-अप्फोव इति, किमुक्त । भवति ?-आस्तीर्ण, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्न इत्यर्थः, 'मण्डपे नागवल्यादिसम्बन्धिनि ध्यायति धर्मध्यानमिति | दगम्यते, पुनरभिधानमतिशयख्यापर्क, झवियत्ति-क्षपिता निर्मूलिता आश्रयाः-कर्मपन्धहेतवो हिंसादयो यन स||४३८॥ तथा, 'तस्य' इत्युक्तविशेषणान्वितस्यानमारस्य 'पार्थ' समीपमिति सम्बन्धः, 'आगतान प्राप्तान् मृगान् 'बहइत्ति विध्यति हन्ति वा 'स' इति सञ्जयनामा 'नराधिपः' राजेति सूत्रद्वयार्थः ॥ अमुमेवार्थ सविशेषमाह नियुक्तिकृत् CHER दीप अनुक्रम [५६२] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~875~ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-/ गाथा ||५|| नियुक्ति: [३९७] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| अह केसरमुजाणे नामेणं गद्दभालि अणगारो।अप्फोवमंडवंमि अ झायइ झाणं झविअदोसो॥ ३९७॥ | अहेति गाथा व्याख्यातप्रायय, नवरं 'नाना' अभिधानेन गर्दभालि-गर्दभालिनामेत्यर्थः, 'झविय'त्ति क्षपिता दोपाः-कर्माश्रवहेतुभूता हिंसादयो येन स तथा ॥ पुनस्तत्र यदभूत्तदाह अह आसगओ राया, खिप्पमागम्म सो तहिं । हए मिए उ पासित्ता, अणगारं तत्थ पासई ॥६॥ _ 'अर्थ' अनन्तरम् 'अश्वगतः' तुरगारूढो राजा 'क्षिप्रं शीघमागत्य 'स' इति सञ्जयनामा 'तस्मिन् यत्र मण्डपे स भगवान् ध्यायति, 'हतान्' विनाशितान् मृगान् तुशब्द एवकारार्थस्ततो मृगानेव, न पुनरनगारमित्यर्थः, 'पासित्त'त्ति दृष्ट्वा 'अनगारं' साधु 'तत्र' इति तस्मिन्नेव स्थाने पश्यतीति सूत्रार्थः ॥ ततः किमसावकादित्याह| अह राया तत्थ संभंतो, अणगारो मणाऽऽहओ । मए उ मंदपुण्णणं, रसगिद्धेण धंतुणा ॥७॥ आसं विसज्जइत्ताणं, अणगारस्स सो निवो । विणएणं बंदई पाए, भगवं ! इत्य मे खमे ॥८॥ अह मोणेण सो भगवं, अणगारो झाणमस्सिओ। रायाणं न पडिमंतेइ, तओ राया भयहुओ ॥९॥ संजओ अहमस्सीति, भगवं वाहिराहि मे । कुद्धे तेएण अणगारे, दहिज्जा नरकोडिओ ॥१०॥.. अथ राजा 'तत्रेति तद्दर्शने सति 'संभ्रान्तः' भयव्याकुलो, यथाऽनगारो-मुनिर्मनागिति-स्तोकेनेय 'आहतः' विनाशितः, तदासन्नमृगहननादित्यभिप्रायः, मया तु मन्दपुण्येन 'रसद्धेन' रसमूर्छितेन 'घंतुण'त्ति घातुकेन हनन दीप अनुक्रम [५६४] For PHOTOSPNandipontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~876~ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||७-१०|| नियुक्ति: [३९८-४०१] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४३॥ प्रत सूत्रांक ||७-१०|| शीलेनेत्यर्थः । ततश्च 'अर्थ' तुरगं 'विसृज्य' विमुच्य 'ण'प्राग्वत् , 'अनगारस्य' उक्तस्यैव 'सः' सञ्जयनामा नृपः 'विन- संयतीयायेन' उचितप्रतिपत्तिरूपेण 'वन्दते' स्तौति पादौ चरणी, अत्यादरख्यापकं चैतत् , पादावपि तस्य भगवतः स्तवनीया-1 ध्य. १८ विति, वक्ति च-यथा भगवन् ! 'अत्र' एतस्मिन् मृगव्ये, मम अपराधमिति शेषः, 'क्षमख' सहख ॥ 'अथ' इत्यनन्तरं | 'मौनेन' वाग्निरोधात्मकेन 'सो'त्ति स गर्दभालिनामा भगवान् अनगारः 'ध्यान' धर्मध्यानम् 'आश्रितः' स्थितः 'राजानं' नृपं 'न प्रतिमन्त्रयते' न प्रतिवक्ति यथाऽहं क्षमिष्ये न वेति, 'ततः' तत्प्रतिवचनाभावतोऽवश्यमयं क्रुद्ध | इति न किमपि मां प्रभाषते इति राजा 'भयद्रुतः' अतीव भयत्रस्तो, यथा न ज्ञायते किमसौ क्रुद्धः करिष्यतीति, | उक्तवांश्च यथा-॥ 'सञ्जयः' सञ्जयनामा राजाऽहमस्मि, मा भूत्रीच एवायमिति सुतरां कोप इत्येतदभिधानमिति, इति' अस्माद्धेतोभगवन् ! 'वाहराहिति व्याहर-संभाषय 'मे' इति सुव्यत्ययान्माम् , अथापि स्यात्-किमेवं भवान् भयद्रुत इत्याह-'क्रुद्धः' कुपितः 'तेजसा' तपोमाहात्म्यजनितेन तेजोलेश्यादिना 'अनगारः' मुनिः 'दहेत्' भस्मसा-1 | कुर्यात् नरकोटी:, आस्तां शतं सहस्रं वेति, अतोऽत्यन्तभयद्रुतोऽहमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ इदमेव व्यक्तीकमाह ॥४३९|| नियुक्तिकृत्अह आसगओराया तं पासिअसंभमागओ तत्थाभणइ अहाजह इहि इसिवज्झाए मणा लित्तो ३९०५ AMAKAR दीप अनुक्रम [५६६-५६९] AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 877~ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||७-१०|| नियुक्ति: [३९८-४०१] (४३) प्रत सूत्रांक ||७-१०|| वीसजिऊण आसं अह अणगारस्स एइ सो पासं । विणएण वैदिऊणं अवराहं ते खमावेइ ॥ ३९९ ॥ अह मोणमस्सिओ सो अणगारो नरवई न वाहरइ । तस्स तवतेयभीओ इणमद्रं सो उदाहरइ ४०० ४ कंपिल्लपुराहिवई नामेणं संजओ अहं राया। तुज्झ सरणागओऽम्हि निदहिहा मा मि तेएणं ॥४०१॥ | गाथाचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं तं पासिय 'संभमागतो'त्ति मुनिरत्र दृश्यत इत्यसावपि मया विद्धो भविष्यतीत्याकुलत्वमापन्नो, 'भणति च' वक्ति च 'हा' इति खेदे यथेदानीं 'इसिवज्झाए'त्ति ऋषिहत्यया मनागपि लिसोऽहंखल्पेनैव न स्पृष्टः 'तुभत्ति तव 'शरणागतोऽस्मि' त्वामेव शरणम्-आश्रयं प्रतिपन्नोऽस्मि, ततश्च निर्धाक्षीः 'मा' निषेधे 'मि' इति मां 'तेजसा' तपोजनितेनेति गम्यते, इति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ इत्थं तेनोक्ते यन्मुनिरुक्तांस्तदाह अभओ पत्थिवा! तुझं, अभयदाया भवाहि य । अणिचे जीवलोगंमि, किं हिंसाए पसज्जसि ॥११॥ Rजया सव्वं परिचज, गंतव्यमवसस्स ते । अणिचे जीवलोगंमि, किरजंमि पसजसि ॥१२॥ जीवियं चेव रूवं च, विजुसंपायचंचलं । जत्थ तं मुझसी रायं, पिचत्थं नावबुज्झसी ॥ १३ ॥ दाराणि य सुया चेब, |मित्ता य तह बंधवा । जीवंतमणुजीवंति, मयं नाणुव्वयंति य ॥१४॥ नीहरंति मयं पुत्ता, पिपरं परमखिया । पियरो अतहा पुत्ते, बंधू रायं तवं चरे ॥ १५॥ तओ तेणऽजिए द्व्वे, दारे य परिरक्खिए। दीप अनुक्रम [५६६-५६९] JIREairatory For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~878~ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-]/ गाथा ||११-१७|| नियुक्ति: [३९८-४०१] (४३) प्रत सूत्रांक ||११-१७|| उत्तराध्य. कीलंतऽन्ने नरा राय !, हडतुहमलंकिया ॥ १६ ॥ तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं । कम्मुणा तेण|| संयतीया संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं ॥१७॥ बृहद्वृत्तिः 4 'अभओं'त्ति अभयं-भयाभावः 'पार्थिव !' नृपते ! आकारोऽलाक्षणिकः, कस्य ?--'तुम्भंति तब, न कश्चित्त्वां । ॥४४॥ दहतीति भावः, इत्थं समाश्वास्योपदेशमाह-'अभयदाता च' प्राणिनां त्राणकर्ता भवाहि यत्ति भव, यथा हि भवतो मृत्युभयमेवमन्येषामपीति भावः, चशब्दो योजित एव, अमुमेवार्थ सहेतुकं व्यतिरेकद्वारेणाह-'अनिये' अशा-2 दावते 'जीवलोके' प्राणिगणे, किमिति परिप्रश्ने 'हिंसायां' प्राणिवधरूपायां 'प्रसजसि' अभिव्यक्तो भवसि ?, जीव-13 लोकस्य ह्यनित्यत्वे भवानप्यनित्यस्तत्किमिति-केन हेतुना खल्पदिनकृते पापमित्वमुपार्जयसि ?, नैवेदमुचितमिति । भावः। इत्थंहिंसात्यागमुपदिश्य राज्यपरित्यागोपदेशमाह-यदा सर्व' कोशान्तःपुरादि परित्यज्य-इहैव विमुच्य गन्तव्यं भवान्तरमिति शेषः, तदपि न खवशस्य किन्तु अवशस्य-अखतन्त्रस्य 'ते तब, व सति ?-अनित्ये जीवलोके,ततः किं (राज्ये नृपतित्वे प्रसजसि ?, राज्यपरित्याग एव युक्त इति भावः, पाठान्तरतश्च किं हिंसायां प्रसजसि ?, इह च पुनर्व|चनमादरातिशयख्यापनार्थमिति न पुनरुक्तता। जीवलोकानित्यत्वमेव भावयितुमाह-'जीवितम्' आयुः'चः' समुच्चये ॥णी 'एवेति पूरणे 'रूपं च' पिशितादिपुष्टस्य शरीरशोभात्मकं विद्युतः संपातः-चलनचमत्कारो विद्युत्सम्पातस्तद्वचञ्चलम्-अतीवास्थिरं विद्युत्सम्पातचञ्चलं 'यत्र' जीविते रूपे च तंति त्वं 'मुद्यसि' मोहं विधत्से, मूढश्व हिंसादी प्रस -562-% 82-%80-%45 दीप अनुक्रम [५७०-५७६] AIMEducatantntaritational For PF repcitrana मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~879~ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -१७|| दीप अनुक्रम [५७० -५७६] Jan Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||११-१७|| अध्ययनं [१८], जसीति भावः, 'राजन' नृपते ! 'प्रेत्यार्थ' परलोकप्रयोजनं नावबुध्यसे, किमुक्तं भवति : - जानास्यपि न, किं पुन| स्तत्करणमिति ॥ तथा 'दाराश्च' कलत्राणि प्राकृतत्वान्नपा निर्देशः, सुताश्चैव 'मित्राणि च ' प्रतीतान्येव, तथा 'बान्धवाः" | | खजनाः जीवन्तम् 'अनुजीवन्ति तदुपार्जितवित्ताद्युपभोगत उपजीवन्ति, मृतं 'णाणुधयंति य'चि चशब्दस्यापिशव्दार्थत्वादनुत्रजन्त्यपि न, किं पुनः सह यास्यन्तीति, तदनेन दारादीनामपि कृतघ्नतया न तेष्वास्थां विधाय धर्मे उदासितव्यमित्युक्तमिति, इदं च सूत्रं चिरन्तनवृतिकृता न व्याख्यातं प्रत्यन्तरेषु च दृश्यत इत्यस्माभिरुन्नीतम् ॥ पुनस्तत्प्रतिबन्धनिराकरणायाह- 'नीहरंति'त्ति निस्सारयन्ति 'मृतम्' इति गतायुषं 'पुत्राः' सुताः 'पितरं' जनकं 'परमदुःखिताः' अतिशयसञ्जातदुःखा अपि किं पुनर्ये न तथा दुःखभाज इति भावः, पितरोऽपि तथा पुत्रान्, 'बंधु' त्ति बन्धवश्च बन्धूनिति शेषः, अतश्च किं कृत्यमित्याह - राजन् ! तप उपलक्षणत्वाद्दानादि 'चरेः' आसेवस्वेति ॥ अपरञ्च 'ततो'ति मृतनिःसारणादनन्तरं 'तेन' इति मित्रपित्रादिना 'अर्जिते' विढपिते 'द्रव्ये' वित्ते 'दारेषु च ' कलत्रेषु च 'परिरक्षितेषु' सर्वापायपरिपालितेषु, उभयत्रार्थत्वादेकवचनं, 'क्रीडन्ति' विलसन्ति तेनैव वित्तेन दारैश्चेति गम्यते 'अन्ये' अपरे राजन् ! 'हट्टतुट्टमलंकिय'त्ति हृष्टाः - बहिः पुल कादिमन्तः तुष्टाः- आन्तरप्रीतिभाजः 'अलङ्कृताः' विभूषिताः, यत ईदृशी भवस्थितिस्ततो राजन् ! तपश्चरेरिति मध्यदीपकत्वादनन्तरसूत्रोक्तेन सम्बन्धः ॥ मृतस्य च को वृत्तान्त इत्याह- 'तेनापि मृतेन यत् 'कृतम्' अनुष्ठितं कर्म 'शुभं वा' पुण्यप्रकृतिरूपं यद्वा 'सुखं वा' सुखहेतुः For Para Pral Use Only निर्युक्तिः [३९८-४०१] ~880~ ibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-]/ गाथा ||१८-१९|| नियुक्ति: [३९८-४०१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१८ -१९|| उत्तराध्य. यदिवे'त्यथवा 'दुःख' दुःखहेतुः पापप्रकृत्यात्मकमित्यर्थः । कर्मणा तेन सुखहेतुना दुःखहेतुना वा, उत्तरत्र तुशब्दस्यै- संवतीया वकारार्थत्वाद् भिन्नक्रमत्वाच तेनैव, न तु दुःखपरिरक्षितेनापि द्रव्यादिना 'संयुक्त सहितः 'गच्छति' याति 'परम्'४ बृद्धृत्तिः र अन्यं भव' जन्म, यतश्च शुभाशुभयोरेवानुयायिता ततः शुभहेतुं तप एव चरेरिति भाव इति सूत्रसप्तकार्थः ॥ तत॥४४१॥ स्तद्वचः श्रुत्वा राजा किमचेष्टतेत्याह सोऊण तस्स सो धम्मं, अणगारस्स अंतिए । महया संवेगनिब्वेयं, समावन्नो नराहिवो ॥१८॥ संजओ चइज रज, निक्खंतो जिणसासणे । गहभालिस्स भगवओ, अणगारस्स अंतिए ॥ १९॥ 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'तस्य' इत्यनगारस्य 'स' इति सञ्जयाभिधानो राजा 'धर्मम्' उक्तरूपम् 'अनगारस्य' भिक्षोः४ 'अन्तिके' समीपे 'महय'त्ति महता आदरणेति शेषः, सुव्यत्ययेन वा महत्, 'संवेगनिर्वेद' तत्र संवेगो-मोक्षाभि-14 लापो निर्वेदः-संसारोद्विग्नता 'समापन्नः' प्राप्तः 'नराधिपः' राजा 'सञ्जयः' सञ्जयनामा 'चइङ' त्यक्त्वा 'राज्यं राष्ट्रा-14 धिपत्यरूपं 'निष्क्रान्तः' प्रत्रजितः 'जिनशासने' अर्हद्दर्शने, न तु सुगतादिदेशितेऽसद्दशेने एवेति भावः, 'गर्दभाले। गर्दभालिनानो भगवतोऽनगारस्यान्तिक इति सूत्रद्वयार्थः ॥ सूत्रनवकोक्तमेवाथें स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत्अभयं तुज्झ नरवई ! जलबुब्बुअसंनिभे अ माणुस्से। किं हिंसाइ पसजसि जाणंतो अप्पणो दुक्खं ? ४०१] दीप अनुक्रम [५७७-५७८] ॥४४॥ EPF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल संपादने स्खलन्त्वात् अत्र नियुक्तिक्रम ||४०१|| द्वीवारान् मुद्रितं ~881~ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-]/गाथा ||१८-१९|| नियुक्ति: [४०१R-४०३] (४३) प्रत सूत्रांक ||१८-१९|| सबमिणं चइऊणं अवस्स जया य होइ गंतवं । किं भोगेसु पसजसि ?.किंपागफलोवमनिभेसुं ॥४०॥ सोऊण य सो धम्म तस्सऽणगारस्स अंतिए राया। अणगारो पव्वइओ रजं चहउं गुणसमग्गं ॥४०॥ ४] व्याख्यातप्रायमेव, नवरं 'अप्पणो दुक्खंति आत्मनो दुःखमिति-दुःखजनक मरणमिति शेषः, 'किंपागफलोपमदणिभेसु'न्ति किम्पाकफलोपमा निभा-छाया येषां ते तथा आपातमधुरत्वपरिणतिदारुणत्वाभ्यां, तथा 'अनगारः' * अविद्यमानगृहो, जात इति शेषः, स च शाक्यादिरपि संभवेदत आह-'पपइओ'त्ति प्रकर्षण-विषयाभिष्वङ्गादिहापरिहाररूपेण ब्रजितो-निष्क्रान्तः प्रत्रजितो, भावभिक्षुरितियावत्, तथा गुणाः-कामगुणा मनोज्ञशब्दादय आज्ञैश्वर्यादयो वा तैः समग्रं-सम्पूर्ण गुणसमग्रमिति गाथात्रयार्थः ॥ स चैवं गृहीतप्रमज्योऽधिगतहेयोपादेयविभागो दशविधचक्रवालसामाचारीरतश्चानियतविहारितया विहरन् तथाविधसन्निवेशमाजगाम, तत्र च तस्य यदभूत्तदाह चिचा र8 पब्बईओ, खत्तिओ परिभासई । जहा ते दीसई रूवं, पसन्नं ते तहा मणो ॥२०॥ किंनामे किंगुत्ते कस्सवाए व माहणे? । कहं पडियरसी बुद्धे ?, कहं विणीयत्ति वुचसि? ॥२१॥ त्यक्त्वा राष्ट्र ग्रामनगरादिसमुदाय 'प्रनजितः' प्रतिपन्नदीक्षः 'क्षत्रियः' क्षत्रजातिरनिर्दिष्टनामा परिभापते. सञ्जयमुनिमित्युपस्कारः, स हि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत् , ततश्च्युतः क्षत्रियकुलेऽजनि, तत्र च कुतश्चित्तथाविध दीप अनुक्रम [५७७-५७८] For PATREPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~882~ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||२०-२१|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२० सत्तराध्य. ४ निमित्ततः स्मृतपूर्वजन्मा तत एव चोत्पन्नवैराग्यः प्रव्रज्यां गृहीतवान् , गृहीतप्रव्रज्यश्च विहरन् सञ्जयमुनि रष्ट्वा संयतीया तद्विमर्शार्थमिदमुक्तवान् यथा ते 'दृश्यते' अवलोक्यते 'रूपम्' आकृतिः 'प्रसन्नं' विकाररहितं 'ते' तव 'तथा' बृहद्वृत्तिः माध्य. १८ IM तेनैव प्रकारेण प्रसन्नमिति प्रक्रमः, किं तत् ?-'मनः' चित्तं,न ह्यन्तः कलुषतायां बहिरप्येवं प्रसन्नतासम्भवः, तथा 'कि॥४४॥ नामा' किमभिधानः 'किंगोत्रः' किमन्वयः 'कस्सट्टाए वत्ति कस्मै वा 'अर्थाय' प्रयोजनाय 'माहणेत्ति मा बधी हत्येवरूपं मनो वाक् क्रिया च यस्यासी माहनः, सर्वे धातवः पचादिषु रश्यन्त इति वचनात्पचादित्वादच् , स चै विधः प्रत्रजित एव संभवत्यतः किं वा प्रयोजनमुद्दिश्य प्रत्रजितः, 'कथं' केन प्रकारेण 'प्रतिचरसि' सेवसे, कान् ?'बुद्धान्' आचार्यादीन् , कथं 'विणीय'त्ति 'विनीतः' विनयवानित्युच्यत इति सूत्रद्वयार्थः ॥ समयमुनिराह संजओ नाम नामेणं, तहा गुत्तेण गोयमो । गद्दभाली ममायरिया, विजाचरणपारगा ॥२२॥ यदुक्तं त्वया-किनामा त्वमिति, तत्र सञ्जयो नाम नाम्ना । यच्चावोचः-किंगोत्रः १ इति, तत्राह-तथा 'गोत्रेण अन्वयेन गोतमः, उभयत्राहमिति गम्यते, शेषप्रश्नत्रयप्रतिवचनमाह-'गर्दभालयः' गर्दभाल्यभिधाना मम 'आचार्याः'। धर्मोपदेशकत्वादिना, विद्यतेऽनया तत्त्वमिति विद्या-श्रुतज्ञान तथा चर्यत इति चरण-चारित्रं विद्या च चरणं |च विद्याचरणे तयोः पारगा:-पर्यन्तगामिनो विद्याचरणपारगाः, एवं च बदतोऽयमाशयः-यथा गड़भालिभि-|| धर्माचार्यैजविद्यातान्त्रिवर्तितोऽहं, विद्याचरणपारगत्वाच तैस्तन्निवृत्तौ मुक्तिलक्षणं फलमुक्तं, ततस्तदर्थ माहनोऽस्मि, T+75 ANSAC-AGACACAD -२१|| R1 दीप अनुक्रम [५७९-५८०] ४४शा AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~883~ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-1 / गाथा ||२२|| नियुक्ति : [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२२|| यथा च तदुपदेशस्तथा गुरून् प्रतिचरामि, तदुपदेशासेवनाच विनीत इति सूत्रार्थः ॥ इत्थं विमृश्य तद्गुणबहुमानाकृष्टचेता अपृष्टोऽपि क्षत्रिय इदमाह किरियं अकिरिअं विणयं, अन्नाणं च महामुणी !। एएहिं चरहिं ठाणेहिं, मेअन्ने किं पभासई ? ॥२३॥ 'क्रिया' अस्तीत्येवंरूपा, लिङ्गव्यत्ययान्नपुंसकनिर्देशः, 'अक्रिया' तद्विपरीता 'बिनयः' नमस्कारकरणादिः, लिङ्गहव्यत्ययः प्राग्वत्, तथा ज्ञान-वस्तुतत्त्वावगमस्तदभावोऽज्ञानं, 'चा' समुच्चये, 'महामुने!' सम्यकप्रत्रज्याप्रतिपत्तिगुरु- | परिचर्यादिकरणतः प्रशस्ययते ! 'एतैः' क्रियादिभिश्चतुर्भिः तिष्ठन्त्येषु कर्मवशमा जन्तव इति स्थानानि-मिथ्याऽ|ध्यवसायाधारभूतानि तैः, 'मेयण्णेत्ति, मीयत इति मेयं-ज्ञेयं जीपादिवस्तु तज्जानन्तीति मेयज्ञाः क्रियादिभिश्च|तुर्भिः स्थानैः स्वखाभिप्रायकल्पितर्वस्तुतत्त्वपरिच्छेदिन इतियावत्, 'किम्' इति कुत्सितं 'पभासईत्ति प्रकर्पण |भाषन्ते प्रभाषन्ते, विचाराक्षमत्वात् , तथाहि-ये तावक्रियावादिनस्तेऽस्तिक्रियाविशिष्टमात्मानं मन्यमाना अपि | तस्य सदा विभुत्वाविभुत्वकर्तृत्वाकर्तृत्वादिभिर्विप्रतिपद्यन्ते, उक्तं हि वाचकः-क्रियावादिनो नाम येषामात्मनोऽ|स्तित्वं प्रत्यविप्रतिपत्तिः, किन्तु स विभुरविभुः कर्ताऽकर्ता क्रियावानितरो मूर्तिमानमूर्तिरित्येवमाद्याग्रहोपहृतप्रीतयस्तेऽस्ति माता पिताऽस्ति न कुशलाकुशलकर्मवैफल्यं न न सन्ति गतय इत्येवंप्रतिज्ञाश्च, इह च विभुत्वं व्यापित्वं, तच्चा|त्मनो न घटते, शरीर एष तल्लिङ्गभूतचैतन्योपलब्धेः, न च वक्तव्यमात्मनोऽव्यापित्ये 'सुखदुःखबुद्धीच्छाद्वेषप्रयत्नधर्मा दीप अनुक्रम [५८१] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~884~ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-]/ गाथा ||२३|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२३|| उत्तराध्य. धर्मसंस्कारा नवात्मगुणा' इतिवचनात्तद्गुणयोधर्माधर्मयोरप्यव्यापित्वं, तथा च द्वीपान्तरगतदेवदत्तादृष्टाकृष्टमणिमु-IMानीय तादीनां नेहागमनं स्यादिति, विभिन्नदेशस्याप्ययस्कान्तादेश्य प्रभृतियस्त्वाकर्षणशक्तिदर्शनाद्धर्माधर्मयोरपि शरी-|| बृहद्वृत्तिः रमात्रव्यापित्वेऽपि तद्वद्विप्रकृष्टवस्त्वाकर्षकत्वादिति न तावद्विभुरात्मा युज्यते । तथाऽविभुरप्यङ्गुष्ठपर्वाद्य- ध्य. १८ ॥४४॥ धिष्ठानो यैरिष्यते तेषां सकलशरीरव्यापिचैतन्यासत्त्वं, तदसत्वाच शेषशरीरावयवेषु शस्त्रादिभेदादौ वेदनानुभवासंभवो, न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, एवं सर्वदा कर्तृत्वादिकमपि यथा न युज्यते तथा खधिया वाच्यं १। ये त्वक्रियावादिनस्तेऽस्तीतिक्रियाविशिष्टमात्मानं नेच्छन्त्येव, अस्तित्वे वा शरीरेण सहकत्वान्यत्वाभ्यामवक्तव्यमिच्छन्ति, एकत्वे ह्यविनष्टशरीरावस्थितीन कदाचिन्मरणप्रशस्तिः, आत्मनः शरीरानन्यत्वेनावस्थितत्वातू, तथा मुक्त्यभावायनेकदोषापत्तिश्च, शरीरान्यत्वे तु शरीरच्छेदादौ तस्य वेदनाऽभावप्रसङ्गः, तस्मादवक्तव्य एवेति, अक्रियावादित्वं चैषां कथञ्चिद्भेदाभेदलक्षणप्रकारान्तराभावेन तदभावस्यैवावशिष्यमाणत्वात् , येऽप्युत्पत्त्यनन्तरमात्मनः प्रलयमिच्छन्ति तेषामपि तदस्तित्वाभ्युपगमेऽप्यनुपचरितपरलोकाधसम्भवात् तत्त्वतस्तदसत्त्वमेवेत्यक्रियावादित्वम् , उक्तं हि वाचकैः-"ये पुनरिहाक्रियावादिनस्तेपामात्मैव नास्ति, न चावक्तव्यः शरीरेण सहकत्वान्यत्वे प्रति, उत्पत्त्यनन्तरप्रलयस्वभावको वा, तस्मिन्न-||४४३॥ निर्णिक्त च कर्तृत्वादिविशेषमूढा एवं"ति, अमीषां तु विचाराक्षमत्वमात्माऽस्तित्वस्य प्राक् प्रत्यक्षानुमानलक्षणप्रमादणद्वयसमधिगम्यत्वेन साधनात् , तस्य च शरीरात्कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नरूपतया तत्र तत्र वक्तव्ये (व्यत्वे)न । स्थापितत्वात् , दीप अनुक्रम [५८२] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~885~ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-1 / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२३|| SACRACRENA इणिकपक्षस्य तु सामुच्छेदिकनिह्नववक्तव्यतायामेवोन्मूलितत्वादिति २। विनयवादिनो विनयादेव मुक्तिमिच्छन्ति. मायत उक्त-"बैनयिकवादिनो नाम येषां सुरासुरनृपतपखिकरितुरगहरिणगोमहिष्यजाविकश्वशृगालजलचरकपोतका कोलूकचटकप्रभृतिभ्यो नमस्कारकरणात् क्लेशनाशोऽभिप्रेतो, विनयाच्छ्यो भवति नान्यथेत्यध्यवसिताः” एतेऽपि न दविचारसहिष्णवो, न हि विनयमात्रादिहापि विशिष्टानुष्ठानविकलादभिलपितार्थावाप्तिरवलोक्यते, नापि चैषां विन याहत्वं, येन पारलौकिकश्रेयोहेतुता भवेत् , तथाहि-लोकसमयवेदेषु गुणाभ्यधिकस्यैव विनयाहत्वमिति प्रसिद्धिः, गुणास्तु तत्त्वतो ज्ञानध्यानानुष्ठानात्मका एव, न च सुरादीनामज्ञानाश्रयाविरमणादिदोषदूपितानामेतेष्वन्यतरस्यापि गुणस्य सम्भव इति कथं यदृच्छया विधीयमानस्य तस्य श्रेयोहेतुतेति? ३ । अज्ञानवादिनस्त्याहुः-यथेदं जगत् कैश्चिद् ब्रह्मादिविवर्त्त इष्यते, अन्यैः प्रकृतिपुरुषात्मकमपरैर्द्रव्यादिपडूभेदं तदपरैश्चतुरार्यसत्यात्मकमितरैर्विज्ञानमयमन्यैस्तु। शून्यमेवेत्यनेकधा भिन्नाः पन्थानः, तथाऽऽत्माऽपि नित्यानित्यादिभेदतोऽनेकधैवोच्यते, तत्को ह्येतद्वेद किंचानेन ज्ञातेन !, अपवर्ग प्रत्यनुपयोगित्वात् ज्ञानस्य, केवलं कष्टं तप एवानुष्ठेयं, न हि कष्टं विनेष्टसिद्धिः, तथा चाह-'अज्ञानिका नाम येषामियमुपधृतिः, यथेह ज्ञानाधिगमप्रयासोऽपवर्ग प्रति अकिञ्चित्करो, घोरैर्ऋततपोभिरपवर्गोऽयाप्यते' इति । विचारासहत्वं चैषां विज्ञानरहितस्य महतोऽपि कष्टस्य तिर्यग्नारकादीनामियापवर्ग प्रत्यहेतुत्वात्, तदन्तरेण व्रततपोपसर्गादीनामपि वरूपापरिज्ञानतः क्वचित्प्रवृत्त्यसम्भवादिति । एषां च क्रियावादिनामुत्तरोत्तरभेदतोऽने दीप अनुक्रम [५८२] For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~886~ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-1 / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) उत्तराध्य. संयतीया बृहद्वृत्तिः ॐडक ॥४४४॥ प्रत सूत्रांक ||२३|| कविधत्वं, उक्तं वाचकैः-"एषां मौलेषु चतुर्ष कल्पेष्ववस्थितेषु तद्भेदाः सुबहवोऽवनिरुहशाखाप्रशाखानिकरवदवग- न्तव्याः", तत्र तावच्छतमशीतं क्रियावादिनां, अक्रियावादिनश्च चतुरशीतिसङ्ख्याः, अज्ञानिकाः सप्तषष्टिविधाः, वैन|यिकवादिनो द्वात्रिंशत्, एवं त्रिषष्ट्यधिकशतत्रयं, सर्वेऽपि चामी विचाराक्षमत्वात्कुत्सितं प्रभाषन्ते इति स्थितमिति सूत्रार्थः ॥ न चैतत्खाभिप्रायेणैवोच्यते, किन्तु इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुडे । विजाचरणसंपन्ने, सचे सरपरक्कमे ।। २४ ॥ 'इती'त्येतत् क्रियादिवादिनः किं प्रभाषन्ते । इत्येवंरूपं पाउकरें'त्ति प्रादुरका(त्-प्रकटितवान् 'बुद्धः' अवगततत्त्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातकः-जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा, स चेह प्रस्तावान्महावीर एव, 'परिनियतः ' कषायानलविध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतो विद्याचरणाभ्यामर्थात् क्षायिकज्ञानचारित्राभ्यां संपन्नो-युक्तो विद्याचरणसंपन्नोऽत एव 'सत्य' सत्यवाक्, तथा सत्यः-अवितथस्तात्त्विकत्वेन परे-भावशत्रवस्तेषामाक्रमणं आक्रम:-अभिभवो यस्यासी सत्यपराक्रम इति सूत्रार्थः ॥ तेषां च फलमाह पडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो। दिव्वं च गई गच्छंति, चरित्ता धम्ममारियं ॥२५॥ 'पतन्ति' गच्छन्ति 'नरके' सीमन्तकादी 'घोरे' नित्यान्धकारादिना भयानके ये नराः उपलक्षणत्याख्यादयो या पातयति नरकादिपु जन्तुमिति पापं तच्च हिंसाधनेकधा, इह त्वसत्प्ररूपणैव, तत्कजुम्-अनुष्ठातुं शीलमेषामिति बर दीप अनुक्रम [५८२] RECEM ॥४४४॥ AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~887~ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-1 / गाथा ||२५|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) ACC प्रत सूत्रांक ||२५|| म पापकारिणः, ये त्वेवंविधा न भवन्ति ते किमित्याह-'दिव्यां च गति' देवलोकगति, चशब्दः पुनरर्थे, सच पूर्वेभ्यो विशेषद्योतकः, 'गच्छन्ति' यान्ति 'चरित्वा' आसेव्य धर्मः-श्रुतधर्मादिरनेकविधः, इह च सत्प्ररूपणारूपः ४ श्रुतधर्म एव तं, आर्य-प्राग्वत् , तदयमभिप्रायः-असत्प्ररूपणापरिहारेण सत्प्ररूपणापरेणैव च भवता भवितव्यमिति सूत्रार्थः । कथं पुनरमी पापकारिण इत्याह मायावुइयमेयं तु, मुसा भासा निरस्थिया । संजममाणोऽवि अहं, बसामि इरियामि य ॥२६॥ मायया-शाठ्येन वुइयंति-उक्तं मायोक्तम् 'एतत्' यदनन्तरं क्रियादिवादिभिरुक्तं, 'तुः'एवकारार्थी भिन्नक्रमश्च मायोक्कमेव, अतश्चैतत् 'मृषा' अलीका 'भाषा' उक्तिः 'निरर्थिका' सम्यगभिधेयशून्या, तत एव च 'संजममाणोऽवि'त्ति 'अपिः' एवकारार्थस्ततः संयच्छन्नेव-उपरमन्नेव तदुक्त्याकर्णनादितः 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशे विशेषतस्तस्थिरीकरणार्थम् , उक्तं हि-"ठियतो ठावए परं"ति, 'वसामि' तिष्ठामि उपाश्रय इति शेषः, 'इरियामि यत्ति ईरे च-च्छामि च गोचरचर्यादिष्विति सूत्रार्थः ॥ इदमपि सूत्रं प्रायो न दृश्यते । कुतः पुनस्त्वं तदुत्त्याकर्णनादिभ्यः |संयच्छसीत्याह-अनन्तरसूत्राभावे च यदुक्तं चतुर्मिः स्थानमयज्ञाः किंप्रभाषन्ते इति, तत्कुत इत्याह सब्वे ते विइया मज्झं, मिच्छादिही अणारिया। विजमाणे परे लोए, सम्मं जाणामि अप्पगं ॥ २७॥ 'सर्वे' निरवशेषाः 'ते' क्रियादिवादिनः 'विदिताः' ज्ञाता मम, यथाऽमी 'मिच्छदिष्टित्ति मिथ्या-विपरीता 9 % 9- % दीप अनुक्रम [५८४] -%E0 For ParaTREPIVaauinone मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~888~ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [५८६ ] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥४४५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२७|| निर्युक्तिः [४०३...] अध्ययनं [१८], परलोकात्माद्यपलापित्वेन दृष्टि:- बुद्धिरेषामिति मिथ्यादृष्टयः तत एव 'अनार्थी' अनार्यकर्मप्रवृत्ताः कथं पुनस्त | एवंविधास्ते विदिता इत्याह- 'विद्यमाने' सति 'परलोके' अन्यजन्मनि 'सम्यम्' अविपरीतं 'जानामि' अवगच्छामि 'अप्पमं'ति आत्मानं, ततः परलोकात्मनोः सम्यग्वेदनात् ममैवंविधत्वेन विदितास्ततोऽहं तदुक्तयाकर्णनादितः संयच्छामि किं प्रभाषकाचैत इति सूत्रार्थः ॥ कथं पुनस्त्वमात्मानमन्यजन्मनि जानासीत्याह अहमासी महापाणे, जुइमं वरिससओवमे । जा सा पाली महापाली, दिव्वा वरिससओवमा ॥ २८ ॥ से चुए बंभलोगाओ, माणुस्सं भवमागए। अप्पणो य परेसिं च, आउँ जाणे जहा तहा ॥ २९ ॥ 'अहमासि' ति अहमभूवं 'महाप्राणे' महाप्राणनाम्नि ब्रह्मलोकविमाने 'धुतिमान् दीप्तिमान् 'वरिससतोयमे' ति | वर्षशतजीविना उपमा - दृष्टान्तो यस्यासौ वर्षशतोपमो मयूरव्यंसकादित्वात्समासः, ततोऽयमर्थः यथेह वर्षशतजीवी इदानीं परिपूर्णायुरुच्यते, एवमहमपि तत्र परिपूर्णायुरभूवं, तथाहि - या सा पालिरित्र पालिः - जीवितजलधारणाद्भवस्थितिः, सा चोत्तरत्र महाशब्दोपादानादिह पल्योपमप्रमाणा, 'महापाली' सागरोपमप्रमाणा, तस्या एव महत्त्वात्, दिवि भवा दिव्या वर्षशतेनोपमा यस्याः सा वर्षशतोपमा, यथा हि वर्षशतमिह परमायुः तथा तत्र महापाली, उत्कृष्टतोऽपि हि तत्र सागरोपमैरेवायुरुपनीयते, न तुत्सर्पिण्यादिभिः, अथवा “योजनं विस्तृतः पल्यस्तथा योजनमुत्सृतः । सप्तरात्रप्ररूढाणां केशाग्राणां स पूरितः ॥ १ ॥ ततो वर्षशते पूर्ण, एकैकं केशमुद्धरेत् । क्षीयते For Para Prata Use Only संयतीया ~889~ ध्य. १८ ॥४४५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||२८-२९|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२८ -२९|| येन कालेन, तत्पल्योपममुच्यते ॥ २ ॥” इति वचनाद्वर्षशतैः केशोद्धारहेतुभिरुपमा अर्थात्पल्यविषया यस्या सा वर्षशतोपमा, द्विविधाऽपि स्थितिः, सागरोपमस्यापि पल्योपमनिष्पाद्यत्वात् , तत्र मम महापाली दिव्या भवस्थि-IXI तिरासीदित्युपस्कारः, अतश्चाहं वर्षशतोपमायुरभूवमिति भावः । 'से' इत्यथ स्थितिपरिपालनादनन्तरं 'च्युतः' भ्रष्टः . |'ब्रह्मलोकात्' पञ्चमकल्पात् 'मानुष्यं' मनुष्यसम्बन्धिनं 'भवं' जन्म 'आगत' आयातः । इत्थमात्मनो जातिस्मरण-12 | लक्षणमतिशयमाख्यायातिशयान्तरमाह-आत्मनश्च परेषां वा 'आयुः जीवितं 'जाने' अवबुध्ये 'यथा' येन प्रकारेण स्थितमिति गम्यते 'तथा' तेनैव प्रकारेण न त्वन्यथेत्यभिप्रायः, इति सूत्रद्वयार्थः ॥ इत्थं प्रसङ्गतः परितोपतचापृष्टमपि खवृत्तान्तमावेद्योपदेष्टुमाह नाणा रुईच छंदं च, परिवजिज्ज संजओ । अणट्ठा जे अ सब्यस्था, इह विजामणुसंचरे ॥३०॥ 'नाने त्यनेकधा 'रुचिंच' प्रक्रमाक्रियावाद्यादिमतविषयमभिलाषं 'छन्दश्च' खमतिकल्पितमभिप्रायम्, इहापि सनानेति सम्बन्धादनेकविधं 'परिवर्जयेत्' परित्यजेत् 'संयतः' यतिः । तथा 'अनर्थाः' अनर्थहेतवो ये च 'सर्वार्थाः अशेषहिंसादयो गम्यमानत्वात्तान् वर्जयेदिति सम्बन्धः, यद्वा 'सबत्थे'त्याकारस्यालाक्षणिकत्वात्सर्वत्र क्षेत्रादावनी || इति-निष्प्रयोजना ये च व्यापारा इति गम्यते, तान् परिवर्जयेत् , 'इती' सेवंरूपां 'विद्यां सम्यग्ज्ञानरूपामन्विति ४ -लक्षीकृत्य 'संचरेः' त्वं सम्यक संयमावनि याया इति सूत्रार्थः ॥ अन्यच दीप अनुक्रम [५८७-५८८] AIMEducatan intamational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~890~ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३० -३१|| दीप अनुक्रम [५८९ -५९०] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥४४६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || ३०-३१|| अध्ययनं [१८], Jan Education intamational पक्किमामि परिणाणं, परमंतेहिं वा पुणो । अहो उद्विओ अहोरायं, इद विजा तवं चेर ॥ ३१ ॥ प्रतीपं कामामि प्रतिक्रामामि - प्रतिनिवर्ते, केभ्यः ?- 'परिणाणं' ति सुव्यत्ययात् 'प्रश्नेभ्यः' शुभाशुभसूचकेभ्योऽङ्गुष्ठप्रश्नादिभ्यः, अन्येभ्यो वा साधिकरणेभ्यः, तथा परे-गृहस्थास्तेषां मन्त्राः परमन्त्राः - तत्कार्यालोचनरूपास्तेभ्यः, 'वा' समुच्चये 'पुनः' विशेषणे, विशेषेण परमन्त्रेभ्यः प्रतिक्रमामि, अतिसावद्यत्वात्तेषां सोपस्कारत्वात्सूत्रस्यासुनाऽभिप्रायेण यः संयमं प्रत्युत्थानवान् सः 'अहो' इति विस्मये 'उत्थितः ' धर्मं प्रत्युद्यतः, कश्चिदेव हि महात्मैवंविधः संभवति 'अहोरात्रम्' अहर्निशम् 'इति' इत्येतदनन्तरोक्तं 'विज'ति विद्वान् जानन् 'तर्व'ति अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य तप एव न तु प्रश्नादि 'चरेः' आसेवखेति सूत्रार्थः ॥ पुनस्तत्स्थिरीकरणार्थमाह जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्वेण (बुद्वेण ) चेयसा । ताई पाउकरे बुद्धे, तं नाणं जिणसासणे ||३२|| यच 'मे' इति मां 'पृच्छसि' प्रश्नयसि 'काले' प्रस्तावे 'सम्यगवुद्धेन' अविपरीतवोधवता 'चेतसा' चित्तेन, लक्षणे 'तृतीया, 'ता' इति सूत्रत्वात्तत् 'पाउकरे' ति 'प्रादुष्करोमि प्रकटीकरोमि प्रतिपादयामीतियावत्, 'बुद्धः' अवगत - सकलवस्तुतत्त्वः, कुतः पुनर्बुद्धोऽस्म्यत आह-'तदिति यत्किञ्चिदिह जगति प्रचरति ज्ञानं यथाविधवस्त्ववबोधरूपं तज्जिनशासनेऽस्तीति गम्यते, ततोऽहं तत्र स्थित इति तत्प्रसादाद्धोऽस्मीत्यभिप्रायः, दह च यतस्त्वं सम्यगवुद्धेन चेतसा पृच्छस्यतः प्रतिक्रान्तप्रश्नादिरप्यहं यत्पृच्छसि तत्प्रादुष्करोमीत्यतः पृच्छ यथेच्छमित्यैदम्पर्यार्थः । For PP Use On निर्युक्तिः [४०३...] ~891~ संवतीया ध्य. १८ ॥४४६॥ www.janboy. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||३२|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२|| अथवाऽत एव लक्ष्यते यथा 'अप्पणो य परेसिं च' इत्यादिना तस्यायुर्विज्ञतामवगम्य सञ्जयमुनिनाऽसौ पृष्टः ४ कियन्ममायुरिति, ततोऽसौ प्राह यच्च त्वं मां कालविषयं पृच्छसि तत्प्रादुष्कृतवान् 'बुद्धः सर्वज्ञोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने व्यवच्छेदफलत्वाजिनशासन एव न त्वन्यस्मिन् सुगतादिशासने,अतो जिनशासन एव यत्नो विधेयो येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि जानीषे, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ पुनरुपदेष्टुमाह किरियं च रोअए धीरो, अकिरियं परिवजए । दिट्टीए दिहिसंपन्नो, धम्मं चरसु दुचरं ॥ ३३ ॥ 'क्रियां च' अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिकां वा रोचयेत्' तथा तथा भावनातो यथाऽसावात्मने रुचिता है जायते तथा विदध्यात् 'धीरः' मिथ्याग्भिरक्षोभ्यः, तथा 'अक्रियां' नास्त्यात्मेत्यादिकां मिथ्यापरिकल्पिततत्तदनुष्ठानरूपां वा 'परिवर्जयेत्' परिहरेत् , ततश्च 'दृष्टया' सम्यग्दर्शनात्मिकया हेतुभूतया 'दिद्विसंपन्नोति "धीदृष्टिः शेमुषी धिषणा" इति शाब्दिकश्रुतेदृष्टि:-बुद्धिः, सा चेह प्रस्तावात्सम्यग्ज्ञानात्मिका तया संपन्नोयुक्तो दृष्टिसंपन्नः, एवं च सम्यग्दर्शनज्ञानान्वितः सन् 'धर्म' चारित्रधर्म 'चर' आसेवख 'सुदुश्चरम्' अत्यन्तदुरनुठेयमिति सूत्रार्थः ।। पुनः क्षत्रियमुनिरेव सञ्जयमुनि महापुरुषोदाहरणैः स्थिरीकर्तुमाह। एयं पुषणपर्य सुचा, अस्थधम्मोवसोहियं । भरहोऽवि भारहं वासं, चिचा कामाई पब्बए॥ ३४ ॥सगरोऽपि सागरंतं, भरहवासं नराहियो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिव्वुडे ॥ ३५ ॥ चइत्ता भारहं वासं, दीप अनुक्रम [५९१] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~892~ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||३४-५०|| नियुक्ति: [४०३...], प्रक्षेपगाथा [१] (४३) प्रत बृहदृत्तिः सूत्रांक ||३४-५०|| उत्तराध्य. चक्कवही महिहीओ । पव्वजमन्भुवगओ, मघवं नाम महाजसो ॥ ३६॥ सणंकुमारो मणुस्सिदो, चक्कवही । संयतीयामहिडीओ। पुत्तं रजे ठवित्ता णं, सोऽवि राया तवं चरे ॥३७॥ चहत्ता भारहं वासं, चक्कवही महिडीओ। | ध्य. १८ पसंती संतिकरो लोए, पत्तो गइमणुत्तरं ॥३८॥ इक्खागरायवसहो, कुंथूनाम नरेसरो। विक्खापकित्ती धिइम, ॥४४७॥ मुक्खं गओ अणुसरं ।। ३९ ॥ सागरंतं जहित्ता ण, भरहवासं नरेसरो। अरो अ अरयं पत्तो, पत्तो गइम-2 गुत्तरं ॥४०॥ चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिडीओ। चिचा य उत्तमे भोए, महापउमो दमं चरे ॥४१॥ |एगच्छत्तं पसाहित्ता, महिं माणनिसूरणो । हरिसेणो मणुस्सिदो, पत्तो गइमणुत्तरं ॥४२॥ अनिओ राय-* सहस्सेहि, सुपरिचाई दमं चरे । जयनामो जिणक्खायं, पत्तो गइमणुत्तरं ॥४३॥ दसण्णरजं मुझ्यं, चइत्ता : तणं मुणी चरे । दसण्णभद्दो निक्खंतो, सक्ख सकेण चोइओ॥४४॥ नमी नमेइ अप्पाणं,सक्खं सक्केण चोइओ जहितो रज वइदेही, सामन्ने पज्जुवडिओ। (प्रक्षिसा)। करकंड कलिंगाणं, पंचालाण य दुम्मुहो। णमी राया है विदेहाण, गंधाराण य नग्गई॥४५॥ एए नरिंदवसभा, निक्खंता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवित्ता णं, दीप अनुक्रम [५९३-६१०] १ नमिभवण्याध्ययनगतेय, अव्याख्यानं अग्रेतनाया अपि पर सूत्राणि सप्तदश इति सप्तदशसूत्रार्थ इति चाद्यान्यभागयोः पाठात् अवश्यं 21 ॥४४७॥ अत्र गाथा सप्तदश प्रामाः,नम्यधिकारश्चापेतन्यामपि,नियुक्ती च नवमाध्ययने इयमिति युक्तियुक्तं मूले उच्चारणमस्या अत्रेति एपेव प्रक्षिप्ता5-1 ति २ चइऊण गेहं प्र० नमिप्रव्रज्याध्ययने च AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~893~ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [--] / गाथा ||३४-५०|| नियुक्ति: [४०३...] (४३) 84% प्रत सूत्रांक A ||३४-५०|| सामन्ने पज्जुवट्टिआ॥ ४६॥ सोवीररायवसभो, चइत्ता ण मुणीचरे । उद्दायणो पवइओ, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४७॥ तहेव कासिरायावि, सेओ सच्चपरक्कमो । कामभोगे परिचन, पहणे कम्ममहावणं ॥ ४८॥ तहेव विजओ राया, अणहा कित्तिपच्चए । रज्जं तु गुणसमिद्धं, पयहित्तु महायसो ॥४९॥ तहेवुग्गं तवं किच्चा, अवक्खिस्रोण चेयसा । महाबलो रायरिसी, अदाय सिरसा सिरं ॥५०॥ | सूत्राणि सप्तदश। एतत् अनन्तरोक्तं पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं तच्च तत् पद्यते-गम्यतेऽनेनार्थ इति पदं च पुण्यपदं, पुण्यस्य । वा पद-स्थानं पुण्यपदं-क्रियादिवादिखरूपनानारुचिपरिवर्जनाद्यावेदकं शब्दसंदर्भ 'श्रुत्वा' आकर्ण्य, अर्थ्यत इत्यर्थः-- खोपवादिः धर्मः- तदुपायभूतः श्रुतधर्मादिस्ताभ्यामुपशोभितं-विभूषितमर्थधर्मोपशोभितं 'भरतोऽपि भरतछानामा चक्रवर्त्यपि, अपिशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये 'भारहंति प्राकृतत्वाद्धारतं 'वर्ष' क्षेत्रं 'सक्त्वा' हित्वा 'कामाईति | र चस्य गम्यमानत्वात् 'कामांश्च' विषयान् प्राकृतत्वानपुंसकनिर्देशः, पवए'त्ति प्रात्राजीत् ॥ 'सगरोऽवी" त्यादि सर्व-181 मपि स्पष्टं, नवरं 'सागरान्तं' समुद्रपर्यन्तं दिकत्रये, अन्यत्र तु हिमवत्पर्यन्तमित्युपस्कारः, तथा 'ऐश्वर्यम्' आज्ञैश्वयोदि केवलं' परिपूर्णमनन्यसाधारणं वा 'दयया' संयमेन परिनिर्वृतः' इहैव विध्यातकषायानलत्वाच्छीतीभूतो मुक्तो वा॥ तथा 'अरो यत्ति अरनामा च तीर्थकृचक्रवती 'अरय'ति रतस्य रजसो वाऽभावरूपमरतमरजो वा, पाठान्तरतोरसं वा-शृङ्गारादिरसाभावं, प्रातः सन् 'प्राप्तः' गतो गतिमनुत्तरां-मुक्तिमित्यर्थः ।। तथा त्यक्त्वोत्तमान 5 दीप अनुक्रम [५९३-६१०] %25455 For F मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~894~ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३४ -५०|| दीप अनुक्रम [५९३ -६१०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४४८ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३४-५०|| अध्ययनं [१८], Jain Education intimal भोगानिति, पुनस्त्यक्त्वेत्यभिधानं भिन्नवाक्यत्वादपौनरुक्त्यं, 'महापद्मः' महापद्मनामा 'चरे'त्ति आचरत् ॥ तथा एकं छत्रं नृपतिचिह्नमस्यामित्येकच्छत्रां तां कोऽर्थः १ - अविद्यमानद्वितीयनृपतिं 'महीं' पृथ्वी 'प्रसाध्य' वशीकृत्येति सम्बन्धः, 'माणनिसूरणो' त्ति सारात्यहङ्कारविनाशकः 'मनुष्येन्द्रः' इति चक्री । तथा 'अन्नितो'त्ति 'अन्वितः' युक्तः 'सुपरिचाइ' त्ति सुष्ठु - शोभनेन प्रकारेण राज्यादि परित्यजतीत्येवंशीलः सुपरित्यागी दमं जिनाख्यातमिति सम्बन्धः, 'चरित्ति अचारीचरित्वा च जयनामा चक्रीति शेषः प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ॥ तथा दशार्णो नाम देशस्तद्राज्यं -- तदाधिपत्यं 'मुदितं' सकलोपद्रवविरहितं प्रमोदवत् त्यक्त्वा 'णः' प्राग्वत् 'चरे'त्ति अचारीत्, अप्रतिवद्धविहारतया विहतवानित्यर्थः, साक्षाच्छक्रेण 'चोदितः' अधिकविभूतिदर्शनेन धर्मे प्रति प्रेरितः ॥ तथा 'निष्क्रान्ताः' प्रत्रजिता निष्क्रम्य च 'श्रामण्ये' श्रमणभावे 'पर्युपस्थिताः' तदनुष्ठानं प्रत्युद्यता अभूवन्निति शेषः ॥ तथा सौवीरेषु राजवृषभःतत्कालभाविनृपतिप्रधानत्वात्सौवीरराजवृषभः 'चेच'त्ति त्यक्त्वा राज्यमिति शेषः प्राग्वत्, 'मुनिः' त्रैकाल्यावस्थावेदी सन् 'चरे'त्ति अचारीत्, कोऽसौ ? – 'उदायणो' ति उदायननामा प्रत्रजितः, चरित्वा च किमित्याह - प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ॥ तथैव' तेनैव प्रकारेण 'काशिराजः' काशिमण्डलाधिपतिः श्रेयसि - अतिप्रशम्बे सत्ये - संयमे पराक्रमःसामर्थ्यं यस्यासौ श्रेयः -- सत्यपराक्रमः 'पहणे 'ति प्राहन - प्रहतवान् कर्म महावनमिवातिगहनतया कर्ममहावनम् ॥ तथैच 'विजयः' इति विजयनामा 'अणट्टा कित्ति पवए' चि, आर्यत्वाद् अनार्चः - आर्त्तध्यानविकलः कीर्त्त्या For PP Use On निर्युक्तिः [४०३...] ~895~ संवतीया ध्य. १८ ॥४४८|| janciran urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३४ -५०|| दीप अनुक्रम [५९३ -६१०] Jan Educatio “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३४-५०|| अध्ययनं [१८], दीनानाथादिदानोत्थया प्रसिद्धयोपलक्षितः सन् यद्वा अनार्त्ता-सकलदोषविगमतोऽवाधिता कीर्त्तिरस्येयनार्त्तकीर्त्तिः सन् पठ्यते च 'आणट्टा किइपञ्चद्द'त्ति, आज्ञा-आगमोऽर्थशब्दस्य हेतुवचनस्यापि दर्शनादर्थो — हेतुरस्याः सा तथाविधा आकृतिरर्थान्मुनिवेषात्मिका यत्र तदाज्ञार्थीकृति यथा भवत्येवं प्रात्राजीगुणैः- राज्यगुणैः शब्दादिभिर्वा समृद्धं संपन्नं गुणसमृद्धं, पूर्वत्र तुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वायवहितसम्बन्धत्वाच्च गुणसमृद्धमपि । तथा 'अहाय'त्ति आर्षत्वाद् 'आदित' गृहीतवांस्तद्गमनेन स्वीकृतवान् शिरसेव शिरसा शिरः प्रदानेनेव जीवितनिरपेक्षमिति योऽर्थः, 'शिरं'ति शिर इव शिरः सर्वजगदुपरिवर्त्तितया मोक्षः, पठ्यते च - 'आदाय सिरसो सिरिंति, अत्र च 'आदाय' गृहीत्वा 'शिरः श्रियं' सर्वोत्तमां केवललक्ष्मीं परिनिर्वृत इति शेषः, इति सप्तदशसूत्रार्थः ॥ इत्थं महापुरुषो दाहरणैर्ज्ञानपूर्वकक्रियामाहात्म्यमभिधायोपदेष्टुमाह निर्युक्तिः [४०३...] कहं धीरो अहेऊहिं, उम्मत्तो व्व महिं चरे । एए विसेसमादाय, सूरा दढपरकमा ॥ ५१ ॥ 'कथं केन प्रकारेण 'धीरः' उक्तरूपः 'अहेतुभिः' क्रियावाद्यादिपरिकल्पितकुहेतुभिः 'उन्मत्त इव' ग्रहगृहीत इव तात्त्विक वस्त्वपलपनेनालजालभाषितया 'महीं' पृथ्वी 'चरेत्' भ्रमेत् ? नैव चरेदित्यर्थः किमिति ?, ये 'एते' अनन्तरोदिता भरतादयः 'विशेष' विशिष्टतां गम्यमानत्वान्मिथ्यादर्शनेभ्यो जिनशासनस्य 'आदाय' गृहीत्वा मनसि संप्रधार्येतियावत् शूरा दृढपराक्रमा एतदेवाश्रितवन्त इति शेषः, अयमभिप्रायः यथैते महात्मानो विशेषमादाय For Para Prata Use Only ~896~ jancibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||११|| नियुक्ति : [४०३...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५१|| उत्तराध्य. कुवादिपरिकल्पितक्रियावाद्यादिदर्शनपरिहारतो जिनशासन एव निश्चितमतयोऽभूवंस्तथा भवताऽपि धीरेण सता- संयतीयाबृहद्भुत्तिः स्मिन्नेव निश्चितं चेतो विधेयमिति सूत्रार्थः । किञ्च ध्य. १८ II अचंतनियाणखमा, एसा मे भासिया वई । अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया ॥५२॥ ॥४४९॥ अत्यन्तम्-अतिशयेन निदानः-कारणः, कोऽर्थः ?-हेतुभिर्न तु परप्रत्ययेनैव, क्षमा-युक्ताऽत्यन्तनिदानक्षमा, यद्वा निदानं-कर्ममलशोधनं तस्मिन् क्षमा-समर्था 'एपा' अनन्तरोक्ता पाठान्तरतः 'सर्वा' अशेषा सत्सा वा 'मे' मया भाषिता' उक्ता 'वार' वाणी जिनशासनमेवाश्रयणीयमित्येवंरूपा, अनयाऽङ्गीकृतया 'अतीर्घः' तीर्णवन्तः तरन्ति 'एके' अपरे, पाठान्तरतोऽन्ये, सम्प्रत्यपि तत्कालापेक्षया क्षेत्रान्तरापेक्षया वेत्थमभिधानमिति, तथा तरिष्यन्ति 'अनागताः' भाविनो, भवोदधिमिति सर्वत्र शेष इति सूत्रार्थः ॥ यतश्चैवमतः। कहं धीरे अहेऊहिं, अदायं परियावसे । सव्वसंगविणिम्मुक्को, सिद्धे भवह नीरए ॥५३॥ त्तिवेमि ।। ॥संजइज १८॥ ४४९॥ कथं धीरोऽहेतुभिः 'आदाय' गृहीत्वा, क्रियादिवादिमतमिति शेषः 'पर्यावसेत्' परीति-सर्वप्रकारमावसेत्-तत्रैव । निलीयेत, नैव तत्राभिनिविष्टो भवेदिति भावः, पठ्यते च-'अत्ताणं परियावसित्ति आत्मानं पर्यावासयेद् , अहेतुभिः कथमात्मानमहेत्वावासं कुर्यात् ?, नैव कुर्यादित्यर्थः । किं पुनरित्वमकरणे फलमित्याह-सर्वे-निरवशेषाः सजन्ति दीप अनुक्रम [६११] Forum मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~897~ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१८], मूलं [-] / गाथा ||५३|| नियुक्ति: [४०४] (४३) प्रत सूत्रांक ||५३|| GAR कर्मणा संवध्यन्ते जन्तव एभिरिति सकाः-द्रव्यतो द्रविणादयो भावतस्तु मिथ्यात्वरूपत्वादेत एव क्रियादिवादास्तैविनिर्मुक्तो-विरहितः सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः सन् सिद्धो भवति नीरजाः, तदनेनाहेतुपरिहारस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वेन सिद्धत्वं फलमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं तमनुशास्य गतो विवक्षितं स्थानं क्षत्रियः, शेषसञ्जयवक्तव्यतां त्वाह नियुक्तिकृत्काऊण तवचरणं बहूणि वासाणि सो धुयकिलेसो । तं ठाणं संपत्तो जं संपत्ता न सोयंति ॥४०४॥ सुगमैव, नवरं धुताः-अपनीताः क्लिश्यन्त्येषु सत्सु जन्तव इति क्लेशाः-रागादयो येन स धुतक्लेशो, यत्संप्राप्ता न शोचन्ते, शोकहेतुशारीरमानसदुःखाभावादिति गाथार्थः ॥ इतिः' परिसमाप्तौ, अधीमीति पूर्ववत् नयाश्च ॥ इति ? श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां सजयीयनामाष्टादशमध्ययनं समासमिति ॥ दीप अनुक्रम [६१३] इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां अष्टादशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ For PF wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-१८ परिसमाप्तं ~898~ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||५३...|| नियुक्ति: [४०५-४०७] (४३) मृगापुत्री या०१९ प्रत सूत्रांक ||५३|| उत्तराध्य. अथ एकोनविंशं मृगापुत्रीयमध्ययनम् । बृहद्वृत्तिः व्याख्यातमष्टादशमध्ययनम् , अधुनैकोनविंशमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तराध्ययने भोगड़ि॥४५०॥सार नमाज त्याग उक्तः, तस्साच श्रामण्यमुपजायते, तचाप्रतिकर्मतया प्रशस्यतरं भवतीत्यप्रतिकर्मतोच्यत इत्यनेन सम्बन्धेनादयातमिदमध्ययनम्, अस्य तु चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे मृगापुत्रीयमिति नामातो मृगायाः | पुत्रस्य च निक्षेपमाह नियुक्तिकृत् निक्खेवो अमिआए चउक्कओ दुविहो० ॥ ४०५॥ जाण०॥ ४०६ ॥ मिअआउनामगोयं वेयंतो भावओ मिओ होइ । एमेव य पुत्तस्सवि चउक्कओ होइ निक्खेवो॥४०७॥ F गाथात्रयं प्राग्वत् , नवरं मृगाभिलापेन नेयम् ॥ नामनिरुक्तिमाह६ मिगदेवीपुत्ताओ बलसिरिनामा समुट्रियं जम्हा । तम्हा मिगपुत्तिजं अज्झयणं होइ नायव्वं ॥४०॥ | मृगा-नाना देवी-अग्रमहिषी तस्याः पुत्रः-सुतो मृगादेवीपुत्रस्तस्मादलश्रीनाम्नः 'समुत्थितं' समुत्पन्नं यस्मातस्मान्मृगापुत्रीयं-मृगापुत्रीयनामकं मृगाशब्देन मृगादेव्युक्तेरध्ययनमिदमिति शेषः, भवति 'ज्ञातव्यम्' अवबोद्धन्य दीप अनुक्रम [६१३] ५०॥ 4 For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - १९ "मृगापुत्रीय" आरभ्यते ~899~ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||१-४|| नियुक्ति: [४०८] (४३) प्रत सूत्रांक HALASSISAACK ||१-४|| मिति गाथार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपस्वावसरः, स च सूत्रे सति भवति, अतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्8 सुग्गीवे मयरे रम्मे, काणणुज्जाणसोहिए। राया बलभहुत्ति, मिया तस्सग्गमाहिसी॥१॥ तेसिं पुत्से बलसिरी, मियापुत्तत्ति विस्सुए। अम्मापिऊहिं दइए, जुवराया दमीसरे ॥२॥ नंदणे सो उ पासाए, कीलए सह इस्थिहिं । देवो दोगुंदगो चेव, निचं मुइयमाणसो॥३॥ मणिरयणकुटिमतले, पासायालोअणे ठिओ। आलोएड नगरस्स, चउक्कतियचचरे ॥४॥ | 'सुग्रीवे' सुग्रीवनानि नगरे 'रम्ये रमणीये काननैः-बृहदक्षाश्रयैर्वनरुद्यानैः-आरामैः क्रीडावना शोभिते राजिते काननोद्यानशोभिते 'राजा' नृपो बलभद्र इति नामेति शेषः, 'मृगा' मृगानाम्नी 'तस्य' इति बलभद्रस्य काराज्ञः 'अग्गमहिसि'त्ति 'अग्रमहिषी' प्रधानपत्नी ।। 'तयोः' राज्ञोः पुत्रः 'बलश्री' पलश्रीनामा मातापितृविहित नाना लोके च मृगापुत्र इति 'विश्रुतः' विख्यातः, 'अम्मापिऊण ति अम्मा(म्बा)पित्रोः 'दयितः' बल्लभः 'युवराज' कृतयौवराज्याभिषेको दमिनः-उद्धतदमनशीलास्ते च राजानस्तेषामीश्वर:-प्रभुर्दमीश्वरः, यद्वा दमिनः-उपशमिनस्तेषां सहजोपशमभावत ईश्वरो दमीश्वरः, भाविकालापेक्षं चैतत् ॥ 'नन्दने लक्षणोपेततया समृद्धिजनके 'सः' मृगापुत्रः 'तुः' वाक्यान्तरोपन्यासार्थः प्रासादे 'क्रीडति' विलसति 'सह' समं 'सीभिः' प्रमदाभिः, क इव ?-'देवः' *%%2-%E5%BACHAR दीप अनुक्रम [६१४-६१७] 9856 For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~900~ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||१-४|| नियुक्ति: [४०८], प्रक्षेप [१] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः GESRA प्रत या०१९ ॥४५॥ सूत्रांक ||१-४|| SS-8862 सरः दोगुंदगो चेव'त्ति 'च' पूरणे दोगुन्दग इव, दोगुन्दगाश्च त्रायविंशाः, तथा च वृद्धाः-"त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं मृगापुत्रीभोगपरायणा दोगुंदुगा इति भण्णंति", 'नित्यं' सदा 'मुदितमानसः' इष्टचित्तः । स चैवं क्रीडन् कदाचिन्मणयश्चविशिष्टमाहात्म्याश्चन्द्रकान्तादयो रत्नानि च-गोमेयकादीनि मणिरत्नानि तैरुपलक्षितं कुट्टिमतलं यस्मिन्नसौ मणिरत्न-1 कुट्टिमतलः, गमकत्वाबहुव्रीहिः, तस्मिन् , आलोक्यन्ते दिशोऽस्मिन् स्थितरित्यालोकनं प्रासादे प्रासादस्य वाऽऽलोकन प्रासादालोकनं तस्मिन्-सर्वोपरिवर्तिचतुरिकारूपे गवाक्षे वा स्थितः-उपविष्टः 'आलोकते' कुतूहलतः पश्यति, कानि?'नगरस्य तस्यैव सुग्रीवनानः सम्बन्धीनि 'चतुष्कत्रिकचत्वराणि' प्रतीतान्येवेति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ ततः किमित्याह| अह तत्थ अइच्छंतं, पासई समणसंजयं । तवनियमसंजमधरं, सीलई गुणआगरं ॥२॥ तं पेहई मियापुत्ते, |दिट्टीए अणिमिसाइ उ । कहिं मन्नेरिसं रूव, दिट्ठपुवं मए पुरा॥६॥ साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसामि सोहणे । मोहं गयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं ॥ ७॥ देवलोगचुओ संतो, माणुसं भवमागओ। सन्निनाणसमुप्पन्ने, जाई सरह पुराणयं ॥ (प्र०)। जाईसरणे समुप्पण्णे, मियापुत्ते महिहिए । सरइ पोराणिअं| जाई, सामण च पुराकयं ॥८॥ | 'अथ' अनन्तरं 'तत्र' इति तेषु चतुष्कत्रिकचत्वरेषु 'अतिच्छत'न्ति अतिक्रामन्तं पश्यति श्रम-14 णसंयतमिति श्रमणस्य शाक्यादेरपि सम्भवात्तयवच्छेद्दार्थ संयतग्रहणं, तपश्च-अनशनादि नियमच-द्रव्याद्यभि दीप अनुक्रम [६१४-६१७] ॥४५॥ AIMEducatan intimational For F मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~901~ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/गाथा ||५-८|| नियुक्ति: [४०७R-४१३] (४३) प्रत सूत्रांक ||५-८|| ग्रहात्मकः संयमश्च-उक्तरूपस्तान् धारयति तपोनियमसंयमधरस्तम् , अत एव शीलम्-अष्टादशशीलासहस्ररूपं तेनाढयं-परिपूर्ण शीलाढ्यं, तत एव च गुणानां-ज्ञानादीनामाकर इव गुणाकरस्तं ॥ 'तमिति श्रमणसंयतं 'पेहइ'त्ति पश्यति 'मृगापुत्रः' युवराजः 'दृष्टया' दृशा 'अणमिसाइ उत्ति तुशब्दस्यैवकारार्थत्वादविद्यमाननिमेषयैव, व 'मन्ये जाने ईदृशम्' एवंविधं 'रूपम्' आकारो दृष्टपूर्वम्-अवलोकितं मया 'पुरा' इति पूर्वजन्मनि ?, शेषं प्रतीतमेव, नव-I रम् 'अध्यवसाने' इत्यन्तःकरणपरिणामे 'शोभने प्रधाने क्षायोपशमिकभाववर्तिनीतियावत् 'मोह' केदं मया दृष्टं| केदमित्यतिचिन्तातश्चित्तसबद्दजमूछात्मकं 'गतस्य' प्राप्तस्य सतः॥ तथा 'सरति'त्ति स्परति पौराणिकी 'जाति' जन्म 'श्रामण्यं च' श्रमणभावं 'पुराकृतं जन्मान्तरानुष्ठितमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ एतदेवातिस्पष्टताहेतोरनुगदितुमाह नियुक्तिकृत्दसुग्गीवे नयरंमि अराया नामेण आसि बलभदो। तस्सासि अग्गमहिसी देवी उ मिगावई नामं ॥४०७॥ तेसिं दुण्हवि पुत्तो आसी नामेण बलसिरी धीमं । वयरोसभसंघयणो जुवराया चरमभवधारी ॥४०८॥ है उन्नंदमाणहिअओ पासाए नंदणमि सो रम्मे । किलई पमदासहिओ देवो दुगुंदगो चेव ॥ ४०९ ॥ अह अन्नया कयाई पासायतलंमि सो ठिओ संतो। आलोएइ पुरवरे रुंदे मग्गे गुणसमग्गे ॥४१०॥ ॐ25%2525 दीप अनुक्रम [६१८ -६२१ JIREauraton XI For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल संपादने अत्र नियुक्तिगाथा: क्रमांकने किञ्चित् स्खलना दृश्यते, यत् क्रमांक ||४०७|| ||४०८|| द्वीवारान् लिखितं ~902~ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||५-८|| नियुक्ति: [४०७R-४१३] (४३) प्रत सूत्रांक ||५-८|| उत्तराध्य. अह पिच्छइ रायपहे वोलंत समणसंजयं तत्थ । तवनियमसंजमधरं सुअसागरपारगं धीरं ॥ ११ ॥ बृहद्भुत्तिः अह देहइ रायसुओ तं समणं अणमिसाइ दिट्रीए । कहि परिसयं रूवं दिटुं मन्ने मए पुर्व ? ॥४१२॥ ॥४५२॥ एवमणुचिंतयंतस्स सन्नीनाणं तहिं समुप्पन्नं । पुत्वभवे सामन्नं मरवि एवं कयं आसि ॥ ४१३ ॥ | गाथासप्तकं स्पष्टमेव, नवरं 'धृतिमान्' चितखास्थ्यवान् वज्रऋषभ'मिति अर्थाद्वऋषभनाराचं संहननं यस्य | X स तथा 'चरमभवधारी' पर्यन्तजन्मवर्ती, तथा 'उण्णंदमाणहियओत्ति, उत्-प्रावल्येन नन्दद्-आनन्दं गच्छत् | हृदयं--मनो यस्य स तथा, प्राकृतत्वाच्छतृविषये शानचू, तथा 'रुन्दान् विस्तीर्णान् 'मार्गान् विपणिमार्गादीन् । गुणैः-ऋजुत्वसमत्वादिभिः समग्राः-परिपूर्णा गुणसमग्रास्तान् , तथा श्रुतसागरपारगं धीरमिति तपोनियमसंयमधरमित्यस्य सूत्रपदस्य हेतुदर्शनद्वारतस्तात्पर्यव्याख्यानम् , अनेनैव च भावभिक्षुत्वमुपदर्शितम् , अत एवान्यस्यैवं (विशेषणायोगाच्छ्रमणसंयतमित्याह, सजिज्ञानं चेह सम्यग्दृशः स्मृतिरूपमतिभेदात्मकमिति गाथासप्तकावयवार्थः ।। कासम्प्रति यदसावुत्पन्नजातिस्मरणः कृतवांस्तदाह विसएसु अरज्जतो, रजंतो संजमंमि य । अम्मापियरं उवागम्म, इमं वयणमध्यवी ॥९॥. 'चिसएहित्ति सुव्यत्ययाद 'विषयेषु' मनोजशब्दादिषु 'अरजन्' अभिष्वामकुर्वन्, क-'संयमे' उक्तरूपे दीप अनुक्रम [६१८-६२१] ॥४५२॥ AIMEducatan intimational For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~903~ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [६२३] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||९|| अध्ययनं [१९], निर्युक्तिः [४१३...] Jain Education intima 'चः पुनरर्थः 'अम्मापियरं' ति अम्मा (म्या ) पितरौ 'उपागम्य' उपसृत्य 'इदम्' अनन्तरवक्ष्यमाणं वचनम् 'अब्रवीत् ' इत्याह इति सूत्रार्थः ॥ किं तदत्रवीदित्याह आणि मे पंच महत्वयाणि, नरएस दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु । निव्वणकामो मि महण्णवाओ, अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो ! ॥ १० ॥ 'श्रुतानि' आकर्णितानि, अन्यजन्मनीत्यभिप्रायः, 'मे' मया 'पञ्च' इति पञ्चसङ्ख्यानि 'महाव्रतानि' हिंसाविरमणादीनि, तथा नरकेषु 'दुःखं च' असातमिहैव वक्ष्यमाणं 'तिरिक्खजोणिसु'त्ति चशब्दस्याप्रयुज्यमानस्यापि “अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम्" इत्यादाविव गम्यमानत्वात् तिर्यग्योनिषु च सर्वत्र चायं न्यायो द्रष्टव्यः, उपलक्षणं चैतद् देवमनुष्य भावयोः, ततः किमित्याह - 'णिविणकामोमि' त्ति 'निर्विण्णकामः' प्रतिनिवृत्ताभिलाषोऽस्म्यहं कुतः ? - महार्णव इव महार्णवः --- संसारस्तस्माद्, यतश्चैवमतः 'अनुजानीत' अनुमन्यध्वं मामिति शेषः, 'पचइस्सामी'ति प्रत्रजिप्यामि 'अम्मी'ति पूज्यतरत्वाद्विशिष्टप्रतिबन्धास्पदत्वाच मातुराम - त्रणं, यो हि भविष्यद्दुःखं नावैति तत्प्रतिकारहेतुं वा स कदाचिदित्थमेवासीत, अहं तूभयत्रापि विज्ञ इति कथं न दुःखप्रतीकाशेपायभूतां महात्रतात्मिकां प्रत्रज्यां प्रतिपत्स्य इति सूत्रगर्भार्थः ॥ अनुमेवार्थमनुवादतः स्पष्टयितुमाह निर्युक्तिकृत् www.panciranyard मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः For PP Use On ~904~ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [४१४] (४३) प्रत सूत्रांक ||१०|| उत्तराध्य. सो लद्धबोहिलाभो चलणे जणगाण वंदिउभणइ। वीसज्जिउमिच्छामो काहं समणत्तण ताया!॥४१॥ मृगापुत्रीबृहद्वृत्तिः 18 सः' इति मृगापुत्रो लब्धः-प्राप्तो बोधिलाभो-जिनधर्मप्राप्तिरूपो येन स तथा, 'चरणान्' पादान् ‘जनकयो' या १९ मात्रापित्रोर्वन्दित्वा भणति, यथा 'विसर्जयितुम्' मुत्कलयितुं वयमात्मानमिति गम्यते इच्छामः' अभिलपामः, कि॥४५३॥ मिति ?, यतः 'काहंति वचनव्यत्ययात्करिष्यामः 'श्रमणत्वं' प्रत्रज्यां 'तात !' इति पितः!, उपलक्षणत्वान्मातश्चेति है गाथार्थः । इदानीं तौ कदाचिद्भोगैरुपनिमब्रयेयातामित्यभिप्रायतो यत्तेनोक्तं तत्सूत्रकृदाह अम्मताय ! मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुयविवागा, अणुबंधदुहावहा ॥११॥ इमं सरीरं ६ अणिचं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं ॥ १२ ॥ असासए सरीरंमि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुयसनिभे ॥१३॥ सूत्रत्रयं प्रतीतार्थमेव, नवरं विषमिति--विषवृक्षस्तस्य फलं विषफलं तदुपमाः, तदुपमत्वमेव भावयितुमाहपश्चात्कटुक इव कटुकोऽनिष्ठत्वेन विपाको येषां ते तथा, आपात एव मधुरा इति भावः, 'अनुषन्धदुःखावहाः' अनवच्छिन्नदुःखदायिनः, यथा हि विषफलमाखाद्यमानमादौ मधुरमुत्तरकालं च कटुकविपाकं सातत्येन च दुःखोपनेतृ एवमेतेऽपीति, किञ्च-अमी कामाः स्पर्शप्रधानाः, स्पर्शश्च शरीराश्रयः, तचेदं शरीरम् 'अनित्यम्' अशा-18 श्वतम् 'अशुचि' खाभाविकशौचरहितम् 'अशुचिसंभवम्' अशुचिरूपशुक्रशोणितोत्पन्नम् , अशाश्वतः-कथञ्चिद दीप अनुक्रम [६२४] ACC ॥४५३॥ JAINEducatan intimation For wrencibrarma मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 905~ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], __ मूलं [-]/ गाथा ||११-१३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -१३|| वस्थितत्वेऽप्यनित्य आवासः-प्रक्रमाजीवस्यावस्थानं यस्मिन्नित्यशाश्वतावासं, पुनः इदमित्यभिधानमतीवासार-2 त्वावेशसूचकं, दुःखम्-असातं तद्धेतवः क्लेशाः-ज्वरादयो रोगा दुःखक्लेशाः शाकपार्थिवादिवत्समासस्तेषां 'भाजनं' स्थानं, यतश्चैवमतोऽशाश्वते शरीरे 'रति' चित्तखास्थ्यं 'नोपलभे' न प्राप्नोम्यहं, भोगेषु सत्वपीति गम्यते, शरीराश्रयत्वात्तेषामिति भावः, शरीराशाश्वतत्वमेवाह-पश्चात्पुरा वा त्यक्तव्ये शरीरे इति प्रक्रमः, तद्धि पश्चादिति भुक्त| भोगावस्थायां वार्द्धक्यादौ, पुरा अभुक्तभोगितायां वा बाल्यादौ त्यज्यत इति, यद्वा पश्चादिति-यथास्थित्यायुःक्षयोत्तरकालं पुरा वेत्युपक्रमहेतोर्वषेशताद्यासंकलितजीवितप्रमाणात्प्रागपि 'त्यक्तव्ये' अवश्यत्याज्ये 'फेनबुद्धदसंनिभे क्षणदृष्टनष्टतया, अनेनाशाश्वतत्वमेव भावितमिति न पौनरुक्त्यमिति सूत्रत्रयाः ॥ एवं भोगनिमन्त्रणपरिहारमभिधाय प्रस्तुतस्यैव संसारनिर्वेदस्य हेतुमाह| माणुसत्ते असारंमि, वाहीरोगाण आलए । जरामरणपत्थंमि, खणपि न रमामहं ॥१४॥ जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो ॥१५॥ खित्तं वत्थु हिरण्णं च, पुत्सदारं च बंधवा । चइता ण इमं देहं, गंतब्बमवसस्स मे ॥१६॥ जह किंपागफलाणं, परिणामो ४ान सुंदरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो॥१७॥ सूत्रचतुष्टयं स्पष्टं, नवरं व्याधयः-अतीव बाधाहेतवः कुष्ठादयो रोगाः-ज्वरादयस्तेषाम् 'आलये' आश्रये 'जरा-2 E3%************ दीप अनुक्रम [६२५६२७]] For F un मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~906~ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१४ -१७|| दीप अनुक्रम [६२८ ६२९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४५४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १४-१७|| अध्ययनं [१९], मरणग्रस्ते' वार्द्धक्यमृत्युक्रोडीकृते, अनेन मानुपत्यासारत्वमेव भावितं, क्षणमपि 'न रमे' नाभिरतिं लभेऽहमिति । इत्थं मनुष्यभवस्यानुभूयमानत्वेन निर्वेदहेतुत्वमभिधाय सम्प्रति चतुर्गतिकस्यापि संसारस्य तदाह- 'जम्म' मित्यादिना, अत्र च अहो इति सम्बोधने 'दुक्खो हु'ति दुःखहेतुरेव संसारो जन्मादिनिबन्धनत्वात्तस्य 'यत्र' यस्मिन् गतिचतुटयात्मके संसारे 'क्लिश्यन्ति' बाघामनुभवन्ति, जन्मादिदुः खैरेवेति गम्यते, 'जन्तवः' प्राणिनः, इह च दुःखानुभवाधारत्वेन संसारस्य दुःखहेतुत्वमिति भावः । तथा 'खेत्त' मित्यादिनेष्टवियोगोऽशरणत्वं च संसारान्निर्वेदहेतुरुक्तः, तथा किम्पाको — वृक्षविशेषस्तस्य फलान्यतीव सुखादानि, अनेन चोपसंहारसूत्रेणोदाहरणान्तरद्वारेण भोगदुरन्ततैव निर्वेदहेतुरुक्ता इति सूत्रचतुष्टयावयवार्थः ॥ इत्थं निर्वेदहेतुमभिधाय दृष्टान्तद्वयोपन्यासतः स्वाभिप्रायमेव प्रकटयितुमाह निर्युक्तिः [४१४...] जोमहतं तु, अपाहेजो पवज्जई। गच्छंतो से दुही होइ, छुहातण्हाइपीडिओ ॥ १८ ॥ एवं धम्मं अकाऊणं, जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो से दुही होई, वाहिरोगेहिं पीडिओ ॥ १९ ॥ अद्वाणं जो महंतं तु, सपाहेलो पवज्जई। गच्छंती से सही होइ, छुहातण्हाविवजिओ ॥ २० ॥ एवं धम्मंपि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं । गच्छते से सुही होइ, अप्पकम्मे अवेयणे ॥ २१ ॥ जहां गेहे पलित्तंमि, तस्स गेहस्स जो पहू। सारभंडाणि नीणे, असारं अवउज्झ ॥ २२ ॥ एवं लोए पलितंमि, जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि, तुम्भेहिं अणुमनिओ ॥ २३ ॥ For Para Prata Use Only ~907~ मृगापुत्री या० १९ ॥४५४॥ wancar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१८ -२३|| दीप अनुक्रम [६३० -६३७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १८-२३|| अध्ययनं [१९], सूत्रषङ्कं प्रकटार्थमेव केवलमत्र प्रथमसूत्रेण दृष्टान्त उक्तः, अत्र च 'अध्वानं' मार्गे पथि साधु पाथेयं-सम्बलकं तद्यस्याविद्यमानं सोऽपाथेयः 'प्रपद्यते' अङ्गीकुरुते, क्षुत्तृष्णापीडितत्वं चेह दुःखित्वभवने हेतुः । द्वितीयसूत्रेण दार्शन्तिको पदर्शनं, व्याधिरोगपीडितत्वं चात्र दुःखित्वभवने निमित्तं, दारिद्र्यादिपीडोपलक्षणं चैतत् । उत्तरसूत्रद्वयेन चैतत्सूत्रद्वयोक्तस्यैवार्थस्य व्यतिरेक उक्तः, तत्र सुखित्वे हेतुः क्षुत्तृष्णाविवर्जितत्वमुक्तम् । 'धर्म' पापविरतिरूपम् 'अपिः' पूरणे 'कृत्वा' विधाय गच्छनुपलक्षणत्वाद्वतच 'सः' इति धर्मकर्त्ता प्रक्रमात्पाथेयोपमधर्मसहितः सुखी भवति, सुखित्वे चाल्पकर्मत्वं हेतुरवेदनत्वं च अत्र च प्रस्तावात्कर्म पापं वेदना चासातरूपा गृह्यते, अनेन धर्म| कर्मकरणाकरणयोर्गुणदोपदर्शनाद्धर्मकरणाभिप्रायः प्रकटितः । 'जहे'त्यादिना च सूत्रद्वयेन तमेव दृढयति, अत्र च यथा । | सारभाण्डानि - महामूल्य वस्त्रादीनि 'णीणेइति निष्काशयति 'असारं' जरद्वस्त्रादि 'अवउज्झइ'त्ति अपोहति-त्यजति, एवं 'लोके' जगति 'पठित्तंमि त्ति प्रदीप्त इव प्रदीसे अत्याकुलीकृते 'आत्मानं' सारभाण्डतुल्यं 'तारयिष्यामि' जरामरणप्रदीत लोकपारं नेष्यामि, धर्मकरणेनेति प्रक्रमः, असारं तु कामभोगादि त्यक्ष्यामीति भावः, अनेन धर्मकरणे विलम्बासहिष्णुत्वमुक्तं युष्माभिरिति द्वित्वेऽपि पूज्यत्वाद् बहुवचनम्, 'अणुमन्निओ' त्ति अनुमतः - अभ्यनुज्ञात इति सूत्रपङ्कावयवार्थः । एवं च तेनोके तिम्मापियरो, सामन्नं पुत ! दुच्चरं । गुणाणं तु सहस्त्राणि धारयन्वाई भिक्खुणा ॥ २४ ॥ समया For Prata Use Only निर्युक्ति: [ ४१४... ] ~908~ broug मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||२४-४३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४५५॥ सूत्रांक ||२४-४३|| सब्वभूएसुं, सत्तुमित्तेसु वा जगे । पाणाइवायविरई, जावजीवाय दुकरं ॥ २५ ॥ निचकालऽप्पमत्तेणं, मुसा- मृगापुत्रीवायविवजणं । भासियब्वं हियं सचं, निचाउत्तेण दुफरं ॥ २६ ॥ दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । या० १९ अणवजेसणिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुकरं ॥२७॥ विरई अचंभचेरस्स, कामभोगरसत्रुणा। उग्गं महब्बयं बंभं, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥२८॥ धणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवजणं । सब्बारंभपरिचागो, निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥२९॥ चउबिहेऽवि आहारे, राईभोयणवञ्जणा । संनिहीसंचओ चेव, बजेयव्यो सुदुक्करं ॥ ३० ॥ छुहा तण्हा य सीउण्हं, दंसमसगा य वेयणा । अकोसा दुक्खसिज्जा य, तणफासा जल्लमेव य ॥३१॥ तालणा तजणा चेष, वहवंधपरीसहा । दुवं भिक्खायरिया, जायणा य अलाभया ॥ ३२॥ काबोया जा इमा वित्ती, केसलोओ अ दारुणो। दुक्खं बंभव्वयं घोरं, धारे अमहप्पणो ॥ ३३ ॥ सुहोइओ तुमं पुत्ता, सुकुमालो सुमजिओ। न हुसी पभू तुमं पुत्ता, सामन्नमणुपालिया ॥ ३४ ॥ जावलीवमविस्सामो, गुणाणं तु महन्भरो। गरुओ लोहभारु व्ब, जो पुत्ता! होइ दुब्वहो ।। ३५ ॥ आगासे गंगसोउ ब्व, पडिसोउब्व दुत्तरो। बाहाहिं H॥४५५ सागरो चेव,तरियव्वो य गुणोयही ।।३६।। वालुयाकवले चेब,निरस्साए उ संजमे । असिधारागमणं चेव, दुकरं । चरिउ तवो ॥ ३७॥ अहीवेगतदिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे । जवा लोहमया चेव, चावेयब्वा सुदुकरं ॥ ३८॥ जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होड सुदुक्करं । तह दुक्कर करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं ॥ ३९॥ जहा दुक्खं SAGAR XXXSEX दीप अनुक्रम [६३०-६५७]] JAINEducatantntaihatima For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~909~ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||२४-४३|| नियुक्ति : [४१४...] प्रत सूत्रांक ||२४-४३|| भरे जे, होइ वायस्स कुत्थलो। तहा दुक्खं करे जे, कीवेणं समणत्तणं ॥४०॥ जहा तुलाए तोले, दकर मंदरो गिरी। तहा णिहुअणीसंकं, दुकरं समणत्तणं ॥४१॥ जहा भुपाहि तरि, दुकरं रयणायरो। तहा| अणुवसंतेणं, दुक्कर दमसायरो ॥ ४२ ॥ मुंज माणुस्सए भोए, पंचलक्खणए तुमं । भुत्तभोगी तओ जाया!, पच्छा धम्म चरिस्ससि ।। ४३॥ । सूत्रविंशतिः सुगमैव, नवरं 'त'मिति बलश्रियं मृगापुत्रापरनामकं युवराज 'विति'ति बेत:-अभिधत्तः 'अम्मापियरोत्ति अम्बापितरौ श्रामण्यं पुत्र! दुश्चरं, यतस्तत्र 'गुणानां' श्रामण्योपकारकाणां शीलाङ्गरूपाणां सहस्राणि 'धारयितव्यानि' आत्मनि स्थापयितव्यानि, प्राक्तुशब्दस्यैवकारार्थस्येह सम्वन्धाद्धारयितव्यान्येव व्रतग्रहण इति गम्यते भिक्षुणा' भिक्षणशीलेन सता, पठ्यते च-मिक्खुणो'त्ति भिक्षोः सम्बन्धिनां गुणानामिति योगः। तथा 'समता' रागद्वेषाविधानतस्तुल्यता 'सर्वभूतेषु' समस्तजन्तुषु, उदासीनेबिति गम्यते, 'शत्रुमित्रेषु वा अपकार्युपकारिषु, जगति' लोके, अनेन सामायिकमुक्तं, तथा 'प्राणातिपातविरतिः' प्रथमत्रतरूपा 'जावजीव(वा य) त्ति यावज्जीवं || 'दुष्करं' दुरनुचरमेतदिति शेषः । नित्यकालाप्रमत्तेनेत्यप्रमत्तग्रहणं निद्रादिप्रमादवशगो हि मृषाऽपि भाषेतेति, नित्यायुक्तन-सततोपयुक्तेन अनुपयुक्तस्यान्यथाऽपि भाषणसंभवाद्,एतच्च दुष्करं यच्चान्वयव्यतिरेकाभ्यामेकस्याप्यर्थस्थाभिधानं तत्स्पष्टतार्थमदुष्टमेवेत्येवं सर्वत्र भावनीयम् , अनेन द्वितीयव्रतदुष्करत्वमभिहितम्। 'दंतसोहणमादिस्स'त्ति, मकारो दीप अनुक्रम [६३०-६५७]] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~910~ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||२४-४३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२४-४३|| उत्तराध्य. लाक्षणिकः, अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् 'दन्तशोधनादेरपि' अतितुच्छ स्यास्तामन्यस्य, तथाऽनवद्यैषणीयस्य दत्तस्या- मृगापुत्री पीति गम्यते 'गिण्हणत्ति ग्रहणमिति तृतीयत्रतदुष्करत्वोक्तिः । 'कामभोगरसण्णुण'त्ति कामभोगाः-उक्तरूपा-| बृहद्वृत्तिः या० १९ जास्तेषां रसः-आस्वादः कामभोगरसः यद्वा रसाः-शृङ्गारादयस्ततः कामभोगाश्च रसाच कामभोगरसास्त्रज्ज्ञेन, तदज्ञस्य | ॥४५६॥18 हि तदनवगमात्तद्विषयोऽभिलाप एव न भवेत् तथा च सुकरत्वमपि स्यादित्याशयेनैवमभिधानम् , अनेन चतुर्थ व्रतदुष्करत्वमुक्तम् । परिग्रहः-सत्सु स्वीकारस्तद्विवर्जनं, तथा सर्वे-निरवशेषा ये आरम्भाः-द्रव्योत्पादनव्यापारास्तत्प|रित्यागः, अनेन निराकाहत्यमुक्तं निर्ममत्वं च, गम्यमानत्वाचस्य, सर्वत्र ममेति बुद्धिपरिहारः, अनेन पञ्चमहाव्रत18 दुष्करतोक्ता । संनिधीयते नरकादिष्यनेनात्मेति संनिधिः-घृतादेरचितकालातिक्रमेण स्थापनं स चासी सञ्चयश्च 51 संनिधिसञ्चयः स चैव यजयितव्य इत्येतत्सदुष्करम , अनेन पष्ठत्रतदुष्करत्वमुक्तं, दिवागृहीतदिवाभुक्तादिभङ्गचतुष्ट-13 यरूपत्वात्तस्य । 'छुहे'त्यादिना परीपहाभिधानम् , अत्र च 'दंशमशकवेदना' तद्भक्षणोत्थदुःखानुभवरूपा 'दुःख१ शय्या च' विषमोन्नतत्वादिना दुःखहेतुर्वसतिः, 'ताडना' करादिभिराहननं 'तर्जना' अङ्गुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा वधश्च-लकुटादिप्रहारो बन्धश्च-मयरवन्धादिस्तावेव परीपही वधबन्धपरीपही, 'याचा प्रार्थना चकारोऽनुक्का- ४५६॥ शिंपपरीपहसमुपयार्थः, दुःखशब्दह वहःखमित्यादि प्रत्येक योजनीयः, इह च बन्धताडने वधपरीपहेऽन्तभेवतः, तजेना आक्रोशे, भिक्षाचर्या च याञ्चायां भेदोपादानं च व्युत्पत्त्यर्थमिति भावनीयं, कपोता:-पक्षिविशेषास्त दीप अनुक्रम [६३०-६५७]] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~911~ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥२४ -४३|| दीप अनुक्रम [६३० -६५७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२४-४३|| अध्ययनं [१९], Jan Education Intional पामियं कापोती येवं वृत्तिः - निर्वहणोपायः, यथा हि ते नित्यशङ्किताः कणकीटकादिग्रहणे प्रवर्त्तन्ते, एवं भिक्षुरप्येषणादोषशङ्कयेव भिक्षादौ प्रवर्त्तते सा च दुरनुचरत्वेन दारयति कातरमनांसीति दारुणेत्युत्तरेण योगः, अभिधेयवशाच लिङ्गविपरिणामः, उपलक्षणं चैतत्समस्तोत्तरगुणानामिति, यथेह ब्रह्मन्नतस्य पुनर्दुर्द्धरत्याभिधानं तदस्याति| दुष्करत्वख्यापनार्थम् ॥ उपसंहारमाह - सुखं - सातं तस्योचितो - योग्यः सुखोचितः 'सुकुमारः' अकठिनदेहः 'सुमजितः' सुष्ठु त्रपितः सकलनेपथ्योपलक्षणं चैतत् इह च सुमज्जितत्वं सुकुमारत्वे हेतुः, उभयं चैतत्सुखोचितत्वे, अतश्च 'न हुसि'त्ति नैव असि भवसि 'प्रभुः' समर्थः 'श्रामण्यम्' अनन्तरोदितगुणरूपम् 'अणुपा लेउ' न्ति अनुपालयितुम्, इह च सुखोचितत्वाभिधानमनीदृशो हीदृशं दुःखमपि न दुःखमिति मन्यते ॥ पुनरप्रभुत्वमेवोदाहरणैः समर्थयितुमाह- 'अविश्रामः' यत्रोद्धृते न विश्रम्यते 'गुणानां' यतिगुणानां 'तुः' पूरणे 'महाभरः' महासमूहो गुरुको लोहभार इव यो दुर्बहः स वोढव्य इति शेषः, त्वं तु सुखोचित इत्यतो न प्रभुरसीत्युत्तरत्रापि योजनीयम् ॥ आकाशे गङ्गाश्रोतोवद् दुस्तर इति योज्यते, लोकरूढ्या चैतदुक्तं, तथा प्रतिश्रोतोवत्' यथा प्रतीपं जलप्रवाहो 'दुस्तरः' दुःखेन तीर्यत इति, बाहुभ्यां 'सागरो चेव'ति सागरयच दुस्तरो यः सः 'तरितव्यः' पारगमनायावगाहयितव्यः कोऽसौ ?, गुणाः - ज्ञानादयस्त उदधिरिव गुणोदधिः, कायवाङ्मनोनियत्रणा चात्र दुष्करत्वे हेतुः, 'निराखादः' नीरसो विषयगृद्धानां वैरस्यहेतुत्वात् ॥ 'अही' त्यादि, अहिरिकोऽन्तो- निश्चयो यस्याः सा तथा, For PP Use On निर्युक्तिः [४१४... ] ~912~ janibrary मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२४ -४३|| दीप अनुक्रम [६३० -६५७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४५७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२४-४३|| अध्ययनं [१९], Jain Education intimal सा चासो दृष्टिक्षैकान्तदृष्टिस्तया - अनन्याक्षिप्तया, अहिपक्षे दशा, अन्यत्र तु वुद्ध्योपलक्षितम्, एकान्तदृष्टिकं वा चारित्रं दुश्वरं विषयेभ्यो मनसो दुर्निवारत्वादिति भावः, 'जबा लोहमया चैवत्ति एवकारस्योपमार्थत्वाद्यया लोहमया इव चर्वयितव्याः किमुक्तं भवति ? - लोहमययवचर्वणवत्सुदुष्करं चारित्रम् | 'अग्निशिखा' अभिज्वाला 'दीते' त्युज्ज्वला ज्वालाकराला वा, द्वितीयार्थे चात्र प्रथमा, ततो यथाऽग्निशिखां दीसां पातुं सुदुष्करं, नृभिरिति गम्यते, यदिवा लिङ्गव्यत्ययात् सर्वधात्वर्थत्वाच करोतेः 'सुदुष्करा' सुदुःशका यथाऽग्निशिखा दीसा पातुं भवतीति योगः, एवमुत्तरत्रापि भावना, 'जे' इति निपातः सर्वत्र पूरणे, कोत्थल इह वस्रकम्बलादिमयो गृह्यते, चर्ममयो हि सुखेनैव त्रियेतेति, 'क्लीवेन' निःसत्वेन 'निभृतं निःशङ्क' मित्यत्र निभृतं निश्चलं विषयाभिलापादिभिरक्षोभ्यं 'निःशङ्कं शरीरादिनिरपेक्षं शङ्काख्यसम्यक्त्वातिचारविरहितं वा ॥ १८ 'अनुपशान्तेन' उत्क टकषायेण, इह च दमसागर इत्यनेन प्राधान्यख्यापनार्थ केवलस्यैवोपशमस्य समुद्रोपमाभिधानं, पूर्वत्र तु गुणोदधिरित्यनेन निःशेषगुणानामिति न पौनरुक्त्यं ॥ यतश्चैवं तारुण्ये दुष्करा प्रब्रज्याऽतो भुङ्गेत्यादिना पितरौ कृत्योउपदेशं ब्रूतः, भुज्यन्त इति भोगास्तान् 'पञ्चलक्षणकान्' शब्दादिपञ्चकस्वरूपान् 'ततः' इति भोगभुक्तेरनन्तरं 'जाय'ति जातपुत्रः 'पश्चादि'ति वार्द्धक्ये 'चरिस्ससित्ति चरेरिति विंशतिसूत्रावयवार्थः ॥ २४-४३ ॥ सम्प्रति तद्वचनानन्तरं यन्मृगापुत्र उक्तवांस्तदाह For PP Use On निर्युक्ति: [ ४१४... ] ~913~ मृगापुत्री या० १९ ॥४५७॥ www.ncbar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||४४-७४||| नियुक्ति : [४१४...] (४३) प्रत * सूत्रांक ॥४४ *5 -७४|| | तं वितऽम्मापियरो,एवमेयं जहाफुडं। इहलोगे निप्पिवासस्स,नत्थि किंचिवि दुक्करं ॥४४॥ सारीरमाणसा। चेव, वेयणा उ अणंतसो । मए सोढाओ इं] भीमाओ[६], असई दुक्खभयाणि य ॥ ४५ ॥ जरामरणकतारे, चाउरते भयागरे। मया सोढाणि भीमाई, जम्माई मरणाणि य॥४६॥ जहा इहं अगणी उण्हो, हत्तोऽणतगुणो तहिं । नरएसु वेयणा उपहा, अस्साया वेइया मए ॥४७॥ जहा इहं इमं सीयं, इत्तोऽणतगुणं तहिं । नरएम दावेयणा सीया, अस्साया वेइया मए । ४८ ॥ कंदतो कंदुकुंभीसु, उद्धपाओ अहोसिरो। हुयासणे जलंतंमि, पक्कपुब्बो अणंतसो ॥४९॥ महादवग्गिसंकासे, मरूमि वहरवालुए। कालंववालुआए उ, दहपुब्वो अणंतसो ॥५०॥रसंतो कंदुकुंभीसु, उहुं बद्धो अवंधवो । करवत्सकरकयाईहिं, छिन्नपुव्यो अणंतसो ॥५१॥ अइतिक्खकंटगाइण्णे, तुंगे सिंबलिपायवे । खेवियं पासबद्धेणं, कडोकहाहि दुक्करं ॥५२॥ महाजंतेसु उच्छ्वा , आरसंतो सुभेरवं । पीलिओमि सकम्मेहिं, पावकम्मो अर्णतसो ॥५३॥ कुवंतो कोलसुणएहिं, सामेहिं सबलेहि य । पाडिओ फालिओ छिन्नो, विष्फुरंतो अणेगसो ॥५४॥ असीहिं अयसिवण्णेहिं, भल्लीहिं पहिसेहि य । छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य, उववन्नो पावकम्मुणा ।। ५५ ।। अवसो लोहरहे जुत्तो, जलते समिलाजुए। चोइओ तुत्तजुत्तेहि, रुज्झो वा जह पाडिओ॥५६॥ हुआसणे जलंतमि, चिआसु महिसो विव । दद्धो एको अ अवसो, पावकम्महिं पाविओ ॥ ५७ ॥ वला संडासतुंडेहि, लोहतुंडेहिं पक्खिहिं । विलुत्तो विल दीप अनुक्रम [६५८ -६८८] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~914~ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||४४-७४|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४४ -७४|| -*-* उत्तराध्य. तोऽहं, ढंकगिद्धेहिंऽणतसो ॥५८ ॥ तण्हाकिलंतो धावतो, पत्तो वेयरणिं नई । जलं पाहंति चिंतंतो, मृगापुत्री खुरधाराहिं विवाइओ॥ ५९॥ उपहाभितत्तो संपत्तो, असिपत्तं महावणं । असिपत्तेहिं पडतेहि, छिन्न-1 बृहद्वृत्तिः पुग्यो अणेगसो ॥ ६० ॥ मुग्गरेहिं मुसुंदीहिं, सूलेहिं मुसलेहि य । गयासंभग्गगत्तेहिं, पत्तं दुक्खं अणं या०१९ ॥४५॥ तसो ॥३१॥ खुरेहिं तिक्खधाराहि, चुरियाहिं कप्पणीहि य । कपिओ फालिओ छिन्नो, उक्वित्तो अ अणे गसो ॥६२॥ पासेहिं कूडजालेहिं, मिओ वा अवसो अहं । वाहिओ बद्धरुद्धो अ, विवसो चेव विवाइओ ॥६३॥ गलेहिं मगरजालेहिं, वच्छो वा अवसो अहं । उल्लिओ फालिओ गहिओ, मारिओ अ अणंतसो ॥३४॥ विदसएहिं जालेहि, लिपाहिं सउणो विव । गहिओ लग्गो अ बद्धो अ, मारिओ अ अणंतसो ॥६५॥ कुहाडपरसुमाईहिं, वहुईहिं दुमो विव । कुहिओ फालिओ छिन्नो, तच्छिओ अ अणंतसो ॥६६॥ चवेडमुहिमाईहिं, कुमारेहिं अयं पिव । ताडिओ कुडिओ भिन्नो, चुपिणओ अ अर्णतसो ॥६७॥ तत्ताई तंबलोहाई, तउआई सीसगाणि य । पाइओ कलकलंताई, आरसंतो सुभेरवं ॥ ६८ ॥ तुहप्पियाई मंसाई, खंडाई मुल्ल*गाणि य । खाविओ मि समंसाई, अग्गिवण्णाणेगसो॥६॥ तहं पिया सरा सीह. मेरओ अ महणि या ॥५॥ |पजिओ मि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य ||७०॥ निचं भीएण तत्धेणं, दुहिएणं वहिएणय । परमा दुहसंबद्धा, वेयणा वेड्या मए ॥ ७१ ॥ तिब्वचंडप्पगाढाओ, घोराओ अहदुस्सहा । महन्भयाओ भीमाओ, नरएसं. - दीप अनुक्रम * [६५८ -६८८] IM AIMEducatan intimational For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~915~ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [-] / गाथा ||४४-७४|| नियुक्ति: [४१४...] प्रत 525 सूत्रांक ॥४४ AchARCRACK -७४|| वेझ्या मए ॥ ७२ ॥ जारिसा माणुसेलोए, ताया! दीसंति बेयणा । इत्तो अणंतगुणिया, नरएसुं दुक्खवेयणा ॥७३॥ सव्यभवेसु अस्साया, वेयणा वेड्या मए । निमिसंतरमित्तंपि, जं साया नस्थि वेपणा ॥ ७४ ॥ | सूत्राण्येकत्रिंशत् प्रतीतान्येव, नवरं 'तद्' अनन्तरोक्तं 'विति' 'ब्रुवन्ती' अभिदधती अम्बापितरौ, प्रक्रमान्मृ|गापुत्र आह, यथा एषमित्यादि, पठ्यते च,-'सो बेअम्मापियरो।' ति स्पष्टमेव नवरमिह अम्बापितरावित्यामन्त्रणपदं, पठन्ति च-'तो बेंतऽम्मापियरों'त्ति 'विति'त्ति बचनव्यत्ययात्ततो ब्रूते अम्बापितरौ मृगापुत्र इति प्रक्रमः, 'एवं मिति यथोक्तं भवद्भ्यां तथा 'एतत्' प्रव्रज्यादुष्करत्वं 'यथास्फुट' सत्यतामनतिक्रान्तमवितथमितियावत् , तथापीहलोके 'निष्पिपासव' निःस्पृहस्य, इहलोकशब्देन च 'तात्स्थ्यात्तथपदेश' इतिकृत्वा ऐहलौकिकाः खजनधनसम्बन्धादयो गृह्यन्ते, 'नास्ति' न विद्यते 'किश्चित्' अतिकष्टमपि शुभानुष्ठानमिति गम्यते, अपिः' संभावने 'दुष्कर' दुरनुष्ठेयं,मोगादिस्पृहायामेवास्य दुष्करत्वादिति भावः॥ निःस्पृहताहेतुमाह-'शारीरे'त्यादिना,तत्राप्याद्यसूत्रद्वयेन सामान्येन संसारस्य दुःखरूपत्वमुक्तम् ,इह च शरीरमानसयोर्भवाः शारीरमानस्यो वेदनाः प्रस्तावादसातरूपाः 'दुक्खभयाणि यत्ति दुःखोत्पादकानि राजविड्डरादिजनितानि (भयानि) दुःखभयानि, जरामरणाभ्यामतिगहनतया कान्तारं जरामरणकान्तारं तस्मिंश्चत्वारो-देवादिभवा अन्ता-अवयवा यस्यासी चतुरन्तः-संसारः तत्र 'सोढानि' तदुत्थवेद नासहनेनानुभूतानि 'भीमानि' अतिदुःखजनकत्वेन रौद्राणि ॥ शारीरमानस्यो वेदना यत्रोत्कृष्टाः सोढा दीप अनुक्रम [६५८ -६८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 916~ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४४ -७४|| दीप अनुक्रम [६५८ -६८८] उत्तराध्य. बृहद्वृतः ॥ ४५९॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४४-७४|| अध्ययनं [१९], Jain Education intamation यथेत्यादिभिः सूत्रैस्तदाह-यथा 'इह' मनुष्यलोकेऽग्निरुष्णोऽनुभूयते 'अत' इत्येवमनुभूयमानादनन्तगुणः 'तहिं'ति तेषु येष्वहमुत्पन्न इति भावः, तत्र च चादराभेरभावात्पृथिव्या एव तथाविधः स्पर्श इति गम्यते, ततश्चोष्णानुभवात्मकत्वेन 'असातः' दुःखरूपा वेदिता मया, पठन्ति च- 'इत्तोऽणंतगुणा तहिं'ति, अत्र चातः - इहत्याग्नेरनन्तगुणा नरके| पूष्णा वेदना वेदिता मयेति योज्यम् ॥ तथा 'इदं यदनुभूयते 'इह' मनुष्यलोके 'शीतं' तच्च माघादिसंभवं हिमकणानुषक्तमात्यन्तिकं परिगृह्यते, इहापि पठन्ति - 'एतोऽणतगुणा तर्हि 'ति प्राग्वत्, 'कंदुकुम्भीषु' पाकभाजनविशेष| रूपासु लोहादिमयीषु 'हुताशने' अग्नौ देवमायाकृते, महादवाग्निना संकाशः सदृशोऽतिदाहकतया महादवानिसकाशस्तस्मिन् इह चान्यस्य दाहकतरस्यासंभवादित्थमुपमाभिधानम्, अन्यथेह त्याग्रनन्तगुण एव तत्रोष्ण पृथिव्य - "नुभाव उक्तः, 'मरौ' इति मरुवालुकानिवह इव तात्स्थ्यात्तद्यपदेशसंभवादन्तर्भूतेयार्थत्वाचात एव वज्रवालुकानदीसम्वन्धिपुलिनमपि वज्रवालुका तत्र, यद्वा वज्रवद्वालुका यस्मिंस्त (स्मिन् स त ) था तस्मिन्नरकप्रदेश इति गम्यते, 'कदम्बवालुकायां च ' तथैव कदम्बवालुकानदीपुलिने च महादवाभिसङ्काश इति योज्यते । 'ऊर्द्धम्' उपरि वृक्षशाखादौ 'बद्धः' नियत्रितो माऽयमितो नङ्गीदित्यवान्धव इति च तत्राशरणतामाह, करपत्रं प्रतीतं क्रकचमपि तद्विशेष एव 'खेदियं 'ति खिन्नं खेदः क्लेशोऽनुभूतः क्षिपितं वा पापमिति गम्यते, 'कहोकडाहिं ति कर्षणापकर्षणैः परमाधार्मिककृतैः | 'दुष्करम्' इति दुस्सहम् ॥ 'उच्छू व'ति वाशब्द उपमार्थे, तत इक्षुरिव 'आरसन्' आक्रन्दन् 'स्वकर्मभिः' हिंसादुपार्जितै For PP Use On निर्युक्तिः [४१४... ] ~917~ मृगापुत्री या० १९ ॥ ४५९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||४४-७४|| नियुक्ति : [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४४ -७४|| कानावरणादिभिः 'पापकर्मा' पापानुष्ठानः॥ 'कूवंतो'त्ति कूजन 'कोलसुणएहिंति सूकरखरूपधारिभिः श्यामैः शबलैश्च परमाधार्मिकविशेषः 'पातितो' भुवि 'फाटितो' जीर्णवस्त्रवत् 'छिन्नो' वृक्षवदुभयदंष्ट्रादिभिरिति गम्यते 'विस्फुरन् । इतस्ततश्चलन् 'अरसाहिति प्रहरणविशेषैः, पठ्यते च-'असीहिंति 'असिभिः' खरैः अत एव 'अतसी'सतसीपुष्पं तद्वर्णाभिः-कृष्णाभिः 'पहिशैश्च' प्रहरणविशेषैः 'छिन्नः' द्विधाकृतः 'भिन्नः' विदारितः 'विभिन्नः' सूक्ष्मखण्डीकृतः,IA यद्वा छिन्नः' ऊर्दू 'भिन्नः' तिर्यग् 'विभिन्नः' विविधप्रकारे तिर्यक्च अवतीर्णो नरक इति गम्यते,पापकर्मणेति हेतु-13 दर्शनं पापानुष्ठानपरिहार्यताख्यापनार्थम् । 'लोहरथे' लोहमयशकटे 'जुत्तो'त्ति युजेरन्त वितण्यर्थत्वाद्योजितः परमाधार्मिकैरिति सर्वत्र गम्यते, 'ज्वलति' दीप्यमाने, कदाचिद्दाहभीसा ततो नश्येदपीत्याह-समिलोपलक्षित l युगं यस्मिन् स तथा तत्र समिलायुते वा, पाठान्तरतश्च ज्वलत्समिलायुगे, 'चोइओ'त्ति प्रेरितः 'तोत्रयोकै' प्राज-12 नकबन्धनविशेषैर्मर्माघटनाहननाभ्यामिति गम्यते, 'रोज्झः' पशुविशेषः 'या' समुच्चये भिन्नक्रमः 'यथा' औपम्ये ततो रोज्झवत्पातितो वा लकुटादिपिट्टनेनेति गम्यते,हुताशने ज्वलति,केत्याह-'चितासु' परमाधार्मिकनिर्मितेन्धनसञ्च-15 यरूपासु 'महिसो विव'त्ति, 'पिव मिव विव वा इवार्थे' इति वचनात् , महिष इव 'दग्धः' भस्मसात्कृतः 'पक्क भटित्रीकृतः 'पावितो'त्ति पापमस्यास्तीति भूम्नि मत्वर्थीयष्ठक पापिकः 'बलात्' हठात् संदंशः-प्रतीतस्तदाकृतीनि तुण्डानि-मुखानि येषां ते संदंशतुण्डास्तैः, तथा लोहयनिष्ठुरतया तुण्डानि येषां तैलॊहतुण्डैः 'पक्खिहिं'ति पक्षि दीप अनुक्रम [६५८-६८८] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~918~ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४४ -७४|| दीप अनुक्रम [६५८ -६८८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४६०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||४४-७४|| अध्ययनं [१९], भिर्दङ्करद्धैरिति योगः, एते च वैक्रिया एव, तत्र तिरश्चामभावात्, 'विलुप्सः' विविधं छिन्नः॥ तस्य चैवं कदर्थ्यमा नस्य तृडत्पत्तौ का वार्सेत्याह- तृष्णया क्लान्तो- ग्लानिमुपगतस्तृष्णाक्लान्तः 'पाहंती'ति पास्यामीति चिन्तयन् 'खुरधाराहि'न्ति क्षुरधाराभिरतिच्छेदकतया वैतरणीजलोम्मिभिरिति शेषः, विपाटितः, पाठान्तरतश्च विपादितःव्यापादित इत्यर्थः, उष्णेन-वज्रवालुकादिसम्बन्धिना तापेनाभि- आभिमुख्येन तप्त उष्णाभितसः संप्राप्तोऽसयःखगास्तद्वद्भेदकतया पत्राणि-पर्णानि यस्मिंस्तदसिपत्रं, 'मुद्गरादिभिः' आयुधविशेषैर्गता -- नष्टा आशा - परित्राणगोचरमनोरथात्मिका यत्र तद्गताशं यथा भवत्येवं 'भग्गगत्तेहिं ति भग्नगात्रेण सता प्राप्तं दुःखमिति योगः, कल्पितः वस्त्रवत् खण्डितः कल्पनीभिः पाटितः द्विधाकृतः ऊर्द्ध छुरिकाभिरिछन्नः खण्डितः क्षुरैरिति पश्चानुपूर्व्या सम्बन्धः, इत्थं च 'उक्कंतो य'ति उत्क्रान्तश्चायुःक्षये मृतचेत्यर्थः, पाठान्तरतो वोत्कृतः - त्वगपनयनेन प्रत्येकं वा क्षुरादिभिः कल्पितादीनां सम्बन्धः ॥ 'पाशैः कूटजालैः' प्रतीतैरेव बन्धनविशेषैः 'अवशः' परवशः 'वाहितः' विप्रलब्धः, पठ्यते च - 'गहितो 'ति गृहीतो बद्धो बन्धनेन रुद्धो बहिः प्रचारनिषेधनेन, अनयोर्विशेषणसमासः, 'विवाइतो 'ति विपादितो विनाशित इत्यर्थः, तथा 'गलैः' बडिशेर्मकरैः - मकराकारानुकारिभिः परमाधार्मिकैर्जालैश्च तद्विरचितेविक्रियैरनयोर्द्वन्द्वः, समूहवाची वा जालशब्दस्तत्पुरुषश्च समासः, तथा 'उलिउ'त्ति आर्षत्वाद् उल्लिखितो गलैः पाटितो मकरैर्गृहीतश्च जालैः, यद्वा गृहीतोऽपि मकरजालैरेव मारितश्च सर्वैरपि विशेषेण दशन्तीति विदेशका: For PP Use On निर्युक्तिः [४१४... ] ~919~ मृगापुत्री या० १९ ॥४६०॥ jancibrary und मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||४४-७४||| नियुक्ति : [४१४...] प्रत सूत्रांक ॥४४ -७४|| श्येनादयस्सर्जालैः--तथाविधबन्धनैः 'लेप्पाहिति लेपैर्वज्रलेपादिभिः श्लेषद्रव्यैः 'सउणोविव'त्ति 'शकुन इव' पक्षीव । गृहीतो विदंशकैर्जालैश्च लमश्च 'श्लिष्टो' लेपद्रव्यैर्वद्धः, तैर्जालैश्च, मारितश्च सर्वैरपि, 'कुट्टितः' सूक्ष्मखण्डीकृतः पाटितश्छिन्नश्च प्राग्वत् ,तक्षितश्च त्वगपनयनतो द्रुम इवेति सर्वत्र योज्याचवेडमुट्ठिमाईहिं ति चपेटामुष्ट्यादिभिः प्रती तैरेव 'कुमारैः' अयस्कारैः 'अयं पिपत्ति अय इव घनादिभिरिति गम्यते 'ताडितः' आहतः 'कुट्टितः' इह छिन्त्रः 4 'भिन्नः' खण्डीकृतः 'चूर्णितः' श्लक्ष्णीकृतः प्रक्रमात्परमाधार्मिकः तप्तताम्रादीनि क्रियाणि पृथव्यनुभावभूतानि वा 'कलकलंत'ति अतिकायतः कलकलशब्दं कुर्वन्ति॥ तव प्रियाणि मांसानि खण्डरूपाणि 'सोल्लगाणिति भडित्री कृतानि स्मारयित्वेति शेषः,स्वमांसानि मच्छरीरादेवोत्कृत्योत्कृत्य ढौकितानि 'अग्निवर्णानि' अतितप्ततयाऽग्निच्छायानि ४ सुरादीनि मद्यविशेषणरूपाणि, इहापि स्मारयित्वेति शेषः, 'पजितोमिति पायितोऽस्मि 'जलंतीओ'त्ति ज्वलन्तीदारिच ज्वलन्तीरत्युष्णतया यशा रुधिराणि च,ज्वलन्तीति लिङ्गविपरिणामेन सम्बन्धनीयम् ॥ णिच' मित्यादि, नरक वक्तव्यतोपसंहर्तृ सूत्रत्रयम् ,अत्र च 'भीतेन' उत्पन्नसाध्वसेन तथा 'त्रसी उद्वेगे' 'त्रस्तेन' उद्विग्नेनात एव 'दुःखितेन' |संजातविविधदुःखेन 'व्यथितेन च' कम्पमानसकलाङ्गोपाङ्गतया चलितेन,दुःखसंबद्धेति वेदनाविशेषणं सुखसम्बन्धिन्या अपि वेदनायाः सम्भवाद्, 'वेदिते ति चानुभूता, तीत्रा अनुभागतोऽत एव चण्डाः-उत्कटाः प्रगाढाः-गुरुस्थितिकास्तत एव 'घोराः' रौद्राः 'अतिदुस्सहाः' अत्यन्तदुरध्यासास्तत एव च महद्भयं यकाभ्यस्ता महाभयाः, दीप अनुक्रम [६५८ -६८८] AIMEducatan intimation For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~920~ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [-] / गाथा ||४४-७४|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥४४ -७४|| उत्तराध्य. पठ्यते च-महालया:-महत्यः, 'भीमाः' श्रूयमाणा अपि भयप्रदाः, एकार्थिकानि वैतान्यत्यन्तभयोत्पादनायोक्तानि, मृगापुत्रीवृहद्वृत्तिः ॥ इह च वेदना इति प्रक्रमः ॥ कथं पुनस्तस्यास्तीत्रादिरूपत्वमित्याशङ्कय 'जारिसे' त्यादिना इहत्यवेदनापेक्षया नरक-18 |दुःखवेदनाया अनन्तगुणत्वमाह, वेयणत्तिप्रक्रमाद् दुःखवेदना ॥ न केवलं नरक एव दुःखवेदना मयाऽनुभूता किन्तु ॥४६॥ सर्वाखपि गतिष्विति पुनर्निगमनद्वारेणाह-सवे' त्यादिना, इह च 'असाता' दुःखरूपा निमेषः-अक्षिनिमीलन तस्यान्तरं-व्यवधानं यावता कालेनासौ भूत्वा पुनर्भवति तन्मात्रमपि-तत्परिमाणमपि कालमिति शेषः 'यद्' इति यस्मात् 'साता' सुखरूपा नास्ति वेदना, तत्त्वतो वैषयिकसुखमसुखमेव, ईर्ष्याद्यनेकदुःखानुविद्धत्वाद्विपाकदारुणत्वाच ॥सर्वस्य चास्य प्रकरणस्यायमाशयः-य एवमहं निमेषान्तरमात्रमपि कालं न सुखं लब्धवान् स कथं तत्त्वतः सुखो|चितः सुकुमारो वेति शक्यते वक्तुं ?, येन च नरकेष्वत्युष्णशीतादयो महावेदना अनेकशः सोडास्तस्य महाव्रतपालन क्षुदादिसहनं वा कथमिव बाधाविधायि ?, तत्त्वतस्तस्य परमानन्दहेतुत्वात् ,तत्प्रवज्यैव मया प्रतिपत्तव्येत्येकत्रिंशत्सू-181 त्रावयवार्थः । तत्रैवमुक्त्वोपरते ॥४६शा तं चिंतऽम्मापियरो, छंदेणं पुत्त ! पब्वया । नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ ७ ॥ a 'त' मृगापुत्रं ब्रूतोऽम्बापितरौ छन्दः-अभिप्रायस्तेन खकीयेनेति गम्यते, किमुक्तं भवति ?-यथाऽभिरुचितं पुत्र! दीप अनुक्रम [६५८ -६८८] PHOTREPvataimonth wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~921~ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||७५|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) +%86-%ASA प्रत सूत्रांक ||७५|| प्रवज' प्रप्रजितो भव, 'नवरम्' इति केवलं 'पुनः' विशेषणे 'श्रामण्ये' श्रमणभाये 'दुःखं दुःखहेतुः 'निष्प्रतिकमता' कथञ्चिद्रोगोत्पत्तौ चिकित्साऽकरणरूपेति सूत्रार्थः ॥ इत्थं जनकाभ्यामुक्ते सो वितऽम्मापियरो !, एवमेयं जहाफुडं। परिकम्मं को कुणई, अरन्ने मिगपक्खिणं? ॥ ७६ ॥ एगभूओ की अरन्ने वा, जहा ऊ चरई मिगो । एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ।। ७७ ॥ जया मिगस्स आयको, महारपणमि जापई । अच्छतं रुक्खमूलंमि, को णं ताहे चिगिच्छई ? ॥७८ को वा से ओसह देह को वा से पुच्छई सुहं । को से भत्तं व पाणं वा, आहरित्तु पणामई ॥७९॥ जया य से सुही होइ, तया गच्छा गोअरं । भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य ॥८॥ खाइसा पाणियं पार्ड, वल्लरेहिं सरेहि य । मिग-1 चारियं चरित्ता णं, गच्छई मिगचारियं ॥८१॥ एवं समुट्ठिए भिक्खू, एवमेव अणेगए । मिगचारियं चरित्ता णं, उहुं पक्कमई दिसं १८२॥ जहा मिए एग अणेगचारी, अणेगवासे धुवगोअरे अ । एवं मुणी गोयरियं पविढे, नो हीलए नोवि य खिंसइज्जा ॥८३॥ 'स' इति युवराजः 'बिन्ति'त्ति आपत्वाद् ब्रूतेऽम्बापितरौ, यथैतन्निप्रतिकर्मताया दुःखरूपत्वं युवाभ्यामुक्त यथास्फुटमिति प्राग्वत्, परं परिभाव्यतामिदं-परिकर्म रोगोत्पत्ती चिकित्सारूपं कः करोति !, न कश्चिदित्यर्थः, क-अरण्ये, केषां -मृगपक्षिणाम्, अथचैतेऽपि जीवन्ति विचरन्ति च, ततः किमस्या दुःखरूपत्वमिति भावः, दीप अनुक्रम [६८९]] For PATREPIVanupontv Parencibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~922~ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [--] / गाथा ||७६-८३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक R ||७६ -८३|| उत्तराध्य. यतश्चैवमतः ‘एगे'त्यादि सर्व स्पष्टमेव, नवरम् ‘एकभूतः' एकत्वं प्राप्तोऽरण्ये, 'वेति वा पूरणे 'जहा उत्ति यथैव | मृगापुत्रीबृहद्धृत्तिः है एवमित्येकभूतः संयमेन तपसा चेति धर्मचरणहेतुः, यदा 'आतङ्कः' आशुघाती रोगो, 'महारण्य' इति महाग्रहणम या०१९ महति बरण्येऽपि कश्चित्कदाचित्पश्येत् दृष्ट्वा च कृपातश्चिकित्सेदपि, श्रूयते हि केनचिद्भिपजा व्याघ्रस्य चक्षुरुद्॥४६२॥ घाटितमटव्यामिति, वृक्षमूल इति तथाविधावासाभावदर्शनं, 'को गं'ति 'अचां सन्धिलोपी बहुल मितिवचनादज | लोपे क एनं 'तदा' आतङ्कोत्पत्तिकाले चिकित्सति-औषधाद्युपदेशेन नीरोगं कुरुते ?, न कश्चिदित्यर्थः, चिकित्सके|| चासति को वेति वाशब्दः समुच्चये औषधं ददातीत्येवमुत्तरोत्तराप्राप्तिरुपदर्शनीया ॥ आहरितु'त्ति आहृत्य 'प्रणामयेत् अपयेत् , अर्पः पणाम' इति वचनात् ।। कथं तर्हि तस्य निर्वहणमित्याह-यदा स सुखी भवति,खत एव रोगाभाव इति दिगम्यते, 'गच्छति' याति गौरिव परिचितेतरभूभागपरिभावनारहितत्वेन चरण-भ्रमणमस्मिन्निति गोचरस्तं भक्तमिव भक्तं तद्भक्ष्य-तृणादि तच पानं च भक्तपानं तस्य 'अर्थाय' प्रयोजनाय, गोचरमेव विशेषत आह-वल्लराणि' गहनानि, उक्तश्च-"गहणमवाणियदेसं रणे छेत्तं च वल्लरं जाण" 'सरांसि च' जलस्थानानि । खादित्वा निजभक्ष्यमिति गम्यते, वल्लरेषु सरःसु वेति सुव्यत्ययेन नेयं, तथा मृगाणां चर्या-इतश्चेतचोत्लवनात्मकं चरणं मृगचयों तां, ४५सा "मितचारिता' वा परिमितभक्षणात्मिका 'चरित्वा' आसेव्य परिमिताहारा एव हि खरूपेणव मुगा भवन्ति, विशे-14 पाभिधायित्वाच न पौनरुक्त्य, ततश्च 'गच्छति' याति मृगाणां चर्या-चेष्टा स्वातन्त्र्योपवेशनादिका यस्यां सा मृगच दीप अनुक्रम - [६९० EPROS -६९७]] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~923~ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१९], मूलं [-] / गाथा ||७६-८३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७६-८३|| हैर्या-मृगाश्रयभूस्ताम् । अनेन च सूत्रपञ्चकेन दृष्टान्त उक्तः, उत्तरेण सूत्रद्वयेनात्मन्येतदुपसंहारः, इह च 'एव'मिति । मृगवत्समुत्थितः-संयमानुष्ठानं प्रत्युद्यतस्तथाविधाऽऽतकोत्पत्तावपि न कश्चित् चिकित्साऽभिमुख इति भावः, एवमेव मृगबदेव 'अणेगय'त्ति अनेकगो यथा ह्यसौ वृक्षमूले नैकस्मिन्नेवास्ते किन्तु कदाचित्वचिदेवमेषोऽप्यनियतस्थानस्थतया, पठ्यते च-'अणिएयणे ति 'अनिकेतनः' अगृहः,स चैवं मृगचर्या चरित्वा मृगवदाताभावे भक्तपानार्थ गोचरं । गत्वा तलब्धभक्तपानोपष्टम्भतश्च विशिष्टसम्यग्ज्ञानादिभावतः शुक्लध्यानारोहणादपगताशेषकाश ऊई दिशमिति सम्बन्धः प्रकर्षण कामति-गच्छति प्रक्रामति, किमुक्तं भवति ?-सर्वोपरिस्थानस्थितो भवति, नित इतियावत् , ह एवं च निवृतिरेवेह मृगचर्योपमार्धत उक्ता, तत्र हि मृगोपमा मुनय इत इतश्चाप्रतिवद्धविहारितया विहृत्य गच्छदन्तीति ॥ मृगचर्यामेव स्पष्टयितुमाह-यथा मृगः 'एग'त्ति 'एकः' अद्वितीयः 'अनेकचारी' नेकत्रैव भक्तपानार्थ चर-12 तीत्येवंशीलः, 'अनेकवासः' नैकत्र वासः-अवस्थानमस्यास्तीति, 'ध्रुवगोचरश्च' सर्वदा गोचरलब्धमेवाहारमाहार४ यतीति, एवं' मृगवदेकत्वादिविशेषणविशिष्टो मुनिः 'गोचयों भिक्षाटनं प्रविष्टो न 'हीलयेद्' अवजानीयात् कद शनादीति गम्यते, नापि च 'खिंसएज'त्ति निन्देत्तथाविधाहाराप्राप्तौ खं परं वा । इह च मृगपक्षिणामुभयेषामुपआक्षेपे यन्मृगस्यैव पुनः पुनदृष्टान्तत्वेन समर्थनं तत्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदाय इति सूत्राष्टकार्थः ॥ एवं मृगचर्याखरूपमुक्त्वा यत्तेनोक्तं यच पितृभ्यां पितृवचनानन्तरं च यदसौ कृतवांस्तदाह दीप अनुक्रम [६९० -६९७]] AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~924~ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-] / गाथा ||८४-८७|| नियुक्ति: [४१४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८४ उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४६॥ -८७|| दीप अनुक्रम मिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता! जहासुहं । अम्मापिऊहिंऽणुपणाओ, जहाइ उवहिं तओ ॥ ८४॥ मृगापुत्रीमिगचारियं चरिस्सामो, सब्वदृक्खविमुक्खणि। तुम्भेहिं अम्ब ! अणुण्णाओ,गच्छ पुत्त!जहासुहं ॥८६॥ एवं & या० सो अम्मापियरं,अणुमाणित्ता ण बहुविहं । ममतं छिंदई ताहे,महानागुब्व कंचुयं ॥८६॥ इही वित्तं च मित्तेय, |पुत्तदारं च नायओ । रेणुअं व पडे लग्गं, निद्भुणित्ता ण निग्गओ ॥ ८॥ गाथा चतुष्टयं स्पष्टमेव,नवरं मृगस्येव चर्या-चेष्टा मृगचर्या तां निष्प्रतिकर्मतादिरूपां चरिप्यामीति बलश्रिया युवराजेनोक्त पितृभ्यामभाणि-एवं यथा भवतोऽभिरुचितं तथा यथासुखं तेऽस्त्विति शेषः, एवं चानुज्ञातः सन् 'जहाति' त्यजति उपधिम्-उपकरणमाभरणादि द्रव्यतो भावतस्तु छमादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रत्रजतीत्युक्तं भवति । उक्तमेवार्थ सविस्तरमाह-'सबदुक्खविमोक्खणि' सकलासातविमुक्तिहेतुं 'तुभेहि ति युवाभ्यामम्ब ! उपलक्षणत्वात्पितश्च 'अनुज्ञातः' अनुमतः सन् , तावाहतुः-गच्छ मृगचर्ययेति प्रक्रमः पुत्र ! 'यथासुखं | सुखानतिक्रमेण । 'अनुमन्य' अनुज्ञाप्य 'ममत्वं' प्रतिबन्धं 'छिनत्ति' अपनयति महानाग इव कचुकं, यथाऽसावतिजरठतया चिरप्ररूढमपि कभुकमपनयति, एवमसाबपि ममत्वमनादिभवाभ्यस्तमुपलक्षणत्वात् मायादींश्च ।। अनेनान्त- ॥४६॥ रोपधित्याग उक्तः, बहिरुपधि त्यागमाह-'ऋद्धिं' करितुरगादिसम्पदं 'वित्त' द्रव्यं 'णायओ'त्ति 'ज्ञातीन्' सोदरा-12 दीन् ‘णिदुणित्त'त्ति निईयेव निईय त्यक्त्वेतियावत् 'निर्गतः' निष्क्रान्तो गृहादिति गम्यते, प्रत्रजित इति योऽधः ॥ इति सूत्रचतुष्टयार्थः । एनमेवार्थ स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत् [६९८ -७०१] Fairamineerivatimonr ~925~ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||८४-८७|| नियुक्ति: [४१५-४१८] (४३) प्रत सूत्रांक ||८४-८७|| नाऊण निच्छयमई एव करेहित्ति तेहिँ सो भणिओ। धन्नोऽसि तुम पुत्ता ! जंसि विरत्तो सुहसएसु ४१५ ॥ सीहत्ता निक्खमिउं सीहत्ता चेव विहरसू पुत्ता ! । जह नवरि धम्मकामा विरत्तकामा उ विहरन्ति४१६ नाणेण दंसणेण य चरित्ततवनियमसंजमगुणेहिं । खंतीए मुत्तीए होहि तुमं वड्डमाणो उ ॥ ४१७ ॥ संवेगजणिअहासो मुक्खगमणबद्धचिंधसन्नाहो। अम्मापिऊण वयणं सो पंजलिओ पडिच्छीय ॥४१८॥ गाथाचतुष्टयं पाठसिद्धमेव, नवरमायगाथात्रयेण एवं पुत्र ! यथासुख'मित्येतत्सूचितार्थाभिधानतो व्याख्यातं, चतुर्थगाथया त्वयशिष्टसूत्रं भावार्थाभिधानतः, 'सुखशतेभ्य' इति बहुत्योपलक्षणं शतग्रहणं, 'सीहत्ता' इति सिंहतया 'निष्क्रम्य' प्रव्रज्य सिंहतयैव विहर 'पुत्र ।' इति जात !, किमुक्तं भवति ?-यथा सिंहः खस्थानादिनिरपेक्ष एव । निष्क्रामति, निष्क्रम्य च तथैव निरपेक्षवृत्त्या विहरति, एवं त्वमपि विहरेति, 'नवरंति परं धर्म एवं कामःअभिलापो येषां ते धर्मकामाः, 'विरत्तकामे'त्ति प्राग्वत् 'कामविरक्ताः' विषयपराङ्मुखाः, 'चरित्रतपोनियमसंयमगुणैरित्यत्र चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तपःप्रभृतीनामुपदेशात्सामान्यविशेषयोश्च कथञ्चिद्भिन्नत्वाच न पौनरत्त्य, तथा संवेगो-मोक्षाभिलाषस्तेन जनितो हासो-मुखविकाशात्मकोऽस्येति संवेगजनितहासः-मुक्त्युपायोऽयं दीक्षेत्युत्सव 25 दीप अनुक्रम [६९८ -७०१] CO For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~926~ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||८४-८७|| नियुक्ति: [४१५-४१८] (४३) मृगापुत्री प्रत सूत्रांक ||८४ -८७|| उत्तराध्य. मिव तां मन्यमानः प्रहसितमुख इत्यर्थः, पठन्ति च-'संवेगजणियसद्धोति स्पष्टमेव, तथा मोक्ष-मुक्तिस्तद्गमनाय वद्धमिति-धृतं चिह्न-धर्मध्वजादि तदेव सन्नाहो-दुर्वचनशरप्रसरनिवारकः क्षान्त्यादिळ येन स तथा, 'पडिच्छी-181 हात्तः । यत्ति 'प्रत्यैपीत्' प्रतिपन्नवानिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ ततोऽसौ कीटक सञ्जात इत्याह॥४६॥ पंचमहब्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो अ । सब्भितरवाहिरिए, तवोकम्ममि उज्जुओ ॥८॥ निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो। समोअ सब्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ॥८९॥ लाभालाभे सुहे दुक्खे, ४ जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ॥९०॥ गारवेसु कसाएसु, दंडसल्लभएसुर है। नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अबंधणो ।। ९१ ॥ अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ वासीचंदणकप्पो अ, असणे अणसणे तहा ॥ १२॥ अप्पसत्थेहिं दारेहि, सव्वओ पिहियासवो । अज्झ-R हप्पझाणजोगेहिं, पसत्थदमसासणो ॥१३॥ सूत्रपहूं निगदसिद्धमेव, नवरं 'सभितरवाहिरिएत्ति सहाभ्यन्तरः-प्रायश्चित्तादिभिर्वायैश्च-अनशनादिभिर्भदैर्वर्तत इति सबाह्याभ्यन्तरं तस्मिन् , प्रधानत्वाच प्रथममभ्यन्तरोपादानं ॥ 'निर्ममः' ममत्वबुद्धिपरिहारतः 'निस्सनः सङ्गहेतुधनादित्यागतः 'समश्च' न रागद्वेषवान्निर्ममत्वादेरेव ॥ लाभेत्यादिना समत्वमेव प्रकारान्तरेणाह, अत्र च 'समः। दिन लाभादी चित्तोत्कर्पभाग् नाप्यलाभादौ दैन्यवान् , जीविते मरणे समो, नैकत्राप्याकाजावान् , 'माणावमाणओं'त्ति, दीप अनुक्रम [६९८ ॥४६॥ -७०१] AIMEducatan intimational For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~927~ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-] / गाथा ||८८-९३|| नियुक्ति : [४१८...] (४३) प्रत सूत्राक ||८८ -९३|| Pमानापमानयोः, गौरवादीनि सूत्रे सुब्ब्यत्ययेन सप्तम्यन्ततया निर्दिष्टानि पञ्चम्यन्ततया व्याख्येयानि, निवृत्त इति च सर्वत्र सम्बन्धनीयम् , 'अवन्धनः' रागद्वेषवन्धनरहितः । अत एव 'अनिश्रितः' इहलोके परलोके वाऽनिश्रितो दिनेहलोकार्थ परलोकार्थ वाऽनुष्ठानवान् णो इहलोगट्ठयाए तवमहिढेजा नो परलोगट्टयाए तबमहिठूजा' इत्याद्यागमात् पुनरनिश्रिताभिधानं च मन्दमतिविनेयानुग्रहार्थमदुष्टमेव, वासीचन्दनकल्प इत्यनेन समत्वमेव विशेषत आह, वासीचन्दनशब्दाभ्यां च तद्वयापारकपुरुषावुपलक्षितौ, ततश्च यदि किलैको वास्या तक्ष्णोति, अन्यश्च गोशीर्षादिना चन्दनेनालिम्पति, तथाऽपि रागद्वेषाभावतो द्वयोरपि तुल्यः, कल्पशब्दखेह सदशपर्यायत्वात् , 'अन*शने' इति च नजाऽभावे कुत्सायां वा, ततश्चाशनस्य-भोजनस्थाभावे कुत्सिताशनभावे वा कल्पः, इह चेष्टितोऽधि काराणां प्रवृत्तिरिति पूर्वत्र समस्तमपि कल्प इत्यनुवर्तते, 'अप्रशस्तेभ्यः' प्रशंसाऽनास्पदेभ्यः 'द्वारेभ्यः' कर्मोपार्ज-II नोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः 'सर्वतः' सर्वेभ्यो य आश्रवः-कर्मसंलगनात्मकः स पिहितः-तद्वारस्थगनतो निरुद्धो| दायेनासौ पिहिताश्रयः, सापेक्षस्यापि गमकत्वात्समासः, यद्वाऽप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः सर्वेभ्यो निर्वृत्त इति गम्यते, अत एव पिहिताश्रवः, कैः पुनरयमेवंविधः ?-अध्यात्मेत्यात्मनि ध्यानयोगा:-शुभध्यानव्यापारा अध्यात्मध्यानयोगास्तैः, ४ अध्यात्मग्रहणं तु परस्थानां तेपामकिश्चित्करत्वाद, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्, प्रशस्तः प्रशंसास्पदो दमश्च-उपशमः | शासनं च-सवेज्ञागमात्मकं यस्य स प्रशस्तदमशासन इति सूत्रपवार्थः ।। सम्प्रति तत्फलोपदशेनायाह दीप अनुक्रम [७०२ [قاه - For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~928~ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||९४-९५|| नियुक्ति: [४१८...] (४३) मृगापुत्री प्रत या सूत्रांक ||९४-९५|| उत्तराध्य. एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य । भावणाहिं विमुदाहिं, सम्म भावि तु अप्पयं ॥९४ ॥ बहुयांणि|| दाउ वासाणि, सामन्नमणुपालिया। मासिएण उ भत्तेणं, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ।। ९५॥ सूत्रद्वयमुत्तानार्थमेव, नवरं 'भावनाभिः' महात्रतसम्बन्धिनीभिर्वक्ष्यमाणाभिरनित्यत्वादिविषयाभिर्वा 'विशु- द्धाभिः' निदानादिदोषरहिताभिर्भावयित्वा-तन्मयतां नीत्वा 'अप्पयंति आत्मानं, मासिएण उ भत्तेणीति मासे भवं ॥४६५॥ मासिकं तेन तुः पूरणे 'भक्तेन' भोजनेन मासोपत्रासोपलक्षकत्वादस्य मासोपवासेनेतियावत् 'सिद्धिं' निष्ठितार्थतां सकलकर्मक्षयेणेति गम्यते, 'अनुत्तरी' सकलसिद्धिप्रधानाम् , अनेनाअनसिद्धयादिव्यवच्छेदमाहेति सूत्रद्वयार्थः ॥k १ इहीत्यादिसूत्रकदम्बकस्य तात्पर्यार्थमाह नियुक्तिकृत्दइड्डीए निक्खंतो काऊं समणत्तणं परमघोरं । तत्थ गओ सो धीरो जत्थ गया खीणसंसारा॥४१९॥ सुगमैव, नवरम् , 'या' दीनानाथदानादिकया विभूत्या निष्क्रान्तः सन् 'परमघोरं' कातरजनातिशयदुरनुचर यन्त्र गताः क्षीणसंसारा इति मोक्ष इत्यभिप्राय इति गाथाऽवयवार्थः ॥ साम्प्रतं सकलाध्ययनार्थोपसंहारद्वार-13 णोपदिशन्नाह सूत्रकृत् एवं करंति संबुद्धा (संपन्ना), पंडिया पवियक्खणा । चिणियदृति भोगेसु, मियापुत्ते जहामिसी ।। ९६ ॥ हा व्याख्यातप्रायमेव, संगता प्रज्ञा येषां ते संप्रज्ञाः संपन्ना वा ज्ञानादिभिः 'जहामिसि'त्ति. मकारोऽलाक्षणिको यथेसीपम्याभिधायी 'ऋषिः' मुनिरिति सूत्रावययार्थः । इत्थमन्योक्त्योपदिश्य पुनर्भयन्तरेणोपदिशन्नाह दीप अनुक्रम [७०८-७०९] JAIMEducatamindarmational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~929~ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१९], मूलं [-]/ गाथा ||९७-९८|| नियुक्ति: [४१९] (४३) *+ प्रत सूत्रांक ||९७-९८|| + महप्पभावस्स महाजसस्स, मियाइपुत्तस्स निसम्म भासियं । तबप्पहाणं चरियं च उत्तम, गइप्पहाणं च तिलोअविस्सुतं ।। ९७॥ वियाणिया दुक्खविवहुर्ण धर्ण, ममत्तबंधं च महाभयावहं । सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेह निव्वाणगुणावहं महं ॥ ९८॥ तिबेमि ।। ॥ मियापुत्तीजं ॥ १७ ॥ । सूत्रद्वयं निगदसिद्धमेव, नवरं मृगापुत्रस्य 'भाषितं' संसारदुःखरूपतावेदकं यत्तेन पित्रोः पुरत उक्तं, प्रधानं तपो यत्र चरिते तत्प्रधानतपो, व्यत्ययनिर्देशश्चप्राग्वत्, 'चरितं' च चेष्टितं 'गतिप्पहाणं च'इति प्रधानगतिं च मुक्तिमिति योऽर्थः, 'त्रिलोकविश्रुतां' जगत्रितयप्रतीताम् , अनेन च फललिप्सयो हि प्रेक्षावन्तः प्रवर्त्तन्त इति काका फलमाह । एतन्नि| शमनाच ममत्वं वन्ध इव सत्प्रवृत्तिविघातितया ममत्ववन्धस्तं च, महाभयावहं तत एव चौरादिभ्यो महाभया वासः, धर्मो धूरिव महासत्त्वैरुखमानतया धर्मधुरा-महाव्रतपञ्चकात्मिका तां, तथा निर्वाणगुणा-अनन्तज्ञानदर्श| नवीर्यसुखादयस्तदावहां-तत्प्रापिका धर्मधुरां धारयतेति सम्बन्धः । इह च निर्वाणगुणावहत्वं सुखावहत्वे हेतुः 'महंति' अपरिमितमाहात्म्यतया महतीं, सूत्रत्वाच्चैवं निर्देश इति सूत्रद्वयार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्तौ अबीमीति पूर्ववत् , उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्तेऽपि प्राग्वदेव ।। इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहि तायामुत्तराध्ययनटीकाया| मेकोनविंशमध्ययनं समाप्तम् ।। दीप अनुक्रम [७११ KATA -७१२] JIMEducation For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- १९ परिसमाप्तं ~ 930~ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-1 / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२०-४२२] (४३) प्रत २० सूत्रांक ||९८|| उत्तराध्य. अथ विंशतितमं महानिर्ग्रन्थीयमध्ययनम् । महानिर्ग न्थीया० बृहद्वृत्तिः व्याख्यातमेकोनविंशमध्ययनम् , अधुना विंशतितममारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने निष्प्र-5 ॥४६॥ तिकर्मतोक्ता, इयं चानाथत्वपरिभावनेनैव पालयितुं शक्येति महानिर्ग्रन्धहितमभिधातुमनाथतैवानेकधाऽनेनोच्यते | इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य च चतुरनुयोगद्वारप्ररूपणा प्राग्वत् यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे महानिर्ग्रन्थीट्रायमिति नाम, क्षुल्लकातिपक्षश्च महान् इति क्षुल्लकस्य निर्ग्रन्थस्य च निक्षेपमाह नियुक्तिकृत् नाम ठवणादविए खित्ते काले अ ठाण पइ भावे। एएसि खुड्डगाणं पडिवक्ख महंतगा हुँति ॥४२०॥|| 2 निक्खेवो नियंठंमि चउक्कओ दुविह० ॥ ४२१ ॥ जाणगसरीरभविए तबइरित्ते अनिण्हगाईसु । भावे पंचविहे खल्लु इमेहिं दारेहिं सो नेओ ॥ ४२२॥ ४६६॥ | अत्र च नामस्थापने सुगमे, द्रव्यक्षुल्लकादीनि क्षुलकनिन्धीयाध्ययन एय महत्प्रतिपक्ष व्याख्यानयद्भिर्व्याख्या-14 तानीति न पुनः प्रतन्यन्ते । 'णिक्खेवो नियंठमी'त्यादि प्रतीतार्थ, नवरम् , 'एभिः' इति वक्ष्यमाणः 'द्वारे।' व्याख्याहैं नोपायैः 'सः' इति निर्ग्रन्थो ज्ञेय इति गाथात्रयार्थः ॥ तानि चामूनि द्वाराणि दीप अनुक्रम [७१२] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २० "महानिर्ग्रन्थीय" आरभ्यते ~931~ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) प्रत सूत्रांक ||९८|| पण्णवण १ वेय २ रागे ३ कप्प ४ चरित्त ५ पडिसेवणा ६ नाणे ७ । तित्थ लिंग ९ सरिरह १० खित्ते ११ काल १२ गइ १३ ठिइ १४ संजम १५ निगासे १६ ॥ ४२३ ॥ जोगु १७ वओग १८ कसाए । १९ लेसा २० परिणाम २१ बंधणे २२ उदए २३ । कम्मोदीरण २४ उवसंपजहण २५ सपणा २६ य आहारे २७॥ ४२४ ॥ भावा २८ ऽऽगरिसे २९ कालं ३० तरे ३१ समुग्धाय ३२ खित्त ३३ फुसणा य३४॥ | भावे ३५ परिणामे ३६ खलु महानियंठाण अप्पबहू ३७ ॥ ४२५॥ तत्र प्रज्ञापना-खरूपनिरूपणं, तचैषां क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीयाध्ययन एवाभिहितमिति नेहाभिधीयते १द्वारं। 'वेद'त्ति विदः-श्रीपुंनपुंसकभेदः, तत्र पुलाकः पुनपुंसकवेदयोनं तु खीवेदे, तत्र तथाविधलब्धेरभावात् , बकुशः स्त्रीपुंनपुंसकवेदस्तेषु त्रिष्वपि, एवं प्रतिसेवनाकुशीलोऽपि, कषायकुशीलः सवेदो वा स्यादवेदो वा, यदि सवेदखिष्वपि वेदेषु, अथावेद उपशान्तवेदः क्षीणवेदो वा, निम्रन्थस्त्ववेद एव, सोऽप्युपशान्तवेदः क्षीणवेदो वा, एवं सात६ कोऽपि, न त्वसाबुपशान्तवेदः, क्षीणमोहत्वात् २। द्वारं । 'राग' इति पुलाकवकुशप्रतिसेवककषायकुशीलाः सरागा एव, कषायोदयवर्णित्वात्तेपां, निर्ग्रन्थो वीतरागः, स चोपशान्तकषायवीतरागः क्षीणकपायो वा वीतरागः, एवं दीप अनुक्रम [७१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~932~ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-1 / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४६७॥ प्रत सूत्रांक ||९८|| सातकोऽपि, नवरमयं क्षीणकषायवीतराग एव ३शद्वारं । कप्पो'त्ति 'कल्पः' स्थितास्थितकल्पो जिनकल्पादिवा, महानिर्मतत एव पुलाकादयः किं स्थितकल्पेऽस्थितकल्पे या?, द्वयोरपि स्युः, स्थविरकल्पादिरूपकल्पापेक्षया तु पुलाकः न्थीया० स्थविरकल्पे जिनकल्पे वा, न तु कल्पातीतः, तथा चागमः-"पुलाए णं भंते ! किं जिणकप्पे होजा १ थेरकप्पे होजा? कप्पाईए होजा ?, गोयमा ! जिणकप्पे वा होजा धेरकप्पे वा होजा णो कप्पातीते होज"त्ति, अन्ये त्वाःस्थविरकल्प एवेति, बकुशप्रतिसेवनाकुशीलावपि जिनकल्पे स्थविरकल्पे वा, न तु कल्पातीती, कपायकुशीलखिष्वपि स्वात् , निर्ग्रन्थस्रातको कल्पातीतावपि ४ । द्वारं । 'चरित्तमिति पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलाः सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोः, कपायकुशीलश्चैतयोः परिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययोश्च, निर्ग्रन्थो यथाख्यात एव, एवं सातकोऽपि ५। द्वारं । 'पडिसेवण'त्ति, पुलाका प्रतिसेवको नाप्रतिसेवकः, स हि मूलगुणोत्तरगुणानामन्यतमविराधनात एव भवति, बकुशोऽपि प्रतिसेयक एव, नवरमुत्तरगुणविराधनातः, प्रतिसेवनाकुशीलः पुलाकवत्, कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका अप्रतिसेवका एव ६। द्वारं । 'णाण'त्ति, पुलाकबकुशप्रतिसेवका द्वयो ज्ञानयोत्रिषु वा, तत्र द्वयोमतिश्रुतयोस्त्रिषु मतिश्रुतावधिपु, इह च पुलाकस्य श्रुतं नवमपूर्वतृतीयाचारवस्तुन आरभ्य यावन्नव पूर्वाणि पूर्णानि, उक्तं हि"आरतो परओ वा न लद्धी लभई" कपायकुशीलो योनिषु चतुपे वा, तत्र द्वयोमैतिश्रुतयोखिषु मतिथुतावधिपु मतिश्रुतमनःपर्यायेषु (वा चतुर्प) मतिश्रुतावधिमनःपर्यायेषु, निर्ग्रन्थोऽप्येवमेव, स्नातकस्तु केवलज्ञान एव, श्रुतज्ञाने 9 -- % दीप अनुक्रम [७१२] AIMEducatantntamational For PAHATEEPIVanupontv wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~933~ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) प्रत सूत्रांक ||९८|| तु का कुत्र वर्तते इति क्षुलकनिन्धीय एवोक्तत्वान्न पुनरुच्यते ७ । द्वारं । 'तित्थ'त्ति इह च 'तीर्थ यत्तीर्थकरेण |क्रियते, पुलाको बकुशप्रतिसेवकौ च तीर्थे, कपायकुशीलस्तु तीर्थेऽतीर्थे वा, अतीर्थे च भवन् तीर्थकरो वा स्यात् । | प्रत्येकबुद्धो वा, एवं निर्ग्रन्थस्नातकावपि ८ द्वारं । 'लिंगिति लिङ्गं द्विधा-द्रव्यभावभेदात् , तत्रामी द्रव्यतः खलिङ्गे अन्यलिङ्गे गृहिलिङ्गे वा स्युः, भावतस्तु खलिङ्ग एव ९॥ द्वारं । सरीरे'त्ति पुलाकस्विष्वौदारिकतैजसकार्मणेषु, बकुशप्रतिसेवनाकुशीलौ त्रिपु चतुर्प वा, वैक्रियस्यापि तयो संभवात् , कपायकुशीलोऽप्येवं पञ्चसु च, तस्याहारकेऽपि सम्भवात् , निर्ग्रन्थः स्नातकश्च पुलाकवत् १० । द्वारं। 'खेत्त'त्ति 'क्षेत्रं कर्मभूम्यादि, तत्र जन्म सद्भावं च प्रतीत्य पञ्चाप्यमी कर्मभूमावेव स्युः, यथासम्भवं च संहरणं प्रतीत्य कर्मभूमावकर्मभूमौ वा ११ । द्वारं। 'कालोत्ति कालतः पश्चापि | पुलाकादयो जन्मतः सद्भावतश्चावसर्पिण्यां सुषमदुष्पमादुष्पमसुपमादुष्पमाभिधानेषु कालेषु स्युः, उत्सर्पिण्या दुष्पम सुषमासुषमदुष्पमयोः, इदं च भरतैरावतदशके, विदेहपञ्चकेषु चतुर्थकालप्रतिभागे यथासम्भवं संहरणं प्रतीत्य यथो|क्तादन्यत्रापि काले स्युः, प्रज्ञत्यभिप्रायस्त्वयं-जन्मतः सद्भावतश्च पुलाकोऽवसर्पिण्यां सुषमदुष्षमदुष्पमसुपमाकाले च, न तु शेषेषु, उत्सर्पिण्यां जन्मतो दुष्षमायां दुष्पमासुषमायां सुषमादुषमायां, सद्भावतश्च दुष्षमासुषमायां सुषमादुष्पमायां चेति भरतैरावतयोः, महाविदेहे तु चतुर्थप्रतिभागे पश्चापि सर्वदैव स्युः, यथासम्भवं संहरणतो न कदाचिन्निपिध्यन्ते, नवरं तत्पुलाकस्य नास्ति,लातकादीनां तु पूर्वसंहृतत्वेन तत्संभवः, उक्तं हि-"पुलागलद्धीए वट्टमाणो ण सकि दीप अनुक्रम [७१२] JAINEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~934~ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) वृहद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक ||९८|| उत्तराध्य. जइ उपसंहरिउं, तहा सिणाइयाणं जो संहरणादिसंभयो सो पुचोवसंहरियाणं, जओ केवलियादिणो नोबसंहरिज- महानिर्ग्रति"त्ति १२॥ द्वारं । 'गति'त्ति 'गतिः' प्रागुक्तैव नवरमिहाराधनाविराधनाकृतो विशेष उच्यते-तत्र पुलाकोऽविराधनाद्। इन्धीया० इन्द्रे पूत्पद्यते, विराधनातस्त्विन्द्रसामानिकत्रयस्त्रिंशलोकपालानामन्यतमेपु, एवं वकुशप्रतिसेवनाकुशीलावपि, कपा१४६८॥ यकुशीलः पुनरविराधनया इन्द्रेष्वहमिन्द्रेषु वा जायते, विराधनयेन्द्रादीनामन्यतमेषु, निर्ग्रन्धस्त्वहमिन्द्रेष्वेवोत्पद्यते ८१३ । द्वारं । 'ठिति'त्ति, पुलाकस्य जघन्येन पल्योपमपृथक्त्वं स्थितिरुत्कृष्टतोऽष्टादश सागरोपमाणि, बकुशप्रति| सेवनाकपायकुशीलानामपि जघन्यतः पल्योपमपृथक्त्वमुत्कृष्टतो बकुशप्रतिसेवकयोद्वाविंशतिसागरोपमाणि, कपायकुशीलस्य तु त्रयस्त्रिंशत् , निम्रन्धस्याजघन्योत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशदेवेति १४ । द्वारं । 'संजमे'त्ति पुलाकवकुशप्रतिसेवक-5 कपायकुशीलानामसङ्ख्ययानि संयमस्थानानि, निर्घन्धस्नातकयोरजघन्योत्कृष्टमेकमेव संयमस्थानं १५ । द्वारं । मणिगासित्ति, आपत्वात्समा( मो)लोपे सन्निकर्पः-स्वस्थानपरस्थानापेक्षया तुल्याधिकहीनत्वचिन्तनं, तत्र च संयमस्थानापेक्षया सर्वस्तोकं निग्रन्थस्य, स्नातकस्य चैकमजघन्योत्कृष्टं संयमस्थानं ततः पुलाकस्थासङ्गयेयगुणानि, ४६८॥ दिएवं बकुशप्रतिसेवककपायकुशीलानामपि पूर्वपूर्वापेक्षयाऽसहयगुणत्वं भावनीयम् , अमीपां च पञ्चानामपि प्रत्येकमनन्ताधारित्रपर्यायाः, यत उक्तम्-"पुलाकस्स णं भंते ! केवतिया चरितपजवा पण्णत्ता, गोयमा ! अणंता चरित्तपजवा पण्णत्ता, एवं जाय सिणायस्सत्ति" तथा च-चारित्रपर्यायापेक्षया स्वस्थान सन्निकपेचिन्तायां दीप अनुक्रम [७१२] 4 + JAIMEducatan intimate For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~935~ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-1 / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) प्रत सूत्रांक ||९८|| पुलाकः पुलाकस्य चरित्रपर्यायैः स्याद्धीनस्तुल्योऽधिको वा, तत्र हीनोऽधिको वा भवन्ननन्तासङ्ख्यसङ्ख्येयभागसङ्ख्या तासङ्ख्यातानन्तगुणलक्षणेन षटूस्थानकेन स्यात् ,एवं बकुशप्रतिसेवककषायकुशीला अपि स्वस्थानहीनाधिकचिन्ताया । दिपट्स्थानपतिता एय,निम्रन्थस्नातको तु स्वस्थानचिन्तायां तुल्यादेव, परस्थानसन्निकर्षचिन्तायां पुलाको बकुशप्रतिसेविकनिग्रन्थस्नातकेभ्यश्चरित्रपर्यायैरनन्तगुणहीनो न तु तुल्योऽधिको वा, कषायकुशीलापेक्षया पट्रस्थानपतितः, तथा|| चागमः-"पुलाए णं भंते ! घउसस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे तुले अब्भहिए?, गोयमा! हीणे णो तुले णो अन्भहिए, अणंतगुणहीणे, एवं पडिसेवणाकुसीलस्सवि, कसायकुसीलेण समं छट्ठाणवडिए, जहेव सट्ठाण-12 है णियंठस्स, जहा वउसस्स एवं सिणायस्सवि" केचित्तु प्रतिसेवनाकुशीलापेक्षयापि षट्स्थानपतित इत्याहुः, बकुशः पुलाकापेक्षया चरित्रपर्यायेरनन्तगुणाधिकः प्रतिसेवककषायकशीलीत प्रति पट्रस्थानपतितः निग्रन्थस्नातकाभ्यामन-12 न्तगुणहीनः, एवं प्रतिसेवककपायकुशीलयोरपि परस्थानसंनिकों वाच्यो नवरं कषायकुशीलः पुलाकापेक्षया पट्स्थानपतितः, निग्रन्थस्नातकी पुलाकाद्यपेक्षयाऽनन्तगुणाधिकाविति १६ । द्वारं । 'जोग'त्ति पुलाकादीनां निर्ग्रन्थाव-IIT सानानां मनोवाकायास्त्रयोऽपि योगाः स्युः, लातकः सयोगोऽयोगो वा स्यात् १७ । द्वारं । 'उबओग'त्ति, पुलाकादयश्चत्यारो मतिश्रुतावधिमनःपर्यायभेदतश्चतुर्भेदे साकारोपयोगे चक्षुरचक्षुरवधिविकल्पतत्रिविध चानाकारोपयोगे स्युः, स्नातकः केवलज्ञानदर्शनाख्ययोद्धयोरेव १८ ॥ द्वारं । 'कसाय'त्ति पुलाकवकुशप्रतिसेवकाः संज्वलनकषायैश्चतुःकपायाः || दीप अनुक्रम [७१२] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~936~ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९८|| दीप अनुक्रम [७१२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४६९॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||९८...|| अध्ययनं [२०], Jan Education intimat | कषाय कुशीलचतुर्षु संज्वलनक्रोधादिषु त्रिषु द्वयोरेकस्मिन् वा स्यात्, निर्ग्रन्थोऽकषायः, स चोपशमतः क्षयतो वा, एवं स्नातको, नवरमसौ क्षीणकपाय एव १९ । द्वारं 'लेस' त्ति पुलाकत्रकुशप्रतिसेवकाः पीतपद्मशुक्लाभिधानासु तिसृषु लेश्यासु, कषायकुशीलः षट्खपि, निर्ग्रन्थः शुक्ललेश्यायां, नातकस्तस्यामेवातिशुद्धायाम् २० । द्वारं । 'परिणामे य'त्ति पुलाकवकुशप्रतिसेवक कपायकुशीला वर्द्धमाने हीयमानेऽवस्थिते वा परिणामे स्युः, निर्ग्रन्थसातको वर्द्धमानावस्थितपरिणामावेव तत्र च पुलाकादयखयो वर्द्धमाने परिणामे अवस्थिते तु जघन्येनैकं समयं समयानन्तरं कपायकुशीलस्वादिगमनेन मरणेन वा, नवरं पुलाकस्य मरणं नास्ति, उक्तं च- "पुलाके तत्थ णो मरति "ति । उत्कृष्टेनान्तर्मुहूर्त्तम्, एवं हीयमानेऽपि, अवस्थिते तु जघन्यतः समयमुत्कृष्टेन सप्त समयान्, निर्ग्रन्थो जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहुर्त वर्द्धमाने परिणामे अवस्थिते तु जघन्येनैकं समयम् उत्कृष्टेनान्तर्मुहूर्त्त तथा चागमः - “णियंठे णं भंते! केवतियं कालं वद्धमाणपरिणामे होजा ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुर्त्त, उक्कोसेणंपि अंतोमुहुत्तं । केवइयं कालं अट्ठियपरिणामे होजा ?, गोयमा ! जहणणेणं एकं समयं उकोसेणं अंतोमुडुतं "ति । अपरे त्वयमुत्कृष्टतोऽवस्थितपरिणामे सप्त समयानित्याहुः, स्नातको जघन्येन उत्कृष्टेन च वर्द्धमानपरिणामेऽन्तर्मुहूर्त्तमवस्थितपरिणामे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टेन देशोनां पूर्वकोटीम् २१ द्वारं 'बंधण'त्ति कर्मबन्धनं, तत्रायुर्वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः पुलाको वनाति, वकुशप्रतिसेवकौ तु सप्त अष्टौ वा, आयुपोऽपि तयोर्वन्धसम्भवात् कषायकुशीलोऽष्टौ सप्त पड् वाss For PP Use On निर्युक्तिः [४२३-४२५] ~937~ महानि न्थीया० २० ||४६९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) * प्रत सूत्रांक ||९८|| युोहवर्जाः, निम्रन्थस्त्वेकमेव सात,खातकोऽप्येवमवन्धको वा २२ । द्वारं । 'उदय'ति कर्मोदयः, पुलाकवकुशप्रतिसे-12 वककषायकुशीला अष्टविधमपि कर्म वेदयन्ते,निर्ग्रन्थो मोहबर्जाः सप्त, सातको वेद्यायुर्नामगोत्राख्याश्चतस्रः२३॥ द्वारं। 'कम्मोदीरण'त्ति पुलाक आयुर्वेदनीयवर्जाः षट् कर्मप्रकृतीरुदीरयति, बकुशप्रतिसेवकायष्टावायुर्वोः सप्त पड़ आयुर्वेदनीयवर्जाः, कषायकुशीलोऽप्येवमष्टौ सप्त षड् वेद्यायुर्मोहनीयवर्जाः पञ्च वा, निम्रन्थोऽप्येता एव पञ्च द्वे वार नामगोत्राख्ये, सातकस्त्वेते एव द्वे अनुदीरको वा २४ । द्वारं । 'उवसंपजहण'त्ति उवसंपदनम्--उपसम्पद्६अन्यरूपप्रतिपत्तिः, सा च हानं च-खरूपपरित्याग उपसम्पद्धानं, तत्र पुलाकः पुलाकतां सर्जस्तां परित्यजति कपा-II यकुशीलत्वमसंयमं वोपसम्पद्यते, कोऽभिप्रायः-न रूपान्तरापत्तिं विना पूर्वरूपपरित्यागो नापि तत्परित्याग विना तदापत्तिः, कथञ्चिन्नित्यानित्यरूपत्वाद्वस्तुनः, एवं सर्वत्र भावनीयं, बकुशोऽपि बकुशतां वजन् तां परित्यजति प्रति सेवकत्वं कपायकुशीलत्वमसंयम संयमासंयमं वोपसंपद्यते, प्रतिसेवनाकुशीलः प्रतिसेवनाकुशीलत्वं सजेस्तत्परि। त्यजति वकुशत्वं कपायकुशीलत्वमसंयम संयमासंयमं वोपसम्पद्यते, कपायकुशीलः कपायकुशीलत्वं त्यस्तत्परित्यजति पुलाकादित्रयं निग्रन्थत्वमसंयम संयमासंयम वोपसम्पद्यते, निर्ग्रन्थो निर्ग्रन्धत्वं त्यजंतत्परित्यजति कपायकुशीलत्वं स्नातकत्वमसंयमं वोपसम्पद्यते, स्नातकः स्नातकत्वं त्यजंस्तत्परित्यजति सिद्धिगतिमुपसम्पद्यते २५ । द्वार। | 'सन्न'त्ति सज्ञा, तत्र पुलाकनिर्गन्धस्त्रातका नोसज्ञोपयुक्ताः, बकुशप्रतिसेवककपायकुशीलाः सज्ञोपयुक्ता नो दीप अनुक्रम [७१२] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~938~ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) C4 प्रत सूत्रांक --06 ||९८|| उत्तराध्य. सज्ञोपयुक्ताश्च, २६ । द्वारम् । 'आहार'त्ति पुलाकादयो निग्रेन्धावसाना आहारका एव, खातकस्तु आहारकोड- महानि नाहारको वा २७ । द्वारं । तथा 'भव'चि पुलाकादयश्चत्वारो जघन्यत एकं भवग्रहण मुत्कृष्टतस्तु पुलाकनिम्र-18 बृहपृत्तिः न्धीया० न्थयोस्त्रीणि, बकुशप्रतिसेवककषायकुशीलानामष्टौ स्रातकस्याजघन्योत्कृष्टमेकमेव २८ । द्वारं । 'आगरिस'त्ति ॥४७०॥ आकर्षणमाकर्षः, स चेह सर्वविरतर्ग्रहणमोक्षौ, पुलाकादीनां चतुणी जघन्येनकभविक एक एवाकर्षः, उत्कृष्टेन पुलाकस्य त्रयो बकुशप्रतिसेवककपायकुशीलानां शतशो, निग्रन्थस्य द्वौ, स्नातकस्याजघन्योत्कृष्ट एकः, नानाभविकाकर्षापेक्षया पुलाकादीनां चतुर्णा जघन्येन द्वौ उत्कृष्टेन पुलाकस्य सप्त, बकुशस्य कुशीलद्वयस्य च सहस्रशो, निम्रन्थस्य पञ्च, स्नातकस्य तु नास्त्येव २९॥ द्वारं । 'काले'त्ति पुलाको जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूत यावद्भवति, बकुशप्रति सेवककषायकुशीलास्तु जघन्येनैकसमयमुत्कृष्टेन देशोनां पूर्वकोटिं, निर्ग्रन्धोऽपि जघन्यत एक समयमुत्कृष्टेनान्तहर्मुहूर्त, तथा च भगवत्याम्-“णियंठे पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं” अन्ये तु निम्र-15 (न्योऽपि जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तमेवेति मन्यन्ते, स्नातको जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतो देशोनां पूर्वकोटिम् , एवमेकजीवापेक्षया, बहुजीवापेक्षया तु पुलाकनिम्रन्थौ जघन्यत एक समयमुत्कृष्टेनान्तर्मुहूर्त, बकुशः सर्वाद्धम्, एवं ॥७॥ प्रतिसेवककषायकुशीललातका अपि ३० । द्वारम् । 'अंतरे यत्ति पुलाकादीनां चतुर्णामन्तरं जघन्येनान्तर्मुहतमुत्कृटतोऽनन्तं कालं, स च कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, क्षेत्रत उपार्द्धपुद्गलपरावर्तों देशोनः, सातकस्य नास्त्य दीप अनुक्रम [७१२] AIMEducatonintamataon For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~939~ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||९८...|| नियुक्ति : [४२३-४२५] (४३) प्रत सूत्रांक ||९८|| न्तरम् , इत्वमेकं प्रति, बहूनां तु पुलाकनिर्ग्रन्थानां जघन्येनैकसमय उत्कृष्टेन पुलाकस्य सङ्खयेयानि वर्षाणि निम्रन्यस्य षण्मासाः, उक्तं हि-"सेढिं नियमा छम्मासाउ पडिवजंतित्ति" शेषाणां नास्त्येव ३१॥ द्वारं । 'समुग्धायत्ति पुलाकस्य वेदनाकषायमारणान्तिकसमुद्घातास्त्रयो, बकुशप्रतिसेवकयोस्त एव वैक्रियतैजसान्विताः पञ्च, कषायकुशीलस्य तु त एवाहारकसहिताः षड्,निर्ग्रन्थस्यैकोऽपि नास्ति, स्नातकस्य केवलिसमुद्घात एकः३० द्वारं । 'खेत्त'त्ति पुलाकादयश्चत्वारो लोकस्यासङ्खयेयभागे नो सङ्खयेयभागे न सङ्खयेयेयसङ्खयेयेषुवा भागेषु नापि सर्वलोके, हखातकोऽसङ्ख्येयभागेऽसङ्ख्ययेषु भागेषु सर्वलोके वा, न शेषेषु, तथा च प्रज्ञप्तिः-"सिणाए पुच्छा, गोयमा ! नो संखिजे भागे हुजा असंखिजे भागे हुजा णो संखेजेसु भागेसु होजा असंखिजेसु भागेसु हुजा सबलोए वारा होज्जत्ति” चूर्णिकारस्त्वाह-सङ्ख्ययभागादिषु सर्वेषु भवति ३३ । द्वारं । 'फुसणा उत्ति स्पर्शना च क्षेत्रवद्वाच्या ३५ । द्वारं। 'भावेति पुलाकादयस्वयः क्षायोपशमिके भावे, निम्रन्थ औपशमिके क्षायिके वा,स्नातकः क्षायिके, इह तु पुलाकादयो निर्ग्रन्थाः, निर्ग्रन्धत्तं तु चारित्रनिमित्तमिति तद्धेतुभूतस्यैव भावस्य विवक्षितत्वादित्थमभिधानम् , अन्यथा मनुष्यत्वादेरीदयिकादेरपि भावस्य सम्भवात ३५ । द्वारं। 'परिमाण'त्ति पुलाकाः प्रतिपद्यमानकाः कदा-15 चित्सन्ति कदाचिन्नेति, यदा सन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कृष्टतः शतपृथक्त्वं, पूर्वप्रतिपन्ना अपि यदि स्युस्तदा जघन्येन तथैवोत्कृष्टेन सहस्रपृथक्त्वं, बकुशाः प्रतिपद्यमानका यदा स्युस्तदा जघन्येनोत्कृष्टेन च पुला दीप अनुक्रम [७१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~940~ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२०], मूलं [-]/ गाथा ||९८...|| नियुक्ति: [४२३-४२५] (४३) न्धीया प्रत सूत्रांक ||९८|| उत्तराध्य । कबद्वाच्या, पूर्वप्रतिपन्नकास्तु जघन्येन कोटिशतपृथक्त्वमुत्कृष्टेनापि तदेव, एवं प्रतिसेवका अपि, कषायकुशीलाः || प्रतिपद्यमानका जघन्येन तथैव उत्कृष्टेन सहस्रपृथक्त्वं, पूर्वप्रतिपन्ना जघन्येनोत्कृष्टेन च कोटिसहस्रपृथक्त्वं, बृहद्धृत्तिः निर्ग्रन्थाः प्रतिपद्यमानका जघन्येन तथैव उत्कृष्टेन द्विपष्ट्यधिकं शतं, तत्राष्टोत्तरं शतं क्षपकाणां चतुष्पञ्चाशदुपशम॥४७॥ कानां, पूर्वप्रतिपन्नका अपि यदा स्युस्तदा जघन्येन तथैव उत्कृष्टेन शतपृथक्त्वं, सातकाः प्रतिपद्यमानका जघन्येन , तथैव उत्कृष्टेनाष्टोत्तरं शतं, पूर्वप्रतिपन्नकास्तु जघन्येनोत्कृष्टेन च कोटिपृथक्त्वम् , इह च जघन्यत उत्कृष्टतस्तु पृथ-४ लक्त्वमेवोच्यते, तत्र तज्जघन्यं लघुतरमुत्कृष्टं बृहत्तरमिति भावनीय ३६ । द्वारं । 'खलु महानिग्गंथाण अप्पबहुं'ति खलु वाक्यालङ्कारे महानिर्ग्रन्थानां द्रव्यनिर्ग्रन्थापेक्षयाऽमीषामेव प्रशस्वमुनीनामल्पबहुत्वं वाच्य मिति शेषः, तत्र सर्वस्तोका निर्ग्रन्थास्ततः पुलाकाः सञ्जयेयगुणाः, पुलाकेभ्यः स्नातकाः, स्नातकेभ्यो बकुशाः, बकुशेभ्यः प्रति-IN ६ सेवकाः, प्रतिसेवकेभ्यः कषायकुशीला इति ३७ द्वारगाथात्रयार्थः॥ साम्प्रतं निर्ग्रन्थनिरुक्तिद्वारेणोपसंहरन्नाहसावजगंथमुक्का अब्भंतरबाहिरेण गंथेण । एसा खलु निज्जुत्ती महानियंठस्स सुत्तस्स ॥ ४२२ ॥ प्राग्वत् । गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् ॥४७॥ सिद्धाण नमो किच्चा संजयाणं च भावओ। अत्थधम्मगई तच्चं, अणुसिडिं सुणेह मे ॥१॥ दीप अनुक्रम [७१२] AIMEducatanita For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल संपादने अत्र नियुक्तिगाथा क्रमांकने किञ्चित् स्खलनासंभाव्यते, यत् गाथाक्रम ४२२ पुन: दृष्टम् ~941~ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ ७१३] Amauro “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १ | अध्ययनं [२०], सितं - बद्धमिहाष्टविधं कर्म तद् ध्यातं भस्मसाद्भुतमेषामिति सिद्धाः- ध्यानानलनिर्दग्धाष्टकर्मेन्धनाः, उक्तं हि - “सियं धंतन्ति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायति”त्ति, तेभ्यः कोऽभिप्रायः १ - तीर्थकर सिद्धेभ्य इतरेभ्यश्च 'नमो' नमस्कारं 'कृत्वा' - विधाय 'संयतेभ्यश्च' सकलसावद्यव्यापारोपरतेभ्य आचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः इतियावत् 'भावतः' परमार्थतो न तु संवृत्यैव, इत्थं पञ्चपरमेष्ठिरूपेष्टदेवता स्तवमभिधायाभिधेयादित्रयमेवाह - अर्थश्च धर्मवार्थधम यदिवाऽर्थ्यते-हितार्थिभिरभिलष्यते इत्यर्थः, स चासौ धर्मश्वार्थधर्मस्ततस्तयोस्तस्य वा गतिः - गत्यर्थानां ज्ञानार्थतया हिताहितलक्षणा स्वरूपपरिच्छित्तिर्यया यस्यां वा साऽर्थधर्मगतिस्तां, पाठान्तरतोऽर्थधर्मवतीं वा 'तचं 'ति तथ्याम् - अविपरीताम् 'अनुशिष्टिं' हितोपदेशरूपां शिक्षां शृणुत' आकर्णयत 'मे' इति मम मया वा कथयतः कथ्यमानां वेति शेषः, स्थविरयचनमेतत् अनेन च पूर्वोत्तरकालभाविक्रियाद्वयानुगतै ककर्तृप्रतिपादनेनात्मनो नित्यानित्यत्वमाह, एकान्तनित्यत्वे खविचलित रूपत्वान्न पूर्वक्रियाकर्तृत्वस्वरूपपरिहारेणोत्तरक्रिया कर्तृत्वा ख्यखरूपान्तरसम्भवः, एकान्तानित्यत्वपक्षे तु क्षणध्वंसित्वादुत्तरक्रियाकाल आत्मनोऽसत्त्वमेवेति नैकान्तनित्यानित्यपक्षयोः पूर्वोत्तरक्रियानुगतैककर्तृसम्भव इति भावनीयम्, इह चानुशिष्टिरभिधेया, अर्थधर्मगतिः प्रयोजनम् अन्योश्च परस्परमुपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धः सामर्थ्यादुक्त इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति धर्मकथानुयोगत्वादस्य धर्मकथाकथनव्याजेन प्रतिज्ञातमुपक्रमितुमाह For Party निर्युक्तिः [४२२R...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~942~ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-]/ गाथा ||२-८|| नियुक्ति : [४२२R...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२-८|| . पभूयरयणो राया, सेणिओ मगहाहिवो । विहारजसं निजाओ,मंडिकुञ्छिसि घेइए ॥२॥ नाणादुमलया- महानिर्म इन्नं, नाणापक्खिनिसेवियं । नाणाकुसुमसंगणं, उजाणं नंदगोवमं ॥ ३ ॥ तत्थ सो पासए साई, संजयं । बृहद्वृत्तिः सुसमाहियं । निसन्नं रुक्खमूलंमि, सुकुमालं मुहोइयं ॥ ४ ॥ तस्स रूवं तु पासित्ता, राहणो तंमि संजए। न्धीया० ॥४७२॥ अचंतपरमो आसी, अउलो रूवविम्हओ ॥५॥ अहो वन्नो अहो रूवं, अहो अजस्स सोमया । अहो खंती|| २० है अहो मुत्ती, अहो भोगे असंगया ॥६॥ तस्स पाए उ वंदित्ता, काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने, पंजली पडिपुच्छई ॥७॥ तरुणोऽसि अजो! पचाओ, भोगकालंमि संजया!। उवडिओऽसि सामने, ए-2 अमटुं सुणेमु ता ॥८॥ सूत्रसप्तकं पाठसिद्धमेव, नवरं प्रभूतानि रत्नानि-मरकतादीनि प्रवरगजाश्चादिरूपाणि वा यस्यासौ प्रभूतरत्रः |'विहारजत्त'न्ति सुव्यत्ययाद् विहारयात्रया क्रीडार्थमश्ववाहनिकादिरूपया 'निर्यातः' निर्गतो नगरादिति गम्यते, मंडिकुच्छिसित्ति मण्डिकुक्षौ मण्डिकुक्षिनाम्नि 'चैत्ये' इत्युद्याने । तदेव नानेत्यादिना विशिनष्टि-'साहुं संजयं सुस-12 माहियंति,साधुः सर्वोऽपि शिष्ट उच्यते तद्वयवच्छेदार्थ संयतमित्युक्तं, सोऽपि च बहिःसंयमवान्निबादिरपि स्यादिति ॥४७२॥ सुठु समाहितो-मनःसमाधानवान् सुसमाहितस्तमित्युक्तं, 'सुहोइय'ति सुखोचितं शुभोचितं वा । 'अत्यन्तपरमः' अतिशयप्रधानः 'अतुलः' अनन्यसदृशो रूपविषयो विस्मयो रूपविस्मयः 'अहो ?' इत्यादिना विस्मयखरूपमुक्तम् , इह दीप अनुक्रम [७१४-७२०] AIMEducatan intamational For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~943~ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-1 / गाथा ||२-८|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) SC- 5 प्रत सूत्रांक ||२-८|| 5++KC च 'अहो ?” इत्याश्चर्ये 'वर्णः' सुनिग्धो गौरतादिः 'रूपम् आकारः 'सौम्यता' चन्द्रस्येव द्रष्टुरानन्ददायिता 'असकता निःस्पृहता, पादवन्दनानन्तरं प्रदक्षिणाऽभिधानं पूज्यानामालोक एवं प्रणामः क्रियत इति ख्यापनार्थ, तथा चागमः-"आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेति"त्ति । 'प्रतिपृच्छति' प्रश्नयति, तरुणेत्यादिना प्रश्नखरूपमुक्तम् , इह च यत एव तरुणोऽत एव प्रत्रजितो भोगकाल इत्युच्यते, तारुण्यस्य भोगकालत्वात् , यद्वा तारुण्येऽपि रोगादिपीडायां न भोगकालः स्यादित्येवमभिधानं, सोऽपि कदाचित्संयमेऽनुद्यत एव स्यात् त्वं पुनरुपस्थितश्च-कृतोद्यमश्च श्रामण्ये, पठन्ति च 'उवहितोऽसि चि, एनम् 'अध'निमित्तं येनार्थेन त्वमीश्यामप्यवस्थायां प्रत्रजितः शृणोमि 'ता' इति तावत्, पश्चात्तु यत्त्वं भणिष्यसि तदपि श्रोष्यामीति भाव इति श्लोकसप्तकार्थः । इत्थं राज्ञोक्ते मुनिराह___अणाहो मि महाराय!, नाहो मज्झ न विजई । अणुकंपयं सुहिं वावि, कंची नाहि तुमे महं ॥९॥ | 'अनाथः' अखामिकोऽस्मीत्यहं 'महाराज!' प्रशस्यनृपते !, किमित्येवं ? यतो 'नाथः' योगक्षेमविधाता मम न विद्यते, तथा 'अणुकंपगं'ति आपत्वादनुकम्पको यो मामनुकम्पते, 'सुर्हिति तत एव सुहृद् 'यायि'ति प्राग्वदेव 'कंचित्ति कश्चिन्न विद्यते, ममेति सम्बन्धः, 'नाहिति प्रक्रमादनन्तरोक्तमर्थ जानीहि 'तुमि'त्ति त्वं, पठ्यते च-18 द'कंची नाभिसमेमहं' कश्चिदनुकम्पकं सुहृदं वाऽपि 'नाभिसमेमि' नाभिसंगच्छामि, न केनचिदनुकम्पेन सुहृदा वा सङ्गतोऽहमित्यादिनाऽर्थेन तारुण्येऽपि प्रबजित इति भाव इति सूत्रार्थः ॥ एवं च मुनिनोक्ते दीप अनुक्रम [७१४ -७२०] AIMEducatan intimational For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~944~ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१० -११|| दीप अनुक्रम [७२२ -७२३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः * ||४७३॥ Educator “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १०-११ || अध्ययनं [२०], तो सो पसिओ राया, सेणिओ मगहाहियो। एवं ते इहिमंतस्स कहं नाहो न विजई १ ॥ १० ॥ होम नाहो भयंताणं, भोगे भुंजाहि संजया ! । मित्तनाईपरिवुडो, माणूस्सं खु सुदुलहं ॥ ११ ॥ सूत्रद्वयं प्रतीतार्थमेव, नवरम् 'एव'मिति दृश्यमानप्रकारेण 'ऋद्धिमतः' विस्मयनीयवर्णादिसम्पत्तिमतः 'कथम् ' इति केन प्रकारेण नाथो न विद्यते, तत्कालापेक्षया सर्वत्र वर्त्तमाननिर्देशः, “यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति”, तथा 'गुणवति धनं ततः श्रीः श्रीमत्याज्ञा ततो राज्य' मिति हि लोकप्रवादः, तथा च न कथञ्चिदनाथत्वं भवतः संभवतीति भावः, यदि चानाथतैव भवतः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिहेतुस्ततः 'होमि'त्ति भवाम्यहं 'भदन्तानां पूज्यानां ततश्च मयि नाथे मित्राणि ज्ञातयो भोगाश्च तव सुलभा एवेत्यभिप्रायेण भोगेत्याद्युक्तवान्, मानुष्यं खलु सुदुर्लभमिति च | हेत्वभिधानमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ मुनिराह निर्युक्तिः [४२२R...] अप्पणावि अणाहोऽसि, सेणिया ! मगहाहिवा । अप्पणा अणाहो संतो, कहं नाहो भविस्ससि १ ॥१२॥ एवं वृत्तो नरिंदो सो, सुसंभंतो सुविम्हिओ । वयणं अस्सुअपुत्र्वं, साहुणा विम्हयं निओ ॥ १३ ॥ अस्सा हत्थी मणुस्सा मे, पुरं अंतेडरं च मे । भुंजामि माणुसे भोए, आणा इस्सरियं च मे ॥ १४ ॥ एरिसे संपयगंमि, सव्वकामसमप्पिओ । कहं अणाहो भवई १, मा हु भंते! मुसं वए ॥ १५ ॥ 'अप्पणावि' सूत्रं सुगममेव, एवं च मुनिनोक्ते एवं सूत्रत्रयं स्पष्टमेव, नवरमाद्यस्य घटनैवं स श्रेणिकनामा नरेन्द्रो For Parent ~945~ महानिर्म न्धीया० २० ॥४७३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१२ -१५|| दीप अनुक्रम [७२४ -७२७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १२-१५ || अध्ययनं [२०], || विस्मयान्वितः प्रागपि रूपादिविषयविस्मयोपेतः सन् एवम्' उक्तनीत्या वचनमात्मनाऽप्यनाथस्त्वमित्यादिरूपमश्रुतपूर्व साधुनोक्तः सुसम्भ्रान्तः- अत्याकुलः सुविस्मितश्च-अतीव विस्मयोपेतो भूत्योक्तवानिति शेषः, यदुक्तवांस्तदाह-'अस्सा' इत्यादिना सूत्रद्वयेन, अत्र चाश्वा मे सन्तीत्यादिक्रिया सर्वत्राध्याहर्त्तव्या, अत एव भुनज्मि 'माणुसित्ति मानुष्यकान् भोगान् 'आज्ञा' अस्खलितशासनात्मिका 'ऐश्वर्य च' द्रव्यादिसमृद्धिः, यद्वा आज्ञया ऐश्वर्यम् प्रभुत्वं आज्ञैश्वर्य, तथा च 'ईदृशे' अनन्तरमुक्तरूपे सम्पदामयं सम्पद-समृद्धिप्रकर्षस्तस्मिन् सति, पठ्यते च 'एरिसे संपयार्यमित्ति तत्र च सम्पदामायो - लाभः सम्पदायस्तस्मिन् 'सङ्घकामसमप्पिय'त्ति प्राकृतत्वात् समर्पित सर्वकामे 'कथं' केन प्रकारेण 'अनाथः' अखामी 'भवई' ति पुरुषव्यत्ययेन भवामि 'मा हु'ति हुशब्दस्तस्मादर्थे, यत एवं तस्मान्मा भदन्त ! मृषा 'वए'ति वादीः पठन्ति च 'भंते ! मा हु सुसं वय'त्ति सूत्रत्रयार्थः ॥ यतिस्तमुवाच Jan Education intimation न तुमं जाणसि s (अ ) नाहस्स, अत्थं पुच्छं च पत्थिवा । जहा अणाहो भवई, सणाहो वा नराहिव ! ॥ १६ ॥ सुणेहि मे महाराय !, अव्यक्खित्तेण चेयसा । जहा अणाहो भवई, जहा मेअ पवन्तियं ||२७|| कोसंबीनाम नयरी, पुराणपुर भेयिणी । तत्थ आसी पिया मज्झं, पभूयघणसंचओ ॥ १८ ॥ पढमे वए महारायं !, अडला मे अच्छिवेयणा । अहुत्था तिउलो दाहो, सव्वगत्ते पत्थिवा ! ॥ १९ ॥ सत्यं जहा परमतिक्ख, सरीरविवरंतरे। पविसिज्ज अरी कुडो, एवं मे अच्छिवेयणा ॥ २० ॥ तिअं मे अंतरिच्छं च, उत्ति निर्युक्तिः [४२२R...] For Para Pra Use Only ~946 ~ janibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-]/गाथा ||१६-३५|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) प्रत न्थीया. सूत्रांक ॥१६ -३५|| * उत्तराध्य. मंगं च पीडई। इंदासणिसमा घोरा, वेयणा परमदारुणा ॥ २१ ॥ उवडिया मे आयरिया, विजामंतचिगि-1 महानिर्गबृहदृत्तिः Iच्छगा । अबीआ सस्थकुसला, मंतमूलविसारया ॥ २२॥ ते मे तिगिच्छं कुब्वंति, चाउपायं जहाहियं । न य मे दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाया ॥ २३ ॥ पिया मे सव्वसारंपि, दिजाहि मम कारणा । ॥४७॥ न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया ॥२४॥ माया (वि) मे महाराय!, पुत्तसोगदुहद्दिया । न य दुक्खा २० विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया ॥ २५॥ भायरा मे महाराय!, सगा जिट्ठकणिट्ठगा। न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाया ॥ २६ ॥ भइणीओ मे महाराय!, सगा जिट्टकणिडगा । न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्म अणाया ॥ २७ ॥ भारिया मे महाराय!, अणुरत्तमणुब्बया । अंसुपुन्नेहिं नयणेहिं, उरं मे परिसिंचई ॥ २८ ॥ अन्नं पाणं च पहाणं च, गंधमल्लविलेवणं । मए नायमनायं वा, सा बाला नोव जई ॥२९॥ ४ खर्णपि मे महाराय!, पासाओवि न फिद्दई । न य दुक्खा विमोएइ, एसा मज्ज्ञ अणाहया ॥ ३०॥ तोऽह | 31 एवमासु, दुक्खमा हु पुणो पुणो । वेयणा अणुहवि जे, संसारमि अणतए ॥ ३१ ॥ सयं च जइ मुंचिज्जा, वेयणा विउखा इओ। खंतो दंतो निरारंभो, पब्वइए अणगारियं ॥ ३२॥ एवं च चिंतइत्ता णं, पासुत्तो मि ४७४। १/नराहिवा! परियत्तीद राईए, वेयणा मे खयं गया ।। ३३ ॥ तओ कल्ले पभायंमि, आउच्छित्ता ण टबंधवे । खंतो दंतो निरारंभो, पब्बईओ अगगारियं ॥ ३४ ॥ तोऽहं नाहो जाओ, अप्पणो अ परस्स य ।। सब्वेसि चेव भूयाणं, तसाणं धावराण य ।। ३५॥ % * * * % * दीप अनुक्रम [७२८-७४७]] AAREducatan intimate For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~947~ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१६ -३५|| दीप अनुक्रम [७२८ -७४७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १६-३५|| अध्ययनं [२०], Jain Education intimanal विंशतिः सूत्राणि प्रायः प्रतीतार्थान्येव, नवरं 'न तुमं जाणे अणाहस्स'त्ति न त्वं 'जानीषे' अवबुध्यसे, अनाथस्येतिअनाथशब्दस्यार्थ च-अभिधेयमुत्थां वा उत्थानं मूलोत्पत्तिं केनाभिप्रायेण मयोक्त इत्येवंरूपां पठ्यते च-'अत्थं पोत्थं वत्ति, अर्थ प्रोत्थां वा प्रकृष्टोत्थानरूपामत एव यथाऽनाथः सनाथो वा भवति तथा च न जानीषे इति सम्बन्धः ॥ शृणु 'मे' मम कथयत इति शेषः, किं तदित्याह - यथाऽनाथो भवतीत्यनाथशब्दस्याभिधेयः पुरुषो भवति, यथा 'मेय'त्ति मया च प्रवर्त्तितमिति - प्ररूपितमनाथत्वमिति प्रक्रमः अनेनोत्थानमुक्तम् ॥ 'पुराणपुरभेयणिति, पुराणपु|राणि भिनत्ति - खगुणैर साधारणत्वाद्भेदेन व्यवस्थापयति पुराणपुरभेदिनी, बहुलवचनात्कर्त्तरि ल्युट् पव्यते च- 'नगराण पुडभेषण' त्ति लिङ्गव्यत्ययान्नगराणां मध्ये पुटभेदनं, पुनरिदमुक्तं भवति - प्रधाननगरी ॥ प्रथमे वयसि, इह प्रक्रमाद्योवने 'अतुला' अनुपमा अक्ष्णोर्वेदना-अक्षिरोगजनिता व्यथा 'अहोत्थ' ति अभूत् 'तिउले'त्ति आर्यत्वात् 'तोदकः' व्यथकः 'सर्वगात्रेषु' सर्वाङ्गेषु पठ्यते च 'विउलो दाहो सगेसु य'त्ति गतार्थ, 'सरीरविवरंतरे' त्ति | शरीरविवराणि - कर्णरन्ध्रादीनि तेपामन्तरं - मध्यं शरीरविवरान्तरं तस्मिन् 'पवेसेज'ति 'प्रवेशयेत्' प्रक्षिपेत्, | शरीरविवरग्रहणमतिसुकुमारत्वादान्तरत्वचो गाढवेदनोपलक्षणं, पठ्यते च- 'सरीरबीयअंतरे आबेलिज 'ति शरीरबीजं - सप्तधातवस्तदन्तरे-तन्मध्ये 'आपीडयेद्' गाढमवगाहयेत्, 'एव' मित्यापीड्यमानस्य शस्त्रवत् 'मे' ममाक्षिवेदना, कोऽर्थः १ - यथा तदत्यन्तवाधाविधायि तथैपापीति ॥ 'त्रिक' मिति कटिभागम् 'अन्तरा' मध्ये 'इच्छां वा' For PP Use On निर्युक्ति: [ ४२२R...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः ~948~ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१६ -३५|| दीप अनुक्रम [७२८ -७४७] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥४७५॥ in Education in “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १६-३५|| अध्ययन [२०], अभिमतवस्त्वभिलाषं न केवलं वहिखिकाद्येवेति भावः 'पीडयति' वाघते, वेदनेति सम्बन्धः, तत्कालापेक्षया च वर्त्तमाननिर्देशः, एवमन्यत्रापि, इन्द्राशनिः - इन्द्रवज्रं तत्समाना- तुल्या अतिदाहोत्पादकत्वादिति भावः 'घोरा' परेषामपि दृश्यमाना भयोत्पादनी 'परमदारुणा' अतीव दुःखोत्पादिका ॥ किं न कश्चित्तां प्रतिकृतवानित्याह- 'उपस्थिताः' वेदनाप्रतीकारं प्रत्युद्यताः 'मे' मम 'आचार्याः' इति प्राणाचार्या वैद्या इतियावत्, 'विद्यामन्त्रचिकित्सकाः' | विद्यामत्राभ्याम् उक्तरूपाभ्यां व्याधिप्रतिकर्त्तारः 'अद्वितीयाः' अनन्यसाधारणतया तथाविधद्वितीयाभावात्, 'सत्यकुसल' त्ति शस्त्रेषु शास्त्रेषु वा कुशलाः शस्त्रकुशला शास्त्रकुशला वा, पठ्यते च 'नानासत्थत्थ कुसल त्ति सुगमं, मन्त्राणि च-उक्तरूपाणि मूलानि च - ओषधयस्तेषु विशारदाः- विज्ञा मन्त्रमूलविशारदाः ॥ नैवोपस्थानमात्रेणैव ते स्थिताः किन्तु ते मे चिकित्सां कुर्वन्ति 'चाउप्पायं'ति 'चतुष्पदां' भिषग्भैषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भा (त्मकभा) गचतुष्टयात्मिकां 'जहाहियं'ति 'यथाहितं' हितानतिक्रमेण यथाऽधीतं वा-गुरुसम्प्रदायागतवमन विरेचकादिरूपां ततः किमित्याह-न चैवं कुर्वन्तोऽपि 'दुःखाद्' एवंविधरोगजनितादसाताद् 'विमोचयन्ति' विशेषेण मुत्कलयन्ति, एषा दुःखाविमोचना||त्मिका ममानाथता ॥ अन्यच्च - 'सर्वसारमपि ' निःशेषप्रधानं वस्तुरूपं 'दिजाहि'त्ति दद्यात् न त्वेवमादरवानपि दुःखात् 'विमोचयंति'ति वचनव्यत्ययाद्विमोचयति, एवं सर्वत्र ॥ तथा पुत्रविषयः शोकः पुत्रशोकः, हा ! कथमित्थं दुःखी मत्सुतो जात इत्यादिरूपस्ततो दुःखं तेन 'अट्टिय'त्ति आर्त्ता 'अहिय'त्ति वा 'अर्दिता' उभयत्र पीडितेत्यर्थः, For Para Prata Use Only निर्युक्तिः [४२२R...] ~949~ महानिर्य न्धीया० २० ॥४७५॥ janibraryup मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||१६-३५|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) 2-% प्रत सूत्रांक 4 ||१६-३५|| 36-4-50 ततः पुत्रशोकदुःखार्ता पुत्रशोकदुःखार्दिता वा ॥ तथा 'सग'त्ति लोकरूढितः सौदर्याः खका वा-आत्मीया वा तथा 'भइणि'त्ति भगिन्यः ॥ अपरं च 'भार्यो' पत्नी 'अनुरक्ता' अनुरागवती 'अणुवय'त्ति अन्विति-कुलानुरूपं प्रतम्-आचारोऽस्या अनुनता पतिव्रतेति यावत्, वयोऽनुरूपा वा, पठ्यते च-'अणुत्तरमणुष्वय'त्ति, इह च मकारोऽलाक्षणिकः, अनुत्तरा-अतिप्रधाना 'उर'न्ति 'उरः' बक्षः 'परिषिञ्चति' समन्तात्प्लावयति ॥ स्त्रात्यनेनेति स्नान-गन्धोदकादि मया ज्ञातमज्ञातं चेत्यनेन सद्भावसारतामाह, पठ्यते च-'तारिसं रोगमावण्णे त्ति, 'तादृशम्' उक्तरूपं 'रोगम्' अक्षिरोगादिकम् 'आपन्ने' प्राप्ते मयीति गम्यते, सेति-भार्या बालेव बाला-अभिनवयौवना 'नोपभुले' नासेवते ॥ 'पासाओऽषि ण फिट्टईत्ति, अपिः चशब्दार्थः, मत्पार्थाच नापयाति, सदा सन्निहितैवास्ते, अनेन तस्या अतिवत्सलत्वमाह ॥'ततः' इति रोगाप्रतिकार्यतानन्तरमहम् 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आइंसुति उक्तवान् , यथा 'दुक्खमा हुति, हु एवकारार्थ, ततो दुःक्षमैव-दुःसहैव पुनः पुनः 'वेदना' उक्तस्वरूपा रोगव्यथा 'अनुभवितुं' वेदयितुं जे इति निपातः पूरणे ॥ यतश्चैवमतः 'सयं च'त्ति चशब्दोऽपिशब्दार्थस्ततः सकृदपि-एकदाऽपि यदि मुच्येऽहमिति गम्यते, कुतः ?-'वेयण'त्ति वेदनायाः 'विउल'त्ति विपुलाया:-विस्तीर्णायाः 'इतः' इत्यनुभूयमानायाः, ततः किमित्याह-क्षान्तः' क्षमावान् 'दान्तः' इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन 'पवइए अणगारिय'त्ति, 'प्रव्रजेयं' गृहान्निष्कामेयं ततश्च 'अनगारता" भावभिक्षुतामङ्गीकुर्यामिति शेषः,यद्वा 'प्रव्रजेयं' प्रतिपद्येयमनगारितां येन संसा - दीप अनुक्रम [७२८-७४७]] AIMEducatan indaimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 950~ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||१६-३५|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) उत्तराध्य.IN प्रत सूत्रांक ||१६-३५|| रोच्छित्तितो मूलत एव न वेदनासम्भवः स्यादिति भावः ॥ 'एवं च चिंतइत्ता णति न केवलमुक्त्वा चिन्तयित्वा महानिर्म चैवं 'पासुत्तोमिति प्रसुप्तोऽस्मि परियट्टतिय'ति परिवर्त्तमानायाम्-अतिक्रामन्त्यां 'ततः' वेदनोपशमानन्तरं 'कल्ल'ति बृहद्वृत्तिः थीया कल्यो नीरोगः सन् 'प्रभाते' प्रातः, यद्वा 'कल' इति चिन्तादिनापेक्षया द्वितीयदिने प्रकर्षण अजितो-गतः प्रत्र॥४७६॥ जितः, कोऽर्थः -प्रतिपन्नवाननगारिताम् ॥ तत इति प्रव्रज्याप्रतिपत्तेरहं नाथो जातः-संवृत्तो, योगक्षेमकरणक्षम इति भावः, 'आत्मनः' खस्य 'परस्य वा अन्यस्य पुरुषादेः सर्वेषां भूतानां-जीवानां त्रसानां स्थावराणां चेति-बसदा स्थावरभेदभिन्नानामिति विंशतिसूत्रावयवार्थः॥ किमिति प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यनन्तरं नाथस्त्वं जातः पुरा तु न इत्याहहै। अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वर्ण ॥ ३३ ॥ ___ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टियमुपट्टिओ ॥ ३७॥ 'आत्मेति व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्यात्मैव नान्यः कश्चित् , किमित्याह-'नदी' सरित् 'वैतरणी' नरकनद्या नाम, तितो महाऽनर्थहेतुतया नरकनदीव, अत एवात्मैव कूटमिव जन्तुयातनाहेतुत्वाच्छाल्मली कूटशाल्मली नरकोद्भवा। तथाऽऽत्मैव कामान्-अभिलाषान् दोग्धि-कामितार्थप्रापकतया अपूरयति कामदुघा धेनुरिवधेनुः,इयं च रूढित उक्ता, P४७६॥ एतदुपमत्वं चाभिलापितवर्गापवर्गावाप्तिहेततया, आत्मैव 'मे' मम 'नन्दनं' नन्दननामकं धनम्' उद्यानम्, एत-II दौपम्यं चास्य चित्तप्रल्हत्तिहेतुतया ॥ यथा चैतदेवं तथाऽऽह-आत्मैव 'कर्ता' विधायको दुःखानां सुखानां चेति - --- दीप अनुक्रम [७२८-७४७]] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 951~ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥३६ -३७|| दीप अनुक्रम [७४८ -७४९] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || ३६-३७|| अध्ययनं [२०], योगः, प्रक्रमाचात्मन एव 'विकरिता च' विक्षेपकश्चात्मैव तेषामेव, अतश्वात्मैव 'मित्रम्' उपकारितया सुहृत् 'अमित्तं'ति 'अमित्रं च' अपकारितयाऽसुहृत् । कीदृक् सन् १ - दुष्पट्ठियसुप्पट्टिओ' त्ति, दुष्टं प्रस्थितः प्रवृत्तो दुष्प्र स्थितः दुराचारविधातेतियावत् सुष्ठु प्रस्थितः सुप्रस्थितः सदनुष्ठानकर्त्तेतियावत् योऽर्थः एतयोर्विशेषणसमासः, दुष्प्रस्थितो बात्मा समस्तदुःखहेतुरिति वैतरण्यादिरूपः सुप्रस्थितश्च सकलसुखहेतुरिति कामधेन्वादिकल्पः । तथा च प्रव्रज्याऽवस्थायामेव सुप्रस्थितत्वेनात्मनोऽन्येषां च योगकरणसमर्थत्वान्नाथत्वमिति सूत्रद्वयगर्भार्थः ॥ पुनर Jan Education indamational न्यथाऽनाथत्वमाह - इमा हु अन्नावि अणाहया निवा !, तामेगचिसो निहुओ सुणेहि मे । नियंधम्मं लहियाणवी जहा, सीयंति एगे बहुकायरा नरा ॥ ३८ ॥ जे पञ्चहत्ताण महन्वयाई, सम्मं (च)नो फासयई पमाया । अणिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिंदह बंधणं से ।। ३९ ।। आउत्सया जस्स य नत्थि कावि, इरियाद भासाइ | तहसणाए । आयाणनिक्लेवदुछणाए, न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ॥ ४०॥ चिरंपि से मुंडरुई भवित्ता, अधिरव्वए तवनियमेहिं भट्टे । चिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए ॥ ४१ ॥ पुल्लेष मुट्ठी जह से असारे, अयंतिते कूडकहावणे य । रादामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घर होइ हु जाणएस ॥ ४२ ॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय वहता । असंजए संजय लप्पमाणे, विणिघायमागच्छइ निर्युक्तिः [४२२R...] For PP Use On ~952~ ancy मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||३८-५०|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) उत्तराध्य- बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥४७७॥ ||३८-५०|| से चिरंपि ॥ ४३ ॥ विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीअं । एसेव धम्मो विसओव- महानिर्गवन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ॥ ४४ ॥जो लक्खणं सुविण पउंजमाणो, निमित्तकोऊहलसंपगाढे । कुहेडविज्ञासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तंमि काले ॥४५॥ तमंतमेणेव उ से असीले, सया दुही विपरि न्धीया० यासुवेइ । संधावई नरगतिरिक्खजोणी, मोणं विराहित्तु असाहुरूवे ॥ ४६॥ उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुच्चई किंचि अणेसणिज । अग्गीविवा सब्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कट्ट पावं ॥४७॥न तं अरी कंठ छित्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मधुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥४८॥ निरत्थया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तमट्टे विवयासमेह । इमेवि से नत्थि परेवि लोए, दुहओऽवि से झिज्झइ तत्थ लोए ॥ ४९ ॥ एमेवऽहाछंदकुसीलरूवे, मरगं विराहितु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरहसोया परितावमेह ॥५०॥ _ 'इयम्' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणा 'हु' पूरणे 'अन्या' अपरा 'अपिः' समुच्चये 'अनाथता' अखामिता, यदभावतोऽहं| नाथो जात इत्याशयः, 'णिय'त्ति नृप 'ता'मित्यनाथताम् 'एकचित्तः' एकाग्रमनाः 'निभृतः' स्थिरः शृणु, का| P४७७॥ पुनरसावित्याह-निर्ग्रन्थानां धर्म:-आचारो निर्ग्रन्थधर्मस्तं 'लभियाणवित्ति लब्ध्वाऽपि 'यथा' इत्युपप्रदर्शने 'सीदन्ति' तदनुष्ठानं प्रति शिथिलीभवन्ति 'एके' केचन ईषदपरिसमाप्ताः कातराः-निःसत्त्वाः बहुकातराः 'विभाषा सुपो SEX दीप अनुक्रम [७५०-७६२] For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 953~ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥३८ -५०|| दीप अनुक्रम [७५० -७६२] Jan Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||३८-५०|| अध्ययनं [२०], बहु च पुरस्ताविति प्राग्बहुप्रत्ययः, ये हि सर्वथा निःसत्त्वास्ते मूलत एव न निर्ग्रन्थमार्ग प्रतिपद्यन्त इत्येवमुच्यते, यदिवा कातरा एव बहवः संभवन्तीति बहुशब्दो विशेषणं, 'नराः' पुरुषाः' सीदन्तश्च नात्मानमन्यांश्च रक्षयितुं क्षमा इतीयं सीदनलक्षणाऽपराऽनाथतेति भावः ॥ 'जो पचइत्ताणे' त्यादि सूत्राणि सीदनस्यै वानेकधा स्वरूपानुवादतः | फलदर्शकानि स्पष्टान्येव नवरं 'नो स्पृशति' इति नासेवते 'प्रमादात्' निद्रादेरनिगृहीतः - अविद्यमानविषयनियन्त्रण आत्माऽस्येत्यनिग्रहात्मा, अत एव 'रसेषु' मधुरादिषु 'शृद्धः' रद्धिमान् वध्यतेऽनेन कर्मेति बन्धनं रागद्वेपात्मकं 'से' इति सः ॥ 'आयुक्तता' दत्तावधानता 'काचिदिति खल्पाऽपि 'आयागणिक्खेवदुगुणा एति आदाननिक्षेपयोःउपकरणग्रहणन्यासयोर्जुगुप्सनायाम्, इह चोचारादीनां संयमानुपयोगितया जुगुप्सनीयत्वेनैव परिस्थापना जुगुप्सनोक्ता, स ईकू किमित्याह — वीर्यातो—गतो वीरयातस्तम् 'अनुयाति' अनुगच्छति, नेति सम्बन्धः, अल्पस त्त्वतयेति भावः, कं १'मार्ग' सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिपथम् ॥ तथा च 'चिरमपि प्रभूतकालमपि मुण्ड एवमुण्डन एव केशापनयनात्मनि शेषानुष्ठानपराङ्मुखतया रुचिर्यस्यासौ मुण्डरुचिः, अस्थिराणि - गृहीतमुक्ततया चलानि व्रतान्यस्येत्य स्थिरत्रतः 'तपोनियमेभ्यः' उक्तरूपेभ्यः 'भ्रष्ट' च्युतश्विरमपि 'अप्पाण'त्ति आत्मानं 'क्लेश|यित्वा' लोचादिनां बाधयित्वा, आत्मनैवेति गम्यते, न 'पारगः' पर्यन्तगामी भवति 'दुः' वाक्यालङ्कारे 'संपराएति संपरायन्ति-भृशं पर्यटन्त्यस्मिन् जन्तव इति सम्परायः - संसारस्तस्य सूत्रे च सुव्यत्ययात्सप्तमी ४ ॥ स चैवं For PP Use On निर्युक्ति: [ ४२२R...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~954~ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥३८ -५०|| दीप अनुक्रम [७५० -७६२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४७८॥ Jain Educator “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||३८-५०|| अध्ययनं [२०], विधः पोल्लेत्यन्तःशुषिरा 'एव' इत्यवधारणे तेन पोलैब, न मनागपि निविडा 'मुष्टि: ' अङ्गुलिसन्निवेशविशेपात्मिका 'यथा' इति सादृश्ये, पठ्यते वा 'पोलारमुट्ठी जह'ति इहापि 'पोलर 'ति शुषिरा, असारत्वं चोभयोरपि सदर्थशून्यतया 'अयंतिय'त्ति 'अयत्रितः' अनियमितः कूटकार्षापणवत्, वाशब्दस्वेहोपमार्थत्वात्, यथा हासौ न केनचित्कूटतया नियन्त्र्यते, तथैषोऽपि गुरूणामप्यविनीततयोपेक्षणीयत्वात्, 'राढामणि'त्ति काचमणिर्वैडूर्यवत्प्रकाशते प्रतिभासत इति बेडूर्यप्रकाशः- वैडूर्यमणिसदृशः 'अमहार्घकः' इत्यमहामूल्यो भवति, 'चः' समुचये भिन्नक्रमस्ततोऽमहार्घकश्च 'जाणएस' त्ति ज्ञेषु मुग्धजनविप्रतारकत्वात्तस्य ॥ 'कुशीललिङ्गं' पार्श्वस्थादिवेषम् 'इह' अस्मिन् जन्मनि धारयित्वा 'ऋषिध्वजं' सुनिचिह्नं रजोहरणादि 'जीविय'त्ति आर्षत्वाज्जीविकायै 'बृंहयित्वा' इदमेव प्रधानमितिख्यापनेनोपवृद्ध यद्वा 'इसिज्झयमि' सुवव्यत्ययाद् ऋषिध्वजेन 'जीविय'त्ति बिन्दुलोपात् 'जीवितम्' असंयमजीवितं जीविकां वा निर्व|हणोपायरूपां बृंहयत्वेति- पोषयित्वाऽत एवासंयतः सन् 'संजय लप्पमाणेति प्राकृतत्वात्सोपस्कारत्वाच्च संयतमात्मानं लपन, पठ्यते च-'संजयलाभमाणे'त्ति आर्यत्वात् संयतलाभः - स्वर्गापवर्गाप्राप्तिरूपस्तं मन्यमानो ममायं भविष्यतीति गणयन् 'विनिघातं ' विविधाभिघातरूपम् 'आगच्छति' आयाति स 'चिरमपि' प्रभूतकालमप्या| स्तामल्पं नरकगत्यादाविति भावः ॥ इहैव हेतुमाह-विषं पिबन्तीति आर्यत्वात्पीतं यथा 'कालकूट' कालकूटनामकं 'हणाइ'त्ति हन्ति, चस्य च गम्यमानत्वात् शस्त्रं च यथा कुत्सितं गृहीतं कुगृहीतम् 'एसेब'त्ति एप एवं For Use Only निर्युक्तिः [४२२R...] ~955~ महानिर्म न्थीया० २० ४७८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥३८ -५०|| दीप अनुक्रम [७५० -७६२] Jan Education i “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||३८-५०|| अध्ययनं [२०], विषादिवत् 'धम्मो 'त्तिधर्मो यतिधर्मः 'विपयोपपन्नः' शब्दादिविषययुक्तो हन्ति, दुर्गतिपातहेतुत्वेन द्रव्ययतिमिति शेषः 'बेताल इवाविवण्ण'त्ति अविपन्नः अप्राप्तविपत् मन्त्रादिभिरनियत्रित इत्यर्थः, पठ्यते च- 'वेयाल इवाविवंधणो'त्ति इह च 'अविवन्धनः' अविद्यमानमब्रादिनियन्त्रणः, उभयत्र साधकमिति गम्यते ॥ यो लक्षणं 'सुविणो'त्ति खप्नं चोकरूपं 'प्रयुज्जानः' व्यापारयन् निमित्तं च-भौमादि कौतुकं च-अपत्याद्यर्थं रूपनादि तयोः संप्रगाढः - अतिशयासक्तो निमित्त कौतुकसंप्रगाढः 'कुहेडविज्ज'त्ति कुहेटकविद्या-अलीकाश्चर्यविधायिमत्रतत्रज्ञानात्मिकास्ता एव कर्मबन्धहेतुतयाऽऽश्रपद्वाराणि तैर्जीवितुं शीलमस्येति कुहेटकविद्याऽऽश्रवद्वारजीवी 'न गच्छति' न प्राप्नोति 'शरणं' श्राणं दुष्कृतरक्षाक्षमं 'तस्मिन्' फलोपभोगोपलक्षिते 'काले' समये ॥ अमुमेवार्थ भावयितुमाह- 'तमं | तमेणेच उत्ति अतिमिध्यात्वोपहततया 'तमस्तमसैव' प्रकृष्टाज्ञानेनैव 'तुः' पूरणे' सः' द्रव्ययतिः अशीलः सदा दुःखी विराधनाजनितदुःखेनैव 'विप्परियासुवेद' त्ति विपर्यासं तत्त्वादिषु वैपरीत्यम् 'ज्येति' उपगच्छति, ततश्च 'संधावति' सततं गच्छति नरकतिर्यग्योनीः 'मौनं' चारित्रं विराध्य 'असाधुरूपः' तत्त्वतोऽयतिस्वभावः सन् अनेन विराधनाया अनुबन्धवत्फलमुक्तम् ॥ कथं पुनर्मोनं विराध्य कथं वा नारकतिर्यग्गतीः संधावतीत्याह - 'उद्देसिय' मित्यादि, क्रयणं क्रीतं तेन कृतं - निर्वर्त्तितं क्रीतकृतं नित्यागं' नित्यपिण्डम् 'अग्गीविव'त्ति अग्निरिव प्राकृतत्वादाकारः सर्वम्-अप्राशुकमपि भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वभक्षी भूत्वा कृत्वा च पापमिति योगः, 'गच्छति' याति कुगतिमिति शेषः ।। For PP Use On निर्युक्तिः [४२२R...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~956~ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||३८-५०|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) प्रत उत्तराध्य- बृहद्वृत्तिः ॥४७॥ सूत्रांक ||३८-५०|| यतश्चैवं दुचरितैरेव दुर्गतिप्रातिरतः 'न' व 'तम्' इति प्रस्तावादन] 'कण्ठछेचा' प्राणहर्ता 'से' तस्य 'दुरप्प' तिमहानिर्गप्राकृतत्वात् 'दुरात्मता' दुष्टाचारप्रवृत्तिरूपा, न चैनामाचरन्नपि जन्तुरत्यन्तमूढतया वेत्ति, ततः किमुत्तरकालमपि ना वेत्स्यतीत्याह-'स' दुरात्मताकर्ता ज्ञास्यति प्रक्रमाद् दुरात्मतां 'मृत्युमुखं तु' मरणसमयं पुनः प्राप्तः पश्चादनुता-16 पेन-हा दुष्ठु मयाऽनुष्ठितमित्येवंरूपेण, दया-संयमः सत्याधुपलक्षणमहिंसा वा तद्विहीनः सन् , मरणसमये हि प्रायोऽतिमन्दधर्मस्यापि धर्माभिप्रायोत्पतिरित्येवमभिधानं, यतश्चैवं महाऽनर्थहेतुः पश्चात्तापहेतुश्च दुरात्मता तत आदित एव मूढतामपहाय परिहर्त्तव्येयमिति भावः॥ यस्तु मृत्युमुखप्राप्तोऽपि न तां वेत्स्यति तस्य का वार्तेत्याह'णिरहिए' इत्यादि, निरर्थिका तुशब्दस्वकारार्थस्येह सम्बन्धात् 'निरर्थकैव' निष्फलैव नाम्ये-श्रामण्ये रुचिः-11 इच्छा नाग्यरुचिस्तस्य 'जे उत्तमति सुव्यत्ययादपेश्च गम्यमानत्वाद् 'उत्तमार्थेऽपि' पर्यन्तसमयाराधनारूपेऽपि आस्तां पूर्वमित्यपिशब्दार्थः 'विपर्यासं' दुरात्मतायामपि सुन्दरात्मतापरिज्ञानरूपम् 'एति' गच्छति, इतरस्य तु कथञ्चित्स्यादपि किञ्चित्फलमिति भावः, किमेवमुच्यते ?, यतः 'इमेवित्ति अयमपि प्रत्यक्षो लोक इति सम्बन्धः, 'से' इति तस्य । 'नास्ति' न विद्यते, न केवलमयमेव परोऽपि लोको-जन्मान्तरलक्षणः, तत्रेहलोकाभावः शरीरक्लेशहेतुलोचादिसेवनात् । परलोकाभावश्च कुगतिगमनतः शारीरमानसदुःखसम्भवात् ,तथा च दुहतोऽवित्ति द्विधाऽपि ऐहिकपारत्रिकार्थाभावेन 'स झिज्झई' त्ति, स ऐहिकपारत्रिकार्यसम्पत्तिमतो जनान् विलोक्य धिग् मामपुण्यभाजनमुभयभ्रष्टतयेति चिन्तया दीप अनुक्रम [७५०-७६२] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~957~ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||३८-५०|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३८ -५०|| क्षीयते, 'तत्र' इत्युभयलोकाभावे सति 'लोके' जगति ॥ यदुक्तं स ज्ञास्यति पश्चादनुतापेनेति,तत्र यथाऽसौ परितप्यते तथा दर्शयन्नुपसंहारमाह-एवमेव' उक्तरूपेणैव महाव्रतास्पर्शादिना प्रकारेण 'यथाच्छन्दाः' खरुचिविरचिताचाराः कुशीला:-कुत्सितशीलास्तद्रूपः-तत्वभावः 'कुररीव' पक्षिणीय 'णिरहसोय'त्ति निरर्थी-निष्प्रयोजनः शोको यस्याः |सा निरर्थशोका 'परितापं' पश्चात्तापरूपम् 'एति' गच्छति, यथा चैषाऽऽमिषगृद्धा पक्ष्यन्तरेभ्यो विपत्प्राप्ती शोचते न च ततः कश्चिद् विपत्प्रतीकार इति,एवमसावपि भोगरसमृद्ध ऐहिकामुष्मिकानर्थप्राप्तौ, ततोऽस्य स्खपरपरित्राणासमर्थत्वेनानाथत्वमिति भाव इति त्रयोदशसूत्रार्थः ॥ एतत् श्रुत्वा यत्कृत्यं तदुपदेष्टुमाह सुचाण मेहावि सुभासियं इमं, अणुसासणं नाणगुणोववेयं । मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं, महानियंठाण वए पहेणं ॥५१॥ सुगम, नवरं 'महावित्ति मेधाविन् ! सुष्टु-शोभनप्रकारेण भाषितं सुभाषितम् 'इमम्' इत्यनन्तरोक्तम् 'अनुशासन' विषदनदोषदर्शनेनावृत्त्या शिक्षणं ज्ञानस्य गुणो ज्ञात्वा विरमणात्मकस्तेन, ज्ञानगुणाभ्यां योपपेतं-युक्तं ज्ञानगुणोपपेतं 'वयेत्ति बजेस्त्वं'पहेणं'ति पथा' मार्गेण महानिर्ग्रन्थानामिति सम्बन्धः ॥ ततः किं फलमित्साह चरित्तमायारगुणन्निए तओ, अणुत्तरं संजम पालिया णं । - निरासवे संखविया ण कम्म, उचेइ ठाणं विलुउत्तम धुवं ॥५२॥ दीप अनुक्रम [७५०-७६२] EX JAREairatam For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 958~ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-]/गाथा ||२|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| उत्तराध्य. 'चरित्तमायारगुणन्निए'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, चरित्रस्याचरणम् आचार:-आसेवनं स एव गुणः, यद्वा गुणो-15 महानिर्मवृहद्वृत्तिः है ज्ञानं ततस्तेन ताभ्यां चाऽन्वितश्चारित्राचारगुणान्वितः 'ततः' महानिर्ग्रन्थमार्गगमनाद् 'अनुत्तरं' प्रधानं 'संजम न्धीया पालिया णं'ति 'संयम' यथाख्यातचारित्रात्मकं 'पालयित्वा' आसेव्य 'निराश्रवः' हिंसाद्याश्रवरहितः सन् क्षप-al ॥४८॥ यित्वा यदिया 'संखविया 'ति 'सापय्य' संक्षयं नीत्वा 'कर्म' ज्ञानावरणीयादि 'उपैति' उपगच्छति 'स्थान' पदं विपुलं च तदनन्तानामपि तत्रावस्थितरुत्तमं च प्रधानत्वाद् विपुलोत्तमं 'ध्रुवं' निसं मुक्तिपदमितियावदिति सूत्रार्थः ॥ सर्वोपसंहारमाह एबुग्गदतेवि महातबोधणे, महामुणी महापदणे महापसे। महानियंठिजमिण महासुअं, से काहए महया वित्थरेणं ॥५३ ॥ 'एवम्' उक्तप्रकारेण 'से काहए'त्ति स श्रेणिकपृष्टो मुनिरकथयत्, तत्कालापेक्षया कथयति वेति सम्बन्धः, उग्रः-उत्कटः कर्मशत्रुजयं प्रति स एव 'दान्तः प्राग्वत् उग्रदान्तः अपिः पूरणे महाप्रतिज्ञः' अतिदृढवताभ्युपगमोऽत ॥४८॥ एव महायशा महानिग्रन्थेभ्यो हितं महानिग्रन्थीयम् इदम्' अनन्तरोक्कं, शेष स्पष्टमिति सूत्राधेः ॥ ततश्च तुट्टो अ सेणिओ राया, इणमुदाहु कयंजली । अनाहयं जहाभूयं, सुहु मे उचदंसियं ॥५४॥ तुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी । तुन्भे सणाहा य सबंधवा य, जंभे ठिया मग्गि जिणु % दीप अनुक्रम [७६४] 4 AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv wrancibaram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 959~ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||१४-१७|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५४-५७|| तमाणं ॥ ५५ ॥ तसि नाहो अणाहाणं, सब्वभूयाण संजया!। खामेमि ते महाभाग!, इच्छामि अणुसासिउं ॥५६॥ पुच्छिऊण मए तुम्भं, झाणविग्यो य जं कओ। निमंतिया य भोगेहि,तं सव्वं मरिसेहि मे।।५७॥ & सूत्रचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं तुष्टश्चेति 'चः' पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, ततः श्रेणिकः पुनरिदमाह-'यथाभूतं' यथाऽवतस्थितम् उपदर्शितं त्वयेति प्रक्रमः, 'सुलद्धं खुत्ति सुलब्धमेव 'लाभाः' वर्णरूपाधयाप्तिरूपा धर्मविशेषोपलम्भात्मका । वा सुलब्धा उत्तरोत्तरगुणप्रकपहेतुत्वात् , सनाथाश्च सबान्धवाश्च तत्त्वत इति गम्यते, 'यद' यस्माद् 'मे' इति भवन्तो, जिनोत्तममार्गस्थितत्वं सुलब्धजन्मत्वादी हेतुः 'तंसी ति पूर्वार्द्धन पुनरुपबृंहणा कृता, उत्तरार्द्धन तु क्षमयणोपसंपन्नते दर्शिते, इह तु 'ते'त्ति त्यां। 'अणुसासिउति 'अनुशासयितुं' शिक्षयितुमात्मानं भवतेति गम्यते, पुनः क्षमणामेव विशेषत आह-पृष्ट्वा 'कथं त्वं प्रथमघयसि प्रवजित' इत्यादि पर्युनुयुज्य निमन्त्रिताश्च भोगैयदिति सम्बन्ध इति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ सकलाध्ययनार्थोपसंहारमाह|| एवं थुणित्ताण स रायसीहो, अणगारसीह परमाइ भत्तिए । सओरोहो य सपरियणो [सबंधवो याद धम्माणुरसो विमलेण चेयसा ।।५८॥ ऊससियरोमकूवो, काऊण य पयाहिणं । अभिवंदिऊण सिरसा, अइयाओ नराहिवो ॥ ५९॥ इयरोवि गुणसमिद्धो तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य। विहग इव विप्पमुक्को विहरह वसुहं विगयमोहु ॥६०॥ त्तिवेमि ॥ EXAHARASHTRA दीप अनुक्रम [७६६ -७६९] For PAHATEEPIVanupontv Farjancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 960~ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२०], मूलं [-] / गाथा ||५८-६०|| नियुक्ति: [४२२R...] (४३) महानिर्य प्रत सूत्रांक ||५८ उत्तराध्य. ॥ महानियंठिनं ॥२०॥ बृहद्वृत्तिः हा राजा चासो सिंहश्चातिपराक्रमवत्तया राजसिंहः, अनगारस्य च सिंहत्वं कर्ममृगानू प्रत्सतिदारुणत्वात् प्रशंसा॥४८॥ ख्यापकं वा उभयत्र सिंह इति, साबरोधः'सान्तःपुरः सपरिजनः सपरिवार विमलेन' विगत मिथ्यात्वमलेन ।उसिता| इयोच्छ्वसिताः-उद्भिन्ना रोमकूपा-रोमरन्धाणि यस्यासावुच्छसितरोमकूपः 'अतियातोत्ति 'अतियातः' गतः। स्वस्थानमिति गम्यते, 'इतरः संयतः सोऽपि हि विहग इव' पक्षीव 'विप्रमुक्तः' क्वचिदपि प्रतिबन्धविरहितो विहरतीति वर्चमाननिर्देशः प्राग्वत्, 'विगतमोहः' विगतवैचित्त्यः, शेषं सुगममिति सूत्रत्रयार्थः ॥ इति'। आपरिसमाप्सो, ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्तेऽपि प्राग्वदेव ।। इति श्रीशान्याचार्यविरचितायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां महानिर्ग्रन्थीयं नाम विंशतितममध्ययनं समाप्तमिति ॥ २०॥ -६०|| दीप अनुक्रम [७७०-७७२] ॥४८॥ इति श्रीशान्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीविंशतितममध्ययनं समाप्तम् ।। wwwwww wwwk JAIMEducatan intimation For ancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २० परिसमाप्तं ~ 961~ Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति : [४२३-४२४] (४३) अथ समुद्रपालीयं एकविंशमध्ययनम्। प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्यातं महानिर्ग्रन्धीयं नाम विंशतितममध्ययनम् , इदानीमेकविंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःअनन्तराध्ययनेऽनाथत्वमनेकधोक्तम् , इह तु तदालोचनाद्विविक्तचर्ययैव चरितव्यमित्यभिप्रायेण सैवोच्यत इत्यने-12 नाभिसम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्य प्राग्वदनुयोगद्वारचतुष्टयं प्ररूप्यं तावद् यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे समुद्रपालीयमिति है नामातः समुद्रपालनिक्षेपाभिधानायाह नियुक्तिकृत्समुद्देण पालिअंमि अ निक्खेषु चउक्कओ दुविह दव। आग०॥ ४२३ ॥ समुद्दपालिआऊ वेयंतो भावओ य नायवो । तत्तो समुट्रिअमिणं समुद्दपालिजमज्झयणं ॥ ४२४ ॥ गाथाद्वयं प्रतीतार्थमेव,नवरं समुद्रपालनिक्षेपप्रस्ताये यत्समुद्रेण पालित इत्युक्तं तत्समुद्रपाल इत्यत्र समुद्रेण पाल्यते । स्मेति समुद्रपाल इति व्युत्पत्तिख्यापनार्थमिति गाथाद्वयार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिदष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सति सूत्र इति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् चंपाए पालिए नाम, सावए आसि वाणिए । महावीरस्स भगवओ, सीसो सो च महप्पणो ॥१॥ HerCE% दीप अनुक्रम [७७३] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - २१ "समुद्रपालीय" आरभ्यते ~962~ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-1 / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति: [४२४, (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य- निग्गंथे पावयणे, सावए से विकोविए । पोएण ववहरंते, पिहुंडं नयरमागए ॥२॥ पिहुंडे ववहरंतस्स, समुद्रपा वाणिओ देह धूअरं । तं ससत्तं पइगिज्झ, सदेसमह पत्थिओ॥३॥ अह पालियस्स घरणी, समुद्दमि पसबृहद्वृत्तिः लीया. वई । अह दारए तहिं जाए, समुद्दपालित्ति नामए ॥४॥ खेमेण आगए चंप, सावए वाणिए घरं । संवहई घरे। ॥४८॥ तस्स, दारए से सुहोइए ॥५॥ बावत्तरीकलाओ अ, सिक्खिए नीइकोविए। जुठवणेण य अप्फुण्णे, सुरुवे पियदसणे ॥६॥ तस्स रूववइं भज्जू, पिया आणेइ रूविणिं । पासाए कीलए रम्मे, देवो दोगुंदगो जहा ॥७॥ अह अन्नया कयाई, पासायालोअणे ठिओ । वज्झमंडनसोभाग, बज्झं पासइ बज्झगं ॥८॥ तं, पासिऊण संविग्गो, समुद्दपालो इणमब्बची। अहो असुहाण कम्माणं, निजाणं पावगं इमं ॥९॥ संवुद्धो दूसो तहिं भयवं परमं संवेगमागओ। आपुच्छऽम्मा पियरो, पव्वए अणगारियं ॥ १०॥ सूत्राणि दश । इदमुत्तरं चाध्यनं क्वचित्सोपस्कारतया व्याख्यास्यते-'चम्पायां' चम्पाऽभिधानायां पुरि पालितो नाम सार्थवाहः श्रावकः' श्रमणोपासकः 'आसीत् अभूद् वणिगेव वणिजः-पणिग्जातिः महावीरस्य भगवतः 'शिष्यः || विनेयः स इति, सतुः विशेषणे 'महात्मनः' प्रशस्वात्मनः । स च कीरगित्याह-'नैनन्धे' निर्गन्धसम्बन्धिनि ४८२] पावयणे ति प्रवचने श्रावकः सः इति पालितो विशेषेण कोविदः-पण्डितो विकोविदः, कोऽर्थः ?-विदितजीवादिपदार्थः 'पोतेन व्यवहरन्' प्रवहणवाणिज्यं कुर्वन् 'पिहुण्डं' पिटुण्डनामकं नगरम् 'आगतः'प्राप्तः। तत्र च पिहुण्डे | दीप अनुक्रम [७७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~963~ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥२-१०॥ दीप अनुक्रम [७७४ -७८२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२-१०|| अध्ययनं [२१], Education intimatin | व्यवहरते तद्गुणाकृष्टचेताः कश्चिद्वाणिजो 'ददाति' यच्छति 'धूयरं 'ति दुहितरम्, उदूढवांश्च तामसी, स्थित्वा च तत्र कियन्तमपि कालं तां 'ससत्त्वा' मित्यापन्नसत्त्वां 'परिगृ' आदाय वदेशम् 'अथ' अनन्तरं 'प्रस्थितः' चलितः । तत्र चागच्छतोऽथ पालितस्य गृहिणी 'समुद्र' जलधौ 'प्रसूते' गर्भं विमुञ्चति स्पेति शेषः, 'अथेत्युपन्यासे 'दारकः' सुतः 'तस्मिन्' इति प्रसवने 'जातः' उत्पन्नः समुद्रपाल इति 'नामतो' नामाश्रित्य । क्रमेण चागच्छन् 'क्षेमेण' कुशलेनागतवम्पायां श्रावको बाणिजः 'घरं'ति चस्य गम्यमानत्वाद गृहं च स्वकीयं कृतं च तत्र वर्द्धापनकादि, संवर्द्धते च 'गृहे' वेश्मनि, 'तस्य' इति पालिताभिधानवणिजो दारकः सः 'सुखोचितः' सुकुमारः । एवं च प्राप्तः कलाग्रहण| योग्यतां द्विसप्ततिकलाच शिक्षितः, शिक्षते वा पाठान्तरतः, जातश्च 'नीतिकोविदः' न्यायाभिज्ञः, 'जोबणेण य अप्फुण्णे' त्ति, चस्य भिन्नक्रमत्वाद्यौवनेन 'आपूर्णश्च' परिपूर्णशरीरश्च, पठ्यते च -- ' जोवणेण य संपण्णेति, तत्र च 'संपन्नः' युक्तोऽत एव 'सुरूपः सुसंस्थानः 'प्रियदर्शनः सर्वस्यैवानन्ददाता । परिणयनयोग्यतां च तस्य विज्ञाय 'रूपवती' विशिष्टाकृतिं भार्या' पत्नी 'पिता' पालितवणिग् 'आनयति' तथाविधकुलादागमयति 'रूपिणीं' रूपिणीनाम्नीं, परिणायितश्च तामसी, प्रासादे क्रीडति-रमंति तथा सह 'रम्ये' अभिरतिहेती देवो दोगुन्दको यथा । अथान्यदा कदाचित् 'प्रासादालोकने' उक्तरूपे स्थितः सन् वधमर्हति वध्यस्तस्य मण्डनानि - रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः | शोभा - तत्कालोचितपरभागलक्षणा यस्यासौ वध्यमण्डनशोभाकस्तं 'वध्यं' बधाई कञ्चन तथाविधाकार्यकारिणं For PP Use On निर्युक्ति: [४२४,,,] ~964~ www.janciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति: [४२४,] (४३) प्रत सूत्रांक E- ||२-१०|| उत्तराध्यापश्यति बाह्य-नगरवहिवर्तिप्रदेशं गच्छतीति बाह्यगस्तं, कोऽर्थः-बहिनिष्क्रामन्तं, यद्वा 'वध्यगम्' इह वध्यश-17 समुद्रपाहतिब्देनोपचाराद्वध्यभूमिरुक्ता । तथाविधं वयं दृष्ट्वा संवेगः-संसारवैमुख्यतो मुक्त्यभिलाषस्तद्वेतुत्वात्सोऽपि संवेगस्तं 3 लीया. समुद्रपालः 'इदं वक्ष्यमाणमत्रवीत् , यथा-अहो ! 'अशुभानां कर्मणां पापानामनुष्ठानानां 'निर्याणम्' अवसानं ॥४८ ॥ पापकम्' अशुभम् 'इदं' प्रत्यक्षं यदसौ वराको वधार्थमित्थं नीयत इति भावः । एवं परिभावयन् 'संबुद्धः' अवग-18 ततत्त्वः 'सः' वणिकपुत्रः 'तो'ति तस्मिन्नेव प्रासादालोकने 'भगवान्' माहात्म्यवान् , माहात्म्येऽपि भगवच्छब्दस्य दर्शनात् , परं-प्रकृष्टं संवेगमागतः, ततश्चापृच्छय मातापितरौ 'पवये ति 'पाबाजीत्' प्रकर्षण गतवान् , कोऽर्थः ?-प्रतिपन्नवान् , 'अनगारितां निस्सङ्गतामिति सूत्रदशकार्यः । सम्प्रति अनुवादोऽपि स्पष्टताहेतुाख्याङ्गमिति ख्यापनायैवोक्तमेवार्थमनुवदन् विशेषं च वदन्नाह नियुक्तिकारःचंपाएँ सत्थवाहो नामेणं आसि पालिओ नामं । वीरवरस्स भगवओ सो सीसो खीणमोहस्स ॥ ४२५॥ अह अन्नया कयाई पोएणं गणिमधरिमभरिएणं । तो नगरं संपत्तो पिहुंडं नाम नामेणं ॥४२६ ॥ ववहरमाणम्स तहिं पिहुंडे देइ वाणिओ धूअं । तंपि अ पत्तिं चित्तूण निग्गओ सो सदेसस्स ॥४२७॥3 अह सा सस्थाहसुआ समुदमझमि पसवई पुत्तं । पिअदसणसवंगं नामेण समुद्दपालित्ति ॥ ४२८॥ L OG दीप अनुक्रम [७७४-७८२] ॥४८३॥ PHOTREPwamonth मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~965~ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२१], मूलं [-] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति: [४२५-४३५] (४३) प्रत सूत्रांक खेमेणं संपत्तो सो पालिअ सावगो घरं निययं धाईदसद्धपरिवुडो अह बडइ सो उदहिनामो॥२९॥ बावत्तरि कलाओ असिक्खिओ नीइकोविओ जाहे। तो जुवणमप्फुन्नो जाओ पिअदंसणो अहि॥३०॥ अह तस्स पिआ पत्तिं आणेई रूविणित्ति नामेणं । चउसट्रिगुणोवेयं अमरवहणं सरिसरूवं ॥ ४३१ ॥ अह रूविणीइ सहिओ कीलइ सो भवणपुंडरीअंमि।दोगुदगुव देवो किंकरपरिवारिओ निच्चं ॥ ४३२॥ अह अन्नया कयाई ओलोअणसंठिओ सदेवीओ। वज्झं नीणिजंतं अन्निजंतं जणसएहिं ॥ ४३३ ॥ अह भणइ सन्निनाणी भीओ संसारिआण दुक्खाणं । नीआण पावकम्माण हा जहा पावगं इणमो ४३४४ ऐ संबुद्धो सो भयवं संवेगमणुत्तरं च संपत्तो । आपुच्छिऊण जणए निक्खंतो खायजसकित्ती ॥ ४३५॥ व्याख्यातप्राया एव, नवरं 'वीरवरस्स'त्ति नामतोऽन्येऽपि वीराः संभवन्ति स तु भगवान् भावतोऽपि वीर इति प्राधान्यख्यापकं वरग्रहणम् , अनेन भगवत्समकालतामध्यस्य दर्शयति, गणिमधरिमभरिएणति गणिमं-पूगफलादि धरिम-सुवर्णकादि । प्रियदर्शनानि-सकलजनाभिमतावलोकनानि सर्वाण्यङ्गानि-शिरउरःप्रभृतीन्यस्पेति प्रियदर्शनसर्वाङ्गस्तम् । 'धाईदसद्धपरिबुडे'त्ति दशार्द्धधात्रीपरिवृतो, दशार्द्ध च पञ्च ताश्च क्षीरमजनमण्डन -%A4%95%A6-%%% ||२-१०|| दीप अनुक्रम [७७४-७८२] % * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~966~ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-1 / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति: [४२५-४३५] (४३) प्रत सूत्रांक ||२-१०|| उत्तराध्य. क्रीडनाधात्र्यः, 'उदधिनामा' उदधिसमानार्थसमुद्रपदोपलक्षिताभिधानः समुद्रपालनामेति यावत् । 'जोवणम- समुद्रपा दप्फुण्ण'त्ति मकारोऽलाक्षणिको जातः प्रियदर्शनः 'अधिक'मित्यतिशयेन सविशेषलावण्यहेतुत्वाद् यौवनस्य, चतुःप- ली बृहद्वृत्तिः ||ष्टिगुणा अश्वशिक्षादिकलाप्टकरहिताः कला एव विज्ञानापरनामिका उच्यन्ते, 'भवनपुण्डरीके' भवनप्रधाने, ॥४८४॥ 13पुण्डरीकशब्दस्पेह प्रशंसावचनत्वात् । वध्यं पश्यतीति शेषः, 'नीणिजंत'न्ति नीयमानम् ('अणिजंत'न्ति) 'अन्वी-181 दयमानम्' अनुगम्यमानं जनशतैरविवेकिभिरिति गम्यते, पठन्ति च-'बझं णीणीजंते पेच्छा तो सो जणवएहिंति स्पष्टं, सजी-सम्यग्दृष्टिः स चासौ ज्ञानी च सजिज्ञानी भीतः' त्रस्तः सन् सांसारिकेभ्यो दुःखेभ्य इति, आपत्वाच सुव्यत्ययः, किं भणतीत्साह-'नीचानां' निकृष्टानां 'पापकर्मणां' पापहेत्वनुष्ठानानां चौर्यादीनां दाहा' इति खेदे यथा पापकं फलमिति गम्यते, 'इणमोत्ति 'इदं' प्रत्यक्षं, किमुक्तं भवति?-यथाऽस्य चौरस्थानिष्टं फलं पापकर्मणां तथाऽस्मादृशामपीति नियुक्तिगाधैकादशकार्थः ॥ प्रत्रज्य च यदसौ कृतवांस्तदाह सूत्रकृत् जहिज सरगंथ महाकिलेसं, महंतमोहं कसिणं भयाणगं। परियायधम्म चऽभिरोअइजा, क्याणि सीलाणि 2 परीसहे य ॥१५॥ अहिंस सचं च अतेणगं च, तसो अ बंभं अपरिग्गहं च । पडिबजिया पंच महब्बयाणि,6 दाचरिज धम्म जिणदेसियं विऊ ॥ १६ ।। सब्वेहि भूएहि दयाणुकंपी, चंतिक्वमे संजयवंभयारी । सावज*जोगे परिवजयंतो, चरिज भिक्खू सुसमाहिईदिए ॥१७॥ कालेण कालं विहरिज रहे, बलापलं जाणिष। दीप अनुक्रम [७७४-७८२] For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र गाथा क्रम ||११,१२,.....||एव वर्तते, परन्तु मूल संपादने मुद्रण अशुद्धित्वात् क्रमांकने ||१५.१६...||इति मुद्रितं ~967~ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -२३|| दीप अनुक्रम [७८३ -७९५] Jain Educato “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||११-२३|| अध्ययनं [२१], अप्पणी अ । सीहो व सद्देण न संतसिज्जा, वइजोग सुच्चा न असम्भमाह ॥ १८ ॥ उबेहमाणो उ परिव्वइज्जा, पियमप्पियं सव्व तितिक्खड़ज्जा । न सव्य सब्वत्थऽभिरोअइज्जा, न यावि पूर्य गरिहं च संजए ॥ १९ ॥ अणेग छंदा मिह माणवेहिं, जे भावओ से पकरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उति भीमा, दिव्या मणुस्सा | अदुवा तिरिच्छा ||२०|| परीसहा दुब्बिसहा अणेगे, सीयंति जत्था बहुकायरा नरा से तत्थ पत्ते न वहिज पंडिए, संगामसीसे इव नागराया ॥ २१ ॥ सीओसिणा दंसमसगा य फासा, आर्यका विविहा फुसंति देहं । अक्कुक्कुओं तत्थऽहियासइज्जा, रयाई खेविज पुराकडाई ॥ २२ ॥ पहाय रागं च तहेव दोर्स, मोहं च भिक्खू सययं विक्खणे । मेरुव्व वाएण अकंपमाणे, परीसहे आयगुत्ते सहिज्जा ॥ २३ ॥ अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि पूयं गरिहं च संजए। से उज्जुभावं परिवज्र संजए, निव्वाणमग्गं विरए उबेइ ॥ २४ ॥ अरहरइसहे पहीणसंथवे, बिरए आयहिए पहाणवं । परमट्टपएहिं चिट्ठई, छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥ २५ ॥ विवित्तलयणाई भहज ताई, निरोवलेवाई असंथडाई । इसीहिं चिन्नाहं महायसेहिं, कारण फासिज परीसहाई ॥ २६ ॥ सण्णाणनाणोवगए महेसी, अणुत्तरं चरियं धम्मसंचयं । अणुत्तरेनाणधरे जसंसी, ओभासई सूरिए वंडत लिक्खे ॥ २७ ॥ त्रयोदश सूत्राणि प्रायः सुगमान्येव, नवरं 'हित्वा' खक्त्वा संवासी प्रन्बश्व सग्रन्थः, प्राकृतत्वाविन्दुलोपस्तं, For Parent निर्युक्तिः [४३५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित अत्र गाथा क्रम ||११,१२,...|| एव वर्तते, परन्तु मूल संपादने मुद्रण अशुद्धित्वात् क्रमांकने || १५.१६...|| इति मुद्रितं आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~968~ jancibrary urg Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-] / गाथा ||११-२३|| नियुक्ति: [४३५...] (४३) प्रत सूत्राक ॥११ -२३|| उत्तराध्य. पठन्ति च–'जहित्तु संगं चत्ति जहाय संग च'त्ति या उभयत्र हित्वा 'सझं खजनादिप्रतिबन्धं 'चः' पूरणे निपातः, समुद्रपामहान् क्लेशो यस्माद्यस्मिन् वा तं महाक्लेशं, 'महंतमोहति महान् मोहः-अभिष्वङ्गो यस्मिन् यतो वा तं तथा-1 लीयाविधं, 'कसिणं'ति कृत्यं कृष्णं वा कृष्णलेश्यापरिणामहेतुत्वेन 'भयानकं' महाक्लेशादिरूपत्वादेव विवेकिनां भया॥४८५॥ वह 'परियाय'त्ति प्रक्रमात् प्रत्रज्यापर्यायस्तत्र धर्मः पर्यायधर्मस्तं, चशब्दः पादपूरणे, 'अभिरोयएज्ज'त्ति आर्ष-18 आस्वाद् बस्तन्यर्थे सप्तमी, ततः 'अभ्यरोचत' अभिरोचितवान् तदनुष्ठानविषयां प्रीतिं कृतवान् , उपदेशरूपतां च तन्त्र-| न्यायेन ख्यापयितुमित्थं प्रयोगः, यद्वाऽऽत्मानमेवायमनुशास्ति-यथा हे आत्मन् ! सझं त्यक्त्वा प्रवज्याधर्ममभिदारोचयेद् भवान् , एवमुत्तरक्रियासपि यथासम्भवं भावनीयं, प्रत्रज्यापर्यायधर्ममेव विशेषत आह-'प्रतानि' महा-13 तानि 'शीलानि पिण्डविशुद्धवाद्युत्तरगुणरूपाणि 'परीषहान्' इति भीमसेनन्यायेन परीपहसहनानि च । एतदभिरुच्य तदनन्तरं च यत् कृतवांतदाह-अहिंसां सत्यमस्तैन्यकं च 'तत्तो अवभं अपरिग्गहं च'त्ति ततश्च ब्रह्मचर्यसमपरिग्रहं च 'प्रतिपद्य' अङ्गीकृत्य 'अब्बभपरिग्गहं च' इति तु पाठे परिवर्य चेत्यध्याहार्य 'पञ्च महाव्रतानि' उक्त-2 का॥४८५॥ रूपाणि 'चरेजति प्राग्यदचरत् , नाङ्गीकृत्यैव तिष्ठेदिति भावः, 'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं जिनदेशितं 'विऊ'त्ति विद्वान्जानानः । 'सबेहिं भूपहि' सुब्व्यत्ययात् 'सर्वेषु' अशेषेषु प्राणिषु दयया-हितोपदेशादिदानात्मिकया रक्षणरूपया वाऽनुकम्पनशीलो दयानुकम्पी पाठान्तरतो दयानुकम्पो वा, क्षान्त्या न त्वशक्त्या क्षमते-प्रत्पनीकायुदीरितदु-1 दीप अनुक्रम [७८३-७९५]] AIMEducatan intarnational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र गाथा क्रम ||११,१२,.....||एव वर्तते, परन्तु मूल संपादने मुद्रण अशुद्धित्वात् क्रमांकने ||१५.१६...||इति मुद्रितं ~969~ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२१], मूलं [-] / गाथा ||११-२३|| नियुक्ति: [४३५...] प्रत सूत्राक ॥११ -२३|| वचनादिकं सहत इति क्षान्तिक्षमः, संयत इति संयतः स चासौ प्रमचारी च संयतब्रह्मचारी पूर्व ब्रह्मप्रति-1 पत्त्या गतत्वेऽपि ब्रह्मचारीत्यभिधानं ब्रह्मचर्यस्य दुरनुचरत्वख्यापनार्थम् , अनेन च मूलगुणरक्षणोपाय उक्तः ।। 'कालेण कालं'ति रूढितः काले प्रस्तावे यद्वा कालेन-पादोनपौरुष्यादिना कालमिति-कालोचितं प्रत्युपेक्षणादि कुर्वन्निति शेषः, 'राष्ट्र' मण्डले 'बलायलं' सहिष्णुत्वासहिष्णुत्वलक्षणं ज्ञात्वाऽऽत्मनः यथा यथाऽऽत्मनः संयमयोगहानिर्न जायते तथा तथेत्यभिप्रायः, अन्यच्च सिंहवत् 'शब्देन' प्रस्तावाद्भयोत्पादकेन 'न समत्रस्यत्' नैव सत्त्वाचलितवान्, सिंहदृष्टान्ताभिधानं च तस्य सात्त्विकत्वेनातिस्थिरत्वात् , अत एव च वाग्योगम् अर्थाद् दुःखोत्पादक 'सोच'त्ति श्रुत्वा 'न' नैव 'असभ्यम्' अश्लीलरूपम् 'आहुत्ति उक्तवान् । तर्हि किमयमकरोदित्याह-'उपेक्षमाणः' तमवधीरयन् पर्यव्रजत, तथा 'प्रियम्' अनुकूलम् 'अप्रियम् । अननुकूलं 'सब तितिक्खएजति सर्वम् 'अतितिक्षत' सोढवान् , किञ्च-'न सव'त्ति सर्व वस्तु सर्वत्र स्थानेऽभ्यरोचयत, न यथादृष्टाभिलापुकोऽभूदिति भावः, यदिवा यदेकत्र पुष्टालम्बनतः सेवितं न तत्सर्वम्-अभिमताहारादि सर्वत्राभिलषितवान्, न चापि पूजां गही वाऽभ्यरोचयतेति सम्बन्धः, इह च गातोऽपि कर्मक्षय इति केचिदतस्तन्मतव्यवच्छेदार्थ गर्हाग्रहण,यद्वा गाँ-परापवादरूपा । ननु भिक्षोरपि किमन्यथाभावः संभवति? येनेस्थमित्थं च तद्गुणाभिधानमित्याह-'अणेग'त्ति वृत्ता, तत्र च 'अणेग'त्ति अनेके 'छन्दाः' अभिप्रायाः संभवन्तीति दीप अनुक्रम [७८३-७९५]] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~970~ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-] / गाथा ||११-२३|| नियुक्ति : [४३५...] (४३) प्रत सूत्राक ॥११ -२३|| उत्तराध्यागम्यते, 'मिह'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः 'इह' जगति 'माणयेहि ति सुव्यत्ययान्मानयेषु 'जे' इति याननेकान् छन्दान समुद्रपा 'भावतः तत्ववृत्यौदयिकादिभावतो वा सः 'प्रकरोति' भृशं विधत्ते 'भिक्खुति अपिशब्दस्य गम्यमानत्वाद् भिक्षुवृहद्वृत्तिः लीया. रपि-अनगारोऽपि सन् , अत इत्थमित्थं च तद्गुणाभिधानमिति भावः । अपरञ्च-भयभैरवाः' भयोत्पादकत्वेन ॥४८॥ भीपणाः 'तत्र' इति ब्रमप्रतिपत्तौ 'उइंति'त्ति 'उद्यन्ति' उदयं यान्ति, पठ्यते च–'उति'त्ति, उपयन्ति भयभैरवा है इत्यनेनापि गते भीमा इति पुनरभिधानमतिरौद्रताख्यापनायोक्तं, 'दिव्या' इत्यादावुपसर्गा इति गम्यते, 'तिरिच्छत्ति . तैरश्चाः। तथा 'परिसह'त्ति परीपहाच उद्यन्तीति सम्बन्धः, 'सीदन्ति' संयम प्रति शिथिलीभवन्ति 'जत्थति यत्र४.येपूपसर्गपु परीपहेपु च सत्सु 'से' इति सः तत्र' तेषु 'पत्ते'त्ति वचनव्यत्ययात्प्राप्तेषु प्राप्तो वा-अनुभवनद्वारेणायातो न ('व्यथेत' स्यात्) व्यथाभीतश्चलितो वा सत्त्वाद् भिक्षुः सन् 'सङ्ग्रामशीर्ष इव' युद्धप्रकर्ष इव 'नागराजः' हस्तिराजः। | 'स्पो' तृणस्पर्शादयः 'आतङ्काः' रोगाः 'स्पृशन्ति' उपतापयन्ति 'अकुक्य'त्ति आर्षत्वात् कुत्सितं कूजति-पी-| डितः सन्नाक्रन्दति कुकूजो न तथेत्यकुकूजः, पठ्यते च-'अकक्करे'त्ति कदाचिद्वेदनाऽऽकुलितो न कर्करायितकारी, अनेन चानन्तरसूत्रोक्त एवार्थों पिस्पष्टतार्थमन्वयेनोक्तः, एवंविधश्च स रजांसीप रजांसि-जीवमालिन्थहेतुतया| कमोणि 'खेविज ति अक्षिपत् परीपहसहनादिभिः क्षिप्तवान् । 'मोह(म)' इति मिथ्यात्वहास्यादिरूपोऽज्ञानं वा गृखते, आत्मना गुप्तः आत्मगुप्तः-कूर्मवत्सङ्कुचितसर्वाङ्गः, अनेन परीपहसहनोपाय उक्तः । किञ्च-'नयावि पूर्य गरिहं च | दीप अनुक्रम [७८३-७९५]] |॥४८६॥ AIMEducatan intimational For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~971~ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [--]/ गाथा ||११-२३|| नियुक्ति: [४३५...] (४३) प्रत सूत्राक ॥११ -२३|| है संजय त्ति न चापि पूजां गहीं च प्रतीति शेषः 'असजत्' सझं विहितवान् ,तत्र च अनुन्नतत्वमनवनततं च हेतुर्भा वतः, उन्नतो हि पूजां प्रति अवनतश्च गहाँ प्रति सङ्गं कुर्यान्न त्वन्यथेति भावः, पूर्वत्राभिरुचिनिषेध उक्तः, इह तु 18 सङ्गस्येति पूर्वस्याद्विशेषः, 'स' इति सः' एवंगुणः 'ऋजुभावम्' आर्जवं 'प्रतिपद्य' अङ्गीकृत्य संयतो 'निर्याणमार्ग' सम्यदग्दर्शनादिरूपं विरतः सन् 'उपैति' विशेषेण प्राप्नोति, वर्तमाननिर्देश इहोत्तरत्र च प्राग्वत् । ततः स तदा कीदृशः किं करोतीत्याह-अरतिरती संयमासंयमविषये सहते-न ताभ्यां वाध्यत इत्यरतिरतिसहः, 'पहीणसंथवेत्ति प्रक्षीणसंस्तवः संस्तवाहीणो वा, संस्तवश्च पूर्वपश्चात्संस्तवरूपो वचनसंवासरूपो वा गृहिभिः सह, प्रधानः स च संयमो | मुक्तिहेतुत्वात् स यस्यास्त्यसौ प्रधानवान् , परमः-प्रधानोऽर्थः पुरुषार्थो वाऽनयोः कर्मधारये परमार्थो-मोक्षः स पद्यते |-गम्यते यैस्तानि परमार्थपदानि-सम्यग्दर्शनादीनि सुव्यत्ययात् तेषु तिष्ठति-अविराधकतयाऽऽस्ते 'छिन्नसोय'त्ति छिन्नशोकः छिन्नानि वा श्रोतांसीव श्रोतांसि-मिथ्यादर्शनादीनि येनासौ छिन्नश्रोताः अत एवाममोऽकिञ्चनः, इह च संयमविशेषाणामानन्त्यात्तदभिधायिपदानां पुनः पुनर्वचनेऽपि न पौनरूत्त, तथा विविक्तलयनानि ख्यादिविरहितोपाश्रयरूपाणि विविक्तत्वादेव च 'निरोक्लेवाईति निरुपलेपानि-अभिष्यङ्गरूपोपलेपवर्जितानि भावतो द्रव्यतस्तु तदर्थे नोपलिप्तानि 'असंसृतानि' वीजादिभिरव्याप्तानि, अत एव च निर्दोपतया 'ऋषिभिः' मुनिभिः 'चीणोनि आसेवितानि, चीर्णशब्दस्य तु 'सुचीर्ण प्रोपितत्रत मितिवत्साधुता, 'फासेज'त्ति अस्पृशत् , सोढवानित्यर्थः, पुनः पुनः दीप अनुक्रम [७८३-७९५]] AIMEducatan intimanand For Free wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~972~ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२१], मूलं [--]/ गाथा ||११-२३|| नियुक्ति: [४३५...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥११ Rak -२३|| उत्तराध्य. परीषहस्पर्शनाभिधानमतिशयख्यापनार्थ, ततः स कीडगभूदित्याह-'सः' इति समुद्रपालनामा मुनिनिमिह श्रुत-समुद्र बृहद्वृत्तिः ज्ञानं तेन ज्ञानम्-अवगमः प्रक्रमाद् यथावक्रियाकलापस्य तेनोपगतो-युक्तो ज्ञानज्ञानोपगतः, पाठान्तरतः सन्ति-शोभनानि 'नाने त्यनेकरूपाणि ज्ञानानि-सङ्गत्यागपर्यायधर्माभिरुचितत्त्वाधवबोधात्मकानि तैरुपगतः सन्ना॥४८७॥ नाज्ञानोपगतः 'धर्मसञ्चयं क्षान्त्यादियतिधर्मसमुदयम् 'अणुत्तरेणाणधरे'त्ति एकारस्यालाक्षणिकत्वादनुत्तरज्ञान है केवलाख्यं तद्धारयत्यनुत्तरज्ञानधरः, पठ्यते च-गुणुत्तरे णाणधरे'त्ति, तत्र च गुणोत्तरी-गुणप्रधानो, ज्ञानं प्रस्ता वात्केवलज्ञानं तद्धरः, एकारस्थालाक्षणिकत्वाद् गुणोत्तरं यद् ज्ञानं तद्धरो वाऽत एव यशस्वी 'ओभासइ यत्ति अव१] भासते प्रकाशते सूर्यवदन्तरिक्ष, यथा नभसि सूर्योऽवभासते तथाऽसावप्युत्पन्नकेंवलज्ञान इति त्रयोदशसूत्रार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरंस्तस्यैव फलमाह दुविहं खयेऊण य पुन्नपार्व, निरंजणे सवओ विप्पमुके। तरित्ता समुई व महाभवोहं, समुहपाले अपुणागमं गए ॥ २४ ॥ त्तियेमि ॥ ॥ समुद्दपालिजं ॥२१॥ ४ ॥४८७॥ 'द्विविध' द्विभेदं घातिकर्मभवोपग्राहिभेदेन 'पुण्यपापं शुभाशुभप्रकृतिरूपं 'निरञ्जनः कर्मसझरहितः, पठ्यते। च-निरंगणे'त्ति अक्षेर्गत्यर्थत्वात् निरङ्गनः-प्रस्तावात्संयम प्रति निश्चलः शैलेश्यवस्थाप्राप्त इतियावत् , अत एव | दीप अनुक्रम [७८३-७९५]] AIMEducatan indaiational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~973~ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२१], मूलं [-] / गाथा ||२४|| नियुक्ति: [४३६] (४३) प्रत Pri'सर्वतः' इति बाधादान्तराच प्रक्रमादभिष्वङ्गहेतोः 'तो' उलय 'समुद्रमिय' अतिदुस्तरतया महाश्वासौ भवी-1 ६ घश्च-देवादिभवसमूहस्तं, शेपं स्पष्टमिति सूत्रार्थः ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत्दूकाऊण तवचरणं बहुणि वासाणि सो धुयकिलेसो । तं ठाणं संपत्तो जे संपत्ता न सोयति ॥ ४३६॥ सुगमैव । 'इति' परिसमाप्ती, वीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्तेऽपि प्राग्वत् ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां समुद्रपालीयं नामैकविंशतितममध्ययनं समासमिति ॥ २१ ॥ सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [७९६] श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटी०शिष्य समुद्रपालीयं नामैकविंशतितममध्ययनं समाप्तम् । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २१ परिसमाप्तं ~974~ Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [७९६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४८८॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२४...|| अध्ययनं [२२], अथ द्वाविंशं रथनेमिीयमध्ययनम् । व्याख्यातं समुद्रपालीयं नामैकविंशमध्ययनम् अधुना द्वात्रिंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्त - राध्ययने विविक्तचर्योक्ता, सा च चरणसहितेन धृतिमता चरण एवं शक्यते कर्त्तुमतो रथनेमिवचरणं तत्र च कथचिदुत्पन्नवि श्रोतसिकेनापि धृतिश्चाधेयेत्यनेनोच्यत इत्यमुना सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्यापि चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद्विधाय नामनिष्पन्ननिक्षेप एवाभिधेय इति चेतसि व्यवस्थाप्याह नियुक्तिकृत्रहनेमीनिक्खेवो चउक्कओ दुविह होइ दबंमि । आग० ॥ ४३७ ॥ रहनेमिनामगोअं वेअंतो भावओ अ रहनेमी । तत्तो समुट्ठियमिणं रहनेमिजंति अज्झयणं ॥ ४३९ ॥ प्राग्वद् व्याख्येयं, नवरं रथनेमिशब्दोचारणमिह विशेषः इत्यवसितो नामनिप्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तथेदम् जाण० ॥ ४३८ ॥ Jgn Education intimation १ कचित् इमे ह्वे गाथे अधिके दृश्येते सोरियपुरंगि नगरे, आसी राया समुदविजभत्ति। तस्ससि अगमहिसी सिवत्तीदेवी अणुजंगी ॥ १ ॥ तेसिं पुत्ता चउरो अरिट्ठनेमी तहेव रहनेनि । तइओ य सन्धनेमी चत्यओ होइ दृढनेमी ॥ २ ॥ अन्यत्राये ते निर्युक्तिः [४३७-४३९] For Parent ~975~ रथनेमी याध्य० २२ ४८ janibrary मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं २२ "रथनेमीय" आरभ्यते Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१-१६|| दीप अनुक्रम [७९७ -८१२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१-१६|| अध्ययनं [२२], Epation Intimatin सोरियपुरंमि नयरे, आसि राया महहिए। वसुदेवत्तिनामेणं, रायलक्खणसंजु ॥ १ ॥ तस्स भज्जा दुबे आसि, रोहिणी देवई तहा। तासि दुण्हंपि दो पुस्ता, इट्ठा (जे) रामकेसवा ॥२॥ सोरियपुरंमि नयरे, आसि राया महहिए। समुहविजये नाम, रायलक्खणसंजु ॥ ३ ॥ तस्स भन्ना सिवा नाम, तीसे पुत्तो महायसो। भगवं अरिद्वनेमित्ति, लोगनाहे दमीसरे ॥ ४ ॥ सोऽरिट्ठनेमिनामो अ, लक्खणस्सरसंजुओ । अट्ठसहस्सलक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवि ।। ५ ।। वज़रिसहसंघयणो, समचउरंसो झसोदरो । तस्स राईमई कन्ने, भज्जं जायह केसवो ॥ ६ ॥ अह सा रायवरकन्ना, सुसीला चारुपेहिणी । सञ्चलक्खणसंपन्ना, बिज्जुसोआ| मणिप्पभा ॥ ७ ॥ अहाह जणओ तीसे, वासुदेवं महद्दियं । इहागच्छ कुमरो, जा से कन्नं ददामहं ॥ ८ ॥ सव्योसहीहिं हविओ, कयको जयमंगलो । दिग्वजुयल परिहिओ, आभरणेहिं विभूसिओ ॥ ९ ॥ मतं च गंधहत्थि च वासुदेवस्स जिद्वयं। आरूढो सोहई अहियं सिरे चूडामणी जहा ॥ १० ॥ अह ऊसिएण छत्तेण, चामराहि य सोहिओ । दसारचक्केण तओ, सब्बओ परिवारिए ॥११॥ चउरंगिणीए सेणाए, रहपाए जहकमं । तुडियाणं सन्निनाएणं, दिव्वेणं गगणं फुसे ॥१२॥ एवारिसीह इडीए, जुड़ए उत्तमाइ छ । नियगाओ भवणाओ, निजाओ वपिपुंगवो ॥१३॥ अह सो तत्थ निजतो, दिस्स पाणे भयहुए। बाडेहिं पंजरेहिं च, For Paare Only निर्युक्ति: [४३७-४३९] ~976~ www.noltrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१-१६|| दीप अनुक्रम [७९७ -८१२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४८९॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१-१६ || अध्ययनं [२२], संनिरुद्धे सुदु क्खि ॥ १४॥ जीवितं तु संपत्ते, मंसट्टा भक्खियन्वए । पासित्ता से महापण्णे, सारहिं इणमव्यवी | ॥१५॥ - कस्स (अ) हा इमे पाणा, एए सब्बे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिं च, संनिरुद्धा य अच्छहि १ ॥ १६ ॥ निर्युक्तिः [४३९...] सूत्र पोडशकं प्रायः प्रकटार्थमेव, नवरं राजेव राजा तस्य लक्षणानि — चक्रखस्तिकाङ्कुशादीनि त्यागसत्यशौर्यादीनि ( ग्रन्थाग्रम् १२०००) वा तैः संयुतो - युक्तो राजलक्षणसंयुतोऽत एव राजेत्युक्तं, 'भज्जा दुबे आसि'त्ति भायें द्वे अभूतां, 'तासि'न्ति तयो रोहिणीदेवक्योह्रौं पुत्रौ 'इष्टी' यहभी 'रामकेशवौ' बलभद्रवासुदेवावभूतामितीहापि योज्यते, तत्र रोहिण्या रामो देवक्याश्च केशवः, इह च रथनेमिवक्तव्यतायां कस्यायं तीर्थ इति प्रसङ्गेन भगवचरितेऽभिधित्सितेऽपि तद्विवाहादिपूपयोगिनः केशवस्य पूर्वोत्पन्नत्वेन प्रथममभिधानं, तत्सहचरितत्वाच्च रामस्येति भावनीयं, पुनः सौर्यपुराभिधानं च समुद्रविजयवसुदेवयोरेकत्रावस्थितिदर्शनार्थम्, इह च राजलक्षणसंयुत इत्यत्र | राजलक्षणानि-छत्रचामरसिंहासनादीन्यपि गृह्यन्ते । दमिनः- उपशमिनस्तेषामीश्वरः- अत्यन्तोपशमवत्तया नायको दमीश्वरः, कौमार एवं क्षतमारवीर्यत्वात्तस्य । 'लक्खणसर संजुतो'त्ति प्राकृतत्वात्स्वरस्य यानि लक्षणानि - सौन्दर्यगाम्भीर्यादीनि तैः संयुक्तः खरलक्षणसंयुतः, लक्षणोपलक्षितो या खरो लक्षणखरः प्राग्वन्मध्यपदलोपी समासः, तेन संयुतो लक्षण खरसंयुतः, पठन्ति च- 'पंजणस्सरसंजुओ' त्ति व्यञ्जनानि प्रशस्ततिलकादीनि खरो गाम्भीर्यादिगु[णोपेतस्तत्संयुतः 'अष्टसहस्रलक्षणधरः' अष्टोत्तरसहस्रसङ्घशुभ सूचककरादिरेखाद्यात्मकचक्रादिलक्षणधारकः 'गौतमः' For PP Use On ~977~ रथनेमी याध्य० २२ ॥४८९॥ janibraryup मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२२], मूलं [--] / गाथा ||१-१६|| नियुक्ति : [४३९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१-१६|| गौतमसगोत्रः 'कालकच्छविः' कृष्णत्वक् । 'झसोदरोत्ति झपो-मत्स्यस्तदुदरमिव तदाकारतयोदरं यस्यासी झपोदरो, मध्यपदलोपी समासः, इतश्च गतेषु द्वारकापुरी यदुपु निहते जरासिन्धनृपतावधिगतभरताईराज्यः केशवो यौवनस्थेऽरिष्टनेमिनि समुद्रविजयादेशतो यदचेष्टत तदाह-'तस्य' अरिष्टनेमिनो राजीमती भायाँ गन्तुमिति शेषः, याचते केशवस्त जनकमिति प्रक्रमः । सा च कीदृशीत्याह-'अथ' इत्युपन्यासे, राजवर इहोग्रसेनस्तस्य कन्या राज्ञो वा-तस्यैव वरकन्या राजवरकन्या सुष्टु शीलं-खभायो यस्याः सा |सुशीला चारु प्रेक्षितुं-अवलोकितुं शीलमस्याः चारुप्रेक्षिणी, नाधोरष्टितादिदोपदुष्टा, 'विजुसोयामणिप्पह'त्ति विशेषेण द्योतते-दीप्यत इति विद्युत् सा चासौ सौदामनी च विद्युत्सौदामनी, अथवा विद्युदग्निः सौदामिनी |च तडित् , अन्ये तु सौदामिनी प्रधानमणिरित्याहुः । 'अथ' इति याचाऽनन्तरमाह जनकस्तस्याः-राजीमत्या उग्रसेन इत्युक्तं, 'जा से'त्ति सुव्यत्ययाद् येन तस्मै 'ददामि विवाहविधिनोपढौकयाम्यहम् । एवं च प्रतिपन्नायामुग्रसेनेन राजीमत्यामासन्ने च कौष्टिक्यादिष्टे विवाहलमे यदभूत्तदाह-सर्वाश्च ता औषधयश्च-जयाविजयद्धिवृदयादयः सौंषधयस्ताभिः स्वपितः-अभिषिक्तः, कृतकौतुकमाल इत्यत्र कौतुकानि-ललाटस्य मुशलस्पर्श| नादीनि मङ्गलानि च-दध्यक्षतर्वाचन्दनादीनि 'दिवजुयलपरिहिय'त्ति प्राग्वत्परिहितं दिव्ययुगलमिति प्रस्तावाद् दूष्य युगलं येन स तथा, वासुदेवस्य सम्बन्धिनमिति गम्यते, ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम्-अतिशयप्रशस्यमतिद्धं वा गुणैः दीप अनुक्रम [७९७-८१२] For PATREPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~978~ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१-१६|| दीप अनुक्रम [७९७ -८१२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४९० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१-१६ || अध्ययनं [२२], पट्टहस्तिनमित्यर्थः, शोभत इति वर्त्तमान निर्देशः प्राग्वत्, 'चूडामणिः' शिरोऽलङ्काररत्नम् । 'अर्थ' अनन्तरम् 'उच्छ्रितेन' उपरिधृतेन पाठान्तरतश्च वेतोच्छ्रितेन 'चामराहि यति चामराभ्यां च शोभितः 'दसारचक्केणं'ति दशाईचक्रेण यदुसमूहेन 'चतुरङ्गिण्या' हस्त्यश्वरथपदातिरूपाङ्गचतुष्टयान्वितया 'रचितया' न्यस्तया 'यथाक्रमं यथापरिपाटी तूर्याणां मृदङ्गपटहादीनां सन्निनादेनेति-संनद्यत इत्यादिषु समो भृशार्थस्यापि दर्शनादतिगाढध्वनिना 'दिव्येन' | इति प्रधानेन देवागमनस्यापि तदा सम्भवाद्देव लोकोद्भवेन वा 'गयणं फुसे'त्ति आर्पत्वाद 'गगनस्पृशा' अतिप्रबलतया नभोऽङ्गणव्यापिना, सर्वत्र च लक्षणे तृतीया, 'एतादृश्या' अनन्तराभिहितरूपया 'ऋद्धया' विभूत्या 'त्या' दीया, उत्तरत्र चशब्दोऽभिन्नक्रमतो त्या चोत्तमयोपलक्षितः सन्निजकाद्भुवनात् 'निर्यातः' निष्क्रान्तः 'वृष्णिपुङ्गवः' यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरितियावत् । ततश्वासौ क्रमेण गच्छन् प्राप्तो विवाह मण्डपासन्नदेशम्, 'अर्थ' अनन्तरं स तत्र 'निर्यन्' अधिकं गच्छन् 'दिस्स'त्ति दृष्ट्वा अवलोक्य 'प्राणान्' स 'प्राणिनः' मृगलावकादीन् 'भयद्रुतान्' भयत्रस्तान् वाटैरिति-वाटकैः - वृत्तिवरण्डकादिपरिक्षिप्तप्रदेशरूपैः 'पञ्जरैध' बन्धनविशेषैः 'सन्निरुद्धान्' गाढनियन्त्रितानू, पाठान्तरतस्तु वद्धरुद्धान्, अत एव सुदुःखितान्, तथा जीवितस्यान्तो- जीवितान्तो मरण गित्यर्थस्तं संप्राप्तानिय संप्राप्तान्, अतिप्रत्यासन्नत्वात्तस्य यद्वा जीवितस्यान्तः - पर्यन्तवर्त्ती भागस्तमुक्कहेतोः संप्राप्तान् 'मांसार्थ' मांसनिमित्तं च भक्षयितव्यान् मांसस्यैवातिगृद्धिहेतुत्वेन तद्भक्षणनिमित्तत्वादेवमुक्तं, यदिवा 'मांसेनैव For PP Use On निर्युक्ति: [४३९...] ~979~ रथनेमी याध्य० २२ ॥४९०॥ wwjanci मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२२], मूलं [-] / गाथा ||१-१६|| नियुक्ति : [४३९...] (४३) 15 प्रत 5 सूत्रांक ||१-१६|| % मांसमुपचीयते' इति प्रवादतो मांसमुपचितं स्यादिति मांसाथै भक्षयितव्यानविवेकिमिरिति शेषः, 'पासित्त'त्ति दृष्ट्वा, कोऽर्थः -उक्तविशेषणविशिष्टान् हदि निधाय 'सः' इति भगवानरिष्टनेमिमहती प्रज्ञा-प्रक्रमान्मतिश्रुतावधिज्ञान यात्मिका यस्थासौ महाप्रज्ञः 'सारथि प्रवर्तयितारं प्रक्रमाद्गन्धहस्तिनो हस्तिपकमितियावत्, यद्वाऽत एव तदा रथारोहणमनुमीयत इति रथप्रवर्त्तयितारम् । 'कस्सट्टत्ति कस्य 'अर्थात् निमित्तादिमे प्राणाः, एते सर्वे 'इमे ६ इत्यनेनैव च गते एते इति पुनरभिधानमतिसाद्रहृदयतया पुनः पुनस्त एव भगवतो हृदि विपरिवर्तन्त इति ख्यापनार्थ, यदिवा 'इमे' प्रत्यक्षाः 'एते' समीपतरवर्तिनः, उक्तं हि "इदमः प्रत्यक्षगतं समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्," पठ्यते च-'बहुपाणेत्ति प्रतीतं, 'सुखैपिणः' साताभिलापिणः 'सन्निरुद्धे यत्ति सन्निरुद्धाः 'च' पूरणे 'अच्छिहित्ति आसत इति पोडशसूत्रार्थः ॥ एवं च भगवतोक्त___ अह सारही तओ भणह, एए भद्दा उ पाणिणो । तुझं विवाहकजंमि, भोआवेउं पहुं जणं ॥१७॥ सुगममेव, नवरम् 'अर्थ' इति भगवद्वचनानन्तरं 'भद्दा उ'त्ति 'भद्रा एव' कल्याणा एव न तु श्वश्गालादय एव कुत्सिताः. अनपराधतया वा भद्रा इत्युक्तं भवति, तब विवाहकार्य' परिणयनरूपप्रयोजने 'भोयावेति भोजयितुम् , अनेन यदुक्तं 'कखार्थादिति तत्प्रत्युत्तरमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं सारथिनोक्ते यद्भगवान् पिहितांस्तदाह सोऊण तस्स वयणं, बहुपाणिविणासणं । चितेइ से महापन्ने, साणुकोसे जिएहि उ॥१८॥ जइ मज्झ दीप अनुक्रम [७९७-८१२] ACCASTHAN FOFO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 980~ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२२], मूलं [-] / गाथा ||१८-२४|| नियुक्ति: [४३९...] (४३) प्रत बृहद्धृत्तिः सूत्राक २२ ॥१८ -२४|| उत्तराध्य. कारणा एए, हम्मति सुबह जिया । न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई ॥ १९॥ सो कुंडलाण जुयलं,मारथनेसी सुत्तगं च महायसो । आभरणाणि य सवाणि, सारहिस्स पणामई ॥ २०॥ मणपरिणामो अकओ, देवा य जहोइयं समोइन्ना । सब्बिड्डीइ सपरिसा, निक्खमणं तस्स काउंजे ॥२१॥ देवमणुस्सपरिवुडो, सिविया-14 याध्य ॥४९॥ कारयणं तओ समारूढो । निक्खमिय बारगाओ, रेवययंमि ठिओ भयवं ॥२२॥ उजाणे संपत्तो, ओइन्नो उत्तमाउ सीयाओ। साहस्सीए परिवुडो अह निक्खमइ उ चित्ताहिं ॥ २३ ॥ अह सो सुगंधगंधिए तुरियं मउअकुंचिए । सयमेव लुचई केसे, पंचट्ठीहि समाहिओ॥२४॥ सुगममेव नवरं 'तस्य' इति सारथेः बहूनां-प्रभूतानां प्राणानां-प्राणिनां विनाशनं-हननमर्यादभिधेयं यस्मिंस्तद्वहुप्राणविनाशनं 'सः' भगवान् 'सानुक्रोशः' सकरुणः, केषु?-'जिएहि उति जीवेषु 'तु' पूरणे ॥ मम कारणादितिहेतोमद्विवाहप्रयोजने भोजनार्थत्वादमीषामित्यभिप्रायः, 'हम्मंति'त्ति हन्यन्ते वर्तमानसामीप्ये लट् , ततो हनिष्यन्त इत्यर्थः, पाठान्तरतः 'हम्मिहति'त्ति स्पष्टं, 'सुबहवः' अतिप्रभूताः 'जिय'त्ति जीवाः, 'एतदिति जीवहननं 'तुः' एव-| कारार्थों नेत्यनेन योज्यते, ततः 'न तु' नैव 'निस्सेसं'ति 'निःश्रेयसं' कल्याणं परलोके भविष्यति, पापहेतुत्वादस्येति भावः, भवान्तरेषु परलोकभीरुत्यस्यात्यन्तमभ्यस्ततयैवमभिधानमन्यथा चरमशरीरत्वादतिशयज्ञानित्वाच भगवतः १ सब्बाणि -- - दीप अनुक्रम [८१४-८२०] R AIMEducatan intimational For Parsons Plus UN on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~981~ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२२], मूलं [-] / गाथा ||१८-२४|| नियुक्ति: [४३९...] (४३) प्रत सूत्राक ॥१८ -२४|| RAHASKARSHA कुत एवंविधचिन्ताबसरः १, एवं च विदितभगवदाकूतेन सारथिना मोचितेषु सत्तेपु परितोषितोऽसौ यत्तता|स्तदाह-'सो' इत्यादि 'सुत्तकं चेति कटीसूत्रम् , अर्पयतीति योगः, किमेतदेवेत्याह-आभरणानि च सर्याणि शेपा४ाणीति गम्यते, ततश्च 'मनःपरिणामश्च' अभिप्रायः कृतो निष्क्रमणं प्रतीति गम्यते, 'देवाः' चतुर्निकाया एव 'यथोचितम' औचित्यानतिक्रमेण समवतीणोंः, पाठान्तरतः समपपतिताः, चकाराभ्यां चेह समुच्चयार्थीभ्यामपि तुल्यकालताया ध्वन्यमानत्वात्तदैवेति गम्यते, 'सर्वज्यो' समस्तविभूत्या 'सपरिषदः' बाबमध्याभ्यन्तरपर्पयोपेताः 'निष्क्रमणम्' इति प्रक्रमान्निष्क्रमणमहिमानं 'तस्य' इति भगवतोऽरिष्टनेमिनः कत्तु 'जे' इति निपातः पूरणे। शिविकारलं' देवनिर्मितमुत्तरकुरुनामकमिति गम्यते, 'ततः' तदनन्तरं 'समारूढः' अध्यासीनः 'निष्क्रम्य' निर्गत्य 'द्वारकात' द्वारकापर्याः 'रैवतके' उजयन्ते 'स्थितः' गमनानिवृत्तः । तत्रापि कतर प्रदेश प्राप्तः स्थित इत्याह-'उद्यान' सहस्राम्रवणनामकं संप्राप्तः, तत्र चावतीर्णः 'सीयातो'त्ति शिविकातः 'साहस्सीय'त्ति सहस्रेण प्रधानपुरुषाणामिति || शेषः परिवृतः' परिवेष्टितः 'अथे' त्यानन्तर्ये 'निष्कामति' श्रामण्यं प्रतिपद्यते 'तुः पूरणे 'चित्ताहिति चित्रास चित्रानानि नक्षत्रे । कथमित्याह-'सुगन्धिगन्धिकान्' स्वभावत एव सुरभिगन्धीन् 'त्वरित' शीभं 'मृदकत्वकचितान' कोमलकुटिलान् 'खयमेव' आत्मनैव 'लुञ्चति' अपनयति केशान् 'पञ्चाशभिः'-पञ्चमुष्टिभिः 'समाहितः समाधिमान्, सर्व सावा ममाकर्तव्यमिति प्रतिज्ञारोहणोपलक्षणमेतत् । इह तु बन्दिकाचार्यः सत्यमोचनसमये XXXCAKE-be-kok दीप अनुक्रम [८१४-८२०] JAINEducatan international For P F मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 982~ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२५ -२७|| दीप अनुक्रम [८२१ -८२३] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥४९२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || २५-२७|| Jan Education intimat अध्ययनं [२२], सारखतादिप्रवोधन भवन गमनमहादानानन्तरं निष्क्रमणाय पुरीनिर्गममुपवर्णयांवभूवेति सूत्रससकार्थः ॥ एवं च 1 प्रतिपन्नप्रत्रज्ये भगवति - वासुदेवो अणं भाई, लुत्तकेसे जिइंदियं । इच्छियमणोरहे तुरियं, पावसू तं दमीसरा ! ||२५|| नाणेणं दंसणेणं च चरितेणं तवेण य। खंतीए मुत्तीए, बद्धमाणो भवाहि य ॥ २६ ॥ एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहू जणा। अरिहनेमिं वंदिता, अहगया बारगाउरिं ॥ २७ ॥ निर्युक्तिः [४३९...] सूत्रत्रयं स्पष्टं, नवरं वासुदेवश्चेति चशब्दाद्वलभद्र समुद्र विजयादयश्च 'लुप्तकेशम्' अपनीत शिरोरुहं ईप्सितः-अभिलपितः स चासौ मनोरथश्च भगवन्मनोरथविपयत्वान्मुक्तिरूपोऽर्थ ईप्सितमनोरथस्तं 'तुरियं'ति त्वरितं 'पावसु'त्ति प्रामुहि, आशीर्वचनत्वादस्य आशिषि 'लिलोटा' वित्याशिपि लोट् ॥ 'तम्' इति त्वं 'वर्द्धमानः' इति वृद्धिभाक् 'भवाहि यति भव, चशब्द आशीर्वादान्तरसमुच्चये । 'एवम्' उक्तप्रकारेण 'वन्दित्वा' स्तुत्वेति योगः, इह चैवंविधाशीर्षचनानामपि गुणोत्कर्षसूचकत्वेन स्ववनरूपत्वमविरुद्धमिति भावनीयं, 'दसारा यत्ति दशार्हाः, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'बहु'ति बहवो जनाश्थ 'अतिगताः' प्रविष्टा इति सूत्रत्रयार्थः ॥ तदा च कीदृशी सती राजीमती किमचे|टतेत्याह सोऊण रायका, पवनं सा जिणस्स उ । णीहासा उ निराणंदा, सोगेण उ समुच्छिया ॥ २८ ॥ For Parent ~983~ रथनेमी याध्य० २२ ॥४९२॥ www.janciran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२२], मूलं [--]/ गाथा ||२८-३०|| नियुक्ति: [४३९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२८-३०|| राईमई विचिंतेइ, धिरत्थु मम जीवियं । जाऽहं तेणं परिचत्ता, सेयं पबह मम ॥ २९ ॥ अह सा भमरस-4 निभे, कुचफणगप्पसाहिए । सयमेव लुचई केसे, धिहमंती ववस्सिया ॥३०॥ ४. सूत्रत्रयं स्पष्ट, नवरं निष्क्रान्ता हासान्निर्हासा, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततो निरानन्दा च, 'समवसूता' अवष्टब्धा । दधिगस्तु मम जीवितमिति खजीवितनिन्दोद्भावकं खेदवचो, याऽहं तेन परित्यक्तेति खेदहेतूपदर्शनं, ततश्च 'श्रेयः' अतिशयप्रशस्यं 'प्रत्रजितुं' प्रवज्यां प्रतिपत्तुं मम येनान्यजन्मन्यपि नैवं दुःखभागिनी भवेयमिति भावः । इत्थं चासौ ताबदबस्थिता यावदन्यत्र प्रविहत्य तत्रैय भगवानाजगाम, तत उत्पन्नकेवलस्य भगवतो निशम्य देशनांY विशेषत उत्पन्नवैराग्या किं कृतवतीत्साह-'अहे त्यादि, 'अर्थ' अनन्तरं 'सा' राजीमती 'भ्रमरसन्निभान्' कृष्णतया |आकुञ्चिततया च, कूर्ची-गूढकेशोन्मोचको वंशमयः फणकः-कङ्कतकस्ताभ्यां प्रसाधिताः-संस्कृता ये तान् । 'वयम्' आत्मनैव 'लुञ्चति' अपनयति, भगवदनुज्ञयेति गम्यते, 'केशान्' कचान् ‘धिइमंति'त्ति धृतिमती व्यवसि| तेति-अध्यवसिता सती, धर्म विधातुमिति शेष इति सूत्रत्रयार्थः । तत्प्रव्रज्याप्रतिपत्तौ च| वासुदेवो अणं भणइ, लुत्तकेसि जिइंदियं । संसारसागरं घोरं, तर कन्ने ! लहुं लहुं ॥३१॥ स्पष्टमेव, नवरं 'तर' इत्युलइय, आशीर्वचनत्वादयमप्याशिषि लोद, 'लघु लघु' त्वरितं त्वरितं, संभ्रमे द्विवचन|मिति सूत्रार्थः । तदुत्तरवक्तव्यतामाह दीप अनुक्रम [८२४-८२६] AIMEducatan intimational For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~984~ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२२], मूलं [-] / गाथा ||३१-३५|| नियुक्ति: [४३९...] (४३) प्रत -4 C २२ सूत्रांक - SC-RECRECORRECERE ||३१-३५|| उत्तराध्य. ला सा पब्बईया संती, पब्वावेसी तहिं बहुं । सयणं परियणं चेव, सीलवंता बहुस्सुआ ॥३२॥ गिरि रेवययं रथनेमी जती, वासेणोल्ला उ अंतरा । वासंते अंधयारंमि, अंतो लयणस्स सा ठिया ॥३३॥चीवराणि विसारंती बृहद्वृत्तिः याध्य० जहा जायत्ति पासिया । रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिट्टो अतीइवि ॥ ३४ ॥ भीया य सा तहिं दई, एगंते ॥४९॥ संजय तयं । चाहाहिं काउं संगुप्फं, वेवमाणी निसीयई ॥ ३५ ॥ है। सूत्रचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं 'सा' इति राजीमती 'पवावेसित्ति प्राविव्रजत्-प्रत्राजितवती 'तहिंति तस्यां द्वारका पुरि । 'रैवतकम्' उजयन्तं 'यान्ती' गच्छन्ती, भगवद्वन्दनार्थमिति गम्यते, 'वण' वृष्ट्या 'उल'त्ति आर्द्रा स्तिमित सकलचीयरेतियावत् , 'अन्तरे' त्यन्तरालेऽर्द्धपथ इत्यर्थः, 'वासंति'त्ति वर्षति, नीरद इति गम्यते, 'अन्धकारे' अपदिगतप्रकाशे, कस्मिन् ?-'अन्तः' मध्ये, उक्तं हि, 'अन्तःशब्दोऽधिकरणप्रधानं मध्यमाह' लयनमिह गुहा तस्यां | 'सा' राजीमती 'स्थिता' इत्यासिता, असंयमभीरुतयेति गम्यते, तत्र च 'चीवराणि सङ्घाख्यादिवस्त्राणि 'विसारयन्ती' विस्तारयन्ती अत एव 'यथाजाता' अनाच्छादितशरीरतया जन्मावस्थोपमा 'इती' सेवंरूपा 'पासिय'त्ति दृष्ट्वा(टा), तद्दर्शनाच 'रथनेमिः' रचनेमिनामा मुनिः 'भग्नचित्तः भग्नपरिणामः सन् प्रक्रमात्संयम प्रति, स हि तामुदा-18|॥४९॥ ररूपामवलोक्य समुत्पन्नतदभिलाषातिरेकः परवशमनाः समजनि, पश्चादृष्टश्च 'तया' राजीमत्या 'अपि' पुनरर्थे, प्रथ-| मप्रविष्टैहि नान्धकारप्रदेशे किञ्चिदवलोक्यते, अन्यथा हि वर्षणसम्भ्रमादन्यान्याश्रयगतासु शेपसाध्यीवेकाकिनी -- --- -- दीप अनुक्रम [८२७ -८३१] BER For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~985~ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3& -३८|| दीप अनुक्रम [८३२ -८३४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३६-३८|| अध्ययनं [२२], प्रविशेदपि न तत्रेयमिति भावः भीता च मा कदाचिदसौ मम शीलभङ्गं विधास्यतीति, 'तस्मिन्' इति लयने दृष्ट्वा 'एकान्ते' विविक्ते 'तकम्' इति रथनेमिं किं कृतवत्यसावित्याह- 'वाहाहिं'ति बाहुभ्यां कृत्वा 'संगोपं' परस्परवाहुगुम्फनं स्तनोपरिमर्कटबन्धमितियावत्, 'वेपमाना' शीलभङ्गभयात्कम्पमाना 'निषीदति' उपविशति, तदा| श्लेषादिपरिहारार्थमिति भाव इति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ अत्रान्तरे निर्युक्तिः [४३९...] अह सोऽवि रायपुत्तो, समुद्रविजयंगओ । भीयं पवेविरं दहुँ, इमं वमुदाहरे || ३६ || रहनेमी अहं भद्दे !, सुरूवे ! चारुभासिणी!। ममं भयाहि सुअणु !, न ते पीला भविस्सई ॥ ३७ ॥ एहि ता भुंजिमो भोगे, माणुस्सं खु सुदृल्लहं । भुक्तभोगा पुणो पच्छा, जिणमग्गं चरिस्सिमो ॥ ३८ ॥ अथ च 'सोऽपी'ति स पुनः 'राजपुत्रः' रथनेमिः भीतां प्रवेषितां च प्रक्रमाद्राजीमतीम् 'उदाहरे'त्ति उदाहरत्-उक्तवान् किं तदित्याह - रथनेमिरहमिति, अनेनात्मनि रूपवत्त्वाद्यभिमानतः खप्रकाशनं तखाभिलाषोत्पादनार्थं विश्वासविशसन हेत्वन्यशङ्कानिरासार्थं वा खनामख्यापनं, 'ममं'ति मां 'भजस्व' सेवख सुतनु ! न 'ते' तव 'पीडा' वाधा भविष्यति, सुखहेतुत्वाद्विषयसेवनस्येति भावः, यद्वा तां ससम्भ्रमां हट्दैवमाह-'म म भयाहि'त्ति मा मा भैषीः सुतनु ! यतो न 'ते' तब पीडा भविष्यति, कस्यचिदिह पीडाहेतोरभावात्, पीडया शङ्कया च भयं स्यादिलेवमुक्तम्, 'एहि' आगच्छ 'ता' इति तस्मात्तावद्वा मानुष्यं 'खुः' इति निश्चितं सुदुर्लभं तदेतदवाप्साविदमपि For PP Use On ~986~ (ancibran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२२], मूलं [--] / गाथा ||३९-४५|| नियुक्ति: [४३९...] (४३) प्रत CARRESS CAXXX सूत्रांक ||३९ २२ -४५|| सातावद्भोगलक्षणमस्य फलमुपभुधमहे इत्याशयः, भुक्तभोगाः पुनः 'पश्चाद' इति वार्धक्ये 'जिनमार्ग' जिनोक्तमुक्ति-11 रथनेमीपथं 'चरिस्सामो'त्ति चरिष्यामः, शेषं स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ ततो राजीमती किमचेष्टतेत्याहबृहद्वृत्तिः याध्यक | दङ्ण रहनेमि तं, भग्गुजोयपराइयं । राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३९ ॥ अह सा रायवर, ॥४९४॥ कन्ना, सुटिया नियमब्वए । जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वदे ॥ ४० ॥ जइऽसि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो।तहावि ते न इच्छामि, जइऽसि सक्खं पुरंदरो॥४१॥ धिरत्धु ते जसो कामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥ ४२ ॥ अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवहिणो। मा कुले गन्धणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥४३॥ जइतं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि। नारिओ। वायाविद्धव्व हडो, अट्टिअप्पा भविस्ससि ॥४४|| गोवालो भंडवालो वा, जहा तहबऽणिस्सरो। एवं अणीसरो तपि, सामन्नस्स भविस्ससि ॥४५॥ अत्र एका प्रक्षेपगाथा वर्तते, देखो हमारा “आगममुत्ताणि" GI सूत्रसप्तके पाठसिद्धं, नवरं 'भग्गुजोयपराइय'ति भग्नोद्योगः-अपगतोत्साहः प्रस्तावासंयम स चासी पराजि तश्च-अभिभूतः खीपरीपहेण भग्नोद्योगपराजितस्तम् 'असम्भ्रान्ता' नायं बलादकार्ये प्रवर्त्तयितेत्यभिप्रायेणात्रस्ता ॥४९॥ 'आत्मानं खं 'संबरे'त्ति समवारीत-आच्छादितवती चीवरैरिति गम्यते, 'तस्मिन' इति लयनमध्ये पीडया शङ्कया च भयं स्यादित्येवमुक्तं । 'सुस्थिता' निश्चला 'नियमत्रते' इतीन्द्रियनोइन्द्रियनियमने प्रवज्यायां च जातिं कुलं शीलं दीप अनुक्रम [८३५ -८४१] AIMEducatan intimational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 987~ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२२], मूलं [-] / गाथा ||३९-४५|| नियुक्ति: [४३९...] (४३) प्रत SECREGCOCOLOR सूत्रांक ||३९ च रक्खमाणी'त्ति रक्षन्ती, शीलध्वंसे हि कदाचिदस्या एवंविधैय जातिः कुलं चेति सम्भावनातस्ते अपि विना-3 शिते स्यातामित्येवमुक्तं, यद्यपि 'असि' भयसि 'रूपेण' आकारसौन्दर्येण 'वैश्रमणः' धनदः 'ललितेन' सबिलासचे-4 ४टितेन 'नलकूबरः' देवविशेषः 'ते' इति त्वां साक्षात्' समक्षः 'पुरन्दरः' इन्द्रो रूपाद्यनेकगुणाश्रयो य इति भावः, रूपाद्यभिमानी चायमित्येवमुक्तः ॥ अपरं च-धिगस्तु 'ते' तव पौरुषमिति गम्यते, अयशःकामिन्निव अयशःकामिन् !|अकीर्त्यभिलाषिन् !, दुराचारवान्छितया, यद्वा 'ते' तव यशो-महाकुलसंभवोद्भूतं धिगस्त्विति सम्बन्धः 'कामिन् !' | भोगाभिलाषिन् ! 'जीवितकारणात्' जीवितनिमित्तमाश्रित्य, तदनासेवने हि तथाविधदशाचाप्ती मरणमपि स्वादिहत्येवमभिधानं, 'वान्तम्' उद्गीर्ण यत् शृगालैरपि परिहृतं तदिच्छस्थापातुं, यथा हि कश्चिद्वान्तमापातुमिच्छ सेवं भवानपि प्रव्रज्याग्रहणतस्त्यक्तान भोगान् पुनरापातुमिवापातुम्-उपभोक्तुमिच्छति अतः श्रेयः' कल्याणं 'ते' तव मरणं : द भवेत्, न तु वान्तापानं, ततो मरणस्यैवाल्पदोषत्वात्, अनूदितं चैतद्-"विज्ञाय वस्तु निन्धं त्यक्त्वा गृह्णन्ति किं| क्वचित्पुरुषाः ? । वान्तं पुनरपि भुङ्क्तेन च सर्वः सारमेयोऽपि ॥१॥" 'अहमि' त्यात्मनिर्देशे 'च' पूरणे 'भोज राजस्य' उग्रसेनस्य त्वं च 'असि' भवसि अन्धकवृष्णः, कुले जात इत्युभयत्र शेषः, अतश्च 'मा' इति निषेधे 'कुले ६ अन्वये 'गंधणे'त्ति 'गन्धनानां सर्पविशेषाणां 'होमोति भूव, तचेष्टितानुकारितयेति भावः, ते हि वान्तमपि विर्ष RSE-ROMAX -४५|| दीप अनुक्रम [८३५ -८४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 988~ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३९ -४५|| दीप अनुक्रम [८३५ -८४१] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥४९५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३९-४५ || अध्ययनं [२२], ज्वलद्वह्निपातभीरुतया पुनरपि पिवन्ति, तथा च वृद्धाः - "सप्पाणं किल दो जाईओ-गंधणा य अगंधणा य, तत्भ गंधणा णाम जे डसिए मंतेहिं आकड्डिया तं विसं बणमुहातो आवियंति, अगंधणा उण अधि मरणमज्झवसंति व य वंतमाइयंति ।" किं तर्हि कृत्यमित्याह-संयमं निभृतः स्थिरः 'चर' आसेबख, यदि त्वं 'भावं' प्रक्रमाद्भोगाभिलाषरूपं या याः 'दिच्छसि' त्ति द्रक्ष्यसि तासु ताखिति गम्यते, ततः किमित्याह – वातेनाविद्धः समन्तात्ताडितो वाताविद्धो भ्रमित इतियावत् हठो - वनस्पतिविशेषः स इवास्थितात्मा चञ्चलचित्ततयाऽस्थिरस्वभावः । 'गोपालः' यो गाः पालयति 'भाण्डपालो वा' यः परकीयानि भाण्डानि भाटकादिना पालयति, पठ्यते च - 'दण्डपालो वा' नगररक्षको वा यथा 'तद्रव्यस्य' गवादेः सततरक्षणीयस्य 'अनीश्वरः' अप्रभुः, विशिष्टतत्फलोपभोगाभावात् एवमनीश्वरस्त्वमपि श्रामण्यस्य भविष्यसि, भोगाभिलाषतस्तत्फलस्यापि विशिष्टस्याभावादिति भाव इति सूत्रसप्तकार्थः ॥ एवं तयोक्तो रथनेमिः किं कृतवानित्याह Jan Education intimational तीसे सो बघणं सुचा, संजईए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ ४६ ॥ गुत्तो वयगुतो, कागुत्तो जिइंदिओ । सामन्नं निचलं फासे, जावज्जीवं दढव्वओ ॥ ४७ ॥ १ सर्पाणां किल द्वे जाती-गन्धनाथ अगन्धनाश्च तत्र गन्धना नाम ये दष्टा मचैराकृष्टास्तद्विषं व्रणमुखादापिवन्ति, अगन्धनाः पुनः अपि मरणमध्यवस्यन्ति न च वान्तमापिबन्ति निर्युक्तिः [४३९...] For PP Use On ~989~ रथनेमी याध्य० २२ ॥ ४९५ ॥ www.ncb मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४६ -४७|| दीप अनुक्रम [८४३ -८४४] Jain Education “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४६-४७|| अध्ययनं [२२], सूत्रद्वयम् 'तस्याः' राजीमत्याः 'सः' रथनेमिः 'वचनम्' अनन्तरोक्तानुशिष्टिरूपं 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'संयतायाः प्रन| जितायाः सुष्ठु - संवेगजनकत्वेन भाषितम्-उक्तं सुभाषितम् 'अङ्कुशेन' प्रतीतेन यथा 'नागः' हस्ती पधीति शेषः, एवं 'धर्मे' चारित्रधर्मे 'संपडिवाइओ'त्ति 'संप्रतियातितः' संस्थितः, तद्वचसैवेति गम्यते । अत्र च वृद्धसंप्रदायः- “णेउरपंडियाक्खाणययं भणिऊण जाव ततो रुद्रेण राइणा देवी मेंठो हत्थी य तिन्निविछिन्नकडगे चडावियाणि, भणिओ य मंठो - एत्थं वाहेहि हत्थि, दोहि य पासेहिं वेणुग्गहा टविया, जाब एगो पाओ आगासे ठविओ, जणो भगइ-किं एस तिरियो जाणइ ?, एयाणि मारेयवाणि, तहावि राया रोसं न मुञ्चति, ततो अ तिन्नि पाया आयासे कया, एगेण ठितो, लोगेण अकंदो कतो- किमेयं हत्थिरयणं वावाइजति ?, रण्णा मिठो भणिओ --तरसि पियत्तेउं ?, भणह अह दुयग्गावि अभयं देसि, दिण्णं, ततो तेण अंकुसेण नियत्तिओ हस्थित्ति ।" इह चायमभिप्रायः -- यथाऽयमीदृगवस्थो द्विपोऽङ्कुशवशतः पथि संस्थित एवमयमप्युत्पन्नविश्रोत सिकस्तद्वचनेन अहितप्रवृत्तिनिवर्त्तकतयाऽङ्कुशप्रायेण धर्म इति, निर्युक्ति: [४३९...] १ नूपुर पण्डिताख्यानकं भणित्वा यावत्ततो रुष्टेन राज्ञा देवी हस्तिपकः हस्ती च त्रयोऽपि छिन्नकटके आरोहिताः, भणितश्च हस्तिपक:अत्र पातय हस्तिनं, द्वयोश्च पार्श्वयोः वंशग्राहाः स्थापिताः, यावदेकः पादः आकाशे स्थापितः, जनो भणति - किमेष तिर्यङ्ग जानाति १, एते मारयितव्ये, तथापि राजा रोषं न मुञ्चति ततञ्च त्रयः पादा आकाशे कृताः, एकेन स्थितः, लोकेनाक्रन्दः कृतः - किमेतत् हस्तिनं व्यापाद्यते ?, राज्ञा मेण्ठो भणितः शक्नोषि निवर्तयितुं ?, भणति यदि द्वयोरप्यभयं ददासि दत्तं, ततखेनाङ्कुशेन निवर्त्तितो हस्तीति । For Para Prata Use Only ~990~ ancibran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२२], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [४४३-४४७] (४३) उत्तराध्य. RECG बृहद्वृत्तिः याध्य ॥४९६|| - 5 प्रत सूत्रांक ||४८|| ततश्च श्रामण्यं 'निश्चलं' स्थिरं 'फासे'त्ति अस्पाक्षीद-आसेवितवान् , शेषं स्पष्टमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ उभयोरप्युत्तर- रथनेमीवक्तव्यतामाह उग्गं तवं चरित्ता णं, जाया दुन्निवि केवली । सव्वं कम्म खवित्ता णं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥४८॥ उग्रं कर्मरिपुदारणतया 'तपः' अनशनादि 'चरित्ता णति चरित्वा 'जातो' भूतौ 'द्वावपीति रथनेमिराजीमत्या |'केवली'ति केवलिनी 'सर्व' निरवशेषं 'कर्म' भयोपग्राहि 'खवित्ता णं'ति क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तावनुत्तरामिति सूत्रार्थः ।। सम्प्रति नियुक्तिरनुश्रियतेसोरियपुरंमि नयरे आसी राया समुदविजओत्ति। तस्सासि अग्गमहिसी सिवत्ति देवी अणुजंगी ४४३, तेसिं पुत्ता चउरो अरिटुनेमी तहेव रहनेमी। तइओ अ सच्चनेमी चउत्थओ होइ दढनेमी ॥४४॥ जो सो अरिटुनेमी बावीसइमो अहेसि सो अरिहा । रहनेमि सच्चनेमी एए पत्तेयबुद्धा उ॥ ४४५॥ रहनेमिस्स भगवओ गिहत्थए चउर इंति वाससया।संवच्छर छउमत्थो पंचसए केवली हुंति ॥४४६४९६॥ नववाससए वासाहिए उ सवाउगस्स नायवं । एसो उ चेव कालो रायमईए उ नायवो ॥ ४४७॥ अत्र च प्रथमगाथया रचनेमेरन्वय उक्तः । तेर्सि'ति 'तयोः' समुद्रविजयशियादेव्योः, प्रसङ्गतदेह शेषपुत्राभिधा 500-%A4% दीप अनुक्रम %% [८४५] % AIMEducatan intimaten For Pro मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल संपादने अस्य आगमे नियुक्ति क्रमांकन संबंधे अनेक स्थाने मुद्रण दोष: प्रवर्तते, अत्र ||४४०....|| स्थाने ||४४३...|| मुद्रितं ~991~ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२२], मूलं [-] / गाथा ||४९|| नियुक्ति: [४४३-४४७] (४३) X 4 -54 प्रत सूत्रांक ||४९|| -- नम् , 'अहेसित्ति अभूत् , इह च यदरिष्टनेमेरहत्त्वं रथनेमेश्च प्रत्येकबुद्धत्वमुक्तं तदहातृत्वेन खगुणप्रकर्षेण च रथनमेाहात्म्यख्यापनार्थम् । चतुर्थगाथया पर्यायपरिमाणाभिधानं, तत्र चत्वारि वर्षशतानि गृहस्थपर्यायः वर्ष छद्मस्थपर्यायः वर्षशतकपञ्चकं केवलिपर्याय इति मिलितानि नव वर्षशतानि वर्षाधिकानि सर्वायुरभिहितम्, एष 'चैवविति चतुशब्दी पूरणे, तत एष एव च वर्षाधिकवर्षशतनवकलक्षणः, शेषं स्पष्टमिति गाथापञ्चकार्थः ॥ सम्प्रति प्रतिभन्मपरिणामतया मा भूद्रथनेमौ कस्यचिदबजेति सूत्रकृदाहएवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पविपक्षणा । विनियति भोगेसुं, जहा सो पुरुसोत्तमो॥४९॥ त्तिमि ॥ रहनेमिजं ॥ २२ ॥ 'एवम्' इति वक्ष्यमाणं 'कुर्वन्ति' विदधति 'संयुद्धाः' बोधिलाभतः पण्डिताः' बुद्धिमत्त्वेन 'प्रविचक्षणाः' प्रकर्षण शास्त्रज्ञतया न त्वनीदृशाः, किमित्याह-विशेषेण कथञ्चिद्विश्रोतसिकोत्पत्तावपि तन्निरोधलक्षणेन निवत्तन्ते, 'भोगेसुन्ति भोगेभ्यो यथा सः 'पुरुषोत्तमो' रथनेमिः, अनीशा झेकदा भग्नपरिणामा न पुनः संयमे प्रवर्तितुं । क्षमाः, ततो भोगविनिवर्तनात् संबुद्धादिविशेषणान्वितत्वेन कथमयमवज्ञास्पदं भवेदिति भावः, उपदेशपरतया वा प्राग्वद्याख्येयमिति सूत्रार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वदेव ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां द्वाविंशतितममध्ययनं समासमिति ॥२२॥ दीप अनुक्रम [८४६] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २२ परिसमाप्तं ~992~ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/ गाथा ||४९...|| नियुक्ति: [४४८-४५०] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः अथ त्रयोविंशं केशिगौतमीयमध्ययनम् । केशीगौस मीयाध्य ॥४९७॥ २३ प्रत सूत्रांक ||४९|| दीप अनुक्रम [८४६] KHESAROK व्याख्यातं रथनेमीयनामकं द्वाविंशतितममध्ययनम् , अधुना त्रयोविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःइहानन्तराध्ययने कथञ्चिदुत्पन्नविश्रोतसिकेनापि रथनेमिवद् धृतिश्चरणे विधेयेत्यभिहितम् , इह तु परेषामपि चित्त-| पिठतिमुपलभ्य केशिगौतमवत्तदपनयनाय यतितव्यमित्यभिप्रायेण यथा शिष्यसंशयोत्पत्ती केशिपृष्टेन गौतमेन| धर्मस्तदुपयोगि च लिङ्गादि वर्णितं तथाऽनेनाभिधीयत इत्यमुना सम्बन्धन प्राप्तस्यास्याध्यनस्य प्राग्वदुपक्रमादि | प्रतिपाद्य यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे केशिगौतमीयमिति नाम, अतः केशिगौतमशब्दयोनिक्षेपोऽभिधेयः, तत्र च वर्तमानतीर्थाधिपप्रथमगणधरतयैतत्तीर्थापेक्षया गौतमस्य ज्येष्ठत्वादादौ तदभिधानस्य तदनु केशिशब्दस्य निक्षे पमाह नियुक्तिकृत्द निक्लेवो गोअमंमी चउक्कओ दुवि०॥ ४४८॥ जाण०॥ ४४९ ॥ गोयमनामागोयं वेयंतो भावगोयमो होइ । एमेव य केसिस्सवि निक्खेवो चउक्कओ होइ ॥ ४५०॥ T ॥४९७॥ JAIMEducatantntainadaina For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - २३ “केशिगौतमीय" आरभ्यते ~993~ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत |||| दीप अनुक्रम [८४७] Jgn Educa “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१|| अध्ययनं [२३], निर्युक्ति: [४५१] गाथात्रयं प्राग्बन्नवरं गौतमाभिलाप एव विशेषः, 'एवमेव' उक्तप्रकारेणैव 'केशेरपि' केशिशब्दस्यापि निशेप (:) चतुपकको भवति, ज्ञातव्य इति शेषः, गाथात्रयार्थः ॥ नामान्वर्थमाह गोअम केसीओ आ संवायसमुट्टियं तु जम्हेयं । तो केसिगोयमिजं अज्झयणं होइ नाय ॥ ४५१ ॥ गौतमात् केशिनश्च संवादः - परस्पर भाषणं वचनैक्यं वा यतस्तयोस्तात्पर्यत एकार्थाभिधायितयै(ते) त्र ततः संवा-| दात्समुत्थितम् - उत्पन्नं संवादसमुत्थितम्, अनेन भावार्थ उक्तः, तुः अवधारणे, ततो गौतमात्केशिनश्च संवादसमुस्थितमेव यस्मादेतत्-प्रस्तुतं ततः केशिगीतमयोर्भवमित्यर्थे 'नामधेयेन नामधेयत्वेऽस्ये' ति वृद्धसज्ञत्वात्, 'वृद्धाच्छः' (पा०.४-२११४) इति प्रत्यये केशिगौतमीयमध्ययनं 'भवति' ज्ञातव्यमिति गाथार्थः ॥ उक्तो नाम निष्पन्ननिक्षेपः, इदानीं सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तचेदम् जिणे पासिति नामे, अरहा लोगपूइए। संबुद्धप्पा य सन्वन्नु, धम्मतित्थयरे जिणे ॥ १ ॥ 'जिनः' परीपहोपसर्गजेता पार्श्व इति नाम्नाऽभूदिति शेषः, स चान्योऽपि संभवत्यत आह- अर्हति देवेन्द्रादिवि| हितानि वन्दननमस्करणादीन्यर्हन् तीर्थकृदित्यर्थः, अत एव लोकपूजितः संबुद्धः — तत्त्वावगमवानात्माऽस्येति संबुद्धात्मा, 'चः पूरणे, स चानुत्पन्न केवलोऽपि स्यादित्याह - 'सर्वज्ञः' सकलद्रव्यपर्यायवित्, तथा धर्म एव तीर्यते भवासम्भोधिरनेनेति तीर्थं धर्मतीर्थं तत्करणशीलो धर्मतीर्थकरू 'जिनः' जितसकलकर्मा, भवोपग्राहि कर्मणामपि दग्धर For PP Use On ancibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~994~ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/ गाथा ||२-४|| नियुक्ति: [४५१...] (४३) उत्तराध्य वृहद्वत्तिः ॥४९८॥ प्रत सूत्रांक ||२-४|| जुसंस्थानतयैव तेन व्यवस्थापनात् , मुक्त्यवस्थाऽपेक्षया का, पठ्यते च-'अरिहा लोयविस्सुए। सचन्नू सपदंसी य, | केशीगीतधम्मतित्थस्स देसए ।' स्पष्टमेवेति सूत्रार्थः ॥ ततः किमित्याह मीयाध्य. तस्स लोगपईवस्स, आसि सीसे महायसे । केसी कुमारसमणे, विजाचरणपारगे ॥२॥ ओहिनाणसुए बुद्धे, सीससंघसमाउले । गामाणुगाम रीयंते, सेऽवि सावत्थिमागए ॥३॥ तिंदुयं नाम उजाणं, तंमि नयरमंडले । फासुएसिजसंधारे, तत्थ वासमुवागए ॥ ४॥ 'तस्य' इति पार्थनानोऽहतो लोके प्रदीप इव प्रदीपस्तद्गतसकलवस्तुप्रकाशकतया लोकप्रदीपस्तस्यासीच्छिष्यो| महायशाः 'केशिः' केशिनामा कुमारश्चासावपरिणीततया श्रमणश्च तपखितया कुमारश्रमणो विद्याचरणे-ज्ञानचारित्रे तयोः पारगः-पर्यन्तगामी विद्याचरणपारगः, 'ओहिनाणसुए'त्ति सुव्यत्ययादवधिज्ञानश्रुताभ्यां "मइपुछ जेण सुयं”| इत्यागमात्मतिपूर्वकतया श्रुतस्य मत्या च 'बुद्धः' अवगतहेयोपादेयविभागो विशेषाभिधायित्वादस्थापुनरुक्तता, शिष्याणां सङ्का-समूहस्तेन समाकुल:-आकीर्णः परिहित इतियावत् शिष्यसङ्घसमाकुलो ग्रामानुग्रामं पूर्ववत् 'रीयंते'त्ति 'रीयमाणः' विहरन् 'श्रावस्ती' श्रावस्तीनाम्नी, 'तम्मिति तस्याः श्रावस्त्याः 'नगरमण्डले' पुरपरिक्षेपपरिसरे 'प्रासुके। खाभाविकागन्तुकसत्वरहिते, केत्याह-शय्या-वसतिस्तस्यां संस्तारका-शिलाफलकादिः शय्यासंस्तारकस्तस्मिन् 'तत्रे'-* |ति तिन्दुकोद्याने वासम्-अवस्थानम् 'उपागतः प्राप्तः, शेषं स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ अस्मिंश्चान्तरे यदभूतदाह दीप अनुक्रम [८४८-८५०] For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~995~ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [--] / गाथा ||५-८|| नियुक्ति: [४५१...] (४३) * प्रत सूत्रांक ||५-८|| अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे । भयवं वद्धमाणुत्ति, सब्वलोगंमि विस्सुए॥५॥ तस्स लोगपईवस्स, आसि सीसे महायसे । भयवं गोयमे नाम, विजाचरणपारगे ॥ ६॥ वारसंगविऊ बुद्धे, सीससंघसमाउले। दिगामाणुगाम रीयंते, सेऽवि सावस्थिमागए ॥ ७॥ कुट्टगं नाम उज्जाणं, तंमि नयरमंडले । फासुएसिजसं-15 थारे, तत्थ वासमुवागए ॥८॥ स्पष्टमेव, नवरम् 'अर्थ' इति वक्तव्यान्तरोपन्यासे 'तेणेव कालेणं'ति तस्मिन्नेव काले, सूत्रत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया, वर्द्धमानो नाम्नाऽभूदिति शेषः, 'विश्रुतः' विख्यातः, गौतमो नामेति गोत्रनामतोऽन्यथा हि इन्द्रभूत्यभिधान एवासौ, 'वारसंगबिउत्ति द्वादशाङ्गावित् 'सेऽविति सोऽपि गौतमनामा भगवान् 'तम्मि'न्ति इहापि तस्याः श्रावस्त्या इति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ ततः किमजनीत्साह केसीकुमारसमणे, गोयमे अ महायसे । उभओवि तत्थ विहरिसु, अल्लीणा सुसमाहिया ॥९॥ उभओ ४ सीससंघाणं, संजयाणं तवस्सिणं । तत्थ चिंता समुप्पन्ना, गुणवंताण ताइणं ॥१०॥ केरिसो वा इमो &धम्मो, इमो धम्मो व केरिसो। आयारधम्मप्पणिही, इमा वा सा व केरिसी॥११॥ चाउजामो अ जो धम्मो, जो हमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वडमाणेणं. पासेण य महामुणी ॥ १२॥ अचेलगो अ जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। एगकजपवनाणं, विसेसे किं नु कारणं ॥१३॥ दीप अनुक्रम [८५१ -८५४] AIMEducatan intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~996~ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१३|| दीप अनुक्रम [८५५ -८५९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४९९ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||९-१३|| अध्ययनं [२३], Jain Education intimational ततः 'उभयोवि'त्ति उभावपि केशिगौतमी 'तत्र' इति श्रावस्त्यां 'विहरिंसुति वचनव्यत्ययाद् व्यहाष्ट, विहृतवन्तावित्यर्थः, 'अल्लीण'त्ति 'आलीनौ' मनोवाक्कायगुप्सावाश्रितौ वा, प्रक्रमात्तस्यामेव पुरि, यद्वा 'अलीनौ' पृथगवस्थानेन परस्परमश्लिष्टो 'सुसमाहितौ' सुष्ठु ज्ञानादिसमाधिमन्तौ, 'उभयोः' द्वयोः तयोरेव केशिगौतमयोः 'शिष्यसहानां' शिष्यसमूहानां 'संयतानां' संयमिनां 'तपखिनां विशिष्टतपोऽन्वितानां 'तत्रेति तस्यामेव श्रावस्ती पुरि 'चिन्ते 'ति वक्ष्यमाणविकल्पा गुणाः सम्यग्दर्शनादयस्तद्वतां, 'ताइणं'ति प्राग्वत् तायिनां त्रायिणां वा, | चिन्तास्वरूपमाह-'कीदृश: ?' किंखरूपः 'वा' विकल्पे पुनरर्थे वा 'इमो'त्ति जयम् - अस्मत्सम्बन्धी 'धर्मः' महाव्रतात्मकः 'अय' मिति परिदृश्यमानगणभृच्छिष्यसम्बन्धी 'धम्मो व 'ति वाशब्दो भिन्नक्रमस्ततश्चायं वा धर्मः कीदृशः १, | आचरणमाचारो - वेषधारणादिको वाह्यः क्रियाकलाप इत्यर्थः, स एव सुगतिधारणाद्धर्मः प्राप्यते हि वाद्यक्रियामा| श्रादपि नवमत्रैवेयकमितिकृत्वा तस्य प्रणिधिः व्यवस्थापनमाचार धर्मप्रणिधिः, 'इमाविति प्राकृतत्वादयं वाऽस्मत्सम्बन्धी 'साव'त्ति तत एव स वा द्वितीययतिसत्कः, अयं चाशयः - अस्माकममीषां च सर्वज्ञप्रणीत एव धर्मस्तत्किमस्यैतत्साधनानां च भेद इति तदेतदववोडुमिच्छामो वयमिति । उक्तामेव चिन्तामभिव्यक्ती कर्त्तुमेवाह- 'चाउजामो यत्ति चातुर्यामः - महात्रतचतुष्टयात्मको यो धर्मः 'देशितः' कथितः 'पार्थेन' पार्श्वनाम्ना तीर्थकृतेति सम्बन्धः, 'जो इमो'त्ति चकारस्य प्रश्लेषाद् यश्चायं पञ्च शिक्षाः - प्राणातिपातादिविरमणोपदेशात्मिकाः संजाता For Parent निर्युक्तिः [४५१...] ~997~ केशिगौत मीयाध्य० २३ ॥४९९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/ गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [४५१...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१३|| यस्मिन्नसौ पञ्चशिक्षितः, तारकादेराकृतिगणवादितच्, यद्वा पञ्च शिक्षितानि-उक्तशिक्षारूपाणि यस्मिन्नसौ पञ्चशि-AL [क्षितो बर्द्धमानेन देशित इति योगः, 'महामुणि'त्ति सुव्यत्ययान्महामुनिनेत्युभयोरपि विशेषणं महामुनीना चा, अनयोर्विशेषे किं नु कारणमित्युत्तरेण सम्बन्धः, अनेन धर्मविषयः संशयो व्यक्तीकृतः । सम्प्रत्याचारधर्मप्रणिधिविषयं तमेवाभिव्यनक्ति-'अचेलकच उक्तन्यायेनाविद्यमानचेलकः कुत्सितचेलको वा यो धर्मों वर्धमानेन देशित इत्यपेक्ष्यते, तथा 'जो इमोत्ति पूर्ववद् यश्चायं सान्तराणि-वर्द्धमानखामिसत्कयतिवस्त्रापेक्षया कस्यचित्कदाचिन्मानवर्णविशेषतो विशेषितानि उत्तराणि च-महाधनमूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद्वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पार्थन देशित इतीहापेक्ष्यते, एकं कार्य-मुक्तिलक्षणं फलं तदर्थं प्रपनौ-प्रवृत्तावेककार्यप्रपन्नौ तयोः प्रक्रमात्पार्श्ववर्द्धमानयोः, उभावपि हि मुक्त्यर्थमेव प्रवृत्तावितिकृत्वा, 'विशेष' उक्तरूपे 'किमिति संशये 'नु' वितर्के । कारणं' हेतुः १, कारणभेदेन हि कार्यभेदसम्भव इति भावः, शेषं स्पष्टमिति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ एवं च विनेयचिन्तोप्रत्पत्तौ यत्केशिगौतमावकार्टी तदाह+ अह ते तत्थ सीसाणं, विण्णाय पवियक्कियं । समागमे कयमई, उभो केसिगोयमा ॥ १४ ॥ गोअमो. पडिरूवन्न, सीससंघसमाउले । जिर्से कुलमविक्खतो, तिंदुयं वणमागओ ॥१५॥ केसी कुमारसमणे, गोअम दीप अनुक्रम [८५५ -८५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~998~ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१४ -१७|| दीप अनुक्रम [८६० -८६३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः * ॥ ५०० ॥ दिस्समागयं । पडिरूवं पडिवत्ति, सम्मं संपडिवजई ॥ १६ ॥ पलाल फासूअं तत्थ, पंचमं कुसंतणाणि य । गोयमस्स निसिजाए, खिष्यं संपणामए ॥ १७ ॥ 'अथे' त्यनन्तरं 'ते' इति तौ प्रक्रान्तौ 'तत्रे'ति श्रावस्त्यां प्रकर्षेण वितर्कितं विकल्पितं प्रवितर्कितं 'समागमे' मीलके 'कृतमती' विहिताभिप्रायावभूतामिति शेषः, 'के सिगोयमे'त्ति केशिगौतमी, ततथ 'पडिरुवन्नु'त्ति प्रतिरू | पविनयो- यथोचितप्रतिपत्तिरूपस्तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः 'ज्येष्ठं' प्रथमभावितया 'कुलं' पार्श्वनाथसन्तानम् 'अपेक्षमाणः' विगणयन् 'प्रतिरूपाम्' उचितां 'प्रतिपत्तिम्' अभ्यागतकर्त्तव्यरूपां 'सम्यग्र' अवैपरीत्येन समिति-सांमु रूयेन प्रतिपद्यते-अङ्गीकरोति संप्रतिपद्यते । प्रतिपत्तिमेवाह-'पठाले' प्रतीतं 'प्रासुकं' विगतजीवं 'तत्रे'ति तसिं तिन्दुकोद्याने 'पंचमं 'ति वचनव्यत्ययात् 'पञ्चमानि' पञ्च सङ्ख्यापूरणानि, कानीत्याह-कुशतृणानि चशब्दादन्यान्यपि साधुयोग्यतृणानि, पञ्चमत्वं चैपां पलालभेदापेक्षया, तस्य हि शात्यादिसम्बन्धिभेदापेक्षया चत्वारो भेदाः, यत उक्तम्- "तिणपणगं पुण भणियं, जिणेहिं कम्मट्टगंठिमहणेहिं । साली बीही कोदवरालगरण्णे तिणाई च ॥ १ ॥ " गौतमस्य 'निषद्यायै' निषद्यानिमित्तमुपवेशनार्थमित्यर्थः, 'संपणामए'ति समर्पयति, शेषं सूत्रसिद्धमेवेति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ तौ च तत्रोपविष्टौ यथा प्रतिभातस्तथाऽऽह १ तृणपञ्चकं पुनर्भणितं जिनः कर्माष्टकग्रन्थिमथनैः । शाली: त्रीहिः कोद्रवो राजकः अरण्यतृणानि च ॥ १ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [२३], मूलं [--] / गाथा ||१४-१७|| निर्युक्ति: [ ४५१...] Education inttinational For PP Use On केशिगाव मीयाध्य० २३ ~999~ ||५००॥ janibrary मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||१८-२०|| नियुक्ति : [४५१...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥१८ -२०|| केसी कुमारसमणे, गोअमे य महायसे । उभओ निसन्ना सोहंति, चंदसूरसमप्पहा ॥१८॥ निगदसिद्ध, नवरं 'सोहंति'ति शोभेते चन्द्रसूर्यसमा प्रभा-छाया ययोतो तथा चन्द्रसूर्योपमापितियावदिति सूत्रार्थः ॥ तत्सङ्गमे च यदभूत्तदाह समागया यह तत्थ, पासंडा कोउगासिया। गिहत्थाण अणेगाओ, साहस्सीओ समागया ॥१९॥ देवदाणवगंधब्बा, जक्खरक्खसकिनरा । अहिस्साण य भूआणं, आसि तत्थ समागमो ॥ २०॥ 'समागताः' मिलिताः पापण्डं-व्रतं तद्योगात् 'पापण्डाः' शेषत्रतिनः कौतुक-कुतूहलम् आश्रिताः-प्रतिपन्नाः कौतुकाश्रिताः, पठ्यते च-'कोउगामिग'त्ति, तत्र कौतुकात् मृगा इव मृगा अज्ञत्वात्प्राकृतत्वादमितकौतुका था, |'साहस्सीओ चि सूत्रत्वात्सहस्राणि । देवा-ज्योतिष्कवैमानिकाः दानवाः-भवनपतयो गन्धर्वयक्षादयो-ज्यन्तरवि-13 शेषाः, समागता इति पूर्वेण सम्बन्धः, एते चानन्तरमदृश्यविशेषणाद् रश्यरूपाः, अदृश्यानां च भूतानां केलीकिल-11 ब्यन्तरविशेषाणामासीत् 'समागमः' मीलकः, शेष सुगममिति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रति तयोर्जल्पमाह पुच्छामि ते महाभाग !, केसी गोयममब्ववी । तओ केसिं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्यवी ॥ २१ ॥ पुच्छ भंते ! जहिच्छ ते, केसिं गोयममम्ववी। तओ केसी अणुनाए, गोअम इणमब्बबी ॥ २२ ॥ 'पृच्छामि' प्रश्नयामि 'ते' इति त्वां 'महाभाग ! अतिशयाचिन्त्यशके! 'अत्रवीत् उक्तवान् 'ततः तद्वचनानन्तरं दीप अनुक्रम [८६४ -८६६] For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1000 ~ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-1 / गाथा ||२१-२२|| नियुक्ति: [४५२-४५४] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः कमेण यन सूत्रांक ॥५०॥ ||२१-२२|| केशि 'ब्रुवन्तम्' अभिदधतं 'तुः' पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च केशि पुनर्बुवन्तमिति योज्यते, 'जहिच्छंति इच्छाया अनतिकमेण यथेच्छं यदवभासत इत्यर्थोऽनुज्ञात इति-अनुमतो गौतमेनेति प्रक्रमः, शेष प्रतीतमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ यचासौ गौतम पृष्टवांस्तत्सङ्ग्राहकं नियुक्तिकृद् द्वारगाथात्रयमाहसिक्खावए अ लिंगे अ, सत्तूणं च पराजए । पासावगत्तणे चेव, तंतूद्धरणबंधणे ॥ ४५२॥ अगणिणिवावणे चेव, तहा दुटुस्स निग्गहे । तहा पहपरिन्नाय, महासोअनिवारणे ॥ ४५३ ॥ संसारपारगमणे, तमस्स अ विघायणे। ठाणोवसंपया चेव, एवं बारससू कमो ॥ ४५४ ॥ एतच यथाऽवसरं सूत्रव्याख्यान एव व्याख्यास्यते, तत्र प्रथमं 'सिक्खावय'त्ति द्वारम् , अत्र च शिक्षा-अभ्यासस्तत्प्रधानानि व्रतानि प्रतिदिनं यतिभिरभ्यस्यमानतया शिक्षाप्रतानि शिक्षापदानि वा-प्राणिवधविरमणादीनि, सत्सु हि तेषु शेषाऽपि शिक्षा शिष्योपदेशात्मिका संभवतीति । एतदधिकृल्लाह सूत्रकृत् P५०१० चाउजामो अ जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ बद्धमाणेणं, पासेण य महामुणी ॥ २३ ॥ एगकजपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं । धम्मे दुविहे मेहावी, कहं विप्पचओ न ते ? ॥ २४ ॥ दीप अनुक्रम [८६७-८६८] AIMEducatan intamanimal For ParaTREPWRauwonly wiancibansar v मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1001 ~ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/गाथा ||२३-२४|| नियुक्ति: [४५२-४५४] (४३) प्रत सूत्रांक ||२३. -२४|| 'चतुर्यामः' हिंसाऽनृतस्तेयपरिग्रहोपरमात्मकबतचतुष्टयरूपः 'पञ्चशिक्षितः स एव मैथुनविरमणात्मकपञ्चमत्रतसहितः । इत्थं च 'धर्म' साधुधर्मे द्विविधे' द्विभेदे हे 'मेधाविन् !' विशिष्टावधारणशक्त्यन्वित! कथञ्चित् (कथं द विप्र ) प्रत्ययः' अनाश्वासो न 'ते' तव?, तुल्ये हि सर्वज्ञत्वे किंकृतोऽसौ मतभेद इत्यभिप्रायः, शेषं प्रकटार्थमेवेति सूत्रद्वयार्थः ॥ एवं केशिनोक्ते| तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्यवी । पन्ना समिक्खए धम्मतत्तं तत्तविणिच्छियं ॥ २५ ॥ पुरिमा | उज्जुजड्डा उ, वक्कजड्डा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना उ, तेण धम्मे दुहा कए ॥२६॥ पुरिमाणं दुविसुज्झो ज, चरिमाणं दुरणुपालओ । कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झो सुपालओ ॥२७॥ MI 'ततः' तदनन्तरं केशिं त्रुवन्तं तुः पूरणेऽवधारणे वा ततो ब्रुवन्तमेव जल्पादनुपरतमेव, अनेनादरातिशयमासन्नल धप्रतिभतां च गौतमस्याह । किं तदत्रवीदित्याह-'प्रज्ञा' बुद्धिः 'समीक्षते' सम्यक् पश्यति, किं तदित्याह-'धम्मतत्त'ति बिन्दुरलाक्षणिकस्ततः 'धर्मतत्त्वं' धर्मपरमार्थ तत्त्वानां-जीवादीनां विनिश्चयो-विशिष्टनिर्णयात्मको यस्मिंस्तत्तथा, इदमुक्तं भवति-न वाक्यश्रवणमात्रादेव वाक्यार्थनिर्णयो भवति, किन्तु प्रज्ञावशात् , ततः 'पुरिम'त्ति 'पूर्व' प्रथमतीर्थकत्साधवः 'उज्जुजडे'ति ऋजयश्च प्राञ्जलतया जडाच तत एव दुष्प्रतिपाद्यतया ऋजुजडाः, तुरिति यस्मात् 'वकजड्डा यत्ति, वक्राश्च वक्रबोधतया जडाश्च तत एव खकानेककुविकल्पतो विवक्षितार्थन दीप अनुक्रम [८६९ -८७०] For PATREPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1002~ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||२५-२७|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ||२५-२७|| उत्तराध्यतिपत्त्यक्षमतया वक्रजडाः 'चः' समुच्चये 'पश्चिमाः' पश्चिमतीर्थकृद्यतयः 'मध्यमास्तु' मध्यमतीर्थकृत्सम्बन्धितप- केशिगौत खिनः, 'ऋजुप्रज्ञाः' ऋजयश्च ते प्रकर्षण जानन्तीति प्रज्ञाश्च सुखेनैव विवक्षितमर्थ ग्राहयितुं शक्यन्त इति ऋजुप्रज्ञाः, मीयाध्या तेन हेतुना धर्मो द्विभेदः 'कृतः' विहितः, एककार्यप्रतिपन्नत्वेऽपीति प्रक्रमः । यदि नाम पूर्वादीनामेवंविधत्वं १५०२॥ तथापि कथमेतद् द्वैविध्यमित्याह-'पुरिमाणं'ति पूर्वेषां दुःखेन विशोध्यो बिशोधयितुं-निर्मलतां नेतं शक्योर दुर्विशोध्यः, कल्प इति संबध्यते, ते ह्यतिऋजुतया गुरुभिरनुशिष्यमाणा अपि न तदनुशासनं खप्रज्ञाऽपराधाद्यथा*वत्प्रतिपत्तुं क्षमन्त इति तेपामसौदुर्षिशोध्य उच्यते, तुशब्द उत्तरेभ्यो विशेष द्योतयति, 'चरमाणा' चरमतीर्थकत्तप|खिनां दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपालः स एव दुरनुपालकः 'कल्पः' यतिक्रियाकलापः, ते हि वक्रत्वेन कु विकल्पाकुलितचित्ततया कथञ्चिजानाना अपि न यथावदनुष्ठातुमीशते, मधमकानां तु सुखेन विशोध्यो-विशोधयितुं शक्यः सुविशोध्यः, 'सुपालउ'त्ति चशब्दस्य गम्यमानत्वात्सुपालकश्च, कोऽसौ ?-कल्पः इतीहापि योज्यते, ते हि ऋजुप्रज्ञा इति सम्यग्मागानुसारियोधतया सुखेनैव यथावदवगच्छन्ति पालयन्ति च, अतस्ते चतुर्यामोक्तावपि पञ्चममपि याममुक्तहेतोातुं पालयितुं च क्षमा इति तदपेक्षया पार्थण चतुर्याम उक्तः, पूर्वपश्चिमाश्चोक्तनीतितो नित्यमिति ऋषभवर्द्धमानाभ्यां पञ्चमं प्रतमुक्तम् , अयमर्थः-न याशाद्वाचकादेकस्य श्रोतुर्विवक्षिताथेप्रतिपत्तिस्तारशा-151 देवाशेषाणामपि, खप्रज्ञापेक्षया हि कोऽपि कीरशादेव वाचकादेकमप्यर्थं प्रतिपद्यत इति विचित्रप्रज्ञविनेयानुग्रहा दीप अनुक्रम [८७१-८७३] JAINEducatan intimatemal For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1003~ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||२८-३०|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥२८ -३०|| योपात्तीवाचकभेदादेव धर्मस्य द्वैविध्यं, न तु वस्तुभेदात्, यद्वाचकभेदेऽपि वस्तुतो व्रतपञ्चकस्यैवात्र.विवक्षितत्वात् , प्रसातशेहायजिनाभिधानमिति सूत्रत्रयार्थः । इत्थं गौतमेनोक्ते केशिराह4 साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा! ॥२८॥ अचेलओ अ जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण य महामुणी ॥ २९ ॥ एगकजप-2 वनाणं, विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी !, कहं विपञ्चओ न ते ? ॥ ३०॥ A 'साधु'त्ति साधुः-शोभना गौतम ! 'प्रज्ञा' बुद्धिः 'ते' तक, यतः 'छिन्नः' अपनीतस्त्वयेति गम्यते, मम 'संशयः सन्देहः 'इमोत्ति अयम्-उक्तरूपः, पठन्ति च-'पण्णाए'त्ति, तत्र च साधु यथा भवत्येवं गौतम! 'प्रज्ञया' बुद्धया भी छिन्नो मे संशयोऽयं, त्वयेति व्याख्येयं, विनेयापेक्षं चेत्थमभिधानं, न तु तस्य मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयसमन्वितस्यैवंविधसंशयसम्भव इति सर्वत्र भावनीयम् । 'अन्योऽपि वक्ष्यमाणः संशयो मम तं मे कथय गौतम!, तद्विषयमप्यर्थे । यथावत्प्रतिपादयेति भावः । अत्र च द्वितीयं द्वारं 'लिंग'त्ति, लिङ्गयते-गम्यतेऽनेनायं व्रतीति लिङ्ग-वर्षाकल्पादिरूपो वेषः, तदधिकृत्याह-'अचेलओं' इत्यादि, पागू व्याख्यातमेव, नवरं 'महामुनि'त्ति महामुने !, पठन्ति च, महाजसति महायशाः, लिङ्गे द्विविधे-अचेलकतया विविधवस्त्रधारकतया च द्विभेद इति सूत्रत्रयार्थः ॥ एवं केशिनाऽभिहिते गौतमवचोऽभिधायकं सूत्रत्रयम् दीप अनुक्रम [८७४-८७६] AIMEducatan intimational For ParaTREPWAuOnly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1004 ~ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||३१-३३|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥५०३॥ २३ ||३१-३३|| उत्तराध्य केसि एवं बुवाणं तु, गोयमो इणमन्बधी । विन्नाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं ॥ ३१ ॥ पञ्चयत्यं । केशिगौत च लोगस्स, नाणाविहविकप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओअणं ॥३२॥ अह भवे पइन्ना उ, बृहद्वृत्तिः KIमुक्खसम्भूयसाहणा । नाणं च दंसर्ण चेव, चरितं चेव निच्छए ॥३३॥ मीयाध्य | अन च विशिष्टं ज्ञानं विज्ञान-तच केवलमेव तेन समागम्य यद्यस्योचितं तत्तथैव ज्ञात्वा 'धर्मसाधनं' धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादिकम् 'इच्छिय'न्ति 'इष्टम्' अनुमतं पार्श्वनाथवर्द्धमानतीर्थकृयामिति प्रक्रमः, वर्द्धमानविनेयानां हि दा रक्तादिवस्त्रानुज्ञाने वकजडत्वेन वखरञ्जनादिषु प्रवृत्तिरतिदुर्निवारैव स्यादिति न तेन तदनुज्ञातं, पार्थशिष्यास्तु न तिथेति रक्तादीनामपि (धर्मोपकरणत्वं ) तेनानुज्ञातमिति भावः, किञ्च-प्रत्ययार्थं वा-अमी तिन इति प्रतीतिVIनिमित्तं, कस्य-लोकस्य, अन्यथा हि यथाऽभिरुचितं वेषमादाय प्रजादिनिमि विडम्बकादयोऽपि वयं व्रतिन| इत्यभिदधीरन्, ततो बतिष्वपि न लोकस्य तिन इति प्रतीतिः स्यात् , किं तदेवमित्याह-'नानाविधविकल्पनं' प्रक्रमानानाप्रकारोपकरणपरिकल्पनं, नानाविधं हि वर्षाकल्पाद्युपकरणं यथावद्यतिवेव संभवतीति कथं न तत्प्र-111 का॥५०३|| त्ययहेतुः स्यात् ?, तथा यात्रा-संयमनिर्वाहस्तदर्थे, विना हि वर्षाकल्पादिकं वृष्टयादी संयमबाधैव स्थात्, ग्रहणं-| ज्ञानं तदर्थं च, कथञ्चिचित्तविप्लवोत्पत्तावपि गृह्णातु-यथाऽहं व्रतीत्येतदर्थ, लोके लिङ्गस्य-वेषधारणस्य प्रयोजनमिति-प्रवर्त्तनं लिङ्गप्रयोजनम् । अथे' त्युपन्यासे 'भवे पइन्ना उत्ति तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद्भिन्नक्रमत्वाच भवे दीप अनुक्रम [८७७-८७९] ५ AIMEducatan intamanna For PAHATEEPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1005~ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||३१-३३|| नियुक्ति: [४१४...] E (४३) प्रत सूत्रांक ||३१-३३|| देव प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा-अभ्युपगमः, प्रक्रमात्पार्थवर्द्धमानयोः, प्रतिज्ञास्वरूपमाह-'मोक्खसम्भूयसाहण'त्ति मोक्षस्य | सद्भूतानि च तानि तात्त्विकत्वात्साधनानि च हेतुत्वान्मोक्षसद्भूतसाधनानि, कानीत्याह-ज्ञानं च' यथाक्दवबोधः 'दर्शनं च' तचरुचिः 'चारित्रं च सर्वसावधविरतिः 'एवे' त्यवधारणे, स च लिङ्गस्य मुक्तिसद्भूतसाधनता व्यवच्छि-2) नत्ति, ज्ञानायेव मुक्तिसाधनं न तु लिङ्गमिति, श्रूयते हि भरतादीनां लिङ्गं बिनाऽपि केवलज्ञानोत्पत्तिः, 'निश्चये। इति निश्चयनये विचार्ये, व्यवहारनये तु लिङ्गस्यापि कथञ्चिन्मुक्तिसद्भुतहेतुतेष्यत एव, तदयमभिप्रायः-निश्चय-14 स्तावलिझं प्रत्याद्रियत एवं न, व्यवहार एव तूक्तहेतुभिस्तदिच्छतीति तद्भेदस्य तत्त्वतोकिश्चित्करत्वान्न विदुषां । विप्रत्ययहेतुता, शेषं स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ ____ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नोऽवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ३४ ॥ प्राग्वत् । अत्र च तृतीयद्वारं शत्रूणां पराजय इति, एतदधिकृत्याह अणेगाण सहस्साणं, मज्झे चिट्ठसि गोयमा !|ते अ ते अभिगच्छति, कहं ते निजिया तुमे ॥ ३५॥12 एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ता णं, सब्वसत्तू जिणामहं ॥३६॥ सत्तू अ इइ के वुत्ते, केसी गोयममब्बवी । तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥ ३७॥ एगप्पो अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तू जहानाय, विहरामि अहं मुणी ॥ ३८ ॥ -KRAK दीप अनुक्रम [८७७-८७९] : For wiancibanam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1006~ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||३५-३८|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३५-३८|| उत्तराध्य. अविद्यमानमेक इति-भावप्रधानत्वानिर्देशकैकत्वं येषु तेऽने कास्तेषाम् अनेकानां-बहूनां सहस्राणां प्रक्रमा- केशिगौतवृहद्वृत्तिः दिच्छत्रुसम्बन्धिनां मध्ये त्वं तिष्ठसि' आस्से गौतम!, 'ते च' अनेकसहस्रसङ्ख्याः शत्रवः 'ते' इति सूत्रत्वाचामभि मीयाध्य. लक्षीकृत्य गच्छन्ति-धावन्ति, अर्थाजेतुम् , इत्थं चैतत् केवलानुत्पत्तिदर्शनात् , दृश्यते च तजयफलमपि तव प्रश॥५०॥ मादि, तत् 'क' केन प्रकारेण 'ते' इत्युक्तरूपाः शत्रवः 'निर्जिताः' अभिभूतास्त्वया ?, भूयस्त्वादभियोक्तृत्वाच ततेपामिति भावः । इत्थं केशिनो के गौतम आह-'एकस्मिन् सकलभावशत्रुप्रधाने आत्मनि 'जिते' अभिभूते जिताः पञ्च, कथम् , एकः स एवान्ये च चत्वारः कषायाः, तथा 'पंच जिए'त्ति सूत्रत्वात्पञ्चसु जितेषु जिता दश, अत्रापि पश्चोक्ता एवापराणि च पञ्चेन्द्रियाणि, ततः 'दशधा' दशप्रकारानुक्तरूपान् 'तुः' पुनरर्थे शत्रून् जित्वा ! 'ण'ति प्राग्वत् 'सर्वशत्रून्' नोकपायादीस्तदुत्तरोत्तरभेदांश्चानेक सहस्र सङ्खधान् ‘जयामि' अभिभवाम्यहं, तदनेन । प्रथमतः प्रधानजयो-जयनप्रकार उक्तः, ततश्च 'सत्तू य इइत्ति 'चा' पूरणे इति भिन्नक्रमो जाती चैकवचनं, ततः शत्रुः क उक्त इति केशिगौतममब्रवीत्, ननु यद्यतौ शत्रूनपि न वेत्ति कथं तन्मध्यगतस्त्वं तिष्ठसीत्यादिकमनेन प्रागुक्तम् ?, उच्यते, अज्ञजनप्रतिबोधार्थ सर्वा अपि ज्ञपृच्छा एताः, उक्तं हि प्राग् 'ज्ञानत्रयान्वितोऽसाविति कथमस्यैवंविधवस्त्वपरिज्ञानसम्भव' इति, उत्तरार्ध प्राग्वत् । एक आत्मेति-जीवश्चित्तं वाऽतति-गच्छति तांस्तान् भावान् अर्थान्वेति व्युत्पत्तेः 'अजितः' अवशीकृतः अनेकानावाप्तिहेतुत्वाच्छयुरिव शत्रुस्तथोक्तहेतोरेव 'कषायाः' दीप अनुक्रम [८८१-८८४] ५०४॥ AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1007~ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥३५ -३८|| दीप अनुक्रम [८८१ -८८४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३५-३८|| अध्ययनं [२३], निर्युक्ति: [ ४५४...] क्रोधादयः 'इन्द्रियाणि' स्पर्शनादीनि चशब्दान्नोक पायादयः कषायाद्युत्तरोत्तरभेदाथ, अजिताः शत्रव इति वचनविपरिणामेन योज्यते । इह च कपायाणां प्रथमत उपादानमिन्द्रियाणामपि कषायवशत एवानर्थहेतुत्वख्यापनार्थ, सम्प्रत्युपसंहरण्याजेन तज्जये फलमाह-'तान्' उक्तरूपान् शत्रून् 'जित्ला' अभिभूय 'यथान्यायं यथोक्तनीत्यनतिक्रमेण ततो विहरामि - तन्मध्येऽपि तिष्ठन्नप्रतिबद्धविहारितयेति गम्यते, तेषामेव प्रतिबन्धहेतुत्वेन तद्विवअन्धकाभावादिति भावः, 'अह' मित्यात्मनिर्देशः 'मुने' इति केश्यामन्त्रणमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ एवं गौतमेनाभिहिते साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ३९ ॥ प्राग्वत् ॥ सम्प्रति 'पासावगत्तणं' ति चतुर्थद्वारमधिकृत्याह संत बहवे लोए, पासबा सरीरिणो । मुक्कपासो लहुब्भूओ, कहं तं विहरसी मुणी | १ ॥४०॥ ते पासे सव्वसो छिन्ता, निरंतृण उवायओ । मुक्कपासो लहुम्भूओ, विहरामि अहं मुणी ! ॥ ४१ ॥ पासा अ इद्द के वृत्ता?, केसी गोयममन्यवी । केसि एवं बुवंतं तु, गोवमो इणमध्वी ॥ ४२ ॥ रागदोसादओ तिब्बा, नेह पासा भयंकरा । ते छिंदि जहानायं, विहरामि जहक ॥ ४३ ॥ सूत्र चतुष्टयं स्पष्टमेव नवरं पाशैर्वद्धा-नियत्रिताः पाशबद्धाः शरीरिणः' प्राणिनः, 'मुक्तपाशः' त्यक्तपाशोऽत एव लघुभूतो वायुः, ततो लघुभूत इव लघुभूतः सर्वत्र प्रतिवद्धत्वात् । गौतम आह— 'ते' इति तानू - लोकबन्धकान् For PP Use On janeiro d मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~1008~ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||४०-४३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५०॥ २३ प्रत सूत्रांक ॥४०-४३|| पाशान् 'सघसो'त्ति सूत्रत्वात्सर्वान् 'छित्त्वा' त्रोटयित्वा 'निहत्य' पुनर्वन्धाभावलक्षणेनातिशयेन विनाश्य, कथम् : केशिगौत'उपायतः' सद्भूतभावनाऽभ्यासात् । ततः पाशाश्च-पाशशब्दवाच्याः के 'वुत्ते ति उक्ताः । रागद्वेषादयः, आदिश-01 ब्दान्मोहपरिग्रहः 'तीवाः' इति गाढाः, तथा 'णेह'त्ति स्नेहा:-पुत्रकलत्रादिसम्बन्धास्ते पाशा इव पारवश्यहेतुतया समीयाध्य पाशा इत्युक्ता इति क्रमः,अतिगाढत्वाच रागान्तर्गतत्वेऽप्यमीषां पुनरुपादानं, भयङ्कराः' अनर्थहेतुतया त्रासोत्पादका 'यथाक्रमम्' इति क्रमो-यतिविहित आचारस्तदनतिक्रमेणेति सूत्रचतुष्टयार्थः । साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥४४॥ पूर्ववत् । सम्प्रति 'तन्तूद्धरणबंधणे'त्ति पञ्चमद्वाराबसरः, तत्र च तन्यते भवोऽनेनेति तन्तुः-भवतृष्णा स एव । बन्धहेतुत्वाद्वन्धनं तस्योद्धरणम्-उन्मूलनं तन्तुबन्धनोद्धरणं, प्राग्वत्परनिपातः ॥ तदधिकृत्याह| अंतो हिअयसंभूया, लया चिट्ठ गोयमा! । फलेइ विसभक्खीणं, साउ उद्धरिया कह ॥४५॥ तंश लयं सब्बसो छिसा, उद्धरित्ता समूलियं । विहरामि जहानायं, मुक्कोमि विसभक्खणं ॥४६॥ लया य इति । ॥५०॥ का बुत्ता, केसी गोयममव्ययी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्यवी ॥४७॥ भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा 31 |भीमफलोदया। तमुच्छित्तु जहानायं, विहरामि महामुणी ! ॥ ४८ ॥ दीप अनुक्रम [८८६-८८९]] For wrancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1009~ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/गाथा ||४५-४८|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) प्रत ACANCE सूत्रांक ॥४५-४८|| हृदयस्थान्तरन्तर्हदयं-मन इत्यर्थस्त त्र संभूता-उत्पन्ना लता 'तिष्ठति' आस्ते हे गौतम !, 'फलेइ विसभक्षीण'ति | आर्षत्वात्फलति विषवद्भक्ष्यन्त इति विषभक्ष्याणि-पर्यन्तदारुणतया विषोपमानि फलानीति गम्यते, सा पुनः |'उद्धृता' उत्पाटिता त्वयेति गम्यते, 'कथं' केन प्रकारेण, इति केशिप्रश्नः । गौतम आह–'ताम्' इत्युक्तविशेषणां लता 'सघसो'त्ति सर्वतः 'छित्वा' खण्डीकृत्य 'उद्धृत्य' उत्पाट्य समूलामेव समूलिकां रागद्वेपलक्षणमूलनिर्मूलनेन यथान्यायं विहरामीति प्राग्वत् , अनेन सर्वच्छेदसमूलोद्धरणं चोद्धरणप्रकार उक्तः,तत्फलमाह-मुक्तोऽस्मि 'विसभक्खणं ति सुब्ब्यत्ययाद् विषभक्षणाद्-विषफलाभ्यवहारोपमात् क्लिष्टकर्मणः । 'लते'सादि स्पष्टं, भवः-संसारस्तस्मिन् तृष्णालोभात्मिका भवतृष्णा लतोक्ता 'भीमा' भयदा खरूपतः कार्यतश्च भीमो दुःखहेतुतया फलानामाक्लिष्टकर्मणामुदयः-परिपाको यस्याः सा तथा, न चेह प्राग् लतामात्रस्यैव प्रश्न इति विशेषणाभिधानमयुक्तं, सविशेषणाया एव तस्याः प्रक्रान्तत्वात्, प्रक्रमापेक्षत्वाच प्रश्नस्य, शेषमुपसंहाराभिधायीति सूत्रचतुष्टयार्थः॥ ___साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मझं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥४९॥ गतार्थम् । 'अग्निनिर्वापणं चेव'त्ति षष्ठद्वारमङ्गीकृत्याहI संपज्जलिया घोरा, अग्गी चिट्ठह गोयमा! जे डहंति सरीरस्था, कहं विज्झाविया तुमे ॥५०॥ महा-13 मेहपसूयाओ, गिज्झ वारि जलुत्तमं । सिंचामि सययं ते उ, सित्ता नो व डहति मे ॥५१॥ अग्गी अ इइ || दीप अनुक्रम [८९१-८९४] For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1010~ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५० -५३॥ दीप अनुक्रम [८९६ -८९९] उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥५०६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [२३], मूलं [--] / गाथा || ५०-५३|| निर्युक्ति: [ ४५४...] के कुत्ते ?, केसी गोममवी । तओ केसिं बुवनं तु, गोयमो इणमन्त्रवी ॥ ५२ ॥ कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुअसीलतो जलं । सुयधाराभिहया संता, भित्रा हु न डर्हति मे ॥ ५३ ॥ सूत्र चतुष्टयम् । समन्तात्प्रकर्षेण ज्वलिताः संप्रज्वलिता अत एव 'घोराः' रौद्राः 'अग्गी चिट्ठइ'त्ति आर्षत्वाद्वचनव्यत्ययात्ततोऽनयस्तिष्ठन्ति हे गौतम! ये दहन्तीव दहन्ति परितापकारितया 'शरीरस्थाः ' देहस्थाः, न बहिर्वर्त्तिन इत्यर्थः, एते च यद्यप्यात्मस्थास्तथाऽपि शरीरात्मनोरन्योऽन्यानुगमख्यापनायेत्थमुक्ताः, कथं 'विष्यापिताः' निर्वापितास्त्वया । गौतम आह-महामेघात् प्रसूतम् - उत्पन्नं महामेघप्रसूतं तस्मात्, महाश्रोतस इति गम्यते, गिज्झ'त्ति गृहीत्वा वारयति तृष्णादिदोषानिति वारि- पानीयं 'जलोत्तम' शेषजलापेक्षया प्रधानं तेन 'सिञ्चामि उक्षामि विध्यापयामीतियावत्, 'सततम्' अनवरतं 'ते उत्ति तुशब्दस्य भिन्न ( : ) क्रमस्ततस्तानशीन् प्रसङ्गतस्तत्सेचनफलमाह - सिक्तास्तु 'नो वे 'ति नैव दहन्ति 'में' त्ति मां, पठ्यते च 'सययं देहित्ति, इह च देहस्थितत्वेनाग्नयोऽपि देहा उक्ताः, उक्तं हि 'तास्ध्यात्तद्व्यपदेश' इति, अन्ये तु पूर्वसूत्रं पठन्ति - 'जा डहेति सरीरत्थे'ति, अत्र तु पठन्ति - 'सिंचामि सययं तं तु' इति, इह च 'त' मित्यग्निमन्यत् प्राग्वद्, एकवचनान्तत्वमेव तु सर्वत्र विशेषः । "अग्गी ये' त्यादि प्राग्वत्, नवरमशिप्रश्नो महामेघादिप्रश्नोपलक्षणं, 'कपायाः' क्रोधादयः अग्नयः परितापकतया शोषकतया चोक्तास्तीर्थकृद्भिरिति गम्यते, श्रुतं चेहोपचारात्कषायोपशमहेतवः श्रुतान्तर्गतोपदेशाः शीलं च महाप्रतानि तपश्च-- अनशनप्रायश्चि Jan Education intimational For Para Prata Use Only केशिगीत मीयाध्य० २३ ~ 1011~ ॥५०६॥ janecibrary urg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||५०-५३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) * Socks प्रत सूत्रांक *** ||५०-५३|| तादि श्रुतशीलतप इति समाहारः, तत्किमित्याह-जलं-पानीयमुपलक्षणत्वाचास्य महामेघखिजगदानन्दकतया शेषमेघातिशायित्वेन भगवांस्तीर्थकरो महाश्रोताश्च तत उत्पन्न आगमः, उक्तमेवार्थ सविशेषमुपसंहरन्नाह-श्रुतस्यआगमस्योषलक्षणत्वाच्छीलतपसोश्च धारा इव धारा-आक्रोशहननतर्जनधर्मभ्रंशेषूत्तरोत्तरभावस्यालामरूपतादिसततपरिभावनास्ताभिरभिहताः-ताडिताः श्रुतधाराभिहताः सन्तः प्रक्रमादुक्तरूपा अग्नयः 'भिन्नाः' विदारितास्तदभिघातेन लवमात्रीकृता इतियावत् 'हु।' पूरणे न दहन्ति मामिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा !॥ ५४॥ प्राग्वत् । 'दुष्टाश्वनिग्रह' इति सप्तमद्वारमुररीकृत्याह अयं साहस्सिओ भीमो, दुहस्सो परिधावई । जंसि गोयम ! आरूढो, कह तेण न हीरसि? ॥५५॥ पहावंतं निगिपहामि, सुयरस्सीसमाहियं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवजह ॥५६॥ अस्से अइइ का वुत्ते ?, केसी गोयममब्बची । तो केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमन्बवी ॥५७ ॥ मणो साहस्सिओ भीमो, दुहस्सो परिधावइ । तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कंधगं ॥ ५८॥ सूत्रचतुष्टयम् । 'अयं' प्रत्यक्षः सहसा-असमीक्ष्य प्रवर्तत इति साहसिको भीमः प्राग्वत् , दुष्टश्वासावकार्य * RS दीप अनुक्रम [८९६-८९९] * FOFO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1012~ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक 1144 -५८|| दीप अनुक्रम [९०१ -९०४] उत्तराध्य. वृत्तिः ||५०७ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [२३], मूलं [ - ] / गाथा ||५५-५८|| निर्युक्ति: [ ४५४...] प्रवृत्त्याऽश्वश्च दुष्टाश्वः 'परिधावति' समन्ताद्गच्छति यः कीदृगित्याह-यं दुष्टाश्वमभिभवसि यदिवा 'यंसि 'त्ति यस्मिन् हे गौतम! 'आरूढः' चटितः, अनारूढस्य हि न वक्ष्यमाणापायहेतुरसौ स्यादित्येवमभिधानं, ततः कथमिति प्रश्ने 'तेन' इति दुष्टाश्वेन 'न हियसे' प्रस्तावान्नोन्मार्ग नीयसे १ । गौतम आह- 'प्रधावन्तम्' उन्मार्गाभिमुखं गच्छन्तं 'निगृहामि' निरुणध्मि, कीदृशं तमित्याह श्रुतम् - आगमो नियन्त्रकतया रश्मिरिव रश्मिः प्रग्रहः श्रुतर|श्मिस्तेन समाहितो-बद्धः श्रुतरश्मिसमाहितस्तम्, अतो न 'मे' मम सम्बन्धी दुष्टाश्वः 'गच्छति' याति 'उन्मार्गम्' उत्पथं ततो न मम तेन हरणमिति भावः, ततश्च किमुदास्त एवेत्याह- 'मार्ग च' सत्पथं पुनः 'प्रतिपद्यते' अङ्गीकुरुते । 'अस्से य' इत्यादि सुगमं, नवरं 'मनः' चित्तम्, इह च साहसिक इत्याद्यभिधानं प्रक्रमानुस्मरणार्थ, विशेषमुपदर्शयन्नुपसंहारमाह-तं सम्यग्र निगृहामि धर्मविषया शिक्षा-उपदेशो धर्मशिक्षा तया, यद्वा शिक्षा - अभ्यासस्ततो 'धर्मशिक्षायै' धर्माभ्यासनिमित्तं कन्थको जात्याश्वस्ततश्च कन्थकमिव कन्थकं किमुक्तं भवति ? - दुष्टाचोऽपि निग्रहणयोग्यः कन्थकप्राय एवेति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ केशिराह Jan Education intimal साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ५९ ॥ साहुसूत्रं तथैव । तथा 'पथपरिज्ञाते' त्यष्टमं द्वारमाश्रित्याहकुप्पहा बहवे लोए, जेसिं नासंति जंतवो। अहाणे कह वहतो, तं न नाससि गोयमा ! १ ॥ ६० ॥ जे अ For Para Pral Use Only केशिगीत मीयाध्य० २३ ~ 1013~ ॥ ५०७॥ [adjancibrary or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||६०-६३|| नियुक्ति : [४५४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६० STAR -६३|| मग्गेण गच्छंति, जे अ उम्मग्गपट्टिया । ते सध्वे विइया मज्झं, तो न नस्सामहं मुणी! ॥६१॥ मग्गे अ इति के वुत्ते, केसी गोयममब्बवी । तओ केसिं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥६२॥ कुप्पवयणपासंडी, सव्वे ४ उम्मग्गपविया । सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ॥ ६३ ॥ | सूत्राणि चत्वारि । कुत्सिताः पथाः कुपथाः-अशोभनमार्गाः 'बहवः' अनेके 'लोके' जगति 'यः' कुपथैः 'नश्यन्ति' सन्मार्गाश्यन्ति 'जन्तवः' प्राणिनः, ततश्चाध्वनि प्रस्तावात्सन्मार्गे 'कहन्ति कथं वर्तमानस्त्वं न 'नश्यसि ? | सत्पथाश्यवसे ? हे गौतम ! । गौतम आह-'ये' केचित् 'मार्गेणे'ति सन्मार्गेण 'गच्छन्ति' यान्ति ये च 'उन्मार्गप्रस्थिताः' उत्पथप्रवृत्ताः, ते 'सर्वे' निरवशेषा विदिताः-प्रतीता मम, न चैते पथापथपरिज्ञामन्तरेण सम्यग् ज्ञायन्त इति सैवानेन भजयन्तरेणोक्ता, विचित्रत्वाच ऋषीणां सूत्रकृतेरेवमभिधानं, ततश्च तत' इति पथापथपरिज्ञातो न | नश्याम्यहं मुने !, ये हि खयं कुपथसत्पथस्वरूपानभिज्ञा भवन्ति ते बहुतरकुपथदर्शनातेष्वेव सुपथभ्रान्त्या नश्येयुः, | अहं तु न तथेति कथं बहुतरकुपथदर्शनेऽपि नश्येयमिति भावः । 'मग्गे'त्यादि [सूत्र] सुगम, नवरं मार्गः-सन्मार्गः |कः , उपलक्षणत्वात्कुमार्गाश्च के ?, कुप्रवचनेषु-कपिलादिप्ररूपितकुत्सितदर्शनेषु पापण्डिनो-प्रतिनः कुप्रयचनपापण्डिनः सर्वे उन्मार्गप्रस्थिताः, बहुविधापायभाजनत्वात्तेपामिति भावः, अनेनापि भङ्गया कुप्रवचनानि कुपथा इत्युक्तं भवति, 'सन्मार्ग तु' प्रशस्तमार्ग पुनर्विद्यादिति शेषः 'जिनाख्यातं' जिनप्रणीतं मार्गमिति प्रक्रमः, कुतः दीप अनुक्रम [९०६-९०९] -100 For Fun मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1014~ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||६०-६३|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक ५०८ इत्याह-एप मार्गो 'ही'ति यस्माद् 'उत्तमः' अन्यमार्गेभ्यः प्रधानः, तस्मादयमेव सन्मार्ग इत्यभिप्रायः, उत्तमत्वं चास्य प्रणेतृणां रागादिविकलत्वेनेति भावनीयमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ बृहद्वृत्तिः मीयाध्य ___ साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥१४॥ साधुसूत्रं प्राग्यत् । सम्प्रति 'महाश्रोतोनिवारणे'त्ति नवमद्वारमुररीकृत्याह महाउदगवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । सरणं गई पहूँच, दीव के मन्नसी मुणी! ॥६५॥ अस्थि एगो महादीवो, वारिमझे महालओ । महाउदगवेगस्स, गई तत्थ न विजई ॥६६॥ दीवे अ इइ के चुसे, केसी गोयममव्यवी । तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्यवी ॥६७ ॥ जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । ४ धम्मो दीवो पइट्टा य, गई सरणमुत्तमं ॥१८॥ | सूत्रचतुष्टयम् , महदुदकं यत्र तत् महोदकं प्रक्रमान्महाश्रोतस्तस्य वेगो-रयो महोदकवेगस्तेन 'उद्यमानानां' नीयINमानानां 'पाणिणं'ति प्राणिनां शरणं' तनिवारणक्षममत एव गम्यमानत्वा गतिं तत एव च प्रतीय-आश्रित्य तिष्ठ-12 न्यत्र दुःखाभिहताःप्राणिन इति प्रतिष्ठा, 'अन्यत्रापी'ति (वा०) वचनाद् तां च द्वीपं कं मन्यसे ? मुने!, नास्त्येव ॥५०८॥ कश्चन तादृशो द्वीप इति प्रश्नयितुराशयः । गौतम आह-अस्ति-विद्यते एको महांश्चासौ प्रशस्यतया द्वीपश्च महाद्वीपः, क-बारिमध्ये' जलस्यान्तः समुद्रान्तर्वर्त्यन्तरद्वीप इत्यर्थः । कीटक् ?-'महालओ'त्ति महान्-उचैस्त्वेन विस्तीर्णतया MICROSANSAR ||६०-६३|| दीप अनुक्रम [९०६-९०९] AIMEducatan intimational For मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1015~ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||६५-६८|| नियुक्ति: [४१४...] (४३) प्रत % सूत्रांक -% ||६५-६८|| 584 च अत एव महोदकवेगस्य-क्षुभितपातालकलशवातेरितप्रवृद्धजलमहाश्रोतोवेगस्य 'गतिः' गमनं 'तत्रेति महाद्वीपे । न विद्यते। 'दीवे' इत्यादि, गतार्थ । जरामरणे एव च निरन्तरप्रवाहप्रवृत्ततया वेगः प्रक्रमादुदकमहाश्रोतसो| |जरामरणवेगस्तेनोद्यमानानामपरापरपर्यायमयनेन 'प्राणिनां' जीवानां धर्मः' श्रुतधर्मादिः द्वीप इव द्वीप उक्त इति | प्रक्रमः, स हि भवोदधिमध्यवर्ती मुक्तिपदनिवन्धनतया न जरामरणवेगेन गन्तुं शक्यत इति, तत्र तथाविधजरा-12 मरणाभावाद्, अत एव विवेकिनस्तमाश्रित्य तिष्ठन्तीति प्रतिष्ठा, तथा गतिः शरणं चोत्तमं प्राग्वत् । इहापि द्वीपमात्रप्रश्नाभिधानेऽपि शेषाभिधानं प्रक्रमोपलक्षणत्वात्तत्प्रश्नस्येति भावनीयमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नोऽवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ६८ ॥ साहुसूत्रमुक्तार्थम् । इदानीं संसारपारगमनाख्यं दशमद्वारमाश्रित्याह अन्नचंसि महोहंसि, नावा विपरिधावई । जंसि गोयममारूढो, कह पारं गमिस्ससी ॥ ६९ ॥ जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी ॥७० ।।। नावा अइइ का वुत्ता, केसी गोयममब्बवी । तओ केसि बुवंतंत, गोयमो इणमब्ववी ॥ ७१ ।। सरीर-४ माहु नावत्ति, जीवो बुचइ नाविओ। संसारो अन्नवो वुत्तो, जंतरंति महेसिणो ॥७२॥ दीप अनुक्रम [९११-९१४] AIMEducatan intamadhana मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1016~ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||६९ -७२|| दीप अनुक्रम [९१६ -९१९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५०९ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||६९-७२|| निर्युक्तिः [४५४...] सूत्रचतुष्टयं, 'अण्णवंसि महोहंसि'त्ति, 'अर्णवे' समुद्रे 'महौघे' बृहज्जलप्रवाहे 'नावा विपरिधावइ 'त्ति 'नौः' द्रोणी 'विपरिधावति' विशेषेण समन्ताद्गच्छति 'यां' नावम् 'असि' भवसि यस्यां वा नावि हे गौतम ! 'आरूढः' चटितस्त्वमिति गम्यते, ततः 'कथं' केन प्रकारेण 'पारं' पर्यन्तं प्रक्रमादर्णवस्य 'गमिष्यसि ?' यास्यसि १, न कथञ्चिदिति प्रटुराशयः । गौतम आह- 'जा उ'त्ति या 'तुः' पूरणे आश्राविणी-जलसंग्राहिणी पाठान्तरतः साश्राविणी वा-सहाश्राविभिः- जलप्रवेशान्वितैः प्रक्रमात्सन्धिभिर्वर्त्तत इतिकृत्वा 'नौ' द्रोणी न सा 'पारस्य' प्रस्तावात्समुद्रपर्यन्तस्य 'गामिनी' अवश्यंयायिनी, 'जा निरस्साविणि'त्ति उत्तरत्र तुशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाद् या पुनर्निष्क्रान्ता आश्राविभ्यः प्राग्वत् सन्धिभ्यो निराश्राविणी नौः सा 'पारस्य' उक्तरूपस्य 'गामिनी' अवश्यं पारप्रापिका, ततोऽहं निराश्रा| विणीमारूढ उपायतः पारगाम्येव भविष्यामीति भावः । 'नावे'त्यादि प्रतीतार्थ, नवरं नावस्तरणत्वात्तरिता तार्य च पृष्टमेवात एवोत्तरमाह - शरीरम् 'आहुः' ब्रुवते नौरिति, तस्यैव सम्यग्दर्शनादित्रयानुष्ठानहेतुतया, भवोदधिनिस्तारकत्वाज्जीवः 'उच्यते' प्रतिपाद्यते तीर्थकृद्भिरिति शेषो नाविकः, स युक्तरूपया नावा भवोदधिं तरतीति, संसारः 'अर्णवः' समुद्र उक्तः, तस्यैव तत्त्वतस्तार्यत्वात्, 'यं' संसारमर्णवप्रायं तरन्ति 'महेसिणो' त्ति प्राग्वन्महदेषिणो महयो वा तदा च तथाविधमहर्षीणां प्रत्यक्षत्वात् श्रोतृप्रतीत्यर्थमेतदिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ Jan Eiration Intl F&P On केशिगौत मीयाध्य० २३ ~ 1017 ~ ||५०९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७३|| साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा । ॥७३॥ साहुसूत्रं प्राग्वत् । अधुना 'तमसश्च विघाटने' त्येकादशद्वारमधिकृत्याह४] अंधयारे तमे घोरे, चिट्ठति पाणिणो बहू । को करिस्सइ उज्जोय, सव्वलोगंमि पाणिणं ॥ ७४ ॥ उग्गओ विमलो भाणू, सब्बलोगपभंकरो । सो करिस्सइ उज्जोयं, सब्बलोगंमि पाणिणं ॥ ७॥ भाणू अ इति के वुत्ते, केसी गोयममब्यवी । तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥ ७६ ॥ उग्गओ खीणसंसारो, |सवण्णू जिणभक्खरो। सो करिस्सइ उज्जोयं, सबलोगंमि पाणिणं ।। ७७॥ 4 सूत्रचतुष्टयं, अन्धमिवान्धं चक्षुःप्रवृत्तिनिवर्तकत्वेनार्थात् जनं करोतीत्यन्धकारस्तस्मिन् 'तमसि' प्रतीते 'घोरे' भयानके तिष्ठन्ति प्राणिनो बहवः, कः करिष्यत्युयोतं 'सर्वलोके समस्तजगति प्राणिनां, न कश्चित्तादृशं निर्दो-IN रयाम इति भावः । गौतम आह-'उद्गतः' उदितः 'विमल' निर्मलः 'भानुः आदित्यः 'सबलोगपहंकरें'त्ति सर्वलोकप्रभाकरः-सकलजगत्प्रकाशविधाता, 'भाणू यत्ति भानुः क उक्तो य उद्योतं करिष्यतीतिप्रक्रमः, 'उद्गतः' उदयं प्राप्तः क्षीणसंसारः' अपगतभवभ्रमणः सर्वज्ञः 'जिनभास्करः' अहंदादित्यः 'उद्द्योत' समस्तवस्तुप्रकाशनं, तब तमोविघट्टनादेवेति तदेवानेन भङ्गयोक्तं, शेषं स्पष्टमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ ____ साहु गोयम! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोऽवि संसओ मझं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥८॥ दीप अनुक्रम [९२०] For Free मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1018~ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||७९ -८३|| दीप अनुक्रम [९२६ -९३०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५१०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||७९-८३ || अध्ययनं [२३], निर्युक्ति: [ ४५४...] साहुसूत्रं तथैव स्थानमेवोपसंपद्यते प्राप्यत इति स्थानोपसम्पत्-प्राप्यं स्थानमिति द्वादशे द्वारमङ्गीकृत्याह - सारी माणसे दुक्खे, बज्झमाणा पाणिणं । खेमं सिवं अणावाहं, ठाणं किं मन्नसी | मुणी ! ॥ ७९ ॥ अत्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नस्थि जरा मन्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥ ८० ॥ ठाणे अ इइ के बुत्ते ?, केसी गोयममच्यवी । तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमध्यवी ॥ ८१ ॥ निव्वाणंति अवाति, | सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणावाहं, जं तरंति महेसिणो ॥ ८२ ॥ तं ठाणं सासयंवासं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जं संपत्ता न सोयंति, भवोहंतकरा मुणी ! ॥ ८३ ॥ सूत्राणि पञ्च प्रतीतान्येव, नवरं 'सारीरमाणसे दुक्खे'त्ति आर्पत्वाच्छारीरमानसैर्दुःखैः 'बज्झमाणाणं' वा ध्यमानानां पीड्यमानानां पठ्यते च – 'पचमाणाणं' ति पच्यमानानामिव पच्यमानानामत्याकुलीक्रियमाणतया 'प्राणिनां जीवानां क्षेमं व्याधिरहिततया शिवं सर्वोपद्रवाभावतः अनावाधं स्वाभाविकवाधापगमतस्तिष्ठन्त्यस्मि न्निति स्थानम् - आश्रयस्तदेवंविधं किं मन्यसे ? - प्रतिजानीषे ? न किञ्चिदीदृशमिदं निश्चिनुम इति भावः । गौतम आह-अस्ति 'एकम्' अद्वितीयं 'दुरारुहं'ति दुःखेनारुह्यते-अध्यास्यत इति दुरारोहं, दुरापेणैव सम्यग्दर्शनादित्रयेण तदवाप्यत इतिकृत्वा, वेदनावेह शारीरमानसदुःखानुभवात्मिकाः, ततश्चास्य व्याध्यभावेन क्षेमत्वं जरामरणाभावेन शिवत्वं, वेदनाऽभावेनानावाधकत्वमुक्तमिति यथायोगं भावनीयं, स्थानं किमुक्तं ? -ध्रुवादिविशेषण Jan Education intimal For PP Use On केशिगौत मीयाध्य० २३ ~ 1019~ * ॥५१०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-] / गाथा ||७९-८३|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) प्रत सूत्रांक ||७९ -८३|| || विशिष्टमिति प्रक्रमः, निर्वान्ति-कर्मानलविध्यापनाच्छीतीभवन्त्यस्मिन् जन्तव इति निर्वाणं, इतिशब्दः स्वरूप-161 परामर्शको, यत्रापि नास्ति तत्राप्यध्याहर्त्तव्यः, तत उच्यत इत्यध्याहृत्य निर्वाणमितिशब्देन यदुच्यत इत्यादिभावना विधेया, 'अबाहन्ति अविद्यमानशारीरमानसपीडमिति प्राग्वत् , सिद्धयन्ति-निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां जन्तव इति | | सिद्धिः 'लोकाग्रं' सर्वजगदुपरिवर्ति एवेति पूरणे 'चः' समुच्चये क्षेमं शिवमनावाधमिति च प्राग्वत् , तथा यत् 'तरन्ति' प्लवन्ते गच्छन्तीत्यर्थः, तत्स्थानमुक्तमिति प्रक्रमः, सविशेषणस्य पृष्टत्वात्तदेव विशिनष्टि-सासर्यवासंति | विन्दोरलाक्षणिकत्वात् 'शाश्वतवासं' नित्यावस्थिति ध्रुवमितियावत् , लोकाग्रे दुरारोहमुपलक्षणत्वाजराधभाववत्, प्रसङ्गतस्तन्माहात्म्यमाह-यत्संप्राप्ता न शोचन्ते, कीदृशाः सन्त इत्याह-भवा-नारकादयस्तेषामोघः-पुनः पुनर्भव-15 रूपप्रवाहस्तस्थान्तकरा:-पर्यन्तविधायिनो भवौघान्तकराः 'मुणि'त्ति मुनय इति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । नमो ते संसयाईय!, सव्वसुत्तमहोयही! ८४॥ नवरं नमोऽस्त्विति शेषः 'ते' तुभ्यमिति 'संशयातीत !" सन्देहातिक्रान्त ! सर्वसूत्राणां महोदधिरिव महोदधिः सामस्त्येन तदाधारतथा तत्संबोधनं सर्वसूत्रमहोदधे !, अनेनोपबृंहणागर्भ स्तवनमाह । प्रश्नोपसंहारमाह नियुक्तिकृत्'एवं वारससु कमोति, एवमित्युक्तरूपो द्वादशसु प्रतिपादितप्रश्नेषु 'प्रक्रमः' परिपाटी, किमुक्तं भवति ?-अनेनैव क्रमेणामी केशिना कृताः, तथाहि-धर्मार्थत्वात्सर्षानुष्ठानस्य शिक्षात्रतरूपत्वाचास्य प्रथमतस्तेषां प्रश्नः, ततो लिङ्ग दीप अनुक्रम [९२६-९३०] JAINEducatan intamational For PF मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1020 ~ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||८४|| दीप अनुक्रम [९३१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ५११ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२३], मूलं [--] / गाथा ||८४|| निर्युक्ति: [४५४...] पाल्यान्येतानीति लिङ्गस्य, सत्यपि च लिङ्गे नात्मादिशत्रुजयं विनाऽसौ सुखेन पालयितुं शक्यत इति शत्रुजयस्थ, तेष्वपि कषाया एवोत्कटास्तदात्मकौ च रागद्वेषाविति पाशावकर्त्तनस्य, तत्रापि लोभ एव दुरन्त इति लतोच्छेदस्य, तदुच्छेदोऽपि न कषायनिर्वापणं विनेत्यग्निनिर्वापणस्य तद्विध्यापनमपि न मनस्यनिगृहीत इति दुष्टाश्वनिग्रहस्य तन्निग्रहेऽपि च न सम्यक्पथपरिज्ञानं विनाऽभिमतपदप्राप्तिरिति तस्य सम्यक्पथश्च जिनप्रणीतधर्म एवेति तस्यैव सन्मार्गत्वख्यापनाय महाश्रोतोनिवारणस्य ततस्तत्रैव दायोत्पादनार्थं संसारपारगमनस्य अथ यद्ययमेव सन्मार्गस्तत्किमित्यन्येऽपि न वदन्तीत्याशयान्येषामज्ञत्वख्यापनार्थं तमोविघटनस्थ एवमपि किमनेन सन्मार्गेण स्थानमवाप्यमित्याशङ्कासम्भवे स्थानोपसम्पद इति गाथापदतात्पर्यार्थः ॥ पुनस्तद्वक्तव्यतामेव सूत्रकृदाह Jain Education intimational एवं तु संसए छिन्ने, केसी घोरपरकमे । अभिवंदित्ता सिरसा, गोयमं तु महायसं ॥ ८५ ॥ पंचमहवयं धम्मं, पडिवजह भावओ। पुरिमस्स पच्छिमंमी, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥ ८६ ॥ 'एवं तु'ति अमुनैव प्रकारेण 'संशये' उक्तरूपे 'छिन्ने' अपनीते, उभयत्र जातावेकवचनं, शेषं स्पष्टं, नवरं 'भावतः' इत्यभिप्रायतः, पूर्व हि चतुर्याम एव धर्मः प्रतिपत्तव्य इत्यभिप्राय आसीत्, अधुना तु पञ्चयाम इति, के पुनरयं पञ्चयामो धर्म इत्याह- 'पुरिमस्स' ति पूर्वस्य, कोऽर्थः ? - आद्यस्य सोपस्कारत्वात्सूत्रस्य तीर्थकृतोऽभिमते 'पश्चिमे' पश्चिमतीर्थ For PP Use On केशिगौत मीयाध्य० २३ ~ 1021 ~ ॥५११॥ ancibraryup मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/ गाथा ||८७|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) SECCACANCY प्रत सूत्रांक ||८७|| SARIA सम्बन्धितया 'मार्ग' पथि 'तो'ति प्रक्रान्ते तत्र वा तिन्दुकोद्याने 'शुभावहे' कल्याणप्रापके मार्गस्य विशेषणमिति है। सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थोपसंहारव्याजेन महापुरुषसामफलमाह केसीगोअमओ निच्चं, तंमि आसि समागमे । सुयसीलसमुक्करिसो, महत्थस्थविणिच्छओ ॥ ८७ ।। 'केसिगौतमत' इति केशिगौतमावाश्रित्य 'नित्यं सदा तत्पुर्यवस्थानापेक्षया 'तस्मिन्' प्रक्रान्तस्थाने आसीत् । 'समागमें मीलके, किमासीदित्याह-श्रुतं-श्रुतज्ञानं शीलं-चारित्रं तयोः समुत्कर्षः-प्रकर्षः श्रुतशीलसमुत्कर्षः, तथा 3 महा-महाप्रयोजना मुक्तिसाधकत्वेन येऽर्थाः-शिक्षात्रतादयस्तेषां विनिश्चयो-विशिष्टो निर्णयो महार्थार्थविनिश्चयः, तच्छिष्याणामिति गम्यते, 'केसित्ति सुब्लोपारकेशेा गौतमतः गौतमगणधरापेक्षयाऽपकर्षवत् श्रुतादिमत्त्यादित्य४/मुक्तम् , इदं तु क्वचिद् दृष्टमिति व्याख्यातमिति सूत्रार्थः ॥ शेषपर्षदो यदभूत्तदाह .. तोसिआ परिसा सब्बा, संमग्गं समुवद्विया। | 'तोषिता' परितोष नीता परिपत्' सदेवमनुजासुरा सभा 'सी' निरवशेषा 'सन्मार्ग' मुक्तिपथमनुष्ठातुमिति | दगम्यते, 'समुपस्थिता' पाठान्तरतः 'पर्युपस्थिता' वा उभयत्रोद्यता, अनेन काका पर्षदफलमाह ॥ इत्थं सद्भूतगुणग भेसचरित्रवर्णनद्वारेण तयोः स्तवनमुक्त्वा प्रणिधानमाह दीप अनुक्रम [९३४] For PATREPIVanupontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1022~ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२३], मूलं [-]/ गाथा ||८८|| नियुक्ति: [४५४...] (४३) उत्तराध्य. केशिगीत बृहद्वृत्तिः मीयाध्य. प्रत मथुया ते पसीयंतु, भयवं केसी गोयम् ॥ ८८ ॥ तिमि । ॥ केसिगोयमिजं ॥ २३ ॥ संथुएत्युत्तरार्द्ध । 'संस्तुती' सम्यगभिवन्दितौ 'तो' उक्तरूपी 'प्रसीदतां प्रसादपरौ भवतां भगवत्केशिगौतमाविति सूत्रार्थः । इति' परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्तेऽपि प्राग्वत् ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायां केशिगौतमीयं नाम त्रयोविंशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ॥५१२। BRE सूत्रांक ||८|| इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायागुत्तराध्ययनटी त्रयोविंशमध्ययनं समासम् ।। दीप अनुक्रम [९३५] इति श्रेष्टि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्कः ३६. ॥५१२ AIREDuratan international For PATREPIVanupontv ancibraram मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २३ परिसमाप्तं ~1023~ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-/ गाथा ||८८...|| नियुक्ति: [४५५-४५८] (४३) अथ चतुर्विंशतितममध्ययनं प्रवचनमात्राख्यम् । प्रत सूत्रांक ||८|| व्याख्यातं प्रयोविंशमध्ययनं, सम्प्रति चतुर्विंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययनें परेषामपि चिचविष्ठतिमुपलभ्य तदपनयनाय केशिगौतमवद्यतितव्यमित्युक्तम् , इह तु तदपनयनं सम्यग्वाग्योगत एव, स च प्रवचनमातृखरूपपरिज्ञानत इति तत्खरूपमुच्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चोपक्रमादिचतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वत्सुकरैव यावन्नामनिष्पन्न निक्षेपे प्रवचनमातृ प्रवचनमातमिति वा द्विपदं नाम, तत्र तावत्प्रवचननिक्षेपाभिधानायाह नियुक्तिकृत्निक्खेवु पवयणमि(य)चउविहो दुविहोय होइ दवमि।आगमनोआगमओ नोआगमओ असो तिविहो जाणगसरीरभविए तबइरित्ते कृतित्थिमाईसु । भावे दुवालसंगं गणिपिडगं होइ नायवं ॥ ४५६ ॥ | मायमि उ निक्खेवो चउबिहो दुविहो। ॥४५७॥ जाणगसरीरभविए तबइरिते अ भायणे दत्वं । भावमि अ समिईओ मायं खलु पवयणं अस्थ ४५० ***%%AARTICA4% दीप अनुक्रम [९३५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २४ "प्रवचनमात्रा" आरभ्यते ~ 1024 ~ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-] / गाथा ||८८...|| नियुक्ति: [४५५-४५८] (४३) उत्तराध्य. बहवृत्तिः ॥५१३॥ २४ प्रत सूत्रांक ||८|| RI निक्खेवेत्यादि गाथाश्चतस्रः, निक्षेपः प्रवचने चतुर्विधो-नामादिः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे एवेत्सनाहल द्रव्य- प्रवचनमाद निक्षेपमाह-द्विविधो भवति 'द्रव्ये' विचार्ये, निक्षेप इति गम्यते, द्वैविध्यमेवाह-आगमतो नोआगमतः, तत्रागमतो ४ कात्राख्यम्. ज्ञाता तत्र चानुपयोगवान् , नोआगमतस्तु स त्रिविधः । कथमित्याह-जाणगसरीरभविए तबतिरित्ते य'त्ति, शरीहरभव्यशरीरे प्रक्रमात्प्रवचने तयतिरिक्तं 'कुतित्थिमाईसुति कुतीर्थ्यादिषु प्रवचनमादिशब्दात्सुतीर्थेषु च ऋषभादि-11 सम्बन्धिषु पुस्तकादिन्यतं भाष्यमाणं वा, भावे 'द्वादशाङ्गम्' आचारादिष्टिवादपर्यन्तं गणिनः-आचार्यातेषां पिटकमिव पिटकं-सर्वखाऽऽधारो गणिपिटकं भवति' ज्ञातन्यं प्रवचनं, नन्वेवं दृष्टिवादान्तर्गतत्वात्सकलकुदृष्टीनामपि भावप्रवचनतैव प्राप्ता ?, उच्यते, अस्त्येतत्, किन्त्वेकपक्षावधारणपरतयाऽसदष्टित्वाव्यप्रवचनतैवाऽऽसामिति नोक्तदोषापत्तिः ॥ मातशब्दं निक्षेप्नुमाह-'माते' मातशब्दे 'तुः' पूरणे निक्षेपश्चतुर्विधो-नामादिः, द्विविधो भवति द्रव्ये-आगमनोआगमतः, तत्रागमतस्तथैव, नोआगमतश्च स त्रिविधो-ज्ञशरीरभव्यशरीरे तयतिरिक्तं च 'भाजने | कांस्यपात्रादौ 'द्रव्यम्' मोदकादि, प्रस्तावाद्यत्र मातम्-अन्तः प्राप्तावस्थिति तद्दन्यं मातमुच्यते, भावे च 'समि-13 ॥५१३॥ तयः' ईयासमित्यादयो माता अभिधीयन्ते 'मातम्' अन्तरवस्थितं 'खलु' निश्चितं 'प्रवचनं' द्वादशाङ्गं 'यत्र' इति यासु । तदेवं नियुक्तिकृता मातशब्दो निक्षिसः, यदा तु 'माय'त्ति पदस्य मातर इति संस्कारस्तदा द्रव्यमातरो दीप अनुक्रम [९३५] wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1025~ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१-३॥ दीप अनुक्रम [९३६ -९३८] Education t “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) अध्ययनं [ २४ ], मूलं [-] / गाथा ||१-३|| निर्युक्ति: [४५९] | जनन्यो भावमातरस्तु समितयः, एताभ्यः प्रवचनप्रसवात्, उक्तं हि “ऐया पवयणमाया दुबालसंगं पसूयातो"त्ति, सुज्ञानत्वाच एतन्निक्षेप उपेक्षित इति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ सम्प्रति नामान्वर्थमाह अट्ठसुवि समिईसु अ दुवालसंगं समोअरइ जम्हा । तम्हा पवयणमायाअज्झयणं होइ नायवं ४५९ 'अष्टाखपि' अष्टसङ्ख्याखपि समितिषु 'द्वादशाङ्गं' प्रवचनं समवतरति-संभवति यस्मात्, ताश्चेद्दाभिधीयन्त इति ग म्यते, तस्मात्प्रवचनमाता प्रवचनमातरो वोपचारत इदमध्ययनं 'भवति' ज्ञातव्यमिति गाथार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तचेदम् अट्ठप्पवयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य । पंचैव य समिईओ, तओ गुत्ती आहिया ॥ १ ॥ इरियाभासेसणादाणे, उचारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुती उ अट्टमा ॥ २ ॥ एयाओ अट्ठ समिईओ, | समासेण वियाहिया । दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ॥ ३ ॥ सूत्रत्रयं प्रकटार्थमेव, नवरं 'समिति'त्ति समितयः 'गुत्ति'त्ति गुप्तयः, तत्र च समितिः- सम्यक् -सर्ववित्प्रवचनानुसारितया इतिः - आत्मनः चेष्टा समितिः तान्त्रिकी सञ्ज्ञा ईर्यादिचेष्टासु पञ्चसु, गोपनं गुप्तिः - सम्यग्योगनिग्रहः तथैव चेति समुचये, उक्तं हि - 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिरिति (तत्त्वा०अ०९ सू०४), भवन्त्वेताः प्रवचनमाताः, अष्टसङ्ख्यत्वं १ एताः प्रवचनमातरो द्वादशाङ्गं प्रसूताः For Funny www.pincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~1026~ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-] / गाथा ||१-३|| नियुक्ति: [४५९] (४३) प्रत २४ सूत्रांक ||१-३|| उत्तराध्य. तु कथमासामिति संशये समितीना पञ्चत्वं गुप्तीना च त्रिकत्वमुक्तम् आहिया' इति आख्याता:-कथिताः बृहद्वृत्तिः तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते, ता एव नामबाहमाह-ईरणमीया-गतिपरिणामो भाषणं भाषा एषणमेपो-नावे मात्राख्यम् पणं तं करोतीति णिक ततः स्त्रीलिङ्गे भावे युटि एषणा आदान-ग्रहणं पात्रादेः निक्षेपोपलक्षणमेतत् तत एषां । ॥५१४॥ समाहारे ईर्याभाषेषणादानं तस्मिन् , 'उच्चारे समिई इय'त्ति चस्य भिन्नक्रमत्वादुचारशब्दस्य चोपलक्षणत्वादुचारा दिपरिष्ठापनायां च समितिः, अस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धादीर्यासमितिरित्यादिरभिलापो विधेयः, 'इति' परिसमाप्ती, हएतावत्य एव समितयः, तथा मनसो गुप्तिमनोगुप्तिरिति तत्पुरुषः, एवमुत्तरयोरपि, निगमनमाह-एताः' इत्यनन्त रोक्ताभिधाना अष्ट समितयो, गुप्तीनामपि 'प्रवचन विधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गगमननिवारणं गुप्ति'रिति वचनाकथश्चित्सचेष्टात्मकत्वात्समितिशब्दवाच्यत्वमस्तीत्येवमुपन्यासः, यत्तु भेदेनोपादानं तत्समितीनां प्रवीचाररूपत्वेन गुप्तीनां प्रवीचाराप्रवीचारात्मकत्वेनान्योऽन्यं कथश्चिद्भेदात् , तथा चागमः-"समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तहामि भइयो । कुसलवइमुदीरतो जं वइगुत्तोऽपि समिओऽवि ॥१॥" 'समासेन' सकलागमसङ्करेण व्याख्याताः, जिनाख्यातं मातम् उत्तरत्र तुशब्दस्यैवकारार्थस्य भिन्नक्रमत्वात् 'मातमेव' अन्तर्भूतमेव 'यत्र' इति यासु 'प्रवच ५१४॥ ४ नम्' आगमः, तथाहि-ईर्यासमिती प्राणातिपातविरमणप्रतमवतरति, तहत्तिकल्पानि च शेषत्रतानि तत्रैवान्त-18 १ समितो नियमाद्गुतो गुप्तः समितत्वे भक्तव्यः । कुशलवच उदीरयम् यद्वचोगुमोऽपि समितोऽपि ॥ १॥ R.RRRI दीप अनुक्रम [९३६ -९३८] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1027~ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-]/गाथा ||१-३|| नियुक्ति: [४५९] (४३) प्रत सूत्रांक ||१-३|| र्भावमुपयान्ति, तेषु च न तदस्ति यन्न समवतरति, यत उक्तम्-"पंढर्ममि सहजीवा बीए चरिमे य सघदवाई। / सेसा महषया खलु तदेकदेसेण णायचा ॥१॥" इत्यर्थतः सर्वमपि प्रवचनमिह मातमुच्यते, भाषासमितितु। सावधवचनपरिहारतो निरवद्यवचोभाषणात्मिका तया च वचनपर्यायः सकलोऽप्याक्षिप्त एव,न च तद्वहिर्भूतं द्वादशाङ्गमस्ति, एवमेषणासमित्यादिष्वपि खघिया भावनीयं, यहा सर्वा अप्यमश्चारित्ररूपाः, ज्ञानदर्शनाविनाभाषि च चारित्रं, न चैतप्रयातिरिक्तमन्यदर्थतो द्वादशामिति सर्वास्वप्येतासु प्रवचनं मातमुच्यते, अन्यथा वाऽऽगमावि-1 रोधेनाभिधेयमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ तोर्यासमितिखरूपमाह आलंबणेणं कालेणं, मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरियं रिए ॥ ४॥ तत्थ आलंयणं नाणं, दसर्ण चरणं तहा । काले य दिवसे बुत्ते, मग्गे उप्पहवजिए ॥५॥ दब्बओ खित्तो चेच, कालओ भावओ तहा । जयणा चउब्विहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥६॥ दब्बओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च (खित्तओ। कालओ जाव रीइजा, उवउत्तो य भावओ॥७॥ इंदियत्थे विवजित्ता, सज्झायं चेष पंचहा । तम्मुत्ती तप्पुरकारे, उवउत्ते रियं रिए ॥८॥ ___ आलम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया च चतुष्कारणैः-एभिरेवालम्बनादिभिः परिशुद्धा-निर्दोषा चतुष्कारणपरि १ प्रथमे सर्वजीवा द्वितीये चरमे च सर्वद्रव्याणि । शेषाणि महाब्रतानि तदेकदेश एव ज्ञातव्यानि ।। १॥ दीप अनुक्रम [९३६ -९३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1028~ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||8-4|| दीप अनुक्रम [९३९ -९४३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५१५॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२४], मूलं [-] / गाथा ||४-८|| निर्युक्तिः [४५९...] शुद्धा तां 'संयतः' यतिः 'इर्या' गतिं 'रिये 'ति रीयेत अनुष्ठानविषयतया प्राप्नुयात् यद्वा सुकयत्ययाचतुष्कारणपरिशुद्धया ईर्यया 'रीयेत' गच्छेत् । आलम्बनादीन्येव व्याख्यातुमाह- 'तत्र' तेप्यालम्बनादिषु मध्ये आलम्बनं यदालम्ब्य गमनमनुज्ञायते, निरालम्बनस्य हि नानुज्ञातमेव गमनं तत्किमित्याह - 'ज्ञानं' सूत्रार्थोभयात्मकागमरूपं 'दर्शनं' दर्शनप्रयोजनं ( शास्त्रं ) 'चरणं' चारित्रं, तथाशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः तेन द्वित्रादिभङ्गसूचकः, | ततोऽयमर्थः - प्रत्येकं ज्ञानादीन्याश्रित्य द्विकादिसंयोगतो वा गमनमनुज्ञातम्, आलम्बनेनेति व्याख्यातं, कालेनेति व्याचष्टे - कालश्च प्रस्तावादीयया दिवस उक्तः, तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते, रात्रौ यचक्षुर्विषयत्वेन पुष्टतराल - स्वनं विना नानुज्ञातमेव गमनं मार्गेणेति द्वारं व्याख्यातुमाह-मार्ग इह सामान्येन पन्थाः स उत्पथेन - उन्मा|र्गेण वर्जितो--रहित उत्पथवर्जित उक्त इति सम्बन्धः, उत्पथे हि त्रजत आत्मसंयमविराधनादयो दोषाः । यतनेति बुवूर्षुराह - 'दवतो' इत्यादि, सुगममेव, नवरं 'ताम्' इति चतुर्विधयतनां मे 'कीर्त्तयतः' सम्यकूखरूपाभिधानद्वारेण संशब्दयतः शृणु' आकर्णय शिष्येति गम्यते । यथाप्रतिज्ञातमेवाह - 'द्रव्यत' इति जीवादिकं द्रव्यमाश्रित्येयं यतना - यत् 'चक्षुषा' दृष्ट्या 'प्रेक्षेत' अवलोकयेत्, प्रक्रमाज्जीवादिकं द्रव्यम्, अवलोक्य च संयमात्मवि| राधनापरिहारेण गच्छेदिति भावः, 'युगमात्रं च' चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावात्क्षेत्रं प्रेक्षेत, इयं क्षेत्रतो यतना, कालतो यतना यावत् 'रीयिज'त्ति रीयते यावन्तं कालं पर्यदन्ति तावत्कालमानेति गम्यते, उपयुक्तश्च भावतो - दत्तावधानो यद्री Education intimatio Forest Use Only प्रवचनमात्राख्यम्. २४ ~ 1029~ ॥५१५॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-] / गाथा ||४-८|| नियुक्ति: [४५९...] (४३) प्रत SC- सूत्रांक ||४-८|| यते, इयं भावमङ्गीकृत्य यतना। उपयुक्तत्वमेव स्पष्टयितुमाह-'इन्द्रियार्थान्' शब्दादीन् 'विवर्य' तदनध्यवसानतः परिहत्य, खाध्यायं चैव 'च' समुच्चये एवकारोऽपिशब्दार्थः, ततोऽयमर्थः-न केवलमिन्द्रियार्थान् विवज्य | किन्तु खाध्यायं चापि 'पञ्चधेति वाचनादिभेदतः पञ्चप्रकार, गत्युपयोगोपघातित्वात्, ततश्च तस्यामेवेर्यायां मूर्तिः-शरीरमाद्वयाप्रियमाणा यस्यासी तन्मूर्तिः, तथा तामेव पुरस्करोति-तत्रैवोपयुक्ततया प्राधान्येनाशीकुरुत इति तत्पुरस्कारः, अनेन कायमनसोस्तत्परतोक्का, बचसो हि तत्र व्यापार एव न समस्ति, एवमुपयुक्तः सन्नीयो रीयेत यतिरिति शेषः, सर्वत्र च संयमात्मविराधनैव विपक्षे दोष इति सूत्रपञ्चकार्थः । सम्प्रति भाषासमितिमाह कोहे माणे य माया य, लोभे य जवउत्तया । हासे भय मोहरिए, विगहासु तहेव य॥९॥ एयाई अह ठाणाई, परिवज्जित्तु संजओ। असावलं मियं काले, भासं भासिज्ज पन्नवं ॥१०॥ क्रोधेमाने च मायायां लोभे च 'उपयुक्तता' क्रोधाधुपयोगपरता तदेका यतनेतियावत् , हासे 'भय'त्ति भये मौखये विकथासु तथैवोपयुक्ततेति सम्बन्धः, तत्र क्रोधे यथा कश्चिदतिकुपितः पिता प्राह-न वं मम पुत्रः,पार्थवर्तिनो या प्रति प्राह-वनीत बनीतैनमित्यादि, माने यथा कश्चिदभिमानाध्मातचेता न कश्चिन्मम जात्यादिभिस्तुल्य इति । वक्ति, मायायां यथा परव्यंसनार्थमपरिचितस्थानवत्ती सुतादौ भणति-नायं मम पुत्रो न चाहमस्य पितेत्यादि,लोभे यथा कश्चिद्वणिक् परकीयमपि भाण्डादिकमात्मीयमभिधत्ते, हास्ये यथा केलीकिलतया कञ्चन तथाविधं कुलीनम दीप अनुक्रम [९३९-९४३] AACCC JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1030~ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥९-१०|| दीप अनुक्रम [९४४ -९४५] उत्तराध्य. बृहतिः ।।५१६ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||९-१०|| निर्युक्तिः [४५९...] अध्ययनं [ २४ ], प्यकुलीनमित्युलपति, भये यथा तथाविधमकार्यमाचर्य स त्वं येन तत्तदाचरितमिति पृष्टः प्राह - नाहं तदाऽस्मिन् देशे एवाभूवमित्यादि, मौखर्ये यथा मुखरतया यत्तत्परपरिवादादि वदन्नास्ते, 'विकथासु' ख्यादिकथासु — 'अहो ! कटाक्षविक्षेपास्तस्याः' इत्यादिकमाह, पठ्यते च - "कोहे य माणे य माया य लोभे य तहेव य । हासभयमोहरीए, विकहा य तद्देव य ॥ १ ॥” गतार्थमेव । 'एतानि' अनन्तरमुक्तरूपाण्यष्टौ स्थानानि 'परिवर्ज्य' परिहत्य संयतः किमित्याह-'असावद्यां' निर्दोषां तामपि 'मितां' स्तोकां यावत्युपयुज्यते तावतीमेव' 'काले' प्रस्तावे 'भाषा' वाचं 'भाषेत' वदेत् प्रज्ञा-बुद्धिस्तद्वानिति सूत्रद्वयार्थः ॥ एषणासमितिमाह Education intimation गवसणाए गहणेय, परिभोगेसणा य जा । आहारोबहिसिखाए, एए तिन्नि विसोहए ॥। ११ ॥ पाणं पढमे, बीए सोहिज्ज एसणं । परिभोगंमि चडणं, विसोहिज्ज जयं जई ॥ १२ ॥ 'गवेषणायाम्' अन्वेषणायां 'ग्रहणे च' स्वीकारे, उभयत्र प्राकृतत्वादेषणेति संबध्यते, ततो गवेषणायामेषणा ग्रहणे चैषणा, परिभोग- आसेवनं तद्विषयेषणा परिभोगेपणा च या, 'आहारोवहिसेजाए' त्ति वचनव्यत्ययाद् 'आहारोपधिशय्यासु' प्रतीतासु 'एताः ' उक्तरूपा एषणाः सूत्रत्वाल्लिङ्गव्यत्ययात्तिस्रः 'विशोधयेत्' निर्दोषा विदध्यात् पठ्यते च - "गवेसणाए गहणेणं, परिभोगेसणाणि य । आहरमुवहिं सेजं, एए तिन्नि विसोहिय ॥ १ ॥ "त्ति, अस्य च गवेषणादिभिराहारादीनि त्रीणि विशोधयेदिति सङ्क्षेपार्थः । कथं विशोधयेदित्याह – उद्गमश्चोत्पादना चोद्गमो For Patenty प्रवचनमा त्राख्यम्. २४ ~ 1031~ ॥५१६॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||११ -१२|| दीप अनुक्रम [९४६ -९४७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||११-१२ || अध्ययनं [२४], Education intemational त्पादनमिति समाहारः, तत्किमित्याह - विशेोधयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः, किमुक्तं भवति ? - आधा कर्मादिदोषपरिहारत उद्गमं धात्र्यादिदोषपरित्यागतश्चोत्पादनां शुद्धामादधीत 'पढ'त्ति प्रथमायां गवेषणैषणायां, 'बीय'त्ति द्वितीयायां ग्रहणैषणायां शोधच्छतादिदोषत्यागतः 'एषणां' ग्रहणकालभाविग्राद्यगतदोषान्येषणात्मिकां 'परिभोग' इति परिभोगैषणायां चतुष्कं पिण्डशय्यावस्त्रपात्रात्मकम् उक्तं हि - पिंड सेजं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य"त्ति, विशोधयेत् इह चतुष्कशब्देन तद्विषय उपभोग उपलक्षितः, ततस्तं विशोधयेदिति कोऽर्थः ? – उद्गमादिदोषत्यागतः शुद्धमेव चतुष्कं परिभुञ्जीत, यदिवोद्गमादीनां दोपोपलक्षणत्वात् 'उग्गम'ति उद्गमदोषान् 'उप्पायण' ति उत्पादनादोपान् 'एस' ति एषणादोपान् विशोधयेत्, 'चतुष्कं च' संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमकारणात्मकम्, अङ्गारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वात् विशोधयेत् उभयन्त्र शोधनमपनयनं, 'जयं'ति यतमानः 'यतिः' तपखी, व्याख्याद्वयेऽपि च पुनस्तस्या एव क्रियाया अभिधानमतिशयख्यापनार्थमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ इदानीमादाननिक्षेपणस|मितिमाह निर्युक्ति: [ ४५९...] ओहोहोवरगहियं, भंडयं दुविहं मुणी । गिण्हंतो निक्खिवंतो प, पजिज्ज इमं विहिं ॥ १३ ॥ चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमजिज्ज जयं जई । आदिए निक्खिविजा वा, दुहओऽवि समिए सया ॥ १४ ॥ १ पिण्डं शय्यां च वच पात्रमेव च चतुर्थम् । For Fasten ~ 1032~ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-]/ गाथा ||१३-१४|| नियुक्ति : [४५९...] (४३) प्रवचनमा प्रत बृत्तिः त्राख्यम् सूत्रांक २४ ||१३ -१४|| उत्तराध्य. 'ओहोवहोवग्गहिय'ति उपधिशब्दो मध्यनिर्दिष्टत्वात् डमरुकगुणग्रन्थियदुभयत्र संबध्यते, तत ओघोपधिमी- पग्रहिकोपधिं च 'भाण्डकम्' उपकरणं रजोहरणदण्डकादि 'द्विविधम्' उक्तभेदतो द्विभेदं मुनिः 'गृहन्' आद दानः 'निक्षिपंश्च कचित्स्थापयन् 'प्रयुञ्जीत' व्यापारयेत् 'इमं वक्ष्यमाणं विधि' न्यायं । तमेवाह-'चक्षुषा' दृष्टया ॥५१७॥ 'पडिलेहित्त'त्ति 'प्रत्युपेक्ष्य' अवलोक्य 'प्रमार्जयेत्' रजोहरणादिना विशोधयेत् यतमानो यतिस्ततः 'आदिए'त्ति IPI'आददीत' गृह्णीयात् 'निक्षिपेद्वा' स्थापयेत् 'दुहतोऽवित्ति द्वावपि प्रक्रमादौधिकोपग्राहिकोपधी, यदिवा 'द्विधाऽपि' द्रव्यतो भावतश्च 'समितः' प्रक्रमादादाननिक्षेपणासमितिमान् सन् 'सदा सर्वकालमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रति परिष्ठापनासमितिमाह उच्चारं पासवर्ण, खेलं सिंघाण जल्लियं । आहारं उवहिं देहं, अन्नं वावि तहाविहं ॥१५॥ अणावायमसंलोए अणवाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेव संलोए ॥ १६ ॥ अणवायमसंलोए, परस्सऽणुवघाइए । समे अज्लुसिरे यावि, अचिरकालकर्यमि य ॥ १७॥ विच्छिन्ने दूरमोगावे, णासन्ने बिलवजिए । तसपाणबीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥ १८॥ 'उच्चार' पुरीपं 'प्रश्रवणं' मूत्रं 'खेल' मुखविनिर्गतं श्लेष्माणं "सिंघाणं ति नासिकानिष्क्रान्तं तमेव 'जल्लिय'ति आर्यत्वात् जल्लो-मलस्तम् 'आहारम्' अशनादिकम् 'उपधि' वर्षाकल्पादि 'देह' शरीरम् 'अन्यद्वा' कारणतो गृहीतं ५१७॥ दीप अनुक्रम [९४८-९४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1033~ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-/ गाथा ||१५-१८|| नियुक्ति: [४५९...] (४३) प्रत 6 % सूत्रांक ||१५ -१८|| गोमयादि 'अपिः' पूरणे तथाविधं परिष्ठापनाह प्रक्रमात्स्थण्डिले व्युत्सृजेदित्युत्तरेण सम्बन्धः । स्थण्डिलं च दशवि|शेषणपदविशिष्टमिति मनस्थाधाय तद्गताखिलभकोपलक्षणार्थमाद्यविशेषणपदयोभङ्गरचनामाह-अविद्यमान आपातःखपरोभयपक्षसमीपागमनरूपोऽस्मिन्नित्यनापातं स्थण्डिलमिति गम्यते, 'असंलोए'त्ति सूत्रत्वादिहोत्तरत्र च लिङ्गव्यत्यये न विद्यते संलोको-दूरस्थितस्यापि खपक्षादेरालोको यस्मिंस्तत्तथेति प्रथमो भङ्गः १, 'अनापातं चैव भवति लोक' यत्रापातो नास्ति संलोकश्चास्तीति द्वितीयो भङ्गः२, 'आपातमसंलोक'मिति यत्रापातोऽस्ति न च संलोक इति तृतीयः ३, 'आपातं चैव संलोक' यत्रोभयमपि संभवतीति चतुर्थः ४, इह चापातसंलोकमिति च अर्शादेराकृतिगणत्वान्मत्वर्थीयेऽचि द्रष्टव्यं काक्का दशविशेषणपदज्ञानार्थ, तानि यारशे स्थण्डिले व्युत्सृजेत्तदाह-अनापाते असंलोके, कस्य पुनरयमापातः संलोकश्चेत्याह-'परस्य' स्वपक्षादेः, गमकत्वाचोभयत्र सापेक्षत्वेऽपि समासः, उपघातः-संयमात्मप्रवचनबाधात्मको विद्यते यत्र तदुपघातिकं न तथाऽनुपातिक तस्मिन् , तथा 'समें निम्नो१ नतत्ववर्जिते 'अशुपिरे वाऽपि तृणपर्णाचनाकीणे 'अचिरकालकृते च' दाहादिना खल्पकालनिर्वर्तिते, चिरकालते हि पुनः संमूर्छन्त्येव पृथ्वीकायादयः, 'विस्तीर्णे' जघन्यतोऽपि हस्तप्रमाणे 'दूरमवगाढे' जघन्यतोऽप्यधस्ताचतुरमुलमचित्तीभूत्ते 'नासन्ने' प्रामारामादेर्दूरवर्जिनि 'बिलवर्जिते' मूषकादिरन्धरहिते त्रसप्राणाश्च-द्वीन्द्रियादयो वीजानि च-शाल्यादीनि, सकलैकेन्द्रियोपलक्षणमेतत् , तैस्तत्रस्थैरागन्तुकैश्च रहितं-वर्जितं त्रसप्राणवीजरहितं तस्मिन् , दीप अनुक्रम [९५०-९५३] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1034~ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१५ -१८|| दीप अनुक्रम [९५० -९५३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५१८॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १५-१८|| निर्युक्तिः [४५९...] अध्ययनं [२४], स्थण्डिल इति शेषः, 'उच्चारादीनि' उक्तरूपाणि 'व्युत्सृजेत्' परिष्ठापयेत् । इह चोचारं प्रश्रवणमित्यादावुक्तेऽपि पुनरुच्चारादीनीत्यभिधानं विस्मरणशीलस्मरणार्थ मदुष्टमेवेति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ सम्प्रत्युक्तमुपसंहरन् वक्ष्यमाणार्थसम्बन्धाभिधानायाह एयाओ पंच समिईओ, समासेण वियाहिया । इतो उ तओ गुत्तीओ, वुच्छामि अणुपुचसो ॥ १९ ॥ निगदसिद्धं, नवरम् 'एत्तो 'ति अतश्च समितिप्रतिपादनानन्तरं 'तओ'त्ति तिस्रः 'अणुपुवसो'ति आर्पत्वादानुपूर्व्या क्रमेणेत्यर्थः ॥ तत्रायां मनोगुप्तिमाह ratnamation सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असबमोसा य, मणगुत्ती चडव्विहा ॥ २० ॥ संरंभ समारंभे, आरंभ य तहेव य । मणं पवट्टमाणं तु, नियत्तिज्ज जयं जई ॥ २१ ॥ सज्यः - अर्थात्पदार्थेम्यो हितो - यथावद्विकल्पनेनाप्तः सत्यो मनोयोगस्तद्विषया मनोगुप्तिरप्युपचारात्सत्या, तथैव | मृपा च तद्विपरीतमनोयोगविषया, 'सत्यामृषा' उभयात्मकमनोयोगगोचरा, तथैव चेति समुचये, चतुर्थी 'असत्यामृषा' उभयखभावविकलमनोदलिकव्यापाररूपमनोयोगगोचरा मनोगुप्तिः प्रक्रमाच सर्वत्रैवं योजना, उपसंहारमाह-मनोगुप्तिः 'चतुर्विधा' उक्तभेदतश्चतुर्भेदा, अस्या एव स्वरूपं निरूपयन् काक्कोपदेष्टुमाह-संरम्भः- सङ्कल्पः स च मानसः तथाऽहं ध्यास्यामि यथाऽसौ मरिष्यतीत्येवंविधः, समारम्भः परपीडाकरोचाटनादिनिबन्धनं ध्यानम्, For Fans Only प्रवचनमात्राख्यन. २४ ~1035~ ॥५१८ ॥ www.r मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-/ गाथा ||२०-२१|| नियुक्ति: [४५९...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२० -२१|| अनयोः समाहारतस्मिन् , आरम्भ:-अत्यन्तक्लेशतः परप्राणापहारक्षममशुभध्यानमेव तस्मिन् 'चः' समुञ्चये 'तथैय'। तेनैवागमप्रतीतेन तत्र मनसोऽसन्निवेशात्मकेन प्रकारेण 'चा' पूरणे 'मनः' चित्तं 'प्रवर्त्तमानं' व्याप्रियमाणं 'तुः' विशेषणे 'निवर्तयेत्' नियमयेत् 'जय'ति यतमानः 'यतिः' तपखी। विशेषश्चायमिह-शुभसङ्कल्पेषु मनः प्रवर्तयेत् , प्रवीचाराप्रवीचाररूपत्वाद्सेरिति सूत्रद्वयार्थः ॥ वागगुप्तिमाह सचा तहेव मोसा य, सञ्चामोसा तहेव य । चउत्थी असचमोसा य, वयगुत्ती चउब्विहा ॥२२॥ संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तिज जयं जई ॥२३॥ सूत्रद्वयमनन्तरं व्याख्यातमेव, नवरं मनोगुप्तिस्थाने वागगुप्तिरुचारयितव्या, तथा सत्या वाक् जीवं जीवमिति प्ररूपयतः असत्या जीवमजीवमिति संत्यामृषा क्वचिद्विवक्षितसमये मनुष्यशतमुत्पन्नमुपरतं चेति असत्यामृषा तु विधेहि खाध्यायं नैतत्सदृशमन्यत्तपोऽस्तीत्यादि, तथा वाचिकः संरम्भ:-परव्यापादनक्षमक्षुद्रविद्यादिपरावर्तनास-1 कल्पसूचको ध्यनिरेवोपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यः सन्, समारम्भः-परपरितापकरमन्त्रादिपरावर्त्तनम् 'आरम्भः' तथाविधसंक्लेशतः प्राणिनां प्राणव्यपरोपणक्षममत्रादिजपनमिति सूत्रद्वयार्थः । इदानी कायगुप्तिमभिधातुमाह ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुपदणे । उल्लंघण पल्लंघण, इंदियाण य जुजणे ॥ २४ ॥ संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव च । कार्य पवत्तमाणं तु, नियत्ति जयं जई ॥ २५ ॥ दीप अनुक्रम [९५६-९५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1036~ Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-]/गाथा ||२४-२५|| नियुक्ति: [४५९...] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः त्राख्यम्. सूत्रांक ॥५१९॥ ||२४-२५|| X45645% 'स्थाने' ऊर्द्धस्थाने 'णिसीयणि'त्ति 'निषदने' उपवेशने, चः तयोरेव विचित्रभेदसमुच्चयार्थः, 'एवं' इति पूरणे, प्रवचनमातथैव च 'त्वग्वर्त्तने शयने 'उलइने तथाविधनिमित्तत ऊर्ध्वभूमिकाथुत्क्रमणे गघितिक्रमणे वा 'प्रलचने' सामा-1 न्येन गमने, उभयत्र सूत्रत्वात्सुपो लुक, 'इन्द्रियाणां च' स्पर्शनादीनां 'झुंजणे'त्ति योजन-शब्दादिविषयेषु व्यापारणं तस्मिन् , सर्वत्र च वर्चमान इति शेषः, ततः स्थानादिषु वर्तमानः संरम्भ:-अभिघातो यष्टिमुष्टयादिसंस्थानमेव सङ्कल्पसूचकमुपचारात्सङ्कल्पशब्दयाच्यं सत् समारम्भा-परितापकरो मुष्टयायभिघातः, ततः संरम्भश्च समारम्भश्च || संरम्भसमारम्भ तस्मिन्, 'आरम्भे' प्राणिवधात्मनि कार्य प्रवर्त्तमानं निवर्तयेत् , शेपं प्राग्वदिति सूत्रद्वयार्थः Mसम्प्रति समितिगुप्त्योः परस्परविशेष स्वयं सूत्रकृदाह एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणेऽवुत्ता, असुभत्थेसु य सब्बसो॥ २६ ॥ 'एताः' अनन्तरोक्काः पञ्च समितयश्चरणं-चारित्रं सचेष्टेतियावत् तस्य प्रवर्तने पूर्वत्र चशब्दस्य भिन्नक्रमत्वादवधारणार्थत्वाच प्रवत्तेन एव, किमुक्तं भवति सचेष्टासु प्रवृत्तावेव समितयः, तथा 'गुत्ती'त्ति गुप्तयो निवत्तेनेड-II प्युक्ताः 'अशुभार्थेभ्यः' अशोभनमनोयोगादिभ्यः, सूत्रे तु सुव्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे सप्तमी, 'सघसो'त्ति सर्वेभ्योऽपि- ५१९॥ शब्दाचरणप्रवर्त्तने च, उपलक्षणं चैतत् शुभार्थेभ्योऽपि निवृत्तेः, वाकाययोनिर्व्यापारताया अपि गुप्तिरूपत्वात्, उक्तं हि गन्धहस्तिना-"सम्यगागमानुसारेणारक्तद्विष्टपरिणतिसहचरितमनोव्यापारः कायव्यापारो वाग्व्यापारश्च दीप अनुक्रम [९५९-९६०] wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1037~ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२४], मूलं [-] / गाथा ||२७|| नियुक्ति: [४५९...] (४३) CS प्रत सूत्रांक ||२७|| RANCESS निर्व्यापारता वा वाकाययोर्गुसि"रिति, तदनेन व्यापाराव्यापारात्मिका गुप्तिरुक्तेति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्नेतदाचरणफलमाहएया पवयणमाया, जे सम्म आयरे मुणी । सो खिप्पं सब्यसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥२७ ॥ तिमि ॥ ॥ पचयणमायरं अज्झयणं ॥ स्पष्टमेव । नवरं, 'सम्यक् अवपरीत्येन न तु दम्भादिनेति सूत्रार्थः ॥ इति' परिसमासौ, प्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोअनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वत् ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायां चतुर्विंशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ २४ ॥ a-STOTRAMERA-TATESTRARASTRA-STRE-EMATORESTMERESTMay श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटी० शिष्य० प्रवच० नाम चतुर्विंशतितममध्ययनं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [९६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २४ परिसमाप्तं ~1038~ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||२७...|| नियुक्ति: [४६०-४६२] (४३) 4 उत्तराध्य. अथ यज्ञीयाख्यं पञ्चविंशतितममध्ययनम् । यज्ञीया ध्यय.२५ बृहद्वृत्तिः ॥१२॥ प्रत सूत्रांक ||२७|| %%% दीप अनुक्रम [९६२] व्याख्यातं चतुर्विंशमध्ययनम् , अधुना पञ्चविंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने प्रवचनमातिरोऽभिहिताः, इह तु ता ब्रसगुणस्थितस्यैव तत्त्वतो भवन्तीति जयघोषचरितवर्णनाद्वारेण ब्रह्मगुणा उच्यन्त इत्य नेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चानुयोगद्वारचतुष्टयचर्चा प्राग्वद्यावन्नामनिष्पन्न निक्षेपे यज्ञीयमिति नामातो यज्ञनिक्षेपायाह नियुक्तिकृत्निक्लेवो जन्नंमि अचउक्कओ दुविहो य होइ दवंमि। आगमनोआगमओ नोआगमओ अ सो तिविहो जाणगसरीरभविए तबइरित्ते अमाहणाईसुं । तवसंजमेसु जयणा भावे जन्नो मुणेयवो॥ ४६१ ॥ जयघोसा अणगारा विजयघोसस्स जन्नकिच्चंमि । तत्तो समुट्टियमिणं अज्झयणं जन्नइजति ॥ ४६२॥ निक्षेपो यज्ञे चतुष्कको-नामादिः, द्विविधो भवति द्रव्ये---आगमनोआगमतः, तत्रागमतः प्राग्वत् , नोआगमतश्च 'स' इति यज्ञविविधः ज्ञशरीरभव्यशरीरे तद्वयतिरिक्तच, 'माहणाइसुन्ति माहनादीनां प्रक्रमाद् यज्ञ आदि-1 2529 ॥५२०॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययन-२५ "यज्ञीय" आरभ्यते ~ 1039~ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-]/ गाथा ||२७...|| नियुक्ति: [४६०-४६२] (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| शब्दात्तथाविधनृपत्यादिपरिग्रहः, तैर्हि प्राणिहिंसोपलक्षित एवायं क्रियते, ततः स भावयज्ञफलाप्रसाधकत्वाद् द्रव्ययज्ञ उच्यते, भावयज्ञमाह-'तपःसंयमेषु' प्रसिद्धेष्वेव 'यतना' तदनुष्ठानादरकरणरूपा भाये यज्ञः 'मुणितव्यः' प्रतिज्ञातव्यः, अहोर्थे चायं कृत्यः, ततः खर्गादियज्ञफलप्रसाधकतयैष एव यज्ञः प्रतिज्ञातुमुचितो, न त्वन्यः, तस्य प्रत्युतानर्थहेतुत्वात् , जयघोषादनगाराद्विजयघोषस्य 'यज्ञकृत्ये यज्ञक्रियायामागतात् जातमिति शेषः, ततश्च यज्ञस्यैव प्राधान्यविवक्षया 'ततः' इति यज्ञात् समुत्थितमिदमध्ययनं यज्ञीयमिति, तस्मादुच्यत इति शेष इति गाथात्रयार्थः ॥ एवं तावन्निक्षेप उक्तः, सम्प्रत्यनुगमावसरः, तत्रोपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमान्तर्गतं किश्चिदभिधित्सुराह- | |वाणारसिनयरीए दो विप्पा आसि कासवसगुत्ता । धणकणगविउलकोसा छक्कम्मरया चडवेया ४६३ दोवि अ जमला भाउअ संपीआ अन्नमन्नमणुरत्ता। जयघोसविजयघोसा आगमकुसला सदाररया ४६४|| अह अन्नया कयाई जयघोसो हाइडं गओ गंगं । अह पिच्छइ मंडूकं सप्पेण तहिं गसिजंतं ॥४६५॥ सप्पोऽवि अ कुललेणं उक्खित्तो पाडिओ य भूमीए। सोऽवि अकुललो सप्पं अकमिउं अच्छए तत्थ॥४६॥ सप्पोऽवि कुललवसगओ मडकं खाइ चिंचिआइय। सोऽवि अकुललो खायइ सप्पं चंडेहिं गासेहिं४६७) दीप अनुक्रम [९६२] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1040~ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-]/ गाथा ||२७...|| नियुक्ति: [४६३-४७०] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५२१॥ प्रत सूत्रांक ||२७|| तं अन्नमन्नघायं जयघोसो पासिऊण पडिबुद्धो । गंगाओ उत्तरिउंसमणाणं आगओ वसहि ॥ ४६८॥ यज्ञीयासो समणो पवइओ निग्गंथो सवगंथउम्मुक्को । वोसिरिऊण असारे केसेहि समं परिकेसे ॥ ४६९ ॥ पंचमहत्वयजुत्तो पंचिंदिअसंवुडो गुणसमिद्धो । घडणजयणप्पहाणो जाओ समणो समिअपावो ४७० | आसामक्षरार्थः स्पष्ट एव, नवरं 'कासवसगोत्त'त्ति काश्यपकुलोत्पन्नाः काश्यपास्तैः समानं गोत्रं ययोस्तौ काश्यपसगोत्री 'छक्कम्मरय'त्ति पट् कर्माणि-यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रहात्मकानि तेषु रतौ-आसक्ती षट्कर्मरतो, तथा द्वावपि 'यमलो' युग्मी उत्पन्नौ 'भाउय'त्ति भ्रातरौ 'संप्रीती' विद्यमानसम्यग्वाबप्रीती 'अन्योs-12 न्यमनुरक्तौ' आन्तरप्रीतियोगतः परस्परस्नेहवन्तौ, आगमः-श्रुतिस्मृत्यादिरूपस्तस्मिन् कुशलावागमकुशलौ, अत-20 एव खदाररती। 'पहाइ'ति खातुं । 'कुररेण' मार्जारनामा पक्षिविशेषेण 'उक्खित्तो'त्ति उत्क्षिप्तः, उत्क्षिप्य च कथं नामासी प्रियतामिति पातितश्च भूमौ 'अक्कमिउन्ति आक्रम्य-अवष्टभ्य । सर्पः कुररचशगतः-कुरराधीनतां प्राप्तः "चिंचियायंत ति चिंचिमिति कुर्वन्तं 'चण्डैः' बृहत्खण्डनात्रोटनतोऽत्यन्तरौद्रेः 'पास' प्रतीतैः। 'तम्' इत्युक्तरूपमन्यो ॥५२१॥ |ऽन्यघातं-कुररसर्पमण्डूकगतं 'पासिऊणं'ति दृष्ट्वा 'प्रतिबुद्धः' अहो ! दुरन्तोऽयं संसार इत्यादिपरिभावनया अवगततत्त्वः 'सः' इति जयघोषः समनाः-सहृदयो विशिष्टाभोगयुक्त इत्यर्थः 'प्रनजितः' हेयधर्मेभ्यो 'निर्ग्रन्थः' ग्रन्थ दीप अनुक्रम [९६२] SCSC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1041~ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [९६२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२७...|| अध्ययनं [२५], Education intimatio | रहितः, स च वासग्रन्थरहितोऽपि स्यादत आह- सर्वो- बाह्य आन्तरश्च यो ग्रन्थस्तेनोन्मुक्तः सर्वग्रन्थोन्मुक्तः, वक्ष्यमाणश्रमणविशेषणान्येतानि, 'व्युत्सृज्य' त्यक्त्वा 'अ सारान् परमार्थालोचनायामप्रधानान् 'केशैः' शिरोरुहैः 'सम' सह | परिक्लेशयन्तीति परिक्लेशाः - प्रस्तावात्पुत्रकलत्रादिसम्बन्धास्तान् । घटनं-संयमयोगविषयं चेष्टनं यतनं — तत्रैवोपयुक्तत्वं ताभ्यां प्रधानः-- प्रवरो घटनयतनप्रधानः 'जात' भूतः 'श्रमणः ' तपखी शमितानि पापानि - मिथ्यात्वादिपापप्रकृतिरूपाणि येनासौ शमितपापः । भावार्थस्त्वासां सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् - वाणारसीए नयरीए दो विप्पभायरो यमला आसी जयघोसविजयघोसा, अन्नया जयघोसो व्हाइउं गओ गंगं, तत्थ पेच्छइ सप्पेण मंडूकं गसिजंतं, सप्पोवि मज्जारेण उच्छित्तो, मज्जा सप्पं अकमिउं ठिओ, तथावि सप्पो मंडूकं चिंचियंत खायति, मज्जारोवि सप्पं चडफडतं खायति, अन्नमन्नं घायं पासित्ता परिबुद्धो गंगमुत्तरिऊण साहसगासे समणो जातो ति । इति गाथाऽष्टकार्थः । इत्यभिहितं किञ्चिदुपोद्घातनिर्युतयनुगमान्तर्गतं, सम्प्रति सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगमावसरः, स च सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं तथेदम् १ वाराणस्यां नगर्यां द्वौ विप्रभ्रातरौ यमलावास्तां जयघोषविजयघोषौ, अन्यदा जयघोषः स्नातुं गतो गङ्गां, तत्र प्रेक्षते सर्पेण मण्डूकं ग्रस्यमानं, सर्पोऽपि मार्जारेणोत्क्षिप्तः, मार्जारः सर्पमाक्रम्य स्थितः, तथापि सर्पों मण्डूकं चिचिकुर्वन्तं खादति, मार्जारोऽपि सर्प कम्पमानं खादति, अन्योऽन्यघातं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धो गङ्गामुत्तीर्व साधुसकाशे श्रमणो जात इति ॥ निर्युक्ति: [४६३-४७०] For Fast Use Onl ~ 1042~ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-]/गाथा ||१-३|| नियुक्ति: [४६३-४७०] (४३) उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक ||१-3|| बृहद्वृत्तिः ॥५२२॥ माहणकुलसंभूओ, आसि विप्पो महायसो। जायाई जमजम्नंमि, जयघोसत्ति नामओ ॥१॥ इंदिय-12 यज्ञीयाग्गामनिग्गाही, मग्गगामी महामुणी । गामाणुगामं रीयंते, पत्तो वाणारसिं पुरिं ॥२॥ वाणारसीइ पहिया, उज्जाणंमि मणोरमे । फासुएसिज्जसंथारे, तत्थ वासमुवागए ॥३॥ सूत्रत्रयं प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरं ब्राह्मणकुलसंभूत इत्पन्वयाभिधानं, ब्राह्मणकुलसंभूतोऽपि जननीजात्यन्यथात्वे प्रामणो न स्यादत आह-विप्रः, 'जायाइ'त्ति अवश्यं यायजीति यायाजी, केत्याह-यमा:-प्राणातिपातविरत्यादिरूपाः पञ्च त एव यज्ञो-भावपूजात्मकत्वाद्विवक्षितपूजां प्रति यमयज्ञस्तस्मिन् , विषयसप्तमीयं, गार्हस्थ्यापेक्षया वैतव्याख्यायते, तत्र च विप्रो विप्राचारनिरतत्वेन, संभवति हि कश्चित्तत्कुलोत्पन्नोऽप्यन्यथेति विशेषणं, तथा यम इव प्राण्युपसंहारकारितया यमः स चासौ यज्ञश्च यमयज्ञः अर्थाद् द्रव्ययज्ञस्तस्मिन्। इन्द्रियग्राम-स्पर्शना|दिकसमूह निगृह्णाति-खखविषयविनिवर्त्तनेन नियमयतीत्येवंशील इन्द्रियग्रामनिग्राही, अत एव 'मागेंगामी' मुक्तिपथयायी 'रीयंति'त्ति रीयमाणो विहरन् । 'वाणारसीय बहिय'त्ति वाणारस्या बहिरिति-बहिर्भागे यदुद्यानम्उपवनं तस्मिन्निति सूत्रत्रयार्थः ।। तदा च तत्पुरि यतते यचासौ विधत्ते तदाह ५२२॥ अह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे । विजयघोसत्ति नामेणं, जन्नं जयह वेयवी ॥४॥ अह से तस्थ अणगारे, मासक्खमणपारणे । विजयघोसस्स जन्नंमि, भिक्खमट्ठा उवहिए ॥५॥ दीप अनुक्रम [९६३-९६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1043~ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||४-५|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४-५|| 'अथेति च वक्तव्यतान्तरोपन्यासे 'तेणेव कालेणं ति सुव्यत्ययात्तस्मिन्नेव काले यत्रासौ वाणारसीमाजगाम, 'वेयवी'ति वेदवित् । 'अथेति प्रस्तुतोपन्यासे 'स' जयघोषः 'तत्रेति यागे 'भिक्खमट्ठ'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः | प्राकृतत्वाद् दीर्घा विन्द्वभावश्च ततो भिक्षार्थम् 'उपस्थितः' प्राप्तः, पठ्यते च-'भिक्खस्सऽट्टत्ति भैक्ष्यस्यार्थे भैक्ष्यनिमित्तं, शेषं सुगममिति सूत्रद्वयावयवार्थः ॥ तत्र च भिक्षार्थमुपस्थिते यदसौ याजकः कृतवांस्तदाहदि समुवढियं तहिं संतं, जायगो पडिसेहए । नहु दाहामि ते भिक्खं, भिक्खू! जायाहि अन्नओ॥६॥जे सय वेयविक विप्पा, जन्नमहा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य, जे य धम्माण पारगा ॥७॥ जे समत्था टा समुद्ध, परं अप्पाणमेव य । तेसिमन्नमिणं देयं, भो भिक्खू! सध्चकामियं ॥८॥ II 'समुपस्थितं' भिक्षार्थमागतं 'याजका' यष्टा स एव विजयघोषनामा प्रामणः 'प्रतिषेधति' निराकुरुते यथा 'न हु' नैव दास्यामि ते तुभ्यं भिक्षा 'जायाहि'त्ति याचख 'अन्यतः' अस्मयतिरिक्तात् । किमित्येवमत आह-जे विष्पा' इत्यादि, विप्रा जातितः 'जण्णट्ठा यत्ति 'यज्ञार्थी' यज्ञप्रयोजना ये तत्रैव व्याप्रियन्ते ये 'द्विजाः' संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानो ज्योतिष-ज्योतिःशाखमकानि च विदन्ति ये ते ज्योतिषाविदः, अत्र च ज्योतिषस्योपादानं प्राधान्य-3 ख्यापकम् , अन्यथा हि शिक्षा १ कल्पो २ व्याकरणं ३ निरुक्तं ४ छन्दोविचितिः ५ ज्योतिषमिति ६ षडङ्गानीत्यङ्गन-IM राहणेनैव तद्गृहीतमिति, धर्माणामुपलक्षणत्वाद् धर्मशास्त्राणां 'पारगाः' पर्यन्तगामिनः, अशेषविद्यास्थानोपलक्षणमे दीप अनुक्रम [९६६-९६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1044~ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-]/ गाथा ||६-८|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६-८|| उत्तराध्य. तत् , ततो ये चतुर्दशविद्यास्थानपारगताः, अत एव च ये 'समर्थाः' शक्तिमन्तः समुद्धर्तुं भवसमुद्रादिति गम्यते, यज्ञीया 'तेसिं'ति सुन्व्यत्ययात् 'तेभ्यः' अनन्तरमुक्तरूपेभ्यः द्विजेभ्यः 'सवकामिय'न्ति सर्वाणि कामानि-अभिलषणीयवस्तूनि | बृहद्वृत्तिः ध्यय. २५ यमिंस्तत्सर्वकाम्यं, यद्वा सर्वकामनिवृत्तं तत्प्रयोजनं वा सर्वकामिक, षड्रसोपेतमित्यर्थः, शेषं स्पष्टमिति सूत्रत्र-18 ॥५२॥ यार्थः ॥ एवमुक्तो मुनिः स कीदृग् जातः ? किं वा कृतवान् ? इत्याह| सो तत्थ एव पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी । नवि रुटो नवि तुट्ठो, उत्तमहगवेसओ ॥९॥ नण्णहूँ 18 पाणहे चा, नवि निवाहणाय वा । तेसिं विमुक्खणट्ठाए, इमं वयणमब्बवी ॥१०॥ नवि जाणसि वेय-II मुहुं, नवि जनाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं जंच, जं च धम्माण वा मुहं ॥११॥ जे समत्वा समुद्धत्तुं, परंडा अप्पाणमेव य । न ते तुम विजाणासि, अह जाणासि तो भण ॥१२॥ II 'सः' इति जयघोषनामा 'तने ति यज्ञे 'एवेति एवम्-उक्तप्रकारेण 'प्रतिषिद्धः' निराकृतः, केन ?-'याजकेन' यज्ञका विजयघोषत्रामणेन महामुनि पि 'रुष्टः' इति रोषं गतः “बहुं परघरे अस्थि विविहं खाइमसाइमं । न . तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परोण वा ॥१॥" इत्याद्यागमपरिभावनातो, नापि 'तुष्टः' परितोष प्राप्तः, किन्तु समतयैव स्थित इति भावः,किमित्येवं ?, यत उत्तमार्थो-मोक्षस्तमेव गयेषयते-अन्वेषयते इत्युत्तमार्थगवेषको,मुक्ति १ बहु परगृहेऽस्ति विविधं खायं स्वायं । न तस्मै पण्डितः कुप्येत् इच्छया परो दद्यान्नवा ।। १ ।। ASSASSACREAST दीप अनुक्रम [९६८-९७०] ॥५२३॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1045~ Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-]/ गाथा ||९-१२|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१२|| 45*5*6*6 विनाऽन्यत्र निःस्पृह इतियावत् ,'न' नैवान्नम्-ओदनादि तदर्थ, पीयत इति 'कृत्यलुटोऽन्यत्रापी (पा०३-३-११३) तिवचनात्कर्मणि ल्युटि पानम्-आचाम्लादि तद्धेतुंबा-तन्निमित्तं वा,नापि 'निर्वाहणाय वा वस्त्राभ्यसैलादिना KI यापनार्थ सर्वत्रात्मन इति गम्यते, किमर्थं तर्हि ? इत्याह-'तेषां' याजकानां 'विमोक्षार्थ' यथा कथं नु नामामी विमुक्तिमामयुरिति प्रयोजनार्थम् 'इदं वक्ष्यमाणं वचनमब्रवीत्, किं तदित्याह-नवित्ति नैव जानासि वेदानां मुखं वेदमुख-यत्तेपु प्रधानं नापि यज्ञानां यन्मुखम्-उपायो नक्षत्राणां मुखं-प्रधानं यच, यच्च धर्माणां वा मुखम् उपायस्तद्,अनेन तस्य वेदयज्ञज्योतिधमानभिज्ञत्वमुक्तं । सम्प्रति पात्राविज्ञतामाह-'जे' इत्यादि, व्याख्यातप्रायमेव, 8 नवरम्, अथ जानासि ततो भणेत्याक्षेपाभिधानमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ एवं च तत्राक्षिसपति भगवति स किं कृतवानित्साह तस्सक्खेवपमुक्खं च, अचयंतो तहिं दिओ। सपरिसो पंजलीहो, पुच्छई तं महामुणिं ॥१३॥ वेयाणं च मुहं यूहि, बूहि जन्नाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं बूहि, बूहि धम्माण या मुहं ॥ १४ ॥ जे समत्था समु द्ध, परं अप्पाणमेव य । एयं मे संसयं सवं, साह! कहय पुच्छिओ ॥१५॥ III 'तखेति मुनेराक्षेपः-प्रश्नस्तस्य प्रमोक्षः-प्रतिवचनं तं 'चः' पूरणे 'अचयंतो'त्ति अशक्नुवन् दातुमिति गम्यते | तस्मिन्' इति यज्ञे 'द्विजः' ब्राह्मणः 'सपर्पत्' सभाऽन्वितः प्रकृतोऽञ्जलिः-उभयकरसंपुटात्मको येनासी प्राञ्जलि दीप * 5 अनुक्रम [९७१-९७४] % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1046~ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-1 / गाथा ||१३-१५|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) उत्तराध्य. यज्ञीया प्रत ध्यय. बृहद्भुत्तिः २५ सूत्रांक ॥५२॥ -१५|| ACASSACAM भूत्वा पृच्छति 'त'मिति प्रक्रान्तं महामुनिम् । कथं पृष्टवानित्याह-'वेयाण' इत्यादि, गतार्थमेव, नवरं 'ब्रूहि' व्यक्तमभिधेहि, पुनः पुनर्ग्रहीत्युच्चारणमत्यादरख्यापनार्थं 'एतद्' उक्तरूपं 'मे' मम संशेतेऽस्मिन् मन इति संशयस्तंसंशयविषयं-वेदमुखादि साधो ! कथय पृष्ट इत्युपसंहारवचनमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ इत्थं पृष्टो मुनिराह| अग्गिहुत्तमुहा वेया, जन्नही चेयसा मुहं । नक्खत्ताण मुहं चंदो, धम्माण कासवो मुहं ॥१६॥ जहा चंदं गहाKाइया, चिटुंते पंजलीउडा।बंदमाणा नर्मसंता,उत्तम मणहारिणो॥१७॥अजाणगा जन्नवाई, विजामाहणसंपया। मूढा सज्झायतवसा,भासच्छन्ना इवग्गिणो॥१८॥जोलोए बंभणो वुत्तो,अग्गी वा महिओ जहा सदा कुसलसंदिलु, तं वयं बूम माहणं ॥ १९ ॥ जो न सज्जइ आगंतुं, फव्वयंतो न सोअई । रमए अज्जबयणमि, तं वयं बूम। माहणं ॥ २०॥ जायरूवं जहामह, नितमलपावगं । रागद्दोसभयाईयं, तं वयं बूम माहणं ॥ २१॥ तवस्सियं किसं दंतं, अवचियमंससोणिअं। सुब्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं चूम माहणं ॥१॥] तसे पाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ॥ २२॥ कोहा वा जइवा हासा, लोहा वा जइवा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ॥२३॥ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जहवा पहुं। न गिण्हइ अदत्तं जो, तं वयं वूम माहर्ण ॥ २४ ॥ दिव्वमाणुस्सतेरिच्छ, जो न १ इतः प्राग अधिकेयं गाथा पुस्तकान्तरे दीप अनुक्रम [९७५-९७७] ५२४॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1047~ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २५], मूलं [--1 / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) 5 प्रत - सूत्रांक % ||१६-३३|| % सेवेइ मेहुणं । मणसा कायवकेणं, तं वयं चूम माहणं ॥ २५ ॥ जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पद वारिणा । एवं अलितं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥ २६ ।। अलोलुयं मुहाजीविं, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेहि, तं वयं बूम माहणं ॥२७॥ पसुबंधा सव्ववेया, जटुं च पावकम्मुणा । न तं तापंति दुस्सील, कम्माणि बलवंतिह ॥ २८ ॥ नवि मुंडिएण समणो, न ॐकारेण बंभणो । न मुणी रपणवासेणं, कुसचीरण न तावसो ॥ २९ ॥ समयाए समणो होइ, चंभचेरेण बभणो। नाणेण य मुणी होह, तवेर्ण होइ तावसो G/॥३०॥ कम्मुणा भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, मुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ ३१॥ एए पाउकरे बुद्धे. जेहिं होह सिणायओ। सब्बकम्मविणिम्मुकं तं वयं बूम माहणं ॥३२॥ एवं गुणसमाउत्ता, जे हवंति दिउत्तमा।ते समत्था उ उद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य ॥ ३३ ॥ | अग्गिहोचेत्यादिसूत्राण्यष्टादश प्रायः स्पष्टान्येव, नवरम् , अग्निहोत्रम्-अग्निकारिका, सा चेह-“कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सद्भावनाहुतिः । धर्मध्यानामिना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका ॥१॥” इत्यादिरूपा परिगृखते, तदेव मुख-प्रधानं येषां तेऽग्निहोत्रमुखा वेदाः, वेदानां हि दध्यादेवि नवनीतादि आरण्यकमेव प्रधानम्, उक्तं हि-"नवनीतं यथा दनश्चन्दनं मलयादिव । औषधिभ्योऽमृतं यद्वेदेवारण्यकं तथा ॥१॥" तत्र च दशप्रकार एव १ प्रत्यन्तरे गायेहाधिकेक्ष्यते % A दीप अनुक्रम [९७८-९९५] % , मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1048~ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं २५], मूलं [-1 / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५२५॥ ध्यय.२५ सूत्रांक ||१६ -३३|| धर्म उक्तः, तथा च तद्वचः-"सत्यं तपः सन्तोषः संयमश्चारित्रमार्जवं क्षमा धृतिः श्रद्धाऽहिंसेत्येतहशविधमिहा यज्ञीयाधामे"ति, तत्र च धामशब्देन धर्म एव विवक्षितः, एतदनुवायुक्तरूपमेवाग्निहोत्रमिति, तथा यज्ञः प्रस्तावाद्भावयज्ञस्तदर्थी 'वेयसि'त्ति वेदेन हेतुनाऽस्थति-अशुभानि कर्माणि क्षिपतीति निरुक्तविधिना वेदसो-यागः, उक्तं च| निर्घण्टे-"अध्वरो वेपो वेषो मखो वेदा वितथः" इत्यादि, तेषां मुखम्-उपायः, ते हि सत्येव यज्ञार्थिनि प्रवर्त्तन्त इति । नक्षत्राणां 'मुखं' प्रधानं चन्द्रः, तस्यैव तदधिपतित्वात् । धर्माणां 'काश्यपः' भगवानृषभदेवः 'मुखम्' उपायः कारणात्मकः, तस्यैवादितत्प्ररूपकत्वात् , तथा चारण्यकम्-"ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा, तेन भगवता ब्रह्मणा । खयमेव चीर्णानि प्रमाणि, यदा च तपसा प्राप्तः पदं यद् ब्रह्मकेवलं तदा च ब्रह्मर्षिणा प्रणीतानि, कानि पुनस्तानि ब्रमाणि?" इत्यादि,किञ्च-भवतां ब्रमाण्डपुराणमेव सर्गादिपुराणलक्षणोपेतत्वात्सकलपुराणज्येष्ठम् , उक्तश्च-"नवनीतं || | यथा दनचन्दनं मलयादिव । ब्रह्माण्ड वै पुराणेभ्यस्तथा प्राहुर्मनीषिणः ॥१॥" तद्वचस्त्विदम्-"इह हि इक्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण दशप्रकारो धर्मः खयमेव चीर्णः, केवलज्ञानलम्भाच महर्षिणो ये परमेष्ठिनो वीतरागाः सातका निर्ग्रन्था नैष्ठिकास्तेषां प्रवर्तित आख्यातः प्रणीतस्त्रेतायामादा"विस्यादि, ॥५२५॥ काश्यपस्यैव माहात्म्यख्यापनतो धर्ममुखत्वं समर्थयितुमाह-यथा चन्द्र ग्रहादिकाः, आदिशब्दान्नक्षत्रादिपरिग्रहः, 'पंजलीउड'त्ति प्राग्वत्कृतप्राजलयस्तु 'वन्दमानाः' स्तुवन्तो 'नमस्सन्तो' नमस्कुर्वन्तः 'उत्तम प्रधानं 'मनोहारिणः'। दीप अनुक्रम [९७८-९९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1049~ Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६ -३३|| दीप अनुक्रम [९७८ -९९५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१६-३३|| अध्ययनं [२५], Education intemational अतिविनीततया प्रभुचित्ताक्षेपकारिणस्तिष्ठन्तीति सम्बन्धः, तथैनमपि भगवन्तं देवेन्द्रप्रमुखाः समस्तसुरासुरमनुजसमूहा इत्युपस्कारः, पठ्यते च जहा चंदे गहाईए, चिड़ंती पंजलीउडा । णमंसमाणा वंदंती, उद्धत्तमणहारिणो ॥१॥" चि, अत्र यथा 'चन्द्रे' चन्द्रविषये ग्रहादिकास्तिष्ठन्तीति (न्ति) प्राञ्जलिपुटाः कोऽर्थः १ -- तदायत्यै (ताए) वासते, अन्यच - नमस्यन्तः प्रक्रमात्तमेव 'वन्दन्ते' स्तुवन्ति, अनेन तेषां भक्तियुक्तितामाह, 'वंदंतीउद्धत्त'त्ति सन्धिप्रयोगेण | इतिशब्दान्तर्भावादितीत्येवं प्रक्रमात्काश्यपं तिष्ठन्ति प्राञ्जलिपुटास्तं च नमस्यन्तो वन्दन्ते, के इत्याह- 'उद्धत्तमणहा|रिणोति औद्धत्यम् - अहङ्कारस्तत्प्रधानं मन औद्धत्यमनस्तद्धरणशीलाः औद्धत्यमनोहारिणः - अत्यन्तशान्तचित्तवृत्तयो, यतय इत्यर्थः, पूर्वापरनिपातस्यान्त्रातन्त्रत्वेन वा मनऔद्धत्यहारिणः, औद्धत्यग्रहणं चास्यैव सकलदोषमूलत्वात् पठन्ति च - 'उद्धत्तमणगारिणो 'ति अत्र चोद्धर्तुम् - उत्क्षेमं भवपङ्कमनमात्मानमिति गम्यते, अगारिणोगृहिणस्तद्विपरीता अनगारिणो यतयः, क्रियाकारकयोजना प्राग्वत्, इह च धर्मार्थिनामेव अभ्यर्हितत्वात् काश्यपो धर्ममुखमित्यभिप्रायः । अनेन प्रश्नचतुष्टयप्रतिवचनमुक्तं, सम्प्रति पञ्चमं प्रश्नमधिकृत्याह - 'अजाणग' ति अज्ञा न तत्त्ववेदिन इत्युक्तं भवति, के ते ? - यज्ञवादिनो ये भवतः पात्रत्वेनाभिमताः, कासामित्याह - 'विजामाहणसंपय'त्ति सूत्रत्वात्सुयत्ययः 'विद्यात्राह्मणसम्पद' तत्र च विद्यते ज्ञायत आभिस्तत्त्वमिति विद्या- आरण्यक ब्रह्माण्डपुराणात्मिकास्ता एव ब्राह्मणसम्पदो विद्यात्राह्मणसम्पदः, तात्त्विकत्राह्मणानां हि निष्किञ्चनत्वेन विद्या एव सम्पदः, तद्वि For Final P निर्युक्तिः [४७०...] ~1050~ wwwjanbrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत यज्ञीयाध्यय. २५ सूत्रांक ||१६ -३३|| उत्तराध्य. ज्ञत्वे च कथमेते बृहदारण्यकायुक्तदशविधधर्मवेदिनो यागमेवं कुर्युः ?, तथा 'मूढाः' मोहवन्तः 'सज्झायत- बृहद्वृत्तिः वस्स'त्ति सुव्यत्ययात्खाध्यायतपःसु तत्त्वतस्तत्खरूपापरिज्ञानाद, अत एव 'भासच्छन्ना इवऽग्गिणों'त्ति इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाश्रमच्छन्ना अमय इव,ते हि बहिरुपशमभाज आभान्ति, अथ चान्तः कपायवत्तया ज्वलिताः, पठ्यते च॥५२६॥ 'गूढा सज्झायतबस्स'त्ति तत्र च 'गूढाः' बहिः संवृतिमन्तः, केन हेतुना?-स्वाध्यायतपसा' वेदाध्ययनोपवासादिना ऽन्तश्च भस्मच्छन्नाग्नितुल्याः, एवं च न तत्त्वतो भवदभिमतत्राझणानां ब्राह्मण्यं, तदभावाचात्मनः परस्य चोद्धरणेन पात्रत्वं दुरापास्तमेवेति भावः । कस्तर्हि भवदभिप्रायेण ब्राह्मणो ? यः पात्रमित्याह-'यः' इत्यनिर्दिष्टखरूपः 'लोके' जगति ब्राह्मणः 'उक्तः' प्रतिपादितः कुशलैरिति गम्यते, 'अग्गी वा महितो जह'त्ति वेति पूरणे यथेत्यौपम्ये भिन्नक्रमश्च, ततो यथाऽग्निवेत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्तथा 'महितः पूजितः सन् 'सदा' सर्यकालम् , उपसंहारमाह कुशलैः-तत्वाभिज्ञैः संदिष्ट:-कथितः कुशलसन्दिष्टस्तं 'तम्' इत्युक्तरूपं वयं चूमो ब्राह्मणं, यदेव हि लोके विज्ञोदापदिष्टं तदेव वस्त्वभ्युपगमाहे मिति भावः । इत उत्तरसूत्रोदशोऽसौ कुशलसन्दिष्टस्तत्खरूपमेव कचित्कथञ्चिदनुव दन् खाभिमतं ब्रामणमाह-यो न खजनेनाभिष्वहं करोति 'आगन्तुं प्राप्तुं खजनादिस्थानमिति गम्यते, आगतो वा, ततः 'प्रत्रजन्' स्थानान्तरं गच्छन्न शोचते, यथा-कथमहममुना विना भविष्यामीति, तत एव रमते आर्याणांतीर्थकृतां वचनमार्यवचनम्-आगमस्तस्मिन् , किमुक्तं भवति -सर्वत्र निःस्पृहत्वेनागमार्थानुष्ठानपरतया तत्र रति दीप अनुक्रम [९७८-९९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1051~ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-1 / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत सूत्रांक ऊ-2262964 5 ||१६-३३|| मान् भवति, यद्वा यो न सजत्यागन्तुं प्रव्रज्यापर्यायागार्हस्थ्यपर्यायमिति गम्यते, तथा 'प्रव्रजन्' प्रत्रज्यां गृहन् न शोचते-न खिद्यते, किन्त्विदमेव मनुजजन्मफलमिति मन्यमानः स रभसैवाभिनिष्क्रामति. शेषं तथैव, व्याख्या-1 द्वयेऽपि च निःस्पृहतैवोच्यते । तथा 'जातरूपं' वर्ण ततो जातरूपमिव जातरूपं, यः कीदृशः सन् ?-महामह'ति मकारस्थालाक्षणिकत्वान्महानर्थः-प्रयोजनं मुक्तिरूपमस्येति महार्थों, जातरूपस्य त्वर्थो विषघातादिः, तथा निद्धंतमलपावकं' निर्मातं-भस्मीकृतं ततो नितिमिष निर्मातं मल इवात्मनो विशुद्धखरूपघातितया पापमेव पापकं येनासौ निर्मातमलपापको, जातरूपं तु प्राकृतत्वात् पावकेन-अमिना निर्मातो मलः-किट्टात्मकोऽस्येति पावकनिर्मातमलम् , अन्यच-रागश्च-प्रतिबन्धात्मको द्वेषश्च-अप्रीतिरूपो भयं च-इहलोकभयादि रागद्वेषभयानि तान्यतीतो-निष्कान्तो रागद्वेषभयातीतो रागादिरहित इत्यर्थः, सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत्, पठ्यते च-'जायरूवं जहामटुंति 'यथे' त्यौपम्ये आमृष्टं-तेजप्रकर्षारोपणाय मनःशिलादिना समन्तात्परामृष्टम् , अनेन है जातरूपस्य वायो गुण उक्तः, पावकनितिमलमिति चान्तरः, ततो जातरूपवद्वाह्यान्तरगुणान्वितः, अत एव । रागाद्यतीतश्च यस्तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् । किञ्च-त्रसप्राणिनो विज्ञाय 'सङ्ग्रहेण' सङ्केपेण चशब्दाद्विस्तरेण च, तथा 'स्थावरान्' पृथिव्यादीन् , यदिवा संगृह्यत इति सङ्ग्रहो-वर्याकल्पादिस्तेन हेतुना, जीवरक्षार्थत्वात्तस्य, च-14 शब्दो भिन्नक्रमः, तत एव स्थावरांश्च, पठ्यते च-'संगहेण सथावरे'त्ति 'सस्थावरान् स्थावरसहितान् यो 'न हिनस्ति' दीप अनुक्रम [९७८-९९५] ENGALACK मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1052~ Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६ -३३|| दीप अनुक्रम [९७८ -९९५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५२७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१६-३३|| अध्ययनं [२५], Education infamational न व्यपरोपयति 'एतान्' अनन्तरमुक्तरूपान् 'तुः' पूरणे, पठ्यते च- 'विविधेन' मनोवाक्कायरूपतया योगेनेति गम्यते, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणं, तथा चारण्यकेऽप्युक्तम्- "यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु दारुणम् । कर्मणा मनसा वाचा, ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १ ॥” तथा क्रोधादिभ्यो मृषा न वदति यस्तु तं वयं ब्रूमो त्राह्मणम्, इह च मानस्य क्रोधो | मायायाश्च लोभ उपलक्षणं, प्रायस्तत्सहचरितत्वात्तयोः तथा च तत्राप्यवाचि - "यदा सर्वानृतं त्यक्तं मिथ्याभाषा विवर्जिता । अनवद्यं च भाषेत, ब्रहा सम्पद्यते तदा ॥ १ ॥ किञ्च - "अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्राद्धि, सत्यमेव विशिष्यते ॥ १ ॥” इति 'चित्तवत्' द्विपदादि 'अचित्तं च' खर्णादि 'अल्पं वा' सङ्खया प्रमाणेन च स्तोकं यदिवा 'बहु' ताभ्यामेव प्रचुरं न गृह्णाति 'अदत्तम्' अनिसृष्टं यस्तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणं, तथा च तत्राप्युक्तम्- "परद्रव्यं यदा रड्डा, आकुले अथवा रहे । धर्मकामो न गृह्णाति, प्रझ सम्पद्यते तदा ॥ १ ॥" अन्यचदिव्यविषयत्वाद्दिव्यं मानुषविषयत्वान्मानुषं तिर्यक्षु भवं तैरश्वमेषां समाहारो दिव्यमानुषतैरथं यो न सेवते मैथुनं 'मनसा' चित्तेन कायश्च शरीरं वाक्यं च वचनं कायवाक्यं तेन तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणं, तथा च तत्राप्युक्तम्- "देवमानुषतिर्यक्षु, मैथुनं वर्जयेद्यदा । कामरागविरक्तश्च ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ १ ॥” । अपि च-यथा 'पद्म' कमलं जले उपलक्षणत्वाज्जलमध्ये 'जातम्' उत्पन्नं तत्परित्यागत उपरि व्यवस्थानतः 'नोपलिप्यते' न लिप्यते 'वारिणा' जलेन, 'एव' मिति पद्मवत् 'अलित्त'त्ति अलिप्तः-अक्षिष्टः काम्यमानत्वात् कामैः - मनोज्ञैः शब्दादिभिरावाल्यात् Forest Use Only निर्युक्तिः [४७०...] ~1053~ यज्ञीया ध्यय. २५ ॥५२७॥ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २५], मूलं [-1 / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१६-३३|| सातैरेव वृद्धिं नीयमानतया तन्मध्योत्पन्नोऽपि यस्तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणं, तथा च तत्राप्यभिधायि-"यदा सर्व परित्यज्य, निस्सको निष्परिग्रहः । निश्चिन्तश्च चरेद्धर्म, अब सम्पद्यते तदा ॥१॥" इति । इत्थं मूलगुणयोगाचात्त्विकं ब्राह्मणमभिधायोत्तरगुणयोगतस्तमेवाह-(ग्रन्थानम् १३०००) 'अलोलुपम्' आहारादिष्यलम्पर्ट 'मुहाजीवित्ति सुब्व्यत्ययात् 'मुधाजीविनम्' अज्ञातोञ्छमात्रवृत्ति, पठ्यते च-'मुहाजीवित्ति अनगारमकिञ्चनं प्राग्वत् 'असंसक्तम्' असंबद्धं, कैः-गृहस्थैः, तृतीयार्थे सप्तमी विषयसप्तमी वा, अनेन काका पिण्डविशुद्धिरूपोत्तरगुणयुक्तत्वमुक्तं, 'तम्' उक्तगुणयुक्तमप्येवंविधं सन्तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणं, कचित् पठ्यते च-'जहित्ता पुवसंजोगं, पाइसंगे य बंधवे । जो न सजइ भोएहि, तं वयं बूम बंभणं ॥' अत्र 'पूर्वसंयोग' मात्रादिसम्बन्धं 'ज्ञातिसंयोगान्' खस्रादिसम्बन्धान, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'बान्धवांश्च' भ्रात्रादीन् , शेषं स्पष्टम् , अनेन चातिनिःस्पृहताभिधानेनोत्तरगुणा अप्याक्षिप्ता भवन्ति । स्यादेतद्-वेदाध्ययनं यजनं च भवात्राय कमिति तद्योगादेव पात्रभूतो ब्राह्मणो न तु यथा त्वयोक्त इत्याशल्याह-पशूनां छागानां बन्धो-विनाशाय नियमनं हेतुभिस्तेऽमी पशुवधाः 'वेतं छागमालभेत वायव्यां। दिशि भूतिकाम' इत्यादिवाक्योपलक्षिताः, पाठान्तरतः पशवो बद्धा यैस्ते आहिताग्न्यादेराकृतिगणत्वात् क्तान्तस्य परनिपाते पशुवद्धाः, न तु ये.'आत्मा वारे ज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यादिवाक्योपलक्षिताः सर्ववेदाः | ऋग्वेदादयः 'जट्ट'ति इष्टं यजनं 'वा' समुच्चये 'पापकर्मणा' पापहेतुभूतपशुबन्धाद्यनुष्ठानेन तु हरिकेशीयाध्ययनोक्त दीप अनुक्रम [९७८-९९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1054~ Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २५], मूलं [-1 / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) सत्तराध्य. प्रत यज्ञीयाध्यय, २५ बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ॥५२८॥ ||१६-३३|| विधिनेतिभावः, किमित्याह-'न' नैव 'त'मिति प्रक्रमाद्वेदाध्येतारं यशारं वा 'त्रायन्ते' रक्षन्ति भवादिति गम्यते, किंविशिष्टं ?–'दुःशीलं' ताभ्यामेव हिंसादिप्रवर्त्तनेन दुराचारं, किमिति ?-यतः 'कर्माणि' ज्ञानावरणादीनि 'बल-1 चन्ति' दुर्गतिनयनं प्रति समर्थानि 'इहेति भवदवगमविषये वेदाध्ययने यजने च भवन्तीति गम्यते, पशुबन्धादिप्रवर्तनेन तयोस्तद्बलायकत्वादिति भावः, अनेन दुर्गतिहेतुत्वात्स्वर्गहेतुत्वमप्यनयोः प्रत्युक्तम्, उक्तं हि-"यूपं छित्त्वा पशुं हत्वा, कृत्या रुधिरकर्दमम् । यद्येवं प्राप्यते स्वर्गो, नरके केन गम्यते ? ॥१॥" अतो नैतद्योगाद्राह्मणः पात्रभूतो भवति, किन्त्वनन्तराभिहितगुण एवेति भावः । अन्यच्च-नेति निषेधे 'अपिः' पूरणे 'मुण्डितेन' केशापनयनात्मकेन समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना श्रमणः-निर्ग्रन्थः, 'न' नैव ॐकारो (रेणो)पलक्षणत्वाद् 'ॐभूर्भुवःस्ख'रित्याधुचारणरूपेण ब्राह्मणः, तथा न मुनिररण्यवासेन, कुशो-दर्भविशेषस्तन्मयं चीवरं कुशचीवरं, वल्कलोपलक्षणमेतत्, तेन तापसः, अनूदितं चैतद्वाचकैः-"मुण्डनात् श्रमणो नैच, संस्काराद्राह्मणो न वा । मुनि रण्यवासित्वाद्वल्कलान्न च तापसो॥१॥" भवतीति सर्वत्र शेषः । कथममी तर्हि संभवन्तीत्याह-समतया' रागद्वेषाभावरूपया श्रमणो भवति, ब्रह्मणवरणं ब्रह्मचर्य, प्रम च द्विधा, यत उक्तम्-"वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, शब्दब्रह्मपरं च यत् ।। शब्दब्रह्मणि निष्णातः, परं ब्रह्माधिगच्छति ॥१॥" एतानि च पराणि ब्रह्माणि बरिष्ठानि यानि प्रागहिंसादीन्युक्तानीति, एतद्रूपमेयेह ब्रह्मोच्यते, तेन ब्राह्मणो भवति, 'ज्ञानेन' हिताहितावगमरूपेण मुनिर्भवति 'तपसा' दीप अनुक्रम [९७८-९९५] ५२८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1055~ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||१६-३३|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) ॐ प्रत सूत्रांक ||१६-३३|| बाबाभ्यन्तरभेदभिन्नेन भवति तापसः, सर्वत्राभिधानान्यथाऽनुपपत्तिरिह हेतुः, ननु चान्वर्थवत्वेऽभिधानस्यैष हेतुः, तच्चान्यथाऽपि डित्यादिवत्स्यादत आह-'कर्मणा' क्रियया ब्राह्मणो भवति, उक्तं हि-"क्षमा दानं दमो ध्यानं, सत्सं शौचं धृति (दया घू)णा। ज्ञानविज्ञानमास्तिक्यमेतद्रामणलक्षणम् ॥१॥" तथा 'कर्मणा' क्षतत्राणलक्षणेन भवति क्षत्रियः, वैश्यः 'कर्मणा' कृषिपाशुपाल्यादिना भवति, शूद्रो भवति तु 'कर्मणा' शोचनादिहेतुप्रैपादिसंपादनरूपेण, कर्माभाये हि त्रासणादिव्यपदेशा नाऽऽसन्नेवेति, ब्राह्मणप्रक्रमेऽपि यच्छेषाभिधानं तन्मा भूनिरनुक्रोशतेति ब्यासिदर्शनार्थ, किच-भवन्मतेऽप्युक्तम्-"एकवर्णमिदं सर्व, पूर्वमासीयुधिष्ठिर! । क्रियाकर्मविभागेन, चातये | व्यवस्थितम् ॥१॥" किमिदं खमनीषिकयवोच्यते इत्याह-'एतान्' अनन्तरोक्तानहिंसाधर्थान् 'प्रादुरकात्' प्रकटितवान् 'बुद्धः' अवगततत्त्वः, पठ्यते च-'एए पाउकरा धम्मा' 'एते' उक्तरूपाः 'प्रादुष्कराः' नेमल्यकारि-18 तयाऽऽत्मनः प्रकाशहेतवः 'धर्माः' अहिंसादयो, यैर्भवति 'स्नातकः केवली सर्वकर्मभिर्विनिर्मुक्तः, इह च प्रत्यास नमुक्तितया सर्वकर्मविनिर्मुक्तः,सुब्ब्यत्ययात्प्रथमार्थे द्वितीया,'त'मित्यभिहितगुणं तत्त्वतः स्नातकं वा वयं ब्रूमो ब्रासठाणम् । सम्प्रत्युपसंहर्जुमाह-एवम्' उक्तप्रकारेण गुणैः-अहिंसादिभिः समायुक्ताः-समन्विता गुणसमायुक्ता ये भवन्ति | 'द्विजोत्तमाः' ब्रामणप्रधानास्ते 'समर्थाः' शक्ताः 'तुः पूरणे उद्धर्नु संसारादिति गम्यते अर्थान्मुक्तिपदे व्यवस्थापयितुं 'परम्' आत्मव्यतिरिक्तमात्मानमेव वेत्यष्टादशसूत्रगर्भार्थः ॥ अभिधाय चेदमवस्थितो भगवान् , ततश्च दीप अनुक्रम [९७८-९९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1056~ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-1 / गाथा ||३४-३७|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) उत्तराध्य. यज्ञीया प्रत बृहद्धत्तिः ध्यय.२५ सूत्रांक ||३४ ॥५२९॥ -३७ एवं तु संसए छिन्ने, विजयघोसे य बंभणे । समुदाय तओ तंतु, जयघोसं महामुणिं ॥ ३४॥ तुढे य ४ विजयघोसे, इणमुद्दाहु कयंजली। माहणत्तं जहाभूयं, सुहु मे उवदंसियं ॥ ३५ ॥ तुम्भे जइया जन्नाणं, तुन्भे वेयविदो विऊ । जोइसंगविऊ तुम्भे, तुम्भे धम्माण पारगा ।। ३६ ।। तुम्भे समत्था उद्धर्नु, परं अप्पाणमेव य। तमणुग्गहं करेहऽम्हं, भिक्खू णं भिक्खुउत्तमा ॥ ३७॥ सूत्रचतुष्टयं प्रतीतार्थम् , 'एवम्' उक्तप्रकारेण 'तुः' वाक्यान्तरोपन्यासे 'संशये प्रागभिहितरूपे 'छिन्ने' अपनीते 'विजयघोषः' विजयघोषनामा 'चः' पूरणे 'बामणः' माहणः पठ्यते च-'माहने 'समुदाय'त्ति आपत्वात् 'समादाय' सम्यग् गृहीत्वाऽवधार्येति योऽर्थः 'तयं ति तकां प्रक्रमाजयघोषवाचं, 'तं तु'त्ति तं च जयघोषं महामुनि, यथेष मम भ्राता एष एव च महामुनिरिति, किं कृतवानित्याह-'तुडे' इत्यादि, केचित्त्वनन्तरसूत्रे तृतीयपादमेवं पठन्ति-संजाणतो तओ तं तु' अत्र च 'संजानन्' स एवायं मम सौदर्य इति प्रत्यभिजानन् , युक्तं चैतद्, | यतो वक्ष्यति सूत्रस्पर्शिकनियुक्ती-'संजाणंतो भणई जयघोसं जायगो विजय घोसो ति, तथा 'तुष्टः' परितोषितः 'चः' पूरणे विजयघोषः 'इदं वक्ष्यमाणम् 'उदाहुत्ति 'उदाह' ब्रूते, तत्कालापेक्षया वर्तमानता, कृताञ्जलिः प्राग्वत्, यदाह तद्दर्शयति-ब्राह्मणत्वं 'यथाभूतं' यथाऽवस्थितं सु इति-शोभनं यथा भवत्येवं तिष्ठन्तीति सुष्टु, औणादिका कुप्रत्ययः, 'मे' मम 'उपदर्शितम्' इति प्रकटितम् । किञ्च-यूयं 'जइयत्ति यष्टारो यज्ञाना, यूयं 'वेदविदः' वेदनाः दीप अनुक्रम [९९६-९९९] ५२९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1057~ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २५], मूलं [-1 / गाथा ||३४-३७|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३४ -३७ विदु'त्ति विद्वांसः, यद्वा हे 'विदः' यथाऽवस्थितवस्तुवेदिनो!, ज्योतिषाविदो यूयं, यूयं 'धर्मा' सदाचाराणां पारगाः, भवतामेव तत्त्ववेत्तृत्वेन सर्वशास्त्रवारिधिपारदर्शित्वान्निहितसदाचारत्वाचेत्यभिप्रायः, तथा यूयं समर्था उद्धर्तु परमात्मानमेव च, युष्माकमेव तात्त्विकगुणसमन्वितत्वात् , 'तत् तस्माद् 'अनुग्रहं भिक्षाग्रहणेनोपकारं 'कुरुत' विधत्तास्माकं 'भिक्षो! तपखिन् ! णमिति बाक्यालङ्कारे 'भिक्षुत्तम' यतिप्रधान !, यदिवा भिषणामुत्त|मेति सम्बन्धः 'भिक्षुति भिक्षो! इति सूत्रचतुष्टयार्थः ।। एवं ब्राह्मणेनोक्ते मुनिराह॥ न कजं मज्झ भिक्खेणं, खिप्पं निक्खमसू दिया। मां भमिहिसि भयावत्ते, घोरे संसारसागरे ॥ ३८ ॥ उवलेवो होह भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विष्पमुच्चई ॥ ३९ ॥ उल्लो सुक्को य दो छुढा, गोलया मट्टियामया । दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽथ लग्गई ॥४०॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुकगोलए ॥४१॥ 'ने'स्यादि सूत्रचतुष्टयम् , 'न कार्य' न प्रयोजनं मम 'भिक्खेणं'ति भिक्षया समुदानेन, किन्तु 'क्षिप्रं' शीघ्रं 'निष्काम' प्रव्रज 'द्विज !' ब्राह्मण!, भवन्निष्क्रमणेनैव मम कार्यमिति भावः, किमेवमुपदिश्यते इत्याह-'मा भ्रमी' मा पर्यटी, आषत्वाच सूत्रे लुटः प्रयोगः, यदिवा मा भ्रमीष्यसीत्यपि न दुष्ट, यतो माडि लुङक्तोऽयं तु मा, भयानिइहलोकभयादीनि आवर्ता इव आवर्ता यस्मिन्नसौ भयावतस्तत्र 'घोरे' रौद्रे, पठ्यते च-भवावचे दीहे'त्ति, अत्र च दीप अनुक्रम [९९६-९९९] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1058~ Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-1 / गाथा ||३८-४१|| नियुक्ति: [४७०...] (४३) यज्ञीया प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ||३८-४१|| भवा-मनुष्यभवादयः, अन्यत्प्राग्वत् , 'दीर्घ आयते 'संसारसागरें भवसमुद्रे, अनेन च विपर्ययदोष उक्तः । एत- देव समर्थयितुमाह-'उपलेपः' कर्मोपचयरूपो भवति 'भोगेसु' शब्दादिषु भुज्यमानेष्विति गम्यते, भोगी-शब्दादिभोगवान्न तथाऽभोगी 'न' नैव 'उपलिप्यते' कर्मणोपदिश्यते, ततश्च भोगी भ्रमति संसारे अभोगी विप्रमुच्यते, मुक्तो भवतीत्यर्थः, इह च गृहस्थभावे भोगित्वं निष्क्रमणे तु तदभाव इति गृहिभावस्य सदोषत्वान्निष्क्रमणमेव युक्तमित्युक्तं भवति । यथा भोगेषूपलेपस्तदभावे चान्यथात्वं तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-'उल्लो'त्ति आर्द्रः शुष्कश्चअनार्दो द्वावुभौ 'छूढ'त्ति क्षिप्तौ 'गोलको पिण्डको मृत्तिकामयौ, द्वावपि 'आपतितो' प्राप्तौ 'कुड्ये भित्तौ, ततः किमित्याह-य आर्द्रः सो 'अत्रे'सनयोर्मध्ये 'लगति' रिष्यति प्रक्रमाकुड्ये । दान्तिकयोजनामाह-एवं लगन्ति प्रस्तावात्कर्मणा 'दुर्मेधसः' दुर्बुद्धयो ये नराः 'कामलालसाः विषयलम्पटाः, विरक्तास्तुशब्दस्य पुनरर्थत्वाकामभोगपराङ्मुखाः पुनर्न लगन्ति, उत्तरत्र तुशब्दस्य भिन्नक्रमत्वेनैवकारार्थतया च नैव कर्मणा संश्लिष्यन्ते यथा शुष्को गोलकः, इह चान्वयानन्तरं व्यतिरेकः सुखेनैव बुध्यत इति तमुक्त्वा प्रथममुत्क्षिप्तस्यापि दृष्टान्तस्य पश्चाद|| भिधानमिति सूत्रचतुष्टयार्थः । यदित्यं प्रज्ञापितोऽसौ कृतवांस्तदाह एवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अंतिए । अणगारस्स निक्खंतो, धम्म सुचा अणुत्तरं ॥ ४२ ॥ 'एवम्' उक्तप्रकारेण स विजयघोषो ब्राह्मणो जयघोषस्य 'अन्तिके' समीपे 'अनगारस्य' यतेः 'निष्क्रान्तः' प्रत्र दीप अनुक्रम [१०००-१००३] SAKAL ५३०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1059~ Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [४७१-४७९] (४३) प्रत सूत्रांक ||४३|| जितः 'धर्मम्' अहिंसादि श्रुत्वा' आकर्ण्य 'अनुत्तर' प्रधान, पठ्यते च-सोचा ण केवल ति, तत्र च 'केवल || विशुद्धमिति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्ननयोर्निष्क्रमणफलमाहखवित्ता पुवकम्माई, संजमेण तवेण य । जयघोसविजयघोसा, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ॥४३॥ तिबेमि ॥ ॥जन्नइज ॥२५॥ सुगममेव ॥ सकलाध्ययनतात्पर्यार्थमुपदर्शयन् सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमाह नियुक्तिकृत्अह एगराइआए पडिमाए सो मुणी विहरमाणो। वसुहं दूइजतो पत्तो वाणारसिं नयरिं ॥ ४७१ ॥ सो उज्जाण निसन्नो मासक्खमणेण खेइयसरीरो। भिक्खट्ट बंभणिजे उवढिओ जन्नवाडंमि॥ ४७२॥ अह भणई जयघोसं कीस तुम आगओ ? इहं भंते!।नहु ते दाहामि इओ जायाहि हु अन्नओ भिक्खं ॥ सो एवं पडिसिद्धो जन्नवाडंमि जायगेण तहिं । परमत्यदिटुसारो नेव य तुट्रो नवि अ रुट्टो ॥४७॥ अह भणई अणगारोजं जायग! आउसो निसामेह । वयचरिय भिक्खचरिआ दिट्ठा साहूण चरणमि ॥3 रजाणि उ अवहाया रायसिरिंअ(त)णुचरंति भिक्खाए।समणस्सउ मुक्कस्सा भिक्खा चरणं च करणं च ॥ संजाणंतो भणई जयघोसं जायगो विजयघोसो। अस्थि उ पभूअमन्नं भुंजउ भयवं! पगामाए ॥४७७॥ 为公众公众%*%*%AF% दीप अनुक्रम [१००६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1060~ Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [४७१-४७९] (४३) प्रत सूत्रांक ॥५३॥ ||४३|| उत्तराध्य.भिक्खेण न मे कर्ज मज्झ करणं तु धम्मचरणेणं । पडिवज धम्मचरणं मा संसारंमि हिंडिहिसि ४७८|| यज्ञीयाबृहद्धत्तिः सो समणो पवइओ धम्म सोऊण तस्स समणस्स। जयघोसविजयघोसा सिद्धि गया खीणसंसारा ४७९/४ ध्यय.२५ | गाथानवकं व्याख्यातप्रायमेव, नवरम् , 'एगराइयाए'त्ति एकरात्रिक्या 'प्रतिमया' तथाविधाभिग्रहविशेषरूपया न तु द्वादश्या भिक्षुप्रतिमया, तत्र मासक्षपणासम्भवात् , तथा च तत्खरूपम्-“एगराईयं भिक्खुपडिम पडिवण्णस्स अणगारस्स णिचं पोसटकाए (यस्स) जाव अहियासे० कप्पति से अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं पहिया गामस्स जाव ४॥ रायहाणीए वा ईसिं दोवि पाए साहटु बग्धारियपाणिस्स एगपोग्गलदिहिस्स अणिमिसनयणस्स ईसिपम्भारगएणं काएण अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सविंदिएहिं गुत्तेहिं ठाणं ठाइत्तए" इत्यादि, तत्राष्टममेवोक्तमत्र तु वक्ष्यति-'मासक्षपणेन खेदितशरीर' इति । 'विहरन्' अप्रतिबद्धविहारमाचरन् , अयं च भावत एकस्थानस्थितस्यापि संभवत्यत: उच्यते-'वसुधां' पृथ्वी 'इजंतो'त्ति परिभ्रमन् तथा 'उद्याननिषण्णः' उद्यानाश्रितः सन् मासक्षपणेन खेदितंश्रममानीतं शरीरं न पुनर्मनोऽस्येति मासक्षपणखेदितशरीरः 'बंभणिज्जेत्ति ब्राह्मणानामिज्या-पूजा यस्मिन् स | १ एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिभा प्रतिपन्नस्यानगारस्य नित्यं व्युत्सृष्टकायस्थ यावद्ध्यासयतः कल्पते तस्याष्टमेन भक्तनापानकेन बहिर्मामात् । ॥५३१॥ यावद्राजधान्या वा ईषत् द्वावपि पादौ सहत्य (वर्नुलाकारेण भूमावलग्नतया वा स्थापयित्वा) लम्बमानपाणेरेकपुद्गलदृष्टिकस्यानिमिषनयनस्येपरपारभारगतेन कायेन यथाप्रणिहितैः गात्रैः सर्वैरिन्द्रिगुप्तैः स्थानं स्थातुं (कायोत्सर्ग विधातुम्) -2 -2 दीप अनुक्रम [१००६] wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1061~ Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२५], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [४७१-४७९] (४३) प्रत सूत्रांक ||४३|| ब्राह्मणेज्यस्तस्मिन् ‘इओ'त्ति 'इतः' ब्राह्मणार्थमुपस्कृतादाहारात् 'जायाहित्ति याचख, 'हुः' अवधारणे भिन्नक्रमच.12 ततश्च 'अन्यत एवं' अस्पयतिरिक्तात् भिक्षा याचखेति सम्बन्धः । 'परमहदिवसारो'ति प्राकृतत्वाद् दृष्टः-उप-13/ लब्धः परमार्थाय-मोक्षाय सारः-प्रस्तावात्क्षान्त्यादिरूपः प्रधानोपायः परमार्थानां वा ज्ञानादीनां सारः-प्रधानले येनासौ.दृष्टपरमार्थसार, त्वं याजक! आउसो ति आयुष्मन् ! कोमलामन्त्रणमेततू, 'वयचरिय'त्ति इशब्दस्य 2 गम्यमानत्वाद् प्रतचर्येव भिक्षायै चयों-पर्यटन भिक्षाचयो दृष्टा' विहितत्वेनोपलब्धातीर्थंकरादिभिरिति गम्यते,साधूनां - चर्यत इति चरणम्-आचारस्तस्मिन् । किञ्च-'राज्यानि' सप्ताहानि 'तुः समुचये भिन्नक्रमश्च 'अपहाय' त्यक्त्वा का'राज्यश्रियं तु छत्रचामराद्यलकाररूपां किमित्याह-'अनुचरन्ति' पर्यटन्ति साधव इति प्रक्रमः 'भिक्षायै भिक्षार्थ, किमि-15 ति-श्रमणस तुरिति यस्मात् 'मुक्तस्य'निःसङ्गस्य,अकारोऽलाक्षणिकः,भिक्षेत्युपलक्षणत्वाद्भिक्षाचर्या 'चरणं चत्रतादि चरणहेतुत्वेन 'करणं च' पिण्डविशुद्ध्यादिहेतुत्वेन, ततो विहितानुष्ठानरूपत्वाद्राजर्षिभिरपि सेवितत्वाच भिक्षा चयोयास्त द्विधानामहमिहायातो, भवास्तु ददातु मा वा भिक्षामिति भावः । 'संजानन्' प्रत्यभिजानानः 'पकामा-13 Cीए'त्ति आपत्वात्प्रकामम्-अत्यर्थ । 'धर्मचरणेन' धर्मानुष्ठानेन भवेति गम्यते । 'सः' इति विजयघोषः सह मनसा-18 चित्तेन वर्तत इति समनाः, किमुक्तं भवति ?-भावतो न तु बहिवृत्त्यैव, तस्य श्रामणस्यान्तिक इति गम्यत इति नियुक्तिगाथानवकार्थः ॥ इति' परिसमाप्ती, अवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वदेव ॥ [इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां पञ्चविंश्चमध्ययनं समाप्तमिति ॥ २५ ॥ दीप अनुक्रम [१००६] Cisc JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं- २५ परिसमाप्तं ~ 1062~ Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-] / गाथा ||४३...|| नियुक्ति: [४८०-४८५] (४३) सामाचा उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५३२॥ प्रत सूत्रांक ||४३|| अथ षड्विंशतितममध्ययनम् । व्याख्यातं यज्ञीयाभिधानं पञ्चविंशमध्ययनम् , अधुना पड्विंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने ब्रह्मगुणा उक्ताः, तद्वांश्च यतिरेव भवति, तेन चावश्यं सामाचारी विधेयेति साऽस्मिन्नभिधीयते इत्यभिसम्बधागतस्यास्योपक्रमादि प्राग्वत्प्ररूप्यं यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेप सामाचारीति नाम, अतः साम आचार इति च निक्षेप्तव्यमित्यभिप्रायेणाह नियुक्तिकृत्निक्खेवो सामंमि(य)चउबिहो दुविहो होइ दवंमि।आगमनोआगमओ नोआगमओय सो तिविहो४८० जाणगसरीरभविए तबइरित्ते अ सकराईसुं । भावंमि दसविहं खलु इच्छामिच्छाइअं होइ ॥ ४८१ ॥2 इच्छो मिच्छा तहकारो, आवस्सिआ अ निसीहिआ।आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा॥ उवसंपया य काले सामायारी भवे दसविहा उ। एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं वुच्छं ॥ ४८३ ॥ आयारे निक्लेवो चउक्कओ दुवि० ॥१८४॥ जाणगसरीरभविए तबइरित्ते य नामणाईसुं । भावमि दसविहाए सामायारीइ आयरणा ॥ ४८५॥ दीप अनुक्रम [१००६] ॥५३२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययन - २६ "सामाचारी" आरभ्यते ~ 1063~ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||४३...|| नियुक्ति: [४८०-४८५] (४३) प्रत सूत्रांक ||४३|| ROCCASEAN णिक्खेयोइत्यादि गाथाः पटू प्रायः प्रतीतार्थाः, सूत्रव्याख्याने च काश्चिद्याख्यास्यन्ते, नवरं 'तयतिरिक्तंच ज्ञशरीरभन्यशरीरव्यतिरिक्तं च द्रव्यसाम शर्करादिषु, आदिशब्दात्क्षीरादिपरिग्रहः, ततश्च शर्कराक्षीरदधिगुडादीनां । यत्परस्परमविरोधेन व्यवस्थानं, भावे साम दशविध 'खलुः' अवधारणे दशविधमेवेच्छामिथ्यादिकं सामाचारीखरूपमिति गम्यते, भावसामत्वं चास्य तात्त्विकस्स क्षायोपशमिकादिभावरूपत्वात् परस्परमविरोधेन चावस्थानात्, तथा प्रत्येकप्ररूपणां वक्ष्ये इति प्रतिज्ञामभिधाय यत् प्ररूपणानभिधानं तदावश्यकनियुक्ती कृतत्वात्तगाथयोरेव चैक|कर्तृकत्वेनेह लिखितत्वान्न दुष्टमिति भावनीयं, सूत्रक्रमोलङ्घनं तु यथाविषयं सर्वेषां सदाकृत्यत्वेन पूर्वापरभावस्थाभावप्रदर्शनार्थ, तथा 'तबहरित्ते य णामणाईसुन्ति सोपस्कारत्वान्नामनधावनादिपु सुकराणि यानि द्रव्याणि तानि तयतिरिक्तो द्रव्याचार उच्यते, यत उक्तम्-"णामणधोवणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दवाणि जाणि लोए दवा-3 यारं वियाणाहि ॥ १॥" भावे दशविधाया इच्छादिभेदेन सामाचार्या आचरणा, अत्र बहुलग्रहणात्त्रियां युद, एवमाप्रच्छनादिष्यपि, भावत्वं तु जीवद्रव्यपर्यायत्वादस्खेति गाथाषट्कार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययननामान्वर्थमाहइच्छाइसाममेसुं आयरणं वषिणअं तु जम्हेत्थ । तम्हा सामायारी अज्झयणं होइ नायवं ॥ ४८६ ॥ १ नामनधावनवासनशिक्षणमुकरणाविरोधीनि । द्रव्याणि यानि लोके द्रव्याचारं विजानीहि ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१००६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1064~ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८६] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| R उत्तराध्य-10 'इच्छादिसाम'त्ति सुव्यत्ययाद् इच्छादिसामसु 'एषु' अनन्तराभिहितेषु 'आचरणम्' एतद्विषयमनुष्ठानं वर्णितं' सामाचा४/प्ररूपितं 'तुः' पूरणे यस्मादत्राध्ययने तस्मात्सामाचारीति-सामाचारीनामकमिदमिति प्रक्रमे अध्ययनं भवति || TAध्ययनं. है। ज्ञातव्यम् , अयमाशयः-समाचारोऽत्र वर्ण्यते ततः समाचारे भवमिति विवक्षायां शैषिकोऽण् रूढितश्च स्त्रीलिङ्गता, १५३३॥ तथा च 'टिड्डाण' (पा०४-१-१५) इत्यादिना डीपि सामाचारीति भवतीति गाथार्थः । गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, २६ सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुञ्चारणीयं, तचेदम् सामायारिं पवक्खाभि, सब्वदुक्खविमुक्खणि । जं चरित्ता ण निग्गन्धा, तिण्णा संसारसागरं ॥१॥ समाचरण-समाचारस्तस भावो 'गुणवचनब्रामणादिभ्य' इति (पा०५-१-१२४) प्य , तस्य च पित्करणसामर्थात् खियामपि वृत्तिरिति 'षिद्गौरादिभ्यश्चे'(पा०४-१-४१)ति कीपि सामाचारी तां-यतिजनेतिकर्तव्यतारूपामहं प्रवक्ष्यामि 'सर्वदुःखविमोक्षणीम्' अशेषशारीरमानसासातविमुक्तिहेतुम् अत एव यां सामाचारी 'चरित्वा' आसेव्य 'ण'इति वाक्यालङ्कारे 'निर्ग्रन्थाः' यतयस्तीर्णाः संसारसागरं, मुक्ति प्राप्ता इति भावः, उपलक्षणत्वाच तरन्ति त तरिष्यन्ति चेति सूत्रार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह ५३३॥ पढमा आवस्सिया नाम, विइया | निसीहिया । आपुच्छणा य तइया, चउत्थी पडिपुच्छणा ॥२॥ पंचमा दीप अनुक्रम [१००७]] A Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1065~ Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥२-४॥ दीप अनुक्रम [१००८-] -१०१०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२६], मूलं [-] / गाथा ||२४|| निर्युक्ति: [ ४८६ ...] छंदणा नामं, इच्छाकारो अछट्टओ । सत्तमो मिच्छकारो य, तहककारो य अट्टमो ||३|| अन्भुद्वाणं नवमा, | दसमा उवसंपया। एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेइया ॥ ४ ॥ सूत्रत्रयं स्पष्टमेव, नवरं व्रतग्रहणादप्यारभ्य कारणं विना गुर्ववग्रहे आशातनादोषसम्भवान्न स्थेयं, किन्तु ततो निर्गन्तव्यं, न च निर्गमनमावश्यक विनेति प्रथममावश्यकी, निर्गत्य च यत्रास्पदे स्थेयं तत्र नैषेधिकी पूर्वकमेव प्रवेष्टव्यमिति तदनु नैषेधिकी, तत्रापि तिष्ठतो भिक्षाटनादिविषयाभिप्रायोत्पत्तौ गुरुपृच्छापूर्वकमेव तत्साधनमित्यनन्तरमाप्रच्छना, आप्रच्छनायामपि गुरुनियुक्तेन पुनः प्रवृत्तिकाले क्वचित्प्रष्टव्या एव गुरव इति तत्पृष्ठतः प्रतिप्रच्छना, कृत्वाऽपि गुर्वनुज्ञया भिक्षाटनादिकं नात्मम्भरिणैव भवितव्यमिति तदनु छन्दना प्राग्रगृहीतद्रव्यजातेन शेषयतिनिमन्त्रणात्मिका, तस्यामपि प्रयोक्तव्य एवेच्छाकार इति तदनु तस्याभिधानम्, अयं चात्यन्तमवद्य भीरुणैव तवतो विधीयते, तेन च कथञ्चिदतिचारसम्भवे आत्मा निन्दितव्य इति तदनु मिथ्याकारः, कृतेऽपि च तस्मिन् बृहत्तर दोषसम्भवे गुरूणामालोचना दातव्या, तत्र च यदादिशन्ति गुरवस्तत्तथेति मन्तव्यं इति तथाकारः, तथेति प्रतिपद्य च सर्वकृत्येषूद्यमत्रता भाव्यमिति तदनु तद्रूपमभ्युत्थानम्, उद्यमवता च ज्ञानादिनिमित्तं गच्छान्तरसङ्क्रमोऽपि विधेयः तत्र चोपसम्पद् गृहीतव्येत्यनन्तरमुपसम्पदुक्ता, उपसंहारमाह- ' एपा' अनन्तरोक्का 'दशाङ्गा' Ja Education intimational For P www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 1066~ Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-]/ गाथा ||२-४|| __ नियुक्ति: [४८६...] (४३) सामाचा २६ प्रत सूत्रांक ||२-४|| उत्तराध्य इच्छादिदशावयवा 'साधूनां' यतीनां सामाचारी 'प्रयेदिता' तीर्थकरादिभिरुक्तेति सूत्रत्रयगर्भार्थः ॥ एतामेव ४ प्रत्यवयवं विषयप्रदर्शनपूर्वकं विधेयतयाऽभिधातुमाहबृहद्वृत्तिः यध्ययनं. गमणे आवस्सियं कुजा, ठाणे कुजा निसीहिय। आपुच्छणा सयंकरणे, परकरणे पडिपुच्छणा ॥५॥ ५५३४॥ छंदणा द्वजाएणं, इच्छकारो असारणे । मिच्छाकारो अनिदाए, तहकारो पडिस्सुए ॥ ६ ॥ अम्भुट्ठाणं । गुरुपूया, अच्छणे उवसंपया । एवं दुपंचसंजुत्ता, सामायारी पवेइया ॥७॥ | 'गमने' तथाविधालम्बनतो बहिनिःसरणे आवश्यकेषु-अशेषावश्यकर्त्तव्यब्यापारेषु सत्सु भवाऽऽवश्यकी, उक्तंभ ||हि-“आवस्सिया उ आवस्सएहिं सत्वेहिं जुत्तजोगस्से"त्यादि, तां 'कुर्याद्' विदध्यात्, स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानम् उपाश्रयस्तस्मिन् प्रविशन्निति शेषः, कुर्यात् , कां ?-'नषेधिकी' निषेधनं निषेधः-पापानुष्ठानेभ्य आत्मनो ब्यावर्तन तस्मिन् भवा नैपेधिकी, निषिद्धात्मन एतत्सम्भवात् , उक्तं हि-"जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स भावओ होइ" इत्यादि, आङिति-सकलकृत्याभिव्याया प्रच्छना आप्रच्छना-इदमहं कुर्यो न वेत्येवंरूपा तां खयमित्यात्मनः करणं-कस्यचिद्विवक्षितकार्यस्य निर्वर्तनं स्वयंकरणं तस्मिन् ,तथा 'परकरणे' अन्यप्रयोजनविधाने प्रतिप्रच्छना,गुरुनियु ५३४॥ क्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति, उभयत्र १ आवश्यिकी तु आवश्यकेषु सर्वेषु योगयुक्तस्य । २ यो भवति निषिद्धात्मा नैषेधिकी तस्य भावतो भवति । । SAMACHAR दीप अनुक्रम [१००८-] -१०१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1067~ Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-]/ गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५-७|| - 1 वा खकरणपरकरणे उपलक्षणमिति-उच्छासनिःश्वासौ विहाय सर्वकार्येष्वपि खपरसम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्या अतः। सर्वविषयमपि प्रथमतः प्रच्छनमापृच्छेत्युच्यते, तथा च नियुक्तिकृता सामान्येनैवावाचि-"ओपुच्छणा तु कज्जे"त्ति, तथा स्वपरसम्बधिनि सर्वत्रापि कृत्ये गुरुनियुक्तेन पुनः प्रवृत्तिकाले यद्गुरुप्रच्छनं सा प्रतिपृच्छा, तथा च"पुचनिउत्तेण होइ पडिपुच्छ'त्यविशेषेणैवोक्तं, 'छन्दना' उक्तरूपा विधेयेति शेषः, एवमुत्तरत्रापि, 'द्रव्यजातेन | तथाविधाशनादिद्रव्यविशेषेण प्रारगृहीतेनेति गम्यते, सूचकत्वात्सूत्रस्य, तथा चाह-"पुषगहिएण छंदणं'ति, इच्छाखकीयोऽभिप्रायस्तया करणं-तत्कार्यनिर्वर्तनमिच्छाकारः, 'सारणे' इत्यौचित्यत आत्मनः परस्य या कृत्यं प्रति प्रयर्तने, तत्रात्मसारणे यथेच्छाकारेण युष्मचिकीर्षित कार्यमिदमहं करोमीति, अन्याह च-"अहंगं तुन्भं एवं करेमि | कजं तु इच्छाकारेणं"ति, अन्यसारणे च मम पात्रलेपनादि सूत्रदानादि वा इच्छाकारेण कुरुतेति, तथा चान्वाह"जेइ अम्भत्थिज्ज परं कारणजाए करेज से कोइ । तत्थवि इच्छाकारोण कप्पर बलाभिओगो उ ॥१॥" तथा। मिश्येत्यलीकं मिथ्याकरणं मिथ्याकार:-मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः, सा चात्मनो निन्दा-जुगुप्सा तस्या, वितथाच-11 भारणे हि धिगिदं मिथ्या मया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदितजिनवचनैः, तथाकरणं तथाकार:-इदमित्थं चैबे- १ आमच्छना तु कार्ये । २ पूर्वनियुक्तेन भवति प्रतिपृच्छा । ३ पूर्वगृहीवेन छन्दना । ४ अहं युष्माकमेतत् करोमि कार्य विच्छाकारेण ५ यद्यभ्यर्थयति परं कारणजाते कुर्यात्तस्य कश्चित् । चत्रापि इच्छाकारो न कल्पते एव बलाभियोगः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१०११-] -१०१३]] -960-6- 2 4-64G मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1068~ Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||५-७|| उत्तराध्य. सभ्युपगमः, स च फिविषयः इत्याह-प्रतिश्रवणं प्रतिश्रुतं-गुरी वाचनादिकं यच्छत्येवमेतदित्यभ्युपगमतस्मिन् , सामाचा तथा चान्वाह-"वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकहणाए । अवितहमेयंति तहा अविकप्पेणं तहकारो॥१॥" बृहद्वृत्तिः द अभीत्याभिमुख्येनोत्थानम्-उद्यमनमभ्युत्थानं तच 'गुरुपूय'त्ति सूत्रत्वाद् गुरुपूजायां, सा च गौरवाहाणाम्-आचार्य-14 ॥५३५॥ ग्लानबालादीनां यथोचिताहारभेषजादिसम्पादनम् , इह च सामान्याभिधानेऽप्यभ्युत्थानं निमवणारूपमेव परि-1 गृह्यते, अत एव नियुक्तिकृतैतत्स्थाने निमन्त्रणैवाभिहिता "छंदणा य निमंतणे"ति, तथा 'अच्छणे'त्ति आसने प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्निधौ अवस्थाने उप-सामीप्येन सम्पादनं-गमनं सम्पदादित्वात्विपि उपसंपद्-इयन्तं कालं भवदन्तिके मयाऽऽसितव्यमित्येवरूपा, इयं च ज्ञानार्थतादिभेदेन त्रिधा, तथा चोक्तम्-"उवसंपया यतिविहा णाणे तह दसणे चरित्ते य"त्ति 'एवम्' इत्युक्तप्रकारेण 'दुपंचसंजुत्तत्ति आर्षत्वात् द्विपञ्चकसंयुक्ता दशसंख्यायुक्तामित्यर्थः, सामाचारी 'प्रवेदयेत्' कधयेत् आर्षत्वाद गुरुः शिष्यायेति शेषः, अनेन च गुरुणा सदा तदुपदेशपरेणेव भवितव्य-11 मित्यर्थत उक्तं, पठ्यते च-'एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेइय'त्ति, एतच स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः॥ एतावता दशविधसामाचारीमभिधायौघसामाचारी विवक्षुरिदमाह ॥५३५॥ १ वाचनाप्रतिश्रवणे उपदेशे तथा सूत्रार्थकथनायाम् । अवितथमेतदिति तथा अविकल्पेन तथाकारः ॥ १॥२ उपसंपञ्च त्रिविधा ज्ञाने | DI तथा दर्शने चारित्रे च * CRESS दीप अनुक्रम [१०११-] -१०१३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1069~ Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥८-१०॥ दीप अनुक्रम [१०१४-] -१०१६] Jus Education intam “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||८-१० || निर्युक्ति: [४८६...] अध्ययनं [२६], पुल्लिमि उभागे, आइचंमि समुट्टिए । भंडयं पडिलेहिता, वंदिता य तओ गुरुं ॥ ८ ॥ पुच्छिना पंजलिउडो, किं कायध्वं मए इहं । । इच्छं निओइडं भंते !, वेयावचे व सज्झाए ॥ ९ ॥ वेयावचे निउत्तेणं, कायध्वमगिलाओ । सज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमुकखणे ॥ १० ॥ 'विलंमि'त्ति पूर्वस्मिंश्चतुर्भागे आदिले 'समुत्थिते' समुद्गते, इह च यथा दशाविकलोऽपि पटः पट एवोच्यते, एवं किञ्चिदूनोऽपि चतुर्भागचतुर्भाग उक्तः, ततोऽयमर्थः- बुद्ध्या नभश्चतुर्धा विभज्यते, तत्र पूर्वदिक्संबद्धे किञ्चिदूनन| भचतुर्भागे यदादित्यः समुदेति तदा, पादोनपौरुभ्यामित्युक्तं भवति, 'भाण्डकं' पतद्बहाद्युपकरणं 'प्रतिलेख्य' सामयि कपरिभाषया चक्षुषा निरीक्ष्योपलक्षणत्वात्प्रमृज्य च 'वन्दित्वा च' नमस्कृत्य 'ततः' इति प्रतिलेखनानन्तरं 'गुरुम्' आचार्यादिकं किमित्याह- 'पृच्छेत्' पर्यनुयुञ्जीत प्रक्रमागुरुमेव ' पंजलिउड 'त्ति प्राग्वत्कृतप्राञ्जलिः, यथा - किं 'कर्त्तव्यम्' अनुष्ठेयं 'मये' त्यात्मनिर्देशः 'इह' अस्मिन् समये इति गम्यते, कदाचिगुरवो मन्येरन् खाध्यायवैयावृतयोरन्यतरस्मिन्नेवास्य नियोगे वाच्छेत्यतो ब्रूयात्- 'इच्छामि णियोइउं'ति अन्तर्भावितण्यर्थत्वान्नियोजयितुं युष्माभिरात्मानमिति शेषः 'भंते 'ति भदन्त ! 'वेयावये' त्ति वैयावृत्त्ये-ग्यानादिव्यापारे वाशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'सज्झाए'त्ति आर्पत्वात्खाध्याये वा, इह च पात्रप्रतिलेखनानन्तरं गुरुं पृच्छेदिति यदुक्तं तत्प्रायस्तदैव बहुतरवैयावृत्यविधानसम्भवात् यद्वा पूर्वस्मिन्नभश्चतुर्भागे आदिले समुत्थिते इव समुत्थिते, बहुतरप्रकाशीभवनात्तस्य, भाण्ड Forest Use Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 1070~ Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-]/गाथा ||८-१०|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||८-१०|| मेव भाण्डकं ततस्तदिव धर्मद्रविणोपार्जनाहेतुत्वेन मुखवस्त्रिकावर्षाकल्पादीह भाण्डकमुच्यते, तत्प्रतिलेख्य वन्दित्वा सामाचा|च ततो गुरुं पृच्छेत् , शेष प्राग्वत् , उपलक्षणं चैतद्-यतः सकलमपि कृत्यं विधाय पुनरभिवन्दनापूर्वकं प्रष्टव्या एव |गुरव इति, एवं च पृष्ट्वा यत्कर्तव्यं तदाह-वैयावृत्त्ये 'नियुक्तेन' व्यापारितेन कर्त्तव्यं प्रक्रमात् वैयावृत्त्यम् , 'अगिलायउत्ति अग्लान्यैव शरीरश्रममविचिन्त्यैवेतियावत्, खाध्याये वा नियुक्तेन सर्वदुःखविमोक्षणे, सकलतपःकर्म-18| २६ प्रधानत्वादस्य, खाध्यायोऽग्लान्यैव कर्त्तव्य इति प्रक्रम इति सूत्रत्रयार्थः ॥ इत्थं सकलौघसामाचारीमूलत्वात्प्रतिलेखनायास्तत्कालं सदाविधेयत्वाद्गुरुपारतत्र्यस्य तच्चाभिधायौत्सर्गिकं दिनकृत्यमाहदिवसस्स चउरो भागे, कुज्जा भिक्खू वियक्खणो। तओ उत्तरगुणे कुज्जा, दिणभागेसु चउमुवि ॥११॥ पढमं पोरिसिं सज्झाय, वीर्य झाणं शियायई । तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥१२॥ । सूत्रद्वयं स्पष्टमेव, नवरं चतुरो भागान् कुर्याद् बुद्ध्येत्युपस्कारः, 'तत' इति चतुर्भागकरणादनन्तरमिति गम्यते उत्तरगुणान् मूलगुणापेक्षया स्वाध्यायादींस्तत्कालोचितान् 'कुर्याद्' विदध्यात् , क दिनभागे कमुत्तरगुणं कुर्यादित्याह-17 प्रथमां पौरुषी 'स्वाध्यायं' वाचनादिकं, सूत्रपौरुषीत्वादस्याः, कुर्यादितीहोत्तरत्र च क्रियान्तराभावेऽनुवयेते, द्वितीयां प्रक्रमात्पौरुषी ध्यानं 'झियायइति ध्यायेत्, ध्यानं चेहार्थपौरुषीत्वादस्या अर्थविषय एव मानसादिव्यापारणमुच्यते, ध्यायेदिति वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां कुर्यात्, इह च प्रतिलेखनाकालखाल्पत्वेनाविवक्षितत्वादुभयत्र - - दीप अनुक्रम [१०१४-१०१६] - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1071~ Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २६], मूलं [-1 / गाथा ||११-१२|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||११-१२|| 'कालाधवनोरत्यन्तसंयोगे (पा०२-३-५)इति द्वितीया, तृतीयायां भिक्षाची, पुनश्चतुर्थी खाध्यायम् , उपलक्षणत्वातृतीयायां भोजनवहिर्गमनादीनि, इतरत्र तु प्रतिलेखनास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणादीनि गृह्यन्ते, इत्थमभिधानं च कालापे क्षयैव कृष्यादेरिव सकलानुष्ठानस्य सफलत्वादिति सूत्रद्वयार्थः॥ यदुक्तं प्रथमपौरुषी स्वाध्यायं कुर्यात्तत्परिज्ञानार्थमाह८ आसाढे मासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया। चित्तासोएसु मासेसु, तिपया हवह पोरसी ॥१३॥ अंगुलं सत्तरत्तेणं, पक्षणं तु दुअंगुलं । वहुए हायए वावि, मासेणं चउरंगुलं ॥ १४ ॥ आसाढबहुलपक्खे, भद्दवए । ४ कत्तिए य पोसे य । फग्गुणवइसाहेसु य नायब्वा ओमरत्ता उ ॥१५॥ l तत्र प्रथम प्रतीतमेव, द्वितीयमपि तथैव, नवरं ससरात्रेणेति दिनाविनाभाविवादात्रीणां सप्ताहोरात्रेण वर्द्धते । दक्षिणायने हीयत उत्तरायणे, इह च सप्तरात्रेणे सत्र सार्द्धनेति विशेषो द्रष्टव्यः, पक्षण बङ्गुलवृह्मभिधानात् , अन्यच केषुचिन्मासेषु दिनचतुर्दशकेनापि पक्षः संभवति, तत्र च सप्ताहोरात्रेणाप्यनुलवृद्धिहान्या न कश्चिद्दोषः ॥ केषु । पुनर्मासेषु दिनचतुर्दशकेनापि पक्षसम्भव इत्याह- आसाढे'त्यादि, इदमपि सुगममेव, नवरं बहुलपक्ष इति भाद्रपदादिष्यपि प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततः 'आसाढे'त्ति आषाढे बहुलपक्षे भाद्रपदादिषु च बहुलपक्षे 'ओम'त्ति 'अवमा | |न्यूना एकेनेति शेषः, 'रत्त'त्ति पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनादहोरात्राः, एवं चैकदिनापहारे दिनचतुर्दशकेनैव कृष्णपक्ष एतेष्विति भावः, इदं च व्यवहारतः पौरुषीमानं,निश्चयतस्तु, "अयणाईयदिनगणे अट्टगुणेगविभाइए लडुं दीप अनुक्रम [१०१७-] -१०१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1072~ Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||१३-१५|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्भुत्तिः ॥५३७॥ सूत्रांक ||१३ -१५|| उत्तरदाहिणमाई उत्तरपयसोज्झपक्खेषो॥१॥" अत्र चायनम्-उत्तरायणं दक्षिणायनं च तस्यातीतदिनानि-अतिहे क्रान्तदिषसास्तेषां गणः-समूहोऽयनातीतदिनगणः, स चोत्कृष्टतख्यशीतं शतं, तचाष्टगुणं जातानि चतुर्दश शतानियध्ययनं. | चतुःषष्टयधिकानि,तत्र चैकषष्टया भागे हृते लब्धानि चतुर्विशतिरङ्गुलानि,तत्रापि द्वादशभिरनुलैः पदमिति जाते द्वे पदे, एतयोश्च 'उत्तरदाहिणमाईत्ति उत्तरायणादौ दक्षिणायनादौ च 'उत्तरपद'तिउत्तरपदयोः 'सोज्झ'त्ति शुद्धिः प्रक्षेपश्च, तत्र हि उत्तरायणप्रथमदिने चत्वारि पदान्यासन् ततस्तन्मध्यात्पदद्वयोत्सारणे जाते कर्कटसंक्रान्त्यदिने द्वे पदे, दक्षिणायनाधदिने तु वे पदे अभूतां,तन्मध्ये च द्वयोः क्षिप्सयोर्जातानि मकरसतान्ती चत्वारि पदानि, इदं चोत्कृष्टजघन्यदिनयोः पौरुषीमानं, मध्यमदिनेष्यप्यभिहितनीतितः सुधिया भावनीयमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ इह प्रथमपौरुष्यामुपल क्षणद्वारेण प्रतिलेखनाया अपि विधेयत्वमुक्तं, पादोनैव चासौ तत्कालत्येन प्राक् प्रदर्शितेति तत्परिज्ञानोपायमाह|जिट्ठामूले आसाढसावणे छहि अंगुलेहि पडिलेहा । अट्ठहि बिइयतियंमी तइए दस अट्ठहि चउत्थे ॥ १६ ॥ जिट्ठासूत्रम् । ज्येष्ठामूल इति ज्येष्ठे, आषाढश्च श्रावणश्चापाढश्रावणं तत्र, कोऽर्थः ? -ज्येष्ठे आपाढे श्रावणे च ॥५३७॥ पडिरङ्गुलैः प्रत्यहं प्रागुपदिष्टपौरुषीमाने प्रक्षिप्तैरिति चेहोत्तरत्र(च) गम्यते, प्रतिलेखेति प्रक्रमात्प्रतिलेखनाकालः, एवं तावदेकसिंचिके, तथाऽष्टभिरङ्गुलैरिति सर्वत्रानुवर्तते द्वितीयत्रिके भाद्रपदाश्वयुकार्तिकलक्षणे प्रतिलेखनाकालः, तथा % % दीप अनुक्रम [१०१९-] -१०२१] *-%A5% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1073~ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-] / गाथा ||१६|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| तृतीये प्रक्रमात्रिके मार्गशीर्षपौषमाघात्मनि दशभिः प्रतिलेखनाकालः, तथाऽष्टभिश्चतुर्थे प्राग्वत्रिके फाल्गुनचैत्रवैशाखस्वरूपे प्रतिलेखनाकालः, स्थापना चेयम् ज्येष्ठे पदे २-४। भाजपदे पदे २-४ मार्गशीर्षे पदानि ३-८ फागुने पदानि ३-४ अल. २-० अकुल.43-8. भल०१022-६ अङ्गुल०८-४ आषादे पदे २ अश्विने पदानि ३ पौषे पदानि ४ । चैत्रे पदानि ३ अबुल.८३-८ अगुल०१०-४-10 अङ्गुका ८-३-८ श्रावण पदे २-४ कार्तिके पदानि ३-४ माघे पदानि ३-४ वैशाखे पदे २-८ अकुल ६२-१० अङ्गल -४ अगुल १०-41 अङ्गुल०८३-४ इति सूत्रार्थः । इत्थं दिनकृत्यमभिघाय रात्रौ यद्विधेयं तदाह रतिपि चउरो भाए, भिक्खू कुज्जा वियक्खणो। तओ उत्तरगुणे कुज्जा राईभो(भा)गेसु चउसुवि॥१७॥ पढम पोरिसि सज्झायं वीर्य झाणं झियाई । तझ्याए निद्दमुक्खं तु चउत्थी भुजोचि सज्झायं ॥१८॥ सूत्रद्वयं स्पष्टमेव, नवरं रात्रिमपि न केवलं दिनमित्यपिशब्दार्थः । द्वितीयां पौरुषी 'ध्यायति ध्यानं' सूक्ष्मसूत्रालक्षणं क्षितिवलयद्वीपसागरभवनादि वा 'झियाए त्ति 'ध्यायेत्' चिन्तयेत् , तृतीयायां निद्राया मोक्षः-पूर्वनि दीप अनुक्रम [१०२२] JABERatin intimational wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1074~ Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१७ -१८|| दीप अनुक्रम |[१०२३-] -१०२४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१७-१८ || अध्ययनं [२६], ताहे संधारभूमिं पमज्वंति, ताहे संथारयं अच्छुरंति सउत्तरपट्ट्यं, तत्थ (य) लग्गा मुहपोत्तियाए उवरिमं कार्य पमजंतित्ति हिट्ठिलं रयहरणेणं, कप्पे य वामपासे ठवेंति, पुणो संधारयं चडेत्ता भणंति- जेट्ठजाईण पुरओ चिहंताणं- अणुजाणेज्जह, पुणो सामाईयं तिन्नि चारे कड्डिऊण सुयंति त्ति । सुतानां चायं विधिः - " अणुजाणह संथारं बाहुवहाणेण बामपासेणं । पायपसारणि कुकुडि अतरंतो पमज्जए भूमिं ॥ १ ॥ संकोए संडासं उत्ती य कायपडिहा दवादीउवओगं उस्सासनिरंभणालोयं ॥ २ ॥ इति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रति रात्रिभागचतुष्टयपरिज्ञानोपायसुपदर्शयन् समस्तयतिकृत्यमाह - Education into जं ने जया रतिं नक्खन्तं तंमि नहचउम्भाए । संपत्ते विरमिज्जा सज्झाय पओसकालंमि ॥ १९ ॥ तम्मेव य नक्खत्ते गयणं च भागसावसेसंमि । वेरत्तिर्यपि कालं पडिलेहिता मुणी कुज्जा ॥ २० ॥ यत् 'नयति' प्रापयति परिसमाप्तिमिति गम्यते यदा रात्रिं नक्षत्रं तस्मिन्नभश्चतुर्भागे संप्राप्ते 'विरमेत्' निवर्त्तेत 'सज्झाय'त्ति स्वाध्यायात्, 'प्रदोषकाले' रजनीमुखसमये प्रारब्धादिति शेषः, तस्मिन्नेव नक्षत्रे प्रक्रमात्प्राप्ते, केत्याह- 'गगण'त्ति गगने, कीदृशि १-चतुर्भागेन गम्येन सावशेषं सोद्धरितं चतुर्भागसावशेषं तस्मिन् 'वैरात्रिकं' निर्युक्तिः [४८६...] १ अनुजानीत संस्तारकं बाहूपधानेन वामपार्श्वेण । पादप्रसारणं कुर्कुटी (वत्) अशक्नुवन् प्रमार्जयेत् भूमिम् ॥ १ ॥ संकोचे संदेशकान (प्रमार्जयेत् ) उद्वर्त्तने च कायप्रतिलेखना। द्रव्याद्युपयोगं ( जागरणे कुर्यात् ) उच्छ्वासनिरोधमालोकं ॥ २ ॥ For Parts Only ~1075~ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||१९-२०|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१९ -२०|| उत्तराध्य तृतीयम् , अपिशब्दान्निजनिजसमये प्रादोषिकादिकं च कालं 'पडिलेहित्तति प्रत्युपेक्ष्य प्रतिजागर्य मुनिः 'कुर्यात्, सामाचाकरोतेः सर्वधात्वर्थत्वाद् गृह्णीयात् , इह च काकोपलक्षणद्वारेण प्रथमादिषु नभश्चतुर्थभागेषु संप्राप्ते नेतरि नक्षत्रे : र्यध्ययनं. रात्रेः प्रथमादयः प्रहरा इत्युक्तं भवतीति सूत्रद्वयार्थः ॥ इत्थं सामान्येन दिनरजनिकृत्यमुपदर्य पुनर्षिशेषतस्तदेव, ॥५३९॥ दर्शयंस्तावदिनकृत्यमाह पुब्विलंमि चउभागे, पडिले हित्ता ण भंडयं । गुरुं वंदित्तु समायं, कुजा दुक्खविमुक्खणिं ॥२१॥ पोरिसीए चउभाए, वंदित्ता ण तओ गुरूं। अपडिकमित्तु कालस्स, भायणं पडिलेहिए ॥ २२॥ मुहपत्ति | पडिलेहित्ता, पडिलेहिज गुच्छयं । गुच्छगलइयंगुलिओ, वत्थाई पडिलेहए ॥ २३ ॥ उहूं थिरं अतुरियं पुब्धि ता वत्थमेव पडिलेहे । तो बिइयं पप्फोडे तइयं च पुणो पमजिज्जा ॥ २४ ॥ अणचावियं अबलियं अणाणुबंधि अमोसलिं चेव । छप्पुरिमा नव खोडा पाणीपाणिविसोहणं ॥२५॥ आरभद्दा सम्मदा बजेपब्बा य मोसली तइया । पकोडणा चउत्थी विक्खित्ता वेइया छट्ठा ॥ २६॥ पसिढिलपलंबलोला एगामोसा अणे गरूवधुणा । कुणति पमाणि पमायं संकिय गणणोवगं कुजा ॥२७॥ अणुणाइरित्तपडिलेहा अविवचासा|| दातहेव य । पढमं पर्य पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्याणि ॥ २८ ॥ पडिलेहणं कुर्णतो मिहो कहं कुणइ जणव-|| देयकहं वा । देह व पचक्खाणं वाएह सयं पडिच्छइ वा ॥२९॥ पुढवी आउकाए तेऊ वाऊ वणस्सइ तसाणं । Sex-MROSAGA दीप अनुक्रम [१०२५-] -१०२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1076~ Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २६], मूलं [-1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२१-३७|| पडिलेहणापमत्सो छण्हपि विराहओ होइ ॥ ३० ॥ तइयाए पोरिसीए, भत्तं पाणं गवेसए । छहं अण्णयपारागंमि, कारणमि समुट्टिए ॥ ३१॥ वेयणवेयावच्चे इरियडाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छ8 पुण|४ धम्मचिंताए ॥ ३२ ॥ निग्गंथो धिइमंतो निग्गंधीवि न करिज छहि चेव । ठाणेहिं तु इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ ॥ ३३ ॥ आर्यके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसुं । पाणिदयातवहेउ सरीरबुच्छेयणढाए ॥३४॥ अवसेसं भंडगं गिज्झा, चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोअणाओ, विहार विहरे मुणी ॥ ३५॥ चवथीए पोरिसीए निक्खिवित्ता ण भायणं । सज्झायं च तओ कुजा, सव्वभावविभावणं ॥ ३६॥ पोरिसीए चउभाए, वंदित्ता ण तओ गुरूं । पडिकमित्ता कालस्स, सिजं तु पडिलेहए ॥३७॥ पासवणुच्चारभूमि च, पडिलेहिज जयं जई। | पुविल्लेत्यादिसूत्राणि सप्तदश सार्द्धानि, तत्र सूत्रद्वयं व्याख्यातप्रायमेव, नवरं 'पूर्वस्मिंश्चतुर्भागे प्रथमपौ|रुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य प्रत्युपेक्ष्य 'भाण्डकं प्राग्वद्वर्षाकल्पादि उपधिमादित्योदयसमय इति शेषः, द्वितीयसूत्रे च पौरुष्याश्चतुर्थभागेऽवशिष्यमाण इति गम्यते, ततोऽयमर्थः-पादोनपौरुष्यां भाजनं प्रतिलेखयेदिति सम्बन्धः, खाध्यायादुपरतश्चेकालस्य प्रतिक्रम्यैव कृत्यान्तरमारब्धयमित्याशङ्कयेतात आह-अप्रतिक्रम्य कालस्य, तत्प्रतिक्रमार्थ कायोत्सर्गमविधाय, चतुर्थपौरुष्यामपि खाध्यायस्य विधास्थमानत्वात् । प्रतिलेखनाविधिमेवाह दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1077~ Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) I उत्तराध्य. सामाचायध्ययनं. प्रत बृहदृत्तिः सूत्रांक ॥५४॥ ||२१-३७|| PROGRILX-29 मुखपत्रिका' प्रतीतामेव 'प्रतिलेख्य' प्रतिलेखयेत् 'गोच्छक' पात्रकोपरिव[पकरणं, ततश्च 'गोच्छगलइअंगुलिउति प्राकृतत्वादलिभिर्लातो-गृहीतो गोच्छको येन सोऽयमङ्गुलिलातगोच्छकः 'वस्त्राणि' पटलकरूपाणि 'प्रतिलेखयेत्' प्रस्तावात्प्रमार्जयेदित्यर्थः । इत्थं तथाऽवस्थितान्येव पटलानि गोच्छकेन प्रमृज्य पुनर्यकुर्यात्तदाह-'ऊर्च' कायतो वस्त्रतश्च, तत्र कायत उत्कुटुकत्वेन स्थितत्वात् , वस्त्रतश्च तिर्यक्प्रसारितयत्रत्वात् , उक्तं हि-'उकुडुतो तिरियं पेहे जह विलित्तो' 'स्थिरं' दृढग्रहणेन 'अत्वरितम्' अद्भुतं सिमितं यथाभवत्येवं पूर्व प्रथम 'ता' इति तावद 'वस्त्रं' पटलकरूपं, जातायेकवचनं, पटलकप्रक्रमेऽपि सामान्यवाचकवस्त्रशब्दाभिधानं वर्षाकल्पादिप्रत्युपेक्षणायामप्ययमेव विधिरिति ख्यापनार्थम् , एक्शब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'पडिलेहि'त्ति 'प्रत्युपेक्षेतैव' आरतः परतश्च निरीक्षेतैव न तु प्रस्फोटयेत् , अथवा विन्दुलोपाद् 'एवम्' अमुना ऊर्ध्वादिप्रकारेण प्रत्युपेक्षेत न त्वन्यथेति भावः, तत्र च यदि जन्तून् पश्यति ततो यतनयाऽन्यत्र सङ्गमयति, तददर्शने च 'तो' इति 'ततः' प्रत्युपेक्षणादनन्तरं द्वितीयमिदं कुर्यात् यदुत परिशुद्धं सत् प्रस्फोटयेत्-तत्प्रस्फोटनां कुर्यादित्यर्थः, तृतीयं च पुनरिदं कुर्यात्-यदुत प्रमृज्यात् , कोऽर्थः-प्रत्युपेक्ष्य || प्रस्फोय्य च हस्तगतान् प्राणिनः प्रमृज्यादित्यर्थः, कथं पुनः प्रस्फोटयेत्प्रमृज्याद्वेत्याह-'अनर्तितं' प्रस्फोटनं प्रमा। १ उत्कटुकस्तिर्यक् प्रेक्षेत यथा विलिप्तः दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] ॥५४०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1078~ Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [--1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक K-RSSC ||२१-३७|| जनं वा कुर्वतो वखं वपुर्वा यथा नर्तितं न भवति 'अवलितं यथाऽऽत्मनो वखस्य च वलितमिति मोटनं न भवति 'अणाणुबंधि'न्ति 'अननुबन्धि' अनुबन्धेन-नैरन्तर्यलक्षणेन युक्तमनुबन्धि न तथा, कोऽर्थः ?-अलक्ष्यमाणविभागं| यथा न भवति, 'आमोसलिन्ति सूत्रत्वादामर्शवत्तिर्यगूलमधो या कुड्यादिपरामर्शवद्यथा न भवति, उक्तं हि"तिरिउहहघट्टणाऽऽमुसलि"ति, तथा किमित्याह-'छप्पुरिमत्ति षट्र पूर्वाः पूर्व क्रियमाणतया तिर्यकृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मका क्रियाविशेषा येषु ते पहपूर्वाः, 'नवखोड'त्ति खोटकाः समयप्रसिद्धाः स्फोटचात्मकाः कर्तव्या इति शेषः 'पाणी' पाणितले 'प्राणिनां' कुन्थ्वादिसत्त्वानां विशोधनं पाठान्तरतश्च-'प्रमार्जनं' प्रस्फोटनं त्रिकत्रिकोत्तरकालं त्रिकत्रिकसङ्ख्यं पाणिप्राणिविशोधनं पाणिप्राणिप्रमार्जनं वा कर्तव्यं । प्रतिलेखनादोषपरिहारार्थमाहआरभटा विपरीतकरणमुच्यते त्वरितं वाऽन्यान्यवस्खग्रहणेनासौ भवति, उक्तं हि-"वितहकरणमारभडा तुरियं वा अन्नमनगहणेणं" संमर्दनं समर्दा रूढित्वात्स्त्रीलिङ्गता वस्त्रान्तःकोणसंचलनमुपधेर्वा उपरि निषदनम् , उक्तश्च"अंतो व होज कोणा णिसियण तत्थेव सम्महा" वर्जयितव्येति सर्वत्र संबध्यते, 'चः' पूरणे 'मोसलितिर तिर्यगूर्ध्वमधो वा घट्टना तृतीया, 'प्रस्फोटना' प्रकर्षण रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्य झाटना चतुर्थी, विक्षेपणं विक्षिसा १ तिर्यगूलमधी घटनाऽमोसलिरिति २ वितयकरणं आरभटा त्वरितं था अन्याऽन्यग्रहणेन ३ अन्तर्वा भवेयुः कोणा निषीदनं तत्रैव संमर्दा दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1079~ Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) चराध्य. प्रत सूत्रांक बृहद्वृत्तिः ॥५४॥ ||२१-३७|| पञ्चमीति गम्यते, रूढित्वाच स्त्रीलिङ्गता, उक्तं हि लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात्', सा च प्रत्युपेक्षितवस्त्रस्थान्य- सामाचात्राप्रत्युपेक्षिते क्षेपणं, प्रत्युपेक्षमाणो वा वस्त्राञ्चलं यदूर्ध्व क्षिपति, वेदिका '8'त्ति षष्ठी, अत्र सम्प्रदायः यध्ययनं. "वेतिया पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-उहवेतिया अहोवेतिया तिरियवेतिया दुहतोवेतिया एगतोवेतिया' तत्व उड्डवेतिया उचरिं जुषणगाणं हत्थे काऊण पडिलेहेइ, अहोवेइया अहो जुण्णगाणं हत्थे काऊण पडिलेहेइ, तिरियवेड्या संडासयाण मज्झेण हत्थेण चित्तूण पडिलेहेइ, दुहतोबेइया वाहाणं अंतरे दोवि जुण्णगा काऊण पडि-13 लेहेति, एगतो वेश्या एगं जुण्णगं वाहाणमंतरे काउण पडिलेहेति ।" एवमेते पडू दोषाः प्रतिलेखनायां परि-18 हर्त्तव्याः। तथा प्रशिथिलं नाम दोषो यददृढमनिरायन्तं वा वस्त्रं गृह्यते, प्रलम्बो-यद्विषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनं लोलो-यद्भूमौ करे वा प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रस्य लोलनममीषां द्वन्द्वः, एकामर्शनं एकामर्शा प्राग्वत् स्त्रीलिङ्गता, मध्ये गृहीत्वा ग्रहणदेशं यावदुभयतो वस्त्रस्य यदेककालं संघर्षणमाकर्षणम् , उक्तश्च पसिंढिलमघणं - वेदिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः,तद्यथा ऊर्ध्ववेदिका अधोवेदिका तिर्यग्वेदिका द्विधातो वेदिका एकतो वेदिका, तत्रो+वेदिका उपरि जानु-13 नोहस्तौ कृत्वा प्रतिलेखयति, अधोवेदिका अधो जान्बोईसौ कृत्वा प्रतिलेखयति, तिर्यवेदिका संदंशकयोर्मध्ये हस्तेन गृहीत्वा प्रतिलेख- ॥५४१|| यति, द्विधातो बेदिका बाहोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा प्रतिलेखयति एकतो वेदिका एक जानु बाह्योरन्तरे कृत्वा प्रतिलेखयति २ प्रशिथिलमपनं अनिरायन्तं च (प्रलम्बम् ) विषमग्रहणं कोणानां । भूमौ करे वा लोलनं आकर्षग्रहणमेकामर्शा ।। १॥ दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1080~ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२१-३७|| CONGRESLOGACH अणिराइयं च विसमगहणं च कोणे था। भूमीकरलोलणयाऽऽकहणगहणेगआमोसा ॥१॥" 'अणेगरूवधुणे'त्ति अनेकरूपा चासौ सङ्खयात्रयातिक्रमणतो युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो का धूनना च प्रकम्पनात्मिका अनेकरूपधूनना, पठ्यते च-'अणेगरूवधूयत्ति तत्र च धुतं-कम्पनमन्यत्प्राग्वत् ,तथा यत्करोति प्रमाणे-प्रस्फोटादिसञ्जयालक्षणे प्रमा| दम्-अनवधानं यच शङ्किते-प्रमादतः प्रमाणे प्रति शङ्कोत्पत्तौ गणनां कराङ्गुलिरेखास्पर्शनादिनैकद्वित्रिसङ्गयात्मि|कामुपगच्छति-उपयाति गणनोपगं यथाभवत्येवं गम्यमानत्वात्प्रस्फोटनादि कुर्यात् , सम्भावने लिट्, सोऽपि दोषः, सर्वत्र पूर्वसूत्रादनुवर्त्य वर्जनक्रिया योजनीया, उक्तञ्च-"धुणेणा तिण्ह परेणं बहूणि वा घेत्तु एकओ धुणति। खोडणपमजणासु य संकिय गणणे करे पमादी॥१॥" एवं चानन्तरोक्तदोपरन्विता सदोषा प्रत्युपेक्षणा, चियुक्ताही तु निर्दोषेत्यर्थत उक्तम् । साम्प्रतं त्वेनामेव भङ्गकनिदर्शनद्वारेण साक्षात्सदोषां निर्दोषां च किश्चिद्विशेषतो वक्तुमाह'अणूणाइरित्त'त्ति ऊना चासावतिरिक्ता ऊनातिरिक्ता न तथा अनूनातिरिक्ता प्रतिलेखा,इह च न्यूनताधिक्ये स्फोट-13 नाप्रमार्जने वेलां चाश्रित्य वाच्ये, यत उक्तम्-"खोडणपमजवेलासु चेव ऊणाहिया मुणेयवा" 'अविवच्चासत्ति |विविधो व्यत्यासो-विपर्यासो यस्यां सा विव्यत्यासा न तथा अविव्यत्यासा-पुरुषोपधिविपर्यासरहिता कर्त्तव्येति १ धूनना तिसृभ्यः परतो वहूनि वा गृहीत्वैकतो धुनाति । स्फोटनप्रमार्जनासु च शङ्कित गणनां कुर्यात्प्रमादी ॥ १॥ २ स्फोटनाप्रमार्जनावेलासु चैवोनाधिका मुणितव्या । दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] KAC----- ERSCR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1081~ Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२१ -३७|| दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३] उतराध्य. बृहद्वृत्तिः ।।५४२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२६], मूलं [ - ] / गाथा ||२१-३७|| निर्युक्तिः [४८६...] IIS SIS शेषः, अत्र च त्रिभिर्विशेषणपदैरष्टौ भङ्गाः सूचिता भवन्ति, स्थापना चेयम् ॥ 5॥ एतेषु च कः शुद्धः को वाडशुद्धः इत्याह- 'प्रथमपदम्' इहैवोपदर्शिताद्यभङ्गरूपं 'प्रशस्तं' निर्दोषतया लाध्यं t St शुद्धमितियावत्, शेपाणि तु प्रक्रमात्पदानि द्वितीयादिभङ्गात्मकान्यप्रशस्तानि तेषु न्यूनताद्यन्यतमदो sssss पसम्भवात्, ततः प्रथमभङ्गानुपातिन्येव प्रतिलेखना विधेयेत्युक्तं भवति । एवंविधामध्येनां कुर्वता यत्परिहर्त्तव्यं तत् काकोपदेष्टुमाह-प्रतिलेखनां कुर्वन् 'मिथःकथा' परस्परसंभाषणात्मिकां करोति, जनपदकथां वा, ख्यादिकथोपलक्षणमेतत् ददाति वा प्रत्याख्यानमन्यस्मै, वाचयति - अपरं पाठयति, स्वयं प्रतीच्छति या आलापादिकं गृह्णाति, य इति गम्यते, स किमित्याह, 'पुढवी'ति स्पष्टं, नवरं 'पुढवी आउकाय'त्ति पृथिव्यप्काययोः 'प्रतिलेखनाप्रमत्तो' मिथः कथादिना तत्रानवहितः सन् पण्णामपि, आस्तामेवैकादीनामित्यपिशब्दार्थः, विराधकश्चैवं-प्रमत्तो हि कुम्भकारशालादौ स्थितो जलभृत घटादिकमपि प्रलोठयेत्, ततस्तज्जलेन मृदग्निबीजकुन्थ्वादयः प्लाव्यन्ते, प्लावनातश्च विराध्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्रावश्यं वायुरिति षण्णामपि द्रव्यतो विराधकत्वं, भावतस्तु प्रमत्ततयाऽन्यथाऽपि विराधकत्वमेव, उक्तं हि"ईय दवओ उ उण्हं विराहतो भावतो इहरहावि । उवउत्तो पुण साहू संपत्तीए वडवहओ उ ॥ १ ॥” तदनेन १ एवं द्रव्यतः षण्णां विराधको भावत इतरथाऽपि । उपयुक्तः पुनः साधुः संपत्तावप्यवधक एव ॥ १ ॥ Education infamational For Fans Only सामाचा र्यध्ययनं. २६ ~1082~ ॥५४२॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२१ -३७|| दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२१-३७|| अध्ययनं [२६], Education infamational जीवरक्षार्थत्वात्प्रतिलेखनायास्तत्काले च प्रमादजनकत्वेन हिंसाहेतुत्वान्मिथः कथादीनां परिहार्यत्वमुक्तम् । इत्थं प्रथमपौरुषीकृत्यमुक्तं, तदनन्तरं द्वितीयपौरुषीकृत्याभिधानावसरः, तच "बीए झाणं झियायई" इति वचनेन ध्यान| मुक्तम्, उभयं चैतदवश्य कर्त्तव्यमतस्तृतीयपौरुपी कृत्य मध्येवमुत कारण एवोत्पन्ने ? इत्याशङ्कयाह- 'तइए' इत्यादि सुगमं, नवरमौत्सर्गिकमेतत्, अन्यथा हि स्थविरकल्पिकानां यथाकालमेव भक्तादिगवेषणं, तथा चाह- 'सहेकाले चरे भिक्खू'ति, पण्णां कारणानाम् 'अन्नयरायंमि'त्ति अन्यतरस्मिन् कारणे 'समुत्थिते' संजाते, न तु कारणोत्पत्तिं विनेति भावः, भोजनोपलक्षणं चेह भक्तपानगवेषणं, गुरुग्लानाद्यर्थमन्यथाऽपि तस्य सम्भवात् तथा चान्यत्र भोजन एवैतानि कारणान्युक्तानि तान्येव षट् कारणान्याह - 'वेयण वेयावचे 'त्ति, सुच्यत्ययाद्र वेदनाशब्दस्य चोपलक्षणत्वात्क्षुत्पिपासाजनितवेदनोपशमनाय तथा क्षुत्पिपासाभ्यां (परिगतो) न गुर्वादिवैयावृत्त्यकरणक्षम इति वैयावृत्त्याय, तथा 'ईये 'ति ईर्यासमितिः सैव निर्जरार्थिभिरर्ध्यमानतयाऽर्थस्तस्मै, 'चः' समुचये, कथं नामासौ भवत्विति १, इतरथा हि क्षुत्पिपासाभ्यां पीडितस्य चक्षुर्म्यामपश्यतः कथमिवासौ स्यादिति ?, तथा संयमार्थाय कथं नामासौ पालयितुं शक्यतामिति ?, आकुलितस्य हि ताभ्यां सचित्ताहारे तद्विघात एव स्यात्, तथा 'पाणवतियाए 'ति प्राणप्रत्ययं१ स्मृतिकाले चरेद्र भिक्षुः x प्रयोजनोपo For Parts Only निर्युक्तिः [४८६...] ~ 1083~ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत बृत्तिः सूत्रांक ||२१-३७|| उत्तराध्य. जीवितनिमित्तम्, अविधिना खात्मनोऽपि प्राणोपक्रमणे हिंसा स्थान , अत एवोक्तम्-"भावियजिणवयणाणं ममत्त-12 सामाचा|| रहियाण नत्थि हु विसेसो । अप्पाणमि परंमि य तो वजे पीडमुभओऽवि ॥१॥" षष्ठं पुनरिदं कारणम्-यदुत धर्म-|| यध्ययनं. चिन्तायै च, भक्तपानं गवेषयेदिति सर्वत्रानुवर्तते, अत्र च धर्मचिन्ता-धर्मध्यानचिन्ता श्रुतधर्मचिन्ता था,इयं बुभ॥५४३॥ 18| यरूपाऽपि तदाकुलितचेतसो न स्यात् ,आर्तध्यानसम्भवात् ,इह च यद्यपि वेदनोपशमनादीनां शाच्या वृत्त्या तदुपल |क्षितभोजनफलत्वेन प्रतीतिस्तथाऽपि तैर्विना तनिषेधसूचनादा• वृत्त्या कारणत्वमेवैषामुपदर्शितं भवति, अत एच षष्ठमित्यत्र कारणमेव सम्बन्धितम्, आह-एतत्कारणोत्पत्तौ किमवश्यं भक्तपानगवेषणं कर्त्तव्यमुतान्यथेत्याह'निग्रन्थः' यतिः धृतिमान् धर्मचरणं प्रति 'निर्ग्रन्था' तपखिनी साऽपि न कुर्याद्भक्तपानगवेषणमिति प्रक्रमः, षडिश्चैव स्थानः 'तुः पुनरर्थे 'एभिः' अनन्तरं वक्ष्यमाणैः, किमित्येवमत आह-'अणइक्कमणाइ'त्ति सूत्रत्वाद् 'अनतिक्रमण |संयमयोगानामनुलानं, चशब्दो यस्मादर्थे, यस्मात् 'से'त्ति तस्य निर्ग्रन्थस्य तस्या वा निम्रन्थतायाः (मथ्याः) भवति । जायते,अन्यथा तदतिक्रमणसम्भवात्। पद स्थानान्येवाह-आतङ्को-ज्वरादिरोगस्तस्मिन् , 'उपसर्ग'मिति खजनादिः कश्चिदुपसर्गमुन्निष्क्रमणार्थ करोति, विमर्शादिहेतोर्वा देवादिः, ततस्तस्मिन् सति, उभयत्र तन्निवारणार्थमिति गम्यते, ॥५४३॥ तथा तितिक्षा-सहनं तया हेतुभूतया, कविषये इत्याह-ब्रह्मचर्यगुप्तिषु, ता हि नान्यथा सोद्धं शक्याः , तथा १ भावितजिनवचमानां ममतारहितानां नास्त्येव विशेषः । आत्मनि परस्मिंश्च ततो वर्जयेत्पीडामुभयोरपि ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] k मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1084 ~ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२१ -३७|| दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२१-३७|| अध्ययनं [२६], Education intimational 'पाणिदया तवहेउ ति 'प्राणिदयाहेतोः' वर्षादौ निपतत्यप्कायादिजीवरक्षायै तपः —-चतुर्थादिरूपं तद्धेतोभ, तथा शरीरस्य व्यवच्छेदः - परिहारस्तदर्थे च उचितकाले संलेखनामनशनं वा कुर्वन्, भक्तपानगवेषणं न कुर्यादिति सर्वत्र योज्यं, कारणत्वभावना चामीषां प्राग्वत्, तद्गवेषणां च कुर्वन् केन विधिना कियत्क्षेत्रं पर्यटेदित्याह - 'अवशेष ' भिक्षाप्रक्रमात्पात्रनिर्योगोद्धरितं चशब्दस्य गम्यमानत्वादवशेषं च पात्रनिर्योगमेव, यद्वाऽपगतं शेषमपशेषं, कोऽर्थः १ - समस्तं, 'भाण्डकम्' उपकरणं 'गिज्झ'त्ति गृहीत्वा चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत, उपलक्षणत्वात्प्रतिलेखयेच, इह च विशेषत इति गम्यते, सामान्यतो अप्रत्युपेक्षितस्य ग्रहणमपि न युज्यत एव यतीनाम् उपलक्षणत्वाचास्य तदादाय 'परम्' उत्कृष्टम् 'अर्धयोजनात्' अर्धयोजनमाश्रित्य ल्यब्ठोपे पञ्चमी, परतो हि क्षेत्रातीतमशनादि भवेत्, विहरन्यस्मिन् प्रदेश इति विहारस्तं 'विहरए' ति विहरेत- विचरेन्मुनिः । इत्थं वित्योपाश्रयं चागत्य गुर्वालोचनादिपुरस्सरं भोजनादि कृत्वा यत्कुर्यात्तदाह- चतुर्थ्यां पौरुष्यां निक्षिप्य प्रत्युपेक्षणापूर्वकं बद्धा 'भाजनं' पात्रं स्वाध्यायं ततः कुर्यात् सर्वभावा - जीवादयस्तेषां विभावनं (कं) - प्रकाशकं सर्वभावविभावक, पठ्यते च - 'सबदुक्खविमोक्खणं'ति प्राग्वत्, पौरुप्याः प्रक्रमाच्चतुर्थ्याः चतुर्भागे-चतुर्थांशे शेष इति गम्यते, वन्दित्वा 'ततः' इति | खाध्याय करणादनन्तरं 'गुरुम्' आचार्यादि प्रतिक्रम्य कालस्य 'शय्यां' वसतिं 'तुः' पूरणे प्रतिलेखयेत्, ततश्च 'पासवणुचारभूमिं चत्ति, भूमिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् प्रश्रवणभूमिं उच्चारभूमिं च प्रत्येकं द्वादशस्थण्डिलात्मिकां For Final P निर्युक्ति: [४८६...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~1085~ Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||२१-३७|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२१-३७|| उत्तराध्य. चशब्दात्कालभूमिं च स्थण्डिलत्रयात्मिक प्रतिलेखयेत् 'जय'ति 'यतम्' आरम्भादुपरतं यथा भवति यतमानों वा सामाचा यतिः, एवं च सप्तविंशतिस्थण्डिलप्रत्युपेक्षणानन्तरमादित्योऽस्तमेति, तथा चोक्तम्-"चउभागावसेसाए चरिमाए बृहद्वृत्तिः यध्ययनं. पडिकमित्तु कालस्स । उच्चारे पासवणे थंडिलचउवीसई पेहे ॥१॥ अहियासिया उ अंतो आसन्ने मज्झि दूरि तिन्नि ॥५४४॥ तिन्नि भवे। तिण्णेव अणहियासी अंतो छच्छच्च बाहिरतो॥२॥ एमेव य पासवणे वारस चउवीसई तु पेहेत्ता। कालस्स य तिन्नि भवे अह सूरो अस्थमुवयाइ ॥३॥” इति सार्द्धसप्तदशसूत्रार्थः । इत्थं विशेषतो दिनकृत्यमभिधाय सम्प्रति तथैव रात्रिकर्त्तव्यमाह काउस्सर्ग तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमुक्खणं ॥३८॥ देसियं च अईयारं, चिंतिज अणुपुब्वसो । नाणमि दसणे चेव, चरितंमि तहेव य ॥ ३९ ॥ पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ता य तओ गुरूं। देसियं तु अईयारं, आलोइज जहकमं ॥४०॥ पडिकमित्ताण निस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरूं। काउस्सग्गं तओ कुजा, सम्बदुदक्खविमुक्वणं ॥४१॥ सिद्धाणं संधर्व किचा, बंदित्ताण तओ गुरूं। धुइमंगलं च काऊणं, कालं संपडि-II १ चतुर्भागावशेषायां घरमायां प्रतिक्रम्य कालस्य । उचारस्य प्रश्रवणस्य स्थण्डिलानि चतुर्विशिति प्रेक्षेत ॥ १॥ अध्यासनीयानि तुर अन्तरासन्ने मध्ये दूरे श्रीणि त्रीणि भवेयुः। त्रीण्येव अनध्यासनीयानि अन्तः पद् पद च बाह्यतः ।।२।। एवमेव च प्रश्रवणे द्वादश चतुर्विशति तु प्रेक्ष्य । कालस्य च त्रीणि भवेयुरथ सूर्योऽस्तमुपयाति ॥ ३ ॥ HE4% दीप अनुक्रम [१०२७-] -१०४३]] JABERatinintamational wwwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1086~ Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||३८-५१|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३८-५१|| लेहए ॥ ४२ ॥ पढम पोरिसिं सज्झायं, बीयं झाणं झियायई । तईयाए निघमुक्खं तु, चउत्थी भुजोवि सज्झायं ।। ४३ ॥ पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पडिलेहए। सज्झायं तु तओ कुज्जा, अबोहंतो असंजए॥४४॥ |पोरिसीए चउन्माए, वंदित्ताण ततो गुरूं । पडिक्कमित्तु कालस्स, कालं तु पडिलेहए ॥ ४५ ॥ आगए कायचुस्सग्गे, सव्वदुक्खविमुक्खणे । काउस्सग्गं तओ कुजा, सव्वदुक्खविमुक्खणं ॥४६॥ राईयं च अई. यारं, चिंतिज अणुपुव्वसो । नाणंमि दसणमि, चरित्तंमि तवमि य ॥ ४७ ॥ पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरूं। राईयं तु अईयारं, आलोइज्ज जहकर्म ॥४८॥ पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, चंदित्ता ण तओ गुरूं । काउस्सग्गं तओ कुजा, सम्बदुक्खविमुक्खणं ॥४९॥ किं तवं पडिवजामि', एवं तत्थ विर्णितए । काउस्सग्गं तु पारिता, करिजा जिणसंधवं ॥५०॥ पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरूं । तवं संपडिवजित्ता, करिन सिद्धाण संथवं ॥५१॥ काउस्सग्गमित्यादि सार्द्धानि त्रयोदश सूत्राणि । कायोत्सर्ग 'ततः' प्रश्रवणादिभूमिप्रतिलेखनादनन्तरं कुर्यात्सदुःखविमोक्षणं, तथात्वं चास्य कर्मापचयहेतुत्वात् , उक्तं हि-"काउस्सग्गे जह सुट्ठियस्स भजंति अंगमंगाई। तह भिंदंति सुविहिआ अट्टविहं कम्मसंघायं ॥१॥"ति तत्र च स्थितो यत्कुर्यात्तदाह-'देसिय'ति प्राकृतत्वाइका| १ कायोत्सर्गे यथा मुस्थितस्य भज्यन्तेऽझोपाङ्गानि । तथा भिन्दन्ति सुविहिता अष्ट विधं कर्मसातम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१०४४-] -१०५७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1087~ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||३८-५१|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) प्रत सामाचा| र्यध्ययन ॥५४५॥ सूत्रांक ||३८ २६ -५१|| उत्तराध्य. रस्य लोपे देवसिक 'चः' पूरणे 'अतिचारम्' अतिक्रमं 'चिन्तयेत्' ध्यायेत् 'अणुपुचसो'त्ति आनुपूर्व्या-क्रमेण, बाद प्रभातमुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणातो यावदयमेव कायोत्सर्गः, उक्तं हि-"गोसमुहणंतगाई आलोइय देसिए य अइयारे । सवे समाणयित्ता हियए दोसे ठविजाह॥१॥" फिविषयमतीचारं चिन्तयेदित्याह-'ज्ञाने' ज्ञानविषयमेवं दर्शने |चैव चारित्रे तथैव च । पारितः-समापितः कायोत्सर्गों येन स तथा यन्दित्वा प्रस्तावाद् द्वादशावर्त्तवन्दनेन 'तत' इत्यतीचारचिन्तनादनन्तरं 'गुरुम्' आचार्यादि 'देसिय'ति प्राग्वद् दैवसिकं 'तुः' पूरणेऽतीचारम् 'आलोचयेत्' प्रकाशयेद् गुरूणामेव 'यथाक्रमम्' आलोचनसेवनान्यतरानुलोम्यक्रमानतिक्रमेण 'प्रतिक्रम्य' प्रतीपमपराधस्थानेभ्यो निवृत्य, प्रतिक्रमणं च मनसा भावशुद्धितो वाचा तत्सूत्रपाठतः कायेनोत्तमाजनमनादिता, 'निःशल्यः' माया| दिशल्यरहितः, सूचकत्वात्सूत्रस्य बन्दनकपूर्व क्षमयित्वा च वन्दित्वा द्वादशावर्त्तवन्दनेन 'ततः' इत्युक्तविघेरनन्तरं | 'गुरुम्' आचार्यादिकं कायोत्सर्ग' चारित्रदर्शनश्रुतज्ञानशुद्धिनिमित्तव्युत्सर्गत्रयलक्षणं, जातावेकवचनं, 'ततः' गुरुवन्दनादनन्तरं कुर्यात्सर्वदुःखविमोक्षणम् । 'पारिये' त्यादि पूर्वाद्ध व्याख्यातमेव, स्तुतिमालं च सिद्धस्तवरूपं कृत्वा पाठान्तरं वा-'सिद्धाणं संथवं किच्चति सुगम, 'कालम्' आगमप्रतीतं 'संपडिलेहए'त्ति संप्रत्युपेक्षते, कोऽर्थःप्रतिजागर्ति, उपलक्षणत्वाद् गृह्णाति च, एतद्गतश्च विधिरागमादवसेयः । 'पढम मित्यादि प्राग्वद्, व्याख्यातमेव, १ प्राभातिकमुखबस्त्रिकादिप्रत्युपेक्षणाया आलोच्य दैयसिकांश्चातिचारान् । सर्वे संमान्य हृदये दोषान् स्थापयेत् ॥ १ ॥ SRAEXMOST दीप अनुक्रम [१०४४-] -१०५७]] ५४५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1088~ Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||३८-५१|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३८-५१|| नवरं पुनरभिधानमस्य पुनः पुनरुपदेष्टव्यमेव गुरुभिर्न प्रयासो मन्तव्य इति ख्यापनार्थम् । कथं पुनश्चतुर्थपौरुष्यां खाध्यायं कुर्यादित्याह-पौरुष्यां चतुर्थी 'कालं' पैरात्रिकं 'तुः पूरणे 'पडिलेहिय'त्ति प्रत्युपेक्ष्य-प्रतिजागर्य प्राग्वद् | गृहीत्वा च खाध्यायं ततः कुर्यात् 'अबोधयन्' अनुत्थापयन् 'असंयतान्' अगारिणः, तदुत्थापने तत्पापस्थानेषु तेषां प्रवर्तनसम्भवात् । पौरुष्याः प्रक्रमाचतुर्थ्याश्चतुर्भागेऽवशिष्यमाण इति शेषः, तत्र हि कालवेलायाः सम्भव इति न कालस्य ग्रहणं, वन्दित्वा ततो गुरुं प्रतिक्रम्य 'कालस्य' वैरात्रिकस्य 'कालं' प्राभातिकं, तुशब्दो वक्ष्यमाणविशेषद्योतकः, 'पडिलेहए'त्ति प्रत्युपेक्षेत प्राग्वद् गृह्णीयाच, रह च साक्षात्प्रत्युपेक्षणस्यैव पुनः पुनरभिधानं बहुतरविषयत्वात् , अत्र च सम्प्रदायः-"ताहे गुरू उहित्ता गुणंति जाव चरिमो जामो पत्तो, चरिमे जामे सचे उद्वित्ता वरत्तियं घेत्तुं सज्झायं करेंति, ताहे गुरू सुवंति, पत्ते पाभाइए काले जो पाभाइयकालं घेच्छति सो कालस्स पडिकमिउं पाभाइयं कालं गिण्हइ, सेसा कालवेलाए कालस्स पडिकमंति, तओ आवस्सयं कुणंति " मध्यमप्रक्रमापेक्षं च कालत्रयग्रहणमुक्तम् , अन्यथा युत्सर्गत उत्कर्षेण चत्वारो जघन्येन त्रयः काला अपवादतश्चोत्कर्षेण द्वी १ तदा गुरव उत्थाय गुणयन्ति यावच्चरमो यामः प्राप्तः, चरमे यामे सर्वे उत्थाय वैरात्रिक गृहीत्वा खाध्यायं कुर्वन्ति, तदा गुरवः |स्वपन्ति, प्राप्ते प्राभातिके काले यः प्राभातिककालं ग्रहीष्यति स कालस्य प्रतिक्रम्य प्राभातिकं कालं गृहाति, शेषाः कालवेलायां कालस्य प्रतिकाम्यन्ति, तत आवश्यकं कुर्वन्ति । दीप अनुक्रम [१०४४-] -१०५७]] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1089~ Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-]/गाथा ||३८-५१|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) सामाचा प्रत "अमायाविणो . यध्ययन. सूत्रांक ||३८-५१|| उत्तराध्य. जघन्येनकोऽप्यनुज्ञात एव, यत उक्तम्-"कालचउकं उक्कोसएण जघण्णओ तिण्णि हुँति बोद्धचा । बीयपयंमि दुगं| तु मायामयविप्पमुकाणं ।। १॥" अत्र च तुशब्दादेकस्याप्यनुज्ञा, तथा चूर्णिकार एव-"अमायाविणो तिण्णि वा बृहद्वृत्तिः | अगेण्हंतस्स एको भवति" पठन्ति च-पढमा पोरसि सज्झायं, बीए झाणं झियायति । ततियाए निमोक्खं च, ॥५४॥ चउभाए चउत्थए ॥१॥ कालं तु पडिलेहित्ता, अबोहितो असंजए । कुज्जा मुणी य सज्झायं, सबदुक्खविमो क्खणं ॥२॥ पोरसीए चउम्भाए, सेसे वंदितु तो गुरुं । पडिकमिनु कालस्स, कालंतु पडिलेहए ॥३॥" अत्रापि व्याख्या तथैव, पाठद्वयेऽपि चतुर्थप्रहरविशेषकृत्याभिधानप्रसङ्गेन पुनः प्रहरत्रयकृत्याभिधानमिति मन्तव्यम् । |'आगते' प्राप्ते 'कायव्युत्सर्ग' इत्युपचारात् कायव्युत्सर्गसमये सर्वदुःखानां विमोक्षणमर्थात् कायोत्सर्गद्वारेण यस्मिन् विस तथा तस्मिन् , शेष प्राग्वत् , यह सर्वदुःखविमोक्षणविशेषणं पुनः पुनरुच्यते तदस्यात्यन्तनिर्जराहेतुत्वख्या-18 पनार्थ, तथेह कायोत्सर्गग्रहणेन चारित्रदर्शनश्रुतज्ञान विशुद्धर्थ कायोत्सर्गत्रयं गृह्यते, तत्र च तृतीये रात्रिकोऽती-1 |चारश्चिन्त्यते, यत उक्तम्-"तत्थ पढमो चरित्ते, सणसुद्धीय बीयओ होइ । सुयणाणस्स य ततितो णवरं | १ कालचतुष्कं उत्कृष्टेन जघन्यतः त्रयो भवन्ति बोद्धव्याः । द्वितीयपदे द्विकं तु मायामदविप्रमुक्तानाम् ॥१॥२ अमायाविनखीन वा टूि अगृहृत एको भवति । ३ तत्र प्रथमश्चारित्रे दर्शनशुद्ध द्वितीयो भवति । श्रुतज्ञानस्य च तृतीयो नवरं चिन्तयति तत्रेदम् ॥२॥ तृतीये ★ निशातिचारान् । SARKA दीप अनुक्रम [१०४४-] -१०५७]] ॥५४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1090 ~ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-1 / गाथा ||३८-५१|| नियुक्ति : [४८६...] (४३) प्रत AESAXY सूत्रांक ||३८-५१|| चिंतेइ तत्थ इमं ॥१॥ तइए निसाइयारं"ति रात्रिकोऽतिचारश्च यथा यद्विषयश्च चिन्तनीयस्तथाऽऽह-रात्री भवं रात्रिकं 'चः पूरणे अतीचारं चिन्तयेत् 'अणुपुषसो त्ति आनुपूर्व्या-क्रमेण ज्ञाने दर्शने चारित्रे तपसि चशब्दावीर्ये च, शेषकायोत्सर्गेषु चतुर्विशतिस्तवः प्रतीतश्चिन्त्यतया साधारणश्चेति नोक्तः । ततश्च पारितेत्यादिसूत्रद्वयं व्याख्यातमेव, कायोत्सर्गस्थितश्च किं कुर्यादित्याह-'कि मिति किंरूपं 'तपों' नमस्कारसहितादि प्रतिपद्येऽहम् , एवं तत्र विचिन्तयेत्-पर्द्धमानो हि भगवान् षण्मासं यावनिरशनो विद्दतवान्, तत्किमहमपि निरशनः शक्रोम्ये-|| तावत्कालं स्थातुमुत नेति ?, एवं पञ्चमासाद्यपि यावन्नमस्कारसहितं तावत्परिभावयेत्, उक्तं हि-"चिंते चरमे उ किं तवं काहं ? । छम्मासामेकदिणादिहाणि जा पोरिसि नमो वा ॥२॥" उत्तरार्द्धं स्पष्टम्, एतदुक्तार्थानुवादतः सामाचारीशेषमाह-'पारिए'त्यादि प्राग्वत् , नवरं 'तपः' यथाशक्ति चिन्तितमुपवासादि 'संप्रतिपद्य' अङ्गीकृत्य कुर्यात् सिद्धानां 'संस्तवं' स्तुतित्रयरूपं, तदनु च यत्र चैत्यानि सन्ति तत्र तद्वन्दनं विधेयं, तथा चाह भाष्यकार:"वंदित्तु निवेयंती कालं तो चेइयाइ यदि अस्थि । तो वंदंती कालं जह य तुलेउं पडिक्कमणं ॥१॥" इति सार्द्धत्रयोदशसूत्रार्थः ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह १चिन्तयेत् चरमे तु किं तपः करिष्यामि । षण्मास्या एकदिनादिहानि यावत् पौरुषी नमस्कारसहितं वा ॥१॥२ वन्दित्वा निवेदयन्ति काले ततश्चैयानि यदि सन्ति । तदा चन्दन्ते कालं यथा च तोलयित्वा प्रतिक्रमणम् ॥१॥ % दीप अनुक्रम [१०४४-] -१०५७]] 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1091~ Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२६], मूलं [-] / गाथा ||१२|| नियुक्ति: [४८६...] (४३) सामाचा यध्ययन, २६ प्रत सूत्रांक ||२|| उत्तराध्य.एसा सामायारी, समासेण वियाहिया। जं चरित्ता बहू जीवा, तिना संसारसागरं ॥५२॥ तिमि ॥ बृहद्वृत्तिः ॥सामायारीयं ॥ २६ ॥ _ 'एषा' अनन्तरोक्ता सामाचारी दशविधा, ओघरूपा [च] पदविभागात्मिका चेह नोक्ता, धर्मकथाऽनुयोगत्वा- ॥५४७॥ दस्य, छेदसूत्रान्तर्गतत्वाच तस्याः, 'समासेन' सङ्केपेण 'वियाहिय'त्ति व्याख्याता, अत्रैवादरख्यापनार्थमस्थाः फलमाह-'या' सामाचारी 'चरित्वा' आसेव्य 'बहवः' अनेके जीवास्तीर्णाः संसारसागरं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ इति परिसमासी, अवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वदेव ॥ इत्युत्तराध्ययनटीकायां श्रीशान्याचार्यविरचितायां सामाचारीनामकं षड्विंशमध्ययनं समाप्तम् ॥ २६ ॥ TERESTAESTRA-TaskEATRA-STREESRA T RATRATRA श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटी शिष्य सामाचारीनामकं पड्रिंशमध्ययनं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [१०५८] A५४७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययन- २६ परिसमाप्त ~1092~ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [-]/ गाथा ||५२...|| नियुक्ति: [४८७-४८८] (४३) अथ सप्तविंशं खल्लुकीयमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक ||२|| व्याख्यातं षडिशमध्ययनं, सम्प्रति ससविंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सामाचारी , प्रतिपादिता, सा चाशठतयैव पालयितुं शक्या, तद्विपक्षभूतशठताज्ञान एव च तद्विवेकेनासौ ज्ञायत इत्याशयेन दादृष्टान्ततः शठताखरूपनिरूपणद्वारेणाशठतैवानेनाभिधीयत इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्स चतुरनु-IX योगद्वारप्ररूपणा प्राग्यद्यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे खलुकीयमिति नाम, अतः खलुक [नामतः खल्लुक] निक्षेपायाह नियुक्तिकृत् निक्लेवो खलुकमि चउविहो ॥४८७ ॥ जाणगसरीरभविए तबइरित्ते बइल्लमाईसुं । पडिलोमो सवत्थेसु भावओ होइ उ खलुंको ॥ ४८८ ॥ है 'निक्लेवोगाथाद्वयं ब्याख्यातप्रायमेव, नवरं वलीवर्दादिष्वित्यादिशब्देनाश्वादिपरिग्रहः, निर्धारणे चेयं सप्तमी, ततो बलीवर्दादिपु यो गल्यादिरिति गम्यते स द्रव्यतः खलुङ्क इति, 'प्रतिलोमः' प्रतिकूलः सर्वार्थपु, पाठान्तरतः | 5/I 'सर्वस्थानेषु' ज्ञानादिषु भावतो भवति खलुक इति गाथाद्वपार्थः। तद्वयतिरिक्तद्रव्यखलुखरूपमाह दीप अनुक्रम [१०५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २७ "खलंकीय" आरभ्यते ~1093~ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [-] / गाथा ||५२...|| नियुक्ति: [४८९-४९१] (४३) बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२|| उत्तराध्य. 18 अवदाली उत्तसओ जोत्तजुगभंज तुत्तभंजो अ। उप्पहविप्पहगामी एय खलंका भवें गोणा ॥४८९॥14 खलुक्की जं किर दवं खुजं कक्कडगुरुयं तहा दुरवणामं । तं दवेसु खलुंकं वंककुडिलवेढमाइद्धं ॥ ४९०॥ याध्य.२७ सुचिरंपि वंकडाई होहिंति अणुजइजमाणाई । करमंदिदारुआई गयंकुसा इव विंटाइं ॥ ४९१ ॥ ॥५४८॥ 'अवदालि'त्ति अवदारयति शकटं स्वखामिनं वा विनाशयतीत्येवंशीलोऽवदारी, उनसको यो यत्किञ्चनावलोक्योजाप्रस्थति, 'जुत्तजुगभंजत्ति योत्रं-तथाविधसंयमनं युग-प्रतीतमेव ते भनक्ति-विनाशयति योत्रयुगभञ्जः, तथा तोत्रं प्राजनकस्तद्भनक्ति तोत्रभञ्जकच, उभयत्र 'कर्मण्यण'(पा०३-२-१इत्यण), 'उत्पथविपथगामी' उत्पथ:-उन्मार्गो विपथो-विरूपमार्गस्ताभ्यां गमनशीलः, एते' अवदार्यादयः खलुकाः भवन्ति' भवेयुः 'गोणाः' बलीवर्दाः, उपलक्षणत्वादश्वादयश्च । अमुमेव प्रकारान्तरेणाह-'यदि ति सामान्यनिर्देशे किले ति परोक्षासवादसूचकः 'द्रव्यं' दार्वादि कुजमिष कुजं मध्यस्थूलतया कर्कशं च तत्कठिनतया गुरुकं चातिनिचितपुद्गलतया कर्कशगुरुकं,तथाऽत एव दुःखेनाव|नामयितुं शक्यत इति दुरवनाम, करीरकाष्ठवत्, तहव्येषु खलुकं वक्रमनृजुत्वात् कुटिलं विशिष्ट कौटिल्ययोगात् | ५४८॥ | 'वेढमाइद्धं'ति मकारोऽलाक्षणिकस्ततश्च वेष्टे:-प्रन्थिभिराबिधू-व्यासं वेष्टाविद्धम् , तेषां विशेषणसमासः । इहैव दृष्टान्तमाह-सुचिरमपि' प्रभूतकालमपि 'वंकडाइ'न्ति वक्राणि, अवधारणाफलत्वाच वाक्यस्य चक्राण्येव भवि-IN CENCERCIENCE दीप अनुक्रम [१०५८] + मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1094~ Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [-] / गाथा ||५२...|| नियुक्ति: [४८९-४९१] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| प्यन्ति न कदाचिरजुभावमनुभविष्यन्ति, 'अणुज्जइज्जमाणाईति एकं खरूपतोऽनृजूनि अपरं च तेषां क्वचित्कार्येडनुपयोगात्केनचिदनृजूक्रियमाणानि, कान्येवंविधानीसाह-करमर्दी-गुल्मभेदस्तद्दारुकानि, तथा 'गयंकुसा इव विंटा इति चस्स गम्यमानत्वाद् गजाङ्कशानीव वक्रतया वृन्तानि च-फलबन्धनानि, प्रक्रमाकरम- एवोक्तरूपाणि । द अनेकधा द्रव्यखलुङ्काभिधानं च काकाऽनेकविधकुशिष्यदृष्टान्तप्रदर्शनार्थमिति गाथात्रयार्थः॥ सम्प्रति यदुक्तं 'प्रति लोमः सर्वार्थेषु भावतो भवति खलुङ्क' इति तदभिव्यक्तीकर्तुमाहदसमसगस्समाणा जलुयकविच्छ्यसमा य जे हुति। ते किरहोंति खलुका तिक्खम्मिउचंडमदविआ४९२३ |जे किर गुरुपडिणीआ सबला असमाहिकारगा पावा। अहिगरणकारगऽप्पा जिणवयणे ते किर खलंका॥ पिसुणा परोवतावी भिन्नरहस्सा परं परिभवंति। निविअणिजा य सढा जिणवयणे ते किर खलंका॥४९४॥ दंशमशकैः ‘समाण त्ति समानाः-तुल्या दंशमशकसमानाः, ते हि जात्यादिभिस्तद्वत्तुदन्तीति, तथा जलौकाकपि- च्छुकसमानाश्च प्रस्तावाच्छिष्या ये भवन्ति, दोषग्राहितयाऽप्रस्तुतपृच्छादिनोद्वेजकतया च, पठन्ति च-जलूकविच्छुगसमा यत्ति यथा वृश्चिकोऽवष्टन्धो विध्यत्येव कण्टकेन एवं ये शिष्यमाणा गुरुं वचनकण्टकैर्विध्यन्ति 'ते' एवंविधाः किल भवन्ति खलुङ्का भावत इति गम्यते, तीक्ष्णा-असहिष्णवो मृदवः-अलसतया कार्यकारणं प्रत्यद दीप अनुक्रम [१०५८] JABERatinintamatana मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1095~ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [-] / गाथा ||५२...|| नियुक्ति: [४९२-४९४] (४३) खली बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२|| उत्तराध्य. तिवाथण्डा:-कोपनतया मार्दवेन चरन्ति मार्दविका:-शतकृत्वोऽपि गुरुप्रेरिता न सम्यगनुष्ठानं प्रति प्रवर्त्तन्ते किन्त्व- लसा एव, अमीषा द्वन्द्वः । अन्यच्च-ये किल 'गुरुप्रत्यनीकाः' आचार्यादिप्रतिकूलाः कूलवालकवत् 'शबलाः' शब हालचारित्रयोगात् 'असमाधिकारकाः' गुर्वादीनामसमाधानजनकाः, अत एव पापाः 'अधिकरणकारकात्मानः' ॥५४९॥ कलहकर्तृखभाषाः सदनुष्ठानं प्रति प्रेर्यमाणा युद्धायैवोपतिष्ठन्ते, 'जिनवचने' सर्वज्ञशासने ते किल खलुक्का इत्युच्यन्त इति शेषः । तथा 'पिशुनाः' सूचकाः, अत एव 'परोवयावि'त्ति परोपतापिनः 'भिन्नरहस्याः' विश्वस्तजनकथितरहस्यभेदिनः तथा 'परम्' अन्यं 'परिभवन्ति' येन केनचित्प्रकारेणाभिभवन्ति 'णिवेयणिज्जत्ति निदनीया निर्वेद प्राप्य प्रक्रमाद्यतिकृत्येन, पाठान्तरतो निर्गता वचनीयाद्-उपदेशवाक्यात्मका ये ते निर्वचनीयाः, चः समुचये [भिन्नक्रमच, ततः 'शठाश्च' मायापिनः, पठ्यते च-णिवया णिस्सीलसढ'त्ति, सुगममेष, 'जिनवचने' श्रीसर्वज्ञशा-1 सने भणिता ये इति शेषः, ते प्रागभिहितस्वरूपाः किल खलुङ्का इति गाथात्रयार्थः ॥ ततः किमित्याहतम्हा खलंकभावं चइऊणं पंडिएण पुरिसेणं । कायदा होइ मई उजुसभावमि भावेणं ॥ ४९५॥ तस्मादित्थं दोषवन्तं खलुङ्कभावं त्यक्त्वा 'पण्डितेन' बुद्धिमता पुरुषेण उपलक्षणत्वात् ख्यादिना च कर्त्तव्या भवति मतिः' बुद्धिः, क?-'ऋजुखभावे' आर्जवे भावे 'भावेन' परमार्थेन न तु बहिर्वृत्त्यैवेति गाथार्थः।। अवसितो नामनिष्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् दीप अनुक्रम [१०५८] ॥५४९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1096~ Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २७], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४९५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१|| धेरे गणहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइन्ने गणिभावम्मि, समाहिं पडिसंधए ॥१॥ धर्मेऽस्थिरान् स्थिरीकरोतीति स्थविरः, उक्तं हि-"घिरकरणा पुण थेरो" गणं-गुणसमूहं धारयति-आत्मन्यवस्थापयतीति गणधरः 'गार्यः' गर्गसगोत्रः तथा मुणिति-प्रतिजानीते सर्वसावद्यविरतिमिति मुनिः 'आसीत्, अभूत् 'विशारदः' कुशलः सर्वशास्त्रेषु सङ्ग्रहोपग्रहयो, 'आकीर्णः' आचार्यगुणैराचारश्रुतसम्पदादिभिर्व्याप्तः। परिपूर्ण इतियावत् , 'गणिभावे' आचार्यत्वे स्थित इति गम्यते, 'समाहिं पडिसंधए'त्ति समाधानं समाधिः, सच |द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यसमाधिर्यदुपयोगात्खास्थ्यं भवति, यथा(वा) पयःशर्करादिद्रव्याणां परस्परमवि|रोधः, भावसमाधिस्तु ज्ञानादीनि, तदुपयोगादेवानुपमखास्थ्ययोगात्, तत्रेह भावसमाधिर्पयते, ततः समाधि 'प्रतिसंधत्ते' कर्मोदयात् त्रुटितमपि संघट्टयति, तथाविधशिष्याणामिति गम्यते इति सूत्रार्थः॥ समाधि च प्रतिसंदघद्यथाऽसौ शिष्येभ्य उपदिशति तथाऽऽह घहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तए । जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तए ॥२॥ उद्यतेऽनेन वोढव्यमिति वहनं-शकटादिस्तस्मिन् योजितस्येति गम्यते, 'वहमानस' सम्यक्प्रवर्त्तमानस्योत्तरत्र खलुकग्रहणादिह विनीतगवादेरिति गम्यते, अतिक्रम्यातिक्रमणसम्बन्धे पष्ठी, वाहकाविनाभूतत्वाचास वाहकस्य १ खिरकरणात्पुनः स्थविरः दीप अनुक्रम [१०५९] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः ~ 1097~ Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||2|| दीप अनुक्रम [१०६०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५५०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [--] / गाथा ||२|| निर्युक्ति: [४९५...] च पामरकादेः 'कान्तारम्' अरण्यम् 'अतिवर्त्तते' सुखातिवर्त्तितया खयमेवातिक्रमतीति ष्टान्तः, उपनयमाह'योगे' संयमव्यापारे 'वहतः' तथैव प्रवर्त्तमानस्य इहापि प्राग्वत्प्रवर्त्तकस्य चाचार्यादेः 'संसारः' भवः अतिवर्त्तते' प्राग्वत् खयमेवातिक्रामति, इह च योगवहनमशठतेति सैव प्रागध्ययनार्थत्वेनोपवर्णिता फलोपदर्शनद्वारेणानेनोतेति भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ तदेवं कथममी अशठतांमासेव्य पुनर्ज्ञानादिसमाधिमन्तः शिष्याः स्युरिति तस्या गुणमभिधाय तद्गुणज्ञानमिव तद्विपक्षदोषावधारणमपि तदासेवनाङ्गमिति तद्विपक्षभूतशठतादोषा अपि वाच्याः, तेच कुशिष्यखरूपाभिधानत एवाभिधातुं शक्यन्ते इति निर्वेदकत्वं स्वयं दोषदुष्टत्वं च तत्स्वरूपमवगमयितुं दृष्टान्तोपवर्णनायाह लंके जो उ जोड़, विमाणे किलिस्सई । असमाहिं च वेएइ, तुत्तओ य से भज्जई ॥ ३ ॥ एवं सह पुच्छंमि, एवं विवइऽभिक्खणं । एगो भंजइ समिल, एगो उप्पहपट्टिओ ॥ ४ ॥ एगो पडइ पासेणं, निवेसह निविज्जई। उक्कुदइ उन्फिडई, सढे बालगवी वए ॥ ५ ॥ माई मुद्धेण पडई, कुद्धे गच्छइ पडिवहं । मयलक्लेण चिट्ठाई, वेगेण य पहावई ।। ६ ।। छिन्नाले छिंदई सिलि दुईते भंजई जुगं । सेविय सुस्सुयाइत्ता, उज्जु| हिता पलायई ॥ ७ ॥ यद्वा धर्मकथाऽनुयोगत्वादस्य प्रथमसूत्रे गर्गनामाऽऽचार्यः कथञ्चित्कुशिष्यैर्भग्नसमाधिरात्मनः समाधिं प्रति - uttaration For Fans Only खडकी याध्य. २७ ~ 1098~ ॥५५०॥ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [-]/ गाथा ||३-७|| नियुक्ति: [४९५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३-७|| |संधत्त इति ब्याख्यायते, द्वितीयसूत्रे तु वहने 'वहमाणस्सति अन्तर्भावितण्यर्थतया चाहयमानस्य विनीतगवादीन् । यथा कान्तारमतिवर्त्तते तथा योग्यान् शिष्यान् वाहयमानस्य-कृत्येषु प्रवर्त्तयतः संसारोऽतिवर्त्तते, तद्विनीततादर्शनादात्मनो विशेषतः समाधिसम्भवादितिभाव इति सोपस्कारतया व्याख्यायते, इत्थमात्मनः समाधिप्रतिसन्धानाय विनीतखरूपं परिभाब्य स एवाविनीतखरूपं यथा परिभाषयति तथाऽऽह-खलुंकेत्यादिसूत्रद्वादशकस् । खलुकान योऽनिर्दिष्टखरूपः 'तुः विशेषणे योजयति-योक्रयति वहन इति प्रक्रमः, स किमित्याह-विहंमाणो'त्ति सूत्रत्वाद् विशेषेण 'नन्' ताडयन् 'क्लाम्यति' श्रमं याति, पाठान्तरतः क्लिश्यति, अत एव 'असमाधि' चिचोदेगरूपं 'वेदयते' | अनुभवति 'तोत्रका प्राजनकः, स च 'से' इति तस्य खलुङ्कयोजयितुः 'भज्यते' अतिताडनाद्भङ्गं याति । ततश्चा|तिरुष्टः सन् यत् कुरुते तदाह-एक 'दशति दशनैर्भक्षयति 'पुच्छे' वालधौ, 'एकम्' अन्यं गलिं 'विध्यति' प्राजनकारया तुदति, उपलक्षणं चैतदश्लीलभाषणादीनाम् , 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः, अथ किमेते कुर्वन्ति ? येन योजहै यितुरेवं निर्वेदहेतव इत्याह-'एकः कश्चित् खलुको गौः 'भनक्ति' आमर्दयति, कां ?-'समिला' युगरन्धकीलिकाम् , 'एकः' अन्यस्तामभङ्क्त्वाऽपि उत्पथम्-उन्मार्ग प्रस्थित उत्पथप्रस्थितो भवतीति गम्यते । तथा 'एकः' अपरः। पतति 'पार्थेन' एकगात्रविभागेन, गम्यमानत्वाद् भूमी, अन्यस्तु 'निवेसइ'त्ति निविशति-उपविशति, अपरश्च |'णिविजए'त्ति शेते, परः 'उत्कूदते' ऊर्दू गच्छति 'उप्फिडइ'त्ति मण्डूकवलयते, अन्यः 'शठः' शाठ्यपान , अन्यः दीप अनुक्रम [१०६१-१०६५] 4SXSI 4 JABERatinintammationa मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1099~ Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3-6|| दीप अनुक्रम [१०६१ -१०६५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥५५१॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२७], मूलं [-] / गाथा ||३७|| निर्युक्ति: [४९५...] कश्चिद्र 'बालगवी वए'सि 'बालगवीम्' अवृद्धां गां 'ब्रजेत् तदभिमुखं धावेदित्यर्थः, यदिवाऽऽर्पत्वाद्वालगवीति व्यालगवो- दुष्टबलीवर्दः 'व्रजेत्' गच्छेद् अन्यत इति शेषः । अन्यश्च 'मायी' मायावान् 'मूर्ध्ना' मस्तकेन पतति, कोऽर्थः ? - अतिनिस्सहमिवात्मानमादर्शयन् भुवि शिरसा लुठति, अपरः 'क्रुद्धः कुपितः सन् 'गच्छति प्रतिपथं ' पश्चाद्वलति, अपरः 'मृतलक्ष्येण' मृतव्याजेन 'तिष्ठति' आस्ते, पठ्यते च- 'पलयं (यलं) ते ण चिट्ठिय'त्ति प्रव (च) लन् - ५ प्रकर्षेण कम्पमानस्तिष्ठति, कम्पान्न निवर्त्तत इत्यर्थः, कथञ्चित्प्रवणीकृतः 'वेगेन च प्रधावति' यथा द्वितीयो गन्तुं न | शक्नोति तथा गच्छतीति योऽर्थः । 'छिन्नालः ' तथाविधदुष्टजातिः कश्चित् 'छिनत्ति' खण्डयति 'सि [ख]लिं'ति रश्मि संयमन रज्जुमितियावत्, अपरस्तु दुर्दान्तो भनक्ति युगं, सोऽपि च युगं भङ्क्त्वा 'सुस्सुयाइत्त'ति सूत्कारान् कृत्वा, तथा 'उज्जुहित्त'त्ति प्रेर्य खामिनं शकटं चेति गम्यते ' पलायते' अन्यतो घावतीति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ इत्थं दृष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजनामाह खलुंका जारिसा जुजा, दुस्सीसाविह तारिसा । जोइया धम्मजाणंमि, भर्ज्जता धिइदुब्बला ॥ ८ ॥ 'खलुका:' इहोक्तरूपा गावो यादृशाः 'योज्याः' घट्टनीयाः, दुःशिष्या अपि 'दुः' अबधारणे भिन्नक्रमश्च ततस्तादृशा एव, यथा हि खलुङ्कगवाः स्वखामिनं क्र (ल) मयन्त्यसमाधिं च प्रापयन्ति यथा च समिलाभङ्गादिना दुष्टत्वमादर्शयन्त्येवमेतेऽपि किमिति १-यतो 'योजिताः' व्यापारिता धर्मो यानमिव मुक्तिपुरप्रापकतया धर्मयानं तस्मिन् Education intol For Fasten खलुङ्की याध्य. २७ ~1100~ ॥५५१॥ wwwjanbrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [--1 / गाथा ||९-१४|| नियुक्ति: [४९५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१४|| भज्यन्ते' न सम्यक् प्रवर्तन्ते 'धिइदुबल'त्ति प्राकृतत्वाद् दुर्बलधृतयो धर्मानुष्ठानं प्रतीति गम्यत इति सूत्रार्थः ॥ धृतिदुर्बलत्वमेव तेषां भावयितुमाह इहीगारविए एगे, एगित्थ रसगारवे । सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहणे ॥९॥ भिक्खालसिए एगे,8 एगे ओमाणभीरुए थद्धे । एगं च अणुसासमी, हेहि कारणेहि य ॥१०॥ सोऽवि अंतरभासिल्लो, दोस-15 मेव पकुब्बई । आयरियाणं तं वयणं, पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥११॥न सा मम वियाणाइ, नवि सा मज्झ2 दाहिई । निग्गया होहिई मने, साहू अन्नोऽत्य वच्चउ ॥१२॥ पेसिया पलिउंचंति, ते परियति समंतओ। रायविट्टि व मनंता, करिति भिडिं मुहे ॥१३॥ वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणेहिं पोसिया। जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमति दिसोदिसिं ॥ १४ ॥ | 'इडीगारविए'त्ति ऋया गौरव-श्राद्धा ऋद्धिमन्तो मम वश्याः संपद्यते च यथाचिन्तितमुपकरणमित्याधात्मबहुमानरूपमृद्धिगौरवं तदस्खास्तीति ऋद्धिगौरविको न गुरुनियोगे प्रवर्तते किमेतैर्ममेति एका-कश्चन, एकः' अन्योऽ ति-दुःशिष्याधिकारे 'रसगारवेत्ति रसेषु-मधुरादिषु गौरव-पाय यस्यासी रसगौरवो वालग्लानादिसमुचिताहारदानतपोऽनुष्ठानादौ न प्रवर्त्तते, 'सायागारविए'त्ति साते-सुखे गौरव-प्रतिवन्धः सातगौरवं तदस्यास्तीति सातगौ-10 रविक एका, सुखप्रतिबद्धो हि नाप्रतिबद्धविहारादी प्रवर्तितुं क्षमः, एकः 'सुचिरक्रोधन' प्रभूतकालकोपनशीलः, दीप अनुक्रम [१०६७ -१०७२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1101~ Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१४|| दीप अनुक्रम [१०६७ -१०७२] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥५५२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||९-१४|| निर्युक्ति: [४९५...] Education intemational अध्ययनं [२७], । एकदा कुपितः कुपित एवास्ते, न कृत्येषु प्रवर्त्तते । भिक्षायामालस्यकः - आलस्यवान् भिक्षाssलस्थिक एको न विहर्तुमिच्छति, एकोऽपमानभीरुः- भिक्षां भ्रमन्नपि न यस्य तस्यैव वेश्मनि प्रवेष्टुमिच्छति, यदिवा 'ओमाणं ति प्रवेशः स च खपक्षपरपक्षयोस्तद्द्भीरुर्गृहिप्रतिबन्धेन मा मां प्रविशन्तमवलोक्यान्ये साधवः सौगतादयो वाऽत्र प्रवेश्यन्तीति, 'थद्धो'ति स्तब्धोऽहङ्कारवान् न निजकुग्रहान्नमयितुं शक्य इति प्रक्रमः, एकं च दुःशिष्यम् 'अणुसासंमिति आर्पत्वादनुशास्ति गुरुरिति गम्यते, यदा त्वाचार्य आत्मनः समाधिं प्रतिसंधत्ते इति व्याख्या तदाऽनुशास्त्रीति व्याख्येयं हेतुभिः कारणैश्चोतरूपैः । स चानुशिष्यमाणः किं कुरुते ? इत्याह-सोऽपि दुःशिष्यः 'अंतरभासिल'त्ति अन्तरभाषावान्, गुरुवचनापान्तराल एव स्वाभिमतभाषक इत्यर्थः, 'दोपमेव' अपराधमेव 'प्रादुष्क (प्रक)रोति' प्रकर्षेण विधत्ते, न तु शिष्यमाणोऽपि तद्विच्छेदमिति भावः, पाठान्तरतश्च दोषमेव प्रभाषते, गुरूणामिति गम्यते, न चैतावता तिष्ठति, किन्त्वाचार्याणामुपलक्षणत्वादुपाध्यायादीनां द्वितीयपक्षे त्वाचार्याणां सतामखाकमिति गम्यते, तदित्यनुशिष्ट्यभिधायकं वचनं वचः 'प्रतिकूलयति' विपरीतं करोति युक्त्युपन्यासेन विपरीतचेष्टया वा 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः, न त्वेकदैवेत्यभिप्रायः । यथा प्रतिकूलयति तथाऽऽह-न सा 'मम' ति मां विजानाति, किमुक्तं भवति ? - गुरुभिः कदाचित्प्रज्ञापितो यथा - आयुष्मन् ! ग्लानप्रतिजागरणं महन्निर्जरास्थानमित्यमुकस्या अपि श्राविकायाः सकाशादमुक मौषधमादारजातं वाऽऽनीयतां, ततः स तथा ज्ञायमानोऽपि प्रतिकूलतया प्राह For False खलुङ्की याध्य. २७ ~ 1102~ ॥५५२|| www.jancibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१४|| दीप अनुक्रम [१०६७ -१०७२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||९-१४|| निर्युक्ति: [४९५...] Education intemational अध्ययनं [२७], न सा-श्राविका मा प्रत्यभिजानाति, अप्रत्यभिज्ञानाच न वेत्ति, नैव सा मां दास्यति विवक्षितमौषधादीति गम्यते । | इति हेतुहेतुमद्भावेन व्याख्येयं स्वतन्त्रतया वा न सा मां विजानाति, नापि सा मयं दास्यतीत्याह यदिवा निर्गता | गृहादिदानीं सा भविष्यतीति मन्ये इति वक्ति, अथवा साधुः 'अन्यः' मद्यतिरिक्तः 'अत्र' विवक्षितप्रयोजने त्रजतु, किमहमेवैकः साधुरस्मीत्यभिधत्ते । अन्यच 'प्रेषिताः' क्वचित्तथाविधप्रयोजने प्रस्थापिताः 'पलिउंचंति'ति तत्प्रयोजनानिष्पादने पृष्टाः सन्तोऽपहुवते - क वयमुक्ताः १, गता वा तत्र वयं, न त्वसौ दृष्टेति, पठ्यते च- 'पोसिया पलिउं |चंति' पोषिताः- आहारोपकरणादिना श्रुतादिना च पुष्टिं नीता अपह्नवते यथा किमस्माकं गुरुभिः कृतमित्यपलपन्ति 'ते' दुःशिष्याः 'परियंति' पर्यटन्ति 'समन्ततः' सर्वासु दिक्षु, न गुरुसन्निधौ कदाचिदासते, मा कदाचिदेषां किञ्चित्कृत्यं भविष्यतीति, कथञ्चित्संनिधाने वा कर्त्तुं प्रवृत्तौ 'राजवेष्टिमिव' नृपतिहठप्रवर्त्तितकृत्यमिव 'मन्यमानाः' मनस्यवधारयन्तः कुर्वन्ति 'भ्रकुटीम्' आवेशवशकृत भ्रूत्क्षेपरूपां 'मुखे' वक्रे, अत्यन्तदुष्टताख्यापकमेतत् तदन्यवपुर्विकारोपलक्षणं च । अपरञ्च- 'वाचिताः' शास्त्राणि पाठिताः, उपलक्षणत्वात्तदर्थं च ग्राहिताः, किमाचार्यान्तरसत्का एव सन्त उतान्यथेत्याह- 'संगृहीताः परिगृहीताश्चशब्दाद् दीक्षिता उपस्थिताश्च स्वयमिति गम्यते, एवेति पूरणे, 'भक्तपानेन' च सुखिग्धमधुरादिना, सूत्रे च सुब्व्यत्ययात्तृतीयार्थे सप्तमी, 'पोषिताः' उपचितीकृताः, तथाऽपि 'जातपक्षाः' उत्पन्नपतत्रा यथा हंसाः प्रकर्षेण - अतिविप्रकृष्टदेशान्तरगमनलक्षणेन क्रामन्ति गच्छन्ति प्रक्रामन्ति 'दिसोदिसिं ति Forest Use Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~1103~ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२७], मूलं [-1 / गाथा ||१५-१६|| नियुक्ति: [४९५...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१५ -१६|| उत्तराध्य. दिशि दिशि यदृच्छाविहारिणो भवन्तीत्यर्थः । पूर्वौकस्थानस्थितानामेव पर्यटनमुक्तम् , इह तु देशान्तरगमन इति न बृहदृत्तिः | पौनरुक्त्य, प्रागेकप्रक्रमेऽपि यदिह बह्वभिधानं तदीदृशां भूयस्त्वख्यापनार्थमिति सूत्रषट्कार्थः । इत्थं खलुङ्करस्येव समिलाभकादिना दुःशिष्यस्य धृतिदुर्वलत्वादिना दुष्टत्वम् , अत एव वखामिक्लमासमाधिजनकत्वं चोक्तम् , इदानी [४] याध्य.२७ ॥५५३॥ तैरेव प्रापितलमासमाधिर्यदसावचेष्टत तदाह | अह सारही विचितेइ, खलुंके हि समागए। किं मझ दुट्टसीसेहिं १, अप्पा मे अवसीआई ॥१५॥ | जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगद्दहे चइत्ताण, दढं पगिहई तवं ॥१६॥ & 'अर्थ'ति क्लमासमाधिसम्भवानन्तरं सारथिरिव सारथिः स्खलितप्रवर्तकतयाऽऽचार्यादिः 'विचिन्तयति' ध्यायति, आचार्यसमाधिप्रतिसन्धानपक्षे तु 'अत्यनन्तरोक्तचिन्तानन्तरं 'सारथिः स एव गर्गाचार्यः खलुकैरिव खलुहै:-दुः|शिष्यैः, हेतौ तृतीया, श्रम-खेदमागतः-प्राप्तः श्रमागतः, ते हि दुष्टगववदनेकधा प्रेर्यमाणा अपि सन्मार्गमगच्छन्तो गुरुश्रमहेतव एव भवन्ति, यदिवा समागतः खलुकैरिति च.सहार्थे तृतीया, यद्विचिन्तयति तदाह-किं , न किञ्चि|दित्यर्थः, ममैहिकमामुष्मिकं या प्रयोजनं सिध्यतीति गम्यते, कैः१-दुष्टशिष्यैः प्रक्रमात्प्रेरितैः, किमेवमुच्यते इत्याह ॥५५॥ आत्या 'मे' ममावसीदति, एतत्प्रेरणादिव्यग्रतया तथाविधखखकृत्याकरणेन, तत एतत्यागतो वरमुद्यतविहारेणैव 2 विद्दतमिति भावः। अथैतत्प्रेरणान्तराले खकृत्यमपि किंन क्रियते ? इत्याह-याशा मम शिष्याः, 'तुः' पूरणे, तादृशा ARMS*******MARIA CAIG दीप अनुक्रम [१०७३-१०७४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1104 ~ Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१७॥ दीप अनुक्रम [१०७५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१७|| अध्ययनं [२७], निर्युक्ति: [४९५...] गलिगर्दभाः, यदि परमित्युपस्कारः, गर्द भग्रहणमतिकुत्साख्यापकं, ते हि स्वरूपतोऽप्यतिप्रेरणयैव प्रवर्त्तन्ते, ततस्तत्प्रेरणयैव कालोऽतिक्रामति, न तु तदन्तरालसम्भव इति भावः, यतश्चैवं ततो गलिगर्दभानिव गठिगर्दभान् - दुः शिष्यां| स्त्यक्त्वा 'दृढ' बाट 'प्रगृह्णामि' पाठान्तरतः 'परिगृह्णाति वा अङ्गीकुरुते, तदनुशासनरूपपलिमन्धत्यागतः, एकत्र सामान्येन गुरुरन्यत्र तु गर्गनामा, किन्तु 'तपः' अनशनादीति सूत्रद्वयार्थः ततः कीरशः सन् किमसौ कुरुते ? इत्याहमित्रमद्दवसंपन्ने, गंभीरे सुसमाहिए। विहरद्द महिं महप्पा, सीईभूषण अप्पण ॥ १७ ॥ त्तिवेमि ॥ ॥ खलुंकिजं ॥। २७ ॥ 'मृदु:' बहिर्वृत्त्या विनययान् 'मार्दवसंपन्नः' अन्तःकरणतोऽपि तादृगेव, कुशिष्यसन्निधौ हि मृदुरपि खरूपतोऽमृदुरेवासीत्, उक्तं हि प्राकू - " अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चंडं पकरंति सीसा" इति, अत एव 'गम्भीरः ' अलब्धमध्यः 'सुसमाहितः' सुष्ठु चित्तसमाधानवान् 'विहरति' अप्रतिबद्धविहारेण पर्यटति 'महीं' पृथ्वी महात्मा शीलं -- चारित्रं भूतः - प्राप्तः शीलभूतस्तेनात्मना उपलक्षितः, यतश्चैवं गुरोरपि खलुङ्कत्यागत एव मार्दवादिगुणसंपन्नतेति खलङ्कताया इहैवात्मनो गुरूणां च दोषहेतुत्वेन सत्यागतोऽशठतैव सेवितव्येत्यध्ययनतात्पर्यार्थः ॥ 'इति' परिसमाप्ती, नवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्तेऽपि प्राग्वदेव ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां शिष्यहितायां श्रीशान्त्याचार्यकृतायां खलुङ्कीयं नाम सप्तविंशमध्ययनं समाप्तम् ॥ २७ ॥ Education intimational Forest Use Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - २७ परिसमाप्तं ~ 1105~ Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-/ गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [४९६-५०१] (४३) बृहदत्तिः FACES प्रत सूत्रांक ||१७|| अथ मोक्षमार्गगत्याख्यमष्टाविंशमध्ययनम् । उत्तराध्य. मोक्षमार्गव्याख्यातं सप्तविंशमध्ययनम् अधुनाऽष्टाविंशमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययनेऽशठतयैव गत्य०२८ दिसामाचारी परिपालयितुं शक्यत इति तामभिहितवान् , इह तु तद्यवस्थितस्य न्यायप्राप्तैव मोक्षमार्गगतिप्राप्तिरिति र ॥५५४॥ तदभिधायकमिदमध्ययनमारभ्यते, अस्स चानुयोगद्वारचतुष्टयं प्राग्वत्प्ररूप्यं यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे अस्य मोक्षमार्गगतिरिति नाम अतो मोक्षस्य मार्गस्य गतेश्च निक्षेपमभिधातुमाह नियुक्तिकृत्निक्खेवो मुक्खंमि(य)चउबिहो ॥४९६ ॥ जाणगसरीरभविए तबइरित्ते अनियलमाईसु । अट्रविहकम्ममुको नायवो भावओ मुक्खो ॥४९७॥ निक्खेवो मग्गंमि(वि)चउवि० . ॥४९८॥ जाणगसरीरभविए तबइरिते अ जलथलाईसुं । भावंमि नाणदंसणतवचरणगुणा मुणेयवा ॥४९९॥ निक्खेवो उ गईए चउको दुवि० ॥५०॥ जाणगसरीरभविए तबइरिते अ पुग्गलाईसुं । भावे पंचविहा खल मुक्खगईए अहीगारो ॥ ५०१ ॥ दीप अनुक्रम [१०७५]] ५५४ा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २८ "मोक्षमार्गगति" आरभ्यते ~ 1106~ Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [४९६-५०१] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७|| णिक्खवेत्यादि गाथाः षट्र प्रतीतार्था एव, नवरं 'तवइरित्ते य नियलमाईसु'त्ति तद्यतिरिक्तश्च निगडादिभ्यः, आ-|| 2 दिशब्दात्कारागृहादिपरिग्रहः, सूत्रत्वाच पञ्चम्यर्थे सप्तमी, इह च निगडादीनां द्रव्यत्वात्तन्मोक्षोऽपि द्रव्यमोक्ष उक्तः, अष्टविधकर्मणा-ज्ञानावरणादिना मुक्तः-त्यक्त आत्मेति गम्यते ज्ञातव्यो भावतो मोक्षः, कथश्चिद्रव्यपर्याययोरनन्यत्वख्यापनार्थमित्थमुक्तम् , अन्यथा हि क्षायिकभाव एवात्मनो मुक्तत्वलक्षणो मोक्ष इत्युच्यते, आह-कर्मणोऽपि द्रव्यत्वात्कर्मक्षयलक्षणत्वाचास्य कथं न द्रव्यमोक्षता ?, उच्यते, इह द्रव्यस्याविवक्षितत्वात्क्षायिकभावरूपस्यैव चास्या-12 |श्रितत्वान्न दोषः, अथवा भावशब्दोऽत्र परमार्थवचनः, तथा च वक्तारो भवन्ति-अयमत्र भावः-अयमत्र परमार्थ | | इत्यर्थः, ततश्चास्यैवैकान्तिकात्यन्तिकत्वेन तात्त्विकत्वाद्भावमोक्षत्वम् , इतरस्य तु तद्विपरीतत्वाद् द्रव्यमोक्षत्वमित्य-IX नवकाश एवं प्रेरणायाः, 'तचइरिते य जलथलाईसुन्ति जलस्थले-प्रतीते आदिशब्दादुभयपरिग्रहस्तेषु प्रक्रमाद्यो मार्गः || स तव्यतिरिक्तो द्रव्ये मुणितव्य इति संटङ्कः, भावे ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणा जीवपर्यायत्वान्मुक्तिपदावाप्तिनिमित्ततया । च मुणितव्यो मार्ग इति प्रक्रमः । 'तपइरित्ते य पोग्गलाईसु'न्ति सूत्रत्वात्तयतिरिक्ता च प्रक्रमा व्यगतिः पुद्गला|5|| दिपु, आदिशब्दाजीवपरिग्रहः, व्यक्तिभेदविवक्षया च बहुवचननिर्देशः, द्रव्यत्वं चास्था द्रव्यप्राधान्यविवक्षया, अन्यथा हि पुद्गलादिपर्यायत्वादतर्भावरूपतैव, यदिवा द्रव्यस्य गतिः द्रव्यगतिरिति षष्ठीसमासाश्रयणान्न दोषः, भावे । दीप अनुक्रम [१०७५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1107~ Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [५०२] (४३) प्रत सुत्रांक ||१|| उत्तराध्य. पञ्चविधा' पञ्चप्रकारा प्रस्तावाद्गतिारकतिर्यडरामरमस्याख्यगम्यभेदेन, मोक्षगत्या-सिद्धिगया लधिकारः, तस्या मोक्षमार्गबृहद्धतिः। एवेहाभिधेयत्वादिति गाथाषट्कार्थः ॥ सम्प्रति यथाऽस्य मोक्षमार्गगतिरिति नाम तथा दर्शयितुमाह गत्य०२८ मुक्खो मग्गो अ गई वणिजइ जम्ह इत्थ अज्झयणे । तं एअं अज्झयणं नायवं मुक्खमम्गगई ५०२ ॥५५५॥ IPL मोक्षः प्राप्यतया मार्गस्तत्प्रापणोपायतया चशब्दो भिन्नक्रमः ततः 'गतिश्च' सिद्धिगमनरूपा तदुभयफलतया 'वण्येतं' प्ररूप्यते यहाद् 'अत्रे'ति प्रस्तुतेऽध्ययने 'तत् तस्मादेतदध्ययनं ज्ञातव्यं 'मोक्षमार्गगतिः' इति मोक्षमा-115 गेंगतिनामकम्, अभिधेयेऽभिधानोपचारादिति भाव इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् . मुक्खमग्गगई तञ्च (स्थ), सुणेह जिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं, नाणदसणलक्खणं ॥१॥ है। मोक्षणं मोक्षः-अष्टविधकर्मोच्छेदस्तस्य मार्गः-उक्तरूपस्तेन गतिः-अनन्तरोक्ता मोक्षमार्गगतिस्तां, कथ्यमाना मिति गम्यते, 'तचंति 'तथ्याम्' अविता 'शृणुत' आकर्णयत 'जिनभाषिता' तीर्थकृदभिहितां, चत्वारि कार|णानि वक्ष्यमाणलक्षणानि तैः संयुक्ता-समन्विता चतुष्कारणसंयुक्ता तां, नन्वमूनि चत्वारि कारणानि कर्मक्षयल-|| क्षणस्य मोक्षस्य, गतेस्तु तदनन्तरभावित्वात्स एचे (व ने)ति कथं चतुष्कारणवतीत्वमस्या न विरुध्यते , उच्यते, न्यवहारतः कारणकारणस्यापि कारणत्वाभिधानाददोषः, अत एव चानन्तरकारणस्यैव कारणत्वमित्याशङ्काऽपोहाथे-13 दीप अनुक्रम [१०७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1108~ Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २८], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२|| मस्स विशेषणस्योपन्यासः, अन्यथा हि मोक्षमार्गेण गतिरिति विग्रह गति प्रति मार्गस्य कारणत्वं प्रतीयत एव, तद्रूपाणि चामूनि चत्वारि कारणानीति, तथा ज्ञानदर्शने लक्षणं-चिहं यस्याः सा ज्ञानदर्शनलक्षणा, यस्य हि दातत्सत्ता तस्यावश्यंभाविनी मुक्तिरिति निश्चीयते, अत एव चानयोमूलकारणतां दर्शयितुमित्थमुपन्यासः, यद्वार मोक्षे-उक्तलक्षणे मार्गः-शुद्धो 'मृजू शुद्धा विति धातुपाठात्तस्य गतिः-प्राप्तिस्तां ज्ञानदर्शने-विशेषसामान्योपयोगनीरूपे लक्षणम्-असाधारणं खरूपं यस्याः सा तथा तां, न चेह नियुक्तिकृता मार्गगस्योरन्यथान्याख्यानातद्विरोधः, अनन्तगमपर्यायत्वात्सूत्रस्य, शिष्यासंमोहाय कस्यचिदेवार्थस तेनाभिधानात्, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ यदुक्तं 'मोक्षमार्गगतिं शृणुते ति, तत्र मोक्षमार्ग तावदाह नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥२॥ ज्ञायते-अवबुध्यतेऽनेन वस्तुतचमिति ज्ञानं, तच्च सम्यगज्ञानमेव ज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमसमुत्थं मत्यादिभेदं, दृश्यते तत्त्वमस्मिन्निति दर्शनम्, इदमपि सम्यगरूपमेव, दर्शनमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमसमुत्पादितमहंदभिहितजीवादितत्त्वरुचिलक्षणात्मशुभभावरूपम्, 'एच' अवधारणे भिन्नक्रमश्चोत्तरत्र योक्ष्यते, चरन्ति-गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति चरित्रम्, एतदपि सम्यग्रूपमेव चारित्रमोहनीयक्षयादित्रयप्रादुर्भूतसामायिकादिभेदं सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणं, तपति पुरोपातकर्माणि क्षपणेनेति तपो-बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं यदहद्वचनानुसारि तदेव समीची-1 दीप अनुक्रम [१०७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1109~ Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २८], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥५५॥ प्रत सूत्रांक ||२|| नमुपादीयते, इत्थं चैतत् , सर्वत्र मोक्षमार्गगतिप्रस्तावाद्विपर्यस्तज्ञानादीनां तत्कारणताऽनुपपत्तेरन्यथाऽतिप्रसङ्गा-18 मोक्षमार्गतथेति, सर्वत्र चशब्दः समुच्चये, सर्वत्र समुच्चयाभिधानं समुदितानामेव मुक्तिमार्गवख्यापकम् , एष एव 'मार्ग' इति मार्गशब्दवाच्यः, अस्वैव मुक्तिप्रापकत्वात् 'प्रज्ञप्सः' प्रज्ञापितः 'जिनः' तीर्थकृद्भिः वरं-समस्तवस्तुन्यापि गत्य०२८ तयाऽव्यभिचारितया च द्रष्टुं-प्रेक्षितुं शीलमेषां ते वरदर्शिनस्तैः, इह च चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्यैव क्षपणं प्रत्यसाधारणहेतुत्वमुपदर्शयितुं, तथा च वक्ष्यति-"तवसा (उ) विसुज्झइ"त्ति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रत्येतस्यैषानुवादद्वारेण फलमुपदर्शयितुमाह नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सुग्गई ॥३॥ पूर्वाद्ध व्याख्यातमेव, 'एनम्' इत्यनन्तरमुक्तरूपं 'मार्ग' पन्धानम् 'अनुप्रासाः' आश्रिता जीवाः 'गच्छन्ति' यान्ति 'सोग्गइ'न्ति सुगति-शोभनगति, प्रक्रमान्मुक्तिमिति सूत्रार्थः ॥ ज्ञानादीनि मुक्तिमार्ग इत्युक्तमतस्तत्वरूपमिहाभिधेयं, तच तद्भेदाभिधानेऽभिहितमेव भवतीतिमत्वा 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायतो ज्ञानभेदानाहतत्थ पंचविहं नाणं, सुअं आभिणियोहियं । ओहियनाणं तइयं, मणनाणं च केवलं ॥ ४ ॥ 31५५६॥ 'तत्र' इति तेषु ज्ञानादिषु मध्ये 'पञ्चविध पञ्चप्रकारं, किं तत्-ज्ञानं, क एते पञ्च प्रकारा इत्याह-श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्दमात्रं, तश्च द्रव्यश्रुतमेव, यत्पुनः शब्दमाकर्णयतः खयं वा वदतः पुस्तकादिन्यस्तानि वा चक्षुरा दीप अनुक्रम [१०७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1110~ Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २८], मूलं [-]/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||४|| |दिभिरक्षराण्युपलभमानस्य शेषेन्द्रियगृहीतं वाऽर्थ विकल्पयतोऽक्षरारूपितं विज्ञानमुपजायते तदिह भावश्रुतं श्रुतशब्देनोक्तं, तथाऽभिमुखो योग्यदेशावस्थितवस्त्वपेक्षया नियतः खखविषयपरिच्छेदकतयाऽवबोधः-अवगमोऽभिनिबोधः स एवाभिनिबोधिक,विनयादित्वात्खार्थिकष्ठक, ओहि'त्ति अवशब्दोऽधःशब्दार्थः, ततश्चाध इत्यधस्ताद्धावति अधोऽधा विस्तृतविषयवेदकतयेत्यवधिः, मीणादिको डिः, यद्वा 'अवे'त्यध एव धानं धातूनामनेकार्थत्वात्परिच्छेदोऽवधिः 'उपसर्गे घोः किरिति (पा०३-३-९२)किः,अथवाऽवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषुपरिच्छेदकतया प्रवृत्तिरित्येवंरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमण्यवधिः,ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञातिर्वा ज्ञानं,ततोऽवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानं,तृतीयं तृतीयस्थानवर्त्तित्वात् , 'मणणाणं'तिमनःशब्देन द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिदभेदात् मनोद्रव्यपर्याया गृह्यन्ते,तेषु तत्तत्सज्ञिविकल्पहेतुषु ज्ञानं मनोज्ञानं, तानेव हि मनःपर्यायज्ञानी साक्षादेव बुध्यते,न तु बाह्यान् ,अनुमानगम्यमानत्वात्तेषाम् ,उक्तं हि-"जाणति वज्झेऽणुमाणाओ"ति, 'चः' समुञ्चये भिन्नक्रमस्ततः केवलं च, तत्र केवलम्-एकमकलुपं सफलमसाधारणमनन्तं |च ज्ञानमिति प्रक्रमः, उक्तं हि-"केवलंमेगं सुद्धं सकलमसाधारण अणंतं च ।" आह-नन्यादिषु मतिज्ञानानन्तरं श्रुतज्ञानमुक्तं तदिह किमर्थमादित एव श्रुतोपादानम् , उच्यते, शेषज्ञानानामपि खरूपज्ञानस्य प्रायस्तदधीनत्वेन दप्राधान्यख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ साम्प्रतं ज्ञानशब्दस्य सम्बन्धिशब्दत्वाद्येषां तज्ज्ञानं तान्यभिधातुमाह १ जानाति बाह्याननुमानात् २ फेवलमेकं शुद्धं सकलमसाधारणमनन्तं च । दीप अनुक्रम [१०७९] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः ~1111~ Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५५७॥ प्रत सूत्रांक एवं पंचविहं नाणं, दवाण य गुणाण य । पञ्जवाणं च सव्वेसिं, नाणं नाणीहिं देसियं ॥५॥ मोक्षमार्ग'एतद् अनन्तरोक्तं पञ्चविधं ज्ञानं द्रवन्ति-गच्छन्ति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्याणि-वक्ष्यमाणलक्षणानि तेषां, गत्य०२० 'चः तद्वतानेकमेदख्यापको, गुणानां-रूपादीनां चःप्राग्वत्, परीति-सर्वतः, कोऽर्थः -द्रव्येषु गुणेषु सर्वेष्यव-11 |न्ति-गच्छन्तीति पर्यवास्तेषां च, 'सर्वेषाम्' अशेषाणां, केवलापेक्षया चायं द्रव्यकास्न्ये सर्वशब्दः शेषज्ञानापे-18 क्षया तु प्रकारकास्ये, प्रतिनियतपर्यायग्राहित्वातेषां, 'ज्ञानम् अवबोधकं 'ज्ञानिभिः' अतिशयज्ञानोपतेः केव-12 |लिभिरितियावत् 'देशितं' कथितम् । अनेन च यदाहुः-ज्ञानं ज्ञानखरूपस्यैव ग्राहकं, बाह्याभिमतस्य वस्तुनो ज्ञानाहै तिरिक्तस्यासत्त्वाद, अत एवोक्तं-खरूपस्य खतो गति रिति, तन्निरस्तम्, अन्तः सुखादिप्रतिभासवहिः स्थूलप्रति भासस्यापि खसंविदितत्वात्, न च युगपद्वेद्यमानयोरेकस्य तात्त्विकत्वमितरस्य त्वन्यथात्वमिति निमित्तं विना कल्पयितुं शक्यम् , अथैकत्राविद्योपदर्शितत्वं तत्कल्पननिमित्तं, न, यतस्तदितरत्रापि किं न कल्प्यते', निमित्तं | विना कल्पनाया उभयत्राविशेषात् , तथा च ज्ञानस्याप्यभावेन सर्वशून्यतापत्तिरित्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ अनेन | ५५७|| द्रव्यादिविषयत्वं ज्ञानस्योक्तं, तत्र च द्रव्यादीनि किंलक्षणानीत्यत आह गुणाणं आसओ दवं, एगदध्वस्सिया गुणा । लक्खणं पत्रवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥६॥ 'गुणानां' वक्ष्यमाणानाम् 'आश्रयः' आधारो यत्रस्थास्त उत्पद्यन्ते उत्पद्य चावतिष्ठन्ते प्रलीयन्ते च तद् द्रव्यम् , दीप अनुक्रम [१०८०] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1112~ Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [--]/ गाथा ||६|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||६|| अनेन रूपादय एव वस्तु न तद्यतिरिक्तमन्यदिति तथागतमतमपास्तं, तथाहि-यदुत्पादविनाशयोन यस्योत्पादविनाशी Kान तत्ततोऽभिन्नं, यथा घटापटो, न भवतश्च पयोयोत्पाद विनाशयोव्यस्योत्पादविनाशी, न चायमसिद्धो हेतुः, ट्र स्थासकोशकुशूलाद्यवस्थासु मृदादिद्रव्यस्यानुगामित्वेन दर्शनात् , न चास्य मिथ्यात्वं, कदाचिदन्यथादर्शनासिद्धेः, उक्तं हि-"यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः, संवेद्येतान्यथा पुनः । स मिथ्या न तु तेनैव, यो नित्यमवगम्यते ॥१॥” तथैकस्मिन् । द्रव्ये स्वाधारभृते आश्रिताः-स्थिता एकद्रव्याश्रिताः, के ते?-गुणाः' रूपादयः, एतेन च ये द्रव्यमेवेच्छन्ति तब-18 तिरिक्तांश्च रूपादीनविद्योपदर्शितानाहुस्तम्मतनिषेधः कृतः, संविनिष्ठा हि विषयव्यवस्थितयो, न च रूपाद्युत्कलि-14 तरूपं कदाचित्केनचिद् द्रव्यमवगतमवगम्यते वा, अथ तद्विवर्त्त एव रूपादयो न तु तात्त्विकाः केचन तद्भेदेन | सन्ति, नन्येवं रूपादिविषत्तों द्रव्यमित्यपि किंन कल्प्यते ?, अथ तथैव प्रतीतेः, एवं सति प्रतीतिरभयत्र साधारणे-14 त्युभयमुभयात्मकमस्तु, लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं 'पर्यवाणां' वक्ष्यमाणरूपाणां 'तुः' विशेषणे 'उभयोः' द्वयोः प्राकृत-1 त्वाद् द्रव्यगुणयोराश्रिताः भवेत्ति 'भवेयुः' स्युः । अनेन च य एवमाहुः-यदाद्यन्तयोरसत् मध्येऽपि तत्तथैव, यथा : मरीचिकादो जलादि, न सन्ति च कुशूलकपालाद्यवस्थयोर्घटादिपर्यायाः, ततोद्रव्यमेवादिमध्यान्तेषु सत्, पर्यायाः पुनरसत्यैराकाशकेशादिभिः सदृशा अपि भ्रान्तः सत्यतया लक्ष्यन्ते, यथोक्तम्-"आदावन्ते च यन्नास्ति, मध्येऽपि |हि न तत्तथा । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः॥१॥" तेऽपाकृताः, तथाहि-आद्यन्तयोरसत्त्वेन दीप अनुक्रम [१०८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1113~ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत ཎྜཡྻཱཡྻ |||| दीप अनुक्रम [१०८१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||६|| अध्ययनं [२८], निर्युक्ति: [५०२...] बृहद्वृत्ति: उत्तराध्य. ४ मध्येऽप्यसत्त्वं साधयतामिदमाकूतं – यत्कचिदस तत्सर्वस्मिन्नसदिति, ततश्च मृद्रव्येऽप्यद्रव्यस्यासत्वात्सर्वस्मिन्नप्यस स्वप्रसङ्गः, अथेष्टमेवैतत् सत्तामात्रस्यैव तत्त्वत इष्टत्वात् उक्तं हि -“सर्वमेकं सदविशेषात्” नन्वेवमभावे भावाभावाद्भावस्यापि सर्वत्राभावप्रसङ्गः तस्माद्वाधकप्रत्ययोदय एवासवे निबन्धनमिति न क्वचिदसत्त्वे तस्यावश्यंभावः, ततो द्रव्यवत्पर्यायाणामप्यवाधितबोधविषयत्वे सत्वमस्तु, तथा गुणेष्वपि नवपुराणादिपर्यायाः प्रत्यक्षप्रतीता एव कियत्कालभाविनः, प्रतिसमयभाविनस्तु पुराणत्वाद्यन्यथानुपपत्तेरनुमानतोऽवसीयन्ते, ततश्च द्रव्यगुणपर्यायात्मकमेकं शबलमणिव चित्रपतङ्गादिवद्वा वस्त्विति स्थितमिति सूत्रार्थः ॥ आह-गृहीमो 'गुणानामाश्रयो द्रव्य मिति द्रव्यलक्षणं, तचैवंलक्षणं द्रव्यं किमेकमेवोत तस्य भेदा अपि सन्तीत्याह ॥५५८॥ धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगुति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ ७ ॥ 'धर्म' इति धर्मास्तिकायः 'अधर्म' इत्यधर्मास्तिकायः 'आकाश' मित्याकाशास्तिकायः 'कालः' अद्धासमयात्मकः 'पुद्गलजन्तव' इति पुद्गलास्तिकायः जीवास्तिकायः, एतानि द्रव्याणीति शेषः, प्रसङ्गतो लोकखरूपमप्याहएप इत्यादि, सुगममेव, नवरमेष इति - सामान्यतः प्रतीतो लोक इतीत्येवं स्वरूपः कोऽर्थः १ अनन्तरोक्तद्रव्यषङ्कात्मकः, उक्तं हि - “धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत्क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोका- 2 रूयम् ॥ १॥” इति सूत्रार्थः । आह- किमेतेऽपि धर्मादयो भेदवन्त उतान्यथा १, उभयथाऽपीति ब्रूमः, तथा चाह ॥५५८॥ Education intimational For P मोक्षमार्ग ~1114~ गत्य० २८ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २८], मूलं [-]/ गाथा ||८|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||८|| धम्मो अधम्मो आगासं, दव्वं इकिकमाहियं । अणताणि य वाणि, कालो पुग्गलजंतवो ॥८॥ धर्मोऽधर्म आकाशं द्रव्यमिति धर्मादिभिः प्रत्येकं योज्यते 'एकैक' एकसङ्ख्याया एवैतेषु भावान् आख्यातं तीर्थऋद्भिरिति गम्यते, तत्किं कालादिद्रव्याण्यप्येवमेवेत्याह-'अनन्तानि' अनन्तसवयानि खगतभेदानन्त्यात्, 'चः | पुनरर्थे उत्तरत्र योक्ष्यते, कानि', द्रव्याणि, कतमानि-कालः पुगलजन्तवश्वोक्तरूपाः, कालस्य चानन्त्यमतीता-1 नागतापेक्षयेति सूत्रार्थः ॥ एषां परस्परभेदनिवन्धनं लक्षणभेदमाह| गइलक्षणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो । भायर्ण सव्वदब्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं ॥९॥ वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दसणेणं च, सुहेण य दुहेण य॥१०॥ नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा। वीरियं उवओगे य, एवं जीवस्स लक्खणं ॥११॥ सधयारउजोओ, पभा छाया तवुत्ति वा । वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१२॥ गमनं गतिः-देशान्तरप्राप्तिः लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, गतिर्लक्षणमस्येति गतिलक्षणः, 'तुः' पूरणे, कोऽसौ ?धर्मास्तिकायः, आह-सिद्धे सति वस्तुनोऽस्तित्वे इदमनेन लक्ष्यत इति वक्तुं युक्तम् , अस्य तु सत्त्वमेवासिद्धम् , अत्रोच्यते, यद्यच्छुद्धपदवाच्यं तत्तदस्ति, यथा स्तम्भादिः, शुद्धपदवाच्यश्च धर्मनामास्तिकायो, न चायमसिद्धो हेतुः, धर्म इत्यस्यैतद्वाचकस्यासमस्तपदत्वेन तथाऽभिधेयार्थबाधकप्रमाणाभावात् प्रमाणान्तरवाधितविषयत्वाख्यदोषरहि दीप अनुक्रम [१०८३] Minutanasanayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1115~ Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-]/ गाथा ||९-१२|| __ नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१२|| उत्तराध्य. तत्वेन च सिद्धत्वात्, न च खपुष्पादिषु सङ्केतितेदुःखादिशुद्धपदैरनेकान्तो, वृद्धपरम्परायातसतविषयाणामेव मोक्षमार्गबृहद्वृत्तिः शुद्धपदाना वाच्यत्वस्येह हेतुत्वेनेष्टत्वात् , निपुणेन प्रतिपत्रा भाव्यम् , अन्यथा धूमादेरपि गोपालघटादिग्वन्यथा पानासारसागत्य०२८ भावदर्शनादेष प्रसङ्गो दुर्निवारः स्यात् , उकंच-"अथिति निवियप्पो जीयो नियमा उ सद्दतो सिद्धी । कम्हा? ॥५५९|| सुद्धपयत्ता घडखरसिंगाणुमाणाओ॥१॥" इत्यायलं प्रसङ्गेन, तथा 'अधर्मः' अधर्मास्तिकायः स्थितिः स्थानं गतिनिवृत्तिरित्यर्थः, तलक्षणमस्येति स्थानलक्षणः, स हि स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थितिलक्षणकार्य प्रत्यपेक्षाकाकारणत्वेन व्याप्रियत इति तेनैव लक्ष्यत इत्युच्यते, अनेनाप्यनुमानमेव सूचितं, तवेदम्-यद्यत्कार्य तत्तदपेक्षाकारण बद्, यथा घटादि, कार्य चासौ स्थितिः, यच तदपेक्षाकारणं तदधर्मास्तिकाय इति, अत्र च नैयायिकादिः सौगतो* वा वदेत्-नास्ति अधर्मास्तिकायः,अनुपलभ्यमानत्वात् , शशविपाणवत्, तत्र यदि नैयायिकादिस्तदाऽसौ वाच्यः-कथं भवतोऽपि दिगादयः सन्ति ?, अथ दिगादिप्रत्ययलक्षणकार्यदर्शनाद , भवति हि कार्यात्कारणानुमानम् , एवं सति || स्थितिलक्षणकार्यदर्शनादयमप्यस्तीति किं न गम्यते !, अथ तत्र दिगादिप्रत्ययकार्यस्थान्यतोऽसम्भवात्कारणभूतान र |दिगादीननुमिमीमह इति मतिः,इहाप्याकाशादीनामवगाहदानादिखखकार्यव्याघृतत्वेन ततोऽसम्भवादधर्मास्तिकायस्यैव स्थितिलक्षणं कार्यमिति किं नानुमीयते ?, अथासौ न कदाचिद् दृष्टः, एतहिगादिष्वपि समानम् । अथ सौगतः १ अस्त्रीति निर्विकल्पो जीवो नियमात् शब्दत एव सिद्धिः । कस्मात् ? शुद्धपदत्वात् घट खरशङ्गानुमानात् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१०८४-१०८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1116~ Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥९-१२|| दीप अनुक्रम [१०८४ -१०८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||९-१२ || निर्युक्ति: [५०२...] Education intol अध्ययनं [२८], सोऽप्येवं वक्तव्यः यथा-भवतः कथं वाह्यार्थसंसिद्धिः १ न हि कदाचिदसौ प्रत्यक्षगोचरः, साकारज्ञानवादिनः सदा तदाकारस्यैव संवेदनात्, तथा च तस्याप्यनुपलभ्यमानत्वादभाव एव, अथाकारसंवेदनेऽपि तत्कारणमर्थः परिकल्प्यते, धूमज्ञान इवाशिः, एवं सति स्थितिदर्शनेऽपि किं न तत्कारणस्याधर्मास्तिकायस्य निश्चयः १, अथायमप्यभि - दधीत न कदाचिदसौ तत्कारणत्वेनेक्षित इति, ननु वाह्यार्थेऽपि तुल्यमेतत्, न हि सोऽपि तदाकारकारितया | कदाचिदवलोकितः, अथ मनस्कारस्य चिद्रूपतायामेव व्यापारो न तु नियता (त) कारणत्वे, अतस्तत्रार्थः कारणं कल्प्यते, एवं तर्हि जीवपुलो परिणाममात्र एव कारणं, स्थितिपरिणती पुनरधर्मास्तिकायोऽपेक्षाकारणत्वेन व्याप्रियत इति किं न कल्प्यते १, अथासौ सर्वदा सर्वस्य सन्निहित इत्यनियमेन स्थितिकारणं भवेत्, नन्वेवमर्थोऽपि किं सन्निहित इत्येव खाकारमर्पयति ?, अथ चक्षुरादिव्यापारमयमपेक्षते, अधर्मास्तिकायोऽपि तर्हि खपरगतौ विश्रसाप्रयोगावपेक्षत इति नानयोर्विशेषमुत्पश्यामः, तथा 'भाजनम्' आधारः 'सर्वद्रव्याणां' जीवादीनां 'नमः' आकाशम्, अबगाह :- अवकाशस्तल्लक्षणमस्येत्यवगाहलक्षणं तद्ध्यवगाढुं प्रवृतानामालम्बनीभवति, अनेनावगाहकारणत्वमाकाशस्योक्तं, न चास्य तत्कारणत्वमसिद्धं यतो यद्यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तत्कार्य, यथा चक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायि रूपादिविज्ञानम्, आकाशान्वयव्यतिरेकानुविधायी चावगाहः, तथाहि शुषिररूपमाकाशं, तत्रैव चावगाहो, न तु तद्विपरीते पुद्गलादी, अथैवमलोकाकाशेऽपि कथं नावगाहः १, उच्यते, स्वादेवं यदि कश्चिदवगाहिता भवेत्, Forest Use Only www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 1117 ~ Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||९-१२|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||९-१२|| उत्तराध्य. तत्र तु धर्मास्तिकायस्य जीवादीनां चासत्त्वेन तस्यैवाभाव इति कस्यासौ समस्तु १, नन्वेवमपि न तत्सिद्धिः, हेतो-15 मोक्षमार्गरसिद्धत्वात् , तदसिद्धिश्चान्वयाभावात् , सति हि तस्मिन् भवनमन्वयो, न च तत्सत्त्वसिद्धिरस्ति, अन्वयाभावे । च व्यतिरेकस्याप्यसिद्धिरिति, ननु कथं न तत्सत्त्वसिद्धिः?, अथ भित्त्याद्यभाव एवाकाशमिति, एवं सत्याकाशा-15 ॥५६०॥||भाव एव भित्त्यादय इत्यपि किं न भवति ?, अथ तेषां प्रमाणप्रतीतत्वादू, इहापि किं न प्रमाणप्रतीतिः, तथा हि-वियति विहग इत्यादि प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्याऽनुमानतस्तत्सिद्धिः, न चेयं प्रतीतिरन्यथाऽपि संभवतीति । न ततस्तत्सिद्विरिति (वक्तुं) युक्तम् , एवं हि भित्त्यादिप्रतीतेरपि भिच्याद्यभावेऽपि भावकल्पनया तेषामप्यभा वप्रसक्तिः, अथ तत्प्रतीतेः प्रामाण्य निश्चय इति नान्यथात्वकल्पना, एवं तर्हि वक्तव्यं-कुतोऽस्याः प्रमाणनिदाश्चयः, किं प्रमाणान्तरानुग्रहाद्वाधकाभावादा, यदि प्रमाणान्तरानुग्रहात् किं तत्प्रमाणान्तरं , य इहावाधि-3। तप्रत्ययः स सर्वः प्रमाणं, यथा सुखादिप्रत्ययः, बाधितप्रत्ययाश्चामी भित्यादिप्रत्यया इत्यनुमानमिति चेयद्येवमिहापि यो य इहप्रत्ययः स सर्वः सालम्बनो यह कुण्डे दधीति प्रत्ययः, इहप्रत्ययश्चायम् इह विहग इति प्रत्ययः इत्यनुमानमस्त्येव, अथैवमाधारमात्रस्यैव सिद्धिर्नत्वाकाशस्थ, कथं न तत्सिद्धिः, यदेव बाधारमात्रं तदेवाकाश-II |मिति वयं ब्रूमः, अथ वाधकाभावात्, ननु वाधकमपि विपरीतप्रत्ययोत्पत्तिरूपं, तदभावक्षोभयत्र समान इति न काभित्याद्यभाव एवाकाशं किन्तु शुषिररूपमन्यदेव,ततस्तद्भावमाविवादवगाहस कथं न तत्कारणत्वसिद्धिराकाशस्य ?, दीप अनुक्रम [१०८४-१०८७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1118~ Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-]/गाथा ||९-१२|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||९-१२|| एवं च स्थितमेतद्-अवगाहेन कार्यरूपेण लक्ष्यमाणत्वादवगाहलक्षणं नमः, तथा वर्तन्ते-भवन्ति भावास्तेन तेन ॥ नारूपेण तान् प्रति प्रयोजकत्वं वर्तना सा लक्षणं-लिङ्गमस्येति वर्त्तनालक्षणः, कोऽसौ ?-कालः,इदमुक्तं भवति-यदमी शीतवातातपादयः ऋतुविभागेन भवन्ति यच्च केचिच्छशधरकरनिकरानुकारिपारतीप्रसवाः अन्ये तु तुहिनशिलाश-12 कलविशदकुन्दमालतीकुसुमवासवाहिनः अपरे च केशरतिलकुरुबकशिरीषाकोलप्रसूनजृम्भमाणपरागभाजः तदितरे |च करिदशनसकलधवलमल्लिकापहलपरिमलहारिणः परे च कदम्बकेतकरजःपूरपूरिताम्बराः अपरे तु सप्तच्छद कुसुमरजोधूलिधूसरितविधविश्वम्भराः अविशिष्टविशिष्टवस्तवः प्रकाशन्ते क्रमेणैव भुवनभागांस्तदवश्यममीषां नैयत्यहेतुना केनापि भवितव्यं , स च काल इत्यलं प्रसङ्गेन, सर्वथा वर्तनया लक्ष्यमाणत्वादस्ति काल इति स्थितं, तथा || 'जीवः' जन्तुरुपयोगो-मतिज्ञानादि लक्षणं-रूपं यस्यासौ उपयोगलक्षणो, मतिज्ञानादिको दुपयोगस्तद्धर्मः, स च खसंविदित एवेति, तदनुभवतो रूपाद्यनुभवादिव घटादिर्जीवो लक्ष्यत इति तलक्षणमुच्यते, अपश्चितं चैतदिहैय प्रागन्यत्र चेति न पुनः प्रतन्यते, अत एव 'ज्ञानेन' विशेषग्राहिणा 'दर्शनेन च' सामान्यविपयेण 'सुखेन च' आहादरूपेण दुःखेन च-तद्विपरीतेन प्रक्रमालक्ष्यत इति गम्यते, न हि ज्ञानादीन्यजीवेषु कदाचिदुपलभ्यन्त इतिकृत्वा।। सम्प्रति विनेयानां पढतरसंस्काराधानाय उक्तलक्षणमनूध लक्षणान्तरमाह-'ज्ञानं च' उक्तरूपमेवं दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा 'वीर्य' वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्थं सामर्थ्यलक्षणम् 'उपयोगश्च' अवहितत्वं, किमित्याह-'एतत्' ज्ञानादि 358 दीप अनुक्रम [१०८४ -१०८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1119~ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-]/ गाथा ||९-१२|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) ब्रहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||९-१२|| उत्चराध्य. जीवस्य लक्षणम्, एतेन हि जीवोऽनन्यसाधारणतया लक्ष्यत इति । इत्थं जीवलक्षणमभिधाय पुद्गलानां लक्षण- मोक्षमार्ग माह-शब्दः' ध्वनिः 'अन्धकारः' तिमिरम् , उभयत्र सूत्रत्वात्सुपो लुक्, 'उद्योतः' रत्नादिप्रकाशः 'प्रभा' चन्द्रा-||४|| दिदीधितिः 'छाया' शैत्यगुणाः 'आतपः' रविविम्बजनित उष्णप्रकाशः, इतिशब्द आद्यर्थः, ततश्च सम्बन्धभेदा गत्य०२८ ॥५६१ दीनां परिग्रहः,वा समुच्चये,वर्णश्च-नीलादिः रसश्च-तिक्तादिः गन्धश्च-सुरभ्यादिः स्पर्शश्च-शीतादिरेषां द्वन्द्वः, इतिशब्देन चाद्यार्थेनैषां ग्रहणेऽपि पुनरुपादानं सर्वत्रानुयायिताख्यापनार्थ, "पुद्गलानां' स्कन्धादीनां 'तुः पुनरर्थः लक्षणम्, एतैरेव तेषां लक्ष्यत्वात् ,आह-पौगलिकत्वे शब्दादीनां पुद्गल लक्षणत्वं युक्तं तय कथम् ?, उच्यते,शब्दस्तावन्मूर्चत्वात्पौद्गलिको, मूर्तिमायोऽस्य प्रतिघातविधायित्वादिभ्यः,उक्तं हि-"प्रतिघातविधायित्वालोष्टवन्मूर्तता ध्वनेः। हद्वारवातानुपाताच, धूमवच परिस्फुटम् ॥१॥" अन्धकारोद्योतप्रमाणांत पौगलिकत्वं चक्षुर्विज्ञानविषयत्वात् ||४ प्रयोगश्चात्र-यत्पौगलिक न भवति तचक्षुर्विज्ञानविषयमपि न भवति, यथाऽऽत्मादयः, चक्षुर्विज्ञानविषयाश्चान्धका रादयः, अथालोकामावोऽन्धकारं, तथा च निरुपाख्यत्वेन तस्यासत्यमुच्यते, न, सतः सर्वथा निरन्वयाभाव४ स्थाभावेनाभावरूपत्वेऽपि निरूपाख्यत्वासिद्धेः, तथाहि-घटस्थ कपालाख्यपर्यायान्तरोत्पत्तिरेवाभावो न पुनरु-13 ॥५६॥ च्छेदमात्रम्, एवमलोकस्याप्यन्धकाराख्यपर्यायान्तरोत्पत्तिरेवाभावो न तु तथाविधपरमाणुरूपतयाऽप्यभाव एव, इत्थं चैतत्, परिणामित्वाद्वस्तुनः, परिणामस्य च सत एव बस्तुनः पूर्वरूपपरित्यागेन रूपान्तरोत्पत्तिरूपत्वात् , दीप अनुक्रम [१०८४-१०८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1120~ Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-]/ गाथा ||१३|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१३|| उक्तं हि-"परिणामो बर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम्। न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१॥" एवं छायाऽऽतपयोरपि पौद्गलिकत्वं वस्तुत्वं च भावनीयं, तथा स्पर्शनग्राबत्वाचानयोः पौगलिकत्वं, तथाहि* छायायाः शैत्यमातपस्य चोष्णत्वं प्रतिपाणि प्रतीतमेवेति, अतश्च यत्कैश्चिदुच्यते-शब्दोऽम्बरगुण इत्यादि, तदपास्त भवति, उक्तश्च-"अणवः सर्वशक्तित्वाञदसंसर्गवृत्तयः। छायाऽऽतपस्तमः शब्दभावेन परिणामिनः ॥१॥" इत्यादि, वर्णादीनां च पौगलिकत्वं सुप्रसिद्धमेवेति सूत्रचतुष्टयार्थः । अनेन द्रव्यलक्षणमुक्तं. पर्यायलक्षणमाह एगत्तं च पुत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्वर्ण ॥ १३ ॥ एकस्य भावः एकत्वं-भिन्नेष्वपि परमाण्वादिषु यदेकोऽयं घटादिरिति प्रतीतिहेतुः सामान्यपरिणतिरूपं, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये,पृथग्भावः पृथक्त्वम्-अयमस्मात्पृथगिति प्रत्ययोपनिबन्धनं, 'चः' सर्वत्र प्राग्वत् ,संख्यानं ट्र सङ्ख्या-यत एको द्वौ त्रय इत्यादिका प्रतीतिरुपजायते, संतिष्ठतेऽनेनाकारविशेषेण वस्त्विति संस्थानं-परिमण्ड लोऽयमित्यादिबुद्धिनिबन्धनम् , एवेति पूरणे, 'संयोगाः' अयमङ्गुल्योः संयोग इत्यादिव्यपदेशहेतवः, 'विभागाश्च' अयमितो विभक्त इति बुद्धिहेतवः, उभयत्र सम्बन्धिभेदेन भेदमाश्रित्य बहुवचननिर्देशः, चशब्दोऽनुक्तनवपुराणत्वादिपर्यायोपलक्षकः, 'पर्यवाणाम्' उक्तनिरुक्तानां, 'तुः' पूरणे 'लक्षणम्' असाधारणरूपम्, अयमभिप्राय:-यः कश्चिदस्खलितप्रत्ययः स सर्वः सनिवन्धनो, यथा घटादिप्रत्ययः, अस्खलितप्रत्ययाश्चामी एकोऽयमित्यादिप्रत्ययाः, दीप अनुक्रम [१०८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1121~ Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१४ -१५|| दीप अनुक्रम [१०८९ -१०९०] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५६२॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १४-१५ || अध्ययनं [२८], | ततोऽवश्यममीषां निबन्धनेन भवितव्यं तच न द्रव्यमेव, तस्य सदाऽवस्थितत्वेन प्रतिनियतकालैकत्वादिप्रत्ययानुत्पत्तिप्रसङ्गात्, ततश्च यदमीषां कालनियमेनोत्पत्तिनिबन्धनं न तत्पर्यवेभ्यस्तत्तत्परिणतिविशेषरूपेभ्योऽन्यत्, गुणानां तु लक्षणानभिधानं रूपादिरूपाणां तेषामतिप्रतीतत्वात् प्रायो विप्रतिपत्यविषयत्वाच्चेति सूत्रार्थः ॥ इत्थं खरूपतो विषयतश्च ज्ञानमभिधाय दर्शनमुपदर्शयितुमाह Education intemational जीवा जीवा य बंधो य, पुण्णं पावाssसवो तहा। संवरो निजरा मुक्खो, संतेए तहिया नव ॥१४॥ तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं ति वियाहियं ॥ १५ ॥ 'जीवाः' उक्तलक्षणाः 'अजीवाश्च' धर्मास्तिकायादय उक्तरूपा एवं 'बन्धश्थ' जीवकर्मणोरत्यन्तसंश्लेषः पुण्यं - शुभप्रकृतिरूपं पापम्-अशुभं मिध्यात्वादि आश्रवति - आगच्छत्यनेन कर्मेत्याश्रवः-कर्मोपादानहेतुर्हिसादिः, पुण्यादीनां च कृतद्वन्द्वानामिह निर्देशः, 'तथे 'ति समुचये, संवरणं संवरः- गुप्त्यादिभिराश्रवनिरोधः निर्जरणं निर्जरा - विपाकात्तपसो वा कर्मपरिसाट:, 'मोक्षः' कृत्स्त्रकर्मक्षयात्स्वात्मन्यवस्थानं, 'सन्ति' विद्यन्ते 'एते' अनन्तरोक्ताः 'तथ्याः' अवितथा निरुपचरितवृत्तयो, न तु सुगतसाङ्ख्योलूकादिकल्पितपदार्थवद्विचाराक्षमाः, यथा चैतदेवं तथा सूत्रकृन्नानि द्वितीयाङ्गे प्रपञ्चितमिति तत एवावधार्यम्, इह तु ग्रन्थगौरवभयान्नोच्यते, 'नवे'ति नवसङ्ख्याः, मध्यमप्रस्थानापेक्षया चैतद्, अन्यथा सङ्क्षेपापेक्षया जीवाजीवयोरेव बन्धादीनामन्तर्भावसम्भवात् द्वित्व निर्युक्तिः [५०२...] For Fasten ~ 1122~ मोक्षमार्ग गत्य० २८ ||५६२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||१४-१५|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१४-१५|| सङ्ख्यैचाभिधेया स्यात् , तथा च वक्ष्यति-"जीवा चेव अजीवा य, एस लोगे बियाहिए"त्ति, विस्तरतस्तु तदुत्तरो त्तरभेदविवक्षयाऽनन्तमेव स्यात् । यद्यमी नव तथ्यास्ततः किमित्याह-'तथ्यानां तु भावानाम्' अनन्तरोदितजीवाददिखरूपाणां 'सद्भावे' सद्भावविषयं, किमुक्तं भवति ?-एतदवितथसत्ताभिधायकम् 'उपदेशनं' गादिसम्बन्धिनम पदेशं 'भावेन' अन्तःकरणेन 'श्रद्दधतः' तथेति प्रतिपद्यमानस्य सम्यग्भावः सम्यक्त्वं दर्शनमितियावत् 'तदिति भाषश्रद्धानं विशेषेणाख्यातं तीर्घकदादिभिरिति गम्यते,पठन्ति च-'सम्भावो(वेणो)वएसणे। भावेण उ सद्दहणा सम्मत्त होति आहि' 'सद्दहणे ति सूत्रत्वात् श्रद्धानं सम्यक्त्वं भवत्याख्यातं, तच श्रधात्यनेन जीवादितत्त्वमिति श्रद्धानंसम्यक्त्यमोहनीयकर्माणुक्षयक्षयोप(शमोप) शमसमुत्थात्मपरिणामरूपम् , उक्तं हि-"से य समत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ति"त्ति, अवश्यं हि स कश्चिदात्मनः परिणामोऽस्ति येन सत्यपि जीवादिखरूपावबोधे कस्यचिदेव सम्यक् प्रतिपत्तिर्भवति न पुनः सर्वस्य, यथा हिं सत्यपि दर्शने कश्चित् शङ्के वेतिमानं प्रतिपद्यते अन्यस्त्वन्यथाभावमिति तत्र कारणविशेषोऽनुमीयते, एवमिहापि, ततश्च जीवादिखरूपपरिज्ञानख सम्यग्भावहेतुरात्मपरिणामविशेषः सम्यक्त्वं, न तु ज्ञानखरूपमेव, अत एव हि ज्ञानादावरणभेदो विषयभेदः कारणभेदो ज्ञानकारणत्वं च सम्यक्त्वस्य श्रुतकेवलिनोकं, यत्तु 'तत्त्वार्थश्रद्धानं १ तच सम्यक्त्वं प्रशस्तसम्यक्त्वमोहनीयकर्माणुवेदनोपशमध्यसमुत्थः प्रशमसंवेगादिलिङ्गः शुभ आत्मपरिणामः प्रजातः । 04-4 दीप अनुक्रम [१०८९-१०९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1123~ Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||१६|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः ॥५६॥ सुत्रांक ||१६|| सम्यग्दर्शनमपायसव्यतया सम्यग्दर्शनमपायो मतिज्ञानतृतीयांश' इत्यादि तत्कारणे कार्योपचारं कृत्वाऽऽयुर्घत- मोक्षम मित्यादिवदिति गुरवो व्याचक्षत इति सूत्रद्वयार्थः ॥ इत्थं सम्यक्त्वखरूपमभिधाय तद्भेदानाह गत्य०२८ निस्सग्गुवएसई आणारुइ सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थारई किरिया संखेषधम्मई ॥१६॥ "निसग्गुवएसरुति'त्ति रुचिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततो निसर्गः-खभावस्तेन रुचिः-तत्त्वाभिलाषरूपाउखेति |निसर्गरुचिः, उपदेशो-गुदिना कथनं तेन रुचिर्यस्वेत्युपदेशरुचिः, आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचिर्यस्य सः तथा, 'सुत्तबीयरुइमेव'ति इहापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् सूत्रेण-आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः, बीज-15 मिव बीज-यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः, अनयोः समाहारद्वन्द्वः, एवेति । समुच्चये, अभिगमो-ज्ञानं विस्तारो-व्यासस्ताभ्यां, प्रत्येकं रुचिशब्दो योज्यते, ततोऽभिगमरुचिविस्ताररुची इति, तथा क्रिया-अनुष्ठानं सङ्केपा-सङ्ग्रहो धर्म:-श्रुतधर्मादिस्तेषु रुचिर्यस्येति, प्रत्येकं रुचिशब्दसम्बन्धात् क्रियारुचिधर्मरुचिः सङ्केपरुचिश्च भवति विज्ञेय इति शेषः, यच्चेह सम्यक्त्वस्थ जीवानन्यत्वेनाभिधानं तद्गुणगुणिनोः कथचिदनन्यत्वख्यापनार्थमिति सूत्रसङ्केपार्थः ॥ व्यासार्थ तु खत एवाह सूत्रकृत् भूअत्थेणाहिगया जीवाऽजीवा य पुण्ण पावं च । सहसंमुइआ आसवसंवरु रोएइ उ निसग्गो ॥१७॥ जो जिणदिढे भावे चउब्विहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नत्ति य निस्सग्गरुइत्ति नायब्वो ॥१८॥ एए चेवर दीप अनुक्रम [१०९१] ५६शा Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1124 ~ Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||१७-२७|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत *4-%2 सूत्रांक 5 ||१७-२७|| % उभाये उवा जो परेण सहा । छउमत्येण जिणे व उवएसरुइत्ति नायब्यो॥१९॥ रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगर्य होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुईनाम ।। २०॥ जो सुत्तमहिजंतो सुएण ओगाहई दाउ संमत्तं । अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइत्ति नायब्वो ॥ २१ ॥ एगेण अणेगाइं पयाई जो पसरई उ सम्मत् । उदयव्य तिल्लविंदू सो बीयरुइत्ति नायब्चो ॥२२॥ सो होइ अभिगमई सुअनाणं जस्स अत्यओ | दिह । इकारस अंगाई पइण्णगं दिडिवाओ य ।। २३ ॥ ब्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । दसम्बाई नयविहीहि य विस्थाररुइसि नायब्बो ॥ २४ ॥ दंसणनाणचरिते तवविणए सचसमिइगुत्तीसु || जो किरियाभावरूई सो खलु किरियारुई नाम ॥ २५॥ अणभिग्गहियकुदिही संखेवरुइसि होइ नायब्वो। 18 अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ अ सेसेसु ॥२६॥ जो अधिकायधम्म सुपधम्म खलु चरित्तधम्म च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइत्ति नायब्वो ॥ २७ ।।। है भूतः सद्भूतोऽवितथ इतियावत् तथाविधोऽर्थो-विषयो यस्य तद्भूतार्थ ज्ञानमिति गम्यते तेन, भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशः(स्य), भूतार्थत्वेन-सद्भूता अमी अर्था इत्येवंरूपेणाभिगता अधिगता बापरिच्छिन्ना येनेति गम्यते, जीवाजीवाश्चोक्तरूपाः पुण्यं पापं च, कथममी अधिगता इत्याह-'सहसंमुइ'त्ति सोपस्कारत्वात्सूत्रत्वाच सहात्मना या संगता मतिः सं(सहसं)मतिः, कोऽर्थः ?-परोपदेशनिरपेक्षतया जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया, 'आसवसंबरे यत्ति दीप अनुक्रम [१०९२ -११०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1125~ Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-1 / गाथा ||१७-२७|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) - प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ||१७-२७|| उत्तराध्य. आश्रवसंवरौ, चशब्दोऽनुक्तवन्धादिसमुचये, ततो बन्धादयश्च, तथा 'रोचते'श्रद्धत्ते, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद्रोचत एव | मोक्षमार्गयोऽन्यस्याश्रुतत्वादनन्तरन्यायेनाधिगतान् जीवाजीवादीनेव 'निसर्ग'इति निसर्गरुचिर्विज्ञेयः, स इति शेषः । अमुमे गत्य०२८ वार्थ पुनः स्पष्टतरमेवाह-यः 'जिनदृष्टान् तीर्थकरोपलब्धान् 'भावान् जीवादिपदार्थान् 'चतुर्विधान' द्रव्यक्षेत्रकाल॥५६॥ भावभेदतो नामादिभेदतो वा चतुष्प्रकारान् श्रद्दधाति' तथेति प्रतिपद्यते 'स्वयमेव' परोपदेशं विना,श्रद्धानोलेखमाह एमेय'त्ति एवमेतद्यथा जिनदृष्टं जीवादि, 'नान्यथेति' नैतविपरीतं,'चः' समुच्चये,स ईनिसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः,निसर्गेण रुचिरस्पेतिकृत्वा,उपदेशरुचिमाह-एतांश्चैवानन्तरोक्तान (तुः पूरणे) भावान्' जीवादीन् पदार्थान् 'उपदिष्टान्' कथितान् ‘परेण' अन्येन श्रद्दधाति, कीरशा परेण ?-छादयतीति छद्म-घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठति छबस्था-12 18// अनुत्पन्न केवलस्तेन, जयति रागादीनिति जिनः,औणादिको नक् तेन चोत्पन्नकेवलज्ञानेन तीर्थकदादिना, छद्मस्थस्य तु प्रागुपन्यासस्तत्पूर्वकत्वाजिनस्य प्राचुर्येण वा तथाविधोपदेष्टुणां, स ईक किमित्याह-उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः उपदेशेन रुचिरस्येति हेतोः। आज्ञारुचिमाह-रागः' अभिष्वङ्गः 'द्वेषः' अप्रीतिः 'मोह' शेषमोहनीयप्रकृतयः 'अज्ञानं मिथ्याज्ञानरूपं यस्य 'अपगतं' नष्टं भवति, सर्वथा चास्यैतदपगमासम्भवाद्देशत इति गम्यते, अपगतशब्दश्च लिम-18॥५९४॥ विपरिणामतो रागादिभिः प्रत्येकमभिसंबध्यते. एतदपगमाच 'आणाए'त्ति अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य आज्ञयेव आचार्यादिसम्बन्धिन्या रोचमानः' क्वचित्कुग्रहाभावाज्जीवादि तथेति प्रतिपद्यमानो माषतुषादिवत् सः 'खलु'| दीप अनुक्रम [१०९२ -११०२] %ALA JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1126~ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-1 / गाथा ||१७-२७|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७-२७|| निश्चितमाज्ञारुचिर्नामेत्यभ्युपगमे, ततश्चाज्ञारुचिरित्यभ्युपगन्तव्यः, आज्ञया रुचिरस्य यतः। सूत्ररुचिमाह-यः ट्रा 'सूत्रम्' आगमम् 'अधीयानः' पठन् 'श्रुतेन' इति सूत्रेणाधीयमानेन 'अवगाहते' प्राप्नोति 'तुः' पूरणे सम्यक्त्वं,|| कीशा श्रुतेन ?-'अङ्गेन' आचारादिना 'वाटेन' अनप्रविष्टेनोत्तराध्ययनादिना वा, या विकल्पे, 'सः' उक्तका लक्षणो गोविन्दवाचकवत् सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः, सूत्रहेतुकत्वादस रुचेः। बीजरुचिमाह-'एकेन' प्रक्रमात्पदेन जीवादिना 'अणेगाई पयाईति सुब्व्यत्ययाद् 'अनेकेषु' बहुषु 'पदेषु' जीवादिषु यः 'प्रसरति' च्यापितया गच्छति 'तुः' एवकारार्थः, प्रसरत्येव, सम्यक्त्वमित्यनेन रुचिरत्रोपलक्षिता, तदभेदोपचारादात्माऽपि सम्यक्त्वमुच्यते, & उपचारनिमित्तं च रुचिरूपेणैवात्मना प्रसरणं, केव कः प्रसरति ?-उदक इव तैलबिन्दुः, यथोदकैकदेशगतोऽपि तिलविन्दुः समस्तमुदकमाक्रामति (प्रन्धानम् १४०००) तथा तत्त्वैकदेशोत्पन्नरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशम-|| वशादशेषतत्त्वेषु रुचिमान् भवति, स एवंविधो वीजरुचिख़तव्यः, यथा हि वीजंक्रमेणानेकबीजानां जनकमेवमस्यापि रुचिर्विषयभेदतो भिन्नानां रुच्यन्तराणामिति । अभिगमरुचिमाह-स भवत्स भिगमरुचिः श्रुतज्ञानं येना र्थ्यत इत्यर्थः-अभिधेयस्तमाश्रित्य 'दृष्टम्' उपलब्ध, किमुक्तं भवति ?-येन श्रुतज्ञानस्वार्थोऽधिगतो भवति, किं (पुनस्तत् श्रुतज्ञानमित्याह-एकादशाङ्गानि आचारादीनि, प्रकीर्णकमिति जातावेकवचनं, ततः 'प्रकीर्णकानि' उत्त राध्ययनादीनि 'दृष्टिवादः' परिकर्मसूत्रादि, अङ्गत्वेऽपि पृथगुपादानमस्य प्राधान्यख्यापनार्थ, चशब्दादुपाङ्गान्यो-It दीप अनुक्रम [१०९२ -११०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1127~ Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२८], मूलं [-1 / गाथा ||१७-२७|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||१७-२७|| उत्तराध्य. पपातिकादीनि, अभिगमान्वितत्वादस्य रुचे। विस्ताररुचिमाह-'द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वभावाः' एक-IM मोक्षमार्गबृहद्वृत्तिः त्वपृथक्त्वाद्यशेषपर्यायाः 'सर्वप्रमाणैः' अशेषैः प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धा-यस्य यत्र व्यापारस्तेनैव प्रमाणेन प्रतीताः 'सबाहिति 'सर्वैः' समस्तैः 'नयविधिभिः' नैगमादिभेदैरमुं भावमयममुं वाऽयं नयभेद इच्छतीति, 'चः' समुच्चये ४ ल गत्य०२८ १५६५॥ स ईग्य विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यो, विस्तारविषयत्वेन ज्ञानस्य रुचेरपि तद्विषयत्वादस्य ज्ञानपूर्षिका हि रुचिः, यत उक्तम्-"सद्दहइ जाणति जतो" | क्रियारुचिमाह-दर्शनं च ज्ञानं च चरित्रं च दर्शनज्ञानचरित्रं तस्मिन् प्रागुतरूपे तथा तपोविनये सत्याः-निरुपचरितास्ताश्च ताः समितिगुप्तयश्च, यदिवा सत्यं च-अविसंवादनयोगाद्यात्मक |समितिगुप्तयश्च सत्यसमितिगुप्तयस्तासु यः क्रियाभावरुचिः, किमुक्तं भवति ?-दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो | रुचिरस्ति सः 'खलु' निश्चितं क्रियारुचिः, नामेति प्रकाश, भण्यत इति शेषः, इह च चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तपःप्रभृतीनां पुनरुपादानं विशेषत एषां मुक्त्यात्वख्यापनार्थम् । स परुचिमाह-अनभिगृहीता-अनङ्गीकृता कुदृष्टिःसौगतमतादिरूपा येन स तथा सङ्ग्रेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः, 'अविशारदः' अकुशलः प्रवचने' सर्वज्ञशासने 'अणभिग्गहिओ य सेसेसु'त्ति अविद्यमानमभीति-आभिमुख्येन गृहीतं ग्रहण-ज्ञानमस्सेत्सनभिगृहीतः अनभिज्ञ इत्यर्थः, 'चः' समुच्चये, अनभिगृहीतश्च के त्याह-शेषेषु' कपिलादिप्रणीतप्रवचनेषु, संभवति हि जिनप्रवचनानभिज्ञोऽपि शेषप्रवचनानभिज्ञ इति तयवच्छेदार्थमेतत् , अयमाशयः-य उक्तविशेषणः सङ्केपेणैव चिलातीपुत्रवत्प्रशमादिपदत्रयेण: *CCIENCREASSASRC_CACY दीप अनुक्रम [१०९२ -११०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1128~ Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१७ -२७|| दीप अनुक्रम [१०९२ -११०२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१७-२७|| अध्ययनं [२८], तत्त्वरुचिमवाप्नोति स सङ्क्षेपरुचिरुच्यते । धर्मरुचिमाह-योऽस्तिकायानां धर्मादीनां धर्मो - गत्युपष्टम्भादिरस्तिकाय - धर्मस्तं जातावेकवचनं, 'श्रुतधर्मम्' अङ्गप्रविष्टाद्यागमस्वरूपं 'खलुः' वाक्यालङ्कारे 'चरित्रधर्म वा' सामायिकादि, वस्य चार्थत्वात्, 'श्रद्दधाति' तथेति प्रतिपद्यते 'जिनाभिहितं' तीर्थकुदुक्तं स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यो, धर्मेषु-पर्यायेषु धर्मे वा श्रुतधर्मादौ रुचिरस्येतिकृत्वा, शिष्यमतिव्युत्पादनार्थं चेत्थमुपाधिभेदेन सम्यक्त्वभेदाभिधानम्, अन्यथा हि निसर्गोपदेशयोरधिगमादी वा क्वचित्केषांचिदन्तर्भाव इति भावनीयमिति सूत्रैकादशकार्थः । कैः पुनलिङ्गैरिदं दशविधमपि सम्यक्त्वमुत्पन्नमस्तीति श्रद्धेयमित्याह Education infamational परमत्थसंधवो वा सुपरमत्थसेवणा वावि । वावन्नकुदंसणवज्रणा य संमत्तसदहणा ॥ २८ ॥ परमाश्च ते तात्त्विकत्वेनार्थाश्चार्यमाणत्वेन परमार्थाः -जीवादयस्तेषु संस्तवो- गुणकीर्त्तनं तत्खरूपं पुनः पुनः परि| भावनाजनितः परिचयो वा परमार्थसंस्तवो, वाशब्द उत्तरापेक्षः समुच्चये, तथा सुष्ठु यथावद्दर्शितया दृष्टा- उपलब्धाः परमार्था-जीवादयो यैस्ते सुदृष्टपरमार्था - आचार्यादयस्तेषां सेवनं पर्युपासनम्, इहोत्तरत्र च (प्राकृतत्वात् सूत्रत्वाच स्त्रीलिङ्गनिर्देशः, बेत्यनुक्तसमुचये, ततो यथाशक्ति तद्वैयावृत्यप्रवृत्तिश्च, 'अपिः' पूर्वापेक्षः समुच्चये, 'वावण्णकुदंसण त्ति दर्शनशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते ततो व्यापनं— बिनएं दर्शनं येषां ते व्यापन्नदर्शनाः-यैरवाप्यापि सम्यक्त्वं तथाविधकर्मोदयाद्वान्तं तथा कुत्सितं दर्शनं येषां ते कुदर्शनाः- शाक्यादयस्तेषां च वर्जनं-- परिहारो व्यापन्नकु निर्युक्ति: [५०२...] Forest Use Only ~ 1129~ www.ncbrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||२८|| नियुक्ति: [१०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२८|| उत्तराध्यालादर्शनवर्जन, मा भूदेतदपरिहारतः सम्यक्त्वमालिन्यमिति, 'च' समुपये, सम्यक्त्वं श्रद्धीयतेऽस्तीति प्रतिपद्यते- मोक्षमार्ग Itsनेनेति सम्यक्त्वश्रद्धानं, प्रत्येकं च परमार्थसंस्तवादिभिरस्य सम्बन्धादेकवचनं, न चाङ्गारमर्दकादेरपि परमार्थ- गत्य.२४ वृाचनसंस्तवादीनां संभवायभिचारिता, तात्त्विकानामेवैषामिहाधिकृतत्वात् , तस्य च तथाविधानामेषामसंभवादिति | ॥५५॥ सूत्रार्थः ॥ इत्थं सम्यक्त्वस्य लिङ्गान्यभिधाय सम्प्रति तस्यैव माहात्म्यमुपदर्शयन्निदमाह नथि चरितं संमत्तविहणं दसणे उ भइयव्वं । संमत्तचरित्ताई जुगवं पुर्व व संमत्तं ॥ २९॥ णादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा नहुँति चरणगुणा। अगुणिस्स नस्थि मुक्खो नत्थि अमुक्खस्स निव्वाणं ॥३०॥ 'नास्ति' न विद्यते उपलक्षणत्वान्नासीन च भविष्यति, किं तत् १-चारित्रं, कीडक !-'सम्यक्त्वविहीन' दर्शनेन विरहितं, किमुक्तं भवति ?-यावन्न सम्यक्त्वोत्पादो न तावचारित्रं, किमेवं दर्शनमपि चारित्रे नियतमित्याह'दर्शने तु' सम्यक्त्वे पुनः सति भक्तव्यं भवति वा न वा, प्रक्रमाच्चारित्रम् , अतो न तत्तत्र नियतं, किमित्येवमत 2 आह-सम्यक्त्वचारित्रे 'युगपद्' एककालमुत्पद्यते इति शेषः। 'पुवं वत्ति पूर्व चारित्रोत्पादात् सम्यक्त्वमुत्पद्यते ततो यदा युगपदुत्पादस्तदा तयोः सहभावः, यदा तु तथाविधक्षयोपशमाभावतो न तथोत्पादस्तदा सत्यपि सम्यलाक्त्वे न चारित्रमिति तद्दर्शने भाज्यमुच्यते । अन्यच 'नादर्शनिनः' दर्शनविरहितस्य 'ज्ञान'मिति सम्यग्ज्ञानं 'ज्ञानेन दीप अनुक्रम [११०३] ५६६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1130~ Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||२९-३०|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||२९ -३०|| विना' ज्ञानविरहिताः न भवन्ति' न जायन्ते, के ते?-चरणगुणाः, तत्र च चरणं-त्रतादि गुणाः-पिण्डविशुद्यादयः, अगुणिनः' अविद्यमानगुणस्य चरणाविनाभावित्याद्यथोक्तगुणानामविद्यमानचरणस्य च, यदिवा प्राक् चरणान्तर्गता गुणाश्चरणगुणा इति व्याख्यातास्तत इहापि त एव गृह्यन्ते, नास्ति 'मोक्षः' सकलकर्मक्षयलक्षणो, नास्त्यमुक्तस्य । कर्मणेति गम्यते 'निर्वाणं' निर्वृतिर्मुक्तिपदप्राप्तिरितियावत्, तदत्र पूर्वसूत्रेण मुक्त्यनन्तरहेतोरपि चारित्रस्य सम्य-2 क्त्वभाव एव भयनं तम्माहात्म्यमुक्तम् , अनन्तरसूत्रेण तूत्तरोत्तरव्यतिरेकदर्शनिना शेषगुणानां, व्यतिरेकस्थान्वयाक्षे पकत्वादिति सूत्रद्वयार्थः ॥ अस्य चाष्टविधाचारसहितस्यैवोत्तरोत्तरगुणप्राप्तिहेतुतेति तानादर्शयितुमाहPL निस्संकिय निकंखिय निग्वितिगिच्छं अमूढदिट्ठी य । उववृहथिरीकरण वच्छल्लपभावणेऽवते ॥ ३१॥ | शङ्कनं शङ्कितं-देशसर्वशङ्कात्मकं तस्याभावो निःशङ्कितं, एवं काङ्गणं कासितं-युक्तियुक्तत्वादहिंसाद्यभिधायित्वाच शाक्योलूकादिदर्शनान्यपि सुन्दराण्येवेत्यन्यान्यदर्शनग्रहात्मकं तदभावो निष्काङ्कितं, प्राग्यदुभयत्र बिन्दुलोपः, विचि६ कित्सा-फलं प्रति सन्देहो यथा-किमियतः क्लेशस्य फलं स्यादुत नेति ?, तत्रन्यायेन 'विदः' विज्ञाः ते च तत्त्वतः साधव एष तज्जुगुप्सा वा यथा-किममी यतयो मलदिग्धदेहाः, प्रासुकजलनाने हि क इव दोपः स्यादित्यादिका निन्दा तदभावो निर्विचिकित्सं निर्विजुगुप्स बा, आपत्वाच सूत्र एवं पाठः, 'अमूढा' ऋद्धिमत्कुतीर्थिकदर्शनेऽप्यन-13 वगीतमेवास्मद्दर्शन मिति मोहविरहिता सा चासौ दृष्टिश्च बुद्धिरूपा अमूढरष्टिः, स चायं चतुर्विधोऽप्यान्तर आचारः, दीप अनुक्रम [११०४-११०५] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1131~ Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) वृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३१|| उत्तराध्य. वाय त्याह-'उवयूह'त्ति, उपबृंहणमुपबृंहा-दर्शनादिगुणान्वितानां सुलब्धजन्मानो यूयं युक्तं च भवारशामिदमित्या मोक्षमार्गदिवचोभिस्तत्तद्गुणपरिवर्द्धनं सा च स्थिरीकरणं च-अभ्युपगम(त)धर्मानुष्ठानं प्रति विषीदतां स्थैर्यापादनमुपबृंहास्थि- गत्य०२८ |रीकरणे, वत्सलभावो वात्सल्य-साधर्मिकजनस्य भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणं तच प्रभावना च-तथा तथा ॥५६७॥ खतीर्थोन्नतिहेतुचेष्टासु प्रवर्तनात्मिका वात्सल्यप्रभावने, उपसंहारमाह-अष्टैते दर्शनाचारा भवन्तीतिशेषः, एभिरे-1 वाष्टभिराचार्यमाण स्वास्योक्तफलसम्पादकतेति भावः, एतच ज्ञानाचाराधुपलक्षकं, यद्वा दर्शनखैव यदाचाराभिधानं । मतदस्यैवोक्तन्यायेन मुक्तिमार्गमूलत्वसमर्थनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं ज्ञानदर्शनाख्यं मुक्तिमार्गमभिधाय पुनस्तमेव |चारित्ररूपमुपदिदर्शयिषुर्भेदकथनत एव तत्खरूपमुपदर्शितं भवतीति मन्वान इदमाह सामाइयऽत्य पढमं छेदोवट्ठावणं भवे बितियं । परिहारविसुद्धीयं सहमं तह संपरायं च ॥३२॥ अकसाय अहक्खायं, छउमस्थस्स जिणस्स वा । एयं चयरित्तकर, चारितं होद आहियं ॥ ३३॥ समिति-साङ्गत्वेनैकीभावेन वा आयो-गमनं, कोऽर्थः ?-प्रवर्त्तनं, समायः स प्रयोजनमस्य सामायिक, तदस्य प्रयो ५६७॥ जन"मिति (पा०५-१-१०९) ठक्, तच्च सकलसावद्यपरिहार एव, तत्रैव सति साङ्गत्वेन खपरविभागाभावेन च सर्वत्र प्रवृत्तिसम्भवात् , यद्वा समो-रागद्वेषविरहितः स चेह प्रस्तावाचितपरिणामस्तस्मिन्नायो-गमनं समायः स एव सामायिक, विनयादेराकृतिगणत्वात्वार्थिकः ठक्, इदमपि सर्वसावद्यविरतिरूपमेव, चेति पूरणे, 'प्रथमम्' आद्यम् , दीप अनुक्रम [११०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1132~ Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-1 / गाथा ||३२-३३|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२ -३३|| एतच द्विधा-इत्वरं यावत्कधिकं च, तत्रत्वरं भरतरावतयोः प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोरुपस्थापनायां छेदोपस्थापनी यचारित्रभावेन तत्र तद्यपदेशाभावात् , यावत्कथिकं च तयोरेव मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु महाविदेहेषु चोपस्थापनाया k|अभावेन तद्यपदेशस्य यावज्जीवमपि सम्भवात् , तथा छेदः-सातिचारस्य यतेनिरतिचारस्य वा शिक्षकस्य तीर्थान्त रसम्बन्धिनो वा तीर्थान्तरं प्रतिपद्यमानस्य पूर्वेपयोयव्यवच्छेदरूपस्तधुक्तोपस्थापना महावतारोपणरूपा यसिंस्तच्छेदोपस्थापनं भवेद्वितीयम् , तथा परिहरणं परिहारो विशिष्टतपोरूपस्तेन विशुद्धिरस्मिन्निति परिहारविशुद्धिकं, तचैत-12 गाथाभ्योऽयसेयम्-"परिहारियाण उ तवो जहन्न मज्झो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहिं पत्तेयं ॥१॥ तत्थ जहण्णो गिम्हे चउत्थ छटुं तु होइ मज्झमओ। अठ्ठममिहमुकोसो इत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥२॥ सिसिरे उ जहन्नाई छहाई दसमचरमगो होई । वासासु अट्ठमाई बारसपज्जंतगो णेओ ॥३॥ पारणए आयाम पंचसु पगहो दोसऽभिग्गहो भिक्खे । कप्पट्ठिया य पइदिण करति एमेव आयामं ॥४॥ एवं छम्मासतवं चरिउर १ पारिहारिकाणां तु तपो जघन्य मध्यम तथैवोत्कृष्टम् । शीतोष्णवर्षाकालेषु भणितो धीरः प्रत्येकम् ॥ १॥ तत्र जघन्यमपि ग्रीष्मे चतुर्थ षष्ठं तु भवति मध्यमतः । अष्टम इद उत्कृष्टमतः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ।। २॥ शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमकं भवति । वर्षास्वष्टमादि द्वादशपर्यन्तं शेयं ॥ ३ ॥ पारणके आचामान्लं पञ्चानां प्रग्रहः द्वयोरभिग्रहो भिक्षायाम् । कल्पस्थिताश्च प्रतिदिनं कुर्वन्येवमेवाचामाम्लम् ॥ ४ ॥ एवं पण्मासतपश्चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति । अनुचरकेषु परिहारपदस्थितेषु यावत् पण्मासाः ॥ ५॥ दीप अनुक्रम [११०७-११०८] 42C24 wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1133~ Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३२ -३३|| दीप अनुक्रम [११०७ -११०८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५६८ ।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ३२-३३|| अध्ययनं [२८], Education into परिहारिया अणुचरंति । अणुचरगे परिहारगपर्यट्ठिए जाव छम्मासा ॥५॥ केप्पट्ठिओऽवि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ । अणुपरिहारगभावं चरंति कप्पट्ठियत्तं च ॥ ६ ॥ एवेसो अट्टारसमासपमाणो उ वण्णिओ कप्पो । संखेबओ विसेसो विसेसमुत्ताउ नेयवो ॥ ७ ॥ कप्पसमत्तीय तयं जिणकप्पं वा उवैति गच्छं वा । पडिवजमाणगा पुण जिणस्सगासे पवज्र्ज्जति ॥८॥ तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे णो य अण्णस्स । एएसिं जं चरणं परिहारविसुद्धिगं तं तु ॥ ९॥" "सुदुमं तह संपरायं च'त्ति, 'तथे' त्यानन्तर्ये, छन्दोभङ्गतया चै(भयाचैवमुपन्यस्तः, सूक्ष्मः -किट्टीकरणतः संपर्येति- पर्यटति अनेन संसारमिति संपरायो - लोभाख्यः कषायो यस्मिंस्तत्सूक्ष्मसम्परायम् एतचोपशम श्रेणिक्षपक श्रेण्योर्लो भाणुवेदनसमये संभवति, यत उक्तम्- " लोभाणुं वेदंतो जो खलु उवसामओ व खमओ व । सो सुहुमसंपरायो अहखया ऊणओ किंचि ॥ १ ॥” तथा 'अकषायम्' अविद्यमानकषायं क्षपितोपशमितकषायावस्थाभावि इह चोपशमितकपायावस्थायाम कषायत्वं कपायकार्याभावात्, 'यथाख्यातम्' अर्हत्कथितस्वरूपानतिक्रमवत्, 'छद्मस्थस्य' १ कल्पस्थितोऽपि एवं षण्मासतपः करोति शेषास्तु । अनुपरिहारिकभावं चरन्ति कल्पस्थितत्वं च ॥ ६ ॥ एवमेषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कल्पः । संक्षेपतो विशेषो विशेषसूत्रात् ज्ञातव्यः ॥ ७ ॥ कल्पसमाप्तौ तकं जिनकल्पं वोपैति गच्छे वा । प्रतिपद्यमानकाः पुनजिनसकाशे प्रपद्यन्ते ॥ ८ ॥ तीर्थकरसमीपासेवकस्य पार्श्वे वा नैवान्यस्य । एतेषां यच्चरणं परिहारविशुद्धिकं तु तत् ॥ ९ ॥ २ लोभाणुं वेदयन् यः खलुपशमको वा क्षपको वा । स सूक्ष्मसंपरायो यथाख्यातादूनकः किञ्चित् ॥ १ ॥ निर्युक्तिः [५०२...] For Parts Only ~1134~ मोक्षमार्ग गत्य० २८ ॥५६८॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-1 / गाथा ||३२-३३|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) प्रत सूत्रांक ||३२ ACANCCTSAX2 -३३|| उपशान्तक्षीणमोहाख्यगुणस्थानध्यवर्तिनः 'जिनस्य वा' केवलिनः सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वयस्थायिनः, वा समुच्चये, यथैतत्पञ्चविधमपि चारित्रशब्दवाच्यं तथाऽन्वर्थत आह-'एतद् अनन्तरोक्तं सामायिकादि चयस्य-राशेः प्रस्तावात्कर्मणां रिक्तं-विरेकोऽभाव इतियावत् तत्करोतीयेवंशीलं चयरिक्तकरं चारित्रमिति नेरुक्तो विधिः, आह-यश्यति"चरितेण णिगिण्हाति तवेण य वि(परि)सुज्झति'त्ति' कथं न तेनास विरोधः?, उच्यते, तपसोऽपि तत्त्वतश्चारित्रान्तर्गतत्वात् , भवति 'आख्यातं' कथितमहदादिभिरिति गम्यत इति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रति तपश्चतुर्थं कारणमाह तवो अदुविहो चुत्तो, बाहिरऽभतरो तहा । बाहिरो छब्विहो बुत्तो, एवमभितरो तवो ॥ ३४ ॥ तपश्च द्विविधमुक्त, 'बाहिर'त्ति बाह्यमाभ्यन्तरं, तथा तत्र वाह्यं षड्विधमुक्तमेवमिति-पड्विधमाभ्यन्तरंतप उक्तमिति | | सूत्रार्थः, भावार्थस्तु तपोऽध्ययन एवाभिधास्यते ॥ आह-एषां मुक्तिमार्गत्वे कस्य कतरो व्यापारः, उच्यते नाणेण जाणई भावे, संमत्तेण य सदहे। चरित्तेण निगिण्हाह, तवेण परिसुजाई ॥३॥ 'ज्ञानेन' मत्यादिना जानाति' अवबुध्यते 'भावान्' जीवादीन् 'दर्शनेन च' उक्तरूपेण 'सद्दहि'त्ति श्रद्धत्ते चारित्रेसण-अनन्तराभिहितेन 'निगिण्हाति'त्ति निराश्रयो भवति, पठ्यते च-'न गिण्हति'त्ति, तत्र 'न गृह्णाति' नादत्। कर्मेति गम्यते 'तपसा परिशुद्धति' पुरोपचितकर्मक्षपणतः शुद्धो भवति, उक्तं हि-"संजमे अणण्हयफले तवे बोदाणफले"त्ति, इति सूत्रार्थः । अनेन मार्गस्य फलं मोक्ष उक्तः, सम्प्रति तत्फलभूतां गतिमाह- . दीप अनुक्रम [११०७-११०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1135~ Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२८], मूलं [-] / गाथा ||३६|| नियुक्ति: [५०२...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः । ॥५६९॥ *ॐ*- प्रत सूत्रांक ||३६|| खवित्ता पुष्चकम्माई, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥३६॥ तिमि मोक्षमार्ग॥मुक्खमग्गगईयं ॥२८॥ अगत्य०२८ 'क्षपयित्वा' क्षयं नीत्वा 'पूर्वकर्माणि' पूर्वोपचितज्ञानावरणादीनि संयमः-सम्यक् पापेभ्य उपरमणं चारित्र-2 मित्यर्थस्तेन 'तपसा' उक्तरूपेण चशब्दाज्ज्ञानदर्शनाभ्यां च, नन्वेवमनन्तरं तपस एव कर्मक्षपणहेतुत्वमुक्तम् इह तु ज्ञानादीनामपीति कथं न विरोध?, उच्यते, तपसोऽप्येतत्पूर्वकस्यैव क्षपणहेतुत्वमिति ज्ञापनार्थमित्थमभिधानम् , अत एव मोक्षमार्गत्वमपि चतुर्णामप्युपपन्नं भवति, ततश्च 'सबदुक्खप्पहीणह'त्ति प्राकृतत्वात्प्रकर्षेण हीनानि-हानि गतानि प्रक्षीणानि वा सर्वदुःखानि यस्मिन् यद्वा सर्वदुःखानां प्रहीणं प्रक्षीणं वा यस्मिंस्तत्तथा तच सिद्धिक्षेत्रमेव तदर्थयन्त इवार्धयन्ते सर्वार्थच्छोपरमेऽपि तद्भामितया ये से तथाविधाः 'प्रक्रामन्ति' भृशं गच्छन्ति अथवा प्रहीणानि वा सर्वदुःखान्याश्च-प्रयोजनानि येषां ते तथाविधाः प्रक्रामन्ति सिद्धिमिति शेषः, 'महेसिणोति महर्षयो महैषिणो या प्राग्वन्महामुनय इति सूत्रार्थः। इति' परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ,उक्तोऽनुगमः,सम्प्रति नयाः,तेऽपि प्राग्वदेव ।। इत्युत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां श्रीशान्त्याचार्यकृतायां मुक्तिमार्गगतिनामकमष्टाविंशमध्ययनं समाप्तमिति २० ॥५६९॥ श्रीशान्त्याचार्यकृतायामुत्तराध्ययनटी०शिष्य मुक्तिमार्गगतिनामकमष्टाविंशमध्ययनं समाप्तम् ॥ - दीप अनुक्रम [११११] 5 -20-4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २८ परिसमाप्तं ~1136~ Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [११११] *%*%%**%*6** “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२९], मूलं [ - ] / गाथा || ३६...|| निर्युक्ति: [५०३] अथ एकोनत्रिंशं सम्यक्त्वपराक्रमाध्ययनम् । व्याख्यातमष्टाविंशमध्ययनमे कोनत्रिंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने ज्ञानादीनि मुक्तिमार्गत्वेनाक्तानि तानि व संवेगादिमूलान्यकर्मताऽवसानानि च तथा भवन्तीति तानीहोच्यन्ते, यद्वाऽनन्तराध्ययने मोक्ष|| मार्गगतिरुक्ता इह पुनरप्रमाद एव तत्प्रधानो पायो, ज्ञानादीनामपि तत्पूर्वकत्वादिति, स एव वर्ण्यते, अथवाऽनन्तराध्ययने मुक्तिमार्गगतिरुक्ता सा च वीतरागत्वपूर्विकेति यथा तद्भवति तथाऽनेनाभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धत्रयेणायातमिदमध्ययनम्, अस्य च महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्य नामनिष्पन्ननिक्षेपोऽभिधेयः, स च नामपूर्वक इत्येतन्नामनिर्देशायाह निर्युक्तिकृत् | आयाणपरणेयं सम्मत्तपरक्कमंति अज्झयणं । गुण्णं तु अप्पमायं एगे पुण वीयरागसुयं ॥ ५०३ ॥ आदीयतइत्यादानम् आदिः प्रथममित्यर्थः तच तत्पदं च निराकाङ्क्षतयाऽर्थगमकत्वेन वाक्यमेवादानपदं तेन, | उपचारतचेह तदभिहितमपि तथोक्तं, तत आदानपदाभिहितेन प्रक्रमान्नाम्ना 'इदमिति प्रस्तुतं सम्यक्त्वपराक्रममितिः- उपप्रदर्शने, उच्यत इति शेषः 'अध्ययनं' प्रागुक्तनिरुक्तं, वक्ष्यति हि "इह खलु सम्मत्तपरकमे णामऽज्झ Forest Use Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं २९ "सम्यक्त्व" आरभ्यते ~ 1137 ~ Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [--] / गाथा ||३६...|| नियुक्ति: [५०३] (४३) सम्यक्त्व पराक्रमा. प्रत सूत्रांक ||३६|| उत्तराध्य रायणे पण्णत्ते"त्ति, गुणैर्हि निर्वृत्तं गौण 'तुः' अवधारणे गौणमेव, अप्रमाद इत्युपलक्षणत्वाद् अप्रमादश्रुतम् , एके त पुनर्वीतरागश्रुतं, कोऽर्थः ?-संवेगादयोऽत्र वर्ण्यन्ते, तद्रूप एव च तत्त्वतोऽप्रमाद इति तदभिधायिश्रुतरूपत्वादप्रबृहद्वृत्तिः | मादश्रुतमिति ब्रुवते, अन्ये त्वामादोऽपि वीतरागताफल इति तत्प्राधान्याश्रयणतो वीतरागश्रुतमिति गाथार्थः ॥ ॥५७०॥ अत्र चादानपदनानः सूत्रान्तर्गतत्वात्सूत्रस्पर्शिकनियुक्तरेव तत्र व्यापार इति तदुपेक्ष्य वीतरागश्रुतनाम च तस्य | केषाञ्चिदेवाभिमतत्वात् 'मध्यग्रहणे आद्यन्तौ गृहीतायेव भवत' इति न्यायतो या द्वयमप्यनादृत्याप्रमादश्रुतनिक्षे-| पमभिधातुमाहनिक्खेवो अपमाए चउवि० ।। ॥ ५०४॥ जाणगभवियसरीरे तबइरित्ते अमित्तमाईसु । भावे अन्नाणअसंवराईसु होइ नायवो ॥ ५०५ ॥ निक्खेवो अ सुअंमि चउक्कओ दुवि० ॥५०६ ॥ Pजाणगभवियसरीरे तबइरिते अ सो उ पंचविहो । अंडयबोंडयवालय वागय तह कीडए चेव ॥५०७॥ भावसुअंपुण दुविहं सम्मसुअंचेव होइ मिच्छसुयं । अहियारोसम्मसुए इहमज्झयणमि नायवो ॥५०॥ दीप अनुक्रम [११११] ॥५७०। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1138~ Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [-1 / गाथा ||३६...|| नियुक्ति: [५०४-५०८] (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| गाथापञ्चकं प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरम् 'अमित्तमाईसुत्ति अमित्राः-शत्रवः आदिशब्दाबालादिपरिग्रहस्तेषु योऽन-181 मादः स तव्यतिरिक्तोऽप्रमाद उच्यते, द्रव्यत्वं चास्य तथाविधाप्रमादकार्याप्रसाधकत्वात् द्रव्यविषयत्वाद्वा, 'भाव' इति भावे विचार्य अज्ञानं-मिथ्याज्ञानमसंवरः-अनिरुद्धाश्रवता, आदिशब्दात्कषायपरिग्रहः, एतेषु प्रक्रमादप्रमादःएतजयं प्रति सदा सावधानतारूपो भवति ज्ञातव्यः । तथा 'सो उ पंचविधोति, स इति तत्-तयतिरिक्तसूत्रं ॥ |'तुः पुनरर्थे 'पञ्चविध' पञ्चप्रकारं, पञ्चविधत्वमेवाह-'अण्डजं' हंसाद्यण्डकेभ्यो यजायते यथा क्वचित्पट्टसूत्र, पौण्डकं (बोण्डज) यमनितिन्दुकोद्भवं यथा कर्पाससूत्रं, वालजं यदूरणकादिकेशोत्पन्नं यथोोसूत्र, याकजं-1 ४सनातस्यादिवाकेभ्यो यज्जायते यथा सनसूत्रं, कीटजं च यत्तथाविधकीटेभ्यो लालात्मकं प्रभवति यथा पट्टसूत्र, तथा 'सम्यकश्रुतम्' अङ्गप्रविष्टादि 'मिथ्याश्रुतं' कनकसप्सत्यादि, अधिकारः-प्रकृतं सम्यकथुतेन, सुब्व्यत्ययावृती-| यार्थ सप्तमी, 'इह' अध्ययने 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, तद्रूपत्वादखेति गाथापचकार्थः ॥ सम्प्रति गौणतामेवास नानो वक्तुमाहसम्मत्तमप्पमाओ इहमज्झयणमि वपिणओ जेणं । तम्हेयं अज्झयणं णायवं अप्पमायसुअं॥ ५०९॥ 'सम्मत्त'ति सुब्व्यत्ययात्सम्यक्त्वे उपलक्षणत्वाज्ज्ञानादिषु चाप्रमाद उक्तन्यायेन संवेगादिफलोपदर्शनतः काका दीप अनुक्रम [११११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1139~ Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [५०९] (४३) * उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५७१॥ प्रत RECE सत्राक तदनुष्ठानं प्रत्युद्यमदर्शनेन वा 'इहमज्झयणमित्ति इहाध्ययने वर्णितो येन तस्मादेतदध्ययनं ज्ञातव्यम् 'अप्रमादश्रुतं सम्यक्त्वअप्रमादश्रुतनामकमिति गाथार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम्- पराक्रमा. सुअं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरकमे नामजायणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए जं सम्मं सद्दहइत्ता पत्तियाइत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पाल इत्ता तीरइत्ता किइत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता घहवे जीवा सिझंति बुझंति मुचंति परिनिच्चायति सब्ब-12 | दुक्खाणमंतं करेंति ॥१॥ ___ 'श्रुतम्' आकर्णितं 'मे' मया आयुष्मन्निति शिष्यामन्त्रणम् , एतच सुधर्मखामी जम्बूखामिनं प्रत्याह, 'तेने ति यः सर्वजगत्प्रतीतः, तेनापि कीदृशेत्याह-भगवता' समग्रेश्चर्यादिमता प्रक्रमान्महावीरेण एवं मिति वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्यातं' कथितं, तमेव प्रकारमाह-'इह' अस्मिन् जगति जिनप्रवचने वा 'खलु' निश्चितं सम्यक्त्वमिति गुणगुणिनोरनन्यत्वात्सम्यक्त्वगुणान्वितो जीवस्तस्य सम्यक्त्वे वोक्तरूपे सति पराक्रमः-उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्त्या कर्मा-13 रिजयसामर्थ्यलक्षणो वर्ण्यतेऽस्मिन्निति सम्यक्त्वपराक्रम नामाध्ययनमस्तीति गम्यते, नन्वेवमिदमपि गौणमेव ॥५७१॥ नाम तत्किमिति नियुक्तिकृताऽऽदानपदेनैतदुक्तम् ?, इतरे तु गौणे इति, सत्यमेतत्, किन्तु नानोऽनेकविधत्वसूचनार्थ नियुक्तिकृतेत्यमुक्तं न त्वस्य गौणत्वव्यवच्छेदार्थ, तच केन प्रणीतमित्याह-'श्रमणेन' श्रामण्यमनुचरता %%%* दीप अनुक्रम [१११२] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1140~ Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २९, मूलं [१] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक धर्मकायावस्थामास्थितेनेत्यर्थः, भगवता महावीरेण काश्यपेन 'प्रवेदित' खतः प्रवेदितमेव भगयता ममेदमाख्या-13 तमित्युक्तं भवति, अनेन वक्तृद्वारेण प्रस्तुताध्ययनस्य माहात्म्यमाह । ननु सुधर्मखामिनोऽपि श्रुतकेवलित्वात्तद्वारेणाप्यस्य प्रामाण्यं सिध्यत्येव तरिकमेवमुपन्यासः', उच्यते, लब्धप्रतिष्ठरपि गुरूपदिष्टं गुरुमाहात्म्यं च ख्यापयद्भिः |सूत्रमर्थश्चाख्येय इति ख्यापनार्थमेवमुपन्यासः, इत्थं वक्तृद्वारेणास्थ माहात्म्यमभिधाय संपति फलद्वारेणाह-'यदिति प्रस्तुताध्ययनं 'सम्यम्' अवैपरीत्येन 'श्रद्धाय' शब्दार्थोभयरूपं सामान्येन प्रतिपद्य 'प्रतीत्य' उक्तरूपमेव विशेषत इत्थमेवेति निश्चित्य, यद्वा संवेगादिजनितफलानुभवलक्षणेन प्रत्ययेन प्रतीतिपथमवतार्य, रोचयित्वा' तदभिहिता नुष्ठानविषयं तदध्ययनादिविषयं वाऽभिलाषमात्मन उत्पाद्य, संभवति हि कचिद्गुणवत्तयाऽवधारितेऽपि कदाचिदरुचिरित्येवमभिधानं, 'फासित्त'ति तदुक्तानुष्ठानतः स्पृष्ट्वा 'पालयित्वा' तद्विहितानुष्ठानस्यातीचाररक्षणेन 'तीर-13 यित्वा' तदुक्तानुष्ठानं पारं नीत्वा 'कीर्तयित्वा' खाध्यायविधानतः संशुम 'शोधयित्वा' तदुक्तानुष्ठानस्य तत्तद्गुणस्थानावाप्तित उत्तरोत्तरशुद्धिप्रापणेन 'आराध्य' यथावदुत्सर्गापवादकुशलतया यावजीवं तदर्थासेवनेन, एतत् सर्व खमनीषिकातोऽपि स्यादत आह-आज्ञया' गुरुनियोगात्मिकया 'अनुपाल्य' सततमासेव्य, यद्वा 'स्पृष्ट्वा' योगमात्रिकेण मनोवाकायलक्षणेन, तत्र मनसा-सूत्रार्थोभयचिन्तनेन वचसा-वचनादिना कायेन-मझकरचनादिना. एवं पालनाराधनयोरपि योगत्रयं वाच्यं, 'पालयित्वा' परावर्त्तनादिनाऽभिरक्ष्य 'तीरयित्वा' अध्ययनादिना परि दीप अनुक्रम [१११२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1141~ Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत ཋལླཱཡྻ [8] दीप अनुक्रम [१११२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [२९], मूलं [१] / गाथा ||-|| निर्युक्ति: [५०९...] उत्तराध्य. ॐ समाप्य 'कीर्त्तयित्वा गुरोर्विनयपूर्वकमिदमित्थं मयाऽधीतमिति निवेद्य 'शोधयित्वा' गुरुवदनुभाषणादिभिः शुद्धं विधाय 'आराध्य' उत्सूत्रप्ररूपणादिपरिहारेणावाधयित्वा शेषं प्राग्यन्नवरम् आज्ञयेति जिनाज्ञया, उक्तं हि "फासिय वृहद्वृत्तिः जोगतिणं पालियमविराहियं च एमेव । तीरियमंतं पाविय किट्टिय गुरुकहण जिणमाणा ॥ १ ॥" एवं च कृत्वा | किमित्याह - 'बहवः' अनेक एव 'जीवाः' प्राणिनः 'सिद्ध्यन्ति' इहैवागमसिद्धत्वादिना, 'बुध्यन्ते' घातिकर्मक्षयेण, 'विमुच्यन्ते' भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयेन, ततश्च 'परिनिर्वान्ति' कर्मदावानलोपशमेन अत एव 'सर्वदुःखानां शारीरमानसानाम् 'अन्तं' पर्यन्तं कुर्वन्ति मुक्तिपदावाध्येति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति विनेयानुग्रहार्थं सम्बन्धाभिधानपुरस्सरं १४ प्रस्तुताध्ययनार्थमाह ॥५७२ ॥ तस्स णं अयम एवमाहिज्जइ, तंजहा संवेगे १ निब्बेए २ धम्मसदा ३ गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणया ४ आलोयणया ५ निंदणया ६ गरिहणया ७ सामाइए ८ चउवीसत्थए ९ बंदणए १० पडिकमणे ११ काउस्सग्गे १२ पञ्चकखाणे १३ धयधुह मंगले १४ कालपडिलेहणया १५ पायच्छिन्तकरणे १६ खमावण्या १७ सज्झाए १८ वा यणया १९ परिपुच्छणया २० परियहणया २१ अणुप्पेहा २२ घम्मका २३ सुयस्स आंराहणया २४ एगग्गमणसंनिवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ चोदाणे २८ सुहसाए २९ अप्पडिबद्धया ३० विवित्तसयणासणसेवणया * ३१ विणणया ३२ संभोगपञ्चकखाणे ३३ उबहिपचक्खाणे ३४ आहारपचक्खाणे ३५ कसायपचक्खाणे Forest Use Only सम्यक्त्व पराक्रमा. २९ ~ 1142 ~ ॥५७२ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २९, मूलं [२] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) 65+% % प्रत % % |३६ जोगपञ्चक्खाणे ३७ सरीरपच्चक्खाणे ३८ सहायपञ्चक्खाणे ३१ भत्तपञ्चक्खाणे ४० सम्भावपञ्चक्खाणे ॥४१ पडिरूवया ४२ वेयावचे ४३ सब्वगुणसंपुषणया ४४ वीयरागया ४५ खंती ४६ मुत्ती ४७ मद्दवे ४८ अजये ४९ भावसचे ५० करणसच्चे ५१ जोगसच्चे ५२ मणगुसया ५३ वयगुत्तया ५४ कायगुत्तया ५५ मणसमाधारणया ५६ वयसमाधारणया ५७ कायसमाधारणया ५८ नाणसंपन्नया ५९दसणसंपन्नया ६० चरित्तसंपन्नया ६१ सोइंदियनिग्गहे ६२ चक्खिदियनिग्गहे ६३ घाणिदियनिग्गहे ६४ जिभिदियनिग्गहे ६५ फासिंदियनि-6 ग्गहे ६६ कोहविजए ६७ माणविजए ६८ मायाविजए ६९ लोभविजए ७० पिज्जदोसमिच्छादसणविजए ७१ सेलेसी ७२ अकम्मया ७३ (दाराणि)॥ 'तस्येति सम्यक्त्वपराक्रमाध्ययनस्य णमिति सर्वत्र वाक्यालङ्कारे 'अय'मित्यनन्तरमेव वक्ष्यमाणः 'अर्थः' अभिधेयः एवम्' अमुना वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आख्यायते' कथ्यते महावीरेणेति गम्यते, तद्यथेति वक्ष्यमाणतदर्थोपन्यासार्थः, संवेगो १ निर्वेदो २ धर्मश्रद्धा ३ 'गुरुसाहम्मियसुस्सूसण'त्ति साधर्मिकगुरुशुश्रूषणम् आपत्वाचेहोत्तरत्र च सूत्रेवन्यथा पाठः ४ आलोचना ५ निन्दा ६ गहरे ७ सामायिक ८ चतुर्विंशतिस्तयो ९ वन्दनं १० प्रतिक्रमणं ११ |कायोत्सर्गः १२ प्रत्याख्यानं १३ स्तवस्तुतिमङ्गलं १४ कालप्रत्युपेक्षणा १५ प्रायश्चित्तकरणं १६ क्षमणा १७ 8 खाध्यायो १८ वाचना १९ प्रतिप्रच्छना २० परावर्चना २१ अनुप्रेक्षा २२ धर्मकथा २३ श्रुतस्याराधना २४ एका-हा दीप अनुक्रम [१११३] 12%A2% wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1143~ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [२] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) उत्तराध्य अमनःसंनिवेशना २५ संयम २६ स्तपो २७ व्यवदानं २८ सुखशायो २९ प्रतिबन्धता ३० विविक्तशयनासन- सम्यक्त्व सेवना ३१ विनिवर्त्तना ३२ सम्भोगप्रत्याख्यानम् ३३ उपधिप्रत्याख्यानम् ३४ आहारप्रत्याख्यानं ३५ कषायप्रसावृहद्वृत्तिः पराक्रमा. ख्यानं ३६ योगप्रत्याख्यानं ३७ शरीरप्रत्याख्यानं ३८ सहायप्रत्याख्यानं ३९ भक्तप्रत्याख्यानं ४० सद्भावप्रत्याख्यानं ॥५७२४१ प्रतिरूपता ४२ वैयावृत्त्यं ४३ सर्वगुणसंपूर्णता४४ वीतरागता ४५क्षान्तिः ४६ मुक्तिः ४७ मार्दवं ४८ आर्जवं २९ K४९ भावसत्यं ५० करणसत्यं ५१ योगसत्सं ५२ मनोगुप्तता ५३ वाग्गुप्तता ५४ कायगुप्तता ५५ मनःसमाधारणा N५६ वाक्समाधारणा ५७ कायसमाधारणा ५८ ज्ञानसंपन्नता ५९ दर्शनसंपन्नता ६० चारित्रसंपन्नता ६१ श्रोत्रेन्द्रिय-II हा निग्रहः ६२ चक्षुरिन्द्रियनिग्रहो ६३ बाणेन्द्रियनिग्रहो ६४ जिह्वेन्द्रियनिग्रहः ६५ स्पर्शनेन्द्रियनिग्रहः ६६ क्रोधविजयो ६७ मानविजयो ६८ मायाविजयो ६९ लोभविजयः ७० प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनविजयः ७१ शैलेशी ७२ अकमतेति ७३, इत्यक्षरसंस्कारः ॥ साम्प्रतमिदमेव प्रतिपदफलोपदर्शनद्वारेण व्याचिख्यासुराह सूत्रकारः संवेगेण भंते ! जीवे कि जणयाइ,संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ,अणुत्तराए धम्भसद्धाए संवेगं हब्वमा-141 गच्छह, अर्णताणुवंधिकोहमाणमायालोमे खचेइ, कम्मं न बंधह, तप्पचहयं च मिच्छत्तविसोहिं काऊण दसणा-1 राहए भयह दसणविसोहीएणं विसुद्धाए अत्यगाया तेणेवणं भवग्गहणणं सिझंति बुझंति विमुचंति परिनि-1 व्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, सोहीए यणं विसुद्धाए तचं पुणो भवग्गहणं नाइकमति १॥ निव्वेएणं भंते । अनुक्रम [१११३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल संपादने अत्र सूत्रक्रमांक १ तथा २ द्वीवारान् लिखितं तस्मात् मया १R PR, 3, ..इति क्रमांक दत्त ~1144 ~ Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] जीवे किंजणयह,निब्बेएणं दिव्वमाणुस्सतिरिच्छिएमु कामभोएसुनिव्वेयं हव्वमागच्छइ सबविसएसु विर जइ,सब्बविसएम चिरजमाणे आरंभपरिचायं करेइ,आरंभपरिचायं करेमाणे संसारमग्गं वुच्छिदइ सिद्धिमग्गकापडिवन्ने य हवह ॥धम्मसद्धाए ण भंते ! जीवे किं जणयइ,२ सायामुक्खेसु रजमाणे विरजइ अगारधम्मं च Mणं चयइ,अणगारिए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयणसंजोगाईणं वुच्छेयं करेइ अव्वाबाहचणं सुहं निव्वत्तेइशा गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए भंते! जीवे किंजणेइ,२ विणयपडिवर्ति जणेह.विणयपडिवजानेणं जीवे अणचामायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवदुग्गईओ मिरुभह, वण्णसंजलणभत्तिबह-IN माणयाए माणुस्सदेवसुग्गइओ निबंधइ सिद्धिसुगइंच विसोहेइ पसत्थाई च णं विणयमूलाई सव्वकबाई द साहइ, अन्ने य बहवे जीचे विणइत्ता हवद ॥ आलोयणाए णं भंते ! जीवे किंजणेइ, २ मायानियाणमि च्छादरिसणसल्लाणं मुक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारबद्धणाणं उद्धरणं करेइ उज्जुभावं च जणेह, उज्जुभावं, पडिवन्ने यर्ण जीवे अमाई इत्थीवेयं नपुंसगवेयं च न बन्धह, पुवबद्धं च णं निजरइ ५॥ निंदणयाए णं भंते ॥४ त जीवे किंजणेइ,२ पच्छाणुतावं जणइ,पच्छाणुतावेणं विरजमाणे करणगुणसेटिं पडिवजइ, करणगुणसेदिप-13 डिवन्ने य अणगारे मोहणिज कम्म उग्घाएइ ६।। गरिहणाए णं भंते! जीवे किंजणेइ , २ अपुरक्कार जणेइ, अपु रकारगए णं जीवे अप्पसत्थेहितोजोगेहितो नियत्तइ पसत्थेहि य पडिवजह,पसत्थजोगपडिवन्ने यणं अणगारे है अणंतघाई पज्जवे खवेइ ७॥ सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणे, २ सावजजोगविरई जणयह ८ ॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1145~ Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५७४॥ सूत्रांक [१R AARISROSORRECTRICA -७३]] चउधीसत्वएणं भंते ! जीवे किं जणेइ १, २ दंसणविसोहि जणइ ९ ॥ बंदणएर्ण भंते ! जीवे किं जणेइ ?,२|| सम्यक्त्वनीयागोयं कम्म खवेइ उच्चागोयं निबंधह सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निवत्तेइ दाहिणभावं च । गंजणेइ १०॥ पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे कि जणेइ ?, २ वयछिदाई पिहेइ, पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरु पराक्रमा. दासवे असवलचरिते अहसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए बिहरह ११ ॥ काउस्सग्गेणं| २९ भिंते! जीवे किं जणेइ, २तीयपटुपन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुपहियए ओहरियभरुब्व भारवहे धम्मज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ १२॥ पर्चक्खाणेणं भंते! जीवे किंजणेइ, २ आसवदाराई निरंभह १३ ॥धयधुइमंगलेणं भंते! जीवे कि जणेइ १, २ नाणदसणचरित्तयोहिलामा संजणइ,नाणदसणचरित्तयोहिलाभसंपन्ने णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहणं आराहेइ १४॥ कालपडिलेहणाए णं भंते जीवे किं जणे, नाणावरणिज्जं कम्म खवेद १५ ॥ पायच्छित्तकरणेणं भंते! जीवे किं जणेह,२पावकम्मविसोहिं जणेइ निरहयारे आविभवइ सम्मं च पायच्छितं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ आयारं आयारफलं च आराहेइ १६॥ खमावणयाए ण भंते ! जीवे किं ५७ जणेइ , २ पल्हायणभावं जणेइ, पल्हायणभावमुवगए य सब्बपाणभूयजीवसत्तेसु मित्तीभावं उपाएइ मित्तीभावमुवगए यजीवे भावविसोहिं काऊण निभए भवइ १७ ॥ सज्झाएणं भंते । जीवे |किं जणेइ , २ नाणावरणिजं कम खवेइ १८ ॥ बायणयाए णं भंते! जीचे किं जणेइ , २ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~11464 Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] निरं जणेह सुअस्स य अणुसज्जणाए अणासायणाए वह, सुयस्स य अणुसजणाए अणासायणाए बमाणे तित्थधर्म अवलंबइ, तित्वधम्ममवलंबमाणे महानिजराए महापज्जवसाणे हवइ १९॥ पडिपुच्छणाए णं भंते ! जीवे कि जणेइ ,२ सुत्तस्थतदुभयाई विसोहेइ, कंखामोहणिज कम्म वुच्छिदेइ २०॥ परियहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणेइ , २ बंजणाई जणेइ बंजणलद्धिं च उप्पाए |२१ ॥ अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं जणेइ. १,२ आउयवजाओ सत्त कम्मपयडीओ धणियबंधणयहाओ सिढिलवंधणयद्धाओ पकरेइ, दीहकालटिईयाओ हस्सकालटिईयाओ पकरेइ, तिब्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो-3 बंधह, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुजो भुजो उचचिणह, अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ २२ ॥ धम्मकहाए णं भंते! जीवे किंजणेइ, २ निजरं जणेइ, धम्मकहाए णं पषयणं पभावेइ, पवयणपभावएणं जीवे आगमिसस्समद्दत्ताए कम्मं निबंधइ |२३ ॥ सुयस्स आराहणयाए णं भंते! किंजणेइ,२ अन्नाणं खबई, न य संकिलिस्सइ २४ ॥ एगग्गमणसंनिवेसणाए णं भंते! जीवे किंजणेइ ,२ चित्तनिरोहं करेइ २५॥ संजमेणं भंते! जीवे किं जणेइ,२अणण्हयतं जणेइ २६ ॥ तवेणं भंते ! जीवे किं जणेह,२वोयाणं जणेइ २७ ॥ बोयाणेणं भंते। जीवे किं जणेइ , २ अकिरियं जणेह, अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ ५, २८ ॥ सुहसाएणं 31 दीप अनुक्रम [१११४-११८७] SINEaiahinima मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1147~ Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) सम्यक्त्व प्रत उत्तराध्य. बृहदृत्तिः ॥५७५॥ २९ सूत्रांक [१R -७३] भंते जीवे कि जणेइ , २ अणुस्सुयत्तं जणेइ, अणुस्सुर णं जीवे अणुकंपए अणुभडे विगयसोगे चरित्तमोहणिज्ज कम्म खबेर २९ ॥ अपडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किंजणेह, २ निस्संगत्तं जणेह, निस्संगत्सेणं जीवे || एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असज्जमाणे अप्पडिबद्धे आवि विहरइ ३०॥ विवित्तसयणासणयाए पराक्रमा. ण भंते ! जीवे किं जणेइ , २ चरित्तगुत्ति जणेइ, चरित्तगुत्ते ण जीये विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मुक्खभावपडिवन्ने अडविहं कम्मगंठिं निजरेइ ३१ ॥ विणिवणयाए णं भंते ! जीवे कि जणेइ १,२ पावकम्माणं अकरणयाए अन्भुढेइ पुब्वषद्धाण य निजरणयाए पावं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतं संसारकतारं चीईवयइ ३२ ॥ संभोगपचक्खाणेणं भंते जीवे किंजणेइ,२ आलंवणाई खवेह, निरालवणस्स य आयय|डिया जोगा भवन्ति, सएणं लाभेणं संतूसह परस्स लाभ नो आसाएइ नो तकेइ नो पीहेड नो पत्थेद नो अ-13 मिलसइ, परस्स लाभं अणासाएमाणे अतकेमाणे अपीहेमाणे अपत्धेमाणे अणमिलसेमाणे दुचं सुहसिज्ज उवसंपज्जित्ता णं विहरह ३३।। उवहिपञ्चक्खाणेणं भंते जीवे किं जणेह,२अपलिमंथं जणेइ, निरुवहिए णं जीवे निकखे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ३४ ॥ आहारपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किंजणेइ ,२ जीवियासंस-18 ५७५॥ प्पओगं बुञ्छिदइ, जीवियासंसप्पओगं बुञ्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ३५ ॥ कसायपच्चक्खाणेणं भंते जीवे किं जणेइ ,२ वीयरायभाव जणेइ वीयरायभावं पडिवन्नेऽविय णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ३६ ॥ जोगपञ्चक्खाणेणं भंते !, २ अजोगयं जणेइ, अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ पुच्चबद्धं दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1148~ Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] SASARAMATA निजरेइ ३७॥ सरीरपचक्खाणेणं भंते०,२ सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ, सिद्धाइसपगुणसंपने य णं जीवे लोगग्गभावमुवगए परमसुही भवइ ३८॥ सहायपचक्खाणेणं भंते०,२ एगीभावं जणेइ, एगीभावभूए य जीचे एगग्गं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरेबहुले समाहिए आविभव ३९ ॥ भत्तपचक्खाणेणं भंते०१,२ अणेगाई भवसयाई निरंभइ ४०॥ सम्भावपश्च-12 ६ क्खाणेणं भंते.१,२ अणियहि जणयइ, अनियहि पडिवने य अणगारे चत्तारि केवलिकमंसे खवेइ, तंजहा-18 यणिज आउयं नाम गोयं, तो पच्छा सिज्झइ ५.४१॥ पडिरूवयाए णं भंते०१.२ लापवियं जहर लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसथलिंगे विसुद्धसंमत्ते सत्तसमिइसमत्ते सव्वपाणयजीवसत्तेसु वीससणिजरूवे अप्पडिले हे जिइंदिए विपुलतवसमिइसमन्नागए आवि भवइ ४२ ॥ धेयावच्चेणं भंते०१,२|| |तित्थपरनामगुत्तं कम्मं निबंधइ ४३ ॥ सव्वगुणसंपुन्नयाए गंभंते०१, २ अपुणरावत्ति जणेह, अपुणरावति । पत्तए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ ४४॥ बीयरागयाए णं भंते०१,२ नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य बुञ्छिदइ मणुषणामणुषणेसु सद्दरूवरसफरिसगंधेसु सञ्चित्ताचित्तमीसएमु चेव विरज्जा ४५ ॥ खंतीए णं भंते०१,२ परीसहे जिणेइ ४६ ।। मुत्तीए णं भंते, २ अकिंचणं जणेइ, अकिंचणे य जीवे अत्थलोलाणं पुरिसाणं अपत्थणिजे भवह ४७॥ अज्जवयाए णं भंते०, २ काउज्जुषयं भावुज्जुययं भासुज्जु-13 ययं अविसंवायणं जणेइ, अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ ४८॥ मदवयाए णं भंते', दीप अनुक्रम [१११४-११८७] AMERatinintamatana wwwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1149~ Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत बृहद्वृत्तिः २९ सूत्रांक [१R -७३] उत्तराध्य.४२ अणुस्सियत्तं जणेह, अणुस्सियत्ते णं जीवे मिउमदवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाई निवेश ४९॥ भावसणं भंते सम्यक्त्वदि.२ भावविसोहिंजणेइ, भावचिसोहीए वहमाणे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अन्भुट्टेह, अरहतपन्न | पराक्रमा. त्तस्स धम्मस्स आराहणपाए अन्भुद्वित्ता परलोगधम्मस्स आराहए भवइ ५०॥ करणसच्चेणं भंते,२ करणnayanl सतिं जणेइ, करणसच्चे वट्टमाणो जहावाई तहाकारी भवइ ५१ ।। जोगसचेणं भंते ! णं जीवे०१, २जोगे विसोहेइ ५२ ।। मणगुत्तयाए णं भंते,२ एगग्गं जणेइ, एगग्गचित्तेणं मणगुस्से संजमाराहए भवइ ५३ ॥ षयगुत्तयाए णं भंते०१,२ निविकारत्तं जणेइ, निम्विकारेणं जीवे वइगुते जोगे अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते यावि भवइ ५४ ॥ कायगुत्तधाए णं भंते०१, संवर जणयह, संवरेणं कायगुते णं पुणो पावासवनिरोहं करे| ५५॥ मणसमाधारणयाए णं भंते०१, २ एगग्गं जणेइ, एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ, नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्तं च निजरेइ ५६ ॥ वयसमाहारणयाए णं भंते०१, २ वयसाहारणं इदिसणपज्जवे विसोहेइ, वइसाहारणं दसणपज्जवे विसोहित्ता सुलहबोहियत्तं च निव्वत्तेइ दुल्लहबोहियत्तं निजरेइ ५७॥ कायसमाधारणयाए णं भंते १,२ चरित्तपज्जवे विसोहेइ, चरित्तपज्जवे विसोहित्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ २त्सा चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ, तओ पच्छा सिझइ ५,५८॥ नाणसंपन्नयाए णं भंते.१ ॥५७६॥ २ सव्वभावाभिगमं जणेइ, नाणसंपन्ने ण जीवे चाउरते संसारकंतारे न विणस्सई-'जहा सूई समुत्ता, पडिया न विणस्सई । तहा जीवे समुत्ते, संसारे न विणस्सई ॥१॥ नाणविणयतवचरित्तजोगे संपाउणइ, ससमय दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1150~ Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [२९], Education intimation परसमयविसारए य असंघायणिज्जे भवइ ५९ ॥ दंसणसंपन्नयाए णं भंते० १, २ भवमिच्छन्तछेपणं करेह परं न विज्झायह, अणुत्तरेण नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भवेमाणे विहरह ६० ॥ चरित्तसंपन्नयाए णं भंते० १, २ सेलेसीभावं जणेह, सेलेसिं पडिचन्ने अणगारे चत्तारि कम्मंसे खवेइ, तभ पच्छा सिज्झइ ५, ६१ ॥ सोइंदियनिग्गणं भंते० १, २ मणुनामणुत्रेसु ससु रागद्दोसणिग्गहं जणेह तप्पचइयं च णं कम्मं न बंधइ पुष्वबद्धं च निज्जरेइ ६२ ॥ एवं चक्खिदिय० ६३ ॥ घानिंदिय० ६४ ।। जिभिदिय० ६५ ॥ फासिंदिय० ६६ ॥ कोहविजएणं भंते ० १, २ खंतिं जणेइ कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंध पुब्वनिबद्धं च निज्जरेइ ६७ ।। एवं माणविज० मद्दवं ६८ || माया० अज्जवं ६९ ।। लोभ० संतोसं ७० ।। पिज्ञदोसमिच्छादंसण| विजएणं संते० १, २ नाणदंसणचरिताराहणपाए अन्मुट्टेह अट्ठविहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमोयणयाए, | तप्पढमयाए जहाणुपुवि अट्ठावीसहविहं मोहणिज्जं कम्मं उग्धाएइ, पंचविहं नाणावरणिजं नवविहं दसणावरणिज्जं पंचविहं अंतरायं, एए तिनि कम्मंसे जुगवं खवेइ, तभ पच्छा अणुसरं अनंतं कसिणं पडि | पुनं निरावणं वितिमिरं विमुद्धं लोगालोग पभासगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेह जाब सजोगी हवह ताव य इरियावहियं कम्मं निबंध - सुहफरिसं दुसमयद्विईयं तं पदमसमए बद्धं बिइयसमए बेइयं तइयसमए निजिनं तं बद्धं पुढं उदीरियं वेहयं निजिन्नं, सेयाले अकम्मं चावि भवइ ७१ ॥ अहाउयं पालइत्ता अंतो मुहुत्तद्धा वसेसाए जोगनिरोहं करेमाणो सुहुमकिरियं अप्पडिवाई सुकज्झाणं झायमाणे तप्पदमयाए Forest Use Only निर्युक्ति: [५०९...] ~ 1151 ~ www.ancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -693] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५७७॥ 89599% “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [ २९ ], Education into मणजोगं निरंभइ बघजोगं निरंभह आणापाणनिरोहं करेइ, ईसिपंचहस्सक्खरुचारणद्वार य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अणियट्टिसुकझाणं शियायमाणो वेयणिज्जं आउयं नामं गुत्तं च एए चत्तारिवि कम्मंसे जुगवं खबेइ ७२|| तओ ओरालियं कम्माहं च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहिन्ता उज्जुसेडीपत्ते अफुसमा णगई उहुं एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवड से सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ॥ ७३ ॥ सर्वस्य चास्य प्रयासस्य मुक्तिरेव फलं तत्र च प्रवृत्तिरभिलापपूर्विका तद्रूपश्च संवेग इत्यादितस्तमाह-संवेगोमुक्तत्यभिलाषस्तेन भदन्त । इति पूज्याभिमन्त्रणं 'जीवः किं जनयति ?” जन्तुः कतरं गुणमुत्पादयतीति योऽर्थ १, इति शिध्यप्रश्नः, अत्र प्रज्ञापकः प्रतिवचनमाह-संवेगेन 'अनुत्तरां' प्रधानां धर्मः श्रुतधर्मादिस्तत्र श्रद्धा तत्करणाभिलाषरूपा धर्मश्रद्धा तां जनयति, तदभावे हि न तत्सम्भवो भावेऽपि वा देवलोकादिफलैवासाविति नानुत्तरत्वमस्याः, तयाऽपि किमित्याह- अनुत्तरया धर्मश्रद्धया संवेगं तमेवार्थाद्विशिष्टतरं 'हवं'ति शीघ्रमागच्छति, तद्यतिरेकेण हि विषयाद्यभिलाषतो न तथाऽस्मिन्नागमनम् अनुत्तरधर्मश्रद्धायां त्वन्यत्र निरभिष्वङ्गतया नान्यथात्वसम्भवः, ततोऽपि किमित्याह- 'अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्' वक्ष्यमाणलक्षणान् क्षपयति, तथा 'कर्म' प्रस्तावादशुभप्रकृतिरूपं 'न बनाति' न लेपयति, एवमपि को गुणः ? इत्याह-स- कषायक्षयः प्रत्ययो - निमित्तं यस्याः सा तत्प्रत्यया सैव तत्प्रत्ययिका खार्थे कन् प्रत्ययस्तां, 'चः' कर्माबन्धकत्वापेक्षया समुच्चये, मिथ्यात्वस्य 'विसोहि 'त्ति विशोधनं निर्युक्ति: [५०९...] For Fasten ~ 1152~ सम्यक्त्व पराक्रमा. २९ ॥५७७॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ - ११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [२९], Education intol विशुद्धिः सर्वथा क्षयो मिथ्यात्वविशुद्धिस्तां कृत्वा दर्शनस्य - प्रस्तावात्क्षायिकसम्यक्त्वस्याराधको निरतिचारपालनाकृद्दर्शनाराधको भवति, तथाऽपि किमित्याह - दर्शनविशुद्ध्या च 'विशुद्ध्या' अत्यन्तनिर्मलया 'अस्ति' विद्यते 'एगय'त्ति एककः कश्चित्तथाविधो भवस्तेनैव 'भवग्रहणेन' जन्मोपादानेन सिद्ध्यति, किमुक्तं भवति ? - यस्मिन्नेव जन्मनि दर्शनस्य तथाविधा शुद्धिस्तत्रैव मुक्तिं गच्छति, यथा मरुदेवी स्वामिनी, यस्तु न तेनैव सिद्ध्यति स किमित्याह-शुद्ध्या-प्रक्रमादर्शनस्य विशुद्ध्या 'तचं 'ति तृतीयं पुनर्भवग्रहणम् - अन्यजन्मोपादानात्मकं 'नातिक्रामति' नातिवर्त्तते, अवश्यं तृतीयभवग्रहणे सिद्ध्यतीत्यर्थः, उत्कृष्टदर्शनाराधकापेक्षयैतत् यत उक्तम् - "उक्कोसदंसणे णं भंते! जीवे कहहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिज्जा १, गोयमा ! उक्कोसेणं तेणेव ततो मुक्के तइयं णाइकमति” १ ॥ संवेगाचावश्यम्भावी निर्वेद इति तमाह-इतः प्रभृति सर्वत्र सुगमत्वान्न प्रश्नव्याख्या, 'निवेदेन' सामान्यतः संसारविषयेण कदाऽसौ त्यक्ष्यामीत्येवंरूपेण दिव्यमानुषतैरश्रेषु, सूत्रत्वात्कप्रत्ययः, यथासम्भवं देवादिसम्बन्धिषु कामभोगेषूतरूपेण निर्वेदं हवमागच्छति यथा-अलमेतैरनर्थहेतुभिरिति तथा च 'सर्वविषयेषु विरज्यते' अशेषशब्दादिविषयं विरागमाप्नोति, विरज्यमानस्तेषु आरम्भः - प्राण्युपमर्दको व्यापारस्तत्त्यागं करोति, विषयार्थत्वात्सर्वारम्भाणां तत्परित्यागं कुर्वन् 'संसारमार्ग ' मिथ्यात्वाविरत्यादिरूपं व्यवच्छिनत्ति, तत्त्यागवत एव तत्त्वत आरम्भपरित्यागसम्भवात् तद्व्यवच्छित्तौ च सुप्राप एव १ उत्कृष्टदर्शनेन भदन्त ! जीवः कतिभिर्भवग्रहणैः सिध्येत् ?, गौतम ! उत्कर्षेण तेनैव ततो मुक्तस्तृतीयं नातिक्राम्यति । For Fans Only निर्युक्ति: [५०९...] ~ 1153~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) सम्यक्त्व प्रत सूत्रांक [१R -७३]] सिद्धिमार्गः-सम्यग्दर्शनादिरिति सिद्धिमार्गप्रतिपन्नश्च भवति २॥ सत्यपि निवेदे धर्मश्रद्धैव सकलकल्याणनिवन्धनमिति । तामाह-'धर्मश्रद्धया' उक्तरूपया सात-सातवेदनीयं तज्जनितानि सौख्यानि सातसौख्यानि प्राग्वन्मध्यपदलोपी समाबृहद्वृत्तिः पराक्रमा. सस्तेषु वैषयिकसुखेष्वितियावत् 'रज्यमानः' पूर्व रागं कुर्वन् 'विरज्यते' विरक्तिं गच्छति, 'अगारधर्म च' गृहाचारं गार्ह॥५७८॥ स्थ्यमितियावत् ,चशब्दश्चेह वाक्यालङ्कारे, 'त्यजति' परिहरति, तदत्यागस्य विषयकसुखानुरागनिबन्धनत्वात् , ततश्च 'अणगार'त्ति प्राकृतत्वाद् 'अनगारी' यतिः सन् जीवः शारीरमानसानां दुःखानां किंरूपाणामित्याह-'छेदनभेदन संयोगादीनामिति, छेदन-खड्गादिना द्विधाकरणं भेदन-कुन्तादिना विदारणम् , आदिशब्दस्वेहापि सम्बन्धाता-IR Kडनादयश्च गृधन्ते, ततश्छेदनभेदनादीनां शारीरदुःखानां संयोगः-प्रस्तावादनिष्टसम्बन्धः, आदिशब्दादिष्ट वियोगादिपरिग्रहः, ततश्च संयोगादीनां मानसदुःखानां विशेषेण-पुनरसम्भवलक्षणेनोच्छेदः-अभावो व्युच्छेदस्तं करोति, तन्निवन्धनकर्मोच्छेदेनेति भावः, अत एव अव्यावाधम्' उपरतसकलपीडं मोक्तमितियावत् , 'चः' पुनरर्थे । |भिन्नकमस्ततः सुखं पुनः 'निर्वर्त्तयति' जनयति, पूर्व संवेगफलाभिधानप्रसङ्गेन धर्मश्रद्धायाः फलनिरूपणमिह तु दाखातन्येणेत्यपीनरुक्त्यमिति भावनीयम् ३॥ धर्मश्रद्धायां चावश्यं गुरवः शुश्रूषितव्या इति गुरुशुश्रूपणमाह- ५७८॥ गुरूणां शुश्रूषणं-पर्युपासनं तेन 'विनयप्रतिपत्तिम्' उचितकर्त्तव्यकरणाझीकाररूपां जनयति 'विणयपडिवण्णे यत्ति प्राग्वत् प्रतिपन्नः-अङ्गीकृतो विनयो येन स तथा 'चः' पुनरर्थे जीवः 'अणचासायणासीले'त्ति अतीवाऽऽयं-सम्य दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1154~ Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [२९], Education infamational क्त्वादिलाभं शातयति - विनाशयतीत्यत्याशातना तस्यां शीलं - तत्करणस्वभावात्मकम् स्येत्यत्याशातनाशीलो न तथाऽनत्याशातनाशीलः, कोऽर्थः ?- गुरुपरिवादादिपरिहारकृत्, एवंविधश्च नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेव दुर्गतीरिति-नैरविकाश्च तिर्यञ्चश्च नैरयिकतिर्यञ्चस्तेषां योनिः स्वार्थिके के नैरयिकतिर्यग्योनिके-प्रतीते 'मनुष्यदेवदुर्गती च' म्लेच्छकिल्लिपिकत्वादिलक्षणे 'निरुणद्धि' निषेधति, तद्धेतोरत्याशातनाया अभावेन तत्रागमनात्, तथा वर्ण:- श्लाघा तेन सजवलनं-गुणोद्भासनं वर्णसज्वलनं भक्तिः -अञ्जलिप्रग्रहादिका बहुमानम् - आन्तरप्रीतिविशेष एषां द्वन्द्वे भावप्रत्यये च वर्णसञ्चलन भक्तिबहुमानता तया-प्रक्रमाद्गुरूणां विनयप्रतिपत्तिरूपया 'माणुस्सदेव सोग्गइओ'ति मानुष्यदेवसुगतीः विशिष्टकुलैश्वर्येन्द्रत्वाद्युपलक्षिता निवभाति तत्प्रायोग्य कर्मबन्धनेनेति भावः, 'सिद्धिसोम्मई' ति सिद्धिसुगतिं च विशोधयति, तन्मार्गभूतसम्यग्दर्शनादिविशोधनेन, 'प्रशस्तानि' च प्रशंसास्पदानि 'विनयमूलानि' विनयहेतुकानि सर्वकार्याणीह श्रुतज्ञानादीनि परत्र च मुक्ति 'साधयति' निष्पादयति, तत्किमेवं स्वार्थसाधक एवासावित्याहअन्यांश्च बहून् जीवान् 'विनेता' विनयं ग्राहिता, स्वयं सुस्थितस्योपादेयवचनात् उक्तं हि “ठिओ उ ठावए परं" ति, तथा च विन्यमूलत्वादशेषश्रेयसां तत्प्रापणेन परार्थसाधकोऽप्यसौ भवत्येवेति भावः ४ । गुरुशुश्रूषां कुर्वतोऽप्यतीचारसम्भवे आलोचनात एव विवक्षितफलप्राप्तिरिति तामाह-आङिति सकलखदोषाभिव्याहया लोचना - आत्मदोषाणां गुरुपुरतः प्रकाशनाऽऽलोचना तथा माया- शाठ्यं निदानं ममातस्तपः प्रभृत्यादेरिदं स्यादिति प्रार्थनात्मकं मिथ्यादर्शनं-सांशयिकादि एतानि शल्यानीव शल्यानि ततः कर्मधारये मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानि, For Parts Only निर्युक्ति: [५०९...] ~ 1155~ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः ॥५७९॥ सूत्रांक [१R -७३] यथा हि तोमरादिशल्यानि तत्कालदुःखदानेऽप्यायती दुःखदायीनि एवं मायादीन्यपीत्येवमुच्यते तेषां मोक्षवितानां'। सम्यक्त्वपापानुबन्धकर्मबन्धनिबन्धनत्वेन मुत्तयन्तरायाणां, तथाऽनन्तसंसारं बर्द्धयन्ति-वृद्धिं नयन्तीत्यनन्तसंसारवर्द्धनानि | पराक्रमा. तेषाम् 'उद्धरणम्' अपनयनं करोति, तदुद्धरणतश्च 'ऋजुभावं च' आर्जवं जनयति 'उज्जुभावपडिवण्णे यति प्रतिपनर्जुभावश्च जीवः 'अमायी' मायारहितस्ततः पुंस्त्वनिबन्धनत्वादमायित्वस्य 'इथिवेय'त्ति प्राग्वद्विन्दुलोपे स्त्रीवेदं नपुंसकवेदं च न बनाति, पूर्वबद्धं च तदेव द्वयं यद्वा सकलमपि कर्म 'निर्जरयति' क्षपयति, तथा च मुक्तिपदमामोतीत्यभिप्रायः, उक्तं हि-"उद्धियदंडो साहू अचिरेण उवेइ सासयं ठाणं । सोवि अणुद्धियदंडो संसारपवहओ होति का॥१॥" ति५ । आलोचना च दुष्कृतनिन्दावत एव सफला भवतीति तामाह-'र्णिदणयाए'त्ति, आपत्वान्निन्दनम् आत्मनैवात्मदोषपरिभावनं तेन 'पश्चादनुतापं' हा ! दुष्टमनुष्ठितमिदं मयेत्यादिरूपं जनयति, ततः पश्चादनुतापेन 'विरज्यमानः' वैराग्यं गच्छन् करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणिः करणगुणश्रेणिः सर्वोपरितनस्थितेर्मोहनीयादिकर्मदलिकान्युपादायोदयसमयात्प्रभृति द्वितीयादिसमयेष्वसङ्खचातगुणपुद्गलप्रक्षेपरूपाऽऽन्तर्मोहूर्तिकी, यत उक्तम्-18 "उंवरिमठिईइ दलियं हेट्ठिमठाणेसु कुणइ गुणसेढी । गुणसंकमकरणं पुण असुहाओं सुहृमि पक्खिवइ ॥१॥" ॥५७९|| १ उद्धृतदण्डः साधुरचिरेणैवोपैति शाश्वतं खानम् । सोऽपि चानुद्भुतण्डः संसारप्रवर्धको भवति ॥१॥२ उपरितनस्थितेदेलिकमसनस्थानेषु करोति गुणश्रेणिः । गुणसंक्रमकरणं पुनरशुभाः शुभे प्रक्षिपति ॥ २ ॥ 355 दीप अनुक्रम [१११४-११८७] Q % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1156~ Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] उपलक्षणत्वात्स्थितिघातरसघातगुणसङ्क्रमबन्धाश्च विशिष्टाः, अथवा करणगुणेन-अपूर्वकरणादिमाहात्म्येन श्रेणिः | करणगुणश्रेणिः प्रक्रमात्क्षपकश्रेणिरेव गृह्यते, यद्वा करणं-पिण्डविशुद्धादि तदुपलक्षितगुणाना ज्ञानादीना श्रेणिउत्तरोत्तरगुणपरम्पराखरूपा तां प्रतिपद्यते 'करणगुणसेढीपडिवणे यत्ति प्राग्वत्प्रतिपन्नकरणगुणश्रेणिकश्चानगारः 'मोहनीय दर्शनमोहनीयादि कर्म 'उद्घातयति' क्षपयति, तत्क्षपणे च मुक्तिप्राप्तिरित्यर्थत उक्तैव भवति ६ ॥ कश्चिदात्मनोऽत्यन्तदुष्टतां परिभावयन् न निन्दामात्रेण तिष्ठेत् किन्तु गामपि कुर्यादिति तामाह-'गरिहणयाए'त्ति गर्हणेन-परसमक्षमात्मनो दोषोद्भावनेन 'अपुरकारंति पुरस्करणं पुरस्कारो-गुणवानयमिति गौरवाध्यारोपो न तथाऽपुरस्कारः-अवज्ञास्पदत्वं तं जनयत्यात्मन इति गम्यते, तथा चापुरस्कारं गतः-प्राप्तः अपुरस्कारगतःसर्वत्रावज्ञास्पदीभूतो जीवः कदाचित्कदध्यवसायोत्पत्तावपि तद्भीतित एव 'अप्रशस्तेभ्यः' कर्मबन्धहेतुभ्यो योगेभ्यः 'निवर्त्तते' तान् न प्रतिपद्यते, प्रशस्तयोगांस्तु प्रतिपद्यत इति गम्यते, 'पसत्थजोगपडिवन्ने यत्ति प्रतिपन्नप्रशस्तयोगोऽनगारोऽनन्तविपयतयाऽनन्ते ज्ञानदर्शने हन्तुं शीलं येषां तेऽनन्तघातिनस्तान् 'पर्यवान्' प्रस्तावात् ज्ञानाव-14 रणादिकर्मणस्तद्घातित्वलक्षणान् परिणतिविशेषान् 'क्षपयति' क्षयं नयति, पर्यवाभिधानं च तद्रूपतयैव द्रव्यस्य विनाश इति ख्यापनार्थम् , उपलक्षणं चैतन्मुक्तिप्राप्तेः, तदर्थत्वात्सर्वप्रयासस्य, एवमनुक्ताऽपि सर्वत्र मुक्तिप्राप्तिरेवर फलत्वेन द्रष्टव्या ७ । आलोचनादीनि च सामायिकवत एव तत्त्वतो भवन्तीति तदुच्यते-सामायिकेन' उक्तरू दीप अनुक्रम [१११४-११८७] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1157~ Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) ॐ प्रत सूत्रांक [१R 5 -७३]] उत्तराध्य. पेण सहापद्येन वर्तन्त इति सावद्या:-कर्मवन्धहेतयो योगा-व्यापारास्तेभ्यो विरतिः-उपरमः सावद्ययोगविरतिस्तां बृहद्वृत्तिः जनयति, तद्विरतिसहितस्यैव सामायिकसम्भवात्, न चैवं तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारणभावासम्भव इति । पराक्रमा. वाग्यं, केषुचित्तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत्कार्यकारणभावदर्शनाद् , एवं सर्वत्र भावनीयम् ८ । सामायिकं च ॥५८ प्रतिपचकामेन तत्प्रणेतारः स्तोतव्याः, ते च तत्त्वतस्तीर्थकृत एवेति तत्सूत्रमाह-'चतुर्विशतिस्तयेन' एतदवसर्पिणी प्रभवतीर्थकृदुत्कीर्तनात्मकेन दर्शन-सम्यक्त्वं तस्य विशुद्धिः-तदुपघातिकर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धिस्तां जनयति ९ । स्तुत्वाऽपि तीर्थकरान् गुरुवन्दनपूर्विकैव तत्प्रतिपत्तिरिति तदाह-वन्दनकेन' आचार्याधुचितप्रतिप-11 |त्तिरूपेण 'नीचेोत्रम्' अधमकुलोत्पत्तिनिवन्धनं कर्म क्षपयति, 'उचैर्गोत्र' तद्विपरीतरूपं निवनाति, 'सौभाग्यं । च' सर्वजनस्पृहणीयतारूपम् 'अप्रतिहतं' सर्वत्राप्रतिस्खलितमत एवाज्ञा-जनेन यथोदितवचनप्रतिपत्तिरूपा 15फलं 'निवर्तयति' जनयति, तद्वतो हि प्राय आदेयकर्मणोऽप्युदयसम्भवादादेयवाक्यताऽपि संभवतीति, 'दक्षि-12|| णभावं च' अनुकूलभावं जनयति लोकस्येति गम्यते, तन्माहात्म्यतोऽपि सर्वः सर्वावस्थाखनुकूल एव भवति १०॥ एतद्गुणस्थितेनापि मध्यमतीर्थकृतां तीर्थेषु स्खलितसम्भवे पूर्वपश्चिमयोस्तु तदभावेऽपि प्रतिक्रमितव्यमिति प्रति-|| ५८०॥ क्रमणमाह-'प्रतिक्रमणेन' अपराधेभ्यः प्रतीपनिवर्तनात्मकेन व्रतानां-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनां छिद्राणि-18 अतिचाररूपाणि पिवराणि प्रतच्छिद्राणि 'पिदधाति' स्थगयति अपनयतीतियावत् , तथाविश्व के गुणमवाप्नोती % दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1158~ Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] त्याह-पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवः 'निरुद्धाश्रवः' सर्वधा हिंसाद्याश्रवाणां निरुद्धत्वात् , अत एवासबल-सबलस्थानरकखुरीकृतं चरित्रं यस्य स तथा, 'अष्टसु प्रवचनमातृषु' उक्तरूपासु 'उपयुक्त' अवधानवान् तत एवाविद्यमानं पृथक्त्वंप्रस्तावात्संयमोद्योगेभ्यो वियुक्तखरूपं यस्यासौ अपृथक्त्वः-सदा संयमयोगवान् , (अ) प्रमत्तो वा पाठान्तरात्, तथा 'सुप्रणिहितः' सुष्ठ संयमे प्रणिधानवान्, पाठान्तरतो वा सुष्ठु प्रणिहितानि-असन्मार्गात् प्रच्याव्य सन्मार्गे व्यवस्थापितानीन्द्रियाण्यनेनेति सुप्रणिहितेन्द्रियः विहरति' संयमाध्वनि याति ११ । अत्र चातीचारशुद्धिनिमित्त कायोत्सर्गः कर्तव्य इति तमाह-काय:-शरीरं तस्योत्सर्ग:-आगमोक्तनीत्या परित्यागः कायोत्सर्गस्तेन, अतीतं चेह चिरकालभावित्वेन प्रत्युत्पन्नमिव प्रत्युत्पन्नं चासनकालभावितयाऽतीतप्रत्युत्पन्नं 'प्रायश्चित्तम्' उपचारात्प्रायश्चित्ताईमतीचारं 'विशोधयति' तदुपार्जितपापापनयतोऽपनयति, विशुद्धप्रायश्चित्तश्च जीवो निर्वृत्तं-स्वस्थीभूतं हृदयम्अन्तःकरणमस्येति निवृत्तहृदयः, क इव ?-'ओहरिय'त्ति अपहृतः-अपसारितो भर इति-भारो यस्मात्स तथा, इवेति भिन्नक्रमः, ततो भारं वहतीति मूलविभुजादेराकृतिगणत्वात्कप्रत्यये भारवहो-वाहीकादिः स इव, भारप्राया खतीचारास्ततस्तदपनयनेऽपहतभरभारवाह इव निवृत्तहृदयो भवतीति भावार्थः, स च ध्यान-धर्माधुपगतःप्रासो ध्यानोपगतः पाठान्तरतः प्रशस्तध्यानध्यायी 'सुखसुखेन' सुखपरम्परावास्या 'विहरति' इहपरलोकयोरवतिष्ठते, इहैव जीवन् मुक्त्यवातेरिति भावः १२ । एवमप्यशुद्ध्यमाने प्रत्याख्यानं विधेयमिति तदाह-प्रत्याख्या CCCCCCCCC++ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1159~ Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत ३९ सूत्रांक [१R * -७३ उत्तराध्य. नेन' मूलगुणोत्तरगुणप्रत्याख्यानरूपेणाश्रवद्वाराणि निरुणद्धि, तन्निरोधहेतुत्वात्तस्य, उपलक्षणं चैतत् , पुरोपचितकर्म-10 सम्यक्त्व क्षये मुक्त्यङ्गत्वेनास्यान्यत्रोक्तत्वात् , तथा चाह-पचक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिई । पत्ताऽणंता जीवा बृहद्वृत्तिः सासयसोक्खं लहुं मोक्खं ॥१॥" १३ । अत्र चोत्तरगुणप्रत्याख्यानान्तर्भूतं नमस्कारसहितादि, तहणानन्तरं च पराक्रमा. ॥५८१॥ यत्र सन्निहितानि चैत्यानि(तत्र)तद्वन्दनं विधेयमित्युक्तं प्राक्, तब न स्तुतिस्तवमङ्गलं विनेति तदाह-तत्र स्तवाहै देवेन्द्रस्तवादयः स्तुतय-एकादिसप्तश्लोकान्ताः, यत उक्तम्-"एगदुगतिसिलोगा [धुइओ] अन्नेसिं जाव हुंति सत्तेव। देविंदत्वमाई तेण परं धुत्तया होंति ॥ १॥"त्ति, ततश्च स्तुतयश्च स्तवाश्च स्तुतिस्तवाः, स्तुतिशब्दस्य क्यन्तत्वात्पू-1 वेनिपातः, सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्यत्ययनिर्देशः, स्तुतिस्तंवा एव मङ्गलं-भावमङ्गलरूपं स्तुतिस्तवमङ्गलं तेन ज्ञानदर्शनचारित्रात्मिका बोधिनिदर्शनचारित्रबोधिस्तस्य लाभो ज्ञानदर्शनचारित्रबोधिलाभः, परिपूर्णजिनधर्मावाप्तिरित्यर्थः, तं जनयति, उक्तञ्च-"भत्तीए जिणवराणं परमाए खीणपिजदोसाणं । आरोगबोहिलाभं समाहिमरणं च पार्वति दि॥१॥" ज्ञानदर्शनचारित्रलाभबोधिसंपन्नश्च जीवोऽन्तः-पर्यन्तो भवस्य कर्मणां वा तस्य क्रिया-अभिनिवेत्तेनमन्तक्रिया, मुक्तिरित्यर्थः, ततश्चान्तक्रियाहेतुत्वादन्तक्रिया ताम्, अन्तक्रियाहेतुत्वं च तद्भवेऽपि स्यादत आह१ प्रत्याख्यानमिदं सेवित्वा भावेन जिनबरोद्दिष्टम् । प्राप्ता अनन्ता जीवाः शाश्वतसौख्यं लघु मोक्षम् ॥ १॥ २ एकद्वित्रिश्लोकाः ५८१॥ स्तुतयोऽन्येषां यावद्भवन्ति सप्तव । देवेन्द्रस्तवाचास्ततः परं सवा भवन्ति ॥१॥ ३ भत्त्या जिनवराणां परमया क्षीणप्रेमद्वेषाणाम् ।। * आरोग्यबोधिलाभं समाधिमरणं च प्राप्नुवन्ति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1160~ Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [ २९ ], Education intimatio कल्पा- देवलोका विमानानि - मैवेयकानुत्तरविमानरूपाणि तेषूपपत्तिर्यस्यां सा कल्पविमानोपपत्तिका तां किमुक्तं भवति ? - अनन्तरजन्मनि कल्पादिषु विशिष्टदेवत्वावाप्तिफलां परम्परया तु मुक्तिप्रापिकाम् 'आराधना' ज्ञानाधाराधनात्मिकाम् 'आराधयति' साधयति, इयं चैवंविधाऽऽराधना तपखितायामपि तथाविधगुरुकर्माणं तथाविध| कर्मवेदनाऽभाववन्तं च जीवमपेक्ष्योक्ता, अन्तक्रियाभाजनं च जीववस्तु चतुर्धा भवति, तथाहि कश्चित्प्रतिपद्यापि श्रामण्यं पालयन्नपि संयमं तथाविधगुरुकर्मतया तथाविधविशिष्टाध्यवसायासम्भवेन तथाविधकर्मवेदनाया अभावान्न तद्भव एव मुक्तिभाग् भवति, किन्तु भवान्तरे दीर्घपर्यायावाध्या, यथा सनत्कुमारचक्री, तथा च स्थानाङ्गम् - "तत्थ खलु इमे पढने अंतकिरियावत्थू - महाकम्मे पचायाए यानि भवति, समणाउसो ! से णं समणे भवेत्ता अगाराओ अणगारं पवइओ उचट्टिए नेयाउयस्स मग्गस्स संजमबहुले समाहिबहुले (संबरबहुले) लूहे तीरडीओ उबहाण दुक्खखये तबस्सी, तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति णो तहष्पगारा वेयणा भवति, से णं तहष्पगारे पुरिसज्जाए दीह|दीहेणं परियाएणं सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिधाति सच्चदुक्खाणमंत करेइ, जहा से सर्णकुमारे राया चाउरंतच कवट्टी १ तत्र खलु इदं प्रथममन्तक्रियावस्तु - महाकर्मा प्रत्याजातञ्चापि भवति, श्रमणायुष्मन् ! स श्रमणो भूत्वाऽगारात् अनंगारितां प्रत्रजितः उपस्थितो नैयायिकाय मार्गीय संयमबहुलः समाधिबहुलः ( संवरबहुलः) रूक्षस्तीरार्थी उपधानवान् दुःखक्षपकः तपस्वी, तस्य तथाप्रकारं तपो भवति न तथाप्रकारा बेदना भवति, स तथाप्रकारः पुरुषजातो दीर्घदीर्घेण पर्यायेण सिध्यति बुध्यति मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानामन्तं करोति, यथा स सनत्कुमारो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती, निर्युक्ति: [५०९...] For FPs Use Only ~ 1161~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक [१R १५८२॥ -७३] पढमा अंतकिरियावत्थू १ । अहावरे दोचे अंतकिरियावत्थू महाकम्मा पञ्चायाए आविभवति समणाउसो ! सेणं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पच्चयाइ, उवटिए णेयाउयस्स जाव उवहाणवं दुक्खं खवेइ तबस्सी, तस्स णं तहप्पगारे पराक्रमा. तवे भवति, तहप्पगारा वेयणा भवति, से णं तहप्पगारे पुरिसजाए भवति, निरुद्धेणं परियारणं सिज्झति जाव सबदुक्खाणमंतं करेति जहा से गयसुकुमाले अणगारे २।" अपरः पुनरल्पकर्मा श्रामण्यमवाप्य तथाविधतपसस्तथा वेदनायाश्चाभावात्तद्भवभाविना दीर्घपर्यायेण निर्वाणमाप्नोति, यथा भरतश्चक्रवर्ती, यथोक्तम्-"अहावरे तचे अंतकिरियावत्थू अप्पकम्मे पचायाए यावि भवति, समणाउसो! से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवएत्ति, उवट्ठिए णेआउयस्स मग्गस्स संजमबहुले जाव सघदुक्खंखवे तवस्सी, तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवति नो तह-४ दाप्पगारा वेयणा भवति, से णं तहप्पगारे पुरिसज्जाए दीहेणं परियारणं सिज्झति, जहा से भरहे राया चाउरंतच-1 १ प्रथमाऽन्तक्रियास्थानं ? अथापरं द्वितीयमन्तक्रियास्थानं महाकर्मा प्रत्याजातश्चापि भवति श्रमणायुष्मन् ! स मुण्डो भूत्वाऽगारात् अनगारितां अन्नजति, उपस्थितो नैयायिकाय मार्गाय यावदुपधानवान् दुःखं क्षपयति, तस्य तथाप्रकारं तपो भवति तथाप्रकारा वेदना भवति । स तथापकारः पुरुषजातो भवति, (येन) निरुद्धेन पर्यायेण सिध्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करोति यथा स गजसुकुमालोऽनगारः २ अथापरं तृतीयमन्तक्रियावस्तु अल्पकर्मा प्रत्याजातश्चापि भवति, श्रमणायुष्मन्! स मुण्डों भूत्वाऽगारादनगारितां प्रव्रजति, उपस्थितो ५८२॥ ४ नैयायिकाय मार्गाय संयमबहुलो यावत् सर्वदुःखक्षपकः तपस्वी, तस्य तथाप्रकारं न तपो भवतिन तथाप्रकारा वेदना भवति, स तथाप्रकारः पुरुषजातो दीर्पण पर्यायेण सिध्यति, यथा स भरतो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती, दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1162~ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [२९], कट्टी ३ ॥” तदन्यस्त्यल्पकर्मा विरतिमवाप्य तथाविधविशुद्धाध्यवसायवशात्तथाविधतपस्तथाविधवेदना च लब्ध्वा झगित्येव मुक्तिमधिगच्छति, यथा मरुदेवी स्वामिनी, तथा च तत्रैवोक्तम्- “अहावरे चउत्थे अंतकिरियावत्थू अप्पकम्मे पचायाते याचि भवति, समणाउसो ! से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचतिए उवट्ठिए णेयाउयस्स मग्गस्स संजमबहुले जाव सङ्घदुक्खंखवे तबस्सी, तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति तहप्पगारा चैव वेयणा भवति, से णं तहय्यगारे पुरिसजाए निरुद्धेणं परियाएणं सिज्झइ जाव सचदुक्खाणं अंतं करेति, जहा से मरुदेवी भगवतित्ति" पठन्ति च 'अणंतकिरियं आराहणं आराहेति'त्ति" अत्र चाविद्यमानाऽन्तक्रिया-कर्मक्षयलक्षणा तद्भव एव यस्यां साऽनन्तक्रिया तां परम्परामुक्तिफलामित्यर्थः १४ । अर्हद्वन्दनानन्तरं खाध्यायो विधेयः, स च काल एव तत्परिज्ञानं च कालप्रत्युपेक्षणापूर्वकमिति तामाह- कालः - प्रादोषिकादिस्तस्य प्रत्युपेक्षणा- आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणप्रतिजागरणरूपा कालप्रत्युपेक्षणा तथा ज्ञानावरणीयं कर्म क्षपयति, यथावत्प्रवृत्त्या तथाविधशुभभावसम्भवेनेति ratnamation १ अथापरं चतुर्थमन्तक्रियावस्तु अल्पकर्मा प्रत्यायातश्चापि भवति, श्रमणायुष्मन् स मुण्डो भूत्वाऽगारात् अनगारितां प्रब्रजितः, उपस्थितो नैयायिकाय मार्गांय संयमबहुलो यावत्सर्वदुः खक्षपकस्तपस्वी, तस्य तथाप्रकारं तपो भवति तथाप्रकारैव वेदना भवति, स तथाप्रकार: पुरुषजातो निरुद्धेन पर्यायेण सिध्यति यावत् सर्वदुःखानामन्तं करोति यथा सा मरुदेवी भगवतीति निर्युक्ति: [५०९...] For Fans Only ~1163~ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -693] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ५८३ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| Jus Education intam अध्ययनं [२९], | भावः १५ । कथञ्चिदकालपाठे च प्रायश्चित्तं प्रतिपत्तव्यमिति प्रक्रमायातं तत्करणमाह-तत्र पापं छिनत्ति प्रायश्चित्तं वा विशोधयतीति नैरुक्तविधिना प्रायश्चित्तम्, उक्तं हि "पावं छिंदति जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तेणं | पाएण वाऽवि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ १ ॥”ति, तचालोचनादि तस्य करणं विधानं प्रायश्चित्तकरणं तेन पापकर्मणां विशुद्धिः - अभावः पापकर्मविशुद्धिस्तां जनयति निरतिचारश्चापि भवति, तेनैव ज्ञानाचाराद्यती चारविशोधनात्, सम्यक् च प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानो मार्गः - इह ज्ञानप्राप्तिहेतुः सम्यक्त्वं तं च तत्फलं च ज्ञानं 'विशोधयति' निर्मलीकुरुते ततश्चाचर्यत इत्याचारः- चारित्रं तब तत्फलं च मुक्तिलक्षणमाराधयति, न च ज्ञानदर्शनयोर्युगपद्भाव भावित्वाद्धेतुफलभावाभाव इति वाच्यं यत आगमः - "कोरणकज्ज विभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुप्पन्नंपि तहा हेऊ णाणस्स संमत्तं ॥ १ ॥" यद्वा मार्ग चारित्रप्राप्तिनिबन्धनतया दर्शनज्ञानाख्यं तत्फलं च चारित्रं तत आचारं च-ज्ञानाचारादि तत्फलं - मोक्षमाराधयति, अथवा 'मार्ग च' मुक्तिमार्ग क्षायोप| शमिकदर्शनादि तत्फलं च तमेव प्रकर्षावस्थं क्षायिकदर्शनादि, शेषं प्राग्वत्, विशोधनाऽऽराधनयोश्च सर्वत्र निरतिचारतयैव हेतुरिति भावनीयम् १६ । प्रायश्चित्तकरणं च क्षमणावत एव भवत्यतस्तामाह-क्षमणा - दुष्कृतान निर्युक्ति: [५०९...] १ पापं छिनत्ति यस्मात् प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ॥ १ ॥ २ कारणकार्यविभागो दीपप्रकाशयोर्युगपज्जन्मन्यपि । युगपदुत्पन्नमपि तथा हेतुर्ज्ञानस्य सम्यक्त्वम् ॥ २ ॥ Forest Use Only ~ 1164~ सम्यक्त्व पराक्रमा. २९ ॥५८३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| Education intimation अध्ययनं [२९], न्तरं क्षमितव्यमिदं मयेत्यादिरूपा तथा 'पल्हाएणंतभावं जणयइति प्रह्लादेन - आत्मनो मनःप्रसत्त्यात्मकेनान्तर्भा (भा) वं- विनाशं प्रक्रमादनुशयस्य तजनितचित्तसंक्लेशस्य च 'जनयति' उत्पादयति प्रहादेनान्तर्भावमुपगतश्च, पठन्ति च - 'पल्हायणभावं जणयति, परहायणभावमुयगए यत्ति, इह च प्रह्लादनभावः - चित्तप्रसत्तिरूपोऽभिप्रायः सर्वे च ते प्राणाचेह द्वित्रिचतुरिन्द्रिया भूताच —तरवो जीवाश्च पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाश्च – शेषजन्तवः सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वाः, उक्तं हि - "प्राणा द्वित्रिचतुष्प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः ॥ १ ॥" तेषु 'मिश्रीभावं परहितचिन्तालक्षणमुत्पादयति, ततो मैत्रीभावमुपगतश्चापि जीवः 'भावविशुद्धि' रागद्वेषविगमरूपां कृत्वा 'निर्भयः' इहलोकादिभयविकलो भवति, अशेषभयहेत्वभावादिति भावः १७ । एवंविधगुणावस्थितेन स्वाध्याये यतितव्यमिति तमाह-स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयमुपलक्षणत्वात् शेषं च कर्म क्षपयति, यत आह - "कम्ममसंखेजभवं खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरम्मिवि जोए सज्झायंमि य | विसेसेणं ॥ १॥" १८ । अत्र च प्रथमं वाचनैव विधेयेति तामाह-यक्ति शिष्यस्तं प्रति गुराः प्रयोजकभावो वाचना पाठनमित्यर्थस्तया 'निर्जरां' कर्मपरिशाटनं जनयति, तथा 'श्रुतस्य' आगमस्य चस्य भिन्नक्रमत्वादनाशातनायां च वर्त्तते, तदकरणे ह्यवज्ञातः श्रुतमाशातितं भवेत् न तु तत्करण इति, पठन्ति च- 'अणुसज्जणाए बट्टइ' तत्रानुपङ्ग (ञ्ज)१ कर्मासंख्येयभविकं क्षपयति अनुसमयमेवाऽऽयुक्तः । अन्यतरस्मिन् योगेऽपि स्वाध्याये च विशेषेण ॥ १ ॥ For Parts at Le Only निर्युक्ति: [५०९...] ~ 1165~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत ॥५८४W सूत्रांक [१R नमनुवर्तनं तत्र वर्त्तते, कोऽर्थः ?-अव्ययच्छेदं करोति, ततः श्रुतस्यानाशातनायामनुषञ्जने वा वर्तमानः तीर्थमिह सम्यक्त्व उत्तराध्य. गणधरस्तस्य धर्म:-आचारः श्रुतधर्मप्रदानलक्षणस्तीर्थधर्मः यदिवा तीर्थ-प्रवचनं श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्मः-खाध्यायस्त पराक्रमा बृहद्वृत्तिः मवलम्बमानः-आश्रयन् महती बहुतरकर्मविषयत्वान्निर्जराऽस्येति महानिर्जरो महत्-महाप्रमाणपर्यवसितत्वेन प्रशस्वं वा मुक्त्यवाप्त्या पर्यवसानम्-अन्तः कर्मणो भवस्य वा यस्य, चस्स गम्यमानत्वान्महापर्यवसानश्च भवति; मुक्तिभाग् भवतीति हृदयम् १९ । गृहीतवाचनेनापि संशयायुत्पत्तौ मुदा प्रष्टव्यमिति प्रतिप्रच्छनावसर इति तामाह-तत्र प्रथमं कथितस्य सूत्रादेः पुनः प्रच्छन्नं प्रतिप्रच्छन्नं तेन सूत्रार्थतदुभयानि विशोधयति, संशयादिमा-IM ४/लिन्यापनयनेन विशुद्धानि कुरुते, तथा कासा-इदमित्थमित्थं च ममाध्येतुमुचितमित्यादिका बान्छा सैव मोह यति 'अन्यत्रापी'ति वचनादनीयरि काङ्खामोहनीय कर्म अनभिग्रहिकमिथ्यात्वरूपं 'व्युच्छिनत्ति' विशेषेणापनयति २० । इत्थं विशोधितस्यापि सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणमिति परावर्तनाऽवसरः, तत्र च 'परियट्टणाए'त्ति सूत्र|त्वात्परावर्तना-गुणनं तया व्यज्यते एभिरर्थ इति व्यञ्जनानि-अक्षराणि 'जनयति' उत्पादयति, तानि हि विगलितान्यपि गुणयतो शगित्युत्पतन्तीत्युत्पादितान्युच्यन्ते, तथा तथाविधकर्मक्षयोपशमतो व्यजनलम्धि, चशब्दाद् श॥५८४॥ व्यजनसमुदायात्मकत्वाद्वा पदस्य तल्लब्धि च पदानुसारितालक्षणामुत्पादयति २१। सूत्रवदर्थेऽपि संभवति विस्मकरणमतः सोऽपि परिभाषनीय इत्यनुप्रेक्षा प्रस्तावात्सूत्रानुप्रेक्षा-चिन्तनिका तया प्रकृष्टशुभभावोत्पत्तिनिवन्धन GESCRG -७३] दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1166~ Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] तयाऽऽयुष्कवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः 'धणिय'ति बाढं बन्धन-श्लेपणं तेन बद्धा निकाचिता इत्यर्थः 'शिथिलबन्धनबद्धाः' किश्चिन्मुत्कलाः, कोऽर्थः ?-अपवर्त्तनादिकरणयोग्याः प्रकरोति, तपोरूपत्वादस्याः, तपसश्च निकाचितकर्मक्षपणेऽपि क्षमत्वात् , उक्तं हि-"तवसा उ निकाइयाणंपि"त्ति, दीर्घकालस्थितिका हखकालस्थितिकाः प्रक-13 रोतीति, शुभाध्यवसायवशास्थितिख(क)ण्डकापहारेणेति भावः, एतचैवं, सर्वकर्मणामपि स्थितेरशुभत्वात् , यत | उक्तम्-"सेबासिपि ठितीओ सुभासुभाणपि होति असुभाओ । माणुसतिरिच्छदेवाउयं च मोत्तूण सेसाणं ॥१॥" तीब्रानुभावाश्चतुःस्थानिकरसत्वेन मन्दानुभावाः त्रिस्थानिकरसत्वाद्यापादनेन प्रकरोति, इह चाशुभप्रकृतय एव गृह्यन्ते, शुभभावस्य शुभाशुभतीप्रा(अमन्दानुभावहेतुत्वात् , उक्तं हि-"सुभपयडीण विसोही[ए] तिवमसुभाण संकिलेसेणं । अन्नं हिऽपिसोहीए"त्ति, शुभभावेन तीब्रमित्यनुभागं वनातीति प्रक्रमः, कचिदिदमपि दृश्यते-"बहुपएसग्गाओ अप्पपएसम्गातो करेति" ननु केनाभिप्रायेणायुष्कवर्जाः सप्तेत्यभिधानं ?, शभायुप एव संयतस्य सम्भ-18 द वात् , तस्यैव चानुप्रेक्षा तात्त्विकी, नच शुभभावेन शुभप्रकृतीनां शिथिलतादिकरणं, संक्लेशहेतुकत्वात्तस्य, आहशुभायुर्वन्धोऽप्यस्याः किं न फलमुक्तम् ?, उच्यते, आयुष्कं च कर्म स्वाभाति, तस्य त्रिभागादिशेषायुष्कताया १ तपसा तु निकाचितानामपि २ सासामपि खितयः शुभाशुभानामपि भवन्त्यशुभाः। मनुष्यतिर्यग्देवायूंषि च मुक्त्वा शेषाणाम् ॥२॥ ३ शुभप्रकृतीनां विशुममा तीनमशुभानां संकेशेन । अन्य हि अविशुक्षा ।। ४ बहुप्रदेशामा अस्पप्रदेशापाः करोति दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1167~ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] उत्तराध्य. मेव वन्धसम्भयात्, उक्तं हि-"सिय तिभागे सिय तिभागतिभागे" इत्यादि, ततस्तस्य कादाचित्कत्वेन विवक्षि-18 सम्यक्त्व तत्वात्तद्वतच कस्यचिन्मुक्तिप्रास्तद्वन्धानभिधानमिति भावः, अपरं च 'असातवेदनीयं शारीरादिदुःखहेतुं कर्म वृहद्वृत्तिः पराक्रमा. चशब्दादन्याश्चाशुभप्रकृतीः 'नो' नैव भूयोभूयः 'उपचिनोति' वनाति, भूयोभूयोग्रहणं त्वन्यतमप्रमादतः प्रमत्त॥५८५ संयतगुणस्थानवर्त्तितायां तद्वन्धस्यापि सम्भवात् , अन्ये वेवं पठन्ति-सायावेयणिजं च णं कम्मं भुजो भुज्जो उव- २९ । है चिणाति' इह च शुभप्रकृतिसमुच्चयार्थश्चशब्दः, शेषं स्पष्टम् , 'अनादिकम् आदेरसम्भवात् , 'च' समुच्चयार्थों योक्ष्यते 'अणवयग्ग'न्ति अनवदत्-अनपगच्छत् 'अगं' परिमाणं यस्य सदाऽवस्थितानन्तपरिमाणत्न सोऽयमनव|दनोऽनन्त इत्यर्थस्तं, प्रवाहापेक्षं चैतत् , अत एव 'दीहमद्धं ति मकारोऽलाक्षणिकः दीर्घाद्ध' दीर्घकालं दी? |वाऽध्या-तत्परिभ्रमणहेतुः कर्मरूपो मार्गों यस्मिंस्तत्तथा,चत्वारः-चतुर्गतिलक्षणा अन्ताः-अवयवा यमिंस्तचतुरन्तं संसारकान्तारं क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव 'बीतीवयति'त्ति 'व्यतिब्रजति' विशेषेणातिकामति, किमुक्तं भवति ?-मुक्तिमवाप्नोति । २२ । एवमभ्यस्तश्रुतेन च धर्मकथाऽपि विधेयेति तामाह-'धर्मकथया' व्याख्यानरूपया निर्जरां जनयति, पाठादन्तरतच प्रवचनं 'प्रभावयति' प्रकाशयति, उक्तं च-"पावयणी धम्मकहीवादी मित्तिओ तबस्सी य। विजा सिद्धो|४|०५८५॥ य कवी अटेव पभावगा भणिया ॥१॥" 'आगमिसस्समद्दत्ताए'ति सूत्रत्वादागमिष्यदिति-आगामिकालभावि १ स्वाभिमागे स्यात्रिभागत्रिभागे २ प्रावधनी धर्मकथिको वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । विद्या सिद्धश्च कविरदैव प्रभावका भणिताः ॥११॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1168~ Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-63] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) C प्रत सूत्रांक [१R -७३] भद्र-कल्याणं यस्मिंस्तथा तस्य भावस्तत्ता तया,यदिवाऽऽगमिष्यतीत्यागमः-आगामी कालस्तस्मिन् शश्वद्भद्रतया-अन-14 वरतकल्याणतयोपलक्षितं कर्म निवनाति, शुभानुबन्धि शुभमुपार्जयतीति भावः २३ । इत्थं च पञ्चविधवाध्यायरतेन श्रुतमाराधितं भवतीति तदाराधनोच्यते-श्रुतस्य 'आराधनया' सम्यगासेवनया 'अज्ञानम्' अनवबोधं 'क्षपयति' अपनयति, विशिष्टतत्त्वावबोधावाः, 'न च संक्लिश्यते' नैव रागादिजनितसंक्लेशभाग भवति, तद्वशतो नव नवसंवेगावाः , उक्तं हि-"जह जह सुयमो(मव)गाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुत्र । तह तह पल्हाइ मुणी णवराणवसंवेगसद्धाए ॥१॥"त्ति २४ । श्रुताराधना चैकाग्रमनःसंनिवेशनात एव भवत्यतस्तामाह-एकमग्रं-प्रस्तावा-ला च्छुभमालम्बनमस्येत्येकाग्रं तच तन्मनश्च तस्य संनिवेशना-स्थापना, एकाग्रे वा मनःसंनिवेशना तया चित्तस्खेतखत उन्मार्गप्रस्थितस्य निरोधो-नियत्रणा चित्तनिरोधस्तं करोति २५। एवंविधस्यापि संयमादेवेष्टफलावाप्तिरिति तमाह-संयमेन' पञ्चाश्रवविरमणादिना 'अणण्यत्त'ति अनंहस्कत्वम्' अविद्यमानकर्मत्वं जनयति, आश्रवविर-2 मणात्मकत्वादस्य २६ । संयमवतोऽपि न तपो विना कर्मक्षय इति तदाह-तपसा' वक्ष्यमाणेन 'चोदाणं'ति 'व्यवदानं' पूर्ववद्धकर्मापगमतो विशिष्टां शुद्धिं जनयति २७। इत्थं व्यवदानस्य तपोऽनन्तरफलत्वात्त(स्य तदाह-व्यवदानेन 'अक्रियम्' अविद्यमानक्रिय, कोऽर्थः-व्युपरतक्रियाख्यं शुक्लध्यानचतुर्थ भेदं जनयति, 'अक्रियाका' ब्युपरतक्रिया १ यथा यथा श्रुतमवगाहते अतिशयरसासरसंयुत्तमपूर्वम् । तथा तथा प्रहादयति मुनिर्नवनवसंवेगश्रद्धया ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] REASEARCEL मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1169~ Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत उत्तराध्य.] बृहद्वृत्तिः ॥५८६॥ सूत्रांक [१R -७३] ख्यशुक्लध्यानवर्ती भूत्वा ततः पश्चात् तदनन्तरं 'सिध्यति' निष्ठितार्थों भवति 'बुध्यते' ज्ञानदर्शनोपयोगाभ्या च सम्यक्त्व. वस्तुतत्त्वमवगच्छति, न तु नवात्मगुणात्यन्तोच्छेदात्मकमुक्तिवादिनामियाबुद्धिमान् भवति, मुच्यते संसारान्न तु पराक्रमा. 'दग्धेन्धनः पुनरुपैति भव'मित्यादिवादिपरिकल्पितमुक्तवत्पुनरिहागमनवान् अत एव परिनिर्वातीत्यादि प्राग्वत. आह-अनन्तरं तपसो व्यवदानं फलमुक्तं, तब मुक्त्याख्यफलोपलक्षकमित्यतिदेशेनोक्तमिति किं पुनस्तत्फलत्वेन ॥ २९ साक्षादस्थाभिधानम् ?, उच्यते, सूत्रकृतां वैचित्र्यख्यापनार्थ, ते हि परार्थोद्यतचेतसः परेषां प्रज्ञाप्रकर्षापकर्षावपेक्ष्य 81 कचित्साक्षादभिधानोचितानप्यानस्पष्टतया निर्दिष्टवन्तः कचित्तु गम्यानपि च साक्षादन्यत्र तूभयथेति २८ ।। व्यवदानं च सत्सपि संयमादिषु सुखशायितायामेव भवतीति तामेवाह, तत्र च सुखं शेते, कोऽभिप्रायः ?प्रवचनशङ्कादीनां परलाभकामभोगशरीरसंवाधनादिमदनस्पृहादीनां च क्रमेणाभावरूपासु चतसषु सुखशय्यासु स्थितत्वेन मनोविघाताभावान्निराकुलतयाऽऽस्त इति सुखशायि तस्य भायः सुखशायिता, प्राकृतत्वात्सूत्रे यलोपः, तयाऽनुत्सुकत्यं कोऽर्थः ?-परलाभदिव्यमानुषकामभोगेषु सर्वदा निःस्पृहत्वं, यदिवा 'सुहसायार'त्ति प्राकृतत्वात्सुखं-वैषयिक शातयति-तद्गमनस्पृहानिवारणेनापनयतीति सुखशातस्तस्य भावः सुखशातता तया, पठन्ति च- ५८६॥ 'सुहसाएणं ति, तत्र च सुखशायः-सुखेन शयनं तेन, यदिवा सुखशातः-सुखस्य शातनं तेन जीवः 'अनुत्सुकत्वं'। विषयसुखं प्रति निःस्पृहत्वं 'जनयति' उत्पादयति, संयमादिष्वेव निष्पन्नमानसत्वात् , अनुत्सुकश्च जीवोऽनु दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1170~ Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||- -|| अध्ययनं [ २९ ], Education intemational सह कम्पत इत्यनुकम्पकः, सुखोत्सुको हि त्रियमाणमपि प्राणिनमवलोकयन् खसुखरसिक एवासीत् अयं तु तद्विपरीत इति दुःखेन कम्पमानमवलोक्य तदुःखदुःखितया स्वयमपि तत्काल एवं कम्पत इति, तथा 'अनुद्भटः अनुल्वणः 'विगतशोकः' नैहिकार्थभ्रंशेऽपि शोचते, मुक्तिपदबद्धस्पृहत्वात् एवंविषश्च प्रकृष्टशुभाध्यवसायतश्चारित्रमोहनीयं कर्म क्षपयति २९ । सुखशय्यास्थितस्य चाप्रतिवद्धता भवतीति तामभिधातुमाह-'अप्रतिवद्धतया' मनसि | निरभिष्वङ्गतया 'निःसङ्गत्वं' वहिःसङ्गाभावं जनयति, निःसङ्गत्वेन जीव एको रागादिविकलतया तत एव 'एका ग्रचित्तः' धर्मैकतानमना एकाग्रताविबन्धक हेत्वभावात् ततश्च दिवा वा रात्रौ वाऽसजन्, कोऽर्थः ?- सदा वहि:स त्यजन्नप्रतिबद्धथापि विहरति कोऽभिप्रायः १- विशेषतः प्रतिबन्धविकलो मासकल्पादिनोयतविहारेण पर्य| रति ३० । अप्रतिवद्धता च विविक्तशयनासनतायां संभवत्यतस्तामाह-विविक्तानि ख्यायसंसक्तानि शयनासनान्युपलक्षणत्वादुपाश्रयश्च यस्यासौ विविक्तशयनासनस्तद्भावस्तत्ता तथा 'चारित्रगुप्तिं' चरणरक्षां जनयति 'चरितगुतेति प्राग्वद्, गुप्तचरित्रश्च जीवो विविक्तो विकृत्यादिरहित आहारो यस्य स तथा, गुप्तचारित्रो हि सर्वत्र निःस्पृह एव भवति, तथा दृढ निश्चलं चरित्रमस्येति दृढचरित्रस्तत एवैकान्तेन - निश्चयेन रतः-अभिरतिमानेकान्तरतः संयम इति गम्यते, तथा मोक्षे-मुक्तौ भावेन - अन्तःकरणेन प्रतिपन्न - आश्रितः मोक्षभावप्रतिपन्नः मोक्ष एव मया साधयितव्य इत्यभिप्रायवान् अष्टविधकर्मग्रन्थिरिव ग्रन्थिदुर्भेदतयाऽष्टविधकर्मग्रन्थिस्तं 'निर्ज Forest Use Only निर्युक्ति: [५०९...] ~ 1171~ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥५८७॥ 20MHot २९ [१R रयति' क्षपकश्रेणिप्रतिपत्त्या क्षपयति ३१ । विविक्तशयनासनतायां च विनिवर्त्तना भवतीति तामाह-विनिवर्त- सम्यक्त्व नया' विषयेभ्य आत्मनः पराङ्मुखीकरणरूपया 'पापकर्मणां' सावद्यानुष्ठानानाम् 'अकरणतया' न मया पापानि बृहद्वृत्तिः पराक्रमा. व कर्तव्यानीत्येवंरूपया 'अभ्युत्तिष्ठते' धर्म प्रत्युत्सहते, पूर्ववद्धानां पापकर्मणामिति प्रक्रमः, चशब्दो निर्जरणान न्तरं द्रष्टव्यः ततः पूर्वबद्धानां निर्जरणया चशब्दादभिनवानुपादानेन च तदिति कर्म 'निवर्त्तयति' विनाशयति, यदिवा पापकर्मणां-ज्ञानावरणादीनाम् 'अकरणयाइ'त्ति आर्षत्वाद् 'अकरणेन' अपूर्वानुपार्जनेनाभ्युत्तिष्ठते मोक्षा६ येति शेषः, पूर्ववद्धानां च कर्मणां निर्जरणया, अन्यत्प्राग्वत् ४० । विषयनिवृत्तश्च कश्चित्सम्भोगप्रत्याख्यानवान्ट्र संभवत्यतस्तदाह-समिति-संकरेण-खपरलाभमीलनात्मकेन भोगः सम्भोगः,एकमण्डलीकभोक्तृत्वमिति योऽर्थः तस्य प्रत्याख्यान-गीतार्थावस्थायां जिनकल्पाद्यभ्युद्यतविहारप्रतिपच्या परिहारः सम्भोगप्रत्याख्यानं तेन 'आलम्बनानि । |ग्लानादीनि 'क्षपयति' तिरस्कुरुते, सदोद्यतत्वेन वीर्याचारमेवावलम्बते, निरालम्बनस्य चायतो-मोक्षः संयमो वा स एवार्थ:-प्रयोजनं विद्यते येषामित्यायतार्थिकाः 'योगा' व्यापारा भवन्ति प्रपञ्चतश्च प्रवर्तन्ते, तथा 'खकीयेन' आत्मीयेन लाभेन 'सन्तुष्यति' निरभिलापो भवति, परस्य लाभ नो तर्कयति नो स्पृहयति नो प्रार्थयति नो ५८७॥ अभिलपति, तत्र तर्कणं-मनसा यदि मह्यमसौ ददातीति विकल्पनं, स्पृहणं-तच्छद्धालुतयाऽऽत्मन आविष्करणं, प्रार्थनं-वाचा मह्यं देहीति याचनम् , अभिलषणं-तलालसतया वाञ्छनम् , एकार्थिकानि वैतानि नानादेशजविनेयानु -७३]] 4 42 दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1172~ Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] ग्रहायोपात्तानि, एवंविधश्च यं गुणमवाप्नोति तमेवोक्तानुवादेनाह-परस्स लाभ आणासाएमाणेत्ति, 'अनाशयमानः आशाविषयमकुर्याणोऽनाखादयन् वाऽभुजानोऽतर्कयन्नस्पृहयन्नप्रार्थयमानोऽनभिलषन् 'दोचंति द्वितीयां सुखशय्याम 'उपसंपद्य' प्राप्य विहरति, एवंविधरूपत्वात्तस्याः, तथा च स्थानाङ्गम्-"अहावरा दोचा सुहसेज्जा से णं मुंडे भवित्ता |अगाराओ अणगारियं पञ्चइए समाणे सएणं लाभेणं सन्तूसति परस्स लाभं नो आसाएति णो तकेइ णो पीहेइ णो || पत्थेइ नो अभिलसेति, से णं परस्स लाभं अणासाएमाणे अतकेमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे णों मणं । उच्चावयं नियच्छति णो विणिधायमावजईत्ति इह च 'अणासाएमाणे' इत्युत्तरत्र वचनात् स्थानाङ्गे च दर्शनात् , पूर्वत्रापि 'णो आसाएई' इति [बहुवचनमनुमीयते, तच गम्यतया न निर्दिष्टं लेखकदोपेण वा न दृश्यत इति न विद्मः ३३॥3 सम्भोगप्रत्याख्यानवतश्चोपधिप्रत्याख्यानमपि संभवतीति तदाह, तत्रोपधिः-उपकरणं तस्य.रजोहरणमुखवस्त्रिकाव्यतिरिक्तस्य प्रत्याख्यानं न मयाऽसौ ग्रहीतव्य इत्येवंरूपा निवृत्तिरुपधिप्रत्याख्यानं तेन परिमन्धः-खाध्यायादिक्षति १ अथापरा द्वितीया सुखशय्या स मुण्डो भूत्वाऽगारादनगारितां प्रबजितः सन् खकेन लाभेन संतुष्यति परस्य लाभं नास्वादयति न | तर्कयत्ति न स्पृहयति न प्रार्थयति नाभिलष्यति, स परस्य लाभमनासादयन् अतर्कयन् अस्पृहयन अप्रार्थयमानोऽनभिलष्यन् नो मनः |उबावचं नियच्छति नो विनिधातमापद्यते दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1173~ Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत पराक्रमा. २९ ५८८वोकसिस्मारिका सूत्रांक [१R -७३] सदभावोऽपरिमन्थस्तं जनयति, तथा निष्क्रान्त उपधेर्निरुपधिको जीवः 'निष्कासः' वस्त्राथभिलापरहितः सन् , उत्तराध्य. सम्यक्त्वएतच पदं क्वचिदेव दृश्यते, उपधिमन्तरेण चस्य भिन्नक्रमत्वान्न संक्लिश्यति-न च मानसं शारीरं वा क्लेशमामोति, उक्तं बृहद्वृत्तिः हि-"तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवति-परिजुन्ने मे बत्थे सूई जाइस्सामि संघिस्सामि उकंसिस्सामि तुणिस्सामि डावोक्कसिस्सामि" इत्यादि ३४ । उपधिप्रत्याख्याता चाहारमपि प्रत्याचष्टे, यतो जिनकल्पिकादिरेपणीयालाभे बहून्यपिका |दिनान्युपोषित एवास्तेऽत आहारप्रत्याख्यानमाह-'आहारप्रत्याख्यानेन' अनेषणीयभक्तपाननिराकरणरूपेण जीवितेप्राणधारणरूपे आशंसा-अभिलाषो जीविताशंसा तस्याः प्रयोगो-व्यापारणं करणं जीविताशंसाप्रयोगस्तं व्यवच्छिनत्ति, आहाराधीनं हि मनुजानां जीवितमतस्तत्प्रत्याख्याने तदाशंसासु व्यवच्छेदो भवति, पठन्ति च-'जीवियास-| विप्पओगं योछिदिय'त्ति, तत्र जीविताशया विप्रयोगो-विविधव्यापारस्तं व्यवच्छिनत्ति, जीविताशया साहार एव मुख्यो व्यापारस्ततस्तत्प्रत्याख्याने शेषव्यापारन्यवच्छेदः सुकर एव भवतीति, ततश्च जीविताशंसाप्रयोगं जीविताशा-| विप्रयोग वा विच्छिद्य जीवः 'आहारम्' अशनादिकम् 'अन्तरेण विना न संक्लिश्यति, कोऽर्थः-विकृष्टतपोऽनुष्ठानवानपि न वाधामनुभवति ३५ । एतच प्रत्याख्यानत्रयमपि कपायाभाव एव फलवदिति तत्प्रत्याख्यानमुच्यते- ॥५८८॥ कपायप्रत्याख्यानेन-क्रोधादिविनिवारणेन पीतो-विगतो रागो द्वेषविगमाविनाभाषित्वात्तद्विगमस्स द्वेषश्चास्येति १ तस्य भिक्षोनवं भवति-परिजीण मे वस्त्रं सूचि याचयिष्यामि संधास्ये उत्कर्षयिष्यामि तूणयिष्यामि (व्येष्यामि ) व्युत्कर्षयिष्यामि | दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1174~ Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) Re%-9 प्रत % सूत्रांक [१R % -७३] वीतरागस्तद्भावं जनयति, 'वीतरागभावपडिबन्ने यत्ति, अपिचेत्यस्य पुनरर्थत्वात्प्रतिपन्नवीतरागभावः पुनर्जीवः समे-रागद्वेषाभावतस्तुल्ये सुखदुःखे यस्य स तथाविधो भवति, रागद्वेपाभ्यां हि तत्र वैषम्यसम्भवः, तदभावे तु *समतैवावशिष्यते ३६ । निष्कषायोऽपि योगप्रत्याख्यानादेव मुक्तिसाधक इति तदुच्यते, तत्र योगा-मनोवाकायव्यापारास्तत्प्रत्याख्यानेन-तन्निरोधलक्षणेन 'अयोगत्वं' वक्ष्यमाणन्यायेनायोगिभावं जनयति, अयोगी जीवः ('नवं'। प्रत्यर्प 'कर्म' सातवेदनीयायपि न बाति तत्कारणयोगाभावात्,) 'पूर्ववद्धम्' इति भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयमन्यस्य ट्रा तदाऽसंभवात् 'निर्जरयति' क्षपयति ३७। योगप्रत्याख्यानतः शरीरमपि प्रत्याख्यातमेव भवति, तथापि तदाधा रत्वान्मनोयाग्योगयोस्तत्प्राधान्यख्यापनार्थ तत्प्रत्याख्यानमेवाह, तत्र शरीरम्-औदारिकादि तत्प्रत्याख्यानेन ४ सिद्धानामतिशयगुणा न कृष्णा न नीला इत्यादयो यस्य स सिद्धातिशयगुणो गमकत्वाददुव्रीहितद्भावस्तत्त्वम् ,उक्तं हिहै "से ण किण्हे ण नीले ण हालिद्दे" इत्यादि 'निर्वर्तयति' जनयति, सिद्धातिशयगुणसंपन्नश्च, जीयो लोकाप्रभवत्वात् लोकाग्रं-मुक्तिपदम् 'उपगतः'प्राप्तः 'परमसुखी' अतिशयसुखवान् भवति ३८ । सम्भोगादिप्रत्याख्यानानि च प्रायः सहायप्रत्याख्यान एव सुकराणि भवन्तीति तदुच्यते-सहायाः-साहाय्यकारिणो यतयस्तत्प्रत्याख्यानेन-तथाविधयोग्य-४ ताभाविनाऽभिग्रहविशेषरूपेण 'एकभावस्' एकत्वं जनयति 'एकीभावभूतश्च एकत्वप्राप्तश्च जीवः एकालम्बनत्वं 'भावयन्' अभ्यस्यन् 'अप्पझंझ'त्ति अल्पशब्दोऽभाववचनः, ततथाल्पझञ्झः-अविद्यमानवाकलहस्तथाऽल्पकपायः-अविद्य % -%% दीप अनुक्रम [१११४-११८७] %A5 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1175~ Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) सम्यक्त्व उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः पराक्रमा सूत्रांक [१R ॥५८९॥ -७३]] मानक्रोधादिः 'अप्पतुमंतुमि त्ति अल्पम्-अविद्यमानं त्वं त्वमिति स्वल्पापराधिन्यपि त्वमेवं पुराऽपि कृतवान् त्वमेवं | सदा करोषीत्यादि पुनः पुनः प्रलपनं यस्य स तथा,संयमबहुलः संवरबहुल इति प्राग्वद्, अत एव 'समाहीए यावित्ति 'समाहितः' ज्ञानादिसमाधिमांश्चापि भवति ३९ । एवंविधश्चान्ते भक्तप्रत्याख्याता भवतीति तत्प्रत्याख्यानमाह'भक्तप्रत्याख्यानेन आहारपरित्यागरूपेण भक्तपरिज्ञादिना अनेकानि भवशतानि निरुणद्धि, तथाविधढाध्यवसायतया ठा संसाराल्पत्वापादनादिति भावः ४० । साम्प्रतं सकलप्रत्याख्यानप्रधानं सद्भावप्रत्याख्यानमाह-तत्र सद्भावन-सर्वथा पुनःकरणासंभवात्परमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैलेशीतियावत् तेन, न विद्यते निवृत्तिः* मुक्तिमप्राप्य निवत्तेनं यसिंतद् अनिवृत्ति शुक्लध्यानं चतुर्थभेदरूपं जनयति, पाठान्तरतच 'निवृत्ति' द्विसमयस्थिति-II कस्यापि वेद्यकर्मणो बन्धव्यावृत्तिं जनयति, 'अणियहि पडिवण्णे यत्ति प्रतिपन्नानिवृत्तिः पाठान्तरतः प्रतिपन्ननि६ वृत्तिश्चानगारः 'चत्वारि' चतुःसञ्जयानि केवलिनः 'कम्मंसति कार्मप्रन्धिकपरिभाषयाउँशशब्दस्य सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि केवलिसत्कर्माणि-मयोपग्राहीणि क्षपयति, शेषं स्पष्टम् ४१ । एतच प्रत्याख्यानं प्रायः प्रतिरूपताया-13 मेव भवतीति तामाह-पडिरूवयाए'त्ति, प्रतिः-सादृश्ये, ततः प्रतीति-स्थविरकल्पिकादिसदृशं रूपं-वेषो यस्य । ||५८९॥ स तथा तद्भावस्तत्ता तया-अधिकोपकरणपरिहाररूपया लाघवमस्यास्तीति लाघवी तद्भायो लाघविता तां द्रव्यतः खल्पोपकरणत्वेन भावतस्त्वप्रतिबद्धतया जनयति,लघुभूतश्च जीवः 'अप्रमत्तः' प्रमादहेतूनां परिहारत इतरेषां चांझी दीप अनुक्रम [१११४-११८७] 2 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1176~ Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) चयन २९, प्रत सूत्रांक [१R -७३]] करणतः, तथा 'प्रकटलिङ्गः' स्थविरादिकल्परूपेण व्रतीति विज्ञायमानत्वात् 'प्रशस्तलिक' जीवरक्षणहेतुरजोहरणादिधारकत्वाद् 'विशुद्धसम्यक्त्वः' तथाप्रतिपत्त्या सम्यक्त्वविशोधनात् , तथा सत्त्वं च-आपत्खवैकल्यकरमध्यवसानकर च समितयश्च-उक्तरूपाः समाप्ताः-परिपूर्णा यस्य स समाससत्त्वसमितिः, सूत्रे निष्टान्तस्य प्राकृतत्वात्परनिपातः, |तत एव सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेषु विश्वसनीयरूपः, तत्पीडापरिहरित्वात्, 'अपडिलेह'त्ति अल्पार्थे नत्र, ततोऽप्रत्युपेक्षित इत्यल्पोपकरणत्वादल्पप्रत्युपेक्षः, पठ्यते च-'अप्पपडिलेहित्ति, जितानि-वशीकतानि यतिरहमितिप्र-18 त्ययात्कथञ्चित्परिणामान्यथात्वेऽपीन्द्रियाणि येन स तथा, विपुलेन-अनेकभेदतया विस्तीर्णन तपसा समितिभिश्च सर्व विषयानुगतत्वेन विपुलाभिरेव समन्वागतो-युक्तो विपुलतपःसमितिसमन्वागतश्चापि भवति, पूर्वत्र समितीनां | परिपूर्णत्वाभिधानेन सामस्त्यमुक्तम् , इह तु तासां सार्वत्रिकत्वमिति न पौनरुत्यम् ४२ । प्रतिरूपतायामपि वैयावृत्त्यादेव विशिष्टफलावासिरित्येतदनन्तरं वैयावृत्त्यं, तत्र व्यावृतः-कुलादिकार्येषु व्यापारवांस्तद्भावो वैयावृत्त्यं तेन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निवनाति, उक्तं हि तद्धेतुकीतनावसरे-"वेयावचे समाही य"त्ति ४३ । वैयावृश्यवांश्च | सर्वगुणभाजनं भवतीति सर्वगुणसंपन्नतामाह-सर्वगुणा-ज्ञानादयस्तैः संपन्नो-युक्तस्तद्भावः सर्वगुणसंपन्नता तया 'अपुनरावृर्ति' पुनरिहागमनाभावो मुक्तिरितियावत्तां जनयति, अपुनरावृत्तिं प्राप्त एव प्राप्तको जीवः शारीरमान सानां दुःखानां 'नो' नैव 'भागी' भाजनं भवति, तन्निवन्धनयोहमनसोरभावात्, सिद्धिसुखभाजनमेव भवतीति दा दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1177~ Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) सम्यक्रव प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः +5-NCR पराक्रमा सूत्रांक [१R ॥५९०॥ -७३] भावः ४४ । सर्वगुणसंपन्नता च रागद्वेषपरित्यागतो जायत इति वीतरागतामाह-वीतरागतया' रागद्वेषापगम-16 रूपया बन्धनानि-रागद्वेषपरिणामात्मकानि, तृष्णा-लोभस्तद्रूपाणि बन्धनानि तानि च व्यवच्छिनत्ति, पाठान्तरतश्च 'स्नेहानुवन्धानि तृष्णानुबन्धानि च तत्र स्नेहः-पुत्रादिविषयः तृष्णा-द्रव्यादिविपया तद्रूपाण्यनुवन्धनानि तु-10 अनुगतान्यनुकूलानि वा बन्धनानि, अतिदुरन्तत्वख्यापनार्थं च रागान्तर्गतत्वेऽपि पृथक् तृष्णानेहयोरुपादानं, ततश्च ४ मनोज्ञेषु शब्दरसरूपगन्धेषु (सचित्ताचित्चमिश्रेपु-ख्यादिद्रव्येपु) चैव विरज्यते, तृष्णानेहयोरेव रागहेतुत्वात् , आहकषायप्रत्याख्यानफलेन वीतरागतोक्तैव तकिमर्थमस्याः पृथगुपादानम् ?, उच्यते, रागस्यैव सकलानर्थमूलत्वख्यापनाथ ४५। रागद्वेपाभावे च तात्त्विकाः श्रमणगुणाः, तेषु च प्रथमत्रतपरिपालनोपायत्वात्क्षान्तिरेव प्रथमेति तामाह, तत्र शान्तिः-क्रोधजयस्तया 'परीपहान्' अर्थाद्वधादीन् 'जयति' परीपहाध्ययनोक्तन्यायतोऽभिभवति ४६ । क्षान्तिमास्थितेनापि न मुक्तिं विनाऽशेषत्रतपरिपालनं कर्तुं शक्यमिति तामाह-मुक्ति-निर्लोभता तया किश्चनाभावोऽकिञ्चनं, कोऽर्थः-निष्परिग्रहत्त्वं जनयति,अकिश्चनश्च जीवोऽथें लोला-लम्पटा अर्थलोलाचौरादयस्तेषां न प्रार्थनीयः-प्रस्तावाद्वाधितुमनभिलपणीयो भवति ४७। लोभाविनाभाविनी च मायेति तदभावेऽवश्यंभाव्याञ्जयमतस्तदाह-'अजवया-12/॥५९०॥ पत्ति सूत्रत्वाद् ऋजुः-अवक्रस्ताव आर्जवं तेन-मायापरिहाररूपेण कायेन ऋजरेव ऋजुकः कायर्जुकस्तद्धावस्तत्ताकुब्जादिवेषभूषिकाराद्यकरणतः प्राअलता तां तथा भाव:-अभिप्रायस्तस्मिंस्तेन वा ऋजुकता भावणुकता-यदन्य दीप अनुक्रम [१११४-११८७] CARRASSOC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1178~ Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत AKkKAR सूत्रांक [१R -७३] द्विचिन्तयन् लोकपतपादिनिमित्तम् अन्यद्वाचा कायेन वा समाचरति तत्परिहाररूपा, एवं भाषायामृजुकता भाषPIर्जुकता-यदुपहासादिहेतोरन्यदेशभाषया भाषणं तत्परित्यागात्मिका, तथा-'अविसंबादनं' पराविप्रतारणं जनयति, तथाविधश्चाविसंवादनसंपन्नतयोपलक्षणत्वात्कायर्जुकतादिसंपन्नतया च जीयो धर्मस्थाराधको भवति, विशुद्धाध्यवसायत्वेनान्यजन्मन्यपि तदवाः ४८ । एवंगुणस्यापि न विनयं विना समग्रफलावाप्तिः, स च मार्दवादेवेति तदाह-'मद्दवयाए'त्ति मार्दवेन गम्यमानत्वाभ्यस्यमानेन 'मिउमद्दवसंपन्नेत्ति मृदुः-द्रव्यतो भावतश्चावनमनशीलस्तस्य (भावः कर्म वा) मार्दवं यत्सदा मार्दवोपेतस्यैव भवति तेन संपन्न:-तदभ्यासात्सदा मृदुखभावो मृदुमादयसंपन्नः सन् 'अष्टौ मदस्थानानि' जातिकुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभावलेपरूपाणि,उक्तं हि-"जातीकुलबलरूवे तबईसरिएसुएलाभे"ति, 'निष्ठापयति' विनाशयति, पठन्ति च-'मद्दवयाए णं जीवे अणुस्सियतं जणेति, अणुस्सिए णं जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाणि णिट्ठवेति' अत्र चानुत्सिक्तत्वम्-अनुद्धतत्वमन्यत्प्राग्वत् ४९। एतदपि तत्त्वतः सत्यव्यवस्थितस्यैव भवति,15 तत्रापि च भावसत्यं प्रधानमिति तदाह-'भावसत्येन' शुद्धान्तरात्मतारूपेण पारमार्थिकावितधत्वेन भावविशुदि' वि-Isx शुद्धाध्यवसायात्मिकां जनयति, भावविशुद्धौ वर्तमानो जीयोऽहत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य 'आराहणयाए'त्ति 'आराधनया' अनुष्ठानेन 'अभ्युत्तिष्ठते' मुक्त्यर्थमुत्सहते, यदियाऽऽराधनायै-आवर्जनार्थमभ्युत्तिष्ठति, अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मसाराधनयाऽऽराधनायै वाऽभ्युत्थाय परलोके-भवान्तररूपे धर्मः परलोकधर्मस्तस्य, पाठान्तरतः परलोके वाऽऽराधको भवति, दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1179~ Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [१०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३]] उत्तराध्य. |प्रेत्य जिनधर्मावात्या विशिष्टभयान्तरप्राप्त्या वेति भावः ५० । भावसत्येन करणसत्यं संभवतीति तदाह करणे . सम्यन बृहद्वृत्तिः सत्यं करणसत्यं यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते तेन करणशक्तिं तन्माहात्म्यात् पुराऽनध्यव 8 सितक्रियासामर्थ्यरूपां जनयति, तथा करणसत्ये वर्तमानो जीवो यथावादी तथाकारी चापि भवति, स हि सूत्रम५९१॥ धीयानो यथैव क्रियाकलापबदनशीलः करणशीलोऽपि तथैवेति ५१ । एवंविधस्यैव योगसत्यमपि भवतीति तदाह योगा-मनोवाकायास्तेषां सत्यम्-अचितथत्वं योगसत्यं तेन योगान् 'विशोधयति' क्लिष्टकर्मवन्धकत्याभावतो |निर्दोषान् करोति ५२ । एतच सत्यं गुप्त्यन्वितस्यैव भवत्यतो यथाक्रम तदभिधानं, तत्र च 'मनोगुप्ततया' मनो-12 द्रगुसिरूपया जीवः ऐकाय' प्रस्तावाद्धमैंकतानिचित्तत्वं जनयति, तथा चैकाग्रचित्तो जीयो गुप्तम्-अशुभाध्यवसाटायेषु गच्छद्रक्षितुं मनो येनासौ गुप्तमनाः सन् , निष्ठान्तस्य परनिपातः प्राग्वत्, संयमाराधको भवति, तत्र मनो-| निरोधस्य प्रधानत्वादिति भावः ५३ । वाग्गुप्ततया' कुशलवागुदीरणरूपया 'निर्विकारं विकथाद्यात्मकवाग्विकापराभावं जनयति, ततश्च निर्विकारो जीवो वाग्गुप्त इति, प्रवीचाराप्रवीचाररूपत्वेन द्विविधत्वात्तगप्तेः सर्वथा वाणि-II रोधलक्षणवाग्गुप्तिसमन्वितः सन्नध्यात्म-मनस्तस्य योगा-व्यापारा धर्मध्यानादयस्तेषां साधनानि-एकाग्रतादीनि ५९|| |तेयुक्तोऽध्यात्मयोगसाधनयुक्तो भवति, विशिष्टवाग्गुप्सिरहितो हि न चित्तैकाग्रतादिभाग् भवेदिति भावः, अन्ये तु| 'निषियारे णं जीवे वयगुत्तयं जणयति' इत्येतावदेव पठन्ति, तच स्पष्टमेव ५४ । 'कायगुसः' शुभयोगप्रवृत्त्यात्मकका दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1180~ Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] यगुप्तिमान् 'संवरम्' अशुभयोगनिरोधरूपं जनयति, संवरेण गम्यमानत्वादभ्यस्थमानेन कायगुप्तः पुनः सर्वथा । || निरुद्धकायिकव्यापारः पापस्य-'पावे कम्मे वेरे' इत्यादिवचनात्कर्मण आश्रवा-उपादानहेतवो हिंसादयः पापा-15 अवास्तनिरोधं करोति, तात्त्विक्या अस्सा एतत्फलत्वेन सुप्रतीतत्वात् ५५ । इतश्च गुप्तित्रयाद्यथाक्रमं मनःसमाधारणादिसम्भव इति तदाह-तत्र 'मणसमाहारणयाए ति मनसः समिति-सम्यग् आङिति-मर्यादयाऽऽगमाभिहि-151 तभावाभिव्याप्त्याऽवधारणा-व्यवस्थापनं मनःसमाधारणा तया 'एकात्र्यम्' उक्तरूपं जनयति, एकाग्र्यं जनयित्वा 'ज्ञानपयेवान्' विशिष्टतरवस्तुतत्त्वावबोधरूपान् जनयति, ज्ञानपर्यवान् जनयित्वा सम्यक्त्वं विशोषयति, विशुद्धत्वं चास्य वस्तुतत्त्वावगमे तद्विषया रुचिरपि शुद्धतरेव संभवतीतिकृत्वा, अत एव च मिथ्यात्वं च निर्जरयति ५६ । | 'वइसमाहारणयाए'त्ति 'वाकसमाधारणया' स्वाध्याय एवं वाग्निवेशनात्मिकया, वाचा सधारणा वाक्समाधारणा, येन ते वचसोऽपि विषयाः, प्रज्ञापनीया इत्यर्थः, तेषामेवान्यथात्वसम्भवेन विशेषणसाफल्यात्, इह च तद्विषया दर्शनपर्यवा अप्युपचारतस्तथोक्तास्ततश्च वाक्साधारणाश्च ते दर्शनपर्यवाश्च-सम्यक्त्वभेदरूपा वाक्साधारणदर्शनपर्यवास्तान् विशोधयति, 'देविए दंसणसोधी' इति वचनाद्रव्यानुयोगाभ्यासतस्तद्विषयाशङ्कादिमालिन्यापनयनेन विशुद्धान् करोति, वाक्साधारणदर्शनपर्यवान् विशोध्य सुलभबोधिकत्वं नियति, तत एव दुर्लभवोधि १ द्रव्यानुयोगादर्शनशुद्धिः 4240 दीप अनुक्रम [१११४-११८७] -- -- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1181~ Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत बृहद्वत्तिः सूत्रांक [१R -७३] उत्तराध्य. कत्वं निर्जरयति ५७ । 'कायसमाहारणयाए'त्ति 'कायसमाधारणया' संयमयोगेषु शरीरस्य सम्यग्व्यवस्थापनरूपया सम्यक्त्व'चरित्रपर्यवान्' चारित्रभेदान् क्षायोपशमिकानिति गम्यते विशोधयति, तदुन्मार्गप्रवृत्तित एव प्रायस्तेषामतीचार-18 कालुष्यसम्भवात् , चरित्रपर्यवान् विशोध्य यथाख्यातचारित्रं विशोधयति, सर्वथा बसत उत्पत्यसम्भव इति पूर्वमपि । पराक्रमा. ॥५९२२॥ कश्चित्सदेव यथाण्यातचारित्रं चारित्रमोहोदयमलिनितं तन्निर्जरणेन निर्मलीकुरुते, यथाख्यातचारित्रं विशोध्य | चत्वारीत्यादि सर्वं प्राग्वत् ५८ । एवं समाधारणात्रयाद्यथाक्रम ज्ञानादित्रयस्ख शुद्धिरुक्ता, फलं पुनरस्य किमि-3|| त्याशङ्कायां यथाक्रममेतत्फलमाह-ज्ञानमिह प्रस्तावात् श्रुतज्ञानं तत्संपन्नतया जीवः सर्वभावानाम्-अशेषजीवादिपदार्थानामभिगमो-ज्ञानं सर्वभावाभिगमस्तं जनयति, तथा सं(तत्सं)पन्नो जीवः 'चाउरते'त्ति उक्तनीतितश्चतुरन्तसंसारकान्तारे नैव 'विनश्यति' इतस्ततः पर्यटनेन मुक्तिमार्गाद्विशेषेण दूरीभवति, अमुमेयार्थ दृष्टान्तद्वारेण स्पष्ट तरमाह-यथा 'सूची' प्रतीता ससूत्रा सुप्रापतया 'न विनश्यति' कचवरादिपतिताऽपि न विशेषेण दूरीभवति तथा दाजीवः सह सूत्रेण-श्रुतेन वर्तत इति ससूत्रः संसारे न विनश्यति, उक्तं च-"सूई जहा समुत्ता ण णस्सई कयवरंमि* पडियावि । जीवो तहा ससुत्तो ण णस्सइ गओवि संसारे ॥१॥” तत एव ज्ञानं च-अवध्यादि विनयश्च-ज्ञान ५९२॥ विनयादिः तपश्च-वक्ष्यमाणं चारित्रयोगाः-चारित्रप्रधाना व्यापारा ज्ञानविनयतपश्चारित्रयोगास्तान् प्राप्नोति, १ सूचिर्यथा ससूत्रा न नश्यति कचवरे पतिताऽपि । जीवस्तथा सश्रुतो न नश्यति गतोऽपि संसारे ॥१॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1182~ Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-63] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] तथा खसमयपरसमययोः संघातनीयः-प्रमाणपुरुषतया मीलनीयः खसमयपरसमयसंघातनीयो भवति, इह च खसमयपरसमयशब्दाभ्यां तद्वेदिनः पुरुषा उच्यन्ते, तेष्वेव संशयादिव्यवच्छेदाय मीलनसंभवात् ५९ । 'दर्शनसंपन्नतया' क्षायोपुशमिकसम्यक्त्वसमन्वितया भवहेतुभूतं मिथ्यात्वं भव मिथ्यात्वं तस्स छेदन-क्षपणं भवमिध्यात्वच्छेदन करोति,कोऽर्थः-क्षायिकसम्यक्त्वमवामोति, ततश्च परमिति-उत्तरकालमुत्कृष्टतस्तस्मिन्नेव भवे मध्यमजघन्यापेक्षया तृतीये तुर्ये वा जन्मन्युत्तरश्रेण्यारोहणेन केवलज्ञानावाप्तौ 'न विध्यायति' न ज्ञानदर्शनप्रकाशाभावरूपं विध्यानमवामोति, किन्तु 'अनुत्तरेण क्षायिकत्वात्प्रधानेन ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शनं तेन 'आत्मानं' खं 'संयोजयन्' प्रतिसमयमपरापरेणोपयोगरूपतयोत्पद्यमानेन घटयन् , संयोजनं च भेदेऽपि स्यादत आह-(सम्म-सम्यक) 'भावयन्' तेनात्मानमात्मसान्नयन् 'विहरति' भवस्थकेवलितया मुक्ततया वाऽऽस्ते, पठन्ति च-'अणुत्तरेणं णाणदसणेणं विहरईत्ति' अत्र च लक्षणे तृतीया ६०॥ चरित्रसंपन्नतया 'शैलेशीभावं'ति शिलानामिमे शैला:-पर्वतास्तेपामीशः शैलेशो-मेरुः स इव शैलेशो-मुनिनिरुद्धयोगतयाऽत्यन्तस्थैर्येण तस्येयमवस्था-शैलेशी तस्या भावः अशैलेशस्य वा शैलेशीभवनं शैलेशीभावः, इत्यादिरनेकधा व्युत्पत्तिः, उक्तं हि-"सेलेसो किर मेरू सेलेसी होइ तहाऽचलया। होउं व असेलेसो सेलीसी होइ थिरयाए ॥१॥ अहया सेलोच इसी सेलेसी होइ सो हु थिरयाते । सेव असेली होई सेलीसी १ शैलेशः किल मेरुः शलेशी भवति या तथाऽचलता । भूत्वा वाऽशैलेशः शैलेशीभवति स्थिरतया ॥१॥ अथवा शैल इब ऋषिः शैलर्षिः (सेलेसी) भवति स एव स्थिरतया । स एव अशैलीभवति शैलेशी दीप अनुक्रम [१११४-११८७] -% 82% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1183~ Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३]] उत्तराध्य. होअलोवाओ॥२॥ सील व समाहाणं णिच्छयतो सबसंवरो सो या तस्सेसो सीलेसो सेलेसी होइ तयवत्था ॥३॥" सम्यक्त्वबृहद्धृत्तिः दतमेवंविधं शैलेशीभावं जनयति, तजननाच शैलेशीप्रतिपन्नो 'विहरति आस्तेऽन्तर्मुहूर्तमिति शेषः, पठन्ति च हापराक्रमा. 'सेलेसी पडियन्ने अणगारे चत्तारि केवलिकम्मसे खवेति, ततो पच्छा सिज्झति बुज्झइ' इत्यादि प्राग्वत् ६१ । चरित्रं ॥५९॥ |चेन्द्रियनिग्रहादेव जायत इति प्रत्येक तन्निग्रहमाह-श्रोत्रेन्द्रियख निग्रहः-खविषयाभिमुखमनुधावतो नियमन ।। २९ श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहस्तेन 'मनोज्ञामनोज्ञेषु' अभिमतेतरेषु शब्देषु यथाक्रमं रागद्वेषयोर्निग्रहो रागद्वेषनिग्रहस्तं जनयति, तथा च तत्प्रत्ययिक-रागद्वेषनिमित्तं कर्म न बनाति पूर्ववद्धं च निर्जरयति, तन्निग्रहे शुभाध्यवसायप्रवृत्तेरिति भावः। एवं चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण ६३ घाणेन्द्रियनिग्रहेण ६४ जिह्वेन्द्रियनिग्रहेण ६५ स्पर्शनेन्द्रियनिग्रहेण च इदमेव वाच्यं, नवरं चक्षुरिन्द्रियेष्वित्युपचाराचक्षुरिन्द्रियग्राह्येषु रूपेष्विति योऽर्थः, यथाप्रधानं चात्रेन्द्रियनिर्देशः, प्राधान्यं च पाटहै वाद्यपेक्षमिति भावनीयम् ६६ । एतन्निग्रहोऽपि कषायविजयाद्भवत्यतः क्रमेण तद्विजयमाह-तत्र क्रोधस्य विजयो दुरन्तादिपरिभावनेनोदयनिरोधः क्रोधविजयस्तेन क्रोधेन-कोपाध्यवसायेन वेद्यत इति क्रोधवेदनीयं-तद्धेतुभूतपुद्गल रूपं कर्म न बध्नाति “जं वेएइ तंबंधइ"त्ति वचनात् , तथा पूर्ववद्धं प्रक्रमात्तदेव निर्जरयति, तत एव विशिष्टजीववी-11 दोल्लासात् ६७ । एवं मानविजयेन ६८ मायाविजयेन ६९ लोभविजयेन ७० चाभिधेयम् । एतजयश्च न प्रेमद्वेषमि १ भवत्यलोपात् ॥ २ ॥ शीलं वा समाधानं निश्चयतः सर्वसंवरः स च । तस्येशः शैलेशः शैलेशी भवति तदवस्था ॥ ३ ॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1184 ~ Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३]] थ्यादर्शनविजयं विनाऽतः स उच्यते-'पिज्जत्ति प्रेम राग इत्यर्थः स च द्वेषश्च-अप्रीतिरूपो मिथ्यादर्शनं च-सांशयि४ कादि प्रेमढेपमिथ्यादर्शनानि तद्विजयेन 'णाणदंसणचरिताराहणयाए'त्ति ज्ञानदर्शनचारित्राराधनायाम् 'अभ्युत्तिष्ठते' उद्यच्छति प्रेमादिनिमित्तत्वातद्विराधनायाः, ततश्चाष्टविधस्य कर्मणो मध्य इति गम्यते, 'कम्मगंठिविमोयणयाए'न्ति कर्मप्रन्थि:-अतिदुर्भेदधातिकर्मरूपस्तस्य विमोचना-क्षपणा कर्मग्रन्थिविमोचना तस्यै च, चस्य गम्यमानत्वात्तदर्थ || चाभ्युत्तिष्ठते इत्यनुवर्त्य योज्यते, पठन्ति च-'अट्ठविहकम्मविमोयणाए'त्ति स्पष्टम् , अभ्युत्थाय च किं करोतीत्या ह-तत्प्रथमतया' तत्पूर्वतया, न हि तेन तत्पुरा क्षपितमासीदिति, आनुपूर्ध्या अनतिक्रमेण यथानुपूर्वीम(विअ)टाविंशतिविघं मोहनीय कर्म 'उद्घातयति' क्षपयति, अत्र चेयं क्षपणानुपूर्वी-प्रथममनन्तानुबन्धिनः क्रोधादीन युगपदन्तर्मुहूर्तेन क्षपयति, तदनन्तभागं च मिथ्यात्वे प्रक्षिपति, ततस्तेन सहैव मिथ्यात्वं क्षपयति, प्रवर्द्धमाना-12 तितीव्रशुभपरिणामत्वात् , अतिसंभृतदवानल इवार्द्धदग्धेन्धन इन्धनान्तरं, ततो मिथ्यात्वांशं सम्यमिथ्यात्वे प्रक्षिप्य तत्क्षपयति, ततोऽपि तदंशसहितं सम्यक्त्वं, तदनु सम्यक्त्वावशिष्टदलिकसहितमप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकं युगपदेव क्षपितुमारभते, तत्क्षपणं च कुर्वनेताः प्रकृतीः क्षपयति, तद्यथा-"गइआणुपुधि दो दो। जाईणामं च जाव चउरिंदी। आयावं उजो थावरनामं च सुहुमं च ॥१॥साहारमपज्जतं णिहाणिई च १ गत्यानुपूज्यौँ द्वे द्वे जातिनाम च यावञ्चतुरिन्द्रियम् । आतपमुद्योतं स्थाबरनाम च सूक्ष्मं च ॥१॥ साधारणमपर्याप्त निद्रानिद्रांच RANCE दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1185~ Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] उत्तराध्य वृहद्वत्तिः ॥५९४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [२९], Education intimational पेयलपयलं च । थीणं खवेह ताहे अवसेसं जंच अटुण्हं ॥ २ ॥" ततोऽपि किञ्चित्सावशेषं नपुंसकवेदमध्ये प्रक्षिप्य तत्समन्वितं क्षपयति, एवं तदुद्धरितसहितं स्त्रीवेदं तदवशिष्टान्वितं च हास्यादिपङ्कं तदंशसहितं च पुरुषवेदखण्डद्वयं यदि पुरुषः प्रतिपत्ता, अथ स्त्री नपुंसकं वा ततः खस्ववेदखण्डद्वयं ततः क्षिप्यमाणवेदतृतीयखण्डसहितं संज्वलनकोपं क्षपयति, एवं पूर्वपूर्वाशसहितमुत्तरोत्तरं क्षपयति यावत् संज्वलनलोभः, तत्तृतीयखण्डं तु सङ्ख्येयानि | खण्डानि कृत्वा पृथकालभेदेन क्षपयति, तत्र च तत्क्षपणाकालः प्रत्येकं सर्वत्र चान्तर्मुहूर्त्तमेव, इत्थं चैतदन्तर्मुहूर्त्तस्या सङ्खयभेदत्वात् ततस्तश्चरमखण्डमपि पुनरसङ्घयेय सूक्ष्मखण्डानि करोति, तानि च प्रतिसमयमेकैकतया क्षपयति, तश्चरमखण्डमपि पुनरसङ्ख्यसूक्ष्मखण्डानि कृत्वा तथैव क्षपयति, एवं च मोहनीयं क्षपयित्वाऽन्तर्मुहूर्त्त यथाख्यातचारित्रमनुभवंश्छद्मस्थवीतरागताद्विचरमसमययोः प्रथमसमये निद्राप्रचले नाम प्रकृतीश्च देवगत्याद्याः क्षपयति, यत उक्तम्- "वीसंमिऊण नियंठो दोहि उ समएहिं केवले सेसे । पढमे विहं पयलं णामस्स इमाओं पयडीओ ॥ १ ॥ देवगति आणुपुवी विउवि संघयण पढमवज्वाई । अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारणामं च ॥२॥” चरमसमये तु यत्क्ष१ प्रचलाप्रचलां च । स्यानद्धि क्षपयति तदा अवशेषं यथाष्टानाम् || २ | २ विश्रम्यनिर्मन्थो द्वाभ्यां तु समयाभ्यां केवले शेषे प्रथमे निद्रां प्रचलां नाम्न इमाः प्रकृतीः ॥ १ ॥ देवगत्यानुपूज्यौं वैकियं संहनानि प्रथभवर्जानि । अन्यतरत् संस्थानं तीर्थकरमाहारकनाम च ॥ २ ॥ For Fasten निर्युक्ति: [५०९...] ~1186~ सम्यक्त्व पराक्रमा. २९ ॥५९४ ॥ www.ncbrary.o मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] अपयति तत्सूत्रकृदाह-पञ्चविधं ज्ञानावरणीयं नवविधं दर्शनावरणीयं पञ्चविधमन्तरायम् , 'एए'त्ति लिङ्गव्यत्ययादे तानि 'त्रीण्यपि' वक्ष्यमाणरूपाणि 'कम्मंसे'त्ति सत्कर्माणि 'युगपत्' एककालं क्षपयति, स्थापना चेयम् ॥ 'ततः' इति क्षपणातः 'पश्चाद्' अनन्तरं नास्योत्तरं प्रधानमन्यत् ज्ञानमस्तीत्यनुत्तरम् , 'अनन्तम्' अविनाशितया विषयानन्ततया च 'कृत्लं' कृत्स्नवस्तुविषयत्वात् 'परिपूर्ण सकलखपरपर्यायपरिपूर्णवस्तुप्रकाशकत्वात् 'निराबरणम्' अशेपावरणविगमात् 'वितिमिरं तत्र सति क्वचिदप्यज्ञानतिमिराभावात् 'विशुद्धं सकलदोषविगमात् 'लोकालोकप्रभावकं तत्खरूपप्रकाशकत्वात् , पाठान्तरतश्च-'लोकालोकसभावं' संक्रान्तलोकालोकसकलखरूपत्वात् केवलम्-असहाय बरं शेषज्ञानापेक्षया ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शनं ततः केवलवरशब्दाभ्यां विशेषणसमासे केवलवरज्ञानदर्शनं 'समुत्पादयति जनयत्यात्मन इति गम्यते, स च यावत् 'सयोगी' मनोवाक्कायव्यापारवान् भवति तावच किमित्याह-ईरणमीर्यागतिस्तस्याः पन्था यदाश्रिता सा भवति तस्मिन् भवमध्यात्मादित्वाहकि ऐर्यापथिकम् , उपलक्षणं च पथिग्रहणं, तिष्ठतोऽपि सयोगस्वेर्यासम्भवात् , संभवन्ति हि सयोगितायां केवलिनोऽपि सूक्ष्मा गात्रसञ्चाराः, यत आह-"केवली । णं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ताणं साहरिजा पभू णं भंते ! केवली | १ केवली भदन्त ! अस्मिन् समये येष्वाकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वाऽवगाह संहरेत् प्रभुर्भवन्त ! केवल्ये दीप अनुक्रम [१११४-११८७] LARSHAR wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1187~ Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) % सम्यक्त्व % प्रत २२ सूत्रांक [१R % % -७३] उत्तराध्य. तेसु चेवागासपएसेसु पडिसाहरित्तए ? णो इणमट्टे समढे, केवलिस्स णं चलाई सरीरोवगरणाई हवंति, चलो वगरणत्ताए केवली णो संचाएति तेसु चेवागासपएसेसु हत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए" तदेवं पथिबृहद्वृत्तिः वापराक्रमा. स्थस्तिष्ठथैर्यापथिकं कर्म वनाति, तय कीरगित्याह-सुखयतीति सुखः स्पर्शः-आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषो यस्य तत्सुख॥५९५॥ स्पर्श द्वौ समयौ यस्याः सा द्विसमया तथाविधा स्थितिरस्येति द्विसमयस्थितिकं, द्विसमयस्थितिकत्वमेव भावयितु माह-तत् प्रथमसमये बद्धम्-आत्मसात्कृतं स्पर्शाविनाभावित्वाचाख स्पृष्टं च, द्वितीयसमये वेदितम्-अनुभूतमुदयान्यथानुपपत्त्या चासोदितं च, तृतीयसमये निर्जीर्ण-परिशटितं, तदुत्तरकालस्थितेः कषायहेतुत्वात्, उक्तं हि"जोगा पयडिपएसं ठितिअणुभागं कसायओ कुणति"त्ति, द्विसमयस्थितिकबन्धस्य तु योगसम्भवेऽवश्यम्भावित्वादिहाभिधानं, तदवश्यम्भाविता तु णो कम्मेहि विवरीयं जोगदवेहिं भवति जीवस्स । तस्सावत्थाणे णणु सिद्धो X|दुसमयठितिबंधो॥१॥ इति युक्तितोऽवसेया, अतश्च तद्वद्धं-जीवप्रदेशैः श्लिष्टमाकाशेन घटबत् तथा स्पृष्टं। ६ मसूणमणिकुख्यापतितस्थूलशिलाशकलचूर्णवत्, अनेन विशेषणद्वयेन तस्य निधत्तनिकाचितावस्थयोरभावमाह, 'उदी-IX १ तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु प्रतिसंहर्तु, नैषोऽर्थः समर्थः, केवलिनश्चलानि शरीरोपकरणानि भवन्ति, चलोपकरणतया केवली न शक्नोति ॥५९५॥ तेष्वेवाकाशप्रदेशेषु हसं वा पादं मा प्रतिसंहर्तुम् ॥ २ योगात् प्रकृतिप्रदेशबन्धं स्थित्यनुभागवन्य पायतः करोति । ३ न कर्मद्रव्याणि | दिविपरीतानि योगद्रव्येभ्यो भवन्ति जीवस्य । तस्यावस्थाने ननु सिद्धो द्विसमयस्थितिबन्धः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1188~ Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R -७३] रितम्' उदयप्राप्तम् उदीरणायास्तत्रासम्भवात् 'वेदितं' तत्फलसुखानुभवनेन 'निर्माण' क्षयमुपागतं 'सेयाले यत्ति| सूत्रत्वाद् 'एष्यत्काले' चतुर्थसमयादावकर्म चापि भवति, तज्जीवापेक्षया पुनस्तस्य तथाविधपरिणामाभावात् , एत चैवंविधविशेषणान्वितं सातकमैवासी वनाति, यत उक्तम्-"अप्पं वायर मउयं बहुंच रुक्खं च सुक्किलं चेव । लमदं महत्वयंति य सायाबहुलं च तं कम्मं ॥१॥"७१ । अयं च देशोनपूर्वकोटीमन्तर्मुहूर्तादिप्रमाणं वा कालं विहृत्य सायथा शैलेशीमवाप्याकर्मतां लभते तथा दर्शयन् शैलेश्यकर्मताद्वारमर्थतो व्याचिख्यासुराह-'अथेति केवलावा यनन्तरम् 'आयुष्कं' जीवितमन्तर्मुहूर्त्तादिपरिमाणं पालयित्वा, अन्तर्मुहर्तपरिमाणाऽद्धा-कालोऽन्तर्मुहूर्ताद्धा साऽ|वशेषम्-उद्धरितं यस्मिंस्तदन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषं तथाविधमायुरखेत्यन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषायुष्कः सन् , पाठान्तरतश्चान्तर्मुहूर्तावशेषायुष्का, पठन्ति च-'अंतोमुहुत्तअद्धावसेसाए'त्ति प्राकृतत्वादन्तर्मुहूर्तावशेषाद्धायां योगनिरोहं करेमाणे'त्ति योगनिरोधं करिष्यमाणः सूक्ष्मा क्रिया-व्यापारो यस्मिंस्तत्सूक्ष्मक्रियमप्रतिपतनशीलमप्रतिपाति अधःपतनाभावात् , शुक्लं ध्यानं 'समुदायेषु हि वृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्त' इति शुक्लध्यानतृतीयभेदं ध्यायन् 'तत्त्रथमतया' तदाद्यतया मनसो योगो मनोयोग:-मनोद्रव्यसाचिव्यजनितो व्यापार निरुणद्धि, तत्र च पर्याप्समात्रस्य सचिनो जघन्ययोगिनो यावन्ति मनोद्रव्याणि तज्जनितश्च यावद्यापारस्तदसङ्ख्यगुणविहीनानि मनोद्रव्याणि १ अल्पं बादरं मृदु बहु च रूक्षं च शुक्ल चैव । मन्दं महाव्ययमिति च सातबहुलं च तत्कर्म ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1189~ Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [R -७३] दीप अनुक्रम [१११४ -११८७] उत्तराध्य. गृहद्वृत्तिः ॥५९६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१२-७३] / गाथा ||--|| अध्ययनं [२९], Education intemational तद्यापारं च प्रतिसमयं निरुन्धन्नसंख्येय समयैस्तत्सर्वनिरोधं करोति, यत उक्तम् - " पज्जत्तमित्तसण्णिस्स जन्तियाई | | जहण्णजोगिस्स । होन्ति मणोदवाई तच्चावारो य जम्मेत्तो ॥ १ ॥ तयसंखगुणविहीणे समए समय निरंभमाणो | सो। मणसो सङ्घणिरोहं कुणइ असंखेजसमएहिं ||२||” तदनन्तरं च वांचो वाचि वा योगो भाषाद्रव्यसाचिव्यजनितो जीवव्यापारस्तन्निरुणद्धि, तत्र च पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवाग्योगपर्यायेभ्योऽसंख्येयगुणविहीनांस्तत्पर्यायान् समये समये निरुन्धन्न संख्येयसमयैः सर्ववाग्योगं निरुणद्धि, यत उक्तम्- "पजत्तमित्तबिंदिय जहन्नवइजोगपजवा जे उ । तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुभंतो ॥३॥ सव्ववदजोगरोह संखाईएहि कुणइ समपहिं ।" 'आणापाणुणिरोह' ति आनापानौ - उच्छ्रासनिःश्वासौ तन्निरोधं करोति, सकलकाययोगनिरोधोपलक्षणं चैतत् तं च कुर्वन् प्रथमसमयोउत्पन्न सूक्ष्मपनकजघन्य काययोगतोऽसङ्घवेयगुणहीनं काययोगेनैकैकसमये निरुन्धन् देहत्रिभागं च मुञ्चन्नसङ्ख्येयसमयैरेव सर्व निरुणद्धि, यत उक्तं च- "तत्तो य सुदुमपणयस्स पढमसमओववण्णस्स ॥ ४ ॥ जो किर जहण्णजोओ तयसंखेज्जगुणहीण मेकेके । समए निरुंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो ॥५॥ रुंभइ स कायजोगं संखाईएहिं चैव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसी भावणामेति ॥ ६ ॥" इत्थं योगत्रयनिरोधं विधाय ईषदिति खल्पः प्रयत्नापेक्षया पञ्चानां हखाक्षराणाम् अइउऋल इत्येवंरूपाणामुञ्चरणमुच्चारो -भणनं तस्याद्धा कालो यावता त उच्चार्यन्त ईषत्पञ्चाक्षरोचारणाद्धा तस्यां च णमिति प्राग्वत् अनगारः समुच्छिन्ना-उपरता क्रिया - मनोव्यापारादिरूपा यस्मिं For Fasten निर्युक्ति: [५०९...] ~1190~ सम्यक्त्व पराक्रमा. २९ ॥५९६॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-63] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [१०९...] (४३) प्रत सूत्रांक [१R ॐ%A5* -७३] स्तत्समुग्छिन्नक्रियं न निवर्त्तते कर्मक्षयात्नागित्येवंशीलम् अनिवर्चि शुक्तध्यानचतुर्थभेदरूपं 'ध्यायन्' शैलेश्यषस्थामनुभवन्निति भावः, इखाक्षरोचारणं च न विलम्बितं द्रुतं वा किन्तु मध्यममेव गृह्यते, यत आह-"हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगतो तत्तियमित्तं तओ कालं ॥१॥" एवंविधश्च यत्कुरुते तदाहवेदनीय' सातादि 'आयुष्कं' मनुष्यायुः 'नाम' मनुजगत्यादि 'गोत्रं च उश्चर्गोत्रम् 'एए'ति एतानि चत्वार्यपि 'कम्मसि'त्ति सत्कमोणि युगपरक्षपयति, एतत्क्षपणान्यायश्च भाष्यगाथाभ्योऽवसेयः, ताधेमा:-"तयसंखेजगुणाए । गुणसेढीऍ रइयं पुराकम्मं । समए समए खवयं कम्मं सेलेसिकालेणं ॥१॥ सचं स्वेति तं पुण णिलेवं किंचि दुचरिमे समए । किंचिच होइ चरिमे सेलेसीए तयं वोच्छं ॥२॥ मणुयगइजाइतसवायरं च पजत्तसुभगमाएजं। अण्णयरवेयणिजं णराउमुचं जसो णामं ॥३॥ संभवतो जिणणाम णराणुपुरी य चरिमसमयम्मि । सेसा जिणसंतातो दुचरिमसमयंमि णिटुंति॥४॥"'ततः' इति वेदनीयादिक्षयानन्तरम् 'ओरालियकम्माईच'त्ति औदारिककामणे शरीरे उपलक्षणत्वात्तैजसं च 'सबाहिं विष्पजहणाहिन्ति 'सर्वाभिः' अशेषाभिर्विशेषेण विविधं वा प्रकर्षतोहानयः| १ तदसंख्यगुणया गुणश्रेण्या रचितं पुराकर्म। समये २ क्षपयन् कर्म शैलेशीकालेन ॥शा सर्व क्षपयति तत्पुनर्निर्लेपं किञ्चिहिचरमे समये, किश्चिच्च भवति चरमे शैलेश्यास्तद्वक्ष्ये ।।२।। मनुजगतिजातित्रसबादरं च पर्याप्तसुभगमादेयम् । अन्यतरवेदनीय नरायुरुचैर्यशोनाम ॥३॥ संभवतो जिननाम नरानुपूर्वी च चरमे समये । शेषा जिनसत्का द्विचरमसमये निस्तिष्ठन्ति ॥ ४ ॥ 10--5604624460% दीप अनुक्रम [१११४-११८७] । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1191~ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) सम्यक्त्व प्रत सूत्रांक [१R -७३] उत्तराध्य. सागा विप्रहाणयो, व्यक्त्यपेक्षं बहुवचनं, ताभिः, किमुक्तं भवति ?-सर्वथा परिशाटेन, न तु यथा पूर्व सङ्घातपरि- शाटाभ्यां देशत्यागतः, 'विप्पजहित्ता'विशेषेण प्रहाय-परिशाथ्य, उक्तं हि-“ओरालियाहिं सबाहिं चयह विष्पजहवृहद्वृत्तिः INण्णाहि जं भणियं । णिस्सेसतया ण जधा देसचाएण सो पुर्व ॥१॥" चशब्दोऽत्रौदयिकादिभावनिवृत्तिमस्थानु-14 ॥५९७॥ |क्तामपि समुचिनोति, यत उक्तम्-"तस्सोदइयाभावा भवत्तं च विणियत्तए जुगवं । सम्मत्सनाणदंसणसुहसिद्धत्ताणि| बमोत्तणं ॥१॥" ऋजुः-अवक्रा श्रेणि:-आकाशप्रदेशपकिस्तां प्राप्त ऋजुश्रेणिप्राप्तः अनुश्रेणिगत इतियावत. || 'अफुसमाणगइ'त्ति अस्पृशद्गतिरिति, नायमों यथा नायमाकाशप्रदेशान्न स्पृशति अपि तु यावत्सु जीवोऽवगाह|स्तावत एव स्पृशति न तु ततोऽतिरिक्तमेकमपि प्रदेशम् , 'ऊर्द्धम्' उपरि 'एकसमयेन' द्वितीयादिसमयान्तरास्पशैन 'अविग्रहण' वक्रगतिरूपविग्रहाभावेन, अन्वयन्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः स्पष्टतरो भवतीति अनुश्रेणिप्राप्त इत्य नेन गतार्थत्वेऽपि पुनरभिधानं, 'तत्र' इति विवक्षिते मुक्तिपद इतियावत् 'गंत'त्ति गत्वा 'साकारोपयुक्तः शानोदुपयोगवान् सियतीत्यादि यावदन्तं करोतीत्यादि प्राग्वत्, उक्तं च-"उजुसेडिं पडिवण्णो समयपएसंतरं अफस-R माणो । एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥१॥" इति, द्वासप्ततिसूत्रार्थः । इह च चूर्णिकृता-"सेलेसी-16 । १ चचारि कम्मंसे खवेईत्यतः सूत्रपार्थक्यं ज्ञेयमत एवादी त्रिसप्ततिप्रभाङ्काः त्रिसप्ततिसूत्राणीत्युपक्रमच, सूत्रसंख्या तु द्वासप्ततिरिति अतो द्वासप्ततिसूत्रार्थः इत्युपसंहारः, मन्ये चात एवाकर्मताफलदर्शकं चूर्णिकृन्मतं सूत्रविषयं मतान्तरमुपादर्शि सूरिणा । दीप अनुक्रम [१११४-११८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1192~ Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [७४] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...] (४३) ** * प्रत सूत्रांक * [७४] एणं भंते ! जीवे किंजणइ १, अकम्मयं जणति, अकम्मयाए जीवा सिज्झन्ति" इति पाठः, पूर्वत्र च कचिकि|श्चित्पाठभेदेनाल्पा एवं प्रभा आश्रिताः,अस्माभिस्तु भूयसीपु प्रतिषु यथाव्याख्यातपाठदर्शनादित्थमुन्नीतमिति ७२ 11 | सम्प्रत्युपसंहर्तुमाह एसो खल सम्मत्तपरकमस्स अज्झयणस्स अट्ठे समणेणं भगवया महावीरेणं आधविए पनविए परूविए। देसिए निदंसिए उवदंसिए सियेमि ॥ ॥ संमत्तपरकम ॥ २९ ॥ 'एषः' अनन्तरोक्तः 'खलु' निश्चये सम्यक्त्वपराक्रमसाध्ययनस्य 'अर्थः' अभिधेयः श्रमणेन भगवता महावीरेण 'आधविए'त्ति आर्षवाद आख्यातः' सामान्यविशेषपर्यायाभिव्याप्तिकथनेन 'प्रज्ञापितः' हेतफलादिप्रकाशनात्मक प्रकर्षज्ञापनेन 'प्ररूपितः' खरूपकथनेन 'दर्शितः' नानाविधभेददर्शनेन 'निदर्शितः' दृष्टान्तोपन्यासेन 'उपदर्शितः। ४ उपसंहारद्वारेण, इदमपि चूर्णिमाश्रितमेव । 'इति' परिसमाप्ती, प्रवीमीति पूर्ववत् , गतोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि तथैव ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायां सम्यक्त्वपराक्रम नाम एकोनत्रिंशमध्ययनं समाप्तम् इत्युत्तराध्ययनटीकायां शिष्य श्रीशान्तिसूरिकृतायां सम्यक्त्वपराक्रमाभिधमेकोनत्रिंशमध्ययनम् ॥ ** दीप अनुक्रम [११८८] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- २९ परिसमाप्तं ~1193~ Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [७३...] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [५१०-५१३] (४३) 455 प्रत सुत्रांक [७४]] अथ त्रिंशं तपोमार्गगत्यध्ययनम् । उत्तराध्य. तपोमार्गवृहद्वृत्तिः व्याख्यातमेकोनत्रिंशमध्ययनम् , अधुना त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययनेऽप्रमाद । गत्य०३० ॥५९Nउक्तः, इह तु तद्वता तपो विधेयमिति तत्खरूपमुच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चतुर नुयोगद्वारप्ररूपणा प्राग्वद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे तपोमार्गगतिरिति त्रिपदं नाम, अत एव तत्पदत्रयनिक्षेपायाह नियुक्तिकृत्निक्खेवो (उ) तमि चउवि० ॥५१ ॥ जाणगभवियसरीरे तबइरित्ते अपंचतवमाई । भावमि होइ दुविहो बज्झो अभितरो चेव ॥५११॥ मग्गगईणं दुण्हवि पुव्वुविट्ठो चउक्कनिक्खेवो । पगयं तु भावमग्गे सिद्धिगईए उ नायवं ॥ ५१२ ॥ दुविहतवोमग्गगई वन्निजइ जम्ह इत्थ अज्झयणे । तम्हा एअज्झयणं तवमग्गगइत्ति नायत्वं ॥ ५१३ ॥ | गाथाचतुष्टयं प्राग्वत् , नवरं 'पंचतवमाइति पञ्चतपः-पञ्चाग्निलपः, यत्र चतसृष्वपि दिक्षु चत्वारोऽमयः पञ्चमश्च M ॥५९८॥ तपनस्तल्लोके प्रसिद्धम् , आदिशब्दालोकप्रतीतमन्यदपि बृहत्तपःप्रभृति तपो गृखते, द्रव्यत्वं चास्याज्ञानमलमलिनत्वेन -- - दीप अनुक्रम [११८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ३० "तपोमार्गगति" आरभ्यते ~1194 ~ Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५१०-५१३] (४३) प्रत सूत्रांक तथाविधशुद्ध्यनजत्वात् , तथा भाव प्रक्रमात्तपो वाह्यमभ्यन्तरं चात्रैव वक्ष्यमाणखरूपं ॥ तथा 'पुष्खु दिद्योत्ति पूर्वत्रमोक्षमार्गगतिनामकेऽध्ययने उद्दिष्टः-कथितः पूर्वोद्दिष्टः 'भावमग्गो'त्ति सुब्ब्यत्ययाद् 'भावमार्गेण' मुक्तिपथेन तपोरूपेण ज्ञानदर्शनचारित्राविनाभायित्वाद् भावतपसः ॥ नामनिरुक्तिमाह-द्विविधं तपो-बाह्यमभ्यन्तरं च तदेव मार्गो। भावमार्गस्तत्फलभूता च गतिः-सिद्धिगतिर्द्विविधतपोमार्गगतिर्भण्यते यस्मादत्र-अध्ययने तस्मादेतदध्ययनं तपोमार्गगतिरिति ज्ञातव्यम् , अभिधेयेऽभिधानोपचारादिति भावः, इति नियुक्तिगाथाचतुष्टयार्थः॥गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, तस्य च सूत्रानुगमाविनाभावित्वात सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम् जहा उ पावर्ग कम्म, रागद्दोससमज्जियं । खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो मुणे ॥१॥ 'यथा' येन प्रकारेण 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमो योक्ष्यते, 'पापकं कर्म ज्ञानावरणादि रागद्वेषाभ्यां समितिदभृशमर्जितम्-उपात्तं रागद्वेषसमर्जितं क्षपयत्येव 'तपसा' वक्ष्यमाणलक्षणेन भिक्षुः 'तदेकानमनाः' अवहितचित्तः || शुण्विति शिष्यमभिमुखीकरोति, मा भूदनभिमुखोपदेशनेनैतद्वैफल्यमिति सूत्रार्थः ॥ इह चानाश्रवेणैव सर्वथा कर्म| क्षप्यत इति यथाऽसौ भवति तथाऽऽहपाणिवहमुसावाया अदत्तमहणपरिंग्गहा विरओ। राईभोयणविरओ, जीवो भवह अणासवो ॥२॥ पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ । अगारवो अ निस्सल्लो, जीवो भव: अणासवो ॥३॥ दीप अनुक्रम [११८९] ROSCk JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1195~ Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||२-३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-३] उत्तराध्य. सूत्रद्वयं प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरं विरत इति प्राणवधादिभिःप्रत्येकमभिसम्बध्यते,तथा भवत्यनाश्रव इति-अविद्य- तपोमार्ग मानकर्मोपादानहेतुः। द्वितीयसूत्रेऽप्यनाश्रवः-समित्यादिविपर्ययाणा कर्मोपादानहेतुत्वेनाश्रयरूपत्वात्तेषां चावि-18 बृद्धृत्तिः गत्य०३० |द्यमानत्वादिति सूत्रद्वयार्थः ॥ एवंविधश्च यारशं कर्म यथा च क्षपयति आदराधानाय पुनः शिष्याभिमुखीकरण॥५९९॥ पूर्वकं दृष्टान्तद्वारेण तदाह | एएसिं तु विवज्जासे, रागहोससमज्जियं । खवेइ तं जहा भिक्खू, तं मे एगमणा सुण ॥४॥ जहा महातला. गस्स, संनिरुद्ध जलागमे । उम्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥५॥ एवं तु संजयस्सावि, पाचकम्मनिरासवे । भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निजरिजई ॥६॥ | 'एतेषां तु' प्राणिवधविरत्यादीनामनाश्रबहेतूनां 'विवज्जासे'त्ति विपर्यासे प्राणिवधादावसमितवादी च रागद्वेषाभ्यां समर्जितम्-उपार्जितं रागद्वेषसमर्जितं कर्मेति गम्यते तद्यथा क्षपयति तन्मे कथयत इति शेषः, एकम्एकत्र प्रस्तुते वस्तुन्यभिनिविष्टत्वेन मनो यस्यासावेकमनाः पण्विति शिष्याभिमुखीकरणम् ॥ 'संनिरुद्धे पाल्यादिना निषिद्धे 'जलागमे' जलप्रवेशे 'उस्सिंचणाए'त्ति सूत्रत्वाद् 'उत्सेचनेन' अरघट्टघटीनिवहादिभिरुदश्चनेन 'तव-IP होणाए'त्ति प्राग्वत् 'तपनेन' रविकरनिकरसन्तापरूपेण 'क्रमेण' परिपाट्या 'शोषणा' जलाभावरूपा भवेत् ॥ 'पाप-12 कर्मनिराश्रये' पापकर्मणामाश्रवाभावे 'भवकोटीसश्चितम्' इत्यत्र कोटीग्रहणमतिबहुत्वोपलक्षणं, कोटीनियमास EXCELECTRXAMS दीप अनुक्रम [११९०-११९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1196~ Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-]/ गाथा ||४-६|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) **** प्रत सूत्रांक [४-६] ** म्भवात. कर्म तपसा 'निर्जीयते' आधिक्येन क्षयं नीयते, शेष स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ तपसा कर्म निर्जीयत इत्युक्तं, तत्र किं तत्तपः इति संशये भेदाभिधानं विनाऽशक्यत्वात्तत्स्वरूपाभिधानस्य तद्भेदानाह सो तवो दविहो बुत्तो, बाहिरऽभतरो तहा। वाहिरो छब्धिहो वुत्तो, एवमभितरो तवो॥७॥ 'तद्' अनन्तरप्रक्रान्तं तपो द्विविधमुक्तं 'बाहिरऽभतरो'त्ति 'बाय' बाथद्रव्यापेक्षत्वात् प्रायो मुक्त्यवाप्तिबहिरजत्वाय 'अभ्यतरं तद्विपरीतं, यदिवा लोकप्रतीतत्वात्कुतीथिकेश्व खाभिप्रायेणासेव्यमानत्वाद्वावं तदितरत्त्वाभ्यन्तरम् , उक्तञ्च-"लोके परसमयेषु च यत्प्रथितं तत्तपो भवति वाह्यम् । आभ्यन्तरमप्रथितं कुशलजनेनैव तु ग्राह्यम् ॥१॥" अन्ये वाहुः-"प्रायेणान्तःकरणव्यापाररूपमेवाभ्यन्तरं, बायं त्वन्यथे"ति, तथेति समुच्चये, वाझं 'पड्डिधं' षड्भेदमुक्तमेवमिति-पड्डिधमभ्यन्तरं तप उक्तमिति सम्बन्धा, सर्वत्र सूत्रत्वाल्लिङ्गव्यत्यय इति सूत्रार्थः ।। तत्र यथा बाह्यं षड्विधं तथाऽऽहअणसणमूणोअरिया भिक्खायरिया य रसपरिचाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो सयो होइ ।। ८॥ अक्षरार्थः स्पष्ट एव ।। भावार्थ तु प्रतिभेदं सूत्रकार एवाभिधित्सुस्तावदनशनमाह इत्तरियमरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिया सावकंखा, निरवकंखा उ बिइज्जिया ॥९॥ हजो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छब्विहो । सेदितयो पयरतवो, घणो अ तह होइ वग्गो य ॥१०॥ तसो दीप *** अनुक्रम [११९२-११९४] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1197~ Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [९-१३] दीप अनुक्रम [११९५ -१२०१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ६००॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||९-१३ || निर्युक्ति: [ ५१३...] Education intamational अध्ययनं [३०], य वग्गवरगो उ पंचमो छट्टओ पनतवो । मणइच्छियचित्तत्थो नायको हो इन्तरिओ ॥ ११ ॥ जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया । सवीपारमवीपारा, कायचि पई भवे ॥ १२ ॥ अहवा सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया । नीहारिमणीहारी आहारच्छेअओ दुमुवि ॥ १३ ॥ 'इत्तरिय'त्ति इत्वरमेवेत्वरकं - खल्पकालं नियतकालावधिकमिति योऽर्थः, मरणावसानः कालो यस्य तन्मरणकालं प्राग्वन्मध्यपदलोपी समासः, यावज्जीवमित्यर्थः, तथा मरणं कालः अवसरो यस्य तन्मरणकालं 'चः' समुच्चये, अश्यते — भुज्यत इत्यशनमशेषाहाराभिधानमेतत् उक्तं हि "सवोऽवि य आहारो असणं सवोऽवि बुचर पाणं । सवोऽवि खाइपि य सव्वोऽविय साइमं होइ ॥ १ ॥” ततश्चाविद्यमानं देशतः सर्वतो वाऽशनमस्मिन्नित्यनशनं 'द्विविधं' द्विप्रकारं भवेत्, तत्र 'इत्तरिय'त्ति इत्वरकं सहाबकाङ्क्षया - घटिकाद्वयाद्युत्तरकालं भोजनाभिलाषरूपया वर्त्तत इति सावकाङ्क्ष निष्क्रान्तमाकाङ्क्षातो निराकाङ्क्ष, तज्जन्मनि भोजनाशंसाभावात् तुशब्दस्य भिन्नक्रम - त्वाद् द्वितीयं पुनर्मरणकालं, पाठान्तरतश्च निरखका द्वितीयम् । 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायत इत्वरकानशनस्य भेदानाह - यत्तदित्वरकं तपः - इत्वरकानशनरूपमनन्तरमुक्तं तत् 'समासेन' सङ्क्षेपेण षड्विधं विस्तरेण तु बहुत| रभेदमिति भावः ॥ षड्विधत्वमेवाह - 'सेढितवो' इत्यादि, अत्र च श्रेणिः --- पङ्क्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः, १ सर्वोऽपि चाहारोऽशनं सर्वमप्युच्यते पानम् । सर्वमपि खाद्यमेव स्वायं सर्वमपि च ॥ १ ॥ For Party तपोमार्ग - गत्य० ३० ~1198~ ||६००|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-]/ गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [९-१३] तिचतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणमिह षण्मासान्तं परिगृखते, तथा श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, तदुपलक्षितं तपः प्रतरतपः, इह चाव्यामोहाथै चतुर्थषष्ठाष्टमदशमाख्यपदचतुष्टयात्मिका श्रेणिर्विवक्ष्यते, सा च चतुर्भिर्गुणिता पोडशपदात्मकः प्रतरो भवति, अयं चायामतो विस्तरतश्च तुल्य इत्यस्य स्थापनोपाय उच्यते-"एकाद्याद्या व्यवस्थाप्याः, पक्लयोऽत्र यथाक्रमम् । एकादींश्च निवेश्यान्ते, मात्पतिं प्रपूरयेत् ॥१॥" अस्थार्थः-एक आदिउँपां ते एकादयः-एककद्विकत्रिकचतुष्कास्ते आया यासु ता एकाद्याद्याः 'व्यवस्थाप्याः' न्यसनीयाः 'पतयः' श्रेणयः|४ 'यथाक्रम क्रमानतिक्रमेण, कोऽर्थः १-प्रथमा एकाद्या एककादारभ्य, द्वितीया द्विकाद्या द्विकादारभ्य, तृतीयात्रिकाद्या त्रिकादारभ्य, चतुर्थी-चतुष्काद्या चतुष्कादारभ्य, आह-एवं सति प्रथमपतिरेव परिपूर्णा भवति द्वितीयाद्यास्तु न पूर्यन्त एव, तत्कथं पूरणीयाः १, उच्यते, एकादींश्च निवेश्य व्यवस्थाप्याः 'अन्ते' इत्यने 'क्रमात्' इति क्रममाश्रित्य 'पतिम्' अपूर्यमाणा श्रेणि 'पूरयेत्' परिपूर्णी कुर्यात् , तत्र च द्वितीयपक्ती विकत्रिक-। चतुष्कानामग्रे एककः, तृतीयपतौ त्रिकचतुष्कयोः पर्यन्ते एकको द्विकः, चतुर्थपौ चतुष्कावसान एककद्विकत्रिकाः स्थाप्यन्ते, स्थापना चेयम्-२३|| चतुर्थषष्ठाष्टमदशमप्रक्रमः, 'घन' इति घनतपः 'च' पूरणे तथेति समुचये भवतीति च क्रिया प्रतितपोभेदं योजनीया, अत्र च षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया श्रेण्या %+15+%AE%ARRAISAX** दीप अनुक्रम [११९५-१२०१]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1199~ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-]/गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत ॥६०शा सूत्रांक [९-१३] उत्तराध्य. गुणितो घनो भवति, आगतं चतुःषष्टिः ६४, स्थापना तु पूर्विकैव नवरं वाहल्यतोऽपि पदचतुष्टयात्मकत्वं तपोमार्गवृद्धृत्तिः विशेषः, एतदुपलक्षितं तपो घनतप उच्यते, 'चः' समुचये, 'तथा भवति वर्गथे'तीहापि प्रक्रमावर्ग इति वर्गतपः। तत्र च पन एव घनेन गुणितो वर्गों भवति, ततश्चतुःषष्टिश्चतुःषष्टयैव गुणिता जातानि पण्णवत्यधिकानि चत्वारिश गत्य०३० सहस्राणि, एतदुपलक्षितं तपो वर्गतपः । ततश्च' वर्गतपसोऽनन्तरं 'वर्गवर्ग' इति वर्गवर्गतपः 'तुः' समुचये 'पञ्चलाम' पञ्चसयापूरणम् , अत्र च वर्ग एव यदा वर्गेण गुण्यते तदा वर्गवर्गो भवति, तथा च चत्वारि सहस्राणि पण्णवत्यधिकानि तावतैय गुणितानि जातका कोटिः सप्तपष्टिलक्षाः सप्तसप्ततिसहस्राणि द्वे शते पोडशाधिके, अङ्कतोऽपि १६७७७२१६, एतदुपलक्षितं तपो वर्गवर्गतप इत्युच्यते, एवं पदचतुष्टयमाश्रित्य श्रेण्यादितपो दर्शितम् , एतदनुसारेण पञ्चादिपदेवप्येतत्परिभावना कार्या, षष्ठकं 'प्रकीर्णतपः' यच्छ्रेण्यादिनियतरचनाविरहितं खशक्त्यपेक्षं यथाकथञ्चिद्विधीयते, तच नमस्कारसहितादि पूर्वपुरुषाचरितं यवमध्यवज्रमध्यचन्द्रप्रतिमादि च, इत्थं भेदानभिधायोपसंहारमाह-'मणइच्छियचित्तत्थोत्ति मनसः-चित्तस्य ईप्सित-इष्टश्चित्र:-अनेकप्रकारोऽर्थः खर्गापवर्गादिस्तेजोलेश्यादि यस्मात्तन्मनईप्सितचित्रार्थ ज्ञातव्यं भवति 'इत्वरक' प्रक्रमादनशनाख्यं तपः। सम्प्रति मरणकालमनशनं वक्तुमाह-'जा सा अणसणा'इति यत्तदनशनं 'मरणे' मरणावसरे द्विविधं तद्विशेषेणाख्यातकथितं व्याख्यातं तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते, तद्वैविध्यमेवाह-सह विचारेण-चेष्टात्मकेन वर्त्तते यत्तत्सविचार दीप अनुक्रम [११९५-१२०१]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1200~ Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [९-१३] तद्विपरीतमविचार, विचारश्च कायवाद्यानोभेदात्रिविध इति तद्विशेषपरिज्ञानार्थमाह-कायचेष्टाम्' उर्तनपरिवर्त नादिककायप्रवीचारं 'प्रतीति आश्रित्य 'भवेत्' स्यात्, तत्र सविचार भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं च, तथाहि भक्तप-12 पत्याख्याने गच्छमध्यवर्ती गुरुदत्तालोचनो मरणायोद्यतो विधिना संलेखनां विधाय ततत्रिविधं चतर्विधं वाऽऽहार | प्रत्याचष्टे, स च समाश्रितमूदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीराद्युपकरणममत्वः स्वयमेवोद्वाहितनमस्कारः समीपवर्तिसाधदत्तनमस्कारो या सत्यां शक्ती खयमुत्ते, शक्तिविकलतायां चापरैरपि किञ्चित्कारयति, यत उक्तम्-"वियड-11 णमन्भुट्ठाणं उचियं संलेहणं च काऊणं । पञ्चक्खति आहारं तिविहं च चउविहं वापि ॥१॥ उग्वत्तति परिपत्तति सियमण्णेणावि कारए किंचि । जत्थ समत्थो नवरं समाहिजणयं अपडिबद्धो ॥२॥" इङ्गिनीमरणमप्युक्तन्यायत प्रतिपद्य शुद्धस्थण्डिलस्थाता एकाक्येव कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानस्तत्स्थण्डिलस्यान्तश्छायात उष्णमुष्णाच छायां खयं संक्रामति, तथा चाह-इंगियमरणविहाणं आपवजंतु बियडणं दाउं। संलेहणं च काउं जहासमाही जहा|| कालं ॥१॥ पञ्चक्खति आहारं चउविहं णियमओ गुरुसगासे । इंगियदेसंमि तहा चेटुंपि हु इंगियं कुणइ ॥२॥ १ आलोचनमभ्युत्थानमुचितां संलेखनां च कृत्वा । प्रत्याख्याति आहारं त्रिविधं चतुर्विध वाऽपि ॥११॥ उद्वर्त्तते परिवर्त्तते स्वयमन्येनापि कारयेत् किश्चित् । यदि समर्थो नवरं समाधिजनकमप्रतिबद्धः ।।२।। २ इङ्गिनीमरणविधानमाप्रत्रज्यं तु आलोचनां दत्वा । संलेखनां कृत्वा । च यथासमाधि यथाकालम् ॥ १ ॥ प्रत्याख्याति आहार चतुर्विध नियमतो गुरुसकाशे । इनितदेशे तथा चेष्ठामपि इशितां करोति ॥२॥ दीप अनुक्रम [११९५-१२०१]] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1201~ Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-]/ गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [९-१३] उत्तराध्य. उत्तइ परियत्तइ काइयमाईसु होइ उ विभासा । किचंपि अप्पणुचिय झुंजइ नियमेण धीबलिओ ॥३॥" तपोम अविचारं तु पादपोपगमनं,तत्र हि सव्याघाताव्याघातभेदतो द्विभेदेऽपि पादपवन्निश्चेष्टतयैव स्थीयते,तथा च तद्विधिः गत्य०३० वृहद्वृत्तिः “अभिवंदिऊण देवे जहाविहं सेसए य गुरुमाई। पञ्चक्खाइनु ततो तयंतिए समाहारं ॥१॥ समभावंमि ॥६०२||ठियप्पा सम्मं सिद्धतमणितमग्गेणं । गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करे ॥२॥ सवत्थापडिबद्धो दंडायय मादिठाणमिह ठाउं । याषजीवं चिट्ठइ णिचिट्ठो पायवसमाणो॥३॥" पुनद्वैविध्यमेव प्रकारान्तरेणाह-'अथवे ति|| प्रकारान्तरसूचने सह परिकर्मणा-स्थाननिषदनत्वग्वर्तनादिना विश्रामणादिना च वर्तते यत्तत्सपरिकर्म अपरिकर्म च तद्विपरीतम् 'आख्यातं' कथितं, तत्र सपरिकर्म भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं च, एकत्र खयमन्येन वा कृतस्य अन्यत्र तु वयंविहितस्योद्वर्तनादिचेष्टात्मकपरिकर्मणोऽनुज्ञानात् , तथा चाह-"आयपरपरिकम्मं भत्तपरिणाएँ दो अणुन्नाया। परवजिया य इंगिणि चउबिहाहारविरई य ॥१॥ ठाणनिसियणतुयट्टण इत्तरियाई जहासमाहीए । ol १ उद्वर्तते परिवर्त्तते कायिक्यादिषु भवति तु विभाषा। कृत्यमप्यात्मनैव युनक्ति नियमेन धृतिवलिकः॥॥२ अमिवन्ध देवान् यथाविधि शेषांश्च गुर्वादीन् । प्रत्याख्याय ततस्तदन्तिके सर्वमाहारम् ॥ १॥ समभावे स्थितात्मा सम्यक सिद्धान्तभणितमार्गेण । गिरिकन्दरां तु गत्वा | पादपोपगमनमथ करोति ॥२॥ सर्वत्राप्रतिबद्धो दण्डायतादि स्थानमिह स्थित्वा । यावज्जीवं तिष्ठन् निश्चेष्टः पादपसमानः ॥२॥ ३ आत्मप-| परिकर्मणी भक्तपरिक्षायां द्वे अध्यनुज्ञाते । परवर्जितं चेङ्गिते चतुर्विधाहारविरतिश्च ॥ १॥ स्थाननिषिदनत्ववर्तनानीत्वराणि यथासमाधि ।। RECCAXE दीप अनुक्रम [११९५-१२०१]] JABERatinintamational Binatandinary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1202~ Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-]/गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [९-१३] सयमेव य सो कुणई उक्सग्गपरिसहऽहियासे ॥१॥" अपरिकर्म च पादपोपगमनं, निप्रतिकर्मताया एव तत्रा भिधानात् , तथा चागमः-"समविसमंमियपडिओ अच्छह जह पायवो व्य णिकंपो। णिश्चलणिप्पडिकम्मो णिक्खियई।। Kज जहिं अंग ॥२॥ तं चिय होइ तहथिय णवरं चलणं परप्पओगाओ। वायाईहिं तरुस्स व पडिणीयाईहिं तह ६ तस्स ॥३॥" यद्वा परिकर्म-संलेखना सा यत्रास्ति तत्सपरिकर्म, तद्विपरीतं स्वपरिकर्म, तत्र चाव्याघाते यमप्येतत्सूत्रार्थोभयनिष्ठितो निष्पादितशिष्यः संलेखनापूर्वकमेव विधत्ते, अन्यथाऽऽध्यानसम्भवात् , उक्तञ्च-4 "देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहि खिजमाणाहि । जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरिमकालंमि ॥४॥" इति स-21 परिकर्मोच्यते, यत्पुनाघाते गिरिभित्तिपतनाभिघातादिरूपे संलेखनामविधायैव भक्तप्रत्याख्यानादि क्रियते तद-18 परिकर्म, उक्तञ्चागमे-"अवि घातो या विज्जूगिरिभित्तीकोणगा य वा होजा । संबद्धहत्यपायादयो व पाएष १ स्वयमेव च स फरोति उपसर्गपरीषहान् अध्याले ॥१॥२ समे विषमे च पतितो यथा तिष्ठति पादप इव निष्पकम्पः । निश्चलो निष्मतिकर्मा निक्षिपति यथा यत्राङ्गम् ॥॥ तत् तथैव भवति नपरं पलनं परप्रयोगात् । यावादिमिस्तरोरिव प्रत्यनीकादिभिस्तथा तस्य ॥२॥ |३ देहेऽसंलिखिते सहसा धातुषु श्रीयमाणेषु । जायते आध्यानं शरीरिणभरमकाले ॥ ३॥ ४ अपि घातच गिरिविशुद्भित्तिपतनाच वा भवेत् । संबद्धहस्तपादादयो का भवेयुर्वा दीप अनुक्रम [११९५-१२०१]] +564 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1203~ Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||९-१३|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) तपोमार्ग प्रत बृहद्वृत्तिः गत्य०३० सूत्रांक [९-१३] उत्तराध्य. पा होज्याहि ॥ १॥ एएहिं कारणेहिं वाघाश्ममरण होइ बोद्धव्वं । परिकम्ममकाऊणं पञ्चक्खाई ततो भत्तं ॥२॥" k तथा निर्हरणं निहाँरो-गिरिकन्दरादिगमनेन प्रामादेर्बहिर्गमनं तद्विद्यते यत्र तन्निहारि तदन्यदनिहारि यदुत्था-1 तुकामे प्रजिकादौ विधीयते, एतच प्रकारद्वयमपि पादपोपगमनविषयं, तत्प्रस्ताव एवागमेऽस्याभिधानात्, तथा ॥३०॥ चागमः-"पंचजाई काउंणेयव्वं जाव होयवोच्छित्ती। पंच तुले काऊण य सो पाओगमपरिणतो य ॥३॥ तं दुविहं णायव्वं णीहारिं चेव तहमणीहारिं । बहिया गामाईणं गिरिकंदरमाइ पीहारिं ॥४॥ वझ्याइसु जं अंतो उठेउमणाणं ठाइ अणिहारिं । कम्हा? पायवगयाणं जं उवमा पायवेणऽत्थं ॥५" आहारः-अशनादिस्तबच्छेदः-तन्निराकरणम् , आहारच्छेदश्च द्वयोरपि सपरिकर्मापरिकर्मणोर्निहार्यनिहारिणोश्च सम इति शेषः, उभयत्र तयवच्छेदस्य तुल्यत्वादिति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ उक्तमनशनमूनोदरतामाह १. तेन ॥ १ ॥ एतैः कारणैयाघातिम मरणं भवति बोद्धव्यम् । परिकांकृत्वा प्रत्याख्याति ततो भक्तम् ॥ २ ॥ २ प्रवज्यादि कृत्वा * नेयं यावद्भवत्यव्युच्छित्तिः । पञ्च तुलनाः कृत्वा च स पादपोपगमने परिणतश्च ।। ३ ।। तहिविधं ज्ञातव्यं निर्हार्य निहारि चैव तथा । दबहिर्मामादेगिरिकन्दरादौ निहरि ॥ ४ ॥ प्रजिकादिषु यदन्तः उत्थातुमनसि तिष्ठति अनिहारि । कस्माद् ? पादपोपगतानां यदुपमा ४ पावपेनात्र ॥४॥ दीप अनुक्रम [११९५-१२०१]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1204 ~ Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) ཝིཏྟཏྠཱཡྻ अनुक्रम [१२०२ -१२१२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १४-२४|| अध्ययनं [३०], Education intimation ओमोअरणं पंचहा, समासेण विग्राहियं । दब्बओ वित्तकालेणं, भावेणं पजवेहि य ॥ १४ ॥ जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे । जहनेणेगसित्थाई, एवं दव्वेण ऊ भवे ॥ १५ ॥ गामे नगरे तह रायहाणिनिगमे य आगरे पल्ली। खेडे कब्बडदोणमुहपट्टणमडवसंवाहे ॥ १६ ॥ आसमपए विहारे संनिवेसे समायघोसे य । थलिसेणाखंधारे सत्थे संबद्ध कोहे य ॥१७॥ वाडेसु य रत्थासु य घरेसु वा एवमित्तियं खितं । कप्पड़ उ एवमाई एवं खित्तेण ऊ भवे ॥ १८ ॥ पेढा य अपेडा गोमुत्ति पयंगवीहिया चेव । संबुकावट्टाययतुं पच्छागया खड्डा ॥ १९ ॥ दिवसस्स पोरिसीणं चउण्हंपि उ जत्तिओ भवे कालो । एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेपव्वं ॥ २०॥ अहवा तहयपोरिसीए, ऊणाए घासमेसंतो। चभागूणा एवा, एवं कालेण ऊ भवे ॥ २१ ॥ इत्थी वा पुरिसो वा अलंकिओ वाऽणलंकिओ वावि । अन्नपरवयत्थो वा, अण्णयरेणं च |वस्थेणं ॥ २२ ॥ अण्णेण विसेसेणं वण्णेणं भावमणुमुअंते उ । एवं चरमाणा खलु भावोमोणं मुणेयध्वं ||२३|| दध्वे खित्ते काले भावंभि य आहिया उ जे भावा । एएहिं ओमचरओ पज्जवचरओ भवे भिक्खू ॥ २४ ॥ तत्रावमं— न्यूनमुदरं - जठरमस्यासाववमोदरस्तद्भावः अवमौदर्य - न्यूनोदरता, पठन्ति च — ' ओमोयरण' न्ति तत्र चावमं च तदुदरं चावमोदरं तस्मात्करोत्यर्थे णिचि ल्युटि चावमोदरणम्, अवमोदरकरणमित्यर्थः तच 'पंचह' त्ति 'पञ्चधा' पञ्चप्रकारं 'समासेन' सङ्क्षेपेण व्याख्यातं पञ्चधात्वमेवाह - 'द्रव्यत' इति द्रव्यात् हेतौ पञ्चमी, क्षेत्रं च निर्युक्तिः [५१३...] For Funny ~1205~ www.r मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक ॥६०४॥ [१४ -२४] % उत्तराध्य. अध्यकालश्चेति क्षेत्रकालं तेन भावेन च पर्यायैश्चोपाधिभूतैः, सर्वत्र हेतौ तृतीया ॥ तत्र द्रव्यत आह-यो यस्य 'तुः तपोमार्गः 18 पूरणे आहारो-भोजनं ततः-खाहारादरमम्-ऊन 'तुः' प्राग्वद् यः कुर्याद् भुजान इति शेषः, अयमत्र भावार्थ:बृहद्वृत्तिः पुरुषस्य हि द्वात्रिंशत्कवलमान आहारः खियश्चाष्टाविंशतिकवलमानः, यत उक्त-वत्तीसं किरकवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥१॥ कवलाण य परिमाणं कुकडिअंडगपमासमेत्तं तु । जो वा अविगियवयणो वयणमि छुहिज वीसत्यो ॥२॥" ततश्चैतन्मानादूनं यो भुङ्क्ते यत्तदोर्नित्यमभिसम्बन्धात्तस्य 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'द्रव्येण' उपाधिभूतेन भवेदिति सण्टङ्कः, अवमौदार्यमिति प्रक्रमः, एतच्च जघन्येनेकसिक्थु-यत्रैकमेव सिक्थु भुज्यते तदादि, आदिशब्दासिक्थुद्वयादारभ्य यावदेककवलभोजनम्, एवं चाल्पाहाराख्यमवमौदार्यमाश्रित्योच्यते, यत उपार्दादिषु तेषु कवलनवकादिमानमेवैतत् , तथा च सम्प्रदायः-"अप्पा हारोमोयरिया एक्ककवलाहारोमोयरिया (जहण्णा अट्ठकवला.) उकोसा सेसा अजहण्णुकोसा, अबडाहारोमोयरिया दाजहन्निया नवकवला उक्कोसेणं बारस सेसा अजहन्नमणुकोसा" इत्यादि, एतद्भेदाभिधायिनी चेयं गाथा-"अप्पाजहार १ अवहे २ दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा ५। अट्ट१ दुवालस २ सोलस ३ चउवीस ४ तहेकतीसा य|| 2 K६०४॥ १ द्वात्रिंशत्किल कवला आहारः कुक्षिपूरको भणितः । पुरुषस्य महेलाया अष्टाविंशतिर्भवेयुः कवलाः ॥१॥ कबलानां च परिमाणं ४ || कुकुटयण्डकप्रमाणमात्रमेव । यं वाऽविकृतवदनो वदने क्षिपेद्विश्वस्तः ॥ २ ॥ A5% दीप अनुक्रम [१२०२-१२१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1206~ Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [--1/ गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [१४ 5-35 -२४] sInt" क्षेत्रावमौदर्यमाह-सति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति प्रामस्तस्मिन् , नान करोऽस्तीति का तस्मिन, तथा राजाऽनया धीयत इति राजधानी-राज्ञः पीठिकास्थानमित्यर्थः, निगमयन्ति तस्मिन्ननेक-1|| विधभाण्डानीति निगमः-प्रभूततरवणिजां निवासोऽनयोः समाहारस्तस्मिंश्च, आकुर्वन्ति तस्मिन्नित्याकरो-हिरण्यायुत्पत्तिस्थानं तस्मिन् , 'पलि'त्ति सुव्यत्ययात् पाल्यन्तेऽनया दुष्कृतविधायिनो जना इति पल्ली, नैरुक्तो विधिः, | यक्षगहनाद्याश्रितःप्रान्तजननिवासस्तयां, खेट्यन्ते-उनास्वन्तेऽस्मिन्नेव स्थितैः शत्रय इति खेटं-पांशुप्राकारप-18 रिक्षिप्तम् , उक्तं हि-"खेडं पुण होइ धूलिपायारं " तस्मिन् , कट-कर्बटजनावासः, कुनगरमित्यर्थः, द्रोण्योनायो मुखमस्येति द्रोणमुख-जलस्थलनिर्गमप्रवेशं यथा भृगुकच्छ ताम्रलिप्सिा, पतन्ति तस्मिन् समस्त दिग्भ्यो जना इति पत्तनं,तच जलपत्तनं यजलमध्यवर्ति,यथा काननद्वीपः, स्थलपत्तनं च निर्जलभूभागभावि यथा मथुरा, 'मडंब'चि देशीपदं यस्य सर्वदिश्वर्द्धतृतीययोजनान्तामो नास्ति, समिति-भृशं वाध्यन्तेऽस्मिन् जना इति संबाधः-प्रभूतचा-14 तुर्वर्ण्यनिवासः, कर्बटादीनां चात्र समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन्, आ-समन्तात् श्राम्यन्ति-तपः कुर्वन्सस्मिन्नित्याश्रम: तापसावसधादिस्तदुपलक्षितं पदं स्थानमाश्रमपदं तस्मिन्, विहारो-भिक्षुनिवासो देवराई वा तत्प्रधानो ग्रामादिहारपि विहारस्तस्मिन् , 'संनिवेशे' यात्रादिसमायातजनावासे, समाजः-पथिकसमूहः घोषो-गोकुलमनयोः समाहारेरा समाजघोष तस्मिन् , 'च' समुच्चये, स्थल्याम्-उच्चभूभागे सेना-चातुरङ्गबलसमूहः स्कन्धावारः स एवाशेपखेडाडुप-| दीप अनुक्रम [१२०२-१२१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1207~ Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) उत्तराध्य. तपोमार्ग प्रत बृहद्भुत्तिः गत्य०३० सूत्रांक [१४ 64 -२४] लक्षितोऽनयोः समाहारे सेनास्कन्धावार तस्मिन् , 'सार्थे' गणिमधरिमादिभृतवृषभादिसङ्घाते संवर्त्तन्ते-पिण्डीभव- त्यस्मिन् भयत्रस्ता जना इति संवर्तस्तस्मिन्, कोर्ट-प्राकारोऽनयोः समाहारे संवर्तकोर्ट तस्मिन्, 'चः' समुच्चये, क्षेत्रप्रस्तावादिह समाजिकादिषु च क्षेत्रमेयोपलक्ष्यते । 'वाडेसुत्ति बाटेषु पाटेषु वा वृत्तिवरण्डिकादिपरिक्षिप्तगृहसमूहात्मकेषु 'रथ्यासु' सेरिकासु 'गृहेषु' प्रतीतेपु, सर्वत्र वा विकल्पे, "एवं'मित्यनेन हृदयस्थप्रकारेण 'एत्तियन्ति एतावत् विवक्षातो नियतपरिमाणं क्षेत्रं 'कल्पते' उपयोगं याति पर्यटितुमिति शेषः, 'तुः' पूरणे, एवमादि, आदिशब्दागृहशालादिपरिग्रहः, 'एव'मित्यमुना क्षेत्रप्राधान्यादभिग्रहग्रहणलक्षणेन प्रकारेणेति 'क्षेत्रेण' इति क्षेत्रहेतुकं 'तुः पूरणे भवेदवमौदार्यमिति प्रक्रमः ॥ पुनरन्यथा क्षेत्रावमौदार्यमाह-पेडे'त्यादि, अत्र च सम्प्रदायः-"पेडा पेडिका |इव चउकोणा अद्धपेडा इमीए चेव अद्धसंठिया घरपरिवाडी गोमुत्तिया कावलिया पयंगविही अणियया पर्यगुडा-I णसरिसा 'संयुकावटुं'ति शम्बूक:-शङ्खस्तस्यावतः शम्बूकावतस्तद्वदावर्तो यस्यां सा शम्बूकावा, सा च द्विविधायतः सम्प्रदाय:-"अभितरसंवुक्का बाहिरसंबुका य, तत्थ अभंतरसंबुक्काए संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो || आढवति बाहिरओ संणियट्टइ, इयरीए विवजओ,"'आययगंतुंपचागय'त्ति, अत्रायतं-दीचे प्राञ्जलमित्यर्थः, तथा च सम्प्रदायः-"तत्थ उज्जुयं गंतूण नियट्टई" 'छट्टत्ति षष्ठी, नन्वत्र गोचररूपत्वाद्भिक्षाचर्यात्वमेवासां तत्कथ-४ मिह क्षेत्रावमौदार्यरूपतोक्ता ?, उच्यते, अवमौदार्य ममास्त्वित्सभिसम्बन्धिना विधीयमानत्वादवमौदार्यव्यपदेशोऽ-18 M दीप अनुक्रम [१२०२-१२१२] ॥६०५॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1208~ Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३०], मूलं [-1 / गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [१४ -२४] प्यदुष्ट एच, दृश्यते हि निमित्तभेदादेकत्रापि देवदत्तादौ पितृपुत्राद्यनेकव्यपदेशः, एवं पूर्वत्र प्रामादिविषयस्योत्तरत्र || 8 कालादिविषयस्य च नैयतस्याभिग्रहत्वेन भिक्षाचर्यात्वप्रसङ्गे इदमेवोत्तरं वाच्यम् ॥ कालावमौदार्यमाह-दिवसस्य अहः 'पौरुषीणां' प्रहराणां चतसृणामपि 'तुः प्राग्वद् यावान् भवेत्कालोऽभिग्रहविषय इति शेषः, 'एव'मित्येवं प्रक्रमा-13 कालेन 'चरमाण'त्ति तिसुव्यत्ययाचरतः 'खलु निश्चित कालोमाण'न्ति कालेनावमत्वं प्रस्तावादुदरस्य कालावमत्वं कोऽर्थः ?-कालावमौदार्य मुणितव्यं, कालहेतुत्वादस्येति भावः, यदिवाऽभेदोपचारेण स एवाभिगृहीतकाले चरन-2 विमौदार्य मुणितव्यः॥ एतदेव प्रकारान्तरेणाह-अथवा तृतीयपौरुष्यामूनायां प्रासम्-आहारमेषयन्-त्रिविधेपणया । गवेषयन् , न्यूनत्वमेव विशेषत आह-चतुर्भागोनायां वाशब्दात्पश्चादिभागोनायां वा तृतीयपौरुष्याम्, 'एवम्' अमुना कालविषयाभिग्रहलक्षणेन प्रकारेण चरन्नित्यनुवर्तते, कालेन तु भवेदवमौदार्ययोगाद् यतिरप्यवमौदार्यम् , औत्स|र्गिकविधिविषयं चैतत् , उत्सर्गतो हि तृतीयपौरुष्यामेव भिक्षाटनमनुज्ञातं, यदुक्तम्-"पंथो भिक्खा य तइयाए"त्ति। भावावमौदार्यमाह-स्त्री वा पुरुषो वा 'अलङ्कतो वा' कटकाद्यलङ्कारविभूषितो वा 'अनलङ्कृतो वाऽपि तद्विपरीतः, तथाऽन्यतरच तद्वयश्च-पाल्याचन्यतरवयस्तत्स्थो बा, अन्यतरेण वा पट्टवाटकमयादिना 'वरण' वाससा, लक्षणे तृ-1 |तीया, सर्वत्र वा विकल्पे । 'अन्येन' विशेषान्तराद्भिन्नेन 'विशेषेण' कुपितप्रहसितादिनाऽवस्थाभेदेन 'वर्णेन' कृष्णादिना प्रक्रमादन्यतरेणोपलक्षितः 'भाव' पर्यायमुक्तरूपमेवालङ्कृतत्वादि 'अणुमुयंते उ' त्ति तुशब्दस्वावधारण(गार्थ)त्वाद् ४ 26290SAROKARNAL दीप अनुक्रम [१२०२-१२१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1209~ Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-1 / गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत E सूत्रांक [१४ -२४] उत्तराध्य अनुन्मुञ्चन्नेव' अत्यजन्नेव यदि दाता दास्यति ततोऽहं ग्रहीष्ये न त्वन्यथेत्युपस्कारः, एवं चरन् ‘खलु' निश्चितं 'भा- तपोमार्गदिवोमोणं' ति भावावमत्वेनोपलक्षितः प्रक्रमादुदरख मुणितव्यः, यद्वा सुच्च्यत्ययादेवं चरतः खलु सुब्व्यत्ययाभावाववृहत्त मत्वेन हेतुना मुणितव्यमावमौदार्यमिति प्रक्रमः॥ पर्यवावमौदार्यमाह-'द्रव्ये' अशनादौ 'क्षेत्रे' प्रामादौ 'काले' पौरुप्यादौ 'भावे च' स्त्रीत्वादौ 'आख्याताः' कथिताः 'तुः' पूरणे ये 'भावाः' पर्याया एकसिक्थोनत्वादयः, एतैः सर्वैरपि द्रव्यादिपर्यायैः 'ओमत्ति' अवममुपलक्षणत्वादवमौदार्य चरति-आसेवते अवमचरकः पर्यवचरको भवे-13 शिक्षुः, इह च पर्यवग्रहणेन पर्यवप्राधान्यविवक्षया पर्यवावमौदार्यमुक्तम् , अथवा 'एएहि अवमचरओ'त्ति एतेभ्यः' द्रव्यादिपर्यायेभ्यः 'अवमचरकः' न्यूनत्वासेवकः, किमुक्तं भवति !-एकसिक्थोनत्वादावपि नवपुराणादिविशेषाभिग्रहवान् , एवं ग्रामपौरुषीस्त्रीत्वादिष्वपि विशिष्टाभिग्रहतः पूर्वस्मान्न्यूनत्वं भावनीयम् । आह-क्षेत्रावमौदार्यादिष्यप्यशनादिद्रव्येणैवोदरस्थावमत्वमिति कथं द्रव्यावमौदार्यादेषां विशेषः १, उच्यते, क्षेत्रादिहेतुकत्वस्यैव तत्र प्राधान्येन | विवक्षितत्वात्, तद्विवक्षा च द्रव्यावमौदार्यस्खापि तेषु त तुकत्वात्, यदिवा यत्रापि द्रव्यतो न्यूनत्वमुदरस्य नास्ति तत्रापि क्षेत्रादिन्यूनतामपेक्ष्य क्षेत्राद्यवमौदार्याणि भण्यन्त इति प्रश्नानवकाश एवेति सूत्रैकादशकगर्भार्थः ॥ इत्थमदिवमौदार्यमभिधाय भिक्षाचर्यामाह अट्टविहगोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा । अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरियमाझ्या ॥२५॥ % दीप अनुक्रम [१२०२-१२१२] XX ॥६०६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1210~ Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||२५|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्राक [२५] 'अविहगोयरग्गं'ति प्राकृतत्वाद् अष्टविधा-अष्टप्रकारोऽना-प्रधान आधाकर्मादिपरिहारेण स चासौ गौरिव चरणम्-उच्चावचकुलेष्वविशेषेण पर्यटनं गोचरश्चाष्टविधाअगोचरः, 'तुः उत्तरभेदापेक्षया समुचये, तथा सप्तवेषणा अभिगृह्यन्त इत्यभिग्रहाः 'चा' समुच्चये ये अन्ये एतदतिरिक्ताः, ते किमित्याह-'भिक्खायरियमाहियचि सूत्रत्वेन , भिक्षाचर्याविषयत्वात् भिक्षाचर्या वृत्तिस पापरनामिकाऽऽख्याताः, अत्र चाटावग्रगोचरभेदाः पेडादय एव शम्बूकावदाया वैविध्याश्रयणतः तथा ऋज्व्याद्याश्चापरायाः प्रक्षेपात्, ससैषणामाः-"संसहमसंसठ्ठा उद्धड तह अप्पलेवडार चेव। उग्गहिया पग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ॥१॥" 'अभिग्रहाच' द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयाः, तत्र द्रव्याभिग्रहा:-कुन्तानादिसंस्थितमण्डकखण्डादि ग्रहीष्य इत्यादयः क्षेत्राभिग्रहा:-देहलीजङ्योरन्तर्विधाय यदि दास्यति ४ ततो प्रायमित्यादयः, कालाभिग्रहाः-सकलभिक्षाचरनिवर्तनावसरे मया पर्यटितव्यमित्यादयः, भावाभिग्रहास्तु-हसन् द रुदन् बद्धो वा यदि प्रतिलाभयिष्यति ततोऽहमादास्ये न त्वन्ययेत्येवमादय इति सूत्रभावार्थः ॥ (प्रन्यानम्१५०००)। अभिहिता भिक्षाचर्या, रसपरित्यागमाह2 खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं । परिवजणं रसाणं तु, भणियं रसविषजणं ॥ २६॥ क्षीरं-दुग्धं दधि-तद्विकारः सर्पिः-घृतं तदादि, आदिशब्दाद् गुडपक्कान्नादिपरिप्रहः, 'प्रणीतम्' अतिबृंहकं पीयत इति पानं-वर्जूररसादि भुज्यत इति भोजन-लविन्द्वोदनादि अनयोः समाहारे पानभोजनं सोपस्कारत्वादेषां । दीप अनुक्रम [१२१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1211~ Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [२६] दीप अनुक्रम [१२१४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ६०७ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३०], मूलं [--] / गाथा ||२६|| निर्युक्तिः [५१३...] 'परिवर्जनं' परिहरणं रसानां रस्यमानत्वेन 'तुः' पूरणे 'भणितम्' अभिहितं तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते, रसविवर्जनं नाम बाह्यं तप इति सूत्रार्थः ॥ उक्तो रसपरित्यागः, कायक्लेशमाह ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा घरिज्जति, कायकिलेसं तमाहियं ॥ २७ ॥ स्थीयत एभिरिति स्थानानि - कायावस्थितिभेदा वीरासनं यत्सिंहासनस्थितस्य तदपनयने तथैवावस्थानं तदादि - येषां तानि वीरासनादिकानि, आदिशब्दाद्गोदोहिकासनादिपरिग्रहः, सूत्रत्वाल्लिङ्गव्यत्ययात्, लोचाद्युपलक्षणं चैतत्, तथाऽऽह - "वीरासण उकुदुगासणाह लोयाइओ अ विष्णेओ । कायकिलेसो संसारवासणिवेयउत्ति ॥ १ ॥” 'जीवस्य' जन्तोः 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमश्च ततः सुखावहान्येव मुक्तिसुखप्रापकत्वेन शुभावहान्येव वा 'उप्राणि' दुरनुष्ठेयतयोत्कटानि 'यथा' येन प्रकारेण 'धार्यन्ते' इत्यासेव्यन्ते गम्यमानत्वाद्यतिभिः 'कायकिलेसं तमाहियन्ति कायस्य क्लेशो-बाधनं कायक्लेशः सः 'आख्यातः' कथितस्तथैवेति शेषः, इह च संसार्यात्मनः कायानुगतत्वेन तत्लेशे यद्यप्यवश्यं क्लेशसम्भवस्तथाऽपि भावितात्मनामसौ सन्नप्यसत्सम एवेति तदनभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ एवं कायक्लेशमुक्त्वा संलीनतां वक्तुमाह एतमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए । सयणासणसेवणया, विवित्तं सयणासणं ॥ २८ ॥ ११ वीरासनोत्कटुकासनादि लोचादिकञ्च विज्ञेयः । कायडेशः संसारवासनिर्वेदहेतुरिति ॥ १ ॥ For Fans Only तपोमार्ग गत्य० ३० ~1212~ ||६०७॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||२८|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक [२८] MI एगंतति मुख्यत्ययाद् 'एकान्ते' जनेनानाकुले 'अनापाते' ख्याधापातरहिते 'स्त्रीपशुविवर्जिते' तत्रैव स्थितख्या दिरहिते शून्यागारादाविति भावः 'सयणासणसेवणय'त्ति सूत्रत्वात् शयनासनसेवनं विविक्तशयनासनं बावं तप | उच्यत इति शेषः, उपलक्षणं चैतदेषणीयफलकादिग्रहणस्य, तथा चानेन विविक्तचर्या नाम संलीनतोक्ता भवति, यतस्तल्लक्षणमिदम्-"आरामुजाणाइसु थीपसुपंडगविवजिए ठाणं । फलगाईण य गहणं तह भणियं एसणिजाणं Mu॥"शेषसंलीनतोपलक्षणं चासौ, प्राधान्याचास्या एव साक्षादभिधानं, प्राधान्यं चेन्द्रियादिसलीनतोपकारित्वा-IN सदस्याः, इयं चेत्थं चतुर्विधा, यत उक्तम्-"इंदियकसायजोगे पहुच संलीणया मुणेयधा । तह जा विवित्तचरिया पण्णत्ता वीयरागेहिं ॥१॥” तत्रेन्द्रियसलीनता श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणं, कषायसंलीनता तदुदयनिरोध उदीर्णविफलीकरणं च, योगसंलीनता च मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीर-13 गमिति सूत्रार्थः । उक्तमेवार्थमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धाभिधानायाह एसो बाहिरगतबो, समासेण वियाहिओ। अम्भितरं तवं इत्तो, बुच्छामि अणुपुब्बसो॥ २९ ॥ 'एतत् अनन्तरोक्तं वायकं तपः समासेन व्याख्यातम् ,आह-किं पुनरितो बाद्यात्तपसः फलमवाप्यते ?, उच्यते, | १ आरामोद्यानादिषु स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते स्थाने । फलकादीनां च ग्रहणं तथा भणितमेषणीयानाम् ॥ १ ॥ २ इन्द्रियकवाययोगान् प्रतीत्य संलीनता ज्ञातव्या । तथा या विविक्तचयाँ प्रज्ञप्ता वीतरागैः ॥ २॥ दीप अनुक्रम [१२१६] CSCRICE JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1213~ Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||२९|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) तपोमार्ग गत्य०३० प्रत सूत्रांक [२९] उत्तराध्य. निःसमता शरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणादिगुणयोगात् शुभध्यानावस्थितस्य कर्मनिर्जरणमिति, अभ्यन्तरतपः इतः' बासतपोऽभिधानादनन्तरं 'वक्ष्यामि' अभिधास्से 'अणुपुब्बसो'त्ति आनुपूयेति सूत्रार्थः ॥ प्रतिज्ञातमाहबृहद्वृत्तिः पायच्छिसं विणओ, बेवावञ्च तहेव समाओ। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥३०॥ ॥६०८॥ अक्षरार्थः सुगम एव, भावार्थ तु सूत्रत एवाह सूत्रकृत् आलोअणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जे भिक्खू वहई सम्म, पायच्छित्तं तमाहियं ॥ ३१ ॥ अ-1 म्भुट्टाणं अंज(गंज)लिकरण, तहेवासण दायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥ ३२ ॥ आयरियमाइयंमि, वेयावचे य दसविहे । आसेवर्ण जहाथाम, यावच्चं तमाहियं ॥ ३३ ॥ बायणा पुच्छदाणा चेच, तहेव परियट्टणा । अणुप्पेहा धम्मकहा, सहाओ पंचहा भवे ॥ ३४ ॥ अहरुदाणि वजित्ता, झा-3 इज्जा सुसमाहिए। धम्मसुकाई झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए (वयन्ति)॥ ३५॥ सपणासण ठाणे वा, जे उ भिक्खू ण वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छटो सो परिकित्तिओ ॥३६॥ | आलोचनं विकटनं प्रकाशनमाख्यानं प्रादुष्करणमित्यनान्तरं, तदहत्यालोचनाई-यत् पापमालोचनात एव शु-15 ध्यति, उक्तं हि-"आलोयणमरिहंति आ मज्जा लोयणा गुरुसगासे। जं पाव विगडिएणं सुज्झइ पच्छित्तपढमेयं ॥१॥" १ आलोचनाई मिति आमर्यादायामालोचना गुरुसकाशे । यत् पापं विकटनेन शुध्यति प्रायमित्तं प्रथममिषम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१२१७] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~12144 Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-1 /गाथा ||३१-३६|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) प्रत सूत्रांक -३६॥ आदिशब्दात्प्रतिक्रमणाहीदिपरिग्रहः, इह पुनरुपचारादेवंविधपापविशुद्धयुपायभूतान्यालोचनादीन्येवालोचनार्दादिशब्देनोक्तानि, उपचारनिमित्तं चात्र विषयविषयिभावः, एवंविधानि हि पापान्यालोचनादीनां विषय आलोचनादीनि च विषयीणीति भावनीयं, तथा चान्यत्र 'आलोयणपडिक्कमणे' त्यादिनाऽहंशब्दं विनैव तद्भेदाभिधानं, तदेवंविधमालोचनाईमादिर्यस्य तदालोचनार्हादिकं, शेषाद्विभाषेति (पा.५-४-१५४)कप्प्रत्ययः, 'प्रायश्चित्तम्' उक्तनिरुक्तं 'तुः। अवधारणे भिन्नक्रमश्च, ततः 'दशविधमेव' दशप्रकारमेव, दशविधत्वं चेत्यम्-"आलोयण पडिकमणे मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे। तव छेय मूल अणवठ्ठया य पारंचिए चेव ॥१॥" 'जत्ति आर्षत्वाद् यद्भिक्षुः 'वहति' आसेवते 'सम्यग'। अवैपरीत्येन प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् शा विनयमाह-अभ्युत्थानमञ्जलिकरणमुभयमपि प्रतीतं 'तथे ति समुच्चये 'एवेति पूरणे 'आसणदायण'ति सूत्रत्वादासनदानं पीठादिदानमित्यर्थः, गुरूणां गौरवार्हाणां भक्तिर्गुरुभक्तिः, भावः-अन्तः। करणं तेन शुश्रूषा-तदादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा पर्युपासना वा भावशुश्रूषा, विनय एष व्याख्यातः २॥ वैयावृत्त्यमाहआयरियमाईत्तिमकारोऽलाक्षणिकस्ततः आचायोदिके आचार्य(यादि)विषये व्यापृतभावो वैयावृत्त्यम्-उचिताहारादिसम्पादनम् ,उक्तश्च-"यावचं वावडभायो तह धम्मसाहणणिमित्तं। अन्नाइयाण विहिणा संपाडणमेस भावत्यो॥१॥" १ आलोचना प्रतिक्रमणं मिश्र विवेकस्तथा व्युत्सर्गः । तपश्छेदो मूलमनवस्थाप्यता च पाराभिकमेव ॥१॥२ वैयावृत्त्यं व्यापृत|भावस्तथा धर्मसाधननिमित्तम् । अन्नादिकानां विधिना संपादनमेष भावार्थः ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम [१२१९-१२२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1215~ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [३१ -३६] दीप अनुक्रम [१२१९ -१२२४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ||६०९ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||३१-३६|| अध्ययनं [३०], Education intol तस्मिन् 'दशविधे' दशप्रकारे, दशविधत्वं चाचार्यादिविषयभेदाद् उक्तं हि - " आयरिय १ उवज्झाय २ थेर ३तबस्सी ४ गिलाण ५ सेहाणं ६ | साहम्मिय ७ कुल ८ गण ९ संघ १० संगयं तमिह कायचं ॥ १ ॥" "आसेव नम् एतद्विषयमनुष्ठानं 'यथास्थानं' स्वसामर्थ्यानतिक्रमेण वैयावृत्त्यं तदाख्यातमिति ३ ॥ स्वाध्यायमाह - 'वायणे' - त्यादि प्राग्व्याख्यातप्रायमेव ४ ॥ सम्प्रति ध्यानमाह - ऋतं दुःखम् उक्तं हि "ऋतशब्दो दुःखपर्यायवाच्याश्रीयते” ऋते भवमार्त्त, तथा रोदयत्यपरानिति रुद्रः- प्राणिवधादिपरिणत आत्मैव तस्येदं कर्म रौद्रम्, आतं च रौद्रं च आर्त्तरौद्रे, प्राकृतत्याच बहुवचननिर्देशः, 'वर्जयित्वा' हित्वा ध्यायेत्सुसमाहितः प्राग्वत् किमित्याह - धर्मः - क्षमादिदशलक्षणस्तस्मादनपेतं धर्म्य शुक्लं शुचि - निर्मलं सकलमिध्यात्वादिमलविलयनात् यद्वा शुगिति - दुःखमष्टप्रकारं वा कर्म ततः शुचं क्लमयति--निरस्यतीति शुक्लमनयोर्द्वन्द्वस्ततः धर्म्यशुक्लध्याने स्थिराध्यवसानरूपे, उक्तं हि - "जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं” ति, 'ध्यानं' ध्यानाख्यं तपस्तत् तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्तदेव बुधाः 'वयंति' वदन्ति ५ ॥ अधुना व्युत्सर्गमाह-शय्यत इति शयनं संस्तारकादौ तिर्यक् शरीरनिवेशनं तत्रासनम् - | उपवेशनं तस्मिन्, उभयत्र सूत्रत्वात्सुपोर्लुक् 'स्थाने' ऊर्ध्वस्थाने 'वा' विकल्पे प्रत्येकं च योज्यते, स्वशक्त्यपेक्षं स्थित १ आचार्योपाध्यायस्यविरतपस्विग्लान शैक्षाणाम्। साधर्मिककुलगणसङ्के संगतं तदिह कर्त्तव्यम् ॥ १ ॥ यत् स्थिरमध्यवसानं तत् ध्यानं यत् चलत् तत् चित्तम् । For Fans Only निर्युक्ति: [५१३...] ~1216~ तपोमार्ग - गत्य० ३० ॥ ६०९॥ www.ncbrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३०], मूलं [-] / गाथा ||३७|| नियुक्ति: [५१३...] (४३) 69 -% % प्रत % सूत्राक [३७] % इति गम्यते, यस्तु भिक्षुः 'न वावरे'त्ति 'न व्याप्रियते' न चलनादिक्रियां कुरुते, यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धादर्थवशादर विभक्तिपरिणामतच तस्य भिक्षोः 'कायस्य' शरीरस्य 'व्युत्सर्गः' चेष्टां प्रति परित्यागो यः 'छटो सो परिकित्तितो'ति |सत्रत्याप्लिङ्गव्यत्यये षष्ठं 'तत्' प्रक्रमादभ्यन्तरं तपः परिकीर्तितं' तीर्थकरादिभिरुक्तं, शेषव्युत्सर्गोपलक्षणं चैतद्, अनेकविधत्वात्तस्य, उक्तंच-"देचे भावे य तहा दुविधुस्सग्गो चउविहो दब्वे । गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहाइचातोत्ति ॥१॥” इति सूत्रपदार्थः॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्नस्यैव फलमाहएयं तवं तु दुविहं, जं सम्मं आयरे मुणी । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए ॥ ३७॥ तिबेमि ॥ ॥ तवमग्गिज ॥ ३८॥ एतत्' अनन्तरोक्तखरूपं तवं तु दुविहति तपः द्विविधमपि उक्तभेदतो द्विभेदमपि यः सम्यक् 'आचरेत्' आसेवते मुनिः स क्षिप्रं 'सर्वसंसारात्' चतुर्गतिरूपात् 'विप्रमुच्यते' पृथग् भवति पण्डितः, पठन्ति च-सो खवेत्तु दरयं अरओ, नीरयं तु गई गए' इह च 'आयरे ति तिब्यत्ययादाचारीत्, अतीतनिर्देशश्च भूतभविष्यतोरप्युपल क्षणं, कालत्रयेऽपि तुल्यमाहात्म्यत्वादस्खैतत्क्षेत्रापेक्षा (क्षया) वेति सूत्रार्थः ।। इति' परिसमासौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । 18॥ इत्यवसितोऽनुगमो, नयाश्च प्राग्वत् ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां तपोमागेंगति नामकं त्रिंशत्तममध्ययनं समासमिति ॥ ३०॥ १ द्रव्ये भावे तथा द्विविध उत्सर्गः चतुर्विधो द्रव्ये | गणदेहोपधिभक्ते भावे क्रोधारित्याग इति ॥ १॥ %% % दीप अनुक्रम [१२२५]] 2-% 4% Hinatandionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- ३० परिसमाप्तं ~ 1217~ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [३७] दीप अनुक्रम [१२२५] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥६१०॥ 66 “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३७...|| अध्ययनं [३१], Education intemational अथ चरणाख्यमेकत्रिंशत्तममध्ययनम् । व्याख्यातं त्रिंशत्तममध्ययनम् अधुनैकत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने तप उक्तम्, | इह तु तच्चरणवत एव सम्यग् भवतीति चरणमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य पूर्ववदुपक्रमादिद्वार| चतुष्टयप्ररूपणा तावद्यावन्नाम निष्पन्ननिक्षेपे चरणविधिरिति नाम, अतश्वरणविधिशब्दनिक्षेपायाह निर्युक्तिकृत्निक्खेवो चरणमि (मी) चउबिहो दुविहो य होइ दबंमि । आगमनोआगमओ नोआगमओ य सो तिविहो। जाणगसरीरभविए तवतिरित्ते य गइभिक्खमाईसुं । आचरणे आचरणं भावाचरणं तु णायचं ॥ ५१५ ॥ णिक्खेवो उ विहीए चउविहो दुविहो य होइ दव्वंमि । आगमनोआगमओ नोआगमओ य सो तिविहो ॥ जाणग सरीरभवियं तवतिरित्ते य इंदियत्थेसुं । भावविही पुण दुविहा संजमजोगो तवो चेव ॥ ५१७ ॥ गाथाचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं 'तव्वहरिते य'त्ति तव्यतिरिक्तं च गतिभिक्षादिषु गतिः - गमनं भिक्षा- भक्षणं, पठ्यते च 'चर गतिभक्षणयोः' इति, आदिशब्दादासँयापरिग्रहः, उक्तं हि "चरतिरासेवायामपि वर्त्तते" इति, तत एतेषु सत्सु For Past Use Only निर्युक्ति: [५१४-५१७] ~ 1218~ चरणवि ध्य० ३१ ॥६१०॥ wwwjanbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं ३१ "चरणविधि" आरभ्यते Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत =ཡྻཱཡྻ [8] अनुक्रम [१२२६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्ति:) मूलं [ - ] / गाथा || १॥ अध्ययनं [३१], निर्युक्ति: [५१८] | प्रक्रमाद्द्रव्यमेव सुव्यत्ययेन गत्यादयो वा भावचरणकार्याकरणत्वेन तयतिरिक्तद्रव्यचरणं, तथा 'आचरणे' प्रस्तावाज्ज्ञानाद्याचारे 'आचरणम्' अनुष्ठानं सिद्धान्ताभिहितं 'भावे' विचार्ये चरणं 'तुः' विशेषणे ज्ञातव्यमिति ॥ तथा 'इंदियत्थेसु 'न्ति इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि तेषामर्थाः - स्पर्शादयस्तेषु प्रक्रमाद् यः 'विधिः' अनुष्ठानमासेवनमिति यावत्, अस्यापि द्रव्यत्वं भावविधिफलासाधकत्वेन द्रव्यप्राधान्यविवक्षया वा भावविधिः पुनः 'द्विविधः' द्विप्र कारः, द्वैविध्यमाह-'संयमयोगः' संयमव्यापारः 'तपश्चैव' अनशनाद्यनुष्ठानरूपं, चरणासेवनं यत्र भावविधिः, स | चैवंविध एवेति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ सम्प्रति येनेह प्रकृतं तदुपदर्शयन्नुपदेशमाह | पगयं तु भावचरणे भावविहीए अ होइ नायवं । चइऊण अचरणविहिं चरणविहीए उ जइयां ॥ ५९८ ॥ निगदसिद्धा, नवरं 'भावचरणेन' प्रस्तावाच्चारित्राचारानुष्ठानेन 'अचरणविधिम्' अनाचारानुष्टानं त्यक्त्वा 'चरणविधौ' उक्तरूपे 'यतितव्यं' यत्त्रो विधेय इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचा - रणीयं तचेदम् Education intimational चणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं । जं चरित्ता बहू जीवा, तिन्ना संसारसागरं ॥ १ ॥ चरणस्य विधिः आगमोक्तन्यायः चरणविधिस्तं प्रवक्ष्यामि जीवस्य 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमस्ततः 'सुहावहं 'ति For Parts Only ~1219~ Dig मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-] / गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] 25 उत्तराध्य. सुखावहमेव शुभावहमेव वा, यथा चैतदेवं तथा फलोपदर्शनद्वारेणाह-यं 'चरित्वा' आसेव्य वहयो जीवाः 'तीर्णा' चरणवि अतिकान्ताः 'संसारसागरं' भवसमुद्र मुक्तिमवाप्सा इत्यभिप्राय इति सूत्राथें ॥ बृहद्वृत्तिः ॥११॥ एगओ विरई कुज्जा, एगओ अपवत्तणं । अस्संजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥२॥ रागद्दोसे य दो पाचे, पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू संभई निचं, से न अच्छह मंडले ॥३॥ दंडाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं । तियं । जे भिक्खू चयई निचं, से न अच्छा मंडले ॥४॥ दिब्वे यजे उबस्सग्गे, तहा तेरिच्छमाणुसे। ||जे भिक्खू सहई निचं, से न अच्छा मंडले ॥५॥ विगहाकसायसन्नाणं, झाणार्ण च दुर्य तहा । जे भिक्खू/ वजई निर्च, से न अच्छा मंडले ॥६॥बएस इंदियत्येसु, समिईसु किरियासु य । जे भिक्खू जयई निचं, | से न अच्छह मंडले ॥७॥ लेसासु छसु काएस, छक्के आहारकारणे । जे भिक्खू जय निचं, से न अच्छा | मंडले ॥८॥ पिंडग्गहपडिमासु, भयवाणेसु सत्तसु । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छा मंडले ॥९॥ मएसुबभगुत्तीसु, भिक्खुधम्ममि दसविहे जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छद मंडले ॥१०॥ उवास गाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छद मंडले ॥११॥ किरियामु| nam दाभूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य । जे भिक्खु जई निचं. सेन अच्छह मंडले ॥ २२ ॥ गाहासोलसएहि, तहा| अस्संजमंमि अ । जे भिक्खू जयई निचं, सेन अच्छद मंडले ॥१॥ भमि नायज्झयणेसु, ठाणेसु यऽसमा 55कर दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] JABERatinintamational wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1220~ Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] दीप अनुक्रम [१२२७ -१२४५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२-२०|| निर्युक्ति: [५१८...] अध्ययनं [३१], हिए। जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छर मंडले ||१४|| इकवीसाए सबलेसुं, बावीसाए परीसहे । जे भिक्खू जयई नियं, से न अच्छर मंडले ॥ १५ ॥ तेवीस सुगडे, स्वाहिएस सुरेस य । जे भिक्खू जयई नियं से न अच्छ मंडले ॥ १६ ॥ पणवीसा भावणाहिं च, उद्देसेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई नियं, से म अच्छइ मंडले ||१७|| अणगारगुणेहिं च, पण पंमि तहेब य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छ मंडले १८ पावसुयपसंगेसु [य], मोहद्वाणेसु वेव य । जे भिक्खु जयई नियं, से न अच्छर मंडले ॥ १९ ॥ सिद्धाइगुणजोगेसु, तित्तीसासायणासु य । जे भिक्खू जयई नियं, से न अच्छर मंडले ॥ २० ॥ Education Intamational तत्र च 'एकतः' एकस्मात् स्थानादू विरतिं विरमणमुपरममितियावत् 'कुर्यात्' विदध्यात् 'एकतश्च' एकस्मिंश्थ, आद्यादित्वात्सप्तम्यन्तात्तसिः, 'चः' समुचये भिन्नक्रमः, प्रवर्त्तनं च कुर्यादिति सम्बन्धः । एतदेव विशेषत जाह'असंयमात्' हिंसादिरूपात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी 'निवृत्तिं च' परिहाररूपां 'संयमे' उक्तरूपे चस्य भिन्नक्रमत्वात्प्रवर्त्तनं च कुर्यादित्यनुवर्त्तते, चशब्दादुभयत्र परस्परापेक्षया समुचये । तथा 'रागद्वेषौ' उक्तरूपौ 'चः' पूरणे 'द्वौ' द्विससयौ, एतदभिधानं च प्राकृते द्वित्वबहुत्वयोः संदिग्धत्वाद् उक्तार्थानामध्यपूपौ द्वावानयेत्यादिवलोके प्रयोगदर्शनाच, 'पापी' कोपादिपापप्रकृतिरूपत्वात् पापकर्माणि मिध्यात्वादीनि प्रवर्त्तयतो- जनयत इति पापकर्मप्रवर्त्तको यः 'भिक्षुः' तपखी 'रुणद्धि' उदयस्य कथञ्चिदुदितयोर्वा प्रसरस्य निराकरणतस्तिरस्कुरुते 'नित्यं' सदा सः 'नास्ते' For Fans at Use Only www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~1221 ~ Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] दीप अनुक्रम [१२२७ -१२४५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६१२|| “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२-२०|| निर्युक्ति: [५१८...] Education intimational अध्ययनं [३१], न तिष्ठति मण्डले, पठन्ति च- 'से ण गच्छ मंडले' त्ति 'न' नैव 'गच्छति' याति भ्राम्यतीति योऽर्थः उभयत्र च | मण्डलशब्दस्य वृद्धव्याख्या - मण्डलग्रहणाचतुरन्तः संसारः परिगृह्यते, मुक्तिपदप्रासिश्चात्र हेतुः एवमुत्तरत्र सूत्रेप्वपि नित्यमित्यादि व्याख्येयम् । दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डा - दुष्प्रणिहितमानसादिरूपा मनोदण्डादयः, उक्तं हि "जह लोए दंडिज्जइ दबं हीरद य वज्झए यावि । इय दंडंतऽप्पाणं मणमाई दुप्पणिहिएहिं ॥ १ ॥ तेषां 'त्रिकं' मनोदण्डवाग्दण्डकायदण्डरूपं, तथा गुरुः- लाभाभिमानाच्यातचित आत्मैव तद्भावास्तस्य वैतान्यध्यवसानानि गौरवाणि तेषां 'त्रिकं' ऋद्धिगौरवरसगौरवसात गौरवात्मकं, तथा शल्यते-अनेकार्थत्वाद्वाध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि तेषां च 'त्रिकं' मायाशल्यनिदानशल्यमिध्याशल्यात्मकम् उभयत्र 'चः ' समुच्चये, त्रिकं त्रिकमिति च प्रत्येकं त्रैविध्याभिधानतो व्याख्यातमेव, यो भिक्षुः 'त्यजति' वर्जयति । दिव्यांश्चहास्यप्रद्वेषविमर्शपृथग्विमात्राभिर्देवविहितान् उप-सामीप्येन सृज्यन्ते देवादिभिरुत्पाद्यन्त इत्युपसर्गास्तान्, तथा 'तेरिच्छमाणुसे 'ति तिरश्चामेते भयप्रद्वेषाहारहेत्वपत्यलयनसंरक्षण देतोस्तैः क्रियमाणत्वात्तैरथाः तथा मानुषाणामेते हासप्रद्वेष विमर्श कुशीलप्रतिसेवनात्मक निमित्ततस्तैर्विधीयमानत्वान्मानुषकाश्च तैरश्वमानुषकास्तान् उपलक्षणत्वात्पूर्वत्र चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वाद्वाऽऽत्मसंवेदनीयांश्च घट्टनप्रपतनस्तम्भन श्लेषणोद्भवान् यो भिक्षुः ' सहते १ यथा लोके दण्ड्यते द्रव्यं हियते च वध्यते चापि । इति दण्डयन्त्यात्मानं मनआदीनि दुष्प्रयुक्तैः ॥ १ ॥ For Parts Only चरणवि ध्य० ३१ ~1222~ ॥६१२॥ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] सम्यगध्यास्ते । विरुद्धा विरूपा या कथा विकथा,सा च स्त्रीभक्तजनपदनृपतिभेदतश्चतुर्धा, कषायाः-क्रोधमानमायालो|भाः सज्ञा-आहारभयमैथुनपरिग्रहाख्याः, एषां कृतद्वन्द्वानां प्रत्येकं चतुष्कमिति शेषः, 'झाणाणं च'त्ति प्राकृतस्वाद ध्यानयोश्च द्विकमारौद्ररूपं तथा यो भिक्षुः 'वर्जयति' परिहरति, चतुर्विधत्वाच ध्यानस्यात्र प्रस्तावेऽभिधानम् । 'व्रतेषु' हिंसाऽनृतस्तेयात्रमपरिग्रहविरतिलक्षणेषु 'इन्द्रियार्थेषु' शब्दरूपरसगन्धस्पर्शेषु 'समिति समित्यध्ययना|भिहितासु च क्रियासु-कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीपारितापनिकीप्राणातिपातरूपासु, पठन्ति च 'समीतीसु य तहेव यत्ति, अत्र च चशब्दाक्रियासु चेति यो भिक्षुः 'यतते' यत्नं कुरुते यथावत्परिपालनातो व्रतसमितिले |माध्यस्थ्यविधानतश्चेन्द्रियार्थेषु परिहारतश्च क्रियासु । 'लेश्यासु' वक्ष्यमाणरूपासु 'पदसु कायेषु' पृथिव्यादिषु वक्ष्यमाणेष्वेव षङ्के पट्रपरिमाणे 'आहारकारणे वेदनादायुक्तरूपे यो भिक्षुः 'यतते' यथायोग निरोधोत्पादनरक्षानुरोधविधानेन यलं कुरुते । "पिण्डावग्रहप्रतिमासु' आहारग्रहणविषयाभिग्रहरूपासु संसृष्टादिष्वनन्तरा|ध्ययनोक्तासु सप्तखिति संवध्यते, तथा 'भयस्थानेषु' भयस्य-भवमोहनीयसमुत्थात्मपरिणामस्योत्पत्तिनिमित्ततयाऽऽश्रयेषु इहलोकादिषु प्रागुक्तरूपेषु 'सप्तसु' सप्तसङ्खयेषु यो भिक्षुः 'यतते' एकत्र तु पालनातोऽन्यत्र तदशेन भयाकरणतः । मदा-जातिमदादयः प्रागभिहिता अष्टौ तेषु, प्रतीतत्वाचेहान्यत्र च सूत्रे सङ्ख्यानभिधानं, ब्रह्म-वनचर्यं तस्य गोपनं गुप्तिर्यकाभिस्ता ब्रह्मगुप्तयो गमकत्वादहुव्रीहिस्तासु वसत्यादिषु नवसु, उक्तं च दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1223~ Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/ गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) चरणवि ध्यक प्रत सूत्रांक [२-२०] 4% उत्तराध्य- |"वसंहिकहणिसिर्जिदिय कुड़ितरपुवकीलियपणीए । अतिमायाहारविभूसणा य णव बंभगुत्तीओ ॥१॥" बृहद्भुत्तिः मिक्षुधर्मे 'दशविधे' क्षान्त्यादिभेदतो दशप्रकारे प्रागुक्त एव यो भिक्षुर्यतते यथावत्परिहारासेवनपरिपालनादिभिः। उपासते-सेवन्ते यतीनित्युपासका:-श्रावकास्तेषां 'प्रतिमासु' अभिग्रह विशेषरूपाखेकादशसु दर्शनादिपु, उक्तं हि'दसैणवयसामाइय पोसहपडिमाअभसचित्ते। आरंभपेसउद्दिवजए समणभूए य ११॥१॥" 'भिक्षूणां' वतीनां प्रतिमासु च' मासिक्यादिपु द्वादशसु, यत आगमः-"मासाई सर्तता पढमावितिततिय सत्तराइदिणा ।। अहराइएगराई भिक्खुपडिमाण वारसगं ॥१॥" यो भिक्षुर्यतते यथावत्परिज्ञानोपदेशपालनादिभिः। क्रियन्ते मिथ्यावादिकोडीकृतैर्जन्तुभिरिति क्रियाः-कर्मवन्धनिबन्धनभूताश्चेष्टास्ताखानर्थादिभेदतस्त्रयोदशसु, तथा चागमः"अट्ठाणहाहिंसाऽकम्हा दिछी य मोसऽदिण्णे य । अज्झत्थमाणमेचे मायालोभेरियावहिया ॥१॥" अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भूतानि-प्राणिनस्तेषां ग्रामाः-सङ्घाता भूतग्रामास्तेष्वेकेन्द्रियसूक्ष्मेतरादिभेदतश्चतुर्दशसु, उक्कं हि १ वसतिः कथानिषद्येन्द्रियाणि कुड्यान्तरं पूर्वक्रीडितं प्रणीतम् । अतिमात्राहारो विभूषणा च नव ब्रह्मगुप्तयः ॥ १॥ २ दर्शनं व्रतापनि सामायिक पोषधं प्रतिमा अब्रह्मचर्य सचित्तम् । आरम्भः प्रेष्य उद्दिष्टवर्जकः श्रमणभूतश्च ॥२॥ ३ मासादयः सप्तान्ताः प्रथमा द्विती- या तृतीया सप्तरात्रिदिनाः । अहोरात्रिकी एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकम् ॥ ३ ॥ ४ अर्थानर्थहिंसे अकस्मादृष्टिश्च भूषाऽदतं च ।। अध्यात्म मानो मैत्री माया लोभ ईयोपथिकी ॥५॥ दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] ६१३॥ JABERatinintamational Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1224 ~ Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) * प्रत सूत्रांक % [२-२०] "एगिदिय सहमियरा सनियरा पणिदिया सबितिचउ । पजत्तापजत्तगभेएणं चोहसग्गामा ॥१॥" धर्मेण । सचरन्ति धार्मिका येन तथा तेऽधार्मिकाः परमाश्च ते सकलाधार्मिकप्रधानतयाऽधार्मिकाच परमाधार्मिका:-18 अत्यन्तसंक्लिष्टचेतसोऽम्बादयस्तेषु, ते च पञ्चदश, यत उक्तम्-"अंबे १ अंबरिसी २ चेव, सामे ३ सबलेत्ति ४ आ-1 दावरे । रुद्दो ५ बरुद ६ काले य ७, महाकालेत्ति आवरे ८॥१॥ असिपत्ते ९ घण १० कूमे ११. चालू १२ वेय-15 रणी इय १३।खरस्सरे १४ महाघोसे १५, एए पण्णरसाहिया ॥२॥" तेषु यो भिक्षुर्यतते यथाक्रमं परिहाररक्षापरिज्ञानादिभिः। गीयते-शच्यते खपरसमयखरूपमस्यामिति गाथा-सूत्रकृताङ्गस्य षोडशमध्ययनम् , उक्तं हि-"गाहासोलसमं होइ अज्झयणं" ततश्च गायाध्ययनं पोडशं येषु तानि गाथाषोडशकानि शेषाद्विभाषेति (पा.५-४-१५४) कप,सुव्यत्ययात्तेषु समयादिषु सूत्रकृताध्ययनेषु, उक्तश्च-"समओ १ वेलालीयं २ उबसम्गपरिण ३ थीपरिषणा य ।। ४। णिरयविभत्ती ५ वीरथओ य ६ कसीलाण परिभासा ७॥१॥ वीरिय ८ धम्म ९ समाही १० मग्ग ११ समो-IA सरण १२ अहतह १३ गंथो १४ । यमदीयं १५ तह गाहा १६ सोलसमं होइ अज्झयणं ॥२॥” तथा संयमनं सं १ एकेन्द्रियाः सूक्ष्मा इतरे च संझिन इतरे पञ्चेन्द्रियाः सद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः । पर्याप्तापर्याप्तकभेदेन चतुर्दश प्रामाः ॥१॥२ अम्बोऽम्बर्षिश्चैव श्यामः शवल इत्यपर। रुद्र उपरुद्रः कालच महाकाल इति चापरः ॥ २॥ असिपत्रो धनुः कुम्भा वालुक: वैतरणिरिति ।। खरखरो महाघोषः एते पञ्चदशाख्याताः ॥ ३ ॥ - %A दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1225~ Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) चरणवि ३१ प्रत सूत्रांक [२-२०] उत्तराध्ययमोन संयमोऽसंयमः स च सप्तदशभेदः पृथिव्यादिविषयः, तथात्वं चास तत्प्रतिपक्षस्य संयमख सप्तदशभेद- त्वात्, यदुक्तम्-"पुढविदगअगणिमारुयवणप्फतीबितिचऊपणिदिअजीवे । पेहोपेहपमजणपरिट्ठवणमणोवईबृहद्वृत्तिः काए ॥१॥” तसिंच यो भिक्षुर्यतते एकत्र तदुक्तानुष्ठानतोऽन्यत्र तु परिहारतः । 'ब्रह्मणि' ब्रह्मचर्येऽष्टादशमे-10 ॥१४॥ दभिन्ने, उक्तं हि-"ओरालियं च दिवं मणवयकाएण करणजोएणं । अणुमोयणकारावणकरणाणटारसावभं ॥२॥"| ज्ञातानि-उदाहरणानि तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ज्ञाताध्ययनानि तानि चोक्षिप्तज्ञातादीन्येकानविंशतिस्तेषु, यदु-1 क्तम्-“उक्खित्तणाए १ संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे य ४ सेलए ५। तुंचे य ६ रोहिणी मल्ली८, मायंदी९ चंदिमा इय (१०॥१॥ दावदए ११ उदगणाए ११, मंडुको १३ तेयली इय १४॥णंदीफले १५ अबरकंका १६, आइण्णे १७ सुंस १८ पुंडरिए १९ ॥१॥" 'स्थानेषु' आश्रयेषु कारणेष्वितियावत् कस्येत्याह-समाधिः-समाधानं ज्ञानादिषु चित्री-|| कायं न समाधिरसमाधिस्तस्य, तानि च द्रुतं द्रुतं गमनादीनि विंशतिः, तथा च समवायानम्-"वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तंजहा-दवदवचारी यावि भवति १ अपमजचारी आवि भवति २ दुप्पमज्जियचारि यावि भवति ३| १ औदारिकं च दिव्यं मनोवचःकायेन करणयोगेन । अनुमोदनकारणकरणान्यष्टादशधाऽब्रह्म ॥१॥२ विंशतिरसमाधिस्थानानि | प्राप्तानि, तपधा-द्रुतं द्रुतं चारी चापि भवति १ अप्रमृज्यचारी चापि भवति २ दुष्प्रमृज्यचारी चापि भवति ३ दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] ॥६१४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~12264 Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-] / गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] अतिरित्तसेजासणिए ४ रायणियपरिभासी ५ थेरोवघातिए ६ भूतोवघातिए ७ संजलणे ८ कोहणे ९ पिटिमंसिए १० अभिक्खणं ओहारइत्ता भवति ११ णवाणं अहिगरणाणं अणुप्पन्नाणं उप्पाएत्ता भवति १२ पोराणाणं अहिगरणाणं खामियविओसबियाणं पुणोदीरिता भवति १३ ससरक्खपाणिपाए १४ अकालसज्झायकारए दियापि भवति १५ सहकरे १६ कलहकरे १७ झंझकरे १८ सूरप्पमाणभोई १९ एसणाअसमिई यापि भवति २०॥" यो भिक्षुर्यतते रक्षापरिज्ञानपरिहारादिभिः । एकविंशतो शबलयन्ति-कर्बुरीकुर्वन्त्यतीचारकलुषीकरणतश्चारित्रमिति शवला:-क्रियाविशेषास्तेषु, तथा चाह-"अवराहमि पयणुगे जेण य मूलं ण वच्चए साहू । सबलेंति तं चरित्तं तम्हा सबलत्ति णं भणियं ॥१॥" तानि च हस्तकर्मादीन्येकविंशतिः, तथा चागमः-"तं जह उ हत्थकम्मं कुर्वते १ मेहुणं च सेवंते २ । राई च भुंजमाणे ३ आहाकम्मं च भुंजए ४ ॥१॥ तत्तो य रायपिंडं ५ कीयं ६ पामिच ७ १ अतिरित्तशय्यासनिकः राजिकपरिभाषी स्थविरोपघाती भूतोपघाती संज्वलनः क्रोधनः पृष्ठमासिकः अभीक्षणमवधारयिता भवति नवानामधिकरणानामनुत्पन्नानामुत्पादयिता भवति पुराणानामधिकरणानां क्षामितव्युत्सृष्टानां पुनरुदीरविता भवति सरजस्कपाणिपादः | अकालस्वाध्यायकारकचापि भवति शब्दकरः कलहकरः झन्झाकरः सूर्यप्रमाणभोजी एषणायामसमितश्चापि भवति । २ अपराधे प्रतनुके थेन च मूलं न प्राप्नोति साधुः । शबलयन्ति तचारित्रं तस्मात् शबला इति भणिताः॥१॥ ३ तद्यथा हस्तकर्म कुर्वन् मैथुनं च सेवमानः । रात्री भुजान आधाकर्म भुजानः ॥ १॥ ४ ततश्च राजपिण्ड की प्रामित्यं दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1227~ Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२-२०] पत्तराध्य. अभिहई ८च्छेज ९ । मुंजते सबले ऊ९ पञ्चक्खियऽभिक्टभुजते १०॥२॥छम्मासऽभतरो गणा गणं सचरणविसंकमं करेंते य ११ । मासभंतर तिन्नि य दगलेवा ऊ करेमाणे ॥३॥ मासमंतरओ या माइट्ठाणाई तिण्णि|| ध्य०३१ | कुणमाणे १२ । पाणातिवायआउटिं कुच्चन्त १३ मुसं वयंते य १४ ॥४॥ गिण्हते य अदिन्नं १५ आउट्टियंस ॥१५॥1 तह अणंतरहियाए । पुढपीए ठाणसेजाणिसीहियं वावि चेएति १६ ॥५॥ एवं ससिणद्धाए ससरक्खाए चित्त है मन्तसिललेलू । कोलापासपइट्ठा कोल घुणा तेसि आवासे १७॥६॥ संडसपाणसबीए जाव उ सन्ताणए भवे तहियं । ठाणादिचेयमाणे सबले आउट्टियाए उ १८॥७॥ आउट्टिमूलकन्दे पुप्फे य फले य बीय हरिए य । भुंजते सबले ऊ १९ तहेव संवच्छरस्संतो॥८॥दस दगलेवे कुवंत माइट्ठाणा दस य परिसंतो २० आउट्टियसीओ-2 * अभ्याहृतं आच्छेयम् । भुजानः शबल एव प्रत्याख्यायाभीक्ष्णं भुखानः ।। २।। षण्मास्यभ्यन्तरे गणा गणं संक्रम कुर्वश्च । मासाभ्यन्तरे तात्रीच दकलेपान कुर्षस्तु ॥३॥ मासाभ्यन्तरतश्च मातृस्थानानि त्रीणि कुर्वन् । पाणातिपातमाकुट्टपा कुर्वन भूषा पदंश्च ।। ४ ।। गृहत्यदत्ते || चाकुट्टया तथाऽनन्तरायां पृथिव्यां स्थानशय्यानैपेधिकीर्वापि चेतयति ॥५॥ एवं सस्निग्धायां सरजस्कायां चित्तवच्छिलालेलुमत्यां। ॥६१५॥ | कोलावासप्रतिष्ठायां कोला घुणास्तेषामावासे ॥६॥ साण्डसप्राणसबीजं यावत् ससंतानकं भवेत् तत्र । स्थानादि कुर्वन् शबल आकुट्टथैव | ॥ ७॥ आकुटथा मूलानि कन्दान पुष्पाणि फलानि च बीजानि हरितानि च । भुजानः शबलस्तु तथैव संवत्सरस्यान्तः ।। ८॥ दश | उदकलेपान् कुर्वन् मातृस्थानानि दश च वर्षस्यान्तः आकुट्टया दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1228~ Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/ गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] देगवग्धारियहत्थमत्ते य ॥९॥दवीए भायणेण य दिजन्तं भत्तपाण घेत्तूणं । भुंजइ सबलो एसो, इगविसो होइणाययो। ॥१०॥ 'बावीसपरीसह'त्ति द्वाविंशती 'परीषहेपु' परीपहाध्ययनेनाभिहितखरूपेषु यो भिक्षुर्यतते परिहारादि(धि)सहनादिभिः । त्रिभिरधिका विंशतिस्त्रयोविंशतिः, 'त्रयस्खयश्चेति (पा०६-३-४८ खयः) त्रयसादेशः, तत्सङ्ख्याध्ययनयोगात्रयोविंशतिसूत्रकृतं तस्मिन् , त्रयोविंशतिसूत्रकृताध्ययनानि च पुण्डरीकादीनि सप्त पोडश च समयादीनि, तथा चाह-"पुंडरीय १ किरियठाणं २ आहारपरिण ३ पञ्चखाणं ४ च । अणगार ५ अद्द ६ णालंद ७ सोलसाइंच तेवीसं ८॥" तथा रूपम्-एकस्तेनाधिकाः प्रक्रमात्सूत्रकृताध्ययनेभ्यो रूपाधिकाश्चतुर्विंशतिरित्यर्थ-15 तेषु, केषु ? इत्याह-सुरेषु, पठन्ति च-देवेषु, तत्रच दीव्यन्ति-क्रीडन्तीति देवा-भवनपत्यादयस्तेषु, यदिवां दीन्यन्ते|स्तूयन्ते जगत्रयेणापीति देवाः-अर्हन्तस्तेषु ऋषभादितीर्थकरेषु, उक्तं च-"भवणवणजोइवेमाणिया य दस अट्ठ पंच एगविहा । इति चउवीसं देवा केई पुण बेंति अरहंता ॥१॥" यो भिक्षुर्यतते यथावत्प्ररूपणादिना । 'पणवीसत्ति 'पञ्चविंशतो' पञ्चविंशतिसङ्खचासु 'भावणाहिँति भाव्यन्त इति भावनाः, ताश्चेह महाव्रतविषया ईर्यासमितियत्नादयः परिगृह्यन्ते, सुव्यत्ययात्तासु, उक्तं हि-"पणवीसं भावणाओ पण्णत्ताओ, तं०-इरियासमिति १ मण १ शीतोदकछिन्ने हस्ते मात्रे च ।। ९॥ दा भाजनेन च दीयमानं भक्तपाने गृहीत्वा । भुनक्ति शवल एष एकविंशतितमो भवति ज्ञातव्यः॥१०॥ दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1229~ Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] गुत्ती २ वयगुत्ती ३ आलोइऊण पाणभोयण ४ आयाणभंडणिक्खेवणासमिई ५, अणुवीइभासणया १ कोहविवेगे उत्तराध्य. २ लोहविवेगे ३ भयविवेगे ४ हासविवेगे ५, उग्गहमणुण्णवणया १ उग्गहसीम जाणणया २ सयमेव उग्गह है बृहद्वृत्तिः अणुण्णविय परिभुंजणया ४ साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय परिभुजणया ५, इत्थिपसुपंडयसंसत्तसयणासणवजणया ध्य०३१ ॥६१६॥ १ इत्थिकहविवजणया २ इत्थीण इंदियाणि आलोयणवजणया ३ पुधरयपुरकीलियाणं विसयाणं असरणया ४ पणीयाहारविवजणया ५, सोइंदियरागोवरई, एवं पंचषि इंदिया ॥" 'उद्देशेष्वि'त्युपलक्षणत्वादुद्देशनकालेषु । ४ दशादीना-दशाश्रुतस्कन्धकल्पव्यवहाराणां पड़िशतिसङ्खयेष्विति शेषः, उक्तं हि-"दस उद्देसणकाला दसाण कप्पस्स है होति छच्चेच । दस चेव य ववहारस्स हुंति सत्वेऽवि छबीसं ॥१॥" यो भिक्षुर्यतते सर्वदा परिभावना प्ररूपणाकालग्रहणादिभिः । अनगारः प्राग्वत्तस्य गुणा:-प्रतषदेन्द्रियनिग्रहादयः सप्तविंशतिः सुब्व्यत्ययात्रेषु च, उक्त |हि-"वयछक्क ६ मिदियाणं च निग्गहो ११ भाव १२ करणसचं च १३ । खमया १४ विरागयाविय १५ मणमाईर्ण |णिरोहो य १८ ॥१॥ कायाण छक २४ जोगम्मि जुत्तया २५ बेयणाहियासणया २६ । तह मारणतियहियासणया २७ एएऽणगारगुणा ॥२॥" प्रकृष्टः कल्पो-यतिव्यवहारो यस्मिन्नसी प्रकल्पः स चेहाचारानमेव शस्त्रपरि ॥६१६॥ | ज्ञाद्यष्टाविंशत्यध्ययनात्मकं तस्मिन् , उक्तं च-"सत्थपरिण्णा १ लोगविजओ २ सीओसणिज ३ सम्मत्तं ४ । आवंति || ५ धुव ६ विमोहा ७ उवहाणसुयं ८ महपरिषणा ९ ॥१॥ पिंडेसण १० सेजि ११ रिय १२ । भासा १३ वत्थे दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1230~ Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] दीप अनुक्रम [१२२७ -१२४५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२-२०|| निर्युक्ति: [५१८...] अध्ययनं [३१], सणा य १४ पाएसा १५। उग्गहपडिमा १६ सत्तिक्कसत्तया १७ भावण २४ विमुती २५ ॥ १ ॥” “उग्धाय २६ मणुग्धायं २७ आरोवण २८ तिविमो निसीहं तु । इह अठ्ठावीसविहो आयारपकप्पनामो उ ॥ १ ॥” मासिक्याद्यारोपणात्मके वा समवायाङ्गाभिहितेऽष्टाविंशतिविधे प्रकल्पे 'तथैव' तेनैव यथावदासेवनाप्ररूपणादिना प्रकारेण 'तुः' समुचये भिक्षुयेतते ॥ पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि तेषु प्रसञ्जनानि प्रसङ्गाः - तथाविधासक्तिरूपाः पापश्रुतप्रसङ्गाः, ते चाष्टा|ङ्गनिमित्तसूत्रादिविषयभेदादेकोनत्रिंशत्तेषु, उक्तं हि "अट्ठनिमित्तंगाई दिप्पायंतलिक्ख भोमं च । अंगं सरलक्खण वंजणं च तिविदं पुणोकेकं ॥ १ ॥ सुतं वित्ती तह वित्तियं च पावसुय अउणतीसविहं। गंधचनवत्थं आउं धणुवेयसंजुतं ॥ २ ॥ " मोहो-मोहनीयं तिष्ठति कोऽर्थः १-निमित्ततया वर्त्तते एतेष्विति मोहस्थानानि - वारिमध्याय ममत्रसप्राणमारणादीनि त्रिंशत्तेषु, उक्तं हि "बोरिमज्झेऽवगाहित्ता, तसे पाणेय हिंसति । छाएउ मुहं हत्थेणं, अंतोणाई गलेरयं २ ॥१॥ सीसा - बेढेण वेढित्ता, संकिलेसेण मारए। सीसम्मि जे य आहंतु, दुहमारेण हिंसए ४ ॥ २॥ बहुजणस्स णेयारं, दीवं ताणं च १ अष्टौ निमिताङ्गानि दिव्यमौत्पातं आन्तरिक्षं भौमं च आनं खरलक्षणे व्यञ्जनं च त्रिविधं पुनरेकैकम् ॥ १ ॥ सूत्रं वृत्तिस्तथा वार्त्तिकं च पापभुतमेकोनत्रिंशद्विधं । गान्धर्वनाट्यवास्त्वायुर्धनुर्वेदसंयुक्तम् ॥ २ ॥ २ वारिमध्येऽवगाह्य श्रसान् प्राणान् विहिंसति । छादयित्वा मुखं हस्तेनान्तर्नादं प्रीवारवं (गलेखं) ||१|| शीर्पावेष्टेन वेष्टयित्वा संकेशेन मारयेत् । शीर्षे आइय च दुःखमारेण हिनस्ति ||२|| बहुजनस्य नेतारं द्वीपं त्राणं च Education international For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 1231 ~ Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-] / गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२०] उत्तराध्य. पाणिणं ५ । साहारणे गिलाणमि पहूकिच्चं ण कुवति ६ ॥३॥ साहुं अकम्मधम्मो उ, जो भंसेज उवट्टियं चरणविबृहद्वृत्तिः णियाउयस्स मग्गस्स, अवगारंमि बद्दति ॥४॥ जिणाणणंतनाणीणं, अवण्णं जो पभासए । आयरियउवज्झाए, ध्य०३१ खिसए मंदबुद्धिए ९॥५॥तेसिमेव य णाणीणं, सम्म णो परितप्पई १० । पुणो पुणो अहिगरणं, उप्पाए ॥६१७॥ ११तित्थभेयए १२॥६॥ जाणं आहम्मिए जोए, पउंजति पुणो पुणो १३ । कामे बमित्ता पत्थेइ, इहउण्ण-12 भविए इ वा १४ ॥७॥ अभिक्खं बहुस्सुएऽहंति, जे भासंतऽबहुस्सुए १५ । तहा य अतवस्सीवि, जे तवस्सित्तिहं वए १६ ॥ ८॥ जायतेएण बहुजणं, अन्तोधूमेण हिंसए १७ । अकिचमप्पणा काउं, कयमेएण भासते १८ ॥९॥ |णियडुवहिपणिहीए पलियंचे सायजोगजुत्ते य १९ । बेह सर्व मुसं वयसि २०, अज्झीणं झंझए सया २१ । ॥१०॥ । १ प्राणिनाम् । साधारणे ग्लाने प्रभुकार्य न करोति॥३॥साधुमधर्मकर्मा तु यो भ्रंशयति उपस्थितं । नैयायिकस्य मार्गस्यापकारे वर्तते ॥४॥ जिनानामनन्तज्ञानिनामवज्ञा यस्तु प्रभाषते । आचार्योपाध्यायान् खिंसति मन्दबुद्धिकः ॥५॥ तेषामेव च ज्ञानिनां सम्यक् नो प्रतिचार करोति । पुन: पुनरधिकरणमुत्पादयति तीर्थभेदकश्च ॥ ६ ॥ जानन् आधर्मिकान् योगान् प्रयुणक्ति पुनः पुनः। कामान् वान्त्वा प्रार्थयते । इहान्यभविकान् वा ॥ ७॥ अभीक्ष्णं बहुक्षुतोऽहमिति यो भाषतेऽबहुश्रुतः । तथा चातपखीति यस्तपस्यहमिति वदति ॥ ८॥ जाततेज-2॥१७॥ सा बहुजनमन्तधूमेन हिनस्ति । अकृत्यमात्मना कृत्वा कृतमेतेनेति भाषते ॥ ९ ॥ निकृत्युपधिप्रणिधिकः परिकुथकः सातियोगयुक्तश्च । जूते सर्व मृषा वदसि अङ्केशं छेशयति सदा ॥१०॥ दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] arwanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1232 ~ Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-]/गाथा ||२-२०|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) 45 प्रत सूत्रांक [२-२०] Hद्धाणमि पवेसित्ता, जो धणं हरइ पाणिणं २२ । वीसंभेत्ता उवाएणं, दारे तस्सेव लुब्भति २३ ॥११॥ अभिक्खमकु-4 मारे उ, कुमारेऽहन्ति भासए २४ । एवमबंभयारिं बंभयारित्ति भासए २५॥ १२॥ जेणेयेसरीयं णीए, वित्ते तस्सेव लुभए २६ । तप्पहाबुढ़िए वावि, अन्तरायं करेति से २७ । ॥ १३॥ सेणावतिं पसत्यारं, भत्तारं वावि हिंसए। रहस्स वापि णिगमस्स, णायर्ग सेट्ठिमेव वा २८ । ॥१४॥ अपस्समाणो पस्सामि, अहं देवत्ति वा वए २९ । अवपणे |च देवाण, महामोहं पकवति ३० । ॥१५॥" यो भिक्षुर्यतते तत्परिहारद्वारतः । सिद्धाः-सिद्धिपदप्रासास्तेपामादी-1 प्रथमकाल एवातिशायिनो वा गुणाः सिद्धादिगुणाः सिद्धातिगुणा वा-संस्थानादिनिषेधरूपा एकत्रिंशत्, उक्तं हि-14 "पडिसेहणसंठाणे वण्ण गंधरसफासवेए य । पणपणदुपणट्ठतिहा इगतीसमकायऽसंगऽरहा ॥१॥ अहवा कम्मे-1 प्रणव दुरिसणंमि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते । सेसे दो दो भेया खीणभिलावेण इगतीसं ॥२॥" तथा 'जोग'-6, |ति पदेकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनाद् योगसङ्कहा योगाः-शुभमनोवाकायन्यापाराः सम्यग् गृबन्ते-खीक्रियन्ते ते आलोचनानिरपलापादयो द्वात्रिंशत् , उक्तं हि-"आलोयणा १ निरवलावे २, आवईसु दढधम्मया ३। अणस्सिओ १ अध्वनि प्रवेश्य यो धनं हरति प्राणिनाम् । विशम्भ्योपायेन दारेषु वस्य लुभ्यति ॥१शा अभीक्ष्णमकुमारोऽपि कुमारोऽहमिति भाषते ।। एवमनवाचार्यपि मह्मचारीवि भाषते २५ ॥१२॥ येनैवैश्वर्य प्रापितो विते तस्यैव लुभ्यति । सत्प्रभावोत्थितश्चापि अन्तरायं करोति तस्य ।।१३॥ सेनापति प्रशास्तार भरि वा विहिनस्ति । राष्ट्रस्य वापि निगमस्य, नायकं श्रेष्ठिनमेव वा ॥ १४ ॥ अपश्यन् पश्याम्यहं देवानिति वा वदेत् ।। ६ अवर्णेन च देवानां महामोइं प्रकरोति ॥ १५ ॥ % % दीप अनुक्रम [१२२७-१२४५] % % JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1233~ Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३१], मूलं [-] / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [५१८...] (४३) प्रत सुत्रांक [२१] उत्तराध्य. वहाणे य ४, सिक्खा ५णिप्पडिकम्मया ६ ॥१॥ अण्णाणया ७ अलोमे य८, तितिक्षा ९ अज्जवे १० सुई। सदाचरणवि११ । सम्मदिट्ठी १२ समाही य १३, आयारे १४ विणओवए १५॥२॥ धिईमई य १६ संवेगो १७, पणिही बृहद्वृत्तिः |१८ सुविही १९ संवरे २० । अत्तदोसोपसंहारे २१, सबकामविरत्तया २२ ॥३॥पचक्खाणे २३ विउस्सग्गे २४, ॥११॥ || अप्पमाए २५ लवालवे २६ । झाणं २७ संवरजोगे २८ य, उदए मारणंतिए २९ ॥ ४॥ संगाणं च परिणाया ३०,15 दिपायच्छित्तकरणे इय ३१ । आराहणा य मरणते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥५॥" ततो इन्हे सिद्धादिगुणयोगाः आसिद्धातिगुणयोगा वा तेषु, 'तिचीसासायणासु यति त्रयस्त्रिंशत्सझ्याखाशातनास चोक्तशब्दार्थाखर्हदादिविषयासु प्रतिक्रमणसूत्रप्रतीतासु रत्नाधिकस्य पुरतः शिक्षकगमनादिकासु वा समवायाङ्गाभिहितासु यो भिक्षुर्यतते यथायोग सम्यश्रद्धानासेवनावर्जनादिनेत्येकोनविंशतिसूत्रार्थः ॥ अध्ययनार्थ निगमयितुमाहहै। इइ एएसु जे भिक्खू, ठाणेसु जयई सया । खिप्पं से सब्वसंसारा, विष्पमुच्चइ पंडिए ॥ २१॥ तिमि ॥ ॥चरणविहिज्वं ।। ३१ ॥ 'इती' सनेन प्रकारेण 'एतेषु' अनन्तरोक्तरूपेषु 'स्थानेषु' असंयमादिषु यो भिक्षुः 'यतते' उक्तन्यायेन यत्नवान् । भवति सदा क्षिप्रं स सर्वसंसाराद्विप्रमुच्यते पण्डित इति सूत्रार्थः । इति' परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । अवसित-1 श्वानुयोगो, नयाश्च प्राग्वत् ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां शिष्यहितायामेकत्रिंशं चरणविध्यध्ययनं समासमिति ॥ दीप अनुक्रम [१२४६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- ३१ परिसमाप्तं ~ 1234 ~ Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||२१...|| नियुक्ति: [५१९-५२१] (४३) ॥अथ प्रमादस्थानाख्यं द्वात्रिंशमध्ययनम् ॥ प्रत सुत्रांक [२१] व्याख्यातं चरणविधिनामकमेकत्रिंशमध्ययनम् ,इदानी द्वात्रिंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने नेकधा चरणमभिहितं, तच प्रमादस्थानपरिहारत एवासेवितुं शक्यं, तत्परिहारश्च तत्परिज्ञानपूर्वक इति तदर्थमिदमारभ्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि यावन्नामनिष्पन्न निक्षेपस्तावत्पूर्ववदेवेति मनसाधाय नामनिष्पन्ननिक्षेपाभिधानायाह नियुक्तिकृत्|निक्खेवो अपमाए चउबि० ॥५१९ ॥ जाणग० तवइरिते अ मजमाईसु । निदाविकहकसाया विसएसु भावओ पमाओ ॥ ५२० ॥ नामं ठवणादविए खित्तद्धा उड्ड उवरई वसही। संजमपग्गहजोहे अयलगणणसंधणा भावे ॥५२९॥ णिक्खेवेत्यादिगाथास्तिस्रः सुगमा एव, नवरं 'मजमाईसु'त्ति मकारोऽलाक्षणिको मदयतीति मद्य-काष्ठपिष्टनिष्पन्नमादिशब्दादासवादिपरिग्रहः एतानि, सुब्ब्यत्ययाच प्रथमार्थे सप्तमी, भावप्रमादहेतुत्वाव्यप्रमादः, 'निद्रा दीप अनुक्रम [१२४६] ४ JABERatinintamational Dinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्तिः अथ अध्ययनं - ३२ "प्रमादस्थानं" आरभ्यते ~1235~ Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२१...|| नियुक्ति: [५१९-५२१] (४३) बृहदृत्तिः प्रत सुत्रांक [२१] उत्तराध्य. विकथाकषायाः उक्तरूपाः 'विसए'त्ति प्राग्वद्विषयाश्च 'भावतः' भावमाश्रित्य प्रमादः । तथा स्थाननिक्षेपे प्रस्ता-प्रमादस्थावात्स्थानशब्दो नामादिभिः प्रत्येकं योज्यते, तत्र च द्रव्यस्थान-नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं यत्सचित्ता ना०३२ दिद्रव्याणामाश्रयः, क्षेत्रस्थान-भरतादिक्षेत्रमूर्ध्वलोकादि वा यत्र वा क्षेत्रे स्थानं विचार्यते, अद्धा-कालः सैव तिष्ठत्स-11 स्मिन्निति स्थानमद्धास्थानं तच पृथिव्यादीनां भवस्थित्यादि समयावलिकादि वा, ऊर्द्धस्थानं-कायोत्सर्गादि उपरतिः-विरतिस्तत्स्थानं यत्रासौ गृह्यते, वसतिः-उपाश्रयस्तत्स्थानं ग्रामारामादि संयमः-सामायिकादिस्तस्य स्थानं-12 प्रकर्षापकर्षवदध्यवसायरूपं, यत्र संयमस्यावस्थानं, तचासङ्खयेयभेदभिन्नं, तथाहि-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरि-II हारविशुद्धिकानां प्रत्येकमसङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणानि संयमस्थानानि, सूक्ष्मसम्परायसंयमस्त्वान्तमौकर्तिक । इत्यन्तर्मुहूर्त्तसमवपरिमाणानि तत्स्थानानि, यथाख्यातसंयमस्तु प्रकर्षापकर्षरहित एकरूप एवेत्येकमेव तत्स्थानम्, |एवं च सामायिकादीनामसङ्खयेयभेदत्वात्समुदायात्मकस्य संयमस्थानस्याप्यसञ्जयेयभेदता, केवलमिह बृहत्तरमस येयं गृह्यते, असङ्ख्यातानामसङ्ख्यातभेदत्वात् , 'प्रग्रहस्थान' तु प्रकर्षण गृह्यतेऽस्य वचनमिति प्रग्रहः-उपादेयवा-2 क्योऽधिपतित्वेन स्थापितः, स च लौकिको लोकोत्तरतश्च तस्य स्थानं, तच लौकिकं पञ्चधा-राजयुवराजमहत्तरामा- ॥१९॥ जयकुमारभेदात् , लोकोत्तरमपि पञ्चधैव-आचार्योपाध्यायप्रवृत्तिस्थविरगणावच्छेदकभेदात् , 'योधस्थानम्' आलीढादि । 'अचलस्थानं' निश्चलस्थितिरूपं, तत्र सादिसपर्यवसितादि परमाण्वादीनां, गणनास्थानम्-एककादि सन्धानस्थानं SEARCH दीप अनुक्रम [१२४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1236~ Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२१...|| नियुक्ति: [५१९-५२१] (४३) * SASSACS *% प्रत सुत्रांक [२१] द्रव्यतः कशुकादिगतं भावस्थानम्-औदयिकादिको भावस्तिष्ठन्यत्र जन्तय इतिकृत्वेति गाथात्रयार्थः ॥ सम्प्रति येनात्र प्रकृतं तदुपदर्शयन्नुपदेशसर्वस्खमाहभावप्पमाय पगयं संखाजुत्ते अभावठाणंमि । चइऊणं च (ण इइ)पमायं जइयत्वं अप्पमायंमि ॥५२२॥ भावप्रमादेन उक्तरूपेण प्रकृतम्-अधिकारः, तथा 'संख'त्ति सङ्ख्यास्थानं तद्युक्तेन, चख भिन्नक्रमत्वाद्भावस्थानेन । ४च, कोऽर्थः-साधास्थानेन च, सर्वत्र सुव्यत्ययेन सप्तमी, अत्र हि गुरुवृद्धसेवाद्यभिधानतः प्रकामभोजनादिनिषेध-12 ततश्च भावप्रमादा निद्रादयोऽर्थात्परिहत्तव्यत्वेनोच्यन्ते, ते चैकादिसडबायोगिन औदयिकमावखरूपाश्चेति भावः, 'त्यक्त्वा' विहाय 'इती'त्येवंप्रकार प्रमाद, किमित्याह-'यतितव्यं' यत्नो विधेयः, क ?-'अप्रमादे' प्रमादप्रतियोगिनि धर्म प्रत्युद्यम इति गाथार्थः ।। अस्यैवार्थस्य दृढीकरणार्थमुत्तमनिदर्शनमाहवाससहस्सं उग्गं तवमाइगरस्स आयरंतस्स । जो किर पमायकालो अहोरत्तं तु संकलिअं ॥५२३॥ बारसवासे अहिए तवं चरंतस्स वद्धमाणस्स । जो किर पमायकालो अंतमुहुत्तं तु संकलिअं॥५२४॥ 'वर्षसहस्रमिति कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, ततश्च वर्षसहस्रप्रमाणं कालं यावत् 'उग्रम्' उत्कटं 'तपः' अनश % % % दीप अनुक्रम [१२४६] % % % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1237~ Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [२१] दीप अनुक्रम [१२४६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६२०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२१...|| अध्ययनं [३२], नादि 'आदिकरस्य' ऋषभनानो भगवत आचरतो यः किलेति परोक्षासवादसूचकः 'प्रमादकाल : ' यत्र प्रमादोs - भूत् यत्तदोरभिसम्बन्धात्सोऽहोरात्रं 'तुः' अवधारणे ततोऽहोरात्रमेव, किमयमेकावस्थाभाविनः प्रमादस्य काल उतान्यथेत्याशङ्कयाह-सङ्कलितः, किमुक्तं भवति ? - अप्रमादगुणस्थानस्यान्त मौहूर्त्तिकत्वेनानेकशोऽपि प्रमादप्राप्तौ तदवस्थितिविषयभूतस्यान्तर्मुहूर्त्तस्याङ्खयेय भेदत्वात्तेषामतिसूक्ष्मतया सर्वकालसङ्कलनायामप्यहोरात्रमेवाभूत् । तथा द्वादश वर्षाण्यधिकानि तपश्वरतो वर्द्धमानस्य यः किल प्रमादकालः प्राग्वत्सोऽन्तर्मुहूर्त्तमेव सङ्कलितः, इहाप्यन्तर्मुहूर्त्तानाम सङ्घ धेय भेदत्वात्प्रमादस्थितिषिषयान्तर्मुहूर्त्तानां सूक्ष्मत्वं सङ्कलनान्तर्मुहूर्त्तस्य च बृहत्तरत्वमिति भावनीयम्, अभ्ये त्वेतदनुपपत्तिभीत्या निद्राप्रमाद एवायं विवक्षित इति व्याचक्षत इति गाथाद्वयार्थः ॥ इत्थमुत्तमनिदर्शनाभ्या| मप्रमादानुष्ठाने दार्श्वमापाद्य विपर्यये दोषदर्शनद्वारेण पुनस्तदेवापादयितुमिदमाह -- Education infamational जेसिं तु पमाएणं गच्छइ कालो निरत्थओ धम्मे । ते संसारमणंतं हिंडंति पमायदोसेणं ॥ ५२५ ॥ 'येषां' प्राणिनां 'तुः' पूरणे प्रमादेनोपलक्षितानां 'गच्छति' व्रजति कालः 'निरर्थकः' निष्प्रयोजनः, क ? - 'धर्मे' धर्मविषये धर्मप्रयोजनरहित इत्यर्थः, प्रमादतो हि नश्यन्त्येव धर्मप्रयोजनानि, ते किमित्याह - संसारम् 'अनन्तम्' अपर्यवसितं 'हिण्डन्ते' भ्राम्यन्ति 'प्रमाददोषेण' हेतुनेति गाथार्थः ॥ यतश्चैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह निर्युक्ति: [५२३-५२४] Forest Use Only ~1238~ प्रमादस्था ना० ३२ ॥६२०॥ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/गाथा ||१|| नयुक्ति : [५२६] (४३) प्रत * सूत्रांक तम्हा खलुप्पमायं चइऊणं पंडिएण पुरिसेणं । दसणनाणचरिते कायवो अप्पमाओ उ॥ ५२६ ॥ तस्मात् 'खलु' निश्चयेन प्रमादं त्यक्त्वा 'पण्डितेन' बुद्धिमता पुरुषेण उपलक्षणत्वात्ल्यादिना च, दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं चेति समाहारस्तस्मिन मुक्तिमार्गतया प्रागभिहिते 'कर्जव्यः' विधेयः 'अप्रमादः' उद्यमः 'तुः' अवधार-11 ४ाणार्थ इत्यप्रमाद एव न तु कदाचित्प्रमादः, तस्यैवं दोषदुष्टत्वादिति गाथार्थः । इत्यवसितो नामनिष्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् अचंतकालस्स समूलयस्स, सब्बस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्यो। तं भासओ मे पडिपुन्नचित्ता, सुणेह एगग्गहियं हियस्थं ॥१॥ __ अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो, वस्तुनश्च द्वावन्तौ-आरम्भक्षणः समासिक्षणच, तथा चान्यैरप्युच्यते-"उभयान्तापरिसाच्छिन्ना वस्तुसत्ता नित्यते" ति, तत्रेहारम्भक्षणा(णलक्षणोऽन्तः परिगृखते, तथा चात्यन्तः-अनादिः कालो यस्य | सोऽयमसन्तकालस्तस्य, सह मूलेन-कषायाविरतिरूपेण वर्तत इति समूलकः(कः)प्राग्वत्तस्य,उक्त हि-"मूलं संसारस्स उ हुति कसाया अविरती य" 'सर्वस्य निरवशेषस्य, दुःखयतीति दुःख-संसारस्तस्य, असातं चेह दुःखं गृह्यते, अत्र च पक्षे मूलं रागद्वेषौ, यः प्रकर्षेण मोक्षयति-मोचयतीति प्रमोक्ष-आत्मनो दुःखापगमहेतुः, पूर्वत्र तुशब्दस्यावधारणा१ मूलं संसारम तु भवन्ति कषाया अविरतिश्च दीप अनुक्रम [१२४७] % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1239~ Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१२६...] (४३) उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः १६२१॥ प्रत सूत्रांक येह सम्बन्धात्प्रमोक्ष एव, तं 'भाषमाणस्य' प्रतिपादयतः, यदिवा प्रमोक्षः-अपगमतं भाषमाणस्पति, कोऽर्थः - प्रमादस्थायथाऽसौ भवति तथा ब्रुवाणस्य 'मे' मम प्रतिपूर्ण-विषयान्तरागमनेनाखण्डितं चित्तं चिन्ता वा येषां ते प्रतिपूर्ण ना० ३२ चित्ताः प्रतिपूर्णचिन्ता वा 'शृणुत' आकर्णयत, एकाग्रस्य-एकालम्बनस्यार्थाचेतसो भाव एकाग्र्यं-ध्यानं तच प्रक्रमाद्धादि तस्मै हितमेकाम्यहितं, पाठान्तरत-एकान्तहितं वा हितः-तत्त्वतो मोक्ष एव तदर्थमिति सूत्रार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह णाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसुक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२॥ 'ज्ञानस्य' आभिनियोधिकादेः 'सर्वस्य' निरवशेषस्य पाठान्तरतः 'सत्यस्य या' अवितथस्य 'प्रकाशनया' इति प्रभा-14 सनया निर्मलीकरणेनेत्यर्थः, अनेन ज्ञानात्मको मोक्षहेतुरुक्तः, तथा अज्ञानं-मत्यज्ञानादि मोहो-दर्शनमोहनीयमनयोः समाहारेऽज्ञानमोहं तस्य विवर्जना-परिहारो मिथ्याश्रुतश्रवणकुदृष्टिसङ्गपरित्यागादिना तया, अनेन स एव सम्यग्दर्शनात्मकोऽभिहितः, तथा 'रागस्य द्वेषस्य च' उक्तरूपस्य 'संक्षयेण' विनाशेन, एतेन तस्यैव चारित्रात्मकस्थाभिधानं, रागद्वेषयोरेव कषायरूपत्वेन तदुपघातकत्वाभिधानात् , ततश्चायमर्थः-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः 'एका दीप अनुक्रम [१२४७] ॥६२१॥ www.jandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1240~ Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत ४/न्तसौख्यं' दुःखलेशाकलङ्कितसुखं समुपैति 'मोक्षम्' अपवर्गम् , अयं च दुःखप्रमोक्षाविनाभावीत्यतः स एवोपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥ नन्यस्तु ज्ञानादिभिर्दुःखप्रमोक्षः, अमीषां तु का प्राप्तिहेतुः १, उच्यते , तस्सेस मग्गो गुरुचिद्धसेवा, विवजणा बालजणस्स दरा।। सज्झायएगंतनिसेचणा य, सुत्तस्थसंचिंतणया धिई य ॥३॥ तस्येति योऽयमनन्तरं मोक्षोपाय उक्तः 'एषः' अनन्तरवक्ष्यमाणः 'मार्गः पन्थाः प्राप्तिहेतुः, यदुत गुरवो-यथावच्छाखाभिधायका वृद्धाश्थ-श्रुतपर्यायादिवृद्धास्तेषां सेवा-पर्युपासना गुरुवृद्धसेवा, इयं च गुरुकुलवासोपलक्षणं,13 तत्र च सुमापान्येव ज्ञानादीनि, यदुक्तम्-"णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए । गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥"ति, सत्यपि च गुरुकुलवासे कुसंसर्गतो न स्यादेव तत्प्राप्तिरित्याह-विवर्जना' विशेषेण परिहारः 'बालजनस्य' पार्श्वस्थादेः 'दूरात्' दुरेण, तत्सङ्गस्याल्पीयसोऽपि महादोषनिवन्धत्वेनाभिहितत्वात् , तत्परिहारेऽपि च न खाध्यायतत्परतां विना ज्ञानाद्यवाप्तिरित्याह-खाध्याये-उक्तरूपे एकान्तेन-इतरच्यासअपरिहारात्मकेन निवेशना-स्थापना खाध्यायकान्तनिवेशना सा च मनोवाकायानामिति गम्यते, पठन्ति च'सज्झायएगंतणिसेवणाए'त्ति, स्वाध्यायस्यैकान्तनिषेवणा-निश्चयेनानुष्ठानं खाध्यायकान्तनिषेवणा, सा च तत्रापि १ज्ञानस्य भवति भागी थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥१॥ X-RAKAR दीप अनुक्रम [१२४८] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1241~ Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) वृहद्वृत्तिः प्रत ॥६२२॥ उत्तराध्य. वृथा श्रुतमचिन्तित'मितिकृत्वाऽनुप्रेक्षैव प्रधानेत्यभिप्रायेणाह-सूत्रस्थार्थ:-अभिधेयः सूत्रार्थस्तस्य 'संचिंतणय'त्ति प्रमादस्था सूत्रत्वात्संचिन्तना सूत्रार्थसंचिन्तना, अस्यामपि न चित्तखास्थ्यं विना ज्ञानादिलाम इत्याह-'धृतिश्च' चित्तवास्थ्य-नाइ 18/मनुद्विमत्वमित्यर्थ इति सूत्रार्थः ॥ यतबैवंविधो ज्ञानादिमार्गस्तत एतान्यभिलषता प्राक कि विधेयमित्याह आहारमिच्छे मियमेसणिजं, सहायमिच्छे निउणस्थबुद्धिं । निकेयमिचिछज विवेगजोग, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥४॥ ६ 'आहारम्' अशनादिकम् 'इच्छेत् ' अभिलपेन्मितमेषणीयम् , अपेर्गम्यमानत्वादिच्छेदप्येवंविधमेव, दानभोजने तु दूरोत्सारिते एव अनेवंविधाहार (स) एव बनन्तरोक्तं गुरुवृद्धसेवाज्ञानादिकारणमाराधयितुं क्षमः, तथा 'सहायं सहचरमिच्छेद्गच्छान्तवर्ती सन्निति गम्यते, निपुणा-कुशला अर्थेपु-जीवादिषु बुद्धिः-मतिरस्पेति निपुणार्थबुद्धिस्तं, पठ्यते च-णिउणेहबुद्धिं तत्र निपुणा-सुनिरूपिता ईहा-चेष्टा बुद्धिश्च यस्य स तथा, अनीरशो हि सहायः स्वाच्छन्योपदेशादिना ज्ञानादिकारणगुरुवृद्धसेवादिभ्रंशमेव कुर्यादिति, तथा 'निकेतम्' आश्रयमिच्छेदू विवेका- ॥२२॥ पृथग्भावः सयादिसंसगोंभाव इतियावत्तस्मै योग्यम्-उचितं तदापाताद्यसम्भवेन विवेकयोग्यम् , विविक्ताश्रये हि ख्यादिसंसर्गाचित्तविप्लवोत्पत्ती कुतो गुरुवृद्धसेवादिज्ञानादिकारणं संभवेत् ?, समाधि कामयते-अभिलपति समा दीप अनुक्रम [१२४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1242~ Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत * धिकामः, अत्र च समाधिव्यभाषभेदाद्विभेदः, तत्र द्रव्यसमाधिः क्षीरशर्करादिद्रव्याणां परस्परमविरोधेनावस्थान, मावसमाधिस्तु ज्ञानादीनां परस्परमवाधयाऽवस्थानं तदनन्यत्वाच ज्ञानादीनामयमवेह गृह्यते, तथा च ज्ञानाघवाप्सुकाम इत्युक्तं भवति, श्रमणस्तपस्वीति प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ कालादिदोषत एवंविधसहायाप्राप्ती यत्कृत्यं | तदाह न वा लमिजा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एगोवि पावाइ विवजयंती, विहरेज कामेसु असज्जमाणो ॥५॥ 'न' निषेधे वाशब्दश्चेदर्थे ततश्च न चेत् 'लभेत्' प्रामुयात् 'निपुणम्' इति निपुणवुद्धिं 'सहायं गुणैः-ज्ञाना|दिभिरधिकम्-अर्गलं गुणाधिकं वा 'गुणतः' इति ज्ञानादिगुणानाश्रित्य 'समं वा' तुल्यमुभयत्रात्मन इति गम्यते, ति विकल्ये, ततः किमित्याह-'एकोऽपि' असहायोऽपि 'पापानि' पापहेतुभूतान्यनुष्ठानानि 'विवर्जयन्' विशे६षेण परिहरन , पठ्यते च-'अणायरंतो'त्ति अनाचरन् 'विहरेत्' संयमाध्यनि यायात् 'कामेषु' विषयेषु 'असजन्'M प्रतिबन्धमकुर्वन्, तथाविधगीतार्थयतिविषयं चैतद्, अन्यथैकाकिविहारस्यागमे निषिद्धत्वात्, एतदविधाने च 'मध्यग्रहणे आद्यन्तयोरपि ग्रहणं भवतीति न्यायादाहारवसतिविषयोऽप्यपवाद उक्त एव भवतीति मन्तव्यम् ॥ घाइत्थं सप्रसङ्गं ज्ञानादीनां दुःखप्रमोक्षोपायत्यमुक्तम् , इदानीं तेषामपि मोहादिक्षयनिबन्धनत्यात्तत्क्षयस्यैव प्राधा दीप अनुक्रम [१२५०] * *-* JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1243~ Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||६-८|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) 44 प्रमादस्था उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥१२॥ प्रत सूत्रांक [६-८] न्येन दुःखप्रमोक्षहेतुत्वख्यापनार्थं यथा तेषां सम्भवो यथा दुःखहेतुत्वं यथा च दुःखस्य प्रसङ्गतस्तेषां चाभावस्तथा । वि(ऽभि)धातुमाह ना०३२ | जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हं, मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥६॥रागो य दोसोविय कम्मयीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥७॥ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जरस न होइ लोभो, लोभो हओ जस्स न किंचणाई ॥८॥ 'यथा चेति येनैव प्रकारेणाण्डं-प्रतीतं ततः प्रभव-उत्पत्तिर्यस्याः साऽण्डप्रभवा 'बलाका' पक्षिविशेषः, अण्ड बलाकातः प्रभवतीति बलाकाप्रभवं यथा च, किमुक्तं भवति ?-यथाऽनयोः परस्परमुत्पत्तिस्थानता 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण मोहयति-मूढतां नयत्यात्मानमिति मोहः-अज्ञानं तह मिथ्यात्वदोषदुष्टं ज्ञानमेव गृसते, उक्तं हि"जह दुधयणमवयण"मित्यादि, आयतनम्-उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा मोहायतना तां 'खुः' अवधारणे ततो मोहायतनामेव 'तण्ह'न्ति तृष्णां वदन्तीति सम्बन्धः, यथोक्तमोहाभावे अवश्यम्भावी तृष्णाक्षय इति, मोहं च तृष्णाऽऽ-17||२|| यतनं यस्यासौ तृष्णायतनस्तं वदन्ति, तृष्णा हि सति मूर्छा, सा चात्यन्तदुस्त्यजेति रागप्रधाना ततस्तया राग उपलक्ष्यते सति च तत्र द्वेषोऽपि संभवतीति सोऽप्यनयवाक्षिप्यते ततस्तृष्णाग्रहणेन रागद्वेषावुक्ती, एतयोश्चा दीप अनुक्रम [१२५२ -१२५४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~12444 Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||६-८|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [६-८] -% % नन्तानुवन्धिकपायरूपयोः सत्तायामवश्यम्भावी मिथ्यात्वोदयः, अत एवोपशान्तकषायवीतरागस्यापि मिथ्यात्वगमनं, तत्र च सिद्ध एवाज्ञानरूपो मोहः, एतेन च परस्परं हेतुहेतुमद्भावाभिधानेन यथा रागादीनां सम्भव-13 स्तथोक्तं, सम्प्रति यथतेषां दुःखहेतुत्वं तथा वक्तुमाह-रागश्च मायालोभात्मकः 'द्वेषोऽपिच' क्रोधमानात्मकः कर्मज्ञानावरणादि तस्य वीज-कारणं कर्मवीजं, कर्म चस्स भिन्नक्रमत्वान्मोहात्प्रभवतीति मोहप्रभवं च-मोहकारणं वदन्ति । 'चः सर्वत्र समुचये 'कर्मच' इति कर्म पुनर्जातयश्च मरणानि च जातिमरणं तस्य 'मूलं कारणं 'दुःखं' संसारमसातपक्षे तु दुःखयतीति दुःखं, कोऽर्थः ?-दुःखहेतुं, चस्य पुनरर्थस्य भिन्नक्रमत्वात् जातिमरणं पुनर्वदन्ति, तीर्थकरादय इति गम्यते, जातिमरणस्यैवातिशयदुःखोत्पादकत्वात् , उक्तं हि-"मेरमाणस्स जं दुक्खं, जायमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरति जातिमप्पणो॥१॥" यतश्चैवमतः किं स्थितमित्याह-'दुःखम् उक्तरूपं हतमिव हतं, केनेत्याह-यस्य 'न भवति' न विद्यते, कोऽसौ ?-मोहः, अस्यैव तन्मूलकारणत्वात् , ततो हि कर्म कर्मणश्च दुःखमित्यनन्तरमेवोक्तं, हतमिम हतमिति च व्याख्यातं तत्क्षयेऽपि नारकादिगतौ स्वतत्त्वभावनापरस्यापि कियतोऽपि दुःखस्य सम्भवात्, यदि दुःखहननं मोहाभावाद् असावपि कुत इत्याह-मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा ४ कोऽधः ?-तृष्णाया अभावान्मोहाभावः, तदायतनत्वेन तस्या अभिधानात् , तृष्णाया अपि कुतो हननमित्याह १ म्रियमाणस्य यदुःख जायमानस्य जन्तोः । तेन दुःखेन संतप्तो न स्मरति जातिमात्मनः ॥ १॥ २ ख्यापक्षयेऽपि दीप अनुक्रम [१२५२ -१२५४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1245~ Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [&-<] दीप अनुक्रम [१२५२ -१२५४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६२४॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||६-८|| निर्युक्ति: [५२६...] तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, किमुक्तं भवति ? – लोभाभावा तृष्णाऽभावः, तृष्णाग्रहणेनोक्तनीत्या रागद्वेषयोरुक्तत्वात्तयोश्च लोभक्षये सर्वथैवाभावाद, अत एव प्राधान्यालोभस्य रागान्तर्गतत्वेऽपि पृथगुपादानं, दृश्यते हि प्रधानस्य सामान्योक्तावपि विशेषोत्तत्यभिधानं यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽध्यायात इति, स तर्हि केन हत इत्याह-लोभो हतो यस्य न किञ्चनानि-द्रव्याणि सन्तीति गम्यते, सत्सु हि तेषु संभवत्यभिकाङ्क्षा तद्रूप एव च लोभः, यत्तु तत्सद्भावेऽपि लोभहननं भरतादीनां तत्कादाचित्कमित्यविवक्षितमेव, पठ्यते च यस्य न किञ्चन नास्ति -- न किञ्चिद्विद्यते द्रव्यादिकमिति गम्यत इति सूत्रार्थः ॥ सन्त्येवं दुःखस्य मोहादयो हेतवो, हननोपायस्तेषां किमयमेवोतान्योऽप्यस्ति ? इत्याशय सविस्तरं तदुन्मूलनापायं विवदिषुः प्रस्तावमारचयति रागं च दोसं च तदेव मोहं उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे वाया विजयब्बा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुवि ।। ९ ।। परं यदि प्रथममुपादानं पूर्व तु मोहस्य तत् मोहस्य रागद्वेषयोश्च परस्परायत्तत्वेन पूर्वापर्भावस्थानियमात्, तथा 'उद्धर्तुकामेन' इत्युन्मूलयितुमिच्छता सह मूलानामिव मूलानां तीत्रकपायोदयादीनां मोहप्रकृतीनां जालेन - समूहेन वर्त्तत इति समूलजालस्तम्, एतच रागादीनां प्रत्येकं विशेषणम्, 'उपायाः' तदुद्धरणहेतवः 'प्रतिपत्तव्याः' अङ्गीकर्त्तव्याः कर्त्तुमिति गम्यते, पठ्यते च- 'अपाया परिवृज्जिया' इति 'अपायाः' तदुद्धरंणप्रवृत्तानां विवन्धकारिणोऽर्थाः 'परिवर्जयितव्याः' परिहर्त्तव्या इति सूत्रावयवार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह Education intentional For Fans Only प्रमादस्था ~1246~ ना० ३२ ॥६२४॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/गाथा ||१०-२०|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत EXMAR-4 -२० रसा पगामं न हु सेवियब्वा, पायं रसा दितिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिवंति, दुर्म जहा साउफलं व पक्खी ॥१०॥ जहा दवग्गी परिंधणे वणे, समारुओ नोवसमं वेइ । एर्विदियग्गीवि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ ११ ॥ विवित्तसिज्जासणजंतियाणं, ओमासणाणं दमिइंदियाणं । न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहि ॥ १२ ॥ जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥ १३॥ न रूबलावण्णविलासहासं, न जंपियं इंगिय पेहियं वा । इस्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दडे ववस्से समणे तवस्सी ॥१४॥ अदसणं चेच अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्सणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं ॥ १५ ॥ कामं तु देवीहिं विभूसियाई, न चाइया खोभइ तिगुत्ता । तहावि एगंतहियंति नथा, विवित्सवासो मुणिणं पसत्थो ॥१६॥ मुक्खाभिकंखिस्सवि माणवस्स, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिस दुसरमस्थि लोए,जहत्थिओ बालमणोहराओ॥१७॥ एए य संगा समइक्कमित्ता, सुहत्तरा चेव हवंति सेसा।जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भषे अवि गंगासमाणा ॥१८॥ कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स-जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतयं गच्छा बीयरागो ॥१९॥ जहा य किंपागफला मणोरमा, |रसेण धनेण य भुजमाणा । ते खुप जीविय पञ्चमाणा, एओवमा कामगुणा विधागे ॥२०॥ दीप अनुक्रम [१२५६-१२६६] FAA% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1247~ Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||१०-२०|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत बृहदृत्तिः -२० उत्तराध्य. रसेत्यादि सूत्रैकादशकम् । रसाः' क्षीरादिविकृतयः 'प्रकामम्' अत्यर्थ 'न निषेवितव्याः' नोपभोक्तव्याः, प्रकामग्रहणं प्रमादस्थातु वातादिक्षोभनिवारणाय रसा अपि निषेवितव्या एव, निष्कारणनिषेवणस्य तु निषेध इति ख्यापनार्थम् , उक्तं च ना०३२ "अचाहारो न सहे अतिनिद्धेण विसया उदिति । जायामायाहारो तपि पगाम ण भुंजामि ॥१॥" किमित्ये-४ ॥६२५ वमुपदिश्यते इत्याह-'प्रायः' बाहुल्येन रसा निषेव्यमाणा इति गम्यते, इप्तिः-धातूद्रेकस्तत्करणशीला दृप्तिकरा दृप्तकरा वा पाठान्तरतः इह च भावे क्तप्रत्यय इति संदर्प उच्यते, दृश्यन्त एव हि कुर्वन्तो रसत्वममी प्राणिनामिति, यदिवा दीसं दीपनं मोहानलज्वलनमित्यर्थस्तत्करणशीला दीप्तकराः, केषां -नराणामुपलक्षणत्वात्स्यादीनां च, उदीरयन्ति हि ते उपभुक्तास्तेषां मोहानलमिति, उक्तं हि-"विगैई परिणइधम्मो मोहो जमुदिजए उदिण्णे | जय । सुहुवि चित्तजयपरो कहं अकजे ण वट्टिहिई ॥१॥" एवं च को दोष इत्याह-दसं यदिवा दीप्तं नरमिति प्रक्रमः 'चः पुनरर्थे जाति विवक्षया च बहुवचनप्रक्रमेऽप्येकवचनं, 'कामा' विषयाः 'समभिद्रवन्ति' अभिभवन्ति, तथाविधस्य ख्याधभिलपणीयत्वात्सुखाभिभवनीयत्वाचेति भावः, कमिव क इवेत्याह-'दुमं वृक्षं 'यथे' त्यौपम्ये, 'खादुफल' मधुरफलान्वितं 'च' इति भिन्नक्रमः, ततश्च 'पक्खि'त्ति पक्षिण इव, इह च द्रुमोपमः पुरुषादिः खादु १ अत्याहार न भुजामि अतिथिग्धेन विषया उदीयन्ते । यात्रामाषाहारस्तमपि प्रकामं न मुजामि ॥१॥२ विकृतिः परिणतिधर्मा मोहो यदुदीर्यते उदीर्णे च । सुष्ठापि चित्तजयपरः कथमकार्थे न याति ? ॥२॥ दीप अनुक्रम [१२५६-१२६६] KARXXX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1248~ Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१० -२०] दीप अनुक्रम [१२५६ -१२६६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१०-२०|| Education intimatio अध्ययनं [३२], फलतातुल्यं च सत्यं दीसत्यं वा पक्षिसदृशाश्च कामा इति । अनेन रसप्रकामभोजने दोष उक्तः, सम्प्रति सामान्येनैव प्रकामभोजने दोषमाह-यथा 'दवाग्भिः' दावानलः प्रचुरेन्धने 'वने' अरण्ये, एतदुपादानं च वसति ( ०तिमति ) कश्चिद्विध्यापकोऽपि स्यादिति, 'समारुतः सवायुः 'नोपसमन्ति न 'उपशमं ' विध्यापनम् 'उपैति' प्राप्नोति, 'एवम्' इति दवाग्निवन्नोपशमभाग् भवति 'इंदियग्गि'त्ति इन्द्रियशब्देनेन्द्रियजनितो राग एवोक्तः, तस्यैवानर्थहे-तुत्वेनेह चिन्त्यमानत्वात्, सोऽग्निरिव धर्मवनदाहकत्वाद् इन्द्रियाग्निः सोऽपि 'प्रकामभोजिनः' अतिमात्राहारस्य, प्रकामभोजनस्यैव पवनप्रायत्वेनातीव तदुदीरकत्वाद्, अतश्चायं न ब्रह्मचारिणः 'हिताय' हितनिमित्तं ब्रह्मचर्यविघातकत्वेन कस्यचिद् अतिसुस्थितस्यापि तदनेन प्रकामभोजनस्य काका परिहार्यत्वमुक्तम् । इत्थं रागमुद्धर्जुकामेन यत्परिहर्त्तव्यं तदभिधाय यदतियत्नेन कर्त्तव्यं तदाह-विविक्ता-ख्यादिविकला शय्या वसतिस्तस्यामासनम्-अवस्थानं तेन यन्त्रिता- नियन्त्रिता विविक्तशय्यासनयन्त्रितास्तेषाम् 'अवमाशनानाम्' न्यूनभोजनानां पठन्ति च- 'ओमासणाए 'ति अवमं- न्यूनमशनम् - आहारो येषां तेऽमी अवमाशनास्तद्भावोऽवमाशनता - अवमौदर्य रूपा तथा दमितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि यैस्ते तथा तेषां दमितेन्द्रियाणां पठ्यते च- 'ओमासणाईद मिइंदियाणं'ति, अवममशनं यत्र तपसि तदवमाशनं तदादिभिस्तपो भेदैर्दमितानीन्द्रियाणि यैस्ते तथा तेषां 'न' नैव रागः शत्रुरिवाभिभवहेतुतया रागशत्रुः 'धर्षयति' पराभवति, किं तत् १ - चित्तं, किन्तु स एवेत्थं पराधृष्यत इति भावः, क For Fast Use Only निर्युक्ति: [५२६...] ~ 1249~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१० -२०] दीप अनुक्रम [१२५६ -१२६६] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१०-२०|| अध्ययनं [३२], Education intemational उत्तराध्य. ५ इव १ - 'पराजितः' पराभूतः 'व्याधिरिव' कुष्ठादिः 'औषधैः' गडूच्यादिभिर्देहमिति गम्यते, अनेनापि विविकशव्यासनादीनां काका विधेयत्वमुक्तम्, इदानीं तु विविक्तशयनासने यत्नाधानाय विपर्यये दोषमाह-यथा विडाळाबृहद्वृत्तिः | मार्जारास्तेषामावसथः- आश्रयो बिडालावसथस्तस्य 'मूले' समीपे न मूषकाणां वसतिः 'प्रशस्ता' शोभना, अवश्यं तत्र ॥ ६२६॥ ७ तदपायसम्भवात् एवमेव स्त्रीणां-युवतीनां पण्डकाद्युपलक्षणमेतत् निलयो-निवासः बीनिलयस्तस्य 'मध्ये' अन्तर्न ॐ ब्रह्मचारिणः 'क्षमः' युक्तः, कोऽसौ ? - निवासः - वसतिः, तत्र ब्रह्मचर्यवाधासम्भवादिति भावः । विविक्तशय्यावस्थितावपि कदाचित्स्त्रीसंपाते यत्कर्त्तव्यं तदाह-'न' नैव रूपं - सुसंस्थानता लावण्यं नयनमनसामाहादको गुणो विलासाविशिष्टनेपथ्यरचनादयो दासः - कपोलविकासादिरेषां समाहारे रूपलावण्यविलासहासं न जल्पितं मन्मनोल्लापादि 'इंगिय'ति बिन्दुलोपाद 'इङ्गितम्' अङ्गभङ्गादि 'वीक्षितं' कटाक्षवीक्षितादि 'वा' समुच्चये स्त्रीणां सम्बन्धि 'चित्तंसि' ति 'चित्ते' मनसि 'निवेश्य' अहो ! सुन्दरमिदं चेति विकल्पतः स्थापयित्वा 'द्रष्टुं' इन्द्रियविषयतां नेतुं 'व्यवस्येत्' अध्यवस्येत् श्रमणस्तपस्वीति प्राग्वत्, चित्ते निवेश्येत्यनेन च रागाद्यभिसन्धि विनैतद्दर्शनमपि न दोषायेति ख्याप्यते, उक्तं हि 'न सकं रूपमद्द' इत्यादि, निवेश्येति च समानकालत्वेऽपि क्त्वाप्रत्ययः अक्षिणी निमील्य हसतीत्यादिवत् । किमित्येवमुपदिश्यते इत्याह-'अदर्शनम्' इन्द्रियाविषयीकरणं 'चः' समुबये 'एवः' अवधारणेऽदर्शनमेव च * 'अप्रार्थनं च' अनभिलषणम् 'अचिन्तनं चैव' रूपाद्यपरिभावनम् 'अकीर्त्तनं च' असंशब्दनं, तब नामतो गुणतो ||६२६ ॥ For Fans Only निर्युक्ति: [५२६...] ~1250~ प्रमादस्य ना० ३२ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||१०-२०|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) वा स्त्रीजनस्वार्यध्यान-धादि तस्य योग्य-तहेतुत्वेनोचितमार्यध्यान योग्य 'हित' पथ्यं 'सदा' सर्वकालं नमनते पाठान्तरतो ब्रह्मचर्ये 'रतानाम्' आसक्तानां, ततः स्थितमेतत्-स्त्रीणां रूपादि मनसि निवेश्य द्रष्टुं व्यवस्खेत् ॥ ननु | 'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः' तत्किमिति रागमुद्ध कामेन विविक्तशयनासनताविनिधयेत्युच्यते ? इत्याशङ्कयाह-'कामं तुति अनुमतमेवैतद् यदुत 'देवीहिवित्ति 'देवीभिरपि'अप्सरोभिरप्यास्तां मानुषी|भिरित्यपिशब्दार्थः 'भूषिताभिः' अलङ्कृताभिः 'न' नैव 'चाइय'त्ति शकिताः 'क्षोभयितुं' चालयितुं संयमादिति गम्यते 'तिसृभिः' मनोगुप्त्यादिगुप्तिभिर्गुसाः अर्थान्मुनयः 'तथाऽपि' यदप्येवंविधाचाल यितुं न शक्यन्ते तदप्येकान्तहितमेतदिति ज्ञात्वा, किमुक्तं भवति ?-संभवन्ति हि केचिदभ्यस्तयोगिनोऽपि ये तत्समतः क्षुभ्यन्ति, येऽपि न क्षुभ्यन्ति तेऽपि खीसंसक्तवसतिवासे “साहु तवो वणवासो" इत्याद्यवर्णादिदोपभाजो भवेयुरिति परिभाष्य 'विविक्तवासो' विविक्तशय्यासनात्मको मुनीनां प्रशस्त इत्यन्त वितण्यर्थतया 'प्रशंसितः' गणधरादिभिः श्लाधित इत्यर्थः, अतः स एवाश्रयणीय इति भावः । एतत्समर्थनार्थेमेव स्त्रीणां दुरतिक्रमत्वमाह-'मोक्षाभिकातिणोऽपि' मुक्त्यभिलाषिणो-IK |ऽपि मानवस्य संसारात-चतुर्गतिरूपायनशीलो भीरुः संसारभीरुः, अपेरिहापि सम्बन्धात्तस्यापि-तथास्थितस्यापि धर्मे' श्रुतधर्मादौ 'न' नैव 'एतादृशम् ईदृशं दुस्तरं-दुरतिक्रमम् 'अस्ति' विद्यते 'लोके' जगति यथा 'स्त्रियः' युवतयः 'बालमनोहराः' निर्विवेकचित्ताक्षेपिण्यो दुस्तराः, दुस्तरत्वे च बालमनोहरत्वं हेतुः, अतश्चातिदुस्तरत्वादासां परि अनुक्रम [१२५६-१२६६] JABERatinintamational instandinrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1251~ Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||१०-२०|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६२७॥ -54-550% प्रत - -२० -* हार्यत्वेन विविक्तशय्यासनमेव श्रेय इति भावः ॥ नन्येवं स्त्रीसङ्गातिकमार्थमयमुपाय उपदिष्टस्तथा शेषसङ्गातिक्र-प्रमादस्थामणार्थमपि किंन कश्चनोपाय उपदिश्यते ? इत्याह,-यदिवा स्त्रीसाइतिक्रमे गुणमाह-एतांथ 'सहान्' सम्बन्धान ना प्रक्रमात्स्त्रीविषयान् 'समतिक्रम्य' उलय 'सुखोत्तराश्चैष' अकृच्छ्रोल्लट्याश्चैव भवन्ति 'शेषाः' द्रव्यादिसाः, सर्वसकानां रागरूपत्वे समानेऽपि खीसङ्गानामेवैतेषु प्रधानत्वादिति भावः, दृष्टान्तमाह-यथा 'महासागरं' खयम्भूरमण| मुत्तीर्य 'नदी' सरित् 'भवेत्' स्यात्सुखोत्तरैवेति प्रक्रमो वीर्यातिशययोगत इति भावः, 'अवि गंगासमाने ति गङ्गा किल ||४| महानदी तत्समानाऽपि-तत्सदृशाऽपि, आस्तामितरा क्षुद्रनदीत्यपिशब्दार्थः ॥ यदुक्तं "विवित्तसेज्जासणजत्तियाण"मित्यत्र विविक्तावसथमर्थतो व्याख्याय “ओमासणाणं दमिइंदियाण" मित्यत्रावमाशनत्वमनन्तरमेव प्रकामभोजन-2 | निषेधेन समर्थितं, दमितेन्द्रियत्वं तृत्तरत्र वक्ष्यत इत्युभयमुपेक्ष्य "न रागसत्त परिसइ चित्त"मित्यत्र किमिति रागप-|| राजयं प्रत्येवमुपदिश्यते ? इत्याशय रागस्य दुःखहेतुत्वं दर्शयितुमाह-कामाः-विषयास्तेष्वनुगृद्धिः-सततामिकाङ्का अनुभावानुवन्ध इत्यादिष्यनोः सातत्येऽपि दर्शनात् तस्याः प्रभवो यस्य तत्कामानुगृद्धिप्रभवं 'खु'त्ति खुशब्दस्वावधार|णार्थत्वात्कामानुगृद्धिप्रभवमेव, किं तत् ?-'दुःखम्' असातं सर्वस्य लोकस्य-प्राणिगणस्य, कदाचिद्देवानां विशिष्टानुमा-12॥२७॥ | ववत्तयैवं न पादत आह-'सदेवकस्य' देवैः समन्वितस्य, कतरत्तद् दुःखमित्याह-यत्'कायिक' रोगादि 'मानसिकं | च' इष्टवियोगादिजन्यं 'किश्चित्' सल्पमपि, कदाचिदेतदभावेऽप्येतत्स्याद् अत आह-तस्य द्विविधखापि दुःख-14 % % दीप अनुक्रम [१२५६-१२६६] % % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1252~ Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/गाथा ||१०-२०|| नियुक्ति: [१२६...] (४३) प्रत -२० प्रस्थान्तमेव अन्तक-पर्यन्तं गच्छति 'बीतरागः' विगतकामानुद्धिरित्यर्थः ॥ ननु कामाः सुखरूपतयैवानुभूयन्ते तत्कथं कामानुगृद्धिप्रभव दुःखम् ?, उच्यते, 'यथा च' इति यथैव किम्पाको-वृक्षविशेषस्तत्फलानि, अपेगेम्यमानत्वात् |'मनोरमाण्यपि हृदयजमान्यपि 'रसेन' आखादेन 'वर्णेन च रुचिररक्तादिना चशब्दाद् गन्धादिना च भुज्यमानानि' उपभुज्यमानानि 'ते' इति 'तानि' लोकप्रतीतानि क्षोदयितुम्-अध्यवसनादिभिरुपक्रमकारणैर्विनाशयितुं शक्यत इति क्षुद्रं तदेवानुकम्प्यतया क्षुद्रकं सोपक्रममित्यर्थस्तस्मिन् जीविते-आयुषि पच्यमानानि-विपाकावस्थाप्रासानि मरणान्तदुःखदायीनीति शेषः, प्राग्वच लिङ्गव्यत्ययः, पठ्यते च-'ते जीवियं ख़ुदति पञ्चमाणे ति तानिकिम्पाकफलानि जीवितम्-आयुः 'खुंदति' आपत्वात् 'योदयन्ति' विनाशयन्ति विपच्यमानानि, 'एतदुपमाः' किम्पाकफलतुल्याः कामगुणाः 'विपाके' फलप्रदानकाले, किमुक्तं भवति ?-यथा किम्पाकफलान्युपभुज्यमानानि मनोरमाणि विपाकावस्थायां तु सोपक्रमायुषां मरणहेतुतयाऽतिदारुणानि, एवं कामगुणा अपि उपभुज्यमाना मनोरमा विपाकायस्थायां तु नरकादिदुर्गतिदुःखदायितयाऽत्यन्तदारुणा एव, ततः सुखरूपतया प्रतिभासनं सुखहेतुत्वेऽनैकान्तिकमेव, किम्पाकफलानां मनोरमत्वेन सुखप्रतिभासेऽप्यन्यथाभावादिति सूत्रैकादशकार्थः ॥ इत्थं बहुतरगुणस्थानानुयायित्वेन रागस्य प्राधान्यात्केवलस्यैवोद्धरणोपायमभिधाय सम्प्रति तस्यैव द्वेषसहितस्य तमभिधित्सुर्दमितेन्द्रियत्वं च सिंहावलोकितन्यायाश्रयणेन व्याचिख्यासुरिदमाह दीप अनुक्रम [१२५६-१२६६] JABERatinintimationa rajaniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1253~ Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) CASEACOC ना० प्रत सुत्रांक [२१] उत्तराध्य. जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु भाव निसिरे कयाई। न यामणुन्ने मणपि कुजा, समाहिकामे समणे तबस्सी ।। २१॥ बृहद्वृत्तिः ये 'इन्द्रियाणां' चक्षुरादीनां 'विषयाः' रूपादयः 'मनोज्ञाः' मनोरमाः न तेषु' विषयेषु 'भावम्' अभिसन्धिम् , ॥६२८॥ अपेर्गम्यमानत्वादावमपि प्रस्तावादिन्द्रियाणि प्रवर्त्तयितुं, किं पुनस्तत्प्रवर्त्तनमित्यपिशब्दार्थः, 'निसृजेत्' कुर्यात् । 'कदाचित् कस्मिंश्चित्काले, 'न च' नैव 'अमनोज्ञेषु' अमनोरमेषु 'मनोऽपि' चित्तमपि, अत्रापीन्द्रियाणि प्रवर्तयि तुम् अपिशब्दार्थश्च प्राग्वत् 'कुर्यात्' विदध्यात्, अनेन वाक्यद्वयनापीन्द्रियदम उक्तः, समाधिः-चित्तैकायं स चर दरागद्वेषाभाव एवेति स एवानेनोपलक्ष्यते, ततस्तत्कामो-रागद्वेषोद्धरणाभिलाषी श्रमणस्तपखीति च प्राग्वत्, नन्वेवमुभयोद्धरणहेतुत्वेनेन्द्रियदमस्य किमिति रागोद्धरणहेतुष्वभिधानम् ?, उच्यते, हेतुप्रक्रमात्, न चोभयोद्धरण-12 हेतुतयेकोद्धरणहेतुता विरुध्यते, यदिवा तत्रापि रागस्य द्वेषोपलक्षणत्वादुभयोद्धरणोपायतैव विवक्षिता, किन्तु दतत्र विविक्तशय्या-सामान्येनैकान्तशय्या गृह्यते, तदवस्थानस्य च प्रतीतैव तदुद्धरणोपायता, एवं प्रकामभोजिन एव दर्पतो द्वेषसम्भवादवमाशनत्वस्याप्यसौ भावनीयेत्सलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ इत्थं रागद्वेषोद्धरणैषिणो विष- ॥२८॥ येभ्यो निवर्तनमिन्द्रियाणामुपदिष्टम् , अधुना त्वेतेषु तत्प्रवर्तने रागद्वेषानुद्धरणे च यो दोषस्तं प्रत्येकमिन्द्रियाणि : तत्प्रसङ्गतो मनश्चाश्रित्य दर्शयितुमाह दीप अनुक्रम [१२६७] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1254~ Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [२२ -९९] चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहे तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउ अमणुन्नमाहु, समो अ जो तेसु स वीयरागो॥२२॥ रुवस्स चक्खं गहणं वयंति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । रागस्स हे समणुन्नमाहु, दोसस्स हे अमणुन्नमाहु ॥२३॥ रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं, अकालियं पावा सो विणासं । रागा-IN उरे से जहवा पयंगे, आलोअलोले समुह मई ॥२४॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिब्ब, तंसि क्खणे से व उवेद |दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रूवं अवरज्झई से ॥ २५ ॥ एगंतरत्तो रुहरंसि रूवे, अतालिसे |से कुणई पओस । दुक्खस्स संपीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागे ॥ २६ ॥ रूवाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरेहिं सयणेगरूवे । चित्तेहिं ते परियावेह चाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्टे ॥ २७ ॥ रूवाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसंनिओगे । वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? ॥२८॥ रूवे अतिते अपरिग्गडंमि, सत्तोवसत्तो न उबेद तुहि । अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आयई अदत्तं ॥ २९ ॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्वावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥३०॥ मोसस्स पच्छा य परत्यओ य, पओगकाले य दुही *दुरंते । एवं अदत्ताणि समायअंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ ३१ ॥ रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो मुहं हुन्ज कपाइ किंचि। तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्ख, निव्वतई जस्स करण दुक्खं ॥३२॥ एएमेव रूवंमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुद्दचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं| दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५] JABERahim intamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1255~ Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) प्रत ना. सूत्रांक [२२ -९९] उत्तराध्यं.६ विवागे ॥ ३३ ॥ रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझेवि संतो, जले टण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ३४ ॥ सोयरस सदं गहणं वयंति, तं रागहे तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेजे अमणु-|| बृहद्वृत्तिः नमाहु, समो अ जो तेसु स वीयरागो ॥ ३५॥ सहस्स सोयं गहर्ण वयंति, तं रागहे तु मणुन्नमाहु । ॥६२९॥ तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो अ जो तेसु स वीयरागो ॥ ३६॥ सद्देसु जो गेहिमुवेइ तिब्ब, अकालिय 4 पावइ सो विणासं। रागाउरे हरिणमिउब्व मुन्डे, सद्दे अतिते समुवेइ मझु ॥ ३७॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उबेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सई अवरज्झई से ॥ ३८॥ एगतरत्ते रुइरंसि सद्दे० ॥ ३९॥ सहाणुगासाणु०॥४०॥ सहाणुवाएण परिग्गहेण ॥४१॥ सद्दे अतिते०४२ तण्हाभिभूयस्स०॥४३॥ मोसस्स पच्छा य॥४४॥ सदाणु ॥४५॥ एमेव सइंमि०॥४ा सहे विरत्तो ॥४७॥ घाणस्स गंधं गहणं वयंति०॥४८॥ गंधस्स घाणं ॥४९॥ गंधेसु जो गेहिं० रागाउरे ओसहिगंद्विधगिद्धे, सप्पे पिलाओ विष निक्खमंते ॥५०॥ जे यावि दोसं०॥५१॥ एगतरत्तो भइरंमि गंधे० ॥५२।। Iगंधाणु०॥५३॥ गन्धाणुवा०॥५४॥ गंधे अतित्ते॥५५॥ तण्हा०॥५६॥ मोसस्स०॥५७॥ गंधाणु014 ॥ ५८ ॥ एमेव गंधमि०॥ ६९॥ गंधे विरत्तो०॥६०॥ जिन्भाए रसं गहणं० ॥११॥ रसस्स जीहं गहणं |वयंति०॥६२॥ रसेसु जो गेहि रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥ ३३॥ गाथा १३ ॥७३॥ कायस्स फासं गहणं वयंति०१॥ फासस्स कायं गहणं० २॥ फासेसु जो गेहिमुकारागाउरे सीयज दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] ॥२९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1256~ Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति : [१२६...] (४३) प्रत सूत्रांक 3%82 [२२ लावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रन्ने, ३ ॥ एवं फासाभिलापे गाथा १३ ॥८६॥ मणस्स भावं गहणं०१॥ भावस्स मणं ग० २॥ भावेसु जो गेहि। रागाउरे कामगुणेसु गिडे, करेणुमग्गावहिए व नागे ३॥ एवं भावाभिलापे गाथा १३ ॥१९॥ ___ 'चक्खुस्से'त्यादि सूत्राण्यष्टसप्ततिः। तत्रापि चक्षुराश्रित्य त्रयोदश । 'चक्षुपः' चक्षुरिन्द्रियस्य रूप्यत इति रूपंवर्णः संस्थानं वा, गृयतेऽनेनेति ग्रहणं, कोऽर्थ ?-आक्षेपकं, विशिष्टेन हि रूपेण चक्षुराक्षिप्यते तद् वदन्ति | अभिदधति तीर्थदादय इति गम्यते, ततः किमित्याह-'तद्' इति रूपं रागः-अभिष्वास्तहेतुः तदुत्पादक 'तुः' पूरणे मनोज्ञमाहुः, तथा 'तदू' इति रूपमेव दोषस्तद्धेतुममनोज्ञमाहुः, ततस्तयोश्चक्षुःप्रयर्सने रागद्वेषसम्भवात्तदुद्धरणाशक्तिलक्षणो दोष इति भावः, आह-एवं न कश्चित् सति रूपे वीतरागः स्यादत आह-समस्तु' अर-1 |क्तद्विष्टतया तुल्यः पुनर्यः 'तयोः' मनोज्ञेतररूपयोः स 'वीतराग' इति तथाविधरागाभावतो वीतरागस्तदविनाभावि| त्वाद् द्वेषस्य तथैव वीतद्वेषश्च, इदमाकूतम्-यस्यैव रागद्वेषौ स्तस्तस्यैव तदुदीरकत्वेनानयोस्तजनकत्वमुच्यते न तु, | यः सम एव, तथा च न तावचक्षुस्तयोः प्रवत्येत्, कश्चित्प्रवचने वा समतामेवालम्बेतेत्युक्तं भवति, ननु यद्येवं रूपमेव रागद्वेषजनकं ततस्तदुद्धरणार्थिनस्तद्तैव चिन्ताऽस्तु, रूपे चक्षुने प्रवर्तयेदित्येवं तुन युक्तैव चक्षुषश्चिन्ता इत्याशङ्कयाह-रूपस्य चक्षुः गृहातीति ग्रहणं, बहुलवचनात्कर्तरि ल्युट्, तद्वदन्ति, तथा चक्षुषो रूपं गृह्यत इति -९९] दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] vमुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1257~ Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२२ -९९] दीप अनुक्रम [१२६८ -१३४५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ||६३०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२२-९९|| अध्ययनं [३२], Education intemational प्राग्वल्युटि ग्रहणं ग्राह्यं तद्वदन्ति, अनेन रूपचक्षुपोग्रयग्राहकभाव उक्तः, तथा च न ग्राहकं बिना प्रात्यं नापि ग्रायं विना ग्राहकत्वमित्यनयोः परस्परमुपकार्योपकारकभाव उक्तो भवति, एतेन त्वनयो रागद्वेषजनने सहकारिभावः ख्याप्यते, तथा च यथा रूपं रागद्वेषकारणं तथा चक्षुरपि, अत एवाह - रागस्य हेतुं - कारणं प्रक्रमाचक्षुः * सह मनोज्ञेन ग्राह्येण रूपेण वर्त्तते इति समनोज्ञं, मनोज्ञरूपविषय भित्युक्तं भवति, 'आहुः' ब्रुवते, यत्र तु 'हेडं तमगुण्ण' मिति पाठस्तत्र 'तं'ति तचक्षुर्मनोज्ञं मनोज्ञरूपविषयत्वेन ततो दोषो द्वेषः, उक्तं हि - " ईर्ष्या रोषो द्वेषः” इत्यादि, तस्य हेतुममनोज्ञम् अमनोज्ञरूपं, पाठान्तरतश्च हेतुं तदमनोज्ञमाहुः, उभयप्रक्रमेऽपि चक्षुप एव विशेप्यत्वेनोपदर्शनं, रूपस्य पूर्वसूत्रेणैव, एवं च रूपचक्षुषोः सहितयोरेव रागद्वेषजनकत्वाद्युक्तमुक्तं ताबुद्धर्तुकामो रूपे चक्षुर्न प्रवर्त्तयेत्, यदा तु पाश्चात्यपादत्रयं पूर्ववत्पठ्यते तदा पूर्वसूत्रे चक्षुषो रूपं ग्रहणं - प्राथमिति व्याख्येयं ततश्चेहापि श्राह्मग्राहकभाव उक्तः, तत्र चोक्त एवाभिप्रायः, तथा यदि चक्षू रागद्वेषकारणं न कश्चिद्वीतरागः स्यादत आहसमश्चेत्यादि, शेषं सुगमम् । आह— अस्त्वयं रागद्वेषोद्धरणोपायः, एतदनुद्धरणे च को दोषः १ येन तदुद्धरणार्थमित्थमुपदिश्यत इत्याह-- रूपेषु यो 'शृद्धिं गाये रागमित्यर्थः, उक्तं हि वाचकैः -- " इच्छा मूर्च्छा कामः खेदो गाये ममत्वमभिनन्दः । अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि ॥ १॥” उपैति गच्छति 'तीत्राम्' उत्कटां गृद्धेर्विशेषणं, स किमित्याह--अकाले भवम् आकालिक - यथास्थित्यायुरुपरमादर्वागेव प्राप्नोति स 'विनाशं' घातं, पाठान्तरतः Forest Use Only निर्युक्तिः [५२६...] ~ 1258~ प्रमादस्था ना० ३२ ॥६३०॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) 15% प्रत सूत्रांक [२२ -९९] E0%ACTICS क्लेिशं या' मरणान्तवाधात्मक, रागेणातुरो-विहलो रागातुरः सन् 'से' इति स लोकप्रतीतः 'यथा वा' इति बाश-161 ब्दस्यैवकारार्थत्वाद् 'यथैव' येनैव प्रकारेण पतङ्गः शलभः आलोक:-अतिस्निग्धदीपशिखादिदर्शनं तस्मिन् लोलोलम्पट आलोकलोलः समुपैति 'मृत्यु' प्राणत्याग, तस्यापि गृयाऽऽलोकलोलत्वं राग एवेति भावः । 'यश्च' इति यस्तु, अपीति च तस्मिन्नित्यनेन योक्ष्यते 'दोष' द्वेष 'समुतित्ति बचनव्यत्ययात् 'समुपैति' समुपगच्छति रूपेबितिप्रक्रमः 'नित्यं सदा न तु कदाचित्, स किमित्याह-तस्मिन्नपि 'क्षणे प्रस्तावे यस्मिन् द्वेष उत्पन्नः 'स' इति सः 'तुः परणे उपैति 'दुःख' शारीरादि, द्विष्टो हि किमिदमनिष्टं मया दृष्टमिति मनसा व्याकुलीभवति परितप्यते च I देहेन, न तु यथा रागमुपगच्छंस्तत्काले मनोज्ञविषयावलोकनजनितं सुखमभिमन्यते उत्तरकालमेव तु दुःखमिति, पठन्ति च 'समुति सचंति स्पष्टं, यदि रूपदर्शनाद् द्वेषमुपगच्छन् दुःखमुपैति ततस्तथाविधरूपदोषेणैवाख दुःखावाप्तिरिति प्राप्तमित्याशङ्कवाह-दुष्टं दमनं दुर्दान्तं तच प्रक्रमाचक्षुषस्तदेव दोषो दुर्दान्तदोषस्तेन 'खकेन' आत्मी-| येन 'जन्तुः' प्राणी, न किञ्चित्' खल्पमपि रूपं प्रक्रमादमनोज्ञम् 'अपराध्यति' दुष्यति से' तस्य, यदि हि रूप-2 मेवापराध्येन्न कस्यचिद्वेषाभावः स्यात्, तथा च मुक्त्यभावादयो दोषा इति भावः । इत्थं रागद्वेषयोयोरप्यनर्थहेतुत्वमुक्तमिदानी तु द्वेपस्यापि रागहेतुकत्वात्स एव महाऽनर्थमूलमिति दर्शयंस्तस्य विशेषतः परिहर्त्तव्यता ख्यापयितुमाह-'एकान्तरक्तो' यो न कथञ्चिद्विरागं याति 'रुचिरें मनोरमे रूपे, किमित्याह-'अतालिसि'त्ति दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५] % A5% vमुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1259~ Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) ॐ प्रमादस्था ना०३२ प्रत सूत्रांक [२२ ॥३३॥ 5 % -९९] उत्तराध्य. मागधदेशीभाषया 'अताशे' अन्यादृशे, तथा च तल्लक्षणं-रशयोर्लसो मागधिकाया'मिति, 'से' इति स करोति बृहद्वृत्तिः 'प्रदोष' द्वेषं सुन्दरीनन्द इव सुरसुन्दरीरागतः सुन्दयाँ, तथा च दुःखस्य 'संपीडनं' सङ्घातं, यद्वा समिति-भृशं पीडा-दुःखकृताबाधा संपीडा तामुपैति 'बालः' अज्ञः उक्तमेवार्थ व्यतिरेकमुखेनाह-न लिप्यत इव लिप्यते, श्लिष्यत इत्यर्थः, 'तेन' द्वेषकृतदुःखेन मुनिः 'विरागः' रागविरहितः, तस्यैव तन्मूलत्वादिति भावः ॥ सम्प्रति रागस्यैव पापकर्मोपचयलक्षणमहाऽनर्थहेतुतां ख्यापयितुं हिंसाद्याश्रयनिमित्तता पुनरिह च तद्वारेण दुःखजनकत्वं च सूत्रषट्वेनाह-रूपं प्रस्तावान्मनोज्ञमनुगच्छति रूपानुगा सा चासावाशा च रूपानुगाशा, रूपविषयोऽभिलाष इति योऽर्थः, तदनुगतश्च जीवः, पठन्ति च-रूवाणुवायाणुगए य जीवे'त्ति तत्र रूपाणां-मनोज्ञानामुपायैः-उपार्जनहेतुभिरनुगतो-युक्त उपायानुगतः स च प्राणी जीवान् 'चराचरान्' उसस्थावरान् 'हिनस्ति' विनाशयति 'अनेकरूपान्' जात्यादिभेदतोऽनेकविधान् , कांश्चित्तु 'चित्रैः' अनेकप्रकारैः खकायपरकायशस्खादिदिमिरुपायैरिति गम्यते सुव्यत्ययाद् यथासम्भवं चित्तेषु वा तानिति-चराचरजीवान् परीति-सर्वतस्तापयति-दुःख यति परितापयति बाल इच बालः-विवेकविकलतयाऽपरांश्च पीडयति एकदेशदुःखोत्पादनेनात्मार्थ गुरु:-खप्रयो- जननिष्ठः 'क्लिष्टः' रागबाधितः ॥ अन्यच-रूपानुपातो-रूपविषयोऽनुपातः अनुगमनमनुराग इतियावत् ससिंच दसति 'परिग्रहेण' मूर्जात्मकेन हेतुना 'उत्पादने' उपार्जने रक्षणं च-अपायविनिवारणं सन्नियोगश्च-खपरप्रयोजनेषु । % % दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] ॥३१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1260~ Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२२ -९९] दीप अनुक्रम [१२६८ -१३४५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२२-९९|| अध्ययनं [३२], Education intimational सम्यग्व्यापारणं रक्षणसन्नियोगं तस्मिन् 'बये 'ति 'व्यये' विनाशे 'वियोगे' बिरहे सतोऽप्यनेककारणजनिते, | सर्वत्र रूपस्येतिप्रक्रमः, क सुखं ?, न क्वचित्, किन्तु सर्वत्र दुःखमेवेति भावः, 'से' इति तस्य जन्तोः, इयमंत्र भावना- रूपमूर्छितो हि रूपवत्करितुरङ्गमकलत्रादीनामुत्पादनरक्षणार्थं तेषु तेषु क्लेशहेतुपूपायेषु जन्तुः प्रवर्त्तते, तथा नियोज्यापि तथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ रूपवत्कलत्रादि तदपायशङ्कया पुनः पुनः परितप्यत एवेति सिद्धमेवास्योत्पादनरक्षणसंनियोगेषु दुःखम् एवं व्ययवियोगयोरपि भावनीयम्, अन्ये तु पठन्ति - 'रुवाणुरागेण परिग्गहेणं'ति, तत्र रूपानुरागेण हेतुना यः परिग्रहस्तेन, शेषं प्राग्वत् स्यादेतत्-मा भूदुत्पादनादिषु रूपस्य सुखं, | सम्भोगकाले तु भविष्यतीत्याशङ्कयाह-'सम्भोगकाले च' उपभोगप्रस्तावे च 'अतित्तलाभे'ति तर्पणं तृप्तं तृप्तिरितियावत्तस्य लाभः प्रासिस्तृप्तलाभो न तथाऽतृसलाभः, किमुक्तं भवति १ - बहुधाऽपि रूपदर्शने रागिणां न तृप्तिरस्ति, यतोऽन्यैरप्युक्तम् — “न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेघ, भूय एवाभिवर्द्धते ॥ १ ॥ " तथा " यथाऽभ्यासं विवर्द्धन्ते विषयाः कौशलानि चेन्द्रियाणामिति, तस्मिन् सति व सुखमिति सम्बन्धः, उत्तरोत्तरेच्छया हि परितप्यत एव जन्तुरिति, पठन्ति च - ' अतित्तिलाभे 'ति तृप्तिप्राप्यभावे । आह एवं परिग्रहाद् दुःखमनुभवतस्तद्भीरुतया ततो निवृत्तिर्दोषान्तरानारम्भणं वा किमस्य संभवतीत्याशङ्कयाह - रूपेऽतृसश्च परिग्रहे चतद्विषयमूर्द्धात्मके सक्तः - सामान्येनैवासक्तिमान् उपसक्तश्च गाढमासक्तस्ततः सक्तश्च पूर्वमुपसक्तश्च पश्चात् सक्तो Forsy निर्युक्तिः [५२६...] ~1261~ www.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) प्रमाद प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक [२२ -९९]] उत्तराध्य. पसक्तः 'नोपैति' नोपगच्छति 'तुष्टिं परितोष सन्तोषमितियावत् , तथा चातुष्टिरेव दोषोऽतुष्टिदोषस्तेन दुःखीहै यदि ममेदमिदं च रूपबद्वस्तु स्यादित्याकाङ्क्षातोऽतिशयदुःखवान् , स किं कुरुत इत्याह-परस्य अन्यस्य सम्बन्धि ना०३२ रूपवद्वस्त्विति गम्यते 'लोभाविलः' लोभकलुषः,यद्वा परेषां स्वं परखं प्रक्रमाद् यद्यवस्तु तस्मिन् लोभो-गाध्ये ॥६३२॥ तेनाविलः परखलोभाबिलः 'आदत्ते' गृह्णाति 'अदत्तम्' अनिसृष्टं परकीयमेव रूपयद स्त्विति गम्यते,अनेन रागस्याति-18|| दुष्टतां ख्यापयितुं परिग्रहाद्दोषदर्शनेऽपि विशेषतस्तत्रासक्तिर्दोषान्तरारम्भणं चाभि हितं ॥ तक्किमस्यैतावानेव दोष उतान्योऽपि.१ इत्याशङ्कयोक्तदोषानुवादेन दोवान्तरमप्याह-'तृष्णाभिभूतस्य' लोभाभिभूतस्य तत एवादत्तं हरति-II गृह्णातीत्येवंशीलोऽदत्तहारी तस्य,तथा रूपे-रूपविषयो यः परिग्रहस्तस्मिन्निति योगः, चस्य भिन्नक्रमत्वादतृप्तस्य च तत्रासन्तुष्टस्य मायाप्रधान मोसंति-भूषाऽलीकभाषणं मायामृषा 'वर्द्धते' वृद्धि याति, कुतः पुनरिदमित्यमित्याह-'लोभदोषात्' लोभापराधात्, लुब्धो हि परखमादत्ते आदाय च तद्गोपनपरो मायामृषा वक्ति, तदनेन लोभ एव सर्वाश्रवाणामपि मुख्यो हेतुरित्युक्तं, तथा रागप्रक्रमेऽपि सर्वत्र लोभाभिधानं रागेऽपि लोभांशस्यैवाहतिदुष्टतावेदनार्थे, तत्रापि को दोषः ? इत्याह-'तत्रापि' मृषाभाषणेऽपि 'दुःखात्' असातात् 'न विमुच्यते' | M६३२॥ न विमुक्तिमामोति सः, किन्तु ?, दुःखभाजनमेव भवतीति भावार्थः॥ दुःखाविमुक्किमेव भावयति-'मोसस्सत्ति मृषा, कोऽर्थः।-अनृतभाषणस्य पश्चाच्च पुरस्ताच 'प्रयोगकाले च तद्भाषणप्रस्तावे च दुःखी सन् तत्र पश्चादिदमिदं च न मया दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1262~ Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-1 /गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) 4 प्रत सूत्रांक %90%AX [२२ सुसंस्थापितमुक्तमिति पश्चात्तापतः पुरस्ताच कथमयं मया वञ्चनीय इति चिन्ताव्याकुलत्वेन प्रयोगकाले च नासौ |ममालीकभाषितां लक्षयिष्यतीति क्षोभतः तथा दुष्टोऽन्तः-पर्यवसानं तजन्मन्यनेकविडम्बनातो विनाशेन अन्यज न्मनि च नरकादिप्राप्त्या यस्यासौ दुरन्तो भवति जन्तुरिति गम्यते, तदेवं मृषाद्वारेणादत्तादानस्य दुःखहेतुत्वमुक्त, दायदा च 'मोसस्स'त्ति 'मोषस' तेयस्येति व्याख्या तदा साक्षादेव तस्य दुखिहेतुत्वाभिधानम्, उपसंहारमाह एवम्' अमुनोक्तप्रकारेणादत्तानि 'समाददानः' गृहन् रूपेऽतृप्तः सन् दुःखितो भवति, कीदृशः सन् ? इत्साह'अनिश्रः' दोषवत्तया सर्वजनोपेक्षणीय इति कस्यचित्सम्बन्धिनाऽवष्टम्भेन रहितः, मैथुनरूपाश्रवोपलक्षणं चैतदिति, प्रसिद्धत्वाच रागिणां तस्य साक्षादनभिधानं, यद्वा रूपसम्भोगोऽपि मिथुनकर्मकत्वाद्देवानामिय मैथुनमेव, तथा च रागिवचनम्-"आलोए चिय सा तेण पिययमा णेह निम्भरमणेणं । आभासियच अवगूहियव रमियछ पीयच ॥१॥" त्ति, स च प्रक्रान्तः, एवमुत्तरत्रापि स्त्रीगतशब्दादिसम्भोगानां मैथुनत्वं सम्भावनीयम् । उक्तमेवा) निगमयितुमाह४ रूपानुरक्तस्य नरस्य 'एवम्' अनन्तरसूत्रकदम्बकोक्तप्रकारेण कुतः सुखं भवेत् ? कदाचित्किञ्चित् , सर्वदा दुःखमे-ट चेति भावः, किमित्येवं ?, यतः 'तत्र' रूपानुरागे 'उपभोगेऽपि' उपभोगावस्थायामपि 'क्लेशदुःखम्' अतृप्तलाभतालक्षणवाधाजनितमसातम् , उपभोगमेव विशिनष्टि-निवर्त्तयति' उत्पादयति यस्य-इत्युपभोगस्य कृते यदर्थ 'ण' १ आलोक एव सा तेन प्रियतमा स्नेहनिर्भरमनसा आभाषितेव अवगूहितेब रमितेव पीतेव ॥ १ ॥ -९९] % 84% C दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] Circle : JABERahim intamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1263~ Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [२२ -९९] उत्तराध्य. दि इति वाक्यालङ्कारे 'दुःखं' कृच्छ्रमात्मन इति गम्यते, उपभोगार्थ हि जन्तुः क्लिश्यति-तत्र सुखं स्यादिति, यदा चप्रमादस्थाबृहद्वृत्तिः टतदाऽपि दुःखं तदा कुतोऽन्यदा सुखसम्भवः ? इति भावः । इत्थं रागस्थानहेतुतामभिधाय द्वेषस्यापि तामतिदे-13 ना ३२ टमाह-'एवमेव' यथाऽनुरक्तस्तथैव रूपे गतः प्रदोष-द्वेषम् 'उपैति' प्राप्नोति इहैवेति शेषः 'दुःखौघपरम्पराः' उत्तरो-IA ॥३३॥ त्तरदुःखसमूहरूपाः, तथा प्रदुष्ट-प्रकर्षण द्विष्टं चित्तं यस्य तथाविधः, चस्य भिन्नक्रमत्वात् 'चिनोति वा' बनाति कर्म, तत् शुभमपि संभवत्यत आह-यत् 'सें' तस्य पुनर्भवति 'दुःखं दुःखहेतुः 'विपाके' अनुभवकाले इह परत्र चेति भावः, पुनर्ग्रहणमैहिकदुःखापेक्षम् , अशुभकर्मोपचयश्च हिंसाद्याश्रयाविनाभावीति तद्धेतुत्वमनेनाक्षिप्यते । इत्थं रे रागद्वेषयोरुबरणाहतां ख्यापयितुं तदनुद्धरणे दोषमभिधाय तदुद्धरणे गुणमाह-रूपे विरक्त उपलक्षणत्वादद्विष्टश्च 'मनुजः' मनुष्यः 'विशोकः' शोकरहितः संस्तन्निबन्धनयो रागद्वेषयोरभावात् 'एतेन' अनन्तरमुपदर्शितेन 'दुक्खो-र हपरंपरेण ति दुःखानाम्-असातानामोघाः-सङ्घातास्तेषां परम्परा-सन्ततिर्दुःखौघपरम्परा तया 'न लिप्यते' न स्पृश्यते भवमध्येऽपि 'सन्' भवन् , संसारवयंपीत्यर्थः, दृष्टान्तमाह-जलेनेव पाशब्दस्योपमार्थत्वात् 'पुष्करिणीपलासं' पमिनीपत्रं जलमध्येऽपि सदिति शेषः । १३ ॥ ३४ ॥ इत्थं चक्षुराश्रित्य त्रयोदश सूत्राणि व्याख्यातानि, ६३३।। एतदनुसारेणैव शेषेन्द्रियाणां मनसश्च सविषयप्रवृत्ती रागद्वेषानुद्धरणदोषाभिधायकानि प्रयोदश सूत्राणि व्याख्येयानि, नवरं 'श्रोत्रस्खेति श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्द्यत इति शब्दो-ध्वनिस्तं 'मनोज' काकलीगीतादि 'अमनोज' खरकर्क ARNA दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] 4 % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1264~ Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||२२-९९|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [२२ -९९] शादि, तथा हरिणमियच मुद्धेति, मृगः सर्वोऽपि पशुरुच्यते, यदुक्तम्-"मृगशीर्षे हस्तिजाती, मृगः पशुकरायोः" दाइति, हरिणस्तु कुरङ्ग एवेति तेन विशेष्यते, हरिणश्चासौ मृगश्च हरिणमृगः 'मुग्धः' अनभिज्ञः सन् 'शब्द' गौरिगी तात्मकेऽतृसः-तदाकृष्टचित्ततया तत्रातृप्तिमान् । 'माणस्य' इति घाणेन्द्रियस्य गन्ध्यते-चायत इति गन्धस्तं 'मनो|' सुरभिम् 'अमनोजम्' असुरभि, तथौषधयो-नागदमन्यादिकास्तासां गन्धस्तत्र गृद्धो-गृद्धिमानौषधिगन्धगृद्धः | सन् 'सप्पविलाओ विव'त्ति इयशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात्सर्प इव बिलान्निष्क्रमन् , स खत्यन्तप्रि(तप्रियतया तगन्धं सोढुमशक्नुवन् बिलान्निष्कामति ३ । 'जिह्वायाः' 'जिह्वेन्द्रियस्य रयते-आखाद्यत इति रसस्तं 'मनोज' मधुरादि। 'अमनोज कटुकादि तथा बडिश-प्रान्तन्यस्तामिषो लोहकीलकस्तेन विभिन्नकायो-विदारितशरीरो बडिशविभिन्नकायः 'मत्स्यः' मीनो यथाऽऽमिषस्य-मांसादेर्भोगः-अभ्यवहारस्तत्र गृद्ध आमिषभोगगृद्धः ४ । काय इह-४ स्पर्शनेद्रियं, सर्वशरीरगतत्वख्यापनार्थ चास्यैवमुक्तं, तस्य स्पृश्यत इति स्पर्शस्त 'मनोज' मृदुप्रभृति 'अमनोझ'कर्कशादि शीत-शीतस्पर्शवजलं-पानीयं तत्रावसन्नः-अवमानः शीतजलावसन्नो ग्राहैः-जलचरविशेषैगृहीतः-कोडी-13 कृतो ग्राहगृहीतो महिप इवारण्ये, वसति हि कदाचित्केनचिदुन्मोच्येतापीत्यरण्यग्रहणम् ५। 'मनसः' चेतसो भाव:-अभिप्रायः स चेह स्मृतिगोचरस्तं 'ग्रहणं' ग्राह्यं वदन्तीन्द्रियाविषयत्यात्तस्य, 'मनोज' मनोजरूपादिविषयम् 'अमनोज' तद्विपरीतविषयम् , एवमुत्तरग्रन्थोऽपि भावविषयरूपाद्यपेक्षया व्याख्येयः, यद्वा खप्नकामदशादिषु दीप अनुक्रम [१२६८-१३४५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1265~ Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||१००|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) प्रमादस्था ना०३२ प्रत सूत्रांक [१००] उत्तराध्य. भावोपस्थापितो रूपादिरपि भाव उक्तः, स मनसो ग्रायः, खमकामदशादिपु हिमनस एव केवलस्य व्यापार इति, कामगुणेषु' मनोज्ञरूपादिषु 'गृद्धः आसक्तः 'करेणुमग्गावहिए वणागे' इति इवार्थस्य चस्य भिन्नक्रमत्वात् करेण्वाबृहद्वृत्तिः करिण्या मार्गेण-निजपधेनापहृतः-आकृष्टः करेणुमार्गापहृतः 'नाग इव' हस्तीव, स हि मदान्धोऽप्यदूरवर्तिनीकरे॥६३४॥ णुमुपदर्य तद्रूपादिमोहितस्तन्मार्गानुगामितया च गृह्यते सङ्घामादिषु च प्रवेश्यते तथा च विनाशमाप्नोतीति दृष्टान्तत्वेनोक्तः, आह-एवं चक्षुरादीन्द्रिययशादेव गजस्य प्रवृत्तिरिति कथमस्यात्र दृष्टान्तत्वेनाभिधानम् ?, उच्यते, एवमेतत् , मनःप्राधान्यविवक्षया वेतन्नेयं, यदिवा तथाविधकामदशायां चक्षुरादीन्द्रियव्यापाराभावे मनसः प्रवृत्तिरिति न दोषः, इह चानानुपूर्यपि निर्देशाङ्गमितीन्द्रियाणामित्थमुपन्यास इत्यष्टसप्ततिसूत्रावयवार्थः ॥ उक्तमेवार्थ है सझेपत उपसंहारव्याजेनाह एविंदियत्वा य मणस्स अस्था, दुक्खस्स हे मणुयस्स रागिणो। ते चेव थेबंपि कयाइ दुक्खं, न बीयरागरस करिति किंचि ॥१०॥ 'एवम्' उक्तन्यायेन 'इन्द्रियार्थाः' चक्षुरादिविषया रूपादयः चशब्दो भिन्नक्रमस्ततो मनसोऽर्थाश्च-उक्तरूपा उपलक्षणत्वादिन्द्रियमनांसि च दुःखस्य 'हे'त्ति हेतयो मनुजस्य रागिणः, उपलक्षणत्वाद् द्वेषिणश्च, विपर्यये गुणमाह'ते चेय' इन्द्रियमनोऽर्थाः 'स्तोकमपि' खल्पमपि कदाचिद् दुःखं 'न' नैव वीतरागस्य उपलक्षणत्वाहीतद्वेषस्य दीप अनुक्रम [१३४६] |॥६३४॥ JABERatinintimational wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1266~ Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||१०१|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [१०१] कुर्वन्ति 'किञ्चिदिति शारीरं मानसं चेति सूत्रार्थः ॥ ननु कश्चन कामभोगेषु सत्सु (न) वीतरागः संभवति, तत्कथमस्य दुःखाभावः १, उच्यते न कामभोगा समयं उविति, न यावि भोगा विगई उविति । जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेद ॥१०१॥ 'न' नैव 'कामभोगाः' उक्तरूपाः 'समतां' रागद्वेषाभावरूपाम् 'उपयान्ति' उपगच्छन्ति हेतुत्येनेति गम्यते, दात तुत्वे हि तेषां न कश्चिद्रागद्वेषवान् भवेत् , न चापि 'भोगाः' भुज्यमानतया सामान्येन शब्दादयः 'विकृति क्रोधादिरूपाम् , इहापि हेतुत्वेनोपयन्तीत्यन्यथा न कश्चन रागद्वेषरहितः स्यात्, कोऽनयोस्तर्हि हेतुः इत्याह-यः 'तत्प्रदोषी च तेषु-विषयेषु प्रद्वेषवान् 'परिग्रही च' परिग्रहबुद्धिमान् , तेष्वेव रागीत्युक्तं भवति, स तेषु' विषयेषु 'मोहात्' रागद्वेषात्मकात् मोहनीयात् विकृतिमुपैति, रागद्वेषरहितस्तु समतामित्सर्थादुक्तम् , उक्तं हि पूर्व'सतो रागद्वेषयोरुदीरकत्वेन शब्दादयो हेतव' इति, आह-"समो य जो तेसु स वीयरागो" इत्यनेन गतार्थ|मेतत् , सत्सं, तस्यैव त्वयं प्रपञ्चः, उक्तं हि त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चथोच्यते' इति सत्रार्थः ॥ किंखरूपाः पुनरसौ विकृतियों रागद्वेषवशादुपैतीसाह दीप अनुक्रम [१३४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1267~ Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३२], मूलं [-] / गाथा ||१०२-१०३|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) उत्तराध्य. प्रत ना०३२ बृहद्वृत्तिः ॥६३५॥ सूत्रांक [१०२ -१०३] कोहं चमाणंच तहेवमायं, लोभंदुगुंछ अरईरइंचाहासं भयं सोगपुमिथिवेयं, नपुंसवेयं विविहे यभावे॥१०२॥प्रमादस्थाआवजई एवमणेगरूचे,एवं विहे कामगुणेसु सत्तो। अन्ने य एयप्पभवे विसेसे,कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्सो॥१०॥ ___ क्रोधं च मानं च तथैव मायां लोभ-चतुष्टयमप्युक्तरूपं 'जुगुप्सां' चिकित्साम् 'अरर्ति' अस्वास्थ्य रतिं च' | विषयासक्तिरूपां 'हासं च वऋविकाशलक्षणं 'भयं' साध्वसं शोकपुंखीवेदमिति समाहारनिर्देशः ततः शोक-18 प्रियविप्रयोगजं मनोदुःखात्मकं पुंवेद-स्त्रीविषयाभिलाषं स्त्रीवेद-पुरुषाभिष्वङ्गं 'नपुंसकवेयंति नपुंसकवेदम्-18 उभयाभिलाषं 'विविधांश्च' नानाविधान् 'भावान्' हर्पविषादादीनभिप्रायान् 'आपद्यते' प्राप्नोति, 'एवम्' अमुना रागद्वेषवत्तालक्षणेन प्रकारेण 'अनेकरूपान्' बहुभेदाननन्तानुबन्ध्यादिभेदेन तारतम्यभेदेन च एवंविधान्' उक्तप्र-2 कारान् विकारानिति गम्यते 'कामगुणेषु' शब्दादिषु 'सक्तः' अभिष्वङ्गवान् उपलक्षणत्वाद् द्विष्टश्च, अन्यांश्च 'एतत्प्रभवान्' क्रोधादिजनितान् 'विशेषान्' परितापदुर्गतिपातादीन् , कीरशः सन् ! इत्याह-कारुण्यास्पदीभूतो दीनः कारुण्यदीनो मध्यपदलोपी समासोऽत्यन्तदीन इत्यर्थः, 'हिरिमे'त्ति 'हीमान्' लज्जावान्, कोपाधापन्नो हि प्रीतिविनाशादिकमिहैवानुभवन् परत्र च तद्विपाकमतिकटुकं विभावयन् प्रायोऽतिदैन्यं लज्जां च भजते, तथा| Am६३५॥ 'वहस्स'त्ति आर्षत्वात् 'द्वेष्यः' तत्तदोषदुष्टत्वात्सर्वस्याप्रीतिभाजनमिति सूत्रद्वयार्थः । यतश्चैवं रागद्वेषावेव दुःखमू-12 लमतः प्रकारान्तरेणापि तयोरुद्धरणोपायाभिधानार्थं तद्विपर्यये दोपदर्शनार्थ चेदमाह दीप अनुक्रम [१३४८-१३४९]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1268~ Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||१०४|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) % प्रत सूत्रांक [१०४] कप्पं न इच्छित सहायलिच्छ, पच्छाणुतावेण तवप्पभावं। एवं विकारे अमियप्पयारे, आवजई इंदियचोरवस्से ॥ १०४॥ कल्पते-स्वाध्यायादिक्रियासु समर्थों भवतीति कल्पो-योग्यस्तम् , अपेर्गम्यमानत्वात्कल्पमपि, किं पुनरकल्पं ?, शिष्यादीति गम्यते, 'नेच्छेत्' नाभिलषेत् 'सहायलिच्छू'त्ति विन्दोरलाक्षणिकत्वात् 'सहाये (य) लिप्सुः' ममासौ शरीरसंबाधनादि साहाय्यं करिष्यतीत्यभिलाषुकः सन् , तथा पश्चादिति-प्रस्तावातस्य तपसो वाजीकारादुत्तरका-12 लमनुतापः-किमेतावन्मया कष्टमङ्गीकृतमिति चित्तवाधात्मको यस्य स तथाविधः चशब्दादन्याशश्च सम्भूतयतिवद् |भवान्तरे भोगस्पृहयालुः, तपःप्रभावं प्रक्रमानेच्छेदू, यथा-न शक्यमशीकृतं त्यक्तुं परं यद्यस्य प्रतस्य तपसो वा फलमस्ति तत एतस्मादिहवामोषध्यादिलब्धिरस्तु, तदन्याशापेक्षया तु भवान्तरे शकचक्रिविभूत्यादि भूयादिति, ६ किमेव निषिध्यते ? इत्याह-एवम्' अमुना प्रकारेण 'विकारान्' दोषान् 'अमितप्रकारान्' अपरिमितभेदान् 'आप-2 यते' प्रामोति इन्द्रियाणि चौरा इव धर्मसर्वखापहरणाद् इन्द्रियचौरास्तदश्यः-तदायत्तः, उक्तविशेषणविशिष्टस्य हि कल्प्यतपःप्रभाववाग्छारूपेण स्पर्शनादीन्द्रियवश्यताऽवश्यसंभाविनी ततश्चोत्तरोत्तरविशेषानभिलपतः संयम प्रति चित्तविप्नुत्सवधावनादिदोषा अपि संभवन्त्येवेति, एवं च अवतोऽयमाशयः तदनुग्रहबुद्ध्या कल्पं पुष्टालदम्पने च तपःप्रभावं च वाञ्छतोऽपि न दोपः, अथवा कल्पमुक्तरूपं नेच्छेत्सहायलिप्सुं यदि कथञ्चनामी मम धर्म दीप अनुक्रम [१३५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1269~ Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [--] / गाथा ||१०४|| __नियुक्ति: [५२६...] (४३) A प्रमादस्थाना० ३२ प्रत सूत्रांक [१०४] उत्तराध्य. सहाया भवन्तीत्येवमभिलापुकमप्यास्तामन्यमिति भावः, जिनकल्पिकापेक्षं चैतत् , एतेन च रागस्य हेतुद्वयपरि हरणमुद्धरणोपाय उक्तः, उपलक्षणं चैतदीरशामन्येषामपि रागहेतूनां च परिहारस्य, ततः सिद्धं द्वयोरप्युद्धरणोपा- बृहदृत्तिः यानां तद्विपर्यये च दोषाणामभिसन्धानमिति सूत्रार्थः ॥ अनन्तरं रागद्वेषोद्धरणोपायविपर्यये यो दोष उक्तस्तमेव दोपान्तरहेतुताऽभिधानद्वारेण समर्थयितुमाह तओसि जायंति पओअणाई, निमजि मोहमहन्नवंमि । सुहेसिणो दुक्खविणोय [मुक्ख] गट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए अरागी ॥ १५ ॥ 'ततः' इति विकारापत्तेरनन्तरं 'से' तस्य 'जायन्ते' उत्पद्यन्ते 'प्रयोजनानि' विषयसेवनप्राणिहिंसादीनि 'निमजितु'मित्यन्त वितण्यर्थत्वान्निमजयितुमिव निमज्जयितुं प्रक्रमातमेव जन्तुं मोहो महार्णव इवातिदुस्तरतया मोहमहार्णवस्तस्मिन्, किमुक्तं भवति ?-यैर्मोहमहार्णवनिमग्न इव जन्तुः क्रियते स बुत्पन्नविकारतया मूढ एवासीत् | विषयासेवनादिभिश्च प्रयोजनैः सुतरां मुघतीति, कीदृशस्य पुनरस्य किमर्थं चैवंविधप्रयोजनानि जायन्ते ? इत्साह 'सुखैषिणः' सुखाभिलषणशीलस्य 'दुःखविनोदार्थ' दुःखपरिहारार्थं पाठान्तरतो दुःखविमोचनाय वा, सुखैपितायां साहि दुःखपरिहाराय विषयसेवनादिप्रयोजनसम्भव इति भावः, कदाचिदेवंविधप्रयोजनोत्पत्तावपि तत्रायमुदासीदान एव स्याद् ?, अत्रोच्यते-'तत्प्रत्ययम्' उक्तरूपप्रयोजननिमित्तं पाठान्तरतस्तत्प्रत्ययादुद्यच्छति चशब्दस्यैवकारार्थ ct दीप अनुक्रम [१३५० ॥६३६॥ wajaniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1270~ Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम [१३५१] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१०५ || निर्युक्तिः [५२६...] Education intamational अध्ययनं [३२], त्वादुद्यच्छत्येव, कोऽर्थः :- तत्प्रवृत्तायुत्सहत एव, 'रागी' रागवानुपलक्षणत्वाद् द्वेषी च सन् रागद्वेषयोरेव सकलानर्थस्य परम्पराकारणत्वादिति सूत्रार्थः ॥ किमिति रागद्वेषवतः सकलाऽप्यनर्थपरम्परोच्यते ? इत्याशङ्कयाहविरज्यमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावश्यप्पगारा । न तस्स सव्वेवि मणुन्नयं वा निव्वत्तयंती अमणुन्नयं वा ॥ १०६ ॥ विरज्यमानस्येति उपलक्षणत्वादद्विषतश्च 'चः' पुनरर्थे ततो विरज्यमानस्याद्विषतश्च पुनः 'इन्द्रियार्थाः' शब्दा|दिकाः पाठान्तरतो वर्णादिका वा तावन्त इति यावन्तो लोके प्रतीताः प्रकाराः खरमधुरादिभेदा येषां ते तावत्प्रकाराः, बहुप्रभेदा इत्यर्थः, न 'तस्य' इति मनुजस्य 'सर्वेऽपि' समस्ता अपि मनोज्ञतां वा 'निर्वर्त्तयन्ति' जनयन्त्यमनोज्ञतां वा [निर्वर्त्तयन्ति, ] किन्तु ?, रागद्वेषवत एव, खरूपेण हि रूपादयो न मनोज्ञताममनोज्ञतां वा कर्तुमा - त्मनः क्षमाः किन्तु रक्तेतरप्रतिपत्रध्यवसायवशाद् उच्यते चान्यैरपि - " परिव्राट्कामुकशुनामेकस्यां प्रमदातनी । कुणवं कामिनी भक्ष्यमिति तिस्रो विकल्पनाः ॥ १ ॥ ततो वीतरागस्य तन्निर्वर्त्तन हेत्वभावात्कथममी मनोज्ञतामनोज्ञतां पा निर्वर्त्तयेयुः १, तदभावे च कथं विषयसेवनाक्रोशदानादिप्रयोजनोत्पत्तिः । इति, पूर्व सति मनोज्ञत्वेऽमनोज्ञत्वे च समस्य रूपादीनामकिञ्चित्करत्वमुक्तम्, इह तु मनोज्ञत्वामनोज्ञत्वे अपि तादृशस्य न भवत एवेत्युच्यत इति पूर्वस्माद्विशेष इति सूत्रार्थः ॥ तदेवं “जे जे उपाया पडिवजियब"त्ति प्रतिज्ञातरागद्वेषयोर्मोहस्य च परस्प Forest Use Only www.jacibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~ 1271~ Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||१०६|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) ना०३२ प्रत सूत्रांक [१०६] उत्तराध्य. | रायतनत्वेऽपि रागद्वेषयोरतिदुष्टत्वात्साक्षात् मोहस्य च तदायतनत्वात्तद्वारेणोद्धरणोपायान् प्रतिपत्तव्यान्निरूप्य यदा प्रमादस्था तु “जे जे अवाया परिवजियव"त्ति(पाठः) तदा रसनिषेवणादीनपायानुक्तन्यायतोऽभिधायोपसंहरनाहबृहद्वृत्तिः एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजाई समयमुवट्टियस्स । ॥३०॥ अत्थे च संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु ताहा ।। १०७ ॥ 'एवम्' उक्तप्रकारेण स्वस्य-आत्मनः सङ्कल्पा:-प्रक्रमाद्रागद्वेषमोहरूपाध्यवसायास्तेषां विकल्पना:-सकलदोपमूलत्वादिपरिमावनाः खसङ्कल्पविकल्पनास्तासूपस्थितस्य-उद्यतस्येति सम्बन्धः, किमित्याह-संजायते' समुत्पद्यते है 'समय'ति आपत्वात् 'समता' माध्यस्थ्यमर्थान्-इन्द्रियार्थान् रूपादीश्वस्य भिन्नक्रमत्वात्सङ्कल्पयतश्च-यथा नैवैतेऽपायहेतयः किन्तु ! रागादय एवेत्युक्तनीत्या चिन्तयतो यदिवा समता-परस्परमध्यवसायतुल्यता सा चानिवृत्तिबा दरसम्परायगुणस्थान एव, एतत्प्रतिपत्तृणां हि बहूनामप्येकरूप एवाध्यवसाय इत्यनयैतदुपलक्ष्यते, तथा 'अर्थान् । दाजीवादीन् 'संकल्पयतश्च' शुभध्यानविषयतयाऽध्यवस्यतः 'ततः' इति समतायाः 'से' तस्य जन्तोः [साधोः] 'प्रही|यते' प्रकर्षण हानि याति,काऽसौ ?-'कामगुणेषु' रूपादिषु तृष्णा' अभिलाषो लोभ इतियावत् , समतायां हि द्विवि-/६३७॥ धायामपि प्राप्तायामुत्तरोत्तरगुणस्थानावात्या क्षीयत एव लोभ इति । अथवा 'एवम्' उक्तप्रकारेण 'समकम्' एककालम् 'उपस्थितस्य' उद्यतस्य रागायुद्धरणोपायेष्विति प्रक्रमः, यदिवा 'समयम्' एतदभिधायक सिद्धान्तं प्रतीति शेषः। vi-REASYC दीप अनुक्रम [१३५२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1272~ Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [--] / गाथा ||१०|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [१०७] 'उपस्थितस्य तदुक्तार्थानुष्ठानोद्यतस्येत्यर्थः,किमित्याह-खसङ्कल्पानाम्-आत्मसम्बन्धिनां रागाद्यध्यवसायानां विक-13 ल्पना-विशेषेण छेदनं स्वसङ्कल्पविकल्पना,दृश्यते हि छेदवाच्यपि कल्पशब्दः,यथोक्तम्-"सामर्थे वर्णनायां च, छेदने । करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥ १॥" 'आसुं'ति 'आशु' शीभ 'संजायते' भवति, पठन्ति च-'ससंकप्पविकप्पणासो'ति, तथा 'अत्थे असंकप्पयतो ति, तत्र च स्वस्थ-आत्मनः सङ्कल्पः-अध्यवसायस्तस्य विकल्पा-रागादयो भेदास्तेषां नाश:-अमावः खसङ्कल्पविकल्पनाशः, तथा को गुणः? इत्याह-'अर्थान' रूपादीन् 'असङ्कल्पयतः' रागादिविषयतयाऽनध्यवस्वतः 'ततः' इति स्वसङ्कल्पविकल्पनातः खसंकल्पविकल्पनाशाद्वा 'से' तस्य प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णेति सूत्रार्थः ॥ ततः स कीरशः सन् किं विधत्ते ? इत्याह सो वीयरागो कयसब्यकिञ्चो, खवेह नाणावरणं खणणं । तहेच जं दरिसणमावरेइ, जं चतरायं पकरेइ कम्मं ॥१०८॥ | 'सः' इति हीनतृष्णः 'वीतरागः' विगतरागद्वेषो भवति, तृष्णा हि लोभस्तत्क्षये च क्षीणकषायगुणस्थानायाप्तिरिति, तथा कृतसर्वकृत्य इव कृतसर्वकृत्यः प्राप्तप्रायत्वादनेन मुक्तेः 'क्षपयति' क्षयं नयति 'ज्ञानावरणं' वक्ष्यमाणस्वरूपं 'क्षणेन' समयेन तथैव यद् 'दर्शनं' चक्षुर्दर्शनादि 'आवृणोति' स्थगयति दर्शनावरणमित्यर्थः, यथ 'अन्तरायं' दानादिलब्धिविघ्नं प्रकरोति 'कर्म' अन्तरायनामकमित्युक्तं भवति, स हि क्षपितमोहनीयस्तीर्णमहासागर ****HAKHABAR दीप अनुक्रम [१३५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1273~ Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||१०८|| नियुक्ति : [५२६...] (४३) प्रत सूत्रांक [१०८] उत्तराध्य. 15 इव श्रमोपेतो विश्रम्यान्तर्मुहूर्त तड्विचरमसमये निद्राप्रचले देवगत्यादिनामप्रकृतीश्च क्षपयति, चरमसमये च ज्ञाना- प्रमादस्थाबृहद्वृत्तिः वरणादित्रयमिति सूत्रार्थः ॥ तत्क्षयाच कं गुणमवानोति ? इत्याह ना० ३२ सव्वं तओ जाणइ पासई य, अमोहणो होइ निरंतराए। ॥१३॥ अणासवे झाणसमाहिजुत्तो, आउक्खए मुक्खमुवेइ सुद्धे ॥ १०९॥ 'सर्व' निरवशेष 'ततः' ज्ञानावरणादिक्षयात् 'जानाति' विशेषरूपतयाऽवगच्छति पश्यति च सामान्यरूपतया | 'चः' समुच्चयार्थः, तत एतेन भेदविषयत्वात्समुच्चयस्य पृथगुपयोगत्वमनयोः सूच्यते, ततश्च यदुक्तं युगपदुपयोगवा-2 दिना-"मणपजवणाणतो णाणस्स य सणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणन्ति नाणंति य समाणं ॥१॥"ति, तनिराकृतं भवति, तथा च प्रज्ञप्त्यामभिहितम्-"ज समयं जाणंति णो तं समयं पासंति,' तथा केवली णं भंते । इमं रयणप्पमं पुढवि आगारहिं हेऊहिं पमाणेहि संठाणेहि परिवारहिं समयं जाणइ नो तं समयं पासति', हंता गोयमा! केवली ण" मित्यादि, न चात्र केवलिशब्देन छद्मस्थ एव श्रुतकेवल्यादिर्विवक्षित इति वाच्यं, यत इहायसूत्रे | | १ मनःपर्यायज्ञानान्तः ज्ञानस्य च दर्शनस्य च विशेषः । केवलज्ञानं पुनर्दर्शन मिति ज्ञानमिति च समानम् ॥ १॥ २ यस्मिन् ॥३८॥ समये जानन्ति न तस्मिन् समये पश्यन्ति ३ केवली भदन्त ! इमां रत्नप्रभा पृथ्वीमाकारैः प्रमाणहेतुभिः संस्थानः परिवारैः यस्मिन् समये जानाति न तस्मिन् समये पश्यति ? हन्त गौतम ! केवली दीप अनुक्रम [१३५४] ~ 1274~ Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१०९ ] दीप अनुक्रम [१३५५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१०९ || अध्ययनं [३२], स्नातक एव प्रस्तुतः, स च घातिकर्मक्षयादेव भवतीति न तस्य छद्यस्थता संभवेत्, द्वितीयसूत्रे तु परमाणुदर्शनमेव प्रक्रान्तं तस्य च केवलं विना परमावधेस्ततो वा किञ्चिन्न्यूनस्यैव सम्भवस्तत्र च तौ व्यवच्छेदिताविति केवलमेवावशिष्यते, उक्त च पूज्यै:-"" ते दोऽवि विसेसेउं अन्नो छउमत्थकेवली को सो १। जो पासइ परमाणुं ग्रहणमिहं जस्स होज्जाहि ॥ १ ॥” न चैवमप्यस्मिन् विशेषवति सूत्रे परवक्तव्यतैवेयमित्युपगन्तुमुचितम् उक्तं हि एवं विसेसियंमिवि परमयमेगं| तरावओगोत्ति । ण पुण उभओवओगो परवत्तचत्ति का बुद्धी १ ॥ १ ॥" इत्यादि कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतमुच्यते - तथा चामोहनः - मोहरहितो भवति, तथा निष्कान्तोऽन्तरायो (यात्) निरन्तरायोऽनाश्रवः प्राग्वत्, ध्यानं-शुक्लध्यानं तेन समाधिः- परमखास्थ्यं तेन युक्तः सहितो ध्यानसमाधियुक्तः आयुष उपलक्षणत्वान्नामगोत्रवेद्यानां च क्षय आयुःक्षयस्तस्मिन् सति मोक्षम् 'उपैति प्राप्नोति 'शुद्धः' विगतकर्ममल इति सूत्रार्थः ॥ मोक्षगतश्च याडशो भवति तदाहसो तस्स सब्बस्स दुहस्स मुक्खो, जं बाहई सययं जंतुमेयं । दीहामroast सत्थो, तो होइ अचंतसुही कत्थो ॥ ११० ॥ 'सः' इति मोक्षप्राप्तो जन्तुः 'तस्मात्' इति जातिजरामरणरूपत्वेन प्रतिपादितात् 'सर्वस्मात् ' निरवशेषाद् दुःखात् Education infamational १ तौ द्वावपि अपो अन्यछद्मस्थकेवली कः सः ? । यः पश्यति परमाणु ग्रहणमिह यस्य भवेत् ॥ १ ॥ २ एवं विशेषितेऽपि परमतमेकान्तरोपयोग इति । न पुनरुभयोपयोगः परवक्तव्यतेति का बुद्धिः ? ॥ २ ॥ निर्युक्ति: [५२६...] For P ~ 1275~ www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३२], मूलं [-]/ गाथा ||१११|| नियुक्ति: [५२६...] (४३) * प्रत सूत्रांक [१११] * उत्तराध्य. सर्वत्र सुव्यत्ययेन षष्ठी 'मुक्तः पृथगभूतः, यत् कीदगियाह-'यदू'दुःखं 'बाधते' पीडयति 'सततम्' अनवरतं 'जन्तं प्रमादस्थ प्राणिनम 'एन' प्रत्यक्षमनुभवोपदर्शनमेतत् , दीर्घाणि यानि स्थितितः प्रक्रमात्कमोणि तान्यामया इव-रोगा इव बृहद्वृत्तिः विविधवाधाविधायितया दीर्घामयास्तेभ्यो विप्रमुक्तो दीर्घामयविप्रमुक्तः अत एव 'प्रशस्तः' प्रशंसाहः, ततः किमिRAM त्याह-'तो' इति 'ततः दीर्घामयविप्रमोक्षाद् भवति' जायतेऽत्यन्तम्-अतिक्रान्तपर्यन्तं सुख-शर्म तदस्यास्तीत्यत्यन्त-18 सुखी तत एव च 'कृतार्थः कृतसकलकृत्य इति सूत्राथेंः ॥ सकलाध्ययनाथें निगमयितुमाह अणाइकालप्पभवस्स एसो, सब्वस्स दुक्खस्स पमुक्खमग्गो। वियाहिओ जं समुविच सत्ता, कमेण अचंतसुही भवंति ॥ १११ ॥ त्तिमि ॥ ॥पमायहाणं ॥ ३२॥ 'अनादिकालप्रभवस्ख' अनादिकालोत्पन्नस्य 'एषः' अनन्तरोक्तः सर्वस्य दुःखस्य 'प्रमोक्षमार्गः' प्रमोक्षोपायः, |पाठान्तरतश्च संसारचक्रस्य विमोक्षमार्गो, व्याख्यातः, यः कीदृशः? इत्याह-'य' दुःखप्रमोक्षमार्ग 'समुपेत्य' | सम्यक् प्रतिपय 'सत्त्वाः' प्राणिनः 'क्रमेण' उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तिरूपेणात्यन्तसुखिनो भवन्तीति सूत्रार्थः ॥ इति ॥६३९॥ परिसमाप्ती, नवीमीति पूर्ववत् । अवसितोऽनुगमो, नयाश्च प्राग्वत् ॥ इत्युत्तराध्ययनटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविर-17 |चितायां शिष्यहितायां प्रमादस्थानं नाम द्वात्रिंशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ३२ ॥ * * * दीप अनुक्रम [१३५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- ३२ परिसमाप्तं ~ 1276~ Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/ गाथा ||१११...|| नियुक्ति: [५२७-५३२] (४३) अथ कर्मप्रकृतिरितिनाम त्रयस्त्रिंशत्तममध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [१११] व्याख्यातं प्रमादस्थानाख्यं द्वात्रिंशमध्ययनमिदानी प्रयस्त्रिंशमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने प्रमादस्थानान्युक्तानि, तैश्च 'मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' (तत्त्वा० अ०८ सू०१) इतिवचनात्कर्म बध्यते, तस्य च काः प्रकृतयः ? कियती वा स्थितिः ? इत्यादिसन्देहापनोदायेदमारभ्यते, अस्य च चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे कर्मप्रकृतिरिति नाम, अतः कर्मणः प्रकृतेश्च निक्षेपाभिधानायाह नियुक्तिकृत्कम्ममि अ निक्खेवो चउबिहो० ॥ ५२७ ॥ जाणगभवियसरीरे तबइरित्तं च तं भवे दुविहं । कम्मे नोकम्मे या कम्ममि अअणुदओ भणिओ ५२८ । नोकम्मदवकम्मं नायवं लेप्पकम्ममाईअं । भावे उदओ भणिओ कम्मटविहस्स नायवो ॥ ५२९ ॥ निक्खेवो पयडीए चउदि० ॥५३०॥ जाणगभवियसरीरा तबइरित्ताय सा पुणो दुविहा। कम्मे नोकम्मे या कम्ममिअअणुदओ भणिओ ५३१ CSCACACMCSCACKS दीप अनुक्रम [१३५७] ilajandiarayam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययन - ३३ "कर्मप्रकृति" आरभ्यते ~1277~ Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/गाथा ||१११...|| नियुक्ति : [५२७-५३२] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६४०॥ प्रत सूत्रांक [१११] नोकम्मे दवाइं गहणपाउग्गमुक्कगाइं च । भावे उदओ भणिओ मूलपयडि उत्तराणं च ॥ ५३२॥ कर्मप्रक| कम्मंमीत्यादि गाथाः षट् सुगमाः, नवरं 'कर्मणि' ज्ञानावरणादिके उदयो-विपाकस्तदभावोऽनुदयो भणितः, " त्यध्य-२३ ६ किमुक्तं भवति ?-अनुदयावस्थं कमैय कर्मकार्याकरणात् तद्यतिरिक्तं द्रव्यकर्म, नोकर्मद्रव्यकर्म ज्ञातव्यं लेप्यकर्मादिकम् , आदिशन्दाकाष्ठकर्मादिपरिग्रहः, नोकर्मता चास्य ज्ञानावरणादिकर्माभावरूपत्वात् , द्रव्यकर्मता च द्रव्यस्यप्रतिमादेः क्रियमाणत्वात् , 'भावे' विचार्य प्रक्रमाकर्म 'उदयः' विपाकः 'भणितः' उक्तः, अयं च कस्य सम्बन्धी ज्ञायताम् ? इत्साह-कम्मट्टविहस्स'त्ति प्राग्वदष्टविधकर्मणो ज्ञातव्यो, ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मोदयावस्थं भावकर्म, तस्यैव कर्मकार्यकरणादिति भावः । प्रकृतिनिक्षेपे कर्मणि-मूलप्रकृत्यादिरूपेऽनुदयस्तयतिरिक्ता द्रव्यप्रकृतिः, नोकआणि द्रव्याणि ग्रहणप्रायोग्यानि यान्यद्यापि तावन्न गृयन्ते ग्रहणयोग्यता चास्ति येषाम् , आपत्वात्सुपो लुक् , तथा मुक्तान्येव मुक्तकानि-यानि कर्मतया परिणमय्य प्रोज्झितानि यथाक्रमं पुरस्कृतपश्चात्कृतपर्यायवाद्, 'भाव'| इति भावे विचार्ये 'उदयः' विपाकः 'भणितः' उक्तः प्रकृतिरिति प्रक्रमः, कासामित्याह-'मूलपगडि उत्तराणं च' त्ति मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां चेहैव वक्ष्यमाणानामिति गाथाषट्कार्थः ॥ इत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति D६४०॥ सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् अट्ठ कम्माई वुच्छामि, आणुपुचि जहकर्म । जेहिं बद्धे अयं जीवे, संसारे परिवत्तए ॥१॥ दीप अनुक्रम [१३५७] CASSES wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1278~ Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [५३२...] (४३) प्रत सूत्रांक 'अष्ट' इत्यष्टसङ्खयानि क्रियन्ते- मिथ्यात्वादिहेतुभिर्जीवेनेति कर्माणि 'वक्ष्यामि' प्रतिपादयिष्ये 'आणुपुचिन्ति प्राग्वत्सुब्ब्यत्ययादानुपूळ, इयं च पश्चानुपूर्व्यादिरपि संभवत्यत आह-'यथाक्रम' क्रमानतिक्रमेण पूर्वानुपूर्येतियायत्, । पठन्ति च 'सुणेह में इति प्राग्वत् , यानि कीशीत्याह-'यैः' कर्मभिः 'बद्धः' लिष्टः 'अयमिति प्रतिप्राणिखसंवेद्यो| जीवः संसारे परिवर्त्ततेऽज्ञतादिविविधपर्यायानुभवनतोऽन्यथा च अन्यथा च भवति परिभ्रमति या पाठान्तरत इति ४ सूत्रार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्म तहेव य ॥२॥ ___ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अद्वेव य समासओ॥३॥ ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्-अवबोधस्तस्य आत्रियते-सदप्याच्छाद्यतेऽनेन पटेनेव विवसत्प्रकाश इत्यावरणीयं कृत्यल्युटो। बहुल'(पा०३-३-११३)मिति वचनात्करणेऽनीयः, दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं-सामान्याववोधस्तदात्रियते वस्तुनि प्रतीहारे-14 दव नृपतिदर्शनमनेनेति दर्शनावरणं, तथा वेद्यते-सुखदुःखतयाऽनुभूयते लिह्यमानमधुलिप्तासिधारायदिति वेदनीयं, तथा मोहयति जानानमपि मद्यपानवद्विचित्तताजननेनेति मोहस्तम्, आयाति-आगच्छति खकृतकर्मावाप्सनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसोऽप्यात्मनो निगडवत्प्रतिवन्धकतामित्यायुः तदेव कर्म आयुःकर्म तथैव च । नमयतिगत्यादिविविधभावानुभवनं प्रत्यात्मानं प्रवणयति चित्रकर इव करितुरगादिभावं प्रति रेखाकृतिमिति नामकर्म, दीप अनुक्रम [१३५८] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1279~ Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-] / गाथा ||२-३|| नियुक्ति: [५३२...] (४३) बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक [२-३] उत्तराध्य. 1४'चः' समुचये, गीयते-शब्द्यते उचावचैः शब्दैः कुलालादिव मृद्रव्यमत आत्मेति गोत्रं तच अन्तरा-दातृप्रतिप्राहकयोरन्तर्भाण्डागारिकवद्विप्नहेतुतयाऽयते-गच्छतीत्यन्तरायं तथैव च सर्वत्रासदपि कर्मेति संबध्यते, उपसंहारमाह-18 तिसत सकारात्यध्य. ३३ 'एवम्' अमुना प्रकारेणैतानि कर्माण्यष्टैव 'तुः' पूरणे 'समासतः' सझेपेण, विस्तरतस्तु यावन्तो जन्तुभेदास्तान्यपि, ॥१४॥ तावन्तीत्यनन्तान्येवेति भावः ॥ अत्र च ज्ञानदर्शनखतत्त्वोऽयमात्मेत्यन्तरमत्त्वात्तयोरादितस्तदावरणोपादानं, समा नेऽपि च तयोरन्तरत्वे ज्ञानोपयोग एव सर्वलब्धीनामवाप्तिः, यदुक्तम्-"सबाओ लद्धीओ सागारोवओगउत्तस्स"त्ति, अतो ज्ञानस्य प्राधान्यमिति तदावरणस्य प्रथमस्तदनु दर्शनावरणस्य ततः केवलिनोऽप्येकविधवन्धकस्य सातबन्धोऽस्तीति व्यापित्वावेदनीयस्य ततोऽपि प्रायः संसारिणामिष्टानिष्टविषयसम्बन्धात्सुखदुःखे इष्टानिष्टता च रागद्वेपाभ्यां तद्रूपं च प्रायो मोहनीयमिति तस्य ततश्चैतत्प्रकर्षापकर्षभाषित्वादायुर्निबन्धनानां बहारम्भपरिग्रहत्वाल्पारम्भपरिग्रहत्वादीनां तदुद्भवं चायुष्कमिति तस्य तदुदयश्च प्रायो गत्यादिनामोदयाविनाभावीति ततो नाम्नः ततोऽपि च नरकादिनामोदयसहभाव्येव गोत्रकर्मोदय इति गोत्रस्य ततश्चोचनीचभेदभिन्नात्यायो दानादिलब्धिमा वाभावी तयोश्चान्तरायक्षयोदयावन्तरङ्गहेतू इति तदनन्तरमन्तरायस्येति सूत्रद्वयार्थः ॥ इत्थं कर्मणो मूलप्रकृतीर- ६४१॥ दभिधायोत्तरप्रकृतीराह नाणावरणं पंचविहं, सुअं आभिणिबोहियं । ओहिं नाणं तईयं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ निद्दा तहेव दीप अनुक्रम [१३५९-१३६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1280~ Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/ गाथा ||४-१५|| नियुक्ति: [५३२...] (४३) प्रत सूत्रांक [४-१५] SEARCAS KACCX पथला निहानिहाय पयलपयला य । तत्तो घ थीणगिद्धी पंचमा होइ नायब्वा ॥५॥ चक्खमचक्खओ-II हिस्स दसणे केवले य आवरणे । एवं तु नवविगप्पं नायब्वं दसणावरणं ॥६॥ वेयणियपि हु(य) दुविहं सायमसायं च आहियं । सायस्स उ बहू भेया, एमेवासायस्सवि ॥ ७ ॥ मोहणियंपि य दुविहं, दसणे चरणे तहा। दसणे तिविहं वुत्तं, चरणे दुविहं भवे ॥८॥ संमत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिजस्स दसणे ॥९॥ चरित्तमोहणं कम्म, दुविहं तु वियाहियं । कसायमोहणिज्जं च, नोकसायं तहेव य ॥१०॥ सोलसविहभेएणं, कम्मं तु कसायज । सत्तविह नवविहं वा, कम्मं नोकसायजं ॥ ११ ॥ नेरइयतिरिक्खाऊ, मणुस्साउं तहेव य । देवाऊयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउब्विहं ॥१२॥ नामकम्मं दुविहं, मुहममुहंच आहियं । सुहस्स उ बहू भेया, एमेव य असुहस्सवि ॥१३॥ गोयं कम्म ४ पदविह, उचं नीयं च आहियं । उच्च अट्टविहं होइ, एवं नीयपि आहियं ॥१४॥ दाणे लाभे य भोगे या |उवभोगे पीरिए तहा। पंचविहमन्तराय, समासेण वियाहियं ॥१५॥ हा णाणावरणेत्यादि सूत्राणि द्वादश, ज्ञानावरणं 'पञ्चविधं' पञ्चप्रकारं, तब कथं पञ्चविधमित्याशङ्कायामावार्यभेदादेवेहावरणस्य भेद इत्यभिप्रायेणावार्यस्य ज्ञानस्यैव भेदानाह-श्रुतमाभिनिवोधिकमवधिज्ञानं तृतीयं मनोजानं च केवलम् , एतत्खरूपं मोक्षमार्गाध्ययन एवोक्तम्। निद्राणं निद्रा, सा चेह सुखप्रतिबोधोच्यते, यदुक्तम्-"सुहपडिबोहोणिद्द"त्ति, १सुखप्रतिबोधो निद्रा दीप अनुक्रम [१३६१ -१३७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1281~ Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [४-१५] दीप अनुक्रम [१३६१ -१३७२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६४२ || “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || ४-१५|| अध्ययनं [ ३३ ], Education intemational 'तथैवे 'ति तेनैव निद्रावत्किञ्चिच्छुमरूपतात्मकेन प्रकारेण प्रचलत्यस्यामासीनोऽपीति प्रचला, उक्तं हि - "पैयला होति ठियस्स उ"त्ति, 'निद्रानिद्रा च' अतिशयनिद्रा दुःखप्रतिबोधात्मिकाऽतिशयख्यापनार्थत्वाद् द्विरुच्चारणस्य, यदुक्तम्- "दुहपडिबोहो य हिणिद्द"त्ति, एवं 'प्रचलाप्रचला' प्रचलाऽतिशायिनी, सा हि चङ्क्रम्यमाणस्यापि भवति, यथोक्तम्- “वैयलापयला उ चंकमओ"त्ति, चशब्दावुभयत्र तुल्यताख्यापको, द्वे अपि शुभतया तुल्ये एवैते तत् उपरीति शेषस्ततश्च प्रकृष्टतराशुभानुभावतया ताभ्य उपरिवर्त्तिनी स्त्याना संहतोपचितेत्यर्थः ऋद्धिर्गृद्धिर्वा यस्यां सा स्त्यानर्द्धिः स्त्यानगृद्धिर्वा, प्राच्यश्चः समुचयार्थ इह योज्यते, एतदुदये च वासुदेववलार्द्ध-बलः प्रवलरागद्वेषोदयवांश्च जन्तुर्जायते, अत एव परिचिन्तितार्थसाधन्यसाबुच्यते, यदुक्तम्- “श्रीणी पुण दिणचिंतियस्स अत्थस्स साहणी पायं”ति, 'तुः' पूरणे पञ्चमी भवति ज्ञातव्या । 'चक्खमचक्खू ओहिस्स'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततश्चक्षुश्चाचक्षुश्रावधिश्च चक्षुरचक्षुरवधीति समाहारस्तस्य दर्शन इति च प्रत्येकं दर्शनशब्दो योज्यते ततश्चक्षुर्दर्शने-चक्षुषा रूपसामान्यग्रहणे अचक्षूंषि-चक्षुः सदृशानि शेषेन्द्रियमनांसि तद्दर्शने - तेषां खखविषयसामान्यपरिच्छेदे अवधिदर्शने-अवधिमा रूपिद्रव्याणां सामान्यग्रहणे, तथा 'केवले यत्ति प्रक्रमात्केवलदर्शने - सर्वद्रव्यपर्याणां सामान्यावबोधे, आवरणमेतचक्षुर्दर्शनादिविषयभेदाच्चतुर्विधमत आह- 'एवम्' इत्यनेन निद्रापञ्चविधत्वच १ प्रचछा भवति स्थितस्यैव २ दुःखप्रतिबोधो निद्रानिद्रेति ३ प्रचलाप्रचला तु चंक्रम्यमाणस्य ४ स्यानर्द्धिः पुनर्दिनचिन्तितार्थस्य साधनी प्रायः For Patenty निर्युक्तिः [५३२...] ~ 1282~ कर्मप्रकू त्यध्य. ३३ ||६४२ ॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/ गाथा ||४-१५|| नियुक्ति: [५३२...] (४३) प्रत सूत्रांक [४-१५] क्षुर्दर्शनावरणादिचतुर्विधत्वात्मकेन प्रकारेण 'तुः' पूरण नव विकल्पा-भेदा यस्य तत्तथाविधं ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ।। 'वेदनीय' वेदनीयकर्म 'अपि च' इति पूरणे 'द्विविध' विभेदं खाद्यते-आल्हादकत्वेनाखाद्यत इति नैरुक्तविधिना M'सातं' सुखं शारीरं मानसं च इहोपचारात्तनिवन्धनं कर्मैवमुक्तम् , 'असातं च' तद्विपरीतम् 'आख्यातं' कथितं । तीर्थकृद्भिरिति गम्यते, 'सायस्स उत्ति 'तुः' अपिशब्दार्थः ततः सातस्यापि बहयो भेदाः, न केवलं ज्ञानदर्शनाहावरणयोरिल्यपिशब्दार्थः, ते च तद्धेतुभूतभूतानुकम्पादिबहुभेदत्वादू, एवमेवेति बहव एव भेदा असातस्यापि दुःख-|| शोकतापादितद्धेतुबहुविधत्वादेवेति गर्भार्थः । मोहनीयमपि द्विविध, न केवलं घेदनीयं, विषयतश्चैतविधेति वैवि-है। माध्यमाह-दर्शने तत्त्वरुचिरूपे 'चरणे' चारित्रे तथा, किमुक्तं भवति ?-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च, तत्र | BN ४ा 'दर्शने' दर्शनविषयं प्रक्रमान्मोहनीयं त्रिविधमुक्तं भवति, 'चरणे' चरणविषयं मोहनीयं द्विविधं भवेत् । यथा दर्श-|| | नमोहनीयत्रैविध्यं तथाऽऽह-सम्यग्भावः सम्यक्त्वं-शुद्धदलिकरूपं यदुदयेऽपि तत्त्वरुचिः स्यात् 'चैयेति पूरणे मिथ्याभावः मिथ्यात्वम्-अशुद्धदलिकरूपं यतस्तत्वेऽतत्त्वमतत्त्वेऽपि तत्त्वमिति बुद्धिरुत्पद्यते, सम्यग्मिथ्यात्वमेव च-शुद्धाशुद्धदलिकरूपं यत उभयखभावता जन्तोर्भवति, इह च सम्यक्त्वादयो जीवधर्मास्तद्धेतुत्वाच दलिकेष्वेतद्यपदेशः, एतास्तिस्रः प्रकृतयो मोहनीयस्य 'दर्शने' दर्शनविषयस्य ६ । चरित्रे मुबतेऽनेनेति मोहनं चरित्र-|| मोहनं कर्म यतः श्रद्दधानोऽपि यदि कथञ्चनाहमेनं प्रतिपद्य इति जानन्नपि तत्फलादि न तत्प्रतिपद्यते, उत्तरत्र दीप अनुक्रम [१३६१ -१३७२] JABERatinintamational wwwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1283~ Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/ गाथा ||४-१५|| नियुक्ति: [५३२...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥३४॥ सूत्रांक [४-१५] तुशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात्तत्पुनर्द्विविधं व्याख्यातं श्रुतधरैरिति शेषः, पठन्ति च 'चरित्तमोहणिजं दुविहं वोच्छामि कर्मप्रकृअणुपुखसोति स्पष्टमेव, कथं तद् द्विविधमित्याह-कषायाः-क्रोधादयस्तद्रूपेण वेद्यते-अनुभूयते यत्तत्कषायवेदनीयं 'चः समुच्चये 'नोकषायम्' इति प्रस्तावानोकषायवेदनीयं नोकपाया:-कषायसहवर्तिनो हास्यादयस्तद्रूपेण त्यध्य. ३३ यद्वद्यते 'तथेति समुच्चये । अनयोरपि भेदानाह-पोडशविधः-पोडशप्रकारो यो भेदो-नानात्वं तेन, लक्षणे तृतीया, यद्वा षोडशविधं भेदेन-भिद्यमानतया चिन्त्यमान, प्राकृतत्वादनुवारलोपः, कर्म क्रियमाणत्वात् 'तुः पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, कषायेभ्यो जायत इति कपायज "ज वेयति तं बंधति" इतिवचनात् कषायवेदनीयमित्यर्थः, षोडशविधत्वं चास्य क्रोधमानमायालोभानां चतुर्णामपि प्रत्येकमनन्तानुवन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदतश्चतुर्विधत्यात 'सत्तविह'त्ति प्राग्वद्विन्दुलोपात्सप्तविध वा कर्म नोकषायेभ्यो जायत इति 'नोकषायज' नोक-12 पायवेदनीयमित्यर्थः, तत्र सप्तविधं हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्साःपड वेदश्च सामान्यविवक्षयेक एवेति, यदा तु वेदः18 स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन त्रिधेति विवक्ष्यते तदा पशिस्त्रयो मीलिता नव भवन्तीति नवविधमिति । 'णेरइयतिरिक्खाउत्ति आयुःशब्दः प्रत्येक योज्यते, ततश्च निष्क्रान्ता अयात्-इष्टफलदैवात्तत्रोत्पन्नानां सवेदनाऽभावेनेति निरयास्तेपुnten भवा नैरयिकास्तेषामायुः [ग्रन्थानम् १६०००] नैरयिकायुयेन तेषु भियन्ते, तथा तिरोऽञ्चन्तीति-गच्छन्तीति १ यवेदयति तनाति दीप अनुक्रम [१३६१ % -१३७२] % JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1284 ~ Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [४-१५] दीप अनुक्रम [१३६१ -१३७२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || ४-१५|| अध्ययनं [ ३३ ], Jan Education intamational तिर्यञ्चः, व्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत् प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम, एते चैकेन्द्रियादयः, तत एषामायुस्तिर्यगायुर्येनैतेषु स्थितिर्भवति, तथा मनोरपत्यानि मनुष्याः 'मनोजतावण्यती सुक्चे 'ति (पा.४-१-१६१ ) यत्प्रत्ययः सुगागमस्तेषामायुर्मनुष्यायुः 'तथैव' तद्भावावस्थितिहेतुतयैव देवा-उक्तनिरुक्तास्तेषामायुर्देवायुर्येन तेष्ववस्थीयते चतुर्थ 'तुः' पूरणे, एवं चायुः कर्म चतुर्विधम् ९ । नामकर्म द्विविधं कथमित्याह - शोभते सर्वावस्थास्वनेनात्मेति शुभम् अशुभं च तद्विपरीतमाख्यातं 'सुहस्स'त्ति शुभस्यापि बहवो भेदा एवमेवाशुभस्यापि तदपि बहुभेदमिति भावार्थः । तत्रोत्तरोतरभेदतः शुभनाम्नोऽनन्त भेदत्वेऽपि विमध्यमविवक्षातः सप्तत्रिंशद्भेदाः, तद्यथा-मनुष्यगति १ देवगति २ पञ्चेन्द्रि यजाति ३ औदारिक ४ वैक्रिय ५ आहारक ६ तैजस ७ कार्मण ८ शरीराणि पञ्च समचतुरस्रसंस्थानं ९ वर्षभनाराचसंहननम् १० औदारिक ११ वैक्रिय १२ आहारक १३ अङ्गोपाङ्गानि त्रीणि प्रशस्तवर्ण १४ गन्ध १५ रस१६ स्पर्शाश्चत्वारः १७ मनुष्यानुपूर्वी १८ देवानुपूर्वी १९ चेत्यानुपूर्वीद्रयमगुरुलघु २० पराघातम् २१ उच्छास २२ आतप २३ उद्योत २४ प्रशस्तविहायोगति २५ तथा त्रस २६ वादरं २७ पज्जतं २८ प्रत्येकं २९ स्थिरं ३० शुभं ३१ सुभगं ३२ सुखरम् ३३ आदेयं ३४ यशः कीर्त्तिश्चेति ३५ निर्माणं ३६ तीर्थकरनाम चेति ३७, एताश्च सर्वा अपि शुभानुभावात् शुभं तथाऽशुभनाम्नोऽपि विमध्यमविवक्षया चतुखिंशद्भेदाः, तद्यथा-नरकगति १ तिर्यग्गति २ एकेन्द्रियजाति ३ द्वीन्द्रियजाति ४ श्रीन्द्रियजाति ५ चतुरिन्द्रियजाति ६ ऋषभनाराचं ७ नाराचं Forest Use Only निर्युक्ति: [५३२...] ~ 1285~ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-] / गाथा ||४-१५|| नियुक्ति: [१३२...] (४३) उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४४॥ प्रत सूत्रांक [४-१५] ८ अर्धनाराचं ९ कीलिका १० सेवा ११ न्यग्रोधमण्डलं १२ साति १३ वामनं १४ कुजं १५ हुण्डम् १६ | कर्मप्रकृ* अप्रशस्तवर्ण १७ गन्ध १८ रस १९ स्पर्शचतुष्टयं २० नरकानुपूर्वी २१ तिर्यगानुपूर्वी २२ उपघातम् २३ अप्रशस्त- त्यध्य.३३ विहायोगति २४ स्थावरं २५ सूक्ष्मम् २६ साधारणम् २७ अपर्याप्तम् २८ अस्थिरम् २९ अशुभं ३० दुर्भगं ३१ दुःस्वरम् ३२ अनादेयं ३३ अयशःकीर्तिश्चेति ३४, एतानि चाशुभनारकत्वादिनिबन्धनत्वेनाशुभानि, अत्र च8 बन्धनसहाते शरीरभ्यो वर्णाद्यवान्तरभेदाश्च वर्णादिभ्यः पृथग्न विवक्ष्यन्त इति नोक्तसङ्ख्यातिक्रमः । गोत्रं कर्म | द्विविधमुबमिक्ष्वाकुजातायुथैर्व्यपदेशनिबन्धनं, नीचं च तद्विपरीतमाख्यातं, तत्रोचमित्युचैर्गोत्रमष्टविघं भवति, 'एवम्' इत्यष्टविधतयैव 'नीचमपि' नीचैर्गोत्रमप्याख्यातम् , अष्टविधत्वं चानयोर्वन्धहेत्वष्टविधत्वात् , अष्टौ हि जात्यमदादय उच्चैर्गोत्रस्य बन्धहेतवः, तावन्त एव च जातिमदादयो नीचैर्गोत्रस्य, तथा च प्रज्ञापना-"उचागोयकम्मसरीरपुच्छा, गोयमा ! जाइअमएणं कुलअमएणं बलअमएणं तवअमएणं ईसरियअमएणं सुयअमएणं लाभअमएणं उच्चागोयकम्मसरीरपयोग होति, णीयागोयकम्मसरीरपुच्छा, गोयमा ! जाइमएणं कुलमएणं" इत्याद्या- ६४४ा लापकविपर्ययेणाष्टौ यावत् “णीयागोयकम्मसरीरपओगवं हवति"त्ति । दीयत इति दानं तस्मिन् , तथा लभ्यत इति लाभस्तस्मिंश्चं, भुज्यते-सकृदुपयुज्यत इति भोगः-सकृद्रोग्यः पुष्पाहारादिविषयस्तत्र च, तथा उपेति दीप अनुक्रम [१३६१ -१३७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1286~ Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-] / गाथा ||४-१५|| नियुक्ति : [५३२...] (४३) प्रत सूत्रांक [४-१५] अभ्यधिकं पुनः पुनरुपभुज्यमानतया भुज्यत इत्युपभोगः-पुनः पुनरुपभोग्यभवनाङ्गनादिविषयः, उक्तं हि-"सेति भुजइत्ति भोगो सो पुण आहारपुप्फमाईओ। उपभोगो उ पुणो पुण उवभुजइ व भवणवणियाई ॥१॥" तस्मिन् , विशेषेण ईर्यते-चेष्ट्यतेऽनेनेति वीर्य तस्मिन् , 'तथा' समुचये सर्वत्रान्तरायमिति प्रक्रमः, ततश्च विषयभेदात्पञ्चविधमन्तरायं समासेन व्याख्यातं, तत्र दानान्तरायं यत्सति विशिष्टे ग्रहीतरि देये च वस्तुनि तत्फलमवगग्छतोऽपि दाने प्रवृत्तिमुपहन्ति, यत्पुनर्विशिष्टेऽपि दातरि यावन्निपुणेऽपि याचितरि उपलब्धिउपधातकृत् तल्लाभान्तरायं, भोगान्तरायं तु सति विभवादौ सम्पद्यमाने च आहारमाल्यादौ यशान भुले, उपभोगान्तरायं तु यस्योदयात्सदपि वस्खालकारादि नोपभुक्ते, वीर्यान्तरायं यदशालिवान्नीरुग्वयःस्थः अथ च तृणकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थ इति सूत्रद्वादशकार्थः १२॥ | इत्थं प्रकृतयोऽभिहिताः, सम्प्रत्येतन्निगमनायोत्तरग्रन्थसम्बन्धनाय चाह एयाओ मूल पयडीओ, उत्तराओ अ आहिया । पएसग्गं खित्तकाले य, भावं चादुत्तरं सुण ॥१६॥ 'एताः' अनन्तरोक्का ज्ञानावरणादिरूपा मूलप्रकृतयः, तथा 'उत्तराः' इत्युत्तरप्रकृतयश्च श्रुतावरणाद्याः, चशब्दः तेश्रुतादीनामप्यक्षरानक्षरादिभेदतो बहुविधत्वादनुक्तबहुभेदसूचकः आख्याताः' कथिताःप्रदेशाः-परमाणवतेषामग्रंपरिमाणं प्रदेशाग्रं 'खेत्तकाले यत्ति क्षेत्रकाली च तत्र क्षियन्ति-निवसन्ति तस्मिन्निति क्षेत्रम्-आकाशं कालश्च१ सकद् भुज्यते इति भोगः स पुनराहारपुष्पादिः । उपभोगस्तु अनेकशः पुनः पुनरुपभुज्यते वा भवनवनिवादिः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१३६१ -१३७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1287~ Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-] / गाथा ||१६|| नियुक्ति: [१३२...] (४३) प्रत सूत्रांक [१६]] उत्तराध्य. बद्धस्य कर्मणो जीवप्रदेशाविचटनात्मकः स्थितिकालः 'भावं च' अनुभागलक्षणं कर्मणः पर्यायं चतुःस्थानिकत्रि- कर्मप्रकृ स्थानिकादिरसमितियावद् 'अतः उत्तर मिति अतः-प्रकृत्यभिधानादूर्ध्वं शृणु कथ्यमानमिति शेष इति सूत्रार्थः। तत्र बृहद्वृत्तिः त्यध्य.३३ सतावत्प्रदेशाग्रमाह॥६४५॥ सब्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं । गठियसत्ताईयं, अंतो सिद्धाण आहियं ॥१७॥ 'सर्वेषां समस्तानां 'चः' पूरणे एवः' अपिशब्दार्थे सर्वेषामपि न तु केपाश्चिदेष 'कर्मणां' ज्ञानावरणादीनां 'प्रदेशाग्रं परमाणुपरिमाणम् अनन्तमेवानन्तकमनन्तपरमाणुनिष्पन्नत्वात्तद्वर्गणानां, तच्चानन्तकं प्रन्धिरिख ग्रन्थिः-घनो रागद्वेषपरिणामस्तं गच्छन्ति प्रन्थिगास्ते च ते सत्त्वाश्च प्रन्थिगसत्त्वाः-ये ग्रन्धिप्रदेशं गत्वाऽपि तद्भेदाविधानेन । न कदाचिदुपरिष्टागन्तारः ते चाभव्या एवात्र गृह्यन्ते तानतीत-तेभ्योऽनन्तगुणत्वेनातिकान्तं अधिगसवातीतं, तथा 'अन्तः' मध्ये 'सिद्धानां' सिद्धिपदप्राप्तानाम् 'आख्यातं' कथितं गणधरादिभिरिति गम्यते, सिद्धेभ्यो हि कर्मपरमाणवोऽनन्तभाग एव, तदपेक्षया सिद्धानामनन्तगुणत्वाद्, अतः सङ्ख्यामपेक्ष्य सिद्धान्तर्वति तदनन्तकमुच्यते, एकसमये ग्राबकर्मपरमाण्यपेक्षं चैतत् , उक्तं हि-"'ते य कम्मपोग्गला भवसिद्धिपहिं अनंतगुणा ॥६४५॥ सिद्धाणमणंतभागमित्ता एगेगंमि समए गहणमिति"त्ति, पठन्ति च-'गंठि(प)सत्ताऽणाईत्ति अत्र व्याख्यानिक १ ते च कर्मपुद्गला भवसिद्धिकेभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागमात्रा एकैकस्मिन् समये प्रहणमायान्ति * % % दीप अनुक्रम [१३७३] % 4-% JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1288~ Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/ गाथा ||१७|| नियुक्ति: [५३२..] (४३) क प्रत सूत्राक [१७]] व्याख्या-प्रन्धिप्रसक्तानां-धनरागद्वेषपरिणामपन्थि कर्कशघनरूढग्रन्धिसमं तथाविधपरिणामाभावतोऽमिन्दानानां सत्त्वानां यो बन्धः सोऽनाद्यनन्तः-आद्यन्तविकलो ज्ञेयः, सिद्धानां पुनः भविष्यत्सिद्धीनां बन्धोऽनादिरपि 'अन्तर इति सान्तस्तथाविधपरिणामतो व्याख्यातो भगवद्भिरिति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति क्षेत्रमाह सब्वजीवाण कम्मं तु, संगहे उद्दिसागयं । सब्वेमुवि पएसेसु, सव्वं सब्वेण बद्धगं ॥१८॥ GI सर्वे-एकेन्द्रियायशेषभेदास्ते च ते जीवाश्च तेषां 'कर्म' ज्ञानावरणादि 'तुः' पुरणे सहः-सङ्घहणक्रिया तत्र योग्यं भवतीतिशेषः, यदिवा सर्षजीया 'ण'ति वाक्यभूपायां कर्म- 'संगहे'त्ति संगृह्णन्ति, कीरशं सदित्याह-'छद्दिसागयन्ति षण्णां दिशानां समाहारः पदिशं तत्र गतं-स्थितं षड्दिशागतम् , अत्र चतस्रो दिशः पूर्वादय ऊर्दाधोदिगद्वयं चेति षड् भवन्ति, इदं चात्मावष्टब्धाकाशप्रदेशापेक्षयोच्यते, यत्र नाकाशे जीवोऽवगाढस्तत्रैव ये कर्म-13 पुद्गलास्ते रागादिस्नेहगुणयोगादात्मनि लगन्ति न क्षेत्रान्तरावगाढाः, भिन्नदेशस्य तद्भावपरिणामाभावात् , यथा अग्निः खदेशस्थितान् प्रायोग्यपुरलानात्मभावेन परिणमयति एवं जीवोऽपीति, अल्पत्वाचेह विदिशामविवक्षितत्वेन षदिशागतमित्यभिधानं, यतो विदिग्व्यवस्थितमपि कर्मात्मना गृह्यते, उक्तं हि गन्धहस्तिना-"सर्वासु दिवामावधिकासु व्यवस्थितान् पुद्गलानादत्ते” इति, तथा क्षेत्रप्रस्तावे यद्विदिग्निरूपणं तचासामाकाशादभेदज्ञापनार्थ, तद्भेदेन तासामप्रतीतेः, तथा च यत्कैश्चिदिशा द्रव्यान्तरत्वमुक्तं तदपास्तं भवति, तथा पड्दिग्गतमपि वीन्द्रियादीने दीप अनुक्रम [१३७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1289~ Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [१८] दीप अनुक्रम [१३७५] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥६४६ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१८|| अध्ययनं [ ३३ ], निर्युक्ति: [५३२...] वाधिकृत्य नियमेन व्याख्येयमेकेन्द्रियाणामन्यथाऽपि सम्भवात्, तथा चागमः- “जीवे णं भंते ! तेयाकम्मापोग्गलाणं गहणं करेमाणे किं तिदिसिं करेति चउद्दिसिं करेइ पंचदिसिं करेइ छहिसिं करेइ १, गोयमा ! सिय तिदिसिं सिय चउहिसिं सिय पंचदिसिं सिय छद्दिसिं करेति, एगिंदिया णं भंते । तेयाकम्मपोग्गलाणं गहणं करेमाणे किं तिदिसिं जाव छद्दिसिं करेति ?, गोयमा ! सिय तिदिसिं सिय चउद्दिसिं सिय पंचदिसिं सिय छद्दिसिं करेइ, बेंदियतेंदिय चउरिंदियपंचिंदिया नियमा छुद्दिसिं"ति, तच पदिग्गतं सर्वेष्वपि न तु कतिपयेषु प्रदेशेष्यपि, अर्थादाकाशस्योक्कन्यायादात्मावष्टच्धेषु कर्म सर्वजीवानां सङ्ग्रहे योग्यं भवति, ते वा तत्संगृह्णन्ति, तत्स्थकर्मपुद्गलान् प्रत्यात्मनो ग्रहणहेत्वविशेषात् तथा 'सर्व' समस्तं ज्ञानावरणादि न त्वन्यतरदेव, आत्मा हि सर्वप्रकृतिप्रायोग्यान् पुद्गलान् सामान्येनादाय तानेवाध्यवसायविशेपात् पृथक् पृथग् ज्ञानावरणादिरूपत्वेन परिणमयति, तचैवंविधं कर्म संगृहीतं सत् किं कैश्विदेवात्मप्रदेशषद्धं भवति यद्वा सर्वेणात्मना ? इत्याह- 'सर्वेण' समस्तेन प्रक्रमादात्मना न तु कियद्भिरेव तत्प्रदेशैः बद्ध-क्षीरोदकवदात्मप्रदेशः विष्टं तदेव बद्धकम्, अन्योऽन्यसम्बद्धतया हि शृङ्खलावयवानामिव परस्परोपका| रित्वादात्मनः प्रदेशानां सदैव योगोपयोगी भवतो, न त्वेकैकशः, तन्निमित्तकश्च कर्मबन्ध इति सोऽपि सर्वेणैवात्मना, ग्रहणपूर्वकत्याच बन्धस्य तदप्येवमेव यद्वा तद् गृहीतं सत् केन सह कियत्कथं वा बद्धं भवति ? इत्याह'सधेसुबि परसेसु' सुव्यत्ययात्सर्वैरपि प्रदेशः प्रक्रमादात्मनः 'सर्व' सर्वप्रकृतिरूपं 'सर्वेण' गम्यमानत्वात्प्रकृतिस्थित्यादिना प्रकारेण बद्धकमिति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति कालमाह Education intimational For Fans Only कर्मप्रकृ त्यध्य. ३३ ~1290~ ॥६४६॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१९ -२३] दीप अनुक्रम [१३७६ -१३८०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१९-२३|| अध्ययनं [ ३३ ], उदहीसरिनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ । उकोसिया होई ठिई, अंतमुतं जहनिया ॥ १९ ॥ आवरणजाण दुण्हंपि, वेयणिले तहेव य अंतराए य कम्मंमि, ठिई एसा वियाहिया ॥ २० ॥ उयहीसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडिओ। मोहणिजस्स उक्कोसा, अंतमुद्दत्तं जहनिया ॥ २१ ॥ तित्तीससागरोवमा, उक्कोसेणं वियाहिया । ठिई उ आउकम्मस्स, अंतमुहुत्तं जहनिया || २२ || उदहीसरिसनामाणं, बीसई कोडिकोडिओ। नामगोआण उकोसा, अंतमुद्दत्तं जहनिया ॥ २३ ॥ Education infamational उदधिः- समुद्रस्तेन सदृक्- सदृशं नाम - अभिधानमेषामुदधिसदृग्नामानि - सागरोपमाणि तेषां त्रिंशत्कोटीकोख्यः 'उक्कोसिय'त्ति उत्कृष्टा भवति 'स्थितिः' अवस्थानं, तथा मुहूर्त्तस्यान्तरं अन्तर्मुहूर्त्त मुहूर्त्तमपि न्यूनमित्यर्थः, जघन्यैव जघन्यका प्रक्रमात्स्थितिः । केषामित्याह- 'आवरणीययोः' अन्यत्रैतव्यपदेशा श्रवणाज्ज्ञानदर्शनविषययोः, ततो ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयोर्द्वयोरपि, वेदनीये तथैव च अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेवं व्याख्याता, इह च षष्ठीप्रक्रमेऽपि | वेदनीय इत्यादी सप्तम्यभिधानमनयोरर्थस्य तत्त्वतोऽभिन्नत्यात्, उक्तं हि "राजा भर्त्ता मनुष्यस्य, तेन राज्ञः स उच्यते । वृक्षस्तिष्ठति शाखासु ता वा तत्रेति तस्य ताः ॥ १ ॥” तथा इति वेदनीयस्यापि जघन्यस्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमानैव सूत्रकारेगोक्ता, अन्ये तु 'जघन्या (अपरा) द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्येति (तत्त्वा. अ.सू. १९) द्वादशमुहूर्त्तमानामेवैतामिच्छन्ति, तदभिप्रायं न विद्मः । उदधिसदृशनानां सप्ततिकोटी कोट्यो मोहनी स्योत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्त्त जघन्यका । त्रयस्त्रिंशत्सागरो निर्युक्तिः [५३२...] Forest Use Only ~1291~ www.ncbrayo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/गाथा ||१९-२३|| नियुक्ति: [१३२...] (४३) प्रत सूत्रांक -२३]] उत्तराध्यापमाणि आर्षत्वाच सुपो लुक, उत्कृष्टेन व्याख्याता स्थितिः 'तुः' पूरणे आयुःकर्मणोऽन्तर्मुहूर्त जघन्यका । उदधिस- कर्मप्रकृ दशनाम्नां विंशतिकोटीकोव्यो नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यका इति सूत्रपञ्चकार्थः । इत्यमुत्कृष्टा जघन्या च|| बृहद्वत्तिः त्यध्य ३३ स्थितिमूलप्रकृतिविषया सूत्रकारेणाभिहिता, विनेयानुग्रहार्थ तूत्तरप्रकृतिविषया प्रदयते-तत्रोत्कृष्टा स्त्रीवेदसातये॥४७॥ दनीयमनुजगत्यानुपूर्वीणां चतसृणामुत्तरप्रकृतीनां पञ्चदश सागरोपमकोटीकोट्यः, कषायषोडशकस्य चत्वारिंशन्नपुं सकारतिशोकमयजुगुप्सानां पञ्चानां विंशतिः, पुंवेदेहास्यरंतिदेवगैत्यानुपूर्वीद्वयाद्यसंहननसंस्थानप्रशस्तविहायोगति-12 स्थिरशुभसुभगसुखरादेययशःकीयुञ्चैर्गोत्राणों पञ्चदशानां दश न्यग्रोधसंस्थानद्वितीयसंहननयोर्द्वादश सातिसंस्थाननाराचसंहननयोश्चतुर्दश कुजार्द्धनाराचयोः पोडश वामनसंस्थानकीलिकासंहननद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्यासकसाधारणानामष्टानामष्टादश तिर्यग्मनुष्यायुषोः पल्योपमत्रयं, अवशिष्टानां तु मूलप्रकृतिवदुत्कृष्टा स्थितिः, जघन्या तु निद्रापश्चकासातावेदनीयानां पण्णां सागरोपमससभागास्त्रयः पल्योपमासङ्खयेयभागन्यूनाः सातस्य तु द्वादश मुहूत्तोंः। मिथ्यात्वस्य पल्योपमासमवेयभागोनं सागरोपमं आद्यकपायद्वादशकस्य चत्वारः सागरोपमसप्तभागास्तावतैव न्यूनाः, ६ कोधस्य संज्वलनस्य मासद्वयं मानस्य मासो मासा मायायाः पुंवेदस्याष्टौ वर्षाणि शेषनोकायमनुष्यतिर्यग्गतिजोति-IMIn४७॥ दिपञ्चकौदारिकशरीस्तदङ्गोपाङ्गतैजसकर्मिणसंस्थानषट्कसंहननषट्कवर्णचतुष्कँतिर्यग्मनुष्यानुपूर्व्यगुरुलधूपघातपरापोतो.| छाँसातपोधोतप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगैतियतःकीर्तिवर्जत्रसादिवितिनिर्माणनीचर्गोत्राणां पट्पष्टयुत्तरप्रकृतीनां सा दीप अनुक्रम [१३७६-१३८०] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1292~ Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३३], मूलं [-]/ गाथा ||२४|| नियुक्ति: [५३२..] (४३) प्रत सुत्रांक [२४] द गरोपमसप्तभागी द्वौ पल्योपमासङ्खयेयभागन्यूनौ वैक्रियषट्कस्य सागरोपमसहस्त्रभागौ द्वौ पल्योपमासङ्घधेयभागन्यूनौ | आहारकतदङ्गोपाङ्गतीर्थकरनानामन्तःसागरोपमकोटीकोटी, ननूत्कृष्टाऽपि एतावत्येवासां तिसृणां स्थितिरभिहिता, सत्य, तथापि ततः संङ्खयेयगुणहीनत्वेनास्या जघन्यत्वमिति सम्प्रदायः, कृतं प्रसझेन प्रकृतं प्रस्तुम इति, तत्र यदुक्तं प्रदेशाग्रं क्षेत्रकालौ च भावं चो(चात उ)त्तरं शूपिवति तत्र प्रदेशाग्रं क्षेत्रकालौ चाभिहितो, सम्प्रति भावमभिधातुमाह सिद्धाणणतभागो, अणुभागा हचंति उ । सव्वेसुवि पएसगं, सव्वजीवेसु (स) इच्छियं ॥ २४ ॥ . 'सिद्धानाम्' मुक्तानामनन्तभागवर्तित्वादनन्तभागः 'अनुभागाः' रसविशेषा भवन्ति 'तुः' पूरणे' अयं चानन्त-| भागोऽनन्तसङ्घय एवेति, अनेनैषामानन्त्यमेवेत्थं विशिष्टमुक्त, सम्पत्ति प्रदेशपरिमाणमाह-सर्वेष्वपि प्रक्रमादनुभागेषु प्रदिश्यन्त इति प्रदेशा-बुया विभज्यमानास्तदविभागैकदेशास्तेषामग्रं प्रदेशाग्रं 'सबजीवेसुनिजिझ(इच्छि)य'ति 'सर्वजीवेभ्यः भव्याभव्येभ्योऽतिक्रान्तं ततोऽपि तेषामनन्तगुणत्वेनाधिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ एवं प्रकृतिप्रदर्शमेन प्रकृतिवन्धप्रदेशापाभिधानेन च प्रदेशवन्धं कालोक्त्या च स्थितिवन्धं अनेन चानुभागमभिधाय यदर्थेमेते प्ररूपि-| तास्तदुपदर्शयन्नुपसंहारव्याजेनोपदेष्टुमाहतम्हा एएसि कम्माणं, अणुभागे वियाणिया। एएर्सि संवरे घेव, खवणे य जए बुहे ॥ २६ ॥ सिमि ॥ ॥ कम्मपयडी ॥३३॥ दीप अनुक्रम [१३८१] 456454542525 - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: | अत्र सूत्रान्ते यत् गाथाक्रमांक ||२६|| दृश्यते तत् मूल संपादकस्य मुद्रणअशुद्धिः, अत्र गाथाक्रम ||२५|| एव वर्तते ~ 1293~ Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [२५] दीप अनुक्रम [१३८२] उत्तराध्य. वृत्तिः ॥६४८|| “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२५|| अध्ययनं [ ३३ ], निर्युक्ति: [ ५३३ ] 'तम्ह'त्ति यस्मादेवंविधाः प्रकृतिबन्धादयस्तस्मात् 'एतेषाम्' अनन्तरमुक्तानां 'कर्मणां' ज्ञानावरणादीनामनुभागानुपलक्षणत्वात्प्रकृतिबन्धादींश्च 'विज्ञाय' विशेषेण कटुकविपाकत्वलक्षणेन भवहेतुत्वलक्षणेन वाऽवबुध्य, अनुभागानामेव च साक्षादुपादानमेषामेवाशुभानां प्रायो भवनिर्वेदहेतुत्वात्, 'एषाम्' इति कर्मणां 'संवरे' अनुपात्तानामुपादाननिरोधे 'चः' समुच्चये 'एवे' त्यवधारणे भिन्नक्रमस्ततः 'क्षपणे च' उपात्तानां निर्जरणे 'जए'त्ति 'यतेतैव' यलं कुर्यादेव, कोऽसौ ? - 'बुधः' तत्त्वावगमवानिति सूत्रार्थः ॥ अमुमेवार्थमनुवादद्वारेण व्यक्तीकर्तुमाह नियुक्तिकृत् - पगइटिई अणुभागं पएसकम्मं च सुटु नाऊणं । एएसिं संवेर खलु खवणे उ सयावि जइअवं ॥ ५३३॥ स्पष्टैव । 'इति' परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । इत्यवसितोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वत् ॥ इत्युत्त|राध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां त्रयस्त्रिंशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ३३ ॥ Education national इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तरा०टी० कर्मप्रकृत्यभिषं त्रयस्त्रिंशमध्ययनं ॥ ॐ For Purina Pen कर्मप्रकृ त्यध्य. ३३ ~1294~ ॥६४८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - ३३ परिसमाप्तं Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/ गाथा ||२५...|| नियुक्ति: [५३४-५४४] (४३) अथ लेश्याख्यं चतुस्त्रिंशमध्ययनम् । प्रत सूत्राक [२५]] व्याख्यातं कर्मप्रकृतिनामक त्रयस्त्रिंशमध्ययनं, सम्प्रति चतुस्त्रिंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने कर्मप्रकृतय उक्ताः, तत्स्थितिश्च लेश्यावशत इत्यतस्तदभिधानार्थमिदमारभ्यते, अस्य चैवमभिसम्बन्धागतस्योतापक्रमादिद्वारप्ररूपणा प्राग्वत्सुकरैव यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपः, तत्र चास्य लेश्याऽध्ययनमिति नामातो लेश्याध्ययन शब्दयोनिक्षेपमाह नियुक्तिकृत्लेसाणं निक्खेवो चउक्कओ दुविह होइ नायवो । जाणगभवियसरीरा तव्वइरित्ता यसा पुणो दुविहा। कम्मा नोकम्मे या नोकम्मे हुंति दुविहाउ॥५३५॥ जीवाणमजीवाण य दुविहा जीवाण होइ नायवा। भवमभवसिद्धिआणं दुविहाणवि होइ सत्तविहा ॥ अजीवकम्मनो दवलेसा सा दसविहा उ नायवा। चंदाण य सुराण य गहगणनक्खत्तताराणं ॥५३७॥ आभरणच्छायणादंसगाण मणिकागिणीण जा लेसा । अजीवदवलेसा नायव्वा दसविहा एसा ॥५३॥ जा दबकम्मलेसा सा नियमा छबिहा उ नायबा । किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा य सुक्का य ५३९ दीप अनुक्रम [१३८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ३४ "लेश्या" आरभ्यते ~ 1295~ Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [२५] दीप अनुक्रम [१३८२] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२५...|| अध्ययनं [३४], उत्तराध्य. 2 दुविहा उ भावलेसा विसुद्धलेसा तहेव अविसुद्धा । दुविहा विसुद्धलेसा उवसमखइआ कसायाणं ॥ बृहद्वृत्तिः अविसुद्ध भावलेसा सा दुविहा नियमसो उ नायवा । पिज्जंमि अ दोसंमि अ अहिगारो कम्मलेसाए५४१ नोकम्मदवलेसा पओगसा वीससा उ नायवा । भावे उदओ भणिओ छण्हं लेसाण जीवेसु ॥९४२॥ अज्झयणे निक्खेवो चउक्कओ दुविह होइ नायवो 10 जाणगभवियसरीरं तबइरितं च पोत्थगाईसुं । अज्झप्पस्साणयणं नायवं भावमज्झयणं ॥ ५४४ ॥ ॥६४९॥ ॥ ५४३ ॥ Education intemational लेसाणमित्यादि गाथा एकादश, तत्र 'लेसाणं'ति सूत्रत्वाल्लेश्यायां, कोऽर्थः ? – लेश्याशब्दस्य निक्षेपश्चतुर्विधो नामादि, 'दुविहो' इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'सा पुणो दुविहति, 'सा' व्यतिरिक्तलेश्या पुनर्द्विविधा, द्वैविध्यमेवाह -कर्मणि नोकर्मणि च तत्र कर्मण्यल्पवक्तव्यैवेति तामुपेक्ष्य नोकर्मविपयामाह-- 'नोकर्मणि' कर्माभावरूपे भवति द्विविधा 'तुः' अवधारणार्थ इति द्विधैव । कथमित्याह -- ' जीवानाम्' उपयोगलक्षणानाम् 'अजीवानां च' तद्विपरीतानाम्, उभयत्र लेश्येति प्रक्रमः, अत्र च नोकर्मत्वमुभयोरपि कर्माभावरूपत्वात्सम्बन्धिभेदाच्च द्विभेदत्वं तत्रापि द्विविधा जीवानां भवति ज्ञातव्या, 'भवमभवसिद्धियाणं' ति मस्यालाक्षणिकत्वात् सिद्धिशब्दस्य च प्रत्येकमभिस निर्युक्ति: [ ५३४-५४४] For Fans Only ~1296~ | लेश्याध्य यनं. ३४ ||६४९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः g Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/ गाथा ||२५...|| नियुक्ति: [५३४-५४४] (४३) प्रत सूत्राक [२५]] %ASEASORRECESS म्बन्धादू भविष्यतीति भवा-भाविनीत्यर्थः तारशी सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिका-भव्यास्तेषाम् 'अभवसिद्धिकानां'। तद्विपरीतानां द्विविधानामप्युक्तभेदेन प्रक्रमाजीवानां भवति 'सप्तविधा' सप्तप्रकारा इहापि लेश्येति प्रक्रमः, अत्र च जयसिंहसूरिः कृष्णादयः षट् सप्तमी संयोगजा इयं च शरीरच्छायात्मका परिगृह्यते, अन्ये त्वौदारिकौदारिकमिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविधत्वेन जीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादिवर्णरूपां नोकर्मणि सप्तविधां जीवद्रव्यलेश्यां मन्यन्ते, तथा 'अजीवकम्मणो दबलेस'त्ति अजीवानां 'कम्मणो'त्ति आर्षत्वानोकर्मणि द्रव्यलेश्या अजीवनोकर्मद्रव्यलेश्या, तुशब्दस्पेह सम्बन्धात्सा पुनर्दशविधा ज्ञातव्या, चन्द्राणां सूर्याणां च ग्रहा-मङ्गलादयस्तद्गणश्च नक्षत्राणि च-कृत्तिकादीनि ताराश्च प्रकीर्णज्योतीपि ग्रहगणनक्षत्रतारास्तेषाम् , आभरणानि च-एकावलिप्रभृतीनि आच्छादनानि च-सुवर्णचरितादीनि आदर्शा एवादर्शका-दर्पणास्ते चाभरणाच्छादनादर्शकास्तेषां, तथा मणिश्च-मरकतादिः काकिणिः-चक्रवर्तिरतं मणिकाकिण्यौ तयोर्या लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या-अतीव चक्षु-: राक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया अजीवद्रव्यलेश्या प्रक्रमानोकर्मणि ज्ञातव्या दशविधेपा, अत्र च चन्द्रादिशब्दस्त|द्विमानानि 'तास्थ्यात्तद्यपदेश' इति न्यायेनोच्यन्ते, तेषां च पृथ्वीकायरूपत्वेऽपि खकायपरकावशस्त्रोपनिपातस-| म्भवात् तत्प्रदेशानां केपाश्चिदचेतनत्वेनाजीवद्रव्यलेश्यात्वं द्रष्टव्यम् , उपलक्षणं चात्र दशविधत्वमेवंविधद्रव्याणां रजतरूप्यताम्रादीनां बहुतरत्वेन तच्छायाया अपि बहुतरभेदसम्भवात् , इत्थं नोकर्मद्रव्यलेश्यामभिधाय कर्मद्रव्य-/ दीप अनुक्रम [१३८२] A मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1297~ Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||२५...|| नियुक्ति: [५३४-५४४] (४३) लेश्याध्य उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५०॥ प्रत %82 सुत्राक [२५] लेश्यामाह-या कर्मद्रव्यलेश्या वेतनतुशब्दसम्बन्धात्सा पुनः 'नियमात्' अवश्यम्भावात् पडिधा 'ज्ञातव्या' अव- बोद्धव्या, कथमित्याह-कृष्णा नीला 'काउ'चि कापोता 'तेउत्ति तैजसी पझा च शुक्ला चेति, इह च कर्मद्रव्यलेश्येति सामान्याभिधानेऽपि शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या, यदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-"योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योगपरिणामो लेश्या ?, यस्मात्सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहत्यान्तर्महः शेषे योगनिरोध करोति, ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति, अतोऽवगम्यते-योगपरिणामो लेश्येति, स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिआणतिविशेषः, यस्मादुक्तं-“कर्म हि कार्मणस्य कार्यमन्येषां च शरीराणा"मिति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवारद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो यः स वाग्योगः, तथैयौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतियोग उच्यते तथैव लेश्याऽपी"ति गुरवस्तु व्याचक्षते-कर्मनिस्यन्दो लेश्या, यतः कर्मस्थितिहेतवो लेश्याः, यथोक्तम्-"ताः कृष्णनीलकापोततेजसीपाशुक्लनामानः । श्लेष इव वर्ण-| बन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः ॥१॥” इति, योगपरिणामत्वे तु लेश्यानां "योगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणति"त्ति वचनात्प्रकृतिप्रदेशवन्धहेतुत्वमेव स्यात् न तु कर्मस्थितिहेतुत्वं, कर्मनिस्यन्दरूपत्वे तु । यावत्कषायोदयस्तावत्तन्निस्यन्दसापि सद्भावात्कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यत एव, अत एवोपशान्तक्षीणमोहयोः दीप अनुक्रम [१३८२] ५०॥ 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1298~ Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||२५...|| नियुक्ति: [५३४-५४४] (४३) प्रत सूत्राक [२५]] कर्मवन्धसद्भावेऽपि न स्थितिसम्भयो, यदुक्तम्-"तं पढमसमये बद्धं बीयसमये वेइयं ततियसमए निजिणं"ति, आह-यदि कर्मनिस्सन्दो लेश्या तदा समुच्छिन्नक्रियं शुक्लध्यानं ध्यायतः कर्मचतुष्टयसद्भावे तन्निस्यन्दसम्भवेन कथं न लेश्यासद्भावः ?, उच्यते, नायं नियमो यदुत निस्सन्दवतो निस्सन्देन सदा भाव्यं, कदाचिन्निस्वन्दवत्स्व पि वस्तुपु तथाविधावस्थायां तदभावदर्शनात् , यच्चोक्तम्-अयोगिनो योगपरिणामाभावे लेश्यापरिणामाभाव इति निश्चिनुमः-योगपरिणाम एव लेश्येति, तदप्यसाधकं, यतो रश्म्यादयः सूर्याद्यभावे न भवन्ति, न च ते तद्रूपा एव, यत उक्तम्-“यच चन्द्रप्रभाधत्र, ज्ञातं तज्ज्ञातमात्रकम् । प्रभा पुद्गलरूपा यत्तद्धर्मों नोपपद्यते ॥१॥" अन्ये त्वाःकार्मणशरीरवत्पृथगेव कर्माष्टकाकर्मवर्गणानिष्पन्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणीति, तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति । इत्युक्ता द्रव्यलेश्या,भावलेश्यामाह-द्विविधा च भावलेश्या विशुद्धलेश्या'अकलुषद्रव्यसंपर्कजात्मपरिणामरूपा तथैव अविशुद्धा इत्यविशुद्धलेश्या, तत्र द्विविधा विशुद्धलेश्या 'उवसमखइय'त्ति सूत्रत्वादुपशमक्षयजा,केषां पुनरुपशमक्षयी ? यतो जायत इयमित्याह-कषायाणाम् , अयमर्थः-कपायोपशमजा कषायक्षयजा च, एकान्तविशुद्धिं चाऽऽश्रित्यैवमभिधानम् , अन्यथा हि क्षायोपशमिक्यपि शुक्ला तेजःपझे च विशुद्धलेश्ये संभवत एवेति । अविशुद्धभावलेश्या सेति या प्रागुपक्षिप्ता 'द्विविधा' द्विभेदा 'णियमसा उत्ति, आपत्वात् 'नियमेन' अवश्यम्भावेन ज्ञातव्या पेजंमि यत्ति 'दोसंमियत्ति प्रेमणि च-रागे दोषे च द्वये, किमुक्कं भवति?-रागविषया द्वेषविषया च, इयं चात्कृष्णनीलकापोतरूपा, दीप अनुक्रम [१३८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1299~ Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/गाथा ||२५...|| नियुक्ति: [५४५] (४३) उत्तराध्य. वृहदृचिः प्रत ॥६५१॥ A सूत्राक 5 [२५] तदेवमस्या नामादिभेदतोऽनेकविधत्वे इह कयाऽधिकृतमित्याह-अधिकारः कर्मलेश्यया, कोऽर्थः-कर्मद्रव्य-४ लेझ्याध्यलेश्यया, प्रायस्तस्या एवात्र वर्णादिरूपेण विचारणात् । इत्थं नामादिभेदेन लेश्योक्ता, तत्र च वैचित्र्यात्सूत्रकृते यनं. ३४ नोंकर्मद्रव्यलेश्यायां भावलेश्यायां च यत्प्राग नोक्तं सम्प्रति तदाह-'नोकर्मद्रव्यलेश्या' शरीराभरणादिच्छाया 'पओ-IN गस्स'त्ति प्रयोगः-जीवव्यापारः स च शरीरादिषु तैलाभ्यअनमनःशिलाघर्पणादिस्तेन 'बीससा यत्ति विस्रसाजीवव्यापारनिरपेक्षाऽनेन्द्रधनुरादीनां तथावृत्तिस्तया च ज्ञातव्या, 'भाव' इति भावलेश्या 'उदयः' विपाकः, इह तूपचारादुदयजनितपरिणामो भणितः षण्णां लेश्यानां जीवेपु । 'अज्झयणे' सादिगाथाद्वयमध्ययननिक्षेपाभिधायि विनयधुत एवं व्याख्यातप्रायमिति गाथैकादशकार्थः ॥ सम्प्रत्युपसंहारव्याजेनोपदेशमाहएयासिं लेसाणं नाऊण सुहासुहं तु परिणामं । चइऊण अप्पसत्थं पसत्थलेसासु जइअवं ॥ ५४५॥ 'एतासाम्' अनन्तरमुक्तस्वरूपाणां लेश्यानां 'ज्ञात्वा' एतदध्ययनानुसारतोऽवबुध्य शुभाशुभं 'तुः' पुनरर्थे ततः शुभाशुभं पुनः परिणाम, किमित्याह-'त्यक्त्वा' अपहाय 'अप्पसत्थंति 'अप्रशस्ता' अशुभपरिणामा कृष्णादिलेश्या इति योऽर्थः प्रशस्त लेश्यासु-शुभपरिणामरूपासु पीताद्यासु यतितव्यं, यथा ता भवन्ति तथा यलो विधेय इति गाथार्थः ॥ इत्यवसितो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तबेदम् % दीप अनुक्रम [१३८२] ॥६५१॥ %%% % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1300~ Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) प्रत सूत्रांक लेसज्झयणं पवक्खामि, आणुपुचि जहक्कम । छहंपि कम्मलेसाणं, अणुभाचे मुणेहि मे ॥१॥ लेश्याभिधायकमध्ययनं लेश्याऽध्ययनं तत् 'प्रवक्ष्यामि' प्रकर्षण-तासामेव नामवर्णादिनिरूपणात्मकेनाभिधास्ये, आनुपूर्व्या यथाक्रममिति च प्राग्वत् , तत्र च 'षण्णामपि' षट्सङ्खयानामपि वक्ष्यमाणभेदेन 'कर्मलेश्याना' कर्मस्थितिविधातृतत्तद्विशिष्टपुद्गलरूपाणाम् 'अनुभावान्' रसविशेषान् शृणुत मम कथयत इति शेष इति सूत्रार्थः । एतदनुभावाश्च नामादिप्ररूपणातः कथिता एव भवन्तीति तत्प्ररूपणाय विनेयाभिमुखीकरणकारि द्वारसूत्रमाहनामाई वण्णरसगंधफासपरिणामलक्खणं ठाणं । ठिई गई च आउं, लेसाणं तु सुणेह मे ॥२॥ दारगाहा॥ 'नामानि' अभिधानानि वर्णश्च-कृष्णादी रसश्च-तिक्तादिर्गन्धश्च-सुरभ्यादिः स्पर्शश्च-कर्कशादिः परिणामश्चजघन्यादिः लक्षणं च-पञ्चाश्रवासेवनादि, एषां समाहारे वर्णगन्धरसस्पर्शपरिणामलक्षणं तत् , 'स्थानम्' उत्कर्षापकपरूपं स्थितिम्' अवस्थानकालं गतिं च नरकादिकां यतो याऽवाप्यते 'आयुः जीवितं च यावति च तत्रावशिष्यमाणे आगामिभवलेश्यापरिणामस्तदिह गृह्यते, लेश्यानां 'तुः' पूरणे 'सुणेह में ति प्राग्यदिति सूत्रार्थः । अत्र च 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायतो नामान्याह किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्का लेसा य छट्ठा उ, नामाई तु जहक्कम ॥ ३ ॥ किण्हासूत्रं स्पष्टमेव ॥ प्रत्येकमासां वर्णानाह *** SHARE दीप अनुक्रम [१३८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1301 ~ Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||४-९|| __ नियुक्ति: [१४५...] (४३) यनं. प्रत सूत्रांक [४-९] उत्तराध्य. जीमूतनिइसकासा, गवलरिट्ठगसंनिभा । खंजंजणनयणनिभा, किण्हलेसा उ वण्णओ ॥ ४॥ नीलासो- लेश्याध्य गसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा । वेरुलियनिद्धसंकासा, नील लेसा उ वपणओ ॥५॥ अयसीपुप्फसंकासा, बृहद्वृत्तिः कोइलच्छदसंनिभा । पारेवयगीवनिभा, काउलेसा उ वण्णओ॥ ६॥ हिंगुलुयधाउसंकासा, तरुणाइच्चसं॥६५२॥ निभा । सुयतुंडपईवनिभा, तेउलेसा उ वण्णओ ॥७॥ हरियालभेयसंकासा, हलिद्दाभेदसंनिभा । सणा सणकुसुमनिभा, पम्हलेसा उ चण्णओ॥८॥संखंककुंदसंकासा, खीरधारसमप्पभा । रपयहारसंकासा, 3 तसुक्कलेसा उ वण्णओ॥९॥ RI 'जीमूयनिद्धसंकास'त्ति प्राकृतत्वात् स्निग्धश्चासौ सजलत्वेन जीमूतश्च-मेघः स्निग्धजीमूतस्तद्वत्सम्यक् काशते वर्णतः प्रकाशत इति स्निग्धजीमूतसङ्काशा तत्सरशीतियावत् , तथा गवलं-महिषय रिष्ठो-द्रोणकाकः स एव रिष्ठकः दायद्वा रिष्टको नाम फलविशेषस्तत्संनिभा-तच्छाया, 'खंजण'त्ति खञ्जनं-नेहाभ्यक्तश कटाक्षघर्षणोद्भुतमअनं च-कजलं नयनं-लोचनम् इह चोपचारात्तेदकदेशस्तन्मध्यवती कृष्णसारस्तन्निभा-तत्समा कृष्णलेश्या 'तुः' विशेषणे स च शेपलेश्याभ्यो वर्णकृतं विशेष द्योतयति, यद्वा 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमश्च ततः 'वर्णत एव' वर्णमेवाश्रित्य न तु रसा-|2||६५२॥ दीन् , एवमुत्तरत्रापि । नीलश्चासावशोकच-वृक्षविशेषो नीलाशोकस्तत्सङ्काशा, रक्ताशोकव्यवच्छेदार्थ च नीलविशेपणं, चासः-पक्षिविशेषस्त्रस्य पिच्छं-पतत्रं तत्समप्रभा-तत्तुल्यधुतिः, निग्धो-दीप्तो वैडूर्यो-मणिविशेषस्तत्सङ्काशा दीप अनुक्रम [१३८६-१३९१] JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1302~ Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/ गाथा ||४-९|| __ नियुक्ति: [१४५...] (४३) * प्रत ** सूत्रांक [४-९] * तत्सरशी पदविपर्ययः प्राग्वत् नीललेश्या तु वर्णतो नीलेति तात्पर्यम् । अतसी-धान्यविशेषस्तत्पुष्पसङ्काशा, कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः, तथा च वृद्धसम्प्रदायः-“वण्णाहिगारे जो एत्थ कोइलच्छदो सो तेलकंटतो भण्णई"त्ति, कचित्तु पठ्यते च-'कोइलच्छवि'त्ति,तत्र कोकिला-अन्यपुष्टस्तस्य छविस्तत्संनिभा, पारापतः-पक्षिविशेषस्तस्य ग्रीवा-कन्धरा तन्निभा कापोतलेश्या तु वर्णतः, किश्चित्कृष्णा किञ्चिच लोहितेति भावः, तथा च प्रज्ञापना-"काऊलेसा काललोहितेण यण्णेणं साहिजइ"त्ति।हिङ्गुलुकः-प्रतीतो धातुः-पाषाणधात्वादिस्तत्सङ्काशा, तरुण इहाभिनयोदितः आदित्यः-- सूर्यस्तत्संनिमा, शुकः-प्रसिद्धस्तस्य तुण्डं-मुखं शुकतुण्डं तच प्रदीपश्च तन्निभावा, पठन्ति च-'सुयतुंडालत्तदीवाभा' अन्ये तु 'सुयतुंडग्गसंकासा' द्वयमपि स्पष्ट, तेजोलेश्या तु वर्णतो रक्तेति भावार्थः । हरितालो-धातुविशेषस्तस्य भेदो । |-द्विधाभावस्तत्सकाशा, भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षों भवतीतिभेदग्रहणं, हरिद्रेह पिण्डहरिद्रा तस्या भेदस्तत्संनिभा, सणोधान्यविशेषोऽसनो-बीयकस्तयोः कुसुमं तन्निभा पालेश्या तु वर्णतःपीतेति गर्भार्थः । शङ्ख:-प्रतीतोऽको-मणिविशेषः कुन्दः-कुन्दकुसुमं तत्सङ्काशा, क्षीरं-दुग्धं तूलकं-तूलं पाठान्तरतः पूरो वा-क्षीरप्रवाहः, अन्ये तु 'धारि'त्ति पठन्ति, तद्ब्रहणं तु भाजनस्थस्य हि तदशादन्यथात्वमपि संभवतीति तत्समप्रभा, रजतं-रूप्यं हारो-मुक्ताकलाप-R |स्तत्सङ्काशा शुक्ललेश्या तु वर्णतः शुक्लेति हृदयमिति सूत्रपकार्थः । इत्युक्तो वर्णः सम्प्रति रसमाह जह कडयतुंबरसो निवरसो कडयरोहिणिरसो वा । इत्तोवि अणंतगुणो रसो उ कण्हाइ नायब्बो ॥१०॥ दीप अनुक्रम [१३८६-१३९१] * * andibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1303~ Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||१०-१५|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) प्रत KAKAR सूत्रांक -१५] उत्तराध्य. 18जह तिकडयस्स य रसो तिक्खो जह हस्थिपिप्पलीए वा । इत्तोचि अणंतगुणो रसो ज नीलाइ नायब्वो लेश्याध्य द॥११॥ जह तरुणवयरसो तुपरकवित्थस्स वावि जारिसओ । इत्तोवि अर्णतगुणो रसो उ काऊ णायब्चो|| बृहद्वृत्तिः P॥१॥ जह परिणयंवगरसो पककवित्थस्स वावि जारिसओ। इत्तोवि अर्णतगुणो रसो उ तेजइ नायब्बो १३ । यनं. ३४ बरवारुणीह व रसो विविहाण व आसवाण जारिसओ। महुमेरगस्स व रसो इत्तो पम्हाइपरएर्ण ॥१४॥ खज्जरमुदियरसो खीररसो खंडसकररसो वा । इत्तो उ अर्णतगुणो रसो उ सुक्काइ नायव्वो ॥१५॥ 'यथेति सादृश्ये ततश्च याक् कटुकतुम्बकस्य रस-आखादः कटुकतुम्बकरसः 'निम्बरसः' प्रतीतः कटुका है चासौ रोहिणी च-त्यग्विशेषः कटुकरोहिणी कटकवाव्यभिचारित्वेऽपि तद्विशेषणमतिशयख्यापकं तद्रसो वा, IT औषधीविशेषो वा कटुकेह गृह्यते, 'यथेति सर्वत्रापेक्षते, इतोऽपि कटुकतुम्बकरसादेरनन्तेन-अनन्तराशिना गुण-12 नं गुणो यस्यासावनन्तगुणो 'रसस्तु' आखादः 'कृष्णायाः' कृष्णलेश्यायाः 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्योऽतिकटुक इति | तात्पर्यम् । 'यथा' यादृशः 'त्रिकटुकस्य' प्रसिद्धस्य रसस्तीक्ष्णः-कटुर्यथा 'हस्तिपिप्पल्या वा' गजपिप्पल्या वाऽतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु नीलाया ज्ञातव्योऽतिशयतीक्ष्ण इति हृदयम् । यथा तरुणम्-अपरिपकं तच तदानकं च- IP॥६५॥ आम्रफलं तद्रसः, तुवरं-सकषायं पाठान्तरतः, आर्द्रत्वाद् , उभयत्र चार्थादपक्कं तच तत्कपित्थं च-कपित्थफलं तस्य 'बा' विकल्पे 'अपि' पूरणे यादृशको रस इति प्रक्रमः अतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु 'काऊए'त्ति कापोताया ज्ञातव्यो दीप अनुक्रम [१३९२-१३९७] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1304 ~ Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-1 /गाथा ||१०-१५|| नियुक्ति: [१४५...] (४३) प्रत सूत्रांक -१५]] |ऽतिशयकषाय इत्याशयः। यथा परिणतं-परिपक्कं यदानकं तद्रसः पक्ककपित्थस्य वाऽपि याशको रसोऽतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु तेऊए'त्ति तेजोलेश्याया ज्ञातव्यः आम्लः किश्चिन्मधुरश्चेत्यैदम्पर्य । वरवारुणी-प्रधानमुरा तस्या वा रसो यारशक इति योगः 'विविधानां वा' नानाप्रकाराणाम् 'आसवानां' पुष्पप्रसवमद्यानां वा यादृशको रस इति सम्बन्धः, 'महुमेरयस्स व रसो'त्ति मधु-मद्यविशेषो मैरेयं-सरकस्तयोः समाहारे मधुमैरेयं तस्य वा रसोयाइशकोऽतो वरवारुण्यादिरसात्पद्मायाः प्रक्रमाद्रसः 'परकेणं'ति अनन्तानन्तगुणत्वात्तदतिक्रमेण वर्तत इति गम्यते, अयं च किञ्चि-4 दम्लकषायो माधुर्यवांश्चेति भावनीयं, पाठान्तरतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु पद्माया ज्ञातव्यः । खजूरं च-पिण्डखजूरादि मृबीका च-द्राक्षा एतद्रसः तथा 'क्षीररसः' प्रतीतः खण्डं च-इक्षुविकारः शर्करा च-काशादिप्रभवा तद्रसो वा यादश इति शेषः, अतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु शुक्लाया ज्ञातव्योऽत्यन्तमधुर इति गर्भ इति सूत्रपट्कार्थः ॥ उक्तो रसः, सम्प्रति गन्धमाहजह गोमडस्स गंधो सुणगमस्स व जहा अहिमडस्स । इत्तो वि अणंतगुणो लेसाणं अप्पसस्थाणं ॥१६॥ जह सुरहिकुसुमगंधो गंधवासाण पिस्समाणाणं । इत्तोचि अणंतगुणो पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥१७॥ यथा गवां मृतकं-मृतकशरीरं तस्य गन्धः श्वमृतकस्य वा तथा यथाऽहिः-सर्पस्तन्मृतकस्य गन्ध इति सम्बन्धः, सूत्रत्वान्मृतकशब्दे कलोपः 'अतोऽपि' एतत्प्रकारादपि गन्धादनन्तगुणोऽतिदुर्गन्धतया लेश्यानाम् 'अप्रशस्तानाम्' दीप अनुक्रम [१३९२-१३९७] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1305~ Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/गाथा ||१६-१७|| नियुक्ति: [१४५...] (४३) 4 प्रत सूत्रांक -१७ उत्तराध्य. ४ अशुभाना, कोऽर्थः ?-कृष्णनीलकापोतानां, गन्ध इति प्रक्रमः, इह च लेश्यानामप्रशस्तत्वं गन्धस्याशुभत्वे हेतुरिति लेश्याध्य द तद्विशेषादनुक्तोऽप्यस्य विशेषोऽवगम्यत इति नोक्तः । यथा सुरभिकुसुमानां-जातिकेतक्यादिसम्बन्धिनां सुगन्धबृहदृत्तिःपुष्पाणां गन्धः-परिमलः सुरभिकुसुमगन्धः, तथा गन्धाश्च-कोष्टपुटपाकनिष्पना वासाश्च-इतरे गन्धवासाः, इह जयनं. ३४ ॥५४॥3|चैतदङ्गान्येयोपचारादेवमुक्तानि, तेषां, पाठान्तरतश्च गन्धानां च, 'पिष्यमाणानां' संचूर्ण्यमानानां यथा गन्ध इति प्रक्रमः, तथा चातिप्रबलतरोऽसौ प्रादुर्भवतीत्येवमभिधानम्, 'अतोऽपि' एतत्प्रकारादपि गन्धाद् अनन्तगुणः अतिशयसुगन्धितया प्रशस्तलेश्यानां 'तिसृणामपि' तेजसीपद्मशुक्लानां गन्ध इति प्रक्रमः, इहापि प्रशस्तत्व विशेषाद्गन्धविशेषोऽनुमीयत इति नोक्त इति सूत्रद्वयार्थः ॥ सम्प्रति स्पर्शमाहजह करगयस्स फासो गोजिराभाए व सागपत्ताणं । इत्तोवि अर्णतगुणो लेसाणं अप्पसस्थाणं ॥१८॥ जह बूरस्सवि फासो नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । इत्तोवि अर्णतगुणो पसत्थलेसाण तिण्डंपि ॥१९॥ यथा 'करगयस्स'त्ति ककचस्य करपत्रस्य स्पर्शी गोर्जिह्वा गोजिहा तस्था वा यथा या शाको-वृक्षविशेषस्तत्पत्राणां स्पर्श इति प्रक्रमः, 'अतोऽपि एतत्प्रकारादपि स्पर्शादनन्तगुणः अत्यतिशायितया यथाक्रमं लेश्यानामप्रशस्तानामाद्यानां तिसृणां प्रक्रमात्स्पीतिकर्कश इति हृदयम् । यथा 'बूरस्य वा' प्रतीतस्य स्पर्शः 'नवनीत ॥६५॥ म्रक्षणस्य, यथा वा शिरीपो-वृक्षविशेषस्तत्कुसुमानामुभयत्र यथा स्पर्श इति प्रक्रमः, 'अतोऽपि' एतत्प्रकारादपि दीप अनुक्रम [१३९८-१३९९] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1306~ Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||१८-१९|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) प्रत सूत्राक -१९ PERSOCOM स्पर्शाद् 'अनन्तगुणः' अतिसुकुमारतया यथाक्रमं प्रशस्त लेश्यानां 'तिसृणामपि' उक्तरूपाणा स्पर्श इति प्रक्रमः, इह 8 च यदनेकदृष्टान्तोपादानं तन्नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ, कचिद्धि किञ्चित्प्रतीतमिति, यद्वा निगदितोदाहरणेषु वर्णादितारतम्यसम्भवालेश्यानां स्वस्थानेऽपि वर्णादिवैचित्र्यज्ञापनार्थमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ परिणामद्वारमाह- . | तिविहो व नवविहो वा सत्तावीसइविहिक्कसीओ वा । दुसओ तेयालो वा लेसाणं होइ परिणामो २० | त्रिविधो नवविधो वा 'सत्तावीसइविहेक्कसीओ वत्ति विधशब्दो वाशब्दश्चोभयत्र संवध्यते, ततश्च सप्तविंशतिविध एकाशीतिविधो वा 'दुसओ तेआलो वत्ति अत्रापि विधशब्दस्य सम्बन्धात् त्रिचत्वारिंशद्भिशत विधो वा लेश्यानां भवति परिणाम:-तत्तद्रूपगमनात्मकः, इह च 'त्रिविधः' जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन 'भवविधः' यदेषामपि ४ जघन्यादीनां स्वस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येकं जघन्यादित्रयेण गुणना एवं पुनखिकगुणनया सप्तविंशतिविधत्व मेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशद्विशतविधत्वं च भावनीयम् । आह-एवं तारतम्यचिन्तायां का सायानियमः, उच्यते, एवमेतत् , उपलक्षणं चैतत् , तथा च प्रज्ञापना-"कण्हलेसा णं भंते ! कतिविधपरिणाम परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसइविहं वा एकासीइविहं वावि तेयालदुसयविहं वा बहुं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति, एवं जाव सुक्कलेसा" इति सूत्रार्थः ॥ उक्तः परिणामः, सम्पति लक्षणमाह, तत्र चपंचासवप्पमत्तो तीहिं अगुत्तो छसू अविरओ य। तिवारंभपरिणओ खुद्दो साहस्सिओ नरो॥२१॥ निह दीप अनुक्रम [१४००-१४०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1307~ Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||२१-३२|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) उत्तराध्य. सपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ। एयजोगसमाउत्तो, कण्हलेसं तुपरिणमे ॥२शा इस्साअमरिसअतवो, कलेश्याध्यअविज माया अहीरिया । गेही पओसे य सडे, रसलोलुए सायगवेसए य ॥ २३ ॥ आरंभा अविरओ, बृहद्भुत्तिः खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ॥२४॥ के वंकसमायारे, नियडिल्ले अणु यनं. ३४ ॥६५५॥ ज्जुए। पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥ २६ ॥ उष्फालगदुट्टवाई य, तेणे अविय मच्छरी ।। ४ एयजोगसमाउत्तो, काउलेसं तु परिणमे ॥२६॥ नीआवित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले । विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवं ॥२७॥ पियधम्मे ढधम्मे, बजभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ॥ २८ ॥पयणुकोहमाणो य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ २९ ॥ तहा य हापयणुवाई य, जवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥ ३० ॥ अट्टरूपाणि वजित्ता.1x धम्मसुक्काणि साहए । पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ ३१॥ सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइंदिए । एपजोगसमाउत्तो, सुकलेसं तु परिणमे ॥३२॥ पञ्चाश्रवा-हिंसादयस्तैः प्रमत्तः-प्रमादवान् पञ्चाश्रवप्रमत्तः पाठान्तरतः पञ्चाश्रवप्रवृत्तो वाऽतनिभिः प्रस्ता- ॥६५५॥ वान्मनोवाकायः 'अगुप्तः' अनियन्त्रितो मनोगुप्त्यादिरहित इत्यर्थः, तथा 'पदसु' पृथ्वीकायादिषु 'अविरतः' अनिवत्तस्तदुपमर्दकत्वादेरिति गम्यते, अयं चातीबारम्भोऽपि स्वादत आह-तीत्रा-उत्कटाः खरूपतोऽध्ववसायतो CARRORAT दीप अनुक्रम [१४०३-१४१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1308~ Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||२१-३२|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) &ावाssरम्भाः-सावद्यव्यापारास्तत्परिणतः-तत्प्रवृत्त्या तदात्मतां गतः, तथा 'वद्रः' सर्वस्यैवाहितैषी कार्पण्ययुक्तो वा, सहसा-अपलोच्य गुणदोषान् प्रवर्त्तत इति साहसिकः, चौर्यादिकृदिति योऽर्थः, 'नरः' पुरुष उपलक्षणत्वाल्यादिर्वा 'णिद्धंधस'त्ति अत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायशङ्का विकलोऽत्यन्तं जन्तुवाधानपेक्षो वा परिणामोऽध्यवसायो या यस्य स तथा 'णिसंसोति 'नृशंसः' निस्तूंशो जीवान् विहिंसन् मनागपि न शकते, निःशंसो वा-परप्रशंसारहितः । 'अजितेन्द्रियः' अनिगृहीतेन्द्रियः, अन्ये तु पूर्वसूत्रोत्तरार्द्धस्थान इदमधीयते तचेहेति, उपसंहारमाह एते च तेऽनन्तरोक्ता योगाश्च-मनोवाकायव्यापारा एतद्योगा:-पञ्चाश्रवप्रमत्तत्वादयस्तैः समिति-भृशमाङित्यभिसाव्यात्या युक्तः-अन्वितः एतद्योगसमायुक्तः कृष्णलेश्यां 'तुः' अवधारणे कृष्णलेश्यामेव 'परिणमेत् तद्रव्यसाचिव्येन तथाविधद्रव्यसम्पर्कात्स्फटिकवत्तदुपरञ्जनात्तद्रूपतां भजेत्, उक्तं हि-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" एतेन पञ्चाश्रवप्रमत्तत्वादीनां भावकृष्णलेश्यायाः सद्भावोपदर्शनादमीषां लक्षणत्वमुक्तं, यो हि यत्सद्भाव एव भवति स तस्य लक्षणं यथौष्ण्यममे, एवमुत्तरत्रापि लक्षदणत्वभावना कार्या । नीललेश्यालक्षणमाह-ईर्ष्या च परगुणासहनममर्षश्च-अत्यन्ताभिनिवेशोऽतपश्च-तपोविपर्य योऽमीषां समाहारनिर्देशः, 'अविज'त्ति 'अविद्या' कुशावरूपा मायावञ्चनात्मिका 'अहीकता च' असमाचार-14 विषया निर्लजता 'गृद्धिः' अभिकाङ्क्षा विषयेष्विति गम्यते 'प्रदोषश्च' प्रद्वेषो मतुब्लोपादभेदोपचाराद्वा सर्वत्र तद्वान् । -4445545 दीप अनुक्रम [१४०३-१४१४] 5600-%9 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1309~ Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-1 /गाथा ||२१-३२|| नियुक्ति: [१४५...] (४३) जन्तुरुच्यतेऽत एव शठः अलीकभाषणात् प्रमत्तः प्रकर्षेण जात्यादिमदासेवनात् , पाठान्तरतः शठश्च मत्तः, तथा उत्तराध्य. लेश्याभ्यरसेषु लोलुपो-लम्पटो रसलोलुपः, सातं-सुखं तद्वेषकश्च-कथं मम सुखं स्यादिति बुद्धिमान्, 'आरम्भात् यनं. ३४ पृहाताप्राण्युपमर्दात 'अविरतः' अनिवृत्तः क्षुद्रः साहसिको नरः, एतद्योगसमायुक्तो नीललेश्यां परिणमेत्, 'तुः' प्राग्व-12 ॥६५६॥ त्पुनरर्थो वा ४ । 'वक्रः' वचसा 'वक्रसमाचारः' क्रियया 'निकृतिमान्' मनसा 'अनृजुकः' कथचिजूक मश क्यतया पलिउंचग'त्ति प्रतिकुश्चकः-खदोषप्रच्छादकतया उपधिः-छद्म तेन चरत्यौपधिकः, सर्वत्र व्याजतः प्रवृत्तेः, एकार्थिकानि वैतानि नानादेशजविनेयानुग्रहायोपात्तानि, मिथ्यारष्टिरनार्यश्च प्राग्वत्, 'उप्फालग'त्ति उत्प्रासकं यथा पर उत्प्रास्यते दुष्टं च रागादिदोषवद्यथा भवत्येवं वदनशील उत्प्रासकदुष्टवादी 'चः' समुच्चये 'स्तेनः। चौरः 'च' प्राग्वत् 'अपि च'इति पूरणे 'मत्सरः' परसम्पदसहनं सति वा वित्ते त्यागाभावः, तथा चाहुः शान्दिकाः"परसम्पदामसहनं वित्तात्यागश्च मत्सरो ज्ञेयः" इति, तद्वान् मत्सरी, एतयोगसमायुक्तः कापोतलेश्यां 'तुः इति पुनः परिणमेत् ॥ 'णीयावित्ति'त्ति नीतिः -कायमनोवाग्भिरनुत्सितः 'अचपलः' चापलानुपेतः 'अमायी'| शाठ्यानन्वितः 'अकुतूहला' कुहकादिप्यकौतुकवानत एव 'विनीतविनयः' सभ्यस्तगुर्वाधुचितप्रतिपत्तिः, तथा|॥१५॥ 'दान्तः' इन्द्रियदमेन योगः-खाध्यायादिव्यापारस्तद्वान् , 'उपधानवान्' विहितशास्त्रोपचारः, 'प्रियधर्मा' अभिरुचितधर्मानुष्ठानः 'दृढधर्मा' अङ्गीकृतत्रतादिनिर्वाहकः, किमित्येवम् ?, यतः 'वज'त्ति वज्यं प्राकृतत्वादकारलोपे | ACCASCER दीप अनुक्रम [१४०३-१४१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1310~ Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||२१-३२|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) अवयं चोभयत्र पापं तद्भीरुः 'हितैषकः' मुक्तिगवेषकः, पाठान्तरतो हिताशयो वा-परोपकारचेताः, पठ्यते च'अणासवेति तत्र च न विद्यन्ते आश्रया-हिंसादयो यस्यासावनाश्रवः, एतद्योगसमायुक्तस्तेजोलेश्यां तु परिणमेत् ॥ प्रतनू-अतीवाल्पो क्रोधमानौ यस्य स तथा, चः पूरणे, माया लोभश्च उक्तरूपः प्रतनुको यस्येति शेषः, अत एवं प्रशान्तं-प्रकर्षणोपशमवचित्तमस्येति प्रशान्तचित्तः, दान्तः-अहितप्रवृत्तिनिवारणतो वशीकृत आत्मा येन स तथा, योगवानुपधानवानिति च प्राग्वत्, तथा 'प्रतनुवादी' खल्पभाषकश्चशब्दो भिन्नक्रमो योक्ष्यते, 'उपशान्तः' ८ अनुटतयोपशान्ताकृतिः 'जितेन्द्रियश्च' वशीकृताक्षः, एतद्योगसमायुक्तः पालेश्यां तु परिणमेत् ॥ 'आर्तराद्रे उक्तरूपे ध्याने 'वर्जयित्वा' परिहत्य 'धर्मशुक्ले' प्रागुक्ते एव शुभध्याने 'साधयेत्' सतताभ्यासतो निष्पादयेत्, यः है कीदृशः सन् ? इत्याह-प्रशान्तचित्तो दान्तात्मेति च प्राग्वत्, पाठान्तरतश्च ध्यायति यो विनीतविनयो दान्तः समितः' समितिमान् ‘गुप्तश्च' निरुद्धसमस्तव्यापारः 'गुप्तिभिः' मनोगुत्यादिभिः, तृतीयार्थे सप्तमी, स च 'सरागः" अक्षीणानुपशान्तकषायतया वीतरागो वा ततोऽन्य उपशान्तः पाठान्तरतः 'शुद्धयोगो वा' निर्दोषव्यापारो जितेन्द्रियः प्राग्वत् , स एतद्योगसमायुक्तः शुक्ललेश्या तु परिणमति, इह च शुभलेश्यासु केषाञ्चिद्विशेषणानां पुनरुपादा|नेऽपि लेश्यान्तरविषयत्वादपौनरुत्यं, पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरेषां विशुद्धितः प्रकृष्टत्वं च भावनीय, विशिष्टलेश्या चापेक्ष्येवं लक्षणाभिधानमिति न देवादिभिर्व्यभिचार आशङ्कनीय इति द्वादशसूत्रार्थः ॥ सम्प्रति स्थानद्वारमाह दीप अनुक्रम [१४०३-१४१४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1311~ Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) घवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३३] उत्तराध्य. अस्संखिजाणोसप्पिणीण उस्सप्पिणीण जे समया । संखाईया लोगा लेसाण हवंति ठाणाई ॥ ३३ ॥ लेश्याध्य'असङ्खधेयानां' सङ्ख्यातीतानाम् अवसर्पन्ति-प्रतिसमयं कालप्रमाणे जन्तूनां वा शरीरायुःप्रमाणादिकमपेक्ष्य में हासमनुभवन्त्यवश्यमित्यवसर्पिण्यो-दशसागरोपमकोटीकोटिपरिमाणास्तासां तथा तत्परिमाणानामेव उत्सर्प-14 यनं. ३४ १६५७॥ |न्ति-उक्तन्यायतो वृद्धिमनुभवन्त्यवश्यमित्युत्सर्पिण्यस्तासां ये 'समयाः' परमनिरुद्धकाललक्षणाः, कियन्त इत्याह सलथातीताः पाठान्तरतोऽसङ्ग्येया या लोका असङ्घयेयलोकप्रमितत्वेन यथा दशप्रस्थप्रमितत्वेन ब्रीहयो दश-I प्रस्थाः, ततोऽयमर्थः-असङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणानि लेश्यानां भवन्ति स्थानानि प्रकर्षापकर्षकृतानि, अशुभानां संक्लेशरूपाणि शुभानां च विशुद्धिरूपाणि तत्परिमाणानीति शेषः, यद्वा असञ्जयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीनां ये समया गम्यमानत्वात्तावन्ति लेश्यानां भवन्ति स्थानानीति कालतोऽसङ्गयाता लोका इति च क्षेत्रतः स्थानमान| मेवोक्तमिति सूत्रार्थः । उक्तं स्थानमिदानी स्थितिमाह__ मुहत्तद्धं तु जहन्ना तित्तीसा सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायब्वा किण्हलेसाए ॥ ३४ ॥ |मुहुसद्धं तु जहन्ना दसउदहिपलियमसंखभागमेन्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई नापब्वा नीललेसाए ॥ ३५॥ " ममुहत्तद्धं तु जहन्ना तिण्णुदही पलियमसंखभागमभहिआ। उक्कोसा होइ ठिई नायचा काउलेसाए ॥३६॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना दोण्हुदही पलियमसंखभागमभहिआ। उक्कोसा होइ ठिई नायब्वा तेउलेसाए ॥ ३७ ।। दीप अनुक्रम [१४१५] LAX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1312~ Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||३४-३९|| नियुक्ति : [१४५...] (४३) प्रत सूत्रांक [३४ -३९]] मुहुत्तद्धं तु जहन्ना दसउदही होइ मुहुत्तमभहिआ । उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा पम्हलेसाए ॥३८॥ मुलुत्तद्धं तु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई नायब्वा सुक्कलेसाए ॥ ३९॥ AL मुहूर्तस्याङ्के मुहूर्ताः, तत्कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, इह च समप्रविभागस्थाविवक्षितत्वादन्तर्मुहुर्तमित्युक्तं ।। भवति, 'तुः' अवधारणे ततो मुहूर्तार्द्धमेव जघन्या 'तेत्तीस'त्ति त्रयस्त्रिंशत् 'सागराईति पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनात्सागरोपमाणि 'मुहुत्तहिय'त्ति इहोत्तरत्र च मुहूर्त्तशब्ददेन मुहूर्त्तकदेश एवोक्तः, समुदायेपु हि प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते यथा ग्रामो दग्धः पटो दग्ध इति, ततश्चान्तर्मुहूर्त्ताधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितिातव्या कृष्णलेश्यायाः, इह चान्तर्मुहुर्तस्थासङ्ख्यभेदत्वादन्तर्मुहूर्त्तशब्देन पूर्वोत्तरभवसम्बन्ध्यन्तर्मुहूर्तद्वयमुक्तं द्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि । मुहत्तीर्द्धस्तु जघन्या 'दशे'ति दशसङ्खयानि उदधय इत्युक्तन्यायेनोदध्युपमानि कोऽर्थः -सागरोपमाणि |'पलिय'त्ति तथैव पल्योपमं तस्यासङ्ख्यभागस्तेनाधिकानि पल्योपमासपेयभागाधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितिमतव्या नीललेश्यायाः, नन्वया धूम्रप्रभोपरितनप्रस्तट एव सम्भवः तत्र च 'अंतोमुटुत्तमि गए"त्यादिवक्ष्यमाणन्यायतः पूर्वोत्तरभवान्तमुहर्तद्वयपल्योपमासकवेयभागाभ्यधिकदशसागरोपमपरिमाणवासी किं नोक्ता ?, उच्यते, उक्तैव, पल्योपमासङ्खयेयभाग एव तस्याप्यन्तमुहूर्त्तद्वयस्थान्तर्भावात् , तदसङ्खयेयभागानां चासायेयभेदत्वादिहैतावत्परिमाणपेवास्य विवक्षितत्वान्न विरोधः, एवमुत्तरत्रापि भावनीयम् । अक्षरसंस्कारस्तूत्तरेषु कृत एव, नवरं दीप अनुक्रम [१४१६-१४२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1313~ Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||३४-३९|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) उत्तराध्य. प्रत वृद्धृत्तिः सूत्रांक ॥६५८॥ [३४ CASSES -३९]] त्रय उदधयः सागरोपमाणि द्वावुदधी-वे सागरोपमे, दशोदधयो-दश सागरोपमाणि, 'तेत्तीसं'ति त्रयस्त्रिंशत्साग लेश्याध्यरोपमाणि, पठन्ति च सर्वत्र 'मुहुत्तद्धा उत्ति, तत्र मुहर्त(Fध)शब्देन प्राग्वदन्तर्मुहुर्तस्योक्तत्वादन्तर्मुहूर्त्तकालमिति यनं. ३४ सूत्रपकार्थः । सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह एसा खलु लेसाणं आहेण ठिई उ वणिया होइ । चउसुचि गईसु इत्तो लेसाण ठिई उ बुच्छामि ॥४०॥ || स्पष्टमेव, नवरम् 'ओपेन' इति सामान्येन गतिभेदाविवक्षयेतियावत्, 'चतसृष्यपि गतिपु' नरकगत्यादिषु प्रत्येकमिति शेषः, 'अतः' इत्योपस्थितिवर्णनानन्तरमिति सूत्रार्थः ॥ प्रतिज्ञातमेवाह दसवाससहस्साई काऊ ठिई जहन्निया होइ । तिन्नोदही पलिय असंखेनभागं च उक्कोसा ॥४१॥ तिण्णुदहीपलिओवममसंखभागो जहन्ननीलठिई । दसउदहीपलिओवममसंखभागं च उकोसा ॥ ४२ ॥ दसउदहीपलिओवममसंखभागं जहनिया होइ । तित्तीससागराई उकोसा होइ किण्हाए ॥४३॥ एसा नेरईयाणं लेसाण ठिई उ घण्णिया होइ । तेण परं वुच्छामि तिरियमणुस्साण देवाणं ॥४४ ॥ अंतोमुहुत्तमद्धं लेसाण ठिई जहि जहिं जाउ तिरियाण मराणं वा बज्जित्ता केवलं लेसं ॥ ४५ ॥ मुहत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होई ॥६५॥ पुष्वकोडी उ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायब्वा सुक्कलेसाए ॥४६॥ एसा तिरियनराण लेसाण ठिई उ वण्णि-11 या होइ । तेण परं चुच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं ॥४७॥ दसवाससहस्साई किण्हाए ठिई जहनिया होह।||२१ दीप अनुक्रम [१४१६-१४२१] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1314~ Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||४१-५५|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) प्रत सूत्रांक [४१ -५५]] पलियमसंखिजइमो उक्कोसो होइ किण्हाए ॥४८॥ जा किण्हाइ ठिई खलु नकोसा सा उ समयमभहिया । जहन्नेणं नीलाए पलियमसंखं च उक्कोसा ।। ४९॥ जा नीलाइ ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमभहिया । जहन्नेणं काऊए पलियमसंखं च उक्कोसा ॥५०॥ तेण परं वुच्छामी तेजलेसा जहा सुरगणाणं । भवणवहवाणमंतरजोइसवेमाणियाणं च ।। ५१ ॥ पलिओवमं जहन्ना उक्कोसा सागरा उ दुपहहिया । पलियमसंखिजेणं होई भागेण तेऊए ॥५२॥ दसवाससहस्साई तेजइ ठिई जहनिया होइ । दुन्नुदही पलिओवमअसंखभागं च उक्कोसा ॥ ५३॥ जा नेऊइ ठिई खलु उकोसा सा उ समयमभहिया। जहन्नेण पम्हाए दस | मुहुत्तहियाई उक्कोसा ॥५४॥ जा पम्हाइ ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमभहिया । जहन्नेणं सुकाए| तित्तीसमुहुत्तमम्भहिया ॥ ५५॥ दशवर्षसहस्राणि कापोतायाः स्थितिर्जघन्यका भवति, त्रय उदधयः 'पलियमसंखेज्जभागं च'त्ति सूत्रत्यात् पल्योपमासङ्खयेयभागं चोत्कृष्टा, पठन्ति च-'उकोसा तिन्नुदही पलियमसंखेजभागऽहिय'त्ति स्पष्टम् , इयं च जघन्या रत्नप्रभायां, तस्यां हि जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्राण्यायुरिति, उत्कृष्टा च वालुकाप्रभायां, तत्राप्युपरितनप्र-11 |स्तटनारकाणामेव, तेषामेतावस्थितिकानामसाविति भावनीयम् । त्रय उदधयः पल्योपमासययभागश्च मकारस्थालाक्षणिकत्वात् चस्य गम्यमानत्वाजघन्या नीलायाः स्थितिर्दशोदधयः पल्योपमासङ्खयेयभागश्चोत्कृष्टा, इहापि दीप अनुक्रम [१४२३ -१४३७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1315~ Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||४१-५५|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) उत्तराध्य. प्रत वृहदृत्तिः सूत्रांक ॥६५९॥ [४१ -५५] जघन्या वालुकाप्रभायामेतावस्थितिकानामेव, उत्कृष्टा च धूमप्रभायामुपरितनप्रस्तदनारकाणा, तत्रापि येषामेता-18/ लेश्याध्यबती स्थितिरिति मन्तव्या, इहोत्तरत्र च पाठान्तरं दृश्यते, तत्र च जघन्यस्थितिः समयाधिकत्यमुक्तं तच न वुध्यता इति न तयाख्या, दशोदधयः पल्योमाससयेयभागो जघन्यिका भवति प्रक्रमात्स्थितिः कृष्णाया इति सम्बन्धः ४ अस्याश्च धूमप्रभायामेतावत्स्थितिकेष्वेव नारकेषु सम्भवः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः, स्थितिहै रितीहापि प्रक्रमः, इयं च महातमःप्रभायां, तत्रैवैतावत्प्रमाणस्यायुषः सम्भवात् , इह च नारकाणामुत्तरत्र च४ देवानां द्रव्यलेश्यास्थितिरेवैवं चिन्त्यते, तद्भावलेश्यानां परिवर्त्तमानतयाऽन्यथाऽपि स्थितेः सम्भवात् , उक्तं हि-1 "देवाण नारयाण य दबलेसा भवंति एयाओ । भावपरावत्तीए सुरणेरइयाण छलेसा ॥१॥"पूर्वोक्तं निगमयन्नुत्तरं च ग्रन्थं प्रस्तावयन्निदमाह-'एषा' अनन्तरोक्ता निरये भवा नैरविकास्तेषां सम्बन्धिनीनां लेश्यानां स्थितिः' अवस्थितिः 'तुः पूरणे 'वर्णिता' आण्याता भवति, 'तेण'ति सूत्रत्वात्ततः 'परम्' इत्यग्रतो वक्ष्यामि प्रक्रमालेश्यानां स्थिति तियग्मनुष्याणां तथा देवानाम् ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह-'अंतोमुहुत्तमद्धं'त्ति 'अन्तर्मुहूर्ताद्धाम्' अन्तर्मुहूर्त्तकालं लेश्यानां स्थितिर्जघन्योत्कृष्टा चेति शेषः, कतराऽसौ ? इत्याह-'यस्मिन् इति पृथिवीकायादौ संमूर्छिममनुष्यादौ च याः | कृष्णायाः'तुः' पूरणे तिरश्चां मनुष्याणां मध्ये संभवन्ति तासाम् , एता हि कचित्काश्चित्संभवन्ति, यत आगम: १ देवानां नैरयिकाणां च द्रव्यलेश्या भवन्ति एताः । भावपरावृत्तौ सुरनैरयिकयोः षङ्क लेश्याः ॥ १ ॥ 1525 दीप अनुक्रम [१४२३-१४३७] |HE५९॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1316~ Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||४१-५५|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) RSESS प्रत सूत्रांक [४१ "पुढविकाइयाणं भंते ! कइलेसातो पन्नत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि लेसाओ, तंजहा-कण्हलेसा जाब तेउलेसा, |आउवणप्फइकाइयाणवि एवं चेव, तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिंदियाण जहा नेरइयाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! छलेसाओ कण्हा जाव सुक्कलेसा, मणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! छ एयाओ चेब, समुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहा नेरइयाणं ।" नन्येवं शुक्ललेश्याया अप्यन्तर्मुहूर्तमेव स्थितिः प्रासेत्याशङ्कयाह-वर्जयित्वा केवला शुद्धां लेश्यां शुक्ललेश्यामितियावत् । अस्थाश्च यावती स्थितिस्तामाह-'मुहुत्तद्धं तु'त्ति प्राग्वदन्तर्मुहूर्तमेव जघन्या उत्कृष्टा भवति पूर्वकोटी 'तुः' विशेषणे, स च जघन्यस्थित्यपेक्षयाऽस्या उक्तमेव विशेष द्योतयति, नवभिवषयूना ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, इह च यद्यपि कश्चित्पूर्वकोट्यायुरष्टवार्षिक एवं व्रतपरिणाममामोति. तथाऽपि नैताबद्वयास्थस्य वर्षपर्यायादक शुक्ललेश्यायाः सम्भव इति नवभिन्यूना पूर्वकोटिरुच्यते । 'एसा'सूत्रं स्पष्टमेव । प्रतिज्ञातानुरूपमाह-दशवर्षसहस्राणि कृष्णायाः स्थितिर्जघन्यका भवति, भवनपतिव्यन्तरेषु चाखाः सम्भव*स्तेषामेव जघन्यतोऽप्येतावस्थितिकत्वात् , उक्तं च-"दस भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं"ति, 'पलिय-3 मसंखेज्जइमो'त्ति पल्योपमासखषेयतमः प्रस्तावाद् भाग उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः स्थितिरिति प्रक्रम, एवंविधविमध्यमायुषामेव भवनपतिष्यन्तराणामियं द्रष्टव्या । सम्प्रति नीलायाः स्थितिमाह-या कृष्णायाः स्थितिः 'खलुः' १ दश वर्षसहस्राणि भवनपतीनां वनचराणां स्थितिर्जधन्येन SSCRACKERA) -५५]] % % दीप अनुक्रम [१४२३ -१४३७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1317~ Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [४१ -५५] दीप अनुक्रम [१४२३ -१४३७] उत्तराध्य. बृहद्धतिः ॥ ६६०॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४१-५५|| अध्ययनं [३४], Education intimational वाक्यालङ्कारे 'उत्कृष्टा' अनन्तरमुक्तरूपा 'सा उ'त्ति सैव 'समयमम्भहिय'त्ति समयाभ्यधिका जघन्येन नीलायाः, 'पलियमसंखिज्ज' ति प्राग्वत्पल्योपमासङ्घयेयश्च भाग उत्कृष्टा स्थितिर्नवरमुक्तहेतोरेव बृहत्तरोऽयमसङ्घयेयभागो गृह्यते । | या नीलायाः स्थितिः खलुत्कृष्टा 'सा उ'त्ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन कापोतायाः पल्योपमासङ्घयेयश्च भाग उत्कृष्टा स्थितिः, एतावदायुषामेव भवनपतिव्यन्तराणामिमे मन्तव्ये, इहाप्युक्तहेतोरेव पूर्वस्मादृहत्तरोऽसङ्ख्यातभागः परिगृद्यते । इत्थं निकायद्वयभाविनीमाद्य लेश्यात्रयस्थितिमुपदर्श्य समस्तनिकायभाविनीं तेजोलेश्या स्थितिमभिधातुं प्रतिज्ञासूत्रमाह- 'तेण 'ति ततः परं प्रवक्ष्यामि तेजोलेश्यां, 'यथे'ति येनावस्थानप्रकारेण सुरगणानां भवति तथेत्युपस्कारः, किमन्यतरनिकायानामेवामीषामुतान्यथेत्याह- भवनपतिवाणमंतरज्योतिर्वैमानिकानां चतुर्निकायानामिति योऽर्थः, 'चः' पूरणे, प्रतिज्ञातमेवाह - पल्योपमं जघन्या उत्कृष्टा 'सागर'त्ति सागरोपमे 'तुः' प्राग्वत् 'द्वे' द्विसङ्ख्ये अधिके-अर्गले, कियतेत्याह-पल्योपमासङ्ख्येयेनेति योगः, भवति तेजस्याः स्थितिरिति प्रक्रमः, इयं च सामान्योपक्रमेऽपि वैमानिकनिकायविषयतयैव नेया, तत्र च सौधर्मेशानदेवानां जघन्यत उत्कृष्टत चैतावदायुषः सम्भवात् उपलक्षणं चैतच्छेषनिकायतेजोलेश्यास्थितेः, ततश्च भवनपतिव्यन्तराणां जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टतस्तु भवनपतीनां सागरोपममधिकं, व्यन्तराणां च पल्योपमं ज्योतिष्काणां तु जघन्यतः पत्योपमाष्टभागः, उत्कृष्टतस्तु वर्षलक्षाधिकं पल्योपमम्, एतावन्मात्राया एवैषां जघन्यत उत्कृष्टतथायुः स्थितेः सम्भवात् । 'दसवास Forest Use Only निर्युक्ति: [५४५...] ~1318~ लेश्याध्य यनं. ३४ ||६६०॥ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-]/गाथा ||४१-५५|| नियुक्ति: [१४५...] (४३) प्रत सूत्रांक SARKAR [४१ सहस्साई' इत्यादि स्पष्टमेव, नवरमनेन निकायभेदमनङ्गीकृत्यैव लेश्यास्थितिरुक्ता, इह च दशवर्षसहस्राणि जघन्या 3 तेजस्याः स्थितिरभिहिता, प्रक्रमानुरूप्येण तु योत्कृष्टा कापोतायाः स्थितिरसावेवास्याः समयाधिका प्राप्नोति, अधी यते च केचनानन्तरसूत्रत्रयस्थाने-जा काऊइ ठिई खलु उक्कोसे' त्यादि तदत्र तत्त्वं न विद्मः। पनायाः स्थितिमाह४ाया तेजस्याः स्थितिः खलुत्कृष्टा सा उत्ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन पनायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, 'दश तु' इति । दशैव प्रस्तावात्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताधिकान्युत्कृष्टा, इयं च जघन्या सनत्कुमारे उत्कृष्टा च ब्रमलोके, तयोरेवैतदायुष्क-1X सम्भवात. आह-यदीहान्तमहर्तमधिकमुच्यते ततः पूर्वत्रापि किं न तदधिकमुच्यते ? देवभवलेश्याया एव तत्र विव|क्षितत्वात् , प्रतिज्ञातं हि 'तेण परं वोच्छामि लेसाण ठिई तु देवाणं'ति, एवं सतीहान्तर्मुहाधिकत्वं विरुध्यते, न अभिप्रायापरिज्ञानात् , अत्र हि प्रागुत्तरभयलेश्याऽपि “अंतोमुहुत्तमि गए"त्ति वचनाद्देवभवसम्बन्धिन्येवेति प्रदर्शनार्थमित्थमुक्तमिति न विरोध इति भावनीयम् । शुक्ललेश्यास्थितिमाह-या पनायाः स्थितिः खलूत्कृष्टा 'सा उत्ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन शुक्लायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, त्रयस्त्रिंशत् 'मुहुत्तमम्भहिय'त्ति प्राग्वन्मुहूर्ताभ्यधिकानि सागरोपमाण्युत्कृष्टेति गम्यते, अस्थाश्च लान्तकाभिधानषष्ठदेवलोकात्प्रभृति यावत्सर्वार्थसिद्धस्तावत्सम्भवः, अत्रैपैतावदायुषः सद्भाव इतिकृत्वेति पञ्चदशसूत्रार्थः । उक्तं स्थितिद्वारं, साम्प्रतं गतिद्वारमाह किण्हा नीला काऊ तिन्निवि लेसाउ अहम्मलेसाउ । एयाहि तिहिवि जीवो दुग्गई उववजई ॥५६॥ -५५]] दीप अनुक्रम [१४२३ -१४३७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1319~ Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-] / गाथा ||१६-१७|| नियुक्ति: [५४५...] (४३) प्रत सूत्रांक [५६ -५७] उत्तराध्य. सेउ पम्हा सुका तिन्निवि एयाउ धम्मलेसाउ । एयाहि तिहिवि जीवो सुग्गई उववजई ॥ ५७॥ लेश्याध्यबृहद्वृत्तिः कृष्णा नीला कापोतास्तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः, पापोपादानहेतुत्वात् , पाठान्तरतोऽधमलेश्या वा, तिसृणामदाप्यविशद्धत्वेनाप्रशस्तत्वात . यद्येवं ततः किमित्याह-एताभिः' अनन्तरोक्ताभिः 'तिसुभिरपि' कृष्णादिलेश्याभिः | यनं.३४ ॥३६॥ 'जीवः' जन्तुः 'दुर्गति' नरकतिर्यग्गतिरूपाम् 'उपपद्यते' प्रामोति, सुब्व्यत्ययाद्वा दुर्गतौ 'उपपद्यते' जायते, संक्लिष्टत्वेन तत्प्रायोग्यायुष एव तद्वतां वन्धसम्भवादिति भावः। तथा तैजसी पद्मा शुक्लास्तिस्रोऽप्येताः 'धर्मलेश्या' प्रधानलेश्याः.15 विशुद्धत्वेनासा धर्महेतुत्वात् , तथा चागमा-"तओ लेसाओ अविसुद्धाओ तओ विसुद्धाओ ततो पसत्थाओ तओ|| अपसत्थाओ तओ संकिलिट्ठाओ तओ असंकिलिट्ठाओ तओ दुग्गतिगामियाओ तओ सुगतिगामियाओ।" अत एव | 'एताभिस्तिसृभिः' तेजस्यादिलेश्याभिर्जीवः 'सोगति'ति'सुगति' देवमनुष्यगतिलक्षणां मुक्तिं वोपपद्यते, यद्वा प्राग्वत्सगती 'उत्पद्यते' जायते, तथाविधायुवन्धतः सकलकमापगमतश्चेति सूत्रद्वयभावार्थः। उक्तं गतिद्वारं, साम्प्रतमायु-१४॥ रावसरः, तत्र च यस्या लेश्याया यदायुषो मानं तत्स्थितिद्वार एवार्थतोऽभिहितम् , इह त्विदमुच्यते-अवश्यं हि | जन्तुयेल्लेश्येपूत्पद्यते तलेश्य एव म्रियते, यत आगमः-"जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तलेसो उववज्जइ"त्ति, ६६१॥ तथेहेव वक्ष्यति “अंतोमुहुत्तमि गए" इत्यादि तत्र जन्मान्तरभाविलेश्यायाः किं प्रथमसमये परभवायुष उदय आहोखिचरमसमयेऽन्यथा वेति संशयापनोदानायाह दीप अनुक्रम [१४३८-१४३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1320~ Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३४], मूलं [-1 /गाथा ||५८-६०|| नियुक्ति: [१४५...] (४३) प्रत सूत्रांक स -६०] लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयंमि परिणयाहिं तु । नहु करसह उबवत्ति परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ ५८॥ लेसाहिं सवाहिं चरमे समयंमि परिणयाहिं तु। नहु कस्सइ उववत्ति परे भवे अस्थि जीवस्स ॥१९॥ अंतमुहुत्तंमि गए अंतमुहत्तंमि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ॥३०॥ 'लेश्याभिः' उक्तरूपाभिः' 'सर्वाभिः' इति षडिरपि प्रथमे समये तत्प्रतिपत्तिकालापेक्षया 'परिणताभिः' प्रस्तावादात्मरूपतामापन्नाभिः, लक्षणे तृतीया, 'तुः' पूरणे 'न हुँ' नैव कस्यापि "उववत्ति'त्ति 'उत्पत्तिः' उत्पादः, ४. पठ्यते च 'नवि कस्सपि उववाओ'त्ति सुगम, 'परे' अन्यस्मिन् 'भवे' जन्मनि 'भवति' विद्यते 'जीवस्य जन्तोः। तथा लेश्याभिः सर्वाभिः 'चरमे समये' इत्यन्तसमये परिणताभिस्तु 'नहु' नैव कस्याप्युत्पत्तिः परे भवे भवति जीवस्य । कदा तर्हि ? इत्याह-अन्तर्मुहूर्ते 'गत एवं' अतिक्रान्त एव, तथाऽन्तर्मुहर्ने शेपके चैव-अवतिष्ठमान एव लेण्याभिः | परिणताभिरुपलक्षिता जीवा गच्छन्ति 'परलोकं' भयान्तरम् , इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभवलेश्याया उत्पत्तिकाले वाऽतीतभवलेश्याया अन्तर्मुहर्तमवश्यम्भावात्, न विह विपरीतमवधार्यते-अन्तर्मुहर्त एव गत इत्यन्तमुहर्त एव शेषक इति च, देवनारकाणां खखलेश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तर्मुहूर्तद्वयसहितनिजायुःकालं यावदयस्थितत्वात् , उक्तं हि प्रज्ञापनायाम्-"जलेसाई दबाई आयतित्ता कालं करेति तलेसेसु उवयजइ'त्ति,तथा 'कण्हलेसे रतिए कण्हलेसेसु घाणेरइएसु उववजति कण्हलेसेसु उबट्टइ, जलेसे उववजइ तछेसे उबद्दति, एवं नीललेसेवि काउलेसेवि, एवं असुर दीप अनुक्रम [१४४०-१४४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1321~ Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [६१] दीप अनुक्रम [१४४३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६६२ || “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३४], मूलं [ - ] / गाथा ||६१|| निर्युक्ति: [५४५...] कुमारा जाय बेमाणियति, अनेनान्तर्मुहूर्त्तवशेष आयुषि परभवलेश्यापरिणाम इत्युक्तं भवतीति सूत्रत्रयार्थः ॥ इत्थं लेश्यानां नामाद्यभिधाय साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुरुपदेशमाह - तम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया । अप्पसत्थाउ वज्जिन्त्ता, पसस्थाओ अहिए मुणि ॥ ६१ ॥ तिषेमि ॥ ॥ लेसझयणं ॥ ३४ ॥ 'तम्छ'त्ति यस्मादेता अप्रशस्ता दुर्गतिहेतवः प्रशस्ताश्च सुगतिहेतवस्तस्मात् 'एतासाम्' अनन्तरमुक्तानां लेश्यानाम् 'अनुभागम्' उक्तरूपं 'विज्ञाय' विशेषेणावबुध्य अप्रशस्ताः कृष्णाद्यास्तिस्रो वर्जयित्वा 'प्रशस्ताः' तेजस्याद्यास्तिस्रः 'अधितिष्ठेत्' भावप्रतिपत्त्याऽऽश्रयेन्मुनिरिति शेष इति सूत्रार्थः । 'इति' परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत्, नयाश्च । प्राग्वत् ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां चतुस्त्रिंशं लेश्याध्ययनं समाप्तम् ॥ ३४ ॥ 14... इति श्रीमदुत्तराध्य० शिष्य० श्रीशान्तिसू० वृत्तौ चतुखिंशत्तमं ठेश्याध्ययनं समाप्तम् ॥ For P बेश्याध्य यनं. ३४ ~1322~ ||६६२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययनं - ३४ परिसमाप्तं p Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-/ गाथा ||६१...|| नियुक्ति : [५४६-५४८] (४३) अथ अनगारमार्गगतिरितिनाम पंचत्रिंशत्तममभ्ययनम् । प्रत सुत्रांक [६१] व्याख्यातं लेश्याध्ययननामकं चतुर्विंशमध्ययनम् , अधुना पञ्चत्रिंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःअनन्तराध्ययने लेश्या अभिहिताः, तदभिधाने चायमाञ्चयः-अशुभानुभावलेश्यात्यागतः शुभानुभावा एव लेश्या: अधिष्ठातव्याः, एतच्च भिक्षुगुणव्यवस्थितेन सम्यग्विधातुं शक्यं, तयवस्थानं च तत्परिज्ञानत इति तदर्थमिदमाकरभ्यते, पतत्सम्बन्धागतस्य चास्यानुयोगद्वारचतुष्टयं प्राग्यवर्णनीयं यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे अनगारमार्गगतिरिति । नाम, अतोऽनगारमार्गगतीनां त्रयाणामपि पदानां निक्षेपायाह नियुक्तिकृत् अणगारे निक्खेवो चउबिहो दुविह होइ नायवो। ॥५४६ ॥ जाणगभवियसरीरे तवइरिते अनिण्हगाईसु । भावे सम्मदिट्ठी अगारवासा विणिम्मुक्को ॥ ५४७ ॥ मग्गगईणं दुण्हवि पुवुद्दिट्टो चउक्कनिक्खेवो । अहिगारो भावमग्गे सिद्धिगईए उ नायवो॥ ५४८ ॥ | माथात्रयं स्पष्टमेव, नवरं तबतिरिक्तश्च निलवादिषु, आदिशब्दादन्येष्वपि चरित्रपरिणामं विना गृहाभाववत्सु, नि-12 रिमे सप्तमी, तसच यस्तेषु मध्येऽनमारत्वेन के सड इत्युपस्कारः, स तमतिरिक्तो द्रव्यानगारो, भाके 'सम्य दीप अनुक्रम [१४४३] सक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ३५ "अनगारमार्गगति" आरभ्यते ~ 1323~ Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [--]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५४६-१४८] (४३) उत्तराध्य बृहद्धृत्तिः ॥६६॥ SSNESS प्रत सध्य. ३५ सत्राक दष्टिः सम्यग्दर्शनषान्निश्चयतो यत्सम्यक्त्वं तन्मौनमिति चरित्री अगारवासेनागारपाशेन वा प्राकृतत्वातृतीयाथै अनगारगपञ्चमी विशेषेण-तत्प्रतिषन्धपरित्यागरूपेण निर्मुक्त-त्यक्तो विनिर्मुक्तोऽनगार इति प्रक्रमः, तथा मार्गगत्यो योरपि, पूर्वप्र-मोक्षमार्गगतिनामन्यध्ययने उद्दिष्टः-कथितः पूर्वोद्दिष्टः, इत्थमेषां चतुर्विधत्वेन केनेह प्रकृतमित्याह-अधिकारः | तिमार्गा'भावमग्गि'त्ति सुव्यत्ययाद् 'भावमार्गेण' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणेन सिद्धिगत्या चार्थाद्भावगत्या उपलक्षणत्वादावानगारेण च ज्ञातव्य इति गाथात्रयावयवार्थः । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तवेदम् मुह मे एगमणा, मग्गं सन्चन्नु (बुद्धेहि) देसियं । जमायरंतो भिक्खू , दुक्खाणंतकरो भवे ॥१॥ 'शृणुत' आकर्णयत 'मे' मम कथयत इति शेषः, एकाग्रमनसः, कोऽर्थः -अनन्यगतचित्ताः सन्तः शिष्या इति | शेषः, किं तत् ? इत्याह-'मार्गम्' उक्तरूपं प्रक्रमान्मुक्तेर्बुधैः-अवगतयथास्थितवस्तुतत्त्वैरुत्पन्नकेवलैरर्हद्भिः श्रुतकेव-14 लिभिर्गणधरादिभिःत्युक्तं भवति, देशित-प्रतिपादितमर्थतः सूत्रतश्च, तमेव विशेषयितुमाह-'यम्' इति मार्गम् ['आचरन्' आसेवमानः 'भिक्षुः' अनगारः 'दुःखाना' शारीरमानसानामन्तः-पर्यन्तस्तत्करणशीलोऽन्तकरः ‘भवेत्। ॥५ ॥ स्थात्, सकलकर्मनिर्मूलनत इति भावः, तदनेनासेव्यासेवकसम्बन्धेनानगारसम्बन्धित्वं मार्गस्य तत्फलं च मुक्तिगतिरिति दर्शितं, ततश्चानगारमार्ग तहतिं च शृणुतेत्य (यंत) उक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह दीप अनुक्रम [१४४४] +EXAX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1324~ Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || २-२१|| अध्ययनं [३५], Education intemational गिहवासं परिचज्जा, पबजामस्सिए मुणी । इमे संगे विद्याणिजा, जेहि सज्जति माणवा ||२|| तहेव हिंसं अलियं, घोळं अब्यं भसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च संजओ परिवजए ॥३॥ मणोहरं चितघरं, मल्लधूवणवासियं । सकवार्ड पंडलोयं, मणसावि न पत्थर ॥ ४ ॥ इंदियाणि उ भिक्खुरस, तारिसंमि उवस्सए । दुकराई [तु धारेडं] निवारे, कामरागविवगुणे ॥ ५ ॥ सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व इकओ । पहरिके परकडे वा, वासं तत्थऽभिरोयए ॥ ६ ॥ फासूर्यमि अणावादे, इत्थीहिं अणभिहुए । तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए ॥ ७ ॥ सर्व गिहाई कुव्विज्जा, नेव अन्नेहिं कारए । गिहकम्मसमारंभे, भूयाणं दिस्सए वहो ॥ ८ ॥ तसाणं धावराणं च, सुहुमाणं वायराण य । तम्हा गिहसमारंभ, संजओ परिवज्जए ॥ ९ ॥ तहेव भत्तपाणेसु, पयणे पयावणेसु य । पाणभूयदद्यट्ठाए, न पर ण पयावर ॥ १० ॥ जलधन्ननिस्सिया जीवा, पुढवीकट्ठनिस्सिया । हम्मेति भत्तपाणेसु, तम्हा भिक्खू न पयावए ॥। ११ ॥ विसप्पे सध्यओ घारे, बहुपाणविणासणे । नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई न दीवए ॥ १२ ॥ हिरण्णं च जायरूवं च, मणसावि न पत्थए । समलिङ्कुकंचणे भिक्खू, विरए कयविकए ॥ १३ ॥ किणतो कहओ होइ, विक्षिणतो अ वाणिओ । कयविक्रयंमि वतो, भिक्खू हवइ तारिसी ||१४|| मिक्खियच्वं न केयव्वं, भिक्खुणा भिक्खवित्तिणा । कयविकओ महादोसो, भिक्खाविती सुहावहा ||१५|| समुपाणं उछमेसिज्जा, जहासुत्तमणिदियं । लाभालाभंमि संतुट्टे, पिंडवायं चरे मुणी ॥ १६ ॥ अलोलो न रसे गिडो, जिन्भादंतो अमुच्छिओ। न रसट्ठाए भुंजिजा, For Fans at Use Only निर्युक्तिः [५४८...] ~1325~ incibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-1 /गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [१४८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] उत्तराध्य. जवणवाए महामुणी ॥ १७॥ अञ्चणं रयणं चेव, वंदणं पूअणं तहा । रहीसकारसम्माण, मणसावि न अनगारग पत्थए ॥१८॥ मुफझाणं झियाइजा, अणियाणे अकिंचणे । बोसट्ठकाए विहरिजा, जाव कालस्स पज्जओ बृहद्वृत्तिः ॥ १९ ॥ निज्जूहिऊण आहारं, कालधम्मे उवहिए । बइऊण माणुसं बुदि, पहू दुक्खा विमुचई ॥२०॥ ६६॥ निम्ममो निरहंकारो, वीयराओ अणासवो। संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिनिब्बुळे ॥२१॥ सियमिध्य. ३५ ॥अणगारमग्गं॥३५॥ 'गृहवास' गृहावस्थानं यदिवा गृहमेव वा पारवश्यहेतुतया पाशो गृहपाशस्तं 'परित्यज्य' परिहत्य 'प्रवज्यां' सर्वसझपरित्यागलक्षणां भामवती दीक्षाम् 'आश्रितः' प्रतिपन्नो मुनिः 'इमान्' प्रतिप्राणि प्रतीततया प्रत्यक्षान् 'सकान्' पुत्रकलत्रादीस्तत्प्रतिबन्धान वा 'विजानीयात्' भवहेतवोऽमीति विशेषेणावबुध्येत, निश्चयतो निष्फलस्यासत्त्वाज्ज्ञानस्य च पिरतिफलत्वात्प्रत्याचक्षीतेत्युक्तं भवति, सङ्गशब्दव्युत्पत्तिमाह-जेहिं'ति सुव्यत्ययाद् येषु 'सज्यन्ते ४ प्रतिवध्यन्ते, अथवा यः सबैः 'सज्यन्ते' संवध्यन्ते ज्ञानावरणादिकमणेति गम्यते, के ते ?-'मानवाः' मनुष्या उपलक्षणत्वादन्येऽपि जन्तवः । 'तथा' इति समुचये 'एवेति पूरणे 'हिंसा' प्राणव्यपरोपणम् 'अलीकम्' अनृतभाषणं । ॥६६४॥ कचौर्यम्' अदत्तादानम् 'अबससेवनं' मैथुनाचरणमिच्छारूपः काम इच्छाकामस्तं वा-बनातकस्तुकासारूपं 'लोहं च । लब्धपस्तुविषयरयात्मकम्, अनेनोभयनापि परिवह उसखाता परिवहं च 'संयतः पतिः 'परिवर्जयेत्' परिहरेत्।। दीप अनुक्रम [१४४५ CANA -१४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1326~ Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-] / गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [५४८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] *CAMSUDAE अनेन मूलगुणा उक्ताः, एतयवस्थितस्यापि च शरीरिणोऽवश्यमाश्रयाहाराभ्यां प्रयोजन, तयोश्च तदतीचारहेतुत्वमपि कदाचित्स्यादिति मन्वानस्तत्परिहाराय सूत्रपङ्केन तायदाश्रयचिन्तां प्रति यतते-'मनोहर' चित्ताक्षेपकं, किं तत् ?चित्रप्रधानं गृहं चित्रगृहं, तदपि कीरशंी-माल्यैः-प्रन्धितपुष्पैधूपनैश्च-कालागुरुतुरुष्कादिसम्बन्धिमिर्वासितंसुरभीकृतं माल्यधूपनवासितं, सह कपाटेन प्रतीतेन वर्तत इति सकपाटं तदपि 'पाण्डुरोल्लोचं' श्वेतवस्त्रविभूपितं मनसाऽप्यास्तां वचसा 'न प्रार्थयेत्' नाभिलषेत्, किं पुनस्तत्र तिष्ठदिति भावः । किं पुनरेवमुपदिश्यते ? इत्याह४ इन्द्रियाणि' चक्षुरादीनि 'तुः' इति यस्मात् 'भिक्षोः अनगारस्य 'ताशे' तथाभूते 'उपाश्रये' आश्रये दुःखेन क्रियन्ते करोतेः सर्वधात्वर्थत्वाच्छक्यन्ते दुष्कराणि-दुःशकानीत्यर्थः 'तुः एवफारार्थो दुष्कराण्येव धारयितुम् उन्मार्गप्रवृत्तिनिषेधतो मार्ग एव व्यवस्थापयितुं, पठ्यते-दुष्कराणि 'णिवारेतु ति, तत्रापि 'निवारयितुम्' इति नियत्रितुं खखविषयप्र-II (वृत्तेरिति गम्यते, कीरशि-काम्यमानत्वात्कामा-मनोज्ञा इन्द्रियविषयास्तेषु रागः-अभिष्यशास्तस्य विवर्द्धने विशेषेण वृद्धिहेतौ कामरागविवर्द्धने, तथा च तथाविधचित्तव्याक्षेपसम्भवात्कस्यचिन्मूलगुणस्य कथञ्चिदतीचारसम्भवो दोष इत्येवमुपदिश्यत इति भावः । एवं तर्हिक कीशि स्थातव्यमित्याह-मशाने प्रेतभूमौ 'शून्यागारे' उद्वसितगृहे 'या' विकल्पे 'वृक्षमूले वा' पादपसमीपे 'एकदा' इत्येकसिंस्तथाविधकाले, पठ्यते च-'एकतो'त्ति 'एककः' रागदेववियुतोऽसहायो वा तपाविधयोग्यतया 'पराक्वे' परसम्बन्धिनि तथाविधप्रतिवन्धेनाखीकृते पाठान्तरतः पति दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1327~ Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-] / गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [५४८...] (४३) बृहद्धृत्तिः प्रत सूत्रांक [२-२१] उत्तराध्य. रिक' देशीभाषया 'एकान्ते' ख्याधसङ्कले 'परकृते' परैः-अन्यैर्निष्पादिते खार्थमिति गम्यते 'वा' समुच्चये 'वासम्' अनगारगअवस्थानं 'तत्र' श्मशानादौ अभिरोचयेत्' प्रतिभासयेदर्थादारमने भिक्षुरित्युत्तरेण योगः। 'प्रासुके' अचित्तीभूतभूभा तिमार्गागरूपे, तथाऽविद्यमाना बाधाऽऽत्मनः परेषां वाऽऽगन्तुकसत्त्वानां गृहस्थानां च यस्मिंस्तत्तथा 'स्त्रीभिः' अङ्गनाभिरु॥६६५|| पलक्षणत्वात्पण्डकादिभिश्च अनभिद्रुते' अनुपद्रुते तदुपद्रवविरहित इत्यर्थः, एतानि हि मुक्तिपथप्रतिपन्थित्वेन तत्प्र-2 वृत्तानामुपद्रवहेतुभूतानीत्येवमभिधानं तत्रे'ति प्रागुक्तविशेषणे श्मशानादौ सम्यकल्पयेत्-कुर्यात्सङ्कल्पयेत् ,कं ?-वासं, भिक्षणशीलो भिक्षुः स च शाक्यादिरपि स्यादत आह-परमः-प्रधानः स चह मोक्षस्तदर्थ सम्यग् यतते परमसंयतः, |जिनमार्गप्रपन्न इत्युक्तं भवति, तस्यैव मुक्तिमार्ग प्रति वस्तुतः सम्यग्यत्वसम्भवात्, प्राग्वासं तत्राभिरोचयेदि|त्युक्ते रुचिमात्रेणैव कश्चित्तुष्ये दिति तत्र सङ्कल्पयेद्वासमित्यभिधानम् । ननु किमिह परकृत इति विशेषणमुक्तमित्याशपाह-न 'खयम्' आत्मना 'गृहाणि' उपाश्रयरूपाणि 'कुति' विदधीत नैव 'अन्यैः' गृहस्थादिभिः 'कारयेत्' विधापयेदुपलक्षणत्वाज्ञापि कुर्वन्तमनुमन्येत, किमिति ?, यतो गृहनिष्पत्यर्थ कर्म गृहकर्म-इष्टकादानयनादि ४ तदेव समारम्भः-प्राणिनां परितापकरत्याद्, उक्तं हि-"परिताषकरो भवे समारंभो"त्ति, यद्वा तस्य समारम्भः प्रवर्तनं गृहकर्मसमारम्भस्तस्मिन् 'भूतानाम्' एकेन्द्रियादिप्राणिनां 'दृश्यते' प्रत्यक्षत एयोपलभ्यते, कोऽसौ ?-X 'वधः पिनाशः। भूतानां वध इत्युक्तं तत्र मा भूत्केपाश्चिदेवासावित्याशझवाह-'प्रसानां वीन्द्रियादीनां स्थावराण' दीप अनुक्रम [१४४५ T ९६५|| -१४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1328~ Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-] / गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [५४८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] पृथिव्याघेकेन्द्रियाणां 'च' समुच्चये तेषामपि 'सूक्ष्माणाम्' अतिश्लक्ष्णानां शरीरापेक्षया न जीवप्रदेशापेक्षया, तस्यामूर्ततययंप्रायव्यषहारायोगात्, 'बादराणां च एवमेव स्थूलाना, यद्वा सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माणां तेषामपि प्रमादतो भावहिंसासम्भवाद्वादरनामकर्मोदयाच बादराणाम् , उपसंहर्जुमाह-'तम्ह'ति यस्मादेवं भूतषधस्तस्माद्गहसमारम्भ 'संयतः' सम्यगहिसादिभ्य उपरतोऽनगार इत्यर्थः 'परिवर्जयेत्' परिहरेत् , इत्थमाश्रयचिन्तां विधायाहारचितामाह-'तथैव' तेनैव प्रकारेण भक्तानि च-शाल्योदनादीनि पीयन्त इति पानानि-पयःप्रभृतीनि तानि च भक्तपानानि तेषु, पचनानि च-स्वयं विक्लेदापादनक्कथनानि पाचनानि च-तान्येवान्यैः पचनपाचनानि तेषु च भूतवधो दृश्यत इति प्रक्रमः, ततः किमित्याह-प्राणा-द्वीन्द्रियादयो भूतानि-पृथिव्यादीनि तेषां दया-रक्षणं प्राणभूतदया तदर्थ-तद्धेतोः, किमुक्तं भवति ?-पचनपाचनप्रवृत्तानां यः संभवी जीवोपघातः स मा भूदिति न पचेत्खतो भक्तादीति प्रक्रमो नापि पाचयेत्तदेवान्यैः । अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह-जलं च-पानीयं धान्यं च-शाल्यादि तनिश्रिताःतत्रान्यत्र चोत्पद्य ये तन्निश्रया स्थिता पूतरकभुजगेलिकापिपीलिकाप्रभृतय उपलक्षणत्वात्तदूपाश्च 'जीवाः' प्राणि|नः, एवं पृथ्वीकाष्ठनिश्रिता एकेन्द्रियादयो हन्यन्ते भक्तपानेषु प्रक्रमात्पच्यमानादिषु, यत एवं तस्माद्भिक्षुर्न पाचहै येत्, अपेर्गम्यमानत्वात्पाचयेदपि न किं पुनः वयं पचेत् , अनुमतिनिषेधोपलक्षणं चैतत् । अपरं च विसर्पतीति दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1329~ Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥६६६।। “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || २-२१|| अध्ययनं [३५], Education intemational ध्य. ३५ विसर्प - खल्पमपि बहु भवति, यत उक्तम्- "अण थोवं वण थोवं जग्गी थोव" मित्यादि, सर्वतः सर्वासु दिक्षु धारेव धारा - जीवविनाशिका शक्तिरस्येति सर्वतोधारं सर्वदिगवस्थितजन्तूपघातकत्वात् उक्तं च- " पाईणं पडीणं बावी-" त्यादि, अत एव 'बहुप्राणविनाशनम्' अनेकजीवजीवितव्यपरोपकं 'नास्ति' न विद्यते 'ज्योतिःसमम्' अभितुल्यं शस्यन्ते-हिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शस्त्रं-प्रहरणमन्यदिति गम्यते तस्याविसर्पत्वादसर्वतो धारत्वादस्पजन्तूप घातक५) त्याचेति भायः, सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत्, यस्मादेवं तस्मात् 'ज्योतिः' वैश्वानरं 'न दीपयेत्' न ज्वालयेत् अनेन ४ च पचनस्याग्निज्वलनाविनाभावित्वात्तत्परिहार एव समर्थितः इत्थं च विशेषप्रक्रमे च सामान्याभिधानं प्रसङ्गतः * शीतापनोदादिप्रयोजनेऽपि तदारम्भनिषेधार्थम्, आधाकर्मादिका वा विशुद्धकोटिरनेनैवार्थतः परिहार्योक्ता, तदप४ रिहारे व्यवश्यम्भावी पचनानुमत्यादिप्रसङ्ग इति । नन्वेवं जीववधनिमित्तत्वमेव पचनादेर्निषेधनिबन्धनं, तच नास्ति क्रयविक्रययोरिति युक्तमेवाभ्यां निर्वहण ( मेव ) मपि कस्यचिदाशङ्का स्यादतस्तदपनोदाय हिरण्यादिपरिग्रहपूर्वकत्था - त्तयोस्तन्निषेधपूर्वकं सूत्रत्रयेण तत्परिहारमाह-'हिरण्यं' कनकं 'जातरूपं' रूप्यं चकारो ऽनुक्ताशेषधनधान्यादिसमुचये 'मनसाऽपि' चित्तेनाप्यास्तां वाचा 'न प्रार्थयेत्' ममामुकं स्यादिति, अपेर्गम्यमानत्वात्प्रार्थयेदपि न, किं पुनः परिगृहीयात् ? कीदृशः सन् १-समे - प्रतिबन्धाभावतस्तुल्ये लेष्टुकाञ्चने- मृत्पिण्डखण्डकनके अस्येति समलेष्टुकाञ्चनः, १ ऋणं स्तोकं प्रणं स्तोकं अभिः स्तोकः कषायः स्तोकक्ष । For Fasten निर्युक्ति: [५४८...] ~ 1330~ अनगारग तिभा ॥६६६ ।। www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || २-२१|| अध्ययनं [३५], Education intonal एवंविधथ सन् भिक्षुः 'विरतः' निवृत्तः स्यादिति शेषः, कुतः ? — क्रयो - मूल्येनान्यसम्वन्धिनस्तथाविधवस्तुनः स्वीकारो विक्रयश्च तस्यैवात्मीयस्य तथाविधवस्तुजातेनान्यस्य दानं क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयमिति समाहारतस्मात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी, विषयसप्तमी वा तत्र च क्रयविक्रयविषये, 'विरतः' इति विरतिमानित्यर्थः किमित्येवम् ? अत आह- क्रीणानः- परकीयं वस्तु मूल्येनाददानः क्रयोऽस्यास्तीति क्रयिको भवति तथाविधेतरलोकसरश एव भवति, विक्रीणानश्च स्वकीयं वस्तु तथैव परस्य ददद्वणिग् भवति, वाणिज्यप्रवृत्तत्त्वादिति भावः, अत एव च 'क्रयविक्रये' उक्तरूपे 'वर्त्तमानः' प्रवर्त्तमानो भिक्षुर्भवति न तादृशो, गम्यमानत्वाद्यादृशः सूत्राभिहितो भावभिक्षुरिति भावः । ततः किमित्याह - 'मिक्षितव्यं याचितव्यं तथाविधं वस्त्विति गम्यते, 'न' नैव 'क्रेतव्यं' मूल्येन ग्रहीतव्यं, केन ?-- भिक्षुणा, कीदृशा ? - भिक्षयैव वृत्तिः-वर्त्तनं निर्वहणं यस्यासौ भिक्षावृत्तिस्तेन, उक्तं हि "संबं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं "ति, क्रयविक्रयवद्भिक्षाऽपि सदोषैव भविष्यतीति मन्दधीर्मन्यते, तत आह-क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयं व्यवच्छेदफलत्वादस्य तदेव महादोषमुक्तन्यायतः, लिङ्गव्यत्यग्रश्च प्राग्वत्, भिक्षया वृत्तिर्भिक्षावृत्तिः शुभं - इहलोक परलोकयोः कल्याणं सुखं वा तदावहति - समन्तात्प्रापयनीति शुभावद्दा सुखावहा बा, अनेन क्रीतदोषपरिहार उक्तः, स चाशेषविशुद्ध कोटिगत दोषपरिहारोपलक्षणम् । १ स तस्मयाचितं भवति नास्ति किश्चिदद्याचितम् । For Final P निर्युक्तिः [५४८...] ~ 1331~ www.janbrag मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-] / गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [५४८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] मिक्षितव्यमित्युक्तं, तब दानश्राद्धादिवेश्मनि क्वचिदेकत्रैव स्वादत आह-समुदान' भैक्षं न त्वेकभिक्षामेष तथोक्छ- नगार मिव उच्छम्-अन्यान्यषेश्मतः खल्पं खल्पमामीलनात् , मधुकरवृत्त्या हि भ्रमत ईडगेष भवतीत्येवमुक्तम् , 'एषयेत्। वृषवृत्तिः तिमार्गागवेषयेत्, एतचोत्सूत्रमपि स्थादित्याह-सूत्रम्-आगमस्तदनतिक्रमेण यथासूत्रम्-आगमाभिहितोद्गमैपणाधषा॥३७॥ धात इत्युक्तं भवति, तत एव 'अनिन्दितं' शिष्टनिन्द्येन खपरप्रशंसादिहेतुनाऽनुत्पादितं जास्यादिजुगुप्सितजन- ध्य. २५ सम्बन्धि वा न भवति, तथा लाभधालाभश्च लाभालाभं तस्मिन् संतुष्टः-ओदनादेः प्रासाबप्राप्तौ च सन्तोषवान् न तु वाञ्छाविधुरितचित्त इति भावः, इह च लाभेऽपि वान्छोत्तरोत्तरवस्तुविषयत्वेन भावनीया, पिण्ड्यत इति पिण्डो-भिक्षा तस्य पातः-पतनं प्रक्रमात्पात्रेऽस्मिन्निति पिण्डपातं-भिक्षाटनं तत् 'चरेत्' आसेवेत 'मुनिः' इति तपस्वी, पाठान्तरतश्च पिण्डस्य पातः पिण्डपातस्तं गवेषयेत् , उभयत्र च वाक्यान्तरविषयत्वादपौनरुक्त्यम् । इत्थं ४च पिण्डमवाप्य यथा भुञ्जीत तथाऽऽह-'अलोलः' न सरसान्ने प्राप्ते लाम्पट्यवान्, न 'रसे' निग्धमधुरादौ 'गृद्धः' प्राप्ताव भिकासावान् , कथं चैवंविधः, यतः 'जिन्भादंतेत्ति प्राकृतत्वाद्दान्ता-वशीकृता जिह्वा-रसना येनासौ दाम्तजिह्वोऽत एव 'अमूर्छितः संनिधेरकरणेन तत्काले वाऽभिष्वङ्गाभावेन, उक्तं हि-"नो वामाओ हणुयातो दाहिणं, ॥६६७॥ दाहिणाओ वा वामं चालेइ" एवंविधश्च सन् 'न' नैव 'रसठ्ठाए'त्ति रसाथै सरसमिदमहमाखादयामीति धातुवि१न वामात् हनुनो दक्षिणं न दक्षिणाद्वा वामं चालयति दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1332~ Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-] / गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [५४८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] पोवा रसः स चाशेषधातूपलक्षणं ततस्तदुपचयः स्यादित्येतदर्थ 'न भुंजीत' नाम्यवहरेत् , किमर्थं तह-त्याहयापना-निर्वाहः स चार्थासंयमस्य तदर्थं 'महामुनिः' प्रधानतपखी, अनेन पिण्डविशुद्विरुक्ता । तदेवमादौ मूलगुणान् विधेयतयाऽभिधाय तत्परिपालनार्थमाश्रयाहारचिन्ताद्वारेणोत्तरगुणांश्च सम्प्रति तदवस्थित एवात्मन्युत्पन्नबहुमानः कश्चिदर्चनादि प्रार्थयेदिति तनिषेधार्थमाह-अर्चना' पुष्पादिभिः पूजां 'रचना' निषद्यादिविषयां खस्तिकादिन्यासात्मिकां वा 'चः' समुच्चये 'एवः' अवधारणे नेत्यनेन संभन्स्यते 'वन्दनं' नमस्तुभ्यमित्यादि वाचाsभिष्टवनं 'पूजन' विशिष्टवस्त्रादिभिः प्रतिलाभनं 'तथे ति समुच्चये, ऋद्धिश्च-श्रावकोपकरणादिसम्पदामर्षोषध्यादि-| रूपा या सत्कारच-अर्घप्रदानादिः सन्मानश्च-अभ्युत्थानादिः ऋद्धिसत्कारसन्मानं तन्मनसाऽप्यास्तां वाचा नैव प्रार्थयेत्' ममेदं स्थादित्यभिलपेत् । किं पुनः कुर्यादित्याह-शुक्लध्यानम्' उक्तरूपं यथा भवत्येवं 'ध्यायेत्' चिन्तयेत् 'अनिदानः' अविद्यमाननिदानोऽकिञ्चनः प्राग्वत्, व्युत्सृष्ट इव व्युत्सृष्टः काया-शरीरं येन स तथा विहरेदप्रतिबद्धविहारितयेति गम्यते 'यावदिति मयोंदायां 'कालय' इति मृत्योः 'पजयत्ति' 'पर्यायः' परिपाटी प्रस्ताव इतियावत् , यावन्मरणसमयः क्रमप्राप्तो भवतीति । एवंविधानगारगुणस्थश्च यावदायुर्विहृत्य मृत्युसमये यत्कृत्वा यत्फलमवाप्नोति तदाह-णिज्जूहिऊण'त्ति परित्यज्य 'आहारम्' अशनादि, तत्परित्यागश्च संलेखनाक्रमेणैव, दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] wwlandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मुनि दीपरत्नसागरेण ~ 1333~ Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३५], मूलं [-] / गाथा ||२-२१|| नियुक्ति: [१४८...] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] उत्तराध्य. गिति तत्करणे बहुतरदोषसम्भवात् , तथा चागमः-"देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहि खिज्जमाणाहिं । अनगारग जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरमकालंमि ॥१॥ कदा ?-'कालधर्मे' आयुःक्षयलक्षणे मृत्युखभावे 'उपस्थिते' प्रत्याबृहद्वृत्तिः अलारतिमार्गासन्नीभूते, तथा 'त्यक्त्वा' अपहाय 'माणुसं'ति मानुषीं-मनुष्यसम्बन्धिनीं 'बुन्दि' शरीरं 'प्रभुः' वीर्यान्तरायक्ष-18 ॥६६॥ यतो विशिष्टसामर्थ्यवान् 'दुक्खेत्ति 'दुःखैः' शारीरमानसैः 'विमुच्यते' विशेषेण त्यज्यते, तन्निवन्धनकर्मापग- ध्य. ३५ मत इति भावः । कीरशः सन् ? इत्याह-निर्ममः' अपगतममीकारः 'निरहङ्कारः' अहममुकजातीय इत्याथसहकाररहितः, इंरक्षः कुतः, यतो वीतरागः प्राग्वद् विगतरागद्वेषः, तथा 'अनाश्रयः' कर्माश्रवरहितो मिथ्या-12 स्वादितद्धत्वभावात् संप्राप्तः 'केवलज्ञानम्' उक्तरूपं 'शाश्वत' कदाचिदव्यवच्छेदात् 'परिनिर्वृतः' अखास्थ्यहेतुकर्माभावतः सर्वथा खस्थीभूत इति विंशतिसूत्रभावार्थः । इति' परिसमासो, प्रवीमीति पूर्ववत् । गतोऽनुगमो, नयाश्च प्राग्यत् ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायामनगारमार्गगतिनामकं पञ्चत्रिंशत्तममध्ययनं समाप्तम् ॥ ३५ ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धे श्रीशान्त्याचार्यविहिता शिष्यहितानाम्नी अनगारमार्गगतिनामक पञ्चत्रिंशत्तमाध्ययनवृत्तिः ॥१६॥ दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] १ देहेऽसंलिखिते सहसा धातुपु क्षीयमाणेषु । जायते आर्तध्यानं शरीरिणश्वरमसमये ॥ १ ॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययन- ३५ परिसमाप्तं ~1334~ Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२१...|| नियुक्ति: [१४८...], भाष्यं [१-१५] (४३) *-* *- प्रत सूत्रांक [२-२१] *- - अथ जीवाजीवविभक्तिरितिनाम षट्त्रिंशत्तममध्ययनम् । व्याख्यातमनगारमार्गगतिनामकं पञ्चत्रिंशमध्ययनम् , अधुना पत्रिंशमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःअनन्तराध्ययने हिंसापरिवर्जनादयो भिक्षुगुणा उक्ताः, ते च जीवाजीवखरूपपरिज्ञानत एवासेवितुं शक्यन्त इति तज्ज्ञापनार्थमिदमारभ्यते, अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, तत्र च भाष्यगाथा:-"तस्स अणुओगदारा चत्तारि उपक्कमे य निक्खेवे । अणुगम नएय तहा उवकमो छविहो तत्थ ॥१॥ नाम ठवणादविए खेत्ते काले तहेव ४ भावे य । एसो सत्थोवकमो बन्नेयवो जहकमसो॥२॥ अहवऽणुपुषीणामप्पमाणवत्तषया य बोद्धबा । अत्यहिगारे । तत्तो छठे य तहा समायारो ॥३॥ सचे जहकमेणं वन्नेऊणं इमो समोयारो। अणुपुछीए उ तहिं उकित्तणपुषी ओतरह ॥४॥ सा इह पुषाणुपुरी पच्छणुपुषी तहा अणणुपुबी । पुषणपुषी छत्तीसइयं इमं पच्छ पुण पढमे ॥५॥|| १ तस्य अनुयोगद्वाराणि चत्वारि उपक्रमश्च निक्षेपः । अनुगमो नयश्व तथा उपक्रमः षडिधस्तत्र ॥ १॥ नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालः | ४ तथैव भावश्च । एष शास्त्रीयोपक्रमो वर्णयितव्यो यथाक्रमम् ॥ २॥ अधया आनुपूर्वी नाम प्रमाण वक्तव्यता च बोद्धव्या । अर्थाधिकारश्च | दततः षष्ठश्च तथा समवतारः ॥ ३ ॥ सर्वान यथाक्रमं वर्णयित्वा अयं समवतारः (कार्यः) । तत्र आनुपूयो सत्कीर्तनानुपूामवतरति | PI॥४॥ से पूर्वानुपूर्जी पश्चानुपूर्वी तथा अनानुपूर्वी । पूर्वानुपूळ पत्रिंशत्तम इदं पाश्चानुपूर्त्या पुनः प्रथमम् ॥ ५॥ *-* दीप अनुक्रम [१४४५ *- * -१४६४] * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ३६ "जीवाजीवविभक्ति" आरभ्यते ~ 1335~ Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] दीप अनुक्रम [१४४५-१४६४] उत्तराध्य. बृहद्वृतिः ७६६९॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||२१...|| निर्युक्ति: [५४८...], अध्ययनं [ ३६ ], जणुपुवीर व बगाएगुत्तराद सेढीए। छत्तीसगण्डगाए गुणिवा अन्नोन्नदुरवूणा ॥ ६ ॥ णामे छषिणामे तत्थवि नावे खजोक्स मियम्मि । जम्हा बहर भावे सङ्घसुयं खओषसमियंमि ॥ ७ ॥ ओयरति पमाणे पुण भावपमाणंमि तंपि तिविहं तु । गुणणयसंखषमाणं ओयरति गुणपमार्णमि ॥ ८ ॥ तत्थवि णाणे तहियंपि आगम लोउत्तरे अणंगे थे। कालियसुर व तत्तो अहवाची आगमतियंमि ॥ ९ ॥ अचअणंतरपारंपरे य उभयंमि तं समोयरई ण ण समोवरई समोवर उ संखपरिमाणे ॥ १० ॥ तत्यवि य कालिवयुए अक्खरपायाइएस जोवरइ । वित्तवय भोसण्णं ससमयवत्तच जोयरति ॥ ११ ॥ अत्यधिगारो इत्थं जीवाजीवेहिं होइ णायवो। एमेव समोयरई जं जत्थ समोवरह दारे ॥ १२ ॥ निक्खेवावसरो पुण अह अणुपतो व तत्थ निक्लेवे। णिक्खेवो णासोति य Education intimation १ अनानुपूर्व्या त्वेकायेकोतरायां श्रेण्याम् । षट्शिद्गच्छगतायां गुणिता अन्योन्यं द्विरूपोनाः ॥ ६ ॥ नाम्नि षडिधे नानि तत्रापि भावे | क्षायोपशमिके । यस्मात् वर्त्तते भावे सर्व श्रुतं क्षायोपशमिके ॥ ७ ॥ अवतरति प्रमाणे पुनर्भावप्रमाणे तदपि त्रिविधं तु । गुणनयसङ्ख्याप्रमाणानि अवतरति गुणप्रमाणे ॥ ८ ॥ तत्रापि ज्ञाने तत्रापि आगमे अवतरति लोकोत्तरे अनने च । कालिकभूते च तत्राथवापि आगमत्रिके ॥ ९ ॥ आत्मानन्तरपरम्परेषु चोभयस्मिन्नपि तत्समवतरति । न नयेषु समवतरति समवतरति तु संख्यापरिमाणे ॥ १० ॥ तत्रापि च कालिकश्रुते अक्षरपादादिकेष्ववतरति । वक्तव्यतायां प्रायशः स्वसमयवक्तव्यतायामवतरति ॥ ११ ॥ अर्थाधिकारोऽत्र जीवाजीवाभ्यां भवति ज्ञातव्यः । एवमेव समवतरति यद्यत्र समवतरति द्वारे ॥ १२ ॥ निक्षेपावसरः पुनरवानुप्राप्ता तत्र निक्षेपे । निक्षेपो न्यास इति च भाष्यं [१-१५] For Fans Only ~1336~ जीवाजीव विभक्ति ० ३६ ||६६९॥ wrp मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२१...|| नियुक्ति: [१४९-५५६], भाष्यं [१-१५] (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] kic--45 उवणत्ति व होति एगट्ठा ॥१३॥ सो तिह ओहे णामे सोत्तालावे य होइ बोद्धव्यो । तत्योहो अविसेसो अज्झयणस्सपि य सो चउहा ॥ १४ ॥ वण्णेउ जहा विहिणा तयणंतरमित्थ णामणिप्फण्णो। तत्थ य नामं अस्स उ जीवा-2 जीवाण य विभत्ती ॥ १५॥” अत्र च जीवाजीवविभक्तिरिति पदत्रयं वर्त्तत इत्येतन्निक्षेपायाह नियुक्तिकृत्|निक्खेवो जीवंमि अ चउबिहो दुविह होइ नायवो। ॥५४९ ॥ जाणगभवियसरीरे तबइरित्ते अ जीववं तु । भावमि दसविहो खलु परिणामो जीवदव्वस्स ॥५५०॥ निक्लेवो अ(5)जीवंमि चउविहो दुविह होइ नायबो। जाणगभवियसरीरे तबइरित्ते अजीवदत्वं तु । भावंमि दसविहो खलु परिणामो अ(s)जीवदवस्स ५५२/3/ निक्खेवा विभत्तीए चउबिहो दुविह होइ दवमि। ॥५५३ ॥ जाणगभवियसरीरा तत्वइरित्ता य से भवे दुविहा । जीवाणमजीवाण य जीवविभत्ती तहिं दुविहा ५५४ १ स्थापनेति च भवन्त्येकार्थाः ॥ १३ ॥ स विधा ओषः नाम सूत्रालापकश्च भवति बोद्धन्यः । तत्रौघोऽविशेषः अध्ययनस्यापि च स चतुर्धा ॥ १४ ॥ वर्णयित्वा यथाविधि तदनन्तरमत्र नामनिष्पन्नः । तत्र च नामास्य तु जीवाजीवानां च विभक्तिः ॥ १५॥ दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] Swajanioraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1337~ Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-२१] दीप अनुक्रम [१४४५ -१४६४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ३६ ], मूलं [-] / गाथा ||२१...|| निर्युक्ति: [५४९-५५६], उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६७० ॥ सिद्धाणमसिद्धाण य अजीवाणं तु होइ दुविहा उ । रूवीणमरूवीण य विभासिया जहा सुत्ते ॥५५५॥ | भावंमि विभत्ती खल्लु नायवा छविहंमि भावंमि । अहिगारो इत्थं पुण दवविभत्तीइ अज्झयणे ॥५५६॥ निक्खेवेत्यादि गाथा अष्ट व्याख्यातप्राया एव, नवरं तद्व्यतिरिक्तश्च 'जीवद्रव्यं' द्रव्यजीव उच्यत इति प्रक्रमः 'तुः ' विशेषद्योतकः, स चायं विशेष: यथा न कदाचित्तत्पर्यायवियुक्तं द्रव्यं तथाऽपि च यदा तद्वियुक्ततया विवक्ष्यते तदा तद्द्रव्यप्राधान्यतो द्रव्यजीवः, भावे तु दशविधः 'खलुः' अवधारणे दशविध एव परिणामः कर्मक्षयोपशमोदयापेक्षपरिणतिरूपो जीवद्रव्यस्य सम्बन्धी जीवादनन्यत्वेन जीवतया विवक्षितो जीव इति प्रक्रमः, तत्र च क्षायोपशमिकाः षट् पञ्चेन्द्रियाणि षष्ठं मनः औदयिकाः क्रोधादयश्चत्वारो मीलिता दश भवन्ति । एवमजीवनिक्षेपेऽपि यदा पुद्गलद्रव्यमजीवरूपं सकलगुणपर्यायविकलतया कल्प्यते तदा तव्यतिरिक्तो द्रव्याजीवः, भावे चाजीवद्रव्यस्यपुद्गलस्य दशविधः परिणामोऽजीव इति प्रक्रमः, स च शब्दादयः पञ्च शुभाशुभतया भेदेन विवक्षिताः, तथा च सम्प्र| दायः - शब्द स्पर्शरस रूपगन्धाः शुभाश्वाशुभाचे 'ति । तथा विभक्तिनिक्षेपे सति विभक्तिर्भवेत् 'द्विविधा' द्विप्रकारा, ३ ॥ ६७० ॥ | द्वैविध्यं चास्याः सम्बन्धिभेदादेवेति तमाह-जीवानामजीवानां च कोऽर्थः ? - जीवविभक्तिः - जीवानां विभागेनावस्थापनम्, एवमजीवविभक्तिश्व, उत्तरत्राप्येवमेव सम्बन्धिभेदाद्भेदो व्याख्येयः, 'तहिं'ति वचनव्यत्ययात् 'तयोः' Education intimation भाष्यं [१-१५] For Fans Only wwwjanbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः ~1338~ जीवाजीव विभक्ति० ३६ Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [--1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [५४९-५५६], भाष्यं [१-१५] (४३) प्रत सूत्रांक जीवाजीवविभक्त्योर्मध्ये द्विविधा सिद्धानामसिद्धानां च, 'अज्जीवाणं तुति 'तुः' अपिशब्दार्थस्ततोऽजीवानामपि भवति 'दुविहा उत्ति, 'तुः' अवधारणे ततो द्विविधैव रूपिणामरूपिणां च 'विभाषितव्या' विशेषेण व्यक्तं वक्तव्या यथा 'सूत्रे' प्रक्रान्ताध्ययनरूपे, इह तु प्रक्रमायाताऽपि पौनरुत्यप्रासेरसौ न प्रतिपाद्यत इति भावः, 'भावे' भावहै निक्षेपे विभक्तिः 'खलु' निश्चितं ज्ञातव्या 'पडिधे भावे' षट्नकारीदयिकादिभावविषया, आह-एवमनेकविधायां । विभक्काविह कयाऽधिकारः १, उच्यते, 'अधिकारः' अधिकृतम् 'अत्रेति प्रस्तुते पुनःशब्दो वाक्यान्तरोपन्यासे 8 'द्रव्य विभक्त्या' जीवाजीवद्रव्यविभागावस्थापनरूपया, तस्या एवात्र प्रदर्श्यमानत्वादिति भाव इति नियुक्तिगाथाFऽएकापयवार्थः । इत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम् जीवाजीवविभर्ति मे, सुहेगमणा इओ। जाणिऊण भिक्खू, सम्म जयइ संजमे ॥१॥ जीवाश्च-उपयोगलक्षणा अजीवाश्च-तद्विपरीता जीवाजीवास्तेषां विभजनं विभक्तिः तत्तद्देदादिदर्शनतोऽपि । विभागेनावस्थापनं जीवाजीवविभक्तिस्तां 'मे' मम कथयत इति गम्यते 'शृणुत' आकर्णयत शिष्या इति शेषः, पठन्ति दीच 'सुणेह मित्ति, कथम्भूताः सन्त ?-एक-दर्शनान्तरोक्तजीवाजीवविभक्तावगतत्वेन मनः-चित्तं येषां ते एक मनसः, इहैव श्रद्धानवन्त इत्युक्तं भवति, 'इतः' इत्यस्मादनन्तराध्ययनादेतद्विषयात् श्रवणाद्वाऽनन्तरं यां जीवा-| जीवविभक्तिं ज्ञात्वा 'भिक्षुः' अनगारः पाठान्तरतः श्रमणो वा सम्यगिति-प्रशंसाओं निपातः, ततश्च सम्यक् दीप अनुक्रम [१४६५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1339~ Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) बत्तिः प्रत सुत्राक राध्या प्रशस्तं यथा भवत्येवं 'यतते' यनषान् भवति, क-संयमे-उक्तरूपसंयमविषय इति सूत्रार्थः ॥ आह-जीवाजी-15जीवाजीव विभक्तिज्ञानमिव लोकालोकविभक्तिज्ञानमपि संयमयतनायां विषयतयोपयुज्यत एवेत्याह जीचा चेव अजीचा य, एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए ॥२॥ ॥७ ॥ 'जीयाथैवाजीवाश्च वक्ष्यमाणाः, कोऽर्थः?-जीवाजीवरूपः 'एष'इति प्रतिप्राणि प्रत्यक्षः प्रतीतो लोको विशे-IAL षेणाख्यातः-कथितो व्याख्यातस्तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते, जीवाजीवानामेव यथायोगमाधाराधेयतया व्यवस्थितानां लोकत्वाद्, 'अजीच'त्ति, अनेनाजीवसमुदाय उपलक्ष्यते, स च धर्माधर्माकाशपुगलात्मकस्तस्य देश इत्र-1 शोऽजीवदेश आकाशमलोकः स व्याख्यातो,-'धर्मादीनां वृत्तिर्द्रयाणां भवति यत्र तत्क्षेत्रम् । तैव्यैः सह लोक-II स्तद्विपरीत बलोकाख्यम् ॥ १॥" इति भावार्थः ॥ इह च जीवाजीवानां विभक्तिः प्ररूपणाद्वारेणैवेति तां विधिसुर्यथाऽसौ भवति तथाऽऽह दब्बओ खित्तओ चेव, कालओ भावओ तहा । परूवणा तेसि भवे, जीवाणमजीवाण य ॥३॥ 'द्रव्यतः' द्रव्यमाश्रित्य इदमियझेदं द्रव्यमिति, क्षेत्रतश्चैव' इदमियति क्षेत्र इति, 'कालतः' इदमेवंविधकालस्थितीति, 'भावतः' इमेऽस्य पर्याया इति 'तथे ति समुच्चये 'प्ररूपणा' यथाखं भेदायभिधानद्वारेण स्वरूपोपदर्शनं दीप अनुक्रम [१४६५]] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1340~ Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत |'तेषाम्' इति विभजनीयत्वेन प्रक्रान्तानां भवेत्' स्याज्जीवानामजीवानां चेति सूत्रार्थः ॥ तत्र खल्पवक्तव्यत्वाइव्यतोऽजीवप्ररूपणामाह| रूषिणो चेवरूवी य, अजीवा दुविहा भवे । अरूषी दसहा वुत्ता, रूविणोऽवि चउब्विहा ॥ ४॥ धम्मथिकाए तसे, तप्पएसे य आहिए । अधम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए ॥५॥आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए । अद्धासमए चेव, अरूवी दसहा भवे ॥६॥ रूपस्पर्शायाश्रया मूर्तिस्तदेषामेषु वाऽस्तीति रूपिणः 'चः' समुच्चये 'एवेति पुरणे 'रूवी यत्ति अकारप्रश्लेषात्माग्वभादचनव्यत्ययाद्वाऽरूपिणश्च, नैषामुक्तरूपं रूपमस्तीतिकृत्वा, अजीवाः 'द्विविधाः उक्तभेदतो द्विविधाः 'भयेति भवेयुः, तत्रापि 'अरूविति अरूपिणः 'दशधा' दशप्रकाराः 'उक्ताः' प्रतिपादितास्तीर्थकृदादिभिरिति शेषः, पश्चानिर्दि-12 टत्वेऽपि चोक्तन्यायतोऽनन्तरत्वाद्वाऽमीषां प्रथमत उपादानं, रूपिणः 'अपि' पुनरर्थस्ततश्च रूपिणः पुनः 'चतु-४ विधाः' चतुष्प्रकारा उभयत्राजीवा इति प्रक्रमः । तत्रारूपिणो दशविधानाह-धारयति गतिपरिणतजीवपुद्गलास्तत्वभाव इति धर्मः अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां चीयत इति कायः-सङ्घातोऽस्तिकायस्ततो धर्मश्चासावस्तिकायश्च । धर्मास्तिकायः-सकलदेशप्रदेशानुगतसमानपरिणतिमद्विशिष्टं द्रन्यं, तस्व-धर्मास्तिकायस्य दिश्यते-प्रदेशापेक्षया समानपरिणतरूपत्वेऽपि देशापेक्षायां असमानपरिणतिमाश्रित्य विशिष्टरूपतया विवक्ष्यते-उपदिश्यत इति | दीप अनुक्रम [१४६७] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1341~ Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||४-६|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [४-६] उत्तराध्यादेश:-त्रिभागचतुर्भागादिस्तद्देशः, तथा तस्येति-धर्मास्तिकायस्यैव प्रकर्षणान्त्यत्वात्प्रदेशान्तराभावतः कचिदप्यनुग-जीवाजीव बृहद्वृत्तिः तरूपाभावलक्षणेन दिश्यते-प्राग्वदुपदिश्यत इति प्रदेशो-निरंशो भागस्तत्प्रदेशः 'आख्यातः' कथितः, न धारय-R विभक्ति. है|ति-गतिपरिणतावपि जीवपुद्गलास्तत्वभावतया नावस्थापयति स्थित्युपष्टम्भकत्वात्तस्येत्यधर्मः पदेऽपि पदैकदेशदर्श॥६७२॥ नादधर्मास्तिकायः 'तस्य' इत्यधर्मास्तिकायस्य 'देशश्च' उक्तरूपः 'तत्प्रदेशश्च तथाविध एवाख्यातः, तथा आङिति । मयोदया-खखभावापरित्यागरूपया काशन्ते-खरूपेणैव प्रतिभासन्ते तस्मिन् पदार्था इत्याकाशं, यदा त्वभिविधावाङ् तदा आङिति-सर्वभावाभिव्याया काशत इत्याकाशं तदेवास्तिकाय आकाशास्तिकायस्तस्य देशस्तत्प्रदेशश्च प्राग्वत् 'आख्यातः' कथितः, तथाऽद्धा-कालतद्रूपः समयोऽद्धासमयो निर्विभागत्वाचास न देशप्रदेशसम्भवः, आवलिकादयस्तु पूर्वसमयनिरोधेनवोत्तरसमयसद्भाव इति तत्त्वतः समुदयसमित्याद्यसम्भवेन व्यवहारार्थमेव कल्पिता इतीह नोक्ताः, उपसंहारमाह-अरूपिणः 'दशविधा' इति दशप्रकारा भवेयुः पूर्वत्रिकत्रये एकस्यास्य प्रक्षेपात्, एषां च यथाक्रम गतिस्थित्यवगाहोपष्टम्भकत्वं वर्तना च लक्षणमवगन्तव्यं, तथा चाऽऽससेना-"जीवानां पुद्गलानां च, ग-14] तिस्थित्युपकारिणौ । धर्माधर्मों स्थितौ व्योम, त्वबगाहनलक्षणम् ॥१॥ कालस्तु वर्तनालिङ्गः" इत्यादीति सूत्रत्रयार्थः॥ सम्प्रत्येतानेव क्षेत्रत आह धम्माधम्मे य दोऽवेए, लोगमिसा वियाहिया। लोगालोगे य आगासे, समए समयखित्तिए ॥७॥ दीप अनुक्रम [१४६८-१४७०] NEURIE wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1342~ Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/गाथा ||७|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) CAX-' % प्रत * 'धर्माधौं' धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायो 'चः' पूरणे द्वावप्येतो 'लोकमात्रौ' लोकपरिमाणी व्याख्याती, ननु । धर्माधर्मावित्युक्ते द्वाविति गतार्थमेव द्वित्वसङ्ख्याया द्विवचनेनैवाभिधानात् , सत्यं, किन्तु गतार्थानामपि रश्यते है एव लोके प्रयोगः, तथा चाह जिनेन्द्रबुद्धि:-"यदि गतार्थानामप्रयोग एव स्यात् पचति देवदत्त इत्यत्र पचतीत्येतद् ततिडेबैकत्वस्योक्तत्वादू देवदत्त इति सुप एकवचनस्याप्राप्तिरेव स्यादिति, लोकमानत्वं चानयोरेतदवष्टब्धाकाशस्लेव | लोकत्वात् , अलोकव्यापित्वे त्वनयो जीवपुद्गलयोरपि तत्र प्रचारप्रसङ्गेन तस्यापि लोकवावाः, उक्तं च-"धर्मा&धर्मविभुत्वात्सर्वत्र जीवपुद्गलविचारात् । नो लोकः कश्चित्स्यान्न च संमतमेतदार्याणाम् ॥ १॥" तथा चैती लोक एव नालोक इत्यर्थादुक्कं भवति, तथा 'लोगालोगे य आगासे'त्ति लोकेऽलोके चाऽऽकाशं, सर्वगतत्वात्तस्य, 'समयः' इत्यद्धासमयः समयोपलक्षितं क्षेत्रं समयक्षेत्रम्-अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रास्त द्विषयभूतमस्थास्तीति समयक्षेत्रिकः, तत्परतस्तस्थासम्भवात्, समयमूलत्वादावलिकादिकल्पनायाः तेऽप्येतावत्क्षेत्रवर्त्तिन एव, तथा चोक्तम्-"समयाव|लिकापक्षमासर्वयनसम्जित्ताः । नृलोक एव कालस्य, वृत्तिर्नान्यत्र कुत्रचित् ॥ १॥” इति सूत्रार्थः ॥ एतानेव कालत आह धम्माधम्मागासा, तिन्निवि एए अणाइया । अपनवसिया चेब, सब्बद्धं तु वियाहिया ॥८॥ समएवि संतई पप्प, एवमेव वियाहिए । आएसं पप्प साईए, सपजवसिएवि य ॥९॥ दीप अनुक्रम [१४७१] 444-45-%AE- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1343~ Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [८-९] दीप अनुक्रम [१४७२ -१४७३] उत्तराध्य. बृहदुतिः ॥६७३ ॥ %% “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||८-९|| निर्युक्ति: [५५६...], अध्ययनं [ ३६ ], Education infamational arraferari च धर्माधर्माकाशानि त्रीण्यप्येतानि न विद्यते आदिरेषामित्यनादिकानि इत्यतः कालात्प्रभृत्यमूनि प्रवृत्तानीत्यसम्भवात्, न पर्यवसितान्यपर्यवसितान्यनन्तानीतियावत्, न हि कुतश्चित्कालात्परत एतानि न भविष्यन्तीति सम्भवः, चैवौ प्राग्वत्, तथा च 'सर्वाद्वा' सर्वकालं कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, 'तुः' अवधारणेऽतः सर्वदा खखरूपापरित्यागतो नित्यानीतियाबद् 'व्याख्यातानि ' कथितानि, सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत्, समयोऽपि 'सन्ततिम्' अपरापरोत्पत्तिरूपप्रवाहात्मिकां प्राप्य' आश्रित्य 'एवमेव' अनाद्यपर्यवसितत्वलक्षणेनैव प्रकारेण 'व्याख्यातः' प्ररूपितः, पठन्ति च- 'एमेव संतई पप्प समएवित्ति स्पष्टम्, 'आदेश' विशेषं प्रतिनियतव्यक्तत्यात्मकं 'प्राप्य' अङ्गीकृत्य सादिकः सपर्यवसितः, 'अपिः' समुचये 'चः' पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च देशं पुनः प्राप्येति योज्यः, विशेषापेक्षया ह्यभूत्वाऽयं भवति भूत्वा च न भवतीति सादिनिधन उच्यत इति सूत्रद्वयार्थः । इत्थमजीवानामरूपिणां द्रव्यक्षेत्रकालेः प्ररूपणा कृता, सम्प्रति भावप्ररूपणावसरः, तत्र चामूर्त्तत्वेन नामीपां ['प्रन्थाग्रम्' १७००० ] पर्याया रूपिपर्याया इव वर्णादयः प्ररूप्यमाणा अपि संवित्तिमानेतुं शक्याः अनुमानतस्त्वितरथाऽपि द्रव्यस्य पर्यायविकलस्यासम्भवाद्गम्यन्त एवेति तत्प्ररूपणामनादृत्य द्रव्यतो रूपिणः प्ररूपयितुमाह संधाय खंदेसा य, तप्पएसा तहेव य । परमाणुणो अ बोद्धव्वा, रूविणो अचडव्विहा ॥ १० ॥ स्कन्दन्ति - शुष्यन्ति धीयन्ते च - पोप्यन्ते च पुद्गलानां विचटनेन चटनेन चेति स्कन्धाः 'चः' समुचये स्कन्धानां Forest Use Only भाष्यं [१५...] ~ 1344~ जीवाजीव विभक्ति० ३६ ॥६७३ ॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) % % प्रत % सुत्रांक [१०] %451-5- देशा-भागाः स्कन्धदेशाः चः प्राग्वत् , तेषां स्कन्धानां प्रदेशा-निरंशा भागास्तत्प्रदेशाः 'तथैव चेति समुचये परमाश तेऽणवश्च परमाणवः-निर्विभागद्रव्यरूपाः 'चः' समुच्चये 'बोद्धव्याः' अवगन्तव्या रूपिणः 'चः' पुनरर्थे ततो रूपिणः पुनः 'चतुर्विधाः' चतुष्प्रकाराः ॥ इह च देशप्रदेशानां स्कन्धेवेवान्तर्भावात् स्कन्धाः परमाणवश्रेति समासतो द्वावेव रूपिद्रव्यभेदी, तयोश्च किं लक्षणमित्याह-'एकत्वेन' समानपरिणतिरूपेण 'पृथक्त्वेन' परमाण्वन्तरैरसङ्घातरूपेण लक्ष्यन्त इति शेषः, के एवम् ? इत्याह-स्कन्धः चस्य भिन्नकमत्वात्परमाणयश्च, स्कन्धा हि संहतानेकपरमाणुरूपाः, परमाणवश्च परमाण्वन्तरैरसंहतिभाजः ॥ अथवा उक्तन्यायतो दैविध्ये कथममी स्कन्धाः परमाणवश्च जायन्ते ? इत्याह-'एगण' सूत्रार्द्धम् , एकत्वेन द्वयोश्च त्रयाणां यावदनन्तानामनन्तानन्तानां च पृथग्भूतपरमाणूना-17 मन्योऽन्यसङ्घाततो द्विप्रदेशिकत्वाद्यात्मकसमानपरिणतिरूपैकभावेन, तथा 'पृथक्त्वेन' बृहत्स्कन्धेभ्यो विचटनात्म केन भेदेन, तथा श्वेतो धावतीतिवदावृत्तिन्यायत एकत्वेन पृथक्त्वेन च, तत्रैकत्वेन कैश्चिदणुभिः संहन्यमानतयैकपघरिणतिरूपेण पृथक्त्वेन च तत्समय एव केषाश्चिदणूनां विचटनाझेदात्मकेन 'स्कन्धाः' द्विप्रदेशादय उत्पद्यन्त इति शेषः, चशब्दस्य प्राग्यत्सम्बन्धात्परमाणवश्च, एकत्वेनेति तृतीया, तत एकत्येन-असहायत्वेन लक्षितं यत्पृथक्त्वंस्कन्धेभ्यो विचटनात्मकं तेनोत्पद्यन्ते, एकत्वविशेषणं च यत्ससहायानां यणुकादीनां वास्तवं यचैकत्वपरिणतावपि देशादीनां बुद्धिपरिकल्पितं स्कन्धेभ्यः पृथक्त्वं न ततः परमाणव उत्पद्यन्त इत्याचष्टे, तथा चाहवाचकः-"संघाता -%AEXXX दीप अनुक्रम [१४७४] 8% A5% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1345~ Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||११|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) बृहद्वृत्तिः विभक्तिः ३६ प्रत सुत्रांक [११] % उत्तराध्य. भेदात् सङ्घातभेदादिति, एभ्यस्त्रिभ्यः कारणेभ्यः स्कन्धा उत्पद्यन्ते, तथा भेदादेव परमाणु"रिति (तत्त्वा० अ० सू०२६-२७ भाष्यम् )॥ एतानेव क्षेत्रत आह एगत्तेण पुहुत्तेणं, खंधा य परमाणु य । ॥६७४॥ लोएगदेसे लोए अ, भइअब्बा ते उ खित्तओ। एत्तो कालविभागं तु, तेसिं चुकलं चउब्विहं ॥११॥ लोकस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्यैकदेशः-एकद्यादिसङ्ख्यातासङ्ख्यातप्रदेशात्मकः प्रतिनियतो भागो लोकैकदेशस्तस्मिन् लोके च 'भक्तव्याः' भजनया दर्शनीयाः 'ते' इति स्कन्धाः परमाणपथ 'तुः' पूरणे क्षेत्रमाश्रित्य, अत्र चाविशेषोकावपि परमाणूनामेकप्रदेश एवावस्थानात्स्कन्धविषयैव भजना द्रष्टव्या, ते हि विचित्रत्वात्परिणतेबहुतरप्रदेशोपचिता! अपि केचिदेकप्रदेशे तिष्ठन्ति, यदुक्तम्-“एगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुण्णे सर्यपि माइजे" सादि, अन्ये तु सङ्खयेयेषु Aच प्रदेशेषु यावत्सकललोकेऽपि तथाविधाचित्तमहास्कन्धवद्भवेयुरिति भजनीया उच्यन्ते, 'अतः' इति क्षेत्रप्ररूपणा४|| तोऽनन्तरमिति गम्यते 'कालविभागं तु' कालभेदं पुनः 'तेषां स्कन्धादीनां वक्ष्ये 'चतुर्विध साधनादिसपर्यवसितापर्यवसितभेदेनानन्तरमेव वक्ष्यमाणेनेति सूत्रार्थः । इदं च सूत्रं षट्पादं गाथेत्युच्यते, तथा च तलक्षणं-"विषमाक्षरपादं वा पादैरसमं दशधर्मवत् । तत्रेऽस्मिन् यदसिद्ध गायेति तत्पण्डितै यम् ॥१॥” इति, अत्र च दश१ एकेनापि स पूर्णो द्वाभ्यामपि पूर्णः शतमपि मायात् दीप अनुक्रम [१४७५] Fokes- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1346~ Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||१२-१४|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) - धर्मवदित्यनेन, "दश धर्म न जानन्ति, धृतराष्ट्र ! नियोधत ॥ मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः, श्रान्तः द्धो बुभुक्षितः ॥ त्वरमाणच भीरुश्च, लुब्धः कामी च ते दश ॥१॥” इति गृात इति, प्रत्यन्तरेषु वन्तपादद्वयं न रयत एव ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह संतई पप्प तेऽणाई, अप्पज्जवसिआचि अ । ठिई पटुच्च साईआ, सप्पज्जवसिआवि अ ॥१२॥ असंखकालमुकोसं, इकं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं, ठिई एसा विआहिआ॥ १३ ॥ अणंतकालमुक्कोस, इक समयं जहषणयं । अजीवाण य रूबीणं, अंतरेयं विआहि ॥१४॥ 'सन्ततिम्' उक्तरूपां प्राप्य' आश्रित्य 'ते' इति स्कन्धाः परमाणवश्व 'अणाई'त्ति अनादयोऽपर्यवसिता अपि च, न हि ते कदाचित्प्रवाहतो न भूता न चा न भविष्यन्तीति, 'स्थिति' प्रतिनियतक्षेत्रावस्थानरूपा 'प्रतीत्य' अशीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च, तदपेक्षया हि प्रथमतस्तथाऽस्थित्वैवावतिष्ठन्ते अवस्थाय च न पुनर्न तिष्ठन्तीत्यभिप्रायः । सादिसपर्यवसितत्वेऽपि कियत्कालमेषामवस्थितिः' इत्याह-'असङ्ख्यकालम्' आगमप्रतीतमुत्कृष्टा, समयमेकं जघन्यका, अजीवानां रूपिणां पुद्गलानामिति योऽर्थः, स्थितिरेषा व्याख्याता, जघन्यत एकसमया उत्कृष्टतस्वसङ्ख्येयकालम् , असङ्खधेयकालात्परतोऽवश्यमेव विचटनात् । इत्थं कालद्वारमाश्रित्य स्थितिरुक्ता, सम्प्रत्येतदन्तर्गतमेवान्तरमाइ-'अनन्तकालं' समयप्रसिद्धमुत्कृष्टमेकं समयं जघन्य कमजीवानां रूपिणाम् 'अंतरेय'न्ति अन्तरं - - दीप अनुक्रम [१४७६-१४७८] Hinatandionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1347~ Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||१५-४६|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) - RE - - प्रत सूत्रांक [१५ -* -४६] उत्तराध्य. विवक्षितक्षेत्रावस्थितेः प्रच्युतानां पुनस्तत्मासेर्व्यवधानमेतद्-उक्तरूपं व्याख्यातं, तेषा हि विवक्षितक्षेत्रावस्थिति- जीवाजीव बृहद्वृत्तिः प्रच्युतानां कदाचित्समयावलिकादिसङ्ख्यातकालतोऽसंख्यातकालाद्वा पल्योपमादेर्यावदनन्तकालादपि सम्भवतीति विभक्तिः सूत्रत्रयार्थः ॥ एतानेद भावतो विधातुमाह॥६७५|| बन्नओ गंधओचेच, रसओ फासओ तहा। संठाणओ य विनेओ, परिणामो तेसि पंचहा ॥१५॥ वनओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया। किण्हा नीला य लोहिया, हालिद्दा सुकिला तहा ॥१६॥ गंधओ परिणया जे य, दुविहा ते वियाहिया। सुन्भिगंधपरिणामा, दुन्भिगंधा तहेव य॥१७॥ रसओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । नित्त कडुयकसाया, अंबिला महुरा तहा ॥१८॥ फासओ परिणया जे उ, अट्टहा ते पकित्तिया । कक्खडा मउया चेव, गुरुया लहया तहा ॥१९॥ सीया उपहा य निद्धा य, तहा। लुक्खा य आहिया । इति फासपरिणया एए, पुग्गला समुदाहिया ॥२०॥ संठाणपरिणया जे उ, पंचहा से पकित्तिया । परिमंडला य वहा य, तंसा च उरंसमायया ॥ २१॥ वपणओ जे भवे किण्हे, भइए से उ| १|| गंधओ। रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य॥२२॥ वपणओ जे भवे नीले, भइए से उ गंधओ। है रसओ फासओ चेच, भइए संठाणओविय ॥२३॥ वष्णओ लोहिए जे उ, भइए से उ गंधओ । रसओX साफासओ चेव, भइए संठाणओथि य॥ २४ ॥ वपणओ पीअए जे उ, भइए से उगंधओ। रसओ फासओ * -Rato - दीप अनुक्रम [१४७९-१५१०] - - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1348~ Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१५ -४६] दीप अनुक्रम [१४७९ -१५१०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १५-४६ || निर्युक्तिः [५५६...], अध्ययनं [ ३६ ], Education intimation वेब, भइए संठाणओवि अ ॥ २५ ॥ वण्णओ सुकिले जे छ, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चैव, भइए संठाणओवि अ ॥ २६ ॥ गंधओ जे भवे सुम्भी, भइए से उ वण्णओ । रसओ फासओ चेव, भहए ठाणओवि अ ॥ २७ ॥ गंधओ जे भवे दुम्भी, भइए से उ यण्णओ। रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओषि अ ॥ २८ ॥ रसओ तितओ जे उ, भइए से उ बन्नओ । गंधओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ॥ २९ ॥ रसओ कडुए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३० ॥ रसओ कसाए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३१ ॥ रसभ अंबिले जे उ, भइए से उ बण्णओ । गंधओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३२ ॥ रसओ महुरप जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ वेव, भइए संठाणओवि य ॥ ३३ ॥ फासओ कक्खडे जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३४ ॥ फासओ मउए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३५ ॥ फासओ गुरुए जे उ, भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेष, भइए संठाणओवि य ॥३६॥ फासओ लहुए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३७ ॥ फासओ सीअए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए संठाणओवि अ ॥ ३८ ॥ फासओ उपहए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चैव भइए | संठाणओवि अ ।। ३९ ।। फासओ निद्धए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए संठाण For Fans Only भाष्यं [१५...] ~1349~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१५-४६|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) उत्तराध्य. | जीवाजीव प्रत बृहद्भुतिः सूत्रांक ॥६७६॥ [१५ R -४६]] ओवि अ॥४०॥ फासओ लुक्खए जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए संठाणओवि अ॥४१॥ परिमंडलसंठाणे, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव, भइए फासओ वि य॥४२॥ संठा-18 णओ भवे वट्टे, भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेव, भइए फासओषि अ॥ ४३ ।। संठाणओ भवे विभकि० तसे, भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेव, भइए फासओचि अ॥४४॥ संठाणओ य चउरसे, भइए || से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेव, भइए फासओवि अ ।। ४५ ॥ जे आययसंठाणे, भइए से उ वनओ। टू गंधओ रसओ चेव, भइए फासओवि य ॥४६ ॥ | वर्णतो गन्धतश्चैव रसतः स्पर्शतस्तथा संस्थानतच, अयमर्थः-वर्णादीन्पश्चाश्रित्य 'विज्ञेयः ज्ञातन्यः 'परिणामः खरूपावस्थितानामेव वर्णाद्यन्यथाऽन्यथाभवनरूपः 'तेषाम्' इति परमाणूनां स्कन्धानां च पञ्चधा' पञ्चप्रकाराः, भेदहेतोवर्णाद्युपधेः पञ्चविधत्वादिति भावः । प्रत्येकमेषामेवोत्तरभेदानाह-वर्णतः परिणताः' वर्णपरिणाममाज इत्यर्थः 'ये अण्वादयः 'तुः पूरणे पञ्चधा ते 'प्रकीर्तिताः' प्रकर्षेण सन्देहापनेतृत्वलक्षणेन संशब्दिताः, तानेवाह-कृष्णाः कजलादिवत् नीला नील्यादिवत् लोहिता हिङ्गुलुकादिवत् हारिद्राः हरिद्रादिवत् शुक्लाः शङ्खादिवत् 'तथे ति समुच्चये। An६७६॥ गन्धतो' इत्यादीनि स्पष्टान्येव नवरं 'सुम्भि' (गन्ध)त्ति सुरभिगन्धो यस्मिन् स तथाविधः परिणामो येषां तेऽमी सुरभिगन्धपरिणामाः श्रीखण्डादिवत, 'दुन्भि'ति दुरभिर्गन्धो येषां ते दुरभिगन्धा लशुनादिवत्, तिकाच कोसात दीप अनुक्रम [१४७९-१५१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1350~ Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||१५-४६|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत CCCCCCCCC सूत्रांक [१५ -४६] क्यादिवत् कटुकाश्च सुण्ठ्यादिवत् कपायाच अपककपित्थादिवत्तिक्तकटुकषायाः आम्लाः आम्लवेतसादिवत् मधुराः शर्करादिवत् ककेंशाः पाषाणादिवत् मृदवः हंसरूतादिवत् गुरवः हीरकादिवत् लघवः अतूलादिवत । शीताः मृणालादिवत् उष्णाः वयादिवत् स्निग्धाः घृतादिवत् रूक्षाः भूत्यादिवत्, उपसंहारमाह-'इती यमुना प्रकारेण स्पर्शपरिणताः 'एते' स्कन्धादयः पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः 'समुदाहृताः' सम्यक्प्रतिपादितास्तीर्थकृदादिभिः । संतिष्ठन्त एभिः स्कन्धादय इति संस्थानानि तद्रूपेण परिणताः परिमण्डलादयः प्राग्ययावर्णितखरूपा एव ७ । सम्प्रत्येषामेव परस्परसंवेधमाह-वर्णतः 'या' स्कन्धादिर्भवेत्कृष्णः 'भइए'त्ति भाज्यः 'से उति स पुनः है'गन्धतः' गन्धमाश्रित्य सुरभिगन्धी दुर्गन्धो वा स्यात् न तु नियतगन्ध एवेति भावः, एवं रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च, अन्यतररसादियोग्य एवासौ भवेदिति हृदयम्, अत्र च गन्धौ द्वौ रसाः पञ्च स्पर्शा अष्टौ संस्थानानि पञ्च, एते च मीलिता विंशतिरित्येक एव कृष्णवर्ण एतावतो भङ्गान् लभते २०, एवं नीलोऽपि २०, लोहितोऽपि २०, पीतक इति-हारिद्रः सोऽपि २०, 'सुकिलत्ति शुक्लोऽप्येतावत एव भन्नान् लभत इति २०, एवं पञ्चभिरपि वर्णैर्लब्धं शतम् १०० । गन्धतो यः स्कन्धादिर्भवेत् 'सुम्भित्ति सुरमिर्भाज्यः स तु वर्णतोन्यतरकृष्णादिवर्णवान् स्यादितिभावः, एवं रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च, इह च रसादयोऽष्टादश ते च पञ्चभिर्वर्गौलितैनयोविंशतिर्भवन्ति २३, एवं च दुर्गन्धविषया अध्येतावन्त एवं २३, ततश्च गन्धद्वयन दीप अनुक्रम [१४७९-१५१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1351~ Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१५-४६|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक बृहदृत्तिः ॥६७७॥ ३६ [१५ -४६] लब्धा भङ्गानां षट्चत्वारिंशत् ४६ । १४ । रसतस्तिक्तको यस्तु स्कन्धादिर्भाज्यः स तु वर्णतो गन्धतः स्पर्शतश्चैव जीवाजीव भाज्यः संस्थानतोऽपि च, इह चोक्तन्यायतो विंशतिर्भङ्गास्तिक्तेनावाप्यन्ते २०, एवं कटुकेन २० कषायेण २० विभक्तिः आम्लेन २० मधुरेण २० चैतापन्त एवावाप्यन्ते, एवं च रसपञ्चकसंयोगे लब्धं शतम् १०० स्पर्शतः कर्कशो यस्तु स्कन्धादिर्भाज्यः स तु वर्णतो गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च, इह चोक्तन्यायतो वर्णादयः सप्तदशेति तधोगतस्तावत एव भङ्गानवाप्नोति १७। एवं मृदुः१७ गुरुः १७ लघुः१७ स्निग्धः १७ रूक्षः १७ शीत १७ उष्णश्च द|१७ एतावत एव भज्ञानवामोति, एतन्मीलने च जातं पत्रिंशं शतम् १३६। १७ । परिमण्डलसंस्थाने यो वर्तत इति शेषः, भाज्यः स तु सामान्यप्रक्रमेऽपि स्कन्धः, परमाणूनां संस्थानासम्भवात. वर्णतो गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः । स्पर्शतोऽपि च, अत्र च वर्णादय उक्तनीत्या विंशतिस्ततस्तद्योगात्परिमण्डलेन विंशतिरेव भङ्गा लभ्यन्ते २०, एवं वृत्तेन २० व्यस्रण २० चतुरस्रेण २० आयतेन च २० प्रत्येकमेतावन्त एव भङ्गाः प्राप्यन्त इति संस्थानपञ्चकभङ्गसंयोगे लब्धं शतम् १००, एवं वर्णरसगन्धस्पर्शसंस्थानानां सकलभङ्गसङ्कलनातो जातानि बशीत्यधिकानि चत्वारि शतानि, अङ्कतोऽपि ४८२, सर्वत्र च जातावेकवचनं । ३२ । परिस्थूरन्यायतश्चैतदुच्यते, अन्यथा प्रत्येकमप्येषां तारतम्यतोऽनन्तत्वादनन्ता एव भङ्गा संभवन्ति, इत्थं चैतत्परिणामवैचित्र्यं केवलागमप्रमाणावसेयमेवेति न खमतिकल्पितहेतुभिश्चित्तमाकुलीकर्त्तव्यमिति द्वात्रिंशत्सूत्राषयवार्थः ॥ सम्प्रत्युपसंहारद्वारेणोत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह दीप अनुक्रम [१४७९-१५१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1352~ Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||४७|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सुत्रांक [४७] COMMAA एसा अजीवविभत्ती, समासेण वियाहिया । इत्तो जीवविभर्ति, बुच्छामि अणुपुब्बसो ॥४७॥ 'एषा' अनन्तरोक्ताऽजीवविभक्तिर्व्याख्याताऽनन्तरं जीवविभक्तिं वक्ष्यामि 'अणुपुब्बसो'त्ति आनुपूयेति सूत्रा-14 र्थः॥ यथाप्रतिज्ञातमाह संसारस्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया। सिद्धा णेगविहा बुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥४८॥ संसरन्युपलक्षणत्वादवतिष्ठन्ते च जन्तवोऽस्मिन्निति संसारो-गतिचतुष्टयात्मकस्तत्र तिष्ठन्तीति संसारस्थाःनरकादिगतिवर्तिनस्ते च सिद्धाश्च प्रागुक्तव्युत्पत्तयः, 'द्विविधाः' उपदर्शितभेदतो द्विभेदा जीवा व्याख्याताः, तत्र सिद्धाः 'अनेकविधाः' अनेकप्रकारा उक्तास्तमिति सूत्रत्वात्तान, पठन्ति च-दुविहा जीवा भवन्ति तत्थाणेहै गविहा सिद्धा तेत्ति, 'मे' मम कीर्तयतः 'सुण'त्ति शृणुत, अल्पवक्तव्यत्वाथ पश्चानिर्देशेऽपि प्रथमतः सिद्धभेदाभिजधानप्रतिज्ञानमदुष्टमिति सूत्रार्थः ॥ अनेकविधत्वमेवैपामुपाधिभेदत आह इत्थीपुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥४९॥ उकोसोगाहणाए य, जहन्नमज्झिमाइ य । उहूं अहे य तिरियं च, समुदंमि जलंमि य ॥५०॥ 'इत्थीपुरिससिद्ध'त्ति सिद्धशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते ततः स्त्रियश्च ते पूर्वपर्यायापेक्षया सिद्धाश्च स्त्रीसिद्धा एवं दीप अनुक्रम [१५११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1353~ Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत विभक्ति. सूत्रांक [४९ उत्तराध्य. पुरुषसिद्धाश्च, तथैव च 'नपुंसगति, इहोत्तरत्र च प्रक्रमेण सिद्धशब्दयोगानपुंसकसिद्धाः खलिझसिद्धाः खलिङ्गं च जीवाजीव मुक्तिपथप्रस्थितानां भावतोऽनगारत्वादनगारलिङ्गमेव रजोहरणमुखवस्त्रिकादिरूपम्, अन्यद्-एतदपेक्षया भिन्नं । बृहद्वृत्तिः तञ्च तलिङ्गं चान्यलिङ्गं तस्मिंश्च शाक्यादिसम्बन्धिनि सिद्धाः, 'गृहिलिङ्गे' गृहस्थवेषे सिद्धा मरुदेवीखामिनीवत् , ॥६७८॥ तथैवे' त्युक्तसमुचये चकारस्तु तीर्थातीर्थसिद्धाद्यनुक्तभेदसंसूचकः, इह च ये स्त्रीनिर्वाणं प्रति विप्रतिपद्यन्ते त एवं वाच्याः-इह खलु यस्य यत्रासम्भवो न तस्य तत्र कारणावैकल्यं, यथा सिद्धशिलायां शाल्यङ्करस्य, अस्ति च है तथाविधस्त्रीषु मुक्तेः कारणावैकल्यं, न चायमसिद्धो हेतुर्यतोऽस्सासिद्धत्व किं स्त्रीणां पुरुषेभ्योऽपकृष्यमाणत्वेनाहो खिन्निर्वाणस्थानाद्यप्रसिद्धत्येन निर्वाणसाधकप्रमाणाभावेन वा ?, तत्र यदि तावत् पुरुषेभ्योऽपकृष्यमाणत्वेन तदाश तत् किं सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयाभावेन विशिष्टसामर्थ्यासत्वेन पुरुषानभिवन्द्यत्वेन स्मारणायकर्तृत्वेनामहर्दिकत्वेन मायादिप्रकर्षवत्वेन बेति विकल्पाः, तत्र न तावत्सम्यग्दर्शनादिरनत्रयस्थाभावेन यतस्तस्थासौ किमविशिष्टस्य प्रकर्ष-14 *पर्यन्तप्राप्तस्य वा?, यद्यविशिष्टस्य तदा किमियं चारित्रस्थासम्भवेनोत ज्ञानदर्शनयोखयाणांवा, यदि चारित्रस्था-12 सम्भवेन तदा सोऽपि कि सचेलत्वेन स्त्रीत्वस्य चारित्रविरोधित्वेन मन्दत्वेन मन्दसत्त्वतया वा ?, यदि सचेलत्वेन तदा चेलस्यापि चारित्राभावहेतुत्वं परिभोगमात्रेण परिग्रहरूपत्वेन वा?, यदि परिभोगमात्रेण तदा तत्परिभोगोऽपि |॥६७८॥ तासां तत्परित्यागाशक्तत्वेन गुरूपदिष्टत्वेन वा, न तावत्वत्परित्यागाशक्तत्वेन यतः-"प्राणेभ्यो नापरं प्रियम्" SAXCISES -५०] दीप अनुक्रम [१५१३ -१५१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1354~ Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत 4 % सूत्रांक [४९-५०] % अथ च तानपि त्यजन्त्य एता दृश्यन्ते, अथ गुरूपदिष्टत्वेन तथा सति गुरूणामपि चारित्रोपकारित्वेन तासा तदु-। पदेशः अन्यथा वा, यदि चारित्रोपकारित्वेन किं न पुरुषाणामपि, अधावला एवैता बलादपि पुरुषैः परिभुज्यन्त इति तद्विना तासां चारित्रवाधासम्भवो न पुरुषाणामिति न तेषां तदुपदेशः, उक्तं च-"वस्त्रं विना न चरणं तासामित्सईतीच्यत । विनाऽपि पुंसामिति न्यवार्यते"ति, एवं सति न चेलाचारित्रामावस्तदुपकारित्वात्तस्य, दतथाहि-यद्यस्योपकारि न तत्तस्याभावहेतुः, यथा घटस्य मृत्पिण्डादि, उपकारि चोक्तनीत्या चारित्रस्य चेलम्, अथान्यथेति पक्षः, अयमपि न क्षमो, यतोऽसौ चेलस्य चारित्रं प्रत्यौदासीन्येन बाधकतया वा?, न चेदमस्मिन्नुभयमप्यस्ति, पुरुषाभिभवरक्षकत्वेन तस्य तासु तदुपकारितया अनन्तरमेवोक्तत्वात्, नापि चेलख परिग्रहरूपत्वेन 8/चारित्राभावहेतुत्वं, यतो मू?व परिग्रह इतीहैच परीपहाध्ययने निर्णीतं, यदि च चेलस्य परिप्रहरूपता तदा तथादिविधरोगोपसर्गादिषु पुरुषाणामपि चेलसम्भवे चारित्राभावेन मुक्त्यभावः स्यात्, उक्तं च-"अर्शीभगन्दरादिषु । रहीतचीरो यतिन मुच्येत । उपसर्गे का चीरे" इत्यादि, किञ्च-चेलस्य परिप्रहरूपत्वे-"आमे तालपलंबे भिन्ने अभिन्ने वा णो कप्पइ णिग्गंथीणं परिग्गदित्तए वा” इत्यादि निर्ग्रन्थ्या व्यपदेशवागमे न श्रूयेत, अतो न सचेदालत्वेन चारित्रासम्भवः, नापि स्त्रीत्वस्य चारित्रविरोधित्वेन यतो यदि स्त्रीत्वस्य चारित्रविरोधः स्यात्तदाऽविशेषेणैव तासां प्रजाजनं निषेध्येत, न तु विशेषेण, यथोच्यते-"गम्भिणी बालवच्छा य, पवावेउं न कप्पई"त्ति, नापि दीप अनुक्रम [१५१३ % -१५१४] JABERatinintamational Palanminary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1355~ Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) जीवाजीव विभक्तिः प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक [४९ -५०] उत्तराध्य. मन्दसत्त्वतया, यतः सत्त्वमिह व्रततपोधारणविषयमेपितव्यम् , अन्यस्यानुपयोगित्वात् , तथ ताखप्यनल्यं सुदुर्धर- शीलवतीपु संभवति, उक्तं च-"ब्राझीसुन्दराजीमतीचन्दनागणधराद्याः । अपि देवमनुजमहिता विख्याताः शीलसत्त्वाभ्याम् ॥१॥" अतो न चारित्रासम्भवेन विशिष्टरलत्रयस्याभावः, इत्थं च चारित्रसम्भवे सिद्ध एव ज्ञान॥६७९॥ दर्शनसम्भवः, तत्पूर्वकत्वात्तस्य, उक्तं हि-"पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्धः" इति, तदभावपक्षोऽपि नाश्रयणीयः, त्रयाभावपक्षस्त्वेवं त्रितयसिद्धावनवसर एव, दृश्यन्ते च सम्प्रत्यपि त्रितयमभ्यस्यन्त्यस्ताः, उक्तं च"जानीते जिनवचनं श्रद्धत्ते चरति चार्यिकाऽशबलम्" इति, अथ प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तस्याभावः, एवं तर्हि तस्याप्यभावः किं कारणाभावेन विरोधिसम्भवेन वा?, न तावत्कारणाभावेन, अविशिष्टरलत्रयाभ्यासस्यैव तन्निबन्धत्वेनागमेऽभिधानात् , तस्य च स्त्रीष्वनन्तरमेव समर्थितत्वात् , नापि विरोधिसम्भवेन, तस्यास्मादशामत्यन्तपरोक्षत्वेन केनचिद्विरोधानिर्णयादिति न रत्नत्रयाभावेन स्त्रीणां पुरुषेभ्योऽपकृष्यमाणत्वम् , अथ विशिष्टसामासत्त्वेन, इदमपि कथमिति वाच्यं ?, किं तावद् असप्तमनरकपृथ्वीगमनत्वेनाहोखिद्वादादिलब्धिरहितत्वेनाल्पश्रुतत्वेनानुपस्थाप्य तापाराञ्चितकशून्यत्वेन वा?, तत्र न तावदसप्तमनरकपृथ्वीगमनत्वेन, यतोऽत्र किं सप्तमनरकपृथ्वीगमनाभायो यत्रैव साजन्मनि तासां मुक्तिगामित्वं तत्रैवोच्येत सामान्येन वा ?, तत्र यद्यायो विकल्पस्तदा पुरुषाणामपि यत्र जन्मनि | मुक्तिगामिता न तत्रैव सप्तमपृथ्वीगमनमिति तेषामपि मुक्त्यभायप्रसङ्गः, अथ सामान्येन, अत्र चायमाशयो-यथा 众久久久久登织女 दीप अनुक्रम [१५१३ ॥६७९॥ -१५१४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1356~ Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) * प्रत * सूत्रांक %* [४९ x -५०] "छडिंच इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमी पुढवीं" इत्यागमय चनात्पुरुषाणामेव सप्तमनरकपृथ्वीगमनयोग्यकर्मोपार्जनसामर्थ्यं न स्त्रीणामित्यधोगतौ पुरुषतुल्यसामर्थ्याभावादूर्ध्वगतावपि तासां तदभावोऽनुमीयते ततस्तासां पुरुषेभ्योऽपकृष्यमाणतेति, तदप्ययुक्तं, यतो येषामधोगती तुल्यसामर्थ्याभावस्तेषामूर्ध्वगतावप्यनेन भाव्यमिति न नियमोऽस्ति, तथाहि-समुच्छिमभुयगखगचउप्पयसप्पित्थिजलचरेहितो । सनरेहिंतो सत्तसु कमोववजंति| नरएसु ॥१॥" इति वचनाडुजगचतुष्पत्सर्पखगजलचरनराणामधोगतावतुल्यं सामर्थ्यमूर्द्धगती तु "सन्नितिरि खेहिंतो सहस्सारंतिएसु देवेसु । उप्पाजंति परेसुवि सब्वेसुवि माणुसेहिंतो ॥१॥" इति वचनादेषामासहसारान्तोपपातानुल्यमेव सामर्थ्यम् , उक्तं च-"विषमगतयोऽप्यधस्तादुपरिष्टात्तुल्यमासहस्रारम् । गच्छन्ति च तिर्यश्चस्तदधोगत्यूनताऽहेतुः ॥३॥" अतो नासप्तमनरकपृथ्वीगमनत्वेन विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वम्, अथ चादादिलब्धिरहितत्वेन, तदप्यचारु, यतो यदि वादादिलब्धिमत्वेन विशिष्ट सामर्थ्य व्याप्तमुपलब्धं भवेत्ततस्तन्निवृत्तौ तस्य । निवृत्तिः स्यात्, न चैवम् , अनयोाप्यव्यापकभावस्य कचिदनिश्चयात् , अल्पश्रुतत्वं तु मुक्त्यवाप्त्याऽनुमितविशिष्टसामध्यमाचतुपादिभिरनैकान्तिकमित्यनुद्घोष्यमेव, यदप्यनुपस्थाप्यतापाराञ्चितकशून्यत्वेनेत्युच्यते, तदप्ययुक्तं, १ षष्ठीं च स्त्रियो मत्स्या मनुजाश्च सप्तमी पृथ्वीम् । २ समूछिमभुजपरिसर्पखवरचतुष्पदसर्पश्खीजलचरेभ्यः । समनुष्येभ्यः सप्तम|| /मादुपपद्यन्ते नरफेषु ।।२ ॥ ३ संझितिर्यग्भ्यः सहस्रारान्तिकेषु देवेषु । उत्पद्यन्ते परेष्वपि सर्वेष्वपि मनुष्येभ्यः ।। ३॥ - दीप अनुक्रम [१५१३-१५१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1357~ Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [४९ -५०] दीप अनुक्रम [१५१३ -१५१४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ६८० ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ३६ ], मूलं [-] / गाथा ||४९-५०|| निर्युक्तिः [५५६...], यतो न तन्निषेधाद्विशिष्टसामर्थ्याभावः प्रतीयते, योग्यतापेक्षो हि चित्रः शास्त्रे विशुद्धयुपदेशः, यदुक्तम्- “संवरनिजैररूपो बहुप्रकारस्तपोविधिः शास्त्रे । रोगचिकित्साविधिरिव कस्यापि कथञ्चिदुपकारी ॥ १ ॥" यच्च पुरुषानभिवन्यत्वं हेतुरुक्तः तदपि सामान्येन गुणाधिकपुरुषापेक्षं वा ? यदि सामान्येन तदाऽसिद्धतादोषः, तीर्थकरजनन्यादयो हि शक्रादिभिरपि प्रणताः किमङ्ग शेषपुरुषैः ?; गुणाधिकपुरुषापेक्षं चेङ्गणधरा अपि तीर्थकृद्भिर्नाभिवन्द्यत इति तेषामप्यपकृष्यमाणत्वम्, अथ तीर्थशब्दस्याद्यगणधराभिधायित्वात्तीर्थप्रणामपूर्वकत्वा चाईदेशनाया असिद्धमेव तदनभिवन्द्यत्वं गणधराणाम्, एवं तर्हि चातुर्वर्णसङ्घस्यापि तदभिधेयत्वात्तदन्तर्भावांच स्त्रीणामईद्भिरपि वन्यत्वे कथं पुरुषानभिवन्यत्वेन तासां तेभ्योऽपकृष्यमाणत्वम् १, अथ स्वारणायकर्तृत्वेन, एवं सति समानेऽपि रत्नत्रये शिष्याचार्ययोराचार्यस्यैव मुक्तिः स्यान्न शिष्यस्य, सारणाद्यकर्तृत्वेन तस्य ततोऽपकृष्यमाणत्वात् न चैतदागमिकं चण्डरुद्राद्याचार्यशिष्याणामागमे निःश्रेयस श्रवणात्, अथामहर्द्धिकत्वेन स्त्रीणां पुरुषेम्योऽपकृष्यमाणत्वं, तथा सति प्रष्टव्योऽसि किमाध्यात्मिकी मृद्धिमाश्रित्य बाह्यां वा ? तत्र न तावदाध्यात्मिकीमुक्तन्यायतो रत्नत्रयस्य तासां समर्थितत्वात् नापि बाह्याम्, एवं हि महत्या तीर्थकरादिलक्ष्म्या गणधरादयश्चक्रधरादिलक्ष्म्याश्वेतरक्ष(रेऽक्ष ) त्रियादयो न भाजनमिति तेषामप्य महर्द्धिकत्वेनापकृष्यमाणत्वान्मुक्तिकारण वैकल्यप्रसङ्गः, यदपि मायादिप्रकर्षवश्वेनेत्युच्यते, तदप्यसत्, तस्योभयोरपि तुल्यत्वेन दर्शनादागमे च श्रवणात् श्रूयते हि चरमशरीरिणामपि Education infamational For Patenty भाष्यं [१५...] ~1358~ जीवाजीव | विभक्ति० ३६ ॥ ६८० ॥ ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [४९ -५०] नारदादीनां मायादिप्रकर्षवत्त्वम् , अतो न तासां पुरुषेभ्योऽपकृष्यमाणत्वेन कारणावैकल्यस्य हेतोरसिद्धता, यदपि। निर्वाणस्थानाद्यप्रसिद्धत्वेनेत्युक्तं, तदप्यसाधकं, यतो न निर्वाणस्थानादिप्रसिद्धिः कारणापैकल्यस्य कारणं ब्यापक वा येन तन्निवृत्तौ तस्य निवृत्तिः, अथाऽऽथ यदि स्त्रीणां मुक्तिकारणापैकल्पमभविष्यत् मुक्तिरप्युदपत्स्यत, तथा च है तत्स्थानादिप्रसिद्धिरपीति, नैवं, तत्स्थानादिप्रसिद्धि प्रति मुक्तेरव्यभिचारित्वाभावात् , अन्यथा हि पुरुषाणामपि येषां मुक्तिस्थानाधप्रसिद्धिस्तेषां तदभावप्रसङ्गः, अर्थतत्साधकप्रमाणाभावेन प्रकृतहेतोरसिद्धता, तत्रापि तत्साधकप्रमाणस्य किं प्रत्यक्षस्थानुमानस्यागमस्य वा, तत्र यदि प्रत्यक्षस्य तदा किं खसम्बन्धिनः सर्वसम्बन्धिनो वा , खसम्बन्धिनोऽपि किं वाचं यद्यथोदितप्रत्युपेक्षणादिरूपं कारणावैकल्यं तद्विषयस्य यदिवाऽऽन्तरं यचारित्रादिपरिणामात्मकं तद्रोचरस्य १, न तावदाधस्य, खीयपि यथोदितप्रत्युपेक्षणादेरक्षणविधानस्वेक्षणात . अथ द्वितीयस्य तदा तदभावस्याग्दृशां पुरुषेष्वपि समानत्वात्तेषामपि कारणावैकल्यस्यासिद्धिप्रसङ्गः, सर्वसम्बन्धिनस्तु प्रत्यक्षस्यासर्वविदा सत्वेनासत्त्वेन (वा) क्वचिनिश्चेतुमशक्यत्वात् , तदभावेन प्रकृतहेतोरसिद्धतेत्यनुद्घोष्यमेव, अथानुमानस्य, तदप्यसत् , तदभावस्य पुरुषेष्वपि समानत्वात, न बर्वाग्दशां स्त्री पुरुषेषु वा तत्त्वतस्तदव्यभिचारि लिङ्गमस्ति येनानुमानं स्यात्, अथास्येव पुरुषेष्वनुमानं, तथाहि-यदुत्कर्षापकर्षाभ्यां यस्यापकर्पोत्कर्षों तस्यात्यन्तापकर्षे तदत्यन्तोकर्पवदृष्टं, यथाऽभ्रपटलापगमे सवितृप्रकाशः, रागाद्युत्कर्षांपकर्षाभ्यामपकर्षोत्कर्षवच चारित्रादि, न च रागाद्यपच दीप अनुक्रम [१५१३-१५१४] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1359~ Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [४९ -५० उत्तराध्य. यप्रकर्षस्थासम्भयो यतो यत्प्रकृष्यमाणहानिकं तत्कचित्सम्भविहानिप्रकर्षनिष्ठमपि.रष्एं, यथा हेमनि कालिकाकिट्टादि, जीवाजीव बृहद्वृत्तिः प्रकृष्यमाणहानयश्च रागादयः, तथैव तेषां प्राणिषु प्रतीतत्वात् , नन्वेतत्त्रीष्वपि समानमिति, नाप्यागमस्थ, तस्य प्रस्तुतस्यापि साक्षात्वीनिर्वाणाभिधायित्वेनार्थतस्तत्कारणापैकल्यसाधकत्वात्, न च स्त्रीशब्दस्यान्यार्थत्वं परि विभक्ति ॥१८॥ कल्पनीयं, तद्धि लोकरूढितः आगमपरिभाषातो वा भवेत् ?, न तावलोकरूढितः, लोके हि यस्मिन्नर्थे यः दाशब्दोऽन्वयन्यतिरेकाभ्यां वाचकत्वेन रश्यते स तस्यार्थी, यथा गवादिशब्दाना साखादिमदादयो, न च स्त्रीशब्दस्य स्तनादिमदाकारमर्थमन्तरेणान्यस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां वाच्यत्वेन प्रतीतिरस्ति, उक्तं च-"स्तनजघनादिव्यजये खीशन्दोऽर्थे न तं विहायैषः । रष्टः कचिदन्यत्र त्वग्निर्माणवकवद्गौणः ॥१॥" इति, नाप्यागमपरिभाषातो यतो नागमे कचित्स्त्रीशब्दस्य परिभाषितोऽर्थो यथा व्याकरणे 'वृद्धिरादैजि' (पा०१-१-१)ति वृद्धिशब्दस्यादैची, रश्यते । चागमेऽपि लोकरूढ एवार्थे स्त्रीशब्दः "इत्थीओ जंति छट्टि" इत्यादी, न च तत्राप्यर्थान्तरपरिकल्पना, बाधकं विना तदनुपपत्तेः, उक्तं च-"परिभाषितो न शाखे मनुजीशब्दोऽथ लौकिकोऽधिगतः । अस्ति च न तत्र बाधा खीनिर्वाणं ततो न कुतः ॥१॥" अथ दृष्ट एवागमे पुरुषाभिलापात्मनि वेदाख्ये भावे स्त्रीशब्दः, इदमपि कुतो निश्चितं ?, ॥६८|| किं तावत्खीशब्द इतिशब्दश्रवणमात्रात्त्रीत्वस्य पल्यशतपृथक्त्वावस्थानाभिधानतो वा?, न तावत्खीवेद इति श्रवणमात्रत इति युक्तं, यदीह स्खी चासौ वेदश्च स्त्रीवेद इति समानाधिकरणसमासो भवेत्तदा स्त्रीशब्दस्यार्थान्तरे । दीप अनुक्रम [१५१३ -१५१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1360~ Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [४९ की वृत्तिर्भवेत् , तत्सद्भावच बाधकाभावेन वा कल्प्येत समासान्तराभावेन वा!, न तावद् वाधकाभाषेन, तत्र हि स्त्रीशब्दस्य पुरुषाभिलाषात्मको भाव एवार्थों भवेत् , तथा च वीनिर्वाणसूत्रे-किं स एव साक्षादर्थस्तदुपलक्षितं वा शरीर ?, यदि स एव तदा किं तदैव तद्भावो विवक्ष्यते भूतपूर्वगत्सा वा ?, तत्र यदि तदैव तदा निर्वाणावस्थायामपि वेदसम्भवो, न चैतदागमिकम् , अथ भूतपूर्वगत्या तदा देवादीनामपि निर्वाणप्राप्तिः, तथा च "सुरणारएसु चत्तारि होति" इत्याद्यागमविरोधः, तेष्वपि भूतपूर्वगत्या चतुर्दशगुणस्थानसम्भवात्, अथ तदुपलक्षितं वा] पुरुषशरीर तदाऽसौ तदुपलक्षणं तत्र नियतवृत्तिरनियतवृत्तिर्वा ?, यदि नियतवृत्तिस्तदाऽऽगमविरोधः, परिवर्तमानतयैव पुरुपशरीरे वेदोदयस्य तत्राभिधानात्, न चानुभवोऽप्येवमस्ति, अथानियतवृत्तिः कथमसौ तदुपलक्षणम् ?, अथैवंरूपमपि गृहादिषु काकाद्युपलक्षणमीक्ष्यत इत्यत्रापि तथोच्यते, एवं सति स्त्रीशरीरेऽपि कदाचित्पुरुषवेदस्योदयसम्भवात् स्त्रीणामपि निर्वाणापत्तिः, यथा हि पुरुषाणां भावतः स्त्रीत्वमेवं स्त्रीणामपि भावतः पुरुषत्वसम्भवोऽस्ति, भाव एव च मुख्य मुक्तिकारणं, तथा च यद्यपकृष्टेनापि स्त्रीत्वेन पुरुषाणां निर्वाणमेवमुत्कृष्टेन भावपुरुषत्वेन स्त्रीणाMमपि किं न निर्वाणम् ? इति, न च समासान्तरासम्भवेन खीवेद इत्यत्र समानाधिकरणसमासकल्पनं, स्त्रिया वेदः स्त्रीवेद इति षष्ठीसमासस्यापि सम्भयात्, न चास्य स्त्रीशरीरपुरुषाभिलाषात्मकवेदयोः सम्बन्धाभावेनायुक्तत्वमिति १ सुरनारकेषु चत्वारि भवन्ति (गुणस्थानानि) SAHARANE* -५०] दीप अनुक्रम [१५१३-१५१४] * * Swarajanasarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1361~ Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [४९ -५०] दीप अनुक्रम [१५१३ -१५१४] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ३६ ], मूलं [ - ] / गाथा ||४९-५०|| निर्युक्तिः [५५६...], उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ६८२ ॥ वाच्यं यतस्तयोः सम्बन्धाभावः किं भिन्नकर्मोदयरूपत्वेन पुरुषवत्त्रिया अपि स्त्रियां प्रवृत्तिदर्शनेन वा १, न तावद्भिन्नकर्मोदयरूपत्वेन, भिन्नकर्मोदयरूपाणामपि पञ्चेन्द्रियजात्यादीनां देवगत्यादीनां च सदा सम्वन्धदर्शनात्, नापि पुरुषवत्स्त्रिया अपि स्त्रियां प्रवृत्तिदर्शनेन, इयं हि पुरुषाप्राप्ती खवेदोदयादपि संभवत्येव, उक्तञ्च - " सा खक* वेदात्तिर्यग्वदलाने मत्तकामिन्याः" इति अथ स्त्रीत्वस्य पल्यशतपृथक्त्वावस्थानाभिधानादेवमुच्यते, इदमपि न सुन्दरं, तत्र स्त्रीत्वानुबन्धस्य विवक्षितत्वात् संभवति हि ख्याकारविच्छिदेऽपि तत्कारणकर्मोदयाविच्छेदः, तदविच्छेदाच पुंस्त्वाद्यव्यवधानेन पुनः स्त्रीशरीरग्रहणमिति, किञ्च - "मणुयगईए चउदस गुणठाणाणि होति” तथा 'पंचिंदिएस गुणठाणाणि हुंति चउदस' तथा 'चउदस तसेसु गुणठाणाणि हुंति' तथा 'भवसिद्धिगा व सव्वठ्ठाणेसु होति " इत्यादि स्त्रीशब्दरहितमपि प्रवचनं स्त्रीनिर्वाणे प्रमाणमस्ति स्त्रीणामपि पुंवन्मनुष्यगत्यादिधर्मयोगात्, अथ सामान्यविषयत्वान्नेदं स्त्रीविशेषे प्रमाणम्, एवं सति पुरुषाणामपि विशेषरूपताऽस्ति न वा १, न तावन्नास्ति, मनुष्यगतिविशेषरूपत्वात्तेषाम्, अथास्ति विशेषरूपता, तथा सति तेष्वपि कथमेतत्प्रमाणं १, यथा च तेषु प्रमाणं तथा किं न खीष्वपीति १, अथ पुरुषेष्वेव तदर्थवदिति स्त्रीषु तस्याप्रवृत्तिः, एवं सति किं न विपर्ययकल्पनापि १, न चैवमपर्याप्तक मनुष्यादीनां देवनारकतिरक्षां च निर्वाणप्रसङ्गः तेषामेतद्वाक्याविषयत्वात्, एतदविषयत्वं चापवादविषयत्वात् उक्तं हि - " अपवादविषयं परिहृत्य उत्सर्गः प्रवर्त्तते” इति, अपवादश्च - "मिच्छादिट्ठी अपज्ज Education intemational Forest Use Only भाष्यं [१५...] ~1362~ जीवाजीव विभक्ति० ३६ ॥६८२॥ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||४९-५०|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [४९-५०] तगे' तथा 'सुरनारपसु हाँति चत्तारि तिरिएसु जाण पंचेव" इत्यादिरागमः, आह च-"मनुजगती सन्ति गुणा चतुर्दशेत्याद्यपि प्रमाणं स्यात् । पुंवत्स्त्रीणां सिद्धौ नापर्याप्तादिवद्वाधा ॥१॥" इति कृतं विस्तरेण । सम्प्रति दासिद्धानेवावगाहनातः क्षेत्रतश्चाह-उत्कृष्टा-सर्वमहती चासौ अवगाहन्तेऽस्यां जन्तब इत्यवगाहना च-शरीर-II मुत्कृष्टावगाहना पञ्चधनु शतप्रमाणा तस्यां सिद्धाः 'चः समुच्चये 'जहन्न मज्झिमाइ यत्ति अवगाहनायामिति प्रक्रमात्प्रत्येक योज्यते ततः 'जघन्यावगाहनायां' द्विहस्तमानशरीररूपायां सिद्धाः 'मध्यमावगाहनायां च' उक्तरूपोत्कृष्टजघन्यावगाहनान्तरालयर्त्तिन्यां सिद्धाः 'ऊर्द्ध'मित्यूलोके मेरुचूलिकादौ सिद्धाः, संभवति हि तत्रापि केपाश्चित्सिद्धप्रतिमावन्दनाद्यर्थमुपगतानां चारणश्रमणादीनां मुक्त्यवाप्तिः, 'अधश्च' अधोलोकेऽर्थादधोलौकिकग्रामरूपेऽपि सिद्धाः, 'तिरियं च'त्ति 'तिर्यग्लोके च' अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्ररूपे तत्रापि केचित् 'समुद्रे' जलधौ सिद्धाः ['जले च' नद्यादिसम्बन्धिनि सिद्धाः, भूभूधरावशेषास्पदोपलक्षणमेतत्, अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रेपु हिन कचिन्मुक्त्यवाप्तिनिषेध इति सूत्रार्थः ॥ इत्थं स्त्रीसिद्धादीनभिदधता स्त्रीत्वादिषु सिद्धिसम्भव उक्तः, सम्प्रति तत्रापि क कियन्तः सिद्ध्यन्ति ? इत्याशङ्कयाह| दस य नपुंसएमुं, वीसं इस्थियासु य । पुरिसेसु य अट्टसर्य, समएणेगेण सिझई ॥५२॥ चत्तारि य गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । सलिंगेण य अहसयं, समएणेगेण सिजाई ॥५३ ॥ उक्कोसोगाहणाए उ, दीप अनुक्रम [१५१३-१५१४] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल-संपादने मुद्रण-अशुद्धित्वात् अत्र गाथाक्रम ||५१||... स्थाने ||५२||.... इति मुद्रितं ~ 1363~ Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||५२-१५|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [५२ -५५]] उत्तराध्य. सिझंते जुगवं तुवे । चत्तारि जहन्नाए, जवमझडत्तरं सयं ॥ ५४॥ चउरुहुलोए य दुवे समुथे, तओ जले जीवाजीव बृहद्वृत्तिः दावीसमहे तहेव । सयं च अडत्तर तिरियलोए, समएणेगेण उ सिज्झई धुवं ।। ५५॥ विभक्ति _ 'दश' दशसङ्ख्याश्चशब्द उत्तरापेक्षया समुञ्चये 'नपुंसकेपु' वर्द्धितचिर्पितादिषु विंशतिः 'इत्थीयासु यति खीषु च ॥६८३॥ पुरुषेषु चाष्टभिरधिकं शतमष्टशतं 'समयेन' अविभागकालरूपेण 'एकेन' एकसङ्खधेन, प्रकृत्यादित्वात्तृतीया, 'सि यति' निष्ठितार्थं भवति, चत्वारो गृहिलिङ्गेऽन्यलिङ्गे दशैव च, खलिङ्गेन चाष्टशतं समयेनकेन सिध्यति । 'उत्कृटावगाहनायां तु' उक्तरूपायां सिध्यतः 'युगपत्' एककालं 'द्वौ' द्विसञ्जयो 'चत्वारः' चतुःसङ्ख्याः 'जहन्नाए'त्ति जघन्यावगाहनायां 'जवमज्झ'त्ति यवमध्यमिव यवमध्या-मध्यमावगाहना तस्याम् 'अष्टोत्तरं शतम्' अष्टोत्तरशतसयाः, यवमध्यत्वं चैषां मध्यमावगाहनायामुत्कृष्टजघन्यावगाहनयोर्मध्यवर्तित्वात् , तदपेक्षया च बहुतरसञ्जयात्वेन स्थूलतयैव भासमानत्वादिति भावनीयमिति । चत्वार ऊर्द्धलोके च द्वौ समुद्रे त्रयो जले विंशतिः 'अधार इत्यधोलोके 'तथैव' तेनैव प्रकारेण शतं च 'अष्टोत्तरम्' अष्टाधिकं तिर्यग्लोके समयेनकेन तु सिध्यति, तुशब्दश्च शब्दश्च कचित्पूरणे क्वचिच पुनरर्थे व्याख्येयः । एतत्सूत्रस्थाने चान्ये सूत्रद्वयमित्थं पठन्ति-"चउरो उद्दलोगमि, ६८२॥ ६ वीसपहुसं अहे भवे । सयं अट्ठोत्तरं तिरिए, एगसमएण सिज्झई ॥१॥ दुवे समुद्दे सिझंती, सेसजलेसु ततो जणा । एसा उ सिज्झणा भणिया, पुब्बभावं पडुच उ ॥२॥" एतच्च व्याख्यातप्रायमेवेति सूत्रचतुष्टयाः ॥ इत्थं Riklel%25-04 दीप अनुक्रम [१५१६ X -१५१९]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1364~ Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१५R-५६|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक BAR [५५ पूर्वभावप्रज्ञापनीयनयापेक्षयाऽनेकधा सिद्धानभिधाय सम्प्रति प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयनयापेक्षया तेषामेव प्रतिघातादिप्रतिपादनायाहकहिं पडिया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया।। कहिं बुदिं चहत्ता णं, कत्थ गंतॄण सिज्झई ॥५५॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे च पइट्ठिया । इहं बुदिं चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झई ।। ५६॥ 'के ति कस्मिन् 'प्रतिहताः' स्खलिताः, कोऽर्थः -निरुद्धगतयः, सिद्धाः, तथा 'क' कस्मिन् सिद्धाः 'प्रतिष्ठिताः' ६ साद्यपर्यवसितं कालं स्थिताः, अन्यच-क 'बुन्दि' शरीरं त्यक्त्वा कुत्र गत्वा 'सिज्झइत्ति वचनव्यत्ययात् 'सियन्ति' |निष्ठितार्था भवन्ति । एतत्प्रतिवचनमाह-'अलोके' केवलाकाशलक्षणे 'प्रतिहताः' स्खलितास्तत्र धर्मास्तिकायस्याभावेन तेषां गतेरसम्भवात् , उक्तं च-"ततोऽप्यूई गतिस्तेषां, कस्मानास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्, स हि हेतुर्गतः परः॥ १ ॥" तथा 'लोकानेच' लोकस्योपरि विभागे 'प्रतिष्ठिताः सदाऽवस्थिताः, आह-ऊर्द्ध गमनाभावेऽप्यधतिर्यग्वा गमनसम्भवेन कथं तेषां तत्र प्रतिस्थानम् ?, उच्यते, क्षीणकत्वात्तेषां, कर्माधीनत्वाचाधस्तिर्यग्गमनयोः, तदुक्तम्-"अधस्तिर्यगथोड़े च, जीवानां कर्मजा गतिः। ऊर्द्धमेव तु ताद्धाद्, भवति क्षीणकर्मणाम् ॥१॥ इहे' सनन्तरप्ररूपिते तिर्यगुलोकादौ 'बुन्दि' शरीरं त्यक्त्वा तत्र' इति लोकाने गत्वा 'सिज्झति'त्ति सिध्यति, गत्वेति च मुखं ब्यादाय स्वपितीत्यादिवत्क्त्वाप्रत्ययः, पूर्वापरकालविभागस्वेहासम्भवात् , यत्रैव हि -५६] दीप अनुक्रम [१५१९-१५२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: मूल-संपादने मुद्रण-अशुद्धित्वात् अत्र गाथाक्रम ||१५|| द्वीवारान् मुद्रितं ~1365~ Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||५७-५९|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक [५७ -५९] उत्तराध्यासमये भवक्षयस्तस्मिन्नेव मोक्षस्तत्र गतिश्चेति, आह च भगवान् वाचक:-"द्रव्यस्य कर्मणो यदुत्पत्त्यारम्भवीतयःजीवाजीच समं तथैव सिद्धस्य, गतिमोक्षभवक्षयाः॥१॥" इति सूत्रद्वयार्थः ॥ लोकाग्रे गत्वा सिझन्तीत्युक्तं, लोकाग्रं चेषत्प्रा विभक्ति म्भाराया उपरीति यावति प्रदेशेऽसौ यत्संस्थाना यत्प्रमाणा यद्वर्णा च तदभिधानायाह॥६८४॥ वारसहिं जोयणेहि, सब्वट्ठस्सुवरि भवे । ईसीपभारनामा ख, पुढवी छत्तसंठिया ॥१७॥ पणयाल सयसहस्सा,जोअणाणं तु आयया । तावइयं चेव विच्छिन्ना, तिगुणो साहिय (तस्सेव) परिरओ॥५८॥ अट्ठजोयणघाहल्ला, सा मझमि चियाहिया । परिहायंती चरिमंते, मच्छीपत्ताउ तणुययरी॥ ५९॥ [ अज्जुणसुवन्नगमई, सा पुढची निम्मला सहावेणं । उत्ताणयछत्तयसंठिया य भणिया जिणवरेहिं ] संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुभा ॥ द्वादशभिर्योजनैः प्रकृत्यादित्वात्तृतीया 'सर्वार्थस्य' सार्थनाम्नो विमानस्य 'उपरि' ऊर्ध्वं भवेत् स्यात् ईषत्प्राग्भारेति नाम यस्याः सा ईषत्प्राग्भारनामा, अनो बहुव्रीहे' (पा०४-१-१२) रिति निषेधानान्तत्वेऽपि डाप् न भवति, ६ ईषदादिनामोपलक्षणं चैतत्, अनेकनामधेयाभिधेयत्वात्तस्याः, उक्तं हि-"ईसीति वा ईसीपम्भारा इ वा तणुइ वा तणुतणुतीति वा सिद्धीति वा सिद्धालएति वा मुत्ती ति वा मुत्तालएति वा लोयग्गेइ वा लोयग्गथूमियाह वा लोयप दीप अनुक्रम [१५२१-१५२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1366~ Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||५७-५९|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) 4%95+%E प्रत सूत्रांक 1५७ -५९] |रिबुज्झणाति वा सबपाणभूयजीवसत्तसुहावहाति "त्यादि, 'पृथ्वी' भूमिश्छत्रम्-आतपत्रं तत्संस्थितमिय संस्थितंसंस्थानमस्या इति छत्रसंस्थिता, इह च विशेषानभिधानेऽप्युत्तानमेवेदं गृह्यते, आह यतो भगवान् भद्रबाहुः-"उत्ताणयछत्तयसंठियाउ भणियाउ जिणवरेहिंति" । पञ्चचत्वारिंशच्छतसहस्रान् योजनानां 'तुः पूरणे 'आयता' दीर्घा 'तावड्यं चेय'त्ति तावतश्चैव प्रक्रमाच्छतसहवान् 'विस्तीर्णा' विस्तरतोऽपि, पञ्चचत्वारिंशच्छतसहस्रप्रमाणेति भावः त्रिगुणः 'तस्सेव'त्ति प्राग्वत् 'तस्माद्' उक्तरूपादायामात् 'परिरयः' परिधिः, इह च त्रिगुण इत्यभिधानेऽपि विशेपाधिक्यं द्रष्टव्यं “सर्व वर्ल्ड तिगुणं सविसेस मिति वचनात्, अन्यथा हि पञ्चत्रिशल्लक्षाधिकयोजनकोटिरेवैतत्परिमाणं स्यात् , तथा च सूत्रान्तरविरोधो, यतस्तत्रोक्तम्-“एगा जोयणकोडी पायालीसं भवे सयसहस्सं । तीसं चेय ४ सहस्सा दो चेय सया अउणपन्ना ॥१॥" इति, पठन्ति च-'तिउणसाहियपडिरयं'ति । अष्टो-अष्टसङ्ख्यानि योज नानि वाहल्यं-स्थौल्यमस्या इसष्टयोजनवाहल्या 'से' तीपत्ताग्भारा, किं सर्वत्राप्येवम् ? इत्याह-'मध्ये मध्यप्रदेशे व्याख्याता, किमिसेवम् ? अत आह-परि-समन्ताद्धीयमाना परिहीयमाना 'चरमंतेति 'चरमान्तेषु' सकलदिग्भागवर्त्तिषु पर्यन्तप्रदेशेषु मक्षिकायाः पत्रं-पक्षो मक्षिकापत्रम् , अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात्तस्मादपि तनुतरी ४ अतिपरिकृशेतियावत्, हानिचात्र विशेषानभिधानेऽपि प्रतियोजनमङ्गुलपृथक्त्वं द्रष्टव्या, तथा चान्यत्रावाचि१ एका योजनानां कोटी द्वाचत्वारिंशत् भवेयुः शतसहस्राणि । त्रिंशदेव सहस्त्राणि द्वे एव पाते एकोनपश्चाशत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१५२१-१५२३] 58CSC-054 JABERatin intimational Palanminary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1367~ Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||६०|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत ३६ सत्राक [६०] उत्तराध्य. "गंतूण जोयणं तु परिहायइ अंगुलपुहुत्तं"ति । अत्र च केचित्पठन्ति-"अज्जुणसुवन्नगमई सा पुढवी निम्मला सहा-II HTMजीवाजीव वेणं । उत्ताणगछत्तगसंठिया य भणिया जिणवरेहिं ॥१॥" तत्र चार्जुन-शुक्लं तच तत्सुवर्णकं चार्जुनसुवर्णकं तेन । बृहद्वृत्तिः निर्वृत्ताऽर्जुनसुवर्णकमयी 'सा' इतीपत्ताग्भारा 'निर्मला' खच्छा, किमुपाधिवशतः ? इसाह-'खभावेन' स्वरूपेण विभक्ति ॥६८५॥ | उत्तानकम्-ऊर्द्धमुखं यच्छन्त्रमेव छत्रकं तत्संस्थिता च 'भणिता' उक्ता जिनवरैः, प्राक् सामान्यतश्छत्रसंस्थितेत्यु-/ कमिह तूत्तानत्वं तद्विशेष उच्यत इति न पौनरुक्त्यम् । शङ्खाङ्ककुन्दानि-प्रतीतानि तत्साशा-वर्णतस्तारशी अत पर 'पंडुरेति 'पाण्डुरा' श्वेता 'निर्मला' निष्कलङ्का 'शुभा' अत्यन्तकल्याणावहा 'सुखा वा' सुखहेतुत्वेनेति सार्द्धसूत्रत्रयार्थः ॥ यदीदशी सा पृथ्वी ततः किमित्याह सीआए जोअणे तत्तो, लोयंतो उ वियाहिओ ॥६० ॥ | 'सीतायाः' सीतामिधानायाः पृथिव्या उपरीति शेषः, योजने 'ततः' इति तस्या उक्तरूपायाः 'लोकान्तः' लोकपर्यन्तः 'तुः' पूरणे व्याख्यात इति सूत्रार्द्धार्थः ॥ ननु यदि योजने लोकान्तस्तत् ितत्र सर्वत्र सिद्धास्तिष्ठन्त्युता- ६८५॥ न्यथा? इत्याह १ गत्वा योजनं तु परिहीयतेऽङ्गुलपृथक्त्वं REMENROCESCORTS दीप अनुक्रम [१५२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1368~ Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||६१|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सुत्रांक [६१] जोअणस्स उ जो तत्थ, कोसो उबरिमो भवे । तस्स कोसस्स छन्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥११॥ योजनस्य 'तुः' वाक्यालङ्कारोपन्यासे यः 'तत्रे' येवं व्यवस्थिते सुव्यत्ययेन वा 'तत्थ'त्ति 'तस्य' इसत्याग्भारोपरिवर्तिनः पठन्ति च-'तस्स'त्ति, 'क्रोशः' गव्यूतम् 'उवरिम'त्ति उपरिवर्ती भवेत् 'तस्येति प्रक्रान्तस्य क्रोशस्य 'पडागे' सत्रिभागत्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रितयरूपे सिद्धानाम् 'अवगाहना' अवस्थितिर्भवेदिति सूत्रार्थः ॥ अवगा-1 हना च ततश्चलनसम्भवेऽपि परमाण्यादीनामियैकादिप्रदेशेषु भवेदत आह-तत्थ सूत्रम् । केचिदनन्तरसूत्रोत्तरार्द्धमधीयते-'कोसस्सवि य जो तत्थ, छब्भागो उपरिमो भवे'त्ति स्पष्टं । तत्र च किम् ? इत्याह तत्थ सिद्धा महाभागा, लोगग्गंमि पइद्विया । भवपवंचउम्मुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥२॥ 'तो' त्यनन्तरमुपदर्शितरूपे 'सिद्धाः' उक्तरूपाः 'महाभागाः' अतिशयाचिन्त्यशक्तयो लोकाने 'प्रतिष्ठिताः' सदावस्थिताः, एतच कुतः१ इत्याह-भवा-नरकादयस्तेषां प्रपञ्चो-विस्तरस्तेनोन्मुक्ताः-त्यक्ताः सन्तः 'सिद्धिं' सिद्धिनानी ४/वरा चेतरगत्यपेक्षया गतिश्च गम्यमानतया वरगतिस्तां गताः-प्राप्ताः, अयमाशयः-भवप्रपश्च एव-चलने हेतुः स ४ |च सिद्धानां नास्तीति कुतस्तेषां तत्सम्भवः' इति सूत्रार्थः ॥ तत्र गतीनां कस्य कियत्यवगाहना ? इत्याह उस्सेहो जस्स जो होइ, भवंमि चरमंमि उ । तिभागहीणा तत्तो य, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥६॥ 'उत्सेधः' उच्छूयः प्रक्रमाच्छरीरस्य 'जस्स'त्ति 'येषां सिद्धानां 'यः' इति यत्परिमाणो भवति 'भवे' जन्मनि चरमे। ESSAKASH दीप अनुक्रम [१५२५] SSES मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1369~ Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||६३|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) जीवाजीव उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥६८६॥ ३६ प्रत सुत्रांक [६३] पर्यन्तयर्तिनि 'तु' विशेषणे इदमपि प्राग्भावप्रज्ञापनीयनयापेक्षयेति विशेषयति, 'त्रिभागहीना'त्रिभागोना 'ततथे ति ततः पुनश्चरमभवोत्सेधात्सिद्धानां यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्तेषामवगाहन्तेऽस्यामिति अवगाहना-स्वप्रदेशसन्निचितिः, निश्चयाभिप्रायेण सर्वस्य स्वनिष्ठत्वात्, इयं च शरीरविवरापूरणत एतावतीत्यवगन्तव्यम्, उक्तं हि-"देहतिभागो झुसिरं तत्पूरणतो तिभागहीण"त्ति, इति सूत्रार्थः ॥ एतानेक कालतः प्ररूपयितुमाह____एगत्तेण साइया, अपज्जवसियावि य । पुत्तेण अणाइया, अपजवसियाधि य ॥ ६४ ॥ 'एकत्येन' असहायत्वेन विवक्षिताः सादिका अपर्यवसिता अपि च, यत्र हि काले ते सिध्यन्ति स तेषामादिरस्ति । न तु कदाचिन्मुक्तेर्भस्वन्तीति न पर्यवसानसम्भवः 'पृथक्त्वेन' महत्त्वेन बहुवेन सामस्त्यापेक्षयेतियावत्, किमित्याहअनादिका अपर्यवसिता अपि च, न हि कदाचिते नाभूवन् न भविष्यन्ति चेति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रत्येषामेवोपाघिनिरपेक्षं खरूपमाह अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया । अउलं सुहसंपत्ता, ज्वमा जस्स नत्थि उ ॥ ३५॥ रूपिणः-उक्तन्यायेन रूपरसगधस्पर्शवन्तः तद्विपरीता अरूपिणस्तेषां रूपाद्यभावात् , उक्त यागमे-"से ण किण्हे ण नीले"इत्यादि, जीवाश्च ते सततोपयुक्ततया घनाश्च-शुषिरपूरणतो निरन्तरनिचितप्रदेशतया जीवधना गमक१ देहविभागः शुधिरं तत्पूरणात् त्रिभागहीनेति दीप अनुक्रम [१५२७] ॥१८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1370~ Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||६५|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सुत्राक [६५]] स्वाहिशेषणस्य परनिपातः ज्ञानदर्शने उक्तरूपे ते एव सञ्जा-सम्यग्बोधरूपा सञ्जातैषामिति तारकादेराकृतिगण3ात्वादितचि ज्ञानदर्शनसब्जिताः-ज्ञानदर्शनोपयोगवन्तो न विद्यते तुलेव तुला-इयत्ता परिच्छेदहेतुरस्येति अतुलम् अपरिमितत्वात् , उक्तं हि-"सिद्धस्स सुहो रासी सबद्धवापिंडितो जइ हवेजा। सोऽणंतवग्गभइतो सबागासे न माइजा॥१॥” इति, सुख-शर्म समित्येकीभावेन दुःखलेशाकलक्तित्वलक्षणेन प्राप्ताः, सुखमेव पुनर्विशिनष्टिउपमा यस्य 'नास्ति तु' न विद्यत एव, यदुक्तम्-"लोके तत्सदृशो यर्थः, कृत्लेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तयेन, तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ॥१॥" न च विषयाभावतस्तत्र सुखशब्दाभिधेयाभाव एवेत्याशङ्कनीयं, चतुरर्थत्वात्तस्य, उक्तं हि-लोके चतुबिहार्थेषु, सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाऽभावे, विपाके मोक्ष एव च ॥१॥ सुखो वह्निः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः, सुखितोऽस्मीति मन्यते ॥२॥ पुण्यकर्मविपाकाच, सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच, मोक्षे सुखमनुत्तमम् ॥ ३॥" ततश्च मोक्षस्यैव तत्र सुखशब्दाभिधेयत्वादसम्भव एवाशायाः, इह च जीवघना इत्यनेन सीगताभिमतमभावरूपत्वं मुक्तेः उत्तरविशेषणद्वयेन च 'सुखदुःखबुद्धीच्छादेवप्रयतधर्माधर्मसंस्कारा नवात्मगुणास्तेषामत्सन्तोच्छित्तिनिःश्रेयसमिति वचनादचेतनत्वासुखित्वे च सिद्धस्य | 2 नयायिकाद्यभिमते निराकुरुते, अभावरूपत्वे हि मुक्तरर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वावस्तुनोऽन्त्यक्षणस क्षणान्तराजनना। १ सिद्धस्य सुखराशिः सर्वाद्धापिण्डितो यदि भवेत् । सोऽनन्तवर्गभक्तः सर्वाकाशे न मायात् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१५२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1371 ~ Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत [ ६७ ] दीप अनुक्रम [१५३१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६८७॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ ३६ ], मूलं [ - ] / गाथा ||६७ ॥ निर्युक्तिः [५५६...], दवस्तुत्वं तदवस्तुत्वे चावस्तुनो जन्यत्वायोगात्तत्पूर्वस्यापि क्षणस्य एवं पूर्वपूर्वक्षणानामपि सौगतस्याभावरूपतैव प्राप्तेति पूर्वसन्तानमिच्छतो मुक्तेरपि भावरूपता बलादायाति, तथा सर्वथाऽऽत्मगुणोच्छित्तिरूपतायां निःश्रेयसस्वात्मनोऽप्यभावप्रसक्तिः, सर्वथा गुणाभावे हि गुणिनोऽप्यभाव एव, अशेषरूपाद्यभाव इव घटादेरिति सूक्ष्मधिया | भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ उक्तग्रन्थेनावगतमपि विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थे पुनः क्षेत्रं स्वरूपं च तेषामाहलोएगदेसे ते सब्बे, नाणदंसणसन्निया । संसारपारनिच्छिन्ना, सिद्धिं वरगई गया ॥ ६७ ॥ लोकैकदेशे पाठान्तरतो लोकाप्रदेशे वोक्तरूपे 'ते' इति सिद्धाः, अनेन 'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः' इत्यपास्तं भवति, सर्वगतत्वे खात्मनामेतद्भवेत्, तथात्वे च सर्वत्र सर्वदा वेदनादिप्रसङ्गः तथा 'सर्वेनिरवशेषा ज्ञानदर्शनसञ्ज्ञिताः संसारस्य पारः - पर्यन्तस्तं निस्तीर्णाः पुनरागमनाभावलक्षणेनाधिक्येनातिक्रान्ताः सिद्धिं बरगतिं गताः इति प्राग्वत्, इह चायेन विशेषणेन मा भूत्केषाञ्चिज्ज्ञानसज्ञा परेषां दर्शनसब्जैव केवला, किन्तु अपि सर्वेषामिति, द्वितीयेन- "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः ॥ १ ॥” इति मते तेषामनिष्ठितार्थदोपप्रसङ्गेन पुनरावृत्तिरिति, तृतीयेन तु क्षीणकर्मत्वेन स्वव| शत्यादिविशेषणवत्त्वेऽप्येषा स्वयशस्यानभिसन्धिः कृतकृतत्यस्य च यथास्वभावेनास्योपयोग इष्टः, 'तथागतिः स्यात्खभावेनेति वचनादुत्पत्तिसमये सत्क्रियत्वमप्यस्तीति ख्याप्यते, इदं च सुत्रं यत्र दृश्यते तत्रेत्थं नेयं, प्रत्यन्तरेषु च न vaनि दीपरत्नसागरेण संकलित गाथा क्रमांकने मुद्रणदोषात् अत्र ||६६ || क्रमांक न दृश्यते For Parts at Le Only भाष्यं [१५...] ~1372~ जीवाजीव विभक्ति ० ३६ ॥ ६८७॥ आगमसूत्र [ ४३], मूलसूत्र [४] “उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि विरचिता वृत्तिः www.ncbrary.org Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||६८|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्राक [६८] दृश्यत एवेति सूत्रार्थः ॥ इत्थं यदुक्तं "संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिय"त्ति तत्र सिद्धा उक्ताः, साम्प्रतं संसारिण आह संसारत्था उजे जीवा, दुविहा ते वियाहिया । तसा य धावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं ॥१८॥ संसारस्था इति प्राग्वत्तुशब्दः सिद्धेभ्यः सङ्ग्याकृतविशेषद्योतको ये जीवा द्विविधास्ते व्याख्याताः, वैविध्यमेवाह-प्रसाथ स्थावराश्चैव, स्थावराः 'त्रिविधाः' त्रिप्रकाराः 'तस्मिन्' इति द्वैविध्ये सति, अल्पवक्तव्यत्वाच्च पश्चानिर्देशेऽपि प्रथमतः स्थावराभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ तत्रैविध्यमेवाह पुढवी आउजीवा प, तहेव य वणस्सई । इच्चेए थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१९॥ ___ 'पुढवीआउजीवा यत्ति जीवशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते ततः पृथिव्येय जीवाः पृथिवीजीवाः आपो-जलं ता एवं जीवा अब्जीवाश्थ, तथैव च 'वणस्सइत्ति प्रक्रमाद्वनस्पतिजीवाः, ननु पृथिव्यादीनि जीवशरीराणि न त्वेतान्येव जीयाः, काठिन्यादिलक्षणानि ह्यमूनि जीवाः पुनरुपयोगलक्षणास्तत्कथं पृथिव्यादीन्येव जीवा इत्युक्तम् ?, उच्यते, जीवशरीरयोरन्योऽन्यानुगतत्वेन विभागाभावादेवमुक्तं, न चैतदना, यत उक्तम्-"अन्नोऽनाणुगयाणं इमं च तं चत्ति विभयणमजुत्तं" इत्यादि 'इति' इत्युक्तप्रकारेण 'एते' पृथिव्यादयः स्थावरात्रिविधाः । उत्तरग्रन्थसम्बन्धनार्थ१ अन्योऽन्यानुगतयोरिदं च तश्चेति विभजनमयुक्त दीप अनुक्रम [१५३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1373~ Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-1 / गाथा ||६९|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्राक [६९] उत्तराध्य. माह-'तेषाम्' इति पृथिव्यादीनां भेदान्' विकल्पान् 'शृणुत' आकर्णयत 'मे' मम कथयत इति शेष इति सूत्रार्थः ।। जीवाजीव 'यथोद्देशं निर्देश' इतिन्यायतः पृथिवीभेदानाहवृहद्वृत्तिः | दुविहा पुढविजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । पजत्तमप्पजत्ता, एवमेव दुहा पुणो ॥ ७० ॥ यायरा जे | विभक्ति. ॥६८८॥ पजत्ता, दुविहा ते वियाहिया । सहा खरा य बोद्धव्वा, सण्हा सत्तविहा तहिं ॥७१ ॥ किण्हा नीला या रुहिरा य, हालिदा सुकिला तहा । पंडपणगमट्टिया, खरा छत्तीसई विहा ।। ७२ ॥ पुढेवी य सकरा वालुया सय उवले सिलो य लोणूसे । अयतयतंबसीसंगरुपसुवन्ने य वैहरे य॥७३॥ हरियाले हिंगुलए मैणोसि-1 लासासगंजणेपाले । अभपडलऽभवालुये वायरकाए मणिविहाणा ॥७४ ॥ गोमिजऐ य कर्यगे अके फलिहे प लोहियखे य । मरगयमसारगैल्ले भुयमोयन इंदैनीले य ॥७५ ॥ चंदणगेरुयहंसगम्भ पुलऐ सोद गंधिर य पोद्धव्ये । चंदप्पभवेलिए जैलकते संरकते य ॥७॥ 'द्विविधाः' द्विभेदाः पृथिवीजीवाः 'तुः प्राग्वत् 'सूक्ष्माः' सूक्ष्मनामकर्मोदयाद् 'बादराः' बादरनामकर्मोदयात् , तथा 'पजत्तमपज्जत्त'त्ति तत्र 'पर्याप्ताः' आहारशरीरेन्द्रियोच्छासवानोऽभिनिवृत्तिहेतुस्तथाविधदलिकं P६८८॥ पर्याप्तिः, यत उक्तम्-"आहारसरीरेंदियउस्सासवओमणोऽभिणिवत्ती। होइ जओ दलियाओ करणं पर सा उप आहारशरीरेन्द्रियोच्यासवचोमनोऽभिनिर्वृत्तिः । भवति यतो दलिकात् करणं प्रति सैव पर्याप्तिः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१५३३] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1374~ Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [७० -७६] दीप अनुक्रम [१५३४ - १५४०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र -४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ७०-७६|| निर्युक्तिः [५५६...], अध्ययनं [ ३६ ], Jus Education intimatio जत्ती ॥ १॥ " साऽस्त्येपामित्यर्शआदराकृतिगणत्वादचि पर्याप्तास्तद्विपरीताश्चापर्याप्ताः, 'एवं' इत्यनेन पर्याप्तापर्यासभेदेन 'एते' सूक्ष्मा बादराथ, पठन्ति च- 'एगमेगे'त्ति एकैके द्विविधाः पुनः प्रत्येकमिति भावः । पुनरेषामेवोत्तरमेदानेवाह- 'वायरा जे' ति बादरा ये पुनः पर्याप्ता द्विविधास्ते व्याख्याताः कथम् १ इत्याह-'श्लक्ष्णा' इह चूर्णितठोटकल्पा मृदुः पृथिवी तदात्मका जीवा अप्युपचारतः श्रक्ष्णा एवमुत्तरत्रापि, 'खराः' कठिनाः 'च' समुथये 'बोद्धव्याः' अवगन्तव्याः, श्लक्ष्णाः सप्तविधाः 'तस्मिन्' इत्युक्तरूपभेदद्वये । यथा चामी सप्तविधास्तथाऽऽह - कृष्णा नीलाश्च 'रुधिराश्च' इति लोहिता रक्ता इतियावत् 'हारिद्राः' पीताः शुक्काः 'तथे 'ति समुपये 'पंख'त्ति पाण्डवः - आपाण्डुः - आईपण्युभ्रत्वभाज इतियावत् इत्थं वर्णभेदेन पडियत्वम्, इह च पाण्डुरग्रहणं कृष्णादिवर्णानामपि खस्थानभे| देन भेदाद्भेदान्तरसम्भवसूचकं, पनकः - अत्यन्तसूक्ष्मरजोरूपः स एव मृत्तिका पनकमृत्तिका, पनकस्य च नभसि विवर्त्तमानस्य लोके पृथिवीत्वेनारूढत्वात्पूर्व मे दस महे ऽपि भेदेनोपादानं, तत एव च मृत्तिकेति पृथ्वीपर्यायाभिधानमपि, अन्ये त्वाहुः - पनकमृत्तिका मरुषु पर्पटिकेति रूढा, यस्याश्चरणाभिघाते झगित्युज्जृम्भणं, खरपृथिवीभेददर्शनोपक्रम माह - 'खराः प्रक्रमाद्वादरपृथिवीजीवाः 'पटूत्रिंशद्विधाः' पत्रिंशद्भेदाः । तानेवाह- 'पृथिवी' ति भामा सत्यभामावच्छुद्ध पृथिवी शर्करादिरूपा या न भवति, चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुच्चये, 'शर्करा' लघूपलस कलरूपा, 'वालुका च' प्रतीता, 'उपल:' गण्डशैलादिः, 'शिला च' रषत् 'लोणूसे अयतंत्र तय सीसयरूप्प सुवष्णे यति लवणं Forest Use Only भाष्यं [ १५...] ~ 1375~ www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||७०-७६|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ३६ ॥६८९॥ ७० -७६] TRASEXKAR च-समुद्रलवणादि ऊषश्च-क्षारमृत्तिका लवणोषी अयस्ताम्रत्रपुकसीसकरूप्यसुवर्णानि च प्रतीतानि, नवरमेषा सम्ब- जीवाजीव |न्धिनो धातव एवैवमुक्ताः, सदा तेषु तत्सत्तादर्शनार्थ चैवमभिधानं, तेषु ह्यमूनि प्रागपि सन्त्येव, केवलं मलविगमा-18 विभक्तिः | दाविर्भवन्ति, 'वज्रश्च' हीरकः । हरितालो हिङ्गलको मनःशिलेति च प्रतीता एव, 'सासगंजणपवाले'त्ति, सासकश्चधातुविशेषोऽञ्जन-समीर प्रवालकं च-विद्रुमः सासकाअनप्रवालानि, 'अब्भपडलऽभवालुयत्ति अभ्रपटलंप्रसिद्धम् अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका 'बादरकायें' इति बादरपृथ्वीकायेऽमी भेदा इति शेषः 'मणिविहाणेत्ति चस्स गम्यमानत्वात् 'मणिविधानानि च' मणिभेदाः । कानि पुनस्तानि? इत्याह-गोमेजकश्च रुचकोऽङ्कः स्फटिकश्च लोहिताक्षश्च 'मरगयत्ति मरकतो मसारगल्लः 'भुयमोयग'त्ति भुजमोचक इन्द्रनीलश्च ६ । चंदणगेरुयहंसगब्भ'ति चन्दनो गेरुगो हंसगर्भः पुलकः सौगन्धिकश्च बोद्धन्यः 'चंदप्पह'त्ति चन्द्रप्रभो पैदूर्यो जलकान्तः सूरकान्तश्च । इह च पृथिव्यादयश्चतुर्दश हरितालादयोऽष्टौ गोमेजकादयश्च कचित्कस्यचित्कथश्चिदन्तर्भावाचतुर्दशेत्यमी मीलिताः पत्रिंशद् भवन्तीति सूत्रसप्तकार्थः॥ सम्प्रति प्रकृतोपसंहारपूर्वक सूक्ष्मपृथिवीकायप्ररूपणामाहएए खरपुढचीए, भेया छत्तीसमाहिया । एगविहमनाणसा, मुटुमा तत्थ वियाहिया ॥७७ ॥ ॥६८९॥ एते खरपृथिव्यास्तदविभागाच्च तत्स्थजीवानां भेदाः षट्त्रिंशदाख्याताः, 'एगविहमणाणत्त'त्ति आर्षत्वादेकविधाः, दीप अनुक्रम [१५३४-१५४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1376~ Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||७|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्राक [७७] किमित्येवंविधाः-यतोऽविद्यमानं नानात्वं-नानाभावो भेदो येषां तेऽमी अनानात्वाः सूक्ष्माः 'तत्रे'ति तेषु सूक्ष्मबादरपृथिवीजीचेषु मध्ये व्याख्याता इति सूत्रार्थः ॥ एतानेव क्षेत्रत आह सुहमा य सब्बलोगंमि, लोगदेसे य बायरा । सूक्ष्माः 'सर्वलोके' चतुर्दशरज्ज्वात्मके तत्र सर्वदा तेषां भावात् , लोकस्य देशो-विभागो लोकदेशस्तस्मिन् 'च' पुनरर्थे बादरास्तेषां क्वचित्कदाचिदसत्त्वेन सकलव्याप्त्यसम्भवात् ॥ अधुनैतत्कालतोऽभिधित्सुः प्रस्तावनामाह एसो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउब्विहं ॥ ७८ ॥ प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह संतई पप्पऽणाईया, अपज्जवसिया वि य । ठिई पडच साईया, सपजवसियावि य ॥७९॥ बाधीसस|हस्साई, वासाणुकोसिया भवे । आउठिई पुढवीणं, अंतोमुहुत्तं जहनिया ॥८॥असंखकालमुकोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । कायठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुचओ॥ ८१॥ अणंतकालमुकोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं विजदंमि सए काए, पुढविजीवाण अंतरं ।। ८२॥ | 'सन्तति' प्रवाई प्राप्यानादिका अपर्यवसिता अपि च, तेषां प्रवाहतः कदाचिदप्यभावासम्भवात् 'स्थिति' भवदस्थितिरूपां 'प्रतीस' आश्रित्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च, द्विविधाया अपि तस्या नियतकालत्वात् । यथा दीप अनुक्रम [१५४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1377~ Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||७९-८२|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) जीवाजीव विभकि. बृहद्भुत्तिः प्रत सूत्रांक T७९ -८२] चैतत्तथाऽऽह-द्वाविंशतिसहस्राणि वर्षाणाम् 'उक्कोसिय'त्ति उत्कृष्टा भवेत् , काऽसौ ? इत्याह-आयुः-जीवितं तस्य उत्तराध्य. द स्थिति:-अवस्थानमायुःस्थितिः 'पृथिवीना'मिति पृथिवीजीवानामन्तर्मुहूते जपन्यिका, असङ्ख्यकालमुत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्त जयन्यिका, काऽसी?-काय इति-पृथिवीकायस्तस्मिन् स्थितिः-ततोऽनुद्वत्तेनेनावस्थानं कायस्थितिः'पृथिवीना' पृथ्वीजीवानां 'तम्' इति पृथ्वीरूपं 'कार्य' निकायं 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमश्च ततः 'अमुचतो त्ति 'अमुञ्चतामेय' अत्यजताम् , इत्थं द्विविधाया अपि स्थिते यत्यदर्शनेन सादिसपर्यवसितत्वमेपा, सामर्थ्यकालस्य प्रक्रान्तत्वादन्तरकालमाहअनंतकालमुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त जघन्य 'विजमित्ति त्यक्ते 'खके' खकीये 'काये' निकाये पृथ्वीजीवानामन्तरं, किमुक्त भवति :-यत्पृथिवीकायादुद्वर्त्तनं या च पुनस्तत्रैवोत्पत्तिरनयोर्व्यवधानमिति सूत्रचतुष्टयार्थः । एतानेव भावत आह एएसिं पन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥८३॥ नवरं वर्णादीनां भावरूपत्वात्तेषां च संजयाभेदेनाभिधीयमानत्वादस्य भावाभिधायिता, उपलक्षणं चेह सहन इति, वर्णादितारतम्यस्य बहुतरभेदत्वेनासयभेदताया अपि सम्भवादिति सूत्रार्थः ॥ इत्थं पृथ्वीजीपानभिधाया४जीवानाहहै दुविहा आउजीवा उ, सुहुमा वायरा तहा । पज्जत्तमपजसा, एवमेव दुहा पुणो ॥ ८४ ॥ बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदए य उस्से, हरयणु महिया हिमे ॥ ८५ ॥ एगविहमनाणसा, सुठुमा दीप अनुक्रम [१५४३ ॥६९०॥ -१५४६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1378~ Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] /गाथा ||८३-९१|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक ८3 -९१] तस्थ वियाहिया । मुहमा सबलोगंमि, लोगदेसे य बायरा ॥८६ ॥ संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि या ठिई पडच साईया, सपज्जवसियावि य ॥ ८७ ॥ सत्सेव सहस्साई, वासाणुकोसिया भवे। आउठिई आऊणं, अंतोमुहुतं जहन्नयं ।। ८८॥ असंखकालमुकोसा, अंतोमुहृतं जहनयं । कायठिई आऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ८९ ॥ अर्णतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजदमि सए काए, आउजीवाण अंतरं ॥९॥ एएसिं वन्नओ चेच, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्सओ ॥११॥ सूत्राष्टकं व्याख्यातप्रायमेव नवरं 'सुद्धोदकं' मेघमुक्तं समुद्रादिसम्बन्धि च जलम् 'ओसे'त्ति अवश्यायः शरदादिषु प्राभातिकसूक्ष्मवर्षः 'हरतनु' प्रातः सस्नेहपृथिव्युद्भवस्तृणाग्रजलविन्दुः 'महिका' गर्भमासेषु गर्भसूक्ष्मवर्षा 'हिम' प्रतीतमेव, सप्तैव सहस्राणि वर्षाणामुत्कृष्टिका भवेत्, काऽसौ ?-आयुःस्थितिः 'अपाम्' इत्यजीवानामिति सूत्राष्टहै कार्थः ॥ उक्ता अब्जीवाः, सम्प्रति वनस्पतिजीवानाह* दविहा वणस्सईजीवा, सहमा वापरा तहा । पज्जत्तमपजत्ता, एवमेष दुहा पुणो ।। ९२ ॥ वायरा जे उ* पज्जत्ता, दुविहा ते वियाहिया । साहारणसरीरा य, पत्तेगा य तहेव य ।। ९३ ॥ पत्तेयसरीरा उ, गहा ते दापकित्तिया । रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य, लया वल्ली तणा तहा ।। ९४ ॥ वलय पव्वया कुहणा, जलकहा ओ-IX सही तिणा। हरियकाया उ बोद्धच्या, पत्तेया इति आहिया ।। १५ ।। साहारणसरीरा उ, गहा ते पकि CRXXXXXX-* दीप अनुक्रम [१५४७-१५५५] JABERatinintamational Hinatandinary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1379~ Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||९२-१०५|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक ॥६९॥ ३६ [९२ -१०५] सिया । आलुए मूलए चेव, सिंगवेरे तहेव य ॥ ९६ ॥ हिरिली सिरिली सिस्सिरीली, जावई केयकंदली। पलंडुलसणकंदे य, कंदली य कुहध्वये ॥१७॥ लोहिणीहूयथीह य, तुहगा य तहेव य । कण्हे य वजकंदे य, 1 कंदे सूरणए तहा ।।९८॥ अस्सकन्नी य बोद्धब्या, सीहकन्नी तहेब य । मुसुंदी य हलिद्दा य, णेगहा एवमा विभक्ति यओ ॥ ९९॥ एगविहमणाणसा०॥१०॥ संतई पप्पडणाईआ०॥१०१॥ दस चेच सहस्साई, वासा-II णुक्कोसिया भवे । वणस्सईण आउंतु, अंतोमुहत्तं जहन्नयं ॥ १०२ ।। अणतकालमुक्कोसा, अंतोमुटुत्तं जहनयं । कायठिई पणगाणं, तं कार्य तु अमुचओ॥१०३ ॥ अणंतकालमुफोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजदमि सए काए, पणगजीवाण अंतरं ॥१०४ ॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥ १० ॥ सूत्राणि चतुर्दश, प्रायो व्याख्यातान्येव, नवरं साधारणम्-अनन्तजीयानामपि समानमेकं शरीर येषां तेऽमी| साधारणशरीराः, उपलक्षणं चैतदाहारानपानग्रहणयोरपि तेषां साधारणत्वात् , उक्तं हि-"साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगणं च । साहारणजीवाणं साहरणलक्खणं एवं ॥१॥" 'पत्तेगा यत्ति 'प्रत्येकशरीराश्च' एकमेकं प्रति प्रत्येकम्-एकैकशो विभिन्नं शरीरमेषामिति प्रत्येकशरीराः, तेषा हि यदेकस्य शरीरं न तदन्यस्येति, यदुक्तम् दीप अनुक्रम [१५५६ -१५६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1380 ~ Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||९२-१०५|| नियुक्ति: [१५६...], भाष्यं [१५...] (४३) X प्रत सूत्रांक [९२ -१०५] RockSAKESENA “जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण घट्टिया बत्ती । पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ॥१॥जह पा तिलसकलिया पहुएहि तिलेहिं मेलिया संती । पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ॥२॥"प्रक्रमाजीवा ये इति शेषः अनेकधा ते प्रकीर्तिताः, पठन्ति च-'बारसविहभेएणं पत्तेया उ वियाहिय'त्ति, 'वृक्षाः' चूतादयः 'गुच्छाः' वृन्ताकीप्रभृतयः 'गुल्माश्च' नवमालिकादयः 'लताः' चम्पकलतादयः 'वल्लयो' त्रपुष्यादयः 'तृणानि' जुजुका र्जुनादीनि 'लतावलयानि' नालिकेरीकदल्यादीनि भण्यन्ते, तेषां च शाखान्तराभावेन लतारूपता त्वचो वलया-10 सकारत्वेन च वलयता, पर्याणि-सन्धयस्तेभ्यो जाताः पर्वजाः पाठान्तरतः पर्वगा वा इक्ष्वादयः 'कुहणाः' भूमिस्फो-16 टकविशेषाः सर्पच्छत्रकादयो, जले रुहन्तीति जलरुहाः-पद्मादयः औषधयः-फलपाकान्तास्तद्रूपाणि तृणानि । औषधितृणानि-शाल्यादीनि हरितानि-तन्दुलेयकादीनि तान्येव कायाः-शरीराण्येषामिति हरितकायाः, चशब्द एषामेव खगतानेकभेदसंसूचकः । 'साधारणशरीरास्त्विति तुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वात् साधारणशरीरा अपि न केवलं प्रत्येकशरीरा इत्यपिशब्दार्थः, आलूकमूलकादयः हरिद्रापर्यन्ताः प्रायः कन्दविशेषास्तत्तद्देशप्रसिद्धाः 'एवमादयः' ।१यथा सकलसर्पपाणां श्लेपमिश्राणां वर्तिता वर्तिः । प्रत्येकशरीराणां तथा भवन्ति शरीरसंघाताः ॥ १॥ यथा वा तिलशकुलिका| बहुमिस्तिलैर्मेलिता सन्ती० ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम [१५५६ -१५६९] % % wwjanmorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1381 ~ Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||९२-१०५|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) उत्तराध्य.] प्रत सूत्रांक बृहद्वृत्तिः ॥६९॥ [९२ -१०५] इत्येवंप्रकारा येषामिदं साधारणशरीरलक्षणमस्ति, तद्यथा-"चक्कागं भजमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे । पुढवीसरि- जीवाजीव सेण भेएण, अणतजीवं वियाणाहि ॥१॥ गूढच्छिरागं पत्तं सच्छीर जंच होइ निच्छीरं । जंपि य पणट्ठसंधि, विभक्ति अणंतजीवं बियाणाहि ॥२॥" इत्यादि । पनका-उलिजीवाः, इह च तदुपलक्षिताः सामान्येन वनस्पतयो गृह्यन्ते, तथा चान्ये पठन्ति-'वणप्फईण आउं तु'त्ति, प्रत्येकशरीरापेक्षया चोत्कृष्टं दशवर्षसहस्त्रमानमायुरुक्तं, साधारणाना जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्त्तायुष्कमानं, उक्तं च-"निओयेस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिइपन्नत्ता ?, गोयमा! जह-| नेण अंतोमुहुर्त उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं" कायस्थितिः पनकानाम् , इहापि सामान्येन वनस्पतिजीवानाम् , अत एवासौ सामान्येन वनस्पतिजीवान्निगोदान् वाऽपेक्ष्योत्कृष्टतोऽनन्तकालमुच्यते, विशेषापेक्षायां हि प्रत्येकवनस्पतीनां तथा निगोदानां बादराणां सूक्ष्माणां चासङ्ख्येयकालोऽवस्थितिः, यदुक्तम्-"पत्तेयसरीरवादरवणप्फईकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं कायठिई पन्नत्ता ?, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ | १ समभागं भज्यमानस्य अन्थिशूर्णपनो भवेत् । पृथ्वीसदृशेन भेदेनानन्तकार्य विजानीहि ।। १।। गूढशिराक पत्रं सक्षीरं यच्च भवति ६९२॥ निक्षीरम् । यदपि प्रणष्टसन्धिकं० ॥२॥ २ निगोदसा भदन्त ! कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतोऽपि अन्तर्मुहूर्तम् . ३ प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकानां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता? जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः । दीप अनुक्रम [१५५६ -१५६९] JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1382~ Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||९२-१०५|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [९२ -१०५] दणिओए णं भंते ! णिओदेत्ति कालओ केचिरं होइ ?, जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं अणंताओ ओस प्पिणीओ खेत्तओ अड्डाइजा पोग्गलपरियट्टा वा । बायरनिओयपुच्छा, जहणेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाफोडीओ । सुहुमनिगोयपुच्छा, जहणणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं असंखेजं कालं"ति । तथाऽसञ्जयकालमुत्कृष्टं पनकजीवानामन्तरं, तत उदृत्य हि पृथिव्यादिपूत्पत्तव्यं, तेषु चासङ्खयेयकालैब कायस्थितिरिहापि तथा:भिधानादिति चतुर्दशसूत्रार्थः ॥ प्रकृतमुपसंहरन्नत्तरप्रन्धं च सम्बन्धयितुमिदमाह इचेए थावरा तिथिहा, समासेण वियाहिया । इत्तो उ तसे तिविहे, चुच्छामि अणुपुष्वसो ॥१०६॥ 'इति' इत्येपंप्रकाराः 'एते' पृथिव्यादयः स्थानशीलाः स्थावराः 'त्रिविधाः' त्रिप्रकाराः, प्रयाणामप्यमीषां खयमपस्थितिखभावत्वात् , 'समासेन' सङ्केपेण व्याख्याताः, विस्तरतो शमीषां बहुतरा भेदाः । 'अतः' स्थावरविभक्तेरनन्तरं 'तुः पुनरर्थः प्रसांखिविधान् वक्ष्यामि 'अणुपुचसो'त्ति आनुपूयेति सूत्रार्थः ॥ तेऊ वाऊ य बोद्धव्या, ओराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा, तेर्सि भेए सुणेह मे ॥ १०७॥ । निगोदो भदन्त ! निगोद इति कालतः कियचिरं भवति ?, जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेणानन्तं कालं अनन्ता अवसर्पिण्यः क्षेत्रतोऽर्धेतवीयाः पुद्रलपरावर्ता वा । बादरनिगोदे पृच्छा जपन्यनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सप्ततिः सागरोपमकोटीकोटयः । सूक्ष्मनिगोदे पृच्छा, जपन्ये | नान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं दीप अनुक्रम [१५५६ ********PASAKA! -१५६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1383~ Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [--] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१०७] उत्तराध्य. | 'तेउ'त्ति तेजोयोगात्तेजांसि-अ[त्रा] प्रयतद्वर्सिनो जीवा अपि तथोक्ताः, एवं 'याऊ'त्ति यान्तीति वाययो-या- जीवाजीव वृहद्वृत्तिः दतास्ते च बोद्धव्याः, 'ओराल'त्ति 'उदाराः' एकेन्द्रियापेक्षया प्रायः स्थूला द्वीन्द्रियादय इतियावत् 'चः' समुच्चये साः 'तथेति तेनागमोक्तेन प्रकारेण, उपसंहारमाह-'इती'त्यनन्तरोक्तास्त्रस्यन्ति-चलन्ति देशाद्देशान्तरं संक्राम विभक्ति ॥६९॥ न्तीति प्रसाः 'त्रिविधाः' त्रिप्रकाराः, तेजोवाय्बोश्च स्थावरनामकर्मोदयेऽप्युक्तरूपं त्रसनमस्तीति प्रसत्वं, द्विधा हि| तत्-गतितो लब्धितश्च, यत उक्तम्-“दुविहा खलु तसजीवा-लद्धितसा चेव गतितसा चेव"त्ति, ततश्च तेजोवाय्वोर्गतित उदाराणां च लब्धितोऽपि त्रसत्वमिति, उत्तरग्रन्धसम्बन्धनायाह-'तेषा मिति तेजप्रभृतीनां भेदान् शृणुत 'मे' मम कथयत इति सूत्रार्थः ॥ तत्र तावत्तेजोजीवानाह| दुविहा तेउजीचा उ, सुटुमा वापरा तहा । पज्जसमपज्जत्ता, एवमेव दहा पुणो ॥१०८॥ वापरा जे उ| |पज्जत्सा, गहा ते वियाहिया। इंगाले मुम्मुरे अगणी, अचि जाला तहेव य ॥१०९॥ उक्का विजू य यो ब्वा, गहा एवमायओ। एगविहमनाणत्ता, सुहमा ते वियाहिया ॥११० ।। सुहुमा सव्वलोगंमि, लोगदेसे य थायरा । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउन्विहं ।। १११ ॥ संतई पप्पणाईया, अपज्जवसि-४६ यावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥११२ ।। तिन्नेव अहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया । आउ१ द्विविधाः खलु त्रसजीवा:-लब्धित्रसाश्चैव गतित्रसाधैव दीप अनुक्रम [१५७१] 95% ९३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1384 ~ Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१०८-११६|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१०८ ११६] ठिई तेऊणं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं ॥ ११३ ॥ असंखकालमुकोसा, अंतोमुहुरा जहन्नयं । कायठिई तेऊणं, तं ६ कार्य तु अमुचओ ॥ ११४ ॥ अर्णतकालमुक्कोस, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजदमि सए काए, तेउजीवाण अ-1 तरं ॥ ११५ ।। एएसि बन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो।।११।। दुविहेत्यादिसूत्राणि नव प्रायः प्राग्वत्, नवरम् 'अङ्कारः' विगतधूमज्वालो दह्यमानेन्धनात्मकः 'मुर्मुरः' भस्ममिश्रामिकणरूपः 'अमिः' इहोक्तभेदातिरिक्तो बहिः 'अर्चिः' मूलप्रतिबद्धा ज्वलनशिखा, दीपशिखेत्यन्ये, 'ज्वाला' |छिन्नमूला ज्वलनशिखैवेति सूत्रनवकार्थः ॥ उक्तास्तेजोजीवाः, वायुजीवानाह| दुविहा वाउजीवा प, मुटुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपजत्ता, एवमेव दहा पुणो ॥ ११७ ॥ पायरा जे उ| पजत्ता, पंचहा ते पकित्तिया। उपलियामंडलियाघणगुंजासुद्धयाया य ॥ ११८ ॥ संवगवाए य, णेगहा एवमाअओ। एगविहमणाणत्ता, सहमा तत्थ वियाहिया ॥ ११९॥ सुहमा सव्वलोगंमि, लोगदेसे । |य बायरा । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउब्विहं ॥ १२० ॥ संतई पप्पऽणाईया, अपज्जवसियावि य। ठिई पडच साईया, सपज्जवसियावि य ॥१२१ ॥ तिन्नेव सहस्साई, वासाणुकोसिया भवे। आउठिई वाऊणं, अंतोमुटुत्तं जहन्नयं ॥ १२२ ॥ असंखकालमुकोसा, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । कायठिई वाऊणं, तं कायं तु अमुं KA4%ARAB5 दीप अनुक्रम [१५७२ -१५८० JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1385~ Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||११७-१२४|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत उत्तराध्य- बृहद्वृत्तिः ॥६९४॥ जीवाजीव विभक्तिः सूत्रांक [११७ ३८ १२४] ACADAc cॐ चओ ॥ १२२ ।। अणतकालमुफोसं, अंतोमुहत्तं जहन्न । विजदंमि सए काए, वाउजीवाण अंतरं ॥१२३ ॥ एएसिं वन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १२४ ॥ दुविहेत्यादि सूत्रनवकं प्राग्वत् । 'पञ्चधे' त्युपलक्षणम् , अत्रैवास्यानेकधेत्यभिधानात्, 'उकलियामंडलिया- घणगुंजासुद्धवाया य' वातशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादुत्तलिकावाता ये स्थित्वा स्थित्वा पुनर्वान्ति मण्डलिका- वाता-वातोलीरूपाः धनवाता-रत्नप्रभाद्यधोवर्त्तिनां धनोदधीनां विमानानां पाऽऽधारा हिमपटलकल्या बायको गुञ्जावाता-ये गुञ्जन्तो वान्ति शुद्धवाता-उत्कलिकायुक्तविशेषविकला मन्दानिलादयः, 'संवगवाए यति संवर्तकवाताच-ये बहिःस्थितमपि तृणादि विवक्षितक्षेत्रान्तः क्षिपन्तीति सूत्रनवकार्थः ॥ इत्थं तेजोवायुरूपांत्रसानभिधायोदारत्रसाभिधित्सयाऽऽह ओराला तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिया । येइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव ॥ १२५ ॥ उदाराखसाः 'ये तु' इति ये पुनः 'चतुर्धा' चतुष्प्रकारास्ते प्रकीर्तिताः, यथा चैषां चतुर्द्धात्वं तथाऽऽह-'बेईदिय'त्ति द्वे इन्द्रिये-स्पर्शनरसनाख्ये येषां तेऽमी द्वीन्द्रियाः, एतच निवृत्युपकरणाख्यं द्रव्येन्द्रियमभिप्रेत्योच्यते, भावेन्द्रियापेक्षयकेन्द्रियाणामपीन्द्रियपञ्चकस्यापि सम्भवात् , तथा च प्रज्ञापना-"देर्षिदियं पहुच एगिदिया जीवा १ द्रव्येन्द्रियं प्रतीत्य एकेन्द्रिया जीवा एकेन्द्रिया भावेन्द्रियं प्रतीत्य एकेन्द्रिया अपि जीवा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाग्मतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः 成中六十六十六六十六中本 दीप अनुक्रम [१५८१-१५८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1386~ Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||११७-१२४|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [११७१२४] एगेंदिया भावें दियं पडुच एगेन्दियावि जीवा बेदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिय"त्ति, एवं शेषेष्वपि, तथैव 'तेइंदिय'त्ति त्रीन्द्रियाः-येषां वे ते एव तृतीयं ब्राणं, 'चउरी'त्ति प्रक्रमाचतुरिन्द्रियाः येषां त्रीण्युक्तरूपाणि चतुर्थं चक्षुः, पञ्चेन्द्रियाश्चैव-येपामेतान्येव चत्वारि पञ्चमं श्रोत्रमिति सूत्रार्थः ॥ सत्र तावद् द्वीन्द्रियवक्तव्यतां प्रतिपिपादयिपुरिदमाह बेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १२६ ॥ किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माहवाहया । वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा ॥१२७ ।। पल्लोयाणु- दिल्लपा चेव, तहेव य वराडगा । जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव प॥१२८॥ इति बेइंदिया एए. गहा एवमायओ। लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया ॥ १२९ ।। संतई पप्पडणाईया, अपज्जब४/सियाचि य । ठिई पडच्च साईया, सपज्जवसियावि य॥१३० ॥ वासाई वारसेव उ, उकोसेण वियाहिया। बेईदियआउठिई, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ १३१ संखिजकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । बेइंदियकायठिई, सतं कार्य तु अमुंचओ॥ १३२॥ अणंतकालमुकोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । इंदियजीवाणं, अंतरेयं वियाहियं । 18॥१३३ ॥ एएर्सि वन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १३४॥ बेइंदिया इत्यादि सूत्रनवकम् , इदमपि प्रायस्तथैव, नवरं द्वीन्द्रियाभिलापः कर्त्तव्यः, तथा 'कमयः' अशुच्यादि दीप अनुक्रम [१५८१-१५८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1387~ Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१२६-१३४|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१२६१३४] उत्तराध्य. सम्भयाः 'अलसाः' प्रतीताः 'मातृवाहकाः' ये काष्ठशकलानि समोभयाग्रतया संघभन्ति, वास्याकारमुखा पासी- जमाती मुखाः, 'सिप्पिय'त्ति प्राकृतत्वात् शुक्तयः 'शङ्खाः' प्रतीताः 'शङ्खनकाः' तदाकृतय एवात्यन्तलघवो जीवाः 'वरा-3 बृहद्वृत्तिः टकाः' कपर्दकाः 'जलौकसः' दुष्टरक्ताकर्षिण्यः चन्दनका-अक्षाः, शेपास्तु यथासम्प्रदायं वाच्याः, वर्षाणि द्वादशैव विभक्ति. ॥६९५|| विति सूत्रनवकार्थः ॥ त्रीन्द्रियवक्तव्यतामाह तेइंदिया य जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेर्सि भेए सुणेह मे ॥ १३५॥ कुंथुपिवीलिउइंसा, उक्कलुहिया तहा। तणहारा कट्ठहारा य, मालूगा पत्तहारगा ॥ १३६॥ कप्पासिऽहिमिंजा य |र्तिदुगा तउसर्मिजगा । सदावरी य गुम्मी य, बोद्धव्वा इंदगाइ य ॥ १३७ ॥ इंदगोवसमाइया, गहा एव-12 मायओ। लोएगदेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया ॥ १३८॥ संतई पपडणाईया, अपज्जवसियावि य ।। दाठिई पडुच साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १३९ ॥ एगूणवन्नऽहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया | तेइंदिय आउठिई, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ १४० ॥ संखिजकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । तेइंदियकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ॥१४१॥ अर्णतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । तेइंदियजीचाणं, अंतरेयं वियाहियं ॥१४२।। एएसिं| टावन्नओ चेव, गंधो रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१४३ ॥ | ॥६९५॥ । तेंदिएत्यादि सूत्रनवकम् , एतदपि पूर्ववत् , नवरं त्रीन्द्रियोचारणं विशेषः । तथा कुन्थवः-अनुद्धरिप्रभू-| दीप अनुक्रम [१५९१-१५९९] Thacha मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1388~ Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१३५-१४३|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) । % प्रत % सूत्रांक [१३५ % -१४३] तयः पिपीलिका:-कीटिकाः गुंमी-शतपदी, एवमन्येऽपि यथासम्प्रदाय वाच्याः, एकोनपञ्चाशदहोरात्राण्यापुरस्थितिरिति सूत्रनवकार्थः ॥ चतुरिन्द्रियवक्तव्यतामाह| चारिदिया उजे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पजत्तमपज्जत्सा, तेर्सि भेए सुणेह मे ॥ १४४ ॥ अंधिया पुत्तिया चेव, मच्छिया मसगा तहा। भमरे कीडपयंगे य, डिंकणे कुंकणे तहा ॥१४५॥ कुकडे सिंगिरीविडीय, नंदावते य विच्छिए । होले भिगिरिडिओ, विरिली अच्छिवेहए ॥ १४६ ॥ अच्छिरे माहले अच्छि रोडए], विचित्ते चित्तपत्तए । ओहिंजलिया जलकारी, यनीया तंबगाइ या ॥१४७॥ इह चरिंदिया एए, गहा एवमायओ। लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वे परिकित्तिया ॥१४८॥ संतई पपणाईया, अपज्जवसियावि / दाय। ठिई पडच साईया, सपञ्जवसियावि य ॥१४९॥ छच्चेव य मासाऊ, उकोसेण वियाहिया । चरिंदिय, आउठिई, अंतोमुहत्तं जहन्नयं ।। १५० ॥ संखिजकालमुक्कोसं, अंतोमुहसं जहन्नयं । चारिदियकायठिई, तं: कार्य तु अमुंचओ ॥१५१॥ अर्णतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजमि सए काए, अंतरेयं वियाहियं । द॥१५२॥ एएसि वन्नओ चेच, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १५३॥ | चरिदिएत्यादि सूत्रदशकम् , इदमपि तथैव, चतुरिन्द्रियामिलाप एव विशेषः । एतद्भेदाश्च केचिदप्रतीता एवान्ये तु तत्तद्देशप्रसिद्धितो विशिष्टसम्प्रदायाचाभिधेयाः, तथा पडेव मासानुत्कृष्टैषां स्थितिरिति सूत्रदशकाः ॥ पञ्चेन्द्रियवक्तव्यतामाह % दीप अनुक्रम [१६००-१६०८]] %* * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1389~ Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१४४-१५४|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) वृहद्भुत्तिः प्रत सूत्रांक [१४४ ॥६९६॥ ३६ KRICA १५४] उत्तराध्या पचिंदिया उ जे जीवा, चउविहा ते चियाहिया। नेरइय तिरिक्खा य, मणुया देवा य आहिया ॥ १५४ ॥ जीवाजीव दा पथेन्द्रियास्त ये जीवाश्चतुर्षिधास्ते व्याख्याताः, तद्यथा-'णेरइय तिरिक्खा यत्ति नैरयिकास्तियचथ मनुजा देवाश्च 'आख्याताः' कथितास्तीर्थकरादिभिरिति सूत्रार्थः ॥ तत्र तावन्नैरयिकानाह1* नेराया ससबिहा, पुढवीसू सत्तम् भवे । रयणाभसकराभा, वालुयाभा य आहिया ॥ १५५॥ पंकाभा । धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया ॥१५६ ॥ लोगस्स एगदेसंमि, तेका सब्वे उ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छ चउग्विहं ॥१५७ ॥ संतई पप्पडणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडच साईया, सपनवसियावि य ॥ १५८ ॥ सागरोवममेगं तु, उकोसेण वियाहिया । पढमाइ जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ।। १५९॥ तिन्नेव सागराऊ, उकोसेण वियाहिया। दुचाए जहन्नेणं, दाएग तू सागरोवमं ॥१६०॥ सत्तेव सागराऊ, उक्कोसेण विवाहिया । तईयाए जहम्नेणं, तिनेव उ सागरोघमा ॥ ११ ॥ दससागरोवमाऊ, उकोसेण वियाहिया । चउत्थीद जहन्नेणं, सत्तेव उ सागरोवमा ।।१६२॥ सत्तरससागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया। पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव उ सागरा ॥१६३ ॥ यावीससागराका |उक्कोसेण वियाहिया । छट्ठीद जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥१४॥ तित्तीससागराऊ, उकोसेण वियाहिया। र सत्तमाए जहन्नेणं, घावीसं सागरोवमा ॥ १३५ ॥ जा चेव उ आउठिई, नेरहयाणं वियाहिया । सा तेसि || दीप अनुक्रम [१६०९-१६१९] ॥६९६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1390 ~ Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-/ गाथा ||१५५-१६८|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१५५१६८] शकायठिई, जहनुकोसिया भवे ॥ १६६ ॥ अर्णतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजदंमि सए काए, नेर: याणं तु अंतरं ॥ १६७ ॥ एएसि वन्नओ घेव, गंधो रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१८॥ I नेरइएत्यादि चतुर्दश सूत्राणि । नैरयिकाः 'ससविधाः' सप्तप्रकाराः, किमिति ?, यतः पृथ्वीषु ससस 'भवेत्ति भवेयुः, हि ततस्तद्भेदात्तेषां सप्तविधत्वमिति भावः, काः पुनस्ताः सप्त ? इत्याह-रयणाभ'त्ति रत्नानां-वैडूर्यादीनामाभानमाभा-[3] & खरूपतः प्रतिभासनमस्यामिति रनाभा, इत्थं चैतत् , तत्र रत्नकाण्डस्य भवनपतिभवनानां च विविधरनवतां सम्भ-I चात्, एवं सर्वत्र, नवरं शर्करा-लक्ष्णपापाणशकलरूपा तदाभा, 'धूमामेति यद्यपि तत्र धूमासम्भवस्तथाऽपि तदाकारपरिणतानां पुद्गलाना सम्भवात् , तमोरूपत्वाच तमः, प्रकृष्टतरतमस्त्वाच तमस्तमः, 'इति' इत्यमुना पृथि-14 टीपीसप्तविधत्वलक्षणेन प्रकारेण नैरयिका एते सप्तधा प्रकीर्तिताः । 'लोगस्से'त्यादिसूत्रद्वयं क्षेत्रकालाभिधायि प्राग्यत् । सादिसपर्यवसितवं द्विविधस्थित्यभिधानद्वारतो भावयितुमाह-सागरोपममेकं तूत्कृष्टेन व्याख्याता 'प्रथमायां' प्रक्रमानरकपृथिव्यां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि यस्यां सा दशवर्षसहस्रिका, प्रस्तावादायुःस्थिति रयि-I काणामितीहोत्तरसूत्रेषु च द्रष्टव्यम् । त्रीण्येव 'सागरे'ति सागरोपमाणि 'तुः' पूरणे उत्कृष्टेन व्याख्याता द्विती-4 है यायां, 'जहणेणं'ति उत्तरत्र तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थस्य भिन्नक्रमत्वेनेह सम्बन्धाजघन्येन पुनरेकं सागरोपमम् । दीप अनुक्रम [१६२०-१६३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1391~ Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१५५-१६८|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१९॥ जीवाजीव विभक्ति सूत्रांक ३६ [१५५१६८] सप्तव सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता तृतीयायां, जघन्येन पुनस्त्रीण्येव सागरोपमाणि, दश सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता चतुर्थी, जघन्येन सप्तैव तु सागरोपमाणि । सप्तदश सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता पञ्चम्यां, जघन्येन दश चैव तु सागरोपमाणि द्वाविंशतिः सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता पष्ठयां, जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि । त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता सप्तम्यां नरकधियां, जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि ॥ आयुःस्थितिरुवा, कायस्थितिमाह-'या चेति चशब्दो वक्तव्यतान्तरोपन्यासे 'एवेति भिन्नक्रमः |'चः पुनरर्थः, ततो यैव च पुराऽऽयुःस्थिति रयिकाणां व्याख्याता 'सि'त्ति एवकारस्य गम्यमानत्वात्सैव तेषां कायस्थितिर्जघन्योत्कृष्टा भवेत् , इत्थं चैतत् , तत उत्तानां पुनस्तत्रैवानुपपत्तेः, ते हि तत उदृत्य गर्भजपर्याप्सकसयेयवर्षायुष्ष्वेवोपजायन्ते, यत उक्तम्-"णरगाओ उबट्टा गम्भे पजत्तसंखजीवीसु । णियमेण होइ वासो" इत्यादि। अन्तरविधानाभिधायि सूत्रद्वयं प्राग्वत् , नवरमन्तर्मुहूर्त जघन्यमन्तरं, यदाऽन्यतरनरकादुदृत्य कश्चिजीवो गर्भजपर्याप्सकमत्स्यादिपूत्पद्यते, तत्र चातिसंक्लिष्टाध्यवसायोऽन्तर्मुहूर्त्तमानायुः प्रतिपाल्य मृत्वाऽन्यतमनरक एवोपजायते तदा लभ्यत इति भावनीयमिति चतुर्दशसूत्रार्थः॥ इत्थं नैरयिकानभिधाय तिरश्च आह पंचिंदियतिरिक्खा उ, दुविहा ते वियाहिया । समुच्छिमतिरिक्खा ज, गन्भवतिया तहा ॥१९॥ १ नरकाद्वृत्तानां गर्भजेषु पर्याप्तसंख्यजीविषु नियमान् भवति धासः । दीप अनुक्रम [१६२०-१६३३] ॥६९७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1392~ Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१६९-१९२|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१६९ १९२] दुविहावि ते भवे तिषिहा, जलयरा धलयरा तहा। खहयरा य योद्धब्वा, तेर्सि भेए सुणेह मे ॥१७०॥ मच्छा काय कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा । सुसमारा य बोद्धव्वा. पंचहा जलयराहिया ॥ १७१ ॥ लोएगदेसे ते सब्चे, न सव्वत्थ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, तेर्सि वुच्छं चउब्विहं ।। १७२ ॥ संतई पप्पडणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपञ्जवसियावि य ॥१७३ ॥ इकाय पुब्चकोडीओ, उक्कोसेण वियाहिया । आउठि जलयराण, अंतोमुहत्तं जहन्नयं ॥ १७४ ।। पुब्बकोडीपुरतं तु, उक्कोसेण विवाहिया। कायठिई जलयराणं, अंतोमुहत्तं जहन्नपं ॥ १७५ ॥ अणंतकालमुफोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजदंमि सए काए, जलयराणं तु अंतरं ॥ १७६ ॥ एएर्सि वन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, वि-11 हाणाई सहस्ससो ।। १७७॥ चप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चाउविहा उ, ते में कित्तयओ सुण ॥ १७८ ॥ एगखुरा दुखुरा चेव, गंडीपयसनष्फया । हयमाह गोणमाई, गयमाई सीहमाइणो ॥ १७९ ॥ भुओरगपरिसप्पा, परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई अहिमाईया, इकिका गहा भये ॥१८॥ लोएगदेसे ते सव्वे, न सब्बत्थ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं बुच्छं चम्विहं ॥ १८१॥ दि संतई पप्पणाईया, अपजवसियावि य । ठिई पहुच साईया, सपजवसियाचि य॥ १८२॥ पलिओचमा उ| IM तिनि उ, उक्कोसण वियाहिया । आउठिई थलयराणं, अंतोमहतं जहन्नयं ॥१८३ ॥ पलिओवमा उ तिन्नि उ, उक्कोसेणं वियाहिया । पुब्धकोडीपुहुत्तं तु, अंतोमुहुतं जहन्नयं ॥१८४ ॥ कापठिई थलयराणं, अंतरं दीप अनुक्रम [१६३४-१६५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1393~ Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१६९-१९२|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१६९ १९२] उत्तराध्य. तेसिमं भवे । कालं अणतमुकोस, अंतोमुहत्तं जहन्नयं ॥ १८५॥ विजदंमि सए काए, थलयराणं तु अंतरं। जीवाजीव चम्मे उ लोमपक्खी या, तइया समुग्गपक्खिया ॥ १८६॥ विययपक्खी य बोद्धब्बा, पक्खिणो य चउ-14 विहा । लोएगदेसे ते सम्बे, न सम्बत्थ वियाहिया ॥ १८७ ।। संतई पप्पऽणाईया, अपजवसियावि य । ठिई 5 ॥६९८॥ दापडच साईया, सपजवसियावि य ॥१८८॥ पलिओवमस्स भागो, असंखिजहमो भवे । आउठिई खहय राणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ १८९ ॥ असंखभागो पलियस्स, उक्कोसेण उ साहिओ । पुव्वकोडीपुटुत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥१९०॥ कापठिई वहयराणं, अंतरं ते रेय)वियाहियं । कालं अणंतमुकोसं, अंतोमुहुतं । जहन्नयं ॥ १९१ ॥ एएसिं वन्नओ चेव, गंधओरसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो १९२ पञ्चेन्द्रियेत्यादि सूत्राणि पञ्चवि(चतुर्विशतिर्व्याख्यातप्रायाण्येव, नवरमायसूत्रद्वयमुद्देशतो भेदाननन्तरप्रन्थससम्बन्धं चाभिदधाति, अत्र संमूर्छनं संमूर्छा-अतिशयमूढता तया निर्वृत्ताः संमूछिमाः, यदिवा समित्युत्पत्तिस्थान पुद्गलैः सहकीभाषेन मूर्च्छन्ति-तत्पदलोपचयात्समुच्छिता भवन्तीयौणादिक इम्प्रत्यये संमूछिमास्ते च ते तियश्चः| |संमूछिमतियञ्चो ये मनःपर्याप्त्यभावतः सदा संमूलिता इचावतिष्ठन्ते, तथा गर्ने व्युत्क्रान्तिर्येषां तेऽमी गर्भव्यु- १९८॥ क्रान्तिकाः । जले चरन्ति-गच्छन्ति चरेर्भक्षणमित्यर्थ इति भक्षयन्ति चेति जलचराः, एवं स्थलं-निर्जलो भूभागस्तस्मिंश्चरन्तीति स्थलचराः, तथा 'खहयर'त्ति सूत्रत्वात्खम्-आकाशं तस्मिंश्चरन्तीति खचराः। 'यथोद्देशं निर्देश M दीप अनुक्रम [१६३४-१६५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1394~ Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१६९-१९२|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१६९ १९२] XXXASAN इति जलचरभेदानाह-'मत्स्याः' मीनाः 'कच्छपाः' कूर्माः गृहन्तीति पाहा:-जलचरविशेषा मकराः संसुमारा अपि तद्विशेषा एव । 'लोएगदेसे'त्यादिसूत्राणि षट् क्षेत्रकालभावाभिधायीनि, तह पृथक्त्वं द्विप्रभृत्यानवान्तम्। दास्थलचरभेदानाह-परि-समन्तात्सर्पन्ति-गच्छन्तीति परिसपोः, एकखुरादयश्च हयादिप्रभृतिभिर्यथाक्रम योज्यन्ते, तत एकः खुर-चरणे येपामधोवत्त्येस्थिविशेषो येषां ते एकखुराः-हयादयः एवं 'द्विखुराः' गवादयो गण्डी-पनकर्णिका तत्ततया पदानि येषां ते गण्डीपादा-जादयः 'सणप्फ'त्ति सूत्रत्वात्सह नखैःनखरात्मकैवर्तन्त इति सनखानि तथाविधानि पदानि येषां ते सनखपदाः-सिंहादयः । 'भुओरगपरिसप्पा यत्ति परिसर्पशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततो भुजा इव भुजाः-शरीरावयवविशेषास्तैः परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः, माउरो-यक्षस्तेन परिसर्पन्तीत्युर परिसः, तस्यैव तत्र प्राधान्यात्, गोधादयः अहिः-सर्पस्तदादय इति यथा-1 क्रमं योगः, एते च 'एकैके' इति प्रत्येकम् 'अनेकधा' अनेकभेदाः, गोधेरकनकुलादिभेदतो गोणसहाचप्रलापादादिभेदतः । पल्योपमानि तु त्रीण्युत्कृप्टेन तु साधिकानि पूर्वकोटीपृथक्त्वेन-उक्तरूपेण, पल्योपमायुषो हि ते न पुनस्तत्रैवोत्पद्यन्ते, ये तु पूर्वकोव्यायुषो मृत्वा तत्रैवोपजायन्ते तेऽपि सप्ताष्ट वा भवग्रहणानि यावत्, पञ्चेन्द्रियनरतिरथामधिकनिरन्तरभवान्तरासम्भवात्, उक्तं हि-"सत्त? भवा उ तिरिमणुग'त्ति, अत एतावत एवाधिकस्य १ सप्ताष्ठभवान् तिर्यग्मनुष्याः दीप अनुक्रम [१६३४-१६५७] wajaniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1395 Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१६९-१९२|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत वृहदृत्तिः सूत्रांक २६ [१६९ १९२] उत्तराध्य. सम्भव इति भावना । खचरानाह-'चम्मे उ'त्ति प्रक्रमात् 'चर्मपक्षिणः' चर्मचटकाप्रभृतयः, चर्मरूपा एव हि जीवाजीव तेषा पक्षा इति, तथा रोमप्रधानाः पक्षा रोमपक्षास्तद्वन्तः रोमपक्षिणः-राजहंसादयः 'समुद्गपक्षिणः' समुद्का-| कारपक्षवन्तः, ते च मानुषोत्तरादहि-पवर्तिनः, 'विततपक्षिणः' ये सर्वदा विस्तारिताभ्यामेव पक्षाभ्यामासते। हा विभक्ति ॥६९९॥ इह च यत्क्षेत्रस्थित्यन्तरादि प्रत्येकं प्राक्तनेन सदृशमपि पुनः पुनरुच्यते न पुनरतिदिश्यते तत्प्रपञ्चितज्ञविनेयानुन-AT हार्थमेवंविधा अपि प्रज्ञापनीया एवेति ख्यापनार्थ चेत्यदुष्टमेवेति भावनीयमिति पञ्चविं(चतुर्विंशतिसूत्रार्थः ॥ इत्थं तिरथोऽभिधाय मनुजानभिधातुमाह| मणुया दुविहभेया उ, ते मे कित्तयओ सुण । समुच्छिमाइ मणुया, गन्भवतिया तहा ॥ १९३ ॥ गन्भ वतिया जे उ, तिविहा ते वियाहिया । अकम्मकम्मभूमा य, अंतरद्दीवगा तहा ॥ १९४ ॥ पनरस तीस-17 साइविहा, भेआ अट्ठावीसई । संखा उ कमसो तेसिं, इह एसा वियाहिया ॥१९॥ संमुफिछमाण एसेव, भेओर होइ आहिओ। लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वेवि वियाहिया ॥ १९६ ॥ संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया-14 ६९९|| |विय । ठिई पद्धच साईया, सपजवसियावि य॥१९७ ॥ पलिओवमाई तिनि य, उकोसेण वियाहिया ।। आउठिई मणुयाणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥१९८ ॥ पलिओवमाई तिन्नि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुष्वकोडिपुष्टुत्तेणं, अंतोमुत्तं जहन्नयं ॥ १९९॥ कायटिई मणुयाणं, अंतरं तेसिमं भवे । अर्णतकालमुकोसं, दीप अनुक्रम [१६३४-१६५७] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1396~ Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१९३-२०१|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१९३ २०१] ४ अंतोमुत्तं जहन्नयं ॥ २०० ॥ एएसि वन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई 2 सहस्ससो ॥ २०१॥ & मणुएत्यादि सूत्रनवकं प्राग्वत् , नवरम् 'अकम्मकम्मभूमा यत्ति भूमेत्यस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात्सूत्रत्वाचाकर्मभूमौ | भवा अकर्मभूमा एवं कार्मभूमाश्च, अन्तरम्-इह समुद्रमध्यं तस्मिन् द्वीपा अन्तरद्वीपास्तेषु जाता अन्तरद्वीपजाः। || पनरसतीसइविह'त्ति विधशब्दस प्रत्येकमभिसम्बन्धात्पञ्चदशविधाः कार्मभूमाः, कर्मभूमीनां पञ्चदशसश्यत्वात्,IPI तद्भेदे चामीषामिह भेदस्थाभिधित्सितत्वात् , पञ्चदशसङ्ख्यात्वं च भरतैरावतविदेहानां प्रयाणां प्रत्येकं पञ्चसंख्य-18 नत्वात् , त्रिंशद्विधा अकर्मभूमाः, अत्राप्यकर्मभूमीनामेतावत्सङ्घयत्वं हेतुः, ता हि हैमवतहरिवर्षरम्यकहैरण्यवतदेव| कुरुत्तरकुरुरूपाः पद प्रत्येकं पञ्चसज्ञापत्वेन त्रिंशद्भवन्ति, इह च क्रमत इत्यक्तावपि पश्चानिर्दिष्टानामपि कार्मभ-12 मानां मुक्तिसाधकत्वेन प्राधान्यतः प्रथमं भेदाभिधानं, पठन्ति च-तीसंपन्नरसविहे'ति, तत्र च यथोद्देशं सम्बन्धो, भेदाश्चाष्टाविंशतिरन्तरद्वीपजानामिति विभक्तिपरिणामेन सम्बन्धनीयम् , इत्थं चैतत्तत्सङ्ख्यत्वादन्तरद्वीपानां, ते हि हिमवतः पूर्वापरप्रान्तविदिक्रप्रसृतकोटिषु त्रीणि त्रीणि योजनशतान्यवगाव तावन्त्येव योजनशतान्यायामवि४ स्तराभ्यां प्रथमेऽन्तरद्वीपाः, ततोऽप्यकेकयोजनशतवृद्धावगाहनया योजनशतचतुष्टयायायामविस्तरा द्वितीयादयः पट, तेषां च पूर्वोत्तरादिक्रमात्प्रादक्षिण्यतः प्रथमस्थ चतुष्कस्य एकोरुक १ आभाषिको २ लालिको ३ वैषाणिक ४ दीप अनुक्रम [१६५८-१६६६] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1397~ Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१९३-२०१|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१९३ इति नाम, द्वितीयस्य हयकर्णो १ गजकणों २ गोकर्णः ३ शकुलीकर्णः ४, तृतीयस्य आदर्शमुखो १ मेषमुखो २ उत्तराध्य. जीवाजीव हयमुखो ३ गजमुखः ४, चतुथैयाश्वमुखो १ हस्तिमुखः २सिंहमुखो ३ व्याप्रमुखः ४, पञ्चमस्याश्वकर्णः १ सिंह-II बृहद्वृत्तिः विभक्तिः कर्णः २ गजकर्णः ३ कणेप्रावरणः ४, षष्ठस्योल्कामुखो १ विद्युन्मुखो २ जिह्वामुखी ३ मेघमुखः ४, सप्तमस्य । ॥७००॥ घनदन्तो १ गूढदन्तः २ श्रेष्ठदन्तः ३ शुद्धदन्त ४ इति, एतन्नामान एव चैतेषु युगलधार्मिकाः प्रतिवसन्ति, तच्छ- ३६ रीरमानायभिधायि चेदं गाथायुगलम्-"अंतरदीवेसु णरा धणुसय अटूसिया सया मुइया । पालंति मिहुणभावं पलस्स असंखभागाऊ ।।१॥ चउसट्ठी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स अउणसीइदिणाण पालणया ॥२॥" एतेऽपि शिखरिणोऽपि पूर्वापरप्रान्तविदिप्रसृतकोटिपूतन्यायतोऽष्टाविंशतिः सन्ति, पूर्वस्माचैषां भेदेनाविवक्षितत्वान्न सूत्रेऽष्टाविंशतिसञ्जयविरोध इति भावनीयम् । संमूर्छिमानाम् 'एष एव' इत्यकर्मभूमादिगर्भजानां य उक्तः 'भेदः' नानात्वं भवत्याख्यातः, ते हि तेषामेव वान्तपित्तादिषु संभवन्ति, तथा चागम:| "गम्भवकंतियमणुस्साणं चेव उचारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा तेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा १ अन्तरद्वीपेषु नरा धनुःशताष्टोच्छूिताः सदा मुदिताः । पालयन्ति मिथुनभावं पल्यस्यासंख्यभागायुषः ॥ १ ॥ चतुःषष्टिः पृष्ठकरण्ड- A७००॥ 8/कानां मनुजानां तेषामाहारः । भक्तेन चतुर्थेन एकोनाशीतिदिनानि पालनम् ॥ २॥२ गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामेव उचारेषु वा प्रभवणेषु ६चा श्लेष्मसु वा सिवाणषु वा वान्तेषु वा पितेषु वा पूयेषु वा ASNACHAR २०१] 4 % दीप अनुक्रम [१६५८-१६६६] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1398~ Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||१९३-२०१|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [१९३ २०१] सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयकडेवरेसु वा धीपुरिससंजोएसु वा गामनिद्धमणेसु वा बाणगरणिद्धमणेसु वा सबेसु चेव असुइठाणेसु इत्थ णं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेजाइभागमेचाए : ओगाहणाए" इत्यादि, पल्योपमानि त्रीण्यायुःस्थितिरिति युगलधार्मिकापेक्षया । कायस्थितिश्च पल्योपमानि त्रिीणि पूर्वकोटिपृथक्त्वेनाधिकानीति गम्यते, एतच तिर्यकायस्थित्यभिहिताभिप्रायेण विज्ञेयम् , अन्तरस्य चानन्तकालत्वं साधारणवनस्पतिकायस्थित्यपेक्षयेतिसूत्रनवकार्थः ॥ इत्थं मनुष्यानभिधाय देवानाह देवा चउब्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण । भोमिजवाणमंतर जोइस वेमाणिया तहा ॥ २०२॥ * 'देवा' उक्तनिरुक्ताः 'चतुर्विधाः' चतुष्प्रकारा उक्तास्तीर्थकरादिभिरिति गम्यते, 'ते' इति तान् देवान् 'मे' मम 'कीर्तयतः' प्रतिपादयतः 'शृणु' आकर्णय, शिष्यं प्रतीदमाह, तत्कीर्तनं च न भेदाभिधानं विनेति तद्भेदा-BI नाह-'भोमिज'त्ति भूमी-पृथिव्यां भवाः भौमेयकाः-भवनवासिनो, रत्नप्रभापृथिव्यन्तभूतत्वात्तद्भवनानाम्, उक्त /X दाहि-"इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेहा १ शोणितषु वा शुक्रेषु वा शुक्रपुद्रलपरिशाटेषु वा बिगतकलेवरेषु वा श्रीपुरुषसंयोगेषु वा ग्रामनिर्धमनेषु वा नगरनिर्धमनेषु वा सर्वेष्वेवाशुचिस्थानेषु अत्र संमूछिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति अड्डलस्यासंख्यावतमभागमात्रयाऽवगाहनया २ अस्या रजप्रभायाः पृथ्व्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया उपर्येक योजनसहवं भवगायाधस्ता दीप अनुक्रम [१६५८-१६६६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 1399~ Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२०२|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२०२] उत्तराध्य. चे' जोयणसहस्सं बजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरजोयणसयसहस्से, एत्थ णं भवणयासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओजीवाजीव वायत्तरि च भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खाय" 'वाणमंतर'त्ति भाषेत्वाद् विविधान्यन्तराणि-उत्कर्षाबृहद्वृत्तिः पकर्षात्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दरविवरादीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः, उक्तं हि "ते अधस्तिर्य- विभक्ति. ॥७०१॥ गूर्व च त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तः खातन्यात्पराभियोगाच प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचारान्मनुष्यानपि कचि मृत्यबदुपचरन्ति, तथा विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्त्यतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते," 'जोइसत्ति, दयोतयन्तीति ज्योतींषि-विमानानि तन्निवासित्वाइवा अपि ज्योतींषि, ग्रामः समागत इत्यादौ तन्निवासिजनमा*मवत् , विशेषेण मानयन्ति-उपभुञ्जन्ति सुकृतिन एतानीति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः, 'तथेति समुचये इति सूत्रार्थः । एषामेवोत्तरभेदानाह दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया, दुविहा बेमाणिया तहा ॥२०३ ॥ 'दशधा वि'ति दशधैव 'भवणवासित्ति भवनेषु वस्तुं शीलमेषामिति भवनवासिनः 'अष्टधा' अष्टप्रकारा पने-विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः-ज्यन्तराः। ॥७०१॥ १कं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्येऽष्टसप्ततियोजनशतसहस्रे, अत्र भवनवासिनां देवानां सप्त भवनकोटयो द्वासप्ततिश्च भवनावासशतसहस्राणि (च) भवन्ति इत्याख्यातं दीप अनुक्रम [१६६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1400~ Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [--] / गाथा ||२०३|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२०३] 'पञ्चधा' पञ्चप्रकाराः 'जोइसिय'त्तिज्योतिष्णु-विमानेषु भवा ज्योतिष्का ज्योतीष्येव वा ज्योतिष्काः, द्विविधा पैमानि-1 कास्तथेति सूत्रार्थः ॥ एतानेव च नाममाहमाह| असुरा नागमुवण्णा, विज्जू अग्गी अ आहिया । दीवोदही दिसा वाया, धणिया भवणवासिणो| ॥२०४ ॥ पिसाय भूया जक्खा य रक्खसा किन्नरा य किंपुरिसा । महोरगा य गंधब्वा अहविहा वाणहै मंतरा ॥ २०५ ॥ चंदा सूरा य नक्षत्ता, गहा तारागणा तहा । दिसाविचारिणो चेच, पंचहा। जोइसालया ।। २०६॥ वेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते पकित्तिया । कप्पोवगा य बोद्धव्वा, कप्पाईया तहेव य॥२०७॥ कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा । सणंकुमारमाहिंदा, बंभलोगा य लंतगा ॥ २०८ ॥ महासुका सहस्सारा, आणया पाणया तहा। आरणा अञ्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा ॥२०९।। कप्पाइया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया । गेविजगाणुत्तरा चेव, गेविजा नवविहातहिं ॥२१०॥हिहिमा हहिहिमा चेव, हिडिमा मजिसमा तहा । हिडिमा उधरिमा चेच, मजिसमा हिडिमा तहा ॥ २११ ॥ मजिसमा मज्झिमा चेव, मज्झिमा उवरिमा तहा । उवरिमाहिडिमा चेव, उवरिमा मज्झिमा तहा ॥ २१२॥ उपरिमा |उवरिमा चेव, इइ गेविज्जगा सुरा । विजया वेजयंता य, जयंता अप्पराजिया ॥२१३॥ सव्वट्ठसिद्धगा चेव, झापंचहाणुत्तरा सुरा । इह चेमाणिया एए, णेगहा एबमायओ॥ २१४ ॥ दीप अनुक्रम [१६६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1401~ Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२०४ -२१४] दीप अनुक्रम [१६६९ -१६७९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥७०२ ॥ “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || २०४-२१४|| निर्युक्तिः [५५६...], अध्ययनं [ ३६ ], Education intimation 'असुरेत्यादिसूत्राण्येकादश प्रायः प्रतीतान्येव, नवरम् 'असुराः' इत्यसुरकुमाराः, एवं नागादिध्वपि कुमारशब्दः सम्बन्धनीयः सर्वेऽपि मी कुमाराकारधारिण एव यथोक्तं- " कुमारवदेव कान्तदर्शनाः सुकुमाराः मृदुमधुर| ललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारबच्चोद्धतरूपवेष भाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवञ्चोवणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते" । 'तारागणाः' इति प्रकीर्णकतारकसमूहाः, दिशासु विशेषेणमेरुप्रादक्षिण्यनित्यचारितालक्षणेन चरन्ति - परिभ्रमन्तीत्येवंशीला दिशाविचारिणः, तद्विमानानि कादशभिरेकविंशैर्योजनशतैर्मेरो श्वतसृष्यपि दिश्ववाधया सततमेव प्रदक्षिणं चरन्तीति तेऽप्येवमुक्ताः, ज्योतींषि-उक्तन्यायतो विमानान्यालया-आश्रया येषां ते ज्योतिरालयाः । कल्प्यन्ते - इन्द्रसामानिक त्रायस्त्रिंशादिदशप्रकारत्वेन देवा एतेध्विति कल्पा देवलोकास्तानुपगच्छन्ति- उत्पत्तिविषयतया प्रामुवन्तीति कल्पोपगाः, कल्पान्-उक्तरूपानतीताः तदुपरिवर्त्तिस्थानोत्पन्नतया निष्क्रान्ताः कल्पातीताः । 'सोहम्मीसाणग'त्ति सुधर्मा नाम शक्रस्य सभा (सा) ऽस्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः स एवामवस्थितिविषयोऽस्तीति सौधर्मिणः, तथेशानो नाम द्वितीयदेवलोकस्तन्निवासिनो देवा अपि ईशानास्त एवेशानकाः एवमुत्तरत्रापि व्युत्पत्तिः कार्याः । प्रीवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जूपरिवर्त्ती प्रदेशस्तस्मिन्निविष्टतयाऽतिभ्राजिष्णुतया च तदाभरणभूता ग्रैवेया- देवावासास्तन्निवासिनो देवा अपि मैवेयाः, न विद्यन्ते उत्तराः - प्रधानाः स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः, 'हेडिम' ति Forest Use Only भाष्यं [ १५...] ~ 1402~ जीवाजीच विभक्ति० ३६ ॥७०२ ॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२०४-२१४|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२०४ -२१४] अधस्तना उपरितनपकापेक्षया प्रथमात्रयस्तेष्वपि 'हेटिम'त्ति' अधस्तनाः अधस्तनाधस्सनाः-प्रथमत्रिकाधोपर्तिनः 'हेडिमा मज्झिमा तह'त्ति 'अधस्तनमध्यमाः' प्रथमत्रिकमध्यवर्तिनः, हिद्विमा उचरिमा चेव'त्ति 'अधस्तनोपरितनाः' प्रथमत्रिकोपरिवर्तिनः, मध्ये भवा मध्यमा-मध्यमत्रिकवर्तिनस्तेष्वध्यधस्सना मध्यमाधस्तनाः, एवं मध्यममध्यमा मध्यमोपरितनाः, उपरितना-उपरिवर्तित्रिकवर्तिनस्तेष्वधस्तना उपरितनाधस्तनाः, एवमुपरितनमध्यमा उपरितनोपरितनाः, 'इति' भेदसमासौ, तत एतावद्भेदा एव अवेयकाः सुराः, अभ्युदयविघ्नहेतून् विजयन्त इति विजयास्तथैव वैजयन्ताः, 'उणादयो बहुल मिति (पा-३-३-१) बहुलवचनात् घञ्प्रत्यये उपसर्गेकारस्यै कारः, एवं जयन्ताः परैः-अन्यैरभ्युदयविघ्नहेतुभिरजिता-अनभिभूताः अपराजिताः, सर्वेऽर्थाः सिद्धा इव सिद्धा ६ येषां ते सर्वार्थसिद्धाः, ते हि विजितप्रायकर्माणः, उपस्थितभद्रा एव तत्रोत्पत्तिभाजः, इतीत्यादि निगमनम् , अत्र चर वैमानिका इति वैमानिकभेदाः, सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदनन्यत्वाद्, एवमादय इत्यादिशब्दस्य प्रकारवचनत्वादेवंप्रकारा इत्येकादशसूत्रार्थः ॥ लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वे परिकित्तिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउब्विहं ॥ २१५ ॥ संतई पच्पडणाईया, अपज्जवसियाचि य । ठिई पडुच्च साईया, सपजावसियावि य ॥ २१६ ॥ साहीय सागरं इक, उक्कोसेण ठिई भवे । भोमिजाण जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥ २१७ ॥ पलिओवममेगं दीप अनुक्रम [१६६९ % % -१६७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1403~ Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२१५-२४३|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्भुत्तिः ॥७० सूत्रांक [२१५ -२४३]] तु, उकोसेण वियाहियं । वंतराणं जहमेणं, दसवाससहस्सिया ॥ २१८ ॥ पलिओवममेगं तु, या-14जीवाजीव सलक्खेण साहियं । पलिओवमहभागो, जोइसेसु जहनिया ॥ २१९ ॥ दो चेव सागराई, उक्कोसेणं विया विभकि. हिया । सोहम्मंमि जहन्नेणं, एगं च पलिओवर्म ॥२२०॥ सागरा साहिया दुन्नि, उक्कोसेण वियाहिया। ईसा मि जहनेणं, साहियं पलिओवमं ।। २११ ।। सागराणि य ससेव, उक्कोसेण ठिई भवे । सर्णकुमारे जहनेणं, दुन्नि ऊ सागरोवमा ॥ २२२ ।। सागरा साहिया सत्त, उक्कोसेण वियाहिया । माहिदमि जहमेणं, साहिया दन्नि सागरा ॥ २२३ ॥ दस चेव सागराई, उक्कोसेण वियाहिया । भलोए जहलेणं, सत्त व सागरोवमा ॥ २२४ ।। चजहस उ सागराइं, उक्कोसेण वियाहिया । लंतगंमि जहनेणं, दस उ सागरोवमा ॥ २२५ ॥ 8 सत्तरस सागराई, उक्कोसेण वियाहिया । महामुक्के जहन्नेणं, चउरस सागरोवमा ॥ २२६ ॥ अट्ठारससागराई, उफोसेण वियाहिया । सहस्सारे जहन्नेण, सत्तरससागरोवमा ॥ २२७ ॥ सागरा अउणवीसं तु, को-18 सेण ठिई भवे । आणयंमि जहन्नेणं, अट्ठारस सागरोवमा ॥२२८॥ वीसंतु सागराइंतु, उक्कोसेण ठिई भवे ।। पाणयंमि जहनेणं, सागरा अउणवीसई ॥२२९ ॥ सागरा इकवीसंतु, उक्कोसेण ठिई भवे । आरणमि ७०३॥ | जहन्नेणं, वीसई सागरोवमा ॥२३०॥ बावीससागराई, उकोसेण ठिई भवे । अयंमि जहनेणं, सागरा| इक्कवीसई ॥ २३१ ।। तेवीससागराई, उकोसेण ठिई भवे । पढमंमि जहनेणं, बावीसं सागरोवमा ॥ २३२॥ चिउवीससागराई, उकोसेण ठिई भवे । विइयंमि जहनेणं, तेवीसं सागरोवमा ॥ २३३ ॥पणवीससागरा क, दीप अनुक्रम [१६८०-१७०८] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1404~ Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||२१५-२४३|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक उकोसेण ठिई भवे । तहमि जहन्नेणं, चउवीसं सागरोवमा ॥ २३४ ॥ छब्बीससागराई, उकोसेण हि भवे। चउत्थयंमि जहमेणं, सागरा पणवीसई ।। २३५ ।। सागरा सत्तवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । पंचमंमि जह-2 नणं, सागरा उ छवीसई ॥ २३६ ॥ सागरा अट्ठवीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । छटुंमि जहन्नेणं, सागरा सत्तवीसई ॥ २३७ ।। सागरा अउणतीसं तु, उकोसेण ठिई भवे । सत्तमं जहन्नेणं, सागरा अट्ठवीसई ॥ २३८ ॥ तीसं तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । अट्ठमंमि जहन्नेणं, सागरा अउणतीसई ॥२३९॥ सागरा इकतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । नवमंमि जहन्नेणं, तीसई सागरोवमा ।। २४०॥ तित्तीससागरा ऊ, उक्कोसेण ठिई भवे । चउरॉपि विजयाईसुं, जहन्ना इकतीसई ॥ २४१ ॥ अजहन्नमणुकोसं, तित्तीसं सागरोवमा । महाविमाणसम्बहे, ठिई एसा वियाहिया ॥ २४२ ॥ जा चेव उ आउठिई, देवाणं तु वियाहिया । सा तेर्सि कायठिई, जहन्नमुक्कोसिया भवे ॥ २४ ॥ [२१५ -२४३] दीप अनुक्रम [१६८०-१७०८] है। क्षेत्रकालाभिधायि सूत्रद्वयं प्राग्वत्, सादिसपर्यवसितत्वभावनाथ साहीयमित्यादि सप्तविंशतिः सूत्राणि प्रायो । निगदसिद्धान्येव, नवरं 'साहीय'त्ति प्राकृतत्वात्साधिकं 'सागर'मिति सागरोपममेकमुत्कृष्टेन स्थितिर्भवेद् 'भौमेयकाना' भवनवासिनाम् , इयं च सामान्योक्तावप्युत्तरनिकायाधिपस्य बलेरेवावगन्तब्या, दक्षिणनिकाये विन्द्र 54%%% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1405~ Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||२१५-२४३|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ३६ [२१५ -२४३]] उत्तराध्य स्यापि सागरोपममेव, उक्तं हि-"चमरबलि सारमहिय" सेसाणं'ति, जघन्येन दशवर्षसहस्राणि प्रमाणमस्या जीवाजीव दशवर्षसहस्रिका, इयमपि सामान्योक्तावपि किल्विषिकाणामेव स्थितिः, स्थितिप्रभावादीनां देवेषु सहैव हासादिति, विभक्ति उत्तरत्रापि भावनीयम् । तथा पल्योपमं वर्षलक्षाधिकमिति ज्योतिषामुत्कृष्टस्थित्यभिधानं चन्द्रापेक्षं, सूर्यस्य तु ॥७०४॥ ६ वर्षसहस्राधिकं पल्योपममायुः, ग्रहाणां तदेव अ(न)तिरिक्तं, नक्षत्राणां तस्यैवार्द्ध, तारकाणां तचतुर्भागः तथा पल्यो-15 पमाष्टभागो ज्योतिष्षु जघन्यस्थितिरित्यपि तारकापेक्षमेव, शेषाणां पल्योपमचतुर्भागस्यैव जघन्यस्थितित्वात् , यत उक्तं 'चतुर्भागः शेषाणा'मिति (तत्त्वा-अ०४ सू०५३)। इह च सर्वत्रोक्तरूपयोरुत्कृष्टजघन्यस्थित्योरपान्तरालब|र्तिनी मध्यमा स्थितिरिति द्रष्टव्यम् । तथा 'प्रथम' इति प्रक्रमाद् अवेयकेऽधस्तनाधस्तने, एवं द्वितीयादिवपि ग्रेवेयक इति सम्बन्धनीयम् । अविद्यमानं जघन्यमिति-जघन्यत्वमस्यामित्यजघन्या तथा अविद्यमानमुत्कृष्टमित्युस्कृष्टत्वमस्यामित्यनुत्कृष्टा अजघन्या चासावनुत्कृष्टा चाजघन्यानुत्कृष्टा, मकारोऽलाक्षणिकः, महच तदायुःस्थित्याधपेक्षया विमानं च महाविमानं तच तत्सर्वे-निरवशेषा अर्यमानत्वादर्थाः-अनुत्तरसुखादयो यस्सिंस्त(तथा तच्च त)त्सर्वार्थ च महाविमानसर्वार्थ तस्मिन् , स्थितिरिति सर्वत्रायुःस्थितिरेव, कायस्थितित्वाभिधाने तत्रानन्त- ७०४॥ रमनुत्पत्तिरेवेत्यभिप्राय इति सप्तविंशतिसूत्रार्थः ॥ १ चमरवल्योः सागरोपममधिकं (च) शेषाणां दीप अनुक्रम [१६८०-१७०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1406~ Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२४४-२४६|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत PRAKAAE सूत्रांक [२४४ अणतकालमुकोस, अंतोमुहुसं जहन्नयं । विजदंमि सए काए, देवाणं हुज अंतरं ॥ २४४ ॥ एएसि वन्नओ चेव, गंधओ रसफासभो । संठाणादेसओ वाचि, विहाणाई सहस्ससो ॥ २४५ ॥ 18| अन्तरविधानाभिधायि च सूत्रद्वयं पूर्ववयाख्येयम् ॥ इत्थं जीवानजीवांश्च सविस्तरमुपदये निगमयितमाह संसारस्था य सिहाय, इइ जीवा वियाहिया । रूविणो चेवरूवी य, अजीवा दुविहावि य ॥२४॥ संसारस्थाश्च सिद्धाश्च 'इति' इत्येवंप्रकारा जीवाः 'व्याख्याताः' विशेषण-सकलभेदाभिव्यात्या प्रकथिताः, रूपिणथैव 'रूपी य'त्ति अकारप्रश्लेषादरूपिणश्चाजीवा द्विविधा अपि व्याख्याता इति योग इति सूत्रार्थः ॥ यदुक्तं जीवाजीवविभक्तिं शृणुतैकमनस' इति तत्र जीवाजीवविभक्तिमभिधाय 'शृणुतैकमनस' इति वचनात् कचि(कथित् श्रवणश्रद्धानमात्रेणैव कृतार्थतां मन्येतातस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह इइ जीवमजीवे य, सुचा सहहिऊण य । सवनयाण अणुमए, रमिज्जा संजमे मुणी ॥ २४७ ॥ RI 'इति' इत्येवंप्रकारान् 'जीवमजीवेय'त्ति जीवाजीवान् एतान्' अनन्तरोक्तान् 'श्रुत्वा' अवधार्य 'श्रद्धाय च तथेति प्रतिपय सर्वे च ते नयाश्च सर्वनया-ज्ञानक्रियानयान्तर्गता नैगमादयस्तेषामनुमतः-अभिप्रेतस्तस्मिन् , कोऽर्थःज्ञानसहितसम्यश्चारित्ररूपे 'रमेत' रतिं कुर्यात्, क्व?-सम्यग्यमनं-पृथिव्यादिजीवोपमर्दतस्तृणपञ्चकाद्यजीवोपादानादेवोपरमणं संयमस्तस्मिन् 'मुनिः' उक्तरूप इति सूत्रार्थः ॥ संयमरतिकरणानन्तरं यद्विधेयं तदाह -२४६] ESSAGESAKAL दीप अनुक्रम [१७०९-१७११] RE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1407~ Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||२४८|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२४८] उत्तराध्य. तओ याहणि वासाणि, सामन्नमणुपालिया। इमेण कमजोगेणं, अप्पाणं संलिहे मुणी ॥ २४८ ॥ जीवाजीव 'ततः' तदनन्तरं 'बहूनि' अनेकानि वर्षाणि 'श्रामण्यं' श्रमणभावम् 'अनुपाल्य' आसेव्य 'अनेन' अनन्तरमेव शिशि बृहद्वृत्तिः वक्ष्यमाणेन क्रमः-परिपाटी तेन योगः-तपोऽनुष्ठानरूपो व्यापारः क्रमयोगस्तेनात्मानं 'संलिखेत्' द्रव्यतो भाव1.७०५॥ तश्च कृशीकुर्यान्मुनिः, इह च बहूनि वर्षाणि श्रामण्यमनुपाल्येत्यभिदधता न प्रत्रज्याप्रतिपत्त्यनन्तरमेवैतद्विधिरि त्युपदर्शितम् , उक्तं हि-“परिपालितो य दीहो परियाओ वायणा तहा दिण्णा । णिफाइया य सीसा सेयं में अप्पणो काउं॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति यदुक्तम्-'अनेन क्रमयोगेन संलिखेदिति, तत्र कोऽसौ क्रमयोगः १ इति प्रश्नसम्भये संलेखमाभेदाभिधानपूर्वकं तमाह। बारसेव उ वासाई, संलेहकोसिया भवे | संवच्छर मज्झिमिया, छम्मासा य जहनिया ॥ २४९ ॥ पढमेम वासचउमि विगई (वित्ति) निज्जहणं करे । बिइए वासच उकमि, विचित्तं तु तव चरे ॥ २५० ॥ एगंतर मायाम, कट्ट संवच्छरे दुधे । तओ संवच्छरऽद्धं तु, नाइविगिटुं तवं चरे ॥२५१॥ तओ संवच्छरद्धं तु, G|विगिटुं तु तवं चरे। परिमियं चेव आयाम, तमि संवच्छरे करे ॥ २५२॥ कोडीसहियमायाम, कटु संबकछरे| मुणी । मासद्धमासिएणं तु, आहारेणं तवं चरे ॥२३॥ १ परिपालितश्च दीर्यः पर्यायो वाचना प तथा दत्ता । निष्पादिताच शिष्याः यो मे आत्मनः कर्तुम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१७१३] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1408~ Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२४९-२५३|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२४९ -२५३] बारसेत्यादि सूत्रपञ्चकम् । द्वादशैव न तु न्यूनान्यधिकानि वा 'तुः' पूरणे 'वाणि' संवत्सरान् संलेखन-द्रव्यतः शरीरस्य भावतः कपायाणां कृशताऽऽपादनं संलेखा, संलेखनेति योऽर्थः, 'उक्कोसिय'त्ति उत्कृष्टा सर्वगुर्वी भयेत्, 'संवच्छर'ति संवत्सरं-वर्ष मध्यमैव मध्यमिका, षण्मासान् 'चः' पुनरर्थे भिन्नक्रमस्ततो जघन्यैव जपन्थिका पुनः पठन्ति च-'उकोसिया' इत्यत्र 'उकोसतो'त्ति, अन्यत्र तु 'मज्झिमउत्ति जद्दण्णतो'त्ति । इत्थं संलेखनायाखैविध्ये उत्कृष्टायाः क्रमयोगमाह-'प्रथम' आये 'वर्षचतुष्के' संवत्सरचतुष्टये वर्त्तनं वृत्तिनिर्वहणमित्यर्थः प्रस्तावात्क्षी-४ रादिविकृतिस्तस्या निर्ग्रहणम्-आचामाम्लस्य निर्विकृतिकस्य वा तपसः करणेन परित्यागो वृत्तिनिर्ग्रहणमनु (णं तत्) कुर्यात् , पठ्यते च–'विगईनिज्जूहणं करे ति स्पष्टम् , इदं च विचित्रतपसः पारणके, यदाह निशीथचूर्णिकृत्-'अन्ने। ४ चत्वारि बरिसे विचित्तं तवं काउं आयंबिलेण पारेइ निविएण वा पारेइ"त्ति, केवलमनेन नियुक्तिकृता च द्वितीये। वर्षचतुष्टये एतदुक्तम् , अत्र च सूत्रे प्रथम दृश्यत इत्युभयथापि करणे दोषाभावमनुमिमीमहे, तयोरस्य च प्रमाणभूतत्वात् , द्वितीय वर्षचतुष्के 'विचित्रं तु' इति विचित्रमेव चतुर्थषष्ठाष्टमादिरूपं तपश्चरेत् , अत्र च पारण के सम्प्र-18 दाय:--"उग्गम विसुद्धं सर्व कप्पणिज पारेति"त्ति । एकेन-चतुर्थलक्षणेन तपसाऽन्तर–व्यवधानं यस्मिंस्तदेकान्तरम् 'आयामम्' आचाम्लं 'कटु'त्ति कृत्वा संवत्सरो द्वौ, 'ततः तदनन्तरं 'संवत्ससर्द्ध' मासपद 'तुः' पूरणे 'न' १ अन्यानि चत्वारि वर्षाणि विचित्रं तपः कृत्वाऽऽचाम्लेन निर्विकृतिकेन वा पारयति २ जगमविशुद्धं सर्व कल्पनीयं पारयति दीप अनुक्रम [१७१४-१७१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1409~ Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२४९-२५३|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२४९ ३६ -२५३]] उत्तराध्य. व 'अतिविकृष्टम्' अष्टमद्वादशादि तपः 'चरेत् आसेवेत् । ततः 'संवत्सराद्ध' पुनः षण्मासलक्षणं 'विकृष्टम्' उक्त- जीवाजीव बृहदृत्तिः रूपं 'तुः' एवकारार्थो विकृष्टमेव तपश्चरेत् , अत्रैव विशेषमाह-'परिमियं चेव'त्ति, 'चः' पूरणे ततः परिमित मेव, द्वादशे हि वर्षे कोटीसहितमायामम्, इह तु चतुर्थादिपारणक एवेत्येवमुक्तम्, आयाम-आचाम्लं तखिन्न- नाक ॥७०६॥ नन्तरं द्विधा विभज्योपदर्शिते संवत्सरे कुर्यात् , पठन्ति च-"परिमियं चेव आयामं, गुणुकस्सं मुणीचरे । तत्तो संव-IPI कछरद्धऽणं, विगिळं तु तवं चरे ॥१॥" इत्थमेकादशसु वर्षेष्वतिक्रान्तेषु द्वादशे वर्षे किमसौ विदध्यात्? इत्साहकोट्या-अग्रे प्रत्याख्यानाधन्तकोणरूपे सहिते-मिलिते यस्मिंस्तरकोटीसहितं, किमुक्तं भवति ?-विवक्षितदिने प्रातराचाम्लं प्रत्याख्याय तबाहोरात्रं प्रतिपाल्यं, पुनर्द्वितीयेऽदि आचाम्लमेव प्रत्याचष्टे, ततो द्वितीयस्यारम्भकोटिराद्यस्य तु पर्यन्तकोटिरुमे अपि मिलिते भवत इति तत्कोटीसहितमुच्यते, अन्ये त्याहुः-आचाम्लमेकस्मिन् ४ा दिने कृत्वा द्वितीयदिने च तपोऽन्तरमनुष्ठाय पुनस्तृतीयदिन आचाम्लमेव कुर्वतः कोटीसहितमुच्यते, उभयार्थसंवादिनी चेयं गाथा-"पट्ठवणओ य दिवसो पचक्याणस्स णिट्ठवणओ य । जहियं समिति दुनि उ तं मष्णइ कोडिसहियं तु ॥१॥" इत्थमुक्तरूपं कोटीसहितमाचामाम्लं कृत्वा 'संवत्सरे' वर्षे प्रक्रमाद् द्वादशे 'मुनिः' साधुः ७०६॥ 'मास'त्ति सूत्रत्वान्मासं भूतो मासिकस्तेनैवमार्द्धमासिकेन 'आहारेण'न्ति, उपलक्षणत्वादाहारत्यागेन, पाठान्तर १ प्रस्थापको दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्धापकन । यत्र समितः द्वौ तु तण्यते कोटीसहितमेव ॥१॥ दीप अनुक्रम [१७१४-१७१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1410~ Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२४९-२५३|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२४९ -२५३] Pातश्च क्षपणेन 'तपः' इति प्रस्तावाद्भक्तपरिज्ञानादिकमनशनं 'चरेत्' अनुतिष्ठेत् , निशीथचूर्णिसम्प्रदायश्चात्र-“अन्नेचि दोवि वरिसे चउत्थं काउं आयंबिलेण पारेद, एक्कारसमे य बरिसे पढम छम्मासं अविगिट्ट तवं काउं कजिएण पारेइ, वितिए छम्मासे विगिटुं तवं काउं आयंबिलेण पारेइ, दुवालसमं बरिसं निरंतरं हीयमाणं उसिणोदएण आयंबिलं करेति, तं कोडीसहियं भणंति जेणायंबिलस्स कोडी कोडीए मिलइ, जहा य दीवस्स बत्ती तेलं च सम। गिट्ठाइ तहा बारसमे वरिसे आहारं परिहावेइ जहा आहारसंलेखना आउयं च समं णि?वति, इत्थं वारसगस्स वासस्स पच्छिमा जे चत्तारि मासा तेसु तेलगडूसे णिसट्टे धरितु खेलमलगे णित्रुहइ मा अतिरुक्खत्तणओ मुहजतविसंवाओ भविस्सइ, तस्स य विसंवादे णो संमं णमोकार साहेति" इति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ इत्थं प्रतिपन्नानशनस्थाप्यशुभभावनानां मिथ्यादर्शनानुरागादीनां च परिहार्यतां तद्विपर्ययाणामासेव्यतां च ज्ञापयितुं यथाक्रममनर्थहेतुतामर्थहेतुतां च दर्शयन्नाह १ अन्ये अपि द्वे वर्षे चतुर्थ कृत्वाऽऽचामाग्लेन पारयति, एकादशे च वर्षे प्रधम षण्मासान् अविकृष्ट तपः कृत्वा काचिकेन पारयति, ४२ द्वितीयेपु षट्सु मासेषु विकृष्टं तपः कृत्वाऽऽचामान्लेन पारयति, द्वादशे तु वर्षे निरन्तरं दीयमानमुष्णोदकेनाचामाम्लं करोति, तत्को-13 बीसहित भण्यते येनाचामाम्लस्य कोटी कोट्या मिलति, यथा च दीपस्य वी तैलं च समं निस्तिष्ठतः तथा द्वादशे वर्षे आहार परिहापयति || यथाऽऽहारसंलेखना आयुश्च समं निस्तिष्ठतः, अत्र द्वादशस्य वर्षस्य पश्चिमा ये चत्वारोमासानेषु तैलगण्डूषान निसृष्टं (अतिशयेन) धृत्वा मेष्ममल्लके निक्षिपति, माऽतिरूक्षत्वात् मुखयत्राविसंवादो भूदिति, तस्य च विसंवादे न सम्यक् नमस्कारं साधयेत् (पठेन्) दीप अनुक्रम [१७१४-१७१८] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1411~ Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||२५४-२५७|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत बृहद्वृत्तिः | सूत्रांक [२५४ - -२५७]] उत्तराध्य. कंदप्पमाभिओगं किन्विसिय मोहमासुरत्तं च । एमाओ दुग्गईओ मरणमि विराहया हुँति ॥ २५४ ॥ जीवाजीव मिच्छादसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥ २५५ ॥ सम्म-४ + ईसणरत्ता अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा सुलभा तेसिं भवे बोही ।। २५६॥ मिच्छा- विभक्ति दिसणरत्ता सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा घोही ॥२७॥ ___ 'कंदप्प'त्ति कन्दर्पभावना प्राग्वत् , पदेऽपि पदैकदेशस्य दर्शनात् , एवमभियोग्यभावना किल्बिपभावना मोहभावना 'मासुरत्तं च'त्ति आसुरत्वभावना च, एताः कन्दर्पादिभावना दुर्गतिहेतुतया दुर्गतयो 'नडुलोदकं पादरोग' इति न्यायात् , दुर्गतिश्चेहार्थाद्देवदुर्गतिः, ततशतो हि संव्यवहारतश्चारित्रसत्तायामप्येतद्विधनिकायोत्पत्तिरेव, चरघणविकलतायां तु नानागतिभाजनतैव, उक्तं हि-"जो संजओपि एवासु अप्पसत्वासु भावणं कुणइ । सो तधिहेसु द|गच्छति सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ १ ॥"कदा? इत्याह-'मरणे' मरणसमये, कीरश्यः सत्यः? इत्याहविराधिकाः सम्यग्दर्शनादीनामिति गम्यते 'भवन्ति' जायन्ते, इह च मरण इत्यभिधानं पूर्वमेतत्सत्तायामप्युत्तरकालं । शुभभावे सुगतरपि सम्भवात् । मिथ्यादर्शनम्-अतत्त्वे तत्त्वाभिनिवेशरूपं तस्मिन् रक्ताः-आसक्ता मिश्यादर्शनरक्ताः, IN७०७॥ दासम्यक्त्वादिविराधनायां खेतदासक्तिरेय भवति, सह निदानेन-साभिष्वाप्रार्थनारूपेण वर्तन्त इति सनिदानाः ' हुर १यः संयतोऽपि एताभिरप्रशस्ताभिः भावनां करोति । स तद्विधेषु गच्छति सुरेपु भक्तश्चरणहीनः ॥ १॥ - - दीप अनुक्रम [१७१९-१७२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1412~ Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||२५४-२५७|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) -- प्रत सूत्रांक - [२५४ -२५७]] पूरणे 'हिंसकाः' प्राण्युपमर्दकारिणः 'इति' इत्येवंरूपा ये नियन्ते' प्राणांस्त्यजन्ति जीवास्तेषां पुनर्दुर्लभा 'बोधिः' प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिः । सम्यग्दर्शनम्-उक्तस्वरूपं तस्मिन् रक्ताः सम्यग्दर्शनरताः अनिदानाः 'शुक्ललेश्याम्' उक्तलदक्षणाम् 'अवगाढाः' प्रविष्टा इति, ये नियन्ते जीवाः सुलभा तेषां भवेद्बोधिः । मिच्छासूत्र प्राग्वत् , ननु पुनरुक्त वादनर्थकमिदं सूत्र, कृष्णलेश्यावगाहनमपि हिंसकत्वेन पञ्चाश्रवप्रमत्तत्वादितल्लक्षणाभिधानादर्थत उक्तमेवेति, अत्रोच्यते, नैवं, विशेषज्ञापनार्थत्वादस्य, उक्तं हि-"पुषभणियं तु पुच्छा जंभण्णति तत्थ कारणं वेति । पडिसहो य अणुन्ना करण (हेउ) बिसेसोवलंभा वा ॥१॥" विशेषश्च सर्वत्र तथाविधसंक्लिष्टपरिणामरूपता द्रष्टव्या, अन्यथा हि सामान्येनैतद्विशेषणविशिष्टानामपि तद्भवे भवान्तरे वा बोधिदर्शनाद्यभिचार्येदं भवेदिति । इह चायेन सूत्रेण कन्दर्प-14 भावनादीनां दुर्गतिरूपानर्थस्य निवन्धनत्वमुक्तमर्थाच्च तद्विपरीतभावनानां सुगतिखरूपार्थस्य द्वितीयेन मिथ्यादर्शनरक्तत्यादीनां दुर्लभवोधिलक्षणानर्थस्य तृतीयेन सम्यग्दर्शनरक्तत्वादीनां सुलभबोध्यात्मकार्थस्य चतुर्थेन उक्तनीया मिथ्यादर्शनरक्तत्वादीनामेव विशेषज्ञापनमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ॥ अन्यच-जिनवचनाराधनामूलमेव सकलं संलेखनादि श्रेयोऽतस्तत्रैवाऽऽदरख्यापनायान्वयव्यतिरेकाभ्यां तन्माहात्म्यमाह| १ पूर्वभणितमपि यत्पश्चागण्यते तत्र कारणं ब्रुवति । प्रतिवेधश्चानुज्ञा कारणविशेषोपलम्भो वा ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१७१९-१७२२] -kN-RRB--05-- wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1413~ Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२५८-२५९|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२५८ -२५९]] उत्तराध्य. जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेंति भावणं । अमला असंकिलिहा ते हुँति परित्तसंसारा ॥२५॥||जीवाजीव बालमरणाणि बहुसो अकाममरणाणि चेव यहुयाणि । मरिहंति ते चराया जिणवयणं जे न याणंति २५९ बृहद्वृत्तिः विभक्ति. जिना इहार्थातीर्थकृतस्तेषामुच्यत इति वचनम्-आगमो जिनवचनं तस्मिन् 'अनुरक्ताः सततं प्रतिबद्धाः, तथा : ७०८॥ 15जिनवचनम् इति वाच्यवाचकयोरमेदोपचाराजिनवचनाभिहितमनुष्ठानं ये 'कुर्वन्ति' अनुतिष्ठन्ति 'भावेन' आन्त-14 रपरिणामेन न तु बहिर्वृत्त्यैव तत एवाविद्यमानो मल इति भावमलस्तदनुष्ठानमालिन्यहेतुर्मिथ्यात्वादिरेपामित्यमलाः, तथा 'असंक्लिष्टाः' रागादिसङ्क्तेशरहितास्ते 'भवन्ति' जायन्ते परितः-समस्तदेवादिभवाल्पतापादनेन समतात्खण्डितः परिमित इतियावत् स चासो संसारश्च स विद्यते येषां तेऽमी परीतसंसारिणः-कतिपयभवाभ्यन्तरमुक्तिभाज इति योऽर्थः, सूत्रे च प्राकृतत्वाचनव्यत्ययः । 'बालमरणैः' विषभक्षणोद्वन्धननिवन्धनैः 'बहुशः' र अनेकधा 'अकाममरणानि' यान्यत्यन्तविषयग्रभुत्वेनानिच्छतां भवन्ति तैश्व, उभयत्र सुब्ब्यत्ययः प्राग्वत् , 'एव चेति पूरणे 'बहूनि' अनेकानि मरिष्यन्ते ते 'वराकाः' बहुदुःखभाजनतयाऽनुकम्पनीयाः 'जिनवचनम्' उक्तरूपं ये 'न जानन्ति' नावबुध्यन्ते ज्ञानफलत्वादनुष्ठानस्य न चानुतिष्ठन्तीति सूत्रद्वयार्थः । यतश्चैवमतो जिनवचनं भावतः S en कर्तव्यं, तद्भावकरणं चालोचनया, सा च न तच्छ्रवणार्हान् विना, ते च न हेतुन्यतिरेकेणेति यैहेतुभिरमी * भवन्ति तानाह -% 95 दीप अनुक्रम [१७२३-१७२४] wwjanatarary.om ~1414~ Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [--]/ गाथा ||२६०|| नियुक्ति: [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२६०] बहु आगमविन्नाणा समाहिउप्पायगा य गुणगाही। एएण कारणेणं अरिहा आलोयणं सोउं ॥ २६०॥ बहुः-अङ्गोपाङ्गादिवहुभेदतया बर्थतया चा स चासावागमश्च-श्रुतं चह्वागमतस्मिन् विशिष्टज्ञानम्-अवगम एपामिति बहागमविज्ञानाः 'समाहि'त्ति समाधेः-उक्तरूपस्योत्पादका-जनकाः, किमुक्तं भवति ?-देशकालाशयादिविज्ञतया समाधिमेव मधुरगम्भीरभणितिप्रभृतिभिरालोचनादातॄणामुत्पादयन्ति, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'गुणग्गाहि यत्ति गुणग्राहिणश्च उपबृंहणार्थं परेषां सम्यग्दर्शनादिगुणग्रहणशीलाः 'एएण कारणेण'न्ति 'एतैः' अनन्तरमेव विशेषणतयोपात्तैर्बहागमविज्ञानत्वादिभिः 'कारण' हेतुभिः 'अर्हाः' योग्या भवन्त्याचार्यादय इति गम्यते 'आलोचनां' विकटनामर्थात्परैर्दीयमानां 'श्रोतुम्' आकर्णयितुम् , एते बालोचनाश्रयणफलं परेषां विशु[द्धिलक्षणं सम्पादयितुमीशते, व्यत्ययश्च सर्वत्र प्राग्यदिति सूत्रार्थः । इत्थमनशनस्थितेन यत्कृसं तत्सप्रसामुपदर्य सम्प्रति कन्दर्पादिभावनानां यत्परिहार्यत्वमुक्तं तत्र यत्कुर्वता ता भवन्ति तत्परिहारेणैव तासां परिहारो न चाज्ञातसायमिति ज्ञापनार्थमाह४ी कंदप्पकोईया तहसीलसहावहासविगहाहिं । विम्हावितो य परं कंदप्पं भावणं करइ ॥ २६१ ॥ धिमंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति । सायरसइतिहेउ अभिओगं भावणं कुणइ ॥२६२॥ नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाङ्गणं । माई अवन्नवाई किब्यिसियं भावणं कुणइ ॥२६३ ॥ अणुयद्धरोसपसरो तह य । NEX- दीप अनुक्रम [१७२५]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1415~ Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६१-२६५|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥७०९॥ सूत्रांक [२६१-२६५] |निमित्तंमि होइ पडिसेबी। एएहिं कारणेहिं आसुरियं भावणं कुणइ ॥ २६४ ॥ सत्थरगहणं विसभक्खणं |च जलणं च जलपवेसो य । अनयारभंडसेवी जम्मणमरणाणि बंधति ॥ २६५॥ | 'कंदप्पकोकुईया' इति, कन्दर्पः-अहहहासहसनम् अनिभृतालापाश्च गु/दिनाऽपि सह निष्ठरवक्रोक्त्यादिरूपाः विभक्तिः कामकथोपदेशप्रशंसाश्च कन्दर्पो, यत उक्तम्-"कहकहकहस्स हसणं कंदप्पो अणिहुया य संलावा । कंदप्पकहाकहणं कंदप्पुवएससंसा य ॥१॥" कौकुव्यं द्विधा-कायकोच्यं वाकौकुच्यं च, तत्र कायकौकुच्यं यत्स्वयमह|सन्नेय भ्रूनयनवदनादि तथा करोति यथाऽन्यो हसति, उक्तञ्च-" मनयणदसनच्छएहिं करचरणकण्णमाईहिं । तं तं करेइ जह जह हसइ परो अत्तणा अहसं॥२॥" यत्तु तजल्पति येनान्यो हसति तथा नानाविधजीवविरुतानि मुखातोद्यवादितां च विधत्ते तद्वाकौकुच्यम् , उक्तं हि-"वायाए कुकुइओ तं जपइ जेण हस्सए अन्नो । णाणावि-14 हजीवरुए कुबइ मुहतूरए चेव ॥३॥" ततः कन्दर्पश्च कौकुच्यं च कन्दर्पकौकुच्ये कुर्वन्निति शेषः 'तहत्ति येन प्रकारेण परस्य विस्मय उपजायते तथा यच्छीलं च-फलनिरपेक्षा वृत्तिः खभावश्च-परविस्मयोत्पादनाभिसन्धिनैव। १ कहकहकहब हसनं कन्दोऽनिभृताचोल्लापाः । कन्दर्पकथाकथनं कन्दर्पोपदेशप्रशंसा च ॥ शासनयनदशनच्छदैः करचरणकर्णादिभिः । तत्तत्करोति यथा यथा हसति पर आत्मनाऽहसन् ॥२॥ ३ वाचा कुक्रोचिकस्त जल्पति येन हसत्यन्यः । नानाविधजीवरुवान करोति मुखतूर्याणि वा ॥ ३ ॥ दीप अनुक्रम [१७२६-१७३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1416~ Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६१-२६५|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२६१ -२६५] तत्तन्मुखविकारादिकं हसनं च-अट्टहासादि विकथाश्च-परविस्मापकविविधोल्लापरूपाः शीलस्वभावहसनविकथाताभिः 'विस्मापयन्' सविस्मयं कुर्वन् ‘परम्' अन्यं 'कंदप्पंति कन्दर्पयोगात्कन्दर्पास्ते च प्रस्तावाद्देवास्तेषामियमुक्तनीत्या तेषत्पत्तिनिमित्ततया कान्दी तां भाव्यते-आत्मसान्नीयतेऽनयाऽऽत्मेति भावना-तद्भावाभ्यासरूपा तां 'करोति' विधत्ते, एतदनुसारेणोत्तरत्रापि भावनीयम् । मन्त्राः-प्रागुक्तरूपास्तेषामायोगो-यापारणं मन्त्रायोगसं 'कृत्वा' विधाय, यदिवा 'मंतायोग'ति सूत्रत्वान्मत्राश्च योगाश्च-तथाविधद्रव्यसम्बन्धा मन्त्रयोग तत् 'कृत्वा' व्यापार्य 'भूत्या' भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा कर्म-रक्षार्थ वसत्यादेः परिवेष्टनं भूतिकर्म, यथोक्तम्-"भूईए मट्टियाए व सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु । वसहीसरीरभंडगरक्ख"त्ति, चशब्दात्कौतुकादि च 'जे पउंजंति' प्राकृतत्याद्यः प्रयुक्त, किमर्थ ?, सात-सुखं रसा-माधुर्यादयः ऋद्धि:-उपकरणादिसम्पदेता हेतवो-निमित्तानि यस्मिंस्तत्सातरसर्द्धिहेतुः, कोऽभिप्रायः?-साताद्यर्थम् , 'अभियोग'ति आभियोगी भावनां करोति, इह च सातरसचिहेतोरित्यभिधानं निःस्पृहस्थापवादत एतत्प्रयोगे प्रत्युत गुण इति ख्यापनार्थम् , उक्तं हि-“ऐयाणि गारवटा कुणमाणो आभियोगिय | वंधे । बीयं गारवरहिओ कुवइ आराहगो चेव ॥२॥" 'ज्ञानस्य' श्रुतज्ञानादेः 'केवलिनां' केवलज्ञानवतां धर्मोपदेष्टा १ भूत्या मृत्तिकया वा सूत्रेण वा भवति भूतिकर्म तु । वसतिशरीरभाण्डकरक्षेति । २ एतानि गौरवार्थ पूषन्नाभियोगिक पनाति । बीज (द्वितीये पदे) गौरवरहितः करोति आराधक एवं ॥२॥ Micr% दीप अनुक्रम [१७२६-१७३०] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1417~ Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६१-२६५|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२६१-२६५] उत्तराध्य.च-आचार्यस्तस्य च सङ्घः प्रतीतः साधवश्च सङ्घसाधवस्तेषामवर्णवादीति सम्बन्धः, तथाऽवर्णः-अश्लाघात्मकः, स जीवाजीव बृहद्वृत्तिः चायं श्रुतज्ञानस्य-पुनः पुनस्त एव कायास्तान्येव ब्रतानि तावेय च प्रमादाप्रमादाविहाभिधेयी, मोक्षाधिकारिणांना च किं ज्योतियोनिपरिज्ञानेनेत्यादि भापते, उक्तश्च-"काया वया य ते चिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खा१७१०॥ हिगारियाणं जोइसजोणीहिं किं च पुणो? ॥१॥" केवलिनां च किमेषां ज्ञानदर्शनोपयोगी क्रमेण भवत उत युग-131 पत् !, यदि तावत्क्रमेण तदा ज्ञानकाले न दर्शनं दर्शनकाले च न ज्ञानमिति परस्परावरणतैव प्रासा, अथ युगपचत एककालत्वाद् द्वयोरप्यैक्यापत्तिः, उक्तञ्च-"एगतरसमुप्पाए अन्नोऽनावरणया दुवेण्हपि । केवलदसणणाणाणमेगकाले य एग ॥२॥" धर्माचार्यस्य जात्यादिभिरधिक्षेपणादि, उक्तश्च-"जेचाइहिं अवन्नं विहसइ वट्टइणयावि उववाए । अहिजो छिद्दप्पेही पगासवादी अणणुकूलो ॥३॥" सङ्घस्य च बहवः श्वश्गालादिसङ्कास्तकोऽय|मिह सङ्घः १, साधूनां च-नामी परस्परमपि सहन्ते, तत एव देशान्तरयायिनः, अन्यथा त्वेकत्रैव संहत्या तिष्ठे १ काया व्रतानि च तान्येव तावेव प्रमादाप्रमादौ च । मोक्षाधिकारिणां ज्योतियोनिभिः किं च पुनः॥१॥२ एकतरसमुत्पादे ||१७१०॥ है अन्योऽन्यावरणता द्वयोरपि । केवलदर्शनज्ञानयोरेककाले चैकत्वम् ।। २ ॥ ३ जात्यादिमिरवर्ण (करोति) उपहसति वर्तते न चाप्युपपाते ।। अहितश्छिद्रपेक्षी प्रकाशवाद्यननुकूलः ॥ ३ ॥ -% दीप अनुक्रम [१७२६-१७३०] ACCkAR E मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1418~ Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२६१ -२६५] दीप अनुक्रम [१७२६ -१७३०] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || २६१-२६५|| निर्युक्तिः [५५६...], अध्ययनं [ ३६ ], युरत्वरितगतयो - मन्दगतयस्ततो बकवृत्तिरियमेपामित्यादि, यथोक्तम् - "अंविसहणाऽतुरियगती अणाणुवित्तीय अवि गुरुपि । खणमित्तपीइरोसा गिद्दिवच्छलगा व संजयग ॥ १ ॥”त्ति एवंविधमवर्ण वदितुम्-अभिधातुं | शीलमस्येत्यवर्णवादी, माया - शाय्यमस्य खखभावविनिगूहनादिनाऽस्तीति मायी, यथोक्तम्- "गृहेद आयसहावं घायइ य गुणे परस्स संतेवि । चोरोध सङ्घसंकी गूढायारो वित्तहभासि ॥ २ ॥ "ति किल्विषिकी भावनां करोति । | इदानीं विचित्रत्वात्सूत्रकृतेर्मोही प्रस्तावेऽपि यत्कुर्वताऽऽसुरी कृता भवति तदाह- अनुबद्धः सन्ततः कोऽर्थः १अव्यवच्छिन्नो रोषस्य -- क्रोधस्य प्रसरो - विस्तारोऽस्येति अनुबद्धरोपप्रसरः, सदा विरोधशीलतया पश्चादननुतापितया क्षमणादावपि प्रसत्यप्राप्या वेत्यभिप्रायः, तथा चोक्तम्- "धिं वोग्गहसीला काऊण ण याणुतप्पए पच्छा । ण य खामिओ पसीयर अवराहीणं दुवेहंपि ॥ ३॥ " "तथे 'ति समुचये 'च' पूरणे निमित्तमिह ज्ञेयपरिच्छित्तिकारणं, तचातीतादित्रिविधकालभेदात्रिधा, उक्तं हि "तिविहं होइ निमित्तं तीयपप्पण्णऽणागयं चेव । तेण विणा उण णेयं णञ्जइ तेणं णिमित्तं तु ॥ ४ ॥ तद्विषये 'भवति' जायते 'प्रतिसेवी' इत्यवश्यंप्रतिसेवकोऽपुष्टालम्बनेऽपि Education intemational १ असनाखरितगतयोऽनानुवृत्तयञ्चापि गुरूणामपि । क्षणमात्रप्रीतिशेषाः गृहिवत्सलाच संयताः ॥ १ ॥ २ गृहयत्यात्मस्वभाव घातयति गुणान् परस्य सतोऽपि । चौर इव सर्वशङ्की गूढाचारो वितथभाषी ||२|| ३ नित्यं व्युहशीलाः कृत्वा न चानुतपति पश्चात् । न च क्षमितः प्रसीदति अपराधिनां (उपरि ) द्वयोरपि ॥ ३ ॥ ४ त्रिविधं भवति निमित्तं अतीतप्रत्युत्पन्नानागतमेव । तेन बिना तु न ज्ञेयं ज्ञायते तेन निमित्तं तु ॥ ४ ॥ भाष्यं [१५...] For Parts Only ~ 1419~ ibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि- विरचिता वृत्तिः Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६१-२६५|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक बृहद्वृत्तिः ॥७११॥ ३६ [२६१-२६५] तदासेवनात्, एताभ्याम्' अनन्तरोक्ताभ्याम् 'आसुरिय'ति आसुरीं भावनां करोति । शस्यतेऽनेनेनि शस्त्रं-सङ्गारि- जीवाजीव कादि तस्य ग्रहणं-खीकरणमुपलक्षणत्वादस्यात्मनि वधार्थ व्यापारणं शस्त्रग्रहणं, वेवेष्टि-व्याप्नोति झगित्यात्मानमिति विभक्तिः दाविष-तालपुटादि तस्य भक्षणम्-अभ्यवहरणं विषभक्षणं, चशब्द उक्तसमुच्चयार्थः पर्यन्ते योक्ष्यते, 'ज्वलनं दीपनमा-14 मन इति गम्यते, जले प्रवेशो-निमजनं जलप्रवेशः, चशब्दोऽनुक्तभृगुपातादिपरिग्रहार्थः, आचारः-शास्त्रविहितो | व्यवहारस्तेन भाण्डम्-उपकरणमाचारभाण्डं न तथाऽनाचारभाण्डं तस्य सेवा-हास्यमोहादिभिः परिभोगोऽनाचारभाण्डसेवा, गम्यमानत्वादेतानि कुर्वन्तो यतयः, किमित्याह-जन्ममरणान्युपचारात्तन्निमित्तकर्माणि 'बभन्ति' आत्मना श्लेषयन्ति, संक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वात् , अनेन चोन्मार्गप्रतिपत्त्या मार्गविप्रतिपत्तिराक्षिप्ता, तथा चार्थतो मोही भावनोक्ता, यतस्तल्लक्षणम्-"उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ मग्गविप्पडिवत्ती । मोहेण य मोहित्ता संमोहं भावणं कुणइ ॥१॥"त्ति, ननु पूर्व तद्विधदेवगामित्वं भावनाफलमुक्तमिह त्वन्यदेवास्था इति न कथं विरोधः १, उच्यते, अनन्तरफलमाश्रित्य तदुदितमिदं [दमेव चूण्ां दृश्यते, तत्रैव जीवेत्यादि] तु पर- ७१शा |म्पराफलं सर्वभावनानामिति भावनार्थमित्थमुपन्यासः, तथा चोक्तम्-"ऐयाओ भावणाओ भाविता देवदुग्गई १ उग्मार्गदेशको मार्गनाशको मार्गविप्रतिपत्तिः । मोहेन च मोहयित्वा संमोही भावनां करोति ॥१॥२ एता भावना भावयित्वा देवदुर्गति दीप अनुक्रम [१७२६-१७३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1420~ Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६१-२६५|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...] (४३) प्रत सूत्रांक [२६१ -२६५] जति । ततो य चुया संता परिति भवसागरमणतं ॥१॥" इति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ इह च देववक्तव्यताऽनन्तरसूत्रकदम्बस्थाने सूत्रद्वयमेव चूण्या दृश्यते, तत्रैकं “जीवमजीये"त्यादि प्राग्वद् व्याख्यातमेव, तथा-"पसत्थसज्झागोवगए, कालं किच्चा ण संजए । सिद्धे वा सासए भवति, देवे वावि महहिए ॥१॥"त्ति । सम्प्रत्युपसंहारद्वारेण शास्त्रमाहात्म्यं ख्यापयितुमाह| इति पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए | छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए ।। २६६ ॥ तिबेमि ॥ ॥जीवाजीवविभत्ती ॥ ३६॥ उत्तरज्झयणसुयक्खंधो समत्तो॥ 'इतिः' उपदर्शने 'इति' इत्यनन्तरमुपवर्णितान् पाउकरे'त्ति सूत्रत्वात् 'प्रादुष्कृत्य' कांश्चिदर्थतः काश्चन सूत्रतोअपि प्रकाश्य, कोऽर्थः?-प्रज्ञाप्य, किमित्याह-'परिनिर्वृतः' निर्वाणं गत इति सम्बन्धनीयम् , कीरशः सन् क | इत्याह-'बुद्धः' केवलज्ञानादवगतसकलवस्तुतत्त्वः 'ज्ञातको ज्ञातजो वा-ज्ञातकुलसमुद्भवः, स चेह भगवान् वर्द्धहमानखामी 'पत्रिंशदू' इति षत्रिंशत्सङ्ख्या उत्तराः-प्रधाना अधीयन्त इत्यध्याया-अध्ययनानि तत उत्तराश्च तेऽध्यायाश्चोत्तराध्यायास्तान-विनयश्रुतादीन् 'भवसिद्धियसंमए'त्ति भवसिद्धिका-भव्यास्तेषां समिति-भृशं | मता-अभिप्रेता भवसिद्धिकसमतास्तान्, पठन्ति च भवसिद्धीयसंवुडे'त्ति भये-तस्मिन्नेव मनुष्यजन्मनि सिद्धि१ यान्ति । ततश्च च्युताः सन्तः पर्यटन्ति भवसागरमनन्तम् ॥ २॥ दीप अनुक्रम [१७२६-१७३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1421~ Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||२६६|| नियुक्ति: [५५७-५५८], (४३) उत्तराध्य.४ प्रत सूत्रांक [२६६] रस्येति भवसिद्धिकः स चासौ संवृतथाश्रवनिरोधेन भवसिद्धिकसंवृतः, ज्ञातविशेषणमेतत्, अथवा पाउकरे'त्ति || जीवाजीव है 'प्रादुरकापात्' प्रकाशितवान् , शेषं पूर्ववत् नवरं 'परिनिर्वृतः' क्रोधादिदहनोपशमतः समन्तात्स्वस्थीभूतः, एतेन & विभक्तिः "सत्यानृतत्वसंदेहैः, सर्वमेव वचविधा" इति प्रसिद्धेस्वैविध्यसम्भवेऽपि वचनरूपत्वेनोत्तराध्ययनानां वक्तृदोषहे॥७१२॥ तुकत्वादनृतत्वसन्देहयोर्वक्तृदोषाभावख्यापनेनैकान्तसत्यत्वलक्षणं माहात्म्यमाहेति सूत्रार्थः ॥ नियुक्तिकारोऽप्येतन्माहात्म्यख्यापनायाहजे किर भवसिद्धीया परित्तसंसारिआ य भविआ य । ते किर पढंति धीरा, छत्तीसं उत्तरज्झयणे ॥ जे हुँति अभवसिद्धीया गंथिअसत्ता अणंतसंसारा । ते संकिलिटुकम्मा अभविय उत्तरज्झाए॥५५८॥ 'ये' इत्यनिर्दिष्ट निर्देशे 'किल' इति सम्भावने ‘भवसिद्धिकाः' भव्याः परीतः-प्राग्वत् परिमितः स चासौ संसारश्च तद्वन्तः परीत्तसंसारिकाः 'अत इनिठना'विति (पा०५-२-११५) मत्वर्थीयष्ठन् , कोऽर्थः ?-तथाभव्यत्याक्षिप्स प्रत्यासन्नीभूतमुक्तयः भव्याः' सम्यग्दर्शनादिगुणयोग्या भिन्नग्रन्थय इति योऽर्थः, उभयत्र 'चः' समुच्चये इति, ७१२॥ Iव्यवच्छेदफलत्वाद्वा वाक्यस्य त एव, 'किल' इति परोक्षाप्तसूचकः, 'पठन्ति' अधीयते धीराः प्राग्वत्, कानि? इत्याह-'छत्तीसं'ति पत्रिंशदू 'उत्तराध्ययनानि' विनयश्रुतादीनि, भवसिद्धिकादीनामेतत्पाठफलस्य सम्यग्ज्ञानादेः 565KSHASANR45 KONK दीप अनुक्रम [१७३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1422~ Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६६|| नियुक्ति: [५५९], (४३) प्रत सूत्रांक [२६६] NROCKGROCALCROCALGAON सद्भावेन निश्चयतस्तत्पाठसम्भवः, अन्येषां व्यवहारत एवेत्येवमभिधानम् ॥ उक्तमेवार्थ विनेयानुग्रहाय व्यतिरेकत आह-ये भवन्ति 'अभवसिद्धयः' अभव्याः प्राग्वद्वचनव्यत्ययः, प्रन्थिः-उक्तरूपस्तद्योगाद्वन्थयस्त एव प्रन्थिकास्ते |च ते सत्त्वाश्च प्रन्धिकसत्त्वाः, अभिन्नग्रन्थय इत्यर्थः, तथाऽनन्तः-अपर्यवसितः संसार एषामित्यनन्तसंसारा-ये ॐान कदाचिन्मुक्तिसुखमवाप्स्यन्ति अभव्याः : भवावि ते अणंते" त्यादिवचनतो भन्या वा ते संक्लिष्टानि-अशुभानि ६ कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि एपामिति संक्लिष्टकर्माण इत्याह, 'अभविय'त्ति सूत्रत्वाद् अभव्याः' अयोग्याः 'उत्तर-८ | ज्झायति वचनव्यत्ययादुत्तराध्यायेषूत्तराध्यायविषयेऽध्ययन इति गम्यते, यद्वा 'उत्तर'त्ति प्राग्वत्पदैकदेशेऽपि पददर्शनादुत्तराध्ययनानि तेषामध्यायः-पाठ उत्तराध्यायस्तस्मिन्, तदनेन विशिष्टयोग्यतायामेव तात्त्विकैतदध्ययनस-४ द्भावलक्षणं माहात्म्यमुक्तमिति गाथाद्वयार्थः॥ यतश्चैवमतिमाहात्म्यवन्त एवं उत्तराध्यायास्ततो यद्विधेयं तदाह| तम्हा जिणपन्नत्ते अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते । अज्झाएँ जहाजोगं गुरूपसाया अहिज्झिज्जा ॥५५१॥ ॥ इति श्री उत्तराध्ययननियुक्तिः श्री भद्रबाहुस्वामिभिः कृता समासा ॥ तस्माजिन:-श्रुतजिनादिभिः प्ररूपिता:-प्रजसास्तान, अनन्ताच ते गमाश्च-अर्थपरिच्छित्तिप्रकाराः पयेवाश्चशब्दपर्यवार्थपर्यवरूपा अनन्तगमपर्यनास्तैः, समिति-सम्यग भृशं वा युक्ताः-संयुक्तास्तान् 'अध्यायान' प्रक्रमादु|त्तराध्यायान् 'जहाजोग'ति योग-उपधानादिरुचितव्यापारस्तदनतिक्रमेण यथायोग गुरूणां प्रसाद:-चित्तप्रसन्नता दीप अनुक्रम [१७३१] Inforary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति: ~1423~ Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-]/ गाथा ||२६६|| नियुक्ति : [५५९], (४३) जीवाजीव उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥७१३॥ गुरुप्रसादस्तस्माद्धेतोः 'अधीयेत्' पठेत् , न त्वेतदध्ययनयोग्यतावाप्तौ प्रमादं कुर्यादिति भावः, गुरुप्रसादादिति चामिधानमध्ययनार्थिनाऽवश्यं गुरवः प्रसादनीयाः तदधीनत्वात्तस्येति ख्यापनार्थमिति गाथार्थः । 'इति' परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वदेव ॥ इत्युत्तराध्ययनश्रुतस्कन्धटीकायां श्रीशान्त्या|चार्यविरचितायां शिष्यहितायां जीवाजीवविभक्तिनामक पत्रिंशमध्ययनं समाप्तमिति ॥ ३६ ॥ विभक्तिः प्रत सूत्रांक [२६६] % AR ॥ इति श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं श्रीशान्त्याचार्यायशिष्यहिताख्यव्याख्योपेतं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [१७३१] ॥७१३॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिरि-विरचिता वृत्तिः अत्र अध्ययन- ३६ परिसमाप्तं ~1424 ~ Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-]/गाथा ||-|| नियुक्ति: [--, (४३) FCIRCRACC0 अस्ति विस्तारवानुव्या, गुरुशाखासमन्वितः । आसेव्यो भव्यसार्थानां, श्रीको टिकगणद्रुमः ॥१॥ तदुत्ववैरशाखायामभूदायतिशालिनी । विशाला प्रतिशाखेव, श्रीचन्द्रकुलसन्ततिः ॥२॥ तस्यामानच्छदनिचयसदृक्षावकर्णान्वयोत्थः, श्रीधारापद्रगच्चप्रसवभरलसद्धर्मकिचल्कपानात् । श्रीशान्त्याचार्यभृङ्गो यदिदमुदगिरबाडमधु श्रोत्रपेयं,तो भव्याः! त्रिदोषप्रशमकरमतो गृह्यतां लियतां च ३ ॥ श्रीरस्तु॥ OCCASSECRECE KICKA इति श्रीशान्त्याचार्यकृतायां शिष्यहितायामुत्तराध्यनसूत्रटीकायां जीवाजीवविभक्ति नामसमाप्त षट्त्रिंशत्तममध्ययनम् । समासानि चाशेषाण्युत्तराध्ययनानि ॥ इति श्रेष्ठि-देवचन्द्र लालभाई - जैनपुस्तकोद्वारे--ग्रन्थाः ४१. JAMER ainatorary.om ~1425~ Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [--] / गाथा ||--|| नियुक्ति: [-], (४३) ॥ इति उत्तराध्ययनानि समाप्तानि ॥ TTA इति श्रेष्ठि-देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोखारे-ग्रन्थाङ्कः ४१. Soलडका FIRRITARG DVDValava मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४३) "उत्तराध्ययनानि" परिसमाप्तं ~1426~ Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 43 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “उत्तराध्ययनानि मूलसूत्र” |मूलं + नियुक्ति: + शान्तिसूरि-रचिता वृत्तिः] / (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्तं Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~1427~