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आगम
“उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२९], मूलं [१R-७३] / गाथा ||--|| नियुक्ति : [५०९...]
(४३)
सम्यक्त्व
प्रत
उत्तराध्य. बृहदृत्तिः ॥५७५॥
२९
सूत्रांक [१R
-७३]
भंते जीवे कि जणेइ , २ अणुस्सुयत्तं जणेइ, अणुस्सुर णं जीवे अणुकंपए अणुभडे विगयसोगे चरित्तमोहणिज्ज कम्म खबेर २९ ॥ अपडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किंजणेह, २ निस्संगत्तं जणेह, निस्संगत्सेणं जीवे || एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असज्जमाणे अप्पडिबद्धे आवि विहरइ ३०॥ विवित्तसयणासणयाए
पराक्रमा. ण भंते ! जीवे किं जणेइ , २ चरित्तगुत्ति जणेइ, चरित्तगुत्ते ण जीये विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मुक्खभावपडिवन्ने अडविहं कम्मगंठिं निजरेइ ३१ ॥ विणिवणयाए णं भंते ! जीवे कि जणेइ १,२ पावकम्माणं अकरणयाए अन्भुढेइ पुब्वषद्धाण य निजरणयाए पावं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतं संसारकतारं चीईवयइ ३२ ॥ संभोगपचक्खाणेणं भंते जीवे किंजणेइ,२ आलंवणाई खवेह, निरालवणस्स य आयय|डिया जोगा भवन्ति, सएणं लाभेणं संतूसह परस्स लाभ नो आसाएइ नो तकेइ नो पीहेड नो पत्थेद नो अ-13 मिलसइ, परस्स लाभं अणासाएमाणे अतकेमाणे अपीहेमाणे अपत्धेमाणे अणमिलसेमाणे दुचं सुहसिज्ज उवसंपज्जित्ता णं विहरह ३३।। उवहिपञ्चक्खाणेणं भंते जीवे किं जणेह,२अपलिमंथं जणेइ, निरुवहिए णं जीवे निकखे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ३४ ॥ आहारपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किंजणेइ ,२ जीवियासंस-18
५७५॥ प्पओगं बुञ्छिदइ, जीवियासंसप्पओगं बुञ्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ३५ ॥ कसायपच्चक्खाणेणं भंते जीवे किं जणेइ ,२ वीयरायभाव जणेइ वीयरायभावं पडिवन्नेऽविय णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ३६ ॥ जोगपञ्चक्खाणेणं भंते !, २ अजोगयं जणेइ, अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ पुच्चबद्धं
दीप अनुक्रम [१११४-११८७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति:
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