Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 2
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਕੀ ਆਬ ਦੇ ਕੁੱਝ ਨੂੰ ਪੰਸਦ ਦੇ ਵਸ ਉਸਰਦੀ ਦਾ ਭਾਰ ॥ ਤਕ ਅਤੇ ਬਕਬਰ ਦੇ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः । सकलागम रहस्यवेदी कलिकाळ सर्वज्ञकल्प-विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित श्री अभिधान राजेन्द्र कोष व द्वितीय भागः + [द्वितीय संस्करण] -: प्रकाशक :शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज एवं संयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज के उपदेश से । अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ प्रदत्त द्रव्यसहाय से श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद. श्री वीर संवत २५१३ प्रति : १०५० श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८ ईस्वी सन १९८६ मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका) २५०१ (दो हजार पांचसो एक रुपये) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान श्री अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था C/o. श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपाल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद. मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी नयन प्रि. प्रेस, का. २-६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद-१ Traकाकाmarati अभिधान राजेन्द्रकोषस्य रचना तु सर्वथा अपूर्वेवाऽस्ति । पण्डित शितिकण्ठशास्त्री श्री अभिधान राजेन्द्रकोष! शब्दकोशांकी परंपरा में 'अभिधानराजेन्द्र' यथार्थमें एक विशिष्ट उपलब्धि है। श्रीमद् की जीवनसाधनाका यह अत्यंत उदाहरण है। जब इस कोषका पहिला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे । सात भागों में तथा दस हजार पांचसो छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोष के समान है। जिसमें जिनागमों तथा बिभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया हैं - वसंतीलाल जैन ___ अभिधानराजेन्द्र कोष जैसे अतिविशाल ग्रन्थरत्नकी रचना उनके सम्यग् ज्ञानके सर्वागी समर्पणकी साहजिक निष्पत्ति हैं । अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं । अभिधानराजेन्द्र कोष सामान्य शब्दकोष नहीं हैं । किन्तु शास्त्रवचनोंकी समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटनका सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है। - रमेश आर. जवेरी काकाकाकाmar.maaाकाताााकार काकाकाकाकाकाका घााााााााााााााााााा Jain Education Interational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरूदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । श्रीअभिधान राजेन्द्र कोषः JeGGree ell1011e1216 OOOOOOO NOOOOOOO D तोलाराम दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत :। सङ्घस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाकितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ? ॥१॥ " जन्म सं १८० भरतपर (य पी पंच्यासपन सं. १९०९ उदयपर (मेवाड) क्रियोदार सं. १९२५ जावरा (मालवा) lain Education Intemational For Prvale & Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन कलिकाल सर्व ज्ञकल्प, सकलागमरहस्यवेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप. जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मोन्नतिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्व का जीवनभर प्रचार, प्रसार किया । साथ ही अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया-ग्रन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल ग्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र काश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों का युगों युगों के लिये अद्भुत प्रेरणा प्रदान की है। बीसवीं शताब्दी के संध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टीग प्रेस, रतलाम (म. प्र.) से प्रकाशित की गई थी। प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रायः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया था । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुरतीर्थ पर विराट अधिवेशन हुआ और उस में इस ग्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ । ___ इस महान कार्य में परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्य देव श्रीमदू विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी महाराज के पट्टप्रभावक परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनिषी आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ है । वर्षा के बाद पुनः एक बार इस ग्रन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है। इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्य देव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज सयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यानन्द विजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एवं साध्वी-मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं : श्री सौधर्म वृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-अहमदाबाद के ट्रस्टी मॉडल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला हैं। इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एव महानुभावों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है । उन की मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार । १ साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजी श्री गंभीरश्रीजी के उपदेश से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक सघ । २ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक सघ, चोराउ (राज.) ३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेड़ी, श्रोभाण्डवपुर तीर्थ (राज.) ४ श्री में सवाड़ा सिल्क मिल्स, भीवडी (महाराष्ट्र) ५ श्री वस्तीमलजी हेमाजी, जीवाणा (राज.) ६. शाह नेमिचन्द देवीचन्द फूलचन्द, शुकनराज, कान्तिलाल, राजु बेटापाता श्री लखमाजी वलदरिया, कोशेलाव (राज.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक (त्रिस्तुतिक) सघ थराद (उ. गुजरात) ८ श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जैन युवक मंडल, अहमदाबाद श्री सौधर्मवृहत्तापागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाधाल श्री सौधर्म बहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-सुराणा ११ श्री जैन श्वताम्बर त्रिस्तुतिक संघ-धानेरा १२ श्री जैनश्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ थराद जैन मित्रमण्डल, बम्बई । १३ श्री जैन श्वेताम्बर सकल सघ, नेनावा (गुजरात) १४ श्री जैन श्वताम्बर त्रिस्तुतिक सघ, मेंगलवा (राज.) १५ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, सियाणा (राज.) १६ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, आकाली (,,) १७ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (,) १८ श्री मांगीलाल, फूटरमल, शान्तिलाल, किशोरचन्द्र बेटा पोता शेषमलजी स्वसाजी रामाणी, गुड़ाबालोतान् (राज.) १९ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा (राज) २० श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र.) २१ श्री चीमनलाल भीखालाल लाधाणो वासणवाला, धानेरा (गुजरात) २२ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीसज, वीरचन्द, गौतमचन्द, अशोककुमार, रतनलाल, गणपतराज, बेटापोता केनाजी मेंगलवा, (राजस्थान) २३ श्री अमरचन्द देशमल तिलोकचन्द मीठालाल ओटमल धरमाजी पटियात (धाणसा) २४ शाह मगराज सुखराज एन्ड़ क. मद्रास । शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटा पोता हांसाजी रतनपुराबोरा, मोदरा (राज.) इन के अतिरिक्त गाँव नगरों के महानुभावोंने लाभ लिया है उन के नाम है. भीनमाल, जोधपुर, मेंगलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लोर, विजयवाडा, मांडवला, धाणसा, आहार, भेसवाडा, सुरा, सियाणा, कामता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी, पांथेडी, बम्बई, सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ, कोशेलाव, थराद, अहमदाबाद, लोवाणा, दूधवा, आणद, वासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलोल, झाबुआ, टांडा, पारा, रिंगणोद, (धार) इस प्रकार गुरु कृपा से एवं पू. आचार्य श्री के सतत प्रयत्न से यह प्रकाशन हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् । निवेदक श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रकाशन संस्था अहमदाबाद श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चौक पो. अहमदाबाद २०४२ पोष सुद७ (गुरुसप्तमी) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना अनादि से प्रवमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है । मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है; परन्तु अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लोकोत्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे । 'जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पठा।' संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आम्रब और बन्ध । दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही सवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वयं को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं । जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है । सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये किले जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे । कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है जैसे खान में रहे हए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है । मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देनेां अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रुप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है । मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को केई मिट्टी कहता है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती कर्म की आठे प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं। ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म प्रकृतियां विभाव परिणमन करा लेती हैं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणीय कर्म आँखां पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपडे की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है । इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को गजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है । यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ दुबो देता है। अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है । मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म । यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है । साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधरता तो पाता है और सख का अनभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असह्य दःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन कराता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश-हवास खा ही प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरुप को भूल जाता है और पर पदार्थो को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसक संसार परिभ्रमण का । — मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकु भरमत बादि ।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है । जो मनष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममकार जब तक हममें विद्यमान हैं: तब तक हम महनीय कर्म के बन्धन में जकडे हुए ही हैं । अहंकार और ममकार जितना जितना घटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोहराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है । जीव को भेदविज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म है । इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में अटकाये रखा है। ___और बेडी के समान है आयुष्य कम । इसने जीव को शरीर रुपी बेडी लगा दी है; जो अनादि से आज तक चली आ रही है। एक बेडी टूटती है तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है। सजा की अवधि पूरी हुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव को जन्म जन्म को कैद की अवधि पूरी नहीं होती; तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता । नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान । चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित करता है। ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तियं च और नरक गति में भ्रमण करता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है । कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव का उच्च वा नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है- राजा के खजांची के समान खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजांची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । यही कार्य अन्तराय कर्म करता है। इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ( आत्मशक्ति ) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोब किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद | इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, द्रव्य, नवतस्य मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक है। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है । " संसारस्य प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि....... धम्मं सरणं गच्छामि । ' और 'केवलिपण्णत्त धम्मं सरणं पव्वज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के यल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है; जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पर प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है । धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है । प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्यादवाद शैली से संवृत जिनवाणीमय जिनागमे के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अनुशीलन अत्यन्त आवश्यक है । आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था । विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुब्जी तलाश रहे थे; जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके । ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध, तपेोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे - उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्होंने जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुजीनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी । वह कुञ्जी है-' अभिधान राजेन्द्र ' । यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र पास में है। तो और कोई प्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है जैनागमों में निर्दिष्ट Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतत्त्व जो ' अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं हैं; वह कहीं नहीं है । यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु को तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है । भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रहो है। निघंटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। 'यास्क' की रचना निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दसंग्रह दृष्टिगोचर होता है। ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल | जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक काश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश । कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धन्वन्तरी का निघण्टु; इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' बह प्रचलित है। धनपाल का 'पाइय लच्छी नाम माला' २७९ गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनरुजयने 'धनन्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक बन जाते हैं--जैसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनजयने 'अनेकार्थ नाममाला' को रचना भी की है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', 'निघण्ट्र संग्रह' और 'देशी नाममाला' आदि काश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलांछ कोश', 'नाम कोश', 'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', 'शभेद नाममाला', 'नाम संग्रह', 'शारदीय नाममाला', 'शब्द रत्नाकर', 'अव्ययकाक्षर नाममाला', 'शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश', 'पंचवर्ग स ग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', 'एकाक्षरी-नानार्थ कोश', 'एकाक्षर नाममालिका', 'एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सहमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश प्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेपता के कारण यह आज भी समस्त कोश प्रन्यों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा ग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है। फिर भी इसको कुछ विशेषताए प्रस्तुत करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूराश्वरपट्ट्प्रभा श्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छीय- श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज । Ja Edu on International तोलारामतिशर्मा विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् । हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥ १॥ Private & Personal जन्म सं. १८९६ किसनगढ (मेवाड़) दीक्षोपसंवत् सं. १९२५ जावरा (मालवा) सूरिपद सं. १९६५ जावरा (मालवा) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत ore भाषा थी । उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो का धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन आगमों को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है। इस महाकोश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म ' अ ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाग्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है; इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं । ५ वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्यादवाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सतावे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं । वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है । इसमें धर्म-संकृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट - सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं । इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे; तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पडेगा । इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है । जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोघे विहार किये; प्रतिष्ठा-अरंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । ऐसी विषम परिस्थिति में sra atre वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है । इस महाप्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्ववपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है । श्रीमद् विजय यशेादेवसूरिजी महाराज ' अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्त्ता के प्रति अपना भावास प्रकट करते हुए लिखते हैं- आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र ) मेरा निकटतम सहचर है । साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है; इसका अवलोकन करके मेरा मन आचार्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है । मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने fart पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा सकेत इस कोश की ओर ही होगा; जो बढ़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है । For Private Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। जा भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये । हमने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है ! — अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास । दक्षिण में बसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चातुर्मास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पोष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमो प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज माहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया । उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते दुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में • अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके पुनर्मुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही सघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई; पर श्रेयांसि बहुविधनानि' की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोघ इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी; पर मैं मजबूर था। आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। - हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओंने ..................... ............................. । उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया । श्रीमद् ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा; व्यवसायियों के लिये नहीं । यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि • इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ । देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए अस्थित हुए । पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व को असाधारण कृति इस ' अभिधान राजेन्द्र ' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा । श्री संघने हार्दिक प्रसन्नता व अपूर्व भावेोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी । श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है । परमकृपालु 6 ू और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश अन्थ पुनर्मुद्रित हो कर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है; यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है । इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है; फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य सांघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. बृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं । इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रूफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है । हम उन्हें नहीं भूल सकते । त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गयी हैं । वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् । नेनावा ( बनासकांठा ) दिनांक २-१२-८५ For Private Personal Use Only आचार्य जयन्तसेन सूरि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्चीय पट्टावली. -ouesta श्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहसूरि | ५. श्रीसोमसुन्दरसूरि १ श्रीसुधर्मास्वामी २६ श्रीसमुद्रसूरि ५१ श्रीमुनिसुन्दरसूरि २ श्रीजम्बूस्वामी २७ श्रीमानदेवसरि ५२ श्रीरत्नशेखरसूरि ३ श्रीप्रनवस्वामी २८ श्रीविवुधप्रभसूरि ५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरि . श्रीसय्यंभवस्वामी २६ श्रीजयानन्दसूरि ५४ श्रीसुमतिसाधुसूरि ५ श्रीयशोमवसूरि ३. श्रीरविप्रनसूरि ५५ श्रीहेमविमलसूरि श्रीसंभूतविजयजी ३१ श्रीयशोदेवसूरि ५६ श्रीआनन्दविमलसूरि श्रीनबबाहुस्वामी ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरि ५७ श्रीविजयदानसूरि ७ श्रीस्थूलभस्वामी ३३ श्रीमानदेवसूरि श्रीअार्यसुहस्तीसूरि ५८ श्रीहीरविजयसूरि ३४ श्रीविमलचन्प्रसूरि श्रीमार्यमहागिरि ३५ श्रीसद्योतनसूरि ५६ श्रीविजयसेनसूरि श्रीसुस्थितसूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि .श्रीविजयदेवसूरि श्रीसुपतिबद्धमूरि ६.(श्रीविजयसिंहमूरि ३७ श्रीदेवसूरि १. श्रीइन्प्रदिन्नसूरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि ६१ श्रीविजयप्रभसूरि ११ श्रीदिन्नसूरि .. श्रीयशोभद्रसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि १२ श्रीसिंहगिरिसूरि ३८ (श्रीनेमिचन्मसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी ४. श्रीमुनिचन्धसूरि ६४ श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी ४१ श्रीअजितदेवसूरि १५ श्रीचन्द्रसूरिजी ६५ श्रीविजयकल्याणसूरि ४२ श्रीविजयसिंहसूरि १६ श्रीसामन्तनप्रसूरि ६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि (श्रीसोमप्रनसूरि १७ श्रीवृद्धदेवसूरि ४३ श्रीमणिरत्नसूरि ६७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरि १८ श्रीप्रद्योतनसूरि ४४ श्रीजगञ्चन्यसूरि ६८. श्री विजयधनचन्द्रति १६ श्रीमानदेवसूरि ...श्रीदेवेन्द्रसूरि ६६ श्री विजयभूपेन्द्ररि २० श्रीमानतुङ्गसूरि *श्रीविद्यानन्दसूरि ७० श्री विजययतीन्द्रसूरि २१ श्रीवीरसूरि ४६ श्रीधर्मघोषसूरि २२ श्रीजयदेवसूरि ७१ श्री विजयविद्यावन्द्ररी ४७ श्रीसोमप्रभसूरि ' २३ श्रीदेवामन्दसूरि ४८ श्रीसोमतिलकसरि ७२ दर्तमानाचार्य २४ श्रीविक्रमसूरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसरि विजयजयत्तसेन सार Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REER पीसद विजय राजेन्दसूरीश्वरजी महाराज दाद दिलाय पाचकदमोश्चाजी महाराज उपायाय मोहाविजयजी महाराज असद विजयभूपेन्दीश्वरजी मान विजय यतीजामीनाजी महाराज इमायाय मुशायविजयजी महाराज विजय विधामापूरीचाजी महाराज भीमद् विजय यातायाजी महाराज www.elfarary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → प्रस्तावना - इह हि खलु भारतवर्षे संस्कृतभाषायामनेकशोऽकारादिवर्णानुक्रमेण सङ्कलिताः कोशाः समुपलभ्यन्ते देशान्तरेषु च तत्तद्देशजावया, परन्नाद्यापि प्राचीनसमये मातृभाषात्वेन राष्ट्रभाषात्वेन च सकलजारत मिलब्धास्पदायां केवलिनाषायां कोऽपि कोषः संकलितोऽस्ति । किमत्राप्रस्तुतया प्राकृतभाषाप्रशंसया स्वरूपमेवात्मस्तुतिं विधास्यति । इयमेव उत्सर्पिएयवसर्पिणीकाले समजनि, समाहता च सर्वज्ञैर्गणधरैश्श्रेयमेव । कतिचिद्वर्णेषु सुप्तिङ्कत्सु च भेदमापन्नेयमेव संस्कृतभाषात्वेन परिणता । किं बहुना सर्वज्ञकथिता मर्मग्राहिणः पदार्थाः जैनदर्शनमूलसूत्राणि चास्यामेव जाषायामित्यस्या वर्णानुक्रमणिकया सङ्कलनमत्यावश्यकमिति वाढं सानुनयं सकलसंघेन संप्रार्थितः परमकारुणिकः सर्वतन्त्रस्त्रतन्त्रः श्रीमट्टारक श्रीश्री १००८ श्रीविजयराजेन्द्रसूरिर निधानेषु श्रेष्ठतममिममनिधानराजेन्द्रनामक कोषं निरमास्त । श्रेष्ठतमत्वमस्यावलोकनत एवोद्यमलमत्र काकदन्तपरीक्षया । किञ्च - अस्यां जारतभूमौ पञ्चमारके मनुष्येषु मनःपर्याय केवलयोः परिपूर्णश्रुतावधिज्ञानयोश्च विच्छेदेन अपूज्ञानयुक्तं सकलसङ्घमवलोक्येमं कोशं संग्रहतया ग्रथितवान् यथा-सूर्यावृत्त्यादीनां वर्णनम् ' आउट्टि ' शब्दे श्रोत्रादीन्द्रिय विषयकं वृत्तम् 'इंदिय ' शब्दे ऋतुविषयकम् ' उउ ' शब्दे एवं यथायथं वर्णितमनुपदमेव स्पष्टतया दर्शयिष्यामः । श्रयं कोश: संस्कृतभाषासु बादराणां द्रव्याभावेनासंग्रहितान्यकोशानां कामधुगेवोपकारं करोतीति नात्रार्थवादः । जैनरहस्य जिज्ञासूनां कृते स्थूलघटरूपज्ञाने चतुरिव विस्मृतपदार्थमार्गणे साक्षात्पदार्थमापक मिवेतस्ततो विकीर्णपदार्थानामेकत्रोपलम्भकमिमं संगृहीतमवलोक्य सर्वेऽपि सन्तः सन्तोषमेष्यन्तीति वाढं निश्चिनुमः । भो जो विदेशीया जैनदर्शनजिज्ञासको बौद्धेभ्यो भेदममन्यमाना विलोकयन्तु जैनदर्शनरहस्यम्, अवगच्छन्तु बौद्धदर्शनतस्तारतम्यम्, सर्वदर्शनमुकुटायमानमिमं जैनदर्शनमवलोक्य सूक्ष्मे क्षिकया विदांकुर्वन्तु जीवाजीवादितत्वम्, 1 प्राप्नुवन्तु परमोत्साहं सर्वविषयक समुदायस्ततच्चन्दे एवोपलभ्यते इति नात्र जवतां श्रमलेशसंभवः । पिच प्रचलिताद्यश्वीनभाषा ( हिन्दी ) शब्दपरावृत्तिजिज्ञासवोऽपि कस्माच्छब्दात्परानृत्य संस्कृते शब्दः प्रचलितः आधुनिककालापेक्षया संस्कृता ( हिन्दी ) दल वा इत्येतदप्येतद्न्यानुभवनेन सुखेनैव बोधिष्यन्तीति निर्विवादम् । अत एव अनिधानराजेन्द्र इति यौगिकं नाम यथाहि राजा निष्पक्षपातं शत्रुमित्रोदासीनेषु नियमान्नियुङ्के एवमयमपि पदार्थविज्ञानरूप नियमं जैन-बौद्ध-सांख्य- योगादिदर्शन श्रद्धालुषु पदार्थसंशोधकेषु संस्कृतप्राकृतभाषारसिकंषु च सममेव प्रवर्त्तयतीति । विषयसूचना पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १ ॥ इत्यनुरुन्धानेन विशेषतो दर्शनीया शब्दास्तत्रस्था विषयाश्च लेशमात्रतो विज्ञप्यन्ते, यथा- 'आन' शब्दे आयुषो भेदान्निरूप्य तस्यातिप्रियत्वं प्रतिपादितमत एव तत्पुष्टिकारणानि प्रतिपादितानि न खलु गतमायुः पुनरावर्तत इति च स्वल्पतः सूचितम् | आयुषोऽनित्यत्वं निरूप्य वर्षशतस्याप्यल्पत्वमेवेति वाढं विभावितम् । निरूपितानि च तत्रैव सोदाहरणानि सर्वसिद्धान्ताविरुद्धानि सप्तायुःक्ष्य कारणानि अपि च सोपक्रमनिरुपक्रमादिना भेदं निरूप्य श्रायुषोऽल्पत्वकारणं दीर्घायुष्कारणं शुभदीर्घायुरशुनदीर्घायुष्कादिना भेदास्तेषां कारणानि च दर्शितानि । आयुष्क जीवितहेतुत्वं जीवानामिह भव परभविकायुस्तत्र नैरयिकादीनां परजविकायुर्वन्धश्व प्रतिपादितः । प्रत्याख्यानादिना निवर्त्तिताकत्वं सप्रमाणं निरूप्य अनन्तरोपपन्नकनैरयिकादीनामायुर्वन्धचेति निपुणं विजावितम् । श्रसजीवानामेकान्तवाक्षैकान्तपण्डितबालपः रमतानां क्रियावाद्यादीनामायुर्वर्णयित्वा नैरयिकादिष्वापद्यमानानां भवि कजीवानां सायुकत्वमायुष्करणसंवेदनादि न्यरूपि । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) एवम उक्काय शब्द - अकायिकानां भेदं निरूपयन् तेर्षा शरीरादि न्यरूपयत् । नवति चाप्कायिकस्य जीवितमिति सयुक्तिकं निरूपितमत एव सचित्ता चित्तमिश्रविवेकश्च कृतः । तीव्रोदकस्याचित्तत्वमप्कायशस्त्राणि प्रतिपाद्य सचित्ताकापरिभोगविचारः प्रायुङ्ग । तत्राप्कायपरिभोगकारणानि अष्कायसमारम्भव्यावृत्तस्यैव मुनित्वं शाक्यादिमुनयो नियमतोऽकायिकांस्तदाश्रितजीवांश्च विहिंसन्तीति युक्त्या प्रतिपाद्य अप्कायस्पर्श निषेधं शीतोदकस्पर्श निषेधं च कृतवान् । एवमाशब्दे सूर्यस्य कति कस्यामृतावाढत्तयो केन च नक्षत्रेण युक्ताः प्रथमादयो भवन्तीति पुनः पुनर्भावयन् सुबोधमे निरूपितम् । अथ कस्मात्स्थानादेकेन्द्रिया आएमजाश्व जीवाः समागच्छन्तीति पृथ्वी कायिकानां पुनरपि गत्यागती भक्तो जीवानां गत्यागतिपरिज्ञानेऽनेकशो मिध्यादृष्टीनां सिद्धान्ता निपुणं निरूपिताः । अथ आगमशब्दे स्त्रशैल्या जेदप्रतिपादनपूर्वकमागमस्य परतः प्रामाण्यं तत्र च प्रामाणिकपुरुषप्रणीतत्वेन मामाएयं प्रतिपाद्य दृढतरयुक्तिनिरपौरुषेयत्वं निराकृतम् । स्वीकृतं च संभवद्रूपस्यैवागमस्य मूलागमैकदेशनूतस्य आगमान्तरस्य च प्रामाण्यं न तु वेदस्यैव | प्रमाणान्तराविषय एव पदार्थों नागमेन बोध्यते किं तु प्रमाणान्तर विषयोऽपि इति निरूप्य कणादमते शब्दप्रामाएयस्यानुमानान्तभावमनिधाय सर्वमतसंवादिशब्दप्रामाण्यं प्रत्यपादि । शब्दस्य वाह्यार्थे प्रामाण्यम् अषोहःशब्दार्य इति बौद्धमतं च निरूप्य अर्थस्वरूपं वाच्यवाचक नावं शब्दस्य वाचकता विचारं चाकार्षीत् । स्फोटः शब्दः इति वैयाकरणमतं स्फोटयित्वा स्वमते शब्दस्य वाचकत्वं शब्दस्य नित्यत्वविचारः शब्दार्थयोः संबन्धश्च हेतुवाद। हेतुवादभेदादागमस्य वैविध्यमागमस्य च सर्वव्यवहारनियामकत्वं च प्रतिपादितम् । धर्ममार्गे मोक्षमार्गे चागमस्यैव प्रामाण्यम् जिनागमस्यैव सत्यत्वम्, इत्यादयो मर्मग्राहिण श्रागमविषयिणो बहवो विषयाः समुपलभ्यन्ते । एवम् " आणा " शब्दे परलोके आज्ञाया एव प्रामाण्यम् प्रज्ञाप्रवर्तमानोऽप्यप्रवर्तमान एव तीर्थराज्ञाऽन्यथाकरणे दोषाः प्रायश्चित्तं चेत्यादिकानपरांश्च तद्विषयकान् विषयान् वर्णयित्वा आज्ञाव्यवहा रो निरूपितः । एवं आयरियशब्दे व्युत्पत्यादिप्रदर्शन पुरस्सरमाचार्य पदनेदमनिधाय कलाचार्यादिनाऽऽचार्यस्य विव्यं तेषां विनयकरणं च प्रदर्शितम् । निरूपितं चेहलोकोपकारिपरलोकोपकारिणोराचार्ययोः स्वरूपं तकेयोपादेयवत्त्वं च । प्रत्राजनाचार्योपस्थापनाचार्याच्यां द्वैविध्यं लक्षणं चाचार्यस्य, आचार्यस्य गुणाः यद्विरहितो गुरुर्न भवतीति भ्रष्टाचारत्वं पराहितकारित्वं दुर्गुणमाचार्यस्य निरूप्य प्रमादिनमाचार्य शिष्यो बोधयेत् । आचार्यस्य विनयः गुरुविनये वैद्यदृष्टान्तं च प्रदर्श्य केन कर्मविपाकेन गच्छाधिपतिर्भवत। ति वर्णितम् । आचार्यस्यातिशया निर्ग्रन्थिनामध्याचार्य इति यथायथं निरूपितम् | आचार्ये कान्नगते अवधाविते वा आचार्यान्तरस्थापनं तत्र “ सुत्तत्थे णिम्माओ " इत्यादिना लक्षणं च प्रतिपादितम् । आचार्यस्य परीक्षां गुरोराचार्यपदे स्थापना विधिं च तत्र स्थविरा: प्रष्टव्याः इति प्रतिपाद्य सपरिच्छदस्यैवाचार्यत्वमिति निरूपितम् । एवम् आणुपुत्र शब्डे आनुपूर्वीविषयक निरूपणम् । एवं स्वस्वविषयकसकविषयपूर्णाः चतुरस्रतो रमणीयाः विपक्षपक्षनिरूपणपूर्वकं युक्तियुतस्त्रपक्षस्थापननिरूपणगर्जाः पूर्वोक्ता अपरे चेमे शब्दास्तेऽवश्यं विलोकनीयास्तानेवाह । “ याता, आधाकम्म, आभिणिवोहिय, आरम्भ, आराधक, आलोयला, आसातना, आहार, इंद, इंदभूई, इंदिरा, इत्थिलिंगसिक, इत्यी, ईसर, उन, जग्गम, उग्गह, उदय, उद्देस, उद्देसिय, उपत्तिया, उपाय, जरन्न, उबयोग, उबवणा, जववाय, जवसंपया, उवसग्ग, उबहाण, उबहि, उवासगपकिमा, उसन, उमुयार” एते शब्दा अस्मिन् ग्रन्ये विशेषतो दर्शनीयाः रमणीयविषयपरिपूर्णाश्चेति सूचानकया निरूपिताः ॥ ( ग्रन्थ निर्दिष्टप्रकरणानां सङ्केतः ) १ अङ्ग० २ अनु० ३ अने ४ अन्त SN अङ्गचूलिकाअनुयोगद्वार अनेकान्तजयपताका अन्तगरुदशाअष्टकयशोविजयकृत अष्ट० ६ आचा० ७ आ० च० ० आ० म०प्र० आवश्यकमलयगिरिप्रथमखएम ए आ०म० द्वि० आवश्यकमलयद्वितीयखएम आचाराङ्गसूत्रआवश्यकचूणीं १० श्रातु० ११ आ० क० १२ आव० १३ उवा० १४ उत्त० १५ उपा० १६ उत्त० नि० आतुरप्रत्याख्यानआवश्यककथा आवश्यकवृहत्तिऔपपातिकसूत्रवृभिउत्तराध्ययनसूत्र उपासकदशाङ्गउत्तराध्ययननियुक्ति १७ एका० १० ओघ० १० कर्म० कर्मग्रन्थ१० क० म० कर्मकृत For Private Personal Use Only एकाक्षरीकोश नियुक्ति Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. कटप करपसुबोधिका२२ ग गच्छाचारपयन्ना२३ गा० गायत्रीव्याख्या१४ चंप घन्प्राप्ति२५ जं. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति२६ झा० झाताधर्मकथा२७ जीत जीतकरूप२० जी० जीवानिगम२७ जीवा जीवानुशासन३० जैन जैन इतिहास३१ ज्यो ज्योतिष्करण्ड३२ ९० प्राकृत ( दुएदी) टीका३३ २० तन्दुलवयाली३४ तित्यु तित्थुगाली३५ दशा दशाश्रुतस्कन्ध३६ दर्श० दर्शनशुधि३७ दश० दशवकात्रिकाध्ययन३० द०प० दशपयना३५ व्या घव्यानुयोगतर्कणा४. दास द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका (वनीसवत्तीसी)४१ दी० द्वीपसागरप्रज्ञप्ति४२ देण्ना० देशीनाममाला४३ धर्म धर्मसंग्रह४४ ५० र० धर्मरत्नप्रकरण४५ नयो नयोपदेश४६ नं० नन्दीसूत्रवृत्ति४७ नि निरयावाल४० नि० ० निशीथचूर्णि ए पं० चू० पञ्चकम्पचूर्णि५० पं० ना० पञ्चकम्पनाष्य५१ पञ्चा० पञ्चाशकसटीक५२ पं० २० पञ्चवस्तुकटीका५३ पं० सं० पञ्चसंग्रह२४ पं० सू० पञ्चसूत्रमूल२५ प्रव० प्रवचनसारोछार५६ प्रति प्रतिमाशतक२७ प्रश्न० प्रश्नव्याकरण५८ प्रज्ञा प्रझापनासूत्र५५ पिं. पिण्डनियुक्तिवृत्ति६० पिंकण्मूग पिएडनियुक्तिमूल६. पा. पाक्षिकसूत्रसटीक ६५ मा० प्राकृतव्याकरण६३ प्रा. ना. प्राकृतनाममाला६४ भन् जगवतीसूत्र६५ महा० महानिशीथसूत्र६६ मएम. मएमनप्रकरण६७ यो०वि० योगविन्दु६० रत्ना० रत्नावतारिकावृत्ति६ए लन् ललितविस्तरावृत्ति७. लघु० बघुप्रवचनसार७१ व्य० अ० व्यवहारअकरार्थ७५ वाच. वाचस्पतिकोश७३ व्य० प्र० व्यवहारसूत्रवृत्तिमथमखएक७४ व्य०वि० न्यवहारसूत्रवृत्तिद्वितीयखएक७५ ती विविधतीर्थकल्प७६ वृ० वृहत्कल्पवृत्ति७७ विशे० विशेषावश्यकवृत्ति७० विपा० विपाकत्रसूत्रपए श्रा० श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति८० पो० पोमशप्रकरणसटीक८१ स० समवायानसूत्र २ मंया० संस्तारकपयना७३ संस०नि० संसक्तनियुक्तिमूलन्ध संघान सडाचारजाष्यन्य सत्ता सत्तरिसयठाणावृत्ति७६ सम्म सम्मतितर्क८७ स्थान स्थानाङ्गसूत्र७८ स्या स्याद्वादमजरीGए सू०प्र० सूर्यप्राप्तिः सटीकए. सूत्र सूत्रकृतासूत्रए. सेन सेनप्रश्नसंस्कृतए५ हा० हारिभवाष्टक३ ही. हीरप्रश्नसंस्कृत प्र० अधिक মত प्र० द्वा० पाहु० अध्ययनअधिकारअध्यायअष्टक०द्वारपाहुमाश्रुतस्कन्धइस्कार ध्रु० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) उल्ला० ग० उ० प्रति विव० गणाउद्देशप्रतिपत्तिविवरणपदपरिच्छेदसमवाय संग अध० जल्लामप्रश्नसंवरद्वारअधर्मद्वारपुंसिङ्गस्त्रीलिङ्गनपुंसकलिङ्गत्रिभिङ्ग परि० स्त्री० सम० त्रिक संकेतसूचना सर्वत्र हि सङ्केतझानमन्तरेण न कश्चिदपि सङ्केतितपरिझाने प्रभवतीति सङ्केतसूचनं क्रियते यत्रास्मिन् ग्रन्थे टीकारहिता गाथा उदाहरणपवितानि प्राकृतवाक्यानि संस्कृत श्लोका वा तत्राद्यान्तयोरेन " " चिह्नम्। मलटीकयोः स्थूलसूदमाक्षरैरेव नेदः प्रदर्शितः कचिदनुपयुक्ताटीका न संगृहीता किं तु मूलमात्रमेव स्थूलाक्षरैःप्रकाशितम् । सप्तम्यन्तत्वेन प्रदर्शितस्यार्थस्याधोनागे एत, चिह्न दत्तम, यत्रैकस्यानूद्यस्य प्राकृतशब्दस्य द्वित्राः संस्कृतेऽनुवादकशब्दास्तत्र द्वितीयोऽनुवादष्टीकासमपशिष्वेव निहितः। अनूद्याः प्राकृतशब्दा अनुवादकाश्च संस्कृतशब्दाः इति गौणमुख्यजावोऽपि प्रदर्शित एव । अनूद्यानुवादकयोर्मध्ये एत-चिह्नमस्ति । येन्यो ग्रन्थेच्यः पाठः संगृहीतस्तत्र नमैकदेशे नामग्रहणमिति न्यायमनुश्रित्य ग्रन्थस्य पुंलिङ्गादीनांच पूर्ण नामधेयमनुक्त्वा एकं द्वे वा अक्षराणि प्रदर्शितानि एवमध्ययनशतकोद्देशादिखएमेषु च एक एव वर्णः प्रदर्शितस्तत्र च शून्याकाररूपमेत चिह्नमपि निहितमस्ति । विशेषसूचना एतत्पुस्तकसंशोधनेऽस्मत्सतीर्थ्ययोमुनिश्रीदीपविजय-यतीन्धविजययोर्महान् श्रम इति नात्र दये किन्त्वमडित पुस्तकानामतिजीर्णत्वेन प्रतिपुस्तकमेकैकप्रत्युपलब्ध्या च कचिद्गाथादौ टीकावलम्बनैकशरणेन प्रकरणविषयाविरोधेन च बहतरं पयोलोच्य निहितपदैः पूरितगाथासु कदाचिदेव कचिदेव पावभेदः स्यात्स स्वयमेव सञिः संस्करणीयः । किञ्च यदि कचिद्यन्त्रदोषण वर्णानां घर्षणेन च अनुस्थितेषु षकारादिषु दृष्टिदोषादिना वा अशछिः स्यात्सा विद्वद्वरैः शोधनीया इत्यादि सर्व विज्ञपयन्ति । श्रीश्री १०० श्री नपाध्याय-मुनिप्रवर मोहनविजयाः । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 要全全全全全全全全会全全全全全全全全全全关全全全全全全全全全全全全全全全全去接 朱孝等事本学生半半生奉孝丰;学学样丰丰法学洋学学法学学半学 6 半未来事半書本 TVVV पृन्दारककरूपवादिवृन्दवन्दितचरणकमल-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-कलिकालसर्वज्ञकल्प-जङ्गमयुगप्रधान-श्रीसौधर्मवृत्तपागच्चीय-जैन. श्वेताम्बराचार्य-श्रीमन्नहारक-श्री श्री १००८ श्री श्री-विजयराजेन्मसूरिविरचितः sdalaidaiantalesiolaleta.ladekadasiecomasashimsastaniodadetecasardasaravasanasasan 7TTTTTTTT 1 अभिधानराजेन्दः। MITTETTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTEE तस्याऽऽकारादिशब्दसलने वितीयो जागः । Cer*eo#Dic~ सच श्रीसर्वप्ररूपितगणधरनिर्वर्तिताद्यश्वीनोपलच्यमानाशेष-सूत्रतदृत्ति-नाष्य-नियुक्ति-चूएर्यादिनिहितसकलदार्शनिकसिझान्ततिहास-शिप-वेदान्त-न्याय-वैशेषिकमीमांसादिप्रदर्शितपदार्थयुक्तायुक्तत्व निर्णायकः । श्रीमुनिदीपविजय--श्रीयतीन्द्रविजयाच्या संशोधितः Catestosacscool AAAAAA IH1-2*********************** sistent MITTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTT i AAAAAAAAAAA4444444 ******************* aloardhaniecies ******* ** . ***************** Trinic.is.ostostostralesiasiasion TTA VVVVVVVV aloNeDicPOSSIRite 4A Chaindi समस्तजैन श्वताम्बरसङ्केन महता परिश्रमेण प्राकाश्यं नीतः । ***श्री जैनप्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस रतलाम.*** श्रीवीर संवत् २४३६१ ( श्रीविक्रमाब्दः १६६७ । श्रीराजेन्द्रसूरि संवत् ४) । खिस्ताब्दः १६१० . . . 为考土土44444444444土土土土土土土人44444444444444” Hal * **** * ******************* ************ * ** . * Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानो जपति । अभिधानराजेन्द्रः। ** **: TARRERMPSmarthakat DIREFERE प्राकार सिरिवकमाणवाणिं, पणमिश्र जत्तीइ अक्खरकमसो। सहे तेसु य सव्वं, परयणवत्तव्वयं वोच्छं ॥१॥ माह आअ-(भाग)-आगत-त्रि०। आयाते, उपस्थिते, प्राप्त RAAKAAMKAMSASAKSHARALE च। श्रागमन, न । वाच । “व्याकरणप्राकारागते क-गो" TTTTTTTTTE ॥८।१ । २६८ ॥ इति हैमप्राकृतव्याकरणसूत्रेण वैकल्पिका गकारस्य सस्वरस्य लुक् । प्रा० । आ(असं-अरिस-आदर्श-पुंग दर्पणे, वाच। “श-प-तप्तवज्र या" ॥ ८।२।१०५॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेणान्त्यव्यज्जनात्पूर्व इकारो वैकल्पिकः । प्रा० । आअहु-व्यापृ-धा० । वि-श्रा-पृ। व्यापारे, तुदा० श्रान्म. अनिट् । व्यापराबड़ः " ||४|८१॥ इति हैमप्राकृ तसूत्रेण वैकल्पिक श्राअडू इत्यादेशः । श्रागडे । बावारह । पा-या-अव्य० । प्राप्-क्विप्-पृषो० पलोपः। वाक्ये, (पूर्व व्याप्रियत इत्यर्थः । प्रा० । मित्थं नो अमंस्थाः, इदानीं स्वयं मन्यसे इत्येवं वाक्यस्याभ्यथात्वद्योतन, ) स्मृती, (श्रा एवं मन्यसे इत्येवं विस्मृ-1 प्राअरिअ-प्राचार्य-पुं०। गुरौ, वाच० "स्याद्भव्य-चैत्यतस्य स्मृती, ) अङितो निपातत्वात् प्रगृह्यसंशा । जितस्तु चौर्य-समेषु यात्" ॥८।२।१०७॥ इति हैमप्राकृतसूत्रण न । " निपात एकाजनाङ्" ॥१।१।१४॥ इति! एकारात्पूर्व इकार । प्रा०।" एकारात्पूर्व इकारः। प्रा०1"श्राचार्य चोऽच्च" ॥१७॥ सूत्रात् । अत एवोक्नम्-“मर्यादायामभिविधौ, क्रियायोगे-1 इति हैमप्राकृतसूत्रण अत् । प्रा०। चदर्थयोः । य श्राकारः स हित प्रोक्लो, वाक्यस्मरणयोर-| आइ-आदि-पुं० । श्रादीयते-(गृह्यते) इति आदिः-प्रथमः । डित ॥१॥" वाच.। अभिविधी. ( व्याप्ती, )"श्रागम- प्रव०७१ द्वार १ गाथा । आ-दा-कि श्रादि । "क ग च जनसन्थग्गहणं" ॥ २१ + ॥ श्रा-अभिविधिना-सकलश्रुत- द-प-य वां-प्रायो लुक" ॥८११७७॥ इति लुक । प्रथमे, प्रा। च्याप्तिरूपेण, मर्यादया वा । श्रा० म०१ अ०।"श्राङोऽभि यस्मात्परमस्ति,न पूर्व सादिः। अनु०७४ सूत्र । मूलकारण, विहीए." (१२७६x ) अभिविधी,। विश। " आगरा प्रशा०११ पद १६५ सूत्र । मूलमादिरित्यनर्थान्तरमिति । श्रा, M+॥" मर्यादया अभिविधिना वा । श्रोघ० । मर्या- चू०१०। प्रशमोत्पत्ती, सूत्र०२ श्रु०५ ०२ गाथा । दायाम् . ( सीम्नि,) प्रशा० ३६ पद ४६ सूत्र । श्रा०म०।। प्राथम्ये , उत्त०१० ३३ गाथा । प्रधाने , प्राचा०२. प्रव० । विश० भ० । आघ० । सूत्र०। समन्तादित्यर्थे, उत्त. १चू०१०४ उ०२२ सूत्र । उत्सधाख्ये नाभेरधस्तन ११०१३ गाथा । स०। रा०। सूत्र । अवागर्थे, (अधो दहभागे, स्था०६ ठा०३ उ०४६५ सूत्र । भेद, (प्रकारे,) नि. भूमी,) प्रशा०२ पद ४६ सूत्र । ईपदर्थे, " पाङः मर्या- चू०१ उ० । सामीप्ये, व्यवस्थायाम् , अवयवे च । आद्द चदषदर्थत्वात् । विशे० १२३४ गाथा । आचा० । एका० ।। "सामीप्ये च, व्यवस्थायां, प्रकारेऽवयव तथा। चतुर्धर्थेषु सूत्र०। (अत्राऽडिल्लक्षण एव तात्पर्यम् , जिदंश मर्यादाया-| मेधावी, ह्यादिशब्दं तु लक्षयेत् ॥१॥" प्रश्न १ श्राश्र द्वार मित्यादयस्तदाहरणमात्रमत एव अन्यत्रापि डिस्प्रयुज्यते) ३ सूत्र। अम, आभिमुख्य, रा० । अनुकम्पायाम् , समुच्चये, अङ्गी-1 अम्य चतुर्विधो निक्षेपः नामस्थापना द्रव्यभावभेदात् तद्यथाकार, कोपे, पिडायाम् , एका० । श्राः किमेतदित्यवम | विस्मये, स्था०५ ठा० ३ उ० ३६४ सूत्र० । एका० । स _णामादी ठवणादी, दवादी चेव होति भावादी। नोप, सुखतती, चिरे, लघुवस्तुनि, परितापे, विधी, सलिल, दव्यादी पुण दव्य-स्म, जा सभावो सए ठाणे ॥१३४।। छय, एका । स्वयंभुबि, पुं० । एका । प्राचार्य च । स च | ‘णामादी' स्यादि, आदनिक्षपं कर्तुकाम आह-आदर्नामानाम कदश नाममात्रग्रहणात्-श्रामितिपदे श्राशब्दः श्राचार्य | दिकश्चतुर्धा निक्षेपः। नाम-स्थापने सुगमत्वादनात्य द्रव्यादि बांधयतीति । गा। दर्शयनि-द्व्यादिः पुनद्रव्यस्य परमागवांदर्यः म्वभावः-पर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) अभिधानराजेन्द्रः । आइ , रातिविशेषः खके याने स द्रव्यादिः द्रव्यस्य दध्यादेर्य श्राद्यः परिणतिविशेषः क्षीरस्य विनाशकालसमकालीन एवमन्यस्यापि परमाराचादेर्द्रव्यस्य 'जो' यः परिणतिविशेषः प्रथममुत्पद्यते स सर्वोऽपि द्रव्यादिवमेव भवति मनु च कथं क्षीरविनाशसमये एव दभ्युत्पादः । तथाहि उत्पादविनाशी भावाभावरूपी वस्तुधर्मी वर्तते न च धर्मा धर्मिणमन्तरेण भवितुमर्हति अत एकश्मिथप तद्धर्मोदधिशीरयोः सत्तांमानोत्येतस्य रष्टेष्टाधितमिति ने दोषः । यस्य हि वादिनः क्षणमात्रं यस्तु त स्वायं दोषो यस्य तु पूर्वोत्तरसानुगतमन्यपि द्रव्यमस्ति तस्यायं दोष एव न भवति । तथादि-तरपरिणाम इव्यमेकमित्र से पंकेन परेण विनश्यत्यनन्तधर्मात्मकत्वाद्वस्तुन इति । यत्किचिदेतत् । तदेवं द्रव्यस्य विवक्षितपरिणामेनापरिणमतो य श्राद्यः समयः स द्रव्यादिरिति स्थितं द्रव्यस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति । सांप्रतं भावादिमधि कृत्याहआगम गोश्रागमत्रो, भावादी तं दुहा उवदिसंति । गोत्रागमओ भावो, पंचविहो होड़ गायव्वो ।। १३५ ।। आगम पुण आदी, गणिपिडगं होह वारसंगं तु । गंथसिलोगो पदपा - दक्खराई च तत्थादी ।। १३६ ।। ‘आगम’ इत्यादि, भावः-अन्तःकरणस्य परिणतिविशेषस्तं बुद्धाः - तीर्थकर - गणधरादयो व्यपदिशन्ति प्रतिपादयन्ति । तद्यथा श्रागमतो, नाश्रागमतश्च । तत्र नोश्रागमतः प्रधानपुरुषार्थतयाचिन्त्यमानत्वात्पञ्चविधः पञ्चप्रकारो यति । तथा प्राणातिपातविरमगादीनां पञ्चानामपि महाव्रतानामाद्यः प्रतिपत्तिसमय इति । तथा-' आगमश्रो ' इत्यादि, आगममाश्रित्य पुनरादिरेवं द्रष्टव्यः । तद्यथा-यदेतस्वपिट सर्वस्वमाधा आइक्लिय पर्याये प्रथमम् आषी भवति | आह (दिं) अंतियमरण- प्रात्यन्तिकमरल न० अमात्यन्ति तम्मरणं चेति कर्मधारयः भ० १२ श० ६ उ० ४१ सूत्र । तृतीये मरविशेषे, प्रव० । श्रात्यन्तिकमरणमाह एमेव इतिय मरखं न वि मरह तालि पुगो ॥ २३ ॥ - च भवति । तुशब्दात् श्रन्यदप्युपाङ्गादिकं द्रष्टव्यम् । तस्य प्रवचनस्यादिभूतो यो ग्रन्थस्तस्याप्याद्यः श्लोकस्तस्याप्यायं पदं तस्यापि प्रथममक्षरम् एवंविधो बहुप्रकारो भावादिईव्य इति । तत्र सर्वस्यापि प्रवचनस्य सामायिकमादिस्तस्यापि करोमीति पदं तस्याऽपि ककारः । द्वादशानां त्वङ्गानामाचाराङ्गम् आदिस्तस्यापि शास्त्रपरिध्ययनमस्यापि जीवस्तस्यापि 'सूर्य' ति पदं तस्यापि सुकार इति पदमादिरिति । अस्य च प्रकृताङ्गस्य समयाध्ययनमस्यापि श्राद्युद्देशक- लोक-पाद-पद-वर्णादिष्टव्य इति । सूत्र० १ श्रु० १५ अ० । " श्रयम्मि उ गुणकारे, अभितर मंडले व आई जुग्गमिव गुणाकारे, बाहिरंगे म आई " ॥ ४ ॥ अस्यार्थः - श्री जोरूपेण विषमलक्षणेन गुणकारो भवति ततः आदिः अभ्यन्तरे मण्डले द्रष्टव्यः ! युग्मे तु समे तु गुणकारे आदिः वा मण्डले अवसेयः । सृ० प्र० १० पाहु० २० पाहु०पाहु० ५६ सूत्र | आजि - स्त्री० । अजन्त्यस्यामिति, अज् - इण् । संग्रामे, संथा० ६७ गाथा समरभूमी मायाम् वा ङीप् च मार्गे पुं० । भावे इरा । श्राक्षे च । वाच" । यति - पुं० । अत् इण् । शरारिपक्षिणि, सततगन्तरि, त्रि० बाच० । - पत्वादित्यर्थनिर्देशः। एवमेय अवधिम कमरणमपि द्रव्यादिभेदतः पञ्चविधं विशेषः पुनरयम् -'न वि मरद ताण पुणे' ति अपिशब्दस्यैव कारार्थत्वान्नैव तानिद्रव्यादीनि पुनर्ह्रियन्ते । श्रयमर्थः- यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मकाम्यन्तेि सुना न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यन्तीत्येवं यम्मर नद यापेक्षा त्वन्तमाविश्वादात्यन्तिकमिति । एवं क्षेत्रादिष्वपि वाच्यम् । प्रव० १५७ द्वार । उत्त० स० । तंदा यथा ० आदितियमरणे गं, पुच्छा, गोयमा ! पंचविहे पण्यते । तं जहा दव्यादितियमरणे, खेचा दितियमरसे जाब भावादितियमरणे । ( सूत्र ४६५X ) भ० १३ श० ७३० ( एषां भेदाः 'मरण' शब्दे पृष्ठ भागे वक्ष्यन्ते ) इल्ल आदिम-त्रि० श्राद्ये, अनु० । " डिल्ल- डल्लो भवे ॥ ८ १ २ । १६३ ॥ इति इल्ल । प्रा० । आई आई - अव्य० । वाक्यालङ्कार, प्रश्न० ३ संव० द्वार २६ सूत्र । 'आई' ति निपातः । भ० १५० १ ० ५५० सूत्र | "तक्करं एवं वयासी श्रवि श्रई अहं विजया !" (सूत्र ४०x ) 'अपिः' संभावने 'आई' ति भाषायाम् । ज्ञा० १ श्रु० २ श्र० । आइटिल आदिकडिल ग० आधगहने, तथादिक मुमोत्पादपदाम् ०१ ०० "कंडगमादीसु जधा, आदिकडिल्ले तथा जयंतस्स " ॥ ३१३४ ॥ नि० चू० ४ उ० । श्राइक्ख -आङ् ख्या- धा० । अदा० पर० सेद। सामान्येन, कथने, “आइखइ ।" समान्येन भाषते इत्यर्थः । औ०२७ स ७ सूत्र । सामान्यनाच । विपा० २ ० १ ० ३३ सूत्र । रूयेय त्रि० । कथनीये, स्था० ४ ठा० २ उ० ३६७ सूत्र । - । बाइक्स (प)- अध्यायक पुं० शुभाशुभमस्या जीविकां कुर्वत्या जीविकाविशेषे, जं० २ बक्ष० ३० सूत्र | आइक्खण-आख्यान - - न० सामन्यतः कथंन, संहिताकर्ष " पूर्वकथन ०२७ सूत्र संहितु ॥ ८७ X ॥ इह संहिताया अस्खलित पदोच्चारणरूपाया यदाकर्पं तत् आख्यानमुच्यते तदम् व्रतसमितिकायां धारणरक्षविनिग्रहाः सम्यक दम्यश्यापरमो धर्मः पञ्च न्द्रियदमश्चैवं भिक्षां गते गृहस्थानां धर्मकथनार्थं संहिताक करोति । वृ० ३ उ० । आइक्खमाण-आचक्षाण- त्रि० । कथयति, माणो " ॥ १५ + ॥ सूत्र० १ ० १४ अ० आइक्खिय आख्यायिकापविशेष साच मानपदेशादीनादिकथयतीति स्था डा० | ३ ३० ६७८ सूत्र । 66 श्राइक्ख Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आइक्वित्तए 64 आइक्खित्तए - श्राख्यातुम् - अन्य० । कथयितुमित्यर्थे, बृ० ३ उ० २३ सूत्र । आइगर- आदिकर - त्रि० । आदि करोति श्रहेत्वादावपि टः । स्त्रियां ङीप्, । प्रथमकारके, प्राकृसत्ताकर्त्तरि, वाच०।" तें काले तेयं समयं समये भगवं महावीरे हरे" (सूत्र - १०x) ओ० "ते सच्चे पावायादिगरा धम्मार्थ" (सू ४१)। सूत्र०२ ०२ अ० शादी-प्रथमतः तथ चारादिप्रत्यात्मकं कर्म करोति तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवं शीलः भ० १ ० १ ०५ सूत्र आदि-भुतधर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तत्करणशीलः । रा० । स्वस्वतीर्थापेक्षया धर्मस्यति । कल्प०१ अधि०२ क्षण १५ सूत्र | जी०। तत्करणहेतुर्वा । ०२ अधि०६१ लोक । श्रुतधर्मस्य प्रथमप्रवृत्तिकारके तीर्थकरे च । आव० ५ ० १ गाथा । स० । 'नमोत्यु सं अरिहंताणं भगवंताएं आदिगराणं विरथगरा " । रा० । दाउदी करवशीला आदिकरा अनादावपि भवे तदा तदा तत्तत्कर्माण्वादिसम्बन्धयोग्यतया विश्वस्यात्मादिगामिनो जन्मादिप्रपञ्चस्येति हृदयम्, अन्यथा अधिकृतप्रपञ्चाऽसंभवः, प्रस्तुतयोग्यता वैकल्ये प्रकान्तसंबन्धाऽसिदे - निप्रदोषव्याघातात्, मुक्रानामपि जन्मादि प्रपञ्चस्वा55 पत्तेः । प्रस्तुतयोग्यता ऽभावेऽपि प्रक्रान्तसम्बन्धाऽविरोधादिति परिभावनीयमेतत् । न च तत्तत्कर्मास्वादेरेव तत्स्यभावतयाऽऽत्मनस्तथा सम्बन्धसिद्धिः, द्विष्ठत्वेन अस्योभयोस्तथास्वभावापेक्षितत्वात्, अन्यथा कल्पनाविरोधात्, न्यायानुपपत्तेः न हि कर्माण्यदिस्तथाकल्पनायामप्यलोकाकाशन सम्बन्धः, तस्य तत्संबन्धखभावत्वायोगात् तत्स्वभावे चाऽऽलोकाकाशे विरुध्यते कर्मारवादेस्तत्स्वभावता कति भ्यायानुपपत्तिः, तत्स्वभावता की कर चास्यास्मद्भ्युपगतापत्तिः, न चैवं स्वभावमात्रवादसिद्धि, तदन्यापतित्वेन साध्याः फलहेतुत्वात् स्वभावस्य च तदन्तत्वात् । निलोडितमेतद् इति आदिकरत्वसिद्धिः ॥ ३॥ ल० | " यद्यप्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीन्न कदाचि भवति न कदाचिन्न भविष्यति । अभूष, भवति च भविष्यति च " इति वचनात् नित्या द्वादशी तथा व्यर्थापेक्षा नित्यत्वं शब्दापेक्षया तु स्वस्वतीर्थे धुतधर्माकिरत्वमविरुद्धम् ० २ ० ६० ठोक गुण- आदिगुण - पुं० । श्रादौ गुणः सप्तमीतत्पुरुषः । सहभाविनि गुणे, आव० ४ ० १२७३ गाथा । (सिद्धानामादिगुणा एकत्रिंशत् ते च ' सिद्धाइगुण' शब्दे सप्तमभागे द्रष्टव्याः ) " आइग्घ- आ प्राधा० । श्रडू, घ्रा भ्वा० पर० अनिट् । गन्धोपादाने, तृप्तौ च । वाच०|“ श्राघ्रेराइग्घः” ॥ ६ ॥ ४ ॥ १३ ॥ इति प्राकृतसूत्रेाऽऽजिकल्पिक इग्धाऽऽदेशः । आइग्घर । श्रग्घाश्रइ । जिघ्रतीत्यर्थः । प्रा० । आइच- आदित्य पुं० कृष्णराज्ययकाशान्तर स्थलो कान्तिकसंज्ञकार्चिर्मालिविमानस्थे लोकान्तिकदेवविशेषे, शा० १ श्रु० ४ ० ७७ सूत्र । स्था० ॥ भ० | ग्रैवेयकविमानविशेषे, निवासिनि वैमानिकदेवविशेषे च प्र० ५६७ द्वार । समयावलिकादीनामादौ भवे, बहुलवचनात् त्यप्रत्ययः । सू० आइथ प्र० २० पाहु० १०५ सूत्र । भ० । सूर्ये, आव० ४ ० । सूर्यस्यादित्यसंज्ञा यथा सेकेणणं भंते! एवं बुच्चइ- सूरे आइचे १, सूरे आइ गोमा ! सूरादिया गं समयाइ वा आवलियाइ वा ब्जाव उस्सप्पिणी वा अवसप्पिणी वा से तेयं गोवमा ! ० जाव आइचे सूरे आईचे सूरे । (सूत्र०४५५) अथादित्यसदस्याम्यनिधानापाद सेकेणमित्यादि 'सुराइव 'ति-सूरः- आदि-प्रथमो येषां ते सूरादिकाके, इत्याह-'समपार व चि समया:- घडोरात्रादिकालभेदानां निर्विभागा- अंशाः, तथाहि -सूर्योदयमवधिं कृत्वा अहोरात्रारम्भकः समयो गण्यते आवलिकामुहूर्त्तादयश्च' से तेणमि' त्यादि, अथ तेनार्थेन सूरः- आदित्य इत्युच्यते इति श्रादौ अहोरात्रसमयादीनां भघः श्रादित्यः इति व्युत्पत्तेः त्यप्रत्ययश्वाऽऽर्थत्वादिति । २०१२ २०६ उ० | सू० प्र० । चं० प्र० । श्रादित्यस्यास्तित्वम् 9 गाइयो उ स अत्थमे ॥ ७ ॥ सर्वशून्यवादिनो क्रियावादिनः सर्याध्यक्षामादित्योद्रमनादिकामेव क्रियां तावन्निरुधन्तीति दर्शयति-श्रादित्यो हि सर्वजनप्रतीतो जगत्प्रदीपकल्पां दिवसादिकालविभागकारी स एव तावन्न विद्यते कुतस्तस्योद्गमनमस्तमयनं वा ? यश्च जाज्वल्यमानं तेजामण्डलं दृश्यते तद् भ्रान्तमतीनां द्विचन्द्रा. दिप्रतिमासमृगतृष्ण का कल्पं वर्त्तत । (सूत्र०) प्रचैतन्मतस्प निराकरणम्-तथाहि श्रापानानादिप्रतीतः समस्तान्धकारक्षयकारी कमलाकरोद्घाटनपटी यानादित्योङ्गमः प्रस्वयं भन्नुपरते तरिका व देशांदेशान्तरापाण्यायत्र देवादी प्रतीतानुमीयत इति सूत्र० १० १२ अ० सूर्याधिष्ठिते गगने दिवानिशं बम्भ्रम्यमाणे लोप्रकाशक तेजोमण्डले, "अग्नी प्रस्तातिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टि-वृ॑ष्टरन्नं ततः प्रजाः " ॥ १ ॥ इति । मनुना अग्निदुतद्रव्याणां हविराज्यादीनां परमाणुमात्रतयाऽवस्थितानां दग्धशेषाणां सूर्यरश्मिकर्षणेन सूर्यलोकप्रावृदितुत्वमुक्तम् तच मपरत्व एव सम्भवति । पाच० अर्क आदित्यस्यापत्यम् एयः यलोपः श्रादित्यापत्ये, पुं० स्त्री० । वाच० । आइशा य होई बोधव्वो " ॥ १५ ॥ ( भाष्यगा० ) । श्रादित्यास्यायमा दिव्यः पत्युत्तरपदयमादित्यदितेरिति व्याऽपत्यक आदित्यस्याऽयम् आदित्यः ("अनिमिया दित्यदित्यादित्ययमपत्युत्तरपदात् उपः" ॥६।१।१५॥ एभ्यः प्राजर्द बर्जे अपत्यार्थे यः अलोऽपवादः तद्विषये च यः स्यात् । इति यः *) "व्यञ्जनात्पञ्चमान्त स्था थाः सरूपे वा १।३।४७॥ इति पाक्षिक एकस्य यकारस्य लोपः । श्रादित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽप्याऽदित्यः (०) सम्बन्धिनि तचारनिष्यमासादी स बैंकस्प दक्षिणायनस्योत्तरायस्य वा व्यशीत्यधिकदिशतप्रमाणस्य षष्ठभागमानः । यदि वा आदित्यचारनिष्यन्नत्वादुपचारतो मासोऽय्यादित्यः । व्य०९ उ० । “जस्स जश्र श्राइवो, उपइसा भवइ तत्र पुव्वदिसा ॥ (४७४) । श्राचा० १ ० १ " 6 33 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइच ॥ अ० १ उ० । ( 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे व्याख्या द्रष्टव्या ) मालगययादित्यगत-त्रि० सूप कान्तेनाद "चन अनिष्याणी" रविगते नक्षत्रे शुभप्रयोजने प्रारभ्यमाणेऽसुखम् । बृ० १ उ० * । आइचजस आदित्ययशम् पुं० ऋषभदेवराजे भरतात्मजे नृपभदे, श्र० चू० १ अ० । राया श्रचज० ॥३६३॥ आ० म० १ ० | स्था० । स च पुण्डरीकशिखरे सिद्धः । सी० १ कप श्रादित्ययशःप्रभृतयो भगवानेषवंशजा त्रिखण्डतामनुपार पर्यन्ते परमेश्वरी दीक्षामतिगृहा तत्प्रभावतः सकलकर्मक्षयं कृत्वा सिद्धिमगमन्निति । नं० ५६ सूत्र । 66 आइपी - श्रादित्यपीठ- न० । गजपुरस्थे श्रेयांसेन कारिते आदितीर्थकरस्य रत्नमये पादपीठे, आ० म० । - 64 ( ४ ) अभिधान राजेन्द्रः । तद्वव्यता यथा ६६ 'सेजंसो चि तत्थ ठितो भयवं पडिलाभितो ताणि पयाणि पाहि मा अक्कमिस्सामि त्ति भत्तीए तत्थ रयणमयं पीढं करेइ तिसभं च पूएइ । पञ्चदिवसे विसेसेण पूइऊण भुजइ । लोगो पुच्छर । किमेयं सेजंसो भगइ "आइतित्थयर मरालं" ततो लोगेण वि जत्थ जत्थ भयवं ठितो तत्थ तत्थ पीढ़ कय । काले य आइचपीढं " जायं ॥ ( ३४५ गाथाटी० ) अक्षरगमनिका क्रियाध्याहारतः काय | यथा गजपुरं नगरमासीत्, तत्र श्रेयांसः सामयशसो राज्ञः पुत्रः, तेनेसुरसदानं भगवते कृतम्। तत्रत्रयोदशहिरण्यकोटी वसुधारा निपतिता । पढिमिति यत्र भगवता पारितं तत्र तत्पादयामी कचिदाक्रम कार्यदिति मकवा मयं पीठं कारितं गुरुपूजेति तदर्शनं कृतवान् । श्र०म० १ अ० । आइसमास आदित्यमास पुं० आदित्यस्यायमादित्यः । श्रादित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो वाऽऽदित्यः स वासी मासश्च कर्मधारय समासः । श्रादित्यचारनिष्यन्ने मासभेदे, स चैकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा व्यशीत्यधिकशतदिनप्रमाणस्य षष्ठभागप्रमाणः । व्य० १ ० ४५ गाथा । आचे मासे एकतीसं राईदियाणं किंचि विसेसूणाई राई दिग्गे पते ( सूत्र ३१५ ) । आदित्यमासन कालादित्य राशि मुझे किचिि सेमृगाई' नि अहोरात्रान यूनानीति ०३१ स० । अइचो खलु मायो, ती अद्धं च ॥ ३७५॥ आदित्य संवत्सरसम्बन्धी खलु मासां भवति त्रिंशद्वात्रिं। दिवान एकस्य व रात्रिंदिवसस्यार्थम् । तचादि सूर्य वत्सरस्य परिमार्ग श्री शनानि पश्याधिकानि राषि दिवानि, द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरस्ततस्त्रयाणां शतानां यह मासपरिमार्ग भवति । ज्यो० २ पाहु० । अइयवस्य-मदित्यवर्ग ०ि भास्वरे ० १२० २४ श्लोक | 35 आइच मंचच्छर-मादिस्यसंवत्सर- पुं० प्रमाणमध्ये चतुर्थे संवत्सरविशेष, यावता कालेन डपि प्रावृ आइञ्छ डादय ऋतवः परिपूर्ण श्रावृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष आदित्यसंवत्सरः । उच" कृषि उऊ परियट्टा बसो संघच्रो आरो" तत्र यद्यपि लोके पष्टपोराजमा प्रावृडादिक ऋतु: प्रसिद्धः; तथापि परमार्थतः स एकषष्ट्रयहोरात्रप्रमाणो वेदितव्यः तथैवात्तरकालमव्यभिचारदर्शनात् अत एवास्मिन् संवत्सरे श्री शतानि षट्षष्यधिकानि रात्रंदिवानां भवन्ति । चं० प्र० १० पाहु० २० पाहु० पाहु० । तत्र व्यशीत्यधिकशततमोऽहोरात्रः प्रथमस्य परमासस्य पर्यवसानम् । पद्यधिकशतोऽहोरात्र द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् । एष एवं प्रमाण श्रादित्यसंवत्सरः । चं० प्र० १ पाहु० । ( एतस्य वक्तव्यता 'अहोरत' शब्दे प्रथमभागे गता । ) ( 'संवच्छर' शब्द सप्तमभागे च वदयते । ) ( अयमेव लक्षणप्रधानतया लक्षण संवत्सरान्ततोऽपि।) तल्लक्षणं यथा 9 पुढविदगाणं च रसं पुप्फफलागं च देह भाइयो । अप्पे विवासेनि सम्मं निप्पए सस्सं ॥ ४ ॥ पृथिव्या उदकस्य तथा पुष्याणां फलानां च रसमादित्यसंवत् ददाति तथा अल्पेनापि स्तोकेनापि वर्षे दृष्टया सस्यं निष्पद्यते, अन्तर्भूतरायर्थत्वात् सस्यं निष्पादयति । किमुक्रं भवति पस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधावकसंपफांदतीय सरसा भवति । उदकमपि परिणामसुन्दररोप परिणमत पुष्पाणां च मधूकादिधनां फलानां चुतफलादीनां रसः प्रचुर संमयति तोि धान्यं सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तम्-आदित्य संवत्सरं पूर्वर्षयः उपदिशन्ति । सू० प्र० १० पाहु० २० पाहु० पाहु० । स्था० । आइजि - आदिजिण - पुं० । ऋषभदेवें, हेम० । वाच० । "म समाज, जस्सीसे सोहर | कप्याकप्यविवारं पचवावे भविस्सामि ॥ १ ॥ " ल० प्र० ॥ । आइ (दे) अ-आदेय वि० आ-दा-यत् । ग्राह्ये, जं० २ वक्ष० । उपादेये, उत्त० १ ० । आइ ( दे ) जमाण - आदर्शमाण - त्रि० । श्रद्रीक्रियमाण आचा० १ श्रु० ५ ० ३ उ० । "स आइ (दे ) जवक आदेयवाक्य- त्रि० । श्राह्मवाक्ये, सुद्धसुत्त उवहारावके, धम्मं च जे विन्दति तत्थ तत्थ आज० ॥ २७४॥ नद्गुणसम्पन्नां भव 33 - ति । सूत्र० १ श्रु० १४ श्र० । । बाह (दे) अवयव आदेयवचन त्रि० सकलजनग्राह्यवाक्ये, दशा० १ ० । उत्त० । स्था० । आइ (दे ) जवयण्या - आदेयवचनता - स्त्री० । सकलजनग्राह्यवाक्यताया ग्राह्यवचनतारूपे वचन सम्पद्भेदे, उत्त० १ अ० । स्था० ॥ आइञ्छ कृष धा० । तुदा० प्रा० प०। भ्वा० पर० अनिट्च । आकर्षणे, विलेखन च । वाच० । “कृषः कह-साअड्डाञ्चाखच्छायञ्छाइञ्छाः ॥ ८ । ४ । १८७ ॥ इति वा कृषेरइच्छादेशः । श्रइन्छ । पक्ष-करिसइ । कृपते कर्षति वा । प्रा० । 33 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइञ्छ भाभिधानराजेन्द्रः। प्राइम कर्ष-पुं० । भावे घञ् । आकर्षणे, विलेखने च । वाच। दिगुणोपेतः । स्था० ४ ठा० ३ उ० । जवादिगुणयुक्त अश्वे, माइड-मातिष्ठ-न० । अति-स्था-क-षत्वम् । प्रतिष्ठस्तस्य शा०१ श्रु० १७ अ० । स्था० । विक्षिप्ते च । वाच। .. भावः अण् । अतिक्रम्य स्थिती, उत्कर्षे, याच०। प्राचीर्म-त्रि० आचर्यत इति । कल्पनीये, नि०चू०१ उ०। श्रादिष्ट-न । श्रा-दिश् । भावे, प्राशायाम् , उपदेशे च । प्रासेविते, दर्श०१ तत्त्व । पाइसं णाम जं साहहिं पायकर्मणिः । उपदिष्ट, व्याकरणप्रसिद्ध स्थानिजाते वर्णे | रियं विणा वि ओमादिकारणेहिं गएहह । नि०चू. १५ उ०। च । त्रि० । यथा इकः स्थाने यण् आदिश्यते इति | प्राचीर्णम्-आसवितं. तश्च नामदि पोढा, तद् व्यतिरिक्रं इको यणादि इत्युच्यते । प्राप्त, उच्छिष्ट, अनु- द्रव्याऽऽचीर्ण सिंहादेस्तृणादिपरिहारण पिशितभक्षणम् . शिष्ट, त्रि० । वाच । चोदिते, त्रि०। सूत्र० १७०४०१ क्षेत्राऽऽचीर्ण वाल्हीकेषु सक्रवः । कोकणेषु पेयाः। कालाचीर्ण उ। प्रादेश, भ० १२ श०१० उ०। विशेषरूपेण निर्दिए, त्रि। त्विदम्-"सरसीचंदणपंको, अग्घइ सरसा य गंधकासादी। यथाऽयं देवदत्तोऽयं यज्ञदत्त इति । वृ०४ उ० । प्राविष्टे, पाडलिसिरीसमल्लिय, पेयाई काले निदाहम्मि ॥१॥" भावाअधिष्ठिते, त्रि० । स्था० ५ ठा०२ उ० ।। चीर्ण तुमानादिपञ्चक, तत्प्रतिपादकश्चाचारग्रन्थः । "प्राइम माइदि-आदिष्टि-स्त्री० धारणायाम् , स्था०७ ठा० ३ उ०। जं पुण अणुमायं।" प्राचा०१ श्रु०१०१ उ० । अनुज्ञाते, आइडि-आत्मईि-स्त्री०। प्रात्मन ऋद्धिः षष्ठीतत्पुरुषः। स्व- नि० चू०१५ उ० । (प्राचीर्णलक्षणादि 'जीयब्ववहार' शब्दे । चतुर्थभागे वक्ष्यंत) कीयशक्ती, प्रात्मलम्धौ च । भ० १० श०३ उ०। आइडिय-आत्मर्द्धिक-पुंगात्मान एव ऋद्धिर्यस्य ६ बहु आइमजणमणुस्स-पाकीर्णजनमनुष्य-त्रि० । मनुष्यजने नाकीर्णः-संकीर्ण इति मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्य राजदन्तास्वकीयशक्तिसम्पन्न, स्वकीयलब्धिसम्पन्ने च । भ०। दि (३।१।१४६ । हैम०) दर्शनात्परनिपातः । मनुष्यजनसं. आइडीए णं भंते! देवे जाव चत्तारि पंच देवावा कुल, बा०१ श्रु० १० । औ०। संतराई वीइकते, तेण परं परिड्डीए ?, हंता गोयमा ! अाइमट्ठाण-आकीर्णस्थान-न० । हिरण्यादिवस्तुव्याप्ते आइडीए णं तं चेव०, (जाव) एवं असुरकुमा रे वि, ण स्थान, “आइमादीणि वजए ठाणे ।" (+ ४२४ गाथा) वरं असुरकुमारावासंतराई सेसं तं चेव , एवं एएणं क भिक्षार्थ प्रविष्टः साधुः पाकीर्णादिस्थानं परिवर्जयेत् । यत्र मेणंजाव थपियकुमारेऽवि, एवं बाणमंतरजोइसिए वेमा- हिरण्यादिविक्षिप्तमास्त तदाकीर्णस्थानं तच्च साधुना वर्जहिए.जाव तेण परं परिडिए । (सूत्र ४४१+) नीयम् । श्रोघ। 'आइहीए णं' ति-आत्मा -स्वकीयशक्त्या । अथवा- आइपणायज्झयण-आकीर्णज्ञाताध्ययन-न०। शातानस्य आत्मनः एव ऋद्धिः यस्याऽसौ आरमर्दिकः । देवे' त्ति- सप्तदशऽध्ययन, श्रा० चू० ४ श्र० । श्राव० । स० । सामान्यः, ' देवावासंतराई' ति-देवाऽऽचासविशेषान् । आइपमणाइमकप्प-प्राचीणोऽनाचीर्णकल्प-पुं०। प्रासे'वीरकते' ति-व्यतिक्रान्तः ललितवान् । कांचद्-व्यतिव- वितऽनासेविते श्राचारे, पं० भा०। जतीति पाठः । भ० १२०३ उ०। (अधिकम् ‘इहि' शब्द) तद्वर्णनं यथाऽस्मिन्नेव भाय वदगते। प्राइममणाइमे, कप्पं तु गुरूवदेसेणं ॥ आइणाह-आदिनाथ-पुं०। ऋषभदेवे, प्रा०म०१० । आहारचउके करण, फासणे खेत्तकालउवगरणे । (वृत्तम्-'उसह 'शब्देऽ-स्मिन्नेव भागे बच्यते) आइणियंठ-आदिनिर्ग्रन्थ-पुं० प्रथमनिग्रन्थ पुलाके, प्रतिक आइएणे पाइएणं, तबिवरीए अणाइएणं ।। "हिट्ठाणट्टिो वि, पाचयणिगणिट्टयाइ अधरे उ। आहारचउकं खलु, असणादीयं तु होति णायव्वं । कडजोगि जं मिसेवइ, अाइणियंठु ब्व सो पुज्जो ॥१॥" करणं आयरणं तु, तस्स तु जं जत्थ आइएणं ।। अस्यार्थ:-अधरे-श्रात्यन्तिके कार्य समुत्पञ्चे कृतयोगी- पिसितं सिंधूविसए, वातिं पुण उत्तरावहाऽऽइएणं । कृताभ्यासः श्रादिनिग्रन्थः-पुलाकः अधस्तनस्थानस्थितस्यैव तंबोलं दमि(वि)ले(डे)सु, एमादी खेत्तमाइगणं ॥ पुशलम्बनेऽपि वैक्रियाधिकारित्वं न तु तत्करणप्रयोज्या- काले दुभिक्खादिसु, व (प) लंबमादीतु सव्वमाइएणं । धस्तनस्थानस्थितिरिति परमार्थः । प्रति०८ श्लोक। पाइएण-आकीर्ण-त्रि० । व्याप्ते (युक्त) रा०। प्राकीणे, स उवगरणे आइएणं, वोच्छामि अतो समासेणं ॥ माकुले, वृ०१ उ० । संकीर्णे , औ० । संकुले, प्राचा० २ सिंधू आयलियाई, काला कप्पा सुरढविसयम्मि । श्रु०१चू०१ श्र.३ उ०१७ सूत्र । "श्रादयणणामाणविव दुग्गुल्ल दिपुंडबद्धण, महरढेसुं च जलपूरा ।। जणा य" । श्राकीर्णवमानवर्जना च विहारचर्या प्रशस्ता । एवं जत्थाऽऽइएणं, तहियं तु कप्पतीति आयरिउं । दश०२चून आकीर्यते-व्याप्यते विनयादिगुणैरिति । जात्ये इतरत्थ कारणम्मि, फासणगहणं च परिभोगो।। अश्वविशेष च । स च जवविनयादिगुणैर्युतः । स्था० ४ ठा० ३ उ० "प्राइसवरतुरयसुसंपउत्ते" भ०७श०८ उ० जास्यवर आइएणे चउवग्गो, ण य पीलाकारो पवयणस्स । तुरंग, जी०३ प्रति०४ अधिः । “कसं व दट्टमारने पावगं ण य मइलणा पवयणे, पाइएणं आयरे कप्पं ॥ परिवजए" उत्त०१०। पुरुषविशषे च। सच विनया आहार उवहिसेजा, सेहा चउवग्गो होति णायव्यो। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राइम० अभिधामराजेन्द्रः। - माइधम्मिय पवयणपीलुवघातो, पिसिया ताइ मजया इत्ति ॥ टी०। (पाश्चपीढ' शब्देऽस्मिन्नव भाग विशेषो गतः) चोदेह का मइलणा, भएणति परिसहियाणं जे सेवे। इन प्रादीप्त-त्रि० । ईषद्दास, शा०१ श्रु०१०। सा होति मइलणा तु, जो पुण सुपरिट्रिो चरणे ॥ आइत्ता-श्रादाता-त्रि० । गृहीतरि, स्था०७ ठा०३ उ० । तण्हा तु सलाहती, धणति गुणेहि य एसु जुत्तो ति: आइत्तु-श्रादाय-अव्य० । गृहीत्वेत्यर्थे, आचा० १ श्रु० ४ मुट्ठकरे तप्पहितं, जो पुण करणे अजुत्तो-उ । श्र.१ उ० १२७ सूत्र। तं दद्वं संदेहो, उप्पञ्जति किएणु एस सच्छंटो।। अाइद्ध-पाविद्ध-त्रि० । श्रा-व्यध-न। प्रेरित, दर्श०४ तत्त्व। ताडिते, विद्ध, छिद्रिते, क्षिप्ते च । वाच । पाऊणं उवएसो, एरिसओ देसिओ समए ।। आदिग्ध-त्रि० । व्याप्ते, झा० १ श्रु०१०। आह जिणकप्पियाण वि,आइमं किंचि अस्थि अहण स्थि आइदाण-आदान-न० । ग्रहणे, प्रश्न *। भएणति णत्थि किं पुण, आयरियजिणकप्पिताऽऽइमं ।। आइधम्मिय-आदिध (धार्मिक-पुं०। एतत्संझया प्रआहारउवहिंदेहे, मिरविक्खो'णवरि णिजरापही। सिद्धे अपुनर्बन्धकापरपाये प्रथमारब्धस्थूलधर्माचार, संघयणविरियजुत्तो, आइमं आयरति कप्पं । पं० भा० ध० । (धर्मसंग्रहे गृहस्थधर्मानुक्त्वैत लक्षणादि प्रतिपादि तम् ।) इयागि पाइराण-मणाइराणकप्पा समं चव जंति । गाहा अथ पूर्वोक्तगुणवत एव संक्षाविशेषविधि, तदवस्थाआहार चउक-श्राहारी चउब्विहाँ जत्थाइराणा तस्थ विशेषविधि चाऽऽहनऽस्थि दोसो । जहा-सिंधूर-पोग्गलं । उत्तरावहे-वियर्ड । स आदिधार्मिकश्चित्र-स्तत्तत्तन्त्रानुसारतः। तंबाल-दमिलमु (द्रविड़षु)। फासुओ वत्थादि । श्राइराण- इह तु खागमापेक्षं, लक्षणं परिगृह्यते ॥ १७॥ मणाइराणे । एवं खत्त, काल यि । श्रोमायरियाए सब्वाई सः-पूर्वोक्तगुणैरुत्तरोत्तरगुणवृद्धियोग्यतावान् श्राविधार्मिश्राइगगाई । उवगरण जहा-सिंधूए-अलाउ । पोंडवद्धणे दु कः-प्रथमवारब्धस्थूलधर्माचारत्वेनादिधार्मिकसंझया प्रकृला । सुग्टाए-कालकंबलीश्रो । महारट्ठाण-जलपूरगा । सिद्धः, स च तानि तानि तन्त्राणि-शास्त्राणि तदनुसारतपवमा जत्था55इसम्माणि तत्थ कप्पो । इयरथा कारण चित्री-विचित्राचारो भवति । भिन्नाचारस्थितानामप्यन्त:कापन्ति । गाहा--'अाइराण चउ' भाइराण पुण 'चउ शुद्धिमतामपुनर्बन्धकत्वाऽविरोधात्, अपुनर्बन्धकस्य हिना. घग्गा ति असा य पवयणपीला भवद । विपरिणा नास्वरूपत्वात् तत्तत्तन्त्रोक्ताऽपि माक्षार्था क्रिया घटते। तदुक्तं मंगा-अगाइरहं पुण वियडाइ अणुयाइसु मइलणा। एए वि योगविन्दौ-"अपुर्वन्धकस्यैवं, सम्यग्नीत्योपपद्यते । तत्तत्तयडमला मिहत्था वियति अप्पणा अणिबित्ता। तहा पो न्त्रोक्लमखिल-मवस्थाभेदसंश्रयाद् ॥२५२॥” इति (अस्य ब्यामाले जत्थ गा चित्तं तत्थ भणइ लोगो-एएसि नहुपढियम्मि ख्या अणुट्ठाण' शब्द प्रथमभागे ३७७ पृष्ठ गता)। इह तु हत्थे वारति मा पाग्गलं स्वाह । अहिसगा य हो। सब्ब प्रक्रमे स्वागमापेक्ष-स्वागमानुसारि 'लक्षणं'-व्यञ्जकं प्रक्रमामासि कय । असमादियाणं एसा पीला। गाहा-का ? दादिधार्मिकस्य 'परिगृह्यत'-आधीयते। यो ह्यन्यः शिष्टमालगा प्रवचने उच्यते सूत्रार्थ:-प्रतिषेधमाचरित सा म बोधिसत्वनिवृत्तप्रकृत्यधिकारादिशब्दरभिधीयते स एवाइलणा । करणजुत्तेसु पुण एवं नो भवाइ । अहो मुदछु पयं । स्माभिरादिधार्मिकापुनबन्धकादिशम्दैरिति भावः । लक्षणसाद अकरणजुत्तो पुण संसो भव। किमस अप्पच्छ मित्यत्रैकवचनं जात्यपेक्ष, तल्लक्षणसंपादनविधिश्चायमुक्तो न्दग्ण करइ १, उवएसो परिसा । एवं संसो भवइ । पाह ललितविस्तरायाम्-" परिहर्त्तव्योऽकल्याणमित्रयोगः। से. जिगणकप्पे किंचि आइराहमत्थि। गाहा-'आहारोयहि ।' वितव्यानि कल्याणमित्राणि । न ललनीयोचितस्थितिः, । उच्यते-आहारावहिदहसु सो भयवं निरवेक्खा, न केवलं अपेक्षितव्यो लोकमार्गः, । माननीया गुरुसंहतिः भनिजरा, मोक्खो चलविरियसंघयणजुत्ता आइरहं कप्पमेव वितव्यमेतत्तन्त्रण, प्रवर्तितव्यं दानादौ, । कर्त्तव्योदार पूजा आयरत् । सह वि पाइराहे जिणकप्पियपाउग्गं तं पाया। भगवताम् । निरूपणीयः साधुविशेषः । श्रोतव्यं विधिना पस पाइराहकप्पा । पं० चू० ५ कल्प। धर्मशास्त्रम् । भावनीयं महायनन । प्रवर्तितव्यम्-विधानतः । आइत्महय-पाकीर्णहय-पुं० । प्राकीगा-गुणव्याप्तः स चा- अवलम्बनीयं धैर्यम् । पयालोचनीया आयतिः। अवलोकसो यश्च आकर्णिहयः । क० स० । जात्य ऽश्वविशेष, स च नीयो मृत्युः। भवितव्यं परलोकप्रधानेन । सेवितव्यो गुरुजीवनयादिगुणोपतः । " अाइराणहय व निरुवलय" यथा जनः । कर्तव्यं योगपटदर्शनम् । स्थापनीयं तद्रूपादि चेतसि । जान्याऽश्वो मूत्रपुरीयाद्यनुलिप्तगात्रः । जी० ३ प्रति०४ निरूपयितव्या धारणा । परिहर्तव्यो विक्षेपमार्गः। यतितव्यं योगसिद्धौ । कारयितव्या भगवत्प्रतिमाः । लेखनीयं भुवनेअधिक। श्वरवचनम् । कर्तव्यो मङ्गल जापः। प्रतिपत्तव्यं चतुःशरणम् । आइतित्थयर-ग्रादितीर्थकर-पुं०। ऋषभदेवस्वामिनि, "भ- । गर्हितव्यानि दुष्कृतानि । अनुमोदनीयं कुशलम् । पूजनीया गवश्रा उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स"। नं०४३ सूत्र। मन्त्रदेवताः । श्रोतव्यानि सञ्चष्टितानि । भावनीयमौदार्यम् । आइतित्थयरमंडल-आदितीर्थकरमण्डल-न० । श्रेयांसन वर्तितव्यमुत्तमझाने ते)न । एवंभूतस्य येह प्रवृत्तिःसा सर्वैव कारित प्रादितीर्थकरम्य पीठ, आमश्र. ३५५ गाथ- साध्वी । मार्गानुसारी हायं नियमादपुनर्बन्धकादिः । तद Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माइधम्मिय अभिधानराजेन्द्रः। प्राइमगणहर स्यैवंभूतगुणसम्पदा (दो) भावात् , अत श्रादित पार- एसो। मोहासुद्दो वि असुहो, तप्फला एवमेसो त्ति ॥१॥" भ्यास्य प्रवृत्तिः सत्प्रवृसिरव नैगमानुसारेण चित्रापि | श्रीहरिभद्रवचनानुमारण विपर्यासयुक्तत्वान्मिध्यारशां शुप्रस्थकप्रवृत्तिकल्पा । तदेतदधिकृत्याहुः-"कु रादिप्र- भपरिणामोऽपि फलतोऽशुभ एवेति कथमादिधार्मिकस्य वृत्तिरपि रूपनिर्माण प्रवृत्तिरव" तद्वदादिधार्मिकस्य धर्मे देशनायोग्यत्वमित्याशङ्कायामाह-'मध्यस्थन्यात्' इतिकात्स्न्यन तदामिनी न तदाधिनीति हार्दम् । तरवाषिरी- रागद्वेषरहितत्वात् पूर्वोक्नगुणयोगादेव माध्यस्थ्योपसंपत्तेधकं हृदयमस्य , ततः समन्तभद्रता , तन्मूलत्वात्सकल- रित्यर्थः । मध्यस्थस्यैव चागमेषु धर्माहत्वप्रतिपादनात्, चेष्टितस्य , एवमतोऽपि विनिर्गतं तत्तदर्शनानुसारतः सर्व- यतः-" रत्तो १ दुट्ठो र मूढो ३, पुग्धि वुम्गाहिश्रो ४ म मिह योज्यं सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शनादि । न ह्यवं प्रवर्तमा- चत्तारि । एए धम्माऽणरिहा, धम्म अरिहो उ मज्झत्थो," नो नेष्टसाधक इति । भग्नोऽप्येतद्यनलिका पुनर्बन्धक इति ॥१॥त्ति श्रीहारिभद्रवचनं तु कदाग्रहग्रस्ताभिग्रहिकमातं प्रत्युपदेशसाफल्यम् । “नानिवृत्ताधिकारायां प्रकृतावे- श्रित्यति न विरोधः । इदमत्र हदयम्-यः खलु मिथ्याशाभूतः" इति कापिलाः । 'नाऽनवाप्तभवविपाक' इति च मपि केषांचित्स्वपक्षनिबद्धो दूरानुसन्धानामपि प्रवलमोहत्वे सौगताः । 'अपुनर्वन्धकास्त्येवंभूसा' इति जैनाः इति । सत्यपि कारणान्तरादुपजायमानो रागद्वेषमन्दतालक्षण उपध०१ अधि० । ल। शमो भूयानपि दृश्यते स पापानुबन्धिपुण्यहेतुत्वात्पर्यन्तअथोक्लस्वरूपस्यादिधार्मिकस्य सद्धर्म दारुण एवं, तत्फलमुखव्यामूदानां तेषां पुण्याभासकर्मोदेशनायोग्यत्वं दर्शयति परमे नरकादिपातावश्यंभावादित्यसत्प्रवृत्तिरेवायम् । यश्च स धर्मदेशनायोग्यो , मध्यस्थत्वाजिनैर्मतः । गुणवत्पुरुषप्रशापनाईत्वेन जिज्ञासादिगुणयोगान्मोहापकर्ष प्रयुक्तरागद्वेषशक्तिप्रतिघातलक्षण उमशमः; स तु सत्प्रवृत्तियोगदृष्टयुदयात्सार्थ, यद्गुणस्थानमादिमम् ।। १८॥ हेतुरयाग्रहनिवृत्तः सदर्थपक्षपातसारत्वादिति । नन्वेवमफि सः-पूर्वोक्नगुणसंम्पत्या प्रसिद्ध श्रादिधार्मिकः धर्मदेशना- स्वागमानुसारिण श्रादिधार्मिकस्योपपन्न माध्यस्थ्यं पर योग्यः-लोकोत्तरधर्मप्रज्ञापनाईः जिनैः-अईद्भिर्मतः-उप- तस्य विचित्राचारत्वेन भिन्नाचारस्थितानां तेषां स्वस्वमतदिष्टः । कालतश्चायं चरमावर्तवत्येवत्यनुक्तमपि श्रयम् । यत निष्ठानां कथं तदुपपद्यते । तदभावे च कथं देशनायोग्यत्वउक्तम् (हरिभद्रसूरिचिते) उपदेशपदे मित्यत्राह- योगे' त्यादि-यद्यस्माद्धेतोः, तस्येति शेषः, घणमिच्छत्तो कालो, पत्थ अकाला उ होइ णायब्यो । 'योगदृष्टयुदयात् '-योगदृष्टिप्रादुर्भावात् । 'आदिम' 'गुणकालो उ अपुणबंधग,-पभिई धीरेहिं णिद्दिट्टो ॥१॥ स्थानं ' 'सार्थम् '-अन्वर्थ भवति । अयं भावः-मिथ्याणिच्छयो पुण एसो , विन्ने गठिभेअकालम्मि । दृष्टयोऽपि परमार्थगवेषणपराः सन्तः पक्षपातं परित्यज्याद्वेएयम्मि बिहिसयपा-लगाउ आरोग्गमेयाओ ॥२॥” । पादिगुणस्थाः खेदादिदोषपरिहाराचदा संवेगतारतम्यमाप्नुएतदवृत्तिर्यथा-घन-मिथ्यात्वं यत्र स तथा कालोऽचरमा- वन्ति । तदा मार्गाभिमुख्यात्तेषामिथुरसकल्क(क)गुडकल्पा चर्त लक्षणः'अत्र' वचनौषधप्रयोगे 'अकालस्तु' अनवरसर मित्रा तारा बला दीमा चेति चतस्रा योगदृष्टय उल्लसन्ति, एव भवति-विशेयश्चरमावर्तलक्षणस्तु तथाभब्यस्वपरि- भगवत्पतञ्जलिभदन्तभास्करादीनां तदभ्युपगमात् । (ध.) पाकतो बीजाधानबीजोड्रेदबीजपोषणादिषु स्यादपि काल मिथ्यादृष्टीनामपि माध्यस्थ्यादिगुणमूलकमित्रादिदृष्टियागेन इति । अत एवाह-'कालस्तु' अवसरः पुनरपुनर्बन्धकप्रभृ- तस्य गुणस्थानकत्वसिद्धस्तथा प्रवृत्तरनाभिहिकस्य सेतिस्तत्रादिशब्दान्मागाभिमुखमार्गपतितौ गृह्यते । तत्र मा. भवादनाभिप्रहिकत्वमेव तस्य देशनायोग्यत्वे शोभननिषर्ग:-चेतसोऽवक्रगमनं भुजङ्गनलिकाऽऽयामतुल्यो विशि- न्धनमित्यापन्नम्। 'इत्थं चानाभोगतोऽपि मार्गगमनमेवएगुणस्थानावाप्तिप्रवणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषो हेतु पजवन्धन्यायनेत्यध्यात्मचिन्तका' इति ललितविस्तरावस्वरूपफलशुद्धपभिमुख इत्यर्थः, तत्र पतितो भव्यवि चनानुसारेण यद्यनाभोगवान् मिथ्यादृष्टिरपि मिथ्यात्वशेषो मार्गपतित इत्युच्यते । तदादिभावापन्नश्च मार्गा मन्दतोद्भूतमाध्यस्थ्यतत्वजिज्ञासादिगुणयोगान्मार्गमेवानुभिमुख इति । एतौ चरमयथाप्रवृत्तकरणभामभाजावेव सरति तर्हि तद्विशेषगुणयोगादनाभिग्रहिके तु सुतरां धर्मशेयौ । अपुनर्बन्धकोऽपुनर्बन्धककालः प्रभृतिर्यस्य स तथा, देशनायोग्यत्वमिति भावः । ध०१ अधि०१८ लाक। धीरनिर्दिष्टा व्यवहारत इति ॥ १ ॥ निश्चयतस्तु कालो प्र- | प्राइभ-आदिब्रह्मन-न० । सकलजगदुत्पत्तिकारणे ब्रह्मणि, थिभेदकाल एव, यस्मिन् काल पूर्वकरणानिवृत्तिकरणा कल्प०१ अधि०६क्षण । भ्यां प्रन्थिभित्रो भवति तस्मिन्नेवेत्यर्थः । यतोऽस्मिन् विधिनाऽवस्थाचितकृत्यकरणलक्षणेन सदा-सर्वकालं या पा आइबंभणि-आदिब्रह्मध्वनि-स्त्री० । आदिब्रह्मणः शब्दे, लना-वचनौषधस्य तया कृत्वाऽऽरोग्यं संसारव्याधि "आदिब्रह्मध्वनिः किं वा, वीरवेदध्यनिर्वभौ " कल्प० १ रोधलक्षणम् , एतस्माद्-वचनौषधप्रयोगाद्भवति । अपुनर्व अधि०६ क्षण। न्धकप्रभृतिषु वचनप्रयागः क्रियमाणोऽपि न तथा सयो- प्राइम-आदिम-त्रिका आदी भवः । श्रादि-डिमच । श्रादिभवे. धविधायकोऽनाभोगबहुलत्वात्तत्तत्कालस्य । भिन्नग्रन्ध्या- वाच०।"पश्चादाद्यन्तामाादमः ॥ ६।३।७॥ इति सूत्रण दयस्तु व्यावृत्तमोहत्येनातिनिपुणवुद्धितया तेषु तेषु कृत्येषु इमर इमप्रत्यये टिलोपः । प्रथमे , श्राव०५०। प्रवक। कर्म०। वर्तमानास्तत्कर्मव्याधिसमुच्छेदका जायन्त इति । ध०१ प्राइमगरणहर-आदिमगसाधर-पुं० । प्रथमगणधरे, प्रव०१ अधिः। ननु "गलमच्छभवविमोग-विसनभोईए जारिसो द्वार। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राइमभंतकहाण अभिधानराजेन्द्रः। माईणग प्राइमझतकलाण-आदिमध्यान्तकल्याण-त्रिका प्रादिम-| एवादिमोक्षाः प्रधानभूतमोक्षस्य पुरुषार्थोचता माविशदध्यावसानषु सुन्दरे, धर्मप्रशंसामुपक्रम्योक्तम्-"सर्वागम स्य प्रधानवाचित्वात् । सूत्र०१ श्रु०५०। परिशुद्धं , यदादिमध्यान्तकल्याणम्" । षो०३ विव०। आइय-आचित-त्रि० । प्रा-चि-क-प्राणोते, (व्यास,) प्राइमुहुत्त-आदिमुहूर्त-न० । प्रथमे मुहूर्ते, स०। ज्ञा०१ श्रु०६०। गुम्फिते, प्रथिते, "तुलापलशतं तातत्प्रमाणं यथा सां, विंशत्याभार आचित" इत्युक्तेर्भारात्मके द्विसहस्रपल मान, "आचितं दश भाराः स्यात् , शाकटो भार प्राचितः" अम्भितरो आइमुहुत्ते छएणउइअंगुलच्छाए पसत्ते । इत्युक्ने दशभारमाने , न० । शाकटभार, पुं०। परिमाणवा(सूत्र-६६+) चकत्वात्तन्मितेऽपि । संगृहीते, छन्ने च । वाच०। अभ्यन्तराद्-अभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्येत्यर्थः, आदिमुहर्तः आइयण-आदान-ना ग्रहण, प्रश्न०३ आश्रद्वार। वाच। पलवस्यकुलच्छायः प्रज्ञप्तः । अयमत्र भावार्थ:-सर्वाभ्यन्तरमण्डले यत्र दिने सूर्यश्चरति तस्य दिनस्य प्रथमो मुहूर्तों पाइयत्तिय-श्रादियात्रिक-पुं० । पादौ यात्राऽस्येति सार्थद्वादशाङ्गलमानं शङ्कमाश्रित्य पावत्यकलच्छायो भवति ।। वाहादीनामारक्षके, पृ.। तथा हि-तहिनमष्टादशमुहर्तप्रमाणं भवतीति मुहूर्तोऽष्टाद तस्याष्टौ भेदा यथाशभागो दिनस्य भवति , ततश्च छायागणितप्रक्रियया छदे- पुराणसावगसम्म-द्दिहि, अहाभद्द दाणसद्धे य । नाष्टादशलक्षणेन द्वादशाङ्गुलः शङ्कगुण्यत इति ततो द्वे शते अणभिग्गहिए मिच्छ,अभिग्गहे अन्नतिथी य ॥६२३।। घोडपोत्तरे भवतः- २१६, तयोरर्धी-कृतयोरष्टोत्तरं शतं भ- वृ० १ उ० । ( अस्याः व्याख्या 'सत्थवाह' शब्बे सप्तमवति-१०८, ततश्च शाप्रमाणे द्वादशापनीते षमवतिः-६६ भाग वक्ष्यत) (एतस्याशीतभकाः सार्थवाहवत् ते च अकुलानि लभ्यन्ते इति । स०६६ सम० । 'विहार' शब्दे षष्ठ भागे ३२ अधिकाराई द्रष्टव्याः) माइमूल-आदिमूल-न० । प्रधानकारणे भावमूलभेदे , आ | आइ (दि) यावण-श्रादापन-न० । ग्राहणे,"श्रादियाति" चा। श्रादापयन्ति-ग्राहयन्ति । सूत्र०२ श्रु०१०। यथा मोक्षस्याऽऽदिमूलं विनयः, संसारस्य विषय इति । तत्र मातस्यादिमूलं शानदर्शनचारित्रतपः औपचारिकरूपः | आइराय-श्रादिराज-पुं० । ऋषभदेवे, स्था०६ ठा०३ उ० । पञ्चधा विनयस्तन्मूलत्वान्मांक्षावाप्तेस्तथाचाह (अस्य वृत्तम् ' उसह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते ।) “विणया णाणं णाणाउ, दंशणं दंशणाहि चरण तु। पाइल-आविल-त्रि० । श्रा-विल । भेदने, क० । अस्वच्छ, चरणाहितो मोक्खो , मोक्ख सुक्ख अणावाहं ॥१॥" कालुष्ययुक्त, सूत्र. १ श्रु०६अ। अस्वच्छस्य हि जलादेः "विनयफल शुश्रूषा, शुश्रूषायाः फलं श्रुतशानम् । सम्यग्दृष्टिप्रसारभेदनात्तथात्वम् । भेदके, त्रि०। वाच०। ज्ञानस्य फलं विरतिः, विरतेः फलं चाश्रवनिरोधः ॥२॥ आइल-आदिम-त्रि। आये, श्रा० २८ गाथा । स० । संबरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जराफलं रष्टम् । सू०प्र०। तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तरयोगित्वम् ॥३॥ | पाइलचन्द-आदिमचन्द्र-पुं० । उत्तरोत्तरद्वीपसमुद्रचन्द्रायोगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः। पेक्षया पूर्वपूर्वद्वीपसमुद्रचन्द्रे, सू० प्र० । तस्मात्कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ ४॥" तस्य तथात्वम्इत्यादि । संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषायाः। प्राचा० १ धातइसंडपभितिसु, उद्दिट्ठा तिगुणेत्ता भवे चंदा । धु०२ १०१ उ०। आदिलचंदसहिता, अणंतराणंतरे खेत्ते ॥ ३३ ॥ प्राइमोक्ख-आदिमोच-पुं० । आदिः-संसारस्तस्मान्मोक्षः आदिमोक्षः । संसारविमुक्ती, सूत्र० । धर्मकारणानां शरीरं सू०प्र० १६ पाहु. १०० सूत्र । तावदादिभूतं तस्य मोक्षः-तद्विमुक्तिर्यावज्जीवमित्यर्थः। शरी- (अस्याः व्याख्या 'जोइसिय' शब्दे ४ भागे वक्ष्यते) रपरित्यागे च । “वियड ण जीविजय आदिमोक्खं (२२+)" आइल्लसूर-आदिमसूर्य-पुं० । उत्तरोत्तरद्वीपसमुद्रसूर्यायावज्जीवम् । सूत्र०१७०७ अ०। श्रादौ-प्रथमं मोक्षोऽ पेक्षया पूर्वपूर्वद्वीपसमुद्रसूर्ये सू० प्र०१८ पाहु०। ( अस्य स्येति । मोक्षाद्यते साधौ, आदि-प्रधान मोक्षास्येति । मोक्ष तथात्वमत्रैव 'आइल्लचंद' शब्दे गतम् ।) कताने साधौ च । सूत्र। आई (ती) (दी) ण-आजिन-न० । मूषकादिचर्मनिष्पने इत्थीयो जे ण सेवंति, प्राइमोक्खा हि ते जणा॥8+II वस्त्रे, प्राचा०२ श्रु० २ १०६ उ० । द्वीपविशेष, समुद्रये महासत्वाः कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारणतया विशेषे च । पुं०। जी०३ प्रति०४ अधिक। त्रियः सुगतिमार्गलाः-संसारवीथीभूताः सर्वाऽविनयरा आदीन-न० । आ-समन्ताद्दीनम् । अत्यन्तदीनतायाम् , जधान्यः कपटजालशताकुला-महामोहनशक्लयो 'न सेवन्ते'न तत्प्रसङ्गमभिलषन्ति त एवंभूता जनाः-इतरजनातीताः सूत्र०१ श्रु०५०१ उ०। साधव पादौ-प्रथमं मोक्षोऽशेषद्वन्द्वोपरमरूपो येषां ते प्रा- | आईणग-आजिनक-न । चर्ममये वस्त्रविशेषे, रा. । सब दिमोक्षाः । हुरवधारणे आदिमोक्षा एव तेऽवगन्तव्याः । इद- स्वभावादतिकोमलं भवति । मा० १श्रु० १ ० । परिमुक्कं भवति-मर्वाविनयास्पदभूतः श्रीप्रसङ्गो यैः परित्यक्त्रस्त कर्मितकर्मणि, कर्म०२ कर्म०। ०। मा. म. । नि। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणग भाभिधानराजेन्द्रः। भाउ जी० । " आईणगरूयतूरणवणीयतूलफासे" भ० ११ श०१५ ‘ादीणवित्ती' स्यादि. मादीनवृनिरपि पापं कर्म करोतीउ० । “आईणाणि वा आईणपवराणि वात्र-१०- | ११-१२ +)"अजिणं चम्म तम्मि जे कीरति ते 'आईणा- शंकरगणधरादयः । सूत्र०१ ध्रु०१०म० । णि 'ति । नि००७ उ०। भाई (दी)णिय-आदीनिक-पुं० । श्रा-समन्ताद्दीनमादीनं माईणभह-श्राजिनभद्र-पुं०। प्राजिने द्वीपे, प्राजिनभद्राजि तद्विद्यते यस्मिन्तः । अत्यन्तदीनसत्त्वाश्रय , सूत्र। नमहाभद्रौ । प्राजिनद्वीपस्थे देवे, जी. ३ प्रति०४ अधिक। आई (दी) णभोइ (न)-मादीनभोजिन-पुं० । पतितपि प्रादीणियं दुक्कडियं पुरत्था ॥६॥ एडापजीविनि, सूत्र। श्रादीनिकं दुष्कृतिकं पुरस्तात्-पूर्वजन्माने यनरकगमनयोआदीणभोई वि करेति पावं, ग्यं चरितं कृतं तत्प्रतिपादयिष्ये । सूत्र०१ श्रु०५ अ०। आईरण- बाजीरण-त्रि० । प्राजिः-संग्रामस्तमीरयति-प्रेरमंता उ एगंतसमाहिमाहु ॥ ६ ॥ यति क्षिपात जयतीति यावत् । राज्यावस्थायां संग्रामजतरि, श्रादीनभाज्याप पागं करोतीति । उक्न च-" पिंडोलगेच ___ संथा०६६ गाथा। दुस्सीले, गरगाओ व मुच्चाई" सः कदाचित् शोभनमाहारमलभमानोऽसयादातरौद्रध्यानोपगतोऽधः-सप्तम्यामप्यु आईल-प्राचील-पुं०। उद्गाले, ताम्बूलसंबन्धिनमुद्गालम्त्पद्यते, तद्यथा-असावेव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूह- | भाचीलं तत्र मुवति । चीलस्य जिनमन्दिरे परित्यागे वैभारगिरिशिलापातनोद्यतः स देवात्स्वयं पतितः पिण्डोप- तीर्थकृदाशाताना भवति । प्रव० ३८ द्वार । जीवीति, नदेवमादीनभोज्यपि पिर डोनकादिवजनः पापं आईवमाण-श्रादीप्यत-पि० । प्रकाशमाने, महा०२। कर्म करोनीत्यवं मन्या-अवधार्य एकान्तनात्यन्तेन च यो आउ-अप-स्त्री० । बहुव० श्राप्-कि-इस्यः । वाचा "गोभावरूपो सानादिसमाधिस्तमाहुः संसारोत्तरणाय तीर्थ णादयः" ॥८॥२॥१७॥ इति हैमप्राकृतसूषण निपातितः। प्रा०। करगणधरादयः । सूच०१ श्रु०१० अ०। द्रवलक्षणे महाभूतविशषे, " प्राप्त्वयोगादापस्ताश्च रूपरआईणमहाभद्द-अजिनमहाभद्र-पुं० । आजिनद्वीपस्थे दवे, सस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुजा ३ J..४ अ.ध। स्वस्वाभाविकद्रवत्वस्नहबगवत्यस्तासु च रूपं शुक्लव, रसो आईगमहावर-जिनमहावर-पुं० । प्राजिनसमुद्रस्थे देवे , मधुर एव, स्पर्शः शीत एव" इति वेशाषकाः सूत्र.)। श्राजिनवरसमुद्र च । जी. ३ प्रनि०४ अधिक। "रसतन्मात्रादापा रसरूपस्पर्शवत्य" इति. श्लष्मासण्द्रवलआईणवर-श्राजिनवर-पुं० । द्वीपविशपे, समुद्रावश च ।। क्षणा श्रापः" इति च सांख्याः । सूत्र.१ श्रु.१ अ०१ उ०। आजिनसमुद्रस्थे देव. आजिनवरसमुद्रस्थे दवे च । जी. ३ एतनिराकरण 'महाभूय-' शब्ने षष्ठ भागे करिष्यते) "अपां प्रति० ४ अधिः । स्थान रसनं" रसनन्द्रियमिति । सत्र०१०१०१301 आईणवरभद-आजिनवरभद्र-पुं०। आजिनवरद्वीपम्थे देवे , तासां जीवत्वम्-"सास्मकमम्मा भौम, भूमिखनन स्वाभावि कसंभवाद् . ददुग्वत्"। अथवा-"सात्मकमन्नारक्षादकं स्व. जी०३ प्रति०४ अधिक। भावतो व्योमसंभूतस्य पातात् , मत्स्यवत्"। श्राह चआईणवरमहाभद्द-आजिनवरमहाभद्र-पुं०। प्राजिनवरद्वी "भूमिक्खय साभाविय-संभवप्रा दददुरा व्व जलमत्तं । पस्थे देवे , जी. ३ प्रति०४ अधिक। (सात्मकत्यनेनि) अहवा-मच्छो व्व सहा-बोमभूयआईणवरोभास-आजिनवरावभास-.। द्वीपत्रिशेषे , समु- पायाभो " ॥१॥ इति । स्था० १ ठा० । “आऊ वि द्रविशषे च । जी. ३ प्रति०४ अधिक। जीवा" ॥७॥ श्रापश्च-द्रवलक्षणा जीवाः । सूत्र० १ आइणवरोभासभद्द-आजिनपरावभासभद्र-पुं० । प्राजिन-! श्रु०७०। (७ गाथायाः व्याख्या ' कुमील' शब्द ३ वरावभासद्वीपस्थ दवे , जी. ३ पान०४ अधिक। भागे ६०६ पृष्ठ करिष्यते)(अत्र यद्बहुवतव्यं नत् 'आउआईणवरोभासमहाभद्द-अजिनवरावभासमहाभद्र-पुं० । काइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे द्रष्टव्यम् ) जलनामक दवश्राजिनवरावभासद्वीपस्थ देवे, जी. ३ प्रति०४ श्राध०। विशेष, तदधिष्ठातक पूर्वाषाढानक्षत्र च। आप जलनामा देवस्तन पूर्वाषाढानायमिति प्रसिद्धम् । ज०७वक्षस्था आईणवरोभासमहावर-आजिनवरावभासमहावर-पुं० श्रा । "पुब्बासाढा पाउंदवताए" (सूत्र-४६४)। सू०प्र० १० जिनवरावभाससमुद्रस्थे देवे , जी. ३ प्रति.४ अधि०।। पाहु० १२ पाहु० पाहु । ननु स्वस्वामिभावमम्बम्धप्रतिआईवरोभासवर-आजिनवरावभासवर-पुं० । श्राजिनव पादकभावमन्तरेण कथं देवतानाम्ना नक्षत्रनाम सम्पद्यते ?, गवभामसमुद्रथ दवे जी. ३ प्रति. अधिक। उच्यत-अधिष्ठातरि अधिष्ठयस्योपचाराद् भवतीति । जं. आई (दी) णविनि-यादीनवृत्ति-पुं०। पा-समन्ताहीना-! ७ वक्ष' | " दो पाऊ" (सूत्र-६०४) स्था०२ ठा०३ उ०। करणास्पदा वृत्ति:- अनुष्ठान यस्य कृपणवनीपकारित्यर्थः। श्रात-पुं० । अत् उरण । भेलके, उहुपे, वाच। अत्यन्त दीनवृत्तिक कृपणवनीपकादी , सूत्र। आकु (गु)-पुं० । अभिलाषायाम् , श्रा०० १ अ । आदीण विनीव करति पावं, । ( इक्वाग 'शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽस्य व्युत्पत्तिः) मंता उ एगंतसमाहिमाहु ॥६॥ आयुम्-न । प्रतिसमय भोग्यत्वेनायातीत्यायुः। नि: चू०११ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाउ उ० । स्वकीयावसरे एति च, आयाति चेत्यायुः । स्था० ४ डा०२ उ० उ० पनि गनेन गत्यन्तरमित्यायुः यद्वापति- आगच्छांत प्रतिबन्धकतां स्वकृत कर्मावासनरकादिदुर्गनर्निष्क्रमितुमनसोऽपि जन्तोरित्यायुः । उभयत्राप्यखादित्यः पङ्गा-आपाति भवाङ्गान्तरं सं जन्तूनां निधनादीति पददित्यादायुराब्दसिद्धिः । यद्यपि च सर्वे कर्ममापानि तथाप्यस्यायुष विशेषो यतः शर्म कर्म सकिनिमिव उपमासिक प्रदेश जन्मान्तरेऽपि स्वकिन व इत्युभयथाऽपि व्यभिचारः आयुषि स्वयं नास्ति यद्धस्य तस्मिन्नेव भवे वेदनात् जन्मान्तर संक्रान्तौ तु स्वविपाकता ऽवश्यं वेदनादिति विशिष्टम्यैवोदय गमनस्य विवक्षितत्वात्तस्य वायुष्येव सद्भावात्तस्यैवैतन्नाम । श्रथवा याम्युपगायमिति सति प्रायग्यानि सर्वापि शेषकर्मावत्याः कर्म० कर्म०प्र० अथवा प्रा-समन्तादेति गच्छनि भवाद्भवान्तरसंक्रान्ती अन्तूनां विपाकोदय मित्यायुः | पं०सं० २ द्वार । दशा० । विभो कर्मशे जं०४०। उत्त० । विश० । एनद्रूपं च दुक्खं न देड ग्राऊन विय देवि दुखाधारं घर दे .. जीवं ॥ १ ॥ " इति । स्था० २ ठा० ४ उ० । श्रायुर्भवस्थितिइंतवः कर्म पुद्गलाः । श्राचा० १ श्रु० २ ० १ ३० । जीविने, स्था० ८ ठा० ३ ३० । तत्र चिरकालं शरीरसंम्बन्धः । तं० । स्था० । - विषयसूचनार्थमधिकाराङ्काः(१) आयुष नामादिशत्यम्। (२) आयुषः अतिश्विन्यम् । (३) आयुः पुष्टितायुषः पुनरागमनं । (४) सर्वेषामायुषः । 1 to 3 अभिधानराजेन्द्रः । 9 (५) आयुषः सप्तचा भेदनं तदुदाहरणानि च । ६. आयुः सोपक्रमाविषयम् । (७) आयुषो ऽपदीर्घशुभादिमेदाद्वदुविधा तत्कारणानि च। (E) श्रायुष्कर्मणां जीवितहेतुत्वम् । (२) आयुष द्विविध प्रकारान्तरेण (१०) प्रत्यायन प्रत्याश्यानतनय निर्वर्तिता युष्क जी वानाम् । (११) जीवानामाभोगा उना भोग निर्वर्तितायुकत्वमायुपश्चातुर्विध्यं च । (१२) अनादीनां नरकादीनामायुः । (१३) संक्षिजीवानामायुः । (१४) कानवालेकान्तपः एडवालपरिडतानामायुः । (१५) पायानां सलेश्यादिजीवानां वायुः । (१६) सम्पादिपापाचादिजयाना मायुः । (१७) ज्ञानिनामज्ञामिनां भानिनां सवेदका वेदकक्रियायाद्यादिजीवानां, क्रियावाद्यादिनैरविकादीनां चाऽऽयुः । (१८) अनन्तरोपनका दियायाचादीनाः । (१६) भविक जीवानां नैरविकादिपद्यमानानां सायुष्कत्वम् । (२०) पिकादिपूपपद्यमानानामायुकारण प्रतिसंवेदनादि । ब्राउ (२१) अनन्तरमुत्पद्यमान नैरधिकानामयुतिसंवेदनादि । (१)मादिभेदनो थातथा "नामं ठवणा दविए, आहे भव तम्भवे य भोगे य । संजमे अस अ किसी, जीवियं च तं भन्नई दसहा ॥ १ ॥ " नामस्थापन'विष' नियमेव सतना जीवित व्यहतुत्वाज्जीवितं द्रव्यजीवितम् । श्रघजीवितम् नारायनमा सामान्यजीवितं भवति नारका दिभयविशिष्टं जीवितं भवजीविने माकजीवितमित्यादि ''तस्य पूर्वभयर समानता सम्म जीवितम् पथा मनुष्यस्य समानुप नोत्पन्नस्येति, भोगजीविनं चक्रददीनाम् संयमजावित साधूनां या महावीरस्येति जीवितञ्चायुरेवेति । स्था० १ ठा० १ सूत्र टी० । (२) आवृध सर्वेशमतिविक्रम"निमय पुत्रदारार्थसम्पदः । जीवतार्थ नरास्तेन तेषामायुरतिप्रियम् ॥ १॥" इति । स्थान १ ठा० १ सूत्र टी० । संभा० । सब्धे पाया पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्प पिजीविण जीविकापा ससिं जीवयं पिये । ( सूत्र ८०+ ) प्राणशब्देनात्राभेदोपचारानद्वन्न एवं गृह्यन्ते सर्वे प्राणिनो जन्तवः प्रियाः नियमायुषः ननु च सिद्धेव्यभिचारः, न हि ने प्रियायुषस्तद्भाव त् नैष दोषो यतो मुख्यजीवादिशब्दव्याने प्राणशब्दस्यापचरितस्य प्रद संसारापयार्यमिनिदित्वा० ) 'जीविकामा' यत एव प्रियजीविनोऽत एव दीर्घकालं जीवि तुकामा दीर्घ काल्मायुष्काभिलावियो दु खाभिभूता श्रयन्त्यां दशामापन्ना जीवितमवाभिलपन्ति, उक्तञ्च - "रम विहवी वि मेसे. हिमेनं व विन्थरो महइ । मग्गइ सरीरमहगा. गंगी जीवन कयस्थां ॥१॥ " संदयं सर्वोऽपि प्राणी सुखताभिलाषी । (वा० ) कस्य कियदायुगित जि.नासायांच. तुर्थभाग'डर' शब्दः) प्रानां जीवितमत्यर्थ दचितमित्यत भू भूपस्तदेापदिश्यत इस सिमे याद-सीवितम्' जीवित प्रियं दयितम । श्रचा० १ ० २ ० ३ उ० । जीवियं पुढो पि इमेमेसि माखवाणं खेतवत्थुममायमा आरतं विरनं मडिकुंडलं सह हिरण इत्थि याउ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता ण एत्थ तवो वा दमो वा थियमो वा दिस्सर एवं वाले जीविकामे लाल माणे मूढे विप्परयायमुवति (सूत्र - ७६+ ) 'अविनम्'- आयुष्कनुपरमजीवि वाच गिति प्रत्येकं प्रतिप्राणि प्रियं दायनं वल्लभम् इंड' त्ति-अस्मिन् संसारे एका अविद्योपत मानवानामिति उपल Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाउ अभिधानराजेन्द्रः । प्राउ णार्थधात् प्राणिनां.नथाहि-दीघजीवनार्थ नास्ता रमाय प्रायुषः मरावं यथामादिकाः सस्थापघातकारिणीःक्रियाः कुग्यते। भाचा०९७० अप्पं च खलु भाउयं इहमेगेसि मासवाणं । (मत्र ६२+) २५०३ उ०। मापं स्तोक चशम्दाऽधिकवचना, खलुरवधारणे, प्रायु(३) आयु पुषिश्च यथा भवति तथा रिति-भस्थिमिहेनवः कभपुदलाः । इहे' नि-संसारसिद्धमधुरेहि आमो, च्छाति देहिदिया मेहा । मनुष्यभव वैके-केषांचिव मानवाना-मनुजानामिति प दार्थो, वाक्यार्थः- इह' अम्मिन् संसार केनचिन्मनुअत्यति जत्थ गत्थति, सहातिसु वोहगादीया ॥२८॥ जानां पुल्लकभवापलाक्षतान्तमुहर्नमात्रमस्यं स्ताकमायुचोदक पाह-कथमायुषः पुष्टिः ?, प्राचार्य पाह। यथा र्भर्वात । चशम्दादुत्तरोत्तरसमयादिवृद्धधा पल्यापमत्रदवकुगेरुत्तरासु क्षत्रस्य स्निग्धगुणन्यादायुषी दीपवं सु यावसानेऽप्यायुषि तत्र खलुशम्दस्यावधारणार्थत्वात्संयमपमसुषमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद् दघियमायुषस्तथा जीवितमार्यात । तथा हि-अन्तर्मुहुर्तादारभ्य देशानपूर्वपदापि स्निग्धमधुगहाग्न्वात् पुष्टिगयुषो भवति । सा च काट यावसयमायुष्कं तशाल्पमयति । अथवा-पिपल्योन पुनलद्धेः.किंतु-युक्तमासग्रहणात्; क्रमेण भोगनेस्यर्थः । पमास्थातकमप्यायुमंव, यतस्तातहतमपहाय समि०चू०११ उ०। धमपवत । उतचगनं चायुन पुनरावर्तते । उक्तं च "अद्धा जागुकासे, बंदिसाभोगभूमिए सुलहुं । “भवकोटीभिरसुलभ, मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे। सम्बप्पजीवियं व-जह तु उध्वट्टिपा दौरई ॥१॥" मच गतमायुभूयः. प्रत्येत्यगि देवराजस्य"॥१॥ 'ना' मैव संसार सुलभ-सुग्रापं संयमप्रधानं जीवितं, अस्यायमर्थ:- उत्कृए योगे-बन्धाध्यवमायस्थान प्रायुषो यो यदि वा-जारितम्-श्रायुम्धुटिनं सत् नंदव संघातुं न श बन्धकालाऽद्धासमया) उत्कृष्ट एव तंबध्या कभागभूमिक पुदवकुबंदिजेष, तम्य क्षिप्रमेव सर्यास्पमायुर्वजयित्वा क्यने, इनि वृनार्थः । सूत्र. १७०२ १०१ उ। द्वयो.- तिमनुष्ययोग्पवृत्तिका अपचननं भवति. परमा(४) अल्पनित्यं नायुः सर्वेषाम् । नत्रानिन्यन्वं यथा पर्याप्तकान्तान्तदएम्य, तत ऊर्धमनपवर्तनमवेति । दुमपत्तए पंडुरए. जह निवडइराइगणाण अबए। (प्राचा०) उक्तएवं मणुप्राण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए॥१॥ "स्वताऽभ्यत इनस्तनोऽभिमुखधायमानापदा(अम्या गाथाया व्याख्या ' जीविय ' शम्दे चतुर्थभाग महो निपुणाता नृणां क्षणमपीह याविनम् । १५६ पृष्ठ वदयने ) उन १० अ०। मुख फलमतिक्षुधा सरसमसमायोजितं , जीविशतम्देन शरीरमुच्यते । यदाह नियुक्तिकार:- किर्याच्चरमचर्यितं दशनकटाम्य स्थितम् ॥१॥ परियट्टिय लावलं. चलंतसंधिं मुअंतबिंटग्गं । उच्छामावधयः प्राणाः. स चाच्छामः ममीग्णात्। पत्तं च वसम् पत्तं, कालप्पन भणइ गाहं ।। ३०७॥ समारणं च चलनात् . क्षणव्यायुग्मृतम् ॥२॥" इत्यादि । येऽपि दीघायुष्कस्थितिका उपक्रमणकारणाभावे जह तुज्झे तह अम्हे, तुझे वि अहोहिहा जहा अम्ह । आयुःस्थितिमनुभवन्ति नेऽपि मरणादयधिको जगभिभूतअपाई पडतं, पंडुरतं किमलयाणं ।। ३०८ ।। विग्रहा जघन्यतरामवस्थामनुभवन्ति । प्राचा०१७०२ अ. नवि अस्थि न वि अ होही, उल्लावो किसलपण्डपत्ताणं।। उवमा खलु एस कया, भत्रियजणविवोहणट्ठए ॥३०॥ ___वर्षशतायुष्कस्पायुषोऽल्पत्यमेव । तद्यथाउन पाई. १००। म.उसो से जह.नामए केदपुरिसे यहाए कयवलिकम्मे (श्रासां गाथानां व्याख्या 'दुमपन' शब्दे चतुर्थभागे द्र- कयक उयमंगलपायच्छिते सिरसि एहाए कंठ म.लाकडे न्या । ) यथा हि किशलयाणि पाण्डपत्रण अनुशिष्यन्ते प्राविद्धमणि सुवन अयसुमहग्यवस्थपरिहिए चंदणोकितथा अन्योऽपि योवनगर्विताऽनुशासनीयः । बगायसरि सरससुरहिगंधगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइ. अथाऽऽयुषोऽनियन्वमाह मालावनगषिलेवणे कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंबकुकूःसग्गे जह भोसविंदुए, थोवं चिट्ठइ लंवमाणए। माणे कडसुत्तयरु कयसोहे पिणद्धगेपिअभंगुलिमालएवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम!मा पमायए ॥२॥ | लियंगयललियकयाभरणे नाणामरिकणगरयणकडगतुहै गौतम ! समयमात्रमपि मा प्रमादीः । तत्र इतुमाह । यथा-कुशस्याग्रे अवश्यायविन्दुर्लम्बमानःसन स्ताक-स्ताक डियर्थभियभुए अहिररूबसस्सिरी ए कुंडलुओवियागस कालं तिष्ठति वानादिना प्रेर्यमाणः सन् पतति तथा मनु मउडदितसिरए हारुत्थयसुकयरइयवस्थेप.लंबपलबमायम्याणां जीवितम्-प्रायुरस्थिर झयम् । एवं आयुषोऽनिन्यत्वं सुकरपड उत्तरिख मुद्दिया पिंगलंगुलिए नाणामणिकणसात्वा धर्मे प्रमादो न विधय इत्यर्थः । उन० १ अ.। गरयणविमलमहरिहानउणोवियसिमिसंतविरइयसुसिल"आयुषि बहुपसर्गे, वानाहनसलिलबुदबुदानितर। उच्छृस्य निश्वसांत यः, सुप्ता वा विबुध्यत तचित्रम्" ॥९॥ पं. दुविसिठ्ठलम विद्धवीरबलए । किं बहुला कप्परुक्खो सू. ३ सूत्र । विव अलंकियपिसिएसइपयए भविता अम्मापियरो Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाउ ( १२ ) अभिधानराजेन्द्रः । अभिवादइज्जा । तर तं पुरतं अम्मापियरो एवं बहन जीव पुत्ता ! वाससयति तं पियाई तस्स नो बहु भवइ कम्हा बाससयं जीवंतो बीसं जुगाई जीवद १, बीस जुगाई जीवंतो दो अपसवाई जीव २, दो अलसाई जीवंतो छ उऊपयाई जीवइ ३, छ उऊसाइं जीवंतो वारसमाससयाई जीवइ ४, वारसमाससयाई जीवंत उनी पक्खरयाई जी पीसं पक्ख सयाई जीवंतो छनीसं राईदिसहस्साइं जीवति छत्तीसं रादिसहस्वाई जीतो दसमधीबाई मुतसय सदस्साई जीव ६, दस अमीबाई मुतसयस इस्साई जीवंतो चनारि ऊमामकोडित सत्त व कोडियां अडवलीसं च सयसइस्साई चतालीस च सहस्माई जीवइ ७ (मूत्र - १६+) यदि तस्य पुत्र प्रायुःस्यात्तदा सजीपति: नाऽम्यथेति तदापत्र आयुः 'आई' नि-अलंकार, नस्यवर्षशतायुपुरुषस्य बहुराताधिकं भवा यस्माद जीवन शानि एवं जीवति निरुपकमायुष्कत्वात् विनियुमा जीवन पुरुष यनशंत जीवनि २ द्वे अयनशत जीवन जीवः पऋतुशतानि जीवनि २, पऋतुशतानि जीवन जन्तुः द्वादश मासनानि जीवान ४. द्वादश मासशतानि जीवन प्राणी चतुर्विंशतिपक्षशतानि २४०० जीवति चतुतिपक्ष शतानि जीवन पत्रिंशदहोरात्र महस्राणि ३६००० जीवनि स्वः ६. शिदोरात्र महस्राणि जीवन् अनुमान् दश मुहूर्नलक्षाणि श्रशीतिमुहूर्तसहस्राणि १०८०००० जीवनि ७. लहान अशीतिमुहूर्त जीवन देहघारी बन्यारि उहाकोटिशतानि समकोट अवस्था रिशसारखा व ४००००० जीवन देहभृत् । ० । (५) श्रायुश्च सवा भिद्यते । तद्यथाअज्झवसाण निभित्ते. अ/हारे वेयथापराधाए । फासे आणापा, सत्तविहं भिजए आउं ॥ २०४१ ॥ अनिदर्षविपादाभ्यामधिकमान चिन्नमध्यवसानं त साद्भियतेने उप-अतिशयेन दव वात् अथवा रागस्नेहमयमेवसानं विधा, तस्मा दायुमिन (विशे०) निमिनं दडकशादिकं पति न च सत्यायुर्मित तथा ब्राहारे समधिके इनायां चातिशयचस्य शिविरमा परा घाते च गर्भपातादिसमुत्थे, तथा स्पर्शे भुजङ्गादि संबन्धिनि, तथा प्राणापानयोश्च निरोधे सत्यायुर्भिद्यत । इति एवं सप्तविधे सप्तभिः प्रकारः प्राणिनामायने उपपते इति विशे० । एतेषां क्रमेोदाहरणानि । तत्र रागाद्यध्यवसान जीवने " एकस्य कस्यचिद् गावो, हियन्ते स्म मलिम्लुचेः । पालनाय गवां जग्मुः, पत्तयस्तस्कराननु ॥ १ ॥ वालता वालयित्वा गा-स्तत्रैकस्तरुणः पुमान् । गृहीनाङ्ग इवानङ्ग-तृषितो प्राममध्यगात् ॥ २ ॥ ग्राम समय परम् शिंग नयनय निवृन यवर्तत ॥ ३॥ म उत्थाय युबा यासी-सा तु तद्रूपमोहिता । अनुगगमहा धूर्त क्षिप्तचू व तद्वशाः ॥ ४ ॥ मास्थात्, नत्यमिषेयुषी । अदृश्यत्वं गते तस्मिंस्तस्याः प्राणास्तमम्वगुः ॥५॥ स्नेहाध्यवमाननायायुः क्षीयते"कस्य वणिजा यूनः प्रयमी प्रोडयोचना । इयो नयोः स्नेहः कोऽपि पाचामगोचरः ॥ १ ॥ स वाणिज्याय गत्वाऽथ प्रत्यावृत्तः समेष्यति । एकांडन विज्ञायानं पावनात्परम् ॥२॥ वयस्याश्चिन्तयामासुः स्नेहः सत्यो ऽनयोर्न वा । पूर्वमेकस्ततो गत्वा तस्य कान्तामवोचत ॥ ३ ॥ मृतस्तव पतिर्भद्र ! श्रुत्वा वज्राहतेव सा । सत्यं सत्यमिदमिति पृष्ठा वारत्रयं मृता ॥ ४ ॥ तत्स्वरूपं च वणिजे कथिनं सोऽपि तत्क्षणात् । एकोऽपि प्राप पञ्चन्य-मेवं प्रेम्णायुषः क्षयः ॥ ५ ॥ " भयाध्यवसानेनाऽप्यायुः क्षीयते यथा"नगरी द्वारवत्यासी-सर्वा स्वंमयाल ग । ॐ नःसमुद्रमैौर्वाग्नि- भेज यत्प्रतिविस्वताम् ॥ १ ॥ हेतु पापेन यत्र पनिपन्थिनः । सचन्द्रधात् शालीवा२॥ • य देवकीकुक्षिका सार कलहंसः क्षितीश्वरः ॥ ३ ॥ द्विष. पौरुवन्ताऽि यत्र लैरवनाः जाः कृताः । सृव्यत्यासकरणा-ज्जि सृष्टानैः स्फुटम् ॥ ४ ॥ *: सूनुं स्तनंधयं धापयन्तीं स्त्रीं वीक्ष्य काडवन । देवकीच. पृारिशसाक्षात् ॥ ५॥ अधृतिं किं विधत्सेऽम्ब ! तयां जान जातु मे । तनूजन न वक्षांज- पयः केनाप्यपीयन ॥ ३ ॥ वासुदवोऽवदन्मातः !, मा कार्षी स्त्वमिहानिम् । कारायष्यामि ते पुत्र प्राप्तिमाराध्य देवताम् ॥ ७ ॥ देवताऽधितावादी- दिव्यः सूनुर्भविष्यति । अभूश्च ननुभूस्तस्या. नान्यथा देवनावचः ॥ ८ ॥ गजसुकुमाल इति नाम चके कृतात्खयम्। सुनां सांमिलविप्रस्य स युवा पर्यणाय् ॥ ॥ सोऽखामि नेने या धर्ममभूवरी विज स्वामिना सार्द्ध मेस्तस्मिन्नभूद् द्विजः ॥ १० ॥ मे प्रभुः साकं पुनरागमत्। प्रभुपृष्ठापने काम मे ॥ ११ ॥ तथास्वं तत्र दृष्ट्वा तं रुष्टो दुरा द्विजस्ततः । निवेश्य कण्टकं मूर्ध्नि चिताङ्गारपूरयत् ॥ १२ ॥ तत्कष्टं समानस्योत्पत्र केवलमुज्ज्वलम् । अन्तकेलियन देव प्राय निर्वृतिम् ॥ १३ ॥ विष्णुः प्रातः प्रभुं नत्वा साधू आपृच्छदच्छधीः । क मे बन्धुः प्रभुः स्माह, निश् स्थात्तमां बहिः ॥ १४० वासुदेवो मतस्तत्र परामवलोक्य तम् । 9 • 9 € • भाउ " • Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राउ अभिधानराजेन्द्रः। प्राउ कुपितः प्रभुमपाक्षी-रकेनामारि प्रभुर्जगौ ॥ १५ ॥ यज्ञाऽऽदौ मार्यमाणानां, छागानामिव याज्ञिकैः ॥ ८॥" विशन्तं स्वां पुरी दृष्टा , यस्य शीर्ष स्फुटिष्यति । श्रा० क० १ ०। कुटुम्बं प्रेष्य विमोऽपि , स्वयं यावन्निरेति सः ॥१६॥ आह-जति आउयबंधो उपकमिजति । तेण कयविष्यतावद् दृष्टे विशन् विष्णु-स्ततोऽतिभयसंभ्रमात् । णासा, अकयभागमो य होइ । कहं जेण वाससय पाउयं ययौ पतितवस्कुम्भ-स्तन्मुण्डं शतखण्डताम् ॥१७॥ बद्धं सो तं सव्वं श्राउबंधं न भुजति, जहा तण कयचिप्पश्रा० क० ११०। श्रा० म०। (विस्तरतो गजसुकुमारक णासो तस्स य तत्थ मारिव्यए जे उरम उरति तण अकयथा-'गजसुकुमाल' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यते ) भागमो भवति । एस यदि दोसो भवति तो पत्थि मोक्खो निमित्तादप्यायुः क्षीयते, तच्चानेकधा मोक्खगया वि पडंतु । उच्यते नाणस्स कथमुपालंभः पक्का दंड-कस-सत्थ-रज्जू , अग्गी-उदगपडणं विसं वाला। वि दोसो न भवति । कहं जण तं सब्वं वेदति । कहं पलालसीउएहं अरइ भयं, खुहा पिवासा य वाही अ॥७२॥ । ट्टिदिटुंतसाहरणा, जहा-पलालबट्टी हत्थसयदीहा अंते मुत्तपुरीसनिरोहे , जिन्नाजिन्ने अभोणे बहुसो। पदीविया चिरेण डझति । पुञ्जिया तक्खणा चव उज्झति । एसो से उयणता । अहवा-अग्निकव्याधिनिदर्शनात् फलघसण घोलण पीलण , आउस्स उवक्कमा एए ॥७२६।। पाचननिदर्शनाचेति । श्रा० चू०१०। यथा वर्षशतोपदण्ड कप शस्त्र रजवः अग्न्युदकयोः पतन विर्ष व्यालाः-स- भोगाय काल्पतं धान्य भस्मक व्याधिपीडितस्याल्पनापि पाः शीतोष्णम् अरतिभयं बुत्पिपासाच व्याधिश्च मूभपुरीष कालेनापि भुजानस्य न कृतनाशो, नायकृताभ्यागमस्तद्वद. निरोधः जीर्णाजीणे च भोजन बहुशः घर्षणं चन्दनस्येव घालनं त्रापीति । तथा चाह भाष्यकार:अष्टा गुलिभ्यां यूकाया इव पीडनमिक्ष्वादरिव भायुप उ "कम्मोवकामिजह, अपत्तकालम्मि जइ ततो पत्ता। क्रमरूपत्वादुपक्रमा एते । कारणे कार्योपचाराद् यथा तण्डुलान्वषति पर्जन्यः, यथा च श्रायुघृतम् । (श्रा०क०१०) अकयागमकयनासा, मापखाणासासया दोसा ॥ २०४७॥ कथं दण्डादय उपक्रमहेतव इति चेत् , उच्यते-दण्डेन गाढ न य दीहकालियस्स वि, नासा तस्सागुइनो खिप्पं । मभिघाते , कशया-शनखङ्गादिना , रज्या गलादी बन्ध, बहुकालाहारस्स ब, दुयमग्गियरागिणो भागो । २०४८ ॥ अग्निना परिदाहे , उदके सर्वस्रोतसामन्तः पूरणे , विषे भ सव्वं व पदेसतया, भुजइ कम्ममणुभावता भइयं । क्षिते , ब्यालाः-सस्तैदशने , शीतोष्णन च संस्पर्शतः . श्र. तेणावसाणुभव, के कयनासादयो तस्स ।। २०४६ ॥ गत्या भयेन चान्तर्मनसि पीडासमुत्पत्ती, सुधया अभक्षण , किचिदकाले वि फल, पाविजह पश्चए य कालणं । पिपासया हृदयगलतालुशोषणे, मूत्रपुरीषनिरोध शरीरक्षा तह कम्म पाइजा, कालेण य पञ्चए अन्नं ॥ २०५० ॥ भतः , जीर्णाजीर्ण नाम अर्द्धजीर्ण तस्मिन् सति अनेकशो भो. जद्द बा दीहा रज्जू , डझइ कालण पुंजिया खिप्पं । जने रसोपचयात् , घर्षण-चन्दनस्येव घोलनम्-अङ्गठकाङ्ग वितता पडा सुस्सइ, पिंडीभूता उ कालेग ॥ २०५१॥" लिगृहीतचाल्यमानयूकाया इव तस्मिन् ,पीडनमिवादस्तस्मि (विशे०) (असां गाथानां व्याख्या 'उबक्कमकाल' शब्दऽअपि सति, भिद्यते आयुरित्यते सर्वेऽप्युपक्रमहेतवः । (श्रा० स्मिन्नेव भागे करिष्यते ) इत्यादि, ततो यथोक्नदोषानुपम०१०॥७२५॥७२६॥ गाथाटी०) नन्वध्यवसानादीन्यपि नि. पसिरिति । श्रा०म० १ ० । श्रायुश्च सोपक्रमायुषामेव मित्ताम्येवायुपोऽपक्रमस्य तत्कोऽत्र भदः? सत्यं, किं (म्त्यान्त) भिद्यते, न निरूपक्रमायुषाम् । प्रा००१०। श्राय० । वितरेतरविचित्रोपाधिभेदेन भेदाद्विस्तरप्रियविनयानुग्रहा- (आयुर्हि द्विविधम् )-सोपक्रमायुषां सोपक्रमम् , निरुपर्थत्वाद्वा न दोषः। विशे० २०४३ गाथाटी। क्रमायुषां निरुपक्रमम् । यदा ह्यसुमान् वायुपस्त्रिभाग त्रिआहारादिभिरप्यायुर्भिद्यते भागत्रिभाग वा जघन्यत एकेन द्वाभ्यां चोत्कृष्तः सप्तभि"बटुरेको दिने कृत्वा, वारानष्टादशाशनम् । राष्टभिर्वा वर्षरन्तर्मुहर्तप्रमाणेन कालेनात्मप्रदशरचनानाडिशूलेन म्रियते स्माशु, मृतश्चान्यः सुधा पुनः॥१॥ कान्तर्वर्सिनः श्रायुष्ककर्मवर्गणापुद्गलान् प्रयत्नविशेषण विइम्बेदनादिभिर्जाता, भूयांसोऽपि गतायुषः । धत्ते तदा निरुपक्रमायुर्भवतीति, अन्यदा तु-सापक्रमायुष्क विद्युदाद्युपघाताच्च, श्रूयन्ते बहवो मृताः ॥२॥ इति । श्राचा०१ श्रु०२ १०१ उ०६३ सूत्र । (आयुस्पर्शोऽप्यायुःक्षयाय स्या-द्यथा त्वग्विषभोगिनः। कोपक्रमस्याऽपि यथायरकोपकमकालताम् 'उबक्कमकाल' खीरत्नस्यध संस्पों , यदि वा चक्रवर्तिनः ॥ ३ ॥ शब्देऽस्मिन्नव भागे वक्ष्यसे) ब्रह्मदत्त मृति प्राप्ते, द्वादश चक्रवर्तिनि । (सोपक्रमायुषी निरुपक्रमायुपश्च यथा)स्त्रीरत्नं तत्सुताऽवादी-द्रोगान् भुदय मया सह ॥४॥ जीवाण भंते ! किंमोवकमाउया,णिरुवकमाउया। गायतयानं न मम स्पर्शः, सह्यम्त चक्रि विना । तं प्रत्याययितुं बाजी, मुखाद्यायत् कटिं तया ॥५॥ मा! जीवा सोककमाउया वि ,णिरुवकहाउया वि । परस्पृष्टः करेण तत्कालं, गलद्रतः क्षयान्मृतः । इया णं पुच्छा, गोयमा ! णरइया णो सोवकमाउया, णितथाऽप्यप्रत्यय तस्य, कृत्या लोहमयं नरम् ॥६॥ परिम्भे सरन्त च, देवादाशु व्यलीयत । रुवकमाउया वि । एवं० जाव थणियकुमारा पुढवीकाइया जततोऽभून्प्रत्ययम्तम्य, दृएं को वा न मध्यते ॥ ७॥ हा जीवा । एवं जाव मणुस्मा वाणमंतरजोइसियवेमाणिप्राणापानानुगधेऽपि मृत्युर्भवति देहिनाम् । याः जहा णेरइया । (मत्र ६८५) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाउ 'जीवाराम' त्यादि 'सोवक्कमाउय' त्ति-: -उपक्रमणमुपक्रमःअप्राप्तकालस्यायुषो निर्जरणं तेन सह यत्तत्सोपक्रमं संद विधमायुर्वेषां ते तथा । तद्विपरीतास्तु निरुपक्रमायुषः । इंद माथेरापि यासाठया व तिरिमया। उत्तमपुरिसा व तहा, चरिमसरींग व निरुपकमा ॥ १ ॥ सेसा सेवा समाप सोवक्कम निश्वक्कम-भेश्रो भणिश्रो समासें ॥ २ ॥ " भ० २० शु० १० उ० । राजवाडा तिरिया मा उम पुरिसा 'चरिमसरीर' त्ति सेसा भविया देवा णारया । 'असंसज्जनासाया य' म्मासाउग्रा आउमाणि धनि । परभविचायुधासि सेसनिभाने सेखाउया जेनमा ज ते समय विभागसाउया परमापकर्णेन । यि निभागविभागाव लाया यि विभागसाडया पकति । कोऽनयोः प्रतिविशेषः । इमां संनिवायां तिष्यमा सीमिडिलो मोपमस्स उपयधमेनस्स ब्रारखं जत्थ रुच्चति तत्थ उयट्टिज्जति । निरुवक्कमेणं श्रवस्सं तं ठां पावियन्वं तिभागां वीप्सार्थः श्रगे तिभागा होति, याव तिपहिं बाबु मार्ग देति जो एक भार यट्टति तथ भावतां मे जीविखज्जपधि सम्पनिहोस आउतो स मध्यमनीय उपबंध गट्टाए तीसे आ उपबंधगए वरि मकावसमय मा जडि सो अपज्जत गमिष्यति निव्वन्तति । एयस्स भागस्स हट्ठा ण तर्गत श्राउयं । बधिउं मेरा सयजीया श्रधभोगाभिनिष्यति तय सोतोमुसो पलिया वि० ० १ अ० । (७) आधी सुरसुभदीर्घायुः शुभांर न्यानिका बहवो मेदास्तेय कारणानि चापाकारखानि यथा 1 कहं णं भंते! जीवाः अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंनि गोयमा ! (सूत्र २०४+) ( भ० ५ श ० ६ उ० ) तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पा उ अत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहापाणे अहवात्ता भवइ, मुसंवइत्ता भवइ, तहारूचं स मयं वा माह या अफासुगं अंग्रेस गिजे असपाखाइमसाइमे पडिलामिना भव इथेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं पगरेंति । (सूत्र - १२५ x ) स्था० ३ ठा० १ उ० । अप्पाउयत्ताए ति श्रल्पायुष्कतायै अल्पजीवितथ्यनिबन्धनमित्यर्थः । ( भ० ) अथवा अल्पमायु- जीवितं यस्यासायरास्ता तथा कम् प्रकुर्वन्ति वध्नन्तीत्यर्थः । तद्यथा- प्राणान् प्राणिनोऽतिपातयितेति शीलार्थमिति कर्मणि द्वितीति प्राणिनां विनाशनशील इत्यर्थः एवम्भूतो या भवति एवं मृषावादयका यथ भवति, तथा तत्प्रकारं रूपं स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स (१४) अभिधान राजेन्द्रः । 3 - , नोट- १- ( देवा नैरयिका अपि चासंख्यवर्षायुपश्च तिर्यग्मनुजा उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीरश्च निरुपक्रमाः ॥ १ ॥ शेषाः संसारस्था भवेयुः सोम तमोपकमनिरुपक्रममेो भवित समासेन । २ !! ) तथारूपी दानोचित इत्यर्थः । ना० ) समयदानां व्याख्या स्वस्व शब्दे ) प्रतिलम्भयिता लाभवन्तं करोतीत्यर्य शीलो पथ भवति (स्था०) पनि सि प्रतिलभ्य लाभवन्तं कृत्वा (भ०) तेऽल्पायुष्कतया कर्म कु नीति प्रक्रमः चतिः प्र रुपकारैखिभिः स्थानजया अल्पायुकना कर्म कु न्तीति निगमनमिति । इह च प्राणातिपातयित्रापिपुरुषनिर्देशेऽपि प्रासानि पातादीनामेवागाधनिबन्धनत्वेन तत्कारणत्वमुक्तं द्रष्टव्यमिति । इयं चाभ्य सूत्रस्य भावनाअध्यवसायविशेषेण एतत्त्रयं यथोक्तफलं भवतीति (स्था० ) अथवहापक्षिकी अल्पायुष्कता ग्राह्या, यतः किल जिनागमाभिसंतमत मुनयः प्रथमवषसं भोगिने कञ्चन दृष्ट्रा याति नूनमनेन भवान्तरे किविधानादि वासवनम या मुनिभ्यो दमा भोः इति (०) अथ वा-यां हि जीयो जिनादिगुणपक्षपातितथा तत्पूजाद्यर्थे पृथिव्याद्यारम्भेण न्यासापहारादिना च निपातादिषु वर्तते तस्य सरागसंयमनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्टा स भाउ मयसेवेति । अथनैनदेवंनिषत्स्यायुकस्य खुल्लकभवग्रहणरूपस्यापि प्राणातिपानादिहेतुनां युज्यमानत्याद् श्रतः कथमभिधीयत सविशेषणप्राणातिपातादियजीव पक्षिी चारपायुष्यनेनि, उ सूत्रस्य प्रणनिपाताविशेष इतनीय प्राकातिया - . यति न हि समान कार्य युज्यते, सर्वत्रानाश्वामप्रमङ्गात् । तथा-" समखावासयस्स णं भंते! नहरू समर्थ या मादा अफासुरलं असं श्रमणपाणखाइमसाइमं पडिलाभमाणस्स किं कजर १, गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कजर. अणनगए से पाये कम कज्जर इनि भगवनवचनश्रवणादवसीयते । नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्टा न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य पुत्रकभवग्रहनिमा स म्भाव्यते जिनपूजाद्यनुष्ठानस्यापि तथा प्रसङ्गात् । श्रथाऽशाकदानस्य भवतू काल्पायुष्टा प्राणातिपातकृपाबादयोस्तु भवषमेव फलमिति तदेवम्-एकप्रवृत्त्या अनिरुद्धत्वाचेति अथ निष्याप्रथमणमाखानां यासुदा त निरुपचरितवास्पयुज्यते इतराभ्यां तु का विचार इति ? नैवम्, अप्रासुकेनेति तत्र विशेषस्थान कन्यात् । प्रासुकानापाक फलस्वाविरोधात् उक्तञ्च भगवत्याम्" सेमोवापस भंते! तहारूवं श्रसंजय अविरय अध्यडिहय अध्यचक्लाय पावकम्मं फासुए या अफासुरण वा एसणिज्जेस वा सिजे या अस पाएं वाइमं साइमं पडिलानेमागुस्स किं कज्जइ ?, गोयमा ! एगंतसा पांव कम्मे कज्जद नो सेकाइ निज्जरा कज्जइ" ति । यश्च पापकर्म्मण एव कारणं तदयाबुवा अपि कारमिति न मृषावादावादानं च कर्त्तव्यमापनमिति । उच्यतेआपनो नाम भूमिकापेक्षा को दोषः । ( स्था० ) यतो यतिधर्माशक्रस्य यस्य इव्यस्तवद्वारे प्राया१-० ५ ० ६ ० २०३ सूत्रटी ० । " 99 " Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। निपानादिकमुक्तमेव प्रवचने ( भ. ) “ अधिका- "महव्यय अणुब्बएहि. बालनया कामनिज्जराए य । दवाग्विशाच्छास्त्रे, धर्ममाधनमंस्थितिः । व्याधिप्रति- उयं निबंधा , सम्मट्टिी य जो जीवा"॥१॥ तथा"पक्रिया तुल्या, विनया गुणदोषयोः॥१॥" या च गृ. याए तणुकसाो. दाणग्यो सीलमंयावहूणो। मज्झिमहिणं प्रति जिनभवनकारणफलमुक्तम् । “एतदिह भाव- गुग्गाहे जुनो. मणुयाउयं बंधए जीया "॥२॥दवमनुध्यायनः, सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् । अभ्युदयाविच्छि युषी च शुभे इति । तथा भगवत्यां दानमुद्दिश्यानम् - 'ममस्या , नियमादपवर्गवीजमिनि " ॥१॥तथा-" मन्नर जि. रगावासयस्स गं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुणपूयाए , कायवहो जद विहार उ कहिं वि । तह वितहिं एसणिज्जेणं असणं पाण स्वाइमं साइमं पमिलामेमाणपरिसुद्धा, गिहाण कृयाहरणजागा ॥१॥ असदारं स्स किं कज्जा , गायमा ! एगनसो निज्जरा कज्जइ, णो से भपवना, जं च गिही तेस तेसि विनेया । तनिबित्ति कर पाय कम्म कज्जा" ति। यानर्जराकारणं त्न शुभदीफल चिय, एसा परिभाषणीयमिदं " ॥२॥इति । दानाधिः घायुष्कारणतयानविरुद्धं महाव्रतबदिति । स्था० ३ ठा०१उ०। कार तु भूयते हि द्विविधाः श्रमणोपासकाः-संविग्रभावि अशुभदीघायुष्कारणानि यथता, लुब्धकरणान्तभाविताश्चेति । यथोक्तम्- "संविग्गभा- तिहिं ठाणेहिं जीवा सुमदीहाउभत्ताए कम्म पगति, वियाग, लोद्धयदिठंतभावियाणं च । मुसूण खत्तकाल , तं जहा-पाणे अडवाइता भकइ. मुसंवइत्ता भवइ. तहाभावं च कहिति सुद्धत्थं" ॥१॥ इति । तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता यथा कथञ्चिद्ददति संविनमावितास्थौचि रूवं समणं वा माहणं वा हीलेसा निंदेता खिसेत्ता गत्यनेति । तदम्-"संथरणम्नि असुद्धं, दारह वि गिरहनं- रिहित्ता अवमाणित्ता अन्नयरेणं अमणुनेणं अपीइकारयाण हियं । प्राउगदिटुंतणं, तं चय हियं असंथरणे" | एणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिला॥१॥ इति । तथा-"नायगयाणं कप्पणिज्जा अन्नपाणादणं भेत्ता भाइ । इच्चेएहिं तिहि ठाणेहिं जीवा असुमदीदवाणं देसकालसजासकारजम्मनु" इत्यादि.कचित्"पाण अइवाइत्ता मुसंवत्ता" इत्ययं भवति शब्दया वाचना, हाउअताए कम्मं पगरे ति । (सूत्र-१२५ +) तत्रापि स एवार्थः, क्त्याप्रत्ययान्तता व्याख्येया, प्राणान- अन्तरमायुषो दीर्घताकारणान्युक्तानि, तश्च शुभाशुभमिति तिपात्य मृषोक्त्वा श्रमणं प्रनिलम्भ्य अल्पायुप्या कर्म बध्न- तत्रादौ तावदशुनायुघताकारणान्याह-'तिहि' इत्यादिन्तीति प्रक्रमः । शष तथैव । (स्था०) अथ बहामासुकदान- प्राग्वद् , नवरम् । अशुभदीर्घायुष्टायै इति-नारकायुष्कायेति मल्पायस्कतायां मुख्य कारणम् , इतरे तु सहकारिकारण भावः । तथाहि-अशुभं च तत् पापप्रकृतिरूपस्यात् दीर्धेच इति व्याख्ययं प्राणानिपाननमृपावादनयोदानविशषण तस्य जघन्यतोऽपि दशवर्षसहनस्थितिकत्यादुत्कृष्टतस्तु त्वात् , तथाहि-(भ०। प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरपतो प्रयस्त्रिंशत्सागरापमरूपत्वात् अशुभदीर्घ तदभूतमायुमृपाक्या भोः साधी ! स्वार्थसिद्धमिदम्भक्कादि कल्पनीय- वितं यस्मात्कर्मणस्तवशुभदीघायुस्तदाबस्तत्ता तस्यै तया मकल्पनीयं वा न शङ्का कार्येत्यादि, ततः प्रनिलम्भ्य तथा घेति प्राण न् प्राणिन इत्यानिपातयिता भवति मृषावादी कर्म कर्वन्तीति प्रक्रमः । इह च द्वयस्य विशेषत्वनकम्य च वना भवति, तथा श्रमणव्र झमादीनां हीलनादि कृत्वा विशेष्यन्येन त्रिस्थानकत्वमवगन्तव्यम् । गम्भीगर्थदं सूत्र- प्रतिलम्मथिता भवतीत्यक्षरघटना । हलना तु जात्याधुमताऽन्यथाऽपि भावनीयमिति । स्था०३ ठा०१3० । भ०५ घट्टनती निन्दनं मनसा खिसनं जनसमक्षं गईणं तत्समक्षम् श०६ उ०। अपमाननमनभ्युत्थानादिभिः अन्यतरण-बहूनां मध्ये एकदीर्घायुष्कारणानि यथा तरण कचिवन्यतरेरगति न दृश्यते, अमनान-स्वरूपतो: शोमनन कदम्रादिना अत एवाप्रीतिकारकण भक्तिमतस्त्वतिहि ठाणेहिं जीवा दीहाउअत्ताए कम्मं पगरेंति , तंज, मनोस.पि मनोशमेव तत्फलत्यादयचन्दनाया इव । आर्यहा-मो पाणे अइवाइत्ता भवइ, णो मुसंवइत्ता भवइ, तहा चन्दनया हि कुल्माषाः सूर्गकोणता भगवते महावीराय रूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखा- पञ्चांदनानपारमासिकक्षपणपारा के दत्तास्तदेव च तस्या इमसाइमेणं पमिलाभेत्ता भवइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं लोहनिगडानि हेममयनूपुरी सम्पन्नौ कशा पूर्ववदेव जाताः जीवादीहाउअत्ताए कम्मं पगरेंति । (सूत्र-१२५४)(स्था. पञ्चवर्णविविधरत्नराशामगृहं भृतं संन्द्रदेवदानव नरनाय कैरभिनन्दिता कालेनावाप्तवारित्रा च सिद्धिसौधशिवर३ ठा० १ उ०) मुपगतेति । इह च सूत्रे अशनादिप्रासुका मासुकत्यादिना अल्पायुष्कताकारणान्यनानि.अधुनतद्विपर्ययस्यैतान्येव वि.। न विशेषितं हीलनादिकर्तुः प्रासुकादिविशेषणस्य फलविशेष पयस्ततया कारणान्याह-'तिहि' इत्यादि. प्राग्वदवमेयं. नवरं प्रत्यकारणयान्मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेक प्रधान'दोहाउअत्ताए' त्ति-शुभदीघायुधाय शुभदीघायुष्या वनि तया तत्कारणत्वादिति । स्था०३ ठा०१ उ० वीरस्य भगवतः प्रतिपत्तव्यम् । (स्था०) 'कहन्नमि' त्यादि. भवति हि जी- पारणाकारणात् आर्यचन्दनया कृतपुण्याहमित्यादि आर्यवदयादिमतो दीर्घमायुयतोऽत्रापि तथैव भवन्ति दीघायुषं चन्दनायाः वृत्तम् 'अजचंदणा' शब्द प्रथमभाग गतम्) इष्टा चक्कारो जीवदयादि पूर्व कृतमनेन तेनायं दीर्घायुः संवृत्त- वाचनान्तरे तु-"अफासुगणं अणसणिज्जणं " ति-श्यते म्तथा सिद्धमव वधादिविरतदीर्घमायुः (भ.) प्राणातिपा- तत्र च सुकदानमपि हीलनादिविशषितमशुभदी युसविरत्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमित्तत्वात् । उक्तश्व- कारणम् , अप्रासुकदानं तु विशषित इत्युपदर्शयता "अ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ फासुपणे" त्याद्युक्तमिति प्राणातिपातमृपावादनयोर्दानविशेपण पक्षव्याख्यानमपि घटत एव श्रवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातदश्यमानत्वादिति । भवति च प्राणातिपातशुभदीर्घाय नरकगनिनुवाद यदाहमिच्छदिमा रंभ-परिमलमनिरसीलो नरयादयं निबंध, पावन रोहपरिणामों " १ ॥ नरकमती व विवक्षया दीर्घमेवायुः । भ्र० ५ श० ६ उ० २०४ सूत्रटी० । ॥ शुमकारणानि यथा ( १६ ) अभिधान राजेन्द्रः । भाउ कर प्रथमेतत 'दुलवि अनिवृत्तिकर लभते । ततश्च' बोहिं बुज्झर' त्ति बोधि-सम्यग्दर्शनं बुअनुभवति च श्रमणोपासकः साधूपासनामात्रकारी ग्राह्यत्तदपेक्षयेवास्य सूत्रार्थस्य घटमानत्वात् त श्रतिदनन्तरं सिध्यतीति प्राम्यत् अन्यत्राप्युक्तं दानविशेषस्य बोधिगुन्यं यदाह कामगिर बालतवेदाचिए " त्यादि । तद्यथा-" केई तेणेव भवे-ग मिश्री मुखा केई तयभवे सिम्झि स्संति जिसगासे ॥ १ ॥” इति । भ० ७ ० १ उ० । मध्यमायुर्वलदेवादीनां यथा तो ममायं पालयति तं जहा- अरहंता, पक बट्टी, बलदेववासुदेवा (पुत्र- १४३४) 'मज्जिम' त्ति-मध्यमायुः पालयन्ति वृद्धत्वाभात् । स्था० ३ " तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउबनाए कम्मं पगरेंति, सं जहागो पागे अश्वाइता भव, यो मुसा भव तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमसित्ता सकारेता सम्माता कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवा - सेना मणुले पीडकार असणपाणखाइमामे प डिलाभेत्ता भवइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउ अत्ताए कम्मं पगरेंति । (सूत्र - १२५+ ) उक्तविपर्ययेणाधुनेतरदाह । 'तिहिं ठाणेहिं' इत्यादि पूर्ववत् इहापि प्रासुकाऽप्रासुकतया दानं न विशेषितं पूर्वसूत्रविपर्ययत्वादस्य पूर्वसूपस्य वा विशेषात्यादितिन न प्रासुकाध्यासु कदानयोः फलं प्रति न विशेषोऽस्ति पूर्वसूत्रो स्तस्य प्रतिपादितत्वात्तस्मादिह प्रापणीयस्य कल्पणा वितरस्य वेदं फलमव सेयम् । ( स्था० ३ ठा० १ उ० ) वाचनान्तरे तु 'फासुए मि त्यादि दृश्यत एवेति ( भ० ५ ० १० सूत्र - २०४) अथवा भायप्रकर्षविशेषादपणीयस्यापीदं फलं न विरुध्यते, अचिन्त्यत्वाच्चित्तपरिणतेः सा हि बाह्यस्यानुगुणतयैव न फलानि साधयति भरतादीनामिवेति । इद च प्रथममल्पायुः स्वं द्वितीयं तद्विपक्षः तृतीयमशुभदर्घायुः सूत्रं चतुर्थ तद्विपक्ष इति न पुनरुक्तेति । स्था० ३ ठा० १ उ० । अत्रापरं सूत्रम् - समणोवास णं भंते! तहारूवं समणं वा फासुएसओिणं असणपाणखाइमसाइमेणं पमिलाभेमाणे किं लब्भइ ?, गोयमा ! समगोवासएवं तहारूपं समयं वा जाव पडि लाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा महाणस्स वा समाहिं उप्पाड, समाहिकारएवं तमेव समाहिं पडिलभइ । समयोवास गां भंते! तहारूचं समर्थ वा०जाब पडिला माणे किं चयइ !, गोयमा ! जीवियं चयइ, दुच्चयं चयड़, दुकरं करे, दुल्लहं, लहइ बोहिं बुज्जइ, तम्रो पच्छा सिज्झइ, ०जाव अंतं करेइ | ( सूत्र - २६४ ) 'किंचयइ' त्ति-किं ददातीत्यर्थः 'जीवियं चय' प्ति-जीचितमिच ददात्यन्नादि द्रव्यं गच्छन् जीवितस्य त्या क रोतीत्यर्थः जीवितादियस्य यत्यादेतदेवाह-' दुच्चयं चयइ' त्ति दुस्त्यजमतत्यागस्य दुष्करत्वादेयाह- दुकरं करोतीति । अथवा कि व्यजति किं विरहदीर्घा स्थिति 'दुध' विदुषं कर्म द्रव्यसंचयम्'कति दुष्करमच यति जीवितमि जीवितं 1 ठा० उ० । आयुष्कर्म जीवित यथा । : कर्मवतायो परतिपीडितोऽपि जीवत्याकर्मदोषामपि प्रियतेनं गाया टी० " सुरनरतिरिनरयाऊ इंडिसरिसं " (२३ गाथा + ) भवति इडि-खोडतेन सह तवं यथा हि राजादिना डी दिस्ततो निगमनमा कुर्याधियति तथा नारका दस्ततां निष्क्रमितुमना अपि तदायुषा भियते इति हडिसदृशमायुः । कर्म० १ कर्म० । (अत्र विशेषतो व्याख्यानम् 'आउकम्म' शब्देऽस्मिन्नव भागे करिष्यते । श्रयाति स्वकीयावर त्या गतनिस्वरितुमि जीवो निर्गन्तुं न शक्नोति यस्मिन्सति निगडबद्ध इव तिष्ठतीत्यायुषः स्वभावः । उत्त० ३३ ० २ गाथा | (१) द्विविधमायुर्यथा दुषि आउने तं जहा अढाउए चैव भावाउचेव१६ (सूत्र-EX ) , 1 " , 1 'दुविह' त्यादि, श्रद्धा- कालः तत्प्रधानमायुः कर्मविशेपोडायः भवात्यचऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थः यथामनुष्यायुः कस्यापि भवात्यय एव नापगच्छत्यपि तु सप्ताभवमात्रं कालमुत्कर्षानुवर्तत इति तथा-भवप्रधानमावायुः पवारषये अपत्येव न कालान्तरमनुपाति यथा-देवायुरिति १६ । स्था० २ ठा० ३ उ० । (यथायुष्कं पालयन्ति इति आउय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते ) यथायुष्कवक्लव्यता ' अहाउय' शब्दे प्रथमभागे द्रष्टव्या ) (द्वयोः अजायुष्कमिति 'श्रद्धाउय 'शब्दे प्रथभांगे गतम् ) ( द्वयोः भवायुष्कमिति 'भवाज्य' शब्दे पञ्चमभाग वक्ष्यते ) ( द्वौ यथायुष्कं पालयन्ति इति ' अहा उय' शब्दे प्रथमभागे दर्शितम् ) ( द्वयोः आयुष्कसर्वतः इति ' आउयसंवट्टय ' शब्देऽस्मिन्नवे भागे द्रष्टव्यम् ) जीवानामिह भविकायुः परभविकायुर्यथा । तत्र क्रियति पूर्वभवायुषि शेषे पारभविकमा युद्धमि तिनः पृच्छति रयाणं भंते! कइभागाव से साऽऽउषा परभवियाऽऽउयं पकरंति ?, गोयमा ! नियमा जम्मासासाउया परभ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाउ विचाउयं, पकरंति । एवं असुरकुमाराऽवि ० जाव थणिकुमारावि । पुढवीकाइया णं भंते ! कइभार से साssठया परभवियाउयं पकरेंति ९, गोयमा ! पुढचीकाइया दुविहा पत्ता, तं जहा- सोत्र कमाउया य, निरुवकमाउमा य । तत्थ सं जे वे निरुवकमाउया ते नियमा तिभागाबसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति । तत्थ गंजे ते सोचकमाउया ते सिय तिभागावसेसाउया परभवियाउयं करेंति, सिय विभागतिभागाव से साउषा परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिभागतिभागविभागाव से साउया परभविपाउयं पकरेंति । चाउ-वेउ वाउ वणस्सइकाइयाणं, बेईदिय - इंदिय - चउरिंदियाण वि एवं चैव ।। पंचिदियतिरिक्खजोखिया णं भंते ! कइभागावसेसाउया परभविया - उयं पकरंति ९, गोयमा ! पंचिदियतिरिक्खजोगिया दुविद्या पत्ता, वं जहा संखेखवासाज्या य. असंखेजत्रासाउया य । तत्थ खं जे ते असंखेज्जवासाउबा वे नियमा छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति । तत्थ णं जे संखिजवासाया दुविहा पष्मता, तं जहा- सोचकमाउया य, निरुवकमाउया य । तत्थ गं जे वे निरुवकमाया ते नियमा विभागाव से साउया परभवियाउयं प्रकरंति । तत्थ गं जे ते सोवकमा उया ते खं सिय विभा गावसेसाउया परभवियाउयं पकरंति सिय विभागतिमागे परभविग्राउयं प्रक्ररंति सिय विभागतिभागतिभागावसेसाउया परभविवाउयं पकरेति । एवं मनुस्सा वि, वाणतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । दारं । (सूत्र - १४४) नेरड्या ते ! कइभागावसेसाउया परभवियाउयं बंधे (क) ति' इत्यादि । पाठसिद्धं तदेवं यद्भागावशेष ऽनुभूयमानभवायुषि पारभविकमायुर्बध्नन्ति तत्प्रतिपादितम् । अ० ६ प्रद । भ० । नैरयिकादीनां परभधिकायुबन्धो यथा - रइया यिमा छम्मासाब से साऽऽउया परभवियाऽऽउयं गरेंति । एवमसुरकुमाराऽवि. जाव भणियकुमारा । असंखेजवासाज्या सनिपंचिदियतिरिक्खजोगिया खियमें छम्मासावसे माउया परभवियाउयं पगरेंति । श्रसंखेजचासाउया सन्निमणुस्मा यिमें ०जाव पगरेंति । वाणमंतरजोइसिया मागिया जहा रहया । ( सूत्र - - ५३६ ) 'नियम' त्ति अवश्यंभावादित्यर्थः । 'छम्मा लावले साजय' ति-परमास्वा अवशेषा-अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्येषां ने परमासावशेषायुष्काः । परभवो विद्यते यस्मितम्पर भवि तच्च नदायुश्चेति पग्भविकायुः प्रकुर्वन्ति-बध्न न्ति । असंख्येयानि वर्षायां ने तथा तेच ने संशिनश्च समनम्काः पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका श्रव्य संख्येवर्षायुष्कसंशिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । इह त्र संधिग्रहणम संख्येयवर्षा ५ ( १७ ) अभिधानराजेन्द्रः । For Private चाउ युष्काः संशिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थे न त्वसंख्येयवर्षायुषामसंज्ञिनां व्यवच्छदार्थ तेषामसंभवादिति । इद्द थ गाथे— " निरइसुरअ संखाऊ, तिरिमणुया सेसप उम्मासे । इगविगला निरुवक्कम तिरिमसुया प्राउयतिभागे ॥ १ ॥ अवसेसा सोवक्कम-तिभागन वभागसत्तावीसइमे । बंधति परभवाश्री, निययभये सव्वजीवा उ" ॥ २ ॥ इति इदमेवान्यैरित्थमुक्तम्-इह निर्यग्मनुष्या श्रात्मीयायुषस्तृतीयत्रिभागे परभवायुषा बन्धयोग्या भवन्ति, देवनारकाः पुनः मासे शेष । तत्र तिर्यग्मनुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुर्न बद्धं ततः पुनस्तृतीयत्रिभागस्य तृतीयत्रिभांग शेष बध्नन्ति एवं तावत् संक्षिपन्त्यायुर्यावत्सर्वजघन्य श्रायुर्बन्धकाल उप्तकालच शेर्पास्तिष्ठति । इह तिर्यग्मनुष्या श्रायुर्बध्नन्त्ययं वा संक्षेपकाल उयंत । तथा देवनैरयिकैरपि यदि चश्मा से शेष श्रायुर्न बद्धं तत श्रात्मीयस्यायुषः परमासंशेषं तावत्संक्षिप न्ति यावत्सर्वज्ञघन्य श्रायुर्बन्धकाल उत्तरकालश्वावशेषोऽवतिष्ठते इह परभवायुर्देवनैरथिका बध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकालः । स्था० ६ ० ३ उ० | ( परभविकायुष्यकारः 'उववाय' शब्देऽस्मिन्नवे भागे निरूपयिष्यते ) (१०) प्रत्याख्यानाञ्प्रत्याश्याम तदुभयनिर्वर्तिताऽऽयुकत्वं जीवानाम् जीवाणं भंते! किं पच्चक्खाण निव्वत्तियाऽऽउया, अपच्चक्खाणिव्वत्तियाऽऽउया. पच्चक्खाणाऽपचक्खाणिव्वचियाउया ? । गोयमा ! जीवा य, बेमाणिया व पच्चक्खाणिव्वत्तियाउया। तिमि वि श्रवसेसा अप्रच्चक्खाणिनिव्वत्तियाउया । गाहा " "" पच्चक्खाणं जाणइ, कुब्वंति तेणेव आउनिव्वती । पदसुद्दे सम्मिय, एमेए दंडगा चउरो ॥ १ ॥ " (सूत्र - २४० ) जीवद जीवाः प्रत्याख्यानादिनिबद्धायुष्का वाच्या, चै मानिकपदे च वैमानिका अप्येवं प्रत्याख्यानादित्रयवतां तेधूत्पादात् ' श्रवसेस 'ति-नार कादयो ऽप्रत्याख्याननिर्वृत्तायुषो यतस्तेषु तश्वेनाविरता एवोत्पद्यन्त इति । उक्तार्थसंग्रहगाथा - ' पच्चखास 'मित्यादि, प्रत्याख्यानमिति एतदर्थ एको दण्डकः, एवम् अन्य त्रयः । भ० ६ ० ४ उ० । (११) जीवानामाभागानाभोगनिवर्तिता युष्कत्वं यथाजीवाणं भंते! किं ग्राभोगनिव्वत्तियाउया, अणाभोगनिव्वत्तियाउया । । गोयमा ! नो श्राभोगनिव्वत्तियाउयाः अणाभोगनिब्बत्तियाउया । एवं नेरइया वि, एवं०जाव माणिया । (सूत्र - २८४ ) । भ० ७ श० ६ उ० । तच्चतुर्विधम् चव्वि आउ परणते, तं जहा - शेरइयाऽऽउए, जाव देवाऽऽउए । ( सूत्र - २६४४ ) एति च: याति चेति श्रयुः कर्मविशेष इति, तत्र येन निरयभ वे प्राणी भ्रियते तन्निरयायुरवमन्यान्यपि । स्था० ४ ४०२३०| अस्यैता एवात्तप्रकृतयःनेrse तिरिक्खाओ, मणुस्मा तहेव य । Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राउ अभिधानराजेन्द्रः। प्राउ देवाओ य चउत्थ तु, अाउकम्म चउव्विहं ।। १२॥ अथानन्तरनिर्गतत्वादिना अपरं दण्डकमाहउत्त० ३३ अ०। प्रव०। (अस्या गाथाया व्याख्या 'कम्म' रहया णं भंते ! किं अणंतरणिगाया, परंपरणिग्गया, शब्द तृतीयभागे १६ अधिकागङ्क करिष्यत )। अणंतरपरंपरअणिग्गया ?। गोयमा ! णेरइया णं अणं(१२) अनन्तरोपपन्नकादीनां नैरयिकादीनामायुस्तद्वन्धश्च तरणिग्गया वि जाव अणंतरपरंपरणिग्गया वि | से णेरइया रणं मंते! किं अणंतरोववरणगा. परंपराववरणगा, केणऽढे ग मंते ! ०जाव अणिग्गया वि ?, गोयमा! जे अणंतरपरंपरअणुववरणगा। गोयमा ! णेरइया णं अणं. णं णेरइया पढमसमयणिग्गया ते णं णेरइया अणंतरतरोववएणगा वि, परंपरोववरणगा वि, अणंतरपरंपर- | णिग्गया । जे णं णेरइया अपढमसमयणिग्गया ते णं सेअणुववरणगा वि स केणऽटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव रइया परंपरणिग्गया । जे णं णेरइया विग्गहगइसमावभगा अणंतरपरंपरअणुववएणगा वि ? | गोयमा! जणं णेरइया ते णं अणंतरपरंपरअणिम्गया। से तेणऽद्वेणं गोयमा ! पढमममोववरणगा तेणं णेरइया अणंतरोववरणगा। जाव अणिग्गया वि, एवं जाव वेमाणिया ३॥ जेणं मोरइया अपढमसमग्रोववएणगा तेणं गरइया परं 'रइया णं' इत्यादि, तत्र निश्चितं स्थानान्तरप्राप्त्या गतंपराववरणगा। जेणं णेरइया विग्गहगइसमावएणगा तेणं गमनं निर्गतम्-अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां णेरइया अणंतरपरंपरअणुषवएणगा। से तेणऽद्वेणं जाव तेऽनन्तरनिर्गतास्त च येषां नरकादुवृत्तानां स्थानान्तरप्राप्ताअणुववाणगा वि एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया। अ- नां प्रथमसमयो वर्त्तते, तथा परम्परेल-समयपरंपरया निर्गतं णंतरोववरणगा गं भंते ! णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख येषां ते तथा,ते च येषां नरकादुवृत्तानामुत्पत्तिस्थानमाता नां यादयः समयाः । अनन्तरपरम्परानिर्गतास्तु ये नरका. मणुस्सदेवाउयं पकरेंति ?, गोयमा ! णो गेरइयाउयं प-- दुद्वत्ताः सन्तो विग्रहगतौ वर्तन्त , न तावदुत्पादक्षेत्रमासाकरेंति जाव णो देवाउयं पकरेंति । परंपरोवबएणमा णं दयन्ति तेषामनन्तरभावेन; परम्परभावेन चोत्पादक्षेत्रप्राप्तभंते ! णेरड्या किं णेरइयाउयं पकरेंति जाब देवाउयं | वन निश्चयनानिर्गतत्वादिति।। पकरेंति ?, गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख- अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्वन्धमभिधातुमाहजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्माउयं पि पकरेंति, णो अर्णतरणिग्गया ण भंते! णेरइया किंणेरइयाऽऽउयंपकरेंति देवाउयं पकरेंति । अणंतरपरंपरअणुववरणगाणं भंते ! जाव देवाऽऽउयं पकरेंति?, गोयमा! णोणेरइयाउयं पकणेग्इया कि णेरड्याउयं पुच्छा, गोयमा ! णो णेरड्या ति जाव णो देवाउयं पकरेंति । परंपरणिमाया यं भंते ! उयं पकरेंति, जाव णो देवाउयं पकरेंति. एवं जाव णरइया किंणेरइवाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति वेमाणिया । सावरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य पुच्छा , गोयमा! णेरइयाऽऽऽयं पकरेंति जाव देवाउयं परंपराववएणगा चत्तारि वि आउयं (पकरेंति) बंधति पि पकरेंति । अणंतरपरअणिग्गया णं भंते !णेरइयपुच्छा, सेमं तं चव २॥ गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति जाव णो देवाउयं 'नेरइया णमि' त्यादि, 'अणतरोववरणग' त्ति-न विद्यन्ते - पकरेंति । एवं निस्वसेस जाव माणिया ४॥ न्तरं समयादिव्यवधानमुपपने-उपपाते येषां ते अनन्तरोप- • श्रगतर 'त्यादि, इह च परम्परानिर्गता नारकाः सर्वापन्नकाः 'परंपरोववरणग' त्ति-परम्परा-द्वित्रादिसमयता ण्यायूंपि बध्नन्ति । यतस्ते मनुष्याः पञ्चन्द्रियतियश्च एव च उपपन्न-उपपाते येषां ते परंपरोपपन्नकाः।' अणंतरपरंपर- भवन्ति । ते च सर्घायुर्वन्धका एवेति । एवं सर्वेऽपि परम्परअणुववरणग' त्ति-अनन्तरम्-अव्यवधानं परंपरं च चित्रा निर्गता वैफियजन्मानः, औदारिकजम्मानोऽप्युवृत्ताः। केदिसमयरूपमविद्यमानम्-उपपन्नम्-उत्पादो येषां ते तथा । चिन्मनुष्यपश्चन्द्रियतियश्ची भवन्त्यतस्तेऽपि सर्वायुर्वन्धका पते च विग्रहगतिकाः, विग्रहगतौ द्विविधस्याप्यत्पादस्या एवंति अनन्तरं निगता उकास्ते च कचिदुत्पद्यमानाः सुखविद्यमानत्वादिति ॥ अथानन्तरोपपन्नादीनाश्रित्याऽऽयुर्वन्ध नोत्पद्यन्ते दुःखेन वेति दुःखोत्पन्नकानाश्रित्याह-'नेरये' मभिधातुमाह-'अणंतरे' त्यादि. इह चानन्तरोपपन्नानाम- त्यादि। नन्तरपरम्परानुपपन्नानां च चतुर्विधस्याप्यायुषः प्रतिषेधोऽ अनन्तरखदोपपनकपरम्परखेदोफान्नकानन्तरपम्परखदोषध्यतव्यः । तस्यामवस्थायां तथाविधाध्यवसायस्थानाभावेन पन्नकानां नरयिकादीनामायुःसर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात् स्वायुषस्त्रिभागादौ च णेरइया णं मंते ! कि अणंतरखेदोववएणगा, परंपरखेदोशेषे बन्धसद्भावात्परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः परमासे शेष ववष्णगा. अणंतरपरम्परखेदाऽणुववामगा?। गोयमा! - मतान्तरेणोत्कर्षतः षण्मासे जघन्यतश्चान्तर्मुहूर्ते शेषे भवप्रत्ययात्तिर्यङ्मनुष्यायुषी एव कुर्वन्ति; नेतरे इति एवं रइया एवं एएणं अभिलावेणं ते चव चत्तारि दडंगा भाजाय वेमाणिय 'ति-अनेनोक्तालापकत्रययुक्ताश्चतुर्विंशति- णियया । (सूत्र-५०२४) दण्डकोऽध्यतव्य इति सूचितम् । यश्चात्र विशेषस्तं दर्श- त एवं पूर्वोक्ता उत्पन्नदण्डकादयः खेदशब्दविशषिताश्चयितुमाह-'नवरं पंचिंदिप त्यादि। | त्वारा दराडका भणितव्यास्तत्र च प्रथमः खेदोपपन्नदगडको, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भाउ प्राउ द्वितीयस्तदायुएकदण्डकः, तृतीयः खेदनिर्गतदण्डकः, चतु-1 तिरिआउयं पकरेइ मणुयाउर्य पकरेइ देवाउयं पकरेइ । र्थस्तु तदायुष्कदण्डक इति । भ०१४ श०१ उ०। नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववजह । तिरियाउयं किच्चा (१३) असद्धिजीवानामायुः तिरिएसु उबवजइ । मणुयाउयं किच्चा मणुएसु उववजइ। काविहे ण मंते ! असएिणयाउए पामते,गोयमा ! देवाउयं किच्चा देवलोएम उववजइ। गोयमा ! एगंतचउविबहे असमियाउए पपत्ते ,तं जहा-णेहयत्रसमिसले माया ग्यारय मि पकोड. तिरियाऽऽउयं पि याउए ,तिरिक्खजोणियअसमियाउए , मणुस्सअसमि-| पकरेइ, मणुयाऽऽउयं पिपकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ । नेरइयाउए, देवप्रसस्मिाउए । असामीणं भंते ! जीवे किंणे-| याउयं पि किच्चा नेहएस उववजह । तिरियाऽऽउयं किच्चा रइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्सदेवा- | तिरिएसु उववजह । मणुयाऽऽउर्य किच्चा मणुएसु उववउयं पकरेइ ? । गोयमा! णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खम-| जइ । देवाउयं किच्चा देवलोएसु उववज्जइ । (सूत्र-६३) गुस्स्सदेवाउयं पकरेइ । णेरइयाउयं पकरेमाणे जहमण एगंतपंडिए णं भंते ! मणुस्से किं नेरइयाउयं पकरेइ दसवाससहस्साई उक्कोसणं पलिओवमस्स अमंखेज्जइ जाव देवाउय किच्चा देवलोएमु उववजइ ?, गोयमा ! भाग पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहणं एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ, सिय णो अंतोमुहुत्तं; उक्कोसणं पलिमोवमस्स असंखज्जइभागं पक पकरेइ । जइ पकरेइ णो णेरड्याउयं पकरेइ, णो तिरिरहे, मगुस्साउए वि एवं चेव । देवाउए जहा परइया-1 याउयं पकरेइ, णो मणुयाउयं पकरेइ । देवाउयं पकरेइ, याउए । एयस्स णं भंते! मेरइयअसमियाउयस्स तिरि खो णेरइयाउयं किच्चा णेरइएसु उयवजइ, णो तिरियाउयं खजोणियसमिनाउयस्स मणुस्सअसाप्लिनाउयस्स दे किच्चा तिरिएसु उववजइ, णो मणुयाउयं किच्चा मणुएसु वअसमियाउयस्स कयरे कयरेहिंतो जाब विसेसाहिए उबवजह । देवाउयं किच्चा देवेसु उववजइ । से केणऽद्वेणं वा?, गोयमा! सम्बत्थोवे देवश्रसमियाउए, मणुस्सअस | जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उक्वजद, गोयमा । लियाउए संखेज्जगुणे, तिरियअसमियाउए असंखेजगुणे, , एगंतपंडियस्स णं मणुस्सस्स केवलमेव दो गईओ पणेरइयअसलिआउए असंखेज्जगुणे । (सूत्र-२६+) मायंति, तं जहा-अंतकिरिया चव, कप्पोववत्तिया चेवः । 'काबिहेणमि' त्यादि, व्यक्तनवरं 'असन्निपाउए' त्ति से तेणऽदेणं गोयमा!जाव देवाउयं किच्चा देवेस असशी सन् यत्परभवप्रायोग्यमायुर्बध्नाति तदसंश्यायुः ।। 'नेरइयत्रसरिणाउए' त्ति-नैरयिकप्रायोग्यमसंध्यायु उववअइ। नैरयिकासंड्यायुरेवमन्यान्यपि, एतचासंझ्यायुः सम्बन्ध बालपंडिए णं भंते ! मरासे किं नेरइयाउयं पकरेइ मात्रेणापि भवति । यथा भिक्षोः पात्रमतस्तकृतन्वत्वक्षण-| जाव देवाउयं किच्चा देवसु उववाह, गोयमा! णा सम्बन्धविशेषनिरूपणायाह-'असगणी' त्यादि, व्यक्तं नवरं गरगाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजह । 'पकरे' त्ति-बध्नाति 'दसवाससहस्साई'ति-रत्नप्रभाप्रथमप्रतरमाश्रित्य — उकासेणं पलिश्रोयमस्स असंखेज्जा से केणऽडेणं. जाव. देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ १, भाग' ति-रत्नप्रभाचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमाश्रि गोयमा ! बालपंडिए ण मरणूसे तहारूवस्स समणस्स वा त्येति, कथं यतः प्रथमप्रस्तर दशवर्षाणां सहबामि जघन्या माहणस्स वा अंतिए एममवि पारिवं धम्मियं सुवयणं स्थितिरुत्कृष्ट नवतिः सहस्राणि । द्वितीये तु दशलक्षाणि सोचा निसम्म, देसं. उवरमइ, देसं णो उबस्मइ, देसं पञ्चजघन्या इतरा तु नवतिर्लक्षाणि । एषैव तृतीय जघन्या खाइ, देसं णो पचक्खाइ, मे तेणं देसोवरमइ, देसपञ्चइतरा पूर्वकोटी । एषैव चतुर्थे जघन्या इतरा तु सामरोपमस्य दशभागा । एवशात्र पल्योपमाऽसंख्ययभागो मध्यमा क्खाणेणं णो णेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा युःस्थितिर्भवति । तिर्यकसूत्र यदुक्कम-“पलिओवमस्स श्र- देवेसु उववज्जइ। से तेणऽद्वेण जाव देवेसु उववज्जइ । संखेज्जाभागं ति" तन्मिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्येति ‘मणु-| ( सूत्र-६४) साउए वि एवं चेय' ति-जघन्यतोऽतर्मुहर्तम् + उत्कर्षतः 'एगंतवाले.' त्यादि, एकान्तबालो मिथ्याष्टिरविरतो वा, पल्योपमासंख्येयभाग इत्यर्थः, तत्र चासंख्ययभागी मिथुन एकान्तग्रहणेन मिश्रतां व्यवच्छिनत्ति । यश्चैकान्तबालत्वे सकनरानाथित्य । 'देवा जहा नेरइय'त्ति-'देवा' इति अस मान:पि नानाविधायुर्वन्धनं तन्महारम्भाद्युन्मार्गदेशनादितझिविषयं देवायुरूपचारतया वाच्यम् ' जहा णेरड्य' ति नुकषायत्वाऽद्यकामनिर्जरादितद्धतुविशेषवशादिति,अत एव यथा असझिविषय नारकायुस्तच प्रतीतमेव, नवरं भव बालत्वे समानेऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिमनुष्यो देवायुरेव प्रकनपतिब्यन्तरानाश्रित्य तदवसयमिति । भ० १ २० २ रोतिनशेषाणि, एकान्तबलप्रतिपक्षत्वादेकान्तपण्डितसूत्रं उ०। प्रज्ञा०॥ तत्रच-'एगन्तपण्डिए पति-एकान्तपण्डितःसाधू मणुस्से' (१४) एकान्तबालैकान्तपण्डितबालपण्डितानामायुर्यथा त्ति-विशेषणं स्वरूपक्षानार्थमेव,अमनुष्यस्यैकान्तपरिडतत्वाएगंतवाले णं भंते ! मरासे किं नेरइयाउयं पकरेइ | योगात्तदयोगश्च सर्वधिरतेरन्यस्याभावादिति । 'एगंतपंडिए Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) अभिधानराजेन्द्रः । भाउ ं मनुस्से प्राउयं सिय पकरेड सिय नो पकड 'त्ति-सम्यन्वसप्तके क्षपिते न बधनात्यायुः साधुः, अर्वाक पुनर्वनातीत्यत उच्यते स्यात्प्रकरोतीत्यादि केवलमेव ' दो ग ईश्रो पलायंति 'ति केवलशब्दः सकलार्थस्तेन साकल्येनैव द्वे गती प्रशायेते-अवबुध्यते केवलिना तयोरेव सत्त्वादिति ' तकिरिय' त्ति निर्वाणम् 'कष्पाववत्तिय ' त्ति-कल्पेषु अनुत्तरविमानान्तदेवल के पत्तिः- उत्पत्तिर्या सैव कल्पोपपत्तिका इह च कल्पशब्दः सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽवासा. भिधायक इति । एकान्त परिडतो द्वितीय स्थानवर्तित्वाद् बालपण्डितस्य बालपण्डितसूत्रम् । तत्र च ' बालपंडिए सं ' ति श्रावकः 'द उवरमइ' त्ति-विभक्तिविपरिणामात् देशादुपरमते विरतो भवति, ततो देशं स्थूलप्राणातिपाता - दिकं प्रत्याख्याति, वर्जनीयतया प्रतिजानीते । भ० १ ० ६ उ० । (१५) क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथाकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं गरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोगियाउयं, मणुस्साउयं पकरेंति ? । गोयमा ! यो रइयाउयं पकरेंति, यो तिरिक्खजोगियाउयं पकरेंति । मणुस्माऽऽउथं पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति । जइ देवाउयं पकरेंति । किं भवणवासिदेवाउयं ० जाव वेमाणियदेवाउयं करेंति ९, गोयमा ! णो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, गो वाणमंतर देवाउयं पकरेंति, गो जोइमियदेवाउयं, पकरेंति माणि देवाउयं पकरेंति ।। अकिरियावादी गं भंते ! जीवा किं खेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख पुच्छा, गोयमा ! - रइयाउयं पि पकरेंति, ०जाव देवाउयं पि पकरेंति । एवं मायवादी वि, वेणइयवादी वि । 'किरिये 'त्यादि, 'मनुस्साउयं पि एकरेंति देवाउयं पिपकरेंति'त्ति-तत्र ये देवा नारका वा क्रियावादिनस्ते मनुष्यायुः प्रकुर्वन्ति, ये तु मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वा ते देवायुरिति । सलेश्यादीनां जीवानां क्रियाद्यादीनामायुर्यथासलेस्सां भंते ! जीवा किरियावादी किं रइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा ! यो रइयाउयं एवं जहेव जी - वा तदेव सलेस्सा विचउहिं विसमोसरणेहिं भाणियव्वा । कहलेस्सा गं भंते ! जीवा किरियावादी किं खेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा ! यो खेरइयाउयं पकरेंति, गोतिरिक्खजोखियाउयं पकरेंति मगुस्साउयं पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति । अकिरिया असशिय वेगइयवादी य चनारि वयं करेंति । एवं गीललेस्सा वि । काउलेस्सा वि ।। तेउलेस्सा गं भंते ! जीवा किरियावादी किं रइयाउयं मकरेंति ? पुच्छा, गोयमा ! यो रइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोखियाउयं पकरेंति, मणुस्साउये पि पकरेंति, देवाउयं पिपकरेंति, जइ देवाउयं पकरेंति तहेव, तेजलेस्सां भंते ! जीवा अकिरियावादी किं खेरइयाउयं | For Private भाउ पुच्छा, गोयमा ! यो खेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजो - खियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि करेंति । एवं श्रमाणियवादी वि वेणइयवादी वि जहा तेउलेस्सा | एवं पम्हलेस्मा वि । सुक्कलेस्सा वि यव्वा ।। अलेस्सा गं भंते ! जीवा किरियावादी किं रइयाउयं पुच्छा १, गोयमा ! यो खेरइयाउयं पकरेंति णो तिरिक्खजोखियाउयं पकरेंति यो मणुस्साउयं पकरेंति खो देवाउयं करेंति । मनुस्साय ' करइलेस्सा गं भंते ! जीवा' इत्यादी पकरेंति शि-यदुक्तं तन्नारकासुरकुमारादीनाश्रित्यावसेयम् । यतो ये सम्यग्दृष्टयो मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चश्च ते मनुष्यायुर्न बध्नन्तीत्येव वैमानिकायुर्बन्धकत्वात्तेषामिति । अलस्सां भंते! जीवा किरियाबाई' इत्यादि, अलश्याः- सिद्धाः प्रयोगिनश्च ते चतुर्विधमप्यायुर्न बध्नन्तीति । भ० ३० श० १ उ० । (२६) कृष्णपाक्षिकादीनां क्रियावाद्यादीनां जीवानामायुर्यथा " कहपक्खिया गं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं खेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! खेरइयाउयं पिपकरेंति । एवं चउब्बिपि । एवं प्राणियवादी वि, वेणइयवादी वि ॥ सुकपक्खिया जहा सलेस्सा ॥ सम्यग्दृष्ट्यादिक्रियावाद्यादीनां जीवानामायुर्यथासम्म दिट्ठी गं भंते ! जीवा किरियावादी किं खेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! यो खेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोगियाउयं पकरेंति । मणुस्सा उयं पिपकरें. ति, देवाउयं पि करेंति । मिच्छादिट्ठी जहा करहपक्खिया ॥ सम्ममिच्छादिट्ठी णं भंते ! अमणियवादी किं खेरइयाउयं पकरेंति जहा अलेस्सा | एवं वेणइयवादी वि ॥ सम्यग्मिथ्याष्टिपदे-'जहा अलस्स' त्ति-समस्तायूंषि न बध्नन्तीत्यर्थः । नारकदण्डके-' किरियाबाईणमि' त्यादौ नैराियुर्देवायुश्च न प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनारकास्तनारकभवानुभावादेव । यश्च तिर्यगायुर्न प्रकुर्वन्ति तत्क्रियावादानुभावादित्यवसेयम् । श्रक्रियावादादिसमवसरणत्रयं तु नारकाणां सर्वपदेषु तिर्यग्मनुष्यायुषी एव भवतः । स मियात् पुनर्विशेषोऽस्तीति तद्दर्शनायाह- नवरं सस्मे' त्यादि, सम्यग्मिथ्याष्टिनारकाणां द्वे एवान्तिमे समवसरणे स्तः तेषां चायुर्बन्धो नास्त्येव गुणस्थानकस्वभावादतस्ते तयोर्न किंचिदपि आयुः प्रकुर्वन्तीति । (१७) ज्ञानिनाम् अज्ञानिनां विभङ्गज्ञानिनाञ्च क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथा गाणी आभिणिवोहियणाणी य, सुचणाणी य, ओहिणाणी य जहा सम्मद्दिट्ठी || मणपजवाणी गं भंते : पुच्छा, गोयमा ! णो रइयाउयं पकरेंति, यो तिरिक्खजोशियाऽऽउयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं पकरेंति । देवाउयं पकरेंति । जइ देवाउयं पकरेइ किं भवणवासी पुच्छा, Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) श्राउ अभिधानराजेन्द्रः। प्राउ गोयमा! णो भवणवासी देवाउयं पकरेंति, णो वाणमंतर-| पकरेइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिया णं जहा पुढवीकाइया देवाऽऽउयं पकरेंति, यो जोइसियवेमाणियदेवाउयं | णं णवरं सम्मत्ते णाणेसु ण एकं पि आउयं पकरेंति ।। पकरेंति । केवलणाणी जहा अलेस्सा । अण्णाणी जाव | किरियावादीण भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं परविभंगवाणी जहा कराहपक्खिया ।। इयाउयं पकरेंति , पुच्छा, गोयमा ! जहा मणपञ्जवणाणी समिक्षकादीनां क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथा अकिरियावादी अम्माणियवादी वेणइयवादी चउन्विहं पि सणासु चउसु वि जाव सलेस्सा णो सगणोवउत्ता| पकरेंति । जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि ॥ कण्हलेस्सा जहा मणपज्जवणाणी ॥ ण भंते ! किरियावादी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किंणेरसवेदकावदकसकषाय्यकषायिसयोग्ययोगिसाकारोपयुक्ता- इयाउयं पुच्छा, गोयमा ! णो णेरयाउयं पकरेंति , णो नाकारोपयुक्तानां क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथा तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं पकरेंति,णो . सवेदगा जाव णपुंसमवेदगा जहा सलेस्मा ।। अवे देवाउयं पकरेंति ॥ अकिरियावादी, अम्माणियवादी, वेणइदगा जहा अलेस्सा ।। सकसाई जाव लोभकसाई जहा यावादी चउन्विहं पिपकरेंति । जहा कराहलेस्सा। एवंणीसलेस्सा ।। अकसाई जहा अलेस्सा ।। सजोगी जाव का खलेस्सा वि । काउलेस्सा वि । तेउलेस्सा जहा सलेस्सा। यजोगी जहा सलेस्सा ।। अजोगी जहा अलेस्सा ।। सागा पवरं अकिरियावादी; अम्माणियवादी; वेणइयवादी; णो रोवउचा य, अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा ।। णेरयाउयं पकरेंति , तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति , ( सूत्र-८२४) मणुस्साउयं पिपकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति । एवं पम्हलेकियावाद्यादिनायिकादीनामायायुर्यथा लेस्सा वि । एवं सुकलेस्सा वि भाणियब्धा । करहपक्खिकिरियावादी णं भंते ! णेरड्या किं णेरइयाउयं पुच्छा, या तिहिं समोसरणे हिं चउविहं पि आउयं पकरेंति । सुक्कपगोयमा! णो णेरइयाउयं, णो तिरिक्खजोणियाउथं प क्खिया जहा सलेस्सा। सम्मविट्ठी जहा मणमजवणाणी तकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, पो देवाउयं पकरेइ ।। अकि हेव वेमाणियाउयं पकरेंति ।। मिच्छद्दिट्ठी जहा कएहपक्खिरियावादी यं भंते ! णेरइया पुच्छा, गोयमा! णोणेरइया या। सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं पिपाउयं पकरेंति जहेव, उयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पि णेरइया णाणी जाव मोहिणाणी जहा सम्मद्दिट्ठी अपकरेइ, णो देवाउयं पि पकरेइ । एवं अस्माणियवादी वि ।। माणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया । सेसा वेणइयवादी वि ।। सलेस्सा पं भंत ! णेरइया किरिया •जाव अणागारोवउत्ता, सव्वे जहा सलेस्सा तहा चेव वादी किं णेरइयाउयं, एवं सब्वेवि णेरड्या. जे किरि भाणियब्वा । जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्यया यावादी ते मणुस्साउयं एग पकरेंति । जे अकिरिया भणिया एवं मणुस्साय वि भाषियन्वा , णवरं मणपञ्जनादी अस्पास्पियवादी वेणइयवादी वि ते सव्वट्ठाणसु वि वणाणी यो सम्पोवउत्ता य जहा सम्मद्दिट्ठी तिरिक्खजोणो णेरइयाउयं पकरेंति । तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, खिया तहेव भाणियब्वा । अलेस्से केवलणाणी अवेदकमणुस्साउयं पि पकरेंति, णो देवाउयं पि पकरेंति, णवरं अकसाई अजोगी य एए एक पिपाउयं ण पकरेंनि, जहा सम्मामिच्छत्ते उरिल्लेहिं दोहिं समोसरणेहिं न किंचि वि प्रोहिया जीवा । सेसं तं चेव । वाणमंतरजोइसियवेमाणिपकरेंति, जहेव जीवपदे । एवं जाव थणियकुमारा जहेव या जहा असुरकुमारा । (सूत्र-८२५+) गोरइया । अकिरियावादी णं भंते ! पुढवीकाइया पुच्छा, 'पुढविकाइये 'त्यादौ 'दुविहं पाउय' त्ति-मनुष्यायुस्तिगोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणिणउयं र्यगायुश्चेति । तेश्रोलेस्साए न किंपि पकरेंति' त्ति-अपर्यापकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, णो देवाउयं पकरेइ ।। एवं श्र- सकावस्थायामेव , पृथिवीकाायकानां तद्भावात्तद्विगम एव स्माणियवादी वि ।। सलेस्सा णं भंते ! एवं जं जं पदं चायुषो बन्धादिति सम्मत्तनाणेसु न पक्कं पि आउयं पक रेति' ति-द्वीद्रियादीनां सम्यक्त्वज्ञानकालात्यय एवायुर्वअस्थि पुढवीकाइयाणं तहिं तहिं मज्झिमेसु दोसु समो न्धो भवत्यल्पत्वात्तत्कालस्येति नैकमप्यायुबंधनन्ति तयास्ते सरणेसु एवं चव दुविहं पाउयं पकरेंति, णवरं तेउलेस्साए इति । पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकदराडके । कराहलस्सारणमि' स्याकि पि पकरेंति ॥ एवं पाउकाइयाण वि, एवं वणस्सइका दि, यदा पञ्चद्रियतिर्यस्वः सम्यग्दृष्टयः कृष्णलशयात्रयप. इयाण चि, तेउकाइया, वाउकाइया सव्वट्ठाणेसु मज्झि रिणता भवन्ति तदायुरेकमपि न बध्नन्ति सम्यग्दृशां वैमा. निकायुबन्धकत्वेन तेजालेश्यादित्रय एव बन्धनादिति, तमेसु दोसु समोसरणेसु णो णेरडयाउयं पकरेइ, तिरिक्ख श्रोलेस्सा जहा सलस्स' त्ति-अनन च कियावादिनी चैमाजोणियाउयं पकरेइ ,णोमणुस्साउयं पकरेइ , णो देवाउयं| निकायुग्व इतरे तु प्रयश्चतुर्विधमायायुः प्रकुर्वन्तीनि प्राप्त Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राउ अभिधानराजेन्द्रः। आउंचण सलेश्यानामेवंविधस्वरूपतयोकत्वादिह तु यदनभिमतं तन्नि- रायगिहे .जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते ! जे भविए धनायाऽऽह-'नवरं अकिरियावाई' त्यादि, शषं तु प्रती-| नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! कि इह गए नेरइयाउयं तार्थत्वान्न व्याख्यातमिति । भ. ३० श०१ उ०। पकरेइ, उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, उववरणे नेर(१८) अनन्तरोपपत्रकादिक्रियावाद्यदीनामायुर्यथा इयाउयं पकरेइ ?, गोयमा ! इह गए नेरइयाउयं पकरेइ, किरियावादी णं भंते ! अणंतरोववलगा - मेरइया किं| नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उक्वन्ने नेरणेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं णो| इयाउयं पकरेइ । एवं असुरकुमारसु वि। एवं जाव तिरिक्खजोणियाऽऽउयं पकरेंति । मणुयाउयं पकरेंति । वेमाणिएसु । जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उणो देवाउयं पकरेंति । एवं अकिरियावादी वि। अमा ववज्जित्तए से भंते ! किं इह गए नेरइयाउयं पडिपियवादी वि । वेणइयवादी वि । सलेस्सा णं भंते ! संवेदेइ, उववज्जमाखे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने किरियावादी अणंतरोववमागा णेरइया किं णेरइयाउयं नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ?, 'गोयमा ! नो इह गए पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं जाव णो देवाउयं नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ , उववज्जमाखे नेरइयाउयं पडिसंपकरेंति । एवं जाव वेमाणिया । एवं सबढाणेसु वेदेइ , उववन्ने वि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, एवं जाव अणंतरोववमगाणेरइया ण किंचि विश्राउयं पकरेंति, वेमाणिएसु। (धूत्र-२८३+)। भ०७श०६ उ०। जाव अणागारोवउत्ते ति । एवं जाव वेमाणिया । णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं (सूत्र-८२६+)। (२१) अनन्तरमुद्रोपपद्यमानानां नैरयिकादीनामायुध तिसंवेदनादि यथाम. ३० श. १ उ. णेरइया णं ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचिंदियतिरि(१६) भविकजीवानां नैरयिकादिषूपपद्यमानानां सायु- | क्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! कयरं पाउयंपष्कत्वं यथाजीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं डिसंवेदेइ ?, गोयमा! णेरइयाउयं पडिसंवेदेइ । पंचिंदियभंते ! किं साऽऽउए संकमद; निराउए संकमइ ?, गोयमा! तिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ । एवं मणुस्से साउए संकमइ, नो नेराउए संकमइ। से णं भंते ! आउए वि । णवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ । असुरकुकहिं कडे, कहिं समाइराणे ? । गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, मारा गं भंते। अणंतरं उच्चट्टित्ता जे भविए पुढवीकाइपुरिमे भवे समाइले, एवं जाव वेमाणियाणं दंडअो । से| एसु उववज्जित्तए पुच्छा , गोयमा ! असुरकुमाराउयं पणणं भंते ! जे जे भविए जोणि उववजित्तए से तमाउयं | डिसंवेदेइ , पुढवीकाइयाउए से पुरओ कडे चि पकरेइ, तं जहा-नेरइयाउयं वा जाव देवाउयं वा ? हता जहिं भविओ उववज्जित्तए तस्स तं पुरो कडे चिट्ठति, गोयमा! जे जं भविए जोणिं उववजित्तए से तमाउयं तत्थ ठिओ तं पडिसंवेदेइ जाव वेमाणिया, सवरं पुढवीपकरेइ । तं जहा-नेरइयाउयं वा; तिरियमणुयदेवाउयं वा ।। काइओ पुढवीकाइएसु उववजति, पुढवीकाइयाउयं पडिसंनेरइयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ, तं जहा-रयणप्प वेदेइ अण्णे य से पुढवीकाइयाउए पुरओ कडे चिट्ठह, एवं भापुढवीनेरइयाउयं वा जाव अहे सत्तमापुढवीनेरइयाउयं जाव मणुस्सो सट्ठाणे उबवातेयब्वो परट्ठाणे तहेव । वा तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं पकरेइ, तं| (सूत्र-६२८) भ०१८ श० ५ उ०। जहा-एगिदियतिरिक्खजोणियाउयं वा भेदो सव्वो भा-| (चतुर्गत्यायुःस्थितिः 'कम्म' तृतीयभागे (२६) अधिकाराके णियबो मगुस्साउयं दुविहं पकरेइ, देवाउयं चउब्विहं | दर्शयिष्यते) (आयुषो गुणस्थानषु बन्धोदयसत्तास्थानानां परस्परसंबन्धेन भताः "अट्टछला. "४७ गाथया'कम्म' पकरेइ । ( सूत्र-१८४+) शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते) 'जीव णमि' त्यादि, 'से णं भंते' त्ति-अथ तद्भदन्त ! 'कहि कंड 'त्ति-क भवे बद्धम । 'समाइराणे' त्ति-समाचरितं त आहोस्वित्-अव्य० । आहो च स्विच बं० । विकल्पे, प्रश्ने द्धतुसमाचरणात् ज जे भविए जोणि उवधज्जित्तए' त्ति च।" आहोस्वित् शाश्वतं स्थानं, तेषां तत्र द्विजोत्तम!।" विभक्निविपरिणामाद्यो यस्यां योनाबुत्पत्तुं योग्य इत्यर्थः, द्विपदमित्येके । "किं दवाणं वयणं, गेझ पाउ जिणवराणं" 'मणुस्साउयं दुविहं' ति-समूच्छिम-गर्भव्युत्क्रान्तिकभदाद । ॥३०५॥ 'आउ' त्ति-आर्षत्वात्-आहोखिदिति । उत्त०१०। द्विधा 'दवाउयं चउव्विहं' ति-भवनपत्यादिभेदात् । आउंचण-आकुश्चन-न० । संकोचात्मके क्रियाभेदे, जहादेः भ०५ श० ३ उ०। सङ्कोचन , ध०२ अधि० । गात्रसकोचने, श्राव०४० । (२०) भविकजीवानां नैरयिकादिषूपपद्यमानानामायुस्क- | पञ्चा० ऋजुद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं च कर्म प्राकुश्चनं यथा रणप्रतिसंवेदनादि यथा ऋजुनोऽहुल्यादिद्रव्यस्य यऽग्रावयवास्तेषामाकाशादिभिः Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउंचप स्वसंयोगिभिर्विभागे सति मूलप्रदेशेध संयोगे सति येन कर्मणादिवयवी कुटिल संपद्यते तदाकुञ्चनम् । सम्म० ३ काण्ड ४६ गाथाटी० । आउंचण पट्टग- श्राकुञ्चनपट्टक- न० । पर्यस्तिकापट्टे, बृ० । तच निर्मन्थीनां धारयितुं कल्पते ( सूत्रम् ) - नो कप्पर नियंथीणं आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरितए वा ॥ ३६ ॥ कप्पर निग्गंथाणं कुचणपट्टगं धारितए वा परिहरिए वा ||३७|| ( २३ ) अभिधान राजेन्द्रः । एवं यावद्दारुदण्डकसूत्रम् । अथामीषां सूत्राणां सम्बन्धमाहबंभवयपालखट्ठा, तहेत्र पट्टायियाउ समणीणं । बियप जई, पीडगफलए विवजिता ।। २८५ ॥ यथा ब्रह्मव्रतपालनार्थमचलत्वादीनि न कल्पन्ते । तथा ब्रह्म वर्यरक्षणार्थमेव श्रमणीनां पट्टादयोऽपि वा दण्डकान्ता न कल्पन्ते । द्वितीयपदे तु यतीनां कल्पन्ते परं पीठफलकानि वज्र्जयित्वा तानि साधूनामपवादमन्तरेणापि कल्पन्त एवेत्यर्थः । अन एतेषां सूत्राणामारम्भः । अनेन संबन्धेनायातानाममीषां ( ३६ ) प्रथमसूत्रस्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनामाकुञ्चनपट्टे - पर्यस्तिकापङ्कं धारयितुं वा परिहर्तुं वा ॥ ३६ ॥ कल्पते निर्ग्रन्थानामाकुञ्चनपटुं धारयितुं वा परिहर्तु वेति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ " अथ भाष्यम् गब्बो अवाउड, अणुवधिपलिमन्धुपरिवाओ। पट्टमतोलियदोसा, गिलाणियाए उजयलाए ।। २८६॥ पर्यस्ताप परिदधानामार्थिकां दृष्ट्रा लोको ब्रूयात्- अहां अस्याः क्रियान् गर्यो यदर्थ महिलामवन्ती पर्यस्तिकों क रोति अपावृता वा पतिको वा कुर्यादा भवेत् । अणुबहि-न्ति' य उपकारे वर्तते स उपधिरुच्यते । स च तासामुपकारं नायातीति कृत्या अनुपधिरुभयकालं प्रत्युषेयमाणे च तस्मिन् सूत्रार्धपरिमन्थः । शास्तुश्च तीर्थकृतः परिवादो यथा नूनमवंशोऽसी येमेलः स पर्यस्तिकापट्टो न प्रतिषिद्धः । द्वितीयपदं यः संयती स्थविरो ग्लानतया यतनया अल्पसागारिकपर्यस्तिकापट्टः परिधातव्यः उपरि चान्परमावरणीय कारणे व गृह्यमाणे योऽजालिको जालरहितः स गृहीतथ्यो] जालसदृशेषु चिरदोषः एवं निर्धम्या नामप्यकारणे पर्यस्तिकां कुर्वाणानां चतुर्लघु गुर्वादयश्च त एव दोषाः । कारखे पुनरयं विधिः ६ थेरे व गिलाणे वा, मुत्तकाउमुवरिं तु पाउरणं । वस्सए व चेट्टो पुव्त्र -- कतमसारिए वाए ॥ २८७ ॥ सूपपौरुषीम् उपलक्षणत्वादर्धपौरुष व करतुः शिष्याणां दातुमित्यर्थः स्थविरो ग्लानो बाचनाचार्यः पर्यस्तिक क्रस्वा परिप्रावृणुयात् । उत्तरार्द्ध पश्चाद व्याख्यास्यते । स च पर्यस्तिकापट्टः कीदृश इत्याहफनो अचितो यह भविओवा, चरंगुलो वित्थडओ असंधिमो । विस्सामहे तु सरीरमस्स, दोसा भगया य एवं ॥ २८८ ॥ फलाज्जातः फालः; सौत्रिक इत्यर्थः । अचित्र:- अकुर्वरः । श्रथ सौत्रिकोन प्राप्यते तत आदिको वा स च चतुरवि स्मृतः । स्थूलोऽसंधिमधपान्तराले संधिरहितः पर्वविधः पर्यस्तिकापट्टा शरीरस्य विश्रामहेतोर्गृधने ये वाऽयम्भगताः "अंबरकुंडिय" इत्यादिका दोषाः तथैवमाकुनपडे परिधीयमाने न भवन्ति । वृ० ५ ३० । " आउंच - (ट) णा-आकुञ्चना स्त्री० । श्राकुञ्चनं-गात्रसंकोचनं तदेवाकुञ्चना । सङ्कोचे, ध० ३ अधि० । माउंट आकुंचन- १० ते इति प्रा कृतव्याकरणाच्चस्य टः । संकोचने, आव०४ श्र० । श्राउंटणं गात्रसंखेवो । प्रा० चू० ४ श्र० । श्रावर्जने च । पञ्चा० ७ विव० । आउंटणपसारण- श्राकुञ्चनप्रसारण- न० | आकुञ्चनं जङ्घादेः संकोचनं, प्रसारणं च तस्यैव जङ्घादेः सङ्कुचितस्य ऋजुकरणं आकुञ्चन-प्रसारणे च । जङ्घादिसङ्कोचनाकुञ्चितजङ्घावृद्धकरणयोस्तदात्मके, एकासनप्रत्याक्यानस्याकारविशेष च । प्रव० । अण्णत्थ आउंटणपसारणें " श्राकुञ्चन प्रसारणे वाऽसहिष्णुना किया यदि सत ततोऽन्यत्र प्रत्याख्यानं तस्मिन् हि क्रियमासे न प्रत्याख्यानभङ्गः । प्रच० ४ द्वार । ध० । इत्थं वा पायं वा सीसं बा पसारे आज या पसारेज वा भजेति । प्रा० चू० ६ श्र० । आउंटणपसारण आकुण्टनादिप्रस्तावादिदमाद देवे गं भंते ! महिड्डिए० जाव महेसक्खे लोगंते ठिच्चा पभू अलोगंसि हत्थं वा०जाव ऊरूं वा आउंटावेत्तए वा पसारेच वायो इराडे समड़े से गाणं ते! एवं बु च्च देवे महिड्डिए जान महेसक्से लोगते ठिच्चा सो पभू अलोगंसि हत्थं वा ०जाब पसारेच वा?, गोयमा ! जीवा गं आहारोषचिया पोग्गला बोंदिचिया पोग्गला क डेवरचिया पोग्गला पोग्गला चैव पप्प जीवाण व अजीबाथ य गइपरियाये माहिज्जर, अलोए गं वत्थ जीवा वsत्थि पोग्गला से तेराऽद्वेगं ०जाव पसारेत्तए वा सेवं ते भंते चि (सूत्र ५८६ ) - 'देवे समि' स्यादि 'जीवा आहारोषचिया पोम्पल'सि-जीवानां; जीवानुगता इत्यर्थः। श्रारोपचिता- आहाररूपतयोपचिताः । चोदिचिया गोग्गल ' ति श्रव्यक्तावयवशरीररूपचिताः 'बोदिचिया पोमाल' चियावयवशरीररूपतया चिताः ' कडेवरचिया पोम्गल ' त्ति-शरीररूपतया चिताः उपलक्षयत्याचास्योच्छासचिताः पुङ्गला इत्याद्यपि द्रएव्यम् अनेन चेदम- जीवानुगामिस्वभयाः पुइला भवन्ति ततश्च यत्रेय क्षेत्रे जीवास्तत्रेय पुङ्गलानां गतिः स्यासंधा 'पोग्गला चेव पप्प'त्ति-पुद्गलानेव प्राप्य श्राश्रित्य जीवानांच 'अजीवाणयति पुलानां च गतिपर्यायो गतिधर्मः 'दिग्जा'ति आख्यायते भवति-पत्र क्षेत्रे पुत्रास्तत्रैव जीवानां पुलानां गतिर्भवति, एवं चालोके नैव सन्ति जी - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) माउंटणपसारण अभिधामराजेन्द्रः। प्राउकाय वा नैव च सन्ति पुरला इति तत्र जीवपुद्गलानां गनिर्नास्ति (७) अप्कायपरिभोगकारणानि । तदभाषाच्चालोके देवो हस्ताधाकुण्टयितुं प्रसारयितुं वा न (%) अकायसमारम्भव्यावृत्तस्यैव मुनित्वम् । प्रभुः । भ० १६ श०८ उ०। (६) शाक्याऽऽदिमुनयो नियमतः श्रप्कायिकांस्तदाश्रितपाउप्रकरण-आयुष्करण-न०। श्रायुषः करणमिति । जीवि जीवांश्च विहिंसन्ति । तविपाकवेद्यस्यायुष्कर्मविशेषस्य निर्वर्तने , "श्राउअकरणं." (१०) अप्कायविहंसननिषेधः । (२०५४ गा०) 'आयुःकरणम्' इति-श्रायुषः-पञ्चमकर्मप्रक (११) अप्कायस्पर्शनिषेधः। न्यात्मकस्य करणं-निर्वर्तनम्-आयुःकरणम् । उत्त०पाई०४ (१२) शीतोदकाऽऽदिपरिसेवननिषेधः। अ०। (अत्र विस्तरः 'असंखय' शब्दे प्रथथभागे गतः।) (१) संप्रत्यप्कायिकप्रतिपादनार्थमाह-ते च द्विविधाःआउकम्म-आयुष्कर्मन्-न । पति-याति चस्यायुस्तन्निब- से किं तं आउका (का) इया, आउक्काइया दुविहा न्धनं कमायुरुकर्म । कर्मविशेषे, उत्त०१० (तद्वक्तव्यता पन्नत्ता । तं जहा-सुहुमाउकाइया य, बादर आउकाश्राउ 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) इया य । से किं तं सुहुमत्राउकाइया ?, सुहुमाउकाइया पाउकम्मे दुविहे पम्मत्ते, तं जहा-अद्भाउए चेव, अवाउए दुविहा, पनत्ता, तं जहा-पजतसुहुमाउक्काइया य, श्रचेव । (सूत्र-१०+) स्था० २ ठा० ४ उ० । (व्याख्या स्वस्वस्थाने) पज्जत्तसुहुमाउक्काइया य । सेत्तं सुहुमाउक्काइया ॥ से इदानी पञ्चविधमायुष्कर्म व्याचिण्यासुराह किं तं बादराउकाइया ?, बादराउक्काइया अणेगविहा सुरनरतिरिनरयाऊ, हडिसरिसं ॥२३॥ पएणत्ता, तं जहा-ओसा, हिमए, महिया, करए, हरतश्रायुःशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततश्च सुष्टु राजन्ते इति सुराः। णुए, सुद्धोदए, सीतोदए, उसिगोदए, खारोदये, खट्टोयद्वा-'सुरत्'ऐश्वर्यदीप्त्योः ,सुरन्ति-विशिष्टमैश्वर्यमनुभवन्ति दए, अंबिलोदए, लवणोदए, वारुणोदए, खीरोदए, दिव्याभरणकान्त्या सहजशरीरकान्त्याच दीप्यन्त इति सुराः। घोदए, खोदोदए, रसोदए, जेयावरणे, तहप्पारा । यदिवा-सुष्ठुरान्ति-ददति प्रणतानामीप्सितमर्थ लवणाधिपसुस्थित इव लवणजलधौ मार्ग जनाईनस्यति सुरा देवास्ते ते समासओ दुविहा पएणत्ता । तं जहा-पज्जतगा य, पामायुः सुरायुर्येन तेष्ववस्थितिर्भवति ।। नृणन्ति-निश्चि- अपजत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं अपित्ता। म्वन्ति वस्तुतत्वमिति नराः-मनुष्यास्तेषामायुनरायुस्तद्भ- तत्थ णं जे ते पजत्ता एतेसि णं वरणाऽऽदेसेणं गंधावावस्थितिहेतुः२। 'तिरि' ति-प्राकृतत्वात्तिरोऽश्चन्ति देसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं महस्सग्गसो विहाणाई संगच्छन्तीति तिर्यश्चः व्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत् , प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम, पते चैकेन्द्रियादयः, तततिरश्चामायुस्ति खेजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई, पञ्जत्तगणिस्साए अयगायुर्येनैतेषु स्थीयते । नरान् उपलक्षणत्वात् तिरश्चोऽपि पज्जत्तगा बक्कमंति । जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा । प्रभूतपापकारिणः कायन्तीवाऽऽयन्तीवेति नरकाः-नरका- सेत्तं बादराउक्काइया । सेत्तं आउकाइया। (सूत्र-१६) वासाः तत्रोत्पत्रा जन्तवोऽपि नरकाः, नरको वा विद्यते ये __ 'उस्सा' इत्यवश्यायः त्रेहः, 'हिम' स्त्यानोदकं, 'महिका' षां ते "अभ्रादिभ्यः” ॥ ७।२।४६ ॥ इत्यप्रत्यये नरकास्ते गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षः, करको-घनोपलः, हरतनुर्यो भुवमुषामायुनरकायुर्येन ते तेषु ध्रियन्ते । “एतच्चायुईडिसशं द्भिद्य गोधूमाकरतृणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुरुपजायते, 'शुद्धोभवति । कर्म० १ कर्म (हडिदृष्टान्तः 'आउ' शब्देऽस्मि दकम् ' अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं च, तश्च स्पर्शरसादिनवेभागे (८) अधिकाराङ्के गतः) भेदादनेकभेदं, तदेवानकभेदत्वं दर्शयति-शीतोदकं-नदीतआउक्काइय-अप्कायिक-पुं० । आपो-द्रवास्ता एव कायः डागा ऽवटवापीपुष्करिण्यादिषु शीतपरिणामम् , उष्णोदकंशरीरं यस्यति अप्काय एवाप्कायिकः स्वार्थ इकप्रत्ययः । स्वभावत एव कचिनिझरादावुष्णपरिणामं क्षारोदकम्पकेन्द्रियसंसारसमापनजीवविशेषे, प्रज्ञा०१ पद । (अत्र- ईपल्लवणस्वभावं यथा लाटदेशादी केषुचिदवटेषु, खट्टोदस्था सर्वा वक्तव्यता 'आउक्काय' शब्दादवगन्तव्या) कम्-ईषदम्लपरिणामम् , अम्लोदकं-स्वभावत एवाम्लपरिश्राउकाय-अप्काय-पुं० । श्रापः कायो यस्येति । एकेन्द्रिय- णाम काजिकवत् , लवणोदकं लवणसमुद्रे, वारुणं वारुणसंसारसमापनजीवभेदे, षद्कायभेदे च जीविनि, प्रज्ञा० समुद्रे, क्षीरोदकं क्षीरसमुद्रे, क्षादोदकं इक्षुसमुद्रे, रसोदकं पुष्करवरसमुद्रादिषु, येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः-रसस्प१ पद । स०। विषय-सूची आदिभेदभिन्ना घृतोदकादयो बादरा अकायिकाः ते सर्वे बादराकायिकतया प्रतिपत्तव्याः, ते समासो' इत्यादि (१) अप्कायिकानां द्वैविध्यम् । (२) अप्कायिकस्य शरीरादिवर्णनम् । प्राग्बत् , नवरं सङ्ख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि (३) सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रविवेकः । इत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि । उक्ना अकायिकाः । प्रशा०१ पद। (४) तीम्रोदकस्याऽचित्तत्वम् । (५) अप्कायशस्त्रनिरूपणम् । आउस्स वि दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए । (६) सचित्ताऽकायपरिभोगविचारः । नाणातीउ विहाणे , परिमाणुवभागसत्थे य ।।१०६॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राउवाय अभिधानराजेन्द्रः। प्राउकाय अप्कायस्यापि तान्येव द्वाराणि भवन्ति; यानि पृथिव्याः | तमो सरीरया पएणत्ता,तं जहा-ओरालित्ते, तेयत्ते, कप्रतिपादितानीति , नानात्वं भेदरूपं विधानपरिमापभाग-1 म्मत्ते, जहेब मुहमपुढविक्काइयाणं । नवरं थियुगसंठिया पशस्त्रविषयं द्रष्टव्यं , चशब्दालतणविषयं च, तुशब्दोऽवधा एणत्ता , सेसं तं चव जाव दुगतिया दुआगतिया परिरस्मार्थः, एतद्गतमेव नानात्वं; नाऽन्यगतमिति । तत्र विधान-प्ररूपणा , तद्गतं नानात्वं प्रदर्शयितुमाह त्ता असंखेज्जा पएणत्ता । सेत्तं सुहुमनाउकाइया । (सूत्रदुविहा य आउजीवा , सुहुमा तह वायरा य लोयम्मि। १६४)। से किं तं बायराउक्काइया ?, बायराउकासुहमा य सबलोए , पंचेव य बायरविहाणा ॥१०७॥ इया अणेगविहा पएणत्ता, तं जहा-उसा हिमे जाव जे यास्पष्ट। वने तहप्पगारा । ते समासो दुविहा पएणत्ता, तं जहातत्र पञ्च बादरविधानानि दर्शयितुमाह पजत्ता य, अपजत्ता य । तं चेव सव्यं । नवरं थियुगसठिसुद्धोदए य श्रोसा-हिमे य महिया तरतणू चेव । या , चत्तारि लेसातो, आहारो नियमा छद्दिसि , उववाबायराउविहाणा , पंचविहा वएिणया एए ।। १०८।। शुद्धोदकं बडागसमुद्रनदीहदावटादिगतमवश्यायादिरहि ओ तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहिं , ठिती-जहनेणं अंतोतमिति, अवश्यायो-रजन्यां यरहः पतति , हिमं तु-शिशि- | मुहुत्तं , उकोसेणं सत्तवाससहस्साई । सेसं तं चेवं । जहारसमये शीतपुद्रलसम्पांजलमेव कठिनीभूतमिति , गर्भमा- | बायरपुढविकाइया णं जावद्गतिया तिप्रागतिया परित्ता सादिषु सायं प्रात, धूमिकापातो माहिकेत्युच्यते , वर्षाशरत्कालयोहरिताकुरमस्तकस्थितो जलबिन्दुभूमिस्नेहसम्प असंखेजा पनत्ता समणाउसो!। सेत्तं बायराउक्काइया। कोद्भतो बरतनुशब्देनाभिधीयत ,एवमेते पञ्च बादरापकाय सेत्तं आउक्काइया । (सूत्र--१७) विधयो व्यावर्णिताः। एते बादराप्कायाः समासतो द्वेधा 'ते समासतो' इत्यादि, प्राग्बद् , नवरं संख्येयानि योनिपर्याप्तका, अपर्याप्तकाश्च । तत्रापर्याप्तका-वर्णादीनाम्, संग्रा. प्रमुखाणि शतसहस्राणीत्यत्रापि सप्त वेदितव्यामि " तेसि सपर्याप्तकास्तु-वर्णगन्धरसस्पर्शादेशैः सहस्राग्रशो भिद्यन्ते ण भंते ! जीवाणं कह सरीरगा" इत्यादि, द्वारकलापचिततश्च संख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि भवन्ति भे- न्तायामपि बादरपृथिवीकायिकगमोऽनुगन्तव्यो, नवरं संदामामित्यवगन्तव्यम् । संवृतयानयश्चैते सा च योनिः स- स्थानद्वारे-शरीरकाणि स्तिबुक संस्थामसंस्थितानि वक्तचित्ताऽचित्त-मिश्रभेदात् त्रिधा । पुनश्च शीतोष्णोभयभेदात् व्यानि । स्थितिद्वारे-जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहर्तम् , उत्कर्षतः त्रिधैव । एवं गण्यमानाः योमीनां सप्त लक्षा भवन्ति इति सप्तवर्षसहस्राणि । शर्ष तथैव । जी०१ प्रतिः। प्ररूपणानन्तरं परिमाणद्वारमाह अप्कायिकस्य जीवत्वं यथा-सांप्रतं परिमाणद्वारानन्तरं जे वायरपज्जता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते। चशब्दसूचितलक्षणद्वारमाहसेसा तिन्नि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेजा ॥१०६ ।। जह हथिस्स सरीरं, कललाऽवस्थस्स अहुणोचवनस्स । *जे बायरे' त्यादि, ये बादराप्कायपर्याप्तकास्ते संवर्तितलो- होइ उदगंडगस्स य, एसुवमा आउजीवाणं ॥११०॥ कप्रतरासंख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणाः। शेषास्तु त्रयोऽपि अथवा-पर आक्षिपति-नाप्कायो जीवः, तल्लक्षणायोगात् , विष्वक्-पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणा इति । प्रश्रवणादिवदित्यस्य हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थ दृशान्तद्वारेण विशेषश्चायम्-यादरपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यो बादराप्कायप- लक्षणमाह-'जहे' त्यादि, यथा हस्तिनः शरीरं कललाऽवर्याप्तका असंख्यगुणाः,बादरपृथिवीकायाऽपर्याप्तकेभ्यो बाद- स्थायामधुनोत्पन्नस्य द्रवं, चेतनश्च दृष्टमेवमकायोऽपीति । राप्कायिकाऽपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, सूक्ष्मपृथिवीकाया यथा चा-उदकप्रधानमण्डकमुदकाण्डकम् । अधुनोत्पन्नपर्याप्तकभ्यः सूक्ष्माप्कायाऽपर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृ- मित्यर्थः, तन्मध्यव्यवस्थितं रसमात्रमसंजातावयवमनभिथिवीकायपर्याप्तभ्यः सूक्ष्माकायपर्याप्तका विशेषाधिकाः । व्यक्लचच्यादिपविभागचंतनावद् दृष्टम् । एषा एवोपमा - श्राचा०१ श्रु०१०३ उ० । प्कायजीवानामपीति । हस्तिशरीरकललग्रहणश्च महाभौमान्तरिक्षभेदाद् द्विविधत्वम् । अप्कायद्वारमाह- कायत्वात्तदहु भवतीत्यतः सुखन प्रतिपाद्यते । अधुनोपआउकाओ दुविहो , भोमो तह अन्तलिक्खो य॥२८॥ पन्नग्रहणं सप्ताहपरिग्रहार्थ, यतः सप्ताहमेव कललं भवति, अपकाया द्विविधः-भौमः, श्रान्तरिश्च । परतस्त्वर्बुदादि । अण्डके ऽप्युदकग्रहणमेवमेव, प्रयोग श्वायम्-संचनना प्रापः शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात् , इदानी प्रत्यासत्तिन्यायादान्तरिक्षस्तावदुच्यते, तत्रान्तरिक्षमपि द्विविधम् हस्तिशरीरापादानभूतकललवत् , विशेषणोपादानात्प्रश्रव णादिव्युदासः। तथा सात्मकं तोयम, अनुपहतत्वादराडकमिहिया वासं पुण अं-तलिक्खिग्रं० ।। २8+॥ मध्यस्थितकललवदिति । तथा श्रापो जीवशरीराणि छेद्यत्याद् सोऽन्तरिक्षजो द्विविधः-महिका--धूमिकारूपोऽप्कायः भेद्यत्वादुम्क्षप्यत्वाद्भाज्यत्वाद्भोम्यत्वादशेयत्वाद्रसनीयत्वात् 'वासं' ति-वर्षारूपश्चाप्कायः । अोघ० । ( भौमाप्का स्पर्शनीयत्वात् दृश्यत्वात् द्रव्यत्वादेवं सर्वेऽपि शरीरधर्माः यिकव्याख्यानमग्रे १७५७ गाथया करिष्यते) हेतुत्वेनापन्यसनीयाः गगनवर्जभूतधर्माः स्वरूपयत्त्वाकार(२) अप्कायिकस्य शरीरादि यथा वत्त्वादयः । सर्वत्रायं दृष्टान्तः-सानाविषाणादिसंघातयदितेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीया परमत्ता?,गोयमा ! ति । ननु र रूपवत्त्वाऽऽकारवत्त्वादयो भूनधर्माः परमाणु Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) प्राउकाय अभिधानराजेन्द्रः। प्राउकाय प्वपि दृष्टा इत्यनेकान्तिकता, नैतदेवं यदत्र छद्यत्वादिहेतु-| (३) सचित्ताऽचित्तमिश्रविवेकःत्वेनोपन्यस्तं तत्सर्वमिन्द्रियव्यवहागनुगति, न तथा पर- आउकाओ तिविहो, सच्चित्तो मीसओ य अञ्चित्तो। माणयोऽतः प्रकरणादतीन्द्रियपरमाणुव्यवच्छेदः । यदि वा सच्चित्तो पुण दुविहो, निच्छय ववहारो चेव ॥१६॥ नेवासौ विपक्षः सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य द्रव्यशरीराभ्युपग अकायस्त्रिविधः, तद्यथा-सचित्तो, मिश्रः, अचित्तश्च । मात् , जीवसहितासहितत्वं तु विशेषः, उक्तश्च-" तणवा तत्र सचित्ता द्विधा-निश्चयतो , व्यवहारतश्च । णब्भातिविगार-मुत्तजाइत्तउरिणलं ता उ । सस्थासत्थह एतदेव सचित्तस्य निश्चयव्यवहाराभ्यांद्वैविध्यमुपदर्शयतियाश्रो, निजीवसजीवरूवाश्रो ॥१॥" एवं शरीरत्वे सिद्धे सति प्रमाणम् । सचेतना हिमादयः, क्वचित् अप्कायत्वा घणउदही घणवलया, करगसमुद्दद्दहाण बहुमज्झे। दिनरोदकयत् इति । तथा सचेतना आपः, क्वचित् खात- अह निच्छयसच्चित्तो. ववहारनयस्स अवडाई ॥१७॥ भूमिस्वभाविकसम्भवत्वाद्द१रवत् । अथवा-सचेतना अन्त- घनादधया-नरकपृथ्वीनामाधारभूताः कठिनतोयाः समुरिक्षाद्भवा आपः; स्वाभाविकव्योमसंभूतसंपातित्वात्मत्स्य- द्राः , घनवलयास्तासामेव नरकपृथिवीनां पार्श्ववर्तिवृत्तावत् , अत पंत पवंविधलक्षणभाक्त्वाज्जीबा भवन्त्यप्कायाः। कारतोयांः य च 'करका' घनोपलास्तथा समुद्रइदाना-लमाचा०१ श्रु०१० ३ उ०। वणादिसमुद्र पनादिइदानां बहुमध्यभागेऽकायाः 'श्रह' त्तिभौमाऽप्कायः एष सर्वोऽपि अप्कायो निश्चयसचित्तः-एकान्तसचित्तः, शभूमिक्खयसाभाविय--संभवो दद्दुरो व्व जलमुत्तं । षस्तु अवटाऽऽदिः-अवटवापतिडागादिस्थः । इह अवटादि स्थाऽवटादिशब्देन उक्नस्तात्थ्येन तापदेशप्रवृत्तेः यथा मश्चा: अहवा मच्छो व्य सभा--बवोमसंभृयपायाओ ।।१७५७।। क्रोशन्तीत्यादौ, तत्रावटः-कूपस्तदादिगतोऽप्कायो व्यवहारविश । ( अस्या गाथायाः व्याख्यानं । सचेयण ' शब्दे नयस्य व्यवहारनयमतन सचित्तः । उक्तः सचित्ताऽकायः । सप्तमे भागे करिष्यते) भौमं जलं सचित्तं, भूमिखाते स्वा सम्प्रति मिश्रमाहभाविकसंभवात् , दर्दुरवदिति प्रयोगः। यथा-दर्दुरस्य भूमिखनन स्वाभाविकः संभवो जायते, तथा जलस्यापि भू उसिणोदगमणुवत्ते , दंडे वासे य पडियमत्तम्मि । मिखाते स्वाभाविकसंभव इति । अथवा-सात्मकमन्तरिक्षो मोत्तूणाऽऽदेसतिगं, चाउलउदगं बहुपसन्नं ॥ १८ ॥ दकं, स्वभावतो व्योमसंभूतस्य पातान्मत्स्यवत् , यथा म- अनुत्ते दण्ड, अत्र च जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थः-अनुत्स्यस्य स्वभावेन व्योनि संभूतस्य पातो दृश्यते तथा:- दृत्तषु त्रिषु दण्डषु उत्कालेषु यदुष्णोदकं तन्मिश्रमिति प्रस्तान्तरिक्षजलस्यापि, इति सिद्धं जीवत्वं जलस्य । ध० ३ वादवगम्यते, तथा हि-प्रथमे दण्ड जायमान कश्चित्परिणमति अधि० ३८ श्लोक । सूत्र। कश्चिन्नेति मिश्रः, द्वितीये प्रभूतः परिणमति स्तोकोऽवतिष्ठआउक्काइया, (दश०) आऊ चित्तमंतमक्खाया अणे ते , तृतीये तु सर्वोऽप्यचित्तो भवति। ततोऽनुत्तेष त्रिषु दण्डषु उष्णोदकं मिश्रमव सम्भवति । तथा वर्षे-वृष्ठौ पतितगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । (सूत्र-१+) मात्रं यज्जलं ग्रामनगरादिषु प्रभूततिर्यग्मनुष्यप्रचारसंभविदश०४ अ०। षु भूमौ वर्तते तद्यावन्नाद्याप्यचित्तीभवति तावन्मिश्रमवकललंऽडरसादीया, जह जीवा तहेव आउ जीवाऽवि गन्तव्यम् । ग्रामनगरादिभ्योऽपि बहिस्ताद्यदि स्तोकं मेघ।। ७५+॥ जलं निपतति तदानीं तदपि पतितमात्र मिश्रमवसेयम् । पृयथा कललं गर्भप्रथमाऽवस्थारूपम् अण्डरसः इत्येवमादयो थिवीकायसम्पर्कतस्तस्य परिणममानत्वात् यदाप्यतिप्रभूनं जीवा अपि प्रतिपत्तव्याः, प्रयोगः प्रकायिका जीवा अनु जल मेघो वर्षति तदाऽपि प्रथमतो निपतत् पृथिवीकायसंपर्कपहतत्वे सति द्रवत्वात् कललाण्डरसादिवद् । व्य०१० उ०। तः परिणममानं मिश्रं, शेषं तु पश्वान्निपतत्सचित्तमिति, त. था-मुक्त्वा -परिहत्य आदेशत्रिक-मतत्रिकं तदुक्का मिश्रतान इहं च खलु भो अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया ग्राह्यति भावार्थः । चाउलोदकम्-तण्डुलोदकम् अबहुप्रसन्न (सूत्र-२४)। नातिवस्थीमूतं मिश्रमिति गाथार्थः । अबहुप्रसन्नमित्यत्राउदकरूपा जीवाः । श्राचा०१ श्रु०११०३ उ०। दावकारलोप आर्षत्वात् । (आदेशत्रिकम् 'चाउलादग' उदकाश्रिताश्च जीवाः सन्ति । तथा चाह शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते ।) संति पाणा उदगणिस्सिया जीवा अणेगे (सूत्र-२३+) अचित्तमिथाऽप्कायमाह'सति पाणा' इत्यादि, पूर्ववत् , कियन्तः पुनस्त इति द सीउएहखारखत्ते, अग्गीलोरणूसअंबिले नेहे। शयति-'जीवा अणेगे' पुनर्जीवापादानमुदकाश्रितप्रभूतजी- बुक्कंतजोणिएणं, पोयणं तेणिमं हाइ ।। २२ ॥ वभेदज्ञापनार्थ, ततश्चदमुक्तं भवति-एकैकस्मिन् जीवभेद उद. इयं गाथा प्रागिध व्याख्येया। नवरं पृथिवीकायस्थाने श्रकाश्रिता अनेके-असंख्ययाः प्राणिनो भवन्ति । श्राचा०१ कायाभिलापः कर्तव्यः । इह या स्वकायपरकायशस्त्रयोजना श्रु०१ अ०३ उ० । यद्येवम्-उदकमेव जीवास्ततोऽवश्यं तत्प द्रव्यक्षेत्रकालभावापक्षया वा अचित्तत्वभावना साऽपि प्रारिभोगे सति प्राणातिपातभाजः साधव इति, अत्रोच्यते-नैव गिव यथा योगमकायेऽपि भावनीया । तथा-यदा दधितैतदयं यतो वयं त्रिविधमष्कायमाचदनहे-सचित्तं, मिश्रम् , लादिसत्केषु घटेषु क्षिप्तस्य शुद्धजलादेरुपरि दध्याद्यवयवप्रचित्तं च । प्राचा०१U०१०३१०। सत्का तरी जायते तदा सा यदि परिस्थूरा तर्हि एकया Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) भाउक्काय अभिधानराजेन्द्रः। प्राउकाय पौरुष्या तत्परिणमति । मध्यमभावा चेत्तर्हि द्वाभ्यां पौ- ची' त्यादि, किञ्चित् स्वकायशा नादयं तडागस्य । किरुषीभ्यां, स्तोका चत्तर्हि तिसृभिः पौरुषीभिरिति । श्चित्परकायशस्त्रं मृत्तिकास्नेहकरादि । किंचिचोभयम्-उदइह तावद् व्युत्क्रान्तयोनिकनाकायनेदं प्रयोजनमित्युक्तम् , | कमिश्रा मृत्तिकादकस्य । प्राचा० १ श्रु०१ अ० ३ उ० । मनस्तदेव दर्शयति सत्थं चेत्थं अणुवीइपासा पुढो सत्थं पवेइयं । (सूत्र-२५) परिसेयपियणहत्था-इधोवणं चीरधोयणं चेव । शस्यन्ते-हिंस्यन्ते अनेन प्राणिन इति शस्त्रं तव्योत्सेचनगाआयमणभाणधुवणं, एमाइपोयणं बहुहा ॥ २३ ॥ लनोपकरणधावनादि स्वकायादि च वर्माद्यापत्तयो वा पूर्वीपरिषको-दुष्टवणादेरुत्थितस्योपरि पानीयेन सेचनम् । वस्थाविलक्षणाः शस्त्रम् । तथा हि-अग्निपुद्गलानुगतत्वादीपानम्-तृउपनादाय जलस्याभ्यवहरणम् । हस्तादिधावनं- | षत्पिङ्गलं जलं भवत्युष्णं गन्धतोऽपि धूमगन्धि रसतो चिरकरचरणप्रभृतिशरीरावयवानां कारणमुद्दिश्य प्रक्षालनम् , सं , स्पर्शत उष्णम् । तच्चोद्भतत्रिदण्डमेवंविधावस्थं यदिचीवरधावन-वस्त्रप्रक्षालनम् । अस्य भिन्नविभक्निनिर्देशो न | ततः कल्पते , नान्यथा । तथा कचवरकरीषगोमूत्रापादीन्ध. सदैव साधुनोपधिप्रक्षालनं कर्तव्यमिति प्रदर्शनार्थः । श्रा- नसम्बन्धात् स्तोकं स्तोकमध्यबहुभेदात् , स्तोकं स्तोचमनम्-पुरीपोत्सर्गानन्तरं शौचकरणम् , 'भाणधुवणं' ति- कं प्रक्षिपतीत्यादिचतुर्भङ्गिकाभावना कार्या । एवमेतत्त्रिपात्रकाविभाजनप्रक्षालनम् । एवमादिकमादिशब्दात्-ग्लान- विध शस्त्रं चशब्दोऽवधारणार्थः । अन्यतमशस्त्रसम्पर्कविकार्यादिपरिग्रहः । श्रचित्तेनाप्कायन प्रयोजनं बहुधा-बहु- ध्वस्तमेव प्राद्य, नान्यथेति । 'एत्थं' ति-एतस्मिन्नकाय प्रकारं द्रष्टव्यम् । पिं० । ओघ० । ध०। प्रस्तुते अनुविचिन्त्य-विचार्य-इदमस्य शस्त्रमित्येवं ग्राह्य(४) तीवोदकस्याचित्तत्वम् म् । पश्येत्यनेन शिष्यस्य चोदनेति । तदेवं नानाविधं " तिव्वोदगस्स गहणं, कह भायणेसु असुइपडिसेहो। शस्त्रमकायस्यास्तीति प्रतिपादितम् , एतदेव दर्शयतिगिहिभायखसु गहणं, ठिअवासे मीसग छारो॥१॥" 'पुढो सत्थं पवेदितं' पृथग्विभिन्नमुत्सेचनादिकं शस्त्रं प्रवेदि. (अस्या गाथाया व्याख्या' अचित्त ' शब्दे प्रथमभागे तम्-श्राख्यातं भगवता, पाठान्तरं वा-'पुढोऽपासं पवेदितं' गता) ध०२०। तत्र योऽचित्तोऽकायस्तनोपयोगविधिः एवं पृथग्विभिन्नं लक्षणेन शस्त्रेण परिणामितमुदकग्रहणमपाशं साधूनां, नेतराभ्यां, कथं पुनरसौ भवत्यचित्तः, किं स्वभा- संपवेदितम्-पाख्यातं भगवता, अपाश:-श्रबन्धनं शस्त्रवाद, आहोस्विच्छस्त्रसम्बन्धात् , उभयथापीति । तत्र यः परिणामितोदकग्रहणमबन्धनमाण्यातमिति यावदेवं तास्वभावादेवाचित्तीभवति न बाह्यशस्त्रसम्बन्धात्तमचित्तं जा- वत्साधूनां सचित्तमिश्रापकायपरित्यागेनाचित्तपयसा परिनाना अपि कवलमनःपर्यायावधिश्रुतज्ञानिनो न परिभुञ्जते भोगः प्रतिपादितः । श्राचा० १ श्रु०१०३ उ० । अनवस्थाप्रसङ्गभीरुतया । यतोऽनुश्रूयते भगवता किल श्री (६) सचित्ताप्कायपरिभोगविचारः। वर्द्धमानस्वामिना विमलसलिलसमुल्लसत्तरङ्गः शैवलपटल इच्छिज्जइ जत्थ सया, बीयपएणाऽवि फासुयं उदयं । प्रसादिरहितो महाहदो व्यपगताशेषजलजन्तुकोऽचित्तवा आगमविहिणा निउणं, गोयम गच्छं तयं भणियं ॥७८।। रिपूर्णः स्वशिष्याणां तृड्बाधितानामपि पानाय नानुजने । तथा अचित्ततिलशकटस्थण्डिलपरिभोगानुशा चाऽनवस्था इष्यते-वाञ्छयते यत्र गण सदा-नित्यम् उत्सर्गपदापक्षया दोषसंरक्षणाय भगवता न कृतेति श्रुतज्ञानप्रामाण्यशाप द्वितीयपदम-अपवादपदं तेनापि किं पुनरुत्सर्गपदेनेत्यपि नार्थश्च । तथाहि-सामान्यर्थतनानी बाह्यन्धमसम्पर्कादु शब्दार्थः । प्रगता असवः-प्राणा यस्मात्तत्प्रासुकं, किम् ? षितस्वरूपमेवाचित्तमिति व्यवहरति, जलं, न पुनर्निरि- उदकं-जलं तश्च उत्कालत्रयोत्कलनादिप्रकारेण प्रासुकीन्धनमेवेति । अतो यद्-बाह्यशनसम्पर्कात्परिणामान्तरापन्नं स्यात् । न तु तनमात्रम् । यत उक्तं दशवैकालिकवर्णादिभिस्तदचित्तं साधुपरिभोगाय कल्पते । प्राचा०१ श्रु० "गिहिणो वेयावडियं , जायाजीववत्तिया ! १०३ उ० २४ सूत्रटी । तत्तानिवुडभोइत्तं , आउरस्सरणाणि य ॥१॥" (५) किम्पुनस्तच्छस्त्रमित्यत श्राह तप्तानिवृतभोजित्वं-तप्तं च तदनिवृतं चात्रिदण्डोद्धृतं च । उस्सिचणगालणधो-यणे य उवकरणकोसभंडे य ।। 'उदकमि' ति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते , तदो जित्वं, मिथसचित्तोदकभोजित्वमित्यर्थः। आगमविधिनाबायर आउक्काए, एवं तु समासो सत्थं ।। ११३ ॥ सिद्धान्तोक्नप्रकारेण निपुण यथा स्यात्तथा हे गौतम! स. किंची सकायसत्थं , किंची परकायतदुभयं किंची। गच्छो भणितः । ग० २ अधि० । एयं तु दव्वसत्थं , भावे य असंजमो सत्यं ।।११४ ॥ सचित्तस्य तु विन्दुमात्रस्यापि परिभोगो न कल्पतेउस्सिचणे' त्यादि, शस्त्रं द्रव्यभावभेदात् द्विधा । द्रव्यश जत्थ य बाहिरपाणि, विंदमित्तं पि गिम्हमाईस। स्त्रमपि समास-विभागभेदात् द्विधैव । तत्र समासतो द्रव्य तिएहासोसियपाणा, मरणे वि मुनी न गिएहति ॥७७।। शस्त्रमिदमूर्यसेचनम् उत्सेचनं-कूपादेः कोशादिनाक्षपण- हे गीतम! यत्र-गच्छ बाह्यपानीयबिन्दुमात्रमपि-समित्यर्थः । गालन-घनमसृण्वस्त्रान्तेिन । धावनं-वस्त्रायुप- चित्तजललेशमात्रमपि ग्रीष्मादिषु कालेषु तृष्णया-द्विती. करणचर्मकोशघटादिभाण्डकविषयम् , एवमादिकं यादरा- यपरीषहेण शापिता-ग्लानिं प्रापिताः प्राणा-इन्द्रियादयोकाय । एतत्पूर्वोक्तं समासतः-सामान्येन शस्त्रम् , तुशब्दो | येषां ते तृष्णाशोषितप्राणाः मरणान्तेऽपि मुनयः-साधवो विभागापेक्षया विशेपणार्थः॥११॥ विभागतस्विदम्-'किं न गृहन्ति तुल्लकवत् । तथाहि-"उज्जणी नयरी । तत्थ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) भाउकाय अभिधानराजेन्द्रः। भाउकाय धणमित्तो नाम वाणियो। तस्स पुनो धणसम्मा ना- | पादयन्ति , किमर्थमित्याह-सात-सुखं तदात्मानोऽन्वेषयम । सो धणमित्तो पुत्तेण सह पवाओ। अमया य ते न्तः-प्रार्थयन्तः हिताहितविचारशून्यमनसः कतिपयदिवससाह विहरंता मझरहसमये एलगच्छ (स्थ) पुरपहे पडिया। स्थायिरम्ययोबनदध्मातचेतसः सन्तः सद्विवेकरहितासो वि खुनी तिसाए अभिभूओ सणिअं सरिणअं स्तथा विवेकिजनसंसर्गविकलाः परस्य- अबांदर्जन्तुगपह, सोऽयि से खतो सिणेहाणुरागण पच्छा उ एड । णस्य दुःस्त्रम्-सातलक्षणं तत् उदीरयन्ति: सातवेदनीयमसाहुणो वि पुरी वक्रांति । अतंरा य नई समावडिया त्पादयन्तीत्यर्थः। प्राचा० १७०१०३ उ०। खंतपण भणिय-एहि पुस्ता ! पियसु पाणियं नित्थर (८) अकायसमारम्भव्यावृत्तस्यैव मुनित्वम्सु पावई, पच्छा पालाइजासि , सो न इच्छति । खेतो से बेमि जहा अणगारे उज्जुकडे नियागपडिबएणे नई उत्तिन्नो , चिंतेह-श्रो सरामि मणागं जायेस खुड़गो पाणिय पिया । मा ममासंकाए न पाही। एगते पङि अमायं कुबमाणे विणाहिए। (सूत्र-१८) च्छा जाब खुडो पत्तो नई दहव्ययाए सत्तसारयाए ण स यथा पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्त्युत्तरकालं सम्पूर्णा:पीयं । अंग भणति-प्राइवाहियो हंत पियामि पाणियं प नगारव्यपंदशभाग् भवति तदहं ब्रवीमि । अपिः समुपये, च्छा गुरुमूले पायच्छितं पडियन्जिस्सामि ति उक्खि सो स यथा चानगारो न भवति तथा च ब्रवीमि 'अणगाराजलंजली । अह से चिंता जाया । कहमेए हलहलए मो सि एगे पयवमाणे ' त्यादि, नति, न विद्यते अगारंजीवे पियाणि , जो गृहमेषामित्यनगारा इह च ययादिशब्दव्युवासेनानगार शब्दोपादाननतदाचष्टे-गृहपरित्यागः प्रधानं मुनित्वकारणं, "एकम्मि उदगविंदुम्मि , जे जीवा जिणवरेहि पसत्ता। ते पारेषयमिता , जंबुद्दीवे न माएज्जा ॥१॥ तदाश्रयत्वासावद्यानुष्ठानस्थ, निरवद्यानुष्ठायी च मुनि रिति दर्शयति-'उज्जुकर्ड' त्ति-ऋजुः-अकुटिलः संयमो-तुजन्य जलं तत्थ सणं, जत्थ वर्ण तत्थ निच्छी तऊ। प्रणिहितमनोवाकायनिरोधः सर्वसत्त्वसंरक्षणप्रवृत्तवाहतेऊबाउसहगो, तसा य पच्चक्खया चेव ॥२॥ यैकरूपः-सर्वत्राकुटिलगतिरिति यावत् । यदि वा-मोक्षस्थाता इंतूण परपा-ण य अप्पाणं जो करइ सप्पाणं । नगमन श्रेणिप्रतिपत्तिः सर्घसंचारसंयमात् । कारणे काअप्पाणं दिवसाण, करण नासेड अप्पाणं" ॥३॥ योपचारं कृत्या संयम एव सप्तदशप्रकार ऋजुस्तं करोतीति (ग) एवं भावतेण अइसंविग्गेण न पीयं उत्तिन्नो नई ऋजुकृत् ; ऋजुकारीत्यर्थः । श्रनन चेदमुक्तं भवति-अशषश्रासार छिनाए नमोकारं झायतो सुहपरिणामो काल- संयमानुष्ठायी सम्पूर्णानगार एवंविधचेहरभवतीति दर्शगो दवेसु उययो । अहिपउत्तो .जाव खुडगसरीरं यति-नियागपडियने 'त्ति-यजनं यागः नियतो निश्चितो पासह हिमणुपविट्ठा खतमणुगच्छद खंती चि पइत्ति प- वा यागा नियागो मोक्षमार्गः, साताऽर्थत्वाद्धातोः सभ्यस्थिी । पच्छा देवेण अणुकंपाए साहूणं गोकुलाणि बि ग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं सातमिति । तं नियाग सउब्धियाणि । साह वि तासु वहगासु तकाईणि गिराईति म्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकं मोक्षमार्गप्रतिपनो नियागप्रतिवया परंपरपण जरणवयं पत्ता । पच्छिमाए वड्याए देवेण पन्नः। पाठान्तरं बा-" निकायप्रतिपत्रो " निर्गतः काय विटिया पम्हुसाविया जाणावणनिमित्तं, एगो य साहू नि- औदारिकादिर्यस्माद्यस्मिन्वा सति स निकायो मोक्षः तं यत्तो तयवस्थं पेच्छह विटियं नऽस्थिवड्या, आगंतूण समा- प्रतिपन्नो निकायप्रतिपन्नस्तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनादेः स्वहियं तेण, पच्छा नाय तेहिं सा दिव्यं ति । इत्थंतर देघेण शक्त्यानुष्ठानात् स्वशक्त्यानुष्ठानं वा मायायिनो भवतीति साहु वंदिया, तो न वंदिओ। तेहिं पुच्छिो किमेयं न बंद दर्शयति-'अमायं कुब्बमाण' त्ति-माया-सर्वत्र स्ववीर्यसि। तो सब्बं परिकहेर नियबाइबरं, भणइ य-अहं एएण निगूहनम् , न माया अमाया तां कुर्वाणोऽनिगृहितबलबीर्यः परिचसो बयलोवेण दोग्गइभायणं को आसि तुममेयं संयमानुष्ठान पराक्रममाणोऽनगारो व्याल्यात इति, अनेन पियाहिं जंपतेण जहतं पाणियं पियंतो तो संसारं भमं- तज्जातीयोपादानादशेषकायापगमोऽपि द्रष्टव्य इति । तो , देयो पडिगउ" ति। हे गौतम ! स गच्छो झय | उक्तंञ्च-"सोही य उज्जुपभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठ"त्ति। इति शेषः । गाथाछन्दः । ग०२ अधि०। तंदवमसावुद्धृतसकलमायावल्ली(७) अप्कायपरिभोगकारणानि यथा वियतानः कि कुर्यादित्याहएहाणे पियणे तह धो-यणे य भत्तकरण य सेए य । जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिजा विजहित्तु पाउस्स उ परिभोगी, गमणागमणे य जीवाणं ॥११॥ विसोत्तियं (पाठान्तरे)-पुव्वसंजोयं । ( सूत्र-१६) मान-पान-धावन-भक्त-करणसेकयानपात्रोडुपगमनाग- 'जाए सद्धाए' इत्यादि. यया श्रद्धया प्रवर्द्धमानानुष्ठानमनादिरुपभोगः। एतत्परिभोगाभिलाषिणो जीवा एतानि | करणरूपया निष्कान्तः प्रव्रज्यां गृहीतवाँस्तामेव श्रखामश्राकारणान्युद्दिश्या एकायवधे प्रवर्तन्त इति दर्शयति न्तो यावज्जीवमनुपालयेद् रक्षदित्यर्थः । प्रव्रज्याकाले च एएहि कारणेहिं , हिंसंति उकाइए जीवे । प्रायशः प्रवृद्धपरिणाम एव प्रव्रजति, पश्चाशु संयमधणी प्रपन्ना वर्द्धमानपरिणामा वा हीयमानपरिणामो वा अवसायं गयेसमाणा , परस्स दुक्खं उदीरेंति ॥ ११२॥ स्थितपरिणामो बेति, तत्र वृद्धिकालो हानिकालो वा सएभिः-स्नानागाहनादिकैः कारणैरुपस्थितर्विषयविषमो- मयाद्युत्कर्षेणान्त हर्तिकः, नाऽतः परं संक्लेशविशुद्धयछे हितात्मानो निष्करुणा अप्कायिकान् जीवान् हिंसन्ति-व्या- भवतः । उक्तं च "नान्तर्मुहकाल-मतिवृत्य शक्यं हि जग Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाउ काय " 3 ति संम्। नापि विशेोनुं शकर्ष, प्रत्यको ह्यात्मनः सोऽर्थः ॥ १ ॥ उपयोगद्वयपरिवृत्तिः, सा निर्हेतुकस्वभावत्वात् । श्रात्मप्रत्यक्षो हि स्व-भावो व्यर्थात्र हेतूक्तिः ॥ २ ॥ अवस्थितिकालध द्वयाईदिद्दानिलयोर्यचमध्ययज्ञमध्ययोरष्टौ समया; तत ऊर्ध्वमवश्यं पातात् । अयं च वृद्धिहान्यवस्थितरूपपरिणामः केवलिनां निश्चयेन गम्यो, न छद्मथानामिति । यद्यपि च-प्रस्थाभिगमोत्तरफाले सागरमवगाहमानः संवेगवैराग्यभावनाभाषितान्तरात्मा कश्चित् प्रवर्द्धमानमेव परिणामं भजते । तथा चोक्तम्- “ जद्द जह सुयमवगाहा, अमरसरसंयम तह तह पल्हाइ मुखी, नवनवसंवेगसंघाते ॥ १ ॥ " तथापि स्तोक एव तारक परिपतन्त्यतोऽभिधीयते तामेवानुपालयेदिति । कथं पुनः कृत्वा श्रद्धामनुपालयेदित्यत श्राह - 'पिजडे त्यादि, विहाय परित्यज्य विस्रोतसिक-शङ्काम् । साद्विधा सर्वशङ्का, देशशङ्का च तत्र सर्वशङ्का किमस्त्याईतो मार्गो न वेति, देशशङ्का तु किं विद्यन्तेऽकायादयो जीवा विशेष्यप्रचचंमऽभिहितत्वात् स्पष्टचेतनात्मलिभाषाच विद्यन्ते इति वा इत्येवमादिकामारेकां विहाय संपूर्णाननगारगुणान् पालयेत् । यदि वा विस्रोतांसि द्रभावभेदाद् द्विधा तत्र द्रव्यविश्रांतांसि नद्यादिस्रोतसां प्रतीतापगमनानि भावविश्रांतांसि तु मोक्षं प्रति सम्यम्दर्शनादिस्त्रोतसा प्रस्थितानां विरूपाणि प्रतिकूलानि गममानि भाषांसि तानि विहाय संपूर्णानगारगुरुभाभवति श्रद्धां वा अनुपालयेदिति पाठान्तरं वा-" बिज हिला पुण्यसंयोगं "पूर्वसंयोगः- मातापित्रादिरस्य चोपलचणार्थत्वात्पश्चात्संयोगोऽपि श्वशुरादिकृतो ग्राह्यस्तं विहायस्वत्वा श्रद्धामनुपालयेदिति मीलनीयम् । तत्र वस्थायमुपदेशो दीयते यथा विहाय विस्रोतांसि तदनु श्रद्धानु पालन कार्य स एवाभिधीयते न केवलं भवानेवापूर्व मिदमनुष्ठानमेवंविधं करिष्यति, किं त्वम्यैरपि महासत्त्वैः कृतपूर्वमिति दर्शयितुमाह या वीरा महावीहिं (सूत्र -२० ) प्रणताः - प्रद्धाः वीराः - परिषहोपसर्गकषाय सेनाविजयात् पीथिकाः मदांधासी बीधिध-महावीचिः सम्यग्दर्श नादिरूपो मोक्षमार्गों जिनेन्द्रचन्द्रादिभिः सत्पुरुषः स्तं प्रति प्रह्ला वीर्यवन्तः संयमानुष्ठानं कुर्वन्ति, ततश्चोत्तमपुरुषप्रतोऽयं मार्ग इति प्रदश्यं तखवित मार्गविधम्भो विनयः संयमानुष्ठाने । ( २३ ) अभिधानराजेन्द्रः । उपदेशान्तरमाद- ''त्यादि अथ वा-यद्यपि भवतो मति कर्मचायजीयविषये ऽसंस्कृतत्वात् तथापि मभगवदाशेयमिति श्रद्धातव्यमित्याह , लोगं च आणाए अभिसमेचा अभयं । (सूत्र - - २१) अत्राधिकृतत्वादप्कायलोको लोकशब्देनाभिधीयते तमकावतां चशब्दादम्यांश्व पदार्थान् वामीनीन्द्रवचननाभिमुख्येन सम्यग् ज्ञात्वा यथा कायादयो जीवा, इत्येवमवगम्य न विद्यते कुतश्चिद्धेतोः - केनापि प्रकारण जन्तूनां भयं यस्मात्सोऽयमकुतोभयः - संयमस्तमनुपालयेदिति सम्बन्धः यद्वा-अकुतोभयकालको ८ आउ काय यतोऽसौ न कुतश्विद् भयमिति मरणमत्त माझ्याऽभिसमयानुपालयेत् रचेदित्यर्थः । अकायलोकमाज्ञयाऽभिसमेत्य यत्कर्तव्यं तदाह से वेमि व सयं लोगं अभइक्खिजा, खेव प्रत्ताणं अभाक्खिा, जे लोयं अम्माइल से अत्ता अ भाइक्खड़ से लोग अभाइक्खइ । (सूत्र - २२ ) 'सेयेगी त्यादि सो प्रवीमि से शब्दस्य पुष्मदर्थ त्वाद् त्वां वा ब्रवीमि न स्वयम् श्रात्मना लोकोऽ- कायलोकोऽभ्याख्यातव्यः । श्रभ्याख्यानं नामासदभियोगः, यथा चौरं चौरमित्याह । इह तु जीवा न भवन्त्यापः केबलमुपकरणमात्रं घृततैलादिवत् । एषोऽसदभियोगः हस्त्यादीनामपि जीवानामुपकरणत्वात् स्यादारेका, नन्वेतदेवाभ्याख्यानं यदजीवानां जीवत्वापादनं नैतदस्ति, प्र साधितम प्राफ संवेगनत्वम् । यथा ह्यस्य शरीरस्याप्रत्वयादिभिर्हेतुभिरधिष्ठातात्मा व्यतिरिक्त भाऊसा धित एवमकायोऽप्यव्यक्तवेतनया सचेतन इति प्राक् प्रसाधितः । न च प्रसाधितस्याभ्याख्यानं न्याय्यम्, अथापि स्यादात्मनोऽपि शरीराधिष्ठातुरभ्याख्यानं कर्त्तव्यम्, न च तत्क्रियमाणं घटामियतीति दर्शयति-' नेव श्रत्तां श्रभावखेजा ' नैवाऽऽत्मानं शरीराधिष्ठातारमप्रत्यसिद्धं ज्ञानामिगुणं प्रत्यक्षं प्रत्याचक्षीतीन चैतदेव कथमवसीयत शरीराधिष्ठातात्मास्तीति उच्यतेविस्मरणशीलो देवानांप्रिय उक्तमपि भाणयति । तथा ह्याहतमिदं शरीरं केनचिदभिसंधिमता, कफरुधिराङ्गोपाङ्गादिपतिरादिययोत्मपि केनचिदम् 9 हत्या अमलपदिति । तथा नशालधिपूर्व का परिन् अतिरूपः परिस्यत्वास्वदीययय परिस्थयत् । तथा विद्यमानाथि व्यापारभासीद्रियाणि करत्यात्वं कुतमार्गानुसारिनुमा स्याद्वादशुमा कार्य एवंविधपमगमात्मा नं शुभाशुभफलभाजं न प्रत्यचक्षीत । एवं च सति यो ह्यशः कुतर्कतिमद्यपानचचुराय लोकमान्यातिप्रथाचष्टे स सर्वप्रमासिद्धमात्मानमभ्याख्याति यश्वात्मानमभ्याख्याति नास्म्यहं स सामर्थ्यादष्काय लोकमभ्याख्याति । यतो ह्यात्मनि पानाद्यवयवोपेतशरीराधिष्ठायिनि प्रस्पलिङ्गेऽपायांत सत्यचेतना लिङ्ग उप्काय लोक स्तन सुतरामभ्याख्यातः । एवमनेकदोषोपपत्तिं विदित्वा नायमष्कायलोकोऽभ्याख्यातव्यः इत्यालोच्य साधवो कार्याविषयमारम्भं कुर्वन्तीति । 4 3 (६) शाक्यादयस्त्वन्यथोपस्थिता इति दर्शयितुमाहलज्जमाणा पुढोपासणारा मोति एके पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारभमाणे असेगरूत्रे पाखे विहिंसा, तरथ खलु भगबता परिएगा पवेदिता इमस्स चेव जीवियस्स परिनंदणमाणगपूषखाए आईमरणमोयणाए दुक्खपडियायहे से सयमेव उदयसत्थं समारंभति अहिं वा उदयसत्यं समा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाउक्काय अभिधानराजेन्द्रः। भाउकाय रंभावेति अमे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति तं से - पुरुषास्ते तनिश्रितप्रभूतसत्यव्यापत्तिकारिणो द्रष्टव्याः । हियाए तं से अबोहीए । से तं संबुज्झमाणे प्रायाणीयं शाक्यादयस्तूदकाश्रितानव द्वीन्द्रियादीन् जीवानिच्छन्ति नादकम् * इत्येतदेव दर्शयति-खलु शब्दाविधारणे, इहैवसमुट्ठाए सोचा भगवो अणगाराणं अंतिए इहमेगेसि | सातपुत्रीयप्रवचने द्वादशाके गणिपिटक अनगाराणां साधूनाणाणं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे मुदकरूपा जीवाश्चशब्दात्तदाश्रिताश्च पूतरकच्छेदनकलाएस खलु णरए , इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहि इणकभ्रमरकमत्स्यादया जीवा व्याख्याताः, अवधारणफलं सत्येहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे च नान्येषामुदकरूपा जीवाः प्रति पादिताः । प्राचा० १ अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । श्रु० १ ० ३ उ०। * जीवाः इति । 'लज्जमाणे' त्यादि, लज्जमानाः-स्वकीय प्रव्रज्याभासं कु. ये पुनः शाक्यादयोऽष्कायोपभोगप्रवृत्तास्ते नियमत एवायार्णाः, यदि वा-सावद्यानुष्ठानेन लजमानाः-लजां कुर्वाणाः प्कायं विहिंसन्ति तदाश्रितांश्चान्यानिति । तत्र न कवलं प्राणातिपातापत्तिरेव तेषां किमन्यदित्यत पाहपृथम्बिभक्काः शाक्यालूककणभुक्तपिलादिशिष्याः । पश्येति शिष्यचांदना , अविवक्षितकर्मका अपि अकर्म- __ अदुवा अदिनादाणं । (सूत्र-२६) का भवन्ति, यथा-'पश्य मृगो धावति' द्वितीयार्थे वा प्र. अथवति-पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाभ्युच्चयोपदर्शनार्थः, श्रथमा , सुप् व्यत्ययेन द्रष्टव्या। ततश्चायमर्थः-शाक्यादीन् शस्त्रोपद्दताप्कायोपभोगकारिणां न केवलं प्राणातिपातोऽपि गृहीतप्रवज्यानपि सावद्यानुष्ठानरतान् पृथग्विभिन्नान् पश्य, किंतु-अदत्तादानमपि तत्तेषाम् । यता यैरकायजन्तुभिर्यानि किंस्तैरसदाचरितं येनैवं प्रदर्शयन्त इति दर्शयति-"अन- शरीराणि निर्वर्तितानि तैरदत्तानि, ते तान्युपभुअन्ते, यथा गारा वयम्" इत्येके शाक्यादयः प्रवदन्तो यदिदं तदे- कश्चित् पुमान् सचित्तशाक्यभिचुकशरीरकात् खण्डमुत्कृत्य तत्काका दर्शयनि-विरूपरूपैरुत्सेचनाग्निविध्यापनादिशस्त्रैः गृह्णीयाददत्तं हि तस्य तत्परपरिगृहीतत्वात् । परकीयगस्वकायपरकायभेदभित्रैरुदककर्म समारभन्ते । उदककर्म वाद्यादानवत् । एवं तानि शरीराण्यजीवपरिगृहीतानि गृसमारम्भेण च उदके शखम् उदकमेव वा शस्त्रं समारभन्ते । । हतोऽदत्तादानमवश्यम्भावि । स्वाम्यनुस्वाभ्यनुबानाभावातच समारभमाणोऽनेकरूपान्बनस्पतिद्वन्द्रियादीन्विविध दिति ननु यस्य तत्तडागकृपादि तेनानुज्ञातं स्वरुत्तत्पय हिनस्ति । तत्र खलु भगवता परिशा प्रवेदिता, ययाऽस्यैव हात । ततश्च नाऽदत्तादानं, स्वामिनाऽनुशातत्वात् परानुजीवितव्यम्य परिचन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ सानपश्वादिधातवत् । नन्वेतदपि साध्यावस्थामेवोपन्यस्तं, दुःखप्रतिघातहेतुं यत् करोति-तद्दर्शयति-स स्वयमेवोदकश- यतः पशुरपि शरीरप्रदानविमुख एव भिन्नार्यमर्यादैरुरारस्रं समारभते, अन्यैश्चादकशस्त्रं समारम्भयति, अन्यांश्चाद- | चन विशस्यते,ततश्च कथमिव ना दत्तादानं स्यात्। न चान्यकशस्त्रं समारभमारमान् समनुजानीत । तचोदकसमारम्भणं दीयस्यान्यः स्वामी राष्टः परमार्थचिन्तायाम्। नन्वेवमशेषतस्याऽहिताय भवति । तथा तदेवाबाधिलाभाय भवति । स लोकप्रसिद्धगोदानादिव्यवहारस्त्रुट्यति, त्रुट्यतु नामैवंविधः एतत्सम्बुध्यमान आदानीयं सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय- पापसम्बन्धः तद्धि देयम् यद्धि दुःखितं स्वयं न भवति । अभ्युपगम्य-श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां धान्तिके इहैकेषां | दासीबलीवादिवत् । न चान्येषां दुःस्त्रोत्पत्तेः कारण साधूनां हातं भवति तदर्शयति-एषो-कायसमारम्मो | हलखादिवत् । एतद्व्यतिरिक्तं दातृपरिगृहीत्रोरेकान्तत ग्रन्थः-एष खलु मोहः, एप खलु मारः, एष खलु नरक इस्य- एवोपकारकं देयं प्रतिजानते जिनेन्द्रमतावलम्बिनः । बमर्थ गृद्धी लोको यदिदं विरूपरूपैः शरैः उदककर्म- उक्तञ्च-" यत् स्वयमदुःखितं स्या-त्रच परदुःख निमित्तभूसमारम्भेणोदकशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्रा- तमपि। केवलमुपग्रहकरं, धर्मकृत तद्भवयम्" ॥१॥ इति । णिनी विविध हिनस्तीत्येतत्वाग्वद् व्याख्येयम् । तस्मादवस्थितमतत्तेषां तददत्तादानमपीति । पुनरप्याह सांप्रतमेतदोषद्वयं स्वसिद्धान्ताभ्युपगमद्वारेण परः परिसे वेमि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे।(सूत्र-२३) जिहीर्षुराहइहं च खलु भो ! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया । कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं अदुवा विभूसाए । (सूत्र-२७) (सूत्र-२४) अशस्त्रापहतोदकारम्भिणो हि चोदिताः सन्त एवमाहुः'सशब्द आत्मनिर्देश, सोऽहमेवमुपलब्धानकाऽकायतत्त्व- यथा नैतत्स्वमनीषिकातः समारम्भयामो वयं किंवागमे वृत्तान्तो ब्रवीमि, सन्ति-विद्यन्ते प्राणिन उदकनिश्रिताः निर्जीवत्वेनानिषिद्धत्वात् कल्पते-युज्यते न:-अस्माकं पापूतरकमत्स्यादयो यानुदकारम्भप्रवृत्तो हन्यादिति । अथवा- तुम्-अभ्यवहर्तुमिति वीप्सया च नानाविधप्रयोजनविषयः अपरः सम्बम्धः प्रागुनमुदकशस्त्रं समारभमाणोऽन्यानध्य- उपभोगाऽभ्यनुज्ञातो भवति । तथाहि-"आजीविकभस्मस्ना. नकरूपान् जन्तून् विविधं हिनस्तीति, तत्कथमेतच्छक्य- व्यादयो बदन्ति पातुमस्माकं कल्पते, न नातुं वारिणा" मभ्युपगन्तुमित्यत आह- संति पाणा ' इत्यादिपूर्ववत् , शाक्यपरिव्राजकादयस्तु-स्नानपानावगाहनादि सर्व कल्पते कियन्तः पुनस्त इति दर्शयति-'जीवा अणेगा 'इति-पुन- इति प्रभाषन्त । एतदेव स्वनामग्राहं दर्शयति-अथवोदक जीवोपादानमुदकाश्रितप्रभूतविभेदकापनार्थम् । ततश्चेद- विभूषार्थमनुशातं न समये, विभूषा-करचरणपायुपस्थमुक्तं भवति-एकैकस्मिन् जीवभेदे उदकाधिता अनेके-असं- मुखप्रक्षालनादिका बखभण्डकादिप्रक्षालनास्मिका बा, एवं ख्ययाः प्राणिनो भवन्ति, एवम्-अपकायविषयारम्भभाजः ! स्नानादिशौचानुष्ठायिनां नास्ति कश्चिदोष इति । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) भाउकाय भाभिधानराजेन्द्रः। भाउकाय एवं ते परिफल्गुवचसः परिव्राजकादयो निजराद्धान्तो- | सत्थं समारंभेजा, णेवरोहिं उदयसत्थं समारंभावेज्जा, पन्यासेन मुग्धमतीन्विमोह किं कुर्वन्तीत्याह उदयसत्थं समारंभंतेऽवि अ ण समणुजाणेजा जस्सेते पुढो सत्थेहिं विउइंति । ( सूत्र-२८) उदयसत्थसमारंभा परिमाया भवंति से हु मुणी पपृथग्-विभिन्नलक्षणे नारूपैरुत्सेचनादिशौस्तेऽनगारा रिएणातकम्मत्ति बेमि । (सूत्र-३०) यमाणाः ‘विउदृति 'त्ति-अप्कायजीवान् जीवनाद् व्यापर्सयन्ति ; व्यपरोपयन्तीत्यर्थः । यदि वा-पृथग् विभिन्नः एतस्मिन्नप्काये शस्त्रं द्रव्यभावरूपं समारभमाणस्यैते समाशस्त्रैरकायिकान् विविधं कुदृन्ति ; छिन्दन्तीत्यर्थः, कुट्ट रम्भा बन्धकारणवेनाऽपरिशाता भवन्ति । अत्रैवाऽकाये र्धातोः छदनाथस्वात् । शस्त्रमसमारभमाणस्येत्यते प्रारम्भा परिक्षया परिशाताभअधुनषापागमानुसारिणामागमाऽसारत्वप्रतिपादनायाह- वन्ति । प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहता भवन्ति, तामेव प्रएत्थ वितेसिं नो निकरणाए । (सूत्र-२६) त्याख्यानपरिक्षां विशेषतो सपरिज्ञापूर्विकां दर्शयति-तदुद कारम्भण बन्धायत्येवं परिचाय मेधावी-मर्यादाव्यवस्थितो एतस्मिन्नपि-प्रस्तुत स्वागमानुसारेणाभ्युपगमे सति “क नैव स्वयमुदकशस्त्रे समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भप्पडणे कप्पडणे पाउ, अदुवा विभूसाए (२६)"त्ति-एवं रू येत् । नवान्यानुदकशखं समारभमाणान् समनुजानीयात् , पस्तेषामयमागमा यदलादप्कायपरिभोगे ते प्रवृत्ताः स यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भा द्विधा परिक्षरता भवन्ति स एव स्याद्वादयुक्तिभिरभ्याहतः सन् ‘नो निकरणाए' त्ति-नो मुनिः परिक्षातकर्मा भवति । ब्रवीमीति पूर्ववत् । प्राचा०१ निश्चयं कर्तुं समर्थो भवति , न केवलं तेषां युक्तयो न श्रु०१ अ०३ उ०। निश्चयायाऽलम् , अपि त्वागमोऽपीत्यपिशब्दः । कथं पुन (१०) अप्कायविहिंसननिषेधःस्तेषामागमो निश्चयाय नालमिति, अत्रोच्यते-त एवं प्रख्या-कोऽयमागमो नाम? यदादेशः कल्पत भवताम आउक्कायं न हिंसंति, मणसा वयसॉ कायसा । कायारम्भः,त आहुः-प्रतिविशिष्टानुपूर्वीविन्यस्तवर्णपदवा- तिबिहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिया ॥ २६ ॥ क्यसंघात प्राप्तप्रणीत आगमः नित्योऽकर्तृको वा', त- अाउकायं विहिंसंतो, हिंसईओ तवस्सिए । तश्चैवमभ्युपगते यो येन प्रतिपन्न प्राप्तः स निराक तसे अविविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ ३०॥ र्तव्यः । अनाप्तोऽसावकायजीवाऽपरिज्ञानात्तद्वधानुशानाद्वा भवानिव । जीवत्वं चापां प्राक प्रसाधितमेव । तम्हा एयं वियासित्ता, दोसं दुग्गइवड्डणं । ततस्तत्प्रणीतागमोऽपि सद्धर्मचोदनायामप्रमाणम् , अना आउकायसमारंम्भ, जावजीवाइ वजए।३शदश०६अ। सप्रणीतत्वत् , रथ्यापुरुषवाक्यवत् । अथ नित्योऽकर्तृकः (११) अप्कायस्पर्शादिनिषेधःसमयोऽभ्युपगम्यते तता नित्यत्वं दुष्प्रतिपादम् । यतः से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चशक्यते धनु-भवदभ्युपगतः समयः, सकर्तृको वर्णपदवा- क्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगो वा परिसाक्यात्मकत्वात् , विधिप्रतिषेधारमकत्वात् , उभयसम्मत गो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसं वा सकर्तृकग्रन्थसन्दर्भवदिति । अभ्युपगम्य वा ब्रूमः-अपमारणमसौ , नित्यत्वादाकाशवत् , यश्च प्रमाणं तदनित्यं दृएं हिमं वा महियं वा करगं वा हरितणुगं वा सुद्धोदगं वा प्रत्यक्षादिवदिति । तथा विभूषासूत्रावयवेऽपि पृष्ठा न प्रत्यु- उदउल्लं वा कायं उदउल्लं वा पत्थं ससणिद्धं वा कार्य त्तरदाने क्षमाः, यतियोग्यं स्नानं न भवति, कामाङ्गत्वात् , ससणिद्धं वा वत्थं न आमुसेजा न संफुसेजा न विलेजा मण्डनवत् । कामाङ्गता च सर्वजनप्रसिद्धा। तथाचोक्तम् न पविलेजा न अक्खोडेजा न पक्खोडेजा न आया"स्नानं मददर्पकरं, कामाकं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्काम परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः" ॥१॥ शौचार्थोऽपि न विज्जा न पयाविज्जा, अन्नं न आमुसावेज्जा न संफुसापुष्कलो वारिणा बाह्यमलापनयनमात्रत्वात् ह्यन्तर्व्यवस्थित- वेजा न विलावेज्जा न पविलावेज्जा न अक्खोडावेजा कर्ममलक्षालनसमर्थ वारि न दृष्टं, तस्माच्छरीरवाङानसा- न पक्खोडावेज्जा न आयावेज्जा न पयावेजा, अन्नं श्रामकुशलप्रवृत्तिनिरोधो भावशौचमेव कर्मक्षयायाऽलम् । तचवारिसाध्यं न भवति , कुतः ?, अन्वयव्यतिरेकसमधिग मुसंतं वा संफुसंतं वा आविलंतं वा पविलंतं वा अक्खोम्यत्वात्सर्वभावानाम् । न हि मत्स्यादयः तत्र स्थिता डंतं वा पक्खोडतं वा पायावंतं वा पयावंतं वा न समत्स्यत्वादि कर्मक्षयभाक्त्वे नाप्यभ्युपगम्यन्ते , विना च मणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वारिणा महर्षया विचित्रतपोभिः कर्म क्षपयन्तीति अतःस्थि वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न तमेतत्तत्समयो न निश्चयाय प्रभवतीति । समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गतदेवं निःसपत्नम जीवत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिविकल्पफलप्रदर्शनद्वारेणोपसंजिहीर्षुः सकलमुद्देशार्थमाह रिहामि अप्पाणं वोसिरामि । (सूत्र-११) एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिमाया से भिक्खू वा' इत्यादि, ' जावजागरमाणेव ' त्ति-पू बंषदेव से उदगं वे'त्यादि, तद्यथा-उदकं वा अवश्यायं वा भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा हिम वा महिकां वा करकं वा हरतर्नु शुद्धोदकं वा । (दश०) परिमाया भवंति । तं परिणाय मेहावी व सयं उदय- ( उदकादिपदानां व्याख्या अस्मिन्नेव शब्द आदी उक्ला) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउकाय तथा उदका या कार्य उदकाई वा पत्रम् उदकाईता वेद गलद्विन्दुतुषारानन्तरोदितोदकभेदसम्मिश्रिता । तथा-सखिग्धं वा कार्य सखिग्धं पत्रम् छत्र नं सिन्धमिति भावे निष्प्रत्ययः खिग्धेन सह वर्त्तते इति सन्धिं सस्तियता वह बिन्दुहितानन्तरोदितोदकभेदमिति (अ स्य सुत्रस्य संपूर्ण टीका ' महव्यय शब्दे षष्ठे भागे वर्शयिष्यते ) दश० ४ श्र० । ( १२ ) शीतोदकादिपरिषेवणनिषेधःसीओोदकं न सेविजा, सिलाई हिमाथि य उसिणोदगं तत्तफासुयं, पड़िगाहिज्ज संजए ॥ ६ ॥ शीतोदकं पृथिव्युद्भवित्त सेवेत तथा-शिलाएं हिमानि च न सेवेत । तत्र शिला ग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । दिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति । यद्येवं कथमयं वर्तेतेत्याह-उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्राशुकं ततं सत्प्राशुकं दो मोष्णोदकमा प्रतिगृहीयात् संयतःसाधुः । एतश्च सौवीराऽऽयुपलक्षणमिति सूत्रार्थः । - तथा , उदउलं पण कार्य, नेव पुंछे न संलिहे । समुप्पेह तहाभूयं नो गं संघट्टए मुखी ॥ ७ ॥ नदीमुत्तीर्णो भिक्षां प्रविष्टो वा वृष्टिहतः उदकार्द्रम्-उदकबिन्दुचितमात्मनः कार्य- शरीरं स्निग्धं वा नैव पुञ्छयेत्-वस्त्र दलित् पाणिना अपि तु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य तथाभूतमुदकार्द्रादिरूपं नैव कार्य संघट्टयेत् मुनिर्मनागपि न स्पृशदिति सूत्रार्थः ०० (उदकतीरे निवासादिनिषेधः ' दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते ) (अष्कायस्यबहुवक्तव्यता 'पाणग' शब्दे पञ्चमभागे वदयंत ) ( अप्कायस्य दर्पिका का 'मूलगुरापडि सेवा शब्दे पछे भागे यक्ष्यते) (वस्त्रधावनेऽप्कायप्रतिसेवनाया पता 'घाय शब्दे चतुर्थभागे यते) (उदकसम्तरखेऽकाय प्रतिसेवनाया वक्रता 'मूलगुरूपडिसेवा' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते) आउकायविहिंसग अप्कायविहिंसक भ० सचित्तजलवि राधके, ग० १ अधि० । आ| उकाल- आयुष्काल पुं० मृत्युकाले आया० १० " ( ३२ ) अभिधामराजेन्द्रः । - " श्र० ८ उ० । उक्खय- श्रायुःक्षय- पुं०/ आयुष्कर्म पुद्गलनिर्जरणे, स्था०८ ठा० ३ उ० । आयुर्दलिक निजरणे, नि० १ श्रु०५ वर्ग १ अ० । कर्मद्रव्यनिर्जर, विपा० २ ० २० कर्मणो दलिकजिरणे, श्री०म० (आयुः क्षपनिमितान्यध्यवसायादीनि श्राउ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतानि) मार्जनम् तथा चाह के स्वामी विज्ञतो पत्मायतयेन भवत्सु जीवत्सु भवज्जन्मनक्षत्रं संक्रान्तो भस्मराशिग्रहो भवच्छासमे पीडयितुं न शक्नोति ततोऽवश्यं प्रभुवो न खलु शक! कदाचिदी भूतपूर्ववत् मानवर्द्धयितुं शक्यते । कल्प० १ अधि० २ क्षण । आयुषः चापश्यं जीवितनाथः " 1 ( "ताले जह" (६ गा० ) इत्यादिकस्यार्थः 'अणिश्चया' शब्दे प्रथममागे विशेषतो दर्शितः । सूत्र० १० २ ० १ ३० । डहरा बुड़ा य पासह, गम्भस्था वि चयंति मागवा | सेखे जब हरे एवमा उक्खयम्मि तुती ॥ २ ॥ डहरा बाला एव केचन जीवितं त्यजन्ति । तथा वृद्धाश्च गर्भस्था अप्येतत्पश्यत यूयं के ते मानवा:- मनुष्यास्तपामेवोपदेशदानाईत्वात् मानयग्रहणम् बद्धपायत्वादायुषः सर्वास्वप्यवस्थासु प्राणी प्राणांस्त्वजतीत्युकं भवति । तथाहि त्रिपल्पोपमायुत्कस्यापि पर्याप्त्यन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव क स्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठतीति । अपि च-गर्भस्थम्-जायमानामत्यादि, श्रत्रैव दृष्टान्तमाह-यथा श्येनः पक्षिविशेषो वर्त्तकतित्तिरजातीयं हरेत् व्यापादयदेवं प्राणिनः प्राणान मृत्युरुषहरेत् उपकारसमायुकमुपामेत् । तदभावे वा आयुध्यक्ष पतिव्ययते जीवानां जीवितमिति शेषः । सूत्र० १ श्रु० २ ० १ उ० । आयुषः क्षयमजानन्त आरम्भ प्रवर्तन्तेआउक्खयं चैव अबुज्झमाणे, ममेति से साहसकारि मंदे | अहो राम्रो परिलप्पमाणे आउक्खय , अट्ठेसु मूढे अजरामरे व्व ॥ १८ ॥ श्रायुषो जीवनलक्षणस्य क्षय आयुष्कक्षयस्तम्- आरम्भप्रवृत्तः इदमत्स्यपदक सत्यपुष्यमानोऽतीय 'मम' इति ममत्ववानिदं मे श्रहमस्य स्वामीत्येवं स मन्दः श्रशः साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहनकारीति । तथाकथि वि महाशन महार्घाणि रत्नानि समासाद्योजयिन्या बहिरावासितः। स च राजबीरदायादभयाद्रात्रौ रत्नान्येवमेवं प्रवेशयामीत्येवं पर्यालोचनाऽकुलो रजनीक्षनात वान् अन्य रत्नानि प्रवेशयन् राजपुरुषे संययाति इति । एवमन्योऽपि किंकर्तव्याकुलः स्पायुषः यमबुध्यमानः परिग्रहेष्यारम्भेषु च प्रवर्तमानः साहसकारी स्यादिति । तथा कामभोगतृषितोऽह्नि रात्रौ च परि-समन्तात् द्रव्यार्थी परितप्यमानी मम्मण वणिग्यदार्तध्यायी कायेनापि कि श्यते । तथा चोक्तम्- "अजरामरवद्वालः, क्लिश्यते धनकाम्यया शाश्वतं जीवितं चैव मन्यमानो धनानि च॥ देयमार्तध्यानोपहतः " कइया वश्च सत्थो, किं भंड कत्थ कित्तिया भूमी "त्यादि । तथा-" उक्खगइ स्वणइ हिराइ, नि सु दिया वि यसको " इत्यादि । चित्तसं. शात्सुष्ट् मूदी ग्रामरचदात्मानं मन्यमानाऽपगतशुभाष्यवसायोऽहर्निशुमारम्भप्रवर्तते सू० १ ० १० अ० । अहर्निशमायुषः क्षयमवबुध्य धर्मे यतितव्यम् - पिच्छह आउस खयं, होनिसं झिजमाणस्स ॥ १८ ॥ ( ७३ ) राईदिए ती तु मुहुत्ता नवसयाइँ मामेणं । १- मन्मएवग्वृित्तं मम्मण' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते । " Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाउक्खय अभिधानराजेन्द्रः। पाउजीव हायंति पमत्ताणं, नहानि ८५, धर्म विना विकथानिद्रालस्यवनां मुधा गतानि, न य णं अबुहा वियाणंति ॥ १६॥ (७४) कथम् ?-निद्रया पञ्चाशद्वर्षाणि (५०), बालत्वे दश (१०), वृद्धभावे दश (१०), शीतादिभिः पञ्चदश (१५), एवं तिमि सहस्से सगले, सर्वाणि पञ्चाशीतिवर्षाणि (८५), इति ये जीवा छच्च सए उडुवरो हरइ आउं । वर्षशतिकाः-वर्षशतप्रमाणा भयन्ति ते जीवा पञ्चश हेमंते गिम्हासु य, १५ वर्षाणि जीयन्ति, अन्यानि मृतप्रायत्वात् । न च वर्षवासासु य होइ नायव्वं ।। २० ।। (७५) शतजीविना जीयाः प्राप्यन्ते । किंभूताः सुखेन-अनायासे न लभ्यन्त इति सुलभाः; सर्वथा सुखिन इत्यर्थः । उक्तं वाससयं परमाउं, च-"अायुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदई गतं, तस्याइत्तो पन्नास हरइ निदाए । ईस्य परस्य चामपरं बालन्यवृद्धत्वयोः । शेष व्याधिइत्तो विसए हायइ, बियोगदुःखसहित सेवादिभिनीयते , जीवे वारितरगच__ वालते वुड्डभावे य ॥ २१ ॥ (७६) चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् " ॥१॥२३॥ एवम्-उन प्रकारेण निस्सारे असारे मानुषत्वे-मनुजन्वे तथा जीविते सीउण्हपंथगमणे, आयुषि रत्वकोटिकोटिभिरपि अप्राप्य अधिपतति; समय खुहा पिवासा भयं च सोगे य । समय क्षयं गच्छति सतीत्यर्थः न कुरुत यूयं चरणधनाणाविहा य रोगा, मर्म-शानदर्शनपूर्वकं देशसर्वचारित्रं 'हा' इनि-महाखदे, ___ हवंति तीसाइ पच्छद्धे ।। २२ ॥ (७७) पश्चाद्-श्रायुःक्षयानन्तरम्-श्रायुःक्षयचरमक्षण वा पश्चाएवं पंचासीई, त्तापं कायवाङ्मनोभिर्महाखदं करिष्यथ नरकस्थशशिरा जबदिति ॥ २४ ॥ तं०॥"समस्तसत्त्वसंघानां क्षयत्यायुरनट्ठा पएणरसमेव जीवंति । नुक्षणम् । श्राममल्लकवारीय, किं तथापि प्रमाद्यसि" ॥१॥ जे हुंति वाससइया, पञ्चा०१ विव० । मरणे, प्रश्न०१ श्राथ० द्वार । उत्त। न य सुलहा वाससयजीवा ॥ २३ ॥ (७८) | आउक्खेम-आयुःक्षम-न० । श्रायुषः क्षममिति । श्रायुषः स. एवं निस्सारे मा म्यपालने , जीविते च । श्राचा० । __णुसत्तणे जीविए अहिवडते । जं किंचि बुक्कम जाणे, आउक्खेमस्स मप्पणो । न करेह चरणधम्म, तस्सव अंतरऽद्धाए, खिप्पं सिक्खेज पंडिए ॥६॥ पच्छा पच्छाऽणुतप्पिह हा ॥ २४ ॥ (७९) एतदुक्तं भवति-श्रात्मायुषो यक्षम-प्रतिपालनापायं जा'पिच्छह 'त्ति-भी भव्याः! यूयं पश्यत-शानचक्षुषा वि नीत तं क्षिप्रमेव शिक्षत् । (प्राचा०) यदिवा-आत्मनः लोकयत आयुषः क्षयमहोरात्रंक्षीयमाणस्य समय समय प्रा- श्रायुःक्षमस्य-जीवितस्य । प्राचा०१ थु०८ १०८ उ०। चीचीमरणेन त्रुट्यमानस्यति ॥१८॥ 'राई'ति-अहोरात्रेण त्रि- पाउजीव-अब्जीव-पुं० । आप एव जीवः । स्थावरजीववि. शन्मूहर्ता भवन्ति, मासेन नवशतानि १०० मुहूर्तानि, तानि शेषे, अबाधितो वा जीवः । उदकाश्रिते जीवे च । सूत्र० प्रमत्ताना-मद्यादिप्रमादयुक्तानां सुभूम-ब्रह्मदत्तादीनामिय | १ श्रु० ११०। हीयन्ते न चाऽबुधा-मूर्खा विजानन्तीति ॥१६॥ तिन्नित्ति तद्भदा यथात्रीणि सहमाणि षट्शताधिकानि सकलानि-संपूर्णानि मु. दुबिहा आउजीवाओ , सुहुमा बायरा तहा । इतानि हेमन्त-शीतकाले भवन्ति । एतत्प्रमाणमायुर्जीवानां हमन्ते उडवरः-सूर्यों हरति, एवं ग्रीष्मे वर्षासु च ज्ञातव्यं पञ्जत्तमपञ्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ।। ८४ ।। भवति ॥ २०॥ (तं.) यास 'त्ति-सांप्रतं जीवानां पर- बायरा जे उ पञ्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । मायुः-उत्कृष्टजीवितं वर्षशतं प्रवाहेस ज्ञातव्यम् । इतो वर्षश- सुद्धोदये य उस्से य , हरितणु महिया हिमे ॥८५ ।। तात् निद्रया पश्चाशद्वर्षाणि ५० हरति-गमति, जीवः इतः एगविहमनाणत्ता ,सुहुमा तत्थ वियाहिया । शषपश्चाशद्वर्षतः विंशतिवर्षाणि २० हीयन्त यान्ति-प्रमादिनाम् कथम् ?-बालत्वे दशकं १०, वृद्धत्व दशकं १०चेति ॥२॥ सुहुमा सबलोयम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥८६॥ 'सीउ' त्ति-शीतोष्णपथगमनानि, तथा शुधा पिपासा भयं च तिसृणां गाथानामर्थः-अब्जीवास्तु द्विविधाः-सूक्ष्माः, शाकश्च नानाविधा रोगाश्च भवन्ति, त्रिंशतः पश्चाई त्रि- तथा बादरा श्रपि । पर्याप्ता , अपर्याप्ताश्च । एवमेत द्विशत्पश्चाई-पञ्चदशवर्षरूपं तस्मिन् को भावः ?-शेषत्रिंशतः विधाः पुनर्वर्तन्ते इति शषः॥८४॥ अथ पुनर्बादरा ये पञ्चदश १५ वर्षाणि जीवानां शीतोष्णपथगमनादिभिर्मुधा पर्याप्ता अबजीवास्ते पञ्चधा प्रकीर्तिताः । (उत्त०) यान्तीति ॥ २२ ॥ एवं पूर्वोकप्रकारेण पञ्चाशीतिवर्षाणि तत्र सूचमा अप्कायजीवा एकविधा अनानात्वात्तीर्थकरै व्याख्याताः । तत्र सूक्ष्मा अप्कायजीवाः सर्वस्मिन्-चतु१-'सुभूम' वृत्तान्तं ' माण ' शम्दे पष्ठे भागे बिस्तरतो करिष्यते । । दशरज्ज्वात्मक लोक वर्तन्त, बादरा अप्कायजीवा लोक२-ब्रह्मदत्तवृत्तं बिभदत्त' शम्दे पञ्चमभागे करिष्यते । ३-३६००। । स्यैकदेश वर्तन्त ॥६॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउजीव अभिधानराजेन्द्रः । अाउजियकरण संतई पप्पऽणाईया , अपज्जवसिया वि य । ८ होरम्भा भेरी १० झल्लरी ११ दुन्दुभी १२ मुरुज १३ मृदङ्ग ठिइं पडुच्च साऽऽईया , सपज्जवसिया वि य ॥८७॥ १४ नन्दीमृदङ्ग १५ प्रालिङ्ग १६ कुम्तम्ब १७ गोमुखी १८ महल १६ विपञ्ची २० बल्लकी २१ भ्रमरी २२ भ्रामरी २३ सन्तनि-प्रवाहमार्गमाश्रित्य अकायजीवा अनादिकाः परिवादिनी २४ चचसा २५ सुघोषा २६ नन्दीघोषा २७ पुनरपर्यवसिता अपि स्थिनिं-भवास्थिति, कास्थितिं चाश्रित्य सादिकास्तथा सपर्यवसिताः अवसानसहिता अाप महती २८ कच्छपी २६ चित्रवीणा ३० श्रामोद ३१ डण्डा वर्त्तन्त ॥ ७॥ ३२ नकुल ३३ तूगा ३४ तुम्बवीणा ३५ मुकुन्द ३६ हुडुक्क ३७ विचिकी ३८ करटी ३६ डिण्डिम ४० किणित ४१ सत्तेव सहस्साई , वासाणुकोसिया भवे । कराड्दा ४२ दर्दरक ४३ ददरिका ४४ कुसुम्बर ४५ कलशिका आउठिई आऊणं , अंतोमुहुत्तं जहनियं ॥८॥ ४६ तल ४७ ताल ४८ कांस्यताल ४६ रिंगिसिका ५० मङ्गअपाम् अप्कायजीवानां सप्तव सहस्राणि वांग्युत्कृष्टा रिका ५१ शुशुमारिका ५२ वंश ५३ चाली ५४ वेणु ५५ श्रायुषः स्तिभवेत् , जघन्यतः अन्तर्मुहूर्तं भवेत् ।। ८८ ॥ पिरिली ५६ बद्धकाः५७ प्रदर्शिताः। *) अव्याख्यातास्तुभेदाः असंखकालमुकोसं, अंतोमुहत्तं जहलिया । लोकतः प्रत्यतव्याः एवमादीनि बहून्यातोद्यानि विकुर्वन्ति कायठिई पाऊणं,तं कायं तु अमुंचओ॥८६॥ सर्वसंख्यया तु मूलभेदापनया अताद्यभेदा एकोनपश्चाशत् । अपाम्-अप्काजीवानां तं स्वकायमर्थात्-अप्कायममुञ्चता. शेषास्तु भेदास्तेष्ववान्तर्भवन्ति यथा वंशाताद्यविधाने चामुस्कृष्टा कायस्थितिः असंख्यकाल भवति जघन्या कार्यास्थ लावेणुपिरिलीबद्धकाः । रा० । * 'ण' शब्द ४ भागे विशेषः। तिरन्तर्मुहर्त भवति । आवर्ज-पुं० । आवर्जनमावर्जः । अभिमुखीकरण, प्रा. अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । वय॑तेऽभिमुखीक्रियते मोक्षाऽनेनेति-शुभमनोवाकायच्या विजढम्मि सर काए, आउजीवाण अंतरं ।। ६०॥ पारविशंप च । उक्नञ्च-"आवज्जणमुवोगो वावारा वा” अब्जीवानां स्वकीये काये त्यक्ते सति अपरस्मिन् काय (३०५१ + विश० ) इति. श्रावज्यते-अभिमुखीक्रियत, इति उत्पद्य पुनः स्वकीये काये उत्पत्तिः स्यात्तदा उत्कृष्टमन्तर घञ्। अभिमुखीकर्तव्ये, त्रि० । प्रज्ञा० ३६ पद । मनन्तकालं भवति । जघन्यकमन्तरम्-अन्तर्मुहस भवति । आवयं-त्रि० । श्रावयत इति ध्यण् । अभिमुखीकर्तव्य, वनस्पतिकाये जीवाऽनन्तकालं तिष्ठति तदा अनन्तकाल- प्रा० म०१ अ०। मन्तरं भवति, इति भावः। श्राउजण-आवर्जन-न० । अभिमुखीकरण, शुभमनोवाकायपएर्सि वनो चव, गंधो रसफासो । व्यापार च । प्रशा० ३६ पद । विशे। संठाणाऽऽदेसओ वा वि, विहाणाइ सहस्ससो॥११॥आउजसद्द-आताद्यशब्द-पु० । न आउजसद्द-आतोद्यशब्द-पुं० । नोभाषाशब्दविशेष, स्था० एतषाम्-अप्कायजीवानां वर्णतो गन्धतः रसतः स्पर्शतः २ ठा० ३ उ० । स च वणुवीणामृदङ्गादीनां यो शब्दः । जी० संस्थानाऽऽदेशतश्चापि-संस्थाननामतश्चापि सहस्रशो-बहयो भेदा भवन्ति ॥६१ ॥ उत्त० ३६ अ० । अब्जीवानां च तद्भदादिप्रत्येकशरीरिता । " पुढासत्ता भाउजीवा" प्रत्येकशरीरत्वा आउज्जसद्दे दुविहे पमत्ते, तं जहा-तते चेव वितते चेव । त्पृथक-प्रत्यकं सत्त्वाः-प्रत्यकशरीरिणोऽवगन्तव्याः । सूत्र० । | तते दुविहे परमते, तं जहा-घणे चेव, सुसिरे चव । एवं १ श्रृ०१२ अ०। वितते वि । (सूत्र-८१+) आउज्ज-बातोद्य--न० । श्रा-समन्तात् तुद्यते। आ-तुद (ततविततादिकमातोद्यभेदः ‘आउज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव रयत्। वीणादो वाद्ये, प्राचा० १६० १ ० ५ उ०। भागे प्रदर्शितः) तजनितः शब्दस्ततो घनः शुषिरश्चति व्यपस्था ० । अनु० । श्राव० । जी। तच्च द्विविधम्-ततवितत दिश्यते । स्था० २ ठा० ३ उ०। (अस्य चतुर्विधत्वम् चतुभदात् । तत-विते अपि द्विविध-घन-शुषिरभदात् । स्था०२ विधातोद्यजनितत्वात् । पातोद्यस्य बहवो भेदाः 'श्राउज' ठा०३ उ०। चतर्विधम्-ततचिततघनशुषिरभेदात् । बृ०१ उ०। शब्देऽस्मिन्नेव भागे अनुपदमेव दर्शिताः)। "तने वीणादिकं ज्ञयं !, विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यता लादि. शादि शुपितं मतम्" ॥१॥ इति विवक्षाप्राधान्याञ्च आउजिय-प्रायोगिक-पुं० । उपयोगवति शानिनि, । भ० । न विराधा मन्तव्यः । स्था०२ ठा०३ उ० । श्राचा० । २ श० ५ उ०। आनोद्यम्य ४६ भदाः श्रावर्जित-त्रि० । श्रा-वृज् णिच् क्ल। अभिमुखीकृते. तथा तते णं से सूरियामे देवे अट्ठसयं संखाणं विउव्वति । अह | य लोके वक्तारः-श्रावर्जितोऽयं मयाः सम्मुखीकृत इत्यर्थः । सयं संगाण विउव्वइ । अट्ठसयं संखियाणं विउव्वइ । अ प्रज्ञा० ३६ पद । पं० सं० । दत्ते, त्यक्त, निम्नीकृते च । वाच। आउजियकरण-आवर्जितकरण-न० । श्रावर्जितस्य करणछसयं खरमुहीणं विउबइ । अठसयं पेयाणं विउव्वइ । अ मिति कवलिसमुद्घातात्पूर्व क्रियमाणे शुभयोगव्यापारणे, मयं पिरिपिरियाणं विउव्यति । एवमाइयाणं एगोणवणं तञ्च भव्यत्येनावर्जितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य शुआउज्जविहाणाई विउव्यति । भयोगव्यापारणम् । प्रज्ञा० ३६ पद । पं० सं० । (अत्र'एबमाइयाणं 'ति-आदिशब्देन-* पणय ६ पटह ७ भम्भा| त्या वक्तव्यता 'आउजीकरण' शब्देऽने वक्ष्यते) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) प्राउजिया अभिधानराजेन्द्रः। श्राउहि आउजिया-आयोजिका-स्त्री० । भावे घुन् । व्यापारणे, | आउद-बाउद-पुं० । करणे, अयमेतादृश एव सैद्धान्तिको श्रा०म०१ अ०। धातुः । कल्प. ३ अधि०१क्षण । प्राउट्टन्ति णाम करेंति । आउजियाकरण-मायोजिकाकरण-न । माङ्-मर्यादया नि० चू० ३ उ० । कचलिरएया योजन-शुभानां योगाना-व्यापारणम् । भावे आकुट्ट-पुं० । पाकुट्टनमाकुट्टः । श्रा-कुट्ट-घन । छदने, हिंवुञ् । तस्य करणमिति । केवलिसमुद्घातात्पूर्व क्रियमाणे सायां च । सा चात्र प्राण्यवयवानां छदनभदनादिरूपो व्या. शुभव्यापारात्मके कियाविशेष, प्रक्षा० ३६ पद । श्रा० म० । पारः। सूत्र०१ श्रृ०१०२ उ०। पं० सं०। आतुष्ट-त्रि० । सन्तुष्टे , नि चू० १ उ०। आउजीकरण-भावजीकरण-न० । आवर्जनमावर्जः तस्य श्रावृत्त- त्रिपा-समन्ताद् वृत्त इति । समन्ताद् व्यवस्थिते करणमिति विवक्षायां च्चिप्रत्ययः । कवलिसमुदघातात्पूर्व प्राचा०१ श्रु०७ अ०४ उ० । परावृत्ते , प्रतिनिवृत्ते च । क्रियमाणे पात्मानं प्रति मांक्षस्याभिमुखीकरणनात्मनो मोक्ष वाच० । “प्राउट्टे" ०(२१ गाथा) श्रावृत्ते-श्रावृत्तपरिणाप्रत्युपयोजनकरखे, भावयतेऽभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति म साधाविति । पंचा० १६ विव० ॥ समन्तात् हिसायां आवर्जस्तस्य करवमिति विवक्षायां च्चिप्रत्ययः । केवलि प्रवृत्ते, 'प्राउट्टामो' प्रवर्तामहे । हिंसायाम्। श्राचा० १ श्रु० समुदातात्पूर्व क्रियमाणे शुभमनोवाक्कायव्यापारविशेष- | है अ० १ उ० । पुनः पुनरभ्यास, श्रावय॑मान च । वाच। करणे, प्रज्ञा० ३६ पद । आवर्यते इत्यावर्जः घम् , तस्य करणमिति चिः । केवलिसमुद्घातात्पूर्व क्रियमाणे मोक्ष प्रत्य पाउर्दूत-प्राउट्टत-त्रि०। कुर्वति , कल्प०३ श्राधि०१क्षण । भिमुखीकर्तब्यस्य करणे, तच्चान्तर्मोहूर्तिक उदयालिकायां नि० चूछ। कर्मपुद्गलप्रक्षपव्यापाररूप उदीरणाविशेषः। प्रा० म०१ प्राउट्टण-आउट्टन-न० । करणे, कल्प० ३ अधि०१क्षण। श्र० । औ० । स्था० । कर्म० । पं० सं०। नि० चू०। आवर्जीकरणञ्च श्राकुट्टन-न । हिंसायाम् , सूत्र०१थु०१० २उ०। कइसमइए णं भंते ! आउज्जीकरणे पण्णत्ते, गोयमा! प्रा० म०। असंखिज्जसमइए, अंतोमुहुत्तिए आउजीकरणे पण्णत्ते । आवर्तन-न। अभिलाषायाम् , आचा०२ श्रु०७०१ उ०। (सूत्र-३४६) आराधनायाम , व्य० "कहणाऽऽउट्टण आगमण-पुच्छणं दी वणा य कजस्स" (५१xगाथा)। श्रावर्तनम्-श्राकम्पन राशो सर्वोऽपि कवली केवलिसमद्घातं गच्छन् प्रथमत आव भक्तीभवनम् । व्य०२ उ०। निचू० । श्रावजन, व्य०१०3० । जीकरणम् उपगच्छति । तथा च-केर्वालसमुद्घातप्रक्रियां अभिमुखीभूय वत्तन, नं० ३२ सूत्र । निवर्तने, सूत्र०१ श्रु० १० विभणिषुः समुद्घातशब्दव्याख्यानपुरस्सरमाद्द भाष्यकारः अ० । आवर्तते पूर्वभावतो निवृत्त्यान्यभावप्रतिपत्त्यभिमु(प्रशा० ३६ पद।) खो वर्तते येन बोधपरिणामेन स पावर्तः। पुं। तथावर्तने , तत्थाउयसेसा हिय-कम्मसमुग्घायणं समुग्धाओ। हातो निवृत्त्यापायभावप्रतिपत्त्यभिमुखीभूय वर्तनस्य हेतं गंतुमणा पुव्वं, आउजीकरणमझेइ ।। ३०५०॥ | तौ, बोधपरिणाम च । नं. ३२ सूत्र । आवज्जणमुवोगो, वावारो वा तदत्थमाईए। माउणया-श्रावर्तनता-स्त्री० । आवर्ततेऽभिमुखीभूय वर्तअंतोमुत्तमत्तं , काउं कुरुए समुग्घायं ।। ३०५१॥ । ते येन स तथा तद्भावस्तत्ता । प्राभिनिबोधिकशानावशेषतत्रायुःशेषाणाम्-अधिकस्थितिकानां वेदनीयादिकर्मणां स्यापायस्य नामधेयविशष , सा चहातो निवृत्त्यापायभासमुदातनं समुद्धातः, तं च गन्तुमनाः-प्रारिप्सुः पूर्वमाव- | वप्रतिपस्यभिमुखीभूय वर्तते, हेतुभूता बोधपरिणामता । जीकरणमभ्यति-विदधाति । कथंभूतं तदिति ?, उच्यते-तद-| नं० ३२ सूत्र। र्थम्-समद्धातकरणार्थमादौ केवलिन उपयोगो मया अधुनेद-प्राउट्टणा-आवर्तना-स्त्री० श्राराधनायाम् : नि० चू०२ उ०। कर्तव्यमित्येवरूप उदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपी व्यापारो | प्राकम्पने, व्य० २ उ० । प्रायर्जने, “आउट्टऊण अत्तीकरे" वा आवर्जनमुच्यते । तस्यैवभूतस्य करणमावर्जीकरणं | आवर्त्य-भावात्मीकरोति । व्य०१० उ०। तदन्तर्मुहुर्त्तमात्रं कालं कृत्वा ततः समुद्धातं कुरुत । प्राउट्टावण-आवर्तन-न० । अभिमुखीकरण, आचा० २ विशे०। श्रु० १ चू० २ ० १ उ०। आउञ्जोवण-अबयोजन-न। अप्काययन्त्रयोजने, ओघ। आउट्टि-आउट्टि-स्त्री० । करणे, "श्राउट्ट त्ति णाम करेंति" तेषां हि सशब्दं वृजतामेते दोषाः 'आउट्टि' धातुः करणार्थे सैद्धान्तिकः । कल्प० ३ अधिक आउज्जोवणवणिए , अगणि कुटुंबीकुकम्मकुमरीए। १क्षम । नि००। तेणे मालागारे , उम्भामगपंथि एजते ।। ६० ॥ आकुद्धि-स्त्री० । हिंसायाम् , आचा० १ श्रु० अ० १ त हि यदि सशब्दं व्रजन्ति ततश्च लोको विषुध्यते, विबुद्ध- उ० । इदं करोमीत्येवं बुध्वोपेत्य करणे, जीत० । स० । ध० । श्व सन् 'आउज्जोवण' त्ति-अप्काययन्त्राणि योज्यन्ते वह- प्रव० । पं० व० । श्राव. ।' पाउट्टिया' नाम श्राभोगे जानाय सज्जीक्रियन्ते । ओघ०। असंजएहिं सद्ध वसंताएं। नान इत्यर्थः । बृ० ३ उ० । (पाकुट्यां धर्मरुचेरुदाहरणम्आउज्जावणवणियादिदोसा भवंति । नि००२ उ०। 'आता' शब्देऽस्मिन्नेव भागे बक्ष्यते) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माउहि अभिधानराजेन्द्रः। भाउहि भावत्ति-स्त्री०। श्रा-वृत्-निन् । समन्तात्प्रवर्त्तने, प्राचा० न्त्येन राशिना मध्यमस्य राशर्गुणनम्, एकस्य च गुणने २ श्रु०१ चू०१०३ उ० । अभिलाषायाम् , आचा० २ तदेव भवतीति जातान्यमादशशतानि शिधिकानिशु०२चू०६०। आराधनायाम् , राहो भनीभवनम् । (१८३०)तेषामायन राशिना व्यशीत्यधिकेन शतेन भागहरण, व्य०२ उ० । नि० चू०। पावर्जने, । व्य०१० उ० । अभि- लब्धा दश १०। आगतं युगमध्ये सूर्यस्य वश १० अयनानि मुखीभूय वर्तते, नं० । निवर्तन, सूत्र०१७० १० प्र०। पुनः । भवन्तीति आवृत्तयोऽपि दश १० तथा यदि प्रयोदशभिर्दिपुनरभ्यासे, भूय एकजातीयक्रियाकरणे, "श्रावृत्तिः सर्व- वसैश्चतुश्चत्वारिंशता च सप्तपष्टिभागैरेकं चन्द्रस्यायनं भवशास्त्राणां, बोधादपि गरीयसी"। प्रत्यावृत्ती, पुनरागतो, ति ततोऽष्टादशभिर्दिवसशतैत्रिंशदधिकैः कति चन्द्रायनानि वाच। सूर्यस्य सन्द्रस्य च भूयो भूयो दक्षिणोत्तरगमने, भवन्ति ?, राशित्रयस्थापना-१३, ४४।६७ (१) (१८३०) तसू० प्र० १२ पाहु.। चं० प्र० । ज्यो०। आवृत्तयो द्विधा । पाच राशौ सवर्णनाकरणार्थ त्रयोदशापि दिनानि सप्तपष्टया सद्यथा-एकाः सूर्यस्यावृत्तयः, अपराश्चन्द्रमसः। तत्र युगे | गुणयित्वा चोपरितनाः चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः सूर्यस्यावृत्तयो दश भवन्ति, चतुर्विंशच्छतमावृत्तीनां च- प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ( ६१५) न्द्रमसः । सू० प्र० १२ पाहु । चं०प्र०। यानि चाष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि-(१८३०) तान्यपि तत्र (५ वर्षात्मके युगे) सूर्य्यस्य दशाऽऽवृत्तयः सवराणनाकरणाथै सप्तषष्टया ६७ गुण्यन्ते, जातानि द्वादश तत्थ खलु इमातो पंच वासिक्कीओ, पंच हेमन्तीभो लक्षाणि सहने पट् शतानि दशोत्तराणि (१२०२६१०) तत्रवरूपणानेन राशिना मध्यमस्य राशरेककरूपस्य गुणनम्, आउट्टीयो पहाताओ । (सूत्र-७६ +) एकस्य च गुणने तदेव भवतीत्येतावानेव राशिर्जातः, तस्य तस्थ मालु' इत्यादि-तत्र युगे खलु इमा-वक्ष्यमाणस्वरूपाः नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः-११५भागो हियते लम्वं चतुर्विंशं पञ्च वार्षिक्यः, पञ्च हेमन्त्यः-शीतकालभाविन्यः सर्वसंख्य- शतम् १३४ एतावन्ति चन्द्रायनानि युगगध्ये भवति, पत्येताया दश आवृत्तयः सूर्यस्य प्राप्ताः। सू०प्र० १२ पाहु। अत्यः१३४ चन्द्रमस श्रावृत्तयः। ज्यो०१२पाहुनचं०प्र०ासू०प्र०। चं० प्र०। संप्रति का सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति चिएतस्योपपत्ति वक्काम आह न्तायां यत्पूर्वाचार्यरुपदर्शितं करणं तदुपदर्श्यते (सू० एत्तो आउट्टीको, वोच्छं जह य कमेण मूरस्स । प्र० १२ पाहु.)चंदस्स य ल हुकरणं, जह दिटुं सधदंसीहि ॥ २३१॥ प्राउट्टीहिं एगुणियाहि, गुणियं सयं तु तेसीयं । इत:-अयनविभागप्रतिपादनानन्तरं सूर्यस्य चन्द्रस्य च जेण गुणियं तं तिगुणं , रूवहियं पक्खिवे तत्थ ।।२३६।। आवृत्तीभूयो भूया दक्षिणोत्तरगमनरूपा यथाक्रमण-परि पनरसलाइगम्मि उ, जं लद्धं तं तेसु होइ पव्वेसु । पाट्या पक्ष्यामि, तासांचाऽवृत्तीनां प्रतिनियतप्रधमदिवसपरिक्षामाय यथा दृष्टं सर्वदर्शिभिः-सर्वस्तथा करणम्-लघू. जे असा ते दिवसा, आउट्टी एत्थ बोधब्बा ॥२४॥ पायं वदये। अनयोाख्या- प्रावृत्तिभिरेकोनिकाभिर्गुणितं शतं ध्यप्रतिक्षातमर्थ निर्वाहयितुकामः प्रथमत आवृत्तीः प्रति- शीत्यधिकम् , । किमुक्नं भवति-या आवृत्तिर्विशिष्टतिथिपादयति युक्ता ज्ञातुमिष्टा तत्संख्या एकोनिका क्रियते । ततस्तयासूरस्स य प्रयणसमा, आउट्टीओ जुगम्मि दस होंति । यशीत्यधिक शतं गुण्यते , गुणयित्वा च येनाङ्कन गुचंदस्स य प्राउट्टी, सयं च चोत्तीसयं चैव ॥ २३२ ॥ णितं यशीत्यधिकं शतं तदङ्कस्थानं त्रिगुणं कृत्वा रूपा धिकं सत्तत्र-पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते , ततः पञ्चदशभिर्भागो सूर्यस्य-श्रादित्यस्य युगे च चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धित-च हियते , हृते च भागे यल्लब्धं तत्तेषु तावत्संख्याकेषु पर्वखन्द्राभिवतिसंवत्सरपश्चकपरिमाणे आवृत्तयः यथोदित तिक्रान्तषु सा विवक्षिता आवृत्तिर्भवति, ये त्वंशाः पश्चास्वरूपा अयनसमा भवन्ति । अयनप्रथमप्रवृत्तरावृत्तिशब्द दुद(ख)रितास्ते दिवसाः ज्ञातव्याः । तत्र तेषु दिवसेषु मध्ये याख्यत्वात् , ताश्च कति संख्याः ? इत्याह-दश। चरमदिवसे आवृत्तिर्भवतीति भावः, इहावृत्तीनामेवं क्रमोतथा चन्द्रस्यावृत्तीनां शतं चतुर्विंशदधिकम् ,१३४ अयनाना- युगे-प्रथमा श्रावृत्तिः श्रावणे मासे, द्वितीया माघे मासे, हि प्रथमाः प्रवृत्तय आवृत्तिशब्दवाच्याश्चन्द्रस्य वा अय- तृतीया भूयः श्रावणे मास, चतुर्थी माघमासे , पुनरपि नान्येतावत्यो भवन्ति, तदावृत्तयोऽप्येतावत्य एव । अथैक- पञ्चमी श्रावणे, षष्ठी माघमासे, भूपः सप्तमी श्रावणे,अष्टमी स्मिन् युगे सूर्यस्य दशायनानि भवन्तीति, कथमवसीयते माघमासे, नवमी श्रावणमासे, दशमी माघमासे इति । तत्र सूर्यस्याऽऽवृत्तयो युगे दश भवन्ति, चन्द्रमसश्वाऽऽवृत्तीनां चतु. प्रथमा किल श्रावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति यदि जिक्षास्त्रिशच्छतमिति १३४, उच्यते-उक्तं नाम आवृत्तयस्तयोर्दक्षि- सा तदा प्रथमावृत्तिस्थाने एकको ध्रियते सा रूपोना किणोत्तरगमरूपाः ततः सूर्यस्य चन्द्रमसो वा यावन्त्ययनानि- यते इति न किमपि पश्चापं प्राप्यते, ततः पाश्चात्ययुगभातावस्य श्रावृत्तयः, सूर्यस्य चायनानि दश, एतचावसीयते बिनी या दशमी श्रावृत्तिस्तत्संख्या दशकरूपा ध्रियते, तया राशिकबलात्, तथाहि-यदि दिवसेन व्यशीत्यधिकेन शतेन । यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिएकमयनं भवति ततोऽष्टादशभिःशतैः त्रिशदधिकैः कति अ- कानि-१८३०,दशकन किल गुणितं ज्यशीत्यधिकं शतमिति । यनानि लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना-(१८३)(१)(१८३०) अत्रा-! तताते दशरत्रिगुणीक्रियन्ते,जातात्रिंशत् ३० सा रूपाधिका Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राउट्टि अभिधामराजेन्द्रः। पाउहि विधेया , जाता एक त्रिंशत् , सा पूर्वराशौ प्रतिप्यते'। वितं, तत्र पञ्च आवृत्तयः थावण मासे भवन्ति, तासां मध्ये जातान्यरादशशतान्येकषष्यधिकानि-१८६१, तेषां पञ्च- प्रथमा बहुलपक्ष प्रतिपदि १, द्वितिया-बहुलस्य-बहुलपक्षस्य दशभिर्भायो हियते लब्धं चतुर्विंशतिशतं शेणं तिष्ठति एक सम्बन्धिनि त्रयोदशीरूपे दिवसे२, तृतीया-शुद्धस्य-शुक्लरूपम् आगतम् चतुर्विंशत्यधिकपर्वशतात्मक पाश्चात्ये युगे पक्षस्य दशम्याम३,चतुर्थी-बहुलपक्षस्य सप्तम्याम,शुद्धस्यअतिक्रान्ते, अभिनवे युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमावृत्तिः प्रथमा. शुक्लपक्षस्य चतुथ्या प्रवर्तते पंचमी-प्रावृत्तिः ५, एता यां तिथौ प्रतिपदि भवतीति । तथा कस्यां तिथौ द्विती. सर्वा अप्यावृत्तयः श्रावण मासे वदितव्याः।ज्यो०१२ पाहु। या माघमासभाविनी प्रावृत्तिर्भवतीति यदि जिज्ञासा ततो अधुना माघमासे भाविन्य प्रावृत्तयो यासु तिथिषु द्विको घ्रियते स रूपोनः कृत इति जातः एककस्तेन ध्य- भवन्ति ता अभिदधातिशीत्यधिकं शतं गुण्यते , 'एकेन च गुणितं तदेव भवति' बहुलस्स सत्तमीए, पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए । इति जातं ज्यशीत्यधिकमेव शतम् १८३, एकेन गुणितं किल बहुलस्स य पाडिवए, बहुलस्स य तेरसी दिवसे ।।२३६।। व्यशीत्यधिकं शतमिति । एकः त्रिगुणीक्रियते,जातखिकः स रूपाधिकः क्रियते जाताश्चत्वारः४, ते ४ पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते सुद्धस्स य दशमीए पबत्तए पंचमी उ आउट्टी। जातं सप्ताशीत्यधिकं शतम् १८७,तस्य पश्चदशभिर्भागो हि- एया आउट्टीओ, सव्वाश्रो माघमासम्मि ।। २३७ ।। यंत लब्धा द्वादश, शषास्तिष्ठन्ति सप्त, श्रागतं युगे द्वादशपर्व- माघमासे प्रथमा श्रावृत्तिः-बहुलस्य--कृष्ण पक्षस्य सप्त. स्वतिक्रान्तेषु माघमासे बहुलपक्ष सप्तम्यां तिथौ द्वितीया म्यां भवति १, द्वितीया-शुद्धस्य -शुक्लपक्षस्य चतुर्थ्याम् २, माघमासे-माघमासभावीनानां तु मध्ये प्रथमा श्रावृत्तिरिति । तृतीया-बहुलपक्षस्य प्रतिपदि ३, चतुर्थी:-बहुलपक्षस्य तथा तृतीया आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति जिज्ञासायां त्रयोदशीदिवसे भवति ४, पञ्चमी शुक्लपक्षस्य दशम्यां त्रिको धियंत, स रूपानः क्रियते इति जातो द्विकस्तेन ध्य- प्रवर्तते ५, एताः सर्वा अप्यावृत्तया माघमासे भवन्ति । शीत्यधिकं शंत१८३ गुण्यते जातानि पक्षयधिकानि त्रीणि ज्यो० १२ पाहु। शतानि ( ३६६) द्विकेन किल गुणितं ज्यशीत्यधिकशत- एतासु सूर्यावृत्तिषु चन्दनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमिति । द्विकस्त्रिगुणीक्रियते जाताः पद् ते रूपाधिकाः मभिधित्सुस्तद्विषयं ध्वराशिमाहक्रियन्ते, जाताः सप्त, ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पंचसया पडिपुराणा, तिसुत्तरा नियमसो मुहत्ताणं । त्रीणि शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि-३७३ तेषां पळवदशभि. छत्तीस विसट्ठिभागा, छच्चेव य चुरिणया भागा ॥२४॥ र्भागो हियत लब्धाश्चतुर्विशतिः२४; शेषास्तिष्ठन्ति प्रयोदश ज्यो०१२ पाहु। १३अंशाः, आगंत युगे तृतीयावृत्तिः श्रावणमासभाविनी पञ्चशतानि त्रिसप्ततानि-त्रिसप्तत्यधिकानि परिपूर्णानि नां तु मध्ये द्वितीया चतुर्विंशविपर्वात्मके प्रश्वमे संवत्सरे - मुहूतानां भवन्ति त्रिंशच द्वाषष्टिभागाः । षद् तिक्रान्ते श्रावणमासे बहुलपक्ष (ज्यो० १२ पाहु०) त्रयोदश्यां चैव चूर्णिका भागाः एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सत्काः तिथौ भवतीति, एवमन्यास्वप्यावृत्तिषु करणवशाद्विवक्षिता- षट्सप्तपष्टिभागाः इत्यर्थः एतावान् विवक्षितकरण ध्रुवस्तिथयः आनेतव्याः; ताश्चमाः युगे चतुर्थी माघमासमावनी- राशिः । कथमस्योत्पत्तिरिति चेत् ?, उच्यते-इह यदि दशना तु मध्ये द्वितीया शुक्लपक्ष चतुर्थ्यां पञ्चमी । श्रावण भिः सूर्यायनैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन मासभाविनीनां तु मध्ये तृतीया, श्रावणमासे शुक्लपक्ष दश- सूर्याऽयनेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-(१०) (६७) म्यां षष्ठी, माघमासभाविनीनां तु मध्ये तृतीया माघमासे (१) अत्रान्त्यन राशिना एककेन मध्यस्यराशः सप्तषष्टिलक्षबहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तमी। श्रावणमासभाविनीनां तु रणस्य गुणने "एकन च गुणितं तदेव लब्धं भवतीति" जाता मध्य चतुर्थी श्रावणमासे बहुलपक्ष सप्तम्यामष्टमी। माघ सप्तषष्टिः (६७) तस्य दशभिर्भागहारे लब्धाः षट् ६ पर्यायाः, मासमाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी माघमासे बहुलपक्ष त्रयो- एकस्य च पर्यायस्य सप्तदेश १७ भागा ये च सप्तमस्य पर्यादश्यां नवमी । श्रावणमासभाविनीनां तु मध्य पञ्चमी, यस्यसप्तदशभागा १७ तद्गतमुहूर्तप्रमाणमधिकृतगाथायाश्रावणमासे शुक्लपक्ष चतुर्यो दशमी । माघमासभाविनीनां मुपन्यस्तम् । अथ कथमेतदवसीयते एतावन्तस्तत्र मुहर्ता तु मध्ये पञ्चमी माघमासे शुक्लपक्ष दशम्याम् तथा भवन्ति ? इति चेदुच्यते-त्रैराशिककर्मचिन्तावलात्तथा हिंचैता एव पञ्चानां श्रावणमासभाविनीनां पञ्चमीनां तु यदि दशभिर्भागः सप्तविंशतिर्दिनानि एकस्य च दिनस्य माघमासभाविनीनां तु तिथयोऽन्यत्राप्युक्ताः । चं० प्र० एकविंशतिः सप्तपष्टिभागा लभ्यन्ते ततः सप्तभिर्भागैः किं १२ पाहु०७६ सूत्रटी०। लभामहे?, राशित्रयस्थापना-(१०-२७, ७) अत्रासम्प्रति या सूर्यस्यावृत्तियस्मिन् दिने भवति तां तथा न्त्येन राशिना सप्तक ७ लक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तविंशप्रतिपादयति ति ९७र्दिनानि गुण्यन्ते जातं नवाशीत्यधिक शतं (१८६) तपढमा बहुलपडिवए, बिइया बहुलस्स तेरसीदिवसे । स्यायेन राशिना दशक १० लक्षणेन भाग हून लब्धा अष्टादश (२८) दिवसास्त च मुहूर्तानयनाय त्रिंशता ३० गुण्यन्ते जासुद्धस्स य दसमीए, बहुलस्स य सत्तमीए उ ।। २३३ ।। तानि पञ्चशतानि चत्वारिंशदधिकानि-५४०, मुहूर्तानां, सुद्धस्स चउत्थीए, पवतए पंचमी उ आउट्टी। शेषा उपरि तिष्ठन्ति नवह, ते महर्तकरणार्थ त्रिशता गुण्यएया आउट्टीओ, सव्वाश्रो सावणे मासे ।। २३४ ॥ न्ते जाते द्विशते सप्तत्यधिके-२७०, त्रयोदशमि १३ भांग हृते इह सूर्यस्य दशावृत्तया भवन्ति, पतच्चानन्तरमव भा- | लब्धाः सप्तविंशतिर्मुहूर्ताः२७, ते पूर्वस्मिन, मुहूर्तराशी Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउहि प्रक्षिण्यन्ते, जातानि पञ्चशतानि सप्तषष्यधिकानि ५६७, येsपि च एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा दिनस्य तेऽपि मुहूर्तभागकरणार्थे त्रिंशता ३० गुण्यन्ते, जातानि षट्शतानि त्रिंशदधिकानि ६३० तानि सनि एपले जातानि दशोरा चतुश्चत्वारिंशच्छतानि - ४४१०, तेषां दशभि १० भांगे हने लयानि बारिशतानि कारिंशदधिकानि ४४१ ते नेला मुद्रः पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्तं जातानि मुलांनां पञ्चशतानि त्रिसात्यधिक. नि- २७३ पाइरिता एकोनचत्वारि ३६६२ गुण्यते, जातानि चतुर्विंशतिशतानि अष्टादशाधि कानि- २४१८, तेषां सप्तया ६७भागे हृते लब्धाः पत्रिंशत् द्वापभागाः शेषादि ते एकस्य द्वाभागस्य सत्काः सप्तर्षष्टिभागा, एते चातिश्लक्ष्णरूपा भागा इति चूर्णिका भागा इति व्यपदिश्यन्ते तदेवमुक्तो ध्रुवराशिः। सू० प्र० ९२ पाहु० ७६ सूत्रटी० चं० प्र० १२ पाहु० । ज्यो सम्प्रति करणमाह ( ३८ ) अभिधानराजेन्द्रः । आउड्डीह एगुखिया, गुणियो हविज पुचरासी । एवं खियं एतो वोच्खामि सोहयगं ॥ २४२ ॥ ज्यो० १२ पाहु० | 'आउट्टीहि' इत्यादि, यस्यां यस्यामावृत्तौ नक्षत्रयोगो ज्ञातुमिष्यते तया तया आवृत्त्या एकोनिकया एकरूपहीनया गुणिसोनरूपधराशयेत् यावान् एतन्मुगु मुहपरिमाणम् अत ऊर्ध्वं वदामि शोधनकम् ॥ २४२ ॥ प्रथम नक्षत्रस्य शोधनमा (सू०प्र०) - अभिस्य नवहता, विसट्टिभागा उ होति च । छाबडी य समग्मा भागा सस्तविकया ।। २४३ ॥ उगुण पोट्टया, तिसु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया । तिसु नवनउएस भवे, पुणव्वसू उत्तराफग्गु ॥ २४४ ॥ पंचैव अपना सपाईं एगुणस्तराई बच्चेव । सोझाइँ विसाहाणं मूले सत्तेव चोयाला ॥ २४५ ॥ अट्ठसय मुगुणवीसा, सोहण गं उत्तरासादाणं । चउवसिं खलु भागा, खापट्टी बुशिया भागा ।। २४६ ।। ज्यो० १२ पाहु० 1 " 'अभिस्से' त्यादि, अभिजितः - अभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनकं नवरमुतः एकस्य च मुहूर्तस्व चतुर्विंशतिद्वाष्टिभागा एक स्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः सप्तषष्टिच्छेदकृताः समग्रा:परिपूर्णः पद्मष्टिभागाः ६६ कथमेतस्योत्पत्तिरिति " हामिति दोरात्रसरका एकविंशतिः सप्तष्टिभागार्थ देख योगः । ततोऽहोरा २० इति मुहू भागकरणार्थमेकविंशतिः २१, त्रिंशता ३० गुरायते जातानि पदाधिकानि (६३०) भागो हि बधान शितिद्वा रि६२मागकरणार्थ द्वारा ६२ ले जातानि परातानि चतुःसप्तत्यधिकानि (१६७४) या ६७ भागी हियते चाशिभिस्तिष्ठन्ति पदष्ट (६६) । ते च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः सप्तषष्टिभागाः ॥२४३॥ सम्प्रति शेषाणां शोधनकानि उच्यन्ते उगुमि स्वादिगाथात्रयम् एकोनषष्टिकोनधि प्रोष्ठप आउहि दा-उत्तरभाद्रपदा किमुक्तं भवति एकोनषष्यधिकेन शतेनामिजिदादीन्युत्तरभाद्रपदान्तानि नद्या शुद्धयन्ति । तथाहि नः मुहूर्ता अभिजितः त्रिशस्य विशनिष्ठायाः, पञ्चदश शतभिषजः, त्रिंशत्पूर्वभाद्रपदायाः, पञ्चचवारितरभाद्रपदाचा इति शुद्धन्ति एकोनषष्यधिकेन शतेनोत्तरभाद्रपदान्तानि नक्षत्राणि तथा नियोतेषु रोहिणिकान्तानि शुद्धयन्ति । तथा हो कोनषष्ट्यधिकेनशतेनोजभाङ्गपदान्तानि जपन्ति 9 ३० रेवती ३० अश्विनी पञ्चदशभिर्भरणी विद्या कृत्तिका, पञ्चचत्वारिंशता ४५ रोहिणिकंति, तथा त्रिषु नवनवत्यधिकेषु शतेषु पुनर्वस्वन्तानि शुद्धयन्ति । तत्र त्रिशिवकान्तानि शुद्धयन्ति ततबिराता ३० मृगशिरः पञ्चदशभिराद्रां पञ्चचत्वारि ४५ पुन इति तथा पञ्चशतान्ये कोनपञ्चाशदधिकनि उत्तरफाल्गुनी पर्यन्तानि किमुक्कं भयति-तेरेकोनपञ्चाशदधिकैरुत्तरफाल्गुभ्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति । तथाहि त्रिभिः शतैर्नयनयन्यां पुनर्वस्वन्तानि शुष न्ति । तता ३० पुष्यः पदमर शता ३० मघा, त्रिंशता ३० पूर्वफाल्गुनी पञ्चचत्वारिंशताउत्तरफाल्गुनीति तथा षट्शतानि एकोनसप्ततानि-एकोनसप्तत्यधिकानि विशाखानां विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि तथाहि उत्तराभ्यन्तानां पञ्चशतान्ये कोनपञ्चাराधिकानि शोध्यानि मु०हस्तस्य त्रिंशत् ३० विषायाः पञ्च १५ वातेः पञ्चचत्वारिंशद्विशाखाया, इति तथा मूल-मूलननक्षत्रे सोण्यानि तु चत्वारिंशदधिकानि ( ७४४ ) तत्र षट् शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि ( ७६६ ) विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, ततः शुनः अनुराधायाः, पञ्चरथष्ठायाः शि मूलस्पेति तथा अष्टौ शतानि समानानिमेकान विशत्यधिकम् । किमुक्कं भवति अष्टौ शतान्ये कोनविंशत्यधिकानि उत्तराषाढानाम् उत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनम्। तथाहि मूलान्तानां वायां शोधयानि तानि चत्वारिंशदधिकानि ७४४)तः " - २० पूर्वापादानात्रस्य पञ्चचत्वारिंशदुसराचादानामिति । तथा यथासंभवं सर्वेषामपि वामीयांशोधनकानामुपरि अभिजितः संबन्धिनः चतुर्विंशतिद्वापष्टिभागाः शोच्या एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः षट्षष्टिश्चूर्णिका भागाः ॥ २४४ ॥ २४५ ॥ २४६ ॥ " एयाइँ सोहइत्ता, जं सेसं तं हवेज नक्खतं । चंदेश समाउत्तं, आउट्टीए उ बोधव्वं ॥ २४७ ॥ 6 , पाई इत्यादि एतानि - अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथासंभवं शोधयित्वा शेषरत यथायोगमपान्त रावर्तिषु नक्षत्रेषु शोधितेषु च न शुजयति तत्रं चन्द्रेण समायुक्तं विनियामादितव्यम् । तत्र प्रथमायामावृत्तौ प्रथमतः प्रवर्त्तमानायां केन नक्षत्रेण युक्त १ इति यदि जिज्ञासा तत्प्रथमावृत्तिस्थाने एकको प्रियते स रूपोनः क्रियत इति न किमपि पश्चात् रूपमवतिष्ठते । ततः पाश्चात्ययुगभावनामावृतीनां मध्ये या दशमी - वृत्तिस्तत्संख्या दशक २०रूपा भियते तथा प्राचीनः सम Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) अभिधानराजेन्द्रः । आउहि स्तोऽपि भवराशिः पञ्चशतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य पशित् द्वार्षाष्ठभागा एकस्य च द्वापरिभागस्य पद सप्तपष्ठिनागाः (५७३) (३६०६२६/६७) इस्पे प्रायते तमुराशी दशमिगुणिते जातानि सप्तपञ्चाशत् शतानि त्रिंशदधिकानि (५७३०) येsपि च पशिद्द्वापटिभागास्तेऽपि दशभिर्गुणिते जानानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ( ३६०) तेषां द्वापया मागे इवे लब्धाः पञ्च ५ मुहूर्त्तास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिष्यन्तं जातः पूर्वराशि:- सप्तपञ्चाच्तानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ( ५७३५ ) शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्ठिभागाः पञ्चाशत् (५०) येऽपि च पद् चूर्णिकाभागास्तेऽपि दशमि १० गुणिता जाता पष्टि ६०, तत एतस्मात् शोधनकानि शोध्यन्ते । तत्रोत्तरापाडान्तानां नक्षत्राणां शोधनकमी शतान्ये कोनविंशत्यधिकानि (१) पतानि किल यधादितराशेः सप्तकृत्यः शुद्धिमास्तुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते जातानि सप्तपञ्चाशतानि यशदधिकानि (२०३३) तानि पञ्चाशच्छतेभ्यः परिधिकेभ्यः पात्यन्ते स्थिती पश्चात् द्वी २ मुहूर्ती द्वापष्टिभागकरणाचे द्वापष्ट्वा ६२ गुपते जातं चतुर्नित्यधिकं शतं ( १२४ ) द्वाषष्टिभागानाम् ततः प्राक्रने पञ्चाशज्ञक्षण द्वापष्टिभागराशी प्रक्षिष्यते जातं चतुःसप्तत्यधिकं श सम् (१७४) द्वापरिभागानां तथापि ये अभिजितः संबन्धि नचतुर्विंशतिद्वषष्टिभागाः शोध्यास्ते सप्तभिर्गुण्यन्ते जातमष्टषष्ट्यधिकं शतम् (१६८) तत् चतुःसप्तत्यधिकात् शतात् शोध्यते स्थिताः शेषा पराभागाः। ते पूर्णि काभागकरणार्थे सप्तषष्टया गुण्यन्ते गुणयित्वा च ये प्राक्तनाः षष्टिः सप्तषष्टिभागाः ते तत्र प्रक्षिष्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि द्वापद्यधिकानि ( ४६२ ) ततो ये अभिजितः संबधिनः पद पश्चूिर्तिकामागाः शेोध्याः ते सप्तभिएप जातानि चत्वारि शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि (४६२) तान्यनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् शून्यम्० तत श्रागत सातपादानत्रे बस भुक्रे सति तदनन्तर स्वाभिजित नक्षत्रस्य प्रथमसमये युगे प्रथम आवृत्तिः प्रथ र्त्तते । ज्यो० १२ पाहु० । चन्द्र० १२ पाहु० । सू० प्र० । अध धावनमासनादिनामावृशीनां संघहणीं गाथामाह पढमा होइ अभिरणा, संठाणाहि य तहा विसाहाहिं । रेवतीए उ चउत्थी, पुब्वद्दि फग्गुणीहि तहा ।। २२५ ।। 4 श्रावणमास भाविनीनामनन्त रोषित स्वरूपाणां पञ्चानामावृत्तीनां मध्ये प्रथमा आवृत्तिरभिजिता नक्षत्रेण युता भवति, द्वितीया संठाणाहि ' ति मृगसिरसा, तृतीया विशाखाभि: चतुर्थी रेवत्या, पञ्चमी पूर्वफाल्गुनीभिः । ज्यो० १२ पाहु० । 9 सम्प्रति वार्षिकीणामेवाssवृत्तीनां नक्षत्रयोगं प्रश्नरीत्या प्रतिपादयति ता एएसि णं पंचए संवच्चराणं पढमं वासिकि आउट्टि चंदे केणं शक्खत्तेणं जोगं जोएति, ता अभिया, अभि जिस परमसमयं तं समयं च सूरे के राखणं उहि जोगं जोएति १, ता मेणं, पुस्सस्स एसवीसं मुहुता तेतालीसं च वावट्टिभागा मुहुत्तस्स वावट्टिभागं च सत्तट्ठिहा देता तेतालीस चुणिया भागा सेसा, (सूत्र ७६ + ) " 'ता एएस समित्यादि एतेषाम् अनन्तरोदितानां पञ्चानां चन्द्रादीनां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां वार्षिकीं वर्षाकालसंबन्धिन श्रावणमासभाविनीमित्यर्थः । आवृति चन्द्रः केन नन ?-केन नक्षत्रे सहयोगमुपागतः सन् प्रवतंयति एवं गौतमेन प्रकृते भगवानाह ता - भिजिणा' इत्यादि, अभिजिता नक्षत्रेस युनक्ति, एतदेव विशेषत आय अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युनक्ति, तदेवं चन्द्रनक्षत्रमवबुध्यः सूर्यनक्षत्रविषयं प्रशमाह तं समयं च रामि' त्यादि, तस्मिंश्च समये रामिति वाक्यालद्वारे सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्कि केन नक्षत्रे सह सूर्यो योगमुपागतः सन् तां प्रथमामावृतिं प्रवतंयतीति । म गवानाह - ' ता पूसेमि त्यादि, ता इति पूर्व्ववत् पुष्येण युक्तस्तां प्रथममासि युनक्ति एतदेव सविशेषमाचतदान पुष्यस्य एकोनविंशति १३ मुंहशित् ४३ च द्वापरिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा दिल्या तस्य सरकारत्रयस्त्रिंशत् ३३ चूर्णिकाभागाः शेषाः । कथमेतद्वसीयत इति चेत् उच्यते-राशिकलात् तथाहि यदि दशभिरयनैः पञ्च सूर्यकृता नक्षत्र पर्यायान् लभामद्दे तत एकेनायनेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १०।५ । १ । अत्रा "त्येन राशिना एकक १ लक्षणेन मध्यमस्य राशेः पञ्चक ५ रूपस्य गुणने जाताः पञ्श्चैव ५, तेषां दशभि १० भीगो हियते लब्धम पर्यायस्य तत्रत्रभागरूपोऽष्टादशशतानि धिकानि (१८३०) तथाहि पद नक्षत्राणि शतभिषकृती क्षेत्राणि ततले प्रत्येकं सार्द्धजयत्रिशत् सप्तपरिभागा साजिश पद्भिर्गुण्यन्ते जाते द्वे शते एकोत्तरे (२०१) पद नक्षत्रायुत्तरभाद्रपदादीनि द्रबर्द्धक्षेत्राणि, ततस्तेषां प्रत्येकमेकं शतं सप्तषष्टिभागानामेकस्य च सप्तषष्टिभागस्यार्द्धम् एतत् षड्भिर्गुरायते जातानि षट्शतानि त्र्युत्तराणि - (६०३) शेषाणि पञ्चदश १५ नक्षत्राणि समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येकं सप्तपष्टिभागाः ततः सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुपते जातं पश्चोत्तरं सहस्रम् (२००५) एकविंशतिश्चाभिजितः सप्तषष्टिभागाः सर्वसंख्यया सप्तषष्टिभागानामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (१८३०) एप परिपूर्णः सप्तषष्टिभागारमको नक्षत्रपर्याय तस्थायें नय शतानि पञ्चदशोत्तराणि (६१) तेभ्य एकविंशतिरभिजितः संबन्धिनी शुद्धा, शेषाणि विष्ठत्यष्टी शतानि चतुर्गवत्यधिकानि (८६४) तेषां सप्तषष्ट्या६७भागो हियते लब्धास्त्रयोदश (१३) शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिः २३, त्रयोदशभिश्च पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ये च शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिः २३ भागाः ते मुहूर्त्तकरणार्थ त्रिंशता ३० गुएयन्ते जातानि पर शतानि नवत्यधिकानि (६६०) तेषां सप्तभागो हिले ला दश (१०) मुहूर्त्ता, शेपास्तिति विशतिः २०, सा २० द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वापट्या ६२ गुएपले जातानि द्वादशतानि चत्वारिंशदधिकानि (१२४० ) तेषां सप्तषष्ट्या६७भागो हियते, लब्धा अष्टादश द्वाषष्टिभागाः " Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उहि शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागास्ततः आगतं पुष्यस्य स मुष्येकस्य च मुहूर्तस्याटादशसु द्वापष्टिमागध्येकस्य च द्वाभागस्य चतुशि त्सप्तषष्टिभागेषु गतेषु एकोनविंशतौ च मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तमानेषु शेषेषु प्रथम १ - मासान्यावृत्तिः इति अथ श्रावणमास भाविद्वितीयाऽऽवृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहता एएस गं पंचहं संवच्छरणं दोचं वासिकिं श्रनुट्टि चंदे केणं नक्खत्तेणं जोगं जोएति । पुच्छा, ता संठागाहिं संठाणाय सो व अमिलायो- एकारस मुहुचे ऊताली संच वावट्टिभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा बेया पत्रा भागा सेसा तं समयं च यं सूरे केणं णक्खत्तणं जोगं जोएति पुच्छा, ता पूर्ण, पूरस्स तं व पटमाए (मूत्र- ७६८) जं I ( ४० ) अभिधानराजेन्द्रः । 'ताप समित्यादि, ता इति पूर्ववत् पचाम् अनन्त रोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां यार्थिक धावणमास भाविनीमावृत्ति चन्द्रः केन न युनक्लि-केन नक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रो द्वितीयामावृत्ति प्रारम्भयति?, एवं प्रश्न कृते सति भगवानाह - ' ता संठाणाहि इत्यादिता इति पूर्ववत् संस्थानाभिः संस्थानाशध्देन मृगशिरोनक्षत्रमभिधीयते । तथा प्रबचने प्रसिद्धेः, ततो सृगशिरोनक्षत्रेय बुरुचन्द्रमा द्वितीयां श्रावणमासमादिनीमापूर्ति प्रपयति तदानीं व सुगशिरोत्रस्य एकादश मुहूर्ताच मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः शेषाः । तथा हि-इह या द्वितीया श्रावणमाभाविन्यावृत्तिः ला प्रदर्शितकापेक्षा दुनीया ततस्तत्स्थाने त्रिको 3 रूपनः क्रियते इति जातो द्विकः२ तेनप्राशनो ध्रुवराशिः पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्तीनाम् एकस्य च मुद्दस्य पद्विशत् छापरिभागा एकस्य च द्वापभागस्य षट्सप्तष्टिः ५७३।३३।६४ भागाः इत्येवंप्रमाणो गुण्यते जातानि एकादश शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि मुहू तीनां [१९४६] द्वासप्ततिः७२ एकस्य मुहूर्त्तस्य सत्का द्वापविभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तपि भागाः २३ तत पतेभ्यो नमः शतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष सप्तष्टिमारेका परिपूर्वी नक्षत्र यः शुद्धः स्थितानि पश्चात् मुनीनां त्रीणि शतानि स. विशत्यधिकानि एकस्य च मुहर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वापभागा, एकस्य द्वाष्टिभागस्य प्रयोदश सप्त नागाः ३२७।०२। तत एतेभ्योसरेरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्थिया द्वापाः ६२ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पद्मथा सप्तषष्टिभागैः ६७ अभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि तेषु त्रैव नवोत्तरेषु "रोहिणिया" इत्यादि प्रागुक्तवचनात् ततः , उहि स्थिताः पश्चाद्-अटादश मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वार्थिशतिद्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः २८।३३।२३ एतावता च मृगशिरोन शुद्धयति ततः आगतं मृगशिरोनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्प एकोनचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीयां श्रावणमास भाविनीमा संयति। संप्रति सूर्यवि पये प्रश्न निर्वाचन चाहतं समर्थचरामि' स्यादिस समय सूर्यः केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतस्तां द्वितीयां वार्षिकीमाकृति युक्ति ? भगवानाह 'ता पूसेणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् पुष्येण युक्तः “तं चेव” इति वचनसामर्थ्यादिदं द्रव्यम् - "पुस्सस्स एगुणवीस मुहुना याच वायभागा मुदुत्तस्स वावटुमागे व सताना ती बुढ़िया भागा से"यस्य दशमयः पञ्च सूर्यनया लभ्यन्ते द्वा पानाभ्यामेका तराकुर्वन् सर्वदेवाभिजित नक्षत्रेण सह योगमुपागच्छति, दक्षिणायनं कुर्वन् पुष्येण, तस्य च पुष्पस्य एकोनविंशती मुनेश्वेकस्य व मुहर्त्तस्य त्रयारिशति द्वाषष्टिभागेष्येकस्य च द्वाष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तष्टिभाग तथा चक्रम् (पं० प्र०१२ पाहु०)अभितराहि नितो, आइथो पुस्यजोगवगयस्स । सव्वा आउट्टीओ, करेइ सो साबणे मासे || २४८ ॥ धावणे माये रामान् निष्कासन सूर्यः स अध्यावृतीः करोति पुष्येण सह योगमुपागम्य नान्यथा, त त्राणि पुष्यस्य त्रयोविंशतिं सप्त षष्टिभागान् भुक्त्वा, (ज्यो०) ते किल-" जं रिक्खं जावइए, वश्वव चंदेल भागसतट्ठी । तं पण भागे राई दियस्स सूरेण तावइप 39 ॥ १ ॥ इति वचनप्रामाण्यात् सूर्यमधिकृत्य रात्रिंदिवस्य पञ्चमागा द्रष्टव्याः, ततस्त्रयोविंशतेः २३ पञ्चभि ५ र्भागो हियते, लयाश्यावारो दिवसाखपथ पत्र भागा रात्रिंदिवस्य त त्रैकैकस्मिन् पञ्चभाग पदमुहर्ता लभ्यन्ते, दोरायो हि अहोरात्रो त्रिंशन्मुहूर्त्त प्रमाणस्ततस्तस्य पञ्चमो भागः घरामुहूर्तप्रमाणो भवतीति चिभिश्च पञ्चभारदमुनी या पा नामष्टादशप्रमाणत्वात् तत् आगतं चतुर्षु दिवसेषु श्रष्टादशमुहूर्तेषु पुष्यनक्षत्रस्य भुक्रेषु सर्वाभ्यन्तरान् मण्डलाद्वद्दि: सूर्यो निष्कामति ०१२प० । संवाद अठारस य मुहुत्ते, चत्तारि य केवले अहोरते । पुस्सस्स विसयमइगतो, बहिया अभिनिक्खमइ सूरो । २५०| अष्टादश मुहूर्तान् चतुरय४ कथलान् परिपूर्णान् अहोरा त्रान् पुष्यनक्षत्रस्य विषयमतिगतः - प्राप्तः सन् 'बहिया अभिविवाह सूर्यः सर्वाभ्यन्तराम्मएद्वद्दिर्निष्क्रामति । ज्यो० १२ पाहु० , सम्प्रति धावणमासभाषितृतीयावृत्तिविषयं सूत्रमादता एएस पंचराई संचच्छरणं तथं पासिकि आउट्टि चंदे के क्खत्ते जोगं जोएति ?, ता विसाहाहिं विसाहाणं तेणं चैव अभिलावेणं तेरस १३ मुहुना चउप्पलं च Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाउहि अभिधानराजेन्द्रः । पाउद्दि वावट्ठिभागा मुहुतस्स वावद्विभागं च सत्तद्विधा छत्ता ।। 'ता एएसि णमि' त्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता रेवई हिं' इत्यादि, रेवत्या युक्तश्चन्द्रः चतुर्थी श्रावणमासभाविनीचत्तालीस ४४ चुस्मिया भागा सेसा,तं समयं च ॥ सूरे केणं . मावृत्ति प्रवर्तयति, तदानीं च रेवतीनक्षत्रस्य पञ्चविंशतिणक्खत्तेणं जोगं जोएति ? ता पूमेणं, पूमस्स गं तं चेव, मुहूर्ता द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टि'ता एएसि णमि' त्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता विसा. भागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षडविंशतिश्चूर्णिकाहाहिं' इत्यादि. 'ता' इति पूर्ववत् , विशाखाभिः-विशा- भागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया श्रावणमासस्वानक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रमाम्हनीयां श्रावणमासभाविनी- भाविनीचतुर्यावृत्तिः, सप्तमी ततः सप्तको ७ ध्रियते, म मावृत्ति प्रवर्तयति, तदानी च तृतीयाऽऽवृत्तिप्रवर्तनसमय रूपानः कार्य इति जातः षट्कः ६, तन ६ प्राक्तनो ध्रुवराशिः विशाखाना-विशाखानक्षत्रस्य प्रयोदश १३ मुहूर्ताः एकस्य ५७३। ३६।६। गण्यते, जातानि चरित्रशच्छतानि अष्टा१च मुहूर्नस्य चतुःपञ्चाशद् द्वापणिभागा एकं च द्वाप- त्रिंशदधिकानि ( ३४३८ ) मुहूत्तीनां, मुहर्तगतानां च द्वाषष्टिमार्ग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काश्चन्यारिंशच्चू- हिमागानां द्व शते घोडशातरे ( २१६ ) एकस्य च गिकाभागाः शचाः, तथा हि-वतीया श्रावणमासभा- द्वापष्टिभागस्य पशि ( ३६ ) सप्तपष्टिभागाः तत विन्यावृत्तिः पूर्वग्रदर्शितक्रमापेक्षया पञ्चमी ५, ततस्त- एतेभ्यो द्वात्रिंशता शनैः पदमप्तत्यधिकैमर्त्तानां, मुहूस्थान पञ्चको ५ ध्रियते स रूपोनः कर्य इति जात- तयतानां च द्वापष्ठिभागानां पावत्या द्वापटिभागसत्कानां श्च पुष्कः ४ तेन ४ प्राक्तनो ध्रुवराशिः-५७३।१० गुण्यते च सप्तटिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यां चतुःषष्ठिमहिनाभ्यां जातानि द्वाविंशति शतानि विनवत्यधिकानि मुहूर्तानां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितं पश्चादेकं द्वापश्यधिक चतुश्चत्वारिंशं शतं मुहूर्तगतानां द्वापष्टिभागानामेकस्य च मुहूर्नश मुहूर्तगतानां च द्वाष्टिभागानां पोडशोत्तर शतम् द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः-२२६२।१४४१४। एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः सत तेभ्यः षोडशभिर्महूर्तशतैरात्रिंशदधिकरणाचत्वारिं (१६२) (११६)४० । तत्र एकानषष्टयधिकेन मुहूर्तशतेन एकशता च द्वापष्टिभागैर्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागगतानां च सप्त- स्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च पष्टिभागानां द्वात्रिंशन शनन द्वौ परि पूमी नक्षत्रपर्यायौ द्वापष्टिभागस्य पषष्टया सप्तष्टिभागः १५६ । २४। ६६ । शुद्धौ, स्थितानि पश्चात् षट् शतानि चतु पश्चादधिकानि अभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि भूयः शुमुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च द्वापटिभागानां चतुर्नतिरेकस्य द्वानि. स्थिताः पश्चात् त्रया मुहूर्नाः मुहूर्तगतानां च द्वाषच द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागः-६५४६४॥२६॥ टिभागानामेकनवतिरेकस्य च द्वरपष्टिभागस्य एकचत्वारिंनत एनेभ्यः पञ्चभिः शतैरकानपञ्चाशदधिकैर्मुहुर्तानामेकम्य शत्सप्तपष्टिभागाः द्वाषष्टया च द्वापष्टिभागैरेका मुहूत्तों च मुहूर्नस्य चतुर्विशत्या द्वाष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टि लब्धः, स मुहूर्तराशी प्रक्षिप्ते, जाताश्चत्वारो ४ मुहता, भागस्य पटाएयासप्तपष्टिभागेरभिजिदादीन्युभरफाल्गुनी एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः ( एकस्य पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि । स्थितम् पश्चात् पश्चोत्तरं मुहू च द्वापष्टिनागस्यैकवत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः)४।२६ । संशतं मुर्तगतानां च द्वापटिभागानामे कोनसप्ततिरेकस्य ४१ । तत आगतं-रवतीनक्षत्रं पञ्चविंशती मुहध्वेकस्य च च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, तत्र द्वाष मुहूर्नस्य द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेक भ्य च द्वापष्टिभागस्य घ्या द्वापष्टिभामैरेको १ मुहूनों लब्धः, स्थिताः पश्चात् सप्त पइविंशती सप्तरष्टिभागेषु शंषषु चतुर्थी श्रावणभाविनीद्वापष्टिभागाः, लब्धश्च मुहूर्तों मुहूर्तगशौ प्रक्षिप्यते. जातं मावृत्ति प्रवर्त्तयति, 'तं समय च णमि' त्यादि, सूर्यनक्षत्रबहुत्तरं महशतं १०६ ततः पञ्चसप्त-या मुहू तैः हस्ता विषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद्भावनीयम् । दनि स्वातिपर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुदानि,स्थिताः शषाः साम्प्रतं पञ्चमं श्रावणमासभाविपञ्चमावृत्तिविषयं एकत्रिंशन्मुहूर्ताः ३१, आगतं विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदशसु प्रश्नसूत्रमाहमुहर्नेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वापष्ठिभागेष्वे ता एएसि.णं पंचएहं मंवच्छराणं पंचमी वासिकिं आकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागषु शेषेषु चन्द्रस्तृतीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति। उट्टि चंदे केणं णवत्तेणं जोगं जोएत्ति ?, ता पुचाहिं फसम्प्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निवचनसूत्रं चाह-'.तं ग्गुणीहिं पुव्वाणं फग्गुणीणं वारस १२ मुहुत्ता सत्तालीसं च समयं च पमि' त्यादि. सुगमम् । चं० प्र० १२ पाहु। वावडिभागा मुहुत्तस्स वावद्विभागं च संत्तट्ठिहा छत्ता. सम्प्रति श्रावणमासभावि (ज्यो०) चतुर्थ्यावृत्तिविषयं तेरम १३ चुरिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं प्रश्नसूत्रमाहता एएमिखं पंचएहं संबच्छराणं चउत्थि ४ वासिकिं णक्खत्तेणं जोग जोएति ?, ता पूसणं पूसस्स णं तं चेव । आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ता, रेवतीहिं रेव- (सूत्र-७६+)॥ तीणं पणवीसं मुहुत्ता वासट्ठिभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं 'ता एसि णमि' त्यादि, सुगम. भगवानाह-'ना पुव्वाहिं च सत्तट्ठिहा छेत्ता वत्तीमं चुमिया भागा सेसा, तं समयं फग्गुणीहि' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् . पूर्वाभ्यां फाल्गुनीच णं सूरे केणं णक्खनेणं जोएति ?, ता पूमेणं पूमस्स भ्यां युक्तश्चन्द्रः पश्ची ५ थावगामासभाविनीमावृत्ति प्रवर्त यति नदानी च तम्य पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादश १२ मुहुणं तं चेव । ( मूत्र-७६ +)॥ ताः एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् ४७ द्वापष्टिभागाः Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) पाउहि अभिधानराजेन्द्रः । पाउदि ६२ एकं च द्वापष्टि ६२ भागं सप्तपष्टिधा ६७ छित्त्वा तस्य क सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति १, उत्तराहिं आसासत्कास्त्रयोदश १३ चूर्णिकाभागाः शेषाः । तथा हि-पञ्चमी ढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए १॥ श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः प्रामदर्शितक्रमापेक्षया नवमी ततः तत्स्थाने नवको ध्रियत । स रूपोनः कार्य इति. 'ता एएसिण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषाम्-अ. जाना प्रौ ८, तैः प्रागुक्ता धूवराशिः ५७३। ३६ गुण्यते नन्तरादितानां चन्द्रादीनां पश्वानां संवत्सराणां मध्य प्रथजातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहर्ता मां हेमन्तीमावृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, केन नक्षनां, मुहुर्तगतानां च द्वाणि ६२ भागानां द्वे शते अपाशीत्य प्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयतीति भावः , भगवाना. धिके एकस्य च द्वापटिभागस्याष्टाचत्वारिंशत् सप्तष ह-'ता हत्थेणं' इत्यादि , ता इति पूर्ववत् , हस्तन-हटिभागाः ४५८टा२।४८ तत एतभ्यश्चत्वारिंशता मुहूर्त स्तनक्षत्रण युक्तश्चन्द्रः प्रवर्त्तयति , तदानीं च हस्तनक्षत्रस्य शतैः पञ्चनवत्यधिकमहत्तंगतानां च द्वापष्टिभागानां विंश पञ्च५मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चाशत् द्वापष्टिभागाः ए. त्यधिकन शतेन एकस्य च द्वापष्टिमागस्य सत्कानां समप कंच द्वाष्टभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः टिश्चटिभागानां त्रिंशदधिकैत्रिभिः शतैः पञ्च५ नक्षत्रयायाः र्णिकाभागाः शयाः, ताहि-हेमन्ती प्रथमा प्रावृत्तिः प्रागुशुद्धाः, स्थितानि पश्चान्मुहुर्तानां चत्वारि शतानि एकोन क्रक्रमापेक्षया द्वितीया ततस्तत्स्थाने द्विको ध्रियत , स रूनवयधिकानि मुहर्तगतानां च द्वाणिभागानां शतं त्रिष पोनः कार्य इति जात एककः तेन१प्रागुको धूवराशि:-५७३। एयधिकम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तष हा । गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवती' ति जा. टिभागा:-४८६ | १६३ । ५३। तत एतेभ्यो भूयः त्रिभिः तस्तावानेव ध्रुवराशिः, तत एतस्मात् पञ्चभिः शतैरे कोनशतर्नवत्याधिकैर्मुहूर्तानामकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या पश्चाशदधिकैर्मुहर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्ठिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पटया सप्तषष्टिभा द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पएथा सप्तषष्टिभागगैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्रणि शुद्धानि स्थिताः रभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थि. पश्चान्मुहर्नानां नवतिः मुहुर्तगतानां द्वापष्टिभागानामा ताः पश्वाचतुर्विश्चतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य एकादश द्वापष्टिभागाः एकस्य च ६२ भागस्स सा सप्तपष्टिभागाः त्रिंशदधिकं शतम् एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत् २४ । ११ । ७। तत आगतं हस्तनक्षत्रस्य पञ्चसु मुहतेषु सनषष्टिभागाः ६०२३८५४। तत्र चतुर्विंशत्यधिकेन द्वाष एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च टिभागशतेन द्वौ मुहूनों लब्धौ पश्चात् स्थिता द्वाषष्टिभा द्वापष्टिभागस्य षष्यै सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमां हेमन्तीगाश्चतुर्दश, लब्धौ च मुहौ मुहर्तराशौ प्रक्षिप्यते जाता मावृत्तिं चन्द्रः प्रवर्तयतीति । सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नमुहर्नानां द्विनवतिः-१२।१४॥५५॥ तत्र पञ्चसम्मत्या ७५ मुहूतः सूत्रमाह-तं समय च ण' मित्यादि , तस्मिश्च समय पुष्यादीनि मघापर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्रस्तां प्रथमां हेमन्तीमावृत्ति पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः-१७॥१४॥५४॥ न चैतावता पूर्व युनक्ति-प्रवर्तयति', भगवानाह-'ता उत्तराहि' इत्याफाल्गुनी शुध्यति तत आगतं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादश | दि, उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां तदार्नी चोत्तरापढायाश्चसु १२ मुहर्ने ध्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वाषधि रमसमयः, समकालमुत्तराषाढानक्षत्रमुपभुज्याभिजिन्नक्षभागेषु एकस्य च द्वापाट ६२ भागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टि प्रस्य प्रथमसमये प्रथमां हेमन्तीमावृत्ति सूर्यः प्रवर्तयभागेषु शंषषु पञ्चमी ५ श्रावणमासभाविनी श्रावृत्तिः प्रवर्त्त तीति भावः, तथाहि-यदि दशभिरयनैः पञ्च सूर्यकृतानते । सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद्भावनी क्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकनायनेन किं लभामहे ?,रायम् । चन्द्र०१२पाहु०। सू० प्र०। ज्यो०० शित्रयस्थापना-१०।५।१। अत्रान्त्येनराशिना एककलक्षणन तदेवं चन्द्रनक्षत्रयोगविषये, सूर्यनक्षत्रयोगविषये च पञ्चा- मध्यमस्य पञ्च५ करूपस्य राशेर्गुणनं जाताः पश्चैव तेषां दशपि वार्षिकीगवृत्तीः प्रतिपाद्य, संप्रति हेमन्तीः प्रतिपिपाद- भिर्भागे हते लब्धमेकमद्धे पर्यायस्य, अर्द्ध च पर्यास्य सापयिषुः (चं० प्र०१२पाहु०) प्रादौ चन्द्रनक्षत्रविषयकसंग्रहणी| टिभागरूपं नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ११५,तत्र ये विंशतिः, गाथामाह सप्त०६७ भागाः पाश्चात्ये अयने पुष्यस्य गताः शेषाश्चतुश्चत्वा. हत्थेण होइ पढमा, सयभिसयाहि य ततो य पुस्सेण। रिंशत्सप्तष्ठिभागाः स्थिताः ते साम्प्रतमितो राशेः शोध्यन्ते मूलेण कत्तियाहि य, प्राउट्टीयो य हेमंते ॥ २३८॥ स्थितानि शपाण्यटौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि८७१, तेषां स. हेमन्ते-माघमासे प्रथमा १ श्रावृत्तिर्भवति हस्तेन-हस्तनक्ष सपष्ट्या भागे हृत लब्धास्त्रयोदश पश्चान्न किमपि तिष्ठति, प्रेण युना, द्वितीया२ शतभिषजा, वृताया३ पुष्येण, चतुर्थी। त्रयोदशभिचारले गादीन्युत्तराषाढापर्यन्तानि शुद्धानि , तत मूलन, पञ्चमी ५ कृतिकाभिः । ज्यो० १२ पाहुः । आगतम्-अभिजितः प्रथमसमये माघमासभाविनी १ प्रा. वृत्तिः प्रवर्तते, एवं सर्वा अपि माघमासभाविन्य प्रावृत्तयः प्रथमावृत्तिः सूर्यनक्षत्रयोगमधिकृत्य वेदितव्याः , उक्नं च-“बाहिर श्रो ता एएसि णं पंचएहं संवच्छराणं पढम हेमति आउट्टि पविसंतो पाइयो अभिहजोगमुवयगम्मि । सब्बा पाउद्दीनो चंदे केणं णक्वत्तेणं जोगं जोएति ?, ता हत्थेणं, हत्थस्स | करेइ सो माघमासंमि ॥१॥" शं पंच मुहुत्ता परमासं च बावद्विभागा महत्तस्स बावद्विभागं द्वितीयहेमन्ताऽऽवृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहच सत्तद्विधा छेत्ता सढि चुमिया भागा सेसा, तं समयं च ता एएसि णं पंचएहं संबच्छराणं दोचं हेमंतिं आउट्टि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) आउहि अभिधानराजेन्द्रः। प्राउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ?, ता सतभिसयाहिं, भागा एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कासतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा स्त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शिन क्रमापक्षया तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः षष्ठी ततस्तमुहुनस्स चावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छत्तालीसं स्याः स्थान षट्टो ध्रियत स रूपानः कार्य इति जातः पश्चचुमिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं कस्तेन स प्राननो ध्रुवराशिः ५७३ । ३६ । ६ । गुण्यते जाजोगं जोएति ?, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं प्रासा- तान्यष्टाविंशतिः शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्तानां मुहढाणं चरिमसमए २॥ तंगतानां च द्वापष्टिभागानामशीत्यधिकं शतम् एकस्य च द्वा पष्टिभागस्य त्रिंशत् सन्तष्टिभागाः २८६५ । १८० । ३० । तत "ता एएसि स्प' मिस्यादि सुगम भगवावाह'ता सयभिसया एतभ्यः सप्तपञ्चाशदधिकैः चतुर्विशतिशतैमानामेकमुहहिं' इत्यादि. ता इति पूर्ववत् , शतभिषजा युक्तश्चन्द्रो द्वितीयां गतानां च द्वापष्टिभागानां द्विसप्तत्या एकस्य च द्वाष्टहैमन्तीमात्ति प्रवर्तयति , तदानीं च शतभिषजो नक्षत्रस्य भागस्य सत्कानां सप्तरष्टिभागानामष्टानयत्यधिकेन शतेन द्वौ मुहत्तीवेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाविंशतिद्वाषष्टिभागा एक च द्वापतिभागं सम्रपरिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षट्चत्वारिंश २४५७ । ७२ । १६८ । त्रयो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चात् चत्वारि मुहूर्तशतान्यष्टोत्तराणि मुहूर्तगतानां च चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितक्रमापक्षया द्वापष्टिभागानां पश्चात्तरं शतमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चद्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिश्चतुर्थी ततस्तस्याः स्थाने दुखिशत्सप्तपष्टिभागाः ४०८ । १०५ । ३४ । तत एतेभ्यस्त्रिचतुष्कोधियते स४रूपानः कार्य इति जातखिकः ३ तेन ३ भिः शनैनवनवत्यधिकैमुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विमाक्रमो ध्रुवराशिः१७३।३६। ६ । गुण्यते जातानि सप्तदश शत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्टया सप्तशतान्यकोनविंशत्यधिकरनि मुहूर्तानां मुहत्तंगतानां च द्वा षष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धापधिभागानामष्टोत्तरं शतमेकस्य च द्वापटिभागस्याष्टादश नि, स्थिताः पश्चान्नव मुहर्ता मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभासप्तपष्टिभागाः १७१६ । १०८।१८ तत एतेभ्यः षोडशभिः गानामशीतिः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुषिशत्सप्तपछिशतैरष्टात्रिंशदधिकैर्मुह नामकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरकद्वापष्टिभागसत्कानां च सप्तपष्टिभा भागाः द्वाषष्ट्या च द्वापष्टिभागैरेको मुहूत्तों लब्धः स मुहगानां द्वात्रिंशदधिकेन शतेन द्वौ नक्षत्रपर्यायौ शुद्धौ, स्थिताः तराशौ प्रक्षिप्यते जाता दश मुहूर्ताः शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषपश्चादेकाशीतिर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्याप्टापश्चाशत् ष्टिभागा अष्टादश-१० । १८ । ३४ । लत श्रागतं-पुष्यस्य द्वापरिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशतिः सप्तषष्टि एकोनविंशती मुहूर्ने ध्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति भागाः । ५८ । २० । ततो भूयो नवभिर्मुहरेकस्य च द्वापष्टिभागेष्वकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषमुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य ष्टिभागेषु शषेषु तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते । षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्रं शुद्धं, स्थिताः पश्चाद् सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगमम् । द्वासप्ततिर्मुहुर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशत् द्वाषधि- चतुर्थमाघमासभाब्यावृत्तिविषयं प्रश्नमूत्रमाहभागा एकस्य च द्वापटिभागस्यैकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ता एतेसि णं पंचएहं संवच्छराणं चउत्थि हेमंतिं पाउट्टि ७२ । ३३ । २१ । ततत्रिंशता मुहतैः श्रवणः शुद्धस्त्रिंशता धनिष्ठा पश्चादवतिष्ठन्ते द्वादश १२ मुहूर्ताः, शतभिषक्नक्षत्रं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ?, ता मलेणं. मलस्स चार्द्धनक्षत्रं, तत श्रागतं शतभिषजो नक्षत्रस्य द्वयोर्मुहूर्त- छ मुहुत्ता अट्ठावनं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं यारेकस्य च मुहूर्तस्याटाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च च सत्तद्विधा छेत्ता वीसं चुलिया भागा सेसा, तं समय द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तष्टिभागेषु शेषेषु द्वि | च णं सरे केणं णक्खणं जोगं जोएति , ता उत्तराहिं तीया हैमन्ती श्रावृत्तिः प्रवर्तते । सूर्यनक्षत्रयांगविषयं प्रनसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगम, प्रागेव भावितत्वात् । आसाढाहिं, उत्तराणं प्रासादाणं चरिमसमए ४॥ अधुना तृतीयमाघमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह 'ताएपसिण'मित्यादि सुगम भगवानाह'तामूलण'मित्यादि, तेसि णं पंचएहं संवच्छराणं तचं हेमंतिं आउट्टि चंदे ता इति प्राग्वत् ,मूलेन युक्तश्चन्द्रः चतुर्थी४ हेमन्तीमावृत्ति प्र. केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ?, ता पूसेणं, पूसस्स एकूण वर्तयति, तदानी च मूलस्थ-मूलनक्षत्रस्य षद् मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्याष्टापञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एक च द्वापटिभागं वीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बाट्ठिभागा मुटुत्तस्स वावट्ठि- सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिश्चूर्णिकाभागाः भागं च सत्तद्विधा छत्ता तेत्तीसं चुलिया भागा सेसा, तं शेषाः, तथाहि-चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितसमयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ?, ता क्रमापेक्षया अटमी तस्याः स्थाने अपको ध्रियते सफरूपोनः कार्य इति जातः सप्तकः७ तेन स प्राक्क्रनो ध्रुवराशिः ५७३ । उत्तराहिं प्रासादाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए ३॥ । गुण्यते जातान्येकादशोत्तराणि चत्वारिंशन्मुहू'ता एएसि ण ' मित्यादि, सुगम, भगवानाह- ता पृसण' संशतानि मुहुर्नगतानां च द्वाषष्टिभागानां वे शते द्विपञ्चामित्यादि, ता इति प्राग्वत् पुष्येण युक्तश्चन्द्रस्तृतीयां माघ-1 शदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशत् सप्तपष्टिमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानीं च पुष्यस्य एकान-1 भागाः-४०११ । २५२ । ४२ । तत एतेभ्यः षट्सप्तत्यधिकैविंशतिर्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टि- त्रिशच्छतैर्मुहूर्तानां मुहूर्तगतानांच द्वाषष्टिभागानां षरण Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (४४ ) अभिधानराजेन्द्रः | उहि बत्या द्वाषष्टिभागसत्कानां च सप्तषष्टिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यामषष्ट्यधिकाभ्यां चत्वारो ४ नक्षत्रपर्यायाः वा स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मुहूर्त्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्विपञ्चाशदधिकं शनम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत्सप्तष्टिभागाः७३५ | १५२ | ४६ | तत एतेभ्यो भूयः षड्भिः शतैः मुहूसीमामेकोनसप्तत्यधिकैरेकस्य व मुहूर्त्तस्य चतुयापष्टिमागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पदपष्ट्या सप्तमारमिजिदादीनि विशाखपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः पश्चात् पटही सुसंगतानां च द्वाष्टभागान सप्तविंशत्यधिकं शतम् एकस्य न द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिशत्पष्टिभागाः, चतुर्विंशत्यधिकेन च द्वाष्टभागशतेन द्वौ मुहत्तौ लब्धौ तौ २ मुहूर्त्तराशी प्रक्षिप्येते जाताः अष्टनिःशेषस्तिष्ठन्ति द्वाष्टिभागाश्रयः ६८३४७॥ ततः पञ्चचत्वारिंशता मुहूर्त्तेरनुराधाज्येष्ठ शुद्धे, शेषाः स्थि विशतिः २३ । ३ ४७ तव द्यागतं मूलस्प मुकस्य च संस्थाचापश्चाशति द्वापष्टिमागेव्येकस्य च द्वास्ति सप्तपदिभागेषु शेषेषु चतुर्थी ४ माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तने । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं निर्वाचनसूत्रं च सुगमम् । इह तावद् माघमासभाविपञ्चस्यावृनिविषयं प्रश्नसूत्रमाहता एएसि पंच बच्चराणं पंचमं मंतिं धनुि चंदे के राक्खणं जांगं जोएति १, ता कत्तियाहिं कत्तियाणं अट्ठारस मुहुत्ता, छत्तीसं च वावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स वावट्टिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता छ चुमिया भागा सेसा, तं समयं च गं सूरेकेणं खक्खत्तेगं जोगं जोएति १, ता उचराहिं आसादाहिं उत्तराखं असादायं चरिमसमए ५ ॥ ( सूत्र - ७७+ ) 'ता एसि गमि' त्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता कतियाहिं ' इत्यादि । ' ता" इति पूर्ववत्, कृत्तिकाभिर्युक्तश्च तस्य पञ्चमी हेमन्तीमावृत्ति प्रदर्शयति तदानी कृतिका नक्षत्रस्याष्टादश १८ मुहूर्ता एकस्य १ च मुहूर्तस्य पत्रिशद्वाषष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपटिया दिस्या सरकाः पद ६ चूर्णिकाभागाः शेषाः तथाहिपञ्चमी ५ माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रामुपदर्शितकमाया दशमी १० ततस्तस्याः स्थाने दशको १० ते स रूपनः कार्य इति जातो नवकः ६, तेन प्राक्तनो भुवराशि:- ५७३ । ३६ । ६ । गुण्यते जातान्येकपञ्चाशच्छतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाप शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि एकस्य च द्वाष्टभागस्य चतुःपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ५१५७ २२४ । ५४ । तव एतेभ्य एकोनपञ्चाशच्छतेमुंहः चतु दशाधिकैः मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां चतुश्चत्वा रिंशदधिकेन शतन द्वाषष्टिमागतानां च सप्तषष्टिभागान विधिः पत्रपर्यायाः शुद्धः खने पानां शते विचत्वारिंशदधिके मुतानां च द्वाषष्टिनामानां चतुःसप्तत्यधिकं शतमेकस्य च द्वापदिभाग आउहि स्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः - २४३ | १७४ ६०। तत एकोनषष्ट्यधिकेन शतेन एकस्य च मुहूर्तस्य चतुि परिमागरकस्य च द्वाषष्टिभागस्य या सप्तष्टि भागैरभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूतानां चतुरशीतिः; मुहूर्त्तगतानां स द्वाषष्टिभागानां शतमेोपाधिकम् एकस्य च द्वापभागस्य एकषष्टिः सप्तषष्टिमा १४६६१ ततो द्वाष्टभागानां चतुर्दिशत्यधिकेन शतेन दी मु सौ सम्धी पश्चात् स्थिताः पञ्चविंशतिः २४ द्वापष्टिभागाः, लब्धौ च मुहूर्ती मुहूर्त्तराशी प्रक्षिप्येते जाता षडशीतिन ततः पञ्चानां रेपभरण्यः शुद्धः स्थिताः पचांदेकादशमुह शेर्पा तथैव १९ । २५ । ६१ । तत आगतम् - कृत्तिका नक्षत्रस्याटादशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु शेषे › , " , • 66 पञ्चीमती आवृत्तिः प्रवते, सूर्य नक्षत्रयोगविषये च प्रश्ननिर्वचनसूत्रे सुगमेतदेवमुकाः १०शापि नक्षत्रयोगमधिकृत्य सूर्यस्यावृत्तयः॥ सम्प्रति चन्द्रस्य चक्रव्याः तत्र परिमय नक्षत्रे प्रवर्तमानः सूर्योदक्षिणा, उत्तरा या आ सीः करोति तस्मिन प्रमानन्द्रोऽपि दक्षिणउत्तर पानीः कुरुते ततो या उत्तराभिमुख्यवृत्तयो युग चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिना नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्याः, यास्तु दक्षिणाभिमुखाः ताः पुष्पेन्द्र ( ज्योतिष्कर १२ प्राभृते ) - " चंदस्स वि नायव्वा श्राउट्टीश्रां जुगम्मि जा दिट्ठा अभिपुय निप॥२५॥ श्रत्र - " नक्खत्त से सें' नि नक्षत्रार्द्धमासेन शेषं सुगमम् । तपाभित्तिराभिमुख प्रवृत्तयो भाव्यन्ते यदि चतु त्रिशदधिकेनायनशनेन चन्द्रस्य सप्तत्रिया - यन्ते ततः प्रथमे अपने किं लभ्यते ? राशिथापना| १३४ । ६७ । १ । अषाम्येन राशिना - एककल मध्यमस्य राशेः सप्तवष्टि६७रूपस्य गुणनं जाता सप्तपरेिव १७ एकेन गणितं तदेव भवतीति वचनात् तस्याश्च सप्तषष्टेः ६७ चतुस्त्रिंशदधिकन शतेन १३४ भागे हुने लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य । तस्मिथा नव शतानि पञ्चराणि सप्तषष्टिभागानां भवन्ति तत्र त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु पुष्यनक्षत्रस्य भुक्तेषु दक्षिणाऽऽयनं चन्द्रः कृतवान् ततः शेषाश्चतुश्चत्वा रिंशत् सप्तषष्टिभागा अनतरोदितराः शोध्य शोध्यन्ते स्थितानि षाणि अष्टी शतान्येकसप्तत्यधिकानि ( ८७१ ) तेषां सप्ता६७ भागो हियते इह कानिचित् क्षेत्राणि तानि च सार्द्धत्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागप्रमाणानि का निचित् समक्षेत्राणि तानि परिपूर्ण नागप्रमाणानि का निचिश्च द्वयर्द्धक्षेत्राणि तान्यर्द्धभागाऽधिकशतसंख्य सप्तष्टिभागप्रमाणानि गात्रं त्वधिकृत्य सप्तषष्ट्वा शुद्धयन्ति इति ततः सप्तषष्या भागहरणं लब्धास्त्रयोदश १३ राशिवोपरितनो निर्लेपतः शुद्धस्तैश्च त्रयोदशभिः १३ अश्लेषादीनि उत्तराषादापर्यन्तानि नाति युद्धानि तत प्रगतमभिजिनो नक्षत्रस्य प्रथमसमये चन्द्र उत्तरायनं करोति एवं चन्द्रस्योत्तरायानिवेदितव्यानि उप " , 3 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माउहि अभिधानराजेन्द्रः। प्राउट्टीकम्म बरसे उ मुहुत्ते, जोइत्ता उत्तरासादा उ । एकं च अहो- शेषास्तिष्ठन्ति विंशतिः २०, प्रामतं पुनर्वसु नक्षत्रे सर्वारत्त, पविसइ अभितरे चंदो ॥१॥" श्रधुना पुष्ये दक्षिषा, त्मना भुक्ने पुष्यस्य दशसु १० मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त. आवृत्तयो भाव्यन्ते-यदि चतुस्त्रिंशदधिनायनशतेन सप्तष- स्य विशती सप्तपष्टिभागेषु भुक्तेषु सर्वाभ्यन्तरान्मएडपिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभामहे ११, लाहिर्निष्कामति चन्द्रः । तथा चाह (चं० प्र०१२ पाहु०।)राशिवयस्थापना-१३४।६७।१। अत्रान्त्येन राशिना एकक दस १० य मुहुत्ते सगले,मुहुत्तभागे य वीसई २०चेव लक्षणन मध्यमस्य राशः सप्तपष्टि ६७ रूपस्य गुपनं जाताः पुस्सस्स विसयमभिगमओ, बहिया अभिनिक्खमइ चंदो सप्तटिरेव ६७, तस्याः ६७ चतुस्त्रिंशदधिकशतन१३४भाग. ।। २५३॥ हरणं लब्धमकम पर्यायस्य तव सप्तपष्टिभागरूपाणि नव शतानि पश्चदशोत्तराणि-६१५, तत एकविंशतिः २१ अभि दश १० च सकलान्-परिपूर्णान् मुहूर्तान्-मुहूर्तभागन जितः संबन्धिनः समष्टिभागाः शोध्यन्त स्थितानि पश्चाः। सप्तपष्टि ६७ रूपान् विंशतिः२० पुष्यविषयमभिगतः सन् दौ शतानि चतुर्नवत्याधिकानि-८१४ तेषां सप्तपटया सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाहिनिष्कामति चन्द्रः । ज्यो० १२ भागो हियते लब्धास्त्रयोदश १३ तैश्च त्रयोदशभिः १३ पुन- पाहु० । सू०प्र०। वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि,शेपा तिष्ठति त्रयोविंशतिः२३, आउट्टि(न)-आकुट्टिन-त्रिका यो हि जानन्-अवगच्छन् प्राणियते च किल सप्तपरिभामा अहोरात्रस्य ततो मुहूर्तभाग- नो हिनस्ति साकुट्टी । 'कुट्ट' छदने । श्राकुट्टनमाकुट्टः स करणार्थ त्रिशता गुण्यन्ते जातानि षट् शतानि नवत्य- विद्यते यस्यति । छेदनभेदानादिव्यापारवति, सूत्र० । “जाधिकानि-६६० । तेषां सप्तषष्टया ६७ भाग हृते लब्धा दश णं कायणऽणाउट्टी" (२५ x गाथा)। सूत्र०१ श्रु०१ १०२ १० मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति विंशतिः सप्तषष्टिभागास्तत उ० शानपूर्वकव्यापारवति, । अनापद्यप्यकार्यकारके च। इदमागतं पुनर्वसुनक्षत्रे सर्वात्मना भुक्ते पुण्यस्य च दशसु "आउट्टियाए पाणाइवायं करेमासे सबले ॥ १२॥" 'श्रा. मुहर्तध्ये कस्य च मुहूर्तस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु भुक्रषु उट्टीति '-यो जानन् करोत्यापद्रहितो वा करोति । दशा. सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादहिनिष्कामति चन्द्रः एवं सर्वाण्यपि २१०। सूत्र। दक्षिणायनानि भावनीयानि , उक्त च ("ज्यानिष्करए हके आवर्तिन-त्रि। आ+वृत्-णिनि । पुनः पुनर्वर्तनशीले, द्वादशे १२ प्राभृते)-"दस १० य मुत्ते सगले, मुहुत्तभागे य वाच०। वीसई चेव । पुस्लत्रिसयमइगो, बाहया अभिमिक्खमा | उदिऊण आवर्त्य-अव्य० । श्रावयेत्यर्थे , व्य० १० उ०। चंदो" ॥ २५३ ॥ च०प्र०१२ पाहु०॥ साम्प्रतं येन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रमा अभ्यन्तरं प्रविशन् | माउट्टिजमाण-कोट्यमान-त्रि० । संकोच्यमाने , सत्र. बहिर्या निष्कामन् श्रावृत्तीः करोति तत्प्रतिपादनार्थमाह- | २ श्रु०१०। चंदस्स विनायचा, आउट्टीओ जुगम्मि जा दिहा। | ग्राउट्टित्तए-आउट्टितुम्-अव्या कारयितुमित्यर्थे, 'अाउट्टि' अभिईए पुस्सेण य, निययं नक्खत्तसेसेणं ।।२५२॥ । पताश पवायं धातुस्सैद्धान्तिकः करणार्थः । कल्प. १ अधिक्षण । यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानस्य चन्द्रमसोऽपि नक्षत्रशेषण आउट्टिम-आकोट्टिम-न। उत्की, “श्राउट्टिम उक्लिन" बक्षत्रार्द्धमासेन या उत्तराभिमुखा श्रावृत्तयो युगे दृष्टास्ता | (१६७४) आकाटिम जधा रूयो हेट्टा वि उवरिं वि मुह नियतमभिजिता नक्षत्रेण युग द्रष्टव्याः, याश्च युगे दृष्टा काऊण पाउट्टिजति । दश २ अ० दक्षिणाभिमुखा श्रावृत्तयस्ताः पुष्येण योगे, तत्राभिजित्युत्तराभिमुखा श्रावृत्तयो भाग्यन्ते-यदि चतुप्रिंशद- आउट्टिय-आउट्टित-त्रि० । कृते , कल्प०३ अधिक क्षण । धिकनायनशतेन चन्द्रस्य सप्तषष्टिनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ? याकद्वित-त्रि० । छिन्ने, सूत्र. १ श्रु०११०२ उ०। शानततः प्रथमे अयने किं लभ्यते?, राशित्रयस्थापना-१३४ । पूर्वककृते, दशा.२ अ० । ६७।अत्रामस्यन राशिना एककरलक्षणन मध्यमस्य राशः आउदिया-याउद्विका-स्त्री० करणे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। सप्तषष्टि६७लक्षणस्य गुणनम् , जाना सप्तषष्टिरेव ६७, श्राकृद्धिका-स्त्री०। छेदनभेदनादिव्यापारे, सूत्र०१ श्रु० १ तस्याः ६७ चतुर्विंशदधिकशतेन भागहरणं लब्धमेकमई पर्यायस्य, तश्च सप्तषष्टिभागरूपाणि नव शतानि पश्च श्र०२ उ० । शानपूर्वकव्यापारे, दशा० २१०। जीत० ।. दशोत्तराणि-( ६१५ ) तत एकविंशतिः २१ अभिजितः स०। प्रव० । आभागे , नि० चू०१२ उ०। संबन्धिनः सपतषष्टिभागाः ६७ शोध्यन्ते स्थितानि पश्चा- आवृत्तिका-स्त्री० । समन्तात्प्रवर्तने, अभिलाषायां च । दष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि-(८६४) तषां सप्त- प्राचा०२ थु० १ चू०१ अ०३ उ० । आराधनायाम् , पएमा ६७ भागो हियते लब्धाः प्रयोदश १३, तैश्च व्य. २ उ० । नि० चू० । आवर्जने , व्य० १० उ० । प्रयोदशभिः १३ पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषा- अभिमुखीभूय वर्तने, नं. ३२ सूत्र । निवर्तने, सूत्र० १ स्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिः २३, एते च किल सप्तपष्टि- श्रु० १० अ०। भागा अहोरात्रस्य; ततो मुह भागकरणार्थ ते त्रिशता आउद्रीकम्म-आकुद्रीकर्मन-न। पाकुट्या कृतं कर्म प्रा३० गुण्यन्ते जानानि षट्शतानि नवत्यधिकानि-६६० गमोक्तकारणमन्तरणापेत्य प्रारघुपमईनेन विहिते कर्मणि, तेषां सप्तपष्टया ६७ भागे हुते लब्धा दश १० मुहर्ताः, प्राचा। ज्यन्ते-यदि च लभ्यन्त ? | आकुट्टित Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाउद्दीकम्म अभिधानराजेन्द्रः। श्राउबहुलकंड आकुट्टीकृतकर्मणि तु यद्विधेयं सदाह आउत्तं गमणं,आउत्तं ठाणं, आउत्तं मिसीयणं,आउत्तं जंबाउट्टीकम्मं,तं परिएणाय विवेगमेह । (सूत्र-१५८x) तयणं, उत्तं उल्लंघर्ण, आउत्तं पल्लंघणं, पाउत्तं सविं'जं आउट्टी' इत्यादि, यत्तु पुनः कर्माकुट्या कृतमाग दियजोगजुजणया । (सूत्र-५८५४) मोक्कारणमन्तरेणोपेत्य प्राण्युपमर्दनेन विहितं तत्पग्विाय आयुनं गमनम् आयुक्तस्य-उपयुक्तस्य संलीनयोगस्य। सपरिक्षया विवेकमेति-विविच्यतऽनेनेति विवेकः-प्रायश्चित्तं दशरविधं तस्यान्यतरभेदमुपैति तद्विवेकं वा-प्रभावाख्यमु स्था०७ ठा० ३ उ० । भ० । समन्तादुपयुक्त, प्रा०म०१ अ०। पैति तत्कराति येन कर्मणाऽभावो भवति । श्राचा०२ ७० प्रयत्नपरे,ओघ०८०७ गाथा। शिक्षित चात्रिका "असिकंटक५०४ उ०। विसमादीसु, गच्छतो सिक्खिो वि जत्तणं । चुक्केर एमेव प्राउड-आवृत-स्त्री०। आ-वृत्-सम्प० किप् । आवर्तने, मुणी, छलिज्जती अण्णमत्तो वि"१०० सिक्खिो वि पाउत्तो वि छलिज्जति । नि००१ उ०। संयमार्थिनि च । भ्रामणे , पुनः पुनश्चालने, पुनःपुनरेकजातीयक्रियाकरणे, आधारे किए। परिपाट्याम् , अनुक्रमे , इति कर्तव्यताप्रका संजमटाए त्ति वा,पाउत्तो त्ति वा,अविधिपरिहारि ति वा, रे, संस्कारे, तूष्णीम्भावे च । कर्तरि विप् । श्रावर्तमाने, एगट्ठा इति । श्रा० चू० १ अ०।श्रा युज कर्मणिः । सम्यगव्यापारिते, भाव क्तः । सम्यग्नियोजने,न। आयुक्तत्रि०वाच. मनेन । इटा० इनिः। श्रायुक्ती । सम्यग्नियोजनकर्तरि, त्रिका आवृत-त्रिका श्रा-वृ-न । कृतावरणे,अप्रकाशावृते,आच्छा स्त्रियां ङीप् । वाचः ।। दिते, स्था०३ ठा० ३३० । संकीर्ण वर्षभदे, पु०। स्त्री। स्त्रियां जातित्वात् डन । वाच०। आउपरिणाम-आयुःपरिणाम--पुं। श्रायुषः-कर्मप्रकृतिविशेपाउडावेइत्ता-श्राखोटय-श्रव्य०। प्रवेशयित्वेत्यर्थे, विपा.१ षस्य परिणामः-स्वभावः। आयुषः स्वभावे,स्था०३ठा०१ उ। श्रु०६अ। तस्य भेदाःजोत्रिका सम्बध्यमाने, जडे नवविहे पाउपरिणामे पहाते, तं जहा-गइपरिणामे,१गबन्धने इति वचनात् । भ०५१०४ उ. १८५ सूत्र। इबन्धणपरिणामे२, ठिइपरिणामे३, ठिइवन्धणपरिणामे४, पाकुटयमान-त्रि० । परस्परेणाभिहन्यमाने. भ० । “छ- उड्ढगारवपरिणामे ५ , अहेगारवपरिणामे६, तिरियंगारवउमत्थे ण भंते ! मणूसे आडेजमाणाई सद्दाई सुइ” परिणामे ७, दीहंगारवपरिणामे ८, हस्संगारवपरिणामे । श्राउडिजमाणाई' ति-जु बन्धने इति वचनात् , आजो (सूत्र-६८६) ड्य पानेभ्यः-सम्बध्यमानेभ्यो मुखहस्तदए डादिना सह शङ्ख पटहझल्लयादिभ्यो वाद्यविशषभ्याकुट्यमानेभ्यो या, एभ्य 'नवविहे ' त्यादि, 'श्राउपरिणामे 'त्यादि. आयुषः-कर्मएव ये जाताः शब्दास्त आजोड्यमाना एव श्राकुट्यमाना प्रकृतिविशेषस्य परिणामः-स्वभावः-शक्तिर्द्धर्म-इत्यायुःपएव चा उच्यन्ते, अतस्तानाजोड्यमानानाकुट्यमानान्वा, रिणामः । तत्र गतिर्देवादिका तां नियतां येन स्वभावनायुशब्दान् शृपोति । इद च प्राकृतत्वेन शब्दशब्दस्य नपुंसक र्जीयं प्रापयति स आयुषो गतिपरिणामः२, तथा-येनायुःस्वनिर्देशः,। अथवा-'आउडिजमाणा' इति-श्राकुट्यमानि भावन प्रतिनियतगतिकर्मबन्धो भवति, यथा नारकायु: परम्परेणाभिहन्यमानानि । भ०५ श०४ उ० । स्वभावेन मनुध्यतिर्यग्गतिनामकर्म बध्नाति न देवनारकग तिनामकर्मेति स गतिबन्धनपरिणामः२, तथा-आयुषो याs. आउडिय-आकुट्टित-त्रि० । अङ्किते; अनु० १४८ सूत्र। न्तर्मुहर्तादित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता स्थिति यति स स्थिआउडेमाण आकुट्टयत्-त्रि०। ताडयति, भ०६श १ उ०। तिपरिणामः ३, तथा-यन पूर्वभवायुःपरिणामेन परभवायुषो आउडु-मस्ज-धा० । स्नान, तुदा पर० अकर्मक अनिट् । नियतां स्थिति बध्नाति स स्थितिबन्धनपरिणामः, यथा"मस्जेराउणिउड चुइ थुट्ट खुप्पा": ॥४१०१॥ इति हैम तिर्यगायुःपरिणामेन देवायुष उत्कृष्टताऽप्यष्टादशसागरीप्राकृतसूत्रेण मस्जेः प्राउड इत्यादेशः । पाउड्ड । मज्जइ । पमाणीति, तथा-येन श्रायुःस्वभावन जीवस्योर्ध्वदिशि ग मनशक्तिलक्षणपरिणामो भवति स ऊर्ध्वगौरवपरिणामः५,इह मजतीत्यर्थः । प्रा०। गौरवशब्दो गमनपर्यायः। एवमितरौ द्वाविति ६७। तथा यत आउत्त-आगुप्त-त्रि० । संरक्षिते, स्था० ३ ठा० १ उ० । सं आयुःस्वमावात् जीवस्य दीर्घ-दीर्घगमनतया लाकान्तात् यंत, पुं० । संयतसम्बन्धिनि गमनादौ च । त्रि.।" आउत्तं लोकान्तं यावद्गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणामः८, एवं गमण" (सूत्र-८०२४) श्रागुप्तस्य-संयतस्य संबन्धि यत् च यस्मात् इस्वं गमनं स इस्वगौरवपरिणामः, सर्वत्र प्रानदागुप्तमेवेति । भ० २५ श० ७ उ० । कृतत्वादनुस्वार इति अन्यथाऽप्यामतदिति । स्था० ६ आयुक्त-न०। श्रा युज् न । उपयोगे, भ० । “आउत्तं वत्थ ठा०३ उ०। पडिग्गहकंवलपायपुंछण गराहमाणम्स" । (सूत्र-१५३+) उ आउबहुल-अब्बहुल-त्रि० । प्रचुरजलोपेते, स.८० समः । पयोगपूर्वकमित्यर्थः। भ० ३ श०३ उ०। उपयोगवति, स "नो चेवणं श्राउबहुले भविस्सर" (सूत्र-२८८ +)। बहथा० । उपयुक्त, स्था०२ठा०१उ० । ध०। सूत्र०। कायमित्यर्थः । भ०७श०६ उ० । प्रशस्तकायविनयभेदानुद्दिश्योक्तम् आउबहुलकंड-अब्बहुलकाण्ड-न० । प्रचुरजलोपेते रत्न१-बुद्ध । २-थुङ । पुस्तकान्तरे पञ्चादेशाः । षट् वा। प्रभायास्तृतीये काण्ड, स० । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) पाउबहुलकंड अभिधानराजेन्द्रः। पाउयबंध __तत्प्रमाणादि गइनामनिहत्ताउए२,ठिइनामनिहत्ताउए३,प्रोगाहणानामआउबहुले णं कंडे असीइजोयणसहस्साई ८०००० निहत्ताउए४,पएसनामनिहत्ताउए५,अणुभागनामनिहत्ता. वाहल्लणं पहलते । ( सूत्र-८०) उए६, दंडो जाव वेमाणियाणं । (सूत्र-२५०+) रत्नप्रभाया प्रशीत्युत्तरयोजनलक्षबाहल्यायास्त्रीणि कायडानि भवन्ति । तत्र प्रथम रत्नकाण्डं षोडशविधरत्नमयं (जाइनामनिहत्ताउय त्ति १) जातिरकेन्द्रियजात्यादिः प. षोडशसहस्रबाहल्यम् , द्वितीयं पङ्ककाण्डं चतुरशीतिस- श्वधा, सैयं नाम इति-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवप हस्रमानम् । तृतीयमबहुलकाण्डमशीतिर्योजनसहस्राणी- रिणामो वा तेन सह निधत्तं-निषितम् । भ०६ श०८ उ०। ति । स.८० सम०।। अनुभवनार्थ बह्वल्पाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापितं(स०)(यद्भ०) पाउन्भेय-आयुर्भेद-पुं०। प्रायुषो-जीवितस्य भेद-उपक्रमः य आयुस्तजातिनामनिधत्तायुः ( स०-१५४ सूत्रटी०) निषे कश्च कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनार्थ रचना । भ०६ आयुभेदः । स्था०७ ठा०३ उ० । प्रायुष उपधाते, प्रा. श०८ उ० । उक्त च-"मोत्तूण सगमवाई, पढमाए ठिई' चू०१०। आ० म०। (तन्निमित्तानि ' श्राउ ' शब्दे बहुतरं दव्वं । ससे विससहीणं , जावुक्कोस्संति सव्वासिं" स्मिन्नेव भागे गतानि) ॥१॥ इति । स्था०६ ठा०३ उ० । (गइनामनिहत्ताउएत्ति २)स च सप्तविधनिमित्तत्यात्सप्तविधः गतिः-नारकगत्यादिभेदाश्चतुर्धा-तल्लक्षणं नाम कर्म तेन सत्त विहे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा सह निधत्तं निषिक्तमायुतिनामनिधतायुः । स०१५४सम " अज्झवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए । (ठिइनामनिधत्ताउत्ति ३-स्थितिरिति यत्स्थातव्यं केनचिफासे आणापारणू , सत्तविधं भिजए आऊ॥१॥" द्विवक्षितभवे जीवेनायुःकर्मणा वा सैव नाम परिणामो धर्मः स्थितिनामस्तेन विशिष्टं निधत्तं यदायुदलिकरूपं (सूत्र-५६१) तस्थितिनामनिधत्तायुः । अथवा-इह सूत्रे जातिनामगतिअध्यवसानं-गगस्नेहभयात्मकोऽध्यवसायो निमित्तं दण्डकशाशस्त्रादीति समाहारद्वन्द्वस्तत्र सति श्रायुभिद्यत नामावगाहनानामग्रहणाजातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रइति संबन्धः, तथा आहारे-भोजनेऽधिके सति, तथा ये मुक्तं , स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय दना-नयनादिपीडा पराघातो-गर्तपातादिसमुत्थः, इहापि उक्नाः ,ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति, समाहारद्वन्द्व एव तत्र सति, तथा स्पर्श-तथाविधभुजङ्गा नामशब्दः सर्वत्र कर्मार्थों घटत इति , स्थितिरूपं नामकदिसंबन्धिनि सति, तथा ' आणापाणु' त्ति-उच्छासनिः मस्थितिनाम तेन निधत्तं यदायुस्तत्स्थितिनामनिधत्ताश्वासौ निरुद्धावाश्रित्येति-एवं च सप्तविधं यथा भवति युः । स्था०६ ठा० ३उ०। यत्-यस्मिन् भवे उदयमागमनमवतथा भिद्यते श्रायुरिति । अथवा-अध्यवसानमायुरुपक्रम तिष्ठते तद्गतिजातिशरीरपञ्चकादिव्यतिरिक्त स्थितिनामावकारणमिति शेषः, एवं निमित्तमित्यादि यावत् 'श्राणापाणु' सेयमिति भावः , गत्यादीनां वर्जनं तेषां स्वपदैः 'गइनामति-व्याख्ययं, प्रथमेवकचनान्तत्वाद् अध्यवसानादिपदाना निहत्ताउए' (१४५+ सूत्रटी०) इत्यादिभिरुपात्तत्वात्। मेवं सप्तविधत्त्वादायुमदह तूनां सप्तविधं यथा भवति तथा प्रशा०६ पद । (ोगाहणानामनिधत्ताउए ति४)। अवभिद्यते प्रायुः । स्था०७ ठा०३ उ० । गाहते यस्यां जीयः सा अवगाहना-शरीरम् औदारिकादि आउय-आयुष्क-न० । जीविते, उत्त०३ अ० । संथा। प्रा० तस्या नाम औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाहनानाम । म० । भवस्थिति हेतौ, कर्मपुद्गले च । प्राचा० १ श्रु०२० (अवगाहनारूपो बा, नामः परिणामोऽवगाहनानामः) तेन १उ०। सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुः। (पएसनातो अहाउयं पालेंति, तं जहा-अरहंता, चक्कवट्टी, मनिहत्ताउए ति५)-प्रदेशानाम्-श्रायुःकर्मद्रव्याणां नाम तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम, प्रदेशरूपं वा, नामकर्मवलदेववासुदेवा। ३१॥ (सूत्र-१४३४) स्था०३ ठा०१० विशेष इत्यर्थः, प्रदशनाम । भ०६ श०८ उ० । प्रदेशाः कर्मश्रायुषा कायति , के। आयुषा प्रकाशमान प्रशस्तायुष्के । परमाणवस्ते च प्रदेशाः सक्रमतोऽप्यनुभूयमानाः परिगृह्यन्त, चाच०। तत्प्रधानं नाम प्रदेशनाम, किमुक्तं भवति-यत् यस्मिन् श्रावक-पुं०। अवति-रक्षति। अव-धा। उण संज्ञायां कन् । भवे प्रदेशतोऽनुभूयते तत्देशनामति अनेन विपाकोदयनाट्यानी, जनक , वाच । स्था०२ ठा०३ उ०। मप्राप्तमपि नाम परिगृहीतम् । प्रज्ञा० ६ पद । प्रदेशानां आउयपरिहाणि-आयुष्कपरिहानि-स्त्री०। प्रतिक्षणायुष्क- प्रमितपरिणामानामायुःकर्मदलिकानां नामपरिणामो यः क्षये, पञ्चा० १ विव०। तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनामो जातिगत्यवगापाउयबंध-आयुष्कबन्ध-पुं० । आयुषो बन्ध इति । स्था०६ हनाकर्मणां वा यत्प्रदशरूपं नामकर्म तत्प्रदशनाम । ठा०३ उ० आयुषा निषके, सा सच प्रतिसमयं बहुहीनही स. १५४ समः । तेन सह यन्निधत्तमायुस्तत्प्रदेशनानतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थ रचना । स० । मनिधत्तायुरिति । ( अणुभागनामनिधत्ताउए ति ६) । तद्भेदाः अनुभाग आयुर्द्रव्याणामेव विपाकः । भ. ३ श० ८ उ० । तीवादिभेदो रसः । स० १५४ सम० । तल्लक्षण एव नाम । कइबिहे गं भंते! आउयबंधे पएणते?, गोयमा! छब्बि परिणामोऽनुभागनामोऽनुभागरूपं वा नामकम्र्मानुभागनाम । हे आउयवंधे पएणते, तं जहा-जाइनामनिहत्ताऽऽउए १, भ०६ श०८७० । स चह प्रकर्षप्राप्तः परिगृह्यते तत्प्रधानं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयबंध (४८) अभिधानराजेन्द्रः । नाम अनुभावनाम यत् यस्मिन् भवे तीव्रविपाकं नामकर्मानुभूयते यथा नारकामुषि शुभ गन्धरसस्पर्शोपघातानादेयदुः स्वरा यशोकीर्थ्यादिनामानि तदनुभावनाम । प्रशा० ६ पद | अथवा - गत्यादीनां नामकर्म्मणामनुभागबन्धरूपो भेदोsनुमागनाम । स० १५४ सम० । तेन सह. निधनं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति । अथ किमर्थे जात्यादिनामकर्मभिरायुर्विशिष्यते ?, उच्यते श्रायुष्कस्य प्राधाम्योपदर्शनार्थे यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्म्मणामुदयो भवति । भ० ६ ० ८ उ० । नान्यथेति भवत्यायुषः प्रधानता । प्रज्ञा० ६ पद । नारकादिभयोपग्राहकं चायुरेव यस्मादुक्तमिहैव"नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जर, अनेरइए नेइसु उषवजह ?, गोयमां ! नेरइए नेरइएसु उववज्जर, नो अनेरइए नेरइसु उववज्जर " त्ति । एतदुक्तंभवति - नारकायुः प्रथम समय संवेदन एवं नारका उच्यन्ते तत्सहचारिणाच पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्म्मणामप्युदय इति । इह चायुर्वन्धस्य षड्विधत्वे उपक्षिप्ते यदायुषः पद्विधश्वमुक्तं तदायुषो बन्धाव्यतिरेकाद्वन्धस्यैव चायुर्व्यपदेशविषयत्वादिति । 'दंडओ ' ति-नेरइयाणं भंते ! कविहे श्राउयबंधे पन्न इत्यादिः वैमानिकान्तश्चतुर्विंशतिदण्डको वाच्योऽत एवाह - जाव वेमाणियाणं ' ति । भ० ६ श० ८ उ० २५० सूत्रटी० । प्रशा० स० । स्था० । अथ कर्मविशेषाधिकारात्तद्विशेषितानां जीवादिपदानां द्वादशदण्डकानाह जीवाणं भंते! किं जाइन मनिहत्ता, ०जाव अणुभागनामनिहत्ता १, गोयमा ! जाइनामनिहत्ता वि ०जाव अणुभागनाम निहत्तावि, दंडओ ०जाव वेमाणियाणं | जीवाणं भंते 1 किं जाइनामनिहत्ताउया ०जाव अणुभागनामनिहत्ताउया ?, गोयमा ! जाइनामनिहत्ताउया वि ०जाव अणुभागनामनिहताउयावि, दंडओ ०जाब वेमाणियाणं । एवं एए दुवाल १२ दंडगा भाणियच्वा । जीवा णं भंते । किं जाइनामनिहत्ता १, जाइनामनिहत्ताउया २, जाइनामनिउत्ता ३, जाइनामनिउत्ताउया ४, जाइगोयनिहत्ता ५, जाइगोयनिहत्ताउया ६, जाइगोयनिउत्ता ७, जाइगोयनिउत्ताउया ८, जाइनामगोयनिहत्ता है, जाइनामगोयनिहत्ताउया १०, जाइनामगोयनिउत्ता ११, जाइनामगोयनिउत्ताउया १२, ०जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउया ? | गोयमा ! जाइनामगोयनिउत्ताउयावि ०जाव अणुभागनाम गोयनिउत्ताउयावि दंडओ ०जाव वेमाणियाणं । ( सूत्र - २५० + ) 'जाइनामनिहत्त' त्ति-जातिनाम निघतं निक्लिं विशिष्टबन्धं या कृतं यैस्ते जातिनामनिधताः । एवं गतिनामनिधत्ताः । यावत्करणात् -" ठिइनामनिहत्ता, श्रोगाद्दणानाम निहत्ता, परसनामनिहत्ता, अनुभागनामनिहत्ता " इति दृश्यम् । व्या या तथैव नवरं जात्यादिनाम्ना या स्थितिर्ये च प्रदेशा य For Private आउयबंध श्वानुभागस्तत्स्थित्यादिनाम अवगाहनानाम शरीरनामेति । श्रयमेको दण्डको वैमानिकान्तः, तथा - 'जाइनाम निहाउस' त्रि | जातिनाम्ना सह निघमायुर्यैस्ते जातिनामनिधयुषः एवमन्यान्ययि पदानि श्रयमन्यो दण्डकः २, एवमेते 'दुवालल दंडग' चि श्रमुना प्रकारेण द्वादश दरुङका भवन्ति, तत्र द्वावाद्यों दर्शितावपि संख्यापूरणार्थे पुनर्दर्शयति-जातिनामनिधता इत्यादिरेकः, 'जाइनामनिहाउया' इत्यादिर्द्वितीयः, जीवा गं भंते! किं जाइनामनिउच्च इत्यादिस्तृतीयः, तत्र जातिनामनियुक्तं नितरां युक्तं सम्बद्धं निकाचितं वेदने वा नियुक्तं यैस्ते जातिनामनियुक्क्तः, एवमन्यान्यपि ५, 'जाइनामनिउउया' इत्यादिश्चतुर्थः । तत्र जातिनाम्ना सह नियु निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुर्वैस्ते । तथा एवमन्यान्यपि ५ 'जांइगोयनिहता' इत्यादिः पश्चमः । तत्र जातेरेकेन्द्रियादिकाया यदुचितं गोत्रं नीचैर्गोत्रादि तज्जातिगोत्रं तशिधतं यैस्ते जातिगोत्रनिद्यत्तायुष एवमन्यान्यपि ५ ' जाइगोनिया' इत्यादिरष्टमः, तत्र जातिनामगोत्रं च निधत्तं यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि ५, ' जाइगोयनिहत्ताउया इत्यादिः दशमः । तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निघत्तमायुस्ते तथा एवमन्यान्यपि ५, 'जाइनामगोयनिउत्ता' इत्यादिरेकादशः । तत्र जानिनामगोत्रश्च नियुक्तं यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि ५, 'जीवा णं भंते! किं जाइनाम गोयनिउत्ताउया' इत्यादिद्वीदशः । तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह नियुकमायुर्यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि ५, इह च जात्यादिनामगो योरायुवश्च भवोपग्रहे प्राधान्यख्यापनार्थे यथायोगं जीवा विशेषिता वाचनान्तरे चाद्या एवाष्टौ दण्डका दृश्यन्त इति । भ० ६ शु० ८ उ० । अथ जात्यादिनामविशिष्टमायुः कियद्भिराकर्षैर्बध्नातीति जिज्ञासुर्जीवादिदण्डकक्रमेण पृच्छति अल्पबहुत्वं चजीवा गं भंते ! जातिनामनिहताउयं कतिहिं श्रगरिसेहिं पकति ?, गोयमा ! जहभेग एक्केण दोहिं वा तिहिं वा उको अहिं, नेरइया गं भंते ! जातिनाम निहत्ताउयं कतिहि गरिमेहिं पकरंति ? गोयमा ! | (सूत्र - १४५ + ) प्रज्ञा० ६ पद । सिय १ एके सिय २|३|४|५|६७ सिय ८अहिं, नो चेवं नवहिं । (सूत्र १५४) स ० १५४ सम० । जहनेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसणं अट्ठहिं । ( सूत्र - १४५ x ) प्रज्ञा० ६ पद | स० | एवं ०जाव वेमाशिया । एवं गतिनामनिहत्ताउए वि । ठितिनामनिहत्ताउ वि । ओगाहणानामनिहत्ताउएवि । पदेसनामनिहत्तउए वि । अणुभावन मनिहत्ताउए वि । एतेसि णं भंते ! जीवा जातिनामनिहत्ताउयं जहां एको वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसे अहिं श्रगरिसेहिं पकरेमाखा गं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा जातिनामनिहत्ताउयं अहिं आगरिसेहिं पकरेमाणा, सत्तहिं आगरिसंहिं पकरेमाणा खेजगुणा एएहिं श्रगरिसेहिं पकरेमाणा संखेखगुणा, एवं Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाउयबंध अभिधानराजेन्द्रः। माउरचिन्न पचहिं संखेजगुणा, तिहि संखेजगुणा, चउहि संखेजगुणा, आउयसदव्यया-आयुस्सद्रव्यता-स्त्री० । आयुः-प्रदेशकर्म दोहिं संखेजगुणा, एगेणं आगरिसणं पकरेमा संखेज- तस्य द्रव्यैस्सह मानता-आयुस्सद्व्यता । जीवस्यायुष्कर्मगुणा। एवं एतणं अभिलावणं जाव अणुभावनिहत्ताउयं । द्रव्यसहचारितायाम् , “ आउयसदबयभव ओघो"। श्रा युस्सद्रव्यता-मोघजीवितं सामान्यजीवितमिदं च सकलएव एते छप्पि अप्पा-बहुदण्डगा जीवादिया भाणियब्या। संसारिणामविशषेण सर्वदाभावीति । श्रा० म०१०। (सूत्र--१४५+) आउयाय-अपकाय-पुं० । एकेन्द्रियसंसारसमापन्नजीववि'आगरिसेहिं पगरंती' त्यादि, अाकर्षों नाम तथाविधन शेष, प्रचा० १ पद । भ० । (पतस्य वक्तब्यता' आउक्काय' प्रयत्नेन कर्मपुरलोपादानं यथा गौः पानीयं पिबन्ती भयेन पु. शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) नः पुनराघोटयति एवं जीवोऽपि यदा तीव्णायुबन्धाध्य- पाउर-अातुर-त्रि। ईषदर्थे, श्रा-अत्-उरच् । वाच । घसायेन जातिनामनिधत्तायुरन्यद्वा बध्नाति तदा एकन । ग्लाने, (रोगिणि) स्था० १० ठा० ३ उ० । वृ० । विविधदुः प्रक्षा० ६ पद । मन्देन द्वाभ्यामांकर्षाभ्यां मन्दनरेण त्रि. खोगद्वते, (रोगादिपीडिते) ०१ उ०२ प्रक० । उत्त० । भिमन्दतमेन चतुर्भिः पञ्चभिः षभिः सप्तभिरष्टाभिर्वा वुभुक्षादिभिः पीडिते, शा०१ श्रु०१ अ० । अस्वस्थमनन पुनर्नवभिरेवं शेषाण्यपि 'श्राउगणि'त्ति-गतिनामनिध. सि, “तत्थ तत्थ पुढो पास श्रातुरा परितावंति"'तत्थतायुगदीनि वाच्यानि यावद्वैमानिका इति अयञ्चैकाद्याक- तत्थे' त्यादि-तत्र तत्र तेषु तेषु कारणेषूत्पन्नेषु वक्ष्यनियमो जात्यादीनां कर्मणामायुर्वन्धकाल एव । स० १५४ माणेषु शरीरचर्मशोणितादिषु च पृथग्विभिन्नषु प्रयोजनेषु समाआयुषा सह बध्यमानानामवसातव्यो न शेषकालं का- पश्यति शिष्यचोदना किं तत्पश्यति दर्शयति-मांसभक्षणासांचित्प्रकृतीनां ध्रुवबन्धिनीत्वादपरासां परावर्तमानत्वात् । दिगृद्धाः श्रातुरा:-अस्वस्थमनसः परि-समन्तात्तापयन्तिप्रभूतकालमपि बन्धसम्भवेनाकर्षानियमात् । प्रशा०६ पद । पीडयन्ति । आचा। किंकर्तव्यतामूढे, "पासिय आतुरए आयुर्बन्धपरिसमाप्तेरुत्तरकालमपि बन्धोऽस्त्येवैषां ध्रुवब- पाणे अप्पमत्तो परिव्वए" (सूत्र १०६ +)।'पासिय' इधिनीनाञ्च ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां प्रतिसमयमेव बन्धनि- त्यादि, स हि भावजागरस्तैर्भावः जागरस्वापजनितैः शावृत्तिर्भवत्येनास्तु परावृत्यावध्यन्ते । स० १५४ सम० । रीरमानसैर्दुःखैरातुरान्-किंकर्त्तव्यतामूढान् दुःखसागराव(नारक-तिर्यय-मनुष्य-देवायुर्वन्धकारणानि बहुप्रकारेण गाढान् प्राणान्-भेदोपचारात् प्राणिनो दृष्ट्रा ज्ञात्वा अप्रमत्तः 'बन्धहेउ' शब्दे पञ्चमभाग विस्तरतः प्रतिपादयिष्यते) परिवजेत्-उद्युक्तः सन् संयमानुष्ठान विध्यात् । आचा० तथा देवनैरयिकैरपि यदि षण्मासे शेषे आयुर्न बद्धं तत १ श्रु० ३ १०१ उ० । श्राकुलतनी, उत्त०२ ० । क्वचिश्रात्मीयस्यायुषः परमासशेषं तावत्संक्षिपन्ति यावत्सर्व- दपि स्वास्थ्यमलभमाने सत्याकुले, जी०३ प्रति०१ अधिक। जघन्य अायुर्वन्ध उत्तरकालश्चावशेषोऽवतिष्ठते । इह परभवा उत्सुके, वृ०१ उ०३ प्रक० । व्याकुले, शा० ११० १ युर्देवनैरयिका बध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकाल इति श्रीस्थानांग- श्च० "श्राउर लोयमायाए" (सूत्र-१८१ +) | 'भाउरं" षष्ठाध्ययनवृत्त्युपान्ते प्रोक्नमस्तीति "परं बंधति देवनारय- इत्यादि, लोकं मातापितृपुत्रकलत्रादिकं तमातुरं स्नेहानुअसंखतिरिनरछमाससेसाउ" इत्यादिवचसा कथं संवाद पणतया वियोगात्कार्यावसादेन वा । यदि वा-जन्तुलोकं काइति प्रश्ने, अत्रोत्तरम्-'बंधंति देवनारये' त्यादिवचनं प्रा मरोगातुरमादाय ज्ञानेन परिगृहीत्वा परिच्छिद्य । श्राचा० यिकं तेन केषांचिद्देवनारकाणां शेषेऽन्तर्मुहूर्तेऽप्यायुर्वन्धो १ श्रु०६ अ०२ उ० क्लिष्टे, " केषाश्चिद्विषयज्वराकुलमहो" भवतीति मतान्तरमवसीयते इति न कोऽपि विसंवाद इति । केषाश्चिजीवानां चित्तं-मनः विषया-इन्द्रियाभिलाषा एव ॥ ३१ ॥ सेन०। (श्रायुषो बन्धकान् 'कम्म' शब्दे तृती ज्वरस्तेन श्रातुरं-क्लिष्टं मनो यस्य । अष्ट०३२ अटका दुःस्थे, यभागे दर्शयिष्यते)(श्रायुर्बन्धकानां कर्मप्रकृतिबन्धः क भ०१६ श०४ उ०प्रथमद्वितीयपरीषहाभ्यां जिते, (तुम्मपडि' शब्द तृतीयभागे दर्शयिष्यते) (आयुर्वन्धस्थि त्पिपासापीडिते)चिकित्साक्रियाव्यपते, मरणचिहान्युपलविरायुर्वन्धकानां कर्मवेदना श्रायुर्वेदकानां कर्मप्रकृति भ्याकुल च। नं०। व्य० । पा० । “अाउराण य अपंपगइबन्धश्च 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते) याणं मच्छमंसाई उपदिसइ” (सूत्र-२८x) 'श्राउराणं' ति चिकित्सायामविषयभूतानाम् । विपा० १ थु० ७ अ० । आउयसंवट्टय-आयुष्कसंवर्तक-पुं० । संघर्तनम्-अपवर्तनं (एतस्य बहुवक्तव्यता 'गिलाण' शब्दे तृतीयाभागे कसंवतः स एव संवर्तकः; उपक्रम इत्यर्थः, श्रायुषः रिष्यते) अातुरत्वे च । (क्षुत्पिपासाव्याधिभिरभिभूतत्वे) संवर्गक प्रायुःसंवर्तकः । श्रायुष उपक्रम, स्था० ।। "संकिर सहसागारे, उभयाउरे श्रावतीसु य" (१००४) (श्रायुःसंवर्तकमाह ) भावप्रधानश्चायं निर्देशस्ततोऽयमर्थः । व्य०१ उ० । 'संभमदोएह आउयसंवट्टए परमते, तं जहा-मणुस्साणं चव, भयाउराव''आउर' त्ति-भावप्रधानत्वान्निर्देशस्यातुरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं व २४ । (सूत्र-८५) पीडितत्त्वं क्षुत्पिपासाद्यैः । जीत० । लुप्तभावप्रत्ययत्वा द्वा । स्था०६ ठा०३ उ। कार्याक्षम, वाच० । अशक्नुस्था०३ ठा०३उ०। वति, व्य०४०। आउयसंवेदन--अायुःसंवेदन--न० । श्रायुःकर्मोदयविपा- आउरचिन्न-धातुरचीर्ण-त्रि० । आतुर:-चिकित्साया अविकाऽनुभयन, भ० ३५ श० । षयभूतो रोगी तस्य मतुकामस्य पथ्यापथ्याविषकन दीय १३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) माउरचिन्न अभिधानराजेन्द्रः। पाउलि माने मनोशाहारे, उत्त०८०। ('उरम' शब्दे भावयिष्यते)। संकीर्णे च । “किमिजालाउलसंसत्ते" (सूत्र-६७+) कामपाउरपच्चक्खाण-आतुरप्रत्याख्यान-न०। आतुर:-क्रियातीतो। जालैराकुल:-व्याकुलैराकुलं वा संकीर्णे यथा भवतीत्येवं सं. ग्लानस्तस्य प्रत्याख्यानमातुरप्रत्याख्यानम् । चिकित्सकक्रि सक्तं यत्तथा । झा० १ थु०८ अ०। "अट्ठारसवंजणायाव्यपतस्य ग्लानस्य प्रत्याख्याने,नं०। श्रातुरः-चिकित्स्यकि उलं" (सूत्र-१०६४) चं० प्र०२० पाहु०। राजगृहाहणजनाकुयाव्यपतस्तस्य प्रत्याख्यानं यत्राध्ययन विधिपूर्वकमुपधार्यते लवदाकुलः । भावस्कन्धविशेष च । अनु०। तदातुरप्रत्याख्यानम् । उत्कालिकश्रुतविशेषे च । विधिश्चातु- आउलतर-आकुलतर-त्रि०ा अतिशयेनाकुले , तथा च षष्ठरप्रत्याख्यानदानविषये चूर्णिकृतैवमुपदर्शित:-" गिलाणं पृथिवीनरकापेक्षया सप्तमपृथिवीनारकाणां वर्णनमुपक्रम्योकिरियातीय नाउँ गीयत्था पञ्चक्खाति दिणे दिणे दब्यहासं क्रम्-" णो आउलतरा चेव" (सूत्र-४७५४ ) 'श्राकरत्ता अंत य सब्बदव्यदायणाए भत्तंबरगं जाणि (ण) उलतरा चेव' त्ति-अतिकर्तव्यतया ये आकुला-नारकत्ता भत्ते वि (नि) त्तिरहस्स भवचरिमपञ्चक्खाणं कारबैं- लोकास्तषामतिशयेन योगादाकुलतराः। भ्रष३ श०४ उ॥ ति" नं०४३ सूत्र । पा० । आउलमण-आकुलमनस्-त्रि० । आकुराव्य मनः-अन्त:आउरपडिसेवणा-भातुरप्रतिसेवना-स्त्री०। प्रतिसेवनाविशेषे, करणं यस्य स तथा । व्यग्रान्तःकरणे, "तप्पडियाराउलमण“दप्प-पमायऽणाभागे, पाउरे श्राईसु य" । प्रातुरे-ग्लाने स्स" तत्प्रतीकारे-वेदनाप्रतीकारे चिकित्सायामाकुल-व्यग्रं सति तत्पतिजागरणार्थमिति भावः, । अथवा-श्रात्मन एवा मनो यस्य स तथा । श्राव.४० । तुरत्वे सति लुप्तभावप्रत्ययत्वादयमर्थः-सुत्पिपासाव्याधि- पाउलमाउला-आकुलाऽऽकुला-स्त्रीशनिद्राप्रमादाभिभूतस्य भिरभिभूतः सन् यां करोति । उक्तं च-" पढमवीयदुवाहि- मूलगुणानामुत्तरगुणानां वा या नानाविधोपरोधक्रिया तदाश्रो व जं सेव ाउराए साइत्ति" । स्था०१० ठा०३ उ०।। त्मिकायाम् , अथवा-आकुल-नानाविधरूपं विवाहसंगमा(विशेषतः व्याख्या 'पडिसवणा' शब्दे पश्चमभागे द्रएव्या) दिषु दृष्टमाचरितं वा पुनरपि प्राकुलास्तादृशा बहवो दृष्टा व्यापारास्तदात्मिकायां स्वप्नान्तिकक्रियायाम् , आव० । पाउरमेसजीय-आतुरभैषज्यीय-न। अवितर्कितसम्भवि सुप्तस्य दैवसिकमतिचारमधिकृत्योक्तम्तुल्य यादृच्छिकन्याये, प्राचा०(यथा-अातुरभवनम्भैषज्योप आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए इत्थीविप्परियासिए कारश्चाबुद्धिपूर्थिकैव, नाऽऽतुरस्य बुद्धिरस्ति मह्यम्भैषज्यमुपकरिष्यति नापि भैषज्यस्यैतादृशी बुद्धिरस्ति श्रातुरायो दिविविप्परियासियाए मणविप्परियासियाए पाणभायणपकरिष्यामीति, अथ तत्तथैव भवत्येवं सर्व जातिजरामरणा- विप्परियासियाए जो मे देवसिओ अइयारो को तस्स दिकं लोक यादृच्छिकमिति यदृच्छावादिनः)। प्राचा०१ श्रु० मिच्छामि दुक्कडं ॥(सूत्र) १०१उ०। 'श्राउलमाउलाए' त्ति-पाकुलाकुलया-ज्यादिपरिभोगआउरसरण-भातुरशरण-न० । दोषातुरस्याश्रयदाने , दश० | विवाहयुद्धादिसंस्पर्शननानाप्रकारया स्वप्नप्रत्ययया स्वप्न३ अ०। निमित्तया विराधनया योऽतिचारः । श्राव० ४ ० । आतुरस्मरण-न० । जुधाद्यातुराणां पूर्वोपमुक्तस्मरणे, दश "बाउलमाउलताए सोवणंतियाप निहप्पमायाभिभूतस्स "अाउरस्सरणारिण य" ॥६॥ तथाऽऽतुरस्मरणानि च मूलगुणाणं उत्तरगुणाणं वा उवरोधकिरिया जा णाणावि. सुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणानि च अनाचरितानि । श्रा- धा सोवणतिया सा पाउलमाउला॥अहवा-पाउल-गाणातुरशरणानि वा दोषातुराश्रयदानानि । दश०३ अारोगादि- विहं रूपं विवाहसंगमादिसु दिटुं पायरितं वा पुणो विश्रापीडितस्य हा तात! हा मातः! इत्यादिरूपे स्मरणे च । "श्रा उला तारिसा बहवो वारा दिट्ठा एसा पाउलमाउला । केईउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिणाय परिब्बए स भिक्खू" पुण-आउलमाउलाए सोयरवत्तियाए एतं ालावगं एत्थ 'आउरे सरण' ति-सुव्यत्ययादातुरस्य रोगादिपीड- जातो सेसाओ पाउलमाउलाभो ॥ सोमणतियाओ इत्थी तस्य शरणं-स्मरणं हा तात! हा मातः! इत्यादिरूपम् । उत्त० | विट्ठाओ निदापमादाभिभूतेण तस्स मिच्छा मि दुक१५०। डंति पुब्वभणितं । प्रा० चू०४ १०। पाउल-आकुल-त्रि० । व्याप्ते, औ० । शा० । “कलुमाउखें | पाउलवाय-आकुलवाद-पुं० । परस्परसंकीर्णवादे, पाकुलचित्तं" कलुषयन्ति आत्मानमिति कलपा:-कपायास्तैराकु । बाद इति । सदसत्त्वयोः परस्परसंकीर्णवादे, अने०१ अल-व्याप्तं यत्तथोच्यते । श्राव०४ अ०। जनाऽऽकीणे, वृ० धि०। १ उ०। प्रचुरे, भ०१ श०६ उ०। क्षुब्धे, “जत्थऽस्थमिए अ. आउलि-आतुलि-स्त्री० पीतपुष्पके, (तडउडा) नामके वनणाउले (१४४)" भिक्षुर्यत्रैवास्तमुमैति सविता, तत्रैव का- स्पतिजातिविशषे, "तडउडाकुसुमेह वा"तडउडा-पाउली । कायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति । यत्रास्तमितस्तथाऽनाकुलः-स. श्रा०म०१ १०। पाउलिविशेष इत्यर्थः । स्था०४ ठा०१ उ०। मुद्रवनक्रादिभिः परीषहोयसगैरक्षुभ्यन् । सूत्र० १ थु० १ एतत्काष्ठनिष्पादिते दन्ते दोषा भवन्ति । पाउलिसत्कदन्तअा अभिभूने , " तह तिब्बकोहलोहाउलस्स" तीबाबु- काष्ठ कचिद्वहु दोषं वदन्ति तत्सत्यमसत्यं वा तथा बहरीबस्कटौ च ती क्रोधलोभौ च ताभ्यामाकुलोऽभिभूतस्तस्य । बूलदन्तकाष्ठभ्य आउलिदन्तकाष्ठ जीवाः किमल्ला बहवस्तु. श्राव०४०। व्याकुले, (विह्वले) श्रा० म० १० । ल्या वति प्रज्ञापनायां प्रथमपदे गुच्छाधिकारे पाउलिसव्यग्रे, आव०४ अ० । व्याप्ते, सूत्र. १ श्रु०१०१ उ०। कमूलकन्दस्कन्धत्वकशाखापवालेषु प्रत्येकमसंख्येयजीवा Jain Education Interational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाउलि अभिधानराजेन्द्रः। पाउसंत स्मकता प्रोक्ताऽस्ति तदनुसारेण वदरीबलबूलयोरपि षद्स्वपि तानां रोगाणां श्रवणवदननयनघ्राणादिसमाश्रितानामुपशम. स्थानच्यसंख्याता जीवाः संभाव्यन्ते; नतु न्यूनाधिकजीवाः नार्थमिति३। शल्यस्य हत्या-हननम्-उद्धारःशल्यहस्या तत्प्र. ॥४१॥ सेन। तिपादकं तन्त्रमपि शल्यहत्येत्युच्यते,तद्धि तृणकाष्ठपाषाणपां पाकुलि-पुं०। मा कुल इन् । व्याकुलत्ये, वाच०। सुलोहलोष्ठास्थिनखप्रायोऽङ्गान्तर्गतशल्योद्धरणार्थमिति । 'जागौली'ति-विषविघाततन्त्रम् ; अगदतन्त्रमित्यर्थः। तद्धि याउलीकरण-पाकुलीकरण-न० 1 प्रचुरीकरस्ये , भ०। सर्पकीटलूनादष्टविषविनाशार्थ विविधविषसंप्रयोगोपशम. जीवानां संसाराकुलीकरणकारणम् लघुत्वकारणम्प्रतिपा नार्थ चेति ५। भूतादीनां निग्रहार्थ विद्यातन्त्रं भूतविद्या योक्तम् साहि देवाऽसुरगन्धर्वयक्षराक्षसपितृपिशाचनागग्रहाद्युपकह णं भंते ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति ?, गोयमा! सृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिकरणादिग्रहोपशमनार्थमिति ६। पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं ए- क्षारतन्त्रमिति-क्षरणं क्षारः शुक्रस्य तद्विषयं तन्त्रं यत् वं खलु गोयमा! जीवा लहुयसं हव्वमागच्छंति एवं सं-] तत्तथा, इदं हि सुश्रुतादिषु वाजीकरणतन्त्रमुच्यते । स्था० सारं पाउलीकरेंति.। (सूत्र-७२४) ८ ठा० ३ उ० । तथा च विपकश्रुते-धन्वन्तरिवर्णने " अटुंगाऽऽउवेदपाढए- तं जहा-कोमारभिश्चं १, सा'एवं आउली करेंति' ति-इहैवंशब्दः पूर्वोक्ताभिलापसं लागे २, सल्लगहत्त ३, कायतिगिच्छा ४, जंगाले ५, भूयसूचनार्थः, स चैवम्-“कहं णं भंते ! जीवा संसारं पाउली वेपजे ६, रसायणे ७, वाजीकरण ८ । (सूत्र-२८+)। विपा० कति !, गोयमा ! पाणाइवाएणमि" त्यादि , । एवं उत्त १श्रु०७०। अवाजिनो वाजीकरण रेतोवृद्धया अश्वस्येव रत्रापि, तब 'आउलीकरैति' त्ति-प्रचुरीकुर्वन्ति; कर्मभि करणमित्यनयोः शब्दार्थः सम एवेति तत्तन्त्रं हि अल्पतीरित्यर्थः । भ०१०६ उ०।। णविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजनना. आउलीभूय-श्राकुलीभूत-त्रि० । प्रा-कुल-च्चि । भूतेक । थमिति ७। रस:-अमृतरसस्तस्यायन-प्राप्ती रसायनं तद्धि स्वयं तथाभूते , वाच० । प्रा० म० १०।। वयःस्थापनमायुर्मेधाकरणं रोगापहरणसमर्थ च तत्प्रतिपामाउवञ्जिय-आयुर्वर्जित-त्रि० । आयुष्कर्मविरहिते, पश्चा० दकं शास्त्रं रसायनतन्त्रमिति । कृतरसायनश्च देववनिरुपक१६ विव। मायुर्भवति ८ स्था०८ ठा०३301 पाउविजा-पायुर्विद्या-स्त्री०। वैद्यके पापश्र्तविशेषे, आ. पाउस (स्स)-आक्रोश-पुं० । "मृतोऽसि त्वम्" इत्यादिभिव०४०। रसभ्यवचनरूपः शापैरभिशापे, " अप्पगइए पाउसिाहिति। माउविवागदसा-आयुर्विपाकदशा-स्त्री०। प्रतिसमयभोग- (सूत्र-५५६+) आक्रोशान्दास्यति, भ०१५शा "भंते ! अहं स्वेनायातीत्यायुः विपनं विपाकः, श्रायुषोऽपरिहाणिरि णं पुरिस पाउसेज्जा वा" (सूत्र-४२४) 'पाउसेज्जा व'तित्यर्थः । अनुभागेन युक्तो विभागो दशा इत्युच्यते श्रायुर्वि आक्रोशयामि वा-मृतोऽसि त्वमित्यादिभिः शापैरभिशपामि। पाकस्य दशा आयुर्विपाकदशा । आयुर्विपाकविभागे, “जं उपा० ७ अ० । दण्डमुष्टयादिभिहननन्यापारे च । सूत्र। जम्मि काल आउयं उक्कोसं दसधा विभत्तं दस पाउवि परतीथिकानुद्दिश्योलमबागदसा भवन्ति " ततो य दसाओ दसवरिसपमाणातो रागदोसाभिभूऽयप्पा, मिच्छत्तेण अभिद्रुता । बरिससयाउसो भवन्ति । नि० चू० ११ उ०। (दशाभेदा- आउस्ससरणं जंति, टंकणा इव पब्वयं ॥ १८ ॥ दिकम् 'दसा' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) 'रायदोस्सा' इत्यादि , रागश्च प्रीतिलक्षणो द्वेषश्च तद्विपभाउब्वेय-आयुर्वेद-पुं०। प्रायुः-जीवितं तद्विदन्ति-रक्षितु- रीतलक्षणस्ताभ्यामभिभूत प्रात्मा येणं परतीथिकानां ते मनुभवन्ति चोपक्रमरक्षणन विदन्ति वा लभन्ते यथाकालं तथा मिथ्यात्वन विपर्यस्तावबोधनातस्वाध्यवसायरूपेणातेन तस्मात्तस्मिन्येत्त्यायुर्वेदः । चिकित्साशास्त्रे, स्था०८ ठा० भिता व्याप्ताः सयुक्तिभिर्वादं कर्तुमसमर्थाः क्रोधानुगा प्रा. ३ उ० । वैद्यकशास्त्रे, विपा० १ श्रु०७०। क्रोशान्-असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुटयादिभिश्च हननतथाऽविधम् व्यापारं यान्ति-आश्रयते । अस्मिन्नेवार्थे प्रतिपाचरणम्त माह-यथा टङ्कणा-म्लेच्छविशषा दुर्जया यदा परेण बलिना अविहे भाउव्वेए परमत्ते, तं जहा-कुमारभिच्चे १. का स्वानीकाविनाभियन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधैर्योइमसयतिगिच्छा२, सालाइयं३, सल्लहत्ता ४, जंगोली ५, भूय- मर्थाः सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्त्येवं तेऽपि कुतीथिका वाविजा६, खारतंते७, रसायणे ।(सूत्र-६११) दपराजिताः क्रोधाधुपहतरष्टय आक्रोशादिकं शरणमाश्रय'कुमारभिच' ति-कुमाराणां-बालकानां भृती-पोषण सा- न्ते । न च ते इदमाकलय्य प्रत्याक्रोएब्याः , तद्यथा-"अकाधुः कुमारभृत्यं तद्धि तन्त्रं कुमारभरणक्षीरदोषसंशोधनार्थ सहणणमारणधम्मभंसाण यालसुलभाण । लाभं मन्नइ धीदुएशून्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थ चेति १। काय- रो, जहुत्तराणं अभावमि" ॥१॥ सूत्र०१श्रु०३१०३ उ०। स्य ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्साप्रतिपादकं तन्त्रं काय- पाउसंत-आजुषमाण-त्रि० । प्राकृतस्वेन तिव्यत्ययः । प्रीचिकित्सातन्त्रं तद्धि मध्याह्नसमाश्रितानां वरातीसाररक्क- तिप्रवणमनसि , स०१ सम० । “सुयं मे पाउसंतण" शोषोन्मादप्रमहकुष्ठादीनां शमनार्थमिति २। शलाकायाः श्रवणविधिमर्यादया गुरूनासेवमानेन । स्था० १ ठा। उत्ता कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादकं तन्त्रंशालाक्यं तद्धि ऊर्धमनुग- | दशा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माउसंत अभिधानराजेन्द्रः। भाएजवक श्रायुष्मत-त्रि० श्रायुरस्यास्तीति । दशा०१०। दश०1 पाउहघरसाला-पायुधगृहशाला-खी०। प्रहरणगृहशालाजीवति, (प्राणधारणधर्मवति ) स्था० १ ठा० । चिरजीवि- याम् , जं. ३ वक्षः। नि, उत्त०२० श्रायुः-जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रश- या प्रश- आउहपरिय-आयुधगृहिक-पुं० । श्रायुधाध्यक्ष, । “तए ण A mAtometrend स्तं प्रभूतं वा विद्यते यस्यासावायुष्मान् । स्था०१ ठा० ।। चिरप्रशस्तजीविते , भ०१६ श०६ उ० । चिरायुः-(दीर्घायुः) से पाउहरिए " (सूत्र-४३+) ततः-चक्ररत्नोत्पत्तेरनन्तरं प्राचा) १ थु०१ अ० १ उ०। लक्षणगुणयति च शिष्यादी, सः-आयुधगृहिको यो भरतेन राक्षाऽऽयुधाध्यक्षः कृतोस्था० १ ठा० । सकलगुणाधारभूतत्त्वेनायुश्च प्रधानो गुणः | स्तीति गम्यम् । जं० ३ वक्षः। सांत तस्मिन्नव्यवञ्छित्तिभावात। दशा०१०। दश०। आउहागार-आयुधागार-नगा षष्ठी ६तामहरणशालायाम. एतच शिष्यामन्त्रणे पुत्रादरामन्त्रणे च प्रयुज्यते । उत्स० २ ० | शा०। (प्रहरणकोश), स्थाठा०३ उ० । तर अ० । दश । दशा० ।"अयमाउसो" ( सूत्र-१०७+)। राज्ञां प्रहरणस्थापनार्थ गृहम् । वाचः। आयुष्मन्निति पुत्रादेरामन्त्रणम् । भ०२ श०५ उ० । दशा०। आउहि (न्)-आयुधिन्-त्रि०। प्रायुधं प्रहरणमस्त्यस्य । परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्दारयति न तु मुक्तिमवाप्या- शस्त्रधारके, बाच० । विशे० १८६६ गाथा। पि तीर्थनिकारादिदर्शनारपुनरिहायातेनाभिमानादिभावतो आऊसिय-आयुषित-त्रि० । श्रा-यूष्-क्क। बाच० । प्रविष्ट, उप्रशस्तमिति । तीर्थकरे , पुं० । उत्त०२० दशा । स्था। "श्राऊसियवयणगंडदेसं" (सूत्र-६६x)'श्राऊसिय' तियथोच्यते कैश्चित्-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य , कर्तारः परमं प्रविष्ठी वदने गण्डदेशो-कपोलभागौ यस्य तत्तथा । संपदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः॥१॥" कुचिते, ज्ञा० १ श्रु०८०। "पाऊसियअक्खचम्मोहएवं घनुमूलितरागादिदोषत्वात्तदचसोऽप्रमाण्यमेव स्या गंडदेस" 'आऊसिय'त्ति-संकुचितं यदक्षचर्म जलापनिःशेषोन्मूलन हि रागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भवः । कर्षणकोशस्तद्वत् ' उट्ट' त्ति-अपकृष्टौ-अपकर्षयती संकुस्था० १ ठा०। “सुयं मे आउसंतणं भगवया एवम टितौ गण्डदशौ यस्य स तथा तम् । शा०१७०८१०। खायं" (सूत्र-१४)। प्राचा०१०१०१उ० । स०। पाम्रषित-त्रि० । संकुटिते, "पाऊसियअक्स्वचम्ममोहदश० । दशा० । विष्कुम्भावधिके तृतीये योगे, पुं० । गंडदसं" अन्ये त्याहुः-आमूषितानि-संकुटितानि अक्षाणिविष्कुम्भः प्रीतिरायुष्मान् । ज्योति० । वाच । इन्द्रियाणि चर्म ओछी च गएडदशीच यस्य स तथा तम्। पाउसुह-आयुःशुभ-न । तीर्थकरादिसम्बन्धिनि शुभे पा ज्ञा०१ ध्रु०८०। युष्कर्मणि, दश० १ अ०। गाहाभाउसोय-अपशौच-न० । अद्भिः शौचमप्शौचम् । प्रक्षा- रक्खाभूसणहेउं, भक्खणहेउं च मट्टियागहणं । लनात्मक शौचभेदे, “ जलशौचं तु पञ्चमम्" इति । स्था० दीहाहिभक्खइए, इमाए जतणाए णायव्वं ॥ १७०॥ ५ ठा० ३ उ०। दीहादिणा खइए मंतणाभिमंतिऊण कडगबंधेण रक्खा कश्राउस्सिय-आवश्यक-न० । अवश्य भावः मनोशा० । खुश् । ज्जति, मट्टियं वा मुहे घ.दृडंको श्राऊसिजति-आलिप्पति अवश्यंभावे, प्रज्ञा० ३६ पद । श्रा० म०। वा । नि० चू०१ उ०। श्राए(दे) ज-श्रादेय-त्रिक। श्रा-दा-यत् । आकाक्षणीथाउस्सियकरण-श्रावश्यककरण-न० । आवश्यकेन-अबश्यंभावन करणमावश्यककरणम् केवलिसमुद्घातात्पूर्व केव ये, जं०२ वक्षः । उपादेये, जी०३ प्रति०४ अधि०। प्राह्य, सू. १०१ श्रु. १४ १०। “आएजलढविभत्तजायसोयसोलिनामवश्यकर्त्तव्ये व्यापारविशषे, तथाहि-समुद्धातकेऽपि कुवन्ति कचिच्च न कुर्वन्ति इदञ्चावश्यककरणं सर्वेऽपि के भत्तरुइलरामराई" । श्रादया-दर्शनपध्रप्राप्ता सती उपादेयावलिनः कुर्वन्तीति (अत्र विशेषः ‘आउज्जीकरण' शब्दे - सुभगा। जी०३ प्रति०४ अधिक। आदेया-दर्शनपथमुपस्मिन्नव भागे गतः।) प्रशा० ३६ पद । श्रा०म० । वाचः। गता सती पुनः पुनराकाङ्क्षणीया । जं० २ वक्षः। आए (दे)ज्जवक-श्रादेयवाक्य-पुं० । प्रायवाक्ये , सूत्र पाउह-पायुध-न० । आयुध्यतऽनेन । रा०। जी०। प्राय करणे घन कः । वाच० अक्षेप्येऽस्त्रे च । औ०। शा०। प्रहर से सुद्धसुते उवहाणवं च , ण. विशे० १८६६ गाथा । "गहियाउहप्पहरणाणं"(३१ सूत्र-)| धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ । गृहीतान्यायुधानि खदादीनि प्रहरणाय यैस्ते तथा तेषाम् । आदेजवके कुसले वियत्ते, अथवा-आयुधान्यक्षेप्याणि, प्रहरणानि तु क्षेप्याणीति वि- स अरिहइ भासिउं तं समाहि ॥ २७॥ शेषः । श्रौ । ज्ञा० । शस्त्रमात्रे, तस्य भेदाः समासतस्त्रिधा स-सम्यगर्दशनस्यालूपको यथावस्थितागमस्य प्रणेताऽनुप्रहरण-हस्तमुक्त-यन्त्रमुक्तभेदात् । तत्र हस्तस्थितैः प्रहियते | विचिन्त्य भाषकः शुद्धमवदानं यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतो तानि प्रहरणानि यथा खड्गादीनि, हस्तमुक्तानि चक्रादीनि, अध्ययनतश्च सूत्र-प्रवचनं यस्यासी शुद्धसूत्रः । तथापयन्त्रमुक्तानि शरादीनि, तेषां सर्वेषां युद्धसाधनवादायुध धान-तपश्चरणं यद्यस्य सूत्रस्याभिहितमागमे तद्विद्यते यत्वम् । वाच०। स्यासावुपधानवान् , तथा धर्म श्रुतचारित्राख्यं यः सम्यक श्राउहघर-आयुधगृह-न०। प्रहरणशालायाम् , जे० ३ वक्ष०।। पेत्ति बिदन्ते वा सम्यक लभते तत्र तत्रेति य श्राक्षाग्राह्या Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) अभिधान राजेन्द्रः । आएज्जवक र्थः स श्राशयैव प्रतिपत्तव्यो हेतुतस्तु सम्यग्धेतुना । यदि वा स्वसमय सिद्धोऽर्थः स्वसमये व्यवस्थापनीयः पर ( समय ) सिद्धश्य परस्मिन् अथवा उत्सर्गापादयोग्यस्थितोऽ यस्ताभ्यामेव यथाखं प्रतिपादयितव्य एतद्गुणसंपद्मश्रादयवाक्यो ग्राह्य वाक्यो भवति । सूत्र० १ श्रु० १५ अ० । जाए ( १) जगाम आदेयनाम-१० नामकर्ममदे, प्र० २२६ हार । तच्च-" आपजा सव्वलोयगिज्झव श्री” (५०+ ) याददेयनामोदयेन सर्वलोकन समस्तजनेन प्रामाद चचो-वचनं यस्य स तथा । कर्म०१ कर्म० । यथा यदुदयवशात् भाषते या तत्सर्वे लोकः प्रमाणीकरोति दर्शनमनन्तरमय च जनोऽभ्युत्थानादि समावति तदांवनाम | पं० सं० ३ द्वार । श्रा० । कर्म० । आए (दे) जवण श्रादेयवचन- त्रि० । ग्राह्यवचने, दशा० ४ श्र० । उत्त० । 66 आर (दे) अवयवया आदेयवचनता खी०। सकलजनपता वचनसम्परे दशा० ४ ० स्था० । भाए (दे) सआदेश-पुं० आदि भाषे पम्। उपदेश, श्राज्ञायाम्, वाच० । आदिश्यते- आशाप्यते संभ्रमेण परिजो पस्मिनात तदाविधेयाय तदासमदानादिव्यापारे, स या देशः । सूत्र० २ श्रु० १ अ० । आचा० । उत्त० । श्रादिशतीत्यादेशः । आयासकरे, व्य०६ उ० । श्रभ्यर्दिते, उत्त० ६ श्र० । नायकादौ प्राधूर्तके, उत्त० ६ अ० । आए सो पाहुणगं" । आदर्श करोतीत्यादेशः । नि० चू० १ उ० । ध० । आचा० । श्र० म० । “सागारियस्स श्राप से" (सूत्र१-२-३-४ + ) " सागारिकपिंडस्य प्रतिपादकं यत् आदिमंसूत्रं तस्य संबन्धः, अनेन संबन्धनायातस्यास्य व्याख्यासागारिका नाम शय्यातरस्तस्याऽऽदेश श्रायासकर आदेशः । यदि वा आदेशितः आदेशः अथवा प्रदेश इति शब्दसंस्कारस्तस्य व्युत्पत्तिमत्रे वक्ष्यामः । स च नायको मित्र प्रभुः परतीर्थको वा द्रष्टव्यः । व्य० ६ उ० । आदेशमनापृच्छय त्रिरात्रात्परं यतः प्रायश्चित्तं संवासव कव्यता जे भिक्खू चहियावासिय आएसं परं तिरायाउ अबकालेना संवसावे संवसावंतं वा साइजइ ॥ १४ ॥ आगतो आदेशं करोतीति आएसः प्राघूरकमित्यर्थः । सो य गच्छवासी बद्दियावासी - भरगति । तमागतं परतो तिरायतो परतो 'तिएइदिवाएं' ति-अधिकालिचिफला खाम-विवडा किं णिमित्तं श्रागता श्रणवजंतो वा भदंत ! कतो आगया, कहिं वा वच्चद्द, एवं अविफार्लेतस्स चउत्थदिए चरगुरुं भवति, आवादियों व दाखा । गाहा— बहिवासगच्छवासी, आदेसं आगयं तु जो संनं । हिदिवसाय परतो, पुच्छती संवसायादी ॥ १५७॥ गतार्था । गता श्रारतो अविफालेतस्स दोसा । गाहा- पदमदिन विति सतिए, लहुगुरुलहूगा य सुत्त तेरा परं । संविग्गमतिरे व तदपुढे इमे दोसा ।। १५८ ॥ २४ आएस पढमदिणे अविफालेतस्स मासलहुं । वितियदिणे मासगुरुं । तनिषदि चलते परं' तिरथदि सुत्तातो च गुरुमित्यर्थः । संग्गितो मग संभवति तो पासादितो वा प ज अ संघासेति तो ता हमे दोसा भवंति । गाहा उवचरगअहिमरे वा पतितो ते मेधुणऽड्डी वा । रायादवकारी वा पउत्त अत्ता व तेणो वा ॥ १५६ ॥ कत्ताइ सो ते वेसगाहणें उचचरो-मंडितो गच्छति, अ. हिम-यांद गतिहित भरापत्र परिचितुमागतो तो या गच्छति सेवे तुमागतो मेडुट्टी वा गच्छति रहयो वा अवकार काउमा गतो, रराणो वा अवकारकारणाय गच्छति, वा त्रिकप्पे श्रायरियस्स वा उदाइमारकवत् । भावे 'तेगा' सिद्धं ताव हरराता केति पडता आगतो, अप्पवावा, विंदाच कवत् । एवमादिदोसा भवति श्रपुं पुच्छितो वा इमं भणे । गाहा उपसंपावरा, कजे कारगिऍ अट्ठजाते वा । बहिताउ गच्छवासि स्साऽऽदीवण एवमादीहिं ॥ १६० ॥ कजे मतपरिया, गिलाण राया व धम्मक हि वादी । छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वइक्कमे गुरुगा ।। १६१ ॥ तुम्भं चेव उवसंपजाणिव्वा श्रागतो, अवराहाऽऽलीय वा दाय वा दाहामिति श्रागतो, कुलगणसंघकज्जेण वा श्रा गती, असिवादीहिं वा कारणहि श्रागता, श्रजायणिमित्तंण या आगतो हंसो बदिया गड़वासी विकासित एवमादीकार दीविया परिषिपिष्कासितो, एवमाकारण सुहं जाति कारण तिराहदिणाणं परतो न विष्फाले श्रालोय वा न पहिच्छे कुलगणसंघकजेल परियो या वडो न विष्फालेति मतपती असोयच तस्थ या बाउलो, गिलास या बडो दिया रोपम्ममाखति, परवादिणा वा सर्दि वादे करनि एयमादिकारखेदितिरदिा परत अधिकाले विशुद्ध उकासेण जाव छम्मासा | छम्मासातक्कमपढमदिणे अविफालंतरस च गुरुगा । 9 गाद्दा पडावे, तस्साऽमति संतं पडिच्छते रति । उत्तरबीसा, खिनोद खिसि पि पडिन्छो ।। १६२ ।। तिरातिपद्विवेनिया श्रालायणारद्दियस्साऽसति सयमेव 'रातो' पडिच्छति अह एसो विपरवादुत्तरवीमंसाए वा वडो दिवा वादकारणेण खिलो वीमंसंतापतो विण पडिच्छति एवं छम्मासा पत्ता मा तव पच्ाियति सेवनास्वर्थः । गाहा दोहिं तिहि दियेहिं जतियच्छति तो न होति पतिं । तेण परमपुष्मत्रणा, कुलाइँ रम्मो व दीवेंति ॥ १६३ ॥ छहं मासाणं परतो दोहिं तिहिं कज्जं ण समप्यति तो कुलगण संघस्स रराणो वा णिवेदेति जेहिं वा वडो भविस्वामि तेन सागर ि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएस ( ५४ ) अभिधानराजेन्द्रः । गाहा वितियपदमणष्पज्झे, अंतगणादागयं ण विप्फाले । अप्पज्भं च गिलाणं, अच्छितुकामं च वच्चंतं ॥ १६४ ॥ कोण विफलनि, व विफालिजति या अ गिलास पुति मिलाएं या बढी वा सो वा आदेसो मिला जाते गिला या यो वा आएसो न पुच्छ्रिज्जति । श्रहवा-तेरा श्रपुच्छपण चेव कहियं, जहा- तुन्भ समासे कामो भागतो, हवा-अप चेकहियं इद्दाहं वसितुं इमिणो कारण गच्छामि चैत्र, एवं अविफात सुदो। सूत्रम् - जे भिक्खु साहिगरणं अविउसचिवं पाहुणगं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाश्र विष्फालियं श्रविष्फालियं संभुंज संभ्रंजंतं वा साइजइ ।। १५ ।। 'जति' शिंदे, पुण्यावणितो, 'सह' अधिकरने क पाय भावशुभभावाधिकरण सद्दितेत्यर्थः । विविधं विविधेहिं वा पगारेहिं उसवियं-उवसामियं किं तं पाहुर्ड; कलह मियथे। सिवियं अविश्वासवियं पाहुडे मि पाहुडकर जं पतिं भंडं जेण सो कडपत्ति अ, मा, नो, ना, प्रतिबेधे, । तत्कृतं प्रायश्चित्तमकृतप्रायश्चित्तं- जो तं संभुजणसंभोषण संभुंजति । एगमंडलीए संभुंजति त्ति वृत्तं भवति । श्रहवा-दारी संभाषणं भुंजति, तस्स चउगुरुगा, आयादिणो य दोसा । नि० ० १० उ० । आशापने, बृ० १३० ३ प्रक० | स्था० । आज्ञायाम्, झा०१ श्रु० ६ श्र० । आदेशिते, आदिश्यते - सत्कारपुरस्सर माकार्य्यत इत्यादेशः इति व्युत्पत्तेः । व्य० ६ उ० । आदेशनमादेशः । उपचारे, ( व्यवहार ) | स्था० ४ ठा० २ उ० । विशे० । श्रा० म० । उपचारेऽ थे, ( आदेशवव्यता ' आएससब्ध' शब्देऽस्मिन्नेव भागे यदयते) उदगमदोषविशेषस्वदेशिकस्य तृतीये मेरे च स व निर्ग्रन्थशाक्यतापसगैरिकाजीविकानां श्रमणानां कृते चांदेशाक्यमिति । श्यायते इत्यादेशः (कर्मकरादिके ) यः कस्यचित् क्रियायां नियोज्यते कर्मकरादिः । आचा० २ श्रु० २ चू० ६ श्र० । प्रकारे, नि० चू० १ उ० । " गहियाऽगहियम्मि आदसे ( ८२ x ) गृहीतागृहीतविषये देश-प्रकारचतुर्भयात्मकः०२० दो १, खेत २, कालओ ३, भावओ ४ । दव्वश्रोणं आभिणिबोहियनाथी आपसेयं सव्वदच्वाई जा इ, पासइ । खेत्तच गं आभिणिबोहियनाणी एसें सव्वखेनं जागर, पासइ एवं कालओ, भावयवि । ( सूत्र - ३२१ + ) आदेशः प्रकारः सामान्य विशेषरूपत प्रादेशेनोचतो द्रव्यमात्रतया नतु तद्गतसर्वविशेषापेक्षयेति भावः । अथवा-देशेन परिमिता सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति श्रवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते; ज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात् । भ० ८ ० २ उ० । आदेशः प्रकारः । स च - द्विधा-सामान्यरूपो विशेषरूपश्येति । नं० कोऽयमादेश इत्याह आएस एसो ति पगारो, श्रोहादेसेण सव्वदव्वाई । धम्मत्थि आइयाई, जाणइ न उ सब्वभेदेखं ॥ ४०३ ॥ S. इह आदेश नाम ज्ञातव्यवस्तुप्रकारः, स च द्विविधः - सा. मान्यप्रकारो, विशेषप्रकारश्च । तत्रौघादेशेन - सामान्यप्रका रेण द्रव्यसामान्येनेत्यर्थः सर्वद्रव्यादि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति श्रसंख्येयप्रदेशात्मको लोकव्यापको मूर्त्तः प्राणिनां पुगलानां च गत्युपष्टम्भ हेतुर्द्धर्मास्तिकाय इत्यादिरूपेण कियत्पर्यायविशिष्टानि पपि इम्याणि सामान्येन मतिका नी जानातीत्यर्थः । विशे० । “अन्नो वि य आएसो" अन्योवाssदेशः प्रकारः । वृ० ३ उ० । श्रादिश्यत इत्यादेशः-श्रापारम्पर्ययाऽऽयातो वृद्धवादोऽयमेतिमाचक्षते स आदेशः । चूढवादाऽऽयाते दृष्टान्ते आचा० १० ८ ० १ ० आदिश्यत इत्यादेशः निर्देशे ००१० । आदिश्यतस्यादेशः व्यापारनियोजन २०१ चू० १० १० प्रतिपादने "यमादिसंति । धूतम्मोक्षम् आदिशन्ति प्रतिपादयन्ति सू० १०तिवचने, विशे० । मते, " मोनूणादेसतिगं मुक्या परिहत्यादेशत्रिक-मधिकम्। पिं० विकल्पे, "आसाहमे दाँति" आदेशा विकल्पाः नि० चू०१ ७० प्राकिति मय्या विशेषरूपानतिक्रमात्मिकथा आदिश्यते कथ्यत इत्यादेशः । विशेषे, उत्त० । 1 3 " आपसे चेवणारसे ॥ ४७ ॥ आदिट्ठो आएसं - मि बहुविहे सरिसाणचरणगते । सामिरूपव्ययाई-मित्र किंचित बोद्धं ॥ ४७ ॥ श्राङिति मर्यादया विशेषरूपानतिक्रमात्मिकया श्रादिश्यतेकव्यत इति देशी-विशेषस्तस्मिन् तदन्यस्यनादेशः सामान्यं पूर्वत्र चैवशब्दयोः समुच्चयावधारणार्थयोर्भिन्नक्रमस्वावित क्षेत्रवादेशे यथा जम्मूयम् आदेश तु यथा भारतोऽयं, कालविषयो नादेशे यथादौष्यमिकोऽयम् आदेशे तु वासन्तिकोऽयं भावविषयांनादेशे भाववानयम् आदेशे त्वौदविकादिभाययानिति । सामान्यायगम पूर्वकत्वाद्विशेषावगमस्यैवदाहियते । निर्यको तु विपर्ययानिधान जम्बूद्वीप इति सामान्यमपि लोकापेक्षा विशेषा भरतमिति, विशेषोऽपि मगधाद्यपक्षेया सामान्यमिस्यादिरूपेण सर्वत्र सामान्यविशेषयोरनियतत्वापनार्थम् । उत्त० १ अ० । , " + सो पुरा दुविहो, अप्पियववहारणप्पितो चेव । एकेको पुतिषिद्धो अप्पा परे तदुभए य ॥४८॥ ततश्चा देशीभितिरूपः पुनः शब्दो विशेषणे, द्विविधो-द्विभेदः, कथमित्याह 'अविवहाराचे सिध्य बहारशब्दोऽत्र इनकमयानोभयत्र संयते तथापितो व्यवहारी पस्मिन्सो ऽधमर्पितव्यवहारः मयूरव्यंसका दिवात्समासः अर्पितव्यवहारस्तु तद्विपरीतस्तत नाम क्षायिकादिर्भावः स्वाधारे भाववति शातोऽयमित्यादिरूपेण ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वा वचनव्यापारेण वक्त्रा स्थापितः श्रनर्पितस्तु वस्तुतः साधारत्वेऽपि निराधारमरूपणार्थं विवक्षितो यथा सर्वभावप्रधान शायिको भा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाएस अभिधानराजेन्द्रः। पाएसकारिन् वोऽनयोरपि भेदानाह-एकैक इति अर्पितव्यवहारः, अनर्पित. करडोकुरुडा दोसट्टियरुवझाया, कुणालाणयरीए निव्यवहारश्च । पुर्नास्त्रविधः, कथमित्याह-'श्रत्ताण' नि-पाक- | द्धमणमूले वसही, बरिसासु देवयाणुकंपणं, नागरेहिं निपत्वादात्मनि परस्मिन् तयोरात्मपरयोरुभयं तदु तस्मिश्च छुहणं, करडेण रूसिएण बुत्तं-'वरिस देव ! कुणालाए,' विषयसप्तम्यश्चैताः, ततो विषयत्रैविध्येनानयास्त्रविभ्यम् ।। उक्कुरुडेण भणियं-' दस दिवसाणि पंच य' पुणरवि कउत्त०१ ० ( आदेशाऽनांदशयोबहुयक्तव्यता 'संजोग' शब्दे रडेण भणियं-' मुट्टिमेत्ताहि धाराहि ' उक्कुरुडेण भणियंसप्तमभागे करिष्यते) व्यपदेशे, आचा। 'जहा रत्ति तहा दिवं' एवं बोनूणमवर्कता, कुणालाएवि एओवम पाएसो, वाए संतेऽवि रूमि ॥ १६७ ॥ पराणरसदिवसअणुबद्धवरिसणणं सजाणवया (सा) जलेगा एतदुषमानो वायावपि भवति आदेशो-व्यपदेशः। आचा० उकंता तो ते तइयवरिसे सापए णयरे दोऽवि काल का१६०१ १०७ उ०। ऊण अहे सत्तमाए पुढबीए काले गरगे यावीससागरोवम ट्टिईश्रा सरड्या संवुत्ता। कुणालाणयरीविणासकालाओतेरकेसिंचिय पाएसो. दंसख, खाणेहि बट्टए तित्थं(५५+) समे वरिसे महावीरस्स केवलणाणसमुप्पत्ती। एयं अनिबद्धं, केषांचिद-दुर्विदग्धचुद्धीनां ज्ञानलवामातचेतसां-कदाग्रह- एवमाइपंचाऽऽएससयाणि अवद्धाणि। एवं लोइयं अबद्धकरणं प्रस्तमनसाम् आदेशो-व्यपदशः गूरणति यावत् दर्शनशाना- बत्तीसं अडियाो बत्तीसं पञ्चड़ियाश्रो सोलस करणाणि, भ्यां वर्तते । दर्श०४ तत्व । श्रुतपरिकर्मिततायाम् , भ० ८ लोगप्पवाहे पंचट्ठाणाणि,तंजहा-पालीढं, पच्चालीद,वरसाई श०२ उ०। श्रुतपरिकर्मणायाम् , भ०८ श०२ उ० । सूत्र मंडलं, समपयं । तत्थालीढं दाहिणं पायं अग्गोहुत्तं काउं च । “आदशो ण उववज्जतीति प्रणवद्डो होति" भवति वामपायं पच्छोहुत्तं ओसारद, अंतरं दोराहवि पायाणं आदशः; सूत्रादित्यर्थः । नि० चू० १ उ०।। पंचपाया, एवं चेव विवरीयं पञ्चालीढं, बासाहं पण्हीओ तत्थ दव्यओ णं आभिणिबोहियनाणी पाएसेणं स अभितराहुत्तीश्रो समसेढीए करेइ, अग्गिमयलो बहिरा. हुत्तो, मंडलं दोबि पाए दाहिणवामहुत्ता ओसारता ऊरुब्वाइं दव्वाइं जाणइ, न पासइ । (सूत्र-३६ +) णोवि आउंटावेइ जहा मंडलं भवर, अंतरं चत्तारि पया, अथवा-आदेश इति-सूत्रादेशस्तस्मात्सूत्रादेशात्सर्वद्रव्या- समपाय दोवि पाए समं निरंतरं ठवड, एयाणि पंचट्ठाणाणि, णि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, नतु साक्षात्सर्वाणि प- लोगपवाए (हे) सयणकरणं छटुं ठाणं, इत्यलं विस्तरण । श्यति । नं०। आव०१०। (सूत्रस्यादेशत्वे बहुवतव्यता 'आभिणिबोआएसो त्ति व सुत्तं. सुश्रीवलद्धेसु तस्स मइनाणं । हियणाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) पसरइ तब्भावणया, विणा सुत्ताणुसारेणं ।। ४०५॥ । एण्य-त्रि० । आगमिष्यति , सूत्र० । "श्राएसा वि भवंति अथवा-प्रादेशः सूत्रमुच्यते, तेन सूत्रादशेन सूत्रोपल- सुव्वया" (२०४) । आगमिष्यांश्च ये भविष्यन्ति । सूत्र०१ ग्धेष्वर्थेषु तस्य मतिज्ञानिनः सर्वद्रव्यादिविषयं मतिज्ञानं श्रु०२ १०३ उ०। प्रसरति । विश०। आवेश-पुं० । प्राविशतीत्यावेशः यस्मिन् स्थाने प्रविष्टे अङ्गोपाङ्गादिसूत्रेवबद्धा ये भावाः-पदार्था ज्ञानिभिः प्र सागारिकस्याऽऽयासो जन्यते स ावेशः। शातिके, स्वजने, काशिताश्च ते कस्य तीर्थकरस्य समये कियन्त आदेशा सुहृदि , प्रभौ , परतीर्थिके च । व्य० । उच्यतेएवं बद्धमबद्धं, आएसाणं हवंति पंच सया। भाष्यकृदादेशशब्दव्याख्यानमाहजह एगा मरुदेवा, अच्चतं थावरा सिद्धा ॥१०२३।। आयासकरो आए-सितो उ आवेसणं व आविसह। एवम्-अनन्तरोक्नप्रकारं सर्व(बलु)लोकोत्तरं श्रुतम् । लौकि सो नायगो मुही वा,पभू व परतिस्थितो वाऽवि ॥२॥ कं वारण्यकादि द्रष्टव्यम् । अवद्धं पुनरादेशानां भवन्ति पञ्च श्रायासकर श्रादेशः श्रादिशतीत्यादेश इति व्युत्पत्तेः, श्राशतानि, किंभूतानीत्यत आह-यथैका-तस्मिन् समये अद्वि- दिशितो वा आदेशः । श्रादेश्यते सत्कारपुरस्सरमाकार्यत तीया मरुदेवी-ऋषभजननी अत्यन्तस्थावरा-अनादिवनस्प- इत्यादेशव्युत्पनेः । अथवा-आवेश इति संस्कारस्तत्र व्युत्पतिराशरुकृत्य सिद्धा-निष्ठितार्था संजाता । उपलक्षणमेतत् त्तिमाह-आवेशनं वाशब्दः शब्दसंस्कारापेक्षया विकल्पने, अन्यपामपि स्वयंभूरमणजलधिमत्स्यपद्मपत्राणां वलयव्य- प्राविशतीत्यावेशः आवेशनं नाम यस्मिन् स्थाने प्रविष्टेन तिरिक्तसकलसंस्थानसभवादीनामिति, लौकिकमप्यनिबद्धं सागारिकस्याऽऽयासो जन्यते, स आदेशः,श्रावेशो वा नाम बेदितव्यम् । अडिकाप्रत्यडिकादिकरणं ग्रन्थाऽनिबद्धत्वात् । ज्ञातिकः-स्वजनः सुहृद्वा-मित्रं प्रभुर्वा-नायकः परतीथिको अत्र वृद्धसंप्रदायः वाऽपि । व्य० उ० । श्रा-विश-घश् । अहङ्कारभेदे, संरम्भे, "प्रारुहए पवयण पंच श्राएससयाणि जाणि अणिबद्धाणि, अभिनिवेश, श्रासने, अनुप्रवेश, यथा भूताऽऽवेशः । ग्रहतत्थंग मरुदेया णवि अंग ण उवंगे पाढो अस्थि, जहा-अञ्चतं भय, भूताद्यावशरोगे च । याच०। थावरा होइऊण सिद्धत्ति, बिइयं सयंभुरमणे समुद्दे मच्छा- आएसकारिन्-आदेशकारिन्-पुं । आशाकारिणि, कौटुम्बिशंपउमपत्ताण य सव्वलठाणाणि अस्थि वलयसंठाणं मोत्तुं, कादौ, “कोहुंचियपुरिसे सद्दावेंति" (सूत्र-१२x) कौडतयं विराहुस्स सातिरेगजोवणसयसहस्सविउवणं, चउत्थं म्विकपुरुषान्-श्रादेशकारिणः । शा०१ २०१०। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएसंग (प) 9 एस (ब)- आदेशक भि० शिति आदि‍ धा०वुल् । आदेशकार के आज्ञाकारके, वाच० । आदिश्यतेपस्मिनात संभ्रमेण परिजनस्तदा सनदानादिव्यापार स -आदेशः प्राके, सू० २०१०। आएसम्म आदेशानन० आदिश्यत इत्यादेपार नियाजना । अग्रशब्दाऽत्र परिमाणवाची, तत्र च यत्र परिमितानामादेश दीपने तदादेशाप्रम् (आवा० ) । आदिश्यते इत्यादशा निर्देश इत्यर्थः आदेशना आदेशाप्रम् | नि० ० १ ३० परिमितानामादेशे तद्यथा-त्रिभिः पुरुषः कर्म कारयन्ति तान्वा भोजयति । श्राचा० २ श्रु० १ धू० १ ० १ ३० । - आदेसरगं पंचगु-लादि पच्छिमं तु आदिसति । पुरिसाय व जयंते मोयणकम्मादिकजेसु ॥ ५३ ॥ आदिश्यते इति आदेशो निर्देश इत्यर्थः । तेण आदेसेण श्रग्गं दशगं तत्थुदाहरणं पंचगुलादिः पंचरहं अंगुलीदव्याण कम्मता जदि पछि दिसांत तं भयति सकार का जहा सत्ता बहुआ क माताण इमं बहुयं भोजयत्ति (आदिसति) एवं कम्माइकज्जेसु वि नेयं । गयं दसग्गं । नि० चू० १ उ० । आवेशन १० आ-विश आधारे पाच लोहकारादिशालायाम् । श्राचा० २ ० १ चू० २ ० २ उ० । तानि चायस्कार कुम्भकारादिस्थानानि येषु लोका आविशप्रि० । शालायाम् तत्र हि मनोऽभिनिवेशेन च कार्य्यकरणात्तस्यास्तथात्वम् । भूतावेशादिरोगे, कोपादौ वाच० । - • " एसपर आदेशपर त्रि० । आदिश्यते - आशाप्यते इत्यादेशः। यः कस्यचिकिया नियोजयते कर्मकरादिः स चासौ परक्षादेशपरः कस्यचिकिया नियुक्ते कर्मकरादी, श्राचा० २ श्रु० २ चू० ६ ० । भोसणमादी - सु एगखेनट्ठियं तु जं पच्छा । आदिसह झुंजऊ व आएसपरो हव तत्थ ।।५८३॥ एतद्भाजनं प्रतीतं पचं व्यापारणं तदादिषु कारयेषु यं कञ्चनपुरुषमेकस्मिन् क्षेत्रे स्थितमपि पश्चात्पर्यन्ते श्रादिशतियथा, मुदय भोजनं विभेद, कुरु या कृत्यादिकर्म एप प्रदेश भवति तदाश्रित्य पर पायाव आदेशपरः । वृ० १ ० ३ प्रक० । आएसभत - आदेशभक्त न० । आपसो - पाहुणगो आगतों तस्स भयं प्रदेशभक्तम् प्राचूर्णकमले नि० चू० ६ ० । (पाप भांगे करिष्यते ) एससव्व- आदेश सर्व पुं० श्रादेशनमादेशः - उपचारो व्यबहारः स च बहूर प्रधाने या आदिश्यते देशेऽपि यथा-षिपक्षिने समय बहुत स्तोके च शेषे उपचारः कवने "सर्व भु" प्रधानेपचारः कियते यथा प्रा. मप्रधानेषु गतेषु पुरुषषु " सर्वो झामा गत" इति व्यपदिश्यत शत आदेशतः सर्वमादेशसर्वमुपचार सर्वमित्यर्थः । स्था० ४ डा०२ उ०| उपचारंग सर्वस्मिन् स्था०४ ठा०२ उ० ॥ श्र०म० । 1 ( ५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । गाडा " 9 आभोगपओ० आदेश सर्वस्य स्वरूपम् आएसो उपधारो, सो बहुतरए पहाखतरए वा । " देखे वि जहा सव्वं भत्तं वनं गच्यो गामो ॥ ३४८८ ॥ प्रदेश-उपचारः स च बहु-प्रधानतया आदेश सर्वतया प्रवर्त्तत तद्यथा परिगृहीतं भक्कम पाइनर मुक्के सति आदिश्यते सर्वमनन शुक्रमिति प्रधानेतराऽऽदेच कतिपय पुरुषेषु गतेषु शेषेष्ववतिष्ठमानेष्वप्यादिश्यते, लांके यथा-"गतः सर्वो ग्रामः” । विशे० । आए सिन्- आदेशिन्- त्रि० आदिशति श्रादिम् यिनि । प्रदेशकारके, वाच० । अभिलाषिणि, " वरागादेसी गारभे (सूत्र- १५४) वर्ग-साधुकारस्तदादशी वर्षादेशीवर्णाभिलाषी सम्रारभते कश्चन । श्राचा० १ ० ५ श्र० ३ उ० । आएसिय-प्रदेशिक त्रि० उपदेशरि, सूत्र० । ( सम्यग्ज्ञानवतामुपदेष्टृणां गुणानाविर्भावयन्नाह ) - लोयं विजाणंति ह केवलेस, पुत्रेण गाणेण समाहिजुत्ता । धम्मं समत्तं च कहंति जे उ, नारंति अप्पा परं च विना ॥ ५० ॥ सूत्र० २ श्रु० ६ ० । ( अस्या गाथाया व्याख्या ' अहगकुमार' शब्दे १ प्रथमभागे ५५६ पृष्ठ गता ) आदेशितो वा आदेशः आदेशात्सत्कारपुरस्सरमाकार्यत इत्यादेश इति व्युत्पत्तेः । ( व्य०) आदेश, ( नायकादौ प्राघूर्ण के ) । व्य० ६ उ० । आयोग आयोग - पुं० या युज घन् । गन्धमायापहारे, व्यापार, रांध, सम्यक् सम्बन्धे च । वाच० । द्विगुणादिलाभे, स्था०८ ठा० ३ उ० । द्विगुणादिवृद्धयाऽर्थप्रदाने च । भ० २ ० ५० परिकर, "भीमसंगानि आयो" (सूत्र) । भीम: - सांग्रामिक श्रायोगः परिकरो यस्य । ज्ञा० १ ० १६ अ० । आओगपयोग आयोगप्रयोग- पुं० आयोगस्व-अर्थला भस्य प्रयोग उपायाः । श्रनादिकान द्रव्यस्य प्रयोगोऽधमर्णानां दानम् । स्था०८ ठा० ३५० । द्रव्योपार्जनोपायविशेषे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । द्विगुणादिबुद्धधार्थ कालान्तरे प्रयोगे च भ० २ ० ५३० । अओगपओगसंपउत्त-आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्त - त्रि०। आावाइनविसर्जनकुशले, रा० आयोगों द्विगुणादिवृद्ध पात्रदानं प्रयोगश्च कालान्तरितौ सम्प्रयुक्तौ व्यापारितौ यैस्ते तथा । भ० २०५ उ० । श्रायागप्रयोगा-द्रव्योपार्जनीपायविशेषाः सम्प्रयुक्ताः - प्रवर्त्तिता येन स तथा स्था० १ डा० । आयोगस्थ अर्थलाभस्य प्रयोगा- उपायाः संप्रयुक्काव्यापारिता येन तेषु वा सम्प्रयुक्तो व्यापूनो यः सा० १ ० १ अ० । श्र० । प्रवर्त्तितद्रव्योपार्जनाशयविशेष, स्था० ६ ठा० ३ उ० | द्रव्योपार्जनोपायविशेषेषु च । ० ० १ ० प्रयोगन द्विगुणादिलाभेन म्यस्य प्रयोगः अथ दानम् तत्र संयुक्रामाि • , Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राोगपो० अभिधानराजेन्द्रः। प्राकिंचणियमवग तेन वा संप्रयुक्तानि-संगतानीति । स्था० ८ ठा०३ उ० । आकरिणय-आकर्णित-त्रि०। श्रुते, प्राचा० १ श्रु० १ द्विगुणादिलाभेन द्रव्यप्रयोगेषु व्यापृते, द्विगुणादिलाभार्थम् | अ०१ उ०। द्रव्यप्रयांगण संगते च । स्था०८ ठा० ३ उ० । आकम्हिय-आकस्मिक-त्रि० । अकस्मादित्यव्ययं कारणाआरिग्गाम-आंवरिग्राम-पुं०।अशीतितीर्थजिनान्तर्गतश्री. भाव, कारणं विना भवः । विनया० ठक् टिलोपः । अकस्मामतिदेवजिनाधिष्ठिते ग्रामविशेषे, श्रावुरिनामे श्रीमतिदेवः । द्भव , स्त्रियां ङीष् । घाच. । अकस्मादव यद्भवति तदाकती० ४३ कल्प। स्मिकम् । विशे० । नियुक्निक, श्राचा० १ श्रु. ८ अ० १ उ०। आकंखा-आकाक्षा-स्त्री० । श्रा-काङ्क्ष अङ्। अभिलाष, अहेतुके , विश न्यायमते, वाक्यार्थज्ञानहेतौ, यत्पदं विना यत्पदस्यानन्वय- वज्झनिमित्ताभावा , जं भवमाकम्हियं तं ति ॥३४५१॥ स्तत्पदे तत्पद्वत्त्वरूप संबन्धे, पदान्तरव्यतिरेकेणान्ययाभा- यत्त बानिमित्ताभावात्त-अकस्मादेव भवति तदाकस्मिकम । वे च । वाच । वाञ्छायाम्, षो०१५विव०॥ (अभिलाषायाम् ) विशे० । (एतद्वनव्यता 'सभाव' शब्द सप्तमभागे करिष्यते ) श्राचा० १ श्रु. ५०६ उ० । “तत्तत्त्वं यद दृष्ट्रा, निवर्त्तते आकि(गि)इ-आकृति-स्त्री०। प्रा-कृ-क्लिन् । "इत्कृपादो" दर्शनाऽऽकाता" ॥१२॥ दर्शनाकाङ्क्षा-दर्शनवाञ्छा । षो० १५ विय। ॥८।१ । १२८ ॥ इति हैमप्राकृतसूत्रणेत्त्वम् । प्राकृतत्वात्त. कारलोपः । प्रा० । प्राक्रियते-व्यज्यते जातिरनया। करणे माकंदमाण-आक्रन्दत-त्रि० श्रावन्दशब्दं कुर्वति, विपा०१ निन् । जातिव्यञ्जकऽवयवसंस्थानभदे, " श्राकृतिग्रहणा श्रु०६ अ०। जातिः " महाभा० । जात्याकृतिव्यक्लयस्तु पदार्थाः। गौ० प्राकंप-प्राकम्प-पुं० । आवर्जने, स्था० १० ठा०३ उ० । व्य सू० ॥ वाचः। श्राकारे, श्रा० म०१ श्र० । शा० । संस्थान, घ०। आराधने , व्य०१ उ० श्रा-ईषदर्थे, कपि घञ् । ईष- नयो । 'श्रागार त्ति वा भाग त्ति वा संठाणं ति वा एगकम्प . वाच। ट्ठा' श्रा० चू० १ ० । प्राकृतिशब्देन प्राण्यवयवानां पाश्राकैपइत्ता--प्राकम्प्य-अब्य० । श्राराध्येत्यर्थे, व्य०१ उ०।। गयादीनां तदवयवानां चाङ्गल्यादीनां संयोगोऽभिधीयते । श्रावयेत्यर्थे, ध०२ अधिः । स्था० । (प्राकम्पालोचनो हि तथा च सूत्रम्-"प्राकृतिर्जातिलिङ्गाख्या" (न्यायद० अ० श्रालोचकस्य दुशसु दोषेषु प्रथमो दोषः 'पालाणा' शब्देऽ. २ श्रा० २ सू०६७) इति अस्य भाष्यम् । ( सम्म०१ काग्रऽस्मिन्नेव भाग द्रष्टव्यः) एड २ गाथाटी०। ('सह' शब्द सप्तमे भागे विस्तरतः प्र-- प्राकंपइत्तु-आकम्प्य-श्रव्य० । आवर्जेत्यर्थे , स्था० १० निपादयिष्यते) (अस्याः शब्दार्थत्वविचार 'श्रागम' शब्द ऽस्मिन्नव भागे करिष्यते ) रूप, " यत्राकृतिस्तत्र गुणा ठा० ३ उ०। वसन्ति" श्राचा० १ श्रु०१ अ.१ उ०। प्राकंपण-श्राकम्पन-न० । आराधने , आवर्जने च । व्य १ उ० । ५०। श्राकम्पते , श्रा-कपि-युच् । ईपरकम्पनशीले, आकिइमंत-आकृतिमत-त्रि० । प्रशस्तस्वरूपापते, "जो वि त्रि० । भाव ल्युट । ईषत्कम्प, न०। श्रा-कपि-णिच्-ल्यु। अगीतो वि श्रागइमंतो" । ६७x)। अगीतार्थोऽपि प्राकृईषचालक, त्रि० । तत एव भावे ल्युट् । ईषच्चालन , न० तिमान्-रूपेण मकरध्वजतुल्यः स गणधरपदे निवेश्यत । व्य० ३ उ०। वाच०। धाकड़-आकर्ष-पुं० अभिमुखमाकर्षणे, प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। आकिंचणिय-आकिंचन्य-न० । अकिञ्चनस्य भावः ष्यम् । नि० चू। दरिद्रतायाम् । वाचा नाऽस्य किश्चन द्रव्यमस्तीत्यकिश्चनआकडण-आकर्षण-न० । अभिमुखं कर्षणमाकर्षणम् । श्र स्तस्य भाव पाकिञ्चन्यम् । प्रव०६६ द्वार। षो० । ध० । कनकादिरहिततायाम् , पश्चा० ११ विव०। पाकिचणियंभिमुखकर्षणे, प्रश्न १ श्राश्रद्वार । "आकड्ढणमाकसणं" नस्थि जस्स किंचण सो अकिंचगा तस्स भावा आकिंचअप्पणो तण श्रागड्ढणमागलणं" । नि० चू० १८ उ०। । णिय, कंमनिज्जरटुं सदेहादिसु विणस्समेण भवितब्बं । श्रा० श्राकविकडू-आकर्षविकर्ष-पुं०। द्वि० । अभिमुखकर्षण चू० ४ ० विपरीतकर्षणयोः , "आकड्ढविकड्ढ" (सूत्र-४) । श्रा- आकिंचणियव्यय-आकिश्चन्यव्रत-न । पञ्चमे महावते,ध। कृष अभिमुख कर्षणं कुरु। वि-कृष विपरीतं कर्षणं कुरु ।। परिग्रहस्य सर्वस्य, सर्वथा प प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार। आकिश्चन्यं व्रतं प्रोक-महद्भिहितकासिभिः॥४४॥ आकड्वविकड्डिया-आकर्षविकर्षिका-स्त्री० । श्रभिमुखमा पृस्य विपरीतकर्षणे , प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । " श्राकडवि सर्वस्य-सचित्ताऽचित्तादिविषयस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावविकाढ करेमाणे" (सूत्र-५५६+ ) । भ० १५ श० । नि० चू०।। षयस्य या परिग्रहस्य-मूच्र्छाभावस्य सर्वथा त्रियिधे त्रि विधन परिवर्जन-त्यागः तत् किञ्चन्यव्रतं, न विद्यत किंआकएणन-आकर्णन-न । श्रवण, प्राचा०१ श्रु० १ १० चन द्रव्यं यस्यासावकिञ्चनस्तस्य भाव आकिश्चन्यं १ उ । धर० । (एतद्वक्तव्यता 'सवण' शब्द सप्तमे भागे | तशतवतं चति समासः, अपरिग्रहवतमित्यर्थः । प्रोक्तंद्रव्या) श्रा-कराफ ल्युट् । श्रवण, "मुदा तदाकर्णनतत्प- प्रज्ञप्तं कैरईद्भिर्जिनैः, किंविशिस्तै-हितकालिभि हितेच्छगऽभृत् ।” नेप० । वाच । भिरिति शब्दार्थ । ध०३ अधिक। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकीलवास अकीलवास-क्रीडावाम- पुं० । गौतमद्वीपस्थ सुस्थितलबणाधिपतेरत्यर्धकीडायासे भीमेषविहारे, जी (तहउपता' गोधमदीय' शब्दे तृतीये मांगे बहते ) जी० ३ प्रति० ४ अधि० । आकुट्ट आक्रुष्ट त्रि० । श्रा-कुश । कृताक्रोशे, यं प्रति आक्रोशः कृतस्तांमन् शब्दिते निन्दिते भावे । पुरूपभाषते न० "मारमूषिकास्पर्श चक्र कांधवम्भव " । कात्या० । श्रकुट, परुषभाषण, वाच० । वाग्भिराकुष्ट, आचा०९ श्रु०६ अ०३ उ० । श्राकुष्टन मतिमता तवाविचारणे मतिः कार्या ॥ यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥ १ ॥ " सूत्र० १ ० १४ अ० । आकूप आकूत - न० । आ-कू भावे क्ल । श्राशये, अभिप्राये, वाच। श्रभिप्रते वस्तुनि, विशे० । भावे च । विशे० । के लिए आकेवलिक पुं० न केवलमचलं तत्र भवा आकेवालेकाः । सहन्त्रे (सप्रतिपते) असम्पूर्गे च । श्रावलिराहे" (सूत्र - २८२+ )। आचा०२ श्रु० ६ ०२३०| या कोसायंत आकोशायमान- त्रि० । आकोशायत इत्याकोशायमानम् । विकत्रीभवति कमलादौ जी" । " आकोसायंत उमगंभीरविगडा" (सूत्र - १४७४) । श्राकोशायते इत्याकोशायमानं, विकीभवदित्यर्थः पतङ्गम्भीरा विकटा त्र नाभियेषां ते । जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । , 6. . (५८) अभिधान राजेन्द्रः । " खंडल - आखण्डल- पुं० । श्राखण्डयति भेदयति श्रा- खडि डलच् डस्य नेत्रम् । इन्द्रे, वाच० । “ खंडलो सुरवर, पुरदंरो वासवो सुखासीरो। " पाइ० ना० २३ गाथा । ( अस्य वक्तव्यता 'सक्क' समभागवत)। तान् (श्रखं) ( २३+ ) शब्दे स 6. आग - आगति - स्त्री० । श्रागमनमागतिः नारकत्वादेरेव प्रप्रयासाने प्रतिनिवृती, ( आगमने) स्था० १ प्रत्यासन्नस्थाने ठा० | कल्प० । “ गई च जो जागइ ऽणागई च ” ( २०+) । यश्व जीवानामागतिम् आगतम् कुतः समागता नारकास्तिर्यञ्चा मनुष्या देवाः । सूत्र० २ श्रु० १२ श्र० । जंतो गतिव। ' (१८x) । श्रागतिः- आगमनं भवान्तरादुपजायते कर्मसहायस्यैव । सूत्र० २ श्रु० १३ श्र० । उत्पत्ती, स्था० ७ ठा० ३ उ० । “एगा श्रागती" (सूत्र - ४३+ ) । आगनम् आगतिमरकत्वादेव प्रतिनिवृत्तिस्तदेकस्वं गतेरिवति । स्था० १ ठार | एगस्स 33 नैरयिकाणां दण्डकक्रमेण गत्यागती I नेरइया दुगइया दुयागइया पन्नत्ता, तं जहा -नेरइए नेरइएसु उववमाणे मणुस्सेहिंतो वा पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो या उपयखेजा से चैव खं से नेरइए नेरइयत्तं विपजहमाणे मणुस्सत्ताए वा पंचिदियतिरिक्खजोखियत्ताए वा गच्छेज्जा एवं असुमाराणं वि वरं चैव से असुरकुमारे असुरकुमार विष्पजमाये माणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोखियत्ताए वा गच्छेजा । एवं सव्वदेवा, पुढ " आगइ विकाइया दुगइया दुयागइया पद्मत्ता, तं जहा - पुढविकाइए पुचिकाइए उपजमागे पुढचिकाइएहिंतो वा यो विकाइति उपजे से चेव ां से पुढविकाइ यत्तं विष्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा यो पुढविकाइयस्वार वा गच्छे एवं ०जाब मणुस्सा | (सूत्र- ७८) दानव या नारका द्वयाः- मनुष्यगतितिर्यग्गगतिलक्षणयोगत्यां रधिकरणभूतयोर्गतिर्येषां ते तथा, द्वाभ्यामेताभ्यामेवाऽवधिभूतभ्यामागतिः- आगमनं येषां ते तथा उदितनारायनरक व्यपदिश्यते स उच्यतेमेरइए नरइति-नारकेषु मध्ये इत्यर्थः इद बांदे शक्रमव्यत्ययात् प्रथमावेनागनिरु से सबसे सियो मानुपस्यादिनो नरकं गतः स एवासौ गारफो नाऽन्यः, अननेकान्ताऽनित्यनिरस्तमिति । 'विष्यजदमाणे 'त्ति-विप्रजहन् परित्यजन् इह च भूतभावतया नारकम्यपदेशः अनेन वाक्येन मतिरुका, इत्थख उपायाने तेजस्कायिकाया गनपत मनुष्यापेक्षा एकगतपस्ि गति वाक्यमुपजीवति एवं असुरकुमारावि' सिनारकबद्वक्तव्या इत्यर्थः, 'नवरी' ति केवलमयं विशेषः- तिर्यक्षु न पञ्चेन्द्रियेष्वात्पद्यन्ते । पृथिव्यादिष्वपि तदुत्पत्तरित्यतः सामान्यत आह-' से चैव गं से ' इत्यादि ०जाव तिरिक्खजोणियत्ता वा गच्छेज' त्ति' एवं सव्वदेव' त्तिअसुरयद् द्वादशाऽपि दण्डदेवपदानि पापानि तेषामध्ये , - येरिति न पुढविकाहिंतो नि-अने पृथ्वीकाधिनिषेधद्वारेणाकायिकादयः सर्वे गृहीता हिं स्थानकानुरोधादिति, तभ्यां वा-नार कवर्जेभ्यः समुत्पद्यते । 'नोविकास-देवापजाब मधुस्से नि यथा पृथ्वी कायिका " दुवा]" इत्यादिभिरमिला पवमेभिरेबाष्कायिकाइयो मनुष्याऽवसानाः पृथ्वीकायिदस्याने ऽकायादि कश्यपदेशं कुर्याद्भरभिधातव्या इति व्यन्तरादयस्तु पूर्वम तिदिष्टा एवेति । स्था० २ ठा० २ उ० । ( ' उववाय ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे आगतिः कुत उत्पद्यत इत्यादि वक्ष्ये ) एकेन्द्रियादीनां मत्यागती , . 6 . एगिंदिया पंचमइया पंचाऽऽगइया पण्णत्ता, तं जहाएगिंदिए एगिदिए उबवजमाणे एर्गेदिएहिंतो वा ०जात्र पदिहितो या उपवज्जेजा से चैव खं से एगेंदिए एगेंदियत्तं विष्पजहमाणे एगेंदियत्ताए वा जाव पर्चेदि - यता वा गच्छेजा। बेहंदिया पंचगइया पंचाऽऽगया एवं चैव । एवं ०जाब पंचेंदिया पंच गइया, पंचाऽऽगइया पपत्ता, तं जहा - पंचेंदिया ० जाव गच्छेजा । (सूत्र - ४५८) स्था० ५ ठा० ३ उ० पृथ्वी कायिकादीनां गत्यागती जहा तं विकाइया छ मइया छ आगया पता, पुत्रिकाइए विकास पुचिकाइएहिंतो वा जाव तस काइहिंतो या गच्छे यो चेव ां से पुविकाइए पुढ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) अभिधानराजेन्द्रः । आगइ विकाइयत्तं विष्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा ०जाव तसकाइयत्ताए वा गच्छेजा । ( सूत्र - ४८०३ X ) । स्था० ६ ठा० ३ उ० । अण्डजाssदीनां गत्यागतिप्रतिपादनाय सूत्रम्अंडगा सचगइया सत्ताऽऽगड्या पष्मत्ता, तं जहा अंडगे अंडगेसु उववजमाये अंडगेर्हितो वा पोयरहित वा ०जाव उभिएहिंतो वा उववज्जेजा, से चैव गं से अंडर अंडगर्न विप्पजहमागे मंडपत्ताए वा पोवयताए वा ० जाव उब्भियत्ताए वा गच्छेजा । पोयया सत्तगइया सागया एवं सतह वि गहराई भाणियव्या • जाव उम्भियति । (सूत्र- ५४३) । 'अंडये 'त्यादि सूत्र सप्तकम्, तत्र मृतानां सप्तगतयः अण्डजा दियोनिलक्षणा येषां ते सप्त गतयः सप्तभ्य एवाण्डजादियोनिभ्यः श्रागतिरुत्पत्तिर्येषां ते सप्ताऽऽगतयः । एवं चेव ' त्ति यथाऽण्डजानां सप्तविधे गत्यागती भणिते तथा पोतजादिभिः सह सप्तानामप्यण्डजा दिजीवभेदानां गतिरागतिश्व ताजा उम्भियति सप्तमसूत्रं यावदिति शेषं सुगमम् । स्था० ७ ठा० ३ उ० । अंडया अगइया अट्ठाऽऽगइया पण्णत्ता, तं जहा - अंडए अंडएस उपवञ्जमा अंडरहितो वा ० जाव उचबाइए हिंतो वा उववज्जिज्जा | से चैव गं से अंडर अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगार वा पोयगत्ताए वा ०जाव उववाइयनाए वा गच्छेजा । एवं पोयया वि । जराउया वि। सेसाणं गइरागई नस्थि (सूत्र - ५६५+ ) 'अविहेत्यादि सूपच सुगमं नरमीपपाति " का देवनारकाः, सेसां ति रजपोल जज राज तानां रसादीनां गतिरात नास्तीत्यप्रकारति शेषः, यतो रसजादयो नोपपातिकेषु सर्वेषूत्पद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियाला मेव तत्रोत्पत्तेः । नाप्योपपातिका रसजादिषु सर्वेष्वप्युपपद्यन्ते पञ्चेन्द्रियै केन्द्रियेष्वेव तेषामुपपत्तेरिति अण्डजपोतजजरायुजसूत्राणि त्रीण्ययेव भवन्तीति । स्था ८ ठा० ३ उ० 9 पृथ्वी कायिकादीनां पुनरपि गत्यागतीपुढविकाइया नवगइया नवागइया पण्णत्ता, तं जहापुविकाइए पुविकाइए उपजमा पुनिकाइएहिंतो वा जाब पंचिदिए हिंतो वा उववज्जेज्जा से चैव गं से विक विकायचं विष्पजमागे पुढविका इयत्ताए इए पुढविकाइयत्तं ० जाव पंचिदियत्ताए वा गच्छेजा । २ ।। एवं याऽवि ॥ ३ ॥ ० जाव पंचिदियते ॥ १० ॥ ६६६) स्था० ६ ० ३ ३० उकाइ( सूत्र - गत्यागतिपरिज्ञानेन कर्म आगतिं गतिं परिणाय दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाहिं से छिति, ण भिजति, ण डज्झति, ण हरणति कंचसं सव्वलोए (सूत्र- ११६४ ) आगई आगमनमागतिः, सा च तिर्यग्मनुष्ययोश्चतुर्द्धा चतुर्विधनरादिगमनाद् देवनारकयार्द्विधातिर्थमानुष्य तिभ्यामेवागमनखद्भावादेवं देवगतिरपि मनुष्येषु तु पञ्चधा तत्र मोक्षगतिसद्भावाद अवस्तामागतिं गति या परिज्ञाय संसारचकवाले घण्टीपत्रस्यायें वे मनुष्य मांगतिसद्भावमाकल्य्यान्ते हेतुत्वादन्तौ रागद्वेषौ ताभ्यां द्वा. भ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्यामनपदिश्यमाना वा क्याप्रत्ययस्योत्तरक्रियामाद' से ' इत्यादि से गतिगतिपरिता रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमान नदिने अस्पा दिना न भयं कुन्तादिना न दाने पावकादिना न ह म्यते नरकगत्यानुपूर्व्यादिना बहुशः । अथवा रागद्वेषानावारिध्यायेव तदवस्थस्य चैतानि इदनादीनि विशेष . 9 'कंचण' मिति - विभक्तिविपरिणामात् केनचित् सर्वस्मिन्नपि लोके न छिद्यते, नापि भिद्यते रागद्वेषोपशमादिति मतिगतिपरिज्ञानाद्रागद्वेषपरित्यागः तदाचाच्च वेदनादिसंसारदुःखाभावः । " 9 अपरे च सांप्रतेक्षिणः कुतो वयमागताः ?, क यास्यामः ?, किं वा तत्र न संपत्स्यते ?, नैवं भावयन्त्यतः संसारभ्रमणपात्रतामनुभवन्तीति दर्शयतुमाह अवरेण पुर्विं न सरंति एगे, किमस्स त क्रं वाऽऽगमिस्सं । मातिएगे इह मानवाओ, जमस्स तीयं व तमागमिस्सं ।। १ ।। नाईयमहं न य आगमिस्सं, अहं नियच्छन्ति तहाऽऽगया उ कप्पे वापसी निज्झोसना खबगे महेसी ॥ २ ॥ 'अवरेण' इत्यादिरूपकम् अरे पालामा सह पूर्वमतिकान्तं न स्मरन्ति अन्ये-मोहाहानावृतबुद्धयो यथा किमस्य जन्तोर्नरकादिभवोद्भूतं बालकुमारादिवयोपचितं वा दुःखाद्यतीतं किं वाऽऽगमिष्यति श्रागामिनि काले किमस्य सुखाभिलाषिणो दुःखद्विषो भावीति । यदि पुनरतीता33गामिचस्यान तर्हि संसार रतिः स्यादिति उक्रं च - " के ममेत्थुष्पत्ती, कहं दृश्रो तह पुणो वि गंतव्यं । जो एत्तियं पिचित, इत्थं सो को न निब्धिरणो ॥ १ ॥ एक पुनर्मदा मिथ्याज्ञानिनो भवन्तं इहामारे-मयो वा मानवा मनुष्या यथा यदस्य जन्तोरती श्रीपुंनपुंसकसुभगादुर्भगश्वगोमायुब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रादिभेदा देशात्नरप्यन्यजन्मानुभूतं गमिष्यम् श्रागामीति । यदि वा न विद्यते परः- प्रधानोऽस्मादित्यपरः संयमस्तेन वासिताः सन्तः पूर्वपूर्वानुभूतं विषयसुखोपभोगादि न स्मरति मनुस्मृति कुते के रागद्वेषविप्रमुक्काः, तथा नागदिव्याङ्गनाभागमपि मी कान्ति, किंव-अस्प जन्तोरतीतं सुखदुः‍ ःखादि किं वाऽऽगमिष्यम् - आगामीति एतदपि न स्मरन्ति यदि पाकियान् कालोऽतिकान्तः कियानेष्यति लोकोत्तरास्तु भाषते एके रागद्वेषरहिताः केबलिनश्चतुर्दश पूर्वविदो वा यदस्य जन्तोरनादिनिधनत्वा • Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगइ कालशरीरसुखाद्य तदेवेति अपरे तु पटति-"अवरेश पुण्यं किद से अतीतं कि आगमित्वं न स (म) रंति एगे। भाति एमे इह माण्याओ, जह से अई तह श्रागमिस्सं” ॥१॥ (अस्याः १ व्याख्या) - अपरेण जन्मादिना सार्द्ध पूर्वम्-अतिक्रान्तं जन्मादि न स्मरन्ति, कथं वा केन प्रकारेणाऽतीतं सुखदुःखादि कथं वैष्यमित्येतदपि न स्मरन्ति, एके भाषन्ते किमत्र ज्ञेयम् ?, यथैकस्य रागद्वेषमोहसमुत्थैः कर्मभिर्बध्यमानस्य जन्तोस्तद्विपाकांश्चानुभयतः संसारस्य यदतिक्रान्तमागाम्यपि तत्यकारमेवेति । यदि वा प्रमाद्विपयकपायादिना कर्मापचत्येष्टानिष्टविषयाननुभवतः सर्वशदाक्सुधास्वादासंविदो यथा संसारोऽतिक्रान्तस्तथा ऽऽगाम्यपि यास्यति ॥ १ ॥ ये तु पुनः संसारार्णवतीरभाजस्ते पूर्वोत्तरवेदिन इत्येतद्दर्शयितुमाह'नाईयमित्यादि, तथैव-अपुनरावृत्यागतं गमनं येषां ते समागताः सिद्धाः पदि वा यथैवज्ञेयं तथैव गतं ज्ञानं येषां तं तथागता:- सर्पज्ञा से तु नातीतमर्थमनागतरूपतय नियति अवधारयन्ति माध्यमागतमतिक्रान्तरूपतयैव, विचित्रत्वात्परिणतेः । पुनरर्थग्रहणं पर्यायरूपार्थे, द्रव्यार्थत. या त्वेकस्यमेवेति । यदि वा नाऽतीतमर्थ - विषयभोगादिकं. नाऽप्यनागतं - दिव्याङ्गनासङ्गादिकं स्मरन्ति, अभिलषन्ति वा के है, तथागताः- रागद्वेषाभावात्पुनरावृशिरहिताः, शब्द विशेषमाह-यथा महोदयादेके पूर्वभागामि चाभिलपन्ति सर्वशास्तु नैवमिति समानुपाि दर्शयितुमाह कियेइत्यादि विविधचा धूतमपनीतमष्टप्रकारं कर्म येन स विधूतः कोऽसौ कल्पःआचारः । विधूतः करपा यस्य साधा: - । 3 स तदनुदर्शी भवति अतीतानागतसुखाभिलाषी न भव तीति यावत् ननु च किं गुणो भवतीत्याइ नि सहनाइयादि पूर्वोपचितकर्मणां निषयितापक्षपविष्यति वा तुजन्तमेतत्लुङन्तं था। कक्षपणायोद्यतस्य च धम्मंध्यायिनः शुक्रभ्यापिनो वा महायोगीश्वरस्य निरस्त संसारसुखदुःखविकल्पाऽऽभासस्य यत्स्यात्तदर्शयति का अरई के आदे? इत्थं पि अग्गहे चरे (सूत्र - ११७८) प्राप्तिविना मनोविकारो रतिः, अनिता श्रवाप्तावान्दः योगिचित्तस्य तु धर्म्मशुक्लध्यानांवावधध्येयान्तराकाशस्यास्यानन्दयोरुपादानकारणावाद (६०) अभिधानराजेन्द्रः । - स्थानमेव इत्यतोऽपदिश्यते-केयम रतिर्नाम को वानन्द इति, नास्त्येवेतरजनगुरोऽयं विकल्प इति एवं रतिरयमे संयम चानन्दइत्येतदस्यानुमतमनेनानविधेयमित्येतदनिच्छ्रतोऽध्यापन्नमिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्; यतोऽत्राऽरतिरतिविकल्पाध्यवसायो निषिपित्सितो, न प्रसङ्गायते अप्यरत्यरती, तदाह'- एत्थं पी ' त्यादि । अत्रावासनाये न विद्यते प्रोपर्य यस्य सो ग्रहः स एवंभूतश्चरेद्रवतिष्ठेन इदमुक्तं भवति-शुक्लध्यानादरतौ रत्यानन्दौ कुतश्चिन्निमित्तादायातौ तदाग्रहग्रहरहितस्तावप्यनुचरेदिति । आचा० १ ० ३ ० ३ उ० । परस्परं द्वयोर्द्वयोः पदयोर्यत्र विशेषणविशेष्यतया प्रत्यावृ " तारहिय " या प्रातिकूल्येन गमनमा गतिः लक्ष विशेषे विशे० यथा "देवो जीव" इत्यत्र देवयमन्य जीवत्वं पृच्ते इतीह प्रत्यावृत्या देवपदाजीवपदे श्रागतिः । विशे० २१५६ गाथा | ० म० । ( अस्याः भेदादिकम् 'गइरागद्दलक्खण' शब्दे तृतीयभाग ) आगइ गइचिण्णाण - आगतिगतिविज्ञान- न० । शुभाशुभ पूर्वजन्मानागतजन्मनां निंये, आगत्या श्रागमनेनास्खलितेतरादियुक्तेन गतिविज्ञानम्, आगामिभवविज्ञानम्, आगतिविज्ञानम् । स्वलितास्खलितागमनेनागामिनवाने च पञ्चान "आमा" ||२॥ गतिगतिविज्ञानं शुभाशुभपूर्व जन्मानागतजन्मनां निर्णयेन कार्यम्, अथवा गत्या - गमननाम्स्वलितेतरादियुक्तेन गतिविज्ञानम्, आगामिभवज्ञानमागतिविज्ञानाम्, इह व्याख्याने समासितमपि गतिविज्ञानमित्तत् प्राकृतत्वेनोतरत्र संयन्धनीयम् । पञ्चा०२ पियन आमंतगार आगन्तागार - पुं० न० गान कार्यटिकादीनामावासायें गृहे सूत्र तगारे द्वारामगार स म उ भीते ण उवति वासं । ” (२५+ )। आगंतुकानां कार्यटिकादीनामगारागन्तागारम् सूत्र० २ ० ६ ० । आगंता- श्रागन्तु-त्रि०। श्रा समंताद् गन्ता । श्रागन्ता । सूत्र १०२०१० आगमन स्था०डा०२४०।" अनंताये महमये (३१) | महाभयं पीना पुग्थेन संसारपर्यटननया नारकादिस्वभावं दुःखमागन्तारः- आगमनशीला भवन्ति । सूत्र० २ श्रु० ११ श्र० । ‍ आगंतार- श्रागन्ताऽऽगार - पुं० न० । ग्रामवाश्ह्याऽऽवासे, नि० चू०|" श्रागंतारा जत्थ" आगत्य विहरतीति श्रागतारो जन्थ आगारा आगंतुं वितारं गामपरिसट्रानि बुत्तं भवति । श्रागंतुगाण वा कयं श्रगारं आगंतागारं बाहि यावासोत्ति । नि० चू० ३ उ० । आगमा-रुक्खा तेहिं कतं - गारं श्रातुं जत्थ चिट्ठेति श्रागारा तं श्रागतागारं परिससंतागारणं गिभावगतेत्यर्थः । पजायोपवजा सेो य चरपरिष्यामकजीवगमादि विधी नि० ०३ उ अस्थि शब्द प्रथमभाग पृष्ठ ४१४ विस्तरां मतः ) गन्तार - पुं० | न० । यत्र ग्रामादेर्बहिरागत्याऽऽगत्य पथिकादयस्तिष्ठन्ति तान्यागन्तागाराणि । श्राचा० २ ० १ चू०२ अ०२ उ० । पत्तनाद्वहिगृहे श्राचा०२ ०१ ०१ ०८ उ० प्रसङ्गायाता श्रागत्य वा यत्र तिष्ठन्ति तदागन्तारं तत्पुनग्रीमान्तर्नगराद्वहिः स्थानम् । आचा० १ ० ६ अ० २ उ० । ० । (तत्र अन्ययूधिकगृहस्थेभ्यो ऽशनादिदाननिषेधः 'श्र रागुउस्थिय ' शब्दे प्रथमभागे गतः ) आगंतारडिय -- श्रागन्तुकागारस्थित त्रि० । श्रागन्तुकागारोपिते प्राकादी० -- आगंतारडिया, कजे आदेसमाइला केह | वसि विस्समिदं वा, छड्डिउं गया अणा भोगा ।। १०७१ ।। इह यत्रागारिण श्रागत्याऽऽगत्य तिष्ठन्ति तदागन्तुका गारं तत्र कार्ये कारणविशेषतः स्थितानां प्रकृतस्तत्र अवतरति, कथमित्याह-प्रवेशाकस्तथा कचित्यधिक कागारे रजन्यां वा समुपगता यावद् भोजनाय विश्रामं Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागंतारट्टिय अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम कृतवन्तः तत उपित्वा विथम्य वा किंचित् द्रव्यजातमना- १ श्रु० १०३ उ०२६ सूत्र । ) गणधरादिविरचिते भोगात्परित्यज्य गताः । बृ०३ उ० । । तत्र कर्तव्यता (दर्श० ३ तस्व ६ गाथा) द्वादशाङ्गादिरूपे (सूत्र. १ वसहि' शब्द षष्ठ भागे वक्ष्यते ।) श्रु० १ ० १ उ०) सिद्धान्ते , प्रा० म०१ श्र०। ध० र०। आगंतु (ग) य-आगन्तुक-त्रि० । अन्यत श्रागते , बृ०४ पञ्चा० । सूत्र० । दर्श० । प्रश्न। इहापारसंसारान्तर्गतेनाउ० । कापटिकादौ , सूत्र। सुमताऽवाप्याऽतिदुर्लभ मनुजवं सुकुलोत्पत्तिसमग्रेन्द्रिय सामन्याद्युपतेनाऽर्हद्दर्शनमशषकर्मोच्छित्तये यतितव्यम् । उपसर्गमधिकृत्य कर्मोच्छेदश्च सम्यग्विवेकसन्यपेक्षोऽसावयाप्तोपदेशमन्तरण आगंतुगो य पीला-करो य जो सो उवस्सग्गो ॥ ४५ ॥ न भवति, आप्तश्चात्यन्तिकाद्दोषक्षयात्, सचाहनेव, अतस्तअपरस्माद्-दिव्यादेरागच्छतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गों प्रणीतागमपरिज्ञान यत्नो विधेयः । श्रागमश्च द्वादशाङ्गादिभवति स च दहस्य संयमस्य वा पीडाकारी । सूत्र० १ थु. रूपः, सो पयार्यरक्षितमित्रैरैदंयुगीनपुरुषानुग्रहबुद्धया चरण३१०१ उ०। वणभेदमधिकृत्य- "श्रागंतुको य नावा" करणद्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाचतुर्धा अवस्थापितः । आगन्तुकः-कण्टकादिप्रभवः । प्राय०५ २० । सूत्र०१ ध्रु० १ ० १ उ० । आगच्छमाण-आगच्छत-त्रि०। प्रतिनिवर्तिनि , भ० १२ प्राप्तवचनादाविभूतमर्थसंवेदनमागमः इति ॥शा श०६ उ०। रत्ना० ४ परि० । (अस्य सूत्रस्य व्याख्याऽस्मिन्नेव शब्दे मागम-आगम-पुं० । श्रा-गम्-घम् । अागती, प्राप्तौ च ।। प्राग्गता) उपचारादाखवचने, रत्ना०। वाच० । “जण यागमो होइ" ॥ ३२४ ॥ श्रागमो भवतिप्रानिर्भवति । दश०१०। उत्पत्ती, सामाद्युपाये च । श्रा ननु यद्यर्थसंवेदनमागमः तर्हि कथमाप्तवचनात्मकोऽसौ गम्यते स्वत्यमनेन । स्वत्यप्रापके क्रयप्रतिग्रहादी, चाच० । सिद्धान्तविदां सिद्ध इत्याशङ्कयाहु:(शाने, “बागमत्ता प्राणवेजा" (सूत्र-१५६४) । शात्वा- उपचासदाप्तवचनं चेति ॥२॥ SSशापयेत् । श्राचा०१८०५ श्र०४ उ० । "लाघवं श्रा प्रतिपाद्यमानस्य ह्याप्तवचनं कारणमिति कारणे कार्योगगममाणा" (सूत्र-१८५४) । खाघवम् आयमयन्-अवबुध्य चारात्तदप्यागम इत्युच्यते । रत्ना० ४ परि०। स्या। अनु०॥ मानः 1 प्राचा०१श्रु०६ अ०३ उ०॥ दर्श० । दश० । श्रा० चू० । वचने , या०वि० । सत्रे , श्रागनायं आगमियं ति, एगहूँ जस्स सो परायत्तो। मश्च वन्दनकसूत्रादिकम् । श्राव० ४१० । श्रुतिस्मृत्यासो पारोक्खो वुच्चइ, तस्स पएसा इमे हुन्ति ॥२०८।। दिके, उत्त०२५ १० । श्रा-मर्यादाभिविधिभ्यां परिच्छि द्यन्ते अर्था अननत्यागमः । चतुर्दशकदशकनवमपूर्व च । शानमागमितमित्यकार्थमेवं च ज्ञानमागम इत्त्येकार्थमाप पञ्चा० १६ विव० । श-श्रुतमाचारप्रकल्पादिकं श्रुतं नवातितम् , तत्र यस्य स भागमोऽपराधीनः स प्रत्यक्ष उच्यते दिपूर्वाणां श्रुतत्वऽष्यतीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वासचाऽवध्यादिरूपः । यस्य तु परायत्तः स परोक्ष उच्यते दागमव्यपदेशः केवलवद् । स्था०५ ठा०२ उ० । स च चतुर्दशपूर्वादि समुत्थस्तस्य परोक्षम्यागमस्य प्रदेशाः; आगमव्यवहारिणमधिकृत्योक्तम्प्रतिभागा भेदा इत्यर्थः । अ० १ उ०। (ते च ' आगमवव केवलमणो हि चोद्दस, दस नव पुवी उ नायब्बो हार' शब्देऽस्मिन्नव भागे दर्शयिष्यते) प्राप्तवचनादाविभूतमर्वसंवेदनमागमः। उपचारादाप्तवचनं चेति । स्था० ॥ १३५ ।। व्य० १ उ०। ३८ श्लोकटी01 (चतुर्दशक दशक नवमपूर्वस्यागमत्वं, तदितरस्य श्रुतत्व) आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः इति ॥१॥ श्रुतव्यवहाराश्वाचाराङ्गादीनामष्टपूर्वान्तानामेव यदुक्तम्-'श्राआन्तः प्रतिपादयिष्यमाणस्वरूपः तद्वचनाज्जातमर्थज्ञान यारपकवाई. सेसं सव्व सुयं विगिद्दिटुं।" अत्राह कश्चित्मागमः । श्रागम्यन्ते-मर्यादयावबुध्यन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः । किमष्टपूर्वान्तमेव धुतं, नवमपूर्वादीनां न श्रुतत्वम् , उच्यतेरत्ना०४ परि० । शब्दार्थपरिज्ञान, नया०८६ श्लोक । श्रा श्रागम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया : पदार्था येन स श्राअभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण, मर्यादया चा गम इति व्युत्पत्तेः , नवमपूर्वादीनां श्रृतत्वाविशेषे केवलशायथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्त-परिच्छिद्यन्ते अर्था येन नादिवदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सानिशयत्वादागस भागमः । पुन्नाम्नि घः ॥ ५। ३ । १३० ॥ इति करण घ मत्वेनैव व्यपदेशः शषश्रुतस्य तु नाऽतीन्द्रियार्थेषु तथाविप्रत्ययः । श्रा०म०१ श्र०२१ गाथा । प्राणज्जति अत्था धोऽवबोधस्ततोऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः । जीत। व्य० । श्राजण सो आगमो त्ति । प्रा० चू०१ अ० २१ गाथा । केवल गम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अननत्यागमः। प्रमाणभेदे, स्थान मनः-पर्यायावधिज्ञाने. स्था० ५ ठा० २ उ० ४२१ सूत्र । स च प्राप्तवचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः । उक्तञ्चपञ्चा० । श्रा०म० । नं० । व्य० । ध० । जी० । श्रा-सम "हएडाव्याहताद्वाक्यात् , परमार्थाभिधायिना । न्ताद् गम्यते वस्तुतत्त्वमनेनेत्यागमः । श्रुतज्ञाने. आ० म०१ तत्त्वग्राहितयोत्पर्म , मान शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥१॥ श्र.१ गाथा । आ० चू० । सर्वज्ञपणीनोपदशे, प्राचा० १ प्राप्तोपशमनुल्लवय-मद्दष्टे विरोधकम् । शु०६ अ०४ उ०१६३ सूत्र । व्यं० । प्रतिविशिष्टवर्णानु- तत्त्वापदंशकत्साथै, शास्त्रे कापथघट्टनम्" ॥२॥ इति । पूर्वीविन्यस्तवर्णपदवाक्यसंघातात्मक प्राप्तप्रणीत (प्राचा० स्था०४ ठा०३ ३० । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) भागम अभिधानराजेन्द्रः। भागम विषयसूचनार्थमधिकाराकाः अहवा-आगमे तिविहे पसत्ते, तं जहा-अत्थाऽऽगमे १, . (१) प्रागमभेदाः । अणंतराऽऽगमे २, परंपराऽऽगमे ३१ तित्थगराणं अत्थ(२) भागमस्य स्वतः प्रामाण्यम् । स्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे. भत्थस्स भणं(३)भागमस्य पौरुषेयस्वम । तरागमे । गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे, भत्थस्स (४) आगमचाऽप्तप्रणीत पव प्रमाणम् । (५) सम्भवडू स्यैवाऽऽगमस्य प्रामाण्यं, न वेदस्यैव । परंपरागमे । तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो भ(६) मूलाऽऽगमप्रामाण्यम् , नेतराऽऽगमप्रामाण्यम् । तागमे, णो अंतरागमे, परंपरागमे । (सूत्र-१४७+) (७)प्रमाणान्तराविषय एवाऽऽगमविषयः । अथवा-अनेन प्रकारेणागमस्त्रिविधः प्राप्तः, तद्यथा-'प्रा. (८) मागमप्रमाणस्यानुमानप्रमाणेऽन्तर्भावः। स्मागम' इत्यादि, तत्र गुरुपदशमन्तरेणारमन एव भागम (६) प्रागमप्रामाण्य संवादित्वम् । आत्मागमो-यथा, तीर्थकराणामर्थस्यारमागमः, स्वयमेव (१०) शब्दस्य बाह्यार्थप्रामाण्यम् । केवलापलब्धः, गणधराणां तु सूत्रस्यात्मागमः स्वयमेव(२१) अपोहः शब्दार्थ इति बौद्धाः। प्रथितत्वात् , अर्थस्यानन्तरागमोऽनन्तरमेव तीर्थकरादाग(१२) अर्थः किंस्वरूपः। तत्त्वात् , उक्तं च-'अत्थं भासद अ (रि) रहा, सुत्तं गंथंति (१३) वाच्यवाचकभावः । गणहरा निउणमि' त्यादि । गणधरशिष्याणां जम्बूस्वामि(१४) वाचकरूपस्य शब्दस्य विचारः। प्रभृतीनां सूत्रस्याऽनन्तरागमः-अव्यवधानेन गणधरादेव (१५) स्फोटः शब्दः। (इति 'फोड' शब्दे ५ भागे वक्ष्यते।) श्रुतः, अर्थस्य परंपरागमः-गणघरेणव व्यवधानात् । तत (१६) जैनानां वाचकः शब्दः । ऊर्ध्व प्रभवादीनां सूत्रस्यार्थस्य च नात्मागमो नानन्तरागम(१७) शब्दनिस्यत्वविचारः। स्तल्लक्षणायोगात् अपि तु परंपरागम एव । अनेन आगमस्य (१८) शब्दार्थयोः सम्बन्धः । तीर्थकरादिप्रभवत्वभाननैकान्ताऽपौरुषेयत्वं निवारयति । (१६)शब्दार्थयोर्वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः। पौरुषताल्वादिव्यापारमन्तरेण नभसीव विशिष्टशब्दानुप(२०) आगमद्वैविध्यम् हेतुवादाऽहंतुवादभेदात् । लब्धेस्ताल्वादिभिरभिव्यज्यत एव शब्दो न तु क्रियत इति (२१) भागमस्थ सर्वव्यवहानियामकत्वम् । चेत् , ननु यद्यवं तहिं सर्ववचसामपौरुषेयत्वप्रसस्तेषां (२२) भागमस्यैव प्रामाण्यम् धर्ममागें, मोक्षमार्गे च । भाषापुदलनिध्यन्नत्वाद् भाषापुद्गलानां च लोके सर्वदेवा(२३) जिनाऽऽगमस्यैव सत्यत्वम् । वस्थानतो क्रियमाणता अयोगेन ताल्वादिरभिव्यक्ति(२४) जिनागमपूजासत्कारः। मात्रस्यैव निर्वर्तनात् । न च वक्तव्यं वचनस्य पौगलिकन्यम(२५) आगमशब्दस्य अन्तराणि । सिद्धं महाध्वनिपटलपूरितश्रवणवाधिर्यकुड्यस्खलनाद्यन्य(१) भागमभेदाः थानुपपत्तेः, तस्मानकान्तनाऽपौरुषेयमागमवचस्ताल्वादिसे किं तं आगमे १. आगमे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-लो- व्यापाराभिव्यङ्गयत्याववत्तादिवाक्यवदित्याद्यन्यत्र बहुवइए , लोउत्तरिए अ। से किं तं लोइए , लोइए जगणं क्तव्यं, तत्तु नोच्यते स्थानान्तर्रानीतत्वादिति। 'सत्तं लोगु. त्तरिए' इत्यादि निगमनत्रयम् । अनु। भ०। श्रङ्ग । नि० चू। इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठीएहिं सच्छंदबुद्धिमइविग सूत्र०।" आगमो दुविहो-लोइतो, लोउत्तरिओ य । लोइतो प्पियं । तं जहा-भारहं, रामायणं जाव चत्तारि वेश्रा चाद्दसविज्जाटाणाणि" "अङ्गानि चतुरो बदा, मीमांसा संगोवंगा । से तं लोइए आगमे । से किं तं लोउत्तरिए ?, न्यायविस्तरः । धर्मशास्त्रं पुराणं च. विद्याश्चैताश्चतुर्दश ॥१॥" लोउत्तरिए-जगणं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पएणणा (अस्य श्लोकस्य व्याख्या)-तत्राङ्गानि षद् ६,तद्यथा-शिक्षा१, णदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पएणमणागयजाणएहिं तिलुक कल्पो२, व्याकरणं ३, छन्दो ४, निरुक्तं ५, ज्योतिष ६, चति । "लाउत्तरो दुवालस१२, अंगा, चोइस१४,पुब्बाणि य"। प्रा० वहिअमहिअपूइएहिं सब्बएणूहिं सव्वदरसीहिं पणीअं चू०१ अ० श्रा० मा ('सुय' शब्दे सप्तमे भागे प्रकारान्तदवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा-आयारो जाय दिद्वि- रेण निक्षेपः) वाओ। (सूत्र-१४७४) (२) श्रागमस्य च स्वतः प्रामाण्यम्से किं तं श्रागमे' इत्यादि, गुरुपारंपर्येणागच्छतीत्या सिद्धं सिद्धट्ठाणं ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं । गमः, श्रा-समन्तादम्यन्ते-शायन्ते जीवादयः पदार्था अने- कुसमयविसासणं सा-सणं जिणाणं भवजिणाणं ॥१॥ नेति वा श्रागमः, अयं च द्विधा प्राप्तः । अनु० । भ०। शा० । अस्याश्च समुदायार्थ एतत्पातनिकयैव प्रकाशितः, अवयअहवा आगमे तिविहे पएणते, तं जहा-सुत्ताऽऽगमे, अ वार्थस्तु प्रकाश्यते-शास्यन्त जीवादयः पदार्था यथावस्थित स्वनानेनेति शासन-द्वादशाङ्गम् , तश्च सिद्धं-प्रतिष्ठित-निस्थाऽऽगमे, तदुभयाऽऽगमे । (सूत्र-१४७+) श्चितामाण्यमिति यावत् , स्वमहिम्नव नाऽतः प्रकरणा'अहवा आगमे तिविहे ' इत्यादि, तत्र सूत्रमेव सूत्रागमः, प्रतिष्ठाप्यम् । सम्म०१ काण्ड। तदभिधेयश्च अर्थ एवाऽर्थागमः, सूत्रार्थोभयरूपस्तु तदु-1 शब्दसमुत्थस्य त्वभिधेयविषयज्ञानस्य यदि प्रामाण्यमभयागमः। भ्युपगम्यते तदा-अपौरुषेयत्वस्यासंभवाद् गुणवत्पुरुषप्र Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम कीनस्तन्यकः शब्दोऽभ्युपगन्तव्यः अथ तत्प्रसीन नाभ्युपगम्यते तदा तत्समुत्पन्नज्ञानस्य प्रामाण्यमपि न स्वादित्यभिप्रायपानाचार्यः प्राद-जिनानां रानमोलक्षणान् शत्रून् जितवन्त इति जिनास्तेषां शासनं तदभ्युपगन्तब्यथित साधनादं मे यदि जिनसा सजनीत्येन सिद्धं निधिप्रामाण्यमभ्युपगमनीयम् अन्यथा प्रमाण्यस्याप्यनभ्युपगमनीयत्वादिति प्रसङ्गसाधनमत्र प्रतिपाद्यत्वेनाभिमिति स्वया स्वतः प्रामाख्यनिरा सोऽभिहितः ?, यतः सर्वसमयसमूहात्मकरमेया 33चार्येण प्रतिपादयितुममितम् स्यस्यैव प्रकरणस्य परिसमाशी, यथा-" भई मिच्छदंसणसमूहमइ वस्त्र धमयस्वारस्स। जिएत्रयणस्स भगवओो, सं सुहागिम्मस्स ॥ ७० ॥ अस्यैव प्रत्यस्य तृतीयकायम् ) इत्यादि प्रथमेवा बन् सेन समर्थितः अन्यत्राध्ययम तो उपक्षेपेणाम्यमतनिराखेऽयमेवाभिप्राय द्रष्टव्यः, सर्वनयानां परस्परसापेक्षाणां सम्यग् मतन्येन विपरीतानां विपर्ययेनास्येवात् अत वो (चतुर्थ) द्वात्रिंशिकायाम् "उदद्याविध सर्वसि न्धवः, समुदीरणास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विोदधिः ॥ १ ॥ " सम्म० १ काण्ड १ गाथाटी० । , ( ६३ ) अभिधानराजेन्द्रः । (३) श्रागमस्य पौरुषेयश्वम् स हि पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयो वा ? । पौरुषेयश्चेत्सर्वशकृतः, तदितरकृतो वा ?। श्राद्यपक्षे- युष्मन्तव्याहतिः। तथा भरियाला अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षादान विद्यते । नित्यं वेदाभ्यो यथार्थत्वविनिय" द्वितीयपक्षे तु तत्र दोषवत्कर्तुत्वेनानाश्वासप्रसङ्गः । श्रपौरुषेयश्चेन्न सम्भवत्येव स्वरूपनिराकरणात् ; तुरङ्गश्टङ्गवत् । तथाहि - " उक्लिर्वचनमुच्यते " इति चेति पुरुषक्रियानुगतं रूपमस्य । एतत्क्रियाभावे कथं भवितुमर्हति । नचैतत्केवलं क्वचिदध्वनदुपलभ्यते उपलब्धावप्यदृश्यवक त्राशङ्कासम्भवात् तस्माद्वचनं तपीरुपमेयत्मकत्वात् कुमारसम्भ वादिवचनवत् । चचनात्मकश्च वेदः, तथाचाहु:-"तात्वादिजन्म न तु पर्णों को वेद इति स्फुट ध तावादि ततः कथं स्यादपीरूपाऽथमिति प्रतीतिः ॥ १ ॥ इति । श्रुतेरपौरुपयत्वमुररीकृत्यापि तावद्भवद्भिरपि तदव्याख्याने पीरूपमापते । अन्यथा श्रग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः" इत्यस्य स्वमांस भक्षवेदिति कि नार्थो नियामकाभावात् ततोऽपरं सूत्रमपि पीरुषेयपगतम् श्रस्तु वा अपौरुषेयस्तथाऽपि तस्य न प्रामाण्यम् आप्तपुरुषाधीना हि वाचां प्रमाणतेति । स्या० ११ श्लोक | 1 " जय सुयाणं पभवो, ( २ + गाथा ) , श्रुतानां स्वदर्शन-परदर्शनानुगत सकलशास्त्राणां प्रभवन्ति सर्वाणि शास्त्राणि श्रस्मादिति प्रभवः प्रथममुत्पत्तिकारणं. तदुपदिष्टमर्थमुपजीव्य सर्वेषां शास्त्राणां प्रवर्त्तनात् परदर्श नशास्त्रेष्वपि हि यः कश्चित्समीचीनोऽर्थः संसारासारतास्वर्गापवर्गादिदेतुः प्राण्यहिंसादिरूपः स भगवत्प्रणीतशास्त्रभ्य एव समुद्धृतो वियो न खपतीन्द्रियार्थपरिज्ञान , , प्रायः " मन्त्रीद्रयः प्रमाणावाधितोऽर्थः पुरुषमात्रेोपदे पते अविषयत्वात् नव-यापरिज्ञानं करतीपिंकानामस्तीत्येतद वच्यामः । ततस्ते भगवन्ताभ्यो मौलं समीचीनमर्थलेशमुपादाय पश्चादभिनिवेशनशनः स्वस्वमत्यनुसारेण तास्ताः स्वप्रक्रियाः प्रपञ्चितवन्तः। उलं व स्तुतिकारण पि रतियाः काथन सूक्तिसम्पदः। तथैव ताः पूर्वमहायो स्थिताः जगत्प्रमाणं जिनवादि (पु) षः ॥१॥" खाकटाक नोपयापनीययतिप्रामाः खोपशब्दानुशासनका दो भगवतः स्तुतिमेवमार श्रीवीरममृतं ज्योति संवाद सर्ववेदसाम् " अत्र च न्यासकृतो व्याख्या- 'सर्व्ववेदसां'सर्वज्ञानानां - स्वपरदर्शन संबन्धि सकलशास्त्रानुगतपरिज्ञाना नाम् 'आदि' प्रभवं प्रथममुहात्तिकारणमिति । अत एव वेद भूतानामित्यत्र बहुवचनम् [अन्य] येकवचनमेव प्रयुज्यते श्रुतशब्दस्य केवलद्वारमात्रवाचिनः सर्वभाषि सिद्धान्ते एकवचनान्ततया प्रयोगदर्शनात् सर्वश्रुतकारणत्वेन च भगवतः स्तुतिप्रतिपादने इदमध्यायेदिनं इष्टपम् सहपपि श्रुतान पोरुपपापं न किम त्रयमस्ति असंभवात् । तथाहि शास्त्रं वचनात्मकम् । वचनं च तात्रोष्ठपुटपरिस्पन्दादिरूपपुरुषव्यापारान्ययव्यतिरेकानुविधायि, तनस्तदभावे कथं भवति ?, न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनमाकाशे ध्वनदुपलभ्यते । श्रपि च - तदपौरुषेयं वचनमकाराद्रियमध्युपगम्पने, स दकारणवन्नित्य' मिति वचनप्रामाण्यात् । ततश्च - श्रत्र वियुगलमयतीयते तदपोषयं यचः किपलभ्य स्वभावम् उताऽनुपलभ्यस्वभावं वा ? । तत्र यद्यनुपलभ्यस्वभावं तर्हि तस्य नित्यत्वेनाभ्युपगमात्कदाचिदपि स्वभाषाः सर्वदेवपलम्भा, अधोपलम्नलभावं तहिं सर्वदानुपरमेणोपलभ्येत अन्यथा तत्स्वभावताहानिप्रसङ्गात्, अथोपलभ्यस्वभावमपि सहकारिप्रत्ययमोक्ष्योपलम्भमुपजनयति तेन न सर्वोपलम्भः तद्युक्रम एकान्तनित्यस्य सहकापेक्षा अयोगात् तत विशेषप्रतिलम्भलक्षणा हि तस्य तषापेक्षा यदाद-धीतिः' अपेक्षाया विशेषप्रतिलम्भलक्षणत्वात्' इति । न च नित्यस्य विशेषप्रतिलम्भोऽस्ति, अनित्यत्वापत्तेः । तथाहि-स विशेषयतिलम्भः तस्यास्मभूतः ततो विशेष जायमाने पद पदार्थस्तेन रूपेण जातो भवति, प्राक्तनं च विशिष्टावस्थालक्षणं रूपं विनष्टमित्यनित्यत्वापत्तिः । अथोच्येत-स विशेपप्रतिलम्भा न तस्यात्मभूतः किं तु व्यतिरिक्तः कथमनित्यत्वापत्तिः ?, यद्येवं तर्हि कथं स तस्य सहकारी न दि ते सहकारितस्य पचनस्य किमप्युपपते मि G विशेषकरणात् अथ भोऽपि विशेषतस्तस्य संबन्धी तेन तत्संधिविशेषकरणात् तस्याप्युपकारी रूप इति सहकारी व्यपदिश्यते, ननु विशेषेणापि सह तस्य वचनस्य कः संवन्धो न तावत् तादात्म्यं भिन्नत्वेनाभ्युपगमात् नापिपत्तिः विकल्पद्रयानतिक्रमात् तथाहि किचन विशेष जन्यते ? उत विशेषेण वचनं ?, तत्र न तावदाद्यः पक्षः विशेषस्य सहकारिणोऽभावात् नापि द्वितीयगव " , ܪ " आगम • Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम चनस्य नित्यतया कर्त्तुमशक्यत्वात्, अथ मा भूद् वचनविशेषयोर्जन्यजनकभावः, 'आधाराऽऽधेयभावो' भविष्यति, तदप्यसमीचीनम्, आधाराऽऽधेयभावस्यापि परस्परोपका 9 " " 9 पकारकभावापेक्षत्वात् तथाहि बदरं पतनधर्मकं सस्कुण्डेन स्वानन्तरदेशस्थायितया परिणामि जन्यते, ततस्तयोराधाराधेयभाव उपपद्यते; वचनेन तु विशेषो जन्यते, तस्यान्यतो भावात्, ततः कथमनयोराधाराधेयभावः ? । अथ तेन विशेषेण वचनस्योपकारः कश्चित् क्रियते ततः स तस्य संबन्धी, न तु स उपकारस्ततो मित्रः, अमिश्र - त्यादि तदेवावर्तते इत्यनवस्था। अपि च- कुतः प्रमाणाद्वचनस्वापीरुपयत्याभ्युपगमः कर्नुरस्मरणादितिचेत् न तस्याप्यसिद्धत्वात् तथाहि स्मरन्ति- जिनप्रणीतागमतस्ववेदिनो वेदस्य कर्तृन् पिप्पलादप्रभृतीन् सकर्तृस्मरणवादस्तेषां मिध्यारूप इति चेत् क इदानीमे सति पौरुषेयःस्थाध्यपौरुपयस्वप्रसक्तेः । तथाहि कालिदासादयोऽपि कुमारसंभवादिध्यात्मानमन्यं वा प्रयेतारमुपदिशन्त एवं प्रतिक्षे शक्यन्ते मिथ्यात्वमात्मानमन्यं वा कुमारसंभवादिषु प्रणेतपतीति । ततः कुमारसंभवादयोऽपि प्रस्थाः खof struौरुषेया भवेयुः तथा च कः प्रतिविशेषो वेदे ? येन स एव प्रमाणाभ्युपागमाः । अपि चबाकी सैरपि पूर्वमहर्षिभिः सतु वेदस्याभ्युपगतमें, तथा च तदुग्रन्थः- “ ऋगिरावृत्रश्चक्रुः सामानि लामगिराविति"। अथ तत्र करोतिः स्मरणे वर्त्तते, न निष्पादन, दृष्टश्च करोतिरर्थान्तरेऽपि वर्तमानो यथा संस्कारे, तथा लोके वकारः पृष्ठे मे कुरु पादी मे कुर्विति अत्र हि संस्कार एवं करोतिवर्तते नापूर्वनिर्वर्तन संभ चति अशपकियत्यात् ततोऽन्यथानुपपत्या संस्कार एव करोतिर्वर्त्तते, वेदविषये तु नान्यथानुपपन्नत्वं किमपि निबधनमस्ति । ततः कथं तत्र स्मरणे वर्तयितुं शक्यते १ स्थादेतत्-यदि वेदविषये करोति स्मरसेन वर्तत सर्दि पेदस्यं प्रामाख्यं न स्याद् अथ च प्रामात्यमभ्युपगम्येन तथापीरुपेयत्वादेव, अन्यथा सर्वागमानामपि प्रामाख्यप्रसक्तेः । ततोऽत्रापि करोतिः प्रामाण्यान्यथानुपपश्या स्मरणे वर्त्य इति तदेतदसत् इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् तथाहि प्रामाण्ये सिद्धे सति तदन्यथानुपपस्या करोतेः स्मरणे वर्णन करोतेः स्मर वृत्तौ चापत्यसिद्धिः प्रामादमिका सारा सिद्धिः अनेकान्तिकं च कर्तुरस्मरणं, 'बटे बटे वैश्रवणः ' इत्यादिशब्दानां पौरुषेयाणामपि कर्तुरस्मृतेः यत्नवान् तत्कर्त्तारमुपलभत एवेति चेत्, नावश्यं तदुपलम्भसंभवः, नियमाभावात्, किं च पौरुषेपत्वेनाभ्युपगतस्य वेदस्य कर्त्ता नेवास्ति कचित् पीरुपे यत्वेनाभ्युपगतस्य च घंटे बटे पेन इत्यादिस्तीति न प्र माणात् कुतश्चिद्विनिश्चयः, किं तु परोपदेशात् स च भयतो न प्रमाणं परस्य रागादिपरीतत्वेन यथावद्वस्तुतस्यापरिज्ञानात् ततः कर्तृभावसंदेह इति संदिग्धासिदहेतुः एतेन यदम्यदपि साधना वेदवादी - 'वेदाध्ययनं सर्व गुव्र्व्वध्ययनपूर्वकं' वेदाध्ययनत्वाद्, अधुनातनवेदाध्ययनवदिति । तदपि निरस्तमव मेयम् । एचपीपसाधने सर्व्वस्वाध्यपीस्वात " " " 3 1 ( ६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । " , " आगम चाहि-कुमारसंभवाध्ययनं सर्व्वे गुवैध्ययनपूर्वकं कुमारसंभवाध्ययनत्वात् इदानीनकुमारसंभवाध्ययनर्वाद " " + ति कुमारसंभवादनामध्ययनामादितासिद्धेरपीरुपेयत्वं तु नियारम् न च तेषामपीरुषेयत्वं स्वयं करणपूर्वकत्वेनापि तदध्ययनस्य भावाद् एवं वेदाध्ययनमपि किंचित् स्वयं करणपूर्वकमपि भविष्यतीति वेदाध्ययनत्वादिति व्यभिचारी हेतु स्यादेतत् बेदाध्ययनम् स्वयं कर र्वकं न भवति, वेदानां स्वयं कर्तुमशक्तेः । तथा चात्र प्रयोग:- पूर्वेषां वेदरचनायामशक्ति पुरुषत्वाद् नीतमपुरुषदिति ययुक्रम् अतिरात् तथाहि--भारतादिष्विदानीं तनपुरुषाणामशक्रावपि कस्यपिरपुरुषस्य व्यासाने शक्ति भूयते एवं वेदविषयेऽपि संप्रति पुरुषाणां कर्तुमशक्तावपि कस्यचित्प्राक्तनस्य पुरुपविशेषस्य शक्तिर्भविष्यतीति । श्रपि च यथाग्निसामान्यस्य ज्वालाप्रभवत्वमरणिनिर्मथनप्रभवत्वं च परस्परमबाध्यबाधकत्वान्न विरुध्यते, को ह्यत्र विरोधः अग्निश्च स्यात् कदाचिदणिनिमंचनपूर्वकः कदाचित् ज्वालान्तरपूर्वक ततो यथाऽऽद्योऽपि पथिकृतो नान्तरपूर्वको नारखिनिर्मथनपूर्वकः पथिकाऽग्नित्वाद् आधानन्तराग्निवदित्यय हेतुमिचारी विषवृत्तथादाध्ययनमपि विपक्षे वृत्तिसंभवात् व्यभिचार्येव तथाहिवेदाध्ययने स्वयंकरणपूर्वकत्वमध्यान्तरपूर्वकार्य व प रस्परमबाध्यबाधकत्वादविरुद्धं ततश्च वेदाध्यवनमपि स्यात्किचित् स्वयं करणपूर्वकमपीति यदा त्वेवं विशिष्यते - यस्तु तथाविधः स्वयं कृत्वा अध्येतुमसमर्थः तस्य वेदाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकमिति तदा न कश्चिद्देोषः, यथा यादोऽग्निज्वालाप्रभयो दृएः तादृशः सर्वोऽपि ज्वालाप्रभव इति अस्तु वा सर्व वेदाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं तथाध्येयमनादिता सदस्यापत्यम् अथात पचानादितामात्रादपौरुषेयत्वसिद्धिरिष्यते तर्हि डिम्भकपांशुक्रीडांदेरपि पुरुषव्यवहारस्या उपौरुषेयतापति, तस्यापि पूर्वपूर्व दर्शनप्रवृत्तित्वेनानादित्वात् । " " 3 तत्स अपि च युपीरुषेया वेदा यदि पुरुषाणामादि स्था द्वेदाध्ययनं चानादि, तदाप्याच पुरुषस्याध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं न सिद्धयति, अध्यापवितुरभावात् न च पुरुषस्य ताश्वादिकमव्यापाराभावात् स्वयं शब्दा ध्यनम्ति ततो वेदस्य प्रथमोऽभ्यता कर्नैव तस्यः अपि चयस्तु पजेनुमन्ययष्यतिरेकाभ्यां प्रसिद्धं राज्जातीय दप्यदृष्टहेतुकं ततो हेतोर्भवतीति संप्रतोयते, यथेन्धनादेको वह्निष्टस्ततस्तत्समानस्वभावोऽपरोऽप्यदृष्टहेतुकः मानहेतुकः संप्रतीयते, लौकिकेन च शब्देन समानधर्मी सर्वोऽपि वैदिक शब्दराशिः ततो लीकिकपदकोऽपि शब्दराशिः पौरुषेयः सम्प्रतीयताम् । स्यादेतद्वैदिकेषु शब्देषु यद्यपि न पुरुषहेतु:, तथापि पौरुषेयाभिमतसमानाऽवशिष्टपदवाक्यरचना भविष्यति ततः कथं तत्समानधतामवलोक्य पुरुषहेतुकना तेषामनुमीयते तदेतद् वालिजल्पितं पदवाक्परथना हि यदि हेतुमन्तरेणापी च्यते तव ग्राकस्मिकी सा भवेत् ततश्राकाशादाय सा सर्वत्र संभवेत्, अहेतुकस्य देशादिनियमायोगात् न च " , " " " , Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सा सर्वत्रापि संभवति तस्मात् पुरुष एव तस्या देतुरित्य पश्यं प्रतिपत्तव्यम् अन्यच पुरुषस्य रा , 7 थावद् वस्तुपरिज्ञानाभावात् तत्प्रणीतं वाक्यमयथार्थमपि संभाग्य इति संशयहेतुः पुरुषोऽपकर्णः स च संशयोऽपौरुषत्वाभ्युपगमेऽपि वेदवाक्यानां तदवस्थ एव, तथाहि - स्वयं तावत्पुरुषो वेदस्यार्थे नावबुध्यते, रागादिपरीतत्वात्, नायन्यतः पुरुषान्तरात् तस्यापि रामादिपरीतत्वेव यथा वश्वमपरिज्ञानाद्, अथ जैमि (म) निश्चिरतरपूर्व कालभावी पहुशः सम्यग्वेदार्थस्य परिज्ञानासीत् ततः परिज्ञानमभूदि ति, न द्विसर्वेऽपि पुरुषाः समानाः प्रज्ञामेधादिगुणैरिति वक्तुं संविदातारतम्यस्य दर्शनात् ननु सप्रेम (म) नि पुरुष बेदस्यार्थे यथायथिनम स्मेति कुता निश्चयः प्रमादादितिनीन्द्रियेष्वर्थेषु न प्रमाणस्यावतारो यथाग्निहोत्रवचनस्य स्व साधनत्वे हा तरक संवादः अथ वेष्वर्येष्वमा प्रायः तद्विषये प्रमाणसंवाददर्शनादीन्द्रियाणामप्यर्थानां सम्प परिज्ञानाभ्युपगम्यतथ्ययुक्रम् रागादिति तीन्द्रियार्थपरिज्ञानाऽसंभवाद्, अन्यथा सर्वेषामयतीन्द्रि यार्थदर्शित्वप्रसक्तिः ततस्तत्कृतातीन्द्रियार्थव्याख्या मिथ्यैव । श्रपिच – आगमो ऽर्थतः परिज्ञातः सन् प्रेक्षावतामुपयोगविषयो भवति नानागमाचं ततोऽर्थः प्रधानः सत्पुरुषः किं शब्दमात्रस्यापीरुपेत्यपरे कल्पनेन निरर्थकत्वात् वान्ताऽपि वेदार्थस्य सम्यगनमः नापि स्पीयर्थमुपदेशमन्रेस स्वयंमच साक्षादुपदेर्शयति ततो वेदस्यष्टार्थप्रतिपत्त्युपायाऽभावाद् 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यत्र श्रुतौ यथा वेदप्रामारियमर्थः परिकक्षित् स्वर्गकाम इति । तथाऽयमप्यर्थः तेन ते खादेत् स्वमांस स्वर्गकामः इति, नियामकाऽभावात्, उक्तं च " 9 " " (६५) अभिधान राजेन्द्रः । " " स्वयं रागाऽऽदिमानाऽर्थ, वेत्ति वेदस्य नाऽस्वतः । नवेदयति वेदोऽपि वेदार्थस्य कुतो गतिः ॥ १ ॥ सेनाऽडुयात् स्वर्गकाम इति धुनी। खादेत्स्वमांसमित्येष, नाऽर्थ इत्यत्र का प्रमा ॥ २ ॥ अथ य एव शाब्दा व्यवहारो लोके प्रसिद्धः स एव वेदवाक्यार्थनिश्चयनिबन्धनं न च लोकेऽस्मि संपाम् नापि जुहुयादन्यस्य भक्षयं तत्कचयमर्थः परिकल्प्यते ?, तदयुक्तं, नानाऽथी हि लोके शब्दा रूढा यथा गोशब्दः । " · 1 अपि च सर्वे शब्दाः प्रायः सर्वार्थानां वाचका देशादिभेदतो इतविलम्बितादिभेदेन तथावतीतिदर्शनात् तथाहि व्र विस्पार्थदेशमुपागतस्थ मारिशब्दात् भगि(टिति पि या प्रतीतिरुपजायते विलम्बिता चोपसर्गविषया, यद्वा-श्रादशोत्पन्नस्य द्रविडंदेशमधिगतस्य शीघ्रमुपसर्गविषया प्रतीतिर्विलम्बिता च वर्षविषया एवमनया दिशा सर्वेषामपि शब्दानां सर्वार्थवाचक परिभावनीयम्. न च वादयम् एवं सति घटशब्दमात्रश्रवणादखिलार्थवीतिप्रसङ्गो यथा परामवरोध वृतेः क्षयोपशमध १७ 3 संकेतायपेक्ष इति तदभावे न भवति ततोस्य स्वसादिवाचकत्वे ऽप्यवरोध इति लौकिकशायहारानुरवेऽपि न वैदिकवाक्यानामभिलपितविपतार्थअतिपत्तिः । किं बलशान व्यवहार वयं वेदवाक्यानां प्रतिनियतमर्थ निश्वेतुमुद्युक्ताः, लौकिकश्च शाब्दो व्यवहारोऽनेकधा परिसमामा ए संकेतयतः प्रायः सर्वेषामपि शब्दानां सर्वार्थप्रतिपादनशभयात् तो लोकिकेनेच शाब्देन व्यवहारेणास्माकमाशादपादि कोडवार्थः स्यात् ? किं नाचाहुनि प्रक्षिपत् स्वर्गकाम इति उतादा स्वमांसं खादति स तत एव निश्वयः क तेन हि योऽत्र संशयहेतुः स तत्र विश्रयमुत्पादयितुं शक्ल इति । , अपि च नैकान्तेन वेदे लीफिशब्दव्यवहारानुसरणं स्वमोंश्यादिशब्दानामरूढार्थानामपि तत्र व्याख्यानात् यथा स्वर्गः- सुखविशेषः, उर्वशी तु अणिरिति । तथा शब्दान्तरेव्याप्यरूढार्थकल्पना किन संभचिनी है, उच" स्ववैश्यादिशब्दस्य, दृष्टा रूढार्थवाचकः । शब्दाऽन्तरेषु ता- ताश्यास्तु कवना ॥ " स्यादत् दर्यापस्य स्वमसन बुले, बनेपा तस्यान्यथा व्याख्यानात् तदयुक्तम्, तत्राऽपि वाक्यार्थस्य निर्गुयाभावाद्यथोक्तं प्राक् न हि अप्रसिद्धार्थस्य वाक्यस्याऽ प्रसिद्धार्थमेव वाक्यान्तरं नियतार्थप्रसाधनायालं, तुल्यदोषत्वात् । अथेत्थमाचक्षीथाः यत्रार्थे न काचित्प्रमाणबाधा सोऽर्थो ग्राह्यो, न चाग्निहोत्रादिवाक्यस्य घृताऽऽचापि प्रमादायामुत्पश्याम तत्कथं समर्थ नीमः । वंदतरस्य मांसभक्षणला उच्च समार्थ व हि तत्रापि काचित् प्रमाणमाधामीचामदे । : अपि च-यदि प्रमायसीसे सहि पोरुपपमेव चचत्ययोपादेयं तस्य लोकप्रतीत्यनुसारितया संप्रदायता:भिगतार्थतया च प्रायो बुलिविषयत्वात् नापीरुषेयम् विपरीततया तत्र युक्तरसंभवात् तथाहि - काऽत्र युक्तिः ? यया स्वमांसभक्षणात्स्वर्गप्राप्तिर्वाभ्यते, न घृताद्याहुति - प्रक्षेपादिति ?, घृताऽऽद्याहुतिप्रक्षेपादीनां स्वर्गप्रापणादिशरतीन्द्रियत्येन प्रत्यक्षाद्यगोचरत्वात् मंप्रदायस्य चायेंगेयत्यकारिणोऽसंभवात् एतञ्चानन्तरमेव वक्ष्यामः । अथागमार्थाश्रया युक्तिः स्वमांसभक्षणतः स्वर्गप्राप् धिका भविष्यति, तदयुक्तम्, आगमार्थस्यास्याप्यनिश्चयात् । अनिश्चितार्थस्य च बाधकत्वाऽयोगात्, अथ संप्रदायादर्थनिश्चयो भविष्यति, तथा हि-"प्रथमतो वदेन जैमिनये स्वाथे उपदर्शितः पचासेनास्मभ्यमुपदिष्ट" इति तद्यत् वेदस्य हि यदि स्वार्थीपदर्शन रास्तितोऽस्मभ्यमपि स्वार्थ किं गोपदर्शयति तस्माज्जैमिनयेऽपि न तेन स्वादशिवः किन्तु स वेदमुखेनात्मानमेवार्धनियम शरमुपदशितवान् यथा कचित्केचित् को मार्गः पाटलि पुत्रस्य ?' स प्राह-एप स्थापश्यमानो वक्रि- अयं मार्गः पाटलिपुत्रस्य ', तत्र न स्थाणावेचनशक्तिः केवलं स्थाणुमुखेन स एवात्मानं मार्गोपदेश पनि एनि स्वार्थोपदर्शनशक्तिः ततस्तन्मुखेन जैमि म) निरात्मानमेवा - थेनियमस्त्रशर मुपदर्शितवान्, लौकिकशब्दव्यवहारानु " 3 " तन्न , आगम • Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम सरणानापि युक्ने पिच संप्रदायावेदस्यार्थनिश्चयो, नापि मपुराण लक्ष्यत पवाम्याः सदात्यमवद्योतयदिति चेत्, सस्याऽपौरुषयत्वसाधर्क किमपि प्रमाणमित्यसमध्यपौरुषः | नम्बसौ-"समुदयमात्रमिदं कलेवरम्" इत्यादिलोकायतागयम् । उक्नं च-"बान्ध्येयखरविषाणतुल्यमपौरुषेयमि" ति ।। मध्यप्यकरसैवास्तीति तेऽपि तथा स्युः, तथा च-तत्पठिननु यदि बान्ध्ययखरविपारणतुल्यमपौरुषेयं भवत्तर्हि न वेद- तानुष्ठाननिष्ठापटिष्ठतां विप्राणामपि प्रामाति, अन्यथा प्रत्यबचापौरुषेयतया शिष्टाः प्रतिगृह्णीयुः । वायसंभवात् । अयात्रेयमभिधानानन्तरानुपलम्भेन बाध्यत, अथ च-सर्वेष्वपि दशषु शिष्टाः प्रतिगृहन्तो दृश्यन्त , किन श्रुतायपि अभिव्यकपभावसंभवी तदानीमनुपलम्भः तस्मात्रासंभव्यपौरुषयं , तदत्र पृच्छामः-क शिष्टाः । ननु श्रुती नाभावनिवन्धन इति चत्, किं न नास्तिकसिद्धाकिमत्र प्रएव्यम् ?, ये ब्राह्मणीयोनिसंभविना वेदोक्रविधि न्तेऽप्येवम्, इति सकलं समानम् । संस्कृताः बेदप्रणीताचारपारपालनकनिषमतसस्ते शिष्टाः किं च-अनुभवानुमररूवतुरं प्रत्यभिज्ञानम् । अनुभवश्व तदेतदयुक्त, विचाराक्षमत्वात् , तथा हि-किमिदं नाम प्रायेण प्रत्यभिज्ञां ताविकी, जातिस्मृयादिमतः कस्यापि ब्राह्मणत्वं यद्योनिसंभवाच्छिष्टत्वं भवेत् ?, ब्रह्मणोऽपत्य- कतिपयभवविषयां च प्रभावयितुं प्रभुः इति कथमनादौ त्वमिति चेत् तथा हि ब्रह्मणाऽपत्यं ब्राह्मण इति व्यपदिश- काले केनापि नेयं श्रुतिः सूत्रिता इतिप्रकटयितुं पटीयसीयं न्ति पूर्वषयः न एवं सति चाण्डालस्यापि ब्राह्मणत्वप्रश- स्यात् ? । तत्र तत्र प्रत्यक्ष क्षमत। नाऽप्यनुमान, तद्धि क्लिः, तस्यापि ब्रह्मतनोः समुत्पन्नत्वात् । उक्तं च-"ब्रह्म- कर्वस्मरण, वेदाध्ययनवाच्यत्वं,कालत्वं वा ततेषु सर्वेष्यपि णाऽपत्यतामात्रात् , ब्राह्मणोऽतिप्रसज्यते । न कश्चिदब्रह्म- प्रत्यक्षाऽनुमानाऽऽगमबाधितत्वं तावत्पक्षदोषः । तत्र प्रत्यतनो-रुत्पन्नः कचिदिष्यते ॥१॥" यदप्युक्तम्-'वेदोक्रविधि- क्षबाधस्तावत् , तथाविधमठपीठिकाप्रतिष्ठशठवठराध्व!संस्कृता बेदप्रणीताचारपरिपालनैकनिषाणचेतसः' इति , गातृहोतृप्रायप्रचुरखण्डिकेषु यजुःसामर्च उच्चस्तरां युगतदप्ययुक्तम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-वेदस्य प.पूत्कुर्वत्सु कोलाहलममी कुर्वन्तीति प्रत्यक्षं प्रादुरस्ति, प्रामाएरे सिढे सति तदुक्तविधिसंस्कृतास्तदर्थसमाचर- तेन चापौरुषेयत्वपक्षो बाध्यते । अभिव्यक्तिसद्भावदियेयं हाच्छिष्टा भवयुः शिष्टत्वे च तेषां सिद्ध सति तत्परिग्रहा- प्रतीतिरिति चेत्, तर्हि हंसपक्षादिहस्तकेष्वपि किं नेयं द्वेदप्रामारयमित्येकाभावेऽन्यतरस्याऽप्यभावः । तथा ? इति तेऽपि नित्याः स्युः । वर्णयिष्यमाणवर्णव्यक्तिश्राह च-“शिष्यैः परिगृहीतत्वा-दन्योऽन्यसमाश्रयः । व्यपाकरण चेहाऽप्यनुसंधानीमा 'श्रुतिः पौरूषयी' वर्णावदार्थाचरणाच्छिष्टा-स्तवाचागश्च स प्रमा ॥९॥" स्यादेत धात्मकत्वात् , कुमारसंभवादिवद् . इत्यनुमानबाधः । पुरुषा त् -भवतोऽपि तच्चतोऽपौरुषयं वचनमिष्टमेव, तथाहि-'स हि परिभाव्याभिधेयभावस्वभावं तदनुगुणां प्रन्थधार्थी वोऽपि सर्वज्ञा वचनपूर्वको भवतीत्यवेष्यते' "तप्पुब्बिया प्रथ्नाति, तदभावे कौतस्कुतीयं संभवेत् ? । यदि हि शङ्कअरिहया" इति बचनप्रामाख्यात् , ततोऽनादित्वात्सिद्धं समुद्र मेघादिभ्योऽपौरुषेयेभ्योऽपि कदाचित्तदात्मकं वाक्यवचनस्यापौरुषयत्वमिति , तदयुक्तम् , अनादितायामप्यपी मुपलभ्यत, तदाऽत्राऽपि संभाव्यत, न चैवम् । श्रश वर्णारुपयत्यायोगात् , तथाहि-सर्वशपरम्पराप्येषाऽनादिरि द्यात्मकत्वमात्र हेतुचिकीर्षितं चेत् , तदानीमप्रयोजकं, पते , ततः पूर्वः पूर्वः सर्वक्षः प्राक्तनसर्वशाणीतवचनपूर्व- कल्मीकस्य कुलालपूर्वकत्ये साध्ये मृद्विकारत्ववद् । अथ कोऽभवश्व विरुध्यते , किं च-वचनं द्विधा-शब्दरूपम् , अ लौकिकलाकादिविलक्षणं तत्तर्हि विरुद्ध; साधनशून्यं च रूपं च । तत्र शब्दरूपवचनापक्षया नायमस्माकं सङ्गगे, कुमारसंभवादिनिदर्शने, तत्रैव साध्ये विशिष्टमृद्विकारत्वयदुनै-'सर्वोऽपि सर्वशो बचनपूर्वक' इति, मरुदेव्यादीनां बत् , कुटदृष्टान्तवमवेति चेत् । नैतच्चतुरस्रम् । यतस्तम्मातदन्तरेणाऽपि सर्वक्षन्यतः,कि स्वर्थरूपापेक्षया, ततः कथं श्रमेव हेतुः; न चाऽप्रयोजक विशिष्ट वर्णाऽऽद्यात्मकत्वस्यैव शब्दापौरुपयत्याभ्युप्ममप्रसङ्गः । नन्वर्थपरिक्षानमपि श. काऽप्यसंभवाद् । दुःश्रवणदुर्भणत्वादिस्तु श्रुतिविशेषस्य । ब्दमन्तरण नापपद्यते तत्कथं न शब्दरूपापेक्षयाऽपि सङ्गरः, "नांशास्त्वाष्पारिराष्टण, भाष्टेणादष्टिको जनाः । धार्तराष्ट्राः तदसत्, शम्वमन्तरणापि विशिष्टक्षयोपशमादिभावतोऽर्थ सुराष्ट्रण, महाराष्ट्र तु नाष्ट्रिणः ॥१॥" इत्यादौ लौकिकरलाके परिक्षानस्य सम्भवात् , तथा हि-दृश्यन्ते तथाविधक्षयो सविंशपस्य सद्भावाद् अभ्यर्थि(धि)महि च-"यत्कौमार- . पशमभावतो मार्गानुसारिबुवचनमन्तरेणापि तदर्थप्रतिप कुमारसंभवभवाद्वाक्यान्न किंचिद्भवे-द्वैशिष्ट्यं श्रुनिए स्थित त्तिरिति कृतं प्रसङ्गन । नं०२ गाथाटी। तत इमाः स्युः कसृशून्याः कथम्" इति ।" प्रजापतिदमेकये त धात्रियाः धनरपौरुषेयत्वऽपौरूपी स्फो(ग)टयांचक्रुः, मासीत् . न अहः आसीत् , नरात्रिः आसीत्। स तपोने कीरशी श्रुतिमामास्थाय-किं वर्णरूपाम : श्रानुपूर्वी तपयन. तस्मा तपनः तपनाश्चन्यारो बेदा अजायन्त" इति चा? । यदि प्राचिकी, तदस्पष्टम् उपरिष्टाद्" अकारादिः स्वकर्तृपतिपादकागमवाधः। ननु नाऽयमागमः प्रमाणे भूतापौदालको वर्णः" इत्यत्र वित्रास्यमानत्वावस्याः। अथादी- थाभिधायकत्वात् , कार्ये एव ह्यर्थे वाचां प्रामाण्यम् , अ. चीनां, तर्हि तत्र तरप्रतीतो प्रत्यक्षम् , अनुमानम्, अर्था- न्वयव्यतिरेकाभ्यां लोके कार्यान्वितेषु पदार्थेषु पदानां शपत्तिः, आगमो वा प्रमाण प्रगिगद्यत । न प्रत्यक्षम् , अस्य नययगमादिति चत् तदश्लीलं कुशलादर्कसंपर्ककर्कशः सातादाविकमावस्वभावाऽवभासमात्रचरित्रपवित्रत्वात् , "सं- धूपास्याप्रसङ्ग इत्यादर्भूतार्थस्यापि शब्दस्य लोके प्रयोगोबद्धं वर्तमानं च, गृह्यते चचुरादिना" इति वचनात् । यैव पलम्भात् । अथाऽत्रापि कार्यार्थतेय, तस्मादत्र प्रवर्तितश्रुतिर्मया प्रागध्यमायि, सैवेदानीमपीति प्रत्यभिशाप्रत्यक्ष- तब्यमित्यवगमादिति चेत् , स तावगम औपदेशिक मौ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागम अभिधानराजेन्द्रः। मागम पदेशिकार्थकृतो वा भवेत् । न तावदाधः, तथाविधापद- त्वनिर्णयो वेदस्य । तथाहि-संवाद-विसंवाददर्शनाऽदर्शशाऽश्रवणात् । द्वितीयस्तु स्यात्। न पुनस्तत्रोपंदशस्य प्रा- | नाभ्यां तावदेष निःशेषपुरुषैः प्रामाण्येन निरणाय । तत्रिमाण्यम्, अस्य स्वार्थप्रथामात्रचरितार्थत्वात् । प्रतिपा- र्णयश्चास्य पौरुषेयत्वे दुरापः । यतःदकत्वेनैव प्रमाणानां प्रामाण्याद् । अन्यथा प्रवृत्ताविव त- "शब्दे दोषोद्भवस्ताव-धीन इति स्थितिः । साध्यार्थे ऽपि प्रामाण्यप्रसन्नात् । प्रत्यक्षस्य च विवक्षितार्थ. तदभावः कचित्तावद्, गुणवद्वक्तृकत्वतः॥१॥ वत्तत्साध्याकियापि प्रमेया भवेत् , तस्मात्पुरुषच्छाप्र- तद्गुणैरपकृष्टानां, शब्दे संक्राम्त्यसंभवात् । तिबद्धवृत्तिप्रवृत्तिरस्तु। मा वा भूत् , प्रमाणेन पदार्थप- वेदे तु गुणवान वक्ता, निणेतुं नैव शक्यते ॥२॥ रिच्छेदश्चषकाखः , तावतैव प्रेक्षावतोऽपेक्षाबुद्धः पर्यवसा- ततश्च दोषाभावोऽपि, निर्णेतुं शक्यतां कथम् । मात् . पुण्य प्रामाण्यमस्वावसेबम् । यद्वा-अस्तु तस्मादत्र वत्रभावे तु सुझानो, दोषाभावो विभाव्यते ॥३॥ प्रवर्तितव्यमित्यवगमात्कुशलोदत्यादिवाक्यानां प्रामाण्यं , यस्माद्वारभावेन, न स्युदोषा निराश्रयाः"। किं तु-तवदव वेदे कर्तप्रतिपादकाउगमस्यापि प्रामाण्यं ततः प्रामाण्यनिर्णयाभ्यथाऽनुपपत्तेरपौरुषेयोऽयमिति । पासाहीदेवेति सिद्ध आगमबाधाऽपि। अस्तु तावदा रुपणपशुपरंपरापाणथ्यपरोपणप्रगुणमधुरो पदेशाऽपवित्रत्वादप्रमाणमेवैषः इत्यनुत्तरोत्तरप्रकारः। प्राया कत्रस्मरणं साधनम् , तद्विशेष सविशेषण वा ब माण्यनिर्णयोऽप्यस्य न साध्यसिद्धिः, विरुद्धत्वाद् , गुणवद् स्येत । प्राक्तने, तावत्पुराणकपप्रासादारामविहारादिभि वक्तृकतायामेव वाक्येषु प्रामाण्यनिर्णयोपपत्तः । पुरुषो य॑भिचारि, तेषां कर्वस्मरणेऽपि पौरुषेयत्वात् । द्वितीय हि यथा रागादिमामृपावादी, तथा सत्यशौचादिमान् अतु संप्रदायाव्यवच्छेदे सति कर्वस्मरणादिति यधिकरणा वितथवचनः समुपलब्धः । श्रुतौ तु तदुमयाभावेनरर्थक्यऽसिद्धम् , कर्वस्मरणस्य श्रुतेः भन्यत्राश्रये पुंसि वर्तनात् । मंब भवेत् । कथं वक्तुगुणित्यनिश्चयश्छन्दसीति चेत् , कथं अथाऽपौरुषेयी श्रुतिः; संप्रादायावच्छदे सत्यस्मऽर्यमाण पिपितामहपितामहादरप्यसो ते स्यात् । येन तद्धस्तकर्तृकत्वाद् , आकाशवद् इत्यनुमानरचनायामनवकाशाव्यधिकरणासिद्धिः । मैवम् । एवमपि विशेषण संदिग्धाऽसिद्ध. न्यस्ताक्षरश्रेणेः पारंपर्योपदेशस्य वाऽनुसारेण प्रायदेय निधानादौ निःशङ्कः प्रवर्तथाः । कचिरसंवादाचेद्, प्रत ताऽऽपत्तेः । तथाहि-श्रादिमतामपि प्रासादादीनां संप्रदायो एवान्यत्रापि प्रतीहि । कार्यादौ संवाददर्शनात् । कदाग्यवञ्चिद्यमानो विलोक्यते, अनादेस्तु श्रुतेरव्यवच्छदी संप्रदायोऽद्यापि विद्यत इति मृतकमुष्टिबन्धमन्वकार्षीत् । चित्-कचित्संवादस्तु सामग्रीवैगुण्यात्त्वयाऽपि प्रतीयत तथा च-कथं न संदिग्धाऽसिद्धं विशेषणम् ? । विशेष्यमप्यु एव, प्रतीताप्तमन्त्रापदिष्टमन्त्रवत् । प्रतिपादितश्च प्राकराभयाऽसिद्धं , वादिप्रतिवादिभ्यां तत्र कर्तुः स्मरणात् । ननु गद्वेषाज्ञानशून्यपुरुषविशेषनिर्णयः । किं च-अस्य व्याख्यानं श्रोत्रियाः श्रुती कर्तारं स्मरन्तीति मृषाचं श्रोत्रियापस तावत्पौरुषेयमेव, अपौरुषेयत्वे भावनानियोगादिविरुद्धब्बादाः खल्वमी इति चेत् ननु यूयमाम्नायमाम्नासिष्ट तावत्त ख्याभेदाभावप्रसङ्गात् , तथा च को नामाऽत्र विशम्भो तः-"यो वै वेदाँश्च प्रहियोति" इति , "प्रजापतिः सोम भवत् ? । कथं चैतद् ध्वनीनामर्थनिर्णीतिः ? लौकिकध्वराजानमन्बसूज ततस्त्रयो वेदा अम्बसृजन्त" इति च स्वयमे न्यनुसारणति चेत् , किं न पौरुषेयत्वनिर्णातिरपि?, तत्रोव स्वस्य कर्तारं स्मारयन्ती श्रुतिं विश्रुतामश्रुतामिव गणय भयस्याऽपि विभावनाद् । अन्यथा त्वर्द्धजरतीयम्। न च लौतो यूयमेव श्रोत्रियाऽपसदाः किन्न स्यात् । किं च-क किकाऽर्थनुसारेण मदीयोऽर्थः स्थापनीय इति श्रुतिरेव स्वयं राव-माध्यन्दिनि-तित्तिरिप्रभृतिमुनिनामाकिताः काश्चन शा. वक्ति, न च जैमिन्यादावपि तथा कथयति प्रत्यय इत्यपौखास्तस्कृतत्वादेव मन्वादिस्मृत्य दिवत् । उत्सनानां तासां रुषयवचसामर्थोऽप्यन्य एव कोऽपि संभाव्यत । पौरुषेयीकहपादौ तैदृष्टत्वात् , प्रकाशितत्वाद्वा तमामचिह्न अनादौ णामपि म्लेच्छार्यवाचामैकार्थ्यं नाऽस्ति, किं पुनरपौरुषेयकालऽनन्तमुनिनामाऽङ्कितत्वं तासां स्यात् । जैनाच-काला वाचाम् । ततः परमकृपापीयूषप्लावितान्तःकरणः कोऽपि पुमान् निर्दोषः प्रसिद्धार्थः ध्वनिभिः स्वाध्यायं विधाय सुरमेतत्कारम् स्मरन्ति । कर्तृविशेष विप्रतिपत्तरप्रमाणमे व्याख्याति, इदानींतनग्रन्थकारवत् , इति युक्तं पश्यामः । वैतत्स्मरणमिति चेत् । नैवम् । यतो यत्रैव विप्रतिपत्तिः, अवोचाम च-"छन्दः स्वीकुरुषे प्रमाणमथ चत्तद्वाच्यनितदेवाऽप्रमाणमस्तु, न पुनः कर्तृमात्रस्मरणमपि । श्चायकं, कंचिद्विश्वविदं न जल्पसि ततो ज्ञातोऽस्य मू"वेदस्याऽध्ययनं सर्वे , गुर्वध्ययनपूर्वकम्। ल्यक्रया" इति । वेदाध्ययनवाच्यत्वा-दधुनाऽध्ययनं यथा ॥१॥ प्रागमोऽपि नापौरुषेयत्वमाख्याति । पौरुषेयत्वाविष्काअतीताऽनागतौ कालौ , बेदकारविवर्जिनौ। रिण एवास्योक्तवत्सद्भावात् । अपि च-इयमानुपूर्वी पिपीकालत्वात्तद्यथा कालो , वर्तमानः समीषयते ॥२॥" लिकादीनामिव देशकृतारपत्रकन्दलकाण्डादीनामिव काइति कारिकोनः वेदाध्ययनवाच्यत्वकालत्वेऽपि हेतुः 'कु- लकृता वा वर्णानां वेदे न संभवति तेषां नित्यव्यापकत्वात् । राजभर कुरनाक्षीणां चतः' इति वाक्याध्ययन | क्रमेणाऽभिव्यक्नेः सा संभवतीति चेत् , ताई कथमियम-. गुर्वध्ययनपूर्वकम् एतद्वाक्पध्ययनवाच्यत्वाद् , अधुनातना. पौरुषेयी भवेद् , अभिव्यक्तः पौरुषयत्वात् इति सिद्धा पौध्ययनवद् अतीतानागतौ कालौ प्रकान्तवाक्यकतव- रुषेयी श्रुतिः । रक्षा०४ परि० । र्जितौ कालत्वात् , वर्तमानकालवत् , इतिवदप्रयोजकत्वाद्, (४) आगमस्य चाप्तप्रणीतस्यैव प्रामाण्यं; नतु विरुद्धार्थस्यअनाकर्णनीयौ सकर्णानाम् । अथाऽर्थाऽऽपत्तेरपौरुषय- भागमानां च येषां पूर्वापरविरुद्धार्थत्वं तेषामप्रामाययमेव Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) भागम अभिधानराजेन्द्रः। मागम यस्त्वाप्तप्रणीत आगमः स प्रमाणमेव कपच्छेदतापलक्षणो- तीर्थकरनामकर्मोदयात् ततो शायते एष पवाऽस्योपदेशपाधित्रयविशुद्धत्वात् । कषाऽऽदीनां च स्वरूपं पुरस्ताद्वदया- स्याऽर्थ इति । उक्तं चमः । न च वाच्यम्-अमाप्तः क्षीणसर्वदोषस्तथाविधं चा55- "नाए वि तदुपएसे, एसेवत्थो मो त्ति से एवं । सत्वं कस्याऽपि नास्तीति; यतो गगाऽऽदयः कस्यचि नज्जइ पवत्तमासं, जं न निवारेह तह चेव ॥१॥ दत्यन्तं छिद्यन्ते अस्मदादिषु तदुच्छेदप्रकर्षा ऽपकोंपलम्भात् अत्रह य पवत्तं तं, निवारइन य तथा पर्वचार। सूर्याऽऽद्यावारकजलदपटलवत् । तथा चाऽऽहुः-“देशतो ना. जम्हा स वीयरागो, कहणे पुण कारण कम्मं ॥२॥" शिनो भाचा दृष्टा निखिलनश्वराः । मेघपङ्ग्यादयो यद्व एवं च भगवविवक्षायाः परोक्षत्वेऽपि सम्यगुपदेशस्यार्थनिदेवं रागाऽऽदयो मताः" ॥२॥ इति । यस्य च निरवयवतयते श्चय जात । यदुक्तम्-' गौतमादिरपि छद्मस्थ' इत्यादि. विलीनाः स एवाऽऽप्तो भगवान् सर्वज्ञः । तदप्यसारमवसेयं, छद्मस्थम्याऽप्युक्लपकारण भगवदुपदेअथाऽऽनादित्वाद्रागाऽऽदीनां कथं प्रक्षय इति चेत्, न; उपा- शार्थनिश्चयापपत्तेः । तथा चित्रार्था आप शब्दाः भगवतैयतस्तद्भावात् , अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाका- व समर्थितास्ते च प्रकरणाचनुरोधेन तत्तदर्थप्रतिपादकाः दिना विलयापलम्भात् । तद्वदेवाऽनादीनामपि रागादिदो- प्रतिपादितास्ततो न कश्चिहोषः . तत्तत्प्रकरणाद्यनराधेत षाणां प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाऽभ्यासेन क्लियोपपत्तेः । क्षी- तत्तदनिश्चयोपपत्तेः। भगवताऽपि च तथा तथाऽर्थावगमे प्र. णदोषस्य च केवलज्ञानाऽव्यभिचारात् सर्वज्ञत्वम् । तत्सि- तिषधाऽकरणादिति.एवं च तदानी गौतमादीनां सम्यगुपंदद्विस्तु ज्ञानतारतम्यं वचिद्विश्रान्तं तारतम्यत्वात् आका- शार्थस्यावगतावाचार्यपरंपरात इदानीमपि तदर्थावगमो भशपरिमाणतारतम्यवत् । तथा-सूक्ष्मान्तरितदृरार्थाः कस्य- वति। नचाउचायपरम्परान प्रमाणम् अविपरीतार्थव्याख्या चित्प्रत्यक्षाऽनुमेयत्वात् क्षितिधरकन्धराधिकरणधूमध्वज- तृत्वेन तस्याः प्रामाण्यस्याऽपाकर्तुमशक्यत्वात्। अपि च-भवत् । एवं चन्द्रसूर्योपरागादिसूचकज्योतिानाविसंवादा- बद्दर्शनमपि किमागममूलम् , अनागममूलं वा?, यद्यागममूलं ऑनुपपत्तिप्रभृतयोऽपि हेतयो वाच्यास्तदेवमाप्तेन सर्वविदा ताई कथमाचार्यपरंपरामन्तरेण?. आगमार्थस्याऽयवाद्प्रणीत आगमः प्रमाणमेव; तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनि- मशक्यत्वात् , अथाऽनागममूलं तर्हिन प्रमाणम्, उन्मत्तबन्धनं " रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । कविरचितदर्शनवत् । नं. ४६ सूत्रटी । यस्य तु नैते दोषा-स्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात्" ॥१॥ (५) संभवदूपस्यैव वचनस्य प्रामाण्य, नत्वसभवदूपस्येतिइति । स्पा०१७लाक। एयं पि ण जुत्तिखम, न च-आगमानां परस्परविरुद्धार्थतया सर्वेषामध्यप्रामा- __ण वयणमित्ताउ होइ एवमियं । एयमभ्युपयं, सर्वशमूलस्याऽवश्यं प्रमाणत्वेनाभ्युपगमाई संसारमोअगाण वि, त्वाद्, अन्यथा सम्यक प्रमाणाऽप्रमाणविभागाऽपरिणते: प्रेक्षाबत्ताक्षतिप्रसङ्गात्, अथ कथमेतत्प्रत्येयं यथा-अय धम्मो दोसप्पसंगाओ ॥१२३३।। पं०२० । मागमः सर्वज्ञमूल इति ?, उच्यते-यदुक्कोऽर्थः प्रत्यक्षणाऽ- एतदपि न युक्तिक्षम यदुक्तं परेण, कुत इत्याह- बचननुमानेन च न बाध्यते नाऽपि पूर्वाऽपरध्याहतः सोऽवसी- मात्रादनुपपत्तिकाद्भवत्येवमेतत्सर्वे , कुत इत्याह-संसारयते । सर्वज्ञप्रणीतोऽन्यस्य तथारूपत्वाऽसंभवात् , ततस्त- मोचकानामपि वचनात् हिंसाकारिणां धर्मस्य, दुःखिनो हस्माद्यसिद्धम् तत्सर्वं सुसिद्धम् , उक्तं च-" दिट्टेणं इट्टेण य, | न्तव्या इत्यस्याऽदोषप्रसङ्गाददुष्टतापत्तरित्यर्थः ॥१२४॥प्रति। जम्मि विरोहा न जुज्जइ कहिचि । सो आगमो ततो ऊं, नाणं तं सम्मनाणं ति ॥१॥" (धर्म० ५१६) प्रा० म०१ सिय त ण सम्मवयणं, अ० ६०० गाथाटी। _ इयरं सम्मवयणति किं माणं । जैनाऽऽगमस्य च सर्यशप्रणीतत्वम् अह लोगो च्चिय यं, " सव्वराणु विहाणाम्म वि, दिट्रेट्राबाडिया उ क्यणाओ।। तहा अपाढा विगाणा य ।।१२३४॥ पं०००। सब्बएणू होइ जिगो, सेसा सब्ब असम्वन्नू ॥१॥” एतेन | स्थात्-'तत्-' संसारमोचकवचनं, न सम्यग्यचनमित्यायदुक्तं-भवतु वा बर्द्धमानस्थामी सर्वशस्तथापि तस्य सत्को. शङ्कयाह- 'इतरद्' वैदिकं सम्यग् वचनमिति किं मानम्? ऽयमाचारादिक उपदेश इति कथं प्रतीयते इति, तदपि अथ लोक एव मानमित्याशङ्कयाह-नैतत्तथा, लोकस्य प्रदूराऽपास्तम् , अन्यस्येत्थंभूतद्दष्टाबाधितवचनप्रवृत्तेरसं- माणतया अपाठात्, अन्यथा प्रमाणस्य पटसंख्याविराभवात् , यदप्युक्तं. भवत्वेषोऽपि निश्चयो यथाऽयमाचारा- धात् । तथाषिगानाच, नहि वेदवचनं प्रमाणमित्येकदिक उपदेशो वर्डमानवामिन इति, तथाऽपि तस्योपद- वाक्यता लोकानामिति ॥ १२५ ।। प्रतिः । शस्याऽयमों नाऽन्य इति न शक्यं प्रत्येतुमित्यादि, तद- ग्रह पाढोऽभिमत्रो चिय, व्ययुक्त, भगवान् हि वीतरागस्ततो न विप्रतारयति विप्रत विगाणमवि एत्थ थो(थे)वगाणं तु । "रणाहेतुरागाऽऽदिदोषगणाऽभवात् । तथा सर्वज्ञत्वेन विपरीतं सम्यग्वार्थमवबुध्यमानं शिष्यं जानाति ततो यदि इत्थं पिणप्पमाणं, विपरीतमर्थमववुध्यते श्रोता तर्हि निवारयेत् , न च निवा सम्बेसि विदंसणाओ उ ॥१२३५।। पं०व० । रयति. चविप्रतारयति, करोति च देशनां कृतकृत्योऽपि अथ पाठनिमत एय लोकस्य प्रमाणमध्ये, पराणामुप Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) मागम अभिधामराजेन्द्रः। मागम लक्षणत्वात् , विगानमप्यत्र-वेदववचनाप्रामाण्ये स्तोका- शात् धर्माददोषौ प्राप्नुत, म्लेच्छादीनामपि-भिल्लादीनानामव लोकानामित्येतदाशङ्कयाह-अत्राऽपि-कल्पनायां न माप घातयतां द्विजवरम्-ब्राह्मणमुख्य पुरता ननु चण्डिप्रमाणं, सर्वेषां लाकानामदर्शनाद् , अल्पबहुत्वनिश्चयाऽभा- काऽऽदीनां देवताविशेषाणाम् ॥ १३१॥ प्रति० । वादित्यर्थः ॥ १२६ ॥ प्रति०। ण य तेसि पि ण वयणं, किं तेसि दंसणेणं, एत्थ णिमित्तं ति जं न सव्वे उ । अप्पबहुत जहित्थ तह चेव । तं तह घायंति सया, सच्चत्थ समबसेयं, अस्सुअतच्चोअणावक्का ।। १२४१ ॥ पं०व० । णेवं वभिचारभावाप्रो ॥१२३६॥ पं० २01 न च तेषामपि म्लच्छानां न वचनमत्र निमित्तमिह द्विजकिं तेषां सर्वेष लोकाचां दर्शनेन?,अल्पबहुत्वं यथा इह-म घात किंतु वचनमव, कुत इत्याह-यन्न सर्व एव म्लच्छास्तं ध्यदेशाऽऽदी वेदवचनप्रामाण्यं प्रति तथैव सर्वत्र क्षत्रान्तरे द्विजवरं घातयन्ति अश्रुतं तच्चादनावाक्यं द्विजवरघातबपि समवसेयं, लोकत्वादिहतुभ्यः, इत्यत्राऽऽह-नैवं, व्य विधिवचनं यैस्ते तथा ॥ १३२॥ प्रति। भिचारभावात्कारणात् ॥ १२७ ॥ अह तं ण एत्थ रूढं, एतदेवाह (प्रति०।) एयं पि ण तत्थ तुल्लमेवयं । अग्गाऽऽहारे बहुगा, अह तं थो (थे) वमणुचियं, दीसंति दिया तहा ण सुद्ध त्ति। इमम्मि एयारिसं तेर्सि ।।१२४२॥ पं०व०। ण य तइंसणओ च्चिय, अथ तन्म्लच्छपवर्तकवचनं नाऽत्र रूढं लाके इत्याशङ्कया हइयमेतदपि वैदिकं न तत्र भिल्जमत रूढमिति तुल्यमयसव्वत्थ इमं हवइ एवं ॥१२३७॥६० व०।। तरारूढत्वम् , अथ तन्मलेच्छप्रवर्तकं वचनं स्तोकमनुचिअग्राऽऽहार बहवो दृश्यन्ते द्विजा-ब्राह्मणास्तथा न शूद्रा | तमसंस्कृतमित्याशङ्कयाह-इन्दमयतादशं तपां म्लच्छपवर्त्तइति, ब्राह्मणवद् बहवो दृश्यन्ते । न च तद्दर्शनादवाऽग्रा55- कमेव वचनं वदेऽस्ति न द्विजप्रवर्तकं श्रवणमात्रस्याउतन्त्रहार बहुद्विजदर्शनादेव सर्वत्र भिल्लपल्ल्यादावयतद्भवत्येव | स्यात् अश्श्रवणस्यो च्छन्नशाखत्वेनापपत्तरिति तैरपि वक्तुं द्विजबहुत्वमिति गाथार्थः ॥ १२८ ॥ प्रति । शक्यत्वादिति ॥ १३३॥ उपपस्यन्तरमाह अन्याऽपि कल्पना ब्राह्मणपरिगृहीतत्वादिरूपा भिल्लपरिण य बहुगाण वि(ए)इत्थं, गृहीतत्वादितुल्यत्वेन दुष्टत्याह (प्रति.)अविगाणं सोहणं ति णियमोऽयं । अह तं वेअंगं खलु, न य णो थेवाणं पि हु, न तं पि एमेव इत्थ विण माणं । मूढेयरभावजोएणं ॥१२३८॥ पं०व०। अह तथाऽसवणमिणं, न च बहूनामप्यत्र-लोक अविगानम्-एकवाक्यतारूपं शो सि एअमुन्छिम्प साहं तु ।। १२४३ ॥ भनमिति नियमः नच स्तोकावामपि न शोभनं मूढतरभा- ण य तव्ययणाओ चिय, चयोगेन मूढानां बहूनामपि न शोभनममूढस्य त्वकस्यैवति तदुभयभावो त्ति तुल्लभणिईओ। भावः ॥ १२६ ॥ प्रति०॥ अम्मा वि कप्पणेवं, ण य रागाऽऽइविरहिओ, को विपमाया विसेसकारि ति] साहम्मविहम्मत्रो दुट्ठा ॥ १२४४ । अथ तद्वदाङ्गं खलु द्विजप्रवर्तकमित्याशङ्कयाह-न तदपि जं सब्बे वि य पुरिसा, म्लच्छप्रवर्तकमवमेव बेद इत्यत्रापि न मानम् , अथ तत्र रागाऽऽइजुश्रा उ परपक्खे ॥१२३६।। पं०व० वदे अश्रवमिदम्-मानम् , न हि तद् वेदे श्रूयत इत्याशङ्कनच सगादिविरहितः कोऽपि माता-प्रमाता विशषकारी पाह-स्थादेतत्-उत्स(च्छि)नशाखमेवैतदपि सम्भाव्यतइति विशेषकृत् यत् सर्वेऽपि पुरुषा रागादियुताः परपक्ष-पर गाथार्थः ॥ १२४३ ।। न च तद्वचनाद-वेदवचनादव तदुभनये मीमांसकस्य सर्वज्ञाऽनभ्युपगन्तृत्वात् ॥१३०॥ यभाया-धर्मादोपभाव इति, कुत इत्याह-भणितेः, म्लेच्छवदोषान्तरमाह (प्रति०।) चनादवैतदुभयमित्यपि वक्तुं शक्यत्यादित्यर्थः, अन्याऽपि कल्पना ब्राह्मणपग्गृिहीतत्वादिरूपा एवम्-उक्नवत् भिल्लएवं च वयणमित्ता, परिगृहीतवादिना प्रकारण साधम्यवैधय॑तः कारणात् दुधम्मादोसा ति मिच्छगाणं पि । ऐति गाथार्थः ॥ १२५४ ॥ पं०व०। घाएंताण दियवरं, यस्मादेवम् (प्रति०)पुरो नणु चंडिगाऽऽईणं ।। १२४०॥ पं०व०। तम्हा ण वयणमित्तं, । एवं च प्रमाणविशेषाऽपरिज्ञान सति बचनमात्रात् सका सवन्थ विसेसनो बुद्द जगणं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (७०) भागम अभिधानराजेन्द्रः। मागम एत्व पवित्तिणिमित्तं, अदिस्सकत्तिगंणो, ति एय दट्ठव्वयं होइ॥ १२४५॥ पं०व०। असं मुन्वइ कहं णु आसंका। तस्मात्र वचनमात्रमुफ्पत्तिशून्य सर्वत्राऽविशेषतः कार सुव्वइ पिसायवयणं, णात् बुधजनेन-विद्वज्जनन अत्र लोके प्रवृत्तिनिमित्तम कयाइ एयं तु ण सदेव ॥१२८॥ पंच०॥ द्रष्टव्यं भवति ॥ १३६ ॥ प्रति०। अदृश्यकर्तृकम् 'नो' वैवान्यत् श्रूयते कथं चाशद्वेति विषकिं पुरण विसिट्टगं चिय, क्षादृष्टरित्यर्थः । अत्राह-थूयते पिशाचवचनं, कथंचन-कदाजं दिद्विवाहि णो खलु विरुद्धं । चित् लौकिकमेतत्तु वैदिकमपौरुषेयं न सदैव श्रूयते ॥१७॥ तह संभवंस(त) , __यथाभ्युपगमदूषणमाह (प्रति०)बियारिलं सुद्धबुद्धीए॥१२४६॥ पं०व०॥ वया र पोरसेवं, किं पुनः विशिष्टमेव वचनं प्रवृत्तिनिमित्तमिह द्रष्टव्यं, लोइयवयणाण ऽवीह सव्वेसि । किं भूतं यत् होणाभ्यां न खलु विरुद्ध, तृतीयसंस्थानसं- वेबम्मि को विसेसो, क्रान्तमित्यर्थः । तथा संभवत्स्वरूपं यत्, न पुनरत्यन्तासं जेण तहिं एस ऽसम्गाहो ॥१२८२॥ पंवा भवि विचार्य शुद्धबुद्धया मध्यस्थयति गाथार्थः ॥ १३७ ॥ वर्णाद्यपौरुषर्य लौकिकवचनानामह सर्वेषां , वर्णत्वादि- प्रति वाचकव्वादेः पुरुषैरकरणात् , वेदे को विशेषो येन तत्रैषोsजिनागमस्यैव च सम्भवद्गत्वं, तदितरस्य चाऽसम्भवदू सद्ग्राहोऽपौरुषेयत्वासद्ग्रह इन्ति ॥१७३ ॥ प्रतिः । पत्यम्-- ण य णिच्छो वि हु तो, बह संभवतरूवं, जुञ्जइ पायं कहं चि सणाया। सब्बं सव्वन्नुवयणगो एयं। जं तस्सत्थपगासणतं णिच्छियं हि आगम विसएह अइंदिया सत्ती ॥१२८३ ॥ पं० व०॥ पउत्तगुरुमंपदाएहि ॥१२७७॥ पव०॥ न च निश्चयोऽपि ततो वेदवाक्यात् युज्यते प्रायः क्वचिदतथा संभवढपं सर्व सर्वशवचनत एतत् , तनिश्चितं हि वस्तुनि सम्न्यायात् यद्-यस्मात्तस्य वदवचनस्यार्थप्रकाशताऽऽगमप्रयुक्तगुरुसंप्रदायेभ्यः ॥ १६८ ॥ प्रति०। नविषयगक्रमेऽतीन्द्रियाशक्किरिति गाथार्थः ॥१७॥ प्रतिः। वेयवयणं तुणेवं. णो पुरिसमित्तगम्मा , ___ अपोलसेयं तु तं मयं जेयं । । तदतिसओ वि हुण बहुमओ तुम्हें । इयमच्चंतविरुद्धं. लोइयवयणेहिंतो, वयणं च. अपोरिसेयं च ॥१२७८।। १०व०।। दिटुं च कहिंचि वेहर्म ॥१२८४॥ पं०५०। वेदवचनं तु नैवं संभवत्स्वरूपम् , अपौरुषयमव तम्मतम् | न पुरुषमात्रगम्या एष तहतिशयोऽपिन बहुमतो युष्माइदमत्यन्तविरुद्धं वर्तत, यदुत वचनं चाऽपौरुण्यं चेति कम् अतीन्द्रियदर्शी लौकिकवचनेभ्यः सकाशाद ट च कगाथार्थः ॥ १६ ॥ थंचिद्वैधयं वेदवचनानामिति गाथार्थः ॥ १७५ ॥ प्रति। एतद्भाबनायाऽऽह (प्रति)जं. कुच्चा त्ति वयणं, ताणि ह पोरुसेयाणि, अपोरुसेयाणि वेयवयणाणि । पुरिसाभावे उणेयमेयंति। ता तस्सवाऽभावो, सग्गुव्वसिपमुहार्ण, णियमेण अपोरुसेयत्ते ॥१२७६।। दिवो तह अत्थभेोऽवि ।। १२८५॥ पं०५०। यत्-यस्मात् उच्यत इति वचनम् इत्यन्वर्थसंज्ञा पुरुषाभा तानीह पौरुषेयाणि लौकिकानि अपौरुषेयाणि वेदवचनाव तु नैवमतत्, नोच्यत इत्यर्थः तत्तस्यैव वचनस्याऽभावो। नीति वैधयं, स्वर्गोवघ्रप्रमुखानां शब्दानां दृष्टः; स्तथार्थभेनियमेनापयत्वे सत्यापद्यते ॥१७०॥ प्रतिः । दोऽपि, एवं च य एव लौकिकास्त एव चैदिकाः, स एवै पामर्थ' इति यत् किंचिदेतत् ।। १७६ ॥ प्रतिः। तव्वावारविरहियं, ण य तं सहावो चिय, ण य कत्थह सुब्ध इह तं क्यणं । सत्वपगासणपरं पईवो व्य । सवणे वि य णाऽऽसंका समयविभयाऽजोगा, अदिस्सकन्तुब्भवाध्वेद ॥१२८०॥ पं०व०।। मिच्छत्तपगासजोगा य॥१२८६ ॥ पं०१०। तयापारविरहितं न च कदाचित् श्रूयते इह च लोके, श्रवणेऽपि च नाऽऽशङ्का अदृश्यकत्रुद्भवापति, प्रमाणाभावादिति न च तद्वेदवचनं स्वभावत एव स्वार्थप्रकाशनपरं प्रदीपवत, गाथार्थः ॥ १७१ ॥ प्रति०। कुत, इत्याह-समयविभेदाऽयोगात्-संकेतभेवा उभाषात Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। भागम मिथ्यात्वप्रकाशयोगाच्च, कचिदेसदापत्तेरिति भावः ॥१७७॥ भवतोऽपि च सर्वज्ञः सर्व भागमपुरस्सरः येन कारणम तदाह (प्रति०) स्वर्गकेषलार्थिना तपाध्यानादिकर्तव्यमित्यागमः अतः प्रवृत्ते इंदीवरंमि दीवो, रिति, तदसावपौरुषेयः, इतरः अनादिमत् सर्वज्ञोऽनागमापगासई रत्तयं असंतं पि। देव कस्यचित्तमन्तरेणापि भावादितिगाथार्थः ॥ १८३ ।। प्रति० । चदो वि पीपवत्थं, योभयमवि जमणाई, अवलं विन णिच्छमो तत्तो ॥१२८७॥पं०व०। बीयंऽकुरजीवकम्मजोगसम.।। इन्दीवरे दीपः प्रकाशयति रक्ततामसतीमपि चन्द्रोऽपि पीतवसं धवलमिति प्रकाशयति न निश्चयस्ततो वेदवचनाद् अहवऽत्थतो उ एवं ज्यभिचारिण इति गाथार्थः ॥ १७ ॥ प्रति। __ण वयणो वत्तहीणं तं ॥१२६३ ॥ पं० ० । एवं णो कहियाऽऽगम अत्रोत्तरम्-'नो'नैतदेवमुभयमप्यागमः सर्वशश्च यद्यस्मादनापोगमुरुसंपयायभावोऽवि । दिबीजाहरजीवकर्मयोगसम न छत्रेदं पूर्वमिदं नेति व्यवस्था ततश्च यथोक्नदोषाभावः, अथवा-प्रथत एन बीजारादिजुञ्जइ सुहो इहं खलु, न्यायः सर्व एव कथंचिदागममासाच सर्वशो जातः तदर्थव नाएणं छिन्नमूलत्ता॥१२८८ ॥ पं०व०।। तत्साधक इति न वचनतो-न वचनमेवाश्रित्य मरुदेव्यादीएवं न कथिताऽऽगमप्रयोगगुरुसंप्रदायभावोऽपि प्रवृत्त्या- नां प्रकारान्तरेणापि भावात् । तद्वचन वाधीनं नत्वनाद्यभूतो युज्यते यत इह खलु वेदवचने न्यायेम, 'छिन्नमूलत्वात्' । पि वक्तारमन्तरेण वचनप्रवृत्तरयोगात् । तदर्थप्रतिपत्तिस्तु तथाविधयाचनासंभवादिति गाथार्थः ॥१७॥ प्रति। क्षयोपशमादेरविरुद्धा, तथा दर्शनादेतत्सूक्ष्मधिया भावनीण कयाइ इमो कस्सइ, यम् ॥ १८४ ॥ प्रति। इह णिच्छयमो कहिं चि वत्थुम्मि । बेयवयणम्मि सवं, जाओ त्ति कहइ एवं, णारणासंभवंतरूवं जं. । - जंसो तत्तं स वामोहो ॥ १२८६ ॥ पं०व०। ता इयस्वयणसिद्धं, नकदाचिदतो-वेदवचनात् कस्यचिदिह निश्चय एव क्वचि. वत्थु कहं सिझई तत्तो ॥१२६या पं० ॥ इस्तुनि जात इति कथयति एवं सति यदसौ वैदिकस्तत्त्वं वेदवचने सर्वमागमादिन्यायेनाऽसंभवद्रूपं यद्-यस्मात् स व्यामोहः स्वतोऽप्यज्ञात्वा कथनात् ॥ १८० ॥ प्रति। तत्-तस्मादितरवचनात्सिद्धं सद्रूपवचनसिचं वस्तु हिंसातत्तो पागमो जो, दोसादि कर्थ सिध्यति ततो--वेदवचन्मदिति गाथार्थः विणयसत्ताण सो वि एमेव । ॥ १५ ॥ प्रति। तस्स पोगो चेवं, (भागमस्य च स्वरूपतिपादकस्यापि प्रामास्यम्) नच स्वरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यम्, प्रमाण जनकत्वस्य अणिवारणगं च णियमेणं ॥१२६०॥ पं०व०। सद्भावात्। तथाहि-प्रमाजनकत्वेन प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृततश्च वैदिकाददागमो यो व्याख्यारूप विनेयसरवानां त्तिनिवृत्तिजनकत्वेन तछेहास्त्येव प्रवृत्तिनिवृत्ती तु, पुरुषस्य संबन्धी सोऽप्यवमेव व्यामोह एव तस्याऽऽगमार्थस्य प्रयो सुखदुःखसाधनत्वाध्यवसाये समार्थस्यार्थित्याद्भवत इति । गोऽध्येवमेष-व्यामोह एव अनिवारणं च नियमन व्यामोह अथ विधावकत्वादमीषां प्रामाण्यं न स्वरूपार्थत्वादिति चेत्, एषति गाथार्थः॥१॥ प्रति०। तदसत , स्वार्थप्रतिपादकत्वेन विध्यत्वात्, तथाहि-स्तुतेः शवं परंपराए, स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वं,निन्दायास्तु निवर्तकत्वमिमाणं एत्थ गुरुसंपयायो वि। ति । अन्यथा हि-तदर्थापरिक्षाने विहितप्रतिषिप्ढेष्वविशेषण रूवविसेसट्ठवणे, प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात्तथाविधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपाजह जच्चंधाण सव्बेसि ॥ १२६१॥ पं०व०॥ दनद्वारेणव पुरुषप्रेरकत्वं दृष्टम् एवं स्वरूपापरेचफिवाक्येषु स्यात् , वाक्यस्वरूपताया श्रविशेषात् विशेषहेतोश्वाऽभानैवं परंपरायां मानम् , अत्र च व्यतिकर गुरुसंप्रदायोऽपि वादिति । तथा-स्वरूपार्थानामप्रामाण्ये " मेध्या श्रापो निदर्शनमाह-सितेतरादिरूपविशेषस्थापने कथा जात्यन्धानां दर्भाः पवित्रम् , अमेध्यमशुची" त्यवस्वरूपापरिज्ञान विध्यपर्वषामनादिमताम् ॥ १८२॥ तायामध्यविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिमसः, न चैतदस्ति; पराऽभिप्रायमाह (प्रति०) मेध्येष्वेव प्रवर्तते अमेध्यषु च निवर्तते इत्युपलम्भात् । तदेवं भवतो वि य सम्वन्नू, स्वरूपार्थेभ्यो वाक्यभ्योऽर्थस्वरूपावबांधे सति इष्टे प्रवृत्तिसव्वो आगमपुरस्सरो जेणं । दर्शनात् अनिष्ठेच निवृत्तरिति ज्ञायते-स्वरूपार्थानां प्रमाता सो अपोरुसेओ, जनकत्वना प्रवृत्ती निवृत्ती वा विधिसहकारित्वमिति, अप रिज्ञानानु प्रवृत्तावतिप्रसङ्गः । अथ स्वरूपार्थानां प्रामाण्ये इसरो वाऽणागमा जो उ ॥ १२१२॥ पं०व०। "ग्रावाणः प्रबन्ते" इत्येवमादीनामपि यथाऽर्थता स्यात्, न; Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) भागम भभिधानराजेन्द्रः। प्रागम मुख्य बाधकोपपत्तेः। यत्र हि मुख्य बाधक प्रमाणमस्ति प्रतिपत्तिविषयेऽनुमानमपि प्रवृत्तिमासादयतीति प्रतिपातत्रोपचारकल्पना, तदभावे तु प्रामाण्यमेव । न चेश्वरसद्भाव- | दितम् । तथा प्रत्यक्षानुमानप्रतिपन्नेऽप्यात्मलक्षणेऽर्थे तस्य प्रतिपादनेषु किंचिदस्ति बाधकमिति स्वरूप प्रामाण्यमभ्यु - घा प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धलक्षणे किमित्यागमस्य प्रवृम्तव्यम् । सम्म०१ काण्ड १ गाथाटी । त्तिर्नाभ्युपगमस्य विषयः । नचाऽऽगमस्य तत्राप्रामाण्य(मूलाऽऽगमैकदेशभूतस्य चागमान्तरस्यापि प्रामाण्यम् )- मिति वक्तुं युक्त, सर्वप्रणीतत्वेन तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थाऐदंपर्य शुध्यति, यत्रासावागमः सुपरिशुद्धः। पितत्वात् । संम्म०१ काण्ड १ गाथाटी। आगमप्रमाणश्च प्रमाणान्तरे नान्तर्भवति तथा चाऽत्र शतदभावे तद्देशः, कश्चित्स्यादन्यथा ग्रहणात् ॥ १२॥ पदंपर्य-तात्पर्य पूर्वोक्तं शुध्यति-स्फुटीभवति यत्राऽऽगमे भागमोऽपि नाऽनुमानाद् भिद्यते, परमार्थतस्तस्याप्यनुमानअसावागमः सुपरिशुद्धः-प्रमाणभूतस्तदभावे-ऐदंपर्यशुध्य त्वात्तथाहि- शाब्दं प्रमाणमागमः' उच्यते-शब्दश्च द्विविधोभाव तद्दशः-परिशुद्धाऽऽगमेकदेशः कश्चिद-अन्य भागमः दृष्टार्थविषयः,अदृष्टार्थविषयश्च । तत्र दृष्टार्थविषया शब्दाद् स्यान्नतु मूलागम एव अन्यथाग्रहीत् मूलाऽऽगमैकदशस्य या प्रतीतिः,सा वस्तुतोऽनुमानसमुत्थैव. यतः क्वचित्प्रथम सतो विषयस्यान्यथा प्रतिपत्तर्यतः समतामवलम्बमानास्ते पृथुबुध्नोदरो_कुण्डलोष्ठायतवृत्तग्रीवादिमति घटपदार्थे घ. ऽपि तथेच्छन्ति । टशब्दं प्रयुज्यमानं दृष्ट्वा तदुत्तरकालं कापि घटमानयेमूलाऽऽगमव्यतिरिक्ने तदेकदेशभूत भागमे ऽन्यथा परिगृ त्यादिशब्दं श्रुत्वा पृथुबुध्नोदरादिमदर्थ एव घट उच्यते, हात द्वेषो विधेयो न वेति, तदभावप्रतिपादनायाह तथाभूतपदार्थे एव घटशब्दप्रयोगप्रवृत्तेः, यथा पूर्व कुम्भतत्राऽपि च न द्वेषः, कार्यो विषयस्तु यत्नतो मृग्यः। कारापणादौ घटशब्दश्चायमिदानीमपि श्रूयते तस्मात्तथातस्यापि न सद्वचनं, सर्व यत्प्रवचनादन्यत् ॥१३॥ भूतस्यैव पृथुबुध्नोदरादिमतः पदार्थस्य मया आनयनातत्रापि च-तदेकदेशभूत श्रागमान्तरे न द्वषः कार्यो-न दिक्रिया कर्त्तव्या इत्यनुमान विधाय प्रमाता घटानयनाद्वेषो विधेयो विषयस्त्वभिधेयशेयरूपो यत्नतो-यत्नेन मृ- दिक्रियां करोति, इत्येवं दृष्टार्थविषयं शाब्दं प्रमाणं वस्तुतो ग्यः-अन्वेषणीयो यद्यवं सर्वमेव तद्वचनं किं न प्रमाणीक्रियत नानुमानाद्भिद्यत । विशे० १५५२ गाथाटी। इत्याह-तस्याप्यागमान्तरस्य न सत्-शोभनं वचनं सर्वम्- (८) आगमप्रमाणस्यानुमानप्रमाणेऽन्तर्भावःअखिलं यत्प्रवचनात्-मूलाऽऽगमादन्यत् यत्तु तदनुपाति त. काणादाः-शब्दोऽनुमानं व्याप्तिग्रहणबलेनार्थप्रतिपादत्सदेवेति । कत्त्वाद्धमवदिति । तत्र हेतोरामुख कूटा कूटकार्षापणकस्मात्पुनस्तत्राऽद्वषः क्रियत इत्याह निरूपणप्रवणप्रत्यक्षण व्यभिचारस्तथाभूतस्यापि तत्प्रत्यअद्वेषो जिज्ञासा, शुश्रूषा श्रवणबोधमीमांसाः । क्षस्यानुमानरूपताऽपायात् । श्राः कथं प्रत्यक्ष नाम भूत्वा परिशुद्धा प्रतिपत्तिः, प्रवृत्तिरष्टाङ्गिकी तच्चे ॥१४॥ व्याप्तिग्रहणपुरस्सरं पदार्थ परिछिन्द्यात् ? उन्मीलितं हिच. लोचनं जातमव परीक्षकाणां कुटाकुटविवेकेन प्रत्यक्षमितिक अद्वषः-अप्रीतिपरिहारस्तत्त्वविषयस्तत्पूर्विका शातुमिच्छा व्याप्तिग्रहणावसर इति चेत् , तदेवान्यत्रापि प्रतीहि । तथाजिज्ञासा तत्त्वविषया शानेच्छा तत्त्वजिज्ञासा सा पूर्विका हि-समुच्चारितश्चद्ध्वनिः, जातमव जनस्य शब्दार्थसंवेदनबांधाम्भःथोतसः शिराकल्पा श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा तत्त्वविष- मिति क व्याप्तिग्रहणावकाश इति । एवं तर्हि नालिकरद्वी यैव । तत्त्वशुश्रूषानिबन्धनं श्रवणम्-अाकर्णनं तत्त्वविषयमेव पवानोऽपि पनसशब्दात्तदर्थसंवित्तिः स्यादिति चेत् , किं ना. बोधः-अवगमः परिच्छेदो विवक्षितार्थस्य श्रवणनिबन्धन- परीक्षकस्यापि कार्यापणे कूट कृटविवेकन प्रत्यक्षात्पत्तिः ।। स्तत्त्वविषय एव मीमांसा सद्विचाररूपा-बोधानन्तरभाविनी अथ यावानेतादृशविशेषसमाकलितकलेवरः कापिणः तातत्वविषयैव । श्रवणं च बोधश्च मीमांसा च श्रवणबोधमी- वानशपः कूटोऽकृटो वा निष्टङ्कनीयस्त्वया; इत्युपदेशसाहायमांसाः। परिशुद्धा-सर्वतो भावविशुद्धा प्रतिपत्तिर्मीमांसो- कापक्ष चक्षुरादि तद्विविक कौशल कलयति; नचापरीक्षकत्तरकालभाविनी निश्चयाकारा परिच्छित्तिरिदमिदमेवेति स्यायं प्राक्प्रावर्तिष्ठति चेत् तर्हि शब्दोऽपि यावान् पनसतस्वविषयैव । प्रवर्तनं प्रवृत्तिरनुष्ठानरूपा परिशुद्धाप्रति- शब्दस्तावान् पनसार्थवाचक इति संवित्तिसहायस्तत्प्रतिपत्त्यनन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव, प्रवृत्तिशब्दो द्विरावय॑ते पादने पटीयान् । न च नालिकरद्वीपवासिनः प्रागिय प्रादुतेनायमों भवति । तत्त्वे प्रवृत्तिरष्टभिरङ्गैनिवृत्ताष्टाङ्गिकी ए- रासीदिति कथं तस्य तत्प्रतीतिः स्यात् ?। अथैतारशभिरद्वेषादिभिरभिरङ्गैस्तरवप्रवृत्तिः संपद्यते तेनाऽऽगमान्तरे | संवदनं व्याप्तिसंवेदनरूपमेव , तदपेक्षायां च शब्दार्थक्षामूलाऽऽगमैकदशभूते न द्वषः कार्य इति । षो०१६ विव०। । नमनुमानमेव भवेदिति चेत्, कूटाकूटकार्षापणविवेकप्रत्यक्ष(७) प्रमाणान्तराविषय एव पदार्थो नाऽऽगमेन बोध्यते | मपि किन तथा । तत्रापि तथाविधोपदशस्य व्याप्त्युलकिन्तु प्रमाणान्तरविषयोऽपि स्वस्वरूपत्वात् । अथ व्याप्तः प्राक् प्रवृत्तावपि तदानीमभ्या"न ह्यागमसिद्धाः पदार्था" इति, प्रत्यक्षस्यापि प्रतिक्षेपी सदशापन्नत्वनानपक्षणात्प्रत्यक्षमवैतत्तदपक्षायां तु भवत्यवैयुक्तः । यदपि प्रत्यक्षानुमानाविषय चार्थे आगमप्रामाण्य- तदनुमानं , कूटोऽयं कार्षापणः, तथाविधविशषसमन्वितवादिभिस्तस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्यते-तदुक्तम्-" आम्ना- त्वात्यापेक्षितकापापणवत् , इति चेत् ,एतदेव समस्तमन्ययस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम् ।" (जैमि० १-२- | त्रापि तुल्यं विदांकरोतु भवान् । न खल्वभ्यासदशायां को१। ) इति तदप्य युक्तम् । यता यथाप्रत्यक्षप्रतीतऽप्यर्थे वि- । ऽपि व्याप्ति शन्देऽप्यपक्षते, सहसैव तज्ज्ञानोत्पत्तः। अनभ्या. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम " सेतु को नाम मानुमाननां मन्यते । यथा कस्यचिद्विस्त संकेतस्य कालान्तरे पनसशब्दश्रवणे, यः पनसशब्दः स आमूलफले प्रदिविगविषयाचका वधा दत्तकः - प्राक्तनस्तथा चायमपि देवदत्तोक्त इति । एवं च पचैकदेशे सिध्यसाध्यता, शब्दोऽनुमानमित्यत्र सकलवाचकानां प क्षीकृतानामेकदेशस्यानुमानरूपतया स्वीकृतत्वात् । यस्त्वागमरूपतया स्वीकृतः शब्दस्तत्राभ्यासदशापन्नत्वेन व्याप्तिप्रणय नास्ति । अन्यथा कुटाकूट का प्रत्यक्षण व्यभिचारापत्तेः तथा च देतोसद्धिः । एवं च ( शब्दत्वस्य व्याप्तिग्रहणानपेक्षत्वे सिद्धे ) विवादास्पदः शब्दो नानुमार्ग सामग्री का फूटा फूटापविवेकप्रत्यक्षवदिति सिद्धम् । किं च वाचामनुमानमानता मातम्यामो ऽसौ कथं पक्षधर्मसादिकमादयत् । चैत्रः ककुदावन गोशब्दाचारणा, अमिन इतीत्यमिति चेत्, सन्तो विवक्षामात्रस्यैव प्रतीतिः स्यात्, तथा च कथमर्थे प्रवृत्तिर्भसिद्धिरिति यत् मैयम् अस्वाद्यनि चारात् नाप्तानामन्यथापि तदुपलब्धः । अथ यथाप्रांताच्छम्हाराचाद्यावज्ञातोऽवार्थसिद्धिष्यतीति चेत् सः स्वम्। किं प्रतीपशब्द सत्यां प्रतीस्यन्तराव्यवहितस्यैवार्थस्य संवेदनात्, यथा लोचनव्यापारे यति रूपस्य अपि सवितारकस्वनामहापातकं क्रियतां नाम, यदि नान्या गतिः स्यात् श्रस्ति चेयं शब्दस्य स्वाभाविकावश्यक भाव संबन्धद्वारेवार्थप्रत्यायकत्वाप - पतेः स्वाभाविक सामर्थ्य समयान्यामि " स्यादिसूत्रे निर्देयते । 66 ( ७३ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 उदाहरन्ति समस्त्यत्र प्रदेशे रत्नांनधानं, सन्ति रसानुप्रभूतय इति ॥ ३ ॥ 9 यस्मालीकिकजनकादिलो कोच रती करायपेक्षया क मेोदादरी। रा० ४ परि० । अत्राह मीमांसकः- “ शब्दज्ञानादसन्निकृष्टेर्ये बुद्धिः शाब्दम् " - ( १-१-५ । शाबरभा० ) इति वचनात् " शब्दादुदेति यद् ज्ञान-मप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि । शाब्दं तदिति मन्यन्ते, प्रमाणान्तरवादिनः ॥ १॥ इतिलक्षणलक्षितस्य प्रमाणान्तरस्य सद्भावात् कथं द्वे एव प्रमाणे ? । न चास्य प्रत्यक्ष प्रमाणता सविकल्पकत्वात् माध्यनुमानता विरूपलिङ्गाभवत्यात् अनुमानयोचराविषयत्वाच तदुक्रम्-"तस्मादनुमानत्वं शाब्द प्रत्यक्षयद्भवेत्। वैरूप्यरक्षितस्थन, तारविषयवर्जना स्" (लो० वा० शब्द० ६८ ) । तथाहि न शब्दस्य पक्षधर्मत्वं धर्मिणोऽयोगात् । नचार्थस्य धर्मित्वं तेन तस्य संबन्धासिसेः । तथैताशब्दस्य प्रतीतिः संभविनी प्रतीते चार्थेन तद्धर्मताप्रतिपत्तिः शब्दस्योपयोगिनी ताममारेप्यर्थस्य प्रागेव प्रतीतेः अन्यथा तस्य तद्धर्मतया प्रतीस्पयोगात् । भवतु पार्थो धर्म तथापि किं तत्र साध्यमिति चक्लव्यं ?, सामान्यमितिचेत्, नः तस्य धर्मिपरिच्छेदकाल एव सिद्धत्वात् । तदपरिच्छेदे धर्मिपरिच्छेदायोगाद् "नागृ : १६ आगम 1 पिता विशेष्य बुद्धिः" इति न्यायात् न च सामान्य धर्मि अविशेषस्तत्र साध्यो धर्मः उपाननिकमा । विशेषस्य चान्या अ-शत्रो धर्मी अर्थवानिति साध्य धर्मः शब्द एव च हेतुः, नः प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वप्राप्तः । श्रथ शब्दत्वं इतुरिति न प्रतिज्ञायैकदेशत्वं दोषः नः शब्दत्वस्यागमकत्वात् गोशब्दत्वस्य च निषेत्स्यमानत्वेनासिद्धत्वात् । अत एवानुमानयिताऽपि न शाब्द संभवति तदु लम् " सामान्यविषयत्वं द्दि, पदस्य स्थापयिष्यते । धर्म धर्मविधि, लिङ्गीयतच साधितम् ॥ न तावदनुमानं हि यावत्तद्विषयं न तत् । अथ शब्दो ऽर्थवस्वन, पक्षः कस्मान कल्प्यते । दिहेतुस्तत्र प्रसज्यते । " " पछे धूमविशेषे हि सामान्यं हेतुरिष्यते। शब्दत्वं गमकं नाथ गावं निषेत्स्यते । गोशब्दत्वं व्यक्तिरेव विशेष्याऽतो, तोश्चैका प्रसज्यते " इति । (लो० बा० शब्द० ५५-५६, ६२, ६४ ।) शब्दस्य चार्थेन संबभावतो बथान पक्षधर्मत्वं तथाऽन्योऽपि प्रमेये व्या पाराभावतोऽसङ्गत एव । तदुक्तम् अन्ययो न च शब्दस्य प्रयेण निरूप्यते । व्यापारेण हि सर्वेषा-मन्येतृत्वं प्रतीयेते । यत्र भूमीऽस्ति तत्राने रस्तित्वेनान्वयः स्फुटः । नये पत्र शब्दोऽस्ति तत्राऽस्तीति निश्रयः । वात् यत्र देशेऽसी व तत्कालेऽवगते । भवेत्यविभुयात् सर्वाप्यपि तत्समम् । ते पतिरेकस्य चागतः । सर्वदेशेषार्थप्रतिपत्तिः प्रसज्यत" (० पा० शब्द० ६५-६६ ) अन्वयाभाव व्यतिरेकस्याप्यभावः, उक्क्रं च "अविनायक कथं भवेत्-" इति संयमनुमानलक्षणाभावात् शाब्दं प्रमाणान्तरमेव । सम्म० २ काएड १ गाथाटी० । ** " अत्र प्रतिविधीयते यत्तावत् शाब्दस्य त्रैरूप्यरहितत्वेन वादविषयाभावाचानुमानानन्तयप्रतिपाद्मध्यधायि तद् युवानुमान युक्तः कुतः पुनः रा ब्दाद्भवस्य ज्ञानस्याप्रामाण्यं ?, शब्दस्यार्थप्रतिबन्धाभावात् । न हि शब्दोऽर्थस्य स्वभावः अत्यन्त मेदात् नापि कार्ये तेन विनाऽपि भावात् । न च तादात्म्यतदुत्पत्तिव्यतिरिक्तः संबन्धी गमकत्वनिवन्ति न च तयाद्वावप्रतिपक्रियक्रियकानां प्रपानामिवार्थप्रकाशकत्वं संपति न च व्यवस्थितैवार्थप्रतिपादनयोग्यता संकेतेन शब्दस्याभिव्यज्यत इति पुरुषाशादन्यत्रार्थे शस्य समया वृश्यिते च पुरुषाशास्यापि विषये शब्दानां प्रवृत्तिः न च पुरुषच्छावृत्तिः समयद्धः तदभावेऽपि तस्य प्रवृत्तः । न च संकेतमन्तरेण शब्दस्य वस्तुप्रत्यायकत्वं संकेताभावप्रसक्के प्रीतशब्दानां पुनरथांव्यभिचारे उप्पातीतस्थानियवान पुनराप्तस्यैवासंभवात् । तदसंभवबाधकप्रमाणानावात् । तत बाह्य विषये शब्दानां प्रतिबन्धाभावतः प्रमाण्यमंत्र न संभवति Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) भागम भभिधानराजेन्द्रः। श्रागम पक्षधर्मवाद्यसंभवादनुमानत्वाभावप्रतिपादनं युक्तमेवेति बुद्धिरुत्पद्यते तस्मा-द्भिन्ना साऽप्यक्षबुद्धिवत् ॥" स्थितम् । यत्र तु वक्त्रभिप्रायसूचने प्रामाण्यमस्य तत्रानुमा- (श्लो० वा. शब्द प० श्लो०१०१)तथानलक्षणयुक्तस्यैव नान्याग्भूतस्यति न प्रमाणान्तरत्वम् ।। "वाक्येष्वदृष्टाप सार्थकषु. सम्म०२ काण्ड १ गाथाटी। पदार्थचिन्मात्रतया प्रतीतिम् । (६) आगममधिकृत्योक्नम् दृष्टानुमानव्यतिरकभीताः । तस्य च जीवाऽजीवादिलक्षण दृष्टविषये वस्तुतत्वे सर्वदा क्रिष्टाः पदाभेदविचारणायाम् ।” अविसंवादात् अरएविषयेऽप्येकवाक्यतया प्रवर्तमानस्य च (श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १११) इति । प्रामाण्यं प्रतिपत्तव्यम् । न च धक्त्रधीनत्वात् तस्य असदतत् ; एवं कल्पनायां पदार्थानामपि वाक्यार्थप्रतिपअप्रामाण्यं वक्त्रधीनत्यप्रमाणत्वयोर्विरोधाभावाद्वक्त्रधी तिहेतुस्वासंभवात् । तथा हि-'घटः पटः कुम्भः' इत्यादिपनस्यापि प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यापलब्धेः न चाक्षजस्वाद्वस्तुप्रति दभ्यो यथाऽन्योन्याननुपलस्वतन्त्र सामाभ्यात्मकार्थप्रतिपत्तिबद्धत्वेन तत्र प्रामाण्यं न शाब्दस्य विपर्ययादिति बक्तव्य स्तथासंबजपदसमूहश्रवणादपि किंन सथाभूतसामान्यप्रशाब्दस्य अत एव प्रमाणान्तरत्वोपपत्तेः अन्यथा अनुमाना तिपत्तिर्भवेत् ? नहि ततः सामान्यमात्राऽधिगमे तत्परित्यादविशेषप्रसङ्गात् । तथाहि-गुणवद्वक्तप्रयुक्तशब्दप्रभयत्वा- गतो विशिष्टार्थप्रतिपत्तौ निमित्तमस्ति न वापेक्षा-सन्त्रिदेव शाब्दम् अनुमानशानाद्विशिष्यते अन्यथा बाह्यार्थ धानादिकं पदार्थानां तत्प्रतिपत्ती निमित्तं पदार्थस्य पदाप्रतिबन्धस्यात्रापि सद्भावात् नानुमानादस्य विशेषः स्यात्। र्थान्तरं प्रत्युत्पत्तौ प्रतिपत्तौ वाऽपेक्षादेरयोगात् तस्य सायदा च पराक्षऽपि विषयेऽस्य प्रामाण्यमुकन्यायात् तदा मान्यात्मकत्वेनोत्पत्तरसंभवात् स्वपदेभ्य एव प्रतिपत्तेस्तगुणवक्तृपयुक्तत्वनास्य प्रामाण्यम् अतश्च गुणवद्वक्तृप्र- प्राणि पदार्थान्तरापेक्षाद्यनुपपत्तेः । अर्थशक्ति एव ततो युक्तत्वमितीतरेतराश्रयदोषोऽपि नाऽत्राबकाशं लभते विशेषप्रतिपत्तिरितिचेत् तर्हि पदार्थानामेकार्थसंभवा प्रयथोकसंवादादस्य प्रामाण्यनिश्चये । कुतोऽयमस्यात्र सं. तिपत्तिर्यस्य तस्यापि ततस्तत्प्रतिपत्तिर्भवेत् । न च साबादः इत्यपेक्षायाम् आप्तप्रणीतत्वादित्यवगमो न पुनः माम्यत्यागे किंचिनिबन्धनं बाधकाभावात् सत्यथित्वे उप्रथममेव तत्प्रणीतत्वनिश्चयादस्यार्थप्रतिपादकत्वं प्रतिबन्ध- भयप्रतिपत्ति-प्रवृत्ती स्याताम् । न च वाक्यार्थप्रत्यय एव निश्चयादनुमानस्येव नापि दृष्टविषयाविसंवादिवाक्यैक- बाधकस्तेन तस्य विरोधाभावात् सामान्यविशेषयोः साहवाक्यतां विरहय्य अदृष्टार्थवाक्यैकदेशस्यान्यतः कुतश्चि- चर्यात् सामान्यप्रत्ययस्य च विशेषप्रतिपत्ति प्रति निमित्तप्राक् संवादित्वनिबन्धनस्य प्रामाण्यस्य निश्चयोऽभ्यासाव त्वाभ्युपगमात् निमित्तस्य च निमित्तिना अबाध्यत्वाद् अस्थायां तु आप्तप्रणीतत्वनिश्चयात् प्रवृत्तिरदृष्टार्थवाक्यान्न न्यथा तस्य तन्निमित्तत्वायोगाद् । अथ प्रागप्येवमयं व्युवार्यत इति कुत इतरतराऽऽश्रयाऽवकाशः, त्पादितः-यत्र पदार्थानामकद्रव्यसंभवस्तत्र पदार्थसामान्य(एकान्तिकं वाच्यखरूपं निरसितुं लडादेरर्थविचारपक्षाः)- त्यागाद्विशेषः प्रतिपत्तव्यो यथा नीलोत्पलादी, नन्वेवं सर्वएकान्तवादिवाक्याच दृष्टार्थेऽपि विसंवादिनः सर्वथा वाक्यान्यस्य व्युत्पादितान्येव भवन्ति । तथाहि-यः कश्वित् अप्रवृत्तिरेव निश्चितविसंवादाङ्गल्यग्रहस्तियूथशतप्रतिपा- संभवदेकद्रव्यार्थनिवेशः पदसमूहः स संकेतसमयावगतदकवाक्यादिवत् नाकान्तवादिवचनानां वाच्यं संभत्युि- सामान्यात्मकावयवार्थपरित्यागतस्तेषामेव विशेषणविशेकम् । यतः सामान्य वा तद्वाच्यं भवेत् , विशेषो वा.उभयम् , ध्यभायेन विशिष्टाऽर्थगोचरः प्रतिपत्तव्यो, यथा 'नीलोत्पलं अनुभयं वेति विकल्पाः । न तावत्सामान्यं तस्येतरव्यावृ- पश्य ' इत्यादिपदसंघातः, तथा चायमपूर्ववाक्यात्मकः पसप्रतिनियतैकवस्तुरूपत्वायोगात् । शब्दवाच्यत्वे घटाया- वसमुदाय इति संकेतमनुसृत्य यदा ततस्तथाभूतमर्थ प्रनयनाय प्रेरितः सर्वत्र प्रवर्तेत न वा क्वचिद् भेदनिबन्धन- त्येति तदा कथं न विशिष्टार्थवाचकं वाक्यम् ? अनेनैव च त्वात् प्रवृत्तः सामान्यस्य अनक्रियाकारितया च प्रवृ- क्रमेण शब्दविदा समयव्यवहार उपलभ्यते । यथा-' धात्तिनिवन्धनवायोगात् । अथापि म्याद्यदाऽयं प्रतिपत्ता स्वादिः क्रियादिवचनः, कीदिवचनश्च लडादिः' इति सवाक्यमश्रुतपूर्व शृणोति तदा पदानां संकेतकालानुभूताना- मयपूर्वकं प्रकृति-प्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह ब्रूत' इति व्युत्पादिमथै सामान्यलक्षणमेव प्रतिपद्यते या तु वाक्यार्थप्रतिपत्तिः तोऽनक्रियाकारित्वेन सामान्यमात्रस्य विशेषनिरपेतस्य सा अपेक्षासन्निधानाभ्यां विशेषणविशेष्यभावात्पदार्थप्रति- प्रतिपादयितुमनिष्टेः तत्परित्यागन व्यवहारकाले विशेषपत्तिनिवन्धना न पुनस्तता वाक्यात तथाविधस्य तस्य मवगच्छति ब्यवहारी । न व प्रकृतिप्रत्ययार्थावेवात्र पदार्थ स्वार्थेन सह संबन्धापतिपत्तेः वाक्यमेव च प्रवृत्तिनिवृ- प्रतिपादयतो न पदमिति मन्तव्यम् । तिव्यवहारक्षम न पदं तस्यानक्रियाकारिसामान्यप्रति- "अशाब्दे वाऽपि वाक्याथें, न पदार्थेष्वशाब्दता। पादकत्वेनाऽप्रवृत्त्यङ्गत्वाद् । अत एव न विवक्षापूतिभा- वाक्यार्थस्येव नैतेषां, निमित्तान्तरसंभवः ॥" (श्लो० वा. सनमप्यर्थ प्रतिपादयन्तः शब्दा अनुमानतामासादयन्ति वाक्याधि० श्लो० २३०) इत्यस्य विरोधप्रसक्नेः । न च अगृहीतप्रतिबन्धादपि वाक्यविशेषात् यथोक्लन्यायतो वा- वाक्यस्य वाक्यार्थे संकेतकरणेऽनुमानात् शाब्दस्याऽविक्यार्थप्रतिपत्तेः । अनेनैवाभिप्रायेण सौगता वाक्यगतां शेषप्रतिपत्तिः, विशेषस्य प्राक् प्रतिपादितत्वात् । केवलस्य चिन्तामनाहत्य पदमेवानुमाने अन्तर्भावितवन्तः । उक्नंच च पदस्य प्रयोगानहत्वाद्वाक्यस्य तु प्रयोगाईस्य सामामीमांसकैः न्यानभिधायकत्वात् कथं सामान्य शब्दार्थ: स्यात् ।। "वाक्यार्थे तु पदार्थेभ्यः, संबन्धानुगमाढते । यस्तु पूर्वपदाऽनुरञ्जितं पदमेव वाक्यं पदार्थ एव पदार्था Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागम अभिधानराजन्द्रः। भागम न्तरविशेषितो वाक्यार्थोऽभ्युपगतः। तथाहि-'दण्डी' 'छत्री'. यमर्थ विवक्षन्ति ते तथैवं तं प्रतिपादयन्ति,अन्यविवक्षायास्यादिव्यपदशं यथा पुरुष एव समासादयति नान्यस्तद्वय- मध्यन्यशब्दोच्चारणदर्शनाद्विवक्षायाश्च बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वातिरिक्त तथा 'अपाक्षीत् ' 'पचति' 'पक्ष्यति' इत्याद्यतीत- नुपपत्तरेकान्ततः । तत्र शब्दादपि प्रमाणादादिवाक्यरूपात् कालाद्यवच्छिनः क्रियाविशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते- प्रयोजनविशषांपायप्रतिपत्तिः तदप्रतिपत्तौ च तेषां ततः प्रवृ 'अपाक्षीद्' इत्यादिशब्दानां देवदत्तशब्देन सामानाधि- त्तौ प्रेक्षापूर्वकारिताव्यावृत्तिप्रसङ्गात् । प्रयोजनविशषोपायकरण्यात्-न तु तद्धनिरिक्तोऽर्थः अथ यद्यत्र कालाद्यव संशयोत्पादकत्वेन प्रवृत्त्यङ्गत्वादादिवाक्यस्य सार्थकत्वम् । च्छिन्नपुरुप एच प्रतीयते तदा 'अग्निहोत्रं जुहुयात् ' 'ग्राम तथाहि-अर्थसंशयादपि प्रवृत्तिरुपलभ्यते,यथा कृषीवलादीगच्छ' 'स्वाध्यायः कर्तव्य' इति लिट्-लाद-कृत्य-प्रयो नां कृष्यादावनवगतशस्यावाप्तिफलानाम्। अथ अबीजादिवि गेषु कस्यार्थस्य प्रनीतिः ? अत्रापि कर्माण नियुक्तः क्रिया वेकेनावधृतबीजादिभावतया निश्चितोपायाः। तदुपेयशस्याविशिऽश्यषणादिविशिएश्व देवदत्त एव प्रतीयते केवलं वाप्त्यनिश्चयेऽपि तत्र तेषां प्रवृत्तियुका न पुनः शास्त्रश्रयवर्तमानादिकाला न विशेषणत्वनाऽत्रावतिष्ठते । णादावुपयप्रयोजनविशेषानिश्चयवत्तदुपायाभिमतादिवाक्यअथ यदि नात्रातिरेकावगतिर्भावसंपादने कथं पुरुषः प्र प्रत्याय्योपायनिश्चयस्याप्यसंभवाद्, अयुक्तमेतत् । यतो यथा वर्तते ? यशा हि देवदत्तः पचति इत्यादिवाक्यान्न प्रवर्तते शस्यसंपत्त्यादौ फले कृषी बलादेः संदहः तथा तदुपाया. तथा 'जुहुयाद्' इत्यस्मादपि नैव प्रवत्तेत प्रवृत्ति निमित्तस्या भिमतबीजादावपि, अनिर्वतितकार्यस्य कारणस्य तथानवयोधात् , असदेतत् : जुहुयाद'इत्यादिवाक्य जनितविज्ञा- भावनिश्चयायोगात् । तत्र यथाकृष्यादिकं संशय्यमानोपानस्यैव प्रवर्तकत्वात् प्रवृत्तस्तद्भावभावित्वेनोपलम्भाद् एत यभावं प्रवृत्तिकारणं तथा शास्त्रमप्यादिवाक्यादनिश्चितोद्वाक्यसमुत्थं ज्ञान पुरुष स्वर्गादिसाधने नियोजयदुपलभ्यते न पायभावं किं न प्रवृत्तिकारणमभ्युपगम्येत इति चेद् , 'पचति' प्रादिवाक्यसमुत्थम् । तथाहि-बिध्यादिवाक्यजनि असदेतत् आदिवाक्योपन्यासः शास्त्रप्रयोजनविषयसंशसमानानन्तरमिच्छा तदनन्तरं प्रयत्नः तदनन्तरं च पुरुषस्य योत्पादनार्थ संशयोऽपि च निश्चयविरुद्धः-अनुत्पन्न च स्वगादिफलार्थः परिस्पन्दस्ततोऽपि फलपर्यन्ता स्वर्गफला- निश्चये-तत्राप्रतिबद्धप्रवृत्तिहेतुतया प्रादुर्भवन् केन वार्यते बाप्तिः इत्यभिधानात् । तेऽपि अयुक्तिकारिणः एकान्तपक्ष वि- आदिवाक्योपन्यासमन्तरेणापि ?, विशषण-विशेष्ययोरत्यन्तभेदे अभेदे वा विशेषणानुरागस्य अथाश्रुतप्रयोजनवाक्यानां प्रयोजनसामान्ये तत्सत्त्वेतरापद-पदार्थेषु असंभवाद्वाक्यार्थकल्पनादरनुपपत्तः श्रत एव भ्यां संशयो जायत-'किमिदं चिकित्साशास्त्रवत्सप्रयोजनम् 'अपातीदेवदत्तः' इत्यादी न कालक्रियाविशिष्टपुरुषप्रतिपत्तिः उत काकदन्तपरीक्षावनिष्प्रयोजनम् ततश्च संशयादनुपम्यरते क्रियादेः पुरुषानेदे संघन्धाऽसिद्धितो व्यवच्छेदकत्वानुप प्रयोजनवाक्ये प्रयोजनमामाभ्यार्थिनः प्रवर्ततां प्रयोजनविपत्तः अभेदऽध्यकस्य तायिकविशेषणविशष्यरूपतासंगनेः। शेषे तु कथमश्रुतप्रयोजनवाक्यानां संशयान्पत्तिः? प्रायण अन्यथाऽतिप्रमङ्गात् । कल्पनारचितस्य तदृपत्वस्य सर्वत्रावि- च प्रयोजनविशेषविषयस्यव संशयस्य प्रवृत्तिकारणत्वात् शपात् विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तेश्च अन्यनिमित्तत्वात् विरोधादि- तदुपादनायादिवाक्यमुपादेयम् अतश्च प्रयोजनसामान्यदोषस्य च तत्र प्रागेव प्रतिविहितत्वादेतेन लिड़ादियुक्रवा- विशेषेषु संशयानाः 'किमिदं सप्रयोजन उत निष्प्रयोजन क्यजनितविज्ञानस्य प्रवर्तकत्वमकान्तवादिप्रकल्पितं प्रति- सप्रयोजनत्वेऽपि किमभिलषितेनैव प्रयोजनेन तद्वद् इति क्षिप्त तद्भावभावित्वस्य अन्यथासिद्धत्वप्रतिपादनात् । पक्षपरामर्श कुर्वाणाः प्रवर्तन्ते असदतत्। कुत्रचिच्छासम्म० ३ काण्ड ६३ गाथाटा। स्वादनुभूतप्रयोजनविशेषं श्रोतारं प्रति प्रयोजनवाक्यस्या(१०) (शब्दस्य बाह्याथै प्रामाण्यं शास्त्रप्रयोजनमधि नुपयांगात्-स हि किंचिच्छास्त्रमुपलभ्य प्रागनुभूतप्रयो जनविशेषण शास्त्रेणास्य वाक्यात्मकत्वेन साधर्म्यमवधात्यानम् ) येदमपि निष्प्रयोजनम् उत-अनभिमतप्रयोजनवद् उताऽभीयदि प्रक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ प्रयोजनप्रतिपादनायादिवाक्यमु टप्रयोजनवद्वा इत्याशङ्कमानः प्रयोजनवाक्यमन्तरेणापि पादीयत तदा ते प्रतापूर्वकारित्वादवाप्रमाणक नैव प्रवृत्ति प्रवर्तत एव अननुभूतप्रयोजनविशेषस्तु प्रयोजनवाक्यादपि विदधति । नच प्रयोजनातपादकमादिवाक्यं तत्प्रभवं वा नैव प्रवर्तते, तं प्रति तस्यापि तदुत्पादकत्यायोगात्-न हि हानं प्रमाणम् अनक्षजत्वेनाध्यक्षवायोगात् ।। प्रागननुभूतशास्त्रप्रयोजनविशेषः 'प्रयोजनप्रतिपादकं वाक्यनाऽप्यनुमान स्वभावकार्यलिङ्गसमुत्थं तद्भावत्वेन तत्कार मेतदर्थमि' त्यपि प्रतिपतुं समर्थोऽपरयत्नमन्तरेण । नाप्यणत्वन वा तत्प्रत्याय्य प्रयोजनस्य प्रमाणतोऽप्रतिपत्तेः तदु नुभूतविस्मृतप्रयोजनविशेषः प्रयोजनवाक्यात्संस्मृत्य तद्विस्थापकस्य लिङ्गस्य तत्कायवानवगमाद, अन्यस्य च स्वसा. शर्ष संशयानः प्रवर्तत, तद्राहितशास्त्रादपि तविशेषे ध्याप्रतिबन्धाद् अप्रतिबनस्य च स्वसाध्यव्यभिचारणाग स्मृतिसंभवात् नियमेन तु नोभाभ्यामपि तदनुस्मरण मकत्वात् , तत्व बाऽनिप्रसङ्गात् । तत्प्रतिबद्धत्वेऽप्यनिश्चि भवति, तथाऽपि प्रयोजनवाक्यस्य ततः स्मृतिहेतुत्वत तप्रतिबन्धस्यातिप्रसङ्गत पब अगमकत्वात्। उपन्यासे श्रन्यस्यापि तद्धताः किं नोपन्यासः ? सामान्यन च याकमिदं प्रवत्तमानं स्वमहिनव स्वार्थ प्रत्यायतीति विशेषयोश्च दर्शनाऽदर्शनाभ्यां विशेषस्मरणसहकारिभ्यां शब्दप्रमागरूपत्वात्स्वाभिधपप्रया जनप्रतिपादने प्रमाणम् , संशयाः, न च प्रयोजनवाक्यं प्रयोजनविशेषस्य भावाऽभाशब्दस्य बाहाऽर्थ प्रतिबन्धासंभवनाप्रामाण्यात् । विवक्षायां वयोः सामान्यम् । अथ विवक्षापरतन्त्रत्वात् स्वार्थतथाप्रामागसगितस्या या ह्यापिनानावित्वायांयात् । नापिये भावाऽतथाभावयोरपि प्रयोगसंभवात्सामान्यमेव वाक्यं, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम अमिधानराजेन्द्रः। प्रागम शास्त्रमपि तर्हि शास्त्रान्तरसादृश्यात्प्रयोजननिवृत्युपायत्वा. प्रयोजन तदुपन्यस्तस्य साधनस्यासिद्धिारति बक्तं शक्यं, उनुपायत्ययाः सामान्यम्-अन्यतरनिश्चयनिमित्ताभावात्ततः शास्त्रश्रवरमतः प्रयोजनाबगम शास्त्रस्यादौ तद्वाक्यापन्यासंशयानः प्रवर्ततां किमकिंचित्करप्रयोजनवाक्येन ? न च सस्य वैययप्रसक्नः । अत एव "शास्त्रार्थप्रतिज्ञाप्रतिपासामान्यस्य विशेषस्य च दर्शनाऽदर्शनाभ्यामव यथाक्नाभ्यां दनपरः आदिवाक्योपन्यासः"( ) इत्याद्यपि प्रतिक्षिप्तम् , संशयः, किं तु-साधक-बाधकप्रमाणावृत्तापि; सा च अप्रमाणादादिवाफ्यात्तदसिद्धेः । तथा-संबन्धाभिधेयप्रत्याप्रयोजनवाक्योपन्यासाऽनुपन्यासयोरपि संभवत्यव। यनपराण्यपि वाक्यानि शास्त्रादौ वाङ्मात्रण निश्चयाया मा भूसंशयोत्पादनन वाक्यस्य शास्त्रश्रवणादिप्रवृत्ती गानिष्प्रयोजनानि प्रतिक्षिप्तान्येव. उनन्यायस्य समानसामध्यें, किंतु-प्रकरणारम्भप्रतिषधाय 'नारब्धव्यमिदं त्वात् । तदयुक्तम् 'समय' इत्याद्यभिधेयप्रयोजनप्रतिपादकप्रकरणम्, अप्रयोजनत्वात् , काकदन्तपरीक्षाबद्' इति (अस्य काण्डस्य द्वितीय) गाथासूत्रम् । व्यापकानुपलब्धसिद्धतीद्भावनाय तदुपन्यास इति चत्, (उत्तरपक्षः-आदिवाक्योन्यासस्य सार्थकत्वसमर्थनम् )एतदप्यसत् । यतः शास्त्रप्रयोजनं वाक्यनाप्रदर्शयता तद- अत्र-प्रतिविधीयते-यदुनं न प्रत्यक्षमनुमानं वा शब्दः तत्र सिद्धिरुद्भातयितुमशक्या, वाक्यस्याऽप्रमाणतया प्रयो- सिद्धसाध्यता, प्रत्यक्षानुमानलक्षणयोगात्तत्र । यश्च 'नापि' जनविशेपसद्भावप्रकाशनसामाभावात् । न च सप्रयो- शब्दः प्रमाणे बहिरर्थे नस्य प्रतिवन्धवैकल्यन, विवक्षायां तु जनत्वतरयोः परस्परपरिहारस्थितयोः कुतश्चित्प्रमाणादेक प्रतिबन्धेऽपि यथाविवक्षमर्थासंभवात् , तदप्यसारम् , बाभावाप्रतिपत्तावितराभावप्रतिपत्ति:-अतिप्रसङ्गात्-येन या- ह्याथेन शब्दप्रतिबन्धस्य प्रसाधयिध्यमारसत्यात् तत्रैव च क्यमात्रस्योपक्षेपेण देतोरसिद्धिः स्यात्। नाक कुतश्चि- प्रतिपत्ति-प्रवृत्त्यादिव्यबहारस्योपलभ्यमानत्वाद्वाहार्थे एवं प्रयोजनविशपमुपलभ्यमानेन स्वयमुपलब्धप्रयोजनविशण शब्दम्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् प्रत्यक्षवत् । न चार्थीपलम्भोपायमप्रदर्शयता कर्तुमशक्या प्रसिद्धनाद्भावना व्यभिचारित्यप्रामाण्यनिश्चयवनां ततः प्रवर्तमानानां प्रेक्षावाक्यस्याप्रमाणस्य हेतुप्रतिपक्षभूनार्थोपस्थापना अशक्त पूर्वकारिताक्षतिः । न चाऽनाप्तणीत ' सरित्तटपर्यस्तगुडस्थापन्यासमात्रेणासिद्धेरयोगात् । नाऽप्यनिबन्धना प्रति शकट पटुवाक्यविशिष्टतानवगमानातः प्रवृत्तिः प्रत्यक्षामापांत्तः, अतिप्रसङ्गात् । साम्प्रत्यक्षम्यवानाप्तपणीतवा क्यादस्य विशिएतावसायात् : यस्य तु न द्विशिधावसायो नासावतः प्रयतत अनवधृतहेअथ यद्यप्यप्रमाणघाद्विपरीतार्थोपस्थापनमुखनासिद्धता स्वाभाविकाद्धेतोरिवानुयाक्रियार्थी । न चाप्तानां परमिदं नाद्भावयति । तथापि शास्त्रस्य निष्प्रयोजनता संदिग्धा हिनप्रतिबद्धपयामानां प्रमाणभूतत्वात्म्बयामागा प्रबअतः, संदिग्धनिष्प्रयोजनत्वम्य शाखस्य प्रयोजनाभावं निश्चित प्रेक्षाबदारम्भप्रतिषेधहेतुं प्रयुञ्जानोऽनेन वाक्येन प्रति तयितुं प्रभवतां प्रयोजनवाक्यापन्यासयथ्य सुनिश्चिताक्षप्तुमिष्टः न पुनः प्रयोजनविषयानश्चय एवोत्पादयितुमिष्टः, सप्रणीतवाक्यादपि प्रतिनियतप्रयोजनार्थिनां तदुपायानिश्चये नदि प्रतिपक्षोपपेणेव साधनधाणाममिद्धिः अपि तु तत्र प्रवृत्ययोगात् नच प्रयोजनविशेषप्रतिपादकवाक्यमस्वग्राहिशानविकलनया संदिग्धधम्मसंबन्धित्वमध्यसिद्ध न्तरणाऽऽप्तपणीतशास्त्रस्यापि शिषप्रतिपादकत्वनिश्चयः स्वमव. तस्मात्संदिग्धसिद्धतोद्भावनाय वाक्यप्रयोग इति, यन तन, एव तदर्थिनां तत्र प्रवृत्तिः स्यात् तदनभिमतप्रयो जनप्रतिपादकानामपि तषां संभवाद्। सदप्यनुपपन्नम् : यथाहि-सप्रयोजनत्ये संदहोत्पादन वाक्यस्यानुपयोगित्वं-शास्त्रमात्रादपि भावात्-तथा नियोजन अत:--" यत्र खल्याप्तः । इदं कर्तव्यम् ' इति पुरुषाः स्वेऽपि एवं ह्यनन वाक्यन हतारसिद्धतोद्भाविता भवति प्रतीततदाप्तभावा नियुज्यन्ते तत्रावरिततत्प्रेरणाऽतथायदि तत्सत्तासंदेहनिबन्धनानि कारणान्यपि तदेव प्रकाशि भावविषय विचारास्तदभिहितं वाक्यमव बहु मन्यमाना तानि भवन्ति । न च विपर्यस्तप्पसंदेहोत्पादन तद्वाक्यं प्र. अनाहतप्रयोजनपरिप्रश्नाः एव प्रवर्तन्त विनिश्चिततदाभवति, प्रदर्शनात् । नव प्रस्तुतशास्त्रस्य प्रयोजनयत् शाखा तभावानां प्रत्यवस्थानासंभवात् "( ) इति निरस्तम , स्तरेण कथंचित्साम्यारलाधक-बाधकप्रमाणाप्रवृत्तितश्चान्या श्रामप्रवर्तितप्रतिनियतप्रयोजनार्थिजनप्ररणाचाक्यस्यैव प्रनि संदेहकारगानि संभवन्ति,वाक्यमप्येतावन्मात्रप्रकाशनप योजनवाक्यत्वनिश्चयाद् अन्यथाऽभिमतफलार्थिजनप्रेरकरं हताः संदिग्धासिद्धनामुद्भावयेत् . तच्च तथापकाशनमनु- वाक्यस्याप्तपयुकत्वमवानिश्चितं स्याद् अभिमनाथप्रेपभ्यस्तऽपि वाक्य शास्त्रमात्रादपि दर्शनात् प्रमाणद्वयावृत्तेश्च रकस्याबगताप्तवाक्यत्व चातिप्रसङ्गः, न चाप्तवाक्यादगि भयतीति कस्तस्योपयोगः ? अनुपन्यस्ते कथं तदिति चत् . प्रतिनियनप्रयोजनाधिनस्तदवगम तत्र प्रवर्नितुमुन्सहन्ते, उपन्यम्तऽपि कथं नहि सदुपभ्यासाऽनुपम्यासाऽवस्थयोः प्रांतप्रसङ्गादवति सुप्रसिद्धम् । अर्थसंशयोत्पादकत्वेन चासंदिग्धत्वात्प्रस्तुतात्कथंचन विशष पश्यामः ? असिद्धतो- दिवाक्यस्य प्रवर्तकन्यप्रतिक्षेप सिद्धनासाधनम् , व्याद्भावनमनन भ्यायन सर्यमेवासमिति चेत् . नैतत् । पकानुपलब्धेस्त्यास द्धनाद्भावनमादिवाक्यानिश्चितबाह्यार्थनह्यनन प्रकारणासिद्धाद्भावनमय प्रतिक्षिप्यंत, किंतु प्र- प्रामाण्यात् युक्रमेव,यथा च नत्र तस्या(तस्य)प्रामारायं तथा माणहिताहाङ्माबादसिद्धता नाद्भावयितुं शक्यति प्रद- प्रतिपादयिष्यामः । अत एव-"श्राप्ताभिहितत्वासिद्धरविश्यते । तन्न प्रयोजनवाका हेत्वसिद्धताद्भावनार्थमपि युक्तम् । संवादकत्वायोगादप्रमाणत्वाभानिश्चयनिमित्ताभावादप्रवनत्र पगपन्यस्त साधन प्रयोजनवाक्पनासिद्धतामुद्राव्य | र्तकत्वं प्रयोजनवाक्यस्य प्रक्षापूर्वकारिणः प्रति" ) कथमसिद्धिः साधनस्येति प्रत्यवस्थानवन्तं शाखपरिस- इति । यदुच्यते तदपि प्रतिव्यद दृष्टव्यम् । सम्म. १ माप्तः प्रयोजनमयगमयन् शास्त्रं श्रावयति । ततः समधिगते काण्ड २ गाथाटी। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) अहः शब्दार्थ इति बौद्धाःननु च - समयपरमार्थविस्तर -इत्यनेनाऽऽगमस्याकस्थितो बाह्य पनि शब्दार्थोध वास्तवः सं बन्ध निर्दिधः नियमप्येतद्युक्तः प्रमावाधितवाद - नियोजाः । तथाहि परमार्थतः किंचिद्वा व स्वस्वरूपमस्ति सर्व एव हि शादयत्ययों भ्रान्तः भि शेष्वर्थेष्वभेदाकाराध्यवसायेन प्रवृत्तः । यत्र तु पारंपर्येण वस्तुप्रतिबन्धस्तत्रार्थसंवादो भ्रान्तत्वेऽपि तत्र यत्तदारोपितं विकल्पबुद्राऽर्थेष्वभिन्नं रूपं तदन्यव्यावृत्तपदार्थानुभवलायनत्वात्स्वयं नान्यस्यापुणतया प्रतिभासनाद् भ्रापार्थेन साध्यवसितत्यात् अन्यापो पदार्थाधिगतिफलत्याच अन्यापोह इत्युच्यते। अतः अ पदार्थ इति प्रसिद्धम् । " ( ' विधिरव शब्दस्यार्थः ' इति विधिवादिमतस्य संक्षिप्य प्रतिस्थापनम् - ( ७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । अत्र विधियादिनः प्रेरयन्ति यदि भवतां द्रव्य-गुणकर्म-सामान्यादिलानि विशेषानि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तानि परमार्थता न सन्ति कथं लोके ' दरडी इत्याद्यभिधानप्रत्ययाः प्रवर्तन्तं द्रव्याद्युपाधिनिमित्ताः, तथा दिदी बिपाणी इत्यादिधीनी लांक यो पाधिको प्रसिद्धौ शुक्लः कृष्णः' इति गुणेोपाधिकौ 'चलति भ्रमति' इति कर्मनिमित्तौ, अस्ति विद्यंत इति सत्तानिमित्तकौ, 'गौः अश्वः ' इति सामान्यविशेपपाची, इद्द तन्तुषु पटः' इति समवायनिमित्तः । (ती) । तत्रैषां द्रव्यादीनामभावे 'दण्डी इत्यादिप्रत्यस्पानाम्नानिमितायुक्री, सर्वदा तयोरांवशेष प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । नचाविभागन तयो प्रवृत्तिरस्ति तस्मात्सन्ति द्रव्यादयः पारमार्थिकाः प्रस्तुनप्रत्ययविषया " 4 प्रमाणयन्ति चात्र परस्परातले निमि दाः, यथा धोत्रादिकी, इत्यादिशब्दप्रत्यया इति खनापतः । अनिमित्य सर्वश्राविशेषधि प्रमाणम् । (विधिचादिम सविस्तरं पयताम् अपेयादिनां म तस्य निर्देशः ) - अत्र यदि पारमार्थिकाद्यविषयभूतेन निमितेन सनि मित्तश्वमेषां साधयितुमिष्टं तदा श्रनैकान्तिकता देतोः साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् । श्रथ येन केनचिनिमित्तेन सश्चिमिनित्वमिष्यते तदा सिद्धिसाध्यतां । तथाहि-- श्रस्माभिरपीष्यत एवैषामन्तर्जल्पवासनाप्रबोधो निमित्तं नतु विषयभूतम् भ्रान्तत्वेन सर्वस्य शा ( शब्दप्रत्ययस्य निर्विषयत्वात् । तदुक्तम्" येन येन हि नाम्ना वैया यांमध्यते न स संवियते तत्र प सा हि धर्मता" ( ) इति । , 9 नच शाब्दप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वाऽविषयत्वयोः किं प्रमाणमिनियम निषेध्वमेदाध्ययसायन प्रयमानस्य - त्ययस्य भ्रान्तत्वात् । तथाहि यः तस्मिस्तद्' इति प्रत्ययः स भ्रान्तः, यथा मरीचिकायां जलप्रत्ययः, तथा वायं भिवष्यदाच्यावसायी शास्यः प्रत्यय इति - आगम 9 भावहेतुः । न च सामान्यं वस्तुभूतं ग्राह्यमस्ति येनासिद्धतास्य हेतोः स्यात् तस्य निषिद्धत्वात् । सम्म० १ काण्ड २ गाथाटी० । (इतोऽग्रे 'सह' शब्दे सप्तमे भागे ३४० पृष्ठ द्रव्यम्) इतश्च-स्वलक्षणव्यपदेश्यं शब्दबुद्धौ तस्याः प्रतिभासनात् । यधाहि उष्णाद्यधेविस्फुरप्रतिभासानुभूत न तथा उच्चादिशब्दप्रभवा महपतनयनादया मालि दिशामा भवन्ति यथानुपद्दतनयनादयः अक्षवुद्धद्यानुभवन्तः । यथोक्तम्- " अन्यथैवाग्निसंबन्धादाभिमते अन्यथा शब्द दा हार्थः संप्रतीयते " ( वाक्यप० द्वि० का० लो० ४२५ ) न च यो पत्र न प्रतिभाति स तद्विषयेऽभ्युपयुक्तः अतिप्रसङ्गात् । तथा च प्रयोगः- यो यत् कृतप्रत्यये न प्रतिभासते न स तस्यार्थः यथा रूपशब्दजनिते प्रत्यये रसः, न प्रतिभासते च शाब्दप्रत्यय स्वलक्षणम् इति व्यापकानु पलब्धिः । अत्र चातिप्रसङ्ग बाधकं प्रमाणम् । तथाहिशब्दस्य तद्विपयज्ञानजकत्वमेव तद्बाधकत्वमुच्यते नान्यत्, वच यद्विषयं ज्ञानं यदाकारशून्यं तत्तद्विषयं युक्तमतिप्रसङ्गात् । न चैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्ति स्पष्टम् अस्पष्टं च येनाsस्पष्ट वस्तुगतमेव रूपं शब्दैरभिधीयते एकस्य द्वित्वविरोधात् । मिश्रसमयस्थायिनां व परस्परविरुद्धस्वभावप्रतिपादनात् न शब्द गोचरः स्वलक्षणम् । सम्म० १ काण्ड २ गाथा | (२२) शब्दार्थविचारः , • यो कि हुज सुई, विषाणं वत्धुभेओ वा ।। १६००॥ जाई दव्वं किरिया, गुणोऽहवा संसओ तो जुचो । अयमेवेति न वा यं, न वत्थुधम्मो जो जुत्तो॥१६०१॥ सचिय सव्यमयं सपरप्पडायच जच्ओ निययं । सव्वमसव्वमयं पय, विचित्तरूवं विवक्खाओ ।। १६०२ ।। सामविसेसम, तेण पयत्थो विवक्खया जुत्तो । वत्थुस्स विसरूचो पजाया बेक्खया सन्चो ।। १६०३ ।। अर्थः श्रुतिः-शब्दो भवेत् यथा भरी-पटह- ढक्कादीनां श सदस्य शब्द एवार्थः अथवा यद् घटादिसमुचारिते तदभिधेयाविषयं ज्ञानं भवदृश्यत तत्तेषामर्थ किं वाघदसमुपृथुयुध्नोदाचाकारवान घट लक्षन पादः इत्येवं यो वस्तु सामर्थः यदि वा किं जातिरमीषामथों यथा गोशब्दे समुचारिते गोजातिरवसीयते यदिया कि इउपमेयार्थी यथादयत्यादिषु किं वा धावतीत्यादीनामिव धावनादिक्रिया श्रमीषामर्थः अथवाकिं शुक्रादीनामियानाम इति । अन संशयस्तथाऽयुक्रां यस्माद्यमेव नैव पापमि कस्यापि वस्तुनो मम्मो ऽवधारवितुं न युक्रः । शब्दोऽपि वस्तुविशेष एव ततः एवंभूतस्यार्थस्यामभिधायको नैव वा इत्थंभूतस्यार्थस्यायं प्रतिपादकः' इत्येवमेतद्धर्मस्वाध्यवचारयुकमेव कृतः इत्याह-यं वियेत्यादि यस्मात्समाकादिकं वस्तु नियतं निधि 3 , - " Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रागम अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम परपर्यायः सर्वात्मकमेव सामान्यविवक्षयत्यर्थः । तथा-सर्व- एवं वाचकमणि शब्दाख्यं द्वयात्मकम् सामान्य-विशेषामसर्वमयमप्यस्ति विविक्तरूप सर्वतो व्यावृत्तम्। कया? इत्या. मकम् ) । सर्वशब्दव्यक्तिप्यनुयायिशब्दत्याग शासशाङ्गह-विवक्षया. केवलस्वपर्यायापेक्षयेत्यर्थः. विशपविषययति तीवमन्दादातानुदात्तस्वरितादियिशषभदादनकम् । शब्दस्य तात्पर्यार्थः । तस्मात्सर्वेपामणि पदानां विवक्षावशतः सा- हि सामान्यविंशषात्मकत्वं पौगलिकत्वाद्वयक्तमव, तथाहिमान्यमयो विशेषमयश्च पदार्थो युक्तः, न पुनरकान्तेनेत्थंभूत पौगलिकः शब्दः, इन्द्रियार्थवादृपादिवत् यच्चास्य पौनएव. अनित्थंभूत एवं वेतिकुतः ? इत्याह- वत्थुस्सेत्यादि,' लिकत्वनिधाय स्पर्शशू याश्रयत्वादनिनिविडप्रदेश प्रयशयस्मात्सवाऽपि वाच्यस्य वाचकस्य या वस्तुनः स्वभाव: निर्गमयारप्रतिघातात्पूर्व पश्चाच्चावयवानुपलब्धः सूक्ष्मपर्यायापक्षया विश्वरूपा नानाविधी वर्तत । ततश्च सा- मूर्त द्रव्यान्तरापरकत्वादगनगुणत्वाच्नति पञ्च हेतधो यौमान्यविवक्षायां घटशब्दः सर्वात्मक वात्सर्वेषामपि द्रव्य- गैरूपन्यस्तास्ते इत्याभासाः, तथाहि-शब्दपर्यायस्याश्रयो गुणक्रियाद्यर्थानां वाचकः विशेषविवक्षया तु प्रतिनियत भाषावर्गगगान पुनराकाशं तत्र च स्पर्टी निमीयत एव । रूपत्वात् य एवास्यह पृथबुधनादरायाकारखानों वाच्य- यथा शब्दाश्रयः स्पर्शवान् । अनुवातप्रतिवातयार्षिकृष्यनितया रूढस्तस्यैव वाचकः । पवमन्याऽपि शब्दो विशेष- कटशरीरिणापलभ्यमानानुपलग्यमानन्द्रियार्थत्वात्तथाविधविवक्षया या यत्र दशादौ यस्यार्थस्य वाचकतया रूढः स गन्धाऽऽद्याधारद्रव्यपरमाणुवत् । इत्यसिद्धः प्रथमः । तस्य वाचको द्रव्यः । सामान्यविवक्षया तु सर्वः सर्वस्य द्वितीयस्तु गन्धद्रव्येण व्यभिचारादनकान्तिकः वर्तमानवाचकः सबै सर्वस्य वाच्यमि' त्यनया दिशा सकलं स्व- जात्यकस्तूरिकादिगन्धद्रव्यं हि पिहितद्वारापवरकस्यान्तधिया भावनीयमिति । विश० विशति, बाहश्च निर्याति । नचापौलिकम् । अथ तत्र सूक्ष्म(१३) अथ स्वाभिमतसामान्यविशेषोभयात्मकका- रन्ध्रलभवान्नातिनिविडत्वम् । अतस्तत्र तत्वशनिष्कमा कच्यवाचकभावसमर्थनपुरस्सर तीर्थान्तरीयप्रकाल्पततदे- थमन्यथोद्घाटितद्वारावस्थायाभिव न तदेकाणेवत्वं ? सर्वकान्तगोचरवाच्यवाचकभावनिरासद्वारेण तेषां प्रतिभाव- था नीर, तु प्रदशे न तयोः संभवः । इति चत्तहि शब्द भवाऽभावमाह प्येतत्समानम् । इयसिद्धो हेतुः। तृतीयस्तु तडि(विधु)लतो. अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं, ल्कादिभिरनैकान्तिकः । चतुर्थोऽपि तथैव; गन्धद्रव्यविशेष सूक्ष्मर जाधूमादिभियभिचारात् । नहि गन्धद्व्यादिकमपि द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् । नासायां निधिशमानं तद्विवरद्वारदेशोद्भिन्न थुप्रेरक अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लृप्ता दृश्यते । वतावकानां प्रतिभाप्रमादः ॥ १४ ॥ पञ्चमः पुनरसिद्धः । तथााह-न गगनगुणः शब्दः : शम्म व्याख्या-बाच्यम्-अभिधेयं चतनम् अचतनं च वस्तु एव. दादिप्रत्यक्षवाद्रपादिवद्। इति सिहः पौद्गालकत्वात्साकारस्याप्यर्थत्वात् सामान्यरूपतया एकात्मकपि व्यक्नि मान्यविशपात्मकः शब्द इति । नच वाच्यम्-"प्रात्मभ्यभेदन अनकम-अनेकरूपम् । अथवा-अनेकरूपमपि एका पौद्गालकऽपि कथं सामान्यविशेषात्मकत्वं निर्विवादमनुस्मकम् अन्योन्यसंबलितत्वादित्थमपि व्याख्यान नदोषः । भूयते , इति; यतः संसार्यात्मनः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्तकर्मतथा च वाचकमभिधायक शब्दरूपं तदध्यवश्यं निश्चितं परमाणुभिः सह वह्नितापितधनकुट्टितनिर्विभागपिराडीभूतद्वयात्मक, सामान्यविशेषोभयात्मकत्वादकांनकात्ममित्य सूचीकलापवल्लालीभावमापन्नस्य कथंचित्पौद्गलिकत्याभ्यथः।(उभयत्र वाच्यलिङ्गत्वेऽप्यध्यक्तत्वानपुंसकत्वम्। अवश्य नुज्ञानादिति । यद्यपि स्याद्वादवादिनां पौगलिकम् अपौद्मिति पदं वाच्यवाचकयोरुभयोर प्यनेकात्मकत्वं निश्चिन्व लिकं च सब वस्तु सामान्यविशपात्मकं तथाप्यपौगलिकेषु संदकान्तं व्यवच्छिनत्ति ) श्रत उपदर्शितप्रकारादन्यथा धर्माधर्माकाशकालपु तदात्मकत्वमाग्दृशां न तथा प्रतीसामान्यविशपैकान्तरूपेण प्रकारेस 'वाचकवाच्यक्लप्तौ' तिविषयमायाति पौलिक पुनस्तत्माध्यमानं तपां सुश्रवाच्ययाचकमायकल्पनायाम् 'अतायकानाम्-अत्वदीयाना- डानम् । इत्यप्रस्तुतमपि शब्दम्य पादलकत्वं समान्यम्-अन्ययूथ्यानाम् 'प्रतिभाप्रमाद:'-प्रशास्खलितम.इत्यक्षरा विशेषात्मकत्वं साधनायोपन्यमिति । थैः। (अत्र चाल्पम्वरत्वेन वाच्यपदस्य प्राग्निपाते प्राप्तेऽपि अत्रापि नित्यशब्दवादिसंमतः शब्दकत्येकान्तोऽनित्यशब्दयदादी वाचकग्रहणं तत्प्रायोऽर्थप्रतिपादनस्य शब्दाधीन - वाद्यभिमतः शब्दानैकत्वैकान्तश्च प्राग्दर्शितदिशा प्रतिक्षबन याचकम्याऽच्यत्वज्ञापनार्थम् )। तथा च शाब्दिकाः- यः । अथवा-चाच्यस्य घटादरथस्य सामान्यविशपान्म"न मोऽस्ति प्रत्यया लाक, यः शब्दानुगमाहत । अनुवि- कत्व तहाच कस्य धनरपि तत्त्वम् : शब्दार्थयाः कथंचिमिव शान, म शब्देन भासत"॥१॥ इति । भावार्थ- सादात्म्याभ्युपगमात् । यथादुर्भद्रबाहुस्वामिपादाःमन्चवम-एक नीथिकाः सामान्यरूपमब बारूयतया शब्दा- "अभिहाणं अभिहाउ , होइ भिन्नं अभिन्नं च। धमभ्यपगरन्ति ते च द्रव्यास्तिकनयानुपातिनी मीमां- खुर अमिमायगुच्चा-रणाम जम्हा दु वयणसवणाणं ॥१॥ सकावा, अवनवादिनः, सांख्याश्च । कचिश्व विशपरूपमवं न विच्छा न वि दाहो, न पूरणं तण भिन्नं तु । वाच्यं नियुन्ति । न च पर्यायास्तिकनयानुसारिणः सौ- जम्हा य मायगुच्चा-रणमि तत्थव पच्चअं। हाइ ॥२॥ गताः । अपर च-गरम्पर्गन पक्षपद थपृथग्भूत सामान्यवि- ण य हाइ स अन्नत्थे , तण अभिन्न नदत्थाउ । " शपयुक्तं वस्तु याच्यवन निश्चिन्यत । ते च नैगमनयानु पतननाधिनः कागादा आक्षपादाश्च । स्या० १४ श्लोक । "विकल्पयोनयः शब्दा, विकल्पाः शब्दयानयः। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागम अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम कार्यकारणता तेव, नार्थ शब्दाः स्पृशन्त्यपि"॥१॥ एवं वाचकमपि शब्दरूपं द्वयात्मकम् एकात्मकमपि सदनेइति प्रत्युक्तम् "अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया" इति कमित्यर्थः, यथोकन्यायेन शब्दस्यापि भावाऽभावात्मकस्यात् वचनात् , शब्दस्य ह्येतदव तत्त्वं यदभिधेयं वात्म्येना- आथवा-एकविषयस्यापि वाचकस्याऽनेकविषयत्योपपत्तेः। सौ प्रतिपादयति । स च तत्तथा प्रतिपादयन् घाच्यस्वरू- यथा किल घटशब्दः संकेतवशात्पृथुवुधनोदराद्याकारयति पपरिणामपरिणत एव वक्तं शक्को नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् , पदार्थे प्रवर्तते वाचकतया तथा देशकालाद्यपेक्षया तघटाभिधानकाल पटाद्यभिधानस्यापि प्राप्तरिति । अथवा- द्वादव पदार्थाऽन्तरेष्वपि तथा वर्तमानः केन वार्यते ?, भयन्तरण सकलं काव्यमिदं व्याख्यायते-वाच्यं वस्तु भवन्ति हि वक्ताग योगिनः शरीरं प्रति घटः इति; सघटादिकमकात्मकमबैकस्वरूपमपि सदनकम् ( अनेक- केतानां पुरुषच्छाधीनतयाऽनियतत्वात् । यथा चीरशब्दोस्वरूपम् ) अयमर्थः । प्रमाता तायत् प्रमेयस्वरूपं लक्षणेन | ऽन्यत्र तस्कर रूढाऽपि दाक्षिणात्यानाम्-श्रोदने प्रसिद्धः । निश्चिनाति । तच सजातीयविजातीयव्यवच्छदादात्मलाभ यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः , एवं लभते । यथा घटस्य सजातीया मृन्मयपदार्था विजाती- कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्दशापक्षया योन्यादिवाचका - याश्च पटादयस्तेषां व्यवच्छेदस्तल्लक्षणम् । पृथुबुध्नोदराद्या- याः । कालापेक्षया पुनर्यथा जैनानां प्रायश्चित्तविधौ धृतिकारः कम्बुग्रीवो जलधारणाहरणादिक्रियासमर्थः पदार्थवि- श्रद्धासंहननादिमति प्राचीनकाले षड्गुरुशब्देन शतमशीशेषो घट इत्युच्यते । तेषां च सजातीयविजातीयानां स्वरूपं त्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म । सांप्रतकाल तु तद्विपरीते तत्र बुद्धन्या श्राराप्य व्यवच्छिद्यत , अन्यथा-प्रतिनियत- तेनैव पड्गुरुशब्दनापवासशत्रयमेव संकत्यते जीतकल्पतत्स्वरूपपरिच्छदानुपपत्तेः सर्वभावानां हि भावाभावा- व्यवहारानुसारात् । स्मकं स्वरूपम् एकान्तभावात्मकत्व वस्तुना वैश्वरूप्यं स्याद् शास्त्रापक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनैकादशी एकान्ताऽभावात्मकत्वं च निःस्वभावता स्यात् , तस्मा त्रिपुरार्णव च अलिशब्दन मदिराभिषिक्ताऽन च मैथुनशस्वरूपण सत्त्वात्पररूपेण चाऽसत्त्वाद्भावाभावात्मकं वस्तु. ब्दन मधुसर्पिषाग्रहणमित्यादि । न चैव संकेतस्यैवार्थप्रयदाह-" सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपण नास्ति च । त्यायन प्राधान्य ; स्वाभाविकसामर्थ्यसाचियादव तत्र अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् , रूरूपस्याप्यसंभवः " ॥१॥ तस्य प्रवृत्तः सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्त्यात् ततश्चै कम्मिन् घटे सर्वेषां घटव्यतिरिक्तपदार्थानामभावरूपण वृत्तेरनकात्मकत्वं घटस्य सूपपादकम् । एवं चक यत्र च देशकालादा यदर्थप्रतिपादनशक्तिसहकारिसंकेतस्मिन्नर्थे झात सर्वेपामांनां ज्ञानं; सर्वपदार्थपरिच्छदम स्तत्र तमर्थ प्रतिपादयति । तथा च-निर्जितदुर्जयपरप्रवादाः न्तरण तनिषधात्मन एकस्य वस्तुना विविक्ततया परिच्छे श्रीदवसूरिपादा:-" स्वाभाविक सामर्थ्य समयाभ्यामर्थबोधदासंभवात् । प्रागमोऽप्येवमय व्यवस्थितः-"ज एगं निबन्धनं शब्बः" । अत्र शक्तिपदार्थसमर्थन ग्रन्थान्तरादवजाणा, से सव्वं जाणइ । ज सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ" । सयम् , 'अतोऽन्यथे' त्यादि उत्तरार्द्ध पूर्ववत् । प्रतिभाप्रमातथा-"एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा दस्तु तेषां सदसदेकान्त वाच्यस्य प्रतिनियतार्थविषयत्वे तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा यन दृष्टा, एको भावः स च वाचकस्यानयुक्त्या दापसद्भावाद् व्यवहारानुपपत्तेः । वथा तेन दृपः" ॥१॥ ये तु सौगताः परासत्त्वं नाङ्गीकु तदयं समुदायार्थः सामान्यविशेषात्मकस्य भावाऽभावाचंत तेषां घटादः सर्वात्मकत्वमसङ्गः । तथाहि-यथा घ स्मकस्य च वस्तुनः सामान्याविशेषात्मको भावाभावात्मकश्च टस्य स्वरूपादिना सत्त्वं तथा यदि पररूपादिनापि स्या- ध्वनिर्वाचक इति अन्यथा प्रकारान्तरैः पुनर्वाच्यवाचकतथा च सति स्वरूपादिसत्त्ववत्पररूपादिसत्त्वप्रसक्नेः कथं भावव्यवस्थामातिष्ठमानानामन्धवादिनां प्रतिभैव प्रमाद्यति न सर्वात्मकत्वं भवत् ? परासत्वेन तु प्रतिनियतोऽसौ न तु तद्भणितयो युक्तिस्पर्शमात्रमपि सहन्ते । कानि तानि सिद्धथति। वाच्यवाचकभावप्रकारान्तराणि परवादिनामिति चंदते अथ न नाम नास्ति परासत्त्वं किं तु स्वसत्यमेव तदितिचे- ब्रमः । श्रपाह पव शब्दार्थ इत्य के " अपोहशब्दलिङ्गाभ्यां, दहो वैदग्धी न खलु यदेव सत्वं तदेवासत्वं भवितुमर्हति न घस्तुविधिनोच्यते” इति वचनात् । अपरे सामान्यविधिप्रतिषधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयारक्यायागात्। मात्रमेव शब्दानां गोचरः, तस्य क्वचित् प्रतिपन्नस्यैकरूपअथ यमपक्षऽप्यवं विरोधस्तदयस्थ एवेति चदहो वाचा- तया सर्वत्र संकेतविपयतोपपत्तेः, न पुनर्विशेषाः, तपामाटता देवानांप्रियस्य न हि वयं येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवा- नन्त्यतः कास्न्येनापलब्धुमशक्यतया तद्विषयतानुपपत्तः सत्त्वं यनब चाऽसत्वं तनैव सत्त्वमभ्युपमः, किंतु-स्वरूप- विधिवादिनस्तु विधिरय वाक्यार्थोऽप्रवृत्तप्रवर्तनस्वभावद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्वं पररूपद्रव्य क्षेत्रकालभावस्त्वस त्वात्तस्यत्याचक्षते । विधिरपि तत्तद्वादिविप्रतिपस्यास्वम् । तदा व विरोधाबकाशः ?, योगास्तु प्रगमन्त-"स- नकप्रकारः, तथाहि-वाक्यरूपः शब्द एव प्रवर्तकत्वाद्विधिवथा पृथग्भूतपरस्पराभावाभ्युपगममात्रणेय पदार्थप्रति- रित्यके तद्व्यापारी भावनाऽपरपर्यायो विधिः इत्यन्य । नियमसिद्धः किं नपा सत्त्वात्मकत्वकल्पनया" इति, तद- नियोग इत्यपर । प्रैषादय इत्यक तिरस्कृततदुपराधिप्रवसन् , यदाहि-पटाद्यभावरूपा घटो न भवति तदा घटः तनामात्रमित्यम्य । एवं फलतदभिलाषकर्मादयोऽपि वाच्याः पटादिरेव स्यात् । यथा च घटाभावाद्भिन्नत्वाद् घटस्य पंतां निराकरणं सपूर्वोत्तरपदं न्यायकुमुदचन्द्रादयसेयघटरूपता तथा पटादगप स्याद घटाभावाद्भिन्नायादव मिति काव्यार्थः । स्या० १४ श्लोक । (इतोऽग्रे 'सद' शब्दे इत्यलं विस्तरण | मूखस्य । सप्तमभागे विशेषः) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रागम (१४) ( शब्दस्य वाचकताविचारः ) - ('अत्र वैयाकरणाः प्राहुः' इत्याद्यारभ्य स्फीटविचार: 'फोड' शब्द ५ पञ्चमे भागे द्रष्टव्यः । ) - (02) " (१५) अथ गकाराचानुपूर्वी विशिष्टोऽन्त्यो वर्णो विशिष्टानुपूविका वा गारोकारविसर्जनीयाः शब्दाः। तथा च मीमांसकाः प्राहुः यावन्तां पादशा ये च यदर्थप्रतिपादकाः ब र्णाः प्रज्ञातसामार्थ्यास्ते तथैवाऽवबाधकाः" (लो० वा० स्फोट० वा० ० ६६ ) ॥ इति । एतदपि न सम्यग् यनः । श्रानुपूर्वी यद्यनर्थान्तरभूतास्तदा वर्णा एव नानुपूर्वी ते च व्यस्ताः समस्ता वा अर्थप्रत्यायका न भवअथार्थान्तरभूता तदा सा नित्या श्रनित्या वा ? न तावदनित्या स्वसिद्धान्तविरोधात्-वैदिकानुपूर्व्या नित्यत्वेनाभ्युपगमात् । " वक्ता न हि क्रम कश्चित् स्थान० बा० शब्दनित्य० ० २) इत्याद्यनधानात् नापि या स्फोटासमस्तपसः । नच वैदिकापूर्वी नित्या लौकि तनु तथादि वैदिकवचानुपूर्वी अनि त्या वेदानुपूर्वी शब्दवाच्यत्वात् लौकिकवर्णाद्यानुपूर्वीत् । न च लौकिकानु विलक्षणेयं वैलक्षण्यासिद्धेः । तश्रादित्यमस्थलम् अद्वित्रि रूपना ?, न तावदायः पक्षः अपौरुषेयत्वस्य निरस्तत्वात् । नापि चैविध्यं तस्याधारसपि नित्यस्वायसाधकस्यालीकिकयाप्यपि वैविध्यस्यापवथ । नव च नित्यव्यापिनामानुपूर्वी संभवति। देश-कालकृतानुपपतेः । नचाभिष्यानुपूर्वी संधिनी । अभिव्यक्तेः प्राग्निरस्तत्यात् पूर्वसंविसंस्कारसहितः तत्स्मृतिसहिता वा अन्त्यो वर्ग: पदम' इत्यभ्युपगमोऽपि न युक्तिसङ्गतः । संस्कार स्मरणादेरनुपलस्यमानस्य तदा सहकारित्वकल्पनायां प्रमाणाभावात् । नयार्थप्रतिपस्यानुपपत्तिस्तत्कल्पना प्रमाणं तत् अभिधान राजेन्द्रः । , निरन्यथासिद्धत्वान्नानुपपते वर्णा प्रतीतिहेतुतया संभवन्ति तां तत्प्रतिपत्तिजननस्वभावत्वे सर्वदा तत्प्रतिपत्तिप्रसक्लेस्तज्जनन स्वभावस्य सर्वदा भावात् । अतज्जननस्वभावत्वेन कदाचिदप्यर्थप्रतिपत्ति जनयेयुः ग्रनपगताऽतज्जननस्वभावत्वात् । नच सहकारिसन्निधानेऽपि तेषामनजननखभावता व्यपगच्छति श्रनित्यताप्रसक्तिदोषापत्तेः । नित्याश्च परैस्ते अभ्युपगना इत्यभ्युपगमविरोधध। (१६) ( वाच्यवाचकयोः संबन्धस्य नित्यत्वं निषिध्य तस्य कृतकत्वव्यवस्थापनम् ) -- 9 नच नित्यसंवरवत अर्थप्रत्यायका:भवन्ति नित्यस्यानुपकारकत्पनापेशीयत्वापगान्न नित्यः संवन्धः शब्दार्थयोः प्रमाणेनावसीयत । प्रत्यक्षेण तस्याननुभवात् । तद्भानुनापि तस्य तत्पूर्वकाभ्युपग मात् । न च शब्दार्थयोः स्वाभाविक संबन्धमन्तरेण गोशब्दश्र गानन्तरं कदादिमविद् अस्ति साइन शब्दस्य वाचिका शक्तिस्वगम्यत इति वाच्यम्, अनवगतबरवस्यापि सः । आगम न च संकेताभिव्यक्तः स्वाभाविकः संबन्धोऽर्थप्रतिपत्ति जनयतीति न दोषः संकनादेयार्थयाा संवन्धपरिकल्पना वै तथाहि संकेताद्युत्पाया शब्दार्थभूतम व्यवहारिकः प्रतिपादयन्ति इत्यवगत्य व्यवहारकाले पुनस्तथाभूतशब्दश्रवणात् । संकेत स्मरणे तत्सदृशं तं चार्थे प्रतिपद्यन्ते न पुनः स्वाभाविकं संबन्धमवगत्य पुनस्तत्स्मरणे अर्थमवगच्छन्ति । • न च वाच्यवाचकसंकेत करणे स्वाभाविकबन्धमन्तरेसानथाप्रसक्तिः परात्प्रभूतानां याच्यवाचकस्वरूपावधारणात्। तथाहि एको व्युत्पन्नव्यवहारः तथाभूताय गामभ्याज शुक्लां देवदत्त ! दण्डेन' इति पदा व्यपदिशति द्वितीयस्तु तद्वयपदेशानन्तरं तथैव वि दधाति तदा युतः शिशु तथा कुर्यामुपलभयैवमवधारयति श्रनेन गोशब्दाद्द्ववार्थः प्रतिपक्षः श्रयाजाऽऽदिशब्दादश्याजिकियादिका अन्यथा कथमपरनिमित्ताभावेऽपि गोपिएडाऽऽनयनादिकं वाक्यश्रवणानन्तरं विदध्यादानात्पन्नानां संकेत संभवाज्ञादयस्थादोषः । म प्रथमसंकेतािभाविकपण्यतिख वाच्यवाचकयोः कुतो वाच्यवाचकरूपावगतिरिति वक्तव्यम् अनादित्यादस्य व्यवहारस्यापरापरसंकेतनित्यात्। न च वाच्यवाचक संबन्धस्य पुरुषकृतत्वे शब्दवदर्थस्यापि वाचकत्वम् अर्थवच्छदस्यापि वाच्यत्वं प्रसक्तमिति वक्तव्यम् | योग्यतानतिक्रमेण संकेत करणात् । न च स्वाभाविकसंवरेण प्रतिनियत योग्यताया अभाषा कुनकत्वेऽपि प्रतिनियतयोग्यतावतां भावानामुपलब्धः । तथादि-यत्र बाद परिकाशक्तित्रैव विमारा न जलादी, तुमस्ति निष्पापात्पादनशक्तिर्नतु वीरणादौ नत्र तन्तृत्वाभावाद एवं च यद्यथापलभ्यते तदानुमाननग प्रधान व वर्गान्यादिकं निमित्तं तत्रय याचिका शक्ति संकेतु निमि नास्ति तत्र न याचिका शक्तिरिति न नित्यवाच्यवाचकसंबन्धपरिकल्पनया प्रयोजनम् । एकान्तनित्यस्य तु ज्ञानजनकत्वे सर्वदा ज्ञानोत्पत्तिः तदजननस्वभावत्वेन कदाचिपत्तिरिति प्रतिपादितम् समचलन तु शदर्थप्रतिपत्ती यथासंकेतं पिशिएसामग्रीतः कार्योत्पत्ती न कश्चिद्दोषः । " ( अनुमानात् शब्दस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसाधनम् ) - अत एवानुमानात् प्रमाणान्तरं शाब्दम् । श्रनुमानं हि पक्षधर्मत्वान्वयव्यतिरेकच लिङ्गबलादुदयमासादयति । शाब्द तु संकेत सध्यंपेक्षशब्दोपलम्भात् प्रत्यक्षानुमानागाचरेऽर्थे प्रवर्त्तते । स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वमप्यनुमानस्य त्रिरूपलिङ्गत्वेनैव निश्चीयते । शाब्दस्य स्वात्वनिश्वये सनि शब्दस्योत्तरकालमिति । किं च शब्दां यत्र यत्रायें प्रतिपादकत्वेन पुरुषेनमथातिपादयति त्वं धूमादि लिङ्गं पुरुषेाशेन जलादि प्रतिपादयतीत्यनुमानान् प्रान्तरं दिशः। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागम अभिधानराजेन्द्रः। श्रागम न च शब्दादर्थप्रतिपत्तौ शब्दस्य त्रैरूप्यमस्ति । यतो व तस्य शब्दत्वम् । अन्यथाक्नदोषानतिवृत्तेः। चैशेषिकपरिकल्पितपक्षधर्मता यत्रार्थस्तत्र धर्मािण शब्दस्यावृत्तेोपिण्डाधारण पदादिप्रक्रियात्वनुभवबाधितत्वादयुक्ना। प्रदेशन शब्दम्याऽऽश्रयाऽऽथयिभावस्य जन्यजनगमायनि- ___ न च-निरन्वयविनाशिनां विज्ञानहेतुता संभवतीत्यसकृत्प्रबन्धनस्याऽभावाद् अतः- गोपिएडवानयं देशो गोशब्द तिपादितम् । षद्क्षणावस्थायित्वलक्षणमप्यनित्यत्वं तत्परि-" स्यात् ' इति नाभिधातुं शक्यम् । नापि गोपिण्डे गोशब्दो कल्पितं निरन्वयविनाशपक्षे प्रक्रियानिवर्तनानुपयोगि वर्तते। साधाराधेयवृत्त्या जम्यजनकभावेन वा गोपिण्डाभा. तेषाम् । नच षट्क्षणावस्थानमपि संभवति, प्रथमक्षणसत्तावपि गोशन्दस्व दर्शनात् । नच-गम्यममकभावन तासौ या द्वितीयक्षणसत्ताऽनुप्रवशे तत्क्षणसत्ताया अप्युत्तरक्षणघर्तत पक्षधर्मत्याभावे तस्यैवानुपपत्तेः घाच्यबाचकभाबेन सत्तानुप्रवेशपरिकल्पनायाँ क्षणिकत्वमेव । अननुप्रवेशऽपि वृत्तावनुमानात् प्रमाखान्तरत्वम् । तेन 'गोपिण्डा गोत्ववार परस्पचिधिक्तत्वात् । क्षणस्थितीनां तदेव क्षणिकत्यमिति योशब्दयस्याद् अयमपि प्रयोगाऽनुगपत्र एष नापि गोत्वे कुतः पदक्षणावस्थानमकस्य? अक्षरिणकत्व चाक्रियाविरोधः, गोपिराविशेषण वर्तते । तत्सामान्येनाश्रयाश्रयिभावस्य प्रतिपादित एवेति । न पदादिपरिकल्पना वैशेषिकपक्षे युक्तिजन्यजनकभावस्य वा अस्याभावाद । अतः 'गोत्वं गापि युक्त स्थितम् । ननु भवत्पक्षेऽपि क्रमस्य वणेभ्यो व्यतिरके. राडक्त् गशब्दचत्वाद्' इत्यपि वक्तुमशक्यम् । विशषे | न वर्णविशेषणत्वम् अगतिरके व एय कवलास्ते च न न्यच साध्येऽक्षयश्चात्र पक्ष दोषः । नच-' शब्दो गवार्थ- स्त समस्ता अर्थप्रतिपादका इति पूर्वमेव प्रतिपादितामति वान् गौशब्दत्वात्' इति प्रयोगो युक्तः तथा प्रतीत्वभा- न शब्दः कश्चिदर्थप्रत्यायकः, असदेतत् । वर्णव्यतिरिका:बात् । नहि · गौर्गच्छति । इत्युक्त गमनक्रियाविशिष्ट- व्यतिरिक्तस्य क्रमस्य प्रतिपत्तेः। तथाहि-नवणेभ्योऽर्थाबावार्थप्रतीतिमन्तरेण गोपिण्डेन तद्वान् शब्दो लोकेनाऽव- न्तरमेव कमः वर्णानुविद्धतया तस्य प्रतीतेः । नापि वर्णा गम्यते । एव क्रमः । तद्विशिएतया तेषां प्रतिपतेः । नच तद्विशनच-गोशब्दो गवार्थवाचकत्वेन गोशब्दत्वादबुमीयत , पणत्वेन प्रतीयमानस्य क्रमस्याऽपहवो युक्तिसङ्गतो धणेकिंतु-गयार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपस्या गवार्थवाचकत्वं तस्य यपि तत्प्रसक्तः। गम्यते । प्रतिनियतपदार्थनिशिनां तु देवदत्तादिशब्दानां नच-भ्रान्तिरूपा प्रतिपत्तिरिवं, बर्मावां तद्विशिएतया बानान्वयः नपि पक्षधर्मता दृष्टान्तदाष्टान्तिकभेद चानु धिताध्यक्षगोचरतया प्रसाधितत्वाद् अर्थप्रतिपत्तकारणमानप्रवृत्तेः । नव-शाब्द स्वभावलिङ्गबमनुमान शब्दस्यार्थ नुमितत्वाच्च । न चाम्भावः कस्यचिद्भाबाध्यबसायि तया स्वभावत्वासिद्धराकारभेदात् प्रतिनियतकरणग्राह्यत्वाद्वाचकस्वभावत्वाच्च वस्य । चापि कालिङ्गजम अर्थाभाव: विशषणं नाऽप्यर्थप्रतिपत्तिहतुनच कमोऽप्यहतुः तथात्मक वर्णेभ्योऽर्थप्रतीतेः । ततो भिन्नाऽभिन्नानुपूविशिएा वर्णा पीच्छातः शब्दम्यात्मनः । नच-न बाह्याविषयत्वेन शब्द शिटपरिणतिमन्तः शब्दः स च पद-वाक्यादिरूपतया स्यानुमानता सीगतैरभ्युपगम्यंत शपि तु विवक्षाविषयखेनति वक्तव्यम्, यतो यथा च तदर्थो विवक्षा तथा व्यवस्थितः तन विशिष्टानुक्रमान्त तथाभूतपरिणतिमाशब्दप्रामास्यप्रतिवादन ऽभिहिवं च पुनरुच्यते।। प्रनानि पदान्येव वाक्यमभ्युपगन्तव्यम् । तद्वयतिरिक्तस्य तस्य पदद्वदनुपपद्यमानत्वात् । सम्म०१ काएड ३२ गाथा(परकल्पितां वर्णानां नित्यतां तत्पदादिप्रकिययं च प्रदू टी । च्यानेकान्तहपृथा शब्द-तदर्थसंबन्धयोस्स्वरूपनिरूपणम् ) (१७-१८) शब्दस्य नित्यत्वाऽनित्यत्वविचारः, शब्दार्थत. न च-मीमांसकाभिमायण वर्णानां वाचकत्वम् अभिव्यक्तान त्सम्बन्धविचारश्चभिव्यक्लपक्षद्वयेऽपि दापाद् अभिव्यक्तान ज्ञानजनकत्वे सर्वपुरुषान् प्रति सर्वे सर्वदा शानजनकाः स्यः केनचित् अकारादिः पौगलिको वर्णः इति ॥६॥ प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावाद् अभिव्यक्तानां ज्ञानजनकत्ये पुद्गलैः-भाषावर्गणापरमाणुभिरारब्धः पौद्गलिकः । अत्र एकवर्णाऽऽवरणामये सर्वेशं समानंदशत्येताभिव्यक्तत्वा- याक्षिकाः प्रज्ञापयन्ति- वर्णस्यानित्यत्वमेव तावद् दुरूपधुगपत् सर्वश्रुतिप्रसक्रिरित्युनं प्राक् । इन्द्रियसंस्कारपक्ष- पादं कुतस्तरां पुद्गलारब्धत्वमस्य स्यात् ? । तथादि-स पि पूर्वप्रतिपादितमेव दूपणमनुसनव्यम् । किं च-यद्यन- एवायं गकार इति प्रत्यभिज्ञा, शब्दा नित्यः थायणत्यावगतसंबन्धा वर्णा अर्थप्रत्यायकास्तदा नारिकेरद्वीपवा- च्छब्दत्ववद् इत्यनुमानम् , शब्दो नित्यः परार्थ तदुचारसिनोऽप्युपलभ्यमान्य अर्थावगति विद्ध्युः । अर्थावगत- रणान्यथानुपपत्तेरित्यर्थापत्तिश्चेति प्रमाणानि दिनकरकरसंबन्धास्तथा सति पदस्य स्मारकत्वमेव स्यान्न चाच- निकरनिरन्तरप्रसरपरामर्शोपजातज़म्भारम्भाम्भोजानीव म. कत्वं तथा चानधिगतार्थाधिगमहेतुत्वाभावाच प्रमाणपत। नःप्रसादमस्य नित्यत्वमेव द्योतयन्ति । तदवद्यम् । यतः भवेत् , दुकम्-" पदं त्वभ्यधिकाभावात् , स्मारकान्न वि- प्रत्यभिन्नान तावत्कथंचिदनित्यत्वनैवाविनाभावमाभेजानम्,. शिष्यते । अथाऽधिक्यं भवेत्किचित् , स पदस्य न गोचरः॥ एकान्तैकरूपतायां ध्यनेः स पवायमित्याकारोभयगाच( श्लो० वा. शब्दप० श्लो० १०७) इति, तच मीमांसक- रत्वविरोधात् । कथमान्मनि तद्रपऽपि स एवाहमिति प्रभतेनापि चणानां शब्दत्वम् । कथं तर्हि वर्णाः शब्दरूपता त्यभिज्ञेति चेत् । तदशस्यम् । तस्यापि कथंचिदनित्यस्यैव : प्रतिपद्यन्ते ? उक्तमत्र परािमतसङ्गयानां पद्लद्रव्यापादान- स्वीकागत् । प्रत्यभिज्ञाभासश्वायम्, प्रत्यक्षानुमानाभ्यां बा-' परित्यागनेव परिणतानामश्रावणस्वभावपरित्यागावाप्तश्रा- ध्यमानत्वात् , प्रदीपप्रत्यभिज्ञावत् । प्रत्यक्ष हि तावदुवणस्वभावानां विशिष्णानुक्रमयुक्तानां वर्णानां वाचकत्वात् । पद विपदे च वागियमिति प्रवर्तते । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम नच-प्रत्यभिज्ञानेनैवेदं प्रत्यक्षं वाधिष्यत इत्यभिधानीयम् , | मानम् , अनेकेन्द्रियग्राह्य च दृष्ट, यथा घटपटौ, यथा वा अस्याऽनन्यथा सिद्धत्वात् । अभिव्यक्रिभावाभावाभ्या- रूपरसाविति । अपृथग्दशवर्तमानकन्द्रियगाह्यत्वादेव व मेवयं प्रतीतिरितिचेत् कुटकटकटाहकटाक्षादावपि कि ने- नास्य प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गयत्वमपि । अस्तु चैतत्तथाप्ययं तथा?। कुम्भकारमुद्गरादिकारणकलापव्यापारापल- यमभिव्यज्यमानः सामस्त्येन, प्रदेशतो वा व्यज्येत । नाद्यः म्भात्तदुत्पत्तिविपत्तिस्वीकृती, तालुवातादिहेतुव्यापार- पक्षः क्षमङ्करः । सकल शरीरिणां युगपत्तदुपलम्भापत्तः । क्षणादक्षरेष्वपि तत्स्वीकारोऽस्तु । तालुवातांदरभिव्य- द्वितीयविकलो तु कथं स कर्णस्यापि संपूर्णवर्णाऽऽकर्णनं क्लयनभिव्यक्तिमात्र हेतुत्वे कुलालादरपि तदस्तु। नचाभि- भवेत् ? न खलु निखिलावृताङ्गराजाङ्गनानामपटुपवनापनीव्यक्तिभावाऽभावाभ्यां तथा प्रतीतिरुपापादि । दिनकरम- यमानवसनाञ्चलत्वेन चलनाङ्गलिकोटिप्रकटतायां विकखगचिराजीव्यज्यमान , घनतरतिमिरनिकराकीर्यमाणे च कु. रशिरीषकुसुमसुकुमारसमविग्रहयष्टिनिष्टङ्कनं विशिक्षम्भादावुदपादि व्यपादि चायमिति प्रतीत्यनुत्पत्तेः । तिमि- णानामगीयते । प्रदेशाभिव्यक्ती चास्य सप्रदेशत्वं प्रसरावरणवेलायामपि स्पार्शनप्रत्यक्षेणास्यापलम्भान्न तथेयमि- ज्यते । ततो व्यञ्जकस्य कस्यचिच्छब्द संभवाऽभावात् । नि चेत् . यदा तहिं नोपलम्भस्तदा किं वक्ष्यसि । अथ कागि तद्गता एव तीव्रतादय इति नासिद्धो हेतुः। यदपि श्रातिमिरादेस्तत्सत्त्वाविरोधित्वावधारणात्सर्वत्रानभिव्यक्किद- वणवादित्यनुमानं, तदपि-"कान्तकीर्तिप्रथाकामः, कामशायां तत्सत्त्वं निश्चीयत इति चत्, तत्किमावृताव- यत स्वमातरम् । ब्रह्महत्यां च कुर्वीत, स्वर्गकामः सुरां पिस्थायां शब्दस्य सत्त्वनिर्णायकं न किंचित्प्रमाणमस्ति ?। श्रो- बेत् ॥१॥” इत्याद्यानुपूर्ध्या सव्यभिचारम् । नित्यैकेमिति चत्तर्हि साधकप्रमाणाभावादसत्त्वमस्तु । अस्त्येव यमितिचेत् तर्हि प्रेरणावत्प्रामाण्यप्रसङ्गः, तदर्थानुष्ठानाप्रत्यभिज्ञादिकं तदिति चेत् । न । अस्य प्रत्यक्षवाधितत्वे- श्रद्धाने च प्रत्यवायाऽऽपत्तिः । उदात्तस्वारततीवमन्दसुस्वनोन्मक्रमशक्के । उन्मजनऽपि व्यक्तिभावाभावयोः कुम्भा- रविस्वरत्यादिधम्मैश्च व्यभिचारः, तेषां नित्यत्वे सदायदाविवात्राप्युदयव्ययाध्यवसायो न स्याद् । अस्ति चायम् , काकारप्रत्ययप्रसक्नेः । नित्यत्वेऽप्यमीणामभिव्यकिः कादातस्मादनन्यथासिद्धप्रत्यक्षप्रतिबद्ध पवति निश्चीयते । अनि- चित्कीतिचेत्, तदचारु। परस्परविरुद्धानामेकत्र समावत्यः शब्दस्तीवमन्दतादिधर्मोपेतत्वात् , सुखदुःखादिवदि- शासंभवात् । प्रभाकरण शब्दत्वाऽस्वीकारादुभयविकलभ स्यनुमानयाधः । व्यञ्जकाश्रितास्तीव्रतादयस्तत्राभान्तीति तं प्रत्यत्र दृष्टान्तः। चत् , किं तत्र व्यञ्जकम् ? । कोष्ठवायुविशेषा ध्वनय इति चत्कथं तर्हि तद्धर्माणां तेषां श्रावणप्रत्यक्ष प्रतिभासः अथ भट्ट एवेत्थमनुमानयति। प्रभाकरस्तु देशकालभित्रा गोशब्दव्यक्किबुद्धय एकगाशब्दगोचराः, गौरित्युत्पद्यमानस्यात् ?। ध्वनीनामश्रावणत्वेन तद्धमीणामप्यश्रावणत्वात्। त्वाद् , अद्योचारितगोशब्दव्यक्तिबुद्धिवदिति वदतीति चत् । न खलु मृदुसमीरलहरीतरङ्गयमाणनिष्पकपयोभाजनादौ तदयनवदातम् । अत्र प्रतिबन्धाभावात् , तडित्तन्तुनिप्रतिविम्बितमुखादिगतत्वेन तरलत्वमिव माधुर्यमप्यचाक्षुषं स्यत्वसिद्धावष्यवंविधानुमानस्य कर्तुं शक्यत्वात् । याऽप्यचक्षुःप्रत्यक्षेण प्रेक्ष्यते । श्रोत्रग्राह्य एव कश्चिदर्थः शब्दस्य र्थाऽपत्तिःप्रत्यपादि, तत्रायमर्थ:-अनित्यत्वे सति या गृहीव्यञ्जकः, स्तीवत्वादिधर्मवान् अनित्यश्चध्यत इति चत् । तसंबन्धः शब्दः, स तदैव दध्वंसे इति व्यवहारकाले अन्य न । तस्यैव शब्दत्वात् । श्रोत्र ग्राह्यत्वं हि शब्दलक्षण; तल्ल एवाऽगृहीतसंबन्धः कथमुश्वार्यतउचायते च तस्मानिक्षणयुक्तस्य च तस्य ततोऽर्थान्तरस्यमयुक्तम् । त्य एवायमिति । तदयुक्तम् । अनन न्यायनार्थस्याऽपि निकिंच-कस्य किं कुर्वन्तोऽमी व्यञ्जका ध्वनयो भवेयुः ? त्यतैकतापत्तेः , अन्यथा बाहुलेये गृहीतसम्धाऽपि गोशशब्दस्य, श्रोत्रस्योभयस्य वा। संस्कारमिति चत् , कोऽयं ब्दः शाबलयादिध्वगृहीतसबन्धः कथं प्रतिपत्ति कुर्यात् । संस्काराऽत्र रूपान्तरात्पत्तिः श्रावरणविपत्तिर्वा । श्राद्य- सामान्यस्यैत शब्दार्थत्वाददोष इति चेत् । न । लम्बकम्बश्वत् , कथं न शब्दांत्रयोरनित्यत्वं स्यात् ? स्वभावान्य- लः ककुमान् , वृत्तक्षश्वाय गौरिति सामानाधिकरण्यास्वरूपत्वात्तस्य । अथ रूपं धर्म:; धर्मधम्मिणोश्च भेदात् , भावाप्रसक्नः । ततः सामान्यविशेषाऽऽस्मैव शब्दार्थः, सच तदुत्पत्तावपि न भावस्वभावान्यत्वमिति चेत्, ननु ध- नेकान्तनाऽन्वेतीति न नित्यैकरूपाऽभ्युपयः स्यात् । कथं च मान्तरोत्पादेऽपि भावम्वभावो उजनयद्वपस्वरूपस्तादृगेव। धूमव्यक्निः पर्वत पावकं गमयत् ? ' धूमत्वसामान्यमेव ग. चेत् । तदा पटादिनेव श्रोत्रण घटादेरिव ध्वनेर्नोपलम्भः ममिति चेत् , पाचकमपि सामान्यमेवास्तु । अथ शब्दसंभवेत् । तत्संबन्धिनस्तस्य करणाददोष इति चत् , स स्वं, गोशब्दत्वं, क्रमाभिव्यज्यमानगत्यात्वादिक वा तद्बत् । तावत्संबन्धी न संयोगः, तस्याऽद्रव्यत्वात् । समवायस्तु श्राद्यपक्ष प्रतिनियतार्थप्रतिपत्तिनं स्यात् , सर्वत्र शब्दत्वकश्चिदविध्वम्भावान्नान्यो भवितुमर्हतीति तदात्मकध स्याऽविशषात् । गोशब्दत्वं तु नास्त्यव, गाशब्दव्यतरेकस्याः म्मोत्पत्तौ धम्मिणाऽपि कथञ्चिदुत्पत्तिरनिवार्या । श्रावर कस्याश्चित्तदाधारभूताया असंभवात् , क्रमेण व्यज्यमानं गापगमः संस्कारः क्षमकार इति चत् , स तर्हि शब्द- हि वर्णद्वयमेवैतत् । क्रमाभिव्यज्यमानत्यादिपक्षोऽप्यसंभवी, स्यैव संभाव्यत, ततश्चैकत्रावरणविगमे समग्रवाऽऽकीनं गत्वाऽऽदिसामान्यस्याविद्यमानत्वात् , सर्वत्र गकारांदरेम्यात् । प्रतिवर्ग पृथगावरणमिति यस्यैवाऽऽवरणविरम- कन्चात् । अत्रोच्यते-अस्तु तार्तीयीकः कल्पः नच गकाणम, तस्यैवापलब्धिरिति चत् . तन्नावितथम् । पृथ- रादरैक्यं , गर्गभर्गवर्गस्वर्गमार्गादिपु ¥यांसोऽमी गकारा ग्दशवर्तमान कन्द्रियग्राह्याणां प्रतिनियतावरणावार्यत्यविग। इति तद्भेदापलम्भात् । व्यञ्जकभेदादयामति चद् , अकाधात् । यत् खलु प्रतिनियतावरणाचार्यः तत्पृथग्दशे वत- राघशेपवणेष्वप्यपाऽस्वित्येक एव वर्णः स्यात् । अथ य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) प्रागम अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम था अयमपि गकारः, अयमपि गकारः, इत्येकाकारा प्र- स्ता, नत्वपावृतद्वारदशायामिव तदेकार्णवत्त्वं, सर्वथा नीतीतिः, तथा नाकाराद्यशेषवणेषु अपीति चेत् । नैवम् ।। रन्धे तु प्रदेश नैती संभवत इति चेद् , एवं तर्हि शब्दऽपि अयमपि वर्णः, भयमपि वर्षः, इत्येकप्रत्यवमर्शोत्पत्तेः । सा- सर्घस्य तुल्ययोगक्षेमत्वादसिद्धता हेतोरस्तु । पूर्व पश्चामान्यनिमित्तक एवायमितिचेत् , तर्हि गकारादावपि त- चावयवानुपलब्धिः, सौदामिनीदामोल्कादिभिरनैकान्तिकी। थाऽस्तु । अथाकारेकारादौ विशषोऽनुभूयते, नतु गर्गादि- सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वमपि गन्धद्रव्यविशेषसूक्ष्मरजागकारेषु, तेषां तुल्यस्थानाऽऽस्थप्रयत्नादित्वादिति चदेवं तर्हि धूमाऽऽदिभिर्व्यभिचारि । न हि गन्धद्रव्यादिकमपि नसि "सहन पन्त हरिहरिति हम्मीरहरयः" इत्यादिहका- निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोद्भिन्नस्मभुप्रेरकं प्रेक्ष्यते । गरात्कण्ठ्याद्वह्विजिह्मादिहकारस्य, इ "उरस्यो वह्विजिहादी, गनगुणत्वं त्वसिद्धम् । तथाहि-न गगनगुणः शब्दः अस्मदावर्गपञ्चमसंयुतः" इति वचनादुरस्यत्वेन स्थानभेदप्रतीतेः । दिप्रत्यक्षत्वात् , रूपादिवदिति । पौद्गलिकत्वसिद्धिः पुनततो भिखोऽयं वर्णो भवेत् ।। रस्य, शब्दः पौगलिकः इन्द्रियार्थत्वात् , रूपादिवदेवेति । नच मकार नास्ति विशेषावभासः, तीयोऽयं मन्दोऽयं ग-1 रत्ना०४ परि०। कार इति तीवतादिविशेषस्फुरणात् व्यञ्जकगतास्तीव्रता- अथ संकेतमात्रेणैव शब्दोऽर्थे प्रतिपादयति; नतु स्वाभादयस्तत्र स्फुरन्तीति चेत् , कृतोत्तरमेतत् । अकारेकारादा- विकसंबन्धवशादिति गदतो नैयायिकान , समयादपि नायं चप्यनुभूयमानः स विशेषस्तद्गत पचाऽस्तु, तथा चैक वस्तु वदतीति वदतः सौगतांश्च पराकुर्वन्तिएव वर्षः किन भवेत् । मा भूद्धा विशेषावभासो गकारे स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्द: चुभेदावभासस्तु विद्यत एव , बहवोऽमी गकारा इति प्र. तीतेः । भवति च विशेषावभासं विनापि भेदस्फतिः, सर्प इति ॥११॥ पराशौ गुरुलाघवादिविशेषावाभासं विनापि तद्भदप्रतिभा- स्वाभाविकम्-सहजम् । सामर्थ्य-शब्दस्यार्थप्रतिपादनसबद् । इति सिद्धो गकारभेदः । तथाच-तदादिवर्णवतिसा- शक्तिः, योग्यतानाम्नी । समयश्व-संकेतः ताभ्यामर्थप्रतिपत्ति. मान्यानामेव वाचकत्वमस्तु तस्वतस्तुगोशब्दत्वमेव सरशप- कारण शब्द इति । तत्र नैयायिकान्प्रत्येवं विधेयानवाद्यरिणामात्मकं वाचकं क्रमाभिव्यज्यमानं वर्णद्वयमेवैतत् , भावः, योऽयम् अर्थबोधनिबन्धनं शब्दः अभ्युपगतोऽस्ति,स नैका गांशब्दव्यक्तिरिति च न वाच्यम् । नित्यत्वाप्रसि स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्या-द्वाभ्यामपि. न पुनः समधावद्याप्यस्योत्तरस्य कूर्परकोटिसंटङ्कितगुडायमानत्वात्। यादव केवलात् । समयो हि पुरुषाऽऽयत्तवृत्तिः नच-पुरुषतस्मात्क्रमोपदिश्नु तत्तद्गकारादिपर्यायोपहितभाषाद्रव्या- च्छया वस्तुनियमो युज्यते । अन्यथा तदिच्छाया अव्यात्मको गौशब्द एव सदृशपरिणामात्मा वाचकोऽस्तु । तथा हतप्रसरत्यादर्थोऽपि वाचकः, शब्दोऽपि वाच्यः स्यात् । चक्षीणाऽर्थाऽऽपत्तिः। अथ गत्वौत्वादिसामान्यसंबन्धो यस्य भवति, स वाचकअस्तु अनित्यो ध्वनिः, किंतु-नाऽयं पौद्गलिकः संगच्छत त्वे योग्यः, इतरस्तु वाच्यत्वे, यथा द्रव्यत्वाविशेषेऽप्यइति योगाः संगिरमाणाः सप्रणयप्रणयिनीनामव गौरवाहाः। ग्नित्वादिसामान्यविशेषवत् एव दाहजनकत्वं, न जलत्यादियतः कोऽत्र हेतुः; स्पर्शशून्याश्रयत्वम् , अतिनिविडप्रदेश सामान्यविशेषवत् इति चेत् । तदयुक्नम्। अतीन्द्रियां शक्ति प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातः, पूर्व पश्चाश्चाऽवयवानुपलब्धिः । विनाऽग्नित्वादेरपि कार्यकारणभावनियामकस्वानुपपत्तेः। श्रसूचममूर्तद्रव्यान्तराऽप्रेरकत्वं,गगनगुणत्वं वा? । नाद्यः पक्षः। ग्नित्वं हि दावद्विजातीयकारण जन्यकार्येष्वपि तुल्यरूपम् । यतः शब्दपर्यायस्याश्रये भाषावर्गणारूपे स्पर्शाभायो न | नहि दाई प्रत्यवाऽग्नेरग्नित्वं, यथा पुत्रापेक्षं पितुः पितृतावदनुपलब्धिमात्रात्प्रसिध्यति, तस्य सव्यभिचारत्वात् ।। त्वम् । ततश्चाग्निहबत्पिपासापनोदमपि विदध्यादिति - योग्यानुपलब्धिस्त्वसिद्धा, तत्र स्पर्शस्यानुभूतत्त्वनोपलब्धि नातीन्द्रियां शक्तिमन्तरेणाग्नित्वादीनां कार्यकारणभावव्यलक्षणप्राप्तत्वाभावात्, उपलभ्यमानगन्धाऽऽधारद्रव्यवत् । वस्था हेतुत्वं, तद्वदेव च गत्वौत्यादिसामान्यानामपि न अथ घनसारगम्धसाराऽऽदी गन्धस्य स्पर्शाव्यभिचारनिश्च वाच्यवाचकभावनियमहेतुत्वमिति नियामिका शनिः स्वीयादत्रापि तन्निर्णयेऽप्यनुपलम्भानुद्भूतत्वं युक्तं, नेतरत्र, कर्तव्यैव । अथ किमनेनातीन्द्रियशक्तिकल्पनालशन ? । तन्निर्णायकाभावाद् इति चेत् , मा भूत्तावत्तन्निर्णायकं किं करतलानलसंयोगादिसहकारिकारणनिकरपरिकारतं कृपीचित् । किंतु-पुद्गलानामुद्भूतानुभूतस्पर्शानामुपलब्धेः शब्द टयोनिस्वरूपं हि स्फोटघटनपाटवं प्रकटयिष्यति, किमव. ऽपि पीगलिकत्वन परेः प्रणिगद्यमाने बाधकाभावे च सति शिष्टं यदनया करिष्यते । तथा च जयन्तः-" स्वरूपादुसंदेह एव स्यात् , नत्वभावनिश्चयः, तथा च संदिग्धा- द्भवत्कार्य, सहकार्युपहितात् । नहि कल्पयितुं शक्र, शक्तिसिद्धा हेतुः । नच नास्ति तन्निर्णायकम् । तथादि-शब्दा- मन्यामतीन्द्रियाम् ॥१॥" यत्तूकम्-अग्निहबत्पिपासापश्रयः स्पर्शवान , अनुवातप्रतिवातयार्विप्रकृष्पनिकटशरीरि- नोदमपि विदधादिति । तन्न सत् । नहि वयमद्य कश्चिदणोपलभ्यमानानुपलभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात् ,तथाविधगन्धाs. भिनवं भावानां कार्यकारणभावमुत्थापयितुं शक्नुमः किंतु धारद्रव्यवद, इति । द्वितीयकल्पेऽपि गन्धद्रव्येण व्यभि- यथा प्रवृत्तमनुसरन्तो व्यवहरामः । नास्मदिच्छया आपः चारः । वर्तमानजात्यकस्तूरिकाकर्पूरकश्मीरजादिगन्ध- शीतं शमयन्ति कृशानुर्वा पिपासा, किंतु तत्र दाहादावद्रव्यं हि पिहितकपाटसंपुटापवरकस्यान्तर्विशति, बहिश्च न्वयव्यतिरेकाभ्यां वा वृद्धव्यवहाराद्वा ज्वलनादेरेव कारनिस्सरति, नचापौद्गलिकम् । अथ तत्र सूक्ष्मरन्ध्रसंभधेना- णत्वमवगच्छाम इति तदेव तदर्थन उपादध्महे, न जलादि । तिनिविडत्वाभावात्तत्प्रवेशनिष्काशी; अत एव तदल्पीय- तदेतदतथ्यम् । यतो यथाभूतादेव विभावसो होत्पत्तिः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम " प्रतीयते तथाभूतादेवमगमन्त्रयन्त्रन्त्रपचादिनिधाने सति न प्रतीयते । यदि हिमेव रूपं स्फुटं स्फोर्ड घटयेत् तदा तदानीं तस्य समस्तस्य सद्भावात्तदनुत्पादो न स्याद् । अस्ति त्रासौ, ततो दृष्टरूपस्य व्यभिचारं प्रपइयतायाः समर्थयति तथा च"स्वरूपात्वाऽप्यनुद्यतरसहकापतात् किं न क पयितुं शक्रं शक्रिमन्यामतीन्द्रियाम् ॥ १ ॥ चक्रम्दाहादावन्वयव्यतिरेकाभ्यां वृद्धव्यवहाराद्वा ज्वलनादरेव कारत्वमवगच्छामः इति । तदुक्किमात्रमेव । यत एव हि दाह-दहनयोः कार्यकारणभावनियमः प्रसिद्धिपद्धतिप्रतिबद्ध एव तत एव प्रसङ्गः प्रवर्तते । यदि कृशानुः स्वरूपमात्रादेव दाहमुत्पादयेत् तर्हि तदविशेषादुदन्यापनोदमपि विदध्यादिति । " । " अथ न मणिमन्त्रादिप्रतिबन्धककटये सति स्फोटानुपमिरएं रूपमाक्षिपति, यथा ह्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामवतसामथ्यों दद्दना दादहेतुः तथा प्रतिबन्धकाभायोऽपि । स च प्रतिबन्धयोगे विनिवृत्त इति सामग्री वैगुण्यादेव दास्यानुत्पत्तिः नतु शक्रियैकल्पादिति चेत् तदयुक्रम्। यतः प्रतिवन्धकाभावो भावादेकान्तव्यतिरिक्तः कथं किचित्कार्यं कुर्यात् ? कूर्मरोमराजीवत् । ननु नित्यानां कर्मखामकरणात्प्रागभावस्वभावात्प्रत्यवाय उत्पद्यंत, अन्यथा नित्याकरण प्रायति न स्यात् यत्त तथ्यम्। नित्याकरतस्वभावाकियान्तरकरणादेव प्रत्यवायोस्वत्तेरभ्युपगमान् त्वन्मतस्य तस्य तदेतुत्वाऽसि "सुखदुः समुत्पत्ति-रभाव शमित्रयोः ॥ करटका भावमा लक्ष्य, पादः पथि निधीयते ॥१॥ तत्राऽयमित्रमित्रकण्टकाभावज्ञानानामेव सुखदुःखामिनिधानका र्यकारित्वं, नत्यभावानाम् । तज्ज्ञानमप्यमित्रमित्रकण्टकविविप्रतियोगिववन्तरसंपादितमेव नतु वमिताभाषकृतम्। अथ भाववद्भावोऽपि भावजननसमर्थोऽस्तु को दोष न हि निःशेषसामरहितत्वमभावलक्षणम्। अपि तु नास्तीति मानगम्यत्यम् । सत्प्रत्ययगम्पो हि भाव उच्यते श्रसत्प्रत्ययगम्यस्त्वभाव इति चेत् । तदयुक्तम् त्वभ्युपगताभावस्य भावात्सथा पार्थक्येन स्थितस्य भावोत्पात्यविरोधात् तथादि-विवादास्पदीभूतोऽभावो भावोत्पादको न भवति, भावादेकान्तव्यतिरिक्लत्वात् यदेवं तदेवं यथा तुरङ्गशृङ्गम् । तथा चायं तस्मातथा । प्रागभावप्रध्वं साभावपरस्पराभावस्वभावो भावो वस्तुनो पतिरिक्रमूर्तिर्मायोत्पादकः परैरिष्टः सोऽपि वादपदशब्दितः । श्रन्यथा - जैनस्य भावाविश्वग्भूताभावैभयात्पादकत्वेना यांचा स्वात् योगस्य चात्यन्ताभावन भावानुपादकेन सिद्धसाध्यता भवेत्। नन्वयं चबिनो पासोमायो भवद्भिः प्रतिपक्षो न वा यदि तिपन्नः किं प्रत्यक्षाद्, अनुमानात्, विकल्पाद्वा; उपमानादे , तित्वात् यदि प्रत्यक्षात् तदा कथमभावस्य भा योत्पादनापवादस्पदः स्वात् प्रत्यपद अचानुमानात्प्रतिपती त्रायमाणः प्रतीतिरनुमानान्तरादेव, इत्यत्राऽनवस्थादौस्थ्यस्थेमा | विकल्पाकृषि तत्प्रतीति प्रमाणमूलात् तन्मात्रादेव यान प्रथ (m) अभिधानराजेन्द्रः । 9 3 सिद्धिपरिहार मात् प्रमाणस्व तिरस्कृतत्वात्। विकल्पमात्रास्तीतिरका ततः कयापि प्रतिपत्तेरनुपपत्तेः अन्यथा प्रामादिकाप्रमापमरमी स्वात् तथा चा यासिद्धो देतुः । अथामतिपत्रः नहिं कथं धमित योपादायि उपासे चास्मिन् हेतुराश्रयासिद्ध एवं विक मायादेवतयति मं नवाक्षपासिद्धिः श्रवस्तुनि विकल्पारविश्वावाद यायास्तनन्यादिशब्दानुधारणात्। नच-नोचा एवायं मये ति वाच्यम् । बान्ध्येयोऽस्ति नास्ति वेति । पर्यनुयोगे पृथ्वीपतिपरिषद्यवश्यं विधिनिषेधान्यतराभिधायिवत्र मस्या वकाशात् तू पुतोऽस्याप्रतिपित्सितं किंविचारयतो या पिशाचकित्वप्रसङ्गात् । तथाविधवचनधारणे च कथमेतदिति प्रमाणगवेषणे अनुमानमुच्चार्यमाणमाश्रयासिद्धिग्रस्तम् । समस्तं निष्प्रमाणकं वचनमात्रं प्रेक्षावता प्रश्ननाऽनपेक्षितमेव न चोभयाभावो ऽभिधातुं शक्यः। विधिनिषेधयमाभावभावत्वात् एकनिषेधेनापविधानात् । विधिप्रतिषेधो हि निषेधः, निषेधप्रतिषेधश्च विधिः । अस्तु बोभयप्रतिषेधप्रतिज्ञातस्तु तत्रपादीयमानस्य नातयुक्रम्" धर्मस्य कस्यचिदवस्तुनि मानसिद्धा - बाधाविधिव्यवहतिः किमिहास्ति ना या । अस्य कथमियन्ति न दूपखानि नास्त्येय चेत् लवचनप्रतिरोधसिद्धिः ॥ १ ॥ ( श्रस्य व्याख्या ) - श्रवस्तुान बाधाविधिव्यवहाणे नास्तीत्येतदननेय स्वयचनेन प्रतिरुध्यने नास्तीति प्रतिषेधस्य स्वयं कृतत्वाद् इत्यन्यपादस्यार्थः । तुरङ्गश्टङ्गदृष्टान्तोऽपि विकल्पादेव प्रसिद्धः स्वीकर्त्तव्यः । तत्र व वस्त्वेकान्तव्यतिरेके सति भावानुत्पादकत्वमपि प्रतीतम्, इति नास्य साध्यसाधनम्। ननु जैनधीवादभिनस्याभावस्याभ्युपगमात् वाद्यसिद्धां हेतुरिति चेत्, तदसत् । पराभ्युपगताभावस्य धर्मीकृतत्वात् तस्य च भावादकान्तेन पृथग्भूततया जेनेरपि खीकारात् । न खचत्रस्तु वस्तुभूताद्भावादभिश्रमिति मन्यन्त जनाः। ततो नामायो भावोत्पादकस्यास्तीति सिद्धम् ॥ किंचपदातिबन्ध काभावो विभावसुखरूपादेकान्तविद्यां भ्युपागामि तदा विभावसुः प्रतिबन्धकस्वभावस्स्वीकृतः स्यात्, प्रतिबन्धकाभावाद्यावर्तमानत्वान्मणिमन्यादिप्रतिबन्धकस्वरूपवत् । तथा च कथंकदाचिद्दाहादिकार्योत्पादो भवेत् ? विभावसारेच प्रतिबन्धकत्वात् अथ कथं विभावसुः प्रतियन्धकः स्यात् ? तत्र प्रतिबन्धकप्रागभावस्य विद्यमानत्वात् । तदनवदातम् । एतावता हि तत्र वर्त्तमानः प्रतिबन्धकप्रागभाव एव प्रतिबन्धकस्वभावो मा भूत्, विभावसुस्वरूपं तु तदभावाटपावर्तमान प्रतिबन्धकतां कथं न फलयेत् । यथाहि प्रतिबन्धका स्वभावादावर्त्तमानः प्रतिबन्धकत दधाति तथा तनूनपादपि प्रतिबन्धकाभावाद्वयावर्त्तमानमूर्तिः कथं न प्रतिबन्धरूपतां प्रतिपद्येत ? स्थाद्वादिनां तु भावाभावो भयात्मकं वस्त्विति प्रतिबन्धकाभावात्मनः कृष्णवर्त्मनो न प्रतिबन्धकरूपता । किं च प्रतिबन्धकाभावस्य कार प्रतिवन्यस्य कस्यचिकटपऽपि प्रतियम्बकाभावान्तरमनकेषां भावात्कर्यन कारणादः । नदि कारकारकः कुम्भः कुम्भकारस्यैकस्याभावेऽपि कुम्भकारान्तरुयापारान्न भवति । नचैक एव , 1 9 आगम " Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा भागम अभिधामराजेन्द्रः। भागम कश्चित्प्रतिबन्धकाभावः कारणं, यदभावात्तदानीं न कार्य भाव एवास्तु हेतुर्नत्वतीन्द्रियशक्रिस्वीकारः सुन्दरः' इत्यजायते, तद्वदेव त्वन्मतेन सर्वेषामवधृतसामर्थ्यत्वात् । । प्युच्यमानमपास्तम् । उक्ताभावविकल्पानामत्राप्यविशेषात् । अथ सर्वे प्रतिवन्धकाभावाः समुदिता एव कारण; न अथ शक्रिपक्षप्रतिक्षपदीक्षिता"श्राक्षपादा" एवं साक्षेपमा. पुनरकैकशः कुम्भकारवत्, तर्हि कदाचिदपि दाहादि चक्षते-जनु भवत्वाचे प्रतिबन्धकोऽकिंचित्करः किंचित्करो कार्योत्पत्तिर्न स्यात् , तेषां सर्वेषां कदाचिदभावात् , वा भवेत् । अकिंचित्करप्रकारेऽतिप्रसङ्गः, शृङ्गभूभृतारा. भुवन मणिमन्त्रतन्त्रादिप्रतिबन्धकानां भूयसां संभवात् । उंदरप्यकिंचित्करस्य प्रतिबन्धकरवप्रसङ्गात् । किंचिअथ ये प्रतिबन्धकास्तं तनूनपातं प्रतिबद्धं प्रसिद्धसाम- करस्तु किंचिदुपचिम्बन् अपचिन्वन्वा स्यात् । प्राचिर्याः तेषामेवाऽभावाः सर्वे कारण, नतु सर्वेषां सर्वशब्दस्य पक्ष , किं दाद्दकशक्तियतिकूलां शक्ति जनयेत् . तस्या एप्रकारकास्न्ये वर्तमानस्य स्वीकारात्, इति चेत् । ननु व धर्मान्तरं वा । न प्रथमः, प्रमाणाभावात् । दाहाऽभावप्रसिद्धसामर्थ्या इति सामर्थ्यशब्दस्यातीन्द्रिया शक्तिः , स्तु, प्रतिबन्धकसनिधिमात्रेणेव चरितार्थ इति न तामुपपा. स्वरूपं चा प्रतिबन्धकानां वाच्यं स्यात् । प्राध्यपक्षकक्षी-| दयितुमीश्वरः । धर्मान्तरजनन तदभावे सत्येव दाहोत्पाद कारे, क्षीणः क्षणनावयोः कण्ठशोषः, अतीन्द्रियशक्तिस्वीका- इत्यभावस्य कारणत्वस्वीकारः, त्वदुक्काशेषनागभावाऽऽदिरात् । द्वितीयपक्ष तु त एव तं प्रति प्रतिबन्धका नापरे, विकल्पाऽवकाशश्च । इति कौतस्कुती नीतिः ? । स्वरूपस्योभयेषामपि भावात् । अपचयपक्ष तु प्रतिबन्धकस्ता शक्ति विकुट्टयेत् , तद्धर्म न खलु मषिमन्त्रादेः कश्चिदेव जातवेदसमाश्रित्य तत्स्व- चा । प्रथमप्रकारे-कुतस्त्यं कृपीटयोनेः पुचः स्फोटघटनरूपं, न पुनर्जातवेदोऽन्तरमिति । तथा न प्रतिबन्धकस्या- पाटयम् । तदानीमन्यैव शक्तिः संजातेति चेत् । ननु सा संजात्यन्ताऽभावस्तावत्कारणतया वक्तुं युक्तः, तस्याऽसवाद्, यमाना किमुत्तम्भकात्प्रतिबन्धकाभावात् देशकालादिकाअन्यथा-जगति प्रतिबन्धकका प्रत्यस्तमयप्रसवात् । रकचक्रात् अतीन्द्रियार्थन्तराद्वा जायते । श्राबभिदायाम् , अपरे पुनः प्रतिबन्धकाभावा एकैकश सहकारितां धी उत्तम्भकाभावेऽपि प्रतिबन्धकाभावमात्रात्कौतस्कुतं कार्यारन् , द्वित्रा था। प्रथमपक्षे प्रायभावः,प्रध्वंसाऽभावः, पर उजनं जातवेदसः। स्पराउभाषा, यः कश्चिद्वा सहकारी स्यात् । न प्रथमः, द्वितीयभेदे-वत एव स्फोटोत्पत्तिसिद्धेः शक्तिकल्पनावैयप्रतिबन्धकप्रध्वंसेऽपि पावकस्य लोषकार्योपलम्भात् । न द्वि यम् । तृतीये-देशकालादिकारकचकस्य प्रतिबन्धकालेतीयः, प्रतिबन्धकप्रागभावेऽपि दहनस्य दाहोत्पादकत्वात् । ऽपि सद्भावन शक्त्यन्तरप्रादुर्भावप्रसङ्गः । चतुर्थ-अतीन तृतीयः, प्रतिबन्धकसंबन्धबन्धोरपि धनञ्जयस्य स्फो न्द्रियार्थान्तरनिमित्तकल्पने तत एवं स्फोटः स्फुट भवि यति, किमनया कार्यम् ? । तन्त्र शक्तिनाशः श्रयसः । तद्वंदटघटनप्रसङ्गात् , तस्य तदानीमपि भावात् । न चतुर्थः, व तद्धर्मनाशपक्षोऽपि प्रतिक्षपणीयः । अत्राभिमहे। एप्ररूपयिष्यमाणानियतहेतुकत्वदोषानुषत्रात् । द्वित्रप्रतिबन्ध तेषु शक्लिनाशपक्ष एवं कक्षीक्रियत इत्यपरविकल्पशिल्पककाभावभेदे तु किं प्राग्रभावप्रध्वंसाऽभावी, प्रागभावपरस्प ल्पनाजल्पाकता कराठशाषायैव वः संबभूव । यनूकम्-कुतः राऽभावी, प्रध्वंसाऽभावपरस्पराअभावी, त्रयोऽपि वा हेतवो पुनरसावुत्पद्यतेति । तत्र शक्त्यन्तरसहकृता कृषीटयोनेरेभवेयुः । नाद्यः पक्षः, उत्तम्भकवैकटच तावन्तरेखापि पाघकस्य साषकार्याऽर्जनदर्शनात् । न द्वितीयतृतीयतुरीयाः, वेति चूमः । ननु प्रतिबन्धकदशायां सा शक्लिरस्ति; न वा । प्रतिबन्धकपरस्पराऽभावस्य प्राक् तदकारणत्वेन वर्णितत्वा नास्ति चेत् , कुतः पुनरुत्पद्यत । शक्त्यन्तरसद्दकृतादग्नरत्, भेदत्रयस्यापि चास्य परस्पराभावसंबलितत्वात् । वेति चेत् , तर्हि साऽपि शक्त्यन्तरसधीचस्तस्मादवोन्मजेअथ प्रागभावप्रध्वंसाभावोत्तम्भकमणिमन्त्रतन्त्रादयो यथा दित्यनवस्था । श्रथाऽस्ति, तदानीमपि स्फोटोत्पादिकां शक्ति योगं कारणमिति चत् । तदस्फुटम् । स्फोटादिकार्यस्यैव संपादयेत् ततोऽपि स्फोटः स्फुट स्यादवेति । अत्रोच्यतमनियतहेतुकत्वप्रसङ्गात्, । अनियतहतुकं-चाऽहेतुकमेव । प्रतिबन्धकावस्थायामप्यस्त्येव शक्त्यन्तरं , घटयति च स्फो. तथाहि-अन्वयव्यतिरेकावधार्यः कार्यकारणभावो भावा टघटनलम्पटां शक्किं तदापि । यस्तु तदा स्फोटानुत्पादः ,स नाम् , धूम-धूमध्वजयोरिव । प्रस्तुवे तु प्लोषादि यदेकदैक प्रतिबन्धकेनोत्पन्नोत्पन्नायास्तस्याः प्रध्वंसात्। प्रतिबन्धस्मादुत्पद्यनमामीक्षामासे, तदन्यदा यद्यन्यतोऽपि स्यात्, कापगमे तु स्फोटः स्फुटीभवत्ययेत्यतीन्द्रियशक्निसिद्धिः। श्रताहि तत्कारणकमेव तन्न भवेदिति कथं नाऽहेतुकं स्यात् ।। त्राऽऽशङ्कान्तरपरिहारप्रकारमौक्रिककणप्रचयावचायः स्या. द्वादरत्नाकरात् तार्किकैः कर्त्तव्यः । एवं च स्वाभाविकशक्तिअथ गोमायात् , वृश्चिकाच वृश्चिकोत्पादः प्रेक्ष्यते । न च मान् शब्दः अर्थ बोधयतीति सिद्धम् , अथ तदङ्गीकारे तत तानियतहतुकत्वं स्वीकृतं त्वयापीति चेत् । तदपि प्रपा- एवार्थसिद्धः संकतकल्पनाऽनथिकैव स्यादिति चेत् , मैवपात्रम् । सर्वत्र हि शालूकगोमयादौ वृश्चिकडिम्भारम्भश म् । अस्य सद्दकारितया स्वीकाराद: अगत्पत्ती पयःपृथितिरकास्ति इति यानि तच्छक्तियुक्तानि तानि तत्कार्योत्पा. व्यादिवत् । श्रथ स्वाभाविकसंबन्धाभ्युपगम देशभेदेन शब्दा. दकानि , इति नायं चः कलङ्कः सङक्रामति । भवतां पुनर- नामर्थभेदो न भवेत् भवतिचायम् , चौरशब्दस्य दाक्षिणात्यैत्राप्ययं प्रादुर्भवन् दुष्प्रतिषेधः, येषां वृश्चिकगोमयसाधा. रोदने प्रयागादिति चेत् । तदशस्यम् । सर्वशब्दानां सर्वार्थरणमकं किंचिन्नास्तीति । नव प्रागभावप्रध्वंसाभावोत्तम्भ प्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात् । यत्र च देशे यदर्थप्रतिपादनशक्तिकादीनामप्यकं किंचित्तुल्यं रूपं वर्त्तने । इति नानियतहतु. सहकारी संकेतः, स तमर्थ तत्र प्रतिपादयतीति सर्वमयदाकत्वेन दुर्विधदैवनेवाऽमी मुच्यन्ते । एतेन 'भावस्वभावोऽप्य- तमू । सौगतांस्तु प्रत्यविधेयानुवाद्यभावः योऽयं शब्दा २२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागम अभिधानराजेन्द्रः । मागम वर्णात्मा प्राययोः प्रसिद्धः, स स्वाभाविक सामर्थ्यसमया- | तापितृपुत्रभ्रातृगुरुसुगतादिवचसा विशेषमातिष्ठमानैरप्रकटभ्यां कृत्वा अर्थबाधनिबन्धनमेवेति । नीयमेव । अथ स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यां शब्दस्याथै सामान्य नव-नाऽस्ति विशेषस्वीकारः, तत्पठितानुष्ठानघटनायामेव रूपे, विशेषलक्षणे, तदुभयस्वभावे वा वाचकत्वं व्याक्रियेत । प्रवृत्तर्निर्निबन्धनत्वाऽऽपत्तेः। अथानुमानिक्यवाप्तशब्दादर्थन प्रथमे, सामान्यस्यार्थक्रियाकारित्वाभावेन नभोऽम्भो प्रतीतिः कथम् ?," पादपार्थविवक्षावान्, पुरुषोऽयं प्रतीजसन्निभत्वात् । न द्वैतीयीके, विशेषस्य स्वलक्षणलक्षणस्य ते । वृक्षशब्दप्रयातृत्वार, पूर्वावस्थास्वई यथा ॥१॥ इति विवैकल्पिकविज्ञानागोचरत्वेन संकतास्पदत्वाऽसंभवात् । वक्षामनुमाय, सत्या विवक्षयम् ; प्राप्तविवक्षात्यात् , मद्विवतत्संभवेऽपि विशेषस्य व्यवहारकालाननुयायित्वन संके- क्षावदिति वस्तुना निर्णयादिति चेत् , तवचतुरस्रम् । अमूहतनैरर्थक्यात् । तात्तीयीके तु स्वतन्त्रयोः, तादात्म्यापन्न- शव्यवस्थाया अनन्तरालवैशाषकपक्षप्रतिक्षपेण कृतनिर्वचयोर्वा सामान्यविशेषयोस्तद्गोचरता संगीर्यत । नाद्यः नत्वात् । किंच-शास्वादिमति पदार्थे वृक्षशनसंकते सत्यपक्षा, प्राचिकविकल्पोपदर्शितदोषानुषङ्गात् । न द्वितीयः, तद्विवक्षानुमानमातम्येत, अन्यथा बा। न तावदन्यथा । सामान्यविशेषयोबिरुद्धधम्माध्यासितत्वन तादात्म्याऽयो- केनचित्का वृक्षशब्नं संकेत्य तदुचारणात् , उन्मत्तसुप्तशुगादिति नार्थों वाच्यो बाचाम् , अपि तु परमार्थतः सर्वतो कसारिकादिना गोत्रस्खलनवता चान्यथाऽपि तत्प्रतिपादव्यावृत्तस्वरूपेषु स्खलक्षणष्वेकार्थकारित्वेन, एककारणत्वेन नाच हेतोयभिचारापत्तेः । संकेतपक्षे तु यथेष तपस्वी शचोपजायमानैकप्रत्यवमर्शरूपविकल्पस्याकारो बाह्यत्वेना- ब्दस्तद्वशास्त्वेव वदेत्तदा किनाम चूर्ण स्यात् । न खभिमन्यमानो बुद्धिप्रतिबिम्बव्यपदेशभाक अपोहः; शब्दश्रुतौ ल्येषोऽर्थाद्विमेति । विशेषलाभश्चैवं सति यदेवंविधाननुभूसत्यां तादृशोल्लेखशखरस्यैव वेदनस्योत्पादात् । अपाहत्वं यमानपारंपर्यपरित्याग इति । यदकथि-'परमार्थतः सर्वतोचास्य स्वाकारविपरीताकारोन्मूलकत्येनावसेयम् । अपो- ऽव्यावृत्तस्वरूपेषु स्वलक्षणेध्येकार्थकारित्वेन' इत्यादि । तदबते वाकाराद्विपरीत आकाराऽनेनेत्यपोह इति व्युत्पत्तेः। वद्यम् । यतोऽर्थस्य वाहदोहादरेकत्वम् , अविरूपत्वं, समा. तत्त्वतस्तु न किंचिद्वाच्यं वाचकं वा विद्यत, शब्दार्थ- नत्वं वा विवक्षितम् । न तावदाद्यः पता-पण्डमुण्डादी तया कथिते बुद्धिप्रतिबिम्यात्मन्यपाहे कार्यकारणभाव- कुण्डकाण्डभाण्डादिवाहादेरर्थस्य भिन्नस्यैव संदर्शनात् । स्येव चाव्यवाचकतया व्यवस्थापितत्वात् । द्वितीयपक्षेपि सदृशारणामास्पदत्वम् अन्यव्यावृत्त्यधि" अथ श्रीमदनेकान्त-समुद्घोपपिपासितः । अपोहमा ष्ठितत्यं वा समानत्वं स्यात् । न प्राच्यः प्रकारः, सशपपिबामि प्राग , वीक्षन्तां भिक्षयः क्षणम्" ॥१॥ इद्द ताव. रिणामस्य सौगतैरस्वीकृतत्वात् । न द्वितीयः, अन्यव्यावृत्ते. द्विकल्पानां तथाप्रतीतिपरिहतविरुद्धधर्माध्यासकथंचि रतात्विकत्वेन बाम्ध्येयस्येव स्वलक्षणेऽधिष्ठानासंभवात्। किं तादात्म्यापनसामान्यविशषस्वरूपवस्तुलक्षणातू गादीक्षादी च-अन्यतः सामान्येन विजातीयाद्वा व्यावृत्तिरन्यव्यावृक्षितत्वं प्राक्ग्राकटयत । ततस्तस्यतः शब्दानामपि तत्प्रसि त्तिर्भवेत् । प्रथमपते, न किंचिदसमानं स्यात् , सर्वस्यापि मेव । यतोऽजल्पि युष्मदीयैः “स एव शब्दानां विषयो सर्वतो व्यावृत्तत्वात् द्वितीये तु विजातीयत्वं वाजिकुखरायो विकल्पानाम्" इति कथम् अपोहः शब्दार्थः स्यात् । दिकार्याणां वाहादिसजातीयत्वे सिद्धे सति स्यात्, तश्चान्यअस्तु वा तथाप्यनुमानवर्तिक न शब्दः प्रमाणमुच्यते । च्यावृत्तिरूपमन्यषां विजातीयत्वे सिद्धे सति , इतिस्पष्टं अपाहगोचरत्वेऽपि परंपरया पदार्थे प्रतिबन्धात्प्रमाण परस्पराश्रयत्वमिति । एवं च कारणैक्यं प्रत्यवमर्शक्य च मनुमानमिति चेत् तत एव शब्दोऽपि प्रमाणमस्तु विकल्प्य दूषणीयम् । अपि च-यदि बुद्धिप्रतिबिम्बात्मा शअतीतानागताम्बरसरोजादिष्वसत्स्वपि शब्दोपलम्भानात्रा- ब्दार्थः स्यात्तदा कथमतो बहिरर्थे प्रवृत्तिः स्यात् ? । स्वथप्रतिबन्ध इति चेत् , ताभूद वृष्टिः, गिरिनदीवेगोपल प्रतिभासे उनथेऽर्थाध्यवसायाचेत् । ननु कोऽयमर्थाध्ययसाम्भात् , भावीभरण्युदयः, रेवत्युदयात् , नास्ति रासभ यो नाम अर्थसमारोप इति चेत्, तहि सोऽयमानर्थयोशृङ्ग समग्रममाणैग्नुपलम्भात् इत्यादराभावेऽपि प्रवृत्ते रग्निमाणवकयोरिव तद्विकल्पविषयभावे सत्येव समुत्पत्तुरनुमानऽपि नार्थप्रतिवन्धः स्यात् । यदि बचोवाच्याs- मर्हति नच समारोपविकल्पस्य स्वलक्षणं कदाचन गा. पाहोपि पारंपर्येण पदार्थप्रतिष्ठः स्यात् । तदानीम्-अलानि | चरतामञ्चति। मज्जन्तीत्यादिविप्रतारकवाक्याऽपाहाऽपि तथा भवदिति यदि चाऽनर्थे ऽर्थसमारोपः स्यात् , तदा वाहदोहाद्यर्थचेद् , अनुमयाऽपोहेऽपितुल्यमेतत् प्रमेयत्वादित्यिनुमेया- क्रियार्थिनः सुतरां प्रवृत्तिनं स्यात् । नहि दाहपाकाद्यर्थी उपाहेऽपि पदार्थप्रतिष्ठताप्रसक्तः । प्रमेयत्वं तुरेव न भवति, समारोपितपावकत्वे माणवके कदाचित्प्रवर्तते। रजतरूविपक्षासत्वतल्लक्षणाभावादिति कुतस्त्या तदपोहस्य तन्नि पतावभासमानशुक्तिकायामिव रजतार्थिनोऽर्थक्रियार्थिनो छतेति चेत् , तर्हि विप्रतारकवाक्यमध्यागम एव न भवति विकल्पात्तत्र प्रवृत्तिरिति चेत् । भ्रान्तिरूपस्तह्ययं समाआप्रोक्लत्वतल्लक्षणाभावादित्यादि समस्तं समानम् । यस्तु रोपः , तथा च कथं ततः प्रवृत्तोऽक्रियार्थी 'कृतार्थः "नातोक्नत्वं वचसि विवेचयितुं शक्यम्" इति"शाक्यो” वक्ति स्यात् । यथा शुक्तिकायां प्रवृत्तो रजातार्थक्रियार्थीति । यदस पर्यनुयोज्यः । किमाप्तस्यैव कस्याप्यभावादेवमभिधीयेत, पि प्रोक्नं कार्यकारणभावस्यैव वाच्यवाचकतया व्यवस्थाभावेऽप्यभावस्य निश्चयाभावात् , निश्चयेऽपि मौनवतिक- पितत्वादिति । तदप्ययुक्नम्। यतो यदि कार्यकारणभाव पव त्यात् , वक्तृत्वेऽप्यनाप्तवचनात् , तद्वचसो विवेकावधार- वा वाच्यवाचकभावः स्यात् , तदा श्रोत्रज्ञाने प्रतिभासमानः णाभावाद्वा । सर्वमप्येतत् "चार्वाका" दिवाचां प्रपश्चात्। मा- शब्दः स्वप्रतिभासस्य भवत्येव कारणमिति तस्याऽप्यसौ वा. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम अभिधानराजेन्द्रः। प्रागम चकः स्यात् । यथा च विकल्पस्य शब्दः कारणम् , एवं परंप- सो स समयपमवओ, सिद्धंतविराहो अन्नो ॥ ४५ ॥ रया स्वलक्षणमपि, अतस्तदपि वाचकं भवेदिति -तिनियत यो हेतुवादाऽऽगमविषयमर्थ हेतुवादाऽऽगमेन, तद्विपरीवाच्यवाचकभायव्यवस्थानं प्रलयपद्धतिमनुधावेत् , ततः श. तागमविषयं चार्थमागममात्रेण प्रदर्शयति वक्ता स स्वसिद्धाब्दः सामान्यविशेषाऽऽमकार्थाववाधनिबन्धनमवेति स्थितम् । न्तस्य-द्वादशाङ्गभ्य प्रतिपादनकुशलः, अन्यथाप्रतिपादस्वाभाचिकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थवोधनिबन्धनं शब्दः - यश्व-तदर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तत्प्रतिपादके वचस्युक्तम् । अथ किमस्य शब्दस्य स्वाभाविक रूपं, किंच सि अनास्थाऽऽदिदोषमुत्पादयन्-सिद्धान्तविराधको भवति परापक्षमिति विवेचयन्ति सर्वशप्रणीतागमस्य निःसारताप्रदर्शनात् । तत्प्रत्यनीको भवअर्थप्रकाशकत्वमस्य स्वाभाविक प्रदीपवद्यथाऽर्थत्वाऽ- | तीति यावत् । यथाऽर्थत्वे पुनः पुरुषगुणदोषावनुसरतः इति ॥ १२ ॥ तथाहि-पृथिव्यादेर्मनुष्यपर्यन्तस्य षड्विधजीवनिकायस्य जीवत्वमागमेनाऽनुमानादिना च प्रमाणन सिद्धं तथैव प्रतिअर्थप्रकाशकत्वम्-अर्थावबोधसामर्थ्यम् । अस्य-शब्दस्य पादयन् स्वसमयप्रज्ञापकः, अन्यथा तद्विराधकः । यतः स्वाभाविकम्-पराउनपेक्षम् । प्रदीपवत्-यथा हि प्रदीपः प्र प्रव्यक्तचेतने त्रसनिकाये चैतन्यलक्षणं जीवत्वं स्वसंवेदनाकाशमानः शुभम् अशुभं वा यथासन्निहितं भावमवभासय. ध्यक्षतः स्वात्मनि प्रतीयते, परत्र तु अपरेण-अनुमानतः । ति, तथा शब्दोऽपि वक्त्रा प्रयुज्यमानः यूनिवर्तिनीमवती. णः सत्ये अनृते चा, समन्विते असमन्विते घा, सफले वनस्पतिपर्यन्तेषु पृथिव्यादिषु स्थावरेषु त्वनुमानतश्चैतन्यनिष्फले चा, सिद्धे साध्ये वा; वस्तुनि प्रतिपत्तिमुत्पा प्रतिपत्तिः। तथाहि-वनस्पतयश्चेतनाः, वृक्षायुर्वेदाभिहितप्रदयतीति तावदेवास्य स्वाभाविक रूपम् । अयं पुनः तिनियतकालायुष्कविशिष्टौषधप्रयोगसंपादितवृद्धिहानिक्षत. प्रदीपाच्छन्दस्य विशेषः-यदसौ संकेतव्युत्पत्तिमपेक्षमा भग्नसरोहणप्रतिनियतवृद्धिषड्भावविकारात्पादनाशावस्थायः पदार्थप्रतीतिमुपजनयति, प्रदीपस्तु तन्निरपेक्षः । नियतविशिष्टशरीरस्निग्धत्वरूक्षत्वविशिष्टदौहृदबालकुमारयथार्थत्वाऽयथार्थत्वे-सत्यार्थत्याऽसत्यार्थत्वे पुनः प्रतिपाद वृद्धावस्थाप्रतिनियतविशिष्टरसवीर्यविपाकप्रतिनियतप्रदेशा हारग्रहणादिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः,विशिष्टस्त्रीशरीरवदित्याद्यनु कनराधिकरणशुद्धत्वाशुद्धत्वे अनुसरतः; पुरुषगुणदोषापेक्ष मानं भाष्यकृत्प्रभृतिभिर्विस्तरतः प्रतिपादितं तचैतन्यप्रइत्यर्थः । तथाहि-सम्यग्दर्शिनि शुचौ पुरुष वनरि यथार्था साधकमित्यनुमानतस्तेषां चैतन्यमात्र सिध्यति । साधाशाब्दी प्रतीतिः अन्यथा तु मिथ्याथैति। स्वाभाविक तु रणप्रत्येकशरीरत्वादिकस्तु भेदः (जीवविचारगाथा)याथायें मिथ्यार्थत्वे चाऽस्याः स्वीक्रियमाण विप्रतारकेत " गूढशिरसंधिपब्वं, समभंगमहीरगं च छिन्नरुहं । रपुरुषप्रयुक्तवाक्येषु व्यभिचाराऽव्यभिचारनियमो न भवेत् । साहारण सरीरं, तब्विवरीयं च पत्तेयं ॥१२॥" पुरुषस्य च करुणादयो गुणा, द्वेषादयो दोषाः प्रतीता एव । इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव । जीवलक्षणव्यतिरिक्तलक्षणातत्र च यदि पुरुषगुणानां प्रामाण्यहतुत्वं नाभिमन्यते जैमिनीयैस्तर्हि दोषाणामप्यमामानिमित्तता मा भूत् । दोषप्र स्त्वजीवा धर्माऽधर्माऽऽकाशपुद्गलभेदेन पञ्चविधाः। तत्र पुशमनचरितार्था एव पुरुषगुणाः, प्रामाण्यहतवस्तु न भव द्लास्तिकायव्यतिरिक्तानां स्वतो मूर्तिमद्रव्यसंबन्धमन्तन्तीत्यत्र च कोशपानमेव शरणं श्रोत्रियाणामिति । रत्ना० रेणात्मद्रव्यवदमूर्त्तत्वादनुमानप्रत्ययावसयता । तथाहि४ परि० । "गतिस्थित्यवगाहलक्षणं पुद्गलास्तिकायादिकार्य" विशिष्ट कारणप्रभव, विशिष्ट कार्यत्वात् , शाल्यङ्करादिकार्यवत् , य(१६) (शब्दाऽर्थयोर्वाच्यवाचक भाव एव सम्बन्धः इति णि. श्वासौ कारणविशषः स धर्माऽधर्माऽऽकाशलक्षणो यथासहेस'शब्द चतर्थभागे १५३० विशेषावश्यकगाथाव्याख्यावसर ख्यमवसेयः । कालस्तु विशिष्टपरापरप्रत्ययादिलिङ्गानुमेयः । वक्ष्यते)संबन्धस्त्वभिधेयेन सह वाच्यवाचकभावलक्षणःशा- पुद्गलास्तिकायस्तु प्रत्यक्षानुमानलक्षणप्रमाणद्वयगम्यः यस्त्रस्यावश्यंभावी, इत्यनुक्तोऽपि अर्थात् गम्यते, इति संबन्ध- स्तेषां धर्मादीनां संख्येयप्रदेशात्मकत्यादिको विशेषस्तत्प्रदेरहितत्वाऽऽशङ्कानुत्थानोपहतैवेति । रत्ना०१ परि०१सूत्रटी। शानां च सूक्ष्म-सूक्ष्मतरत्वादिको विभागः स:-"कालो य होइ ( सम्मतितर्क--स्याद्वादमञ्जरी-रत्नाकरायतारिकादिग्रन्थे- सुहुमो” इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव नागमनिरपेक्षयुक्त्यवभ्यो विशेषोऽवगन्तव्यः) । (शब्दस्य पौद्गलिकत्वं नाका- सयः । एवमाश्रवादिष्यपि तत्त्वेषु युक्त्या श्रागमगम्येषु शगुणत्वमिति 'सह शब्दे ७ सप्तमे भागे दर्शयिष्यत) युक्लिगम्यमंशं युक्लित एव, श्रागमगम्यं केवलाऽऽगमत एव (२०) (आगमस्य हेतुवादाऽहंतुवादभेदेन द्वैविध्यम् प्रतिपादयन् तु स्वसमयप्रज्ञापकः, इतरस्तु तद्विराधक इति 'अहेउवाय' शब्दे प्रथमभाग ६१ पृष्ठ अहतुवादस्वरूपं , प्रज्ञापकलक्षणमवगन्तव्यम् । सम्म० ३ काण्ड । तत्रैव हेतुवादलक्षणमपि गतम्) (२१) आगमस्य सर्वव्यवहारनियामकत्वम्"जीवाऽजीवाश्रवबन्धसंबरनिर्जरामोक्षास्तत्वम" (तत्त्वा- आगमात्सर्व एवाऽयं, व्यवहारः स्थितो यतः । र्थसू०१-४) इत्युभयवाऽऽदागमप्रतिपाद्यान् भावांस्तथैवासं- तत्रापि हाठिको यस्तु, हन्ताऽज्ञानां स शेखरः ॥२३६।। कीर्णरूपान् प्रतिपादयन् सैद्धान्तिकः पुरुषः, इतरस्तु तद्वि आगमाद्-गुरुवचनप्रत्ययरूपात्सर्व एव-निखिलोऽध्ययम्राधक इत्याह योगमार्गोपयोगी व्यवहारो-हेयोपादेययोर्हानोपादानरूपः जो हेउवायपक्ख-म्मि हेउप्रो आगमे य आगमित्रो। स्थितः-प्रतिष्ठितो यता-यस्मादतीन्द्रियफलत्वात्तस्यातीन्द्रि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम अभिधानराजेन्द्रः। यफलषु चानुष्ठानेषु शास्त्रस्यैव प्रतीतिहेतुत्वात् ततस्तत्रा- (२२) धर्ममार्गे चाऽऽगमस्यैव प्रामाण्यम् , कुशीलानामाप्यागमाधीने व्यवहारे किं पुनरितररूप इत्यपि शब्दार्थः । गमाऽप्रमाण्यम् )'हाठिकः' स्वविकल्पप्रवृत्त्यागमनिरपेक्षत्येन बलात्कारचारी। यस्तु-यः पुनयोगी हन्तति सन्निहितसभ्यामन्त्रणमज्ञानाम् जम्हा न धम्ममग्गे, मोत्तूणं आगम इह पमाणं । अबुद्धिमतांस शेखरः-शिरोमणिवततेऽनुपायप्रवृत्तत्वात्तस्य। विजइ छउमत्थणं, तम्हा एत्थेव जइअव्वं ॥ १७०७॥ किंच यस्मान्न धर्ममार्गे-परलोकगामिनि मुक्त्वा प्रागमम तत्कारी स्यात्स नियमात् , तद्वेषी चेति यो जडः। परमार्थत इह प्रमाणं-प्रत्याख्यानादि विद्यते छद्मस्थानां प्रा णिनां, तस्मादत्रैवागमे कुग्रहान्विहाय यतितव्यम् । जिशाआगमाऽर्थे तमुल्लङ्घन्य, तत एव प्रवर्तते ।। २४०।। साऽश्रवणश्रवणानुष्ठाने यत्नः कार्यों नागीतार्थजनाचरणपतत्कारी-तत्करणशीलः स्याद्-भवेत्ल नियमादयश्यंभावेन रेण भवितव्यमिति गाथार्थः । तद्वषी च-स्वयमेव क्रियमाणवस्तुद्वेषवांश्चेत्येतत्तद्रूपः संप प्रत्यपायप्रदर्शनद्वारेणैतदेवाहचत यः-काश्चजडो-मन्दः, आगमार्थ-आगमविहिते चैत्यवन्दनादौ विधातुमिष्टे । तम्-श्रागममुल्लङ्घय-अतिक्रम्य तत सुअवज्झायरणरया, पमाणयंता तहाविहं लोअं । एव'-पागमादव प्रवर्तते-आगमनिरूपितविधिनिरपक्षितया भुअणगुरुणो वरागा, पमाणयं नावगच्छति ॥१७०८॥ आगमार्थमनुतिष्ठनपि न तद्भक्तः । किंतु-तद्विष एव श्रुतबाह्याचरणरताः-आगमबाह्यानुष्ठानसक्नाः प्रमाणद्वेषमन्तरेण तदुल्लवनाभावादिति भावः । यो०बि०। यन्तः-सन्तः केनचिच्चोदनायां क्रियमाणायां तथाविधं लो. (अतीन्द्रियार्थप्रत्यायकस्त्वागम एव) कं-श्रुतबाह्यमेवाऽगीतादिकं, किमित्याह-भुवनगुरोः-भगव" आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । ततीर्थकरस्य वराकास्ते ऽप्रमाणतामापत्तिसिद्धां नावगअतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ च्छन्ति, तथाहि-यदि ते सूत्रबाह्यस्य कर्तारः प्रमाणं भगवांआगमो ह्याप्तवचन-माप्तं दाषक्षयाद्विदुः । स्तर्हि तद्विरुद्धसूत्रार्थवक्ता अप्रमाणमिति महामिथ्यात्वं वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न चूयाद्धत्वसंभवात्" ॥२॥ बलादापद्यत इति गाथार्थः । दश०४ अ० । अनु०। । अत एव प्रक्रमाद्धर्मानधिकारिणमाहतथा च सुत्तेण चोइओ जो, अमं उद्दिसितएण पडिवजे । शास्त्रस्यैवावकाशौ च, कुतर्काऽऽग्रहतस्ततः । सो तत्तवायबज्भो, न होइ धम्ममि अहिगारी॥१७०६॥ शीलवान् योगवानत्र, श्रद्धावाँस्तत्वविद्भवेत् ॥ १३॥ | सूत्रण चोदितः-इदमित्थमुक्तम् एवं, यः सत्त्वः अन्य-प्राअब-अतीन्द्रियार्थसिद्धौ शास्त्रस्यैवावकाशस्तस्यातीन्द्रि णिनं मुदिश्यात्मतुल्यमुदाहरणतया तन्न प्रतिपद्यत । सौत्र. यार्थसाधनसमर्थत्वाच्छुष्कतर्कस्थातथात्वात् , तदुक्तम्-"गो. मुक्तं, स-एवंभूतः-तत्त्ववादबाह्यः, परलोकमङ्गीकृत्य परमार्थचरस्वागमस्यैव, ततस्तदुपलब्धितः । चन्द्रसूर्योपरागादि वादबाह्यो , न भवति , धर्मे सकलपुरुषार्थहेतावधिकारी संवाद्यागमदर्शनात् ॥२॥" द्वा० २३ द्वा०। (श्लोकार्थः 'कुतक' सम्यग्विवेकाभावादिति गाथार्थः । शब्द तृतीयभागे ५८५ पृष्ठ करिष्यते) अत्रैव प्रक्रमे किमित्याहअस्थानं रूपमन्धस्य , यथा सन्निश्चर्य प्रति । तीअवहुस्सुयणायं, तक्किरिश्रादरिसणा कह पमाणं । तथैवातीन्द्रियं वस्तु , छमस्थस्यापि तचतः॥ २५ ॥ वोच्छिजंती अइमा, सुद्धा इह दीसई चेव ।। १७१० ॥ हस्तस्पर्शसमं शास्त्रं , तत एव कथंचन । तीतबहुश्रुतज्ञातम् , अतीता अप्याचार्या बहुश्रुता एव, अत्र तनिश्चयोऽपि स्या-तथाचन्द्रोपरागवत् ॥२६॥ । तैः कस्मादिदं वन्दनं कायोत्सर्गादि नानुष्ठितमित्यवंभूतंद्वा० १६ द्वा० । (अनयोरर्थः - इस्सर' शब्दऽस्मिन्नेवभागे किमित्याह-तक्रियादर्शनाद तीतबहुश्रुतसंवन्धिक्रियादविस्तरतः दर्शयिष्यते) शनात्कारणात्कथं प्रमाणं; नैव प्रमाणं , न ज्ञायते ते कथं (अागमस्य परलोकादिसाधकत्वम् ) वन्दनादिक्रियां कृतवन्त इति । नचंदानींतनसाधुमात्रगतआगमप्रमाणबलाद्धि सकलपि परलोकादिपरस्वरूपं य क्रियानुसारतः तत्तथातावगम इत्याह-व्यवच्छिद्यमाना थावदनुगम्यन्त नान्यतस्तेन यदुच्यते प्रशाकरगुप्तेन-दी- चयं क्रिया शुद्धा आगमानुसारिणी इह लोके सांप्रतमपि घकालसुखा दृष्टा-विच्छा तत्र कथं भवेत्" इति तदपास्त दृश्यत एव , कालदोषादिति गाथार्थः । मवसयम् आगतौ दीर्घकालसुखस्य दर्शनात् । न चागमस्य उपसंहरन्नाहन प्रामाण्यं तदप्रामाण्ये सकलपरलोकानुष्ठानप्रवृत्त्यनुपपत्तः आगमपरतंतेहिं , तम्हा णिचं पि सिद्धिकंखीहि । उपायान्तराऽभावात् । नं०३ गाथाटी। सव्वमणुट्ठाणं खलु, कायव्वं अप्पमत्तेहिं ।। १७११ ।। शास्त्रमासन्नमव्यस्य, मानमामुष्मिके विधी। यस्मादेवम्-आगमपरतन्त्रैः-सिद्धान्तायतैः तस्मान्नित्यमसेव्यं यद्विचिकित्सायां, समाधिप्रतिकूलता ।। ३०॥ पि-सर्वकालमणि सिद्धिकालिभि-भव्यसत्वैः सर्वमनुष्टानं द्वा० १४ द्वा० । ( अस्य श्लोकस्यार्थः 'जोग' शब्दे चतु- खलु बन्दनादि कर्तव्यमप्रमत्तैः-प्रमादरहितैरिति गाथार्थः । र्थभागे १६३२ पृष्ठे दर्शयिष्यते) पं०व०। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) अभिधानराजेन्द्रः। नागम मोक्षमार्गे चाऽऽगमस्यैव प्रामाण्यम् (२३) जिनाऽऽगामस्यैव सत्यत्वम्अम्हा न मोक्खमग्गे, मोत्तूणं आगमं इह पाणं । एकाऽप्यनायाऽखिलतत्त्वरूपा, विज़्जइ छउमत्थाणं, तम्हा तत्थेव जइसव्वं ।। ३७॥ जिनेशगीविस्तरमाप तकः । यस्मान-नैव मोक्षमार्गे-मोखे साध्य; मोक्षागमशास्त्रं परि तत्राऽप्यसत्यं त्यज सत्यमङ्गी. स्यज्येत्यर्थः 'हे' ति-धर्मविचारे प्रमाणम्-पालम्बनमि कुरु स्वयं स्वीयहिताऽभिलाषिन् ! ॥१॥ त्यर्थः, विद्यते छदमस्थानाम् , अतिशयवतां हि कथं चे- 'पति' एकापि जिनेशगी:-अद्विाणी अर्हन्मुखानिर्गसेवातिशयवशात्प्रवर्त्तमानानामपि निर्जरालाभ एवावसी । च्छमाना अद्वितीया यथाभाषितं तथाश्रूयमाणा तथा यते, तद्वदितैः पुनः सर्वथा शास्त्रमेव प्रमाणीकर्तव्यम् । अनाद्या-श्रादिहिता एकेन तीर्थकृता यदुपदिएं तदनेकेषां तस्मात्तत्रैव यतितव्यम्-उद्यमः कार्य इति गाथार्थः । दर्शक पूर्वपूर्वतरतीर्थकृतामपि तथैव निरूप्यमाणत्वात् श्रादर५ तत्त्व। हिता । पुनः कीरशी-अखिलतत्त्वरूपा-समस्ततत्त्वमपि वि“धर्माधर्मव्यवस्थायां , शास्त्रमेव नियामकम् । वः-विचारैर्विस्तरं-बहुभेदतां प्राप्य बहुप्रकारै दुधा वितदुलासेवनाद्धर्म-स्त्वधर्मस्तद्विपर्यचात् ॥१॥" षोष्टी. स्तुता, यतो दिग्बाससां मतमपि जिनमतं धृत्वा एतादृशन-- १ विव यानाम् अनेकाकारतां प्रवर्तयति, अतस्तन्मतेऽपि यद्विमू(भागमावलम्बनस्यैवैहिकामुष्मिकालसिद्धिहेतुत्वम् ) ध. श्यमानं सत्यं जायते तदेवाजीकुरु, यथाऽसत्यं तत्सर्वमपि मार्थिना-धर्ममार्गे प्रवर्त्तमायब भागमावलम्बननैव प्रव त्यज, स्वयम्-श्रात्मना हेस्वीयहिताभिलाषिन् !-निजहितका. र्तितव्यं तस्यैवैकस्यैहिकामुष्मिकफलसिद्धिहेतुतयोपादेय-- जिन् ! शब्दान्तरत्वेन तन्मवमपि च द्वषविषयीकर्तव्यं सर्वत्वात् अन्यस्य पुरुषमात्रस्यावलम्बने तंदुच्छेदः स्यादि- मपि अर्यकत्वविवक्षया असमंजसमेवेति । द्रव्या०१ अध्या। त्येतदर्शयन्निदमाह सेवं भंते सेवं भंते! "तमेव सच्चं हिस्सकं. जिणेहिं किं वा देइ वरात्रो, मणुरो सुट्ठ विधणी विभत्तो वि। पवेइयं" । हता जंबू!-" तमेव सच्चं निस्संकं, जिशाणाअाइक्कम पुण, तयं पिअणंतदुहहेऊ ॥२॥ णहिं पवेइयं"। कहं आगासमंडलाओ निवडिपा इव किं वा न किंचिद्ददाति-प्रयच्छति वराकः-अत्यन्तशक्तिरहिता मनुजा-नरः सुष्टुषि-अतिशयेन धन्यपि-धान्यादि भासह । अम्मापिऊणं संजोए संताणे अवति । किं असंपदुपेतः भक्तोऽपि-भक्तपानवस्त्रपात्रादिदानसमर्थ एव बहा वि भवति पवेइयं इंता जंबू ! “ तमेव सच्चं निस्यात् । पुनः सुगतः, श्राज्ञातिक्रमणं-भगवदाशाल्लानं पुनः स्संकं जं जिणेहिं पवेइयं"। अंग० । परापेक्षयापि तनुकमपि-स्वल्पमपि श्रास्तां तावद् बहि से रसू भंते !-" तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेत्यपिशब्दार्थः, अनन्तदुखहेतुः, अनन्तसंसारनिबन्धनमित्यर्थः, अपक्षया सर्वविदाबालानं क्रियते स हि आहारा इयं । " हंता गोयमा !-तमेव सचं नीसंकं, एवं जाव दिदानमात्र एव समर्थः, व पुनः कुगतिरक्षाक्षमः, अतः पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा । (सूत्र-३७४/भ०१श०३ उ०। किं तदपेक्षया भगवदाशाल नेनानन्तसंसारनिवर्तननेति (जिनागमस्य सिद्धत्वम् )गाथार्थः । दर्श०४ तस्व। " जिणवयण सिद्ध" ४६ इत्यादिगाथया' धम्म ' शब्दे (युक्त्युपपन्नस्यैव सदागमत्वम् ) नाऽऽगममात्रमे चतुर्थभाग २६८४ पृष्ठ प्रतिपादयिष्यते । वाऽर्थप्रतिपत्तिहेतुर्भवतीति दर्शयवाह ( परपंवादानां मत्सरित्वम् जिनागमस्यामत्सरित्वम् ) अधुना परदर्शनानां परस्परविरुद्धार्थसमर्थकतया मत्सरिजुत्तीए अविरुद्धो, सदागमो सावि तयविरुद्ध त्ति ।। त्वं प्रकाशयन् सर्वक्षोपचसिद्धान्तस्याभ्याम्यानुमतसर्वनयइय अण्णोपाऽणुगयं, उभयं पडिवत्तिहेउ ति ।।४।। मयतया मात्सर्याभावमाविर्भावयतिव्याख्या-युक्त्या-उपपत्त्याऽविरुद्धः-अबाधितः सदागमः- अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् , सत्सिद्धान्तो भवति । साऽपि-युनिरपि, तदविरुद्धा-सि यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । शान्ताऽविरुजा स्यात्तदन्या त्वयुक्तिरेव, इतिः वाक्यार्थस नयाऽनशेषानविशेषमिच्छन् , माप्ती, इति-एवम् अन्योऽन्यानुगतं-परस्परानुयायि, उभयम्-युक्रिसदागमरूपं द्वयं प्रतिपत्तिहेतुः-अर्थप्रतीतिकार न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ ३० ॥ गणम , इतिशब्दः समाप्ती, इति गाथार्थः । पञ्चा०१८ विव०। स्या० ३० श्लोक० । (लोकार्थः ‘णय' शब्दे चतुर्थभागे १८६६ पृष्ठ दर्शयिष्यते) वचनाऽऽराधनया खलु, धर्मस्तबाधया त्वधर्म इति। (२४) (जिनागमप्रशंसा) जिनागमो हि कुशास्त्रजनिइदमत्र धर्मगुह्य, सर्वस्वं चैदिवाऽस्य ॥ १२॥ तसंस्कारविषसमुच्छेदनमन्त्रायमाणो धमाऽधर्मकृत्याऽ'वचने' त्यादि वचनाराधनया-श्राममाराधनयैव सलुशब्द कृत्यभन्याऽभक्ष्यपेयाऽपयगम्यागम्यसारामारादिविये - एवागर्थः । धर्म:-श्रुतचारित्ररूपः संपद्यते । षो०२ विव०॥ चनाहेतुः संन्तमसे दीप इव, समुद्र द्वीपभिव, मेरौ क( 'धम्मदेसणा' शब्द चतुर्थभागेऽत्र २७२२ पृष्ठ विशेष- ल्पतकरिव, संसारे दुगपः, जिनादयोऽप्येतत्प्रामाण्यादेव व्याख्यानम् ) निश्चीयन्ते यदूचुः स्तुनिषु श्रीहेमसूरयः (गर्थः । धम्मामाराधनया-मास्य ॥ १२ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 66 यदी सम्यक्त्वबलात्प्रतीमो, भवादृशानां परमाप्तभावम् । कुवासनापाविनाशनाय, नमोऽस्तु तस्मै जिनशासना " , जिनागम मानिनां च देवगुरुदपि बहुमताभयन्ति । किंच - केवलज्ञानादपि जिनागम एव प्रामाण्येनातिरिष्यतं यदायको सुचनाणी जमि सहद्द असुद्ध नं केवली व मुंज अपना भव हरा ॥ १ ॥ ” एकमपि च जिनागमवचनं भविनां भवनाशहेतुः, यदाहु:-" एकमपि च जिनवचनाद्यस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ताः, सामायिकमात्रसिद्धाः ॥ १ ॥ ' यद्यपि चमिवाभ्य आतुरेभ्य इव पाउन रोचते जिनवचनं तथापि नान्यत्स्वर्गापवर्गमार्गप्रकाशनसमर्थमिति सम्यग्दृष्टिभिस्तदादरेण श्रद्वातव्यं यतः कल्याणभागिन एव जिनवचनं भावतो भावयन्ति इतरेषां तु कलकारितेासुतमपि विषय यदि वेद जनच नामविध्यत्तदा धम्मीयव्यवस्था भवान्धकारे भुचनमपतिष्यत् क्या हरीतकी भद्विरेककामः " इति वचनाद्धरीतीभप्रभवविकलन प्रत्ययेन स कलस्याप्यायुर्वेदस्य प्रामाण्यमवलीयते, तथाऽणुडूनिमितवलिका चन्द्रा कंग्रह चारचानुवादरसरसायनादिभिर ध्यागमोपदिष्टैर्टार्थवाक्यानां प्रामाण्यनिश्चयेनाऽदृष्टार्थाना मपि वाक्यानां प्रामाण्यं मन्दधीभिर्निश्चेतव्यम् । ६० २ अधि (जिनागन लेखनम् पोरच शब्दे प मभागे दर्शयिष्यते ) ( जिनागम लिखित पुस्तकानां दानफलमूलाशने चतुर्धांग वायध्वन "आगमं आयते अत्तों विकखि तिरथनाही सयुद्ध अ० २४ अष्ट० । “आगम 35 , सत्रे ते बहुमन्निया ॥ १ ॥ ' चक्खू साहू श्र० २४ अ० । आगम्यते परित्यागमः केवलमनःपयांयावधिपूर्वच तुईश कदशक नवकरूपं व्यवहारभेदे स्था० ५ हा०२७० | व्यवहारता चास्य व्यवहारहेतुत्वाद् । पञ्चा०] १६ विव० | तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यवहारः । स्था० ५ ठा० २ उ० । ( विस्तरत श्रागमव्यवहारस्य वक्तव्यता श्रागमयवहार शब्देऽखिमेव भांग आगमिष्यति ) प्राप्ती, दश० १ ० । ( लाने, ) स्था० २ ठा० ४ उ० । 3 ,. (२५) श्रागमस्याऽर्थान्तराणि आतो आगगोतिय. लामो नि वहाँति एगड्डा ॥६॥ आय इति, आगम इति च. लाभ इति च भवन्त्येकार्थिकाः । उत्तपाई० १ ० । श्रागमं " लाभम् । लाभ. वृ० ३. उ० पुरुषास निकालने कलांमध प्रकृतिप्रत्यय उत्पयनेकने क्षण । श्रागच्छति सभा-पका देउलमाइयं वा ॥ १६३ ॥ आगन्तुकः पथिका 'गरज' यत्रयच्च तेषां पथिकादीना ने पाकश्रागमनगृहं विद्वांसः श्रुतधरा वदन्ति तच्च सभा वा प्रपा वा, देवकुजादिकं वा मन्तव्यम् । बृ० २ उ० । स्था० । ( अत्र निवास दोषासह शब्द मांग दर्शयिष्यते। ) | आगमगप-अ/गमनपथ- पुं० श्रागमनमार्गे निशा गमणपइंसिजणं पण पक्खियादिसु आगच्छति तंमि पहे । नि० ० ४ ० (निधीनामागमनपचे ने दीपा 'उहि देवि भागे दर्शविष्यंत ) आगमण | गणपपियति- आगमनागमनप्रविभक्ति-नाट्यविधिविशेषे, रा० । “ श्रागमागमपविभत्तिणामं दि. यं विहिं उवहंसेति " ( सूत्र - x ) रा० । चन्द्रागमन - प्रथिनांमागमननिाम सप्तमं नाटयविधिमुपद शयन्ति । रा० । 66 ७ रि संज्ञायां घः । व्याकरणांने प्रकृतिप्रत्ययानुपघात के अद् याद शब्दे श्रागमादेशयामंध्य बलीयानागमो विथिव्याकरणान्तरपरिभाषा “यदागमास्तद्गुणीभूतालदहन""आगमशास्त्रमनित्यम्" परिभा “श्रागमाः श्रायुदात्ताः श्रागमा अविद्यमानयद्भवन्तीति" आगमणी आगमनीति-श्री० । श्रगमन्याये, पञ्चा० । एसा पत्रयणीई " ( सूत्र - १४+ ) एषा - अनन्तरोक्ता भव छ । का वा । बाय० । " , , (६०) अभिधानराजेन्द्रः । , ( श्रागमनिष्पन्नं नामाधिकृत्याह ) - से किं तं आगमे आगमेगं पद्मानि पर्यासि कुडानिसेनं आगमेणं । (सूत्र - १२५४ ) आगरुडनीत्यागमः न्यागमादिन निष्पन्नं नाम यथा 'पद्मानी' त्यादि, “धुदखराद् छुटि नुः” (का०रू०२४) इत्यनंनात्र त्यागमस्य विधानाद् उपलक्षणमात्रं वेद, संस्कार उपस्कार इत्यादरणि सुडाद्यागमनिष्यन्नत्वादिति । श्रनु । ('सत्य' शब्द सप्तमभांग विस्तारो एल्पः ) गमकुसल आगमकुशल- ० आगमनिपुणे, खातु० । 66 श्रागमकुसला सदाररया || ४६४ ॥ श्रागमः श्रुतिस्मृत्यादिरूपस्तस्मिन् कुशलावागम कुशलाविति । उत्त० २५ श्र० । श्रागमण - आगमन - न० । श्र + गम् भावे ल्युट् । किञ्चिदेशावधिकविभाजन क्रियायामागतौ । वाच० । गमनं स्वस्थान्मदन्यत्र यानम् । श्रागमनञ्च तदूव्यत्ययः । ध० ३ अधि० । अन्यतः स्थानात् प्रज्ञापकसम्मुखं यदागम्यते तदागमनम् । वृ० १ उ० रे प्रक० । व्य०। उत्पत्तौ । वाच० । प्राप्तौ वाच० । श्रागमखगहियकिखिच्छय-आगमन गृहीतविनिश्वयत्रि० आमने गृहीतः कृता विपिनियां येन स तथा । श्रागमनाय कृतनिश्चये, भ० ६ ० ३३ उ० । आगमणगिह-आगमनगृह- न० पथिकादीनामागमनेनापत तदर्थं वा गृहमागमनगृहम् । वृ० २ उ० । सभाप्रपादौ सूत्र०/ श्रागमण हिंसि वा ( सूत्र - १६१* ) स्था० ३ ठा० ४ उ० आगमनगृहमागन्तुकागारं पत्र काटिकादय आगत्य वसन्तीति । पञ्चा० १८ विव० । - " 66 आगमणीइ - (आगमन व्याचऐ )आगंतुऽगारत्थजयो जहिं तु, संठाइ जं वाऽऽगमणंमि तेर्सि | तं आगमोकं तु विदू वयंति, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमणी अभिधानराजेन्द्रः। आगमवयणपरिण चननीतिः-श्रागमन्यायो वर्तते । पश्चा. विव० । सिद्धा- समयपरमत्थवित्थर-विहाडजणपज्जुवासणसयएहो । स्तभणिताऽऽचारे, " मग्गो भागमणीई" (Eo+)। भागम मागममलारहियो, जह होति तमत्थमनेसु ॥ २ ।। नीतिः-सिद्धान्तभणिताचारः । ध०र० ३ अधि० १ लक्ष०।। ध०। (तस्य मार्गत्वम् ' मग्ग' शब्दे ६ ष भागे प्रतिपाद सम्म०१ काण्ड । यिष्यते) अत्र च-'मागममलारहदय इत्यनुवादेन समयपरमार्थविस्तर हाटजनपर्युपासनसकों यथा भवति तमर्थमुन्नेष्ये' इति-विमागमतंत-आगमतन्त्र-त्रि० । भागमपरतन्त्रे, भागमानु धिपरा पदघटना कर्तव्या । पदार्थस्तु मलमिवारा-प्राजनसारिणि. घो। कविभागो यस्यासौ मलारो-गौर्गली भागमे तद्वत्कुण्ठंह. आगमतन्त्रः सततं, तद्वद्भक्त्यादिलिङ्गसंसिद्धः। दयं यस्य तदर्थप्रतिपत्यसामर्थ्यादसी तथा मन्दधीः , सचेष्टायां तत्स्मृतिमान् , शस्तः खम्बाशयविशिष्टः।।१३।। | म्यग् ईयन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽनेनार्था इति समयः-भागमस्त. स्य परमः-अकल्पितश्वासावर्थः समयपरमार्थस्तस्य विमागमतन्त्रः-आगमपरतन्त्रः भागमानुसारी । पो०७विवा स्तरो-रचनाविशेषः शब्दार्थयोश्च भेदेऽपि पारमार्थिकस(अत्र विशेषव्याख्या 'चेय' शब्दे तृतीयभागे १२६६ बन्धप्रतिपादनायाऽभेदविवक्षया 'प्रथने यावशब्दे' (पाणि पृष्ठ दर्शयिष्यते) ।३।३।३३।) इति घञ् न कृतः तस्य विहाट इति-दीप्यआगमतत्त-आगमतच-न० । श्रागमपरमार्थे, षो। मानान् श्रोतृबुद्धी प्रकाशमानानान् दीपयति-प्रकाशयति आगमतचं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥ २ ।। विहाटश्चासौ जनश्चचतुर्दशपूर्वविदादिलोकः । तस्य पर्यु आगमतत्त्वं तु-भागमपरमार्थमिदं पर्यवरूपं बुधा-विशिष्ट पासन-कारणे कार्योपचारात्' सेवाजनिततव्याख्यानम् । विवेकसंपन्नः परीक्षत-समीचीनमवलोकयति सर्वयत्नेन-स तत्र सह कर्णाभ्यां वर्तत इति सकर्णः तद्वयाख्यातार्थावदरेण धर्माऽधर्मव्यवस्थाया आगमनिबन्धनत्वात् यत धारणसमर्थः । यथा इति-येन प्रकारेण भवति तं तथाभू तमर्थम् उन्नेष्ये-लेशतः प्रतिपादयिष्ये । यथाभूतेनार्थेन प्रतिउक्नम् "धर्माधर्मव्यवस्थायां, शास्त्रमेव नियामकम् । तदुलासेवनाद्धर्म-स्त्वधर्मस्तद्विपर्यात् ॥१॥" पा०१ वियः। पादितेनातिकुण्ठधीरपि श्रोतृजनो विशिष्टागमव्याख्यातृप्र(अत्रार्थे ' धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६६४ पृष्ठ विशेषणे तिपादितार्थावधारणपटुः संपद्यते । तमर्थमनेन प्रकरणेन दर्शयिष्यते) प्रतिपायष्यामीति यावत् । सम्म०१ काण्ड । भागमदिदि-आगमदृष्टि-स्त्री० । आगमः-आप्तवचनं स एव आगममाण-आगमयत-त्रि०। आपादयति , "लाघवियं दृष्टिहिताऽहितपदार्थप्रकाशकत्वादागमदृष्टिः । प्राप्तवचना भागममाणे" । सूत्र-२१३+ )| लाघविकमात्मानमागमयन्त्मिकायां दृशौ, दर्श० ३ तत्व । पापादयन् । प्राचा०१श्रु०८०४ उ० । आगमयति, (अवबुध्यमाने) "लाघवं श्रागममाणा" (१८५४)। श्रागमयन्भागमदिद्विदिट्ठसुनायमग्ग-आगम दृष्टिदृष्टसुज्ञातमार्ग-पुं० । अवगमयन् अवबुध्यमानः । प्राचा०१ श्रु०६०३ उ०। आगमः-श्रातवचनं स एव दृष्ििहताऽहितप्रकाशकत्वात् आगमलोयणीइ-आगमलोकनीति-स्त्री० । जिनप्रवचनन्याभागमदृष्टिस्तया दृष्टम्-अवलोकितमागमदृष्टिदृष्टं तेन शाभनप्रकारेण ज्ञातो मार्गों ज्ञानादिको यैस्ते श्रागमदृष्टिदृष्टसु यलौकिकन्याययाः, षा। मातमार्गाः । आगमदृष्टया सम्यगवलोकितदर्शनादिके, जिण बिंबपइद्वाए, विहिमागमलोयणीतीए ॥१॥ दर्श० ३ तत्त्व। जिनबिम्बप्रतिष्ठायाः प्रतीताया विधि-विधानमागमलोभागमपरतंत-श्रागमपरतन्त्र-त्रिशसिद्धान्तपरतन्त्रे, पं०व०। कनीत्या-जिनप्रवचनन्यायेन; लौकिकन्यायेन चेत्यर्थः । लो कग्रहणेन चेदं दर्शयति-लोकनीतिरपि कचिजिनमतविरुएत्थ वि मूलं णेअं, एगतेणेव भव्यसत्तेहिं । द्धाश्रयणीया अत एव प्रासादादिलक्षणं तदुक्कमप्याश्रीयत सिद्धाइभावो खलु, आगमपरतंतया णवरं ॥१७०६।। इति गाथार्थः । पञ्चा०८ विव०। अत्रापि अाराधनायत्ने मूल-कारण शेयमेकान्तेनैव भव्य- आगमवयण-आगमवचन-न० । पार्षवचने , षो। सवै-भव्यप्राणिभिः, किमित्यत्राह-श्रद्धादिभावतः खलु सर्वज्ञवचनमागम-वचनं यत् परिणते ततस्तस्मिन् । श्रद्धादिभावादेव कारणादागमपरतन्त्रता-सिद्धान्तपास्तमयं नवरं, नान्यन्मूलमिति गाथार्थः । पं०व०५ द्वार । नासुलभमिदं सर्व , ह्युभयमलपरिक्षयात् पुंसाम् ॥११॥ प्रागमपह-आगमपथ-पुं० । नाभमार्गे, स्था०२ ठा०४ उ०। सर्ववचनम्-श्रागमवचनं यद्-यस्मात् परिणते ततस्तप्रागमवलिय-आगमबलिक-पुं० । अागमशानविशेषयति स्मिन्-श्रागमवचने नासुलभमिदं-न दुर्लभमिद किंतु सुलभ मव भवति सर्व हि-पूर्वोक्तमुभयमल परिक्षयात् क्रियामलकवल्यादिके, भ०ा "श्रागमालया समणा णिगंथा" (सूत्र भावमलपरिक्षयात् पुंसां पुरुषाणाम् । षो०५ विव० । ३४०+) आगमबालका उक्तवानांवशषबलवन्तः श्रमणा-भागमवयसपरिणर-अागमवचनपरिणति-स्त्री० । आगमनिर्ग्रन्थाः केवलिप्रभृतयः । भ०८ श०८ उ०। वचनस्य विषयविभागेन चेतसि व्यवस्थिती, पो० मागममलारहियय-आगममलारहृदय-पुं० । आगमार्थ- किमित्यागमवचनपरिणामः प्रशस्यत इत्याहप्रतिपत्त्यसमर्थहदये, (भागमार्थकुण्ठित बुद्धौ) सम्म। प्रागमवचनपरिणति-भवरोगसदौषधं यदनपायम् । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) अभिधानराजेन्द्रः । आगमवयणपरिणइ तदिह परः सद्बोधः, सदनुष्ठानस्य हेतुरिति ॥ ६ ॥ आगमबचमपरिणतिर्यथावत् तत्प्रकाशरूपा भवरोगसदौषधं भवरोगस्य-संसारामयस्य सदौषधं तदुच्छेदकारित्वेन यद्यस्मात्, अनपायम् अपाय रहितं निर्दोषं वर्त्तते तदिह परः सद्बोधस्तच भवरोगसदौषधम् श्रागमवचनपरिणत्याक्यं परः-प्रधानः सद्बोधः- सम्यग्ज्ञानं वर्त्तते सदनुष्ठानस्य सुम्दरानुष्ठानस्य हेतुः कारणमिति कृत्वा । षो०५ विव० । आगमववहार-आगमव्यवहार - पुं० । आ-मर्थ्यादाऽ-भिविधियां गम्यन्ते परिच्छिद्यन्तेऽथी येनासावागमः केवलमनः पर्यायावधिचतुईशदशनत्र पूर्वलक्षणे व्यवहारभेदे, पचा० । व्यवहारता चास्य व्यवहारहेतुत्वाद् । पञ्चा० १६ विव० | स्था० । ध० । ( एतेषां च यथा आगमत्वं तथा 'श्रागम' शब्द ऽस्मिन्नेव भागे गतम् ) श्रागमव्यवहारभेदाः आगमतो ववहारो, सुगह जहा घीरपुरिसपन्नत्तो । पच्चक्खो य परोक्खो, सोऽचि य दुविहो मुणेयव्त्रो ॥ २०१ ।। तत्र - श्रागमतो व्यवहारो यथा धीरपुरुषैः प्रशप्तस्तथा - गुत, स श्रागमतो व्यवहारो द्विविधो ज्ञातव्यः, तद्यथाप्रत्यक्षः, परोक्षश्च । पच्चक्खो वियदुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो । इंदिपचक्खो विय, पंचसु विसएसु नेयव्वो ॥ २०२ ॥ प्रत्यक्षाऽपि द्विविधः, तद्यथा-इन्द्रियजो, नोइन्द्रियजश्च । तत्र इन्द्रियजः प्रत्यक्षः पञ्चसु रूपादिषु विषयेषु ज्ञातव्यः । नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो । ओहिमणपज्जवेया, केवलनाणे य पञ्चवक्खे ॥ २०३ ॥ यस्तु- नाइन्द्रियजः प्रत्यक्षो व्यवहारः स समासतस्त्रिविधः, तद्यथा - अवधिप्रत्यक्षं, मनः पर्यव प्रत्यक्षं, केवलज्ञानप्रत्यक्षम् । तत्राऽवधिप्रत्यक्षमाह - ही गुणपच्चइए, जे वट्टंती सुयंगवी धीरा । ओहिविसयनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे ।। २०४ ॥ श्रवधिर्द्विधा भवप्रत्ययजा, गुणप्रत्ययजश्च । तत्र संयतानां गुणप्रत्ययज एव न भवप्रत्ययजः, तत श्राह श्रवधौगुण-प्रत्यये ये वर्त्तन्ते श्रुताङ्गविदो धीरास्तान् श्रवधिविषयज्ञानस्थान् जानीत व्यवहारशोधिकरान्-शुद्धव्यवहारकारिणः । उज्जुमती विउलमती, जे वट्टंती सुयंगवी धीरा । मणपञ्जवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे ।। २०५ ॥ ये ऋजुमतौ विपुलमतौ वा मनः पर्यवज्ञाने श्रुताङ्गविदो धीरा वर्त्तन्ते तान् मतः पर्यवज्ञानस्थान् जानीत व्यवहारशोधिकरान्-शुद्धव्यवहारकारिणः । आदिगरा धम्माणं चरित्तवरनागदंसणसमरगा । सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिया ।। २०६॥ ये धर्म्मयोः - श्रुतधर्मस्य चारित्रधर्म्मस्य चादिकराः-तत्थमतया प्रवर्त्तनशीलाश्चारित्र व रज्ञानदर्शन समग्रास्ते जिना: सर्वत्रगज्ञानेन व्यवहारं व्यवहरन्ति उक्तः प्रत्यक्षः । आगमबवहार संप्रति परोक्षमाहपचक्खागमसरिसो, होति परोक्खोऽवि भागमो जस्सं । दही विवसो वि हु, आगमों बवहारखं होई॥ २०७॥ यद्यपि पूर्वादिकं श्रुतं तथापि यस्याऽऽगमश्चतुद्देशपूर्वादिकः परोक्षाऽपि प्रत्यक्षाऽऽगमसदृशः । प्रत्यक्षावध्यादितुल्यरूपो भवति सोऽप्यागमव्यवहारवान् वक्तव्यो मवति । यथा चन्द्रसदृशमुखी कन्या चन्द्रमुखीति एतदुक्तं भवति-यद्यपि पूर्वाणि श्रुतं नाऽऽगमतुल्यानीति (तपि) तैर्व्यवहरन् श्रागमव्यवहारवानुच्यते इति । व्य० १० उ० । ( श्रागमस्य व्याख्यानम् ' आगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे प्राग् गतम् ) श्रागमभेदाःपारोक्खं ववहारं, आगमतो सुयधरा ववहरंति । चोद्दस दस पुव्वधरा, नवपुव्विय गंधहत्थी य ॥ २०६॥ ये श्रुतधराश्चतुर्दशपूर्वधरा दशपूर्वधरा नवपूर्विणो वा गन्धहस्तिनो- गन्धइस्तिसमानाः ते श्रागमतः परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति । अत्राक्षेप परिहाराभिधित्सुराद किह आगमववहारी, जम्हा जीवाऽऽदयो पयत्था उ । उवलद्धा तेहिं तु सव्वेहिं नयविगप्पेहि ॥ २१० ॥ कथं केन प्रकारेण साक्षात् श्रुतेन व्यवहरन्तः श्रागमव्यवहारिणः प्रोच्यन्ते, सूरिराह यस्मात् जीवादयः पदार्थास्तैः चतुर्दशपूर्वधरादिभिः सर्वैः- नयविकल्पैः- नैगमादिनयभेदेरुपलब्धाः । एतदेव सविशेषमाह- जह केवली विजाइ, दव्यं खेत्तं च कालभावं वा । तह चउलक्खणमेवं, सुयनाणी चैव जागाति ।। २११ ॥ यथा केवली केवलज्ञानेन सर्वे द्रव्यं सर्वे क्षेत्रं सर्वे कालं सर्वे भावं च सर्वात्मना स्वपरपर्यायभेदभिन्नं जानाति । एवं श्रुतज्ञान्यपि चतुर्लक्षणं द्रव्यक्षेत्र कालभावरूपं श्रुतवलेन जानाति । तत एतेऽभ्यागमव्यवहारिण उच्यन्ते, एतदेवं प्रस्तुतं प्रायश्चित्तशुद्धयधिकारमधिकृत्य योजयति- पण मासविवडी, मासगहाणी य पणगहाणी य । गाहे पंचाsहं, पंचाहे चेव एगाऽहं ।। २१२ ॥ रागोसविडि, हाणि वा नाउं देति पञ्चक्खी । चोदसवादी विहु, तह नाउं देंति हीऽहियं ॥ २१३ ॥ यथा प्रत्यक्षिणः- प्रत्यक्षागमशानिनस्तुल्ये ऽप्यपराधे पञ्चकपञ्चकयोग्ये एकस्य पञ्चकं ददति । अपरस्य-रागद्वेषविवृद्विमुपलक्ष्य मासेन मासाभ्यां मासैर्वा वृद्धि प्रयच्छन्ति । उपलक्षणमेतत्-मूलम् अनवस्थाप्यं पाराञ्चिनं वा प्रयच्छन्ति । तथा तुल्येऽपि पाराञ्चितयोग्याऽपराधे एकस्य पाराश्चितम्, अपरस्य अनवस्थाप्यं मूलं छदं मासेन मासाभ्यां मालैर्वा हान्या तपो वा चशब्दात् पञ्चकं यावदन्ते नमस्कारसहितं हा दुष्कृते, हा दुष्टुकारितं, हा दुष्ठु अनुमोदितमित्येवं वैराग्यभावनातो रागद्वेषहानिं भूयसीम् श्रतिभूयस्तरामुपलभ्य प्रयच्छन्ति, तथा कस्यचित् मासिकप्रति सेवना Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) भागमववहार अभिधामराजेन्द्रः। भागमयवहार यामरूपां राग-द्वेषहानिमुपलभ्य पञ्चकहान्या मासिकं जह सो कालं जाणइ, सुरण सोहिं तहा सोउं ।।२१।। वदति, पञ्चविशति दिनानि ददतीत्यर्थः । तथा एकाहं जिनाः-तीर्थकृतः परोक्षे आगमे उपसंहारं नालीधमकेननाम--अभनार्थ प्रतिसेविते पश्चाई ददति; पश्चाहे वा कुर्वन्ति , इयमत्र भावना-नाडिकायां गलन्त्यामुदकगलनप्रविसेविते एकाहम्। उपलक्षणत्वादाचाम्लम् एकाश- परिमाणतो जानाति एतावत्युदके गलितयामो दिवसस्य ने पूर्वाई निर्विकृतं पौरुषी नमस्कारसहितां चा प्रयच्छ रात्रेर्वा गत इति ततोऽन्यस्य परिक्षानाय शङ्गं धमति तत्र न्ति । एवं चतुर्दशपूर्वादयोऽपि 'हु' निश्चितं रागद्वषहानि यथा सोऽन्यो जनः शङ्खास्य शब्दन श्रुतेन कालं यामलक्षणं युद्धी उपलभ्य हीनमधिकं वा प्रायश्चित्तं ददति । जानाति, तथा परोक्षागमज्ञानिनोऽपि शोधिम्-मालोचना अत्र परस्य प्रश्नमुदीरयति श्रुत्वा तस्य यथाऽवस्थित भावं जानन्ति हात्वा च तदनुचोयगपुच्छा पञ्च-क्खनाणिणो थोवं कह बहुं देति । सारेण प्रायश्चित्तं ददति । व्य०१० उ० । दिद्रुतो वाणियए. जिणचोदसपुब्बिए धमए ।। २१४॥ प्रागमती ववहारं, परसोच्चा संकियंमि उ चरित्ते । चोदकस्यात्र पृच्छा-प्रत्यक्षमानिनो जिनादयः स्तोके श्र पालोइयंमि पारा-हणा अखालोइए भयणा ॥२२२॥ पराधे कथं बहु प्रयच्छन्ति प्रायश्चित्तम् उपलक्षणमेतत् भूयसि वा अपराधे स्तोकम् !, अत्र सूरिराह-दृष्टान्तोऽत्र आगमतः प्रत्यक्षशानी वा परे-परस्मिन् व्यवहारं करोति । वणिजा द्रष्टव्यः, तथा भूयः परस्य पृच्छा?-जिनादयः केव परस्यालोचनां श्रुत्वा नान्यथा । तत्र यदि कलुषितचारित्रलझानादिवलेन परस्य भावं जानते चतुर्दशपूर्विणस्तु कथं तया न सम्यगालोचयति, किंतु पालोचनामर्यादामतियेन स्ताकेऽपि बहु बहपि-स्तोक ति । सूरिराह-पत्र क्रम्य वर्तत तदा शङ्कितमिति वा भिन्नमिति वा कलुषिधमको दृष्टान्तः। तमिति वा एकार्थ, चारित्रे सति न सम्यगनेनालोचित मिति शास्वा तं ब्रूते-अन्यत्र गत्वा शोधिं कुरु, यदि पुनः तत्र प्रथमतो वणिग्दृष्टान्तं भावयति सम्यगालोचयति तदा ददाति प्रायश्चित्तम् । अथ यदि बं बह मोल रयणं, तं जाणइ रयणवाणितो निउणो। प्रत्यक्षागमशानिनः परोक्षाऽज्ञानिनो वा सर्वभावविषयथोवंतु महल्लस्स वि, कासइ अप्पस्स वि बहुं तु ॥२१॥ परिज्ञानात् ततः कस्मात्तस्य पुरत पालोच्यते । किंतुयथा निपुणो रत्नवाणिक यत् रत्नं यथामूल्यं तत्तथा सम्मक तस्य समीपमुपगम्य वक्तव्यम्-अपराधं मे भवन्तो जानते जानाति , सात्वा च कस्यचित् महतोऽपि रत्नस्य स्तोकं । तस्य शोधि प्रयच्छत. तत आह-'आलोई' स्यादि, पामूल्यं ददाति, कस्यचिदपस्याऽप्य गुनगुणोपेतस्य बहु। वोचिते बहुगुणसंभवतः सम्यगाराधना भवति, अनाइमामेव तद्धान्तभावना प्रकारान्तरेणाह लोचिते आराधनाया भजना-विकल्पना कदाचिद्भवति हवा कायमणिस्स उ, सुमहलस्स वि उकागणी मोल्लं । कदाचिन्नति एतच्चान भावयिष्यते । बहरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती सयसहस्सं ।।२१६॥ तत्र “पागमतो ववहारं, परसोच्चा " अथवेति-प्रकारान्तरे रनपरीषको बणिक काचमणः सुम (२२२) इति व्याख्यानयतिइतोऽपि मूल्यम् काकिनी करोति , वज्रस्य तु-रवस्यास्प- आगमववहारी छ-विहो वि आलोयणं निसामेत्ता। स्यापि मूल्यं तेन क्रियमाणं शतसहस्रं भवति । देति ततो पच्छित्तं, पडिवजह सारिओ जइ य ॥२२३।। अत्रोपनयमाह आगमव्यवहारी षड्विधोऽपि परस्यालोचनां निशम्य इय मासाण बहूण वि, रागद्दोसप्पयाएँ थोवं तु । ततः प्रायश्चित्तं ददाति , यदि च-कमप्यपराधं विस्मृतं शगहोसोवचया, पणगे विउ तो बहुं देंति ॥२१७॥ स्मारितः सन् सम्यक प्रतिपद्यते तदा स्मारयति च । इति'-अमुना रष्टान्तप्रकारेण बहूनामपि-मासानां योग्ये अन्यथा तस्याऽऽलोचनामेव न ददाति। अपराधे वैराग्यभावनाछलतो रागद्वेषाल्पतया स्तोकं प्राय सांप्रतमुत्तरार्द्ध (२२२) व्याख्यानयतिश्चित्तं ददति । सिंहव्यापादकस्येव रागद्वेषोपचयात् प- आलोइय पडिक्कंत-स्स होइ आराहणा सुनियमेणं । केऽप्यपराधे बहु प्रायश्चित्तं पदति । प्रणालोइयमि भयणा,किह पुण भयणा हवइ तस्स।२२४ अधुना "जिनचोइसपुब्बिए धमए" (२१४) पूर्वमपराधजातमालाचितं ततस्तस्मात्प्रतिक्रान्तस्य अपुनः इत्यस्य व्याख्यानमाह कारणतया प्रतिनिवृत्तस्य नियमेन पर्यन्ते सम्यगाराधना पच्चक्खी पच्चखं, पासइ पडिसेवगस्स सो भावं । भवति । अनालोचिते पुनर्भजना । आइ-कथं पुनरनालोकिह जाणइ पारोक्खी, नायमिणं तत्थ धमएणं ॥२१॥ चिते तस्याराधनाविषये भजना भवति । प्रत्यक्षी-जिनादिः प्रत्यक्ष प्रतिसेबकस्य भावं जानाति , अत्राह-- परोक्षी-चतुर्दशपूर्वादिः कथं जानाति येन सोऽपि तथैव व्य. कालं कुम्वेज सयं, अमुहो वा हुअ अहव आयरियो । वहरति , सूरिसह-तत्र तस्मिन्विषये शातम्-उदाहरणमिदं- अप्पत्ते पत्ते वा, आराहणों तह वि भयणे ।। २२५ ।। वध्यमाणं धमकेन-शमात्रा। कोऽपि पालोचनां ग्रहीष्यामीस्यालोचनापरिणामपरिणत तदेव दर्शयति आलोचनाग्रहणाय संप्रस्थित श्रालोचनाईसमीपं , सच नालीधमएण जिणा, उवसंहारं करेंति पारोक्खं । तमप्राप्त एवापान्तराले स्वयं काल कुर्यात् , यदि वा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अभिधानराजेन्द्रः । आगमववहार प्राप्तोऽपि रोगवशादमुखो जातः । अथवा तस्याप्राप्तवत एव स आलोचनाई आचार्यः कालगतः, यदि वा प्राप्तवतोऽष्यमुखो जातः ततः स एवमालोचनापरिणतः श्रलोचनायाः असंभवेऽपि कालं कुर्वन्नाराधकः, यदि पुनर्न सम्यगालोचनापरिणामपरिणतस्तदा सोनाराधका ख च तथा कालगतो दीर्घसंसारी भवति । एवमाराधना आलोचना हि प्राप्त अप्राप्त वा भजनया भवति । " संप्रत्यागमव्यवहारिणामपि पुरत आलोचनायां गुणानुपदर्शयतिवराहं बियाणंति, तस्स सोहिं च जद्दवि । तावि आलोयखायुता, आलोयंते बहू गुणा ॥ २२६ ॥ यद्यप्यागमव्यवहारिणस्तथाप्यालोचकस्यापराधं विजानन्ति शोधि च तथाऽपि तेषामपि पुरत आलोचना दातव्या उका तीर्थंकरगणयत झालोचयति (सति) बहवो गुणास्तथा ह्यालोचनाऽऽचार्येण स नालोचकः प्रोत्साह्यते यथा वरस ! त्वं धम्यस्त्वं सभाग्यः । यदेवं मानं निहत्याऽऽत्महितार्थतया सदस्यानि प्रकटयसि महादुष्करमेतत् एवं प्रोत्साहितः सन प्रबर्द्धमानपरिणामः सम्यग् निःशल्या भूत्वा यथावस्थितमालोचयति । शोधिं च सम्यक् प्रतिपद्यते । ततः पर्यन्ते आराधना स्तोककालेन च मोक्षगमनमिति । , अथ च कथमागामनो व्यवहारं प्रयुञ्जते, तत श्राहदव्वेहि पजवेहि य, कम- खेत्त-काल- भावपरिसुद्धं । आलोयणं सुना तो ववहारं पर्जति ॥ २२७ ॥ इय्यैः सचित्तादिभिः पर्यायः तेषामेव सचितादियासमय स्थानविशेष परिशेषे तथा क्रमतः क्षेत्रतः, कालतो, भायतश्च परिशुद्धामालोचन या ततस्तदन स्तरं व्यवहारं शोधिव्यवहारं प्रयुते नाथा, तब यदि सचित्तं सेवित्वा सचित्त मेवालोचयति तदा द्रव्यशुद्धा सा आलोचना यदा तु सचितं प्रतिसेय असतोचपति तदा द्रव्याऽशुद्धा । तथा यामवस्थामुपगतं सचित्तं प्रतिसेव्यतामेषावस्थागतं तदाचयति तदा सा आलोचना पर्यायसुद्धा यदा त्वम्यामवस्थामुपगतं प्रतिसेयान्यामयस्थामालोचयति तदा पर्यायाऽशुद्धा । तथा यदि प्रतिसेवनानुलोममालोचयति तदा सा क्रमशुद्धा, उत्क्रमेणाऽऽलोचयतः क्रमाऽशुद्धा । तथा यद्यत्र जनपदे श्रध्वनि वा प्रतिसेवितं लोचना जनपदे प्रतिसंवितमध्वनि कथयतः क्षेत्राऽशुडा । यथा यत् यदा दुर्भिक्षं सुमिया दिया रात्री या प्रतिसंवितं तत्तदाऽलोचयतः का शुद्धा, सुभि प्रतिसेव्य दुर्मिस कथयत रात्री या प्रति तिसेव्य दिवसे कथयतः कालाऽशुद्धा, तथा-येन अनाभोगादिना सेविर्त तं भावं कथयतो भावशुद्धा, उपेत्य प्रतिसेव्याऽनाभोगादिना कथयतो भाषाडा । संप्रति भावमेवोपदर्शपति सहसा श्रमाणे व, भीएण व पेल्लिएण व परेण । बसणेण पमादेश व मृदेख व रागदोसेहिं ।। २२८ ॥ तेन प्रतिसेवन सहसा अशाने या परेण या प्रेरितेन वा व्यसनेन वा द्यूतादिना प्रमादेन वा मूढेन वा रागद्वेषा आगम ववहार या प्रतिसेय यदि तथैवाऽऽलोच्यते प्रायधित्ताव मे ददाति नान्यथेति वा संप्रति " सहसे " (२२८) त्यस्य व्याख्यानमाह पुत्रं पासिऊ, (उ) च्छूढे पायमि जं पुणो पासे । न य तरह नियचेउं, पायं सहसाकरणमेयं ॥ २२६ ॥ पूर्वम् अग्रतनप्रदेशे कुलिनिमदृष्ट्वा उ-उत्पादिते पादे यत्पुनः पश्यति कुलिङ्ग समापतितं पादं निययितुं शक्नोति । तत एवं वस्तस्थ व्यापादनमेतत्सइसाकरणम्। सांप्रतमज्ञानमाह - अन्नयरपमाएणं, असंपउत्तस्स नोवउत्तस्स । इरियाइ भ्रयत्थे, भवट्टतो एयमथा || २३० ॥ पञ्चानां प्रमादानाम्-अन्यतरेणाऽपि प्रमादेनाऽसंप्रयुक्तस्याssोडीकृतः स्यात् एवम् ईर्यादिषु समतिषु भूतार्थेना तत्त्वतो वर्त्तमानस्य यद्भवनम् एतदशानम् ॥ अधुना " भीषण व पेल्लिप्पण व पर (२२८ x) इत्यस्य व्याख्यानमाह मीतो पलायमाणो अभियोगमएवावि जं कृ पडितो वाsपडितो वा, पेल्लिजउ पेलिओ पाये ।। २३१ ॥ अभियोगभयेन भीतः पलायमानो यत् कुर्यात्प्राग्यपरोपणादि तत् भीतेनेति द्रष्टव्यं तथा परेण प्रेरितः सम्पतितो पति या प्राणान् द्वीन्द्रियाऽऽदीन् एकेन्द्रियादीन् या प्रेरयत । संप्रति व्यसनाऽऽदिपदानि व्याचष्टेजूयादि होइ वसणं, पंचविहो खलु भावपमादो उ । मिच्छत्तभावणा उ, मोहो तह रागदोसा य ॥ २३२ ॥ द्यूताऽऽदि भवति व्यसन प्रमादः खलु मद्यादिभेदाद्भवति पञ्चविधः मिथ्यात्वभावना मोहः रागद्वेषाः सुप्रतीताः । एएसिं गाणं, अनयरे कारणे समुप्पने । तो आगमत्रीमंसं, करेंति अत्ता तदुभयेणं ॥ २३३ ॥ एतेषामनन्तरोदितानां सहसा प्रभृतीनां स्थानानामन्यतरस्मिन्कारणे समुत्पन्न सति आलोचनायां प्रदत्तायामागमविमर्शमाता उभयेन सूत्रार्थयेन कुर्वन्ति । यथाऽयं सोऽ यमसहः श्रयमतावता शोत्स्यति श्रये नेति । श्रथवा किमनेन सम्यगालोचितं किंवा ति , सांप्रतमागम विमर्शमेव व्याख्यानयति जइ आगमो य आलोयणा य दोषि कि समं तु निवयंति। एसा खलु वीमंसा, जो व सहो जेण वा सुज्मे ॥ २३४ ॥ यद्यागमञ्चालोचना च एते द्वे अपि समकं परस्परमविसंवादितया निपततो यथैव तस्या 350 मस्त चैवेतर 135लोचना । यथैव तस्याऽऽलोचना तथैवागमिन श्रागमः । एक खलु श्रागमविमर्श उच्यते, अस्मिन् सति शोधि ददति नाऽन्यथा, यदि वा यः सहोऽसहो वा येन वा यः शुद्धयति । एतत् परिभाषनमागमविमर्थः व्य० १० उ० ( " नागमादीणि अत्ताणि " (२३५) गाथा 'अत्त' शब्दे १ प्रथमभागे गता तत्रैव व्याख्याता च ) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमषवहार संप्रति उभय' शब्द व्याख्यानार्थमाहसुतं प्रत्थो उभयं, आलोयण श्रागमो वयति उभयं । जं तदुभयंति पुषं तत्थ इमा होति परिभासा ॥२३६॥ सूत्रम् अर्थः इत्युभयं तेनागमविमर्श कुर्वन्ति किमयं सह इत्यादि अथवा श्रलोचनमागमविमर्श विद्धति । यथा कथितास्थालोचना, कि या नेति । तत्र यत भयमित्युकं तत्रयं वक्ष्यमाणा परिभाषा भवति । तामेवाह " 9 ( १५ ) अभिधानराजेन्द्रः । > पडिसेबणाहमारे जह नाउडर जदकर्म सच्चे । नहु देती प,ि आगमववहारियों तस्य ॥ २३७॥ यदि प्रतिसेवनातिचारान् यथाक्रमं सर्वान् यदि नाकुट्ट यति - नाऽऽलोचयति तदा तस्यागमव्यवहारिणः प्रायश्चित्तं न ददति । यदि पुनः प्रतिसेवनातिचारान् यथाक्रमं सर्वान् आकुट्टयति-आलोचयति तदा तस्यागमव्यवहारिणः प्रायभितं ददति । कहे (हि)सु सब्बं जो वृत्तो, जागमाखोऽवि गृहति । न तस्स दिति पच्छित्तं, विंति अन्नत्थ सोहय || २३८ || यान् सर्वानालोचयन् कथय सर्व मा निगूहय इति य उक्तः सन् जानानोऽपि गृहयति तस्य प्रायश्चित्तमागमव्यवहारियां न ददति किंतु ते अन्यस्य समीपे गत्वा शोधय-शोधि गृहाण | - 9 न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य मायया । पच्चक्खी साइए ते उ, माइयो उ न साइए ॥ २३६ ॥ यो दोषान् सद्भावतो न स्मरति न मायया तस्य प्रत्यक्षीप्रत्यक्षागमज्ञानी कथयति । जइ श्रागमतो आलोयणा व दोऽवि विसमं निवइयाई । न हुदेति य प आगमववहारिणो तस्स ॥ २४० ॥ पद्यागम आलोचना च ते द्वे अपि विषमं निपतिते यथा तेनालोचितं तथागमज्ञानी तस्यातीचारं न प्रेक्षत किंत्वन्यादृशम्, ऊनमधिकं वा इत्यर्थः । तदा तस्याऽऽगमव्यवहारिणः प्रायश्चित्तं न ददति । , जह आगमो य आलो यथा य दोत्रि वि समं निवडिया। देति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥ २४१ ॥ यद्यागम आलोचना च एते द्वे अपि समं निपतिते; यथाऽपराधमालोचनामागमज्ञानी पश्यतीत्यर्थः । ततस्तस्यागमव्यवहारिणः प्रायदिति व्य०१० उ० । आलोचनाईस्याष्टादश स्थानानि षट्त्रिंशत्स्थानान्युक्त्वा प्रतिपादितम् - असीसेयाणि ठाणासि, भणियाणुपुत्रसो । जो कुसलो एएहिं बवहारी सो समक्खातो ॥ ३२८ ॥ एतानि अनन्तदितानि स्वाननु क्रमश:- क्रमेण भणितानि तेषु कुशलः स व्यवहारी भागमव्यवहारी समाख्यातः । आगमववहारि पुनरपि वादृशा अगमव्यवहारिखस्तादशानादअहिं अट्ठारसहि, दसहि य ठाहि ँ जे अपरोक्खा । आलोय दोसेहिं. छहियं ठाणेहिं जे अपरोक्खा || ३२६ ॥ आलोय ठाणेहिं, छहियं ठाणेहि जे अपरोक्खा । पंचहि नियंठेहिं, पंचहि य चरितमंतेहिं अट्ठसु ॥ ३३० ॥ अष्टसु श्राचारवश्वप्रभृतिषु स्थानेषु अष्टादशसु बूतषद्कप्रमुखेषु दशसु च प्रायश्चित्तस्थानेषु ये अपरोक्षा:- प्रत्यज्ञान तथा दशसु आलोचनादोषेषु या ये अपरोक्षविज्ञानाः --- प्रत्यक्षविज्ञानिनः, तथा दशस्यालोचनागुगेषु षट्सु च स्थानेषु अनन्तरभाविषु ये अपरोक्षा:- साक्षाज्ज्ञानिनःस्तथा पञ्चसु निर्ग्रन्थेषु पुलाकादिषु पञ्चसु चारित्रव त्सु सामायिकादिसंयमवत्सु ये प्रत्यक्षज्ञानिनस्ते श्रागमव्यवहारिणः । व्य० १० उ० । श्रागमव्यवहारणश्च यावदार्थरक्षितमेवाऽभूषन् - तो जाय अजरक्खिय आगमववहारियो विषायिता । न भविस्सति दोसो नि, तो वायंती उ छेदसुयं ॥ ६२ ॥ यावदार्यरक्षितास्तावदागमव्यवहारिणोऽभूयन् ते चा55गमव्यवहारबलेन विज्ञाय यथा एतस्याश्छदश्रुतवाचनायां दोषो न भविष्यतीति संपतीमपि तं वाचयति स्म । आरेणागमरहिया, मा विद्दाहिंति तो न वारंति । तेरा कहं कुतु, सोहिं तु प्रयागमाथी ती ॥ ६३ ॥ आरक्षितादार आगमरहितास्ततस्ते माताध्ययनतः संघरषो विद्वास्तीति तदश्रुतानि संगतीनं याचयन्तीति अत्राद-तेन वेदाध्य यनाभावेन कथं ताः संयस्थोऽजानानाः शोधि कुर्वन्तु अत्राऽऽचार्य श्राह- " 9 तो जाव अञ्जरक्खिय, सङ्काणे पगासयंसु बहणीतो । असती विवक्खमि वि, एमेव य होंति समणाऽचि । ६४ ॥ यतः पूर्वमागमव्यवहारः स्युः बेरन् ततो यावदार्यरक्षिनारायद् प्रतिभ्यः स्वस्थाने स्वपछे संपतीनां प्रकाशनामका पक्षाभावे विपक्षेऽ प्यालोचितवत्यः श्रमण्य एवमेव श्रमणा अपि भवन्ति शा तव्याः । किमुक्रं भवति-भ्रमणाः अपि आलोचितवन्तः, तदलाभे विपक्षेऽपि श्रमणीनां पार्श्वे इत्यर्थः दोषा भावात् श्रागमव्यवहारिभिर्हि दोषाभावमवबुध्य छेदश्रुतवाचना संपतीनां दत्ता नान्यथेति । श्रर्यरक्षितादारतः पुनः श्रमणानामेव समीपे आलोचयन्ति श्रमरायोपिः श्रमणानामागमव्यवहारच्छेदात् । व्य० ५ उ० । आगमववहारि (न्) - श्रागमव्यवहारिन् पुं० प्रत्यानि नि, व्य० । आगम-सुय ववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमबबहारि केवलि मोहि चोदस, दस नवपृथ्वी उ नायव्वो ।। १३५ ।। तत्राऽऽगमतो व्यवहारी पधिः, तद्यथा केवली - केवलहा मी 'मोद' चिपकदेशे पदसमुदायोपकारात् मनःप यज्ञानी, अवधिज्ञानी, 'चाइसदसनवपुब्बी' ति पूर्वि शब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते चतुर्द्दशपूर्वी दशपूर्वी नवमपूर्वी च ज्ञातव्या एते चागमव्यवहारिणः प्रत्यक्षज्ञानिन उच्यन्ते चतुर्दशादिपूर्वबलसमुत्थस्यापि ज्ञानस्य प्रत्यक्षतुल्यत्वात् । व्य० १ उ० । जी० । ( विस्तरतः आगमव्यवहारिणः ' श्रागमववहार शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेवोला ) आगमविद्दि - श्रागमविधि - पुं० । आगमो गणधरादिविरचिताम्रपद्धतिस्तस्य विधिः । श्रागमन्याये, दर्श० । " (18) अभिधानराजेन्द्रः । जावज्जीवं आगम - विहिणा चारितपालणं पढमो । ( ६ ) तत्र यावज्जीवं यावत्प्राणधारणं; नतु परपरिकल्पितम्यायेनेत्यर्थः । ग्रागमो गणधरादिविरचितशास्त्र पद्धतिस्तस्य विधिस्तव-आगमन्यायेनेत्यर्थः । वयोरिकीकरणं चारित्रं त स्य पालने यत्तरसकल समिति गुप्तिप्रत्युपेक्षवाद्यनुष्ठान कर तत्किमित्याह-प्रथमः- आद्यतस्य मुख्यस्यैव समस्तसमी हितप्रापकत्वेन प्रधानत्वात् । दर्श० ३ श्रागमवीमंस-आगमविमर्श-पुं० । आगमपरिभावने, रु० १० उ० । ( श्रागमविमर्शस्वरूपं विस्तरतः " जइ आगमो० ॥ २३४ ॥ " इत्यादि व्यवहारदशमोदेशगाथया 'आगमवबहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेवोक्तम् ) श्रागमसंपण्ण- श्रागमसम्पन्न - पुं० । विशिष्टश्रुतधरे, दश० । १ प्र० । श्रागमसज्जोग - आगमसद्योग- पुं० । श्रागमनमागमः - सम्य कपरिच्छेदस्तेन सद्योगः - सद्व्यापारः श्रागमसहितो वा यः सद्योगः सत्क्रिया । सम्यकपरिच्छेदात्मके सद्व्यापरे, श्रा गमसहितायां सत्क्रियायाञ्च । पो० । रागादयो मलाः खल्वागमसद्योगतो विगम एषाम् । तदयं क्रियात एव हि पुष्टिः शुद्धि चित्तस्य ॥ ३ ॥ षो० ३ विव० । (अस्य व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६६६ पृष्ठे वचपते) आगमसत्थ-आगमशास्त्र न० । श्र - अभिविधिना सकलश्रुति विषवव्याप्तिरूपेण मया वा यथावस्थितरूपणा रुपया गम्यन्ते परिच्द्यिन्तेऽथ येन स आगमः । नं० शिष्यते शिक्ष्यते - बोध्यतेऽनेनेति शास्त्रम् आगमरूपं शास्त्रम् श्रागमशास्त्रम् श्रुतज्ञाने, विशे० । अत्र भाष्यम् - सासिज्जइ जेण तयं, सत्यं तं वा विसेसियं नाणं । आगम एव य सत्थं, आगमस तु सुथनाणं ।। ५५६ ॥ विंशे० । श्रागमसत्थग्गहणं, जंबुद्धिगुणेहि हिंदि । आगमाऽऽभास वैति सुपनाथल तं पुव्वविसारदा धीरा ॥१८३॥ ( सूत्र ५८ +) 66 - अभिविधिना सफलश्रुतिविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादा या यथाऽवस्थितत्र-परिक्षिन्ते अर्था येन स श्रागमः । नं० । पुंनाम्नि घः ॥ ५ । ३ । १३० ॥ ( सिद्ध० ) इति करणे घः । श्र० म० १ ० २१ गाथा टी० स चैवं व्युत्पस्या अधिकेयलादिवोऽपि भवति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थे विशेषान्तरमाह शास्त्रति-शिष्यतेनेनेति शास्त्रम् आगमरूपं शास्त्रम् आगमशास्त्रम् आगमग्रहऐन षष्टितन्त्रादिकुशास्त्रव्यवच्छेदः, तेषां यथावस्थितार्थप्रका शनाभावतो ऽनागमत्वात् श्रागमशास्त्रस्य ग्रहणमागमशा ग्रहणं यद् बुद्धिगुणैर्वषयमागे कारणभूतैरष्टमि तदेव प्रदर्श श्रुतज्ञानस्य लाभं ते पूर्वेषु विशारदाः विपश्चितः धीरा व्रतपालने खिराः किमु भवति यदेव जनप्रणीतप्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं न शेषमिति । नं० । विशे० प्रा० म० । आ० चू० । आगमसिद्ध-आगमसिद्ध-पुं० [आगमो द्वादशाधनम् तत्रासाधारणार्थावगमात् सिद्ध आगमसिद्धः । सिद्धभेदे, ध० २ अधि० । " श्रागमसिद्धो सos - गपारओ गोयमो का गुणरासी । आगमसिद्धः सर्वाङ्गपारीद्वादशात् अयं च महातिशयवानेव यत उक्तम्- " सेखाता ते विभवे साहह, इत्यादि ह च गौतम ! अवगुरारिगन्ध्य अत्र भूसः सातिशयवेष्टिता उदाहरणम् । झा० म० १ अ० । भावार्थः कथानका दवसेयः, तच्चेदम्-"तस्थागमसिद्धो किर सर्वभूरमये विमच्छादीया जे विद्वेति स भवयं उपजतो जाण्इ । " श्रा० म० १ अ० । श्रागमसुद्ध - आगमसुद्ध - त्रि० । आगमः -- आप्तवचनं तेन शुद्ध:- तदुक्तार्थानुवादन निर्दोष श्रागमशुद्धः । आगमाऽनु+ चादेन निर्दोषे पञ्चा स्तनविधिमधिकृत्य-चयविहिमागमसुद्धं सपरेसिमणुग्महद्वा ॥ १ ॥ श्रागमः स्तवपरिज्ञानादिकमाप्तवचनं तेन शुद्धः तदुक्तानुवादेन निर्दोष आगमशुद्धस्तं किमर्थमित्याह-स्वपरयोरात्मतदन्ययोरनुग्रहः - उपकारस्तल्लक्षणे योऽर्थः पदार्थः प्रयोजनं या सोऽनुपदार्थस्तस्मै अनुग्रहार्थाय तत्र स्वानुम प्रायगिकार्थानुवादे निर्मलयोधभावात् परोपकारद्वारायातकर्मक्षयाप्तेश्च । परानुग्रहस्तु परेषां निर्मलबोधः तत्पूर्वकक्रिया संपादनात्परंपरया निर्वाण संपादनाचेति गाथार्थः । पञ्चा० ६ विव० । आगमाऽऽभास - आगमाऽऽभास-पुं० । अनाप्तवचनसमुत्थे ज्ञाने, रत्ना० । आगमाऽऽभासमाडुः अनाप्तवचनप्रभवं ज्ञानमागमाभासमिति ॥ ८३ ॥ अभिधेयं वस्तु यथास्थित यो जानीते यथाज्ञानं चाभिते स चात उक्तः तद्विपरीयोजातः । तद्वचनसमुत्य ज्ञानम् - आगमाऽऽभासं ज्ञेयम् । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमाऽभास अभिधामराजेन्द्र अत्रोदाहरन्ति मागमेसिभा-भागमिप्यद्भद्र-न० । प्रागमिष्यति काले भई यथा मेकलकन्यकायाः कूले तालहिन्तालले मुल- कल्याणं यत्तदागमिष्यङ्गदम् । प्रागमिष्यत्कालभाविनि भाः पिण्डखजूराः सन्ति, स्वरितं गच्छत गच्छत शावका कल्याणे, प्रश्न०१ माश्र द्वारा भागमिष्यद्भद्रं यस्यति। भागमिष्यत्कालभाविकल्याणवति, स्था। इति ॥ ४॥ रागाऽऽशान्तो घमाप्तः पुरुषः क्रीडापरवशः सन्त्रास्मनो समणस्स शं भगवनो महावीरस्स अट्ठ सया अणुतबिनोदार्थ किशन बस्वन्तरमतभमानः शाषकरपि समं| रोवाइयाणं गइकन्नाणाणंजाब भागमेसिभहावं उकोक्रीडाभिलारखे वाक्यमुबारयति । रत्ना०६ परि। सिया अणुत्तरोववाइसंपया होत्था ॥१॥ (सूत्र-६५३) भागमिय-प्रागमिक-त्रि० । मागमादामतः डम् । मागम मागमिष्यत्भद्र-निर्वाणलक्षणं येषां ते तथा । स्था०८ प्राप्ते, याचा प्रागमगम्ये च । पं० ब० । “मागमिश्रमाग ठा० ३ उ० । प्रागामिभवे सत्स्यमानत्वात् । कल्प. १ मेलं En"मागमिकं वस्त्वायमेन, यथा-स्वर्ग अप्सरस, अधि०६क्षण। उत्तराः कुरवः इति । पं० २० ४.द्वार । आगमिष्यद्भद्रकर्मकारणान्याहआगमित-त्रि० । मधीते । वाच । गृहीते, "उवधाये ति दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभद्दत्ताए कम्मं पगरेंति , चा अहीतंति वा प्रागमियंति चा गृहीतंति वा पगट्टा" तं जहा-अनिदाणयाए १, दिविसंपन्नयाए २, जोगवाहिनिचू०१ उ० । हाते, वाच० । “नायं प्रागमियं य याए ३, खतिखमणयाए ४, जिइंदियाए, अमाइन्लरगटुं" ॥२०८x॥ मातम् प्रागमितमित्येकार्थम् । व्य०१० उ० । पठिते, प्रेरणे, णिच् का यापिते, प्रापित च । वाच । बार ६, अपासत्थयाए ७, सुसामन्त्रयाएं ३, पवयणवप्रागमिस्स(त)-आगमिष्यत-त्रि० । आगामिनि, “जे य | च्छल्लयाए ६, पवयणउम्भावणयाए १०(सूत्र-७५८) ब्रागम्रिस्सा अरहंता भगवंतो" (सूत्र-१२६+)। ये चागा. 'दहिं' इत्यादि, आगमिष्यद्-श्रागामिभयान्तरे भावि मिनः । आचा०१ श्रु० ४ अ०१ उ०। श्रागामिनि काले, भद्रं-कल्याण, सुदेवस्वलक्षणमनन्तरं सुमानुषत्वपाप्त्या मो. "किमस्सऽतीतं किंवाऽममिस्सं."nn (सूत्र-११७+)। क्षप्राप्तिलक्षणं च येषां ते आमिष्यद्भद्रास्तेषां भावः श्राकिंवाऽऽगमिष्यति-श्रागामिनि काले सुखाभिलाषिणा दुःख- गमिष्यद्भद्रता तस्यै प्रागमिष्यदनायै; तदर्थमित्यर्थः, द्विषो भावीति । आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ० । " सिभि प्रागमिष्यद्भद्रतया बा-कर्म शुभप्रकृतिरूपं प्रकुर्वन्ति-बस्सा आगमिस्से णं" (सूत्र-६७२+)1श्रागमिष्यति काले नन्ति , तद्यथा-निदायते-लूयते ज्ञानाचाराधनालता प्रासेत्स्यति । स्था० ठा० ३ उ०। “सो श्रागमिस्साए जिगी नन्दरसोपेतमोक्षफला येन परशुनेव देवेन्द्रादिगुणविप्राअविस्ला" 'श्रागमिस्साए' श्रायत्याम् । श्रागामिनि बाले, र्थनाऽयवसानन तनिदानम्-अविद्यमानं तद्यस्य सोऽनिश्राव०३ अ० । “आगमिस्सा वि सुब्बया०" (२५+) दानस्तद्रावस्तत्ता तया हेतुभूतया, निरुत्सुकतयेत्यर्थः । १। पागाभिनि चानन्ते काले तथाभूताः सत्संयमानुष्ठायिनो दृष्टिसम्पन्नतया-सम्यग्दृष्टितया । २। योगवाहितया-श्रुतोभविष्यन्ति । सूत्र०१ श्रु०१५ श्रा"श्रागमिस्स च पायगं." पधानकारितया, योगेन वा-समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्य(२१४) आगामिनि काले यत्करिष्यते तत्सर्वमिति । सूत्र० लक्षणेन वहतीत्यवंशीलो योगवाही तद्भावस्तत्ता तया।३। १७०८ अ० । “हवइ पुणो श्रागमिस्साणं" (५१४) क्षान्त्या क्षमते इति शान्तिक्षमणः क्षान्तिग्रहणमसमर्थता'आगमिस्साणं' ति-एष्यत्काले इत्यर्थः, प्रारुतत्वादापि ताब्यवच्छेदार्थ यतः-असमर्थोऽपि क्षमत इति शान्तिक्षमविभक्तिव्यत्ययः । पातु । "श्रागमिस्सेण होक्खई" ॥ (१) णस्य भावस्तत्ता तया । ४। जितेन्द्रियनया-करणनिग्रह(सूत्र-५५8+) आगमिष्यता कालेन हेतुना भविष्यतीत्यर्थः । हा ।५।' अमाइलयार' सि-मादलो-मायावांस्तत्प्रतिषेस्था० ७ ठा० ३ उ० । उत्तरकालभाविनि च ।" पडिकमे धेनामायावस्तिद्रावस्तत्ता तया । ६ तथा-पावें बहिर्गश्रागमिस्साणं" (४२||+) धागमिष्याणाम्-उत्तरकालभा नादीनां देशतः सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्थः, (स्था) (पावस्थलक्षणम् 'पासत्थ' शब्दे पञ्चमभागे दर्शयिष्यते) विनाम् । श्रातु। पार्श्वस्थस्य भावः पावस्थता न सा अपार्श्वस्थता तया प्राग(म्म)मेत्ता-आग(म्य )त्य-श्रव्य० । श्रा-गम-श्यप् 1७1 तथा-शोभनः पावस्थादिदोषवर्जिततया मूलोत्तरगुण. या मोलापे तक। श्रागमनं कृत्वेत्यर्थे । वाचः । ज्ञात्वे- सम्पन्नतया च स चासौ श्रमणश्च साधुः सुश्रमणस्तद्भावत्यर्थे, " आगमेत्ता आणविज्जा" (सूत्र-२५६+ )शात्या स्तत्ता तया । ८ । तथा-प्रकृष्ट-प्रशस्तं; प्रगतं वा वचनम्आशापयेदिति । आचा० १ श्रु० ५ १०४ उ० । "पा. आगमः-प्रवचन-द्वादशा तदाधारो वा सस्तस्य वत्सगम्मुक्कुटुश्री संतो" ॥ २२४ागत्योत्कुटुकः त्यक्तासन लता हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचनवत्सइति । उत्त०१०। लता तया ।। तथा-प्रब वनस्प-द्वादराङ्गस्योद्भावनम्-प्रप्रागमेयव्व-आगमथितव्य-त्रिका प्रागमनम्-आगमनपरि भावनं प्रायचनिकत्वधर्मकथावादादिलब्धिभिवर्णवादजननं ज्ञानम् । तद्गाचरत्वमानयितब्ये, वृ०१ उ०२ प्रक० । प्रवचनोद्भावन तदेव प्रवचनोद्भावनता तयेति । १०। स्था० बागमेसि(त)-आगमिष्यत-त्रि०। आगामिनि, स्था०८ ठा०। १० ठा० ३ ०। ३० । कल्प० । प्रागमिष्यति काले, प्रश्न.१ संबद्वार। आगय-आगत-त्रि० । आ-गम्-क्क । प्रायाते, । विशे। भा २५ Jain Education Interational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) भागय अभिधानराजेन्द्रः। मागर वाच० । जाते, ज्ञा०१० ७०। उत्पन्ने, स्त्र०१० साहिति" (सूत्र-७+)। धातुमणिशिलाप्रबासरतानामा१०१ उ०। करा:-स्वनयस्तान साधयतीति । प्रश्न०१ आश्रद्वार । "गुणश्रागरं" ॥५॥ गुणानां-शानदर्शनचारित्राणमाआगयमिवागयं तं, तत्तो जनो समुब्भवो जस्स । कर खनिमिति । उत्त०१६ अ०। निधान, "गुणसयाऽऽगरो सपरंपरओ य जो, तमागयमिओ तदुवयारो ॥१०८४|| संघो" ॥२४४ +॥ मुगाशतामनकेषां गुरणानामाकरो'जत्ता'ति-यतो यस्मात् रूपकादेर्घटादेर्वा सकाशाद्यस्य निधानम् गुणशताकरः संघ । व्य०२ उ०। वृ०। माभोजनादः रूपादिविज्ञानस्य वा समुद्भवः-उत्पत्तिः 'तं' ति- दयाऽभिविधिनाऽऽक्रियन्त बज्रादीनि तेञ्चिति । ओघ० । तद्भोजनादिकं रूपादिज्ञानं वा वस्तु तत्तो' ति-ततो हिरण्याकरादौ, व्य०१ऊ। जी० । प्रक्षा० । प्राचार । रूपकांदघटादेर्वा सकाशादागतमिवागतमुच्यते; हिमवतः राका स च हिरण्याद्युत्पत्तिभूमिः । शा०.१ श्रु०१७ १०। समागतगङ्गाप्रवाहस्येच तस्य तद्धतुकत्वादित्यर्थः। (विशे) श्रोघ०। उनकताम्रा देसत्पत्तिस्थानम् । आचा०१ ध्रु०१ आगतशब्दश्चहोत्पत्तिवचनो, बोधवचनो मन्तव्यः-इदमत्र | चु० १०२ उ० । लौहाद्युत्पत्तिभूमिः। स्था० २ ठा० ४ । हृदयम्-यस्य वस्तुनो यस्माद्वस्तुनः सकाशात्समुद्भवस्त- उ०। लौहाद्युत्पत्तिस्थानम् । अनु० । प्रश्नः । भ० । लौद्यद्वस्तुन प्रागतमिवावगतं व्यपदिश्यते । यथा कापण- दिधातुजन्मभूमिः। ग०१ अघि० । लवणाद्युत्पत्तिभूमिः । रूपकादिभ्यः समुद्भूतं धान्यभोजनादि , घटादः समुद्भूतं शा०१ श्रु०१० । औ० । लवणाद्युत्पत्तिस्थानमिति । रूपादिशानं वा ततः समागतमित्युच्यते । विश० । प्रश्न० ४ श्राश्र द्वार । यत्र. सन्निवेश लवणाद्युत्पद्यते । उपस्थित, वाच० "आगयसमए" (सूत्र-८२ +)। श्रा- स्था० ६ ठा० ३ उ०। रूप्यसुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानम् । नं। सभीभूतोऽवसरो यस्य स इत्यर्थः । १०१ ७० ६ ० ।। भाकीर्यन्ते धातवोऽत्र कृ-अप् । रत्नायुत्पत्तिस्थाने, झाते, "अभिसमत्रागया " ( सूत्र-१०६ +)। प्राचा० १ | चाच० "अयमाइअागरा खलु" ॥२८४४॥ अयो-लोह श्रु०३०१ उ०। प्राप्त, वाच०। " सिरीअतुलमागया" तदादय प्राकरा उच्यन्ते यत्र पाषाणं धातुधमनादिना लो॥१६+॥ (सूत्र-३०+) श्री-लक्ष्मीरतुलासाधारणाssगता- हमुत्पाद्यते स अयाकरः, आदिशब्दात्-ताम्रसय्याधाकरप्राप्तेति । स०३० सम० भावे क्त। श्रागमने, न०1 वाचक परिग्रहः । वृ० १ उ०२ प्रक०। “वहरे कणगे य रययआगयगंध-भागतगन्धू-त्रि० । जातसुरभिगन्धे, खा० १७० लोहे य । चत्तारि आगरा खलु."८+॥ बजाणि-रत्नानि तेष्णमाकर:-खनिर्बज्राकरः, "चिंतालोहमारिए" त्ति इत्यतः ७० आगयपम-पागतप्रज्ञ-त्रि० । अागता-उपना प्रका यस्या सिंहावलोकितन्यायेनाऽऽकरग्रहणं संबध्यते एतेन कारणेन 'होइ उ' त्ति-इत्यस्माद्भवति क्रिया सर्वत्र मीलनीयेति, सावागतप्रज्ञः। संजातकर्तव्याकर्त्तव्यविवेके, सूत्रा“समि कनक-सुवर्ण तस्याऽऽकरो भवत्ति द्वितीयः, रजतं-रूप्ये ततीसु गुत्तीसु य श्रागयपरणे" ॥ ५४॥ सूत्र०१ श्रु०१४ अका विषयः तृतीयः आकारो भवति, चशब्दः समुचंय, अनेकभेआगयपरमाण-पागतप्रज्ञान-त्रि०। श्रागतं-स्वीकृतं प्रशा- दभिन्न रूप्याकरं समुच्चिनोति, 'लोहे य' त्ति-लोहमयस्तनम् सदसद्विवको यस्य स तथा । स्यीकृतसदसद्विवेके, “स स्मिन्, लोहे लोहविषयश्चतुर्थ श्राकरो भवति, चशब्दो मृदुकया आगयपराणाण" (सूत्र-१२६ +)। प्राचा०१ थु०४ १० ठिनमध्यलाहसमुच्चायकः । चत्वार इति संख्याः प्राक्रियन्ते २ उ० । “श्रागयपरणागाणं किसा बाहा भवंति" ( सूत्र पवित्याकगस्तथा च मर्यादया अभिविधिना वा क्रियन्ते १८६४)। श्रागतं प्रज्ञाने पदार्थाविर्भावकं येषां ते तथा ते बजादीनि.तेविति,खलुशब्दो विशेषणे। ओघा(पतेषांप्राधापामागतमवानानां तपसा परिषहातिसहनेन च कृशा बा न्यायाधान्यविवेकः'अणुप्रोग' शब्दे १ भागे ३५७ पृष्ठ गतः)। हवो भुजा भवन्ति । यदि वा-सत्यपि महोपसर्गपरिषहादा- आकरशब्दस्य चतुर्धा निक्षेपः-नामादिस्तत्र व्यतिरिको वागतप्रज्ञानत्वाद् बाधा-पीडाः कृशा भवन्ति । आचा०१ रजतादिः, भावाकरोऽयमेव ज्ञानादिः, तत्प्रतिपादकश्चायध्रु०६०३ उ०। मेव ग्रन्थो, निर्जरादिरत्नानामत्र लाभात् । प्राचा०१ श्रु० १ आगयपएहया-आगतप्रश्रवा-स्त्री० । आयातप्रश्रवायाम् , अ० १ उ० । उत्पत्तिभूमौ, अनु । "कमलाऽऽगरनलिणी"तएणं सा दवाणंदा माही भागयपरहया" (सूत्र-३८६४) खेडवोहए" (सूत्र-१६x) कमलानामाकरा-उत्पत्तिभूमयो आयातप्रश्रवा; पुत्रश्नेहादागतस्तनमुखस्तब्येत्यर्थः । भ० | हृदादिजलाशयविशेषास्तेपु यानि नलिनीखण्डानि तयां योश०३३ उ०। अन्त०। धको यः स तथेति । अनु ! आगयभम-आगतभ्रम-त्रि० । उत्पन्नभ्रमणे, कल्प०१ अधिक अयाऽऽगरेइ वा, तंबागरेइ वा, तउआगरेइ वा, सीसामरेह वा, रुप्पागरेइ वा सुवरणागरेइ. वा । (सूत्र-५६७४) आगयसमय-आगतसमय-त्रि०। आसन्नीभूतोऽवसरो य- अयाकरो-लोहाकरो यत्र लोह.ध्मायते । स्था०८ठा०३उवा स्य सः । श्रासन्नीभूतावसरे, शा०१ श्रु०६०। तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य, सुवरणागरा य, रयणाआगर-श्राकर-पुं० । आकुर्वन्त्यस्मिन्नित्याकरः । उत्त० ३० गरा य, वइरागरा य । (सूत्र-१३२४) अ० । आगत्य तस्मिन् कुर्वन्तीत्याकरः । प्राचा०१ श्रु. १ हिरण्याऽऽकराँश्च, सुवणाकराँश्च, रत्नाकराँश्च, वैराकअ० १ उ०। (अस्यैकार्थिकानि 'अायारंग' शब्देऽस्मिन्नेव राँश्च; तत्तदुत्पत्तिभूमीरित्यर्थः । झा० १ श्रु० १७ भ०। भागे वक्ष्यते )। खनौ, “ धाउमणिसिलप्पवालरयणागरे य स्थानमात्रे च । व्य० । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागर अभिधानराजेन्द्रः। आगाढ तत्थ न कप्पइ वासो, गुणाऽऽगरा जत्थ नऽत्थि पंच इमे।। पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा मायरियउवज्झाए, पवत्तिधेरे य गायत्थे ।। ३२४॥ पमत्ता, जहमेणं एक्को, उकोसेणं तिमि । (सूत्र-७७८+) वणिज इव राजाद्यभावे साधोरपि तत्र गच्छ वासोन | आकर्षणमाकर्षः-चारित्रस्य प्राप्तिरिति । भ० २५ श०६ कल्पते, यत्र इमे-वक्ष्यमाणा गुणानामाकरा:-स्थानानि गु- उ० । (वकुसाऽऽदीनामाकर्षाः ‘णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभाग णाकराः पञ्च न सन्ति , के ते इत्याह-श्राचार्यः, उपाध्या २०४२ पृष्ठे वक्ष्यते) यः, प्रवृत्तिः, स्थविरो, गीतार्थश्च । व्य०१ उ०। श्राकुर्व आगरिसग-अाकर्षक-पुं० । आकर्षति सन्निकृष्टस्थं लौहम् न्ति, संघीय कुर्वन्ति व्यवहारमत्र श्रा-कृ-घः । समूहे, श्रेष्ठे च । वाच०।अरघट्टादिसमीपस्थे प्रदेशे , अरघट्टादि श्रा-कृप-रावुल । (चुम्बक) इतिख्याते अयस्कान्ते, श्राकसमीपे , प्रभूता यत्र तुषा भवन्ति स ाकर उच्यते । वृ० र्षणकर्तरि, त्रि० । आकर्षे नियुक्तः आकर्षादि० कन् । श्रा५ उ० । को पुण आगरो भएणति-जत्थ घरट्टादिसमीवे कर्षनियुक्त, “श्राकषः निकोपल" इति रेफरहितः पाठो सुबई जवभुसुटू सो, भागरो भएणति । नि००१ उ० । युक्नः सि० कौ० । वाच । प्रा० म०१ अ०। भिल्लपल्ल्यादौ, यत्राऽलानि भवन्ति । "आगरपल्लीमाई" आगरिसण-आकर्षण-त्रि० । श्रा-कृप ल्युट् । अन्यत्र स्थि॥ ३४६४ ॥ आकरो नाम-भिलपल्ली, भिल्लकोदं वा तत्र प्रा तस्य वस्तुनः बलेन अन्यत्र नयने, “योपिदाकर्षणे चैत्र-विनियोऽलावूनि प्राप्यन्ते । बृ० ३ उ० । योगः प्रकीर्तितः।" श्राकृप्यते अनेन करणे ल्युट् । आकर्षणप्रागर-पुं० । श्रागीर्यते-उद्वमितुमारभ्यते चन्द्रमा अत्र । साधने तन्त्रोक्ने षटुर्मान्तर्गते विधानभेदे च । वाच । प्राकभाग आधारे अप । श्रमावास्यायाम् , वाच । ष्यत-इति आकर्षणम् । द्रविणे, आकृष्यत इति आगरिसणं श्रागरणिवेस-आकरनिवेश-पुं० । आकरस्थाने , “आगर तं च दविणं । नि० चू०२ उ०। प्रेरणे , आकडणमाकरिरनिवेससु" (सूत्र-३५४)। प्रज्ञा० १ पद । सणं अध्यको तम् । श्राघणमागसण उदगगतन प्रेरणमि ति । नि० चू० १८ उ०। भागरणी-आकरणी-स्त्री०। लोहकराम्बरीषायाम् , स्था० आगलण-पाकलन-न०। अध्यवसाये ,"धणुबल वा श्रा८ ठा० ३ उ०। गलति" (सूत्र-१४३४)'पागलंति' त्ति-पाकलयन्ति-जे. भागरपल्ली-आकरपल्ली-स्त्री० । स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थानस्थिते ध्याम इत्यध्यवस्यन्तीति । भ० ३ श०२ उ० । वृक्षवंशादिगहनाधिते प्रान्तजनस्थाने , उत्त० । “निगमे य आगर पल्ली" ॥ १६+ ॥ श्राकरः-स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थानं त. आगलिय--पागलित-त्रि०। निवारिते, शा०१ श्रु०६०। स्मिन् श्राकारे। पल्ली वृक्षवंशादिगहनाश्रिता प्रान्तजनस्था- आगल्ल-श्रागल्ल-त्रि०ा ग्लाने, "तेण एस पागला" ॥४३६x नम् । तस्यां पल्ल्याम् , उत्त० ३० अ०। तेनाऽयमागल्लो-ग्लानः संजातः । ०४ उ० । श्रागरमुत्ति-आकरमुक्ति-स्त्री०।चिक्कणिकायाम् , सा च नो श्रागाढ-श्रागाढ-त्रि० । अत्यन्त दुर्भदे, व्य०। “श्रागाढपरहेसु कर्मद्रव्यलोभः । श्राव० १०। श्रा०म० । अरणे भणति- य संथवसु" ॥ २६६+॥ आगाढप्रश्नेषु चाऽत्यन्तदुर्भेदप्रश्नेषु णा कम्म पाकरमोत्ती एवमादि पाकरमोत्ति चिक्कणिकति परिचयेसु सत्स्विति । व्य०१उ० । कर्कश, बृ० । "पागाढे श्रा० चू०१ प० । (एतद्वक्तव्यता - लोभ' शब्दे षष्ठभागे अहिगरण" ।। ५७३४ ॥ श्रागाढे-कर्कशेऽधिकरणे उत्पन्न । वक्ष्यते)। वृ०१ उ० ३ प्रक० । कारणे , नि० चू०६ उ०। पागरि(न)-आकरिन-त्रि०। भाकरः-उत्पत्तिस्थान प्राश- अद्भाणविवित्ताणं, आगाढं सेसऽणागादं ॥ ८४ ॥ स्त्यनाऽस्त्यस्येति इनि स्त्रियां डीप् । प्रशस्ताकरजाते, “द- श्रद्धाणे विवित्ताणं श्रागाढकारणं । सेसं अद्धाणं तंमि धतमाकरिभिः करिभिः क्षतैः” किरा०। वाच०। प्राकर- उवगरणाभावे आगाढ ण भरणइ । नि०चू० ५ उ० । वति, प्रश्न०२ आश्रद्वार। आगाढेहिं वा कारणेहि बोलेति । नि० चू० २ उ० । प्रागरिस-आकर्ष-पुं० । आकर्षणमाकपः श्रा-कृष् घम् । " श्रागाढकारणहिं" ॥ ३५० +॥ श्रागाद्वैः-कुलादिभिः "श-प-तप्त-बजे वा" ।।१०५॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेणे कारणैः । वृ० १ उ० २ प्रक० । अागाई-प्रत्यनीकस्तेनाकारः। प्रा० । उदाने, पाको नाम कर्मपुद्गलोपादानमिति । दिरूपं यत्कारणम् । वृ० १ उ० ३ प्रक० । अशिवादिके सा आकर्षों नाम-तथाविधन प्रयत्नेन कर्मपुद्रलोपादानम् । कारणे, वृ०। प्रज्ञा०६ पद ७ द्वार । (श्रायुष्कर्माकर्षाः 'पाउबंध' शब्द असिवे प्रोमोदरिए, रायइट्रे भए अागाढे। स्मिन्नेव भागे गताः) ग्रहण, श्रा० म०१०। विशे० । __ गेलन उत्तिमढे, णाणे तह दंसणचरित्ते ।। ६१८ ॥ प्रथमतया प्रहणे, मुक्तस्य ग्रहणे च । प्रा०म०१०। आगाढशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, श्रागाढे-अशिवे, अव. विशे० । ग्रहणमोचनयोः, आकर्षणमाकर्षः । ग्रहणमोचन- मौदर्ये, राज्यद्विष्ट, बोधिकस्तेनादिभये च यथा आगाढं नाम मित्यर्थः । श्रा० चू० १ ०। स च द्विविधः-एकभयिको, शैक्षसागारिकादिमन्यतमकारणं तदा म्लान उत्तमार्थप्रतिनानाभविकश्चति । प्रव. १२२ द्वार । श्रा० चू० । विशे० । पन्नो वा कचिद्देशान्तरे श्रुतः अपान्तराले च तत्र छिन्नः अनु । प्रा०म० । (सामायिकस्याकर्षाः 'सामाश्य' पन्था अतस्तत्परिचरणार्थ गन्तव्यम् , उत्तमार्थ वा प्रतिशब्दे सप्तमभागे वक्ष्यते) प्राप्तौ, भ०। पित्सुः संविग्नगीतार्थसमीपछिन्नेनापि पथा . गच्छतिः । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) भागाढ अभिधानराजेन्द्रः। भागाढ शानमाचारादि, दर्शनं दर्शनविशुद्धिकारकाणि शास्त्राणि (द्रव्याऽऽगाढम् )तदर्थमध्वानं गच्छत् , चारित्रार्थ नाम-यत्र देश स्त्रीदोषा वा एगादीयवड्डीए, एगुत्तरिया य होति दवाणं । भवन्ति तं परित्यज्य देशान्तरं गन्तव्यम् । ओमत्थगपरिहाणी, दव्वागाढं वियाणाहि ॥ एएहिं कारणेहिं, आगादेहिं तु गम्ममाणेहिं । जंयेति पुणो वेजो, सच्चित्तं दुल्लभं च दव्वं वा । उवगरणपुव् गहिऊ-ण पडिलेहिएण गंतव्वं ।।६१६॥ अप्पडिहणतो अच्छति, उद्दिसिउं जाव सो ठाति ।। एतैः-अशिवादिभिः कारणैरागाढेरेव गम्यमानैः-प्राप्यमाणैः उपकरणमध्वप्रायोग्यं गृहीत्वा पूर्व गमनात् प्राक प्रत्युपेक्षि जाहे उद्दिवाणी, ताहे ओमत्थहाणिए भणति । तः सम्यक शुद्धाशुद्धतया निरूपितो यः स सार्थस्तेन सह अम्हे करेमो जोग्गं, अलंमें एयस्स किं कुणिमो॥ गन्तव्यम् । वृ०१ उ० ३ प्रक० । एवं तु हावयंता, खत्तं कालं च भावमासज। (ग्लान_यावृत्यमधिकृत्योक्लम्)-आगाढे कारणजाते सति ता जुहंती जाव उ, लंभे जेसिं तु दब्बाणं ॥ वैयावृत्त्यं कुर्यादपि, परित्यजद्वा ग्लानं, किं पुनस्तत्कारण अह पुण भणेज्ज एवं, अवस्समेत्तेहि कजब्बेहि । जातम् । वृ०१ उ०२ प्रक० । इति 'गिलाण' शम्दे तृतीय एतं दवाऽऽगाढं तहिं जए पणगहाणीए॥ भागे ८६३ पृष्ठ वक्ष्यते।) अणुवसमंते निग्गमों, लिंगविवेगेण होइ आगाढे । पं० भा०। देसंतरसंकमणं, भिक्खुगमादी कुलिंगेणं ॥ २७०॥ । एगाइयबड्डीए अम्हे करेमु जोग मरगसुतं चेव जाच कलअनुपशमयति-उपशममकुर्वति राशि निर्गमो भवति । क मसाली । खेत्तकालगाहा। तहेव य जहि लाभो तहि ठायति। थमित्याह-लिङ्गविवेकेन-लिङ्गपरित्यागेन ; गृहस्थलिनेने अहवा-भणज्जा अवस्तिमाणि दब्वाणि जाणि वन्याणि स्यर्थः। अथ तथापि न मुञ्चति गाढकोपावेशात् , तत श्राह दुल्लहाणि परित्ताणह स तेल्लमाईणि वा तहितं दव्यागाई पणगपरिहाणीए जयंति जाव चउगुरुपण विगएदेति । पं. अगाढम् अत्यन्तप्रकोपतो गाढममोक्षणे भिक्षुकादिलिनेन देशान्तरसंक्रमणं कर्त्तव्यम् । अशिवाऽऽदी वा कारणे समुपस्थिते देशान्तरगमनं किल कर्त्तव्यम् । व्य० १ उ० । खेत्ताऽऽगाढमियारिण गाहा("असिव० " इत्यादिगाधाभिः ' आमाद ' स्वरूपं खत्ताऽऽगाढं इणमो, असती खुत्ताण मासजोग्गाणं । 'कालकप्प' शब्दे तृतीयभागे ४८६ पृष्ठे वक्ष्यते) असिवं वा अनत्थ, णदी वय वा होज्ज सद्धा तु॥ श्रागाढे अनलिंग, कालक्खेवो य होति गमणं वा ।880xi मायरियादि प्रहारग, अहवा अनत्थ सावता होज्ज । आगाढे-राजद्विष्टे । पृ० १ उ०३ प्रक०।। अंतर जहिं च गम्मति, बाला ताहे ण खुत्तियं वा ।। (आहारमधिकृत्याऽऽगाढस्य भेदाः ) किं पुण आगादे, एतेहि कारणेहिं, खेत्ताऽऽगादमि पुरिसे य । प्रणागाढं वा । तस्थिमं आगादं समासतो चउब्विहं ।। तो अत्थंति असदभावा, एगखत्ते चि जणाय॥ गाहाअद्धाणे प्रोमे वा, गेलप्म-परित-दुल्लभे दब्वे । पं०भा०। आगाढं नायव्वं, मुत्तूण होति ऽणागाढा ॥ १६॥ खेत्तस्स का अलैभे असर मासपउग्गाणे खेत्ताणे एगल्य इमं खत्ताऽऽगाढं श्रद्धाणपडिवमगाढे सव्वं जाहं असंथरणं अत्थंति असिर्व वा.अनत्थ नई वा तीरंति गंतण अकारगं वा पायरियाणं अन्नत्थ सावया वा तत्थ अंतरा वा दिग्ध. तं गाढं। इमं कालाऽऽगाढं ओमकाले जं असंथरणं तं गादं। जाइया वा अन्नंमि देस अंतरा वा ताहे एगस्थ अत्थंति इमे गिलाणपरिना दोऽवि भावाऽऽगादं गिलाणस्स तद्दिवसे पायोग्ग जति न लम्भंति तो गिलाणो गाई परियणस्स अहवा-खत्ताऽऽगादं । पं० चू०। असमाधाणे उप्परण दिया रातो वा परिएणाऽऽगाढं गिला (कालाऽऽगाढम् )णस्स तद्दिवसं पायोग्गं इह राती अहिगारो । इमं दव्वाऽऽ- कालस्स वाऽवि असती, वासावासे वियारणा णऽस्थि। गाढं'दुल्लभदब्वे'ति-सतपाग-सहस्सपागं,घयं,तेलं तेण साहु एतेहि कारणेहिं, कालाऽऽगाढं वियाणाहि ।। णो कजं तंमि अलभते दुल्लभदव्याऽऽगाढं । एवंविधं आगाद नायव्वं । पडिपक्खे अणागाढं । नि० चू० ११ उ०। वासाजोगं खेत्तं, पडिलेहे तं तु कालेणं बहुतो। (विस्तरेणाऽऽगाढस्य भेदाः) वचंताण य अंतर-वासं तु णिवडितुं पव्वत्तं ।। दब्वे खत्ते काले, भावे पुरिसे तिगिच्छे असहाए। डहरं वंतरखेत्तं, ताहे तं चेव पुब्बखेत्तं तु । एतेहि कारणे हिं, सत्तविहं होइ आगादं । गंतू वसती वासं, समतीते वा ति दस रातं ॥पं० भा०॥ पं० भा० ४ कल्प० । नि० चू०। कालो कालण बहुसो वासावासपाउग्गं खेतं यचंतादब्वे ताव वेजो पुछियव्वा । जाब याणि दव्याणि उपइसा | णं अंतरावास पडिय तंअंतरास्वत्तं । संनिसद्धगं ताहे तं ताव याणि न पडिसेविज्जंति । जहा एयं अम्ह न कप्पड। चेव पुव्वपडिलेहियं खतं । जं तिउल्लंता वि अस्थिरा वा जाद उवाइटाणि, ताहे ओमस्थाइ परिहाणीए भएणह। पं०चू०।। यासावासे जइ वासह मग्गसिरे दस राया तिरिण होति Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाव उक्कोसेण श्रोमोयरियाए वा जा जयणा आहाराइस एयं काला ऽऽगाढं । पं० चू० । इयाणि भावाऽऽगाढं तिकडं च दुक्खं, अप्पा वा वेदशा भवे यासुं । एवेदि* कारखेहिं भावाऽऽगाई त्रियायाहि ॥ अच्चुकमलादी, हिडकाई तु वेदणा श्रप्पा | तत्थग्ग तापणादी, दाहच्छेदेविगाढादी | पं० भा० ॥ 'अरकडे 'कति विहार अदिवि पा या पाहिला तस्य अगी दाई या परितार्थ साइ दायव्वं एयं भावाऽऽगाढं । पं० चू० । ( पुरुषाऽऽगाढम् ) - जंमि विट्ठे गच्छ-स्स विणासो तह य गाणचरणाणं । एतेहि कारणेहिं पुरिसाऽऽगार्ड वियाग्राहि ॥ तस्तु सुद्धा, जावजी प होत सुखं । काय तु य खियमा, पुरिसाऽऽगाढं भवे एतं ॥ जेण कुलं आवतं तं पुरिसं आदरेण रक्खाहि । , हु तुंबुभि विट्ठे, अरया साहारगा होंति । पं० भा० । पुरिसाऽऽगाढे-जमि विराट्ठे गच्छस्स विणासो नारादरिस. सरिताई विणासो न तुमि बिगाहा-तांदे तर गाव की जाय जीव एवं पुरिसा33गाढं | पं० चू० । चिकित्सा गादम् )संजोगदिदुपाडी, फासुगउवदेसखासु जो कुसलो । एवारिसस्स असती, गायव्वं विगिच्छमागाढं || मञ्जलिविभासा भरने पाउराए य पाये । केवडिया पहाणे, अन बत्तो गिलायो तु ॥ पं० भा० । संयोगविट्टपाडी बेअरस वा संयोगविद्वपाडिल्स अस गीयत्थसंविग्गस्स । ताहे गीयत्थवेजस्स जा पाहुडिया कीरह-पहासभोवणोया सदद्दह एवं तिमिच्छा55तं । गाढं । पं० चू० । (१०१ ) अभिधानराजेन्द्रः । सद्दायाऽऽगाढम् - हुआ व सहायरहितो, अन्वत्ता वाऽवि अहव असमस्था | एव सहायाऽऽगावं, तुम्हाणु मुखी विरेजा। पं० भा० ४ कल्प० । होख व सहायसहावा यासायासेन असा सुने वादोसा य डिमाणस्स वा एगाणियस्स ताहे एत्थ श्र स्थ एवं अत्यंत अपायच्छितो जाव सहाए न लभद्द पागे, एयं सहायाऽऽगाढं । पं० चू० ४ कल्प। श्रशुधातिनि अदिशनादिके कारणे च । बृ० । अहिडकविसविसूय-सज्जक्खयसूल मागाढं ।। १४६ ।। अहिना चित्साधुः विपं वा केनचिद्धा दिमिश्रं दत्तं विसूचिका वा कस्यापि जाता, सद्यः क्षबारपाकस्यापि शूलमुपनम् एवमादिकमाशुयाति स 9 २६ " आगाढमुसावाइ मयागाढम् एतद्विपरीतं तु विरघाति कुष्ठादिरोगात्मकम् - अनागाढम् । वृ० १ ० २ प्रक० । नि० चू० । ग० । ('गच्छसारणा शब्द तृतीय भागेऽच विस्तरां पते ) अवश्यकर्तव्ये काम " अणगाडे आगार्ड, करंति आगाहे अणगार्ड ॥ ११६ ॥ आगाढम् अवश्यकव्यं ग्लानप्रतिजागरणादिकं न - गाढम् श्रनागाढं तस्मिन् अनागाढे; कार्य इति शेषः । श्रागाढम् - अवश्य कर्त्तव्यमिति कृत्वा कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा श्रागादेवश्यक कार्ये धागा कार्य येन तेन विनापि सरति तत्कार्य कुर्वन्तीत्यर्थः । श्रथवा अनागाढयोगानुष्ठाने वर्तमान: श्रगाढयांगानुष्ठानं कुर्वन्ति । तथा-श्रा मायागानुष्ठाने अनागादयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति स्वच्छन्दाः । ०३ अधि० झोपा आतु किंचिदीत्पत्तिकं कार्यम् । बृ० १ उ० ३ प्रक० । “ श्रागाढमुसाबाई" ॥ ३७२४ ॥ श्रगांढ - कुलका संघका वेति । व्य० ३ उ० । करणे व विवचासं, करेह आगादे ऽणागादं ।। ७२२।। आगांद ग्लानादिकादै अनागादं त्रिः कृत्वा परिभ्रमणादिलक्षणम्, अनागाढं वा श्रगाढं सद्यः प्रतिसेवनात्मकं क गेति । बृ० १ ० १ प्रक० । श्रगाढे राजद्विष्टादिककाय्यें । ० १ ० ३ ० अभिगृहीतमिथ्यादर्शने पुं० गाढ श्रभिगृहीतमिथ्यादर्शनः । बृ० १३०२ प्रक० । आगाढजोग- आगादयोग-पुं० योगमेदे नि० चू० । । गाढमण गाढे, दुविहे जोगे समासतो होति ||३६|| जोगो दुबिद्दो- श्रगाढो य, श्रनागाढा य । श्रगाढं तु राजम्मि जांगे जतणा सो श्रगाढां यथा “भगवती" त्यादि । नि० चू० १३० | बृ० 1 (अत्र विशेषव्याख्यानम् ' अज्जा शब्दे प्रथममा २२० पृष्ठे गतम् । ) 66 आगाढपण आगाढप्रज्ञ - न० । शास्त्रे, व्य० । आगाढपरासु य भाविया ॥ ३७५ ॥ श्रगाढप्रज्ञानि - शास्त्राणि तेषु भावितात्मा तात्पर्यवाहितया तत्रातीनि *पन्नमतिः । व्य० ३ उ० । । श्रागाढपएह आगाढप्रश्न- पुं० [अत्यन्तदुर्भेद, य० । "आगाढपरदेस य संघ" ॥२७०॥ श्रगाढ श्रेषु या:त्यन्त दुर्भेदप्रश्नेषु परिचयेषु सत्स्विति । व्य० १३० १ श्रगाढपरियावण- आगाढपरितापन-न० बहुत त्या । | दनात्मक परितापे, जीत माढपरियावद्दय" ॥३४॥ बहुतमपीडोपाचागादम् जीत० । आगाढमुसावाइ (न्) - आगाढमृषावादिन् त्रि० । गाढे - कुलका गणकार्ये, संङ्घकार्ये वा श्रनाभाव्यस्य आभाव्यस्य वा ( नाभाव्यस्य वा ) ज्ञानतया रागद्वेषाज्ञानस्य वा भणनात् मृषावदतीत्येवंशील आगाढमृषावादी । कासति पावादिनि ० आगाढमुसावादी, वित्तियतइए उ लोवेति भए उ । ३७२+ आगाढे मृषावादी द्वितीयमृषावादादत्तादानविरतिरूप - ते लोपयति । व्य० ३ उ० । ( 'उद्देस' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽत्र विस्तरं पश्यामि ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाढवण आगाढव आगाढवचन - न० । अत्यर्थ गाढम् श्रगाढम् । गादुनगूढकरं, गाछेउं व ते आगाढं " (३+ ) | गाढं उमा फेरि गृहकर अन्यस्थापन शक्यते । अथवा शरीरस्योष्मा यनक्लिन जायते तमागाढम् इत्युक्तलक्षणे वचन, नि० धू० १० उ० । ( १०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । सूत्रम् - जे मिक्स भ आगार्ड वयद् वदतं वा सा ।। १ ।। आगाढवचन परुषवचना-ऽऽगाढपरुषवचननिषेधः-मा झुंज रायपिंडं ति चोदितो तरथ मुच्छितो गिद्धो खुजाती माल वच्चह, आगाढं च उप्पती दस मे ॥ १ ॥ गुरुणा चेतितो मुच्छियो गिद्धो एकार्थवचन, श्रहवा-तं भुंजतो संजमाऽसंजम ण जाणइ, मूच्छितवत् मूच्छितो अ मिलापमा अवा-बुजादियारामालयं वदति चोदितो आगाढवणं भणेज्ज । एस उप्पत्ती श्रगाढवयणस्स दसमुद्देसगस्स एस संबंधो । ( १ सूत्र व्याख्या ) - 'जे' इति सि दिल्या सुखे च । दीप्ति-स्तुति-सौख्येषु वा, मोद्दात्मस्य सिलोकः । भदंतो- आचार्य अत्यर्थम् श्रगाढे, ' वद ' व्यक्तायां वाचि, अरणं वा वदति श्रणुमोदति । गिज्जुत्तीगाहा गाढं पिय दुविधं, होइ असूयाए तह य सूयाए । एएस पत्ते, दोए पिप बच् ॥ २ ॥ आगाढं द्विविधम्-असूनाये, सुताए या आगाढफरसोभयसुत्ताण तिराह वि इमं सई वा । गाहा- गानगृहणकरं गाढं व तेय आगाढं । माहा हरहितं तु फरुसं, उभए संजोयणा गवरं ॥ ३ ॥ गाढम् उक्रं गाडुतं तं केरिस- गृहणकरं श्रन्यस्याख्यातुं न शक्यते । अवा- शरीरस्योष्मा येमाक्नेन जायते तमागाढं, नेहरहियं णिष्पिवासं, फरुसं भरणति । गाढफरुसं उभयं ततियसुत्ते जोगो दोराह वि, सूयाऽसूयवयणाएं इमेहिं दारेहिं स जाखिय जातिकुलरूवभासा, घणवलपरियाग जसत्तवेलाभे । सचवयबुद्धिधारण, उग्गहसीले समायारी ॥ ४ ॥ अम्हे 'मो जातिहीणा, जातीमंतहि को विरोहेण । एस असूयायां तु वरं परवत्थुखिदेसो ॥ ५ ॥ लोकप्रसिद्धं उल्लिंघितवचनं तव अत्र तादृशं न गृहीतव्यम् । इह तु परं दोषेण सूचयति स्पष्टमेव दोषं भासतीत्यर्थः परयसखा-भनं चय भएति तुजात शि 9 गाहा अम्हे 'मो कुलहीणा, को कुलपुत्तेहि सह विरोहेणं । एस असूया सूया तु वरं परवत्स ।। ६ ।। अम्हे 'मो रूपडीया, सरुवदेदेनु को बिरोद्देख । १ - ' मो' इत्यात्मनिर्देशे, (३) गाथा विवरखे बच्याते चूथिकारः । आगाढवपण एस असूया तु गवरं परवरदेिमो ॥ ७ ॥ अम्हे मो अकतमुद्दा, अलं विपाए कसमुदेहिं । एस असूया सूया, तु वरं परवत्थुणिद्देसो ॥ ८ ॥ वामीकृतमुखभासाए द्वितीयव्याख्यानम् । गाहा- खरकरुमणिट्ठरं थे, वकं तुझं मो महरगंमीरं । एस असूया सूया, तु परं परवत्युविदेसो ॥ ६ ॥ सरोयमितं खरं प्रति फरसं जगा रादि पाटि 'मो' इत्यात्मनिर्देशे अक्यरेहिं मितं प्रत्थमभिघार्दि मधुरं सरेण गंभीरं । , गाद्दा अम्हे मो धमीणा, आसि श्रगारंमि इड्डिमं तुज्झे । एस असूया तु वरं परवरदेिसी ॥ १० ॥ एमेव सेस वि, जोएयब्वा असूय-सूयाश्रो । अगता तु या पूषा पुरा पागडं भखिया ॥११॥ अपणो दोसं भासति, ए परस्स, एला असूया । ए अप्पणो परस्स फुडमेव दोसं भासति एसा सूया । सूयतीव सूया । औरसबलयुक्नो बलवान् । परियाश्रो- प्रवज्याकालः । सोवासकः प्रथमं यसि वर्तमान त्रिदशयत्ययोज या विडितो तस्य तदा गुणवासंति उत्पत्तियादिबुद्धिजुतो बुद्धिमं धारणा स्मृतिः बहुवहुविधतानि श्रिताः- संदिग्धं ब्रुवाणा उग्गहं करेंति, अक्कोहादिणा सावं चकबाल सामायारीपज्जुता कुसलो वा पते अत्था सब्बे पापभाणिया गाहा— एकेका सा दुविधा, संतमता व अनथि परे य पचक्खपरोक्खाऽवि य, असंतपच्चक्खदोसयरा ॥ १२ ॥ श्रात्मगता असूया । परमता सूया । श्रसूया संता, असंता य। सूया वि-संता, असंता य। जहत्थे ठियं संतं श्रभूतार्थ अनृतं असंतं परस्स जे पभासति पश्चखं महंतदोसतरं भवति, श्रहवा मेहिं श्रध्या, परं वा, पसंसति, दिति वा । - गाहा— 9 मणि वायते बहुते सेहा वाऽऽयरियधम्मकदिवादी । अप्पकमाए धूले, तलुए दीदे य ड य ।। १२ ।। अम्हे समग्रा ण गयी. की गणवसमेहि सह विरोहेण । एस असूया तु वरं परवत्थुगिसो ||१४|| अग तु हासमादीहि गवि ग िपूयागणि च । एवं सपएस वि, सम्पडिपक्खं तु नेयव्वं ॥ १५ ॥ सेसा पादा बहुसुतादीया निवित्तं बहुयं च सुयं बहुतो तिविधी-मेहावी- गणधारण मेधावी व आयरियोगच्छाहिती तर भासति अम्हे के ? आपश्यित्तस्व जे सामायारिं पण याणामो । श्रहवा भति- तुमं को आयरियत्तस्स जो सामायारिं पिण याणसि, चतुव्विद्दाए अवदियमादिया धम्मकद्वार लद्वीप तो ससमय Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागादवयाँ अभिधानराजेन्द्रः। प्रागाढाऽऽ परसमपसु गतागमो उप्पण्णपडतो वादी बहु अल्पकषायः तत्प्रतिषेधार्थमिदं सूत्रमारभ्यतेक्रियासु दक्षः स्थूरः तनुर्पक्षः क्षमापूरदेहाको तांदहे हीणण जे भिक्खू भिक्खूणं प्रागाढं वदइ वदंतं वा साइजइ।।१॥ सह विरोधो घट्टमो णिचं उरि मडहसरीरहिं को विरो जे भिक्खू भिक्खूणं फरुसंवदइ वदंतं वा साइअइ ।।२।। हेण, पिदं च करेंति, थुती य, परमपणो कद्दतरं गाउं पर जे भिक्खू भिक्खणं आगाढफरुसं-पदइ वदंतं वा साइजइ चयणपयोगवसा पुव्वुत्तरमप्पणो देति पतेसामनतरं श्रागाढं जो वदति तरिसमा सोही। ॥३॥ गाहा आगाढ-फरुम-मीसग-दसमुद्देसंमि वरिणयं पुव्वं । छेदादी मारोवण, नेयव्वा जाव मासियं लहुगं । तं चेष विवजंतो, सो पावति प्राणमादीणि ॥४॥ आयरिए वसभंमि य, भिक्खुमि य खुड्डुए चेव ॥१६॥ नि० चू० १५ उ०। आयरिश्रो पायरियं, आगाढं वयति पावई छेयं । जे भिक्खू एणउत्थियं वा गारत्थियं वा प्रागादं ववसभे छग्गुरु भिक्खु-म्मि छल्लहू खुड्डुए गुरुगा।।१७।। दइ वदंतं वा साइजह ॥६॥ . पायरिश्रो पायरियं श्रागाढं वदति-छदा, आयरिश्रो वसमंह, आयरिश्रो भिक्खु, आयरिश्रा खुत्ते का। जे भिक्खू अएणउत्थियं वा गारस्थियं वा फरुसं वदह गाहा वदंतं वा साइजइ॥१०॥ वसभे छग्गुरुगाई, छल्लहुगा भिक्खुखुडे: जे भिक्खु भएणउत्थियं वा गारस्थियं वा भागाअंता पुण सिं चउलहु, मासगुरू मासलहुओ य ॥१८॥ ढफरुसं बदइ वदंतं वा साइजइ ॥ ११ ॥ नि०चू०वसभो आयरियं श्रागाढं वदति , खुत्तो वसभर १३ उ०। खुत्तो खुत , अहवा अन्यथा प्रार्याश्चत्तक्रमः । आगाढफरुसमीसग-दसमुद्देसंमि वरिणतं पुव्वं । गाहापंचएहापरियारइ, छेया एकेकहासणा अहवा । गिहिश्रणतिथिएहि व, ते चव य होंति तेरसमे ।।२।। राइंदियवीसंऽतं, चउएह चत्तारि अविसिट्ठा ॥ १६॥ जहा दसमुहेसे भदंतं प्रति आगाढफरुसमीसगसुत्ता भणि श्रायरियवसभभिक्खुधरो खुतो यच्छे दादी बीसए रा- ता, तहा इहं गिहत्थ श्रगण उत्थियं प्रति वक्तव्या,इमेहिं जातिदिया अंतेणं चेव वाणियप्पोगणं वारेयव्वं , जत्थ तिमत्तिपहिं गिहत्थं अरणतित्थियं वा ऊणतरं परिभवंतो जत्थ चउगुरुगं तत्थ तत्थ सुत्तणिवाओ दट्टयो, अहवा- श्रागाढ फरुसं वा भगति । नि० चू०१३ उ०। पुखुत्ताण चउराहं चउगुरुगं तव-कालविसेसियं, अहवा आगाढसुय-पागाढश्रुत-न० श्रुतभेदे, नि०चू०। आगाढसुयं सब्वेसिं अविसिटुं चउ। भगवतीमाइ. अणागाढं पायारमाति त्ति । नि० चू०१ उ० । गाहा "श्रागाढे एवमत्थे वि" ॥२४ +॥ श्रागाढे तु-उत्तराध्ययमजं चेव परहाणे, आसायंताण पावए अोमं । भगवत्यादिके श्रुते । जीत। तं चेव य प्रोमो विय, प्रासाइतो वि राइणियं ॥२०॥ श्रागाढाऽऽगाढकारण-श्रागाढाऽऽगाढकारण-न० । तथापरट्राणं परप्रधान, ज्येष्ठमित्यर्थः । जे सो श्रोमं श्रासादे- विध प्रयोजने, "अराणत्थ आगाढाउगाढेहिं"(सूत्र-६६+)। तो पावति ओमे वि तं चेव जटुं श्रासादेतो पावति । अन्यत्र-तथाविधप्रयोजनात् । आचा० २ श्रृ० १ ० २ गाहा ०१उ०। एएसामन्त्रयरं, पागाढं जो वदे भयंतारं। भिक्खू य बहुस्सुए बब्भागमे बहुअागाढाऽऽगाहेसु सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥२१॥ - कारणेसु माई मुसावाई । (सूत्र-२३४) असंखडादयो दोसा पक्खाऽपक्खगहणे य गच्छभेदाः' का (इदं संपूर्ण सूत्रम् ' उद्देस' शब्द अम्मिन्नेव भागे व्याख्या रणे भणेज्जाऽवि । नि० चू० १० उ०। सहित दर्शयिष्यते । ) कुलप्राप्त गणप्राप्तं संघप्राप्तं यत् सचिण य णिच्छयमावसिया, छटुं बल्ली फलाऽवि संबद्धा। तादिकं व्यवहारेण छेत्तव्य कार्य वा श्रागाढाऽऽगादं कार• इति हरिसगमणचोदण-आगाई चोदितो भणति ॥१॥ ग. तेषु श्रागाढाऽऽगादषु । ब्य०३ उ०। कारणे-वासावासे भायं णाणं कसेणं कतेणं वसित्ता पा श्रागाढाउगाढकारणादीनि पदानि व्याचिण्यासुराह (भा. सति । तं बीअो जायपुत्तं भंडाश्रो ताहे सो हरिसितो भ-| ध्यकृत् )णति-ण णित्थयामो बसित्ता मम वादेसु अतीव बल्लीओ कुलगणसंघप्पत्तं, सञ्चित्तादी तुकारणागाद ॥२८५४ पसारिता ण केवलं पसरिता तो पभूता फलावि संब- __ सचित्तनिमित्तोऽचित्तनिमित्तो वा यो व्यवहारः कुले द्धा न कवलं संबद्धा प्रायशो निष्पन्ना । अभिस्समो पादे| क्षिप्ता यथदं सचित्तादिकं विवादास्पदीभूतं कुलन छत्तव्यतं एवं भणंतं कोऽवि साधू पडिचोएज्जा ।मा अज्जो ! मिति तत्कुलप्राप्तमेवं गणप्राप्त समाप्त भावनीयम् , यत्र यएवं भणाहि ण वट्टति । ततो सो पडिचोदणाए रुट्ठो फ- सचित्तादिकं विवादास्पदीभूतं व्यवहारेण छेद्यतया कुलरुस बदज्ज। प्राप्तं वा गणमाप्तं वा तरकारणाऽऽगाद कारणम् । व्य०३ उ० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) अभिधानराजेन्द्रः। भागामि भागार अागामि(न)-आगामिन-त्रि०। श्रागन्तुके, भविष्यत्काल- वेदने, इङ्गिते च । वाच०। आक्रियन्त इत्याकारा श्रागृह्यवृत्तौ च । वाच० । लब्धव्ये, । स्था० २ ठा०४ उ० । | म्त इति भावना । सर्वथा कायोत्सर्गापवादे, पाव०५०। ल० । कायोत्सर्गाकारानभिधायोक्तम्-"एवमादिएहि श्राभागामिपह-मागामिपथ-पुं०। आगामिनो-लब्धव्यस्य व गारहिं अभग्गो अविराहिश्री हाज मे काउस्सग्गो" (सूस्तुनः पन्थाः आगामिपथः । लब्धव्यवस्तुमार्गे, स्था० २ प्र-३+) ति । ल । आव० (ते च 'काउस्सग्ग' शब्द तृठा०४उ०। मागामिय-आकामिक-त्रि० । अनभिलपणीये , स्था० ५ तीयभागे वर्णयिष्यते) । श्रा-मर्यादया मर्यादास्थापनार्थम् श्राक्रियन्ते-विधीयन्ते प्रत्याख्यानभङ्गपरिहार्थमित्याकाराः। ठा०२ उ०। प्रत्याख्यानापवादहेतावनाभोगादिके , स्था० १० ठा. ३ अग्रामिक-त्रि० । ग्रामरहिते, स्था। "अत्थेगड्या णिग्गंथा उ० । प्रव०। पश्चा० । श्राव० ।"श्रागारहि विसुद्ध" यणिग्गंथीयो य एगमहं श्रागामियं छिन्नावायं दीहमद्धमड. ॥५०५+॥ श्राकार:-अनाभोगादिभिः । पं०व०२द्वार। "गविमणुप्पविट्ठा" (सूत्र-४१७ + )। स्था०५ ठा०२ उ०।। हरणे श्रागारेसु" ॥ ४+॥ श्राकारेषु-प्रत्याख्यानापवादेषु । प्रागार-आकार-पुं० । आ-कृ-घम् । आकृती, प्रा० म०१ | पञ्चा०५ विव० । “दो चेव नमुक्कारे श्रागारा"॥ ५०८+॥ अ०। कल्प० । शा० । स्था० । भ० । रा० । संस्थाने, औ० । आकारो हि नाम-प्रत्याख्यानाऽपवादहतुः । पं०व०२ द्वार । " सिंगारागारचारुंबसाए" (सूत्र-) शृङ्गारा-मण्डनभू (कस्य प्रत्याख्यानस्य कत्याकाराः)पणाटोपस्तत्प्रधान श्राकार:-श्राकृतिर्यस्याः सा तथा । नवकारपोर (रि) (रु) सीए, तथा चारु बेशो-नेपथ्यो यस्याः सा तथा, ततः कर्मधारयः। पुरिमड्डेक्कासणेगठाणे अ। रा०। औ० । सन्निवेशविशेष, शृङ्गार:-शृङ्गाररसपोषकः श्राकार:-सन्निवेशविशयो यस्य । चं०५० २० पाहु० । आयंबिलऽभत्तद्वे, " श्रागारविगारं तह पयासंति" ॥१२१ +॥ श्राकार-मु __ चरिमे अ अभिग्गहे विगई ॥ ५०६॥ खनयनस्तनाद्याकृतिः, विकारं च मुखनयनादिविकृतिः । दो छच्च सत्त अट्ठ य, यद्वा-श्राकारस्य स्वाभाविकाकृतर्विकाग विकृतिस्तं तथा सत्तऽट्ट य पंच छच्च पाणम्मि । प्रकाशयन्ति । ग० ३ अधिः। श्रागारो णाम-श्रागारो त्ति था, भागति त्ति वा, संठाणं ति वा, एगट्ठा । श्रा० चू० चउ पंच अट्ट नवए, १० । स्वरूपे, ध०३ अधि०। “कइवागयस्स श्रागारा" पत्तेनं पिंडए नवए ॥ ५०७॥ (सूत्र-५५३ +) | आकारा-श्राकृतयः; स्वरूपाणीत्यर्थः। 'नमस्कार' इति-उपलक्षणत्वात् नमस्कारसहिते पौरुध्यां स्था०७ ठा०३ उ० रूपमाकारश्चर्विषयः । स्था०१ ठा। पुरिमार्द्ध एकासने एकस्थाने च आयाम्ले अभक्तार्थे चरम च प्रतिवस्तुनियते ग्रहणपरिणामे च। आगारो उ विससो," अभिग्रह विकृती, किं ?-यथासङ्ख्यमेते श्राकाराः, द्वौ षट् इति वचनादिति । जी० १ प्रति० । सह आकारण सप्त अष्टौ च सप्त अौ च पञ्च षद् (पान) चतुः पञ्च नवाऽ. वर्तत इति साकारं विशेषग्रहणप्रवणम् । दर्श०५ तस्व । हौ प्रत्येकं, पिएडके नवक इति गाथाद्वयाक्षरार्थः॥५०६॥५०७॥ (सर्वस्य च वस्तुन श्राकारवस्वम् ) भावार्थमादआगारो चिय मइस-दवत्थुकिरिया फलाभिहाणाई। । दो चेत्र नमुक्कारे, आगारा छच्च पोरिसीए उ । पागारमयं सव्वं , जमणागारं तयं नऽस्थि ।। ६४॥ | सत्तेव य पुरिमड्डे, एकासणगम्मि अद्वैव ॥ ५०८॥ न पराणुमयं वत्थु, आगाराऽभावो खपुप्फ व। । सत्तेकट्ठाणस्स उ, अटेवाऽऽयंबिलस्स आगारा । उवलंभववहाराऽ-भावाओ नाणऽऽगारं च ।। ६५ ।। पंच अभत्तदुस्स उ, छप्पाणे चरिम चत्तारि॥ ५०६॥ विशे०। (अनयोर्गाथयारर्थः 'ठवणाणय' शब्दे चतुर्थ- पंच चउरो अभिग्गह, निधिइए अट्ट नव य आगारा । भागे वर्णयिष्यते ) आक्रियते-पाकल्प्यतेऽभिप्रेत मनाविक अप्पावरणे पंच उ, हवंति सेसेमु च तारि ॥ ५१०॥ ल्पितं वस्त्वनेनेत्याकारः । श्रा-कृ-करण घम् । बाह्यचे- णवणी उग्गाहिमए, अवदहि पिसिन घय गुले चेत्र । टायाम् , विशे० । आ० म० । आकार:-स्थू नधीसंवेद्यः नव आगारा तेसिं, सेसदवाणं च अद्वेव ॥ ५११ ॥ प्रस्थानादिभावाऽभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः । श्राह च द्वावेव नमस्कार आकारौ, इह नमस्कारग्रहणात् नम"अवलोयणं दिसाणं, वियंभणं साड्यरस संठवणं ।। स्कारसहितं गृह्यते, तत्र द्वावेवाकारी, श्राकारो हि नामआसणसिदिलीकरणं,पट्टियलिंगाई एयाई। उत्त० पाई०१ श्रा प्रत्याख्यानापवादहेतुः, इह च सूत्रम्-"सूर उग्गए नमुक्कायदुक्तम् रसहिश्रं पश्चक्खाइ चउब्विहंपि आहार-असणं,पाणं,खाइम, अवलोकनं दिशानां, यिज़म्भणं शाटकस्य संवरणम् । साइम, अरागत्थणाभागेणं सहसागारेणं वोसिरह" सूत्रार्थ: पासनशिथिलीकरण,प्रस्थिलिङ्गानि चैतानि ।। उत्त.१ अ. प्रकट एव, आकारार्थस्त्वयम्-श्राभोगनमाभोगः न श्रा"श्रागारेहि सरेहि य"॥१४०४॥ श्राकाराः-शरीरगता भा- भोगोऽनाभोगः । अत्यन्तविस्मृतिरित्यर्थः तेन , अनाभोगं विशेषाः । व्य० १ उ० (विस्तरोऽस्य 'आगारलक्खण' मुक्त्वत्यर्थः, अथ सहसा करणं सहसाकारः; अतिप्रवृत्तशब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते)। भाव घम् । हृद्गतभावा- योगानिवर्तनमित्यर्थः, 'षट् च पौरुष्यां तु' इह पौरुषीनाम Jain Education Interational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगार न प्रत्यास्थानविशेषः तस्यो डाकारा भवन्ति इह चेदं सूत्रम्-पोसि पश्चखाइ सुरेउसा च पि आहार असणमित्यादि, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारे पच्छन्नकालें दिसामहे साहुवयं सव्वसमाद्दिवत्तिमामा - रेसे पोसि" भोगबसाकारी पूर्ववत् प्र फालादीनां विवो दिलाओ र रेसुनाय या अंतरित रोईीसह पोरुसी पुचिकाय पारियो, प्रच्छा सा वा भग्गे, जर तो भयं एवं सम्पदिषि दिसामोस कस्सर पुरिसम्स दिवि खिले दिसामादो भयर सो बुरिमं दिलं न जाइ, एवं सो दिसामा देणं श्ररुग्गयंपि सूरंद उसूरीहूति मरणइ, बाए ठाति । 'साहुवय ' साहू भतिपाडा पोसताहे सो पजिमिती, पारिता मिवर, वा मिति तेल से मंजनस्स कहिये प्रति सहाय समाही ग्राम तेरा पोरुसी पश्चक्खाया श्रासुकारियं च दुक्खं जायं, अरणस् वा, ताहे तस्स पसमनिमित्तं पाराविज्जर श्रोसई यादित गाए तय विवेगो । सतु पुरिमार्चे, पुरिमा - प्रथम प्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते तत्र सप्ताऽऽकारा भवन्ति, इह वदं सूत्रम् -' सूरे उग्गए इत्यादि पूर्वसहमपरागार ति विशेषः अस्य चायमर्थः - श्रयं च महान् श्रयं च महान् श्रयमनयोरतिशयेन महान् महत्तरः श्राक्रियत इत्याकारः, एतदुक्तं भवतिम पर्याय तेरा अम्मल पाता ' 9 ( १०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । . 2 - रिप मराइ मुगं गामं गंतव्त्रं, कंदेह जड़ा मम श्रज्ज अभत्तो, जदि ताव समस्या करेउ जाउ, य, ण तरह श्ररणे अतश्रि श्रभत्तट्ठियो वा जो तरह सेो वव, स्थिरगो तस्स कजस्स समत्था तांदे तस्स वेव अतडिपस गुरु सिरिति परिसर से जनस्व अभिलासम्स अध्यत्तट्टपनिञ्जय जा सा से भ दमादमराया प्रकाशने अष्टावेव पकाशने नाम दुषिताचालनेन भोजने, तमाशायाकारा भवन्त इह वेदं सूत्रम् - एक्कासणगमित्यादि, ते च अण्णत्थणाभीमे १ सहसागारे २ सागरागारे ३ आपलारणागारें ४ गुरुश्रब्भुट्टा ५ पारिहाणियागारे ६ मद्दतगारे सलमदिवस पगारे बासिरति, श्रणाभोगसद्द साकारा तदेव, सागारिअं असमुद्दिस्स श्रागयं, जइ बोलेइ पडिच्छर, अह थिरं ताहे सज्झायवाघाउ ति उट्ठउं अरणत्थ गंतूणं समुद्दिसइ हत्थं वा पायं वासीसं वा आउट्टिज वा पसारिज वा ए भज्जर, अम्भुट्टागारो आवरितो पाहुगो या आगओ अभुप तस्स एवं समुद्दिस्स उडियस भज, पारिहाणिया जदोज कप्पर, मयहरागारसमाही ओ तद्देव त्ति गाथार्थः ॥ ५०८ ॥ ' सप्तकस्थानस्य तु ' एकस्थानं नाम प्रत्याख्यानं, तत्र सप्ता कारा भवन्ति इदं खूप गडा' मित्यादि, एगड्डागए जं जहा गोवंगं ठविनं तेरा तहाटिपण चैव समुद्दिसियध्वं श्रागारा से साउंटपसारा न से जहा एक्कासए । वाड्यामाम्लस्याऽऽकाराः, श्रणाभोगा०१सइसागारे २ लेवा लेवें ३ उक्त्तिविवेगे ४ गित्वसं२७ आगार सद्वें ५ पारिठावणियागारे ६ मयहरागारे ७ सबसमा - वित्तियागारे ८ वोसिरति, श्राभोग सहसक्कारा तद्देव, लेवालेवो था, जह भाणे पुष्यं लेवाडगं गहिश्रं समुहिडुं संलिहिये व ज त ति रा भज्जइ, उक्खित्तविवेगो जह आयंबिले पडर विगतिमादि उक्खिवित्ता विचिउ, मा वरि गलउ, अगं वा श्रयंविलस्स अपागं जइ उद्धरिडं तीर उर उमा निस्थसंसऽचि जगिइस्यो डालि मायया वालेया कुणासित्ति लवाडादीहि देभिज ग्सो अलवि वह बहुतां कप्पर, पारायणयमहरगमाओ तद्देव । पञ्चानार्थस्य तु न भक्तार्थोऽभक्कार्थः उपवास इत्यर्थः, तस्य पञ्चाऽऽकारा भवन्ति, इंदं सूत्रम्- 'सूरे उग्गए' इत्यादि, तस्स पंच श्रागारा - अणुाभोग - सहसाकार - पारिडाय-मयहर-समादि से, जह निविस्वपचा तो विकिंचणिया कष्णह, जद्द चउव्विहस्स पश्चखाइ पाएगं च नऽत्थि न चट्टइ, जइ पुरा पाणगंधि उच्चरियं ताहे से कप्पर, जर तिविहस्स पश्चकखाइ ताहे से पारागस्स छ श्रागारा कीरंति - लेवाडे वा, अलेवाडे वा, अच्छे वा बद्दलेख था, ससित्थेण वा, असित्थेण वा, वोसिरइ" प्रकटार्था एते छपि । एतेन पढ़ पान इत्येतदपि व्याख्यातमेव 'बरमे चत्वार' - मंदु-दिवसभर व दिवसपरिम स्स चत्तारि अण्णत्थारणाभोगा सद्दस मयहर सबसमाहि भयरिमं जायजीवियं तस्यवि र बजारि ति गाथार्थ ॥५०६॥ पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे निर्विकृतौ श्रष्टौ नय वाऽऽकाराः 'वर' इत्यपिपाकारा मयन्ति शेषेष्यनिग्रहषु दण्डप्रमाजनादिषु चत्वार इति गाथार्थः ॥११०॥ भावार्थस्तु - 'अभिग्गहेसु अबाउडत्तणं कोइ पच्चकखाइ तस्स पंचदाभोगा सहसा बोलपहुगा उगारा मयहर समाहि सेसेसु चोलपट्टगागारो सत्थि, निश्चिगईए अट्ट नव य श्रागारात् अत्र विकृतयः पूर्वोक्ला, अधुना प्रकृतमु च्यते क्वाष्टौ क्व वा नवाऽऽकाराः ? इति तत्र - नवनीते उद्ग्राहिम के अद्रवदध्नः गालित इत्यर्थः, 'पिशिते -मांसे कृते गुंडे चैव, श्रद्रवग्रहणं सर्वत्राभिसंबन्धनीयं, नवाकारा श्र मीषां विकृतिविशेषाणां भवन्ति, शेषाणां द्रवाणां विकृतिविशेषाणामायाकारा भवन्ति, उनि मयतीति गाथार्थः ॥ ५११ ॥ इद्द चंदं सूत्रम् -' निश्चिगतीयं प खाइ' इत्यादि, श्रत्थ १ सहसा २ लेवालेव ३ गित्यसपिंग पहुच पारिडाचलिया ७ मयदर समाहिपत्तियागार बसिरह, तत्थ अणाभोग-सहसाकारा लेवालेवा तदेव दटुवा, गिइत्थसंसस्स उ इमो बिही-खीरेण जइ कुणि कूरो लग्न तस ज कुंडगस्स दातार गुलाि दुई तस्स फप्पर, पंचमं स्वार विगती, एवं दहिस्सवि, वियडस्सवि, केसुवि विसपसु वियंडेण मीसिज्ज श्रदो श्रोगाहिमगो वा, फाणियगुलस्स तिल्लघया य एहिं कुसिखिए जह अंगुलं उचरिं तो - अच्छ दृइ, परेण न वट्टर, महुस्स पोग्गलरसगस्स य श्रद्धगुलेग संसठ्ठे होइ, पिंडगुलस्ल नवणीयस्स य अ (दा) मलमित्तं जसमा कति एवं पिपन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) भागार अभिधानराजेन्द्रः। मागारिय कप्पाइ, उक्खि तविवेगा जहा आयंबिलये उद्धरिउं तीरइ आहारादिच्छाह-त्थवयण नेत्ताइसरणाहिं ।। २१५५ ॥ सेसेसु णऽथि, पहुच्च मक्खियं पुरण जइ अंगुलिए गहाय म. प्रक्रियत-आकरप्यते ज्ञायतेऽभिप्रतं-मनोविकाफ्ल्पितं कक्रा निल्लण वा घपण वा ताहे निव्यिगइयस्स कप्पड, अह स्त्वननेत्याकारो-बाह्यचेष्टारूपः । तेन च मानसमाकृतधाराए छुभइ मणागपि न कप्पड, पारिट्रावणियागारो उ म्-अभिप्रेतं वस्तु लक्ष्यत इति लक्षणमसावुच्यते । तथाहिखेसा भगिनी एव-इति वृद्धसम्प्रदायः, कृतं प्रसङ्गेन, राजादीनामाहारादीच्छाहस्तबदननत्रादिसंझाभिलक्ष्यत एवं प्रकृतं प्रस्तुम:-अाह इह प्राकारा एव किमर्थमित्याह विचक्षणैः । उक्नं च-"अाकारिङ्गितैर्गत्या, चेया भाषणेन च। वयभंग गुरुदोसो, थेवस्सऽवि पालणा गुणकरी अ। नेत्रवक्त्रविकारैश्च , लक्ष्यतऽन्तर्गतं मनः" ॥१॥इति । विशे। गुरुलाघवं च नेअं, धम्मम्मि अओ उ आगारा ॥५१२।। (तच्चानेकविधं दर्शितं यथा)बतभङ्गो गुरुदोषः भगवदाज्ञाविराधनात् , स्तोकस्यापि "प्रागारलपवर्ण पणेगविह-गंतुमागारे देति, भोलुमागार पालना व्रतस्य गुणकारिणी च, विशुद्धकुशलपरिणामरूप- देति, सोतुमागारं दति । एवं वक्तुं, इष्टमित्यादि, कहं गतुं०। स्वादु, गुरुलाघवं च विनेयं धर्मे, एकान्तग्रहस्य प्रभू- "अवलोयणादिसाण, विर्यभणं साडगस्स सट्टवणा । श्रासतापकारित्वेनाशोमनत्वात् , यत एतदेवमता-अस्मात् का- णसिढिलीकरणं, पडित लगाणि चत्तारि ॥१॥ भो रणादाकारा इति गाथार्थः ॥ ५१२॥ गृह, श्रागमेहि कतमा- मिच्छातिभायणविधि बदणं पस्संदते य से बहुसो दिट्टी य गारं, आगमा-रुक्खा तेहिं कतं आगारं ति । नि० भमति तत्थेव पडति छायस्स लिंगाहरण तपणं विक्रियत। चू०३ उ० । ततो हुतं या पुलापति । सातुं जहा उदीरते य णिहाति आगारगोवणा-आकारगोपना-स्त्री। खीणां द्वासप्ततिक- तस्स वि य सइयकागयतस्स दहियम्स उ मित लान्तर्गते कलामेदे , कल्प०१ अधि०७ क्षण। सत्यवीयरागस्स गाथा। द्रष्ट्र जह आगारहिं सुण मोश्रागारचरित्तधम्म-आगारचरित्रधर्म-पुं० । अगारं गृहं त णी बन्नेहि चखुरागेहि जणमणुरत्तविरत्तं पहट्टचित्तं च द्योगादागारा-गृहिणस्तषां यश्चरित्रधर्मः-सम्यक्त्वमूला पदुटुं “श्राकारङ्गिर्भावैः, क्रियाभिर्भाषितेन च । नणुक्तादिपालनरूपः स तथा। चारित्रधर्मभेदे, स्था० २ ठा० प्रवक्त्रविकारैश्च , गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः" ॥१॥ प्रात्थीणि चे१उ० व जाणंति स्टुस्स स्वरा दिट्टीओ। उप्पलधवला पसाप्रागारमाव-आकारभाव-पुं० । श्राकारस्य-श्राकृतेर्भावाः- चित्तस्स दुहियस्स उगिलायोति गंतुमणस्सुस्सुया होति । पर्यायाः । भ० ६ ० ७ उ०। प्राकृतिलक्षण पाये , प्रा० चू० १ ० भ०१२०४ उ० । आकारभावः स्वरूपविशेषः । जी०३ आगारावगार | आगारविगार-आकारविकार-पुं० । प्राकृतेर्विकृती, ग०। प्रति०४अधि०। गइविब्भमाइएहि, प्रागारविगार तह पयासंति। भागारभावपडोयार-आकारभावप्रत्यवतार-पुं० । श्राकार- स्वच्छन्दः श्रमणो गतिभ्रमादिकैः। श्रागारविगार' ति-पत्र स्य-भारतेर्भावा:-पर्यायाः । अथवा-आकाराश्च भावाश्च विभकिलोपः प्राकृतत्वात्। तत आकार मुस्खनयनस्तनाआकारभावास्तेषां प्रत्यक्तार:-अवतरणमाविर्भावः श्राकार चाकृतिः, विकारं च मुखनयनादिविकृतिः। यद्वा-श्राकारस्यभावप्रत्यवताराम०६श०७ उ०। श्राकारभावस्य-श्राकृति स्वाभाविकाऽऽकृतेः विकारो-विकृतिस्तम् , तथा प्रकाशयसक्षसपथ्यायस्य प्रत्यवतार:-अवतरणमाकारभावप्रत्यव न्ति । ग०३ अधिक। तारः। भ०६२०७उ०प्राकृतिलक्षणपर्यायस्याविर्भाव, भागारसुद्धि-आकारशुद्धि-स्त्री०। प्राकारशुद्धिस्तु राजाजी० भियोगादिप्रत्याख्यानापवादमुत्कलीकरणात्मिका । शुद्धिकिमागारमावपडोयाराणं भंते ! दीवसमुदा पक्ष्णता। भेद, ध०२ अधिक। (सूत्र-१२३+) आगारिय-आकारिक-त्रि० । प्राकारे कुशलः ठञ् , आकाआकारभावः-स्वरूपविशेषः कस्या कारभावस्य प्रत्यव रिकः । तत्र नियुक्त, वाच। तारा येषां ते किमाकारभावप्रत्यवताराः, बहुलग्रहणादेय- प्राकरित-त्रि०। उत्सारिते, “मारिनो मागारि प्रास्साधिकरख्येऽपि समासः । रणमिति पूर्ववत् , द्वीपसमुद्राः किं- रिश्री वा एगट्टति,, । श्राव०४०। स्वरूपं द्वीपसमुद्राणामिति भावः । जी० ३ प्रति० ४ अ- प्रागारिक-न० । अगा-वृक्षास्तैः कृतमगारं गृहं तदस्याघि०१उ०। (अत्र विस्तरः'दीवसमुद' शब्दे चतुर्थभागे स्तीति मतुब्लोपादगारो गृहस्थत्तस्यदमामारिकम। विशे। २५४३ पृष्ठ दर्शयिष्यते) दुविहं चेव चरितं, अगारमणगारियं चेव ।। ७८६ ।। भागारलक्खण-भाकारलक्षण-ना आक्रियते-अभिप्रेतं शा. अगा:-वृक्षास्तैः कृतत्वाद् प्रा-समन्तात् राजते इति - यतेऽनेनेत्याकारो-बाहाचटारूपः स एवान्तरोगमकत्वा गारम्-गृहम् , “चित्" ।५।१।१७१ इति उप्रत्ययः, शक्षणमाकारलक्षणम। लक्षणविशेषे, श्रान्तरोगमकता तदस्यास्तीति । "अभ्रादिभ्यः"॥७॥२॥४६॥ इति मस्वर्थीचाकारस्य सुप्रसिद्धा । मा० म०१०। यः प्रकारप्रत्ययः। अगार:-गृही तस्मिन् भवम् आगा“श्रागारे" ति (२१४६) आकारलक्षणम् (भाष्यका रिकम् । " अध्यात्मादिभ्यः इण" ॥६।३। ७८॥ इति रः) व्याचिण्यासुराह इकण्यत्ययः, चारित्रसामायिकभेद, भा० म.१०। बाहिरचिट्ठागारो,लक्खिाइ तेण माणसाकूनं। विशे०। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) मागारेजण अभिधानराजेन्द्रः। प्रागास भागारेऊण-माकार्य-प्रव्य० । रे कयास्यसीदानीमित्येव- | अथाऽऽकाशद्रव्यस्य लक्षणमाविष्करोतिमाहूयस्यर्थे , भाव। यो दत्ते सर्वद्रव्याणां. साधारणावगाहनम् । भागारेऊण परं, रणि ध्व जइ सो करिज उस्सग्गं लोकालोकप्रकारेण, द्रव्याकाशः स उच्यते ॥ ८॥ ॥ १४५५४॥ या-आकाशास्तिकायः सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहनम्भागारेऊण' ति-कार्य रे रे क यास्यसीदानीम् , सामान्यावकाशं दत्ते स द्रव्याकाशो लोकालोकप्रकारेण एवं परम्-अन्य कश्चन 'रणि' व्व संग्रामय यदि सः | उच्यते इति । यतः सर्वद्रव्याणां यः सर्वदा साधारणावकुर्यात्कायोत्सर्गम् । प्राव०५०। काशदाता सः अनुगत एक प्राकाशास्तिकायः कथितः सर्वाऽधार इति । यथा पक्षिणां गगनमिवेति व्यवहारभागाल-भागाल-पुं०। आगालनमागालः। समप्रदेशावस्था नयदेशभेदेन भवेत् , तद्देशीयानुगत आकाश एव पर्यवसन्नः मे, भाचा साऽपि चतुर्था-व्यतिरिक्त उदकादेनिम्नप्रदेशा. स्यात् । तथा च-तत्तदेशाप्रभागावच्छिन्नमूत्तीभावाविना वस्थानम , भावागालो हानादिक एव तस्यात्मनि रागादि- तद्वयवहारोपपत्तिरिति वर्धमानाद्युक्तं नाऽनवचम् । तस्यारहितेऽवस्थानमिति कृत्वा । आचा०१ श्रु०५ १०१ उ०। भावादिनिष्ठत्वेनानुभूयमानद्रव्याधारांशापलापप्रसगात्साबउदीग्णाविशषे च । प्रथमस्थितौ च । यत्पुनर्दितीयस्थितः द्गतिसन्धानऽपि लोकव्यवहारेणाकाशंदशप्रतिसंधतयोक्तसकाशादीरणाप्रयोगणैव दलिकं समाकृष्योदये प्रक्षिपति व्यवहाराच्च । द्रव्या० १० अध्या०। साउदीरणाऽपि पूर्वसिभिर्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमागाल इत्यु भायणं सबचाणं, नहं प्रोगाहलक्खणं ॥४॥ व्यते । कर्म०५ कर्म। (अधिकम् 'उबसमसदि' शब्द ऽस्मिन्नेव भागे बक्ष्यते) यत्पुनः सर्वद्रव्याणां-जीवादीनां भाजनम्-प्राधाररूपं नभ: श्राकाशम् उच्यते । तच नभः अवगाहलक्षणं अवगाहूं प्रमागास-आकाश-पुं० । न० । भाकाशन्ते-दीप्यन्ते स्वधर्मों वृत्तानां जीवानां पुद्रलानां पालम्बा भवति इति । अवपता प्रात्मादयो यत्र । तस्मिन् , वश०१०। प्रा-समन्तात् गाह-अवकाशः स एव लक्षणं यस्य तत् अवगाहलसण्यपि द्रव्याणि काशन्ते दीप्यन्ते अत्र व्यवस्थितानि। । क्षणं नम उच्यते । उत्त० २८ अ०। जी०१ प्रति० । श्रा-मादयाऽभिविधिना या सर्वेऽर्थाः (आकाशस्य नित्यत्वं द्रव्यत्वच)काशन्ते-प्रकाशन्ते खस्वभावं लभन्ते यत्र तदाकाशम् । आकाशाक्यकनित्य-द्रव्यप्रसिद्धय शब्दं गुणत्वाशिान्येन भ० २००१ उ० । माडिति मादया स्वस्वभावापरि- प्रतिपादयन्ति । तथा च परेषां प्रयोगः-ये विनाशित्वात्पत्तित्यागरूपया काशन्ते-स्वरूपेण प्रतिभासन्तेऽस्मिन् व्यव- मत्स्वादिधर्माध्यासितास्ते कचिदाश्रिताः, यथा घटादयः, स्थिताः पदार्था इत्याकाशम् , यदा त्वभिविधावाङ् तदा तथा च-शब्दास्तस्मादभिराश्रितैः कचिद भवितव्यं, यधैमाहिति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशने इत्याकाशम् । (स्त्र- षामाश्रयः स पारिशेष्यादाकाशः, तथाहि-नायं शब्दः पृथिटी० ३) प्रशा०१पर । उत्त । सर्वभावावकाशनादाकाशम् ।। व्यादीनां वायुपर्यन्तानां गुणः, अध्यक्षग्राह्यत्वे सत्यकारमा-मर्यादया तत्संयोगेऽपि स्वकीयस्वकीयरूपऽवस्था- णगुणपूर्वकत्वात्, यतु पृथिव्यादीनां चतुणी गुणास्ते बालेन्द्रिमतः सर्वथा तत्स्वरूपत्वाप्राप्तिलक्षणया काशन्ते स्वभाव- याऽध्यक्षत्ये सति-अकारणगुणपूर्वका न भवन्ति, यथा रूपालाभेनावस्थितिकरणेन च दीप्यन्त पदार्थसार्था यत्र तदा- दयो, न च तथा शब्दः एवम्-'प्रयावद्द्व्य भाषित्वाद्' 'माकाशमिति । अथवा-अभिविधिना सर्वात्मना तत्संयोगानुभ- श्रयाद्रर्यादेन्यत्रोपलब्धेश्च' इत्यादयो हेतवो द्रष्टव्याः। स्पवलक्षणेन काशन्त दीप्यन्त पदार्था यत्र तदाकाशम् । अनु० शवतां यथोक्नविपरीता गुणा उपलब्धाः । प्रत्यक्षत्वे सति' १७ सूत्रटी०। सर्वद्रव्यखभावानाकाशयति-श्रादीपयति ते. इति च विशेषणं परमाणुगतैः पाकजैरनैकान्तिकत्वं मा भूविपां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादित्याकाशम् । पाप-मर्यादाs. त्युपातम् । न च-आत्मगुणः अहंकारेण विभनग्रहणाद भिविधिवाची,तत्र मर्यादायाम्-आकाशे भवन्तोऽपि भावाः बाहोन्द्रियाध्यक्षत्वात् आत्मान्तरप्राह्यत्वाच, बुभ्यादीमास्वात्मन्येवासते नाकाशतां यान्तीत्यवं तेषामात्मसादक- मास्मगुणानां तद्वैपरीयोपलब्धेः । न दिक-काल-मनसां श्रोरणाद् अभिविधी तु-सर्वभावव्यापनादाकाशमिति । स्था० प्रमाह्यन्वात् । अतः पारिशच्यात् गुणो भूत्वा आकाशस्य २ ठा० १ उ० ७४ सूत्रटी० । प्रा-समन्तात् काशते- लिङ्गम् आकाशं च शब्दलिकाविशेषात् विशेषलिङ्गाभावाच बगाहदानतया प्रतिभासत इत्याकाशम् । कर्म०४ कर्म०।। एकं विभुच सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् समवायित्वे सत्यनालोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशात्मकाऽमूर्तद्रव्यविशषे, अनु। श्रितत्वाच, द्रव्यम् , अकृतकस्वान्नित्यम् । सम्म०३ काण्ड भाकाशं तु जीवादिपदार्थानामाधारान्यथानुपपत्तरस्तीति ४६ गाथाटी। भंद्धयम् । न च धर्माधर्मास्तिकायावेव तदाधारौ भवि (आकाशस्य सावयवस्वम्)ध्यत इति वक्तव्यं, तयास्तद्गतिस्थितिसाधकत्वनोक्त्यात् , नच सावयवत्वमसिद्ध प्रदशव्यवहारस्याकाशे दर्शमचाम्यसाध्य कार्यमन्यः प्रसाधयत्यतिप्रसङ्गादिति । अनुग नात् । न च-'आकाशस्य प्रदेशाः' इति व्यवहारो मिथ्या, १७ सूत्रटी० । “ जीवानां पुद्रलानां च, धर्माधर्मास्ति- मिध्यावनिमित्ताभावात् । न च संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वकाययोः । बादराणां घटादीना-माकाशमवकाशवम् ॥१॥" निमित्तः सावयवत्वाध्यारोपो मिथ्यात्वकारणं निरवयवे इति । प्राव०४० । जीवानां पुद्गलानां धर्माधर्मास्ति- अव्याप्यवृत्तिः संयोगाधारत्वस्याध्यारोपनिमित्तस्यैवानुकाययोर्बादरवठादीनां चोपग्रहवद्वकाशदम् । दर्श०४ तस्व। पपत्तेः । यदि च-सावयवं नभो न भवेत् तदा श्रोत्राकाश Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) मागास अभिधानराजेन्द्र:। - मागास समतस्येव शब्दस्य ब्रह्मभाषितस्याप्युपलम्भोऽस्मदादि-| भवात्संभवे वा शब्दस्य द्रव्यत्वप्रसक्तिः श्राकाशस्य द्रव्य(द)भवत् निरवयवैकाकाशश्रोत्रसमवेतत्वात् । अथ धर्माध- स्वेन तत्संभवेऽपि तस्याभावे आकाशम्याप्यभावप्रतिः तर्माभिसंस्कृतकर्णशषकुल्यवरुद्धाकाशदेश एव श्रोत्रं तत्र न च स्य तदव्यतिरेकात् व्यतिरेके वा 'तस्य' इति संबन्धाब्रह्मभाषितस्यासमवायानाऽस्मदादिभिः श्रवणम् । नन्वेषम्- योगात् । नापिशब्दोपलब्धिप्रापकधर्माद्यभावात् तदभावः सेव सावयवत्वप्रशक्तिः थोत्राकाशप्रदेशात् नामशब्दाधारा- तस्य विभिन्नाश्रयस्यानेन विनाशयितुमशक्यत्वात्। शक्यकाशदेशस्थान्यत्वात् । यदि च-सावयवमाकाशं न भवेत् , त्वे वा तदाधारस्थापि विनाशप्रसस्तस्य तदव्यतिरेकात् शब्दस्य नित्यत्वं सर्वगतत्वं च स्याद् आकाशैकगुणत्वात्त- सतोऽमचरविशेषगुणत्व शब्दस्य तद्विनाशान्यथानुपपस्या तम्महस्ववत् । अथ क्षणिकैकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वस्य शब्द स्थापि बिनाशितत्वं , ततोऽपि सावयत्वम् । न च बुद्धया. प्रमाणतः प्रतिसिद्ध यं दोषः । नन्वयमेकदेशवृत्तिविशेष- दिभिव्यभिचारः उक्नोत्तरत्वात् । गुणत्वाभ्युपगमे कथं न शब्दाधारस्याकाशस्य सावयवत्व किंच-पाश्रितविनाशे प्राश्रयत्वस्यापि विनाशः प्राधिप्रसिद्धिः ? ' न हि निरवयवत्वे तस्यैकदशे एव शब्दो वर्तते तत्वनिबन्धनत्वात् तस्य धर्मस्य च धर्मिणः कथंचिदव्यन सर्वत्र' इति व्यपदेशः संगच्छते। न च संयोगस्याव्या तिरेकात् । तथा आकाशस्य विनाशित्वात्सावयवत्वं घटाप्यवृत्तित्वनिबन्धनोऽयं यत आकाशं व्याप्य संयोगो न व देरिबोपपन्नम् । किं च-सावयवमाकाशम् , हिमवद्विन्ध्यातत इति तदेकदेशे वर्तते इत्यभ्युपगमप्रसक्तिः । व्याप्य वरुद्धविभिन्न देशत्वात् तदवएब्धदशभूभागवद् । अन्यथा तवृत्तित्वं हि सामस्त्यवृत्तित्वं, तस्मतिपंधश्च पर्युदासपक्षे योरूपरसयोरिवैकदेशाकाशस्थितिप्रसक्तिः , न चैतद् दृष्टएकदेशवृत्तित्वमेव, प्रसज्यपक्षे तु वृत्तिप्रतिषेध एव; नचा मिति सर्व यस्तूत्पादविनाशस्थित्यात्मकत्वात्कथंचित्सावसौ युक्तः संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याधितत्वात् । तदभाव च यवं सिद्धम् । सम्म० ३ काण्ड ३३ माथाटी । तदभावात् । न च निरवयवत्त्वे आकाशस्य सन्तानवृत्त्या आगतस्य शब्दस्य श्रोत्रेणाप्युपलब्धिः संभवति अन्या: (आकाशस्य निरालम्बनत्यम् )-" भागास चेव निराल बे" ( सूत्र-२६४) आकाशमिव निरालम्या यथाऽऽकाशन्याकाशंदशात्पत्तिद्वारेण तस्य धोत्रसमवेतत्वानुपपत्तेः । जलतरङ्गन्यायेनाऽपराउपराऽऽकाशदशादावपरापरशब्दोत्प. मनालम्बनं तथा साधुन किश्चिदालम्बते । प्रश्न०५ संव० त्तिप्रकल्पनायां कथं नाऽऽकाशस्य सावयवत्वम् ?, किंच द्वार। आकाशं शब्दात्पत्ती समवायिकारणमभ्युपगम्यत, यश्च स (श्राकाशं द्विविधम् )मवायिकारण तत्सावयवं, यथा-तन्त्वादि , समयायिका- दुविहं आगासे पएणत्ते, तं जहा-लोगागसे चेव, अलोरणं च । परण शब्दात्पत्तावाकाशमभ्युपगतम् । न च पर- गागास चेव । (सूत्र-७४+) मारावात्मादिना व्यभिचारः तस्यापि सावयवत्वात् । अ तत्र लोको यत्राकाशदश धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां वृत्तिन्यथा-यणुकबुद्धद्यादतकार्यस्य सावयत्वं न स्यात् न च रस्ति स एवाकाशं लोकाकाशमिति । ( स्था०) लोकाऽबुद्धयादः सावयवत्वमसिद्धम् पात्मनः सावयवत्वेन सा लोकभेदनाऽऽकाशद्वैविध्यमुक्तम् । स्था० २ ठा० १ उ०। धितत्वात् तद्विशेषगुणत्वेन बुद्धयादेः कथंचित्तादात्म्यसि (एनमेवार्थ मीमांसयन्नाह)द्वितः सावयवत्वोपपत्तेः । नच यत एवं प्रमाणादणवः सिद्धास्तेषां निरवयवत्वमपि धर्मादिसंयुतो लोको-ऽलोकस्तषां वियोगतः। तत एव सिद्धमिति तदग्राहकप्रमाणबाधिनत्वात् सावय- निरवधिः स्वयं तस्या-ऽवधित्वं तु निरर्थकम् ॥ ६॥ वत्वानुमानस्याप्रामाण्यं प्रमागतः परमाणूनामसिद्धायाश्र. धर्मास्तिकायादिसंयुक्त श्राकाशो लोकः, तदितरस्त्यलोकः। यासिद्धितः सावयवत्वानुमानस्याप्रवृत्तिरिति वाच्य , य- स च पुनर्निरवधिः-अपारः अलोकः, तम्य-अलोकस्य तः सावयवकार्यस्य सावयवकारण पूर्वकत्व साध्य न पूर्वो- स्वयम्-श्रात्मनाऽवधित्वमन्तगडु इति । कश्चिदाहात्र-यथा क्नदोषावकाशः । न च कार्यकारयोरात्यन्तिको भेदः, स. लोकस्य पायें अलोकस्यापि पारोऽस्ति । तथैधाग्रेऽपि मवायनिषध हि हिमवद्-विन्ध्ययोरिव भेदे विशिष्टकार्य- द्वितीयतट पारो भविष्यतीति वाणमुत्तरयन्ति-लोकस्तु कारणरूपतानुपपत्तेः । तता घणुकादः परमाणुकार्यस्य | भावरूपाऽस्ति, तस्यावधिन्वं घटत. परं तु अग्र अलोकस्य सावयवत्वात् तदात्मभूताः परमागणवः कथं न सावयवा कवलमभावात्मकस्याऽवधित्वं कथं कल्पत शशशुङ्गयात् । इति न परमारवादिभिर्व्यभिचारः! यथा असद्-अविद्यमाने शशशृङ्ग न कुत्रापि निर्गक्ष्यमाणे अपि च-सावयवमाकांश तद्विनाशान्यथानुपपत्तेः । नचा. विद्यमानबदाभाति नथैवैतस्याप्यलोकस्य अविद्यमानम्याव 55काशम्य विनाशित्वमसिद्धम् । तथाहि-अनित्यमाकाशं, धित्वं न घटामाटीकते । अथ भावरूपात्मकत्वमङ्गीक्रियत तद्विशपगुणाभिमतशब्दांवनाशान्यथानुपपत्तः । यता न ता- तदा तु पडतिरिक्तमन्यद् द्रव्यं नास्तीति व्यवहारात् श्राचदाश्रयविनाशाच्छन्दविनाशोऽभ्युपगतस्तन्नित्यत्वाभ्युपग- काशदशरूपस्य तु तदन्तत्यं कथयां बुद्धया घातो जायते । मविरोधात् । न विगधिगुगाप्रादुर्भावात् , तम्महत्वादरे- तस्मादलोकाकाशस्तु अनन्त एवं मन्तव्य इति । आकाशो कार्थममवायित्वेन रूपरसयोरिव विरोधिताऽसिद्धेः । वि- यथा साऽन्तः शंसितो धर्मा ऽधर्मानुभावात् तस्य भावस्तदरोधित्व वा श्रवणसमयऽपि तद्भावासङ्गः तदापि तन्म- भावात्तदभावः । छालाकाकाशोऽपि सान्तो धर्माधर्मानुभाची हत्त्वस्य सद्भावात् । नापि संयोगादिर्विरोधिगुणस्तस्य भवन् अतिरिक्तद्रव्यत्वमापत्म्यते । तस्माद्यथोक्लमेव न्यातत्कारणत्वात् । नाऽपि संस्कारः तस्य गुणत्वन शब्द ऽसं स्यम् । यावता आकाशेन तद्धर्माधर्मी व्याप्य स्थिती तावता Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगा तयोरभावा तत्परिमाशालिना आकांशनापि भविन स्याप्यभावः सुपरिशीलनीयः इति । द्रव्या० १० अध्या० । (लोकालोका 55काशी विस्तरेख )-- कवि भंते! आगासे पष्ठ ते १, गोयमा ! दुविहे आया पाने से जहा लोग गाय, अलोपागाने प 'कतिविद्धे भंत !' इत्यादि, तत्र लोकाऽलोकाऽऽकाशायमिदम्-" धर्मावृष्टि-इंस्यायां भर्थात पत्र वत् क्षेत्रम् सह लोकस्तद्वपरीतका ॥ १ ॥ इति । " लोयाssगासे णं भंते! किं जीवा, जीवदेसा, जीवपरसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीबपएसा 1 गोषमा ! जीवा त्रि, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि । जे जीवा ते नियमा एगिंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिदिया दिया, जे जीवदेमा ते नियमा एर्गिदियदेसा०जाव अरिदियदेसा, जे जीवपदेसा ते नियमा एगिंदियपदेसा० जाव अदिपपदे जे अजीवा ते दुनिहा पण वा तं जहारुवीय, अरू य । जे रूपी ते चउब्विहा पहाता, तं जहासंघमा संघपदेमा, परमाणुपोग्गला । बे व ते पंचविदा परता. तं जहा धम्मत्थिकाए. नो धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स प्रदेसा | अधम्ममिथकाए नो अघम्मत्थिकायस्य देने, अम्मत्थिकाय स पदेसा । श्रद्धासमए । ( सूत्र - १२१ ) " त्यादी पद प्रश्ना रात्र लोकाधिकरणे जीव-जीप-जीयस्यैव बुद्धिपरिकापता या विभागाः 'जी' विस्य बुद्धिना प्रादेशाः प्रदेशा विभिाषा, मागा इत्यर्थः अजीब सिधर्मास्तिकायादयः ननु शोकाकाशे जीवा अवधि युए भवन्ति चाचपतरि तो जीवाजीवजीवाव्यतिरित्वाद्देशादीनां अहये कि देशादिग्रहसेनेति यम- विश्वयया जीवा इति मतव्यवच्छ्रदार्थत्वादस्येति । अत्रोत्तरम् -' गोयमा ! वेश्यस्य विवेचनमुक्रम्। अथान्त्यस्य प्रश्वत्रयस्य निर्वचनमाद- रूथीय 'चि-मूर्त्ता: त्यर्थः रूपीय चि-अमूर्ता धम्मस्तका यादय इत्यर्थः, संध ' त्ति परमाणुश्चयात्मकाः स्कन्धाःस्कन्धशाबाद विभागः स्कन्धदेशास्तस्यैव निरंशा अंशाः परमाणुपुङ्गलाः स्कन्धभावमनापनाः परमाण्व इति, पक्षीवा विभीसावि अजीएसव इत्यतदर्थतः स्यादणूनां स्क धानाचाजी पंच स्यादिन्यत्राप्यरूपिणो दशविधा उला, सद्यथा झाकाग्रास्तिकायस्तद्देशस्तरप्रदेशखेत्येवं धर्मा A , मधेति दश तु समस्याकाशस्याधारन विवक्षितयातायाः सप्त यान्ति न च २८ 4 . । " ( १०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । - , आगास " वक्ष्यमाणकारणात्. ये तु विवक्षितास्तानाद-पञ्चेति कथमित्याह - ' धम्मत्थिकाये ' त्यादि- इद्द जीवानां पुङ्गलानां त्र बहुत्यादेकस्यापि जीवस्य तस्य वा खाने साचादि तथाविधरिणामपाद पहा जीवाला तथा सं शास्तत्प्रदेशाथ सम्मयन्तीति कृत्या जीवास जीवदेशाध जीवप्रदेशाच, तथा रूपिद्रव्यांपेक्षया अजीवास्वाजीवदेशावाजीयप्रदेशाचेति सकृतम्, कत्राप्याश्व तु त्रयस्य सद्भावात् । धर्मास्तिकायादौ तु द्वितयमेव युक्तं, तो यह सम्पूर्ण वस्तु तदा धर्मातिकायादी त्युच्यते, तदंशविवक्षायां तु तत्प्रदेशा इति तेषामवस्थितरूपापा वा तेषामनवस्थितरूपत्वादिति । यद्यपि चानवस्थितरूपत्वं जीवादिदेशानामध्यस्ति तथापि तेषामेकाश्रयभेदेन सम्भवः प्ररूपणाकारणम् इद्द तु तन्न अस्तिकायांकन्यादोचादिधर्मकन्याथति अत एव धर्मास्तिकायादिदेशनिषेधायाद" पन्थिकायच् देसे" तथा "नो अधिकायस्थ देखे "सिि कारोवाह अरूचियों दया समुद्देभांति । मीसेवा पर पाबसा भजा ना देखें तस्व [अव्ययपमागत्य लेखन निसो, जो पु देस पसु को सो सविसायं परद फुसणादिगयववहारस्थं बेति, तत्र स्वविषये धर्मास्तिकायादिविषये यो देशस्य व्यवहारों यथा-धर्मास्तिकायः स्वदेशका काव्यामीत्यादि स तथा पर इय्य ऊलोकाकाशादिना यः स्वस्य पनादिना व्यवहारो यथा ऊरकाशन धर्मास्तिकायस्य देश: स्पृश्यते इत्यादिदमति श्रद्धासमय ' त्ति-श्रद्धास बैक एव कालस्तल्लक्षणः समयः - क्षणोऽद्धासमयः, वर्तमानलक्षणा, अतीतानागतयारसस्यादिति । ह लोकाकाशगत प्रश्नपटुकस्य निर्वचनम् | अथाऽलोकाssकाशं प्रति प्रश्नयन्नाह अलो (गाSSयाकासे णं भंते ! किं जीवा १ पुच्छा तह चैिव, गोयमा ! नो जीवा०जात्र नो श्रजीवप्पदेसा | एगे अजीवदन्यदे से अगुरुबलहुए असंतेहिं अगरुपलडुयगु हिं संजुवे सब्धाऽऽगासे अर्थभागूये (सूत्र - १२२ ) 6 " ' पुच्छा तह बेव ' त्ति-यथा लोकाकाशप्रश्ने, तथाहिका मेने किं जीवा जीपला जीवरसा अजीवा अजीवंदसा जीवध्यएस' प्ति- निर्वचनं त्वेषां राणामपि निषेधस्तथा-'एंगे अजीवदव्यदेस' त्ति-अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाराद्रव्यस्य भागरूपन्यात् 'अगझल' चिगुरुपुन्यान्यपश्यत्वात् संग अवल यरूपैर्गुणैः; अगुरुलबु स्वभावैरित्यर्थः । 'सव्यागांसा गूं' चि-लोकाकाशस्यालीका काशापक्षयाऽनन्तभागरूपत्यादिति ०१०१०० एकस्थाका प्रदेशगुरुलघुपर्याया अनन्ता इति अगरुलहुय' शब्द प्रथमभागे द्रष्टव्यम् ।) आकाशस्य पर्य्यायाः- नभी-व्योमा--न्तरिहाऽऽ - काश्चादयः । विशे० । आकाश नभस्तारापथोक्यो Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगास माऽम्बरमित्यादि । अनु० । स्था० । ( श्रस्य बहवः पर्य्याया • धागारिका' शब्देऽस्मिन् भागे वय ) - माहदानलक्षणे सर्वद्रव्याधारमूने महाभूतविशेषे च । सूत्र ० २ श्रु० १ ० | शब्दनन्मात्रादाकाशे सुपिरलक्षणम् । सूत्र० १ श्रु० १२ श्र० । शब्द तन्मात्रादाकाशं गन्धरसरूपस्पर्शवर्जियमुत्पद्यत " इति न सांख्याः । सूत्र० १ ० १२ अ० । आकाशमिति पारिभाषिकी संज्ञा एकट्यानस्य । तथा "सं 66 परिमाल संयोगविभागशास्यैः पदभिर्गुरोर्गु रायत् शब्दलिङ्ग" ति वैशेषिका) सू० १ ० १ ० १३० (शब्दस्याकाशगु उत्यनिराकरणम् आगम' शब्दे अस्मिक्षेत्र भागे गतम् ) ( श्राकाशस्य वर्णगन्धादि ' - त्थिकाय ' शब्दे प्रथमभागे द्रष्टव्यम् ) अनावृने स्थाने च । श्राकाशमनावृनं स्थानम् । प्रश्न० ४ ० द्वार | छिंद्र, गणितादिप्रसिद्धे सूत्राङ्के च । वाच० । मागासग आकाशमत्र आकाशगामिनि पाच० । स्व. नामरूपाने भूतविशेषे प्रा० १ पद । आगासममा-आकाशगमा श्री० । गमनं गमः आकाशेन ग मो यस्याः सा श्राकाशगमा विद्याविशेषे, श्रा० म०१ श्र० । तथा चावज्रस्वामिकथायाम् ) पदानुवरि 1 - 6 9 - 9 9 उक्तमर्थे सम्यगाधायाऽऽह जेणुद्धरिया विजा, आगासगमा महापरिणातो । वंदामि अनवरं अपमो जो सुषधरा ।।७६६॥ येनोद्धृता विद्या' आगासम्म ' त्ति गमनं गमः श्राकाशन गमो यस्यां सा श्राकाशगमा महापरिज्ञातो महापरिज्ञानामकाध्ययनात् तमाम् आरात् सर्वहा सः प्राप्तः सर्वेपरित्या चाली बजाजब अपधमपम् दशपूर्णविदाम् सांप्रतमन्येभ्योऽधिकृताञ्चानिये उपाय प्रदान निरास्तदनुवादात् इदमाभवद य अहिंडिज्जा, जंबुद्दीवं इमाइ बि.ए तूयमासन, विर एस मेसि ॥ ७७० ॥ भवति च वर्तमामनिर्देशप्रयोजनं प्राम्यत् । हिरडेत् । पाठान्तरं वा आभणिषु य हिंडिज्जा' इति, बाण, हिरडे-पडेल जम्पमाविया तथा गत्या च मापनगं मानुषोत्तरपयमिति विद्याया एप में विषय-गोचरः । ( ११० १ अभिधानराजेन्द्रः । आगासमो ' त्ति आकाशगतः - प्रत्यर्थन्तुङ्गमित्यर्थः । स० ३४ सम० । तेन खामिना प्रस्मृता सती महापरिज्ञायनाद्विद्या आगासगामि (न्)-आकाशगामिन् शि० आकाशइ नभोगमा 39 ॥ १ ॥ श्र० क० १ ० ।" तेण भगवया पशुमारियो पहु महापरि गागामिणी विरजा उदरिया ती मलपिनो भ यवं ति । इवादी, आचा० । “आगासग्रामिणां पाणा पाणे किलेसंति" ( सूत्र - १७७+) अपरे त्वाकाशगामिनः पक्षिण इत्यवं सर्वेउपि प्राणाः प्राणिनो ऽपरान् प्राणिन आहाराद्यर्थ मत्सरादिनावा पति-उपतापयन्ति चा०१ ०६ ० उ० । सम्प्राप्ताकाशगमन लब्धिषु चतुर्विधदेवनिकायविद्याधरवायुषु च । श्रामागामि य पुढासिया जे " ॥ १३ ॥ ये केचनाकाशगामिनः संत्रागमनलब्धकार्याविद्याधरपक्षिवायकः । सूत्र० १६० १२ अ० । आगासत्थिकाय - आकाशास्तिकाय - पुं० । अस्तयश्चेद्द-प्रदे शास्तेषां कायः सङ्घातः "गणकार्यानकार संघ वग्गे तदेक रासी य" इति वचनात् अस्तिकायः प्रत्यर्थः प्रशा० १ पद स० । कर्म० । उत्त० । आकाशं च तदस्तिकायश्चेत्याकाशास्तिकायः । प्रज्ञा० १ पद । जी० । लोकालोकस्याप्यनन्तदेशात्मकाम द्रव्यविश, अनु 3 आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए ॥ ६ ॥ श्राकाशम् - आकाशास्तिकायः जीवपुद्गलयोरवकाशदाव्याकाशमिति सप्तमां भेदोऽरूप्यजीवस्येति । उत्त० ३६ श्र० । , भगर य धारयन्या, न हु दायव्या इमा मए त्रिखा । अपदिय उ मणुया, होहिंति तो परं अभे ।। ७७१ ॥ भदेति पूर्ववत् धारवितथा प्रवचनोपकाराय मया विद्या हुशन्दः पुनः शब्दार्थः किमित्यत आह- अल्पज्य एव तुशब्द एवकारार्थः, भवि न आगासत्थिकाय ध्यन्त्यतः परमन्ये भविष्यत् कालभाविनः । आ० म० १ ० आगासराय - आकाशक- त्रि० । प्रकाशके, स० ३४ सम० । आकाशगत ०ि व्योमपर्तिनि स० ३४ सम० ओ० । " आमासग के आगासग" (सूत्र १०+) आकाशवर्त्तिना चक्रेण । श्र० । 66 बुद्धातिशेषानधिकृत्येत्याह आगासयं चकं, आगासगयं छत्तं, मागासगयाओ सेयचामराओ । (सूत्र - ३४x ) आकाश-योमपर्ति आकाशग (कं) या प्रकाशमित्यर्थः चक्रं धर्मचकमिति पहः ६ कार्य छत्रम् : छत्रत्रयमित्यर्थः इति सप्तमः ॥ ७ ॥ श्राकाशकेप्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णके इत्यष्टमः ॥ ८ ॥ स० ३४ सम० । अत्यर्थे तु च । स० । आगास गओ कुडभीसहस्पपरिमंडियाभिरामो इंदभओ पुर गच्छद्र ( सूत्र - ३४+ ) 1 6 -- ( श्राकाशास्ति कायस्य पर्यायाः ) - आगासत्धिकायस्स गं पुच्छा, गोयमा ! असेगा अ भिववणा पाता, तं जहा - आगासेइ वा आगासत्थिकाएति वा गगयत्ति वा नभेइ वा समेति वा विसमेति वा खति वा विहेति वा वीयीति वा विवरेति वा अंबरेत या परमेति वा छिट्टेति वा भुसिरेति वा मग्गेति वा विमुहेति वा (दे) देति वा वियट्टे (द्दे ) ति वा आधारेति बा बामेति वा भायखेति वा अंतरिक्खेति वा सामेति वा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धागासत्यिकाय वासंतरेति वा अगमेति वा फलिदेति वा अणंतेति वा, ज्ञेयावर तहपगारा सन्धे ते मागासत्थिक. यस्स अभिसा (सूत्र- ६६४+ ) 'आगासे ' सि-आ-मर्यादया, अभिविधिना वाः सर्वेऽर्थाः काशन्ते प्रकाशन्तं स्वस्त्रभावं लभन्ते यत्र तदाकाशम्, 'मगणे 'शि-- अतिशयगमनविषयत्वाङ्गगनं निरुक्तिवशात् नभे चिन्न भाति-नीयत इति नमः''शि-नि " . -- , स्वाभावात्समम्, 'विसमे' त्ति-दुर्गमत्वाद् विषमम् ' खड़े 'ति-खनने भुत्रो हाने च त्यागे यद्भवति तत्बदमिति निरुक्रियात् 'विदे' सि-विशेषेण हीयते यते तदिति विहायः अथवा विधीयते - क्रिपत कार्यज्ञानमस्मिथिति विहम्, 'वीर' सि-वेचनाद्विविक्रस्वभावत्वाद्वीचिः ' विवर ' त्ति-विगतवरणतया विवरम्, अंबरे-अवेय-मातेव अननसाचादम्बा जलं तस्य रायाददानादितिस्वरम्, 'अंबरसे'त्ति - अम्बा – पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तो रखा यस्मादितिाम्बरसम् चिति-विश्वेन स्पास्तित्वाद्रिम् सिरे' सिपः शुषे शोषस्य दानापिरम् 'म'पिथिरूपत्वा विमुद्दे - मुखस्यादेरभावाद्विमुखम् ' अहे 'ति अद्यते गम्यते, अअटते या अतिक्रम्यतेऽनेनेति वा विष (हे 'ति स एव विशिष्टो व्यर्दो व्यां वा + आहार 'तिश्रधारणादाधारः वोमेति- विशेषेणायनात् - व्योम, ' मायने 'चि-भाजनात् विश्यस्याश्रयणाद्भाजनम्, "चंत लिक्ख'त्ति- श्रन्तः- मध्ये ईक्षा-दर्शनं यस्य तदन्तरीक्षम्, 'साम'त्ति - श्यामवर्णत्वाच्छ्यामम्, 'उवासंतर'त्ति अवका शरूपमन्तरं न विशेषादिरूपमित्ययकाशान्तरम् 'अगं' चि-गमनकि पारहितत्वेनागम्, फसिंह'वि-स्फटिकर्मिय स्वच्छत्वात्स्फटिकम्, 'असंते' ति श्रन्तर्वर्जितत्वात् । भ० २० ० २ ० (आकाशस्य वर्णगन्धादिकम् अस्थिकाय शब्द प्रथमभागतम् ) आकाशास्तिकायस्थ जीवाजीवद्रव्याधारत्वम्श्रागासत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं, अजीवाणं य किं पवत्तइ ?, गोयमा ! आगासत्थिकार णं जीवदव्वाण य अजीबदब्याण य भागणभूण्-" एमेण वि से पुराने, दोदिवि पुन्ने सयं पिमाएजा कोडिसपथ वि पुणे, कोटिसहस्सं पि माएजा ।। १ ।। " अवगाहणालक्खयेणं मागासत्थिकाए । (४८१+ ) "आमासयका भित्यादि जीवाणांचाजीवद्र पाच भेदेन भाजनभूतपति तस्मि म्सति जीवादीनामवगाहः प्रवर्तते एतस्यैव प्रश्नितत्वादिति भाजनभावमेवास्य दर्शयन्नाह' पंगेण वी त्यादि. एकेन परमापादिना से घिसी प्रका शास्तिका प्रदेश निम्न पूनस्तथा द्वाभ्यामपि सास्वामी पूर्ण कथन करते परिक्षामात् यथा-अप परका 33काशनेक दीप भापटलनाऽपि पूर्वव द्वितीयमपि तत्तत्र माति यायच्नमपि तेषां तब माति तथीपाधिविशेषापादितपरिणामादेकव पारदकर्ते " 1 1 3 3. ( १११) अभिधानराजेन्द्रः । 1 ג आगासथिग्गल सुवर्णकर्षशतं प्रविशति, पारदकर्षीभूतं च सदोषधिसामर्थ्यात्पुनः पारदस्य कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचिपत्यात्पुलपरिणामस्येति 'अवगाहालवतइहाऽवगाहनाश्रयभावो ' जीवन्धिकारण' मित्यादि, जीवास्तिकायनेति अन्तर्भूतभावप्रत्ययत्या जीवास्तिकायत्वेन जीवतयेत्यर्थः । भ० १३. श० ४ उ० । आगासत्थिकायदेस - आकाशास्तिकायदेश-पुं० । श्राकाशास्तिकायस्य बुद्धिकल्पिने द्वय दिप्रदेशात्मके विभागे, मा०] [१] प० । अस्यारुण्यजीवत्यम्-"आगा इस इसे य, तपसे य आहिए ॥ ६+ ॥ " श्राकाशस्य देशः कतमो विभागः श्राकाशास्तिकायदेश हो - दोsरूण्यजीवस्य । उत्त० ३६ श्र० । आगासत्थिकायप्पएस श्राकाशास्तिकायप्रदेश - पुं० । प्राकास्तिकायस्य निर्विभागे भांग, प्रज्ञा० १ पद। जी० । श्रस्यारुण्यजीवत्वम् । "आगाले तस्स देले य, तप्पएसे य श्रहिए " ॥ ६+ ॥ तस्याकाशास्तिकायस्य निरंशो देशस्तरप्रदेश प्राकाशास्तिकायप्रदेश इति नयमो मेदोऽकप्यजीवस्येति । उत्त० ३६ श्र० । आगासथिग्गल - आकाश थिग्गल न० । शरत्कालिके मेघविनिर्मुक्फ़ आकाशखण्डे । कृष्णमणिवर्णनमधिकृत्य-" श्रागासधिग्गले वा " ( सूत्र - १२६ + ) श्राकाशथिग्गलं शरदि मेघविनिर्मुक्तमाकाशखण्डं तद्धि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानम् । जी० ३ प्रात० ४ अधि० १ उ० ॥ जं० ॥ आ० म० । ( तच न स्पृशमित्याह ) - आगासथिग्गले गं भंते ! किराणा फुड़े कहहिं वा काहिं फुडे किं धम्मत्थिकारणं फुडे धम्मत्थिकायस्स देणं - डे धम्मत्थि कायस्स पदेमेहिं फुडे, एवं अधम्मत्थिकः एवं मागासत्थिकारणं एएवं भेदेयं जात्र पुढवीकाएवं फुडे ०जाव तसकाए फुडे अद्धा समएणं फुडे ?, हूंता गोयमा ! धम्मत्थिकाए फुडे, नो धम्मत्धिकायस्स देसेहिं फुडे, धम्मस्थिकायस्स पदेते फुडे एवं अ म्मत्थिक येण विनो आगासत्थिकारणं फुडे आगासविकायस्त देखे फुडे आगासत्तिकास्पदेते फुडे • जाव वणस्सइकाएणं फुडे, एवं तसकाइएवं सिय फुडे, सिय नो फुडे, अद्धा समएणं देसेणं फुडे । (१८८x ) आगासथिग्गाले भन्ते इत्यादि आकाशचिमालम्लोकः स हि महता बहिराकाशस्य वितनपटस्य थिग्गलनिव प्रतिभाति भदन्त ! केन स्पृष्टो व्याप्तः, एतत् सामाम्येन स्पृष्टमेतदेव विशेषतः प्रश्नांतकांनभिः कियत्सख्याकैः कायैः स्पृष्टः वाशब्दः पक्षान्तरद्योतनार्थः प्रकारान्तरं च सामान्याद्विशेषतः तान् कायान् प्रत्येकं पृच्छन्ति' किं धम्मत्थिकारणं फुडे' इत्यादि, सुगमं, भगवानाह - हे गौतम । धर्मास्तिकायेन स्पृष्टः धर्मास्तिकायस्य सर्वात्मनागा अत एव नांधमस्तिकायस्थ देथेन 1 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागासधिग्गल अभिधानराजेन्द्र। स्पृष्ठा या हि यन सवात्मना व्याप्ता नासा तस्यव दर्शन भागासमग्ग-भाकाशमार्ग-पुं० । द्रव्यमार्गभेके, सूत्र. १ व्याप्ता भवति-विरोधात् , प्रदेशस्तु व्याप्तः । सर्वेषामपि श्रु० ११० आकाशमार्गों विद्याधरादीनाम् । सूत्र०१ धर्मास्तिकायप्रदेशानां तत्रावगाढत्वात् , एवमधर्मास्ति ध्रु०११ अ०। कायविषयऽपि, निर्वचनं वाच्यम् । तथा नो आकाशास्तिकायन सकलेन द्रव्येण स्पृष्टः, आकाशास्तिकायदेश आगासातिवाइ (न्)-आकाशातिपातिन्-पुं०।माकाशम्मात्रत्वालोकस्य, किन्तु-देशेन व्याप्तः । प्रदशश्च पृथिव्या व्योम अतिपततीति । आकाशगामिविद्याप्रभावात् पावलेदयोऽपि सूदमाः सकललोकापना वर्तन्ते ततस्तैरपि स पादिप्रभावाद्वा आकाशमतिकामति, आकाशादा हिरण्यवात्मना व्याप्तः, 'तसकाइएणं सिय फुडे' इति, यदा के वृष्टयादिकमिष्टमनिष्टं वा अतिशयन पातयतीत्येवंशीले च। बली समुदातं गतः सन् चतुर्थे समये वर्तते तदा तेन ख औ०१५ सूत्र०। प्रदशैः सकललोकपूरणात् त्रसकायेन स्पृष्टः केवलिननस- आकाशादिवादिन-पुं० । अमूर्तानामपि पदार्थानां साधकायत्वात् ,शषकालं तु न स्पृष्टः सर्वत्र त्रसकायनामभा- नसमर्थवादिनि, औ० । " अप्पगड्या विउलमइविउग्विणिवात् । प्रशा० १५ पद १ उ०। हिपत्ता चारणा विज्जाहरा भागासातिवाणो" (सूत्रभागासपइडिय-आकाशप्रतिष्ठित-त्रि० । आकाश-व्योम १५+) पागासातिवाद' त्ति-आकाश-व्योमातिपतन्तितत्र प्रतिष्ठिता-व्यवस्थित आकाशप्रतिष्ठितः । आकाशव्य- अतिक्रामन्ति । आकाशगामिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावस्थिते, "मागासपट्टिए वाए" (सत्र-२८६ ४)। स्था० वाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्टयादिकमिष्टमनिटं वा अति३ठा०१उ० भ०।" तप्पट्टिा लोगो"॥ १२३+॥ त- शयेन पातयन्तीत्येवंशीला आकाशातिपातिनः । आकाशाप्रतिष्ठितो लोकस्तत्-इत्यनेनाकाशपरामर्शस्तस्मिन्नाकाश दिवादिनी या। अमूर्तानामपि पदार्थानां साधनसमर्थवादिन प्रतिष्ठितस्ततिष्ठितः; प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः। दश-१ अग इति भावः । १०। मागासपंचम-आकाशपश्चम-पुं० । आकाशं-सुपिरलक्ष- प्रागासिउं-आक्रष्टुम्-अव्य० । इठात्समाकृष्यात्मनः समीणम् । तत्पश्चमं यषां तानि । पृथिव्यादिक पञ्चमहाभूते, सू- पमानेतुमित्यर्थे, विशे। प्र."पुढवी भाउ तेऊ, वाउ आगासपंचमा" ॥७॥ आगासिय-आकर्षित-त्रि० । आकृष्ट, उत्पाटिने, औ०। सूत्र०१७०१०१३० । आकाशित-त्रि० । आकाशम्-अम्बरम् इतः-प्राप्तः । श्राभागासपय-श्राकाशपद-न० । सिद्धश्रेणिकपरिकर्मश्रुत काशं गत, " श्रागासियाहि सेश्रचामराहिं। (सत्र-१०+) भेदे, स०१४७ सूत्र। आकाशम्-अम्बरमिताभ्यां-प्राप्ताभ्याम् , आकर्षिताभ्यां याः भागासप्पएस-पाकाशप्रदेश-पुं०। आकाशस्य निर्विभागे आकृष्टाभ्याम्-उत्पाटिताभ्यामित्यर्थः । औ०।। भाग, प्रज्ञा०१ पद । षोडशाकाशप्रदेशाः। सूत्र १ श्रु. प्रागिइत्तिग-प्राकृतित्रिक-न। प्राकृतयः-संस्थानानि पट् १अ०१उ०। संहननानिषद् जातयः पञ्चेत्येवं सप्तदशके प्रावृत्युपखत्तिते भागासफलिह (फालिय)-आकाशस्फटिक-पुं०। आकाश त्रिके, कर्म०५ कर्म। मिव यदत्यन्तमच्छ-स्फाटकमाकाशस्फटिकम् । स० ३४ | सम। अतिस्वच्छे स्फटिकविशेषे, । " आगासलिहाम आगु-पाकु-(गु)-पुं० ।'अक' 'अग' कुटिलायां गतौ, उण पणं सपायपीढणं सीहासणेणं" (सूत्र-५+ टी.)। आ- अभिलाषायाम् , अावा "सको वंसटवणा इक्खुशगू तेण काशस्फटिकमतिस्वच्छ स्फटिकविशेषस्तन्मयेनोपलक्ष्यत हुति इक्वागा" 'अक' 'अग' कुदिलायां गतौ , अनकाइति गम्यम् । भ०१श०१ उ०। ०। रा०। आकाशे भवः । र्थत्वाद्धातूनाम् । अधातोरोणादिक उणप्रत्यये पागुशस्फटिक ब वर्षोपले कांख्य संहतजलखण्ड तदु-पादवि- ब्दोऽभिलाषार्थः, ततः स्वामी इक्षोः आकुना-अभिलाषा लयो श्रीपतिराह-" उद्भूतः पांसुभिर्भूमेः, प्रचण्डपवनोश्च- कर प्रासारयत् शक्र आर्पयत् तेन कारणन भवन्ति :यात् । मेघमण्डलमानीते-र्मालिन्यपरिवर्जितः ॥१॥ मि- क्ष्वाकुवंशभवा ऐचवाकाः। श्रा० क०१०। श्रणाजलबिन्दूनां, पिउभावा भादह । इपद्वनिपतन्त्येते, आग्घाण-पाघ्राण-त्रि०। प्रा-ना-त । प्रहीतगन्धे पुष्पादो, द्रवन्ते च पुनः क्षितौ ॥२॥" वाच।। नासिकया यस्य गन्धक्षानं जातम् । तस्मिन् , तृप्त च । भावे मागास (फलिह) फालियसरिसप्पह-आकाशस्फोटकस-क्ल। गन्धग्रहण , तृप्तीच नावाचा राग्यः " दृशप्रभ-त्रिका अाकाशस्फटिकयोगकाशरूपस्फटिकस्य वा ४९३॥ इति श्राइबादेशः । श्राइग्घद । आग्बाइ । प्रा० । सदृशी प्रभा येषां तानि तथा । आकाशस्फटिकतुल्ये, औ०। आघं-आख्यातवत-त्रिक । कथयितरि, सूत्र । "वाघ मईम मागास (फलिहा) फालियामय-आकाशस्फटिकमय-त्रि अणुवीय धम्म”॥ १४ ॥ 'माघे ति-नाख्यातवान् । सूत्र. अतिस्वच्छस्फटिकविशषमय, भ० श.१ उ० । " श्रा- । १७० १००। गासफालियामयं सपायपीदं सीहासणं" (सूत्र-३४ +)। आघमज्झयण-माख्यातवदध्ययन-न० । सूत्रलतानप्रथआकाशमिय यन्त्यन्तमच्छं स्फटिक तन्मये सिंहासनं मश्रुतस्कन्धस्य समाध्यध्ययनापरनामधेये दशमेऽध्ययने.स. सपादपीठम् । स०३४ सम०। राय। आकाशतुल्यं स्वच्छत- १० । नियुक्तिकदाह-" श्रायाणपदेणाऽऽयं, गोरो शाम पुको बा यत् स्फरिक तन्मयेन सपादपीठेन सिंहासनेनेति । और समाहि ति" ॥१०३४॥ भादीयते-खंत प्रश्चममादौ यत्त Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) माधज्मयण अभिधानराजेन्द्रः। भाघोलिय वादानम् भादानं च तत्पदं च सुवन्तं तिङन्तं वा तदादान- जे भिक्ख णिग्गंथे सिग्गंथस्स दंते अमाउथिएण वा वं तमाऽऽघन्ति नामास्याध्ययनस्य यस्मादनादाविवं गारथिएण वा आघसावेज्ज वा पघसावेज वा माघसंतं सत्रम् । सूत्र०११० १० अ०। (अत्र विशेषः रटान्तम 'समाहि' शम्ने सतमे भागे दर्शयिष्यते।) वा पघसंतं वा साइजाइ ।। ५३ ॥ नि० ० १७ उ । माघेसब-भाषर्षव-न०। भावे ल्युट् । मईने , पाच । भाषाण-आख्यान -न० । कथने,-आचा० माघार लाखी" ईबत् पर्षणे , "बासज्ज बा" (सूत्र-६७४)। ईषत्पुनः | (सूत्र-१३१४ शानी आख्याति-प्राचष्टे । प्राचा.१७०४ भ०२ उ01 पुनर्वा घषयेन् । माथा० २ भुरचू०२ १०१ उ० । भाषाय-माख्यात-त्रि० । प्रा-ख्या-कर्मणि क्ल । कथिते, जे भिक्ख अप्पखो दंत माघसेज्ज वा पघंसेज्ज या वाच । “श्राघायं तु सोचा" (सूत्र-२८)। आयातमेवैमापसंतं वा पघसंतं वा साइज्जइ ॥४७॥ सत् कुशीलविणाकादिकं श्रुत्वा निशम्येति । भाचा० १७. पकविण-आघसणं, दिणे दिण पसण ति । निचू०३ उ०। ६०४ उ० । भावे न । प्राशये च । न०. "आघायं पुण्य प्राघवत्ता-आख्यात-त्रि० । आख्यायके, (प्रज्ञापके) स्था० एगेसिं" (nt+॥)। नियतिवादिना पुनरेकेषामेतदा४ ठा०४ उ०। ख्यातम् , अत्र च-"अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका बाघवण-आख्यान-न। सामान्यविशेषाभ्यां कथने, “श्रा- भवन्तीति" ख्यातर्घातार्माचे निष्ठाप्रत्ययस्तयोगे कर्तरि घविषजति" (सूत्र-१३७x)। प्राकृतशैल्या-आख्यायन्ते षष्ठी; ततश्वायमर्थः-तैर्नियतिवादिभिः पुनारदमाख्यातं; सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्ते इत्यर्थः। स०। प्रायः । श्रा तेषामयमाशय इत्यर्थः । सूत्र०१ श्रु०११०२उ०। ज्यापने , सामान्यविशेषरूपेण कथने,-" दुवालसंगं ग आघात-पुं० । श्रा-हन्- घञ् । बधे, आहनने, ताडने च । णिपिडगं आघवह (सूत्र-७५०x)| सामान्यविशेषरूपा श्रा. आधारे घञ् । बयस्थाने, वाच०। पाहन्यन्ते-अपनयन्ति ख्यापयतीति । स्था० १० ठा०३ उ०।। विनाश्यन्ते प्राणिनां दशप्रकारा अगि प्राणा यस्मिन् स आग्रहण-न० । श्रादान , अनु०। श्राघातः । मरण, सूत्र० १ श्रु० अ०। अाग्राहण-न० । श्रादापने , भ०६ श० ३१ उ०। आघायकिच्च-श्राघातकृत्य-न० । अग्निसंस्कारजलाअलि. अर्थापन-न० प्रतिपादनतः पूजाभापणे, भला "केवलिपमत्तं प्रदानपितृपिण्डादिके मरसकृत्ये, सूत्रः। धम्म श्राघवेज्ज वा" (सूत्र-३६८४)। आमाहयेच्छिष्या आघायकिच्चमाहेउं, नाइओ विसएसियो । नर्थापयता प्रतिपादनतः पूजां प्रापयदिति । भ०६ श०३१ उ०॥ हरंति अन्ने तं वित्तं ॥४४॥ प्राधावणा-श्राख्यापना-स्त्री०। श्राख्याने, उपा० ।" बहीं आहन्यन्ते-अपनर्यान्त; विनाश्यन्ते प्राणिनां दशप्रकारा आघवणाहि य" ( सूत्र-४४४)।' श्राघवणाहि य'ति अपि प्रामा यस्मिन् स श्राघातो मरणं. तस्मै तत्र या कृतपाण्यानैः। उपा०७०।तच सामान्यतः प्रतिपादनम् मग्निसंस्कारज लालिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यं त"श्राघवणाहि य” (सूत्र-२३)। श्राख्यापनाभिश्व-सामा दाधातुम्-आघाय-कृत्वा पश्चात् ज्ञातयः-स्वजना, पुत्रभ्यतः प्रतिपादनैः । ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०म०। कलत्रभ्रातृव्यादयः, किम्भूताः?-विषयानन्वेष्ट्र शील येषां ते, अन्येऽपि विषयैषिणः सन्तस्तस्य दुःखाऽर्जितं वित्तं-द्रव्यआघवित्तए-आख्यातम-अव्य०। भणितुमित्यर्थ, अन्त०१। जातम्-अपहरन्ति-स्वीकुर्वन्ति । सूत्र. १ श्रु०६०। श्रु० ३ वर्ग ८ अ०भ०। आपविय-आख्यात-त्रि० । श्रा-ख्या-कर्मणि-क्न । कथिते, | श्रा (घ) घायण-आघातन-न० । बधस्थाने , वाच । "तत्थ ण महं पगं श्राघातरणं पासंति" (सूत्र-८x)। 'श्रावाच। “भगवया महावीरेणं प्रायविए" (सूत्र-७४४)।| घायणं' ति-वधस्थानम् । शा०१७०६०।"श्राघायण'श्राधविए' ति-श्रार्षत्वादाख्यात इति । उत्त०२६ अ०। पांडदुवारसंपाविया" (सूत्र-१२४)। श्राघातनस्य वध्यभूआगृहीत-त्रि० । प्रादत्ते, " श्रावस्सए त्ति पयं श्राघवियं | मिमण्डलस्य प्रतिद्वारं संप्रापिता । प्रश्न. ३ श्राथद्वार । पन्नवियं परूवियं " ग०२ अधि०। 'श्राघयियं ' ति-प्राकृ- | "असिवो मा०"॥ १४५६+ ॥ श्राघायणति जत्थ या महातशैल्या छान्दसत्वाच गुरोः सकाशादागृहीतम् । अनु०। । संगाममया बहू । श्रा० चू०४ श्र० । आव०। भावे ल्युट । अाग्राहित-त्रि० 1 श्रादापिते, भ० ६ श० ३१ उ० । हनने, वाच०। अर्थापित-त्रि०। प्रतिपादनेन पूजां प्रापिते, "केवलिपरम- | प्राघुम्मिय-आधूर्णित-त्रि० । श्रा-घूर्ण-क्क । “घुर्गोधुल-- तं धम्मं श्राघवेज्ज वा" (सूत्र-३६८) । श्राग्राहयेच्छिष्यान् , | घोल-घुम्म-पहल्लाः" ॥८।४। ११७ ॥ इति हैमप्राकृतसूत्र गणेते चत्वार श्रादेशाः । प्रा०। चलित, भ्रान्त च । चाचा अर्थापयेद्वा-प्रतिपादनतः पूजां प्रापयेद् । भ०६ श० ३१ उ०।। घुलह । घोलह । घुम्मइ | पहला प्रा०४पाद । आघवेमाण-आख्यात्-त्रि० । कथयति, आव० ३ ०। । आधुलिय-आघूर्णित-त्रि० । 'श्राघुम्मिय' शब्दार्थ, प्रा०४ आघसंत-आघर्षण-त्रि० । ईपद्घर्षणं कुर्वति, नि० चू० पाद । १७ उ०1 आघोलिय-श्राघूर्णित-त्रि० । 'आधुम्मिय' शब्दार्थ, प्रा० प्रापसावण-आघर्षण-न० । ईषद्घर्षणे, नि० चू०। ४पाद। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचंदमुग्यि अभिधानराजेन्द्रः। श्राजीव भाचंदमूरिय-श्राचन्द्रसूर्य-न। यावश्चन्द्रसूरयों तार्थाद अाजीवमेयं तु अवुज्झमाणो, त्यर्थे. पञ्चा। पुणो पुणो विपरियासुर्वेति ॥ १२ ॥ श्राचन्दसूरियं तह, होइ इमा सुप्पति? त्ति ॥३४॥ श्राजीवम-आजीविकाम् । श्रात्मवर्तनापायं कुर्वाणः पुनः श्राचन्द्रसूर्य-चन्द्रसूरयों यावत्नावद् भवतु-अम्तु. इयम् पुनः संसारकान्तारे विपराम-जन्मजरामग्ण, रोगशोकोअधिकृता सुप्रतिष्ठा-शाभनावस्थानम् । पञ्चा०८ बिवः । पद्यम उपैति-गच्छति नदुनरणायाभ्युद्यना वा तत्रैव श्राचेलक आचेलक्य-त्रि०। न विद्यत चलं-वस्त्रं यस्य सः- निमजतीत्ययं विपर्यासः । सूत्र. १ श्रु. १३ १० । अवेलकस्तस्य भाव आचेलक्यम् । विगतवरत्वे, कल्प श्राजीवन-जातिकुलगकर्मशिलानां मृहस्थममानाभि१ अधि०१क्षण । तदात्मके कामेदे च । अांचलक्यधम्मो धानत उपजीवनम्-श्राजीवाः। उत्पादनाशेषविशषे . पपेतत्वादाचेलक्यः । चारित्रलक्षण धम्म च । पुं० । "श्रा- ञ्चा० १३ विव० । जात्यादिकथनाद् आजीवनम् आजीवः । चेलका धम्मा, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिएस्स"॥१॥ ग०१अधिक। पश्चा० १७ बिब० । (भदादिबहुबक्तव्यता 'अंचल (ग)' शब्दे श्राजीवस्य भदादिकमाजीवपिण्डदोषस्य स्वरूपादिकञ्चप्रथमभागे गता) जाई-कुल-गणकम्मे , सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा। भाच.क्ख-प.चोक्ष-पुं० । अष्टमे पिशाचनिकाये, प्रशा० सूयाएँ असूयाए, व अप्पाणं कहेहि एकेके ॥४३७॥ १ पद। श्राजीवना पञ्चविधा , तद्यथा-जातिविषया; जातिमाआजम्म-जन्मन-श्रव्य० । यादजीवमित्यर्थे, " वसिज्ज जीवनी करावीत्यर्थः , एवं-कुलविण्या, गणविषया. कर्मतत्थ आजम्म, गोयमा! संजए मुगी"॥७॥ श्राजन्म-जी- विषया,शिल्पयिषया च । सा चाजीवना एकस्मिन् भेविनकालमभिव्याप्य; यावज्जीवमित्यर्थः । ग०१ अधिक। दे द्विधा , तद्यथा-सूत्र या धान्यानं कथयति । असूबअाज (य) जीभाव-अ.जवजवीभाव-पुं० । पुनः पुन- याच, तत्र सूचा-वचनभििवशपण कथनम्, प्रसूचा स्फुगमनागमने, " श्रारंभसत्ता पकरति संग" ( सूत्र ६० + )|| टवचनेन । संगाध पुनरपि संसार-श्राजवंजलीभावरूपः । श्राचा० १ तत्र जात्यादीनां लक्षणमाहश्रु० १ ० ७ उ० । " एस मरणा पमुच्चाई" ( सूत्र-१११४)| जाई कुले विभासा, गणो उ मल्लाइ कम्म किसिमाई। मरणाद्-श्रायुःक्षयलक्षणान्मुच्यते श्रायुषो बन्धनाभावात् , तू गादि सिप्पणाव-जगं च कम्मे य अा.वज ॥ ४३८॥ यदि वा-आजवजवीभावात् , श्राचिमरणाद्वा स एव सं. जानि कुले विभापा-विविध भाप कार्य,नश्चैवम्- जानिःसारी मरणं तस्मात्प्रमुच्यते । आचा०१ श्रु० ३ १०२ उ०। ब्राह्मपादिका कुलम्-उग्रादि । अथवा-मातृसमुन्था जातिः, भाजा (या) इ-अ.जाति-स्त्री० । श्रा-जन् तिन् । श्रा पितृसमुन्थं कुलम् । गरगो-मल्लादिवृन्दम् । कर्म-कृष्यादि, जननमाजातिः । स्था० १० ठा० ३ उ० । "पाइराणाss- शिल्पं-तूर्गादि: तू गेनसीवनमभूति । अथवा-श्रनायकम्जाइ"॥७४॥ आजायन्ते तस्यामित्याजातिः । आचा. अप्रीत्युत्पादक कर्म , इतरनु श्राव के प्रत्युत्पादकं शि१ श्रु० १०१ उ० । ( कतिविधा सा श्राजातिः इति रूपम् , अन्य स्वाहुः-अनाचार्योपदिष्ट कर्म, श्राचा थोपदिएं 'आयारंम' शब्देऽस्मिन्नेव भाग वक्ष्यत ।) श्राजनन, तु शिक्षामिति । पि(तत्र जातिलक्ष गम्त व्यवस्था च'जाई' जन्मान, " लाडयित्या तृणेनापि, संवादान्मतिपूर्वकम् । शब्दे चतुर्थे भागे दर्शयिध्यत।) (कुललक्षणम् , तद्भेदाः, एकविंशतिमाजातीः, पापयोनिषु जायते" ॥१॥ " सा- लव्यवस्था च 'कुल' शब्द तृतीयभाग वक्ष्यते ।) (पाचय ऽनृतं बदन पाशै-ध्यत बारुणैर्भृशम् । विवशः शतमा दिजिना भगवान् प्रथमम् उग्र-भोग-राजन्य-क्षत्रियलक्षणाजाती-स्तस्मात् साक्ष्ये बदतम् " ॥ १ ॥ इति च मनुः । नि चत्वारि कुलानि स्थापितवान् इति 'उसभ (ह) शब्देवाच । आजननमाजातिः । सम्मूर्छनग पपाततो जन्म । स्मिन्नेव भाग दर्शयिष्यते।) ( कुलकर्ताराऽन्येऽपि सम्तीस्था०१० ठा०३ उ०। श्राजातिः-ततश्च्युतस्य मनुष्य जन्म । 'कुलगर' शब्दे तृतीयभाग विस्तरतो दर्शयिष्यते ।) स्था०८ ठा०३ उ० । आजायन्ते तस्यामित्याजातिः, सा (गण लक्षणम् , तद्व्यवस्था च 'गण' शब्दे तृतीयमागे दर्शअपि चतुर्दा-व्यतिरिका, मनुष्यादिजातिः, भावाऽऽजाति- यिष्यते ।) (कर्मलक्षणम् , तद्विस्तरश्च 'कम्म' शब्द ३ भागे स्तु.बानाद्याचारप्रसूतिरयमेव ग्रन्थ इति । श्राचा० १ थु० दर्शयिष्यते । तत् प्रकृतयश्च 'कम्मपवडि' शब्दे तम्मिन्नव ३ १०१ उ०। भाग दर्शिता भविष्यन्ति ।) (शिल्लक्षणम् . तस्य पञ्च आयाति-स्त्री०। प्रागतो, आजाति-जन्म । श्रायातिः-श्रा- मनभदाः, पुनस्तपां प्रत्यकं विंशतिः विंशतिः भेदाः सन्तीगतिः । स्था० ३ ठा० ३ उ० । आयातिः-गर्भानिष्क्रमः । ति प्रतिपादनम् 'सिप' शब्द्ध सप्तमभागे यक्ष्यते ।) शि. स्था०२ठा०३ उ०।। ल्पशनभेदाः कालनिधी विस्तरतः 'भरह' शब्द षष्ठे भागे प्राजीव-आजीव-पुं० । आजीवनमाजीवः । भावे घञ्। जी. दर्शयिष्यते।) बिकायाम् , प्रक०६७ द्वार । श्राजीवनाथमालम्बने, याच। तत्र यथा साधुः सूचया स्वजातिप्रकटनाज्जातिमुपजीश्रा-समन्ताज्जीवन्त्यनेनेति श्राजीवः। अर्थनिवय, सूत्र पति तथा दर्शयति१७०१३ अ०। श्राजीविकायाम् , व्य०१उ०। श्रात्म होमायत्रितहकरणे , नजइ जह सोत्तियस्स पुत्तोत्ति । धनोपाय, सूत्र०१ श्रु०१३ ० । वाच०। वसिमो वेस गुरुकुले, प्र.यरियगुणे व सूएइ ॥ ४३६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाजीव अभिधानराजेन्द्रः। श्राजीव साधुभितार्थमटन् ब्राह्म पग्रेड प्रविष्टः मन् नस्य पुत्र हो- ग्रहादिपरिग्रहः, नथा देवकुलदशनं युद्धगंदेश चामुण्डानमादाक्रयाः कुर्वागा दृष्टा नदभिमुख प्रति म्बजानिप्र- तिमाप्रणमनं, भापापनयनं प्रतिमल्ल हानाय नथा तथा कटनाय जल्पनि- होमादिक्रयाणामवितथकरण एप एव | वचनढी कनं दण्डादिकाः धगंगापातरछुप्ताङ्कयुद्धः भृतयः, पुत्रो ज्ञायत-यथा धात्रियस्य पुत्र इति । याद घा-डांपत एतान् गुणान गृह प्रविष्टः रून् तत्पुत्रभ्य प्रशंसात. तथा पप सम्यग् गुरुकुल इति ज्ञायत । अयवा-सूचयनि-एप नव च सांत तन शाय-यपाऽपि साधुमल्ल इत्यादि प्राग्वत् । पुत्र श्रात्मन श्राचार्यगुणान् नती नियमादप महाना कर्म-शिल्पकागजीवनमाचारगे भविष्यतीति । नन एवमुक्ने स ब्राह्मगा वदनि कतरि पोयणा-क्खवत्थुबहुवित्थरेमु एमेव । साधो! त्वमवश्यं ब्रह्म गायनन्थं मादीनामविन कम्मेसु य सिप्पेसु य, सम्ममसम्मेसु सू इयर ॥४४२।। थत्यं जानासि . साघुश्च मौननाऽयनिष्ठते. पथ सूच कर्मसु, शिलाषु च एवमव-कुलादावियापजीवनं वक्तव्यम् , या स्वजातिप्रकटनम् . अत्र च अनेक दंपाः, नथाहि-य कथमित्याह- कतरि' कर्मणां शिल्पानांच विधायक, उपदि स ब्राह्मगो भद्रकम्ताहि स्वजानिपक्षपानाप्रभूतमाहारा लक्षणमेद्विधायके च गिजादौ, सप्तमी चात्र षष्ठयर्थे, दिकं दापयांत । तदपि च जान्यपजीवनानामामान भग ततोऽयमर्थ:-कर्तुः कारापकम्य च प्रयोजनापक्षेषु भूमिविचता प्रापिद्धम . अथ प्रान्तस्तर्हि भ्राऽयं पापामा लखनादियोजननिमित्तं ध्रियमागपु हलादिषु वस्तुपु सूत्र ब्राह्मण्यं पांग्त्यक्तामात विचिन्त्य स्वगृहांनष्काशनादि क चात्र विभक्तिलाप आर्ष वात् । बहुविस्तारषु-प्रभूतषु नानागात , असूचया तु जात्या जीवनं पृाऽपृष्णा चा श्राहा विधेषु च रूम्यक असम्यगिति वा प्राच्यमानपु शामनानि राद्यर्थ स्वजानि प्रकटयति- यथा- 'अहं ब्राह्मगा' इति , अशोभनानीति वा कथ्यमानेषु यदात्मनि कमाण शिल्प या तत्राऽप्यनन्तगेला एव दोपपः. एवं क्षत्रियाऽदिजानिध्यपि. कौशलज्ञापन तत्तयोरुपजीवनम् . इयमत्र भावना भिक्षार्थ प्रप्रविष्टापि, एवं गुलादिष्यपि भावनीयम् । वि०। प्रय० । विष्टः सन् माधुः कृष्पादः कर्तुः कारापकस्य या नत्प्रयोजएतदेय किचिद् व्यक्तीकुर्वन्नाह नपक्षीयानि नानारूपाणि हलादीनि बहनि घातनि तानि सम्ममसम्मा किरिया, अणण ऊणाहिया च विवरीया।। दृष्टवा आत्मनः कर्मणि शिल्प वा कौशलज्ञापनाय शोभनासमिहामंताहुयट्ठा-ण जागक.ले य घे.साई ॥४४०॥ म्यशाधनानाति चा यत् वक्ति तन्कमांशल्पयागजीवनप । साधुक्षिाटन वाचत् ब्राह्मग,गृहे प्रायटः सन् तस्य श्रान न च प्रकाागा काश लज्ञापनं. सूचा स्फूटबचनन च कीपु हामाऽऽविक्रियाः कुर्वाणं दृष्टा पितरं स्वजाति- शलकथनम् अमूचा । पि. नि. चू। प्रकटनाय जल्गंत अनेन तव पुत्रण सम्पक असम्यग्या श्राजीविकोपराडग्रहण दोषाः । सूत्रमहोमादिका क्रिया कृता, नत्राऽसम्पक विधा, नद्यथा-यूगा, जे भिक्खु आजीवियं पिंडं मुंजइ भुजंतं वा साइजइ॥६२॥ अधिका, विपरीता वा । सम्यक सामधादीन् घोपादश्व जातिमातिभाव उवजीवात त्ति श्राजीवणपिडा। यथावस्थितानाश्रित्य तत्र समिधः-अश्वशादिवृक्षागां प्रांत गाहाशाखाखण्डान, मन्त्रा:-प्रणवाभृतिका अक्षरपद्धतयः, जे भिक्खू जीवपिंडं, गेएटेज सयं तु अहवाँ सातिजे । पाहातः अग्नी घृतादेः प्रक्षेपः, स्थानम्-उत्कुटादि, यागः अश्वमेधादिः, काल:-प्रभातादिः, घोषाः उदात्तादयः, श्रा सो अण प्रणवत्थं. मिच्छत्तविराहणं पाये ॥ १४८ ।। दिशब्दात्-हस्वनीघादिधर्मपरिग्रहः, एवं चनं स साधु स्वय हराहात, अराग वा गराहायांत , अणुजागाति था, ब्राह्मण जानाति । तथा च सति भद्र, प्रान्ते वा पूर्ववत् दोपा तम्स अागादिया य दोपा. चउलहुं च पाच्छत्तं । निक बलव्याः । उक्लं जातरुपजीवनम् । चू०१३ उ०। श्राजीवति. कतरि अच् । श्राजीवनकारिणि, कांजीवनृगजीव इत्यादौ तु श्राजीव श्रण उप० स० इति अथ कुलाद्यपजीवनमाह भदः । यात्रा । कुशोलभेद. प्रव. २ द्वार । व्य० । श्राउग्गाइकुलेसु वि एवा-मेव गणिमण्डलप्पोसाइ। जीवनम् - उपजीवन जाति कुल गणशिल्पादिना करोतीति । देउलदरिसणभासा-उवण यणे दंडमाईया ।। ४४१॥ । दर्श०४ तत्त्व। एवंमव-जात्यादिव कुलादिष्यपि उग्रादिषजीवनमयगन्त स च पञ्चविधःव्यम् , यथा कोऽपि साधुरुग्रकुल भिक्षार्थ प्रविपत्तत्र च पंचविहे भाजीपे पएणते, जहा-जाइआजीने, कुलाऽऽतत्पुत्रं पदानीन् यथावदारक्षककर्मसु नियुतानं दृष्टा | जीये, कम्माऽऽजीवे, सिप्पाऽऽजी , लिंगाऽऽजीवे । तपितरमाह-योऽयं त' तव पुत्रोऽनवदितोऽपि यथायोग पदानीनां नियोजननायकुले सम्भूत इति । ततः स जाना (सूत्र-४०७) स्पं.ऽपि साधुरुग्रकुलसमुत्पन्न इति, इदं तु सूचया स्व कुशी लभ, व्य०। कुलप्रकाशनम् , यदा तु फुट वा चप स्व कुलमाचदयनि (अस्य सप्त मेदाः)यथाहमुग्रकुलो भागकुल इत्यादि । तदा अचूचया प्रकटने जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तये सुए चेत्र । पां भद्रनान्तत्वे पूनानुसारेण दोषा वक्तव्याः । तथा सत्तविहं आजीवं, उबजीयइ जो कुसीलो उ ॥२५३॥ 'गग-गणविपय मण्डलप्रवेशादि इहाङ्कखलकेप्रचिटस्थकस्य । जानिर्मातृकी. कुल पैतृकं. गगा मल्लगरादिः, कर्म-अनामल्लम्य यल्लभ्यं भूखण्डं तन्मएडलं तत्र वर्तमानस्य प्रति- चार्यकम् , श्राचार्योपदेशजं शिल्पम् । तपः-श्रुत, प्रतीने । एवं इन्द्धिनो मल्लस्य विवोधाय यः प्रवशस्तदादिशब्दात्-ग्रीवा-। सप्तविधम् श्राजीवं य उपजीयांत-जीयनार्थमाश्रयति, त Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाजीव अभिधानराजेन्द्रः। आजीवियभय यथा-जाति कुलं वात्मीयं लोकेभ्यः कथयति । येन जाति-आजीववित्तिया-आजीववृतिता-स्त्री० । जातिकुलगणकपूज्यनया कुलपूज्यतया वा भक्तपानादिकं प्रभूतं लभेयमिति, मशिल्पानामाजीवनमाजीवस्तेन वृत्तिस्तदभाव आजीव matam अमयैव चुन्या मलगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं त्तिता । जात्याचाजीवनेनात्मपालनायाम,“जा य आजीकर्मशिल्पकुशलभ्यः कर्मशिल्पकौशलं कथयति । तपसः ववित्तिया"॥६+॥ इयं चानाचरिता । दश० ३ १०। उपजीवना तपः कन्या क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति माजीवि(न)-आजीविन-पुं। गोशालकशिष्ये, उपा०१०। भुतोपजीवना बहुश्रुतोऽहमिति सः कुशीलः । व्य० १ उ० (कुशीलानां बहवो भेदाः ते च 'कुसील' शब्बे तृतीय भाजीविय-आजीविक-पुं । नाग्न्यधारिणि पाखण्डिविशेष, भागे विस्तरता पक्ष्यते । आजीवस्य प्रायश्चित्तं च तत्रैव ।) विवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीश्रमणभेदे च । ये गोशालकमतमनुसरन्ति भण्यन्त ते तु न्याजीवति , भ०१श०२०।श्रमणभेदे, प्राचा०२ श्रु० माजीवकाः इति । एते ऽपि लोके श्रमणा इति व्यपदिश्यन्त २चू० १ १०१ उ० । स्था०।तेच गोशलकशिष्याः (स्था। इति । प्रव० ६४ द्वार। ४ ठा०२ उ० । उपा०) गोशालकप्रवर्तिता आजीविकाः पाखण्डिनः। नं० । "आजीवियाणं' (सूत्र-२५४) पाखण्डिआजीवग-आजीवक-पुं०। प्रा-जीव-कर्त्तरि एखुल् । श्रा विशेषाणां नागम्यधारिणां, गोसालकशिघ्याणामित्यम्ये । जीवनकर्तरि । वाच। श्रमणभेदे, । प्रव० १५ द्वार। प्राचा प्राजीवन्ति वा ये अविवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्याप्राजीवग-पुं० । श्रा-समन्ताज्जीवन्स्यनेनेत्याजीवः-अर्थ- दिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजिविकास्तित्वेना जीविका अनिचयस्तं गच्छति-आश्रयत्यसौ-श्राजीवगः । अर्थमदे,सूत्र० तस्तेषाम् भ० १श०२ उ० । "आजीवगं चव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से" आजीविकाः-निहवा अनाराधकाः तेषामुपपत्तिगतिस्थि॥ १५ ॥ श्रा-समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीवोऽर्थनिचयस्तं ग-- तयो यथाछत्याश्रयत्यसौ आवाजीगः-अर्थमदस्तं च चतुर्थ नामयेत् | से जे इमे गामागरजाव सन्निवेसेसु श्राजीवका भवंति। शब्दाच्छषानपि मदानामयेत् तनामनाचासौ पण्डितः-- नत्ववेत्ता भवति । सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। | तं जहा-दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तधरंतरिया उप्पआजीवण-आजीवन-न० । श्राजीवत्यनेन, करणे ल्युट् । लवेंटिया घरसमुदाणिया विज्जुअंतरिया उट्टिया समणा, वृत्त्युपाये, भावे ल्युट । वृत्यर्थमुपायग्रहणे, वाच । जात्या तेणं एयारूवेणं बिहारेणं विहरमाणे वहूइं परियायं पाउधाजीवननोत्पादित आहारशय्यादिके, “वणीमगाऽऽजीव णित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे णनिकाए" ॥ १६४ +॥ आजीवनं यदाहारशय्यादिकं जा- देवत्ताए उववत्तारो भवति । तेहिं तेसिं गती वावीसं सात्याद्याजीवनेनोत्पादितम् । व्य० ३ उ०। गरोवमाई ठिती, अणाराहका सेसं तं चेव ॥ १७ ॥ आजीवणा-आजीवना-स्त्री० । परोपजीवने , दर्श०१ तत्त्व । (सूत्र-४१४) आजीवणापिंड-आजीवनापिएड-पुं०। उत्पादनादोषविशेष आजीविका-गोशालकमतानुवर्तिनः, 'दुघरंतरिय' क्तिस्पृष्ट जातिकुलगण कर्मशिल्पैरात्मनो गृहस्थस्य च तु-| एकत्र गृहे भिक्षां गृहीत्वा येऽभिग्रहविशेषाद् गृहद्वयमतिल्यरूपताख्यापनेन लब्धजीवनापिण्ड , जीत। क्रम्य पुनर्भिक्षां गृह्णन्ति;न निरन्तरमेकान्तरं वा ते द्विगृहाआजीवणाभय-आजीवनाभय-न० । आजीवना-परोपजी तरिकाः के गृह अन्तरं भिक्षाग्रहणे येषामस्ति ते द्विगृहावनं सैव भयम् श्राजीवनाभयम् । भयभेदे , यथा राजामा- तरिकाः इति निर्वचनम् । एवं त्रिगृहान्तरिकाः सप्तगृहात्यादिपदातिश्राजीवनाभयात्संग्रामादौ मरणमध्यवस्यति । तरिकाश्च 'उपलटियत्ति-उत्पलवृन्तानि नियमविशेषात् दर्श० १ तत्व । ग्राह्यतया भैक्षत्वन येषां सन्ति ते उत्पल वृन्तिकाः । 'घरसमुभाजीवदिटुंत-आजीवदृष्टान्त-पुं० । प्रा-सकलजगदाभि- दाणिय'त्ति-गृहसमुदान-प्रतिगृहं भिक्षाया येषां ग्राह्यतयाव्याप्य जीवानां यो दृष्टान्तः-परिच्छेदः स ाजीवदृष्टान्तः । ऽस्ति ते गृहसमुदानिकाः। विज्जुयंतरिय'त्ति-विद्युति सकलजीवनिदर्शने , आह च मूलटीकाकार:- 'आजीव- सत्याम् अन्तरं भिक्षाग्रहणस्य येषामस्ति ते विद्युदन्तरिका; हटान्तन-सकलजीवनिदर्शनेन । जी० ३ प्रति० २ अधिक विद्युत्सम्पाते भिक्षा नाटन्तीति भावार्थः । 'उट्टियासमण' १ उ०। (श्राजीयदृष्टान्तन तिर्यग्योनिकानां जानिकु- त्ति-उष्टिका-महान्मृण्मयो भाजनविशेषस्तत्र प्रविष्टा ये लकोटिविचारः निरिक्ख जाणिय शब्द चतुर्थभागे करिष्यते) श्राम्यन्ति तपस्यन्तीत्युष्ट्रिकाश्रमणाः । एषां च पदानामुप्राजीवपिंड-आजीवपिएड-पुं०। जातिकुलगणकर्मशिल्पा त्प्रेक्षया व्याख्या कृतति ॥ १७॥ औ० । कुशीलभेदे च । दिप्रधानेभ्य श्रात्मनस्तद्गुणचारोपणं भिक्षार्थमाजीवपिण्ड श्राव० ३ ०। (तस्य भेदादि 'श्राजीव ' शब्देऽस्मिन्नेव इत्युक्तलक्षणे उत्पादना दोषभदे, ध० ३ अधि० । श्रावा . भागे दर्शिताः । ) सामायिककृतः श्रावकस्य कोऽपि ञ्चा०। "जच्चाइना जीवे"-जात्यादिना जातिकुलगणकर्मशि-| भाण्डमपहरेत्तत्कस्यति आजीविकपृच्छा 'सामाश्यक' रूपादिकमाजीवेद-उपजीयति यस्तस्य तत्कथनमुपजीवनं चो। शब्दात्सप्तमभागावगन्तब्या) स्पादनादोषः । पञ्चा० १३ विव० । ( अस्य वक्तव्यता'श्रा- आजीवियभय-आजीविकाभय-न० । निर्द्धनः कथे दुर्भिक्षाजीव' शब्दऽस्मिन्नेव भागऽनुपदमेव गता।) दावात्मानं धारयिष्यामीत्येवरूप भयभेदे, श्राव०४ अ०। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) भाजीवियभय अभिधानराजेन्द्रः। आडंबर आजीवियभयगत्था, मुढा णो साहुखो या ॥ ५१।।। चविहे ५, उदए ६, नामुदए ७, णमुदए ८, अणुवालए श्राजीवनमाजीविका-निर्वाहस्तावनया यद् भयं-भी ६, संखवालए १०, अयंबुले ११, कायरिए १२, इच्चेए तिम्नदाजीविकाभयं तेन प्रस्ता-अभिभूना ये तथा गृहस्वैपिज्ञाननिर्गुणत्वादनादिविर्गहता चा; कथं निवक्ष्याम दुवालस आजीवियोगासगा अरहंतदेवयागा अम्मापिउइत्यभिप्रायवन्त इत्यर्थः । मूढाः-मुग्धाः परलोकसाधनवै सुस्सूसगा पंचफलपडिकता, तं जहा-उउंबरेहिं बडेहिं वोमुख्यनेहलोकप्रतिबद्धत्वात् । 'नो' नैव साधया शया-ज्ञात- रेहिं सतरेहिं पिलक्खूहिं पलंडुल्हसुण कंदमूलविवजगा व्याः । पञ्चा०१७ विक०१ अपिल्लंछिएहिं अणक्कभिएणेहिं गोणेहि नसपाणविमाजीवियसमय-श्राजीविकसमय-पुं० । गोशालकसिद्धा वज्जिएहिं वित्तेहिं वित्ति कप्पेमाणा विहरति । एए वि न्ते, भ.! ताव एवं इच्छति किमंग ! पुग्ण जे इमे समणोवासगा श्राजीवियसमयस्स णं अयमद्वे पण्णत्ते, अक्खीणप- भवंति तेसिंणो कप्पंति इमाइं पएणरसकम्माऽऽदाणाई सयं डिभोइसो सच्चे सचा से हंवा छेचा भेत्ता लुपिता वि- करेत्तए वा कारवेत्तए वा करतं वा अएणं ण समणुजाखंपित्ता उद्दवइत्ता आहारमाहरति । (सूत्र-३३०+) । णेत्तए, तं जहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडी-- श्राजीविकसमयस्य-गोशालकसिद्धान्तस्य 'अयम? 'त्ति कम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे केसवाणिजे बदमभिधेयम्-'अक्खीमपरिभोइणो सब्वसत्त'त्ति-भक्षीणम् अक्षीणायुष्कम्-अप्रासुकं परिभुज्यत इत्येवंशीला अतीरगप. रसवाणिज्जे विसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निल्लंछणकम्मे रिभोगिनः, अथवा-इन्प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादक्षीणपरि- देवग्गिदावणया सरदहतलावपरिमोसणया असईपोसभोगा; अनपगताहारभगा सक्लयः इत्यर्थः, सर्व सत्याः खया इच्चेए समणोवासगा सुका सुकाभिजाइया भविया असंबताः सर्वे प्राणिना यद्येवं ततः किमित्याह-' से हते'। भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अएणयरेसु देवलोएसु त्यादि, 'से'सि-ततः । 'हन्ते' त्ति-हत्वा वगुडादिनाऽभ्य देवत्ताए उववत्तारो भवंति । ( सूत्र-३३०+) चहार्य प्राणिजातं छित्त्वा-प्रसिपुत्रिकादिना द्विधा कृत्वा 'मित्त्वा' शुलादिना भिन्नं कृत्वा 'लुप्त्वा' पक्ष्मादिलोपनन 'तत्थ'त्ति-तत्र-एवं स्थितऽसंयनसत्ववर्ग; हननादि“बिलुप्य' स्वचो विलोपनन 'अपद्राव्य' विनाश्य आहारमा- दोषपरायणे इत्यर्थः, आजीविकसमय बाधिकरणभूत द्वाहारयन्ति । भ०८श. ५ उ01 दशति विशवानुष्ठानत्वात् परिगणिता प्राचन्दादिश्रमणा. श्राजीवियसुत्त-आजीविकसूत्र-न। गोशालकप्रवर्तितपा- पासकवदन्यथा बयस्ते, 'ताल' त्ति-तालाभिधान एकः, खण्डमूत्र, स० । “श्राजावियसुत्तपरिवाडीए" (सूत्र-१४७x) एवं तालमलम्बादयोऽपि, 'श्ररहंनदेवयाग' सि-गोशालगोशालकप्रवर्तितपाखण्डसूत्रपरिपाट्या । स०९४७ सम० । कस्य तस्करूपनमाऽऽहत्वात् 'पंचफलपडिकंत' त्ति-फल( एतद्वक्तव्यता विशेषतः 'सुत्त' शब्दे सप्तमभागे घयते ।) पञ्चकानिवृत्ता उदुम्बरादीनि च पञ्च पदानि पञ्चभाबहुआजीविया-आजीधिका-स्त्री०। श्राजीवति श्रा-जीव णि- | वचनान्तानि प्रतिक्रान्तशब्दानुस्मरणादिति । 'अनिलो छ पहि'त्ति-अवधित कैः, भगवभिन्नहि' ति-अस्तितः च-रावल । जीविकायाम् , वृत्ती, जीवनाथै व्यापार, वाचन 'एए वि ताव एवं इच्छति' त्ति-एतऽपि तावत: विशिष्टश्राजीवनमाजीविका । निर्वाहे, पञ्चा०१७ विव० । श्राजी योग्यताविकला इत्यर्थः, ' एवं इच्छति' अमुना प्रकारेण विका च सप्तभिरुपायैः स्याद-वाणिज्यण १ विद्यया २ कृष्या वाञ्छन्ति धर्ममिति गभ्यम् ' किमंग! पुण' इत्यादि. किं ३शिल्पन ४पाशुपाल्यन ५सया ६भिक्षया ७च । तत्र बाणिज्यन बगिजाम् ,विद्यया वैद्यादीनाम् २, कृप्या कौटुम्बि पुनर्ये इमे श्रमणापासका भवन्ति ते नच्छन्तीति गम्यम् । कादीनाम् ३, पाशुपाल्यन गोपालादीनाम् ४, शिलंपन चि इच्छन्त्यति विशिष्टतरदेवगुरुप्रवचनसमाश्रितत्वातेषाम् । त्रकारादीनाम् ५, सेवया सेवकानाम् ६, भिक्षया भिक्षा- | भ०८२०५उ०। चराणाम् । ७। (६४ श्लोकटी०)। ध०२ अधि.।' माजुत्त-पायुक्त-त्रि। अप्रमत्ते, "अश्वत्थं जुत्तो आजुआजीवियादोस-आजीविकादोष-पुं० । चतुर्थे उत्पादना त्ता वा" अप्रमत्त इत्यर्थः । नि० चू० १ उ०। दोष, उत्त । यदा गृहस्थस्य शातिं कुल सात्वा श्रात्मीयमपि साधुस्तमेव जाति तंदव कुलं स्वकीय प्रकाश्याऽऽहारंभ | भाडंबर-आडंबर-पुं० । आडxवि । क्षप , अरन् । हर्षे, गृह्णाति तदाऽऽजीविकादोषश्चतुर्थः । उत्त०२४ १०। दर्गे , तूच्यवन , प्रारम्भे , संरम्भे , अक्षिलामिन, धनगभाजीवियोपासग-आजीविकोपासक-पुं० । आजीविका- र्जिते, प्रायोजने च , मत्वर्थे नि । अाडम्बारन् । नधुगोशालकांशयास्तपामुपासक श्राजाबोपासकः । उत्त० २४ क्ल त्रि०। चाच०। पटह . “आडम्बरो धबइयं" (सूत्रअ० । गोशालकशिष्यश्रावक, म०।। ५५३+)। स्था०७ ठा०३३० । अनु० । यक्ष,"पाणाडंबरे श्राजीविकसमयमधिकृत्य दर्शिताः अरुहे पाणत्ति मायगा तेसि श्राडम्बरी जक्खा हरि मिनो वि भणंतीति। श्राव०४ अ० प्रा० चूछ । यक्षायतत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति. तं तन, "श्राडबर य" ॥३४+॥ आडम्बर-श्राडम्बरजहा-ताले १, तालपलंबे २, उबिहे ३, मंविहे , W-" यक्षायतने , व्य० ७ उ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -11८१ । १४३. मणि । यस्यावर अधिर मभिधानराजेन्द्रः। माण भाडहण-भादहन-न । श्रा-दह भावे ल्युट् । प्रा-समन्ता- ॥८।१ । १४३॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेण ढिरादेशः । प्रा० । रहने,"थूले वियासं मुहे प्राति "॥३४॥ मखे वि- सादरे, कनादरे, कर्मणिक। यस्यादरः तस्तस्मिन् , काशं रुत्वा स्थूल वृहत्तप्तायोगोलाविक प्रक्षिपन्त प्रा-स. वाच । श्रादरक्रियाविषयाकते, जी०३ प्रति०४ अधि०। मन्ताद्दहन्ति । सूत्र.१(०५ ०२ उ० । दाहे, हिं सम्मानित, पूजिते च । वाचादरे,०। प्राव.३० सायां, कुस्सने च। श्रादह्यतेऽत्र प्राधारे त्यद । श्मशाने प्राण-प्राण(न)-० । उपसक्रियान्याम्, प्रा०७ पर। बाच०। स च नैरयिकादिदण्डक क्रमेण दर्शितःमाडोर-माटोप-०। प्रा-तुप घम्-पृषो० टत्वम् । दरें, मेरइया णं भंते ! केवइकालस्स प्रायमंति वा पाखमंति संरम्भे, वाच । आडम्बरे । उपा०२० । स्फार- बा उससंति वा नीससंति बा, गोयमा ! सततं संतयातायाम् बा.१ ध्रु०१ अ०। बातजन्ये उदरशम्बभेद, वाचमेव प्राणमंति वा पाखमंति वा ऊससंति वा नीससंति पाई-पादकी-स्त्री०। श्राढीकते अत्य पृष० गौ० डी वामित्र-१४६) गुच्छात्मक वनस्पतिभेदे , प्रज्ञा० १ पद । “अाढकी तुवरी ‘नेराया णं भंते !' इत्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यारक्षा , मधुग शीतला लघुः । प्राहिणी वातजननी, वा पित्तकफाजित्" भावप्र०) फले,अस्य पुंस्त्वमपि "प्रा. लंकार, 'भदन्त ? केवकालस्स' इति-प्राकृतशेल्या पश्चढकांश्च मधुरांश्च, कोद्रवान् लवणं त्यजेत् । काशी. स्त। म्यर्थे हतीयाचे षष्ठी, ततोऽयमर्थ:-कियतः कालात्-कवैश्वदेवे, वर्जने , वाच०। यता वा कालेन प्राणमन्ति 'आनंति-'अन' प्रापन इति धातुपाठात् , मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्रापि यथायोगं माढग(य) आढक-०। प्राढोकते आ-ढौक-घ-पृ० । परिभावनीयम् 'पालमंति वा'-प्राणन्ति वाशब्दो समुचचतुष्पस्थात्मके धान्यप्रमाणविशेष, अनु।"चउपस्थमाढ याधी, एतदेव पदद्वयं क्रमेणार्थतः स्पष्टयति-' उससंति यं" (सूत्र-३८+ टी०)। औ०। ज्यो०। श्रा०म०। शा० । वा नीसति का '-कदवानम्-आनन्ति तदेवोक्लमुलसन्ति उत्त० । चतुर्भिः प्रस्थैराढकः । तं० । “तंदुलाणाऽऽढयं क तथा यदवोक्नं प्राणन्ति तंदवोक्नं-निःश्वसन्ति, अथवा-बानलमा" ५८४ ॥ तन्दुलानां कलमा इति प्राकृतशैल्या क मन्ति प्राणमन्ति इति-'णम्' महत्वे शब्दे इत्यस्य दृष्टव्यम् । लमानाम् श्रादकम्-चतुःप्रस्थप्रमाणम् । श्रा० म०१०। धातु नामनेकार्थतया श्वसनार्थत्यस्याप्यविरोधः । अपरे "आढकं तंडुलाणे सिटुं ति" श्रा००१०।"श्र. व्याचक्षते-श्रानन्ति प्रान्तीत्यनेनान्तः स्फुरन्ति उच्छासप्रमुष्टिभवेत् कुश्विः, कुञ्चयोऽष्टौ तु पुष्कलम । पुष्कला- निःश्वासकिया परिगृह्यते उच्छ पन्ति निःश्वसन्तीत्यनेन तु नि च चत्वारि, आढकः परिकीर्तितः" ॥१॥ वाच०। बाह्याः, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह गौतम! सततम्पाढत-(पारद्ध)-प्रारब्ध-त्रि० । श्रा-रभ-क। "मलिनोभय. अविरहितं अतिदुःखिता हि नैरयिकाः,दुःखितानां च निरन्त शुक्लिछुप्तारब्धपदानमइलावहसिप्पिछिक्का ऽऽढत्तपाइक्वं" ॥ रमुच्छासनिःश्वासी, तथा लोके दर्शनात् , तच सततं प्रायो ८।२।१३८ ॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेण पाढत्त इत्यादेशो वा। वृत्याऽपि स्यादत पाह-'संतयामेव'-सततमेव-अनवरतमेव पक्ष-श्रारद्ध । प्रा० । कृतारम्भणे, भावे न । प्रारम्भे, न०। नेकाऽपि समयस्तद्विरह कालो, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , अानअवरुद्ध, वाच० । “सा दाउ अाढत्ता" ॥१३४॥ सा संघाट मन्तीत्यादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने श्रादरोपदर्शनार्थ गुदातुं प्रवृत्ताः परावर्तयितुं, व्याख्यातुं च प्रवृत्तस्यर्थः । व्य० कभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः सन्तोषवन्तो भवन्ति, ५ उ०। तथा च सति पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणाथै निर्णयादिषु घटआढप्प पारभ्य-" प्रारभेराढप्पः" ।८।४।२५४ ॥ इति । न्ते, लाके यादेयवचना भवन्ति एवं प्रभूतभव्योपकारस्ती भिवृद्धिश्च । इति हैमप्राकृतसूत्रेणाङ्यूर्यस्य रभेः कर्मभावे श्राढण इत्यादेशो वा यलुक च । श्राढप्पड । पक्ष-श्राढवीआइ । प्रा० । असुरकुमारा णं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा प्राढव-आरंभ-पुं० । श्रा-रभ-भावे घम् । " श्राङो रभेः पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ?, गोयमा ! जरम्भ-डयो" ॥८।४।१५५॥ इति हैमप्राकृतसूत्रण रभेः हनेणं सत्तएहं थोवाणं, उक्कोसेणं सातिरेगस्स पक्खस्स रम्भढव इत्यादशौं वा। प्रा० । श्रारम्भणे, वाच । श्रार आणमंति वा जाव नीससंति वा। म्भदाढवइ । श्रारभइ । प्रा०४पाद। नागकुमास शं भंते ! केवइकालस्म आणमंति वा आढाइत्ता-अदृत्य-श्रव्य। श्रा-ह-ल्यप् । सम्मान्येत्यर्थे. पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा?, गोयमा ! वाचा " एयमद्रं णो आढाइ" (सूत्र-३८६४) नाद्रियते जहनेणं सत्तएहं थोवाणं, उक्कोसेणं मुहुत्त हुत्तस्स । तत्रार्थेऽनादरवान् भवति । भ०६ श० ३३ उ० । स्था०। आढायमाण-आद्रियमाण त्रि०। श्रादरक्रियाविषयीक्रिय एवं जाव थणियकुमारा णं । (सूत्र-१४६ +) माणे, जी. ३ प्रति०४अधि० । “परं पाढायमाणे" (सूत्र असुरकुमारसूत्रे ' उक्कासेणं सातिरेगस्स पक्खस्स ' इति१६७४) परम्-प्रत्यर्थमाद्रियमाणः इति अत्यर्थमादरवान् । इह देवेषु यस्य यावन्ति सागरोपमाणि स्थितिस्तस्य ताश्राचा०१७०८१०१ उ० । वत् पतप्रमाण उच्छासनिःश्वासक्रियाविरहकालः । असुर कुमाराणां चोत्कृष्टा स्थितिरेक सातिरेक सागरोपमम् प्राढिय-अहित-त्रि० आ-ह-कतार का "श्राहतः दिः" "चमरबलिसारमद्दिय" मिति वचनात् , ततः- साति Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) धाण अभिधानराजेन्द्रः। माण रेगस्स पक्खस्स' इत्युक्तं सातिरेकात्यक्षार्धमुलसन्ती- बनीससंति वा १, गोयमा ! जहणं सत्तएहं पक्खाण, स्यर्थः, । प्रहा०७ पद । भ० ।'सत्तएहं थावाणं ' ति-स उकोसेखं दसएहं पक्खालं जाव नीससंति वा । सानां स्तोकानामुपरीति गम्यते,लोकलतवं चैमाचाते"हदुस्त प्रणवगलस्स, निरुयकिट्ठस्स जंतुको । एगे ऊसा- लंतगदेवा संभंते ! केवइकालस्स जाब नीससंति वा!, सणीसासे, एस पाणु त्ति वुश्चर" ॥१॥ सस पाणि से | मोयमा ! जहमेवं दसएहं पक्खाणं, उक्कोसेणं चउदथोवे, सत्त थोवाणि वा लव । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस सहं पक्खा जाब नीससंति वा।। मुर्ते वियाहिए ॥२॥" इति । इदं जघन्यमुग्छासादिमानं सजघन्यस्थितिकामाश्रित्यावगन्तव्यम् , उत्कृषं बोत्कृष्ठ महासुकदेवा गं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा', स्थितिकानाश्रित्येति । भ०१ श० १ उ०। 'मुटुसपुदुत्तस्स' गोयमा ! जहमेणं चोदसएहं पक्खाणं उकोसेणं सत्तरलि-मुहर्त उक्तलक्षण एव, पृथक्त्वं तु द्विप्रभृतिरानवभ्यः सएहं पक्खाणं जाव नीससंति वा । संख्याविशेषः, समयो प्रसिद्धः । भ०१ श०१ उ० । सहस्सारगदेवा ण भंते ? केवइकालस्स प्राणमंति वा पुढवीकाइया णं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति वा ? , गोयमा ! जहन्नेणं सत्तरसण्हं जाव नीससंति वा १, गोयमा! वेमायाए प्राणमंति वा जाव नीससंति वा । एवं जाव मणुस्सा । पक्खाणं उक्कोसणं अट्ठारसएहं पक्खाणंजाव नीससंति वा। प्राणयदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वाणमंतरा जहा नागकुमारा । (सूत्र-१४६ +) पृथिवीकायिकसूत्रे 'वमायाए ' इति-विषमा मात्रा तथा, वा?, गोयमा ! जहनेणं अट्ठारसएहं पक्खाणं उक्कोसणं किमुक्तं भवति-अनियतविरहकालमात्रप्रमाणा तेषामु- एगूणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । च्छासनिःश्वासक्रिया । प्रज्ञा० ७ पद । पाणयदेवाणं भंते ! केवइकालस्स जावनीससंति वा', जोइसिया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव गोयमा ! जहन्नेणं एगूणवीसाए पक्खाणं उक्कोसणं वीनीससंति वा १, गोयमा ! जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स उक्को साए पक्खााण जाव नीससंति वा । सेण वि मुहुत्त हुत्तस्स जावनीससंति वा (सूत्र-१४६+) भारणदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति उच्छासस्तेषां न नागकुमारसमानः, किंतु-यक्ष्यमाणः, तथा चाह- जहन्नणं मुडुत्तपुहुत्तस्से' त्यादि, पृथक्त्वं द्विप्रभृति वा?, गोयमा ! जहनेणं वीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं एरानमभ्यस्तत्र यज्जघन्यं मुहूर्तपृथक्त्वं तद् द्वित्रा मुहूर्ताः । कीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । यश्चोत्कृष्टं तदष्टौ नव वति । भ० १ श० १ उ०। अच्चुयदेवाणं भंते ! केवइकालस्स.जाव नीससंति वा?, बेमाणिया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा० जाव | गोयमा ! जहन्नेणं एक्वीसाए पक्खाणं उकोसणं वावीनीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं मुहुत्त हुत्तस्स उक्को- | साए पक्खाणं जाव नीससंति वा । सेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा । हेद्विमहेदिमगेविजदेवा णं भंते ! केवइकालस्स .जाव सोहम्मदेवा णं भंते! केवइकालस्म आणमंति वा जाव | नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं बावीसाए पक्खाणं नीससंति वा १ , गोयमा! जहन्नेण मुहुत्तपुहत्तस्स उको- | उक्कोसेणं तेवीसाए पक्णाणं जाव नीससंति वा । सेणं दोएहं पक्खाणं जाव नीससंति वा । हेद्विममज्झिमगेविजदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाईमाणगदेवा णं भंते केवइकालस्स आणमंति वा जा- व नीससंति वा ? , गोयमा ! जहनेणं तेवीसाए पक्खाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं सातिरेगस्स मुहुत्त- उक्कोसेणं चउव्वीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। पुत्तस्स उकोसेणं सातिरेगाणं दोएहं पक्खाणं जाव हेट्टिमउवरिमगेविजगा ण देवा ण भंते ? केवइकालस्स नीससंति वा। जाव नीससंति वा ?, गोयमा! जहन्नेणं चउव्वीसाए सणकुमारदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पक्खाणं, उकोसेणं पणवीसाए पक्खाणं जावनीससंति जाव नीससंति वा ?, गोयमा! जहन्नेणं दोएहं प-| वा। क्खाणं उक्कोमेण सत्तएहं पक्खाणं जाव नीससंति वा । मझिमहेडिमगेषिजगा णं देवा ण भंते ! केवइमाहिंदगदेवा णं भंते! केवइक.लस्स आणमंति वा कालस्स.जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहनेणं पणजाव नीससंति वा?, गोयमा ! जहन्नेणं सातिरेगं वीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं छब्बीसाए पक्खाणं० जाव दोएहं पक्खाणं , उकासेणं सातिरेग सत्तएहं पक्खाणं | नीससंति वा। जाव नीससंति वा । मज्झिममज्झिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइबंभलोयदेवा णं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा जा- कालस्सजाव नीससंति वा?, गोयमा ! जहन्नेणं छ - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) माण अभिधानराजेन्द्रः। प्राण बीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं सत्तावीसाए पक्खाणंजाव भफासं मोहम्मवडिंमग विमाणं देवत्ताए उववरणा (स.) नीससंति वा । ते णं देवा दोएहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति मज्झिमउवरिमगेविअगाणं देवा णं भंते ? केवइकाल-| वा ऊससंति वा नीससन्ति वा । ( सूत्र-२x ) स० स्स जाव नीसमंति वा १, गोयमा ! जहन्नेणं सत्तावी-! २ सम०।। साए पक्खाणं उक्कोसेणं अदावीसाए पक्खाणं जाव जे देवा आमंकर पभंकरं श्राभंकरंपर्भकर चंदं चंदानीससंति वा। वत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवमं चंदलेमं चंदज्झयं चदउरिमहेडिमगेविजगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स सिंगं चंदसिटुं चंदकूडं चंदुत्तरवाडिसगं विमाणं देवत्ताए जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठावीस प- उववरणा । (स.) ते णं देवा तिए अद्धमासाणं श्राक्खाणं उक्कोसेणं एगूणतीसाए पक्खाणंजाब नीससंति णमंति वा पाणमंति वा ऊससन्ति वा नीससन्ति वा । था। (सूत्र-३४) उपरिममज्झिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइका पाकरम् , प्रभङ्करम् , अाभङ्करप्रभङ्करम् , चन्द्रम् , चलस्स आणमंति वा० जाव नीससंति वा १. गोयमा ! न्द्र।वर्तम् , चन्द्रप्रभम् , चन्द्रकान्तम् , चन्द्रवर्णम् , चन्द्र लेश्यम् , चन्द्र ध्वजम् , चन्द्रशृङ्गम् , चन्द्रसृष्टम् , चन्द्रजहनेणं एगूणतीसाए पक्खाणं उकोसेणं तीसाए पक्खा कूटम् , चन्द्रात्तराऽवतंसकं विमानम् । स०३ समः। पंजाव नीससंति वा। जे देवा कि िसुकिट्टि किद्रियावत्तं किट्रिप्पभं किद्रिउवरिमउवरिमगेषिजगा णं भंते ! देव णं केवइकाल जुत्तं कि विवरणं किट्ठिल किट्ठिज्झयं किढिसिंग किट्टिस्स० जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्नेणं तीसाए लिट्ठ किटिकूडं किटुत्तरवाडिसगं विमाणं देवत्ताए उवपक्खाणं, उक्कोसेणं एकतीसाए पक्खाणंजाव नीससंति वएणा । (स.)ते णं देवा चउएहऽद्धमासाणं आणया। मंति वा पाणमन्ति वा ऊससंति वा नीससन्ति वा । विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितविमाणेसु णं भंते । देवा (सूत्र-४ + ) स० ४ सम।। णं केवइकालस्स जाव नीससंति वा ?, गोयमा ! जहन्ने | जे देवा वायं सुवायं वायावत्त वायप्पभं वायकन्तं वाणं एकतीसाए पक्खाणं, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्वाणं. यवएणं वायसिंगं वायसिटुं वायकूड वाउत्तरवळिसगं, जाव नीससंति वा । सूरं सुसूरं मूरावत्तं सूरप्पमं सूरकंतं सूरवएणं सूरलेसं सूरसव्वदृगसिद्धदेवा णं भंते ! केवइकालस्स.जाव नीससंति वा ?, गोयमा! अजहन्नमणुक्कोमेणं तेत्तीसाए प ज्झयं सूरसिंगं सूरसिटुं सूरकूडं सूरुत्तरवडिसगं विमाणं क्खाणंजाव नीससंति वा ( सूत्र-१४६४) देवत्ताए उववामा । (स०) त णं देवा अद्धमासाणं आतथा देवषु यो यथा महायुः स तथा सुखी, सुखितानां णमन्ति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । च यथोत्तरं महान् उसछासनिःश्वासक्रियाविरहकाला, दुः ( सूत्र-५ + ) स० ५ सम० । खरूपत्वादुच्छामनिःश्वासक्रियायास्ततो यथा यथाऽऽयुषः जे देवा सयंभु सयंभूरमणं घोसं सुघोस महाघोसं किसागरोपमवृद्धिस्तथा तथोच्छासनिःश्वासक्रियाधिरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः । प्रज्ञा० ७ पद। द्विघोसं वीर सुवीरं वीरगतं वीरावतं वीरप्पभं वीरकंतं ( सागरादिविमानेषु देवतयोपपन्नानामानप्राणादि ) वीरवएणं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंग वीरसिद्रं वीरकूड जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणु-| वीरुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववरणा ( स०) तेणं सोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उक्वन्ना । (स.) ते देवा छएह अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊसमंणं देवा एगस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा ति वा नीयमंति या । (सूत्र-६+) स०६ सम० । उस्ससंति वा नीससंति वा । (सूत्र-१+) जे देवा सम समप्पमं महापभं पभासं भासुर विमलं क. ये दवा सागर-सागराऽभिधानम , एवम्-सुसागरम, | श्चनकूडं सणकुमारवर्डिसग विमाण देवत्तार उववाला । सागरकान्तम् , भवम् , मनुम् , मानुषोत्तरम् . लोकहितम् , ( स०) ते णं देवा सत्तराई अद्धमासाणं श्राणमंति वा (म०) बिमासम्-दवनिवासविशेषम् प्रासाद्यति शेषः, दे पाणमंति वा ऊससंति वानीससंति वा । सूत्र-७) वत्वेन (सब) उ.पन्नाः जाताः न वाः ( स०) अर्द्धमासस्यान्त आनम्ति, प्राणन्ति, एतदव कमेण व्याख्यान यमाह स. ७ समः । इच्छु सन्ति, निःश्वसन्ति । स०१ सम० । | जै देवा अचिं, अच्चिमालिं वइरोयणं पभंकर चंदाऽऽजे देवा सुभं सुभकंतं सुभवएणं सुभगंधं सुभलेमं सु- | भं मूराऽऽभं सुपइट्वाऽऽभं अग्गिचाऽऽभं रिद्वाऽऽभं अरुणा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । आप ssi अरुणुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा | (स० ) ते देवा अट्टहं अद्धमासा आरति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा (सूत्र - ८+ ) स० ८ सम० । जे देवा म्हं सुपरहं पम्हावत्तं पम्हप्पभं पम्हतं पम्हवरणं पम्हलेसं म्हज्भयं पम्हसिंगं पम्हसिड पम्हकूडं पम्हुत्तरवर्डिसगं सुखं सुसुखं सुजवितं सुजपभं सुञ्जकतं जगणं सुखले सुजज्झयं सुजसिंगं सुजसिहं सुञ्जकूडं सुज्जु तरवर्डिसगं ( रुइद्दल्लं) रुहल्लावत्तं रुइल्लप्पभ्रं रुइल्लकंतं रुइल्लवणं रुइल्ललेसं रुइल्लज्झयं रुइल्लसिंगं रुइल्लसि रुझ्ल्लकूडं रुइल्लुतरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उबवरणा ( स० ) तें देवा नवराहं श्रद्धमासाणं श्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । (सूत्र - ६+ ) स० ६ मस० । जे देवा घोसं सुघोरं महाघोंस नंदिघोस सुस्तरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिञ्जं मंगलाऽऽवत्तं बंभलोगवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा । (स० ) ते देवा दसरा अद्धमासा आणमंति वा पाणमंति वा ऊसति वा नीसंसंति वा । (सूत्र १०+) स० १० सम० । जे देवा बंभं सुभं भवत्तं बंभप्पमं बंभकतं भवणं बंभलेसं बंभज्झयं वंभसिंगं बंमसिहं बंभकूडं बंभुत्तरव डिंसगं विमाणं देवचाए उबवण्या | ( स० ) ते गं देवा एकारसहं श्रद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । (सूत्र - ११) ० ११ सम० । जे देवा महिंद महिंदज्झयं कंबु कंबुग्गीवं पुखं सुखं महापुखं पुंडं सुपुंडं महापुंडे नरिंदं नरिंदकंत नरिंदुत्तरब्रडिंगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा (स० ) ते णं देवा बारसहं श्रद्धमासाणं आणमंति वा प्राणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा । (सूत्र - १२) स० १२४ सम० । जे देवा वज्जं सुवज्रं वज्जावत्तं वज्रप्पभं वज्रकनं बजब्रम्मं वजलसं वज्जरूवं वसिंगं वजमि वञ्जकूडं वज्जुतरवसिगं वरं वइरावत्तं वइरप्पभं बड्रकंतं चरणं बहरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरमिडं वरकडं वइरुत्तरवडिंसगं लोगं लोगाऽऽवत्तं लोगप्पभं लोगकतं लोगवणं लोगलें लोगरूवं लोगसिंग लोगभिङ्कं लोगकूडं लोगुचरवर्डिसगं विमाणं देवताए उववस्था । (स०) ते गं देवा तेरसहिं श्रद्धमासेहिं आमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्सति वा । (सूत्र - १३ + ) स० १३ सम० । जे देवा सिरिकलं सिरिमहि सिरिसोमनसं लतयं का | ३१ For Private आण वि महिंदतं महिंदुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उवव| (स०) ते गं देवा चउद्दसहिं श्रद्धमानहिं आमंति वा पाणमति वा उस्ससंति वा नीससंति वा । (सूत्र१४+) स० १४ सम० । जे देवा गंद सुगंद गंदावतं दप्पभं संदर्कत गंदवरणं दलेसं दज्भयं संदसिंगं दसिद्धं दकूडं 1 दुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववरणा । (स०) ते गं देवा पम्परसहं श्रद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा (सूत्र - १५+ ) स०१५ सम० । जे देवा आवतं विद्यावत्तं नंदियावत्तं महागंदियावत्तं कुमं कुमपलंचं भदं सुभदं महाभदं सव्वभद्दं भद्दतरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववमा । (स० ) ते णं देवा सोलसहि श्रद्धमासाणं खाणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा । ( सूत्र - १६ + ) स० १६ सम० । जे देवा सामागं सुसामागं महासामाणं परमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पौंडरी महापोंडरी मुक्कं महामुकं सोहं सहितं सीहवीश्रं भावि विमाणं देवताए उववरणा (स० ) ते णं देवा सत्तरहिं श्रद्धमासेहिं आमंति वा पाणमंति वा उस्मसंति वा नीससंति वा । (सूत्र - १७) स० १७ सम० । जे देवा कालं कालं महाकालं अंजणं रिट्ठ सालं समागं दुमं महादुमं विसालं सुसालं परमं परमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्मं नलिणं नलि गुम्मं पुंडरी पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवर्डिसगं विमाणं देवताए उववम्मा (स० ) ते गं देवा अट्ठारसेहिं श्रद्धमासेहिं श्राणमंति वा पाणमंति वा ऊमसंति वा नीससंति वा । ( सूत्र - १८ x) स० १८ सम० । जेणं देवा श्रागतं पातं गतं विणतं धणं सुसिरं इंदं इंदोकंत इंदुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववष्पा । (स० ) ते देवा एसबीसाए श्रद्धमामाणं आण मंत्रि वा पा मंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा । ( सूत्र - १६ + ) स० १६ सम० । जे देवा सायं विमायं सुविसायं सिद्धथं उप्पलं भित्तिलं तिमिच्छं दिसायीवत्थियं पलंवं रुहलं पुष्कं सुपुष्कं पुफावत्तं पुण्फपमं पुष्फक्तं पुष्पदम् पुष्फलर्स पुष्फज्भयं पुष्फसिंगं पुप्फसिद्धं पुष्फुत्तरवडिंनगं विमाणुं देवत्ताए उबवण्णा । (स० ) ते गं देवा वीसाए अद्धमासागं आमंति वा पाणमति वा उपसंति वा नीससंति वा । (सूत्र - २०+) स० २० सम० । Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) प्राण अभिधानराजेन्द्रः। प्राण जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामकंडं मल्लं किट्ट चावोमतं जाव पंचवरणाई पि जाई बराणा कालाई ताई कि एअरएणवडिंसर्ग विमाणं देवताए उववरणा । (स.) ते गगुणकालाई जाय अणंतगुणकालाई पि" इत्यादिरिति । णं देवा एकवीसाए अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति| किएणं भंते ! णेरइया प्राणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंवा उस्ससंति वा नीससंति वा । ( सूत्र-२१x)| ति वा निस्ससंति वा तं चेव जाव नियमा छद्दिसि आणमंस० २१ सम०। ति वा पाणमंति वा उस्ससंति वानी०वा, जीवा एगिदिया जे देवा महियं विसहियं विमल पभासं वणमालं अ-1 वाघाया निवाघाया भाणियव्या, सेसा नियमा छद्दिसि । च्चुतवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववरणा । ( स० ) ते 'जीवेगिदिए ' त्यादि, जीवा एकेन्द्रियाश्च वाघाय-नि व्याघाय' त्ति-मतुब्लोपाद् व्याघातनिर्व्याघातवन्तो भणं देवा बावीसाए अद्भूमामएणं आणमति वा पाणमंति | णितव्याः इह चैवं पाठऽपि नियाघातशब्दः पूर्वं द्रष्टउस्मसंति वा नीससंति वा । (सूत्र-२२४) स० २२/ व्यस्तदभिलापस्य सूत्रे तथैव दृश्यमानत्वात् , तत्र जीवा सम०। निर्याताः सव्याघाताः सूत्र एव दर्शिताः , एकेन्द्रियाद्वीन्द्रियाऽऽदीनामानप्राणाद्यस्तित्वं यथा स्त्वेवम्-'पुढधिकाइया णं भंते ! कह दिसिं प्राणमंति? जे इमे भंते ! इंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया। गायमा ! निव्याघाए णं छहिसिं वाघायं पदुश्च सिय तिदि सि' मित्यादि, एवमकायादिष्वपि तत्र निर्व्याघातन जीवा एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा पड्दिशं पड्दिशो यत्रानमनादौ तत्तथा । व्याघातं बिस्सासं वा जाणामो पासामो, जे इमे पुढविकाइया. प्रतीत्य स्यात् त्रिदिश, स्यातुर्दिशं , स्यात्पश्चदिशं , जाव वणप्फइकाइया एगिदिया जीवा एएसि णं आणा- पानमन्ति यतस्तेषां लोकान्तवृत्तावलोकन च्यामिदिक्षामं वा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा ण जाणामो, सादिपुद्रलानां व्याघातः सम्भवतीति सेसा निमया छ हिसि' इति-शेषा नारकादित्रसाः षड्दिशमानमन्ति तेषां ण पासामो । एएसि णं भंते ! जीवा प्राणमति वा पा हि मनाड्यन्तर्भूतत्वात् षड्दिशमुछासादिपुद्गलग्रहाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा ?, हंता गोयमा ! ऽस्त्येवेति । अथैकेन्द्रियाणामुच्छासादिभावादुच्छ्रासादेव एए विय णं जीवा आणमंति वा पाणमंति. वा उस्ससंति वायुरूपत्वात् किं वायुकायिकानामप्युच्छासादिना वायुनय वा निस्ससंति वा । (सूत्र-८४४) भवितव्यम् ? उत अन्येन केनापि पृथिव्यादीनामित्र. तजे इमे' इत्यादि, यद्यप्ये केन्द्रियाणामागमादिप्रमाणाजी द्विलक्षणनेत्याशङ्कायां प्रश्नयन्नाहवत्व प्रतीयते तथापि तदुच्छ्रासादीनां साक्षादनुपलम्भा वाउयाए से भंते ! वाउपाए चेव आणमंति वा पाणज्जीवच्छरीरस्य च निरुलासादेरपि कदाचिद्दर्शनात् पृथि- मंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा ? हंता गोयमा! वाव्यादिच्छासादिविषया शङ्का स्यादिति तन्निरासाय उयाए ण जाव नीससंति वा । (सूत्र-८५) तेषामुच्छासादिकमस्तीत्येतस्यागमप्रमाणप्रसिद्धस्य प्रदर्श 'वाउाप रणमित्यादिअथोच्छासस्यापि वायुत्वादन्येनपरमिदं सूत्रमवगन्तव्यमिति । नोच्छासवायुना भाव्यम् , तस्याप्यन्येनैवमनवस्था, नैवउच्छ्रासाद्यधिकाराज्जीवादिषु पञ्चविंशतौ पदेषून्छासा मचेतनत्वात्तस्य, किञ्च-योऽयमुच्छासवायुः स वायुवेदिद्रव्याणां स्वरूपनिर्णयाय प्रश्नयनाह पिन वायुसम्भाव्यौदारिकवैक्रियशरीररूपः तदीयपुद्गलाकिरणं भंते ! एते जीवा आणमंति वा पाणमंति वा उ- नामानप्राणसंचितानामौदारिकवैक्रियशरीरपुद्गलेभ्योऽनस्ससंति वा निस्ससंति वा ?, गोयमा!दव्याण अणंतप न्तगुणप्रदेशत्येन सूचमतया एतच्छरीराव्यपदेशत्वात् , तथा च प्रत्युच्छासादीनामभाव इति नाऽनवस्था । भ०२ श०१ एसियाइंदब्वाई, खित्तो असंखेञ्जपएसोगाढाई, कालो उ० । संख्येयावलिकाप्रमाणे एकाच्छासात्मके कालविशष अप्पयरहिइयाई, भावो वएणमंताई गंधमंताई रसमंताई च । संख्यया श्रावलिका:-" भाग ति" (सूत्र-११५+ ) फासमंताई आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा श्राणः-एक उच्छांस इत्यर्थः, अनु। जी० । कर्म । ज्ञा० । निस्ससंति वा । जाई भावो वएणमंताई श्राणमंति वा स्था। भ० । पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा ताई कि गव पूढविकाइया णं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणमंति वा एणाई आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्स पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ?, हंता गोयमा! . संति वा ?, आहारगमो नेयव्यो जाव पंचदिसं। पुढवीकाइया पुढवीकाइयं चव आणमंति वाजाव नीस सति वा । पुढवीकाइए णं भंते ! आउकाइयं प्राणमंति 'किराणं भंत ! जीवे' त्यादि , किमित्यस्य सामान्यनि. देशत्वात्कानि; किंविधानि द्रव्याणीत्यर्थः, 'श्राहारगमो वाजाव नीमसंति चा ?, हंता गोयमा ! पुढवीकाइया मेयवा' तिः प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमाहार पदोक्लसूत्र णं आउकाइयं आणमंति वा. जाव नीससंति वा, एवं पद्धतिरिहाध्ययत्यर्थः, सा चयम्-" दुवरागाई तिवरागाई। तेउकाइय-बाउकाइयं, एवं वणस्सइकाइयं । आउकाइए Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आण भन्ते ! विकाइ आणमंति वा पाणमंति वा १, एवं चैव, आउकाइए णं भंते ! आउकाइयं चैव श्रणमंत्रा एवं एवं तेऊया ऊवणस्सइकाइयं तेऊका वीकार्य आणमंति वा एवं ०जाव वगगभन्ते ! वणस्सइकाइयं चैव आमंतिवा इ भन्ते स्सइकाइए तहेव । ' पुढविकाइयां भंते !' इत्यादि, इह पूज्यव्याख्या । यथा वनस्पतिरस्यस्योपर्यन्थः स्थितस्तदयं करोति एवं पृथिवीकायिकादयोऽन्योन्यसम्बदरवासन प्राणापाशादि कुर्वन्तीति तत्रैकः पृथिवीकाधिकाऽन्यं स्वसम्पदं पृथिवीकायिकम् अनिति तमुद्वासं करोति यथावरस्थित कपूरः पुरुषः कर्पूरस्यभावासं करोति एव मष्कायादिकानित्येवं पृथिवीकायिकसूत्राणि पञ्च एवमेवाकायादयः प्रत्यकं पञ्च सूत्राणि लभन्त इति पञ्चविंशतिः सूत्राण्येतानीति । पुत्रीका भंते! पुडवीकायं चेत्र आणममाखे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीससमा वा कइकिरिए १, गोयमा सितिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकरिए | पुढवीकाइए णं भन्ते ! आउक इयं आगममाणे वा एवं चेव, एवं० जाव वणस्सइकाइयं, एवं आउ काइए विसव्ये विभागियच्या, एवं तेउकाइएण वि एवं वाउकाइएण वि, ०जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! antarका चैव आयममागे या पुच्छा, गोयमा ! मिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए | (सूत्र३६२ ) । बाउकाइ भन्ते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमागे वा पवाडेमा वा कइ किरिए ?, गोयमा ! सिय तिकि रिए सिप चउकरिए, सिय पंच करिए एवं कंदं एवं जाव मूलं वयं पचालेमाणे वा पुच्छा ?, गोयमा ! सिय विकिरिए सिय पंच करिए, सेवं भन्ते ! भंते ति । (सूत्र३६३ ) क्रियापवि पञ्चविंशतितत्र 'सिय किरिति यदा पृथिवीकायिकादिः पृथिवीकायिकादिरूपमुच्छासं कुर्वन्नपि न तस्य पीडामुत्पादयति स्वभावविशेषादासी कायिक्यादिविक्रियः स्यात् । यदा तु तस्य पीडामुत्पादयति तदा परितापनिक क्रियायायाचतुष्क्रियः प्राणातिपातिसद्भावे तु पञ्चक्रिय इति क्रियाधिकारादमाद-वाउकाइए मि त्यादि, इह व वायुना वृक्षमूलस्य प्रचलनं पापा तदा सम्मपति यदा नदीभिदिषु नावृतं तत्स्यादिति । अथ कथं प्रपातेन त्रिक्रियात्वं परितापादेः सम्भवात् उच्यते तनमूलापक्षपति भ० श० ३४ उ० । श्राणंतरिय - आनन्तर्य न० । अनन्तरमेव चतुर्व० स्वार्थे च्यम् । अव्यवद्दिते, अनन्तरस्य भावे ष्यञ् । श्रव्यवधाने, आणंद वाच० । अनुक्रमे, "श्रागतरियं णाम- आंतरियति वा अणुपरिवाडि सि वा अणुक्रमेत्ति वा एगट्ठा" श्रा० चू० १ ० । आनंद-आनन्द-पुं० [आनन्द-पम् । चित्ताहारे, श्री० सुखे, स्था० ३ ठा० ४ उ० । सुखविशेषे, पं० सू० ५ सूत्र । दर्षे, दश० २ ० । श्रभिलषितार्थावाप्तिजन्ये, मानसे विकारे, " के आणंदे " (सूत्र - ११७+) अभिलषितार्थवासावानन्दः । श्रचा० १ ० ३ ० ३ ० । (अत्र विशेषव्याख्यानम् 'आगद्द' शब्देऽस्मिय भागे गतम्) दुःखाभावे ब्रह्मणि, अर्थआदित्वादच् । श्रानन्दवति, त्रि० । वाच० । अहोरात्रभये शम्मुतन्तर्गत स्वनामस्याने पोडशे मुद्द ज्यो० २ पाहु० कल्प० । जं० । चं०प्र० । (गणनया एकादो मुहूर्त आनन्द) ०३० सम० स्वनामस्याने प बलदेवे, ( ८४ गाथा ) स० ( १५६ सुत्र ) ( तव्यता ' दसारमंडल' शब्दे चतुर्थभागे २४८५ पृष्ठे दर्शयिष्यते ) स्वनामख्याते शीतलजिनस्य प्रथमशिष्ये च । पुरा - श्राणंदे० " ||४०+|| स०| (सूप-१२८+) (ततम् तित्थयर' शब्दे चतुर्थमागे २२६१ पृष्ठ दर्शयिष्यत भगवत देवस्य शतपुत्रान्तर्गते स्वनामख्याते पुत्रे. कल्प० १ अधि० ७ क्षण | स्वनामख्याते भगवतो महावीरस्यान्तेवासिनि स्था० १० ठा० ३ उ० । “समणस्स भगवश्री महावीरस्स श्रतवासी आणंदे णामं थरे " ( सूत्र - ५४७ भ० १५ श० । ( तद्वक्लव्यता ' गोसालग ' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते ) धरणस्य नागेन्द्रस्य नागराजस्य स्वनामख्याते स्थानीकाधिपतौ ( सूत्र - ४०४४ ) स्था० ५ ठा० १ उ० । गन्धमादनवक्षस्कार पर्वतस्थे स्वनामख्याते देवे, जं० ४ वक्ष० । पुष्करवर द्वीपार्द्धस्थितमानुषोत्तरपर्वतस्थे स्वनामख्यात सु. कुमारे द्वी०प す 66 कव्यता प्रतिवद्धे निरयावलिकोपाने द्वितीयवर्गस्य कल्पावतंसिकाभिधस्य नवमेऽध्ययन च । नि० १ श्रु० २ वर्ग ६ श्र० । ( तद्वक्तव्यता यथा पितृसेनकृष्णाङ्गजो नवमः वर्षद्वयं तपस्यीयपरिपालने का प्राणदेवलोके दशमे उत्पद्य एकोनविंशतिसागरोपमाख्यायुरनुपाल्य ततश्च्युतो विदेहे सरस्वतीति) वाणिजामरथे स्वनामस्याने धावके, उपा० १ अ० । नि० । संथा । अ य वीसाssणन्दे० " ॥ ४६६५ ॥ श्रानन्दस्य गृहे. श्रा० म० १ ० म० । आनन्दाभिधानोपासकवकव्यता प्रतिबद्ध मध्ययनमानन्दः । उपा० ३ ० । आनन्दो वाणिजग्रामाभिधाननगरवासीमहर्द्धिको युद्धपतिर्महा बाधित एकादर्श पाकनिर्मा कृत्योत्पावधिज्ञानो मायालेखनया सीधमभमदिति वक्तव्यता प्रतिबद्ध उपासकदशायाः प्रथमेऽध्ययने च । स्था० १० ठा० ३ ० । ( तद्वक्ष्यताः यथा ) - पदमस्स णं भंते ! ०जाव संपत्ते गं के श्रट्ठे पत्ते १, ( मूत्र- २) एवं खलु जंबू ते कालेां तें समएवं वाणियग्गामे णामं गयरे होत्था | वण्णओ | तस्स वाणियम्गामस्स खवरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिदिसीभाए दूयपलासे चेइए । तत्थ णं वाणियग्गामे जिय Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) पाणंद अभिधानराजेन्द्रः। आणंद सनू राया, वरणो। तत्थ णं वाणियग्गामे आणंदे | रोएमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते !, तहमेयं णाम गाहावई परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए, तस्स णं भंते!, अवितहमेयं भंते !, इच्छियमेयं भंते !, पडिच्छियमेयं आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरमकोडीओ णिहाण- भंते !, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !, से जडेयं । तुब्भे वपत्ताओ चत्तारि हिरएणकोडीमो बुडिपत्ताओ चत्तारि यहत्तिकटु जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईहिरएणकोडीअो पवित्थरपत्ताओ, चत्तारि वया, दस | सरतलवरमाडंबियकोडुंबियसेट्ठिसत्थवाहप्पभिइया मुंडे भगोसाहस्सीणं वएणं होत्था । से आणंदे गाहावई बहूणं वित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया जाव पचइत्ता। ईसर जाव सत्थवाहाणं बहूसु कलेसु य कारणेसु य णो खलु तहा अहं संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए, अहम मंतेसु य कुडुबेसु य गुज्झे मु य रहस्सेसु य निच्छएसु य देवाणुप्पियाणं अतिए पंचाणुव्वयं सत्तसिक्खावयं दुचवहारेसु य ापुच्छणिजे पडिपुच्छणिजे सयस्स विय वालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि । जहासह देवाणं कुटुंबस्स मेढीभृए आहारे आलंबणं चक्खुमेढिभृये णुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । (सूत्र-५) सव्यकज्जवट्टावए आधि होत्था। तस्स णं आणंदस्स तए संमे आणंदे गाहावइस्स समणस्स भगवो महागाहावइस्स "सिवाणंदा" णामं भारिया होत्था, अहीण वीरस्स अंतिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पञ्चक्खामि । जाव सुरूवा । आणंदस्स गाहावइस्स इट्ठा आणंदेणं (उपा०) (तत्स्वरूपम् 'पाणाइवायवेरमण' शब्दे ५ भागे गाहावइणा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टा सद्द जाव वक्ष्यते ।) तयाणंतरं च णं थूलगं मुमावायं पच्चरवा(मि) पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुब्भवमाणी विहरइ। इजावजीवाए दुविहं तिविहेणं-ण करेमि, ण कारवेमि, तस्स गं बाणियग्गामस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसी- मणसा, वयसा, कायसा । (उपा०) (स्थूलमृपावादस्वरूपम् भाए एत्थ णं "कोलागए" णामं सन्निवेस होत्था । रि- 'मुसावायवेरमण' शब्दे षष्ठभागे दर्शयिष्यते ।) तदाणंतरं द्वित्थमिए जाच पासादीए ४, तत्थ णं कोल्लागए सनि- च णं थलगं आदिणादाणं परचक्खामि । (उपा०)(तत्ववेसे आणंदम्म गाहावइस बहए मित्तणाइणियगसयण- रूपम् 'अदत्तादाणवेरमण' शब्दे १ भागे गतम् ।) तयाणंतरं संबंधिपरिजणे परिचयइ । अड्ढे जाव अपरिभूए । च णं सदारसंतोसिए परिमाणं करेइ णमत्थ एकाए तेणं कालणं तणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव सिवाणंदाए भारियाए अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं समोसरिए परिसा निग्गया कोणिए राया जहा, तहा जि-! पञ्चक्खामि ( तत्स्वरूपं प्रतिषेधरूपेण 'मेहुण' शब्दे षष्ठे यसत्तू राया णिग्गच्छति निग्गच्छित्ता जाव पज्जुवा-] भागे. 'हत्थकम्म' शब्दे सप्तमभागे च वक्ष्यते) (उपा०) सइ, नए णं से आणंदे गाहाबई इमीसे कहाए लद्धडे | तयाणंतरं च णं इच्छापरिमाणं करेइ, हिरमसुवालविहिसमाणे एवं खलु समणे भगवं जाव विहरइ । तं महा- परिमाणं करेइ, णमत्थ चउहिं हिरमकोडीहिं णिहाणफलं जाव गच्छामि णं जाव पज्जुवासामि । एवं| पउत्ताहिं चउहिं बुड्विपउत्ताहिं चउहिं पवित्थरमाणपत्ताहिं संपहेइ संपेहिता, राहाये सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमह-| अवसे सव्वं हिरमनुवमविहिं पच्चक्खामि दुविहं ग्याभरणालंकियसरीरे । सानो गिहाश्रो पडिनिक्खमइ ण करेमि, ण कारवेमि, तिबिहेणं मणसा क्यसा, पडिनिक्खमित्ता स कॉरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं कायसा, तयाणंतरं च णं चउप्पयविहिपरिमाणं करेइ, माणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेणं वाणियग्गामं णामत्थ चउहिं वएहिं दसगोसाहस्सिएणं वएणं आणयरं मउ मज्झेणं णिगच्छद गिग्गच्छिता जेणामेव सेसं सर्च च(उ)तुप्णयविहिं पच्चक्खामि, दुविहं तिदूयपलासे चइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तणेव उवाग- विहेणं-मण० ३. तयाणंतरं च गं खेत्तवत्थुपरिमाणं करेइ च्छति उवागच्छित्ता तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ | णमत्थ पेचहिं हलसएहिं णियत्तणसइएणं हलेणं अवमेसं आया० करित्ता वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवासइ (सूत्र-३) सव्वं खत्तवत्थु पच्चक्वामि, दुविहं तिविहेणं मण. ३, तए णं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावइस्स तयाणंतरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ, णमत्थ पंचहि तीसे य महइ महालियाए जाव धम्मकहा, परिसा प- सगडसएहिं दिसाजत्तिएहिं पंचहिं सगडीसएहिं संवाहणिडिगया, रायाऽवि य गो। (सूत्र-४ ) तए णं से एहि अबसेसं सच्वं सगडविहिं पच्चक्खामि०३, तयाणंतरं आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ अंतिए धम्म सोचा च णं वाहण विहिपरिमाणं करेइ, णामस्थ चउहिं वाहणेहिं णिसम्म हट्ठतुटु जाय एवं बयासी-सद्दहामि णं भंते !| दिसाजत्तिएहिं चउहिं वाहणेहिं संवाहणिएहि अवसेस सव्वं णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! णिगंथं पावयणं,। वाहणविहिं पच्चक्खामि०३, (सूत्र०५)। तयाणंतरं च णं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागंद अभिधानराजेन्द्रः। आणंद उवभोगपरिभोगविहिं पच्चक्खामि (उपा०।) (अस्य विधेः। सोतत्थियमाएण वा मंडुक्कियमाएणं वा , अवमेम सागखरूपम 'उवभोगपरिभोगपरिमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागेव-विहिं पजामवामि० ३. तयागांतांच ग माटग्यविहिक्ष्यते।) तयाणंतरं च णं हाणमाणे उल्लणियाविहिपरिमाणं परिमाणं करेइ , णपत्थ एगेण पालंगामाहुरएणं, अबकरइ,णपत्थ पगाए गधकासाइए अवसस सव्व उल्लाणया-सेमं माहुरयविहिं पञ्चक्खामि०३, तयाणंतरं च मं विहिं पच्चक्खामि दविहं तिधिहणं मणसा,वयसा, कायसा। जेमणविहिपरिमाणं करेड, मत्थ सेवदालियंवहिं - तयाणंतरं च णं दंतवणविहिपरिमाणं करेइ, णपत्थ वमेस जेमणविहिं पञ्चक्खामि० ३, तयाणंतरं च ण एगणं अललट्ठीमहुएणं. अवसेसं दंतवणविहिं पच्चक्खा- पाणियविहिपरिमाणं करेइ , णमत्थ एगणं अंतलिक्खामि०३, तयाणंतरं च णं फलविहिपरिमाणं करेइ णमत्थ दएणं अबसेसं पाणियविहिं पच्चक्खामि० ३, तयाणंएगेसं खीरामल एवं असे सम्बं फलविहिं पच्चक्खा- वरं च ण मुहवासविहिपरिमाणं करेइ , णमत्थ पंचसोगमि०३, तयाखंतरं च अभङ्गणविहिपरिमाणं करेइ, | धिएणं तंबोलेणं, अबसेसं मुहवासविहिं पच्च०३, (मूत्र-६) पपत्थ सयपागम्रहस्सपागेहिं तेल्नेहि, अवससं अभंग- तयाणंतरं च ण चउविहं अणत्थदंडं पचक्खामि तं रणविहिं पच्चक्खामि०३, तयाणंतरं च षं उबट्टण विहि- जहा-अवज्झाणाचरियं पमायाचरियं हिंसप्पयाण पावकपरिमाणं करेइ, णम्पत्थ एगणं सुरभिणा गंधवट्टएणं म्मोवएसे दुविहं तिबिहेयं मममा, वयमा, कायसा (सूत्र७) अवसेसं उबट्टणविहिं पच्चक्खामि० ३, तयाणंतरं च णं इह खलुभायंदाइसमणेभगवं महावीरे आणंदं समणामजणविहिपरिमाणं करेइ, णमत्थ अट्ठहिं उट्टिएहिं उद- वामगं एवं बयासी--एवं खलु आणंदाइसमणोचागस्स, घडएहिं अबसेसं मजणविहिं पच्चक्खामि०३, त- सएणं अभिगयजीवाजीवेणं उवलद्धपुष्पपावणं आसवसंवयाणंतरं च णं वत्वविहिपरिमासं करेइ, णमत्थ एवं रनिञ्जरकिरियाअहिगरणबंधमुक्खकुसलेसं असहिज्जदेवाखोमयजुयलणं अवसेसं वत्थविहिं पच्चक्खामि०३, - सुरनामसुवबजक्खरक्खसकिनरकिंपुरुमगरुलगंधधमहायाणंतरं च णं विलवणविहिपरिमाणं करेइ, रणपत्थ अ- रगाइएहिं देवगस्पेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिगरुकुंकुमचंदणमाइए हिं अवसेसं विलेषणविहिं पच्च- क्कमणि जेणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियब्वा, खामि०३, तयाणंतरं च णं पुप्फविहिपरिमाणं करेइ, | न समायरियघा, तं जहा-संका, कंखा, वितिमिच्छा, परणमत्थ एगेणं सुद्धपउमेणं मालतिकुसुमदामेख वा, पासंडपसंसा, परपासंडसंथयो । तदातरं च ण थूलयस्स अवसेस पुष्फविहिं पच्चक्खामि०३, तयाणंतरं च | पाबाइवायवेरमणस्स ममगोवामएणं पंच अइयारा पेयाणं पाभरणविहिपरिमाणं करेइ, णम्पत्थ मट्टकरणेञ्जए हिं| | ला जाणियब्बा,न समायरियव्या, तं जहा-बहे,बंधे. छवियाममुदिएहिं, अवसेसं आभरणविहिं पच्चक्खामि०३,! च्छेए अइभारे, भत्तपाणवोच्छेए, तयाणंतरं च ण शुलगतयाणंतरं च णं धूवणविहिपरिमाणं करेइ, णमत्थ स्स मुसावायवेरमणस्स पंच अड्यारा जाणियचा न समा. अगरुतुरुकधूवमाइएहिं , अवसेसं धूवषविहिं पच्च- यरियव्या, ते जहा-सहमाऽब्भक्खाणे, रहस्साऽभक्खाण, क्खामि०३. तयाणंतरं च णं योग्रणविहिपरिमाणं सदारमंतभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे य २ । (उपा०) करेमाणे प्रेज्जविहिपरिमाणं करेइ, णात्थ एगाए (स्थूलकाऽदत्तादानस्य अतिचाराः 'अदिमादाम्पवेरमण' कट्ठपजाए, अवसेसं पेजविहिं पच्चक्खामि मण. ३, शब्दे भागे गताः)। (स्वदारसंतोषविषयाऽतिचाराः 'परतयाणंतरं च पं भक्खणविहिपरिमाणं करेइ, णमत्व दारगमण' शब्दे पश्चमभागे दर्शयिष्यते । ) (इच्छापरिएगेहिं बरपुन्नेहिं खंडखञ्जएहिं वा, अवसेस भक्ख- माखातिचारस्वरूपम् ‘इच्छापरिमाण' शब्दे अस्मिन्नेव खविहिं पच्चक्खामि० ३, तयाणंतरं च ण ओयणवि- भागे वक्ष्यते । ) तयाणतरं च ण दिसि विदिमि पंच हिपरिमाणं करेइ . णमत्थ कलमसालिप्रोदणेणं, अ- | अइयारा जाणियबा न समायरियचा. तं जहा-उड्डः बसेसं ओदणविहिं पञ्चक्खामि०३, तयाणंतरं च ण दिसि परिमाणाइकमे अहोदिसि परिमाणाइक्कमे, चउसूवविहिपरिमाणं करेइ. णपत्थ कलायमूवेण वा मुग्गमा-| दिसि परिमाणाइकमे, खेतवुड्डिस्स अंतरड्डा । ( उपा.) ससूत्रेण वा अवसेस सूवविहिं पञ्चक्खामि० ३, तयाखंतरं | ( उपभोग-परिभोगपरिणामस्याऽतिचाराः ' उवभोगपरिच गं घयविहिपरिमाणं करेइ, णमत्थ सारइएणं गोघ- भोग परिमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते ।) (अनर्थ यमंडेणं, असमं घयविहिं पच्चक्खामि० ३, तयाणंतरं दण्डविरमणविषयातीचाराः 'अणद्वादंडवेरमण' शब्द . च ण सागविहिपरिमाणं करेड़ , णमत्थ वत्थुमाएणं वा प्रथमभाग गताः।) (सामायिक विषयातिचाराः 'सा " www.jainelibrary.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) अभिधान राजेन्द्रः | आणंद चारः माइय' शब्दे दर्शयिष्यते ) ( देशावकाशिक विषयाऽति'देसाऽवगासिय' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते ) (पौषधोपवासविषयाऽतिचाराः 'पोसह ' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) (अतिथि संविभागविषयातिचाराः 'अइहिसंविभाग' शब्दे प्रथमभागे गताः ) ( पश्चिममारणान्तिक संलेखना - जोषणाऽऽराधनता विषयाऽतिचाराः 'अपच्छिममा रणन्तियसंलेहणा भूमणाऽऽराहणता ' शब्दे प्रथमभागे गताः । ) तए गं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवतो महावीरस्स अतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जइ पडिवज्जित्ता समयं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसह वंदित्ता नर्मसित्ता एवं व्यासीगो खलु मे भंते ! कप्पर अज्जप्पभिर अमउत्थिए वा उत्थियदेवाणि वा अमउत्थियपरिग्गहियाणि वा अरिहंतचेयाई वंदित्तए वा समंसित्तर वा, पुचिणालते आलवित्त वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउ वा अणुप्पयाडं वा सम्पत्थ रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं बलाभिश्रोगेणं देवयाभियोगसं गुरुनिरहे वित्तिकतारेणं, कप्पर से समणे निग्गंथ फासुए एस खिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थ पडिग्गहकंबलपापुंछ पीढफलगसेज संथारएणं ओसहमे सज्जेण य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तर तिकट्टु । इमं एयाणुरूवं अभिग्राहं अभिगिहू २ त्ता, परिणाई पुच्छर पुच्छित्ता, अठ्ठाई आइयइरेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदह वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अतियाओ दूहपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव वाणियगामे यरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छिह २ ता सिवादं भारियं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! समगुरु भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मे सिंते, सेवि य घम्मे मे इच्छिए पडिच्छिर अभिरुइए तं गच्छ णं तुमं देवापिए ! समणं भगवं महावीरं वंदाहि० जाव पज्जुवासाहि समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रतियं पंचाणुव्वतियं सत्तसिक्खावतियं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जाहि । (सूत्र - ८) तए णं सा "सिवाणंदा" भारिया आणंदेणं समणोवासरणं एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठा कोटुंबियपुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वयासी- खिप्पामेव लहुकरणं ०जाव पज्जुवासति । तए णं समणे भगवं महावीरे सिवादाए भारियाए । तीसे ग्र महइ० जाव धम्मं कहइ, तए गं सामि For Private आणंद वाणदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सुच्चा णिसम्म हट्ठा०जाव गिहिधम्मं पडिवज्जइ २ सा तमेव धम्मियं जाणपत्ररं दुरूह २ सा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेत्र दिसिं पडिगया । (सूत्र - ६) भंतेति, मयवं गोयमे समयं भगवं महावीरं वंदर वंदित्ता एवं वयासीपहूणं भंते! समणोवास देवाणुप्पियाणं प्रतिए मुंडे जाव पत्रइत्तए, णो इट्ठे समट्ठे, गोयमा ! आणंदे समोवासए बहूई वासाई समणोवासगपरियायं पाउहि २ ता जाव सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमा देवत्ताए उववज्जिहिति तत्थ अत्थेगइयाणं देवाखं चत्तारि पलिओ माई ठिई पम्मत्ता, तत्थ णं आणंदस्सवि समणोवासगस्य चत्तारि पलिओ माई ठिई पत्ता | तते णं समणे भगवं महावीरे अाया कयाइ बहिया ० जाव विहरति । (सूत्र - १० ) तते से गंदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवेजाव पडिला मेमाणे विहरइ । तए गं सा सिवादा भारिया समणोवासिया जाया जाय पडिला भेमाणी विहरइ (सूत्र - ११) । तए णं तस्स दस्स समणोवासगस्स उच्चावहिं सीलव्ययगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं मात्रेमाणस्स चोइससंवच्छराई वीइकताई पारससंवच्छरस्स अंतरा चट्टमाणस्स अपया कमाइ पुञ्चरत्तावर तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्य इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकष्पे समुपने एवं खलु अहं वाणियग्गामे नयरे बहूणं ईसर• जाव समसावि कुटुंबस्स •जाव आधारे, तं एते विक्खेवेणं अहं णो संचमि समणस्स भगवतो महावीरस्स प्रतियं धम्मपति उपसंपजित्ता गं विहरित्तए । तं सेयं खलु ममं कल्लं - जाव जलते विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा जहा पूरणो ०जाव जट्टपुत्तं कुटुंबे ठवि तं मित्तं जाव जट्टपुत्तं च पुच्छित्ता कोल्लाए संनिवेसे णायकुलंसि । पोसहसालंपडिलेहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्य अंतियं धम्मपत्ति उवसंपज्जित्ता गं विहरितए । एवं संपेहेइ संपेहिता कल्ले विउलं तहेव जिमित शुतुत्तराग तं मित्त० जाव विउलेणं पुष्फ-पीढ-फलग-सेजासंथारएणं सकारेइ संमाणेइ २ त्ता तस्सेव मित्त० जाव पुरओ जेट्ठपुत्तं सद्दावेइ २ त्ता, एवं क्यासी एवं खलु पुत्ता ! अहं वाणियग्गामे बहूणं ईसर जहा चिंतियं ० जाव विहरित । तं सेयं खलु मम इयाणि तुमं सयस्स कुटुंबस्स लंब ०४ द्वावित्ता०जाव विहरइ । तए गं जट्टपुत्ते - दस्त समणोवासगस्स तह ति एयमङ्कं विषएवं पडि Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) प्राणंद अभिधानराजेन्द्रः। पाणंद मुणेइ । तए णं से आणदे समणोवासए तस्सव मित्त. पासइ । एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेण य उत्तरेणं जाव जाव पुरो जट्ठपुत्तं कुटुंबे ठवेइ २ त्ता । एवं न्यासी-मा| चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वतं जाणइ पासइ । उहं जाव णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे अजप्पभिई केइ ममं बहुसु क- सोहम्म कप्पं जाणइ पासइ अहे जाव इमी से रयणप्पअसुजाव आपुच्छउ वा पडिपुच्छउ वा ममं अट्ठाए म.| भाए पुढवीए लोलुयं अच्चुयं णरयं चउरासीइवाससहस्ससम्वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवरखडेउ वा| द्वितिय जाणइ पासइ (सूत्र-१४)। उबकरेउ वा । तए णं से प्राणंदे समणोवासए जेट्टपुत्तं तेणं कालणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोमित्तणाई श्रापुच्छह २त्ता सयाओ गिहाम्रो पडिणिक्ख- सरिव परिसा निग्गया .जाव पडिगया। तेणं कालेणं मइ २ ता वाणियग्गामं णयर मझ मज्झेणं णिग्गच्छह | तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जडे अंते२त्ता जेणेव कोल्लाए सत्रिवेसे जेणेव नायकसे जेणेव | वासी इंदभूईणाम भणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समपोसहसाला तेणेव उवागच्छद २ ता पोसहसालं पम- चतुरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलअइ २ ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहइ २ ता दम्भसं- गनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे महाथारं संथरइ २ ता दग्यसंथारयं दुरूहइ २ त्ता पोसहसा- तवे उराले घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूलाते पोसहिते दम्भसंथारोवगये समणस्स भगवओ महा- ढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे जियकोहे जियमाणे जियमाए वीरस्स अंतियं धम्मपमत्ति उवसंपञ्जित्ता णं विहरइ ।। जियलोभे जाइसंपले कुलसंपरणे बलसंपले रूवसंप(सत्र-१२)। एणे जाव तेयसी छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं तए णं से आणंदे समणोवासए पढम उवासगपडिमं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तए णं से उपसंपज्जित्ता णं विहरइ । पढम उवासगपडिमं अहासुत्तं भगवं गोयमे छडक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं सम्मं काएणं फासेइ जाव सज्झायं करेइ वीआए पोर रु)सीए झाणं झियाइ, तईयाए आराहेइ । तए णं से आणंदे समणोवामए दोचं उवामगप पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंताए मुहपत्तियं पडिलेहेइ डिम,अहासुकाएवं-तचं उवा०,चउत्थं उ०पंचमं उ०छटुंउ० २ त्ता । भायणवत्थाई पडिलहेइ २ ता । भायणवत्थाई सत्तमं उ० अट्ठमं उ० नवमं उ० दशमं उ० एकारसमं उ. पमजइ २ ता भायखाई उग्गाहेइ २ ता जेणेव समणे जाव आराहेइ (सूत्र-१३)। तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समणं भगवं इमेणं एयारवेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पयाहित्तेणं महावीरं वंदइ नमसइ २ त्ता एवं वयासी-इच्छामि तवोकम्मेणं सक्के०जाव किसे धमणिसतते जाए । तए णं णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुएणाए छट्टक्खमणपारणगंसि तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अमया कयाइ पुव्वरत्ता वाणियग्गामे णयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरस जाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए। मुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए अहासुहं देवाणुचिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने एवं खलु अहं | पिया १ मा पडिबंधं करेह । तए णं गोयमे समणेणं भगइमेणंजाव धमणिसंतए जाए तं अत्थि ता मे उहाण क- वया महावीरेणं अब्भणुमाए समाणे समणस्स भगवओ म्म-बल-वीरिए पुरिसकारपरक्कमे सद्धा धिई संवेगे। तं० महावीरस्स अंतियाो दुइपलासाओ चेइयाश्रो पडिनिजाव ताम अत्थि उहाणे सद्धा धिई संवेगे जाव मे ध- खमइ २ ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपरिलोम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुह- यणाए दिट्ठीए पुरो इरियं सोहमाणे जेणेव वाणियत्थी विहरइ, ताव ता मे सेयं कल्लंजाव जलंते अपच्छि-ग्गामे णयरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वाणियग्गामे णगरे ममारणंतियमंलेहणाझूमणासितस्स भतपाणपडिया- उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरिइक्खियस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए । एवं याए अडइ । तए णं से भगवं गोयमे वाणियग्गामे नगरे संपहेइ संपेहिता कल्लं पाउ०जाव अपच्छिमं० जाव कालं | जहा पएणत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए जाव अअगवखमाणे विहरइ । तए णं तस्स आणंदस्स सम- डमाणे अहापज्जतं भत्तपाणं संमं पडिगाहेइ २ त्ता वाणोवासगस्स अएणया कय इ सुभेणं अज्झवसाणणं णियगामाअो पडिजिग्गच्छइ २ ता कोलायस्स सन्निसुभेणं परिणामणं लेसाहिं वि सुज्झमाणीहिं णाणावर- वेसस्स अदरसामंते णं वीनीवयमाणे बहुजणसई णिसाणिज्जाणं कम्माणं खोवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने मेइ बहुजणो अएणमामस्म एवमाइक्खइ० ४ एवं खलु पुरच्छिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसइयं खत्तं जाणइ देवाणुप्पिया! समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतेवासी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) पाणंद अभिधानराजन्द्रः। माणंद आणंदे णामं समणोवासए पोमहसालाए अपच्छिममार० भगवो महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमखाए पडिजाव अणवर्कखमाणे विहरइ, तए णं तस्स गोयमस्स कमइ २ ता । एस णं समस्ये आलोएइ २ त्ता भत्तपाणे अंतिए एतम? सोचा णिसम्म अयमेयारूवे पडिदंसेइ २त्ता समणं भगवं वहावीरं वंदइ नमसइ २ अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने. तं त्ता । एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्हेहिं अब्भगच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि, एवं संपेहेइ गुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ जाव तए णं पडिदंसेइ । संपेहिता जेणेव कोल्लाए संनिवेसे जेणेव आणंदे समणो- अहं संकिते कंखिए वितिगिच्छासमावएणे आणंदसस्स वासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ । तए णं से समणोवासगस्स अंतिए पडिणिक्खमामि २ त्ता जेणेव आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एजमाणं पासइ, पा-| इहं तेणेव हव्वमागए तंग भंते ! किं आणंदे णं समसेत्ता हट्ट जाव हियए, भगवं गोयमं वंदति णमंपति | णोवासए णं तस्स ठाणस्स पालोएयव्वं जाव पडि२ ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं इमेणं उरालेणं| वजेयव्वं । उदाहु मए १, गोयमाइसमणे भगवं महावीरे मणिसंतते जाए, णो संचाएमि देवाणुप्पियस्स भगवं गोयम एवं वयासी-गोयमा ! तुम चेव णं तस्स अंतियं पाउन्भवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभि- ठाणस्स पालोएहि जाव पडिबजेहि, पाणंदं समणोबंदित्तए, तुम्भे णं भंते ! इच्छाकारेणं अणभिएणं इतो वासयं एयम₹ खामेहि । तए णं से भगवं गोयमे समचेव (एह) एवं जगणं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धा- णस्स भगवओ महावीरस्स तह ति एयमढे विणएणं पणणं पाएसु वंदामि णमंसामि । तए णं से भगवं गोयमे | डिसुणेइ २ त्ता तस्स ठाणस्स अलोएइ जाव पडिवाइ। जेणेव आणंदे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ (सूत्र-१५)। आणंदं च समणोवासयं एयमढें खामेइ २ ता तए णं से समणे भगवं महावीरे बहिया अएणया कयाइ बहिया तए णं से आणंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स | जणवयविहारं विहरइ (सूत्र-१६+)। तए णं से आणंदे तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाणसु वंदति णमंसति २ ता एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! गिहिणो गिहिमज्झावसंतस्स समणोवासए बहूहिं मीलब्बएहिं जाव अप्पाणं भावह २ ता वीसं वासाई समणोवासयपरियायं पाउणित्ता एओहिणाणे णं समुपजइ । हंता अस्थि, जइ णं भंते ! गिहिणो जाव समुप्पजइ । एवं खलु भंते ! मम वि कारस य उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता मागिहिणो गिहिमज्भावसंतस्म ओहिनाणे समुप्पण्णे पुर सियाए संलहणाए अत्ताणं झसित्ता सष्टुिं भत्ताई अणच्छिमेणं लवणममुद्दे पंच जोयणसयाई जाव लोलुय सणाए छेदेत्ता लोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे च्चुयं णरयं जाणामि पासामि । तए णं से भगवं गोयमे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसयस्स महाविमापाणंदं समणोवासयं एवं वयासी-अस्थि णं आणंदा! णस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववले । गिहिणो जाव समुप्पजइ, णो चेव णं एव महालए तं तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिवमाइं ठिई पएणता, तत्थ णं आणंदस्स वि देवस्स चत्तारि पलिणं तुम पाणंदा! एतस्स ठाणस्म आलोएहि जाव अोवमाई ठिई पएणत्ता । पाणंदे णं भंते ! देवे ताओ तबोकम्म पडिवजाहि । तए णं से आणंदे समणोवासए देवलोगाओ पाउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अभगवं गोयम एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! जिणवयणे णंतरं चुओ चुइत्ता कहिं गच्छहिति कहिं उववन्जिहिति । संताणं तच्चाणं तहियाणं सब्भूयाणं भावाणं आलोइजइ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, णिक्खेवो । जाव पडिवजिअइ ?, णो इण? समटे । जइ णं भंते ! सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमं अज्झयणं सजिणवयणे संताणं जाव भावाणं णो आलोएअइ जात्र म्मतं । (सूत्र-१७)। तवा कम्मं णो पडिवजिजइ । तं णं भंते ! तुम्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह जाव पडिवजह । तए णं से उपा०१०। आचू०। प्रा०म० भाविम्यामुत्सपिण्याम रकद्विके व्यतिक्रान्ते तृतीयारके श्रानन्दजीवः पेदालस्तीर्थभगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुले समाणे कृदभविष्यति । सी.२० कल्पा भाविन्या उत्सर्पिण्यांस्कृतीसंकिर कंखिए वितिगिच्छासमावएणे आणंदस्स अंति- यारके, "पढालं अट्ठमय, आणंदजीर्य नमसामि" ॥ ५६६ ॥ यात्री पडिनिक्खमइ २ ता जेणेव दृइपलासे चइए जेणेव पेढालमष्टमकम् श्रानन्दजीवं नमस्यामि। प्रव०४६ द्वार । समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समणस्म अनुत्तरोपपातिकदशायाः सप्तमऽध्ययने च । एतच याच्य न्तरापेक्षया ननुपलभ्यमानयाचनापेक्षया । स्था० १० ठा० १-टी.। समानमिन्यादरः शस्दा काः। Jain Education Interational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) चाणंदमुपाय अभिधानराजेन्द्रः। भाषण पाणंदमंसुपाय-आनन्दाऽश्रुपात-पुं०। वर्षाश्रुमोक्षणे, "प्रा इतश्चणंव_सुपायं कासि सिजंभवा तर्हि थेरा" ॥३७१४॥ आन "श्रीहेमविमलसूरि-रीकृतकल्मषः स सूरिगुणम् । न्दाश्रुपातम्-बो पाराषितमनेनेति इथुप्रिोक्षणम् । शात्वा योग्य तुर्ण, धर्मस्याभ्युदयसंसिद्धः ॥ ४४ ॥ दश०२चू०। सौभाग्यपूर्ण संवेग-तरङ्गनीरनिधिम् ।। आनन्दविमलसूरिं, स्वपट्टे स्थापयामास ॥ ४५ ॥ युग्मम् । आणंदकूड-मानन्दकूट-ब०। प्रानन्दनाम्नो देवस्य कूटमा धन्या नागरसंकाशा-स्तपाभिदुस्तभृशम् । बन्नकूटम् । गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतस्थे कूटभेदे, जं०४व स्थूलभद्रोपमा यस्य, ब्रह्मचर्यगुणैरपि ॥ ४६॥ श्रीमदानन्दविमल-प्रभवः शासनाद गुरोः । आणंदचंदख-आनन्दचन्दन-ना स्वरूपानुभवानन्दचन्दने, शश्वत् शुद्धां क्रिया कर्तुमकुर्च निश्चलं मनः॥४७॥" अष्टावेटनं भयसप्पाणां, न तदानन्दचन्दने" ॥॥ अष्ट. ग० ३ अधि०। १७ पाणंदवीर-भानन्दवीर-पुं०। श्राद्धानिकर्म भाष्यकृतः रमाणंदजीव-मानन्दजीव-पुं० । प्रानन्दस्यात्मनि, भाषि नशखरसूरगुरोरुदयवीरगणिनः परमगुरौ, जै०१० । ग्या उत्सर्पिण्यास्वतीयारके, पेढालम् अष्टकम् पानन्दजी जा-पाणंदमूरि-भानन्दसरि-पुं०। नागेन्द्रगच्छाये सिद्धराजेन वंसमस्यामि । “आदजी (व)यं" १५६६x॥ प्रव० ४६ द्वार । राशा व्याघ्रशिशुकति नाम्ना प्रख्यापिते बृहदच्छीये स्वपाणंदज्झयण-मानन्दाध्ययन-न०। प्रानन्दवनव्यताप्रति | नामके आचार्य च । जै० इ० । बद्ध उपासकदशायाः प्रथमेऽध्ययन, उपा० ११०। स्था. अनुत्तरोपपातिकदशायाः सप्तमऽध्ययने, स्था०१० ठा०३ पाणंदहिययभाव-आनन्दहृदयभाव-पुं० । आनन्द लक्षणे उ०। निरयावखिकोपाद्वितीयवर्गस्य करमाचतंसिकाभि भाव,"आणंदहिययभावनंदणकरा" (सूत्र-१५+) श्राघस्य नवमेऽध्ययन च । नि०१ श्रु. २ बर्ग २० । | नन्दलक्षणो यो भावस्तस्य नन्दकराः-वृद्धिकरा य ते तथा। (पतषां वनळ्यता 'प्राण' शब्देऽस्मिन्नेव भाग ऽनुपद प्रश्न०४ाथद्वार। मव गता।) भाणंदा-आनन्दा-स्त्री० । आनन्दयति सेवनात् आ+नदि मापदण-श्रानन्दन-न । आनन्दयत्यनन आन्नादाणच् णिच् श्रच् । विजयायाम् , (सिद्धि) राजनि० । वाच० । करण ल्युत् । यातायातकाले, मित्रादेः प्रागेग्यस्वागतादि- पौरस्त्यायां स्वनामख्यातायां दिककुमाया॑म् . प्रा० म०१ प्रश्ने, तत्कालिकालिङ्गने च । भाव ल्युट । सुखजनने, वाच०। प्र० जी० ज० । स्था० । ती०। प्रा० चू०। प्रा० क० । भगवत ऋषभदेवस्य शतपुत्रान्तर्गत स्वनामख्याते पुत्रे, लवणद्वीपस्थपौरस्त्यां जनकपर्वतस्थायां स्वनामख्याताकल्प०१ अधि०७ चण। वक्षस्कारपर्यतस्थे स्वनामख्याते यां नन्दापुष्करिण्याम् , स्था०४ ठा०२ उ० । देवेच । स्था०७ठा०३ उ०॥ श्राणंदिय-मानन्दित-त्रि० । आ-नदिक हर्षयुक्त. वाचा प्राणंदणंदण-श्रानन्दनन्दन-नानन्दः-आत्मानन्दस्त प्रमोद प्राप्त, जं. ३ वक्षः । सुखिनि, श्रा-नदि-णिच् - देव नन्दनमानन्दनन्दनम् । श्रानन्दात्मके नन्दनवने, “निभयः शक्रवद्योगी, नन्दत्यानन्दनादने॥७॥" अप०५ अष्टका क्ल यस्यानन्दो जनितस्तस्मिन् अभिनन्दिते, त्रि० । वा चा स्फीतीभूते, 'टुनदि' समृद्धाविति वचनात् । प्रा०म०१ पाणंदणकूड-अानन्दनकूट-न । गन्धमादनवक्षस्कारपर्व अ० जी०रा०। ईपन्मुख सौम्यतादिभायैस्समृद्धिमुपगते, तस्थे स्वनामख्याते कूटभेदे , स्था०७ ठा० ३ उ०। "हवतुटुचित्तमाणदिए” ( सूत्र-११४)। औ० । आणंदपुर-आनन्दपुर-न । स्वनामख्याते नगरे,“श्राण प्राणग्गहण--प्राणग्रहण-न०। प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादाने, दपुरं नगर जितारी राया" । १०४ उ० (जितारिरामः वृत्तम् " समयं प्राणग्गहखं" ॥ ६५+ 1 (सूत्र-२६+) 'मूढ' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते ।) "श्रादपुरे मरुओं" श्रा. समकं च प्राणापानग्रहणं-प्राणापानयोग्यपुगखोपादानम् । म.१००।"वीरात्रिनम्दाङ्क (६६३) शरद्यत्रीकर प्रज्ञा०१ पद। स्वचैत्यपूने ध्रुवसेनभूतिः । यस्मिम्मईः संसदि कल्पाच प्राणदाकिद-आज्ञार्थाकृति-त्रि० । श्राशाऽऽगमोऽर्थशब्दस्य ना-माद्यां तदानन्दपुरं न कः स्तुते " ॥ १ ॥ कल्प० १ हेतुवचनस्यापि दर्शनादर्थो-हेतुरस्याः सा तथाविधा55अधि० ६क्षण। कृतिरन्मुिनिवेषात्मिका यत्र तदाशार्थाकृति । उत्त०। मुपाणंदमेरु-आनन्दमेश-पुं० । राजमल्लाभ्युदयनाममहाका निवषाकृतिमति, उत्त०।"प्राणट्राकिह पञ्चए" () व्यकृतः पद्मसुन्दरस्य परमगुरोः पनरोगुरी, जै० इ० । अाशाकृति यथाभवत्येवं प्रावाजीदिति । उत्त०१८ अ०। पाणंदरक्खिय-श्रानन्दरचित-पुं० । स्वनामख्याते स्थबिरे, आणण-आनन--न० । अनित्यनेन श्रा+अन-करणे ल्यद । " तत्थ णं आणंदरक्खिए नामं थेरे,"। ( सूत्र-११० + ) मुख , मुखन हि जलपानादिना प्राणादेः स्थितिरतस्तस्यभ०२ श०५ उ०। तथात्वम् । " क्षितीश्वरः , नृपस्य कान्तं पिवतः सुतानपाणंदविमलमूरि-श्रानन्दविमलमूरि-पुं० । स्वनामख्याते | नम्" इति च रघुः। वाच०। “कुंडलउज्जोइयाऽऽणणे" सूरिविशेष, “प्रानन्दनन्दैविमलाभिधान-रिहोता सूरि- (सूत्र-४३+) कुण्डलाभ्यामुद्योतिनम् आनन-मुखं यस्य भिरुनचा " ॥ ६॥ प्रति । स च हेमविमलसूरेः शिष्यः।। स तथेति । जं. ३ वक्षः।तं.। रा० । है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) प्राणएकोऽचिय अभिधानराजेन्द्रः। आणणकोडंबिय-पाननकौटुम्बिक-त्रि। मुखस्य सहायके, प्राणयण-श्रानयन-न० । विवक्षितत्राद्वहिःस्थितस्य स. कल्पना "आणणकाईबिएणं" (सूत्र-३६४)।आननस्य-मुखस्य | चेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षेत्र प्रापणे, "आणणं" ॥३८॥ कौटुम्बकनेव यथा राजा कौटुम्यिकैः-सेवकैः शोभने एवं प्रब०६ द्वार । ध०। पञ्चा० । आनीयतेऽनेनेत्यानयनम्श्रीदेव्याः प्राननं तन शाभासमुदयेनेति । कल्प०१ अधिक प्रानयनसाधने. त्रि० । उत्त• ३६ अ०। प्राण (व) यणप्पयोग--आनयनप्रयोग-पुं०। ब्रानयने वि. आणत-प्राज्ञप्त-त्रि० । पाशा-णिच् पुक न इस्वः । क्षित क्षत्राद्वाहवत्तमानस्य सचेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षश्रादिष्ट . कृतादशे , धाचा प्रश्न. ३ माश्र द्वार। निक त्रप्रापणे प्रयोगः आनयनप्रयागः । देशावकाशिकविग्नतचू० । आव० स्यातिचारभेदे, स च स्वयं गमने व्रतभभयादन्यस्य संदप्रानर्त-पुं०। पानृत्यत्यत्र-आधार घञ् । नृत्यशालायाम, शकादिना व्यापारसम् । पश्चा...विव०। उपाध० प्रवक। युद्ध च। तत्र हि वारैर्हषति नृत्यमिव क्रियते इति तस्य प्राणवण--आज्ञापन-न। आदेश, स्था०२ ठा० १२० । तथात्वम् । सूर्यवंश्ये राजभेदे, “शामिथुनं त्वासीदान प्रतिबाधने , "आगमत्ता प्राणवज्जा" (सूत्र-२१०+) प्रा. तौ नामविश्रुतः" । हरिवं १० अ०। तत्कृते देशभेदे. वाच । गम्य ज्ञात्वा तं गृहपतिमाज्ञापयेत्प्रतिवाधयेदिति । आचा० तद्देशवासिजनेषु , तद्राजेषु च । चन्द्रवंश्ये राजभेदे , पुं० ।। १ श्रु०८ १०४ उ० । प्रवत्तने , “पारणवर्यात भित्रकहाआनृत्यतीति कतरि अच् । जलेन तस्य तरारूपेण नृत्य हिं" ॥७॥ आझापान्त-प्रवर्तयन्ति स्ववशंशात्वा कर्मकस्येव करणात्तथात्वम् । नर्तके, त्रि० । भघि घम् । न- | रवदाक्षां कारयन्ति । सूत्र०१ श्रु०४०१ उ० प्रा० । नेने , वाच। पानायन-न० । प्रापणे, स्था०२ ठा०१ उ०। अन्यत्व-न । परस्परं भिन्नत्वे, "तसिं णिज्जरापोग्गला प्रणवणिया-आज्ञापनकी-(प्रानायनी)-स्त्री० आज्ञापनणं किं आणतं वा" ( सूत्र-१९६२) प्रशा० १५ पद १ उ० । स्थादशनस्ययमाशापनमवत्याशापना सैवाझापनिका नजः प्राणत्ति--प्राज्ञप्ति-स्त्री० । श्रा-शा-णिच-पुकक्ल इस्वः । कर्मबन्ध आदशनमवात, बानायनं चा । मानायनीक्रिया आशायाम् , वाच । प्रादेश, “प्राणत्तियं पञ्चप्पिणह" भंद, स्था०२ ठा०१ उ० । (सूत्र-१२+) प्राप्तिम्-आदेश, प्रत्यर्पयत । शा०१ श्रु०१ प्राणवणिया किरिया दुविहा। जीवाणवणिया, अअ०। प्रज्ञा प्राणतिकिंकर-प्राज्ञप्तिकिकर--पुं०। यथादेशकारिणि, "श्रा जीवाणवणिया य । जीवाऽऽणवणी जीवं माज्ञापयति णत्तिकिकरहिं" (सूत्र-१२+) प्राज्ञप्तिकिंकरैर्यथा दशकारि परेण, अजीवं च प्राणवेइ । प्राव.४०। किंकुर्वाणः । प्रश्न०३ श्राश्रद्वार। जीवमाशापयत बानायतो वा परण जीवाशापनी, जीषाप्राणत्तिया-प्राज्ञप्तिका-स्त्री०। श्राक्षायाम् , "आणत्तिश्र नयनी बा। एवमेवाजीवविषया अजीवाशापनी, अजीवापश्चप्पिणह" (सूत्र-३०४) प्राप्तिकाम्-श्राज्ञां प्रत्यर्य नायनी वा । स्था०२ ठा० १ उ० । प्रा० चू०। सम्पाद्य, मम निवेदयत्यथः । औ० । “एतमात्तिनं खि- आणा-प्राज्ञा-स्त्री० । श्रा-शा-अङ् । अनुष्ठाने । विशे०५६५ प्पमेव पञ्चप्पिणाहिर" (सूत्र-४६) एतामाप्तिकां क्षिप्रं | गाथा । आदशे, प्रादेशश्च निकृष्टस्य भृत्यादः कृत्यादी प्रवृप्रय॑फ्यतीति । जं. ३ वक्षः।। त्यों व्यापारभेदः । वाच० । झा०१ शु०१०। पञ्चा० । प्राणप्प-आज्ञाप्य-त्रि० । आशापनीये , सुत्र० । “श्राणप्पा "प्राणायवायवयणनिइंश चिटुंति" (सूत्र-१३७४१४०+) हवंति दासा वा" (॥१५॥) स्त्रीणाम्पुरुषाः स्ववशीकृता पाशा-कर्त्तव्यमवदमित्याचादेशः । उपपातः- सेवा । वचदासा इव-ऋयक्रीता इव आज्ञाध्या-श्राज्ञापनीया भवन्ति । नम्-अभियोगपूर्वक श्रादेशः, निर्देश:-प्रश्निते कायें नियसूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। तार्थमुत्तरम् । भ०३ श०२ उ०। विधिविषयक आदेश श्राक्षा । स्था० ७ ठा० ३ उ० । पाहायोगेषु प्रवर्तनालपाणम (व) णी-आज्ञापनी-स्त्री० । असत्यामृषाभाषाभे क्षणा । स्था०५ ठा०२ उ०।। न. श्राशापनी कार्ये प्रवर्तनी ( परस्य प्रवर्तन-यथेवं कु प्राणाबलाभियोगो, निग्गंथाणं न कप्पए । विति)। भ० १० श० ३ उ० । प्रज्ञा० । ध०। श्राज्ञापनमाज्ञा भवतेदमित्येवंरूपा तथा विवक्षितं कार्यआणय-पानत-त्रि० । श्रा+नम्-क्ल। कृतप्रणामे, अधो माज्ञापि यस्याप्यकुर्वनो बलात्कारेण नियोजनं बलाभियोगः मुखे, विनयेन नने च । वाच । विमानविशेष, अनु । सक एतौ द्वावपि निग्रन्थानां न कल्पने कर्नम् । श्रा० म०१ लविमानप्रधानावतंसकविमानविशेषोपलक्षित बानतः । क. १०। (अपवादतस्त्वाकाबलाभियोगावपि दुर्विनीते प्रयानरूपभेदे, ऊर्ध्वदेवलोकभेदे. अनु । स व वैमानिकदेवलोकः। व्यौ इति 'इच्छाकार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते).उपदेश, प्रय० १६४ द्वार । विशे० । स० । श्रानते भवा श्रानताः । | "श्रणाणाए एगे सोबट्टाणा" (सूत्र-१६६ +)। प्राचा कल्पोपगवैमानिकदेवभेदे, "श्राणया" ॥१३+॥ उत्त०३६अ। १०५०६ उ०।" पसा प्राणा नियंठिया" ॥२६ +॥ प्रानय-पुं०। श्रा+नी-भावे अच् । दशात् देशान्तरनयने, पपाडा -अयमपदेशो निग्रन्थो भगवांस्तस्य । सत्र०१० भानीयते वेदाद्यध्ययनायाऽत्र आधारे अन् । उपनयनसंस्का- अ०। प्राज्ञाप्यत इत्याशा-हितप्राप्तिपरिहाररूपतयोपदेशे, रं, हम० भावे ल्यु । पानयनमप्युभयत्र । नावाच०। । प्राचा०१६०२०२ उ० । कल्प० । पश्चा० । तीर्थकर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा , गणधरोपदेश । दश० १० अ० | तीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे, " आणाए एगे निश्वट्टाणा " (सूत्र - १६६४) श्राचा० १ श्रु० ५ ० ६ उ० । निर्देशे, ( ४१७ गाथा टी० । ) " उववातो लिहेलो, आणा विणश्रो अ होंति एगट्ठा " ॥ डग्र० १ उ० । वचन, पञ्चा० ५विय० । श्रासामस्त्येनानन्तघशिया बायन्ते अबुध्यन्ते जीवादयः पदार्थ पया सा श्राज्ञा । स्था० २१ श्लोक । श्रासमन्तात् शाप्यन्ते-बो यन्ते सुकृतकर्माणोऽनयत्याशा आगमे, (यं) दर्श ४ तस्व । आङिति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया मर्थ्यादयाs भिव्याप्त्या वा ज्ञायन्ते ऽर्था श्रनयेत्याशा । उत्त० १ अ० स्था० । भगवदभिहितागमे, उत्त० १ ० । श्राप्तप्रवचन, स्था० ४ ठा० १ उ० । “ आणाए अभिलमेच्चा " ( सूत्र - १३०x ) - शया-तीर्थकरप्रणीतागमेनेति । श्राचा० १ ० ४ ०२३०| श्राशया- मौनीन्द्र प्रवचनेनेति । श्राचा० १ ० १ ० ३ उ० । 'आणा मार्ग धम्मं (सूत्र-१८४+) हायनवेयाज्ञा तथा मामकं धम्मं सम्यगनुपालय तीर्थकर एवमाहेति । झाचा० १ ० ६ ० २ उ० । श्राज्ञाप्यते जन्तुगणो द्दितप्रवृती या साक्षाद्वादशांक नं० मोक्षार्थमाहाय्य 66 प्राणिनाऽनयेत्याहा भुते, अनु पिशे० स स्था० १० ठा० ३ उ० । उत्त० । बोधौ, (सम्यकृत्वे ) " आणाए संभो थि" (सूत्र- १३८) आशावास्तीर्थकरोपदेशस्य लाभो नास्ति, यदि वा श्राशा-बोधिः सम्यक्त्वम् । श्राचा० १ श्रु० ४ अ०३ उ० | सूत्रार्थे, “श्रागमउवपसाऽऽणा” । श्रागम:- सूत्रमेतदनुसारेण कथनमुपंदेश श्राशा त्वर्थ इति । श्रव० १ अ० । निर्युक्त्यादिके सूत्र व्याख्याने च । स्था०४ ठा० १३० विषयसूचना (१) शानि (२) शामनुचिन्तयेत् । (३) सदाऽऽज्ञाराधकः स्यात् । ( ४ ) परलोके श्राज्ञाया एव प्रामाण्यम् । ( ५ ) श्राज्ञया प्रवर्त्तमानोऽध्यप्रवर्त्तमानः । (६) पुनर्वन्धकादिभ्या एव देवैषाऽथा | (७) तीर्थकराऽऽज्ञाऽन्यथाकरणे दोषाः । (८) श्राज्ञाऽऽराधन - विराधने । (६) आशा पथकाचे पाचार्यः । (१०) अशा प्रायश्चित्तम्। (११) आशारहितस्य चारित्रमपि न भवति । ( १२ ) आज्ञाव्यवहारः । ( १३१) अभिधान राजेन्द्रः । (१) आशाया निक्षेपः कडकरणं दब्बे सास तु दन्ये व दब्बओ आया । दनिमित्तं वयं दुखि विभावे इमं ।।१८७।। " नोश्रागमती द्रव्यशासनं व्यतिरिक्तं कृतकरणं; मुद्रा इत्यर्थः । श्राज्ञाऽपि द्रव्यतां नोश्रगमतां व्यतिरिक्ता सैव मुद्रा | अथवा निमित्तं यत्पादननिमित्तं यत् उभयं शास नम्--आज्ञा तद्द्द्रव्यशासनम् - सा द्रव्याशा, द्वे अपि च शासनाऽऽ भवत इदमेवाध्ययनम् किमुकं भवतिनोश्रागमतो भावशासनं भावाज्ञा च इदमेव कल्पाख्यमध्ययनं तथाहि य एतस्याऽऽशां न करोति सोऽनेकानि | , मरणादीनि प्राप्नोति ०१०२०० (२) आशामनुचिन्तयेत् - सुनिमणाइहिणं, भूयहियं भूयभावणमहग्यं । अमियमजिपं महत्वं महाणुभावं महाविसयं ॥ ४५ ॥ 9 4 क्या सुप्रतीयमा कुशला सुनिपुणा ताम् आशामिति योग, पुरा पुनः सूक्ष्मद्रव्याद्युपदर्शकन्यास था मत्यादिप्रतिपादकत्वाच. उक्तं च-' सुयनामि नेउरणं, केवले तययंतरं । अप्पा खमार्ग च जम्दा तं परिभावगं ॥ १ ॥ इत्यादि, इत्थं सुनिपुणां ध्यायेत् तथा 'अनाद्यनिधनाम्' अनुत्पन्नशाश्वतामित्यर्थः, अनाद्यनिधनत्वं च द्रव्यायपेक्षयेति, उक्तं च-" द्रव्यार्थादेशादित्येषा द्वादशाही न काचासीदित्यादि तथा 'भूतदिता' मिति इह भूतशब्देन प्राणिन उच्यन्ते तेषां हितां पश्यामिति भाषः दिता पुनस्तद्नुपरोधिनीत्यात्तथा हितकारि खीत्वाच्च, उक्तं च-' सर्वे जीवा न हन्तव्या' इत्यादि, एतत्प्रभावाश्च भूयांसः सिद्धा इति, भूतभावनाम्' इत्यत्र भूतसत्यं भाव्यतेऽनयेति भूतस्य वा भावना भूतभावना, अनेकान्तपरिच्छेदारिमत्यर्थः भूतानां वा स्यानां भाषमा भूतभावना भावना वासनेत्यनर्थान्तरम् उक्तं च कूर्गाव सहाय, रागविससागावि होऊ भाषियजियणमया, तेलुकसुहावदा दाँति ॥ १ ॥ श्रूयन्ते च चिलातीपुत्रादय एवंविधा बहव इति, तथा अनर्थ्याम्' इति सर्वोत्तमत्वादविद्यमानमूल्यामिति भावः उक्रं च "सव्वेऽवि य सिद्धता, सदव्वरयणासया सतेलाका । जिवयवर भगवचो न मुलमिल गंधं ॥ " तथा स्तुतिकारणायुक्रम्" कल्पमा कतिमात्रदाथी, चिन्तामनिधिन्तितमेव दत्ते । निन्द्रधर्माविशपि चिन्त्य, द्वयेऽपि लोको लघुतामवैति ॥ १ ॥ " इत्यादि, अथवा ऋणमा मित्य कर्म तद्मामिति उक् अनी कम्नं खये बहुयादि पासकोडी नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसास मित्ते ॥ १ ॥ " इत्यादि, तथा अमिताम् इत्यपरिमिताम् उक्तं "नदी जा दो-ज वालुवा सम्वद्दीय उदयं पत्तोषि तं 4 - , आणा , 9 " 1 गुगो अर्थ एगस्स सुत्तस्स ॥ १ ॥" अमृत वा मृ वा पथ्यां वा तथा चोक्तम्-" जिणवयणमोदगम्ल उ, रति च दिवा य खजमाणस्स । तित्ति बुद्दो न गच्छद्द, उसइस्सोपगूढस्त्र ॥ नरनारयतिरियसुरगण संसारि दुगाएं मेगमांस-मपदम्य यं फलयं ॥ २ ॥ जीयां वाऽमृतामुपपत्तिसमयेन सार्थिकामिति भावः न तु यथा तेषां कटतम बिन्दुभिः प्राप नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवादिनी ॥ १ ॥ इत्यादिवन्मृतामिति तथा 'जित' मिति शेषवचनाशाभिरपराजितामित्यर्थः, उक्तं च- 'जीवाइवत्युचितण- कोसल-गुणगणसरि जिपं जिणं महाविस १ ॥' तथा 'महार्था' मिति महान् प्रधानाच यस्याः सा तथाविधा तां तत्र पूर्वापराविरोधित्वादनुपागद्वारात्मकत्वान्नयगर्भत्वाश्च प्रधानां, महत्स्थां या अत्र महान्तः - सम्यग्दृष्टयो भव्या एवोच्यन्ते ततश्च महत्सु - Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) भाणा अभिधानराजेन्द्रः। स्थिता महत्स्था तां च; प्रधानप्राणिस्थितामित्यर्थः, महा- कुशलः आचर्यत सावित्याचार्यः सूत्रार्थावगमा मुमुक्षुभिस्थां वेस्यत्र महापूजोच्यते तस्यां स्थिता महास्था तां, तथा रासेव्यत इत्यर्थः,तद्विधश्वासावाचार्यश्चनविधाचार्यः तद्विचोकम्-' सब्वसुरासुरमाणुस-जोइसवंतरसुपूयं गाणं । रहता-तदभावतच,चशब्दः अबोधे द्वितीयकारणसमुथयार्थः, जेणह गणहराणं, छुइंति चुरणे सुरिंदावि ॥ १ ॥' तथा अपिशम्नः कचिदुभयवस्तूपपत्तिसम्भावनार्थः, तथा शेय'महानुभावा' मिति तत्र महान्-प्रधानः प्रभूतो वाऽनुभावः- गहनत्वेन च ' तत्र शायत इति शेय-धर्मास्तिकायादि तद्सामादिलक्षणो यस्याः सा तथा तां, प्राधान्यं चास्या- हनत्येन-गहरत्वेन, चशब्दोऽबोध एवं तृतीयकारणसमुथचतुर्दशपूर्वविदः सर्वलब्धिसम्पन्नत्वात् , प्रभूतत्वं च प्रभू- यार्थः, तथा 'शानावरणोदयेन च ' तत्रज्ञानावरणं प्रसिदं तकार्यकरणाद्, उक्तं च-' पभू णं चोदसपुब्बी घडामो तदुदयेन तत्काल तद्विपाकेन, चशब्दश्चतुर्थाबोधकारणसघडसहस्सं करित्तए' इत्यादि, एवमिहलोके, परत्र तु मुथयार्थः, अत्राह-ननु कानावरणोदयादेव मतिदौर्बल्यं तथा जघन्यतोऽपि वैमानिकोपपातः, उक्तं च-'उपवाओ लंत- तद्विधाचार्यविरद्दो सेयगहनापतिपत्तिच, ततश्च तदभिधाने गंमि, चोहसपुव्वीस्स होइ उ जहरणो। उक्कोसो सम्बटे, न युक्तममीषामभिधानमिति, न, तत्कार्यस्यैव संक्षेपविस्तरत सिद्धिगमो चा अकम्मस्स ॥१॥' तथा 'महाविषया' मिति उपाधिभेदेनाभिधानादिति गाथार्थः। महद्विषयत्वं तु सकलद्रव्यादिविषयत्वाद्, उनं च-दव्व तथाओ सुयनाणी उवउत्ते सव्यव्याई जाणई'-स्यादि कृतं हेऊदाहरणासं-भवे य सइ सुट्ट जं न बुज्झेजा। विस्तरेणेति गाथार्थः। सम्बएणुमयमवितई, तहावि तं चिंतए मइमं ॥ ४८॥ झाइजा निरवज्जं, जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । व्याख्या-तत्र हिनोति-गमयति जिशासितधर्मचिशिष्टानाअणिउणजणदुम्मेयं, नयभंगपमाणगमगहणं ॥४६॥ निति हेतुः-कारको व्यञ्जकश्च, उदाहरणं-चरितकहितभेद, व्याख्या-'ध्यायेत्' चिन्तयेदिति सर्वपक्रिया, 'निरवद्या' हेतुश्चोदाहरणं च हतूदाहरणे तयारसम्भवः, कश्चन पदार्थ मिति अवयं-पापमुच्यते निर्गतमवयं यस्याः सा तथा प्रति इतूदाहरणासम्भवात् , तस्मिश्च, चशब्दः पञ्चमषष्ठ कारणसमुच्चयार्थः, 'सति' विद्यमाने, किं ?-'यद्' वस्तुजातं ताम् , अनृतादिद्वात्रिंशद्दोषावधरहितत्वात् , क्रियाविशेषणं 'न सुष्टु बुद्धयेत' नातीवावगच्छेत् ' सर्वशमतमवितर्थ चा, कथं ध्यायेत् ?-निरवचम्-इहलोकाचासंसारहितमित्यर्थः, उनं च-'नो इहलोगट्टयाए नो परलोगट्टयाए नो तमि तश्चिन्तयेन्मतिमा' निति तत्र सर्वक्षाः-तीर्थकरापरपरिभवो अहं नाणी' त्यादिकं निरवयं ध्यायेत् , स्तेषां मतं सर्वक्षमतं वचनं, किं ?-वितथम्-अमृतं न वित थम्-अवितथं; सत्यमित्यर्थः, 'तथापि' तवबाधकारणे स'जिनानां' प्राग्निरूपितशब्दार्थानाम् 'माझा' वचमलक्षणां त्यनवगच्छन्नपि तत्' मतं वस्तु वा चिन्तयेत् ' पर्याकुशलकर्मण्याशाप्यन्तेऽनया प्राणिन इस्याशा तो, किंवि लोचयेत् ' मतिमान् ' बुद्धिमानिति गाथार्थः । शिष्टां ?-जिनानां-केवलालोकेनाशेषसंशयतिमिरनाशनाजगरप्रदीपानामिति, आव विशेष्यते-' भनिपुणजनदुज्ञेयां किमित्येतदेवमित्यत आहम निपुणः अनिपुणः, अकुशल इत्यर्थः जनः-लोकस्तेन अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जगप्पवरा । दुईयामिति-दुरबगमां, तथा 'नयभङ्गप्रमाणगमगहनाम् । जियरागदोसमोहा, य णण्णहावादियो तेणं ।। ४६॥ इत्यत्र नयाश्च भनाश्च प्रमाणानि च गमाश्चेति विग्रहस्तैर्गहना-गहरा तां, तत्र नैगमादयो नयास्ते चानकभेदाः, आव० ४ श्र० । दर्श० । (अस्या गाथाया व्याल्या 'जिण' शब्द चतुर्थे भागे १४६२ पृष्ठे वच्यते ।) तथा भताः क्रमस्थानभेदभिन्नाः, सत्र कमभङ्गा यथा पको जीव एक एवाजीव इस्यादि, स्थापना-रा (३) आशाग्राहकेण च सदेव भवितव्यम्स्थानभक्तास्तु यथा प्रियधर्मा नामैकः, मो इधर्मे-15151| सयाऽऽणागाहगे सिया, सयाखाभावगे सिया, सयाणास्यादि, तथा प्रमीयते शेयमभिरिति प्रमाणानि-15555 परितंते सिया, आणा हि मोहविसपरममंतो, जलं रोसाइद्रव्यादीनि, यथा-ऽनुयोगद्वारेषु गमा:-चतुर्विंशतिदरडका जलणस्स, कम्मवाहितिगिच्छासत्थे, कप्पपायवो सब्वफबयः, कारणवशतो वा किचिद्विसरशाः मूत्रमार्गा यथा लस्स । (सूत्र-२+) परजीवनिकाऽऽदाविति कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः॥ ननु, या एवंविशेषणविशिष्टा सा बोद्धमपि न शक्यते मन्द सदाशाग्राहकः स्याम्, अध्ययनश्रवणाभ्याम् , नाशा धीभिः, पास्तां तावद्धधातुं, ततश्च यदि कथञ्चिन्नावबुध्यते श्रागम उच्यते । सदाशाभावकः स्यात् , अनुप्रेक्षाद्वारेण तत्र का वार्तेत्यत आह सदाचापरतन्त्रः स्यादनुष्ठानं प्रति । किमेवमित्याह-आशा हि माहविषपरममन्त्रः तदपनयनेन । जलं, द्वेषादिज्वलनस्य, तत्थ य मइदोब्बलेणं, तचिहाऽऽयरियविरहनो वाऽवि। तद्विश्यापनेन । कर्मव्याधिचिकित्साशास्त्रं, नम्क्षयकारसत्वेत णेयगहणतणेण य, णाणावरणोदएणं च ।। ४७॥ कल्पपादपः सर्वफलस्य, तदबन्ध्यसाधकवेत । पं० सू०२ व्याख्या-तत्र' तस्यामाशायां, चशब्दः प्रस्तुतप्रकर- सूत्र । (पाहामाह्यार्थस्यायैव व्याख्यानमिति 'वक्स्वाण' णानुकर्षणार्थः, कि?-जडतया चलत्या वा मतिदौर्बल्येन- शब्दे षष्ठभागे वक्ष्यते)। बुद्ध, सम्यगर्थानवधारणेनत्यर्थः, तथा 'तद्विधाचार्यविर (यत्राऽऽक्षा न स्खलनि स एव गच्छः)इतोऽपि ' तत्र तद्विधः-सम्यगविपरीततत्त्वप्रतिपादन जत्थ य उसभाऽऽदीणं, तित्थयराणं सुरिंदमहियाणं । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषा (१३३) अभिधानराजेन्द्रः । कम्मऽडुविप्पमुक्काणं, आणं न खलिज्जइ स गच्छो । सर्वत्र यतितव्यम् इति बेह महा० १ अ० । (मोचिंग तृतीये भागे १२६८ पृष्ठे वक्ष्यते ) (शास्थितानामेच खात्वम् ) तीर्थकराचास्थितानेय स्वरूपत ग्राह , - ते पुख समिया गुना, पिपदमा जिदिकसाया । गंभीरा श्रीमंता, परावणिज्जा महासत्ता ॥ ४० ॥ व्याक्या तीर्थकराहास्थिताः साधवः पुनरिति विशेषणार्थः । समिताः समितिपञ्चकेन गुप्ता — गुसित्रयेण, प्रियः प्रीतिस्थानं दस स्थिरो विपत्स्वपि अविमोचनाद्धर्मः नचारिषात्मको येषां ते प्रदः । तेन्द्रियकषायाः न्यक्कृतकरणकोपादिभावाः । गम्भीरा अलक्ष्यमागदर्षन्यादिभावाः । गाम्भीर्य चेदम्" पस्प प्रभावादाकारा कोधहर्षभयादिषु भावेषु नोपलभ्यन्ते तद् गाम्भीर्यमुदाहृतम् ॥ १ ॥” इति । धीमन्तो- बुद्धिमन्तः प्रज्ञापनीया सुखावबोद्धयाः, महासत्वाः श्रवैक्लव्याऽध्यवसाययन्तः "आप अपकरमध्यवसानकरं सत्यम्" इत्युक्रे, इति गाथार्थः । 3 , उस्सग्गववायाणं, वियाणगा सेवमा जहासतिं । भावचिद्धिसमेता, आशारुतियो य सम्मं ति ॥४१॥ व्याख्या- उत्सर्गापचादयोः - सामान्य क्लिविशेषोक्तविध्योः, विज्ञायकाः- विज्ञाः, तथा सेवकाः- अनुष्ठानरताः, तयोरेव । यथाशक्ति शक्त्यनिगूहनेन भावविशुद्धिसमेताः- परिक्षमया वाचः श्रागममानिनः श समुचय, सम्यग् विपरीततया न पुनः स्वाग्रहानुसारेण इतिशब्दः समाप्तौ इति गाथार्थः । पञ्चा० ११ विव० । ( श्राशासारमेव सम्यगनुष्ठानं साधुधर्मः ) - धम्मो एसस्सिंह, संभाणुद्वाणपाखखावो । पिपिडितं आवासारं वच्यं ॥ = ॥ उपकथा एवं तावत्साधुको धर्मः पुनर्गनिगमनधारणस्वभावः एतस्य साधाः इह साधुधर्मविचारे, सभ्यक्समीचीनंनुानं प्रत्युपेक्षादिक्रिया या धनुषालना सेवा सम्यग् वा याऽनुष्ठानपालना सैव रूपं स्वभावो यस्यासी सम्यगनुष्ठानपालनारूप, सम्परानुष्ठानमेव किमुच्यते ?, इत्याइ - विधिप्रतिषेधयुक्तं ध्यानादिहिंसादियासेवापरिहारान्वितं तत्सम्यगनुष्ठानम् श्राप्तासारमाप्तवचनप्रधानम् मुखेतिविशेयम् इति गायार्थः । पञ्चा ११ वि० । अथ कस्मादाचासारमेव सत्यमनुष्ठानं साधुधर्म इत्युक्तमिल्याशङ्कयाह- आरुथो चरणं, आगाए चिय इति यथाथ। तोऽभोगम्म वि, वणिजो इमो होइ ।। १२ ।। व्याख्या - नाज्ञाहचेः श्राप्तोपदेशाभिलाषथुक्कस्य । न त्व(न्य ) स्य चरणं चारित्रं भवतीति शभ्यं, कुत एवं सिद्धमित्याद आगार - आसोपदेशेने, ३४ आणा नाऽन्यथा, 'इदं चरणं भवती' ति वचनात् श्रागमवाक्यात्, तथाहि " श्राणाए च्चिय चरणं तब्भंग जाए किं न भगं ति । श्रणं च श्रइतो, कस्साएसा कुणइ सेसं " ॥ १ ॥ अथाज्ञारुचरण्यनाभविष्यतीत्याशङ्कयाहएत्तो 'ति इतः श्रस्मादाशारुत्रित्वात्प्रज्ञापनीयो भवतीति योगः । श्रनाभोगेऽपि ज्ञानेऽपि श्रनाभागजनितः सदसत्प्रवृत्तावपीत्यर्थः ः । श्रनाभोगस्तस्य प्रायो न संभवतीति व्यापनार्थोऽपिशब्दः प्रज्ञापनीयः खयः प्रयमाशारुत्रिः, भवति स्यात्, ततश्चावारुचित्वात्प्रज्ञापनीयत्वंनाऽस्य चरणं भवतीत्याशासारं तदुक्तम् । इति गाथार्थः । पञ्चा० ११ विव० । 4 (४) परलोके चाऽऽशाया एव प्रामाण्यम् - आणा इत्थ पमाणं, विश्र सव्वहा उ परलोए ।। १३८४+। आना श्रत्र प्रमाणं विशेया, सर्वथैव परलोके । पं०व०४ द्वारा। धर्ममूलं चाय घाणामंगाउ घिय, घम्मो आगाए पडिबद्धो ॥ १८ ॥ आशामहादेव सर्वविदामागमनादेव (१०) धर्मद्रव्यस्त वरूपः आज्ञायाम् आसवचने प्रतिबद्धः - नियमाद् वर्तते । दर्श० १ तत्र । शोऽपि कथं धम्मभावइत्याहवित्वगरायामूलं नियमा धम्मस्सती वा पाए । किं घम्मी किमहम्मो, मूढा नेयं विचारिति ॥ १६ ॥ तीर्थकराचैव सर्वदुपदेश एवं मूलं प्रथमारोहणरूपं नियोनिश्वयो न धर्मस्य महामही सदस्यादिफलम् फलसुखफलसंवधकस्य तस्याः तीर्थकरस्याविद्यानाशे कि धर्मः शुभस्वभावः सुखसंपदा कम अथवा धर्म्मः पुण्याभावस्वभावः सदा देहिसंदोहदुःखदानदुर्लखितः । मुद्रा मिध्यात्यमद्दामदमोदितान्तःकरणादिवाऽतिविवेक विकला नेदं विचारयन्ति नेदं पर्यालोचयन्ति यहुत-सर्वविदुपदशोन स्पष्या सुन्दर विधीयमार्थ किं कर्मा नावाच कर्मबन्धाभविष्यतीति गाथार्थः। तर्हितानां किं वृत्तमित्यादचराहणार तीए, पुमां पार्व विराहणाए । एयं धम्मरहस्सं, विएणेयं बुद्धिमतेहिं ॥ २० ॥ आराधनया तस्याः - श्राज्ञायाः सर्वविदुपदेशस्य पुण्यं शु भं सर्वशाऽऽशापक्षपानजनित शुभ भाव कुशलानुष्ठान हि शुभभावादव शुभानुवन्धि पुरापयन्धा भयत्येव पशु विराधनया सर्वविदाशाल्लङ्घनन, तुशब्दः पुनरर्थस्ततोऽयमर्थःस यद्यपि स्वाग्रहवशाद्-गतानुगतप्रवाहदर्शनाद् बोधकुशसध्या धर्मा प्रवर्तते तथाऽपि नागमोक्रमागनजनितं पापमेव भवति यतः" धर्मार्थी लुशुद्धबुद्धिषिभवः सर्वत्र कृत्येषु धा, प्राणिश्राविधावपाह सततं जैनपु पूजादिषु । स्वाभिप्रायवशो गतानुगतिकप्रायप्रवाही सदा, दन्ते धम्मंधिया पापिना॥२॥ श्र 97 प्युक्तम्- "शिवणार कुतायं नूनं नव्यासां । सुंदर विबुद्धी, सहवं भवनिबंध " ॥ १ ॥ एतद्धर्मरइस्पे धर्मस्वं । बुद्धिर्माः Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) प्राणा अभिधानराजेन्द्रः। प्राणा हिताहितविवेकविकलैरिति गाथार्थः । दर्श० १ तत्त्व। आशाराधन-विराधनयोर्दोषगुणौ(५) (प्राज्ञया प्रवर्त्तमानस्याऽवर्तमानत्वम् सर्व- जह चेव उ मोक्खफला, आणा भाराहिमा जिणिंदाणं । वचन एवाशायाः सर्वहितकारकत्वं च । ) संसारदुक्खफलया , तह चेव बिराहिया होइ ॥११६ ॥ भाणा परतंतो सो, सा पुण सब्बएगुवयणो चेव । व्याख्या-यथैव तु मोक्षफला भवतीति योगः, आक्षा श्राएगंतहिया वेञ्जग-णातेणं सव्वजीवाणं ॥ १६॥ राधिता-अखण्डिता सती जिनेन्द्राणां संबन्धिनीति। संसाव्याख्या-आज्ञापरतन्त्रः-आप्तवचनाधीनः , स-प्रस्तुतसा- रदुःखफलदा तथैव च विराधिता-खण्डिता भयतीति गाधुः । सा पुन:-आज्ञा पुनः, सर्वशवचनत्वादेव-आप्तपणी- थाऽर्थः । पं० व० १ द्वार। तत्वादेव , इद्द भावप्रत्ययो लुप्तो द्रष्टव्यः । एकान्तहिता-स (श्राशाराधकानाराधको तयोर्दोषाऽदोषौ वासाऽईमवासाथोपकारिणी, वैद्यकशातेन-श्रायुर्वेदोदाहरणेन , सर्वजी ऽईगच्छमधिकृत्योक्तम् )वानां विवक्षया-समस्तालिनां, यथा हि-वैद्यशालं नैकस्य कस्यचिदेवातुरस्य स्वस्थस्य वा वैद्यस्य तत्पुत्रस्य तदन्यस्य से भयवं ? किमेस वासेजा, गोयमा ! अत्थेगें जेण वा उपकारकम् , एवमाशापि न केषांचिदेवोपकारिणी। वासेजा, अत्थेगे जेणं नो वासेजा । से भयवं ? केणं अइति गाथार्थः । पञ्चा० १४ विव० । पं० २० । द्वेणं एवं बुच्चइ ।। जहा णं गोयमा! अत्थेगे जेणं वा(६) (पाशा वा पुनर्बन्धकातिरिक्नेभ्यो न प्रदेया) सेजा, अत्थगे जेणं नो वासजा । गोयमा ! अत्थेगे जेणं एसा आणा इह भगवो समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धी आणाएठिए । अत्थे(ढे गेजेणं प्राणाविराहगे। जेणं आणाए अपुणबंधगाइगम्मा । एअपित्तं खलु इत्थ लिंगं प्रो ठिए । सेणं सम्मइंसणनाणचरित्ताराहगे, जेणं सम्मइंसचित्तपवितिविन्नेयं संवेगसाहगं निमा । न एसाऽस्मेसि णनाणचरित्ताराहगेसे मंगोयमा! अचंतविऊ सुपवरकडुदेया। लिंगविवजयाओ तप्परिमा। तयणुगाहट्ठयाए आ च्छुए मोक्खमग्गे । जे य उण प्राणाविराहगे से णं अमकुंभोदगनासनाएणं एसा करुण त्ति वुच्चइ , एगंतपरि णताणुबंधी कोहे माणे अणंताणुबंधी माणे से णं अतासुद्धा अधिराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्से गुबंध। कइयावसेणं अणंताणुबंधी लोभे । जेणं अतासमाहिग त्ति । (सूत्र-५+)पं० सू०।-(अस्य व्याख्या णुबंधी कोहाइकसायचउक्के से णं घणरागदोसमोहमि'पवजा' शब्दे पश्चमभागे ७६० पृष्ठ वक्ष्यते) च्छत्तपुजे जेणं घणरागदोसमोहमिच्छत्तपुंजे से णं श्राज्ञायां च प्रमादो न विधेयः अणुत्तरघोरसंसारसमुद्दे । जेणं अणुत्तरघोरसंसारसमुद्दे लवण माणुसत्तं, संजमसारं च दुल्लभं जीवा । से ण पुणो पुणो जंमे, पुणो पुणो जरा, पुणो पुणो प्राणाएँ पमाएणं, दुग्गइभयवतणा होति ।। ६३॥ मच्चू । जेणं पुणो पुणो जम्मजरामरणे से णं पुणो लम्ध्या-माप्य मानुषत्वं, तथा संयम एव सार:-प्रधान मोक्षानं तं च दुर्लभं-महावारिधिनिमनानयरत्नमिव दु पुणो बहुभवंतरवत्ते । से णं पुणो पुणो चुलसीइजोपापंचा य जीवा भागवत्या श्रमाया-विधिप्रतिषेध णिलक्खमाहिंडणं । जेणं पुणो पुणो चुलसीइलक्खजोरूपाया प्रमादेन कालं गमयन्ति । ते ' दुर्गतिभयवर्धना भ- णिमाहिंडणं से णं पुणो पुणो सुदूसहे घोरतिमिसंऽधयारे वन्ति'-आत्मनो देवादिदुर्गतिपरिभ्रमणजनितं भयं वर्द्ध-रुहिरविलिविलेवसवसपूयवंतपित्तसिंभचिक्खिन्लदुग्गंधाऽयन्तीति भावः । वृ० ३ उ०। सुइविलीणजबालकेयकिट्ठिसक्खरनपडिपुन्ने । अणि(७) (तीर्थकराऽऽझाया अन्यथाकरणे दोषः)- दुउच्चियणिजअइघोरचंडमहरोद्ददुक्खदारुणमब्भपरंपरापतित्थगराणं पाणा, सम्म विहिसा उ होइ कायव्वा । वेसे । जेणं पुणो पुणो दारुणो गम्भपरम्परापवेसे णं दुतस्सऽमहा उ करणे, मोहादतिसंकिलेसो त्ति ॥ ६॥ । क्खो से णं के से गं रोगाणं के सेयं सेयं सेणं सोगसंतावुब्बगे व्याख्या-तीर्थकराणां जिनानामाशोपदेशः सम्यग्भावतः से णं अण्णे वुत्ती जणं अण्णे वुत्ती से णं जहट्ठिमखोरहाविधिना तु-वक्ष्यमाणविधाननैव भवति-स्यात् कर्तव्या, विधिविपर्यपदोषमाह-तस्या-जिनाशाया अन्यथा तु करणे णं असंपत्ती। से णं नोवपंचप्पयारमणंतरायकंमोदए जअविधिविधाने, पुनः कुत इत्याह-मोहाद्-अज्ञानात् . कि स्थ णं पंचोपयारअंतराकमोदए तत्थ णं सम्बदुक्खाणं। मित्याह-अतिसक्रशम्-श्रात्यन्तिकं चित्तमालिन्यं भवति। अग्गणीभूए पढमे ताव दरिद्दे जणं दारिदे से णं पश्चा०१५ विव०। अयसभक्खाणं अकित्तीकलंकरासीण मेलावगामे । से णं (E) जिनाबारहितस्य सुन्दरस्यापि स्वबुद्धिक सयलजणलज्जणिजनिंदणिज्जे गरहणिजे खिसणिजे दुल्पितस्य भवकारणत्वम् , यत उक्तम्" जिणाणाप कुणतागण, नूणं निव्वाणकारणं । गुंछणिज्जे सव्वपरिभूए जीविए, जेणं सवपरिभूए जीविसुन्दरं पि सबुद्धीए, सब्वं भवनिबंधणं ॥१॥" दर्श०३ तत्त्व। या सेणं सम्मइंसणनाणचरित्ताइगुणेहिं सुदरयरेण विप्प Jain Education Interational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) प्राणा अभिधानराजेन्द्रः। मुके चेव मणुयजमे। अन्नहा वासव्यपरिभूएचव णं भवेजा।।। तित्थयरसमो सूरी, हुअ य कम्मदुमल्लपडिमल्ने । जणं सम्मईसणनाणचरित्ताइगुणेहिं सुद्रयरेणं विप्पमुक्के आणं अइकमंते, ते कापुरिसे न सप्पुरिसे । चेव णिभवो से णं अणिरुद्धा सदारत्ते चव जणं अणि- भट्ठाऽऽयारो सूरी, भट्ठायाराणुसिक्खिो सूरी । रुद्धा सब्बचारित्ते चेव से णं बहूण लघूर्ण पावकम्मायणे| उम्मग्गडिओ सूरी. तिमि वि मग्गं पणासेंति ।। जणं बहण लघूण पावकंमागमे से णं बंधी से णं बंदी से उम्मग्गट्ठिए सूरि-म्मि निच्छयं भव्यसत्तसंघाए । णं गुत्ती से णं चारगे से णं सब्बमकल्लाणममंगलजाले । जम्हा तं मग्गमणु-सरंति तम्हा ण तं जुत्तं । महा०६ अ०॥ दुब्धिमोक्खे कक्खडघणबद्धपुट्ठनिगाइयकंमगंठी जेणं (कीदृशन गणिना भाव्यमिति 'गणि' शब्द तृतीयभागे कक्खडघणबद्धपट्टनिगाइयकंमगंठी से णं एगेदियत्ताए। ८२३ पृष्ठ वक्ष्यत) इंदियत्ताए तेइंदियत्ताए चउरिदियत्ताए पंचिंदियत्ताए तम्हा गणिणं समस-स्तुमित्तपक्खेण परहियरएणं । नारयतिरिच्छकुमाणुसेसुं अणेगविहं सारीरमाणसं दुक्ख- कल्लाणकंखुणा अ-प्पणो वि आणा ण लंघेया ।। मणुभवमाणं वइयव्धे । एएणं अटेणं गोयमा ! एवं महा०६ अ० चुच्चइ-जहा अत्थेगे जेणं वासेजा से भय किमित्थ तेणं (जिनस्याऽऽचार्यादेश्चाऽऽशाया अतिक्रमे आराधकाउच्छाइर केइ गच्छ भवेजा गोयमा ! जेणं से आणाधि- नाराधकत्वं, बजाऽऽचार्यदृशन्नश्च)राहगे गच्छे भयेजा से णं निच्छयो चव मिच्छत्तेणं उ से भय ! जइ णं गणिणो अच्चंतविसुद्धपरिणामस्स वि च्छाइयगच्छे भयेजा। से भय ? कयरात्रो ससा आणा-| कइ दुस्सीले सच्छदत्ताए जइ गारवत्ताएइ वा जायाइजीविए गच्छे अाराहगे भवेजा ?, गोयमा ! संखाइएहि ठा- मयत्ताए वा आणं अइकमेजा से णं किमाराहगे भवेजा ?, गतरेहिं गच्छे से णं आणापन्नतीए ठिए गच्छे पाराहगे गोयमा! जे णं गुरुममसत्तुमित्तपक्खो गुरुगुणसु ठिए सयं भवजा । से भयवं ? किं तसिं संखातीताणं गच्छमेरा सुत्ताणुसारेणं चेव विसुद्धासए विहरेजा तस्साऽऽणामइकंतेठाणंतराणं । अत्थि कई अन्नयरे थाणतरे णं जेणं उस्स- हिं णवणउएहिं चउहिं सरहिं साहूणं जहा तहा चव अग्गण वा अववाएण वा कहं वि पमायदोसेणं असई णाराहगे भवेजा । से भयवं! कयरे णं ते पंचसए कविश्रइकमेजा अइकतेणं वा पाराहगे भवेजा ? । गोयमा ! वजिए साहूगं जेहिं च णं तारिसगणोववेयस्स महाणुणिच्छयो नत्थि । से भयवं ? केणं अद्वेणं एवं बुच्चइ जहाणं भागस्स गुरुणो आणं अइकमिय णाराहियं गोयमा ! णं निच्छयो नऽत्थि। गोयमा! तित्थयरणं ताव तित्थयरे इमाए चेव उसमें चउवीसगाए अतीताए तेवीसइमाए तित्थं पुण चाउवन्ने समणसंधे से णं गच्छे सुपइट्ठिए गच्छेसु चउवीसगाए जाव णं परिनिव्वुडे चउवीसं इमे अरहा पुण सम्मइंसणनाणचरित्तपइट्ठिए ते य सम्मइंसणनाण ताव णं अइकंतेणं काहणं कालेणं गुणनिष्फन्ने कमसेलचारित्ते परमपुज्जेणं परमपुज्जयरे। परमसरनाणं सरने पर- मसुसूरणे महायसे महासत्ते महाणुभागे सुग्गहियनामधिमसच्चाणं सच्चयरे ताई च जत्थ णं गच्छे अमयरे ठाणे ज्जे ''वहरे" णाम गच्छाहिबई भृए, तस्स णं पंचसयं गच्छं कत्थइ विराहिजंति सेणं गच्छे समग्गपणासए उम्मग्गदे निग्गंथाई विणा निग्गंथीहिं समं दो सहस्से अहेसि ता सए जेणं गच्छे समग्गणासगे उम्मग्गदेसए से णं निच्छो गोयमा! ताओ निग्गंथीओ अच्चंतपरलोगभीरुयाओ सुचव अणाराहगे, एएणं अद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ ज विसुद्धनिम्मलंतकरणाश्रो खंताओ दंताओ मुत्ताओ जिईहाणं संखादीयाणं गच्छमरा ठाणंतराणं जणं गच्छे एग दियायो अच्चतमणिरो नियसरीरस्सवि य छक्कायवमयरट्ठाणं अइकमेजा से णं एगतेणं चव अणाराहगे॥ च्छलाओ जहोवइट्ठअचंतघोरवीरतवचरणसोसियसरीरामहा० ५ ०। ओ जहा णं तित्थयरेणं पनवयं तहा चेव अदीणमण(आशाराधन-विराधनयोः फनं 'सुय' शब्द सप्तम भाग साओ मायामयमहंकारममकर इतिहासखेडकंदप्पणादबच्यते) (भगवदाज्ञागधनकृनसेवादापा भगवदाशाखण्ड वायविष्पमुकाओ तस्साऽऽयरियस सगासमन्त्रमणुचरंति । नकृतमय दोपं च इति 'आहाकम्म' शब्देऽस्मिन्नव भागे व्याख्यास्यत) ते य साहुणा सव्ये वि गोयमा ! न तारिसे भणगे अहएगते मिच्छतं, जिणाण आणा य होइऽणगंता । । नया गोयमा ! ते साहुणो तं अ.यरियं भणंति जहा णं एग पि अमद्दहाउ,मिच्छद्दिही जमालि व्य १२०२ ति। जइ भणियं च तुमं आणवेहित्ताणं अम्हेहिं तित्थयत्तं का(सावधाचार्यकथां 'सावजायरिय'शब्द सप्तम भाग कथ रिया चंदप्पहसामियं वंदिया धम्मवकं गंतूण मा गच्छायिष्यामि) | मो ताहे गोयमा! अदीणमणसा अणुचालगंभीरमहुराए Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाणा अभिधानराजेन्द्रः। भारतीए भणियं तेणाऽऽयरिएणं जहा इच्छायारणं न कप्पइ महाभागासं साहणं साहुणीणं सत्तावीसं सहस्साइं थंडतित्थयत्तं गंतुं सुविहियाणं ता जाव णं बोलेइ जत्तं ताव लाणं सन्चदंसीहिं पन्नत्ताई ते य सुप्रोवउत्तेहिं विसोहिगं अहं तुम्हे चंदप्पहं वंदावहामि, अन्नं च जत्ताए गएहिं ज्जंति ण उप अनोवउत्तेहिं ता किमयं सुमासुधीर असंजमे पडिजइ ,एपणं कारणेणं तित्थयत्ता पडिसेहिजइ । अण्णोवउत्तेहिं गम्मइ इच्छायारणं उवोगं देहि अनं तो तेहिं भणियं-जहा भयवं! केरिसश्रो णं तित्थय- इणमो सुत्तत्थं । किं तुम्हाणं वि समरिओ भवेजा। जं सारं ताए गच्छमाणाणं असंजमो भवइ, सो पुण इच्छा- सव्वपरमतत्ताणं जहा एगो वेदिये पाणी एगं सयमेव । यारेणं विइजवारपरिसंउलावेज्जा बहुजणेणं वाउलगो हत्थेण वा पाएण वा अन्नयरेण वा सलागाइअहिगरणभन्निहिसि ताहे गोयमा ! चिंतणं तेणं पायरिएणं जहा भूप्रो चरणजाएणं जेणं कई संघट्टावेजा पासघट्टियं वा णं मम वइक्कमिय निच्छयो एए गच्छिहिंति तेणं तु- अपरं समणुजाणेजा से णं तकम्मं जया उदिणं भवेजा तया मए समयं च उत्तरेहिं चयंति अह अन्नया सुबई मण- जहा उच्छुखंडाई जंते तहा निपीडिजमायो छम्मासेणं सा संधीरेउ णं चव भणियं तेणं आयरिएणं-जहा णं खवेजा, एवं गाढे दुवालसेहिं संवच्छरेहिं तं कम्मं वेदेजा, तुम्मे किंचि वि सुत्तत्थं बियाणह णच्चियाण तारि एवं आगाढपरियावणे वाससहस्सं, गाढपरियावणे दसवासतित्थजत्ताए गच्छमाणाणं असंजमं भवइ । तारिस सय- सहस्सं, एवं आगाढकिलावणे वासलक्खं, गाढकिलावणे मेव वा बियाणह किंचि एत्थ बहुविलंबिएणं अन्नं च चिं दसवासलक्खाई, उद्दवणे वासकोडी. एवं तेइंदियाइसुं पि दियं तम्हेहिं पि संसारसहावजीवाइपयत्थं तत्थं वा प्रह- मेयं ता एवं च वियाणमाणो मा तुम्हे मुज्झह त्ति । एवं च एणया बहुउवाएहिं णं विणिवारितस्स वि तस्साऽऽयरि- गोयमा! सुत्ताणुसारेणं सारयंतस्सवि तस्साऽऽयरियस्स यस्स मनए चेव । तं साहुणो णं कुटेणं कयं तेणं परिए ते महापावकम्मे गमगमहल फलेणं हल्लाहलीभृएणं तं तित्थयत्ताए तेसिं च गच्छमाणाणं कत्थइ णेसणं कत्थइ | आयरियाणं असेसपावकम्मदुक्खविमोयगे णो बहुहरियकायसंघट्टणं कत्थइ वीयकमणं कत्थइ पिवीलिया- | कम्मट्ठदुक्खविमोयगे णो बहु मन्नंति ताहे गोयमा! मुदीणं तसाणं संघट्टपणं परितारणोद्दवणाई संभवं कत्थइ | णियंतेणाऽऽयरिएणं जहा निच्छियो उम्मग्गपट्ठिए सबवि इट्टपडिक्कमणं कत्थइ ण कीरिए चव वाउकाइयं पगारहिं चेव इमे पावमई दुट्ठसीसे ता किमहमहमिमेसि सज्झायं कत्थइ ण संपडिलेहेजा मत्तभंडोवगरणस्स वि- पट्ठीए लल्लीवागरणं करेमाणो अणुगच्छमाणोय सुक्खाए हीए उभयकालं पेहपक्खेजा ण पडिलेहणपडणं किं ब- गयजलाए णदीए उवुज्झए गच्छदसदुवारेहिं । अयं तु हुणा गोयमा! कित्तियं भन्निहियं अट्ठारसएह सीलंग- तावाऽऽयहियमेवाऽणुचिट्टेमो किमजपक्खएणं सुगृहं तणासहस्साणं सत्तरस्स वि सहस्साणं संजमस्स दुवालसवि- वि पुत्तपम्भरेणं थेवमवि किं वि परित्ताणं भवेजा अपरइस्स गं सब्भितरवाहिरस्स तवस्स .जाव गं खंताई। कमेणं चेव आगजुत्ततवसंजमाणद्राणेणं भवोयही तरेयअहिंसालक्खणस्स वयस्स दसविहसहस्साऽणगारधम्मस्स वो एस उण तित्थयराऽऽएसो, जहाजत्थेकेकपयं चेव सुबहुएणं पिकालेणं थिरपडिचिएण "अप्पहियं कायव्वं, जइ सक्का परहियं च पयरेजा। बालसंगमहासुयक्खंधणं बहुभंगसयं संघतणाए दुक्ख- अत्तहिय-परहियाणं, अत्तहिये चव कायब्वं ॥१॥" निरइयारं परिवालिऊणं । जे एयं च सव्वं जहा भणियं अन्नं चनिरइयारमगुंटेयंति एवं संभारिऊण चिंतियं तेण गच्छा- "जइ एते तवसंजम-किरियं अणुपालियं होंति तो । हिवाणा जहा णं मे विप्परुक्खेणं ते दुसीसे मझं श्र- एएसिं ववसेयं, होइ जेहि ण करेहिति ॥१॥" णाभोगमविणएणं सुबहुं असंजमं काहेति । तं च सध - 1 तो एएसिं चेव दुग्गइगमणमणुत्तरं हविजा । नवरं मपच्छंतियं होही। जो णं हं तेसिं गुरू ताहं तेसिं पट्टिए तहा वि मम गच्छो समप्पिनो गच्छाहिबई अहयं भगंतणं पडिजागरामि जणाहमित्थपए पायच्छित्तेणं णो णामि । अन्नं च जे तित्थयरहिं भगवंतेहिं छत्तीसं पायसंवजेजत्ति वियप्पिऊणं गो सो आयरिश्रो तेसिं प?ए रियगणे समाइडे । तेसिं तु ग्रह ये एक्कमविणाइक्कमामि । जावण दिडे तेणं असमंजमेणं गच्छमाणं ताहे गोयमा! जह वि पाणोवरमं भवेजा जंवाऽऽगमे इहपरलोगविरुद्धं तं सुमहरमंजुलालावणं भणियं तेणं गच्छाहिवइणा जह भो! | णाऽऽयरामि, ण कारयामि, न कजमार्ण समणुजाणामि। भो! उत्तमकुलनिम्मलवंसविसणा! असुगयसुग्गहमहा- तमेरिसगुणजुत्तस्सऽवि जइ भणियं ण कति ताहमिमेसि सत्ता ! साहूउ पड़ियनाणं पंचमहब्वयाहिया ! ते गुणं वेसग्गहणा उद्दालेमि एवं समए पन्नत्ती, जहा जे केई साहू Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) अभिधानराजेन्द्रः । भाषा साहुणी वा वायामिते यो वि असंजममणुच्चेंट्ठेजा। से गं सारेज्जा से गं सारिज्जते वा वारिज्जंते वा चोइजंते वा एडिनोडिते वा । जस्मं तं वयणमत्रमन्त्रिय वाइमाणे या अभिनिविट्ठेइ वा तह त्ति पडिवञ्ज इत्थं पउंजित्ताणं तत्व आणापडिकमेज से णं तस्स वेसग्गहणं उद्दालेज्जा । एवं तु आगमुत्तणा एवं गोयमा ! जाव तेणायरिए एगस्स सेइस्स वेसग्गहणं उद्दालियं ताव संवसेसे विदिसो दिसिं पट्टे ताहे गोयमा ! सो आयरिओ सखियं सणियं तेसिं पट्ठिए जातुमारो णो णं तुरियं तुरियं से भयवं किमट्ठे तुरियं तुरियं णो पयाइ, गोयमा ! खाराए भूमीण जा महुरं संकमेजा महुराए खारं किएहाए पीवं पीयाओ किएहं जलाउ थलं चलाओ जलं संकमेज्जा । तेषं विहीर पाए पमजिज्ज संकामियन्वं गो पमजेजा तो दुबालससंवच्छ रियपच्छित्तं भवेज्जा एएखमद्वेगं । गोयमा ! सो आयरियो तुरियं तुरियं गच्छं श्रहन्वया सुयाउत्तविहीए थंडिलजल मंकमणं करेमाणस्स गं गोयमा ! तस्सायरि - बस्स गयो बहुवासरखुहापरिगयसरीरे वियडदाढविकरालयं तं भासुरोपलयकाल मिथघोररूवो केसरी | भणियं च ते महाणुभागेणं गच्छा हिवइणा जहा जेयं दुग्गंगच्छेज्जा इमस्स वरं दुग्गं गच्छमाणेणं श्रसंजम तरव सरीरवोच्छेयं असंजमपवचयति चिंतिऊण विहीए उवट्ठियस्स सहसा जमुद्दालियं वेसग्गहणं तं दाऊण ठिओ णिप्पडिकम्मपायपोवगमणा से एए सो विसोही तहेव अहन्नया अच्चंत विसुद्धंतकरणे पंचमंगलायारे सुहज्भवसायचाए दुवियगोयमवाईए वे सीहे अंतगडे केवली जाए । अट्टप्पयारमलकलंकविप्पमुक्के सिद्धे य ते पुण गोयमा ! एक पंचसर साहूणं तकम्मदोसेणं जं दुक्ख मणुभवमाणे चिट्ठति जं वाऽणुभूयं जं वाऽणुभवि - हिंति पतसंसारसागरं परिभ्रमं तं कालं केवलि अंतणं भणिउं समत्थो । एते गोयमा ! एगूणे पंचसए साहूणं जहिं च खं वारिसगुणोववेयस्स गं महा भागस्स गुरुखो आणं अइकमिय णो आराहियं अतसंसारियं जाए, से भयवं ! किं तित्थयरसंतियं श्रणं गाइकमेज्जा, उयाहु आयरिय संतियं १, गोयमा ! चउच्चिहा आयरिया भवति, तं जहा - नामाऽऽयरिया, ठवणाऽऽयरिया, दव्वाऽऽयरिया, भावाऽऽयरिया, तत्थ ण जे ते भावायरिया ते तित्थयरसमा चैव दट्ठव्वा, तेसिं संवियाऽऽखं लाइकमेज्जा । महा० ४ ० । ( श्राशाभने दण्डो यथा ) - तित्थकरश्राणां य एसा अणुपालियव्य ति जहा रो ३५ आणा अपणो रज्जे जं मार्ग प्रतिष्ठापितं जा ततो माणतो अतिरेगभूयां वा करति सां श्रवराही इंडिज्जति, एवं जो तित्थकराणं श्राणं कोवेत्ति सो दीहसंसारी (१८६ गाथाचूर्गिः ) नि० चू० २० उ० व्य०१ उ०२ प्रक० २२० गाथाटी० | "तंमि य आणाभंगे चउगुदयं पच्छित्तं ति" । नि० चू०५ उ० ६४ गाथा । (१०) (लम्बग्रहणमधिकृत्य ) - भगवता प्रतिषिद्धं यत्नलम्बे-न कल्पते तदग्रहणं कुर्वता भगवतामाशाभङ्गः कृतो भ वति, तस्मिंश्चाज्ञाभङ्ग चतुर्गुरुकाः । अत्र परः प्राह वराहे बहुगतरो, चाणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु । आणाए चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ॥ ११८ ॥ अपराधे चारित्रातिचारे लघुतरो दण्डो भवद्भिः पूर्वे भणितः तथाहि - अचित्ते प्रलम्ब मासलघु, इह पुनराशाभङ्ग चतुर्गुरुकमिति गुरुतरो दण्डः कथं- कस्मात् तुरि ति वितर्के, अपि च श्रपराधे जीवोपघातो दृश्यते, तेन तत्र गुरुतरो दण्डा युक्तियुक्तः, श्राज्ञायां पुनर्नास्ति जीवोपघात इति लघुतर एवात्र भणितुमुचित इति । आचार्यः श्राह श्राज्ञायामेव भागवत्यां चरणं चारित्रं व्यवस्थिनम अनस्तद्भङ्गे तस्या आशाया भङ्गे किं तन्मूले उत्तरगुणादिकं वस्तु न भग्नम् अपि तु सर्वमपि भग्नमिति, अनाशायां गुरुतरो दण्डः ॥ उच्यत अस्यैवाचार्यस्य प्रसाधनार्थे दृष्टान्तमाहसोऊन् य घोसणयं अपरिहरंता विणासँ जह पत्ता । एवं अपरिहरंता, हियसव्वस्साउ संसारे ।। ११६ ।। राशा कारितां घोषणां श्रुत्वा घोषणायां च निवारितमधमपरिहरन्ती यथा व्यापारलक्षणं विनाशे प्राप्ता एवं तीर्थकरनिषिद्धं प्रलम्बग्रहणमपरिहरन्तो हुनसर्वस्वाः श्रपहृत संयमरूप सर्वसाराः संसार दुःखमवाप्नुवन्ति एषा “भद्र बाहुस्वामि” विरचिता गाथा । + अथाऽस्या एवं भाष्यकारो व्याख्यानं करोतिछप्पुरिसा मज्झपुरे, जो आसादेज्ज वे आजातो । दंडेमि कंडे, सुखे तु पुरभो जखववाय ।। १२० ।। मामिय परिहरंता, निद्दोसा सेसगा न निद्दोसा | जिण आणागमचारी, अदोस इयरे भवे दंडो ॥ १२१ ॥ "जहा केइ नरवई सो छहिं पुरिसेहिं श्रन्नतरे कजे तोसितो इमेणऽत्थेण घोसणं करेइ-इमे छप्पुरिसा । मज्झरिण इच्छाए विहरमाणा महाजणं श्रदिट्टपुत्र्या अणुवलद्धविभवनेवत्था श्रच्छेति । जो ते छिवइ वा पांडेइ वा मारे वातस्स उग्गं दंड करेमि पत्र घासणत्थं सोऊण ते पउरजवया य दंड भीता ते पुरिसे पयत्तेस वनरूवाईहिं विधेहिं श्रागमिऊण पीडापरिहारकयबुद्धी तेसिं छरणं पुरिमाणं पीडं परिहरति ते निद्दोसा । जे पुरा अणायारमंता न परिदरंति घोसहसाऽवराहदंडेय इंडिया | एस दितो । अयमत्थोवणश्रो - रायत्याणीया तित्थयरा, पुरस्थाणीश्रो लोगो, छप्पुरिसस्थाणीया छक्काया, घोसणाथाणीया छक्कायरक्खणपरूवणपरा छज्जीवनियादश्रो श्रागमा, विवाइत्था Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) भाणा अभिधानराजेन्द्रः। भाणा सीया संघट्टणादी, पउरजणवयत्थाणीया साहू, बंडत्थाss-| अथ गाथाऽक्षरगमनिका-चाणक्यस्य भिक्षामटनः कापि णीनो संसारो, तत्थ जे पयत्तण छराई कायाणं सरूवं ग्रामे भक्तस्यादानं; भिक्षा न लब्धेत्ययः । तत आशास्थापनारक्खणे वायं च भागमऊण जहुर्तावहीए पीडं परिहरंति निमित्तमयं लेखः प्रेषितः-'अम्ब छ वंसबह' त्ति अामान् ते. कम्मबंधदंडेणं न दंडिज्जंति, इयरे पुण संसारे पुणो छित्त्वा वंशानां वृत्तिः कर्तव्या ततो गवेषणे कृते प्रामेण पुणो सारीरमाणसेहिं दुक्खसयसहस्सेहिं दंडिजति त्ति । च पथिदर्शिते अन्यदादिष्टं मया, अन्यदेव च भवद्भिः अथाऽक्षरगमनिका-पटपुरुषा मम पुरे वर्तन्ते यस्तानजा कृतमित्युपालभ्य तैः पुरुषैः वृत्ति कारयित्वा सबालवृद्धस्य मन्नपि पाशातयेत् तमहं दण्डयाम्यकाण्डे-काले शृण्वन्तु प्रामस्य दहनं कृतम् । एष दृष्टान्तः। पतत्पीराः-पुरवासिनो जनपदाश्च-ग्रामवासिनो लोका, अर्थोपनयस्त्वेवम्इति, राक्षा कारिता घोषणां श्रुत्वा तान् पुरूषानागम्योप- एगमरणं तु लोए, आणति उत्तरे अणंताई। लक्ष्य परिहरन्तः सन्तो निषाः शेषाः पुनये पीडां न अपराहरक्खणडा, तेणाऽऽणा उत्तरे बलिया ॥३५॥ परिहरन्ति ते न निदोषा इति दण्डिताः। एवमत्रापि जिना लोके आज्ञाया अतिचारे-अतिक्रमे एकमेव मरणमवाप्यया यः षटकायानामागमः-परिक्षानं तत्पूर्वकचारिण: ते, लोकोत्तरे पुनराक्षाया अतिचारे अनन्तानि जन्ममरणासंयमाध्वगामिनः सन्तोऽदोषाः, इतरेषां भव-संसार शा नि प्राप्यन्ते तेन कारणेन अपराधरक्षणार्थ लोकोत्तरे श्रारीरमानसिकदुःखलक्षणो दण्डः । गतमाशाद्वारम् । वृ०१ का बलीयसी । वृ० १ उ० ३ प्रक०। (पाशाभ सति दराडे उ०२ प्रक० । नि० चूछ। दृष्टान्तः 'असक्झाइय' शब्दे प्रथमभागे ८२७ पृष्ठे मतः) ( अपराधपदमधिकृत्याऽपि उक्तम् ) (पाशाभङ्गस्य दुःखकारणत्वम् )अपराधपंद वर्तमानस्तीर्थकृतामाज्ञाभकं करोति तत्र चतु- ता जत्थ दुक्ख विक्खिण्णं, एगंतसुहपावणं । गुरुरिति । वृ० १ उ०२ प्रक० । सा आणा नो खंडेजा , प्राणाभंगे को ? सुहो अत्र नोदकः प्राह ॥१॥ महा० ४ अ० प्रवराहे लहुगयरो, किं णु हु प्राणाए गुरुतरो दंडो। (११) (आशारहितस्य चारित्रमपि न भवति)आणाए चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ॥३५१|| दुप्पसहं तं चरणं, जं भणियं भगवया इहं खेत्ते । जघन्य अपरिगृहीते वा तिष्ठति प्राजापत्यपरिगृहीतं ज प्राणाजुत्ताणमिणं, न होइ अहुणो त्ति वामोहो ॥५७॥ धन्यमसंनिहितम प्रतिसवित उभयत्रापि चतुर्लघु, एवं दर्श०४ तत्व । (गाथार्थः - दुष्पसह ' शब्दे चतुर्थभागे स्थानतः प्रतिसेवनन यश्चापराधे लघुकतरो दण्ड उक्त दयिष्यते) पाशाभा चतुर्गुरुकमित्यतः 'किमि' ति परिप्रश्ने, 'नुरि' ति ( तीर्थकराऽऽज्ञानिन्दकस्य निन्दा)वितर्के, 'हुरि' ति गुर्वागन्त्रणे, किमवं भगवदाक्षायां भझायां गुरुतरो दण्डो दीयत । सूरिराह-प्राशयैव चरण व्यवास्थतं प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि, तस्य भङ्ग कृत सति किं न भग्नं; चरणस्य सर्वमपि भग्नम स्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः । वेति भावः । अपि च-लौकिका अभ्यासाभङ्गे गुरुतरं दण्डं- जिन! त्वदाज्ञामवमन्यते यः, प्रवर्तयन्ति। स वातकी नाथ ! पिशाचकी वा ॥२१॥ तथा चाऽत्र पूर्वोद्दिष्ट मौर्यदृष्टान्तमाह त्वदाज्ञा (श्रा सामस्त्येनानन्तधर्माविशिष्टतया झायन्तेऽवभत्तमदाणमडंते, अणवट्ठाणवं अंबच्छेत्तु वंसवती। । बुद्धयन्ते जीवादयः पदार्था यया सा पाशा-भागमः; शासन गविसणपहदरिसिए, पुरिसवइबालडहणं च ॥ ३५२ ॥ | तवाऽशा त्वदाशा तां त्वदाशां) भवत्प्रणीत"स्याद्वादमुद्रां," "पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तो गया, सो य मोरपोसगपुत्तो यः-कश्चिदविवकी अवमन्यते-अवजानाति (जात्यपेक्षमकत्ति ज खत्तिया अभिजागति ते तस्स आणं परिभवति । वचनमवशया वा) स पुरुषपशुः वानकी, पिशाचकी वा। चाणकस्स चिंता जाया, प्राणाहीणे करिसो राया। तम्हा स्या। ('अस्य विशेषतः व्याख्यानम् 'अणगंतवाय' श ब्द प्रथमभाग ४२५ पृष्ठ गतम् ।) (तीर्थकराझारहितजम्हा एयरस श्राणाभिक्खा भवइ तहा करेमि त्ति तस्स य चाणकरस कप्पडियत्त भिक्खं अइंतस्स एगमि गामे धर्मस्य फलाऽफलत्वविचारः 'आणाखण्डण' शब्द स्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) भत्तं न लद्धं तत्थ य गामे बहुधे बा, वं सा य अस्थि । तेउं (जिनाऽऽशास्थित्यवधिश्च )तस्स गामस्स पडिनिविटेग आणावणानिमित्तं इमेरिसो लहा पेसिओ-आम्रान् छित्त्वा बंशानां वृत्तिः शीघ्र कार्यते से भयवं! केवइयं कालं जाव पस प्राणा पवेइमा?, गोसार्ह गामअगहिं दुलि हयं ति काउं वंस छत्तुं अंबाण यमा ! जाव णं महायसे महासत्ते महाणुभागे सिरिप्पभे वई कया गवेसावियं चाणक्केणेक्किक्कयं तो तत्थागंतूग अणगारे । से भय ! केवइएणं कालणं से सिरिप्पभे अणगरे उवालजा भे गामेयगा एन बंसगा राहगादिसु उपउज्जान भवेजा । गोयमा ! ? होही दुरंतपंतलक्षणे अदब्बे रोद्दे कीस भे छिन्नति दसियं लहवीरियं अन्नं दिटुं, अन्नं चव करह ति. तश्रा पुरिसहिं अधासिरहिं वयं काउं सो चंडे उग्गे पयंडदंडे निम्मिरे निकिवे निग्घिणे नितिमे गामो सम्बो दहो। करयरपावमई अगारिए मिच्छट्ठिी "ककी" नाम रायाणो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) अभिधान राजेन्द्रः । भाषा (d) से णं पावे पाहुडियं भमाडिउकामे सिरिस मण संघ कयत्थेजा जाव णं कयत्थे ताव णं गोयमा ! जे केइ तत्थ सलिद्धो महाणुभागो अबलियसत्ते तवोवहा अणगारे | तेसिं च पाडिहेरियं कुजा सोहम्मे कुलिसपाणी एशवस्यगामी सुरवरिंदे एवं च गोयमा ! देविंदबंदिए दिपच्चए सं सिरिस्मण संघेजा गिडिजा कुणए पासंदधम्मे ० जाव खं गोयमा ! एगे विजे । श्रहिंसालक्ख खेतादिदसवि धम्मे । एगे अरहा देवाहिदेवे एगे जिणालये एगे वंदे पूए दक्खे सकारे संमाणे महाजसे महासत्ते महाणुभागे दढमीलयनियमधारए तवोवहाणे साहु तत्थ खं चंदमित्र सोमलसे सूरिए इव तवतेयरासी पुढवी इव परिसहोवसग्गसहे मेरुमंदरघरे इव निप्पकंपे ठिए अहिंसालक्खणखतादिदसविहे धम्मे । से णं सुसमणगणपरिवु - डे । निरब्भगयणामलकोमुद्दजोगजुत्ते इव गहरिक्खपरिवार गवई चंदे हिययरं विराहेजा गोयमा ! से गं सिरिप्पभे । अणगारे भो गोयमा ! एवतियं कालं ० जाव एसा आणा पोइया से भयवं उडुं मुच्छा गो मा ! ओ परे उट्ठे हायमाणे कालसमये तत्थ गं जे केई छकायममारंभविवज्जए । से णं धन्ने पुन्ने वंदे पूए पसंसखिजे । जीवियं सुजीवियं तेसिं । महा० ४ ० । ( १२ ) श्राशाव्यवहारः आज्ञायते श्रदिश्यत इत्याशा | व्यवहारभेदे स्था० ५ ठा० २ उ० भ० । व्य० । पश्चाo 1 दशान्नरस्थितयोर्द्वयोर्गीतार्थ यो गूढपदैगलांचनानि जानिवारनिवे दनम् श्राज्ञा व्यवहारः, एतदुक्तं भवति यदा द्वावण्याचार्यावासेवितसूत्रार्थतयाऽतिगीतार्थौ क्षीणजङ्गाबलौ विहारक्रमानुरोधतो दूरतरदेशान्तरव्यवस्थितावत एव परस्य समीपे गन्तुमसमर्थावभूतां तदाऽन्यतरप्रायश्चित्ते समापतिते सति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्या ऽभावे मतिधारणाकुशलमगीतार्थमपि शिष्यं समयभाषया गूढार्थान्यतिचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति तेन च गत्या गूढपदेषु कथितेषु स श्राचार्यो द्रव्यक्षेत्र कालभाव संहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं च तत्राऽऽगमनं करोति, शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थ प्रज्ञाप्य प्रेषयति । तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारशुद्धिं कथयतीति । प्रव० १२६ द्वार । व्य० । ( तथा च ) - पढमस्स य कज्जस्स य, पढमेरा परण सेवियं जं तु । पढमे छके अभि-तरं उ पढमं भवे ठाणं ॥ १ ॥ अत्र प्रथमं कार्य दर्णः तत्र प्रथमं पदं दर्शननिमित्तं प्रथमं पदकं व्रतपट्कं तत्राभ्यन्तरम् अन्तर्गतं प्रथमस्थानं प्राणातिपातः । " पढमस्स य कजस्स य, पढमेण परण सेवियं जं तु । पदमे के अभि-तरं तु बीयं भवे ठाणं ॥ २ ॥ For Private आपा अत्र द्वितीयं स्थानं मृषावादः, एवमदत्तादानादिष्वपि भावनीयम् । पढमस्स य कजस्स य, पढमेण परण सेवियं जं तु । बिre छके अभि- तरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ ३ ॥ अत्र द्वितीयं षट्कं कायषट्कमित्यादि । एवं तेन कथितेन आचार्यो द्रव्यक्षेत्र कालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं वा गमनं करोति । शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थ प्रज्ञाप्य प्रेषयति, तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थमतिचारविशुद्धि कथयति । व्य० १ ३० । आणाय ववहारं, सुण वच्छ जहकमं वुच्छं ॥ ६०६ ॥ अश्या व्यवहारं यथाक्रमं यथा वचये तं च वक्ष्यमाणं वत्स ! श्रृणु । व्यवहारः । समणस्स उत्तमट्ठे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स | दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ श्रायरिया ॥ ६१० ॥ श्रमणस्य उत्तमार्थे भक्तप्रत्याख्याने व्यवसितस्य यत्कि - मपि सत्यमनुघृतमस्ति तदुद्धरणकरणं श्रभिमुखस्य । 'दूरत्था जन्थ भवे छत्तीसगुण 'त्ति-यत्र प्रायश्चित्तव्यवहार त्रिशद्गुणा श्राचार्या दूरस्था भवेयुस्तत्राऽऽज्ञया कथमित्याहअपरकमो सि जाओ, गंतुं जे कारणं च उप्पनं । अट्ठारसमन्नयरे, वसणगतो इच्छिमो आणं ।। ६११ ।। स आलोचयितुकामश्चिन्तयति- सांप्रतमहमपराक्रमो जातोऽस्मि ततस्तेषां समीप गन्तुं न शक्नोमि । कारणं च मम तत्पार्श्वगमननिमित्तं समुत्पन्नम् । यतोऽष्टादशानां व्रतबदकादीनाम् अन्यतरस्मिन्नतीचारे व्यसनगतः पतितस्तस्मादिच्छाम्याशव्यवहारमिति । एतदेव सविशेषं भावयति अपरकमो तवस्सी, गंतु जो सोहिकारगसमीवं । आगंतुं न वाई, सो सोहिकरो धि देखाउ ।। ६१२ ।। सः - आलोचयितुकामस्तपस्वी शांधिकारकसमीपे गन्तुम् पराक्रमी यस्य शांधिः कर्त्तव्या सोऽपि देशादालोचयितुं समीपमागन्तुं न शक्नोति । पट्ट सीसं, संतरगमणनट्ठचेट्ठागो | इच्छामओ काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्म ।। ६१३ ॥ अथ - अनन्तरमालोचयितुकामो देशान्तरगमननश्चेष्टक आलोचनाssचार्यस्य समीपे शिष्यम्, आर्य ! युष्माकं सकाशे शांधि कर्तुमिच्छामीत्येतत्कथयित्वा प्रेपयति । सो व अपरकमग- सीसं पेसेइ धारणाकुमलं । एस दाणि पुरो, करेहि सोहिं जहावत्तं ॥ ६१४ ॥ सोऽपि आलोचनाऽऽचार्यो ऽपराक्रमगतिनं विद्यते पगक्रमो गतौ यस्येति विग्रहः । शिष्यं धारणाकुशलं प्रेषयति । यस्त्वालाचयितुकामेन प्रेषितस्तस्य संदेशं कथयति त्वमि-दानीमेतस्य पुरतो यथावृत्तं शोधिं कुरु । अपरकमो अ सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेजा । रुक्खे य बीकाए. सुत्ने वा मोहणाधारी ॥ ६१५ ॥ Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) भाणा अभिधानराजेन्द्रः। सः-आलोचनाचार्योऽपराक्रमः शिष्यमाशापरिणामकं पग- | तमारोहणव्यवसितं गुरुरवष्टभ्य-बाही धृत्वा वारयति । क्षेतः किमेष पाशापरिणामकः, किं वा नेति ? । श्राक्षापरी- | यदेवमुक्नं वृक्ष परीक्षणम् । णामको नाम-यत् प्राक्षाप्यते तत्कारणं न पृच्छति "किमर्थ अधुना जीवेषु तदाहमतदिति" कित्वाज्ञया पय कर्तव्यतया श्रद्दधाति, यदत्र कारण तत्पूज्या एव जानन्त एवं यः परिणामयति स ा एवाऽऽणेह य बीयाई, मणितो पडिसेहे अपरिणामो । ज्ञापरीणामकस्तरपरीक्षा च वृक्ष बीजकाय च वक्ष्यमाण- अइपरिणामो पोट्टल, बंधूणं आगतो तहियं ।। ६२२॥ रीत्या कर्तव्या। आशापरिणामित्वं परीक्ष्यः पुनारदं परी- एवम्-अमुना प्रकारण बीजानि अनायत इत्युक्त अपरिक्षणीयं यथा किमेपाऽवग्रहण समर्थो धारणासमर्थश्च किं णामः प्रनिषधयति-न कल्पन्ते बीजानि गृहीतुमिति , यवा नति । तत्राध्ययनादिपरीक्षया सूत्रे चशब्दात्-अर्थे वा स्त्वतिपरिणामकः स बीजाना पाट्टलं बद्धा तत्र गुरुसमीपे अमोहन-मोहरहित समस्तम् आ-समन्ताद्धारयतीत्यवं समागतः। शीलः अमोहधारी तं परीक्षेत । ते वि भणिया गुरूणं , भणिया नेह अमलिबीयाई । तत्र वृक्षणाऽऽज्ञापरिणामित्वपरीक्षामाह न विरोहसमत्थाई. सच्चित्ताई व भणियाई ॥ ६२३॥ दट्ठमहं ते भक्खो, गणिो रुक्खो विलग्गिउं डेव । तावत् यः अपरिणामका गुरुणा भखिनो मया भणितमाअपरिणयं वेंति तहिं. न वट्टइ रुक्खे वि आरोढुं॥६१६॥ नय अम्लिकाबीजानि-काकिनीबीजानि , यदि वा-स चित्तानि-विध्वस्तयोनिमयानि, यानि न विरोहसमर्थानि किं वा मारेयन्वो, अहियंतो वेह रुक्खो डेव । तान्यानयति भणितानि। अतिपरिणामो भणति, इय हेऊ अम्ह वेसिच्छा ॥६१७॥ तत्थ वि परिणामो तू, भणती आणेसि केरिसाई तु । हया महता महीरुहान् गणिकः-श्राचार्यो ब्रूते-अस्मिन्नुनै कत्तियमित्ताई वा, विरोहमविरोहजोग्गाई ।। ६२४ ।। स्त्वन तालप्रमाणे वृत्ते बिलग्य तत आत्मानं (डिप) क्षिप्रपातं तत्रापि यः परिणामकः स भति-कीदृशानि बीजान्यानकुर्वित्यर्थः, एवमुक्त तत्र-आझापरिणामको ब्रूत-न वर्तते वृक्ष यामि । बिरोद्दयोग्यानि, अविराहयोग्यानि वा, कियविलगितुं साधाः सचित्तत्वावृक्षम्य प्रपाते च कुर्वन् श्रा न्मात्राणि वा। स्मविराधना भवति । सा च भगवता निषिद्वा, किंतु-श्रमनापायन मारयितव्योऽभिप्रेतो बृथ वृक्षादात्मानं डंपति । सो वि गुरूहि भणितो, न ताव कजं पुणो भणीहामि । अतिपरिणामकः पुनरिदं भणति-इत्येव भवतु, करामि प्र हसितो व मए तासि, वीमसत्थं व भणितो सि ॥६२।। पातमिति भावः अस्माकमप्येषा इच्छा वर्तते । सः-अप्याशापरिणामका गुरुभिर्भणितो न तावदिदानी कार्य यदा तु कार्य भविष्यति तदा पुनर्भणिष्यामः । अथवावेइ गुरू अह तंतू , अपरिच्छियत्थे पभाससे एवं। हसिनोऽमि मया तावदिदानी न पुनर्बीजः प्रयोजनं, यदि किं च मए तं भणितो, आरुहरुक्खे (य) सच्चिते ॥६१८॥ वा-विमर्शाथै तब-विमर्शपरीक्षणार्थ त्वमवं भणितोऽसि । अथ-अनन्तरं तमतिपरिणामकं शिष्यं ब्रूते-अपरीक्षिते-अ संप्रत्यमोहनाधारिपरीक्षामाहपराभाविते मद्वचनस्यार्थ त्वंमयमुक्नप्रकारण प्रभाषसे यथा पयमक्खरमुद्देसं , संधीसु तत्थ तदुभयं चेव । करोमि प्रपातमस्माकमप्येषेच्छा वर्तते । अपरिणामकम अक्खरवंजणसुद्धं , जह भणितं सो परिकहेइ ।। ६२६॥ धिकृत्य ब्रूत-त्वं वा मया किमेवं भणिता यथा सचित्त वृक्ष प्रारोहाय नोद्यते न वर्तते साधाः वृक्षे विलगितुमिति किंतु पदमक्षरमुद्देशं सन्धिम्-अधिकारविशषं सूत्रमर्थ तदुभयं तन्मयोक्तम् । च अक्षरव्यन्जनशुद्धं पूर्वमवग्राहयति किमय ग्रहणधारणा योग्यः किं वा नेति अवग्राह्य, ततो घूते-उच्चारय प्रेक्ष किमतदेवाऽऽह पि गृहीतं न वा किं त्वगृहीतमपि कि स्मृतं किं वा नेति । तवनियमनाणरुक्खं, आरुहिउं भवमहसवाऽऽपरणं । तत्र यदि यथा भणित तथा सर्व परिकथयन्ति तदा शातसंसारग(ड)त्तकूलं, डेवे हंत मए भणितो ॥ ६१६ ।। व्य एष ग्रहणधारण कुशल इति । तपोनियमज्ञानमयं वृक्ष भवार्णवापन्नं-भवसमुद्रमध्यप्राप्त- एवं परिच्छिऊणं, जोग्गं नाऊण पेसये तं तु । मारुह्य संसारगफूिल डिप' उल्लङ्घय इति मया भगितः। । वच्चाहि तस्सगासं, सोहिं सोऊण आगच्छ ।। ६२७॥ जो पुण परिणामो खलु, आरुह भणितो वि सो विचिंतेइ । एवं परीक्ष्य-योग्यं ज्ञात्वा तं प्रेषयत् संदिशति च व्रज नेच्छंति पावमेते, जीवाणं थावरा(दी)णं(पि) ॥६२०॥ तस्य-साधोरालाचयतुकामस्य शोधिम्-श्रालाचनां श्रुत्या किं पुण पंचेंदणं, सं भणियब्वेस्थ कारणेणं तु। पुनस्वाऽऽगच्छ । आरुबणयवसियं तु , वारेइ गुरुववत्थंतो ।। ६२१ ॥ अह सो गती उ तहियं, तस्म सगासंमि सो करे सोहिं । यः पुनः खलु परिणामः-आज्ञापरिणामकः स आरोहेति दुगतिचउविसुद्धं,तिवेहे काले विगटभावो ।। ३२८ ।। भणितश्चिन्तयति-मच्छन्ति पापमते मदीया मुस्ची जी- पथ-प्रषणानन्तरं यत्राऽऽलाचयतुकामा विद्यते । तत्र गतवानां स्थायराणापिः किं पुनः पञ्चेन्द्रियाणां तस्मादत्र स्तस्वागतस्य समीपे पालोचयितुकामा प्रशस्तेषु द्रव्याकारगन भवितव्यम , एवं विचिन्त्य आरोहणे व्यवसितः ।। दिषु शोधिम्-आलोचनां करोति । कथमित्याह-द्विकदर्शना Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा तिचार: चारित्राचारमालोचयतीत्यर्थः । दर्शनग्रहणं ज्ञानग्रहणमपीति ज्ञानातिचारं चत्यपि द्रष्टव्यम् । चारित्रातिचारालोचनेऽपि च भेद-मूलाधारविषय, उत्तरगुणविषया च । तां करोति । पुनस्त्रिकाम् श्राहारोपधिशय्यां दिन एकेका त्रिकायम्, चतुर्थ प्रशस्तपत्रका सभापत त्रिविधेकाले प्रत्युत्पनेचयत्विनम्, अनागंत च यत्सविष्ये इत्यध्यवसितं विकटभावःप्रकटभावः अप्रतिकुञ्चन इत्यर्थः । व्य० १० उ० । ( १४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । - ( श्राशाव्यवहारसाधकः ) - दव्वे भावे आणा, खलु सुयं जिणवराखं । सम्मं ववहरमाणो, उ तीऍ आराहश्र होति ॥ ५६ ॥ आशा द्विविधा- द्रव्ये, भावे च । तत्र द्रव्याशा-राजादीनामाशा, भावाचा खल श्रुतं जिनवराणाम् । तत्र सम्यक् पश्चविधान्यतमेव व्यवहारण- प्रागुक्कनीत्या व्यवहरन् तस्याःप्राज्ञाया आराधका भवति । व्य० ३ उ० । महाअविराग माझा वेधक पुं० श्रापा आराधके, पं०सू० २ सूत्र । आगाबाद- श्रज्ञाऽऽघनन० आतोपदेशानुपाल पञ्चा] "श्राणा श्रराहणाओ" । (५+) आशाऽऽराधनात्-आप्तोपदेशानुपालनान्निर्निदानतामेव हि जिना मन्यन्त । पञ्चा० ६ विव० । आणाय राहण जोग-- श्राज्ञाऽऽराधनयोग- पुं० 1 पदेशानुपालनसम्बन्धे, पञ्चा० १२ विव० । आगाइच- आज्ञावत् देशपर्तिनि ०१२ विव० | बाबाईसर-जेश्वर या घालाया या ईश्वर श्रश्वरः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । श्रा० म० 1 आज्ञाप्रधाने ईश्वर, जं० १ वज्र० । श्र० प्राणाईसरसेावच्च श्वरसेनापत्य १० आहाया ईश्वर अश्व ( ० ३ प्रति अधि० प्रा० म० ।) सेवायाः पतिः सेनापतिः अश्वरथी सेवापति आश्वसनापतिस्तस्य कर्म श्वसनापत्यम् जी० ३ प्रति अधि । श्राज्ञाप्रधान यः सेनापतिः- सेन्यनायकः तस्य भावः कर्म वा श्रनापत्यम् श्री स्वसैन्यं प्रत्यद्भुते आणणधान्य, जी०३०४ अधि०। " द्यागाईसरसेगावच्चं कारेमा पालेमाणे " ज्ञा० १ श्रु० १ ० । विप० । ० । प्रज्ञा० । आमाकंसिन आज्ञाकाहिन् पुं० आशामाकाङ्क्षितुं शीलमात्राकाष्ठानि आवाह श्रायाकंनी पंडर" ( सूत्र -२५३४ ) इह-अस्मिन् मौनीन्द्र प्रवचन व्यवस्थिनः सन आशां तीर्थकृतोपदेशमाकाङ्क्षतुं शीलमाशा। मानुनका श्वेतः पण्डितः - सदसद्विवरुडः । याचा ? श्रु० ५ ० ३ ३० | आणाकरण- श्राज्ञाकरण - न० आगमनानं पश्चा सौत्रविधिसम्पादने, पं आणाखंडण ता अम्मिवि काले. प्राणाकरणे अमूढलक्खेहिं । सनीए जय, एरथ विही हंदि एसो म ॥१०००। यस्मादेवं तस्मादेव दुःखमारूप आकर सौत्रविधिसम्पादने अमूढलक्षैः सद्भिः शक्त्या यतितव्य - मुपपाद विवि उपाख्यानकरीत्युपत्रदर्शने. एष च वक्ष्यमाणलक्षणः । इति गाथार्थः । पं० २०४ द्वारा । शाखाका (गा) रि (न्) - आज्ञाकारिन् - पुं० । श्राप्तोपदेशवसिंनि, पञ्चा०वि० । श्रामापदशविधायिनि पञ्चा० । तथा च एयस्स फलं भणियं. इय आणाकारिणो उ सङ्कस्स ॥४४॥ एतस्म-समस्तजिनभवनविधानस्य फलम-प्रयोजनं भखितम् उक्क्रम् इत्ययम् उनी क देशविधायिन एव श्राद्धस्य - श्रद्धावतः; श्रावकस्येत्यर्थः । पञ्चा० ७ विव० । आगाखंड आशाटन नभ खंडजा. श्रणामंगे को सुहो " 1 महा० ४ श्र० । ( श्राशा खण्डन करधर्मस्य विचारे पण्डितश्रीकल्याणकुशलता पथा) '' आणाखंडकरी य, सव्वं पि निरत्थयं तस्म । शाखारहिओ धम्मो, पलालपूलु म परिहाइ ॥ १॥ 66 35 कलं नग्घर सोलसिमि " त्यादि वचनालम्बनन सायादिदर्शनाद्वालनप कनुष्ठानं समाचरन्ति त सर्वे सर्वथा निष्फल कर्मनिर्जराति पचित्तं पांच वपामपि तारतम्येन स्पफलं स्वीकार्ये न तु निष्फलता । अत्राऽऽगमः" जं अन्नाशी कम्मं, खवेइ बहुयाइँ वासकोडीहि । तं नाणी निहि "कलं गुत्तो, स्ववर ऊसासमित्तं ॥ १ ॥ " पं० भा० । नग्धइ सोलसि पलालपूलु व्व इत्यादावपीदमेव तात्प यम् " अविश्यमाखराडे, बालनयामजप - त्ति, " सरागसंजम बालनवे "ति, “बरगपरिव्वाय गवंभलोगो जा" । इत्यपि अत एव बालतपस्विनामपि कोडिन्नदिवसेलिनाम्नां स्याने सोपानाः सर्वथा विफलतायां तु सर्वेषामप्राप्तिः प्रसज्यते कथं च कर्मान्तरेणमिवान्निप्रन्यिदेशं यावदागच्छ न्ति न वा कामनिर्जरामात्रमेव तत्र हेतुः कारणान्तराणम विबाधः प्रतिवृतान्त् तथाहि"अनुकंपामनिरवालचे दागि संजोगविषयगे, यसवारे " ॥ १४ दृश्यते चेतदर्थवादः साक्षाद महानिशीथ नागिलाधिकारे, तद्यथा-"अकामनिजरार वि किंचि कम्मक्खयं भवइ । किं पुरण जं वालनवेगं एवं सांत निरत्थयं तस्स ॥ १ ॥ इत्यादीन का नियम सर्वाणि उत्सर्गसूत्राणि नतोऽत्र "उत्सर्गादिवादा बलीयान् " श्रथमेवानुयापिन किंचित् २ फलमिति समान ३ तथा केचित् महानिशीथगतम् - " जे गनि निन्द्रगाग अनुकुल मासिजा इत्यादि प्रसिद्धालापकमुपस्य बकारी भवन्त । तथाहि ये # आणा नो Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) प्राणाखंडण अभिधानराजेन्द्रः। भाणाऽणुग पक्षान्तरीयविहितं पतज्जिनप्रासादादिपरित्राणमाचार्योपा-प्राणाजुत्त-प्राज्ञ.युक्त-त्रि०। आगमोपेते, वर्श। ध्यायादीनामापनिवारणं साधुमुद्दिश्य दानसत्कारादिकं | चारित्रमुदिश्य-"आणाजुत्तागमिणं, न होर हुणो ति चानुमन्यन्ते तेषां महरपातकं जायते, सम्यक्त्वपि प्रति- | वामोहो" ॥ ५७ ॥ आशायुक्तानामपि न केवलमाकाबाधाइन्यते, तेन मतान्तरायत्तं तं युगप्रधानाचार्यभक्त्यादिक- नामिदं प्रस्तुतं चारित्रं न भवति-न जायते । दर्श०४नस्व । मपि सर्वशा नानुमोदनीयमयेति, कचिनु-तानपि प्रतिवद-प्राणाजोग (य)-पाजायोग-पुं० । आशा-नियोगः शासन न्ति । यथा-नयसाधनश्रेष्ठिसंगमादीनां मिथ्यात्वभाजामपि यथा राजा: ज्ञा-राजशासनम् तस्यां योग-उत्साहः तया दानं बहुषु प्रन्थेषु परंपरया चानुमोद्यमानं दृश्यते, तथा वाऽऽक्षया योगः-सम्बन्धः । दत्ताया अविफलीकरणे, सर्वतीर्थकृत्सातिशयसाधुपारणासु पञ्चदिव्यावसर प्रहा षो०१३ धिव० श्राप्तवचनसम्बन्धे च । पश्चा० १३ क्वि०. दानमहो दानमिन्युद्घोषोऽपि यदनुमोदनीयं न तस्का- सूत्रव्यापार, पं०व०। यंत, कथं दृश्यन्ते च भवदादयः सर्वेऽपि मार्ग प्र- पापं विसाइतुल्लं, आणाजोगो अमंतसमो || ६६६॥ तिपन्नाः । कारयन्तो यथा देहि भोः किंचिदस्मभ्यं सर्वमपि पाप निन्द्यम् ; विवादितुल्यं, विपाकदारुणत्वाद् तब भूयान् लाभो भावीति, यदि च प्रदत्ते तदा सन्तुष्टिरपि प्राशायोगश्व-सूत्रव्यापारश्च अत्र मन्त्रसमः तद्दाषापनयजायते इति स्वयमनुभूयमानस्यार्थस्य विलोपः कर्तुं सतां नात् । पं० २०४द्वार। नोचित इत्याशयतयैव सूत्रकारेखाभ्यधायि , " अहवा पधाराय , " अहवा | प्राणाणिद्देस-माज्ञानिर्देश-पुं० । भगवदभिहितागमस्योसब्वं वि य विपराये " त्यादि अत्र सम्यग्दृष्टिपर्यन्ता त्सर्गापवादाभ्यामिदमित्थं विधेयमिदमित्थं चेत्यवमारमके नां पूर्वमुक्तत्वान्मिथ्याविनामपि किंचित्करणीयमनुमोदनी प्रतिपादने , उत्त०१०। यमित्यापतितम् , तच्च विचार्यमाणं जिनजिनबिम्बजिनाल प्राणाणिद्देमयर-माज्ञानिर्देशकर-त्रि० । भगवदभिहितायाचायोपाध्यायसाधुश्राद्धादीनां वास्तवाराध्यानामशनपानप्रदानादि भक्तिवर्णनसंज्वलनाऽऽपत्परित्राणादिकं दृश्यते गमप्रतिपादनकरणशीले , भगवदभिहितागमानुलोमानुष्ठा यिनि च । उत्त०१०। चानुमोदितं साक्षादण्याचाराङ्गादी, साधुना साम्निशक आज्ञानिर्देशतर-त्रि०। गुरुवचनस्येदमित्थमेवं करोमीति टीपुरस्करणे मम नं कल्पते भवता । पुनः पुण्यप्राग्भारा- निश्चयाभिधानन भवाम्भोधेस्तरमशीले , उत्त०१०। जनमकरीत्यादि कथं च जिनशासनप्रभावनाकारिणो म्ले तथा च विनीतशिष्यमधिकृत्यच्छा अप्यनुमोचन्ते इत्याद्यनाग्रहबुद्दा पर्या लोचनीयमिति ॥४॥ ही। तथा तृतीय-चतुर्थप्रश्नप्रतिवचनं तु द्वाद आणाणिद्देसकरे ॥ ३+॥ दशजल्पपट्टकादवलेयं, किंच-" सव्वं पि निरत्थयं तस्स" श्राति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाभिव्याइत्यादिवचनस्यापेक्षिकत्वाकान्तवादः । अपेक्षा च मोक्ष त्या वा ज्ञायतेऽर्थों अनयेत्याज्ञा-भगवदभिहितागमरूफलाभावलक्षणति भावः । अन्यश्च महानिशीथप्रसिद्धाला पा तस्या निर्देश-उत्सर्गाऽपवादाभ्यां प्रतिपादनम् , श्रापकमुपष्टभ्य एकान्तेन परपाक्षिकप्रशंसानिषेधः । सोऽपि शानिर्देश इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेत्येवमात्मकं तत्कन संगच्छते यतस्तस्मिन्नेवालापंक-" अविमुहमुद्धपरिसा रणशीलस्तदनुलोमानुष्ठाना बा आशानिर्देशकरः । यद्वा आज्ञा-सौम्य ! इदं कुरु, इदं च मा कारिति गुरुवचनमब, मझगए सलाहेजा" इति वचनेनाभिमुखमुग्धपरिषद्धिशपमध्य एव तत् श्लाघाया निषेधः प्रतिपादितोऽस्ति , न तस्या निर्देशः-इदमित्थमेव करोमीति निश्चयाभिधानं तत्कतु सामान्यपर्णदीति, किंचाऽत्रार्थे-ऊह-प्रत्यहादिबहुवन रः । आशानिर्देशन वा तरति भवाम्भोधिमित्याज्ञानिर्देशतर व्यमस्ति तत्तु साक्षाम्मिलने एव समीचीनतामश्चतीति ॥ ३ इति, इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद् भगवद्वचनस्य ब्याख्या॥४॥ ही०१ प्रका। भेदाः संभवन्ताऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतुतया बाला बलादिबोधोत्पादनार्थत्वाचास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्रं प्रदमाणागाहग-प्राज्ञाग्राहक-पुं०। आगमग्राहके, “ सयाss. शयिष्यन्ते । उत्त०१०। णागाहगे सिया"(सूत्र-२+)। सदाझाग्राहकः स्यात् , अध्यय प्राज्ञाऽनिर्देशकर-पुं०। पाशाविराधके, उत्त। नश्रवणभ्याम् । पं०सू० २ सूत्र । अविनीतशिष्यमधिकृत्य-" आणाऽनिहसकरे ॥३४॥" स प्राणागिझ-आज्ञाग्राह्य-त्रि०। प्रागमविनिश्चये, पं०५०। शिध्याऽविनीत इत्युच्यते य ाक्षायाः-तीर्थकरवाक्यस्य, प्राणागिझो अत्थो, गुरोर्वाक्यस्य चाऽनिर्देशकरः-अप्रमाणकर्ता आशाविरा धकः । उत्त०१०। प्राणाए चेव सौ कहेयव्यो ।। ६६३+॥ प्राणाणिप्फादय-आज्ञानिष्पादक-पुं० । आशासाधके, पं० पं०व०४ द्वार। सू०२ सूत्र । आशा-आगमस्तग्राह्यस्तद्विनिश्चयोऽर्थो ऽनागतातिप्रान्त. प्राणाऽणुग-प्राज्ञाऽनुग-त्रि०। आशामनुगच्छति, अनु० । प्रत्याख्यानादिराशयैव-श्रागमेनैवासी कथयितव्य इति । य- गम-ड६ त० । आदेशानुसारण गन्तरि दासादौ, क्लाद्वा-सामान्य नैवाशाग्राह्याऽर्थः-सौधर्मादिः, प्राशयवासौ क-| शानुगतोऽप्यत्र । त्रि०। चाच० । आशानुसारिणि, दर्श०४ थयितव्यो, न दृष्टान्तेन तस्य तत्र वस्तुतोऽसम्भवात् । तत्व । श्रागमानुसारिणि, पश्चा०। आव०६० । ( इत्यादिबहुवक्तव्यता बक्वाण' शब्दे सुहभावा तधिगमो, सो वि य आणाशुगो निभोगेण षष्ठे भाग करिष्यते।) | ॥२६ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) प्राणाऽणुग अभिधानराजेन्द्रः। प्राणामिय शुभभावात्-प्रशस्ताभ्यवसायातद्विगम:-श्रशुभकर्मविगमो तथा चोक्तम्भवति 'सो वि य' ति-स पुनः शुभभावः आशानुगः-आग- "एगो प्राणापाणू , तेयालीसं (सयालीसं) सया उवाबना। मानुसारी भवति नियोगेन-नियमेन अनाक्षाऽनुगम्यशुभ श्रावलियपमाणेणं, अणतनाणीहि निहिट्टा ॥१॥" एवति भावः । पश्चा० १६ विव०।। सप्ताउनप्राणप्रमाणः स्तोकः । मू०प्र०२० पाहु०॥ पाषाणुगामि(न)-प्राज्ञाऽनुगामिन-त्रि० । माक्षामनु- आणावज्झ-आज्ञाबाह्य-त्रि०। प्राप्तोपदेशशून्ये , पञ्चा०। च्छति, अनु. । गम-णिनि ६ त० स०। आशानुगते, आशाबाह्यायाश्च स्वमतिप्रवृत्तेर्भवनिबन्धनत्यमस्त्रियां कीप् । वाच०। समितिपवित्ती सव्वा, आणाबज्झ ति भवफला चेव । माखापडिच्छय-प्राज्ञाप्रतीच्छक-पुं०। श्राक्षाप्रतीच्छाकार तित्थगरुड़सेवं वि, ण तत्तो सा तदुद्देसा ॥१३॥ के. पं०सू० २ सूत्र । स्वमतिप्रवृत्तिः-आत्मबुद्धिपूर्विका चेष्टा सर्वा-समस्ता द्र. भाणापरतंत-श्राज्ञापरतन्त्र-पुं०। प्राप्तवचनाधीने, पश्चा० व्यस्तव-भावस्तवविषया पानाबाह्या-प्राप्तापंदशशून्या इति १४ विव० । (प्राज्ञापरतन्त्रा प्रवृत्तिरप्रवृत्तिरवति प्राणा' हतोभवफलैय-संसारनिबन्धनमव प्राज्ञाया एव भवोत्तारशब्देऽस्मिन्नव भागे उक्तम् ।) हेतुषु प्रमाणत्वात् । पश्चा०८ विव०। (विशेषः 'चेय' प्राणापरिणामग-माज्ञापरिणामक-पुं०। यदाज्ञाप्यते त- शब्द तृतीयभागे १२६८ पृष्ठ वक्ष्यत । ) श्राप्तवचनबहिष्कृते करोति तत्कारणान्न पृच्छति:-किमर्थमेतदिति कित्वाश्रयैव च । पञ्चा०। कर्तव्यतया श्रद्दधातीत्यवलक्षण परिणामकभेदे. व्य. १० आणाबज्झत्तणमो, न होइ मोक्खंगया णवरं। उ० । ( पतस्य लक्षणाऽऽदिबहुयक्रव्यता 'परिणामग' शब्दे श्राशाबाह्यत्वाद्-प्राप्तवचनबहिष्कृतत्वाद्यदाशाबाह्यं तन्मो. पञ्चमभागे बदयते) ( एतस्य परीक्षाप्रकार आज्ञाव्यवहार- क्षाङ्गं न भवति । पञ्चा०६ विव०। निरूपणावसर 'प्राणा' शब्द ऽस्मिन्नव भाग गतः) पाणावलाभियोग-आज्ञाबलाभियोग-पुं० । श्राज्ञापनम्प्राणापवित्ति-प्राज्ञाप्रवृत्ति-स्त्री०। प्राप्तोपदेशपरतन्त्रप्रव- आज्ञा भवतद कार्यमंव तदकुर्वता बलात्कारणम् बलाभिसन, पञ्चा०1 योगस्ततश्चाऽऽशया सह बलाभियोग प्राचाबलाभियोगः प्राक्षाप्रवृतिकश्च शुद्ध एव । तथाच विम्बविधिमधिकृत्य आवाघलयोरभियोगो-व्यापारणमिति समासः । पाशाबलआणापवित्तिउ चिय, सुद्धो एसो ण अमहा णियमा । योापारणे, पञ्चा०। तित्थगर बहुमाणो, तदभावाप्रो य णायव्यो ।। १२ ।। आणाबलाऽभियोगो, णिग्गंथाणं ण कप्पते काउं। प्राक्षाप्रबृत्तित एव-श्रामोपदेशपरतन्त्रप्रवर्तनादव शुद्धो इच्छा पउंजियन्या, सेहे तह चव राइणिए ॥ ८॥ विशुद्धः । एष परिणामा बिम्बविधायको वा क्षय इति योगः। श्राशाबलाऽभियोगा निग्रन्थानां-साधूनां न कल्पने-न युपञ्चा०८ यिय० । (अत्र विशेषः 'चइय' शब्द तृतीयभाग ज्यते कर्नु-विधातुं परपीडोत्पादकत्वादात्मनश्चाभियोगि१२६८ पृष्ठ वक्ष्यते) ककर्मबन्धहतुत्वात्तस्येत्यादि-(बहुवक्तव्यता 'इच्छाकार' भाणापवित्तिय-प्राज्ञाप्रवृत्तिक-पुं० । प्राप्तोपदेशपरतन्त्र शब्देऽस्मिन्नव भांग वक्ष्यते ) पश्चा० १२ विव० । आणाभंग-प्राज्ञाभङ्ग-पुं० । श्राशाया-प्रादेशस्य भङ्गः-स्वप्रवृत्तिमति , पश्चा०८ विव०। विषयषु प्रसाराभावः, श्रादेशस्याऽकरणेन आदिएविषयेषु प्राणापहाण-प्रज्ञाप्रधान-पुं० । आगमपरतन्त्रे, ध. २ प्रचाराऽभावे, वाच० । प्राप्तोपदेशाननुपालन, पश्चा० १५ স্মযু। विव० । सर्वविदागमोल्लवने च । दर्श० १ तत्त्व । ( एतद्वनआणापाणपज्जत्ति-भानप्राणपर्याप्ति-स्त्री० । पर्याप्तिभंदे , म व्यता प्राणा' शब्दऽस्मिन्नेव भाग गता) या पुनरुच्छासमायोग्यवगणादलिकमादायोरलासरूपतया परिणमच्य ालय च मुञ्चति सा प्राणापामपर्याप्तिरिति । आणाभावग-प्राज्ञाभावक-पुं० । श्राशाया भावयितरि, पं० प्रव०२३२ द्वार। सूका "सयाणाभायंग सिया" (सूत्र-२+)। सदाशाभायका प्राणापाणवग्गणा-भानप्राणवर्गणा-स्त्री० । उच्छासनि स्यादनुज्ञाद्वारणति । १० सू०२ सूच।। श्वासयोग्यायां पुद्गलवगणायाम् , कर्म०५ कर्म०। (बाल प्राणामिय-पानामित-त्रि०। ईषन्नामिते, उपा० २ ० । ध्यता ' वग्गणा' शब्दे पष्ठ भागे वक्ष्यते) तं० । प्रश्न । जी " श्राणामियचावरुइलकिण्हचिउर राइसुसंठियसंगयाययसुजायभूमया " (सूत्र-१४ + )। प्राणापाणु-भानप्राण-पुं०1 कालविशेष, जी. ३ प्रति। ( ानामितं चापरुचिरकृष्णचिकुरराजिसुसंस्थितसंगताअधिक। अनु०। स्था०1शा। कर्म। यतसुजातभ्रूकाः । श्रानामितम्-ईवन्नामितं यश्चापं-धनुप्राणुप्राणु-त्रि० । प्रअन् उण् । वाच । स्तविर-शोभने कृष्णचिकुरराजिसुसंस्थित कुत्रापि-- (सूर्यप्रशन्ताबानप्राणकालपरिमाणम् ) कृष्णा भ्रराजिसुसंस्थिते संगते श्रायते-दीर्घ सुजाते-सु"श्रावलियाति वा पागणापाणू तिवा। (सूत्र-१०५+) अ-| निपने भ्रवी येषां ते तथा । तं०। प्रश्न ।"श्राणामिसख्यया श्रावलिका एक श्रानमाणः, "द्विपश्चाशदधिकत्रि- यचावरुइलतणुकसिणनिद्धभूमया" ( सूत्र-१४७ + ) । चत्वारिंशच्छनसङ्ख्यावलिकाप्रमाण एक अानप्राणः" इति आनामितम् इषन्नामितम्-श्रारोपितमिति भावः, यश्चापवृद्धसंप्रदायः। धनुस्तद्वत् रुचिर-संस्थानविशेषमावतो रमणीये तन-मनुः प ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषामिय परिमित बालपट्ट्यात्मकत्वात् कृष्ण परमका स्निग्ध-स्निग्धच्छायें अभी येषां ते जानामितचापरुचिरतनुस्निग्धकाः जी०३ प्रति०४ अधि०२ ३० । ( हस्तिमधिकृत्य )- प्राणामियचालित संज्ञिन स" (सू २१४) नामितम-नामितं पचाधनुस्तद्वद्वलिताच विलायती संाि च वेलम्मी संकोचिता वा अप्रशुण्डा- शुण्डायं यस्य तत्तथा । उपा० २ श्र० । - मायामेच माज्ञामात्र न० चनमात्रे मेलमि सम्वहा जुत्तो " ॥ २८ + ॥ आशामात्रे, आप्तवचन एव सर्वथा सर्वप्रकारैर्युक्तः - उद्यतः । पञ्चा० १४ विव० । भागः रुइ आज्ञारुचि श्री० आशा सूत्रध्याख्यानं नियुक्त्यादि तत्र तथा वा रुचिः श्रद्धानम् सा श्राशारुचिः । स्था० ४ ठा० १ उ० | भ० । निर्युक्त्यादस्तस्वश्रद्धान, ग० १ अधि० श्री० " गिराई पसंति"। आ० चू० ४ ० १२४८ गाथा | रागद्वेषरहितस्य पुंस अशयैव धर्मानुष्ठानगता- रुचिराशारुत्रिः । तृतीये सम्यग्दशनभेद, ध० २ अधि । श्राशा सववचनात्मिका तया रुचिर्यस्य सः । स्था० १० ठा० ३ उ० । उत्त० । श्रापद शाभिलाषयुक्ते, पञ्चा० । श्राणरुणां चरणं " ॥ १२ + ॥ आशारु पामिलापकस्य चरचायिम् । पञ्चा० ११ विय० । श्रागमबहुमानिनि च । पञ्चा० १६ विव० 6. 46 गारुणी य सम्मं ति " ॥ ४१ ॥ श्राज्ञारुचयः श्रागमबहुमानिनः । पञ्चा० ११ विव० । तदात्मके तृतीय सरागसम्यग्दर्शिनि च। स्था० १० ठा० ३ उ० । उत्त० । यो हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञाननाऽऽपादा भावाज्जीयादयेति रोचयते मानुषादिवत् व शारथिः । ( १४४ ) अभिधानराजेन्द्रः । 66 स्था० १० ठा० ३ उ० । ( श्राज्ञारुचिमाह )जो उमयागतो, आणाए रोय पयतु । श्राणाविराहणाऽणुग एमेव महत्ति य, एसो आणा रुई नाम || ११||(सूत्र-३७) हेतु विक्षितार्थगमकम जानानः प्रवचनद एवकारार्थः केवलया रोवते, कथमत्याह-एमतत् प्रथमर्थजातं नान्यथेति एष साचा० १ आणाववहार - श्राज्ञाव्यवहार - पुं० । व्यवहारभेदे ध० २ अधि० । व्य० | प्रब० । पञ्चा० । ( वक्तव्यता 'आणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता । ) आणाविजय - श्राज्ञाविच ( ज ) य - पुं० । श्रा अभिविधिमा " ज्ञायन्तेऽथी यया सा- प्रवचनं सा विचीयते-निर्णीयते; प पालीपन वा यस्मिताज्ञात्रियं धर्मध्यानमिति प्रा कृतत्वेन विजयमिति । स्था० ४ ठा० १ उ० । आज्ञा जिनप्रवचनं तस्या विचयो निरीयो यत्र तदाज्ञावित्रयम्, प्राकृतत्वात् श्रणाविजयम् । श्र० । ग० । श्राज्ञा वा विजीयतेअधिनमद्वारेण परिचितपिने मिश्रित्याशाविजयम् । स्था०] [४] डा० उ० श्राशागुगानुचिन्तनात्मके धर्मध्यानभेद, औ० | ग० । भ० । स व आशाया अनन्तत्चपूर्वापराविरोधित्वादिरूपे चमत्कारपूर्वकचित्तविभ्रमः-चयः ।] [अ०] [६] भ्रष्टता तूदाहरणादिसङ्गावे ऽपि बुध्यतिशय शक्लिनिकलैः परलोकबन्धमोक्षधर्माधर्मादिभावेष्यत्यग्ाम्बांधेष्वासनमात्यान तद्वचनं तथैवेत्याशावित्रयम् । सम्म० ३ काण्ड ६३ गाथाटी० । धम्मपि ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यभावनाभिः कृताभ्यासस्नानिगद्दनं न बुध्यते तुम ( तलक्षणं यथा ) - रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आखाए रोयतो, यो खलु आवार्ड नाम ॥ २० ॥ मतं सत्यमेवेति चिन्तनमाज्ञावित्रयः । ध० ३ अधि० । ( एतत्स्वरूपम् ) — खलु नियन आशाराम इति प्रसिद्धो भवनि स इति कः ? यस्य रागः-स्नेहा द्वेष:- अमोहनीयप्रकृतयः, अज्ञानं मिथ्यात्वरूपम् एतत्सर्वं नष्टं भवति अस्य देशी उपगतं गम्यते न तो उपगतशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धः । यस्य रागो द्वेषोऽपगतः, यस्य द्वेषोऽपि देशनापगतः, यस्य मोहोऽपि देशतोऽपगतः, यस्य श्रज्ञानं देशनोऽपगतम् एतेषां अपगमात् श्राज्ञया श्राचार्याद्युपदेशेन रोचमानजीवादितवं तथैयति प्रतिपद्यमानो पो भवत सः श्राशारुचिरित्यर्थः । अत्र माषतुपदप्रान्तः- मा रूस मा तुस इति स्थाने माषतुप इति दृष्टान्तोऽस्ति ||२०|| उत्त० २८ अ० | प्रब० । स्था० | "आणारुई" ॥ ११५ ॥ श्राज्ञा सर्वज्ञघचनात्मिका तस्यां रुचिः श्रभिलाषो यस्य स श्राज्ञारुचिः । रागदर्शनाऽऽजनमेन शेर्पा क्रियारेिराहणा- प्राज्ञः विराधना श्री० आप्नोपदेशमनुजातमिति योऽभिमन्यत स आशारुचिः । ( ३७ सूत्र डी० ) प्रज्ञा० १ पद | 9 ( १२८४ गाथा ) तत्थ श्राणाविजये श्राणं विवेषति । जधा पंत्रत्थिकाए छज्जीवनिकाए अपवयमाता सुनन भावे बंद य पण्ड कह आणा परियाणिज्जांत ? एवं चिंतति भासति य। तधा पुरिसादिकारणं पडुञ्च किष्छासज्यं हेतुविसया तातसुविसु विवरणादिट्ठेसु एवमेव संतति चिर्ततो भासतोय आणा विधेयेति । श्र० चू० ४ अ० । पालन, पञ्चा० १६ विव० । ( श्राप्तोपदेशाऽननुपालने किं भवतीति या शस्य भागे गतम् ) धागाविराहाऽयुग-प्रज्ञाविराधनाऽनुग०ि - देशानुपासनानुसारिगि, पञ्चा० । पद 1 प्रवाल- भालान १० झालीयतेऽत्र आली खुद "झलाने ल्-नोः" ॥२११७॥ इति द्वैमप्राकृत सूत्रेण म्-नोत्ययः । प्रा० । गजयन्धनस्त कर धरज्ज्वाम् भावे ल्युट् । बन्धनमात्रे च । वाच०। आगालखंभ भालानस्तम्भ-पुं० । गजबन्धनस्तम्ने, प्रा० २ पान । वाच० आणावं - आज्ञावत्- त्रि० । आप्तोपदेशवर्त्तिनि ध०२ अधि०। आणावट्टि (न्) - श्राज्ञावर्त्तिन्- त्रि० । भगवत्प्रणीतवचनानुसारिण. आचा० । " • Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) प्राणाविराहणाऽणुग अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुगामिय तथा च अशुभाध्यबसानाधिकृय नं० स्था० । (एतद्व्याख्याम् ‘ोहि' शब्द तृतीयभागे प्राणाविराहणाणुग-मेयं पिय होति ददुव्वं । २८ ।। १४१ पृष्ठ करिष्यते।) इदं पुनरशुनाध्यवसानम-प्राज्ञाविराधनाम्-श्राप्तोपदे- (श्रानुगामिकानानुगामिकमिश्रावधिज्ञानस्वरूपम् )शाननुपालनाम्-अनुगच्छति-अनुसरतीत्याशाविराधनानुगं ऑणुगामित्रो य श्रोही, नेरइयाणं तहेव देवाणं । भवति स्याद् द्रष्टव्यम्-झयम् । पञ्चा०१६ विव०। अणुगामि अणाणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छे।७१४॥ प्राणाविवरीय-आज्ञाविपरीत-त्रि० । प्राप्तवचनविपर्यस्ते , पञ्चा० ।" आणाविवरीयमेव जं किंचि" ॥६+॥ आशा अनुगमनशील श्रानुगामुकः । ( साऽप्यधिक्षाविषयः 'हि' शब्दे तृतीयभागे १४१ पृष्ठे दर्शयिष्यते ) (विश०।) विपरीतमेव-श्राप्तवचनविपर्यस्तमणि । पञ्चा० ६ विव०। विविधोऽप्यधिर्मनुप्येषु तियक्षु च भवतीति नियुक्तिआणावेतब्ब-आज्ञापयितव्य-त्रि० । आदशनीये , आचा० । गाथार्थः । विशे। तंत्रहान्तगती न ग्राह्या, देवनारकाणाआखासार-प्राज्ञासार-त्रि० । प्राप्तवचनप्रधाने , "प्राणा- मभ्यन्तगवधियात् , किन्तु-मध्यगतः, सोऽप्यन्त (न्त्य) सारं मुणयब्वं"॥+॥ श्राशासारम्-श्राप्तवचनप्रधानम् । व्याख्यानविशिष्टा देवनारकाणां स्वावधिद्योतितक्षेत्रमध्यपञ्चा०१२ विव०। वर्तित्वात् , तुशब्द एवकारार्थः, सचअवधारणे. आनुगाप्राणासिद्ध--आज्ञासिद्ध--त्रि० । प्राप्तवचनसिद्धे. सूत्र०। “पु. मिक एव यथाक्तरूपो नान्य इति, कवामित्याह-नरान् कागण मानवा धर्मः, साङ्गी चेदश्चिकित्सितम् । श्राक्षासिद्धा यन्ति म्बयोग्यानाहूयन्तीति नरकाः तेषु भवा नारकाम्तयां नि चत्वारि , न हन्तव्यानि हतुभिः ॥ १॥ इति परतीर्थ तथा दीव्यन्ति- यथेच्छया क्रीडन्तीति देवाः तेषां मनुष्याश्च काः । सूत्र०१ श्रु० ३ ० ३ उ०। नियंक्च मनुष्यनिर्यक् तस्मिन्मनुष्यतिरश्चि जानावेकवचनं, तताऽयमर्थ:-मनुष्यषु तिर्यचु प्रानुगामिक उक्नशब्दार्थः, प्राणिजंत--श्रानीयमान-त्रि०। प्राप्यमाण, "णिजनाss अनानुगामिकः- प्रयस्थितः शृङ्खलादिनिर्यान्त्रतप्रदीप हय यो रणजना" ॥ ६४२ ॥ अाणिज्जतो' त्ति-गृहपतिः गृहादानी गच्छन्तं पुरुष नानुगच्छति. अाह च भाष्यकृत्-" अणुगायमाना वा । वृ०३ उ.। मिकाणुगच्छद, गच्छत लायण जहा पुरिसं । इयरा उनाआणि (णी) य-पानीत-त्रि० । श्रा-नी-कर्मणि क्त । गुगच्छद, ठियपदीयो व्व गच्छतं " ( विशे० ७१४ ) । "पानीयादिवित् ॥८।१।१०१॥” इति हैम प्राकृतसू- यस्य तू पन्नस्यावधर्देशो व्रति स्वामिना सह अपरश्च देशः त्रेण-इत्यम् । प्रा० । दशाद्दशान्तरं नीत, घाच०। श्राहते, प्रदेशान्तरचलितपुरुषस्योपहतैकलोचनवदन्यत्र न व्रजति प्रव० ६ द्वार। स मिश्र उच्यते, उक्नं च-" उभयसहाया मीसो, देसो जप्राणील-नील-पुं० । ईषदर्थे , प्राङ् । प्रा० स० । ईषत्री- स्साऽणुजाइ ना अन्नो । कासइ गयस्स कत्थइ, एगं उबलवणे. सामस्त्यन नीलवर्णे च ।"प्राणीलं च वत्थं रयावहि" हम्मइ जहन्छि"(विश०७१५) एष च भवति गाथासंक्ष॥ ॥ वस्त्रम-अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय श्रा पार्थः । देवनारकाणां सर्वान्मदेशजाभ्यन्तराधिरूपमध्यगत नीलम् ईपन्नील सामस्त्यन नीलं भवति । सूत्र. १ १०४ प्रानुगामिकाऽवधिः, तिरं मनुष्याणां सर्वप्रभेदः-श्रानुगाअ०२ उ०। तद्वति , त्रि०। नीलघाटके, पुं०। हेम० । मिकः, अनानुगामिका, मिश्रश्चात । श्रा० म०१०। तज्जानिस्त्रियाम् . स्त्री० । ङीप् । वाच । एतस्य भेदाःप्राणुकंपिय-श्रानुकम्पिक-त्रि० । अनुकम्पया चरतीत्यानु- से किं तं श्राणुगामियं हिनाणं ?, आणुगामियं कम्पिकः । भ० १५ श.। कृपावति, भ०३ श०१ उ०। प्रति०। ओहिनाणं दुविहं पणतं; तं जहा-अंतगयं; मझगयं च । माणुगामिय-आनुगामिक-त्रि० । गच्छन्तं पुरुषम् श्रा- (सूत्र-१०+) समन्तादनुगच्छत्येवंशीलः श्रानुगामि,श्रानुगाम्यवानुगामिक से कि तमि' त्यादि. अथ किं तदानुगामिकमवधिशास्वार्थ कास्ययः। अथवा-अनुगमः प्रयोजनं यस्य तदानु नम् ?। श्रानुगामिकमवधिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथागामिकम् । अनुशतिकादिपाठादुभयपदवृद्धिः । श्रा० म० अन्तगतं च, मध्यगतं च । नं० । ( अन्तगताऽवधिज्ञान ११० । नं० । स्था। अनुगन्तरि, ( अनुगमनशले )। स्वरूपम् 'अन्तगय' शब्दे प्रथमभाग गतम् ।) (मध्यगता:ध०३ अधि० । "श्राणुगामियं नि घमि" (सूत्र-२१७+)। वधिज्ञानस्वरूपम् ' मझगय' शब्द षष्ठ भागे वक्ष्यते ।) आनुगामिकं तदार्जिनपुण्यानुगमनाद् । श्राचा० १ १०८ (अन्तगत-मध्यगतयाशिषः)१०५ उ० । सह गन्तरि, सूत्र०।" से एगईश्री प्राणुगा- अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो १, पुरो मियभावं पडिसंधाय" ( सूत्र-३१ ४)। श्रानुगामुकभावं प्रतिसंधाय-सहगन्तृभावेन नुकृल्यं प्रतिपद्य । सूत्र. २ श्रु. अंतगएणं ओहिनाणणं पुरो चेव संखिज्जाणि वा अ२०। अघधिज्ञानविशेष, देशान्तरगतमपि ज्ञानिनमनु- | संखिजाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, मग्गो अंतगच्छति लाचनयत्तदवधिज्ञानमानुगामि । कर्म०१ कर्म। गएणं अोहिनाणणं मग्गो चेव संखिजाणि वा असंआणुगामियोऽणुगच्छइ , खिजाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, पासो अंतगएणं गच्छंतं लोअणं जहा परिसं ॥ ७१४+॥विशे। । अोहिनाणेणं पासी चेव संखिञ्जाणि वा अमंखिजाणि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणुगामिय अभिधानराजेन्द्रः। पाणुविजाम वा जोयणाई जाणइ पासइ. मझगएणं ओहिनाणेणं | णुपुत्वसुजायरुइलवट्टभावपरिणया" (सूत्र-२ टी.) श्रा सबो समंता संखिजाणि वा असंखिआणि वा जोय नुपयेण-मूलादिपरिपाट्या सुष्ठु जाता रुचिराः वृत्तभावं च परिणता येते तथा। शा०१०१०। भानुपा:णाई जाणइ पासइ । ( सूत्र-१०+) मूलादिपरिपाट्या जन्मदोषरहितं यथा भवति एवं जात अन्तगतस्य मध्यगतम्य च परस्परं का प्रतिविशेषः -प्र- श्रानुपूर्वीसुजातः । रा०। जं० । तथा च हृदवर्णनमुपकम्यतिनियतो विशेषः सूरिराह-पुरतोऽन्तगतनावधिशानेन पु- "श्राणु व्यसुजायवपगंभीरसीयजले" (सूत्र-५९)श्रारत-एवाग्रत एव संख्येयानि-एकादीनि; शीर्षग्रहलिकापर्य- नुष्येण-परिपाट्या सुष्ठ जाता वप्राः-तटा यत्र स तथा तान्यसयेयानि वा योजनानि; एतावत्सु योजनष्वगाढं; गम्भीरम्-अगाधं शीतलं जलं यत्र स तथा ततः पदवयस्य द्रव्यमित्यर्थः, जानाति-पश्यति ज्ञानं विशेषग्रहणात्मकं, द- कर्मधारयः । शा० १७.४०।" आणुपुब्बसुरहयंगुली. शन सामान्यग्रहणात्मकम् । तदेवं पुरतोऽन्तगतस्य शेषाव- ए"(सूत्र-१०+) आनुपूर्येण-क्रमेण वर्द्धमाना हीयमाना धिशानभ्यो भेदः । एवं शेषाणामपि परस्परं भावनीयः ।। वा इति गम्यम्, सुसंहता-सुष्टु अविरला अख्यः पा'नवरं सब्बो समंता' इति-सर्वतः सर्वासु दिग्विदिषु। दानावयवा यस्य स तथा । औ०। समन्तात्सधैरवात्मप्रदशैः सर्वैर्वा विशुद्धस्पर्द्धकैः, उक्त आणुपुन्धिग-आनुपूर्वीग-त्रि० । आनुपूर्वी-क्रमस्तं गच्छच चूर्णी-" सब्बउ त्ति सव्वासु दिसि विदिसासु समंता तीत्यानुपूर्वीगः । क्रमवति , प्राचा० १६०६ १०१ उ० । इति सब्वायप्पएससु सब्बेसु वा विसुद्धफड्डगेसु" इति । अत्र 'सव्वायप्पएसेसु' इत्यादौ तृतीयाथै सप्तमी भवति "प्राणुपुब्बिगमा एसो पब्वजासुत्तअत्थकरणं च" ॥२च तृतीयार्थे सप्तमी, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे ६८+ ॥ प्राचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०।। "व्यत्ययोऽप्यासा" मित्यत्र सूत्रे-तृतीयाथै सप्तमी' यथा- माणुपुब्धिगंठिय-आनुपूर्वी ग्रन्थित-त्रि०। परिपाट्या गु"तिसु तेसु अलंकिया पुहवी " इति । अथवा-समन्ता | म्फिते, भ० । अन्य यूथिकानधिकृत्य-"प्राणुपुब्बिगंठिया " इत्यत्र स अधिशानी परामृश्यते, मन्ता इति शाता, शेष | (सूत्र-१८३४) आनुपूर्व्या-परिपाटया ग्रन्थिता-गुम्फिता तथैव । नं० । साध्यमसाध्यमग्न्यादिकमनुगच्छति साध्या- आधुचितग्रन्थीनामादौ विधानादन्तोचितानां च क्रमेणाभावेन भवति या धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातमानु- | न्त एव करणाद् । भ०५ श० ३ उ० । गामिकम अनुमानं तद्रपा व्यवसायाऽपि भानुगामिक पवाग्रापविमााम-भानपीनामन-न० । वृषभनासिकान्यअनुमाने, तदात्मक व्यवलाविशेषे च । स्था० ३ ठा० ३ उ० स्तरज्जुसंस्थानीयाः कर्मसंहत्या विशिष्ट स्थान प्राप्यते माणुगामियत्ता-आनुगामिकता-स्त्री० । परम्पराशुभानु- असौ यया चोोत्तमालाधश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरबन्ध, "प्राणुगामियत्ताए भविस्सइ" ( सूत्र-३८० x ) | विशेषो भवति सा अनुपूर्वीति । श्राव०१०। कृपरलाआनुगामिकत्वाय: शुभानुबन्धायेत्यर्थः । भ० ६ श० ३३ उ०। लगामूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणन "पाणुगामियत्ताए अब्भुटेत्ता भवति"॥ १६ + ॥ श्रानु- विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्थानुश्रोणिगामिकतायै-परम्पराशुभानुबन्धायेति । दशा०४०। नियता गमनपरिपाटी श्रानुपूर्वी, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकस्था० । भवपरम्परासु, सानुबन्धसुख च । " आणुगामिय- तिरपि, कारण कार्योपचागदानुपूर्वी । पंचा०७ विव० । साए भविस्सह ॥ ११ +॥" आनुगामिकत्वाय-भवपरम्प- कूर्परलागलगोमूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुःसम्रासु सानुबन्धसुखाय भविष्यति । दशा० १० अ०। नि०। यप्रमाणेन विग्रहण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यप्राणुधम्मिय-श्रानुधार्मिक-त्रिका अन्यैरपि तद्धार्मिकस्स- अनुश्रेणिगमनमानुपूर्वी, तन्निबन्धनं नाम आनुपूर्वीनाम । कर्म० ६ कर्म । नामकर्मभेदे , यदुदयादन्तराले गतो जीवा माचीणे, प्राचा० । भगवतो महावीरस्य विहारसमये याति तदानुपूर्वांनाम । स०४२ सम। तच्चतुर्विधम्-नारका. इन्द्रप्रक्षिप्तवधारणमधिकृत्य-" एवं खु पाणुधम्मियं त नुपूर्वीनाम १, तिर्यगानुपूर्वी नाम २, मनुष्यानुपूर्वीनाम ३, स्स" (सूत्र-२+)। एतद्वस्त्रावधारणं तस्य भगवताऽनु देवानुपूर्वीनाम ४, । कर्म० ६ कर्म। "आणुपुब्बी चउभपश्चाद्धार्मिकमानुधार्मिकमयेत्यपरैरपि तीर्थकृद्भिः समाची या" ॥ १२८३४ ॥ आनुपूर्वी चतुर्दा-नारक-तिर्यग्मनुष्यमित्यर्थः । श्राचा० १ श्रु० ६ ० १ उ०। देवानुपूर्वीभेदाद् । प्रव० २१६ द्वार । कर्म० । चतुर्दा गतिमाणुपुध-प्राणुपूर्व्य-न० । पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भावः रिवानुपूर्वी प्रागुक्तरूपा भवति , कोऽर्थः-गयाभधानव्यपइत्यर्थे । " गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः" (पाणि०५।१।१२- देश्यमानुपूर्वीनाम , ततो निरयानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्वीमनु१) कर्माण चति व्यम् । उत्त०१०। अनु: । क्रमे , प्यानुपूर्वीदेवानुपूर्वी भेदात्-श्रानुपूर्वानाम चतुर्वेति तात्पश्री० । परिपाट्याम् . झा० १ थु०१० । विशिष्टरचना- र्यम् । तत्र नरकगत्या नाम कर्मप्रकृत्या सहचरितानुपूर्वी याम् , सूत्र०२ श्रु. १०।। नरकगत्यानुपूर्वी तत्समकालं चास्या वेद्यमानत्वात्सहचआणपुवडिय- ानुपूर्व्यस्थित त्रि.। विशिष्टरचनया स्थि रितत्वम् । एवं तिर्यग्मनुष्यदेवानुपूयोऽपि वाच्याः । कर्म०१ कर्मा ननु आनुपा उदयो नरकादिषु किमृजुगत्या गच्छत ने, सूत्र०२ शु. १ अ० । माहाविद्वक्रगत्येत्याशङ्कयाह-'पूबीउदा वक्के' त्ति पूर्ध्या आणुपुब्ब-(वि) सुजाय-आनुपूर्व्य (/) सुजात-त्रि० । आनुपूर्ध्या वृषभस्य नासिकारज्जुकल्पाया उदयो-विपाको पारपाट्या सुष्टुजात , । तथा च वृक्षवर्णनमुपक्रम्य-"मा- बक एव भवति । अयमर्थः-नरंक द्विसमयादिवऋण Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) माणुपुषिणाम अभिधानराजेन्द्रः। भाणुपुची गच्छतो जीवस्य नरकानपूर्या उदयः . तिर्य-द्विसम- | यतः संयतः । सूत्र. १ ० २ १०३ उ० । " प्राणुपुग्विषयादिवकेण जीवस्य गच्छतस्तिर्यगानुपूर्या उदयः, मनुष्येषु । सखाए" सूत्र-२+) पानपूा-प्रवज्यादिक्रमण । भाद्विसमयादिवशेग्ण गच्छता जीवस्य मनुष्यानुपूर्या उदयः, चा०१७०८ ०८ उ० । विशिष्टरचनायाम् , सूत्र० २ देवेषु द्विसमयादिवक्रण गच्छना जीवस्य देवानुपूर्त्या | श्रु०१ १० । तदात्मक शास्त्रीयोपक्रमभदे, प्रकारान्तरेण उदयः । उकं च बृहत्कर्मविपाके शास्त्रभावोपक्रमभेदे च । अनु। " नरयाउयस्स उदए, नरए वक्केण गच्छमाणस्स। विषयसूचनार्थमधिकाराङ्काःनरयाणुपुत्रियाए, नहि उदी अचहि नऽस्थि ॥१॥ (१) पानपूर्व्याः सामान्यता भेदाः । एवं तिरिमणुदेवे, तेसु वि वक्रेण गच्छमाणस्स । (२) श्रानुपूयाः द्रव्यादिना भेदाः। तसिमाणुब्बियाणं, ताह उदो भत्रहिनस्थि॥२॥ (३) नैगमव्यवहारसम्मताया द्रव्यानुपूर्या निरूपणम् । कर्म०१ कर्म०४२ गाथाटी। (४)प्रसङ्गमाप्तस्यानुगमस्य निरूपणम् । माणुपुब्धिविहारि(न्) आनुपूर्वीविहारिन्-पुं० । प्रवज्या (५) श्रानपूर्याः संग्रहनयमतेन निरूपणम् । (६) प्रागुद्दिष्टाया औपनिधिक्या द्रव्याऽनुपूा निरूपणम् दिक्रमण विहारिख, प्राचा०। (७) प्रागुहिएक्षत्राऽऽनुपूा निरूपणम् । (अाह नियुक्तिकारः) (८) क्रमप्राप्तकालाऽऽनुपूर्या निरूपणम् । प्राणुपुधिविहारीणं, भत्तपरिष्मा य इंगिनीमरणं । (६) उत्कीर्तनाऽऽनुपूा निरूपणम् । पायवगमणं च तहा, अहियारो होइ अट्ठमए ।।२५७॥ (१०) गणानाऽऽनुपूा निरूपणम् । अष्टमक तु भयमर्थाधिकारः,तद्यथा-श्रानुपूर्वीविहारिणाम् (११) प्रागुद्दिष्टसंस्थानाऽऽनुपूा निरूपणम् । प्रतिपाखितदीघसंयमानाम् शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनात्तरका. (१२) भावाऽऽनुपूा निरूपणम् । लमवसीदत्संयमाऽध्ययनाऽध्यापनक्रियाणां निष्पादितशिष्या. (१) आनुपूर्वी स्वरूपानरूपणगर्भ भेदमाहणामुत्सर्गतो द्वादशसंवत्सरसलखनाक्रमसंलिखितदहानां भ. से किं तं आणुपुची ?, आणुपुची दसविहा पम्मत्ता, क्रपरिक्षङ्गितमरपादपोपगमनं वा यथा भवति तथोच्यते।। तं जहा-नामाऽऽणुपुब्बी१, ठवणाऽऽणुपुवी २. दबाऽऽप्राचा०१.श्रु०८ अ०१ उ०। तत्रैवानुपूर्वीविहारिणां मरणमधिकृत्य सूत्रम् णुपुवी ३, खेत्ताऽऽणुपव्वी४, कालाणुपुब्बी ५, उकित्त णाऽऽणुपुठवी ६, गणणाऽऽणुपुवी ७, संठाणाऽऽणुपुब्बी ऑणुपुत्रेण विमोहाई, जाइं धीरा समासज ॥१ ॥ ८,सामाारियाणुपुब्बी ,भावाऽऽणुपुब्बी१०(सूत्र-७१) आनुपूर्वी क्रमः,-तद्यथा-प्रव्रज्याशिक्षासूत्रार्थग्रहणपरिनि नामढवणाओ गय ओ । (सूत्र-७२+) ष्ठितस्यैककालिकविहारित्वमित्यादि , यदि वा-श्रानुपूर्वीसंलेखनामश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि, तया पानुपूयां या ‘से कि तमि' त्यादि, अथकिं तदानुपूर्वी वस्त्यिति प्रश्ना. म्यभिहितानि । प्राचा० १ श्रु० अ०८ उ०। र्थः । अत्र निर्वचनम्-'आणु गुब्धी दसविहे 'त्यादि , इह हि पूर्व प्रथमम् , आदिः, इति पर्यायाः । पूर्वस्य अनु-पश्चादआणुपुब्वियसंखाए, कम्मणाओ तिउदृइ ॥ २ ॥ नुपूर्व, "तस्य भाव" इति यण्प्रत्यये ज़ियामीकारे चानुपूर्वी, श्रानुपूर्व्या-प्रव्रज्यादिक्रमण संयममनुपाल्य मम जीवतः अनुक्रमो, अनुपरिपाटीति पर्यायाः; यादिवस्तुसंहतिकश्चिद् गुणा नास्तीत्यतः शरीरमोक्षायसरःप्राप्तस्तथा कस्मै रित्यर्थः । इयामानुपूर्वी दशविधा-दशप्रकारा प्रशप्ता, तद्यथामरणाय समर्थों ऽहमित्येवं संख्याय-ज्ञात्वा प्रारम्भणमार- नामाऽनुपूर्वी, स्थापनाऽनुपूर्वी, द्रव्याऽऽनुपूर्वी, क्षेत्राऽऽनुपूम्भः-शरीरधारणायाऽन्नपानाद्यन्वेषणात्मकस्तस्मात् त्रुट्यति वी, कालाऽऽनुपूर्वी, उत्कीर्तनाऽऽनुपूर्वी, गणनाऽऽनुपूर्वी, अपगच्छतीत्यर्थः सुब्ब्यत्ययन पश्चभ्यर्थे चतुर्थी. पाठान्तरं संस्थानाऽऽनुपूर्वी, सामाचार्यानुपूर्थी, भावानुपूर्वीति ॥७॥ या-"कम्मुणाओ तिउर"कर्माष्टमेदं तस्मात् टिष्य- अत्र नामस्थापनानुपूर्वीसूत्रे नामस्थापनावश्यकसूत्रव्यातीति श्रुट्यति, "वर्तमानसामीप्य वर्तमानवद्वा" (पाणि.३ ख्यानुसारेणब्याख्यये ॥७२४॥ ।३।१३१ । इत्यनेन भविष्यत्कालस्य वर्तमानता । आचा० (२) द्रव्यादिना श्रानुपूर्वीभेदमाह१श्रु०८१०८ उ०। माणुपुब्बी-पानुपूर्वी-स्त्री० । पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य से किं तं दवाणुपुरी ?, दवाणुपुब्बी दुविहा परमत्ता, भावः इत्यर्थे " गुणवचनब्राह्यणादिभ्यः" (पाणि ।५।१। तं जहा-आगमतो अ, नो आगमतो (ओ) असे किं तं मा१२६) कर्मणि चति ध्यञ् तस्य च पित्करणसामर्थ्यात गमाओ दवाणुपुव्वी १, २ जस्म णं आणुपुब्धि त्ति पदं खीये" पिद्गीरादिभ्यः श्च" (पाणि ।४।१ । ४१) सिक्खि (अं)तं ठितं जितं मितं परिजितंजाव नो अणुप्पेइनि कीषि श्रानुपूर्वी । क्रमे, परिपाट्याम् , उत्त०१० । हाए कम्हा अणुवोगो दबम्मिनिक गमस्स णं एमो माचा०रा०। विशे०। पं० सं०। जानुपूर्वी, अनुक्रमः, अनुपरिपाटीति पराया यादिवस्तुसंघा इत्यर्थः । अनु०। अणुवउत्तो आगमतो एगा दवाणुपुवी०जाव कम्हा "प्राणुपुव्वं पाणेहिं संजर" (सूत्र-१३ ४) । अानुपूछा जति जाणए अणुवउत्ते न भवति । सेत्तं पागमओ दब्बाभ्रमणधर्मप्रतिपत्त्यादिलक्षणया प्राणिषु यथाशक्त्या सम्यक गुपुब्बी ।। से किं तं नागमतो दव्वाणपुची १, नो. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) प्राणुपुवी अभिधानराजेन्द्रः। माणुपुग्वी पागमतो दव्याणुपुवी तिविहा परमत्ता ?, तं जहा-जा- तं जहा-नेगमववहाराणं, संगहस्स य ।। (सूत्र-७२+) गणगसरीरदब्वाणुपुव्वी. भवियसरीरदब्याणुपुब्बी. जाण 'तत्थ मि' त्यादि. तत्र याऽसावनौनिधिकी द्रव्यानुगसरीरभविसरीरव्यतिरित्ता दव्याणुपुची । से किं तं पूका सा नयवक्तव्यताश्रयणात्-द्रव्यास्तिकनयमन द्वि विधा प्रशता. तद्यथा-नैगमव्यवहारयाः, संग्रहस्य च । नैगजाणगसरीरदबाणुपुची ?, जाणगसरीरदवाणुपुष्वी प मव्यवहारसंमता संग्रहसंमता, चत्यर्थः। अयमत्र भावार्थ:दत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगतचुतचावितचत्त- | इहौधतः सप्त नया भवन्ति नैगमादयः, उक्नं च-नेगम-संग्रहदेहं, सेसं जहा दव्याऽऽवस्सए तहा भाणिअब्धंजाब सेतं व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढे-धंभूता नया एते च जाणगमरीरदव्याणपुची । से किं तं भविसरीरदव्या- द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकलक्षणनयहुयेऽन्तर्भाव्यन्ते द्रव्यमव णुपुब्बी ?, भविअसरीरदव्याणपुब्बी जे जीवे जोणीजम्म परमार्थतोऽस्मिन् पर्याया इत्यभ्युपगमपरः द्रव्यास्तिकः, पर्याया एव वस्तुनः सन्ति न द्रव्यमित्यभ्युपगमपरः पर्यागग निक्खंते, सेसं जहा दवावस्सए०जाव से(तं)त्तं भविश्रस यास्तिकः, तत्राद्यास्त्रयो द्रव्यास्तिकाः, शेषास्तु पर्यायारीरदब्वाणुपुवी । से किं तं जाणयसरीरभविसरीस्व. स्तिकाः । पुनद्रव्यास्तिकाऽपि सामान्यतो द्विविधःतिरित्ता दव्वाणुपुवी ?, जाणयसरीरभविअमरीरवतिरित्ता विशुद्धः, अविशुद्धश्च । तत्र नैगमव्यवहाररूपः अविशुद्धः, दव्वाणुपुब्बी दुविहा पएणत्ता ?, तं जहा-उवणिहिया संग्रहरूपस्तु विशुद्धः । कथं यतो नैगमव्यवहारावनन्तपर-- मारवनन्त शणुकाद्यनेकव्यक्त्यात्मकं कृष्णायनकगुणाय, अणोवणि हिश्रा य । तत्थ णं जा सा उणिहिमा धारं त्रिकालांवषयं वा विशुद्धं द्रव्यामच्छतः संग्रहश्च परसा ठप्पा, (सूत्र-७२+) मारवादिक-परमारवादिसाम्यादिकं तिरोभूतगुणकलापमद्रव्यानुपूर्वीसूत्रमपि द्रव्यावश्यकवदेव भावनीयम् यावत् विद्यमानपूर्वापरविभाग नित्यं सामान्यमेव द्रव्यामच्छति, " जाणगसरीरभवियमगरवरित्ता दवाणुपुब्बी दुविहे " एतच्च किलानकताद्यभ्युपगमकलङ्केनाकाङ्कतत्वाच्छुद्रम् , स्यादि, तत्र निधानं. निधिः. निक्षेपो, न्यामा. विरचना, प्र ततः शुद्धद्रव्याभ्युपगमपरत्वादयमेव शुद्धः । अत्र च स्तारः, स्थापना. इति पर्यायाः । तथा च लोके-निधेहीद द्रयानुपूर्येव विचारयितु प्रक्रान्ता अतः शुद्धाऽशुद्धस्वरूप निहितमिदमित्यत्र निपूर्वस्य धागो निक्षपाऽर्थः प्रतीन एव, द्रव्यास्तिकमतनवासी दर्शयिष्यते न पर्यायास्तिकमतेन उप-सामीप्यन निधिरूपनिधिः एकस्मिन्विक्षिते ऽथै पूर्व पर्यायविचारस्यानुपक्रान्तत्वात् , इत्यलं विस्तरण। व्यवस्थितापिते तत्समीप एवापगपरस्य वक्ष्यमाग पूा- । (३) तत्र नैगमव्यवहारसम्मतामिमां दर्शयितुमाहनुपादिक्रमेण यक्षिपणं स; उपनिधिरित्यर्थः । उपनधिः से किं तं नेगमववहाराणं अगोवनिहिश्रा दवाऽऽणुपुप्रयोजनं यस्या आनुपूाः सा औपनिधिकीति, प्रयोजनार्थे इकण् प्रत्ययः । सामायकाध्ययनादिवातूनां वद ग्माणपूर्वा बी१, नेगमववहाराणं अणोवनिहिआ दवाऽऽणुपुच्ची नुपूर्व्यादिपस्तारप्रयोजनानुपूर्वी औपनधिकी युच्यते इनि पंचविहा परम ता, तं जहा-अट्ठपयपरूवणया १, भंगसमुतात्पर्यम् । अनुधिः वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्यादिक्रमेणाविs- कित्तणया २, भंगोवदंसणया ३, समोआरे ४, अणुगमे५ रचनं प्रयोजनमस्या इत्यनोपनिधिकी; यस्यां वदयमाण (सूत्र-७३) पूर्वानुपूयादिक्रमण विरचना न क्रियन सा उपादिपरमाणु निष्पन्नस्कन्धविषया आनुपूर्वीति अनौपनिधिकीन्युच्यते अत्र निर्वचनम् । 'नैगमववहाराणं अगोवणिहिया दव्याइति भावः । आह मन्वानुपूर्वी परिपाटिरुच्यते भवना च णुपुब्बी पंचविहे' त्यादि, अर्थपदप्ररूपणतादिभिः पञ्चभिः ज्यणुकादिकाऽनन्ताणु कावसान एकैकस्कन्धः अनौपनिधि- प्रकारैर्विचार्यमाणत्वात्पञ्चविधा-पञ्चप्रकारा प्राप्ता, तद्यक्यानुपूत्वेिनाभिप्रेता न च स्कन्धगतच्यादिपरमाणूनां था-अर्थपदनरूपणता , भङ्गसमुत्कीर्तनता , भङ्गोगदर्शनता, नियता काचित्परिणाटिरस्ति विशिकपरिणामपरिणतत्वा- समवतारः, अनुगमः , एभिः पञ्चभिः प्रकार गमव्यवतपां तत्कमिहानुपूर्वीत्वं, सत्यम् , किंतु-यादिपरमाणू हारनयमतन अनौपनिधिक्या द्रव्यानुपाः स्वरूपं निरूप्यनामादिमध्यावसानभावन नियतपरिपाट्या व्यवस्थापन ते इतीह तात्पर्यम् । तत्र अर्यते इति अथः ज्यणुकस्कन्धादिः योग्यताऽस्तीति योग्यतामाश्रित्यात्राप्यानपूर्वोत्वं न विरु- स्तानं तद्विपयं वा पदमानुपादिकं तस्य प्ररूपण-कश. ध्यत । 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्र या सा चौपनिधिकी द्र- नं तद्भावाऽर्थपदमरूपणता इयमानुपूव्यादिका संज्ञा श्रयं च व्यानुपूर्वी सा स्थाप्या सान्यासिकी निष्ठतु तावदल्पतर- तदभिधयम्झ्यणुकाादरर्थः । संझीन्य संशासनिबन्धकथयक्रव्यत्वन तस्या उपार वक्ष्यमाणत्वादिति भावः । नमात्र प्रथम कर्तव्यमिति भावार्थः । नेपामवानुपादि पदानां समुदिनानां वक्ष्यमाणल्यायेन संभविना विकरा:अनीपनिधिकी तु पश्चानिर्दियाऽपि बहुतरवाव्यत्वन | भङ्गा उच्यन्त-विभज्यन्तः विकल्प्यन्ते इनि कृत्या, तेषां प्रथमं व्याख्यायते । बहुतरवक्तव्यत्वे हि वस्तुनि प्रथममुच्य. समुत्कीर्तन-समुच्चारणं भङ्गलमुकीतने , नद्भावा भङ्गलमाने ऽल्पतरवक्लव्यवस्तुगतः कश्चिदर्थस्तन्मध्य ऽपयुक्त एव मुत्की सनता , आनुपादिगदनिष्पन्नानां प्रत्यकमङ्गानां; लभ्यत इति गुणाधिक्यं पर्यालोच्य सूत्रकारोऽनीपनि द्वयादिसंयोगभङ्गानां च समुच्चारणमित्यर्थः, तेषामेव सूत्रधिक्याः स्वरूपं विवर्गपुराह मात्रतया अनन्तरसमुत्कीर्तितभङ्गानां प्रत्येक स्वाभिधेयेन तत्थ णं जा सा अणोनिहिश्रा सा दुविहा पमत्ता, । इयणुकाद्यर्थेन सहोपदर्शन-भङ्गापदर्शनं तद्भावो भङ्गोपद ____ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणुपुब्बी (१४१) अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुपुची शनता । भासमुत्कीर्तने भाकविषयं सूत्रमेव केवलमुचार- शक्यत्यादवक्तव्यकमेव ब्राणुकस्कन्धः, तस्माद्वयवस्थितमिगीयम् , भोपदर्शने तु तंदव स्वविषयभूनेनार्थेन सहोचार- दम् आदिमध्यान्नभावना अवधिभूतं मध्यवर्तिनमपंच्याऽसांयिव्यमिति विशेषः । तथा तेषामेवानुपादिद्रव्याणां स्व. कर्येण मुख्यस्य पूर्वपश्चादावस्य सद्भावात् त्रिप्रदशादिस्थानपरस्थानान्तरभावचिन्तनप्रकारः समवतारः । तथा स्कन्धः एवानुपूर्वी, परमाणुस्तूनयुक्त्या अनानुपूर्वी द्वयतेषामेव आनुपूर्यादिद्रव्याणां सत्पदप्ररूपखादिभिरनुयो- णुकोऽवक्तव्यकः, इत्यवं संज्ञासंशिकसंबन्धकथनरूपा अर्थगद्वारैरनुगमन-विचारणमनुगमः। पदग्ररूपणा कूता भवति । यद्येवं धिप्रदशिका पानुपूर्व्य तत्राऽऽद्यभेदं विवरीषुराह इत्यादि बहुवचननिर्देशः किमर्थः ?, एकत्वमात्रेणैव संहासंसे किं तं नेगमववहाराणं अदुपयपरूवणया?, नेगमवव- शिसंबन्धकथनस्य सिद्धत्वात् , सत्यम् . कित्वानुपूर्व्यादिद्रहाराणं अदुपयपरूवणया तिपएसिए मासुपुच्ची. चउ व्याणां प्रतिभेदमनन्तब्यक्तिल्यापनार्थी नैगमव्यवहारयोप्पएसिए आणुपुब्बी जाव दसपएसिए मासुपुब्बी,संखे रिन्थंभूनाभ्युपगमप्रदर्शनार्थश्च बहुन्वनिर्देश इत्यदोषः । म. त्राह-नन्वनानुपूर्वीद्रव्यमकेन परमाणुना निरूपद्यते, प्रवक्तअपएसिए आणुपुब्बी , असंखिजपएसिए प्राणुपुब्बी, व्यकद्रव्यं परमारण्येन प्रानुपूर्वीद्रव्यं तु जघन्यतोऽपि परअणंतपएसिए आणुपुच्ची, परमाणुपोग्गले अणाणुपु माणुत्रयण इत्थं द्रव्यवृद्धया पूर्वानुपूर्वाक्रममाश्रित्य प्रथमब्बी, दुपएसिए अवत्तव्बए, तिपएसिया आणुपुब्बीओ, मनानुपूर्वी ततः अबक्तब्यकम् ततश्चानुपूत्यिवं निर्देशो यु जाव अणंतपएसियाओ प्राणुपुवीओ, परमाणुपो- ज्यते, पश्चानुपूर्वीक्रमाश्रयख तु व्यत्ययन युक्तस्तत्कथं क्रमग्गला अखाणुपुवीओ, दुपएसिआई अवत्तव्ययाई सेत्तं द्वयमुल्लङ्घयान्यथा निर्देशः कृतः ?, सत्यमेतत् , किंत्वनानुणेगमववहाराणं अदुपयपरूवणया । (सूत्र-७४) पूर्व्यपि व्याख्यामिति ख्यापनार्थः । यदि घा-यणुकचतुअथ कयं नैगम-व्यवहारयोः सम्मता अर्थपदप्ररूपणता? रणुकादीन्यानुपूर्वीद्रव्यागयनानुपूर्णवक्तव्यकद्रव्येभ्यो बनि इति । अत्रोत्तरमाह। नेगमबवहाराणाम' त्यादि, तत्र प्रयः तेभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्याण्यल्पानि तेभ्योऽयवक्तव्यकद्रव्याराग प्रदेशाः परमाणुत्रयलक्षणा यत्र स्कन्धे सा उयणु कानुपूर्वी ल्पतराणीत्यत्रैव वक्ष्यते, ततश्चत्थं द्रव्यहान्या पूर्वानुपूर्वीस्युच्यत,एवं याबदनन्ता प्रणवा यत्र सः अनन्ताणुकः क्रमनिर्देश एवायमिति । अल विस्तरण । सत्तमि' त्यादि सोऽप्यानुपूर्वीत्युच्यते । 'परमाणुषोगले 'त्ति-एकः पर निगमनम्। माणुः परमाण्वन्तराससक्तोऽनानुपूर्वीत्यभिधीयते । द्वौ एमाए णं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पप्रदेशी यत्र स द्विप्रदेशिकः स्कन्धाऽवक्तव्यकमित्याख्या प्रोत्रणं , एआए णं नगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए यत वयसिप्रदेशिकादयः स्कन्धाः प्रानुपथ्यों, बहयश्चै- भंगसमुकित्तणया कजइ । (सूत्र-७५) काकिपरमाणवोऽनानुपूर्व्यः, बहूनि च द्वयणुकस्कन्धद्रव्या- 'एताए णमि' स्यादि, एनया अर्थपदनरूपणनया किं प्रयोएयवक्तव्यकानि । अानुपूर्त्या प्रकान्तायामनानुपूर्यवक्तव्यक- जनमिति, अत्राऽऽह-एतया अर्थपदप्ररूपणतया भङ्गसमुयाः प्ररूपणमसङ्गतीमति चेत्, न, तत्प्रतिपक्षत्वात्तयोरपि रकीर्तना क्रियते, इदमुक्तं भवति-अर्थपदप्ररूपणतायां संज्ञाप्ररूपणीयत्वात् , प्रतिपक्षपरिज्ञाने च प्रस्तुतयस्तुनः सु- सचिव्यवहारो निरूपिनस्तस्मिश्च सत्येवं भङ्गकाः समुत्कीखावसेयत्वादिति भावार्थः । इहानुपूर्वी अनुपरिपाटि- तयितुं शक्यन्ते, नाऽन्यथा, संज्ञामन्तरण निर्विषयाणां रिति पूर्वमुक्तं सा च यत्रवादिमध्यान्तलक्षणः संपूर्णो भवानां प्ररूपायतुमशक्यत्वात् तम्मानमुक्तम् एतया अर्थगणनानुक्रमोऽस्ति तत्रैवोपपद्यते; नान्यत्र, पतच विप्र- पदप्ररूपणतया भङ्गसमुत्कीर्तना क्रियते इति । देशिकादिस्कन्धेम्वेष । तथा हि-"यस्मात्परमस्ति न पूर्व तामेव भङ्गसमुत्कीर्तनां निरूपयितुमाहस प्रादिः, यस्मात् पूर्वमस्ति न परं सोऽन्तः, तया- से किं तं नेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया?, नेश्चान्तरं मध्यमुच्यते," अयं च संपूर्णो गणनानुक्रमस्त्रि गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया-अत्थि श्रानुपुच्ची १, प्रदेशादिम्कन्ध एव, न परमाणी; तस्यैकद्रव्यत्वेना55 अत्थि अणाणुपुची २, अस्थि अव्वत्तव्बए ३, अस्थि दिमध्यान्तब्यवहाराभावाद्, अत एवायमनानुपूर्वीत्वेनोक्तः, नापि द्वयणुकस्कन्धः, तत्रापि मध्याभावेन संपूर्णग आणुपुवीओ ४, अस्थि प्रणाणुएन्वीश्रो ५. अस्थि णनानुक्रमाऽभावाद् , अत्राऽऽह-ननु पूर्वस्यानु-पश्चादनुपूर्व अव्वत्तव्ययाई ६, इकसंयोगी छ भंगा। द्विकसंयोतस्य भाव आनुपूर्वीति पूर्व व्याख्यातम् , पतञ्च द्वथणु- गीभंगा-अहवा-अस्थि आणुपुची अ अणाणुपुथ्वी कस्कन्धेऽपि घटत एव परमाणुद्वयस्यापि परस्परापेक्षया अ१, अहवा-अस्थि आणुपुब्बी अ अशाणुपुचीओ अ पूर्वपश्चाद्भावस्य विद्यमानत्वात्ततः संपूर्णगणनानुक्रमाभाव २, अहवा-अस्थि आणुपुत्रीओ अप्रणाणुपुची अ३, उपि कस्मादयमयानुपूर्वी न भवति ? नैतदेवं, यतो यथा मादिके कचिपदार्थे मध्य अवधौ व्यवस्थापिते लोके अहवा-अत्थि आणुपुवीओ अ अणाणुपुब्बीओ अ४, पूर्वादिविभागः प्रसिद्धस्तथा यत्रापि स्यात्तदा स्यादप्येवं अहवा-अस्थि आणुपुब्बी अ अव्वत्तव्वए अ५, अहवा-- न चैवमत्रास्ति, मध्येऽवधिभूतस्य कस्यचिदभावतोऽमाङ्क: अस्थि आणुपुव्वी अ अव्वत्तव्बयाई च ६, अहवा-अयेंगग पूर्वपश्चाद्धावस्यामिद्धत्वात् , यद्यवं परमाणुवत् द्वय त्थि आणुपुथ्वीओ अ अन्वत्तव्यए अ७, अहवा-अस्थि णुकस्कन्धोऽप्यनानुपूर्वीन्येन कस्मानाच्यंत सत्यं, किंतुपरस्परांपक्षया पूर्वपश्चाद्भावमात्रस्य सद्भायादेवमण्यभिधा- | आणुपुब्बीओ भ अवत्तब्वाई च ८, अहवा-अस्थि अतुमशक्या ऽसौ तस्मादानुपूर्यनानुपूर्वीप्रकाराभ्यां चकम- | णाणुपुवी अ अवत्तए अ6, अहवा-अत्थि अणाण Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) आणुपुवी अभिधानराजेन्द्रः। माशुपुदी पुची प्रवत्तव्ययाई च १०, अहवा-अस्थि श्रणाणु- सर्वेऽपि पहविंशतिरेव एते चोत्तरं प्रयच्छता अनेनैव पुचीयो अत्तव्यए अ११, अहवा-अत्थि प्रणाणुपु-क्रमण सूत्रे ऽपि लिखिताः सन्तीति भावनीयाः। अथ किमर्थ वीओ अ अवत्तव्बयाई च १२ ॥ त्रिकर्मयोगी भङ्गा-| भङ्गकसमुत्कीर्तनं क्रियत इति चत् , उच्यते-दहानुपाअहवा-अत्थि आणुपुबी अ अण्णाणुपुची अ अवत्त-- दिभित्रिभिः पदैरकवचनान्तबहुवचनान्तः प्रत्येकचिन्तया संयोगचिन्तया च षड्विंशतिर्गलाः जायन्ते , तेषु च मध्ये ब्बए अ१, अहवा-अत्थि आणुपुब्बी अ अणाणुपुची -आत्थ आणुपुवा अ अण्णाणुपुया येन केनचिद्भून धक्का द्रव्यं चमिच्छति तेन प्रतिपाअप्रवत्तव्ययाई च २, अहवा-अस्थि प्रापुबांअ अ दयितुं सर्वानपि प्रतिपादनप्रकाराननेकरूत्वान्नैगमव्यवहाअणाणुपुब्बीओ अ अवत्तव्धए अ ३, अहवा--अस्थि रनयाविच्छत इति प्रदर्शनार्थ भङ्गकसमुत्कीर्तनमिति । 'सआणुपुवी भ प्रणायुपुव्वीओ अ अवत्तव्वयाई च ४, त्तमि' स्यादि निगमनम् । उक्का भङ्गसमुत्कीर्तनता। अहवा-अस्थि माणुपुवीओ अ अणाणुपुव्वी अ अवत्त- अथ भलोपदर्शनतां प्रतिपिपादयिषुराहब्बए अ५, अहवा--अस्थि प्राणपच्चीयो अप्रणाय- एपाए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए किं पोपुब्बी अ अवतव्ययाइं च ६, अहवा--अस्थि आणुपुव्वीओ अणं ?. एआए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए नेअ अणाणुपुन्वीओ अ अवत्तवए अ ७. अहवा-अत्थि गमवकहाराणं भंगोवदसणया कीरइ । (सूत्र-७७) आणुपुब्बीओ भ प्रणाणुपुवीभो अप्रवत्तव्वयाइ च ८, 'एताए पमि' इत्यादि , एतया भलसमुत्कीतनतया किं प्रत्रिकसंयोगी एए (ड) भंगा। एवं सव्वेऽवि छच्चीसं योजनमिति ?, अत्रोत्तरमाह-'एताए णमि' स्यादि, एतभंगा। से नेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया (सूत्र-७६) या भङ्गसमुत्कीर्तनया भङ्गोपदर्शनता क्रियते, इदमुक्त भप्रश्न पत्र चानुपूादिपदत्रयेसैकवचनान्तेन त्रयो भका भव. यति-भङ्गसमुत्कीनतायां भङ्गकसूत्रमुक्त, भोपदर्शनतायां न्ति । बहुवचनान्तनापि तेन त्रय एव भङ्गाः, एवमेते असं तस्यैव वाच्यं ध्यणुकस्कन्धादिकं कथयिष्यते । तच सूत्रे योगतः प्रत्यकं भङ्गाः पद भवन्ति, संयोगपक्षे तु पदत्रय समुत्कीर्तिते एव कथयितुं शक्यते , वाचकमन्तरेण वास्यास्य त्रयो द्विकसयोगाः, एकैकस्मिस्तु द्विकसयांगे एक च्यम्य कथयितुमशक्यत्वाद् अतो युक्तं भक्तकसमुत्कीननवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भश्रीसद्भावतः त्रिष्वपि द्विकसं तायां भोपदर्शनताप्रयोजनम् , अत्राह-ननु भनोपदर्शनतायोगेषु द्वादशभङ्गाः संपद्यन्ते, त्रिकसंयोगस्त्वत्रैक एव, तत्र यां वाच्यस्य व्यणुकस्कन्धादेः कथनकाल आनुपादिच (एकवचनान्तात्रयः एते बहुवचनान्तात्रयः ) एकव सूत्रं पुनरप्युत्कीर्तयिष्यति तत् किं भङ्गसमुत्कीर्तनतया प्रचनबहुवचनाभ्यामष्टो भङ्गाः सर्वेऽप्यमी शितिः, अत्र योजनमिति , सत्यं , किंतु-भङ्गसमुत्कीर्तनता सिद्धस्यैव स्थापना चेयम सूत्रस्य भङ्गोपदर्शनतायां चाम्यवाचकभावसुखप्रतिपत्त्यर्थ प्रसङ्गतः पुनरपि समुत्कीर्तनं करिष्यत; न मुरूपतयेत्यदोषः। यथाहि-" सहिता च पदं चैव" इत्यादि व्याख्याक्रमे सूत्रं संहिताकाले समुच्चारितमपि पदार्थकथनकाले पुनरप्यर्थकथनार्थमुच्चार्यते तद्वदनापीति भावः। अथ केयं पुनर्भगोपदर्शनतति प्रश्नपूर्वकं तामेव निरूपयिबहुवचनान्ता स्त्रयः इत्यकवचनान्तात्रयः तुमाह से किं तं नेगमववहाराणं भंगोपदंसणया ?, नेगमववहाराणं भगोवदंसणया ?, तिपएसिए आणुपुब्बी १, परमाणुपोग्गले अणाणुपुची १, दुपएसिए अवत्तव्बए २, अहवा-तिपएसियानुपुचीओ परमाणुपोग्गला अणाणुपुव्वीओ दुपएसिया अव्यत्तव्ययाई ३, अहवा-तिपएसियए अपरमाणुपोग्गले अाणुगुब्बी अ प्रणाणुपुची अ४, चउभंगो । अहवा-दुपयसिए यतिपएसिए अा३ द्विकयोगे४) २द्विकयाग४। १द्विकांगे चतुर्भङ्गी। णपनी अअव्वत्तव्यए य चउभंगो, अहवा-दुपएसिए आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ अवक्तव्यका १ अ आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ अवक्तव्यकाः ३ य परमाणुपोग्गले अ अवत्तव्बए य आणुपुब्बी अ, अह. आनुपूर्वी १ अनानुपूर्व्यः३ अवक्तव्यकः १ वा-तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य आणुपुब्बीओ अ आनुपूर्वी १ अनानुपूर्व्यः३ प्रवक्तव्यकाः३ अणाणुपुव्वीओ अ४, अहवा-तिपएसिए अ दुपएसिए भानुपूर्व्यः३ अनानुपूर्वी १ अवनव्यकः १ आनुपूर्यः३ अ आणुपुबी अ अवत्तव्बए अ५, अहवा-तिपएसिए अनानुपूर्वी १ अवक्रव्यकाः३ आनुपूर्व्यः३ अनानुपूर्व्यः ३ श्रवक्तव्यकः १ अदुपएसिया य आणुपुब्बी अ अवत्तब्धयाइं च ६. अआनुपूर्थः३ अनानुपूर्व्यः ३ प्रवक्तव्यकाः ३ । हवा-तिपएसिया य आणुपुची अअवतब्बयाई च-७म प्रवक्तव्यकः १ अनानुपूर्वी १ भानपूर्वी १ अनानुपूर्व्यः ३ अवक्तव्यकाः३| अनानुपूर्व्यः ३ अधक्तव्यकः अनानुपूर्वी प्रवक्तव्यकाः३ अनानुपूर्वी प्रवक्तव्यकः १ अनानुपृयः ३] श्रानुपूर्व्यः ३ आनुपूर्व्यः३ अपकव्यकाः ३ श्रानुपूर्व्यः३ अबक्तव्यकः १ श्रानपूर्वी १ श्रवक्तव्यकाः ३| Bानुपूर्वी १ प्रवक्तव्यकः ११ श्रानुपूर्व्यः३ अनानुपूर्व्यः ३ प्रानुपूज्यः३ अमानुपूर्वी १|| श्रानुपूर्वी १ अनानुपूर्व्यः ३|| भानपूर्वी १ अनानुपूर्वी २॥ त्रिकसंयोगेऽयो भङ्गाः Jain Education Interational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । eggar हवा - तिपए सिमा यदुपए सिए अ आणुपुच्चीओ अ अवत्तव्यए अ अहवा - तिपएसिया यदुपएसिया आणुपुबी अ अवत्तव्य अ, अहवा - तिपएसिया यदुपएसिया य आणुपुत्री अवत्तव्त्रयाई च ८, श्रहवा - परमाणुपोरंगले अदुपए मिए अ अ णाणुपुन्वी अ अत्तव्य अ ६, अहवा - परमाणुपोग्गले अ दुपसिएश्रा य अणाणुपुन्वी अ अवत्तव्ययाइं च १० अहवा - परमाणुपोग्गला यदुपए सिए अ अणाणुपुन्वी अ अवत्त 9 अ ११ अहवा - परमाणुपोग्गला य दुपए सिआय अणाणुपुन्वी अ अवतव्वयाई च १२, हवा - तिपए सिए परमाणुपोग्गले अदुपए सिए अ अणुपुन्वी अणाणुपुत्री अ अवत्तव्यए अ १, अ हवा - तिपए सिए परमाणुपोग्गले य दुपएसिया य आ पुत्री अ णाणुपुत्री अ अवत्तब्वयाई च २ अहवा तिपएसिए परमाणुपोग्गला अ दुपएसिया य आणुपुन्त्री अणाणुपुत्रीओ अ अवत्तव्यए अ ३, अहवा - तिपए सिए परमाणुपोग्गला य दुपएसिया अ श्रणुपुन्वी अ अणाणुपुन्वीओ अ अवत्तव्यए अ४ अहवा - तिपए सिए परमाणुपोग्गला यदुपएसिया य आणुपुब्बी अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वए ५ अहवा - तिपएसिया य परमाणुपोग्गले दुपएसिए अणुपुत्री पुर्वी ओ अ अवत्तव्वयाई च ६, अहवा -- तिपएसित्राय परमाणुपोग्गले अ दुपएसिया य आणुपुच्ची अ णाणुपुत्री अवतन्त्र ७ अहवा - तिपएसिआ य परमाणुपोग्गले अ दुपएसिया य पुत्री अ पुवीओ अ अवत्तव्वयाई च ८ । सेतं नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया । ( सूत्र - ७८ ) I 'से किं तमि' त्यादि, 'तिपपसिए श्राणपुत्री 'त्ति-त्रिप्रदेशिको ऽर्थः श्रनुपूर्वीत्युच्यते; त्रिप्रदेशिक स्कन्धलक्षणेनानानुपूर्वीति भङ्गका निष्पद्यत इत्यर्थः । एवं परमाणुपुङ्गललक्षणाऽर्थः अनानुपूर्वीत्युच्यत, द्विप्रदेशिक स्कन्धलक्षणोऽथक्कयकमुच्यते, एवं बद्दवस्त्रिप्रदशिका आनुपूर्व्यः, बहयः परमाणुपुद्गला श्रनानुपूव्यः बहवो द्विप्रदेशिकस्कन्धा अवक्लव्य कानीति पराणां प्रत्येकभङ्गानामर्थकथनम् | एवं द्विसंयोगेऽपि त्रिप्रदेशिकस्कन्धः परमाणुपुद्गलचानुपूर्य नानुपूर्वीत्वेनोच्यते , यदा त्रिप्रदेशिक स्कन्धः परमाणुपुद्गलश्च प्रतिपादयितुमभीष्टा भवति । तदा 'अस्थि श्रपुत्री अश्रणाणुपुत्री अ ' इत्येवं भङ्गो निष्पद्यत इत्यर्थः एवमर्थकथनपुरस्सराः शेषभङ्गा श्रपि भावनीयाः । श्रत्राह- नन्वर्थी ऽप्यानुपूर्व्यादिपदानां व्यणुक स्कन्धादिको अर्थपदप्ररूपणतालक्षणे प्रथमद्वारे कथित एव तत्किमनेन ? सत्यम् ?, किंतु तत्र पदार्थमात्रमुक्क्रम्: अत्र तु तेषामेवानुपूर्व्यादिपदानां भङ्गकरचनासमादिष्टानामर्थः कथ्यत इत्यदोषः, For Private wigsar नयमतवैचित्र्यप्रदर्शनार्थे वा पुनरित्थमर्थोपदर्शनमिति । श्रलं विस्तरेण | ' सेत्तमि ' त्यादि निगमनम् । उक्ता भङ्गोपदर्श नता । अथ समवतारं विभणिषुगद्द - से किं तं समोरे, समोआरे नेगमववहाराणं श्रापुवदव्वाई कहिं समोअरंति ?, किं आणुपुच्चिदव्वेंहिं समोअरंति ?, अणापुव्विदच्त्रेहिं समोअरंति ९, अवत्तव्यदव्वेहिं समोअरंति ९. नेगमवत्रहाराणं श्रणुपुत्रीदव्बाई आणुपुच्चीदव्वेहिं समोअरंति, नो अणाणुपुब्बीदव्येहिं समोअरंति नो अवसव्त्रयदव्वेहिं समोअरंति, नेगमववहाराणं अणापुव्विदव्वाई कहिं समोअरंति ?, किं त्रिवेहिं समोअरंति । श्रणाणुपुव्विदव्वेहिं समोअरंति १ अत्तव्वयदव्वेहिं समोअरंति ?, नो आणुपुविदव्वेहिं समरंति, अणापुव्विदच्चेहिं समोअरंति, नो अवत्तव्यव्वेहिं समोअरंति । नेगमववहाराणं अवव्यदव्बाई कहिं समोअरंति ?, किं श्रणुपुव्विदव्वेहिं समोअरंति ? अापुव्विदव्वेहिं समोअरंति ?, अवत्तव्ययदव्वंहिं समोअरंति नो श्रणुपुव्विदव्वेहिं समोअरंति; नो अापुव्विदव्येहिं समोअरंति; अवत्तव्वयदव्वेहिं समोअरंति । सेतं समोआरे । (सूत्र - ७६ ) अथ कोऽयं समवतार इति प्रश्ने सत्याह-' समोयारे' त्तिअयं समवतार उच्यत इति शेषः कः समवतार इत्याह'नगमवबहाराणं श्रणुपुथ्वीदब्बाई कहिं समोयरंती ' त्यादि प्रश्नः अत्रांतरम्' नेगमववहाराणं श्रणुपुब्बी ' इत्यादि. श्रानुपूर्वीद्रव्याणि श्रानुपूर्वीद्रव्यलक्षणायां स्वजातावेव वत्तन्तः न स्वजात्यतिक्रमणेत्यर्थः, इदमुक्रं भवति - सम्यग् - अविरोधनावतरं वर्तनं समवतारः अविरोधवृत्तिता प्रोच्यते सा च स्वजातिवृत्तावेव स्यात् परजातिवृत्तेर्विरुद्धस्वात् ततो नानादेशादिवृत्तीन्यपि सर्वाण्यानुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येष्वेव वर्त्तन्त इति स्थितम् । एवमनानुपूर्व्यादीनामपि स्वस्थानावतारो भावनीयः । सेत्तमि त्यादि निगमनम् । उक्तः समवतारः । (४) अथाऽनुगमं विभणिषुरुपक्रमतेसे किं तं गमे ?, अणुगमे नवविहे पष्मत्ते, तं जहा" संतपयपरूवणया १, दव्यमाणं च २. खित्त ३ फुसणा य ४ । कालो य५ अंतरं ६ भा ग ७ भाव ८ अप्पाचहुं चेत्र ६ || १ ||" (सूत्र - ८० ) अत्रोत्तरम् - अणुगमे नवविहे इत्यादि. तत्र सूत्रार्थस्यानुकूलमनुरूपं वा गमनं व्याख्यानमनुगमः । अथवा सूत्रपठनादनु - पश्चाद् गमनं व्याख्यानमनुगमः । यदि वा अनुसूत्रमर्थो गम्यते ज्ञायते अनेनेत्यनुगमो व्याख्यानमेवेत्याद्यन्यदपि वस्त्वविरोधेन स्वधिया वाण्यमिति । सच नवविधो नवप्रकारो भवति । तदेव नवविधत्वं दर्शयति. Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) अभिधान राजेन्द्रः । श्राणुपुरुवी तद्यथेत्युपदर्शनार्थः । ' संतपयगाहा ' सदर्थविषयं पदं सस्पदं तस्य प्ररूपं प्रापनं सत्पदमरूपणं तस्य भावः स स्पदप्ररूपणता सा प्रथमं कर्त्तव्या । इदमुक्तं भवति - इह स्तम्भकुम्भादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते खरश्टयोमकुसुमादीनि त्वसदर्थविषयाणि दृश्यन्ते तत्रानुपूर्व्यादिपदानि किं स्तम्भादिपदानीव सदर्थविषयाणि अहोस्थित् स्वरविषाणादिपदवत् असदर्थगोचराणि इस्येतत्प्रथमं पर्यालोचयितव्यं तथा श्रनुपूर्व्यादिपदाभिधेयद्रव्याणां प्रमाणं संख्यास्वरूपं प्ररूपणीयम् वः समुचय, एवमन्यत्रापि तथा तेषामेव क्षेत्रं तदाधारस्वरूपं प्ररूपणीयं; क्रियति क्षेत्रे तानि भवन्तीति चिस्तनीयमित्यर्थः । तथा स्पर्शना च वक्तव्याः कियत्क्षेत्रं तानि स्पृशन्तीति चिन्तनीयमित्यर्थः । तथा कालश्च तत्स्थितिलक्षणो वक्तव्यः, तथा अन्तरं विवक्षित स्वभाव परित्यागे सति पुनस्तद्भावप्राप्तिविरहलक्षं प्ररूपणीयं तथा आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कतिभागे वर्त्तन्ते इत्यादिलक्षणो भागः प्ररूपणीयः, तथा श्रनुपूर्यादिद्रव्याणि कस्मिन् भावे वसन्ते इत्येवंरूपो भावः प्ररूपणीयः, तथा अल्पबहुत्वं चानुपूर्व्यादिद्रव्याणां द्रव्यार्थ प्रदेशार्थो भयार्थताश्रयंगुन परपरं स्तोकत्यचिन्तालक्षणं प्ररूपणीयम् एवकारोऽबधारणे. एतावत्प्रकार एवानुगम इति गाथासमासार्थः । विस्तरा (व्यासा) तु ग्रन्थकारः स्वयमेव विभणिषुराद्याव यवमधिकृत्याह - नेगमवत्रहाराणं श्रणुपुव्विदवाई किं अस्थि त्थि ?, णियमा अत्थि | नेगमववहाराणं श्रणाणुपुच्चीदव्वाई किं अस्थि त्थि ?, नियमा श्रत्थि । नेगमववहाराणं अवत्तब्वगदव्वारं किं अस्थि रात्थि, नियमा अस्थि । (सूत्र- ८१) नैगमव्यवहारयारानुपूर्वीशब्दाभिधेयानि द्रव्याणि यणुकस्कन्धादीनि किं सन्ति न इति (च) प्रश्नः, अत्रोत्तरं-निमाथि' इति एतदुक्तं भवति नेदं खरभृङ्गादिवदानुपूर्वी पदमसदर्थगोचरम् अतो नियमात्सन्ति तदभिधेयानि द्रव्याणि तानि च व्यणुकस्कन्धीदीनि पूर्व दर्शिताभ्येव, एवमनानुपूर्य व व्यकपक्षद्वयेऽपि वाच्यम् । कृता स रपदप्ररूपणा । अथ द्रव्यप्रमाणमभिधित्सुराहनेगमववहाराणं श्रणुपुव्विदव्वाई किं संखिजाई - संखिजाई अताई ?, नो संखिजाई नो असंखिजाई, अताई, एवं अणापुव्विदव्वाई, अत्तव्वगदब्बाई च ताई भाणिव्वाई | ( सूत्र - ८२ ) 'नगमववहाराणं श्रविदव्वा किं संखेज्जाइम ' त्यादि, अमत्र निवर्चनभावार्थ:- इहानु नानुपूर्व्यवक्कव्यकद्रव्याणि प्रत्येकमनन्तान्येकै कस्मिन्नप्याकाशप्रदेश प्राव्यन्ते, किं पुनः सर्वलोके, अतः संखयाऽसैखेय प्रकारद्वयfnvar freef स्थानस्यानन्त्यमेव वाच्यमिति । न च वक्तव्यं कथमसंख्येये लोके अनन्तानि द्रव्याणि तिष्ठन्ति ?, अचिन्त्यत्वात् पुलपरिणामस्य शक्तिर्द्दश्यते चैकगृहान्तकाशप्रदेशष्य का दीपप्रभा परमाणुष्याण्यप्यनेकाऽपर For Private eggsat प्रदीपप्रभाषर माणूनां तत्रैवावस्थानं, नचाऽचिदृष्टेऽप्यर्थेऽनुपपत्तिः अतिप्रसङ्गादिति । श्रलं प्रपञ्चन । इदानीं क्षेत्र द्वारमुच्यते गमववहाराणं श्रणुपुव्वीदब्वाई लोभस्स किं संखिअभागे होजा असं खजड़भागे होजा संखेखेसु भागेसु होजा असंखजेसु भागेसु होजा सव्वलोए होजा !, एगं दव्वं पडुच्च संखेअइ भागे वा होजा अखिजह मागे वा होजा संखेजेसु भागे वा होआ असंखिखेसु भागेसु वा होजा सव्वलोए वा होजा, गाणादव्बाई पडुच्च निश्रमा सव्वलोए होजा । नेगमववहाराणं श्रणाणुपुव्विदव्बाई किं लोस्स किं संखिजड़भागे होजा ०जाव सव्वलोए वा होजा ?, एगं दव्वं पडुच्च नो संखेजड़भागे होज्जा, श्रसंखिखड़भागे होजा, नो संखेखे भागेसु होजा, नो श्रसंखेजेसु भागेसु होजा. नो सब्बलोए होजा, गाणदव्वाई पडुच्च नित्रमा सव्वलोए होज्जा, एवं अवत्तब्बगदब्वाई भाणि अव्वाई । (सूत्र - ८३ ) श्रानुपूर्वीद्रव्याणि किं लोकस्यैकस्मिन् संख्याततमे भागे 'होज' ति । त्वात् भवन्ति श्रवगाहन्त इति यावत् । यदि वा एकस्मिन्नसंख्याततमे भाग भवन्ति उत बहुषु संयेयेषु भागेषु भवन्ति आहांश्चिद्वदुष्य संख्ययेषु भागेषु भवन्ति श्रथ सर्वलाके भवन्तीति पञ्च प्रश्नस्थानान्यत्र निर्वचनसूत्रस्येयं भावना-इहानुपूर्वीद्रव्याणि व्यणुक स्कन्धादीन्यनन्तागुस्कन्ध पर्यवसनान्युक्ानि तत्र च सामान्यत एकं द्रव्यमाश्रित्य तथाविधपरिणामवैविध्यात् किंचिल्लोकस्यैकस्मिन् संख्याततमे भागे भवति एकं तत्संख्यातभागमचगाह्य तिष्ठतीत्यर्थः, अन्यतु तदसंख्येयभागमवगाहते, अप रस्तु-बहूंस्तदसंख्येयान् भागानवगाह्य वर्त्तते, अन्यन्त्र बहून् तदसंख्येयभागानवगाह्य तिष्ठतीति, 'सव्वलोए या होज त्ति' इहानन्तानन्त परमाणुपचयनिष्पन्नं प्रज्ञापनादिप्रसिद्धाचित्तमहा स्कन्धलक्षणमानुपूर्वीद्रव्यं समयमेकं सकललोकावगाहि प्रतिपत्तव्यमिति । कथं पुनरग्रमचित्तमद्दास्कन्धः सकललोकावगाही स्याद् ?, उच्यते समुद्घातवर्त्तिकेवलिवत् । तथाहि - लोकमध्यव्यवस्थितोऽसौ प्रथमसमये तिर्यगसंख्यातयोजनविस्तरं संख्यातयोजनविस्तरं वा ऊर्धमधस्तु चतुर्दशरज्ज्वायतं विश्वसागरिणामेन वृत्तं दण्डं करोति द्वितीये कपाटम्, तृतीय मन्थानं, चतुर्थे लोकव्याि प्रतिपद्यते । पञ्चमे अन्तराणि संहरति षष्ठ मन्यानं सप्तम कपाटमटम तु दण्डं संहृत्य खण्डशो भिद्यत इत्येके, अन्येत्वन्यथापि व्याचक्षतः तत्तु विशेषावश्यकादयसंयमिति वा ' शब्दः समुच्चये एवं यथासंभवमन्यत्रापि । 'नागा दवाई पड 'त्यादि नानाद्रव्याख्यानुपूर्वी परिणामयन्ति प्रतीत्य प्रकृत्य वा; अधिकृत्येत्यर्थः, नियमात् नियमन सर्वलोके भवन्ति, न संख्यादिभागेषु यतः सर्वलोकाकाशस्य स प्रदेशोऽपि नास्ति यत्र सूक्ष्मपरिणामवन्त्यनन्तान्यानुपूर्वी द्रव्याणि न सन्तीति अनानुपूर्य व्यकव्येषु त्येकं द्रव्यमाश्रित्य लोकस्याऽ Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) माणुपुवी अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुपुवी संख्येयभाग एव वृत्तिन संख्येयभागादिषु यतोऽनानपूर्वी अथ द्वितीयः पक्षस्तहि तस्य सांशवप्रसनोऽत्राऽपि दुर्वार: तावत्परमाणुरुच्यते, स चैकाकाशप्रदेशाऽवगाढ भवति, स्याद् अथ निरंश एवासी शानलक्षणक्षणोऽकार्याकारणअवतव्यकंतु यमुकस्कन्धः, स चैकाकाशप्रदेशावगाढो- रूपः तत्तद्वस्तुब्यापृतत्वात् । तथा तथा व्यपदिश्यते, न पुनद्विप्रदेशावगाढो वा स्यादिति यथोकभागवृत्तितैवेति, नाना- स्तस्यानकस्वरूपत्वमस्ति , नन्यस्माकमपि नेदमुत्तरमतिद्रव्यभावना पूर्ववदिति । उक्त क्षेत्रद्वारम् । दुर्लभ स्यात् , यतो द्रव्यतया निरंश एव परमाणुस्तथासाम्प्रतं स्पर्शनाद्वारमुच्यते विधाऽचिन्यपरिणामत्वाद् द्विकर्षटन सह नैरन्तयेणाव स्थितत्वात्तस्य स्पर्शकमुच्यते, न पुनस्तत्रांशः काचित् स्पनेगमववहाराणं आणुपुब्बिदवाई लोगस्स किं संखेजइ र्शना समस्तीति, अत्र बहुवक्तव्यं तत्तु नाच्यते, स्थानान्तरेषु भागं फुसंति असंखज्जइभागं फुसंति संखेज्जे मागे चर्चितत्वादिति । अलं विस्तरेण । उक्तं स्पर्शनाद्वारम् । फुर्मति असंखज्जे भागे फुसति सबलोनं फुसंति', एगं इदानीं कालद्वारं विभणिषुराहदब्वं पहुच्च लोगस्स संखेजड्भागं वा फुसंति जाव सब- | गमववहाराणं प्रामुपुब्बिदव्वाई कालो केवच्चिरं लोमं वा फुसंति वाणादबाई पडुच्च निमा सबलोग होइ १, एगं दव्वं पडच्च जहणणेणं एगं समयं उक्कोसणं फुसति । गमववहाराणं अणापुपुब्बिदबाई लोअस्स किं | असंखेज्जं कालं, णाणादबाई पडुच्च णिमा सव्वऽद्धा संखेजइभागं फुसंति० जाव सबलोगं फुसंति । एग दव्यं | अणाणुपुविदव्वाई अवत्तव्बगदव्याई च एवं चेव भाणिपडुच्च नो संखिजइभागं फुसंति असंखिज्जइभागं फुसंति | अबाई । (सूत्र-८५) नो संखिजे भागे फुसंति नो असंखेज्जे भागे फुसंति नो नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कालन:-कालमाश्रित्य सव्वलीअं फुसंति, नाणादचाई पडुच्च निमा सबलोअं कियश्चिरं-कियन्तं कालं भवन्ति-आनुपूर्वीत्वपर्यायेणावफुसंति, एवं अवतब्बगदम्वाइं भाणिअव्वाईं। (सूत्र-८४) तिष्ठन्ते १, अत्रोत्तरम्-'एग दव्वमि' त्यादि , इयमत्र भावना-परमाणुद्वयादरपरकादिपरमाणुमीलने अपूर्व किंभावना तु क्षेत्रद्वारवदेव कर्तव्या, नवरं क्षेत्रस्पर्शनयारय चिदानुपूर्वीद्रव्यं समुत्पन्नम्, ततः समयादृा पुनरप्येविशेषः क्षेत्रम् अवगाहाक्रान्तप्रदेशमात्र, स्पर्शना तु षड्दिकैः काद्यणप्रै वियुक्रेऽपगतस्तद्भाव इत्येकमानुपूर्वीद्रव्यमधिप्रदेशस्तद्बहिरपि भवति, तथा च-परमाणु द्रव्यमाथित्य कृत्य-जघन्यतः समयः-अवस्थितिकालः, यदा तु तताचदचगाहनास्पर्शनयारन्यत्राक्लो भेदः । 'एगपएसोगाढं देवासंख्यातं कालं सद्भावेन स्थित्वाऽनन्तरोक्लस्वरूपण सत्त पएसा य से फुसण'त्ति-अस्यार्थः-परमाणुद्रव्यमबगाढं वियुज्यते तदा उत्कृष्टतोऽसंख्ययोऽवस्थितिकालः प्राप्यंत, तावदेकस्मिन्नेवाकाशप्रदशे, स्पर्शना तु (स) तस्य सप्त प्रदेशा अनन्तं कालं पुनावतिष्ठते उत्कृष्टाया अपि पुद्गलसंयोगभवन्ति, पइदिग्व्यवस्थित्तान् पट्यदेशान् यत्र चावगाहस्तं स्थिनेरसंख्येयकात्वत्वादिति । नानाद्व्याणि बहुनि पुनच स्पृशतीत्यर्थः,एवमन्यत्रापि क्षत्रस्पर्शनयों:दो भावनीयः। रानुपूर्वीद्रव्याण्यधिकृत्य सर्वाऽद्धास्थितिर्भवति, नास्ति सः अत्र सौगताः प्रेरयन्ति-यदि परमाणेः पदिग्स्पर्शना - कश्चित्कालो यत्रानुपूर्वीद्रव्यविरहितोऽयं लोकः स्यादिति भ्युपगम्यते तदेकत्वमस्य हीयते, तथा हि-प्रष्टव्यमत्र, किं भावः । अनानुपूज्यवक्रव्यकद्रव्येष्वपि जयन्यादिभेदभिन्न येनैव स्वरूपेणासौ पूर्वाद्यन्यतरदिशा सम्बद्धस्तेनैवान्यदि पतावानेवावस्थितिकालः, तथाहि कश्चित्परमाणुरेकं सग्भिः, उत स्वरूपान्तरण ?, यदि तेनैव तदाऽयं पूर्वदिसंब मयमेकाकीभूत्वा ततः परमाएवादिना अन्येन सह संयुग्धोऽय चापरदिसंबन्ध इत्यादि विभागो न स्यात् एकस्व. ज्यत इत्श्चमेकमनानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य जघन्यतः समय:रूपत्वात्, विभागाभावे च षड्दिसंबन्धवचनमुपलवत् एव, अवस्थितिकालः, यदा तु स एवासंख्यातं कालं तद्भावेन अथाऽपये विकल्पः कल्प्यने तर्हि तस्य पट्स्वरूपाऽऽपत्त्या स्थित्वा चन्येन परमारवादिना सह संयुज्यते तत उत्कृएकत्वं विशीर्यते, उक्नं च-'दिग्भागभेदा यस्याऽस्ति तस्य- प्रतोऽसंख्येवोऽवस्थितिकालः संप्राप्यते, नानाद्रव्यपक्षस्तु कत्वं न युज्यत' इति । अत्र प्रतिविधीयत्ते-इह परमाणद्र- पूर्ववदेव भावनीयः । श्रवक्तव्यकद्रव्यमपि परमाणु द्रयलक्षणं व्यमादिमध्याऽन्त्यादिविभागरहितं निरंशमेकस्वरूपमिष्यते यदा समयमेकं संयुक्तं स्थित्वा ततो वियुज्यते तदवस्थमेव अतः सांशवम्तु संभविवारपरोक्नं विकल्पद्वयं निरास्पदमेव, वाऽन्येन परमारवादिना संयुज्यते तदा तस्याऽवक्तव्यकद्रअथातभ्युपगम्यमानाऽपि परमायोः सांशता अनन्तराक्कवि- ध्यतया जघन्यतः समयोऽवस्थान लभ्यते, यदा तु तदवा:कल्पवलेनापाद्यते, ननु भवन्तोऽपि तर्हि प्रष्टव्या:-कचि- संख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वा विघटत तदवस्थमव वा 5. द्विधानसताने विक्षितः कश्चिद्विज्ञानलक्षणक्षणः स्वजनक- (चा)न्येन परमारवादिना संयुज्यते तदोत्कृष्टतः श्रवक्तव्यक. पूर्वक्षणस्य कार्य स्वजन्योत्तरक्षणस्य कारणमित्यत्र सौग- द्रव्यतया असंख्यातं कालमवस्थान प्राप्यते, नानाद्रव्यप. तानां तावदविप्रतिपत्तिः, तत्रहापि विचार्यते-किमसी येन क्षस्तु तथैव भावनीय इति । उक्तं कालद्वारम् । स्वरूपख पूर्वक्षपस्य कार्य तेनैवोत्तरक्षणस्य कारणम् ; उत अथाऽन्तरद्वारं प्रतिपिपादयिषुराहस्वरूपान्तरेख ?, यद्याद्यः पक्षस्तहिं यथा पूर्वापक्षयाऽसौ कार्य तथोत्तरापेक्षयापि स्यात् यथा वा उत्तरापेक्षया | णेगमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाणं अंतरं कालो कारणं तथा पूर्वापेक्षयापि स्याद् , एकस्वरूपत्वात्तस्येति, केवचिरं होइ, एगं दव्वं पडुच्च जहएणणं एगं समयं ३६ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रपुवी उकोसे अतं कालं, नाणादव्वाई पडुच्च णत्थि अंतरं । गमववहाराणं अणाणुपुथ्वीदब्वा अन्तरं कालओ केवच्चिरं होइ ?, एगं दव्वं पडुच्च जहराणेणं एगं समयं उफोसे असंखे कालं, नाणादन्याई पडुच रात्थि अ न्तरं । खेगमववहाराणं अवत्तब्वगदव्याखं अन्तरं काल केवच्चिरं होइ १, एगं दव्वं पटुच्च जहणणेणं एगं समयं उसे कालं नाणादब्वाई पद्म स्थि - न्तरं (सूत्र ८६ ) (१४४) अभिधानराजेन्द्रः । नेगमपारयनुपूर्वीइव्याणामन्तरं कालतः कियचिरं भवतीति प्रश्नः, श्रन्तरम् व्यवधानं, तश्च क्षेत्रतोऽपि भवति, यथा भूतलसूर्ययोर योजनशतान्यन्तरमित्यतस्तद्व्यव दार्थमुकालतः कालमाश्रित्य तदयमत्रार्थः श्रनुपू द्रव्याययानुपूर्वी स्वरूप परित्यकता कालेनान्येव पुनस्तथा भवन्ति श्रानुपूर्वीत्व परित्याग-पुनर्लाभारन्तरे कियान् कालो भवतीत्यर्थः । श्रत्र निर्वचनम् पगं दव्वमित्यादि, इयमत्र भावना-इह विवक्षितं व्यरणुकस्कम्यादिकं किमयानुपूर्वीद्रव्यं विसापरमात्मयोगपर गामाद्वा खण्डशी वियुज्य परित्यक्तानुपूर्वीभावं संजातं एकस्माच्च समयादूर्द्ध विश्रसादिपरिणामात्पुनस्तैरेव परमाणुभिस्तथैव तनिष्पन्नमित्येवं जघन्यतः सर्वस्तोकतया एकं इयमाधित्यानुपूर्वीश्व परित्याग पुनर्लाभयोरन्तरे समयः प्राप्त उस सर्वबहुतया पुनरन्तरमन्तं कालं भवति तथाहि तं किमप्यानुपूर्वी भित्त्वा च ते परमाण्वोऽन्येषु परमाणुद्रणुकयषुकादिषु अनन्ताशुकस्कन्धपर्यन्तेषु अनन्तस्थानन्तराधिकारादसकृत्प्रतिस्थानमुत्कृष्टां स्थितिमनुभवन्तः कृत्या पर्यटनं कालस्यानन्तत्वाद्विसादिपरिणामो यदा तैरेव परमाणुभिस्तदेव विवचितमनुपूर्वीनष्पद्यते, तदाऽनन्त उत्कृष्टान्तरकालः प्राप्यते, नानाद्रव्याएधिकृत्य पुनर्नास्त्यन्तरम् नहि स कालोऽस्ति यत्र सर्वाषापूर्वी युगपदानुपूर्वीभावं परित्य जन्ति, अनन्तानन्ते सर्वदेव लोकस्याऽशून्यस्यादिति भावः । अनानुपूर्वीद्रव्यान्तरकालचिन्तायाम् ए दव्यं पद्दुच्च जहने एक्कं समयं ति- इद्द यदा किंचिदनानुपूर्वीद्रव्यं परमासुलक्षणमन्येन परमाद्र्धरकयणुकादिना केनचित् द्रव्येण सह संयुज्य समयादूर्ध्व वियुज्य पुनरपि तथा स्वरूपमेव भवति तदा समग्रलक्षणो जघन्यान्तरकालः माप्यते 'कोसे का ति संदानानुपूर्वी यदा अन्येन परमाखुमुकामुकादिना केनचिद या सह संयुज्यते तत् संयुक्तं चाऽसंख्येयं कालं स्थित्वा वियुज्य पुनस्तथास्वरूपमेव भवति तदा असंख्यात उत्कृष्टान्तरकाला लभ्यते । अत्राह - ननु अनानुपूर्वीद्रव्यं यदा अनन्ताऽ नन्तपरमाणु प्रचितस्कन्धेन सह संयुज्यते तत्संयुक्तं चासंख्येयं कालमवतिष्ठते ततोऽसौ स्कन्ध उद्भियम तन् यस्ताकम्प भवति तेनापि सह संयुक्रमस्यानं कालमयतिष्ठन पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने यः तखाज्ञघुतरः स्कन्धो भवति तेनापि संयुक्रमसंख्येयं कालमवतिष्ठते, , पर्यटति चाणुपुब्बी पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने यस्तस्माल्लघुतमः स्कन्धो भवति नापि संयुक्रमसंख्येयं कालमवतिष्ठत इत्येयं तत्र माने क्रमेण कदाचिदनन्ता अपि स्कन्धाः संभाव्यन्ते तत्र च प्रतिस्कन्धसंयुक्रमनानुपूर्वीद्रव्यं यदा यथोक्तां स्थितिमनुभूय तत एकाक्येव भवति तदा तस्य यथोक्लानन्तस्कन्धस्थित्यपेक्षया अनोप कालान्तरं प्राप्यंत, किमित्यसंख्येय एवोक्तः, अत्रोच्यते स्यादेकं हन्त यदि संयुक्तोऽसुरेनावन्तं कालं तिष्ठेदेतश्च नास्ति, पुद्गलसंयोगस्थतेतुष्टोऽयकालादित्युक्तमेव स नृपात्-स्मिन्नेव स्कन्धे संयुज्यते असौ परमाणुः स चेत् स्कन्धः असंख्येयकालाद् भिद्यते ततावतैव चरितार्थः पुलसंयोगा उपयकालनियमो विवक्षित परमाङ्गन्यस्य तु वियोगो मा भूपति, नैतदेवं यस्या अम्पेन संयोग जा तस्तस्यार्थवकालाद्वियोगचिन्त्यते यदि च परमावायः स्कन्धोपते तां परमाणोः स्याम्यसंयोगस्य तदवस्थस्यात् तस्मादासी सेयुक्तोऽसंख्येयकालादत्वेनैव वियोजनीय इति यथांक एवान्तरकालो नत्वनन्त इति, कथं पुनरत्वेनैव तस्य वियोग इति पाइत्यादिषु च परमा पुनः परमाणुभवने संख्यरूप स्यैवान्तरकालस्पोक्लत्वाद इत्यले विस्तरेण 'नाहादग्याई पचेत्यादि पूर्वयद्भावनीयम् अव्यद्रव्याणाम न्तरचिन्तायाम् 'एगं दव्वं पडुचे' त्यादि । श्रत्र भावना-इह दिद्विदेशिक स्कन्धो विपतिः स्वतन्त्रं परमाद जातं समयं चैकं तथा स्थित्वा पुनस्ताभ्यामेव परमाणुभ्यां प्रदेशका स्कन्धो निष्यधः, अथवा विघटित एव द्विपदेशिका को उम्पेन परमादादिना संयुज्य समयदूर्ध्वं पुनस्तथैव वियुक्त इत्यवक्तव्यकस्य पुनरभ्यवक्तव्यकभवने उभयथाऽपि समयोऽन्तरे लभ्यते, 'उक्को सेणं अंत काल' इति कथम् ? अत्रोच्यते--अवक्तव्यकद्रव्यं किमपि विघटितं विकसितपरमायं जातं तानन्तः परमाएभिरनन्तैर्द्वधसुकस्कन्धे रमन्ते रूप कस्कन्धेदरम न्तायुकस्कन्धैः सह क्रमेण संयागमासाद्य उत्कृष्टान्तराधिकाराश्च प्रतिस्थानमसकृदुत्कृष्टां संयोगस्थितिमनुभूय कालस्यानन्तत्वात् यदा पुनरपि तथैव द्वयणुकस्कन्धतया संयुज्यते तदा अन्य के द्रव्यस्य पुनस्तथाभवन अनन्तो. उत्तरकाल आप्यते भावना सर्वदेवत द्भावात् पूर्ववद्वक्तव्या । उक्तमन्तरद्वारम । साम्यतं भागद्वारे निर्दिदरा " गमववहाराणं श्रणुपुच्चीदव्वाई सेसदव्वाखं कति भागे होजा ?, किं संखिज्जइ भागे होजा असंखिजर भागे होजा संखेजेस भांगेस होजा असंखेखेसु भागेसु हो जाई, नो संखिजर भागे होजा नो असंखिजर भागे होजा नो संखेजेसु भांगेस होजा, नियमा असंखेने भांगेस होजा । - महाराणं णाणुपुव्विदव्बाई सेसदव्वाणं कति भागे होजा ?। किं संखिजर भागे होजा अमंखिजर भागे होजा संखेज्जेसु भागेसु होजा असंखेज्जेसु भांगेसु होजा ?, नो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायुपुष्पी अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुपुरवी संखेजइ भागे होजा नो असंखिनइ भागे होजा नो संखे- भावानां शब्दार्थो भावार्थश्च विस्तरेणापरिष्ठात् स्वस्थान ज्जेसु भागेसु होजा, असंखेज्जेसु भागे होजा । एवं अव एव वक्ष्यने, अत्र निवर्चनसूत्रे नियमा 'साइपारिणामिए भावे हाज'त्ति-परिणमनं-द्रव्यस्य तेन तेन रूपण वर्तनतब्बगदवासि वि भाणिअव्याणि । (सूत्र-८७) भवनं परिणामः, स एव पारिणामिकः तष भवम्तन बा नैगमव्यवहारयोस्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुकस्कन्धपर्य- निवृत्त इति वा पारिणामिकः, स च द्विविधः-सादिः, अ. तानि सर्वाण्यप्यानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां समस्ताना- नादिश्च । तत्र धर्मास्तिकायाद्यरूपि द्रव्यायामनादिपरिनुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यलक्षणानां 'कति भागे होज्ज' त्ति-कति णामोनादिकालात्तवाव्यत्वेन तेषां परिणतस्वाद् , रूपिभागे भवन्तीत्यर्थः, किं संख्याततमभागे भवन्ति, यथा - द्रव्याणां तु सादिः परिणामः, अभ्रेन्द्रधनुरादीनां तथा परिसत्कल्पमया शतस्य विंशतिमिताः किमसंख्याततम भागे णतेरनादित्वाभावाद् , एवं च स्थिते नियमाद्-अवश्यतया भवन्ति !, यथा शतस्यैव दश, अथ संख्यातेषु भागेषु भानुपूर्वीद्रव्याणि सादिपारिणामिक एव भावे भवन्ति, प्रा. भवन्ति !, यथा शतस्यैव चत्वारिंशत्पष्टिा, किमसंख्या. नुपीत्वपरिणतेरनादित्वासंभवात् , विशिकपरिणामेन पुतेषु भागेषु भवन्ति यथा शतस्यैवाशीतिरिति प्रश्नः, अत्र | गलानामसंस्थयकालमवावस्थानादिति भावः । अनानुनिर्वचनम्-'नो संखज्जाभागे होज्जा' इत्यादि, नियमात् | पूर्णवक्रव्यकद्रव्येष्वपीत्थमेव भावना कार्या इति । उक्रं 'असंखेज्जसु भागस होज्ज' ति- तृतीयाथै सप्तमी, भावद्वारम् । नतश्चानुपूर्वीद्रव्याणि शंषभ्योऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येभ्यो इदानीमपबहुत्वद्वारं विभणिषुराहउसंख्येयै गैरधिकानि, भवन्तीति वाक्यशेषो द्रष्टव्यः, एएसिं णं भंते ! गमववहाराणं पाणुपुष्वीदव्याणं ततश्चायमर्थः प्रतिपत्तव्यः-पानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्यभ्यो प्रणाणुपुब्बिदबाणं श्रवत्तव्यगदव्वाण य दव्वद्याए उसंख्येयगुणानि, शेषद्रव्यासि तु तदसंख्ययभाग वर्तम्ते, न पुनः शतस्याशीतिरिवानुपूर्वीद्रव्याणि शोभ्यः स्तोका पएसट्टयाए दबट्ठपएसट्टयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा नीति, कस्मादेवं ? व्यास्यायते-स्तोकाम्यपि तानि भव- वा बहुआ वा तुला वा विसेसाहित्रावा, गोयमा ! स्विति चेत् नैनदेवम् , अघटमानकत्वात् , तथाहि-अना- सवत्थोवाई गमववहाराणं प्रवत्तबगदम्बाई दबट्ठनुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येषु एकाकिनः परमाणुपुद्रला द्वथणुकाश्च स्कन्धा इत्येतावन्त्येव द्रव्याणि लभ्यन्ते, शेषाणि तु व्यणु याए अणाणुपुब्बिदम्बाई दबट्ठयाए विसेसाहियाई कस्कन्धावीन्यनन्ताकस्कन्धपर्यन्तानि द्रव्याणि समस्ता आणुपुब्बिदव्वाई दबयाए असंखेजगुणाई पएसट्टयाए न्यप्यानुपूर्वीरूपाण्येव तानि च पूर्वेभ्यो ऽसंख्ययगुणानि, णेगमववहाराणं सम्वत्थोवाइं अणाणुपुब्बिदब्वाइं अयदुक्तम्-"एपसिणभंत! परमाणुगोग्गलाणं संखिजपएसि पएसट्टयाए अवत्तव्वगदम्बाई पएसट्टयाए विसेसाहिआई याणं असंखजाएसियाणं प्रणतपएसियाण य खंधाण कयरे माणुपुब्बिदव्वाई पएसट्ठयाए अणंतगुणाई दवट्ठपएकयरेहिनो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सम्वत्थोवा अगतपएसिया खंधा, परमाणुपोग्ग सट्टयाए सव्वत्थोबाइं गमववहाराणं अत्तबगदव्वाई ला अणंतगुणा, संखिजपएसिया बंधा संखिजगुणा. असं दबट्ठयाए प्रणाणुपुब्बिदन्वाई दबट्टयाए अपएसट्टखजपएसिया खंधा असंखजगुणा" तदत्र सूत्र पुद्गलजातः याए विसेसाहिआई अवत्तव्यगदम्बाई पएसट्टयाए विसर्वस्यापि सकाशादसंख्यातप्रदशिकाः स्कन्धा असंख्यात- सेसाहिबाई आणुपुब्बिदब्वाइं दवडयाए असंखेज्जगुगुणा उकास्त चानुपूामन्तर्भवन्ति, अतः तदपेक्षया श्रानुपूर्वीद्रव्याणि शत्समस्तादपि द्रव्यावसंख्यानगुग्णानि,किं णाई ताई चेव पएसट्ठयाए अनंतगुणाई । सेत्तं(त)अणुगमे। पुनरनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यमात्रात्, ततो यथोक्लमव व्या- सेत्तं (तं) णेगमववहाराणं अयोवणिहिया दव्वा पुवी। सत्त (त) णगमववहाराण अणावाणा ख्यानं कर्त्तव्यमित्यलं विस्तरण । 'अणाणु ग्विदवाइमि' (सूत्र-८६) त्यादि । इहानानुपूर्वीद्रव्याण्यवक्तव्यकद्रव्याणि च शेषद्रव्या- द्रव्यमेवाओं द्रव्यार्थस्तस्य भावो द्रव्यार्थता तया; द्रव्यणां यथा असंख्याततम एव भाग भवन्ति, न शषभागषु तथा त्वन इत्यर्थः, प्रकृष्टो-निरंशो देशः प्रदेशः स चासावर्थश्च प्रअनन्तरोन्यायादेव भावनीयमिति । उक्तं भागद्वारम् । देशार्थस्तस्य भावः प्रदेशार्थता तया, परमाणुत्वेनेति भावः, साम्प्रतं भावद्वारमाह द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया तु यथोक्लोभयरूपतयति भावः, तदय मर्थः एतषां भानुपूाविद्रव्याणां मध्य कयरे कयरेणेगमववहाराणं प्राणुपुचीदव्वाइं कतरंमि भावे हो- | हिंतो' ति-कतराणि कान्याश्रित्य द्रव्यापेक्षया प्रदेशापक्षया जा?, किं उदइए भावे होजा उपसमिए भावे होज्जा उभयापेक्षया वाऽल्पानि विशेषहीनत्यादिना बहूनि असखइए भावे होजा खोवसमिए भावे होजा पारिणामिए ख्येयगुणत्वादिना तुल्यानि समसंख्यत्वेन विशेषाधिकानि भावे होजा संनिवाइए भावे होजा ?, णिमा सादिपा किंचिदाधिक्यनेति वाशब्दाः पक्षान्तरवृत्तिद्योतकाः, इति रियामिए भावे होजा, अणाणुपुब्धिदबाणि, अवत्तव्य पृष्टे वान्नः क्रमवर्तित्वाद् द्रव्यार्थतापेक्षया तावदुत्तरमुच्यते, तत्र-' सव्वत्थोवाइं नेगमववहाराणं अवत्तब्बगदम्बाई दगदवाणि श्र; एवं चेव भाणिअव्वाणि । (मूत्र-८८)| बटुयाए ' त्ति-नैगमव्यवहारयोः द्रव्यार्थतामपेक्ष्य तावद'नेगमववहाराणमि' त्यादि प्रश्नः, अत्र चौदायकादि-। वक्तव्यकद्रव्याणि सर्वेभ्योऽभ्येभ्यः स्तोकानि सर्वस्तो Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणुपुव्वी अभिधानराजेन्द्रः। माणुपुब्बी कानि अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु द्रव्यार्थतामेवापेक्ष्य वि- गदब्वाई दबट्ठयाए ' त्ति-अपरं चोभयार्थताधिकारे - शेषाधिकानि कथम् ?, वस्तुस्थितिस्वभावात् , उक्तं च- | पि-" अणाणुपुब्विदवाई दब्बट्टयाए " इत्यादि य"एएसिणं भंते! परमाणुपोग्गलाणं दुपएसियाणं बंधाणं दुक्तम्-'अपएसट्टयाए' त्ति-तदात्मव्यतिरिक्तपदेशान्तकयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा० ?, गोयमा ! राभावतोऽनानुपूर्वीद्रव्याणामप्रदेशिकत्वादिति मन्तव्यम् । दुपएसिपहिंता खंहितो परमाणुपोग्गला बहुग" त्ति- ततश्चेदमुक्तं भवति-द्रव्यार्थतया अप्रदेशार्थतया च तेभ्योऽपि भानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतयैवासंख्ययगुणानि, विशिष्टान्यनानुपूर्वीद्रव्याण्यवक्रव्यकद्रव्येभ्यो विशेषाधियतोऽनानुपूर्वीद्रव्यष्वेव वक्तव्यकद्रव्येषु च परमाणु- कानि, शेषभावना तु प्रत्येकचिन्तावत्सर्वा कार्या । आहलक्षण द्वयणुकस्कन्धलक्षणं चैकैकमेव स्थानं लभ्यते, यद्येवं प्रत्येकचिन्तायामेव प्रस्तुतोऽर्थः सिद्धः किमनयाभपानुपूर्वीद्रव्यषु तु इयणुकस्कन्धादीन्येकोत्तरवृद्धयानन्ता- यार्थताचिन्तयेति चेत् , नैवम् , यत श्रानुपूर्वीद्रव्येभ्यस्तत्प्रणुकस्कन्धपर्यन्ताम्यनन्तानि स्थानानि प्राप्यन्ते, अतः देशाः कियताप्यधिका इति प्रत्यकचिन्तायां न निश्चितम् , स्थानबहुत्वादानुपूर्वीद्रव्याणि पूर्वेभ्योऽसंख्यातगुणानि । अत्र तु-'ताई चव पएसट्टयाए अरणतगुणाई" इत्यनेन तन्निननु यदि तेषु स्थानान्यनन्तानि तानन्तगुणानि पूर्वेभ्य- णीतमेव ततोऽनवगतार्थप्रतिपादनार्थत्वात्प्रत्येकावस्थातो स्तानि कस्मान्न भवन्तीति चेत्, नैवम् , यतोऽनन्ताणु- भिन्नैवोभयावस्था वस्तूनामिति दर्शनार्थत्वाश्च युक्रमेयोभयाकस्कम्धाः केवलानानुपूर्वीद्रव्योभ्योऽप्यनन्तभागवर्तित्वात् थताचिन्तनमित्यदोषः । तदेवमुक्तो नवविधोऽप्यनुगम इतिस्वभावादव स्ताका इति न किंचितैरिह बद्धयते अतो निगमयति । ‘से तं अणुगमे ' ति। तद्भणन च समर्थिता पस्तुवृत्त्या किलासंख्यातान्येव तेषु स्थानानि प्राप्यन्त नैगमव्यवहारयोरनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी इति निगमयतदपक्षया त्वसंख्यानगुणान्येव तानि एतथ पूर्व भागद्वारे ति । से तं नगम' त्यादि. व्याख्याता नेगमव्यवहारनयमतेन लिखितपमापनासूत्रात्सर्वे भावनीयमित्यलं विस्तरेण । उक्तं अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी । द्रव्यार्थतया अल्पबहुत्वम् , इदानी प्रदेशार्थतया तवाह- (५) साम्प्रतं संग्रहनयमतेन तामेव व्याचिख्यासुराह'पएसट्टयाए सवथाबाई नगमववहाराणमि' त्यादि, नैगम- से किं तं संगहस्स अणोवणिहिआ दव्वाणुपुची १, व्यवहारयोः प्रदशार्थतया अल्पबहुत्वे चिन्त्यमाने अनानु- संगहस्स अगोवणिहिया दवाणुपुवी पंचविहा परमत्ता, पूर्वीद्रव्याणि सर्वेभ्यः स्तोकानि, कुत इत्याह-'अपएस तं जहा-अट्ठपयपरूवणया १, भंगसमुक्तित्तणया २, भंगोट्टयाए ' त्ति-प्रदेशलक्षणस्यार्थस्य तवभावादित्यर्थः, यदि हि तेषु प्रदेशाः म्युम्तदा द्रव्यार्थतायामिव प्रदेशार्थता वदंसणया ३, समोआरे ४, अणुगमे ५ । (सूत्र-६०) यामध्यवक्तव्यकापक्षयाधिकत्वं स्यात् , नचैतदस्ति "परमा सामान्यमात्रसंग्रहणशीलः संग्रहा नयः, अथ तस्य संग्रहगुरप्रदेश" इति वचनाद् अतः सर्वस्तोकान्येतानि, ननु यदि नयस्य किं तद्वस्त्वनीपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वीति प्रश्नः, पाहप्रदेशार्थता तेषु नास्ति तहि तया विचारोऽपि तेषां न युक्त ननु नेगमसंगहववहारे" त्यादिसूत्रक्रमप्रामाण्यानगमानन्तरं इति चत् , न, एतदेयम्-प्रकृष्टः-सवंसूदमः पुद्गला संग्रहस्योपन्यासो युक्तः, तत्किमिति व्यवहारमपि निर्दिश्य स्तिकायस्य देशो-निरंशो भागः-प्रदेश इति व्युत्पत्तः प्रति ततोऽयमुच्यत इति, सत्यम् , किं तु-नैगमव्यवहारयोरत्र परमाणुपदशार्थताभ्युपगम्यत एव श्रात्मध्यतिरिक्रप्रदेशा तुल्यमतत्वालाघवाथै युगपत्तर्मिदशं कृत्वा पश्चात्संग्रहो न्तरापेक्षया त्यप्रदेशार्थतेस्यदोषः, अयनग्यकद्रव्याणि प्रद निर्दिष्ट इत्यदोषः, अत्र निर्वचनमाह-संगहस्स अणावणिशार्थतयाऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो विशषाधिकानि, यतः किला हिया दव्वाणुपुवी पंचविहा पणत्त'त्ति-संग्रहनयमतेनासत्कल्पनया अवक्रव्यकद्रव्याणां षष्टिः अनानुपूर्वीद्रव्याणां प्यनीपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी प्रापरूपितशब्दार्था पञ्चभितु शतम् ,ततो द्रव्यार्थताविचार एतानीतरापेक्षया विशेषा रर्थपदप्ररूपणतादिभिः प्रकारैर्विचार्यमाणत्वात् पञ्चांवधाधिकान्युक्तानि,अत्र तु प्रदेशार्थताविचारे अनानुपूर्वीद्रव्याणां श्वप्रकारा प्राप्ता, तदेव दर्शयति-तं जहे' त्यादि , अत्र निध्यदेशत्वात्तदव शतमवस्थितम् अवक्तव्यकद्रव्याणां त्विह व्याख्या पूर्ववदेव । प्रत्येक द्विप्रदेशत्वाद् द्विगुणितानां विंशत्युत्तर प्रदशशतं जा- से कि तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ?, संगहस्स अट्ठयते इति तेषामितरेभ्यः प्रदेशार्थतया विशेषाधिकत्वं भाव. पयपरूवणया तिपएसिए आणुपुव्वी चउप्पएसिए श्रानीयम् । आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया अवक्तव्यकद्रव्ये गुपुच्ची जाव दसपएसिए आणुपुब्बी संखिजपएसिए भ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति, कथम् ?, यतो द्रव्यार्थतयापि तावदतानि पूर्वेभ्योऽसंख्यातगुणान्युक्नानि, यदा तु से आणुपुब्बी असंखिज्जपएसिए आणुपुवी अणंतपएसिए ख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामसंख्यातप्रदशिकस्कन्धानामनन्ता. आणुपुवी, परमाणुपुग्गले अणाणुपुब्बी, दुपएसिए अणुकस्कन्धानां च सम्बन्धिनः सर्वेऽपि प्रदेशा विवक्ष्यन्ते वत्तवए । सेत्तं(तं)संगहस्स अट्ठपयपरूपणया । (सूत्र-६१) तदा महानसौ राशिर्भवतीति प्रदेशार्थतयाऽमीषां पूर्वेभ्योऽ. __ यावत् 'तिपएसिए आणुपुवी' इत्यादि-इह पूर्वमेकस्त्रिनन्तगुणत्वं भावनीयम् । उक्त प्रदेशार्थतयाऽपवहुत्वम् ।। प्रदेशिक आनुपूर्वी अनेके त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्य इत्याद्युक्तम् , इदानमुभयार्थतामाश्रित्य तदाह-' दव्यटुपएसट्टयाए । अत्र तु संग्रहस्य सामान्यवादित्वात्सर्वेऽपि त्रिप्रदशिका इत्यादि, बहाभयार्थताधिकारेऽपि यदेवाला तंदवाऽऽदौ एकैवानुपूर्वी इमां चात्र युक्तिमयमभिधत्ते-त्रिप्रदशिकाः स्क. दयते-भवक्तव्यकद्रव्याणि च सर्वाऽल्पानि इति प्रथ- ग्धाखिदशिकत्वसामान्याद्वयतिरेकिणः, अत्यतिरेकिणो ममवोक्तम् , ' सम्वत्थाबाई नेगमववहाराणं भवत्तव्व- वा?, यद्याद्यः पक्षस्तहित त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धाः त्रिप्रदेशिका Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणुपुब्बी अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुपुव्वी एव न भवन्ति, तत्सामान्यव्यतिरिकत्वात् , द्विप्रदेशिकादि- अ परमाणुपोग्गला य आणुपुची य, अणाणुपुत्वी य, यादति । अथ चरमः पक्षस्ताई सामान्यमेव ते तदव्यतिरे अहवा-तिपएसिया य दुपएसिया माणुपुवी य अकात्तत्स्वरूपवरसामान्यं चैकस्वरूपमेवेति सर्वेऽपि त्रिप्रदेशिका एकैवानुपूर्वी एवं चतुःप्रशिकत्वसामान्याऽव्यतिरे वत्तव्बए य, अहवा-परमाणुपोग्गला अ दुपएसिया य कात्सर्वेऽपि चतुःप्रदशिका पकैवानुपूर्वी, एवं यावदवन्तप्रदे अणाणुपुब्बी य अवत्तव्बए य, अहवा-तिपएसिया य शिकत्वसामान्यायतिरेकात्सर्वेऽप्यनन्तप्रदेशिका एकैवानु- परमाणुपोग्गला य दुपएसिया य आणुपुब्बी य अणापूर्वी इत्यविशुद्धसंग्रहनयमतं विशुद्धसंग्रहनवमतेन तु सर्वेषां णुपुची य अवत्तव्बए म । सेचं संगहस्स भंगोवदंत्रिप्रदशिकादीनामनन्तायुकपर्यन्तानां स्कन्धानामानुपूर्वीस्वसामान्याव्यतिरेका व्यतिरिक्त चानुपूर्वीत्वाभावप्रसा सणया । (सूत्र-६३) सर्वाऽप्ये कैचानुपूर्वति । एवमनानुपूर्वीत्वसामान्याव्यतिरे अत्राऽपि सप्त भकास्त एवाऽर्थकथनपुरस्सरा भावनीयाः, कात्सर्वेऽपि परमाणुपुद्रला एकैवानानुपूर्वी, तथा अवक भावार्थस्तु सर्वः पूर्ववत् , 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम् । व्यकत्वसामान्यचतिरकात्सर्वेऽपि द्विप्रदेशिकस्कन्धा एक अथ समवताराऽभिधित्सया प्राऽऽहमवावक्रव्यकामांत सामान्यबादित्वन सवेत्र बहुवचनाभावः। से किं ते संगहस्स समोरे , संगहस्स समोमारे सं'सेत्तमि' त्यादि, निगमनम् । भासमुत्कत्तिनतां निर्दिदिक्षुराह गहस्स पापुपुब्बिदबाई कहिं समोयरंति ?, किं आणुपु विदम्बेहिं समोयरंति , अणाणुपुब्बिदबेहिं समोयएनाए थे संगहस्स अटुपयपरूवणयाए कि पोमणं, रंति १. अवत्तबगदम्वेहिं समोयरति १, संगहस्स प्राणुपूएमाए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए संगहस्स भंगस व्विदच्वाइं आणुपुब्बिदव्येहिं समोयरन्ति, णो अणाणुकित्तणया कजइ । मे किं तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया ?, पुब्बिदव्वेहिं समोयरंति, णो अवत्तव्वगदम्बेहि समोयरंति, संगहस्स भयसमुक्त्तिणया अस्थि श्राणुपुन्वी १, अस्थि एवं दोगिण वि सहाणे सहाणे समोयरंति । सेचं (तं) अणाणुपुच्ची २, अस्थि अवत्तम्चए ३, अहवा-अस्थि समोयारे । (सूत्र-६४) आणुपुन्बी , अणाणुपुची अ४, अहवा-अस्थि प्राणु से किं तं संगहस्स समोयारे' इत्यादि । इयं च द्वार पुन्वी अ, अवत्तव्वए अ५, अहवा-अस्थि प्रणाणुपुव्वी पूर्ववनिखिल भावनीयम्। अ, प्रवक्तवए अ६,अहवा-अस्थि आणुपुची अअणा अथाऽनुगम व्याचिस्यासुरगहणुपुच्ची अ अवत्तव्यए अ७, एवं सत्तभंगा। सेच संग से किंतं अणुगमे १, अणुममे अविहे पपचे, तं जहाइस्स मंगसमुकित्तणया। एमाए णं संगहस्स भङ्गसमुकि संतपयपरूवणया १ त्तणयाए कि पत्रोअणं, एमाए णं संगहस्स भंगसमु दव्वपमाणं च २ खिच ३ फुसणा य४. कित्तणयाए संगहस्स मंगोवदंसणया कीरइ 1 (सूत्र-६२) कालो य ५ अंतरं ६ भा'एयाए णमि' त्यादि. अत्राणि व्याख्या कृतैव द्रष्एच्या या. ग७ भावे - अप्पाबहुं णऽस्थि ॥१+॥" यत् 'अस्थि प्रासुपुव्वी' त्यादि, इहैकवचनान्तात्रय, एव प्रत्येकभावना, सामान्यवादित्वेन व्यक्तिबहुत्वाभावतो बह- से किं तं अणुगमे' त्ति-अत्रोत्तरम् 'अणुगमे अट्टबिहे वचनामावाद् भानुपादिपदत्रयस्य च यो द्विकयोगा पन्नत्ते इति पूर्व नवविध उनीऽत्र त्वविध एव, अल्पभवन्ति, एकैकस्मिँश्च द्विकयोगे एकवचबान्त एक एव बहुत्वद्वाराभावात्तदवाष्टविधत्वं दर्शयति-तद्यथत्युपदर्शभाः, त्रिकयोगेऽपि एक पवैकवचनान्त इति, सर्वेऽपि नार्थः 'संतपयगाहा' इयं पूर्व व्याख्यातैव नवरम् ' असप्त भकाः संपद्यन्ते, शचास्त्वेकोनविंशनियहुवचनसभनि- प्पाबहुं नऽस्थि' संग्रहस्य सामान्ययादित्वात्सामान्यस्य च स्वान भवन्ति । अत्र स्थापना-पानुपूर्वी १ भनानुपूर्वी १ सर्वत्रैकत्वादल्पबहुत्वविचारोऽत्र न संभवतीत्यर्थः । प्रवक्तब्यक १ इति त्रयः प्रत्येकभाः , आनुपूर्वी १ अना तत्र सत्पदप्ररूपणताभिधानार्थमाहनुपूर्वी १इति प्रथमो द्विकयोगः, श्रानुपूर्वी १अवक्रव्यक १ संगहस्म आणुपुव्विदव्याई किं अस्थि ?, नत्थि । इति द्वितीयो द्विकयोयः । अनान पूर्वी प्रचक्रव्यक इति तृतीयो द्विकयोमः । श्रानुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ अवक्रव्य नियमा अत्थि, एवं दोषिण विxi क१ इति त्रिकयोगः, एवमते सच भकाः । सत्तमि' त्यादि संगहस्स' त्यादि, ननु संग्रहविचार प्रकान्ने मानुपूर्वीनिगमनम्। द्रव्याणि सन्तीत्यनुपपन्नम् भानुपूर्वीसामान्यस्यैवैकस्य ते भनोपदर्शनां विभरिणषुराह नास्तित्वाभ्युपगमात् सत्यं मुख्यरूपतया सामान्यमवास्ति, से किं ते संगहस्स भंगोवदसणया १, संगहस्स भंगो- गुणभूतं च व्यवहारमात्रनिवन्धनं द्रव्यबाहुल्यमयसी बदवदंसणया तिपएसिया माणुपुव्वी परमाणुपोग्गला - तीत्यदोषः शषभावना पूर्वदिति । णाणुपुवी दुपएसिया अवत्तव्यए. ब्रहवा-तिपएसिया संगहस्स प्राणुपुबिदबाई किं संखेजाई, असंखेजाई, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणुपुरुची अभिधानराजेन्द्रः। पाणुपुर्वी अणंताई १ । नो संखिज्जाई, नो अमंखिजाई. नो अणंताई। नो संखेजहभागे होजा नो असंखेजहभागे होज्जा नो निश्रमा एगो रासी, एवं दोगिण वि +। संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेजेसु भागेसु होला द्रव्यप्रमाणद्वार यदुक्तं नियमा' एगो रासि' त्ति-अत्राह- णियमा तिभागे होज्जा, एवं दोणि विx) ननु यदि संख्येयादिम्वरूपास्येनानि न भयन्ति तहाँको भागद्वारे-नियमा तिभागे होज' त्ति-त्रया राशीनागशिरित्यपि नोपपहात, द्रव्यवाहुल्ये सति तस्योपपद्यमान मेको राशिस्त्रिभाग एव वर्तत इति भावः, यत्तु राशिगतस्वाद, ब्राह्मादिगशिषु तथैव दर्शनात , सत्यं किंत्वको | द्रव्याणां पूर्वोकमल्पबहुत्वं तदत्र न गण्यते, द्रव्याणां प्रस्तुगशिरिति वदतः कोऽभिप्रायः, बहनापि तेषामानुपू- तनयमत व्यवहारसंवृत्तिमात्रणेव सत्त्वादिति। बीत्वसामान्य नैकन फ्रांडीकृतत्यादेकत्वमेव, किं च यथा वशिष्टैकपरिणामपरिणते स्कन्ध तदारम्भकाऽवयवानां मंगहस्स आणुपुब्बिदबाई कतरम्मि भावे होज्जा ?, बाहुल्पेऽप्येकतैव मुख्या, तद्वदत्राऽऽनुपूर्वीद्रव्यबाहुल्येऽपि णिमा साइपारिणामिए भावे होज्जा, एवं दोसि वि+ तत्सामान्यस्यैकरूपत्वादकत्वमेव मुख्यमसौ नयः प्रतिपद्यते, भावहार-सादिणरिणामिए भावे होज' ति-यथा तद्वशनैव तेषामानुपूर्वी त्वसिद्धेः, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात् , श्रानुपूादिद्रव्याखामेतद्भाववत्तित्वं पूर्व भावितं, तथातस्मान्मुख्यस्यैकत्वस्याऽनेन कक्षीकृतत्वारसंख्येयरूपतादि अत्रापि भावनीयम् , तेषां यथास्वं सामान्याव्यतिरिमिषेधो गुणभूतानि तु द्रव्याण्याभिस्य राशिभायोऽपिन ऋत्वादिति। विरुध्यते, एवमन्यत्रापि भावनीयमित्यलं प्रपञ्चन।। संगहस्स अप्पाबहुं नत्थिा सेसं अणुगमे । सेत्तं संगसंगहस्स पाणुपुब्बिदब्वाइं लोगस्स कइ भागे होजा । हस्स अणोवणिहिया दवाणुपुवी। सेत्तं प्रयोवणिहिया किं संखेजइभागे होजा असंखजइभागे होजा । संखे दवाणुपुब्धी । (सूत्र-६५) जेसु भागेसु होजा असंखजेसु भागसु होजा सव्व अल्पबहुत्वद्वाराऽसंभवस्तु उक्त एव, इति समर्थितोऽनुगमः, लोए होजा?, नो संखिअभागे होला नी असंखेजइ तत्समर्थने च समर्थिता संग्रहनयमतेनानौपमिधिकी दव्याभागे हाजों नो संखेजेसु भागेसु होजा णो असंखेजेसु नुपूर्वी, तत्समर्थने च व्याख्याता सर्वथापीयम् , अनः भागमु होजा; णिमा सव्वलोए होजा, एवं दोसि वि। 'सत्तमि' स्यादि, निगमनत्रयम् । गता अनौपमिधिकी द्रव्यानुपूर्त। संगहस्स आणुपुधिदयाई लोगस्स किं संखेजइमागं फु (६) साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टामेवोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी व्यासंति असंखेज्जइभागं फुसति । संखेज्जे भागे फुसंति असं चिख्यासुगहखज्जे भागे फुसति सबलोअं फुसंति, नो संखेजइभागं से किं तं उ(आवणिहिया दव्वागुपुवी , उवणिहिया फुसंति नो असंखज्जइभागं फुसंति । नो संखेजे भागे फु दव्यागुपची तिविहा परमत्ता. तं जहा-पुन्वाणुपुब्बी, संति नो असंखेजे भागे फुसति । णिमा सबलोगं फुसंति । एवं दोमि वि+। पच्छाणुपुची, अण्णाणुपुब्बी य(सूत्र--६६) से किं तमि' त्यादि, अथ केयं प्राग्निीतशब्दार्थमात्रा क्षत्रद्वारे-'नियमा सव्वलोए होज्ज' त्ति-श्रानुपूर्वासामा- औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीति प्रश्नः, अत्र निर्वचनम्-औपभ्यस्यैकरूपत्वाद् सर्वलोकव्यापित्याचति भावनीयम् , (ए निधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रशता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वीकन्यमेव मुख्यमसौ नयः प्रतिपद्यते, तद्वशेनैव तेषामानु- स्यादि, उपनिधिनिक्षपो विरचनं प्रयोजनमस्या इस्योपनिपूर्वी द्वाराएपेय) पयमितरद्वयेऽध्यभ्यूह्यमिति स्पर्शनाद्वारम- धिकी द्रव्यविषया श्रानुपूर्वी-परिपाटिद्रव्यानुप्रीं सा प्येवमेव चिन्तनीयमिति। त्रिप्रकारा, तत्र विवक्षितधर्मास्तिकायादिद्रव्यविशेषस्तसंगहस्स आणुपुबिदबाई कालो केवच्चिरं होन्ति?, समुदाये यः पूर्व-प्रथमः तस्मादारभ्यानुपूर्वी-अनुक्रमःणित्रमा सव्वद्धा, एवं दोमि वि। संगहस्स आणुपुधि परिपाटिनिक्षिप्यते-विरच्यते यस्यां सा पूर्वानुपूर्वी तत्रैव यः पाश्चात्यः-चरमस्तस्मादारभ्य व्यत्ययेनैवानुपूर्वी-परिदवाणं कालो . केवच्चिरं अन्तर्र होइ ?, नऽत्थि अंतरं, पादिर्विरच्यत यस्यां सा निरुतविधिना पश्चानुपूर्वी न एवं-अण्णाणुपुचीदवाणं, अवत्तब्धगदव्वाण वि +। आनुपूर्वी अमानुपूर्वी। यथोक्लपकारद्वयातिरिक्तस्वरूपत्यर्थः। कालद्वारऽपि तत्सामान्यस्य सर्वदा अव्यवच्छिन्नस्यात् तत्राऽऽद्यभेदं नावत्रिरूपयितुं प्रश्नमाहत्रयाणामपि सर्वाद्धावस्थानं भागनीयमिति, अत एवा- से किं तं पुव्वाणुपवी, पुवाणुपुच्ची छबिहा न्तरद्वार नास्त्यन्तरमित्युक्तं, तद्भावव्यवच्छदस्य कदाचिद पपत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए भागापभावादिति। सत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलस्थिकाए श्रद्धासमए । संगहस्स आणुपुधिदव्वाई सेसदबाणं कति भागे हो सेत्तं पुवाणुपुची+। जा ?, किं संखेजइ भागे होजा असंखेज्जाभागे होज्जा, (धर्मास्तिकायपदव्याख्या 'धम्मस्थिकाय' शब्दे चतुर्थे संखेज्जेमु भागेसु होज्जा असंखेज्जे भांगसु होजा । भागे वक्ष्यते) (अधर्मास्तिकायव्याख्या 'अध(ह)म्मत्थिकाय' Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवी 'अ . शब्द प्रथममा ५६७ पृष्ठ गता) (विशेषतः स्वरूपम् न्धिकाय ' शब्दे प्रथमभागे ५१३ पृष्ठ गतम् ) ( आकाशास्तिकायव्याख्य' आगासत्धिकाय शब्देऽस्मि भागे मागू गता) अत्र च जीवपुलानो यस्यानुपपतेधर्मास्तिकायस्य तेषामेव स्थित्यन्यथानुपपत्तेरधर्मास्तिकायस्व सवं प्रतिगम्यम् । अनु (जीवास्तिकायव्याख्या 'जीवत्थिकाय' शब्दे चतुर्थभागे ब रूपने ) लास्तिकायस्य तु घटादिकाथानुपपतेः कालोऽप्यस्ति बकुलाशोकपम्पकादिषु पुष्पफलनानियमेनादर्शनात् यस्तु तत्र नियामकः स काल इति स्वभावादेव तु सद्भवने निश्यं सत्यमसस्यं पा० " इत्यादि दूधप्रसङ्गः, अत्र बहु वक्लव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थदुरवगमनाभयादिति । नाद धम्मस्तिकायस्य प्राथम्यम् धर्मास्तिकायादीनां तु तदनन्तरं क्रमेणेत्थं निर्देशः कुतः सिद्धः १, येनात्र पूर्वानुपूर्वी रूपता स्यादिति, अत्रोच्यते-आगमेइत्यमेव पत्नित्रापि कथमित्थमेव पाठ इति बेत्. उच्यते धर्मास्तिकाय इत्यत्र यदाद्यं 'धर्मे' ति पदं तस्य माङ्गलिकत्वाद्धमस्तिकायस्य प्रथममुपन्यासः, ततस्तत्प्रनिपक्षत्वादतिफायस्य ततस्तदाधारत्यादाकाशास्त्रिकायस्य ततः स्वाभाविका अमूर्तम्ब सापाज्जीचास्तिकापस्य ततस्तदुपपरिया पुद्गलास्तिकायस्य नतो जीवाजीवपर्यायादनन्तरमया समयस्पोपन्यास इति पूर्वापूर्वी सिद्धिरिति । ( १५६ ) अभिधानरराजेन्द्रः । " अथ पथानुपूर्वी निरूपपिनुमाह से कि ते पापी १ पथ्वी बच्च० ०अद्धासमए पोग्गल स्थिकाए जीवत्धिकार, आगासत्यिकाए अम्मत्थि का धम्मत्थिकाए । सेनं पच्छा (शु) नुपुष्पी से किसे वी इत्यादि पाधायादारभ्य प्रति सोमं व्यत्ययेनैव चानुपूर्वी परिपाठ क्रियते यस्यां सा पश्यानुपूर्वी, अधोदाहरणमुरमे, इनमेवा' त्यादि, गतार्थमेव । . अथाऽनानुपूर्वी पूर्व निरूपयति से किं तं णानुपुन्त्री ?, श्रणाणुपुब्वी एश्राए चैव एमाइयाए एगुवरिमाए बगच्गयाए सेटीए अमत्रदुसेनं भानु (सूत्र - १७) से तिमित्यादि, अत्र निनावी विद्यानुपूवोपरिपादिदासा अमानुपूर्वी विपतिपदानामनक्रमद्वधमुखय परस्पराः संस्थि रचना किसानानुपूर्वीत्यर्थः का पुनरियमित्याह'श्रमसम्भासो 'ति अन्योन्यम् - परस्परमभ्यासो गुणनम् अन्योन्याभ्यासः 'यू' सिद्विरूपम्यूनः अद्यत रूपरहितः अनानुति टः कपयेोसाबभ्यास इत्याह श्रेण्याम् पङ्की, कस्यां ! 'पुनः श्रेयामित्याहनातिपराधिकृतधर्मास्तिकायादिसंबन्धिन्याम् कथंभूतायामित्याह एक आदिर्यस्यां सो पुबी एकादिकी एकेक उत्तरः प्रवर्तमानो यस्यां सा एकोतरा तस्याम् पुनः कथंभूतायामित्याह-' छुगच्छ्रगताए ' सिपराणां गच्छ:-समुदायः षड्गच्छस्तं गता प्राप्ता धद्गच्छगता तस्यां धम्मस्तिकायादिस्तु विषयायामित्यर्थः । आदौ व्यवस्थापितैककायाः पर्यन्ते न्यस्तपकाया धर्मास्तिकायादिवस्तुपद्कविषयायाः पर्या परस्परगुणने भकसंख्या तिसा आद्यन्तमद्रवरदिता अनानुपूर्वीमायातः किलैककादयः पदपर्यन्ताः अङ्काः स्थापिताः तत्र बैकफन द्विके गुण जाती - जाताः पद तैरपि चतुष्कोति जाता चतुर्विंशतिः, पञ्चकस्य तु तद्गुणने जातं विंशं शर्त, पदकस्य तद्गुणने जातानि विंशत्यधिकानि सप्तशतानि, स्थापना ६-५-४-३-२-१, आगतम् - ७२०, अत्राद्यों भङ्गः पूर्वानुपूर्वी, अन्त्यक्ष (स्तु) पूर्वीति तदपगमे शेषास्यद्वादशोत्तराणि सप्तमताम्पमा पूर्वीति मन्तव्यानि । अत्र च महत्यरूपानयनाथे करवमाण 3 • 64 पुण्या समय कुरु जहा ज उपरमपुरा निवेश पुण्यकमा ॥ १ ॥" इति । व्याख्या इह विवक्षितपानां क्रमेण स्थापना पूर्वानुपूर्वीत्युच्यते तस्याः 'ति श्रधस्तात्-द्वितीयादिभङ्गकान् जिज्ञासुः ' कुरु' त्ति-स्थापय एकादीनिपदानीति शेषः, कथमित्याह - ज्येष्ठस्यानतिक्रमेण यथाज्येष्ठ यो यस्यादौ स तस्य ज्येष्ठः, यथा द्विकस्यैको ज्येष्ठः त्रिकस्य त्वेककोऽनुज्येष्ठश्चतुष्कादीनां तु स एव ज्येप्रानुज्येष्ठ इति एवं त्रिकस्य द्विको ज्येष्ठः स एव चतुकस्यानुज्येष्ठः पचादीनां स एव प्रष्ठाः इत्यादि. एवं च सति उपरितनाय अपनाये नियत सालभ्यमाने धनुज्येष्ठः तथाप्यलभ्यमानेष्ठानुष्ठ इति यथा निशेष कुर्यात् कथमित्याद समयामंद नेति समयः सङ्केतः प्रस्तुतभङ्गकरचनव्यवस्था तस्य अभेद:- अनतिक्रमः, तस्य च भेदस्तदा भवति यदा तस्मिन्नेव भड़के निक्षिप्तदशोऽपरोऽङ्कः पतति ततोकुर्यात् १ 4 मिनिपुर सोच हो । सो होइ सपयभेओ, वज्जेयब्थो पयते ॥ १ ॥ " निक्षिप्तस्य चाङ्कस्य यथासंभवं पुरउ' त्ति अन्नतः उपरितनाङ्कतुल्यंसदृशं यथा भवत्येवं न्यसेत्, उपरितनाङ्कसदृशानेषाङ्कानिक्षिपेदित्यर्थ, 'कमो ससे' ति- स्थापितशेषानङ्का तस्याः पूर्वमेव स्थापयेदित्यर्थः, यः संख्यया लघुरेककादिः स प्रथमं स्थाप्यते वस्तुतया महान् द्विकादिः स पश्चादिति पूर्वक्रमः पूर्वानुपूर्वलक्षणे प्रथमभङ्गके इत्थमेव दृष्टत्यादिति भावः इत्यक्षरघटना । भापार्थस्तु दादर्शनार्थे सुखाधिगमाय च पदा म्याश्रित्य तावत् दर्श्वते, तेषां च परस्पराभ्यासे पड् भङ्गका भवन्ति, ते चैवमानीयन्ते - पूर्वानुपूर्वी लक्षणस्तावत्प्रथमो भङ्गः, तद्यथः-१-२-३ अस्याश्च पूर्वानुपूर्व्या अधस्ताद्भङ्गः करचने क्रियमाणे एककस्य तायज्ज्येष्ठ एव नास्ति, द्विकस्य तु विद्यते एकः स तदधो निक्षिप्यते, तस्य चाप्रत खादी उपरममित्यादिवचनान्, पृष्ठ . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) प्राणुपुची अभिधानराजेन्द्रः। माणुपुब्बी तस्तु स्थापितशेषो द्विको दीयते, ततोऽयं द्वितीयो भतः | नन्तत्वादनन्तानां गच्छः-समुदायोऽनन्तगण्यस्तं गता भ२-१-३ अत्र च द्विकस्य विद्यते एकको ज्येष्ठः, परं नासी नन्तगच्छगता तस्याम्, अत एव भनाः अत्राऽनम्ता पवातदधस्ताविक्षिप्यते, अग्रतः सरशाङ्कपातेन समयभेदप्र- उबसेया इति । शेषभावना च सर्वा पूर्वोऽकानुसारतः स्वयसनात् , एकस्य तु ज्येष्ठ एव नास्ति, त्रिकस्य तु विद्यते मध्यवसेयेति । पाह-ननु यथैकः पुद्गलास्तिकायो निद्विको ज्येष्ठः, स तदधस्तानिक्षिप्यते, अत्र चाप्रभागस्य ख्र्य पुनरपि पूर्वानुपूादित्वेनोदाहतः, एवं शेषा अपि तावत्संभव पव पृष्ठतस्त्वस्थापितशेषावेककत्रिको क्रमेण प्रत्येक किमिति नोदाहियन्ते , अत्रोच्यते-द्रव्याणां क्रमः स्थाप्येते "पुवकमा सेसे ति" वचनात् , ततस्तृतीयोऽयं परिपाट्यादिलक्षणः पूर्वानुपूादिविचारः इह प्रक्रान्तः, स भाः १-३-२, अप्राप्येककस्य ज्येष्ठ एव नास्ति त्रिकस्य तु च द्रव्यबाहुल्ये सति सम्भवति, धर्माऽधर्माऽऽकाशास्तिज्येष्ठोऽस्ति द्विको न च क्षिप्यते अने सदृशाङ्कपातेन स- कायेषु च पुद्गलास्तिकायवन्नाऽस्ति प्रत्येक द्रव्यबाहुल्यम् । मयभेदापत्तेस्ततोऽस्यैवानुज्येष्ठ एककः स्थाप्यते, अप्र- एकैकद्रव्यत्वात्तेषाम् , जीवास्तिकाये त्वनन्तजीवद्रव्यात्मक सस्तु द्विकः " उपरिमतुलमि " त्यादिवचनात् , पृष्ठतस्तु | त्वादस्ति द्रव्यबाहुल्यं केवलं परमाणुद्धिप्रदेशिकाविद्रव्यास्थापितशेषत्रिका दीयते इति चतुर्थोऽयं भकः ३-१-२ खामिव जीवद्रव्याणां पूर्वानुपूादित्वनिवन्धनः प्रथमपाएवमनया दिशा पञ्चमषष्ठावयभ्यूखौ, सर्वेषां चामीषामियं श्वास्यादिभावो नाऽस्ति , प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशत्वेन सर्वेषां स्थापना-१.२-३ अत्राप्याचमनस्य पूर्वानुपूर्वांत्वादन्यस्य तुल्यप्रदेशत्वात्परमाणुद्विप्रदेशिकादिद्रव्याणां तु विषमप्रदेव पश्चानुपूर्वीस्थान्मध्यमा एव चत्वारोऽनानुपूर्वीत्वेन म- शिकत्वादिति श्रद्धासमयस्यैकत्वादेव तदसम्भव इत्यलमम्तव्याः एवमनया दिशा, १-२-३ चतुरादिपदसंभाविनोऽ- तिचर्चितेन, तदेवं समर्थिता औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । पि भङ्गाः भावनीयाः, भूयांसश्चोत्तराध्ययनटीकादिनि- तत्समर्थने च समर्थिता प्रागुद्दिष्टा द्विःप्रकारापि द्रव्यानुर्दिष्टाः प्रस्तुतभकानयनोपायाः १-३-२। सन्ति नचीच्यन्ते पूर्वी। ततः 'सेत्तमि' त्यादि निगमनानि, इति द्रव्यानुपूर्वी अतिविस्तरभयात् , तदर्थना तु तत एवावधारणीयाः। त- समाप्ता; उनाद्रव्यानुपूर्वी। दिदमत्र तात्पर्य ३-१-२ पूर्वानुपयों तावद्धर्मास्तिकायस्य (७) अथ प्रागुद्दिष्टामेव क्षेत्रानुपूर्वी व्याचिल्यासुराहप्रथमत्वमेव तदनुक्रमेणाधास्तिकायादीनां द्वितीयादित्वं पश्चानुपूर्ध्या २-३-१, त्वद्धासमयस्य प्रथमत्वं, पुद्लास्ति से किंतं खेत्ताऽऽणुपुवी?, खत्ताणुपुल्वी दुविहा परमत्ता, कायादीनां तु प्रतिलोमतया द्वितीयादित्वं अनानुपूया त्व तं जहा-उवणिहिमा य, अणोवणिहिमा य । (सूत्र-६६) नियमेन कश्चिदलके ३-२-१, कस्यचित्प्रथमादित्यलं वि- तत्थ णं जा सा उवणिहिश्रा सा ठप्पा । स्तरेण 'सेत्तमि' त्यादि, निगमनं, तदेवमत्र पक्ष धर्मास्तिकायादीनि षडपि द्रव्याणि पूर्वानुपूर्यादित्वेनोदाहतानि । से किं तं खत्ताणुपुब्बि'ति-इह क्षेत्रविषयानुपूर्वी क्षेत्रा. नुपूर्वी, का पुनरिपमित्यत्र निर्वचनं-क्षेत्रानपूर्वी द्विविधा साम्प्रतं त्वेकमेव पुद्गलास्तिकायमुवाहर्तुमाह प्रज्ञप्ता, तद्यथा-औपनिधिकी, पूर्वोक्रशम्दार्था अनौपनिधिअहवा-उवनिहिया दव्वाऽऽणुपुब्बी, तिविहा पमत्ता, तं की च । तत्र या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या। अस्पषलव्यजहा-पुथ्वानुपुब्बी, पच्छानुपुब्बी, अणाणुपुच्ची । से किं | स्वादुपरि वक्ष्यत इत्यर्थः । तं पुवाणुपुव्वी , पुवाणुपुथ्वी परमाणुपोग्गले दुपए- तत्थ णं जा प्रणोवणिहिया सा दुविहा परमत्ता, तं सिए तिपएसिए०जाब दसपएसिए संखिज्जपएसिए - जहा-णेगमववहाराणं, संगहस्स य । (मत्र-१००) संखिज्जपएसिए अणंतपएसिए । सेत्तं पुख्वानुपुन्वी । से सत्र या असौ अनौपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणाद किं तं पच्छानुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी अणंतपएसिए असं- द्विविधा प्राप्ता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः, संग्रहस्य च खिज्जपएसिए संखिज्जपएसिए .जाव दसपएसिएन्जाव सम्मतति शेषः । तिपएसिए दुपएसिए परमाणुपोग्गले । सेत्तं पच्छानुपुब्बी। तत्र नैगमव्यवहारसम्मतां तावदर्शयितुमाह'अहवा'इत्यादि, अत्र चौपनिधिक्या द्रव्यानुपूर्व्या हा से किं तं गमववहाराणं अणोवनिहिना खेत्ताऽऽणुतमपि वैविध्यं यत्पुनरप्युपन्यस्तं तत्प्रकारान्तरभणनप्र- पुवी , नेगमववहाराणं प्रणोवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी स्तावावेति मन्तव्यम्। पंचविहा पएणत्ता, तं जहा-अगुपयपरूवणया १, भंगसमूसे कि तं प्रणाणुपुष्वी १, अणाणुपुष्वी एमाए चेव कित्तणया२, भंगोवर्दसणया३, समोआरे४, अणुगमेशा से एगाइमाए एगुत्तरित्राए अणतगच्छगयाए सेढीए अन्न- किं ते णेगमववहाराणं अदुपयपरूवणया, गमववहामनभासो दुरूवूणो । सत्तं प्रणागुपुथ्वी । सर्त उवणि- राणं अदुपयपरूवणया तिपएसोगाढे भानुपुब्बी जाव हिश्रा दन्वाणुपुब्बी । सेत्तं जाणगपतिरित्ता दवाणुपुवी।। दसपएसोगादे पानुपुखी जाव सैखिजपएसोगावे प्रानुसेत्तं नोमागमतो दन्वाणुपुवी । सेत्तं दवाणुपुवी ।। पुवी असखिजपएसोगादे पानुपुखी, एगपएसोगादे अ(सूत्र-६८) णानुपुब्बी, दुपएसोगाढे अवत्तठबए, तिपएसोगावा भानु'मणतगच्छगताए' ति-भत्रैकोत्तरद्धिमत्स्कन्धानाम- पुवीओ जाव दसपएसोगाढा भानुपुथ्वीभो, जात्र Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) अभिधानराजेन्द्रः । पुपुवी असंखिजपरसोगाडा अनुपुत्रीओ, एगपएसोगाढा अखानुपुवी, दुपएसोगाढा अवत्तव्त्रगाई । सेत्तं खेगमववहारां अट्ठपयपरूवणया । एत्राए णं गभववहाराणं अपयपरूवणयाए कि पप्रअ १, एमए ऐगमववहाराणं पयपरूवणयाए रोगमववहाराणं भंगसमुक्कि - तणया कज्जइ । से किं तं गमववहाराखं मंगमुक्किचगया १, गमववहाराखं भंगसमुक्कित्तणया अस्थि - नुपुच्ची, अत्थि अणानुपुव्वी, अत्थि अवत्तव्यए, एवं दव्वानुपुव्विगमेणं खेत्तानुपुब्बीएऽवि ते चैव छन्वीसं भंगा माणिअव्वा, ०जाब सेचं गमववहाराणं मंगसमुत्तिणया । एआए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तयाए किं पद्मोअणं १, एआए खं खेगमववहाराणं भंगसमुत्तिणयाए बेगमववहाराणं भंगोवदंसणया कजइ । से किं तं रोगमववहाराणं भंगोवदंसण्या १, - गमववहाराणं भंगोवदंसणया तिपएसोगाढे अनुपुच्ची, एगपएसोगाढे अणानुपुच्ची, दुपए सोगाढे अवत्तव्यए, ति परसोगाढा पुच्चीओ, एगपएसोगाढा ऋणानुपुत्रीओ, दुपएसोगाढा श्रवचव्वगाई, अहवा-तिपएसो गाढे अ एगपएसोगा, पृथ्वी, अणाणुपुन्वी च । एवं तहा चैव दच्वाणुपुव्विगमेणं छब्बीसं भंगा भाणिश्रव्वा • जाव सेचं गमववहाराणं भंगोवदंसणया । से किं तं समोआरे १, समोआरे खेगमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई कहिं समोतरंति ?, किं श्रणुपुव्विदव्वेहिं समोतरंति ?, अणाणुपुव्विदव्वेहिं समोतरंति ?, अवसव्वगदव्वेहिं समो तरंति, पुव्विदव्वाई आणुपुव्विदव्वेहिं समोवरंति, णो णाणुपुव्विदव्वेहिं समोतरन्ति यो अवत्तम्वगदबेहिं समोतरन्ति एवं तिमि वि सट्टाणे समोअरंति ति भाणि अच्वं, सेतं समोतारे । से किं तं अणुगमे १, अ गमे नवविहे पच्छचे, तं जहा - "संतपयपरूवणया जाव अप्पा बहुं चेव" १, गमवत्रहाराणं आणुपुव्विदव्बाई किं अस्थि नऽत्थि ?, खिमा अत्थि, एवं दोणि वि + | 'से किं तमि' त्यादि, हद्द व्याख्या यथा द्रयानुपूतथैव कर्त्तव्या, विशेषं तु वक्ष्यामः, तत्र 'तिपएसांगाढ आणुपुग्वि' ति-त्रिषु नभः प्रदेशेष्ववगाढः- स्थितः त्रिप्रदेशावगाढरुणुकादिकोऽनन्ताणुकपर्यन्तो द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी, ननु यदि द्रव्यस्कन्ध एवामुपूर्वी कथं तर्हि तस्य क्षेत्रानुपूर्वीत्वं ?, सत्यं, किन्तु - क्षेत्र प्रदेशत्रयावगाहपर्यायविशिष्टोऽसौ द्रव्यस्कन्धो गृहीतो नाविशिष्टः, ततोऽत्र क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारात् क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यात्सोऽपि क्षेत्रानुपूर्वीति न दोषः, प्रदेशत्रयलक्षणस्य क्षेत्रस्यैवात्र मुख्यं क्षेत्रानुपूर्वीत्यं तदधिकारादेव, किन्तु तदवगाढं द्वयमपि तत्पययस्य ४१ पुवी प्राधान्येन विवक्षितत्वात् क्षेत्रानुपूर्वीत्वेन न विरुध्यत इति भावः, यद्येवं तर्हि मुख्यं क्षेत्रं परित्यज्य किमिति तदवगाढद्रव्यस्यानुपूर्व्यादिभावश्चिन्त्यते ?, उच्यते-' सन्तपयपरूवणये 'त्यादिवच्यमाण बहुतरविचारविषयत्वेन द्रव्यस्य शिष्यमतिव्युत्पादनार्थत्वात् क्षेत्रस्य तु नित्यत्वेन सदावस्थितमानत्वादचलत्वाश्च प्रायो वक्ष्यमाणविचारस्य सुप्रतीतत्वेन तथाविधशिष्य मतिव्युत्पत्त्यविषयत्वाद् एवमन्यदपि कारणमभ्यूह्यमित्यवं विस्तरेण । एवं चतुः प्रदेशावगाढादिष्वपि भावना कार्या, यावदसङ्ख्यातप्रदेशावगाढा श्रानुपूर्वीति, असंख्यातप्रदेशेषु चावगाढोऽसंख्यातारको ऽनन्ताको वा द्रव्यस्कन्धो मन्तव्यो यतः पुद्गलद्रव्याणामवगाहमित्थं जगद्गुरवः प्रतिपादयन्ति परमायुराकाशस्यैकस्मिन् प्रदेशे ऽवगाहते, द्विप्रदेशिकादयोऽसंख्यातप्रदेशिकान्तास्तु स्कन्धाः प्रत्येकं जघन्यत एकस्मिनाकाशप्रदेशे - अवगाहन्ते, उत्कृष्टतस्तु यत्र स्कन्धे यावन्तः परमाण्वो भवन्ति स तावत्स्वेव नमः प्रदेशेष्यवगाहते. अनन्ताणुकस्कन्धस्तु जघन्यतस्तथैव उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयेष्वेव नमःप्रदेशेष्यवगाइते, नाऽनन्तेषु. लोकाकाशस्यैवासंख्येयप्रदेशत्वात्, अलोकाकाशे च द्रव्यस्याऽवगाहाऽभावादित्यलं प्रसङ्गन, प्रकृतमुच्यते तत्रानुपूर्वी प्रतिपक्षत्वादनानुपूर्व्यादिखरूपमाह - एगपपसोगाढे अणाणुपुच्वि' त्ति एकस्मिन्नभःप्रदेशेऽवगाढः स्थितः एकप्रदेशाध्वगाढः परमाणुसङ्घातस्स्कन्धसङ्घातश्च क्षेत्रतोऽनानुपूर्वीति मन्तव्यः, दुष्परसोगाढे श्रवतव्वर' त्ति प्रदेशद्वयेऽवगाढो द्विप्रदेशिकादिस्कन्धः क्षेत्रतोऽवक्तव्यकं शेषो बहुवचननिर्देशादिको ग्रन्थो यथाऽधस्ताद् द्रव्यानुपूर्व्या व्याख्यातस्तथेहापि तदुक्तानुसारतो व्याख्येयः यावत् द्रव्यप्रमाणद्वारे । गमववहाराणं श्रणुपुव्विदव्वाई किं संखिजाई असंखिआई अताई ?, नो संखिजाई, असं खिजाई. खोताई. एवं दोणि वि । * नेगमववहाराणं श्रणुपुव्विदब्वाई अणताई, नो संखिजाई, मसंखिजाई, नो अताई एवं तिरिण विX । 'रागमववहाराणं श्रणुपुव्विदव्वाई किं संखेज्जाई' इत्यादिप्रश्नः, अत्रोत्तरम् -'ना संखेज्जाइमि' त्यादि व्यादिप्रदेशविभागावगाढानि द्रव्याणि क्षेत्रत अनुपूर्वीत्वेन निर्दिष्टानि, व्यादिप्रदेशविभागाश्चासङ्ख्यातप्रदेशात्मके लोकेऽसङ्ख्याता भवन्ति, श्रतो द्रव्यतया बहूनामपि क्षेत्रावगाहसंप्रदय तुल्यप्रदेशावगाढानामकत्वात् क्षत्रानुपूत्र्याम सङ्ख्या तान्येवानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्तीति भावः, एवमेकप्रदेशावगाढं बह्नपि द्रव्यं क्षेत्रत एकैवाऽनानुपूर्वीत्युक्तम् । लोके च प्रदेशा असङ्ख्याता भवन्ति श्रनस्तत्तुल्यसङ्कयत्वादनानुपूर्वीद्रव्याण्यप्यसङ्ख्येयानीति एवं प्रदेशद्वय ऽवगाढं बह्नपि द्रव्यं क्षेत्रत एकमेवावक्तव्यकमुक्तं द्विप्रदेशात्मकाश्च विभागा लोकेऽसयाता भवन्त्यतस्तान्यप्य संख्येयानीति । क्षेत्रद्वारे निर्वचनसूत्रे - नेगमववहाराणं श्रनुपुव्विदव्वाई लोगस्स किं संखिजड़ भागे होजा अखिजइभागे होजा ०जाब सन्चलाए For Private Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eggsवी होना है, एवं दव्यं पट्टच लोगस्स संखिजहभागे वा होजा अखिलभागे वा होजा संखे भागेसु वा होजा असंखेत्रेसु भागेसु वा होजा देणे वा लोए होजा, नाणादव्याई पडुच्च नित्रमा सव्वलोए होजा, नेगमववहाराणं अापुव्विदव्वाणं पुच्छा एवं दब्बं पहुच नो संखि भागे होजा, असंखिजड़भागे होजा, नो संखेजेसु नो अ जे नो सबलोगे होजा, नाणादब्वाई पहुंच नियमा सव्वलोए होज्जा एवं अनगदब्वाणि विमाणिअव्वाणि X । 3 एगं दवं पहुच लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जे ' त्यादि' इह स्कन्धद्रव्यासां विचित्ररूपत्वात् कश्चित् स्कन्धो लोकस्य संख्येयं भागमवगाह्य तिष्ठति, अन्यत्यसंख्येयम् अन्यस्तु संख्ययस्तद्भागानवगावसंते, अन्यस्वसंधान् इत्यतस्तत्स्कन्धयापेक्षा - कुचादिभागवर्त्तित्वं भावनीयम् विशिष्त्रावगाही पलानी मे देवानुपूर्वीत्यादिति भावः । ' देगे वा लोए होज' त्ति-देशोने वा लोके आनुपूर्वीद्रव्यं भवेदिति वादनन्यचित्तमहास्कन्धस्य सर्वलोकव्यापकत्वं पूर्वमुक्तं तस्य च समस्तलोकयसक्ष्ययप्रदेश लक्षणायां शेषानुपूर्व्यामयगाढत्वात्परिपूर्ण स्थापि क्षेत्रानुपूर्वीत्वं न किंचिद्विरुध्यते, अतः तदपेक्षे क्षेतोयनुपूर्वीयं सर्वलोकयापि प्राप्यते किमिति दे शोलोकार्पिता ते सत्यं किन्तु लोकोऽयमानु पूर्ण नानुपूय कृय्य सर्वाशून्य इति समयस्थितिः पदिदाषानुपूर्व्याः सर्वलोकयापि निर्दिश्यत तदा मनुष्यत्यद्रयाणां निराशा भावः प्रतीयते ततः अतिमहाधनेके अन्यतो येका प्रदेशानुयत्वेन श चाययविषयत्येन विषय चानुपूर्वीद्रव्यस्य तंत्र सस्त्वेऽप्यप्राधान्यविवक्षणादनानुपूर्व्य व व्यकयोस्तु प्राधाम्यदिति भने प्रदेश देशेन होमो लोकः प्रतिपादित इत्यदोषः उलं च पूर्वमुनिभिः"महावि, अव्याजसांगाढाई, तदसणं स लोगूगो ॥ १ ॥ ननु यद्येवं तर्हि द्रव्यानुपूर्व्यामपि सर्वलोकव्यापित्वमानुपूर्वीद्रव्यस्य यदुक्तं सदसङ्गतं प्राप्नोति मानुपूवक्रव्यमनका म्येन तत्राप्यभावात् सर्वकालं च तेषामध्ययस्थितिप्रतिपादनात् नैतदयं यतो द्रव्यानुपूर्व्या द्रव्याणामेवानुपदमा उक्लन क्षेत्रस्य तस्य तत्राधिकृतस्वाद इन्याणां चानुपूर्व्यादीनां परस्परभिज्ञानामध्येक त्रापि क्षेत्रे ऽवस्थानं न किंचिद्विरुध्यते, एकाऽपवरकान्तताऽनेक प्रदीप प्रभाव स्थानदृष्टान्तादिसिद्धत्वात् श्रता न तत्र कस्याप्यनवकाशः, अत्र तु द्रव्याणामौपचारिक एवानुपूर्व्यादिभाषा मुख्यस्तु क्षेत्रस्य क्षेत्रानुपूयधिकारात् ततो यदि लोकप्रदेशाः सामस्त्येनैवानुपूर्व्या क्रोडीकृताः स्युस्तदा किमन्यदनानुपूर्व्यवक्लव्यकतया प्रतिपद्येत यस्त्विइषयेष्वाकाशमदेवानुपूर्यस्तेष्वेवेत्तरयोरपि सङ्गा क , 99 " ( १६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । - " " अणुवी थयिष्यते स द्रव्यावगाहभेदेन क्षेत्रभेदस्य विवक्षणात् श्रत्र तु तदविवक्षणादिति, तस्मादनानुपूर्व्य वक्लव्यकविषयप्रदेशत्रयलक्षणेन देशेन लोकस्योनता विवक्षितेति । श्रथवा श्रानु पूर्वीद्रव्यस्य स्वावयवरूपा देशाः कल्प्यन्ते यथा पुरुषस्याङ्गुल्याद्यः, ततश्च विवक्षिते कस्मिश्चिदेशे देशिनो सद्भा विवक्ष्यते, यथा पुरुषस्यैवाङ्गुलीदेशे देशित्वस्यैव तत्र प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति भावः न च वक्तव्यं देशिनो देशा न सिद्धियो दृश्यते, एकान्तादे देशमात्रस्य देशिमात्रस्य चाभावप्रसङ्गात्, ततश्च समस्तलोक क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्याश्रयणादत्राचित्तमद्दास्कन्धस्यानुपूर्वीत्वेउपदेशकः, स्वीकारमन्देशे तस्याभावचिचवात् तस्मिवानुपादेये इतर बोका नियो भवतीति भावः । न च देशदेशिभावः कल्पनामात्रं सम्मत्यादिन्यायनिर्दिष्टयुक्तिसिद्धत्वात् इत्यलं प्रसङ्गेन । 'नाणा दव्यामि त्यादि, ज्यादिप्रदेशावगाढद्रव्यभेदतोऽत्रानुपूर्वी यां नानात्वं ज्यादिदेशाचगाः सर्वोच लोको व्याप्त इति भावः । अत्रानानुपूर्वी चिन्तायामेकद्रव्यं प्रतीत्य लोकस्वास्येयभागखमेव प्रदेशावगादस्वानानुपूर्वीन प्रतिपादनात् एकप्रदेशस्य च लोकासंख्येयभागवर्त्तित्वादिति, 'नाणादव्वाई पट्टच्च नियमा सबल होति एकेारपि इस मस्तलोकरिति एवम् व्यादिविशि अवक्तव्यकद्रव्यमध्येकं लोका संस्थेयभाग एव वर्त्तते, द्विप्रदेशाव्यकनाविधानात् प्रदेशश्यस्यच लोकाऽसंख्ययभागवर्त्तित्वादिति तथा प्रत्येकं द्विप्रदेागादेरपि इयमेदैः समस्तलोकानांनाइयागामत्रापि सर्वलोकव्यापित्वमवसेयमिति । अत्राऽऽह नन्वानुपूर्व्याणि श्रीरामपि सर्वलोकव्यापीनीन्युन ततश्च येष्वेवाकाशप्रदेशेष्वानुपूर्वी तेष्ववेतरयोरपि सद्भावः प्रतिपादितो भवति कथं चैतत्परस्परांपरु भिनविषयं व्यपदेशत्रयमेकस्य स्पात् अत्रोच्यते- पादिदेशा गाढात् द्रव्याद्विजमेव तावदेकप्रदेशाचा ताभ्यां व निं द्विपदेशावगातआधेयस्यावगाहकद्रव्यस्य मेदादाचा रस्याप्यवगाह्यस्य भेदः स्यादेव, तथा च व्यपदेशभेदो युक्त एव अनन्तधम्मध्यासितेच वस्तुनि तत्सहकारिवि धानात्ततद्धर्माभिव्यक्तौ दृश्यत एव समकाले व्यपदेशभेदो, यथा खकुतपचादियुक्रं देवदते खगी कुन्ती कब बीत्यादिरिति । इह कांचद्राचनान्तरे-' श्रणापुव्विदव्वाइं अवनव्यवायि जब हिंडे सि-प्रतिदेशस्यतेतसि यथाऽबलाद् इयानुपूयमनाः तथापि ज्ञानस्यमित्यर्थः तच्च व्याख्यातमय, इत्येवमन्यत्रापि यथासंभवं वाचनान्तरमवगन्तव्यमिति । गतं क्षेत्राम्। गमववहारणं आणुपुष्पिदब्वाई लोगस्स किं संखेअभागं फुसन्ति अविभागं फुति संखिजे भांगे फसंति० जाय सव्वलोगं फुर्मति १, एवं दयं पहुच सेदव्वं खिजइभागं वा फुसइ संखिज्जइ भागे असंखिजर भागे संखेजे भागे वा असंखेजे भागे वा देणं वा लोगं फु " " Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुत्वी अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुपुलवी सइ, नाणादचाई पडुच्च णिमा सम्मलोग फमंति, अ- प्रदशष्यवगाहप्रतिपत्तौ जघन्यः सम्योऽवगाहस्थितिः, श्र संख्ययकालादृध विप्रदेशावगा(ई) परित्यज्यत उत्कृष्टताणाणुपुचीदवाई अवत्तब्धगदम्बाई च जहा खत्तं नवरं उसंख्येयोऽवगाहस्थितिकालः सिध्यति, नानाद्रव्याणि तु फुमणा भणिअव्वा +1 सर्वकालं, द्विादशावगाढद्रव्यभेदानां सदैव भावादिति, एवं स्पर्शनाद्वारमपि चेत्थव निखिलं भावनीयं. नवरमत्र क- समानवक्तव्यत्वादतिदिशति एवं ' दोरण वि 'त्ति । स्याश्चिद्वाचनाया अभिप्रायेणानुपामे कद्रव्यस्य संख्येय इदानीमन्तरद्वारम्मागादारभ्य यावद्देशोनलोकस्पर्शना भवतीति ज्ञायते, अ णेगमववहाराणं आणुगुब्बीदवाणं अंतरं कालमो केन्यस्यास्त्वभिप्रायेण असंख्येयभागादारभ्य यावत्सम्पूर्णलोकस्पर्शना स्यादि-यवसीयते. पतच द्वयमपि बुध्यत एव, वञ्चिरं होइ ?, तिएहं पि एगं दव्वं पडुच जहएणेणं एकं यता यदि मुख्यतया क्षेत्रप्रदेशानामानुपूर्वीत्वमा क्रियते त. समयं उक्कोसेमं असंखेजं कालं, नाणादब्बाई पडुच्च नsदा अनानुपूर्यवक्तव्यकयोर्निरवकाशनाप्रसङ्गापूर्ववद्देशोनता | त्थि अंतरंx लोकस्य वाच्या, अथाऽऽनुपूर्तीरूप.क्षत्र अवगाढत्वादविस महास्कन्धस्यैवानुपूर्वीत्वं ताई द्रव्यानुपामिवात्रापि म 'जहरागण एर्ग समय 'ति-अत्र भावना इह यदा ज्यापूर्ण ना लोकस्य वाच्यति नचात्रानुपूर्या सकलस्यापि लो दिप्रदशावगाद किमयानुपूर्वीद्रव्यं समयमेकं तस्माद्विवकस्य स्पृष्टत्वादितरयोरवकाशाभाव इति वक्तव्यम् , एकैक क्षित क्षेत्रादन्यत्राचगाई प्रतिपद्य पुनरपि कबलमन्यद्रव्यप्रदेशरूपे द्विद्विप्रदशरूरी च क्षत्रेऽवगाढानां प्रत्येकमसंख्ये संयुक्तं वा तेष्वव विवक्षितध्याद्याकाशप्रदशेष्ववगाहते । यानां द्रव्यभेदानां सद्भावतस्तयारपि प्रत्येकमसंख्येयभेदयाः तदैकानुपूर्वीद्रव्यस्य समयो जघन्योऽन्तरकालः प्राप्यते, 'उक्कासणं असखेज्जं कालं 'ति-तदेव यदाऽन्येषु क्षेत्रप्रलोके सद्भावाद् , द्रव्यावगाहभेदेन च त्रभेदस्यह विवक्षितत्वादिति भावः, वृदबहुमतश्चायमाप पक्षो लक्ष्यते, देशेषसंख्येयं कालं परिभ्रम्य केवलमन्यद्रव्यसंयुक्तं वा तत्त्वं तु कवालना विदन्ति । क्षेत्रस्पर्शनयोस्तु विशेषः प्रा समागत्य पुनरपि तेष्वेव विवक्षितव्याद्याकाशप्रदेशेवगानिदर्शित एंवति । गतं स्पर्शनाद्वारम् । हत तदोत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽन्तरकालः प्राप्यते, न पुनद्रव्या नुपूामिवानन्तः, यता द्रव्यानुपूर्ध्या विवक्षितद्रव्यादन्ये अथ कालद्वारम् द्रव्यविशषा अनन्ताः प्राप्यन्ते. तैश्च सह क्रमेण संयोगे। णेगमववहाराणं आणुपुचीदवाई कालो केवचिरं उनाउनम्तः कालः । अत्र तु विवक्षिनाचगाहक्षेत्रादभ्यरक्षेत्रहोइ ?, एवं तिषिण वि, एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं एगं मसरुपयमेव, प्रतिस्थानं चावगाहनामाश्रिता संयोगस्थिसमयं उकोसेणं असंखज्जं कालं, नाणादनाई पडुच्च तिरत्राप्यसंख्ययकालैव । ततश्च-असंख्ये क्षत्रे परिभ्रनिअमा सम्बद्धाx। मता द्रव्येण पुनरपि केवलनान्यसंयुक्रेन वाऽसंख्येयकाला तेष्वेव नमःप्रदंशष्वागत्यावगाहनीयम् , न च वक्तव्यमसंख्ये. तत्र क्षेत्राऽवगाहपर्यायस्य प्राधान्यविवक्षया व्यादिप्र- ये पिक्षत्रे पानःपुन्यन तत्रैव परिभ्रमण कस्मादनम्तोऽपि देशावगाढव्याणामेवा 55नुपूर्यादिभावः पूर्वमुक्तः, अत कालो नोच्यत इति ?, यत इहासंख्येयक्षेत्रे असंख्येयकालस्तेषामवाऽवगाहस्थिनिकालं चिन्तयन्नाह-' एग दव्यं मवान्यत्र तन पटितव्यम् तत ऊर्ध्व पुनस्तस्मिन्नेव विति पदुथे' त्यादि, अत्र भावना-इह द्विदेशावगाढस्य वा तक्षेत्र नियमादवगाहनीयं, वस्तुस्थितिस्व (स्वा)भावा(ब्या)एकप्रदेशावगाढस्य वा द्रव्यस्य परिणामवैचित्र्यात्प्रदश दिति,तावदकीयं व्याख्यानमादर्शिनम् , अन्य तु व्याचक्षतत्रयाद्यवगाहभवने आनुपूर्वीव्यपदेशः संजातः, समयं चैक यस्मात् व्यादिप्रदशलक्षणाद्विवक्षितक्षत्रात्तदानुपूर्वीद्रव्यमतद्भावमनुभूय पुनस्तथैव द्विप्रदेशावगाढमकदशावगाढं न्यत्र गतं, तस्य क्षेत्रस्य स्वभावदिवासंख्येयकालाय तवा तद् द्रव्यं संजातमित्यानुयाः समया जघन्याऽवगाह नैवानुपूर्वीद्रव्येण वर्णगन्धरसस्पर्शसंख्यादिधर्मैः सर्वथा स्थितिः, यदा तु तदेव द्रव्यमनख्येयं कालं तद्भावमनुभूय तुल्यनान्यन वा तथाविधाऽऽधेयेन संयांगे सति नियमात्तपुनस्तथैव द्विपदेशावगाढमकबंदशावगादं वा जायत थाभूताधारतोपपत्तरसंख्यय एवान्तरकाल इति, तस्वं तु तदा उत्कृष्टतया असंख्ययाऽवगाहस्थितिकाल सिध्य केलिनो विदन्ति, गम्भीरत्वात् सूत्रप्रवृतरिनि । 'नाणाति, अनन्नस्तु न भवति, विवक्षिकद्रव्यन्यैकावगाहनो दव्याई' इत्यादि, नहि व्यादिप्रदेशावगाढानुपूर्वीद्रव्याणि स्कृष्टतोऽप्यसंख्यातकालमवावस्थानादिति, नानाद्रव्याणि तु सर्वाऽद्धा-सर्वकालमेव भवन्ति यादियदेशावगा युगपत्सर्वाण्यपि तद्भावं विहाय पुनस्तथैव जायन्त इति ढदव्यभेदानां सदैवाऽस्थानादिति , एवं यदा समयमे कदाचिदपि संभवति, असंख्ययानां तयां सर्वदेवोलत्याकं किंचिद् द्रव्यमकस्मिन् प्रदेशे अवगाढं स्थित्वा ततो दिति भावः । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येष्वप्यसाबकानेकद्वयादिप्रदेशावगाढं भवति तदा अनानुपाः द्रव्याश्रया अन्तरकालवक्तव्यता कवलमनानुपद्रव्यस्यै समयो जघन्यावगाहस्थितिः, यदा तु तदेवाऽसंख्यातं कालं तपेन्ग कप्रदेशावगाढस्यावक्रत्यकद्रव्यस्य तु द्विप्रदशावगाढस्य स्थित्वा ततो द्वयादिदशावगाढं भवति तदात्कृततोऽसं पुनस्तथाभवन अन्तरकाश्चिन्तनीयः,शपा तुन्याख्याद्वयख्ययोऽवगाहस्थितिकालः नानाद्रव्याणि तु सर्वकालम् पक भावना सर्वाऽपि तथैवति । उनमन्तरद्वारम् । प्रदेशावगाढव्यभेदानां सर्वदैव सद्भावादिति, अवक्तव्य साम्प्रतं भागद्वारमुच्यतेकस्य तु द्विप्रदेशावगाढस्य समयादुर्ध्वमेकस्मियादिषु वाणेगमववहाराणं आणुएव्विदचाई मेसदवाणं कइ-- Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । श्राणुपुब्वी भागे होजा १, तिमि वि जहा दव्वाणुपुत्रीए X । तत्र च यथा द्रव्यानुपूर्व्यं तथाऽत्राऽप्यानुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यक लक्षणेभ्यः शषद्रव्यभ्योऽसंस्ययै भांगेरधिकानि शेषद्रव्याणि तु तेषामसंख्येयभागे वर्त्तन्त इति । अत्राह- ननु व्यादिप्रदेशावगाढानि द्रव्याण्यानुपूर्व्य एकैक. प्रदशावगाढान्यनानुपूष्यों द्विद्विप्रदेशावगाढान्यवक्तव्यका नीति प्राक प्रतिज्ञातम् एतानि चानुपूर्व्यादीनि सर्वस्मिन्नपि लोके सन्त्यतो युक्तधा विचार्यमाणान्यानुपूर्वीद्रव्याण्येव स्तोकानि ज्ञायन्ते, तथाहि असत्कल्पनया किललोके त्रिंशत्प्रदेशाः, तत्र चानानुपूर्वीद्रव्याणि त्रिशदेव, अ वक्तव्यकानि तु पञ्चदश अनुपूर्वीद्रव्याणि तु यदि सर्वस्तोकतया त्रिप्रदेशनिष्पन्नानि गण्यन्ते तथापि दशैव भ वन्तीति शेषभ्यः स्तोकान्येव प्राप्नुवन्ति, कथमसंस्थेयगुणानि स्युरिति ?, अत्रोच्यते - एकस्मिन्नानुपूर्वीद्रव्ये ये नभःप्रदेशाः उपयुज्यन्ते ते यद्यन्यस्मिन्नपि नोपयुज्ये रस्तदा स्यादेवं तच्च नास्ति यत एकस्मिन्नपि प्रदेशत्रयनिष्पने श्रानुपूर्वीद्रव्ये ये श्रयः प्रदेशास्त एवाभ्याम्यरूपतयाऽवगाढेनाधेयद्रव्येाऽऽक्रान्ताः सन्तः प्रत्येकमनेकेषु त्रिकसंयेागेषु गण्यन्ते, प्रतिसंयोगमाधेयद्रव्यस्य भेदात् तद्भेदे चाधारभेदादिति भावः । एवमन्यान्यपि चतुःप्रदेशावगाढाद्याधेयेनाध्यासितत्वात् त एवानेकेषु चतुष्क संयोगध्वनकेषु पञ्चकसंयोगेषु यावदनेकेष्वसंख्येयकसंयोगेषु प्रत्येकमुपयुज्यन्ते, एवं चतुरादिप्रदेशनिष्पन्नेष्वप्यानुपूर्वीद्रव्येषु ये चतुरादयः प्रदेशास्तेषामप्यन्यान्यसंयोगोपयोगिता भावनीया, तस्मादसंख्येयप्रदेशात्मकेष्वस्थित्या व्यवस्थिते लोके यावन्तस्त्रिकसंयोगादयोऽसंख्येयकसंयोगपर्यन्ताः संयोगा जायन्ते तावत्यानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्ति, प्रतिसंयोगमाधेयद्रव्यस्य भेदेनावस्थितिसद्भावाद्, आधेयभेदे चाधारभेदात् नहि नभःप्रदेशा येनैव स्वरूपणैकस्मिन्नाधेये उपयुज्यन्ते तनैव स्वरूपेणाधेयान्तरेऽपि, आधेयैकताप्रसङ्गाद्, एकस्मिन्नाधारस्वरूप तदवगाहाभ्युपगमात्, घंट तत्स्वरूपवत् तस्मात् व्यादिसंयोगानां लोके बहुन्वादानुपूर्वीणां बहुत्वं भावनीयम् । अवक्तव्यकानि तु स्तोकानि द्विकसंयोगान तत्र स्तोकत्वाद्, अनानुपूर्व्योऽपि स्तोका एव लोकप्रदेशसंख्यमात्रत्वाद् अत्र सुखप्रतिपत्यर्थ लोके किल पञ्चाकाशप्रदेशाः कल्प्यन्ते, तद्यथा- अत्रानुपूर्यस्तावत्पश्चैव प्रतीताः, अवक्तव्यकानि त्वष्टौ द्विकसंयोगानामिहाशनामेव संभवाद्. आनुपूर्व्यस्तु षोडश संभवन्ति, दशानां त्रिसंयोगानां पञ्चानां चतुष्कसंयोगानामेकस्य तु पञ्चकयोगस्येह लाभाद्, दश त्रिकयोगाः कथमिह लभ्यन्ते ? इति चेत् उच्यते षड् तावत् मध्यव्यवस्थापितन सह लभ्यन्ते वन्यरस्तुत्रिक संयोगादिव्यवस्थापितैश्चतुर्भिरेव केवलैरिति चतुष्कयोगास्तु चरबारो मध्यध्यवस्थापितेन सह लभ्यन्ते, एकस्तु तझिरपतेर्दिव्यवस्थितैरेवेति सबै पञ्च. पञ्चकयोगस्तु प्रतीत एवेति तदेवं प्रदेशपञ्चकप्रस्तारेऽप्यानुपूर्वीणां बाहु दृश्यंत. अत एव तद्नुसारेण सद्भावतोऽसंख्येयप्रदेशात्मकं लोकेऽत्रानुपूर्वीद्रव्याणां शेषेभ्याऽसख्यातगुणत्वं भावनीयमित्यलं विस्तरेण । उक्तं भागद्वारम् । पुवी साम्प्रतं भावद्वारमाह महाराणं आणुपुव्वीदव्वाई कत(य) रंमि भावे होआ ?, तिथि वि श्रिमा साऽऽदिपारिणामिए भावे होजा || एवं दोणि विX | तत्र च द्रव्याणां व्यादिप्रदेशावगाहपरिणामस्य एकप्रदेशावगाह परिणामस्य द्विप्रदेशावगाहपरिणामस्य च सादिपारिणामिकत्वात् त्रयाणामपि सादिपारिणामिकभाववर्त्तित्वं भावनीयमिति । अल्पबहुत्वद्वारे— एएसि णं भंते! गमववहाराणं श्रणुपुव्विदव्वाणं अणाणुपुव्विदव्वाणं अवत्तव्यगदव्वाण य दव्बट्टयाए पएसट्टयाए कतरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहियावा, जहा दब्बाणुपुच्चीए तहा भाणिमव्वं, वरं प्रणतगं न त्थि || ( गोयमा ! सव्वत्थोवाई गमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई दव्वट्टयाए अणाणुपुत्रीदव्वाई दव्या विसेसाहियाई आणुपुच्चीदव्वाई दव्वट्टयाए संखेजगुणाई, पसट्टयाए सव्वत्थोवाई पेगमववहारा श्रावीद व्वाई अपएसट्टयाए अवत्तव्वगदव्वाई एसइयाए बिसेसाहियाई आणुपुब्बीदव्वाई पएस ट्टयाए असंखेजगुणाई, दव्वटुपए सट्टयाए सव्वत्थोवाई गमत्रवहाराणं अवत्तव्यगदव्वाई दव्वट्टयाए अणाणुपुब्बीदब्वाई दव्वट्टयाए अपएस ट्टयाए विसेसाहियाई अवत्तव्यगदब्वाई पसट्टयाए विसेसाहियाई आणुपुत्रीदव्वाई दव्या संखे अगुणाई ताई चैत्र पएसइयाए असंखज्जगुणाई 1) सेत्तं अनुगमो (मे ) । सेत्तं णेगमववहाराणं अणोवणिहि खेत्ताणुपुत्री । (सूत्र - १०१ ) इह द्रव्यगणनं द्रव्यार्थता, प्रदेशगणनं प्रदेशार्थता, उभयगणनं तूभयार्थता, तत्रानुपूर्व्या विशिष्टद्रव्यावगाहोपलक्षिताख्यादिनभः प्रदेशसमुदायास्तावद् द्रव्याणि । समुदायारम्भकास्तु प्रदेशाः अनानुपूर्व्यं त्वेकैक प्रदेशावगाहिद्रव्योपलक्षिताः सकलनभः प्रदेशाः प्रत्येकं द्रव्याणि प्रदेशास्तु न संभवन्ति, एकैकप्रदेशद्रव्ये हि प्रदेशान्तरायोगाद्, वक्तव्यकेषु तु यावन्तो लोक द्विकयांगाः संभवन्ति ताबन्ति प्रत्येकं द्रव्याणि तदारम्भकास्तु प्रदेशा इति शेषा स्वत्र व्याख्या द्रव्यानुपूर्वीचत्कर्त्तव्येति 'नवरं सव्वत्थोवाई नेगमववहाराणं श्रव्यत्तव्वगवाइमि' त्यादि, श्रत्राह - ननु यदा पूर्वोक्तयुक्तया एकैको नभः प्रदेशा उनकेषु द्विकर्मयोगधूपयुज्यते तदा अनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो ऽवक्तव्यकद्रव्याणामेव बाहुल्यमवगम्यते, यतः पूर्वोक्कायामपि पञ्चप्रदेशनभःकल्पनायामवक्लव्यक द्रव्याणामेवाऽसंख्यापनानां पञ्चसंख्येभ्यो ऽनानुपूर्वी द्रव्येभ्यो बाहुल्यं दृष्टं नःकथमत्र व्यत्ययः प्रतिपाद्यते ?, सत्यम्, अस्त्येतत् केवलं लोकमध्ये, लोकपर्यन्तवर्त्तिनिष्कुटगतास्तु ये कण्टकाकृतयां विक्यानिर्गता एकाकिनः प्रदेशास्ते विणिव्यवस्थितवाकाय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । vigyaat स्वायोग्या इत्यनानुपूर्वी सङ्कायामेवान्तर्भवन्ति, अतो लोकमध्यगतां निष्कुटगतां च प्रस्तुतद्रव्यसंख्यां मीलये वायदा केवल चिन्तयति तदा अवकन्यकद्रव्याण्येव स्तोकानि, अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु तेभ्यो विशेषाधिकतां प्रतिपद्यन्ते, अत्र निष्कुटस्थापना - ४४४), अत्र विधेणिलिखितौ द्वौ अवक्तव्यका योग्यौ दृष्टव्याविति एवंभूताश्च किलामी सर्वलोकपर्यन्तेषु बद्दवः सन्तीत्यनानुपूर्वीद्रव्याणां बाहुल्यमित्यलं विस्तरेण । श्रनुपूर्वीद्रव्याणां तु तेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं भावितमेव शेषं द्रव्यानुपूर्व्यनुसारेण भावनीयम्, नवरमुभयार्थताविचारे मानुपूर्वी द्रव्याणि स्वद्रव्यभ्यः प्रदेशार्थनयाऽसंख्येयगुणानि कथम् ? एकैकस्य तावद् द्वन्यस्य व्यादिभिरसंख्येयान्तैर्नभः प्रदेशेरारब्धत्वात् न भः प्रदेशानां च समुदितानामप्यसंख्येयत्वादिति ।' सन्तमि ' त्वादि निगमनद्वयम् । उक्का नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी । अथ तामेव संग्रहमतेन विभणिपुराह - से किं तं संगहस्स अणोवणिहित्रा खेत्ताऽऽणुपुच्ची !, संगहस्स गोवाहिया खेचाऽऽणुपुब्बी पंचविहा पष्पत्ता, तं जहा - अठ्ठयपरूवण्या १, भंगसमुक्कि चपया २, मंगोवदंसख्या ३, समोवारे४, अणुगमे५ । से किं तं संगहस्स अट्ठ ग्रषपरूवणया १, स्रंगहस्स अपयपरूवणया तिपएसोगादे अणुपुब्त्री चतुप्पएसोगाढे आणुपुत्री०जाब दसपएसोगाढे आणुपुत्री संखििपएसोगाडे आणुपुच्ची असंखिञ्जएसोगा पुच्ची, एगपएसो गाढे अणागुपुच्ची, दुपएसोगादे श्रव । सेत्तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया । एचएणं संगहस्स श्रपयपरूवम्याए किं पश्रणं १. एआए णं संगहरूस अपयपरूवणयाएं संगहस्स भगसमुलिया कजइ । से किं वं संगहस्स भगसमु कित्तणया ?, सँगहस्स भंगसमुक्किचस्सया अस्थि (खु) नुपुच्ची स्थि अणानुपुत्री अस्थि अवत्तव्यए, अहवा - श्रत्थि अनुपुत्री अ अखाणुपुव्वी अ । एवं जहा दव्वानुपुत्रीए संगहस्स तहा भाणिव्वं जाव सेत्तं संगहस्स भंगममुकितख्या । एआए सं संगहरू भंगसमुक्कित्तणयाए किं पोचणं १. एए सं भंगसमुत्तिणयाए संगहस्स भगोवदंसणया कजइ । से किं तं संगहस्स भंगोवदंसख्या १, संगहस्स गोवदंसणया तिपएसोगाढे धानुपुथ्वी एगपएसो गाढे अणानुपुत्री दुपरसोगाढे अवत्तव्यए, ब्रह्मा- तिपएसोगाढे एगपएस गाडे अ श्रनुपुच्ची अ अणानुपुन्त्री अ । एवं जहां दव्त्रानुपुव्त्रीए संगहस्स तहा खेत्तानुपुब्वपि विभाव्यं •जाव सेत्तं संगहस्स भंगोवदंसणया । से किं तं समोआरे १, समोरे संगहरूसानुपुव्विद ब्वाई कहिं समोतरंति ?, किं अनुच्येहिं समोतरंति अगा ४२ श्रावी पुव्विदव्वेहिं समोअरंति अत्तव्वगदव्येहिं समोअरति १, तिमिवि सट्टा समोतरंति । सेत्तं समोआरे से किं तं अणुगमे अणुममे अट्ठविहे पष्पत्ते, तं जहा - " संतपयपरूवख्या, जाव अप्पाचहुं नऽत्थि " ॥ १ ॥ संगहस्स अनुपुव्विदच्चाई किं श्रत्थि नऽत्थि निश्रमा अत्थि । एवं तिमि वि सेसगदाराई जहा दव्वाणुपुव्वीए संगहस्स तहा खेत्तानुपुत्रीए वि भाणिश्रव्वाई ; ०जाब सेचं अनुगमे । सेचं संगहस्स अणोवणिहिया खत्तानुपुच्ची । सेचं श्रणोनिहिश्र खेता () पुच्ची । (सूत्र १०२ ) 'से किं तमि' त्यादि, इह संग्रहाभिमतद्रव्यानुपूर्व्यनुसारे निखिलं भावनीयम् । नवरं क्षेत्र प्राधान्यादत्र तिपएसोगादा श्राग्वी०जाब श्रसंखजपरसोगाढा श्राणुपुबी, एगपणसागाढा श्रणाखुपुच्ची, दुपए सांगाढा श्रवत्तear' इत्यादि वक्तव्यं, शेषं तथैवेति । उक्का अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी । श्रयोपनिधिक तां निर्दिदिक्षुराह से किं तं उवनिहिया खेचानुपुच्ची ?, उचखिहिया खत्तापुच्ची विविदा पाता, वं जहा-पुन्त्राणुपुच्ची १. पच्छानुपुब्बी २, श्रानुपुत्री ३ । से किं तं पुब्बाणुपुब्बी १, पुवायुपुत्री अहोलोए तिरिअलोए उड्डलोए । सेत्तं पु पुच्ची । से किं तं पच्छानुपुत्री ?, पच्छाणुपुच्ची उड्डलोए तिरिअलोए अहोलोए । सेत्तं पच्छानुपुच्ची । से किं तं अशानुपुच्ची १, अणापुपुव्वी, एमए चेत्र एगाsir एरिआए तिगच्छगयाए सेडीए अन्नमन्नन्भासो दुरूवूणो । सेत्तं श्रणापुन्त्री । 'से किं तं वणिहिये'त्यादि । अत्र व्याख्या पूर्ववत्कर्त्तव्या, नवरं तत्र द्रव्यानुपूर्व्यधिकाराद्धमस्तिकायादिद्रव्या पूर्वानुपूर्व्यादित्वेनोदाहृतानि अत्र तु क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारादधोलोकादिक्षेत्रविशेषा इति, (अनु०) (अधोलोकव्याख्या 'अहोलोय ' शब्द प्रथमभागे ८६२ पृष्ठे गता ) (निर्यगलोकव्याख्या 'तिरियलोय' शब्द चतुर्थभागे २३२२ पृष्ठे दर्शयिष्यते ) ( ऊर्ध्वलोकव्याख्या 'उडलांग' शब्दे श्रस्मिक्षेत्र भांग वक्ष्यंत) अत्र च जधन्यपरिणामवद् द्रव्ययोगतो जघन्यतया गुणस्थानकेषु मिथ्याहऐरिवादांचयाऽधोलोक - स्योपन्यासः, तदुपरि मध्यमद्रव्यवस्वान्मध्यमतया तिर्यग्लोकस्य तदुपरिष्टादुत्कृष्टद्रव्यवस्था दृथ्व लोकस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीत्वसिद्धिः पश्चानुपूर्वी तु व्यत्ययेन प्रतीय, अनानुपूर्व्या तु पदत्रयस्य यह भङ्गा भवन्ति, मे व पूर्व दर्शिता एव, शेषभावना त्विह प्रादेति । त्रच त्रिवाचनान्तरे - एक प्रदेशावगाहादीनाम संख्यात प्रदेशावगाढास्तानां प्रथमं पूर्वानुपूर्व्यादिभाव उक्का दश्यते, सोऽपि क्षेत्राधिकारादविरुद्ध एव सुगमत्वा चोक्तानुसारेण भावनीय इति । १- अस्मिन्नेव भागे : ५५ पृष्ठे ६५ सूत्रे जावशब्दतं गतम् । For Private Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणुपुखी अभिधानराजेन्द्रः। मामुपुब्बी साम्प्रतं वस्त्वन्तरविषयत्वेन पूर्वानुपूर्यादिभाव दिदर्शयि- रिआए असंखेजगच्छगयाए सेढीए अन्नमएणभासो दुपुरधालाकादीनां च परिभेदशान शिष्यव्युत्पत्ति पश्यन्नाह- रूवृणो । सेत्तं प्रणाणुपुची । (सूत्र-१०३) महोलोअखत्तानुपुब्बी तिविहा पम्पत्ता, तं जहा-पु- तिर्यग्लोके क्षेत्रानुपा 'जंबुद्दीवे' इत्यादि गाथाव्याख्याब्बानुपुब्बी, पच्छानुपुब्बी, अणानुपुब्बी । से किं तं पु- द्वाभ्यां काराभ्यां स्थानदातृत्वाहाराद्युपएम्भहेतुत्वलक्षणाब्यानुपुची, पुयाणुपुब्बी रयणप्पभा सक्करप्पभा वा भ्यां प्राणिनः पान्तीति द्वीपा:-जन्यावासभूतक्षेत्रधि शेषाः, सह मुद्रया-मर्यादया वर्तन्त इति समुद्रा:-प्रचुरलुअप्पभा पंकप्पभा धूमप्पभा तमप्पभा तमतमप्पभा। जलापलक्षिताः क्षत्रविशेषण एव, एते च तिर्यग्लोके प्रत्येकमेत्तं पुब्बानुपुची । से किं तं पच्छानुपुब्बी , पच्छाणु मसंख्यया भवन्ति, तत्र समस्तद्वीपसमुद्राभ्यन्तरभूतत्वेपुची तमतमा .जाव रयणप्पमा । सेत्तं पच्छानुपुब्बी।। नादौ तावज्जम्बूवृक्षणापलक्षितो द्वीपां जम्बूद्वीपस्ततस्तं से किं तं प्रणानुपुब्बी , अणाणुपुब्धी एआए चेव ए- परिक्षिष्य स्थिती लवणरसास्वादनीरपूरितः समुद्रो लय खसमुद्रः एकदेशन समुदायस्य गम्यमानत्वात् , एवं पुरगाइमाए एगुत्तरिआए सत्तगच्छगयाए सेढीए भएण स्तादपि यथासम्भवं दृष्ट्रव्यं 'धायइकालोय' त्ति-ततो मपन्भासो दुरूवृणो । सेत्तं अणानुपुव्वी +। लवणसमुद्रं परिक्षिप्य स्थितो धातकीवृत्तवण्डापलक्षितो 'अहोलोयखेत्ताणुपुब्बी तिविहे ' स्यादि । अधोलोक- | द्वीपा धातकीखण्डस्तत्परितोऽपि शुद्धोदकरसास्वादः क्षत्रविषया आनुपूर्वी, आनुपूर्वी औपनिधिकोति प्रक्रमा- कालोदधिसमुद्रः तं च परिक्षिप्य स्थितः पुष्करैः-पनवरैलभ्यत, सा त्रिविधा प्राप्ता, तद्यथे' त्यादि, शेषं पूर्व- रूपलक्षितो द्वीपः पुष्करवरद्वीपः, तत्परितोऽपि शुद्धादबद्भावनीयम् । याबद्रत्नप्रभेत्यादि (अनु.)। रत्नप्रभायाः करसास्वाद एव पुष्करादः समुद्रः, अनयोश्च द्वयोरप्यकव्याख्या ' रयणप्पभा' शब्द पष्ठ भाग दर्शयिष्यामि )| नैव पदेनात्र संग्रहा द्रष्टव्यः 'पुक्खरे ' त्ति-एवमुत्तरत्रापि (शर्कराप्रभायाः सा वृत्तान्तः 'सक्करप्यभा' शब्द सप्तमे ततः-'वरुगो' त्ति-वरुणवरो द्वीपस्ततो वारुणीरसास्वादा भाग वच्यते) (बालुकाप्रभाविस्तरः 'चालुयप्पभा' शब्द | वारुणोदः समुद्रः 'खीर' त्ति-क्षारबरो द्वीपः क्षीररसाषष्ठ भाग कायष्यते ) (पप्रभायाः सर्व वृत्तम् ' पंकष्य- स्वादः क्षीरोदः समुद्रः 'घय 'त्ति-घृतवरो द्वीपः घृतभा' शब्दे पञ्चमे भाग यक्ष्यते) ( घूमप्रभायाः व्याख्यानम् रसास्वादो घृतोदः समुद्रः 'खाय' त्ति-रसुवरी द्वीप: 'धूमप्यमा' शब्दे चतुर्थे भाग करिष्यते ) ( तमःप्रभाकी- इचुरसास्वाद एंव खुरसः समुद्रः, इत ऊर्ध्वं सर्वेऽपिरशीतितमप्पभा' शब्द चतुर्थे भागे वक्ष्यते) (तमस्तमः- समुद्राः द्वीपसदशनामाना मन्तव्याः, अपरं च-स्वयंभूरमणप्रभायाः सर्यों विषयः । तमतमप्पभा' शब्दे चतुर्थे भागे वाः सर्वेऽपीचरसास्वादाः. तत्र द्वीपनामान्यमूनि, तद्यकरिष्यते।) अत्र प्रज्ञापकप्रत्यासन्नेति रत्नप्रभाया श्रादा- था-नन्दी-समृद्धिस्तस्या ईश्वरी द्वीपो नन्दीश्वरः, एवम्बुपन्यासः कृतः, ततः परं व्यवहितव्यवहिततरादित्वात् अरुणवरः, अरुणावासः, कुण्डलवरः, शडूबरः, रुचकवरः, क्रमेण शर्कराप्रभार्दानामिति पूर्वाऽऽनुपूर्तत्वं, व्यत्ययेन प- इत्येवं पड् द्वीपनामानि चूर्णी लिखितानि दृश्यन्ते; सूत्र श्चानुपूर्वोत्यम् , अमीयां च सप्तानां पदानां परस्पराभ्यास तु-' नन्दी अरुणवरे कुण्डले रुयगे' इत्येतस्मिन् गाथा पञ्चसहस्त्राणि चत्वारिंशदधिकानि भङ्गानां भवन्ति तानि दल चत्वार्येव तान्युपलभ्यन्ते अतश्चूर्णिलिखितानुसारेण चाद्यन्तभङ्गकद्वयरहितान्यनानुपूया द्रष्टव्यानि इति, शष- रुचकत्रयोदशः, सूत्रलिखितानुसारतस्तु स एवैकादशी भावना पूर्ववदिति। भवति, तच्चं तु केवलिनो विदन्तीति गाथार्थः । इदानीमतिरिअलोपखेत्तानुपुव्वी तिविहा परमत्ता, तं जहा नन्तरोनीपसमुद्राणामवस्थितिस्वरूपप्रतिपादनार्थ शंषा णां तु नामाभिधानार्थमाहपुब्वाणुपुब्बी१. पच्छाणुपुबी२, अणाणुपुब्धी ३। सेकिं " जंबुद्दीवानी खलु. निरंतरा सेसया असंखइमा। तं पुवाणुपुची ?, पुव्याणुपुवी भुयगवरकुसवरा वि य,कोंचवराऽऽभरणमाई य"॥१॥ इति । " जंबुद्दीव लवणे, धायइ कालो पुक्खरे वरुणे । (अस्याः गाथायाः) व्याख्या-एते-पूर्वोकाः सर्वेऽपि खीर घय खोअ नंदी, अरुणवरे कुंडले रुअगे॥१॥ जम्बूद्वीपादारभ्य निरन्तरा नैरन्तर्येण व्यवस्थिताः, न आभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए अ पुढविनिहिरयणे । पुनरमीषामन्तरे अपरो द्वीपः कश्चनागि समस्तीति वासहर-दह-नईओ, विजया वक्खार-कप्पिदा ॥२॥ भावः, य तु शेषकाः भुजगवरादय इत ऊर्ध्व वक्ष्यन्त त प्रत्येकमसंख्यालतमा द्रव्याः , तथा हि-'भुयगवरे' त्तिकुरुमंदरावासा, कूडा नक्खत्तचंदसूरा य । पूर्वोक्ता रुचकवराद् द्वीपादसंख्ययान् द्वीपसमुद्रान् देष नाग जक्खे, भूए अमयंभुरमणे अ॥ ३ ॥ गत्वा भुजगवरो नाम द्वीपः समस्ति । 'कुसवर' ति-ततासतं पुवाणुपुची। उदयसंख्ययाँस्तान गत्वा कुशवरो नामद्वीपः समस्ति, अपि चति समुच्चय कोंचवर'त्ति-ततोऽप्यसंख्येयांस्तानतिक्रम्य से किं तं पच्छाणुपुची?, पच्छाणुपुब्बी सर्यभृरमणे अ कौञ्चवरो नाम द्वीपः समस्ति 'श्राभरणमाई य' त्ति-एवमसं. जाय जंबुद्दीवे । सेत्तं पच्छाणपुयी । से किं तं अणा | ख्ययान् द्वीपसमुद्रानुल्लङ्घयाऽऽभरणाऽदयश्च-आभरणादिगणु पुची ?, अगाणुपुर्वी एमाए चव एगाइआए एगुत्त- नामसदृशनामानश्च द्वीपा वक्तव्याः, समुद्रास्तु तत्सदृशमा Jain Education Interational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७ ) अभिधानराजेन्द्रः | goat मान एव भवन्तीत्युक्तमचेति गाथार्थः । इयं व गाथा कस्या - ञ्चिद्राचनायां न दृश्यत एव केवलं काऽपि वाचनाविशेषे - श्यते टीकाचूयस्तु तद्वयाख्यानमुपलभ्यत इत्य लाभिरपि व्याख्यातेति । ताम्यवाभरणादीनाह- "आभरसवत्थे”त्यादि गाथाद्वयम्, असंख्येयानां संख्येयानां द्वीपानामन्ते श्रमरणवस्त्रगन्धोत्पलतिलकादिपर्याय सदशनामक एकैकोऽपि द्वीपस्तावद्वक्तव्यो यावदन्ते स्वयंभूरमणो द्वीपः शुद्धोदकरसः स्वयंभूरमण एव समुद्र इति गाथाइयभावार्थः । ननु यद्येवं तही संख्येयान् द्वीपाननिकस्य ये वर्त्तन्त तेषामेव दीपानामेतानि नामान्याख्यातानि ये स्वन्तरालेषु द्वीपास्तं किंनामका इति वक्तव्यम् ?, सत्यम् लोके पदार्थानां शङ्खध्वजकलशस्वस्तिकश्रीवत्सादीनि यावन्ति शुभनामानि तैः सर्वैरप्युपलक्षितास्तेषु द्वीपाः प्राप्यन्त इति स्वयमेव दृश्यं यत उक्तम्" दीवसमुद्दा भंते! केवइया नामधिजहिं पण्णत्ता ?, गोयमा ! जावइया लोए सुभा नामा सुभा वा सुभा गंधा सुभा रसा सुभा फासा एवत्या गं दीवसमुद्दा नामधिजेहिं पत्ता" इति । संख्या तु सर्वेषामसंख्येयस्वरूपा" उद्धार सागरा. अडाईज्जा जत्तिया समया । दुगुणा दुगु पवित्थरदीवोदहिरज्जु एवइया ॥ १ ॥ " इति गाथा प्रतिपादिता द्रष्टव्या तदेवमत्र क्रमोपन्यासे पूर्वानुपूर्वीव्यत्ययेन पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी त्वममीषामसंख्यानां पदानां परस्पराभ्यास येऽसंख्येया भङ्गा भवन्ति भङ्गकद्रयांना तत्स्वरूपा द्रष्टव्येति । पुवी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्याम्- 'सोहम्मे' त्यादि । सकलयमानप्रधान सौधर्मावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षितत्वासौधर्मः एवं सकलविमानप्रधानेशानावतंसकविमानविशेषोपलक्षिन ईशानः, एवं तत्तद्विमानावतंसकप्राधान्येन ततन्नाम वाच्यं यावत्सक लविमानप्रधानाच्युतावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षितो ऽच्युतः, लोकपुरुषस्य ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि ग्रैवेयकानि, नैषामन्यान्युत्तराणि विमानानि सन्तीत्यनुत्तर विमानानि, ईषद्भाराक्रान्तपुरुषवनता अन्तेष्वितीपत्प्राग्भारेति । अत्र प्रज्ञापक प्रत्यासत्तेः आदौ सौधर्मस्थापन्यासः, ततो व्यवहितादिरूपत्वात् *मशानादीनामिति पूर्वानुपूर्वीत्वं, शेषभावना तु पूर्वोक्लानुसारतः कर्त्तव्येति । क्षेत्रानुपूर्वी समाप्ता । उक्का क्षेत्रानुपूर्वी । (८) साम्प्रतं प्रागुद्दिशमेव क्रमप्राप्तां कालानुपूर्वी व्याचिख्यासुराह से किं तं कालाणुपुच्ची, कालागुपुव्वी दुविहा पता, तं जहा - उवनिहाय, अणोवणिहि य । ( सूत्र - १०५ ) । तत्थ णं जा सा उवनिहिया सा ठप्पा । तत्थ गं जा सा हि सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - रोगमववहाराणं, संगहस्स य । (सूत्र - १०६) । से किं तं नेगमववहाराणं अणोवनिहिश्रा कालाणुपुन्त्री ?, अशोवणिहिया कालापुच्ची पंचविहा पाना, तं जहा - अट्ठपयपरूवणया १, भंगसमुक्कित्तणया २, भंगोवदंसणया ३, समोरे ४, अणुगमे ५ । ( सूत्र - १०७ ) । से किं तं उड्डलो खेत्ताणुपुच्ची तिविद्या पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वाणुपुत्री पच्छाणुपुन्त्री, श्रणापुन्त्री । से किं तं पुव्वाणुपुच्ची १, पुत्राणुपुच्ची - सोहम्मे ईमाणे सणकुमारे माहिंदे बंभलोग लंतए महासु के सहस्सारे आगए पागए आरणे अभ्चु(ए)ते गेवेजविमा अत्तरविमा ईसिप भारा | सेतं पुत्रानुपुवी । से किं तं पच्छा पुच्ची ?, पच्छा पुच्ची ईसिप्पन्भारा ०जाब सोहम्मे । सेतं प च्छापुन्वी से किं तं अणाणुपुच्ची १, अणाणुपुन्त्री एआए चैत्र एगाइए एगुत्तरिआए पण्णरस गच्छगयाए सेदीए अण्णमभासो दुरूवूणो । सेतं अमाणुपुच्ची । अहवा - उवनिहिया खेताऽऽणुपुन्त्री तिविहा पष्णता, तं जहा - पुव्वा णुपुत्री, पच्छाणुपुत्री, अणाणुपुव्वी । से किं तं पुव्वाणुपुच्ची ?, पुव्वाणुपुत्री- एगपएसोगढ दुपरसोगांढ दरुपएसो गाढे संखिजपएसोगाटे ०जाव असंखिजपएसो गाढे । सेतं पुत्राणुपुच्ची ! से किं तं पच्छा गमववहाराणं पयपरूवणया ?, रोगम० तिसमयट्ठिइए श्रणुपुत्री ० जाव दससमयईिए आगुपुब्बी सेखिजनमय प्रणुपुच्ची खिजसमय ट्ठिईए प्राणुपुत्री एगसमय ईए अणाणुपुच्ची दुसमय ट्टिईए अवत्तव्ए, तिसमयडिइयाओ आणुपुवीओ एगसमय अणापुवीओ दुसमयडिया अवत्तब्बगाई । सेत्तं नेगमववहाराणं पयपरूवणया । एआए गं गमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पत्रायणं १, एयाए गं गमववहाराणं पयपरूवणयाए नेगमववाराणं भंगसमुक्कित्तणया कजइ, ( सूत्र - १०८ ) । से किं तं गमवत्रहाराणं भंगसमुक्कित्तणया १, गम० अस्थि आणुपुव्वी, अस्थि अणाणुपुच्ची, अस्थि अवए, एवं दव्वाणुपुत्रीगमेणं कालागुपुत्री वि ते चेत्र छन्त्री २६ भंगा भाणिश्रव्वा ०जाब सेत्तं गमववहाराणं भंगममुकित्तणया । एआए णं णेगमववहारणं भंगसमुत्तिणयाए किं पत्रोश्रणं १, एआए गमववहाराणं भंगसमुत्तिणयाए गमववहाराणं भं पुच्ची ?, पच्छा पुपुच्ची - संखिञ्जपएसोगाढे संखिञ्जपएसोग|ढे जाव एगपएसो गाढे। सेतं पच्छापुच्ची ॥ से किं तं ?, अणाणुपुच्ची - एआए चेव एगाइए एगुरियाए अखिजगच्छमयाए सेडीए असममभासो दुरूवूणो । सेत्तं अणाणुपुच्ची । सेतं उवनि - हिया खेतःणुपुब्बी । सेत्तं खेत्ताणुपुत्री । (सूत्र १०४ )गोवदंसणया कजइ, ( सूत्र - १०६ ) । से किं तं Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८ ) अभिधानराजेन्द्रः । grat महाराणं भंगोवदंसणया १, गमव० तिसमयईए श्रणुपुच्ची, एगसमय ट्टिईए अणापुन्वी, दुसमयईिए अत्य, तिसमयडिईओ आणुपुब्बीओ, एसमट्ठिइया अणाणुपुञ्चीओ, दुसमयडिई अवत्तव्त्रगाई । श्रहवा-तिसमयईए अ एगसमयईिए अणुपुन्त्री | अ अणाणुपुत्री अ, एवं तहा चैत्र दव्याणुपुत्रीगमेणं छब्बीसं २६ भंगा भाणिश्रव्वा० जाव सेतं नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया, (सूत्र - ११०) । से किं तं समोतारे 3, समोरे महाराणं श्रणुपुत्रीदव्वाई कहिं समोतरंति ?, किं श्रणुपुच्चीदच्चेहिं समोतरंति अणाणुपुवीव्वेहिं एवं तिमिवि सट्टाणे समोतरंति इति भाणि - । सेत्तं समोतारे । ( सूत्र - १११ ) । 19 से किं तं गमे, अणुगमे यवविहे पष्मते, तं जहा" संतपयपरूवणया ०जाव अप्पाचहुं चेव ॥ १ ॥ ( सूत्र - ११२ X ) ' से किं तं कालानुपुब्वी 'त्यादि । श्रत्राक्षरगमनिका यथा द्रव्यानुपूर्या तथा कर्तव्या, यावत् - तिसमग्रट्ठईए श्राणुपुत्री' त्यादि, त्रयः समयाः स्थितिर्यस्य परमाणुद्रयशुक्रश्यणुकाद्यनन्ताशुकस्कन्धपर्यन्तस्य द्रव्यविशेषस्य सः त्रिसमयस्थितिईव्यविशेष श्रानुपूर्वीति । श्रह - ननु यदि द्रव्यविशेष एवात्राप्यानुपूर्वी कथं तर्हि तस्य कालानुपूर्वी - त्वम् ?, नैतदवम् - अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, यतः समयत्रयलक्षणकालपर्यायविशिष्टमेव द्रव्यं गृहीतं, ततश्च पर्यायपर्यायणोः कथञ्चिदभेदात्कालपर्यायस्य चेह प्राधान्येन विवक्षितत्वाद् द्रव्यस्यापि विशिष्टस्य कालानुपूर्वीत्वं न दुष्यति, मुख्यं समय त्रयस्यैवात्रानुपूर्वीत्वं किन्तु तद्विशिष्टद्रव्यस्यापि तदभेदोपचारान्तदुक्त इति भावः । एवं चतुःसमयस्थित्यादिष्वपि वाच्यं यावद्दश समयाः स्थितिर्यस्य परमाण्वादिद्रव्यसङ्घातस्य स तथा संख्येयाः समयाः स्थितिर्यस्य परमाण्वादेः स तथा । श्रसंख्येयाः समयाः स्थितिर्यस्य परमाण्वादेः स तथा, "अनन्तास्तु समया द्रव्यस्य स्थितिरेव न भवति" स्वाभाव्यादित्युक्तमेवेति शेषा बहुवचननिर्देशादिभावना पूर्ववदेव एकसमयस्थितिकं परमाण्वाद्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तं द्रव्यमनानुपूर्वी, द्विसमयस्थितिकं तु तदवावक्लव्यकमिति शेषं पूर्वोक्तानुसारेण सर्व भावनीयम् । गमववहाराणं आणुपुच्चीदच्चाई किं अस्थि णत्थि ?, नियमा तिमि व अस्थि । नेगमववहाराणं आणुपुच्चीदवाई किं संखआई ?, असंखेजाई १, अंताई ? । तिमि विनां संखिजाई, असंखेखाई, नो अताई X । यावद् द्रव्यप्रमाणद्वार-नो संखेजाई, असजाई, नो अताई' इति । अस्य भावता हृद्द व्यादिसमग्र स्थितिकानि परमाण्वादिष्याणि लोक यद्यपि प्रत्येकमनन्तानि प्राप्यस्त तथाऽपि समय त्रयलक्षणायाः स्थितरेकस्वरूपत्वात् काल For Private eggar ( स्य चेह ) स्यैवेह प्राधान्येन व्यवहुत्वस्य गुणीभूतत्वात् त्रिसमयस्थिति कैरनन्तैरप्येकमेव । नुपूर्वी द्रव्यम्, एवं वसुःसमयलक्षणायाः स्थितरेकत्वादनन्तैरपि चतुःसमयस्थितिकद्रव्यैरे कमवानुपूर्वी द्रव्यम्, एवं समयबुद्धद्या तावत्रयं यावदसंख्येय समयलक्षणायाः स्थितरेकत्वादनन्तैरध्य संख्येयसमयस्थितिकैर्द्रयैरेकमेवानुपूर्वीद्रव्यमिति, एवम संख्येयाम्येवात्रानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्ति एवमनानुपूर्व्यवक्रव्यकद्रव्यारापि प्रत्येकम संख्ययानि वाक्यानि अत्राह - नश्येकलमयस्थितिकद्रव्यस्यानानुपूर्वीत्वं द्विसमयस्थितिकस्य त्वक्लव्यकत्वमुक्तम्, तत्र यद्यप्येकद्विसमयस्थितीनि परमास्वादिद्रव्याणि लोके प्रत्येकमनन्तानि लभ्यन्ते तथाऽध्यनन्तरोक्तत्वादुक्तयुक्तयैव समयलक्षणाया द्विसमय लक्षणायाश्च स्थितेरेकैकरूपत्वाद् द्रव्यबाहुल्यस्य च गुणीभूतत्वादेकमेवानानुपूर्वी द्रव्यमेकमेव चाऽवक्तव्यकद्रव्यं वक्तुं युज्यते, न तु प्रत्येकम संख्येयत्वम् अथ द्रव्यभेदेन भेदोऽक्रियते तर्हि प्रत्येकमानन्त्यप्रसक्तिः एकसमयस्थितीनां द्विसमयस्थितीनां च द्रव्याणां प्रत्येकमनन्तानां लोके सद्भावादिति, सत्यमेतत्, किन्त्वेकसमयस्थितिकमपि यदवगाहभेदेन वर्त्तते तदिह भिनं विवक्ष्यते, एवं द्विसमयस्थितिकमप्यवगाहभेदेन भिन्न चिन्त्यंत, लांक व असंख्येया श्रवगाहभेदाः सन्ति । प्रत्यवगाहं चैकद्विसमयस्थितिका ऽनेकद्रव्यसम्भवादनानुपूव्र्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामाधारक्षेत्रभेदात् प्रत्येकमसंख्येयत्वं न विहन्यत इति अनया दिशा अतिगद्दनमिदं सूक्ष्मधिया पर्या लोचनीयमिति । क्षेत्रद्वारे महाराणं पुब्वदिव्वाई लोगस्स किं संखिजागे होजा ? असंखिञ्जइभागे होजा ? संखेजेसु भागेसु वा होजा ? असंखेजेसु भागेसु वा होजा १ सव्वलोए वा होजा । एगं दव्वं पच्च लोगस्स संखेजइभागे वा होजा असंखेजहभागे वा होजा ? संखेजेसु वा भागेसु होजा ? असंखेजसु वा भागेसु होजा ? देखणे वा लोए होजा ?, नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा, एवं अणा पुच्चीदव्वं, आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु होजा, एवं अ वत्तवदव्वाणि वि भाणि अव्वाणि जहा खेत्ताणुपुच्चीए । फुसा कालापुच्चीए वि तहा चैव भाणिअव्वा । (सूत्र - ११२ + ) " एगं दव्यं पश्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होजा ०जाव देणे वा लांगे हाज्ज' त्ति-इह ज्यादिसमयस्थितिकद्रव्यस्य तत्तदवगा (ह) ढसंभवतः संख्ययादिभागवर्त्तित्वं भावनीयम् यदा व्यादिसमयस्थितिकः सूक्ष्मपरिणामः स्कन्धा देशोने लोकेऽवगाहते तदेकस्यानुपूर्वीद्रव्यस्य देशोनलोकवर्त्तित्वं भावनीयम्, अन्ये तु " पदेसू वा लोगे होज्ज " ति पाठं मन्यन्ते तत्राप्ययमेवार्थः, प्रदेशस्यापि विवक्षया देशत्वादिति, संपूर्णेऽपि लोके कस्मादिदं न प्राप्यत इति चेद् उच्यते-सर्वलोकव्यापी श्रवित्तमहास्कन्ध एव प्राप्यते स च तयापितया एकमेव समयमत्र Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाणुपुवी अभिधानराजेन्द्रः। प्राणुपुव्धी तिष्ठते, नन ऊध्वमुपसंहारस्थानत्वात् . नचै कसमयस्थिति- धम्यैव सर्वलोकव्यापकत्वात्तस्य चावतव्यकत्यायोगाकमानुपूर्वीद्रव्यं भवितुमर्हनि, ज्यादिसमयस्थितिकत्वन त। दिति । एतदपि सूत्रं वाचनान्तर चिंदव दृश्यन । स्यानन्वात् , तस्मात् ज्यारिसमयस्थितिकमन्यत द्रव्ये नि नानाद्रव्याणि तु सर्वलोके भवन्ति द्विसमस्थितीनां यमादकनाऽपि प्रदशनान एव लाकऽवगाहत इनि प्रतिपत्त- सर्वत्र भावादिति । गतं क्षत्रद्वारम् । स्पर्शनाद्वारमध्ययमेव ध्यम् । अत्राह-नन्धचित्तमहास्कन्धाऽपये कसमयस्थिनिको भावनीयम् । न भवान, दरडायवस्थासमयगणनेन तस्याप्यएसमयस्थि कालद्वारेतिकत्वाद एवं च सति तस्याप्यानपीत्वात संपूर्णलोक- ण गमववहाराणं आणुपुबीदवाई कालो केवचिरं च्यापित्वं युज्यतेऽत्र वक्तुमिति, नैनवम् , अवस्थामेदेन होन्ति !. एग दच्वं पड़च्च जहरमणं तिमि समया, उक्काचम्तुभदस्थह विवक्षितत्वाद्भिन्नाश्च परस्परं दण्डकपाटाद्ययस्थाः, ततस्तद्भदन (स्कन्धभेदेन) वस्तुनापि भेदाद् , सणं असखेनं कालं । नाणादचाई पडुच्च सयद्धा । अन्यदय दण्डकपारायवस्थाव्येभ्यः सकललोकव्याप्य- यमववहाराणं अणाणुपुधिदवाई कालमो केवञ्चिरं चित्तमहास्कन्धद्रव्य, तश्चकसमयस्थितिकमिति, न त- होइ ?, एगं दव्यं पडुच्च अजहन्नमगुकोमेणं एक समयं नाभ्यानुपूर्वीत्वम एतच्चानन्तरमय पुनर्वयन इत्यले विस्तरगा । खादचाई पडुच्च निश्रमा सबऽद्धा । अवतब्बगदव्वाणं अथवा-यथा क्षेत्रानुपूश्या वयात्राए सर्चलोकव्यापिनोऽप्यनित्तमहास्कन्धस्य विवक्षामात्रमाश्रित्य एकस्मि पुच्छा, एग दच्वं पडुच्च अजहम्ममणुकोसणं एक समयं नभःप्रदश त्वप्रधान्मादेोरजोकार्निवं वाच्यम् , एकम- नाणादव्याई पडुच्च निअमर सन्धऽद्धा+। मर्यास्थतिकस्यहनानुपूर्वीद्रव्यस्य द्विममयस्थितिकावनाप- 'एग दवं प्रबुच्च जहाणे तिमि समय ' त्ति-जघन्यता. कम्य च सत्र प्रदेश प्ररधन्याश्रयणादिति भावः । एवमन्य- ऽपि त्रिसमयमिति कस्यैवानुपूर्वीन्वेनाक्तत्वादिति भावः । दगि पागमाऽविरोधतो वक्तव्यामति । ' नाणादम्बाई पडुच्च • उकासेग्मे असंखयं कावे' ति-अमख्ययकालात्परत एकेन नियमा सञ्चलोए होज ति-ज्यादिममयस्थितिकद्रव्यागों परिमामन द्रव्यावस्था वस्त्राभावादिति हृदयम् । नानासर्वलोकेऽपि भावादिति भावनीयम् । अनानुपूर्वोद्रव्यांच- द्रव्याणि तु सर्वकाल भवन्ति, प्रतिप्रदशं लाकस्य सर्वदा स्तायों यथा क्षत्रानुपूच्या नथा अत्राप्य कद्रव्यं लोकम्था- वैर शून्यस्यादिति । अनापूर्धवक्रव्यकचिन्तायाम् अजसंख्ययभाग एव बनते. कामदम ?, उच्यते यत् कालत हन्नमणुकासणे' ति-जघन्योन्कृष्पचिन्तामुत्सृज्येत्यर्थः, न एकसमयस्थिनिक तत् क्षेत्रनोऽप्येक प्रदेशावगाढमेबहाना- हि एक समयस्थितिकस्यैवानानुपूत्येि द्विसमयस्थितिकनुपूर्वीत्वन विवक्ष्यात. तच्च लोकासंख्येयभाग एव भवनि, स्यैव चावलायकत्वऽभ्युपगम्यमाने जघन्योत्कृष्टचिन्ता *प्रारमंतरेगा वा मब्वपुच्छासु हाउज नि-अस्य भावना सम्भवतीति भावः, नानाद्रव्याणि तूभयत्रापि सर्वकालं इहांचित्तमहास्कन्धस्य दगडाधवम्याः परस्पर भित्राः, भवन्ति, प्रतिपदशं तैरपि सर्वदा लोकस्याशून्यत्वादिति । श्राकारादिभेदाद . द्वित्रिचतुःप्रदेशकादिस्कन्धयत् . तश्च ता पक्रसमयवृत्तित्वात् पृथगनानुपूर्वीद्रव्याणि तेषु च व अन्तरद्वारमध्ये किमपि कियत्यपि क्षेत्र वर्तत इत्यनया विवक्षया कि षगमववहाराणं आणुगुधिदव्याणमंतरं काली केवलैकमनानुपूर्वीद्रव्यं मतान्तरेण संख्ययभायादिकासु पञ्च- चिर होइ?, एगं दव्यं पडुच्च जहाम गं एग समयं उक्कोस्वाप पृच्छासु लभ्यत, एतच्च सूत्रषु प्राया न दृश्यन, सपं दो समया नाणादब्याई पडुच्च नऽस्थि अंतरं । - टीकाचूयोस्त्वेवं व्याख्यानमुपलभ्यत इति, नानाद्रव्यागि गमववहाराणं अणागापुचीदव्याणमंतरं कालो केचिर तु सर्वस्मिन्नपि लोके भवन्ति, एकसमयस्थितिकद्रव्याणां सर्वत्र भावादिनि । अवतव्यकद्रव्यचिन्तायां क्षेत्रानुपूा- होइ ?, एगं दव्यं पडुच्च जहम्मे णं दा समया, उकोमेणं मिवैकद्रव्ये लाकस्यासंख्ययभाग एव वर्तते, कामरति, असंखेज्जं कालं, णाणादव्याई पडुच्च णऽस्थि अंतरं । उच्यत-यत्कालतो द्विसमस्थितिक तत् क्षत्रतो द्विपदे- नेगमववहाराणं अवत्तव्यगदव्याणुपुब्बिदव्वाणं पुच्छा शावगाढमंचहाचक्रव्यकत्वन गृह्यने, तञ्च लोकासंख्येयभाग एगं दव्वं पटुच्च जहामणं एग समअं. उकोमणं असंखएवं स्यात् , अश्वद्या-दिसमयस्थितिक द्रव्यं स्वभावादेव लोकस्यासनेयभाग एवावगाहने न परतः, श्रादशान्तरेण ज्ज कालं, णाणादव्याई पडुच्च नऽस्थि अंतरं+। वा-" महाधवज्जमन्नदव्येसु श्राइलचउपुच्छासु होज्ज" | 'एग दब गडुच्च जहरा गये। एक समयं नि-अत्र भावनात्ति-अस्य हृदयम्-मतान्तरेप कल द्विसमयस्थिान-- इह व्यादिसमयस्थितिक विक्षितं किश्चिदकमानुपूर्वी द्रव्यं कमपि द्रव्यं किंचिल्लोकस्य संख्ये सभागेऽवगाहते किं- तं परिगामं परित्यज्य यदा परिणामान्तरंग समयमक चित्त्वसंख्यय अन्यनु संख्ययेषु तद्भागवयगाहते अपरं । स्थित्वा पुनस्तनैव परिणामन च्यादि समयस्थितिकं जात्यसंख्ययध्विति महास्कन्धं वर्जयित्वा शपद्रव्यागयाश्रित्य यत तदा जघन्यतया समयोऽन्तर लभ्यंत, 'उकोसणं यथावस्वरूपास्वाद्यासु चतसपु पृच्छास्वकमवक्तव्यकद्रव्यं दा समय' ति-तदव यदा परिणामान्तरगा द्वौ समयाँ लभ्यत, मास्कन्धस्य त्यसमयस्थितित्वेनोक्रयान्न द्वि- स्थित्या पुनस्तमव ज्यादिममयस्थिनियुक्तम् प्राक्तनं समयस्थितिकत्यसंभव इति तर्जनम् , अत पर सला- परिणाममासादयति नदा द्वौ समयाबुल्कएतान्तरे भकव्याप्तिलक्षणायाः पञ्चमपृच्छाया अत्राउसमयः महास्क- । वतः, यदि पुनः परिणामान्तरेगा क्षत्रादिभदतः समय Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणुपुव्वी अभिधानराजेन्द्रः। माणुपुब्बी द्वयात् परतोऽपि निष्ठेनदा तत्राप्यानपूर्वीत्वमनुभवेत् , कान्यवक्तव्यकद्रव्याणि द्विसमयस्थितिकद्रव्याणां स्वततोऽन्तरमेव न स्यादिति भावः । नानादब्याणां तु नाऽ- भावत एव स्ताकत्यात्, अनानुपूवीद्रव्याणि तु तस्त्यन्तरं सर्वदा लोकस्य तदन्यत्वादिति । अनानुपूर्वी- भ्या विशेषाधिकानि , एकसमयस्थितिकद्रव्याणां निसचिन्तायाम् ' एगं दब्ब पच्च जहरणणं दो समय त्ति-एक- र्गत एवं पूर्वेभ्यो विशेषाधिकवाद, भानुपूर्वाद्रव्याणां तु समस्थितिकं द्रव्यं यदा परिणामान्तरेण समयद्वयमनु- पूर्वेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं भागद्वारे भावितमेव, शष तुक्षभूय पुनस्तमेचकसमयस्थितिकं परिणाममासादयति तदा श्रानुपूर्याधुक्तानुसारतः सर्व वाच्यमिति अत एव कपुसमयद्वयं जघन्योऽन्नरकालः, यदि तु-परिणामान्तरेणा- चिद्वाचनान्तरेषु भागादिद्वारत्रयं क्षेत्रानुपूर्व्यतिदेशेनैव निध्यकमेव समयं तित्तदा अन्तरमेव न स्यात्, तत्राप्यना- र्दिष्टं दृश्यते, नतु विशेषतो लिखितमिति । सत्तमि' नुपूर्वीत्वाद् , अथ समयद्वयात्परतस्तिष्ठेत्तदा जघन्यत्वं न स्यादि निममनम् । उक्ला नैगमव्यवहारनयमतेनानौपनिधिकी भ्यादिति भावः । 'उक्कोसेणं असंखजं कालं' ति-तदेव यदा कालानुपूर्वी । परिणामान्तरेणासंख्येयकालमनुभूय पुनरेकसमयस्थितिक अथ संग्रहनयमतन तामेव व्याचिख्यासुगहपारणाममनुभवति तदोत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽन्तरकालः प्राप्यते। से किं तं संगहस्स अणोवनिहिया कालाऽऽनुपुब्बी', श्राह-ननु यदि च अन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसम्बन्धे तस्यानन्तोजप कालान्तरे लभ्यते किमित्यसंख्येय एवोक, सत्यम् , संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुब्बी पंचविहा पएणत्ता, किन्तु-कालानुपूर्वीप्रक्रमात्कालस्यैवेह प्राधान्यं कर्तव्यम् , तं जहा-अट्ठपयपरूवणया १, भंगसमुक्त्तिणया २, मंगोयदि त्वन्यान्यद्रव्य क्षत्रसम्बन्धतोऽस्तरकालबाहुल्य क्रियते वदंसणया ३, समोतारे ४, अणुगमे ५ । (सूत्र-११३)" तदा तद्द्वारसैवान्तरकालस्य बहुत्वकरणात्तयोर्द्वयोरेव प्रा से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ?, संगहस्स अट्ठपधान्यमाधितं स्यान्न कालस्य तस्मादकस्मिन्नेव परिणामान्तर यावान् कश्चिदु-कृष्टः कालो लभ्यते स एवान्तरे चि यपरूवणया एआई पंच वि दाराई जहा खेत्ताणुपुब्बीए त्यते, सचासंख्येय एव ततः परमेकेन परिणामेन वस्तुनो- संगहस्स तहा कालाणुपुबीए वि भाणिअव्वाई, णवर ऽवस्थानस्यैव निषिद्धत्वादित्येवं भगवतः मुत्रस्य विवक्षा- ठिई, अभिलावो, जाव सेत्तं अणुगमे । सेत्तं संगहस्स वैचित्र्यात्सर्य पूर्वमुत्तरत्र चागमाऽविरोधेन भावनीयमिति। अणावनिहिया कालाणुपुची । सेत्तं श्रणोवनिहिया नानाद्रव्याणां तु नास्त्यन्तरं प्रतिपदेशं लोके सवदा तल्लाभादिनि । अवक्तव्यकद्रव्यचिन्तायाम् 'जहराणणं एग समयं' कालाणुपुयी, (सूत्र-११४)। ति-द्विसमयस्थितिकं किञ्चिदवक्तव्यकद्रव्यं परिणामान्त • से कि तमि' त्यादि । यथा क्षत्रानुगूामियं संग्रहमतेन रेण समयमेकं स्थित्वा यदा पृवानुभूतमेव द्विसमयस्थिति प्राग्निर्दिष्टा तथाऽत्रापि वाच्या, 'नवरं तिसमयठिड्या कपरिणाममासादयति तदा समयो जघन्यान्तरकालः । श्रानुपुब्धी जाव असंखजसमयट्रिइया श्राणुपब्बी ' स्यादि • उक्कोसेणं असंखेजं काले ति-तदेव यदा परिणामान्तरे- अभिलापः कार्यः. शेषं तु तथैवात । उता संग्रहमतेनाप्यपासंख्येयं काले स्थित्या पुनस्तमव पूर्वानुभूनं परिणाम- नौपनिधिको कालानुपूर्वी, तथा च सति अवसितः तद्विमासादयति तदाऽसंख्यान उत्कृष्टोऽन्तरकालो भवति, प्रा चारः । क्षपपरिहारावत्राप्यनानुपूर्वांवत् द्रष्टव्याविति । नानाद्र इदानी प्रागुहियामेवोपनिधिी तां निर्दिदिशुराहव्यान्तरं तु नास्ति सर्वदा लोके तद्भावादिति । उनमन्तर- से किं तं उवनिहिया कालाणुपुब्बी उवणिहिआ काद्वारम् । लाणुपुवी तिविहा परमत्ता, तं जहा-पुब्बाणुपुवी, पभागद्वारे च्छाणुपुब्बी, अणाणुपुब्बी, से किं तं पुव्वानुपुवी ?, भाग-भाव अप्पा बहुं चेव जहा खेत्ताणुपुवीए तहा पुवाणुपुवी । ( अनु०)। भाणिअब्वाई, जावं सत्तं अणुगमे । सेत्तं नेगमववहा एगसमयट्ठिइए, दुसमयट्टिइए, तिसमयहिइए जाव राणं अणावनिहिया कालाणुपुची । (सूत्र-११२४) दससमयट्टिइए संखिजसमयटिइए असंखिजसमयट्टिभागद्वारे तु यथा द्रव्य-क्षेत्रानुपूोस्तथैवानुपूर्वीद्रव्याणि शपद्रव्यभ्याऽख्य गैरधिकानि व्याख्येयानि, शेपद्र । इए । सेत्तं पुब्बानुपुवी। से किं तं पच्छानुपुब्बी , च्याणि स्वानुपूर्वीद्रव्याणामसंख्येयभाग एव वर्तन्त इति, पच्छाणुपुव्वी अनखिजसमयदिइए जाव एगसमयटिइए। भावना वित्थं कर्तव्या-इहानानुपूामेकसमयस्थिति- सेत्तं पच्छानुपुची। से किं तं अणानुपुब्बी ?, अणाणुलक्षणमकमेव स्थानं लभ्यते. श्रवक्तव्यकप्धपि द्विपमयस्थि बी-एआय चेव एगाइअाए एगुलरियार अखिज्जतिलक्षणमकमेव तल्लभ्यते, आनुपूाँ तु त्रिसमयचतुःसमयपश्चसमयस्थित्यादीन्ये कोत्तरवृद्धयाऽसंख्येयसमयस्थि गच्छगयाए सेढीए अएणमएणब्भासो दुरूवूणो । सेत्तं अ. ल्यन्ताम्यसंख्येयानि स्थानानि लभ्यत, इत्यानुपूर्वीद्रव्या- णानुगुब्धी। रणामसंख्येयगुणत्यम् , इतरयोस्तु तदसंख्येयभागवर्नित्व- 'स कि तमि' त्यादि । एकः समयः स्थिांतर्यस्य द्रव्यविशेषमिति । भावद्वार-सादिपरिणामिकभायवर्तित्वं त्रया- स्य स तथा, एवं यावदसंख्ययाः समयाः स्थितिर्यस्य स त. णामपि पूर्ववद्भावीयम् । अल्पबहुत्यद्वारम्-सर्वस्तो- थेति पूर्वानुपूर्वी, शपभावना त्वत्र पूर्वोक्रानुसारेण सुकरैव । Jain Education Interational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणुपुच्ची अथ कालविचारस्य प्रस्तुतत्वात्समाधान्येन प्र मित्वादनुतो विनेयानां समयादिकालपरिज्ञानदर्शनाच द्वियत्यय प्रकारे नामाद हवा उवणिहिया कालापुपुच्ची तिविहा पत्ता, तं जहा बापच्छापुथ्वी अणाब्दी से किं तं पुन्त्राणुपुच्ची ? पुत्र्वाणुपुब्बी । (अनु० ) समए १, आलिया २, आग ३२, ५ पा ५, धांवे ६, लवे ७, ने अहोरते है, पक्खे १०, मासे ११, उऊ १२, अणे १३, संवच्छरे १४, जुगे १५. वासस १६, वाससहस्से १७, वाससय सहस्से १८ पुगे १६, पुत्रे २०, तुडिअंगे २१, तुडिए २२, अडडंगे २३, अडडे २४, अवगे २५, अब २६, हुहुअंगे २७, हुहुए २८ उप्पलंगे २६, उप्पले ३०, पउमंगे ३१, उमे ३२. गलिगंगे ३३, गलि ३४, अत्थनिउरंगे ३५, अत्थनिउरे ३६, उगे ३७ उए ३८, नउअंगे ३६, नउए ४०, ४१, पउए ४२, नूलिअंगे ४३, चूलिया ४४, सीमपहेलियंगे ४५, सीसपहेलिया ४६ प लिओ - चमे ४७, सागरो मे ४८, सप्पिणी ४६, उस्सप्पिणी ५०, पोल परि ५१, अतीतद्धा ५२ अणागतद्धा५३, सव्या ५४ | पुत्री से किं त पच्छापु वी पच्छा पुच्ची साद्धा अनागतद्वा०जाब समए, से तं पच्छापुच्ची से किं तं असावी?, अणापुन्त्री एए चैव एगाइए एगुत्तरित्रए अतगलगाए सेडीए अमष्प भासो दुरूवृणों, से तं प्रणापृथ्वी से उपणहि कालानुपृथ्वी सेचं कालापुपुव्वी (सूत्र- ११५ ) । , ( १७१ ) अभिधानराजेन्द्रः । । 'अवे' त्यादि, तत्र समयो वक्ष्यमाणस्वरूपः सर्वसूक्ष्मः कालांशः, स च सर्वप्रमाणानां प्रभवत्वात् प्रथमं निर्दिः (१) निष्यन्ना आवलिका (२) या श्रावलिकाः आण' त्ति - श्रणः एक उच्छास इत्यर्थः (३) ता एव सत्येचा निःश्वासः अयं च सुवेऽनुको ऽपि द्रष्टव्यः, स्थानान्तरप्रसिद्धत्वादिति ( ४ ) | द्वयोरपि कालः पाणु ति एकः प्रारिस्यर्थः ५) सप्तभिः प्राणुभिः स्तोकः ( ६ ) । सप्तभिः स्तोकैर्लवः ( ७ ) | सप्तन्यायानां मुहूर्त (शाहोरात्रम् (१) । तैः ः पञ्चदशभिः पक्षः ( १० ) । नाभ्यां द्वाभ्यां मासः ( ११ ) । भासयेन ऋतुः ( १२ ) । ऋतुत्रयमानमयनम् (१३) । अयनद्वयेन संवत्सरः ( १४ ) । पञ्चभिस्तैर्युगम् ( १५ ) | विशत्या युपशनम् (१६) । तैर्दशभिर्वर्षसहस्रम् (१७) । रास लक्षमित्यर्थः (१) चतुरशीत्या च लक्षैः पूर्वाङ्गं भवति ( १६ ) - ८४००००० | तदपि चतुशीतल पूर्व भवति (२०), तच सप्ततिकोटि ६ १- चतुर्थी टीकाद्रष्टव्या । . 9 आणुपृथ्वी लक्षाणि पट्पञ्चाशच्च कोटिसहस्राणि वर्षाणाम् उक्तं च-पुव्वस्म उ परिमाणं. सयरी खलु हुंति कोडिलक्खाउ । छप्परणं च सहस्सा, बोद्धव्या वासकोडीं ।। १ ।। " स्थापना-७०५६०००००००००० । इदमपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं त्रुटिताङ्गं भवति ( २१ ) – ५६२७०४०००००, अग्र दश १० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । एतदपि चतुरशीत्या लघुटितं भवति (२२) - ४८७८०१३६००००० पञ्चदश १५ शून्यानि श्रन्यानि स्थापनीयानि । तदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमटटाङ्गम् ( २३ ) – ४१=२११६४२ ४००००० अग्रे विंशतिः २० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानिषितेनेव गुणकारण मिड (२४)३५१२६८०३१६१६००००० अ पञ्चविंशतिः २५ शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । एवं सर्वत्र पूर्वः पूर्वो राशिचतुरशीनिलक्षस्वरूपेण गुणकारेण गुणित उत्तरोत्तरराशिरूपतां प्रतिपद्यत इति प्रतिपत्तव्यं ततश्च श्रववाङ्गम् (२५ ) - २६५०६०३४६५५७४४००००० अग्रे त्रिंशत् ३० शून्यानि - व्यानि स्थापनीयानि । अववम् (२६) - २४७८७५८६११०६२४६६००००० अंग्रे पञ्चत्रिंशत् ३५ शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । हुकाङ्गम् (२७) - २०८२१५७४८५३०६२६६६४००००० अं चत्वारिंशत् ४० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । हृहुकम् (२८) - १७४१०१२२८७६५६८०६१७७६००००० अपचयत्यारिंशत् ४२ शून्यानि अन्यानि स्थापनीयति । उत्पलाङ्गम् ( २६ - १४६६१७०३२६६३४ ३६७०६१८४००००० अग्रे पञ्चाशत् ५० शून्यानि श्रन्यानि स्थापनीयानि । उत्पलम् (३० ) - (२३४१०३०७०१७२७६१३५५७१४५६००००० अग्रे पञ्चपञ्चाशत् ५५ शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । पद्माङ्गम् ( ३१ ) - १०३६६४६५७८६४५११ ६५३८८००२३०४००००० अ पष्टिः ६० शून्यानि श्रन्यानि स्थापनीयानि पद्मम् (२२) ६७०७०३९२६३१३६००४१२५२२३५३६००००० अत्रे पचपः ६४ शून्यान्यन्यानि स्थापन नलिनाङ्गम् ( ३३ ) - ७३१४५७८२६१०३६७६३४६५७७४४२५७०२४००००० श्र सप्ततिः ७० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । नलिनम् (३४) - ६२४४२४५७३६२७०८०१३११२५०५१७५६०० ६००००० अग्रे पञ्चसप्ततिः ७५ शून्यानि अम्पानि स्थापनीयानि । अर्थनिराम (३२)-२२६११६६४२०६८७५४०३०१४५०४३४७७५६१३४४००००० अग्रे अशीतिः ८० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । अर्थनिपूरम् ( ३६ ) - ४३३५३७६७६३६२६५३३८५३२१८३६५२११५१५२८६६००००० अग्रे पञ्चाशीतिः ८५ शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । श्रयुताङ्ग ( ३७ ) - ३६४९७१६०२६६४८८०८४३६७०३४२६७७७६७२८४३२६४००००० अग्र नवतिः ६० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । श्रयुतम् (३८) - ३०५६०४३६८२३८४६६६०८६८३०८७८४६३२४४१८८३४१७६००००० अंग्रे पञ्चनवतिः ६५ शून्याान अन्यानि स्थापनीयानि । नयुताङ्गम् ( ३६ ) - २५६६५६६६४५२०३३६६२३२६३७६३७६३४३२५६५८२०७०७८४००००० अग्र शत०० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । नयुनम् (४०) - २२५८४६१४३३६७०८५५३५५६६७६७८६४८३३८०४८६३६४५८५६००००० अंग्रे पञ्चाधि १ अङ्कस्थापना स्पष्टावबोधार्थ कोशकारेण दर्शिता । 66 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुवी अभिधानराजेन्द्रः। आणुपुञ्बी कशत १०५ शुन्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । प्रयुनाङ्गम्। व्ची-एमाए चेव एगाहसाए एगुत्तरिआए चउवीसग(४१)-१८१३९०७६०४५३४५१८४६८७६१००१०.६४६०३६६-1 च्छगयाए सेढीए अमममब्भासो दुरूवगो सेतं । प्रणाणु११०६१४५१६०४००००० अंग्रे दशाधिकशनर शून्यानि श्रन्या- स्थापनीयानि । प्रयुतम् (४२१-१५२३०१०३८७८ पुवी । सेत्तं उकित्तणागुपुब्बी । ( सूत्र-११६) ०६८३५५३८६५१२४७५६५४२६७३२७३३१६८१६५६६३६०००.। 'स कि तमि' त्यादि । उत्कीर्तन-संशप्दनम्-अभिधा०० अंग्र पञ्चदशाधिकशत१२५शून्यानि अन्यानि स्थाप- नोच्चारणम् , तस्यानुपूर्वी-अनुपरिपाटिः सा पूर्वानुपूनीयानि । चूलिकाङ्गम् (४३)-२२७६३२८७२५७६०२६१८५२. व्यांदिभेदन त्रिविधा, सत्र ऋषभः प्रथममुत्पन्नन्यापूर्वमु७२५७६७६५४६५८४५.५४६५८६१२८४६३४६२४००००० अग्ने कीय॑ते, तदनन्तरं क्रमण अजितादय इति पूर्वानुपूर्वी, शविशत्यधिकशन १२० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । षभावना तु पूर्ववत् । अत्राह-ननु औपनिधिक्या द्रव्यानुचूलिका (४४)-२०७४६३६१२६६३८६१६६५६२८६६४५०६११- पूया अस्याश्च का भेदः?, उच्यते-तत्र द्रव्याण विभ्यास६५२०२६१.६५३३४७७४१३०८४१६००००० अग्र पञ्चविंशत्य मात्रमय पूर्वानुपूत्यादिभावेन चिन्तितम् , अत्र तु नेपामव धिकशत:२५शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । शीर्षप्र- तर्थवोत्कीतन क्रियते, इत्येतावन्मात्रेण भेद इति, भयत्येवं, हलिकाङ्गम् (४५)-६०२६६४३४८६४४०७६३२८३३०९८५- किंवावश्यकस्य प्रस्तुतत्वादुत्कीर्तनमपि सामायिकाद्यध्य१३७-१८६१६७८७६७२२०२६६६०६६४८००००० अग्र त्रिंश- यनानामव युक्तम् , किमित्यपक्रान्तानाम् ऋषभादीनां, तदधिकशत १३० शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि । ) एवमते द्विहिमिति ?, सत्यं, किंतु-सर्वव्यापकं प्रस्तुतशास्त्रमिराशयश्चतुरशीतिलक्षस्वरूपण गुणकारण यथोत्तरं वृद्धा त्यादायोक्तं, तद्दर्शनार्थमृपभादिसूत्रान्नगपादानं भगवतां द्रष्टव्यास्तावद् यावदिदमय शीर्वप्रहेलिकाम् चतुरशीच्या च तीर्थप्रणेतृत्यानत्स्मरणस्य समस्तश्रेयःफलकल्पपादपलौटुंगित शीर्पग्रहलिका भवति (४६) अस्याः स्वरूपमङ्क त्वात् युक्तं तन्नामात्कीर्तनं, तद्विषयत्वेन चोकमुपलक्षणत्यातोऽपि दर्शयत-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७६७३५५५१- दन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति, शष भावितार्थ यावत् ' सत्तमि ' ५८०६६४०६२१८६६५६६२६७२२८३२६६ अंग्रे च चत्वारिशं त्यादि निगमनम्। शून्यशतम् १४०, तंदवं शीर्ष महालकायां सर्वाग्यमूनि चतुग- ___इदानी पूर्वोद्दिष्टामेव गणनाऽऽनुपूर्वीमाहवन्यधिकशतसंख्यानि१४ अङ्कस्थानानि भवन्ति, अनन चै से किं तं गणणाऽऽणुपुवी ?, गणणाऽऽणुपुब्बी तिचिहा तावना कालमानन केचिद् रत्नप्रभानारकाणां भवनपतिव्यन्तरसुगणां सुपमदुःपमारकसंभावना नरतिरश्चां च यथा. पामत्ता, तं जहा-पुवाणुपुबी१, पच्छाणुपुवी२. अणाणुसंभवमायपि मीयन्त, एतस्माच्च परताऽपि संख्येयः कालोऽ. पुब्बी३ । से किं तं पुव्वाणुपुब्बी ?, पुव्वाणुपुबी-एगो, स्ति. किचनतिर्शायनामसंव्यवहार्यत्वात्सर्षपापमयाऽत्रैव दस, सतं, सहस्सं. दससहस्साई, सतसहस्म, दसमतसवश्यमाणत्वाश्च न होनः, किं तर्हि ?, उपमामात्रप्रतिपाद्यानि हस्साई कोडी, दसकोडीओ, कोडिसयं, दसकोडिसयाई । पल्यापमादीम्येव, तत्र पल्यापम-सागरोपम ४७, ४८, अत्रैव सेत्तं पुवाणुपुची । से किं तं पच्छाणुपुब्बी ?, पच्छाणुवक्ष्यमाणस्वरूप. दशसागरांपमकोटाकोटिमाना त्ववसर्विगी४६, तावन्मानयोत्सपिणी५०, अनन्ता उत्सविण्यवसर्पि पुवी-दसकोडीसयाईजाव एको । मेत्तं पच्छाणुपुयी। रायः पुद्गलपरावतः५१. अनन्तास्त ऽतीताद्धा५२, तावन्मान से किं तं अणाणुपुवी ?, अणाणुपुवी-एआए चव एवाऽनागताद्धा५३. अतीतानागतवर्तमानकालम्वरूप सा- गाइआए एगुत्तरिमाए दसकोडिसतगच्छगयाए सेबीए ऽद्धति ५५, एपा पूर्वानुपूर्वी। शपभावना तु पूर्वोक्तानुसारतः | अन्नमन्नम्भामो दुरूवूणो । सेत्तं अणानुपुची । सेत्तं गसुकव. यावत्कालानुपूर्वी समाप्ता। णनाणुपुब्धी । ( सूत्र-११७ ) (E) साम्प्रतं प्रागुहिएमिवोत्कीननानुपी विभणिपुगह ‘स कि तमि' त्यादि, गणनं-परिसंख्यानम्-एक, त्रीगि, से किं तं उक्त्तिणाणुपुवी ?, उक्त्तिणाणुपुच्ची ति चत्वारि इत्यादि, तस्य आनुपूर्वी-परिपाटिर्गणनानुपूर्वी, विहा पएणत्ता, तं जहा-पुव्वानुपुब्धी, पच्छानुपुयी, अत्रापलक्षणमात्रमुदाहर्तुमाह-'एंग' त्यादि सुगमम् . उअणानुपुवी। से किं तं पुव्वानुपुधी, पुवाणुपुवी पलक्षणमात्र चदमतोऽन्य ऽपि मभविनः संख्याप्रकाग अत्र उसमे १, अजिए २, संभवे ३, अभिणंदणे ४, सुमती | एव्याः। उत्कीर्तनानुपूया नाममात्रात्कीर्तनमय कृतम् , अत्र वेकादिसंख्याभिधानमिति भदः । सेत्तमि ' त्यादि ५, पउमप्पहे ६, सुपासे ७, चंदप्पहे ८. सुविही है, सी निगमनम् । तले १०, सेजस ११, वासुपुञ्ज १२, विमले १३, अणते | अथ प्रागुहिमेव संस्थानानुपूर्वीमाह१४, धम्म १५, संती १६. कुंथु १७,अरे १८, मल्ली१६, से किं तं संठाणानुपुची ?, संठाऽऽणाणु पुची तिविहा नमी २१, अरिङ्कनमी २२, पासे २३, | पामता, तं जहा-पुवाणुपुवी. पच्छाणुपुची, अणाणुवद्धमाण २४, । सत्तं पुब्बानुगुची । से किं तं पुन्धी । से कि तं पुव्वाणुपुची?, पुयाणुपुची-समचउरंसे पच्छाणुपुब्धी ?, पच्छाणुपुवी-वद्रमाण जाव उसमे । निग्गोहमंडले. सादी, खुन्जे, बामणे, हुंड । सत्तं पुवाणुसे पच्छाणुपुची। स किं तं प्रणाणुपुची ?, अगाणुपु- पुची । से किं ते पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुब्बी हुंड Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणुपुरवी मभिधानराजेन्द्रः। आणुपुची जाव समचउरंसे । सेत्तं पच्छाणुपन्थी । स किं तं अ-1 प्रापुच्छणा य ६ पडिपुच्छा ७, णाणुपुच्ची', अणाणुपुब्बी-एमाए चेव एगाइआए ए-- छंदणा य ८, निमंतणा ॥१॥ गुचरिचाए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नम्भासो दु- उवसंपया य १० काले, रूखूणो । सेत्तं अणाणुपुची । सत्तं संठाणाणुपुव्वी । सामायारी ( भवे) दसचिहा उ । (सूत्र-११८) (१०)* अधिकाराङ्कः। सेत्तं पुव्वाणुपुची । से किं तं पच्छाणुपुवी ?, पच्छासेकि तमि' त्यादि, प्राकृतिविशषाः-संस्थानानिः तानि णुपुची उपसंपया जाय इच्छागारो । सत्तं पच्छाणुच जीवाऽजीवसंबन्धित्वेन द्विधा भवन्ति, तत्रेह जीवसंब पुच्ची । से किं तं अणाणुपुच्ची?, अणाणुपुत्री-एश्राण न्धीनि, तत्रापि पश्चद्रियसंबन्धीनि वनुमिणानि, अतः तान्याह--'समचउरंस' न्यादि, तत्र समाः-शास्त्रोकल क्षणावि चव एगाइयाए एगुत्तरिाए दसगच्छगयाए सही। संवादिन्यश्चतुर्दिग्वर्तिन्यः अवयवरूपाश्चतस्रोऽनयो यत्र अन्नमनभासो दुरूवृणो। सत्तं अणाणुपुब्बी । सनं तत्समासान्तात् प्रत्यय समचतुरस्र संस्थान, तुल्यारोह- सामाचार्गआणुपुछी । (मूत्र-११६) परिणाहः संपूर्णलक्षणोऽपि साङ्गापाडावयवः स्वाङ्गलाष्टा- (सामाचारीव्याख्यानम् 'सामायारी' शब्द सप्तम भांग धिकशताच्छ्यः सर्वसम्थानप्रधानः; पञ्चेन्द्रियजीवशरीरा- करिष्यते) इह धर्मस्यापरापतापमूलत्यादिच्छाकारम्याना कारविशेष इत्यर्थः । नाभरुपरि न्यग्रोधवन्मण्डलम्-श्राद्य बलाभियोगलक्षणपगेपतापवजकत्वात्प्राधान्यात्प्रथममुपन्यासंस्थानलक्षणयुलन्चन विशिष्टाकारं न्यग्रोधमण्डलं, न्यग्रो- सः श्रपरापतापसांग च कथंचित स्खलने मिथ्यादुष्कृत धो-वटवृक्षः, यथा चायमुपरि वृत्ताकारतादिगुणोपेतत्वेन दातव्यमिति, तदनन्तर मिथ्याकारस्य, एनो च गुरुवविशिष्टाकारो भवति; अधस्तु न तथा एवमतदपीति भावः। चनप्रतिपत्तावच नातु शक्यौ, गुरुवचनं च तथाकारकरसह आदिना नाभेरधस्तनकायलक्षणन वर्तते इति सादि, खनन सम्यक प्रतिपन्नं भवतीति तदनन्तरं तथाकारम्य ननु सर्वमपि संस्थानं आदिना सहैव वर्तते ततो निरर्थक प्रतिपक्षगरुपचनेन चोपाश्रयाहिर्निर्गच्छता गरुपच्छापूर्वक सादित्वविशेषणम्,सत्यम् ,किंतु-अत एव विशेषणवैफल्यप्र. निर्गन्तव्यमिति । तथाकागनन्तरं तत्पृच्छारूपाया श्रावश्यसङ्कादाद्यसस्थानलक्षणयुक्त श्रादिग्हि गृह्यने, ततस्तथाभूतन क्याः बाहर्निगतेन च नैपेधिकीपूर्वकं पुनः प्रवेव्यमिति आदिना सह यद्वर्तते नामस्तूपरितनकाय श्राद्यसंस्थानल- तदन्तरं नैधिक्याः, उपाश्रयप्रविष्टन च गुरुमापृच्छध क्षणविकल तत्सादीति तात्पर्यम् ३। यत्र पाणिपादशिरोग्रीवं सकलमनुष्ठ यमिति तदनन्तरमापृच्छनाया:. आपृष्ट च निसमनलक्षणपरिपूर्णम् : शर्ष तु हृदयादरपृष्ठलक्षण कोप्तम्- षिद्ध पुनः प्रष्टव्यमिति तदनन्तरं प्रतिपृच्छनायाः, प्रतिप्रश्न खक्षणहीनं तत् कुब्जम् ४। यत्र तु हृदयादग्पृष्ठ सर्चल- चानुज्ञातनाशनाद्यानीय तत्परिभोगाय साधव उत्साहनीया क्षणोपेतम् शषं तु हीनलक्षणं तद्वामनम् : कुजविपरीतमि- इति तदनन्तरं छन्दनायाः, एषा च गृहीत एवाऽशनादी श्यर्थः ५ । यत्र सर्वे उपयवंयवाः प्रायो लक्षणविसंवादिन एव स्यादु अगृहीते तु निमन्त्रणेवेति तदनन्तरं निमन्त्रणायाः, भवन्ति तत्संस्थानं हुएडमिति ६ । अत्र च सर्वप्रधानत्वा- इयं च सर्वाऽपि निमन्त्रणापर्यन्ता सामाचारी गुरूपसंपदसमचतुरस्रस्य च प्रथमत्यम् ,शेषाखां तु यथाक्रम हीनत्वाद मन्तरण म ज्ञायते इति तदनन्तरमुपसम्पद् उपन्यास इति द्वितीयादिस्वमिति पूर्वानुपूर्वांत्वं, शेषभावना पूर्ववदिति। पूर्वानुपूर्वीत्वसिद्धिरिति । शुषं पूर्ववदिति । आह-यदीत्थं संस्थानानुपूर्वी प्रोच्यते तर्हि संहननवर्णरस (१२) अथ भावाऽऽनुपूर्वीमाह-- स्पर्शाऽऽद्यानुपूयोऽपि वक्तव्याः स्युः, तथा च सत्यानुपूर्वी- से किं तं भावाणुपुची, भावाणुपुवी तिविहा पमना, सामियत्व विशीयंत, ततो निष्फल एव प्रागुपन्यता दश तं जहा-पुवाणुपुब्बी१, पच्छाणुपुव्वी२. अणाणुपुब्बी ३॥ विधत्वसंख्यानियम इति, सत्यम् , किन्तु-सर्वासामपि तासां वनुमशक्यत्वादुपलक्षणमात्रमेवार्थ सङ्खथानियमः, पतदनु से किं तं फुव्वाणुपुवी ?, पुव्वाणुपुवी-उदइए, उवससारणा उभ्या अप्यता अनुसन्ध्या इति तावलक्षयामः, मिए, खाइए, खोवसमिए, पारिणामिए, सनिवाइए । सुधिया त्वन्यथापि वाच्यं, गम्भीरार्थत्वात् परममुनिप्रणी- सेत्तं पुवाणुपुची से किं तं पच्छाणुपुची ?, पच्छातविवक्षायाः, एवमुत्तरत्रापि याच्यम् , इत्यलं विस्तरण। णुपुथ्वी संनिवाइए, जाव उदइए । सेत्तं पच्छाणुपुची। (११) सामाचार्यानुपूर्वी वियशुराह से किं तं अणाणुएबी , अणाणुपुब्बी एआए चव मे किं तं मामायागाणुपुची ?, समायारीप्राणुपुची एगाइआए एगुत्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्त्रतिविहा पएणता, तं जहा-पुधाणुपुथ्वी १, पच्छाणुपु- भासो दुरूवृणो । सेत्तं अणाणुपुब्बी । सेत्तं भावाणुब्बी २, अणाणुपुब्बी ३। से कितं पुन्वाणुपुब्बी ?,! पुची । सेत्तं प्राणुपुची प्राणुपुब्धि ति पदं समत्तं । पुवाणुपुची (सूत्र-१२०) 'म कि तमि' त्यादि, इह नेन तेन रूपेण भवनानि भावा - "इच्छा १, मिच्छा २, तहकारी ३, यस्तुपरिणामविशवाः-श्रीदयिकादयः, अथवा-तन तन हैआवस्मिश्रा य ४, निसीहिश्रा। पण भवन्तीति भावास्त एव, यद्वा भयान्त तस्तस्यस्तेषु Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुषी वा सत्सु प्राणिनस्तेन तेन रूपेणेति भावा यथोक्ता एव ते पामानुपूर्वी परिणामांशनुपूर्वी श्रदायकानां तु स्वरूपं पुरस्तात् पचेण वक्ष्यते अत्र च नारकादिगतिरीद ग्रिको भाव इति वक्ष्यते, तस्यां च सत्यां शेषा भावाः सर्वे अपि यथासम्भवं प्रादुर्भवन्तीति शेषभावाऽऽधारत्वेन प्रधानत्यादौदयिकस्य प्रथममुपन्यासः, ततश्च शेषभावपञ्चकस्य अप्रे श्रीषशामकस्य स्तोकविषयत्वात् लोकतया प्रतिपादयिष्यत इति तदनन्तरमपिशमिकस्य ततो बहु त्वात् क्षायिकस्य ततो बहुतरविषयत्वात् क्षायोपशमिकस्य, ततो बहुतमविषयत्वात्पारिणामिकस्य ततोऽप्येषामेव भावानां द्विकादिसंयोगसमुत्थत्वात्सान्निपातिकस्योपन्यास ( १७४ ) अभिधान राजेन्द्रः | ते चोत्तराध्ययने दर्शिता यथा अरई गंड बिसया, आर्यका विविधा फुसंति ते । पिड विस ते सरीरयं समयं गोयम मा पमायए । २७ हे गौतम! 'ते' तव विविधाः- नानाप्रकारा श्रातङ्का- रोगाः शरीरं स्पृशन्ति ते केवन आता अनिश्चतुरशीतिविधिभवातोद्भूतचित्तोगो वानप्रकोप इत्यर्थः गरि कोद्भूतस्फोटक । विचिका जीर्णोद्भूतयमनाध्यानयिरेवादि सद्योत्यायो रांगा धनकापड तेरो शरीरे सति ध माराधनं दुष्करं ते शरीरोगत् विपतति विशेषेण बलापचयात् नश्यति, पुनः शरीरं 'ते' तब विध्वस्त जीवमुकं सत् विशेषेण अधःपतति अत्र सर्वत्र यद्यपि तव इत्युक्तं गोतमे च केशपाण्डुरत्वादि इन्द्रि गाणां हानिच न संभवति तथापि तत्रिश्रया अपर अनु० । 33 सा। आणोह- आज्ञौध-पुं० । सम्यग्दर्शन विकले आज्ञामात्रे, प-शिष्यादिवर्गप्रतिबोधार्थमुकं दादाय न भवति, तथा च प्रमादो न विधेयः । उत० १० अ० रोगाः- अकालमहाग्यागाता मुक्का ॥ ४८ ॥ पञ्चा० । धय श्रातङ्कास्त एव उद्योघातिन इति । श्र० । श्रातङ्क-, आज्ञाण-बाराम्यः सामान्यमाशेघः सम्यग्रदर्शक रोगयोविंशेो यथा - स्वात् केरिसो रोगो, केरिसो वा विकलमाद्वामापमित्यर्थः तेन सताऽपीतिआतङ्कस्तत उच्यते । न्नानि अनन्तसंख्यानि मुक्तानि त्यक्ानीति । पञ्चा० १४ विव० । 1 पूर्वानुपूर्वकमसिद्धिरिति पूर्वानुसारे भा यनीयम् । तंदेवमुक्ताः प्रागुद्दिश दशाप्यानुपूर्वीभेदाः, नगणने चोपक्रमप्रथमभेदलक्षणा अनुपूर्वी समाप्ता । (ये) क- आतङ्क - पुं० किं जीवने तनमातङ्कः । श्रतकि घञ् । कृच्छ्रजीवने, (दुःखे ) श्राचा० १ श्रु० ? श्र० ७ ॐ | नरकादिदुःख च । श्राचा० १ ० ३ अ० २ उ० । तच्च द्विविधम्-शारीरं मानसं । तत्राद्यम्कटुकक्षारशस्त्र गण्डलूतादिसमुत्थम्, मानसं प्रियविप्रयोगाविसंगति मारिद्रयमनस्यादिकृतम् । आ चा० १ ० १ ० ७ ४० दिवा-या वभेदात् । ( स च तं (यं) कदास' शब्दस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव दर्शयिष्यत) रोगे, स्था०५ ठा० ३ उ० | उत्त० क० । अनु० । श्रति सर्वात्मप्रदेशाऽभिव्याप्या तङ्कयन्ति-कृच्छजीवितमात्मानं कुर्वन्तीत्यातङ्काः । सद्योघातिनि रोगविशेष उत्त० २० श्र० । आयो जरमाई " ॥ १४३२ ॥ श्रातङ्का ज्वरादिः सद्यो घाती रोगः । पं०व०५ द्वार । उ सुघाई आतंकी " आव०४ अ० । स्था० ५० सू० । श्रा० चू" | जी० । उत्त० | प्रब० रा० । श्रा० म० । दर्श० ॥ आफुतिर+घनङ्काः रोगपरीचाः स्पृशन्ति । उत्त० २९ ० । श्रातङ्कः कृच्छ्रजीवितकारी ज्यरादिकः । भ० १६ श० २ उ० । उयाहु ते आतंका फुसति" (सूत्र- १४७५) शान-जीवापहारिणः शलादव्याधिविशेषाः स्पृशन्ति श्रभिभवन्ति पीडयन्ति । श्राचा० १ श्रु० ५ ० २ उः । उत्तः ॥ भ० । ज्ञा० | सूत्र० । स्था० । "दोहकालिए रोगानं के" (सूत्र - १३५+) । श्रातङ्कः- कृच्छ्रजीवितकारी सद्योघाती शूलादिः । स्था० ३ ठा० १ उ० । ज्ञा० । प्रश्नः । आतङ्काः सद्योघातिनः शलादिका रोगाः । संधान | भ० | 'आयंके से वह्नाय होइ ॥ ६ ॥ ( सूत्र - १x ) । श्रातङ्कः सद्योघाती विशुचिकादिको रोगस्तस्य गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य बधाय विनाशाय भवति । दश० १ चू० । . + आतंकसि माहा गंडी कोढं खइयादी, रोगा कासादितो तु आतंको । दीहरुया वा रोगो, आतङ्को आसुघाती य ॥ २१६ ॥ (अस्याः गाथायाः व्याख्या ' पलंब ' शब्दे पञ्चमभागे दर्श यिष्यते । वृ० १ ० २ प्रक० ) । नि० चू० । श्रातङ्को ज्वरादिस्तद्यगादाङ्कनाऽप्पातङ्काः आतङ्किनि पिं० सेतापे, सन्देहे मुरजराने भरे पाच 6 आतं (पं) कदंसि (न्)- आतङ्कदर्शिन् पुं० कि'कृच्छ्र जीवन आतङ्कनमा द्विवि " घम् शारीरं मानसं च । तत्राद्यं कटुकक्षारशस्त्र गण्डलूनादिसमुयम् मानसं प्रियसंप्रयोगेप्सितालाभदारिद्रयदोस्पादितम् | पनदुभयमा पश्यति त तदर्शी अवश्यमेतदुभयमपि तु समच्यापततीत्येवं शा तरि आचा० । ( तथा च वायुकायसमारम्भमधिकृत्य ) - आयंकसी अहियंति गच्चा । (सूत्र- ५६ + ) अवश्यमेतदुभयमपि दुःखमापनति मध्यनिवृत्तवायुकायसमारम्भे ततख तद्वायुकासमाम्नातुन महि तमिति ज्ञात्वैतस्मान्निवर्तने प्रभुर्भवतीति । यदि वा आत धान्यादा। तब यमुदाहरणम्"जंदवेदी, भारहवासम्म अस्थि सुांसदं । बहुगुणमितं रायगडं साम गायति ॥ १ ॥ तत्थासि गरुयदरिया-रिमद्दणी भुयणनिग्गयपयायो । अभिगयजीवाजीवा. राया गामेण जियसत्तू ॥ २ ॥ अवश्यगरुपये गमाविश्र धम्मपाले सो अन्नयाकयाई, पमाइं पासप सेहं ॥ ३ ॥ बोइज्जतमभिषवं अपरा तं वि कुमाएं। तस्स हि राया, सेसाग् य रक्खट्टाए ॥ ४५ ॥ • Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) मातंकदंसि अभिधानराजेन्द्रः। मातगय मायरियाणुराणाए, प्राणावइ सो उणिययपुरिसेहि। (सूत्र-५५३+) ।'श्रायंचणिोदएणं ति-इह पातञ्चनिकोतिब्बुक्कडदबहि. संधिय पुब्वं नहि खारं ॥५॥ दक-कुम्भकारस्य भाजन स्थितं तमनाय मृन्मिश्रं जलं तेन । पक्खिता जत्थ लगे, णवरं दोगोहमेत्तकालेण । भ०१५श। णिजिरा गांपसोषिय-अट्टि बससत्तणमुवेद ॥६॥ आतंऽ(यं) तकर-आत्मान्तकर-पुं० । प्रात्मनोऽन्तम्-अदो नाह पुव्वमए, पुरिसे आणावए तर्हि एया। वसानं भवस्य करातीत्यात्मान्नकरः । प्रत्यकबुद्धादिके, एगं गिहत्थवसं, बीयं पासंडिणवत्थं ।। ७ ।। स्था० ४ ठा०२ उ० । श्रात्मनोऽन्त-मरण करोनीत्यारमापुवं वि य सिक्खविए, ते पुरिस पुच्छए तो राया। न्तकरः । श्रात्मवधके. स्था० ४ ठा० २ उ० । “आयाकरे अबराहो एएसि. भणति आणं अइक्कमइ ।। ८ ।। णाममंगे णो परंतकर" (सूत्र-२८७) स्था०४ ठा०२ उ० । पासंडिओ जहुत-रण वट्टई अत्तणो य ायार । पक्खिवह खारमझ, खित्ता गोदोहमेत्तस्स ।। ६ ॥ पातं (य) तम-मात्मतम-पुं० श्रात्मानं तमयति-खदयतीदळूण ऽट्टियसस, ते पुरिसे अलियरोसरत च्छो । त्यात्मतमः । श्राचार्यादिक प्रात्मखेदयितरि, स्था० । प्रात्मैव सेह पालायतो, राया तो भग्पद पायरियं ॥१०॥ तम:-अज्ञान: फ्राधी वा यस्य स ात्मतमाः। अज्ञानात्मनि, क्राधान्मान च । स्था०1"मायतम नाममंग गा परंतम" तुम्ह वि काऽवि पमादी, (सूत्र-१८+) स्था०४ ठा०२ उ० । सासमि य तं पिणऽत्थि भणइ गुरू। जह होहिइ तो साहे, आतं (यं) दम-आत्मदम-ए । श्रात्मानं दमयनि-शमवन्तं तुम्ह चिय तरस जाणिहिह ॥११॥ करोति-शिक्षर्यात. वत्यास्मदमः। श्राचार्य, स्था। श्रश्वसहो गए णिवमि, भणइने साहुगो उग्ण पुण ति । मकादौ च । "प्रायदम णाममेगे लो परंदमे" (सूत्र-२८७+)। हा हं पायसीलो; तुम्हं सरगागो धणियं ॥१२॥ स्था०४ ठा०२ उ० । जइ पुण होज पमाश्रा, पुणो ममं सहभावरांहयस्स । आतं (य) व-आताम्र-त्रि । ईषद्रक्त, ज०२ वक्षः। औ०। तुम्हं गुरोहिं सुविद्दिय, ना सावमरपस्त्र सामुच ॥१३॥ "प्रायवतलिणसुइरुइलनिद्धनक्खा" (सूत्र-१४७)। माताश्रायकमब्यग्गो, ताहे सो विच उज्जुभो जाओ। म्राः-ईपद्रनास्तलिना:-प्रतलाः शुचयः-पवित्रा रुचिरा कोवियमती य-समए, या नरिसावित्री पच्छा ॥ १४ ॥ दीप्ता स्निग्धा-अरूक्षा नखा:-कररुहाः येषां ते श्रानानतदबायंकादसी. अत्ताणं सम्बहा णियत्तेह । लिनशुचिरुचिरस्निग्धनखाः। जी०३ प्रति०४ अधि०२ उ० । अहियारंभा उ सया, जह सीसी धम्मघोसम्स ॥ १५॥" आतं () वज्झयण-आताम्राऽध्ययन-न०। सूर्यस्यानभावातद्वाऽऽदर्शी तु नरकतिर्यग्मनुष्यामरभवेसु प्रियविप्र महिण्या प्राताम्राया वक्तव्यताप्रसिद्ध शाताधर्मकथाया द्वियोगादिशारीरमानसाऽनङ्कभीत्या न प्रयतते. वायुसमारम्भ । तीयश्रुतस्कन्धसप्तमवर्गस्य द्वितीयेऽध्ययन, झा० २०४ अपि तु-अहितमेतद्वायुसमारम्भणामात मत्वा परिहरति । श्राचा०१ ध्रु०१।७ उ० । वर्ग १ अ०। प्रातं (यं) भरि--प्रात्मम्भरि-त्रि० । श्रात्मानं विभर्ति भृआयकदंसी न करइ पावं ॥४+।। (सूत्र-१११) खि-मुम्-च उप० स० । स्वादरमात्रपूरक, । देवतातिथ्यश्रावती-नरकादिदुःखं तद्रष्टुं शीलमस्यत्यानकदर्शी स नादरेणात्मपोषकत्वात्तस्य तथात्वम् । “आत्मम्भरिस्त्वं 'पा' पापानुबन्धि कर्म न करोति. उपलक्षणार्थवान्न पिशिनैनराणाम्" भट्टिः । वाच० । श्रात्मानं विभर्ति-पुकारयनि. नानुमन्यत इति । श्राचा० १ ०० ३ ०२ उ० । ष्णानीति अात्मम्भरिः । स्वार्थकारके, स्था०1" आयभरे अातं (यं) कविवच्चास-आतङ्कविपर्यास-पुं० । आगाढ - | गाममेंगे णो परंभरे "(सूत्र-३२७+)। श्रात्मम्भरिः प्रानागाढकरण, । आयकविवञ्चासो नाम-श्रागाढे अहिदट्राइ, कृतस्यात् 'प्रायंभरे'। स्था०४ ठा०३ उ०। अणागाढ़ करोड त्ति । पं० चू०४ कल्प । आत (य) कम्म(न)--आत्मकर्मन्-त्रि० । ६ त । श्राआतं (यं) कर्मपयोगसंप उत्त-आतङ्कसंप्रयोगसंप्रयुक्त-त्रि०। त्मनः-स्वस्य कर्तव्य कार्ये, " श्रात्मकर्मक्षम देहं क्षात्री धर्म इयाश्रितः?" रघुः । वाच । ज्ञानावरणादिके प्रारमश्रानका-रोगस्तस्य सम्पयोगः-संबन्धस्तेन संप्रयुक्तः सं- कृतकमणि, भ."कि आयकम्मरणा उववजंति?.परकम्मरणा बन्धी यः स तथा । आतङ्कसंबद्ध, "आतंक संपओगसं- उवधज्जति" (सूत्र-६८६ +) । भ० २०२० १० उ०। पउत्त तस्स विप्प प्रोगे सति समरणागए यावि भवा३।" ( सूत्र-४४७+) (अयं चाध्यानस्य तृतीयो भेदस्तक्त बात (य) गवेसय-यात्मगवेषक-त्रि०। प्रान्मानं कर्मव्यता 'श्र(हत्तज्माण' शब्द प्रथमभागे गता) स्था०४ ठा०१ मलापहारण शुद्ध गवेषयतीत्यात्मगवषकः । उत्त०१५ पर उ० । ग० । औ०। श्रात्मानं कर्मविगमाच्छुद्धस्वरूपं गवेषयति-कथमयमित्थं भूनो भवदित्यन्वेषयते यः स आत्मगवेषकः । कर्मविगअातं (यं) कि (न्)-आतङ्किन्-पुं० । रोगिणि, स्था० ५ ठा० मानछुद्धस्वरूपस्यात्मनोऽन्वेषक, उत्त०पाई० १५ अ० । ३ उ०। "साहए पायगयेसए स मिक्खू" ॥५४॥ उत्त०१५ १०। अातं (य)चणिया-आतंचनिका-स्त्री० । कुम्भकारभाजने, | आत (य) गय-आत्मगत-त्रिका प्रात्मनि गतमारमगतम्। भ० । " प्रायंचणिोदपणं गाता परिसिंचमाणे विहरह" | प्रात्मगे, सूत्र। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बातगय मभिधानराजेन्द्रः। प्रायत? संलोकणिजमणगारं, प्रायगयं निमंतणे णाहंसु ॥३०+ मायछट्टो पुणो पाहु, आया लोगे य सासए ॥१४॥ सलाकनीयं-संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कश्चनाऽनगारं-साधु शास्त्रतत्त्वमेष भूयः प्रतिपादयितुमाहमात्मनि, गतमात्मगतम् । आत्ममित्यर्थः । सूत्र०१ श्रु०४ दडओ ण विणस्संति, नो य उपाए असं । अ०२ उ० । पात (य) गुत्त-आत्मगुप्त-त्रि० । आत्मा-शरीरम् प्रा सम्वे वि सव्यहा भावा, नियतीभावमागया ।। १६ ।। न्मशब्दस्य शरीरवचनस्यापि दर्शनात् , उक्तं हि-"धर्म सूत्र०१ थु०१० १ उ०। (अनयोर्गाथयोयाख्यानम् धृत्यग्निधीन्द्वर्क-त्यकृतश्यस्वार्थदेहिषु । शीलाऽनिलमनो 'अत्तछट्ट' शब्दे प्रथमभागे ५०२ पृष्ठे गतम् ।) यनि-कवीर्यध्वात्मनः स्मृतिः ॥१॥" इति तन गुप्त श्रा-पात (य)जस (स)-श्रात्मयशस-न० । प्रारमसंबन्धिनि स्मगुप्ता न यतस्ततः करचरणादिविक्षपकृत, इतस्ततः । यशसि, यशाहंतुभूने संयमे च । भ० "जीवा किं पायजमण करचरणाऽविक्षेपक, यद्वा-गुप्ता रक्षितोऽसंयमस्थानभ्य ) उववज्जति" (सूत्र-८६७+)।'आयजनगण' ति-श्रात्मनः श्रात्मा यन स तथा । उत्त०पाई०१५ अ० असंयमस्था- संबन्धि यशो यशोहेतुत्वाद्यशः-संयम अात्मयशस्तेन (म.) नभ्या राक्षनात्मनि, श्रात्मा गुप्ता यस्य स आत्मगुप्तः । श्रायजसं उबजीयात' त्ति-श्रात्मयश:-आत्मसयममुगसूत्र०२०२० । मनायाकायैरात्मा गप्ता यस्य सः। जीवन्ति-श्राश्रयन्ति: विदधतीत्यर्थः। भ०४१ श०।। प्रात्मगुप्तः । सूत्र. १०७० । मनोवाक्कायगुप्त, मूत्रसामजोगिन)-प्रात्मयोगिन-पुं० [आत्मनो योगः १ श्रु० ११ अ०इन्द्रिय-नाइन्द्रियात्मना गुप्त प्रात्मगुप्तः । कुशलमनःप्रवृत्तिरूप श्रात्मयोगः स यस्यास्ति । सदा धर्मप्राचा०१थु०३ अ० ३ उ० । श्रात्मना-मनोवाकायरू- ध्यानावस्थित. सूत्र०२ श्रु०२०। पण गुप्त प्रात्मगुप्तः । सूत्र०१ श्रु०११ अ० । मनांवाक्काया आत (य)? (अप्पण)-आत्मार्थ-पुं०। आत्महिते, "श्रास्मना गुप्त, "पायगुने सयावी(धीर ॥१॥ (सूत्र-१९६४)। यटुं" (सूत्र-६६ + टी०)। प्राचा०१७०२ ०१ उ.। "प्रायगुत्ते सया दंते" ॥ सूत्र १ श्रु० ११ अ०। प्रात्मनोऽर्थ आत्मार्थः। ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, आत्मने हितम्(आत्मगुप्तस्य फलमाह) प्रयोजनमात्मार्थम् । चरित्रानुष्ठाने, प्राचा०१ श्रु० २ अ. कडं च कजमाणं च, आगमिस्सं च पावगं । १ उ०। सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥ २१॥ आयत अप्पण)-प्रायतार्थ-पुं० । आयतः-अपर्य्यवसासाधूद्दशन यद् अपरैः-अनार्यकलौः कृतम्-अनुष्ठित पापर्क नान्माक्ष एव स चासावर्थश्चायतार्थः । माक्षात्मके प्रयोजन, कर्म तथा वर्तमान च काले क्रियपागं तथाऽगानिनि च श्रायता-मोक्षः अर्थः-प्रयोजनं यस्य सः। मोक्षप्रयोजनक काले यस्करिष्यते तत्सर्व मनावाक्कायकर्मभि नजानन्ति ना दर्शनादिके, प्राचा०१श्रु०२.१ उ०। आत्मनिमित्त, नुमोदन्ति तदुपभोगपरिहारणेति भावः । यद्यप्यात्मार्थे पाप. __" अप्पगाढा परट्टा वा" (सूत्र-१३ +)। प्रात्मार्थमात्मकं कर्म परैः कृतं, क्रियो, करिष्यते च । तद्यथा-शत्रोः । निमित्तम् । दश ६ अ०२ उ०१ शिरश्छिन, छिद्यते, छत्स्यते वा, तथा चौरो हतो, हम्यते, (आत्मार्थश्चावश्यमुपासनीयः)हनिष्यत बा, इत्यादिकं परानुष्ठानं नाऽनुजानन्ति-न च अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं माणवाणं ॥ २ ॥ बहु मन्यन्ते, तथाहि । यदि पर: कश्चिदशुद्धनाहारगोप नाहारणाप- प्राचा०१ श्रु.२०१ उ०। (अस्य व्याख्या 'आउ' निमन्त्रयेत्तमपि नानुमन्यत इति । क एयंभूना भवन्तीति शब्द अस्मिन्नव भाग माग् दर्शिता) दर्शयति-श्रात्माऽकुशलमनावाकार्यानरोधेन गुप्ता येषां त यऽपि दीर्घायुष्कस्थितिका उपक्रमणकारणाभाये श्रायु:तथा, जितानि-वशीकृतानि इन्द्रियाणि-श्रीत्रादीनि यैस्त स्थितिमनुभयन्ति तेऽपि मरणादप्यधिको जराभिभूनविग्रतथा एवंभूताः पापकर्म नाऽनुजानन्तीति स्थितम् । सूत्र हा जघन्यतरामवस्थामनुभवन्तीति तद्यथेत्यादिना दर्शयनि१श्रु०८ ० । गुप्तात्मन्-त्रि०ा गुप्तः-असंयमस्थांनभ्यो रक्षित आत्मा यन सं जहा-सोय परिमाणेहिं परिहायमाणेहिं चक्खुस गुप्तात्मा प्राकृतत्वाद्विपर्ययः । मसंयमस्थामभ्या रक्षि- परिगणाणेहिं परिहायमाणेहिं घाणपरिमाणेहिं परिहायतात्मनि, उत्त० १५ अ० । आत्मना गुप्तः । स्वशक्त्यैव माणेहिं रमणपरिणाणहिं परिहायमाणेहिं फासपरिरक्षिते लताभेद, नी० । तस्याः स्पर्शन हि अतिकण्डूयन साहिं परिहायमाणेहिं अभिकंतं च खलु वय सपहाए दुःखं भवति तद्रयाधान्येन सा स्पृश्यत इति तस्या श्रात्म गुप्तत्वम् । वाच०। तओ से एगदा मुढभाव जणयंति ॥ ६३ ॥ श्रात (य) छट्ठवाइ (न्)-आत्मषष्ठवादिन-पुं० । श्रान्मा __ 'सोय परिमाणेहि इत्यादि । ततः स एकदा मूढभावं जनयंषष्ठा येषां तान्यात्मषष्ठानि भूतानि विद्यन्त इत्यवं वादिनि तीति । यावत् शृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रं, सांख्यादौ, सूत्रः । तश्च कदम्बपुष्पाऽऽकार द्रव्यता, भावना भाषाव्यग्रहणल___ सांप्रतमात्मषष्ठवादिमते पूर्वपक्षयितुमाह सध्युपयोगस्वभावमिति, तेन श्रोत्रेण परिः-समन्ताद् घट पटशब्दादिविषयाणि ज्ञानानि-परिज्ञानानि तैः श्रोत्रपरिसंति पंचमहाभया, इह मेगसिपाहिया । साजराम्भावात्परिहीयमानः सद्भिस्ततोऽसौ प्राणी एकदा१-नोइन्द्रियशदेन मन: गृश्यते । वृद्धावस्थायाम्-रोगाव्यावसरे या मूढभावम्-मूढतां कर्त Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप) नह व्याकर्त्तव्यतामिन्द्रियपाटवाभावात्मनो जनयति हि. वाऽतिप्राप्तिपरिहारविवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थः । जनयन्तीति विवेकवचनावसरे तिडां तिङो भवन्ति " इति बहुवचनमकार अथवा या विज्ञानानि परिक्षीचमतवाम्यात्मनः सद्विषेयता मापादयन्तीति श्रोघादिविज्ञानानां व तृतीया प्रथमार्थे सुव्यत्ययेन द्रव्येति, एवं चक्षुरादिविज्ञानेष्वपि योज्यम् । अत्र च करणत्वादिन्द्रियाणामेव सर्वत्र यम्-त्रेणात्मनो विज्ञानानि चक्षुपात्मनां विज्ञानानीति । श्राचा० ) अत्र च सोय परिमेहि परिहारमाहीत्यादि य उत्पत्ति प्रति स्वव्यधनन्द्रियाणामुपन्यासः स एवमर्थ इएय्यः इद संशिनः पञ्चेन्द्रियस्य उपदेशदांननाधिकृतत्वादुपदेशश्च श्रोत्रेन्द्रियविषय इति कृत्वा तत्पयत्री च सर्वेन्द्र पर्याप्तिः सूचिता भवाने त्रादिविज्ञानानि च वयतिक्रमे परिहीयते, तदवाह-अभिनमित्यादि अथवा - चितैः करणभूतैः सद्भिः अभियं खलु वयं सहाय तत्र प्राणियों कालता शरीरावस्था योयनादिर्ययः तज्ज शर्माभिमृत्युं वा कान्तमभिक्रान्तम्, इह हि चत्वारि वयसिकुमारवयानि उच , नाधीतं द्वितीयेनार्जितं धनम्। तृतीयेन तपस्याप्तं चतुर्थे किं करिष्यति " ॥ १ ॥ तत्राद्यवयोद्वयातिक्रमे जराभिमुखमभिक्रान्तं वयो भवति, अन्यथा वा त्रीणि वयांसि कीमारयोधनस्थविरत्वं पिता रति कीमार, भर्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातयमर्हति ॥ १॥" अन्यथा वा त्रीणि वयांसि बालमध्यमत्वबृद्धत्यभेदाद उक्तं च-प्रापोडशाद्भवेद बालो, यावत् ती रान्नवर्तकः । मध्यमः सप्तति यावत्परता वृद्ध उच्यते ॥ १॥" एतेषु वयस्तु सर्वेष्वपि या उपचयवत्यवस्था तामतिक्रातोऽतिकाया इत्युच्यते यः समुच्चये न केवल श्री श्रच घांवर सनस्पर्शनायशा नैव्यस्त समस्तैर्देशतः सर्वतो या परीयमाने भीमाय यययातिकान्तं प्रे पर्यालोच्य 'स' इति प्राणी, खलुरिति विशेषण विशेषण श्रत्यर्थ मौढ्यमापयत इति, आह च तता से' इत्यादि, 'तत' इति तस्मादिन्द्रियज्ञानापचयाद्ययोऽतिकमाज्ञा' से ' इति 'पद' मूभाषी मुदत्वं किंकामायनी जनयनि अथवा तस्थासुतः श्रोत्रादिविज्ञानानि परिहीयमाणानि मूढत्वभाव जनयन्तीति । ( १७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । .. • स एवं वार्द्धक्ये मूढस्वभावः सन् प्रायेण लोकावगीतो भवतीत्याद जेवा समिति तेच एगदा शिमगा पुचि परिवयंति सोऽवि ते यिए पच्छा परिव्वजा, सालं ते वच लागाए वा सरवाए वा तुमं पितेसि खाडलं वाखाए वा सरणाए वा, से ण हासाय ण किड्डाए रतीय व विभूसाए (सूत्र -६४ ) 'जहि थे' त्यादि. वाशब्दः पक्षः द्योतकः । यास्तां तावत् अपरी लोका यैः पुत्रकला) द्रामः सार्द्ध सह संवसति : ४५ श्रा (य) त स एव भार्यापुत्राय गमिति बाक्यालङ्कारेण एकदेति बृद्धावस्थायां 'नियगा' आत्मीया ये तन समर्थावस्थायां परिवस्ति परि समग्नाइदम्ति यथाऽयं न तेनापि ददाति यदि वापरिचदग्नि- परिभवन्तीत्युक्तं भवति अथ वा-किनेत्येवं परिवदन्ति, न केवलमेषां तस्यात्मापि तस्यामत्रस्थायामवगीता भवतीति माह च " वलिसंततमस्थिशेपितं शिथिलस्नायुतं फंड (ल) परम् स्वयंपुमान् जुगु किमु कान्ता कमनीयविग्रहा" ॥ १ ॥ गोपालवालामादीनां न दानद्वारेणापन्यस्तंभीं बुद्धिमधितिष्ठतीवनस्तदाविधयनाथ कथानक कोशायनगमचान् बहुपुत्री धनो नाम सार्थवाहस्तेन त्रैकाकिना नानाविः स्वायमुपार्जितम् तथा शेष निवन्धुजनम्वजनमिषलादिभाग्यां मन्ये नमोऽसी कालपरिपाकवशादभावमुपगतः सन् सानोपश्चिमका समस्याथिनाभारं नि चयमननेदशीमवस्थां नीनाः सर्वजनाग्रे "सरा विहिना" इति कृतोपकाराः सन्तः कुलपुत्रतामवलम्बमानाः स्वनः कचित् कार्यव्यासङ्गात् स्वमायाभिस्तमक पूर्व प्रत्यजजागरन् ता अप्नस्नानभोजनादिना यथाकालविहितवत्यस्ततो गच्छन्सु दिवसेषु वर्द्धमानेषु पुत्रभाण्डेषु प्रौढीभवन्तु भविवशकरणपरिवार स गलसांन शनैः शनैरुचिरं शिथिलतां निन्युः असावपि मन्दप्रतिजागरणतया चित्ताभिमानन विसया च सुतरां दुःखसागरावगाढः सन् पुत्रभ्यः स्नुपाशुपतास्वमभिद्यमानाः सुतरामुपचारं परिवत्यः सर्या पर्यालोच्यैकवाक्यतया स्पर्तुमितिवत्यः किमप्ययं प्रतिजागर दभाषाद्विपरीतताउने यदि भवतामय्यस्माकमुपर्ययिताऽम्बेन विश्वसनीयन निरुपयन पि तथैव चक्रुः, तास्तु तस्मिन्नवसरे सर्वा अपि सर्वाणि कार्याणि यथावसरं विहितवत्यः, श्रसावपि पुत्रैः पृष्टः पूर्वविरूक्षिततास्तथैव ता अपवदति नैता मम किञ्चित्स कुन्ति स्तुत्यवागनस्यैवायमुपवर्षमाणोऽपि वाक्याद्यते ततस्तैरप्यवधीरितान्येषामपि यथाऽवसर तद्भण्डनस्वभावतामाचचक्षिर । मांसी पुत्रैरधीरितानुषाभिः परिभूतः परिजननाय मी चापि कचिदयनुपमाननि दुःखितः रामायुषामस्वामनुयतीति एवमन्य ऽपि जराभिभूतविग्रह स्तु कुब्जीकर ऽन्य समर्थः सन् काकनिष्ठ लोकान्परिभवामीति आहात्रे संकुचितं गतिर्विगलिता इन्ताथ नाथं गता दश्यति रूपमेष हसते वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पशुतेक जरयाभिभूतपुरुषं पुत्राश्ययज्ञाय ते॥१॥ इत्यादि, तदेवं जराभिभूतं निजाः परिवदन्त्यसावृषि परिभूयमानस्तद्विरक्लवेतास्तदपवादान् जनायाऽऽ, श्राह च ' सो वा' इत्यादि, वाशब्दः पूर्वापेक्षया पक्षान्तरं दर्शयति ते या निजास्तं परिवदन्ति स या जगज्जरितदेहम्तानिजान् अनेक दोषानतया परिवदेत्-निन्देद्, 2 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) पा(य)तट्ट अभिधानराजेन्द्रः। प्रा(य)तह अथ वा-खिद्यमानार्थतया तानलाययगायति; परिभवती- यसरं संप्रेक्ष्य-पर्यालोच्य धीरः सन् मुहर्तमप्यकं नो प्रमात्यर्थः । येऽपि पूर्वकृतधर्मवशात्तं वृद्धं न परिवदन्ति दयेत्-नो प्रमादवशगो भूयादिति. संप्रदयेत्यत्र अनुस्वार तेऽपि तद्दुःखाउपनयनसमर्था न भवन्ति , आह च- लोपश्चान्दसत्वादिति , अन्यदप्यलाक्षणिकमवजातीयम'नालमि' स्यादि-नाऽलं-न समर्थास्ते पुत्रकलत्रादयस्तवति । स्मादेव देतोरवगन्तव्यमिति, । प्रान्तौहर्तिकत्याच छानप्रत्यक्षभावमुपगतं वृद्धमाह-त्राणाय शरणाय वति , स्थिकोपयोगस्य मुहर्तमित्युक्तम् , अन्यथा समयमप्यकं तत्रापत्तरणसमर्थ ताणमुच्यते, यथा महाश्रोतोऽभिरुह्यमानः | न प्रमादयदिति वाच्यं, तदुक्क्रम्सुकर्णधाराऽधिष्ठितं प्लबमासाद्याऽऽपस्तरतीति, शरण " संप्राप्य मानुषत्वं, संसारासारता व विज्ञाय । पुनर्यदवएम्भान्निर्भयैः स्थीयते तदुच्यत, तत्पुनर्दुर्ग-पर्वतः हे जीव! किं प्रभादा-न चटसे शान्तये सततम् ॥१॥ पुरुषो वेति, एतदुक्तं भवति--जराभिभूतस्य न कश्चित् ननु पुनरिदमतिदुर्लभ-मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम्। त्राणाय, शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय शरणाय । मानुष्यं खद्योतक-तडिल्लताविलसितप्रतिमम् " ॥२॥ वेति, उक्नञ्च-"जन्मजरामरणभयै-रभिदते व्याधिवेदनाग्र इत्यादि, किमर्थश्च नो प्रमादयेदित्याह-'ययो अचेह' त्तिस्ते । जिनवरवचनादन्य-त्र नास्ति शरण कचिल्लोक वयः-कुमा दि 'अत्यति' अतीव एति-याति अत्येति, अन्य॥१॥” इत्यादि. स तु तस्यामवस्थायां किंभूनो भवती च-"जोवणं व" त्ति-अत्येत्यनुवर्तते, यौवनं वाऽत्येति-अत्याह- से ण हस्साए' इत्यादि, स जराजीर्णविग्रहो न तिकामति, वयाग्रहणनैव यौवनस्यावगतत्वात्तदुपादानं प्राहास्याय भवति, तस्यैव हसनीयत्वात् । न परान् हसितुं धान्यख्यापनार्थ, धर्मार्थकामानां तन्निबन्धनत्वात् सर्ववयसां योग्यो भवतीत्यर्थः । स च समक्ष परोक्ष वा एवम यौवनं साधीयः; तदपि वारनं यानीति, उक्नं च-"नईयेगसम भिधीयते जनैः-किं किलास्य हसिनेन हास्यास्पदस्यति । चवलं, च जीवियं जायणश्च कुसुमसमं । सोक्ख च जं न च क्रीडायै न च ललनवल्गनास्फोटनक्रीडानां योग्यो: अणिच्च, तिरिण वि तुरमारणभोजाई"॥१॥ तदेवं मत्या सौ भवति, नापि रत्य भवति रतिरिह विषयगता गृह्यते अहो विहारायोत्थान श्रय इति ।। सा पुनर्ललनावगूहनादिका, तथाभूतोऽप्यवजुगूहिषुः स्त्री- ये पुनः संसाराभिष्वङ्गिणोऽसंयमजीवितमेव बहु भिभिधीयते-न लज्जते भवान्न पश्यति-आत्मानं नाव मन्यन्ते ते किंभूता भवन्तीत्याहलोकयति शिरःपलितभस्मावगुण्डितं मां दुहितृभूतामेयं जीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता गृहितुमिच्छसीत्यादिवचसामास्पदत्वान्न रत्यै भवति, न विभूपायै, यतो विभूषिताऽपि प्रततचर्मबलिकः स नैव विलुपिता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामि त्ति शोभते, उकश्व मममाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नि“न विभूपणमस्य युज्यते, न च हास्य कुत पय विभ्रमः। यगा तं पुब्धि पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा अथ तेषु च वर्तते जनो, ध्रवमायाति परां विडम्बनाम्"॥१॥ नाऽलं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं "जं जं करइ तं तं, न सोहए जोवणे अतिकते । नाऽलं ताणाए वा सरणाए वा । (सूत्र-६६) पुरिसस्स मदिलियाए, एकं धम्म पमुत्तूणं" ॥२॥ 'जीविए' इत्यादि, ये तु वयोऽतिक्रमणं नावगच्छन्ति, गतमप्रशस्तं मूलस्थानम् । सांप्रतं प्रशस्तमुच्यते ते 'इ' इति-अस्मिसंयमजीवित प्रमत्ता अभ्युपपन्ना इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं संपे- विषयकपायेषु प्रमाद्यन्ति प्रमत्ताश्चाहर्निशं परितप्यमानाः हाए धीरे मुहुतमवि णो पमायए वो अच्चेति जोव्यणं कालाकालसमुत्थायिनः सन्तःसवोपघातकारिणीः क्रिया: समारम्भत, इति, आह च-'से हता' इत्यादि, 'से' इव । (सूत्र-६५) स्थप्रशस्तगुणमूलस्थानवान्विषयाभिलाषी प्रमत्तः सन् स्थाअथवा-यत एवं ते सुहृदो नाऽलं त्राणाय शरणाय वा अतः । बरजङ्गमानामसुमतां हन्ता भवतीति, अत्र च बहुवचनकिं विदध्यादित्याह-इश्चमि' त्यादि. इतिरुपप्रदर्शने, अप्र- प्रक्रमेऽपि जात्यपेक्षयैकवचननिर्देश इति, तथा छेत्ता कर्णशस्तमूलगुणस्थाने वर्तमानो जराभिभूतो न हास्याय न नासिकादीनां भत्ता-शिरोनयनादरादीनां लुम्पयिता - क्रीडायै न रत्यै न विभूषायै प्रत्येकं च शुभाशुभकर्मफलं न्थिच्छदनादिभिचिलुम्पयिता ग्रामघातादिभिरपद्रावयिता प्राणिनामित्येचं मत्वा, समुत्थितः-सम्यगुत्थितः शस्त्रप- प्राणव्यपरापको विषशस्त्रादिभिरपदावयिता वा उत्त्रासको रिज्ञानं मूलगुणस्थानमधितिष्ठन् 'अहो' इत्याश्चर्य, विहरणं लोष्टप्रक्षेपादिभिः स किमर्थ हननादिकाः क्रियाः करोतीविहार आश्चर्यभूतो विहारोऽहोविहारो यथासंयमानु- त्याह-'अकडं' इत्यादि, अकृतमिति, यदन्येन नानुष्ठितं ष्ठानं तस्मै अहोविहारायोत्थितः सन् क्षणमपि नो प्रमाद- तदहं करिष्यामीत्येवं मन्यमानोऽर्थोपार्जनाय हननादिकियेदित्युत्तरेण सएटङ्कः । किं च-'अन्तरं चे ' त्यादि, अन्त- यासु प्रवर्तते स एवं क्रूरकर्मा-अतिशयकारी समुद्रलङ्घनारमिति-अवसरस्तच्चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिबोधिलाभसर्वविर- दिकाः क्रियाः कुर्वन्नप्यलाभोदयादपगतसर्वस्वः किंभूतो त्यादिकं, चः समुच्चये, खलुरवधारणे, इममिति अनेने- भवतीत्याह-'जेहिं वा' इत्यादि । वाशब्दो भिन्नक्रमः पदमाह-विनेयस्तपःसंयमादाववसीदन् प्रत्यक्षभावापन्नमार्य- क्षान्तरद्योतको, यैर्मातापितृस्वजनादिभिः सार्द्ध संवसत्यक्षेत्रादिकमन्तरमवसरमुपदाभिधीयते--तवायमेवमूनोs- सौ त एव वा णमिति वाक्यालङ्कारे, एकदेति-अर्थनाशावसरोऽनादौ संसार पुनरतीव सुदुर्लभ एवति, अतस्तम- । द्यापदि शैशवे वा निजा आत्मीया बान्धवाः सुहृदो वा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) श्रा(य)नट्ठ अभिधानराजेन्द्रः । पा(य)त? 'पुब्धि' पूर्वमव तं सर्वोपायक्षीगंग पोपयन्ति म बाऽग्रा- स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । बहुनरं च सहिष्यसि जीव मष्टमनारशलाभः संस्तान्त्रिजान पश्चान्पोषदर्शदानादिना हे !, परवशो न च तत्र गुगाऽस्ति ते "॥१॥ सम्मानयदिति । ते च पोषकाः-पोष्या वा तयापद्नस्य न यावच्च श्रौत्रादिभिर्विज्ञानरपरिहीयमानर्जगजीर्ग न त्राणाय भवन्नीत्याह-' नावं' इत्यादि । त निजा मातापि- निजाः परिवदन्ति. यावच्चानुकम्पया न पापयन्ति रोगाभित्रादयस्तयत्युपदशविषयापना, उच्यते-त्राणाय-पापद्रक्ष- भूनं च न परिहन्ति तावदान्मार्थोऽनुष्य इत्यतशयतिणार्थ शरणाय-निर्भयस्थित्यर्थ नालं-न समर्थाः, त्वमपि तयां धाण-शरणे कर्नु नालमिति : तंदवं तावत् स्वजनो न त्रा प्रणभिकंतं च खलु वयं संपेहाए । (सूत्र-६६) णाय भवतीत्यतत्प्रतिपादितम् । 'श्रणभिकंतच' इत्यादि, चशब्दः प्राधिक्य, खलु शब्द: अर्थो ऽपि महता केशेनोपात्तो रक्षितश्च न त्राणाय पुनःशब्दार्थे, पूर्वमभिकान्तं वयः समीक्ष्य मूढभावं व्रजतीभवतीत्यतत्प्रातपिपादयिषुराह ति प्रतिपादितम् , अनभिकान्तं च पुनर्वयः संप्रदय 'आयटुं सम्मं समणुवासज्जासि' (सूत्र-७१) । इत्युत्तरण संबन्धः, उवादितसेसं तेण वा संणिहिमंणिचो किजइ, इह आत्मार्थम् आत्महितं समनुवासयेत् । कुर्यादित्यर्थः । मेगेसिं अमंजयाणं भोयगाए, तो से एगया रोगसमु- किमनतिकान्तवयसवात्महितमनुप्ठयमुनान्यनापति?, परे. प्पाया समुप्पअंति, जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते वा णं णापि लब्धावसरणात्महितमनुष्ठयमित्येतद् वर्शयतिएगया णियगा तं पुद्धि परिहरंति, सो वा ते णियए खणं जाणाहि पंडिए । (सूत्र-७०) पच्छा परिहरेजा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा क्षणः-अवसगे धर्मानुष्ठानस्य स चार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्त्यातमं पि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा, दिकः परिवादपोपणपरिहारदापदुष्टानां जरावालभावरोगा(सूत्र-६७) णामभाव सनि, तक्षणं जानीहि-अवगच्छ पण्डित!-श्रा. 'उवादिते' ति-'अद्' भक्षणे इत्येतस्मादुपपूर्वान्निष्ठाप्रत्ययः, स्मश अथ वा-अवसीदन् शिष्यः प्रोत्साह्यत-हे अनतिका. तत्र बहुलं छन्दसीतीडागमः, उपादितम्-उपभुक्तं, तस्य शे न्तयौवन ! परिवादादिदोपत्रयास्पृष्टपण्डित! द्रव्य क्षत्रका-- पमुपभुक्तशर्ष, तेन वा वाशब्दादनुपभुक्तशपण या सन्निधाम लभावभेदभिन्नं क्षणम्-अवसरमवंभूतं जानीहि-अवबुध्यसनिधिस्तस्य सन्निचयस्सन्निधिसन्निच यः अथ वा-सम्य स्व । श्राचा(क्षपस्वरूपम् ‘खण' शब्द ३ भाग दर्शयिष्यते) निधीयते-स्थाप्यत उपभोगाय योऽर्थः स संनिधिस्तस्य स- एवंभूतमवसरमवाप्यात्मार्थ समनुवासयदित्युत्तरण सबिचयः-प्राचुर्यम् उपभोग्यद्रव्यनिचय इत्यर्थः,स इहास्मिन् । म्बम्धः। संसार एकचाम-असंयतानां संयताsभासानां वा केषां किश्चचिद्भोजनाय-उपभोगार्थ क्रियते-विधीयत इति, असावपि जाव सोत्तपरिमाणा अपरिहीणा णेत्तपरिमाणा यदर्थमनुष्ठिताऽन्तरायोदयात्तत्संपत्तये न प्रभवतीत्याहतश्री स' त्यादि, ततो द्रव्यसनिधिसंनिचयादुत्तरकाल अपरिहीणा घाणपरिमाणा अपरिहीणा रसणपरिमुपभोगाऽवसरे से तस्य बुभुक्षोरेकदेति व्यक्षेत्रका माणा अपरिहीणा फासपरिमाणा अपरिहाणा इच्चेलभावनिमित्ताविर्भावितवेदनीयकम्मोदये रोगसमुत्पादाः- तेहिं विरूवरूवेहिं पएणाणेहिं अपरिहायमाणेहि ज्वरादिप्रादुर्भावाः समुत्पद्यन्त' इति-आविर्भवन्ति । स आयटुं सम्मं समणुवासेजासि त्ति बेमि । (सूत्र-७१) च तैः कुष्ठगजयक्ष्मादिभिरभिभूतः सन् भग्ननासिको गलत्पाणिपादाऽबिच्छदप्रवृत्तश्वासाऽऽकुलः, किंभूना भव ' जाव' इत्यादि, यावदस्य-विशरारोः कायापसदस्य ति इत्याह-'जहि' इत्यादि , यम्मातापित्रादिभिर्निः श्रोत्रविज्ञानानि जरसा रांगेग वा अपरिहीनानि भवन्ति सार्दै संवसति त एव वा निजा एकदा-रोगोत्पत्तिकाल एवं नेत्रघ्राणरसनस्पर्शविज्ञानानि न विषयग्रहणस्वभावतया पूर्वमेय ने परिहगन्ति, सवा तान्निजान् पश्चात्परिभयो मान्ध प्रतिपद्यन्ते. इत्यतैर्विरूपरूपैः-इष्टानिष्टरूपतया नानास्थापितविवेकः परिहरेत् त्यजत्तनिरपक्षः सहकबत्स्या रूपैः प्रशानैः-प्रकृनिरपरिक्षीयमाणैः सद्भिः किं कुर्यात् , 'दित्यर्थः, ते च स्वजनादयो रोगात्पत्तिकाले परिहरन्तो इत्याह-'श्रायटुं' इत्यादि, आत्मनोऽर्थः आत्मार्थः, स च मा. अपरिहरन्तो वा न त्राणाय भगन्तीति दर्शयति-' नालं' नदर्शनचारित्रात्मकः, अन्यस्त्वनर्थ एव । अथवा-आत्मने इत्यादि, पूर्ववद्, हितं प्रयोजनमात्मार्थ, तच चारित्रानुष्ठानमेव । अथ बारोगाभिभूतान्तःकरगोन-चाउगतप्राणेन न च किमा आयतः-अपर्यवसानान् मोक्ष एव स चासावर्थश्वायतालम्ब्य सम्यककरणेन रोगयेदनाः सोढव्या इति आह र्थोऽतस्तम् , यदि घा-प्रायत्ता-मोक्षः अर्थः-प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रयस्य तत्तथा 'समनुवासयेद्' इति- वस' निजाणितु दुखं पत्तेयं सायं । (सूत्र-६८) वास, इत्यस्माद्धेतुर्माराणजन्ताल्लिद् (सिप् ) सम्-सम्यग् - 'जाणिन' इत्यादि, शात्या प्रत्यकं प्राणिनां दुःखं तद्धि- यथोक्तानुष्ठानेन अनु-पश्चादनभिक्रान्तं वयः संप्रेक्ष्य क्षणमपरीतं शातं वा दीनमानसेन ज्यरादिवेदनोत्पत्तिकाले स्व- अवसरं प्रतिपद्य धोत्रादिविज्ञानानां था प्रहीणनामधिकृतकर्मफलमवश्यमनुभवनीयमिति मत्वा न वक्तव्यं का-! गम्य तत श्रान्मार्थ समनुवासयः-श्रान्मनि विदध्याः । यमिति, उत्युक्तं च-"सह कले( 3 )वर ! दुःखमचिंतयत् , अथ घा-अर्थवशाद्विभक्तिपुरुषविपरिणाम इति कृत्वा तेन Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय) तह या आत्माचैन ज्ञानदर्शनचारिषात्मकेनात्मानं समनुवासयेद्भावयेद्रजेत् यतार्थ या मोक्षाक्यं सम्प अपुनरागमनेनाविति पथानुष्ठानात्यधादात्मना समनुषासयेद् अधिष्ठापयेत् इति परिसमाप्तौ नीमति सुप कर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमिदमाह-गवता श्रीमानस्वामिना तो स्वभावि तदेवाहं सूत्रात्मना बच्मीति । आचा० १ ० २ ० १ ३० । ( १८० ) अभिधान राजेन्द्रः । भात (य) ट्ठि (न्) पारमार्थिन् पुं० आत्मनोऽर्थ स्मार्थः स विद्यते यस्य स तथा । श्रात्मवति, “ एवं से भिक्यूआत (थ) डी" ( सूत्र- ४२ ) यो धन्यमपावेभ्यो रक्षति स श्रात्मार्थी आत्मवानित्युच्यते। सूत्र०२ ४०२ अ० । आत (य) निप्फेडय - आत्मनिस्फोटक-पुं० | आत्मानं स स्पन्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसारयारका निस्सारके सूत्र० । "आयनिकड आयामेवं पांडसाइरेखासि" (सूत्र४२) आत्मानं सम्यग्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसार चारकान्निस्सरियतीति । सूत्र० २ श्रु० २ ० । आत (य) आत्मज्ञ-पुं० । आत्मशानिनि, सूत्र० । अचाण जो जाणति जो प लोगं (सूत्र० २०X ) यो ह्यात्मानं परलोकयापि शरीराद्रद्यतिरिक्रं सुखदुःखाधारं जानाति यश्चात्मद्दितेषु प्रवर्त्तत स आत्मा भवति । येन चात्मा यथावस्थितस्वरूप मान भवति नैवायं सर्वोऽपि लोकः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप विदितो भर्यात, स एव चात्मकोऽस्तीत्यादिक्रियावाद भाषितुमईतीति । सूत्र० १ श्रु० १२ अ० । यात (य) तंत-आत्मतन्त्र - त्रि० । आत्मायत्ते, स्था० ४ ठा० २ उ० । शात (य) तंतकर - आत्मतन्त्रकर- पुं० । श्रात्मतन्त्रः सन् कापी करोतीत्यात्मन्यः । श्रारमायने जनादी, भा रमतन्त्रमात्मायतं धनम् गच्छादि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः । आत्माऽऽयत्तस्य धनस्य गच्छादिकस्य कारके च । स्था० ४ ठा० २ उ० । भात (य) तत्त- आत्मतस्त्र- न० । आत्मनस्तस्वम् । आत्मनो यथार्थस्वरूप, चैतन्यरूपे मतभदे, कर्तृग्यादिरूपे आस्मैव तस्वम्परमपदार्थे, आत्मरूप परमपदार्थे च वाच० । ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक तत्व च । परमार्थदशां ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकमात्मतत्त्वं विहायान्यत्सर्व शरीराद्यपि पराक्यमेवेति । श्राचा० । भात [ ] ततप्यगास आत्मतश्वप्रकाश-पुं० आत्मधर्मप्राग्भावे, अश्रु० । गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासारम्येन यावता । आत्मतयप्रकाशेन तावत्सेच्या गुरूत्तमः ॥ ५ ॥ अष्ट० ८ अष्ट० । वाच० । भात (य) तरग-अत्तर-०नेकेवलं तारपतीत्यात्मनः स्वार्थिप्रत्ययविधानात् आग्मतरकाः । य० । प्रायश्चित्ता पुरुषविशेष व्य०।" आयतरगा० " आतत पुनस्तपाला वैपायनाते तप एव यथोरूपं कुर्वन्ति न पापमाचादीनामित्यात्मानं केवलं तारयन्तीत्यात्मतराः, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् आत्मतरकाः । व्य० १ उ० । आत (प) तुला आत्मतुला बी० आत्मीपम्ये सुष० २ श्रु० २ श्र० । श्रात्मतुल्यतायाम्, सूत्र० १ ० २ अ०३ उ० । कम्हा गं तुम्मे पाणिं पडिसाहरह है, पाणिनो उड़िया, दड्ढे किं भविस्सइ १, दुक्खं ति मन्नमाणा पड़िसाहरइ, एस तुला एस एम एस समोसरणे (सूत्र०४१+) अपश्यमग्निदाहमवान कचिदम्यभिमुखं पाहि ददाती त्येतत्परोऽयं दृष्टान्तः । पाणिना दग्धेनापि किं भवतां भविष्यतीति दुःखमिति चेत् भवन्ती सापादिन दुःखभीरवः सुखलिप्सवः, तदेवं सति सर्वेऽपि जन्तवः संसारोदरवियरवर्तिन एवंभूता एवम् मलाआत्मोपम्पन था मम नाभिमतं दुःखमित्येयं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याऽचैिव प्राधान्येनापणीयाताम् एषा युकिः "आमसर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति" । सूत्र० २ श्रु० २ अ० । 6 एवं सहिते हियासए, आयतुलं पाखेहि संजए ॥ १२४॥ 'एवम् अनन्तकरीत्या परिवर्तमानः सह तिन वर्तत इति सहितो ज्ञानादियु या संयतः प्रवजितोश्वरप्राणिभिः सुखार्चिभिरात्मनाम् श्रामतुल्यतां दुःखाऽप्रियसुखप्रियस्वरूपामधिकं पश्येत् श्रात्मतुल्यान् सर्वानपि प्राणिनः पालयेत् । सूत्र० १ श्रु० २ श्र० । “आयतुले पयासु" ॥३५॥ प्रजायन्त इति प्रजाः पृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वात्मतुल्यः आरमवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः एवंभूत एवं साधुतीति तथा बोक्रम्-" जह मम ण पेियं दुःखं, जाणिय एमेष सजीवाण हाण इवाचे य, सममणई ते सो समय " ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० १ अ० । - डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, ते आओ पास सव्वलोए || १८+ ॥ ये केचन 'हुरे'त्ति-लघवः- कुन्वादयः सूक्ष्मा वा ते सर्वेऽपि प्राणाः प्राणिनो ये च वृद्धा वाक्रशरीरिणस्तान्सर्वानव्यात्मतुख्यान् श्रात्मत्पश्यति सर्वस्मिन्नपि लोके यावस्प्रमाण मम तावदेव कुन्योरपि यथा वा मम दुःखमनभिमतमेव सर्वलोकस्यापि सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते, दुःखाद् वाद्विजन्त । सूत्र० १० १२ अ० । भात (प) आत्मत्व १० मनोभावे, आत्मध वाच० । यह पास तेहिं कुलेहिं आयता जाया (सूत्र- १७२४) 'अर्थ' इति वाक्यापास श्रात्मस्वायात्मीयकर्मानुभवनाय जाताः, आचा० १० ६ श्र० १ ३० ॥ अशेषकर्म कलङ्करहितत्वे मोक्षभावे, सेयमभावे च । सूत्र० । आरंभं तिरियं कट्टु, आतत्ताए परिव्वए ॥ ७ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतत्त अभिधानराजेन्द्रः। पाताय)पसंसा प्रारम्भम्-सायद्यानुष्ठानरूपं, तिर्यककृत्वा-अपहस्तयित्वा गुणैरेवाऽसि पूर्णश्चेत , कृतमात्मप्रशंसया ॥१॥ श्रात्मनो भाव प्रात्मत्वम्-अशषकर्मकलकरहितस्वं तस्मै व्या०-गुणैरिति-'यदि गुणैः' केवलज्ञानादिभिः पूर्णः आत्मत्वाय । यदि चा-भात्मा-मोक्षः; संयमो वा तद्भा न असि तईि प्रात्मप्रशंसया' व्यर्थात्मस्तुन्या ' कृतं' बस्तस्मै तदर्थ परि-समन्ताद् ब्रजेत् : संयमानुष्ठानक्रियायां नाम-श्रितं मिर्गुणात्मनः का प्रशसा ?, पौद्गलिकोपाधिजा दत्तावधानो भयेदित्यर्थः । सूत्र०१ श्रु० ३ १०३ उ० । गुणा इति मूढा वदन्ति तैनं प्रशंसा 'चद् ' यदि सम्यग्दर्शप्रात (य) दंड-आत्मदएड-बु० । प्रात्मानं दण्डयतीत्या नझनाचारित्रतरूपैः साधनगुणैः क्षायिकशानदर्शनचारित्रस्मदण्डः । श्रात्मन उपघातके, " बीयाइ अस्संजय पाय- रूपैः सिद्धगुणः पूर्णः तर्हि वाचकात्मकप्रशंसया कृतम् । दराडे"|+॥ असंयतो-गृहस्था, प्रवजितो वा तत्कर्म- भितमित्यर्थः, प्राग्भाविता गुणाः स्वत एच प्रकटीभवन्ति कारी गृहस्थ एव । स च हरितच्छेदविधाय्यात्मानं दण्ड- नेचुयष्टिः पलालावृता चिरकाल तिष्ठति इति का स्वमुखायतीत्यात्मदण्डः । स हि परमार्थतः परोपघातेनात्मानमधी- स्वमुणप्रशंसना। पहन्ति । सूत्र०१थु०७०"बस कारण य पाय पुनर्व्यवहारेण दर्शयतिदराडे" ॥२+ । यथैभिः कायैः-समारभ्यमाणैः पीजय श्रेयोमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षाम्भःप्रवाहतः। मानैरात्मा दण्ड्यते; तत्समारम्भादात्मदण्डो भवतीत्यर्थः । सूत्र०१ श्रु०७१० । “णिस्सिय. प्रायदण्डा" ॥२३॥ पुण्यानि प्रकटीकुर्वन , फलं किं समवाप्स्यसि ॥२॥ प्रात्मैव दराडयतीति: दण्डो येषां ते भवन्त्यात्मदण्डा श्र- व्या०-'धेयाद्रम' इति-भो भद्र ? 'पुरयानि' पवित्राणि सदाचारप्रवृत्तेरिति । सूत्र०२ श्रु०६ अ०। 'योद्रमस्य मूलानि' कल्याणवृक्षस्य मूलानि ' स्वा'पात (य) दण्डसमायार-आत्मदण्डसमाचार-त्रि०। प्रा. काम्भःप्रवाहवः' स्वस्य उत्कर्षः-श्रीरसुष्यं स एव अम्भःप्रवाहः तस्मात् 'प्रकटीकुर्वन् ' व्यक्तं कुर्वन् कि स्मा दण्ड्यते-हितात् भ्रश्यते येन स प्रारमदण्डः समाचार: फलं समवाप्स्यसि ?, अपि तु नैव, यस्य द्रमस्य मूलम् उअनुष्ठानं येषामनार्याणां ते। अात्महितानुष्ठातरि, सूत्र० त्खातं तेन फलोत्पत्तिर्न भवति । २७.२१०१ उ०1" प्रायदण्डसमायारे॥९४+॥ सूत्र० १७०३ १०१ उ०।। मालम्बिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः । आत (य)दरिस-मात्मदर्श-पुं० । आत्मा-देहः दृश्यतेऽ- अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥३॥ स्मिन् आधारे सञ् । दर्पणे, आदर्श, को। घम् ६ त । व्या०-' पालाम्बता' इति-* स्वगुणरश्मयः' भास्मीगु गरज्जवः ‘परैः' अन्यैः । प्रालम्बिताः' स्मरणचिन्तनेन आत्मनो दर्शने, आत्मसाक्षात्कारे, वाच । गृहीताः ‘हिताय' कल्याणाय स्युः, स्वसुखाय भवन्ति, बात (य)पएस-आत्मप्रदेश-पुं० । जीवांश, पश्चा० १४ | 'अहो' इति-श्राश्चयें स्वगुणाः स्वयं गृहीता भवोदधी विव०॥ पातयन्ति, स्वमुखन स्वगुषोत्कर्षः न कार्यः। आत (य) परिणइ-आत्मपरिणति-स्त्री० । प्रात्मनो-जी उच्चत्वदृष्टिदोषोत्थ-स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । वस्य परिणतिरात्मपरिणतिः। जीवस्यानुष्ठानविशेषसम्पा पूर्वपुरुषसिंहभ्यो, भृशं नीचत्वभावनम् ॥ ४ ॥ दके. परिणामधिशष, हा०।। विषयप्रतिभासं चा-त्मपरिणतिमत्तथा । व्या०-'उच्चत्वदोष' इति-अभ्यासात्प्राप्तवानविनयतपो रूपगुणान्तर्वलितमहामोहोदयेन श्रात्मनि उच्चत्वम् अहं तत्त्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुहर्षयः॥१॥ गुणी मया प्राप्तमिदं, ज्ञानं विनयगुणवानहमिति उच्चत्वप्रात्मबो-जीवस्य परिणतः-अनुष्ठानविशेषसंपाद्यः परि- दृष्टिदोषेण उत्थो यः स्वोत्कर्षः स एव ज्वरः तस्य 'शान्तिणामविशेषः, सैय शेयतया यस्मिन्नस्ति मानेन पुनस्तद्रुप- कम्' उपशमकारणं 'पूर्वपुरुषाः' अईदादयः ते एव सिंक्षः प्रवृत्तिनिवृत्ती अपि तदात्मपरिणतिमत् । हा० १ अष्ट। तेभ्यः 'आत्मन्यूनत्वभावनं' मानोदयतापनिर्वापणं शेयम् । विषयप्रतिभासाख्य-मात्मपरिणतिमत्तथा । "धनो धन्नो वयरो, सालिभहो य थूलभद्दा । तत्वसंवेदनं चैव, त्रिधा ज्ञानं प्रकीर्तितम् ॥ २॥ जहि बिसयकसाया, चत्ता रत्ता गुण नियए ॥१॥" तथा-श्रारमनः-स्वस्य परिणामः-अर्थानर्थप्रतिभासात्मा | (अस्या गाथाया व्याख्या )-धन्याः पूर्वपुरुषा ये वाविद्यते यत्र तत् , अात्मनो-जीवस्य परिणामः-अनुष्ठानवि न्ताधवाः-अनादिभुक्नपरभावास्वादनरामणीयकं त्यजन्ति; शेषसंपाद्यो विद्यते यत्रेति यन सम्यक्त्वलाभप्रयोज्यवस्तु सदुपदेशशातसत्तासुखप्सया प्रात्मधर्मश्रवणसुखम् मनु भूयमानाः चक्रिसंपदो विपद इव मन्यन्ते, स्वगुणेषु धन्यः विषयतावत्त्वमर्थो लभ्यते । द्वा०६ द्वा० । स्थूलभद्रः यो हत्यातुररक्त, कोशाप्रार्थनाऽकम्पितपरिणामआत (य)पसंसा-आत्मप्रसंसा-स्त्री०। प्रात्मस्तुती, अष्ट। स्तु-"अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥ ३॥ (आत्मप्रशंसा च न कार्या ) आत्मस्वरूपध्यानी सर्वे उञ्चत्वदृष्टिदोषोत्थः, स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । परम्-अनात्मत्वेन जानाति । सः अात्मधित् प्रशंसां न पूर्वपुरुषसिद्देभ्यो, भृशं नीदत्वभावनम् ॥४॥ कगति, तंदवाऽऽह शरीररूपलावण्य-ग्रामारामधनादिभिः । गुणैर्यदिन पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया । १-कोशानाम्नविश्या २ मूल मेव काकारेण संगृवातम् । ४६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात(य)पसंसा अभिधामराजेन्द्रः। पातप्पभोगणिवत्तिय उत्कर्षः परपर्यायै-श्चिदानन्दघनस्य कः॥५॥" अपकृष्टत्वात् तुच्छत्वाद् दोषत्वाद् गुरुवाततस्वज्ञानरमणोअहं तु निरर्थककुविकल्पैः चिन्तयामि विषयविषोपायान् ।। पघातत्वात् शोफरोगपुष्टत्ववन्न उत्कर्षाय भवन्ति, किमेभिः उक्तं च-"संतेवि कोवि उज्झर, को वि असंते वि अहिल- पुदलोपच यरूपैः परोपाधिजैः संसर्गश्च मे कदा निवृत्तिः सई । भोप चय इयरच येण वि. दट्टुं पभवेण जह जंबू॥॥" | एभ्य इति संवेगनिर्वेदपरिणतानां नोन्माद इति । इत्यादिभावनया स्वदोषचिन्तनेन आत्मारकपपरिणामो पुनः आत्मानमुपदिशतिनिवार्यः। चोभं गच्छन्समुद्रोऽपि, स्वोत्कर्षपवनेरितः। शरीररूपलावण्य-ग्रामाऽऽरामधनादिभिः। गुणाधान् बुद्बुदीकृत्य, विनाशयसि किं मुधा ॥७॥ उत्कर्षः परपर्यायै-श्चिदानन्दघनस्य कः॥५॥ व्या०-'क्षोभं गच्छन्नि' ति-हे हंस! स्वतत्वजलपूर्णस्वरूपच्या शरीरे'ति-'चिदानन्दघनस्य' चिद्-शानम् अानन्दः मानसनिवासरसिकः त्वं 'समुद्रोऽपि' मुद्रा-साधुलिङ्गरूसुखं ताभ्यां घनस्य-आत्मनः परपर्यायः-संयोगसंभवैः पु पण तया युक्तोऽपि 'स्वोत्कर्षपवनेरितः 'साऽहंकारपवनतुलसनिकर्पोद्भवैः क उत्कर्ष-उन्मादः कैरिति शरीराणि प्रेरितः क्षोभं गच्छन् अध्यवसायः एवमेवं भवन गुणौघान् औदारिकादीनि विनाशिस्वभावानि रूपं-संस्थाननिर्माण अभ्यासोत्पन्नान् श्रुतघरव्रतधरलक्षणान् श्रामपधिरूपान वर्णनामकर्मोद्भवं लावण्यं-चातुर्य सौभाग्यनामोदयनिष्पन्न बुबुदीकृत्य ' मुधा' व्यर्थ किं विनाशयसि प्राप्तगुणवेदादिमाहसंनिकर्षसंभवं ग्रामः-जननिवासलक्षणः, श्रारा गम्भीरो भव, स्वगुणाः स्वस्यैवं हितहेतवः तब, किं परमाः-यनाचानभूमयः, धन-गणिमधरिमादि तेगं द्वन्द्वः तैः दर्शनेन मानोपहतस्य गुणाः तुच्छीभवन्ति, अतो न मानो क उत्कर्षः परत्वात् कर्मबन्धनिबन्धनात् स्वस्यरूपरोधकात् विधेयः। तत्संयोगः निन्ध पव तर्हि क उत्कर्षः १, उहं च उत्तरा- निरपेचाऽनवछिन्ना-नन्तचिन्मात्रमूर्तयः । ध्ययन योगिनो गलितोत्कर्षा-पकर्षानन्पकल्पनाः॥८॥ "धणेण किं धम्मपुराहिगारे, व्या-'निरपेक्षा' इति-योगिनो-यमनियमाघशाल्योगासयणेल वा कामगुणेहि चेव । म्यासोत्पनरत्नत्रयीलक्षणस्वयोगसिद्धा ईशा भयन्ति, समणा भघिस्सामो गुरगोहधारी, 'निरपेक्षाः' निर्गता अपेक्षा-अपेक्षण येभ्यस्ते निरपेक्षाः; बर्हि बिहार अभिगम्म भिक्खू ॥१॥ अपेक्षारहिता इत्यर्थः । 'अनाच्छन्ना' अवच्छेदरहिता। न तस्स दुक्वं विभजति गाइओ, अनन्तचिन्मात्रमूर्तयः' अनन्तं प्रान्तरहितं चिद-शानं नमित्तवमा न सुश्रा न बांधवा। तन्मात्रा शानमात्रा मूर्तिः येषां ते अनन्तचिन्मात्रमूर्तयः इका सय पचणुहाइ दुक्खं, इत्यनेन परभावानुगतंचतनाविकलाः स्वच्छस्वरूपानुगतकत्तारमेवं अणुजाइ कम्म" ॥२॥ चिन्तनपरिणताः 'गलितोत्कर्षापकर्षाः' गलितः उत्कर्षःअतः आत्मगुणानन्दपरिणतानां कर्मोपाधिसंभवे उत्कर्षो उम्मादः अपकर्षः-दीनता तयोः अनल्पा:-कश्यनाः विकन भवति । ल्पजालपटलानि येषां एवंविधा योगिनः शानपरिणताः शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन, पर्यायाः परिभाविताः। शानकरसाः तिष्ठन्ति ते एव तत्वसाधनचिन्मया इति अतो अशुद्धाचाप्रकृष्टत्वात् ,स्वोत्कर्षाय महामुनेः ॥६॥ मानोन्मादजनकः स्वोत्कर्षो निवार्यः । अष्ट०१८ अए। व्या०-'शुद्धाः प्रत्यात्म' इति-तथा मुनेः-निर्गन्थस्य पाको अहाहु से आयरियाण सबसे, सीरीजात्यकार्तस्वरगृहीतात्मस्वरूपस्य शुखाः-पर्यायाः जो लावएआ असणस्स हेऊ ॥ २४॥ सम्यग्ज्ञानचरणध्यानप्राम्भावरूपा श्रात्मपर्यायान उत्क- अथाऽसावाचार्यगुणानां शतांशे वर्तते शतग्रहणमुपलक्षणं र्षाय भवन्ति । कथं न भवन्तीत्याह-प्रत्यात्मसाम्यन सहस्रांऽशादेरप्यधो वर्तते इति 'यो' ह्यन्नस्य हेतुम्-भोजनपरिभाविता श्रात्मानम् आत्मानं प्रति प्रत्यात्म तत्र निमित्तमपरवखादिनिमित्तं वा यात्मगुणान् परणालापयदसाम्येन तुल्यत्वन भाविताः । भावना व किमाधिक्य भाणयेत् असावध्यार्यगुणानां सहस्रांश वर्तते । किमत ! मम जातं?, तन एते झानादयो गुणाः सर्वात्मनि सन्त्येवं पुनर्यः स्वत एवाऽऽत्मप्रशंसां विदधातीति । सूत्र०१ श्रु०७ सर्वसाधारण क उत्कर्ष ? इति भाविताशयः सर्वजीयानां शानाद्यनन्तपर्याययं तुल्यं सिद्ध-संसारस्थयोः न सत्ता- | आत (य)प्पभोग-आत्मप्रयोग-पुं० । आत्मव्यापारे, भेदः । उकं च संवेगरङ्गशालायाम "श्रायणांगणं उववज्जंति, गो परणांगण उववरजति" "नाणागतगुणांववयं, अरूवमणहं च लोगपरिमार्ण। | (सूत्र-१८६४) भ०२० श०१० उ० । कत्ता भाना जीवं, मन्नहु सिद्धाण तुलमिण ॥ १॥" आत (य) प्पयोगणिव्यत्तिय-आत्मप्रयोगनिवर्तित-त्रि। श्रीपूज्यश्व-" जीवा गुणपडियनी, न जस्स दयट्टियस्स| "श्राययोगणियत्तिए" (सूत्र-५६४ +) । श्रात्मनः सामइयं " । तथा ठागांगे-'एग आया' (सूत्र-२। स्था०१ प्रयोगण-मनःप्रभृतिव्यापारण निर्वतितं निष्पादितं यठा०) इत्यादिपाठान् मर्वत्र नुन्यन्य प्रारमनः सदगुणा- त्तत्तथा । प्रात्मनो मनःप्रभृतिव्यापारेण निष्पादिते, भ. कटय क उत्कर्षः अशुद्धाः पर्यायाः मीयिकाः शक्रत्वादयः २६ श०१ उ० । Jain Education Interational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आतप्यमाण आत (य) प्पमाण - आत्मप्रमाण- त्रि० । सार्द्धहस्तत्रयप्रमाणे, प्रव० २ द्वार । आत (य) प्पवाय आत्मप्रवाद- न० । आत्मानं जीवमनेकधा नयमतभेदेन यत्प्रवदति तदात्मप्रवादम् । नं० । यत्राSsस्मा - जीवोऽनेक नयैः प्रोद्यते तदात्मप्रवादम् । स० १४ सम० । श्रात्माऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वएर्यते तदात्मप्रवादम् । (स० १४७ सूत्र टी०) पूर्वगतथुन विशेषे, (स० १४७ सूत्रटी०) तस्य पदप्रमाणं पर्विंशतिपदकोटयः । नं० । स० । आयप्पवायव्वस्स णं सोलस १६ वत्थू पष्मत्ता | नं० । आत्मवादपूर्वस्य सप्तमस्य । स० १६ सम० । प्रायप्पवायपुव्वं, महिमाणस्स तीसगुत्तस्स | नयमयमवाणमायस्स, दिडीमोहो समुष्यत्रो ।। २३३५ ।। आत्मप्रवादनामकं पूर्वमधीयानस्य विशे० (अस्था गाथायाः व्याख्या 'जीवपणसिय' शब्दे चतुर्थभागे १५५४ पृष्ठे वक्ष्यते ) मायप्यवाबपुष्पा, निज्जूडा होइ धम्मपद्मनी ।।१६।। इह आत्मप्रवादपूर्वे यत्रात्मनः संसारिमुक्ताद्यनेकभेदभिन्नस्वनमिति तस्मानि भवति धर्मपी वनिकेत्यर्थः । दश० १ ० । आत (य) प्पियसंबंधण संयोग-आत्मार्पितसम्बन्धनसंयोगपं० संयोगमेदे उ० १० पता 'संजोग' शब्दे सप्तमे भागे वक्ष्यते ) आत (य) बल-आत्मबल न०] आत्मनो बलम् शक्युपचय आत्मबलम् । श्रात्मनः शतपचये, श्राचा० १ ० २ श्र०२ उ०। बहुलाधिकारात् । पो वः ॥ ८ । १ । २३१ ॥ अस्य वैकल्पिकत्वात् । आत (य) बोध- आत्मबोध - पुं० । श्रात्मज्ञाने, पृ० । आत्मबोधो न वः पाशो, देहगेहधनादिकम् । यः क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु, स्वस्य बन्धाय जायते ॥ ६ ॥ भी भया ! वः- युष्माकम् आत्मबोधः श्रात्मज्ञानं न पाश:नबन्धहेतुः तेषु देहगृहधनादिषु यः आत्मना क्षिप्तः स पाशः- रागपरिणामः स्वस्य - श्रात्मनः एव बन्धाय जायते इत्यनेनादिषु यः स सर्वः भवपाशात स्वस्य बन्धहेतुः इत्यनेन परभावा- रागादयः श्रात्मनो बन्धवृद्धिहेतवः | ० १४ अ० । आत (य) भाव आत्मभाव-पुं० । श्रनादिभवाभ्यस्ते मिध्यात्वादिकं विषयगृध्नुतायाम्, “विणइज्जश्रो सव भा२१+भावनादिवाभ्यस्तमध्यात्वादिस्तमपनयेत् यदिया आत्मभाव-विषयता, श्रतस्तमपनयेद् । सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । स्वाभिप्राये च । भ० २ ० ५ उ० । श्रत (य) भाववंकण्या- आत्मभाववङ्कनता - स्त्री० । श्रास्मभावस्याऽप्रशस्तस्य वङ्कनता चक्रीकरणं प्रशस्ततस्त्रोपदर्शनतात्मभावयङ्कनता मायाप्रत्यधिककिया बना मांज्ञायां भावप्रत्ययो न विरुद्ध किया आतरक्स्ख व्यापारत्वात् । स्था० २ ठा० १ उ० । अपणो त्रियं भावं गुडति निषडिगो जगमा दरिया संमादिसिदिलो वा करणफला जो डोमं दरिसेइ । " श्र० ४ ० । यात (या) भाववतव्वया- आत्मभाववक्तव्यता- स्त्री० । श्रাभाष एव स्वाभिप्राय एव न वस्तुना बन्यो वाच्य ऽभिमानाद्येषां ते आत्मभाववक्लव्यास्तेषां भाव आत्मभाववक्तव्यता । अहंमानितायाम् । भ० २ ० ५३० । स एस अट्ठे नो चेव णं श्रयभाववत्तब्वयाप (सूत्र- १११) । चात्मभावायमर्थः न वयमहंमानितथैव भूमः अपि तु परमार्थ एवायमेवंविधः इति ब्रूमः; 64 33 भावना । भ० २०५ ३० । आत (य) भू-आत्मभू - पुं० । श्रात्मनो - मनसो, देहाद्वा भयति भू-कि- ६० मनोभये कामे, देहवे पुत्रे, क न्यायाम्, वाच० । " नायः कुत्राऽपि कस्याधि-दारकी दो बभूवतुः । सपत्नीको द्वितीयात्मभूः " ॥ १ ॥ श्रा० क० ६ श्र० । बुद्धौ च । स्त्री० । श्रात्मनैव भवति । भूक्विप् । शिवे, विष्णो च । वाच० । त्रि० । श्री० । आत (य) रक्ख-आत्मरच वि० अङ्गरक्षके, आत्मानं रागद्वेषादेरकृत्योद्भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः । रागद्वेषादेरकृत्याश्चात्मनो रक्षके, स्था० । ते च - 6 तम आयरक्खा पचचा, तं जहा धम्मियाए पडिचोषणाए पडिपोएना भवइ १, तुमिणीए वा सिया २, उत्ति वा आयाए एगंतमवक मेजा ३ । (सूत्र - १७२ + ) 'मिवार पडिवो मना एवं धार्मिकोपदेशेन न भादविधातुमुचितमित्यादिना प्रेरयताउपदेष्टा भवतीति श्रनुकूलेतरोपसर्गकारिणः ततोऽसाधुपसर्गकरणान्निवर्तते ततोऽकृत्यासेवा न भवतीत्यत श्रात्मा रक्षोभ तूणीको वा वाचंयमः पक्ष इत्यर्थः स्वादिति २ प्रेरणाया अविषये उपेक्षतासामध्ये च ततः स्थानादुत्थाय आय' ति श्रात्मना एकान्तम्-विजनम् अन्तं भूमिभागमवक्रामेत् गच्छेत् । स्था० ३ ठा० ३ उ० । विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्थात्मानं रचयन्तीत्यात्मरक्षाः । कर्मणोऽण् ॥ ५ । ३ । १४ ॥ इत्यण्प्रत्ययः । रा० । देवविशेष, रा० मुख्यमस्य वकमधिकृत्य " सोलसेि आपश्ववदेवसाहस्वी " (अस्य सूत्रांशस्य व्याख्या)षोडशभिरात्मरक्षदेवसहसैरिति विमानाधिपतेः पार्थस्य देवस्थात्मानं रक्षयन्नीत्यात्मरक्षाः कर्मो ३ | १४ | इत्यण्प्रत्ययः । ते च शिरस्त्राणकल्पाः, यथा हि शिरा-शिरस्याक्षिकं भवति तथा तेऽप्यात्मरक्षका गृहीतधनुर्दण्डादिप्रहरणाः समन्ततः सप्तानीकाधिपतेरप्रतश्चावस्थायिनां विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्य प्राणरक्षकाः । देवानामपायाभावात् तेषां तथाग्रहणपुरस्सरमवस्थानं निरर्थकमिति चेतराणां स्थितिमात्रपरियानात् प्रीतिप्रकर्षहेतुत्वाच तथा हि-समन्ततःसर्वासु दिदीहरणा ऊखिता प्रतिष्ठमानाः Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरक्व अभिधानराजेन्द्रः। भातव स्वनायकशरीररक्षणपरायणाः स्वनायकै कनिषण्णदृपयः प-ति-'एवमिति-चरमवत्सर्वेषामिन्द्राणां सामानिकचतगुणा रेषामसहमानानां क्षोभमुत्पादयन्ति-जनयन्ति स्वनायकस्य आत्मरक्षा वाव्याः, ते चार्थत एवम्-सर्वेषामिन्द्राणां सापरां प्रीतिम्। रा०। मानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षाः, तत्र चतुःषषिसहस्राणि चम(तथा च) रस्येन्द्रसामानिकानाम् , बलेस्तु षष्टिः, शेषभवनपतीन्द्राणां चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररमो कइ आय- प्रत्येक पट् षट् सहस्राणि, शक्रस्य चतुरशीतिः, ईशानस्यारक्खदेवसहस्सीओ पमत्तानो ?, गोयमा! चत्तारि चउ-| ऽशीतिः सनत्कुमारस्य द्विसप्ततिः, माहेन्द्रस्य सप्ततिः, सट्ठीओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पमत्ताओ, एए णं ब्रह्मणः पष्टिः, लान्तकस्य पश्चाशत् . शुक्रस्य चत्वारिंशत्, सहस्त्रारस्य त्रिशत् . प्राणतस्य विंशतिः, अच्युतस्य दशआयरक्खवप्मयो । एवं सव्वेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया सहस्राणि सामानिकानामिनि, यदाहआयरक्खा ते भाणियव्या । (१६४ +) "चउसट्री सट्री खलु. छच्च सहस्सा उ असुरवज्जाण । 'वसओ' त्ति-श्रात्मरक्षदेवानां वर्मको वाच्यः, स चायम्- सामागिया उ एए. चउग्गुणा पायरक्खाउ ॥१॥ "सन्नद्धबद्धचम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिण- चउरासीइ असीई, बावत्तरि सत्तरी य सट्ठी य । द्धगेवेजा बद्धाविद्धविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा पमा चत्तालीसा, तीसा वीसा दससहस्सा" ॥२॥ इति । तिणयाई तिसंधियाई वइरामयकोडीणि धराई अभिगिज्झ भ०३ श०६ उ०1 पयो परमाइयकंडकलावा नीलपाणिगो पीयपाणिगो र- आत [य] रक्खि न ]-प्रात्मरक्षिन-त्रि०। आत्मानं रक्षत्तपाणिणो एवं चारुचावचम्मदंडखग्गपासपाणिणो नीलपी | त्यपायभ्यः-कुगतिगमनादिभ्य इत्यवंशीलः आत्मरक्षी । यरत्तचारुचावचम्मदंडखग्गपासवरधरा आयरक्खा रक्खो. कुर्गातगमनादिभ्य पात्मना रक्षणशील, उत्तपाइ०४ अ०॥ वगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं "अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो" ॥ १०+॥ उत्त० ४ अर। समया विणयो किंकरभूया इव चिटुंति" त्ति, अस्या आत (य) रक्खिय-आत्मरक्षित-त्रि० । आत्माऽपोयभ्योयमर्थ:--सनद्धा-सन्नहतिकया कृतसन्नाहाः बद्धः कशाबधनतः यमितश्च वर्गीकृतः शरीरारोपणनः कवचः कङ्कटो दुर्गतिगमनादिभ्या रक्षिता यन स तथा । दुर्गतिगमनहतु निबन्धनात्सायद्यानुष्ठानानिवृत्त, सूत्र० । “ आयपरक्कम यैस्ते तथा, ततः सन्नद्धशब्देन कर्मधारयः । तथा पायरक्खिए " ( सूत्र०४२+)। दुर्गतिगमनहेतुनिबन्धउत्पीडिता प्रत्यञ्चाऽऽरोपणेन शरासनपट्टिका धनुर्यष्टिफैस्ते तथा, अथ वा-उत्पीडिता बाही बद्धा शरास नस्य सावधानुष्ठानस्य निवृत्तत्वाद् । सूत्र०२ श्रु०२ अ० । नपट्टिका धनुर्यष्टिस्ते तथा । पिनद्धं परिहितं प्रैय अरई पिट्ठो किच्चा, विरए आयरक्खिए ॥ १५ ॥ यकं ग्रीवाभरणं यैस्ते तथा, तथा बद्धो अन्थिदानेन आत्मरक्षिता दुर्गतिहेतारपध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः । प्राविद्धश्च शिरस्यारोपणन विमलो बरश्च चिहपट्टो आहिताग्न्यादिषु ॥३१.१५३॥ दर्शनात् नान्तस्य परनिपातः योधतासूत्रको नेत्रादिवस्त्ररूपः सौवर्णो वा पट्टो यैस्ते (हैम व्याकरण सूत्रेण) उत्त०२० । तथा, तथा गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय यैस्ते तथा, अथ आत (य) वं-आत्मवत-त्रि०।" प्रायवं" (सूत्र-१०४)। वा-गृहीतान्यायुधानि तथ्यास्त्राणि प्रहरणानि च यैम्त प्रात्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्तीत्यात्मवान् । सानादिमति, श्रातथा, तथा त्रिनतानि मध्यपार्श्वद्वयलक्षणस्थानत्रयऽवन चा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। तानि त्रिसन्धितानि त्रिषु स्थानेषु कृतसन्धिकानि, नैका आत्मा-चित्तं वश्यतयाऽस्त्यस्य मतप् । मस्य वः खियां निकानीत्यर्थः । वज्रमयकोटीनि धनूंष्यभिगृह्य वदतः पदे ङीप् । वश्यचित्ते, निर्विकारचित्ते च । आत्मा प्रकाश्यतया मुष्टिस्थाने तिष्ठन्तीति सम्बन्धः । परिमात्रिकः सर्वतो विद्यते ऽस्य श्रात्मप्रकाशके शास्त्र, आत्मना तुल्यक्रियावति, मात्रावान् काण्डकलापो येषां ते तथा । नीलपाणय इत्या | श्रात्मतुल्यक्रियायाम् , अव्य० । वाच०। दिषु नीलादिवर्णपुत्वान्नीलादयो बाणभेदाः सम्भाव्यन्ते । अातव-प्रातप-पुं० । श्रा-समन्तात्तपति संतापयति जगचारचापपाणय इत्यत्र च चापं-धनुरेवानागपितज्यमतो दित्यातपः । उत्त० १ अ०। प्रा-तप*घ । उदयोने, कर्म०२ न पुनरुक्तता, चर्मपाणय इत्यत्र चर्मशब्दन स्फुरक उच्यते, कर्मः । स चाद्योता यद्यपि लोके भदेन प्रसिदो-यथा, सू.. दण्डादयः प्रतीताः, उनमेवार्थ संग्रहणेनाह-' नीलपीए' र्यगत शातपः, चन्द्रगतः प्रकाश इति । तथाप्यानपशब्द: स्यादि अथ वा-नीलादीन् सर्वानेव युगपत्कचिद्धारयन्ति चन्द्रप्रभायामपि वर्तत, यदुक्रम्-" चन्द्रिका कौमदी ज्यादेवशक्तरिति दर्शयन्नाह-'नीलपीएं त्यादि, ते चात्मरक्षा न स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः" ॥१॥ इति । सू० ०३ संज्ञामात्रेणयेत्याह आत्मरक्षाः; स्वाम्यात्मरक्षा इत्यर्थः, ते पाहु.। "श्रातवाहवा" (सूत्र-tux) पातप इति चा । श्राएव विशेष्यन्ते रक्षोपगता रक्षामुपगताः; सततं प्रयुक्तरक्षा तप श्रादित्यस्येति । स्था०२ ठा०४ उ० । धर्मे, उत्त०२ इत्यर्थः । एतदेव कमित्याह-गुप्ताः अभेदवृत्तयः, तथा- श्र०।"श्रायवतारणनिमित्त" ॥ ६६४ ॥ उष्णेन परितापना । गुप्तपालीकाः तदन्यतो व्यावृत्तमनोवृत्तिकाः मण्डलीका, व्य०८ उ० । आतप्यते-पीड्यंत शरीरमनेनत्यातपः । तृणयुक्ताः परस्परसम्बद्धाः, युक्पालीकाः निरन्तरमराइलीकाः, पापागादौ. "श्रायवस्स निवाएणं, अउला हवद वेयरणा" प्रत्येकमेकैकशः समयतः पदातिसमाचारमा विनयता- ॥ ३५४॥ उत्त० २० । निविडकिरणे, गद्रे च प्रकाश, विनयन किंकरभूता इव-प्रेष्यत्वं प्राप्ता इनि, अर्य च वाच । स्वनामख्याने अहोगत्रभवे चतुर्विशतितमे मुहर्ने पुस्तकान्तरे साक्षाद् दृश्यत एवेति ।' एवं सव्वसिभिदाणं । च। स०३० सम। चं० प्र०पा व ३२३३॥डांतपस्यवः । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ শনিবার अभिधानराजेन्द्रः। प्रात(य)संजम मातरणाम (न)-भातपनामन्-० नामकर्मभेदे,श्राका यदु-| आत (य) वस-मात्मवश-पि० । प्रात्मनो वशः-आयदयादातपवान् भवति । पृथिवीकाये, मादित्यम स्लादिवत् । - त्तता यत्र । आत्माधीने, “ यद्यदात्मवशं तु स्या-तत्तत्सेश्रा० । यदुनयाजन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यपि उष्ण- | वेत यत्नतः । सर्व परवशं दुःखं, सर्वमास्मवशं सुखम्"॥१॥ प्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम । तद्विपाकश्च | मनु० । वाच । भानुमण्डलगतभूकायिकेष्वेव, न वहौ, प्रवचनप्रतिषेधात्। सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो।६८+ तत्रोप्स्यत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् , उत्कटलोहितवर्णनामो- सर्वार्थेषु विमुक्त-सर्वपदार्थेषु ममतारहितः साधुः-मोक्षदयाश प्रकाशकत्वमिति । पं० सं० ३ द्वार । यदुदयपशा- साधकः सर्वत्रात्मवशो भवति; न कुत्रापि परवशः। ग. जन्तुशरीराणि भानुमण्डलगतपृथ्वीकायिकरूपाणि स्वरू- २ अधिक। पणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातप-यात (य) वायपत्त-मात्मवादप्राप्त-त्रि० । प्रात्मन उपयोनाम । भातपनामोदयश्च वहिशरीरे न भवति सूत्रे प्रति गलक्षणस्य जीवस्यासंख्ययप्रदशात्मकस्य संकोचषिकाशषेधात् । तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् । उत्कटलोहित भाजः स्वकृतफलभुजः प्रत्येकसाधारणतया व्यवस्थितस्य वर्णनामोदयाच्च प्रकाशकत्यम् । कर्म०६ कर्म० । द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनन्तधर्मास्मकस्य वा वाद रविबिंबे उ जियंगं, तावजुयं प्रायवाउ न उ जलणे । आत्मवादस्तं प्राप्त आत्मवादप्राप्तः। सम्यग् यथावस्थि तास्मस्वतस्यवेदिनि , सूत्र० । " श्रायवायपत्ते विऊ " जमुसिणफासस्स तहिं, लोहियवमस्स उदउ त्ति ॥४४॥ (सूत्र०४४)। सूत्र०१ श्रु० १६ १० आतपाद्-भातपनामोदयाज्जीवानामङ्ग-शरीरम् तापयुतं आत (य)वि ( C )-आत्मविद्-त्रि० । पाठान्तरे-" मास्वयमनुष्णमपि उष्ण्यप्रकाशयुक्तं भवति । प्रातपस्य पुनरु यवी" (सूत्र-१०७४)। आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणदयो रविबिम्ब एव । तुशब्द एवकारार्थः । भानुमण्डलादिपा द्वारेण घेत्तीत्यात्मवित् । आत्मनो रक्षके, प्राचा०१थु०३ र्थिवशरीरेल्वेष न पुनर्बलने-हुतभुजि। अत्र युनिमाह-यद् अ०१उ०1 श्रात्मानं यथार्थरूपेण वेत्ति, विद्-कि-६ यस्मात्कारणात् तत्र-ज्वलने-ज्वलनजन्तुशरीरे, तेजस्कायशरीरे इत्यर्थः, उष्णस्पर्शस्योदयः, तथा-'लोहितवरणस्यो ताआत्मस्वरूपके, आत्मानं स्वपक्षं वेत्ति क्विप् । स्वदय' इति-तेजस्कायशरीराण्येवाष्णस्पर्शोदयेनोष्णानि, लो पक्षातरि, । वाच०। हितवर्णनामोदयानु प्रकाशयुक्तानि भवन्ति, न त्वातपादया आत ( य) वीरिय-आत्मवीर्य-न। वीर्यभेदे, नि००। दिति भावः। तदुदयाज्जन्तुशरीराण्यात्मनानुष्णान्यप्युष्ण प्रायविरियं दुविहं-विभोगायबीरियं च, अविभोगायवीप्रकाशरूपमातपं कुर्वन्ति, तदातपनामेत्यर्थः। कर्म०१ कर्म । | रियं च । विगायबीरियं जहा-संसारावस्थस्स जीवस्स मणमादिजोगा वियोगजा भवन्ति, अवियोगाऽऽयवीरियं भात(य)चणिवाय-पातपनिपात-पुं० । प्रातपस्य-धर्मस्य पुण-उवोगो असंखेज्जा पप्प एसत्तणं । नि० चू०१ उ०। नितरां पातो निपातः । धर्मस्य नितराम्पाते, उत्त। पात (य) विसोहि-आत्मविशुद्धि-खी० । उत्कालिकश्रुतश्रायवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा ॥ ३५४ ।। विशष, नं। प्रात्मनो-जीवस्यालांचना प्रायश्चित्तप्रनिपत्तिप्र. आतपस्य निपातन-धर्मस्य संयोगेन अतुला वेदना भवति, भृतिप्रकारेण विशुद्धिः कर्मविगमनलक्षणा प्रतिपाद्यते यस्यां तापशीतवर्षावातादिपीडाऽस्माभिः सोढुं न शक्यते। अथ ग्रन्थपद्धती सा आत्मविशुद्धिः । नं० । आत्मनो जीवबा-श्रातप्यते-पीज्यते शरीरमनेनेत्यातपः तृणपाषाणादि स्यालोचनादिप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिप्रकारेण विशुद्धिः कर्मरप्युच्यते तस्य संगेनास्मच्छरीरे महती वेदना भवति । विगमनलक्षणा प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनमात्मविशुद्धिः। पा०। उत्त०२०। पात (य) वेयावच्चकर-आत्मवैयावश्यकर-त्रि० । अलसे, भात (य) वतत्त-आतपतप्त--त्रि० । धर्मतप्ते, " पातयतत्ते बद्दे अहव"॥२०१४ ॥ प्रायवततं अप्पोदगं अवह घे विसम्भोगिके च । स्था। पंति । असह प्रायवतत्तं वह घिप्पति । नि० चू०१ उ०।। प्रायवेयावच्चकरे नाममेगे, णो परवेया वच्चकरे । (सूत्र-३२.x) श्रात (य) व (२)-पातपवत-त्रि० । प्रातपोऽस्स्यत्र । मात्मवैयावृत्यकरः-अलसो, विसम्भोगिको वा। स्था० ४. मतुप् । मस्य वः । प्रातपयुक्ने, "शृङ्गाणि यस्यातपयन्ति ठा०३ उ० । सिद्धाः" वाच० । अहोरात्रभवे स्वनामख्याते चतुर्विशे आतसंचयणिज-आत्मसंचेतनीय-पुं० । आत्मना संचेत्यन्तेमुहूर्ते, जं०७ वक्ष० । कल्प। क्रियन्त इत्यात्मसंचतनीयाः । स्था०४ ठा० ४ उ० । उपपात (य)वाल-भात्मपाल--त्रि० । आत्मानमेव पालयती सर्गभेदे, स्था०४ ठा०४ उ०। (अस्य भेदोहरणादिबहुवत्यात्मपालः । प्रात्मनः पालके, शा० १७०१०। क्रव्यता 'उवसाग' शब्दे स्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) आतवालोय-पातपालोक--पुं०। हुतवहतापदर्शने, शा"ा-| बात (य) संजम-आत्मसंयम-पुं० । श्रात्मनः-शरीरस्य तवालोयमहंततुंबड्यपुराणकरणे" (सूत्र-२७४) ।शा०१| संयमः । संवृताङ्गोपाङ्गेन्द्रियत्वे, पा०। प्रात्मनो-मनसः ध्रु०१०। संयमः । चित्तसंयमने, वाच०। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात(य)मंजमपर अभिधानराजेन्द्रः। प्रात(य)सुह पात (य) संयमपर-आत्मसंयमपर-त्रि० । आत्मनः-शरीर-| तब्भवसुद्धिहेउं, आणाएँ पयत्तमाणस्स ॥ ३२ ॥ स्य संयमः संवृतातोपानेन्द्रियत्वम् तत्परं-तत्प्रधानम् । स- पश्चा०२ विव०। वृतातोपाङ्गेन्द्रियत्वप्रधाने, पो०६ विवः ।। (एतासां माथानां व्याख्या 'पवज्जा' शब्दे पञ्चमेभागे पात (य)संयमोवाय-आत्मसंयमोपाय-पुं०। संयमनं संयम करिष्यते।) श्रारमनः संयम आत्मसंयमस्तदुपायः । आत्मसंयमनोपाये. प्रात(य)समया-आत्मसमता-स्त्री०। प्रात्मौपम्ये, प्राचा। दश। उक्तंच-"तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रत सर्वत्रात्मौपम्यं समाचरेदित्याहस्सदा । स एव धृतिमान् धर्म-स्तस्यैव च जिनो हितः " आतवो बहिया पास, तम्हा ण हंता ण विधायए । ॥१॥ इति । दश०१०) (सूत्र-११५४)। आत(य)संवेषण-आत्मसंवेदन-न। द्रव्योपसर्गभेदे. सूत्र तथा च उपसर्गमधिकृत्य यथा ह्यात्मनः सुखमिष्टमितरत्वन्यथा तथा बहिरएिदब्वे चउब्बिहो दे-चमणुयतिरियायसंवेतो ॥ ४७ ॥ आत्मनो व्यतिरिक्यानामपि जन्तूनां सुखप्रियत्वमसुखप्रियवं च पश्य-श्रव धारय, तदेवमात्मसमतां सर्वप्राणिनामबआन्मसंवेदना अपि चतुर्विधा, तद्यथा-घट्टनातः, लेश चार्य किं कर्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि । यस्मात्सर्वेनातः, अकुलाद्यवयवसंश्लेषरूपाया स्तम्भनाता, प्रपाताच । ऽपि जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्तस्मात्तेषां न हन्तासूत्र० १ थु•३०१ उ०। न व्यापादकः स्यात् , नाप्यपरैस्तान जन्तून् विविधैर्नापात (य) संवेयणिज-आत्मसंवेदनीय-पुं० । आत्मना नाप्रकारैरुपायैर्घातयेत्-विघातयेदिति । प्राचा०१ श्रु०३ क्रियन्त इत्यात्मसंवेदनीयाः । द्रव्योपसर्गभेदे, श्रा० ०१ अ०३3.1 अ०। (एनस्य भेदादिबहुवक्तव्यता 'उबसम्म' शब्देऽस्मिन्नेव | आत (य) समोयार-आत्मसमवतार-पुं० । शरीरभव्यभागे वक्ष्यते)। प्रात( य) सक्खि (न्)-आत्मसाक्षिन-त्रि० । आत्मनः शरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतारभेदे, अनु। बुद्धिवृत्तः साक्षी-प्रकाशकः वेदान्तादिमतसिडे बुद्धिवृद्धि सब्बदव्या विणं आयसमोअरिणं प्रायभावे समोप्रकाशके चैतन्ये, वाचक। आत्मा-स्वजीवः स्वस्वसंचित- रंति । (सूत्र-१५३+) प्रत्यक्षविरतिपरिणामपरिणतः साक्षी यत्र तात्मसालिकम् । शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारखिविधः प्रमस्वजीवसाक्षिके, पा०। तः, तद्यथा-आत्मसमवतार इत्यादि । तत्र सर्वद्रव्याख्यआत (ब) (अप्प)सत्तम-आत्मसप्तम-त्रि० । श्रात्मना स-| प्यात्मसमवतारेण चिन्त्यमानान्यात्मभावे-स्वकीयस्वरूप नमः-सप्तानां पूरण श्रात्मा वा सप्तमो यस्यासावारमसप्तमः। समक्तरन्ति–वर्तन्ते तदव्यतिरिकत्वात्तेषाम् । अनु० । सप्तानां पूरण आत्मा यस्य । तस्मिन् , स्था०। “मली (अत्र बहुवक्रव्यता 'समोयार' शब्दे सप्तमे भागे करिष्यते) अरहा अप्पसत्तम मुंड झवित्ता" (सूत्र-५६४+ ) स्था०७ | आत (य) सरीरखेत्तोगाढ-आत्मशरीरक्षेत्रावगाढ-त्रि० । ठा०३उ। स्वशरीरक्षेत्रव्यवस्थिते, भ० । "श्रायसरीरत्तोगाढे पोग्गले आत(य)समप्पण-आत्मसमर्पण-ना आत्मनिवेदने, पञ्चा०। अत्तमायाए श्राहारेन्ति " (सूत्र-२५८+)। स्वशरीरे व्यवगुरवे चात्मनिवेदनं महते फलाय स्थितानित्यर्थः । भ०६ श. १० उ०। अह तिपयाहिणपुवं, सम्म सुद्धेण चित्तरयणेण । आत (य) साय-आत्मसात-न० 1 आत्मसुखे, सूत्र० । " भूताई जे हिंसति आयसातारा" अभूवन भवन्ति भगुरुणोऽणुक्यणं स-बहेव दढमप्पणा एत्थ ॥२६॥ विष्यन्तीति भूनानि-प्राणिनस्तानि अात्मसुखार्थ हिनस्तिअथ तदात्मनिवेदनं गुरुः प्रतिपद्यते न वा, यदि न प्रति- व्यापादयति । सूत्र०१ श्रु०७ १०।। पद्यते तदा न युक्नं निष्फलत्वात्तस्येत्याशङ्क परिहरशाह-शात (यो मायाणगामि (न)-प्रात्मसातानुगामिन-पु०॥ एसा खलु गुरुभत्ती, उक्कोसो एस दाणधम्मो उ। स्वसुखलिप्सौ, सूत्र। भावविसुद्धीऍ दहें, इहरा वि य बीयमेयस्म ॥ ३०॥ हंता छत्ता पगम्भित्ता, आयसायाणुगामिणो ॥ ५॥ कमिदं भावविशुद्धाभावपूर्वकमात्मनिवेदनमुत्कृष्टदान- आत्मसातानुगामिनः-स्वसुखलिप्सवः । सूत्र०१ श्रु०८ अ० धर्मर्वाजं भवतीत्याह प्रात(यमुह-आत्मसुख-न । शरीरमुख, सूत्र०। “आयजं उनमचग्यिमिणं, मोउं पि अणुत्तमाण पारे ति। | सुहं पदुश" ॥४+॥ आत्मसुखम्प्रतीत्य-स्वस्य शरीरसुता एपमगामाया, उकोसो होइ एयस्स ॥ ३१ ॥ | खकृत । सूत्र० १ श्रु. ५०१ उ० । खत । सूत्र०१थु. ५०१ उ० । छिदति आयसुह अथ यदि नदानमनिनदन गुरुः प्रतिपदाने तदाऽधिकरण पहुच्च ॥८४॥ सूत्र. १ श्रु. ७० । जीवसुख, द्रव्या०। दोषी गुगः म्यादिन्याशङ्कां परिहानाह अहंक्रमाऽम्भोजयुगोपयोगि, गुरुणा विणाऽहिगरणं, ममनहियम्म एन्थ वन्धुम्मि।। चतः कुरुष्वाऽऽत्मसखं लभस्व ॥७॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) अभिधानराजेन्द्रः । आत(य) सुह । आत्मनो जीवस्य सुखं निराबाधानुभवं लभस्व प्राप्नुहि नयज्ञानात् जीवादीन् परीक्ष्य कर्मभ्य आत्मानं वियोज्यानन्तसुखभाक् भव इत्यर्थः । द्रव्या० ८ अध्या० । श्रात्मैव सुखमस्य झात्मलाभमात्रेण सुखिनि त्रि० । आत्मैव सु सच्चिदानन्दरूपत्यात् । श्रात्मरूप परमानन्दे, २० | बाच० । भात (य) सोहि - आत्मशुद्धि-स्त्री० । श्रात्मनो - देहस्य, मनसोपा शुद्धी, विशुद्धी च वाच० कर्मक्षयोपशमये च "श्रावयजोगमायसोद्दीप " ॥ १४४ ॥ आत्मशुच्या कर्मक्षयोपशम पक्षपाऽयतयोग-सुप्रणिनिमनोवाक्कायात्मकं विधाय । श्राचा० १ श्रु० ६ ०४ उ० । भात (य) हित धारमहित चि० स्पहिते, सूत्र "प्रायदिया सा ॥१६४॥ आत्महिताय स्वहितं मन्यमानाः । सूत्र० १ श्रु० ४ ० १ उ० । शरीराय हिते, " श्रापट्टी आहिता" (सूत्र- १+1) आत्महितानां हितमिष हितम् आत्मदिन शरीरे आत्मनि च भवति । तत्र शरीरे हिताऽहितं पथ्यापथ्याहारादिकम् । आत्मनि तु हिंसादिप्रवृत्तिनिवृत्ती । अथवा आत्मनो हितानि त्रीणि त्रिषष्ठानि पाखडितानि त येषां ते आत्महिताः । दशा० ५ अ० । श्रहिताचाराश्च चौरादयः, अयं त्वात्महित बेहिकामुनिकापायभीरुत्वाद्। सूत्र०२० २ ० । “ब्रायदि अणियाणसं" (सू २०१) सूत्र० १० २० ३ उ० । -- मायहेउ आत्महेतु पुं० आत्मनिमित्ते १० | "आयडेड पर उभये ॥३३८+॥ आत्मदेतो:- आत्मनिमितम् ०१०० "केइ पुरिसे श्रयछेउं वा खाइहेउं वा" (सूत्र - १७+) । श्रात्मनिमित्तम् श्रात्मार्थम् । सूत्र० २ ० २ अ० । आता (अप्पा) बी० । आत्मन् पुं० तमनि। स्वरूपे, याच० भ० । भस्माऽऽत्मनोः पो वा ॥ ८२२५१॥ इति है प्राकृतसूत्रेण भस्माSSत्मनोः संयुक्तस्य पो वा । अप्पा | अाणे । पक्षे अत्ता । प्रा० । पुंस्यन श्राणो राजवश्च ॥ ८ | ३ | ५६ ॥ इति हेमप्राकृतसूत्रेण वर्तमानस्याऽन्तस्य स्थाने आण इत्यादेशो वा भवति । पक्षे यथादर्शनं राजवत् व कार्थ्यं भवति । श्राणादेशे च " अतः सेडः " ॥ ८ । ३ । २ ॥ इत्यादयः प्रवर्तन्ते । पक्षे तु राजवत् अथप शस् । जस्शस्ङसिङसां णो ॥ ८ । ३ । ५० ॥ टोणा ॥ ८ । ३ । ५१ ॥ इममामा ॥ ८ । ३ । ५३ ॥ इति प्रवर्तन्ते । अप्पाणो । नव्याणा, प्रथमा । अपायं । अप्पाणे, द्वितीया । अध्यायेण । प्यानिया या अप्पाणान्त पञ्चमी अप्पाणस्स | अप्पागाण, षष्ठी । श्रध्यास्मि । अप्पासु, सप्तमी । श्रप्या कां । पक्षे राजवत् । अप्पा अप्पो प्रथ० | हे अप्पा ! हे अप्प ! संबोधनम् । अप्पाणो निति अप्पासो पेन्छयाया अभियान। अपाश्रो । अप्पाड । अप्पाहि । अप्पा हिन्तो । अप्पा | , प्यासुन्तो अप्पा घ प्रणाएं । अप्पे अप्पेतु। प्रा० । " आत्मनष्टो विश्रा गइआ ॥ ८ । ३ । ५७ ॥ श्रास्मनः परस्थायाः स्थाने णिश्रा राइना इत्यादेशौ वा भवतः । अप्पणिश्रा पाउसे उवगप्रस्मि । अप्प विद्या अविद्माणिया अप्पण्या प 66 35 प्रा० । यत्ने, वाच० । स्वस्मिन्, श्रायाए एगंतमंतं श्रवकामंति ( सूत्र - १४२ + ) । श्रायाए ' ति-आत्मना स्वयमित्यर्थः । भ० ३ ० २३० ॥ दोहिं ठाणेहिं आया सरीरं फुसित्ता गं गिजाति, तं जहादेसेण वि आया सरीरं फुसित्ता यं णिजाति, सब्वेण वि आया सरीरगं फुसित्ता यं खिजाति एवं फुरिता खं, एवं फुडित्ता, एवं संवट्टित्ता, निव्वद्वित्ता । (सूत्र - ६७ ) ', 6 ' दोहि ' इत्यादिकं कण्ठ्यम् । नवरं द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां देसेण वित्ति-देशेनापि कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषांचिप्रदेश वा इलिकास्थानं गच्छता जीवन शरीरात्खिात्मा जीवः शरीरम् देहं स्पृष्ठाश्लिष्टा निर्यात शरीराग्मरणकाले निस्सरतीति सम्व वित्त- सर्वेण सर्वात्मना सर्वैर्जीव प्रदेशः कन्दुकगत्योपादस्थानं शरीराद् बहिः प्रदेशानामादिति । अथवा-देशेनाऽपि देतो अपशब्दः सर्वेणापीत्यपेक्षः। आत्मा शरीरं कोऽयं शरीरदेशं पादादिकं स्पृष्टाव चान्तरेभ्यः प्रदेशसंहारानिपति, स च संसारी। सर्वेणापि सर्वतयाऽपि, अपिः देशेनापीत्यपेक्षः सर्वमपि शरीरं स्पृष्ट्वा निर्वातीति भावः स च सिद्धो यस्यति च" पायगिजा निरपती "स्वादित्-" सम्यंगनिज्जाया सिद्धेतु "ति । श्रात्मना शरीरस्य स्पर्शने सति स्फुरणं भक्तीति इत्यत उच्यते-'एवमित्यादि, 'दम' ति 'दोहि डागर्दित्याभिलापसंसूचनार्थः, तदेशेनापि किय द्विरण्यात्मप्रदेशैरिलिकागतिकाले 'सव्वेण वि 'त्ति सर्वैरपि मेन्दुकगतिकाले शरीरम् फुरिता तिस्फोरथित्वा सम्पदं कृत्या नियति, अथवा शरीरकं देशतः शरीरदेशमित्यर्थः स्फोरयित्वा पादादिनियाले सर्वतः शरीरं स्फोरयित्वा सर्वाङ्गनियांणावसर इति । स्फुरणाच सारमका स्फुटं भवतीत्याद' एवमित्यादि एमितितथैव देशेनात्मदेशेन शरीरकम् ' फुडला 'ति-संचेतनतथा स्फुरणलिङ्गतः स्फुटं कृत्या तिसरमना स्फुटं कृत्वा गेन्दुकगताविति अथवा शररिकं देशतः सात्मकतया स्फुटं कृत्वा पादादिना निर्याणकाले सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणप्रस्ताव इति, अथवा 'फुडिता' स्फोटयित्वा विशीत देशतोपासितः सर्पपिशरसेन देवदीपादिजीववदिति शरीरकं सात्मकतपा स्फुटीकुर्वस्तरसंयमपि कश्वित्करोतीत्याि स्वादि एवमिति तथैव संपति संवर्त्य - संकोच्य शरीरकं देशेनेलिकागती शरीरस्थितप्रदेशैः सर्वेण – सर्वात्मना गेन्दुकगतौ सर्वात्मप्रदेशानां शरीरस्थितत्वानिर्यातीति अथवा शरीरकं शरीरिणमुपचाराद्दण्डयोगाद्दण्डपुरुषवत्, तत्र देशतः संवर्तनं संसारियो प्रियमाणस्य पादादिगतजीव प्रदेशसंहारात्सर्यतस्तु निर्वाणं गन्तुरिति । अथवा शरीरकं देशतः संवर्त्य हस्तादिसङ्कोचनेन सर्वतः सर्वशरीरसङ्कोचनेन पिपीलिकादिवदिति । आत्मनश्च संवर्त्तनं कुर्व्यन् शरीरस्य निवर्तनं करोतीरपाद एवं निषत्ता सेति वचनव-जी - • - आता , , Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता शेभ्यः शरीरकं पृथक स्वेत्यर्थः तदेशेनेलिकागती सर्वे गेन्दुकगतौ, अथवा- प्रदेशतः शरीरकं निवर्त्यात्मनः पादादिनिर्याणवान्, सर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणवानिति, अथवा पञ्चविवशरीरसमुद्द्यापेक्षया देशतः शरीरम् श्रदारिकादि निवत्ये तेजसका स्वादाय तथा सर्वे सर्व शरीरसमुदाय विच निर्याति सिद्धयतीत्यर्थः, (१८) अभिधानराजेन्द्रः । 3. अनन्तरं सर्वनिर्याणमनं तथ परम्परामा दिषु ते च यथा स्युस्तथादर्शयचाह दोहिं ठाहिं आता केवलियननं धम्मं लभेजा सयताते, तं जहा- खतेण चेव, उवसमेण चैत्र, एवं ० जाव मणपअवनाणं उप्पाडेजा, तं जहा- खतेण चैव, उवसमेण चैव । (सूत्र - ६८ ) 'दोही' त्यादि, कण्ठ्यं, नवरम् 'खपण चेव' त्ति - ज्ञानावरणी यम्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण उदयप्राप्तस्य क्षयेण - नि जरम, अनुदितस्य चोपशमेन विपाकानुभयोशमेनेत्युकं भवति वारकरणत्-" केवलं यदि परजा मुंडेभवित्ता अगाराश्रो अणगारियं पव्वज्जा केवलं बंभबेरवासमा बसेज्जा केवलेख संजमे संजमेज्जा केबल संपरेचं संवरेज्जा केवलमामियादिनामुपादा" इत्यादि दृश्यम् एवं यावन्मनः पर्यवज्ञानमुत्पादयेदिति, केवलज्ञानं तु क्षयादेव भवतीति तन्त्रोक्तम् । इह च यद्यपि बोध्यादयः सम्यक्त्यचारिणरूपस्यात्केवलेन ज्ञयेण, उपशमेन व भवन्ति । तथाप्येते क्षयोपशमनापि भवन्ति । अवामनियोधिकादीनि तु न भवन्तीति सर्वसाधारणः क्षयोपशम उक्तः । स्था० २ ठा० ४ उ० | देहे, उत्त० उक्तं हि "धत्य-स्वदेहेषु शीला निलमनीयत्नै-कवीर्ये ऽप्यात्मनः स्मृतिः ॥ १ ॥ इति । उत्त० १५ अ० । " तथा च जमि णं विरूवरूयेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारम्भा कांति, तं जहा - अप्पयो से पुत्ताणं । ( ८६ +) जहा इत्यादि, तद्यपदार्थगोलमात्रमेवान्यदप्येवं जातीय मित्रादिकं व्यम् (सेनाभारिप्लाय आत्मा शरीरं तस्मे अर्थ तदर्थे कम्मर पाकादयः क्रियन्ते । श्रचा० १ श्रु० २ ० ५ उ० । मनसि बुद्धिस्थे निजे स्वभाव बुद्धी च वाच देदावि चैतन्ये च । अन्तःकरणे, वाच० । ज्ञाने, प्रकाशस्वरूपे बुढी आत्मनि बुद्धिर्हि मनश्चादिकरणानि प्राप्नोत्यात्मा तेषां प्रत्यभिज्ञानम् । वाच० । अर्के, वह्नौ, वायौ, वाच० । श्रतीत्यात्मा । विशे० २२५६ गाथा | अतति सततं गच्छ त्यपरापरान् स्वपर पर्यायानित्यात्मा । अथवा अतधातोगमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति - सततमवगच्छत्युपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा भ० १० श० १२ उ० । शतति-सातत्येन गच्छति तांस्तान् ज्ञानदर्शनखादिपयानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसंभवात्, उक्तञ्च"एवं जीवो जीवो, संसारी पाणधारणा सिदो पुणरज्जीवो, जीवणपरिणामरहिओ त्ति " ० म० १ ० आता को ह्यात्मा भगवानाह - योऽहमित्यभिमन्यते स कीटक् सूक्ष्मसी, किं तत्सूक्ष्मं न गृह्णीमः, न तु शब्दगन्धानिलाः, किं तु ते इन्द्रियग्राह्याः तेन ब्रहमात्मा न तु प्रायिता हि सः | आ० चू० १ ० । विषयसूचना ( १ ) एकविधः आत्मा । ( २ ) एकविधो ऽप्यात्मा त्रिविधः । ( ३ ) निक्षेप आत्मनः । (४) अष्टविध श्रात्मा । ( ५ ) आत्मानः - सूक्ष्मा, बादराश्च नवविधाश्च । ( ६ ) श्रात्मनः लक्षणम् । (७) परिभोगोपभोगकषायद्वाराणि । (८) इन्द्रियाएात्मनः । (६) चित्तादीनि श्रात्मनः । (१०) आत्मनः अस्तित्वम् । ( ११ ) अभ्याख्यानमात्मनः । (१२) मनोऽस्तित्यमिन्द्रमूर्ति प्रति । (१३) भौतिकत्वमात्मनः । (१४) कस्यादिश आगतोऽहम् । (१५) अन्यत्वम्, अमूर्त्तत्वम्, अनित्यत्वं च श्रात्मनः । (१६) कर्नूल्यमात्मनः । (१७) विभुवमात्मनः । (१८) परिमाणमात्मनः । (१६) विस्तरत एकत्वमात्मनः । ( २० ) क्रियावत्वमात्मनः । . (२१) ज्ञानमात्मनो भिन्नम्, अभिनं च । (२२) द्वाभ्यां स्थानाभ्यामात्मा जानाति । (२३) श्रात्मनिरूपणे स्फुटगाथाः । (२४) क्षणिकत्वमात्मनः । (२५) रत्नप्रादिभावानामात्मत्वम् । ( २६ ) गाथा: - " अप्पा राई वेयरणी " ति । ( १ ) एकविध श्रात्मा । एगे आता (या ) | ( सूत्र - २ ) एको न द्वयादिरूपः आत्मा जीवः कथञ्चिदिति गम्यते । स्था० १ ठा० । (अस्य सूत्रस्य विस्तरतो व्याख्या ( १६ ) ऊनविंशे अधिकारा करिष्यते) (आत्मत्वमेय जीवत्यम् अस्या विवेचनं भविष्यति द्विविधत्वम् जीवस्य जीव शब्दे चतुर्थभाग १५२२ पृष्ठे करिष्यते ) " (२) एकविधोऽपि स च ( आत्मा ) त्रिविधःबाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च त्रयः । कायाधिष्ठायकध्येयाः प्रसिद्धा योगाङ्मये ॥ १७ ॥ बाह्यात्मा चेति कायः स्वात्मधिया प्रतीयमानः श्रहं स्थूलः, अदंशहत्यानाधिष्ठायकः कार्यचेाजनयज्ञपान् ध्येयश्च ध्यानभाव्य एते त्रयः- 'बाह्यात्मा च अन्तरात्मा च परमात्मा के 'ति योगवामये योगशास्त्रे प्रसिद्धाः । द्वा०२० द्वा० । यस्य देहमनोवचनादिषु श्रात्मत्वभासः देह एवास्मा एवं सर्वङ्गलिकप्रवर्त्तनेषु आत्मनिष्ठेषु श्रात्मत्वबुद्धिः सबाह्यात्मा १, मिथ्यादृष्टिः एषः । पुनः स कर्मावस्थायाम Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याता महानन्द पिश्रात्मनि ज्ञानम्पल स्वरूपे निर्विकाराऽसृताऽबाधरूप समस्त परभावमुळे आत्मबुद्धिः, अन्तरात्मा सम्यग्रगुणखानकृतः ज्ञीवमो या वत् अन्तराऽऽत्मा उच्यते २ यः केवलज्ञानदर्शनोपयुक्तः शुइंसिद्धः स परमात्मा सयोगी अयोगी केवली सिद्धश्च स परमात्मा उच्यते । अष्ट० १५ अ० । ( अस्य वक्तव्यता ( ' जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६३१ पृष्ठे वक्ष्यते ) ( " आसत्यमेव जीवस्यम् ॥ ४ ॥ इत्यादि कवि 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे १५५१ पृष्ठे वक्ष्यते ) - ( १८६ ) अभिधामराजेन्द्रः । (३) जनपद (विशेष माहजीवस उ निक्खेओ, परूपणा लक्खयं च प्रत्थितं । अन्नामुत्तत्तं निच्चकारगो देहवावित्तं ।। २२० ॥ गुणिउगने या, निम्मसाफलता य परिमाणे । जीवस्स तिविहिकालं-मि परिक्खा होइ कायच्वा । २२१ | [ दो दारगाहाओ ] एतद् द्वारगाथाद्वयम् अस्य व्याख्या०- जीवस्य तु निक्षेपां नामाऽऽदिः प्ररूपणा द्विविधाश्च मयन्ति जीवा इत्यादिरूपा च चादानादि अस्तित् सत्त्वं शुद्धपदवाच्यत्वादिना अन्यत्वं देहात् अमूर्तत्वं स्वतः नित्यत्वं विकारानुपलम्भेन, कर्त्तृत्वं स्वकर्मफलभांगात्यापित्यं यत्रेयलध्या गुणवं योगादिना ऊर्ध्वगतित्वमगुरुलघुभावेन निर्माता वि काररहिन, सफलता च कः परिमार्ग लोकाकाशमात्र इत्यादि - जीवस्य विविधकाल इति-विकासविषया, परीक्षा भवति कर्त्तव्या । इति द्वारगाथाद्वयसमाखार्थः । व्यासार्थस्तु भाग्यादवसेयः । 3 तथा च निक्षेपमाह नाम उवया जीवो, दब्यजीवो य भावजीवो य । ओह भवम्गहमिय, सम्भवजीचे व भावमि ।। २२२ ।। नामस्थापनाजीच इति-जीवशद प्रत्येकमभिसंबध्यते नामजीवः स्थापनाजीय इति । तथा द्रव्यजीवध भावजीवश्च वक्ष्यमाणलक्षणः । तत्रौघ इति श्रोधजीवः, भवमति भयजीवः, तद्भज-तद्भवत्पन्नाचे भावजीव इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थ त्वाह [ भाष्यकारः ] - नाम ठपयोंगयाओ, दब्बे गुणपपेहि रहियो नि । विविदो व होमाचे आहे भवतम्भये ॥ ६ ॥ ब्या०-नामस्थापने] गते वादिति भावः 'इथे' इति इयजीयो युगपर्यायाभ्यां चैतन्यमनुष्यत्यादिभ्य हिता बुद्धिपरिकल्पितो न त्वसाचिविधः संमतीति । शिविधध भयति 'भाव' इति-माजी विध्यमाह-ओजीवो भषजीवद्भवजीपधेति । प्राग्यामप्येतदर्थ विधभाष्यकार शैलीप्रामाण्यतो ऽदुष्टमेवेति । अन्ये तु पठन्ति-" भावे उ तिहा भणिश्रो, तं पुण संखेव बोच्छं 'भाव' इति भावजीव, विधेति त्रिप्रातिनिफ्रिकारेण ओघजीवादिः, तमपि च भावार्थमधिकृत्य संक्षेपतो वक्ष्य इति गाथार्थः । 33 ४८ आता (या) तत्रौघजीवमाह [ भाष्यकारः ]संते उपकम्मे, घरई तस्सेव जीवई उदए । तस्येव निजराए, म चि सिद्धो नयमएवं ॥ ७ ॥ च्या०-- सति - विद्यमाने आयुष्ककर्मणि सामान्यरूपे यि सामान्यनैव तिष्ठति भवदधी कथमित्थमवस्थानमात्राजीवत्वमस्पेत्याशङ्कषाऽत्रैवान्वर्ययोजनामाह तस्यैवश्रायुष्कर्मी उदये सति जीवत्यासंसार प्राणान् धारयत्यता जीवनाज्जीव इति । तस्यैवौघायुष्ककर्मणो निर्जरया क्षयेण 'मृत इति सर्वथा जीवनाभावात्, स च सिद्धो मृतो नान्यः, विग्रहगतावपि तथा जीवनसद्भावात्, नयमतनेति सर्वनयमतेनैव मृत इति गाथार्थः । * जीवत्यनेनेति जीवः श्रोधन सामान्येन जीवः श्रोघजीतिविशिष्ट जीवः मध्यपदलोपादिन्यं भवति वक्त ओघजीवितविशिष्ट श्रधजीवः । * अधिकः पाठः। सांप्रतं भयजीवं तद्भवजी वाढ (माध्यकारः ) -- जेण य घरइ भवगयो, जीवो जेख य भवाउ संकमइ । जागाहि तं भवाऽऽ, चउब्विदं तमंचे दुहिं ॥ ८ ॥ निक्खेत्ति गयं । भि व्या०येन च नाराचायुष्य तो नरकादिवस्थितो जांच तथा येन च मनुष्याचातुष्केस भवानरकादिलात् संक्रामति-पाति, मनुष्यादिभवान्तरमिति सामयम्यते, जानीहि विद्धि तदित्थेभूतं भवायुर्भवजीवितं चतुर्विधं नारकतिर्यङ्मनुष्यामरभेदेन तथा तद्भवे तद्भवविषयम् आयुरिति वर्तते तच्च द्विविधम् तिर्यक्त्वतद्भवायुः, मनुष्यत्वतद्भवायुश्च । यस्मात्तावेच मृतौ सन्तौ भूयस्तस्मिन्नेव भव उत्पद्येते; नान्ये, तद्भवजीवितं च तस्मान्मृतस्य तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत्तदुच्यते इति । अत्रापि च भावजीवाधिकारात्तद्भवजीवितविशिष्टश्च जीव विशेषमिति गाथार्थः । उक्लो निक्षेपः । दश०४ श्र० (चतुर्विध पञ्चविध- षडिध-सजीवशदे चतुर्थभागे १५२४ पृष्ठ दर्शविष्यते (४) आत्मविधनिशेषःकइविहा गं भंते ! आता पत्ता १, गोयमा ! अट्ठविहा आता पष्पत्ता, तं जहा- दवियाऽऽता १, कसायाऽऽता २, जोगावात ३ उवओोषाऽऽता ४ खायचा ५, दंसणाssया ६, चरित्ताऽऽया ७, वीरियाऽऽता ८ । कह पिहा मित्यादि यति-अवि-सत गच्छति अपरापरान् स्वपरपर्यायानित्यात्मा अथवा धातोर्गमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति सततमवगच्छत्युपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे स्त्रीलिङ्गनिर्देशः, तस्य चोपयोगलक्षणत्वात्सामान्येनैकविधत्वेऽप्युपाधिभेदादष्टधात्वं तत्र 'दवियाय' त्ति द्रव्यं त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृत पायादपर्याय तद्रूप आत्मा इन्यात्मा सर्वेषां जीवानाम्] १. 'साया' लि-कोधादिपापविशिष्ट आमा कवायात्मा, अक्षीणामुपशान्नकशयाणाम् २, 'जोगाय' त्तियोगा मनःप्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान श्रात्मा योगात्मा, " - Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) प्राता(या) अभिधानराजेन्द्रः। योगवतामय ३, 'उवोगायत्ति-उपयोगः साकारानाकार-1 त्मास्त्युण्योगात्मा चोपयोगलक्षणत्वाजीवानाम् , एतदेवाभेदस्तत्प्रधान प्रात्मा उपयोगात्मा, सिद्धसंसारिस्वरूपः | ह-'जस्स दवियाये' त्यादि, तथा 'जस्स दवियाता तस्स सर्वजीवानाम् । अथवा-विवक्षितवस्तूपयोगापेक्षयोपयोगा- नाणाया भयणाए, जस्स पुण नाणाया तस्स दवियाया स्मा ४, 'नाणाय' त्ति-ज्ञानविशेषत उपसर्जनीकृतदर्शनादि- नियम अस्थि 'ति-यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा रात्मा ज्ञानात्मा, सम्यग्दृऐः ५, एवं दर्शमात्मादयोऽपि नवरं स्यादस्ति यथा सम्यग्दृष्टीना, स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादर्शनात्मा सर्वजीवानाम् ६, चारित्रात्मा विरतानाम् ७, दृष्टीनामित्येवं भजना, यस्य तु ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा वीर्यम-उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति । उक्त्रं च- नियमादस्ति, यथा सिद्धस्येति । तथा ' जस्स दरियाजीवानां द्रव्यात्मा, शेयः स कपायिणां कपायात्मा। या तस्स दसणाया नियमं अत्थि' ति-यथा सिद्धस्य केयोगः संयोगिनां, पुनरुपयागः सर्वजीवानाम् ॥१॥ वलदर्शनम् । 'जस्स वि दंसखाया तस्स दधियाया नियम ज्ञान सम्यग्दो -दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम्। अत्थि' त्ति-यथा चक्षुर्दर्शनादिदर्शनवतां जीयत्वमिति, चारित्रं विरताना, तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥२॥ इति,८॥ तथा'जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए' त्ति यतः सिद्धस्याबिरतस्य वा द्रव्यात्मत्वे सत्यपि चरित्रात्मा एवमष्टधात्मानं प्ररूप्य अथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यदात्म नास्ति विरतानां चास्तीति भजनति 'जस्स पुण चरित्ताभेदान्तरे युज्यत यश्च न युज्यते तस्य तदर्शयितुमाह या तस्स दवियाया नियम अस्थि' त्ति-चारित्रिणां जीवजस्सणं भन्ते ! दवियाऽऽता तस्स णं कसायाता, ज- त्वाव्यभिचारित्वादिति, एवं 'वीरियायाए वि सम' तिस्स कसायाता तस्स दवियाता', गोयमा ! जस्स द- यथा द्रव्यात्मनश्चारित्रात्मना सह भजनोक्का, नियमश्चैवम्वियाता तस्स कसायाता सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स वीर्यात्मनापि सद्देति, तथाहि-यस्य द्रव्यात्मा तस्व बी र्यात्मा नास्ति, यथा सकरणवीपेक्षया सिद्धस्य, तदन्यपुण कसायाता तस्स दवियाता पियम अस्थि । स्य त्वस्तांति भजना, बीर्यात्मनस्तु द्रव्यात्मास्त्येव यथा 'जस्स णमि' त्यादि, इहाष्टौ पदानि स्थाप्यन्ते तत्र प्र संसारिणामिति ॥ ७॥ थमपदं शेषः सप्तभिः सह चिन्त्यते-तत्र यस्य जीवस्य द्र अथ कपायात्मनः सहान्यानि पदानि चिन्त्यन्तेव्यात्मा-द्रव्यात्मत्वं, जीवस्यमित्यर्थः, तस्य कषायात्मा स्यादस्ति कदाचिदस्ति सकपायावस्थायां स्यानास्ति क जस्स से भंते ! कसायाऽऽता तस्स जोगाया पुच्छा ?, दाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकमायावस्थायां, यस्य पुनः क- गोयमा ! जस्स कसायाता तस्स जोगाता णियमं अस्थि, षायात्माऽस्ति तस्य द्रव्यात्मत्वं जीवत्वं नियमादस्ति, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाता सिय अस्थि सिय जीवत्वं बिना कषायामामभावादिति। पत्थि, एवं उवमोगाए वि समं कसायाता णेयब्वा, कजस्सणं भंते दिवियाऽऽता तस्स जोगाता?, एवं जहा। सायाता णाणाता य परोप्परं दोवि भइयवाओ, जहा दवियाता कसायाता भणिया तहा दवियाता जोगायाया| कसायाया य उवोगाया य तहा कसायाया य दंसगाता वि भाणियव्या। तथा यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्माऽस्ति योगवतामिव य कसायाता चरित्ताता य दोऽवि परोप्परं भइयव्याओ, नास्ति चायोगिसिद्धानामिव, तथा यस्य योगात्मा तस्य | जहा कसायाता य जोगाता तहा कसायाता य वीरियाया द्रव्यात्मा नियमादस्ति जीवत्वं विना योगानामभायादेत य भाणियब्याओ एवं जहा कसायायाए वत्तब्बया भणिया देव पूर्वसूत्रोपमानेन दर्शयन्नाह-'एवं जहा दवियाय' त्यादि। तहा जोगायाए कि उवरिमाहिं समं भाणियबाओ । जस्स णं मंते ! दविताऽऽया तस्स उयोगाता एवं स- __ 'जस्स णमि'त्यादि यस्य कषायात्मा तस्य योगात्माऽस्त्येव ब्वत्थ पुच्छा भाणियब्वा, गोयमा ! जस्स दवियाता नहि सकपायोऽयोगी भवति यस्य तु योगात्मा तस्य तस्स उपभोगाया णियम अस्थि, जस्स वि उवोगाता कपायात्मा स्याद्वा न वा । सयोगानां सकषायाणामकपा याणां च भावादिति । एवम्-' उवोगायाए वी 'त्यादि, तस्स वि दवियाता णियम अस्थि, जस्स दरियाता तस्स श्रयमर्थः-यस्य कषायात्मा तस्योपयोगात्मावश्यं भवत्युपखाणाता भयणाए, जस्स पुसा णाणाता तस्स दवियाता योगरहितस्य करायाणामभावात् यस्य पुनरूपयोगात्मा णियमं अस्थि । जस्म दवियाता तस्स दंसणाता णियमं तस्य कषायात्मा भजनया, उपयोगात्मतायां सत्यामपि. अस्थि, जस्स वि दंसणाता तस्स दवियाता णियमं अ कषायिणामेय कषायात्मा भवति । निकषायाणां तु वासा विति भजनेति, तथा-'कसायाया य नाणाया य परोपर स्थि, जस्स दरियाता तस्स चरिनाया भयणाए, जस्स दोषि भइयत्वात्रो' त्ति-कथं ?, यस्य कषायात्मा तस्य पुण चरित्ताता तस्स दवियाता णियमं अस्थि । एवं शानात्मा स्यादस्ति, स्यानास्ति, यतः कषायिणः सम्यगृहवीरियाताए वि सम। ऐर्शानात्मास्ति मिच्यादृऐस्तु तस्य नास्त्य साविति भजना। तथा यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य नियमादुपयोगात्मा तथा यस्य ज्ञानात्मास्ति तस्य कपायात्मा स्यादस्ति, स्यायस्याप्युपयोगारमा तस्य नियमाद् द्रव्यात्मा, एतयोः पर- मास्ति, शानिनां कवायभावात तदभावाचेति भजनेति । स्परेण अविनाभूतत्वाद्यथा सिद्धस्य, तदन्यस्य च द्रव्या- 'जहा कसायाया उवोगाया तहा कसायाया य दंसणाया Jain Education Interational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाता अभिधानराजेन्द्रः। य'त्ति-अतिदेशः, तस्माच्नेदं लब्धम्-'जस्स कसायाया | स्यापि दर्शनात्मा तस्योपयोगात्मास्त्येव यथा सिद्धादीनातस्स दंसणाया नियम अत्थि' दर्शनरहितस्य घटादेः क- मिति २, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादपायात्मनोऽभावात् 'जस्स पुण दंसणाया तस्स कसाया- स्ति, स्यान्नास्ति, यथा संयतानाम् , असंयतानां च, यस्य तु या सिय अस्थि सिय नऽस्थि' दर्शनवतां कषायसद्भावा- चारित्रात्मा तस्योपयोगामास्त्येव यथा संयतानां ३, तथा सदभावाच्चेति, हयान्तार्थस्तु प्राक प्रसिद्ध एवेति 'कसा- यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा म्यादस्ति संसारिणामिव याया य चरित्ताया य दोषि परोप्परं भयब्बाओ' नि- स्यान्नामित सिद्धानामिव, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्योपयोभजना चैवम्-यस्य कषायात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति, गात्मास्त्येव संसारिणामिति ४। स्यान्नास्ति, कथं कषायिणां चारित्रस्य सद्भावात् , प्रमत्त अथ ज्ञानात्मना सहान्यानि त्रीणि चिन्त्यन्तेयतीनामिव तदभावाचासंयतानामिवति, तथा यस्य चारिपात्मा तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं सामा- जस्स णाणाऽऽया तस्स दंसणाया णियमं अत्थि, जस्स यिकादिचारित्रिणां कषायाणां भावाद्यथाख्यातचारित्रिणां पुण दंसणाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्स णाणाया च तदभावादिति । 'जहा कसायाया य जोगाया य तहा। तस्स चरित्ताया सिय अत्थि सिय णत्थि, जस्स पुण कसायाया य बीरियाया य भाणियव्याओ ' त्ति-दृष्टान्तः चरित्ताया तस्स णाणाया णियमं अस्थि, णाणाता वीरिप्राक प्रसिद्धः, दान्तिकस्त्वेवम्-यस्य कषायारमा तस्य धीर्यात्मा नियमादस्ति, न हि कषायवान् वीर्यविकलोऽस्ति, याता दो वि परोप्परं भयणाए । यस्य पुनर्याित्मा तस्य कषायात्मा भजनया, यतो वीर्यवान् तत्र यस्य ज्ञानात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येव सम्यग्दृशासकपायोऽपि स्याद्यथाऽसंयतः अकषायोऽपि स्याद्यथा मिव, यस्य च दर्शनात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा केवलीति ॥६॥ अथ योगात्माऽग्रेतनपः पञ्चभिः सह चि- सम्यग्दृशां, स्यान्नास्ति यथा मिथ्याहशामत एवोक्तम्-भन्तनीयस्तत्र च लाघवार्थमतिदिशमाह-' एवं जहा कसा यणाए ' ति, १, तथा' जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया यायावत्तव्यया भणिया तहा जोगायाए वि उरिमाहिं सिय अस्थि 'त्ति । संयतानामिव । ' सिय नस्थि ' त्ति, समं भाणियम्ब 'ति-सा चैवम्-यस्य योगारमा तस्योपयो- असंयतानामिव 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया गानमा नियमात् यथा सयोगानां यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य नियम अत्थि' त्ति, शानं बिना चारित्रस्याभावादिति २, योगारमा स्यादस्ति यथा सयोगाना स्यानास्ति यथा-- तथा-'नाणाये' त्यादि । अस्यार्थः-यस्य शानात्मा तस्य योगिनां सिद्धानां चेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य ज्ञाना- वीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामिब, स्यान्नास्ति सिद्धारमा स्यादस्ति सम्यगष्टीनामिव, स्यान्नास्ति मिथ्यादृष्टी- नामिब, यस्यापि वीर्यात्मा तस्य शानास्मा स्यादस्ति, सनामिव, यस्य शानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति, यो- म्यग्दृऐरिव, स्यानास्ति मिथ्याश इवति । गिनामिव, म्यानास्ति अयोगिनामिवेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य दर्शनारमास्त्येयोति योगिनामिव, यस्य च दर्श अथ दर्शनात्मना सह द्वे चिन्त्येतेनत्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति योगवतामिव स्याना- जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दो वि भयणाए, स्त्ययोगिनामिब, तथा यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया णियमं अस्थि । जस्स स्यादस्ति विरतानामिय, स्यान्नास्त्यविरतानामिव, यस्यापि चरित्ताया तस्स वीरियाता णियमं अस्थि, जस्स पुण चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचारित्रवतामिय, स्यानास्त्ययोगिनामिबेति, वाचनान्तरे पुनरिदमेवं वीरियाता तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय णत्थि । दृश्यते- जस्स चरित्ताया तस्स जोगाया नियमं 'ति-तत्र __ 'जस्स दसणाये' त्यादि, भावना चास्य-यस्य दर्शनाच चारित्रस्य प्रत्युपक्षणादिव्यापाररूपस्य विवक्षितत्वा- त्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव, स्यानातस्य च योगाविनाभाविवाद्यस्य चारित्रात्मा तस्य यो- स्त्यसंयतानामिव, यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्मागात्मा नियमादित्युच्यते इति, तथा यस्य योगात्मा तस्य स्त्यव साधूनामिति, तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य धीर्यात्मा वीर्यात्मास्त्येव योगसद्भावे वीर्यस्यावश्यं भावात् , यस्य स्यादस्ति संसारिणामिव, स्यानास्ति सिद्धानामिव, यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो बीयविशेषवान् च चीर्यान्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येव संसारिणामिवेति ॥२॥ सयोग्यपि स्यात् यथा सयोगिकयल्यादिरयोग्यपि स्थाद्य- अथान्तिमपदयोोजना- जस्स चरित्ते ' त्यादि, यस्य थाऽयोगकेवलीनि ॥५॥ चारित्रात्मा तस्य वीर्यान्मास्त्येव वीर्य विना चारित्रस्याअथोपयोगात्मना सहान्यानि चत्वारि चिन्त्यन्ते । तत्रा- भावात् , यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति तिदेशमाह साधूनामिव, स्यान्नास्ति असंयतानामिवेति । जहा दवियाताए वत्तव्यया भणिया तहा उवोगा __अधुनैषामेवात्मनामल्पबहुत्यमुच्यतेताए वि उवरिल्लाहिं समं भाणियव्वा । एयासि णं भंते! दवियाऽऽताणं कसायाऽऽताणं जाव एवं च भावना कार्या यस्योपयोगात्मा तस्य शानात्मा वीरियायाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा जाब विसेसाहिस्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां, स्यानास्ति यथा मिथ्यारशां, यस्य च शानात्मा तस्यावश्यमुपयोगात्मा सिद्धानामि या वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा चरित्तायाोणाणायाओ वेति १, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्यव, य- | अणंतगुणाओ, कसायायाओ अणंतगुणाणो जोगायाओ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९२) श्रीता अभिधानराजेन्द्रः। विसेसाहियाओ, वीरियाताओ वि उवयोगदवियदंसणाया- आहारो दिट्ठता, आयाणाईण जहसंखं ॥ १३ ॥ ओ तिन्नि वि तुलाओ, विसेसाहियाओ । (सूत्र-४६७) व्या०-अयस्कारः क्रूरस्तथा परशुरग्निः सुवर्ण चक्षीरनरतत्र च 'सम्वत्थावाश्रो चारित्तायाश्रो' ति-चारित्रिणां वाश्यः तथा आहारो दृष्टान्ता आदानादीनां प्रक्रान्तानां यसंख्यातत्वात् । 'नाणायात्रो अणंतगुणाश्रो' त्ति-सिद्धा- थासंख्य प्रतिज्ञाधुलानेन चैतदभिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्ति दीनां सम्यग्दृशां चारित्रिभ्योऽनन्तगुणत्वात् ।' कसाया- प्रति प्रायः प्रधानाङ्गताख्यापनार्थमिति गाथार्थः । याओ अणतगुणाओ' त्ति, सिद्धेभ्यः कषायोदयवतामन- ___ सांप्रतं प्रयोगानाह (भाष्यकार:)म्तगुणत्वात् ' जोगायाश्रो विसेसाहियात्रो' त्ति-अपगतकपायादपर्योगवद्भिरधिका इत्यर्थः, ' बीरियायाओ विसे देहिंदियाइरित्तो, आया खलु गझगाहगपभोगा। साहियात्रो' त्ति-अयोगिभिरधिका इत्यर्थः, अयोगिनां संडासा अयपिंडो, अयकाराइ ब्व विन्नेओ ॥१४॥ वीर्यवत्वादिति, 'उबोगदवियदसणायाओ तिरिण वि व्या०-देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा । खलु शब्दो विशेषणार्थः, तुल्लाश्री बिसेसाहियानो' त्ति-परस्परापेक्षया तुल्याः स- कथंचित् , न सर्वथा अतिरिक्त एव तदसंवेदनादिप्रसङ्गाबँपां सामान्यजीवरूपत्वात् , वीर्यात्मभ्यः सकाशादुपयोग- दिति अनेन प्रतिक्षार्थमाह, प्रतिज्ञा पुनः अथेन्द्रियाण्यादयाद्रव्यदर्शनात्मानो विशेषाधिकाः, यतो वीर्यात्मनः सिद्धाश्च दानानि विद्यमानादातृकाणि, कुतः इत्याह-ग्राह्यग्राहकप्रयोमीलिता उपयोगाद्यात्मानो भवन्ति, ते च वीर्यात्मभ्यः सि- गात् । ग्राह्या-रूपादयः। ग्राहकाणीन्द्रियाणि तेषां प्रयोगःद्धराशिनाऽधिका भवन्तीति । भवन्ति चात्र गाथा:- स्वफलसाधनव्यापारस्तस्मान ह्यमीषां कर्मकरणभावः क" कोडिसहस्सपुहुन, जईण तो थोवियाउ चरणाया। रिमन्तरेण स्वकार्यसाधनप्रयोगः संभवत्यनेनापि हेत्वर्थनाणायाणंतगुणा, पदुच्च सिद्धे य सिद्धाओ ॥१॥ माह । हेतुश्चादेयादानरूपत्वादिति । दृष्टान्तमाह-संदंशादाहोति कसायायात्रा-ऽणतगुणा जेण ते सरागाणं । दानात्-अयस्पिण्डादादेयात् 'अयस्कारादिवत् 'लाहकारजोगायाभणियाओ, अजोगिवज्जाण तो अहिया ॥२॥ वद्वियः अतिरिक्ता विद्यमान आदानत्यनेनापि शन्तार्थजसलसिगयाण वि, लद्धी विरियं तो समहियाओ। माह-दृधान्तस्तु संदंशकायस्पिण्डवत् । यस्तु तदनतिरिक्तः उघोगदवियदसण-सम्वजियाणं तवो अहिया" ॥३॥ न ततो ग्राह्यग्राहकप्रयोगः । यथा देहादिभ्य एवेति व्यइति । भ० १२ श०१० उ०। तिरेकार्थः, व्यतिरेकन्तु यानि विद्यमानादातृकाणि न (५) जीवाः सूचमाः, बादराश्च (नवविधाश्च )। भवन्ति तान्यादानादेयरूपाण्यपि न भवन्ति । यथा मृतयथा सन्ति तथाऽऽह भाष्यकार: कद्रव्येन्द्रियादीनीति गाथार्थः । उक्तमादानद्वारम् । दुविहा य हुँति जीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि। (७) अधुना (भाष्यकार:) परिभोगद्वारमाहसुहमा य सबलोए, दो चेव य बायरविहाणे ॥४॥ देहो सभोत्तियो खलु, भोज्जत्ता ओयणाइथालं व । व्या०-द्विविधाश्व-द्विप्रकाराश्च, चशब्दात्-नवविधाश्च अन्नप्पउत्तिगा खलु, जोगा परसु ब्व कराता ॥१५॥ पृथिव्यादिद्वीन्द्रियादिभेदेन भवन्ति जीवाः, द्वैविध्यमाह व्या०-देहः सभोकः खल्विति प्रतिक्षा, भोग्यत्वादिति मूचमा, तथा बादराश्च । तत्र सूचमनामकर्मोदयात् सूखमाः, हेतुः ओदनादिस्थालवत्-स्थालस्थितौदनवदिति दृष्टान्तः । बादरनामकर्मोदयाच्च बादरा इति, 'लोके' इति लोकग्रहणम- भोग्यत्वं च देहस्य जीवन तथानिवसतोपभुज्यमानत्वादिति। लोके जीवभवनव्यवच्छेदार्थ तत्र सूक्ष्माश्च सर्वलोक इति च उक्तं परिभोगद्वारम् । अधुना योगद्वारमाह-अन्यप्रयोक्का शब्दस्याबधारणार्थत्वात् सूचमा एव सर्वलोकेषु न बादराः। खलु योगाः, योगा:-साधनानि मनःप्रभृतीनि करणानीति कवितेषामसंभवात् 'द्वे एव च' पर्याप्तकाऽपर्याप्तकलक्षणे प्रतिज्ञार्थः, करणत्वादिति हेतुः, परशुवदिति दृष्टान्तः । 'बादरविधान' वादरविधौ चशब्दात् सूदमविधाने च । भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्य हेतुः, यथा अनित्यो तेषामपि पर्याप्तकाऽपर्याप्तकरूपत्वादिति गाथार्थः । वर्णात्मकः शब्दः, शब्दत्वात् मेघशब्दवदिति गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयन्नाह (भाष्यकारः) उक्नं योगद्वारम् । सुहमा य सवलोए, परियावन्ना भवंति नायव्वा । ___साम्प्रतम् (भाष्यकारः) उपयोगद्वारमाहदो चेव बायराणं, पञ्जत्तियरे अनायव्वा ॥१०॥ उवोगा नाभावो, अग्गि व्व सलक्खणा परिच्चागा। च्या०-सूदमा एव पृथिव्यादयः सर्वलोके-चतुईशरज्ज्वात्म- सकसाया णाभावो, पज्जयगमणा सुवनं व ।। १६ ॥ के पर्यायापना भवन्ति-शातव्याः, 'पर्यायापना' इति-तमेव ज्या०-उपयोगात्-साकारानाकारभेदभिन्नात् 'नाभावो' सूचमपर्यायमापना भावसूक्ष्मा, न तु भूतभाविनो द्रव्यसू जीव इति गम्यते, कुत इत्याह-स्वलक्षणापरित्यागादुपयोधमा रति भावः । तथा द्वौ भेदी बादराणां पृथिव्यादीनां गलक्षणासाधारणात्मीयलक्षणाऽपरित्यागात् अग्निवद्यथाचशब्दात्सूक्ष्माणां च पर्याप्तकेतरौ शातव्यो पर्याप्तकाऽपर्या ऽग्निरोधण्यादिखलक्षणापरित्यागानाभावस्तथा जीवोऽपीति सकाविति गाथार्थः । दश० ४ अ०।। प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु सन्मात्मा स्खलक्षणापरित्यागाद्, (६) (लक्षणद्वारम् 'लक्खण' शब्द षष्ठे भागे वयते)। . अग्निवदिति । उक्तमुपयोगद्वारम् । __ तत्रादानादीनां दृष्टान्तानाह (भाष्यकारः) अधुना कषायद्वारमाह-सकषयत्वाद अचेतनविलक्षणक्रोअयगारकूरपरसू , अग्गिसुवन्ने य खीरनरवासी । धादिपरिणामोपेतत्वादित्यर्थः । माभाची जीवः । कुत Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) अभिधानराजेन्द्रः। इस्याह-पर्यायगमनात् क्रोधमानादिपर्यायप्राप्तेः । सुवर्णवत्। वासनारूपा संख्येयवायुपामसंख्येयम्, संख्येयवर्षायुर्ण कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगार्थः प्रयोगस्तु, च संख्येयमिति गाथार्थः । सन्नात्मा, पर्यायगमनासुपर्ववदिति माथार्थः । उकं (भाष्यम् )कषायद्वारम् । मत्थस्स ऊह बुद्धी, ईहा चेद्वत्थभवगमो उ मई। इदानी ( भाष्यकारः) लेश्याद्वारमाह संभावसत्वतका, गुणपञ्चस्खा पडोब तिल ॥२०॥ लेसानो णाऽभावो, परिणमणसभावाओ य खीरं व। व्याख्या-अर्थस्येहा बुद्धिः संशिनः परनिरपेक्षार्थपरिच्छेद उस्सासा खाभावो, समसम्भावा खउ व चरो ॥१७॥ इति भावः, ईहा-चेष्टा किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इति, सदर्थपर्याखोचनरूपा, अर्थावममस्तु अर्थपरिछेवस्तु शिरः च्या०-लेश्यातो लेश्यासद्भावन न अभावो जीवः, किंतु कण्ड्यनादिधर्मोपपत्तेः पुरुषः एवायमित्येवरूपा मतिः भाव इति, कुत इत्याह-परिणमनस्वभावत्वात्कृष्गादिद्रव्य 'संभावपत्थतक' ति-प्राक्तशैल्या अर्थसंभावना । एषसाचियेच जम्बूवादकादिरपान्तसिद्धतथाविधपरिणाम मेव चायमर्थ उपपचत इत्यादिरूपा तर्का । इत्थं द्वाराणि धर्मस्वात् , क्षीरवदिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु समात्मा व्याख्याय सर्व पते चित्तादयो गुणा वर्तन्त इति परिणामित्वात् क्षीरवदिति । गतं लेश्याद्वारम् । जीवास्यगुणप्रतिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरबाह-गुणप्रभाणापानद्वारमाह-उच्चासादिति अचेतनधर्मविलक्षणप्रा. स्यक्षत्वादेखो घटवदस्ति जीव इति गम्यते । पर माथार्थः । खापानसद्भावात्राऽभावो जीवः ,किन्तु-भावः एष इति,श्र (भाष्यकारः) एतदेवस्फुटयतिमसावन परिस्पन्दापेतपुरुषवदिति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु जम्हा चित्ताईया, जीवस्स गुणा हवंति पच्चक्खा। पुनरत्र व्यतिरेकी द्रष्टव्यः । सास्म जीवच्छरीरं प्राणादि गुणपच्चक्खचणमओ, घडुब्य जीवो भयो अस्थि।।२२।। मत्वात् यतु सात्मकं न भवति तत्प्राणादिमदपि भवति, यथाऽऽकाशमिति पाथार्थः । उक्तं प्राणापानद्वारम् । व्याख्या-यस्माञ्चित्तादयोऽन्तरोना जीवस्य गुखाः; ना(८) (भाष्यकारेण) अधुनेन्द्रियद्वारमुच्यते उजीवस्य, शरीरादिगुणविधर्मस्वात् । एते च भवन्ति प्रत्य क्षाः, स्वसंवेद्यत्वात् , यतश्चैवम्-गुणप्रत्यक्षत्वाखेतोर्घटबज्जीअक्खायाणि पर-वगाणि वासाइवह करसत्ता। वः। अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु समात्मा गुरुप्रगहवेयगनिअरो, कम्मस्सन्नो जहाहारो ॥१८॥ स्यक्षत्वात् घटवन्नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुखः उया०-अक्षागीन्द्रियामि एतानीति खोकप्रसिद्धावि देहा- "विरुद्धोऽसति बाधने" इति वचनात् , एतचैतन्य प्रत्यक्षेश्रयाणि परार्धानि-मात्मप्रयोजनानि धास्यादिवविद करण- खैव वाधनमिति गाथार्थः । व्याख्यातं मूलद्धारगाथाद्वये स्वादिहलोके वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः । माह-मादा- प्रतिद्वारद्वयेन लक्षणद्वारम् । मान्यवोन्द्रियाणि तकिमर्थ भेदोपन्यासः ?, उच्यते-बि- (१०) इदानीमस्त्वित्वद्वारावसरः,तथा चाह भाष्यकार:व॒युपकरणद्वारेण द्वैविध्यख्यापनार्थ ततश्च तत्रोपकरणस्य | अस्थि ति दारमहुणा, जीवस्सइ अस्थि विजए नियमा। ग्रहणमिह तु निवृत्तरिति, प्रयोगस्तु-पराश्चचुरादयः सं. लोत्राययमवषाय-स्थमुच्चए तस्थिमो हेऊ ॥ २२ ।। सातत्याच्छयनासनादिवत् न चायं विशेषविरुद्धः, कर्मसंख व्याख्या-मस्तीति द्वारमधुना सांप्रतमवसरप्राप्तम् तत्रैतस्यात्मनः संघातरूपत्वाभ्युपगमात् । उक्नमिन्द्रियद्वारम् । दुच्यते-जीवः सन् , पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूपः सन्निइदानी (अधुनम ) बन्धादिद्वाराण्याह-ग्रहणवेकनिज- ति सिद्धिसाध्यता । न तु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदारकः कर्मणोऽन्यो, 'यथाहार'इति-तत्र ग्रहण-कर्मणो बन्धः याह-अस्त्यन्यश्चतन्यरूपस्तदपि मातृचैतन्योपादानं भयेदनम्- उदयः निर्जरा-क्षयः, 'यथाहार' इति-श्राहारविष- विष्यति परलोकयायी तु न विद्यत इति मोहापोहायाहयाणिग्रहणादीविन कळदिव्यतिरेकेण तथा कर्मणोऽपीति विद्यते नियमात्-नियमन, तथाचाह-लोकायतमतघातार्थम्प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु विद्यमानभोक्तकमिव कर्मप्रहण- नास्तिकाभिप्रायनिराकरणार्थमुच्यते पतत् , तस्य चानन्तचेदबन्चिर्जरणसद्भावात् , आहारवदिति गाथार्थः । उपनानि | रोदित पवाभिप्राय इति सफलानि विशेषणानि तत्र-लोबम्धादिद्वाराणि । व्यास्थरता च प्रथमा प्रतिद्वारगाथा। कायतमतविघाते कर्तव्ये अयम्-वक्ष्यमाणलक्षणो हेतुः; १) सांप्रतं द्वितीयामधिकृत्य चित्तादिख अन्यथानुपपत्तिरूपणे युक्तिमार्ग इति गाथार्थः । रूपव्याचिस्यासयाऽऽह (भाष्यम् )चित्तं तिकालविसर्य, चेयणपञ्चस्खसत्रमणुसरणं । . जो चिंतेइ सरीरे, नऽस्थि महं स एव होइ जीवो ति । विस्माषणेगधेयं, कालमसंखेयरं धरणा ॥ १६॥ नह जीवम्मि असंते, संसय उपायो प्रनो ॥ २३॥ . ज्या-चित्तं त्रिकालविषयम् मोघतोऽतीतानागतवर्तमा व्याख्या-यश्चिन्तयति शरीरे अत्र लोकप्रतीते मास्त्यहं स नमाहि बेतवं चेतना सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थप्राहिसी । संज्ञान एव चिन्तयिता भवति 'जीव इति' कथमेतदेवमित्याह-न संशा सा अतुस्मरणम् इदं तदिति ज्ञानम् , विविधं वानं यस्माजजीवे असति मृतदेहादौ संशयोत्पादकः भन्य:विज्ञानमयेकभेदम्-अनेकप्रकारम् , अनेकधर्मिणि वस्तुनि प्राणादिः, चैतन्यरूपत्वारसंशयस्यति गाथार्थः । सथा तथाऽभ्यवसाय इत्यर्थः । 'कालमसंख्येयेतरम्' असं एतदेव (भाष्यकारः) भावयतिस्येय संख्येयं वा धारणा अविच्युतिस्मृतिवासनारूपा, तत्र | जीवस्स एस धम्मो, जा ईहा अस्थि नत्थि वा जीवो। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता खाणुमणुस्साणुगया, जह ईहा देवदत्तस्य ॥ २४ ॥ व्या० - जीवस्यैष स्वभावः- एष धर्मः या ईहा सदर्थपर्यालोनात्मिका, कि शास्ति नास्ति वा जीव इति । लोकप्रसिद्धं निदर्शनमा खामनुष्यानुगता किम स्था पुः १, किं वा पुरुष ?, इत्येवंरूपा या इहा-देवदत्तस्य जीवतो धम्मंः । इति गाथार्थः । श्राता ( १२४) अभिधान राजेन्द्रः | एतदेवान्युपवशिष्यानुपदार्थ स्पष्टतरमाह (भाष्यकारः) - पाणिदया-तव-नियमा, बम्भं दिक्खा य इंदियनिरोहो । सभ्यं निरत्थमेयं, जा जीवो न विजई ॥ २६ ॥ व्या० प्राणिया तपोनियमाः करुणासहसादिरत्यादिरूपाः, तथा ब्रह्म ब्रह्मचर्यम्, दीक्षा च योगलक्षणा इन्द्रियनिरोधः प्रातिपत्तिरूपः सर्वे निरर्थकं निष्फ समेत् यदि जीयो न विद्यते परलोकपायीति गाथार्थः । किंच शिष्टाचरितो मार्गः शिरैरनुगन्तव्य इति । सन्मार्गख्यापनायाह ( भाध्यकारः ) - लोइया बेहया चैव तहा सामाइया चिऊ | " 1 - निच्चो जीवो पि हो देहा, इइ सब्वे ववत्थिया ||३०|| उ०- लोके भया लोके या विदिता इति लौकिका - इतिहासादिकर्ता वर्षधास्तथा सामायिकाः त्रिपिटकादिसमयवृत्तयो विद्वांसः - पण्डिताः नित्यो जीयो नानित्यः । एवं पृथग् देहात् शरीरादित्येकं सर्वे व्यवस्थितानाम्यथेति गाथार्थः । एतदेव व्याचष्टे (माध्यकारः ) - } ( भाष्यकार: ) प्रकारान्तरेखेतदेवादसिद्धं जीवस्स अत्थितं सद्दादेवाणुमीयर | नासो वि भावस्स, सद्दो हवइ केवलों ॥ २५ ॥ व्या०-सितम् प्रतिष्ठितं जीवस्योपयोगलक्षहस्यास्ति शब्दादेव जीव इत्यस्मादनुमते कथमेतदे पमित्याह-' नासत इति न असतः अविद्यमानस्य भुवि पृथिव्यां भावस्य पदार्थस्य शब्दो भवति वाचक इति, खरविषाणादिशब्दैर्व्यभिचारमाशङ्कयाह- केवलः शुद्धः - अन्यपदाङ, रादिपदाथ विषाणादिश इति गा थार्थः । 9 द्विरणवाद भाष्यकारा स्थिति निव्विगप्पो, जीवो नियमाउ सद्दओ सिद्धी । कम्हा पपत्ता, पढखरसिंगाणुमायाओ ॥ २६ ॥ व्या०-अस्तीति निर्विकल्पो जीवः 'निर्विकल्प' इति-नि:संदिग्ध नियमात् नियमेनैव प्रतिपत्यपेक्षया शब्दः सिद्धिः वाचकाद्वातीतेः पतदेव प्रश्नद्वारेणाह कस्मात्कुत देवमिति वदत्याज्जीवशब्दस्य घटखरशृङ्गानुमानादनुमानशब्दो दृष्टान्तचचनः घटखरशृङ्गदृष्टान्तादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-मुख्ये नार्थेनार्थवान् जीवशब्दः, शुद्ध पदत्वात् घटशब्दवत् यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान भवति स शुद्धपदमपि न भवति, यथा खरश्शृङ्गशब्द इति गाथार्थः । पराभिप्रायमाशङ्कय परिहर साह (मायकारा - - - चोयग सुद्धपषता, सिद्धी जह एवं सिद्धि अहं पि । तं न भवइ संतेणं, जं सुनं सुन्नगेहं व ॥ २७ ॥ व्या० उक्त्रच्छुद्ध पदत्वात्सिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शू न्यसिद्धिरस्माकमपि, शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यभिप्रायः । अत्रोसरमाह- तन्न भवति यदुक्तं परे । कुत इत्या -सता विद्यमान पदार्थेन यद्-यस्मात् शून्यं शून्यमुच्यते । किंवदित्याह-मूल्यमिव तथा हि-देगृहमुच्यते। विघटन इति ननस्य जीववदवशिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः । प्रकारान्तरेणास्तित्वपक्षमेव समर्थयन्नाह (भाष्यकारः) - मिच्छा भवेउ सव्वऽत्था, जे केई पारलोइया । कत्ता चैवोपभोत्ता य, जइ जीवो न विजद ॥ २८ ॥ व्या० - मिथ्या भवेयुः श्रनृताः स्युः सर्वेऽर्था ये केचन पारलौकिका दानादयः, यदि किमित्याह- कर्त्ता चैव कमेणः उपभोक्ता च तत्फलस्य, यदि जीवो न विद्यते परलोकायति गाथार्थः । - स्थाणु-‍ लोगे अच्छे मेओ, वेए सपुरीसदद्धगसियालो । समए अहमासि गो, तिविहो दिव्वाइसंसारो ॥३१ ॥ व्या-से अच्छेयोमेय आत्मा पठ्यते यथोक गीतासु"अच्छेयोऽयमभेद्योऽयमयि कार्योऽयमुच्यते नित्यः सर्वगतः -रचलोऽयं सनातनः || १||" इत्यादि । तथा वेदे "सपुरीषो दग्धः शृगालः पठ्यते " इति यथोक्तम्-" शृगालो वै एव जायते यः सपुरीको दाने " अथाऽपुरीषो दह्यते "आक्षोचुका अस्य प्रजाः प्रादुर्भवन्तीत्यादि । तथा समये "श्रहमासीद्रजः" इति पठ्यते, तथा च बुद्धवचनम् - "अह भासं भिक्षवो हस्ती, षड्दन्तः शङ्खसंनिभः । शुकः पश्चरवासी व शकुन्तो जीवजीवकः ॥ इत्यादि तथा त्रिविधो दिव्यादिसंसार केचिदिष्यते । देवमानुपतिर्यग्भेदेन आदिशब्दाश्चतुर्विधः – कैश्चिभारकाधिक्येनेति गाथार्थः। अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्वमाह (भाष्यकारः ) - अस्थि सरीरविहाया, पहनिययागारया इभाषाओ । कुंभस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मजोगाश्रो ||३२|| व्या०-अस्ति शरीरदारिकादेविधाता विधातेति कती कुत इत्याह--प्रतिनियताकारादिसङ्गावात् ' - दिमत्प्रतिनियताकारत्वादित्यर्थः दृष्टान्तमाह- कुम्भस्य यथा कुलालो विधाता कुलालवदेवमसावपि मूर्तः प्राप्नोतीति विरुद्धमाशङ्कय परिहरन्नाह स श्रात्मा यः शरीरविधाता असी मूर्तः कर्मयोगादिति मूर्त कर्म संवन्धादिति गाथार्थः । ; ( भाष्यकारः ) अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तये अन्यथा तदग्रहविधिमाह फरिसेगा जहा बाऊ, गिभई कासंसि । नाणाईहिं तहा जीवों, गिज्झई कायसंसिओ ||३३॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५) भाता अभिधानराजेन्द्र।। व्या०-स्पर्शन-शीतादिना यथा वायुह्यते कायसंमृतो- कान्तिकताऽनुपलम्भहेतोः, सकलपुरुषाश्रितानुपलम्भस्त्यदेहसततः महशेऽपि तथा ज्ञानादिभिनिदर्शनेच्छादिभि- सिद्ध इत्यसिद्धो हेतुः, न हासर्वक्षेन सर्वे पुरुषाः सर्वदा जीवा गृह्यते कायसंस्तो देहसान इति गाथार्थः। सर्वत्रात्मानं न पश्यन्तीति वक्तुं शक्यमिति, किश्व-विद्यते असकृदनुमानादस्तित्वमुक्त जीवस्य, अनुमानं च प्रत्यक्ष- मान्मा, प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यमानत्वात् , बटवदिति न चापूर्वकंन चैनं केचन पश्यन्तीति ततश्वाशोभनमेतदित्याश- यमसिनो हेतुः, यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षणाप्यारमा ताचगम्यत याह (भाध्यकारः) एव, आत्मा हि ज्ञानादनम्या, भास्मधर्मत्वाव शामस्य, अणिदियगुणं जीवं, दुबेयं मंसचक्खुणा । तम्य च स्वसंविदितरूपत्वात् , स्वसंविदितत्वं च ज्ञानस्य नीलशानमुत्पन्नमासीदित्यादिस्मृतिदर्शनात् न ह्यखसंविदिते सिद्धा पासंति सबन्न , नाणसिद्धा य साहुणो ॥३४॥ शान स्मृतिप्रभवो युज्यते, प्रमात्रन्तरज्ञानस्यापि स्मृतिव्या-अनिन्द्रियगुणम्-अविथमानरूपादीन्द्रियग्राह्यगुणं गोचरत्वप्रसङ्गादिति, तदेवं तदव्यतिरिक्तवानगुणप्रत्यक्षस्वे जीवम्-श्रमूर्तत्यादिधर्मकं दुज्ञेयं-दुलक्ष्यं मांसनचुषा-छद् भारमा गुणी प्रत्यक्ष एव, रूपगुणप्रत्यक्षत्वे घटगुणीप्रत्यक्षमस्थेन पश्यन्ति, सिद्धाः-सर्वज्ञा भवनसिद्धादिव्यवच्छदार्थ त्ववदिति, उक्तश्व विशषावश्यकेसर्वत्रग्रहणं ततश्च ऋषभादय इत्यर्थः, मानसिद्धाश्च साध- "गुण पञ्चक्खत्तणो, गुणी वि जीयो घडो व्य पञ्चक्खो। घो-भयस्थकेवलिन इति गाथार्थः । घडओ ब्व घिप्पा गुणी, गुणमित्तग्गहणो जम्हा ।१५५८।" सांप्रतमागमादस्तित्वमाह (भाष्यकारः) तथाअत्तवयणं उ सत्थं, दिवा य ततो अइंदियाणं पि । "अमोऽशन्नो व गुणी, होज गुणेहिं ? जहणाम सोडणनो। णाणगुणमित्तगहणे, धिप्पाड जीयो गुणी सक्खं ॥ १५५६ ॥ सिद्धी गहणाईणं, तहेव जीवम्स विनेया ।। ३५ ॥ मह असो तो एवं, गुणिणो न घडादयो वि पञ्चक्खा । व्या-श्राप्तवचनं तु शास्त्रम् श्राप्तो रागादिरहितः तु गुणमित्तग्गहणाओ, जीवंमि कुतो विधारोयं ॥१५६०॥" शब्दोऽवधारण, प्राप्तवचनमव अनेन अपौरुषयव्यवच्छेद इति, ये तु सकलपदार्थसार्थस्वरूपाविर्भावनसमर्थशानवन्तमाह, तस्याऽसंभवादिति । दृष्टा च तत इत्युपलब्धा च तत स्तेषां सर्वात्मनैव प्रत्यक्ष इति । तथाऽनुमानगम्याऽप्यात्मा, प्राप्तवचनशास्त्रात् अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगाचराति तथाहि-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वाद् , श्रोदनादिवत् क्रान्तानामपि, सिद्धिग्रहणादानामिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीनामित्यर्थः, तथैव जीवस्य विक्षति । अतीन्द्रि व्योमकुसुमं विपक्षः स च कर्ता जीव इति, नन्वोदनकर्तृ वन्मूर्त श्रात्मा सिद्धयतीति साध्यविरुद्धो हेतुरिति नैव, यस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः । मूलद्वारगाथायां संसारिणो मूर्त्तत्वेनाप्यभ्युपगमात् , प्राह च- जो कत्ता व्याख्यातमस्तित्वद्वारम् । दश०४ अ०। सो जीवो, सम्भविरुद्धोति ते मई होजा । मुत्ताह य सं(११) अभ्याख्यानम् । आत्मनोऽस्तित्वे गा, तत्तो संसारिणो दोसो" ॥१॥ इति । न चायमेणेव सयं लोग अब्भाइक्खेजा.णेव अत्ताणं अब्भाइ- कान्तो; यदुत-लिङ्गयविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुक्खजा । जे लोयं अब्भाइक्खइ से अचाणं अब्भाइक्खइ, मानस्यैव एकान्ततोऽप्रवृत्तिरिति हसितादिलिङ्गविशेषस्य प्रहाख्यलिङ्गयविनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शजे अत्ताणं अभाइक्खइ से लोयं अन्भाइक्खइ । नात् । न च देह एव ग्रहो येनाऽन्यदेहे दर्शनमविनाभाव(सूत्र-३१+) ग्रहगनियामकं भवतीति, उक्तश्च(विशे०)-"सो नगतो जम्हा, नैवात्मानं शरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुणं प्रत्यात्ममंवेद्यं प्रत्या- लिंगेहिं समं अदिट्ठपुब्बो वि । गहलिंगदरिसणाश्रा, गचक्षीत तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेनाहृतमिदं शरीरं फेचिद- होऽणुमेश्रो सरीरम्मि ॥ १५६६ ॥” इत्यागमगम्यत्व त्वाभिसंधिमता, तथा स्यमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमतवेत्ये. स्मन:-'एगे पाया' अत एव वचनात् , न चास्यागमाघमादिभिहेंतुभिः प्रसाधितत्वात् , न च साधितसाधनं पिष्ट. न्तरैर्विसंवादः सम्भावनीयः । सुनिश्चिताप्तप्रणीतत्वादस्येपेषणवत् विद्वज्जनमनांसि रखयति । प्राचा०१ श्रु०११०४उ०। ति, बहुवक्तव्यमत्र तत्तु स्थानान्तरादवलेयमिति । किञ्चअन्यश्च श्रात्माभावे जातिम्मरणादयस्तथा प्रेतीभूतपितृपितामहादि श्रात्मा न विद्यते; तस्य प्रत्यक्षाऽदिभिरनुपलभ्यमानत्वात् , कृतानुग्रहोपघाती च न प्राप्नुयरिति । स्था०१ठा। तथाहि-म प्रत्यक्षमाछाऽसायनीन्द्रियत्वात् , नाप्यनुमान- (१२) इन्द्रभूतिमुद्दिश्य भगवता महावीरेणोक्तं प्राह्यः, अनुमानस्य लिङ्गलिङ्गिनोः साक्षात्सम्बन्धदर्शनेन विस्तरतः जीवास्तित्वम्प्रवृतरिति, आगमगम्योऽपि नाऽसौ, भागमानामम्योऽन्य जीवे तुह संदेहो, पच्चक्खं जं न घिप्पड घडो व्य । विसंवादादिति, अत्रोच्यते-कयमनुपलभ्यमानता ?, कि अचंता पच्चक्खं, च नऽस्थि लोए खपुष्पं व ॥१५४६॥ मेकपुरुषाधिता?, सकलपुरुषाश्रिता वा?, यद्येक पुरुषाधितान तयाऽऽत्माऽभायः सिध्यति सत्यपि वस्तुनि तस्याः आयुष्मन् ! इन्द्रभूते ! तवैष संदेहः । किमयमात्मा-अस्ति?, सम्भवात् , न हि कस्यचित् पुरुषविशेषस्य घटाद्यर्शग्राहक नास्ति वा?, उभयहतुसद्भावात् , तत्र नास्तित्वहेतवा उमीप्रमाणं न प्रवृत्तमिति सर्वत्र सर्वदा तदभावो निर्णतुं शक्य नास्त्यात्मा, प्रत्यक्षणात्यन्तमगृह्यमाणत्वाद, इह यदत्यइति, नहि प्रमाणनिवृत्तौ प्रमेयं विनिवर्तते, प्रमेयकार्य- न्ताऽप्रत्यक्ष तल्लोके नास्त्येव, यथा-खपुष्पं, यत्वस्ति तत्वात् प्रमाणस्य न च कार्याभावे कारणाभावो दृष्ट इत्यनै-। प्रत्यक्षेण गृह्यत एव, यथा-घटः इत्यसी व्यतिरेकदृष्टा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) भाता अभिधानराजेन्द्रः। म्तः। प्रणवोऽपि धप्रत्यक्षाः, किंतु-घटादिकार्यतया परि-1 रष्ठार्थविषयं वचनम् , अविसंवादिवचनाप्सप्रणीतत्वाचणतास्ते प्रत्यक्षत्वमुपयान्ति , न पुनरेवमात्मा कदाचिदपि। न्द्राकोंपरागादिवचनववित्येवमनुमानादेव तत्र प्रमाणता । भावप्रत्यक्षमुपगच्छत्यतोऽत्रात्यन्तविशेषणमिति । न चैवं भूनमा कमपि पश्यामो, यस्यात्मा प्रत्यक्ष इति एवं च मन्यसे स्वं किमित्याह तचनमागम इति प्रतिपधेमहि इति शेष। न य सोऽणुमाणगम्मो, जम्हा पच्चरखपुवयं तं पि । पुग्वोबलद्धसंव-घसरणी लिंगलिंगीणं ॥ १५५०॥ जंचागमा विरुद्धा, परोप्परमो वि संजुत्तो। न चासावात्मानुमानगम्यः यस्मात्तदप्यनुमान प्रत्यक्षपू सम्बप्पमाणविसया-इनो जीवो त्ति तो सुद्धी॥१५५३।। बकं प्रवर्तते, कुत इत्याह-'पुबोबलद्धे' त्यादि लिङ्गयते यतश्च तीथिकानां संबन्धिनः सर्वेऽध्यागमाः परस्परगम्यतेऽतीन्द्रियार्थोऽनेनेति लिङ्गम्। अथ वा-लीनं-तिरो विरोधिनः खल्वतोऽपि संशय एवात्मनो युक्तो न तु निश्चयः, हितमर्थ गमयतीति लिहं धूमकृतकत्वादिकं, तदस्यास्तीति तथाहि केचिदागमा श्रात्मनो नास्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति, लिङ्गी वयनित्यत्वादिस्तयोलिंङ्गलिङ्गिनोर्यः पूर्व महान यवाहुर्नास्तिकाः-" एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियसादौ प्रत्यक्षादिना उपलब्धकार्यकारणभावादिकः संबन्ध गोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्ति बहुधुताः" ॥१॥ स्तस्य यत् स्मरणं तस्मादिति । इदमुक्तं भवति-पूर्व महा इत्यादि, भट्टोऽप्याह-"विज्ञानघन पवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुनसादायग्निधूमयोलिङ्गिलियोरन्वयव्यतिरेकवन्तमविनाभा स्थाय तान्यवानुविनश्यति न च प्रेत्य संशास्ति' । सुगतवमध्यक्षतो गृहीत्वा तत उत्तरकालं क्वचित्कान्तारपर्वत- स्त्वाह-" न रूपं भिक्षवः पुद्गलः" इत्यादि । आत्मास्तिनितम्बादौ गगनावलम्बिनीं धूमलखामवलोक्य प्राग्गृहीतं त्ववचनाम्यप्यागमेषु श्रूयन्ते,तथा च वेद:-"न ह वै सशरीसंवन्धमनुस्मरति, तद्यथा-" यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र प्रागहं रस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियावह्निम् अद्राक्ष'यथा-महानसादौ, धुमश्चात्र रश्यत तस्माद प्रिये म स्पृशत" इति । तथा-"अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः' हिनापीह भवितव्यम् इत्येवं लिङ्गग्रहणसंबन्धस्मरणाभ्यां इत्यादि । कापिलागमे तु प्रतिपाद्यते-"अस्ति पुरुषः अकर्ता तत्र प्रमाता हुनभुजमवगच्छति; न चैवमात्मना लिङ्गिना निर्गुणो भोक्ता चिद्रपः" इत्यादि । तस्मादागमानां परस्परसार्द्ध कस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षण संबन्धः सिद्धोऽस्ति, विरुद्धत्वान्नागमप्रमाणादण्यात्मसत्यसिद्धिः । इदं च वैशेयतः तत्संबन्धमनुस्मरतः पुनस्तलिङ्गदर्शनाजीवे संप्रत्ययः षिकमतेन प्रत्यक्षानुमानागमलक्षणं प्रमाणत्रयमुपभ्यस्तम् ॥ स्यात् । यदि पुनर्जीवलिङ्गयोः प्रत्यक्षतः संबन्धसिद्धिः एतच्च स्वयं द्रव्यम्-उपमाप्रमाणगभ्योऽपि जीवो न स्थासदा जीवस्यापि प्रत्यक्षत्वापत्यानुमानवैययं स्यात्तत भवति । तत्र हि'यथा गौस्तथा गवय' इत्यादावेव एव तत्सिद्धेरिति। सादृश्यमसनिकृष्ऽथे बुद्धिमुत्पादयति । न चेहाऽन्यः कएतदेवाह-- श्चित् त्रिभुवनेऽप्यास्मसदृशः पदार्थोऽस्ति, यदर्शनादात्मा नमवगच्छामः। कालाऽऽकाशदिगादयो जीवतुल्या विद्यन्ते न य जीवलिंगसंबं-धदरिसणमभू जो पुणो सरो। इति चेत् ?, न, तेषामपि विवादास्पदीभूतत्वेन तदंहि(धि) तल्लिंगदरिसणाओ, जीवे संपच्चो होजा ॥१५५१॥ वद्धत्वात् । अर्थापत्तिसाध्योऽपि जीवो न भवति, न हि हुएः गतार्था । न च वक्तव्यं सामान्यतो रष्टात् अनुमामात् श्रा- श्रुती वा कोऽप्यर्थ आत्मानमन्तरेण नोपपद्यते, यदलातं दित्यादिगतिवजीवः सिध्यति, यथा-गतिमानादित्यो, देशा. साधयामः, तस्मात्सर्वप्रमाणविषयातीतो जीव इति तव न्तरप्राप्तः देवदत्सवदिति, यतो हन्त देवदत्ते दृष्टान्तम्मिणि बुद्धिा, भावोपलम्भप्रमाणपञ्चकविषयातीतत्वात् प्रतिषेधसामान्येन देशान्तरप्राप्ति गतिपूर्षिकां प्रत्यक्षेणैव निश्चिश्य साधकाऽभावाख्यषष्ठप्रमाणविषय एव जीव इत्यर्थः । इति सूर्ये ऽपि तां तथैव प्रमाता साधयतीति युक्रम् , न चैवमत्र पूर्वपक्षः। कचिदपि स्टान्ते जीवसवेनाविनाभूतः कोऽपि हेतुरध्य मथैतत्प्रतिविधानमाहक्षणोपलच्यते इति । अतो न सामान्यतो दृष्टादप्यनुमाना गोयम ! पच्चक्खो च्चिय, जिवो जं संसयाइविनाणं। सद्गतिरिति । पच्चक्खं च न सज्झ,जह सुह-दुक्खा सदेहम्मिा१५५४। म चाऽऽगमगम्योऽपि जीव इति दर्शयति गौतम ! भवतोऽपि प्रत्यक्ष एवायं जीवः, किमन्येन प्र माणान्तरोपन्यासन?, कोऽयं जीयो मम प्रत्यक्ष ? इति चेत् , नाऽऽगमगम्मो वि तमो,भिजइ जं नागमोऽणुमाणाओ।। उख्यत-यंदतत्-तवैव संशयादिविज्ञानं स्वसंवेदनसिद्धं न य कासइ पच्चक्खी,जीवो जस्साऽगमो वयणं ।१५५२।। हदि स्फुरति । स पच जावा, संशयादिशानस्यैव तदनन्यन चागमगम्योऽपि तकोऽसौ जीवो, यद्-यस्मादागमो:- त्वेन जीवत्वात् । यश्च प्रत्यहं तद् म प्रमाणान्तरेण साध्यं, पि अनुमानादन भिद्यते (इत्यादिगाथाचव्याख्यानं 'श्रा- | तथा-स्वशरीर एवात्मसंवेदनसिद्धाः सुखदुःखादयः, प्रगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्)। न चैवमसौ आत्मशब्दः त्यक्षसिद्धमपि सग्रामनगरं विश्वं शून्यवादिन प्रति साशरीराद् ऋो-- अन्यत्र प्रयुज्यमानः कचिदुपलब्धो, यत्र भ्यत एवेति चेत्, नैवम , निरालम्बनाः सर्वे प्रत्ययाः, वल्वात्मशब्दश्रवणाद् श्रात्मा इति प्रत्ययो भवेदिति । यद- प्रत्ययत्वात् , स्वमप्रत्ययवद्, इत्यादेस्तदुद्भावितबाधकपि स्वर्गनरकाद्यदृष्टार्थविषयं शाब्दं प्रमाण, तदपि तत्त्व- | प्रमागास्यैव तत्र निराकरणाद , अत्र स्वात्मग्राहके प्रत्यक्ष तोऽनुमानं, नालिवर्तते । तथाहि-प्रमाणे स्वर्गनरकाद्य- बाधकप्रमाणाऽभावादिति । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता " इतञ्चायं प्रत्यक्षो जीवः कुत ? इत्याह कंपन करेमि कार्ड, वामहं पचया इमाऊ च । अप्पा स पच्चक्खा, तिकालकज्जोवएसाओ । १५५५ ॥ 6 योऽयम्-प्रत्यय एवाय या इति अथवा कृतवानहं करोम्यहं करिष्या पदम् उक्तवानई, प्रवीम्यदं पश्याम्यहं ज्ञातवानई, जानेऽहं शाम्याम्यहम् इत्यादिप्रकारेण योऽयं त्रैकालिंकः कार्यव्यपदेशस्तद्विषयप्रयुज्यमानतया तत्समुत्थो एतस्मादपि प्रत्यक्ष मात्मेति प्रपद्यस्व अयं प्रत्ययो नानुमानिक, अ लैङ्गिकत्वात् नाप्यागमादिप्रमायसंभवः तदनभिज्ञानानां बालगोपालादीनामप्यन्तर्मुखतया श्रात्मग्राहकत्वेन स्वसंविदितस्य तस्योत्पादाद घटादी चानुत्पादादिति । अपि च 4 9 (१६७) अभिधानराजेन्द्रः । कह पवित्र महं तिय, किमत्थि नत्थि ति संसओ कह खु सह संसयंमि वार्य, कस्सा हंपच्चओ जुत्तो ।। १५५६ ।। इन्त कथमसति जीवे ' श्रहमिति ' प्रतिपन्नं त्वया विपवाभावे विषयोऽनुधानप्रसङ्गादेद एवास्य प्रत्ययस्य विषय इति चेत्, न जीवविप्रमुक्तेऽपि देहे तदुत्पत्तिप्रसङ्गात् सति च जीवविषये अस्मिन्नप्रत्यये क्रिमइमस्मि मास्मीति भवतः संशयः कथं केन प्रकारेणोपजायते ?, अहंप्रत्ययग्राह्यस्य जीवस्य सद्भावाद् अस्म्यहमिति निश्चय एव युज्यते इति भावः । सति वा श्रस्मिनात्मास्तित्वसंशय कस्यायम् ' अहंप्रत्ययो ' युज्यते निर्मूलत्वेन तदनुत्थानप्रसङ्गादिति । जीवाभावे संशयविज्ञानमपि न युज्यत एवेति तद्दर्शयन्नाहजह नत्थि संसय चिय, किमन्थि नत्थि नि संसओ कस्स । संसइए व सरू, गोयम ! किमसंसयं होजा ।। १५५७।। यदि संजीव यादी नास्ति, तहांस्ति नास्तीति संशयः कस्य भवतु । संशयो हि विज्ञानाख्यो गुण एव, न च गुणिनमन्तरेण गुणः संभवति । देहोऽत्र गुणीति चेत्, न देहस्थ सूत्याजडत्याच ज्ञानस्य चामूत्याद्बोधरूप त्याच न चाननुरूपाणां गुणगुलिभावो युज्यते, आकाशरूपादीनामपि वद्भावापश्या प्रतिप्रसङ्गप्राप्ते 'संसइ वे' स्थादिवि-अथवा संशयिते स्वरूप गौतम कि असंशयं शेषं भवेद्वमुभपति किमस्मि नास्यमित्येवं यः स्वरूपेऽपि श्रात्मनियोऽपि यस्य नास्तीत्यर्थः, तस्य शेषं कर्मबन्धमोक्षादिकं घटपटादिकं किमसंशयम्-असंदिग्धं स्यात् न किंचित्सर्वप एव तस्य स्यादित्यर्थः, श्रात्मास्तित्वनिश्चयमूलो हि शेषवस्तुनिश्चय इति भावः । श्रहंप्रत्ययग्राह्यं च प्रत्यक्षमात्मानं निह्नवानस्य श्रश्रावयः शब्द इत्यादिवत्प्रत्यक्षविरुद्धो नाम पक्षाभासः तथा बरमाणात्मास्तित्वानुमानसद्वायाचित्यः इत्यादिवदनुमानविरूयोऽपि तथा अहमस्मि संपीति प्रायुपगम्योत्तरत्र नास्मीति प्रतिज्ञानानस्य सायस्य श्रनित्यः कर्त्ता अचेतनः आत्मेत्यादिवदभ्युपगमविरोधः । बालगोपालादिसिद्धं म अचन्द्र राशी इत्यादिपरलोकविरोध अनादि ५० - आता तो ' माता मे बन्ध्या ' इत्यादिवत्स्ववचनस्याहतिः । एवं च प्रत्यक्षादिबाधितेऽस्मिन् पक्षे पक्षधर्मतया हेतुरप्यसिद्धः । हिमवत्पलपरिमाणादौ पिशाचादौ च प्रमाणपञ्चकाभावस्थ कान्तिको पक्ष्यमाणानुमानप्रमाण सिद्धे चात्मनि विपक्ष एवं वृतेर्विरुद्धचेति । प्रकारान्तरेणाप्यात्मनः प्रत्यक्षसिद्धतामाहगुणपचखचओ, गुणी वि जीवो घडो ब्व पचक्खो । घड विप्पड़ गुणी, गुण मित्तग्गहणओ जम्हा १५५८ । प्रत्यक्ष एव गुणी जीवः स्मृतिजिज्ञासाचिकीर्षाजिगमिषाशंशीत्यादिज्ञानविशेषायां सद्गुणानां स्वसंवेदन प्रत्यक्षसि " , त्वाद् इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टा, यथा घटः, प्रत्यक्षगुणश्च जीवः तस्मात्प्रत्यक्षः यथा घटोऽपि गुणादित्यस्मादेव प्रत्यादिगुणप्रत्यक्षत्वादात्मापीति । श्रह - अनैकान्तिकोऽयं यस्मादाकाशगुणः शब्दः प्रत्यक्षोऽस्ति न पुनराकाशमिति । तदयुक्तम्, यतो नाकाशगुणः शब्दः, किं तु पुनलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात् पापिदिति । निस्तद्रूपतायां किमायानम् इति गुणानां प्रत्यक्ष चेद् उच्यते श्रन्नोऽणसो व गुणी, होज गुणेहिं जइ नाम सोऽणनो । ननु गुणमेतम्हणे. पेप्पर जीवो गुणी सक्खं । १५५६| अह अभी तो एवं गुणिनो न घडादयो पि पचक्खा। गुणमेचग्गहगाओ, जीवम्मि कवियारोऽयं ।। १५६० ।। ननु भवता गुणेभ्यो गुणी किमर्थान्तरभूतोऽभ्युपगम्यते, अनर्थान्तरभूतो था । यदि नाम साऽनन्यस्तेभ्याऽनथ न्तरभूतः तर्हि ज्ञानादिगुणग्रहणमात्रादेव गुणी जीवः प्रत्यगत इति सिद्धमेव प्रयोगः- यो परमादनन्तरं स तद्ग्रहणेन गृह्यते, यथा वाससि रागो, गुणेभ्यो ऽनर्थान्तरं च गुणी, तस्माद गुरुप्रत्ययापि तपति थ गुणेभ्योऽन्योऽर्थान्तरभूत एव गुणी, तत एवं सति घटादयोऽपि गुणिनः न प्रत्यक्षास्तदर्थान्तरभूतस्य रूपादिगुणमास्वात् इद यद्यस्मादर्थान्तरभूतं सद्येऽपि नेतरस्य ग्रहणं, यथा घंटे गृहीते पटस्य, अर्थान्तरभूताश्च गु. णिनो गुणा इष्यन्ते श्रतो गुग्रहणेऽपि न गुणिग्रहणम्। श्रतो घटादीनामपि समानोऽग्रहणदोषे कोऽयं नाम भवतः केबलजीवे विचारों नास्तित्वविवक्षा नयतेच घडोवत्यादि अथ इयविरहिता: फेऽपि न सन्त्येव गुणाः, इत्यतस्तद्ग्रहणद्वारेण गृह्यन्त एव घटाइयः । वेदात्मन्यपि समानमत्र कि गुणिनो गुणानामर्थास्तरत्वे अभ्युपगम्यमाने गुणीभवतु मा भूद्रा प्रत्यक्षः तथापि ज्ञानादिगुणेभ्यः पृथगारमा गुणी पगमेनापि सिद्धयत्येवेति । अत्र पराभिप्रायमाशङ्कमानः प्राहअमनसि अस्थि गुणी, न य देहत्तरं तच्चे। किंतु । देहे नाणाइगुणा, सोच्चिय तेसिं गुणी जुत्ते। ॥। १५६१ । अथ सपसे अपेयानादिगुनगुने प्रत्या Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता समं एततु नाभ्युपगच्छामो देहादर्थान्तरं तो उसी इ ति, किन्तु देह एव ज्ञानादयां गुणाः समुपलभ्यन्ते अतः स एव तेषां गुणी, यथा रूपादीनां घटः प्रयोगः देहगुवा एव ज्ञानादयः, तत्रैवोपलभ्यमानत्याद्वौरशस्थूलतादिवदिति । श्रत्रोत्तरमाह नाणादओ न देहस्स, मिचाइओ घटस्येव । तम्हा नायागुणा, जस्म संदेहाहियो जीव ।। १५६२॥ + योग देहस्व संबन्धिनो ज्ञानादयां गुणा न भवदेव तस्य मूर्तिमत्त्वात् चानुपत्वाद्वा, घटवत् । न च द्रव्यरहितो गुतः समस्ति ततो यो ज्ञानादिगुमानामनुरूपः अमूर्त, श्रवाक्षुषश्च गुणी स देहातिरिको जीवां ज्ञातव्यः । ग्रहज्ञानादयों न देहस्येति प्रत्यक्षवाधितमिदम् देह एव शानादिगुणानां प्रत्यक्षेणैव ग्रहणात् । तदयुक्तम् अनुमा नवाधितत्वादस्य प्रत्यक्षस्य तथा हि-इन्द्रियो विज्ञाता तदुपरमेऽपि तार्थानुस्मरणात् यो हि यदुपरमेऽपि यदुपधमर्थमनुस्मरति स तस्मादर्थान्तरं दृष्टा यथा पचवातामार्थानुमर्थादेव इत्यादि वायुभूतिप्रश्ने | वक्ष्याम इति ॥ " उपसंजिदपुरा • ( १६८) अभिधानराजेन्द्रः । 7 , इय तुह देसेणाऽयं, पचक्खो सव्वहा महं जीवो । वियना, तुह विभाग व पडिव । १५६३० 'इति' - एवम् उक्तप्रकारेण स्वशरीरे तवापि देशतः प्रत्यक्षोउपमात्मा स्पेन भवतः सर्वस्यापि वस्तुनो देशविषयत्वात् घटवत् तथाहि सर्वमपि स्परपयोगपर्यायं वस्तु प्रयोग साक्षात् देशमेव गृह्णाति । प्रत्यक्षेण च प्रदीपादिप्रकाशेनैव देशतः प्रकाशिता अपि घदादगो व्यवहारतः प्रत्यक्षा उच्यन्ते एव । सर्वात्मना च केवली प्रत्यक्षमेव वस्तु प्रकाशयति अतो ममाप्रतिहतानन्तज्ञानायेन सर्वानपि जीवो पचातीन्द्रयमपि त्यत्संशयविज्ञानमिति प्रतिपवस्त्रेति । परशरीरे तईि कथमित्याहएवं वि य परदेहे गुमायो गिवड जीवमस्थिति । अणुवित्तिनिधित्ती, विषाणमयं सरूत्रे व्व ॥ १५६४ ॥ यथा स्परे एवं परदेदेऽपि दास जीवमनुमानम इत्याह-अस्ति विद्यते इति जीव! इत्याह-विज्ञानमा अनुमानमेव सूचयवादअवित्तिनिवित्ती 'सरुवे व 'ति- इदमुक्तं भवति- परशरीरेऽप्यस्ति जीवः । इष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् यथा स्वरूपे स्वात्मनि पानिएनिवृत्ती दृश्येते तत्सात्मकं दृष्टं यथा स्वशरीरं तथा च प्रवृत्तिनिवृत्ती दृश्येते परशरीरे, अतस्तदपि सात्मकम् आत्मामा [निवृत्ती न भवतो यथा पडे. इत्यनुमानात्परशरीरेऽपि जीवसिद्धिः । " अत्र परमनमाशङ्करमाह जंचन लिंगेहि समं मन्नति लिंगी पुरा जओ गहियो । संगं ससे व समं, न लिंगओ तोऽभए सो ।। १५६५ ।। आता सोऽगंती जम्हा, लिंगेहि समं न दिपुच्वो वि । गहलिंगदरिस खाओ, गहोऽणुमेओ सरीरम्मि || १५६६ || यश न य जीवलिङ्गसंम्भू० ११५५२ इयादि पूर्वोपूर्वपानुसारेण मन्यसे त्वम् किमित्याह तन लिङ्गतो- लिङ्गादनुमेयोऽसौ जीवः । यतः, किमित्याह-यतो न खलु लिङ्गैः कैश्चिदपि समं लिङ्गी जीवः कापि केनापि पुरा पूर्व गृहीतः किंवदित्याह - शृङ्गमिव शशंकेन समं ततो लिलिङ्गो पूर्व संबन्धासाथ लिनाजीयोनुमीयत इति यन्मन्यसे त्वं तत्र प्रतिविधीयते सोनेकान्तः यस्मालिङ्गः समम् श्रपूर्योऽपि ग्रहो देवयोनिविशेषतः, शरीरे हसनगानरोदनकरचरण भ्रूविक्षेपादिविकृतग्रहलिङ्गदर्शनादनुमीयत इति बालानामपि ततमति अनुमानान्तरमष्यात्मसाधकमाहदेहस्यत्थिविहाया, पदनिययागारओ घडस्सेव । असाच करणओ, दंडाई कुलालो व्य ।। १४६७ हेदस्यास्ति विधाता कति प्रतिमा मिधिसाकारत्वाद्, घटवत्रतादितियताकारमपि न भवति, यथा अभ्रविकारः, यश्च देहस्य कर्मा स जीवः प्रतिनियताका मेर्वादीनामध्यस्ति, नाता इति तैरनेकान्तिका देतुः स्यात्, तोऽनुक्रमण्यादिविशेष इव्यमिति । तथा - क्षाणाम्-इन्द्रियाणामस्त्यधिष्ठाता इत्यध्याहारः करणत्वात् यथा चक्रत्रीवर सूत्रदण्डादीनां कुलालः, यच्च निरधिष्ठातुकं तत्करणमपि न भवति यथा आकाश, यथे न्द्रियाणामधिष्ठाता सजीव इति । तथा अस्थि दियविसयाणं, आयाखादेयभावओोऽवस्सं । कम्मार इवादाया, लोए संडासलोहाणं ।। १४६८ ॥ इह यत्रादानादेयभावस्तत्रावश्यमादाता समस्ति यथा सोफे संदेशका कम्मरोपस्कारादियद्रयविषयाणामादानादेयभावः अतस्तेषामप्यस्यादाता, सच जीवः पत्र स्वादाता नास्ति तत्रादानादेवभाषाऽपि न विद्यते यथा आकाश इति । तथा " मोचा देहाईगं, मजराथ नरो मत्तस्स । संघायाय अच्छी परस्येव ॥ १५६६॥ इह देहादीनां भोक्ता समस्ति भोग्यत्वात् यथा शाल्यादिभक्तवस्त्रादीनां नरः यस्य च भोक्ता नास्ति तद्भोग्यमपि न भवति, यथा खरविषाएं भोग्यं च शरीरादिकं ततो कि यमानभाक्कमिति । तथाअर्थी स्वामी । ततब्ध देहादीनां विद्यते स्वामी संघाना मूर्तिमात् ऐन्द्रियाथास्वाद इत्यादयोऽप्यनैकान्तिकपरारा संभवद्विहितविशेषणा हेतवो योजनीयाः, यथा गृहादीनां सूत्रधारादय इति दृशन्तः यत् पुनरस्वामिकं तत्संघानादिरूपमपि न भवति यथा गगनकु संघा तादिरूहादिकं तस्माद्विद्यमानस्यामिकमिति । 9 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 66 आई- देदस्वस्थि विहाया ( १४६७) इत्यादिना शरीरादीनां क श्रीदय एव सिध्यन्ति न तु प्रस्तुतो जीवः, इत्याशङ्कयांत्तरमाक्षेपपरिहारौ चाह जो कत्ताइ स जीवो, सज्झविरुद्धो ति ते मई होजा । मुत्ताइसंगाओ, तं न संसारियो दोस्रो ।। १५७० ॥ यश्चायमनन्तरं देदेन्द्रियादीनां कर्त्ताः अधिष्ठाता, आ दाता, भोक्ता, अर्थी, चोक्तः स सर्वोऽपि जीव एव, अन्यस्येश्वरादयुक्त्यक्षमत्वेन कर्तृत्वाद्य संभवादिति । अथ साध्यविरुद्धसाधकत्वाद्विरुप देत इति तय मतिभवेत् तथा हि घटादीनां कर्बादिरूपाः कुलालादयो मूनिमन्तः संघातरूपा अनित्यादिस्वभाषाश्च दाइत्यतो जीवोऽप्यधि एव सिध्यति पद्विपरीत किलास्मार्क साधयितुमिष्टः इत्येवं साध्यविरुद्धसाधकत्वं हेतुनामिति, तदेतद्युक्तत्वाच यतः खलु संसारियो जीवस्य साथयितुमिष्टस्याऽदोषोऽयं, स हि अटकर्म्मपुद्गल संघातोपगूढत्वात् सशरीरस्वाश्च कथंचिन्मूर्त्तत्वादिधर्मयुक्त पंवति भावः । अपरमध्यात्म साधकमनुमानमाह - । अस्थि थिय ते जीवो, संसओ सोम्मागुपुरियो जं संदिद्धं गोयम !, तं तत्थऽन्नत्थवत्थु (त्थि) धुवं । १५७१ । हे सौम्य ! गौतम ! अस्त्येव तव जीवः संशयतः - संशयसद्वापाद्यत्र यत्र संशयस्तदस्ति यथा स्थापुरुषी सं रावजींचे तस्मादस्यपायें, तथाहि स्वपुरुषयो वारोहपरिणाहाद्युभयसाधारणधर्म्म प्रत्यक्षतायां चलनशिरः कण्डूयनयोलियनवल्यारोहला भगतविशेषधम्मस्वतायां चोभयगतमनुस्मरणे च सत्यकतरविशेषनिश्चीयों किमिदमिति विमर्शरूपः संशयः प्रादुरस्ति । एवंभूते च स्वाखुपुरुषादिगतसंशये तरस्यापुरुषा दिकं वस्त्वस्त्येष, श्रवस्तुनि संशयायोगात् एवमात्मशरीरया प्रामुपलब्धसामान्यविशेषधर्मस्य प्रमातुस्तयोः सामान्यधर्म्मप्रत्ययता विशेषत्यवेऽपि व वयानुस्मृती सत्यामेकतरविशेषोपलिप्सोः ' किमयमात्मा किंवा शरीरमात्रमिदम् इति विमर्शसंजायते। अयं बात्मशरीरयोः सत्यवोपपद्यते नेकतरस्याप्यभावेअस्ति जीवः । अपूपेणादिषु व्यापुरुषसंशय तत्र विवक्षितप्रदेशे अनयोरेकतर एव भवति न पुनरुभयमपि तत्कथमुच्यते विद्यमानस्तुनि संशय अति इति क्रम अभियापरिज्ञानात् न हि वयमे मस्तत्रैव प्रदेश तदुपमप्यस्ति इनि कि तु यद्गत संदे तद्वस्तु तत्रान्यत्र वा प्रदेश ध्रुवमस्त्यव, अन्यथा षष्ठभूतविषयः स्यादवाद दिदमित्यादितस्मात् संशयविषयत्वादस्त्यव जीव इति स्थितम् । अथ पूर्वपक्षमाशङ्कय परिहरन्नाह एवं नाम विसाणं, खरस्स पत्तं न तं खरे चैत्र । अमरथ तदत्थि चिष एवं विवरीयगाहे ।।१४७२|| हन्त यदि यत्र संशयावश्यमेव भवितव्यम् ततः परविषामप्यस्तीति प्राप्तं तथापि कस्यचित् 9 (१२५) अभिधानराजेन्द्रः । + माता 6 सद्भावाद् उच्यते नम्यभिहितमत्र यहुत तत्राम्यत्र वा विद्यमान एव वस्तुनि संशयो भवति, नाविद्यमाने । खरस्य विषां खरविषां नास्तीत्यत्र च कोऽर्थः इत्याह-' न तं खरे चेच' त्ति-खर पत्र तद्विषां नास्ति, अन्यत्र गवादायस्त्वति न कश्चिद् व्यभिचार एवं वरीय वि ति इदमु भनि विपर्यस्तः कश्वित्थ पुरुष एवायमित्यादिविपरीत करोति तदाध्ययमेव न्याया वाच्यः सोऽपि विपरीतग्रहो विपरीते पुरुषादिके वस्तुनि सत्येोपपद्यतेः नाविद्यमान इत्यर्थः । एवं भवदभिप्रायेण थोsereri शरीरं श्रात्मास्तित्वाभिमानो, नायमात्मनः सर्वथा नास्ति युज्यते इति । इतोऽप्यस्ति जीवः कुत ?, इत्याह , अस्थि जीवविवखो, पडिमेहाओ घडोऽपस्सेव । नत्थि घडोत्ति व जीव-त्थित्तपरो नऽत्थि सद्दोयं । १५७३। अत्र प्रयोगः- प्रतिपक्षवानयमजीवः अत्र व्युत्पत्तिमच्छुपदप्रतिषेधाद् यत्र व्युत्पत्तिमतः शुद्धपदस्य प्रतिषेधो हश्यतेस प्रतिपक्षवान् रो यथा घटोऽपरप्रतिपक्षवान्, अगस्त्यमथ पदस्य प्रतिषेधः, श्रतोऽवश्यं घटलक्षणेन प्रतिपक्षेण भवितव्यम् । यस्तु न प्रतिपक्षवान् न तत्र शुद्धस्य व्युत्पत्तिमतश्च पदस्य प्रतिबेधः, यथा - अक्षरविगाणम् अदित्य विषाणमित्यत्र क्षरविपास लक्षणस्याऽशुरू रूप सामासिकप दस्य प्रतिषेध इति श्रतोऽत्र खरस्य विषाणं खरविपाणमित्यादिष्युत्पत्तिमचे सत्यपि खरविषाल विपत नास्ति डित्य इत्यत्र तु व्युत्पत्तिरहितस्य स्थिस्यडित्यपदस्य प्रतिषेध इति समासाहित्यप नावश्यमवस्थितो डित्थलक्षणः कोऽपि पदार्थों जीववद्विपक्षभूतोऽस्तीति । 'नस्थि घडो त्ति व ' इत्यादि पश्चार्धम् । ' नास्त्यात्मा ' इति च योऽयमात्मनिषेध्वनिः स जीयास्तित्बे नान्तरीयक एव, यथा नास्त्यत्र घट इति शब्दोऽन्यत्र घटास्तिस्वाधिनाभाव प्रयोग: यस्य निषेधः क्रियमायो रश्वन तत् क्वचिदस्त्येव यथा घटादिकम् निषिध्यते च भवता 'नास्ति जीवः तिचा जीवः तस्मादस्त्येय असी. यच्च सर्वथा नास्ति तस्य निषेधो न दृश्यत एव यथा 9 T रानां पञ्चभूतातिरिक्रभूतानां निषिध्यत व त्वया जीवः, तस्मान्निषेध एवायं तत्सत्वसाधक इति । अनैकान्तिकोऽयं हेतुः असतोऽपि विषाणादेर्निषेधदर्शनादित्याशङ्कयाहसनस्थिनिसेहो, संजोगाइप डिसेहओ सिद्धं । संजोगाइचउकं पि सिद्धमत्थंतरे निययं ।। १५७४ ।। असतः - श्रविद्यमानस्य नास्ति न संभवत्येव निषेध इति सिद्धम् कृत इत्याह संयोगादिनिषेधाद शिष्यान् समवायसामान्यविशेषपरिग्रहः । एतदुकं भवति इह यकिचित्कचित् देवदत्तादिकं निषिध्यते तस्यान्यत्र सत एव विवक्षितस्थानं कस्मिश्चित्संयोग- समवाय-सामान्य विशेचमेधि - 9 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) भाता अभिधानराजेन्द्रः। भावः प्रतिपाद्यते । तत्र 'नास्ति गृहे देवदत्त' इत्यादिषु जीवसिद्धावेवोपपत्यन्तरमाहगृहदेवदत्तादीनां सतामेव संयोगमात्र निषिध्यते, न तु जीवो सि सत्थयमिणं, सुद्धृत्तणो घडाभिहार्णव । तषां सर्वथैवास्तित्वमपाक्रियते । तथा-'नास्ति स्वरविषाणम् जेणऽत्थेण सदत्थं, सो जीवो अह मई होज ।। १५७५॥ इत्यादिषु खरविषाणादीनां सतामेव समवायमानं निरा अत्थो देहो चिय, से नो पज्जायवयणभेयाओ । क्रियते । तथा-'नास्त्यन्यश्चन्द्रमाः' इत्यादिषु विद्यमानस्यैव चन्द्रमसोऽस्यचन्द्रनिषेधाचन्द्रसामान्यमानं निषि नाणाइगुणो य जो,भणिओ जीवो न देहो त्ति ।१५७६) ध्यते, न तु सर्वथा चन्द्राभावः प्रातपाद्यते । तथा-'न जीव इत्येतद्वचनं सार्थकमिति प्रतिक्षा, व्युत्पत्तिमरखे सति सन्ति घटप्रमाणा मुक्का' इत्यादिषु घटप्रमाणतामात्ररूपो शुद्धपदत्वात् , इह यद् व्युत्पत्तिमत्त्वे सति शुद्धपदं तदर्थवद् विशेषो मुक्रानां निषिध्यते, न तु मुक्काभावः, च्याप्यत दृष्टं, यथा घटादिकं, तथा च जीवपदं, तस्मात्सार्थकं, यत्तु इति, एवं च सति 'नास्त्यात्मा' इत्यत्र विद्यमानस्यैवात्मनो सार्थकं न भवति तद्व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदं च न भवति, यथा यत्र कचन येन केनचित्सहसंयोगमात्रमेव त्वया निषेद्धव्यम् , डित्थादिकं, स्वरविषाणादिकं च, न च तथा जीवपदं, तयथा 'नास्त्यात्मा वपुषी' त्यादि, न तु सर्वथात्मनः सत्त्व स्मात्सार्थकम् । यद्व्युत्पत्तिमन्न भवति तच्छुद्धपदमपि मिति । अत्राह कश्चित्-ननु यदि यनिषिध्यते तदस्ति, सद् न सार्थकम् । यथा डित्यादिपदम् , इति हेतोरनैकातर्हि मत्रिलोकेश्वरताप्यस्ति , युष्मदादिभिर्निषिध्यमान न्तिकतापरिहारार्थ व्युत्पत्तिमत्त्वविशेषणं द्रष्टव्यम् । यदपि स्वात् । तथा-चतुर्णा समवायादिप्रतिषेधानां पञ्चमोऽपि शुद्धपदं न भवति कि तु सामासिकं, तदपि व्युत्पत्तिमत्वे प्रतिषधप्रकारोऽस्ति स्वयैव निषिध्यमानत्वात् , तदयुक्तम् सत्यपि सार्थकं न भवति, यथा खरविषाणादिकम् , इति त्रिलोक्येश्वरताविशषमात्रं भवतो निषिध्यते, यथा घट शुद्धत्वविशेषणम् । अथ मन्यसे देह एवास्य जीवपदस्याओं प्रमाणत्वं मुक्कानां, न तु सर्वदेवेश्वरता, स्वशिघ्यावीश्वरता न पुनरर्थान्तरम् , उक्तं च-"देह एवायमनुप्रयुज्यमानो दृष्टो, यथैष जीवः, एनं न हिनस्ति" इति अती देह एवास्यायास्तवापिविद्यमात्वात् । तथा-प्रतिषेधस्यापि पञ्चसं ों युक्त इति । तदेतत्र, कुतः ? इत्याह-देहजीवयोः पर्यायख्याविशिष्टत्वमपाफियत, न तु सर्वथा प्रतिषेधस्याभावः, घचनभेदात् , यत्र हि पर्यायवचनभेदस्तत्रान्यत्वं दृष्टम् , चतुःसंख्याविशिष्टस्य तस्य सद्भायात् । ननु सर्वम यथा घटाकाशयोः तत्र घटकुटकुम्भकलशादयो घटस्य पप्यसंबद्धमिदम् , तथाहि-मत्रिलोकेश्वरत्वं तावदसदेव नि- र्यायाः, नभाव्योमान्तरिक्षाssकाशादयस्तु आकाशपर्याया। षिध्यते, प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमविद्यमानमेव प्रस्तुते च जीयो जन्, रसुमान्प्राणी सत्त्वो भूत इत्यादयो निवार्यते , तथा संयोग समवाय-सामान्य-विशणाणामपि जीवपर्यायाः, शरीरं वपुः कायो देहः कलेवरमित्यादगृहदेवदत्तखविषाणादिष्वमतामय प्रतिषेधः, इत्यतः 'य- यस्तु शरीरपर्यायाः । पर्यायवचनभेदेऽपि च वस्त्येकत्वे सनिषिध्यते तदस्त्येव ' इत्येतत्कथं न लवते इत्याशङ्कयाह- थूकत्वप्रसोऽत्र बाधकम् । यत्पुनरिदमुक्तम्-"देह एवाय'संयोगाइचउकं पी' त्यादि, इदमुक्तं भवति-देवदत्तादीनां मनुप्रयुज्यमानो दृष्टः" इत्यादि. तच्छरीरसहचरणावस्थानासंयोगादयो गृहादिध्येयाऽसन्तो निषिध्यन्ते । अर्थान्तरे तु- दितः शरीरे जीवोपचारः क्रियत । किं च-इत्थमपि श्रूयत तेषां ते विद्यन्त एव; तथाहि-गृहेणैव सह देवदत्तस्य से- | एव-'गतः स जीवः, दह्यतामिदं शरीरम्' इति । किं चयोगो न विद्यते, अर्थान्तरेण तु क्षेत्रहप्रामादिना सह 'नाणा' इत्यादि, यस्माच ज्ञानादिगुणयुतो जन्तुः, जश्व तस्यासी समस्त्येव , गृहस्यापि देवदत्तेन सह संयोगो । देहः, तत्कथं देह एव जीवः । प्रागिहैव चोक्तम्-न ज्ञानानास्ति, खटादिना तु सह तस्यासौ विद्यत एव, एवं वि- दिगुणो देहः, मूर्तिमत्वाद् , घटवत् ; तथा-देहेन्द्रियातिघाणस्यापि खर एव समवायो नास्ति गवादावस्येवः सा-| रिक्त आत्मा, तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानामनुस्मरणात् , मान्यमपि द्वितीयचन्द्राभावाश्चन्द्र एव नास्ति, अर्थान्तरे वातायनपुरुषवदिति। तु घटगवादावस्त्येव घटप्रमाणत्वमपि मुक्तासु नास्ति, अ तदद्याप्यप्रतिवुध्यमाने इन्द्रभूतौ भगवानाहन्तिरे तु-कृष्माण्डादायस्त्येव । त्रिलोकेश्वरताऽपि भवत जीवोऽथि वो सच्चं, मबयणाओऽवसेसवयणं व । एव नास्ति, तीर्थकरावावस्त्येव, पश्चसंख्याविशित्वमपि प्रतिषध नाऽस्ति, अर्थान्तरे स्वनुत्तरविद्यमानादावस्त्येव, सध्यएणुवयणो वा,अणुमयसव्वएणुवयणं व १५७७/ इत्यनया विवक्षया घूमः-'यनिषिध्यते तत्सामान्येनाऽस्त्येव, 'जीवाऽस्ति' इत्येतद्वचः सत्यं, मद्वचनत्वात् , भवमत्येवं प्रतिजानीमह-यद् यत्र निषिध्यते तत्तत्रैवास्ति, संशयविषयाद्यवशेषवचनवत् , यच्च सत्यं न भवति तद् इति, येन व्यभिचारः स्यात् । वयमपि शरीरे जीयं नि मदीययचनमपि न भवति, यथा कूटसाक्षिवचनम् । अथ षेधयामो नान्यत्रेति चेत् साधूक्तम् , अस्मत्समीहितस्य वा-सत्य 'जीवोऽस्ति' इतिवचनं सर्वशवचनत्वावदनुसिद्धत्वात् , जीवसिद्धयर्थमेव हि यतामहे वयं, स चत्सिद्धः, मतसर्वशवचनवदिति । नहि तत्सिद्धपन्यथानुपपत्तरेव तदाश्रयः सत्स्यति किं यदि वातया चिन्तया ? । न च शरीरमन्तरेण जीवस्याश्रयान्तर भयरागदोसमोहा-भावामओ सच्चमणइवाइं च । मुपपद्यते, तत्रैव तदवस्थानलिङ्गापलब्धेः, न च वक्तव्यम्- सव्वं चिय मे वयणं, जाणयमझत्थवयणं व ॥१५७८।। शरीरमेव जीयो, 'जीवति, मृतो, मूञ्छित ' इत्यादि- सर्वमपि मद्वचनं सत्यम् अतिपाति च बोद्धव्य, भयव्यवस्थानुपपत्तेः, इत्यादरभिधास्यमानत्वादिति । रागद्वेषाज्ञानरहितत्वात् इह यद्भयादिरहितस्य वचनं त Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) अभिधानराजेन्द्रः । भाता रसत्यं दृष्टम्, यथा मार्गशस्य भयरहितस्य प्रष्टरि रागद्वेषरहितस्य मार्गोपदेशवचनम्, तथा च मद्वचः, त स्मात्सत्यमनतिपाति चेति । अत्र गौतममाशय भगवानुतरमादकह सव्वगु चि मई, जेणाहं सन्न संसयच्छेई । पुच्छसु व जं न जाणसि, जेण व ते पच्चओ होजा । १५७६ । कथं नाम ' त्वं सर्वशः ' इति ने मतिः ? एवं त्वं मन्यसे, तथा भयरागद्वेषमोद्दाभावश्चासिद्ध इति मन्यसे तदयुक्तम्, येनाहं सर्वसंशयच्छेदी, यश्च सर्वसंशयच्छेत्ता स सर्वश एव । दृष्टान्ताभावेनान्वयासिद्धेरनैकान्तिकोऽयं हेतुरिति चेत् न सर्वसंशयच्छेत्वानुपपत्तिरेवेह विपर्ष या मार्ग किमिहान्यायेषसेन ? यदि यात् लोकयान्तर्गत वस्तु रथं न जानासि येन सर्वययस्तव जायते । भयाद्यभावोऽपि तलिङ्गादर्शनात् मयि सिद्धएवेति स्वयमेव द्रष्टव्यम्। कदाचिदपि लिङ्गादर्शने लिङ्गिनाअस्तित्वशङ्कायामतिप्रसङ्ग इति । 9 1 · " अथोपसंहरबादएवमुवगलिंगं, गोयम ! सव्वप्यमाणसंसिद्धं । संसारीयरथावर - तसाइभेयं मुणे जीवं ।। १५८० ॥ एवम् उक्लेन प्रकारेण जीवम्-सरमा गौतम ! मुणप्रतिपद्यस्वेति संबन्धः । कथंभूतम् ? । उपयोग एव लिङ्गं यस्य स तथा सर्वैः प्रत्यक्षानुमानागमममाणैः संसिद्धम्प्रतिष्ठितम् तथा संसारीतरस्थायरत्र सादिभेदम् संसा रिगश्च इतरे सिद्धाः । आदिशब्दाच्च सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याशादिभेदपरिग्रह इति । विशे० । ( जीवस्यैकत्वनिराकरणयुक्तिः एनावाद शब्दे तृतीयभांग ३४ पृष्ठे पयते) अथ "विज्ञापन पते भूतेभ्यः समुत्थायाविनश्यति न प्रेयसंज्ञाऽस्ति" इत्यादिवाक्यार्थमनुभा यययस्त्यजतोऽपि मम संशयोऽतिथिरोधितात पृष्ठे न मुञ्चति, तकि करोमि ? इति चेत्तदयुक्तं कुतः ? इत्याहगोमया, इमाण अत्यं च तं न याणासि । जं विभागो च्चिय, एहिंतो समुत्थाय ॥१५८८|| मनसि मगे व मयभावो भूयसमुदउम्भूयो । विसायमेचमाया, भृणुविस्सद सम्भूय । १५८६ ॥ अस्थिन पेचसाजं पुण्यभवेऽभिहायममुगो नि । जं भणियं न भवाओ, भवंतरं जाइ जीवो ति ॥ १५६० ॥ सोनम ! त्यामन्त्रसम्पदानाम् अतिवाक्यानाम "विज्ञानधन पवनेभ्यः" इत्यादीनां चेतसि वर्तमानानामर्थ यथास्थितं त्वं न जानासि नावबुध्यसे । किमिति ? त वाह यद्यस्मात्वमात्माभिभूतमिहार्थं मन्यसे पि कल्यसीति संवन्धः कथंभूतम् ? इत्याह-यो पनि पृथिव्यादिभूतानां विज्ञानसमुदायो घणो विज्ञानघनः पृथिव्यादिविज्ञानांशानां पिण्ड इत्यर्थः, अवधारणं त्वात्मवादिपरिकल्पितस्य भूतसमुदायातिरिक्तस्य ज्ञानदर्शनादिगुणाश्रयस्यात्मनो निरासार्थम् भूतेभ्यः पू चियादिभ्यः समुदिते तु ज्ञानस्य तत्स - ५१ आता मुदाय परिणामाङ्गीकारादिति भावः, मद्याङ्गेषु मद्यकारणेषु धातक्यादिषु मदभाव इव, कथंभूतो विज्ञानघनः ? इत्याहभूषसमुदम्भू विराणा समेतमा सि भूतसमुदायादुद्भूतस्तदेव जातो न तु परभावात्कचिदायात विज्ञानमात्ररूप आत्मेत्यर्थः, समुत्थाय - उत्पद्य ततस्तान्येव पृथिव्यादिभूतानि विनाशमनुपानापनु-लक्षीकृत्य भूष:पुनरपि स विज्ञानघनो-विज्ञानमात्ररूपः आत्मा विनश्यति, न त्वात्मवादिनामिवान्यभवं याति । श्रत एव न प्रेत्य भवेपरभये संज्ञास्ति यत्पूर्व नरकादिजन्मन्यविधानमासी तत्परभवे नास्ति, यदुत-अमुको नारको देखो वा भूत्वा इदानीं मनुष्यः संवृत्त इत्यादि, नारकादेः प्रागेव सर्वनाश नष्टत्वादिति भावः । किमिह वाक्ये तात्पर्यवृत्त्या प्रोकं भवति इत्याह-मणियमित्यादि सर्वथात्मनः समुपद्य विना भावान्तरं कोऽपि यातीत्युक्तं भवति । यद्येवंभूतमस्य वेदवाक्यस्यार्थमहमवगच्छामि ततः किम् ? इत्याह . गोयम ! पयत्थमेवं मन्नतो नऽत्थि मन्नसे जीवं । " कंतरेस व पुणो, भगियो जीवो जमस्थि ति ।। १५६१ ॥ अभिगवणाइकिरिया फलं च तो संसयं कुसि जीये। मा कुरु न पयत्थोऽयं, इमं पयत्थं निसामेहि ।। १५६२ || गौतम ! अस्य वाक्यस्य दर्शितरूपमेव पदार्थ मन्यमानस्त्वं ' नास्ति ' इत्येवं जीवं मन्यसे । यस्माश्च पुनः "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोर पहतिरस्ति, शरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः " इत्यादिषु वेदवाक्यान्तरेषु 'अस्ति ' इत्येवं जीव भगितः प्रतिपादित तथा हुयात् स्वर्गकामः " इत्यादिवचनादग्निहवनादिक्रियायाः फलं च पारभविकं धूपतेन च भवान्तरयायिनमायान मनन्तरोपपद्यते। अतः किं जीवः अस्ति नास्ति संशयं जीवे करोषि त्वम् तदमुं मा कृथाः यस्माद्-" विज्ञानघन एव" इत्यादिवाक्यस्य नाऽयमर्थो यं भवानध्यवस्यतिः किं त्वम्-वक्ष्यमा पदार्थमिह निरामय प्राकर्णयेति । तमेव दर्शयतिविमाणाऽणमो, विष्णघणो त्ति सव्वओ वाऽवि 1 स भवइ भूव्हिंतो घडविणाभावेश ।। १५६३ ।। ताई चिय भूगाई, सोऽणुविणस्स विश्वस्समाणाई | अत्यंत रोओगे, कमसो विधेयभावे ।। १५६४ ।। इह विज्ञानघनो जीव उच्यते । कथम् ? इति चेत्, च्यते विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं; ज्ञानदर्शनोपयोग इत्यर्थः तेन विज्ञान सहानम्यभूतत्यादकतया घनत्वं नित्यमा पत्र विज्ञानघनो जीवः उच्यते । यदि बाम्बी वा विति सर्वतः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्त विज्ञानपाराय टितत्वाद्विज्ञानघनो जीवः । एवकारेण तु विज्ञानघन एयासी तुकादीनामिव स्वरूपण निर्दिज्ञानत्याजोऽसौ बुद्धिस्तु रात्र समयेतेय इति नियम्यते । स भवति उद्यत इति क्रिया । केभ्य ?, इत्याह- भूहितो 'तिभूतानीह घटपटादिशेषवस्तुरूपाभिप्रेतानि पशेय " , उ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्राता भावपरः केन भवति लाडो' 'प टोडयमिहानभावेन- घटादिज्ञानपर्यायेण । ततः शङ्कय तान्येवानुविनश्यतीत्यस्यार्थमाह--' ताई चित्यादि, तान्येव ज्ञानालम्बन भूतानि - घटादिभूतानि श्रमशः - कालक्रमेण व्यवधानस्थगना ऽन्यमनस्कत्वादिनातपय मतिनवेन दिनाशमश्वानानि तु पश्चात् पर्यायेण विज्ञानघनां विनश्यतीति संबन्धः । ज्ञानपर्यायेण घटादिभ्यो शेयभूतेभ्यो जीवः समुत्थाय कालक्रमादधानादिना अर्थान्तरोपयोगे सनतान्येव विनाशमनुवानान्यनुविनश्यतीति तात्पर्यार्थः । स ( २०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । किमि सर्वधाऽयमात्मा विनश्यति है, न इत्याहपुव्यावरविषाणो-वयोग विगमसंभवसहाओ । विद्यासन्नई, विणावोऽयमविनासी ॥१४६॥ एक एवायमात्मा त्रिस्वभावः । कथम् ? इत्युच्यते-श्रन्तरोपयोगकरले पूर्वमयोगेन तावदयं विगमस्वभाव-विनश्वरूपः अपरमिशनोपगतस्तु संभवस्वभाव उत्पादस्वरूपः, अनादिकालप्रवृत्तसामान्यविज्ञानमात्रसंतत्या पुनरयं विज्ञानघनो जीवः अविनष्ट एवावतिष्ठते । चमन्यदपि सर्वं वस्तुत्यादन्ययीव्यस्यमायमेवायन्तस्पम् न पुनः किमपिगश्यति चेति । , 'न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति ' इत्येतद्वाचिख्यासुराह न च पेच नागमचाऽवतिए संपच्योवगाओ | भिक्खो जीवोऽयं वेगपय मिहिओ। १५६६ । न च प्रत्येति न चान्यवस्पयोगकाले त ऽस्ति कुतः सांतवस्तुविषयोपयोगात् । इदमुभयतियदा घटोपयोगनिवृत्ती पोपयोग उत्पद्यते तदा पढ़ीयोगसंज्ञा नास्ति तदुपयोगस्य निवृत्तत्वात् किं पटोपयोगसंवास्ति, तदुपयोगस्यैव तदानीमुत्पन्नत्वात् । तस्माद्विनिष्यदितोऽयं जीवः । ततो गौतम ! प्रतिपद्यस्व एनमिति । पुनरपी प्रेमाश परिदरसा एवं पि भूयधम्मो, नाणं तब्भावभावच्चो बुद्धी । तनो तदभावम्मिवि, जं नाणं वेयसमयम्मि || १५६७१) अत्थमिए आइये, चंदे संतासु वायासु । किं जोइ पुरिसो, अप्पओ निहिडो ॥ १५६८ ।। 'बुद्धीति स्वाद बुद्धिः मेकरस्य एवमपि स भवा भूयेहितो' इत्यादिना युष्मद्व्याख्यानप्रकारेणापीत्यर्थः, पृथिव्यादिभूतधर्म एव ज्ञानं भूतस्वभावात्मकमेव ज्ञानमिति भावः । कुत इत्याह-' तलवभाव' त्ति एतेभ्यां भूतेभ्यः समुत्थायाम्पचानुविनश्यतीति वचनासा भावात् । तदभावे चाभावादित्यर्थः यस्य च भावे एव यद्भवति श्रभावे च न भवति तत्तस्यैव धर्मो यथा चन्द्रमसान्द्रिका, तथा च ज्ञानमनुविधानि भूतान्वयव्यति " , ' 1 नीलपीतादिभूग्राहकं ज्ञानं तदन्वयव्यतिरेकानुविदधाति न तु सामान्यं ज्ञानमात्रम्, यस्माद् भूताभावेऽपि वेदलक्षणे समय सिद्धान्ते सामान्यज्ञाने भणितमेव इति शेषः केन वाकवेन इत्याह-यदि इत्यादि अस्तमिते आदिवाश्चत्स्यश्वमस्यस्तमितेशानी, शान्तायां यानि कि ज्योतिरेवार्य पुरुषः, आत्मज्योतिः सम्राडिति होवाच, 'ज्योति' रिति ज्ञानमाह । श्रादिस्यास्तनवादी किं ज्योति इत्याह-अयं पुरुष इति पुरुषः, आत्मेत्यर्थः । श्रयं च कथंभूत ? इत्याह- अप्पजाइ ' ति श्रात्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमात्मज्योतिः -ज्ञानात्मक इति हृदयम्, निर्दिष्टशे वेदविद्भिः कथितः, ततो न ज्ञानं भूतधम् इति स्थितम् । इतश्च न ज्ञानं भूतधर्म्मः । कुत ?, इत्याहतदभावे भावाओ, भावे चाभावो न तद्धम्मो । जह घडभावाऽभावे, विजयाओ पडो भित्र ।। १५६६॥ न भूतधर्मो ज्ञानम्, मुक्क्रयवस्थायां भूताभावेऽपि भावात्, मृतशरीरादौ तद्भावेऽपि चाभावात् यथा घटस्य धो न भवति किं तु तस्माद्भि एच । कुतः ?, इस्यादपदभावाभावे विपर्ययात् घटभावेऽप्यभावात् तदभावेऽपि च भावादित्यर्थः । विशे० । श्र० म० । आव० ॥ कह० (विशेष सम्मतितन्यादवसेयः) (१३) अभौतिकस्यमात्मनः त (पञ्चभूता व्यतिरिको गन्धरसरूपस्पर्शशब्दरूपः मिश्र न कश्चित् पदार्थः) - एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगो ति आदिया । अह तेर्सि चियाणं विवासो दोइ देहिगो ॥ ८ ॥ एषां भूता उपनिरिक आत्मा अपन भूतेभ्यो व्यतिरिपरः कचित्परः परः परलो कानुयायी सुखमा जीवाच्यः पार्थोऽस्तीत्यमाख्यातवन्तस्ते तथाहि एवं प्रमाणयन्ति न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्मास्ति तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् प्रमासे चात्र प्रत्यक्षमेष, नानुमापदिकम् तद्राक्षादर्थस्य संबन्धाभावाद्वयभिचारसंभवः । सति व व्यभिचारसंभवे सदृशे च बाधासेभवे तलक्षणमेव दूषितं स्पादिति सर्वत्रानाभ्यासः । तथाचोक्रम् -' हस्तस्प • दिवान्धेन विषमे पथि धावता अनुमान - निपातो न दुर्लभः " ॥ १ ॥ अनुमानं चात्रोपमानमादीनामपि साक्षाद संबन्धाभावादस्तस्परि ति । तस्मात्प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणं तेन च भूतव्यतिरिक्तस्यामनोवल कायाकारपरिणतेष्वभिव्यज्यते मद्याङ्गेषु समुदितेषु मदशक्तियदिति । तथा न भूतनिरि तत्त्वा पटादिवदिति तदेषं भूतव्यतिरिक्रस्यात्मनोऽभावाद भूतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिर्जलस्य बुदबुदाभिव्यक्तिवदिति । कंपांधिलोकायतिकानामाकाशस्यापि भूतत्वेनाभ्युपगमा रेकौ तस्मात्तद्भूतधर्म एव तदयुक्तम्, विशिष्टमेव हि । तपञ्चकोपन्यासो न दोषायेति । ननु च यदि भूतव्य - 6 'एए पञ्च महब्भूया' इत्यादि एतानि श्रनन्तरोक्नानि पृथिव्यादीनि पञ्चमहाभूतानि पानि या कायाकारपरि 1 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता तिरिकाउपरः कचिदात्मान्यः पदार्थो न विद्यते कथं तर्हि मृत इति व्यपदेश इत्याशङ्कयाह श्रथैषां कायाssपरतपाभिपी सत्यां तदृतेषामन्यसमस्या- पायांस्तंजनिदेवदानवस्य विनाश-अपगमा भर्याति ततब्ध त इति प्रदेश पुनर्जीयापगम इति भूताऽप्यतिरिक्तचैतन्यवादपूर्वपच इति । ( २०३ ) अभिधानराजेन्द्रः | - अत्र प्रतिसमाधानार्थ निर्युक्लिकृदाहपंच संजोर, अरणगुणायं च याइगुणो । पंचिदिवठाणा, व अणमुखियं मुख अ॥ ३३ ॥ पंच संजय इत्यादि पञ्चानां पृथिव्यादीनां भूतानां संयोगे - कायाकारपरिणामे चैतन्यादिकः । श्रादिशब्दात्भाषाचङ्क्रमणादिकश्च गुणो न भवतीति प्रतिशा, श्रन्यायस्वत्र] हेतुत्वेनोपात्तादाम्यस्यभ्यूः सुलभत्वा तस्य नोपादानम् । तवेदं चार्वाक प्रपदभूतानां संयोगे चैतन्यमभिव्यज्यते तत्किं तेषां संयोगेऽपि स्वातन्त्र्य एव, आहोस्वित् परस्परापक्षया पारतन्त्र्ये इति । किचातः १ न तावत्स्वातन्त्र्ये यत आह-' श्रन्नगुणाएं 'ति - चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्यन्यगुणानि, तथाहिआधार काठिन्यगुणा पृथिवी, द्रवगुणा आपः पक्क्रुगुणं तेज चलनगुना या अवगाहदानमुलमाकाशमिति । यदि वा प्रागभिहिता गन्धादयः पृथिव्यादीनामेकैकपरि हान्याऽन्ये गुणाश्चैतन्यादिति तदेवं पृथिव्यादीन्यन्यगुणानि चशब्दो द्वितीयविकल्पवक्लव्यता सूचनार्थः, चैतम्यगुणे साध्ये पृथिव्यादीनामन्यगुणानां सतां चैतन्यगुरास्य पृथिव्यादीनामेकस्याध्यमावा तत्समुदायाचे म्याख्या गुणः सिद्धयतीति प्रयोगस्तत्र भूतसमुदायः स्वानन्ये सति धर्मित्वेनोपादीयते न तस्य चैतन्याख्यो योऽस्तीति साध्यो धर्मः पृथिव्यादीनामन्यगुणस्यात् यो योऽन्यगुणानां समुदायस्तत्र तत्राऽपूर्वगुणेोत्पत्तिर्न भवतीति यथा सिकतासमुदायै स्निग्धगुणस्य तैलस्य नोत्पत्तिरिति घटपटसमुदाये वा न स्तम्भाद्याविभवि इति, दश्यन कां चैतम्यं तदात्मगु भविष्यति न भूतानामिति । अस्मिन्नेव साध्ये देवस्तरमाह पंचिनिय 3 निपन च तानि स्पर्शनराव यात्राख्यानीन्द्रियाणि तेषां स्थानानि अवकाशास्तेवां चैतन्यगुणाभावान्न भूतसमुदाये चैतन्यम् । इदमत्र हृदयम्-लोकापतिकानां हि अपरस्य प्रष्टुमभ्युपगमापाव इति तेषां च यानि व्यानाम्युपादानकारणानपायचिदुपायाच भूतसमुदाये चैतन्यमिति चा मूनि स्थानानि । तद्यथा - श्रोत्रेन्द्रियस्याकाशं सुषिरा त्मकत्वात् घ्राणेन्द्रियस्य पृथिवी तदात्मकत्वात् चतुरिन्द्रियस्य तेजस्तपस्यात् एवं रसनेन्द्रियस्याप स्पर्शनन्द्रियस्य वायुरिति । प्रयोगश्चात्र-नेन्द्रियाण्युपलब्धि मन्ति तेषामन्वयइतन ततदचेतनम् यथा घटपटादीनि । एवमपि च भूगमम् - दाय चैनम्याभाय एवं साधितो भवति पुनश्वन्तरमाह'मुयिं मुद्द गो' ति-इहेन्द्रियाणि प्रत्येकं । , 3 •. भूतात्मकानि नान्येवापरस्य इदुरभावाद् इि प्रत्येकं स्वविषयग्रहणादन्यविषये चाप्रवृत्तेर्नान्यदिन्द्रियज्ञानमयदि जानातीत्यतो मया पञ्चापि विषा इत्येयमात्मकः संकलनाप्रत्ययो न प्राप्नोति, अनुभूषते चायं तस्मादकेनैव इष्टा भवितव्यम् तस्यैव च चैतन्यं न भूतसमुदायस्येति प्रयोगः पुनरेवम्-न भूतसमुदाये - तन्यं तदारब्धेन्द्रियाणां प्रत्येकविषयग्राहित्वे सति संकलनाप्रत्ययाभावात् यदि पुनरम्यगृहीतमयीपावनानि नये मवेति । ननु च स्वातन्यपक्षेऽयं दोषः । यदा पुनः परस्परसापेक्षाणां संयोगपारतन्त्राभ्युपगमेन भूनानामेव समुि म्यारूपों धर्मः संयोगवशादाविर्भवति यथाका दिषु मद्यानेषु समुदितेषु प्रत्येकमविद्यमानापि मदशक्तिरिति तदा कुतोऽस्य दोषस्यावकाश इति । अत्रोत्तरम् - गाथापाचशब्दाऽऽप्तिमभिधीयतपत्तावदुकं यथा भूतेभ्यः परस्परसापेक्षसंयोगमातन्यमुत्पयते तत्र विकल्प पाम: किमो संयोगः संयोगियोभिः अभि वा भिन्नभूतप्रसङ्गो नत्रान्यन्पश्ञ्चभूतव्यतिरिक्तसंयोगारुणभूत ग्राहकं प्रमाणमस्ति प्रत्यक्षस्करणभ्युपगमानेन च तस्याग्रहणात् प्रमाणान्तराभ्युपगमे च तेनैव जीवस्यापि ग्रहणमस्तु तथाऽभियां भूभ्यो भूताना मेय संयोगस्तत्राप्येतानी कि भूतानि प्रत्येकं चतनायन्ति, श्रचतेनावन्ति वा, यदि चेतनावन्ति तदा एकेन्द्रियसिद्धिस्तदा समुदायस्य पञ्चकार चैतन्यापत्तिः अथअवतनानि तत्रीको दोषो न हि यद्यत्र प्रत्येकमविद्यमानं तत्समुदाये भवदुपलभ्यते सिकतासु तैलवदित्यादिना । यद्यत्रोक्रम्-यथा मचापविद्यमानाऽपि प्रत्मशक्रः समुदायिकम् - स्वादिषु याच पावती शक्रिरुपलभ्यते, तथाहि फिरावे बुभुक्षापनयनसामर्थ्य भ्रमिजननसामर्थ्यं चोदकस्य तृडपनयनसामर्थ्यमित्यादिनति, भूतानां प्रत्येकं चैतन्यानभ्युपगमे प्रान्तदन्तिकयोरसाभ्यम् । किं च भूततन्याभ्युपगमे मरणाऽभावो, मृतकायेऽपि पृथिव्यादीनां भूतानां वङ्गावात् नैति सुनका वास्तेजस वा श्रभावान्मरणसद्भाव इत्यशिक्षितस्योल्लापः । तथाहिमृतकांय शोफोधनं पापांरभावः कोयस्य च पक्तिस्वभावस्य दर्शनान्नग्निरिति श्रथ सूक्ष्मः कश्चिद्वायुविशेषोनिर्वा ततोऽपंगत इति मतिरित्येवं च जीव एव नामान्तरेणाभ्युपगतो भवति यत् किंचिदेतत्तथा न भूतसमुदायमा म्याविर्भावः पृथिव्यादिष्यकव्यवस्था पितेष्वपि चैतन्यानुपलब्धेः । अथ कायाकारपरिणतौ सत्यां तदभिव्यक्तिरिष्यते, तदपि न यतो लेप्यमयप्रतिमायां समस्तभूतमद्भावेऽपि जडत्वमेवोपलभ्यते । तदेवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामाध्यमानाम्य गुन भवितुमर्हति समुपलभ्यते चायं शरीरेषु । तस्मात् पारिशेवात् जीवश्वायमिति स्वदर्शनपक्षपा यतामिति प्रान चियादिव्यामास्ति, तद्ग्राहक प्रमाणाभावात्, प्रमाणं चात्र प्रत्यक्षमबैकमित्यादि, तत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तम् - प्रत्यक्षमबैकं " " आता " Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता प्रमार्ण नानुमानादिकम् इत्येतदनुपासित गुरोर्वचः । तथादि-अर्थाऽविसंवादकं प्रमाणमित्युच्यते प्रत्यक्षस्य चप्रामाख्यमे व्यवस्थाप्यते का 3 ( २०४ ) अभिधानराजेन्द्रः | स्मित्वेनापादाय प्रमाणपति प्रमाणमेवा अर्थाविया न च ताभिरेव प्रत्यदकत्वादनुद्भूतप्रत्यपवित् । व्यक्तिभिः स्वसंविदिताभिः परं व्यवहारयितुमयमीशस्तासां स्वभिचित्यान्मुकत्याच प्रत्यक्षस्य नानुमानं प्रमाणमित्यनुमानेनैवानुमाननिरासं कुर्वेधायक [क] नामः स्यात् । एवं स तदमामा प्रतिपादयेत् । यथा भानुमानं प्रमाणं विसंवादकत्वादनुभूत नुमानव्य क्लिवदित्येतश्चानुमानम्, अथ परप्रसिध्यैतदुच्यते तदप्ययुक्तम् यतस्तत्परप्रसिद्धमनुमानं भवतः प्रमाणम् ; श्रमाणं वा ? | प्रमाणं चेत्कथमनुमानमप्रमाणमित्युच्यते, श्रथाप्रमाणं कथमप्रमाणेन सता तेन परः प्रत्याय्यते ?, परेण तस्य प्रामाण्येनाभ्युपगतत्वादिति चेतदप्यसांप्रतम्, यदि नाम परो मौडपाद प्रमाणमेव प्रमामित्यवस्यति किं भवताऽतिनिपुलेनापि तेनैवासी प्रतिपाद्यते ह्यलो गुडमेव विषमिति मन्यते किं तस्य मारयितुकामेनापि बुद्धिमता गुड एव दीयते ? तदेवं प्रत्यक्षानुमान प्रा मारयामास्ये व्यवस्थापयतो भवतोऽनिनाऽपि बलादायातमनुमानस्य प्रामाण्यम् । तथा स्वर्गापवर्गदेवतादेः प्रतिषेधं कुर्वन् भवान् केन प्रमाणेन करोति ? न तावस्वत्य प्रतिषेधः कर्तुं पायते यतस्तत्प्रत्यर्शनमार्ग यो या नस्याभावविषयत्वविरोधात् नापि निवर्तमानम् । यतस्तच्च नास्ति तेन च प्रतिपत्तिरित्यसङ्गनम् । तथाहिव्यापक उपाध्यस्यापि निवृत्तिरिष्यते, न थावदर्शिनप्रत्यक्षेत्र समस्ताः संयते तत्क प्रत्यक्षविनिवृत्तौ पदार्थव्यावृत्तिरिति ? । तदेव स्वर्गाऽऽदेः प्रतिषेधं कुर्वता वाकया पश्यं प्रमाणान्तरमभ्युपगतम् । तथाऽन्याभिप्रायविज्ञानाभ्युपगमात्र स्पष्टमेव प्रमायान्तरमभ्युपगतम् | अन्यथा कथं परावबोधाय शास्त्रप्रणनमकारिचायकलम प्रत्यादयदमागमस्त तेनारमा सरस्वति किं पुनस्तदिति चेत् उच्यते श्रस्त्यात्मा, असाधारणतद्गुणोपलब्धेः, चतुरिन्द्रियवत् । चतुरिन्द्रियं हि न साक्षादुपलभ्यते । स्पर्शनादीन्द्रियाऽसाधारणरूपविज्ञानोत्पादन शक्त्या त्वनुमीयते । तथाऽऽत्मापि पृथिव्याद्यसाधारण चैतन्यगुपलब्धस्ती मी चैत तस्यासाधारण इत्या दिभूत समुदाये चैतन्यस्य निराकृतत्वादव संयम् । तथाऽस्त्यात्मा समस्तेन्द्रियोपलब्धार्थ संकलनाप्रत्यय सद्भावात् । पञ्चगवाक्षानम्योपलब्धार्थ संकलनाविधाय्येक देवदत्तवत् तथात्मार्थद्रा नेन्द्रियाणि । तद्विगमेऽपि तदुपलब्धासंस्मरणात् गवाक्षेोपरमेऽपि तद्द्वारोगार्थमवृंदयसवत् । तथाऽर्थापत्याच्या मातीत्यच तथाहिसत्यपि पृथिव्यादिभूतसमुदायेष्यकर्मादीन सुखदुःखे पादकिय रुद्राय इत्यतः समयसी १- अन्यथा स्थितस्य वस्तुनः अन्यथा कथनम्-विसंवादः । " 2 आता , यते । अस्ति भूतातिर कधिसुखदुःखेच्छादीनां क्रिया समवायिकारणं पदार्थ स चात्मेति तदेवं प्रत्यक्षानुमा नादिपूर्तिका म्याण्यर्थापतिरभ्वृथा । तस्यासियर्द लक्ष णम् -" प्रमाणषट्कविज्ञातो यत्राऽर्थो नाऽन्यथाभवन् । अदृएं कल्पयेदन्यं, सार्थापत्तिरुदाहृता " ॥१॥ तथाऽऽगमादप्यस्तित्वमवसेयम् । स चायमागमः - " अस्थि मे आया उपचार" इत्यादि । यदि वा किमत्रा उपरान्तथा 1 कमान प्रत्यपारमा उस्तीत्यवसीयते। तद्गु णस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वात् । ज्ञानगुणस्य च गुणिनोऽनन्यस्वात् प्रत्यक्ष एवाऽऽत्मा, रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वेन पटाSSदिप्रत्यक्षवत्, तथाहि श्रहं सुखी श्रहं दुःखी एवमाथदंप्रत्ययग्राह्यश्चात्मा प्रत्यक्षः, अहंप्रत्ययस्प स्वसंविद्पत्यादिति ममेदं शरीरं पुराणं कर्मेति च शरी राजेदेन निर्दिश्यमानत्वादित्यादीम्यम्याम्यपि प्रमादानि जीवसिद्धावभ्यानीति । तथा यदुक्रम्-न भूनस्पतिजीवसिद्धावभ्युह्यानीति । रिकं चैतन्यं तत्कार्यस्यात् पटादिवदिति एतयस मीचीभम् हेतोरसिद्धत्वात् तथाहि न भूतानां कार्य चैतन्यं तेषामनद्गुणत्वात् भूतकार्यचैतन्य संकलनास्वासंभवाथ इत्यादिनाम् धनस्यात्मा भूतव्यतिरिक्को ज्ञानाधार इति स्थितम् । ननु च किं ज्ञानाधारभूतनात्मना ज्ञानाद्विनाधितेन पापता ज्ञानादेव सर्वसंकलनाप्रत्ययादिकं सेत्स्यति, किमात्मनान्तर्गडुकल्पेनेति । तथाहि ज्ञानस्यैव चिपत्वाद्भूतैरचेतनैः कायाकारपरिणतेः सह संबन्धे सति प्रयत्न किया: प्राग्पन्ति तथा संकलनाप्रत्ययो भवान्तरगमन चेति । तदेवं व्यवस्थिते किमात्मना कल्पितनेति त्रीच्यते न ह्यात्मानमेकमाधारभूतमन्तरेण संकलनाप्रत्ययो घटने तथादि प्रत्येकमिन्द्रियैः स्वविषये सति पर विषये चाप्रवृत्तेरेकस्य च परिच्छेत्तुरभावात् । मया पञ्चापि विषयाः परिच्छिन्ना इत्यात्मकस्य संकलनाप्रत्ययस्याभाव इति । श्रालय विज्ञानमेकमस्तीति चेत् एवं सत्यात्मन एव नामान्तरं भवता कृतं स्यात् । न च ज्ञानाख्यो गुणो गुनिमन्तरेण भवतीत्यमा गुमनाम [सू० १० १० सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यि अनुमेयत्वात् क्षितिधर कन्धराधिकरणधूमध्वजवत् । एवं चसूपपरागादिसूत्र ज्योति नात्रिसंवादाग्यथानुपपत्तिप्रभूयोऽपि न पाया। देवमन सर्पविदा प्रणीन आगमः प्रमाणमेव तदशमात्वं हि प्राकनिबन्धदम् : " रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते नूनम् । यस्य तु नेते दापास्तस्यानृतकार किं स्यात् ॥१॥ इति वचनात् प्रनुश्व निषमुपपादितमेव इति सिद्ध आगमादध्यात्मा" एगे श्राया " इत्यादिवचनात् । तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमैः सिद्धः प्रमाता स्पा० १७ श्लोक प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा ।। ५५ ।। अति-परापरपयान सततं मच्ात्मा जीवः । रत्ना० ७ परि० । ( अस्य टीका रत्नाकरावतारिकाग्रन्थादवसेया ) ( शून्यवादनिराकरणपूर्विका ऽऽत्मत्वसिद्धिः विस्तरतः स्याद्वादमञ्जरी ग्रन्थादवसया ) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) माता अभिधानराजेन्द्रः। माता (१४) साम्प्रतं कस्या दिश भागतोऽहमिति प्रकृतमनु- धायिना तिप्रत्ययेनाभिदधदहप्रत्ययसाध्यस्यात्मनस्तद्भव नियते । यो हि 'सोऽहम् ' इत्यनेनाहङ्कारज्ञानेनात्मोल्लंखेन एवावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानजातिस्मरणव्यतिरेकेणैव त्रिपूर्वादिदिश भागतमात्मानमवच्छिन्नसन्ततिपतितं द्रव्यार्थ- कालसंस्पर्शिना मतिज्ञानन सद्भावावगर्म दर्शयितुमाहतया नित्यम् । पर्यायार्थतया त्वनित्यं जानाति स पर अकरिस्सं च हं कारवसुं च हं करो आवि समणुने मार्थत आत्मवादीति । सूत्रकृद्दर्शयति भविस्सामि । (सूत्र-६) . अस्थि मे आया उववाइये, जो इमाओ दिसामो अ इह भूतवर्तमानभविष्यकालापेक्षया कृतकारितानुमतिणुदिसामओ वा अणुसंचरइ, सव्वाश्रो दिसामो अणुदि भिनवविकल्पाः संभवन्ति, ते चामी-अहमकार्षमचीकरमहं साओ, सोहं । (सूत्र-४४) आचा० १ श्रु०१ अ०१ उ०।। कुर्वन्तमन्यमनुशासिषमहं करोमि कारयाम्यनुजानाम्यह(अस्य सूत्रस्य व्याख्या चतुर्थभागात्-२५२६ पृष्ठे करि मिति करिष्याम्यहं कारयिष्याम्यहं कुर्वन्तमन्यमनुशास्याध्यमाणादवगन्तव्या) म्यहमिति, एतषां च मध्ये श्राद्यन्तौ सूत्रेणैवोपात्तौ तदुपा दानाच तन्मध्यपातिनां सर्वेषां ग्रहणम् , अस्यैवार्थस्थाविसे आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी। करणाय द्वितीयो विकल्पः । “कारवसुंचऽहमिति" सूत्रे. (मूत्र-५) णोपात्तः, एते च चकारद्वयोपादानादपिशब्दोपादानाच म'से' इति-यो भ्रान्तः पूर्व नारकतिर्यङ्नरामराद्यासु नोवाकायश्चिन्त्यमानाः सप्तविंशतिः २७ भेदा भवन्ति, अयभावदिक्षु पूर्वाद्यासु च प्रज्ञापकदिक्षु अक्षणिकामूादिल मत्र भावार्थ:-अकार्षमहमित्यत्राहमित्यनेनास्मोल्लेखिना थिक्षणोपेतमात्मानमवैति स इत्थंभूत प्रात्मवादीति आत्मानं शिष्टक्रियापरिणतिरूप आत्मा अभिहितस्ततश्चायं भावार्थों वदितुं शीलमस्येति । यः पुनरेवंभूतमात्मानं नाभ्युपगच्छति । भवति-स एवाऽहं येन मयास्य देहादेः पूर्व यौवनावस्थासाऽनात्मवादी, नास्तिक इत्यर्थः । योपि सर्वव्यापिनं नित्यं यामिन्द्रियवशगन विषयविषमोहितान्धचेतसा तत्तदकाक्षखिकं वाऽऽत्मानमभ्युपैति सोऽप्यनात्मवाद्येव यतः सर्व यानुष्ठानपरायणेनानुकूल्यमनुष्ठितम् । उक्तश्च-"विहवाबव्यापिनो निष्क्रियत्वाद्भवान्तरसंक्रान्तिन स्यात्सर्वथा नित्य लबडिएहिं, जाई कीरंति जोव्वणमपणं । बयपरिणामे स्वेऽपि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावं नित्यमिति कृत्वा म सरियाई, ताई हियए खुडक्कंति" ॥ १ ॥ तथा अचीकरमहरणाऽभावेन भवान्तरसंक्रान्तिरेव न स्यात् , सर्वथा क्षणि मित्यनेन परोपकार्यादी प्रवर्तमानो मया प्रवृत्ति कारितः, कन्वेऽपि । निर्मूलविनाशात् सोऽहमित्यनेन पूर्वोत्तरानुसं तथा कुर्वन्तमन्यमनुज्ञातवानित्येवं कृतकारितानुमतिभिधानं न स्यात् । य एव चात्मवादी स एव परमार्थता लो भूतकालाभिधानं, तथा करोमीत्यादिना पचनत्रिकेण वकवादी । यतो-लोकयतीति लोकः-प्राणिगणस्तं वदितुं शी तमानकालो लखः, तथा करिष्यामि कारयिष्यामि कुर्वलमस्यत्यनेन चात्माद्वैतवादिनिरासेनात्मबहुत्वमुक्तम् , यदि तोऽन्यान्प्रति समनुशापरायणो भविष्यामीत्यनागतकालाबा-लोकाऽऽपतीति लोकः-चतुर्दशरज्ज्वात्मकः, प्राणिगणो ल्लेखः, अनेन च कालत्रयसंस्पर्शन देहेन्द्रियातिरिक्तस्यात्मनो वा, तत्राऽऽपतितुं शीलमस्येत्यनेन च विशिष्टाकाशखण्डस्य भूत-वर्तमान-भविष्यत्कालपरिणतिरूपस्यास्तित्वावगतिरा. लोकसंक्षा वेदिता, तरच जीवास्तिकायस्य संभवेन जीवा वेदिता भवति, सा च-नैकान्तक्षणिकनित्यवादिनां संभवनां गमनागमनमावदितं भवति । य एव च दिगादिगमनपरि तीत्यतोऽनेन ते निरस्ताः क्रियापरिणामनारमनः परिणाज्ञानेनात्मवादी लोकवादी च संवृत्तः स एवासुमान् क- मित्वाभ्युपगमादिति, एतदनुसारेणैव संभवानुमानादतीमवादी कर्म-झानावरणीयादि तद्वदितुं शीलमस्य यतो हि | तानागतयोरपि भवयोरास्मास्तित्वमवसेयम् । यदि वाप्राणिनो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः पूर्व गत्या- अनेन क्रियाप्रबन्धप्रतिपादनेन कर्मण उपादानभूतायाः दियोग्यानि कर्माण्याददते, पश्चात्तासु तासु विरूपरूपासु क्रियायाः स्वरूपमावेदितमिति । योनिघूत्पद्यन्ते । कर्म च प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मक- अथ किमेतावत्य एव क्रिया; उतान्या अपि सन्तीत्येतामवमेयमिति । अनेन च कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवा- एवेत्याहदिनो निरस्ता द्रष्टव्याः । तथा य एव कर्मवादी; स एव एयाति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणिक्रियावादी । यतः कर्म योगनिमित्तं बध्यतेः योगश्व-व्यापारः, स च क्रियारूपः, अतः कर्मणः कार्यभूतस्य बदनात्त यवा भवंति । (सूत्र-७) कारणभतायाः क्रियायाः अप्यसावेव परमार्थतो वादीति एतावन्तः सर्वेऽपि लोके प्राणिसंघाते कर्मसमारम्भाःक्रियायाश्च कर्मनिमित्तत्वं प्रसिद्धमागमे, स चायमागमः- क्रियाविशेषा ये प्रागुक्ताः अतीतानागतवर्तमानभेदेन कृत"जाव ण भंते ! एस जीवे सया समिय एयह यह चल- कारितानुमतिभिश्वाशेषक्रियानुयायिना च करोतिना सति फंदति घट्टति तिप्पति जाव तं तं भावं परिणमति वेषां संग्रहादित्येतावन्त एव परिक्षातव्या भवन्ति; नान्ये ताव(व)च णं अट्ठविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छविहवं- इति । परिक्षा च अप्रत्याख्यानभेदाद द्विधा, तत्र परिक्षायाधए वा एकविहबंधए चा मोण प्रबंधए " त्ति । एवं च मात्मनो बन्धस्य चास्तित्वमेतावद्भिरेव सर्वैः कर्मसमारकृत्वा य एवं कर्मवादी स एव क्रियावादीति । अनेन म्भोतं भवति प्रत्याख्यानपरिक्षया च सर्वे पापापादानच सायाभिमतमात्मनाऽक्रियावादित्वं निरस्तं भवति । हेतवः-कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्यातव्या इति । इयता सांप्रतं पूर्वोक्ता क्रियामात्मपरिणतिरूपां विशिष्टकालाभि- सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाधितम् । ५२ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) अभिधानराजेन्द्रः। श्राता अधुना तस्यैवात्मनो दिगादिभ्रमणहेतूपदर्शनपुरस्सरमपा- अन्ध इव दुर्गमार्गे, भ्रमति हि संसारकान्तारे ॥५॥ यान् प्रदर्शयितुमाह-र्याद वा-यस्तावदात्मकर्मादिवादी स दुःखप्रतिक्रियाथै, सुखाभिलाषाच्च पुनरपि तु जीवः । दिगादिभ्रमणान्मोक्ष्यते इतरस्य तु विपाकान्दयितुमाह प्राणिबधादीन् दोषा-नधितिष्ठति माहसंछन्नः ॥ ६॥ बध्नाति ततो बहुविध-मन्यत्पुनरपि नवं सुबहु कर्म । अपरिष्मायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसा तेनाथ पच्यते पुन-रग्नेरग्नि प्रविश्यैव ॥७॥ ओ अणुदिसाओ अणु संचरइ, सव्वाश्रो दिसाओ स- एवं कर्माणि पुनः, पुनः सम्बध्नस्तथैव मुश्चश्व । वाओ अणुदिसाओ साहेति । (सूत्र-८) सुखकामो बहुदुःखं, संसारमनादिकं भ्रमति ॥८॥ एवं भ्रमतः संसा-रसागरे दुर्लभं मनुष्यत्वम् । 'अपरिनाये' त्यादि, योऽयं पुरि शयनात्पूर्णः सुखदुः- संसारस्य महत्त्वं, त्वधर्मदुष्कर्मबाहुल्यैः ॥६॥ खानां वा पुरुषो जन्तुर्मनुध्यो वा, प्राधान्याश्च पुरुषस्यो- आर्यों देशः कुलरूप-सम्पदायुश्च दीर्घमारोग्यम् । पादानम् , उपलक्षणं चैतत् , सर्वोऽपि चतुर्गत्यापन्नः प्राणी यतिसंसर्गः श्रद्धा, धर्मश्रवणं च मतितैदण्यम् ॥ १०॥ गृह्यते दिशोऽनुदिशो वा अनुसञ्चरति, सः अपरिक्षातकर्मा- एतानि दुर्लभानि, प्राप्तवतोऽपि दृढमोहनीयस्य । अपरिज्ञातं कर्माऽनेनेत्यपरिक्षातकर्मा, खलुरवधारणे, अप- कुपथाकुलेऽईदुक्तोऽ-तिदुर्लभो जगति सन्मार्गः" ॥११॥ रिक्षातकर्मैव दिगादौ भ्राम्यति नेतर इति, उपलक्षणं चैतद् यदि वा-योऽयं पुरुषः सर्वा दिशोऽनुदिशश्वानुसञ्चगति अपरिहाताऽऽत्मा अपरिशातक्रियश्चेति यश्चापरिज्ञातकर्मा तथा-अनेकरूपा योनीः सन्धावति विरूपविरूपांश्च स्पर्शान् स, सर्या दिशः सर्वाश्चानुदिशः 'साहेति' स्वयंकृतेन कर्मणा प्रतिसंवेदयति 'सोऽविनातकर्मा' अविज्ञातम्-अविदितं कसहानुसश्चरति, सर्वग्रहणं सर्वासा प्रज्ञापकदिशां भावदिशां ने क्रिया-व्यापारो मनोवाकायलक्षणः, अकार्षमहं, करोमि, च उपसंग्रहार्थम्। करिष्यामीत्येवंरूपः जीवोपमर्दात्मकत्वेन बन्धहेतुः सावद्यो स यदाप्नोति तदर्शयति येन सोऽयमविशातकर्मा, अविज्ञातकर्मत्वेन च तत्र तत्र अणेगरूवाओ जोणीयो संधेइ, विरूवरूवे फासे पडि कर्मणि जीयोपमर्दादिके प्रवर्तते येन येनास्याष्टविधकर्म बन्धो भवति, तदुदयाच्चानेकरूपयोन्यनुसन्धान विरूपरूपसंवेदेइ । ( सूत्र-8) स्प रभवश्च भवतीति । आचा० । ( कति जीवोत्पत्तिस्थानानि इति 'जोणि' शब्दे यद्येवं ततः किमित्यत श्राहचतुर्थभागे वक्ष्यते ।) पताश्चानकरूपा योनीदिंगादिषु पर्यटनपरिक्षातकर्माऽसुमान् ‘संधर' ति-सम्धयति सन्धि तत्थ खलु भगवता परिमा पवेइया । (सूत्र-१०) करोत्यात्मना सहाऽविच्छदेन संघट्टयतीत्यर्थः, "सन्धावह" (अन्य सूत्रस्य व्याख्या ' परिमा' शब्द पञ्चमे भागे त्ति-पाठान्तरं, सन्धावति पौनःपुन्यन तासु गच्छतीत्यर्थः, करिष्यते ) आचा०१ श्रु०१०१ उ० । तत्सन्धाने च यदनुभवति तदर्शयति-विरूपं बीभत्सममनोझं अमुमेवार्थ नियुक्तिकदाहरूपं स्वरूप-येषां स्पर्शानां दुःखोपनिपातानां ते तथा स्पर्शा- तत्थ अकारि करिस्सं-ति बंधचिंता कया पुणो होइ । श्रिता दुःखोपनिपाताः स्पर्शा इत्युक्नास्तास्थ्यात्तद्वयपदेश सहसंमइया जाणइ, कोऽई पुण हेउजुत्तीए ॥ ६७॥ इति कृत्वा उपलक्षणं चैतन्मानस्योऽपि वेदना प्राधा श्रतस्तानवंभूतान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति-अनुभवति प्रति तत्र-कर्मणि-क्रियाविशेष, किम्भूत इत्याह-'अकारि ग्रहणात्प्रत्येक शारीरान्मानसांश्च दुःखापनिपाताननुभवती | करिस्संति' अकारीति-कृतवान् करिस्संति' करिष्यात्युक्तं भवति स्पर्शग्रहणं चेह सर्वसंसारान्तर्वर्तिजीवराशिसं-| मीत्यनेनातीतानागतोपादानेन तन्मध्यवर्तिनो वर्तमानस्य ग्रहार्थ, स्पर्शनेन्द्रियस्य सर्वजीयव्यापित्वात् , अत्रेदमपि व- कारितानुमत्याश्चोपसंग्रहात्-नवापि भेदा श्रात्मपरिणामक्तव्यं, सर्वान्विरूपरूपान् रसगन्धरूपशब्दान् प्रतिसंवेदय- स्वन योगरूपा उपात्ता द्रव्याः , तत्रानेनात्मपरिणामरूपेण तीति विरूपरूपत्वश्च स्पर्शानां कार्यभूतानाम विचित्रकर्मोद क्रियाविशेषण बन्धचिन्ता कृता भवति, बन्धस्योपादानयात् कारणभूताद्भवतीति वदितव्यं, विचित्रकर्मोदयाच्चा- मुपातं भवति, "कर्म योगनिमित्तं बध्यत" इति वचनात् , परिशातकर्मा संसारी स्पर्शादीन्विरूपरूपांस्तषु तेषु योन्य- पतञ्च कश्चिजानाति श्रान्मना सह या सम्मतिः स्थमतिन्तरेषु विपाकतः परिसंवेदयतीति, श्राह च विधिमनःपर्यायकेवलिजातिस्मरणरूपा तया जानाति, "तैः कर्मभिः स जीवा, विवशः संसारचक्रमुपयाति । कश्चिच्च पक्षधर्माऽन्वयव्यतिरकलक्षणया हेतुयुक्तयेति । द्रव्यक्षेत्राद्धाभा-वभिन्नमावर्तते बहुशः ॥ १॥ अथ किमर्थमसौ कटुकविपाकषु कर्माथवहेतुभूतपु क्रिनरकेषु देवयोनिषु, तिर्यग्योनिषु च मनुजयोनिषु च । याविशषेपु प्रवर्तत इत्याहपर्यटति घटीयन्त्रव-दान्मा विभ्रच्छुरीराणि ॥२॥ इमस्स चेत्र जीवियस्म परिवंदणमाणणपूयणाए जाईसतनानुबद्धमुक्नं, दुःख नरकेषु तीवपरिणामम् । मरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं । (सूत्र-११) तिर्यक्षु भयक्षुत्तृ इ-बधादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ ३॥ तत्र जीवितमिति-जीवन्त्यननायुष्कर्मगति जीवितं-प्राणसुखदुःख मनुजानां. मनःशरीराश्रये वहुविकल्प । धारणं, तच्च प्रतिप्राणि स्वसंविदितमिति कृत्वा प्रत्यक्षाससुखमेव हि देवानां, दुःखं स्वल्पं च मनसि भवम् ॥४॥ नवाचिना इवमा निर्दिशति चशब्दो वक्ष्यमाणजात्यादिसमुकर्मानुभावदुखित, एवं मोहान्धकारगहनवति । च्चयार्थः, एवकारोऽवधारणे, अस्यैव जीवितस्यार्थे परि Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) माता अभिधानराजेन्द्रः। प्राता फल्गुसारस्य तडिल्लताविलसितचञ्चलस्य बसपायस्य दी- प्रवर्तमानः कर्माऽऽददते, यदि वा-जातिमरणयोर्विमोसुखार्थ क्रियासु प्रवर्तते । तथा हि-जीविष्याम्यहमरोगः | चनाय हिंसादिकाः क्रियाः कुर्वते, “जाइमरणभायसुखन भोगान् भोक्ष्ये ततो व्याध्यपनयनार्थ महापान- णाए" ति-पाठान्तरम् , तत्र भोजनार्थ कृष्यादिकर्मसु लावकपिशितभक्षणादिषु क्रियासु प्रवर्तते, तथा अल्पस्य प्रवर्त्तमाना वसुधाजलज्वलनपवनवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेसुखस्य कृतेऽभिमानग्रहाकुलितचेता बहारम्भपरिग्रहाद् न्द्रियव्यापत्तये व्याप्रियन्त इति । तथा दुःखप्रतिघातबहशुभं कर्माऽऽदत्ते, उनञ्च मुररीकृत्यात्मपरित्राणार्थमारम्भानासेयन्ते, तथा हि-व्या"ढे वाससी प्रवरयोपिदपायशुद्धा, धिवेदनार्ता लायकपिशितमदिराद्यासेवन्ते, तथा वनस्पशय्यासनं करिवरस्तुरगो रथा वा । तिमूलत्वकपत्रनिर्यासादिसिद्धशतपाकादिनलार्थमग्न्यादि समारम्भेण पापं कुर्वन्ति, स्वतः कारयन्त्यन्यैः कुर्वतोऽकाले भिषग्नियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् ॥१॥ न्यान् समनुजानत इत्यवमतीतानागतकालयोरपि मनोवा काययोगः कर्माऽऽदानं विदधतीत्यायोजनीयम् । तथा दुःख पुष्पर्थमन्नमिह यत्प्रणिधिप्रयोगैः, प्रतिघातार्थमेव सुखोत्पत्यर्थे च कलत्रपुत्रगृहोपस्कराद्यासंत्रासदोषकलुषा नृपतिस्तु भुङ्क्ते। ददते तल्लाभपालनार्थ च तासु तासु क्रियासु प्रवर्नमानाः यनिर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्ष, पापकर्माऽऽसेववन्त इति । उक्तश्च-"श्रादौ प्रतिष्ठाधिगमे प्रतत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवाऽन्नम् ॥२॥ यासो, दारेषु पश्चाद् गृहिणः सुतेषु । कर्नु पुनस्तेषु गुणभृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, प्रकर्ष, चेष्टा तदुश्चैः पदलानाय "॥१॥ तंदवंभूतैः क्रियाकान्तासु वा मधुमदाकरितेक्षणासु। विशेषैः कर्मोपादाय नानादिक्ष्वनुसञ्चरन्ति अनेकरूपासु च विश्रम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, योनिषु सन्धावन्ति विरूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति, सर्वाभिशङ्कितमतेः कतरन्तु सौख्यम्" ॥ ३॥ इत्येतज्ज्ञात्वा क्रियाविशेषनिवृत्तिर्विधेयेति । तदेवमनवबुद्धतरुणकिशलयपलाशचञ्चलजीवितरतयः क एतावन्त एव च क्रियाविशेषा इति दर्शयितुमाहऽऽश्रवषु जीवितापमर्दादिरूपेषु प्रवर्तन्ते. तथा अस्यैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु प्रवर्तन्ते । एयावन्ति सव्वावन्ति लोगंसि कम्मसमारम्भा परितथा परिवन्दनम्-संस्तवः, प्रशंसा तदर्थमाचेष्टते, तथाहि- | जाणियव्वा भवन्ति । (सूत्र-१२) अहं मयूगदिपिशिताशनादली तेजसा देदीप्यमानो देव- 'एतावंती' त्यादि 'एभावन्ति सम्वावन्ति' इति-एती कुमार इव लोकानां प्रशंसास्पदं भविष्यामीति माननम्-अ- शब्दो मागधदेशीभाषाप्रसिध्या एतावन्तः सर्वेऽपीस्येत्तभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रहादिरूपं तदर्थे वा चेष्टमानः | पर्यायौ एतावन्त एव सर्वस्मिन् लोके-धर्माऽधर्मास्तिकर्माऽऽचिनोति, तथा पूजन-पूजा द्रविणवस्त्रानपानसत्का- कायावच्छिन्ने नभःखण्डे ये पूर्व प्रतिपादिताः कर्मसमाररप्रणामसेवाविशेषरूपं तदर्थं च प्रवर्तमानः क्रियासु कर्मा- म्भाः-क्रियाविशेषाः नैतेभ्योऽधिकाः केचन सन्तीत्येवं प वैरात्मानं सम्भावयति, तथाहि -वीरभोग्या वसुन्धरेति रिज्ञातव्या भवन्ति , सर्वेषां पूर्वत्रोपादानादिति भावः, मत्वा पराक्रमते, दण्डभयात्सर्वाः प्रजा विभ्यतीति दण्ड- तथाहि-प्रात्मपरोभयहिकामुष्मिकाऽतीताऽनागतवर्तमानयति, इत्येवं राक्षामन्येषामपि यथासम्भवमायोजनीयम्, कालकृतकारिताऽनुमतिभिरारम्भाः क्रियन्ते, ते च सर्वेऽपि अत्र च वन्दनादीनां द्वन्द्वसमासं कृत्वा तादर्थे चतुर्थी प्रागुपात्ता यथा सम्भवमायोज्या इति । विधेया, परिवन्दनमाननपूजनाय जीवितस्य कर्माश्रवेषु एवं सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाध्य तदुपमईकारिणां च प्रवर्तन्त इति समुदायार्थः । न केवलं परिवन्दनाद्यर्थमव क्रियाविशेषाणां बन्धहेतुत्वं प्रदश्योपसंहारद्वारेण विरति कर्मादत्ते, अन्यार्थमायादत्त इति दर्शयति-जातिश्च मर- प्रतिपादयन्नाहणश्च मोचनश्च जातिमरणमोचनमिति समाहारद्वन्द्वात्ता जस्सेते लोगसि कम्मसमारंभा परिमाया भवन्ति से दयें चतुर्थी, एतदर्थ च प्राणिनः क्रियासु प्रवर्तमानाः कदिदते, तत्र जात्यर्थ क्रौञ्चारिवन्दनादिकाः फ्रिया विधत्त; हु मुणी परिष्मायकम्मे त्ति बेमि । (सूत्र-१३) तथा यान् यान् कामान् ब्राह्मणादिभ्यो ददाति तांस्तान- जस्से' त्यादि, भगवान् समस्तवस्तुवदी केवलज्ञानन भ्यजन्मनि पुनर्जातो भोक्ष्यते, तथा मनुनाऽप्युक्तम्-" वारि- साक्षादुपलभ्यैवमाह-यस्य-मुमुक्षारते-पूर्वोक्ताः कर्मसमादस्तृप्तिमामोति, सुखमक्षयमन्नदः । तिलपदः प्रजामिष्टा- रम्भाः- क्रियाविशेषाः कर्मणो वा ज्ञानावरणीयाधष्टप्रकारमायुष्कमभयप्रदः" ॥१॥ अत्र चैकमेव सुभाषितम्-अभयप्र- स्य समारम्भा-उपादानहतवस्ते च-क्रियाविशेषा एव परिदानमितिः तुषमध्ये कणिकावदिति एवमादिकुमार्गोपदेशात् समन्तात् ज्ञाता-परिच्छिन्नाः कर्मबन्धहेतुत्वेन भवन्ति, हिंसादी प्रवृत्ति विदधाति, तथा मरणार्थमपि पितृपिण्डदा- हुरवधारणे , मनुत मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति नादिषु क्रियासु प्रवर्तते, यदि वा-ममानेन सम्बन्धी व्या- मुनिः स एव मुनिज्ञपरिशया परिक्षातकर्मा प्रत्याख्यानपादितस्तस्य वैरनिर्यातनार्थ वधबन्धादौ प्रवर्तते, यदि वा- परिक्षया च प्रत्याख्यातकर्मबन्धहतुभूतसमस्तमनोवाक्कामरगनिवृत्यर्थमात्मना दुर्गाद्युपयाचितमजादिना वलि वि- यव्यापार इति अनेन च मोक्षाङ्गभूते ज्ञानकिये उपात्ते धत्ते, यशोधर इव पिष्टमयकुक्कुटेन. तथा मुक्त्यर्थमशाना- भवतो, न ह्याभ्यां विना मोक्षो भवति, यत उक्तम्-"ज्ञानवृतचतसः पञ्चाग्नितपोऽनुष्ठानादिकेषु प्राण्युपमईकारिषु क्रियाभ्यां मोक्षः" इति । इतिशब्द पतावानयमात्मपदार्थ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) अभिधान राजेन्द्रः । भाता विचारः कर्मबन्धहेतुविचार सकलदेश केन परिसमापित इति प्रदर्शक, यदि वा इति एतदर्द प्रीमि यत्प्रागुक्रं यथयये तत् सर्वे भवदन्तिकं साक्षात् भवति । श्राचा० १ ० १ ० १ ० । ( आत्माऽस्तित्वे बहुभङ्गाः कियाचादिनः, अक्रियायादिनः ते च अकिरियावा शब्दे प्रथम दर्शिताः । किरियाबाद' शब्दे ती तृतीयमाने च दर्शयिष्यामि । ) 6 6 आत्मास्तित्वं विस्तरेण 1 सुयं मे आउ ! तेयं भगवया एवमक्खायं - इहमेगेसिं यो सयया भवइ सूत्र- १) तं जहा पुरच्छिमाओवा दिसाओ आओ अहमंसि, दाहिणात्र वा दिसाओ आगो अहमंसि, पच्चच्छिमाओ वा दिसाओ आगओ श्रहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उडाओ वा दिनाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगो अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाचो अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं णो णायं भवति । (सूत्र - २ ) आचा० १ ० १ ० १ ० । ( अनयोः सूत्रयोर्व्याख्यानं सरगा' शब्दे समागे करिष्यते ) ( अत्रस्थनियुक्तिगाथाtureपानम् दिखा शब्दे चतुर्थभाग करिष्यते ) गाथाव्याख्यानम् ' अत्र च सामान्यदिग्ग्रहणेऽपि यस्यां दिशि जीवानामविगानेन मत्यागती स्पष्टे सर्वत्र संभवत स्रीवेदाधिकार इति तामेव निहित्साचादर्शयति भावदिग्भावेन भाविनी सामदवि यतस्तदर्थमम्बादिशश्चिन्तयन्नाह याचा० १ श्रु० १ ० १ उ । तत्रेह - ' एवमेगेसि णो णायं भव इत्यनेन केषांचिदेव संज्ञा निषेधात्केषांचित्तु भवतीत्युक्तं मयति । तत्र सामान्यसंज्ञायां प्रतिपाणिकरण परिज्ञानस्य चेहाकिंचित्करत्वाद्विशिष्टसंज्ञायास्तु केषांचिदेव भावात्तस्याश्च भवान्तरगात्म्यात्मनः स्पष्ठप्रतिपादने सोपयो गित्वाद सामान्यसंज्ञा कारतिपादनमनाहत्य विशिष डायाः कारणं सूत्रदाह 7 से जं पुण जाणेज सह संमइयार परवागरणं अपेि अंतिए वा सोचा, तं जहा - पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगो अहमंसि, ० जाव अमयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगो अहमंसि एवमेगेसि जं सायं भवति अस्थि मे प्राया उववाहए, जो हमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ दिसा, सोऽहं | ( सूत्र - ४ ) श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । ( श्रस्य सुत्रस्य व्याख्यानम् ' दिसा' शब्दे चतुर्थभागे करिष्यते ) इममेवार्थ निर्युशिदर्शयितुमना गाथात्रितयमाह - जागर सर्व मतीए, अचे िवाऽवि अंतिए सोचा । जायगजणपण्यपि जीवं तह जीवकाए वा ॥ ६४॥ आता एरथ व सह सम्मइय-ति जं एवं तत्थ जायना होइ । श्रहीमपञ्जवना शकेवले जाइसरणे य ।। ६५ ।। परवश्यागरणं पुण जिखबागरणं जिला परं नत्थि । सिं सोच्चं ति य, जिणेहि सव्वो परो अम । ६६ । 'जागर' त्यादि, 'कथयेत्यादि 'परे' त्यादि कचिदनादिसत पर्यटनध्यादिकया चतुर्विधया स्वकीयया मत्या जानाति नानुपूर्वीन्यायप्रकटनायें पचादुपासमप्यन्येषामित्येतत्पदं तावदाचष्टे श्रन्येषां वाऽतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानाति, तथा 'जागगजणाविओो' इत्यनेन परव्याकरणमुपासं, तेनायमथों ज्ञापकस्ती तरयज्ञापितथ जानाति यज्जानाति तत्स्वत एव दर्शयति-सामान्यतो 'जीधमिति अनेन चाधिकृतोदेशकस्यार्थाधिकारमाह, तथा'जीवकायांश्च' पृथ्वी कायादीन् इत्यनेन चोत्तरेषां पलामप्युदेशकानां यथाक्रममधिकारार्थमादेति अत्र च-सहस्मरति सूत्रे यत् पदं तत्र 'जाणण' त्ति-ज्ञानमुपासं भवति, 'मन' ज्ञान, मननं भतिरिति कृत्वा तथा किंभूतमिति दर्शयति- श्रनधिमनः पर्याय कवलजातिस्मरणरूपमिति, प्रावधिज्ञानी संख्ययान संख्ययान्या भवान् जानाति, एवं मनःपर्यायज्ञान्यऽपि केवली तु नियमतोऽनन्तान्, जातिस्मरणस्तु नियमतः संख्येयानिति, शेषं स्पष्टम् अत्र च - सहसम्मत्यादिपरिज्ञाने सुखप्रतिपत्यर्थे त्रयो दृष्टान्ताः प्रदश्यन्ते तद्यथा वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, पारसी महादेवी, तयोर्द्धर्मरुच्यभिधानः सुतः । स च राजाऽन्यदा तापसत्वेन प्रव्रजितुमिच्छुद्धमंरुचि राज्ये स्थापयितुमुद्यतः, तेन च जननी पृष्टा किमिति तातो राज्यश्रियं त्यजति ?, तया - त किमनया चपलया नारकादिसकलदुःखहेतुभूनया स्वर्गापवर्गमार्गलाश्यमपापिया परमार्थ ह लोके ऽप्यभिमानमात्र फलयेत्यतो विहायैनां सकलसुखसाधनं धर्म कर्जुमुद्यतः धर्मरुचिस्तदाकयक्लवान्यद्येवं किमहं तातस्थानिष्टयभूत सफलदोषाश्रयण मयि नियोजयति सफल फल्यास देतो मोरपाययतीत्यभिधावपिषानुवा तस्तेन सह तापसाश्रममगात्, तत्र च सकलास्तापसक्रिया यथोक्ताः पालयन्नास्तं । अन्यदामावास्यायाः पूर्वाह्न केपि यथा भो भो तापसाः श्वोऽनाकुट्टि भविता अतोऽचैव समित्कुसुमकुशकन्दफलमूलाचाहरणं कुरुतैतञ्चाकर्य धर्मरुचिना जनकः पृष्टस्तात ! केयमनाकुहिरिति तेनो-पुत्र कफलादीनामच्छेदनं मायास्यादिके विशिष्टे पर्वदिवसे न वर्त्तते, सावद्यत्वाच्छेदनादिक्रियायाः । श्रुखा 'चैतदसावचिन्तयत्-यदि सर्वदानाकुट्टिः 9 स्याच्छोभनं भवेद् एवमध्यवसायिनस्तस्यामावास्यायां सानां दर्शनभूवनेनाभि हिताः किमद्य भवतामनाकुट्टिने सञ्जाता येनाटवीं प्रस्थिताः तैरभिहितं यथाऽस्माकं याजनाकुटि इत्यभिधायातिक्रान्ताः साधवस्तस्य च तदाकरायेंहापोहविमर्शन जातिस्मरणमुत्पन्नं यथाहं जन्मान्तरे प्रव्रज्यां कृ " देवसुखमनुभवेागतइति एवं तेन विशिष्टदिमागमनं स्वमत्या जातिस्मरणरूपया विज्ञातं, प्रत्येकबुद्धश्च जातः, एवमन्येऽपि वल्कलचीरिश्रेयांसप्रभृतयोऽत्र योज्या " Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) अभिधानराजेन्द्रः। इति । परब्याकरणे विदमुदाहरणम्-गौतमस्वामिना भग- व्याख्या-अन्यो देहादिति द्वारमधुना तदेतद्वयाख्यायतेवान्बर्बमानस्वामी पृटशे-भगवन् ! किमिति मे देवलहान अन्यो देहाज्जीव इति गम्यते, गृहादिगतपुरुषवदिति दृष्टाबोरपचते !, भगवता व्याकृतम्-भो गौतम ! भवतोऽतीव न्तः, तद्भावेऽपि तत्र अनियमतोऽभावादिति हेतुरभ्यूह्यः, न ममोपरि स्नेहोऽस्ति तवशात् तेनोक्तम्-भगववेवमेवं, कि- चासिद्धोऽयम् , मृतदेहे प्रदर्शनात् , प्रयोगफलमाह-तघिमित्तः पुनरसौ मम भगवदुपरि स्नेहः !, ततो भगवता ज्जीवंतच्छरीरवादिमतविघातार्थमिदं प्रयोगरूपं भणितनस्य बहुषु भवान्तरेषु पूर्वसंबन्धः समावेदितः " चिरसं- मिति गाथार्थः। सिट्रो सि मे परिचिओ सि मे गोयमा" इत्येवमादि, तथ (भाष्यकारः) प्रयोगान्तरमाहतीर्थयाकरणमाकर्ण्य गौतमस्वामिनो विशिष्टदिगागम देहिदियाइरित्तो, पाया खलु तदुवलअस्थाणं । नादि विज्ञानमभूदिति । अन्यश्रवणे विदमुदाहरणम्-मलिस्वामिना पराणां राजपुत्राणामुद्वाहार्थमागतानामवधिज्ञानेन तविगमेऽविसरणभो,गेहगवक्खेहि पुरिसोच ॥३८॥ तत्प्रतिबांधनार्थ यथा जन्मान्तरे सहितैरेव प्रव्रज्या कृता, व्याख्या-खलुशब्दो विशेषणार्थत्वात् कथंचिहन्द्रियातियथा च तत्फलं देवलाके जयन्ताभिधानविमानेऽनुभूतं रिक्त मारमति प्रतिक्षार्थः तदुपलब्धार्थानामिति सम्भवतः तथाऽऽख्यातं, तथाकर्य ते लघुकर्मत्वात्प्रतिबुद्धा विशिष्ट परामर्शत्वात् इन्द्रियोपलब्धार्थानाम् तद्विगमेऽपि-इन्द्रियदिगागमनविज्ञानं च सखातम् , उक्तश्च-" किंच तयं प विगमे ऽपि स्मरणादिति हेत्वर्थः, स्मरन्ति चाम्घबधिरादयः गहु,.जं च तया भो! जयंतपवरंमि । वुन्छा समयनिबद्धं, पूर्वानुभूनं रूपादीति गहगवाक्षः पुरुषवदिति स्टान्तः । देवा ! तं संभरह जाति " इति गाथात्रयतात्पर्य्यार्थः ।। प्रयोगस्तु कथंचिहन्द्रियातिरिक्त पारमा तदिगमेऽपि त. प्राचा० १७०१०१ उ०। दुपलब्धार्थानुस्मरणात् , पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मत(१५) (भाष्यकारः) अन्यत्वादिद्वारत्रयव्याचिस्यासुराह- देवदत्तवदिति गाथार्थः। अण्णत्तममुत्तत्तं, णिच्चत्तं चेव भन्नए समयं । (भाष्यकार:) इन्द्रियोपलब्धिमत्त्वाशङ्कापोहायाह न उ इंदिया, उवल-द्धिमति विगएम विसयसंभरणा। कारणअविभागाई-हेऊहिं इमाहि गाहाहिं ।। ३६ ॥ जह गेहगवक्खेहिं, जो अणुसरिया स उबलद्धा ॥३६॥ व्याख्या-अन्यत्वं देहात् अमूर्तत्वं स्वरूपेण नित्यत्वं चैवपरिपामिनित्यत्वं भण्यते । समकम्-एकैकेन हेतुना त्रि व्याख्या-न पुनरिन्द्रियारयेवोपलब्धिमन्ति द्रष्ट्रणि, कुत तयमपि युगपदिति; एककालमित्यर्थः, कारणाविभागा इत्याह-बिगतम्विन्द्रियेषु विषयसंस्मरणात्-तद्गृहीतरूदिभिः-यक्ष्यमाणलक्षणेतुभिः इमाभिस्तिभिर्नियुक्निगाथा-1 पाद्यनुस्मृतेरन्धबधिरादीनामिति । निदर्शनमाह-यथा गेहभिरेवेति गाथार्थः। गवाक्षः करणभूतैर्दष्टानननुस्मरन् योऽनुस्मर्ता स उपकारणविभागकारण-विणासबंधस्स पच्चया भावा। लब्धा, न तु गवाक्षा एवमत्रापीति गाथार्थः । उनमंकन प्रकारेणान्यत्वद्वारम् । विरुद्धस्स य अत्थस्साऽ-पाउम्भावाविणासा य ।२२।। अधुना अमूर्तद्वारावसर इत्याह भाष्यकार:व्याख्या-कारणविभागकारणविनाशबन्धस्य प्रत्ययाभावा- संपयममुत्तदारं, अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता। दिति-अत्राऽभावशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते कारणविभागा रूवाइविरहो वा, अणाइपरिणामभावाभो ॥४०॥ भावान खलु जीवस्य पटादेरिव तन्वादिकारणविभागोऽ व्याख्या-सांप्रतममूर्तद्वारम् , तव्याख्यायते-अमूर्ती स्ति कारणाभावादेव । एवं कारणविनाशाभावेऽपि यो जीवः अतीन्द्रियत्वाद् द्रव्येन्द्रियाग्राह्यत्वात् , अच्छेद्याज्यम्, तथा बन्धस्य ज्ञानाचरणादिपुद्गलयागलक्षणस्य भद्यत्वात्-खड्गशूलादिना, रूपादिविरहितश्व अरूपत्वाप्रत्ययाभावात्-हेतुत्वानुपपत्तेः, बन्धस्येति बध्यमानव्यति दित्यर्थः । तथा अनादिपरिणामभावादिति स्वभावतो:रिक्रवन्धमापनार्थमसमासः । व्यतिरेकी चायमन्वयव्यतिरेकावर्थसाधकाविति दर्शनार्थमिति, तथा विरुद्धस्य नाद्यमूर्तपरिणामत्वादिति याथार्थः । (भाष्यम्)चार्थस्य पटादिनाशे भस्मादेरिव अप्रादुर्भावाद् अविनाशाच अप्रादुर्भावे-अनुत्पत्ती सत्यामविनाशाच हेतोजीवस्य नि छउमत्थाणुवलंभा, तहेब सव्वन्नुवयणो चेव । स्यत्वम् , नित्यत्वादमूर्तत्वम् , अमूर्त्तत्वाश्च देहादस्यत्वमिति लोयाइपसिद्धीओ, जीवोऽमुत्तो त्ति नायब्बो ॥४१॥ प्रतिपस्यानुगुण्यतो व्यत्ययेन साध्यानिर्देशः । वक्ष्यति च व्याण्या-छद्मस्थानुपलम्भात् । अवधिशानिप्रभृतिभिरपि नियुक्तिकार:-"जीवस्स सिद्धमेव, णिवत्तममुत्तमरणतं" साक्षादगृह्यमाणत्वात् , तथैव सर्वज्ञवचनाच्चैव; सत्यवनइति गाथासमासार्थः । वीतरागवचनादित्यर्थः, लोकादिप्रसिद्ध लोकादावमूर्तत्वेन व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तत्राव्युत्पन्नविनयासमोह- प्रसिद्धत्वात् , अादिशब्दाद्वेदसमयपरिग्रहः । “अमूनों निमित्तं यथापन्यासं तावद् द्वाराणि व्याख्याय पश्चा- | जीव" इति ज्ञातव्यः, सर्वत्रैवेयं प्रतिक्षेति गाथार्थः । नियुक्तिकाराभिप्रायण मीलयिष्यतीत्यत आह उनममूर्तद्वारम् । दश० ४ श्र० । तस्य चानादिकर्म संबद्धस्य कदाचिदपि सांसारिकस्यात्मनः स्वरूपेऽनवअन्न ति दारमहुणा, अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो ब्व । स्थानात् सत्यप्यमूर्तत्वे मूतेन कर्मणा संबन्धो न वितजीवतस्सरीरिय-मयघायत्थं इमं भणियं ॥ ३७॥ । रुध्यते, कर्मसंबन्धाच सूक्ष्मवादरैकन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्च ५३ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राता अभिधानराजेन्द्रः। प्राता न्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्ताद्यवस्थाः बहुविधाः प्रादुर्भवन्ति ।। निच्चत्तं विनेयं, आगासपडाऽणुमाणाओ॥ ४५ ॥ सूत्र.१ ध्रु०१० २ उ०। व्याख्या-कारणाविभागात्पटादेस्तन्वादेरिव; कारणविभा. इदानीं नित्यत्वद्वाराव सरस्तथा चाह भाध्यकार:- | गाभावादित्यर्थः, कारणाविनाशतश्च कारणाविनाशश्च काणिचो त्ति दारमहुणा,णिच्चो अविणासि सासओ जीवो। रगणानामेवाभावात् , किमित्याह-जीवस्य-प्रात्मनो नित्य भावत्ते सइ जम्माऽ-भावाउ नहं व विनेश्रो ॥ ४२॥ विशेयं कुत इत्याह-आकाशपटानुमानाद् अत्रानुमानशब्दा व्याख्या-'नित्य इति'-निन्यद्वारमधुना-अवसरप्राप्तं तद्- दृष्टान्तवचनः । श्राकाशपटदृष्टान्तात् । ततश्चैवं प्रयागः-नित्य व्याचिख्यासुराह-नित्यो जीव इति-एतावत्युच्यमाने परै- आत्मा स्वकारणविभागाभासद् अाकाशयत् , तथा काररपि सन्तानस्य नित्यत्वाभ्युपगमात्सिद्धसाध्यतेति । तनि- पविनाशाभावाद् आकाशदेव यस्त्वनित्यस्तस्य कारणराकरणायाह-अविनाशी-क्षणापेक्षयापि न निरन्वयनाश- विभागभावः कारणविनाशभावो वा यथा पटस्येति व्यतिपर्मा, एवमपि परिमितकालावस्थायी कैश्विदिष्यते-"क रेका, पटाद्वितन्तवो विभज्यन्ते विनश्यन्तिचति नित्यावप्पट्ठार पुढवी भिक्खू वा” इति वचनात्तदपोहायाह-शा- सिद्धिः नित्यत्वादमूर्तः, अमूर्तत्वादहादन्य इति गाथार्थः । म्वत इति-सर्वकालावस्थायी, कुत इत्याह-भावत्व सति; दश० ४ ० तस्य चैकान्तन क्षणिकत्वे ध्यानाऽध्ययनश्रमवस्तुत्वे सतीत्यर्थः, जन्माऽभावात्-अनुत्पतेनभोवद्-श्रा- प्रत्यभिज्ञानाद्यभावः, एकान्तनित्यत्व च नारकतियङ्मनुकाशवद्विशेयः भावत्वं सतीतिविशेषणं खरविषाणादिव्य- ध्यामरगतिपरिणामाभावः स्यात. तस्मात्स्यादनित्यः स्याबच्छदार्थमिति गाथार्थः। बित्य श्रास्मति अलमतिप्रसङ्गन । सूत्र०१०१०। (भाष्यकारा) हेत्वन्तराण्याह दव्यादिएहिं निच्चो, एगंतणेव जेसि अप्पा उ । संसाराओ आलो-यणाश्रो तह पञ्चभिन्नभावाभो । होइ अभावो तेसिं, मुहदुहसंसारमोक्खाणं ।। ५६ ॥ खणभंगविधायहूं, भणियं तेलोकदंसीहिं ।। ४३॥ ब्याख्या-द्रव्यादिभिः--द्रव्यक्षत्रकालभावैर्नारकन्यविशिष्टव्याख्या-संसागदिति-संसरण संसारस्तस्मात् , स एव क्षेत्रवयोऽवस्थितत्वाऽप्रसन्नत्वादिभिनित्यः-अविचलितस्वनारकः स एव तिर्यगादिरिति नित्यः, आलोचनादिति श्रा- भावः एकान्तेनैव-सर्वथैव येषां वादिनामात्मा-जीवः तुशलोचन-करोम्यहं, कृतवानहं, करिष्ये ऽहमित्यादिरूपं त्रि- दादयश्च वस्तु भवति-संजायते, अभावः-असंभवस्तेषां कालविषयमिति नित्यः, तथा प्रत्यभिज्ञाभावात् स एष इति वादिनां केषां सुखदुःखसंसारमोक्षाणां तत्रासादानुभवरूपं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यय आविद्वदङ्गनादिसिद्धस्तदभेदग्राहीति नित्य नग सुखं, तापानुभवरूपं दुःखं, तिर्यङ्नरनारकाऽमरभवसंइति, उक्नाभिधानफलमाह-क्षणभङ्गविघानार्थ-निरन्वयक्ष- सरणरूपः संसारः, अष्टपकारकर्मबन्धवियोगो मोक्षः, तत्र णिकवस्तुवादविघातार्थ भणितं त्रैलोक्यदर्शिभिः-तीर्थकरैः कथं पुनस्तषां वादिनां सुखाद्यभाधः?, श्रात्मनोऽप्रच्युतानुपतत्-अदनन्तरोदितं न पुनरेष एव परमार्थ इति गाथार्थः। त्पन्नस्थिरैकस्वभावाद् , अन्यथात्वापरिणतः, सदैव नारकएतदेव (भाष्यकारः) दर्शयति त्वादिभावाद् . अपरित्यक्ताप्रसन्नत्व पूर्वरूपस्य च प्रसन्नलोगे वेए समये, निच्चो जीवो विभासो अम्हं । । स्वेनाभवनाद् एवं शेषेष्यपि भावनीयमिति गाथार्थः । इहरा संसाराई, सव्वं पि न जुज्जए तस्स ॥४४॥ ततश्चैवम्व्याख्या-लोके-" नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि" इत्यादिवचन सुहदुक्खसंपोगो, न विजई निच्चवायपक्खम्मि । प्रामाण्यात् , वेदे-“स एष अक्षयोऽज" इत्यादि श्रुतिप्रामा- एगंतच्छेअंमि अ, सुहदुक्खविगप्पणमजुतं ।। ६०॥ एयात् , समये-"न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष" इति वचन व्याख्या-सुखदुःखसंप्रयोगः सम्यक्संगतो वा प्रयोगः संप्रामाण्यात् , किमित्याह-नित्यो जीव:--अप्रच्युतानुत्पन्न प्रयोगः; अर्काल्पत इत्यर्थः । न विद्यते नास्ति; न घटत स्थिरैकम्वभावः, एकान्तनित्य एव. न चैतन्याय्यम् एक इत्यर्थः, क-नित्यवादपने-नित्यवादाभ्युपगमे संप्रयोगो न स्वभावतया संसरणादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गादिति वक्ष्यति विद्यते, कल्पितस्तु भवत्यव, यथाऽऽहुनित्यवादिनः-"प्रश्रत पाह-विभाषयाऽस्माकं विकल्पनेन भजनया स्यान्नित्य कृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःख स्तः, स्फटिके रक्कताइत्यादिरूपया द्रव्यार्थादेशान्नित्यः पर्यायार्थादशादनित्य - दिवद् बुद्धिप्रतिबिम्बाद्वाऽन्ये " इति. कल्पितत्वं चास्य त्यर्थः, इतरथा-यद्यवं नाभ्युपगम्यते ततः संसारादि-संसा मात्मनस्तत्त्वत एव तथा परिणतिमन्तरेण सुखाद्यभावारालोचनादि सर्वमेव न युज्यते तस्यात्मनः स्वभावान्तरा दुपधानसनिधावण्यन्धोपले रक्तादिवत् तदभ्युपगमे चा. नापत्त्या एकस्वभावतया वार्तमानिकभावातिरेकेण भा भ्युपगमक्षतिः , बुद्धिप्रतिबिम्बपक्षेऽप्यविचलितस्यात्मनः वान्तरानापत्तेः, एकममूर्तत्वाऽन्यत्वयोरपि विभाषा वेदि सदैवकस्वभावत्वात् । सदैवैकरूपप्रतिबिम्बाऽऽपत्तेः । स्वतव्या, अन्यथा व्यवहाराभावप्रसङ्गात् , एकान्तामूनस्य भावभेदाभ्युपगम चानित्यत्वप्रसङ्ग इति । मा भूदनित्यएकान्तदहभिन्नस्य चातिपाताद्यसंभवादित्यत्र बह वक्तव्य । कान्तग्रह इत्यत श्राह-एकान्तेन सर्वथा उत्-प्राबल्यन तच नोच्यते,अक्षरगमनिकानात्रत्वात्प्रारम्भस्येति गाथार्थः। छदो-विनाशः एकान्ताच्छर निरन्थयो नाश इत्यर्थः । एवमन्यत्वादिद्वारत्रयं व्याख्यायाधिकृतनियुक्तिगाथां (भा अस्मिश्च किं सुखदुःखयोर्विकल्पनं सुखदुःखविकल्पनम् , ध्यकार:) व्याचिख्यासुगह अयुक्तम्-अघटमानकम् । अयमत्र भावार्थ:-एकान्तोच्छेदेकारणअविभागाओ, कारणअविणासो य जीवस्स ।। ऽपि सुखाद्यनुभवितुस्तक्षण एव सर्यथोच्छदादहतुकत्वा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाता अभिधानराजेन्द्रः। प्राता तदुत्तरक्षणस्योत्पत्तिरपि न युज्यते, कुतः पुनस्तद्विकल्प- दिदेशं यावदागमनोपपत्तेरिति। अत एवाह-निष्प्रतिपक्षमतनमिति गाथार्थः । दश०४०। दिति'-एतनिष्प्रतिपक्ष-बाधकरहितं न हि हएऽनुपपनं नापूर्व भावितमपीदं पुनरपि स्मारयन्नाह मेति न्यायात् । ननु मन्त्रादिना भिन्न देशस्थानामप्याकर्षगो चाटनादिको गुणों योजनशतादः परतोऽपि दृश्यत इत्यास्त एक पि सबकारग-परिणामाप्मन्नभावयामेइ । बाधकमिति चेत् । मैवं बोचः । स हि न खल्ल मन्त्रादीनां नाया खाणाऽणत्रो, जह विनयाइपरिणाम ॥३५३८॥ गुग्गः, किंतु-तदधिष्ठातृदेवतानां तासां चाऽऽकर्षणीयोच्चाविश० । (अस्याः गाथायाः व्याख्या 'सामाइय' शब्द टनीयादिदेशगमने कौतम्कुतोऽयमुपालम्भः । न जातु गुणा सप्तमे भागे करिष्यंत) गुणिनमतिरिच्य वर्तन्त इति । अथोत्तगई व्याख्यायंत 'तथापी' त्यादि, तथापि-एवं निःसपलं व्यवस्थितेऽपि तत्त्वे इदानी देहव्यापित्वद्वागवसर इत्याह भाष्यकार: अतत्त्ववादोपहता अनाचार इत्यत्रव नमः कुत्सार्थत्वात् , वावि ति दारमहणा, देहव्यावी मोऽग्गिउएहं व। कुत्सिततत्त्ववादेन तदभिमताप्ताभासपुरुषविशषप्रणीतन जीवो न उ सधगो, देहे लिंगोवलंभाओ ।। ५१ ।। तत्वाभासारूपणनोपहता-व्यामोहिना देहाद बहिः शरीरव्याख्या-व्यापीति द्वारमधुना तदेतद्व्याख्यायते, देह व्यतिरिक्तगि देशे अात्मतत्त्वम्-श्रात्मस्वरूप पठन्ति । व्यापी-शरीरमात्र व्याप्तुं शीलमस्यति तथा मतः-इष्टः प्र शास्त्ररूपतया प्रणयन्ते इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्-श्रा स्मा सर्वगता न भवांत, सर्वत्र तद्गुणानुपलब्धः । या यः वचनहर्जीवा; न तु सर्वग इति योगः, तुशब्दस्यावधार सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणः स स सर्वगतो न भवति । यथा णार्थत्वान्न चारचादिमात्रः, कुत इत्याह-दह लिङ्गोपलम्भात् घट तथा चायम् तस्मात्तथा व्यतिरेके व्यामादि न चायशरीर पव सुखादिल्लिकापलब्धः अग्न्याशयवत् उष्णत्वं ह्यग्निलिङ्गं नान्यत्राग्नेर्नच नाग्नाविति (गाथा) प्रयोगार्थः । मसिद्धी इतः । कायव्यतिरिक्तदश तदगुणानां चुद्यादीनां प्रयोगस्तु शरीरनियत देश आत्मा परिमितदेश लिनोपलब्धे वादिना प्रतिवादिना चाऽनभ्युपगमात् । तथा च भट्टः रसन्यौष्यवदिति गाथार्थः । व्याख्याता प्रथमा मूलद्वार श्रीधरः-" सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वं नान्यत्र शरीरस्योपभोगायतनस्यात् । अन्यथा तस्य वैयादिति”। गाथा। दश०४०। अथाऽस्त्याएमात्मनो विशषगुणस्तच सर्वोत्पत्तिमतां निआत्मानमधिकृत्य मितं सर्वव्यापकं च । कथमितरथा द्वीपान्तगदिष्यपि स च न सर्वव्यापी; तद्गुणम्य सर्वत्रानुपलभ्यमानत्वात् , | प्रतिनियनदेशवर्तिपुरुषोपभोग्यानि कनकरत्तचन्दनाङ्गनाघटवत् । नापि श्यामाकतण्डुलमात्रः, अङ्गठपर्वमात्रो वा। दीनि तनोत्पाद्यन्ते । गुणश्च गुणिनं विहाय न वर्तते अतोतावन्मात्रस्योपात्तशरीराव्यापित्वात्, त्वक्पर्यन्तशरीर- उनुमीयते सर्वगत आत्मेति । नैवम् । अतस्य सर्वगतत्वध्यापित्वेन चोपलभ्यमानगुणत्वात् । तस्मास्मिथतमिदम् साधन प्रमाणाभावात् । अथाऽम्त्येव प्रमाण बढेरूयज्वलनं उपात्तशरीरत्वपर्यन्तशरीरव्याप्यात्मा । सूत्र० १ श्रु०१ वायोस्तिर्यातनं चारष्टकारितमिति चेत्-न, तयोस्तत्स्व. अ०१ उ०। भावत्वादव तत्सिद्धेः दहनस्य दाहशक्रिवत् साप्यटकाअथ ते वादिनः कायप्रमाणत्वमात्मनः स्वयं संवेद्यमान- रिता चेत्तहि जगत्त्रयवैचित्रीसूत्रणेऽपि तदेव सूत्रधारायनां मध्यपलप्य तादृशकुशाखसंपर्कविनष्टसदृएयस्तस्य विभुत्वं किमीश्वरकल्पनया । तन्नायमसिद्धो हेतुः । न चानकामन्यन्ते । अतस्तत्रोपलम्भनाह न्तिकः साध्यसाधनयोाप्तिग्रहकोन व्यभिचाराभावात् । यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र, नाऽपि विरुद्धः। अत्यन्तं विपक्षब्यावृत्तत्वात् , श्रात्मगुणा___ कुम्भादिवनिष्प्रतिपक्षमेतत् । श्च बुद्धादयः शरीरे एवोपलभ्यन्ते, ततो गुणिनापि तत्रैव भाव्यम्, इति सिद्धः कायप्रमाण आत्मा। अन्यच्च तथाऽपि देहादहिरात्मतत्व त्वयात्मनां बहुत्वमिष्यते "नानाऽऽत्माना व्यवस्थातः" इति मतत्ववादोपहताः पठन्ति ॥१॥ वचनात् , ते च व्यापकास्तेषां प्रदीपप्रभामण्डलानामिव यत्रैव-देशे यः पदाऽर्थी, दृष्टगुणो दृष्टाः-प्रत्यक्षादिप्रमाण परस्परानुवेधे तदाधितशुभाशुभकर्मणामपि परस्परं सङ्करः तोऽनुभूता गुणा-धर्मा यस्य स तथा स पदार्थः तत्रैव-वि स्यात् , तथा चैकस्य शुभकर्मणा अन्यः सुखी भवेत् इतधक्षितदेश एवोपपद्यत इति क्रियाध्याहारो गम्यः, पूर्वस्यैव रस्याशुभकर्मणा चाऽन्यो दुःखीत्यसमंजसं समापद्यत । कारस्यावधारणार्थस्यात्राप्य ऽभिसंबन्धात्तत्रैव-नान्यत्य - अन्यच्च-एकस्यैवात्मनः सोपात्तशुभकर्मविपाकन सुम्ययोगव्यवच्छदः ! अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन दृढयनि-कुम्भा खित्वं परोपार्जिताऽशुभकर्मविपाकसंबन्धन च दुःखित्वदिवदिति-घटादिवत् । यथा कुम्भादेयत्रैव देशे रूपादयो मिति युगपत् सुख दुःखसंवेदनप्रसङ्गः। अथ स्वायएब्धगुणा उपलभ्यन्त तत्रैव तस्यास्तित्वं प्रतीयते; नान्यत्र । भोगायतनमाश्रित्यैव शुभाऽशुभयोगस्तहि स्योपार्जिएवमात्मनोऽपि गुणाचतम्यादयो दह एव दृश्यन्ते न बहिः तमपणं कथं भोगायतनाद् बहिनिष्क्रम्य बहरू - तस्मात्तत्प्रमाण एवार्यामति । यद्यपि पुष्पादीनामवस्थान ज्वलनादिकं करोतीति चिन्त्यमेतत् । आत्मनां च सर्वगदेशादम्यत्रापि गन्धादिगुण उपलभ्यते तथाऽपि तन न व्य तत्वे एकैकस्य सृष्टिकर्तृत्वप्रसङ्गः सर्वगतन्य नश्वरान्तरनुभिचारः । तदाश्रया हि गन्धादिपुद्गलास्तेषां च वैससिक्या प्रवेशस्य संभावनीयत्वात् । ईश्वरस्य वा तदन्तरनुप्रवेश प्रायागिक्या वा गत्या गांतमत्वेन तदुपलम्भकघ्राणा- १-निवर्तकत्वात् । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) अभिधानराजेन्द्रः। प्राता तस्यापि अकर्तृत्वापत्तिः । न हि क्षीरनीरयोरन्योन्यसंबन्ध ल्यम् . न च-उक्तलक्षणकार्यत्वाभ्युपगमेऽप्यात्ममोऽनित्यएकतरस्य पानादिक्रिया अन्यतरस्य न भवतीति युक्रं वकुम् , त्वानुषङ्गान्प्रतिसन्धानाभावोऽनुषज्यते । कथंचिदनित्यत्वे किंच-प्रारमनः सर्वगतत्वे नरनारकादिपर्यायाणां युगपदनु सस्येवास्योपपद्यमानत्वात् । प्रतिसन्धानं हि यमहमद्राक्ष भवानुपङ्गः, अथ भोगायतनाभ्युपगमानायं दोष इति चेन्ननु तमहं स्मरामि इत्यादिरूपं तश्चैकान्तनित्यत्वे कथमुपपद्यते स भोगायतनं सर्वात्मनावष्टभ्नीयादेकदेशेन वा सर्वात्मना- | अवस्थाभेदात् अन्या ह्यनुभवावस्था अन्याच स्मरणावस्था। चदस्मदभिमताऽङ्गीकारः एकदेशेन चेत्सावयवत्वप्रसङ्गः प. अवस्थाभेदे चाऽवस्थावतोऽपि भेदादेकरूपत्वक्षतेः कथंरिपूर्ण भोगाभावश्च । अथाश्मनो व्यापकत्वाभावे दिग्देशा चिदनित्यत्वं युक्त्याऽऽयातं केन वार्यताम् । अथाऽऽत्मनः म्तरवर्तिपरमाणुभिर्युगपत् संयोगाभावादाद्यकर्माभावस्तद- शरीरपरिमाणवे मृतत्वानुपनाच्छरीरेऽनुप्रवेशी न स्याभावानम्त्यसंयोगस्य तनिमित्तशरीरस्य तेन तत्संबन्धस्य न्मूते मूर्तस्यानुपयशावगंधात्ततो निरात्मकमेवाखिलं शचाभावादनुपायसिद्धः सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्यात् । नैवम् ।। रीरं प्राप्नातीति चेत् किमिदं मूतत्वं नाम असर्वगतद्रव्ययद् येन संयुक्तं नदव नं प्रत्युपर्यनीति नियमाऽसंभवात् ।। परिमाणत्यं रूपादिमत्त्वं वा । तत्र नाद्यः पक्षो दोषाय । संश्रयस्कान्तं प्रत्ययसस्तेनाऽसंयुक्तस्याप्याकर्षणोपलब्धेः । अ- मतत्वात् । द्वितीयस्त्वयुक्त व्याप्त्यभावात् , न हि यदसर्वगतं थामंयुक्तस्याप्याकर्षण तच्छरीरारम्भं प्रत्येकमुखीभूतानां तनियमन रूपादिमदित्यविनाभावोऽस्ति । मनसोऽसर्वगतत्रिभुवनोदरविवरवर्तिपरमाणुनामुपसर्पणप्रसङ्गात्र जाने त- स्वेऽपि भवन्मते तदसंभवात् । आकाशकालदिगात्मनां स ग्छरीरं कियत्प्रमाण स्यादिति चत् संयुक्तस्याप्याकर्षणे । वंगतत्वं परममहत्त्वं सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं चेत्युक्त्वाकथं स एव दोपो न भवेत्। श्रात्मनो व्यापकत्वेन सकल न्मनसो वैधात्सर्वगतत्वप्रतिषेधनात् । अतो नात्मनः परमाणूनां तेन संयोगात् । अथ तद्भावाविशेषे ऽप्यदृएव- शरीरेऽनुप्रवेशानुपपत्तिर्येन निरात्मकं तत्स्यात् असर्वगतमाद् विवक्षितशरीरोत्पादनानुगुणा नियता एव परमाण- द्रव्यपरिमाणलक्षणमूर्तत्वस्य मनोवत्प्रवेशा प्रतिबन्धकव उपसर्गन्ति नदितरत्रापि तुल्पम् । अथाऽस्तु यथाकथं- त्वात् । रूपादिमत्वलक्षणमूर्तत्वोपेतस्यापि जलादेर्वालुकाचिच्छरीरोत्पत्तिस्तथापि सावयवं शरीरं, प्रत्यवयवमनु- दायनुवंशो न निषिध्यते । आत्मनस्तु द्रहितस्यापि प्रविशन्नात्मा मावयवः स्यात् , तथा चास्य पदादिवत्का- तत्रासौ प्रतिषिध्यते इति महच्चित्रम् । अथात्मनः काययंत्यप्रसङ्गः कार्यत्वे चासौ विजानीयैस्सजातीयैर्वा कार- प्रमागत्वे बालशरीरपरिमाणस्य सतो युवशरीरपरिमाणगैगरभ्येत । न तावद्विजातीयस्तेषामनारम्भकन्यात् नहि स्वीकारः कथं स्यात् । किं तत्परिमाणपरित्यागात्तदपरिनन्तया घटमारभन्ते । न च सजातीयैर्यत आन्मन्वाभि- त्यागाद्वा । परित्यागाश्चत्तदा शरीरवत्तस्याऽनित्यत्वप्रससंबन्धादव तेषां कारणानां सजातीयत्वम् । पार्थिवादि- तात्परलोकाद्यभावानुषः । अथाऽपरित्यागात् । तन्न । परमाणूनां विजातीयत्वात् । तथा चामभिरात्माऽऽरभ्यत पूर्वपरिमाणाऽपरित्याग शरीरबत्तस्योत्तररमाणोत्पस्यइत्यायातं, तञ्चायुक्तम्-एकत्र शरीरेऽनेकारमनामात्मारम्भ- | नुपपत्तेः । तदयुक्तम् । युवशरीरपरिमाणावस्थायामात्मना काणामसंभवात् संभवे वा प्रतिसंधानाऽनुपपत्तिः । न ॥ बालशरीरपरिमाणपरित्यागे सर्वथा विनाशाऽसंभवात् । ह्यन्यन हपमन्यः प्रतिसंधातुमर्हति अतिप्रसङ्गात् । तदा- विफगावस्थोत्पादे सपंवत् । इति कथं परलोकाभाषारभ्यत्वे चास्य घटवदवयवक्रियातो विभागात्संयोगवि- नवज्यते पर्यायतस्तस्याऽनित्यत्वेऽपि द्रव्यतो नित्यत्वात् । नाशाद्विनाशः स्यात् । तस्माद्वधापक एवात्मा युज्यते का- अथ प्रात्मनः कायप्रमाणत्वे तत्खण्डन खण्डनप्रसङ्ग यप्रमाणतायामुक्तदापसद्भावात् इति चेत्-न, सावयवत्व- इति चत्कः किमाह । शरीरस्य स्खण्डने कथंचित् तत्खण्डकार्यत्वयाः कथंचिदात्मभ्यभ्युपगमात् । तत्र सावयवत्वं नस्यत्वात् । शरीरसंबद्धात्मप्रदशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रनावदसंख्येयप्रदशात्मकत्वात् । तथा च द्रव्यालङ्कारकारी- देशानां खण्डितशरीरप्रदेशेऽयस्थानादात्मनः खण्डनं त* आकाशोऽपि सदेशः सकृत् सर्वमाभिमबन्धाऽईत्वात्" च्चात्र विद्यत एव । अन्यथा शरीरात् पृथग्भूनावयवस्य पनि । यद्यप्यवयवप्रदेशयोगन्धहस्त्यादिषुभेदोऽस्ति तथापि कम्पोपलब्धिर्न स्यात् । न च खण्डितावयवानुप्रतिटस्यानात्र सूबमेक्षिका चिन्त्या । प्रदशष्वप्यवयवव्यवहारात् स्मदशस्य पृथगात्मत्वप्रसङ्गस्तवानुभवेशात् । न चैकत्र कार्यत्वं तु वक्ष्यामः । नन्यात्मनां कार्यन्ये घटादिवत्प्राक सन्तान नेके आन्मानः अनेकार्थप्रतिभासिमानानामेकमप्रसिद्धसमानजानीयावयवारभ्ययनसक्तिः अवयवा ह्यव- मात्राधारतया प्रतिभासाऽभावप्रसङ्गात् शरीरान्तरव्यवयविनमारभन्ते यथा तन्तवः पटमिति चेन्न वाच्यम् । स्थिनानकज्ञानाधसेयार्थसंधित्तिवत् । कथं स्वण्डिनावयवयोः न खलु घटादायपि कार्ये प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपाल- सट्टन पश्चादिति चेत् एकान्तेन छदानभ्युपगमात् पसंयोगारभ्यत्वं दृएम् । कुम्भकारादिव्यापारान्वितान्मृत्पि- मनालतन्तुबच्छेदस्यापि स्वीकारात् । तथाभूतारणवशाराडाराथममेव पृथुवुध्नोदराद्याकारस्याऽस्योत्पत्तिप्रतीतेः । त्तत्संघट्टनमविरुद्धमवात तनुपरिमाण पचात्माङ्गीकर्तव्यो द्रव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारपरिणामः कार्य न व्यापकः, तथा च-पान्मा व्यापको न भवति चेतनज्यं तच्च बहिरिवान्तरण्यनुभूयत एव । ततश्चात्मापि स्यात् । त्वात् यत् व्यापकं न तच्चतनम् । यथा व्योम चननश्चा53. कार्यः । न च पटादी स्वावयघसंयोगपूर्वककार्यत्वोपल स्मा । तम्मान व्यापकः अव्यापकत्व चास्य तत्रैवोपलभ्यम्भात्सर्वत्र तथाभावो युक्तः काष्ठ लोहलेण्यत्योपलम्भात् मानगुणत्वन मिद्धा कायप्रमाणना । यत् पुनरएसमयबजे ऽपि तथाभावप्रसङ्गात् । प्रमागबाधनमुभयत्रापि तु साध्य कर्यालसमुद्घातदशायामाहतानामपि चतुर्दशगपञ्चाहेमनन्द्र-गुण चन्द्रौ। त्मकलोकव्यापि बनात्मनः सर्वव्यापकत्वं तत् कादाचि Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) अभिधानराजेन्द्रः। माता कमिति न तेन व्यभिचारः । स्याद्वादमन्त्रकवचावगुण्ठि (एतन्मतनिराकरणम् )तानां च नेशविभीषिकाभ्यो भयमिति काव्यार्थः । स्या० । जे केइ लोगंमि उ अकिरियभाया, (१६) इदानी कर्तृतारावसरस्तथा चाह (भाष्यकारः)-- अनेण पुट्ठा धुयमादिसति । कस त्ति दारमहुणा, सकम्मफलभोइणो जो जीवा । प्रारंभसत्ता गदिता य लोए, चाणियकिसीवला इव, कविलमयनिसेहणं एयं ॥५०॥ व्याख्या-कर्नेति द्वारमधुना तंदतद्वयाख्यायत-स्वकर्म धम्म ण जाणंति विमुक्खहेउं ॥ १६ ॥ फलभोगिनो यतो जीवास्ततः कार इति, वणिकृषी सूत्र. १ श्रु०१० अ०। वलादय इव, न धमी अकृतमुपभुञ्जन्त इति प्रयोगार्थः, ( अस्य सूत्रस्य व्याख्यानम् 'अकिरियाप्राय' शब्द प्रयोगस्तु-कर्तात्मा, स्वकर्मफलभोक्तृत्वात् , कर्षकादिवत् । प्रथमभागे गतम्) पदंपर्यमाह-कपिलमतनिषेधमेतत्-सांख्यमतनिराकरण (१७) (मात्मनो विभुत्वविचारः)तत् , तत्राऽकनृवादप्रसिद्धरिति गाथार्थः । मूलद्वारगाथा न च-श्रात्मना विभुत्वमसिद्धम् , अनुमानात् तत्सिद्धेः । द्वय व्याख्यातं कर्तृद्वारम् । दश०४ अ०। तथाहि-बुद्ध्यधिकरणं द्रव्यं विभु, नित्यत्वे सत्यम्मदाद्युपजेसि पि अस्थि आया,वत्तव्वा ते वि अम्ह विस अत्थि। लभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात् । यद्यनित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलकिं तु अकत्ता न भवइ, वेययइ जेणं सुहदुक्खं ।।७।। भ्यमानगुग्णाधिष्ठान तत्तद्विभु, यथा श्राकाशम् , तथा च बुध्यधिकरख द्रव्य, तस्माद्विभु-नच बुद्धर्गुणत्वासिद्धेव्याख्या-येषामपि द्रव्यास्तिकादिनयमतावलम्बिना त हेतुविशेषणासिद्धद्या हेतोरसिद्धिरभिधातुं शक्या, बुद्धिन्त्रास्तरीयाणां किम् ? अस्ति-विद्यत आत्मा जीवः वक्तव्यास्तेऽपि तन्त्रान्तरीयाः साध्वतदस्माकमप्यस्ति सः, गुणत्वस्यानुमानात्सिद्धेः । सम्म०१ काण्ड १ गाथाटी० । तदभाव सर्वक्रियावैफल्यात् , किन्तु-अकर्ता न भवति (बुद्धेर्गुणत्वासाधनम् 'बुद्धि' शब्द पञ्चम भागे वक्ष्यते) सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामकर्ता न भवति-अनिष्पादको न श्रात्मनः प्रदशत्वाऽप्रदेशत्यविचार:भवति, किं तु-कर्तव, अत्रैवोपपत्तिमाह-वेदयते-अनभवति न च-पात्मनः प्रदेशास्सन्ति येन प्रदेशवृत्तित्वं शानस्य येन कारणेन, किम् ?-सुखदुःख-सुकृतदुष्कृतकर्मफलमिति सिद्धं स्यात् । कल्पिततत्प्रदेशाभ्युपगमे च तवृत्तित्वमपि हेतुः कल्पित इति न कल्पितात्साधनात्साध्यसिद्धिर्युक्का, भावः । न चाकर्तुरात्मनस्तदनुभावो युज्यते, अतिप्रसङ्गा सर्वतः सर्वसिद्धिप्रसङ्गात् । संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वं च न्मुक्कानामपि सांसारिकसुखदुःखवेदनापत्तेः, अकर्तृत्वाांवशेषात् , प्रकृत्यादिवियोगस्याप्यनाधेयातिशयमेकान्तेनाक हेताविपर्यये बाधकप्रमाणावृत्त्यात्राऽपि समानमिति । रिमात्मानं प्रत्याचित्करत्वात् , अलं विस्तरेणति गा तथा-स्वदेहमात्रब्यापकत्वन हर्षविषादाद्यनेकविवर्तात्मथार्थः । दर्श०४०। कस्याहमिति स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वादात्मनो विभुत्व साधकत्वेनोपन्यस्यमानः सर्व एव हेतुः प्रत्यक्षबाधितकर्म(आत्मनः सक्रियत्वं साधयन्नाह) निर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः । सप्रतिपक्षश्वायं कताइत्तणो वा, सक्किरिओऽयं मयो कुलालो व्व।। हेतुरित्यसत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्य लक्षणमसिद्धम् । स्वदेहमादेहप्फन्दणश्रो वा, पचक्खं जंतपुरिसो च ।। १८४६ ।। त्रात्मप्रसाधकश्च प्रतिपक्षहतुरत्रैव प्रदर्शयिष्यते । तन्नातोपराशङ्कां प्रतिविधानं चाऽऽह ऽपि हतोरात्मनो विभुत्वसिद्धिः। यदयात्मनो विभुत्वसाधनं कैश्चिदुपन्यस्तम्-" अहएं देहप्फंदणहेऊ, होज पयतो त्ति सो विनाकिरिए । स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कारभते एकद्रव्यत्वे सति होजा दिट्ठो व मई, तदरूवत्ते नणु समाणं ॥ १८४७॥ | क्रियाहतुगुणत्वाद्यो यः एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहतुगुणः स रूवित्तम्मि सदेहो, बच्चो तप्फंदणे पुणो हेऊ । स स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कारभते यथा वेगः, तथा च-अहएं, तस्मात्तदपि स्वाश्रयसंयक्त आश्रयान्तरे कर्मापहनिययपरिप्फंदण-मचेयणाणं न वि य जुत्तं ।१८४८) रभत इति । न चासिद्धं क्रियाहेतुगुणत्वम् , 'अग्नेरूर्द्धविशेषण (प्रासां गाथानां व्याख्यानम् ' बन्धमोक्वसिद्धि' ज्वलनं वायोस्तिर्यपवनम् , अणु-मनसोश्चाद्यं कर्म देवशब्दे पञ्चमे भागे वक्ष्यते) दत्तविशेषगुणकारितम् , कार्यत्वे सति देवदत्तस्योपकारकसांख्यमते आत्मनोऽक्रियत्वम् स्वात् , पाण्यादिपरिस्पन्दवत् एकद्रव्यत्वं चैकस्यात्मन"अमर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। स्तदाश्रयत्वात् एकद्रव्यमदृष्टं विशेषगुणत्वात् , शब्दवत् । अकर्ता निगुणः सूक्ष्मः, प्रात्मा कपिलदर्शने" ॥१॥ इति । एकद्रव्यत्वादित्युच्यमाने रूपादिभिर्व्यभिचारस्तनिवृत्त्यर्थ स्या० १५ श्लोक। क्रियाहेतुगुणत्वादित्युक्तम् । क्रियाहेतुगुणत्वादित्युच्यमा ने मुसलहस्तसंयोगेन स्वाश्रयासंयुक्तस्तम्भादिचलनाहेतुना १-" देहस्पन्दनहेतुर्भवेत् प्रयत्न इति सोऽपि नाक्रिये । व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थमकद्रव्यत्वे सति, इति विशेषभवेददृष्टो वा मतिस्तदरूपत्वे ननु समानम् ॥ १८४७ ॥ णम् । 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुत्यात्' इत्युच्यमाने २-रूपित्वे सदेही वाच्यस्तत्स्पन्दने पुन तुः। स्वाभ्रयासंयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेन व्यभिचारः, प्रतिनियतपरिस्पन्दनमचेतनानां नापि च युक्तम् ॥ १८४८॥ तन्निवृत्त्यर्थ गुणत्वादित्यभिधानम्.” एतदपि प्रत्यक्षवा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता यद्याद्यः . धितप्रतिज्ञासाधकत्वेने कशाखाप्रभवत्वानु मानवदनुमानाभा सम् । 'एकद्रव्यत्वे' इति च विशेषणं किमेकस्मिन्द्रव्ये संयुक्तत्वाद्, उत-तत्र समवायात् ? तत्र पक्ष, सनयुक्त संयोगगुणेनादृष्टस्य गुणवत्त्वात् द्रव्यस्वःकिवातुस्य बाधाप्रसङ्गाद् । अथ द्वितीयस्ता सह कचित्यमप्राप्तम्, नान्यस्यान्यत्र समवायः घट-रूपादिषु तस्य तत्रानुभूतस्यैवोपलब्धेः । न हि घटाद्रूपादयः, तेभ्यो वा घटः तद्न्तरालवर्ती समवायश्च भिन्नः प्रतीतिगोचरः, श्रपि तुकथंचित् रूपाद्यात्मकाश्च घटपटादयः तदात्मकाश्च रूपादयः प्रतीतिगोचरचारिणोऽनुभूयते। अन्यथा गुणगुणिभावेऽतिप्रसङ्गात् घटस्याऽपि रूपादयी पटस्य स्युः । तेषां तत्राप्यप्रतीतेरितरेषां प्रतीतेः' इत्यादिकं प्रतिविहिततु त्या तेन समवायेनेकात्मविर्ता कादिप्रतिवादिनोरसि एकान्तभेदे समवायाभावेनैकद्रव्यत्वस्यासिद्धेः । " 3 मात्र वा अथ गुणिनो गुणानामनर्थान्तरत्वे गुण-गुणिनोरन्यतर एव स्याद् अर्थान्तरत्वे परपक्ष एव समर्थितः स्यादिति समवायः सिद्धः । कथंचिद्वादोऽपि न युक्तः, अनवस्थादिदोषप्रसङ्गाद्, अयुक्तमेतत् पक्षान्तरेऽध्यस्य समानत्वात् । तथाहि द्वित्संख्या संयोगादिकमनेकेन द्रवेणाभिसंबध्य मानं यदि सर्वात्मायते द्वित्वसंख्यादिमात्रं द्रव्यस्याद् एकेनैव वा द्रव्ये सर्व्वात्मनाभिसंबन्धान द्रव्यान्तरेव तत्प्रतीतिदेशेने वर्त्तते धन्ये नान्यत्र तेपि देशा यदि ततो भिक्षास्तेष्वपि तथैव वर्त्तते इत्यवस्थ अभिशेषः । कथंचित्प परवाद एव समर्थितः स्यादित्यात्मना सदाऽदृष्टस्य कथचिदनन्यभावः एव एक द्रव्यस्यमित्यविभुत्वादगुणादव्यतिरिक्तस्थात्मको उपविभुत्वमिति विपक्षसाधकयादेकद्रव्यत्वलक्षणस्य हेतुविशेवणस्य विरुद्धत्वम् । 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्यत्रापि यदि देवदत्त संयुक्तात्मप्रदेश वर्त्तमानमहं द्वीपान्तरवर्त्तिषु मुक्ताफलादिषु देवदत्तं प्रत्युपसर्पणबसु कियाहेतु तदयुक्तम् अतिदूरत्वेन द्वीपान्तरपि भिस्तैस्तस्यानभिसंयधित्व तत्र शिवाराऽयोगात् तथाऽपि तु सर्वत्र स्याद् अविशेषात् अधাऽनभিसंबन्धाविशेषेऽपि यदेव योग्यं तदेव तेनाकृष्यते न सर्वमिति नातिप्रसः न च अप्राप्यकारित्वेऽपि यदेव योग्यं तदेव तद्ग्राह्यमिति यदुक्तं परेण -" अवाप्यकारिश्वेवस्थितस्याऽपि प्रसङ्गः" इत्ययुक्रं स्वाद् अथ स्वाश्रयसंयोगसंवन्धसंभवाद् धनसं न्धाद्' इत्यसिद्धम् । तथाहि यमात्मानमाश्रितमदृष्टं तेन संयुक्तानि देशान्तरवर्तिमुक्ताफलानि देव प्रत्याकृष्यमाणानि सर्ववाकर्षसङ्गतेनाभिसंबन्धाविशेषात् । न च यददृष्टेन यजन्यते तत्तेनाकृष्यत इति कल्पना युक्तिमती देवशरीरम्यकपरमाणुनां तदन्यत्वेनानाङ्गात् तथााकर्षने अतिप्रसङ्गप्रतिपादित एव । यथा च कारणत्वाविशेषे घटदेशादौ सन्निहितमेव दाद घटादिकार्यनयन्यथेत्यभ्युपगमः तथा बाशेऽपि स्वगिन्द्रियं प्रार्थनापति , ( २१४ ) अभिधानराजेन्द्रः । - " आता लोचनं त्वन्यथेत्यभ्युपगमः किन्न युक्तः ?, नापि द्वीपान्तरवर्तिमुक्तादिसंयुक्ताऽऽत्मप्रदेशे वर्तमानं तं प्रत्युपसर्पणतुवानुपपतेः तथाहि यथा वायु स्वयं देवदत्तं म त्युपसर्पण्यान् अन्येषां वृणीतं प्रयुपसर्पतुः तथा यद्यपि तं प्रत्युपसर्पत् स्वयमन्येषां तं प्रत्युपसर्पणहेतु:, तथा सत्यदृष्टस्येव मुक्कादेरपि तथैव तं प्रत्युपसशाविरोधाद् अर्थमपरिकल्पनम्। तथाभ्युपगमे च देवदर्भ प्रत्युपखति तं प्रत्युपसर्पखाद्' इति हेतुरनेकान्तिका घटनेय वायुवश्च सकियत्यमदृष्टस्य गुणत्वं बाधते । शब्दवच्चापरापरस्योत्पत्तावपरमदनिमितकारणं तदुत्पत्ती प्रसनं तत्राप्यपरमित्यनयस्थाः अभ्यथा शब्देऽपि किमनिमित परिकल्पनया अदृप्रान्तरात्तस्य तं प्रत्युपसर्पणे तदप्यष्टष्टान्तरं तं प्रत्युपत्यदृष्टान्तरात् तदपि तदन्तराहित्यनवस्था । अथ तत्रस्थमेय तत्तेषां तं प्रत्युपसर्प हेतुः तदपि न युक्रम् अन्यत्र प्रयत्नादाय तथा अदर्शनात् नहि प्रयत्नां प्रासादिसंयुक्ताऽऽत्मप्रदेशस्थ एव हस्तादिसंचलमसादिक देवप्रतिपत , " प्रसङ्गात्। श्रथ प्रयत्नपरऐऽहटे उपयन्यथा कल्पनम् । तथाहि कश्चित् प्रयत्नः स्वयमपरा परदेशवान् परत्र क्रिया हेतुर्यथानन्तरोदितः: अपरश्चाऽन्यथा यथा शरासनाध्यास पदसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव शरीरादीनां लक्षप्रदेशमाप्तिकियाहेतुः । यथेयम् इयं वित्रता एकद्रव्याण क्रियाहेतुगुणानां स्वाश्रयसंयुक्ताऽसंयुक्तद्रव्य क्रिया हेतुत्वेन किं नेष्यत विचित्रत्वाद्धावानां तथा रिति नोतरम्. अपस्कान्त भ्रामक स्पर्शमुकस्यैकद्रव्यस्य स्वाश्रयासंयुक्तलोहृद्रव्य क्रिया हेतुत्वे अभ्याकर्षकाख्यद्रव्यविशेषव्यवस्थितस्य तथाविधस्यैव तस्य स्वाश्रय संयुक्त लोहद्रव्य पादर्शनात्। अथ द्रव्यं क्रियाकार नप दिर्गुणः, द्रव्यरहितस्य क्रिया हेतुत्वादर्शनात् नः वेगस्य पितु क्रियायाश्च संयोगनिमित्तत्वं तस्य च द्रव्यकारणत्वं तत एव न स्यात्, तथा च वेगवदिति दृष्टास्ताऽसिद्धिः । अथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे वेगादिरहितस्यापि सरसक्ति, स्पर्शादिरहितस्या यस्कान्तस्यापिपरीकार-पत्र क्रियासहितस्य तस्यादनांदल लोहपक्रियोपभयंत भयं तदस्तु, अविशेषात् । एवं सति 'एकद्रव्यत्वे सति किवा देनुगुयाद् इति व्यभिचारी हेतु । एतेन यदुक्तं परेण " श्रदृष्टमेवायस्कान्तेनाकृष्यमाण लोहदर्शने सुखवत्पुंसो निःशल्यत्वेन तत् क्रियाहेतुः इति तन्निरस्तम्, सर्वत्र कार्यकारणभावे श्रस्य न्यायस्य समानस्वात् अहमेव कारणं स्यात् यस्य शरीरं सुदुः चोत्पादयति तददृष्टमेव तत्र हेतुरिति न तदारम्भकाऽवयचक्रिया संयोगादयः । अपि च-तददृष्टस्य कथं तद्धेतुत्वं ? तस्य भावे भावादभावे श्रभावादिति चेत् किं पुनरयस्कान्तस्पर्शाद्यभाव एव तत्क्रिया दृष्टा येनैषां तत्र कारगत्वाक्लृप्तिः ? ततो न दृष्टानुसारेण तत्रस्थस्यैवाऽदृष्टस्य तं प्रति तत्कियाहेतुत्वम् । प्रयज्ञवैचित्र्याभ्युपगमे च देतोरनैकान्तिकत्वम् । 33 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाता " 6 किं अथ सर्वत्राऽस्य वृत्तिस्तर्हि सर्वद्रव्यि यददृष्टुं यद् द्रव्यमुत्पादयति तत् तत्रैव क्रियामुपरचयतीत्यभ्युपगमे शरीरम्भकेषु परमाणुषु ततः क्रिया न स्यादित्युक्तम् । न च गुणत्वमप्यदृष्टस्य सिद्धमिति क्रिया हेतुगुणत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः । अथ श्रदृष्टं गुणः, प्रतिषिध्यमानव्य-कम्भाष सति समासंवन्धित्या रूपादिवत्' । म प्रतिषिध्यमानस्यत्वमसिद्धम् । तथादिनद्रव्य महम् एकद्रव्यत्वात् रूपादिवत् इति असंतत् एकद्रव्यत्वस्याऽसि सत्तासंयत्यस्य चेति तद्गुणयसाधनमुक्रम देवत्वृतः पश्वादयो देवदत्तविशेषगुणकृष्टशस्तं प्रत्युपलत्वात् प्रासादिवत्' इति, तदप्ययुक्तं यतो यथा तद्विशेषगुणेन प्रयापेन समाकृष्टास्तं प्रत्युपसन्तो ग्रासाः समुपलभ्यन्ते तथा नयनाञ्जनादिद्रव्यविशेषेणाऽपि समाकृष्टाः स्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्त एव ततः प्रयत्नसधर्मणा केनचिदाकृष्टाः पश्वादयः, उत नयनाञ्जनादिधर्मणा इति संदेहः मनुमानमारयितुं परेशानियाजनादिधर्मणा विषादगांवरचारिः पश्वादयः समाकृष्टा देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्ति तं प्रत्युपसयस्यात् रूपादिवत् अथ सदभावेऽपि तटरनेकान्तिक प्रयत्नसधम्मंणो गुणस्याभावे नांदेरपि तदहतोरनेकान्तिकत्वम्नानु मीषभागस्य प्रयत्नसमेो तो सद्भायाम्यभिचारः अन्यत्राप्यञ्जनानिधानुमीयमानस्य सद्भावनास्यभिचाप्रसङ्गात् । तत्र प्रधानसामर्थ्यादृस्य वैफल्येऽन्यत्राव्यञ्जनादिसामर्थ्यात् वैफल्यं समानम् । नांदरेय त जेतुत्वे सर्वस्य तद्वतः पादानि चानादौ सत्यप्यविशिष्ठे तद्वतः सर्वान्प्रति तदागमनं ततोऽबसीयते तदविशेषेऽपि यद्वैकल्यात्तन्नति तदपि कारणं नाजनादिमात्रम्' इति । तदेतत्प्रयत्नकारणेऽपि समानं; न हि सर्व प्रयत्नवन्तं प्रति ग्रासादय उपसर्पन्ति, तदपहारादिदर्शनात्। ततोऽपाध्ययकारणमनुमीयताम् अन्यथान ऽपि, अविशेषात् । ततः प्रयत्नवदञ्जनदेरपि तं प्रति तदाका संदेदः अनाया प्रत्यकारणत्वे गन्धादिवत्तदर्थिनां न तदुपादानम् । न च दसामर्थ्यस्याप्यजनादेः कारयतिपरिहारेणायकारत्वकल्पने भवमोऽनवस्थामुक्ति चाखनादिकमरसहकारित्वात्तत्कारणं न केवलमिति; नन्वेवं सिद्धमदृष्टव " " 4 2 ( २१५ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 नांदेरपि तच कारणःसंदेह एक प्रासादिचत्प्रयत्न सधर्म्मणाऽऽकृष्टाः पश्वादयः, किं वा स्त्र्यादि सिधम्र्मणा तत्संनिगुए स्वात्' इत्येतत्साधनं सपरिस्पन्दात्मप्रदेशमन्तरेण प्रासाद्याकर्षण हेतोः प्रयत्नस्यापि देवदत्तविशेषगुणस्य परं प्रत्यसिद्धत्वात् साध्यविकलता चात्र दृष्टान्तस्य । यश्च यद् देवदत्तं प्रत्युपसति इत्युकं तत्र कः पुनरसी देवदा यदि शरीरं तदा शरीरं शरीरगुणाः पश्वादयः इति श्रात्मगुनाये साध्य शरीरगुणाकृष्टत्वस्य साधनाद्विरुद्धो हेतुः । अथाऽऽत्मा, तस्य समी श्राता कृष्यमाणदादेश-कालाभ्यां सदाभिधान प्रति कस्यचिदुपसर्पणम् - श्रन्यंदर्श प्रत्यन्यदेशस्योपसर्पणदर्शनात् अन्यकालं प्रत्यन्यकालस्य च यथाऽङ्कुरं प्रति अपरापरशक्तिपरिणाम प्राप्तवजादेः । न चैतदुभयं नित्यव्यापित्वास्यामात्मनि सर्वत्र सर्वदा दिने संभवति देवद पन्त इति धर्मिविशेषणं देवदत्तगुणाः इति साध्यधर्मः, 'देवदत्तं ' प्रत्युपसण्यस्वाद्' इति साधनधर्मः परस्य स्वरुचिविरचितमेव । नच शरीरसंयुक्त श्रात्मा सह तस्यापि नित्यव्यापित्वेन तत्र सन्निधानेनाऽनिवारणात् न हि घटयुक्रमाकाशं मेर्यादी न सहितम् । अथ शरीरसंयुक्त आत्मप्रदेशो देवदत्तः स काल्पनिक, पारमार्थिको का? कायनिक काल्पनिकामप्रदेशगुणाः पश्वादयः तथाभूतात्मप्रदेशं प्रत्युपस्वाद इतिद् गुणानामपि नित्यं साधयत् । तथा च सीगतस्व तद्गुणतः प्रेत्यभावोऽपि न पारमार्थिक स्थान दि कल्पितस्य पाचकस्य रूपादयस्तत्कार्य या दाहादिकं पार मार्थिकं रम् पारमार्थिकारान्मदेशाः तेऽपि यदि ततोऽभिशास्तदात्मैव ते इति न पूर्वोक्तदोषपरिहारः, भिप्रतिद्विशेषगुणाः पश्वादय इति तेषामेवाम स्वरित्याग्यात्मपरिकथा संयोग इति साम्रयसंयुके पत्र क्रियाहेतुः इति पादतम् संयोगे वाऽऽत्मवदित्यन व्यापातः अथ तेषामप्यपरे शरीरसंयुक्ताः प्रदेशाः देव शब्दवाच्याः, तत्राप्यनन्तरदूषण मनवस्थाकारि । अथात्मानमन्तरंग कस्य ते प्रदेशाः स्यूति प्रदेश्वपर आत्मेत्यभ्युपगमनीयम् । नम्यर्थान्तरभूतत्वे आत्मनः कथं तस्य ते इति उपपदेशः १ अथ तेषु तस्य वर्तमान व्यपदेशः न सदेत्। तथाऽभ्युपगमेऽवयविपत्तनापि ग्वाकाशात् यथा तेषां तथा प्रतिपादिनम् प्रि त्यास्तां तावत् । तन्न परस्य देवदत्तशब्दवाच्यः कश्चिदस्ति पश्यादयः स्वपादेन साथयेयुः साधनविभुनाथकम्। यदि ' सर्वगत आत्मा, सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वाद्. श्राकाशबद्' इति साधनं, तदध्यचारुः यतो यदि 'स्वशरीरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वाद् इति हेतुस्तथा सति तत्रैव ततस्तस्य सर्वगतत्वसिद्धेर्विरुद्धो हेत्वाभासः । अथ स्वशरीरवत्परशरीरेऽन्यत्र नोपलभ्यमानगुणत्वं हेतुस्तदा अ सिख तथोपलम्भावात् नदि बुद्धयादयस्तद्गुणास्तथ सिद्धः, पलभ्यन्ते, अन्यथा सर्व्वसर्व्वज्ञनाप्रसङ्गः । अथैकनगर उपलब्धा बुयादयो नगरान्तरेऽप्युपलभ्यन्ते मनुष्यजन्मवजन्मान्तरऽपीति कथं न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वं ? नः वायोरपि स्पर्शविशेषगुण एकदा उपलब्ध ऽन्यत्रास्यदोपलभ्यमानः तस्यापि सर्वगतत्वं प्रसाधछेद् अन्या तेनैव हेतोर्व्यभिचारः । अथ स्तांस्तान् देशान् क्रमेण गतस्य तस्य तद् उपलभ्यते, आत्मनोऽपि चैव तद्गुणस्यांगलम्भः इति समानं पश्यामः । न च तद्वत्तस्यापि सक्रियत्वप्रसक्रयुक्तमेवं कल्पनमिति वाच्यम्, इष्टत्वाद् । श्रथ लोटवत् ततो मूर्तत्वप्रसङ्गस्तस्य दोषः । ननु केयं मूर्तिः । सर्वगतपरमार्थ सेविनायं दोषः असंगता मानिनी . ? Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) अभिधान राजेन्द्रः । जाता " भीष्टत्वात् । रूप-रस- गन्ध-स्पर्शवत्वं सेति चेत्, न तादश मूर्तिमात्मनः सक्रियत्वं साधयति, व्याप्त्यभावाद् रूपादिमन्मूर्त्यभावे सक्रियत्वात् । 'यो यः सक्रियः स रूपादिमन्मूर्तिमान् यथा शरः, तथा चाऽऽत्मा, तस्माद्रूपादि - मन्मूर्तिमान्' इति कथं न व्याप्तिसंभवः ? असदेतत् मनलापि व्यभिचारात् । न च तस्याऽपि पक्षीकरणं, 'रूपादिविशेषाधिकरणं सद् मनो प्रकाशपति, शरी राद्यर्थान्तरत्वे सति सर्वत्र ज्ञानकारणत्वाद्, आत्मवद् इत्यनुमानविरोधप्रसङ्गात् । न च सक्रियत्वं रूपादिमन्मूर्त्यभायन विरुद्धं यतस्ततस्तन्निवर्तमानमात्मनि तथाविधां मूर्तियत्। न च तथा दर्श नात्सिद्धो विरोधः, एकशाखाप्रभवन्वस्याप्यन्यत्र पक्षे अदर्श नाद्विगेधसिद्धिप्रसक्तः । पक्ष एवं व्यभिचारदर्शनात्सा तत्र नेति चेत्, नः सक्रियत्वस्याऽपि तथा व्यभिचारः समानः कृतात्मानमूर्तिरहिते त नाद । अनेनैव च तत्साधनान्न व्यभिचारः इत्येकशा भवानुमानपि समानम् । प्रत्यक्षाधिकाि ईशानन्तरयुक्रवेग कालात्ययापदिए यमुभयत्र तुल्यम् । न समात्यो रूपादिमूर्तित्यं साधयनीतिस्थितम् । असकियत्येतस्यानित्यत्यम् । तथा हि यत्सकिय तदनित्यं यथा लोटादि तथा चाऽऽत्मा. तस्मादनित्यः इति एतदपि न सम्यक परमाणुभिरनैकान्तिकत्वात्। कथंचिदनित्यत्वपच , नित्यत्वस्य लोप्रादावप्यसिद्धत्वात्साध्यविकलता दृष्टान्तस्य । तन सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनः सिद्धम् । अपरे - सर्वोपलभ्यमानमात्मनोऽतोऽनुमानात्साधयन्ति-" देवदत्तोपकरणभूतानि मणिमुक्ताफलादीनि द्वीपारसंभूतानि देवदनगतानि कार्यसि दत्तोपकारकत्वात् शकटादिवत् । न च तद्देशे श्रसन्निहिता एव तद्गुणास्तान् व्युत्पादयितुं समर्थाः न हि पटदेशे असकुविन्दादयः पदमुत्पादयितुं क्षमाः । आत्मगुणानां च तद्देशसन्निधानं न तद्गुणसं निधिमन्तरेल संमधि अगुवा ततस्तस्थापि संदेशत्वम् " असदेतत् ; तत्कार्यत्वेऽपि तेषां न 'अवश्यतया कार्यदेशसनिधिमदनिमित्तकारणम् इति नियम उपलब्धगांवर अन्यदेशस्याऽपि ध्यानांदरम्यस्थितविषाद्यपनयन कार्यकर्तृत्वस्वत्वात् नम्र अनऽपि सर्वत्रोपलभ्यमानगुत्वसिद्धेः इत्यसिद्धो हेतुः । विभुत्वान्महानाकाशः तथा चारमा निर स्तम् विभुत्वस्यात्मन्यसि। तथा हि-"सर्वमूलैर्युगपत्संयांग। विभुत्वम् " । न च सर्वमूर्तिमद्भिर्युगपत्संयोगस्तस्य सिद्धः अतिविशेषगुणाधारस्यानस्य सर्वमूर्तमंगयोग आकाशस्य सिद्धादेतत् एकदेशवृत्तिविशेषगुणाधिष्ठानस्य साधनस्य सर्वमूर्तिमा ऽऽधारत्वस्य च साध्यस्याकाशेऽपसिद्धेरुभयविकलो दृष्टान्तः । न चाऽऽत्मदृष्टान्तादाकाश साध्यसाधनोभयधर्मसंवसतिश तुम इरादो विभुला अरिमादानधिकरणत्वं सति आता नित्यत्वात् पचपरिमाणानधिति इव्यं तद् विभु यथा-आकाश तथा चाऽऽत्मा तम्माद्विभुः इति तदष्य सारं तत्त्वाऽसि अणुपरिमाणानधिकरणत्वस्य च विशेषणस्यात्मनो द्रव्यत्वासिद्धेरसिद्धिः, तदसिद्धिश्व इतरेतराश्रय दोषप्रसक्तेः । तथाहि श्रणुपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वं सिद्धे अनाधारस्य तस्यासंभवादात्मनां गुणवसिद्धिः तत्सिद्धी व तारापरिमाणान्यगुणास्य गुणत्वसिद्धिरिति उप क्रमितरेतरापत्यम् न वाऽऽकाशस्याध्यपरिमाणान किरत्ये सति नित्यत्वं विभुत्व सिद्धमिति साध्य-साधनविकलो दृष्टान्तः । न चाऽऽत्मदृष्टान्तबलात्तस्यतदुभयधर्म्मयोगित्वं सिद्धमिति वक्तुं युक्तम् श्रत्रापीतरंतरावदोषप्रसङ्गस्य व्ययात् । अपि च-अनुपरमा नधिसत्व, विपक्षे हेतोर्वाधकप्रमाणाऽसत्वन ततो व्यावृत्तिसिद्धः सन्दि ग्यानैकान्तिक देन प्रमा " राम समन्धिनस्तस्थासिद्ध। नैकान्तिकत्वप्रतिपाद नाद् । अपि च श्रात्मनः स्वदेहमा व्यापकत्वेन सुखदुःखादिपाक्रान्तस्य स्वसंवदत्यादिभुत्वसाथकस्य हेतोरध्यक्षवाधितपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययाप दिष्टत्वम् । अन्यस्य च 'अहम्' इत्यध्यक्षसिद्धस्य प्रमाणाविषयत्वेनाऽसत्त्वादाश्रयासिद्धो हेतुरिति । श्रनया दिशा ऽपि साधनायोक्यस्यमाना तो निराक संख्याः अस्य निराकरणप्रकारस्य सर्वेषु तत्साधकतुषु समानत्वात् । तत् न नः कुतश्चित् विभुसिद्धिः । अथापि स्यात् यथाऽस्माकं तद्विभुत्वसाधकं प्रमाणं न संभवति तथा भवतामपि तद्विभुत्वसाधकप्रमाणाभाव सिद्धति इति मानुषमसुखस्थानोपगतिस्तेषां सति तद वस्थं चोद्यं न हि परपक्षे दोषोद्भावनमात्रतः स्वपक्षाः सिद्धिमुपगच्छति अन्यत्र स्वपसाधकत्वलक्षणपरमयुहेतुविरुतात् न चासो भवता प्रदर्शित न सम्यगतत्। तद्भावासिदेः तथाहि , शरीरमा व्यापकः, तत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणत्वात् यो " यत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणः स तन्मात्र व्यापकः, यथा देवदत्तस्य गृहे एव व्याप्त्योपलभ्यमानभास्वरत्वादिगुणप्रदीपः, देवदत्तशरीर पय व्याप्योपलभ्यमानगुणस्तदात्मा' इति । तदात्मनो हि ज्ञानाऽऽदयो गुणास्ते च तद्दद्द एव व्याप्त्योपलभ्यन्ते, न परदेद्दे, नाप्यन्तराले । 66 अत्र विसोरसिद्धतामुद्भावयन्तः शरीरान्तरेऽपि नानि सद्गुख उपलभ्यन्ते इत्यभिति । तथाहि देवदत्ताङ्गनाङ्गं देवदत्तगुणपूर्वकं कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वाद्, प्रासादिवत्' । कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं तज्जनन व्यायासिदिति तदङ्गनाप्रादुपदेशे सत्कारसिद्धि तथा तदन्तराले 1 तथाहि विनम् सद्गुणपूर्वकं कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वाद्यादिवत् । यत्र च तद्गुणास्तत्र तद्गुरायप्यनुमीयते इति, देवमा' इति प्रतिज्ञा अनुमानाचिता । ततोऽनुमानवाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रत्युक्तत्वेन कालाऽत्य Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७) प्राता अभिधानराजेन्द्रः। प्राता मापदियो हेतुः" । ननु केऽत्र देवदत्तात्मगणा ये तदङ्गनाले गाम्यात्मा अनुमानात्सिद्धिमुपगच्छति तथा प्राक् प्रतिसदन्तराल च प्रतीयन्त ? यदि शान-दर्शन-सुखवीर्यस्खभा- पादितम् । सुखसाधनजलादिदर्शनानन्तरोद्भवस्मरणसहायेवाः-" सह वर्तिनी गुग्गाः" इति वचनाद्-टि क्षः, सन न्द्रियप्रभवप्रत्यभिज्ञानक्रमोपजायमानाभिलाषादेर्व्यवहारस्यैः युक्तः, शान-दर्शन-सुखानि संवेदनरूपाणि न तदङ्गनाङ्ग- ककवपूर्वकत्वेन प्राक प्रसाधितत्वात् नात्र प्रयोगे व्याजन्मनि व्याप्रियमामानि प्रतीयन्ते; नापि सत्तामात्रण त- प्स्यसिद्धिः । अत एव स्तनादिप्रवृत्तेरभिलाषः सिद्धिमाइंशे प्रतीनिगोचरापि । वीर्य तु शक्तिः क्रियानुमे या, साऽपि सादयन् सङ्कलनाबानं गमयति तदपि स्मरणम् , तव तहह एवानुमीयते, तत्रैव तल्लिङ्गभूतपरिस्पन्ददर्शनात् त सुखादिसाधनपदार्थदर्शनम् । 'कारणव्यतिरेकेण कार्योंस्याश्च तदानादेनिष्पत्ती देवदत्तस्य भार्या दुहिता स्यात् । स्पसौ तस्य नितुकत्वप्रसक्तिः' इति अत्र विपर्ययबाधक ततस्तज्नानादस्तद्दह एव तत्कार्यजननविमुखस्य प्रतीतेः प्रमाणं व्याप्तिनिश्चायकं प्रदर्शितम् । अपूर्वप्राणिप्रादुर्भाये प्रत्यक्षतस्तद्वाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वन कालात्यया- च सर्वोऽव्ययं व्यवहारः प्रतिप्राणिप्रसिद्धः उत्सीदेत् , पविष्टः कार्यत्व सति तदुपकारकत्वाद्' इति हेतुः । तजन्मनि सुख साधनदर्शनादेरभावात् , न हि मातुरुदर अथ धर्माधौ तदानादिकार्यनिमित्तं तद्गुणः, तद एव स्तनादेः सुखसाधनत्वेन दर्शनम् । यतः प्रत्यग्रजातस्य युक्त न धौधौ तदात्मना गुणी अचतनत्वात् , श तत्र स्मरणादिव्यवहारः संम्भवदिति पूर्वशरीरसम्बन्धो ऽप्यात्मनः सिद्धः । कदादिवत् । न सुखादिना व्यभिचारः, तत्र सोरवर्तनात्तद्विद्धन व संवेदनलक्षणचैतन्येन तस्य व्याप्तत्वात अभि न च मध्यावस्थायां सुखसाधनदर्शनादिक्रमेणोपजायमानोमतपदार्थसंबन्धसमय एवं स्वसंबदनरूपाहादस्वभावस्य ऽपि प्रवृत्यन्तो व्यवहारो जन्मादायन्यथा कल्पयितुं शक्यः । तदात्मनोऽनुभवात् , अन्यथा सुखादः स्वयमननुभवात् विजानीयादपि गोमयादेः कारणाच्छालूकादः कार्यस्याअनवस्थादोपप्रसङ्गाद् अन्यज्ञाननाप्यनुभषे सुखस्य पर स्पत्तिदर्शनादिति वक्त शक्यं, जलपाननिमित्ततृषाच्छदालोकप्रख्यताप्रशक्तिः । प्रसाधित चैतत् प्र.क् । दायप्यनलनिमित्तत्वसंभावनया तदथिनः पावकादी प्रवृ त्तिप्रसङ्गात् सर्वव्यहारोच्छेदप्रसक्तः।। नव-श्रसिद्धता 'अचतनत्याद्' इति हेतोः । तथाहि-अ अथ · दहिनो देहांदहान्तमनुप्रवेशस्तदभिलाषपूर्वकः चतनी तौ, अस्वसंविदितत्वात् , कुम्भवत् । न बुद्धया अस्य व्याभिचारः, अस्याः स्वसंवेदनसाधनात् -'स्वग्रहणात्मिका गृहाद् गृहान्तरानुप्रवेशवद्' इत्यतोऽन्यथासिद्धो हेतुरिति बुद्धिा, अर्थग्रहगात्मकत्वात् , यत्स्वग्रहणात्मकं न भवति न न द्रव्यविशषं साधयति । तदुनं सौगतैः-" दुःख विपर्यातद् अर्थग्रहणात्मकं, यथा घटः, इति व्यतिरेकी हेतुः। समति-स्तृष्णा वाऽवन्ध्यकारणम् । जन्मिनो यस्य ते न स्तो, न स जन्माधिगच्छति " ॥१॥ इति, असदनद् इह न च धर्माऽयर्मयोनिरूपत्वाद्वद्धदृष्टया ज्ञानस्य व जन्मनि प्राणिनां ताभलाषस्य परलोकेऽभावात् न ततस्स स्थग्रहणात्मकत्वादसिद्धो हेतुरिति वक्तव्यं, तयोः स्वरूप इति युक्तम् । नापि मनुष्यजन्मा हीनशून्यादिगर्भसंभवमग्रहणात्मकत्वे सुखादाविव विवादाभावप्रसक्तः । अस्ति भिलपति यनस्तत्र तत्संभवः स्यात् । तदेवं धाऽधर्मचासौ अनुमानोपन्यासान्यथानुपपत्तेः तत्र । म च लौकि योस्तदात्मगुणनिषेधानिषधानुमानबाधितमेतत् 'पाचकपरीक्षकयाः प्रत्यक्षं कर्मेति व्यवहारसिद्धम् । न चाविकल्पबाविषयत्वात्स्वग्रहणात्मकत्वेऽपि तयार्विवादः कादृप्रज्वलनादिदेवदत्तगुणकारितम् ' इति । क्षणिकत्वादिवत् , तथा अनिश्चयात् द्विषय ऽतिप्रसङ्गात् । यत्पुनरुक्तम्-'गुणवद् गुणि अप्यनुमानतस्तद्देशे अस्तीत्य नुमानबाधितम्वदेहमात्रव्यापकाऽऽत्मकर्मनिर्देशानन्तरप्रयु-- तथाहि-अविकल्पकाध्यक्षविषयं जगज्जन्तुमात्रस्य तथाअनिश्चयस्तु क्षणिकत्वयत् निर्विकल्पकाध्यक्षविषयत्वात् । न कत्येनाद्यो हेतुः कालात्ययापदिष्ट.' इति तदपि निरस्ते तत्र तन्सद्भावासिद्धेः । यच्चान्यत्कार्यत्वे सति तदुपकारकच मूषिकालकंविषविकारवत्तदनन्तरं तत्फलादर्शनान्न त त्वाद् इति, नत्र किं तद्गुणपूर्वकत्वाभावेऽपि तदुपकारकत्वं द्दशनव्यवहारः इति, स्वसत्तासमय खकार्यजननसामध्ये दृष्ट येन कार्यत्व सनि हात विशेषणमुपादीयत सांत संभव नस्य तदैव तत्कार्यमिति तदन्तरं तारप्रसक्नः अन्यदा व्यभिचारे च विशषणापादानस्यार्थवत्त्वात् ? कालश्वरादौ तु स एव नास्तीति कुतस्ततस्तस्य भावः ? दृष्टमिति चत् , नः कालेश्वरादिकमनद्गुणपूर्वकमपि यदि श्रथ तयोरचेतनत्वेऽपि तदात्मगुरगत्व को विरोधः अचे तदुपकारकं कार्यमपि किंचिदन्यपूर्वकं तदुरकारकं स्यातनस्य चतनात्मगुग्णयमेव । चेतनश्च तदात्मा स्वपरप्रकाश- दिति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिका हेतुः । कत्वात् अन्यथा तदयोगात् कुड्यादिवत् । न च धर्मा- सर्वज्ञवाभावसाधन वागादिवनिर्विशषणस्यैव नस्याभिधर्मयारभावादाथयासिद्धो हेतुः, अनुमानतस्तयोः सिद्धेः । धाने को दोषः ? व्यभिचारः कालेश्वरदिनति चत् , न; तथादि-चेतनस्य स्वपरज्ञस्य तदात्मनो हीनमातृगर्भस्था- नित्यैकस्वभावान्कस्यचिदुपकागभावाद्। अपि च-शत्रनप्रवेशस्तरसंबन्धान्यनिमित्तः, अनन्यनेयत्वे सति तत्प्रवे- शरीरप्रध्वंसाभावस्तद्विपक्षस्योपकारको भवति सोऽपि शात् , मत्तस्याशुचिस्थानप्रवेशवत् , योऽसावन्यः स तद्गणनिमित्तः स्यात् । तदभ्युपगमे या तत्र कार्यन्या - द्रविशा धम्मादिरिति । न च कस्यचित्पूर्वशरीरत्या- संभवेन सविशेषमास्य इनोरवर्तनाद्भागाऽसिद्धो हेनुः । गेन शरीरान्तरगमनाभावात्तत्प्रवशोऽमिशः. अनुमानात्त- श्रतद्गुणनिमित्तत्वे तस्यान्यदायतद्गुणपूर्वकं तदुपकारक निमद्धः । तथाहि-नदहर्यातम्य स्तनादौ प्रवृत्तिस्तदभिला- तहदेव म्यादिति न तद्गुगसिद्धिः । पपूर्षिका, नत्त्यात् , मध्यदशावत्। यथा च परलोका55- यन्पुनासादिवद् इति निदर्शनं, तत्र यदि तदात्मगुग्गो ५४ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९८) प्राता अभिधानराजेन्द्रः। भाता धर्मादिहेतुः, साध्यवत्प्रसङ्गः । प्रयत्नश्चेत्, न, नत्स्वरूपा- च-यदि तदात्मनः कथंचिद्विनाशः प्रतिपादयितुमिष्टः ससिद्धेः-शरीराद्यवयवप्रविष्टानामात्मप्रदेशानां परिस्पन्दस्य | मानजातीयावयवारब्धत्वात् तदा सिद्ध साधनं, नदभिचलनलक्षणक्रियारूपवान गुणत्वं, तत्त्वे वा गमनादेगपि नमसार्यवस्थाविनाशन तपनया तस्यापि नष्टत्वात् । नस्वान कर्मपदार्थसद्भावः कचिदणीति न युक्त क्रियावद् अथ सर्वात्मना सर्वथा नाशः, स घटादावयसिद्ध इति इति द्रव्यलक्षणं निक्रियस्यात्मना न स इति चेत् , कुतस्तस्य साध्यविकलो दृष्टान्तः । यदि च-तदहर्जातवालाऽऽत्मा निष्क्रियत्वम् अमूर्नत्यादिति चेत् प्रत्यक्षनिराकृतमेतत्- प्रागेकान्तनासंस्तथा अवयवरारभ्यत तदा स्तनादौ प्रवृप्रत्यक्षण हि देशाद्देशान्तरं गच्छन्तमात्मानमनुभवति लोकः।। त्तिनं स्यात् , तदभिलापप्रत्यभिज्ञान-स्मरण-दर्शनादेतथा च व्यवहार:-अहमद्य योजनमात्रं गतः,न च मनः शरीरं रभावात् । तदारम्भकावयवानां प्राक्सतां विषयवर्शनावा तद्वयवहारविषयः, तस्याऽहं प्रत्ययावेद्यत्वात् । तदेवं दिकमिति चेत् नर्हि तपामव तदह जातवेलायां तन्वन्तरापरस्य साध्यविकलं निदर्शनमिति स्थितम् । तेन यदुक्तम्- गणामिव तत्र प्रवृत्तिः स्यानात्मनः, स्मरणाधभावात् । का'यस्मात्तदात्मनो गुणा अपि दूरदेशभाविनि तदङ्गनाके रणगमने तस्यापि सर्वत्र सा स्यात् , " कारणसंयोगिना अन्तराल चोपलभ्यन्त तस्मात्सिद्धं तस्य सर्वत्रोपलभ्य कार्यमवश्यं संयुज्यत" इति वचनात् न तस्य विमानगुणत्वम् , अतः 'सर्वगत आत्मा, सर्वत्रोपलभ्यमान षयानुभवाभावः, भेदेकान्ते चास्याः प्रक्रियायाः समवाय निषेधेन निषधात्। गुणत्वात् आकाशवद्' इत्यनुमानबाधिता तदात्मस्वशरीग्मात्रप्रतिज्ञा' इति, तनिरस्तं; सर्वेषां सर्वगतात्मप्रसाध अथ कारणगुणप्रक्रमेण तत्र दर्शनादयो गुणा बर्यन्ते, कद्देतूनां पूर्वमेव निरस्तत्वाद् । अतो न वदहमात्रव्यापका तेऽपि प्रागसन्त एव जायन्त इति, एवर्मापन किचित् मप्रसाधकतोगम्मिद्धिः । नाऽप्यनुमानेन तत्पक्षबाधा । न परिहतम् । एतेन " अवयंधषु क्रिया, क्रियातो विभागः, च तंदहव्यापकत्वेनैवोपलभ्यमानगुणाऽपि तदात्मा सर्व ततस्संयोगविनाशः, ततोऽपि द्रव्यविनाशः" इति परगतो निजदहेकदेशवृत्तिर्वा स्यात् अविरोधात्संदिग्धवि स्याऽऽकृतं पूर्वभवाऽन्ते तथा तद्विनाश आदिजन्मान स्मरपक्षव्यावृत्तिकवादकान्तिको हेतुः इति युक्तं; याप्या णाद्यभावप्रसान्निरस्तम् । नचायमेकान्त:-कटकस्य केदावपि तथाभावप्रसङ्गतः प्रतिनियतंदशसंबद्धपदार्थव्य यूरभावे कुतश्चिद्भागषु क्रिया. विभागः, संयोगविनाशः, वहारोच्छेदनशक्तः । तथाहि-यद्यथा प्रतिभाति तत्तथैव द्रव्यनाशः, पुनस्तदवयवाः कवलाः। तदनन्तरं कर्म-संमद्वयवहारपथमवतरति , यथा प्रतिनियतदेशकालाकार योगक्रमण केयूरभावः प्रमाणगोचरचारी। केवलं सुवर्णतया प्रतिभासमानो घटादिकोऽर्थः, अन्यथा प्रतिभास- कारव्यापारात्कटकस्य केयूरीभावं पश्यामः, अन्यथाकल्पन माननियत देशकालाकारस्पर्शविशेषगुणोऽपि वायुः सर्वगतः प्रत्यक्षविरोधः । न हि पूर्व विभागस्ततः संयोगविनाश स्यात् । न चात्र प्रत्यक्षबाधः, परेण तस्य परोक्षत्वापवर्ण इति, तद्भेदानुपलक्षणाचैतन्य बुद्धिवद । नचैकान्तन तस्याः नात् । यदिच-स्वदेहैकदेशस्थितः, कथं नत्र सर्वत्र सुखादिगु. क्षणिकत्वे सुखसाधनदर्शनादयः संभवन्तीस्यऽसकृदावेदिगोपलब्धिः ? इतरथा सर्वोपलभ्यमानगुणोऽपि वायुरेकप- तमावदयिष्यत चत्यास्तां तावत्। ततो नाऽनेकान्तिका हेतः, ग्माणुमात्रः स्यात् । नच क्रमेण सर्वदेहभ्रमणात्तस्य तथा विपते संभवात् । अत एव न विरुद्धोऽपीति भवत्यतः तत्रोपलब्धिः . युगपनत्र सर्वत्र सुखा देगंणस्योपलम्भात् । न सर्वदोषाहतान् केशनखादिरहितशरीरमात्रव्यापकस्य बिचाऽऽशुवृत्तयोगपद्याभिमानः, अन्यत्रापि तथा प्रसक्नेः वादाध्यासितस्याऽऽत्मनः सिद्धिरिति साधूक्तम्-" ठाणमशक्यं हि वक्तुं घटादिरप्येकावयववृत्तिः श्राशुवृत्तेयुग णावममुहमुवगयाणं" इति । सम्म०१ काण्ड १ गाथाटी। पत्सबवयवेषु प्रतीयत इति । अत एव सौगतोऽपि तत्रैक जीवानां नानात्वं व्यवस्थाप्य, भवतु नहि जीवानां नानानिरंशं ज्ञानं कल्पयनिरस्तः, प्रत्यवयवमनेकसुखादिकल्पन, स्वं, किंत्वकैको जीवः सर्वजगद्व्यापकोऽस्त्विति नैयायिकामन्तानान्तरवत् परस्परमसंक्रमात् अनुस्यूतकप्रतीति- दिमनमपाकुर्वन्नाहविलोपः सर्वत्र शरीरे मम सुखम् इति । अथ युगपद्भा- जीवो तणुमेत्तत्थो, जह कुंडो तग्गुणोचलंभाम्रो । विभिरेकशरीरवर्तिभिरनेकनिशिक्षणिकसुख संवेदनैरकपरा अहवाऽणुबलंभाओ, भिन्नम्मि घडे पडस्सेव ॥१५८६।। मविकल्पजननादयमदोषः. असदेतत् । अनेकोपादानस्य तनुमात्रस्थो जीव इति प्रतिक्षा, तत्रैव तदगुणोपलब्धेः, गरामविकल्पस्यैकत्यसंभव चार्वाकाभिमकशरीरव्यप यथा घटः; स्वात्ममात्रे इति शेषः । अहवा' इत्यादि, देशभागनेकपरमाणूगादानानेकविज्ञानभावेऽपि तद्विकल्प अथवा-या यत्र प्रमाणैनोपलभ्यते तस्य तत्राभाव एव, यथा संभवात् । ततो यदुक्तं धर्मकीर्तिना तं प्रति-" अनकप भिन्ने घट पटस्य, नोपलभ्यते च शरीराद् बहिर्जीवः, तरमाणूपादानमनेकं चद्विमानं सम्तानान्तरवदकपरामर्शा स्मात्तस्य तत्राऽभाव पवेति । विशे। भावः" इति, तत्तस्य न सुभाषितं स्यात् । सांप्रतं द्वितीयद्वारगाथा व्याख्यायते तत्र गुणीस्याचद्वायश्च 'सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशस्तदात्मा सावयवः रम् , तद्व्याचिण्यासयाऽऽह भाध्यकार:स्यात् , तथा-पटवत् समानजातीयारब्धत्वाच तद्विनाशवांश्च स्याद्' इति, तदपि न सभ्यः घटादिना व्यभि अहुणा गुणि त्ति दारं, होइ गुणेहिं गुणि त्ति विबेओ । चारात् घटादिहि सावयवोऽपिन तन्तुवत्प्राक्प्रसिद्धसमा ते भोगजोगउवो-गमाइरूवाइ व घडस्स ॥ ५२ ॥ नजातीयकपालसंयोगपूर्वकः, मृत्पिण्डात्प्रथममेय स्वावय- व्याख्या-अधुना गुणीति द्वारं तदत व्याख्यायत-भर्यान बरूपाद्यात्मनः प्रादुर्भावादिति निरूपयिष्यमाणत्याद् अपि गुणैर्हि गुणी, न तद्वयतिरेकण इति एवं विशेयः, अनेन Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) भाता अभिधानराजेन्द्रः। गुणगुणिनोदाऽभेदमाह, ते भोगयोगोपयोगादयो गुणा | (१८) अधुना परिमाणहारमाह ( भाष्यकारः)शांत आदिशदावमूर्तनादिपरिग्रहः, निदर्शनमाह-रूपादय | जीवस्स उ परिमाणं, वित्थरो जाव लोगंमत्तं तु । इव घटस्य गुणा इति गाथार्थः। व्याख्यातं मूलद्वारगाथा भोगाहणा य सुहमा, तस्स पएसा असंखजा ।। ५६ ॥ यां गुणिद्वारम् । व्याख्या जावस्य तु परिमाणं विनतस्य विम्तगतो-विस्तअधुनावगतिद्वाराबसर इत्याह भाष्यकार: रण यावलोकमात्रमव एतच कर्यालसमुदयातचतुथसमय उर्ल्ड गइ त्ति अहुणा, अगुरुलहुत्ता सभाव उगई। भवति तत्रावगाहना च सूक्ष्मा विततकैकप्रदेशरूपा भवति. दिद्वतलाउएणं, एरंडफलाइएहिं च ।। ५३ ॥ तस्य जीवस्य प्रदेशाश्चासंख्येयाः सर्व एव लाकाकाशप्र देशतुल्या इनि गाथार्थः । व्याख्या-ऊर्वगतिरित्यधुना द्वारम्-तदेतद्वयाख्यायते, अनेकेषां जीवानां गणनापरिमाणमाह (भाष्यकारः)भगुरुलघुन्वात्कारणास्वभावतः कर्मविप्रमुक्तः सन्ध्वगतिः पत्थेण व कुलएण व. जह कोड मिणेज सव्वधाई । जीव इति गम्यत, यद्येवं तर्हि कथमधो गच्छति ?. अत्राहरान्तः-अलावुना-तुम्बकेन, यथा तत्स्वभावत ऊर्ध्वगमन एवं मविजमाणा, हवंति लोगा अणंताओ ।। ५७॥ रूपमपि मृोपाजले धो गच्छति तदपगमायमाजला व्याख्या-प्रस्थेन वा-चतुःकुडवमानन कुडवेन वा-चतुःसेम्नादेवमात्मापि कर्मलेपादधो गच्छति तदपगमार्चमा तिकामानेन-यथा कश्चित्प्रमाता मिनुयात् सर्वधान्यानि माकान्तादिति । परराडफलादिभिश्च हन्त इति, अनेन चीवादीनि एवं मीयमाना असद्भावस्थापनया भवन्ति रान्तबाहुल्यं दर्शयति, यथा-चैरगडफलपि बन्धनपरि लाका अनन्तास्तु जीवभृता इनि भावः । श्राह यद्येवं भ्रष्टमूर्व गच्छति, प्रादिशब्दादग्न्यादिपरिग्रह इति गा कथमेकस्मिन्नेव ते लोके माता इति ?, उच्यते-सूक्ष्मापार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायामूर्ध्वगतिद्वारम् । बगाहनया यत्रैकस्तत्रानन्ना व्यवस्थिताः, इह तु प्रत्ये कावगाहनया चिस्यन्त इति न दोषः. दृशं च बादपद्रव्यासाम्प्रतं निमयद्वारब्याचिख्यासयाऽऽह (भाष्यकारः) णामपि प्रदीपप्रभागरमाएवादीनां तथा परिणामनो भू. अमओ य होइ जीवो, कारणविरहा जहेव मागास । यसामकवावस्थानमिति गाथार्थः । व्याख्यानं द्वितीसमयं च हो अनिच्च, मिम्मयघडतंतुमाईयं ।। ५४ ।। यमूलद्वारगाथायां परिमाणद्वारम् । तद्व्याख्यानाच द्विती या मूलद्वारगाथा जीवपदं चति । श०४०। व्याख्या-अमयश्च भवति जीवः, न किम्मयोऽपीयर्थः, (१६) आत्मन एकत्वाऽनेकत्वविचार:कुत इत्याह-कारणविरहात्-अकारणत्वात् , यथैवाकाशम् । एगे पाया । (सूत्र-२) माकाशवदित्यर्थः । समयं च वस्तु भवत्यनित्यम् , एतदेव एकः; न द्वयादिरूपः, आत्मा-जीयः, कश्चिदिति गम्यने, दर्शयनि-मृन्मयघटनमन्वादि, यथा मृन्मयो घटः, तन्तुमयः तत्र अतति-सततमवगच्छति 'अत' सानत्यगमन, इति पट इत्यादि, न पुनरात्मा, नित्य इति दर्शितम् । पाह वचनात् 'अत' धातोर्गत्यर्थत्वाद्त्यर्थानां च ज्ञानार्थवादअस्मिन् द्वारे सति 'अमयो; न तु मृन्मय इव घट' इति मवरतं जानातीति निपातनाद-आत्मा-जीवः , उपयोगप्राकिमर्थमुक्तमिति, उन्यने-अत एव द्वारादनुग्रहार्थमुक्त- लक्षणत्वादस्य सिद्धसंसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावन समिति लक्ष्यत, भवति चासकन्छवणादकृञ्ग परिज्ञान- ततावबोधभावात् , सततावबोधाभावे चाजीवत्यप्रसङ्गात्, मिस्यनुग्रहः, अतिगम्भीरत्वाद्राध्यकागभिप्रायस्य न वा अजीवस्य च सतः पुनर्जीयत्वाभावात् , भाव चाकाशादीनाबयमभिप्राय विद्म इति । अन्य स्वभिदान, अन्यकर्त- मपि तथावप्रसङ्गात्, एवं च जीवाऽनादित्वाभ्युपगमाभावप्रकंवासी गाथेनि गाथार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगा सा इति. अथवा-प्रतति-सततं गच्छति स्वकीयान् शानाथायां निमयद्वारम् । दिपर्यायानिति आत्मा, नन्येवमाकाशादीनामप्यात्मशध्दव्यअधुना साफल्यद्वारावसरः, नथा बाह भाष्यकार: पदेशप्रसाःपामपि स्वपर्यायेषु सततगमनाद् . अन्यथा अपरिणामित्वेनायम्तुत्वप्रसङ्गादिति, नैवम् , व्युत्पत्तिमात्रमाफलदारमहुणा, निच्चाऽनिच्चपरिणामि जीवम्मि । निमित्तत्वादस्य , उपयोगस्यैव च प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , होइ तयं कम्माणं, इहरेगसभावो जुत्तं ॥ ५५ ॥ जीव एवात्मा; नाऽऽकाशादिरिति, यद्वा-संसार्यपेक्षया नाव्याख्या-साफल्यद्वारमधुना-नंदतद्वयाख्यायत.नित्यानित्य नागनिषु सततगमनात् , मुक्कापेक्षया च भूततद्भाववादापव परिणामिनि; जीव इति योगः, भवति तासाफल्यं का स्मेति, तस्य चैकत्वं कथंचिदेव, तथाहि-द्रव्यार्थनयकत्वलान्तर फलप्रदानलक्षणम् . के षामित्याह-कर्मणां-कुशलाऽकु. मेकद्रव्यत्वादात्मनः, प्रदेशार्थनया त्वनेकत्वमसंख्ययप्रदेशाशलानाम् , कालभेदन कर्तृभोक्तृपरिणामभेदे सत्यान्मनस्तदु. स्मकत्वात्तस्येति, तत्र द्रव्यं च तदर्थश्चति द्रव्यार्थस्तस्य भयांपत्तेः कर्मणां कालान्तरफलप्रदानमिनि । इतरथा पुन भावो द्रव्यार्थता प्रदेशगुणपर्यायाधारता अवयवद्रव्यनेति ययेवं नाभ्युपगम्यत तत एकम्वभावत्वतः कारणादयुक्तं त यावत् , तथा प्रकृणे देशः प्रदेशः-निरवयवोंऽशः स चा सावार्थश्चेति प्रदशार्थः तस्य भावः प्रदशार्थता-गुणपर्याकर्मणां साफल्यमिति, एतदुक्तं भवति यदि नित्य आत्मा कतस्वभाव एव कुतोऽस्य भोगः ? भोक्तस्वभावत्वे नाकर्तृ याधाराययवलक्षणार्थतेति यावत् । स्था०१ ठा० । ( नन्वबम . क्षणिकस्य तु कालद्वयाभावादवैतदुभयमनुपपन्नम् । चयवि द्रव्यमेव नास्ति, इत्यादिशङ्काप्रतीकारः 'अवयवि' उभये च सति कालान्तरफलप्रदानन कर्म सफलमिति गा शब्दे प्रथमभागे ७६७ पृष्ठे द्रष्टव्यः । ) धार्थः। द्वितीयमूलद्वारगाथायां व्याख्यातं साफल्यद्वारम् ।। १.लोग 'शम्दै पछे भागे म्यास्या। तत्रैव गोलव्याख्या च । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) अभिधानराजेन्द्रः। आत्मनस्तु सप्रदेशवमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् । निरवयवावे। करूणा इत्यसंकीर्णवस्तुव्यवस्था स्यादिति, अत्रोव्यतु हस्ताद्ययययानामेकत्वप्रसाः प्रत्यवयवं स्पर्शाचनुपल- ते-न ह्यस्माभिः सामान्यविशेषयारेकाम्तेन भेदाभेधिप्रसाश्चति ग्दश आत्मा प्रत्यवयवं चैतन्यलक्षणतद्- दो वाऽभ्युपगम्यते, अपि तु-विशेषा एवं प्रधानीकृतागुणोपलम्भात् , प्रति ग्रीवाद्यवयवमुपलभ्यमानरूपगुणघट- स्तुल्यरूपा उपसर्जनीकृततुल्यरूपाः विषमतया प्रशायमाना बदिति स्थापितमेतद् द्रव्यार्थतयेक आत्मा इति । अथ वा- विशषा व्यपदिश्यन्ते त एव च विशेष उपसर्जन कृताः एक श्रात्मा कथंचिदिति, प्रतिक्षण सम्भवदपगपरकाल- तुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः समतया प्रशायमानाः कृतकुमारतरुणनरनारकत्वादिपर्यायैरुत्पादविनाशयोगेऽपि सामान्यमित्ति व्यपदिश्यन्त इति, प्राह च'द्रव्यार्थतयकत्वादस्य, यद्यपि हि कालकृतपर्यायैरुत्पद्यते "निर्विशेष गृहीताश्च, भेदाः सामान्यमुच्यते । नश्यति च वस्तु तथाऽपि स्वपरपर्यायरूपानम्नधर्मात्म ततो विशेषात्सामान्यं, विशिष्टत्वं न युज्यते॥१॥ कत्वात्तस्य न सर्वथा नाशो युक्त इति, भाह वैषम्यसमभावेन, शायमाना इमे किल । ." न हि सव्यहा पिणासो, अदा पज्जायमित्तनासम्मि । प्रकल्पयन्ति सामान्य-विशेषस्थितिमात्मनि ॥२॥" इति । सरपरपजायागां-उतधम्मगो वाथुगो जुनो ॥१॥" इति । तंदवं सामान्यरूपेणात्मा एको विशेषरूपेण स्वनेकः, न किंच-प्रतिक्षण क्षयिणो भावा इत्यतस्माद्वचनाप्रतिपा म-आत्मनां तुल्यरूपं नास्ति एकात्मम्यतिरकेण शेषात्मनाचस्य यत् क्षणभङ्गविज्ञानमुपजायते तदसंख्यातसमयैरेव मनात्मन्वप्रसकादिति, तुल्यञ्च सरूपमुपयोगः - उपयोगवाक्यार्थग्रहणपरिणामाज्जायते, न तु प्रतिपत्तुः प्रतिसमयं लक्षणो जीव' इति वचनात् तदेवमुपयोगरूपैकलक्षणत्वाविनाश सति, यत एकैकमप्यक्षरं पदमकं संख्यातीतस सर्व एवात्मानः एकरूपाः, एवं च एकलक्षणत्यादेक श्रामयसंभूतं, संख्यातानि चाक्षराणि पदं संख्यातपदं च स्मेति, अथवा-जन्ममरणसुखदुःखादिसंबेदनध्यसहायचावाक्य, तदर्थग्रहणपरिणामाच सर्व क्षणभङ्गरमिति सं देक आत्मेति भावनीयमिति । इह च सर्वसूत्रेषु कथंचिविज्ञानं भवेत् , तम्चायुक्त समय नष्टस्यति. श्राइच दित्यनुम्मरणीयं, कचिद्वादस्याविरोधेन सर्ववस्तुव्यव"कद्द वा सव्वं खणियं. विनायं ?; जइ महसुयाओ ति। स्थानिबन्धनत्वात् , उनं च-" स्याद्वादाय नमस्तस्मै, ये तदमनमयसुन-स्थगहणपरिणामा जुतं ॥१॥ विना सकलाः क्रियाः। लोकद्वितयभाविन्यो, नैव सातत्यन उपइसमयविणासे. जेणेक्केश्वरं पि य पथस्स । मिति ॥१॥" तथा-"नयास्तव स्यात्पदसत्त्वलाञ्छिना, संखाईयसमाइय, संखेज्जाई पयं ताई ॥२॥ रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भषस्यभिप्रेतफला यतस्तसंखज्जपय वक, तदत्थगहणपरिणाम होपजा। तो, भवन्तमार्याः प्रणताः हिनैषिणः॥१॥” इति । स्था०१ सम्वखरणभङ्गनाणं, तदजुन समयनट्ठस्स" ॥३॥ इति । ठा। एक आत्मा काश्चदिति गम्यते, इदं च सर्वसूत्रध्वनथा सर्वथोच्छदे तृप्त्यादया न घटन्ते पूर्वसंस्कारानु नुगमनीयम् , तत्र प्रदेशार्थतया असंख्यातप्रदेशोऽपि जीयो चुनावेव तेषां युज्यमानत्वाद् , आह च-“तिमीसमो द्रव्यर्थतया एकः । अथ वा-प्रतिक्षणं पूर्वस्वभावक्षयाउपरकिलामा, सारिक्खायपक्वपञ्चयाइगि । अझयण झा, स्वरूंगात्पादयोगेनानन्तभेदोऽपि कालत्रयानुगामिचैतन्यभा-घरमा य का सब्बनासमि"॥१॥ इति । (अम्या गा- मात्रापेक्षया एक एव श्रात्मा, अथवा-तिसन्तानं चतथाया व्याख्या )-तत्र तृप्तिः-धाणिः श्रमः-अध्यादिखदः म्यभरना उनन्तत्वेऽप्यात्मनां संग्रहनयाऽश्रितसामान्य रूपाकलमा-लानिः सादृश्य-साधर्म्य विपक्षो-वैधय प्रत्ययः पक्षयैकत्वमात्मन इति । तथा न आत्मा अनास्मा-घटाअवबोधः, शेषपदानि प्रतीनानि इत्यादि बहु वक्तव्यं तनु दिपदार्थः, सोऽपि प्रदेशार्थतया संख्ययाऽसंख्येयानन्तस्थानान्तरादवसंयमिति । तंदवम्-श्रान्मा स्थितिभवन- प्रदेशोऽपि तथाविधैकपरिणामरूपद्रव्याथापेक्षया एक एव, भतरूपः स्थिररूपापेक्षया नि-यो नित्यत्वाच्चैको भवनभन- एवं सन्तानापेक्षयाऽपि तुल्यरूपापक्षया तु अनुपयोगलक्षपापेक्षया स्वनित्योऽनित्यत्वाचानक इति, प्राह च कस्वभावयुक्तत्वात्कचिद्भिन्नस्वरूपाणामपि धर्मास्तिका" जमणंतपज्जयमयं, बत्थु भयगं च चित्तपरिभामं । यादीनामनात्मनामेकत्वमवसयमिनि । स० १ समल्टी। ठिइविभवभंगरूवं, सिच्चारिणच्चाइ तोऽभिमयं ॥२॥ इति ।। ननु बहुभेदत्वमान्मनोऽसिद्धं, तस्य सर्वत्रैकत्वात् , तदुक्तम् " एक एव हि भूतात्मा. भूने भूते प्रतिष्ठितः। "सुहदुक्ख बंधमोक्खा, उभयनयमयाणुवत्तिणो जुत्ता। एकधा बहुधा चेव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ एगयरपारश्चाप, सब्यव्यवहारवाञ्छित्ति ॥२॥" इति । यथा विशुद्धमाकाश, तिमिरापप्लुता जनः । अथ घा-एक आत्मा कथंचिदेवेति, यता जनानां न हि संकीर्णमिव मात्राभि-मिन्नाभिरभिमन्यते ॥२॥ सर्वथा किंचिद्वस्तु एकमनकं चास्ति सामान्यविशेषरूप तथदममलं ब्रह्म. निर्विकल्पमविद्यया। स्याद्वस्तुनः, अथ ब्रूयाद्विशेषरूपमेव वस्तु, सामान्यस्य कलुषत्वमिवाने. भेदरूपं प्रकाशते ॥ ३॥ विशंपन्यो भेदाभेदाभ्यां चिन्त्यमानस्यायोगात् , तथा- ऊर्ध्वमूलमधःशास्त्र-मश्वत्थ प्राहुरव्ययम् । हि-सामान्य विशेषेभ्यो भित्रममिन्नं वा स्यात् ?, न छन्दांसि यस्य पनि, यस्तं वद स बदवित् ॥४॥" भित्रमुपलम्माभावात् मयानुपलभ्यमानमपि सत्तया व्य- तथा 'पुरुष एवेद सर्वं यद् भूत यश्च भाव्यम् . उनावहतुं शक्यं खविणाणस्यापि तथा प्रसङ्गात् । अया- मृतावस्येशानः . यदन्येनातिरोहनि , यदेजांन. यग्नेजति, भित्रमिति पज्ञः, तथा च सामान्यमात्र वा स्या- यद् दूरे, यदन्तिक, यदन्तरस्य सर्वस्य, यत्सर्वस्यास्य बाविशेषमा धति. नवकस्मिन्सामान्यमेकं विशपायने । यतः " इत्यादि। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता इत्येतदेव पूर्वार्द्धनोत्क्षिप्योत्तराद्धेन परिहरन्नाहजर पुण सो एगो चिय, हवेज वोमं व सव्वपिंडेसु । गोयम ! तदेगलिंगं, पिंडेसु तहा न जीवोऽयं ।। १५८१ ॥ परः प्राह-यदि पुनर्दर्शितम्यायेन स भ्रात्मा सर्वेष्वपि नारकनिरामरपडे व्योमदेव भवेतु संसा तरादिभिः तईि कि नाम दूषयं स्याद् एवमुक्ते भगवानाह - गौतम ! तद्वयोम सर्वेष्वपि पिण्डेषु - मूर्तिचि शेषेषु स्थितमे कलिङ्गं वै सदृश्याभावादेकरूपमेव, झंत युक्तं तस्यैकरथम जीववर्ष विद्यार्थत्वेव प्रस्तुतो न तथा कलिङ्गः सर्वत्र दृश्यते प्रतिषिडं तस्य इत्यात् लक्षभदेव लक्ष्यभेदात् इति न तस्यैकत्यमिति । अत्र प्रयोगमाद 9 ( २२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । नाथा जीवा कुंभा-दमो म वि लक्खवाहमेयाश्रो । मुहदुक्थमोक्खाभावो व जो देमचे ।। १५८२॥ नानारूपा भुवि जीवाः परस्परं भेदभाज इत्यर्थः, लक्षखादिभेदादिति हेतुः, कुम्भादय इवेति दृष्टान्तः । यच्च न भिन्नं न तस्य लक्षणंभदः, यथा नभस इति । सुखदुःखवन्धमोक्षाभावश्च यस्मात्तदेकत्वे तस्माद्भिना एव सर्वेऽपि जीवा इति । - कथं पुनस्तेषां प्रतिपिण्डं लक्षणभेदः ? इत्याहजेणोवओोगलिंगो, जीवो मित्रो य सो पहसरीरं । उपभोगो उरिसा-मरिस देख तेऽयंता । १४८३। येन शामदर्शनोपयोगलक्षणोऽसौ जीवः, स चोपयोगः प्रतिशरीरमुत्कर्षापकर्ष भेदादनन्तभेदः, तेन जीवास्तद्भेदादनन्तभेवा पंवति । तदेवं भावितम् 'नाणा जीवा' इत्यादि पूर्वार्द्धम् । इदानीं सुखदुःखेत्याद्युत्तरार्द्ध भावयश्चादएगते सव्वगय-तो य न मोक्खाऽऽदश्रो नभस्सेव । कत्ता भोचा मंता, न य संसारी जहाऽऽगासं ॥१५८४ ॥ एकत्वे जीवानां सुखदुःखबन्धमोक्षाद्द्यां नोपपद्यन्ते, सर्वगतत्वात्, नभस इव, यत्र तु सुखादयो न तत्सर्वगवं यथा देवदत्तः इति किं चन्न कर्त्ता, न भोक्ला, न मन्ता, न संसारी जीव एकत्वात् सर्वजीवानां यच्चेकं न तस्प कर्तृत्वादयः, यथा नभस इति । अपि च एगते नत्थि सुही, बहूवघाउ ति देसनिरुउ व्त्र । बहुतरबद्धचओ, न य को देसमुको व्व ।। १५८५ ॥ इदमत्र हृदयम्-नारकविर्यगादयोऽनन्ता जीवा नानाविधशरीरमायसोपघातसंखिता नामतिनस्तु सुखिनः, एवम् अनन्ता बद्धाः, तदनन्तभागवर्तिनस्तु मुक्का, • तेषां व सर्वेषामेकत्वे न कोऽपि सुखी प्रावि तरोषधातान्वितत्वात् यथा सर्वाङ्गरोगग्रस्त ल्येक देशेन नीरोगो यज्ञदत्तः एवं न कोऽपि मुक्तस्तत्सुखभाक् च न कोऽपि घटने बहुतरवत्वात् यथा सर्वाङ्गकीलितां ५६ जाता ऽङ्गुल्येकदेशमुक्तस्तस्मादेकत्वे सुखाद्यनुपपत्तेर्नानात्वं जीवानामिति स्थितम् । विशे० । तथा च एगे भव० जाव संबुद्धे सावगधम्मं पडिवजिता पडिगते । 'एगे भवं ' ति - एको भवान् इत्येकत्वाभ्युपगमे श्रात्मनः कते भगवता श्रोत्रादिविज्ञानानामपदानां चात्मनोऽनेकश उपलब्ध्या एकत्वं दूषयिष्यामीति बुद्धबा पर्यनुयोगो द्विजेन कृतः, यावच्छब्दात्- दुबे भवंति गृह्यते द्वौ भवान् इति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्यविरोधन द्वित्वं दूषयिष्यामीति - या पर्यनुयोगो विहितः । अत्र भगवान् स्याद्वादपक्षं निविशेषगराविकान्तमयसम्म्यो तर माथिको उप कथं द्रव्यार्थतया जीवद्रव्यस्यैकत्वात् न तु प्रदेशार्थतया ह्यनेकत्वात् ममेत्यवादिनामेकत्वोपलम्भो न बाधकः ज्ञानदर्शनार्थतया कदाचिद् द्वित्वमपि न विकमित्यत - द्वाप्यहं कि बैकस्यापि स्वभावमेदेनानेकधान्यं दृश्यते तथादिएको दि देवदत्तादिपुरुष एकदेव तदा पितृत्यपुत्रस्यभ्रातृम्पत्वमातुलभागिनेयत्वानका स्वभा वान् लभते । ' ता-अक्सर अव्यप निचे अवट्टिए आय सि यथा जीवद्रव्यस्यैकत्वादेकस्तथा प्रदेशार्थतया असं 3 , प्रदेशतामाथित्वाऽचयः सर्वथा प्रदेशानां दयाभावात्, तथा अव्ययः कियतामणि च व्ययत्वाभावात् असंख्येयप्रदेशना हि न कदाचनाप्यपैति, अतो व्यवस्थितस्वास्थिताभ्युपगमेऽपि न कधिदोषः इत्येवं भगवताभिहिते तेनापृष्ठे ऽप्यात्मस्वरूपं तद्बोधार्थ, व्यवच्छिन्नसंशयःसंज्ञानसम्यक्त्वः दुवालसविहं साधगधम्मं पडिया समुचयो सोमिलाइयो' नि० १ ० ३ वर्ग ३० । एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भत्रं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं अगभूयभाव भविए भवं । एवं सूया एगे विहं दुबे व अहं जान अगभूयभावभविए वि अहं से केणऽट्टे भन्ते ! एगे वि श्रहं ० जाव सूया दब्बड्डाए एगे अहं, खाणदंसणट्टयाए दुबे अहं, परमदुयाए अक्ख अहं नए वि अहं उपयोगहुए अयेगभूयभावभविए वि अहं (सूत्र ५५ +) ज्ञाता० ९ श्रु० ५ प्र० । ( अस्य सूत्रखण्डस्य व्याख्या 'पावचा शब्दे बतुवा २४०७ पृष्ठे करिष्यते ) थावच्चापुत्त मुक्कोsपि वाऽभ्येतु भवं भवो वा, मवस्थशून्योऽस्तु मिताऽऽत्मवदि । पजीकार्य त्वमनन्त सदस्य माख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः ॥ २६ ॥ व्याख्या मितारयवादे संख्यातानामात्मनामभ्युपगम, दूषद्वयमुपतिष्ठते तत्क्रमेण दर्शयति-मुक्लोऽपि वा श्रभ्येतु भवमिति मुझे निर्वृतिप्रासः सोऽपि या प बाद उत्तरदोषांपेक्षा समुचयार्थः यथा देवोपादान वेति । भवतु संसारमभ्यगच्छतु इत्येको दासः । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) अभिधानराजेन्द्रः। भाता भवो या भवस्थशूभ्योऽस्तु-भवः-संसारः स वा भवस्थ- बनस्पतिरपि सात्मकः छेदादिभिर्लान्यादिदर्शनात् , पुशून्यः-संसारिभिजीवधिरहितः अस्तु-भवतु इति द्वितीयो रुपावत् । केषांचित् स्थापानोपश्लेषादिविकाराच अदोपप्रसनः । इदमत्रा कूतम्-यदि परिमिता एवाऽऽत्मानो पकर्षतश्चैतम्यावा सर्वेषां सात्मकत्वसिद्धिः, प्राप्तवचनाच। मन्यन्ते तदा तस्वज्ञानाभ्यासप्रकर्षादिक्रमेणापवर्ग गच्छत्सु असेषु च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिषु न केषांचित्सातेषु संभाव्यते खलु म कश्चित्कालो यत्र तेषां सर्वेषां नि- स्मकरवे बिगानमिति । यथा च भगवदुपक्रमे जीवानन्त्ये न तिः, कालस्याऽनादिनिधनत्वाद प्रात्मनां च परिमित्र- दोषस्तथा दिग्मात्रं भाव्यते । भगवन्मते हि पराणां जीवस्वारसंसारस्य रिकता भवन्नी केन यार्यताम् । समुन्नीयते निकायानामेतदपबहुत्वम्-सर्वस्तोकाखसकायिकाः । तेहि प्रतिनियतसलिलपटलपरिपूरिते सरसि वनतपनान- भ्योऽसंख्यातगुणास्तजस्कायिकाः । तेभ्या विशेषाधिका: पनजनोवश्शनादिना कालान्तरे रिक्तता । नचाऽयमर्थः प्रा- पृथ्वीकायिकाः। तेभ्यो विशेषाधिका अप्कायिकाः। तभ्यो माणिकस्य कस्यचिस्पसिद्धः संसारस्य स्वरूपहानिप्र- विशेषाधिका वायुकायिकाः । तेभ्योऽनन्तगुणाः वनस्पतिसात सरस्वरूपं होनद्यत्र कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः संसर- कायिकाः; ते च व्यावहारिकाः, अव्यावहारिकाचति समासाघुः संसरिष्यन्ति अति सर्वेषां च मितत्वे "गोला य असंखिज्जा, असम्बनिग्गोयगालो भणियो। संसारस्य वा रिकत्वं हठादभ्युपगन्तव्यम् । मुक्तर्वा पुन इकिकनिगोयम्मि, अणंतजीवा मुणेयब्बा ॥१॥ भये भागन्तव्यम् । नच क्षीणकर्मणां भवाधिकार:-"दग्धे सिज्झसि जत्तिया खलु,इह संघवहारजीवरासीओ। कीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति माङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, पंति प्रणाइवणस्सा, रासीओ तत्तिया तंमि ॥२॥" गरोहति भवाएरः" ॥१॥ इति वचनात् । प्राह च पत इति वचनात् यावन्तश्च यतो गच्छन्ति मुक्ति जीवास्ताअलि:-" सति मूने तद्विपाको जात्यायु गाः" इति एन वन्तोऽनादिनिगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति न हीका च-"सत्सु क्तशेषु कर्माऽऽशयो विपाकारम्भी भवति सावता तस्य काचित्परिहाणिनिगादजीवाऽनन्त्यस्याऽक्षनोन्छिचक्लेशमूलः । यथा तुषावनद्धाः शालितण्डुला - यत्वात् । निगोदस्वरूपं च समयसागरायगन्तव्यम् , दग्धबीजभायाः प्ररोहणसमर्था भवन्ति , नापनीततुषा अनाद्यनन्तेऽपिकाले ये केचिनिर्वता निर्वान्ति निर्यास्यदग्धवीजभावा वा। तथा कलशावनद्धः कर्माशयो विपाक- न्ति च ते निगोदानामनन्तभागेऽपिन वर्तन्ते, नाऽवनिप्ररोही भवनि; नापनीतक्लेशा-न दग्धवीजभायो वा इति । षत, न वयन्ति । ततश्च कथं मुक्तानां भगमनप्रसङ्गः? सच विणाकत्रिविधो जातिरायुभोंगः" इति । अक्षपादो- कथं च संसारस्य रिकताप्रसक्किरिति अभिप्रेतं चैवतन्यउज्याह-"न प्रवृत्तिः प्रतिसंधानाय हीनक्लेशस्य" इति, एवं शूथ्यानामपि । यथाचोक्नं वार्तिककारेणविभासानिशिवराजर्षिमतानुमारिणा दूषयित्वा उत्तरार्दैन "अत एव च विद्वत्सु, मुच्यमानेषु सन्ततम् । भगवदुषक्षमपरिमितात्मयादं निर्दोषतया स्तौति-पड्जीवे' ब्रह्माण्डलोकजीवाना-मनन्तस्वादशून्यता ॥१॥ स्यादि त्वं तु हे नाथ! अनन्तसंख्यम्-अनन्ताख्यसंख्या अन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वै-युज्यते परिमाणवत् । विशेषयुक्त षड़जीवकायम् , अजीवन् . जीवन्ति, जी वस्तुन्यपरिमेये तु, नूनं तेषामसंभवः " ॥२॥ विष्यन्ति चेति जीयाः-इन्द्रियादिक्षानादिन्द्रव्यभावप्राण इतिकाव्यार्थः। स्या0। आव० धारणयुक्तास्तेषाम् "संघऽ(वा)नूर्व" ॥ ५॥३॥८०॥ इति "एको निस्यस्तथा बद्धः, क्षम्यसत्त्वेह सर्वथा। चिनोतेपनि आदेश्व कत्व कायः-समूहो जीवकायः पृथि आत्मेति निश्चयाद् भूयो, भवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥४॥ ज्यादिः । षरणां जीवकायानां समाहारः षड्जीवकायम् । तस्यागायोपशान्तस्य, सद्वत्तस्यापि भावतः। पात्रादिदर्शनानपुंसकत्वम् , प्रथया-पराणां जीवानां कायः वैराग्यं तद्नं यत्त-म्मोहगर्भमुदाहतम् ॥५॥ प्रत्येकं सहातः षड्जीवकायः, तं षड्जीवकायं पृथिव्य- भूयांसो नामिनो बद्धा, बाह्ये नच्छादिना हामी। सजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणषट्जीवनिकायं तथा तेन प्र- प्रात्मानस्तद्वशात्कष्ट, भवे तिष्ठन्ति दारुणे ॥६॥ कारण भास्था-मर्यादया प्ररूपितवान् , यथा-येन प्रकारेण एवं विज्ञाय तत्याग-विधि त्यागं च सर्वथा। न दोषो-न दूषणमिति, जात्यपेक्षमेकवचनम् । प्रागु- बैगग्यमाहुः सज्ञान-संगतं तत्त्वदर्शिनः ॥७॥" क्रदोषद्वयजातीया अन्येऽपि दोषा यथा न प्रादुष्यन्ति अन. ३ अधि०। (आत्मन एकत्वाऽनेकत्व-सर्वगतत्वमथा स्वं जीवाऽनन्त्यमुपदिश्यानित्यर्थः। 'आख्यः' इति- सक्रियत्य-निस्क्रियत्वयकव्यता 'परलोग' शम्भे पञ्चमे आशूर्वस्य ख्यातरङि सिद्धिः । त्वमित्येकवचनं चेदं शा- भागे च वक्ष्यते) पति यज्जगद्गुरोरेबैकस्यहकपरूपणमामध्ये न तीथी- (२०) अथवा मनामनविशेषमपहाय सामान्यनामनः तरशास्तगामिति । पृथिव्यादीनां पुनर्जीवत्वमित्थं सा- सक्रियत्य साधयन्नाहधनीयम् यथा साऽस्मिका विद्रमशिलादिरूपा पृथिवी; छद कताइत्तणो वा, सकिरिश्रो यं ममो कुलालो व्व । समानधातूत्थानावर्भाडरवत् । भौममम्भाऽपि सात्मक देहष्कंदणओ वा, पञ्चक्खं जंतपुरिसो व्य ॥१८४८॥ क्षनभूमजातीयस्य स्वभावस्य संभयात् : शालूरवत् । श्रामरिक्षमपि सात्मकम् : अभ्रादियिकारे स्वतः संभूय पा विश० । (व्याख्या 'बंधमोक्खासद्धि शम्दे ५भागे वयते) तात् , मत्स्यादिवत् । तेजोऽपि सास्मकम्-श्राहारोपादा २१) आत्मनो शानस्वरूपत्वम्मेन वृद्धयादिविकारोपजम्भात् पुरुषानयत् । वायुरपि सा __अणुसंवेदणमप्पाणेणं जं हंतव्वं ति णाभि पत्थए । ऽऽत्मकः अपरग्रेरितत्वेऽपि तिर्यग्गतिमत्वात् , गोवत् ।। (सूत्र-१६४४) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) भाता अभिधानराजेन्द्रः। संवेदनम्-अनुभवनम् अनु पश्चात् संवेदनं केनात्मना य- ख्यातः । इत्यधिकारपरिसमाप्ती. ब्रामीति पूर्ववत् । प्राचा परेषां माहोदयाखननादिना दुःखोरपावनं विधीयते तस्प- १ श्रु०५१.५ उ०। चादात्मना संवेद्यमिन्याकलय्य यत्किमपि हन्तव्यमिति आन्मना बानस्वरूपवर्माभधातुमान्मन एव स्वरूपानचिकीर्षितं तत्राभिप्रार्थयेत्-नाऽभिलषेत् । रुपणायाहमनु चाऽऽत्मना अनुसंवेद्यमित्युक्तं संवदनं च साताऽसा- पाया भंते ! गाणे, अण्णाणे, गोयमा! माया सिय तरूप. तश्च यथा नयायिकवैशेषिकाणामात्मनो भिलेन गुण- णाणे, सिय प्रमाण । खाणे पुण णियमं पाया। भूसेनैकार्थसमवायिना शानन भवति तथा भवनामप्याहो 'माया भते ! खाणे' इत्यादि. भाग्मा हाने योऽयमागमा3स्विद् भिन्ननात्मन इत्यस्य प्रतिषचनमाह सौ ज्ञानं न नयाभेदः प्रथात्मनाऽन्यवानमिति प्रश्नः । जे आया, से विएणाया, जे विएणाया, से आया, जेण उत्तरस्तु-मात्मा स्यात् ज्ञानं सम्यक्ष सनि मत्याविज्ञानविजाणति से पाया, तं पडुच्च पडिसंखाए । एस मा- स्वभावत्वात्तस्य, स्यादज्ञानं मिश्यान्वं सति तस्य मन्ययावादी समियाए परियाए वियाहिए ति बेमि । (सूत्र शानादिखभावन्यात् , ज्ञानं पुनर्नियमादाम्मा मारमधर्म स्वात्मानस्य । न च सर्वथा धर्मों धम्मिमा भियते, स१६५४) बंथा भेदे हि विप्रकृष्टगुणिना गुणमात्रोपलब्धी प्रतिनियतय श्रात्मा निस्य उपयोगलक्षणः विज्ञाताप्यसावेव, न तु गुणिविषय एव संशया न स्यात् , तदन्येभ्योऽपि तस्य पुनस्तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञान पदार्थसंवेदक, यश्च विधाता भवाविशेषाद् . दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखापदार्थानां परिच्छेदक उपयोग प्रात्माप्यसावेव, उपयोग विसररन्ध्रोवरान्तग्तः किमपि शुक्ल पश्यति तदा किमिय लक्षणत्वात् जीवस्योपयोगस्य च ज्ञानात्मकत्वादिति शा पताका किमियं बलाका ? इत्येचं प्रतिनियनगुणिविषयोऽसौ नात्मनारभेदाभिधानाद् बौद्धाभिमतं ज्ञानमेवैकं स्यादिति नापि धम्मिणो धर्मः सर्वथैवाभिन्नः सर्वथैवाभेदे हि संवेत् , तन्न भेदाभावोत्र केवलं चिकीर्षितो नैक्यम् एतदेवैक्य शयानुत्पसिरव, गुणग्रहणन एव गुणिनोऽपि गृहीतस्वादनः या भेदाभाव इति चेत्, वार्तमतत् , तथा हि-परशुक्ल कर्थाश्चदभेदपक्षमाश्रित्य ज्ञानं पुनर्नियमादात्मेत्युच्यत इति, स्वयोमैदनावस्थानाभावेऽपि नैकत्वापपत्तिः, अत्रापि शु इह चात्मा शानं व्यभिचरति, ज्ञानं त्वात्मानं न व्यभिक्लयतिरे कण नापरः पटः कश्चिदध्यस्तीति चेदशि चरति, खदिरवनम्पातपदिति सूत्रगर्भार्थः इति । क्षितस्यालापो यतः शुक्लगणविनाशे सर्वथा पटाभावा अमुमेवार्थ दण्डके निरूपयन्नाहपत्तिः स्यात् , तदात्मना विनष्ट एवति चत् , भवतु का नो पाया भंते ! णेरइयाणं णाणे, भएणे णेरइयाणं हानिः?. अनन्तधात्मकत्वाद्वस्तुनोऽपरमृद्वाविधर्मसद्भाव तद्धर्मविनाशऽप्यविनष्ट पंवत्यवमात्मनोऽपि प्रत्युत्पन्ना खाणे ?, गोयमा! आया णेरइयाणं सिय खाणे, सिय नात्मकतया विनाशेऽप्यपगमूर्तत्वासंख्ययप्रदशता अगु-। अण्णाणे, गाणे पुण ते णियमं आया एवं जाव रुलध्वादिधर्मसद्भावाविनाश एवेत्यलं प्रसंगन । ननु च थणियकुमाराणं। य श्रात्मा स विधातेत्यत्र तृजन्तेन कर्नुरभिधानादात्मनश्च 'आये' त्यादि, नारकाणाम् 'पान्माऽऽन्मस्वरूपं ज्ञानम् ?' कर्तृत्वात्ततश्च य एवात्मा स एव विज्ञातेत्यत्र विप्रतिप उतान्यज्ञारकाणांशानं?, तभ्यो व्यतिरिक्तमित्यर्थः इति प्रश्नः, स्थभावो, येन चासो जानाति तदिन्नमपि स्यात् , तथा उत्तरन्तु-श्रात्मा नारकाणां स्यात् शानं सम्यग्दर्शनभावात् , हि-तस्करणं क्रिया वा भवेत् यदि करणं तदात्रादिवद्भिनं स्यावशानं मिथ्यादर्शनभावात् , बानं पुनः ‘सेति' तन्नास्यात् , अथ क्रिया सा यथा कर्तृस्था संभवत्येवं कर्म रकसम्बन्धि श्राम्मा न तद्वपतिरिक्तमित्यर्थः।। स्थापीति एवं भेदसंभवे कुत ऐक्यमिति यश्चादयेत्तं प्रति माया भंते ! पुढवीकाइयाणं अण्णाणे अमे पुढवीस्पष्टतरमाह-जेण' इत्यादि, येन मत्यादिना शानन करणभूतन या क्रियारूपेण वा विविध सामान्यविशषाकार काइयाणं अण्णाणे ?, गोयमा! आया पुढवीकाइयाणं तया वस्तु जानाति-विजानाति स पात्मा न तस्मादात्मना णियमं श्रमाणे, प्रमाणे वि णियमं आया, एवं जाव भि शान, तथा हि-न करणतया भेदः, एकस्यापि क- वणस्सइकाइयाणं, बइंदियतेइंदिय जाच वेमाणियाणं, तकर्मकरणभेदेनोपलब्धेः, नद्यथा-देवदत्त आत्मानमात्मना जहा परइयाणं । परिच्छिनसि, क्रियापक्षे पाक्षिको ह्यभेदो भवनाप्यभ्युपगत एत्र, अपि च-भूतियेषां क्रिया सैव कारकं सैव चाच्यते' ‘ाया भंते ! पुढवीकाइयाणमि' त्यादि, पारमा आत्मइत्यादिनैकत्वमेवेति । ज्ञानात्मनोश्चकत्त्वे यद्भवति तदर्शयि स्वरूपमझानमा उतान्यत्तत्तेषाम् उत्तरन्तु-आत्मा तेषामतुमाह-'त' इत्यादि.तं शानपरिणाम प्रतीत्य-श्राश्रित्यात्मा ज्ञानरूपी नान्यत्तत्तेभ्य इति भावार्थः । तनैव प्रतिसंख्यायते-व्यपदिश्यते. तद्यथा-इन्द्रोपयुक्त पाया भंते ! दंसणे असे दंसणे, गोयमा ! पाया इन्द्र इत्यादि. यदि वा-मतिशानी श्रुतमानी यावत् णियम दसणे दंसणे वि शियम पाया । प्राया भंते ! केवलशानीति यश्च शानान्मनारकस्यमभ्युपगमछति स किं गुणः स्यादिति श्राह- एस ' इत्यादि. एष: णरयाणं दंसणे अमे मेरइयाणं दंसणे १ गोयमा ! अनन्तरोनया नीत्या यथावस्थितात्मवादी स्यानस्य च पाया गेरइयाणं णियमा दंमणे दंसणे वि से नियम पाया सम्यम्भावन शमित्तया या पर्यायः संयमानुष्ठानरूपी व्या- एवं जाव वेमाणियाणं निरंतरं दंडो । (सूत्र-४६८) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) अभिधानराजेन्द्रः। माता एवं दर्शनसूत्राएपपि, नवरं सम्यग्रधिमिध्यारयोर्दर्शन- दाचिदन्यथेति समवहताऽसमवइतनेति, 'एव' मित्यादि, स्याविशित्वादात्मा दर्शन-दर्शनमप्यात्मैवेति बाध्य, यत्र | 'एव' मिति यथाऽधोलोकः समवहतासमवहतप्रकाराभ्याहि धम्म विपर्ययो नाऽस्ति तत्र नियम एवोपनीयते, न मवधेविषयतयोल एवं तिर्यग्लोकादयोऽपीति, सुगमानि व्यभिचारो यथहैव दर्शने, यत्र तु विपर्ययोऽस्ति तत्र व्य- च तिर्यग्लोकार्द्धलोककेवलकरणसूत्राणि, नवरं केवल:भिचारो नियमश्च यथा ज्ञाने, श्रात्मा ज्ञानरूपोऽवानरूप परिपूर्णः स चासो स्वकार्यसामर्थ्यात् कल्पश्च केवलक्षाचेति व्यभिचारः, शानं त्वात्मैवेति नियम इति । भ० १२ नमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा-कबलकल्पः श०१० उ०। समयभाषया परिपूर्णस्तं लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमिनि । प्रात्मनः स्वपर्यायेभ्यः कश्चिदव्यतिरिक्तन्वम् वैक्रियसमुद्घानानन्तरं वैक्रियं शरीरं भवतीति वैक्रिय शरीरमाश्रित्याधालाकादिशान प्रकारद्वयमाह--' दाही' जीवो अणाइणिहणो, जीवत्तिय णियमोणवत्तव्यो। त्यादि सूत्रचतुष्टयं कराव्यम् , नवरं 'विउविपणं' ति जं पुरिसाऽऽउयजीवो, देवाऽऽउयजीवियविमिट्ठो॥४२॥ कृतवैक्रियशरीरेणति ।। व्यतिरेकादात्मनो या कवलशानाव्यतिरेकात् । कथंचिदे सानाधिकार एवेदमपरमाहकत्वं तयोरित्याह दोहिं ठाणेहिं पाया, सद्दाई सुणेइ, तं जहा-देसेस वि संखेजमसंखेजं, अणंतकप्पं च केवलं णाणं । आया सद्दाई सुणेइ, सब्वेण वि आया, सहाई सुणेइ१। तह रागदोसमोहा, अमऽवि य जीवपजाया ॥४३॥ एवं रूबाई पासइ, गंधाइं अग्घाति ३, रसाई आसाएइ ४, सम्म० २ काण्ड० । (अनयोर्गाथयोाच्या 'केवखणाण' फामाई पडिसंवेएइ ५। शम्ने तृतीयभाग ६४५ पृष्ठ वक्ष्यते) 'दोही' स्यादि, पञ्चसूत्री, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रकाराभ्याम् प्रात्मकर्मपारन्योन्यानुगतत्वम् 'देसेख बि'त्ति-देशन च शृणोत्यकेन श्रोगकात्रोपघाते सति सबैख वानुपहतश्रांत्रन्द्रियो यो वा संभिन्नश्रांतोऽभि('लय' शब्द चतुर्थभागे "अरागोराणाणुगयाणं०" (१७) | धानलब्धियुक्तः स सर्वैरिन्द्रियैः शृणोतीति सर्वेषति व्यपइत्यादि प्रथमकाण्डगाथाभिः दर्शयिष्यामि) भाग्मना श्रा- दिश्यते, एवमिति यथा शब्दान् देशसर्वाभ्याम् एवं रूपामानं ज्ञात्वा । ए० १३ अप० । ( प्रान्मज्ञानस्यैव सम्य- दीनपि नवरं जिहादेशस्य प्रसुप्त्यादिनोपघाताद्देशेनास्वाकत्वम् , आत्मज्ञानस्यैव शानदर्शनचारित्रत्वमिति 'मुणि' दयतीत्यवसेयमिति । शब्दश्रवणादयो जीवपरिणामा उक्काः। शब्द षष्ठ भाग दर्शयिष्यते) तत्प्रस्तावात् तत्परिणामान्तगण्याह(२२) आत्मना ज्ञानदर्शनश्रवणादिप्रकार: दोहि ठाणेहि माया श्रोभासइ, तं जहा-देसेण विमादोहि ठाणेहिं आया अधोलोग जाणइ पासइ, तं जहा- या प्रोभासइ, सब्वेण वि पाया प्रोभासद १ । एवं समोहएणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जागइ पासइ, पभासह २, विउब्बइ ३, परियावेइ ४, भासं भासइ ५, असमोहएणं चेष अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाणइ पा- आहारेइ ६, परिणामेइ ७, वेएइ, ८, निजरेइ ह । (सूत्रसइ, आघोहिममोहतासमोहएणं चेव अप्पाणेणं पाया| ८०x) अहोलोगं जाणइ पासइ १, एवं तिरियलोगं २, उ लोगं ३, 'दोही' त्यादि, नव सूत्राखि सुगमानि, नवरं, अवभासतेकेवलकप्पं लोगं ४, दोहि ठाणेहिं पाया अहोलोग जा- द्योतते, देशेन-खद्योतकवत्, सर्वतः-प्रदीपवत् , अथ वाणइ पासइ, तं जहा-विउम्बिएण चेव अप्पाणेणं पाया प्रयभासत-जानाति, १, स च देशतः फडकावधिज्ञानी, सर्वतः-अभ्यन्तरावधिरिति, एवमिति-देशसर्वाभ्यां-प्रभाअहेलोगं जाणइ पासइ अविउधिएणं चेव अप्पाणेणं सते प्रकर्षेण द्योतते २, विकरोति देशेन-दस्तादिवैक्रिय आया अहोलोग जाणइ पासइ, आहोहिविउब्धियाऽवि- करणन, सर्वेण सर्वस्यैव कायस्येति ३, 'परियारे' इतिउबिएम चेव अप्पाणणं आया अहोलोग जाणइ पा- मैथुन सेवते, देशन-मनोयोगादीनामन्यतमेन, सर्वेण-योगसइ १, एवं तिरियलागं २, उड़लोगं ३, केवलकप्पं प्रयणागि ४, भाषां भापते दशन-जिहाग्रादिना, सञण समस्तताल्वादिस्थामैः ५, आहारयति, देशेन मुखमात्रण, लोगं ४, सर्वेण-बोजाहारापेक्षया ६ आहारमेव परिशमयति पदोही ' त्यादि सूत्रचतुष्टयं. द्वाभ्यां स्थानाभ्यां-प्रका- रिगाम नयति-खलरसविभागेनेति भक्कायदेशस्य प्लीहाराभ्यामात्मगताभ्यामात्मा-जीवोऽधोलोकं जानात्यवधि- दिना रुद्धत्वात् । दशतः, अन्यथा तु सर्वतः ७ वेदयनिमानन पश्यत्ययधिदर्शनेन 'समवहन' चैक्रियसमुद्घान- अनुभवति, देशन-हस्तादिना अवयवेन, सर्वेण सर्वागतेनात्ममा-स्वभावन, समुदघातान्तरगतन. वा, अस- वयवैराहारसत्कान्-परिणमितपुद्गलान् इनिएपरिणामचाहतेन त्वन्यथेति, पनदेव व्याख्याति-'आहाही' स्यादि मतः८, निज्जरयति-त्यजति पाहारिताम्-परिणामितान् बयत्प्रकारोऽवधिरस्येति यथावधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृत- दितान् आहारपुद्लान् देशेन अपानादिना, सर्वेण सर्वशरीवात् , परमावधेऽयोवीवधिर्यस्य सोऽधोऽवधिरात्मा | रणव प्रस्वददिति । अथ वा-पतानि चतुर्दशापि सूत्रानियत क्षेत्रविषयावधिशानी स कदाचित् समवतन क- णि विवक्षितविषयवस्त्वपक्षया नयानि, तत्र देशसर्वयो Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५) भाभिधानराजेन्द्रः। जना यथा देशेनापीति देशनोऽणि शृणोति विवक्षितशदा- एवं अट्टविहं चिन, जीवेण प्रणासहगयं कम्मं । मां मध्ये कांश्चिमकणोनीति सब्यणापीति सर्वतश्च साम- जह कणगपाहाणे, प्रणाइसंजोगनिष्फळ ॥२०॥ सत्येन। सर्वानवेत्यर्थः, एवं रूपादीनपि, तथा सिक्षितस्य जीवस्स य कम्मरस य, अणाइम चबहाद संजोगो। देशं सय वा विवक्षितमवभासयन्येवं प्रभासयति एवं धि- सो वि उवापण पुढो. कीरहन बलाउ जह कणगं ॥२१॥ कुर्वणीय विकुरुते परिच रणीयं स्नीसरीरादि परिचा- जह पुब्वयरं कम्म, जीवो वा जा हविज वा वांकाई। रयति भाषषीयांपक्षया देशतो भाषां भाषते सर्वनां वेति सो पत्तव्यो कुकडि अंडाणं भणसु को पढमो ॥ २२ ॥ अभ्यवहार्यमाहारयति, पाहतं परिणमयति, यचं कर्म जह अंडसंभवा कुक्कुडि, तिअंडं च कुक्कुडी उ भयं । बेदयति दशनः सव्वतो वा, एवं निर्जरयत्यपि । स्था० २ म य पुब्बाऽबरभावो, जह तहकम्माण जीवाणं ॥२३॥ डा०२ उ01 अणुमाणपहे सि. छउमन्थाणं जिणाण पथक् । (२३) प्रात्मनिरूपणम् । तथा च पूर्वाचार्यकृतगाथा:- गिराहस गणहर! जीवं, प्रणायमक्खयसहवं ॥२४॥ "जीयो प्रणाइनिहणो. अविणासी अक्खा धुवा निछ । करथ य जीयो लिम्रो, कत्थ य कम्मा हुँति बलिया । दव्यट्टयाए णियो, परियायगुणेहि य अणियो॥१॥ जीवस्म य कम्मस्स य, पुब्बानबद्धा बरा॥२५॥" जह पंजराउ सउणी, घडाउ बयराणि कंचुभा पुरिसो। ग.२ अधिक। एवं न चघ भिरखो, जीवो देहाउ संसारी ॥२॥ (२४) भात्मतत्त्वनिरूपणं बौखादिसम्मतात्मत्यनिराकरणन जह खीरोदगतिलातल्ल-कुसुमगंधाण दीसहन भी। प्रदर्शितम्तह चेव न जीवस्स वि. वहादचंनिश्री भो ॥ ३॥ बौद्धास्तु-बुडिक्षणपरंपरामात्रमेवात्मानमाम्नासिसंकोअविकोपहिय, जहक देहलोयमित्तो था। पुःन पुनीक्लिककरणनिकरनिरन्तगनुस्यकत्रवत्तदन्धहन्थिस्स व कुंथुस्सव, पपससंखा समा चेव ॥४॥ यिनमेकम् । ते मोकायतलुगटाकभ्योऽपि पापीयांसा, कालो जहा अगाई, अविणासी होई तिसु वि कालसु । तद्भावेऽपि तेषां स्मरणप्रत्यभिज्ञानाचघटनात्। तथा तह जीया वि अणाई, अविणासी तिसु वि कालेसु ॥५॥ हि-पूर्वबुदयानुभूतेऽथे नोत्तरबुद्धीनां स्मृतिः सम्भवगयणं जहा अरूबी, अवगाहगुणेण घिप्पाई तं तु । ति, ततोऽन्यत्वात् , सम्तानान्तरबुद्धिवत् । न वन्यरो. जीयो तहा मरूपी, विराणाणगुणण घत्तवो ॥६॥ ऽथोऽम्यन स्मयंत. अन्यथकन स्टोऽर्थः सर्वैः स्मयेत । जह पुत्वी प्रविणट्ठा, आहारा होइ सम्बव्वाणं । स्मरणाभावे च कौतस्कुनी प्रत्यभिज्ञाप्रसूतिः, तस्याः तब महारो जीवो, नाणाईणं गुणगणाणं ॥७॥ स्मरणानुभवामयसम्भवत्वात् । पदार्थप्रक्षणमबुद्धमाकनभक्खयमणंतमउलं, जह गयणं हाइ तिसु वि कालेसु । संस्कारस्य हि प्रमातुः स एवामिन्याकारणेयमुपचते। तह जीयो अविणामी, अट्टिा तिसु वि कालेसु॥८॥ अथ स्यादयं दोषो यद्यविशेषणान्यदृष्टमन्यः स्मरतीत्युच्यत जह कणगानो कीरं-ति पज्जवा मउलकुंडलाईया। किं त्वन्यत्वेऽपि कार्यकारणभाषादव स्मृतिः, भिमसम्तादव्यं कणगं तं चिय, नाम विसेसो इमो अनोen मबुद्धीनां तु कार्यकारणभावो नाऽस्ति, तन सम्तानान्तराणां एवं चउग्गईए, परिष्भमंतस्स जीवकणगस्स। स्मृनिन भवति। न चैकमान्तानिकीनामपि बुद्धीनां कार्यनामाई बहुबिहाई. जीवदब्वं तय चय ॥१०॥ कारणभावो नास्ति, येन पूर्वबुद्धधनुभूने ऽर्थे तदुत्तरबुडीनां जब कम्मयगे कम्म, करोड भुजेइ सो फलं तस्स। स्मृतिनं स्यात् । तद्ध्यनवदातम् , एवमपि नानास्यस्य सहजीवो वि अकम्म, करद भुंजा तस्स फलं ॥११॥ तदवस्थत्वात् । अन्यत्वं हि स्मृत्यसंभवे साधनमुक्तम् , उज्जावेउं दिवसं, जह सूरो चश्चई पुणो अत्थं । तप कार्यकारणभावाभिधानऽपि नाउपगतम्, न हि भय दीसह सो सरो, अनं खित्तं पयासंतो॥१२॥ कार्यकारणभावाभिधान तस्यासिनत्यादीनामन्यतमो दोषः जह सूरो तह जीवो. भवंतरं यश्चए पुराणो अन्नं । प्रतिपयंत । नाऽपि स्वपक्षसिद्धिरनन क्रियते, न हि कातत्थ वि सरीरमनं, खतं व ग्वी पयासेई ॥ १३ ॥ र्यकारणभावात् स्मृतिरित्याभयप्रसिजोऽस्ति रटान्तः । फुल्लुप्पलकमलाप, संदणअगरण सुरहिगंधीणं । अथ " यस्मिन्नेव हि सन्ताने, आहिना कर्मवासना । फलं घिप्पा नासाइगुणो, न य हवं दीसए तमि॥१४॥ तत्रैव संधत्ते, कपासे रक्तता यथा ॥१॥" इति कर्पासरपर्व नाणगुपेणं, विघा जीयो वि बुद्धिमंतहि। तारान्तोऽस्तीति चेत् । तदसाधीयः, साधनदूषका:जह गंधो तह जीवा, नहु सक्खा कीरए मिनुं ॥१५॥ संभवात् । अन्वयाचसंभवात् न साधन-न हि कार्यकारभंभामउद्दमहल-पणवमकुंदाण संखसन्नाणं । गाभायो यत्र तत्र स्मृतिः कर्णसे रक्तावदित्यन्वयः संरुदु श्चिय सुबह, के-लु त्ति म हुदीसई रुवं ॥ १६ ॥ भवति, नाऽपि यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभाव इति पाचवं गहगाहो, दीसह पुरिसा न दीसह पिसाओ। व्यतिरेकोऽस्ति । असिद्धत्वाद्यनुभावनाच न दूषणम् । न भागारेहि मुणिजह, एवं जीवो वि देहठिी ॥ १७ ॥ हि ततोऽन्यत्वादिस्यस्य हेतोः कसे रक्तावदित्यनन हमहविरूमा सइ, नच्चा गाएइ रुया सुहदुक्खं । कश्चिद्दोषः प्रतिपाद्यते । किं च-यद्यन्यन्वेऽपि कार्यकारणआवो देहमहगो , विविहपयारं पयंसह॥१८॥ भावेन स्मृतरुत्पत्तिरिष्यते, तदा शिष्याचार्यादिबुद्धीमाजह पाहारो भुनो, जिप्राण परिणम सत्तभपहि। मपि कार्यकारणभावसद्भावेन रमत्यादि स्यात् । अथ ना. बस एसोगिणय २ मंस ३ऽट्टिन ४-मजा ५ तह मेय ६ ।। ऽयं प्रसाः, एकसन्तानत्वं सतीति विशषणादिति चत्, मुकर्डि ॥१६॥ तदयुतम् , भेदाभेदपक्षाभ्यां नस्यांपक्षीगान्धात् । चपरं. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता परातस्तस्याऽभेदे हि क्षणपरंपरैव सा तथा च सन्तान इति न किंचिदतिरिक्तमुक्रम् भेद तु पारमार्थिको पारमार्थिको चाऽसौ स्यात् । अपारमार्थिकत्वं स्वस्य तदेव दूषणम्। पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात्, क्षणिको वा । क्षणिकत्वे सन्तानिनिर्विशेष एवायमिति किमनेन स्तनभीतस्य स्तेनास्तरीकरणकारिया है। "स्थिरम सम्मानमभ्युषेणः प्रथयन्तं परमार्थसत्स्वरूपम् । अमृतं तवानयोक्त्या स्थिरवपुषः परलोकन प्रसिद्धेः ॥ १ ॥ उपादानोपादेयभावप्रवन्धेन प्रवर्तमान कार्यकारणभाव एव सन्तान इति चेत् । तदवद्यम् अवियम्भावादसंबन्धविशेषाभावे कारणत्वमात्राऽविशेषादुपादानेतरविभागानुपपत्तेः सम्मानजनक बनुपादानमिति सत् । न इतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गात् सम्मानजनकत्वेनोपादानकारणत्वम्, उपादानका रजन्यत्वेन च सन्तानत्वमिति । वोके तु समानजातीयानां कार्यकारणभावे सन्तानभ्यवहारः तद्यथा ब्राह्ममन्तान इति तत्प्रसिद्धधा चास्माभिरपि शब्द प्रदीपादिषु सन्तानव्यवहारः क्रियते । तवापि यद्येवमभिप्रेतः सन्तानस्तदा कथं न शिष्याचार्यबुद्धीनामेकसन्तानत्वम् ? । नह्यासां समानजातीयत्वं कार्यकारणभावो वा नाऽस्ति ततः शिष्यस्य विरव्यवहिता अपि बुद्धयः पारं पस कारणमिति तदनुभूतेऽप्यर्थे यथा स्मृतिर्भवति पायो जन्ममृत्युत्पन्ना पारंप का समिति गनुभूत्किंच-धूमशब्दा दीनामुपादानकारणं विनैवोत्पत्तिस्तव स्वात् नहि पाय समानजातीयं कारणमस्तीति शक्यते वक्तुम् तथा च ज्ञानस्यापि गर्भादावनु पादने वात्पतिः स्वादिति परलोकाभावः अथ धूमशब्दादीनां विजातीयमप्युपादानमिष्यते एवं तर्हि ज्ञानस्याप्युपादाने शरीर मेवास्तु न जन्मान्तरशानं कल्पनीयम्, यथा दर्शनं ह्य, पादानमिष्टम्, अन्यथा धूमशब्दादीनामप्यनादिः सन्नानः कल्पनीयः स्यादिति सन्तानघटनात् न परं स्मृत्यादिव्यवस्था नापि परलोकः कोऽपि प्रसिद्धिपद्धति दधाति परलोकिनः कस्यचिदसंभवात् । सत्यपि या परलोके कथमकृताभ्यागमकृते येन हि ज्ञान चैत्यन्दनादिकर्मकृतम् तस्य विनाशात्र तत्फ भीगो यस्य च फलोपभोगस्तेन न तत्कर्म कृतमिति । अथ नाऽयं दोषः कार्यकारणभावस्य नियामकत्वात्, अनादिप्रबन्धप्रवृत्तो हि ज्ञानानां हेतुफलभावप्रवाहः । स च सन्तान इत्युच्यते तशात् पारसंग नियम भ्युपगम्यमानो यदि सुखादिजन्मना विकृतिमनुभवति । तदयमनित्य एव धर्मायुक्तः स्यात् निर्विकार तु सताऽसता वा सुखदुःखादिना कर्मफलन कस्तस्य विशेष ? इति कर्मवैफल्यमैच । तदुक्तम्-" वर्षाऽऽतपाभ्यां किं व्यानर्मस्यस्ति तयोः फलम् । नित्यः " तुपदसत्समः ॥ १ ॥” इति तस्मात् त्यज्यतामेष मूर्वाभिषिका प्रथम माह आत्मप्रदो नाम राधितायामीयोsपि वरंस्यति । श्रहमेव न किं मम ? इति । तदिदमहङ्कारममकारग्रन्थिमहागुन नैरात्म्यदर्शनमेव निर्वागद्वारम् . अन्यथा कौतुस्कुती निर्वाणवार्तापि ? | ि " (२२) अभिधानराजेन्द्रः । " • वार्त्तम्, हेतुफलभावप्रवाहस्वभावस्य सन्तानस्यानन्तरमेव नियामकत्वेन निरस्तत्वात् । यत्पुनः सुखादिविकाराभ्युपगमे चर्मादिवत् ग्रात्मना नित्यत्वं प्रसतिं मे कथंचिदनित्यत्वेनात्मनः स्याद्वादिभिः स्त्रीकारात् । नित्यत्वस्य कथंचदेवाभ्युपगमात् । यत्तु नित्यत्वे श्रस्यात्मीयग्रहसद्भावेन मुक्कयनवासिदूषणमभाणि, तदन्यनवदातं विदितपर्यम्तविरससारस्वरूपाणां परिगनपारमार्थिका तिकात्यन्तिकानन्दसन्दोमायापनिषदांम दात्मनां शरीरेऽपि किंपानाकोपायस इय निर्ममस्वदर्शनात् । नैरात्म्यदर्शने पुनरात्मैव तावन्नास्ति का प्रेत्य सुखीभवनाथ विज्ञानसाऽपि संसारी कथमपरज्ञान क्षण सुखीभवनाय घटिष्यते ? न हि दुःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चष्टमानां दृष्टः एकक्षणस्य तु दु खं स्वरसनाशित्वात्तेनैव सार्द्धं दध्वंसे । सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चिदिति प्रतिमेव, वास्तवावं तस्य निष्प्रत्यूहात्म सिद्धिरिति । आता अथ श्रात्मनः परपरिकल्पितस्वरूपप्रतिषेधाय स्वाभिमतधर्मान्ति चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद्धांना स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिम लिपमिति । ५६ । चैतम्यं साकार निराकारोपयोगारूपं स्वरूपं यस्यासी नेतन्यस्वरूपः परिणमनं प्रतिसमयमपरापरपर्यायेषु गमनं परिणामः स नित्यमस्यास्तीति परिणामी, करोत्यदृप्रादिकमिति कर्त्ता, साक्षादनुपसरिता मुझे सुखादिकमिति साक्षाद्भा, स्पपरिमाणः स्वोपात्तयपुचकः प्रतिक्षेत्रप्रतशरीरं मनः पृथ् पीड्गलिका र गल टितकर्मपरतन्त्रः, अर्यामत्यनन्तरं प्रमातृत्वेन निरूपित श्रास्मेति । अत्र चैतन्यस्य रूपन्यपरिसामियां यशेषाभ्यां ज स्वरूपः कूटस्थनित्यो नैयायिकादिसम्मतः प्रमाता ि " यतो येषामात्मानुपयोगस्वभावस्तावत् तेषां नासी पदार्थवियादचेतना प्रकाशवत् प्रथ नोपयोगस्वभावत्वं तव किं तु चैतन्यसमवायः स चात्मनोऽस्तीत्यसिद्धमंचेतनत्वमिति चेत् । तदनुचितम्, इत्थमाकाशादेरपि चेतनत्वापत्तेः, चैतन्यसमवायो हि बिहायः प्रमुखेऽपि समानः समवायस्य स्वयमविशिष्टस्यैकस्य प्रतिनिय महत्वभावादात्मन्येव ज्ञानं समयेनाकाशादिस्थिति विपाठयवस्थितः ननु यथेह कुण्डे दधीनिप्रत्ययान तत्रादस्य तदधिसंयोगः संपादन तथेह मयिज्ञानमितीदंप्रत्ययात् नात्मनोऽन्यत्र गगनादिषु ज्ञानसमवाय इति चेत् । तदयौक्तिकम् । यतः खाऽऽदयोपि ज्ञानमस्मास्थिति प्रतियन्तु स्वयमचेतनत्वाद्, श्रात्मवत् श्रामानो वा मैवं प्रतिगुः तत एव खादिवद् इति जडात्मवादिमते सन्नपि ज्ञानमिहेति प्रत्ययः प्रत्यात्मवेद्यां न ज्ञानस्यात्मनि समपार्थ नियति विशेषाभावात् नवयमिह पृथिव्यादिषु रूपादय इति प्रत्ययोऽपि न रूपादीनां पृथिव्यादिषु समवायं साधयेत् यथा खादिषु तत्र वा स तं साधयेत् पृथिव्यादिष्विव इति न कचित्प्रत्ययविशेषात् कस्यचित् व्यवस्थेति चेत् । सत्यम्, श्रयमपरो " " " Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) अभिधानराजेन्द्रः । भ्राता " ऽस्य दोषोऽस्तु पृथिव्यादीनां रूपाद्यनात्मकत्वे स्वादिभ्यो विशिष्टतया व्यवस्थापयितुमशक्तः । स्यान्मतम् आत्मनो ज्ञानमस्मास्थिति प्रतियन्ति । श्रात्मत्वात्, ये तु न तथा ते नाऽऽत्मानो, यथा खादयः, अात्मानश्चैतेऽहं प्रत्ययग्राह्मांस्तस्मात्तथाः इत्यात्मत्वमेव खाऽऽदिभ्यो विशेषमात्मनां साधयनि पृथिवीत्यादिवत् पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादियोगाद्धि पृथिव्यादयः, तद्वदात्मत्वयोगादात्मान इति । तदयुक्तम् आत्मत्यादिजातीनामपि जातिमद्नात्मक तत् समवायनियमाखिजेः प्रत्ययविशेषसिद्धिरिति चेत् स एव विचारवितुमारब्धः परस्परमत्यन्तभेदाविशेषपि जातिवद्वताम् आत्मस्वजानिरात्मनि प्रत्यविशेषमुपजनयतिन यादी पृथिवीत्वादिजातयव प्रत्य यमुत्पादयन्ति नात्मनि इति कोऽत्र नियमहेतुः ? | समवाय इनि चेत् सोऽतिप्रत्यपशेजातिविशेषस्य जातिमति समवायः, सति व समवाये प्रत्यविशेष इति प्रत्यासत्तिविशेषादम्यत एतत्त्पि शप इति चत् स कोऽन्योऽन्यच कथंचिदापपरिया मात्रेतद्भावे तद्घटनाजातिविशेषरूप कांचदेव समवायाऽसिदेत्यादि भागानुपपतेरात्मन्येव ज्ञानं समवेतमिदेदमिति न पुनराकाशादिषु इति प्रतिपत्तुमशक्न चैतन्ययोगादात्मचेत् किमपरं प्रतीयते तावचेतना समवायादात्मा चेतन इति चत् । तदयुक्तम् । यतः प्रतीतिश्वमीयते तर्हि निष्प्रतिद्वन्द्वमुपयोगात्मक पचान्मा प्रसिध्यति । न हि जातुचित्स्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगाश्चेतनः, अचेतने वा मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्तिामिति समानाधिकरणतया मेरे तथा प्रतीतिरिति चेत् न कथंचिद् दर्शनात्। पतिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु सपाराशन पुनस्ताविकी तथा चारमति बालाऽहमिति प्रतीतिः कथंचिचेतनाऽमतां गमयति तामन्तानुपपद्यमानत्वात् फलशादिवत् नहि फलशादिरनात्म को ज्ञाताऽहमिति प्रत्येति । चैतन्यमानावासन तथा प्रत्येतनि अचेतनस्यापि चैतम्ययोगाचे वनोद्द मिति पतिरनन्तरमेव निरस्तस्याद् इत्यंसि मात्मनो जडस्पार्थपरिच्छेद पराकरोति ६ 9 । चैतन्य स्वरूपताऽस्य स्वीकरणीया । ननु 'ज्ञानवानहमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्मेश, अन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धननद्वतोर्भेदाभावानुषङ्गादिति कश्चित् । तदप्यसत् । यतो नाना प्रत्यति ज , टवत् । सर्वथा जडश्च स्यादात्मा, ज्ञानवानहमिति प्रत्ययश्चाऽस्य स्यात् विरोधाभावाद् इति मा निरौत्रीः; तस्य तथा ज्ञानवानमिति हि प्रत्ययो ना - ज्ञानारूये विशेषणे विशष्ये चात्मनि जातूत्पद्यते, स्वमतविरोधात् । " जागृविशेषणविशेष्य बुद्धिः" इति वचनात् । गृहीतास्तत्तद्गृहीनः सारस्वतः स्वसंवेदनानभ्युपगमात् स्वसंविदिते ह्यात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा युज्यते, नान्यथाः सन्तानान्तरवत् । परतश्चेत्, तदपि ज्ञानान्तरं विशेष्यं मादी विशेष ग्रहीतुं शक्यमितिज्ञान्तरात्. तद्दन माध्यमित्यनवस्थाना कुतः प्रकृतप्रत्ययः १ तदेवं नाऽऽत्मनां जडस्वरूपता संगच्छते नाऽपि कूटस्थनित्यता । यतो यथाविधः पूर्वदशायामात्मा तथाविध एष चेत् ज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवन्तदा प्रागिव कथमेत्र पदार्थपरिच्छेदकः स्यात् ? प्रतिनियतस्वरूपामच्युतिरूपस्वात्कोटस्वस्थ पदार्थपरिच्छेदे तु प्रत् रूपतया परिणामान्कुतः कौटस्थ्यमिति कर्त्ता साक्षा क्रेति विशेषलकेन कापिलमतं निरस्यिते, तथा हि-काप्रिलः कर्तुत्वं प्रकृतेः प्रतिजानीतेः न पुरुषस्य । अकर्त्ता निर्गुणो भोला ” इति वचनात् । तदयुक्तम् । यतो यद्ययमकलां स्यात् तदानीमनुभवतापि न भवेत् । द्रष्टुः कनृत्ये मुस्यापिरिति चेत् मुरूः किमकष्ठः । विषयसुखदेवेति चेत् कुतः स तथा है। तत्कारण कर्मकर्तृत्वाभावादिति चेत् तर्हि संसारी विपधादिकारणकर्मविशेषाखादेः क " 64 ६ स एव चानुभविता किन भयं । संसारमात्मा विषयखाऽऽदितरकार कर्म न कर्त्ता - स्वात्, मुक्ताऽवस्थावत् इत्येतदपि न सुन्दरम् । स्वेष्टविघातकारिश्यात् संसार्थवस्थायामात्मा व सुखांदेमा चेतनात्मुक्रावस्थायद् इति स्वष्टस्यात्मनोभोक् स्वस्थ विधातात् । प्रतीतिविरुद्धमाधनमित्रमिति काभावसाधनमपि किं न तथा पुंसः घोगा छातामिति प्रतीतेः अथ श्रांताऽहमित्यादिप्रतीतिरहंकाराऽऽस्पदम्, अहंकारस्य च प्रधानमेव कर्तुतया प्रतीयत इति चेत्, तत एवा पितृप्रधानमस्तु । म हि तस्याहंकाराप प्रतिभाति पादेरनुभविवाहमिति प्रतीतेः सकलजनसाक्षिकत्वात् । भ्रान्तमनुविरहङ्कारास्पदत्यमिति वेत्, कर्तुः कथन भ्रान्तम् ? । तस्याऽहंकाराऽऽरूपदत्वादिति चेत्, तत एवानुभवितुस्तदभ्रान्तमस्तु तस्योपाचिकत्वादास्पद भ्रान्तमवति चेत् कुतस्तदीपा किरसिद्धिः १ अथ पुरुषस्वभावत्वाऽभायाकारस्य तदास्पदत्वं पुरुषायस्यानुभवितृत्वस्वपाचिकमिति पेत्। पादेवं यदि पुरुषस्यमाया उकारो न स्यात् । मुक्तस्पाईकारापायात् अपुरुपस्वभाष पवाकार स्वभावो हि न जातुचिचद्वन्तं त्यजति तस्य निःस्वभावत्वप्रसङ्गादिति चेत् । न स्वभावस्य द्विविधत्वात् सामान्यविशेषनदा तत्र सामान्यपर्यायः शाश्वतिकस्वभावः । कादाचित्को विशेषपर्याय इति न कादाचित्कत्वात्पुंस्यहङ्कारादेव तत्स्वभावता, ततो न सदास्पदत्वमनुभवितृत्वस्योपाधिकं येनाऽभ्रान्तं न भवेत् । ततः सिद्धमात्मानुभविधानुपपतेय नम प्युपरिमवास्य प्रकृतिविकारभूतायां हि दर्पणा बुद्धी संक्रान्तानां सुखदुःखादीनां पुरुषः स्वात्मनि प्रतिबिम्बोदय मात्रेण भोक्ता व्यपदिश्यते । तदशस्यं तस्य तथापरिणाममन्तरेण प्रतिबिम्बोदयस्याऽघटनात् स्फटिकादार्याय परिणामेनेय प्रतिविम्यादसमर्थनात् तथापरिणामाभ्युपगमे च कुतः कर्तुत्वमस्य न स्यात् ? इति सिद्ध " 1 जाता • Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) माता अभिधानराजेन्द्रः। मस्य कतृत्वं साक्षाद् भोक्रत्वं चेति, स्वदेह परिमाण इत्य-| पूरुषम् । वद तदा कथमस्य विखण्डने, भवति तस्य न सननागि नैयायिकादिपरिकल्पितं सर्वगतत्वमात्मनो निषि एडनम्बरम् ॥१॥" अत्राभिदध्मह-यदभ्यधायि नन्दाध्यते. तथात्व जीवतत्यप्रभेदानां व्यवस्थानाप्रसिद्धिप्रसङ्गात् । स्मनो व्यापकत्वाभाव इत्यादि. तदसत्यम् । यधन संयुक्र मर्यगतान्मन्यकत्रैव नानान्मकार्यपरिसमाप्तेः, सकृन्नानामनः नदेव नं प्रत्युपमपनीति नियमाऽभवात् । अयस्कान्तं समायोगो हि नानाऽऽन्मकार्य तथैकत्रापि युज्यते, नभसि प्रत्ययसस्तनाऽसंयुकस्याप्याकर्षणापलब्धः । अथासंयुक्तनानाघटादिमांगवत् । एनेन युगपन्नानाशरीन्द्रियसंयोगः स्याप्याकर्षणे नच्छीगरम्भं प्रत्यकमुखीभूनानां त्रिभुव नादरविवरवर्निपरमाणुनामुपसर्गगप्रसङ्गात् न जान किप्रतिपादितः । युगपन्नानाशरीरेष्वात्मसमयायिनां सुखदुः यत्परिमाणं तच्छरीरं स्थादिति चेत् । संयुक्तम्याप्याकर्षणे खादीनामनुपात्तिः, विरोधादिति चेत् । न, युगपन्नानाम कथं स एव दोषो न भवद् ? आत्मनो व्यापकन्वेन सकलर्यादिष्याकाशसमवायिनां वितनादिशब्दानामनुपपत्तिप्रसअत्. तद्विरावस्याविशेषात् । तथाविधशब्दकारणभेदान्न परमाणुगां नन संयोगात् । अथ तदभावाविशेषेऽप्यरष्ट वशाद्विवक्षितशगरोत्पादनानुगुणा नियता एव परमाणव तदनुपपत्तिरिति चेत् , सुखाऽऽदिकारणभेदात्तदनुपपत्ति उपसान्त तदितरत्रापि तुल्यम् । यथान्यदुक्रम्-"सारयकत्रात्मनि मा भूद विशेषाभावात् । विरुद्धधर्माध्यामादात्मना नानात्वामति चेत् । तत पवाकाशस्यापि नानात्वम घयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुविशन्नामे" त्यादि, तदप्युकि मात्रम्-सावयवत्व-कार्यत्वयाः कश्चिदात्मन्यभ्युपगमात् । स्तु । प्रदेशभेदोपचाराददोष इति चत् . तत एवात्मन्य न चैवं घटादिवत्प्राक प्रसिद्धसमानजानीयावयवाग्भ्यन्वप्यापः । जननमरणकरणादिर्मातीनयमाऽपि सर्वगतात्मवादिनां नाऽऽन्मबहुलं साधयत् , एकत्राऽपि तदुपपत्तः, घटा प्रलक्तिः, न खलु घटादावपि कार्य प्राक प्रसिद्धसमान जातीयकपालसंयोगार भ्यत्वं दृष्टम् , कुम्भकागदिव्यापाकाशादिजननविनाशाऽऽदिवत् । न हि घटाकाशस्योपपत्नी रान्वितान्मृपिण्डात्प्रथममेव पृथुबुध्नोदराद्याकारस्याऽस्याघटाकाशम्योत्पत्तिरव, तदा विनाशस्यापि दर्शनात् ; त्पत्तिप्रतीतः । द्रव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागनात्तराकारनापि विनाश विनाश पव , जननस्यापि तदोपलम्भात् , परिणामः कार्यत्वं, तश्च बहिरिवान्तरप्यनुभूयत एव । न स्थितौ वा न स्थितिरेव विनाशात्पादयोरपि तदा समीक्ष च पटाऽऽदौ स्वावयवलयांगपूर्वककार्यन्वोपलम्भात् सर्वत्र णात् । सति बन्धे न मोक्षः, सनि वा मोक्ष न बन्धः स्याद् , तथाभाचा युक्तः, काष्ठ लाहलख्यत्वापलम्भात् वजऽपि एकत्रात्मनि विरोधादिति चत् । न, आकाशऽपि सनि घट तथाभावप्रसङ्गात् । प्रमाणबाधनमुभयत्र तुल्यम् । न चापन्धे घटान्तरमाक्षाभ वप्रसङ्गात् मति वा घटविश्लेषे घ कलक्षाकार्यत्वाभ्युपगमेऽप्यात्मनाऽनित्यत्वानुषतात् । प्रटान्तरविश्लेषप्रसनात् । प्रदेशभेदोपचारान नत्प्रसङ्ग इति तिसंधानाभावोऽनुपज्यते, कश्चिदनित्यत्वे सत्येवास्योगचेत् . तत एवात्मनि न तन्प्रसङ्गः। नभसः प्रदशभेदापगमे जी. पद्यमानत्वात् । यथाऽवाचि शरीरपरिमाणत्व चात्मनो यस्याप्येकस्य प्रदशभदोऽस्विति कुतो जीवतत्त्वाभेदव्य मूत्वानुपङ्ग इत्यादि, तत्र किमिदं मूत्वं नाम :वस्था? यतो व्याकत्वं स्यान् । नम्बात्मनो व्यापकन्याऽभावे असर्वगतद्रव्यपरिमाणन्वं, रूपादिमत्त्वं वा । तत्र नायः दिग्दशान्तरवर्तिपरमाणुभियुगगसंयोगाभावादाद्यकाभा. पक्षा दोषपापाय , सम्मतन्वात् । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः वः, तदभावादन्त्यमंयागस्य तन्निमित्तशरीरस्य तेन तत्संब व्याप्यभावात् । न हि यदसर्वगतं तनियमेन रूपादिमादम्धस्य चाभावादनु गायांमद्धः। सर्वदा सर्वेषां मोक्षः स्यात् । त्यविनाभावोऽस्ति , मनसाऽसर्वगतन्वऽपि तदसंभवात् । अस्तु वा यथा कथंचिच्छरीरोत्पत्तिः, तथापि सावयव अना नाऽऽत्मनः शरीरेऽनुवंशानुपपत्तिर्यतो निगमकं शरीर प्रन्यवयवमनुमविशन्नाम्मा साऽवयवः स्यात् , तथा तत्स्यात् । असर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणमूर्नत्वस्य मनावचास्य पटादिवत् कार्यन्वप्रसङ्गः। कार्यत्वे चाऽसौ विजानी. प्रवेशाप्रनिबन्धकत्वात् : रूपाऽऽदिमत्त्वलक्षणमूर्नत्यागेयैः सजानीयैर्वा कारणैरारभ्यत । न माया प्रकारः, विजा- तस्याऽपि हि जलादर्भस्मादावनुप्रवेशो न निषिध्यते. श्रातीयानामनारम्भकत्वात् । न द्वितीयः, यतः सजातीयत्वं न. स्मनस्तु ताहनस्यापि तत्रासौ प्रतिबध्यत इति महचित्रम्। पामारमन्याडामसंबन्धादव स्यात् तथा चात्मभिरारभ्यत यदयवादि-तपारमाणत्व तम्य बालशरीग्परिमाणस्यइत्यायातम् , पतञ्चायुक्तम् , एकत्र शरीरेऽनेकाम्मनामान्मार त्यादि, तदययुक्नम, युवशरीरपरिमाणावस्थायामात्मनो म्मकाणामसंभवात् । संभव वा प्रतिसंधानानुपपत्तिः, न | बालशरीरपरिमाणपरित्याग सर्वथा विनाशा संभवात् , धन्येन एमन्यः प्रतिसंधातुमर्हत्यतिप्रात् , तदारभ्यत्वे विफणायस्थोत्पादे सपवत्, इति कथं परलोकाभावोऽनुचास्य घटवदवयवक्रियानो विभागात्संयोगबिनाशाद्वि- पज्यंत ?, पर्यायतस्तस्यानित्यत्वेऽपि द्रव्यतो नित्यत्वात् । नाशः स्यात् । शरीरपरिणामत्वे चात्मनो मूर्तत्वानुषला- यच्चाजलिय "यदि वपुष्परिमाणपावित्रिनम्" इत्यादि. तदप्य. छगरेऽनुप्रवशा न स्यात् , मूर्ते मूर्नस्यानुप्रवेशविगंधात् । पेशलम् . शरीरखरा हुने कथंचित्तत्खण्डनस्येष्ठन्वात् शरीततो निरात्मकमेव अखिलं शरीरमनुषज्यत । कथं वा तत्प- रसंबद्धान्मप्रदेशभ्यो हि कतिपयात्मप्रदशानां स्खण्डित - रिमाणत्वे तस्य बालशरीरपरिमाणस्य सतो युवशरीरपरि- शरीरप्रदेश अवस्थानमात्मनः खण्डनं. नचात्र विद्यत एव; माणस्वीकारः स्यात्?, नत्परिमाणपरित्यागात् .नदारन्या अन्यथा शरीगाग्भूतावयवस्य कम्पापनम्धिन स्यात् । गाद्वा । परित्यागात् तदा शरीरवत्तस्याऽनित्यत्वप्रसा- न च ाण्डतावयवानुपविष्टम्यान्मप्रदशस्य पृथगात्मत्वस्परलोकाद्यनावाऽनुषङ्गः। अथापरित्यागात् , तन्न, पूर्वपरि- प्रसङ्गः । “नत्रैवानुवशात् । न चैकत्र सन्ताने ऽनक आत्मा माणापरित्याग शरीरवत्तस्योत्तापरिमाणोपस्यनुपपत्तः । अनकार्थप्रतिभासिज्ञानानामकपमात्राधारतया प्रतिभासातथा-"यनि वपुः परिमाणविधिन, पदसि जैनमतानुग!| भावप्रसङ्गात् , शरीरान्तरव्यवस्थितानेकशानावसेयार्थसं Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) अभिधानराजेन्द्रः। भाता वित्तिवत् । कथं खण्डिताऽस्खण्डितावयवयोः संघट्टनं पश्चा- य, से केणष्टेणं भंते ! जाव णो आयाति य ?, गोदिति चत् !, एकान्तेन छदानभ्युपगमात् , पमनालतन्तु यमा ! अप्पणो आदिद्वे आया, परस्स आदिद्वे यो बदच्छदस्यापि स्वीकारात्; तथाभूनाऽरवशाच तत्सं आया, तदुभयस्स प्रादिद्वे अवत्तव्यं आयाति य यो घट्टनमविरुद्धमेवेति तनुपरिमाण प्रवाऽऽत्माङ्गीकर्तव्यो, न व्यापकः । तथा चाऽऽत्मा व्यापको न भवति, चतन आयाति य, से तेणऽडेणं गोयमा ! तं चेव जाव णो त्वात , यनु नैवं न तचेतन; यथा व्योम, चेतनश्वाऽऽत्मा, आयाति य, एवं जाव अच्चुयकप्पे । आया भंते ! तस्मादब्यापकः । श्रव्यापकत्वे चास्य तत्रैवोपलभ्यमान गेविजगविमाणे असे गेविजगविमाणे एवं जहा रयणगुग्गत्वेन सिद्धा शरीरपरिमाणता । प्रतिक्षेत्र विभिन्न प्पभापुढवी तहेव, एवं अणुत्तरविमाणा वि, एवं ईसिइत्यनेन तु विशेषणेनामाद्वैतमास्तम् पतदपासनप्रकारश्च प्रागेव प्रोक्त इति न पुनरुच्यते । रक्षा०७ परि० । प्पन्भारा वि । प्राया भते ! परमाणुपोग्गले, अण्ो (२५) आत्माधिकाराद् रक्षप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन | परमाणुपोग्गले । एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुचिन्तयत्राह पोग्गले वि भाणियब्वे । आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी,अपारयणप्पभा पुढवी ?, एवं परमाणुसूत्रमपि।। गोयमा! रयणप्पभापुढवी सिय आया, सिय णो आया, पाया भंते ! दुपदेसिए खंधे, असे दुपदेसिए खंधे ?, सिय अवत्तव्वं प्राताति य, णो माताति य । से केणऽद्वे गोयमा! दुपदेसिए खंधे सिय आया १, सिय णो शं भंते ! एवं वुच्चइ रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय| आया २, सिय अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य ३, सिय आया य, सिय णो पाया य ४, सिय यो आया, सिय अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य?, गोयमा! अप्पणो आदिद्वे आया, परस्स आदितु णो पाया य अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य ५, सिय णो आया य अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य ६. आया, तदुभयस्स आदिद्वे अवत्तवं रयणप्पभा पुढवी आयाति य,णो आयाति य से तेणऽद्वेणं तं चेव जाव णो से केणऽद्वेणं भंते ! एवं तं चेव जाव णो आयाति य मायाति य | आया भंते ? सकरप्पभा पुढची जहा रयणप्प अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य १, गोयमा ! भा पुढवी तहा सकरप्पभाए वि एवं जाव अहे सत्तमा । अप्पणो आदिढे आया १, परस्स आदिदे णो आया २, तदुभयस्स आदिद्वे अवत्तव्वं दुपदेसिए खंधे आयाति 'प्राया भते! इत्यादि, अतति-सततं गच्छति तांस्तान्पयायानित्यात्मा ततश्चास्मा सदूपा रत्नप्रभा पृथिवी, अन्न'त्ति य णो आयाति य ३। देसे आदिडे सम्भावपञ्जवे दसे अनात्मा, असपेत्यर्थः । सिय आया सिय नो पाय' त्ति. आदिढे असम्भावपज्जवे दुपदेसिए खंधे आया य णो स्यात्सती स्यादसतीति । 'सिय अवत्तब्वं' ति-प्रात्मस्वना- आया य ४, देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदिद्वे ऽनात्मत्वेन च व्यपदष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः । कथमवक्त- तदुभयपञ्जवे दुपदेसिए खंधे पाया य अवत्तव्वं मायाति व्यम् ! इत्याह-अात्मेति च नो पात्मेति च वकुमशक्यमित्य य णो आयाति य ५, देसे आदिद्वे असम्भावपज्जवे देसे र्थः, 'अप्पणो प्राइडे' त्ति-श्रात्मनः, स्वस्य रत्नप्रभाया एव बर्यादिपर्यायैरादिष्टे आदेश सति तैय॑पदिष्टासतीत्यर्थः, आदिद्वे तदुभयपज्जवे दुपदेसिए खंधे णो आया य अबारमा भवति स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, 'परस्स आइ वत्तवं प्रायाति य णो आयाति य ६ से तेणऽदेणं तं ? नो प्राय' ति-परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायैरा- चेव जाव णो आयाति य । दिष्टे-श्रादेशे सति; तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः, नोआत्मा प्र द्विप्रदेशिकसूत्रे षहमलाः, तत्राद्यास्त्रयः सकलस्कन्धापेक्षाः नात्मा भवति, पररूपापेक्षयाऽसतीत्यर्थः, ' तदुभयस्स पूर्वोक्का एव, तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षास्तत्र च गोयमेस्यत भाइट्रेप्रवत्तब्वं' ति-तयोः स्वपरयोरुभयं तदेव वा प्रारभ्य व्याख्यायते-'अप्परणो'त्ति-स्वस्य पर्यायैः भादिट्टे' उभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे आदेशे सति; तदुभ- ति-प्रादिष्टे-आदेशे सति पाविष्ट इत्यर्थः,द्विप्रदेशिकस्कन्ध यपर्याययंपदिष्टेत्यर्थः, प्रवक्तव्यम्-अवाच्य वस्तु स्यात् , आत्मा भवति १, एवं परस्य पर्यायैरादिष्टोऽनात्मा २, ततथाहिनासी आत्मेति वक्तुं शक्या, परपर्यायापे- दुभयस्य बिमदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायेक्षया अनात्मत्वात्तम्या नाऽप्यनात्मेति वक्तुं शक्या, स्व- रादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात् , कथय ? आत्मेति पर्यायापेक्षया तस्या प्रात्मत्वादिति, प्रवक्तव्यत्वं च श्रा- चाऽनात्मेति चति ३. तथा द्विप्रदशत्वात्तस्य देश एक त्माऽनात्मशब्दापेक्षयैव न तु सर्वथा, अवक्तव्यशब्देनैव त- आदिष्टः, सद्भावप्रधानाः-सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् स स्या उच्यमानत्वादनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थ-वस्तु सद्भावपर्यवः, अथवा-तृतीयाबहुवचनमिदं स्वपर्यवैरित्यर्थः, प्रभृतिशम्दरनभिलाष्यशब्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति। द्वितीयस्तु देश आदिएः असद्भावपर्ययः परपर्यायरित्यर्थः, आया भंते ! सोहम्मे कप्पे पुच्छा, गोयमा ! सोहम्मे परपर्यवाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्ब न्धिना बेति, ततश्वासी द्विपदेशिकः स्कन्धः क्रमेणात्मा कप्पे सिय प्राया, मिय गो पाया जाव णो आयाति चेति नोश्रात्मा अति ५. तथा तस्य देश प्रादिष्टः सद्भा *५८ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. नो.. . भाता अभिधानराजेन्द्रः। भाता वपर्ययो देशश्चोभयपर्यवस्ततोऽसौ , आत्मा चावलव्यं तव्वाई मायाउ य णो आयाउ य ११, देसा पाबति ५, तथा तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवो देश-| दिवा असम्भावपअवा देसे आदितु तदुभयपअवे तिपदेस्तुभयपर्यवस्तताऽसौ नोश्रात्मा चावक्रव्यं च स्यादिति ६, सिए खंधे णो आयात्रो य अवतव्वं पायाति य णो सप्तमः पुनरात्मा च नोआत्मा चाबक्तव्यं चेत्येवं रूपो न भवति विप्रदेशिके द्वयंशत्वादस्य, त्रिप्रदेशिकादौ तु स्या- आयाति य १२, देसे आदिवे सम्भावपज्जवे देसे श्रादिढे दिति सप्तभनी। असम्भावपज्जवे देसे आदिढे तदुभयपजवे तिपदेसिए आया भन्ते! तिपदेसिए खंधे अस्ले तिपदेसिए खंधे, खंधे आया य णो आया य अवत्तव्यं याति य णो गोयमा ! तिपदेसिए खंधे सिय आया १. सिय णो आयाति य १३. से तेणऽद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-तिपपाया २, सिय अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य ३, देसिए खंधे सिय प्राया तं चेव जाव णो आयाति य । सिय आया य णो पाया य ४, सिय आया य णो| त्रिप्रदेशिकस्कन्धे तु प्रयोदशभङ्गास्तत्र पूर्वोक्नेषु सप्तखामायामो य५, सिय आयात्रो य णो पाया य ६, धाः सकलादेशास्त्रयस्तथैव तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्य एकवसिय माया य अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य ७, चनबहुवचनभेदात् , सप्तमस्त्वेकविध एव, स्थापना चेयम् यच्चेह प्रदेशमा सिय पायाइ य अवत्तव्वाइं आयाओ य णो आयाओ येऽप्येकवचनक य८, सिय पायाभो य अवत्तव्यं आयाति य णो श्रा चित्तत्तस्य प्रदे याति य ६, सिय णो आया य अवत्तव्वं आयाति य शद्वयस्यैकप्रदेहो पायाति य १०, सिय या य अवत्तव्वाई आया- शावगाढत्वादिभो य णो आयाओ य ११, सिय णो आयाओ य अ हेतुनैकत्वविवक्ष: बत्तव्वं प्रायाति य णो आयाति य १२, सिय पाया णात् , भेदविवक्षायां च बहुवचनमिति । यणो पाया य अवत्तव्वं श्रायाति य णो आयाति य ___ आया भंते, चउप्पदेसिए खंधे अमे० पुच्छा, गोयमा! १३, से केणऽद्वेण भंते ! एवं बुच्चइ तिपदेसिए खंधे चउप्पदेसिए खंधे सिय आया १, सिय णो आया २, सिय पाया एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव सिय पाया य सिय अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य ३, सिय माणो आया य अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य , या य णो आया य ४, सिय आया य अवत्तव्वं ४, सिय गोयमा ! अप्पणो अादिढे आया १, परस्स आदिद्वे णो आया य अवत्तव्वं ४, सिय आया य णो आया य यो आया २, तदुभयस्स आदिद्वे अवत्सब आयाति अवत्तव्यं आयाति य को प्राति य १६ सिय आया य य णो आयाति य ३, देसे आदिद्वे सम्भावपजवे देसे | णो आया य अवत्तव्वाइं आयाओ य णो आयाओ य मादिढे असभावपञ्जवे तिपदेसिए खंधे आया य णो १७, सिय आया य णो आयाओ य अवत्तव्वं आयाति भाया य ४, देसे आदितु सम्भावपञ्जवे देसा आदिवा य यो आयाति य १८, सिय आयाओ य णो आया य असम्भावपज्जवे तिपदेसिए खंधे आया य णो आयामो अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य १६, से केणऽटेणं य ५, देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवे देसे आदिढे अस-| भंते ! एवं वुच्चइ-चउप्पदेसिए खंधे सिय आया य णो म्भावपज्जवे तिपदेसिए खंधे आयाओ य णो या य ६, आया य अवत्तव्यं तं चेव अढे पडिउच्चारेयव्वं ?, देसे आदिद्वे सम्भावपञ्जवे देसे आदिढे तदुभयपज्जवे गोयमा ! अप्पणो आदिद्वे आया १, परस्स आदिवे तिपदेसिए खंधे आया य अवत्तव्यं अ.याति य णो पाया- णो पाया २, तदुभयस्स आदिद्वे प्रवत्तव्यं आयाति ति य ७, देसे आदिद्वे सम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभय- य णो आयाति य ३, देसे आदिद्वे सम्भावपजवे जवा तिपदेसिए खंधे आया य अवत्तव्याई आया उ य देसे आदिद्वे असब्भावपजवे ४ चउभंगो, सम्भावणो आयाउ य ८,देसा आदिवा सम्भावपजवा देसे पजवेणं तदुभएण य ४ चउभंगो, असब्भावणं तदुआदितु तदुभयपज्जवे तिपदेसिए खंधे आयाओ य अ- भएण य ४ चउभंगो, देसे आदिद्वे सम्भावपजवे देसे वत्तव्वं आयाति य णो आयाति यह, एए तिमि भंगा आदिडे असम्भावपञ्जवे देसे आदिद्वे तदुभयपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपञ्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आया य णो आया य अवत्तव्यं आतिपदेसिए खंधे णो आया य अवत्तवं आयाति य णो याति य णो आयाति य १६, देसे आदितु सब्भावपज्जवे मायाति य १०, देसे आदितु असम्भावपज्जवे देसा आ- देसे आदिद्वे असब्भावपज्जवे देसा आदिद्वा तदुभयदिवा तदुभयपजवा तिपदेसिए खंधे णो माया य अव- | पजवा चउप्पदेसिए खंधे भवइ आया य णो माया य Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) भाता अभिधानराजेन्द्रः। भाता प्रवत्तब्वाइं आयाओ य णो आयाओ य १७, देसे आ- तनाहेतुत्वाच्छाल्मली कूटशाल्मली नरकोद्भवा। तथा33दिडे सम्भावपज्जवे देसा आदिद्वा असब्भाव वा देसे स्मैव कामान्-अभिलाषान् दोग्धि-कामितार्थप्रापकतया प्रपूयति कामदुधा धनुरिव धेनुः, इयं च रूढित उक्ना, आदिद्वे तदुभयपञ्जवे चउप्पदेसिए खंधे आया य यो एतदुपमत्वं चाभिलपितस्वर्गापवर्गावाप्तिहतुतया, पात्मैव पायाओ य अवत्तचं आयाति य णो आयाति य १८, 'मे' मम नन्दनं नन्दननामकं धनम् उद्यानम् एतदौपम्य देसा आदिट्ठा सम्भावपजवा देसे आदिद्वे असम्भाव- चास्य चित्तग्रहानहेतुतया यथा चैतदेवं तथाऽऽहपज्जवे देसे आदिद्वे तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे प्रा प्रात्मैव कर्ता-विधायको दुःखाना, सुखानां चेति योगः, प्रक्रमाच्चान्मन एव विकरिता च-विक्षपश्चात्मैव तेयाओ य णो पाया य अवत्तव्यं आयाति य णो पा पामेव अतश्चात्मैव मित्रम्-उपकारितया सुहृत् 'अमियाति य १६, से तेणऽद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ च- तं' ति-अमित्रं च-अपकारितया दुईत् कीदृक सन्उप्पदेसिए खंधे सिय आया सिय णो आया सिय ' दुप्पट्टिय-सुपट्टिो ' त्ति-दुएं प्रस्थितः-प्रवृत्तो दुप्रवत्तव्वं, निक्लेवो ते चेव भंगा उच्चारेयचा जाव धस्थितः दुराचारविधातेति यावत् , सुष्टु प्रस्थितः सुप्रयो आयाति य। स्थितः, सदनुष्ठानकतंति यावत् , योऽथेः एतयोविंशषण समासः, दुष्पस्थितो ह्यात्मा समस्तदुःखहेतुरिति चैतरचतुष्पदेशिकऽप्येवं नवरमेकोनविंशतिर्भास्तत्र त्रयः सक ण्यादिरूपः, सुप्रस्थितश्च सकलसुखहेतुरिति कामधेन्वालादेशास्तथैव शेषेषु चतुर्पु प्रत्येकं चत्वारो विकल्पास्ते चैवं कल्पः, तथा च-प्रव्रज्यावस्थायामेव सुप्रस्थितत्वेन श्रात्मचतुर्थादिषु त्रिपु-ARM सप्तमस्त्येवर नोऽन्येषां च योगकरण समर्थत्वान्नाथत्वमिति सूत्रदयग र्भार्थः । उत्त०२० अ०। आया भंते ! पंचपदेसिए खंधे अम्मे पंचपदेसिए खंधे, __ अात्मा चावश्यं पालयितव्यःगोयमा ! पंचपदेसिए खंधे सिय आया १, सिय णो अप्पा खलु सययं रक्खिअव्यो, आया २, सिय अवत्तव्यं आयाति य णो आयाति य सबिदिएहिं सुसमाहिएहिं । ३, सिय पाया य णो आया य सिय अवत्तव्यं ४, णो अरक्खिो जाइपहं उवेइ, या ग अबत्तव्येण य ४, तियगसंयोगे एको न पठति, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ १६ ॥ से केणऽद्वेणं भंते ! तं चव पडि उच्चारेयव्वं ?, गोयमा! प्रास्मा 'खल्वति' खलुशब्दो विशेषणार्थः, शक्ती, सत्यां अप्पणो आदिढे आया १, परस्स आदिद्वे णो आया २, परोऽपि सततं-सर्वकाल रक्षितव्यः-पालनीयः पारलौकितदुभयस्स आदिद्वे अवत्तव्यं ३. देसे दिवे सम्भाव काऽपायेभ्यः, कथमित्युपायमाह-सर्वेन्द्रियैः स्पर्शनादिभिः पज्जवे देसे आदिढे असब्भावपञ्जवे एवं दुयगसंजोगे सुसमाहितेन, निवृत्तविषयव्यापारणत्यर्थः, अरक्षणरक्षसब्वे पठंति, तियगसंजोगे एक्को न पठति, छप्पदेसियस्स णयोः फलमाह-अरक्षितः सन् जातिपन्थानम्-जन्ममार्गसब्बे पठंति जहा छप्पदेसिए एवं जाव अणंतपदेसिए । संसारमुपैति-सामीप्येन गच्छति सुरक्षितः पुनर्यथाss गमनप्रमादन सर्वदुःखेभ्यः-शारीरमानसेभ्यो विमुच्यते, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाब विहरइ । (सूत्र-४६६) विविधम्-अनेकैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षपञ्चदशके तु द्वाविंशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव, तदुतरेषु गर्मुच्यत इति । दश० २ चू०।। च त्रिषु प्रत्येकं चत्वारो विकल्पास्तथैव, सप्तमे तु सप्त, आत्मा च सर्वस्याऽवलम्बनम्तत्र त्रिकसंयोगे किलाऽष्टौ भङ्गका भवन्ति, तेषु च सप्तवेह ममत्तं परिवजामि, निम्ममत्तं उवडिओ। ग्राह्या एकस्तु तेषु न पतत्यसम्भवात् , इदमेवाह-'तिगसंजोग' इत्यादि । तत्रैतेषां स्थापना आलंबणं च मे आया, अबसेसं च बोसिरे ॥ ३७॥ यश्च न पतति स पुनरयम्-२२२ पद्ध तथा ममत्वम्-ममैतदित्यवं रूपा भावो ममत्यम्-प्रतिदेशिक त्रयाविंशतिरिति । भ०१२ श०१० उ०। (आत्म- बन्धस्तव मनोऽभिमतवस्तुयिनि शपः, परिजानामि शपस्वरूपादि 'जीव' शब्द चतुर्थभागेऽपि वक्ष्यते) रिशया ज्ञात्वाः श्याख्यानपरिक्षया परिहरामीत्यर्थः, अहं (२६) अप्पा णई वेतरणी, अप्पा कूडसामली। किंभूतः सन् निममन्यं-निःसङ्गत्वम् उस्थितः आश्रित अप्पा काम दुहा धेरणू , अप्पा मे नंदणं वणं ॥३६ ।। इत्यर्थः, तर्हि किमालम्बनतया चिन्तयतील्याह-श्रालम्बनं च-श्राश्रयोऽवष्टम्भ; श्राधार इत्यर्थः, 'मे' ममात्मैवाराधनाअप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । हेतुरयम् ,अवशषम्-अपर; शरीरोपध्यादि सर्व व्युत्सृजामि। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठियसुपढिओ ।। ३७ ॥ अथ केषु कारवयमात्माऽवलम्बनविषय इत्याहश्रान्मेति व्यवच्छेदफलवाद्वाक्यस्यात्मैव नान्यः कश्चिदि. आया हु महं नाणे, पाया मे दंसणे चरित्ते य । त्याह-नदी-सरित् वैतरणीति नरकनद्या नाम. ततो महा:- पाया पचक्खाणे, आया मे संयमे जोगे ॥ ३८॥ महतुतया नरकनदीव अत एवाऽऽत्मैव फूटमिव जन्तुया- | अतति-सततं गच्छति तासु तासु योनिष्विति प्रात्मा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२) भाता अभिधानराजेन्द्रः। प्राता स मम माने-ज्ञानविषये आलम्बनं; सहाय इत्यर्थः, 'हु' धर्मः स्वाऽऽत्मसाक्षिक एवस्फुटं भवतु इति शेषः । आत्मा मे दर्शने सम्यक्त्वे चा आया सयमेव अत्थाणं, निउणं जाणे जहट्ठियं । रित्रेऽपि चालम्बनं, तथा प्रत्याख्याने-भक्तपरिक्षारूपे संयमे च संयमसर्वविरत्यङ्गीकाररूपे, योगे च-प्रशस्तमनोवाक्का आया चेव दुप्पतिजे, धम्मं वि य अत्तसक्खियं ॥॥ यव्यापाररूप ममाऽऽत्मैवालम्बनमनन्तान्यप्युप्रात्तानि द्रष्ट महा० १ अ०। व्यानि । एक एव चाऽऽत्मा सर्वमङ्गीकरोति। उक्तं च श्रीहरिभद्रपूज्यैःअथ निर्ममत्वाय एकत्वभावनां भावयति "अायप्पभव धम्म, प्रायति य अप्पणो सरूवं च । दसणनाणचरित्ते-गत्तं जीवस्य परिणाम ॥१॥" एगो वच्चइ जीवो, एगो चेवुववज्जइ । रे भव्य ! हिताय वदामः सर्वागमेषु धर्म आत्मनः शुद्धाएगस्स चव मरणं, एगो सिज्झइ नीरओ ॥ ३६॥ परिणतिरेव निमित्तस्योपादानात्प्राकटयहेतुत्वात् , याह्या• एगो वञ्च' एकः स्वजनधनादिरहितो व्रजति जीवो; | चरणादिकं साथकैरारभ्यस्ते तथापि धर्महेतुन्वेनोपादयं भवान्तरमिति शेषः, एक एव च उत्पद्यते मनुष्यादिरूप श्रद्धावद्भिः, तत्स्वात्मक्षेत्रव्यापकरूपानन्तपर्यायलक्षणं धर्मः उत्तराध्ययनावश्यकादिसर्वसिद्धान्ताशयः । अष्ट०३२ अपका सया, एकस्यैव मरण भवति, एक एव च कर्मरजाहितः सन् सिध्यति जीवः, भवान्तरगमनस्य मरणस्य चैकार्थत्वेऽपि आत्मज्ञानस्यैव विद्यात्वम्पृथगुपादानमकत्वभावनोत्कर्षपोषार्थ नानादशजविनेयानां नित्यशुच्यात्मताख्याति-रनित्याऽशुच्यनात्मसु । व्यक्तार्थप्रतिपादमार्थ वा। अविद्यातचधार्षिद्या, योगाचार्यः प्रकीर्तिता ॥ १ ॥ एगो मे सासो अप्पा, नाणदंसणसंजुभो । यः पश्येन्नित्यमात्मान-मनित्यं परसंगमम् । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥४०॥ छलं लब्धं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥२॥ 'एगा म' एक पव'मे' मम आत्मा शश्वद्भवनात् शा- तरङ्गतरलां लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् । श्वनः सहचारी ज्ञानदर्शनसंयुक्तः स एव; मदीय इत्यर्थः, अदभ्रधीरनुध्याये-दभ्रवद्भङ्गुरं वपुः ॥ ३॥ शेषाः कंचन 'मे' मम याह्या भावाः-पदार्थाः; पुत्रकल शुचीन्यप्यशुचीकत्तुं, समर्थेऽशुचिसम्भवे । धादिकाः ते सर्वे संयोजन संयोगः स एव लक्षणं येषां ते तथा कृत्रिममेलापका एवेत्यर्थः; नतु शाश्वताः येषां सं देहे जलादिना शौच-भ्रमो मृढस्य दारुणः ॥ ४ ॥ योगस्तेषामवश्यंभावी वियोग इति हेतार्न मदीयास्त इति यः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलज मलम् । परमार्थः । प्रातु। पुनने याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचिः॥ ५॥ प्रात्मकृतमेव च भुज्यते श्रात्मबोधो न वः पाशो, देहगेहधनादिषु । को देइ कस्स देजइ, विहियं को हरइ हीरए कस्स । यः क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु स्वस्य बन्धाय जायते ॥ ६ ॥ सयमप्पणा विढतं, अल्लियइ सुहं पि दुक्खं पि ॥१॥ मिथो युक्तपदाथोना-मसंक्रमचमक्रिया । महा०६अ। चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषैवानुभूयते ॥७॥ आत्मनैव च संसारमुत्तरति अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा विद्याञ्जनस्पृशा । णो णं गोयमा! गुरुसीसगाण निस्साए संसारमुत्त- पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः॥॥ रजा । णो णं गोयमा ! परस्स निस्साए संसारमुत्तरेजा। अष्ट. १४ अष्टः । (अस्याष्टकस्य व्याख्यां 'विज्जा' शब्दे अप्पणो निस्साए संसारमुत्तरेजा । महा० ३ अ.। षष्ठे भागे करिष्यामि) (आत्मजयेनैव च क्रोधादिजयः) (आत्मविवेकस्यैव विवेकत्वम् )जे उ संगामकालंमि, नाया सूरपुरंगमा। कर्मजीवं च संश्लिष्टं, सर्वदा क्षीरनीरवत् । णो ते पिट्ठमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया ॥६॥ विभिन्नीकुरुते योऽसौ, मुनिहंसो विवेकवान् ॥१॥ देहाऽऽत्माद्यविवेकोऽयं. सर्वदा सुलभो भवे । सूत्र०१ थु०३ अ०३ उ० । (अस्या गाथाया अर्थः 'अझत्तविसीयण' शब्दे प्रथमभागे २२६ पृष्ठ गतः) भवतोऽद्यापि तद्भेद-विवेकस्त्वतिदुलभः॥२॥ तदेवं सुभटदृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकमाह शद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद् , रेखाभिर्मिश्रिता यथा । विकारभिश्रिता भाति, तथात्मन्यविवेकतः ॥ ३॥ तमेगे परिभासंति, भिक्खयं साहुजीविणं । यथा योधेः कृतं युद्धं. स्वामिन्यवोपचर्यते ।। जे एवं परिभासंति, अंत एते समाहिये ॥ ८॥ शुद्धात्मन्यविवेकेन, कर्मस्कन्धोर्जितं तथा ।। ४ ॥ सूत्र०१ श्रु० ३ ० ३ उ०। ( अस्या गाथाया अर्थः | 'परचादिवयण' शठ पञ्चमे भागे बक्यत) इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथक्षते । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३३) अभिधानराजेन्द्रः। मातापाया मात्मा भेदभ्रमस्तद्वद् देहादावविवकिनः ।। ५॥ पाता (या)णुकंपय-आत्मानुकम्पक त्रि० । प्रात्मानमेइच्छन्न परमान्भावान् . विवेकाद्रेः पतत्यधः ' धानपरिहारद्वारेणानुकम्पते शुभानुष्ठानेन सदतिगामिन परमं भावमन्विष्य-नविवेके निमज्जति ॥ ६ ॥ विधत्ते इत्यात्मानकम्पकः । सूत्र०२ ध्रु०२१० । श्रात्माह तप्रवृत्ते, प्रत्येक बुद्धे जिनकल्पिके च । स्था०। "मायाणुकआत्मन्येवात्मनः कुर्यात् , यः षट्कारकसंगतिम् । पए णाममंगे" (सूत्र-३५२४)। प्रात्मानुकम्पक:-श्रात्मकाऽविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जलमञ्जनात् ।। ७ ।। हितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा परानपक्षा चा संयमाखं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं मुनेः। निघृणः । स्था०४ ठा०४ उ० । धृतिधारोन्य णं कर्म,शत्रुच्छेदचमं भवेत् ।। अष्ट. १५ अष्ट, | माता (या)णुस्मरण-आत्मानुस्मरण-न०। प्रात्मनोऽआत्मार्चनस्यैव भावपूजात्वम् नुस्मृतौ, पो० ।" अात्मानुस्मरणाय च" ॥१६ + ॥ मादयाऽम्भसाकृतस्नानः, सन्तोषशुभवस्त्रभृत् । त्मनोऽनुस्मरणाय च-स्वयमेवानुस्मृतिनिमित्तम् । पी० । १६ विव०। विवेकतिलकम्राजी, भावनापावनाशयः ॥१॥ आता (या) णुसासण-आत्मानुशासन-न० । प्रात्मनोऽभक्रिश्रद्धानघुमणो-न्मिश्रकश्मीरजद्रवैः । नुशास्तौ, सूत्र। नवब्रह्मगतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ॥२॥ मा पच्छ असाधुता भवे, अचेही अणुसास अप्पगं । क्षमापुष्पस्त्रजं धर्म-युग्मक्षामद्वयं तथा । अहियं च असाहु सोयती, से थणती परिदेवतीबई॥७॥ ध्यानाभरपसारं च. तरङ्गे विनिवेशय ॥३॥ मा पश्चात्-मरणकाले, भवान्तरे वा कामानुषनादसाधुनामदस्थानभिदा त्यागे-लिखाग्रे चाष्टमङ्गलम् । कुगतिगमनादिकरूपा भवेत्-प्राप्नुयादिति । अतो विषयाझानाऽनो शुभसंकल्प-काकतुण्डं च धूपय ।। ४॥ सनादात्मानम्-अत्येहि-त्याजय । तथा-श्रात्मानं च श्रनुप्राग् धर्मलवणोत्तारं, धर्ममन्यासवहिना । शाधि पात्मनोऽनुशास्ति कुरु, यथा-हे जीव ! यो ह्यकुर्वन्पूरय सामर्थ्य-राजन्नीराजनाविधिम् ॥ ५॥ साधुः-असाधुकर्मकारी-हिंसानृतस्तेयादी प्रवृत्तः सन् दुर्ग तौ पतितः अधिकम्-प्रत्यर्थमवं शोचति, सच परमास्फुरन्मङ्गलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः। ऽधार्मिकैः कय॑मानस्तियक्षु वा बुधादिवेदनाग्रस्तो:योगनृत्यपरस्तूर्य-त्रिकसंयमवान् भव ।। ६ ॥ त्यर्थ स्तनति-सशब्दं निःश्वसिति । तथा-परिदेवते विउल्लसन्मनसः सत्य-घण्टा वादयतस्तव । लपति-पाक्रन्दति । सुबहिति । " हा मातप्रिंयत इति, पाता नेवाऽस्ति सांप्रतं कश्चित् । किं शरणं मे स्याभावपूजारतस्येत्थं, करकोडे महोदयः ॥ ७॥ दिह, दुष्कृतचरितस्य पापस्य ? ॥१॥" इत्येवमादीनि द्रव्यपूजोचिताभेदो-पासना गृहमेधिनाम् । दुःखाम्यसाधुकारिणः प्राप्नुवन्तीत्यतो विषयानुषी न भावपूजा तु साधूना-मभेदोपासनात्मिका ॥८॥ विधेय इत्यवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति संबन्धनीयम् । अए० २६ अष्ट। ( अस्याएकस्य व्याख्या 'पूया' शब्दे सूत्र०१ श्रु० २ १०३ उ० । पश्चमे भागे वक्ष्यते) मोक्ष, संयमे च । “ प्रातताए परिव्यर" ॥७॥ आत्मा-मोक्षः, संयमो वा; तद्भावस्तस्मै पाताच-आताप-पुं० । ईषत्तापे, प्राचा० । “सो खलु म तदर्थ परि-समन्ताद व्रजेत् । संयमानुष्ठानक्रियायां दत्ता कप्पति अर्माणकार्य उज्जालित्तए वा पज्जालित्तए या कार्य बधानो भवदित्यर्थः । सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ० । पायावेत्तए वा पयावेत्तए वा" (सूत्र-२१०+)। कातथा प्रवचनसारोद्धारवृत्यादौ इन्द्रियविषयप्रमाणता प्रा यम्-शरीरमीपत्तापयितुं वा प्रकर्षेण तापयितुं प्रतापस्माङ्गलेन प्रोक्नाऽस्ति चचुष उत्कृएविषयतायां कृतला यितुंवा । प्राचा० १ ० ८ ०३ उ० । "अनादौ योजनकपो विष्णुकुमारो दृष्टान्तः प्रोक्नोऽस्ति, तथा हि स्वरादसंगकानां क-ख-त-थ-प-फां-ग-घ-द-ध-ब-भाः" चतुः सातिरेकयोजनलक्षाद्गं गृह्णातीति, सातिरेकत्वं तु| ॥८।४।२६६॥ इति अपभ्रश पस्य बः। प्रा०। विष्णुकुमारादयः स्वपदपुरःस्थितं गर्तादिकं तन्मध्यगतं | आता (या) बग-अातापक-पुं०। प्रातापयत्यातापनां शीच लेष्टादिकं पश्यन्तीति नवतस्वमहाचूरावस्ति, इति | तातपादिसहनरूपां करोतांत्यातापकः। स्था०५ ठा०२ चक्षुषः सातिरेकलक्षयोजनदूरस्थरूप ग्रहणविषय दृष्टान्त- उ०। श्रातापनाग्राहिणि परतीर्थिकभेदे, सूत्र०२ श्रु०२० करणाद्विष्णुकुमारविकुर्वितरूपमात्माङ्गलेन संभाव्यते, अ-। प्राता (या) बण-आतापन-न । सकृदोषद्वा तापने, "प्रा. न्यथा न हपान्तसंगतिरित्यवं सति प्रश्नोत्तरसमुश्चयचतुर्थप्रकाशप्रान्ते द्विष्णुकुमारविकुचितरूपमुत्सेधाङ्गलनिष्प याविज्जा न पयावेजा " सकृदीषद्वा तापनमातापनम् । अलक्षयोजनप्रमाणमुक्नमस्ति तत्कथमिति प्रश्नः , अत्री दश०४०। शीतादिभिः शरीरस्य सन्तापने च । स्था० ३ सग्म्-विष्णुकुमारकृतं सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणरूपं च ठा०३ उ०। मरेन्द्रादिवत्प्रमाणाङ्गलेनापि संभवति न काऽपि विप्रति- प्राता (या) बणया-पातापनता-स्त्री० । पानापनानां-शीपत्तिः, यश्च प्रश्नोत्तर उत्सेधाडलेन प्रोक्नमस्ति तत्र किं- तादिभिः शरीरम्य संतापनानां भाव प्रातापनत्म । शीचिद्विधेयमस्तीति । २८० प्र० । सन. ३ उल्ला० । नातपादः महने. स्था. ३ठा०३० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३५) अभिधानराजेन्द्रः। भाताबणा भाता (या) बणा-अातापना-स्त्री० । शीतादिसहनात्मके | अहमुकोसाममज्झिमा,य अहमाऽधमा चरिमा।२६७।। तपोभेदे. पञ्चा। "आयाबणठाणमाईया ॥४॥" पञ्चा०१८ निषण्णस्य मध्यमा अातापना, सा द्विधा-मध्यमोत्कृष्टा, विया "पायाबणाए आयाबमाणस्स"। प्रा० म०१० | 'दुहश्रो वि मज्झिम' त्ति-मध्यममध्यमा, मध्यम जघन्या । ५२४गाथाढीका "माताबते" (सूत्र०-३६६४) पाताप- ऊयस्थितस्य या जघन्या सा त्रिधा-अधमोत्कृष्टा, अधयति-पातापनाम्-शीताऽऽतपादिसहनरूपाम् । स्था०५ ममध्यमा। अधमा च चरमेति अधमशब्दा जघन्यवाचठा०१ उ०। कोऽत्र द्रष्टव्यः। "पायावरणा यतिविहा, उक्कोसार मज्झिमा २जहन्ना य ३॥ एतासामिदं सूत्रम्उकोसा उ निविराणा, निसरणमझा ठिय जहन्ना ॥३॥ पलियंक अद्ध उकाडु-गमो य तिविहा उ मज्झिमा होइ । तिषिहा हो। निवरणा,भोमथिय१पासर तइय उत्ताणा॥" तइया उ हस्थिसुंडे -गपादसमपादिगा चेव ॥२६॥ इति । निषण्णाऽपि त्रिविधा मध्यमोत्कृष्ट-पर्यङ्कासनसंस्थिता, मध्यममध्या-अर्द्ध पर्य"गोदुह उकड पलियं-कमेस तिविहा य मज्झिमा होइ। का. मध्यम जघन्या-उन्कुटुका । कचिदादर्श पूर्वाईमित्थं तया उ हत्थिसुंड-गपायसमपाइया चेव ॥ १॥" रश्यते-" गोदोहुक्कुहुलियंकमो यं वि तिविहा उ मज्झिइयं च निषराणादिका त्रिविधाप्यातापना स्वस्थाने पुनरु मा होर" ति, तत्र मध्यमोकृष्टा-गोदोहिका, मध्यमास्कृष्टादिभेदा श्रीमन्थियादिभदेनावगन्तव्या । इह च यद्यपि उत्कुटुका, मध्यमजघन्या-पर्यङ्कासनरूपा। गोशष्मः पादस्थानातिगत्वादीनामानापनायामन्तर्भावस्तथापि प्रधान पूरण, एषा त्रिविधा मध्यमा भवति । या तु तृतीयाऽस्ति तरविवक्षया न पुनरुक्तत्वं मन्तव्यमिति । स्था०५ ठा०१ उ०। तस्या जघन्योत्कृष्टादिभेदात्रिधा भणिता, सजघन्योत्कृष्टा, हस्तिसुगिडका, पुनर्नाभ्यामुपविष्टस्यैकपादोत्पादनरूपा । तडाव्यता जघन्यमध्यमा-एकपादिका, उत्थितस्यैकपादनावस्थान, जनो कप्पइ निग्गंथीए बहिया गामस्म वा जाव सनिवे घन्यजघन्या-समतलाभ्यां पादाभ्यां स्थित्वा यदलस्थिसस्स वा उइं बाहाम्रो पगिझिय २ सूराभिमुहाए एगपाइ तेराताप्यते। याए ठिच्चा पायावणाए प्रायाचित्तए ।।२३।। कप्पड़ से उव- कथं पुनः शयितस्योत्कृष्टा आतापना भवतीत्युच्यतेस्मयस्स अंतोवगडाए संघाडिपडिबद्धाए पलंबियाहियाए सव्वंगिनपतावो, य ताविया घम्मरस्सिणा भूमी। समतलपाइयाए ठिच्चा पायावणाए आयावित्तए ॥२४॥ ण य कमइ तत्थ वाऊ, विस्सामो नेव गत्ताणं ॥२६६।। मो कल्पते निर्ग्रन्ध्या बहिामस्य वा यावत् संनिवेशस्य भूमौ निवन्नस्य सर्वाङ्गानां प्रतापः-प्रकर्षे ग नापो लगति था ऊर्ध्वम्-ऊर्ध्वमुखो बाहू प्रगृह्या; प्रकर्षण गृहीत्या; कन्वे- घर्मरश्मिना च भूमिः प्रकर्षे गात्यन्ततापिता, नच तत्र स्यर्थः, सूर्वाभिमुख्या एकपादिकाया एकं पादमूर्द्धमाकुन्य भूमौ वायुः क्रमते-प्रचरति न च गात्राणाम्-अङ्गानां विअपरं एकपदे सुविकृतवत्या एवंविधायाः स्थित्वा आता-- धामो भवति, अता निवन्नस्योत्कृष्टा श्रानापना मन्तव्या। पयितुम् ॥२३॥ किं तु कल्पते-'से' तस्याः उपाश्र- अर्थतासां मध्यादार्यिकाणां का आतापना कर्तुं कल्पते यस्यान्तवंगडायाः संघाटीप्रतिबद्धायाः प्रलम्बितबाहुका- इत्यत अाहयाः समतलपादिकायाः स्थित्वा पानापनया-आतापनाय; एयासिं णवण्हा-णुमाया संजईण अंतिल्ला । आतापयितुमिति सूत्रार्थः । सेसा नाणुनाया, अट्ठ तु आतावणा तेसिं ॥ २७० ॥ अथ भाष्यम एतासां नवानामध्यातापनानां मध्याद अन्तिमा-समपादिपायावणा य तिविहा, उकोसा मज्झिमा जहमा य ।। काख्या प्रातापना संयतीनामनुज्ञाता, शेषा अष्टाचातापना उकोमा उणिवप्मा, णिसम्ममझा वि य जहणा ॥२६५।। प्रासां नाऽनुज्ञाताः। श्रातापना विविधा उत्कृष्टा, मध्यमा, जघन्या च । त- कीदृशे पुनः स्थान च आतापयन्तीत्युच्यतप्रोस्कृष्टा-निवन्ना-निपल्या शयिता यां करोतीत्यर्थः । म- पाली हिं जत्थ दीसइ, जत्थ य सहरं विसति न हु दाता। ध्यमा-निषण्णस्य, जघन्या तु ऊर्द्धस्थितस्य । उग्गहमादिसु सञ्जा, पायावयते तहिं अजा ॥२७१।। पुनरकका विविधा यत्र प्रतिश्रयपालिकाभिः-संयनीभिः पातापयता दृश्यते । तिविहा होइ नियमा, ओमथे पासतइयमुत्ताणा । यत्र च स्वैरं-स्वच्छन्दं युवानो न प्रविशन्ति तत्र स्थाने उक्कोसुकोसा उको-समज्झिमा उक्कोसगजहमा ॥२६६।। प्रयग्रहानन्तकादिभिः संघटिकान्तरुपकरणः सजा-श्रानियन्त्रस्योत्कृष्टा पातापना, सा त्रिविधा भवति-उत्कृष्टो युक्ता आर्थिका प्रलम्बितबाहुयुगला पानापयन्ति । स्कुटा, उत्कृपमध्यमा, उत्कृष्ट जघन्या च। तत्र यदवाड़ किमर्थमवग्रहानन्तकादिसजति चेदन आहमुखं निपत्य आतापना क्रियत सा उत्कृपा-कृष्टा, या तु मुच्छाए विडिताए, तावेण मुमुच्छुतेव संवरणे । पार्श्वतः शयान फ्रियने सा उकृष्टमध्यमा, या पुनरुत्तान-| गोचरमजयणदोसा, जे वुत्ता ते उ पायेा ॥२७२ ।। शयनेन विधीयत मा उत्कृष्जघन्या । तस्या आतापयन्त्याः खरतराऽऽतपसंपर्कपरितापितायाः उकोमा दुही वि, मज्झिममज्झिमा जहमा य । । कदाचिन्मळ संजायेत तया च नितिता वा तेन वा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আतबणा संरावरणे समुहान तादिभिर्विना गांचरचर्यायामयननया प्रविशया व दोषास्नीयोदेश के उ लास्तान् प्राप्नुयात्, अतस्तैः प्रावृता श्रातापयेत् । वृ० ५४० (तापनोदकतीरे न कर्त्तव्येति गतीर' शब्दे चतुर्थभागे पचवते ) ( २३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । • आतानि (न्)- भातापिन् पुं० आनापपति-प शीतातपादिद्दनरूप करोतीत्वातापी शीतादिवदनकर्तरि स्था० ४ ठा० ३ उ० । वस्त्रादेगतपे दातरि च । कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । श्रातपति आ-तप- णिनि । पक्षिभेदे. क्षीरस्वामी । वाच० । आता (या) चित्तर - आतापयितुम् अव्य० । आतपे दातुमित्यर्थे, " आयातिए प्रयाबित्तर वा " ( सूत्र - ५२४ ) श्रातापयितुमेकवारमात दातुं प्रतापयितुं पुनः पुनरातपे दातुमिच्छति । कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । अता (या) दिया- प्रतापयित्वा अध्यापन - स्वत्यर्थे, "आयाबिय २ " ( सूत्र - x ) । श्राचा० २ ० १ चू० २ ० ३ उ० । आता (पा) बेमाथ आतापयत् त्रितापन कुर्बति " आयावतार आयामाणस्स भ ( ५२४ गाथाटी० ) । आ० म० १ ० । माता (या) मिणिवेस आत्माभिनिवेश-पु० सात्मनोपेशे याचमाभिनिवेशस्तावदेव संसारः । नं० । दीया पुनमा:नैरात्म्यादिभावना रागादिप्रहाणिहेतुः नैरात्म्यादिभावनायाः सकलरागादिविपक्षभूतत्वात् तथाहि नैरा 33 , पवन नामाभिनिवेशः घारमा आत्माभिनिवेशाभावाच न पुत्रफलादित्याभि निवेशः, आत्मनो हि य उपकारी स आत्मीयो यश्च प्रविघातकः स द्वेष्य पावन विद्यते किन्तु पूर्वापरक्षण त्रुटितानुसन्धानाः पूर्वपूर्वहेतु प्रतिबद्धा ज्ञानक्षणा एव तथा तथोत्पद्यन्ते तदा कः कस्योपकर्त्ता उपघातको या ?, ज्ञानक्षणानां च क्षणमात्रावस्थायितया परमार्थत उपकर्तुमपा रापस्चात् तन श्वेदिनः पुत्रादात्माभिनिवेशो नापि वैरिषु द्वेषो वस्तु लोका नाममात्मीयानात्मीयाद्यभिनिवेशः सोऽनादिवासनापरिपाकोपनीतो वेदितव्योऽतस्वमूलत्वात् ननु यदि न परमाशेतः कधिकार्योपकारकभावस्तर्हि कथमुच्यते भगवान् सुगतः करुण्या सकलसश्वोपकाराय देशनां कृतवानिति । क्षणिकत्वमपि च यचकाम्नेन तर्हि तदीयानन्तरं विनष्टः सन्न काचनाऽप्येवं भूयो भविष्यामीति जानानः किम माय बत्नमारभते । तदयुक्तम् अभिप्रायाप रिज्ञानात् भगवान् हि प्राचीनायामवस्थायामवस्थितः सकलमपि जगदागद्वेषादिषु मभिजानानः कथमिदं सकलमपि जनन्या दुःखावर्तयमिति समुत्पन्नकृषा विशेषानैराणिक पादिकमपि तेषामुप कार्यसस्थानां निःक्लेशक्षणोत्पादनाय प्रजाहिता राजेव आलागमि स्तन सकल जगासा कर समर्थः स्वततिगतविशिष्टक्षणोत्पत्तये यन्नमारभते, सकलजगत्साक्षात्कारमन्तरेण सर्वेषामक्षूणविधानमुपकर्तुमशक्यत्वात् । ततः समुषलज्ञानः पूर्वाऽद्दितकृपाविशेष संस्कारवशात् - ताथोंपदेशनात निर्दोषं नैरात्म्यादिवस्तुत परिभाषभावतः तच भा तो जस्तोभय नामकर्षविशेषतो वैराग्यमुपजायते तो मुकिलाभः यस्यात्मानमभिमन्यते न तस्य मुनिसंभवोंयत् श्रात्मनि परमार्थतया विद्यमाने तत्र स्नेहः प्रवर्तते । ततः स्नेहवशाच तासुखेषु परितवान् भवति तृष्णापशाच सुखसाधनेषु दोषान् खतोऽपि तिरस्कुड़ते गुणास्वाभिभूतानपि पश्यति। ततो दश खन् तानि ममस्वति तस्माद्यावदात्माभियेशः तायरसंसारः, आह च यः पश्यत्यात्मानं तत्रा-स्याहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात्सुखेषु तृष्यति, तृष्णादोषांस्तिरस्कुरुते ॥ १ ॥ गुणादर्शी परितृष्यन् ममेति तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत्तावत्स संसारे " ॥ २ ॥ तदेतत्सर्वमन्तःकरणनापासमहामोह महीयस्ताविलसि , " . 1 तम् आत्माभावे बन्धमोक्षाऽऽयेकाधिकरणत्वायोगात्, तथाहि - यदि नात्माभ्युगम्यते किं तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसंधाना ज्ञानलक्षणा पत्र तथा सत्यन्यस्य बन्धः, अन्यस्य मुक्तिः, अन्यस्य तुद् अन्यस्य तृप्तिः, अन्योऽनुभविता, अभ्यः स्मर्ता, अन्यश्चिकित्सा दुःखमनुभवति श्रभ्यो व्याधिरहितो भवति, अन्यः तप रामपि सहने पर सु सुखमनुभवति, अपर शास्त्रवितुमारभंत, अन्योऽधिगतशाखार्थो भवति न चैतद्युक्रम अतिप्रसङ्गात् सन्ता नापेक्षया बन्धमोक्षादेरेकाधिकरण्यमितिचेत्, न सन्तानस्यापि भवन्मते नानुपपद्यमानत्वात् सन्तानो हि सन्तानिभ्यो भो वा स्यादभि वा यदि मिस्तहिं पुनरपि विकल्पयुगलमुपडीकतेस किं नित्यः को वा १. यदि नित्यस्ततो न तस्य बन्धमोक्षादिसंभवः, श्राकालमेकस्वभावतया तस्यावस्थाविश्यानुपपत्तेः न कि व्यभ्युपगम्यते सर्व क्षणिकम् " ति वचनात् अथ कितिदेव प्राचीनं बधमाशादिवेधिक प्रस लम् श्रशाभिन्न इति पक्षस्तर्हि सन्तानिन एव, नसन्तानः, तदभिन्नत्वात् तत्स्वरूपवत् तथा च सति तदवस्थमेव प्राक्तनं दूषणमिति । नं० । श्राता - (य) भिसित आत्माभिषिक्त-पुं० । निजबलेन राज्यामिथि भरती व्य० " अहवा राया दुविहो, आयभिसिनो परामिसितो व आयॉमिसिनो भरदो तस्स उ पुत्तो परेगं तु ॥ १०५॥ राजा विविधो भवति तथा श्रात्माभिषिक, पराऽभि षिक्तश्च । व्य०५ उ० (विशेषतश्चास्या गाथायाः व्याख्या षष्ठे मागे राय शब् करिष्यते) 4 5 - धाता (या) शमिन् ) आत्मारामिन् पुं० श्रात्मविधामिण अनुभम खर्च संसारानिवृत्त स्तत्सेवनापराविस्तारयति । अष्ट० ६ अष्ट० । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) मातालिजंत अभिधानराजेन्द्रः! माताहम्म मातालिअंत-माताड्यनान-त्रि० । श्रा-समन्तात् ताब्य- रिति जानतापि, यद्वा-साधूनामाधाकर्म न कल्पते इति मान, "मातालिग्जंताणं तालीणं, तालाणं, कंसतालाणं" | परिमानवतापि यजीवानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा । ति । मा० चू०१०। तनिषेधाद्-अनिदा पूर्वोक्तपरिज्ञानविकलन सता यत् पर प्राणनिर्वहणं सा अनिदेति भावार्थः। अथवा-स्वार्थ परार्थ याता (या)व-प्राताप-पुंगा "पो वः "॥८।१।२३१॥ चेति विभागेनोद्दिश्य यत् प्राणव्यपरोपणं सा निवा, तइति प्रारुतसूत्रेण पस्य वः । असुरकुमारविशेषे, विशेषस्तु । निषेधाद्-अनिदा, यत् स्वं पुत्रादिकमन्यं वा विभागेनानाव गभ्यते इति, अभयदेवसूरिः । भ०१३ श०६ उ०।। वियिच्य सामान्येन विधीयते । अथ वा-व्यापाद्यस्य समाता (या) वाइ (न)-प्रात्मवादिन-पुं०।"से आया-| स्वस्य हा धिक संप्रत्येष मां मारयिष्यतीति परिझानतो बादी" (सूत्र-५४)। पारमानं बदितुं शीलमस्येति । यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा, तद्विपरीता-अनिदा, यत् आचा० १ थु०१ १०१ उ० । “ एस पायावाई" अजानतो व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य व्यापादनमिति । (सूत्र-१६५४)। यथावस्थितात्मवादिनि, प्राचा०१५० तथा चाह भाष्यकृत्५ अ. ६ उ० । (भारमयादिनोऽशषवक्तव्यनाऽऽचारा जाणतो अजाणतो, तहेव उद्दिसिय श्रोहयो वाऽवि । प्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनस्य प्रथम उंदशके (सत्र-५ प्रारभ्य) सा ' आता ' शब्देऽस्मिन्नव भागे गता) जाणगप्रजाणगं वा, वहेइ आनेया निया एसा ॥३१॥ तथा च ऐक्यवादिनमधिकृत्य-अपरस्त्वात्मवास्ति; नान्य- व्याख्यातार्था । ततो निदया अनिदया या यः षटकायदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम्-"पुरुष एवेद सर्व यद्भूतं यच | प्रमईनं करोति-पराणां पृथिव्यादीनां कायानां प्रारणव्यपभाव्यम् , उतामृतत्वस्येशानो यदन्ननातिरोहति, यंदजति रोपणं विदधाति । तत् षट्कायप्रमईनम् आत्मप्रम् नोयन्नेजति यद् दुरे यवन्तिके यदन्तरस्य सर्यस्यास्य बाह्यतः" पागमतो द्रव्यारमध्नं त्रुवन्ति तीर्थकरगणधराः । अथ पदइति । स्था० टी० ८ ठा० ३ उ० । येऽपि च आत्मयादिनः कायप्रमर्दनं कथं नोपागमतो द्रव्यात्मश्नम् ?, याचता "पुरुष एवेदं सर्वामि" न्यादि प्रतिपन्नाः, ते ऽपि महामाहोर- भावामध्नं कम्मान भवति। अत पाहगगरलपूरमूछिनमानसा बदितव्याः । नं० ।। अत्र विस्तर दव्याऽऽया खलु काया, 'एगावाइन् ' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यामि) अस्य व्याख्या-कायाः-पृथिव्यादयः खलु निश्चय पाता (या) हम्म-प्रात्मघ्न-न० । आत्मा हन्यते तेषु द्रव्यात्माना द्रव्यरूपा आत्मानः जीवानां गुणपर्यायवत्तया तेषु यातनास्थानेषु येन तदारमध्नम् । वर्श०४ तत्व । द्रव्यत्वात् , उक्त च-"अजीवकाया:-धर्माधर्माकाआत्मनैकार्थिकानि शपुद्गलाः, द्रव्याणि जीवाश्च" (तस्वा०५ १०-सूत्र१-२) आहा अहे य कम्मे, प्राताहम्मे य अत्तकम्मे य। इति । ततस्तेषां यत् उपमर्दन तत् द्रव्याऽऽत्मघ्नं भवति । तं पुण आहाकम्म, नायव्वं कप्पते कस्स ।। ४५६ ॥ उक्नं द्रव्यात्मनम्। माधाकर्म १, अधःकर्म २, प्रात्मनः ३, प्रात्मकर्म ४, इति | संप्रति भावामध्नं वक्तव्यं, तथ द्विधा-आगमतो, चत्वारि नामानि । (पृ.) आत्मान-शानदर्शनचारित्ररूपं नोबागमतश्च । तत्र आगमत पात्मनशब्दार्थज्ञाता तत्र इम्नि-विनाशयतीत्यात्मनम् । १०४ उ०। श्रात्मानं दुर्ग चोपयुक्तः। नोबागमत प्रारमनमाहनिप्रपातकारणतया हन्ति-बिनाशयतीत्यात्मनम् । पिं० । प्राधाकर्मणि, निं० । (आत्मनस्याधाकम्मैकार्थिकत्वम् __ भावाऽऽया तिन्नि नाणमाईणि । 'प्राधाकम्म' शब्देऽस्मिन्नव भाग विस्तरतो वक्ष्यते) परपाणपाडणरओ, चरणायं अप्पणो हणइ ॥ १०४॥ एतस्य निक्षेपः भावाऽऽत्मानो भावरूपा श्रात्माननीणि ज्ञानादीनिआयाहमे वि चउठिबधो निक्खयो. व्यायामे. अणु- ज्ञानदर्शनचारित्राणि अात्मनो हि पारमार्थिक स्वस्वरूपं बउत्तो पाणाऽतिवार्य करता भाषाऽऽते गाणसाचरणा, शानदर्शनचरणात्मकं ततस्तान्येव परमार्थत प्रात्मनो न तं हणंतो भायाताहम्मं । निचू०१० उ०। शेष द्रव्यमानं स्वस्वरूपाभावात् , ततो यश्चारित्री सन् संप्रत्यामननाम्नोऽवसरः, तदपि चान्मनं चतुर्वा. त- परेषां पृथिव्यादीनां ये प्राणा इन्द्रियादयस्तेषां यत् पापथा-नामात्मनं, स्थापनान्मनं , द्रब्यान्मनं. भावा- तनं-विनाशनं तस्मिन् रतः-पासनः स श्रात्मनश्चरणरूपं स्मनं च । इदमप्यधःकमवत् तावद्भावनीय यावन्नोभाग- भावाऽस्मानं हन्ति । चरणात्मनि च इंते ज्ञानदर्शनरूपावप्यामतो शरीरद्रव्यात्मानम् , भव्यशरीरद्रव्यात्मनम् । स्मानी परमार्थता हताविध द्रव्यो। शारीभिव्यशरीरव्यतिरिक्त तु द्रव्यात्मनं नियुक्तिकृदाह यत अाहभट्ठाए अणढाए, छकायपमहणं तु जो कुणइ । निच्छयनयस्य चरणा-ऽऽयविघाए नाणदंसणवही वि। अनियाए अनियाए, आयाहम्मं तयं वेंति ॥१०३॥ ववहारस्स उ चरणे, हयम्मि भयणा उ सेसाणं ॥१०॥ यो गृह अर्थाय-म्यस्य परस्य या निमितम् . अनाय निश्वयनयस्य मतेन चरणात्मविघात सनि शानदर्शनयोरप्रयोजनमन्तरण एवमय पापकरणाशीलतया । अायायाए य| पिवधा-विधानो द्रष्ठयः, ज्ञानदर्शनयोहि फलं चरणप्रनियाए 'त्ति-निदानं निदा-प्राणिहिंसा नरकादिदुःखदेतु- निपत्तिरूपा सन्मार्गप्रवृत्तिः। सा चेन् नास्ति तर्हि ते अपि Jain Education Interational | Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) भाताहम्म अभिधानराजेन्द्रः। भादंसग जामदर्शने परमार्थतोऽसती एव, स्थकार्याकरणात् । उक्तं प्रातीय-मातीत-त्रि० । आ-समन्तादतीय इतः-झातः । च मूलटीकायाम्-चरणाऽऽत्मविधाते बामदर्शनषधोऽपि समन्तादतीय शाते, सामस्त्यनातिक्रान्ते, समन्तादतीव गत तयावरणफलत्वात् फलाभावे च हेतोर्निरर्थकत्वादिति । च । प्राचा० १ ध्रु०८ अ०६ उ० । "अण्णातीय" (सूत्रअषि ब-यश्चरणं प्रतिपद्य आहारलाम्पत्यादिना ततो न २२२+) आ-समन्तादतीव इतो-गतोऽनाचनन्ते संसार विनिवर्सते स नियमाद्भगवदामाविलोपादिदोषभागी, भग- श्रातीतः न पातीतोऽनातीतः, अनातो वा संशयो येन स बदाशाविलोपादी च वर्तमाना न सम्यग्मानी नापि स- तथा; संसारार्णवपारगामीत्यर्थः । प्राचा० १७०८ १०७ म्यग्दर्शनी । उक्तं च" आणाइ चिय चरणं, तभंगे जाण किंन भग्गं ति । आत्मीय-त्रि० । प्रात्मनोऽयम्। छ प्रत्ययः छस्य ईयाआणं च परतो, कस्साऽऽएसा कुणा सेसं"॥१॥ ऽऽदेशश्च । प्रात्मसंबन्धिनि, वाचा तथा"जो जहवायं न कुणह, मिच्छादिट्टी-तोहु को अनो। प्रातीयदृ-भातीतार्थ-त्रि०। प्रा-समन्तादतिशयेन शातजी. वह य मिच्छतं, परस्स संकं जणेमाणो"॥२॥ पादिपदार्थे. सामस्त्येनातिकान्तार्थे, उपरतव्यापारे, "माततश्चरणाविधाते नियमतो शानदर्शनविघातः । व्यबहार तीय? प्रणातीए" (सूत्र-२२२+)। प्रा-समन्तादतीय इता:स्य-व्यवहारनयस्स पुनर्मतेन हते चरण शेषयोनिदर्शनयो हाताः परिच्छिन्ना जीवादयोऽर्था येन सोऽयमतीतार्थः । भेजना कचिवतः । क्वचिन्न । य एकान्तन भगवतो विप्र श्रादत्तार्थे वा । यदि चा-अनीताः-सामस्येनातिकाम्ता तिवस्तस्य न भवतो यस्तु देशविरतिं भगवति श्रद्धानमात्र अर्थाः-प्रयोजनानि यस्य स तथा; उपरतव्यापार इत्यर्थः । वा कुरुते तस्य व्यवहारमयमंतन सम्यग्रष्टिवाद्भवत इति। आचा०१ ध्रु० ८०६ उ० । - ततो निम्नयनयमतापेक्षया चरणात्मनि हने शानदर्शनरू- |आतुर-आतुर-त्रि० । ईषदर्थे, श्रा। पात-उरन् । कार्थ्याsपावण्यात्मानौ हतावेवेति । परप्राणव्यपरोषणरतः समूल- क्षम वाच० । विडले, उत्त० ३२ अ०। घातमात्मन इति परप्रामुख्यपरोपणमारमनं, तप साधोराधाकर्मभुजानस्यानुमोदनादिद्वारण नियमतः संभव मातेस्सरिय-मात्मैश्वर्य-न। स्वरूपसाम्राज्ये,भएका मास्मैतीत्युपचारतः प्राधाकर्म आत्मन्नमित्युच्यते तदेवमुक्तमा श्वर्यम्-स्वरूपसाम्राज्यम् (१ श्लोकटी०) भए० १२ भए । ग्मन्ननाम | पिं० । आत्मन्नपिण्डे, पिं० । आत्त(ताय)-भादत्त-त्रिका गृहीते, मनु० "भारपणं सरीमाता (या) हिगरणवत्तिय-आत्माधिकरणप्रत्यय-त्रि०। रसमुस्सपणं जिणदिखूण भावणं," (सूत्र-२७+)। मासेन मात्मनोऽधिकरणानि प्रात्माधिकरणानि तान्यच प्रत्यय:- आदतेन वा गृहीतेन प्राकृतशैलीवशादास्मीयेन था। भनु। कारणं यत्र क्रियाकरणे तदात्माधिकरणप्रत्ययम् । आत्मा माततर-आत्ततर-त्रि०। अतिशयेन पासो-गृहीतः भासधिकरणकारणके “मायाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो। इरियावाहिया किरिया कज्जा, संपराइया किरिया कजर" तरः । यस्नेनाध्यवसिते, प्राचा० १ ०८१०८ उ०। (सूत्र-२६२४)। साम्परायिकी क्रिया क्रियत इति योगः। आदं (यं ) स-पादरिस-मादस्स-प्रादर्श-पुं० । माहभ०७ श०१०। श्यते ऽन्न रश-अाधारे घम् । वाच०। प्रा-समन्ताद्दश्यते माता (बा) हिंगरणि ( 1 )-प्रास्माधिकरणिन्-पुं० । प्रात्मा यस्मिन् स प्रादर्शः । सूत्र. १७०४०२०। গন্ধিয ন্যামান স্বামথিৰা আমাথিন্ধ दर्पण, रा०। “श्रादसगं च पयरुछाहि" (सूत्र-११+)। रणी । पात्मना कृष्यादिति, भ०१६ श०१ उ० । “आया सूत्र.१ श्रु०४० २३० । चक्षुरिन्द्रियजमान च । “श्राहिगरणी भया" (सूत्र-२६२४)। श्रात्मा-जीवोऽधिकरणानि वणं घेदनानाऽऽस्वादवार्ताश्च वित्तयः ॥११॥" द्वा० । श्राहलशकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधि दर्शश्चतुरिन्द्रियजमानम्, श्रा-समन्तात् दृश्यते-अनुभूयते करणी । भ०७ श०१ उ० । अपममति कन्या, यत्प्रकर्षाहित्यरूपानमुत्पद्यते । द्वा०२६ द्वा। तत्र हि विम्यपदार्थस्य प्रतिबिम्बपतमात् तत्संयोगेन माता(या)हिय-प्रात्महित-त्रि० । आत्मोपकारके, प्राचा।। नयनाश्मीनां परावर्तने वा बिम्बमाहितया बिम्ब दृश्यते "परलोकविरुखानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजत् । भात्मानं यो न इति तस्य तथात्वम् । पारश्यते सम्यग्रूपेणा शायते प्रासन्धत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः॥१॥" इति । आचा०१ म्यार्थो यस्मिन् । टीकायां ३ प्रतिरूपपुस्तकादौ यत्रत्यमध्रु०६१०४ उ०। क्षरसन्निवेश एवा तदनुरूपमन्यल्लिख्यते ताशे पुस्तके । प्राति (ती) ण प्राजिन-न० । मूषिकादिचर्मनिष्पन्ने घर, यथादर्श तथा लिखितमिति भूरि प्रयोगः । तत्र तदीयप्राचा। " प्राति (नी) णाणि वा," (सूत्र-१४५ +) । गुणान् रया परैस्तथा गुणा पाश्रीयन्त इति तस्य तथाआजिनानि सूषिकादिचर्मनिष्पन्नानि । आचा१श्रु० ५ | स्वम् । जनपदसीमाभेद च । वाचा पृषभादिग्रीवाभरण च । प्र.१ उ०। प्रादर्शस्तु-वृषभादिग्रीवाभरणम् । अनु० । प्राती (अप्पी) कय-श्रात्मीकृत-त्रि०। प्रात्मना गाढतर- प्रादं (य) मग-प्रादरिसग-प्रादसग-प्रादर्शक-पुं०। श्रामागृहीत प्रारमप्रदेशस्तनुलग्नतोयवन्मिश्रीभूते , विशे० ।। समन्ताद्रश्यते पात्मा यस्मिन् स आदर्शः। स पवादर्शप्रा०म०। कः । दर्पण, सूत्र.२६०४ १०९ ० रा०ा प्रादर्श भवः । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) भादंसग अभिधानराजेन्द्रः। भादाण भवादौ वुम् जनपदावधिसूचकस्थानभवे च । त्रिका बाच। स्यात् तद्देवार्चनं चेष्ट- तच्च देवार्चनमिष्टम् । पो० ५ विवः । आदं (यं) स (आदरिस) (आदस्स) घरग-आदर्शगृहक-श्रादहण-आदहन-न० । श्रा-दह-भावे ल्युत् । दाहे, हिमान । आदर्श नये गृहे, रा०। "अादसघरगा सब्बरयणामया" | याम् , कुत्सने च । श्रादह्यतेऽत्र आधारे ल्युट् श्मशाने, श्रादशगृहकाणि आदर्शमयानीय गृहाणि । रा० ज० जी० चाच० । श्रा-समन्तादहने. सूत्र०२ श्रु०१०।। (भरतस्यादर्शगृहस्थितिकथानकं 'भरह' शब्दे पञ्चम- आदा (या) ण-आदान-न। प्रा-दा-भाये ल्युट् । ग्रहण, भाग यक्ष्यते ।) वाचा प्रश्न. ३ आश्रद्वार । पं०व० श्री०। श्रा००। आदं (यं) सतल-आदर्शतल-न० । दर्पणतले, औ०। उत्त० । स्था। विश० । प्रव० । "अायाणं सुसमाहरे" ॥२०॥ श्राहरेत्-श्राददीत; गृह्णीयादित्यर्थः । मूत्र०१०८० आदं ( 1 ) स (आदरिस ) (आदस्स ) तलोवम-आदर्श "दंडसमादाग संपहाए" (सूत्र-७५४)। दराड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते तलोपम-त्रि० । प्रादर्शो-दर्पणस्तस्य तलं तेन समतयांपमा प्रागिना येन स दण्डस्तस्य सम्यगादानं ग्रहणम्-समायस्य आदर्शतलोपमः । आदर्शतलवत्सम, रा० । दानम् । प्राचा०१ श्र०० अ०२ उ०। स्वीकरण. स्था०३ आदं (यं स (आदरिस)(प्रादस्स) मंडल-आदर्शमण्डल- ठा० ३ उ० । “सयमाइयति अने वि, श्रादियाति अन्नं पि न०। प्रादर्श इव मण्डलमस्य। श्रादर्शाकारमण्डलयुक्ने स- श्रायतंतं समणुजाणति" (सूत्र-8+) स्वयम्-श्रात्मना सा. पभेदे, श्रादों मण्डलमिव । मण्डलाकारे दर्पण, न० । वा- बद्यमनुष्ठानमाददते स्वीकुर्वन्ति अन्यान्यप्यादापयन्तिच० । जावशब्दग्राह्ये बहुसमत्ववर्णक टीकायाम् पाठः- ग्राहयन्ति अन्यमप्यादान-परिग्रहं स्वीकुर्वन्तं समनुजान" आयसमराडलेइ वा" ( सूत्र-६ +) | जं. १ वक्षः। स्ति । सूत्र०२ थु०१०। प्रादीयत इत्यादानम् परिग्राधे "प्रायसमंडलतल व्य" (सूत्र-२६)। प्रश्न०५ संव० द्वार । वस्तुनि, स्था०४ ठा०१ उ०। श्रादीयते-गृह्यत इत्यादानम् । आदं (यं)स (आदरिस) (आदस्स) मुह-श्रादर्शमुख- धनधान्यादिके परिग्रहे, आय० ४ श्र०। प्रव० । कल्प० । पुं० । स्वनामख्याते अन्तरद्वीपमेये, जी. ३ प्रति० ३ अधिक। स्था० । तद्वक्तव्यता 'अन्तरदीव' शब्दे प्रथमभागे गता) आयाणं नरयं दिस्स, नायइज तणामवि || +॥ भादं (यं) स (आदरिम) (आदस्स) लिवि-श्रादर्शलिपि- साधुम्तृणमाप 'नायइज' इति-नाऽऽददीन-अदत्तं न स्त्री० । ब्राह्मलिपलख्यविधानभेदे, स०१८ सम० । गृहीत, किं कृत्वा श्रादानं-नरकं दृष्टा श्रादीयते इत्यादानं धनधान्यादिकं परिग्रह, नरकं-नरकहेतुत्वान्नरकं; शास्वेपाद (य)र-श्रादर-पुं० । आ-ह-कप् । गौरवहतुके क त्यर्थः । उत्त. लक्ष्मी०टी०६ अ०। प्रादीयत इत्यादानंमणि, सम्माने, वाच । सरकारे, स्था०६ ठा० ३ उ० । धनधान्यादि. कृत्यल्युटोऽन्यत्रापि " कृत्यल्युटो बहुलम्" "तं पुरिस श्रायरेण रक्खेह ॥ १३३ + ॥ श्रा०म०१०। (पागि ३३११३१ ) इति कर्मगि ल्युट् । पार्षवादादानीय उचितकृत्यकरणे, ज्ञा० १ थु० १ ० । प्रयत्नातिशय, वा. नरककारणत्वान्नरकं दृष्टा, किमित्याह-नाददीत-न पश्चा।" यत्रादराऽस्ति परमः, प्रीतिश्च हितोदया भ गृहीत न स्वीकुर्य्यादिति यावत् । 'तरणमवी'ति तृणमप्यावति । कर्तुः शष यागे-न करोति यश्च तत्त्रीत्यनुष्ठानम् ॥२॥ स्तां रजनरूप्यादीनि । उत्त०पाई०१ १०। मिथ्यात्वादि. पश्चा०२विव!"श्रा दृङः सन्नामः" ॥८।४।८३॥ इति नाऽऽदीयत इत्यादानम् । मूत्र०१ श्रु० १३ अ०।आदीयते हेमप्राकृतसूत्रेणाद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति । स सायद्यानुष्ठानन स्वीक्रियते इत्यादानम्, कर्म । "आयाणनाम । प्रादह । प्रा०। सायगढिए" (सूत्र-१३८x) | अटप्रकारके कर्मणि, सूत्र०१ पाद (य)रण-आदरण-न। श्रभ्युपगमे, भ० १२ श० श्रु०१३ १० । प्राचा० । श्रादीयते वाऽनेनेत्यादानम् । ५ उ०। कर्मोपादाने, "पाया" (सूत्र-१८५+)। आचा०१ श्रु०६ अ० श्राद । य) रणया-आदरणता-स्त्री० । अभ्युपगमे, " श्रा- ३ उ० । "सागारिए उबस्सए रणा ठाणं वा निसीयणं या यरणया" ( सूत्र-४४६ +)। 'पायरणय' ति-यतो मा तुयट्टणं वा चनजा । आयाणमयं" (सूत्र-६७x)| प्राचा०२ याविंशवादादरणमभ्युपगमं कस्यापि वस्तुनः करोत्यसावा थु०१चू० २ अ०१. उ० । "एयं खु मुणी पायागं सया दरणम् , ताप्रत्ययस्य च स्वार्थिकत्वात् श्रादरण्या, पाच सुक्खायधम्मे विधूतकप्पणिज्झोसइत्ता" (सूत्र-१८५+)। रग वा परप्रतारणाय विविधक्रियाणामाचरणम् । भ०१२ एतत्-पूर्वोक्नं वदपमाणं वा खुः याक्यालंकारे, श्रादीयत इत्यादानं-कर्म, श्रादीयते वाऽनन कर्मेन्यादानं-कर्मोपाश.५ उ०। दानम् तच्च धर्मोपकरणानिरिक्कं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मुप्राद (य) रतर-आदरतर-पुं० अत्यादरे, दश० । “प्राय निझोंपयितेति संबन्धः । श्राचा०१०६ अ० ३ उ०। ग्तरण रंधति" (१९२४)। अत्यादग्ण राध्यन्ति । दश०१ अ। "सन्ति में तो पायाणा जहिं कीरइ पावगं" (२६४)। पाद (य) राइजुत्त-आदरादियक्त-त्रि० । आदरकरणप्री- सन्ति-विद्यन्त अमूनि त्रीणि श्रादीयन्ते-स्वीक्रियते अत्यादिसमन्विते. पा० । मीभिः कर्मत्यादानानि एतदेव दर्शयति-यैरादानैः क्रियते विधीयत निष्पाद्यत पापकं कल्मषम् । सूत्र० १श्रु०१० स्थादादरादियुक्त, यत्तद्देवार्चनं चेष्टम् ॥ १४ ॥ ३ उ० । “संखार्ड खंखडिपडियाए णा अभिसंधारेजा 'स्थादादगदियुक्तं यद् श्रादरकरणप्रीत्यादिसमन्वितं यत् । गमणाए, केवली बूया-आयाणगंयं" (सूत्र-१७+)। केवली Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) अभिधानराजेन्द्रः। प्रादाण भादाण यात्-श्रादानमेतत्-कर्मोपादानमेतदिति । पाठान्तरं वा- (सूत्र-४+) आदीयत इन्यादानम्-शानादिक, मोक्षा पा 'बाययणमेयं नि-मायतन-स्थानमतहाषाणां यरसंखडीग- तमर्थ वश्चन्ति -भं रायम्त्यात्मनः। सूत्र.१७०१३१०। मनम् । श्राचा०२ श्रु०१चू०१ श्र० ३ उ० । "पते संयम, "आयागगगुत्त वलयाविमुक ॥ २२+॥ माक्षापायागा संनि" (सूत्र-१५४)। यस्मादतानि आयतनानि- र्थिनाऽऽदीयते-गृह्यत इत्यादाने-संयमस्तेन तस्मिन्या सति कर्मोपादानकारणानि सन्ति-भवन्ति । आचा०२ थु०१ चू० गुप्तः । सूत्र. १ श्रु० १२ अ०। संयमानुष्ठान च। “एस ११.३ उ० । श्रादीयते-गृह्यते प्रात्मप्रदेशैः सह श्लिष्यते वीर पसमिप, जे ण णिब्बिजनि पादाणाए" ( सूत्रअपकारं कर्म येन तदादानम् । हिंसाद्याश्रवद्वारे, अपा- ८५+) भोगाशाछन्दविवेचकोऽप्रमादी पञ्चमहावतभारादशपापस्थानेषु च। प्राचा-११०३०४ उ० "पायावं रोहणानामिनस्कन्धो बीरः कर्मविदारणात् प्रशंसितःसगडभिजं" (सूत्र-२२१४)। मादीयते-गृह्यते प्रात्मप्रदेशः स्तुनो देवराजादिभिः, क एष वीरो नाम योऽभिष्ट्रसह श्लिष्यते अष्टाकारं कर्म येन तदादानं हिंसाद्याश्रव- यत इत्यत आहजे' इत्यादिः यो न निर्षियते न द्वारमादशपापस्थानरूपं वा, तत् स्थितेनिमित्तस्वात् क- खिद्यतन जुगुप्सते, कस्मै ? श्रादानाय-आदीयते-गृवंत पायापादानं तद्वमिता स्वकृतभिद् भवति । प्राचा०१७० अवाप्यत आत्मस्वतत्वमशेषाचारककर्मक्षयावर्भूतसमस्त३ अ० उ० ('सगडभिज्ज' शब्दे सप्तम भाग व्याख्या दृप- वस्तुग्राहिमानावाधसुखरूपं येन तदादानं-संयमानुष्ठान व्या) कपाय, परिग्रहे, सावद्यानुष्ठाने च । सूत्र १ श्रु०१६ तस्मै न जुगुप्सते, तद्वा कुर्वन् सिकताकवलचर्वणदशीयं अ.। "जो जी श्रादाणं अपणो पदोसहेऊ तो सो कचिदलाभादी न खदमुपयातीनि । प्राचा०१ ०२१०४ भादाणतो पुश्वं पडिविरते" (सूत्र-४) श्रादीयते-स्वी- उ० । प्रादीयन इत्यादानम् । प्रथमवतग्रहणे । सूत्र "जावक्रियतेऽप्रकारं कर्म येन नदादानम्-कषायः परिग्रहः साव- जीवाए, जहिं समणावासगस्स प्रायाणसी, आमरणंताए धानुष्ठानं वति । स्त्र.१ श्रु०१६ अ०। दंडे निखित्त"(सूत्र०)। यावधैर्यपु वा श्रमणोपासकस्याss. दीयत इत्यादानम्-प्रथमवतग्रहणम्। तत प्रारभ्य भामरमुमावार्य बहिई च, उग्गहं च अजाइया । णान्ताहराडो निक्षिप्तः-परित्यक्ता भवति । सत्र०२ श्र०७०) सत्थादाणाई लोगमि, तं विज्जं परिजाखिया ॥१०॥ कननिदादीयत इत्यादानम् । सूत्र. २७०२०। कारणे, पलिउंचणश्च भयणञ्च, थंडिल्लुस्मयणाणि य । कल्प "आयाणमेवं," कर्मणां-दोषागां वा प्रादानम्-उपाधूणादाणाइँ लोगंसि, तं विज्ज परिजाणिया ॥११॥ दानकारणम् । कल्प०३ अधि०६ क्षण । “एगइनो कण श्रा. याणणं विरुद्ध समागे" (सूत्र-३२+)। सूत्र०२ श्रु०२१०। तथा-श्रादीयते-गृह्यतेऽटप्रकारं कर्मभिरिति (श्रादाना एकः कश्चित् प्रकृत्या क्रोधनोऽसहिष्णु नया कनचिदादीयन नि)-कोपादानकारणान्यस्मिन् । सूत्र०१ श्रु०६ अ०। इत्यादानम्-शब्दादिकं कारणं तेन विरुद्धः समानः परस्याएतानि पलिकुश्चनादीनि अस्मिन् लोक आदानानि वर्तन्ते पकुर्यात् शब्दादानेन तावत्केनचिदाकुणो निन्दिता वाचा तदेवद्विद्वान् क्षपरिक्षया परिक्षाय प्रत्याख्यानपरिक्षया प्र विरुध्यत् रूपादानेन तु बीभत्स कञ्चन दृष्ट्वा अपशकुनात्याचक्षीत । सूत्र.१७० अ०। (१०-११ । अनयोर्गाथयो ध्यवसायेन कुप्येत । सूत्र०२ श्रु०२० । श्रादीयन्ते-गृविशेषतःपाख्यानं 'धम्म' शब्द चतुर्थभागे करिष्यते ) ह्यन्ते शब्दादयोऽर्था एभिरित्यादानानि । इन्द्रिय, वृ०१ प्रादीयते-स्वीक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो यन तदादानम् । उ० । केवली गण आयाणाहन जाणन पास" (सूत्रशानदर्शनचारित्रेषु, "बुसीए य विगयगही पायाणं सम्मर- १९८+)। श्रादीयते गृह्यतेऽर्थः एभिरित्यादानानि-इन्द्रियाणि क्खए" ॥१४॥ विविधम्-अनेकप्रकारमुषितः-स्थितो दश तैर्न जानाति केवलित्वाद् । भ०५ श०४ उ०। “श्रायाणविधवक्रबालसामाचर्या ब्युषितस्तथा विगता-अपगता प्रा- निरुद्धाओ" ॥२८६+॥ पादानानीन्द्रियाणि निरुद्धानि यस्यां हारादौ गृद्धिर्यस्यासौ विगतगृद्धिः साधुरेवभूतवादीयते- सा निरुद्वादाना, गाथायां व्यत्यासेन पूर्वापनिपातः प्रास्वीक्रियत, प्राप्यते वा मोक्षो येन तदादानीयं शानदर्शन- कृतत्वाद् । वृ०१ उ. ३ प्रक० । “श्रायाणगुत्ता विकहावि. चारित्रत्रयं तत्सम्यग् रक्षयेद्-अनुपालयत् : यथा तस्य वृ- होणा" (८८४+)। आदानैः-इन्द्रियगुप्ताः । वृ०३ उ०। श्रादीद्धिर्भवति तथा कुर्यादित्यर्थः । सूत्र०१७० १०४ उ० । यत कर्मानेनन्यादानम् । दुष्पणिहते इन्द्रिय च । प्राचा। "प्रायाणअट्ठी बादाण माण" (सूत्र-१७४) । मोक्षार्थिना55- "श्रायाणसांयमातवायसायं" ॥१६x॥ श्राचा०१०६ अ० दीयत इत्यादानम् सम्यज्ञानादिकमिति । सूत्र.१७० १५ आदीयत गृह्यन, प्रथमम्-श्रादौ यत्तदानम् । सूत्र०१ १०१० श्र० । “आयाणवं धम्ममुदाहरजा ॥५५॥ मोक्षार्थमादीयत- अ०। प्राचा० । श्रादौ, (प्रथम) “श्रायाणपएनेयं ॥५०३+॥ इत्यादानं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपं तद्विद्यत यस्यासावा- आदीयत-इत्या दानम् --आदः; प्रथमित्यर्थः, तश्च तत्पनश्च दानवान् । सूत्र०२ श्रु०६०।" श्रायाणं सुसमाहरे" निगकाक्षतया अर्थगमकन्येन वाक्यमेवादानपदम् । उत्त. ॥१६॥ माक्षस्यादानम्-उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुष्ठूधुक्तः २६ अ० ।" से कितं आयाणपदे गग" (सूत्र-+) श्रादीयत सम्यग्विनोनसिकारहित पाहत्-श्राददीतः गृह्णीयादि नप्रथमतया उच्चारयितुमारभ्यंत शास्त्रस्याध्ययनादेशकात्यर्थः । सूत्र. १७०८० "अज्झापजोगसुदादा" देश्चादिपमित्यर्थः । अनु । निचू । १४१ । ( सूत्र-३ ४) शुजमवदानम् आदान-चरित्रं प्रादानशब्दम्य तत्पर्यायस्य च ग्रहणशब्दस्य यस्य म शुद्वादानो भवति । मूत्र०१ श्र०१६ ०। श्रा च निक्षेपं कर्नुकामो नियुक्तिक़दाहदीयत इत्यादानम् । मोक्षे, " पायाण मट्ठ खलु पंचयित्ता"। आदाणे गहणंमि य, णिक्खेवो होति दात्रि विचउक्के । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाण एग नाग, च होज पमयं तु आदाणे ॥ १३२ ॥ अथवा ' जमतीय ' ति श्रस्याध्ययनस्य नाम, तथादामपदेन आदायादीयतइत्यादानं तच प्रहमित्युच्यते तत्राऽऽदानग्रहयोगार्थ निदाहादा' इत्या वि.कार्याचा त्यानं करने या आदीयते , ने कियते विषमिति कृत्या आदान - पर्यायतते तत आदानग्रहणयो निक्षेपो भवति द्वौ चतुष्कौ, तद्यथा - नामादानम्, स्थापनादानम्, द्रव्यादानम्, भावादानञ्च । तत्र नामस्थापन पादानं वि या परित्या मेहता क्रेन तदीयते तेन वाऽपरं द्विपदचतुष्पदादिक मादीयतइतिकृया भाषादानं तु द्विधा प्रशस्तम् - प्रशस्तं च तत्र अमात्य त्यादिकं या गुणावायसाय कण्डकोपादानं सम्यक्ानादिकं वेत्येनवर्थप्रतिपादनपर मेतदेव पापमं द्रयमिति सूत्र ०१ ०१५ ४० , (२४० ) अभिधानराजेन्द्रः । 1 आदा (या) अट्ठि (न्) - आदानाऽर्थिन् - पुं० | मोक्षार्थिमाऽऽदीयते इत्यादानम् - सम्यक्शानादिकं तेनार्थः स एवार्थः श्रदानार्थ स विद्यते यस्यासावादानार्थी । सयकृतानादिप्रयोजनयति दाराची बोदामो । सूत्र- १७ । सूत्र० १९ श्रु० १४ श्र० । 6. 1 आदा (पा) गुण अ. दानगुप्त ०ि संयमगुप्ते, मनोबाकर्मणि गुप्ते या लपविणे" ( सूत्र - २२ + ) | मोक्षार्थिनाऽऽदीयते -गृह्यत इत्यादानं संयमस्तेन तस्मिन्त्रा सति गुप्तः, यदि वा मिथ्यात्वादिनाssदीयते इत्यादानम् अष्टप्रकारकं कर्म तस्मिन्नदातव्ये मनोवाक्कायैर्गुतः समितश्च । सूत्र० १ ० १३ श्र० । इन्द्रिये च "आयागुत्ता विकहाि आदानैः - इन्द्रियैर्गुप्तः । बृ० ३ ३० । मादा (या) शिवपद्य आदाननिचेप जुगुप्सक दुर्गुछय-आदाननिचेपजुगुप्सक-बि० । शाहाननिक्षेपी- पानी आगमप्रतिषि (ख) (ब) ही जुगुप्सन न करोतीति श्रादाननिष जुगुप्सकः । श्राव० ४ श्र० । श्रागमप्रति ( ब ) षिद्धौ पात्रादेग्रहणमोक्षौ च कुर्वति श्रागमानुसारेण प्रत्यवेक्षण प्रमाजनपूर्वमुपयुक्त सन्तुपधेरारामनिक्षेप करोतीत्यर्थः (६४३ गाथाटी० ) । प्र० ७२ द्वार । मादा (या) निरुद्ध निरुद्धाऽऽदान भि० मिरुद्रिये, " श्रायानिरुद्धाश्रो १०६ ॥ श्रादानानि इन्द्रि पाणि निरुद्धानि यस्यां सा निरुद्धाऽऽदाना, गाथायां व्यत्यासेन पूर्वाऽपरनिपातः प्राकृतत्वाद्। १० १ ० ३ ० । आदा (या) पय- प्रादानपद १० चायथमम् श्रादौ यसदादानम् खादानञ्च तत्पदं च सुबन्तं तिङन्तं वातदादानगम् । सूत्र० १ ० १५ अ० । शास्त्रस्याध्ययनो देशका देश्वादिपदे, अनु० । येषामादानपदेनाऽभिधानं तम्मादी परपदं तदादनपदम् सूत्र० १० १५ अ० उस० । - - आदाणभड से किं तं श्रयापदेणं १, आयाणपरणं धम्मो मंगलं चूलिया वंती चाउरंगिज्जं श्रसंखयं महातत्थिज्जं भ इज्जं जाइ पुरिसइअं (उसुकारिज्जं) एलइ वीरियं धम्मो मग्गो समोसरणं गत्थो जंमइयं । सेतं भायाणपए (सूत्र १३१४) - ' से किं तं श्राणपणमि 'त्यादि श्रादीयते - तत्प्रथम तथा उच्चारयितुमारभते शास्त्राधनेनेत्यादानं तच सत्य पादानपदं शास्त्रस्याध्ययनो देशकारेत्यर्थः तेन हेतुभूतेन किमपि नाम पतित "ती"त्यादि अवन्तीत्याचारस्य पञ्चमाध्ययनम्, तत्र ह्यादावेव 'आवंती' स्यालापको विद्यते इत्यादानपदेनैतनाम । "बाजरंगिनितराध्ययमेषु तृतीयमध्यनम् -"सारि परमाथि तुलदाणी जंतु इत्यादि विद्यते असेस्वयं ति इदमप्युत्तराध्ययनेष्येव चतुर्थमभ्ययनम् श्रादावेव " असंखयं जीवियमापमायण " इत्येतत् पदमस्ति, ततस्तेनेदं नाम, एवमन्यान्यपि कानिचिदुत्तराध्ययनान्तयतनानि चकालिकसूपगडा ध्ययनानि (सूत्रकृताङ्गा ऽध्ययनानि) स्वधिया भावनीयानि । " 66 - अनु० । मादा (या) गफलिह श्रादानपरिष- पुं० । श्रादीयतेद्वारस्यगनार्थं गृह्यत इत्यादानः स चासो परिधानपरियः । द्वारब्धगनाचे ब्राह्माणामर्गलायाम, जं० २० २१ सूटी० जी० । " श्रयाणफलिह० ( सूत्र - २१+ ) आदीयते इत्यादानम् - आदेयो- रम्यो यः परिघः श्रर्गला स आदानपरिष। रम्यायाम गर्लायाम् ०४०द्वार 99 17 " आदा (वा) सडमनिक्खेवासमिह-मादानभाण्डमा निक्षेपवासमिति श्री० आदाने सहभारमाउपकरणुमात्राया, भाण्डस्य वा वस्त्राद्युपकरणस्य मृरामनिक्षेपणायां बादपास्य च साधुभाजनशिप निशेपाच समितिः सुयुनिसुप्रमार्जितमेवेति आदानमाडमानिसमितिः समिति पा० १७ सूत्री स्था० । (अत्र सूत्रम् ' समिइ' शब्दे सप्तमे भागे वधयंत ) भाण्डमात्रे, श्रादाननिक्षेपविषया सुन्दरवेष्टा । स्था० ५ ४० ३० ४५८ सूत्रटी० । " इह च सन्त भंगा होन्ति पचादिन पडिले मग एथ बारिमा पुष्पलेडि दुप्पमञ्जियं चार अप्सरा, चरिमो पत्थर"यरिव साहू भणिश्रो गामं बच्चामो, उग्गहिए संते केण इ कारण ठिया, एक्को एत्ताहे पडिलेहियाणि ति काउं साहू - किमित्य सप्पो सन्निहिवार देवया सप्पा विधि एस जग असमिश्र, श्रं तेव विहिणा पडिलेद्दित्ता उबेर, सो उक्कीसश्रो समिश्रो | श्र० ४ श्र० १०५ गाथाटी० । अत्राप्युदाहरणम्-" - "एकम्स शायरियस्स पंच सीससयाई, लेखिमेगा से पास जो जो साइ पइ तस्स तस्स डंडगं निक्खिवर, एवं तस्स उट्ठियस्स 37 - , - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) भादाणभंड. अभिधानराजेन्द्रः। मादाणिज्जज्झयण अत्रो एति, अत्रो जाइ, तहावि सो भगवं अतुरियं अब- स्येन्द्रियानुकल्यरूपे मोहात्मके या तमसि वर्तमानस्यात्मचलं उपरि हेट्टा मज्जिउं ठवेह । एवं बहुएम वि कालेखन | हितं मोक्षोपाय वा अधिजानत माझायाः-तीर्थकरोपदेपरितम्मइ” पा० १७ सूत्रटी० । शस्य लाभो नास्तीत्येतदई ब्रवीमि तीर्थकरवचनोपलब्धश्रादा (या) णभंडमत्तनिक्खेवणासमिय श्रादानभाएड सद्भावः । आचा० १ ध्रु० ४ १०३ उ०। मात्रनिक्षेपणासमित-त्रि० । " आयाणभंडमत्तनिक्खेवणा- आदा (या)णिज्ज-श्रादानीय-त्रि० । आदीयत-उपादीसमिए " (सूत्र-६२४) । श्रादानेन-ग्रहणेन सह भायड- यते इत्यादानीयः । उपादेये, स्था०६ ठा० ३ उ० । स०। मात्रा या-उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा-न्यासस्तस्यां। प्राच. पाना। "श्रायाणिजे वियाहिए" (सूत्र-१३७+)। समितो यः स तथा । आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिती | स वीराणां मार्ग प्रतिपन्नः मांसशोणितयोरपमेता मुमुक्षू. सम्यक् प्रवृत्ते, भ०२ श०१ उ०। णामादानीयो-ग्राह्य प्रादेयवचनश्च व्याख्यातः । श्रामादा (या) णभय-आदानभय-न० । मादीयत इत्यादा चा०१७०४१०३ उ० । प्रादीयन्ते-गृह्यन्ते सर्वभावा नं-घन तदर्थ चौरादिभ्यो यद् भयं तदादानभयम् । बाबा अनेनेत्या दानीयम् । श्रुते, भोगाने, द्विपदचतुष्पदधनधान्य४१०८३ गाथाटी। स्था०। भयस्थानभेदे, स०७सम०। हिरण्यादिके, प्राचा०१थु०२१०३ उ०1 "पायाणिजं" नि० चू० । आदानभयम्-आदानं पुण्यार्थमपुण्यार्थ वा (सूत्र-१८४+) आदीयते इत्यादानीयम्। कर्मणि भाचा०१ श्रु०६१०२ उ० "प्रायाणिज्जं च प्रादाय तम्मि ठाये रण परेण राजादिना वितरित ग्रामनगरभूखण्डादेः स्वीकरण तदेव भयम् श्रादानभवम् मा कश्चनापराधमवाप्य तद् ग्रही चिट्ठा" । आदीयन्ते-गृह्यन्ते-सर्वभावा अनेनेस्यादानीयम्यति । दर्श० १ तस्व : गाथाटी। श्रुतम्, तदादाय तदुक्के तस्मिन् संयमस्थाने न तिष्ठति । यदि वा-श्रादानीयम्-श्रादातव्यं भोगाद्विपदचतुष्पदमादा(या)णभरिय आदानभृत-न० । आग्रहणभृते, उपा० । धनधाभ्यहिरण्यादि तदादाय-गृहीत्वा । अथ वा-मिथ्या“श्रादाणभरियसि काहयसि अहमि " ( सूत्र-२८+) स्वाऽविरतिप्रमादकषाययोगैरादानीयं कर्मादाय, किंभूतोपादानम्-भाद्रडणं यदुनकतैलादिकमन्यतरद्रव्यपाका- भवतीत्याह-तस्मिन् सानादिमये मोक्षमार्गे सम्यगुपदेशे याऽमवुत्ताप्यत तद्भुते । उपा० ३१०। वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति नात्मानं विधत्ते । श्राचा प्रादा(या)णया-भादानता-स्त्री०। प्रहणतायाम् , बह च थु०२१०३ उ० । “आयाणिजे परियणाय, परियारणं चिगिचा (सूत्र-१८४४) आदीयते इत्यादानीयं-कर्म तत्पनाप्रययः स्वार्थिकः । प्राकृतत्वेनादानादीनां भावविवक्षया रिमाय मूलोत्तरप्रकृतिभेदतो शास्वा पर्यायेस्स-श्रामण्येन वा । स्था० २ ठा०२ उ० । विवेचयति पयतीत्यर्थः । श्राचा०१ श्रु.६ १०२ उ० । भादा (या) णवंत-श्रादानवत-त्रि. 1 मोक्षार्थमादीयत आश्रयणीये, मोशे, मोक्षमार्गे, सम्यग्दर्शनादिके च । इस्यादानम् सम्यग्दर्शनझामचारित्ररूपं तद्विद्यते यस्या- "पुरिसाऽऽदाणिया नरा" ३४ + | मुमुखुणामादामीयासाचादानवान् सम्यग्दर्शनशानचारित्रवति साधी, सूत्र० । पाश्रयणीयाः पुरुषादानीयाः महान्तोऽपि महीयांसो भव"श्रायाखवत समुदाहरेजा" ॥५५॥ सूत्र०२ श्रु०६०।। न्ति । यदि घा-श्रादानीयो-हितैषिणां मोक्षः, तन्मार्गों श्रादा (या) सोयगढिय-आदानश्रोतोगृद्ध-त्रि० । श्रा- पा-सम्यग्दर्शनादिकः पुरुषाणां-मनुष्याणामादानीयः स दीयते-कर्मानेनेति आदान-दुष्प्रणिहितमिन्द्रियमादानं च | विद्यते येषामिति विगृह्य मत्यर्थीयः । "अर्शश्रादिभ्योऽ" श्रोतश्चादानश्रोतः । प्राचा०१ २० । अ० १ उ० १६ इति । सूत्र. १ श्रु० अ०। गाथाटी०॥ प्रादीयते-सायद्यानुष्ठानेन स्वीक्रियते इत्यादानं | से तं संवुज्झमाखे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावं कम्म कर्म संसारबीजभूतं तस्य श्रोतांसि इन्द्रियविषया मिथ्या णेव कुञ्जा ण कारवेजा । ( सूत्र-६४x) स्वाविरतिप्रमादकपाययोगा वा तेषु गृद्धः-अध्युपपन्नः । आचा०१०४०३ उ०। "पादानश्रोतस्यभ्युपपने, आदातव्यम्-श्रादानीय तथ परमार्थतो भावाद्-मादाप्राचा नीयं शानदर्शनचारित्ररूपं तदुत्थाय इति अनेकार्थवाद् प्रादाय-गृहीत्वा । अथवा-स अनगारः एतदादानीयं-शामायाणसोयगढिए बाले प्रबोच्छिम्मबंधणे अणभिकंत नाद्यपवर्गकारणम् । प्राचा० १५०२५.६ उ०। (६६संजोए तमंसि अविजाणो प्राणाए लंभो णऽस्थि ति] अस्य संपूर्णसूत्रस्थ व्याख्या 'लोगविजय' शब्ने षष्ठे भागे मि । (सूत्र-१३८+) करिष्यामि ) । “आयाणीयं समुट्ठाय" (सूत्र-१६ + ) । (पादानधोतोगृतः) स्यात् , कोऽसौ ? वालः-अशः राग आदानीय ग्राह्यं सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य । द्वेषमहामोहाभिभूतान्तःकरणः । यश्चादानश्रोतोगृद्धः स किं प्राचा०१ श्रु०११०२ उ०। भूतः स्यादित्याह-"अयोध्छिन्नबंधणे" इत्यादि, अम्यव प्रादा (या) णिअझयण-पादानीयाध्ययन-न० । मोक्षाछिन्नं-जन्मशतानुवृत्तिबन्धनम्-अएप्रकारं कर्म यस्य स चिनाऽशेषकर्मक्षयार्थ यजमानादिकमादीयते-तवत्र प्रतिपा. तथा, किश्च-'अणभिवंत' इत्यादि-अनभिकान्तः-अनति- घत इति कृत्वाऽऽदानीयमिति नाम संवृत्तम् । सूत्रकृताखलितः संयोगो धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिकृतोऽसंय- अस्य स्वनामयाते पश्चदशे ऽध्ययने. सूत्र०१ श्रु०१५म। मसंयोगो बा येनासावनभिकान्तसंयोगः तस्य चैवभूत- आदानपदमाश्रित्यास्याभिधानमाकारि, श्रावामीयं वा . Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२.) प्रादाणिज्झयण अभिधानराजेन्द्रः। आदीणभोर सानाविकमाश्रित्य नाम कृतमिति । प्रादानीयाभिधान- | आदा (या) हिणपयाहिणा-आदक्षिणप्रदक्षिणा-स्त्री० । स्यान्यथा वा प्रवृत्तिनिमित्तमाह आदक्षिणतः-पार्वात्प्रदक्षिणा पार्श्वभ्रमणमादक्षिण प्रदक्षिजं पढमस्संऽतिमए, वितियस्स उ तं हवेज आदिम्मि । णा । स्था०१ ठा० । दक्षिणपाादारभ्य परिभ्रमणतो दएतेणाऽऽदाणिजं, एसो अन्नो वि पञ्जाओ ।। १३५ ।। क्षिणपाश्वेप्राप्ती, नि। "अज्जसुहम्मं थेरं तिक्खुत्तो पाया हिणपयाहिणं करेड"। त्रिःकृत्यः-श्रीन् वारान् श्रादक्षिणयत्पदं प्रथमश्लोकस्य तदर्द्धस्य च अन्ते-पर्यन्ते तदेव प्रदक्षिणां दक्षिणपावादारभ्य परिभ्रमणतो दक्षिणपार्श्वप्रापर्व शब्दतः अर्थतः उभयतश्च द्वितीयश्लोकस्यादौ तदर्ध प्तिगदक्षिणप्रदक्षिणा तां करोति। नि०१७०१ वर्ग १०। स्य वाऽऽदा भवति-एतेन प्रकारेणाद्यपदसदृशत्वेनादानीयं आदि(इ)च्च-पाहत्य-त्रि० । श्रा-दृ-कर्मणि क्यप् । आदरभवति, एष आदानीयाभिधानप्रवृत्तेः पर्याय:-अभिप्रायः अन्यो चा विशिष्टज्ञानादि आदानीयोपादानादिति । के णीये, श्रादर्तव्ये, ल्यप् । सम्मान्येत्यर्थे, अव्य० । वाच०। चित्तु-पुनरस्याध्ययनस्यान्तादिपदयोः संकलनात्संकलि- आदित्य-पु० । कृष्णराज्यवकाशान्तरस्थलोकान्तिकसंशकेति नाम कुर्वते । तस्या अपि नामादिकश्चतुर्धा निक्षपः। कार्चिालिबिमानस्थे लोकान्तिकदेवविशेष, भ.६ श०५ ( स च 'संकलिया' शब्द सप्तमे भागे दर्शयिष्यते) सूत्र० उ०। समयालिकादीनामादो भवे, सू० प्र०२० प्राहु । १ श्रु०१५ प० । पञ्चदशे त्वादानीयाख्येऽध्ययनेऽर्थाधि- सूर्ये, आव० ४ अ। श्रादित्यो हि सर्वजगत्पतीतो जगकारोऽयम् , तद्यथा-" श्रादाणियसंकलिया प्रादाणीयम्मि त्प्रदीपकल्पो दिवसादिकालविभागकारी। (सूत्र०) श्रा-गो श्रादयचरित्तं " ॥ २८ ॥ श्रादीयन्ते-गृह्यन्ते-उपादी- पालाङ्गनादिप्रतीतः समस्तान्धकारक्षयकारी कमलाकरोयन्ते, इत्यादानीयानि पदानि अर्था वा ते च प्रागुपन्यस्त- द्घाटनपटीयान् श्रादित्योद्मः प्रत्यहं भवन्नुपलक्ष्यते । सूत्र० पदैरर्थश्व प्रायशोऽत्र संकलिताः, तथा-आयतं चरित्रं-स- १ श्रु०१२ अ०। (अस्य विमानवक्तव्यता 'विमाण' शब्दे म्यक् चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकं तश्चात्र ब्यावरायते। सूत्र०१ षष्ठे भागे वक्ष्यते) (अस्य मण्डलादिवक्तव्यता 'सूरमंडल' थु० १ ० १ उ०। शब्दे सप्तमे भागे यक्ष्यते ) (अस्य श्रावृत्तयः 'पाउहि' प्रादाणीय-आदानीय-त्रि० । उपादेये, स्था० ६ ठा० ३ शब्देऽस्मिन्नेव भागे गताः) उ०। सूत्र. । ( अस्य यहयोऽर्थाः 'आदाणिज्ज ' शब्देऽ जस्स जो आइच्चो, उएइ सा भवइ तस्स पुन्वदिसा । नुपदमेव गताः) जत्तो य अत्थमेइ उ, अवरदिसा सा उ नायब्बा ॥४७॥ प्रादा (या) य-आदाय-श्रव्य० । प्रा-दा-ल्यप् । गृही- दाहिणपासम्मि य दा-हिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । स्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० ३ १०४ उ० । " इमं च धम्ममा एया चत्तारि दिसा, तावक्खेत्ते उ अक्खाया ॥४८॥ दाय, कासवेण पवेइयं ॥ ॥ २०+ ॥ श्रादाय-उपादाय- तापयतीति तापः-श्रादित्यः । आचा० १७० १ ०१ प्राचार्योपदेशेन गृहीत्वेति । सूत्र०१ श्रु० ३ ० ३ उ०।। उ०। (अत्र विस्तरं दिसा' शब्द चतुर्थ भागे कथश्राना० । प्राप्येत्यर्थे, “एवं विवेगमादाय" ॥ १४ ॥ यिष्यामि) विपाक-स्वानुष्ठानस्य श्रादय-प्राप्य, विवेकमिति वा क- आदिच्छा-आदित्सा-स्त्री० । श्रादातुमिच्छायाम् , भाव. चित पाठस्तद्विपाक-विवेक चादाय-गृहीत्वा । सूत्र० १ ६०। श्रृ०४०१ उ०। अङ्गीकृत्येत्यर्थे, " तवोवहाणमादाय" आदिम-आदिम-त्रि०। श्रग्रिमे, बृ० । “आवासगमाईया ॥४३ x ॥ उत्त० लक्ष्धी० २ ० । स्वीकृत्येत्य), उत्त० सूयगडा जाव श्राइमा भावा" (७८०४)। आवश्यकापाई. २ ० । अवगम्येत्यर्थे, “ आयाए एगंतमवक्कमेज्जा" दयः सूत्रकृताङ्गं यावत् य भागमग्रन्थास्तेषु ये पदार्था - ( सूत्र-३० x )। श्रादाय-अवगम्यैकान्तमपक्रामेत् ।। भिधेयास्ते आदिमा भावाः उच्यन्ते । वृ० १ उ०१ प्रक० । अादाने, पुं० । आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०। श्रादा (या) हिणपयाहिण - आदक्षिणप्रदक्षिण-त्रि०। श्रा पादियावण-पादापन-न । ग्राहणायाम् , सूत्र० । “स य दक्षिणात्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो-भ्राम्यतो माइअंति अन्ने वि प्रादियाति" (सूत्र-t+)। स्वयम्दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणः । ग०। आदक्षिणाद्-दक्षि आत्मना सावद्यमनुष्ठानमाददते-स्वीकुर्चन्ति, अन्यान्यप्याहापाादारभ्य प्रदक्षिणो-दक्षिणपार्श्ववर्ती श्रादक्षिणपद दापयन्ति-ग्राहयन्ति । सूत्र०२ श्रु०१०।। क्षिणः । विपा.१०१ दक्षिणपाद्वारयादीण-आदीन-त्रि०। प्रा-समन्ताद्दीनः श्रादीनः । सूत्र भ्राम्यतो दक्षिणपार्श्वधर्तिनि, भ० । “समण भगवं महावीर १ श्रु०५ अ० १ उ०। समन्तात्करुणास्पदे, सूत्र. १ श्रु. तिक्खुत्तो मायाहिणपयाहिणं करेइ" ( सूत्र-७ + )। १०अ०। प्रादक्षिणाद्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्य- | आदीणभोइ (न)-प्रादीनभोजिन-पुं० । पतितपिण्डोपतो दक्षिण एव श्रादक्षिणप्रदक्षिणोऽतस्तं करोतीति । भक जीविनि, “श्रादीणभोई वि करे पावं" (६४)। प्रादी१००१ उ० । नि०। औ० । “प्रायाहिणे पयाहिणं करेंति" नभोज्यपि पापं करोतीति । उक्त्रं च-"पिंडोलकेच दुस्सीले, (१८४ गाथाटी० )। प्रा-सर्वतः समन्तात्-परिभ्रमतां परगाओ ण मुबा" स कदाचिच्छोभनमाहारमलभमानोदक्षिणमेय जन्मभवनं यथा भवति एवं प्रदक्षिणं कुर्वन्ति । ऽल्पवादातरौद्रध्यानोपगतोऽप्यधः सप्तम्यामप्युत्पद्येत । मा० म०१०।०। तद्यथा-सायिव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूहो . Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) अभिधानराजेन्द्रः । प्रदीप भोइ भारगिरिशिलापागोस देवात्स्वयं पतितः पिएडोपजीवति तदेवमादीनभोज्यपि पिण्डोलकादिवज्जनः पापं कर्म करोति । सूत्र० १ ० १० अ० । आदी वित्तियदीनवृत्ति त्रि० । श्र समन्ताद्दीना-करूयास्पदा वृत्तिः-अनुष्ठानं यस्य एवंभूते, “श्रीवि करे पार्थ" (x) समन्तादीना-कवादतिरनु ठानं यस्य कृपपनीका सत्याभूतोऽि पाप कर्म करोति । सूत्र० १ ० १० अ० मादीशिय-आदीनिक वि० मा समन्तादीनमादीनं त द्विद्यते पस्मिन्सनिक प्रत्यन्तदीनस्याश्रये सूत्र "श्रीणियं उक्कडियं पुरत्था ॥ २ ॥ सूत्र० १० ५ ० १ उ० । आधाकम्म दमन हृदयमन्त बिताया राज्यचिन्ता रेण विस्ताया अयोगात्, धनुर्विषये भावनामाह श्रन्तके फरह धनुषः संबन्धिनि प्रत्यथाऽऽपततो धनु प्रत्यञ्चाया श्राश्रयः, एवं शेषाणामपि यूपादीनां प्रत्याश्रयत्वं भावनीयम्, तच्च भावितमेव । उक्का द्रव्याधा। संप्रति भावाssधा वक्लव्या-सा च द्विधा- श्रागमतो, नो श्रागमतश्च । तत्राऽऽगमत आधाशब्दार्थ परिज्ञान कुशलस्तत्र चोपयुक्तः, उपयोगी भावनः इति वचनात्। नाभागमतस्तु भावाssधा, यत्र तत्र वा मनःप्रणिधानम्, तथा हि-भाषो नाम-मानसिक परिणामस्तस्य चाधानं निष्पादनं भवति तदनुगुखतया तेन तेन रूपया परियमने सति नान्यथा, ततो मनःप्रणिधानं भावाऽऽधा, सा वेद प्रस्तापारसाधुदानार्थमोदनपचन पाचनादिविषया द्रष्टव्या वि । । उ " आदीच आदीप-अव्य० दीपादारभ्येत्यर्थे, स्पा०५ को आधा (हा) कम्म बाघा कर्म न० आधानम् आधा । श्लोक । अध (ह) रिशिय - आधर्षित - त्रि० । श्र धृष्-क्ल । श्रवैवाहन अवमानिते, तिरस्कृते, बलात्कारेभिभूते च । वाच० । • तेण भणियं जो चंडमेहं दूयं आधरिसेइति । (४४४-४४५ गाथाटी० । ) आ० म० १ अ० । श्राहरिसिश्रो दूश्रो संभंते नियत्तिश्र (४४४-४४५ गाथा टी० ३ श्र० म० १ श्र० । आधा (हा) - आधा - स्त्री० । श्राधानमाधा। उपसर्गादातः ॥५॥ ३१२०॥ इत्यत्ययः साधुनिमनसः पञ्चा० ३१ वि० | पिं० | प्रब० । प्रश्न० | दशा० । ० । ० । करण, उत्त०५०। श्रधीयतेऽस्यामित्याधा । श्राश्रये, पिं० । आश्रय आधार इत्यनर्थान्तरमिति । पिं० । साऽपि च - श्राधा नामादिभेदाच्चतुर्द्धा । तद्यथा-नामाधा, स्थापना उऽधा, द्रव्याऽऽघा, भावाऽऽधा च । तत्र नामाऽऽघा, द्रव्याssधाऽपि श्रागमतो नो श्रगमतश्च ज्ञशरीररूपा भव्यशरीररूपा च एव भावनीया । शशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं तुइयाऽऽधामनिवासुराद पसर्गादातः || ५ | ३ | ११ ॥ इत्यङ् प्रत्ययः । साधुनिमित्तं चेतसा प्रणिधानम् । यथा श्रमुकस्य साधोः कारणेन मया मक्लादि पचनीयमिति श्राधायाः कर्म-पाफारिकिया आ धाकर्म तद्योगात् मायाको हद दोषाभिधानमेsपि यद्दोषवतोऽभिधानं तद्दोषदोषवतोरभेदविवक्षया । द्रष्टव्यम् | पिं० । ग० प्रव० ख-घ-थ-ध-भाम् ॥६।१।१८७॥ इति द्वैप्राकृतसूत्रेण बहुलं धस्य हः । प्रा० । पिपप(१) वक्लव्यसंग्रहः । (२) युवतयः । (३) प्रतिषेवणादीनि । (४) प्रतिरूपम् । (५) कार्थिकानि , काभरणं कुररमाइया च संधाई हियवं चिप दवाऽऽहा अंत धनुयो ॥६६॥ इह द्रव्याssधाया विचार्यमाणायामाधाशब्दोऽधिकरणप्रधानो विवक्ष्यते श्रधीयते अस्यामित्याधा, आश्रय श्राधार इत्यनर्थान्तरम् । तत्र 'ध' ति धनुः चापं तत् आधाश्राश्रयः प्रत्यञ्चाया इति सामर्थ्याद्गम्यते, यूपः प्रतीतः । काय:- कापोती यया पुरुषाः स्कन्धारूढया पानीयं वहन्ति । भरः यसादिसमूह तथा कुटुम्बम् - पुत्रकलादिलदायः, राज्यं प्रतीतं चिन्ता आदि-महाजमधूःप्रभृतिपरिषदः तेषां च धान्याचा ध्य रूप आधारस्कम्यादिदयं तत्र कम्धो बलीय दिस्कन्धो, नरादिस्कन्धपरिचदिशब्दात् दिपरिग्रहः, तत्र यूपस्य द्रव्याऽऽधा द्रव्यरूपः आश्रयो - वृपभादिस्कन्धः स हि यूपस्तत्राऽऽरोप्यते । कापोत्या श्राश्रयो नरस्कन्धः, नरो हि पानीयानयनाय कापोत स्कन्धन पति मरस्याश्रयो गवादि महामायो हि भरोमादिनेातुं शक्यते नान्येन तथा कुटुम्ब 65 ( ६ ) आधाकर्माश्रित्य कल्ल्याsकल्ल्यविधिः । (७) तीर्थकरस्प आधाकर्ममोजित्यम् । (घ) द्वाविंशतिजनेषु कया कयविधिः । (२) अनादिषु धाः। (१०) आधाकर्मण एवाऽकल्ल्यविधिः । ( ११ ) श्राध कर्मभोजिनां कटुकविपाकः । (१२) आधाकर्म भोजिनां बन्धः । (१) धाको व्यापारिषद्द्वाराचामादआहाकम्मिय नामा, एगट्ठा कस्स वाऽवि किं वाऽवि । परपक्खे य सपक्खे, चउरो गहणे य आणाई ॥ ६४ ॥ इद्द प्रथमत आधाकस्मिकस्य नामान्येकार्थिकानि वक्रव्यानि ततस्तदनन्तरं कन्यायां कृतमाधर्मभी विचारणीयं तदनन्तरं च विपाधाकम्मैति विचार्यै, तथा परपचः वः स्वपक्षः साध्या त परपक्षनिमितमाचाक न भवति स्वपद्यनिमित्तं तु कृतं भवतीति वक्तव्यम्, तथा - श्रधाकर्मग्रहविषये.. चत्वारोऽतिक्रमादयः प्रकारा भवन्तीति वक्तव्यं तथा महाकर्मको भावाने प्रायः "सूचनाश्रम् " इति न्यायादाज्ञाभङ्गादयो दोषा वक्तव्याः । ताधिकानिधानाथ द्वारं ि , हा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) माधाकम्म प्रभिधानराजेन्द्रः। भाधाकम्म पडिसेवणपडिसुणणा. संवासऽणुमोयणा चेव ॥६॥ साधुनिमित्तं सचित्तस्याचित्तीकरणे-प्रचित्तस्य पाके च । 'पाहा आहे य कम्मे ' स्ति-पत्र कर्मशब्दः प्रत्येकमभि- प्रव० ६७ द्वार ३७० गाथाटी० । साधुनिमित्तं कृते ओदसंबंध्यत, चकारश्च कर्मेत्यनन्तरं समुच्चयाओं द्रष्टव्यः, तत नादी च । दर्श०४ तत्त्व ६ गाथाटी० । तदात्मके उद्रमएवं निर्देशो सातव्यः-श्राधाकर्म, अधःकर्म च । तत्रा55- दोषविशेषे च । स्था० ३ ठा०४ उ०। प्राचा० । उत्त० । धाकर्मेति प्रागुलशब्दार्थम् , अधःकमति अधोगतिनि श्राधाकर्मिकं यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम् । व्य. ३ बन्धनं कर्म अधःकर्म, तथा हि-भवति साधूनामाधा- उ० १६४ गाथाटी०। कर्मभुजानानामधोगतिः, निबन्धनप्राणातिपाताद्याश्र सचित्तं जमचित्तं, साहूणऽट्टाए कीरए जंच।। वेषु प्रवृत्तेः. तथा श्रात्मानं दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्ति अचिसमेव पच्चइ, आहाकम्मं तयं भणिधे ॥ ७॥ विनाशयतीत्यात्मनं, तथा यत् पाचकादिसंबन्धिकम पाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्ष वा । सदात्मनः सं सचित्तम्-विद्यमानचैतन्यं सत् फलबीजादि । यदचित्तम् बन्धि क्रियतेऽनेननि श्रात्मकर्म । पनानि च नामान्याधा अचतनं साधूनां संयतानाम् अर्थाय-हेतवे क्रियते-विधीकर्मणो मुख्यानि । संग्रति पुनर्यैः प्रतिषेवणादिभिः प्र यते तथा यत् , 'च' शब्दो-लक्षणान्तरसमुच्चयार्थः, अकारैस्तदाधाकर्म भवति । तान्यप्यभेदविवक्षया नामत्येन | चित्तमेव-अचेतनमपि सत्तण्डुलादि पच्यते-राध्यते साप्रतिपादयति-'पडिसेयण' त्यादि-प्रतिसेव्यते इति प्र धूनामर्थायेति प्रकृतम् , आधाकर्मोक्ननिर्वचनतकत् तद्भतिषेवणं, तथा-आधाकम्मनिमन्त्रणानन्तरं प्रतिश्रूयते । पितम्-उक्तं जिनादिभिर्यद्यपि वित्तस्य पृथिव्यादरअभ्युपगम्यते यत् आधाकर्म तत् प्रनिश्रवणं, तथा श्रा चित्तीकरन यत् क्रियते गृहवस्त्रादिः तदपि आधाकधाकर्मभोक्तृभिः सह संबसनं संबासः तद्वशात् शुद्धा म्मोच्यते, तथापीह तन्नोनं पिण्डस्यैवाधिकृन्वादिति गाऽऽहारभोज्यपि प्राधाकर्मभोजी द्रष्टव्यः, यो हि तैः सह | थार्थः । पञ्चा० १३ विव० । ध०। पं० व०। संवासमनुमन्यते स तेषामाधाकर्मभोक्तृत्वमप्यनुमन्यते, प्राधाया निक्षेपं प्रतिपादयति तया (श्राधया)यत्कृतं कर्मअन्यथा तैः सह संवसनमेव नेच्छेत् अन्यच्च संवासवशतः ओदनपाकादि तदाधाकर्म । तथा चाह नियुक्तिकृत्कदाचिदाधाकर्मगतमनोक्षगन्धाऽऽघ्राणादिना विभिन्नः सन् ओरालसरीराणं, उद्दवणनिवायणं व जस्सऽट्ठा । म्बयमयाधाकर्मभोजने प्रवर्नेत ततः संवास प्राधाकर्मदोपहेतुत्वादाधाकर्म उक्तः, तथाऽनुमोदनम् अनुमोदना श्रा मणमाहित्ता कीरइ, आहाकम्मं तयं वेति ॥ ६७ ।। धाकर्मभोप्रशंसाऽपि आधाकर्मसमुत्थपापानबन्धनत्वा- औदारिकं शरीरं येषां ते औदारिकशरीरा:-तिर्यञ्चो, मदाधाकर्मप्रवृत्तिकारणत्वाच्च प्राधाकम्र्मेति उक्नम् । अमीषां नुष्याश्च । तत्र तिर्यञ्चः-एकेन्द्रियादय पञ्चेन्द्रियपर्यन्ता च प्रनिषेवगादीनामाधाकर्मस्वमात्मकर्मरूपं नाम प्रतीत्य द्रष्टव्याः, एकेन्द्रिया अपि सूक्ष्मा, बादराश्च । नन्विह ये बेदितव्यं, तथा च वक्ष्यनि-'अत्तीकोइ कम्मम्मि' त्यादि- अपद्रावणयोग्याम्तियञ्चस्ते ग्राह्याः, न च सून्माणां मनुइद्द आधाकम्मति शब्दार्थविचारे श्राधया कर्म आधा- ष्यादिकृतमपद्रावणं संभवति, सूक्ष्मत्वादेव, ततः कथं ते कर्मेन्युक्तम् । पिं०। साधूनाम् आधया-प्रणिधानेन यत्कर्म इद्द गृह्यन्ते ? उच्यते, इह यो यस्मादविरतः स तदकुर्वन्नगि षट्कायविनाशेना ऽशनादिनिष्पादनं तदाधाकर्म। वृ०४ उ. परमार्थतः कुर्वन्नेव अवसयो यथा रात्रिभोजनादनिवृत्ती ४५६ गाथाटी० । नि० चू०। रात्रिभोजनम् । गृहस्थश्च । सूक्ष्मैकेन्द्रियापद्रावणादनिवृ(२) प्राधाकर्मशब्दव्युत्पत्तयः त्तस्ततः साध्वर्थ समारम्भं कुर्वन् स तदपि कुर्वन्नवगन्तव्य प्राधानमाधा प्रस्तावात्साधुप्रणिधानं. अमुकस्मै साधये | इति सूचमग्रहणम् , यद्वा-एकेन्द्रिया बादरा एव प्राह्या, न देयमिति, तया अाधाय वा साधुन् कर्म षड्जीवनिकाय- सून्माः, तथा च वक्ष्यति भाष्यकृत्-“श्रोगलग्गहणरंग, विराधनादिना भक्लादिपाकक्रिया प्राधाकर्म तद्योगाद् | तिरिक्खमणुयाहवा सुहुमवजा" तेषां औदारिकशरीराणां भक्ताद्यपि तथा निरुताद् यलोपः । ग०१ अधि० २१ गा- यत् अपद्रावणम्-अतिपातविवर्जिता पीडा। किमुक्तं भ. थाटी । साधुं चेतसि प्राधाय-प्रणिधाय; साधुनिमित्त- वति-साध्वर्थमुपस्क्रियमाणे प्वोदनादिषु यावदद्यापि शामित्यर्थः, कर्म सचित्तस्याऽचितीकरामचित्तस्य वा पाको ल्यादिवनस्पतिकायादीनामतिपातः-प्राणव्युपरमलक्षणो न निरुक्तादाधाकर्म । ध०३ अधि० २२ श्लोकटी० । श्रा- भवति । तावदर्वाग्वर्तिनि सर्वाऽपि पीडा अपद्रावणम् , धानमाधा-प्रणिधानं तया; साधुपणिधानेनेत्यर्थः, कर्म- यथा साध्वर्थ शाल्योदनकृते शालिकरटेर्यावद्वारद्वय कराडक्रिया पाकादिका प्राधाकर्म। पञ्चा०१३ विय०५ गा- नम् । तृतीयं तु कण्डनमनिपातः । तस्मिन् कृते शालिधाटी । यद्वा-पाधाय साधु-चेतसि प्रणिधाय यत् कि- जीयानामयश्यमतिपातभावात् । ततस्तृतीयकराडनर्मातपातयते-भक्कादि, तदाधाकर्म । पृषोदराऽऽदयः॥ ३।२।१५५ ॥ ग्रहणेन गृह्यत. यात च भाष्य कृत्-“उहवणं पुण जाणसु इति यलोपः। पिं० । प्रब । प्राधाय-चेतसि श्रयस्थाप्य अश्यायविधज्जयं पीडे" ति । उद्दयणशब्दात्-परतो विभसाधुं यदशनादि सचेतनमचेतन या पच्यते-अचित्तीक्रियत किलोप प्रार्पन्चात् . “तथा तिपाणयं" ति त्रीणि-कायतदाधाकर्म । दर्श०४ तस्य ६ गाथाटी० । आधया-साधु- याङ्-मनांसि, यद्वा-त्रीणि देहाऽयुरिन्द्रियलक्षणानि । पाननं प्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते- चातिपातोः बिनाश इत्यर्थः तत्र च विधा समासयिवक्षा, चीयत घा गृहादिकं ययते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म । नद्यथा-पष्ठीतत्पुरुषः, पञ्चमीतत्पुरुषः, तृतीयासन्पुरुषश्च । "प्राहाकम भुंजमाणे सयले भव ॥४॥दशा०२०। तत्र पुष्ठीतत्पुरुषोऽयम्-त्रयाणां काय-बाद-मनसा पानन Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म विनाशनं त्रिपातनम् एतथ परिपूर्णगर्मजपश्चेन्द्रियतिर्यक- 'अत्तकम्म' शब्दे प्रथमभागे ५०० पृष्ठे दर्शितम् ) अशुभो मनुष्याणामवसेयम् , एकछियाषां तुकारस्यैव केबलस्य भाषः प्राधाकर्म ग्रहणरूपः साधुना प्रयत्नेन घर्जयितव्यः । विकलेन्द्रियसंमूछिमतियङ्मनुष्याणां तु कायवचनयो- पिं० ११० गाथाटी०। परकर्मणश्चात्मीकरणम् प्राधारेवेति । यद्वा-त्रयाणां-देहायुरिन्द्रियरूपाणां पातन- कर्मणा ग्रहणे भोजने वा सति भवति, नान्यथा, तत उपविनाशनं विपातनम् , इदे च सर्वेषामपि तिर्य मनुष्याणां चाराद्-प्राधाकर्म प्रात्मकर्मेन्युच्यते । पिं० १११ गाथाटी। परिपूर्ण घटते केवलं यथा येषां संभवति तथा तेषां । अतिप्रसनदोषभयात् कृतकारितदोषरहितमपि न प्राधावक्तव्यम् , यथा एकेन्द्रियाणां देहस्य औदारिकस्य श्रायु- कर्म भुञ्जीत । अन्य तदाधाकर्म जानानोऽपि भुआनो पः-तिर्यगायुरूपस्य इन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियस्य, द्वीन्द्रियाणां नियमतोऽनुमोदते; अनुमोदना हि नाम अप्रतिषेधनम् , देहस्यौदारिकरूपस्य श्रायुपस्तिर्यगायुष इन्द्रिययोश्च | 'अप्रतिषिद्धमनुमतम्' इति विद्वत्प्रवादात् । पिं० १११ स्पशनरसनलत्तणयोरित्यादि, पञ्चमीतत्पुरुषस्त्वयम्-त्रि- गाथाटी। भ्यः-कायवाङ्मनोभ्यो देहायुरिन्द्रियेभ्यो या पातनं च्या- (३) संप्रति प्रतिषेवणादीनि नामानि वक्तव्यानि तानि चाबनमिति त्रिपातनम् , अत्रापि त्रिभ्यः परिपूर्णेभ्यः काय- ऽऽत्मकर्मेति नामाङ्गत्वेन प्रवृत्तानि, ततस्तेषां श्रात्मकर्मेति वाङ्मनोभ्यः पातनं गर्भजपश्चन्द्रियतिर्यकमनुष्याणाम् ए- नामाङ्गत्यं परस्परं गुरुलघुचिन्तां च चिकीर्षुरिदमाहकेन्द्रियाणां तु कायादेव केवलात् विकलेन्द्रियसंमूछिम- अत्तीकरेइ कम्म, पडिसेवाईहितं पुण इमेहिं । तिर्यङ्मनुष्याणां तु कायवाग्भ्यामिति , देहायुरिन्द्रिय तत्थ गुरू आइपयं,लेहु लहु लहुगा कमेणियरे ॥११२॥ रूपेभ्यस्तु त्रिभ्यः पातनं सर्वेषामपि परिपूर्ण संभवति, केवलं यथा येषां संभवति तथा तेषां प्रागिव बक्तव्यम् , तत्पुनानावरणीयादिकं परकर्म आत्मीकरोति-प्रारम सात्करोति एभिः-वक्ष्यमाणस्वरूपैः प्रतिषेवणादिभिः ततः तृतीयातत्पुरुषः पुनरयम्-त्रिभिः कायवाङ्मनोभिर्विनाश प्रतिषेवणादिविषयमाधाकाऽगि प्रतिवेषणादिनाम तत्र केन स्वसम्बन्धिभिः पाननं-विनाशनं त्रिपातनं, 'च' शब्दः तेषां प्रतिपेवणादीनां चतुर्णी मध्ये श्रादिपद-प्रतिषेधणासमुश्चये, भिन्नविभक्निनिर्देशश्वशब्दोपादानं च यस्य सा लक्षणं गुरु-महादोषं, शेणणि तु पदानि प्रतिषेधणादीनि ध्वर्थमपदावणं कृत्वा गृही स्वार्थमतिपातं करोति तत्क लघुलघुलघुकानि द्रष्टव्यानि , प्रतिषेवणापेक्षया प्रतिल्यं, यस्य तु गृही त्रिपातनमपि साध्वथै विधत्ते तन्न | धवणं लघुपतिश्रवणादपि संवासनं लघु संबासनादप्यकल्प्यमिति ख्यापनार्थम् , इत्थंभूतमौदारिकशरीराणाम नुमोदनमिति। पद्रावणं त्रिपातनं च यस्य साधोरेकस्यानेकस्य वाऽर्थाय संप्रत्येतेषामेव प्रतिषेवणादीनां स्वरूपं दृष्टान्ताश्च प्रतिनिमित्तं मन आधाय-चित्तं प्रवर्त्य क्रियते तदाधाकर्म | पिपादयिपुस्तद्विषयां प्रतिक्षामाहब्रुवते तीर्थकरगणधराः । पडिसेवणमाईणं, दाराणणुमोयणाऽवसाणाणं । इमामेव गायां भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति जहसंभवं सरूवं, सोदाहरणं पवक्खामि ॥ ११३ ।। ओरालग्गहणेणं, तिरिक्खमणुयाऽहवा सुहुमवजा । प्रतिषेवणादीनां द्वाराणामनुमोदनापर्यवसानानां यथाउद्दवणं पुण जाणसु, अइवायविवञ्जियं पीडं ॥२५॥ संभवं यद्यस्य संभवति । तस्य तत् स्वरूपं सोदाहरणम्-सकायवइमणो तिनि उ, अहवा देहाऽऽउइंदियप्पाणा। दृष्टान्तं प्रवक्ष्यामि, तत्र प्रथमतः प्रतिषेवणास्वरूपं वक्तसामित्ता वायाणे, होइ तिवाओ य करणेसु ॥ २६ ॥ व्यम् । पि०। (प्रतिषेवणारूपम् ' पडिसेवणा ' शम्ने पहिययंमि समाउं, एगमणेगं च गाहगं जो उ। श्वमभागे वक्ष्यते ११४-२१५ गाथाभ्याम् ) [४] संप्रति प्रतिश्रवणस्वरूपमाहवहणं करेइ दाया, कारण तमाह कम्मति ॥ २७ ॥ उवयोगम्मि य लाभ. कम्मग्गाहिस्स चित्तरक्खट्ठा । सुगमाः। नवरं 'देहाऽऽउइंदियप्पाण' ति-देहायुरि श्रालोइए सुलद्धं, भणइ भणंतस्स पडिसुणणा ॥११६॥ न्द्रियरूपात्रयः प्रायाः, 'सामित्ते' त्यादि स्वामित्वे-स्वा पिंक। [अस्याः गाथायाः व्याख्या 'पाडेसुणणा' शब्दे मित्यविषये संबन्धविवक्षयति भावार्थः, एवमपादाने-अ पञ्चमभागे करिष्यत] पादानविवक्षया करणेषु विषये-करणविवक्षया अतिपातो संप्रति संवासा-ऽनुमोदनयोः स्वरूप प्रतिपादयतिभवति , यथा त्रयाणां पातनं त्रिपाननम् , यद्वा-त्रिभ्यः पातनं विपातनम् , त्रिभिर्वा करणभूतैः पातनं विपातनं, संवासो उ पसिद्धो, अणुमायणकम्मभोयगपसमा । भावार्थस्तु प्रागेनोपदर्शितः तदेवमुक्तमाधाकर्मनाम । पिं० । एएसिमुदाहरणा, एए उ कमेण नायव्या ॥११७।। (माधाकर्मणोऽधःकर्मत्वमधःकर्म 'अधकम्म' शब्दे प्र- 'संवासः' प्राधाकर्मभोकृभिः सह एकत्र संबसनरूपः थभमागे ५८६ पृष्ठ रश्यम् ) । प्राधाकर्म अधोगतिनिबन्ध- प्रसिद्ध एव, अनुमादनादाधाककर्मभोजकप्रशंसा-कृतपुमम् इत्यधःकर्मेत्युच्यते । पिं० १०२ गावाटी०। ( प्रारम- रायाः सुलब्धिका पते ये इत्थं सदैव लभन्ते भुञ्जते वेत्येचं मकर्म 'माताहम्म' शब्दे अस्मिन्नेव भागे प्रागुक्तम् ।) रूपा । तदेवमुक्तं प्रतिपेवणादीनां चतुर्णामपि स्वरूपम् , (तच्च प्रात्मनकर्म) साधोः श्राधाकर्मभुञानस्याऽनुमो- संप्रत्येतेषामेव प्रतिषवरणादीनां क्रमेण पतानि वक्ष्यमाणबनादिद्वारण नियमतः संभवतीत्युपचारतः श्राधाकर्म श्रा-1 स्वरूपाणि उदाहरणानि ज्ञातव्यानि, सूत्र च उदाहरणशब्दमनमित्युच्यते । पिं० १०४ गावाटी । (ोन्मकर्म | स्य पुलिस्ता प्राकृतलक्षणवंशात । ६२ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रधाकम्म (२४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । वाम्युदाहरणानि यानि तेषां नामानि क्रमेण प्रति पादपति- पडि सेवणाए तेया, पडिसुगणाए उ रायपुत्तो उ । संवासमिव पली, अनुमोदय रायो ॥११८॥ निषेवणस्य लेना उदाहरणम् प्रतिभ्रयस्य तु राजपुत्रं राजपुपलक्षितः शेषाः पुरुषाः संपली'-पक्षीबातम्या वणिज, अनुमोदनाय राजदुष्टो राजशेषलक्षितात्कारिणः । तत्र प्रथमतः प्रतिषेसंबन्धिनं तेनान्तं भाषयति-गोणीहरण सभूमी, नेऊणं गोणिओ पहे मक्खे | निव्विसया परिवेक्षण - द्वियाऽचि ते कृविया घरचे ।। ११६ ।। इह गाथाज्ञरयोजना सुगमत्यात् स्वयमेव कर्तव्य केवल 'निर्विशका'- उपभोकारो निःपूर्वस्व विशेपभोगे वर्तमान स्वात् तथाचेोक्रम्-" निर्देश उपभोगः स्वात् " ज़काव्याहारकारिण: गोव्यावर्त्तकाइत्यर्थः 'धत्थे इति गृहीताः कथानकमुच्यते- क्यविमामे बहवो दस्यवः ते चान्यदा कुतश्चित्सनिवेशाद् गाः श्रपहृत्य निजग्रामाभिमुखं प्रचलिताः गच्छतां च तेषामपाराले उयन्ये [दस्ययः पथिका मिलितयन्तस्ततस्तेऽपि ते सात ब्रजन्तश्च स्वदेश प्राप्ताः, ततः प्राप्तः स्वदेश इति निर्भया भोजयता कति विनाश्य भोजनाय सम्म पारम्यतः अस्मिथ प्रस्तावे के उपयम्येऽपि पचिकाः समाययुः ततस्तेऽपि तेईस्युमियोंजनाय निमन्त्रित ततो सोमणि चोराः पथिका भोक्तुं प्रवृत्ताः केऽपि गोमांस बहुपापमिति परिभाय्य न भोजनाय प्रवृताः केवलमम्येभ्यः परिवेषणं विद्यतिरे प निष्प्रत्याकारनिशित करवाल भीषणमूर्तयः समाययुः कूज - काः, ततस्तैः सर्वेऽपि मोका परिवेषकाश्व परिगृहीता, तत्र ये पथिका अपान्तराले मिलितास्ते पथिकाः वयमिति बुवाणा अपि चौरोपनीतगोमांसमय परिवेषणतया औरषद् दुष्टा इति गृहीता, विनाशिताश्च । " अमेवार्थ दान्तिकें योजयति जे विष परिवेसंती, भाषखाणि धरंति व । 1 asवि बज्यंति तिब्वेण, कम्मुखा किसु भोगिणो १ । १२० । इह चौराणां येऽपान्तराले भोजनवेलायां वा ये मिलिताः पथिकास्तत्रापि ये परिवेषमात्रं भाजनधारणामात्रं वा कृतवन्तस्तेऽपि जगल्य बढा-विनाशिताश्वः एवमिहापि साधवोम्पेभ्यः साधुभ्यः प्रधाक परिये पयन्ति या धरन्ति तेऽपि दुःसन नरकादिगतिमा का किराया कर्मभोजि एतदोषभयात्परिवेषणादिमात्रमध्याधायः प्रतिषेव पतिभिनेयम् इद सीरस्वानीया धाकनिमन्त्रिणः साधवो गोमांसभक्षकचरपथिकस्थानीयाः स्वयंगृहीतनिमन्त्रिताधकम्भोजिनो, गोमांसपरिपकादिस्थानीया आधा परिवेषकादयः, गोमांसस्थानी यमाधाकर्म, पथस्थानीयं मानुष जम्म कूजकस्थानीयानि कर्माणि मरणस्थानीयं नरकादिप्रपातः । ? धान संप्रति प्रतिश्रवणस्य पूर्वोराजसुतं भाषयति-सामत्थण रायसुए, पिझ्वहणसहाय तह य तुहिका । तिरपि हु परिवारमा सिमि सा नरिष । १२११गुणसमृद्धं नाम नगरं तत्र महाबलो राजा तस्य शीला नाम देवी तपोविजितसमरो नाम येष्ठः कुमारः सच रा जियु पितरि दुराशयश्चिन्तयामास यथा मनेष पिता स्थविरोऽपि न वियते नूनं दीर्घजीवी संभाव्यते ततो निजभटान् सद्दायी कृत्येनं मारयामीति, एवं चिन्तयियानि मन्त्रयितुं प्रायसंत सत्र के विपर्य राय साहायककारिण, अपरेकमेवं कुरु, कचित्पुनस्तू प्रतिपेदिरे, अपरे पुनको स्वप्रतिपद्यमानाः सकलमपि तद् वृत्तान्तं राधे निवेदयामासु ततेो राजा ये साहायक प्रति पना ये च एवं कुर्वित्युक्तवन्तो येऽपि च तूष्णीं तस्थुः तान् सर्वानपि येष्ठ च कुमारं वैवस्वतमुखे प्रतिचिक्षेप येस्तत्वायदि पूजिताः, वाथाक्षरयोजना वियम् खा मत्थं' स्वभटैः सह पर्यालोचनं 'राजसुए' ति तृतीयार्थे मी ततोऽयमर्थः- राजसुतेन मारण्यमिति शेषः तत्र कैश्चिदुक्तं पितृनने कर्त्तव्ये तत्र सहाया वयमिति ' तथा ' इति समुच्चये चशब्दानुक्रममुचयार्थः स च केचिदेव इति समुचिनोति केचित् पुनस्तूष्णीका जाता मीनेनावस्थिताः एतेषां च त्रयाणामपि प्रतिवणदोषः, यैस्तु राज्ञे शिष्टं तेषां 'सा' तत्प्रतिश्रवं नास्ति । अमेयार्थ दांत योजयति भुंज न भुंजे झुंज, तइओ तुसिणीए भुंजए पढमो । तिरादं पिहू पडावा, पडिसेहतस्स मा नस्थि । १२२ । इह किल केनापि साधुना चत्वारः साधव आधाक निमन्त्रिता यथा भुङ्क्ष्वं यूयमेनमाहारमिति तत्रैवं निमभुझे द्वितीयः प्राह ना मुझे य मिति तृतीयो मोनाषितः, चतुर्थः पुनः प्रतिषिद्धवान् यथा न कल्पते साधूनामाधाकर्म तस्माददं भुख इति, प्रयाणामाधानां प्रतिपदोषः, चतुर्थस्य प्रतिषेधः सतः 'सा' तत्प्रतिश्रवणं नास्ति, अत्राह - नन्वाद्यस्याधाकर्मभुज्ञानस्य प्रतिषेवणलक्षण एव दोषः कथं प्रतिश्रवणदोष उक्तः ? । उच्यते-इह यदा आधाकर्मनिमन्त्रितः सन् तद्भोजनमभ्युपगच्छति । तदा नाद्यापि प्रतिषेवमिति प्रतितोषः। अधामीषामेव भोजकादीनां कः कः कायिकादिको दोषः स्यात् ? अत आह— आगतर्भुजगाफ-म्याउ, बीयस्स वाइओ दोसो । सहयस्य मागमियो, तीहि विसुद्ध पउरथोउ १२३ । द व आधाकर्मणः स्वयमानेता यश्चानीतस्य निमस्थितः सन् भोका तो नियोजनतथा कार्यक्रियया तुशब्दान्मनसा वाचाच दोषवन्तौ द्वितीयस्य तु भुङ्क्ष्य त्वं नाहं भुज इति ब्रुवाणस्य वाचिको दोष उत्-मानसिक तृतीयस्य तु - स्थितस्य तु मानसिको, यस्तु चतुर्थः स त्रिभिरपि दोषैविशुद्धः तस्माच्चतुर्थकदेव साधुना भवितव्यम् । " Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान संप्रति दृष्टान्तोक्तस्य कुमारस्य ये दोषाः संप्रभवन्ति तानु - rissarकर्मणा भोकरि योजयति (-२४७) अभिधानराजेन्द्रः । " • पडसे पडसुखखा, संवासऽणुमोयखा उ चउरोऽचि । पियमारग रायसुए, विभासियन्चा जइजणेऽवि ॥ १२४ ॥ पितृमारके राजसुते प्रतिषेवण-प्रतिश्रवण-संवासाऽनुमोदनारूपधत्वारोऽपि दोषा घडते, तथाहि तस्य स्वयं पि दमाराम प्रवृत्तत्वात् प्रतिषेत्रं वयं तत्र सहाया इति निजभटवचनं प्रतिपद्यमानस्य प्रतिश्रवणं, तैरेव सार्द्धमेकत्र निवसनेन संवासः तेष्वेव बहुमानकरणादनुमोदना एवं यतिजन ऽप्याधाकर्म्मणो भोक्करि विभाषितव्या योजनीयाः, अत्र यः स्वयमानीयान्यैः सह भुङ्क्ते तत्र प्रथमतो योज्यन्ते तर आधाकर्म गृहस्वगृहादानीय भुञ्जानस्य प्रतिषे गृहस्थेनाधाकग्रहणाय निमन्त्रितस्य तद्ग्रहणाभ्युपगमः प्रतिश्रवणं, तस्मै तदाधाकमै आमीय संविभागेन प्रयsafir तेन सहैकत्र संवसतः संवासः, तत्रैव बहुमानकरसानुमोदना यचान्येनामी तमाचा कर्मनिः सन् भु तस्य प्रथमतो निमन्त्रयानन्तरमभ्युपगतः प्रतिश्रवणं रातो मुञ्जानस्य प्रतिषे नमः संयासः तत्र बहुमानादनुमोदना तदेवं यत्र प्रतिपंचतत्र नियम दोषाः प्रतिवसे केवले श्रयः संवासे हो अनुमोदनायां त्वनुमोदमेव केवला, अन गुरु पाणि तु पदानि लघुलघुलघुकानीति । संप्रति संवासे पीतं भावयतिपल्लीवहम्मि नड्डा, चोरा वणिया वयं न चोर ति । न पलाया पावकर त्ति, काउं रन्ना उवालद्धा ॥ १२५ ॥ वसन्तपुरं नाम नगरं तत्र अरिमर्दनो नाम राजा, तस्य प्रियदर्शना देवी, तस्य वसन्तपुरम्य प्रत्यासन्ना भीमाभिधाना पल्ली, तस्यां च बहवो भिन्नरूपा दस्यवः परिवसम्ति, वणिजश्च । ते च दस्यवस्सदैव स्वपल्या विनिर्गत्य सकलमध्यरिमन राजमति न कश्चिदस्ति राक्षः सामन्तो मालको वा यस्तान् साधयति ततोऽ सस्ते फलमण्डलोपमा महाकोपवेशपुरमा नसो राजा स्वयं महतीं सामग्रीं विधाय भिल्लान् प्रतिजगाम भिशाप मुदा संमुखीभूय संग्रामे दातुमु द्यताः, राजा प्रबल सेनापरिकलिततया तान् सर्व्वानप्यविगणय्य सोत्साहो हन्तुमारब्धवान् ते चैवं हन्यमानाः केपि तच परायो ऽपि पुनः पलायितवन्तः राजा च साऽमर्षः पल्लीं गृहीतवान्, वणिजश्च तत्रत्या न ययं चौरास्ततः किमस्माकं राजा करिष्यतीति बुद्धधा मनेशन राज्ञा च तेऽपि ग्राहिताः ततस्तैर्विज्ञांच यथा देवनइनि राज चीरभ्योऽपतीयापराधकारिणो येस्माकमपराधकारिभिः सह संपसंचति ततो निगृहीताः । गाथाअक्षरयोजना तु सुगमत्वात् स्वयं कार्या । - दान्तिक योजनां करोति महाकडभोईहिं, सहवासो तह य तब्धिवजं पि । दंसणगंधपरिक भार्येति सुन्नुहविधिपि ।। १२६ ।। धक 9 भावना- यथा वणिजां चौरैस्सहैकत्र संवासो दोषाय बभूव तथा साधूनामध्याथाको सत्र संवाद बेषितः यतधार्मपरिहारकमपि तथा सुरूक्षवृत्तिमपि, सुष्ठु अतिशयेन रूक्षा यतो विकृत्य परिभोगेन भावतोऽभिष्वङ्गाभावेन निःस्नेहा वृत्तिः-वर्तनं यस्य तथा तमपि प्रधावधिग्यो दर्शनगन्धपरिकथा भावयम्ति आधाकर परिभोगया द्वापादनेन चासयन्ति । तथाहि दर्शनम् - अवलोकनं तच मनोज्ञमनोज्ञतराऽऽधाकमोहारविषयं नियमाद्वासयति, यतः कस्य नाम शङ्ककुन्दादाता रसपाकनिधाननिष्यामहा सूपकार संस्कृतः शाल्याद्योदनो न मनः क्षोभमुत्पादयति । गन्धोऽपि सद्यस्तापितादिसंवन्धी नासिकेन्द्रिया प्यानल बला दपि जने दामुपजनयति परिकथा ऽपि च विशिष्टषिशिष्टतरद्रव्यनिष्पादित मोदकादिविषया विधीयमाना तदास्वादसंपत्याशंसाविधौ चेत् उत्साहयितुमीश्वरा, तथादर्शनात् ततोऽपश्यमाधामभिः सह समासो यतीनां दोषायेति । 1 अनुमोदनायां राजदुष्टान्तं भावयतिरायारोहवराहे, विसिओ पाहयो नगरमके । धमाधम चि कहा, बहाऽवही कप्पडिय खोला ।। १२७|| श्री निलयं नाम नगरं तत्र गुणचन्द्रो नाम राजा, तस्य गुरुवतीप्रमुखमन्तःपुरे पुरे सुरूप नाम पणिः स च निजशरीरसौन्दर्यविनिर्जितमकरध्वज लवमाकम नीयकामिनीनामतीच कामास्पदं स्वभावतश्च परदाराभिष्वङ्गलालसः, तत्तः सोऽन्यदा राजान्तःपुरसन्निवेशसमीपं गच्छन्नन्तःपुरिकाभिः सस्नेहमवलोकितः, तेनाप्यपचित्ताः खामिलादेखिली जातः परस्परमनुरागः, दूतीनियेदियोगवशेन च ताः प्रतिदिनं तेन सेवितुमारब्धाः राजा ब] कथमप्ययं वृतान्तो जसे ततो यदा सोऽन्तःपुरं प्राविशतदा निजपुरुग्रहितो ग्राहयित्वा च यैरेवाभरणैरलंकृतोऽतःपुरं प्रविवेश तैरेवानरसैर्विभूषितो नगरमध्ये चतुष्पथे स फलजनसमक्षं विचित्रदर्शनापुरस्सरं विनिपातितः । राजा चान्तःपुरविनालीयनमनास्तस्मिन् विनाशितेऽपि न कोपावेश मुञ्चति । ततो हरिकान् प्रेषयामास यथा रे दुरात्माने तं ये प्रशंसन्ति ये वा निन्दन्ति तान् इयानपि मह्यं निवेश्य इति एवं वने प्रेषिताः कार्यटिकयेषधारिणः स उपनगरे परिभ्रमति लोकाश्च तं विनाशितं दृष्ट्रा केचन ब्रुवते, यथा अहो जातेन मनुजन्मना अवश्यं तापरे या मानकदाचनापि नायान्ति ता प्रधेष यथासुखं चिरकालं त्या मृनस्तस्मादन्य एप इति, अपरे ब्रुवते - अधन्य एष उमयलोककारी स्वामिनःपुरिका हि जननीवास्त सस्तावप्येष संवरम् कथं प्रशंसामईति शिषः ततः स्ते द्वये अपि हरिकैर्निवेदिता राम्रो, राज्ञा च ये तस्य निन्दाकारिणस्ते सबुद्धय इति कृत्वा पूजिताः, इतरे तु कृताप्राक्षिष्यन्त गाथाचरयोजना पेयम् राम्रोवरोधऽन्तःपुरं तद्वियेऽपराधे यैरेवाऽऽभरणैर्विभूषितोऽन्तःपुरे प्रविष्टस्तैरेव विभूषितां नगरमध्येघातितः । ततः कार्पटि Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म कंचेपधारिणः बोला-देरिका राजा नियुक्ताः लोकानां च तद्विषया धन्याऽधम्यकथा । ततो धन्यकथाकारिणां विनाशः, इतरांना इतिदाजिनाम् एके सा यस्तावदाधाकर भुजते तत्राऽपरे जश्पन्ति धन्या प सुखं जीवन्ति, अन्ये ब्रुवते - धिग् एतान् ये भगवत्प्रवचनप्रतिषिद्धमाहारयन्ति ततस्ते क बच्यन्ते इतरे तु न रहाता पुरस्थानीयमाधाकर्म, अन्तः पुर।इकारस्थानीया साथाकर्मयोजिनः साधवः नृपस्थानीय ज्ञानावरणादिकं कर्म मरतस्थानीयः संसारः तत्र ये आधाकर्मभोक्तृशंसकास्ते कर्मराक्षो निर्ब्राह्याः शेषास्यनिद्याः | 9 संप्रत्यनुमोदनाप्रकारमेव दर्शयतिसाउं पजतं श्रयरेण काले रिउक्खमं निद्धं । सरगुन विकत्थगाए, अजमाव अणुमा ॥ १२८ ॥ आधाकर्मभोजन उद्देश्य केि दानाऽपि मनोजमादार लभामडे, पले पुनः सदैव स्वा लभते स पर्याप्तं परिपूर्ण तत्राप्या बहुमानपुरश्वरं तथापि काले प्रस्तुतभोजनवेलायांतऋतुधर्म- शिशिरात्पयोगि तथा स्निग्धं पुरात स्माद्धन्या श्रमी सुखं जीवन्ति । एवं तद्गुणविकत्थनयासद्गुणशेख अखानेऽपि अनभ्यवहरत्यपि अनुमा अनुमोदना इह अनुमन्याजनितो दोषोऽपि कार्ये कारणोपचारादनुमन्येत्युक्तम्, ततोऽयमर्थः - अभुञ्जानेऽप्यनुमोदनाद्वारेणाधाकर्मभोजिन इव दोषो भवतीति । श्रन्ये तु तद्गुगधिकायामेवं योजयति-धाकर्मभोजन कोऽपि क नामोन या पृच्छति साधु लम् त्वया भोजनं तथा पर्याप्तं, तथा श्रादरेण भक्त्या इत्यादि ? तत्राप्यविरोधः । तदेवमुक्तान्याधाकर्मणो नामानि तदुक्तौ च यदुक्तं प्राकू मूलद्वारगाथायाम् " श्रधाकम्मियनामा " इति तद् व्याख्यातम् । पिं० । (ROM) अभिधानरराजेन्द्रः । (५) एकार्थिकानि श्रधाकर्म्मणः । संप्रति 'एगट्ठा' इत्यचयं व्याधिवासुरमाह आहा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । जह वंजणनात्तं, अत्थे वि पुच्छर एवं ।। १२६ ॥ अत्र पर एवं पृच्छति यथा श्राधाकर्म १, अधःकर्म २, श्रात्मनकर्म ३, श्रात्मकर्म ४ इत्येतेषु चतुर्षु नामसु व्यअविद्यते तथापि अपेक्षयापिनासत्यमस्ति कियान इति पृयमभिया-रहासामपि व्युत्पत्तिनिमित्तं पृथ गुरुं तद्यथा श्राध्या कर्म श्रधाकर्म, अथ साधुविषयप्रधानपुरसपाकादिक्रियास्वामी व्युत्पत्तिनिमित्तम् अधोऽधः कर्म-अधः कर्म, श्रत्र विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेस्थोऽधो ऽधस्तरामागमनम् आत्मानं हन्तीत्यात्मनमिति अप चरनाद्यात्मविनाशनम् परफार्म क इत्यात्मक अत्र परकण आत्मसंवन्धितया कर नमोऽथ संशय यथानिमित्तं पृथक मिश्र मेयं प्रवृत्तिनिमित्तमपि पृथक पृथक भिन्न यथा पट 1 3 आधाकम्म शकटादिशब्दानां किं न यथा घटकलशकुम्भादीनामिति । अत्र 'श्रहा श्रकम्मै' इत्यादावक्षरयोजनाप्रागिव भावनीया । परेले सति शिष्यमतिगन्याधानाय सामान्यतो नामविषयां चतुर्भङ्गिकामाह एगढ एगवंजण. एगट्ठा नागवंजणा चैव । नागड एगवंजण, नागडा पंजा नाथा ॥ १३० ॥ द नामानि जगति प्रयमानानि कानिचिदुपलभ्यन्ते । एकार्थानि - एकव्यञ्जनानि १, कानिचिनेकार्थानि नानाव्यञ्जनानि २ कानिचिन्नानार्थानि एकव्यञ्जनानि ३, कानिचित् पुनर्मानार्थानि नानाव्यञ्जनानि ४ । अस्या एव चतुर्भङ्गिकायाः क्रमेण लौकिक निदर्शनानि गाथाद्वयेनोपदर्शयति दिट्ठ खीरं खीरं, एगऽहं एगवंजणं लोए । एग बहुनामं, दुद्ध पत्र पीलु खीरं च ।। १३१ ॥ गोमहिसियाखीरं, नाणऽङ्कं एगवंजणं नेयं । घड पडकडसगडरहा, होइ पिहत्थं पिनामं ॥ १३२ ॥ इद्द सर्वत्रापि जातावेकवचनं ततोऽयमर्थः- कानि एकव्यञ्जनानि नामानि लोके प्रवर्त्तमानानि दृष्टानि यथा क्षीरं क्षीरमिति, इयमत्र भावना - एकत्र क्वचिद् गृहे गोदुधादिविषये क्षीरमिति नाम प्रवृत्तमुपलब्धं तथाऽन्यत्रापि गोदुग्धादावेव विषये क्षीरमिति नाम प्रवर्तमानमुपलभ्यते, एवं ततोऽयम्य दान्तरे ततोऽमूनि सर्वापि क्षीर क्षीरमित्येवंरूपाणि नामान्येकार्थानि एकव्यञ्जनानि तथा एकार्थानि बहुव्यञ्जनरूपाणि नामानि यथा दुग्धं पयः पी सीमिति अनि हि नामानि सर्वाविय क्षितगोदुग्धादिलक्षणैकार्थाभिधायितया नानापुरुपैरेककालं क्रमे पुरुषेण वा प्रयुज्यमानान्येकार्थानि नानाम्पनानि च ततो द्वितीये भङ्गे निपतन्ति । नानार्थान्यिकव्यञ्जनानि, यथा-गोमहिष्य जासंबन्धिषु क्षीरं क्षीरमिति नामानि प्रवर्तमानानि एतानि हि नामानि सर्वात्यपि समानय अनानि मिश्रभिगो दुग्धमहिषी दुग्धादिरूपार्थवाचका मिश्रार्थानि च ततनामान्येकयञ्जनानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथा घटपटक टशकटरथादीनि नामानि देयानि चतुर्थादर्शनानि । सांप्रतमिमामेव चतुङ्गामायाकर्मणि यथासंभवं गाइन योजयति 1 आहाकम्माई, दो दुरुलाइ पदमभंगो उ आहाऽहेकम्मतिय, सिकंद इव गो ।। १३३ ।। श्राहा कम्तरिया, असणाई उ चउरो तइयभंगो । महाकम्म पहुचा, नियमा सुम्रो परिमभंगी ।। १३४ ॥ धाकानां युगपदुभिः पुरुषरेन या का लभेदेन कमिशन तु यज्ञादिद्विरुच्चारणादि, आदिशब्दात्त्रिरुच्चारणादिपरिग्रहः, स भयति प्रथम भङ्गः किमु भर्दात एकत्र बसताशनविये ताप्याथाकर्मेति नाम प्रयुक्तं तथाऽन्यत्रापि बसत्य Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ------ श्राधाकम्म श्रभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म न्तरेऽशनविषये एवाधाकर्मेति नाम प्रयुज्यते, तथा ततो- | ज्ञानावरणीयादिकमुत्पन्नमासीत् तदात्मनोऽपि करोति ऽन्यत्रापि वसत्यन्तरे, तान्यमूनि सर्वारयायाधाकर्मेति ना- ततस्तदाधाकर्म प्रात्मकमैत्युच्यते तस्मादधःकमांदीनि मान्य कार्थानि एकव्यञ्जनानीति प्रथमे भऽचतरन्ति, श्रा- नामानि सर्वाण्यपि नाऽऽधाकर्मशब्दार्थमतिवर्तन्त इति द्विधाकर्म अध:कर्मेत्यादीनि तु नामानि विवक्षिताशनादिरू- तीये भऽवतरन्ति । तदेवं मूलद्वारगाथायाम् 'एगट्टा' इत्यपकविषये प्रवर्तमानानि । द्वितीयो भङ्गः, एकार्थानि ना- पि व्याख्यातम् । पिं०। नाव्यञ्जनानीत्येवंरूपद्वितीयभङ्गविषयाणि 'सकिंद इवे' ति (६) प्राधाकर्माश्रित्य कल्प्याऽकल्प्यावधिः । संप्रन्येतायथा इन्द्रः शक्र इत्येवमादीनि नामानि, तथा अशनादयः नेवाधिकृत्य कल्प्याउकल्पयविधिर्वक्तव्यः, तत्र नामसाधर्मिअशनपानखादिमस्वादिमरूपाश्चत्वार श्राधाकर्मान्तरिता कमधिकृत्य प्रथमतः कल्प्याकल्प्यविधि गाथाद्वयेन प्रतिश्राधाकर्मशम्देन-व्यवहिता यथा-अशनमाधाकर्म पानमा पादयतिधाकर्म इत्येवमादि, तृतीयमझा-तृतीयभङ्गविषयः, अत्राप्ययं भावार्थ:-यदा-श्रशनादयः प्रत्येकमाधाकर्म आधाक जावंत देवदत्ता, गिहीव अगिहीव तेसि दाहामि । मेंति देशभेदेन बहुभिः । पुरुषरेककालमेकेन वा पुरुषण नो कप्पई गिहीणं, दाहंति विसेसिए कप्पे ॥ १४२ ॥ कालभदनोच्यन्ते तदा तानि श्राधाकर्म प्राधाकर्मेति नामा पासंडीसु वि एवं, मसिाऽमीसेसु होइ हु विभासा । नि नानार्थान्येकव्यञ्जनानीति तृतीये भाऽवतरन्ति, श्राधा समसेसु संजयाण उ,विसरिसनामाण वि न कप्पा१४३। कर्मरूपं नामाश्रित्य पुनश्चरमो भङ्गो नानानि नानाव्यअनानीत्येवंरूपो नियमाच्छून्यः प्राधाकर्म आधाकर्मत्येव इह कोऽपि पितरि मृत जीवति चा तन्नामानुरागतस्तन्नाममादिनाम्नां सर्वेषामपि समानव्य अनत्वात् , उपलक्षणमेतत् , | युक्नेभ्यो दानं दिन्सरवं संकल्पयति यथा यावन्तो गृहस्था नेन सर्वाण्यपि नामानि प्रत्येकं चरमभङ्गे न वर्तन्ते, यदा अगृहस्था वा देवदत्तास्तेभ्यो मया भक्तादिकमुपस्कृत्य दातु कोऽध्यशनविषये श्राधाकर्मेति नाम प्रयुने, पानविषये तव्य , तत्रैवं संकल्पे कृते देवदत्ताख्यस्य साधार्न कस्वधःकर्मेति, खादिमविषये त्वात्मध्नमिति, स्वादिमविषये ल्पते, देवदत्तशब्देन तस्यापि संकल्पविषयीकृतत्वात् , त्वात्मकर्मेति तदामूनि नामानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि यदा पुनरेवं संकल्पयति, यथा यावन्तो गृहस्था देवदत्ताचेति चरमोऽपि भनः प्राप्यते । स्तेभ्यो दातव्यमिति, तदा एवं विशेषित-निर्धारिते सइह विवक्षिताशनादिरूपैकविषये प्रवर्तमानान्याधाकर्माधः ति तद्योग्यमुपस्कृतं देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तकर्मप्रभृतीनि नामानि द्वितीयभङ्ग उक्तस्ततस्तदेव भावयति स्य विवक्षितसंकल्पविषयीकरणाभावात् , तथा पापण्डि वपि मिश्राऽमिश्रंषु एवं-पूर्वोकप्रकारेण विभाषा कर्तव्या, इंदत्थं जह सद्दा, पुरंदराई उ नाइवत्तंते । इह सामान्यसंकल्पविषया मिश्रा उच्यते, यथा यावन्तः अहकम्म आयहम्मा, तह आहं नाऽइवत्तते ।।१३५ ।।। पापण्डिनो देवदत्ता इति , प्रतिनियतसंकल्पविषयास्त्वयथा इन्द्रार्थ इन्द्रशब्दवाच्यं देवराजरूपं पुरन्दरादयः मिथा यथा यावन्तः सरजस्काः पाखण्डिनो, यदिवापुरन्दरः शक्र इत्येवमादयः शब्दा नातिवर्तन्ते-नातिका सौगता देवदत्ता इत्यादि. तत्र यावन्तो देवदत्ताः पाखमन्ति । तया अधःकर्म-आत्मघ्नशब्दो उपलक्षणमेतत् । सिडन इति मिश्रसंकल्पे कृते न कल्पते । पापण्डिदेवदत्तश्रात्मकर्मशब्दश्च 'आह'ति-“सूचनात् सूत्रमि"ति न्यायात् शब्दाभ्यां देवदत्ताख्यस्याऽपि साधोः संकल्पविषयीकृतश्राधाकर्मार्थम्-श्राधाकर्मशब्दवाच्यं नातिचर्तन्ते, यदेव येन त्वात् यदा पुनरमिश्रः संकल्पो यथा यावन्तः सरजस्काः दोषण दुएमाधाकर्मशब्दवाच्यमोदनादि तदेव तेनैव दोषेण पापण्डिनो देवदत्ता, यदि चा-यावन्तः सौगता देवदत्ताः, दुष्टमधःकर्मादयोऽपि शब्दा युवते इति भावः । यद्धा-साधुव्यतिरकेण सर्वेऽपि पापण्डिनो देवदत्तास्तेएतदव भावयति भ्या दास्यामीति, तदा देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तस्य संकल्पविषयीकरणाभावात् , यथा च पापण्डिषु आहाकम्मेण अहे, करेइ जं हणइ पाणभूयाई। मिथामिधेषु विभाषा कृत्ता तथा श्रमणेष्वपि मिश्रामिश्रेषु ज तं प्राययमाणो, परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥ १३६ ॥ कर्तव्या, श्रमणा हि शाक्यादयोऽपि भण्यन्ते, यतो धक्ष्यश्राधाकर्मणा भुज्यमानन कृत्वा यस्माद्विशुद्धभ्यो विशुद्ध- ति-" निग्गंथ-सक-तावस-गेरुय-श्राजीवपंचहा समणा" तरेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽवतीर्याधस्तादात्मानं करोति । ततो यदेव मिश्रः संकल्पो यावन्तः श्रमणा देवदत्ताख्यास्तेसेन कारणन तंदवाधाकर्म अधःकर्मत्युच्यते, तथा यस्मा- भ्यो दास्यामीति तदा देवदत्ताख्यस्य साधीन कल्पते, तस्य दाधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा स एव भोक्का । परमार्थतः प्रा. श्रमण देवदत्तशब्दाभ्यां संकल्पविषयीकृतत्वात् , यदा पुगान्-वीन्द्रियादीन् भूतान्-बनस्पतिकायान् उपलक्षणमेतत् नरेवममिश्रः संकल्पो यावन्तः शाक्याः श्रमणाः, यदि जीवान-सस्यांश्च हन्ति-विनाशयति । "जम्सट्रा प्रारम्भो वा-आजीवका देवदत्ता, यद्वा-साधुव्यतिरेकेण सर्व पाणियहो हाइ तस्स नियमेण" इति वचनप्रामाण्यात्या- श्रमणा देवदत्तास्तेभ्यो दास्यामीति तदा कल्पते, तस्य विणादीश्व जन नियमतश्चरणादिरूपमात्मानं हन्ति-विनाश- घक्षितसंकल्पविषयीकरणाभावात् , संयतानां तु निग्रन्थायति । 'पाणिवह वयभंगो' इत्यादिवचनात् तत प्राधाकर्म नां विसदृशनानामपि संकरपे कृत देवदत्ताण्यादेः साधार्न आत्मघ्नमित्युच्यते, तथा यत्-स्मात्कारणात् तत्-श्राधाकर्म कल्पत, किमुक्तं भवति-चैत्रनाम्नाऽपि संयतस्योद्देशन कृतं श्राददानः परस्य-पाचकादः संयनधि यत्कर्म प्रारम्भजनितं । देवदत्ताख्यस्य साधोर्न कल्पत, तथा भगवदाशाविजृम्भ ६३ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम " यात् यदा पुनस्तीर्थकर प्रत्येक बुद्ध संकल्पनेन कृतं तदा कल्पते तीर्थकर हीनत्वेन समयतिभिः साधुभिः सह साधर्मिकत्वाभावात् " संजवाड सिरिसनामा विन कप्पे " इति वचनाश्चार्थापत्या यावन्तो देवदत्ता इत्यादौ विसदृशचैत्रादिनाम्नां साधूनां कल्पत एवेति प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् । तदेवमुक्तो नाम साधर्मिकमधिकृत्य कल्प्या कल्प्यविधिः । संप्रति स्थापनाद्रव्यसाधर्मिकावधिकृत्य तमादनीसमनीसावकडं, ठवडा सामियम्मि उ विभासा । दमयतशुभ, न तं तु कुच्छा विवजेा ।। १४४ ।। इह कोऽपि गृही गृहीतप्रव्रज्यस्य मृतस्य जीवतो वा पित्रा देः स्वतिकृति कारवत्या तरपुरतो टीका बलि निष्यादयति तदिद्वा तद्यथा-निवा - निश्रया च । तत्र ये रजोहरणादिवेषधारिणो मत्पितृतुत्यास्तेभ्यो दास्यामीति संकल्प्य निष्पादयति । तदा तद्वलिनिष्पादनं निश्राकृतमुच्यते यदा त्वेवंविधः संकल्पो न भवति, फिल्वेवमेव ढोकनाय यति निष्पादयति । तथा सलिनिष्पादनमनिधाकृतमुच्यते तथा बाद नीममनीसा व कडे' इह प्रथमा तृतीयार्थे वेदितव्या ततोऽयमर्थः - निश्रया श्रनिश्रया वा यत्कृतं - निष्पादितं भक्काविस्थापनासाधर्मिविषये । तत्र विभाषा कर्तव्या यदि निम्राकृतं यच डीकिनमदीकि पते अनि तिमीति या नापि प्रदिप निषेधा तथा साधम्मिकाविषये यत् सुतनु तत्काल मृतस्य साधो तनुस्तस्याः पुरतो डोकलाम पदनादि तत् पुत्रादिना कृतं तत् मृततनुभक्तं तदपि द्विधा-निश्राकृनम्, अनिश्राकृतं च तत्र साधुभ्यां दास्यामीति संकल्प्यकृ तं निश्राकृतम्, इतरतु स्वपित्रादिभक्तिमात्रकृतमनिश्राकृतं. तत्र निश्राकृतं तन्निषेधयति-नैव कल्पते, इतरन्तु अनिधाकृतं कल्पते, किंतु तद्ग्रहणे लोके जुगुप्सा-निन्दा प्रवर्तते, यथा अहो अभी भी निःशुका मृनुममपि न परिहरन्तीति ततो विवर्जयन्ति तत्साधवः । परं संप्रति क्षेत्रकालसाधर्मिका पत्रिकृत्यातिदेशेन कल्याकयविधिमाह ( २५० ) अभिधानराजेन्द्रः | पासंडियसमणाणं, गिहिनिग्गंथाण चेत्र उ विभासा । जह नामम्मि तहेव य, खेने काले य नाय ।। १४५ ।। यथा नानामसाधर्मिविषये वाप 'गिहि' सि-"सूचनात् सत्रमिति पापात् गृह्या नि ग्रन्थानां च विभाषा कृता तथा क्षेत्रे काले च विमापं शानक्षेत्र सौराष्ट्रादिफलदिनीयादिकन्द तत्र क्षेत्रविषये विभाषा एवम् यदि सौराष्ट्र देशोत्पन्नेभ्यः पारिभ्यो मया दातव्यमिति संकल्पः तदा सौराष्ट्रदेशोपस्य साधनं कल्पते सौराएदेशोपन तथा संकल्पचिपकरणात शेपदेशन करते तेषां संकल्पविषयक यदि पुनः राष्ट्रदेशी स्पनेभ्यः पापण्डभ्यः सरजस्कभ्यः, यदि यासीगतभ्यः - 3 " श्रधाकम्म या साधुयतिरेकेण सारियो स्यामीति सेकल्पस्तदा सीराएदेशोत्पन्नस्यापि साधोः पते, तस्य संकल्पाकोडीकरणात् एवं श्रमणेष्वपि सामान्यतः सेकल्पितेषु न कल्पते, साधुव्यतिरेकेण तु संकल्पितेषु कल्पते तथा गृह्यगृहिषु सामान्यतः सौराष्ट्रदेशोत्पन्नत्वेन संकल्पितेषु न कल्पते, केचलेषु तु गृहिषु कल्पते, निर्ग्रन्थेषु तु सौरादेशोत्पन्नेषु सौराष्ट्र देशात्पन्नेषु वा संकल्पितेषु सौराशोत्पन्नानामपदेशन या सर्वथा न ते क्षेत्राधार्टि विभाषाभाषता एवं कालसामिकेऽपि भावनीया, यथा विवक्षितदिनजातेभ्यः पाषण्डिभ्यो मया दातव्यमिति संकल्पिते तस्यापि निजातस्य साधोः न कल्पते तस्यापि रत् शेषदिनजातानां तु कल्पते संकल्पविषयीकरणाभावात् इत्यादि सर्वे पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयम् प्रवचनादिपदसप्तके पुनरेवं पूर्वाचार्यव्याख्या - प्रवचन लिङ्गदर्शनज्ञानचारित्राभिग्रह भावनारूपेषु सप्तसु पदेषु द्विसंयोगभङ्गा एकविंशतिः, तद्यथा- प्रवचनस्य लिङ्गेन सह एको, दर्शनेन सह द्वितीयो ज्ञानेन सह तृतीयः यावत् भावनया सह षष्ठ इति षड् भङ्गाः एवं लिङ्गस्य दर्शनादिभिः सह पञ्च, दर्शनस्य ज्ञानादिभिः सह चत्वारः, ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह त्रयः, चारित्रस्याभिग्रहभावनाभ्यां द्वौ अभिग्रहस्य भावनया सड़क इत्येकविंशतिः पतेषु च एकविंशतिसंख्येषु भङ्गेषु प्रत्येकमेकैकाः चतुर्भङ्गिकाः, तद्यथाप्रवचनतः साधर्मिको न लिङ्गतः, लिङ्गनः साधर्मिको न प्रवचनतः, प्रवचनतः साधमिको लिङ्गतश्च न प्रवचनतो न लिङ्ग, शेषेषु भङ्गेषु यथास्थानं चतुर्भक दर्शयिष्यते। तत्र प्रथमचतुर्भङ्गिकाया आयङ्गयोदाहरणमुपदर्शयतिदस समिहागा सावग पचयण साहम्मिया न लिंगेां । लिंगेण उ साहंमी, नो पत्रयण निरहगा सव्वे ॥ १४६ ॥ प्रवचनतः साधविका न लिन अविरम्यरम्य यावद्दशमीं श्रावक प्रतिमां प्रतिपक्षा ये श्रावकास्ते द्रष्टव्याः, कुत इत्याह- 'दस ससिहागा' इत्यत्र " निमित्तकारणहेतुषु सर्वांस विक्री प्राय दर्शनम् " इति न्यायात प्रथमा ततोऽयमर्थः दशमी आयकयतिमा सि खाकाः- शिखा सहिताः केशसहिता एवेत्यर्थः ततस्ते प्रवचनत एव साधमिका भवन्तिः न लिङ्गतः ये त्वेकादशी श्रावकप्रतिपक्षले निशा इत्यादिना तो साधर्मि का भवन्तीति द्विपनम् तेषां चार्थाय यत् तत्साधूनां कल्पते, तथा लिङ्गतः साधमिका न प्रवचनतो निह्नवाः, तेषां प्रवचनवहिर्भूतत्वेन प्रथमतः साधर्मिकन्याभावात् लिनेपामपि रजोहरणादिकं विद्यते इति लिङ्गतः साधर्मिकाः तेषामध्य साधूनां कल्पने निवास द्विधा-लोके निवत्वेन ज्ञाताः श्रज्ञाताश्च । तत्र ये अज्ञातास्ते इह ग्राह्याः श्रज्ञातानां लोके साधुत्वेन व्यवहरणभावतः प्रवचनान्तर्वर्त्तिस्वात् इहाद्यभङ्गडयन उदाहृते शेषमुत्तरं भङ्गद्वयं स्वयमेव श्रोतागेऽवभात्स्यन्ते । इति बुद्धया नियुक्तिपोदशहतवान अन्य कारन शिकाणामाद्यमेव भङ्गद्वयमुदाहरिष्यति नोत्तरं भयं वयं • . Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५१) प्राधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म तु सुखाववोधाय उदाहरिष्यामः , तत्रास्यामेव प्रथमचतुर्भ- त्वविरतसम्यग्दृष्टीनां सर्वथा विरत्यभावेन देशघिरनिकायां प्रवचनतः साधर्मिका लिङ्गतश्चेति तृतीयभने तानां तु देशचारित्रतया चारित्रतः साधम्मकत्वाभावः उदाहरणं साधवः एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्ना श्रावका वा , सुप्रतीतः, साध्वर्थ चेत् कृतं न कल्पते, श्रावका चेत्तर्हि तत्र साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते , श्रावकाणां त्वय कृतं कल्पते, चारित्रतः साधर्मिका न प्रवचनतः, तीर्थकर कल्पते , न प्रवचनतः साधमिका नाऽपि लिङ्गतस्तीर्थकरप्र- प्रत्येकवुद्धाः समानचारित्राः, तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रत्येकबुद्धाः, तेषां प्रवचनलिङ्गातीतत्वात् तेषामर्याय कृतं वचनतः साधर्मिकाश्चारित्रतश्च साघवः समानचारित्राः, कल्पते. द्वितीयाचतुर्भङ्गिका-प्रवचनतः साधर्मिका, न दर्श- तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न प्रवचनतो नापि चारित्रतनतः,दर्शनतः साधर्मिका न प्रवचनतः,प्रवचनतः साधर्मिका | स्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिवाः, तत्र तीर्थकरप्रत्येकबुद्धा विदर्शनतश्च । न प्रवचनतो न दर्शनतः। सहशचारित्रा वेदितव्याः, निवास्त्वचारित्रिण एव पतेषां तत्राद्यभङ्गद्वयोदाहरणमाह च सर्वेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते । पञ्चमी चतुर्भङ्गिका-प्रवविसरिसदसणजुत्ता, पवयणसाहम्मिया न दंसणो । चनतः साधम्मका नाऽभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिमका अभिग्रहतश्च, न प्रतित्थगरा पत्तेया, नो पवयणदंससाहम्मी ॥ १४७ ॥ वचनतोऽपि नाप्यभिग्रहतश्च , एवं षष्ठयपि चतुर्भलिका प्रवचनतः सार्मिका न दर्शनसो, विसदृशदर्शनयुक्ताः-वि- प्रवचनस्य भावनया सह वेदितव्या। भिन्न क्षायिकादिसम्यक्त्वयुक्ताः साधवः श्रावका वा किमुक्तं एतयोईयोरपि चतुर्भड्कियोः प्रत्येकभवनि-एकेषां साधूनां श्रावकाणांचा क्षायोपशामिक दर्शन ___ माद्यं भङ्गद्वयमुदाहरतिमपरेषां त्यौपशमिकं क्षायिक वा ते परस्परं प्रवचनतः सा- पवयणो साहंमी, नाभिग्गहसावगा जइणो॥ १४८॥ धर्मिका न दर्शनतः, तत्र साधूनामर्थाय कृतं साधूनां न क साहम्मऽभिग्गहेणं, नो पवयणनिएहतित्थ पत्तेया। रूपते, श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते, तथा दर्शनतः साधर्मिका न प्रवचनतः , तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा वा समानद एवं पवयणभावण, एत्तो सेसाण वोच्छामि ।। १४६।। र्शना वेदितव्याः , तेषामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते , प्रवच प्रवचनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः श्रावका यतयश्च विनतः सार्मिका दर्शनतश्च , साधवः श्रावका या समानद सहशाभिग्रहसहिताः, तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते र्शनाः , अप्रापि साधूनामर्थाय कृतं साधूनां न कल्पते, न साधूनाम् , अभिग्रहेण साधर्मिका न प्रवचनेन, निवथावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रवचनतो नापि दर्शनत- तीर्थकरप्रत्येकबुद्धाः, एतेषां चार्थाय कृतं करपते, प्रस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनितवाः , तत्र तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धाश्च वचनतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च साधवः श्रावकाश्च सविभिन्नदर्शना बेदितव्याः , निहवाश्च मिथ्याएयः प्रतीता मानाभिग्रहाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न एव . पतेषां च सर्वेषामर्थाय कृतं कल्पते , तृतीया चतुर्भ- साधूनां, न प्रवचनतो नाऽप्यभिग्रहतः, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिका-प्रवचनतः सामिका न मानतः, ज्ञानतः साधर्मि का निहवा विसदृशाभिग्रहकलिता निरभिग्रहा वा, तेषामर्थाय न प्रवचनतः , प्रवचनतोऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च , न प्रव- कृतं कल्पते, एवम्-'पवयणभावण' त्ति-एवं-पूर्वोक्लेन प्रकाचनतो नापि शानतः, एवं चतुर्यपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य रेण प्रवचनभायनेति प्रवचनभावना चतर्भजिका भावनीया चारित्रेम सह वेदितव्या। तद्यथा-प्रवचनतः साधर्मिका न भावनातः, साधवः श्राव का वा विसदृशभावनाकाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं एतयोद्धयोरपि चतुङ्गिकयोराद्यभनयमतिदेशेनोदाह कल्पते; न साधूनां, भावनातः साधर्मिका न प्रवचनतः, रति - निह्नवतीर्थकरप्रत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनाणचरित्ता एवं, नायव्वा होंति पत्रयणेणं तु ।। नतः साधमिका भावनातश्च, साधवः श्रावकाश्च समानयथा प्रवचनेन सह दर्शन मुक्तमेवं ज्ञानचारित्रे अपि प्रव- भावनाकाः, तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साचनन सह ज्ञातव्ये, तद्यथा-प्रवचनतः साधर्मिका नशा- धूनां , न प्रवचनतो नापि भावनातस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनतः, विसदृशशानसहिताः साधवः श्रावका वा. अत्रापि निहवा विसदृशभावनाकाः, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, यदि साधवस्तहि न कल्पते, अथ श्रावकास्तर्हि कल्पते, तदेवमुक्तानि प्रवचनाश्रितानां परणां चतुर्भलिकानाशानतः साधर्मिका न प्रवचनतः, तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा वा मुदाहरणानि-'एत्तो ससाण वाच्छामि'त्ति-इत ऊय शेसमानशानाः तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः साधर्मि- षाणां चतुर्भङ्गिकानामुदाहरणानि वक्ष्ये । का शानतश्च , साधवः श्रावका वा समानहानाः, अत्रापि प्रतिज्ञातमेवातिदेशेन निर्वाहयति- - साध्वर्थ कृतं न कल्पते, श्रावकाणां स्वर्थाय कृतं क लिंगाईहि वि एवं, एकेकेणं तु उवरिमा नेया । रूपते, न प्रवचनतो नाऽपि ज्ञानतः तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिह्नवाः, तत्र तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धाश्च विभिन्नशाना जेऽनन्ने उवरिल्ला, ते मोत्तुं सेसए एवं ॥ १५० ।। वदितव्याः, निवास्तु मिथ्यादृष्ठित्वादशानिनः प्रतीता 'लिंगाईहि वि' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया; ततोऽयमर्थः-एवंएच, एतेषां सर्वेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते, तथा प्रवचनतः पूर्वोकिन प्रकारेण लिङ्गादिष्वपि लिङ्गदर्शनप्रभृतिध्वपि पदषु साधर्मिका न चारित्रतः साधवः, श्रावकाश्च , तत्र | एकैकेन लिङ्गादिना पदेन उपरितनानि-दर्शन ज्ञानप्रभृतीनि साधा विसरशचारित्रसहिता वेदितव्याः, श्रावकाणां ] पदानि नयेत् ,किमुक्तं भवति ?-लिङ्गदर्शनप्रभृतिषु पदेषु दर्श Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधकम मशानादिभिः पदैः सह याश्चतुर्भङ्गिकास्ताः पूर्वोक्तानुसारेणोदाहरेत् अतीवेदं संक्षिप्ततरमुकम् अतः प विरमा जेन इत्यादि ये अनन्ये उदाहर सापेक्षया अन्यादशा न भवन्ति भङ्गास्तान् मुक्त्वा शेषकान् भङ्गकान् पर्वकारेण जानीत इयमत्र भावना - इह लिङ्गदर्शनयोर्ये चत्वारो भङ्गाः सोदाहरणा वक्ष्यन्ते तादृशा एव प्राय उदाहरणापेक्षया लिङ्गज्ञानलिङ्गचरणयोरपि भङ्गाः, ततस्तान् मुक्त्वा लिङ्गदर्शनलिङ्गाभिन्नादितत्कान् भङ्गानुदाहरिष्यामीति लिङ्गदर्शनोरिये चतुतिः साधमिका न दर्श नतः, दर्शनतः साधमिका न लिङ्गतः लिङ्गतोऽपि साथमिका दर्शनतश्च न लिङ्गतो नापि दर्शनतः । त तत्राऽऽयं भङ्गद्वयमुदाहरति लिंगेण उ साहंमी, न दंसणे वीसुदंसि जइ निरहा । पयबुद्धतिर करा य बीमि भंगम्मि ।। १५१ ।। लिक्रेन साधमिका तृतीया सप्तमी न दर्शनेन वियदर्शना विभिनदर्शना यतयो विश्व उप लक्षणमेतद्विभिनदर्शना एकादशप्रतिमाप्रतिपक्षाः प्रायकाव्य, रात्र निवा मिथ्यादर्शनः साधर्मिकाः अत्र निवानां श्रावकाणां चार्थाय कृतं कल्पतेः न यतीनां द्वितीये भङ्गे दर्शनतः साधर्मिका न लिङ्गतः इत्येवंरूपे प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकृतः एकादशप्रतिमाप्रतिपश्नवर्जा श्रावकाश्च समानदर्शना ज्ञेयाः तेषामर्थाय कृतं करते, शेषं भयं 9 मुदादराम, सिङ्गतः साधम्मिका दर्शन समानद शनाः साधव एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावकाश्च, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां नलि ङ्गतो नापि दर्शनतो विसदृशदर्शनाः प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमाप्रति श्रावकाश्च तेषामधीय तं कल्पते, लिङ्गानचतुः साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतः साधर्मिका न लिङ्गतः लिङ्गतः साधर्मिका ज्ञानतश्च न लिङ्गतो नाऽपि ज्ञानतः, अस्याश्चतुमङ्गिकाया आद्यद्रयोदाहरणानि भयो कि इशानीति कृत्वा निोिदाहरति ततो ययमे मोहाद्दरामः लिङ्गतः साधर्मिका न ज्ञानतः, विभिन्नशाना यतम एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावका निह्नवाश्च, अत्रापि श्रावकाणां निह्नवानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां ज्ञानतः साधर्मिका न लिङ्गतः समानज्ञानास्तीर्थकर प्रत्येकबुद्धा एकादश प्रतिमावर्जाः श्रावकाश्च तेषामर्थाय कृतं कल्पते. लिङ्गतः साधर्मिका ज्ञानतश्च समानज्ञानाः साधत्र एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्ना श्रावकाश्च श्रत्राऽपि श्रावकायामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां न लिङ्गतो नाऽपि ज्ञानतो विभिन्नज्ञानाः प्रत्येकबुद्रतीर्थकराः एकादशप्रतिमाप्रतिपअवजः श्रावकाश्च पतेषामर्थाय कृतं कल्पते । लिङ्गचरणयोरियं चतुर्भङ्गिका, लिङ्गतः साधर्मिका न चरणतः १, चरयतः साधर्मिका नलिनः २ लिनः साधर्मिकाश्वरणनश्ध ३, न लिङ्गतो नापि चरणतः ४ अस्था अपि चतुर्भङ्गिकाया उदाहरणानि प्रायः पूर्वसदृशानीति कृत्या निर्युक्लिकृत् मोहनयान ततो मेोइरामिलितः साधर्मिका न चरणतो विभिन्नचारित्रा यतयः, एकादशी प्रतिमां प्रति - - ( २५३ ) अभिधानराजेन्द्रः । 9 आधाकम्म पन्नाः श्रावका निवाश्च, अत्र श्रावकाणां निवानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां चरणतः साधर्मिका न लिकृतः, प्रत्येकयुवातीकृत समानयारियाः तेषामधीय तं साधूनां कल्पने, लिङ्गतः साधसि मानचारित्रा यतयः, तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न लिङ्गतो नापि चरणतो विसदृशचरणाः प्रत्येक बुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमाचजः आवकाश्व तेषामधय कृतं कल्पते । लिङ्गाभिप्रयोश्चतुर्भङ्गिका इयम्-लिङ्गतः साधर्मिका ना भिग्रहृतः १, अभिग्रहतः साधर्मिका न लिङ्गतः २, लिङ्गतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च ३, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रद्दतः ४ । तत्रार्थ भङ्गद्वयमुदाहरति लिंगेय उ नाभिग्गह, अभिग्गह वीसुऽभिग्गही चैत्र । जड़ सावग बीयभंगे, पत्तेयबुहा य तित्थयरा ।। १५२ ।। लिक्रेन साधर्मिका नाभिग्रतोऽनभिग्रहाः, यश-वियद्वा-विध्वग्-अभिग्रहिणो विभिन्नाभिग्रह कलिता यतय एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्ना प्राकाश्च वेदितव्याः उपलक्षणमेतत् निवाथ, अवापि निवानां श्रावकाचा पते न पतीनाम् १. अमितः साधर्मिका न लिहूतः इत्येवंरूपे द्वितीये भने प्रत्येकास्तीकराधशब्दादेकादशप्रतिमावर्जाः श्रावकाश्च समानाभिग्रहा द्रष्टव्याः, एतेषामधीयतं पतिः साधर्मिका अभिग्रहतश्च समनाभिग्रहाः साधव एकादशीं प्रतिमां प्रतिपन्नाः आपका निवास अत्रापि धायकमिवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् ३, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतश्च विसराभिश्रास्तीकर प्रत्येकडे कादशप्रतिमावर्जभावका तेषामर्थाय फलं कल्पते। विनोरिये चतु भङ्गिका लिङ्गतः साधर्मिका न भावनातः, भावनातः साधर्मिका न लिङ्गतः, लिङ्गतः साधर्मिका भावनातश्च, न लिङ्गतो नापि भावनातः । तत्रास्पा उदाहरणाम्पतिदेशेना भाषण, एवं लि यथा लिने अभिप्रणमामे भावनयायुहर्तव्यम् । तथेयम् सिङ्गतः साधर्मिका न भावनातः, भावनारहिता विष्वग्भावना वा यतय एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावका निह्नवाश्च । श्रत्र श्रावकनिह्नवानामर्थाय तं कश्पतेन साधूनामर्थाय १ भावनातः साधर्मिका न लिङ्गत, प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकृत एकादशी प्रतिमां प्रतिपक्षाः श्रावकाश्च समानभावनाकाः, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते २, लिङ्गतः साधर्मिका भावनातश्च समानभावनाकाः साधव एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावका निह्नवाश्च अत्रापि श्रावक निह्नवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् ३, न लितो नापि भावना सिमानाकास्तीर्थकर बुद्धैकादशप्रतिमावर्जश्रावकाः, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, दलिप चतुर्भङ्गका उक्ताः संप्रति दर्शनस्य ज्ञानादिभिः सह वक्तव्यास्तत्र दर्शनज्ञानयोरियं चतुर्भङ्गिका- दर्शनतः साधर्मिका न ज्ञानतः १ ज्ञानतः साधर्मिका न दर्शनतः २, दर्शनतोऽपि साधमिका ज्ञानतश्च ३, न दर्शनतो नाऽपि ज्ञानतः ४ । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। भाधाकम्म तत्राद्यं भङ्गद्वपमुदाहरति मिका अभिग्रहतश्च समानदर्शनाभिग्रहाः साधुशायकाः, दसणनाणे य पढमभंगो उ ।। अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, दर्शनतो नाप्यमिग्रहतो विसहशदर्शनाभिग्रहाः साधुश्रावकनिहवाः, जइ सावग वीसुनाणी, एवं चिय बिइयभंगोऽवि ।१५३। अत्र कल्याउकल्प्यविधिद्धितीयभवत् । दर्शनभायनारियं दर्शज्ञाने-दर्शनशानाविषयायां चः समुचये, प्रथमो भरो चतुर्भका-दर्शनतः साधर्मिका न भावनातो १. भावनातः दर्शनतः साधर्मिका न झानतः इत्येवंरूपो विश्वग्ना- सामिका न दर्शनतः २. दर्शनतोऽपि साधर्मिका भावनिन:-विभिन्नशानाः समानदर्शना यतयः श्रावकाश्व वे- नातश्च ३, न दर्शनतो नाऽपि भावनातः ४ । दितव्याः, तत्र थावकारणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीना अस्था प्राधभङ्गद्वयोदाहरणातिदेशार्थमाहमर्थाय कृतम् । एवमेव मानतः साधर्मिका न दर्शनत इत्येवंरूपो द्वितीयभङ्गोऽपि ज्ञातव्यः; तत्राऽपि यतयः भावणा चवं । भावकाश्च घेदितव्या इत्यर्थः, केवलं विभिन्नदर्शनाः स. यथा वर्शनेन अभिग्रह उदाहत एवं भावनाऽप्युदाहमानवानाः, अत्रापि कल्प्याऽकल्प्यविधिः प्रागिव, ज्ञानतः तव्या, सा चैवम्-दर्शनतः साधर्मिका न भावनाता, सार्मिका दर्शनतश्च समानज्ञानाः समानदर्शना यतयः विसहशभावनाकाः समानदर्शनाः श्रावका यतयः १, भाश्रावकाश्च, अत्रापि कल्प्याऽकल्प्यविधिः प्राग्वत्, न ज्ञा वनातः साधम्मिका न दर्शनतो विसदृशदर्शनसमानभावननो नागि दर्शनतो विसदृशज्ञानदर्शनाः साधवः श्रावका नाकाः साधवः श्रावका निवाश्च २, दर्शनतः सामिका निहवाश्च, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पत न भावनातश्च समानदर्शनभावनाकाः साधुश्रावकाः३, न दर्शसाधूनाम् । दर्शनचरणयोश्चतुर्भङ्गिका स्वियम्-दर्शनतः सा- नतो नापि भावनातो विसरशदर्शनभावनाकाः साधुश्रावकधर्मिका न चरणतः १, चरणतः साधर्मिका न दर्शनतः २, निहवाः ४, अत्र चतुर्वपि भनेषु कल्प्याऽकल्प्यविधिः प्रादर्शनतोऽपि सार्मिकाश्चरणतश्च ३, न दर्शनतो नापि गिव । तदेवं दर्शनविषया अपि चतनश्चतुर्भङ्गिका उक्ताः । चरणतः४। संप्रति झानस्य चारित्रादिभिः सह वक्तव्याः । ताश्चाऽतितत्राऽऽद्य भङ्गद्वयमुदाहरति देशनाहदमणचरणे पदमो, सावग जइणो य बीयभंगो उ । नाणेण वि नेज्जेवं, जहणो विसरिसदंसी, दंसे य अभिग्गहे वोच्छं ॥१५४॥ यथा दर्शनेन सह चताश्चतुर्भङ्गिका उक्नाः एवं शानेनापि दर्शनचरण-दर्शनचरणचतुर्भडिकायां प्रथमो भक्तो दर्शनतः सह चारित्रादीनि पदानि अधिकृत्य तिनश्चतुर्भषिका भासाधर्मिका न चरणत इत्येवंरूपः समानदर्शनाः श्रावका बनीयाः । प्रतीचे संक्षिप्तमुक्तमतः स्पष्टं विवियते-ज्ञानविसरशचरणा यतयश्च, अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते चरणयोरियं चतुर्भलिका-ज्ञानतः साधर्मिका न चरणतः १, म यतीनामर्थाय कृतम् १, द्वितीयो भङ्गः पुनश्चरणतः सा चरणतः साधमिका न मानतः २, मानतोऽपि साधर्मिकाधर्मिका न दर्शनतः इत्येवंरूपः विसदृशदर्शनाः समानचा श्वरणतश्च ३, न मानतोऽपि नापि चरणतः ४। तत्रज्ञानतः रित्रा यतयः, एतेषामर्थाय कृतं न कल्पते २, दर्शनतः साधर्मिका न चरणतः, समानहानाः श्रावकाः विसरशसार्मिकाश्चरणतश्च समानदर्शनचरणा यतयः, अत्रापि न चरणसमानशाना यतयश्च, अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते ३, न दर्शनतो नापि चरणतो निहवा विसरशदर्शना कल्पते न यतीनाम् १. चरणतः सामिका न मानतो विभावका विसरशचरणा यतयश्च, तत्र निवश्रावकाणा सशक्षानाः समान बरणयतयः, अत्र न कल्पते २, हानतः मर्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् , दर्शनाभिग्रहयोरियं चतु साधम्मकाश्चरणतश्व समानशानचरणाः यतयः, अत्रापि भतिका-दर्शनतः सार्मिका नाभिप्रहतः १, अभिग्रहतः न कल्पते ३, न मानतो नापि चरणतो विसरशहानचरणा साधर्मिका न दर्शनतः २, दर्शनतः साधर्मिका अमिप्रह यतयो विसहशज्ञानाः धावका निहवाश्च, अत्र श्रावकतश्च ३, न दर्शनतो नाप्यभिप्रहतः ४. तत्राचं भगवयमु निहवानामर्थाय कृतं कल्पते, न यतीनाम् ४। ज्ञानाभिग्रदाजिहीर्घरिदमाह-'सण' इत्यादि, दर्शने अभिग्रहे चाय हयोरियं चतुर्भलिका-शानतः साधर्मिका नामिग्रहतः १. भवयमधिकृत्योदाहरणं वक्ष्ये । अभिग्रहतः सार्मिका न झानतः २, ज्ञानतोऽपि साध मिका अभिग्रहतश्च ३, न ज्ञानतो नाप्यभिग्रहतः ४। तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयनि शानतः साधर्मिका नाभिग्रहतः समानशाना विसदृशाभिसावग जइ वीसऽभिग्गह-पढमो वीभो य ग्रहाः साधुश्रावकाः, अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते, न समानदर्शनाः विष्यगभिग्रहाः-विभिन्नाभिग्रहाः श्रावका साधनाम् १, अभिग्रहतः साधम्मिका न मानतो विसयतयश्च दर्शनतः साधर्मिका नाभिग्रहत एवंरूपः प्रथमो | इशक्षानाः समानाभिग्रहाः साधुश्रावकाः समानाभिग्रहा भक्तः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते, न यतीनां, निडवाश्च, अत्रापि श्रावकनिहयानामर्थाय कृतं कल्पते, न द्वितीयोऽपि भोऽभिग्रहतः साधर्मिका न दर्शनत इत्येवं- साधूनाम् २, ज्ञानतः साधमिका अभिग्रहतश्च समानलक्षणः श्रावकयतिका एव, केवलं ते यतया भावकाश्च शानाभिग्रहाः साधुश्रावकाः, अत्र कल्याउकल्प्यविधिः प्रथविसरशदर्शनाः समानाभिग्रहा घेदितायाः, उपलक्षणमेतत् , मभङ्ग इव ३, न ज्ञानतो नाप्यभिग्रहतो विसरशज्ञानाभितेन निवाश्च समानाभिप्रहा ज्ञातव्याः । अत्र श्रावक- ग्रहाः साधुथावका विसदृशाभिग्रहा निहवाश्व अत्र द्विनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, दर्शनतः साध: । तीये भङ्गे इव कल्प्याऽकल्प्य मावना, शानभायनयोरियं च. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म तुर्भलिका-ज्ञानतः साधम्मकाः न भावनातः, भावनातः। इत ऊर्दै द्वयोरन्तिमयोः-अभिग्रहभावनालक्षणयोः पदयो. साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधमिका भावना- श्चतुर्भडिकामुदाहरणतो वक्ष्ये । तत्र तयोरियं चतुर्भङ्गिकातश्च, न झानतो नापि भावनातः, तत्र-ज्ञानतः साधर्मिका अभिग्रहनः साधमिका न भावनातः १. भावनातः साधन भावनातः समानज्ञाना विसदृशभावनाकाः साधुश्रावकाः म्मिका नाभिग्रहतः २, भावनातः सामिका अभिग्रह१, भावनातः सार्मिका न ज्ञानतो विसदृशशानाः समा- तश्च ३, नाभिग्रहतो नापि भावनातः४। नभावनाकाः साधुश्रावकाः समानभावना निवाश्च २, तत्राधं भङ्गद्वयमुदाजिहीपुराहझानतः साधर्मिका भावनानश्च समानज्ञानभावनाकाः साधुवावकाः ३, न ज्ञानतो नापि भावनातो विसरशभावनाः जाणो सावगनिएहव-पढमे बीए य हुंति भंगे य । साधुथावका विसदृशभावना निवाश्च ४. अत्र चतुर्वपि अभिग्रहतः सामिका न भावनातः इत्येवंरूप प्रथमे भने भलकषु कल्याऽकल्प्यभावना प्रागिव । तदेवं ज्ञानविषया भावनातः साधर्मिका नाभिग्रहत इत्येवं रूपे द्वितीये च अपि तिनश्चतुर्भङ्गिका उक्ताः । भने यतयः श्रावका निवाश्च भवन्ति, केवल प्रथमभक्के संप्रति चरणेन सह यश्चतुर्भङ्गिकाद्वयं तदुदाहर्तुमाह समानाभिग्रहा विसदृशमावना वेदितव्याः, द्वितीयभने पुनः समानभावना विसदृशाभिग्रहाः अभिग्रहतः साधएत्तो चरणेण वोच्छामि ॥ १५५ ॥ मिका भावनातश्च समानभावनाभिग्रहाः साधुश्रावकनिइत ऊर्च चरणेन सह ये द्वे चतुर्भङ्गिके तदुदाहरणानि | हवाः, नाभिग्रहतो नापि भावनातो विसदृशभावनाभिग्रहाः वक्ष्ये, तत्र चरणाभिग्रहयोरियं चतुर्भङ्गिका-चरणतः सा- साधुश्रावकनिहवाः । अत्र चतुर्ध्वपि भङ्गेषु श्रावकनिधर्मिका नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधमिका न चरणतः, हवानामर्थाय कृतं कल्पते, न साधूनामिति । तदेवमुक्काः चरणतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न चरणतो ना- २१ एकविंशतिरपि चतुर्भङ्गिकाः। प्यभिप्रहतः । (७) तीर्थकरस्य प्राधाकर्मभोजित्वम् । संप्रति सामातत्राद्यं भगद्वयमुदाजिहीपुराह स्य केवलिन तीर्थकरं चाधिकृत्य कल्प्याऽकल्प्यविधि कथजइणो वीसाऽभिग्गह, पढमो बिय निएह सावगजइणो उ। यन्तिचरणतः साधम्मिका नाभिग्रहत इत्येवंरूपः प्रथमो भङ्गः केवलनाणे तित्थं-करस्स नो कप्पड़ कयं तु ।। १५७॥ समानचरणा विष्वगभिग्रहा-विभिन्नाभिग्रहा यतयः, अत्र केवलज्ञाने-केवलशानिनः सामान्यसाधोः उपलक्षणमेतत् ; न कल्पते. अभिग्रहतः साधम्मका न चरणत इत्येवरूपो तेन तीर्थकरप्रत्येकबुद्धवर्जानां शेषसाधूनामित्यर्थः, तीर्थद्वितीयो भङ्गः, समानाभिग्रहा निवाः श्रावका विभिन्न- करस्य; तीर्थकरग्रहणमुपलक्षणम् , तेन प्रत्येकबुद्धस्य चार्थाय चरणा यतयश्च, अत्र श्रावकाणां निवानां चार्थाय कृतं कृतं यथाक्रमं न कल्पते, तुशब्दस्यानुक्नार्थसमुच्चायककल्पते, न यतीनाम् ,२ चरणतः साधमिका अभिग्रहतश्च त्वात् कल्पते च । इयमत्र भावना-तीर्थकरप्रत्येकबुद्धवर्जसमानाभिग्रहचरणा यतयः, अत्र न कल्पते ३, न चरण- शेषसाधूनामर्थाय कृतं न कल्पते, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धानां त्वता नाप्यभिग्रहतः विसदृशाभिग्रहचरणाः साधवो विसह- र्थाय कृतं कल्पते, तथा हि-तीर्थकनिमित्तं सुरैः कृतऽपि शाभिग्रहाः श्रावकनिहवाश्व, अत्र कल्प्याऽकल्प्यभावना समवसरणे तत्र साधूनां देशनाश्रवणार्थमुपवेशनादि कल्पते, द्वितीयभाइव ४. चरणभायनयोरियं चतलिका-चरणतः एवं भक्काद्यपि , एवं प्रत्येकबुद्धस्याऽपि । साधमिका न भावनातः १, भावनातः साधर्मिमका न संप्रति यानाश्रित्य पूर्वोक्ता भङ्गाः संभवन्ति स्म तान् चरणतः २, चरणतः साधर्मिमका भावनातश्च ३, न चरणतो प्रति पादयतिनापि भावनातः४ । पत्तेयबुद्ध निण्हव , उवासए केवलीवि आसज । अस्या उदाहरणान्यतिदेशत श्राह खड्याइए य भावे , पडुच्च भंगे उ जोएजा ॥ १५८॥ एवं तु भावणासु वि, प्रत्येकबुद्धान-निहवान् उपासकान्-श्रावकान् केवलिनयथा चरणेन सहाभिग्रहे उदाहृतम् एवं भावास्वप्युदाह- | स्तीर्थकरान् अपिशब्दात्-शेषसाधूश्वाश्रित्य तथा क्षायिकातव्यम् . तश्चैवम्-चरणतः साधमिका न भावनातः समा- दीन् भावान् क्षायिकक्षयोपशामकानि दर्शनानि चशब्दानचरणविभिन्नभावना यतयः १, भायनानः साधर्मिका न| द्विचित्राणि ज्ञानानि चरणाणि अभिग्रहान् भावनाश्च चरणतः समानभावना निहवाः श्रावका विभिन्न चरणा प्रतीत्य भङ्गान् योजयेत् . ते च तथैव योजिताः । यतयश्च २, चरणतः साधर्मिका भावनातश्च समानच- तत्र प्रथमचतुर्भडिकां प्रवचनलिङ्गविषयामधिकृत्य रणभावना यतयः ३, न चरणतो नापि भावनातः विस विशेषतः कल्प्याऽकल्यविधिमाहरशचरणभावनाः साधवो विसदृशभावनाः श्रावका नि जत्थ उ तइओ भंगो, तत्थ न कप्पं तु, सेसए भयणा। हवाश्च ४, अत्र चतुर्वपि भङ्गकेपु कल्प्याऽकल्ल्यविधिःप्रा-| तित्थंकरकेवलिणो , जहकप्पं नो य सेसाणं ।। १५६ ।। गिव । तदेवं चरणविपये अपि वे चतुर्भङ्गिके उक्ने । यत्र साधर्मिके तृतीयो भङ्गः प्रवचनतः साधर्मिका संप्रत्यभिग्रहभावनयोश्चतुर्भङ्गिका चक्काम पाह लिङ्गतश्चत्यवंरूपस्तत्र न कल्पते , यतः प्रवचनतो लिङ्गबोच्छंदोएहं ति माणित्तो ॥१५६॥ तश्च साधर्मिकाः प्रत्येकवुद्धतीर्थकरवर्जा यतयस्ततस्तेषा-- Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५) माधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म मर्थाय कृतं न कल्पते, तुशब्दोऽनुकसमुश्चमार्थः, स च अथ तीर्थकरप्रतिमार्थ तनिर्वतते तत्साधूनां किं कल्पते धावकस्य एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नस्य तृतीयभाभा- नवेत्याशङ्कानिरासार्थमाहविनोऽप्यर्थाय कृतं कल्पत इति समुचिनोति , केचि संवट्टमेहपुप्फा, सत्थनिमित्तं कया जइ जईणं । दाहु-एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नः साधुकल्प इति तस्याप्यर्थाय कृतं न कल्पते, तदयुकं मूलटीकायामस्या नहु लन्भा पडिसिद्धं, किं पुण पडिमट्ठमारद्धं ॥६४१। र्थस्यासम्मतत्वात् , मूलटीकायां हि लिलामिग्रहचतुर्भङ्गि- शास्ता-तीर्थकरस्तस्य निमित्तं यानि देवैः संवर्तकमेघकाविषये कल्प्याऽकल्ल्यविधिरेवमुक्त:-"लिंगे नो अभिग्गहे पुष्पाणि समवसरणभूमौ कृतानि तानि यतीनां यदि प्रजा साहून कप्पा, गिहत्थनिराहवे कप्पह" त्ति । इह लि- | तिळून लभ्यानि तेषां तत्रावस्थातुं यदि कल्पते इति अयुता गृहस्था एकादर्शी प्रतिमा प्रतिपत्राः श्रावका | भावः। तर्हि किं पुनः प्रतिमार्थम्-अजीवानां हेतोरारब्धं एवं लभ्यन्ते , ततस्तेषामर्थाय कृतं कल्पवमुक्तम्, 'से- ततः-पुरातनं प्रतिषेधमईतीत्यभिप्रायः।। सए भयण' त्ति-शेषक भङ्गकत्रये भजना-विकल्पना पाह-यदि तीर्थकरार्थ संवर्तकमेघपुष्पाणि कृतानि तर्हि कचित् कथंचित्कल्पते, क्वचिन्न, भङ्गचतुष्टयमप्यधिकृत्य तस्य भगवतस्तानि प्रतिसेवमानस्य कथं न दोषो भवसामान्यत उदाहरति-तित्थंकरे' त्यादि , यथेत्युदाह तीति ?, उच्यतेरणोपन्यासार्थः । तीर्थकरकेवलिनोऽर्थाय कृतं कल्पते, तित्थयरनामगोयस्स, खयद्रा अवि य दोलि साभधा। इह तीर्थकर उत्पन्न केवलज्ञान एवं प्रायः सर्वत्रापि भूमण्डले प्रतीतो भवति । प्रतीतस्य च तीर्थकरस्यार्थाय धम्मं कहेइ सत्था, पूयं वा सेवई तं तु ।। ६४२ ॥ कृतं कल्पते, नाप्रतीतस्य ततः केवलिग्रहणम् , यदा पुनः तीर्थकरनामानो गोत्रस्य कर्मणः क्षयार्थ शास्ता भगवान् छमस्थावस्थायामपि तीर्थकरत्वेन प्रतीतो भवति । तदा | धर्म कथयति पूजां च तामनन्तरोनां संवर्तकवातप्रभृतितस्यामध्यवस्थायां तन्निमित्तं कृतं कल्पते, तीर्थग्रहणं | कामासेवते भगवता हि तीर्थकरनामगोत्रं कर्मावश्यं वेदच प्रत्येकबुद्रानामुपलक्षणं , तेन तेषामप्यर्थाय कृतं क- नीयं विपाकोदयाऽऽवर्तित्वात् ,तस्य च वेदने अयमेवोपायो ल्पते , “नो य सेसाणं ' ति-शेषसाधूनामर्थाय कृतं न यदग्लान्या धर्मदेशनाकरणं सदेवमनुजासुरलोकविरचिकल्पते , इदं च सामान्यत उक्तम् , ततोऽमुमेवार्थ मु तायाश्च पूजाया उपजीवनम् । “तं च कहं बेइजइ, अगिपजीव्य तृतीयवर्जे शेषे भङ्गत्रये भजना स्पष्टमुपदयते- लाए धम्मदेसणाई हिं" तथा-"उदए जस्स सुराऽसुरप्रवचनतः साधर्मिका न लिङ्गतः , एकादशप्रतिमाप्रति- नरवानिवहहि पूडो लोए । तं तित्थयरं नाम, तस्स पन्नवर्जाः शेषश्रावकास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, ये तु विवागो उ केवलिणो " ॥ १॥ इति वचनप्रामाण्यात् , चौरादिमुषितरजोहरणादिलिङ्गाः साधवस्तेषामर्थाय कृतं अपिचेत्यभ्युश्चये, 'दोणि 'त्ति-निपातो वाक्यालङ्कारे, सा न कल्पते द्रव्यलिङ्गापेक्षया साधर्मिकत्वाभावेऽपि भा- भवति । स्थो भावः स्वभावः, यथा-श्रापो द्रवाः चलो वायु. वतश्चरणसाधम्मिकत्वात् लिङ्गतः साधर्मिका न प्रव- रित्यादि, तस्य भावः स्वाभाव्यं तस्मात् तस्य हि भगवतः चनतो निवास्ते यदि लोके निह्नवत्वेन ख्यानास्ततस्ते- स्वभावोऽयं यत्तथा धर्मकथाविधानं पूजायाश्चाऽऽसेघनम् । षामर्थाय कृतं कल्पते, अन्यथा न, न प्रवचनतो न लिङ्ग इदमेव स्पष्टतरमाहतस्तीर्थकरप्रत्येकबुदास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवं प्रथ- खीणकसाओ अरिहा,कय किच्चो अवि य जीयमण्यत्ती। मचतुर्भङ्गिकामधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिरुत एतदनुसारे पडिसेवंतो वि अतो , अदोसवं होइ तं पूयं ॥ ६४३ ॥ यस च शेषास्वपि चतुर्भनिकासु विज्ञेयः, स च प्रागेव प्रत्येक क्षीणा:-प्रलयमुपगताः कषाया:-क्रोधादयो यस्य सः क्षीणदर्शितः । सर्वत्राप्ययं तात्पर्याोंऽवधारणीयः-यदि तीर्थफराः प्रत्येकवुद्धा निवाः श्रावका वा तर्हि तेषामाय कषाय एवंविधोऽर्हन् तां पूजां प्रतिसेवमानोऽपि न दोष वान् , इयमत्र भावना-यो हि रागादिमान् पूजामुपजीयन कृतं कल्पते । साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते । तदेवमुक्तः कल्पयाऽकल्प्यविधिः, तदुक्नौ च-'श्राहाकम्मियनाम' खात्मन्युत्कर्ष मन्यते स दोषभाग भवति, भगवतस्तु क्षीणकत्यादि मूलद्वारगाथायां 'कस्स वाऽवी' ति व्याख्या पायस्य पूजामुपजीवतोऽपि नास्ति स्वात्मन्यत्कर्षगन्धः, अतो तम् । पिं०। दुरापास्तप्रसरा तस्य सदोषतेति तथा कृतकृत्यः-केवलज्ञान लाभानिष्ठितार्थः ततः कृतकृत्यत्वादेवाऽसौ पूजामासेवते, आत्मघ्नपिण्डे न च दोपमापद्यते । अपि च-जीवमुपजीवनीया सुराऽसुरजीवं उद्दिस्स कडं, कंमं सोऽवि य जया उ साहंमी।। विरचिता पूजेत्येवलक्षणे कल्पमनुवर्तयितुं शीलमस्यासी साऽवि य तइए भंगे, लिंगादीणं न सेसेसु ।। ६४०॥ जीचानुवर्ती गाथायां मकारोऽलाक्षणिकः । जीवमुद्दिश्य यत् षट्कायविगधनया कृतं सोऽपि च यदि श्राह भवत्येवं परं तीर्थकरस्य तत्प्रतिमाया वा मिमित्तं जीयः साधर्मिकः-समानधर्मा भवति सोऽपि च सा यत्कृतं तन्कन कारणेन यतीनां कल्पते?, उच्यतेधर्मिको लिलादीनां लिङ्गतः साधर्मिको न प्रवचनत: साहमिओ न सस्था, तस्स कय तेण कप्पइ जईसं । इत्यादीनां चतुणा भङ्गानां तृतीये भने लिङ्गतः-प्रवचन जं पुण पडिमाण कयं,कस्स कहा का अजीवत्ता॥४४॥ तोऽपीस्येवं लक्षणे यदि वर्तते न शेषेषु तदेतत्-प्राधाकर्म शास्ता-तीधकरः सधार्मिको लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि न मन्तव्यम् । भवति तच लिङ्गमस्य भगवतो नास्ति तथाकल्पत्वात् , अतो Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। माधाकम्म मलितः साधर्मिकः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिकः सोऽभि-| किं तदाधाकर्मेति शिष्येण पृऐ तत्स्वरूपकथनार्थम्-श्राधीयते-यश्चतुर्वर्णसाभ्यन्तरवर्ती भवति “पवयणसंघेय- धार्मस्वरूपकथनार्थम् , तस्य-आधाकर्मणः संभवप्रगरे" इति वचनात् , भगवांश्च तत्प्रवर्तकतया न तदभ्य- दर्शनार्थे च अशमादिकम्-अशनपानवादिमस्वादिम गुरुम्तरवर्ती किंतु वर्णस्यापि सास्यापि ततो न प्रवचनतो- भणति, इयमनभावना-अशनादिस्वरूपमाधाकर्म-प्रशनाऽपि साधर्मिक इत्यतस्तस्य तीर्थकरस्यार्थाय कृतं यतीनां दावेष प्राधाकर्मणः संभवः, ततो गुरुः किमाधाकम्र्मेति कल्पते, यत्पुनः प्रतिमानामर्थाय कृतं तस्य का कथा-का पृष्टः सन्नशनादिकमेव वक्ति, तथा च शय्यंभवसरिराधावार्ता सुतरां तत् कल्पते, कुन इत्याह-अजीवत्वात् , जीव- कर्म दर्शयन् पिण्डैषणाध्ययने अशमादिकमभिधते, तपथामुद्दिश्य यदि यत्कृतं तदाधाकर्म भवति 'जीवं उहिस्स "असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा । कड०॥४०॥" इति प्रागयोक्त्वात् तच जीवत्वमेव प्रति जं जाणेज सुणेजा वा, समणऽट्ठा पगडं म ॥१॥ मानां नास्तीति । तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अप्पियं । अथ वसतिविषयमाधाकर्म दर्शयति दितिय पडियारक्खे, न मे कप्पा तारिसं" ॥२॥ इति । ठाइमठाई ओसरणे. अमंडवा संजय8 देसे वा। संप्रत्यशनादिकमेव व्याचष्टेपेढी भूमीकमे, निसेवतो अणुमई दोसा ॥ ६४५॥ | सालीमाई अबडे, फलाइ सुंठाइ साइमं होइ। 'श्रोसरणे' समवसरणे बहवः संयताः समागमिष्यन्ती- शाल्यादिकमशनम् , 'अबट' इति-धापीकृपतागायुपति बुद्धपा श्रावका धर्मश्रद्धया बहून् मण्डपान् कुयुः ते च लक्षणं, ततः कूपयापीतडागादी यजल तत्पानं, तथा फद्विधा-स्थायिनः, अस्थायिनश्च । ये समवसरणपर्वणि व्य लादि-फलं नालिकेरादि, प्रादिशब्दाथिश्चिणिकापुष्पादितीते सति नोत्कील्यन्ते ते स्थायिनः, ये पुनरुत्कील्यन्ते परिग्रहः तत् स्वादिम, शुएठ्यादिकं स्वादिम, तत्र शुण्ठी ते अस्थायिमः । पुनरेकैके द्विविधाः-संयतार्थकृता, देशकृता प्रतीता, आदिशब्दात्-हरीतक्यादिपरिप्रहः। या। ये प्राधाकर्मिकास्ते संयतार्थकृताः । ये तु साधूना तदेयं व्याख्यातान्यशनादीनिमात्मनः स्वार्थाय कृतास्ते देशकृताः पतेषु तिष्ठतां तनि- संप्रत्येतेष्वेवाधाकर्मरूपेषु प्रत्येक भाचतुष्टयमाहरूपनं प्रायश्चित्तम् । तथा पीठिकानाम-उपवेशनादिस्थान तस्स कडनिद्वियंमी, सुद्धमसुद्धे य चत्तारि ।। १६१ ॥ विशेषाः 'भूमीकम्मे' ति-भूमिकर्म-विषमायाः भूमेः तस्येति प्रस्तावात् साधोराय ‘कृत' मित्यत्र बुद्धासमीकरणम् . उपलक्षण चेदं तेन समाजनोपलेपनादिप वादिकर्मविवक्षायां प्रत्ययः, ततोऽयमर्थः-कर्नु प्रारम्ध, रिग्रहः । एतान्यपि पीठिकादीनि संयतार्थकृतानि देशक तथा तस्य साधोराय निष्ठितं-सर्वथा प्रासुकीकृतमिति, तानि भवेयुः । एतानि मण्डपादीनि सदोषाणि निषेवमा अत्र विषये 'चत्तारी' ति-चत्यारो भका भन्ति तत्र प्रथम णस्य अनुमतियोषा भवन्ति पतेषु क्रियमाणेषु या पराणां जीवनिकायानां विराधना सा अनुमोदिता भवतीति भावः। एष एव भङ्गस्तस्य कृतं तस्य निष्ठितं. द्वितीया-तस्य कृतवृ०१ उ०२ प्रक०। मन्यस्य निष्ठितं, तृतीयः-अभ्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं, चतु. प्राधाकर्मणः कल्प्याऽकल्प्यविवेकः र्थः, अन्यस्य कृतमभ्यस्य निष्ठितम् । तत्र प्रथमो व्याख्यातः, भाहा अहे य कम्मे, आताहम्मे य अत्तकम्मे य।। द्वितीयादिना तु भङ्गानामयमर्थः-पूर्वे तावत्तस्य साधोरा य कृतम-प्रारब्धं ततो दातः साविषयवानपरिणामातं पुण आहाकम्म, णायव्वं कप्पते कस्स ॥ ४६॥ भावतोऽन्यस्य-आत्मनः स्वपुत्रांदर्याऽर्थाय निष्ठां नीतं, तथा माधाकर्म, अधःकर्म, श्रात्मघ्नम्, श्रात्मकर्म चेति च- प्रथमतोऽन्यस्य पुत्रादेरात्मनो वाऽर्थाय कत्लेमारब्धं ततः स्वारि नामानि । तत्र साधूनामाधया-प्रणिधानेन यत्कर्म- साधुविषयदानपरिणामभावतः साधोराय निष्ठां नीत, षटकाविनाशेनाशनादिनिष्पादनं तदाधाकर्म, तथा वि-| तथा प्रथमत एवाऽन्यस्य निमित्तं कर्तुमारब्धमन्यस्यव च शुद्धसंयमस्थानेभ्यः प्रतिपत्त्यात्मानमविशुद्धसंयमस्थानेषु निमित्तं निष्ठां नीतम् । एवमशने पाने स्वादिमे स्वादिमे च यदधोऽधः करोति तदधःकर्म । श्रात्मान-शानदर्शनचारि- प्रत्येकं चत्वारश्वत्यारो भङ्गा भवन्ति, ततः 'सुद्धमसुद्धे य' प्ररूपं हन्ति-विनाशयतीत्यात्मनो यत्पाचकादिसंबन्धि कर्म त्ति-श्रात्यात् शुद्धाशुद्धी चेति द्रष्टव्यं, तत्र शुद्धी सापाकादिलक्षणं मानावरणीयादिलक्ष वा तदात्मनः संबन्धि धोरासेवनायोग्याँ, तौ च द्वितीयचतुर्थभक्ती, तथा हिक्रियने अनेनेत्यात्मकर्म । तत्पुनराधाकर्म कस्य पुरुषस्य क्रिया या निष्टा प्रधाना, ततो यद्यपि प्रथमतः साधुनिमित्तं कल्पते न वा, यदा-कस्य तीर्थे कथं कल्पते, न कल्पते च।। क्रिया प्रारब्धा तथाऽपि निष्ठाम्-अन्यनिमित्तं भीतेति द्विपृ०४ उ०। (इति 'अकप्पट्टिय' शब्दे प्रथमभागे गतम् ।)। तीयो भतः साधोः कल्पते, चतुर्थस्तु भरः शुद्ध पवन (E) यथाक्रम द्वाविंशति २२ जिनेषु कल्प्याऽकल्प्यविधिः तत्र विवादः, अशुद्धौ अकल्पनीयो, तौ च प्रथमतृतीयौ 'अकप्पट्टिय' शम्दे प्रथमभागे गतः।) तत्र प्रथम एकान्तेनाशुद्ध एव साभ्यर्थ प्रारम्धत्वानिष्ठित स्वाच, तृतीये तु भने यद्यपि पूर्वे न साधुनिमित्तं पाका(६) अशनादिषु भाषाकर्मसंभवः । संप्रति "किंवाधी' ति व्यायिख्यामुराह दिक्रियारम्भस्तथापि साधुनिमित्तं निष्ठां नीता, निष्ठा च प्रधानेति न कल्पते । तदेवमाधाकर्मस्वरूपमुक्तम् । पि० । किं तं माहाकम्म, ति पुच्छिए तस्स रूवकहणऽत्थं । प्राधाकर्मण उत्पत्तिःसंभवपदसरिणत्थं, च तस्स असणाइयं भणह ॥१६०।।।। सालीघयगुलगोरस-नयेसु वल्लीफलेसु जातेसु । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५७) अभिधानराजेन्द्रः। भाधाकम्म प्राधाकम्म पुस्मऽट्टकरणसड्ढा, आहाकम्मे णिमंतणता ।। ६३६ ।। किमयंति कयं नाउं, वजंतऽनं वयंति वा ॥ १६७॥ कस्यापि दानरुचेरभिगमश्राद्धस्य या नवः शालिर्भूयान् इह संकुलो नाम ग्रामः, तत्र जिनदत्तनामा श्रावकः, तस्य गृहे समायातस्ततः स चिन्तयति-पूर्व यतीनामदत्वा ममा- भार्या जिनमतिः, तत्र च ग्रामे कोद्रवा रालकाश्च प्राचुर्येणोआत्मना परिभोक्तुं न युक्त इति परिभाव्याऽधाकर्म कुर्यात् , त्पद्यन्ते इति तेषामेव कृरं गृहे गृहे भिक्षार्थमटन्तः साधवो एवं घृते गुडे गोरसे नयेषु वा तुम्ब्यादिवल्ली फलेषु जातेषु लभन्ते. वसतिरपि स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता समभूतलापुण्यार्थ दानरुचिः श्राद्धः 'करणं' ति-श्राधाकर्म कृत्वा दिगुणैरतिरमणीया कल्पनीया च प्राप्यते, स्वाध्यायोऽपि साधूनां निमन्त्रणं कुर्यात् । वृ०४ उ० । तत्र वसतामविघ्नमभिवर्द्धते, केवल शाल्योदनो न प्राप्यत श्राधाकर्म सम्भवे भेदाश्च प्रदर्शिताः, तस्स आहाकम्मस्स इति न केचनापि सूरयो भरेण तत्राऽवतिष्ठन्ते । अन्यदा च कहं संभवो हवेज इमो भरणति । संकुलग्रामप्रत्यासन्ने भद्रिलाभिधाने ग्रामे केचित् सूरयः सूत्रम् समाजग्मुः, तैश्च संकुलग्रामे क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय साधवः प्रेष्यन्त, साधवोऽपि तत्राऽऽगत्य यथाऽऽगमं जिनदत्तस्य सालीघयगुलगोरस-नवेसु वल्लीफलेसु जातेसु । पाव वसतिमयाचिषत, जिनदत्तेनापि च साधुदर्शनसमुपुण्णट्ठदाणसङ्का, आहाम्मे णिमंतणया ॥ ५७॥ च्छलितप्रमोदभरसमुद्भिन्नरोमाञ्चकञ्चुकितगात्रेण तेभ्यो आहाकंमे तिविहो, माहारे उवधिवसहिमादीसु । वसतिः कल्पनीया उपादेशि । साधयश्च तत्र स्थिताः, आहाए वा कम्म, चउविधं होति असणादी ॥८॥ यथाऽगमं भिक्षाप्रवेशनेन बहिर्भूमौ स्थरिडलनिरीक्षणेन च सकलमपि ग्राम प्रत्युपेक्षितवन्तः, जिनदत्तोऽपि च कस्सति दाणरुइणो अभिगमसहस्स या वो साली घरे धावको वसतावागत्य यथाविधि साधून वन्दित्वा पवेसितो ताहे दाणसहो चिंतेति-पुव्वं जतीणं दाउं महत्तरं साधुमपृच्छत्-भगवन् ! रुचितमिदं युष्मभ्यं पच्छा अप्पणा परिभोग कहेमि त्ति आहाकम्म क क्षेत्रम् ?, सूरयोऽत्र निजसमागमेनाऽस्माकं प्रसादमाधास्यरेज्ज, जहा सालीए, एवं घृतगुडे गोरसे या नवेसु वा न्ति । ततः स ज्येष्ठः साधुरवादीत्-वर्तमानयोगेन, ततो तुम्ब्यादिवल्लिफलेषु जातेषु पुस णिमित्तं दाणसहा जया ज्ञातं जिनदत्तेन-यथा न रुचितमिदमतेभ्यः क्षेत्रमिति, आहाकम्मं काउं साहुणो णिमंतेज्ज तस्स य श्राहाकम्म- चिन्तयति च-अन्ये ऽपि साधयोऽत्र समागच्छन्ति परं न स्स इमे दोसा-श्राहाकम्म तिविध-श्राहारे, उवधी, व- केचिदवतिष्ठन्ते, तन्न जानामि किमत्र कारणमिति, ततः सहीए। श्रादिसहो णामादिभेदप्रदर्शनार्थः । उत्तरभेदप्र कारणपरिशानाय तेषां साधूनामन्यतमं कमपि साधुमृगँ दर्शनार्थ वा आहाए कम्म बाषिर्थ असणादियं । शात्वा पप्रच्छ, सच यथाऽवस्थितमुक्तवान् , यथाऽत्र गाहा सर्वेऽपि गुणा विद्यन्ते गच्छस्यापि च योग्यमिदं क्षेत्र, केउवही आहाकम्म, वत्थे पाए य होति नायव्वं । चलमत्राऽऽचार्यस्य प्रायोग्यः शाल्योदनो न लभ्यते, इति नाऽवस्थीयते । तत एवं कारणं परिज्ञाय तेन जिनदत्तश्रावत्थे पंचविधं पुण, तिविहं पुण होति पातम्मि ।। ५६ । वकेण परस्माद प्रामात् शालिबीजमानीय निजग्रामक्षेत्रउवधीप्राहाकम्मं दुविधं-बत्थे, पादे य । तत्थ पत्थे | भूमिषु वापितं, ततः संपन्नो भूयान् शालिः, अन्यदा च पंचबिह-जंगियं भंगिय, सणियं, पत्तया तिरीडपट्टे च । पादे यथाविहारक्रम ते वाऽन्ये वा साधवः समायासिषुः, श्रावतिविह-लाउयं, दारुयं, मट्टियापादं च । एतेसिं वक्खाणं पू- कश्च चिन्तयामास-यथैतेभ्यो मया शाल्योदनो दातव्यो घवत् । नि० चू० १० उ०। येन सूरीणामिदं योग्य क्षेत्रमिति परिभाव्य साधवोऽमी साम्प्रतमशनादिरूपस्याधाकर्मणः सम्भवं प्रतिपिपादयिषुः । सूरीनत्राऽऽनयन्ति, तत्र यदि निजगृह एव दास्यामि ततोऽ. कथानकं रूपकषटकेनाह भ्यषु गृहेषु कोद्रवरालककूरं लभमानानामेतेषामाधाकर्मकोद्दवरालगगामे, वसही रमणिज भिक्खसज्झाए। शकोत्पत्स्यते तस्मात् सर्वेष्वपि स्वजनगृहेषु शालिं प्रेषखेत्तपडिलेहसंजय, सावयपुच्छुज्जुए कहणा ॥१६२।। यामीति, तथैव च कृतं स्वजनांश्चोक्तवान् यथा स्वयमप्यमुं शालि पक्वा भुआत, साधुभ्योऽपि च ददत, एष च प्रसाजुअइ गणस्स खेत्तं, नवरि गुरूणं तु नऽस्थि पाउग्गं । म्तः सर्वोऽपि बालादिभिरवजग्मे, साधवश्व भिक्षामटन्तो सालित्ति कए रुंपण, परिभायण निययगेहेसुं ।।१६३।। यथाऽऽगममेषणासमितिसमिता बालादीनामुक्तानि - वोलेंता ते व अन्ने वा, अडंता तत्थ गोयरं। एवन्ति, तत्र कोऽपि बालको वक्ति पते ते साधवो येषा मर्थाय गृहे गृहे शाल्योदनो निरपादि, अन्यो भाषते सासुणंति एसणाजुत्ता, बालादिजणसंकहा ॥ १६४॥ धुसंबन्धी शाल्योदनो मह्य जनन्या ददे, दात्री वा क्वचिदेवं एए ते जेसिमो रद्धो, सालिकूरो घरे घरे । भाषते-दत्तः परकीयः शाल्योदनः, संप्रत्यात्मीयं किमपि ददिनो वा सेसयं देमि, देहि वा ति वा इमं ।। १६५ ॥ दामि, गृहनायकोऽपि कापि ब्रूते-दत्तः शाल्योदनः परकीयः; थके थक्कावडियं, अभत्तए सालिभत्तयं जायं । संप्रत्यात्मीयं किमपि देहि, बालकोऽपि क्वापि कोऽप्यनभि झो जननी चूते-मम साधुसम्बन्धिनं शाल्योदनं देहीति, अमज्झम पइस्स मरणं, दियरस्स य से मया भञ्जा।१६६।। न्यस्त्वीपहरिद्रः सहर्ष भाषते-अहो थक्के थकावडियमस्माकं चाउलोदगं पि से देहि, सालीपायामकंजियं । संपन्नम् । इह यदवसर अवसरानुरूपमापतति तत् थक्के थ ६५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रधाकम्न मक्का " कावडियमित् ततः स एवमाह-येन भावेऽस्माकं शालिभक्कमुदपादि श्रत्रैवाऽर्थे स लौकिकं ट्रान्तमुदाहरति सुरग्रामे यशोधराभिधाना काचिदाभीरी, तस्या योगराजो नाम भर्ता, वत्सराजो नाम देवरः, तस्य भार्या योधनी. अन्यदा च मरणपर्यवसा नो जीवलोको मरणं चानियतहेतुकम् - श्रनियतकालमिति योधनी योगराजी समकाले मरणमुपगती ततो यशोधरा देवरं वत्सराजमयाचत-तत्र भार्याऽहं भवामीति, देवरोऽपि च ममापि भार्या न विद्यते इति विचिन्त्य प्रतिपन्नवान् ततः सा चिन्तयामास - अहो ! श्रवसरे श्रवसराऽऽपतितमस्माकमजायत यस्मिन्नेवाऽवसरे मम पतिः पञ्चत्वमुपाऽगमत् तस्मिन्नेवावसरे मम देवरस्यापिमा मृत्युमगच्छ ततो देव भार्यायेन प्रतिपन्ना अन्यथा न प्रतिपद्येत । तथा क्वाऽपि बालको जननीमाऐ-मातः ! शालितलोदकमपि साधुभ्यो देडि अन्य स्वाद- शालिकासिर्फ तत एवमादीनि बालादिजनजि तामिया किमेतदिति पृच्छन्ति पूपे च सति ये जयस्ते यथावत् कथितवन्तो यथा युष्माकमयेदं कृतमिति, तु मायाविनः श्रावकेण वा तथा प्रज्ञापितास्ते न कथयन्ति केवलं परस्परं निरीचन्ते तत एवं नमिदमाथाकर्मेति परिक्षाय तानि सर्वाण्यपि गृहाणि परिहृत्याऽन्येषु भिक्षार्थमदन्ति स्म, ये च तत्र न निर्वहन्ति स्म ते तत्राऽनिर्वतः प्रत्यासने प्रामिक्षार्थमगच्छन् एवमन्यत्राव्याधा संमयति राथ वालावितिविशेषैरवगत्य कथानको साधुभिरिव नियमतो निष्कलङ्क संयमिना परिहर्तव्यम् । सूत्रं तु सकलमपि सुगमं, नवरं 'रुपण त्ति-रोपणम् 'परिभायण' त्ति-गृहे परिभाजनम्' से इतिएतेभ्यः 'अन्नं' ति अन्यं ग्रामम् । तदेवमुक्तो ऽशनस्याधाकर्मणः संभवः । श्रुत्वा , د " , (२४) अभिधानराजेन्द्रः । - संप्रति पानस्याऽऽद्द - लोणागडोदए एवं खाणि महुरोदगं । " च्छिते ताव, जाव साहु ति श्रागया || १६८ || यथा श्रशनस्याधाकमंकथानक सूचनेन संभव उक्तस्तथा पानस्याऽप्याभाकर्मो वेदितव्यः, कथानकमपि तथेय केव विशेष चिद् प्रामे सर्वेऽपि कृपाः सारोदा - सीरन् क्षारोदका नाम श्रामलकोदका विज्ञेयाः, नन्वत्यन्त क्षारजलाः तथा सति ग्रामस्याप्यवस्थानानुपपत्तेः, ततस्तस्मिन् लवणावटे क्षेत्रे क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय साधवः समागच्छन् परिभावयन्ति स्म च यथाऽऽगमं सकलमपि क्षेत्रं, ततस्तनिवासिना श्रावण सादरमुपरुध्यमाना अपि साधवो नावतिष्ठन्ते ततस्तन्मध्यवर्ती कोऽपि ऋजुको नवस्थानकारणं पृष्टः, स च यथाऽवस्थितं तस्मै कथयामास यथा- विद्यन्ते सर्वेऽप्यत्र गुणाः केवले क्षारं जलमिति नाऽनिम्ते ततो गनेषु तेषु साधुषु स मधुशेदकं कूपं खानितवान् तं खानयित्वा लोकप्रवृत्तिजनितपापभयात् फलकादिना स्थगितमुखं कृत्वा तावदास्ते यावतं वाऽन्ये वा साधवः समाययुः समागतेषु च साधुषु मा मम गृह केबले आधाकर्मिभूदिति प्रतिगृदं तम्मधुरमुदकं श्रधाकम्म भाजितवान् ततः पूर्वकथानकप्रकारेण साधवो बालादीनामुपानयाकमेति च परिक्षा परि हृतवन्तः । एवमन्यत्राप्याधाकर्म पानीयसंभभवो द्रष्टव्यः, तेऽपि यालापविश्वे परिकलव्य कथानकोकसाधव इव परिहरेयुरिति । सूत्रं सुगमम् । " संप्रति खादिम स्वादिमयोराधाकर्मणोः संभवमाहकक्कड अंगावा, दाडिम दक्खा य बीयपुराई । खाइमऽहिगरण करणं-ति साइमं तिगडुगाईयें ।। १६६ ।। कर्कटिका निर्मटिका प्रकाणि चूतफलानि दाडि मानि द्राक्षाश्च प्रतीताः बीजपूरकादिकम् श्रादिशब्दात्कपित्थाssदिपरिग्रहः, एतान्याश्रित्य खादिमविषये अधिकरणकरणं भवेत् पापकरणं भवेत् एतानि साधूनां शालनकादिकार्येषु प्रतिपनादि कुर्यादिति भावः । तथा त्रिकटुकादिकं शुण्ठीपिप्पलीमरिचकादिकमाश्रित्य स्वादिमे अधिकत्साधूनामवधार्थमभूमि इति तेषां कुर्यादिति भावः । संगतिमा 'तस्स कडनियंत्रीत्यादि तत्र कृतनिष्ठित शब्दयोरर्थमाह असणाई चउरह वि. श्रमं जं साहुगहण पाउग्गं । तं निट्ठियं वियाणसु, उवक्खर्ड तू कडं होइ ॥ १७० ॥ चतुर्णामपि मध्ये यत् श्रमतिं सत् साधुग्रहणप्रायोग्यं कृतम् प्रासुकीकृतमित्यर्थः तं निष्ठितं विजानीत उपस्कृतं तु अत्रापि बुद्धावादिकर्मविषत्तायां प्रस्थथः । ततोऽयमर्थः उपस्कर्तुमारयमिति भावः कृतं भवति ज्ञातव्यम् । एतदेव विशेष भावयतिकंडिय तिगुणुकंडा उ निडिया नेगद्गुणउकंडा । निडियकडा उ कूरो, आहाक्रम्मं दुगुसमाडु ॥ १७१ ॥ इदये तरडुलाः प्रथमतः साध्यर्थमुतास्ततः क्रमेण क रटयां जातास्तत् करिङताः कथंभूताः कण्डिताः ? इत्याहत्रिगुणोकडाचीन पारान् पात्ययेन येषां ते चिसोका रिडता इत्यर्थः ते निष्ठिता उच्यन्ते ये पुनर्वपनादारभ्य यावदेकगुणोत्कण्डा द्विगुणोकडा पाहता वर्तते कृताः, अथवा मा भूवन् साध्वर्थमुप्ताः केवलं ये करटयः सन्तः सा त्रिगुट काडतास्ते निष्ठिता - 9 येकगुणोत्रा द्विगुकरा या करितास्ते कृताः । अत्र वृद्ध संप्रदायः - इह यद्येकं वारं द्वौ वा वारी साध्वर्थ करितास्तृतीयं तु वारमात्मनिमित्तं करिता राजाश्व ते साधूनां कल्यन्ते यदि पुनरेकं द्वी या वारी साध्यर्थे करिडतास्तृतीयं वारं स्वनिमित्तमेव कण्डिता राद्धास्तु श्रात्मनिमित्तं ते केषांचिदादेशेन एकेनान्यस्मै दत्तास्तेनाप्यन्यस्मायित्येवं यावत्सहस्रसंख्येवस्थाने गतास्ततः परं गताः कल्पन्ते नाऽर्वाकू, अपरेषां त्वादेशन न कदाचिदपि यदि पुनरेकं द्वौ वा बारौ साधुनिमित्तम् आत्मनिमित्तं या करितास्तृतीयं तु परमात्मनिमित्तं राजाः पुत्रः साध्यर्थं तेन कल्पले यदि पुनरेकं द्वी वा वारी Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रधाकम्म साधुनिमित्तम् ग्रात्मनिमिया करितातीयं तु वारं साध्वर्थमेव तैरेव च तण्डुलैः साधुनिमित्तं निष्पादितः कूरः सकृत उनि आधानिष्पादितो राज इत्यर्थः निष्कृितः स साधून सर्वधा म कल्पते कुतः इत्याह-'आहाकम्' इत्यादि आधाकर्म ? प्रतीतं द्विगुणमास्तीकरादयस्तं निष्ठितकृतं कृत बैकमाधाकर्मनिष्ठिततण्डुलरूपं द्वितीयं तु पाकक्रियारूपं, तदेवमुको निष्ठित शब्दयोरर्थः संप्रति चतुयशना दिषु कृतनिष्ठितता भाव्यते तत्र वपनादारभ्य यावद् यारद्वये करने तायत् सत्यं तृतीययारं तु क ष्ठितत्वम् एतश्चाऽनन्तरमेवोक्तं पाने कूपादिकं साधुनिमित्तं खनितं, ततो जलमाकृष्टं ततो यावत्प्राकक्रियमार्ग नाद्यापि सर्वथा प्रसुति तावत् कृतं प्रासुकीभूतं निष्ठितं खादिमे कर्कटिकादया यानिमित्त मुताः कर्मण निष्पना यावदात्रादिना खडिताः तानि च खण्डानि यावन्नाद्यापि प्रासुकीभवन्ति तावत्कृतत्वमवसेयं ग्रासुकीभूतानि च तानि निहितानि पश्वादिमेऽपि विज्ञेयम् । सर्वत्रापि च द्वितीयचतुर्थभङ्गी शुद्धी, प्रथतृतीयति । सम्पति खादिम स्वादिमात्य मतान्तर प्रतिथितिसुराह छायं पविवती के फल उगाइयुत्तस्स | तं तु न जुज जम्हा फलं पि कप्पं वियभंगे ।। १७२ || इह फलहेतुकादेः - फलहेतोः पुष्पहेतोरन्यस्माद्वा हेतोः साध्वर्थमुप्तस्य वृक्षस्य केचिदगीतार्थाः छायामण्याधाकर्मिकवृक्षसंबन्धिनीति कृत्वा विवर्जयन्ति परिहरन्ति, तत्तु छायायिनं न युज्यते यस्मात्फलमपि यद स वृक्ष आरोपितस्तत श्राधाकर्मिक वृक्ष संबन्धि द्वितीये भङ्ग तस्य कृतमन्यार्थे निष्ठितमित्येवंरूपे वर्त्तमानक मुझे भवति ! - साध्यर्धमारोपितेऽपि इल्यादी यदा फलं निष्पद्यमानं साधुसत्ताया अपनीय आत्मसत्तासंबन्धि करोति त्रोटयति च तदा तदपि कल्पते. किं पुनः छाया सा हि सर्वथा न साघुसता संबन्धिनी विवक्षिता, न हि साधुच्छायानिमित्तं स वृक्ष श्रारोपितस्तत् कथं न कल्पते ? | ( २५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । - परपच्चइया छाया, न वि सा रुक्खो व्च वट्टिया कता । नइच्छाए उ दुमे. कप्पड़ एवं भणतस्स ।। १७३ ।। सा छाया परप्रत्ययका सूर्यहेतुकान रामानिमित्ता तस्मिन् सत्यपि सूर्याभावे अभावात् तचादि छाया नाम "पार्श्वतः सध्येाऽपरिमितिनियत देशचत श्यामपुद्गलात्मक श्रातपाभावः " इत्थंभूता च छाया सूर्ययतिका चतुर्विपत्नममस्तु केवलं तस्थानमा नवतावता सा दुग्धति छायापुलानां यो मात्र फ वृक्षारोपण वृद्धि नीता तद्विषयतथारूपसंकल्पस्वाभा घात् ततो नाssधाकर्मिकी छाया । किं च यद्याधाकर्मिकीच्छायेति न तस्यामवस्थानं न कल्पते । तत एवं परस्य 9 श्रधाकम्म भणतोयदा घनपटलैराच्छादितं गगनमण्डलं भवति तदा तस्मिन् दु नच्छाये सति तस्याधः शीतभयादिनाऽयस्थानं कल्पते इति प्राप्तं न चैतदयुक्तं तस्मात्स एव द्रुम श्रधार्मिकस्तत्संस्पृष्टाश्चाधः कतिपयप्रदेशाः पूतिरिति प्रतिपत्तव्यम्, न तु छायाऽऽधाकर्मिकीति । पुनरपि परेषां दूपान्तरमाद वड हाय छाया, तत्थिकं पूइयं पिव न कप्पे । न य आहाय सुविहिर, निवनयई रविच्छायं ।। १७४ ।। इद्द छाया तथा तथा तथा सूर्यगतिवशात् वर्द्धते हीयते च ततो रवेरस्तमयसमये - प्रातः समये चातिद्रापीसी विवर्द्धमाना छाया सफलमपि ग्राममभिव्याप्य पर्तते तस्तत्संस्पृ सकलमपि ग्रामसंवन्धि सत्यादिकं पूतिकमिच नीमदोषादिकमिव न न चैनागमोपदिताऽऽधाकर्मिकी वृक्षस्य छाया, अपि च-प्रागेवैतदुक्तं सूर्यप्रत्यया सा छाया न वृक्षहेतुका न सूर्यः सुविहितानाचा हा नियति ततः कथ मधार्मिकी | T यदि पुनराधाकर्मिकी भवेत् तर्हि - अघणघणचारिगगणे, छाया नट्ठा दिया पुणो हो । कप्पर निरायवे ना-म आयवे तं विवज्जेउं ।। १७५ ।। अपना विरला घना मेघाश्वरिः- परिभ्रमणशीला यत्रत्थंभूते गगने, बिरलविरले नमसि मेघेषु परिभ्रमन्सु इत्यर्थः नापि खती दिया पुनरपि भवति ततो मेघैरन्तरिते सूर्ये निरातपे श्रातपाभावे तस्य वृक्षास्याधस्तनं प्रदेशं सेवितुं कल्पत, आतपे तु तं वज्र्जयितुं, न चार्य विषयविभागः सूत्रे ऽपदिश्यते न च पूर्वपुरुषाचीर्णो नापि परेषां सम्मतः, तस्मादसदेतत्परोक्तमिति । इद्द पूर्ववृत्येन द्वावामाधार्मिकीमाशध नट्टूच्छाए उ दुमे कप्पड़' इत्यायुक्तम् इदानीं तु रविकृतत्वेनाधाकस्मिकीमाशङ्कय 'कप्पइ निरायचे नाम' इत्याद्युक्तम्, अतो न पुनरुक्ता । " · संप्रतिछायानिर्दोषतानिगमनमगीतार्थधार्मिकाणां परेषां विश्वास तुम्हा न एस दोसो, संभवइ कम्मलक्खणविहूणो । तं पिच हुअा पजेमागा अदोनिना ।। १७६ ।। यस्मात् फलमपि द्वितीयभङ्गे कल्पते तथा रविडेतुका छायेत्यादि चोक्तं तस्मादाधाकर्मिकी छायेति यो दोष उच्यते स एष दोषो न संभवति, कुतः ? इत्याह- कर्मलक्षणविहीन इति श्रत्र देतौ प्रथमा, कर्मेति च श्रधाकर्मेति द्रष्टव्यं ततोऽयमर्थः खाथाकर्मलयविहीन एनि तारवयाऽपि कर्षादि नीता इत्यादि तस्माय दोषः संभवति अथ वा तामपि श्राधार्मिकता दुः- निश्चितम् अति पृायन्तः श्रतिशयेन दमलोयजयन्तः परे दोधवन्तः तदेवानुद्र, सीव 'यादायिनाम' इत्यादि मूलद्वाराचार्या कि बाबी ति व्याख्यातम् । " , Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म सम्प्रति " परपक्खो य, सपक्खो " द्वारद्वयं व्याख्यानयन् प्रसङ्गतो निति-प्रकृतयोः स्वरूपं ताभ्यामुत्पन्नं मह तुष्टयं चाऽऽद्द , परपक्खो उगिहत्था, समणो समणी उ होइ उ सपक्खो । फाकडं रदं वा नियिमियरं कई सच्यं ॥ १७७ ॥ तस्त कडनियंमी अस्स कमि निडिये तस्स । चभंगो इत्थभवे चरमदुगे होइ कप्पं तु ॥ १७८॥ इह परपक्ष:- गृहस्थाः, श्रावकादयः तेषामर्थाय कृतं साधूनामाधाकर्म न भवति, स्वपक्षः - श्रमणाः साधवः, 'समणी सिमरायो यतिभ्यः तेषामधीयतं साधूनामाधाकर्म तथा प्राशु (सु)कं कृतं कयादिकं स चेतनं सत् साध्यर्थं निवेतनीकृतं यत्र स्वयमचेतनमपि लादिकं कूरत्वेन निष्पादन समि " ( २६० ) अभिधानराजेन्द्रः | - " रत् पुनरेकगुणद्विगुणकण्डिततण्डुलादिकं सर्व्वे कृतमिति । अत्र च कृत-निष्ठितविषये तस्य साधाय कृते निि च तथा अन्यस्याऽप्यथय कृते तस्य साधोरर्थाय निष्ठिते भादी चतुर्भङ्गिका भवति तत्र प्रथमतृतीयादर्शिती द्वितीयचतुर्थी तु हेतुगम्यो, सो तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं, तत्रोपात्तयोयो चरमी अनुपाथान्य दो ही द्विती यचतुर्थावित्यर्थः प्रथमस्य हि द्वितीयः पाश्चात्यस्तृतीयस्य तु चतुर्थः, तत उपात्तप्रथमतृतीयभङ्गापेक्षया चरमो द्वितीयचतुर्थी लभ्यते तस्मिन् परमझिके अनि मनादि एव यद्यपि प्रागेव तथापि विस्मरणाशीखानां स्मरणाय भूयोऽप्युक्तमिति न कचिदोषः । उपर पक्षस्वपक्षरूपं द्वारद्वयम् । 9 संपति इति व्याधियाराचउरो अइकम्मव-हमा य अइयार तह अणावारो । निरिसां चउयह वि, आहाकम्मे निमंतवया ॥ १७६ ॥ आधाकर्मणि विषये केनाप्यभिनयेन आननि कृते बरवारो दोषाः संभवन्ति तथा अतिक्रमः १. व्यति क्रमः २, श्रतीचारः ३, अनाचारश्च ४ । पते चत्वारोऽपि स्वयमेव सूत्रकृता व्याख्यास्यन्ते, एतेषां च चतुर्णामपि निदर्शनं दृष्टान्तो भावनीयः, तमपि च वक्ष्यति । तत्र प्रथमत आधाकर्मनिमन्त्रणं भावयतिसालीषयगुलगोरस-नयेसु वलीफले जाए । दागे अहिवस, आहायक निर्मतद् ॥ १८० ॥ शालिषु - शाल्योदनेषु तथा घृतगुडगोरसेषु साधूनाधाय कायम निष्पादितेषु येषु च यफलेषु जातेषु । साधुनिमित्तमचित्तीकृतेषु दाने-दानविषये कोऽप्यभिनवश्राद्धः (द्धम्) - अभ्युत्पन्न श्रावको निमन्त्रयते, यथा भगवन् ! प्रतिगृही यूयमस्मद्गृहे शाल्बोदनादिकमिति । ततश्च आहाकम्मरगहणे, अकमाई पर चउसु । नेउरहारिगहस्थी, चउतिगद्गगचलणं ।। १८१ ।। आधाकर्मग्रहणे अतिक्रमादिषु चतुर्षु दोषेषु वर्त्तते स च 9 आधाकम्म यथा यथा उत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् दोषे वर्त्तते तथा तथा तोषजनितात् पापादात्मानं महता कष्टेन पापमशः, अत्र दृष्टान्तमाह-' नेउरे' त्यादि, इह नुपूर पण्डितायाः कथानकमनित्याद बृहस्पाय न लिख्यते, किंतु-धर्मापदेशमालाविवरणादेरवगन्तव्यम्, तत्र नूपुरं - मञ्जीरं तस्य हारो-हरणं वशुरतं तेन या प्रसिद्ध सा नूपुरहारिका, आगमे चान्यत्र पुरपरितेति प्रसिद्धा तस्याः कथानके यो दस्ती राजपत्नी संवारयन् प्रसिद्धः स नूपुरहारिको हस्ती स यथा 'चउतिगदुगएगचलणें ' ति पश्चानुपूर्व्या योजना, एकेन द्वाभ्यां विभिश्य चरणैराकाशस्यैमहतामदलरेगन आत्मानं पावनंतुमया साधकापि इयमत्र भावना नृपुरद्वारिका कथानके राक्षा हस्ती स्वपत्नी मराठाभ्यां सह समारोपितः ततोऽपि मिण्टेन टिपर्वताप्रभामे व्यवस्थाप्यातनमेकं कंचिचरणमाकाशे कारितः सवारितः सन् स्तोकेने शेन तं चरणं उपाच तत्रैव पर्वते आत्मानं स्थापयितुं शक्नोति एवं साधुरपि कश्चिदतिक्रमाख्यं दोषं प्राप्तः सन् स्तोकेनैव शुभा ध्यवसायेन तं दो विशवात्मानं संयमे स्थापयितुमीशः, यथा च सहस्ती काश क्रेन व्यावर्तयितुं शक्नोति, एवं च साधुरपि व्यतिक्रमाख्यं दोषं विशिष्टेन शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुमीऐ, यथा च स इस्ती चरणचयमाकाशस्थमेकेन केनापि पाधायेन चरन ि गुरुतरेण न व्यावर्त्तयितुं क्षमः तथा साघुरय्यतीयादोष विशिष्टतरण शुभेनाध्यवसायेन विशेोधयतुं प्रभुः यथा च स हस्ती बरतुषमाकास्थित सान व्यायमशः किं तु नियमतो भूमी नित्यनाशमाविशति एवं साधुयनाचार पर्त्तमानो नियमा संयमात्मानं विनाशयति । इह दृष्टान्ते चरणचतुष्टयं हस्तिनागपादितं किंतु योजनानुरोधात्संभावनामङ्गीकृत्य प्रतिपादितम् । पिं० । संप्रति ' गद्दणे य आणाई ' इति व्याख्यानयन्नाह - गाइयो य दोसा, गहणे जं भणिय मह इमे ते उ । आणाभंगणवस्था, मिच्छतविराहणा चैव ॥ १८३ ॥ यदुक्तम् ' श्राकस्मियनामे' त्यादि मूलद्वारगाथायामाधाकर्मग्रहणे आज्ञादयः - श्राज्ञाभङ्गादयो दोशस्त इमे, तद्यथा - श्राज्ञाभङ्गः १, अनवस्था२, मिध्यात्वम् ३, विराधना च ४ । तत्र प्रथमत आशाभङ्गदोषं भावयतिआणं सम्यजियागं भिगतो तं अकमह लुडो । आणं अकमंतो, कस्याएसा कुणइ से || १८४ ॥ तद्-आधामिकमशनादिकं लुब्धः सन् गृहासा मपि जिनानामाज्ञामतिक्रामति, जिना हि सर्वेऽप्येतदेव ध्रुवन्ति स्म यदुत मा गृह्णत मुमुक्षवो ! भिक्षव श्राधाकमिकां भिक्षामिति, ततस्तदाददानो जिनाशामतिक्रामति, तां चातिक्रमन् कस्य नाम ! आदेशाद् - श्राज्ञायाः शेर्पा केशस्म बुलुञ्चनभूशयनम लिनवा सोधाप्रत्युपेक्षनाथनुष्ठानं करोति ? न कस्यापीति भावः सर्व्वस्यापि सर्वज्ञाऽऽज्ञामङ्गकारिणोऽनुष्ठानस्य (नैफल्यात् । ) निष्फलत्वात् । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६१) प्राधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म अनवस्थादोषं भावयति संप्रति विराधनादोघं भावयतिएकेण कयमकजं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो।। खद्धे निद्धे य सया, सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया। सायाबहुलपरंपर-वोच्छेओ संयमतवाणं ।। १८५॥ । पडियरगाण वि हाणी,कुणइ किलेसं किलिस्संतो॥१८८। इह प्रायः सर्वेऽपि प्राणिनः कर्मगुरुतया दृष्टमात्रसुखाभि- श्राधाकर्म प्रायः प्राघूर्णकस्यैव गौरवेण क्रियते, ततस्तलाषिणो न दीर्घसुखदर्शिनस्तत एकेनापि साधुना यदाधा- त्स्वादु स्निग्धं भवति, तस्मिश्च खद्धे-प्रचुरे स्निधे बहुस्नेहे कर्मपरिभोगादिलक्षणमकार्यमासेव्यते तदा तत्प्रत्ययात् भक्षिते रुजा-रोगो ज्वरविसूचिकादिरूपः प्रादुर्भवति, इयतेनापि साधुना तत्त्वं विदुषापि सेवितमाधाकर्म ततो मात्मविराधना, ततो रुजा पीडितस्य 'सूत्रे'-सूत्रग्रहणमुपचयपि किं न सेविष्यामहे इत्येवं तमालम्बनीकृत्यान्यो- लक्षणम् अर्थस्य च हानिः, तथा यदि चिकित्सां न कारयति प्यासेवते, तमप्यालम्ब्याऽन्यः सेवते इत्येवं सातबहुलानां तर्हि चिरकालसंयमपरिपालनभ्रंशः, अथ कारयति तर्हि प्राणिनां परंपरया सर्वथा व्यवच्छेदः प्राप्नोति संयमत- चिकित्सायां क्रियमाणायां कायाः-तेजस्कायादयो विनाशपसाम् , तद्वयवच्छेदे च तीर्थव्यवच्छेदः, यश्च भगवतीर्थ- माविशन्ति, तथा च सति संयमविराधना, तथा प्रति विलोपकारी स महाऽऽशातनाभागित्यनवस्थादोषभयान्न चारकाणामपि-परिपालकानामणि साधूनां तद्वैयावृत्त्यव्याकदाचनाऽप्याधाकर्म सेवनीयम् । पृततया सूत्रार्थहानिः, षट्कायोपमर्दकारणानुमोदनाभ्यां मिथ्यात्वदोषं भावयति च संयमस्यापि हानिः, तथा प्रतिचारकास्तदुक्तं यावन्न जो जहवायं न कुणइ, मिच्छद्दिट्ठी तो हु को अन्नो । प्रपारयन्ति तावत्सः-क्लिश्यमानः पीडां सोढुमशक्नुवन् तेभ्यः कुप्यति, कुप्यंश्च तेषामपि मनसि क्लेशमुत्पादयति, चड्डइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥१८६॥ अथ वा-क्लिश्यमानो दीर्घकालं क्लेशमनुभयन् प्रतिचारइह यहेशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति यथावदनुष्ठानं तत् कारणामपि जागरणतः क्लेशम्-रोगमुत्पादयति, ततस्तेसम्यक्त्यम, यत उक्नमाचारसूत्रे-"जं मोति पासहा, तं षामपि चिकित्साविधौ पटकायविराधना । तदेवं व्यासम्मति पासहा, जं सम्मति पासहा, तं मोणति पासहा" ख्याता सकलापि 'श्राहाकम्मियनाम' इत्यादिका मूलइति । ततो यो देशकालसहननानुरूपं शक्लयनिगृहनेन यथा. गाथा। 3ऽगमेऽभिहितं तथा न करोति ततः सकाशात् को ऽस्यो मिथ्या दृष्टिः १, नैव कश्चित् , किंतु-स एव मिथ्यादृष्टीनां (१०) संप्रत्याधाकर्मण एवाऽकल्प्यविधि बिभणिषुः सधुरि युज्यते, महामिथ्यावृष्टित्वात् , कथं तस्य मिथ्यादृष्टि म्बन्धमाहता? इत्यत पाह-बड्वेइ य' इत्यादि चशब्दो हेतौ यस्मात्स जह कम्मं तु अकप्पं, तच्छिकं वाऽवि भायणठियं वा । यथावादमकुर्वन् परस्य शङ्कों जनयति, यथा-(तथाहि ) परिहरणं तस्सेव य, गहियमदोस च तह भणइ॥१८६॥ यदि यत्प्रवचने अभिधीयते तत्तत्त्वं तर्हि किमयं तत्त्वं यथा कर्म-प्राधाकर्म प्रकल्प्यम्-अभोज्यं, यथा च तेजानानोऽपि तथा न करोति ?, तस्माद् वितथमेतत् प्रव नाऽऽधाकर्मणा स्पृष्टमकल्प्यं यथा च भाजनस्थित-यस्मिन् चनानमिति, एवं च परस्य शङ्कां जनयन् मिथ्यात्वं स भाजने तदाधाकर्म प्रक्षिप्तं तस्मिन्त्राधाकर्मपरित्यागानन्तानेन वर्द्धयति । तथा च प्रवचनस्य व्यवच्छेदः, शेणस्तु स्तरमकृतकल्पत्रयप्रक्षालने यत् क्षिप्तं शुद्धमशनादि तदपि मिथ्यादृष्टयो नैवं प्रवचनस्य मालिन्यमापाद्य परंपरया यथा न कल्प्यं यथा च तस्याऽऽधाकर्मणः परिहारो विध्यव्यवच्छेदमाधातुमीशाः, ततः शेषमिथ्याएपपेक्षयाऽसौ विधिरूपो यथा च गृहीतं सद्भक्कमदोष भवति तथा गुरुर्मणयथावादमकुर्वन् महामिथ्याधिरिति । ति । अनेन यथैवागमे पिण्डविशुद्धिरभाणि तथैवाऽहमपि अन्यश्च भणामीत्यावेदितं द्रष्टव्यम् , अनया च गाथया पश्च द्वाराणि बड्डइ तप्पसंगं, गेही अ परस्स अप्पणो चेव । प्रतिपाद्यान्युक्तानि । सजियं पि भिन्नदाढो, न मुयइ निर्बुधसो पच्छा॥१८७ संप्रति तान्येव शेष प्रतिपाद्यत्वेनाहसाधुराधाकर्म गृह्वानः परस्य " पक्केण कयमकजं" इत्या अब्भुजे गमणाइ य, पुच्छा दव्वकुलदेसभावे य । दिरूपया पूर्वोक्लनीत्या 'तत्प्रसङ्गम्'--प्राधाकर्मग्रहणप्रसङ्गं एवं जयंते छलणा, दिQता तत्थिमे दोन्नि ।। १६० ।। वर्द्धयति पात्मनोऽपि तथाहि-सकृदपि चदाधाकर्म गृह्णाति तर्हि तद्गतमनोशरसास्वादलाम्पटयतो भूयोऽपि तद्ग्रहणे यथा साधूनामाधाकर्म तत्स्पृष्ट कल्पत्रयाप्रक्षालितभाजप्रवर्तते, तत एवमेकदाप्याधाकर्म गृह्णन् परस्य आत्मनश्च त- नस्थं चा अभोज्यं तथा भणनीय, तथा प्रविधिपरिहारे प्रसर बर्द्धयति, तत्प्रसङ्गवृद्धौ च कालेन गच्छता परस्य गमनादिकाः कायक्लेशादिलक्षणा दोषा चक्रव्याः, तथा श्रात्मनश्च गृद्धिः-अत्यन्तमाशक्तिरुपजायते, ततो विशिएचि. विधिपरिहारे कर्तव्ये यथा द्रव्यकुलदेशभावे पृच्छा कर्तशिष्टतरमनाशरसास्वादनेन भिन्नदंष्ट्राको 'निद्धधसः' अ- व्या चशब्दाद्-यथा च न कर्तव्या तथा वक्तव्यम् , एवं पगतसर्वथादयावासनाको भूत्वा पश्चात् स्वयं परो वा यतमाने प्रायश्छलनाया असम्भयो, यदि पुनरेवमपि यतसजीवाप-सचेतनमपि चूतफलादिकं न मुश्चति तदमोचने | माने छलना-अशुद्धभक्लादिग्रहण रूपा भवेत् ततस्तत्र राच दूरं दूरतरमपसर्पन अपगतसर्वथाजिनवचनपरिणामो| ताविमौ वक्ष्यमाणौ वक्तव्यौ । इह 'अभुजे' इत्यनेन पूर्वमिथ्यात्वमपि गच्छतीति । गाथाया द्वारत्रयं परामृष्टम् , 'गमणार य पुच्छा दब्ब Jain Education Interational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म कुलदसभावे य' इत्यवेन पुनः परिहरणस्य विशेषो वक्तव्य उक्तः, उत्तराचैन तुमित्यस्य विशेषः । ( २६२ ) अभिधान राजेन्द्रः । सम्प्रति प्रथमं द्वारमाधाकर्मणो ऽकल्प्यतालक्षणं व्याचिख्यासुराद्द जहतं तु अभोज भतं जइ वि य सुसक आति । एवमसंजमवमणे, असणिअं अभोजं तु ॥ १६१ ।। इद्द यद्यपि वमनकालादर्वाक भक्तम्- ओदनादिकं सुसंस्कृतं शोमनन्यसंपर्ककृती परकारमासीत् तथापि यथा तद्वान्तमभोज्यम् एवमसंयमवमने कृते साधोरण्यनेषणीयमभोज्यमेव, तुरेवकारार्थः, इयमत्र भावना - संयमप्रतिपत्नी दि पूर्वमसंयम यान्तः संरूपं चाधाकर्म पद् कायमनेन तस्य निष्पन्नस्यात् न च यान्तमभ्यवहर्तुमुचितं विवेकिनाम् अतः साधोरनेपणीयमभोऽयमिति । पुनरप्याधाकर्म्मण एवा भोज्यतां दृष्टान्तान्तरेण समर्थयमानो गाथाद्वयमाइ " मजारखइयमंसा, मंसासित्थि कुणिमं सुण्यवंतं । बनाइ अनउप्पा इयं पि किं तं भवे भो ? ।। १३२ ।। केई भांति पहिए, उडायो मंसपेसि बोसरणं । संभारिय परिवेसण वारे सुख करे घेत्तुं ॥ १६२ ॥ वक्रपुरं नाम पुरं, तत्र वसत्युग्रतेजाः पदातिः, तस्य भार्या रुक्मिणी, अन्यदा च उग्रतेजसो ज्येष्ठभ्राता सोदासामिधनः प्रत्यासनपुरात्वाकः समायी उजा भोजनाय काऽपि मासं की त्या सिमामा तस्याश्च रुक्मिण्या गृहव्यापारख्यापृतायाः तन्मांसं मार्जा भात् इश्वोदासोनेजोधजनार्थमागमस ततः सा व्याकुलीबभूव । अत्रान्तरे च वापि कस्याऽपि मृतस्य कापटिकस्य शुना मासं भक्षयित्वा तद्गृहप्रा प्रदेशे तस्याः साक्षात्पश्यन्त्याः पुरतः कथमपि वातसंक्षोभादिवशादुदमितम् । ततः साऽचिन्तयत्पदि नाम कुतोऽपि विपम्पमा समानविष्यामि तर्हि महदुसरं लगष्यति प्राप्ता च समीपं पनियो जनवेला, तस्मादेतदेव मांसं जलेन सम्यक् प्रक्षाल्य वेसबारेोपस्करोमि तथैव च कृतम्। समासोदासोतेजसौ उपविष्टौ च भोजनार्थ, परिवेषितं तयोस्तन्मांसम् नतो मांशपेजियथा वान्तमेतदिति तनन सा पानी पच्छे सा साटोपभ्रत्क्षेपदर्शनतो विभ्यती पवनधुसवृक्षशाखेव कम्पमानचधापस्थितं कांधतवती ततः परित्यज्यत मांसं साक्षेपं निर्भत्स्य भूयोऽन्यन्मांसं पाचिता तद्भुक्तम् । प्रथमगाथाक्षर योजना स्वयम्-माजरे खादितं भक्षितं मांसं यस्याः सा माज्जांरखादितमांसा मांसाशिन उग्रतेजसः स्त्री महेला मांसमापन मांगूयती तथ बेलवारोपस्कारेण वर्णादिभिरम्य दिवोत्पादितमपि किं भवति भोज्यं ?; नैव भवतीति भावः, एचमाधाकर्माऽपि संयमिनामभोज्यम् ॥ केचित्पुनरत्रैव कथानके एवमाहुः तस्या रुक्मिण्या गृहे कोऽप्यतीसारेण पीडिता यमनामा " कापेटिका किंचित् विधि श्रधाकम्म " स्थानं याचित्वा स्थितवान् स नातीसारेण मांसखण्डानि व्युत्सृजति ततः सीदासे प्रार्य समागते सति भ समानीत मां माजरे व तस्मिन् भक्षित मिस प्रत्यासन्ना समागता भोजनवेलेति भयभीता श्रन्यन्मांसमनुपती तावानीवारानि मानि - दीया जलेन प्रज्ञाय देवारेण पोषकृत्य भोजनापविष्टयो: पति- ज्येष्ठयोः पतिवेषितवती. अथ च सा तानि मांसखानि गृहन्ती सुतपक्षीपुत्रेोजो जान गुणमित्रेण ददृशे न च तदानीं तेन किमपि माइक शक्लं, ततो भोजनकाले तौ द्वावपि पितृ-पितृव्यौ तेन करे गृहीत्वा निवारितौ यथा काटिकातीसार सक्लान्यमूनि मांसखण्डानि तन्मा यूयं विभक्षत, तत उग्रतेजसा सा दूरेनियम तत्यजेच तम्मांसम् द्वितीयगाथाक्षरयोजना त्वेवं केचिद्भयन्ति पथिके पथिकस्य ' उट्ठा ' अतीसारोत्थाने मांसपेशीच्युत्सर्जनं तनस्तन्मांसपेशीरादाय तासां संभृत्यपेयांरोपस्कृत्य परिवेष कृते सुतः करे गृहीत्वाती पितृभोजनाय बारयति स्म ततो यथापुरीषमांसमभोग्यं विवेकिनमेदमाधाकर्माऽपि साधूनामिति । , किं च विलाकरही खीरं, ल्हसण पलंडू सुरा य गोमंसं । वेयसमए वि अमयं, किंचि अभोजं अपे च ॥ १६४ ॥ अविला - ऊरणी करभी उष्ट्री तयोः क्षीरं तथा लशुनम्पलार सुरा मोमांस व वेदे यथायोगं शेषेषु च समयेषुनिमंत्रीतेषु अमनम् असम्मतं भोजने पाने च तथा जिनशासनेऽपि किंचिदाधाकर्मिकादिरूपमभोज्यमपेयं च वेदितव्यम् । इयमत्र भावना - पूर्वमिह संयमप्रतिपत्तावसंयमनेनाधाकर्मापि साधुभिर्वान्तं पुरीषमिवोत्सृष्टं वा, नच यान्तं पुरीषं वा भोकुमुचितं विवेकिनामिति युक्तिशादमोज्यमुक्रमाचाक अथवा मा भूत् क्ति के पतं वचनयामास्यादभोज्यमय सेयं तथा च मिथ्याहयोऽपि वेदेषु यथायोगमन्येष्वपि समयेषु गोमांसादिकं करभीक्षीरादिकं चाभोज्यमपेयं चाभिधीयमानं वचनप्रमायाभ्युपगमतस्तथेति प्रतिपद्यन्ते यदि मियापोपि स्वसमयवचनामारभ्युपगतस्तथेति प्रातः साधुभिर्भगवति सर्व प्रत्ययदादर्पमय लम्बमानैर्विशेषतो भगवत्प्रणीते वचस्यभिधीयमानमाधादिकमभोज्यम पेयं च तति प्रतिपत्तय्यम | " - संप्रति तत्स्पृष्टस्या कल्प्यतामाहमाइजुयावि बली, सपललफल नेहरा असुनत्था । इस विष्णु से विजह छिका अभोजाओ । १६५ । यथावदिनोऽपि पति-उपहारः सपललफलशेखरा इह पलल-तिलक्षाद उच्यते फलं-नालिकेरादि तत्सहितःशेखरः- शिखा यस्य स तथा श्रास्तामनेवंविध इत्यपि - शब्दार्थः एतेनास्य प्राधान्यमुकं स पर्वविधोऽपि यदा अनी यस्तः पुरीषस्योपरि स्थापितः सन् अशुदि पालियेनापि, आस्तां स्तवकादित्यपिशब्दार्थः स्पृष्टो Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६३) श्राधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। श्राधाकम्म भवति तदा श्रभोज्यो भवति, एवं निर्दोषतया भोज्योऽ- | शालिरेष इति, ततः स तत्र गन्तुं प्रावर्तत, तत्रापि साधुप्याहार आधाकर्मावयवसंस्पृपतया साधूनामभोज्यो वेदि-| निमित्तं केनापि श्रावकेणाऽयं पन्थाः कृतो भविष्यतीति तव्यः । श्राधाकर्मशङ्कया पन्थानं विमुच्योत्पथेन व्रजति, उत्पथेन भोजनस्थितस्याऽकल्प्यतां भावयति व्रजन्नहिकण्टकश्वापदादिभिरभिद्यते, नापि काञ्चन दिश एमेव उज्झियंमि वि, आहाकम्ममि अकयए कप्पे । जानाति, तथा प्राधाकर्मशङ्कया वृक्षच्छायामपि परिहरन् होइ अभोजं भाणे, जत्थ व सुद्धेऽपि तं पडियं ॥१६॥ मूनि सूर्यकरनिकरप्रपातेन तप्यमानो मूच्छामगमत् , क्लशं च महान्तं प्रापेति । यथा प्राधाकर्मावयवेन संस्पृष्टमभोज्यम् एवं, यस्मिन् भाजने तदाधाकर्म गृहीतं तस्मिन्नाधाकर्मण्युज्झितेऽपि इय अविहीपरिहरणा, नाणाईणं न होइ आभागी। अकृते-कल्पे-वक्ष्यमाणप्रकारेपा कल्पत्रयेणाप्रक्षालिते, यद्वा- दम्बकुलदेसभावे, विहिपरिहरणा इमा तत्थ ॥ २०१॥ यत्र भाजने पूर्व शुद्धेऽपि भक्ने गृहीते श्राधाकर्म स्तोक इति एवम उक्लेन प्रकारेण श्रविधिना परिहरणात् शानामात्रं पतितं तस्मिन् भाजने पूर्वगृहीते शुद्धे श्राधाकर्मणि दीनामाभागी न भवति, तस्माद्विधिना परिहरणा कर्तच सर्वात्मना स्यने पश्चादकृतकल्पे-वक्ष्यमाणप्रकारेणाकृत व्या, तश्च-विधिपरिहरणम् इद-बक्ष्यमाणं द्रव्य कुलदेशकल्पत्रये यद् भूयः शुद्धमपि प्रक्षिप्यते तदभोज्पमवसेयं, भावानाश्रित्य तत्र-प्राधाकर्मणि विषये द्रष्टव्यम् । न खलु लोकेऽपि यस्मिन् भाजन पुरीष न्यपतत् तस्मिन्न तत्र प्रथमतो द्रव्यादीन्येव गाथाद्वयेनाऽऽहशुचिपरित्यागानन्तरमप्रक्षालिते, यद्वा-यस्मिन् भाजने भक्तादिना पूर्णेऽपि तदुपरि पुरीपं निपतितं भवेत् तस्मिन् ओयणसमिइमसत्तुग-कुम्मासाई उ हति दबाई । पूर्वपरिगृहीतभक्कादिपुरीषपरित्यागानन्तरमप्रक्षालिते भूयः बहुजणमप्पजणं वा, कुलं तु देसो सुरट्ठाऽऽई ॥२०२।। प्रक्षिप्तमशनादिकं भोज्यं भवति, पुरीषस्थानीयं च संय- आयरऽणायरभावे, सयं व अत्रेण वाऽवि दावणया। मिनामाधाकर्म, ततस्तस्मिन् सर्वात्मना परित्यक्तेऽपि प एएसि तु पयाणं, चउपयतिपया व भयणा उ ॥२०३॥ श्वाददत्ते कल्पत्रये भाजने यत्प्रक्षिप्यते तदभोज्यमवसेयम् । श्रोदनः-शाल्यादिकूरः समितिमाः-माण्डादिकाः सक्नवः संप्रति परिहरणं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह कुल्माषाश्च प्रतीताः, आदिशब्दात्-मुद्गादिपरिग्रहः, अवंतुचारसरिच्छं, कम्मं सोउमवि कोविो भीओ।। मूनि भवन्ति द्रव्याणि, कुलम्-अल्पजन बहुजनं वा देश:परिहरइ सावि य दुहा,विहिअविहीए य परिहरणा १६७। सौराष्ट्रादिकः, भावे श्रादरोऽनादरो वा पतावेव स्वरूपतो बान्तसहशम्-उच्चारसदृशं च श्राधाकर्म यतीन् प्रति व्याख्यानयति-स्वयं वा अन्येन वा कर्मकरादिना यत् प्रतिपाद्यमानं श्रुत्वा अपिः संभावने, संभाव्यते पतनियमतः दापनं तौ यथासंख्यमादरानादरौ, एतषां च पदानां भकोविदः-संसारविमुखत्रज्ञतया पण्डितोऽत एव भीत:-श्रा जना-विकल्पना चतुष्पदा त्रिपदा वा स्यात् , किमुक्तं धाकर्मभोगतः संसारो भवतीत्याधाकर्मणखतस्तदाधाकर्म भवति ?-कदाचिच्चत्वार्यपि पदानि संभवन्ति कदाचिपरिहरति-न गृह्णाति, परिहरणं च द्विधा-विधिना, अवि स्त्रीणि तत्र यदा चत्वार्यपि द्रव्यादीनि प्राप्यन्ते तदा चधिना च । सूत्रे च परिहरणशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृ तुष्पदा, यदा तु श्रादरो नाप्यनादरः केवलं मध्यस्थवृत्तिता तत्वात् , “प्राकृत हि लिङ्ग व्यभिचारि" । तदा भावस्याऽभावात् त्रिपदेति । तत्राऽविधिपरिहरणं विभणिषुः कथानकं गाथात्रयेणाह संप्रति यादृशेषु द्रव्यादिषु सत्सु पृच्छा कर्त्तव्या यादृशेषु न कर्तव्या तान्याहसालीप्रोयणहत्थं, दटुं भणई अकोवियो दितिं । अणुचिय देसं दव्वं, कुलमप्पं पायरो य तो पुच्छा। कतो चउत्ति साली, वणि जाणइ पुच्छ तं गंतुं ।। १६८।। गंतूण आवणं सो, वाणि यगं पुच्छए को साली। बहुएऽवि नऽस्थि पुच्छा,सदेसदविए अभावेऽवि ।२०४। पच्चंते मगहाए, गोबरगामो तहिं वयइ ।।१६।। यदा अनुचितदेशम्-विवक्षितदेशासंभवि द्रव्यं लभ्यते तदपि च प्रभूतं पतञ्च'श्रायरो य' इत्यत्र चशब्दालभ्यते, कम्मासंकाएँ पहं, मोत्तुं कंटाहि सावया अदिसिं । पतन द्रव्यदेशावुनौ, कुलमपि च अल्पमल्पजने अनेन छायं पि वजयंतो, डन्झइ उपहेण मुच्छाई ॥ २० ॥ कुलमुक्तम् श्रादरश्च प्रमूतः, पतेन भाव उक्तः, ततो भवति शालिग्रामे ग्रामे ग्रामगीनामा वणिक. तस्य भार्याऽपि ग्रा- पृच्छा , आधाकर्मसंभवात् , बहुकेऽपि च स्वदेशद्रव्येमणीः, अन्यदा च णिजि विपरिंग गते भिक्षार्थमटन् अको- प्रभूतेऽपि च तद्देश संभविनि लभ्यमाने द्रव्ये यथा मालवके विदः कोऽपि साधुस्तद्गृह प्रविवेश, श्रानीतश्च तद्भार्य या मण्डकादौ नास्ति पृच्छा, यत्र हि देशे यद् द्रव्यमुत्पद्यते ग्रामण्या शाख्योदनः, साधुना चाऽऽधाकर्मदोषाऽऽशङ्काप- तत्र तत्प्रायः प्राचुर्येण जनैर्भुज्यत इति नास्ति तत्र बहुकेनोदाय सा पप्रच्छ, यथा श्राविके! कुतस्त्य एष शालिः | ऽपि लभ्यमाने पृच्छा, आधाकर्माऽसंभवात् , परं तत्रापि इति, सा प्रत्युवाच नाहं जाने बरिणग्जानाति, ततो बणिजं| कुलं महदपेक्षणीयम् , अन्यथाऽल्पजने भवेदाधाकर्मेति विपनी गत्या पृच्छ इति, तत एवमुक्तः सन् स साधुस्तं शङ्का न निवर्तते । तथा-प्रभावेऽपि-अनादरेऽपि नास्ति शाल्योदनमपहाय वणिजं विपणी गत्वा पृथ्वान , वणि-| पृच्छा, यो ह्याधाकर्म करवा दद्यात्स प्राय आदरमपि कुजाऽप्युक्तं मगधजनपदप्रत्यन्तर्वर्तिनो गोबरग्रामादागतः! र्यात् , तत आदराकरणेन ज्ञायते यथा नास्ति तत्राऽऽधा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) प्राधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म कर्मेति न पृच्छा । तदेवं यदा पृच्छा कर्त्तव्या यदा च न शतमुखं नाम पुरं, तत्र गुणचन्द्रः श्रेष्ठी, चन्द्रिका तस्य कर्तव्या तत्प्रतिपादितम् । भार्या, श्रेष्ठी च जिनप्रवचनानुरक्लो हिमगिरिशिखरानुकारि संप्रति पृच्छायां कृतायां यदा तद् ग्राह्य भवति यदा च न जिनमन्दिरं कारयित्वा तत्र युगादिजिनप्रतिमा प्रतिष्ठातदेतत्प्रतिपादयति पितवान् , ततः सङ्घभोज्यं दापयितुमारब्धम् । इतश्च प्र स्यासने कस्मिश्विद् ग्रामे कोऽपि साधुवेषविडम्बकः साधुतुज्झट्ठाए कयमिण-मन्नोऽन्नमवेस्खए यसविलक्खं।। वर्तते । तेन च जनपरंपरया शुश्रुवे । यथा शतमुखपुरे गुणवजंति गाढरुट्ठा, का भे तत्ति त्ति वा गिरहे । २०५ ।। चन्द्रः श्रेष्ठी सहभोज्यमद्य ददातीति । ततः स तद्ग्रहणाय इह या दात्री ऋज्वी भयति सा पृटा सती यथावत् सत्वरमाजगाम । सङ्घभक्तं च सर्व दत्तं तेन च श्रेष्ठी याचिकथयप्ति,यथा भगवन् ! तबाऽर्थाय कृतमिदमशनादिकमिति, तो यथा मह्यं देहि, श्रेष्ठिना च चन्द्रिका अभ्यधायि-देहि यतु भवति मायाविकुटुम्बं तन्मुखेनैवमाच-गृहार्थमेतत् साधवेऽस्मै भक्तमिति । सा प्रत्युवाच-दत्तं सर्वे न किमकृतं न तवाऽर्थायेति, परं ज्ञाता चयमिति सघिलक्षणं स पीदानी वर्तते, ततः श्रेष्ठिना सा पुनरप्यभाणि-देहि रियपि मानुषाणि परस्परमवेक्ष्यन्ते कपोलोद्भेदमात्रं च निजरसवतीमध्यात्परिपूर्णमस्मायिति । ततः सा शाल्योहसन्ति, ततो यदा तवाऽर्थायदं कृतमशनादिकमिति जल्प दनमोदकादिपरिपूर्णमदात् , साधुश्व सबभनमिति बुद्धया ति; यद्वा-सविलक्ष-सलजमन्योऽन्यम् अवेक्षन्ते चशब्दाद परिगृह्य स्वोपाश्रये भुक्तवान् । ततः स शुद्धमपि स भुजान हसन्ति वा तदा साधवस्तद्देयमाधाकर्मेति परिज्ञाय बर्ज श्राधाकर्मग्रहणपरिणामयशादाधाकर्मपरिभोगजनितेन कयन्ति, यदा तु कस्यार्थायेदं कृतमिति पृष्टा सती गाढं सत्य मणा बद्धः। एवमन्योऽपि वेदितव्यः । सूत्रं सुगमं नवरम् वृत्त्या रुटा भवति, यथा का 'भ' भट्टारक! तब तु(त)प्तिः 'देहि मज्झति गाउ' त्ति-भार्यया दत्तमित्युक्त श्रेष्ठी चइति तदा नैवाधाकर्मेति निःशवं गृहीत । भाण दह मम मध्यात-मदीयभोजनमध्यात् । दत्ते च संप्रति “ गहियमदोसंच" इत्यवयवं व्याचिख्यासुः परं स्वादुमिष्टमिदं सवभक्तमिति भुञ्जानो विचिन्तयति । ततो लग्न श्राधाकर्मपरिभोगजनितकर्मणा बद्धः । तदेवम्-'श्राप्रश्नयति धाकम्मपरिणो' इत्यादिकथानकेन भावितम् । गूढायारा ण करेंति, आयरं पुच्छिया वि न कहेंति । संप्रति 'सुद्धं गवसमाण' इत्यादि कथानकेन भावयतिथोवंति व णो पुट्ठा, तं च असुद्धं कहं तत्थ ।। २०६ ।। मासियपारणगट्ठा, गमणं आसनगामगे खमए । इह ये श्रावकाः श्राविकाचाऽतीव भक्तिपरयशगा गूढाचाराश्च ते नाऽऽदरमतिशयेन कुर्वन्ति मा भूत्-न ग्रहीष्यतीति सड्डीपायसकरणं, कयाइ अन्जेजिही खमभो ।। २०६॥ नापि पृष्टा सन्तो यथावत् कथयन्ति , यथा तवाऽर्थायेदं खेल्लग-मल्लगलेच्छा-रियाणि डिंभगनिब्भच्छणं च रुटंणया। कृतमिति, अथवा-स्तोकमिति कृत्वा ते साधुना न पृटाः, हंदि समणत्ति पायस-घयगुलजुयजावणहाए ।। २१०॥ अथ च तद् देयं वस्तु अशुद्धम्-श्राधाकर्मदोषदुष्टम् , अतः कथं तत्र साधोः शुद्धिर्भविष्यति इति । एगंतमवक्कमणं, जइ साहू इज होज तिन्नोमि । ___एवं परेणोक्ने गुरुराह तणुकोटुंमि अमुच्छा, भुत्तमि य केवलं नाणं ।।२११॥ पोतनपुरं नाम नगरं, तत्र पञ्चभिः साधुशतैः परिवृता आहाकम्मपरिणओ, फासुयभोई वि बंधश्रो होइ ।। यथाऽगर्म बिहरन्तो रत्नाकरनामानः सूरयः समाययुः, सुद्धं गवेसमाणो, श्राहाकम्मे वि सो सुद्धो ।। २०७।। तस्याश्च साधुपञ्चशत्या मध्ये प्रियंकरो नाम क्षपकः, स इद्द प्रासु शुकग्रहणेन एपणीयमुच्यते; सामर्थ्यात् , तथा च मासमासपर्यन्ते पारणकं विदधाति. ततो मासक्षपणहि-साधूनामयं कल्पो-ग्लानादिप्रयोजनेऽपि प्रथमतस्ताव पर्यन्त मा कोऽपि मदीयं पारणकमयबुद्धयाऽऽधाकर्मादिकं देषणीयमेषितव्यम् , तदभावेऽनेषणीयमपि श्रावकादिना कार्षीदित्य ज्ञात एव प्रत्यासने ग्रामे पारणार्थ बजामीति कारयित्वा श्रावकाभाये स्वयमपि कृत्वा भोक्तव्यं, नतु क चेतसि विचिन्त्य प्रत्यासन्ने क्वचिद्ग्रामे अगाम । तत्र च दाचनापि प्रासुकाभावेऽप्रासुकमिति ततः कदाचिदप्य यशोमति मश्राविका. तया च तस्य क्षपकस्य मासप्रासुकभोजनासंभवे 'फासुयभोई वी' ति-वाक्यमनुपप क्षपणकं पारएकदिनं च जनपरंपरया श्रुतं, ततस्तया तद्यमानम् अर्थात् प्रासुकशब्दमेपणीय वर्त्तयति ततोऽयमर्थ: स्मिन पारणकदिने कदाचिदद्य स क्षपकोऽत्र पारणकप्रासुकभोज्यपि-एपणीयभोज्यपि यद्याधाकर्मपरिणतस्तर्हि करणाय समागच्छेदिति बुद्धया परमभक्विवशतो विशिएसोऽशुभकर्मणां बन्धको भवति, अशुभपरिणामस्यैव वस्तु शालितण्डुलैः पायसमपच्यत; घृतगुडादीनि च उपबृहकस्थित्या बन्धकारणत्वात् , शुद्धम्-उदगमादिदोषरहितं द्रव्याणि प्रत्यासन्नीकृतानि ततो मा साधुः पायसमुत्तम पुनर्गयेषयन्नाधाकर्मण्यपि गृहीते मुक्त च स शुद्धो वेदि- द्रव्यमिति कृत्वा प्राधाकर्मशङ्कां कार्षीदिति मातृस्थानतो तव्यः । शुद्धपरिणामयुक्तत्त्वाद् । घटादिपत्रः कृतेषु शगवाकारेषु भाजनेषु डिम्भयोग्याः स्तोका स्तोका रयी प्रक्षिप्ता भगिनाश्च डिम्भा यथा रे एतदेव कथानकाभ्यां भावयति बालकाः । यदा क्षपकः साधुरीदशस्तादृशो वा समायाति संघुद्दिष्टुं सोउं, एइ दुयं कोइ भाइए पत्तो । तदा यूयं मणत-हे अम्ब ! प्रभूनाऽस्माकं क्षरेयी परिबेषिता दिनं ति देहि मझ ति गाउ साउं तो लग्गो॥२०॥ ततो न शक्नुमो भोक्तुम् , एवं च उक्ने ऽहं युष्मानिर्भ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६५) माधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म सयिष्यामि, ततो यं भपत किं दिने दिने पायसमुप- उजाणपालएहिं, गहिया य हया य पड़ा य ॥२१४॥ स्क्रियते । एवं च बालकेषु शिक्षितेषु तस्मिन्नेव प्रस्तावे सहस पइट्ठा दिट्ठा, इयरेहि निवंगण ति तो बद्धा । सक्षपको भिक्षामटन् कथमपि तस्या एव गृहे प्रथमतो जगाम, तदा सा यशोमतिरन्तःसमुल्लसत्परमभक्तिर्मा साधोः नितस्स य अवरण्हे, दंसणमुभो यह विसग्गा।।२१।। काऽपि शा भूदिति बहिरादरम् अकुर्वती यथास्वभाव- चन्द्रानना नाम पुरी, तत्र चन्द्रावतंसो राजा, तस्य त्रिमवतिष्ठत । बालकाश्च यथाशिक्षितं भरिपतुं प्रवृत्ता, सथैव लोकरेखामभृतयोऽन्तःपुरिकाः, राक्षश्च द्वे उद्याने, तद्यथाच तया निर्मसितास्ततः सरुवाऽनादरपरया क्षपकोऽपि एकं पूर्वस्यां दिशि सूर्योदयाभिधानम् । द्वितीयं पश्चितया वभसे, यथा श्रमी मत्ता बालकाः पायसमपि नैतेभ्यो मायां चन्द्रोदयाभिधानम् । तत्र चान्यदा प्राप्ते वसन्तमासे रोचते, तर्हि ततो यदि युष्मभ्यमपि रोचते गृहीत क्षरेयी कस्मिश्चिदिने राजा निजान्तःपुरक्रीडाकौतुकार्थी जनानां मांचेत् बजत इति । तत एवमुक्त स क्षपकसाधुनिःशको भू- पटइंदापितवान् , यथा भोः! शृणुत जनाः! प्रभाते स्था पायसं प्रतिगृहीतुमुद्यतः, साऽपि परमभक्रिमुद्वहन्ती राजा सूर्योदयोद्याने निजान्तः परिकाभिः सह स्वेच्छ परिपूर्णभाजनभरण पायसं घृतगुड़ादिकं च दत्तवती । सा- बिहरिष्यति ततो मा तत्र कोऽपि यासीत् सर्वेऽपि धुश्च मनसि निःशको भूत्वा पायसं गृहीत्वा भोजनाय तृणकाष्ठाऽऽहारादयश्चन्द्रोदयं गच्छन्विति, एवं च पटहे वृक्षस्य कस्यचिदधस्ताद् गतवान्, गत्वा च यथाविधि | दापिते तस्थ सूर्योदयोद्यानस्य रक्षणाय पदातीन् निरूपि पथिकादि प्रतिक्रम्य स्वाध्यायं च कियन्तं कृत्वा चि- तवान् , यथा न तत्र कस्याऽपि प्रवेशो दातव्य इति, न्तयामास-अहो लब्धमुत्कृष्टं मया पायसद्रव्यं घृतगुडादि | राजा च निशि चिन्तयामास सूर्योदयमुद्यानं गच्छताच, ततो यदि कोऽपि साधुरागत्य संविभागयति मां तर्हि मपि प्रभाते सूर्यः प्रत्युरसं भवति, ततः प्रतिनिवनमवामि संसागणवोत्तीर्णो यतो निरन्तरं ये स्वाध्याय- मानानामपि मध्यावे. प्रत्युरसं च सूर्यो दुःखावहस्तनियमाचतसः प्रतिक्षणं परिभावयन्ति सकलमपि यथाs- स्माचन्द्रोदयं गमिष्यामीति, एवं च चिन्तयित्वा प्रातचस्थितवस्तुजातम् अत एव च दुःखरूपात्संसाराद्विमुख- स्तथैव कृतवान् , इतश्च पटहथवणानन्तरं केऽपि दुर्चबुद्धयो मोक्षविधाबेकताना यथार्शाक्न गुर्वादिषु वैयावृत्यो- ताश्चिन्तयामासुः यथा न कदाचिदपि वयं राजान्तःपुचता ये वा परोपदेशप्रवणाः स्वयं सम्यक संयमानुष्ठान- रिका हटवन्तः । प्रातश्च राजा सूर्योदये सान्तःपुरः सविधायिनश्च तेषां संविभागे कृते तद्गतं शानाद्युपष्टब्धं मागमिष्यति, अन्तःपुरिकाश्च यथेच्छ विहरिष्यन्ति । ततः भयति सानाघुपटम्भे च मम महान् लाभः, शरीरकं पुनः पत्र बहुखतरशाखासु लीनाः केनाप्यलक्षिता वयं ताः परिरिदमसारं प्रायो निरुपयोगि च । ततो येन तेन वोपष्टब्धं- भावयामः, एवं च चिन्तयित्वा ते तथैव कृतवन्तः, तत सुखेन बहतीत्येवं भुजानोऽपि शरीरमू रहितः प्रवर्द्ध- उद्यानरक्षकैः कथमपि ते शाखास्वन्तींना दृष्टास्ततो गृमानविशुद्धाध्यवसायो भोजनानन्तरं केवलज्ञानमासादि- होता लकुडादिभिश्च हता रज्ज्वादिभिश्च बद्धाः, ये चान्ये तवान् , सूत्रं सुगमम् । नवरम् ' खेल्लगमगलिच्छारियाणि' तृणकाष्ठाऽऽहारादयो जनास्ते सर्वेऽपि चन्द्रोदयं गताः, तैश्च त्ति-मल्लक-शरावं वदाकाराणि यानि खेल्लकानि-बटादि सहसा प्रवि!र यथेच्छ राजान्तःपुरिकाः क्रीडन्त्यो हटाः, पत्रकृतानि भाजनानि-द्रोणा(दूता)नीत्यर्थः, तानि लिच्छी- ततस्तेऽपि राजपुरुषबद्धाः, ततो नगराभिमुखमुद्यानाधिरियाबि' डिम्भकयोग्यस्तोकस्तोकपायसप्रक्षेपणेन खर गच्छतो राक्ष उद्यानपालकैः पुरुषेयेऽपि बद्धा दर्शिताः, एिटतानीव खरण्टितानि कृतानि खाटण्या इत्यवक्षया कथितश्च सर्वोऽपि यथावस्थितो वृत्तान्तः, तत्र ये मामाइन्दीत्यामन्त्रणे, भोः श्रमण ! यदि रोचते सहि गृहाण भङ्ककारिणस्ते विनाशिताः, इतरे मुक्ताः, सूत्रं सुगम, नवरं विशेषः ततः शरीरयापनाय घृतगुड्युतं पायसं गृहीत्वा 'तो दंडो' त्ति-दण्डो मारणम् , एतद्भावनार्थ रूपक त्रयम् । एकान्ते अवक्रमणं, शेष सुगमम् । एवमन्येषामपि भावतः 'सूरोदयमि' त्यादि, तत्र 'पच्चुरसं' प्रत्युरसम् उरसः संमुख शुद्धं गवेषयतामाधाकर्मण्यपि गृहीते भुक्ने वा न दोषः, 'नितस्स य' त्ति-उद्यानादपराह्ने निर्यतो राक्ष उभयेषां भगवदाशाराधनात् । दर्शनं ततो यथाक्रम बध-विसगा, एतेन यदुक्तम्-'प्रभोज्जे तथा च भगवदाशाराधनकृतमेवाऽदोषं भगवदाशाखण्ड- गमणाइ य' इत्यादिगाथायां 'दिटुंता तत्थिमा दोनि' नकृतमेव च दो विभावयितुकामः कथानकं रूपकचतु त्ति-तद्वयाख्यातम् । केणाऽऽह सांप्रतं दान्तिके योजनामाहचंदोदयं च मूरो-दयं च रन्नो उ दोनि उजाणा । जह ते दंसण कंखी, अपूरिइच्छा विणासिया रना । तेसिं विवरीयगमणे, प्राणाकोवो तो दंडो॥२१२॥ दिद्वेऽवि यरे मुक्का, एमेव इहं समोयारो ॥ २१६ ॥ सूरोदयं गच्छमहं पभाए, यथा ते दुर्वृत्ता दर्शनकाशिः अप्रितेच्छा अपि प्रामाचंदोदयं जंतुतणाऽऽइहारा । भरकारिण इत्ति राज्ञा विनाशिताः, इतरे च तृपकाष्ठाऽऽहा. दुहा रवी पच्चुरसन्ति काउं, रादयश्चन्द्रोदयोद्यानगता दृऐऽपि तैरन्तःपुरे आशाका रिस्चात् मुक्काः, एवमेव इहापि आशाकर्मविषये समवतारायाऽवि चंदोदयमेव गच्छे ।। २१३ ।। रोयोजना कार्या, सा चैवम्-आधाकर्मभोजनपरिणामपपत्तलदुमसालगया, दच्छामु निवंगण त्ति दुच्चित्ता। रिणताः शुद्धमणि भुजाना प्राशाभनकारिस्यात् कर्मणा ६७ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) अभिधानराजेन्द्रः । आधाकम्म यन्ते साधुविम्बात् गवेपयन्त आधाकर्माणि भुञ्जाना भगवदाराधनात् न बध्यन्ते 'मयंक' ऽभिधक्षकसाधुवदिति । आधाकम्मैमोजिनमेव भूयोऽपि निन्दति आहाकम्मं भुंजर, न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । एमेव अडइ बोडो, लुक्कविलुको जह कवोडो ॥ २१७|| य आधाकर्म भुङ्क्ते न च तस्मात् स्थानाद्-आधाकर्मपरिभोगपतिकामति प्रायधिशेन निवर्त्तते स बोड:- मुण्डो जिनाशाभङ्गे निष्फलं तस्य शिरोलुञ्जनादीति 'बोड' इत्येवमधिक्षिपति एवमेव निष्फलमटति जगति परिभ्रमति, अधिक्षेपसूचकमेव रान्तमाह-'लुक जद कोडो' लुतियथा पोता-पक्षिविशेषः यथा तस्य लुञ्चनम् अटनं च न धर्माय; तथा साधोरण्याधाकर्मभोजिन इत्यर्थः, तत्र सामान्यतो लुश्चनं विच्छिया शिवचनम्। पिं० श्रधाकर्मपरिभोगे दोषमाह एगया देवलोसु, नरएसु वि एगया । एगया आसुरं कार्य, आहाकम्मेहि गच्छ ॥ ३ ॥ आधानम् ; आधाकरणमित्यर्थः, तदुपलक्षितानि कर्माण्याकम्मतिः किमुक्रं भवति स्वयं विहितैरेव सरागसं यममाद्वारे भासुरभावादिभिरेव नारकासुरगतिहेतुभिः क्रियाविरोधाकमियां तत्तद्गत्यनुरूपवेष्टित यातीति सूत्रार्थः उत्त० ३ ० " आहार मुंजमा सबल ४ (सूत्र - २१+ सम० )। आधाकर्म- श्रधया - साधुणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा फच्यते बीयते वा गृहादिकं वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्मभु जानः शबलः । दशा० ३ श्र० । आधा कर्मपरिभोगे दोषस्सदृष्टान्तो यथाजं किंचि पूरक, सङ्गी मागंतुमीहिये। साहस्तरियं मुंजे, दुपक व सेव ।। १ ।। यत् किञ्चिदिति आदारजातं स्तोकमपि आतां तावत्भूतंपूतिकृतम् आधाकर्मादि सिक्वेनाप्युपसृम् आतां तावदाधाकर्म स्वयं कृतम्, आप तु श्रद्धावता श्रम्येन भक्रिमताऽपरानागन्तुकानुद्दिश्य हितं - चेष्टितं निष्पादितं तच सहस्रान्तरितमपि यो मुजीतपरसद्वप-गृहस्थ प्रतिपक्षं वा पते, एतदुकं मर्यातमूतमपि परकृतमपरागन्तुकमत्यर्थ व्यादिनं यदाधाकर्मादि तस्य सहस्रान्तरितस्यापि योवयवस्तनाप्युपसृष्टमाहारजातं भुजानस्य द्विपक्षसेवनमापद्यते, किं पुनः य एते शाक्यादयः स्वयमेव सकलमाहारजानं निष्णाय स्वयमेव चोपभुञ्जते ते च सुतरां द्वि पक्षसेविनो भवन्तीत्यर्थः । यदि वा द्विपक्षमिति इंर्यापथः सांपरायिकं वा । अथ वा- पूर्ववद्धा निकाचिताद्यवस्थाः कर्मप्रकृतीर्नयत्यर्पूवाश्चादत्ते ( सूत्र ) ततश्चैवं शाक्यादयः परतीर्थिकाः स्वयूथ्या वा श्रधाकर्म भुञ्जाना द्विपक्षमेव सेवन्त इति दुषार्थः । इदानीमेतेषां सुखैषिणामाधाकर्मभोजिनां कटुकविपाकाविर्भावनाय श्लोकद्वयेन दृष्टान्तमाह आध कम्म तमेव अभियंता सिमंस अकोविया | 1 मच्छा बेसालिया व उदगस्य भियागमे ॥ २ ॥ उदगस्स पभावे, सुकं सम्यं तमिति । केहि कंकेहिय, आमिसत्थेहि ते दुही ॥ ३॥ मेष- श्रधाकमभोगदोष जानना विषम-कारकर्मबन्धो भयकोटिभिरपि दुर्मोक्षचतुर्गतिसमारोपात स्मिनकोविदाः कथमेष कर्मबन्धो भवति कथं वा न भवति ? केन चोपायेनायं संसारार्णवस्तीर्यत इत्यत्रा कुशलाः, त रिममेव संसारोद कर्मपापा दुखिनो भवन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा मत्स्याः पृथुरोमाणो विशालः-समुद्रस्तत्र भवा वैशालिकाः विशालाक्यविशिष्टतान्युद्भवा या वैशालिकाः विशाला एव वैशालिकाः- बृहच्छरीरास्ते एवंभूता महामत्स्या उदकस्याभ्यागमे समुद्रवेलाया (मागताः) सत्यां प्रवलमरुद्वे गोद्भूतो नुङ्गकलोलमालापनुन्नाः सन्त उदकस्य प्रमाण नदीमुखमागतानास्मिन्नुदके शुष्के वेगेनेापगते त्याच्छरीरस्य तमिश्रेय धुनीमुखे दिलाना वसीदन्त आमिष पक्षिविशेवेरन्ये मांसयसाधिभिर्मत्स्य एव विध्यमाना महान्तं दुःखसमुद्धतमनुभवन्तोरापापिनार्थ याति प्राप्नुवन्ति धारणे, त्राणाऽभाषाद्विनाशंमंत्र यान्तीति श्लोकद्वयार्थः । पर्यन्तमुददाति योजयितुमाहएवं तु समया एगे, बङ्गमाणसुद्देसियो । मच्छा वेसालिया चैत्र, घातमेस्संतिऽयंतसो ॥ ४ ॥ ययेते नरोक्रमत्स्यास्तथा श्रमाः यन्तीति भ्रमणा एके शाक्य पाशुपतादयः स्वयूथ्या वा. किंभूतास्ते इति दर्शयति वर्त्तमानमेव सुखम् प्रधाकमोग येषां ते वर्तमान समुद्रवायवत् तत्कालावासुखलवाऽऽसलचेतसो ऽनालोचिताऽऽघाकर्मोपभोगजनितातिकटुक दुःखौघानुभवना वैशालिकमत्स्या इव घातंवि ( नाश शालमेष्यन्ति अनुभविष्यन्ति अनन्तशो रहट्टघटीन्यायेन भूयो भूयः संसारोदन्यति निमज्जनोन्मज्जनं कुर्बान सम्माः पारगामिना भविष्यन्तीत्यर्थः । सूत्र० १ ० १ श्र० ३ ३० । ( १२ ) श्रधाकर्म परिभोगे कर्मबन्धःहाकम्मं णं भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधह, किं पकरइ, किं चिणाइ, किं उपचिणाइ ?। गोयमा ! श्राहाकम्मं , भुंजमा आउयवज्जाश्रो सत्तकम्मपगडीओ सिटिलबंधवाओं घसियबंधणपदाओ पकरेइ० जाव अणुपरियगृह । से केणऽट्टे०जाव हाकम्मं खं भुंजमाणे • जाव अणुपरिट्ट १, गोयमा ! आहाकम्मं णं भुजमाणे mere धम्मं कमर, ओयाए धम्मं अइकममाणे पुढविका गावकं ० जाय तसकार्य यावखर, जर्सि पि Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७) प्राधाकम्न अभिधानराजेन्द्रः। प्राधाकम्म य णं जीवाणं सरीराइं आहारमाहारेइ ते वि जीवे नाव-| तेसिं परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ।। ५३ ।। कंखइ, से तेणऽद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ श्राहाकम्मं णं वल्लीर्वा वृक्षान् वा कश्चित्संयतानामर्थाय रोपयेत् तत्र भंजमाणे श्राउयवाश्रो सत्त कम्मपगडीयो० जाव अणु तेषां फलानां परिभोगकाले श्रमणानां कथं भणितम् । कि परियट्टइ। (सूत्र ७८+) कल्पते किंवा न कल्पत इत्यर्थः । 'आहाकम्ममि' त्यादि, प्राधाय साधुप्रणिधानेन य . अत्र सूरिराहरसचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, बीयते वा तस्स कडनिदियादी, चउरो भंगे विभावइत्ताण । गृहादिकं. ययते वा वस्त्रादिकं, तदाधाकर्म, किं बंधा त्ति- विसमेसु जाण विसम, नियमा उ समो समग्गहणे ॥५४॥ प्रकृतिबन्धमाश्रित्य स्पृष्टावस्थापक्षया वा 'किं पकरे' त्तिस्थितिबन्धापेक्षया बद्धावस्थापेक्षया था, 'किं चिणार तस्य कृतं तत् तस्य निष्ठितमिति प्रथमः, तस्य कृतत्ति-अनुभागबन्धापेक्षया निधत्तावस्थापेक्षया वा · किं मन्यस्य निष्ठितमिति द्वितीयः । अन्यस्य कृतं तस्य निउपचिणाई 'त्ति-प्रदेशबन्धापेक्षया निकाचनापेक्षया ऐति, प्ठितमिति तृतीयः । श्रन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमिति • आयाए ' ति-पात्मना श्रुतधर्मे-चारित्रधर्म वा, चतुर्थः । तत्र तस्य संयतस्य निमित्तं कृतम्-भारोपितं 'पुढविकाय नावकंखई' ति-नापेक्षते; नानुकम्पत इत्यर्थः । वृक्षादि तथा तस्यैव संयतस्य निमितं निष्ठित-निष्ठां भ०७० उ०'भायार' ति-श्रात्मना धर्म-श्रुतधर्मे नीतमचित्तीकृतमित्यर्थः । एष प्रथमभनार्थः । एवं शेषाचारित्रधर्म चेति “ आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढ खामपि भानामर्थः परिभाषनीयः, तत्र तस्य कृतं तस्य निष्ठितमित्यादीन् चतुरो भनान् विभाव्य विषमयोविकायं नावकंखर, आउकाय नावकंखर, नेउकायं नाव योगहतोः विषममसंयम जानीयात्तनिमित्तं निष्ठानयनात् कंखर, बाउकायं नावकंखा, वणस्सारकाय नायकंखर, समयोदितीयचतुर्थयोर्भङ्गयोग्रहणे सम-संयम जानीयात् । तसकायं नावकंखर, जेसि पि य प जीवाणं सरीरयाई अन्यनिमित्तं निष्ठितत्वात् । आहारमाहारे ते वि नावखइ स एपणऽट्टेणं गोयमा ! एवं वुबह शाहाकम्मं भुंजमाणे जाव परियट्टइ," तथा पर आह-ननु श्रमणार्थ स भारोपितस्ततः कथं द्वि"कहं णं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरंति ?, तीये भले कल्पते । सूरिराहगोयमा ! पाण अवारत्ता भवर, मुसं वहत्ता तहारूवं कामं सो समणऽडा, वुत्तो तह वि य न होइ सो कम्मं । समण वा माहणं वा अफासुए प्रणेसणिज्जेणं अस-1 जं कम्मलक्खणं खलु, इह ई वुत्तं न पस्सामि ॥५५॥ णपालाइमसाइमेणं पडिलाहित्ता भवइ. एवं खलु जीवा अप्पाउयचाए कम्मं परति "त्ति, द्वितीयादे पुनर्गाद कामम्-अनुमन्यामह स वृक्षः श्रमणार्थमारोपितः तथाsग्लानादिकार्यासंस्तरणादिरूपे गच्छमध्यव्यवस्थितस्य गुर्वा । प्यसौ कर्म न भवति । यतो यत्कर्मलक्षण खलु तीर्थभावर्तिनोऽशठभावस्य साधोः पञ्चकपरिहाणिक्रमेण सर्वथा करगणधरैरुक्तं तदिह 'ई' पावपूरणे, न पश्यामि । प्रयतमानस्यातुरदृष्टान्तेनाधाकर्माद्यपि निदोषम् , तथा चा किं तत्कम्मलक्षणमत आइउगम:-" संथरणम्मि असुद्धं, दुराह वि गिरहंत दितयाण | सचित्तभावविकली-कयम्मि दवम्मि मग्गणा होई । हियं । श्राउगविटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे ॥२॥" तथा-1 "जा जयमाणस भवे, विराहणासुत्तविहिसमग्गस्स ।। का मग्गणा उ दव्वे, सचेयणे फासुभोईणं ॥ ५६ ।। सा होह निजरफला, अज्झप्पषिसोहिजुत्तस्स ॥१॥" त्ति ।। यत्सचित्तभावविकलीकृतमचित्तीकृतम् द्रव्यं तत्र प्रासुध० र० ३ अधि०७ लक्ष० । कभाजिनां मार्गणा भवति । तत प्राधाकमिकचिन्ताऽपि चारित्रमधिकृत्याहारविषयाऽनाचारा55 तत्रैव युक्ता; नान्यत्र । सचेतन तु द्रव्ये का मार्गणा ?, नैव चारौ प्रतिपादयितुकाम आह काचित् सचित्ततया तस्य ग्रहणसंभवात्ततो न तदपक्षया पाहाकम्माणि झुंजंति, अमममे सकम्मुणा । प्राधाकमिकत्वमिति । तदेवमारोपितरूपकृतनिष्ठितविषये कल्पयाऽकल्प्यविधिरुनः । उपलितेति जाणिजा, ऽणुवलित्तेति वा पुणो ।। ८॥ संप्रति छिन्नरूपकृतनिष्ठितविषये तमाहकिमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यत इत्याह संजयहेतुं छिन्नं, अत्तऽहोचक्खडं तु तं कप्पे । एएहिं दोहिं ठाणे हिं, ववहारो ण विजई। अत्तऽट्ठा छिन्नं पि हु, समणऽट्ठा निट्ठियमकप्पं ॥५७|| एएहिं दोहिं ठाणे हिं, अणायारं तु जाणए ॥४॥ अत्राऽपि भाचतुष्टयम्-तस्य कृतम् तस्य निष्ठितम् १, सूत्र. २ ७०५ अ० । ( अनयो ८-६ \थयोर्याख्या तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितम् २, अन्यस्य कृतं तस्य नि'श्रणायार' शब्दे प्रथमभागे ३१८ पृष्ठ गता ) (वसति ष्ठितम् ३, अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितम् ४। अत्र कृतं विषयः प्राधाकर्मदोषः 'वसहि ' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते छिन्नं निष्ठित-पाकादिकरणतो निष्ठां नीतम्। तत्र प्रथम१६५ निशीथचूर्णिगाथया) भने सर्वथा न कल्पते, चतुर्थस्तु भङ्ग एकान्तशुद्धः, द्विप्राधाकर्मदोषदुष्यात श्रमणार्थ कृता तीयममधिकृत्य पूर्वाद्धमाह-संयतहतौः-संयतनिमित्तं हिलवृक्षादयो न कल्पन्ने छिन्नमात्मार्थमुपस्कृतं-निष्ठां नीतं तत्कल्पते। तृतीयभन्नबची वा रुक्खो वा, कोई रोएज संजयटाए । मधिकृत्याह-श्रात्मार्थ छिन्नमपि श्रमणार्थनिष्ठितमकल्प्यम् । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) भाधाकम्म . अभिधानराजेन्द्रः। माधाकम्म संप्रति बीजानि, उदकं चाऽधिकृत्याह त्यद्रव्येण यश्च वा सुविहितानां मूल्येनात्मार्थ क्रीतं तद्दी यमानं न कल्पते । किं कारणमिति चेदुच्यते-स्तेनानीतस्य बीयाणि य वावेजा, अगडं व खणेज संजयऽद्वाए। । प्रतीच्छा-प्रतिग्रहणं लोकेऽपि गर्हिता किमा! पुनरुत्तरे, तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ।।५८॥ तत्र सुतरां गर्हिता यतः-चैत्ययतिप्रत्यनांक-चैत्ययतिप्रत्यनीबीजानि शाल्यादिसत्कानि वपेत, अवटं च खानयेत् , कस्य हस्तात् यो गृह्णाति सोऽपि 'हु' निश्चितं तथैव चैत्यसंयतार्थः तेषां परिभोगकाले तत्र श्रमणानां कथं भणितं यतिप्रत्यनीक एव । कल्प्यम् , अकल्प्यं था। कस्मादिति पाहसूरिराह हरियाहडिया सा खलु, ससत्तितो उग्गए हरा गुरुगा । दुच्छडाणियं च उदयं, जइ हेउं निद्वियं च अत्तद्वा । एवं तु कया भत्ती,न वि हाणी जा विणा तेण ॥६५॥ तं कप्पइ भत्तऽट्ठा, कयं तु जइ निट्ठियमकप्पं ।। ५६ ॥ सा खलु स्तेनानीतप्रतीच्छा हताहतिका भण्यते स्तेनैह अत्रापि प्रागिव भाचतुष्टयम् , तत्राऽऽद्यो भनः एकान्ते- तस्य स्तेनहरणं हताहतिका यत एवं तस्मात् स्वशक्तिनाऽशुद्धः । चरमस्त्येकान्तशुद्धः । द्वितीयभामधिकृत्याह- तम्बैत्यद्रव्यं सोपधिकं वा श्रमणमुद्रमयेत्-उत्पादयेत् इतयतिहेतोस्तण्डला द्विच्छटीकृता उदकं वा संयतहेतोर- रथा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । एवं च सति कृता बटावानीतम् उभयमपि च निष्ठितम्-अचित्तीकृतमारमार्थ भक्तिर्भवति । प्रवचनस्य या च तेन विना हानिः, साऽपि तकल्पत । तृतीयभामधिकृत्याह-कृतं विच्छटीकृतास्त- न भवति । राबुला अवटादानीतं पानीयं निष्ठितं तु यतिनिमित्तं तद पुनः पृच्छतिकल्प्यमिति । जा तित्थयराण कया, वंदग्णावरिसणादि पाहुडिया। पुनरपि पर आह भत्तीहि सुरवरेहिं, समणाण तहिं कहं भणियं ॥६६।। समणाण संजतीण व, दाहामि जो किणेज अढाए । या तीर्थकराणां सुरवरैर्भतथा वन्दनाऽऽधर्षणादिका आदि गायीमहिसीमादी, समणाण तहिं कहं भणियं ॥६॥ शब्दात्-पुष्पवृष्टिप्रकारप्रयादिकरणपरिग्रहः प्राभृतिका कश्रमणानां संयतीनां दुग्धादि दास्यामीति बुद्धया तेषाम- ता तत्र श्रमणानां कथं भणितं किं तत्र स्थातुं कल्पते न वा। र्थाय गोमहिष्यादिकं यः क्रीणीयात्तत्र श्रमणानां कथं क अत्र सूरिराहल्प्यम् अकल्प्यं वा भणितम् । जइ समणाण न कप्पड़, एवं एगागिणो जिणवरिंदा । सूरिराह गणहरमादी समणा, अकप्पिए न वि य चिट्ठति ॥६७।। संजयहेउं दृढा, न कप्पए कप्पए य सयमट्ठा । तस्यां प्राभृतिकायां श्रमणानामवस्थातुं कल्पते भगवतः पामिच्चिय कीया बा, जइ वि समणट्ट या घेणू ॥६१।। प्रवचनातीतत्वात् । अन्यश्च यदि श्रमणानां न कल्पते तत यद्यपि च धेनुः-गोरू महिषीरूपा चा श्रमणार्थमिय-| एकाकिनो जिनवरेन्द्रा भवेयुः । यतो गरपधरादयः श्रमणाः मित्यात्मीयां धेनु दत्त्वा परकीया याचिता क्रीता था यदि | अकल्पिकेनैव तिष्ठन्ति । व्य० ६ उ० । वृ० । संयतहेतोर्तुग्धा ततो न कल्पते। अथ स्वयमात्मनोऽर्थाय भाधाकर्मोपभोगे प्रायश्चित्तम्दुग्धा तर्हि कल्पते। जे भिक्खू पाहाकम्म, मुंजइ भुंजंतं वा साइअइ ॥६॥ पुनरन्यथा परः प्रश्नयति आधाकडं पाहाकम्मं तं जो भुजति तस्स चउगुरुं प्राचेहयदव्वं विभया, करेज कोई नरो सयट्ठाए । णादिया य दोसा । नि० चू० १० उ० । समणं वा सोपहियं, विक्केजा संजयट्ठाए ।। ६२॥ प्राधाकर्मप्रायश्चित्तम्-" गुरुगा श्राह य चरम " चैत्यद्रव्यं चौराः समुदायेनापहत्य तन्मध्ये कश्चिन्नर प्रा-| ॥५४१४ ॥' पाह य ' प्राधाकर्मगृहतः प्रायश्चित्तं च म्मीयेन भागेन स्वयम्-आत्मनोऽर्थाय मोदकादि कुर्यात्, त्वारो गुरुकाः ॥ पृ० १ उ०१ प्रक० । मानवत प्राधाकृत्वा च संयतेभ्यो दद्यात् , यो वा संयतार्थाय श्रमणं सो. कर्माविदोषविचारः ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे १९८० पृष्ठे पधिकं विक्रीणीयात् । विक्रीय च तस्मासुकं वस्त्रादि सं- करिष्यते) (गोचरचल् गतेनाधार्मिकमशनादि न ग्राह्ययतेभ्यो दद्यात् । मिति 'गोयरचरिया' शब्ने तृतीयभागे ६१ पृष्ठे बच्यते।) एयारिसम्मि दवे, समणाणं किं नु कप्पई घेत्तुं ।। यदाधाय-निमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वोक्तमप्रकारमपि कर्म ब ध्यते तदाधाकर्मेति । कर्मभेदे, प्राचा०१ श्रु. २ अ० १ चेहयदव्येण कयं, मुल्लेण वजं सुविहियाणं ।। ६३ ॥ उ०। (तच विस्तरतः 'कम्म ' शब्द तृतीयभागे २४५ तेण पडिच्छा लोए, वि गरहिया उत्तरे किमंग! पुण ।। प्रष्ठे, ६२ सूत्रव्याख्याने वक्ष्यते । ) श्राधानमाधाकरणचेइय जइ पडिणीए. जो गेएहर सो विहु तहेव ॥६४।। मात्मनेति गम्यते तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि । पतारशेन द्रव्येण गाथायां सप्तमी तृतीयाथें. यत् प्रात्मार्थ | | स्वकृतकर्मसु, उत्त। रुतं तत् श्रमणानां किं नु ग्रहीतुं कल्पते । सूरिराह-यश्चै- सुया मे मरए ठाणा, (उत्त०)पगाढा जत्थ वेयणा ॥१२॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) प्राधाकम्म अभिधानराजेन्द्रः। प्राधिदेषिय तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मे तमणुस्सुयं । षयै-र्याप्त्याऽऽधारश्चतुर्विधः" इति "सामीप्यसम्बन्धेनाश्राहाकम्मेहि गच्छंतो, सो पच्छा परितप्पड़ ॥ १३ ॥ प्याधारतेत्या" । तच्चिन्त्यम् , गङ्गायां घोषो वसतीत्यादी विषयलक्षणयव गङ्गासमीपतीरस्योपस्थितौ न तस्य षितत्रेति-नरकेषु उपपाते भवमोपपातिकं स्थान-स्थिति क्लयर्थत्वमिति पाणिनीयाः । शस्यसंपादनाथै जलरोधना) यथा-येन प्रकारेण; भवतीति शेषः । मे' मया तत्-इति- बन्धने वृक्षलेकार्थे जलधारणार्थे श्रालवाले च । "माधाअनन्तरोकपरामर्शेऽनुश्रुतम्-अवधारितं गुरुभिरुच्यमान- रबन्धप्रमुखेः प्रयत्नैः” रघु० । वाच० । आधारस्य भावः मिति शेषः (उत्त०) औषपातिकमिति च अवतोऽस्यायमा तल् श्राधारता संबन्धविशेषेण पदार्थविशेषस्याऽऽधेयताशयः, यदि गर्मजत्वं भवेत्-भवेदपि तदपि तदवस्थायां सम्पादक धर्मविशेषे, तथा च तयोः परस्परनिरूप्यनिछेदभेवादिनारकदुःखान्तरम् , औपपातिकत्वे स्वन्तर्मुह रूपकभावः । प्राधारताया अनतिरिक्तवृत्तिर्धर्म प्राधातानन्तरमेव तथाविधवेदनोदय इति कुतस्तदन्तरसंभवः ?, रतावच्छेदकः । एवमाधेयताया अनतिरिक्तवृत्तिर्धर्म प्रातथा च-'आहाकम्भेहि 'ति-प्राधानम्-आधाकरणमा- धेयतावच्छेदकः यथा संयोगेन घटाधारे भूतले भूतलत्वत्मनेति गम्यते, तदुपलक्षितानि काण्याधाकर्माणि तै- माधारताबच्छेदकं भूतलाधेये घटे च घटत्वमाधेयताबराधाकर्मभिः-स्वकृतकर्मभिः, यद्वा-मार्षत्त्वात्-'आहे' ति- च्छेकम् तयोश्चाबच्छेदकत्वात् । ताभ्यामाधारताऽऽधेयता प्राधाय-कृत्या काणीति गम्यते, ततस्तैरेव कर्मभि चाऽवच्छिचते यथा घटत्वावच्छिन्ना घटनिष्ठाऽधेयता र्गच्छन्-यान् , प्रक्रमात् नरकं, यद्वा-यथा कर्मभिर्गमिष्य- तथा भूतलवावच्छिन्ना भूतलनिष्ठाऽऽधारता इति नव्यमाणगत्यनुरूपैस्तीव्रतीव्रतरायनुभावान्वितैर्गच्छस्तदनुरूप- नैयायिकानां रीतिः । प्राधारत्वात्तदर्थे, न० । वाच । मेव स्थान 'स' इति-बालः पश्चादिति-आयुषि हीयमाने ख-घ-थ-ध-भाम् ॥८।१।१८७॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेण धस्य परितप्यते-यथा-धिग्मामसदनुष्ठायिनं, किमिदानी मन्द- बाहुल्येन हः। प्रा०ा"श्राहारो०" ॥१४०६४॥ द्रव्यम्-माधारो भाग्यः करोमीत्यादि शोचते इति सूत्रार्थः । उत्त०५०। भवति । विशे० । भाधा (हा) कम्मिय-प्राधाकम्मिक-त्रि० । साधूनामेवा- प्राधि(हि)-प्राधि-पुं० । प्राधीयते-अभिनिवेश्यते प्रर्धाय कारिते भक्कादौ, ६०१ उ०। तीकाराय मनोऽनेन । भा-धा-कि। मानसव्यथाभेदे, प्राधा(हा)ण-माधान-न० । आ-धा-भावे ल्यु संस्का वाच। प्राधीनाम्-मनःपीडानाम्। भ० १ ० १ उ. १ सूत्रटी० । शरीरमानसे पीडाविशेष च । “भाधीनां रपूर्वकं वहयादेः स्थापने, अग्न्याधाने, गर्भाधाने च । वाचा स्थाने, भाव । “ परमौषधम् " ॥३४॥ आधीनां-शरीरमानसपीडाषिशेसव्यगुणाऽऽहाणं ॥१०५४॥" सर्व पाणां परमौषधं-प्रधानौषधकल्पम् । षो० १५ धियः । गुणाधानम्-अशेषगुणस्थानम् । श्राव०४ मा स्थापने, पोन षत् अधिक्रियते उत्तमोऽत्र । प्रा-पदर्थे, धा-अधि"कुलयोग्यादीनामिह, तन्मूलाऽऽधानयुक्तानाम्" मूला55 कारार्थे, आधारे कि, आधीयते ऋणशोधनार्थम् मा-धाधानं-मूलस्थापनं-बीजन्यासस्तद्युक्तानाम् । षो० १३ विवा कर्मणि-कि-बा । ऋणशोधनार्थ प्रतिभूस्थानीयतया बव्यवस्थापने, पाण्याने, व्याख्याने च । वाच।। म्धकत्वेन उत्तमर्णसमीपे अधमणेनाऽऽधीयमाने उत्तमर्णस्य अविरई पहुच्च बाले, पाहिजइ, विरई पडुच्च पंडिए आ ईषत् स्वत्वहेतुभूतव्यापारविशिष्टे, वाच । हिजइ, विरयाऽविरई पहुच बालपंडिए आहिजइ ॥३६४|| पाहि (हि)क-माधिक्य-न०। अधिकस्य भावः व्यम् । अधिकतायाम् , अतिशयितायाम् , “ यदावगच्छेदायआधीयते व्यवस्थाप्यते, आख्शयते वा, तथा-विरर्ति त्या-माधिक्यं धृवमात्मनः" । मनु । युग्मायामपि रात्री याश्रित्य-प्रतीस्य पापाद् डीमः पण्डितः-परमार्थको ये चेत् , शोणितं प्रचुरं तदा । कन्या च पुंवत् भवति, शुक्रास्येवमाधीयते-व्याख्यायते । सूत्र०२ थु०२०। धिक्ये पुमान् भवेत् ॥१॥ ज्योतिस्तस्वम् । प्रातिपदिकमात्र भाधा (हा) य-श्राधाय-श्रव्य० । प्रा-धा-स्यप् । रुत्वे- लिङ्गमात्राद्याधिक्ये, सि. कौ० "एवमेतद् गुणाधिक्यं, त्यय, उत्त०५१० । स्थापयित्वेत्यर्थे; आधानं कृत्वेत्यर्थे, द्रव्ये द्रव्ये व्यवस्थितम् " सुश्रु०। वाच आधिक्यभाये-घम् । प्राधाने, पुं०। वाच०। स्थैर्यसिद्धयर्थम्" ॥२६॥ प्राधिक्यं सजातीयपरिमाधा (हा) र-भाधार-पा--प्राधारे-घम् । आश्रये, णामप्राचुर्यम् । द्वा०१७ द्वा०। "अपामियाधारमनुत्तरम्" कुमा० । “चराचराणां भूतानां, माधि (हि) गरणिया-माधिकरणिकी-स्त्री० । अधिक्रिकुक्षिताधारतां गतः" । कुमा०। "वाधारस्नहयोगाथा यते प्रात्मा नरकादिषु येन तदधिकरणं, तेन निवृत्ता श्रादीपस्य संस्थितिः" या० स्मृ। " व्याकरणप्रसिद्ध औप- धिकरणिकी, पश्चक्रिया मध्ये तृतीये क्रियाविशेषे, साच ग्लेषिकवैषयिकाभिव्यापकाल्ये अधिकरणकारके," आधारो द्विधा चक्ररथपशुबन्धमन्त्रतन्त्राविप्रबर्सिनी सहगादिनिऽधिकरणम् " । पाणिनिः । अधिकरणश्च परम्परया चर्तिनी चेति । ध०३ अधि०। क्रियाश्रयः तथ त्रिविधिम् श्रीपश्लेषिक-वैषयिका-5- माधि (हि)देविय-प्राधिदैविक-त्रि० । मधिदेयं भवः भिव्यापकभेदात् । तत्र औपश्लेषिक एकदेशसम्बन्धः, यथा- देवान्-वातादीन् अधिकृत्य प्रवृत्ते या ठम् । अनुशतिकादिकटे भास्ते । वैषयिका-मोक्षे इच्छास्ति । अभिव्यापकः-ति- त्याद् द्विपदवृद्धिः। देवाधिकारेण प्रवृते शाले, वातादिलेषु तैलमस्ति । मुग्धयोधकारस्तु“सामीप्या-5ऽश्लेप-वि- निबन्धने, दुःख्ने च । दुःख हि त्रिविधम्-माध्यात्मिकादिमे ६८ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) प्राधिदेविय अभिधानराजेन्द्रः। प्राप दात् । पाच । प्राधिदैविकम् -यक्षराक्षसग्रहाद्यावेश हेतु- 'आहोहिय' त्ति-नियतक्षेत्रविषयावधिशानिनस्तेषां कम् । स्या० १५ श्लोकटी। शतानि । स० ३१ सम० । प्रतिनियतक्षेत्रावऽवधिज्ञाने च । न०। माधि (हि) भोइय-आधिभौतिक-त्रि० । भूतानि-व्याघसदीन्याधिकृत्य जातम् । अधिभत ठष द्विपन द्धिः। कवली ण भते। श्राधोऽधियं जाणइ पासह। (सत्रव्याघ्रसपादिजानते दुःखे, वाच०। प्राधिभौतिक-मानुष- ५३८+) पशुपक्षमृगसरीसुपस्थावरनिमित्तम् । स्या० १५ श्लोकटी। 'आहोहियं ' ति, प्रतिनियतक्षत्रावधिज्ञानम् । भ० १४ माधु (हु)णिय-आधुनिक-त्रि० । अधुना भवः ठम् ।। श०१० उ०। साम्प्रतंभवे अर्वाचीने , अप्राचीने च । त्रियां जीप । प्राप(व)-पाप-पुं० । प्राप्यते । आप-कर्मणि-घम्-अष्टयाचा अपाशीतिग्रहाणामन्यतमे स्वनामण्याते प्रहे, जं०।। सु वसुषु चतुर्थे वसी, अपां समूहः अण। जलसमूहे. न०। सू० प्र०२० पाहु। प्राकाशे, निरुक्क० । तस्य सर्यमूर्तसंयोगित्यात्तथास्वम् । घाच०। व्याप्ती, आपः-व्याप्तिः । भ०१श०६ उ०५० दो माहुणिया । (सूत्र-६०+) स्था० २ ठा ३ उ० । सूत्रटी। प्राधे (हे) य-श्राधेय-त्रि० । प्रा-धा-कर्मणि यत् । १ श्राप (व)इ-श्रापद्-स्त्री० । श्रा-पद् । सम्पदा विप् । उत्पाद्य, "प्राधेयश्चाक्रियाजश्च, सोऽसत्त्वप्रकृतिगुणः"व्या० प्रापदविपदसंपदा दः॥८४४००॥ इति ईमप्राकृतसूत्रेण का०। यस्य सता गुणान्तरमुत्पाद्यम् ताशे उत्पाद्यगुणा श्रापत् शब्दद्कारस्य इकारः। "श्रणउ करन्तहो पुरिसहो, न्तरे विद्यमाने एव यत्र घटादिपदार्थे पाकादिना रक्ता- श्राव आवर" (अनयम्-अन्यायं) कुर्वतः पुरुषस्य आपत् गुणान्तरमाधीयते तारशे घटादौ, प्राधानविधिना स्था- श्रआयाति । प्रा० ढुंगा पो वः ॥८॥१॥२३१॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेण पनीये घडी, पुं० । अधिकरणे ऽभिनिवशनीय, "अधिकं स्वरात्परस्य पस्यवः । विपत्ती, प्रा०।" दुहश्रो गड बालपृथुलाधारादाधेयाधिक्यवर्णनम्" चन्द्रा० । वाच० । स, श्रावई बहमूलिया "॥ १७+ । आपदो-विपदः । उत्त० आधाराऽऽधेयौ द्रव्य क्षेत्रकालभावभेदेन ७०। “संभम-भयाऽऽउरा-वई" ॥१३+॥ श्रावई चउ बिहा-दव्वखेत्त-काल-भाषाऽऽवई । दब्याऽऽवई-दव्यं दुश्राहारो भाइय, च होइ दव्वं तहेव भावो य । लई । खेत्ताऽऽचाई-बोच्छिन्न-मंडबाई । कालाई-श्रोमाई । खत्तं पुण श्राहारो, कालो नियमाउ आहेओ।।१४०६।। भावाऽबई-गुरुगिलाणाई । (इति तच्चूर्गिः)। द्रव्य क्षेत्र(अस्याः गाथायाः व्याख्या 'अणुश्रोग' शब्दे प्रथमभागे कालभावैस्तत्र-द्रव्यापत्-कल्पनीरगशनादिद्रव्यदुर्लभता १. क्षेत्राऽपत्-प्रत्यासन्नग्रामनगरादिरहितमपं च क्षेत्रम २, ३४४ पृष्ठे गता।) विशे० । स्थापनीये द्रव्ये च। भावे यत् ।। कालापद् दुष्कालादि ३, भावाऽऽपद्-ग्लानत्यादि ४। प्राधाने, न० । वाचः। जीतः । द्रव्याऽऽपत्-प्रासुकादिद्रव्यालाभः, क्षेत्राऽपत्प्राधे (हे) वञ्च-प्राधिपत्य-न० । अधिपतेर्भायः कर्म धा| कान्तारक्षेत्रपतितत्वं, कालाऽऽपत्-दुर्मिक्षकालप्राप्ति; भावापत्यन्तत्वात् यक । स्वामित्वे, “अवाप्यभूमावसपत्नमृद्ध, पत्-ग्लानत्यमिति । प्रतिषेवणायाः पञ्चमे भेदे, भ०२५ श० राज्य सुराणामपि चाधिपत्यम्" गीता० । याच० । य- ७ उ०७६ सूत्रटीol"पाउरे आवईसु य" (सूत्र-७७३+) क्षागामाधिपत्यं च, राजराजत्यमेव च", भा० । प० ।। तथा आपत्सु द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधासु. तत्र द्रव्यतःगजकार्थे प्रजापालनादौ, "दुर्योधनं तत्त्वहितं वै निगृह्य, प्रासुकद्रव्यं दुलेम, क्षेत्रतो-ऽध्यप्रतिपन्नता, कालतो-दुपाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये । अजातशत्रुहि विमुक्करा- भिक्ष. भारतो-ग्लानत्वमिति । उक्तं च-" दव्याअलभे ज्यो, धम्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन् ।" भा० । ०। प०।। पुण चउब्बिहा श्रावया होह" इति । स्था०१० ठा० ३ उ० । । अ० । वाच । “अाहेवञ्च" (सूत्र-४६ +)। प्रज्ञा व्य०। नि००। प्रा० ० । "आईसु दधम्मया" २ पद । अधिपतेः कर्माधिपत्यम् । रक्षायाम् , जी० ३ ( सूत्र-३२+ ) । प्रशस्तयोगसंग्रहाय साधुनाऽऽपत्सुप्रति०४ अधि०१ उ०११७ सूत्रटी० । श्रा० म०। प्रक्षा। द्रव्यादिभेदासु, दृढधर्मता कार्या सुतरां तासु दृढर्मिमणा भ० । कल्प० । ज्ञा० । विपा० । जं०। भाव्यमित्यर्थः । स० ३२ सम० । भाधोधि (होहि) य-श्राधोऽवधिक-पुं० । नियतक्षेत्रवि उदाहरणादियोगःपयाऽवधिशानिनि, भ०। उजेणीऍ घण्वसू , अणगारे धम्मघोसचम्पाए । भाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए अन्नयरेसु देव-1 अडवीइ सत्थविन्भम-वोसिरणं सिझणा चेव १२८१॥ लोएसु उववजइ। (सूत्र-२६१ +) श्रम्याः व्याख्या कथानकादवया, तश्चदम-“ उजेणी 'आहोहिए ण 'ति, आधोऽवधिकः-नियत क्षेत्रविषया- मयरी, तत्थ धावसू वाणिपओ, सो चंपं जाउकामा उग्धोऽवधिज्ञानी । भ०७ श०७०। सणं कारइ । जहा (गाय) धन्नो, एयं अणुवेइ धम्मघोसो नमिस्स णं अरहयो एगणनालीसं पाहोहियसया | नाम श्रणगारो, तेसु दूरं अडविमइगपसु पुलिन्देहिं विलोलियो सत्यो हो सइओ नट्ठो, सो अरणगारो होत्था । (सूत्र-३६४) श्रयण लोपण सम अडवि पविट्ठो, ते मूलाणि स्वायंति Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चापड़ पति सो निर्मतिर नेच्छति शारजा एत्थ सिलायले मत्तं पश्चक्खायं श्रदणस्स श्रहियासेमाणस्स केवलनाणं समुप्पन्नं सिद्धो, दढधम्मयाप योगा संगहिया, एसा दव्बाऽऽचती १, खेत्ताऽऽवती खेत्ताएं - सतीष २, काला ती मोरयादि ३। (२७१) अभिधानराजेन्द्र भावाऽऽवतीए ४- उदाहरणगाहा— महुराए जउणराया. जउणावकेण दंडमणगारे । चहणं च कालकरणं, सकाऽमणं च पव्वज्जा । १२८२ । दयाका कथानकादयसेवा तथेदम्-" महुरा नगरीए जउलो राया, जउणावकं उज्जाणं अवरेण, तत्थ जउगाए कोप्रो दिनो तत्थ दण्डो अणगारो आयावे. सो राया यदि रोसेवा सचिन्ने भ शन्ति- फलेण श्राइवो. सम्यहि वि मणुस्सेहिं पत्थररासीको कोसोदर्य पर तस्स साउद भावनस्पती कालगत सिदो देवागमर्थ महिमाकर सनम पा विमा तस्स वि वरम्रो अघि बजे सोजतो अति अभिमाई मेटर सह भियागो संमरामि तो जेसिज दरता से विनयानि एवं किरतथे भगवया एगमवि दिवलं नाऽऽहारियं तस्स दव्याssवती, दण्डस्स भावाऽऽवती ४ “आवसु रम्पत त्ति गये " । आत्र० ४ ० । इलन्तत्वाट्टाप्-आपदाप्यत्र । घरा वाच० । आप (ब) गा - आपगा - स्त्री० । प्रापेन जल समूदेन गच्छति चत-ड नद्याम् दश० । د बहूममाणि तित्थाणि, अवगाणं वियागरे ||३७|| बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागुयात् सा ध्वादिविषय इति । दश० ७ ० २ उ० । भावचिज्ज- अपत्य पुं० । सन्ताने, कल्प० । एप णं सव्वे अजसुद्दमस्त अग्गारस्स श्रावचिजा" एते सासुधर्मः अनगारस्य अपत्यानि शिष्यसन्तानजा इत्यर्थः । कल्प० २ अधि० ८ क्षण । 44 ल्युट् । cr आप (व) डग - आपतन न० । श्रापत । भावे आगमने प्राशी पाने (करनकार्यादाकरविम्यापसनम् सदा पहने च पाच प्रस्फोटने. ६० ३ अधि० २४ लोकटी० । प्रस्खलने का | श्र० ३१२ गाघाटी० । 'आवडणं विसमायुकंटेसु ( ६२० x ) । विषमे या स्थायी वा श्रपतनं प्रस्खलनं भ यति । ० १ ० ३ प्रक० । श्रपतनं नाम यद् भूमिमसंप्राप्तस्य संप्राप्तस्य वा जानुकूर्धराभ्यां प्रस्खलनम् । वृ० २ उ० १५१ गाथाटी० । “ आवड लहुगं " ॥ २११ + ॥ श्राभूमिसंपत्ती संपत्तो पा कोपरेहिं । नि० ० १ उ० । आप (व) डिप आपतित हिदायते नेपाल"दोष आप परिहार आयडिया कुडे" (४२ + ) । श्रपतितौ-भित्तौ आस्फालितौ । उत्त० २५ अ० । आप ce - आपण - पुं० । आापरयन्ते चिकीत्यत्र - पथः । आधारे पन् । दहे. "पणियाऽऽवविविध ( सूत्र - १ x ) । पणितानि भाण्डानि तत्प्रधानाः- श्रापणाःहड्डाः । श्री० भ० श्रा० म० । कल्प० । प्र० । द्वा० विशे० । ज्ञा० । " श्रवणसिंघाडग " ( सूत्र - १३४ + ) । अनु० । द्वा० | वीध्याम्, न० । 'कोलच चुराई श्रावणे " ॥ ७१ + ॥ दश० ५ ० १ उ० । परयस्थाने, ग्र० ३ संव० द्वार २६ सूत्रटी० । क्रयविक्रयद्रव्यशालायां च । वाच० । शकटाऽऽपणवेशाश्च, वणिजो वन्दिनस्तथा । नराश्च मृगयाशीलाः शतशोऽथ सहस्रशः " भा० ० ० ० २३८ । 'भक्ष्यमाल्या ऽऽपणानाञ्च ददृशुः श्रियमुत्तमाम् " भा० स० प० ४ अ० । ( आपणः पण्यवीथिका ) ( आपणो विक्रयस्थानम् ) तेनैवोक्रम्। पूर्णाऽऽपणा विपण विभेजुः । माघ० । " वाच० । 66 आप(न) या गिद्द आपणगृद्द न० पदे । 18 तथा च जं श्रवणमज्झम्मि, जं च हिं आवणाय दुहओ बि । तं होइ वहिं, रत्थामुहरत्थपासम्म ।। १७० ॥ यद् गृहमासमध्ये समादापः परिक्षितं तदापगृहम् . यद्रामध्ये गृहम् 'दुहओ वि' ति-द्वाभ्यामपि च पार्श्वपाये भयन्ति महाप भवति ०१ ፡፡ ३ प्रक० । आप (व) णवीहि श्रापणवीथि स्त्री० । रथ्याविशेषे, श्र० म० १ ० १८३ गाथाटी० । द्वा० रा० । जी० । हट्टमार्गे, दशा० १० अ० जी० । ज्ञा० । समरस्ताववीहियं " | आपणवीथयश्च हट्टमार्गाः । कल्प० १ अधि० ५ क्षण । ** 15 rr आप ( ) - आपन - त्रि । आपद । आपद्ग्रस्ते, आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् । ततः सद्यो विमुच्येत यद् विभेति स्वयं भयम् " । भाग० । थापअभयसनेषु. दीक्षिठाः खलु पौरवाः " | शकु I श्रारमापराधादापन्नस्तत् किं भीमं जिघांससि भा० स्त्री० प० १३ आ० । वाचः । श्रश्रित, "इमं दरिणमात्ररणा. सवदुक्खा विमुचर " ॥ १६ ॥ सूत्र० १ ० १ ० १ ३० । अनु० । उत्पन्ने, ज्ञा० १ ० २ अ० ३६-३७ सूत्रटी० । प्राप्ते, "जो जाहे आवनो " ( १२४५ ) | आव० ४ ० । श्रावणो प्राप्त उच्यते नि० चू० १० २५६ गाथाटी० । "श्रावणा दीहमद, संसारम्मि अांतर " ( १३ x ) । आपन्नाः प्राप्ताः । उस० १ ० व्याप्ते, नि० । आप ( व ) परिहार - आपन परिहार - पुं० । भावपरिहारमेवै नि० चू" । ** " ( भाष्यम् ) - मासादी श्रवसे, तेरा उ पगयं न अमेहिं ॥ २३ ॥ परिद्वा पुए ज़ो मालियं वा बजाव मासिय Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापमपरिहार अभिधानराजेन्द्रः। मापत्तिमुत्त या पायच्छित्तं श्रापरणो। नि० चू० २० उ० । यत् मा | य लहुमासे पुरिमई । गुरुमासे एक्कासणयं । चउरो य सिकं यावत् पारमासिकं वा प्रायश्चित्तमापनं तत श्रा- छच्च मासा सम्बज्झन्ति । तत्थ लहुचउमासे पायाम । पत्र अपरिभोगेऽपि वर्तते, परिहियते इति परिहारः, चउगुरुमासे चउत्थं । छल्लहुमासे छटुं । छगुरुमासे अट्ठमं । कर्मणि घम्. आपत्रमेव परिहारः श्रापनपरिहार इति एवं सुत्तनिहिट्ठाऽऽवत्ति जहावराहं जाणिऊण जीपण निव्युत्पत्तः, तथाचाह-'मासादी श्रावन्ने' इति-मासादिकं बिइयाइ-अट्ठमभत्तन्तं तवं देजा। यत् प्रायश्चित्तस्थानमापन्नं तत् श्रापन्ने-आपनपरिहारे इय सव्वाऽऽवत्तीयो, तवसो नाउं जह-कम समए । द्रष्टव्यं, मासादिकं यत् प्रायश्चित्तस्थानमापनं तत् पापन्न जीएण देज निव्वी-इगाइ दाणं जहाऽभिहियं ।। ६२ ।। परिहार इति भावः । अथ वा-परिहरणं परिहार इति भावे 'इय सव्वाऽऽवत्तीओ' इच्चाइ । 'इय' एवं-एपण पगारेण घ, श्रापन्नेन-प्रायश्चित्तस्थानेन परिहारो वर्जनं साधो 'सब्बाऽऽवत्तीओ'सव्वतबट्टाणाई ।'जहक्कम'-पायच्छित्ताणुरिति गम्यते । आपन्नपरिहारः । तथा हि-स प्रायश्चित्ती लोभेण । समए-सिद्धते । 'जीएण देजा। निविड्याइयं दाण अविशुद्धत्वात् विशुद्धचरणैः साधुभिर्यावत्प्रायश्चित्तप्रति जह जह भणिय तहा तहा 'देज' त्ति-भणियं हो। ( इति पस्या न शुद्धो भवति तावत् परिहियते, इह तेन चूर्णिः)। जीत०। इह-जीतव्यवहारे अपराधमुद्दिश्य यद्यत्मामापनपरिहारेण प्रकृतमधिकारो न शेषैः परिहारैः । व्य. यश्चित्तेन भणितं तस्याऽप्यापत्तिविशेषेण दानसंक्षेपं बच्चये १ उ० २६ गाथाटी। आपत्तिश्च-अमुकातिचारेऽमुकस्य तपसः प्राप्तिरिति, सा भाप (व) मसत्ता-मापनसवा-स्त्री०। आपन-उत्पन्नः च निशीथ-कल्प-व्यवहारादिषु विस्तरेणाभिहिता । जीता सत्वो-जीवो गर्ने यस्याः सा । शा०१ श्रु०२ १०३७ सूत्र- व्याप्ती, भ०१ श०६ उ०५० सूत्रटी। उद्भूती, विशे०६६ टी०। गर्भिण्या स्त्रियाम् , “ सममापनसत्वाला रेजुरा- गाथाटी। अनिष्टप्रसङ्गे च । स च व्याप्यस्याहार्थ्यारोपात् पारादुरत्विशः" । रघु० । वाच०। व्यापकस्याहार्यारोपः यदि नितिः स्यानि—भः स्यापाप (ब)ति-आपत्ति-स्त्री० । श्रा-पद्-क्लिन् । श्रापदि, दित्यवं रूपः । वाच०। आपच्च-रोगाद्यभिभूतावस्था सम्यग् वर्तनोपायानुपलम्म आप (व)त्तिसुत्त-मापत्तिसूत्र-न० । शिष्यगतप्रतिसवथा वाच०। आपादने, व्य०। आपत्तिः-प्रायश्चित्तस्याऽs- नाद्वारेणापत्रमार्याश्चत्तामिधायिनि सूत्रे, नि००। प्रपादनम् । व्य०१ उ०१ प्रक० १६७ गाथाटी०। प्राप्ती, तिसेवनायां सत्यां प्रागश्चित्तापत्तिः स्यात् इत्यापत्तिसू"संवेगात् समरसापत्या । ८x" आपत्तिश्च प्राप्तिः। षो. प्राण्युच्यन्ते-जे भिक्खू बहुसो मासियं पडिसेवित्ता प्रा६ विव० ८श्लोकटी। लोइजा (१) बहुसो बि, बहुसो, वि बहुसो पंच पडिसेजन भणियमिहयं, तस्सावत्तीए दाणसंखे । वित्ता आलोहज्जा (२) इति प्रत्येकबहुससूत्रम् , जे भिक्खू मासियं वा दो मासियं, तेमासियं, च (३) इत्यादि सकलभिन्माइया य वुच्छं, छम्मासं ताय जपिणं ॥६॥ संयोगसूत्रम् , जे भिक्खू बहुसो मासियं बहुसो दो मा'जे जमिचाइ'। इह जीयववहारे जं जं पच्छित्तं न | सिय बहुसो तेमासियम् (४) इत्यादि बहुस्त्रयोगसूत्रम् , भणियं अबराहमुहिसिऊण तस्सावि श्रावत्तियिसेसेण 1 एतत्सूत्रचतुएय मेतावता अन्थेन सूत्रोपात्तं व्याख्यानम् । दाणसंखवं भणामि । आवत्ती-पायच्छित्तट्टाणसंपत्ती । सा नि चू०२० उ० । श्रावतीए अहिगो दिजाति, नि०.२० य-निसीह-का-ववहाराभिहिया। सुत्तो, अत्थो य ।। उ०५ सूत्र-व्याख्याने । प्राणाप्रणवत्थमिच्छत्तविराहणा सवित्थरा । तवसो य (संपूर्णसूत्रपाठस्त्वेवम् )सो य तबो पणगादी छम्मासपजवसाणो अणेगाऽऽधत्ति- जे भिक्खू बहुसोमासियं परिहारट्ठाणं परिसेवित्ता प्रादाणविरयणालक्खणो तेसु सम्वेसु गंथेसु । इह पुण लोएजा अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं पलिजीयववहारे संखेवेणं प्रावतीदाणं निरूविजह ॥ ६०॥ उचियं आलोएमाणस्स दोमासियं ॥६॥जे भिक्ख मिनो अविसिट्रो श्चिय,मासो चउरो य छच्च लहु-गुरुया। बहसोवि दोमासियं परिहारद्वाणं परिसेवित्ता पालोनिम्वियगाई अट्ठम-भत्तऽन्तं दाणमेएसिं ।। ६१ ॥ एजा अपलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासिभं पलि‘भिन्नो अविसिट्ट' इचाइ । भिन्न' इति-ससमयसन्ना; उचिनं श्रालोएमाणस्स तिमासियं ॥ ७॥ जे भिक्ख पंचवीसं २० दिवसा भिन्नस हेण घेप्पन्ति । सोय अविसिट्ठी एको चेव । अविसिट्रगहणाश्रो य सव्यपणगाई मेया बहसो तिमासिकं परिहारट्ठाणं परिसेवित्ता पालोएञ्जा घेप्पन्ति । पणगं-लहुगं, गुरुगं च, दसगं-लहुगं गुरुगं च; अपलिउंचिअं आलोएमाणस्म तिमासियं पलिउंचियं पारसगं-लहुगं, गुरु च, वीसग-लहुगं, गुरुगं च; पं- पालोएमाणस्स चाउम्मासियं ॥८॥जे भिक्खू बहपीसगं-लहुगं, गुरुगं च । एस भिन्नमासो बहुमेप्रो वि सोवि चाउम्मासियं परिहारंडाणं परिसेवित्ता आलोपको चेव घेण्पद । एसो य सुयवहारो जेसु जेसु अव एजा अपलिउंचियं पालोएमाणस्स चाउम्मासियं पराहसु भणिश्रो तेसु तेसु चेय अबराहेसु जीएण सब्यस्था निधिगई । भित्रो अविसिट्रो च्चिय एवं वस्खाणियं ।। लिउंचियं मालोएमाणस्स पंचमासियं ॥ ॥ जे भिक्ख याणि मासो'ति-सोय लामातो, गुरुमासो या पत्थ' बहुमोवि पंचमासियं परिहारहाणं परिसेवित्ता भालो Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७३) मापत्तिसत्त अभिधानराजेन्द्रः। मापुच्छणा एजा अपलिउंचियं पालोएमाणस्स पंचमासियं पलि-। त्तभरहे वासे बहवे भावाडा णाम चिलाता परिषसंति उचिभं भालोएमाणस्स छम्मासियं तेण परं पलिउंचियं | त्ति" । मा० चू०१० चा अपलिउंचियं वा पालोएमाणस्स ते चेव छम्मासा मापा (वा) य-आपात-पुं० । हठात्-अविवेकात् कारणा॥ १० ॥ नि० चू० २० उ० । म्तरसाचिव्याभावेऽपि आगत्य पातः । अतर्कितागमने, "गाडापातविश्लिष्ट-मेघनादात्रबन्धनः" रघुः "तदानिसीहस्स पच्छिमे उद्देसगेनिधिहमेवा सुत्ता, सब्वे तीसं पातभयात् पथि " कुमा०। आपतत्यत्राधारे घम् । उपक्रमे, सुत्ता तरथ भावत्तिसुत्ता जे दस तेसिं चउरो सुत्तेणेष " आपातरम्या विषयाः पय॑न्तपरितापिनः " किरा० भणिता, इसे अत्यतो छ जाणियब्वा, सं जहा-सातिरेगसुतं " आपातरम्या:-तत्कालरमणीयाः" मल्लि । उपक्रमे च १, बहुसमातिरेगसुतं २, सातिरेगसंजोगसुतं ३, बहु- " मध्यापात इति मनुः । मध्यापातो मधुरोपक्रमः " ससातिरेगसंजोगसुत्तं ४, सबमं सगलस्स सातिरेगस्स कुल्लू । पाच० । “पापातभद्दते " (सूत्र-२५५४) । य संजोगसुतं ५, दसम बासस्स बहुससारेगस्स संजोगे प्रापतनमापातः । प्रथममीलके,। स्था० ४ ठा०१ उ० । सुतं ६, पवं पतेसु दससु श्रावत्तिसुसेसु सणिपसु पते तत्प्रथमतया संसर्गे, भ.।। व विहिणा दस मालोयणासुत्ता भाषियव्वा । नि० तस्स भोयणस्स आवाए भदए भवह तो पच्छा परिचू० २० उ०। इमे अत्थर'ति-प्रों-व्याख्या-भाष्यादिकं तस्मात् षद् णममाणे परिणममाणे दुरूबचाए दुग्गंधचाए जहा महबोजव्यानि. "तं आहे" स्थादि, जे भिक्खू मासारंग स्सवए जाव भुजओ भुजो परिणमई । (सूत्र-३०६+) योमासियमि" (१) स्यादि, सातिरेकसंयोगसूत्रम्-"जे प्रापातः-तत्प्रथमतया संसर्गः। भ० ७ श० १० उ० । भिक्खू बहुसोसातिरेगमासिय, बहुसोसाइरेगदोमासियं प्राभिमुस्येन समवाये, “आवाए सम्यवाण" ॥२६३४॥ (२) इत्यादि । बहुससातिरेकसंयोगसूत्रम् , “जे सर्वेषामपि जीयादिद्रव्याणामापाते-आभिमुख्येन समवाये भिक्खू मासियं सातिरेकमासियं (३)" | "जे भिक्खू दु- निष्पचते इति शेषः। विशे० । अभ्यागमे, अणावायमासियं सातिरेकदुमासियं चे (४) " स्यादि, सकलस्य मसलोए" ( २६६४) । न आपातः-अम्बागमः, स्वसातिरेकस्य च संयोगसूत्रम् , "जे भिक्खू बहुसो मा- पक्षपरपक्षयोर्यस्मिन् स्थगिडले तदनापासः । श्रोघ०।०। सियं बहुसो सातिरेकमासियं च " (५)। “जे भिक्खू "तत्थाऽऽवार्य दुयि" (२६७+)। तत्र-आपातं-स्थगिडलं गहुसो तुमासियं, बहुसो सातिरेकदुमासिय चे " (६) द्विविधम्-द्विप्रकारम् । श्रोधः । वृ०। (अस्य बहुभेदाः श्यादि। बहुससातिरेगस्स य संजोगसुतं इस्येषमापत्ति-| 'डिल' शब्दे चतुथैभागे वक्ष्यते ) "अणावायमसंलोए सूत्राणि दश कथितानि । निवृ०२० २० । चिट्टेजा" (सत्र-२६+)1 अनापाते-विजने, असलोके व भाप (व) य-मापद-वि०। आपदं ददातीत्यापहः । रो- सन्तिष्ठत् । प्राचा०२ धु०१ चू०१ १०५ उ० । प्राप्ती, गादिके, पुरुषादिके च । प्रातु। आपातः-विषयप्राप्तिः पाचू०१०। भाप (पि) खव-आसव-पुं०।बा-प्सु-घ-भावे । पक्ष- प्रापाद-पुं० श्रा-पद-घम् । फललामे, आमतौ च । पादअप् । स्थाने, जलानां सर्वतः समुच्छलने, ल्युट्-श्रामवनं | पर्यन्तम् । अव्यः । पादपर्यन्ते, अन्य० । वाच । तत्रैव । नावाचा खात् ॥ ८।२।२०६॥ इति हैम- आपा (वा) यभय-पापातभद्रक-पुं०। आपातनमापात:प्राकृतसूत्रण लकारात् पूर्वे इकारः। प्रा०। प्रथममीलकस्तत्र भद्रको-भद्रकारी दर्शनाऽऽलापादिना सुभाप (य) सरीरमणवखवत्तिया-भारमशरीरानवका- खकरत्वादापातभद्रकः । प्रथममीलके दर्शनाऽऽलापादिना इन्चाप्रत्यया-सी० । अबवकालाप्रत्ययक्रियाभेदे, स्था। त- सुखकर, स्था० "आवायभइए णाममेगे, णो संवासभदए त्रात्मशरीरानवकालाप्रत्यया सा स्वशरीरक्षतिकारिक- (सूत्र-२५५४ )। स्था०४ ठा०१ उ०। आणि कुर्वतः क्रिया भवति । स्था०२ ठा०१ उ०६० श्रापायावच्च-पाप्राजापत्य-न० । अहोरात्रभवे एकोनविंशसूत्रटी तितमे स्वनामख्याते मुहूर्ते, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । भापहल्लिय-माघृणित-पि० । आधुम्मिय ' शम्दाथै, भापुच्छणा-पाप्रच्छना-खी० । आपृच्छायाः करणमानप्रा०४ पाद। च्छना । पश्चा० १२ विव० २६ गाथाटी०। प्रश्नकरणे, पश्चा० भापा (वा)य (य)-पाक-पुं० । समन्तात्परिवेष्टय १२ विध०२ गाथाटी० । भ० "आपुच्छणा उवाइयं दोहला" गच्यतेऽत्र मा-पन् । प्राधारे घम् । कुम्भकारस्य मृण्मय- (सूत्र-२६+)'मापुच्छण'त्ति-भर्नुरापृच्छा-"इच्छामि गं पात्रपचनस्थाने, वाचा तथा च-"कुंभकाराऽऽवाएर षा तुम्मेहिं अभएनाया" इत्यादिकां । विपा० ८ ० । कवेल्लुवावापा वा हाऽऽयापावा" (सूत्र-५६७+)। पा-मादया तथाविधविनयलक्षणया, अभिविधिना था कुम्भकारस्यापाको-भाण्डपचनस्थानम् , कल्लुकानि प्र- सर्वप्रयोजनाभिव्याप्तिलक्षणेन प्रच्छनं गुरोः प्रश्नकरणमा तौनानि तेषामापाकः प्रतीत एव । स्था०८ ठा०३७० ।। प्रच्छमा । पञ्चा० १२ विव०२ गाथाटी० । सामाचारीभदे, भावे घम् । चित्पाके, सम्यक पाके, पुटपाके च । वाच।। मथ० १०१द्वार ७६८ गाथाटी। सा च कर्तुमभीष्टे कार्य प्र. भाबाज-भावाड-पुं०। स्थनामण्याते चिलातजातो, "उ- समानेन गुरोः काया-भगवन् ! अहमिदं करोमीति । प्रष० Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपुच्छणा 66 (r आपु १०१ द्वार ७७३ गाथाटी० प्रा० चू०| जीत० | ग० । अनु० । "श्रापृच्छा" घ० ३ अधि० । श्रयं भावः यत्कार्य साक्षादाय विशेषप्रयोजनं च तत्र साक्षादाच्छा, यनु मुहुर्मुहः सम्मतिया डुमशक्यं तत्रापि बहुवेलसंदेशकति घ० ३ अधि । 'पुच्छ्वा य सइया " । (२४) । तृतीया श्रपृच्छना यतो हि श्वासांअपरं सर्वे कार्य गुरोः पृचान कार्यम् तस्मादेषा आप्रच्छना । उत्त० २६ अ० । छ सयंकरणे" ( ५+ ) | स्वयम् श्रात्मना कार्याणां करणे गुरोः आपढ़ना कर्मण्या न च गुरी सति स्वचैव गुरुम् अनापृच्छ्य कार्य कर्तव्यमिति भावः । उत्त० २६ श्र० श्राङिति सकलकृत्याभिव्याच्या प्रच्छना, प्रच्छना- इद महं कुर्यान वे त्वेवंरूपा तां स्वयमित्यात्मनः करणं कस्यविविक्षितकारणम्नमिन् उत्त पाई २६ अ० उच्छ्वासनिःश्वासी विहाय सर्वकायपि स्वसंवन्धिषु गुरवः पुण्याः अतः सर्वमपि प्रथमतः प्रच्नमापृच्छेत्युच्यते तथा च निहिता सामान्येनैवाभिहितम्-" श्रपुच्छणा उ करने " ति । उत्त० " । २६० आ० म० । ( २७४ ) अभिधानराजेन्द्रः । आवाह कीर्तितानिष्पादने ततश्व तज्ञानात् गुरोः सकाशात् यत् ज्ञानं तस्मात् सुशानं कार्ये भवति सुशानाच्च प्रतिपत्तिः- सम्यक् क्रियाभ्युपगमः सा च शुभो भावः शेषं तथैव इति गाथार्थः । पञ्चा० १२ विव० । श्रपुच्छा पृच्छा श्री० पृष्ठाला जिशासायाम्, आभाषणे गतागतकाले शुभे, प्रश्ने, श्रनन्दने च । वाच० | “आपुच्छणा य कज्जे" ( ६६७ ) आपृच्छ नमापृच्छा | समाचारीभेदे सा च कर्तुमभीष्टे का प्रयमानेन गुरो: काममिदं करोमीति ० ० ० (पतद्बहुव्यता 'श्रपुच्छा' शब्देऽनुपदमेव गता ) । श्रपुच्छ णिज - श्राप्रच्छनीय त्रि० । पृष्टव्ये भ० १८ श० २ ४० ६१७ सूत्र सकृत्पुच्ये "पुच्हज्जे (सूत्र-७४) आप्रच्छनीयः - सकृद् पृष्टव्यः । शा० १ ० १ ० । अापुच्छिता श्रपृच्छय आपृच्छु पप् जिलाश्रापृच्छय-श्रव्य० । स्यप् सित्वेत्यर्थे, बा० "आता तिसङ्काये" (४४६+)। पृष्यत्यागुरुमिति ००२ | तथा --- उच्छा उ कजे, गुरु गुरुसम्मयस्त या विमा । एवं सु त सेयं जायति सति गिजराहेऊ ।। २६ ।। व्याख्या-आपृच्छायाः करणम् आपृच्छना, तुशब्दः पुनरर्थः, तत आपृच्छना पुनः कार्ये ज्ञानादिसाधने प्रयोजने सति कार्येति शेषः, कस्येत्याह-गुरो रत्नाधिकस्य तत्संमतस्य बा गुरुबहुमतस्य वा स्थविरादेः वाशब्दो विकल्पार्थो, नि. यमात् अवश्यंभावेन, अथ कस्मादेषा विधेयेत्याह एवं '' एवमेव सुर्याद्यापृच्छापूर्वकमित्यर्थः, तत्कार्य श्रेयोऽतिशयेन प्रशस्यं जायते भवति सत्सदा निर्जरानुकम्पका रणमिति कृत्वेति गाथार्थः । अथ कथमापृच्छाविषयभूतं कार्य श्रेयः स्यादित्यतासो विहिना या तस्सा - हम्मि तजागा सुखायति । सत्राणा पडिवती, सुहभावो मंगलं तत्थ || २७ ॥ व्यासेोचितेनुमतो या, विधिज्ञाता चिकीर्षितकार्यस्य वस्त्रधावनादे विधानस्य दात गीतार्थस्यात् ततश्व तरसाधने अहमिदं कार्य करोमीत्यविधिज्ञाद्गुरुनियेने अथ वा-विधिप्रतिपादने सति स हि पृच्छ्यमानो विधित्वाचिकीर्षि कार्यविधि साधयति यथा अच्छा न धुबे धोए पयावं न करे" इत्यादि ' तज्जाण' त्ति-विधिज्ञानं पृष्छुकस्य भवति, ततश्च - ' सुनाये ' ति-" अहो गुरुणा जिनेन या सुष्ठु शांत सफलसश्यानुपघात करन मुमुक्षाश्चापप्राद्दकत्वेन निपुणमिदं दृष्टं नवं दर्शनान्तरीवैरिति एवं विधात् स्वज्ञानात् स्यात् स काशात् प्रतिपत्तिसुंदरेय जिन एप्स इत्येताि भवति सा च शुभभावः - प्रशस्ताध्यवसायों वर्त्तते, सच म विधिपातकं वस्तु तत्र कार्ये प्रवर्तमानस्येति शयः । अथ वा स गुरुः विधिज्ञाता उपायशः तत्साधने चि 1 39 " . " 64 35 " द्वार । आपूविय आपूषिक कर्मशमे उदाहरणमेदे अपूपकर्त्तरि स चामित्याध्यपूपानां दलस्य मान जानाति "पूयइ" १० (सूत्र - ६८x ) नं० । प्रापूरिय आपूरित-न० म्रापूर-क-यस्यापूरणं कृतम् । तस्मिन् पदेवदुद्दिनिनायाऽऽपरियदामंडल "ति श्रा० म० १ ० ३४३ गाथाटी० । अभिव्याप्ते च । वाच० । "पूरियं ( २५१'' पू भूतं चालितमित्यर्थः । विशे० । 99 - .. आपूरिमाण आपूरयत् त्रिपूरणं कुर्यति "संतसे समनापूरेगा" ( सूत्र ) शब्देन तान् प्रत्यासन्नान् संत-समत-विदिषु पूर ति शत्रन्तस्य साविदं रूपम् । रा० । जी० । आपूर्यमाण- त्रि० । श्र - पूर- कर्मणि शानच् । सम्यक पूर्यमाणे, वाच० । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार ११ सूत्रटी० । समवारयते " आपूर्य्यमाणमचलप्रतिष्ठं, समुद्रमापः प्रविशन्ति यत् " गीता आधारे शान सूर्यकिर पूर्यमाणन्द्राधारे पते वाय आफोडिय आस्फोटित ५० करास्फोट, प्रश्न० "फो डिसीनाया" (सू २१४) आस्फोटिते-कास्फोटक " पम् । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । आबबहुल- आपबहुल - काण्डे, स० । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए आप ( ब ) बहुले कण्डे केवतियं बाहल्लेणं पसते, गोयमा ! श्रसीतिजोयसहस्साई वाले पछते (सूत्र ७२) । जी० ३ प्रति० १ ३० । - न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्या अप्बहुले आवाह आबाधन० . बाघमा पीडायाम् तापत्रये क्लेशे च । वाच० मानसपीडायाम् " आवाहे ब 2 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाह अभिधानराजेन्द्रः। भाभास भये वा" (५६६x)| पाबाधं नाम-मानसी पीडा । वृ०१ उ०३ | कृते, "श्राभरणविभूसियाणि वा " ( सूत्र-१४५ + ) । प्रक० । स्त्रीच्ये टाप् । तत्र मनःशरीराबाधकराणि शल्या- श्राचा०२ श्रु०५ १०१ उ०। नि । सुश्रु० नास्ति बाधा यस्य । पीडाशून्पे, त्रि०। चाच०। श्राभव-भव-अव्य० । आजन्मेत्यर्थे, प्रासंसारमित्यर्थे, भाभंकर-भाभकर-पुं० । स्वनामख्याते महाग्रद्दे, सू० प्र० च । " तब्धयणसेवणा श्राभवमखंडा" ॥ ३४॥ तद्वचन२० पाहु. ७ गाथा १०७ सूत्र । कल्प० । चं० प्र०। सेवना-गुरुवचनसेवा, पाभवम्-श्रासंसारम् । पञ्चा०४ दो आभंकरा । (सूत्र-६०+) विव०। श्राभवमखएडा-आजन्म, आसंसारं वा सम्पर्णा । ल।" विसुज्झमाणे श्राभवं भावकिरियमाराहे" (सूत्रस्था०२ ठा० ३ उ० । स्वनामख्याते विमानभेदे च । स० ४४)। श्राभवम्-श्राजन्म, श्रासंसार या भावधियं निर्वा३ सम०३ सूत्र। णसाधकमाराधयति । पं० सू०। भाभरण-आभरण-न० । श्रा-भृ कर्मणि ल्युत् । भूषणे, पाभवंताहिगार-पाभवदधिकार-पुं० । व्यवहारभेदे, पं० स्था०८ ठा०३ उ० । सू० प्र०। श्रा०म०। श्री।' ललि भा०।" पवहारो होइ दुधिहो, पच्छित्ते पाभवंते य" पं० यकयाऽऽभरणे' ( सूत्र-+ )। ललितानि-शोभमानानि भा०१कल्प । व्यवहर्तव्यभेदे च । व्य० । " अाभवते य कृतानि भ्यस्तान्याभरणानि-सारभूषणानि यस्य स तथा । पच्छित्ते, वहरियध्वं समासतो दुविहं" ॥ ५६ + । व्य० तं० । “प्राभरणभूसणधिराइयमंगुबंग" ( सूत्र +) । १० उ०। (श्रामवद्व्यवहारः क्षत्रविषयः उवसंपया.' शब्देपाभरणानि-अङ्गपारधेयानि प्रैवेयककङ्कणादीनि । कल्प० ऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) आभवद्व्यवहाराधिकारे, व्य० । १अधि०२क्षण । “ आभरणहि विभूसिनो " ॥ ६ ॥ प्राभरणः-कुण्डलमुकुटहारादिभिः। उत्त०२२ १०।“धे. भाभवंताऽहिगारे उ, वटुंते तप्पसंगया। चूणाभरणाई" (७२+)। श्राभरणानि-वस्त्राणि । व्य. भाभवंता इमे अप्ले, सुहसीलादि माहिआ ।। ४३७ ।। ५ उ०। "पाण्डयानां सभामध्ये, दुर्योधन उपागतः । तस्मै प्राभवदधिकारे वर्तमाने तत्प्रसाद-भाभवदधिकारप्रगाश्च हिरण्यं च, सर्वारयाभरणानि च" | १ । वाच । श्रा- सङ्गादिमे-बश्यमाणा अन्ये भाभवन्तः-सुखशीलादयस्तु भरणप्रधाने च । “ प्राभरणाणि चा" (सूत्र० १४५ + )। सुखशीलादिप्रयुक्ता श्राख्याताः । व्य०४ उ० । श्राभरणानि-श्राभरणप्रधानानि । प्राचा०२ श्रु०१चू०५ अ०१ उ० । भावे ल्युट् । सम्यक् पोषण च । वाच०। । आभब्ध-आभाव्य-त्रि०। समंताद्भवितुं योग्ये, व्य० । पते ते-अनन्तरोदिताः चिन्हं विमार्गयन्तः सन्तः अभिधारयन्तं भाभरणचित्त-पाभरणचित्र-त्रि० । आभरणैश्चित्राणि | यान्ति-अभिधारयत प्राभाव्या भवन्ति, शेषषु पुनरनभिविचित्राण्याभरणचित्राणि । आभरणैर्विचित्रे, जी०३ प्रतिक धारयत्सु श्राचार्यः-श्रुतगुरुस्वामी भवति । शेषा अन२ उ० १४७ सूत्र। भिधारयन्तः श्रुतगुरोराभाव्या भवन्ति इत्यर्थः । उक्तं चभाभरणजहवाणविविहपरिहाण--श्राभरणयथास्थानवि-1 "जइ ते अभिधारती, पडिन्छने पडिच्छगस्सेव । अह विधपरिधान-न०। आभरणानां यथास्थानं विविधरूपेण | नो अभिधारंती, सुयगुरुपो तो उ अाभवा " ॥ १ ॥ परिधानलक्षणे द्वाषष्टितमे कलाभेदे, करप० १ ० ७ व्य०४ उ०। (अस्थ बहुवक्तव्यता ' चरियापवि? ' शब्द तृतीयभागे ११६४ पृष्ठे वक्ष्यते) क्षण २११ सूत्र। आभा-याभा-खी । प्रा-भा-अङ् । प्रभायाम् , प्रश्न.४ पाभरणप्पिय-श्राभरणप्रिय-पुं० । पुरुषभेदे, पृ०। आश्र० द्वार १५ सूत्रटी०। दीप्तौ, वाचा छायायाम् , जी०३ पाभरणपिए जाणसु,अलंकरिते उ केसमादीणि ।४२५४ प्रति०१ उ०२१४- सूत्र । शोभायाम् , कान्ती, उपमाने, वाचा केशादीनि माल्यादिभिरलङ्कारैरलार्यतः पुरुषान् श्राभ- आभास-श्राभास-पुं०। प्राभासते आ-भास अच् । उपारणप्रियान् जानीहि । वृ० १ उ० ३ प्रक० । धितुल्यतया भासमान प्रतिविम्बे, दुएहत्वादी, चाच. । पाभरणविचित्त-आभरणविचित्र-त्रि० । श्राभरणविभूषिते, | "प्रमाणस्य स्वरूपादि चतुष्पयाद्विपरीतं नदाभासम्" इति प्राचा० । "प्राभरणविचित्तानि घा" (सूत्र-१४५४)। भाभ- | ॥२३॥(रक्षा०) तद्वदाभासते इति । रत्ना०६ परिका(अस्यसूत्ररणविचित्राणि-गिरिविडकादिविभूषितानि । प्राचा० २ | स्यार्थः ‘पमाणाभास' शब्दे पश्चमभागे विस्तरतो बयते) श्रु०१ चू०५०१ उ०। (हेत्वाभासाश्व पञ्चधा) भाषा. “सव्याभिचारविरुद्धभाभरणविधि भाभरणविधि -पुं० । पाभरणं-कटकादि | प्रकरणमसाध्यसमातीतकाला हेत्वाभासाः" गीतमसूत्र। तस्य विधिः-भेदाः प्राभरणविधिः। श्राभरणप्रकारेषु, पृ. पक्ष सत्यसपक्षसत्वविपक्षासत्वाबाधितत्वासत्प्रतिपक्षत्वोप१उ०३ प्रक० ३२६ गाथा । कलाभेद, निच० उ०६४ पन्नो हेतुर्गमकः स इयाभासत इति हेत्वाभासस्तेन तद्भिगाथा । स० । शा० । जं० । “ आभरणविहिपरिमाणं क. प्रत्ये सति तद्धर्मवत्वम् पञ्चरूपोपपन्नत्वाभाचे सति तरेह" उपा०१०। ( सूत्रम्-' आणंद ' शब्नेऽस्मिन्नेय पेग्णाभासमानत्वं हेत्वाभासत्वमिति फलितार्थः "हेत्वाभा साश्च यथोक्काः" गौ० सूत्र० । एवं प्रमाणाभासो युक्तधाभागे गतम्) भास पागमाभास इत्यादावपि प्रामाण्याचभावयस्वे सति भाभरणविभूसिय-आभरणविभूषित-त्रि० । प्राभरणालं- प्रमाणादिरूपेणाभासमानत्यमर्थः । “एवं बहयो विप्रतिपमा Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभास अभिधानराजेन्द्रः। माभियोगता युक्तिवाक्यतदाभाससमाश्रयाः सन्तः" ॥ शा० भा० ॥ तथा अथ फलाभासमाहवयवाचकपदोत्तरमाभासशब्दः प्रयुज्यते तस्य तुष्टत्वं तेन अभिन्नमेव भिन्नमेव वा प्रमाणात्फलं तस्य तदाभासगम्यते । रसाऽऽभासादावपि तिर्यग्योन्यादिगतत्वेन परना मिति || ८७॥ यकगतत्वेन च दुएत्यासाऽभासत्वम् । पुनरुक्तयदाभासादी अभिनमेव प्रमाणात्फलं बौद्धानां, भिम्नमेव मैयायिकाच न दुष्टत्वम् , किन्तु-पुनरुक्तभिन्नत्वेनाऽऽभासमानत्वात् दीनां, तस्य प्रमाणस्य तदाभासं फलाऽऽभासं यथा फलस्य वस्तुतोऽपुनरुतत्वमेव गम्यते इत्येव तत्र विशेषः । “ रस्यत भेदाभेदैकान्तावकान्तावेव तथा सूत्रत एवं प्रागुपपादितइति रस इति व्युत्पत्तिदर्शनात् भावतदाभासादयोऽपि गृह्य मिति । रत्ना० ६ परि० । ( नयाभासस्वरूपभेदा न्ते" । सा०३०॥ तत्र रसाऽऽभासः “मधुद्धिरेफः कुसुमै बहवः, ते च ‘णया 55भास' शब्ने चतुर्थभाग दर्शयिष्यन्ते) कपात्रे" इत्यादि । “अत्र हि सम्भोगङ्गारस्य तिर्य आभासिय-प्राभाषिक-पुं० । म्लेच्छजातिभेदे, प्रशा०१ पद । विषयत्वासाsभासत्वम्" । सा०६० । "आपाततो यदर्थस्य पुनरुकावभासमानम् । पुनरुक्रवदाभासः " दाभा, प्रश्न । ॥ सा० १०॥ भाये घञ् । ३ तुल्यप्रकाशे, आभास्यते प्राभाषित-त्रि० । परस्परकथिते, नि.श्रु० ३ वर्ग ३ अ० ऽनेन मा-भास-णिच् करणे अच् । प्रस्थावतारणार्थ प्रस्था- प्राभासिय-माभापि (सि) क-पुं० । आभाषि (सि) कढीभिप्रायवर्णने ग्याख्यानांशभेदे च । पाच० । ( प्रत्यक्षा पज मनुष्ये, जी० ३ प्रति० ३ अधि०१ उ० । स्था० । प्र55भासं 'पशवाऽभास' शब्दे पश्चमभागे वक्ष्यते) (प्र- म्तरद्वीपिकमनुष्यनीभेदे च । टाप् । जी० २ प्रति त्यभिज्ञाऽऽभासम् ‘पञ्चभिमाssभास' शम्ने पञ्चमभाग दर्श आभासियदीव-आभाषि (सि) कद्वीप-पुं० । अन्तरद्वीपभेदे, यिष्यामि) (तांभासम् 'तक्काऽऽभास' शब्ने चतुर्थभागे दर्श प्रशासच हिमवतः पर्वतस्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वयिष्यामि) (पक्षाऽऽभासम् 'पक्खाभास' शब्ने पञ्चमभागे निरूपयिष्यामि । अस्य बहवः प्रकारास्तान् तत्रैव स्यां दिशि त्रीणि योननशतानि लवणसमुद्रमवगाध द्विती यदंष्ट्राया उपरि एकोरुकद्वीपप्रमाण आभासिकनामा वर्शयिष्यामि) (हेत्याssभासखरूपं तदाश्च उप्राभास' शब्दे सप्तमे भागे द्रष्टव्याः) (द्रष्टान्ताऽभासाः 'विट्ठन्ता द्वीपो धर्तते । प्रज्ञा० १ पद । कर्म । स्था० । नं० । भास' शब्ने चतुर्थे भागे बिस्तरतो विलोकनीयाः) ( उप- कहिणं भंते ! दाहिणिलाणं आभासियमणुयाणं श्रामयाभासस्वरूपम् ' उवणयाभास ' शम्मेऽस्मिन्नेव भासियदीवे नाम दीवे पत्ते ? । सूत्र (१११४)जी. ३ भाग द्रष्टव्यम्) (निगमनाभासः 'णिगमण' शब्बे चतु. | प्रति० ३ अधि० १ उ०। ( ' अंतरदीव ' शब्दे प्रथमभाग वर्शयिष्यमाणः ) (भागमाऽऽभासः 'भागमा35शम्नेऽस्मिन्नेव भागे दर्शितः) भागे ९५ पृष्ठे संपूर्ण सूत्रं गतम् ।) आभासी-आभाषी-स्त्री० । आभाषि (सि) कंहीपजे, मनु. संप्रति संख्याऽऽभासमाण्यान्ति व्यस्त्रीमदे, जी० ३ प्रति० ३ अधि० १ उ० ११२ सूत्र । प्रत्यक्षमेचैकं प्रमाणमित्यादिसंख्यानं तस्य संख्याऽऽ-श्रामित्रोग-प्राभियोग्य-पुं० । श्रा-समन्ताद् युज्यन्ते-प्रेमासमिति ॥ ८५॥ ज्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः। ३ अधि०१ प्रत्यक्षपरोक्षभेदाद्धि प्रमाणस्य द्वैविध्यमुक्तम् । तद्वैपरीत्पेन श्लोक । अभियोग-व्यापारणमहन्तीत्याभियोग्याः स्था०४ प्रत्यक्षमेव, प्रत्यक्षानुमाने एव , प्रत्यक्षानुमानागमा एव | ठा०४ उ० । भा-समन्तात् श्राभिमुस्येन युज्यन्ते-प्रेष्यकप्रमाणमित्यादिकं चार्वाकवैशेषिकसौगतसांख्यादितीर्था मसु व्यापार्यन्त इत्याभियोग्या भाभियोगिकाः । रा०। स्तरीयाणां संख्यान, तस्य प्रमाणस्य संख्याभासम् ।। किंकरे, किंकरस्थानीये देवविशेष च । स्था०४ ठा०४ उ० । प्रमाणसंख्याभ्युपगमश्च परेषामितोऽवसेयः रा० । “श्राभियोगाणं देवाणं अंतिए एयम, सोचा" (सूत्र- +) रा०। अभिमुखं कर्मणि युज्यते-व्यापार्वते "चाकोऽध्यक्षमेकं सुगतकणभुजौ सानुमानं सशाब्द, इत्याभियोग्यस्तस्य भावः कर्म वा श्राभियोग्यम् । व्यञ्जनात सदद्वैतं पारमर्षः सहितमुपमया तत् त्रयं चाऽक्षपादः । पश्चमान्तस्थायाः सरूप वा" ॥१।३।४७॥ इत्येकयकारअर्थाऽऽपस्या प्रभाकृद्वदति च निखिलं मन्यते भट्ट एतत् । स्य लोपः। जी. ३ प्रति०४ अधि०२ उ०१४७ सूत्रटी। साभावं हे प्रमाणे जिनपतिसमये स्पष्टतोऽस्पष्टतश्च ॥१॥"। अमियोग श्राक्षाप्रदानल क्षणोऽस्यास्तीत्यामियोगी तद्भावः अथ विषयाऽभास प्रकाशयम्ति श्राभियोग्यम् । दश अ०२ उ० । कर्मकरभावे, दश ६ अ०२ उ०१० गाथा । कर्मकरकर्मणि च। जी०३ प्रति०४ सामान्यमेव, विशेष एव, तद् द्वयं वा स्वतन्त्रमित्या अधि०२ उ०१४७ सूत्रटी।'आभिप्रोगमुवट्टिया'। श्रादिस्तस्य विषयाऽऽभासः इति ॥८६॥ मियोग्यं कर्मकरभावमित्यर्थः, उपस्थिताः-प्राप्ताः। दश १ सामान्यमा सत्ताद्वैतवादिनो, विशेषमात्रं सौगतस्य, अ०२ उ०५ गाधाटी। हदुमयं च स्वतन्त्रं नैयायिकादेरित्यादिरेकान्तस्तस्य प्रमा- | श्राभियोगता-भाभियोग्यता-स्त्री०। अभियोग-व्यापारमसस्य विषयाऽऽभासः । श्रादिशब्दानित्यमेयाऽनित्यमेय महन्तीत्याभियोग्या:-किंकरदेवविशेपास्तद्धावस्तत्ता। किंसवयं पा परस्परमिरपेक्षमित्यायेकान्तपरिग्रहः । करस्थानीयदेषविशेषत्वे, स्था० । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७७) भाभियोगता अभिधानराजेन्द्रः। माभिग्गहिय तत्कारणं दर्शितं यथा एवं प्राणाराहण-जोगामो भाभियोगियक्खभो ति चउहि ठाणेहि जीवा प्राभिभोगत्ताए कम्मं पगरेंति ।। ॥७॥ तं जहा-मणुकोसेणं, परपरिवाएणं, भृहकम्मेणं को- एवम्-उक्तविषयेणच्छाकारप्रयोगविधिना प्रामाराधनयोउयकरणणं । ( सूत्र-३४५ +) गाद्-श्राप्तोपदेशपालनसम्बन्धात् : पराभियोगपरमार्थात् अभियोगः प्रयोजनमस्येत्याभियोगिकं-परतन्त्रताफलं कर्म अभियोग-व्यापारणमहन्तीत्याभियोग्याः-किङ्करदेवषिशे तस्य क्षयो-बिनाश आभियोगिकक्षयो भवति । पञ्चा० पास्तदाबस्तत्ता तस्यै तया घेति मात्मोत्कर्षेण-प्रारमगुणा १२ विवः । भिमानेन, परपरिवादेन-परदोषपरिकीर्तनेन, भूतिकर्मणाज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन, कौतुककरणेन-सौ. भाभियोगियभावणा-पाभियोगिकभावना-स्त्री० । माभाग्यादिनिमित्तं; परस्तपनकादिकरणेनेति, इयमध्येवम समन्तात् युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोन्यत्र-“ कोउयभूईकम्मे, पसिणपसिणे निमित्तमाजीवी । ग्याः, किंकरस्थानीया देवविशेषाः, तेषामियमाभियोगिकी। बहिरससायगरुनो, अभिजोगं भाषणं कुणह" ॥ १ ॥ ध० ३ अधि०८१ श्लोक । सैथ भावना-भाभियोगिकइति । स्था० ४ ठा०४ उ०। भावना । भावनामेदे, ग०। (अस्याः भाषमायाः स्वरूप 'भावणा' शब्दे पञ्चमे भागे वक्ष्यते)। भाभियोगपत्ति-माभियोगप्रज्ञप्ति-स्त्री० । विद्याधरसम्ब "मंता जोगं काउं, भूकम्मं च जे पउंअंति। म्धिनि विद्याभेदे, “ संकामणि(अप्राभिश्रोगपराणलिगम सायरसइहिउं, अभिप्रोगं भावणं कुण॥२॥" ग्पीचभणीसु य बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्मयजस" (सूत्र-१२२)। शा०१ ध्रु०१६ १०। (अस्या व्याख्या)-मन्त्राणामायोगो-व्यापारो मन्त्रयोगस्त म, यदि वा-मन्त्राश्च योगश्च तथाविधद्रव्यसंयोगाः । सूत्रभाभियोगि। न)-प्राभियोगिन-पुं० । अभियोग-पाक्षा स्वान्मन्त्रयोगं तत् कृत्वा-विधाय, व्यापार्य का,भूत्या-भस्मप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्याभियोगी। कर्मकरे. दश० १ ०। ना उपलक्षणत्वाम्मृदा सूत्रेण कर्मरक्षार्थ वसत्यादिपरिवेष्टनं माभियोगिय-आभियोगिक-पुं० । प्राभिमुख्येन योजनम्- भूतिकर्म चशदात्-कौतुकादि च यः प्रयुझे किमर्थे सातअभियोगः प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वम् । अभियोगेन सुम्ब रसा माधुर्यादयः शुद्धिः-उपकरणादिसंपत् पते हैजीवन्तीत्याभियोगिकाः, "चेतनादेर्जीवति " । इकए तयो यस्मिन् प्रयोजने तत्सातरसर्धिहेतुको भाषः सातार्थ प्रत्ययः । कर्मकरे, रा०। “श्राभिश्रोगिएहि " (सूत्र मन्त्रयोगादि प्रयु एवमाभियोगी भावनां करोति, रह च सातादिहेतोरभिधानं निस्पृहस्याऽपवादत एतत् प्रयोगःप्र२४ + ) । भाभियोगः-पारवश्यं प्रयोजनं येषां ते श्रा त्युत गुणः इति ल्यापनार्थम् । ग०२ अधि०८२ गाथारी। मियोगिकाः । विपा०१ श्रु. २० । अभियोगः प्रयोजनमस्पेस्याभियोगिकम् । परतन्त्रताफले कर्मणि, प (आभियोगिकीभावनाफलम् )मा० १२ विव०७ गाथा। विद्यामन्त्रादौ च । “ आभि- एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो प्राभित्रोगियं बंधह। प्रोगेहि य आभियोगिता" (सूत्र-१४४)। अभियोगश्च | वीयं गारवरहिनो, कुव्वं पाराहगत्तं च ॥ ४८४ ।। धा। (सच' अभियोग ' शब्दे प्रथमभागे बिस्तरतः प्रतिपादितः) विपा०१६०२०। पराभिभवहेतो, चू वृ०१ उ. २ प्रक०। दिक च । “ प्राभिोगिए या " ( सूत्र-tt x ) ।। (अस्याः गाथायाः व्याख्या 'अभिभोगी' शब्दे प्रथम'प्राभिभोगिए' ति-पराभिभवहेतुरिति । शा०१ श्रु०१४ भागे गता) माअभियोजनमभियोगः प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यमाणत्य- भाभिग्गहिय-प्राभिग्रहिक-त्रि०। अभिगृह्यत इत्यभिग्रहः मिति भावः । अभियोगे नियुक्ता भाभियोगिकाः । देव अभिप्रहेण निर्वृत्त भाभिप्रहिक:-कायोत्सर्गस्तव्यतिरेविशेषे, “भाभिमोगिए देवे सहावेति, प्राभिोगिए देवे कात्तस्क प्याभिहिकः। अभिग्रहनिवृत्ते कायोत्सर्गादो, सहावेत्ता एवं पयासी" (सूत्र-१४१ +) | भाभियो अभिग्रहनिर्वृत्तकायोत्सर्गादिकारिणि च । प्राय।" उगिकान् देवान् शनायन्ते-आकारयन्ति शम्पाययित्वा च स्सासं न निरंभइ, भाभिग्गहिरो वि किमुभ चिट्ठामो " तानेवमेवादिषुः । जी०३ प्रति०४ अधि०२ उ०। रा०। ॥ १५१०४ ॥ ऊर्य प्रबलः श्वास उच्छासःतं 'न निरंभा' प्राभिभोगिय-माभियोगित-त्रि० । वशीकरणयन्त्रमन्त्रा- सिं-न निरुणद्धि, 'आभिग्गहिमो वि' अभिगृह्यत इस्यभिसंस्कृते, माघ । “प्राभिोगिए गहिए"। ७३ + ॥ भिग्रहः अभिप्रहेण निवृत्त प्राभिनहिकः-कायोत्सर्गस्तनभाभियोगिते-घशीकरणाय मन्त्राभिसंस्कृते गृहीते सति । व्यतिरेकास्कीप्याभिहिको मान्यते, असायच्याऽभिन हिककायोत्सर्गकार्यपौत्यर्थः । किमुत बेट्टानो' सिभाष०४०। किं पुनश-कायोत्सर्गकारी स तु सुतरां म निरुणखीमाभिभोगियक्खय-भाभियोगिकक्षय-पुं० । अभियोगः स्यर्थः । भाष०५५०। अभिग्रहः-चैत्यपूजनमकत्वा मया प्रयोजनमस्येत्याभियोगिकम्-परतन्त्रताफलं कर्म तस्य | म भोक्तव्यं म वा स्वप्तब्यमित्यादिरूपो नियमः-प्रयोजनक्षयो-विनाश भाभियोगिकक्षयः । परतन्त्रताफलकर्मणो | मस्येत्याभिप्रहिकः । अभिग्रहप्रयोजनके सपञ्चा.. विनाश, पश्चा। | विष०८ गावाटी । जिनकहितकादी, पुं० । भाभिग्रहि ७. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिग्गहिय को जनकपिकादिः ०१०२०१ ३०१४ माथाडी० । अभिग्गाहियकाल अभिग्रहिककाल पुं० [अभिय पूजनमकृत्वा मया न भोक्तव्यं न वा स्वप्तव्यमित्यादिरूपो नियम: प्रयोजनमस्येत्याभिग्रहिकः स चासौ काल श्राभिग्रहिककालः | अभिप्रयोजन के काले, पञ्चा० । तासिं विरोहेणं, अभिग्गहि इहं मत्रो कालो । तत्थावोच्छिणो जं, णिचं तकरणभावो ति ॥ ८ ॥ पञ्चा० ४ विव० । ( श्रभिग्रहिककालस्य व्याख्या 'चेइय' शब्दे तृतीयभाये करिष्यते। ) माभिग्गहियमिच्छन- अभिग्रहिकमिध्यात्व-२० मिथ्यास्वमेवाभिप्रदिकं पाणिनां स्वशास्त्रनियन्त्रितविवेकालोकानां परपद्मप्रतिक्षेपक्षाणां जैमानां वम्मी 1 या परीक्षापूर्व तस्पमाकलय्य स्वागतार्थ - हवानानां परपक्ष नाभिहित्यम् स्वशास्त्रनियन्त्रितत्वाद्विवैकालोकस्य । यस्तु नास्ना जैनोऽपि स्वकुलाचारेणैवागमपरीक्षां बाधते तस्याभिग्रहि कल्पमेय, सम्यग्रहोपरीक्षित पक्षपातित्यागात्तदुकं हरिभद्रसूरिभिः पक्षपात न मे वीरेन कपिला दिषु युक्रिम पस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १ ॥ " इति गीतार्थनिश्रितानां माषतुषादिकल्पानां तु प्रशापाटवाभावाद्विवेकरहितानामपि गुणवत्पारतन्त्र्यान्न दोष इति भाषः । तच्च नास्त्यात्मेत्यादिविकल्पः पधिम्। ध० २ अधि० २२ श्लोकडी० । (२७८) अभिधानराजेन्द्रः । आभिणियोहिपणास अभिनियोधिकज्ञान न०पानिपतोऽरूपत्वाद् बोधःसं भनिबोधः स एव स्पार्थिके कत्ययोपादानादामि freोधिकम् ज्ञातिशयते अनेनेति वा ज्ञानम् आमिनिबोधिक तज्ज्ञानं चेत्याभिनिवोधिकज्ञानम् इन्द्रियाननिमित्त बोध इति ज्ञानभेदेभ०० २०३१ सूत्रटी० | स्था० । विषय सूचना (१) अभिनियोधिकज्ञानरादन्युत्पत्तिः । (२) मेरा नियोधिनस्थ (३) अवप्रहाचा ( प ) धारणानां स्वरूपम् । (४) अवग्रहप्ररूपणा । (५) महादीनां क्रमोपन्यासे प्रयोजनम् । (६) अवग्रहस्य मलकदृष्टान्तेन प्ररूपणा | (७) अधिनिधिकम् । (८) बहुतरभेदत्वं मतेः । (६) अथादीनां संशयादित्यपोहः । (१०) मिनिकधितः कालो भावतः । ( ११ ) श्रवग्रहादीनां कालमानम् । (१२) द्वादीनां संहादीनां विनियोधि (१३) पद्मरूपतामिनिनियोधिकज्ञानस्य रू पणम् । अभिषियिणाच (१) श्रभिनिबोधिकज्ञानशब्दव्युत्पत्तिःअभि इति श्रभिमुख्ये, नीति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखो वस्तु योग्यदेशाखामा नियमनः समाधित्य स्वरूपविषयापेक्षी बोधनं बोधः अभिनिबोधः स एवाऽभिनियोधिकम् । ("विनयादिभ्यः" || ७|२| १६६॥ इति) विनयादेशक गणत्वादिकण्प्रत्ययः, अभिनिबुध्यत इत्यभिनिबोध इति कर्त्तरि लिहादि (५ । १ । ५० ) त्वादच् वा, बद्वा अभिनियुध्यते श्रात्मना स इत्यभिनिबोध इति कर्मणि घन् स एवाभिनियोधिकमिति तथैव भिनियोधि चाभिनियोधिज्ञानम् कर्म० १ कर्म० अभिनियो वा भवं तेन निर्वृत्तं तन्मयं वा तत्प्रयोजनं वेत्याभिनियोधिकम्, अभिनिवुध्यते वा तत् कर्मभूतमित्याभिनिबोधिकम्, अयग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव तस्य स्वसंविद मेदोपचारादित्यर्थः अभिनय या घनेनास्मादस्मि 3 1 त्याभिनियोधिकम् सावरकर्मक्षयोपशम इति मावार्थः । आत्मैव या अभिनिषधोपयोगपरामानस्यत्वादमिनिपत याभिनियोधिकम् तच तज्ज्ञानं बेयाभिनिबोधिकज्ञानमिति । स्था० ५ ठा० ३ उ० ४६३ सूत्रटी० अभिमुखम् योग्यदेशावस्थितं नियतमर्थमिन्द्रयमनोद्वारेणात्मा येन परिणामविशेषेणावबुध्यते स परिणामविशेष ज्ञानापरपर्यायः आभिनियोधिकम् आ० म० १ श्र० १ गाथाटी० । अर्थाभिमुखो नियतः - प्रतिनियतस्त्ररूपो बोध-बोधविशेषोऽभिनिषोधः अभिनिबोध एवाऽऽभिनियोधिकम अनिनियोधशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् विनय ७२ १६६ ॥ इत्यनेन स्वार्थे इकण् प्रत्ययः । " अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानि " इति वचनात्तत्र नपुंसकता, यथा विनय एव वैनयिकमित्यत्र, श्रथ वा श्रभिनिबुध्यते श्रस्मादस्मिम्येति अभिनिबोधः तदावरकोपले निर्वृतमाभिनिबोधकम् तच तज्ज्ञानं वामिनिष धिकज्ञानम् स च इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यप्रदेशावतिवस्तुविषयः स्फुट प्रतिभासो घोषविशेषथेः । प्रज्ञा० २६ पद ३१३ सूत्रटी० । श्रभीत्याभिमुख्ये, नीति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखो वस्तुयोग्य देशावस्थानापेक्षी नियत इन्द्रियाराधित्य स्वस्वविषणी बोधोऽभिनि योधः इति भावसाधनः स्थार्थिकतडितोत्पादास पयाभिनिबोधिकम्, अभिनिबुध्यते श्रात्मना स इत्यभिनिबांध इति कर्मसाधनो या, अभिनियुध्यते वरवसायित्यभिनिबोध इति कर्तुसाधनो या, व एवाभिनियोधिकमिति तथैव भिनियोधिनं चाभिनियोधिकज्ञानम् इन्द्रियपञ्चकमनोनिमस बोध इत्यर्थः । अनु० १ सूत्र अभिनिवोधिकशानदायें दर्शा - - 1 r अत्थाभिमुनियो, बोहो जो सो मो अभिनिबोहो । सोचेवाऽभिनिबोहिय-महव जहाजोगमाउञ्जं ॥ ८० ॥ बोधनं बोधः ' ॠ' गतौ, अर्यते गम्यते; ज्ञायत इत्यर्थः, तस्याभिमुखस्तद्ग्रहणप्रवणः - अर्थबलाया तत्वेन तथान्तरीयोद्भव इत्यर्थः अपम मिशब्दस्यायों दर्शितः एवंभूतध बोधः क्षयोपशमापादये निश्चयात्मकोऽपि स्यात , Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणियोहियषाण निपतो निश्चित इति निविशिष्यते रसायन रूपमेवेदम् इत्येव धारणात्मक इत्यर्थः । उक्कं च " एवमचोप निश्वितमयगृहात कार्य "अन्य थावग्रहका भूत पायोऽपि निश्वयात्मको न स्यादिति भावः । श्राह ननु नियतोऽर्थाभिमुख एव भवति ततो नियतत्वविशेषणमेवास्तु किमाभिमुखविशेषणेन ? । तदयुक्रं द्विचन्द्रशानस्य तैमिरिकं प्रति तत्सत्यपर्धाभिमुख्याभावादिति । एवं च सति अर्थाभिमुखो नियतो यो बोधः स तीर्थकर नाममिनियधो मतः-भिप्रेतः ।' सो चेवाभिणिबोहियमिति ' स एवा श्रभिनिबोध एवाभिनिवोधिकं विनयादिपाठादभिनिबोधशब्दस्य विनयादिभ्यष्ठक् " ( पा०-५ । ४ । ३४ ) इत्यनेन स्वार्थ ठेक्यो यथा विनय एष धर्नाविकमिति ! 'अब जहाजमा तिने स्वार्थिकप्रत्ययविधीते कंतु-पथायोगं यथासंवन्धमा योजनीयम् घटमानसंबन्धानुसारेण स्वयमेव वक्तव्यमित्यर्थः, तद्यथाअभिमुखे नियते बोधे भयम् अभिनियोधि पा निर्वृतं तम्मर्थ था, तत्प्रयोजनं या आभिनियोधिकं तच तज्ज्ञानं च अभिनिवोधिकज्ञानम् । इति गाथार्थः । तदेवमाभिनिबोधिकशब्दवाच्यं ज्ञानमुक्तम् । अथ वा-ज्ञानं क्षयोपशमः आत्मा वा तद्वाच्य इति दर्शयन्नाह - " " तं तेण ततमिव सो वाऽऽभिनिबुज्झए तथो वा तं ॥ ८१ ॥ 1 ''ति-निमुन निश्चितत्वेन असंवेद श्रात्मा तदित्यभिनिबोधः - श्रवग्रहादिज्ञानं, स एवाभिनिबोधिकम् अथवा श्रारमा प्रस्तुत क्षयोपशमेन या करवभूतेन घटादिवमिति स्माद्या प्रकृतज्ञानात् पोपशमाद पाि तस्मिन्ाधिकृताने योपशमे वा सत्यभिनिष्यते श्रवगच्छतीत्यभिनिबोधः- ज्ञानं क्षयोपशमो वा ।' सो वा निझिरसिया अभिनिवुध्यते यस्तु-अवग नीति अभिनिबोधः अलापारमैय ज्ञानानिनीः कथं चिदव्यतिरेकादिति । स एवाभिनिवोधिकम् 'तम्रो या तमिति न केवलं ' प्रस्थाभिमुद्दो नियओ' इत्यादिव्युत्पश्या ग्राभिनिबोधिकमुक्लं; किन्तु यतः - 'तं ते तो तमित्यादित्यस्यम्वरमस्ति ततोऽपि कारणादा मिनिवोधिकमुध्यत इत्यर्थः नन्यात्मोपमपरामि नियोधिपरले हानेन सह कपे समानाधिकर खुता स्यात् ? । सत्यं, किं तु ज्ञानस्यात्माश्रयत्वात् क्षयपशमस्य च ज्ञानकारणत्वादुपचारतो ऽत्रापि पक्षे श्राभिनिदिने वर्तते तवामिनियधिकं च तज्ज्ञानं चानिनियोधनमिति समानाधिकरसमासः दोषविशेष। आभिणियोहिपणाच (२७६) अभिधानराजेन्द्रः । प्रत्यक्षम् इन्द्रियविषयका यदर्थमूहित्य निर्दिशति निषपुरस्सरं ते भूत अर्थ इति तदर्थे प्रति श्रभिमुखं यथार्थविषयमाभिनियोधिकं न विपरीतं नाऽनर्थाभिमुखं तस्य यथार्थतया मिश्यारूपत्वात् तच्च द्विधा- इन्द्रियनिधितम् अनिन्द्रियनिश्रितं च । वृ० १ उ० १ प्रक० । (२) अनिनियोधिकज्ञानभेदाः- 9 श्रभिनिबोधिक ज्ञानस्य स्वरूपं परोक्षं ज्ञानमधिकृत्यपच्च परोक्खं वा, जं अर्थ ऊहिऊ निद्दिसह । वं होइ अभिणिबोहं, अभिमुहमत्थं न विवरीयं || ३६ || १-" उरयेकः " ॥ इत्यनेन ठस्य इकाऽऽदेशः । जत्थ श्राभिणिबोहियणाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुानाणं तत्थाऽऽभिविहिणार्थ, दो वियाई श्रमगवाई तह त्रिपुरा इत्थ आयरिया नागचंप पर्यति अभिभई चि अभिविदिवं सुि सुयं । (सूत्र - २४x ) 9 'यंत्र' पुरुषे श्रभिनिबोधिकं ज्ञानं तत्रैव श्रुतज्ञानमपि तथा पत्र भूतानं तत्रैवाभिनिथे चिकसानम् ग्राहयत्राभिनियोधिकज्ञानं तत्र तज्ञानमित्युक्ते यत्र श्रुतज्ञानं तत्राभिनिबोधिकज्ञानमिति गम्यत एव ततः किमनेनोलनेति ?, उच्यते, नियमतो न गम्यते, ततो नियमावधारसार्थइत्यदोषः नियमावधारणमेव स्पष्टयति-द्वे अप्येते- श्राभिनिबोधिकधुते अन्योऽन्यानुगते - परस्परप्रतिबद्धे, स्यादेतद्-अनयोर्यदि परस्परमनुगमस्तर्हि अभेद एव प्राप्नोति कथं भेदेन व्यवहारः १ तत श्राह 'तह वी ' त्यादि, तथापि - परस्परमनुगमेऽपि पुनरत्र - श्राभिनियोचिकोराचार्याः पूर्वसूनानारूपयति कथमिति चेत् उत्व परस्परमनुम तयोरपि मेरा दो यथेकाकाशस्थ धमकाया उधमस्तिकाययोः तथाहि धर्माधर्मास्तिकायी परस्पर लोलीमा येस्माकारादेशे ध्यस्थिती, तथापि योगतिपरिणामपरिणत योर्जीवपुलयोर्गत्युपष्टम्भ हेतुर्जलमिव म त्स्यस्य स खलु धर्माऽस्तिकायो, यः पुनः स्थिति परिणामपरिणतयो जीवपुद्गलयोरेव स्थित्युपष्टम्भ हेतुः क्षितिरिव झषस्य स खलु अधर्मास्तिकाय इति लक्षणभेदाद्भेदो भयति एयमाभिनिबधिको लक्षणमेवेदि तस्य सक्षमेमेय दर्शयति-अमिनित्यादि अभिमुखं योग्यदेशेनमिन्द्रियमनोद्वारे बुध्यते परति आत्मा न परिमादिशेषे म परिणामविशेषज्ञानापरपर्याय अनिनिधि तथा गोति-वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थ परिच्छिनत्यात्मा येन परिणामविशेषेण स परिसामविशेषः श्रुतम् । नं० (घुतज्ञानस्य सर्वावस्पता 'सु' शब्दे सप्तने मागे करिष्यने) से किं से आभिनिवोहियना १ अभिशिबोहियनाथ विहं सं सं जदा सुनिस्यिं च अस्सुपनिस्तिर्य सूत्र २६+ ) 'से किं तं इत्यादि श्रथ किं तद् ? श्रभिनिबोधिकशानं, सूरिराह-अभिनिबोधिकज्ञानं द्विविध प्रज्ञप्तं तद्यथा श्रुत निश्चिते अनितिं तत्र शास्त्रपरि उत्पादकाले शास्त्रार्थयनमनश्व जायते म " Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) अभिधानराजेन्द्रः । आभिणिबोहियाण विज्ञानं तत् तावत्पुनः सर्वथा शासंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथाअवस्थित वस्तुसंस्पर्श मतिज्ञानम् उपजायते तत् श्रुतनिभितम् श्रौत्पत्ति क्यादि, तथा वाह भाष्यकृत् 'पुसुयपरिकमिय-सुपाई । नियिमिव पुरा, अस्यिं महच ॥१६६॥ (अस्या विशेषाय श्यकभाष्यगाथायाः विस्तरतो व्याख्या 'साख' शब्दे चतुर्थभागे १६५६ पृष्ठे करिष्यते ) आह-पतिपादिकमप्ययमहादिरूपमेव तत् कोमयोविंशेष उच्यते महादिरूपमेव परं शाखानुसार मन्तरेोत्पद्यते इति मेनोपन्यस्तम्स्वात् प्रथममथुतनिश्चितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह से किं तं अस्यनिस्सियं है, अस्यनिस्सियं चम्पई तं तं जहा "उष्पत्तिया, वेश्या, कम्मया, पारिणामिया । बुद्धी चउत्रिहा बुत्ता, पंचमा नोबलम्भइ ॥ ५६ ॥ " (सूत्र० २६) 7 किसे कितनचितं सूरिराह-अभूतनिधितं चतुर्विधम् तद्यथा उपनिया गाड़ा उत्पत्तिरेव न शाखाभ्यासकम्मपरिशीलनादिकं प्रयोजनं कारणं यस्याः सात्पत्तिकी, तदस्य प्रयोजनम्"। इसीका ननु सर्वस्याः बुजे कार क्षयोपशमः तत्कथम् ?, उच्यते- उत्पत्तिरेव प्रयोजनमस्या इति ?, उच्यते क्षयोपशमः सर्व्वबुद्धिसाधारणः, ततो माऽसौ भेदेन प्रतिपत्तिनिबन्धनं भवति, अथ च बुजयन्तराहू मेरेन प्रतिस्पर्य व्यपदेशान्तरं कर्तुमारब्धं तत्र उपपदे निमितमत्र न किमपि विनयादिकं विद्यते, केवलमेवमेव तथोस्पतिरिति सेच साक्षानिर्दिष्टा । तथा विमयो- गुरुशुश्रूषा सा प्रयोजनमस्या इति चैनविकी तथा अनाचार्यकं कर्म्मः साचार्यकं शिल्पम् । अथ या कादाचिकं शिवं सर्वकालिकं कर्म को जाता कर्मजा तथा परि-समम्ताश्रममं परिणामः सुदीर्घकाल पूर्वापरपर्यालोचनजन्य श्रात्मनो धर्मविशेषः स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी। वुध्यते ऽनयेति बुद्धिः सा चतुविधा उक्का तीर्थंकरमधरैः किमिति यस्मात्पञ्चमी केपि नोपलभ्यते सर्वस्याप्यतनिधितमतिथिशेषस्योत्पतिपादिबुद्धिमनुष्य एवान्तर्भावात् नं० २० ( श्रपतिकी बुद्धिविषयः सदृष्टान्तः 'उत्पत्तिया' शब्दे ऽस्मि भागे यथयते ) ( वैनयिक्याः बुद्धेः सर्वे रहस्यं 'येलइया' शब्दे षष्ठे भागे स्पष्टुं भविष्यति ) ( कर्मजबुद्धेः विषयःकमया शब्दे तृतीयभागे 'दे रातो विषयः ५ भागे · यते) ते tr तथा च महसूयनासविसेसो, भगिओ लक्खलाइमेएस | पुवं प्रभिशियोषिदि तं परूविस्सं । १७६ ।। मतिश्रुतज्ञानयोर्विशेषो भेदो भलितः, केनेत्याह-ताल आमिथिमोहिया लादिमिर्भेदः अथ वा-सवासी अनन्तरोकोलाविभेदश्व तज्ञक्षणाविभेदः तेन । सांप्रतं स्वाभिनियोधिकपयिष्ये विस्तरतो व्याख्यास्यामि द परिहारेण किमित्याभिनियोधिकं प्रथमं प्राहयस्माज्ज्ञानपके पूर्वमादी तदुपदिष्टमुपन्यस्तं तस्मात् यथोद्देशं निर्देशः इति कृत्वा तत् प्रथमं व्याक्यास्थामि । इति गाथार्थः । 95 66 तस्यभेदपर्यायैश्च व्याक्या, तत्र तस्वं लक्षणं तक प्रागेघोक्रम् अथनिरूपणार्थमाह इंदियमयोनिमित्तं तं सुयनिस्मियमहेषरं च पृयो । तत्थेकिकं च उभे-महोप्पनियाईये ॥ १७७ ॥ इन्द्रियममोनिमित्तं यत्प्रागुक्रमाभिनिवोधिकज्ञानं. तत् द्विभेदं भवति श्रुतनिश्चितम् इतरच अश्रुतनिश्रितम् । 'अथ शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः । तत्र श्रुतं संकेतकालभाषी परोपदेश, भुनप्रथध पूर्व नेम परिकर्मिमयहारकाले तयनपेक्षमेव यदुत्पद्यते तत् तु 6 > परिमिते सहजमुपजायते तव। तत्र त्योः- धुतनिश्रिताऽथुन निश्चितयोर्मध्ये एकैकं चतुविधे कथम् इत्याह-यथासंयमय महादिकं श्रीपति? क्यादिपादाविधम् श्रीपतिकी, वैनयिकी, कर्मजा, पारिणामिकी, मेवा अनितिं चतुमित्यर्थः यद्य तु येऽप्यथाविद्यन्ते तथाऽपि "पुण्यममिसुरामदेवराव सुद्धा" इत्यादिवश्यमाणवचनात् परोपदेशाद्यनपेक्षत्वा निधि ता न भवन्ति शेपास्त्यपमहादयः पूर्वे श्रुतपरिमेारेन संपदादिकाभिलापस्य परोपदेशान्तरेसाप्युपपतेति उच्यते पतिक्यादिषु स्वीद्दाद्यभिलापस्य तथाविधकर्मक्षयोपशम जत्वात् परोपदेशाद्यन्तरेापपत्तेरिति भाषः इति गाथार्थ (३) तत्र श्रुतनिभितानयग्रहास्तव नियुहिक प्रा उग्गहो ईह अवाओ, य धारणा एव होति चत्तारि । आभिणिबोहियनाथ - स्स भयवत्थू समासेणं ॥ १७८॥ रूपरसादिमीर निर्देश्यस्याप्यकस्वरूपस्य सामान्यार्थस्याग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः । तेनावगृहीतस्यार्थस्य भेदविचारणं वक्ष्यमाणगत्या विशेषान्वेषणमीहा, तथा ईहितस्यैवार्थस्य व्यवसायस्तद्विशेषनियोऽयायः शकयमहादीनां पृथक पृथक भवति 9 . " अपमहादेहादयः पर्याय न भवन्ति पृथ्याक स्थादिति । निश्चितस्यैव वस्तुनोऽधिष्युत्पादिरूपण भार धारणा । एवकारः क्रमद्योतनपरः प्रयग्रादीनामुपन्यासस्यायमेव क्रमो नाभ्यः अवगृहीतस्यैबेहनाद् ईहितस्यैव निश्रयात् निश्चितस्य धारणादिति पथमेनाभ्यामिनिबोधिहानस्य ४ [चत्यार्थमेव समासेन संक्षेपेण भयन्ति विस्तरतकायादित्यादि यत इति भायः तत्र भिद्यन्ते परस्परमिति मेदाविशेषात प वस्तुति मेदनीति समासः इति गाथार्थ www Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषिमोहियचाय अथ नियुक्रिकार एवाऽयमदान व्याख्यानपवाहअत्थायं उग्गहणं, अवग्गहं तह विद्यालयं ईदं । ववसायं च अवायं, घरणं पुरा धारणं विंति ॥ १७६ ॥ अर्थादीनामरूपादीनां प्रथमं दर्शनानन्तरमेवापममहंत इति संबन्धः । तथा विचारणं पर्यालोचनम् अर्थानामिति वर्तते, ईहनमीहा तां बुधते इदमुक्तं भवति माय पायात्पूर्व सद्भूतार्थविशेषोपादान्यभिमु खोऽसनार्थविशेषत्यागसंमुखश्च प्रायः काकनिखनादयः खाणुधर्मात्रीयते नतु शिकण्या पुरुषधर्मा इति मतिथिशेष रहेति विशिष्टोऽवसायो साय:- निश्चयस्तं व्यवसायम् 4 (२१) अभिधानराजेन्द्रः । अर्था " अवायम् अपार्थ था यते भवति वासुरेवायमित्यवधारयात्मकः प्रत्ययः - अवायः, अपायो वेति चशब्द एव कारार्थः, व्यवसायमेव अत्रायम् अपायं वा ब्रुवत इत्यर्थः । धृतिर्धरणम्, 'अर्थानाम्' इति वर्तते, अपायेन विनिचितस्यैव वस्तुनोऽविच्युति - स्मृति-वासनारूपं धरणमेव धारणां यत इत्यर्थः पुनःशब्दस्यावधारणात् शुपत इत्यनेन शास्त्रस्य पारतन्त्र्यमुक्तम् इत्थं तीकरगणधरा त इति । अन्ये स्वयं पठन्ति-" अत्था उग्गहणम्मि उग्गहो" इत्यादि, तत्र अर्थानामवग्रहणे सत्य " प्रो नाम मतिमेव इत्येवं ब्रुवते, एवमादिष्वपि योज्यम् भावार्थस्तु पूर्ववदेव अथ पार्थया विभकिविपरिणाम इति सप्तमी द्वितीयार्थे । इति गाथार्थः । विशे० नं० । 1 , - अयेतदेष अब्रहादिस्यरूपं भाष्यकारो विवाहसामत्थावग्गह-ण मुग्गहो भेषमग्गहण महेहा । तस्सावमोवायो, अविच्चुई धारणा तस्स ॥ १८० ॥ अन्तर्भूताशेषविशेषस्य केनाऽपि रूपेणानिर्देश्यस्य सामान्यार्थस्यैकसामयिकमवग्रहं सामान्यार्थावग्रहणम्, अथ वा- सामान्येन - सामान्य रूपेणार्थस्यावग्रह सामाम्यार्था मोतियः अथा अन्तरमहा प्रवर्तते कथंभूतेऽयम् इत्याह-मामेव वस्तुनो धर्मास्वेषां मार्गतम् अन्वेषणं विचारणं प्रायः काकनिलयनादयः स्थाणुधर्माः अत्र वीषयन्ते, न तु शिरः कण्डूयमादयः पुरुषधर्मा इत्येवं वस्तु धर्मविचारणमाहेत्यर्थः । तस्यैवेया ईहितस्य वस्तुनस्तदनन्तरमवगमनमवगमःस्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्वयः अपायः अपायो बेति तस्यैष निश्चितस्य वस्तुनः अविच्युतिस्मृतिवासनारूपं घर धारणा सूत्रे अधिपत्यात् इति गाथार्थः । अत्र वावग्रहादारभ्य परैः सह विप्रतिपत्तयः सन्ति इत्यविषय तो तानिराकर्तुमाहसामाविस वि, केई उग्गहसमुग्गदं वेति । जं मइरिदंतति च तं नो बहुदोसभावाओ ।। १८१ ॥ सामान्यं चासौ विशेषश्ध सामान्यविशेषः तस्यापि न केवलं सामान्यार्थस्य इत्यपिशब्दः अपग्रह केचन व्याख्यातारः अवग्रहं ब्रुवते, किं कारणम् ? इत्याह ७१ अभिविवोहियणाच मनि ति ' ति यत् यस्मात्कारणात् अतः शब्दादिलचणसामान्यविशेषमाह कायमदादनन्तरम् इवंतदिति चेति विमर्शलक्षणा मतिरनुधावति ईहा प्रवर्तत इत्य थे, यदनन्तरं चेद्दादिप्रवृत्तिः सोऽवग्रह एव यथा व्यनाथमहागन्तरभावी अम्पक्लानिर्देश्यसामान्यमात्राही अवग्रहः, प्रवर्तते च शब्दादिसामान्यविशेषग्राहकाव हानन्तरमदादिः तस्मादपग्रह दवार्थ तथाहि दूराच्छ ज्ञादिसंयधिनि राज्ये सामान्यविशेषात्मके रूपादियो पार्थ विमर्शः किमर्थ शाङ्ग शाह, शब्दात् किमपि " था? महिषीसंभवत् किं प्रसूतमहिषीङ्गसंभवः असून महिषीङ्ग समुद्भूता इत्यादितानरमित्थं विमर्शेनेाप्रवृत्तिर्न भवति, अन्तप्राप्तेः क्षयोपशमाभावाद्वा स पुनरपाय | तदेतत्परोकं दूषयितुमाह-"तं मोइत्यादि, तदेव नकुखः इत्याह-बहव ते दोणस तेषां भाव उपनिपातस्तस्मात् एवं हिस युषाप्यपाय प्रवृत्तिर्न स्यात् यथोक्तविमर्श प्रवृत्तेरनुष्ठितस्वात् । न वं पूर्वमनी हिते प्रथमोऽपि शब्दनिश्चयो युक्तः, यतश्च पूर्वमीहा प्रवर्तते नाऽसौ श्रवग्रहः, किं त्वपाय - त्यादि सर्व पुरस्ताद्वस्यते इति मायार्थः । , , यांतिपद्यन्ते तम्मतमुपन्यस्य धूपपसाईहासंशयमेवं, केई न तयं तच जमभाणं । मनासा चहा, कदमचायं तई जुनं १ । १८२ ॥ किमयं स्थाणुः आहोश्वित्पुरुषः ? इत्यनिश्चयात्मकं सं शयमा यदुत्पद्यते इति केचित् प्रतिपद्यते तदेत घटते । कुतः ? इत्याह-यद् - यस्मात्कारणात् 'तो' तिअसी संशयानम् भवतु तज्ञानमपि देति वेदस्यामत्यादि मतिज्ञानांश्च मतिज्ञानमेवश्वेा वज्ञानभेदस्याज्ञानरूपता युभ्यते, तदेवाह " कहमि त्यादि, कथम् केन प्रकारेण ज्ञानं युकं न कथंचिदित्यर्थः । केमिखाह ई इति असी मतिज्ञानशरूपा ईडा, संचयस्य वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वेनानात्मकत्यादीहायास्तु ज्ञानभेदत्वेन ज्ञानस्वभावत्वात् ज्ञानाउडानयोश्च परस्परपरिहारेण स्थितत्वाचाऽज्ञानरूपस्य संशयस्य ज्ञानांशात्मकेारूपत्वं युक्तमिति भाषा इति गाथार्थः । 6 " 5 आह-गनु संशयेद्दयोः किं कश्विद्विशेषोऽस्ति येनेहारूपत्वं संशयस्य निषिध्यते तयोः स्वरूपभेदमुपदर्शयन्नाह जमणे गत्थालंबण - मपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं । सेय इव सव्यपयच तं संख्यरूपमभागं ॥ १८३ ॥ तं चि सयत्थऊ - ववत्तिवावारतप्परममोहं । भूयाऽ- भूयविसेसा - पालथा याभिसुमीहा ॥ १८४ ॥ पश्चिम अनेकार्यालम्बनम् अनेकार्थप्रतिभासादोलितम् एव पर्युदसमं वदासोनिषेधो न तथा पर्युदासोनिषेधन तथा उपलक्षयत्वादविधिना च Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाभिणियोहियणाण (२८२) अभिधानराजेन्द्रः। माभिषिबोहियणाण परिकुण्ठितं-जडीभूतं सर्वथा अवस्तुनिश्चयरूपतामापन, केचनापि व्याख्यातारः अपायनम्-अपनयनम् अपाय इति किंबहुना ? 'सेय इथे' त्यादि, शेत इव-स्वपितीव सर्वा- | व्युत्पत्यर्थविभ्रमितमनस्का इति भावः । अवधारणं धारा मना न किंचित् चेतयते वस्त्वमतिपत्तिरूपत्यात् तदेव- इति च व्युत्पत्यर्थभ्रमितास्ते धारणा वते । कि तत् ?, विध चित्त-संशय उच्यते इत्यर्थः, तशा ऽशानं वस्त्ववबोध- इत्याह-सद्भूतार्थविशेषावधारणं सद्भूतस्तत्र विवक्षित प्रदेशे रहितत्वादिति । यत्पुनस्तदेव चेतो-वक्ष्यमाणस्वरूपं तदी- विद्यमानः स्थाण्यादिरविशेषस्तस्य स्थाणुरेवायम् इत्यहेति संबन्धः । कथंभूतं सद् ? इत्याह-'भूयाऽभूये' वधारणं सद्भूतार्थविशेषावधारणमिति समासः । इति त्यादि, भूतः कचिद् विवक्षितप्रदेशे स्थाण्यादिपर्थः, अभूत- गाथार्थः। स्तत्राविद्यमानः पुरुषादिस्तावेव पदार्थान्तरेभ्यो विशिष्य तदेतद्पयितुमाहमाणत्वात् विशेषी, तयोरादानत्यागाभिमुखं भूतार्थविशेपोपादानस्याभिमुखम् , अभूतार्थत्यागस्याभिमुखमिति य कासह तयत्रवइरे-गमेत्तमोऽवगमणं भवे भृए । थासंख्येन संबन्धः । यतः कथंभूतम् ? इत्याह-सदर्थहेतूप- सन्भूयसममयो, तदुभयो कासइ न दोसो ॥१८६।। पत्तिव्याशरतत्परं हेतुद्वारेणेदं विशेषणं-सदर्थहेतूपपत्ति- ‘भूए' त्ति-तत्र विवक्षितप्रदेश भूते विद्यमानेऽथे स्थाव्यापारतत्परत्वाद् भूताऽभूतविशेषादानत्यागाभिमुखमिति एवादी 'कासद' त्ति-कस्यचित् प्रतिपत्तुस्तदन्यब्यतिरेभावः तत्र हेतुः-साध्यार्थगमकं युक्तिविशेषरूपं साधनम् , कमात्रादवगमन-निश्चयो भवति-तस्मात्स्थारचाया उभ्यः उपपत्तिः-संभवघटन; वियक्षितार्थस्य संभवव्यवस्थापनम् । पुरुषादिरर्थस्तस्य व्यतिरेकः स एव च तदन्यव्यतिरेकततश्च हेतुश्चोपपत्तिश्व हेतूपपत्ती सदर्थस्य विवक्षित मात्रं तस्मात्स्थाएवाद्यर्थनिश्चयो भवतीत्यर्थः। तद्यथा-यतो प्रवेश अरण्यादौ विद्यमानस्य स्थायवादेरर्थस्य हेतूपपत्ती नेह शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधा दृश्यन्ते; ततः स्थासदर्थहेतूपपत्ती तद्विषयो व्यापारो घटनं-चेटनं सदर्थहेतू गुरेवायमिति । कस्यापि सद्भूतसमन्वयतः सद्भूतस्तत्र पपत्तिव्यापारस्ततस्तत्परं तनिष्ठमिति समासः। अत एव प्रदेशे विद्यमानः स्थाएवादिरथस्तस्य समन्वयतः-अन्ययअमोघम्-अर्थचलायातलेन अविफलम्-अमिथ्यास्वरूपं, धर्मघटनात् भूतेऽर्थेऽवगमनं निश्चयो भवेत् , यथा स्थाणुरेतदेवंभूतं चेतः ईहा इति संबन्धः कृत एव; इदमुक्तं भवति वायं बल्ल्युत्सर्पणवयोनिलयनादिधर्माणामिहान्वयादिति। केनचिदरण्यदेशं गतेन सवितुरस्तमयसमये ईषदवकाश- कस्यचित्पुनस्तदुभयाद्-अन्वयव्यतिरेकोभयात् तत्र भूतेमासादयति तमिस्र दूरवर्ती स्थाणुरुपलब्धस्ततोऽस्य वि थेऽवगमनं भवेत् । तद्यथा-यस्मात्पुरुपधर्माः शिरःकण्डूयनामशः समुत्पन्नः-किमयं स्थाणुः, पुरुषो था? इति । अयं दयोऽत्र न दृश्यन्ते, वल्रयत्सर्पणादयस्तु स्थाणुधर्माः समीच संशयत्वात् अज्ञानम् । ततोऽनेन तस्मिन् स्थाणी दृष्ट्या क्ष्यन्ते, तस्मात् स्थाणुरेवायमिति । न चैवमन्वयात् व्यतिवल्ल्यारोहणं, प्रविलोक्य काककारण्डवकादम्बक्रौञ्चकीर रेकात् , उभयाद्वा निश्वये जायमाने कश्विद् दोषः , शकुन्तकुलनिलयन, कृतश्वेतसि हेतुव्यापारः, यथा-स्था परव्याख्याने तु वक्ष्यमाणन्यायेन दोष इति भावः । इति गुरयं, वल्ल्युत्सर्पणकाकादिनिलयनोपलम्भात् । तथा गाथार्थः । संभवपर्यालोचनं च व्यधायि, तद्यथा-अस्ताचलान्तरिते कथं पुनस्तद्व्याख्याने न दोषः ? इत्याहसवितरि, प्रसरति चेषत्तमिस्र महारण्येऽस्मिन् स्थाणुरयं संभाव्यते, न पुरुषः, शिरःकण्डूयनकरग्रीवाचलनादेस्तद् सब्यो वि य सोऽवामो भए वा हति पंच वत्थणि । व्ययस्थापकतोरभावाद्। ईरो च प्रदेशेऽस्यां वेलायां आहेवं चिय चउहा, मई तिहा अन्नहा होइ ।। १८७॥ प्रायस्तस्याऽसंभवात् । तस्मात् स्थाणुनाऽत्र सहतेन भाव्यः | यस्माद् व्यतिरेकाद् , अन्वयाद् , उभयाद्वा भूतार्थविन पुरुषण । तदुक्रम्-" अरण्यमेतत् सवितास्तमागतो, न शेषावधारणं कुर्वतो योऽध्ययसायः स सर्वोऽप्यपाय:चाधुना संभवतीह मानवः । प्रायस्तदनेन स्वगादिभाजा, | प्रस्तुतस्थायवादिवस्तुनिश्चयः, नतु सद्भूतार्थविशेषावधारणं भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना ॥१॥" एतच्चेदृशं चित्तं | धारणेति भावः, तस्मान्न दोषः ॥ श्राह ननु यथा ईदा इत्युच्यते, निश्चयाभिमुखत्येन संशयादुत्तीर्णत्वात् , मया व्याख्यायते-सद्भतार्थविशेषाऽवधारण धारणा, मर्वथा निश्चये ऽपायत्यप्रसनेन निश्चयादधोयत्तित्वाति तथा किं कश्चिद्दोषः समुपजायते, येनात्मीयव्याख्यासंशयहयोः प्रतिविशेषः । इति गाथाद्वयार्थः । नपक्ष इदमित्थमभिधीयते न दोष इति ? । एतदाअथापायधारणागतविप्रतिपत्तिनिराचिकर्षिया परमतमु शधाह-भेए वा' इत्यादि, वाशब्दः पातनायां ঘৰহঘন্ধা गतार्थः, व्यतिरेकः-अपायः, अम्बयस्तु धारणा, इत्येवं के तयएणविमेसा-वणयणमेतं अवायमिच्छति । मतिमानतृतीयभेदस्यापायस्य भेदेऽभ्युपगम्यमाने पञ्च वस्तूनि-पञ्च भेदा भवन्ति; आभिनिबोधिकमानस्येति सम्भृयत्थविसेसाऽ-वधारणं धारणं विति ।। १८५ ॥ गम्यते; तथा हि-अवग्रहेहाऽपायधारणालक्षणाश्चत्वारो तच्छब्दास्पानन्तरगाथोऽतो भूतोऽर्थः संबध्यते, तस्मा- भेदास्तावत् त्वयैव पूरिताः, पञ्चमस्तु भेदः स्मृतिलक्षणः सत्र भूतात् विद्यमानात् स्थाबादेयोऽन्यः तत्पतियोगी प्राप्नोति-अविच्युतेः स्वसमानकालभाविन्यपायेऽन्तर्भूततत्राविद्यमानः पुरुषादिस्तद्विशेषाः शिरःकण्डूयनचलनस्प- स्वाद, वासनायास्तु स्मृत्यन्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात रमतेदनादयः तेषां पुरोवर्तिनि सद्भतेऽर्थेऽपनयन-निषेधनं | रनन्यशरणत्वान्मतेः पञ्चमो भेदः प्रसज्यत इति भावः ॥ तदम्पषिशेषापनमनं तदेव तम्मात्रम् , अपायमिच्छन्ति, 'आहे' त्यादि, पुनरप्याह परः-ननु यथैव मया व्या Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८३) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। भाभिणियोहियणाण स्यायने व्यतिरेकमुखेन निश्चयोऽपायः, अन्वयमुखेन तु | ज्युतिः प्रथमप्रवृत्तापायाभ्यधिकेति तिर्धारणा मामेधारणा इस्येवमेव चतुर्बा-चतुर्विधा मतिर्भवति-युकिलो ति । एवमविच्युतियासनास्मृतिरूपा धारणा त्रिधा सिखा घटते। अन्यथा तु-व्याख्यायमाने-अन्बय-व्यतिरेकयोईयो भवति । रप्यपायत्वेऽभ्युपगम्यमाने इत्यर्थः । किम् ?, इत्याह-त्रिधा- अत्राह कश्चित्-नम्पषिष्युति-स्मृतिलक्षणो शानभेदी ग्रही. अवग्रह-हापायभेदतत्रिभेवा मतिर्भवति. न पुनश्चतुर्दा, तसाहित्याच प्रमाणं, द्वितीयादिवाराप्रवृत्तापायसाध्यस्य धारणाया मघटमानकत्वादिति भावः । इनि गाथार्थः । वस्तुनिश्चयलक्षणस्य कार्यस्य प्रथमवाराप्रवत्तापायमेव . कथं पुनर्धारणाभावः ?, इत्याह साधितस्थात् । नव निष्पादितक्रिये कर्मणि तत्साधकाऽणुवमोगम्मि धिई, पुणोवोगेय सा जमोऽवानो। नायैव प्रवर्तमानं साधनं शोमा विभर्ति, भतिप्रसत्रात्तो नऽस्थि धिई भाइ, इदं तदेवेति जा बुद्धी ॥ १८८॥ कुठारादिभिः कृतच्छेदनादिक्रियेष्वपि वृक्षादिषु पुनस्त साधनाय तेषां प्रवृत्त्याप्तः । स्मृटेरपि पूर्वोत्तरकालभाषिनणु सावायम्भहिया, जमो य सा वासणाविसेसामो । शानद्वयगृहीत एव वस्तुनि प्रवर्तमानतया कुतः प्रामाण्यं, जा य प्रवायाणन्तर-मविच्चुई सा घिई नाम ।।१८६॥ नव बक्रम्य पूर्वोत्तरदर्शनद्वयानधिगतस्य बस्त्वेकरवस्य अनुपयोगे-उपयोगोपरमे सति का प्रति:-का नाम था प्रहणात् स्मृतिः प्रमाणं, पूर्वोत्तरकालरष्टस्य वस्तुनः कारणा, न काचिदित्यर्थः । इदमुक्तं भवति-वह तावनि लादिभेदेन भिन्नत्वाद् , एकत्वस्यैवासिद्धत्वादिति । बाभयोऽपायमुखेन घटादिके वस्तुनि अवग्रहापायरूपतया सना तु किं रूण? इति वाच्यम्। संस्काररूपेति चेत् । ऽन्तर्मुह प्रमाण पयोपयागो जायते । तत्र चापाये जाते । कोऽयं नाम संस्कारः१, स्मृतिज्ञानाधरणक्षयोपशमो था, या उपयोगसातस्यलक्षणा भविष्युतिर्भवताऽभ्युपगम्पते , तज्ज्ञानजननशक्तिर्वा, तस्तुधिकरूपो वा ? इति प्रयोगतिः । सा अपाय एवाऽन्तर्भूता। इति न ततो व्यतिरिका । या सत्राचपक्षद्वयमयुक्तम् , ज्ञानरूपत्याभावात् तदेवानां वह तु तस्मिन् घटाधुपयोगे उपरते सति संख्येयमसंख्येयं विचार्यत्वेन प्रस्तुतत्वात् । तीयपक्षोऽप्ययुक्त एय संकालं वासनाभ्युपगम्यते, 'इदं तंदव' इति लक्षणा स्मृति ज्येयमसंख्येयं वा कालं बासनाया इयत्वाद् एतायन्तं च भाजीक्रियते, सा मत्यंशरूपा धारणा न भवति, मत्युप कालं तस्तुविकायोगात् तदेवमविध्युतिस्मृनिवासयोगस्य प्रागेयोपरतत्वात् । पुनरपि कालान्तरोपयोगे धा नारूपायाचित्रविधाया अपि धारणाया अघटमानत्वात् , . रणा भविष्यतीति चेद, इत्याह-'पुणो' इत्यादि, काला विधैव मतिः प्राप्नोति, न चतुर्खा ॥ उन्तरे पुनर्जायमानोपयोगेऽपि या ऽम्बयमुखोपजायमाना अत्रोच्यते-यत्ताबद् गृहीतग्राहित्वादविध्युतेरप्रामाण्यमुबधारणरूपा धारणा मयेष्यते, सा यतोऽपाय एव भवता च्यते, तदयुक्तम् . गृहीतग्राहित्यलक्षणस्य हेनोरसिखस्थात् , भ्युपगम्यते । 'सम्वो विय सोयाभो' इत्यादिवचनात् । अन्यकालविशिएं हि वस्तु प्रथमप्रवृत्तापायेन गृह्यते, सतस्तत्रापि नाऽस्ति प्रतिर्धारणा, पुनरप्युपयोगोपरमेऽपि अपरकालविशिषच द्वितीयादिवाराप्रवृत्तापायेन । किच स्प-स्पतर-स्पष्टतमभिन्नधर्मकपासनाजनकत्वावण्यथिपूर्वोक्तयुक्त्यैव तदभावः, तस्मादुपयोगकालेऽन्बय मुखाव च्युतिप्रवृत्तद्वितीयाधपायविषयं वस्तु भित्रधर्मकमेवेति धारणरूपाया धारयायास्त्वयाऽनभ्युपगमात् उपयोगोपरमे कथमधिकयुतगृहीतग्राहिता ? । स्मृतिरपि पूर्वोत्तरवर्शनव मत्युपयोगाभावात् , तदेशरूपाया धारणाया अघटमानकत्वास्त्रिधैव भवभिप्रायेण मतिः प्राप्नोति, न चतु दयानधिगतं वस्त्वकत्वं गृहाना न गृहीतग्राहिणी। मच वक्तव्य कालादिभेदेन भिन्नत्वात् वस्तुनो नैकत्वं, कालार्खा, इति पूर्वपक्षाभिप्रायः । दिभिर्मिनस्वेऽपि सस्थ-प्रमेयस्वसंस्थानरूपादिभिरेकस्यात् । प्रमोसरमाह-' भएणई' त्यादि, भगवतेऽत्र प्रतिषि- बासनाऽपि स्मृतिविज्ञानाधरणकर्मक्षयोपशमरूपा तधिकाधानम् । किम् ?, इत्याह-'इदं वस्तु तदेव यत् प्रागुपलब्ध मजननशक्तिरूपा चेष्यते । सा च यद्यपि स्वयं ज्ञानभया' इत्येवंभूता कालान्तरे या स्मृतिरूपा बुद्धिरुपमायते स्वरूपा न भयति, तथापि पूर्वप्रवृत्ताविष्युतिलक्षणशानमस्विहसा पूर्वप्रवृतामयानिर्विवादमभ्यधिकैन.पूर्वप्रवृत्ता- कार्यस्वाद, उत्तरकालभाधिस्मृतिकंपळानकारणत्वाधोपउपायकाले तस्या प्रभावात् सांप्रतापायस्य तु वस्तुमिश्व- चारतो ज्ञानरूपाउभ्युपगम्यते । तस्तुविकरुपयक्षस्वनभ्युथमात्रफलस्वेन पूर्वापरदर्शनानुमंधानायोगात् । ततश्च सा. पगमादेष निरस्तः तस्मादविच्युतिस्मृतिषासनारूपाया थाउनम्यरूपस्यात् भूनिर्धारण नामेति पर्यन्ते संबन्धः । रणायाः स्थितत्वात् न मतेस्त्रैविध्य, किंतु चतुर्वा सेति यतश्व यस्माष वासनाधिशेषात्-पूर्वोपलब्धवस्वाहितसं- स्थितम् । इति गाथाद्वयार्थः । स्कारलक्षणात्। तद्विज्ञानावरणक्षयोपशमसानिमादित्यर्थः, प्रयता स्वाभिमतां धारणां व्यवस्थाप्य परं प्रत्याहसाइनं तदेवेति लक्षणा स्मृतिर्भवति । साऽपि वासनाs तं इच्छंतस्म तुई. बत्थूणि य पंच मेच्छमागास्स । पायावभ्यधिकेतिकृत्वा पृति म इतीहापि संबन्धः । 'जा याऽयाय' इत्यादि, या च अपायादनन्तरमयिच्युतिः प्रत्र किं होउ सा अभावो, भावो नाणं व तं कयरं? ॥१६॥ तते साऽपि वृति म । इवमुक्तं भवति-यस्मिन् समये अस्मदभिमतामनन्तरप्रतिष्ठितस्वरूपां तां धारणामिछ'स्थाणुरेवाय' मित्यादिनिधयस्वरूपोऽपायः प्रवृत्ता, ततः तस्तव पञ्च वस्तुनि-पचाभियोधिकशानमेवाः प्राप्नुवन्ति, समयापूर्वमपि 'स्थाणुरेषाऽयं, स्थाणुरेवायमि' त्यधि- अपायस्यैकस्यापि भेवदयपताभ्युपगमेन भेदचतुपयस्य ब्युता याऽस्त क्वचिवणायप्रवृत्तिः साऽप्युपायाऽवि- स्वयाऽपि पूरितस्थात् , पश्चमस्य तु मदुतस्य धारणाला Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभिशिबहिणाब यस्य प्रसङ्गादिति भावः । अथाऽस्मदभ्युपगता धारणा स्वया नेष्यते, " तर्हि ' नेच्छमाणस्स किं होउ इत्यादि, तां मदभ्युपगतां धारणामनिच्छुतो ऽप्रतिपद्यमानस्य तव सा मदभ्युपगता धारण किं भवतु श्रभावः श्रवस्तु श्राहोस्विजावो वस्तु इति विकल्पयम्। किन पदभावः भवत्वेनानुभूयमानत्वात् न च तचानुभूयमानस्याभावत्वमाधातुं शक्यते अतिप्रसङ्गात् घटादिष्वपि तथात्वप्राप्तेः तेऽपि ह्यनुभववशेनैव भावरूपा व्यवस्थाव्यन्ते । यदि व अनुभवोऽप्यप्रमाणं तदा घटादिष्वपि भावरूपतायामनाश्वास इति भावः । अथ भावोऽसौ, सर्दि क्लव्यं ज्ञानम् अशानं या न सायदज्ञानं विपतथाऽनुभूयमानत्वात् अथवा मतिता धिमनः पर्यायकेवले यो ज्ञानान्तरस्याभावात्तेषां मध्ये कतमत् ? इति वाच्यम् । न तावत् श्रुतादिचतुष्ट्यरूपम्, अनभ्युपगमात् ज्ञाऽयोगाच मतिज्ञानं चेत् ति मायापायरूपे संभवात् न सावायम्भ हिया' इत्यादि, नाऽपायाभ्यधिकत्वेन साधितत्वाश्च । तस्मादन्ययगरेकाभ्यां निवमः सर्पोऽप्यपायः, अत्रियुतिस्मृतिवासनारूपा तु पारिशेष्यद्वारेणैवेति स्थितम् । इति गाथार्थः । , 3 (२४) अभिधानराजेन्द्रः | 3 तदेवं निरुसरीकृतोऽप्यविलक्षिततयाऽन्येन प्रकारेणाद्दतुझं बहुयरभेया, भगह मई होइ विचाओ । भाइ न जाइ भेश्रो, इट्ठो मज्भं जहा तुज्यं ॥ १६१ ॥ अब प्रेरको भगति कम है, इत्यादि इत्थमाचार्य ! तब बहुतरभेदा मतिर्भवति कुतः ? इत्याह धरणाया बहुत्वात् बहुभेदत्वादित्यर्थः धारणाया एकस्याप्यवियुतिपासनास्मृति लक्षयमेवत्रयत्वादवमहाउपायैः सह पदमेदा मतिः प्राप्नोतीति भावः । अत्र प्रतिविधानवाद - भगवद इत्यादि भएयतेोत्तरम् जातेर्भेदो जातिभेदो; व्यक्तिपक्ष इत्यर्थः । स इद्द धारणाविचारे मम नेष्ट्रो - नाभिप्रेतः । किं तु धारणा सामान्यरूपा जातिरेव ममाभिप्रेता । कस्य यथा ?, इत्याह-यथा तवाsameविषये इति शेषः । इदमुक्तं भवति - यथाऽवग्रहो व्यञ्जनार्थायग्रभेदादुभयरूपोऽवसामान्यादेकत्वया:पीष्टः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वप्रसङ्गात् तथा त्रिरूपाऽपि धारणा तत्सामान्यादेकरूपैयः इति चतुर्विधेव मतिर्न बहुतरनेदा इति गाथार्थः । एतदेव भावयन्नाह - साभिन्नलक्खणा व हु, धिइसाममेण धारणा होइ । जह उग्गहो दुरूचो, उग्गहसामलओ एको । १६२ ।। सा धारणा, अविच्युति-वासना-स्मृतीनां स्वरूपत्वेनापि सभी धारणा सामान्याम्यतिरेकादेय अर्थात यथा व्यञ्जनार्थाय ममेदाद्विरूपोऽध्य असामान्याव्यतिरेकादेकः परस्याऽपि सिद्धेः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वापत्तेः । इति गाथार्थः । तदेवमादिभेदचतुष्टयविषयण निराकृताः सर्वा अधि परायप्रतिपत्तयचिराकर मानतो द्विरूपः आभिणिबोहियणाप प्रोक्तः स च कथं द्विरूपो भवति इत्याशङ्कष तद्विरूपसाकथनव्याजेन पूर्व याम्याभिनियोधिकहानस्यायनदादीनि चत्वारि मेरा तेथे मध्ययमहं तावद्द्, विशे० । ( 'उग्गद्द' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते ) रात्र व्यञ्जनं तावत्किमुतेत्यादिबंजिअ जेणरथो, पडो व्व दीवेग पंजणं तं च । उवगरणिं दिसद्दा- इपरिणयदन्व संबंधो ।। १६४ ॥ अपश्यते प्रकीपितेऽर्थो येन दीपेनेच घटस्तत् व्यञ्जनं, किं पुनस्तदित्याह - ' तं चेत्यादि । तच्च व्यञ्जनम् उपकरणेन्द्रियादिपरितद्रव्यसंबन्ध मइन्द्रियम् भावे च विशेत्र विस्तरः 'इंडिय शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते ) तत्र निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं लब्ध्यु-पयोगी भावेन्द्रियं निर्वृत्तिश्च द्विधा - अकुला भागादिमाना कदम्यकुसुमगोलकधान्यमसुकाइलासुरप्राकारमांसगोलकरूपा, शरीराकारा शादीन्द्रियायां पञ्चानामपि यचासं रूपमन्तः कश फुलिकादिरूपातु बहिर्निर्वृतिः । तत्र कदम्यकुसुमगोलफाकारमािदिरूपाया अन्तर्निवृतेः शब्दादिविवयपरिच्छेदहेतुर्यः शक्तिविशेषः स उपकरणेन्द्रियं शब्दाविश्व श्रोषादीन्द्रियायां विषयः आदि 3 परिसा परिणानि च तानि भाषावादबन्धीनि यानि च शब्दादिपरिस्नद्रव्याणि उपकरणेद्रियं च शब्दादिपरिपाणि च तेषां परस्परं संस्था उपकरखेन्द्रियशब्दादिपरिग्यसंबन्धः एष तावद् व्य अनमुच्यत । अपरं च इन्द्रिये रहा उयर्थस्य पश्यमानत्वात्तदपि व्यञ्जनमुच्यते । तथा शब्दादिपरिणतद्रव्यनिकुरम्यमपि व्यज्यमानत्वां व्यज्जनमभिधीयते इति । एवमुपलक्षण्व्याख्यानात् त्रितयमपि यथोक्तं व्यञ्जनमत्रमन्तव्यम् ततश्येन्द्रियलक्षणेन जनेन शब्दादिपरितद्रव्यसंबन्धस्वरूपस्य व्यञ्जनस्याऽयग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, अथ वा तेनैव व्यञ्जनेन शब्दादिपरितद्रव्यात्मकानां व्यअनानामयग्रहो व्यञ्जनावग्रहः इत्युभया उत्येकस्य ध्व अनशब्दस्य लोपं कृत्वा समासः । इति गाथार्थः । अाक्षेप परिहार बाधिसुराह , ६ अण्णासो बहिराई व तकालमवलंभाउ । न वदते तचो थिय, उवलंभाओ तो नाहं ॥ १६५॥ सव्यञ्जनावग्रहो ऽज्ञानं ज्ञानं न भवति, तस्य उपकरणे - पदादिपरिज्यसंबन्धस्य कालकालग नस्यानुपलम्भात् स्वसंवेदना संवेद्यमानस्याद् बधिरादीनामिव यथा हि बधिरादीनामुपकरन्द्रियस्य शमादिविषयद्रव्यैः कालेन किमपि ज्ञानमनुभूयते अन नुभूयमानत्वाश्च तन्नाऽस्ति तथेहापीति भावः । श्रत्रोत्तरमाह - न तदंते' इत्यादि, नाऽसौ जडरूपतया ज्ञानरूपेणामनुभूयमानत्वाज्ञानं, किं तर्हि स कोऽसौ व्यञ्जनावग्रहो - ज्ञानमेव । कुतः, तदन्ते तस्य व्यञ्जनावग्रहस्यान्ते तत एव ज्ञानात्मकस्याऽथवाहोपलम्भस्य भा यात् तथाहि यस्य ज्ञानस्याऽन्ते तज्ज्ञेय वस्तूपादानात्तत " Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणियोद्दिपणाच पत्र ज्ञानमुपजायते, तज्ज्ञानं दृष्टं, यथार्थावग्रहपर्यन्ते तज्यवादात डासङ्गावादर्थासह ज्ञानं जायते नावप्रस्य पर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात्तत एवातस्माद् पनाहो ज्ञानम् इति गाथार्थः। (२८५) अभिधानराजेन्द्रः । तदेवं व्यञ्जनावग्रहे यद्यपि ज्ञानं नाऽनुभूयते, तथाऽपि ज्ञानकारणत्वादसी ज्ञानम् इत्येवं व्यञ्जनावग्रहे ज्ञानाभावमभ्युपगम्योक्रम् | सांप्रतं कानामापोऽपि तथाऽसिय एवेति दर्शयन्नाह - " वकालम्म विनायं तत्थऽस्थि तनुंति तो तमम्वतं । बहिराई पुख सो, भयाणं तदुभया भावा ।। १६६ ।। सरकालेऽपि तस्य व्यजनसंबन्धस्य कालेऽपि तत्रानुपइने नाव ज्ञानमस्ति केवलमेकतेजोऽश्वप्रकाशवत् तनु अतीवाल्पमिति; अतोऽव्यक्तं स्वसंवेदनेनापि न व्यज्यते । यद्यव्यक्तं कथं तदस्तीति ज्ञायते ? इति चेत् । मा त्वरिष्ठा, "जामिसंचे जसम सद्दादम्बसम्भाषे " इत्यादिनाऽनन्तरमेव तदस्तित्वयुक्ते 44 मात्र अप्रतिपतिरिति 'वपचा-बधिराऽऽदीनाम् श्रादिशब्दादुपमाखादीन्द्रियाणां पुनः स व्यखनाषमहोऽज्ञानं ज्ञानं न भवतीत्यत्राऽविप्रतिपत्तिरेव । कुतः ?, इत्याह- तच तदुभयं च तदुभयं तस्याभावात् ज्ञानकारणत्वाभावात् श्रव्यक्तस्यापि व ज्ञानस्याभावात् । इति गाथार्थः । - अथ पुनरप्याक्षेपं, परिहारं चाऽभिधित्सुराह कहमन्वचं नाणं च सुतमसाइसुहमोहो व्य । सुचादओ सयं विय, विषाणं नावज्झति ॥१६७॥ परः साऽसूयमाह - मनु कथं ज्ञानम् 'अव्यक्तं च' इत्युच्यते ? तमः प्रकाशापभिधानयत्रं युज्यत इति भावः । अत्रोचरमनन्तरमेवोम् एकते जो पयवकाशत्सूक्ष्मत्वादव्यकम् । श्रथ पुनरप्युच्यते-सुप्तमत्तमूर्हितादीनां सूक्ष्मबोध ज्ञानमुच्यत इति न दोषः सु सादीनां तदात्मीयज्ञानं स्वसंविदितं भविष्यतीति चेत् न एतदेयमित्याह सुखाच्यः स्वयमपि तदात्मीयविज्ञानं नावयुध्यन्तेन संवेदयन्ति अतिसूक्ष्मत्वात् । इति गाथार्थः । यदि तैरपि तादात्मज्ञानेन संबंध, ततिपामस्तीत्येतत्कर्थयते इत्याद लक्खितं सिमिगा- यमाणवयणदागाह चेाहिं । जं नामहपुरुवायो, विज्यंते वयचेट्टायो । १६८ ।। तत्सुतादीनां ज्ञानमस्तित्वेन लक्ष्यते । कुतः ?, स्वप्नायमान बचनामादिभ्यः सुतादयोऽपि हि मायमानाद्यवस्था यो केचित्किमपि भाषमाणा दृश्यन्ते शब्दिताश्वतो बाचं प्रयच्छन्ति, संकोचत्रिको चाङ्गभङ्गजृम्मितकूजितक यदि कुर्वन्ति न च तास्ते तवेदयन्ते । नापि च प्रबुद्धाः स्मरन्ति, तर्हि कथं तचेष्टाभ्यस्तेषां ज्ञानमस्तीति लक्ष्यते ?, इत्याह-' जमि ' त्यादि, यत्-यस्मात्कारणाद् गाऽमतिपूर्यास्ता वचनादिष्टा विद्यन्ते किं - तु मतिपूर्विका एव, अन्यथा काष्ठादीनामपि तत्प्रसङ्गात् । હર आभिणिबोहिया अतस्ताभ्यस्त तेषामस्तीति लक्ष्यत पच धूमावि इति गाथार्थः । शाह ननु आमीमा बेटि किं कश्चि जानाति येन सुतादीनां वचेष्टितासंपते, इत्याशङ्कवादजगतो वि न जाणइ छउमत्थो हिययगोचरं सव्वं । जं तज्झवसाणाई, जमसंखिजाइँ दिवसेयं ॥ १६६ ॥ हृदयम्- मनोगोचरस्थानं यस्य तत् हृदयगोचरम् अध्यबसायनिकुरम्बम् इति गम्यते, तज्जाप्रदपि खद्मस्थः सर्वम् अपरिशेषं न जानाति न संवेदयते, भारतां तायस्पुनः सुप्तः कुत ? इत्याह-अध्यवसानानि श्रध्यवसायस्थानरूपाणि केवलिगम्यानि सूक्ष्माणि । यत् एकेनाप्यतर्मुहूर्तेना संख्येयानि यान्ति प्रतिक्रामन्ति, किं पुनः सखापि दिवसेन । न वैतानि समस्यः सर्वापि संवेदयते । ततश्च यथैतानि पद्मस्थैरसंवेद्यमानान्यपिकेवलिष्टत्वात्सत्वेनाभ्युपगम्यन्ते, तथा व्यञ्जनावग्रहशाम मपि । इति गाथार्थः । चाहनु सुतादीनां ज्ञानं पथनादिवेशयोगत्युक्तं तत्तावदभ्युपगच्छामः व्यञ्जनावग्रहे तु ज्ञानरूपतासम लिन किंचित अपत्यासो ज्ञानमिति ब्रूमः इत्याशङ्कयाह जवाणमसंखे- असमइसद्दाइदव्वसम्भावे । किह चरमसमयसा - इदव्वविणायसामत्थं ॥ २०० ॥ वाशब्दः पातना सूचकः, सा च कृतैव । ततश्च हन्त ! यदि अज्ञानं व्यञ्जनाय ग्रहः क सति ?, इत्याह- असंख्येयसमयशब्दादिसङ्गावेऽपि सति इत्यपिशब्दो गम्यते । कथं तर्हि वरमसमयशब्दादिद्रव्याणां विज्ञानजननसाम न कथंचिदित्यर्थः । इदमुकं भवति व्यञ्जनाप तावस्मतिसमय संख्येयान् समयान् यावच्ोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयद्रव्याणि संबध्यन्ते ततश्च यद्यसं स्पेयसमयान् यावन्ोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धसङ्गावेऽपि सति व्यञ्जनावग्रहरूपं ज्ञानं नाभ्युपगम्यते कर्मता चरमसमये धोत्रादीन्द्रियैः सह संबद्धानां शब्दादिविषयद्रव्याणां परेणाऽप्यर्थावग्रहलक्षणविज्ञानजननसामर्थ्यमिष्यते, तदभ्युपगन्तुं न युज्यते इति भावः । यदि हि शब्दादिविषयद्रव्याणां श्रोत्रादीन्द्रियैः सह संबन्धे आदि समयादेवारभ्य ज्ञानमात्रा काचित्प्रतिसमयमाविर्भवन्ती नाऽभ्युपगम्यते, तर्हि चरमसमयेऽप्येकस्मादेषा न युज्यते तथा च सत्यर्थावग्रहादिज्ञानानामप्यनुदयप्रसङ्गः । इति गाथार्थः । तथाहि जं सव्वहा न वीसुं, सव्वेसु वि तन्न रेणुतिल्लं व । पत्तेयमणिच्छंतो, कहमिच्छसि समुदये नाणं ॥ २०१ || यस्तु सर्वथा सर्वप्रकारविंध्यक-पृथक मारत तत् समु दायेऽपि नाभ्युपगन्तव्यं यथा रेणुकएनिकरे प्रतिरेणुकविद्यमाने तेलम् एवं सहि स्वमपि प्रत्येकमविण्छन् कथं समुदाये ज्ञानि , Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभिणियोहियणाण अमिधानराजेन्द्रः। भाभिणियोहियणाण विषयसंबन्धस्य प्रथमसमयादारभ्य व्यञ्जनावग्रहसंबन्धिनो मये । ततश्चार्थावग्रहसमयात् पूर्वसमयेषु तदेव मानमतीउसंख्येयान् समयान् यावत्प्रतिसमयं पुष्टिमाबिभ्रतीक्षा- याम्फुट व्यञ्जमावग्रह उच्यते ? । चरमसमये तु तदेव नमात्री काश्चिदपि नेच्छसि तहि चरमसमयशब्दादिवि- किञ्चित् स्फुटतरावस्थामापनमायग्रहः इति व्यपदिषयद्रष्यसंबन्धेन संपूर्णे समुदायेऽपि कर्य तामिच्छसि ?- श्यते । अतो यद्यपि सुप्तमत्तमूर्छितादिज्ञानस्येव व्यवं चरमसमयशब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धे यदर्थावग्रहज्ञानमभ्यु - तथाविधं व्यञ्जनावग्रहशानसाधकं लिङ्गं नास्ति तथाऽपि पगम्यते, सदपि प्रत्येकमसचरमसिकताकसे तैलबन्न प्रा- | यथोनयुक्तिो व्यञ्जनावग्रहे सिद्धं बानम् । इति गाथार्थः । नोतीति भावः । तस्मात्तिलेषु तैलवस्सर्वेष्यपि समयेषु तत्त्वमेदपर्यायैाक्या, तत्र तथं व्यअनावग्रहस्य स्वप्रत्येकं यत्र यावच्च कानमस्तीति प्रतिपत्तम्यम् । इति रूपमुक्क्रम् । अथ तस्व भेदानिरूपयितुमाहगाशार्थः। नयणमणोवजिदिय-भेमाभो वंजणोग्गहो चउहा । (२०४+) समुदाये जइहाणं, देखणे समुदए कहं मऽस्थि । सच व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्दा भवति । कुतः १, इत्याहसमुदाये पाऽभूयं, कह देसे होज तं सयलं ।। २०२।। नयनमनोवजेंन्द्रियमेदात् । इदमुक्कं भवति-विषयस्य : न्द्रियस्य च यः परस्परं संबन्धः-प्रथममुपश्लेषमात्रं तवसमुदायबामवादिन् ? यदि विषयव्यसंबन्धसमयानाम व्यअनावग्रहस्य विषयः । स च विषयेण सहोपश्लेषः संख्येयानां समुदाय कानमर्थावप्रहलक्षणमभ्युपगम्यते । प्राप्यकारिष्येव स्पर्शन-रसनघ्राण-श्रोत्र लक्षणेषु चतुर्विसाह चरमसमयलक्षणो योऽसौ देशस्तेन न्यूने समुदाये न्द्रियेषु भवति, न तु नयनमनसोः । अतस्ते वर्जयित्वा घरमैकसमयो नैव्यसंख्यातेषु समयध्वित्यर्थः, तत्कथं शेषस्पर्शनादीन्द्रियचतुष्टयभेदात् चतुर्विघ एव व्यन्जनानास्ति , समस्त्येव, प्रमाणोपपनत्वात् ?, तथाहि-सर्ये घग्रहो भवति । विशे० । (भेदान् . इंदिय' शब्देऽस्मिन्नेव यपि शब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयेषु ज्ञानमस्तीति प्रतिजा भागे वक्ष्यामि। ('मण' शब्दे च षष्ठे भागे) ( व्यवस्थितम् मीमहे, ज्ञानोपकारिशब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयसमुदायैकदे अप्राप्यकारित्वं नयनमनसोः) ततश्च-स्पर्शन-रसन घ्राणशत्याविति हेतुः, अर्थायग्रहसमयवदिति दृष्टान्तः । अत्राह श्रोत्रभेवात् चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रहः । विशे। मनु शम्दादिविषयोपादानसमयसमुदाये ज्ञान केनाभ्यु (४) अपग्रहप्ररूपणामाह। प्रतिबोधक-मल्लक-राम्नापगम्यते, येन समुदायैकदेशवात्प्रथमाविसमयेषु सर्वेष्वपि भ्याश्च प्ररूपणां सहोपात्तत्वात्प्ररूपणया सदैव व्युत्क्रमेतत् प्रतिज्ञायते । मया शेकस्मिन्नेव चरमसमये शब्दादिद्रव्योपादाने बानप्रसव इष्यते, इत्याशझ्याह-'समुदाये घा ऽभूयमि' स्यावि. चशब्दो याशब्दो चा पातनायां सा च तत्थोग्गहो दुभेश्रो, उग्गणं जं होइ वंजणऽत्थाणं । कतैव । तत्र यधेकस्मिय चरमसमये हानमभ्युपगम्यते । बंजणो य जमत्थो, तेणाईए तयं वोच्छं । १६३॥ सदाऽसौ सबसमयसमुदायापेक्षया तायदेकदेश एव । त (अम्या गाथाया व्याख्या : उग्गह' शब्देऽम्मिनेष भामे मचाऽनेनैकवेशनोने शेषसमयसमुदाय यद्भूतं ज्ञानं त यच्यते) इत्यादिना प्रन्थेन प्रतिज्ञानव्य जनावग्रहस्वरूपकथं हन्त चरमसमयलक्षणे देशे अकस्मादेव सकलम प्रतिपादनं चेह प्रकृतम् । तस्य च व्यजनावग्रहस्य स्वखगई भवेद् अप्रमाणोपपन्नत्वात्। तथाहि-नकस्मिश्वर रूपं नन्द्यध्यबनागमसूत्रे प्रतियोधकमलकोदाहरणाभ्यां प्रमशब्दाविद्रव्योपादानसये ज्ञानमुपजायते, एकसयमात्रश तिपादितम् , तद्यथादादिद्रव्योपादानात् . व्यञ्जनायग्रहाद्यसमययदिति । स्या "जगुग्गहस्स परूवरणं करिस्सामि पडियोहगविट्ठलेणं, देतत् , बरमसंमयेऽर्धायग्रहझानमनुभवप्रत्यक्षणाऽप्यनुभूय मल्लगविटुंतेण य । से किं तं पडियोहगस्ट्रिवेणं ? पहिते, ततः प्रत्यक्षविरोधिनीयं प्रतिक्षा । तदयुक्तम् चग्मसमय एवं समनं ज्ञानमुत्पद्यते इति भवत्प्रतिज्ञात बोहगदिटुंतेणं से-जहानामए को पुरिसे कचि पुरिसं सुतं म्यैव प्रत्यक्षविरोधात्, चम्मतन्तौ समस्तण्टोत्पादयच पडियोहिजा अमुग! अमुग! त्ति । मत्य चोयो पराणभवत् । तचा, सर्वेष्यपि शब्दाविद्रव्यसंबन्धसमयेषु झा बग एवं पयासी-कि एगसमयपयिट्ठा पुग्गला गहणमागममस्तीत्यादिपूर्वोक्तानुमानविरोधश्च भवत्पक्षस्य । इति च्छत्ति, दुसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति जाव गाथार्थः। यससमयपबिट्टा पुग्गला गहरामागच्छति. संखिजसमय पचिट्ठा पुग्गल। गहमागच्छंति असंखिजसमयपषिट्ठा पुतस्मात्किमिह स्थितम् , हत्याह गला गहणमागच्छति ?, एवं यदन्तं चोयगं परगावए एवं तंतू पडोवगारी, न समत्तपडो य समुदिया ते उ। घयासी-नो एगलमयपविष्टा पुग्गला गहणमागच्छति, नो सो सम्मत्तपडो, तह नाणं सव्वसमयेसु ॥२०३॥ दुसमयपचिट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति जाय नो वसयथा एकरतन्तुः पटोपकारी वर्तते, तमन्तरेणापि सम समयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति नो संखिज समयप्रभ्य तस्याऽभावात् न चासो तन्तुरेतायता समस्तः पटो पचिट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति, प्रसंखिज्जसमयपविटा भवति, पटैकदेशत्यात् तस्य, समुदिताः पुनस्ते तन्तवः पुग्गला गहणमागच्छति, से (सं) तं पडियोहगदिटुंतणं ॥ सर्वे समस्तपटम्मपदेशभाजो भवन्ति । तथाऽत्रापि स- से किं तं मलगदिटुंलेणं ? मागविटुसेणं से जहानामए केर बस्यपि समुदितेषु ममयेषुशान भवति, नैकस्मिश्चरमस-| भावागसीसाम्रो मझगं गहाय तस्थेग उदगवितुं पक्खि Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माभिलिबोहियाण अभिधानराजेन्द्रः। प्राभिणियोहियणाण पिज्जा, से नट्टे । श्रये वि पावते, मेऽपि नट्टे । अराणे | मल्लक-शरावं तद्वदिति । तम्मिन् सूत्रकारभणिते व्यञ्जन वि पक्वित्ते, से वि नट्टे । एवं पक्विपमासु पक्खि- | द्रव्यं गृह्यते, इन्द्रियं बा, तयोर्वा द्रव्येन्द्रिययोः संयोगापमाणेसु होही से उदगपिंदूजे णं तं मां रायेदिति । संबन्ध इति सर्वथाऽप्यविरोधः । इदमुक्तं भवति-व्यञ्जनहोही से उदगबिंदू ज णं तसि मल्लगंसि ठाइति । होही से शब्देन शम्दादिविषयपरिणतपुद्रलसमूहरूपं द्रव्यं भोत्राउदगबिंदू जे णं तं मलशं भमेहिति । होही से उदगबिन्दू जे दीन्द्रियं वा द्रव्येन्द्रिययोः संबन्धो धा गृह्यते, मकबसि मल्लगंसि न ढाहिहिति । होही से उदगविंद जे ण तं श्चिद्विरोधः, व्यज्यते-प्रकटीक्रियते वितितोऽर्थोऽनेनेति मग पवाहहिति एवामेव पश्खिप्पमाणाई २ अणन्तेहि व्यजनमित्यम्या व्युत्पतेः सर्वत्र घटनादिति गाथार्थ । पुग्गलेहिं जाहे तं बंजणं पूरियं होहताह हुन्ति करे, नो केबल द्रव्यादिषु त्रिष्यपि ध्यानशब्दवाच्येषु प्रत्येकमाएव पंजाणा के वि एस सहार" (सूत्र-३५+) इत्यादि । रितत्व विशेषो द्रष्टव्यः कः पुनरसे। ? इत्याहइवं च सूत्र नन्दिविवरण एवेत्थं व्याख्यातम् , तद्यथा- दव्यं माणं पूरिय-मिंदियमापूरियं तहा दोराहं । प्रतिबोधकमलकरष्टान्ताभ्यां व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणं क- अवरोप्पस्संसग्गो, जया तया गिएहद तमत्थं ॥२५॥ रिष्यामि । तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः स एव अष्टान्तस्तन, तद्यथानाम कश्चिद-अनिर्दिष्टस्वरूपः पुरुषः 'दब्वं' ति यदा द्रव्यं व्यञ्जनमधिक्रयिते तदा 'जाहेतं कश्चिद्-अभ्यम् अनिदिएस्वरूपमेव पुरुष सुप्त सन्तं प्र घंजणं पूरिय होइ' इति-कोऽर्थः ? इत्याह-'माणं पूरियं' तितिबोधयेत् । कामस्याह-अमुक ! अमुक इति । तत्र मानम् तस्य शब्दादिद्रव्यस्य प्रमाणं प्रतिसमयप्रवेशन प्रप्रेरकः प्रक्षाएकमेवमवादीत्-किमेकसमयप्रविष्टा इत्यादि । भूतिकृतत्वात्स्वप्रमाणमानीत-प्रकर्षमुपनीतं स्वग्राहकज्ञानपवं यदन्तं प्रेरकं प्रज्ञापक एवमुक्रवान्-नो एकसमयप्रविण जनने समर्थी कृतमिति यावत् । यदा विन्द्रियमिति इन्द्रियं इत्यादि, प्रकटार्थ, यावन्नोसंण्येयसमयप्रविष्टाः पुद्रला व्यञ्जनमधिक्रियते तदा जाहे तं वंजण पूरियं हो।' ग्रहणमागच्छन्ति । नवरमय प्रतिषेधः शब्दयिशानग्राह्य इति-किमुक्तं भवति !, इन्याह-आपूरिय' ति-श्रापूरितंतामधिकृत्य वेदितव्यः; शब्दविशानजनकत्वेनेत्यर्थः, श्र व्याप्त--भृतं-वासिमित्यर्थः । नथा-'दोएडं ति'-द्वयोः म्यथा संबन्धमात्रमधिकृत्य प्रथमसमयादारभ्य पुनला श्रोत्रादीन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्ययोः संबन्धो यदि व्यञ्जग्रहणमागच्छन्त्येव । 'असंखज्ज' इत्यादि प्रतिसमय नमधिक्रियते तदा 'जाहे तं वंजण पूरियं होर' इतिप्रवेशनादित प्रारभ्यासंख्येयसमयैः प्रविष्टाः असंख्य किमुक्नं भवति ? , इत्याह-अवरोप्परं संसग्गो' त्तिसमयप्रविष्टाः पुद्रला:-शब्दद्रव्यविशेषा ग्रहणमागच्छन्ति सम्यग् सर्गो-योगः संसर्गः, सम्यक संबन्ध इत्यर्थः, इदमत्र अर्थावग्रहशानहतयो भवन्तीति भावः । इह च चरम हृदयम्-अस्मिन्पक्षे यदा तयोरन्द्रिय द्रव्ययोः परस्परसमयप्रविष्टा एव विज्ञानजनकत्वेन ग्रहणमागच्छन्ति, त. मतीव संयुक्तता-अनुपक्कता अगाडिभावेन परिणामो दन्ये विन्द्रियक्षयोपशमोपकारिण इति सर्वेषां सामान्येन भवति, तदा प्रस्तुतसबन्धलक्षण व्यञ्जनमापूरितं भवतीग्रहणमुक्तम् । सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्न व्यञ्जनायग्रहणप्ररू त्युच्यत इति । 'जया तया गिराहा तमत्थं' ति-एवं यदा पणा इति वाक्यशेषः ॥ अथ केय मल्लकदृष्टान्तेन प्ररू त्रिविधमपि व्यन्जनं प्रकारप्रयेणाऽऽपूरितं भवति, तदा पणा? । तद्यमानाम कश्चित्पुरुषः श्रापाकशिरसो मल्लक तं विक्षित शब्दादिकमर्थमब्यक्नं नाम-जात्यादिकल्पना शरायं गृहीत्या सक्षमिदं भवतीत्यम्य ग्रहणम् । तत्र मल्लके रहिनं गृहाति । एतच्च 'ताहे हुंति करेह' इत्यस्य व्याएकमुदकविन्दु प्रक्षिपेत्स नष्टः तत्रैव तद्भाबपरिणतिमापन्न ख्यानम् अर्थावग्रहश्चायमेकममाथिको विशेयः , इतरस्तु इत्यर्थः । शेष सुबोधम् 'जाव जे णं तं मलगं''राहिति' पूर्वमन्ततं द्रव्यप्रवेशादिरूपो व्यन्जनाऽवग्रहोऽबसेयः । आर्द्रता नेष्यति । शेष सुबोधम् । नवरम् 'पवाहेहिति' इति गाथार्थः। माययिष्यतीति । 'एवामे' त्यादि, अति बहुत्वात्प्रति समय- किं विशिएं पुनस्तमर्थ गृहाति ? इत्याशय खत एव मामनन्तः शब्दपुरलैः यदा तद्वयानं पूरितं भवति, तदा ध्यकारस्तत्स्यरूपमाह'हुम्' इति करोति तमर्थ गृह्णातीत्युक्तं भवति । किं विशिष्ट सामसमणिद्देस, सरूव-नामाइकप्पणारहियं । माम-जास्यादिकल्पनारहितम् , अत एवाह-'नो चेष गग जाणा के घेस सद्दाइ ति' न पुनरेवं जानाति क एप जइ एवं ज तेणं, गहिए सद्देत्ति तं किहणु ? ॥२५२॥ शब्दादिः इत्यर्थः । एवं च सति सामयिकत्वादावन- ग्राह्यवस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वे सत्यप्यर्थावग्रहेल हस्प अर्थावग्रहात्पूर्व सों व्यञ्जनाऽवग्रहः ॥ तदेवमस्थ सामान्यरूपमेवार्थ गृहाति, न विशेषरूपम् , अावग्रहव्यञ्जनाऽवग्रहस्वरूपप्रतिपादकस्य नन्दिसूत्रस्य शेषं प्रायः स्यैकमामयिकत्वात् , समयेन च विशेषग्रहणायोगादिति। सुगममिति मन्यमानो भाष्यकार: "जाहेतं चंजण परियं सामान्यार्थश्व कश्चित् ग्रामनगरवनसेनादिशब्देन निर्देहार" इत्येतत् (नन्दिसूत्रांश) व्याचिख्यासुराह- श्योऽपि भवति, तद्वयवच्छेदार्थमाह-अनिद्देश्य केनापितोरण मल्ल पिव, वंजणमापूरियं तिजं भणियं । । शब्दजानमिलप्यम् । कुसः पुनरेतत् ? , इत्याह-यतः स्व रूपनामादिकल्पनारहितम् , मादिशब्दात्-जानिक्रियासं दव्यमिदिम वा, तस्संजोगो वन विरुद्धं ॥ २५॥ गुणद्रव्यपरिग्रहः । तत्र रूपरसाद्यर्धानां य प्रात्मीयचच: 'जं भणिय' यदुक्तं नन्दिसूत्रकारेण किं तद् ?, इत्याह- गदीन्द्रियगम्यः प्रतिनियतः स्वभावस्तत्स्यरूपम् । ऊप-. ज्यानमापूरितमिति । केन किंवत् , इत्याह । तोयेन-जलेन । रसादिकस्तु तदभिधायको ध्यान म, कृपत्व-रसत्यादिका Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८) माभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। माभिणियोहियणाय तु जातिः प्रीतिकरमिदं रूपं पुष्टिकरोऽयं रस इत्यादि- भो पर ! यदि शब्दबुद्धिमानं 'शमोऽयम्' इति निश्चकस्तु शमः क्रियाप्रधानत्वात् क्रियाः । कृष्णनीलादिकस्तु | यज्ञानमपि भवतार्थाऽवग्रहोऽभ्युपगम्यते , तद्विशेषणं तु गुणः । पृथिव्यादिकं पुनद्रव्यम् । एतेषां स्वरूप-नाम-| तस्य शम्दस्य विशेषणं विशेषः 'शाह एवायं शब्दः' इत्याजात्यादीनां कल्पना अन्तजल्पारूषितझानरूपा तया रहि- दिविशेषज्ञानमित्यर्थः, अपायो मतिमानतृतीयो भेदोऽनी क्र. नमेवार्थमायग्रहेण गृह्णाति यतो जीवः, तस्मादनिर्देश्यो- यते हन्त तहि अवग्रहलक्षणस्य तदायभवस्याऽभायप्रसा, ऽयमर्थः प्रोक्तः, तत्कल्पनारहितखेन स्वरूप-नाम-जात्या- प्रथमत एवावग्रहमतिक्रम्याऽपायाऽभ्युपगमात् । कर्थ पुनः विप्रकारेण केनाऽपि निर्देप्रमशक्यत्वादिति । एवमुक्ते सति शब्दमानमपायः ? इति चेद् । उच्यते-तस्यापि विशेषग्राहपरः प्राह-'जा एवं' इत्यादि-यदि स्वरूप-नामादिकल्प- कत्वात् , विशेषज्ञानस्य च भवताप्यपायत्वेनाभ्युपगतत्वात्। नारहितोऽर्थोऽर्थाऽवग्रहस्य विषय इत्येवं व्याख्यायते ननु 'शाङ्क एवाऽयं शब्द' इत्यादिकमेव तदुत्तरकालभाविभवद्भिः, तहिं 'ज' ति-यन्नम्यध्ययनसूत्रे प्रोक्तम् । किम् ?, शानं विशेषग्राहकं शब्दशाने तु शब्दसामान्यस्यैव प्रतिइत्याह-'तेणं गहिए सदे' ति-उपलक्षणत्यादिस्थं तत्संपूर्ण भासनात्कथं विशेषप्रतिभासः, येनाऽपायप्रसाः स्याद् ?, द्रव्यम्-" से जहानामा केह पुरिसे अश्वतं सदं सु. इन्याह-'नणु' इत्यादि, नन्वित्यक्षमायां, परामन्त्रणे था, यजा तेणं सहे ति उग्गहिए न उरण जाणइ केस सहा" ननु 'शब्दोऽयं नाशब्द' इति विशेषोऽयं विशेषप्रतिभास इति, 'तं किहणु' ति-तदेतत्कथमविरोधेन नीयते ?- एवाऽयमित्यर्थः । कथं पुन शब्द इति निश्चीयते ?, युष्मवयाख्यानेन सह विरुदयते एयेदमित्यर्थः, तथा हि- इत्याह-न च रूपादिरिति, चशब्दो हिशब्दार्थ, आदिअस्मिनन्विसूत्रेऽयमर्थः प्रतीयते-यथा तेन प्रतिपत्त्रा- शब्दावन्ध-रस-स्पर्शपरिग्रहः । ततश्चेदमुक्तं भवति-यस्मात्र यग्रहेण शब्दोऽवगृहीत इति भवन्तस्तु शब्दाघुलखर रूपादिरयं, तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन गृहीतत्वाद् , अतो नाऽहिनं सर्वथा अमुं प्रतिपादयन्ति ततः कथं न विरोध इति | शब्दोऽयमिति निश्चीयतेः । यदि तु रूपादिभ्योऽपि व्याभावः इति गाथार्थः। वृतिगृहीता न स्यात्तदा शब्दोऽयमिति निश्चयोऽपि न अत्रोत्तरमाह स्यादिति भावः । तस्माच्छब्दोऽयं नाशब्दः इति विशेषमद्दे ति भणइ वत्ता, तम्मत्तं वा न सद्दबुद्धीए । प्रतिभास पवाऽयम् । तथा च सत्यस्याप्यपायप्रसङ्गतोजइ होज सहबुद्धी, तोऽवाओ चेव सो होला ॥२५३॥ | ऽवग्रहाभावप्रसाइति स्थितम्। इति गाथार्थः । शब्दस्तेनाऽयगृहीत इति यदुक्तं. तत्र-'शम्नः' इति वक्ता अथ परोऽवग्रहाऽपाययोर्विषयविभागं दर्शयत्राहप्रशापकः, सूत्रकारो वा भणति-प्रतिपादयति, अथवा-त थोवमियं नाबाओ, संखाइविसेसणमवाउ ति । मात्रं--शब्दमात्रं रूपरसादिविशेषव्यावृत्त्या उनवधारित- तम्भेया वेक्खाए, नणु थोवमियं पि नाऽवाओ ॥२५॥ त्याच्छन्दतया अनिश्चितं गृहातीति । एतावतांशेन शब्द- इदं शब्दबुद्धिमात्रक शब्दमात्रस्तोकविशेषावसायित्वात् स्तेनाऽवगृहीत इत्युच्यते, न पुनः शब्दबुद्ध्या 'शब्दो:- स्तोकम्-स्तोकविशेषग्राहकम् , अतोऽपायो न भवति, किं यम्' इत्यध्यवसायेन तत्-शब्दवस्तु तेनावगृहीतं, शब्दो- स्ववाह एवाऽयमिति भावः। कः पुनस्तापायः ?, इत्याहलेखस्यान्तर्मुर्तिकत्वाद् अर्थावग्रहस्य त्वेकत्यसामायिक- 'संखाई' इत्यादि, शाङ्गोऽयं शब्न इत्यादिविशेषणविशिष्ट स्वादसंभव एवायमिति भावः । यदि पुनः तत्र-अर्थाव- यजमान तदपाय: हद्विशेषावसायित्वादिति हवयम् । ग्रह शम्मबुद्धिः स्यातहि को दोषः स्याद् ? इत्याशकूध हन्त ! यद्यत् स्तोकं तत्तन्नाऽपायः, तर्हि निवृत्ता सांप्रतसूत्रकारः स्वयमेव दूषणान्तरमाह-'जई' स्यादि-यदि मपायज्ञानकथा , उतरोत्तरार्थविशेषग्रहणापेक्षया पूर्वपुनरावग्रह शध्यबुद्धिः-शब्दनिश्चयः स्यात् , तदाऽपाय पूर्वार्थविशेषावसायस्य स्नोकत्वाद् । एतदेवाह-'तम्भेय' पवाऽसौ स्यात् , नत्वर्थावग्रहः, निश्चयस्यापायरूपत्वात् । स्यादि, तस्य-शाशब्दस्य ये उत्तरोत्तरभेदाः मन्द्रमधुरततश्चार्थावग्रह-हाभाव एव स्यात्, न चैतद् दृष्टम् , स्वादयः , तरूणमध्यमवृद्धस्त्रीपुरुषसमुत्थत्वादयश्च तदपेएं च । इति गाथार्थः । क्षायां सत्यामिदमपि 'शाहोऽयं शब्दः' इत्यादि शान मनु अत्राह पर: ननु प्रथमसमय एव रूपादिव्यपोहेन 'शब्दो- स्तोकं-स्तोकविशेषग्राहकमेव इति नाऽपायः स्याद् । पवऽयम्' इति प्रत्ययोऽर्थावग्रहत्येनाभ्युपगम्यतां, शम्बमात्र- मुत्तरोत्तरविशेषग्राहिणामपि झानानां तदुत्तरोत्तरभेदापेग्वेन सामान्यत्वात् । उत्तरकालं तु प्रायो माधुर्यादयः | क्षया स्तोकस्यादपायत्वाभावो भायनीयः । इति गाथार्थः । राजशम्मधर्मा इह घटन्ते, ननु शाधर्माः स्वरककंशवादय तमेचा पायाभावं स्फुटीकुर्वनाहइति विमर्शवुद्धिरीहा तस्माच्छाड एवाऽयं शब्द इति इय सुबहुणा वि कालण, सब्बभेयावहारणमसझं। नविशेषस्त्वपायोऽस्तु । तथा च सति "तेणं सद्दे त्ति जम्मि हवेज अवाओ,सब्बो चिय उग्गहो नामा२५६। उम्गहिए" इदं यथाश्रुतमेव व्यास्यायते-नो चेव णं जाणा केवेस सदाइ तो ईहं पविसर” इत्याद्यपि सर्व इतिशम्द उपप्रदर्शनार्थः,ततश्चेदमुक्तं भवात-यथा शानोमविरोधेन गच्छनीति । तदेतत्परोक्तं सूरिः प्रत्यनुभाष्य ऽयं शम्नः' इत्यस्यां बुद्धौ शब्दगतभेदावधारणं सांप्रतम - दूषयति, तद्यथा साध्यम्, मन्द्रमधुरत्यादितदुत्तरोत्तरभेदबाहुल्यसंभवात् । तथा च सति स्तोकस्वान्नेयं बुद्धिरणायः, किं त्वर्था:जइ सहबुद्धिमत्तयमव-गहो तब्बिसेसणमवाओ । वग्रह इत्येवं सुबहुनाऽपि कालेन सर्वेणापि पुरुषायुषेण नण सदो नासो, न य स्वाइपिसेसोयं ॥ २५४ ।। शब्दगतमन्द्रमधुरत्याधुत्तरोत्तरभेदावधारणमसाध्यं तद्रे Jain Education Interational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। प्राभिणियोहियणाण दानामनन्तस्वादशक्यमित्यर्थः , यस्मिन् भेदाऽवधारणे, कालो मध्यपदलोपाद्वयम्जनकालः । भवत्येवं, तथाऽपि किम् ?, इत्याह-यस्मिन्नपायो भवेदन्यभेवाकाङ्गानिवृत्तेय- तत्र सामान्याऽर्थग्रहणं भविष्यति, इत्याशङ्कयाह-स च स्मिन् भेदाऽवधारणशाने उपायत्वं व्यवस्थाप्येत, इति भावः। व्यम्जनकालोऽर्थपरिशून्यः, न हि तत्र सामान्यरूपो, वि-- तस्मात्सोंऽपि भेदप्रत्यय उत्तरोत्तरापेक्षया त्वदभिप्रायेण शेष्यरूपो वा कश्चनाप्यर्थः प्रतिभाति, तदा मनोरहि-- स्तोकस्वार्थावग्रह एव प्रामोति, नाऽपायः, शब्दज्ञानवद् ।। तेन्द्रियमात्रव्यापारात् , तत्र चार्थप्रतिभासाऽयोगात् । इति गाथार्थः। तस्मात्पारिशष्यादस्मदभ्युपगताऽवग्रह एव सामान्यकिं च-शब्द एवायमिति शान स्तोकत्वाचदर्थावग्रहत्वेन प्रहणमिति गाथायामनुक्कमपि स्वयमेव द्रष्टव्यम् । तदनभवताऽभिमतम् । तत् पूर्वमीहामन्तरेण न संभवति तत्पूर्व- न्तरं चान्वयव्यतिरेकधर्मपालोचनरूपा ईहा, तदनन्तरं कस्येच तस्याऽर्थावग्रहत्वाऽसंभव इनि दर्शयन्नाह च' शब्द एवाऽयम् ' इति निश्चयज्ञानमपायः इति सर्व सुस्थं भवति । इति गाथार्थः।। किंसदो किमसहो- त्तणीहिए सहए व किह जुत्तं । अथ प्रथममेवाऽर्थाऽवग्रहमानेन शब्दाऽनप्रहपुबमीहिऊणं, सहो त्ति मयं तई पुवं ।। २५७।। हणे परः पुनरपि दोषमाह'किं शब्दोऽयम्' आहो(खि)श्विद् अशब्दो-रूपादिः जइ सद्दो त्ति न गहियं, न उ जाणइ जंक एस सहो त्ति। इत्येवं पूर्वमनीहिते यत् 'शब्द एव' इति निश्चयज्ञानं तदकस्मादेव जायमानं कथं युक्तम् :, विमर्शपूर्वकत्वमन्तरेण तमजुत्तं सामस्मे, गहिए मग्गिजइ विसेसो ॥ २६० ।। नदं घटत इत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-शब्दगतान्वयधर्मेषु, रू- यद्यर्थाऽपयोधसमये प्रथममेव 'शब्दोऽयम्' इत्येवं तद्वस्तु पारिभ्यो व्यावृत्तौ च गृहीतायां 'शब्द एच ' इति निश्चय- न गृहीतं, तर्हि 'न उण जाणइ के घेस सद्देति ' 'जंति', शानं युज्यते, तद्ग्रहण च विमर्शमन्तरेण नोपपद्यते, वि- यत्सूत्र निर्दिष्टं तदयुक्तं प्राप्नोति, यस्माच्छन्दसामान्ये रूपामर्शश्च-ईहा, तस्मादीहामन्तरेणायुक्तमेव 'शब्द एव ' दिव्यावृत्ते गृहीते सति पश्चान्मृग्यते-अन्विष्यते विशेष:इति निश्चयज्ञानम् । अथ निश्चयकालारपूर्वमीहित्या | 'किमयं शब्दः शाखः, उत शार्कः ?' इति । इदमुक्तं भवतिभवतोऽपि 'शब्द एवायम्' इति निश्चयज्ञानमभिमतम् । "न उण जाणा के वेस सहे" त्ति, अस्मिन् नन्दिसूत्रे 'न इन्त; तर्हि निश्चयज्ञानात्पूर्वम् ' तई' असौ ईहा भव- पुनर्जानाति कोऽप्येष शालशाविन्यतरशब्दः' इति घिचनतोऽपि सिद्धा। इति गाथार्थः।। शेषस्यैवाऽपरिज्ञानमुक्तम् , शब्दसामान्यमात्रग्रहणं त्वनुक्षायदि नाम निश्चयज्ञानात्पूर्वमीहा सिद्धा, तमेव, तद्ग्रहण तु 'क एष शब्दः, किं शाङ्कः, शाङ्गों वा' ततः किम् ?, इत्याह इत्येवं विशेषमार्गशमसङ्गतमेव स्यात् विशेषजज्ञासाया: किं तं पुव्वं गहियं, जमीहश्रो सदए व विणणाणं । सामान्य ज्ञानपूर्वकत्वाच्छन्दसामान्ये गृहीत एव तद्विशेष मार्गणस्य युज्यमानत्वात् । इति गाथार्थः । अह पुव्वं सामरणं, जमीहमाणस्स सहो त्ति ॥२५॥ अत्रोत्तरमाहहन्त ! यदि निश्चयज्ञानमीहापूर्वकं त्वयाभ्युऽपगम्यते, सव्वत्थ देसयंतो, सद्दो सद्दो ति भासपो भणइ । सहि प्रष्टव्योऽसि ननु ईहायाः पूर्व किं तद्वस्तु प्रमात्रा गृहीतम् , यदीहमानस्य तस्य 'शब्द एवायम्' इति नि इहरा न समयमित्ते, सद्दो त्ति विसेसणं जुत्तं ॥२६॥ श्चयज्ञानमुपजायते ?, न हि कश्चिद्वस्तुन्यगृहीते अक- सर्वत्र-पूर्वस्मिन् , अत्र च सूत्रावयवे अवग्रहस्वरूपं वेशस्मात्प्रथमत एव ईहां कुरुत इति भावः । कुभितस्य पर- यन्-प्ररूपयन् 'शब्दः शब्दः' इति भाषक:-प्रज्ञापक एव स्योत्तरप्रवानाऽसामर्थ्यमालोक्य स्वयमेव तम्मतमाशङ्कते- वदति, न तु तत्र ज्ञाने शब्दप्रतिभासोऽस्ति । इत्थं चैतद, अथ यात्परः-सामान्य नाम-जात्यादिकल्पनारहितं वस्तु-| अन्यथा न समयमात्रेऽर्थावग्रहकाले 'शब्दः' इति विशेषणं मात्रमीहायाः पूर्व गृहीतं, यदीहमानस्य ' शब्दः' इति युक्तम् , आन्तर्मुर्तिकत्वाच्छन्दनिश्चयस्येति प्रागेयोक्नम् । निश्चयज्ञानमुत्पद्यते । इति गाथार्थः ।। सांव्यवहारिकार्थाऽवग्रहापेक्षं वा सूत्रमिदं व्याख्यास्यते अथ ईहायाः पूर्व सामान्यग्रहणे परेणेष्यमाणे सूरिः इति मा व्वरिष्ठाः । इति गाथार्थः । खसमीहितसिद्धिमुपदर्शयन्नाह अथ सूत्रावष्टम्भवादिनं परं दृष्ट्रा सौत्रमेय परिहारमाहअत्थोग्गहलो पुव्वं, होयव्यं तस्स गहणकालेणं । अहव सुए च्चिय भणियं,जह कोइ सुणेज सहमव्वत्तं । पुव्वं च तस्स वंजण-कालो सो अत्थपरिसुमो ॥२५॥ अवत्तमणि देसं, साम-कप्पणारहियं ॥ २६२ ।। ननु ईहायाः पूर्वं यत् सामान्यं गृह्यते, तस्य तावद् ग्रहण- अथवा यदि तव गाढः श्रुतावष्टम्भः तदा तत्राप्येतद्भणितं कालन भवितव्यम् । स चास्मदभ्युपगतसामायिका- यदुत--प्रथममव्यक्तस्यैव शब्दोल्लेखराहतस्य शब्दमात्रस्य उयग्रहकालरूपो न भवति, अस्मदभ्युपगतानीकारप्रस- ग्रहणम् । केन पुनः सूत्राऽवयवेनेदमुक्तम् , इस्याह- जह कात्, किं तर्हि ?, अस्मदभ्युपगतार्थाऽधग्रहात्तत्पूर्वमेव कोर सुज सहमवत्तं' ति-अयं च सूत्रावययो नन्धभवदभिप्रायेण तस्य सामान्यस्य ग्रहणकालन भवितव्यं, ध्ययने इत्थं द्रष्टव्यः-" से जहानामए के पुरिसे अव्वतं पूर्व च तस्याऽस्मदभ्युपगतार्थाऽवग्रहस्य व्यन्जनकाल एव | सई सुणेज्ज त्ति-(सूत्र +) अत्र-श्रव्यक्तमिति कोऽर्थः ?, बनते, व्यन्जनानां-शब्दाविद्रव्याणामिन्द्रियमात्रेणादान- इत्याह-अनिदेश्य शब्दोऽयंपादिया' इत्यादिना प्रका Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) अभिधानराजेन्द्रः । आभिणियोहिपणाय । रेणापकमित्यर्थः ननु यदि शब्दादिरूपेणा निर्देश्यं तर्हि किंत इस्पाइ सामान्यम् । किमुकं भवति इत्याहनामजात्यादि कल्पनारहितम्नाशा दापेक्षया शब्दांवाने कु क्यानं लभ्यते इति अवग्रहस्थानाकारोपयोगरूपतया सूत्रेऽधीतस्वादअनाकारोपयोगस्य च सामान्यमात्रविषयस्वात् प्रथममेषाऽपायप्रसक्त्याऽवग्रहेहाभावप्रसङ्ग इत्यापाच इति गाथार्थः । — अथ सूरिरेव पराभिप्रायमाशिशङ्कयिषुराहअब मई पुव्वं चिय, सो गहिओ वंजणोग्गहे तेणं । जं वंजोग्गहम्मित्र, भणियं विषाणमव्यत्तं ॥ २६३ ॥ अथ परस्य मतिः स्यात्केयम् ? इत्याह-सः - श्रव्यक्तः, अनिश्यादिस्वरूपः शब्दः अर्थावग्रहात्पूर्वमेव व्यञ्जनावग्रहे तेन श्रोत्रा गृहीतः, तत्किमित्यर्थावग्रहेऽपि तद्ग्रहणमुघुष्यते ?, कथमिदं ते बहुत असो जनाव इत्याह-'जमित्यादिपत्यस्माद्जना भर्याङ्गरम्य विज्ञानमुक्रम् अव्यक्रविष 3 व्यक्त्वम् तस्योपपद्यते इति भावः इति । गाथार्थः । हेपि चाड अयोत्तरमाह " " 9 अत्थि तवं अब्वतं न उ तं शिरहद्द सर्प पि सो भणियं । न उ रंगहियम्मि जुञ्जद्द, सदो त्ति विसेसणं बुद्धी | २६४ अस्ति योजना, न तस्यास्माभिनरसी श्रोता अतिसौम्यात्तत्स्वयमपि गृह्णाति - संवेदयते । एतश्च भागपि भणितम् । " सुतमतारमबोदो " इति वचनात् तथा व सुत्तावयो सयं विय बिरणारां गाऽवबुज्भंति " इति वचनाश्च । तस्माद् व्यजनमात्रस्यैव तत्र ग्रहणं, न शब्दस्य, व्यजभावग्रहस्वाम्यथानुपपत्तेरेवेति । न व सामान्यरूपतया अपशब्देऽकस्मादेव शब्दः इति विशेषबुद्धिअपने अनुसारस्था लाक्षणिकत्वाद्विशेषबुद्धिरित्यर्थः । अस्यां च विशेषबुद्धौ प्रथममेवेष्यमाणायामादावेवार्थावग्रहकाले ऽप्यपायप्रसङ्गः इत्यसकदेवोक्तम् । इति गाथार्थः । ननु यदि जनपदे ऽप्यपशब्द प्रह भवेद को दोषः स्यात् इत्याहत्यो निसियगह, जह तम्मि वि सो न वंजयं नाम । अत्थोग्गहो थिय ततो, अपिसेसो संकरो वाऽवि ।। २६५ ।। अर्थाअर्थः इत्यनेन तावद्विषयम-रूपा निरस्थापस्य शब्दादेचियस्य मह तत्राऽभिप्रेतमित्यर्थः । यदि च तस्मिन्नपि व्यजनाऽवमहेसरा प्रतिभासते इत्यभ्युपगम्यते तदा न व्यञ्जनं नामः व्यञ्जनाऽवग्रहो न प्राप्नोतीत्यर्थः । ततश्चेदामी निवृत्ता तरकथा, नमावस्येव नोकस्वात् भवता च तदतिक्रान्तस्याऽव्यक्तार्थग्रहणस्यैहादिति व्याग्रह किमी स्यात् ? इत्याह-अयम एवासी अध्यक्षापात् ततश्या नवग्रहः । अथास्यापि • अभिषिबोहियवाण सुर्वे प्रत्यास्तित्यं न परिरहयते तर्हि द्वयोरप्यविशेषः सोऽप्यर्थावग्रहः सोऽपि व्यञ्जनावग्रहः प्राप्नोतीति भावः । मेचकमणिप्रभावत् संकरो वा स्यादित्यम् इति गाथार्थः । । तदेवं व्यञ्जना व्यञ्जनसंबन्धमात्रमेव अर्था स्वपशब्दाद्यर्थमयं न व्यशब्दाद्यर्थसंवेदनम् इति प्रतिपादितम्। सांप्रतमुपस्वन्तरेवाप्यर्थाऽयप्रदे व्यक्तशब्दार्थ संवेदनं निराचिकीर्षुराहजेणऽत्थोग्गहकाले, गहणेहाऽवायसंभवो नऽत्थि । तो नत्थ सहबुद्धी, महऽत्थि नाऽवग्गहो नाम।। २६६ ॥ पूर्व तावदर्थस्य ग्रहणमात्रं ततोदा तदनन्तरं स्वपायः इत्येवं मतिज्ञानस्योत्पत्तिक्रमः । न चैतत् त्रितयं प्रथममेवशब्दार्थेऽवडते समस्तीति । एतदेवाह येनार्थाय ग्रहकाले ऽर्धग्रहाऽपायानां संभयो नास्ति ततोऽर्थाय हे नास्ति शब्द इति विशेषबुद्धिः अर्थग्रहापूर्वकन्यात्तस्याः । अथाऽस्त्यी त समयम 9 " किं स्वपाय एव स्यात् न नद्युज्यते तद्भ्युपगमेऽर्थाऽषप्रहेोरभावप्रसङ्गात् इति गाथार्थः । • अपि हे शब्द इति विशेषविष्यमाणायां दोषान्तरमप्यस्ति । किं तत् ? इत्याहसामरण - तदवि से सेहावजगपरिग्गहण से । अत्थोग्गहेगसमोपभोगबाहुल्ल मावणं ।। २६७ ॥ इह येयमर्थाऽवग्रहैकसमये 'शब्दः' इति विशेष बुद्धिर्भवताऽभ्युपगम्यते सा तावनिश्वयरूपा निश्चयश्वाकस्मादेव न युज्यते, किंतु मे तथाहि प्रथमं तापादिभ्योऽव्यावृत्तमस्य शब्दसामान्यं ग्रहीतस्यं ततस्तद्विशेषपथा तत्परपादिविशेषविषया च परम शब्दः, आहोश्वित् रूपादिः' इत्येवं रूपा ईद्दा, तदनन्तरं च गृहीतशब्दसामान्यविशेषाणां ग्रहणम्, अन्येषां तु रूपादिविशेषाणां तत्राऽविद्यमानानां परिवर्जनम् इत्येवंभूतेन क्रमेण निश्वयोत्पत्तिः । तथा च सति धतुरोऽय कलमयेऽपि सामान्यग्रहादिभिः प्रकारेपयोगवत्वमापद्यते, एकस्मिँश्व समये बहवः उपयोगाः सिद्धान्ते नि. पिजाः, इनि नाऽर्थाय शब्दादिविशेषः । इति गाथाभायार्थः । , अक्षरार्थस्तूच्यते - सामान्यमिह - श्रूयमाणशब्दसामान्यं गृह्यते, ' तयराणविसेसेह' ति तच्छब्देनान्तरोक्तं शब्दसामाम्यमनुष्यते, अपशब्देन तु तत्राऽविद्यमाना रूपादयः परिगृह्यन्ते ततश्च तचान्ये च तदन्ये- शब्दसामान्यं रूपादयश्चेत्यर्थः तेषां विशेषा धर्माः धोत्रमाह्यत्वादयः पराश्चि तद्विपया हा तदन्यविशेषेा किमत्र श्रोत्रग्राह्यत्वादयो धर्माः उपलभ्यन्ते, आहोश्वित्चक्षुरादिवेद्यत्वादयः ? इत्येयं रूपये विमर्श इत्यर्थः, तदमन्तरे तु वर्जने च तथाऽविद्यमानरूपादिगतानां देवध र्माणां कुर्वेत्यादीनां परिग्रहणं च तत्र च गृहीनश -- सामान्यगतानामुपादेयधर्माणां श्रोत्रग्राह्यत्वादीनाम्, इति वर्जन- परिग्रहणे - त्यागाऽऽदाने; सामान्यं च तदन्यषिशेषेा व वर्जनपरिग्रह व सामान्य तदम्यविशेषेद्वाय Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६१) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। भाभिणियोहियणाण जन-परिग्रहणानि तेभ्यस्ततः 'से' तस्य श्रोतुः । अर्था- पुरुषविषयमेतत्सूत्रमिति चेत् , न; अविशेषेणोक्लत्वात् , बग्रहकसमयेऽप्युपयोगबाहुल्यम् , श्राप-प्रासम् । तथाहि- सर्वविशेषविषयत्वस्य च युक्त्यनुपपन्नत्वात् । न हि प्रप्रथमस्सामाग्यग्रहणोपयोगः, यथोक्नेहोपयोगस्तु द्वितीयः | कृपमतेरपि शब्दधर्मिणमगृहीत्वा उत्तरोत्तर-बहुसुधर्मदेयधर्मवर्जनोपयोगस्तृतीयः, उपादेयधर्मपरिग्रहणोपयोग- प्रहण संभवोऽस्ति , निराधारधर्माणामनुपपत्तेः । इति श्चतुर्थः, इत्येवमर्थावग्रहकसमयमानेऽपि बहवः उपयोगाः गाथार्थः। प्राप्नुवन्ति । नवैतद्युक्तं, समयविरुद्धत्वात् । तस्मानार्था- किंच-समयमात्रेऽपि'शब्दः' इति विशेषविज्ञानमऽवग्रहे शब्दविशेषबुद्धिः, किंतु 'सहेसि भएणड बत्ता' भ्युपगच्छतोऽन्येऽपि समयविरोधादयो इत्यादि स्थितम् । इति गाथार्थः। दोषाः । के पुनस्ते!, इत्याहअथास्मिन्नेवार्थाऽवग्रहेऽपरवाचभिप्रायं निराचिकीर्षुराह अत्थोग्गहो न समयं, अहवा समोवोगवाहलं । अरणे साममग्गहण-माहुबालस्स जायमेत्तस्स । सबविसेसग्गहणं, सधमईवोम्गहो गिझो ।। २७० ।। समयम्मिचेव परिचिय-विसयस्स विसेसविनाणं ।२६८। एगो वाऽवाउ च्चिय, अहवा सोऽगहियणीहिए पत्तो । अन्ये-वादिनः केचिदेवमाहुः-यदेतत्सर्वविशेषविमुख स्या- उवक्कम-वइकमा वा, पत्ता धुवमोग्गहाईणं ।। २७१ ।। उज्यनस्य सामान्यमात्रस्य वस्तुनो ग्रहणमालोचनं, तद् साममं च विसेसो, वा सामसमुभयमुभयं वा। बालस्य-शिशोस्तत्तणजातमात्रस्य भवति, नाउ विप्रतिपत्तिः, अव्यक्लो ह्यसौ संकेतादिविकलोऽपरिचितविषयः । न य जुतं सव्वमियं वा,सामयाऽऽलंबणं मोत्तुं ॥२७२।। यस्तर्हि परिचितविषयः, तस्य किम् ?, इत्याह-समय एव 'उग्गहो एवं समयमि' त्यादिवचनादर्थावग्रहः सिआद्यशम्श्रवणसमय एवं विशेषविज्ञानं जायते, स्पष्टत्वा द्धान्ते सामयिको निर्दिष्टः, यदि-चार्थाऽयग्रहे विशेसस्य ततश्चामुमाश्रित्य 'तेण सहेत्ति उग्गहिए' इत्यादि, षविज्ञानमभ्युपगम्यते तदा सामायिकोऽसौ न प्रायथाश्रुतमेव व्याख्यायते, तेन न कश्विद्दोष इति भावः । मोति, विशेषज्ञानस्याऽसंरुषेयसामयिकत्वाद् । अथ सइति गाथार्थः। मयमात्रेऽप्यस्मिन् विशेषज्ञानमिष्यते, तर्हि "सामगण-- अत्रोत्तरमाह तयाणविसेसेहा ” (२६७ गा०) इत्यादिना प्रागुतं समतदयस्थमेव तं पुध-दोसो तम्मि चेत्र वा समये । योपयोगबाहुल्यं प्राप्नोति । अथवत्यग्रतोऽप्यनुवर्तते । ततश्च अथवा परिचितविषयस्य विशेषज्ञानेऽभ्युपगम्यसंखमहुराइसुबहुय-विसेखगहणं पसज्जेजा।। २६६ ।। मान परिचिततरविषयस्य तस्मिन्नेव समये सर्वविशेष"जेणत्योराहकाले" (२६६ गा०) इत्यादिना ग्रन्थेन ग्रहणमनन्तरोक्नं प्राप्नोति । अथवा-अवग्रहमात्रादपि विशेसामरणतयाणविसेसहा (२६७ गा०) इत्यादिना च ग्रन्थेन पपरिच्छेदेऽङ्गीक्रियमाणे ईहादीनामनुत्थानमेव । ततेश्व यद दृषितं या तस्यावस्था-यत्तस्य स्वरूपम्-'समयम्मि चेव सर्वापि मतिरवग्रहो ग्राह्यः-सर्वस्याऽपि मतेरवग्रहरूपतव परिचियविसयस्स विसेसविराणाणं' इति, तदेतत्परोक्नमपि प्राप्नोतीत्यर्थः। अथवा-सर्वाऽपि मतिरपाय एवैकः प्रानदयस्थ मेव, न पुनः किंचिदूनाधिकावस्थम् । कुतः ?, प्नोति, अर्थावग्रहे विशेषज्ञानस्याश्रयणात् , तस्य च निइत्याह-"पुम्बदोसउ" ति, “जेणत्थोग्गहकाले" (२६६ | श्वयरूपत्वात् , निश्चयस्य, चाऽपायत्वादिति समयमात्रे गा०) इत्यादिना "सामरणतयराण" (२६७ गा०) इत्यादि- चास्मिन्नपाये सिद्ध" ईहायायामहत्तमंतं तु" इति विना च यः पूर्व दोषोऽभिहितस्तस्मात्पूर्वदोषात् पूर्वदोषान- रुध्यते । अथवा-अऽवगृहीते इंहिते 'च, अपायः सितिवृत्तेः, तदेतत्परोक्तं तदवस्थमेव, इति नान्यदूषणाभि- द्धान्त निर्दिश्यते " उग्गहो, ईहा, अवाश्री य" इति क्रमधानप्रयासो विधीयत इति भावः । श्रथ वा-पूर्वमपि निर्देशात् , यदि चाद्यसमयेऽपि विशेषज्ञानाभ्युगएगमाददूषणमुच्यते । किं तद् ?, इत्याह- तम्मि चेव' इत्यादि, पाय इष्यते, तीनवगृहीते अनीहिते च तस्मिन्नसौ प्राप्तः । 'वा' इति-श्रथ घा, तस्मिन्नेव स्पप्रविज्ञानस्य व्यक्तस्य 'वा' इति-अथवा, यदि तृतीयस्थाननिर्दिशोऽप्यपायः "सजन्तर्विशेषग्राहिणि समये ' शाश. शाङ्गों वाऽयं शब्दः, मम्मि व परिचियविसयस्स विराणा" इति चचस्निग्धा मधुरः, कर्कशः, स्त्री-पुरुषाद्यन्यतरवाद्यः ' इत्या- नात्पटुत्ववैचियेण प्रथममभ्युपगम्यते, तर्हि तस्मादेव दिषु बहुकविशेषग्रहणं प्रसज्येत । इनमुक्तं भवति-यदि पाटबवैचिच्यादयग्रहे-हाड-पाय-धारणानां ध्रुवं निश्चितव्यक्तस्य परिचितविषयस्य जन्तोरव्यशब्दज्ञानमुशाय मुत्क्रम-व्यतिक्रमी स्याताम् । तत्र पश्चानुपूर्वीभवनम्तस्मिन्नर्थायग्रहकसमयमात्रे शब्दनिश्चयक्षानं भवति, तदा उत्क्रमः । अनानुपूर्वीभावस्तु-व्यतिक्रमः । तथा हि । यथा अन्यस्य कस्यचित्परिचिततरविषयस्य पटुनरावबोधस्य शक्तिवैचिच्यात्कश्चित्प्रथममेवापायौ भवताऽभ्युपगम्यते, तस्मिय समये व्यक्तशब्यज्ञानमपि अतिक्रम्य 'शाशोऽयं तथा तत पय कस्यापि प्रथम धारणा स्यात् , ततोऽशब्दः' इत्यादिसंख्यातीतविशेषग्राहकमपि झानं भवद- पायः, ततोऽपि ईहा तदनन्तरं त्यवग्रह इत्युत्क्रमः, अभिप्रायेण स्यात् , दृश्यन्ते च पुरुषशक्तीनां तारतम्यवि- म्यस्य कस्यचित् पुनरवग्रहमुन्मय प्रथममेवहा समुपशेषाः। भवत्येव कस्यचित्प्रथमसमयेऽपि सुबहुविशेषग्राह- जायेत, अपरस्य तु तामप्यतिक्रम्याऽपायः, अन्यस्य तु कमपिहानमिति चेत् , न," न उण जाणह के वेस सहे" | तमप्यतिवृत्य धारणा स्याद् इत्यादि व्यतिक्रमः । न चेह इत्यस्य सूत्रावयवस्यागमकरवप्रसङ्गात् । विमध्यमशक्ति- यवं युक्तिमापष्छनीयाः, भवभ्युपगतस्य शक्वैिचिच्य Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रभिषिब्रोहियणाच 6 " 6 9 " स्यैव पुष्टिहेतोः सद्भावात् । न चैतायुत्क्रमव्यतिक्रमौ युक्तौ “ उग्गहो ईहा अवाश्र य धारणा एवं होति चत्तारि " इति परममुनिनिर्द्दिकमस्या अन्य धाकमादिति । तथा, यदि यस्प्रथमसमये गृह्यते स विशेषस्तर्हि "सामर व विसेसो "सि यत्सामान्यं तदपि विशेषः प्राप्तः, प्रथमसमये हि सर्वस्याऽपि वस्तुनोऽव्यकं सामान्यमेव रूपं गृह्यते ततोऽसमये सामान्यमेव गृह्यत परमार्थ यदि वा अत्र विशेषबुद्धिर्भवता - भ्युपगम्यते, तर्हि यदि वस्तुस्थित्या सामान्य स्थितं तदपि भवदभिप्रायेण विशेषः प्राप्तः खशब् दूषणसमुच्चयार्थः । 'सो वा सामरणं त्ति-स वा भवदभिप्रेतो विशेषो वस्तु स्थितिसमायातं सामान्यं प्राप्नोतीति । उभयमुभयं व ति श्रथ वा सामान्य विशेषलक्षणम्ममध्ये प्राप्नोति एकैकमुभयरूपस्यादित्यर्थः, तथा हि-अव- ईषत्सामान्यं गृह्णातीत्यवग्रह इति व्युत्पत्या वस्तुस्थितिसमायातं यत्सामान्यं तत्खरूपेणा नावत्सामान्यम् भवदभ्युपगमेन तु विशेषः, इत्येकस्याऽपि सामान्यस्योभयरूपताः तथा योऽपि भवदभ्युपगतो विशेषः सोऽपि यदभिप्रायेण विशेषः वस्तुखिया तु सामान्यम् इति विशेषस्याप्येकस्योभयस्वभावता । भप्रत्येयमिति चेत् । इत्याह-न च युक्रं सर्वमिदम् । किं कुत्या ?, इत्याह- सामान्यमालम्बनं ग्राह्यं मुक्त्वा अर्धाउपग्रहस्य इति शेषः । इदमुकं मयति-अव्यक्तं सामान्यमात्रमालम्बनं परिहृत्य यदन्यद्विशेषरूपमालम्बन मिष्यते, तदभ्युपगमे च सामं च विसेसो मालम्बनमिष्यते, वा सामरं इत्यादि, यदापतति तत्सर्वमयुक्तम्, अघटमानकत्वात् । इह च गाथात्रये बहुषु दूषणेषु मध्ये यत् प्रागुक्रमपि किंचित् दूषणमुक्तं तत्प्रसङ्गायातत्वात्, इति न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् । इति गाथात्रयार्थः । प्रस्तुत एवार्थे परमपि मतान्तरमुपन्यस्य निराकुर्वग्राहकेई दीहालोयण- पुण्वमोग्गहं विंति तत्थ सामरणं । गहियम हत्थावग्गह- काले सद्दिति निच्छिरणं ॥ २७३ ॥ केचित् - वादिनः इहास्मिन्प्रक्रमेऽवग्रहं ब्रुवते - अर्थावग्रहं म्याचक्षते किं विशिष्टम्, इत्याह-आलोचनपूर्वम्-सा मान्यवस्तुप्राहिज्ञानम्-घालोचनं तत्पूर्वे प्रथमं यत्र स तथा तं प्रथममालोचनज्ञानं ततोऽर्थावग्रह इत्यर्थः तथा च तैरुलम् - " अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं, प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञान-सदृशं शुद्धवस्तुजम् " ॥ १ ॥ इति । किं पुनस्तामझाने गृह्यते इत्यादय इत्यादि. तब आलोचनाने सामान्यमव्यक्तं वस्तु दीनं प्रतिपा इति गम्यते अथानन्तरम् का देव गृहीतम्' इत्यनुवर्त्तत । कथंभूतं सद् ? इत्याह-निच्छिन्नं पृथक ( 1 रूपा 'सदेशि शब्द विशेषणविशिष्टमित्यर्थः । ततश्च से ज हानागर के पुरिसे अपने ससुज" इति ए तदालोचनज्ञानापेक्षया नीयते, "तेणं, सह त्ति उग्गद्दिए " एतत् चार्थाऽयग्रहात सर्व सुखतामनुभवति म चातः परं भवतोऽप्याचार्य ! कपिलमस्ति यदि हि (२२) अभिधान राजेन्द्रः । " अभिषिषयिणाण युक्तयनुभवसिद्धेनार्थेन सूत्रे विषयविभागव्यवस्थापितेऽपि वादी जयं न प्राप्स्यति, तदा तूष्णीमाश्रयन्तु विपश्चितो विचारचर्यामार्गस्य स्वाग्रहतत्परेण त्वयेषात् । इति गाथार्थः । तत्र सूरिः परस्येष गर्वा नुविद्धामशतामवलोकयन् मार्गावतारणाय विकल्पयन्नाह - तं वंजयोग्गहाम्रो पुब्वं पच्छा स एव वा होआ । पुवं तदभवंजस संबंधाभावओ नत्थि ॥ २७४ ॥ यद्यनुपद्दतस्मरणवासना सन्तानस्तदर्भावग्रहात्पूर्व व्यञ्जगावो भवतीति तद्भवानपि स्मरति । ततः किम् इति वेद, उपसि मान्य ग्राहकमालोचनं तत् तस्माद्वयञ्जनाऽवग्रहात्पूर्व वा भवेत् पश्चाज्ञा भवेत् स एय वा स्पष्जनावग्रहो उत्पालोचनं भवेत् ? इति श्रयी गतिः, अन्यत्र स्थानाऽभावात् । किं चातः इत्याह-पूर्वास्तीति संबन्धः कुतः अर्थ जनसंबन्धाभावादिति अर्थः- शब्दादिविषयभावेन प रितद्रव्यसमूहः श्व " अन तयोः संबन्धस्तस्पाभावात् तिहा जनसंबन्धे सामान्यापलायनं स्याद् अन्यथा सर्वत्र सर्वदा तद्भावप्रसङ्गात् । व्यञ्जनाऽवग्रहाच्च पूर्वमर्थव्यजनसंबन्धो नास्ति तद्भावे च व्यञ्जनवग्रहत्वात्तत्पूर्वकालता न स्यादिति भावः । इति गाथार्थः । द्वितीयधिक शोधपत्राद अत्थोग्गहो विजं वं-- जणोग्गहस्सेव चरमसमयम्मि | पच्छावितो न जु, परिसं वंजयं होजा ।। २७५ ।। तथा-अर्थापोऽपि यद्यन्जना यस्यैव च रमसमये भवति, इति, प्रागिहापि निर्णीतम् । तस्मात्पश्चादपि पञ्जा ग्रहादालोचनानेन युक्तं, निरवकाशयात् । न हि व्यञ्जनार्थऽवग्रद्दयोरन्तरे कालः समस्ति यत्र तत् स्वदीयमालोचनानं स्यात् व्यञ्जनाऽवग्रहचरमसमय एवार्थावग्रहसद्भावात् । तस्मात्पूर्वपश्चात्कालयोर्निषिद्धस्वात्पारिशेष्यामध्यकालयतीपविकल्पोपन्यस्तो - एव भवता आलोचनाभ्युपगत भवेत् । एवं च न कश्चिद्दोषः नाममात्र एक विवादात् । T इति गाथार्थः । क्रियतां तर्हि प्रेरकवर्गेण वर्द्धापनकं, स्वदभिप्रायाविसंवादलाभात् इति चेत् । नैवं, विकल्पद्वयस्येह सद्भावात् तथा हि-व्यञ्जनाग्रहकालेऽभ्युपगम्यमानमालोचन किमर्थस्यालोचनं व्यञ्जनानां वा ? इति विकल्पद्वयम् । तत्र प्रथमविकल्पमनूच दूषयग्राह तं च समालोयणम स्थदरिस ज‍ न जगणं तो तं । यह जस्स तो कह-मालोयसमश्यास्स १ ॥ २७६ ॥ तत्समालोचनं यदि सामान्यरूपस्यार्थस्य दर्शनमिष्यते ततः तर्हि न व्यञ्जनम् न व्यञ्जनाऽवग्रहात्मकं भवति, व्यञ्जनवग्रहस्य व्यञ्जनसंन्धमात्माऽन्यत्वात् तथा - प्रागपि पुध्वं च तस्स वंजण - कालो सो अस्थ 40 " 9 , " Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। আলিযিতিয়া परिसुराणो" स्यादिना साधितमेवेदम् । अतोऽर्थदर्शन- | स्वयेप्यते सोपायः, स चाऽवगमस्वभावो निश्चयस्वरूप रूपमालोचनं कथमर्थशून्य-व्यञ्जनावग्रहात्मकं भवितुम- | इत्यर्थः; या च तत्समकालमीहाउभ्युपेयते सा तर्कस्वभावा; हर्ति ?, विरोधाद् । अथ द्वितीयविकल्पमङ्गीकृस्याह-प्रथ अनिश्चयात्मिका इत्यर्थः । तत पतौ ईहाउपायौ अनिध्यानस्य शब्दादिविषयपरिपतद्रव्यसंबन्धमात्रस्य तत्स- श्चयेतरस्वभावौ कथमर्थावग्रहे युगपदेव युक्तो निश्चयामालोचनमिष्यते, तर्हि कथमालोचनं-कथमालोचकत्वं, ऽनिश्चययोः परस्परपरिहारेण व्यवस्थितत्वादेकत्रैकदाऽवतस्य घरते, इत्यर्थः । कथंभूतस्य सतः ?, इत्याह- स्थानाभावेन सहोदयानुपपत्तेः ? इति । एषा तावद्विशेअर्थशून्यस्य व्यअनसंबन्धमात्रान्धितत्वेन सामान्यार्था- पाचगमे-हयोः सहभावे एकानुपपत्तिः । अपरं च समयलोचकत्वानुपपत्तरित्यर्थः । इति गाथार्थः । मात्रकालोऽर्थाऽवग्रह ईहाउपायौ तु“ईहाऽवायामुहुत्तमंतं ननु शास्त्रान्तरप्रसिद्धस्यालोचनशानस्य वरा- तु" इति वचनात्प्रत्येकमसंख्येयसमनिष्पनौ कथंककस्य तर्हि का गतिः ? इत्याह स्मिन्नर्थाऽवग्रहसमये स्याताम् । अत्यन्तानुपपन्नत्यात् ।। इति द्वितीयानुपपत्तिः । तस्मादत्यन्ताऽसंबद्धत्वाचत्किचिभालोयम चि नामं, हविज तं वंजणोग्गहस्सेव । देतत्, इत्युपेक्षणीयम् । इति गाथार्थः। होज कहं सामा-गहणं तत्थऽत्थसुस्मम्मि ?॥२७७॥ संदर्य युक्तिशतैर्निराकृतानामपि प्रेरकाणां निःसंख्यातस्मादालोचनमिति यन्नाम तदन्यत्र निर्गतिकं सरपारि त्वात्कषांचिस्प्रेयशेषमद्यापि सूरिराशङ्कतेशेष्याद्-व्यञ्जनावग्रहस्यैव द्वितीयं नाम भवेत् । न च विवक्षामात्रप्रवृत्तेषु वस्तूनां बहुष्वपि नामसु क्रियमाणेषु को खिप्पेतराइभेओ, जमुग्गहो तो विसेसविण्णाणं । ऽपि विवादमाविष्करोति ? । अत एतदपि नामान्तरमस्तु, जुआइ विगप्पवसओ, सद्दो ति सुयम्मि जंकेड ॥२८॥ को दोपः? इति । नैतदेवम् , यस्मादिदं सामान्य ग्राहक- 'के' ति-इहार्थाऽवग्रहे विशेषज्ञानसमर्थनाग्रहममुमुमालोचनशानं भविष्यति, अर्थावग्रहस्तु विशेषप्राहक इति; क्षयोऽद्यापि केऽपि' केचिद्वादिनो मन्यन्ते । किम् ? इत्याहएवमप्यस्माकं समीहितसिद्धिर्भविष्यतीति चेत्, इत्याह क्षिप्रेतरादिभेदो यस्मादवग्रहो ग्रन्थान्तरे भणितः 'अ'होज्ज' त्यादि । व्यञ्जनावग्रहस्यैव पारिशष्यादालोच त्रापि च विस्तरेस भणिष्यते' इति गम्यते । ततः शब्दः' नज्ञानत्वमापत्रं तत्र च प्रागुक्तयुक्निभिरर्थशून्ये कथं सा इति विशेषविज्ञानं युज्यते-घटते 'अर्थावग्रहे' इति प्रस्तामान्यग्रहणं भवेत् , येन भवतः समीहितसिद्धिप्रमोदः ?, चादेव लभ्यते । यत्किम् ?, इत्याह-सुयाम्म जं' ति-"तेणं इति । तस्मादर्थावग्रह एव सामान्याऽर्थग्राहकः, न पुनरे सद्दे चि उग्गहिए" इत्यादिवचनात् यत् 'सूत्रे निर्दिष्ट' तस्मादपरमालोचनाहानम् । अत एव यदुक्रम्-"अस्ति इति शेषः । कुतः पुनरिदं विशेषविज्ञानं युज्यते ?, इत्याहखाखोचनावानं, प्रथम निर्विकल्पकम्" इत्यादि, तदप्य विकल्पवशतोऽन्यत्रोक्लनानात्ववशतः इत्यक्षरघटना । एतर्थावग्रहाश्रयमेव , यदि घटते; नाऽन्यविषयम् । इति थात्र हृदयम् क्षिप्रमयगृहाति, चिरेणाऽवगृह्णाति, यहवगाथार्थः। गृह्णाति, अबलवगृह्णाति, बहुविधमयगृह्णाति, बहुविअथ 'दुर्बलं वादिनं रष्ट्राऽभ्युपगमोऽपि कर्त्त धमवगृह्णाति, एवमनिश्रितं, निश्रितम् , असंदिग्ध, सं व्यः' इति न्यायप्रदर्शनार्थमाह दिग्धं, ध्रवम् , अध्रवं गृहाति, इत्यादिना ग्रन्थेनाऽवनगहियं व होउ तहियं, सामगणं कहमणीहिए तम्मि। हादयः शास्त्रान्तरे द्वादशभिर्विशेषणैर्विशषिताः । अत्रापि अत्थाऽवग्गहकाल, विसेसणं एस सद्दो त्ति ॥ २७८ ॥ च पुरस्तादयमों वक्ष्यते । ततः क्षिप्रं चिरेण चाव गृह्णाति' इति विशेषणाऽन्यथानुपपत्तेर्शायते-नैकसमयशथवा भवतु तस्मिन् व्यञ्जनाऽवग्रहे सामान्यं गृहीनं, मात्रमान एवार्थाऽवग्रहः, किं तु-चिरकालिकोऽपि, नहि सथाऽपि कथमनीहिते-अविमर्शिते तस्मिन्नकस्मादेवार्था समयमात्रमानतया एकरूपे तस्मिन् क्षिप्र-चिरग्रहणविऽयग्रहकाले ' शब्द एषः ' इति विशेष विशेषज्ञानयुक्तं, शिषणमुपपद्यत इति भावः । तस्मादेतद्विशेषणबलादसं'शब्द पवैषः' इत्ययं हि निश्चयः, न चायमीहामन्तरेण | स्येयसमयमानोऽप्यर्थावग्रहो युज्यते । तथा-बहूनां श्रीझगित्येव युज्यते, इत्यसकृदेवोक्तप्रायम् । अतो नार्थाऽब तृणामविशषेण प्राप्तिविषयस्थे. शङ्कभर्यादिबहुतूर्यनिर्घोष आहे 'शब्दः' इत्यादिविशेषबुद्धिर्युज्यते । इति गाथार्थः ।। क्षयोपशमवैचिच्यात्कोऽप्यबहु अवगृह्णाति; सामान्य समुअथाऽर्थाऽवग्रहसमय शब्दाधवगमेन सहचहा भविष्य दिततूर्यशब्दमात्रमवगृह्णातीत्यर्थः । अन्यस्तु बह्नवगृह्णाति: सीति मन्यसे, तत्राss शक-भर्यादिसूर्यशब्दान् भिन्नान् बहून् गृहतीत्यर्थः । अअत्थाऽवग्गहसमये, वीसुमसंखिजसमइया दो वि।। न्यस्तु स्त्रीपुरुषादिवाद्यन्व-स्निग्धमधुरत्वादिबहुविधविशेतकाऽवगमसहावा, ईहाऽवाया कहं जुत्ता ॥ २७६ ।।। पविशिष्टत्येन बहुविधमयगृह्णाति, अपरस्तु-अबहुविध विशेषविशिष्टत्वाद् अबहुविधमवगृह्णाति, अत एतस्माद्अर्थाऽवग्रहसंबन्धिन्येकस्मिन्समये कथमीहापायौ युक्तौ ?, बहुबहुविधाद्यनकविकल्पनानात्ववशावग्रहस्य क्यचिइति संबन्धः । कथंभूतायेतो ? यतः, इत्याह-तोऽवगम- सामाम्यग्रहण, कनि-विशेषग्रहणम् , इत्यभयमप्यस्वभायौ, तों-विमर्शस्त स्वभावा ईहा, अवगमोऽपि-नि- विरुद्धम् । मतो यरसूत्रे-" तेण सहे त्ति उग्गहिए" इति अयस्तत्स्वभावोऽपाय द्वायपि चैतो पृथगसंख्येयसमय- बचनात्-'शब्दः' इति विशेषज्ञानमुपदिष्ट, तदप्यर्थाध्यग्रह निषत्रौ । एतदुक्तं भवति-यदिदमर्थाऽवग्रहे विशेषज्ञानं | युज्यत एव इति केचित् । इति गाथार्थः । ७४ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणियोहियपाप रमा सकिमुग्गहो ति भगड़, गहणेहाऽवायलक्खणते वि । अह उवचारो कीरह, तो सुख जह जुञ्जए सोऽवि । २८१ । इह पूर्वमा प्रतिविद्दितमध्ये पुनः पुनः प्रेर एक लोपास्लिवासा काका'कहो ति भगवदलि-किशब्द या बहुबहुधादिविशेषवशात् विशेषागमः स किमबुध तिन् अवः भत्ते क सत्यपि 2. इत्याह-' गहणे हि स्यादि ग्रह व सामान्यार्यस्य ईहा अवगृहीतस्य अपाय हितार्थस्य ग्रह-हाड-पायास्तेकिस तथा तद्भावस्तस्वं तस्मिन् सत्यपि यहु-बहुविधादिवादको दि विशेष गमो नि श्वयः, स च सामान्याऽर्थग्रहणम् ईहां विना न भवति पश्व तदविनामाथी सोडवायएच कथमथांवग्रह इति भरायते । इति एतत्पूर्वमदेोक्रमपि दन्त ! विस्मरशीलता जडनया, बुद्धाभिनिवेशतया या पुनः पुमरस्मान् भाग्यसीति किं कुर्मः ? पुनरुक्कर्मापि ब्रूमो यद्यस्मादायासेनाऽपि कश्चिन्मार्गमासादयतोति । ननु ग्रहणम् ईहा च विशेषावगमस्य लक्षणं भवतु, ताभ्यां विना तदभावाद्, अपायस्तु कथं तलक्षणं तत्स्वरूपत्वादेवास्य ? | सत्यं किं तु स्वरूपमपि भेदविवक्षया लक्षं भवत्येव यदाह - " विषाऽमृते स्वरूपेण लक्ष्यते कलशादिवत् पच स्वस्वमायाणं ज्य ॥ १ ॥ यदि बहु-बहुविवादिाइकोमाय एव भवति, तर्हि कथमन्यत्राऽवग्रहादीनामपि बह्नादिग्रहणमुक्तम् । सत्यं, किंतु श्रायस्य कारणमवग्रहादयः, कारणे योग्यता कार्यस्वरूपमस्ति इत्युपचारस्तेऽपि यहा दिपादकाः प्रोच्यते यदोषः । यद्येवं तर्हि वधमध्यपायगतं विशेषज्ञानमर्थावग्रहेऽभ्युपचरिष्याम इति एत'पा' आहे स्थानियवायेन शेषग्राहकोऽर्थाऽवग्रहः प्रोच्यते । नैतदेवं, यतो मु मावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्त्तते । न चैवसुपचारे किंचित्प्रयोजनमस्ति । " ते सद्दे ति उग्गद्दिए " इत्यादिषस्य यथार्थनिगम प्रयोजनमिति चेत् । " प्ति भइ बत्ता न देश बना" इत्यादिप्रकारेणाऽपि तस्य निगमितत्वात् । सामर्थ्य व्याख्यानमिदं न यथाश्रुतार्थस्वास्येति चेत् । नाई पराधिनोऽयं सूत्रस्थ पाण्यायते इति तथाभिावः तहिं यथा युज्यते उपचारस्तथा कुरु, न चैवं क्रियमाणोऽसौ युज्यते, यतः 'सिंहो माण्वकः समुद्र इत्यादाक सत्य विधीयमानः सामा विग्रहेऽसंख्येयसामयिकं विशेषग्रहणं कथमप्युपपचते । तर्हि कथमयमुपचारः क्रियमाणो घटते ? इति बेद अहो! सुचिरापोऽस्ति । ततः शृखु समाकण्याऽवहितेन मनसा, सोऽपि यथा युज्यते तथा कथयामि' संहत्ति भराइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावड़याख्यातं सूत्रम् । यदि चौपचारिकेणाऽप्यर्थेन भवतः प्रयोजनं, तर्हि सोऽपि यथा घटमानकस्तथा कथ्यत इत्यपिशब्दानियाः इति गाथार्थः । " • - ( २६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । भिडियोहिपणाच यथा प्रतिज्ञातमेव संपादयन्नाह - सामरणमेतम्गणं, नेच्छा समयमुमो पदमो ततोऽयंतर मीहियवत्धुविसेसस्स जोऽवाओ ||२८२|| सो पुरीहावाया - विक्खाओऽवग्गहो ति उवयरियो | एसविसेसाऽविक्खं, सामयं गिरहए जेणं ॥ २८३ ॥ तत्तोssjतरमीहा, ततोऽवाओ य तव्विसेसस्स । इय सामविसेसा - वेक्खा जावंऽतिमो भेश्रो ॥ २८४ ॥ समयमात्र मानो नेव्यषिको निरुपपरितः प्रथमोऽवग्रहः कथंभूतः इत्याह- सामान्यमात्रस्याऽपकृनिर्देशस्य वस्तुनो ग्रहणं; सामान्यवस्तुमात्रग्राहक इत्यर्थः, सामयिकानि हि ज्ञानादिवस्तूनि परमयोगिन एव निश्चयथेदिनोऽवगच्छन्तीति नैश्चयिकोऽयमुच्यते । अथ छद्मस्वयवहारिभिरपि यो व्यहारिकमुप चरित दर्शयति तत्' इत्यादि तो का f पारदिनस्य वस्तुविशेषस्य योऽपायः स पुनर्भाधिनमा अपार्थ चापेपरितोऽयमहो ऽवग्रह इति द्वितीयगाथायां संबन्धः । उपचारस्यैवास्य निमित्तान्तरमाह-'एस्सेत्यादि यो भाषी योयो विशेषस्तदपेक्षया ये कारनामोऽपि सन् सामान्य गृह्णाति पश्च सामान्यं गृह्णाति सोऽयथा प्रथम नाविकः । वदितात्पर्ययप्रदे रूपादिभ्योऽव्यावृत्तमव्यक्तं शब्दादि वस्तु सामान्यं गृहीतं, ततस्तस्मिन्नहिते सति शब्द चायम् इत्यादि निध पतिशोकं शा शाङ्क वा इत्यादिशब्दविशेषविषया पुनरीहाप्रवर्तिष्यते 'शाह एवाऽयं शब्द इत्यादिशब्दविशेपाय भविष्यति तदपेक्षया 'शब्द एवायम्' इति निश्वयः प्रथमो उपायोऽपि सन्नुवचाराधय भस्यतेापाया पेक्षया त इत्यनेन खोप निमित्त सचितम् - वोऽयं शब्दः' इत्यायेध्यविशेषाज्ञया येनासी सामान्यशब्दरूपं सामान्यं गृह्णातीति श्रनेन तूपचारस्यैव द्वितीयं निमित्तमावेदितं तथा हि-दनन्तरमा पा यक्ष सामान्यं वृद्धाति सोऽर्वाद यथा आयो - प्रिय शब्द एवायमित्याद्यपायानन्तरमहा पायी च 'शाङ्खोऽयमित्यादिभाविविशेषापेक्ष या सामान्यम् तस्माश्वपाक्षा सामान्यं गृह्णातीत्युक्तम् । ततस्तदनन्तरं किं भवति ?, इत्याह- तृतीयगाथायाम् -' ततोऽंतरमि त्यादि, ततः सामान्येन शब्दनिखयरूपाथमा उपायादनन्तरं किमयं 'श शाङ्खः शाहों वा ?" इत्यादिरूपा ईहा प्रवर्त्तते । ततस्तद्विशेषस्य प्रभवत्याः शब्दविशेषस्य 'शाङ्कवामि' त्यादिरूपेणापायश्च निश्चयरूपो भवति । श्रयमाप च भूयउत्तमशेषामिमामाचा 3 पेयांशापेक्ष सामान्यालम्बनत्याच्यार्थावग्रहः इत्युपचयं सामान्यविशेषापासात् कर्तव्या यावदन्त्यो वस्तुनो भेदो विशेषः । यस्माच्च विशेषात्परतो वस्तुनोऽन्ये विशेषा न संभवति सोऽय अथवा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रभिषियोहिपपाण संभवत्स्वपि अन्यविशेषेषु यतो विशेषतः प्रमानुवधिज्ञासा निवर्त्तते सत्यः तमस्त्यं विशेषं यावद् व्यावदारिकार्थावदेहापायार्थ सामान्यविशेषापेक्षा कर्त्तव्या । इति गाथात्रयाऽर्थः । ( २३५ ) श्रभिधानराजेन्द्रः । इह च गाथाश्रयेऽपि यः पर्यवसितोऽर्थो भवति, तमाहसम्बत्थेाज्यानिन्छ मोजुमामामयं । संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवम्गहोवाच ।। २८५ ॥ सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये नियतः परमार्थतः ईदगायौ भवतः, 'ईहा, पुनरपायः, पुनरीहा, पुनरप्यपायः त्वमेवाविशेषस्तावदीहामायादेव भवतः नाग्र इत्यर्थः । किं सर्वत्र एवंमेव ? न इत्याह'मोमाइ सामं ति' श्राद्यमव्यक्तं सामान्यमात्रालम्बनमेकं सामधिकं ज्ञानं मुक्त्वाऽन्यत्रेहापायौ भवतः, इदं पुनर्वेदा, वायपाय कि वेति भावः । से व्यवहारार्थे व्यावहारिक जनप्रतीत्यपेक्षं पुनः सर्वत्र यो योऽपायः स स उत्तरोत्तरेहा-पायापेक्षया पप्यविशेषापेक्षया चोपचारतोऽर्थावग्रहः । एवं च तावत्रेयं यायतारतम्येतरांतर विशेष इति गायार्थः । सरतमयोगाभावे तु किं भवतीत्याहतरतमजोगाऽभावे, वाउ चि धारणा तदंतम्मि | सव्वत्थ वासखा पुण, भणिया कालंतरे वि सई ॥ २८६ ॥ तरतमयोगायतन निवृत्ती - पाय एव भवति न पुनस्तस्यापत्यमिति भावः मिन्तानां पुनरीडादीनामभावादिति यद्यप्रत दाइयो न भवति, तर्हि किं भवति ? इत्याह-तदन्ते - अपायान्ते धारणा तदर्थोपयोगाप्रच्युतिरूपा भवति । शेषस्य वासनास्मृतिरूपस्य धारणाभेदद्वयस्य क संभवः १, इत्याहL सव्वत्थ वासगा पुए ' इत्यादि, वासना व वक्ष्यमाणरूपा तथा कालान्तरे स्मृतिः सा च सर्वत्र भणिता । अयमर्थः अविष्यतिरूपा धारणा वायपर्यन्त एव भवति यासा स्मृती तु सर्वत्र कालान्तरेऽप्यविराजे । इति गाथार्थः । - 9 " एवं चामिहितस्वरूपव्यावहारिकार्थावग्रहाऽपेक्षया यथाव्याख्यानमपि स्वमेव इति दर्शयासद्दत्तिय सुभणियं विगप्पओ जइ विषेस विष्ठाणं । चिप्पे पर संहारोग्गहे सच्चे ॥ २८७ ॥ 'या' शब्दोऽथवा तताऽयमभिि मण बत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावद्वयाख्यातं "ते सद्दे त्ति उग्गद्दिए इत्यादिसूत्रम् । श्रथवा ' शब्द इति यत्सूत्रे मणिम्" इति यत्सू प्रतिपादितम् तदिविकल्पनाविशेषधितेन स्मिन् इत्पादयथांक्रे श्रीपचारिके पहारिकार्याप्रमा , सति, अत्र हि शब्द ' इति विशेषज्ञानं युज्यते, सर्वमहानन्तरमदाश्योपयन्ते पूर्वोक्ता "सेना के रिसे अन्य स 35 श्रभिषिबोडिया‍ सनि उगादि न उस जायद के बेस संदे, तो पचिस तो अपायं गद्द" इत्यादिसम पनि यथेयम् अयमेवार्थाः कस्मा ह्यते येन सर्वोऽपि विवादः शाम्यति इति चेत् " शब्द एवायम् इत्याद्यपाय रूपोऽयमर्थावग्रहः, अपायश्च सामान्यग्रहणेहाभ्यामन्तरेण न संभवति, इत्याद्यसकृत्पूर्वमभिद्दितमेव । इति प्राक्तनमेष व्याख्यानं मुख्यम् । इत्यलं विस्तरेण इति गाथार्थः । 1 व्यापारिका महाभ्युपगमे वो गुणस्तं सविशेषमुपदर्शवाद खिप्पेयराइभेओ, पुष्पोइयदोमजालपरिहारो | जुजइ संताणेण य, साममविसेसववहारो ॥ २८८ ॥ तत्पूर्वोदितदोषजालं तस्य परिहारो युज्यते, 'अस्मिन् व्यावहारिकेऽर्थावग्रहे सति इति प्रकमा ते इदमुकं भवति एक सामयिकनैश्वयिकामाद् पम्पास्यातारं प्रति धान् यदुकं यद्यसाधकसामयिककि चित्र-निरवशेषस्योपपद्यते तथा यद्यसौ यसी सामान्यमात्र ग्राहकः त िबहु-बहुविधादषिशेषखोकं विशेषग्रहणं कथं घटते हैं, तथाऽर्थावग्रहस्य विशेषग्राहकत्वे यत्समयो प्रयोगबाहुल्यमुक्तम् । इत्यादिकस्य दोषजालस्य परिहारो व्यावहारिके सति युज्यते तथा हि-श्वादिना इदानीं श शक्यमिदं वक्तुं बहुत-तिरादिविशेषवानि व्यावहा रिकrवग्रहविषयास्येतानि, असंख्येयसमयनिष्पन्नत्वेनास्य क्षिप्रचिरग्रहणस्य युज्यमानत्वात् विशेषग्राहकत्वेन बहु यह विधाविणस्यापि घटमानकत्यादिति । सामग तयण विसेसहा इत्यादिना प्रागमिद्दितं समयोपयोगबाहुश्यमप्यस्मिनिरास्पदमेव सामान्यापूर्व असंख्येयसामयिकत्वेन चैकसमयोपयोगबाहुल्यस्यात्रासंयमानत्यादिति । ननु नैकायिकायदे किं तिरा दिविशेषणकलापो न घटते, येन व्यावहारिकावग्रहापेक्षः यते । सत्यं तदा घटते कारणे कार्यवात् पुनर्निश्वयायप्रहेऽपि युज्यते, इति प्रागयुकं वक्ष्यते च विशिष्टादेव हि कारणात्कार्यस्य वैशिष्यं युज्यते, अन्यथा त्रिभुवनस्याप्यैश्वर्यादिप्रसङ्गः, कादेरपि रत्नादिमाया " ވ " प्रकृतमुच्यते सम्तामेन च योऽसी सामान्यविशेषव्ययडालो, सोऽपि व्ययद्वारा खति इतीहापि संबध्यते । लोकेऽपि हि यो विशेषः सोऽप्यपेक्षया सामान्यं यत्सामान्यं तदप्यपेक्षया विशेष इति यते तथाहि शब्दायम्' इत्येवमध्य ऽर्थः पूर्वसामान्यापेक्षया विशेष शायर विशेषापेक्षा तु सामान्यम् इत्येयं यावदविशेषः इति प्राप्युक्तम् अयोपपरिज्ञानप्रवृतिरूपेण स न्वानेन लोके रूढः सामान्यविशेषव्यवहार औपचारिकातेनाऽस्यधापगमे हिमा पायानन्तरमानुत्थानम् उत्तरविशेषाग्रहणं चाभ्युपगतं भवति उत्तरविशेषावे व प्रथमाऽर्थस् 1 9 . Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणियोहिपणाण विशेषत्यमेव न सामान्यायम् इति पूर्वोरुप लोकप्रतीतः सामान्यशेषव्यवहारः समुच्येत । अथ प्रथ मापायानन्तरमभ्युपगम्यते ईहोत्थानम्, उत्तरविशेषग्रहणं यः तर्हि सिद्धं तदपेक्षया प्रथमापायव्यवसितार्थस्य सामान्यत्वं, या सामान्य ग्राहकः यदनन्तरं चेहादि प्रवृत्तिः नैयिकाद्यत् इति सियो व्यावहारिकार्यावग्रहः स च सन्तानप्रवृत्त्या अस्यविशेषं पापसिद्धः सामान्यविशेषव्यवहारः । इति गाथार्था । इति मतिज्ञानाद्विभेदोऽप्ययमह समाप्त इति । 9 अथ द्वितीयमेवामां व्याधिक्यासुराद्दइय सामाग्रहणा - संतरमीहा सदत्थवीमंसा | किमिदं सोऽसदो को होल व संखसंगाणं ॥ २८६ ॥ इतिशब्द उपइत्येवं प्रागुक्रेन प्रकारेण विकार्या वग्रहे वत्सामान्यग्रहणं रूपाद्यव्यावृत्या व्यवस्तुमा महरा तथा व्यवहारार्थावग्रहेऽपि यतरविशेषापेक्षया शब्दादिसामान्यमभिहितं तस्मादनन्तरमहा प्रवर्त्तते । विशे० । ( तस्याः ईछायाः स्वरूपम् ' ईद्दा' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते ) अथ मतिज्ञानतृतीय भेदस्यापायस्य स्वरूपम् । ( विशे० | २६० गाथया • अवाय शब्दे प्रथमभागे ८०४ गम्) अथ चतुर्थो मतिज्ञानमेदो धारणा, हर्ष पाषिच्युतवासमास्मृतिभेदात् त्रिधा भवत्यतः समेाऽपि । (विशे० । ) सा धारणा 'धारणा' शब्दे चतुर्थभागे २६१ गाथया वक्ष्यते ) तदेवं " से जहानामए केइ पुरिसे अवसं सदं सुणेज " इत्यादिसूत्रानुरोधेन शब्दमाधित्याग्रहादयो भाविताः । अथ सूत्रकार क्रम्" एवं अभिला यदुक्तम्पपणं अब रूवं रसं गंधं फासं " इत्यादि, तचेतसि निधाय भाष्यकारो ऽप्यतिदेशमाद सेसेसु वि रुवाइ सु विसएस होंति रूत्रलक्खाई। पायं पचास चोगमीहाइवत्थूणि ।। २६२ ।। यथा शब्दे एवं शेषेष्यपि, रूपाऽऽदिविषयेषु साक्षादनुक्राम्यपि रूपलक्षाणि कथितानुसार चतुर चेतसां यानि भवन्ति कामीरयाहामिनिष धिकज्ञानस्य भेदवस्तृति केन रूपलासीत्याह-प्रायः प्रत्यासत्वेन चक्षुरादिना गृह्यमाणस्य स्थाण्वादेस्तत्रागृहमा पुरुपादिना सह प्रायो बहुम सत्यं या प्रत्यासति सादृश्यमिति यत्नादीनि शेयानि मयस्थायादेरादिना स देत्यर्थः भवति-अप तायत्सामान्यमात्रग्राहकत्वात् द्वितीयचत्वापि न विद्यते हा पुनरुमयययययन तथ पुरोदृश्यमानस्य वस्तुनो पतिपराभूतं वस्तुतायो बहुभिर्धनैः प्रत्यास प्रा पुनरस्यन्तविलक्षणं पुरो हि मन्दमन्दप्रकाशे दूत्यमाने स्थास्यादौ किमयं स्थाणुः पुरुषो वा ? ' इत्येवथानारोह परिणानुयादिभिः प्रायो बहुभिर्धर्मैः पुरुषस्य स्थाणुप्रन्यासन्नत्वादिति । 1 ? (२६६) अभिधानराजेन्द्रः । - आभिणिषोहियाण ' किमयं स्थाणुः, उष्ट्रो या ' इत्येवं तु न प्रवर्त्तते । उष्ट्रस्य स्थाण्यपेक्षया प्रायो ऽत्यन्तविलक्षणत्वात् । अत एव सामान्यमात्रग्राही अवग्रहोत्रादौ न कृतः, किंतु 'ईदादीनि ' इत्येयमेषो उभयवस्त्ययलम्बित्वेनेाया एव पापाइतिविशेषस्य सफल बाद अपायस्यापि स्थाणुरेवायं, न पुरुषः इत्यादिरूपेण प्रवृत्तेः । किंचिद्विशेषवश्य सफलत्वादादित्यविरुद्धः । इति गाथार्थः । 3 6 किं शब्दः, अशब्द या इति त्रेन्द्रियस्य प्रव्यासवस्तूपदर्शनं कृतमेव अथाऽशेषना विषयभूतानि प्रत्यासतिक्रमेण प्रदर्शयतिथाखुपुरिसाइकुडुप्पलाइ भियकरिशमंसा | सप्पुप्पलनालाइ व, समाणरूवाइविसयाई || २६३ ॥ 'ईहादिवस्तूनि रूपलक्षाणि ' इत्युक्तं कथं भूतानि सन्ति पुनस्तानि रूपलक्षाणि ? इत्याह-समानः समानधर्मा रूपरादिषयदेषामहादीनां तानि समानरूपादिविषयाशीति पूर्वगाथायां संबन्धः का पुनरमीषां समानधर्मा रूपादिविषयः इत्याह-वायुपुरुषादिवदिति प निर्दिष्टोऽपि विषयोपदर्शनाभियोग को सर्वत्र योज्यते । तधरिवस्याः स्थाणुरुपाद वत्समानधर्मा रूपविषयो द्रष्टव्यः पिशब्दात्-किमिर्च शुक्रका रजनखरडं वा ?,' मृगतृका पयःपूरो वा ?, 'रज्जुर्विषधरो वा' इत्यादिपरिग्रहः । घ्राणेन्द्रियप्रभघस्येहादेः कुष्टो (ष्ठो) त्पलादिवत्समानगन्धो विषयः, तत्र कुष्टः (४) गन्धिकवयो वस्तुविशेषः उत्पलपद्मम् अनयोः किल समानगन्धो भवति त ईश्शेन गन्धेन किमिदं कुष्ठं एम् उत्पलं या ?" इत्येवमीदाप्रवृत्तिः, आदिशब्दात् - 3 " 3 F किमत्र सप्तच्छदाः, मत्तकारिणो वा ? कस्तूरिका, घनगजमो वा ? इत्यादिपरिग्रह, रसनेन्द्रियमयस्पेादेः संभृतकलमांसादिवत्समानरसो विषयः तत्र संभृतानि संस्कृतानि संघानीकृतान्युद्धृतानि यानि वंशजालसंबन्धीनि करीलानि तथा मांसम् अनयोः किलाऽऽस्वादः समानो भवति । ततोऽन्धकारादावन्यतरस्मिन् जिह्वाग्रप्रदत्ते भवत्येवं किमिदं संभृतवंशकरीलम् आमिषं वा ?' इति श्रादिशब्दाद्- गुडः सरावा?' 'ठीका, शुष्कराजानं या है, इत्यादिपरिग्रहः । स्पर्शनेन्द्रियप्रभवस्येहादेः सप्पोत्पलनालादिवत्समानस्प विषयः सप-स्थलयो तुल्यस्पर्शनेावृतिः सुगमेय श्रादिशब्दात्- स्त्रीपुरुषलेष्टूपलादिसमान स्पर्श वस्तुपरिग्रहः । इति गाथार्थः । " 7 अथ यदुक्तं सूत्रे' से जहानामय केइ पुरिसे श्रवत्तं सुमिणं पासेज्जा" इत्यादि, तदनुसृत्य स्वप्ने मनसोऽप्यवग्रंहावीन दर्शयन्नाह एवं चि सिमिलाइ, मणसो सद्दाइएस विसएस | होंतिंदियवावारा- भावे वि श्रवग्गहाईया || २६४ ॥ एवमेव -- उक्तानुसारेणेन्द्रियव्यापाराभावेऽपि स्वप्नादिषु, आदिशब्दात्तकपाट सान्धकारापवरकादीनीन्द्रिया Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९७) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। श्राभिणियोहियणाण पाराभाववन्ति स्थानामि गृह्यन्ते, तेषु केवलस्यैव मनसो तदेवं निराकृतौ सयुक्तिकमुत्क्रमाऽतिक्रमौ । अथ यदुक्तम्मन्यमानेषु शम्दादिविषयेष्ववग्रहादयोऽयग्रहेहाशयधारणा 'एगाऽभावे वि वा न वत्थुस्स जं सम्भावाहिगमो तो भवन्तीति स्वयमभ्ययाः, तथाहि-स्वप्नादौ चित्तोत्प्रेक्षा- सवे' ति, तत्रापीयमेव युक्तिरिति दर्शयन्नाहमात्रेण श्रूयमाणे गीतादिशब्ने प्रथम सामान्यमात्रोत्प्रे - एत्तो चिय ते सव्वे, भवंति भिन्ना य नेव समकालं । क्षायामवग्रहः, 'किमयं शब्दः, अशब्दो वा' इत्याशुत्प्रेक्षायां स्वीहा, शब्दनिश्चये पुनरपायः, तदनन्तरं तु धारणा । एवं न वइक्कमी य तेसिं, न अन्नहा नेयसम्भावो ॥ २६७ ॥ देवतादिरूपे. कर्पूरादिगन्धे, मोदकादिरसे, कामिनीकुच- यत एव नाऽगृहीतमीयते, ' इत्याद्युक्तम् , एतस्मादेव कलशादिस्पर्श चोत्प्रेक्ष्यमाणे अवग्रहादयो मनसः केवल- च तेऽवग्रहादयः सर्वे चत्वारोऽप्येष्ट्रव्या भवन्ति, उक्तस्य भावनीयाः । इति गाथार्थः ।। न्यायापैकवैकल्येऽपि मतिज्ञानं संपद्यते इत्यर्थः । पूर्व(५) आह नन्धेते अबग्रहादय उत्क्रमेण व्यतिक्रमेण वा मवगृहीतमीह्यत ' इत्याद्युक्तरेव च ते भिन्ना:-परस्परमकिमिति न भवन्ति । यद्वा-ईहादयस्नया छौ एको वा किं संकीर्णाः, उत्तरोत्तरापूर्वभिन्नवस्तुपर्यायग्रहणादिति । नानाऽभ्युपगम्यन्ते यावत्सर्वेऽप्यभ्युपगम्यन्त इत्याशङ्कयाह- गृहीतमीह्यत' इत्यादियुक्तरेव च न ते समकालम् , भिन्नाः सिद्धास्तेऽवग्रहादयः समकालमपि नैव भवन्ति; युगपन्न उक्कमोऽइक्कमओ, एगाभावे वि वान वत्थुस्स। जायन्त इत्यर्थः । पूर्वमवगृहीतमेवोत्तरकालमीयते, ज सम्भावाहिगमो, तो सब्वे नियमियकमा य ॥२६॥ ईहोत्तरकालमेव च निश्चीयते ' इत्याधुक्तकन्यायेनैवाबएषामवग्रहादीनामुत्क्रमेण-उत्क्रमतः, अतिक्रमेण-अतिक्र- प्रहादीनामुत्पत्तिकालस्य भिन्नत्वात् न युगपत्संभव इति मतः, 'अपिशब्नस्य भिन्नक्रमत्वादेकस्याप्यभावे वा यस्मान्न भावः । उनयुक्तरेव तेषां न व्यतिक्रमः, उपलक्षणत्यात् वस्तुनः सदावाधिगमः,तस्मात्सर्वे चत्वारोऽप्येष्टव्याः, तथा 'नाऽप्युक्रमः' इत्यपि द्रष्टव्यम् । एतच 'तेण कमोवग्गनियमितक्रमाश्च-सूत्रनिर्दिएपरिपाटयन्विताश्च भवन्त्यते हाईउ ' इत्यनन्तरगाथाचरमपादेन सामर्थ्यादुक्तमपि प्रउपग्रहादयः' इति प्रक्रमालभ्यते । इत्यक्षरयोजना | भावा- स्तावात्पुनरपि साक्षादुनम् , इत्यदोषः । तदेवं ईडिजा र्थस्तून्यते-तत्र पश्चानुपूर्वीभवनमुत्क्रमः । अनानुपूर्वी- नागहियं ' इत्यादियुक्तर्यथोक्रधर्मका एवाऽवग्रहादयः, भवनं त्वतिक्रमः । कदाचिदवग्रहमतिक्रम्येहा तामप्यति- न विपर्ययधर्माण इति साधितम् । अथ शेयवशेनाऽप्येषां लापापायस्तमप्यतिवृत्य धारणेति । एवमनानुपूर्वी रूपोऽ- यथोक्तधर्मकत्वं सिसाधयिषुरिदमाह-'न अनहा नेयतिक्रम इत्यर्थः । एताभ्यामुत्क्रमव्यतिक्रमाभ्यां तावदव- सम्भावो' त्ति-शेयस्याप्यवग्रहादिग्राह्यस्य शब्द-रूपाप्रहादिभिर्वस्तुस्वरूपं नाऽवगम्यते । तथैषां मध्ये एक- देर्नान्यथा खभावोऽस्ति, येनाऽवग्रहादयस्तग्राहका; यथोस्याऽप्यन्यतरस्याऽभाव वैकल्येन वस्तुस्वभावावबोध इत्य- करूपतां परित्यज्याऽन्यथा भवेयुरित्यर्थः । इदमुक्तं भवतिसकृदुक्क्रप्रायमेव । ततः सर्वेऽप्यमी एष्टव्याः, नत्वकः, द्वौ शेयस्याऽपि शब्दादेः स स्वभावो नास्ति य एतैरवप्रहादिप्रयो वेत्यर्थः । तथा-" उग्गहो ईदाऽवामी य धारणा भिरेकादियिकलैरभिन्नैः समकालभाविभिरुत्क्रमातिक्रमएव होम्ति चत्तारि" इत्यस्यां गावायां यथैवकारेण पूर्व- वद्भिश्चावगम्येत । किंतु-शब्दादिशेयस्वभावोऽपि तथैवमेतेषां नियमितः क्रमः, तथैवैते नियमितकमा भवन्ति, व्यवस्थितो यथाऽमीभिः सर्वैर्भिन्नः, असमकालैः, उत्कनोत्कमाऽतिक्रमाभ्यामिति भावः । इति गाथार्थः । मातिक्रमरहितैश्च संपूर्णो यथावस्थितश्चावगम्यते, अतो अथोत्कमाऽतिक्रमयोरेकादिवैकल्ये चाऽवग्रहादीनां वस्त्व- शेयवशेनाप्येते यथोक्ररूपा एच भवन्ति । तदेवम्-उकधिगमाऽभावे युक्तिमाह मो अतिकमओ एगाऽभावे विवा' इत्याधिगाथोक्तं ईहिजइ नाऽगहियं, नजइ नाणीहियं न याऽनायं । प्रसङ्गतोऽन्यदपि भिन्नत्वम् , असमकालत्वं च समर्थितम् , इति गाथार्थः। धारिआइ जं वत्, तेण कमोऽवग्गहाई उ ।। २६६॥ अत्र परः प्राहयस्मादवग्रहेणागृहीतं वस्तु नेह्यते-न तत्रेहा प्रवर्तते, ईहा- अब्भत्थेऽवामो च्चिय, कत्थइ लक्खिजई इमो पुरिसो। या विचाररूपत्वाद् अगृहीते व वस्तुनि निरास्पदत्वेन वि. चाराऽयोगादिति भावः । तदनन कारणेनादौ अवग्रहं नि अन्नत्थ धारण चिय, पुरोवलद्धे इमं तंति ।। २६८॥ दिश्य पश्चादीहा निर्दिया । न चाऽनीहितम्-अविचारितं शा स्वभ्यस्तेऽनवरतं दृष्टपूर्वे, विकल्पिते, भाषिते च विषये यते-अपायविषयतां याति, अपायस्य निश्चयरूपत्वात् , पुनः कचित्कदाचिदवलोकिते अपग्रहाद्वयमतिक्रम्य प्रनिश्चयस्य च विचारपूर्वकत्वादिति हृदयम् । एतदभि थमतोऽप्यपाय एवं लक्ष्यते-अनुभूयते निर्विवादमशेषैरपि प्रायवता चापायस्यादौ ईहा निर्दिति । न चाशातम् जन्तुभिः, यथाऽसौ 'पुरुष' इति । अन्यत्र पुनः कचिअपायेनाऽनिश्चितं धार्यते-धारणाविषयीभवति वस्तु- त्पूर्वोपलब्धे सुनिश्चिते दृढवासने विषयेऽवग्रहहापायानधारसाया अर्थावधारणरूपत्वादयधारणस्य च निश्चय निलय स्मृतिरूपा धारणेव लक्ष्यते, यथा 'इदं तद्वस्तु मन्तरेणाऽयोगादित्यभिप्रायः । ततश्च धारणादायपायः । यदम्माभिः पूर्वमुपलब्धम्' इति तत्कथम् ?, उच्यते-उत्कततः किम् ?, इत्याह-तेनाऽवग्रहादिरेव क्रमो न्याय्यः, माऽतिक्रमाभ्याम् , एकादिवैकल्ये च न वस्तुसद्भावानोकमातिक्रमो, यथोकन्यायेन वस्त्ववगमाऽभावप्रसङ्गात् । अधिगमः १-इदं च कथमभिधीयते "ईहिज्जर नागहियं " इति गाथार्थः । | इत्यादीतिप्रेरकाभिप्रायः । इति गाथार्थः । ७५ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) भाभिथिबोडियमाप अभिधानराजेन्द्र माभिणियोहियणाव भ्रान्तोऽयमनुभव इति दर्शयन्नाह (७) प्राभिनिचोधिकशानस्य अष्टाधिशति २८ भेदाः-- उप्पलदलसयवेहेब, दुधिभावत्तणेण पडिहाइ । एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिणिवोहियनाणस्स । वं. समयं व सुकसक्कुलि-दसणे विसयाणमुवलद्धी ।।२६६॥ जणुग्गहस्स परूवणं करिस्सामि पडिवोहगदिटुंतेणं, 'क्वचित्प्रथममेवाऽपायः, क्यचित्तु धारणैव' इति य- मतगदिट्ठतेण य । से किं तं पडिबोहगदिट्टतेस्वया यंते, तत् 'प्रतिभाति' इत्यनन्तरमाथोक्लेन संबन्धः। | णं १, पडिवोहगदिळतेणं से जहानामए केइ पुरिसे केनैतत् प्रतिभाति ?, इत्याह-दुःखेन- विभाव्यते दुर्विभावो दुर्लक्षस्तश्रावस्तस्वं तेन दुर्विभावत्वेन-दुर्लक्षत्वेनाऽव कंचि पुरिसं सुत्तं पडिवोहिजा अमगा! अमुग! प्रहादिकालस्येति गम्यते । कस्मिन्निव इत्याह-उत्पलं त्ति, तत्थ चोयगे पनवमं एवं वयासी-किं एगपद्मं तस्य बलानि-पत्राणि तेषां शतं तस्य सूख्यादिना | समयपविठ्ठा पुग्गला गहणमागच्छति, दुसमयपघेधनं घेधस्तस्मिन्निव । इदमुक्तं भवति-यथा तरुणः-समथपुरुषः पनपत्रशतस्य सूच्यादिना बेधं कुर्वाण एवं मन्यते, विट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, जाव दससमयपविठ्ठा मया एतानि युगपद्विद्धानि, अथ च प्रतिपत्रं तानि का पुग्गला गहणमागच्छति, संखिअसमयपविट्ठा पुग्गला लभदनेष भिद्यन्ते, न चाऽसौ तं कालमतिसौषम्यानेदे-गहमागच्छति, असंखिजममयपविता पुग्गला गमायबुद्धपते, पबमत्राप्यऽयग्रहादिकालस्यातिसूक्ष्मतया-दु- हणमागच्छति, एवं वदंतं चोयगं पण्णपए एवं वयासीबिभावनीयत्वेनाऽप्रतिभासः, न पुनरसत्त्वेन, ईहादयो बन्यत्र नो एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति, नो दुसकचित्तावत्स्फुटमेवानुभूयन्ते, यत्राऽपि स्वसंवेदनेन नाs मयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, जाव नो दससमनुभूयन्ते, तमाऽपि "ईहिजर नागहियं नजानाणीहिय" इत्यादि प्रागसकदाभिहितयुक्निकलापादवलेयाः । तस्मादु यपबिट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, नो संखिअसमयपस्पलदलशतवेधोदाहरन भ्रान्त पवायं प्रथमत पवाऽपा- विट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति, असंखिजसमयपविट्ठा यादिप्रतिभासः। अथोदाहरणान्तरेणाप्य ऽस्य भ्रान्ततामु पुग्गला गहणमागच्छंति, से तं पडिबोहगदिटुंऽतेणं । पदर्शयति-समयं वे ' त्यादि, वा' इति-अथवा, यथा शुष्क शाकुलीयशने समय-युगपदेव सन्द्रियविषयाणां-शब्द से किं तं मन्नगदिद्रुतेणं ?, मल्लगदिहतेणं-से जहानामए रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानामपलब्धिः प्रतिभाति, तथैषोऽपि कह पुरिसे भाषागसीसाम्रो मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगमाथम्सेनाऽपायाविप्रातभासः । एतदुक्तं भवति-यथा | बिंदु पक्खिविला से नहे, भले विपक्खित्ते से विनडे कस्यचित् शुष्का दी| शकुलिका भक्षयतः, तच्छम्दो- एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू स्थानाच्छन्नविज्ञानमुपजायते, अत एव शुष्कत्वविशेषणं, जेणं तं मल्लगं राहिइति, होही से उदगविजेणं तंसि मृतपामतस्यां शम्नानुस्थानादिति । शब्दश्रवणसमकालमेव च दीर्घत्वात् तस्या दृष्टया तद्रपदर्शनं चाऽयमनुभवति, मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदगविंद जेणं तं मल्लगं अत एव च दीर्घत्यविशेषणम् , अतिइस्वत्वे मुखप्रविष्टा भरिहिति, होही से उदगविंद जेणं तं मल्लगं पवाहेहिति, यास्तस्याः शब्दश्रवणसमकालं रूपदर्शनानुभवाभावादिति । एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं पक्खिप्पमाणेहि अणंतेहिं पुरूपदर्शनसमकासं च तद्गन्धज्ञानमनुभवति, अत एव ग्गले जाहे तं वंजणं पूरियं होइ ताहे दुति करेइ, नो शाकुलीग्रहणं गन्धोत्कटत्वात्तस्याः, शुखण्डादिषु तु चेव यं जाणइ केवि एस सहाइ १, तभो ईई पविसई दीर्घष्यऽपि तथाविधगन्धाभावादिति गम्धाविहानसमकालं च तद्रसस्पर्शज्ञानेऽनुभवति । तदेवं पञ्चानामपी तमो जाणइ अमुगे एस सदाइ, तमो अवायं पविसइ, द्रियविषयाणामुपलब्धियुगपदेवास्य प्रतिभाति । नचेय स. तभी से उवगयं हवा, तभो णं धारणं पविसइ, तभी स्या इन्द्रियहानानां युगपदुरपादाऽयोगात तथा हि-ममसा णं धारेह संखिजं वा कालं असंखेज्जं वा कालं । से सह संयुक्तमेवोन्द्रियं स्वविषयहानमुत्पादयति, नाऽन्यथा, जहानामए केइ पुरिसे अवसं सई सुणिज्जा तेणं सदो अन्यमनस्कस्य रूपाविज्ञानानुपलम्भात् । न च सर्वेन्द्रियैः चि उग्महिए, नो चेव णं जाणइ के वेस सहाइ तमो सहममा युगपरसंयुज्यते, तस्यैकोपयोगरूपरथाद् , एकत्र ईहं पविसइ तो जाणइ अमुगे एस सद्दे, तभो णं ममातरि एककालेऽनेकैः संयुज्यमानत्यायोगात् । तस्माम्मनसोऽत्यम्ताशुसंचारित्वेन कालभेवस्य दुर्जयस्वायुग वायं पविसइ तमो से उवगयं हवा तो धारणं पविसइ, परसधैन्द्रियविषयोपलब्धिरस्य प्रतिभाति । परमार्थतस्त्व- तमोणं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिजवा कालं । स्थापि कालभेदोऽस्त्येव ततो यथाऽसौ भ्रान्तोंपलक्ष्यते से जहानामए के पुरिसे अवसं रूवं पासिजा तेरा तथाऽवग्रहादिकालेऽपीति प्रकृतम् । दीर्घत्यधिशेषणं च एक रूव ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस रूवति शकुलिकाया गाथायामनुक्कमप्युपलक्षणस्वाद्विहितमिति परिभाषनीयम् । तदेवमयप्रहादीनां नैकादिवैकल्यं नाप्य- त' । तभो हेहं पविसह तभी जाणइ प्रमुगे एस रूचे ति क्रमाऽतिकमाविति स्थितम् । इति गाथार्थः । विशे। तमो अवायं पविसइ तमो से उवगयं हवा तमो धारणं Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६ ) अभिधान राजेन्द्रः । अभिषिमोहियणाण पचिस तो गं धारेह संखिज्जं वा कालं अखि वा कालं । से जहानामए केह पुरिसे अव्वतं गंध अग्याइज्जा तेगं गंधे चि उग्गहिए नो चेत्र जाह के वेस गंधेत्ति तो ईहं पविसर तो जागर अमुकेएस गंधे तो अवायं पविसद तभी से उपमयं हवs तम्रो धारणं पविसह तो गं घारेइ संखिज्जं वा कालं खिवा कार्ल से जहानामए के पुरिसे अन्वतं रसं श्रासाइजा तेणं रसो ति उग्गहिए नो चेत्र यं जावर केवेस रसे च तभी ईहें पविस तो जाय अमु एस रसे तभी अवायं पविसद तयो से उपग हव तो धारणं पविसह, तओ णं धारेइ संखिअं वा कालं असंखिया फाल से जहानामए के पुरिसे श्रव्वतं फासं पडि संवेइजा ते फासे चि उग्गहिए नो चैव खं जागड़ के वेस फासे चि तो ईहं पविसर त जागर अमुगे एस फासे तो अवायं पविस तो से उगवं इव तभी धारणं पविसह तथो गं धारेह संधिजं वा कालं असंखिखं वा कालं से जहानाम केह पुरिसे अव्वतं सुमिणं पासिजा तेषं सुमियो त्ति उग्गहिए नो देव जागर बेस सुमिये सितम्रो ई पचिस तो जाणइ अमुगे एस सुमिणे तथो श्रवायं पविसइ तो से उवयं वह तम्रो धारणं पविसर तो गं धारे संखि वा कालं असंखिजं वा कालं । सेत्तं मन्नगदिते । (सूत्र - ३५ ) 'एवं अट्ठावीसे' इत्यादि । एवम् उक्लेन प्रकारेण श्रष्टाविंशतिविधस्य कथमष्टाविंशविधतेति, उच्यते चतुर्द्धा व्यञ्जनावग्रहः, षोढा श्रर्थावग्रहः, षोढा ईहा, षड्विधोऽपायः, पोढा धारवेत्याद्याविंशतिविध विधस्याभिनिबोधिकज्ञानस्य संबन्धी यो व्यञ्जनावग्रहः तस्य स्पष्टतरस्वरूपपरिज्ञानाय प्ररूपणां करिष्यामि । कथम् इत्याह-प्रतियोधकान्तेन मन्नान्शेन च । रात्र प्रतिबोधयतीति प्रतिषोधका स एवम् प्रतिबोधान् तेन मरा अ तो मलकान्तरनेन च से किं तमित्यादि अथ केयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणेति शेषः । प्राचार्यः माह प्रतिबोधकशतेनेयं यवनायकपणा, स यथानामको यथासंभवनामधेयः कोऽपि पुरुषः, सर्वत्राध्येका माधिकभाषा लक्षणानुसरणखात तच्च प्रागेवानेकशः उक्तं च कञ्चिदनिर्दिष्टनामानं यथासंभवनाम पुरुष सन्तं प्रतिबोधयेत् कथमित्याहअमुक अमुक इति, तत्र एवमुक्ते सति 'चोदको 'ज्ञानारकम कथितमपि सूत्रार्थमनयगच्छन् प्रश् चोदयतीति चोदकः यथावस्थितं सूत्रार्थ प्रज्ञापयतीति प्रज्ञाको गुरुः तम् एवं वदयमान प्रकारेण अवादीत् श्रभिषिवाहियणाण भूतकालनिर्देशो ऽनादिनानागम इति स्थापनार्थ वदनप्रकारमेव दर्शयति- किमेक समयप्रविष्टाः पुद्गला मह समागच्छति प्राह्यतामुपगच्छन्ति किं वा सिमयप्रविष्ठा, इत्यादि सुगमम् एवं वदन्तं चोदर्के प्रति प्रज्ञापकः अचादीत् उक्तवान् मो एकसमयप्रविष्टा इत्यादि, प्रकटार्थ यावन्नो संख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमाग 3 · निवरमयं प्रतिषेधः स्फुटमतिमासरूपायमल विज्ञानानामधिकृत्य वेदितव्यो वाचता पुनः प्रथमसमयादप्यारभ्य किंचित्किञ्चिदव्यक्तं ग्रहणमागच्छन्तीति प्रतिपत्तव्यम् 'जं वंजणोग्गहमिति भणियं विभाग अवसं इतिवचनप्रमाण्यात् असंवे ज्जे 'त्यादि श्रादित आरभ्य प्रतिप्रसमयप्रवेशनेनासंख्येयान् समयान् यावत् ये प्रविष्टाः ते असंख्येबसमाविष्टाः पुद्गला प्रखमागच्छन्ति अर्थान रूपविज्ञानानामुपपद्यन्ते असंपेपसमवप्राऐषु तेषु चरमसमधे प्रविष्टाः पुङ्गला अर्थावग्रहविज्ञानमुपजनयन्तीत्यर्थः । अर्थाषाविज्ञानाचा सर्वोऽपि - नावग्रहः । एषा प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रस्य प्ररूपणा व्यञ्जनावग्रहस्य च कालो जघन्यतः आवलिका उसपभागः, उत्कर्षतः संयेयापलिका, ता अपि संख्येया आवलिकाः श्रनपानपृथक्त्वकालमाना वेदितव्याः, यत उक्तम्- ' वंजणवग्गहकालो, आवलियासंखभागातुलो उ । थोवा उक्कोला पुण, श्राणापाणू पसंति ॥ १ ॥ 'सत्तमि त्यादि, निगमनम् सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणा ॥ से किं तमित्यादि, अथ केयं मल्लकदृप्रान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणा ?, सूरिराइस: अनिर्दिरूपो यथानामकः कश्चित् पुरुषः श्रापाकशिरसः- आपाकः प्रतीतः तस्य शिरसो मल्लकंशरावं गृहीत्वा इदं हि किल रूक्षं भवति ततोऽस्योपादानं, तंत्र महनके एकमुदकवि प्रक्षिपेत् स नः सव तद्भावपरिणतिमापन इत्यर्थः, ततो द्वितीयं प्रेक्षिपेत् सोsपि विनष्टः, एवं प्रक्षिप्यमाणेषु प्रक्षिप्यमाणेषु भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तत् मल्लक " राहिर' इति देश्योऽयं शब्द आतां नेष्यति, शेषं सुगमे, यायदेवमित्यादि पथमेव उदकविन्दुभिरिव निरन्तरं प्रक्षयमा प्रय मारतैः शब्दरूपतापरिणः पुद्गलयंदा तद्नं पूरितं भवति तदा हुं करोति हुंकारं मुखति तदा तान् पुलान् निश्कपतया परिष्निति इति भावार्थः । अत्र व्यञ्जनशब्देन उपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतं वा द्रव्यं तयोः संबन्धोयते, तेन न कश्चिद्विरोधः । आह च भाष्यकृत् -" तोपण मल्लगं पिव, वंजणमापूरियं ति जं भणियं । तं दव्यमिदियं वा, तस्संबंधो व न विरोहो ||२०|| तया पनमुपकर वेन्द्रियमधिक्रियते पूरितमिति कोऽपरिपूर्ण यातमित्यर्थः पा व्यञ्जनं इयमभिगृहाते तदा तिमिति प्रभुतीकृतं स्प प्रमाणमानीतं स्पयो समयकृतमित्यर्थः यदा तु स्प जनं द्वयोरपि संबधो गृह्यते तदा पूरितमिति किमुक्कं भवति तावत् संबन्धोऽभूत् यावति सति ते शब्दादिपुला मागच्छति सा चूर्तित्-यदा पु - " " Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणियोहियाण " गलदृष्या बंजणं तया पूरियंति पभूया ते पुग्गलदग्वा जाया-स्वं प्रमाणमानीताः ससिपपडिपोसमस्या जाया" इत्यादि, जया उपगरदियं पंज तथा पूरि येति कई उते जाते माहितं यदि श्रावृतं भरियं " व्यापितं तया पूरयंति भएइ, जया उभयसंबंधो बंजणं तया पूरियंति कहूं ?, उच्यते, दब्वेंदिवस | पुग्गाला अंगीभावमागता, पोग्गला दव्यदि अभिषि इत्यर्थः या पूरियंति इति भण्ण इति एवं च पदातिं भवति इति करोति अर्था हरूपेण ज्ञानेन तमर्थ गृह्णाति, किं च ?, नामजात्यादिकल्पनारद्दिनं, तथा चाह-" नो चेव णं जाणइ केवेस सद्दाइ मिरजानाति क एप शब्दादिर इति स्वरूपद्रव्यगुणक्रियाविशेष कल्पनारहितमनिर्देश्यं सामान्यमात्रं गृ द्वातीत्यर्थः । एवं रूपसामान्यमात्र कारख्यादस्प तस्माच पूर्वः सर्वोऽपि व्यञ्जनाप्रदः, एषा मकतेन व्यञ्जनाऽवग्रहस्य प्ररूपणा, हुंकारकरणं चार्थावग्रहबलप्रवर्तितम् तत ईहां प्रविशति किमिदं किमिदमिति विमर्श कर्तुमारभते ततद्दानन्तरं पश्मविशेपभाषाज्ञानाति अमुक एप शब्दादिरिति तत एवं रूपे ज्ञानपरिणामे प्रादुर्भवति सति सोऽपायं प्रविशति ततोऽपाषानन्तरमन्त 9 कालयायतं भर्षात सामीप्येनात्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतं भवति, अविच्युतिरन्तर्मुहूर्त्तकालं यावत् प्रवर्तत इत्यर्थः ततो धारणां प्रविशति सा च धारणा वासनारूपा द्रष्टव्या, यत आह- "तत्तो मि” त्यादि, ततो धारणायां प्रवेशात् 'मि' तिवाक्यालंकार, संख्येयं वा अ संख्येयं वा कालं हृदि धारयन्ति, तत्र संख्येयवर्षायुषः संवेयं कालम् असंख्येय वर्षायुषस्तु असंख्येयं कालम् । अत्राद-सुतमङ्गीकृत्य पूर्वोः प्रकारः सर्वोऽपि घटते, जाप्रतस्तु शब्दसमनन्तरमेचा उपग्रहास्यतिरेकेवाय ज्ञानमुपजायते, तथा प्रतिप्राणि संवेदनात् निषेधार्थमाह - ' से जहानामए' इत्यादि, स यथानामकः कश्चित् जमपि पुरुषोऽप्यनं शब्दं यात्यमेव प्रथमं शब्द सृणोति, अव्यक्तं नाम - अनिर्देश्य स्वरूपं नामजात्यादिकल्पनारहितम् अनेनाऽवग्रह माह अर्थाग्रहश्व श्रोत्रेन्द्रियस्य संबन्धिव्यञ्जनाऽवग्रहमन्तरेण न भवति ततो नवग्रहो ऽप्युक्तो वेदितव्यः, अत्राह - नन्वेवं क्रमोन कोऽप्युपलभ्यते, किंतु प्रथमत एव शब्दाऽपायज्ञानमुपजायते, सूत्रेऽपि चाव्यक्तमिति शब्दविशेष कृतम् ततोऽयमथ व्याधेयः क्रम् अनयधारितशा " 3 (३००) अभिधानराजेन्द्रः । विशेषं शब्दं शृणुयादिति इदं च व्याख्यानमुत्तरमपि संवादयतेसह सि उदितेनप्रमात्रा शब्द इत्यवगृहीतं, 'मी बेव से जागर केल सहाSSE' न पुनरेवं जानाति क एष शब्द:- शाङ्खः शार्ङ्ग इति वा?, शब्द इत्यत्राऽऽदिशब्दात् रसादित्यस्ययमेव त्याय इति यति तत प्रशांत इत्यादि सर्वसं मेय क्रम स्तुतवाह fe after वस्तु निश्चीयते तत्समीहा पूर्वकम् - नीहितस्य सम्यक् निश्चितत्वाऽयोगात्, न खलु प्रथमाशिक्षण सत्यधूमदर्शनेऽपि यायत्किम धूमः किं • 9 आभिणियोहिपणाच या मशकपतिरिति विसृश्य घूमतकरसन कालीकरसोध्यतादिधर्मदर्शनात् सम्पर्म धूमत्वेन विनि बिनोति तावत्स घूमो निधितो भवति अनिवर्तितश इतया तस्य सम्पदनिश्चितत्वात् श् यो वस्तु विशेषनिश्चयः स इंदापूर्वकः, शब्दोऽयमिति च निश्चयो वस्तुविशेषनिश्चयो, रूपादिव्यवच्छेदात् ततोपश्यमितः पूर्वमीया भवितव्यम् ईदा च प्रथमतः सामान्यरूपेणावगृहीते भवति, नाऽनवगृहीते, न खलु सर्वथा निरालम्बनमीनं क्वापि भवदुपलभ्यते नचाउपलभ्यमानं पिणं शक्नुमः सर्वस्या अपि ज्ञान प्रतिपत्तेः प्रमाणमूलत्वादन्यथाचितियसले तस्माद् ईडायाः प्रागोऽपि नियमाप्रति सव्यः अमुमेवार्थे भाष्यकारोऽपि द्रढयति-" ईहिज्जर नाऽगहियं नजर नामीद्दियं न थाग्नायं । धारिज्जइ तं वत्थं, तेरा कमोडधम्मद्दाई उ " ||२६६॥ अथशब्दोऽयमिति ज्ञानात् पूर्व प्रयर्तमानोऽनिर्देश्यसामान्यमात्र ग्रहणरूप ना ऽन्यः, अत एवोक्तं सूत्रकृता-'अव्यक्तं शब्दं शृणुयात्' इति, स हि परमार्थतः शब्द एव ततः प्रज्ञापकस्तं शब्दमनूय तद्विशेषणमाचष्टे - अपकमिति तं शब्द खति किमुक्कं भवति शब्द शृणोति कि तु • सामान्य मात्रमनिर्देश्यं गृह्णाति इत्यर्थः, यदपि चोक्तम्-तेन प्रात्यमित्र शब्द इति प्रतिपाद यति प्रज्ञापकः सूत्रकारो, न पुनस्तेन प्रमात्रा शब्द इति अवगृह्यते शब्द इति ज्ञानस्याऽपायरूपत्वात् तथा हिशब्दोऽयमिति किमुकं भवति ? - न शब्दाऽभावो न च रूपादिः, किं तु शब्द एवाऽयमिति ततो विशेषनिश्चयरूपत्वादयमवगमो ऽपायरूप एव नाऽवग्रहरूपः अथ च अयग्रतिपादनार्थमिदमुच्यमानं वर्त्तते ततः शब्द इति प्रज्ञापकः सूत्रकारो वदति, न पुनस्तेन प्रमात्रा शब्द इत्यतं तथा चाद सूत्रकृत्-"नो व समित्यादि न पुनरेवं जानाति क एक शब्दादिरर्थ इति, शब्दादिरूपतया तमर्थ न जानातीति भावार्थः । अनिर्देश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मक हस्य, अर्थऽपग्रह श्रोत्रेन्द्रियादिना " पूर्वकपूर्व जनायोऽपि यः, तदेवं सर्ववाध्यवडापूर्वमाज्ञानमुपजायते केवलमभ्यासद शामापन्नस्य शीघ्रं शीघ्रतरमवग्रहादयः प्रवर्तन्ते इति कासोया स्पष्टं न संबेधइति स्थितम् । ततो प्रविशति इद केचिदार्थ मन्यन्ते तदयु संशयो हि नामाज्ञानमिति ज्ञानरूपा हा ततः सा कथमज्ञानरूपा भवितुमईति ? नन्वीहाऽपि किमयं शाङ्कः, किं वा शार्ङ्ग ?, इत्येवं रूपतया प्रवर्त्तते, संशयोऽपि चैवमेव, ततः कोऽनयोः प्रतिविशेषः ?, उच्यते-इह यत् ज्ञानं दिविशेषानामालभ्यते नासविशेषकि तु सर्वात्मना शयानमिव वर्तते कुसीभूतं तिष्ठतीत्यर्थः, तदसद्भूतविशेषाऽपर्युदासपरिकुण्ठितं संपज्ञानमुपते यन्पुनः नाविशेषयिष हेतूपपत्तिव्यापारपरतया सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखम Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। माभिणियोहियणाण सद्भविशपत्यागाभिमुखं च तदोहा, माहच (विशss- तमर्थ न जानातीति भावः, तत ईहां प्रविशतीत्याधिप्रावश्यक) भाष्यकृत् ग्वत् , एवं स्वप्नमधिकृत्य नोइन्द्रियस्याऽर्थाऽयग्रहालयःप्र"जमणेगस्थालंबण-मपज्जुदासपरिकुंठियं चितं । सिपादिताः । अनेन चल्लेिखनाऽभ्यत्राऽपि विषये बेदितव्याः, सेय व सध्यप्पयो, तं संसयरूपमन्त्राणं ॥ १३ ॥ तदेवं मल्लकारान्तन व्यजनावग्रहप्ररूपणां कुर्वता प्रसतं चिय सपत्थहेऊ. वय त्ति वावारतप्परममोहं । अतोऽयाविंशतिसंख्या अपि मतिज्ञानस्य भेदाः सप्रपत्रभूगाऽभूयविससा, वाणवायाभिमुहमीहा ॥ १८४॥" मुक्ताः, संप्रति मल्लकाष्टान्तमुपसंहरति-"सेतं मलगनिद तेणं" एवं मलकरयान्तेन व्यजनायग्रहस्य प्ररूपणा । नं० । इह यदि वस्तु सुबोधं भवति-विशिष्टश्च मतिमानावरपक्षयोपशमो वर्तते. ततोऽन्तमुहर्तकालेन नियमात्तद्वस्तु (७) मतान्तरेणाधाविति २८ भेदत्वम्-"उग्गहरहमानो निश्चिनोति, यदि पुनर्वस्तु दुर्योधन स तथाविधो य" इत्यादिगाथायाम् 'प्राभिनिवोधिकहानस्य 'चवारि विशिरो मतियानायरणक्षयोपशमस्तत इहोपयोगादच्युतः भेदवस्तनि समासत इन्युनं, ताकि व्यासनो बहुभेदमप्यापुनरप्यन्तर्मुहर्तकालमीहते, एश्मीहोगगाविच्छदेन प्रभूता भिनियोधिकशानं भवति ?. 'इन्याशय सदबहुविधत्वभ्यन्तर्मुहामि यावदीहते तत ईहानन्तरं जानाति-अमुक दर्शनात् 'समासेन ' इति विशेषणस्य सफलत्वमाहएषोऽर्थः शब्द इति, इदं च ज्ञानमया (पा)यरूपं, ततोऽस्मिन् सोइंदियाइभेएण. छबिहा ऽवग्गहादभोऽभिहिया । साने प्रादुर्भवति 'रणमि' ति वाक्यालङ्कारे, अपाय प्रविशति ते होंति चउबीसं, चतुम्विहं वंजणोग्गहरा ॥३०॥ ततः ' से ' तस्योपगतम्-अविष्युत्या सामीप्येनात्मनि परिणतं भवति, ततो धारणां वासनारूपां प्रविशति, सं अट्ठावीसइभेयं, एयं सुयनिस्सियं समासेणं । ख्ययमसंख्येयं वा कालम् । एवमनेन क्रमप्रकारेण एतेन केइत्तु वंजणोग्गह-वज्जे छोदणमेयम्मि ।। ३०१॥ पूर्वदर्शितेनाभिलापेन शेषेष्वपि चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु अथ- अस्सुयनिस्सियमेवं, अट्ठावीसइविहं ति भासंति । ग्रहात्यो बाख्याः, नवरमभिलारविषये-" भब्यतं सई सु जमवग्गहो दुमेधो-ऽवग्गहसाममभोग्गहियो ॥३०२।। ज्जा" इत्यस्य स्थाने “अव्वतं रूपं पासेज्जा" इति बक्रव्यम् , उपलक्षणमेतत् तेन सर्वत्राऽपि शचस्थाने रूपमिति श्रोन्द्रियादीनां पञ्चानामिन्द्रियाणां मनःषष्ठानां यो भेवक्तव्य, तपथा-'तेयं रूवि सि उग्गहिए नो वेव णं जाणा दस्तेनाऽवग्रहादयः प्रत्येकं षविधाश्चन्यारोऽप्यभिहिताः । केवेस कविति ततो इहं पविसइ, ततो जाणा अमगे एस ततस्तैः पदभिश्चत्वारो गुणिताश्चतुर्विशतिर्भवन्ति । भको त्ति, ततो अवार्य पविसह" इत्यादि तदयस्थमेव, नवर न्यच्च-स्पर्शनरसनप्राणधोत्रेन्द्रियचतुएयभेदात् व्यम्जनामिह व्यजनावग्रहो न व्याख्येयः, अप्राप्यकारित्वाद च. ज्यग्रहणम्-व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधो भवति । एवमेतत् पः, घाखेन्द्रियादिषु तु व्याख्येयः, एवं तु प्राणेन्द्रियविषये श्रुतनि सथितमाभिनिवोधिकहानं सर्वमप्याविंशतिथि"अम्वतं गंध अग्बाइज्जा" इत्यादि, वक्तव्यं जिलेन्द्रिय धं संपवते । एतदपि भेदाऽभिधामं वक्ष्यमाणबहुतरभेविषये-“अवतं रसं आसाएजा" इत्यादि, स्पर्शनन्द्रिय दकलापापेक्षयाऽद्याऽपि समासेन-संक्षेपेण द्रव्यम् । विषये-"अव्यक्तं फासं परिसंवेदेजा" इत्यादि, यथा च शब्द अन्ये खेतानाविंशतिभेदानन्यथा पूरयन्ति, तम्मतमुपइति निश्चित तदुत्तरकालमुतरधर्मजिज्ञासायां किं शा? दर्शयति-'केह नु' इत्यादि, केचित्पुनराचार्या एतस्मिन्नव श्रुतनि (भि)ते मतिज्ञानभेदसमुदये, व्यअनायग्रहमेश्चतुएकिं वा शार: ? , इत्येवंरूपा ईहा प्रपर्वते तथा कामिति यबजे "उप्पत्तिया, वेणया, कम्मिया, पारिणामिया" इत्यानिश्चित सदुसरकालमुत्तरधर्मजिज्ञासायां किमयं स्थाणुः ? दिना अन्यत्र, प्रागत्रापि च प्रतिपादितस्वरूपमश्रुतनिःकिं वा पुरुष ? इत्यादिरूपा (सा) प्रवर्तते । एवं प्राणेन्द्रि स(धि)तमौत्पत्तिस्यादिबुचितपयं क्षिपस्या-मीलयित्या यादिष्यपि समानगन्धादीनि वस्तूमि ईहाऽऽलम्बनानि वेदितव्यानि, पाहच (विशेषावश्यक) भाष्यरुत् एवमष्टाविंशतिविधं सर्वमपि मतिज्ञानमिति भाषन्ते । अयं हि तेषामभिप्रायः-मतिझानस्य संपूर्णस्येह भेदाः प्रति"सेसेसु विरूवाइसु विसएसु हाँति सवलक्खाई। पाययितुं प्रकान्ताः । यदि च-अश्रुननिःस(भि) बुद्धिपाय पचासत्र-तणेण ईहाइवत्थूणि ॥२२॥ चतुएयं न गण्यते तदा श्रुतनिःस(भि)तरूपस्य मतिज्ञानथाणुपुरिसाइकुछ-पलादिसंभियकरिशमसाद । देशस्यैवैतेऽष्टाविंशतिभेदाः प्रोक्का भवन्ति । न तु सर्वसप्पुष्पलनालाइव, समाणरूवा विसया ॥ २६३ ॥" स्याऽपिः यदा तूकन्यायेन श्रुतनिःस(भि)समथुतमिःस•से जहानामए' इत्यादि, स यथानामकः कोऽपि पुरुषो- (थितं च मील्यते तदा सर्वस्याऽपि तस्य भेदाः सिद्धा उच्यतं स्वप्नं प्रतिसंवेदयेत् , अल्पतं नाम-सकलविशेष- भवन्ति । ननु साधूक्तं तः, केवलमेवं सति व्यानाऽवग्रहविकसमनिश्यमिति यावत् स्वप्नमिति प्रज्ञापकः-सूत्रकारो चतुण्यं कक्रियताम् ?, न तदपि विक्रीयमाणं खलखण्डवति, स तु प्रतिपत्ता स्वप्नादिव्यक्तिधिकलं किश्चिन- मात्रेण क्रीतम् , किंत्विदमपि मतिज्ञामान्तर्गतमेव ततोनिर्देश्यमेव तदानीं गृहाति, तथा अनेन प्रतिपत्ता "सु- ऽस्मानिष्काश्यमानं बराकमिदं काऽवस्थिति बमातु?, विणो ति उग्गहिए" इति स्वप्नमिति अवगृहीतम् , इत्याशङ्कयाह-'जमयग्गहो' इत्यादि. यत्-यस्माइयजनाअत्राऽपि स्वप्न इति प्रज्ञापकोयदति, स तु प्रति- र्थाऽवग्रहभेदतो योऽयमवग्रहो द्विमेवः प्रागुक्तः सोऽवपत्सा अशेषविशेषवियुक्तमेघाऽयगृहीतवान् , तथा बाह- प्रहसामाम्येन गृहीतोऽवग्रहसामान्येऽन्तर्भावितः, भर्यात न पुनरेवं जानाति-क एष स्वप्न इति ?, स्वप्न इत्यपि च विशेषाणां सामान्येऽन्तर्भायः, यधा सेनायां गजादीनां Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोयिषाण यादव खदिरादीनाम् । अतोऽवग्रहस्य सामान्यरूपतया एकत्वाप्रा उपायधारणानामिन्द्रियमनोमेन प्रत्येकं यत्तनिः सृतिमानस्य चतुशिविर मे अतः तस्य तु बुद्धिच णाश्चत्वारः, इत्येवं सर्व मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं सिद्धयति । इति केचिन्मतम् इति गाथायार्थ। एतच्च तम्मतमयुक्तम् । कुतः ?, इत्याहचरिता भावा, जम्हा न तमुग्गहाईयो । मित्रं तेयोग्गहाइ- साममा उतयं तस्मयं चेत्र ।। २०३ ।। चतुर्भ्यः श्रवग्रहेहापायधारणावस्तुभ्यो व्यतिरिक्तं चतुनिरितस्य चतुष्यतिरिक्रस्पातनिः(धि)नस्पाभावात्कारणाद्यस्मात् यतो न तदश्रुतनिःसृ (श्रि) तमवग्रहादिभ्यो भिश्रम् ततः किम् इत्याह-तेन कारणेनावग्रहादिसामान्याद्-महादिसामान्यमाश्रित्य वयं (३०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । " " सिध्ययमहाशि 93 ध्वन्तर्गतं - प्रविष्टमम्तर्भूतं तदन्तर्गतमेषाऽश्रुतनिःसृ (धि) तं बुद्धिचतुष्टयम् । अतः किमिति व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयं पातयित्वा श्रुतनिःसृतं बुद्धिचतुष्टयं पुनरपि प्रक्षिप्यते ?, इत्यभिप्रायः । इदमुसाईदिवाण( ३०० ) इत्यादिना प्रतिपादितैरवग्रहादिबगहा संबन्धिभिरष्टाविंशतिभेदैः किलाऽसंगृहीतत्वाद्रघनाथचतुष्वापगमं कृत्वा भूतभिः बुद्धिषमतान्तरवादिभिः प्रक्षिप्यते एतच्चायुक्तं यतः - सोइंदियाइइत्यादिनाऽपादीनामेवाविंशतिः प्रो झा, अयमात्ध बुद्धिययेऽपि सन्ति भगोय ग्रहादिभणनद्वारेण तदप्यश्रुत निःसृ ( श्रितं बुद्धिचतुष्टयमेतेशनिमेषेषु संगृहीतमेवेति किमिति । पुनरपि प्रक्षिप्यते । इति गाथार्थः । स्वात् परस्य कथमोत्पत्तिक्पादिबुद्धियेऽवग्रहादयः संभवन्ति ? । तत्र यथा ते भवन्ति, तथा दर्शयचाह किह पडिकुक्कुडो, जुम्मे बिंबेऽयम्मी ईहा । किं सुसिलिङ्कमाओ, दप्पणसंकंतबिंबं ति ॥ ३०४|| इह फिलाऽऽ"-लि-ड-तिल वालु यहस्थि - श्रगड - वणलंडे। पायसाइयापत्ते खाउहिला पंत्र पिरोय " ॥ ६१ ॥ ( नन्दी सूत्र - २७ ) इत्यादिना श्रौत्पत्तिक्यादिबुद्धीनां बहून्युदाहरणान्युक्तानि तन्मध्याच्छेषपलक्षणार्थं कुक्कुटोदाहरसमाश्रित्य पत्तियां - ग्रहादयो भाव्यन्ते - राज्ञा नटकुमारकस्य भरतस्य किल बुद्धिपरीक्षणार्थमादिष्टं यदुत - श्रयं मदीयकु (कु)क्कुटो द्वितीय कूटमम्बरंगेकक एवं योधनीयः सततं न जिज्ञासितं मनसि कथमयं प्रतिकु (कु)क्कुटहीनः प्रतिभूपति युपेतच्च जिशासमानस्य तस्य भगित्येव स्फुरितं चेतसि । किम् ?, त्यति समयेन प्रतिविपुरोि दध्यादयं युध्यत इत्यचतमित्यर्थः । एतच किम ? इत्याह श्रवग्रह सामान्येनैव विस्वमात्राग्रहणादवग्रदो मतिप्रथममेद इत्यर्थः । ईदा तर्हि का ?, इत्याद आभिणिबोयिणाय "हा कि सिलि मिति किं पुनलाई प्रतिविम्वमस्य बोधन लिएं सुष्ठु मानकं मत्क पूरादिगतम्, आहोस्विद्दणगतम् ? इत्यादिविवयिशेपान्वेषणम् हियर्थः । अपायमुपदर्शयति- 'अाओणसंकंतत्रियं' ति कल्लोलादिभिः प्रतिक्षणमपनीयमानत्वाद्, अस्पष्टत्वाच्च जलादिगतविम्बमिह न युक्तः ततः स्थिरस्पेन स्पष्टादित्येन य चरकपातादिविषयत्वादका तमेव तत्रयुज्यते इत्येवं विश्वविशेषनिपात्य र्थः एवमन्येपि बुदाहरष्यादयो भावीयाः तस्माद्बुद्धियेयेषां सङ्गावात् तनिः (धि, सुनमतिज्ञानसंवन्धप्यपमहादिगताऽपिशमिष्यादिवास्पेन स्यातां भावनीयः अनाग्रहयागमेन पुनर्बुद्धि चतुष्पप्रक्षेपणम् स्थितम् इति गाथार्थः । ; श्राह - ननु यद्यवग्रहादिसाम्पेनाश्रुमनिः (थि)स्तावग्रहादिष्वन्तर्भवति, तर्हि “ श्रभिनित्रोहियनाणं दुविहं पश्नले, तं जहा सुर्यानिस्सियं, असुयनिस्सियं च " इत्येवमागमे यः श्रुतनिः (धि) स्नादश्रुतनिः (वि) सृतस्य भेद उक्तः स वि शीर्यत एव इत्याशङ्कयाह जह उग्गहाइसाम माम्रो वि सोइंदियाइगा भेथे । तह उग्गहाइनाम स्वयं वितममिस्सिया भिषं ॥ २०३॥ यथेहावग्रहादीनामवग्रहादिसामान्ये सत्यपिः श्रप्रहादिवे तुल्येऽपि सतीत्यर्थः । किम्? इत्याह श्रोत्रेन्द्रियादिना भेदः, तथा हि-पके जेहायः यावदन्ये स्पन्द्रयसंधिनः परे तु मनःसंधि तथा काराग्रहादिसामान्य द " , - निः सुखिनादिति विशेषः कस्मात् तो इत्याह-स्थिति-भायं निशा, नि:(श्रि) भूतानिःसृतत्वादित्यर्थः भवतिअष्टाविंशतिभेदविचारक ग्रहादिमयं सामान्य ध माथित्यातनिःसृतस्य श्रुतनिःसृत एवान्तर्भावो वि वक्ष्यते मातनिः विचारला विशिष्ट धर्ममुररीकृत्य तनिः नावनिःसृतं पृथमेयेहत्यासमोस्योमॅदोऽपि न किंचित् , - इति ६ • च वयं कथमेकस्यैवैकम्मादेव भेदश्वाऽभेदश्व विरोधात् इति यता यदि मेदः अदा विरोधः, धर्मान्तरनिबन्धनौ तु भेदाभेदौ न विरुध्येते । किं हि नाम तद्वस्त्वस्ति, यस्य वस्त्वन्तरराद्भेदाभेदी न स्तः ? । घटादयोऽपि हि घटादित्यसामान्येन परस्परममेदिनोऽपि स्वक्षेत्रकालादिस्वेन भिक्षा इति अब बहु प तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनता प्रसङ्काद्, अनेकान्तजयपताकाहि विस्तरे इति गाथार्थः । स्यादेतत् किमेतावता कऐन ?, मदीयव्याख्यापक्ष एव सुखावहः, श्रुतनिःसृनाऽश्रुतनिःसृतयोरभेदापत्तेरभावात् समस्तमनिज्ञानमेतदेव सिद्धान्ताभिप्रायवहिर्भूतत्वादेतदेवोपसंहारपूर्वकमाह अट्टा सुनिस्मियमेव केवलं तुम्हा । १- अनेकान्तजयताकानाम्नि ग्रन्थे । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३ ) अभिधानराजेन्द्र | अभिब्रिोहियणाण “ जम्हा तम्मि समचे पुनरग्सुअनिस्लियं भणियं ।। ३०६ ।। तस्माद्-अनादिसाम्य निःसृतस्य निःस् तेऽन्तर्भावं कृत्वा केवलं श्रुतनिःसृतमेव मतिज्ञानमप्रार्थिशतिभेदामुचितं न तु परोनीन मेनाऽश्रुतनितमिति कुतः इत्याह'जम्दा इत्यादि से किसे सुनिस्ि यतः-' " इत्येवमागमे तस्मिन् श्रुतनिःसृते समाप्ते-निष्ठां नीते सति पुनः पश्वात् से किं तं अस्सुयनिस्सियं " इत्यादिना प्रथेनाऽनिः भवितम्। अयमभिप्रायः निः समयभिधाय परवाने वा तनिः मुक्रम्। अतः कर्य तत्र प्रप्यते तस्मात्समाभिभूतःवाशिमेाइति अतो न इति नदेवम्- "वडवइरित्ताभावा " इत्यादिगाथा मूलटीकाऽभिप्रायेण व्याख्याताः । अन्ये त्वन्यथाऽपि व्याख्यानयति तदा त्वगिम्मीत्याच विद्मः इति गाथार्थः । विशे० । शा० । द्वा० । अनं० एते चावप्रहादयोऽष्टाविंशतिभेदाः प्रत्येकं बह्नादिभिः सेतरे: सपा द्वादशसंख्यैमेनिया - यदपले तदा पद्दधिकं मेदानां शत (३३६) भवति । तत्र ब्रह्रादयः शब्दमधिकृत्य भाव्यन्ते । शङ्खपटहादिनानाशब्दसमूह पृथकं यदा अवगृह्णाति तदा ग्रहः यदा त्वेकमेव कंचिन्मयात सदा अ वग्रह तथा शङ्करादिनानाशब्दसमूहमध्ये एक शब्दमनकैः पर्यायैः स्निग्धगाम्भीर्यादिभिर्विशिष्टं यथापस्थितं या अवगृह्णाति तदा स बहुविध पदा त्वेकमनेकं वा शब्दमेकपर्य्यायविशिष्टमवगृह्णाति तदा सोऽविधायः यदा तु अधिरेव जानाति तदा स faraग्रहः, यदा तु चिरेण तदा श्रक्षिप्राऽवग्रहः तमेव शब्द स्वरूपेण यदा जानाति न लिङ्गपरिग्रहात् तदा श्रनिथिनामपिरिस्तो निधिनाग्रहः, अथवा परधर्मैर्विमिश्रितं यद् ग्रहणं तम्मिश्रितावग्रहः यत्पुनः परधर्मैरविमिश्रितस्य ग्रह तदमिश्रिताग्रहः । तथा निश्चितमवगृह्णतो निश्चितावग्रहः, संदिग्ध गृह्णतः संदिग्धावग्रहः सर्वदैव बह्रादिरूपेणावगृहतो भूयाऽपग्रहः कदाचिदेव पुनर्वद्धादिरूपेावनः अ वग्रहः, एष बहुविधादरूपोऽपग्रहो विशेषसामायामय श्वयिकस्याग्रहस्य सफल विशेषनिरपेक्षनिर्देश्यसामान्यमात्राहि एकसामयिक बहुविधादविशेषग्राहकन्यासंभवाद, यादीनां चानस्तरो उपायानं कारोपमापति 46 'नावाससमूह चहुं परं मुग मिश्रजातीयं । बहुविमग एकेक मिराई ३५ ॥ विप्पमचिरेण तं त्रिय, सरूबओ जमनिस्सियमलिंगं । निच्छ्रियमसंसयं जं. धुवमश्चंतं न उ कयाई ।। ३०६ ॥ तो चिडवलं सादे निस्सिए विसेोऽयं । परध मिस्सं मिस्सियमचिमिस्सि ३० यदा पुनरालोकस्य मन्द मन्दतर- मन्दतमस्पष्ट-स्पष्टतरविषयस्था उत्पत्यमहस्वसंनिकर्षादिये आभिणियोयिणाच नतः क्षयोपशमय चिन्त्यते तदा तदनन्तभेदं प्रतिगतय०३५ डी० । श्रा० म० । कर्म० । (८) समितिज्ञानस्योपविषान्तरे बहुतरभेदमध्येतद्भयतीति दर्शया तारतम्यभेदत जं बहु-बहुविहखिप्पा - निस्सियनिच्छिगधुवेभर विभिन्ना । पुरुग्गहादओ तो तं नीससियमेयं ॥ ३०७ ॥ से यत् यस्माद्बहुविधक्षिप्रानिधि तरे: परीकशो विभिक्षा भाजः पुनरप्या द इष्यते । ततस्तदेवाष्टाविंशतिविधाभिनियोधिकज्ञानमेतेादशभिः प्रत्येकं भिद्यमानत्वात् पत्रिध कत्रिशत ३३६ भेदं भवति । इदमुक्कं भवति श्रनन्तरवश्यमासन्यायेन संक्षेपतः प्रागभिहितयुक्पा चोद शिवगृह्णाति कब्धिस्वयम् अपरस्तु बहुविधम् अ स्वविधम् एवं यावदन्यो म अपरत्यभुव मवगृह्णातीति । एवमीहाउं - पाय धारणास्वपि सप्रभेदासु प्रत्येकममी द्वादश १२ मेदा योजनीयाः । नयरमीहते. निश्चि नोति, धारयति इत्याद्यभिलापः कार्यः । ततश्वाष्ठानिशतौ द्वादभिर्गुणितायां पत्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि ३३६ मेदानां भवतीति गाथार्थः । अथ शब्दलक्षणं चिपचमाश्रित्य तावद वहादीनामर्थ व्या ख्यातुमाह नाणासह बहुं हिंग मिश्रजातीयं । बहुविमग़भेयं, एकं निद्धमहुराई ।। ३०८ ॥ खिप्पमचिरेण तं चिय, सरूवा जं प्रणिस्सियमलिंगं । निष्यिमसंस जं, मन उ कयाइ ॥ ३०६ ॥ इद्द श्रवणयांग्यदेशस्थे सूर्यसमुदाये युगपद्वाद्यमाने कोऽपि श्रोता तस्य सूर्यसंघातस्य संबन्धिनं पडदाशङ्खमेरि भासकादिनानाशब्दसमूहमा कतिं सन्तं क्षयोपशमविशेपाद बहुमवग्रहादिना मुर्गा-जानासि फोर्थ है, इ पृथग्-भिन्नजातीयम् एतावन्तोऽत्र भैरिशब्दाः, एतावभाणकशब्दाः, एतावन्तस्तु शङ्ख-पटहादिशब्दाः इत्येवं प्रथमेश मिश्रजातीयस्पेन तं नानाशब्दसमूहं चन वर्क । अम्पस्वल्पक्षपोगराम या समानदेशो य मुखति सामान्येन नानात्पशब्दोऽयमित्यादिमात्रक मेव जानाति इति प्रतिपक्षः यमुताधायामदेव साणा प्रतिपक्षभावना सर्वत्रावयोव्या अभ्यस्तु क्षयापशमचियादब मुगति कोऽयं वाहअनेकदा एकैकं शमेर्यादिशब्द जिनस्वयमधुरयनमध्यमपुरुषाचा 3 पेतं जानातीत्यर्थः। अन्वस्तु अधिनियमाद स्वाधर्मान्वितमेव पृथग्मिन्नजातीयं नानाशब्दसमूहं जानाति । अन्यस्तु क्षिप्रम् । कोऽर्थः ?, इत्याह-अचिरेण शीघ्रमेव परिच्छिनत्तिः नतु चिरेण विमृश्येत्यर्थः । अन्यस्तुअक्षि-विरविमर्शिमं जानाति तथा" तं विय सरूप जे अतिरियमि" ति समेय नानाशसमूह कोणकोऽप्य(अ) गीति संवन्धः । यं किम् इत्यादयं Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) अभिधानराजेन्द्रः । श्रभिषियोयिपाल स्वरूपतो जानाति । कोऽर्थः ? इत्याह-आलि पताकादिलिङ्गाऽनिमित्यर्थः इदमेषदेवकुलमंत्र तथाविधपताकादर्शनाद 1 गति स्वरूप एव मतिमनिःसुतं 'मुखति इति-उपइति तमेवाजानामोनिः मुतीयते तथा नियमसंसर्पतिमतं निश्वितं मु. निश्विर्ततादित्यमेतन्मया परं न जाने तथा या स्याद् अन्यथा वा इत्येषं संदेहानुविद्धं तु जानन निश्चितं मुखि चुपमित्यादि अत्यन्तं नतु कदाचिदिति । इव भवति पद बहाल सर्वदेव तथाऽवबुध्यमानो भवं मुगणतीत्युच्यते । यस्तु कदाचिद् बह्नादिरूपेण, कदाच्चिस्वत्रहादिरूपेण सोऽभुवं मुगति । इति गाथाद्वयार्थः । इतरशब्दं व्याविल्यासुराह तो चिपक साहिजा निस्सिए सेवा परधम्मेहि त्रिभिस्सं, निस्सियम विशिस्सियं इयरं । ३१० । एतस्मादेव-उस्कादिसमूहात्यनिपक्षमे तद्विपर्ययमबहुविधाऽक्षिप्र - निसृताऽनिश्रिताऽध्र्वपद्मकलक्षणं साधयेत् स्वयमेव ब्रूयात् मेधावी । स च लाघवा यहादिविचार एवं साधितः तदेवं व्याख्याता द्वादशापि बहादयो भेदाः । अथवा निसृने सप्रतिपक्षेऽपि व्याख्यानान्तरलक्षणो विशेषो वक्तव्यः । कः ? इत्याहपरधर्म:- अश्यादिवस्तुपरैर्विमिश्रं युक्तं गवादिवस्तु गृहालस्य नितं भवति गामश्यादिगणी विष योपलब्धिः, तन्निसृतमित्यर्थः । इतरसु यत्परधर्मैर्विमिश्रं वस्तु किं तु यथास्तमेवोपल धिरूपमनिसृतं गवादिकं वस्तु गवादिरूपेणैव गृह्णतो येयमविपर्ययोपलब्धिस्तद निसृतमित्यर्थः । अत्राह - ननु बहुबहुविधपरिज्ञानादीनि विशेषणानि रूपशार्थमा यायादिषु भवन्तु व्यञ्जनावनिश्वार्थावग्रहयोस्तु कथं तत्संभवः ?; तथाहि - ' सामरणमणिसं सरुवनामाइकष्णारहियं' इत्यादिवचनानिश्चयार्थाऽवग्रहे शब्दादिविशेषमात्रमपि नास्ति तथा दिपरिभवज्ञान संभवः ? अथ व्याख्यानात् व्यवहारार्थामोह्यते तस्मिथ विशेषग्राहिन्या बहुपरिज्ञाना दिविशेषसाम्पद्यन्त एव भवत्येवं तथाप्याविशनिभेदमध्य संगृहीतस्य व्यञ्जनावग्रहस्य कथमेतद् विशे संभवः ? तत्र हि सामान्यार्थग्रहणमात्र मपाकृतं बह्नादिपरिज्ञानं तु दूरोत्सारितमेवति । सत्यमेतत्, किं तु व्यञ्जनावग्रहादयः कारणमपायादीनां तानन्तरेलापायाद्यभावात् । ततश्चापायादिगतं बादिपरिज्ञा नं तत्कारणभूतेषु नादिष्यपि योग्यताऽभ्यु पगन्तव्यम् । न हि सर्वथाऽविशिष्ट त्कारणात् विशिष्टं कार्यमुत्तुमईति को शास्त्रिफलादिग्रसप्रसङ्गात् इति प्रागयुक्रायम्यल गाथार्थः । ननु कथनेकस्यापि मतिज्ञानमेश इत्याशङ्कय आभिणिबोहियाए निटिभेदानां कारणम् श्रन्येषामपि बहुतरभेदानां सहेतुकं भयोपसंहारगर्भमाद 3 एवं की तरह किंचिमेतविसेसे- भिजमा पुगोऽयंतं ॥ ३११ ॥ एवं तावद्वाह्याभ्यन्तरनिमित्तवैचित्र्यान्मति बहुत्वमुक्रम् । तत्र वा निमित्तं मतिज्ञानस्य कारणम् आलोकविषयादिकम् । तस्य च स्पष्टाऽव्यक्तमध्यमाला महत्त्वसंनिकर्षविप्रकर्षभेदाद्वैविध्यम् ? । श्रभ्यन्तरनिमित्तं पुनरावरणक्षयोपशमापयोगोपकरन्द्रियाणि । अस्यापि बैं मध्यभेदात् ततस्माद बाह्याभ्यन्तरनिमिरापेचयाम्मतिज्ञानस्य यथाक्रमेत्यमिगस्तम्यम् । एतदेव व मतिज्ञानं यथानिमित्तद्वयस्य किंचिन्मात्रमेयमानं पुनरनन्तमपि भवतीति प्रतिपत व्यम्, सामान्येन मतिज्ञानमात्रवतां जीवानामनन्तत्वात्, तेषां च क्षयोपशमादिभेदेन मतेत्रित्वादिति भावः । इति गाथार्थः । (१) महादयो ज्ञानमेव न भवन्ति स्पष्टार्थनिर्भासाद्यभावात् संशयादिवत् कथममी मतिज्ञानभेदाः ?, इत्याशङ्कयैतेषां ज्ञानत्वसाधनायाऽऽद्दइह संस्यादभावाभोऽवग्गहादयो नाणं | अणुमा मिवाहन से समाइसम्भाषी तेसुं ॥ २१२ ॥ "हायो ज्ञानमिति प्रति संशवादिष्यनन्तर्भावादि " ति हेतुः आशियात् विपर्ययानच्य सायपरिग्रह अनुमानवदिति शम्भः संश इह याचनन्तथादिभिः पुजलमिवाभवत् सूत्रस्य सूचकत्वाद ' श्रात्मधर्मत्वे सति संशयाद्यनन्तभावात्' इति सविशेषणो हेतुर्दष्टव्यः । अत्राह परः- मनु सविशेषतायनेकान्तिकता मा भूतनियति तदेवाह न संशया इत्यादिन तदीयं यथः कुतः इत्याह-संयादिस्नेष्यग्रहादि तेषां संपत्ति संशयाद्यनन्तचाद् इत्यसि हेतुरिति मायः इति गाथार्थः । कथं पुनस्तेषु संपादिसाय 9 + ननु संदिदे संसय विजया संमोह चेहाऽचि । बच्चासो वा निस्सिय मत्रग्गहोऽज्झत्रसियं तु ॥ ३१३|| ननु " खिष्णमचिरेण " ( ३०६ ) इत्यादिगाथायां यदुक्तम्''-"को संदिग्धं मुति इति, तत्र संदिग्धे शायमाने संशयस्तावद्र्धक्क एव यत्र च संशयस्तत्र संदिहानस्य कदाचि द्विषयेोऽपिस्याद् इत्येवं संदिग्धे संशयविपर्ययौ ताबदनियारिताषे । श्रथ वा किमनेनोत्तरभेदरूपे संदिग्धे दूपणप्रदानेन ? हन्त ! येयं मूलभेदरूपा ईहा साऽपि संशय एव निश्वयत्वे तस्याऽपायत्यप्रसङ्गादिति । श्रथ वा" परधस्मे हि विमिस्सं निस्सिय ( ३१० ) मित्यत्र यतिमुक्रं तदपि गवादिकमश्वाविरूपेण पर्या एव । न हि नृत्यविपर्यासो भवति, किं त्वन्यस्यास्य ११ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०५) माभिणिबोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। भाभिणिवाहियणाण रूपेण ग्रहणमेवेति भावः । नैश्वयिकाऽर्थाऽवग्रहरूणे- | वादिति । यदप्युक्तम्-'अपग्रहोऽनभ्यवसायः' इति । तरपग्रहः । पुनरनभ्यवसितमनभ्यवसाय एव, अनिदेश्य- प्ययुक्तम् । तत्र ह्यध्यवसायः साक्षादेव नास्ति, योग्यतया सामाग्यमात्रप्राहित्वात् , नपत्र कस्याऽप्यर्थस्य संबन्य- पुनरस्स्येव, अन्यथा तरकार्येषु-अपायाविन्यपि तदभावप्रसध्यवसायोऽस्तीतिकृत्वा । तदेवं संशयाविरूपत्वात् ना- मात्, इत्युक्तमेव । अतिमत्तभूछिनानामेष हिसानमनऽवग्रहादयो सानमिति । अतो न ते मतियानमेवाः ध्यवसाय उच्यते, तत्र योग्यतयाऽप्यस्यवसायस्य वक्तुमतद्भेदत्वे वा मतिज्ञानमपि न किञ्चित्, दोषशतजर्जरा- शक्यत्वात् , तस्कार्यभूतस्याऽपायाद्यभ्यवसायस्याप्यलक्षपग्रहाद्यात्मकत्वात् । इति गाथार्थः।। णत्वात् । तदेवमवग्रहादीनामसिझं संशयादित्वम् । तथाऽपि अत्राऽऽचार्यः प्राऽऽह 'अभ्युपगन्तुम् ' अङ्गीकृत्यापि तेषां संशयादिरूपतां धूमः। इह सज्झमोग्गहाई-ण संसयाइत्तणं तह वि नाम । शाममेव संशयावयः। संशयविपर्ययाऽनयध्यवसायाः-तश्च अन्भुवगंतुं भएणइ, नाणं चिय संसयाऽऽईया ॥३१४॥ तश्च संशयाविरूपत्वेऽपि नावग्रहादीनां मतिज्ञानभेदत्वं विरुद्धयत इति भावः । इदमुक्तं भवति-नाऽस्माभिः वह यदवग्रहादीनां संशयादित्वं त्वयोगावितं तवचाऽपि 'समीहितषस्तुप्रापकं ज्ञानम् , इतरदशामम्' इत्येवं सायं-साधनीयं वर्तते, स्वदुक्लनियुक्तियाङ्मात्रेणैव मदुक्कतोरसिद्धत्वाभावादिति मन्तव्यं, न पुनरेतायतैब जाता व्यवहारिणां प्रमाणाप्रमाणभृते सानाशाने विचारयितुत्वत्समीहितसिद्धिः इति प्रमुदितेन न भाव्यमिति भावः । मुपक्रान्ते, किंतु- ज्ञायते येन किमपि, तत्सम्यग्दृष्टितथा हि-यदुक्तम् 'संदिग्धे संशयविपर्ययो' इति तदयुक्तम्, संबन्धिज्ञानम् ' इत्येतावन्मात्रकमेव व्याख्यातुमभिप्रेत; अभिप्रायाऽपरिवानात् नह्यस्माभिस्तथाविधवस्त्वप्रापक वस्तुपरिक्षानमात्रं तु संशयादिध्यपि विद्यते, इति न तेषासंदिग्धरर्ष विवक्षितं, येन वस्त्वप्रापणात्, विपर्यय मपि सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनां ज्ञानवहानिः । इति गाथार्थः । प्रापणाद्वा तत्र संशयविपर्ययौ स्याता; किंतु-कृतेऽपि कथं पुनः संशयादयो मानमिस्याहवस्तुप्रापकेऽधितथे निश्चये यत्र तथाविधक्षयोपशमबैविड्यान्मनसि किंचिदल्पं शामात्रं न निवर्तते ' सम्यक बत्थुस्स देसगमग-त्तभावो परमयप्पमाणं व । न जाने, तथैव स्यादन्यथा वा' इति, तथेह संदिग्धत्वं किह वत्थुदेसविल्मा-महेयवो सुणसु तं वोच्छं ॥३१॥ विवक्षितम् । न चैतावन्मात्रेयाऽक्षानता युक्ता, व्यवहारो- झानमेव संशयादय इति प्राक्तनी प्रतिक्षा, वस्तुमो-गया। च्छदग्रसकात् । न खलु धूमबलाकादेः सकाशात्सम्यग्दह स्वपरपर्यायैरनम्तधर्माऽध्यासितस्य यो देशः-एकदेशस्तमजलादौ निश्चितेऽपि मुखेन तनिश्चयं त्रुवतामपि सर्वेषां स्य गमकत्वभावात् , इति हेतुः, पराभिमतं प्रमाण मि. प्रमातृणां चेतसि शङ्कामा विनिवर्तते । न च ते सर्वेऽपि श्वयज्ञानरूपं तद्वदिति हाम्तः । इह यसवेकवेशस्य निश्चितं वस्तु न प्राप्नुवन्ति । न च काऽपि संशयवि गमकं तज्ज्ञानं दृष्ट, यथा परमतं निश्चयरूपं प्रमाणं, वनयंयत्वेन अमानता तेषां दृष्टा । यदप्युच्यते- ईहाऽपि स्त्वेकदेशगमकाच संशयादयः, ततस्ते झानम् , इति । संशय एव' । तदथ्यसंगतम् , न हि किमया स्थाणुः, पुरुषो अत्र हेतोरसिद्धतां मन्यमानः परः पृच्छति-कथं घस्वेकवा' इत्याविरूपः संशय ईहाम्धुपगम्यते । किंतु-यदन देशविज्ञानहेतवः संशयादयः ?, वस्तुनो निरंशषन देशम्तरमेव निश्चयोऽवश्यं भवति स एवाऽन्वयधर्मघटनव्य स्वैधाभावान ते एकदेशग्राहियो घटन्त इति परस्यातिरेकधर्मनिराकरणाभ्यां निश्चयाभिमुखो बोध ईहा, इत्य भिप्रायः । प्राचार्यः प्राह-यस्वया पृष्टं तद्वक्ष्ये-भणिसकृदेव पूर्वमावेदितम् । न चाऽयं संशयो निश्चयाभि च्यामि अहं, शृणु-समवहितः समाकर्णय स्वम् । इति मुखत्वात् । नाऽपि निश्चयस्तत्प्रत्यासत्तिमात्रप्राप्तस्वात् । न गाथार्थः। च वक्रव्य निश्चयादन्यस्य सर्वस्य संशयस्वादशानतैवेति: यथा प्रतिक्षातमेवाहनिश्चयोपादानक्षणस्यापि सर्वथाऽज्ञानत्वमसात् । तथा च सति निश्चयस्याप्यज्ञानताप्राप्तिः । 'नह्यविशिष्टारका इह वत्थुमत्थवयणा-इपज्जयाऽणंतसत्तिसंप। रणाद्विशिएकार्योत्पत्तिः' इत्युक्त्वादिति । यदप्युक्तम्-नि: तस्सेगदेसविच्छे-यकारिणो संसयाईया।।३१६ ॥ सृतं विपर्यासः' इति । तदप्ययुक्तम् , “लिङ्गासन निःस्- इह वस्तुनो-घटादेः मृण्मयस्थपृथुबुध्नत्यवृत्तत्वकुण्डलासम्' इत्यस्मिन् व्याख्यानेऽस्य दोषस्य सर्वथैवाऽसंबध्य- यतीवायुक्तत्वादयोऽर्थरूपाः पर्यायाः-अर्थपर्यायाः अनम्ता मानवात् , 'परधम्महि विमिस्सं निस्सियं ' (३१०)। भवन्ति । घटकुटकुम्मकलशादयस्तु वचनरूपाः पर्यायाःइत्यस्य च व्याख्यानान्तरमात्रत्वात् । भवतु तदपि व्याख्यानं वचनपर्यायास्तेऽप्यनन्ता भवन्ति, श्रादिशब्दात्-परतथाऽपि व्याख्यानात् परधर्मास्तस्मिन्नाशङ्किता एव द्रष्ट- व्यावृत्तिरूपा अध्यनन्ता गृह्यन्ते । ततश्चेत्थं समासः कव्याः नतु निश्चिताः, यथा “गौरवात्र, केवलमश्व इम- सव्यः-अर्थश्च वचनानि च श्रादिशब्दात्-परब्यावृत्तयश्च तिभाति' इति । एतावन्मात्रेणैव चेयं विपर्ययोपलब्धि- तपाः पर्याया अर्थवचनाविपर्यायाः, ते च तेऽनन्ताश्न स्वगन्तव्या; नतु सर्वथा विपर्ययधनिश्चयात् सर्वथा त एव शक्लयः, ताभिः संपन्न-युक्तं यतो तस्तु भवति मतविपर्यये तत्राऽश्वादिसस्वप्रसङ्गात् । न च वक्तव्यम्-एवं स्तस्यैकदेशविच्छेदकारिणः संशयावयो याः । इदमुक्तं सतीदनिश्चितान्न भिद्यत, तत्र परधर्मनिःसृतत्वाभावात् । भवति-न खलु वयं निरंशवस्तुवादिनः, किंतु-यथोक्राविवक्षितवस्त्वभावशङ्कामात्रस्यैव सद्भावादिति । न च उनम्तधर्मलक्षणवस्तुनोऽनन्ता एव देशाः सम्तीति बर्य विपर्ययधर्मशङ्कामात्रेणाऽप्यमानता, वस्तुमाप्तिविघाताऽभा-[ मन्यामहे । तन्मध्याच पकैकदेशग्राहिणः संशयादयोऽपि Jain Education Interational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामिणिवोहियणाण अभिधानराजेन्द्र माभिणिबोहियणाण भवन्स्येव, इति कथं न ते मानम् ?। यदि पुनस्ते किमपि चारयितुमुगकान्तम् । शानं च सम्यग्र व भवति अन गृह्णीयुः तदा तेषामनुत्थानमेव स्यात् , सर्वथा निर्वि- तस्तत संबन्ध्येव मतिज्ञानमिह विचार्यते, सम्यग्दृष्टिपयज्ञानस्य प्रसवाऽयोगात्, गगननलिनशानयत् । ततश्च | संबान्धनां च संशयादीनां मानता साध्यते इत्यलं विज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमिति व्युत्पत्त्यर्थात्संशयादीनामपि झा- स्तरेण । इति गाथार्थः । विश० । नता न विरुद्धयते । इति माथार्थः । (१०) सम्प्रति पुनद्रव्यादिभेदतचतुष्पकारतामाहअथ समस्तवस्तुरूपप्राधेय शानं, नैकदेशप्राहकम् इत्ये तं समासो चउव्विहं पत्रतं, तं जहा-दव्यमो१,खतदाशङ्कय निराकुवंशाहअहवा न सव्वधम्माऽ-वभासया तो न नाणमिहूँ ते । तो२, कालो३, भावओ ४ तत्थ दवभो णं आभिनणु निनो वि तद्दे-समेत्तगाहि त्ति अन्नाणं ॥३१७॥ णियोहियनाणी पारसणं सब्वाई दम्बाई जाणइ, न पासइ १। खत्तो णं आभिणिबोहियनाणी भाएसणं अथवा-अथ चेदेवं ग्रयात्परः । किम् ?, इत्याह-न सर्वधर्माऽवभासकाः- कान्येन गवादिवस्तुसमग्रा सव्वं खत्तं जाणइ, न पासइ २ । कालो णं आभिहिणः, ततो न ज्ञानमिष्टं ते संशयादयः, संपूर्णध- णिबोहियनाणी पाएसेणं सब्बकालं जाणइ, न पासइ३। स्तुस्वरूपग्राहिण एव ज्ञानत्वात् । अत्रोत्तरमाइ-ननु भावओ णं आभिणिवोहियनाणी आएसेणं सम्बे भावे भवता झानत्वेनाऽङ्गीकृतस्तहिं निर्णयोऽप्यशानमेव प्राप्नोति । कुतः ?, इत्याह-तस्य गवादिषस्तुन एकदशमात्र. जाणइ, न पासइ ४ । (सूत्र-३६४) ग्राहीति कृत्वा तथा हि-गौरयं, घटोऽयं, पटोऽयमि 'तं समासो ' इत्यादि-तन्मतिज्ञान समासतः-संक्षेपेण च. त्यादिभिनिर्णयैरपि गोत्वघटत्वादिको वस्त्वेकदेश एव तुर्विधं प्रशतं. तद्यथा-द्रव्यतः१. क्षेत्रतः२. कालतो ३, भावगृह्यते, अतस्तेऽपि कथं झानरूपतां भजेयुः ? । अथ तश्च ४। तत्र व्यतो मिति वाक्यालङ्कारे, आभिनिबोधिदेशस्य देशिनमन्तरेण कदाचिदप्यभावात्तद्ग्रहणद्वारेण स- कहानी, 'आदमेणं' ति-श्रादेशः-प्रकारः, म च द्विधावमपि वस्तु निर्णयेन गृहीतम् इत्यतो शानमेवाऽसौ । सामान्यरूपो, विशेषरूपश्च । तदेह सामान्यरूपो प्रायः ततः तदेतत्संशयादिभ्यपि समान; तथा हि-'किमयं स्थाणुः । श्रादेशन द्रव्यजातिरूपंसामान्यादेशेन सर्वव्यापि धपुरुषो वा' इत्यादिरूपः संशयोऽपि स्थाणुत्वादिकं वस्त्वेकदेश मास्तिकायादीनि जानाति किंचिद्विशेषतोऽपि, यथा-धर्माजानाति, विपर्यासोऽपि विपर्ययवस्त्येकदेशमबबुद्धयते अन- | स्तिकायो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः तथा-धर्मास्तिकायो ध्यवसायोऽपि सामान्यमात्ररूपं वस्त्वेकदेशमवगृह्णाति । गत्युपष्टम्भहेतुरमूर्ती लोकाऽऽकाशप्रमाणः इत्यादि, न पततश्च संशयादयोऽप्येकदेशपरिशानद्वारेण समग्रमपि वस्तु श्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन न पश्यति, घटाीजानन्त्येव, इति तेषामपि मानता केन वार्यत ? । अथ स्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि, अथ था-'आदेश' गृह्यते संशयादिभिर्वस्त्वेकदेशः, केवलं संशयेन संदिग्धः; इति-सूत्रादेशस्तस्मात्सूत्रादेशात्सर्व द्रव्याणि धर्मास्तिकाविपर्यासेन विपर्यस्तः, अनवध्यवसायेन त्वविशिष्ट इति, यादीनि जानाति, न तु साक्षात्सर्वाणि पश्यति, ननु यन्मूचेत् । ननु प्रतिविहितमध्यदः किं विस्मरसि ?, यतः-झाय प्रादेशतोहानमुपजायते तत् श्रुतशानं भवति। तस्य शम्दार्थनेऽनेनेति हान-मतिरूपं ज्ञानं मतिज्ञानम्' इत्येवं सामान्ये परिज्ञानरूपत्यात् । अथ च मतिज्ञानमभिधीयमानं वर्तते, नैव सम्यग्दृष्टिसंबन्धि मतियानमिह विचार्यते । तस्य च तत्कथमादेश इति सूत्रादेशो व्याख्यातः १. तदयुक्तम् , संशयादिरूपस्य, निर्णयरूपस्य वा सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनो सम्यम्यस्तुतत्वापरिज्ञानाद् , इह हि श्रुतभावितमतेः श्रुमानता न विरुध्यते, 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्' इत्यस्याऽ तोपलब्धेष्वप्यर्थेषु सूत्रानुसारमात्रेण येऽवग्रहापायादयो थस्य सर्वरोगपद्यमानत्वादिति । ननु यदि संशयादयोऽ बुद्धिविशेषाः प्रादुःष्यन्ति ते मतिज्ञानमेव, न श्रुतहानं, पि मतिहानं, तर्हि चतुर्भद्रत्वमतिक्रम्य सप्तमेदवं तस्य सूत्रानुसारनिरपेक्षत्वात् , आह च भाष्यकृत्-“श्रादेसो प्रसज्यते, इति चेत् । नैतदेवं, यतोऽनध्यवसायस्तावत् त्ति व सुत्तं, सुश्रोवल सु तस्स मानाणं । पसरह तसामान्यमात्रप्राहित्येनाऽवग्रहे अन्तर्भवति संशयोऽपि पू. ज्मावणया, विणा वि सुत्ताणुसारेणं ॥ ४०५॥१, एवं क्षेत्रा दिष्वपि नवरं तान् सर्वथा न पश्यति, नत्र क्षेत्रं लोकावोक्तस्वरूपेहाप्रकारत्वात् , तत्कारणवाच्च तस्यामेवान्तविंशति, यप संशयस्य पूर्वमीहान्यमपाकृतं तदपि लोकारमकमर, कालः सर्वाऽद्धारूपः, अतीतानागतवर्तमाव्यवहारिजनानुवृत्या, नतु सर्वथेप्ति, विपर्यासस्तु निश्च नरूपो वा ३, भावाश्च पञ्चसंख्याः औदयिकादयः, तथा यरूपत्वात्साक्षादपाय एव, इति कुतश्चतुर्भेदाऽसिक्रमः । चाह भाष्यकृत्इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा सम्यगृष्टिबन्धिनः "पाएसो त्ति पगारो, ओहादे सेण सध्यदव्या। संशयादयो मतिज्ञानादतिरिच्यमानाः काऽन्तर्भवेयुः? । धम्मस्थिकाइयाई, जाणर न उ सबभायेण ॥ ४०३ ॥ अमान इति चेत् । नैवं "सम्महिट्ठीणं भंते ! किं नाणी, खेतं लोगालोग, कालं सव्यऽद्धमहव तिविहं च। प्रमाणी', गोयमा! नाणी, ना अन्नाणी" इत्याचागम- | पंचोदयाईए, भावे ज नेवमेवयं ॥ ४०४॥४। नं०। धचनात्सम्यग्दृष्टः सदैव शानियादिति, भवत्येवं, तथा (११) अथ तेषामेव कालनिरूपणार्थमाह नियुक्तिकार:ऽपि सम्यग्रसिंबध्येव मतिज्ञानमिह विचार्यत इति उग्गहो एकं समयं, ईहाऽवाया मुहत्तमेत्तं तु । कुतो लभ्यते । इति चेद उच्यते-सानपञ्चकमेवेह वि- कालमसंखं संख, च धारणा होइनायव्वा ।। ३३३ ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०७) माभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। आभिणियोहियणाण 'अवग्रह ' इति व्याख्यानानैश्चयिकोथीऽवग्रहो द्रष्टव्यः । | प्रक्षा विशिपक्षयोपशमजन्या प्रभृतवस्तुगनयथावस्थिनधस किम् ?, त्याह-सर्वजघन्यः कालविशेषः समया, तमेकं र्मालोचनरूपा मतिः । समिदमाभिनिबोधिकं कथंचित् समयं भवति, न परतः । ईहाऽ-पायो प्राकृनिर्णीतस्वरूपी किंचिड्रेनदर्शनेऽपि तस्वतः सर्वे मतिज्ञानमेघमित्यर्थः । 'मुत्तमंत्वि' ति-अन्तःशब्दो मध्यवचनः, ततश्च इति नियुक्तिश्लोकार्थः । विशे० । प्रा० म०१ १०१२ गाथा । जघन्यतः, उत्कृष्टतश्च मुहूर्तान्तभिन्नं मुहर्त ज्ञातव्यो अत्रैव तद्वयाख्यानाय भाष्यम्भवतः, अन्तर्मुहतमित्यर्थः। तुश्चकारार्थः । चकारश्चानुक्कसमुचये । ततश्च व्यञ्जनाऽवग्रह-व्यावहारिकाऽव होइ अपोहोऽवामो, सई धिई सब्वमेव मइपना । प्रहौ च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्न भवत इति द्रष्टव्यम् । क्वचित्- ईहा सेसा सव्वं, इदमाभिणिबोहियं जाण ॥ ३६७ ।। " मुत्तमद्धं वि " ति-पाठः, तथाऽपि मुहूर्ताद्धशम्देना अपोहस्तावत्किमुच्यत इत्याह-अपोहो भवति-अपायः न्तर्मुहर्तमेव मन्तव्यम् । तुशब्दोऽपि तथैव । कलने कालः | योऽयमपोहः स मतिज्ञानतृतीयभेदोऽपायो निश्चय उच्यत न विचते संख्या पक्षमासर्वयनसंवत्सरादिका यस्या इत्यर्थः । स्मृतिः पुनतिर्धारणोच्यते धारणाभेदत्यनासावसङ्ग्यः पल्योपमादिलक्षणः तं कालमसंख्य, तथा ध्यवयवे समुदायोपचारादिति । मतिप्रशे-मतिप्रशाशब्दाभ्यां संख्यायत इति संख्यः-पक्षमासर्वयनादिमित इत्यर्थः । सर्वमपि मतिज्ञानमुच्यते 'ईहा सेस' ति शेषाऽभिधातं संख्यं, चशब्दावन्तर्मुहूतं च धारणा प्रागभिहितस्वरूपा न.नि त्वीहा-विमर्श-मार्गणा-गवेषणा-संशालक्षणानि सी. भवति-ज्ञातव्या । इदमुक्तं भवति-अविच्युतिस्मृतिवास- एयऽपि ईहा ईहाऽन्तर्भावीनि द्रव्यानीत्यर्थः । एवं भाभेदाद्वारणा विविधा । तत्राऽविच्युतिरूपा, स्मृतिरूपा विशेषतः कथंचिद्भेदसद्भावेऽपि सामान्यतः सर्वमिदमाच प्रत्येकमन्तर्मुहर्ने भवति । या तु तदर्थशानावरणक्षयो भिनिबोधिकक्षानमेव जानीहि, यतः-ईहापोहादयः सर्वेपशमरूपा स्मृतिबीजरूपा वासनाख्या धारणा सा सं ऽप्यमी श्राभिनिवोधिकमानस्यैव पर्यायाः, केषांचिद्वचनख्येयवर्षायुषां सत्वानां संख्येयं कालम् , असंख्येय- | पर्यायत्वात् , केषांचित्त्वर्थपर्यायत्वादिति । वर्षायुषां तु-पल्पोपमादिजीविनामसंख्येयं कालं भवति ।। एतदेव दर्शयति-- इति नियुक्किगाथार्थः। | অর্থনা মান্ধাবা হত্যাকানখলি मइपन्नाभिनिबोहिय-बुद्धीओ होंति वयणपजाया। अत्थोग्गहो जहनो, समयं सेसोग्गहादओ वीसुं । जा उग्गहाइसरणा, ते सब्बे अत्थपज्जाया ।। ३६८ ।। अंतो मुहुत्तमेगं. तु वासना धारणं मोत्तुं ॥ ३३४ ॥ इह ये शब्दाः किल सर्व वस्तु-संपूर्ण प्रतिपादयन्ति ते बचनरूपा वस्तुनः पर्याया वचनपर्याया उच्यन्ते । ये तु तअवग्रह इत्यस्य व्याख्यानमाऽवग्रह इति, अयमपि नि देकदेशमभिदधति तेऽथैकदेशप्रतिपादकाः पर्याया अर्थपर्या श्चय-व्यवहारभेदतो द्विधा, ततो व्यवहारार्थाऽवग्रहव्यबच्छेदार्थमाइ-' जहन्न' इति-अतिस्तोककालत्येन जघन्यो उच्यन्ते, तत्र मनिप्रशाभिनिबोधिकबुद्धयो बचनपर्याया नैश्चयिकोऽवग्रहो; नेतर इत्यर्थः, अयमेकसमयं भवति । भवन्ति । मति -प्रज्ञा-भिनिबोधिक बुद्धिलक्षणाश्चत्वारः शेषास्त्वेका बासनारूपां धारणां मुक्त्वा ये अयग्रहादयो शब्दाः आभिनिबोधिकज्ञानस्य झानपञ्चकाद्यभेदलक्षणस्य, व्याजनाऽवग्रहा व्यावहारिकार्थाऽवग्रहापायाऽविच्युति घचनपर्याया द्रष्टव्या इत्यर्थः, संपूर्णस्याऽपि तस्यामीभिः स्मृतिरूपा मतिभदास्ते सर्वेऽपि विष्वक-पृथक् एकमेवा प्रतिपाद्यमानस्यात् । येऽत्यवग्रहेहादिकाः संहाविशेषास्ते सर्वेऽप्यर्थपर्यायाः, तदेकदेशप्रतिपादकत्वात् । ततश्चानहान्तर्मुहतं भवन्ति । वासनाधारणायास्तु नियुक्निगाथोक्ल पोहादयः श्राभिनिबोधिकाज्ञानस्यैवार्थपर्यायाः। मतिप्रमेव कालमानमवगन्तव्यम् इत्यभिप्रायः । इति गाथार्थः । शाशब्दी तु तस्यैव वचनपर्यायौ अतः सर्वमेवेदं सामान्यविशे०। नाऽभिनिबोधिकशानमेवेति स्थितम् । अथ घा-सर्वेषामपि (१२) अथ नानादेशजविनयाऽनुग्रहार्थ तत्पर्यायान् (श्रा- वस्तूनामभिलापवाचकाः शब्दाः वचनरूपापना वचनभिनिबोधिकशानपर्यायान् ) आभिधित्सुगह पर्यायाः, ये तु तेषामेव वाचकशब्दानामभिधेयार्थस्यास्मईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । भूता भेदा; यथा कनकस्य कटककेयूरादयः ते सर्वेऽपयर्थ पर्यायाः भरायन्ते । ततश्च प्रस्तुतस्याभिनियोधिकज्ञानस्य सम्मा सई मई पामा, सव्वं आभिनिवोहियं ।। ३६६ ॥ मनिप्रशायग्रहेहादयः सर्वेऽपि वाचका वनयो घचनह' चेष्टायाम् . हनमीहा-सनामन्वयिनां, व्यतिरेकिणां पर्याया एव, नदभिधेयास्वाभिनिबोधिकस्यात्मभूता भेदा यार्थानां पर्यालोचना । अपोहनमपोहो निश्चयः। विमर्षणं अर्थपर्याया इत्ययसेयमिति । इह पूर्व मतिमहादिशब्दानां विमर्पः, अपायात्पूर्वः ईहायाश्चोत्तरः 'प्रायः शिरःकराड्य सर्वमप्याभिनियोधिकशानं वाच्यम् , अवग्रहेहादिशब्दाना नादयः पुरुषधर्मा इह घटन्ते, इति संप्रत्ययः । तथा तु तंदकंदशा एवाऽभिधेया इति दर्शितम् । मार्गणमम्बयधर्मान्वेषणं मार्गणा। चशब्दः समुच्चयार्थाः । अथाऽवग्रहहादिभिरपि शब्दरम्बार्थवशात्सर्वमप्याभिमिगयेषणं व्यतिरेकधालांचनं गवेषणा । तथां-संझानं संज्ञा बाधिकमभिधीयते इति दर्शयतिप्रयग्रहोत्तरकालभाबी मतिविशेष एव । स्मरणं स्मृतिः । सव्वं वाऽऽभिनिबोहिय-मिहोग्गहाइवयणसंगहियं । पूर्वानुभूनाथांलम्बनः प्रत्ययः । मननं मतिः कश्चिदर्थ- केवलमस्थि विसेसं, पइ भित्रा उग्गहा ईया ।। ३६६ ।। परिच्छित्सायपि सूरमधर्मालोचनरूपा बुद्धिः । तथा प्रज्ञानं | 'बा' इति अथवा, इह सर्वमाभिनियोधिकमानमयग्रहे Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। प्राभिणियोहियणाण हादिवचनेन संगृह्यते, न पुनस्तदेकदेश एव तावग्रहादि- यतश्चाऽवगमनमवा(पा)यो भएयते, अतोऽनया व्युत्पत्त्या शम्नानां सगमेकरूपता प्राप्नोति, एकाभिधेयत्वाद् , सर्वमपि तदाभिनियोधिकमर्थस्यापायः अवग्रहाधारणाबहुपुरुचारितघटायेकशब्दवत् इत्याशङ्कयाह-'केबलमि' स्वपि सामाम्येनार्थावगमनस्य विद्यमानत्वात् । तथा, धरणं त्यादि केवलं-नबरम् अर्थविशेषं प्रत्यवग्रहादयः शब्दा भि- धारणा यती भरायते-अतोऽनया व्युत्पत्या तत्सर्वमप्याभिमाः । इनमुक्तं भवनि-अवग्रहशब्दोऽवग्रहलक्षणनार्थेन सर्व- नियोधिकमर्थधररणरूपत्वाद्धारणा. अवग्रहेहापायेष्वप्यधिमाभिनिवोधिकं संगृह्णाति, ईहाशब्दस्तु चेष्टालक्षणेन, अपा- शिष्टस्यार्थधरणस्य विद्यमानत्वादिति । संकरप्राप्तिश्चैवमवयस्त्ववगमनलक्षणेन, धारणा तु धरण लक्षणेनेत्यादि । ततो- ग्रहादीनां प्राक "केवलमत्थविसेस पह" (३६६) इत्यादिना ऽमुमवग्रहणादिलक्षणमर्थविशेषमात्रमपेच्याऽवग्रहादिशब्दा परिहतैवेति गाथापञ्चकार्थः । विशे० । नं० । श्रा० म० । भिन्नाः, तत्त्वतस्त्यभिधेयं सर्वेषामाभिनियोधिकशानमेव। “ईह ति वा १, अपोहो त्ति या २, धीमंस त्ति वा ३, अथवा, पाह-ननु यदि सर्वमप्याभिनियोधिकमवग्रहादि- मम्गण त्ति वा ४. गवेसण त्ति वा ५, सराण त्ति वा ६, सह वचनेन संगृह्यने, तोवग्रहहापायधारणानां तद्भेदानां स- त्ति वा ७, मति त्ति वा ८, पत्र त्ति वा" सब्वमेयं वेषामपि संकरः प्राप्नोति, अनन्तरबषयमाणव्युत्पत्तितः आभिणियोहिय एतहिं एगटिरहिं भणितं ति । श्रा० चू०१ प्रत्येकमेषां सधैंपामध्यवग्रहादिरूपत्वाद् , इत्याशङ्कयाह- अ० १२ गाथा। (१-ईहायाः विचारो विस्तरतः 'हा' शब्द कवलमत्थविससमि' त्यादि, कवलं-नवरम् अर्थविशेष ऽस्मिय भागेऽप्रे करिष्यते) (२-अपोहशब्दार्थविचारः प्रति अवग्रहादयो भिन्नाः । इदमुक्तं भवति-यद्ययाऽव 'अपोह' शब्ने प्रथमभागे विस्तरतः समुक्तः) (अत्र ग्रहणेहनावगमनधारणमात्रस्य सामान्यस्य प्रत्येकं सवपि 'भागम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे (११) विषयसूच्य विस्तरः विद्यमानत्वादेकैकशोऽध्यवप्रहादिशब्देनोच्यन्तेऽवग्रहादयः, प्रतिपादितः । ततोऽवशिष्टः 'सह' शब्ने सप्तमे भागे ३३७ तथाऽप्यर्थविशेषमाश्रित्यैते भिन्ना एव, तथाहि-यथाभूत पृष्ठादारभ्य दर्शयिष्यते) (३-विमर्शशब्दविचारः 'धीमस' मवग्रहे सामान्यमात्रार्थस्यावग्रहणं, न तथाभूतमेवेहायां. शब्दे पष्ठभागे करिष्यते) (४-मार्गणाशनार्थनिरूपणम् किं तु-विशिष्ट, विशिष्टतर, विशितम, चाऽपायधारणयोः; हटान्तश्व 'मग्गणा' शब्दे षष्ठभागे, तथा-अस्यैकार्थिकानि यथाभूता चेहायां मतिचेष्टा न तथाभूतान्यत्र, किं तु- 'मग्गण' शब्दे तस्मिन्नेव भागे दर्शयिष्यन्ते ). ५-गवेषणाविशिष्ठा, विशिष्टतराचाऽपायधारणयोः अविशिष्टतराचा- विषयो विशेषः ‘गवेषणा' शब्दे तृतीयभागे करिष्यते) उवग्रहऽर्थावगमनमध्यपायात् विशिएं धारणायाम् अ (६-संज्ञासर्वस्वविचारः 'सराणा शब्द ७ भागे दर्शयिष्यते) विशिष्टविशिष्टतरं चेहावग्रहयो, अर्थधारणमप्यवाहे (७-स्मृतिस्वरूपम् 'सह' शब्द सप्तमे भाग विस्तरतो बयते) हापायेभ्यः सर्वप्रकृष्टं धारणायाम् , इत्येवमयग्रहणादि (मतिस्वरूपं विस्तरतः 'मह' शब्दे षष्ठभागे पचयते) मात्र सर्वेषां सामान्य सत्यप्यर्थविशेष ग्राह्यमाश्रित्य (८-प्रशाशब्दार्थविचारः 'परगा' शब्दे पञ्चमे भागे करिष्यते) भिन्ना एवावग्रहादयः । स चार्थविशेषाऽमीणं प्राह्यः तदयं तत्वभेदपर्यायराभिनियोधिकहानं व्याख्याय, प्राग्विस्तरेण दर्शित एव, इत्येवं वा उत्तरार्द्धमिदं ब्या साम्प्रतं तद्विषयनिरूपणार्थमाहस्यायते-इदमेव च व्याख्यानं वृद्धसम्मतं लक्ष्यते, युक्रया तु प्राक्रनमपि घटते । इत्यलं विस्तरेणेति । तं पुण चउब्विहं नेयं, मेयो तेण तदवउत्ती। कथं पुनरवग्रहादिवचनेन सर्वमप्याभिनियोधिकं संगृह्य- आदेसेणं सम्बं, दवाई चउब्विहं मुणइ ।। ४०२ ॥ ते, इत्याह तत्पुनराभिनिवाधिकझानं चतुर्विध-चतुर्भेदम् । नन्ववउम्गहणमोग्गहो ति य, अविसिट्टमवग्गहो तयं सव्यं । ग्रहादिभेदन भेदकथन प्रागस्य कृतमव किमिह पुनर्राप ईहा जं मइचट्ठा, मइवावारो तयं सव्वं ॥ ४००॥ भेदोपन्यासः ? । सत्यम् , झयमेवह द्रव्यादिभेदेन चतु अयग्रहणं तावदवग्रह उच्यते इति कृत्वा विशिष्ट तत्सर्व भदं, ज्ञानस्य तु तद्भेदादेव भेदोऽवाऽभिधीयते, सूत्रे मगि हादिभेदभिन्नमाभिनिबोधिक ज्ञानमयग्रह एव । इदमुक्नं तथैवोक्लत्वात् । तथा च नन्दिसूत्र-" तं समासतो भवति-अवग्रहणमवग्रह इति व्युत्पत्तिमाश्रित्य सर्वमप्या चउब्विहं पन्नत्तं, तं जहा-दवार, खत्तो २, कालभिनिवाधिकमानमवग्रहो भवति, यथावग्रहः कमप्यर्थ श्रो ३, भावो ४ । तदब्बो णं आर्भािगबोहियनागा मवगृह्णाति, एवमीहाऽपि कमप्यर्थमवगृहात्येय, एवमपाय आदेसणं सम्बदव्याई जाणइ न पासइ (सूत्र-३६)" इत्यादि। धारगणे अपि इति। सर्वमध्याभिनिवोधिकज्ञानं सामान्ये झयभदादपि तत्कथं चतुर्विधमित्याह-'ज तदुवउत्तो' इत्या. नावग्रहः । तथा यत्स्यस्माद्-ईडचेष्टायाम् , हनमोहेत्रि दि. यत्-यस्मात्कारणात्तेनाभिनिवोधिक ज्ञानेन सधै व्यादि ग्युत्पतेः ईहापि मतेश्चेष्टा मतिचेष्टा वर्त्तने तस्मात्सर्वमपि मुणतांति संबन्धः । कथंभूतम् ?, इत्याह-चतुर्विध-चतुर्मेद तदाभिनिबोधिकमविशिष्टं मतिव्यापार हत्यर्थः, अवन द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावभेदभिन्नमित्यर्थः । कथंभूतः सन् । मुणति इत्याह-तस्मिन्-श्राभिनिवोधिकज्ञाने उपयुक्तस्तदुपयुक्तः । हापायधारणानामपि सामान्येन मतिचेष्टारुपत्यादिति केन?, इत्याह-आदेशेनेति । भाषः । तथा कोऽयमावेश इत्याहअवगमणमवानो ति य, अत्थावगमो तयं हवइ सव्यं । आएमो ति पगारो, ओहादेमेण सम्बदब्वाई। धरणं च धारणं ति य. तं सव्वं धरणमत्थस्स ॥४०१॥ धम्मत्थियाइयाई, जाणइन उ सम्वदेणं ॥ ४०३ ।। Jain Education Interational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) नाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। आभिणियोहियणाण विशे० । (अस्याः गाथायाः व्याख्या' भाएस ' शब्दे- स्थितिलक्षणो मतिमानस्य वाच्यः, चस्तथैव ५। 'एकदा अस्मिन्नेव गागे गता) प्रतिपद्य वियुक्त कियता कालेन पुनरपि प्रपद्यते' इत्येवम् क्षेत्रादिस्वरूपं विशेषतः प्राह अन्तरं च तस्य वक्तव्यम् ६ । तथा ‘मतिमानिनः शेषशाखेतं लोगाऽलोग, कालं सबद्धमहव तिविहं ति । निनां कतिभाग वर्तन्ते' इत्येवं भागोऽस्य बक्तव्यः । तथापंचोदइयाईए, भावे जं नेयमेवइयं ।। ४०४ ॥ "कस्मिन् भावे मतिशानिनो वर्तन्ते ?' इत्येवं भावो भक्षेत्रमपि-लोकाऽलोकस्वरूपं सामान्यादेशेन कियत्पर्याय रणनीयः ८ । तथा अल्पबहुत्वं बक्तव्यम् , भागद्वारादपि विशिष्ट सर्वमपि जानाति, न तु विशेषादेशेन सर्वपर्यायै तल्लब्धमिति चेत् । नैवं, यतोऽत्र मतिज्ञानिनां स्वस्थान विशिएमिति । एवं कालमपि सर्वाऽद्धारूपम् अतीताs एवं पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकापेक्षयाऽल्पबष्टुत्वमभिधामीयं, नागतवर्तमानभेदतत्रिविधं था इत्येक एवार्थः । भाव भागम्तु शेषज्ञानापेक्षया चिन्तनीय इति विशेषः । इति तस्तु सर्वभावानामनन्तभागं जानाति, औवयिकौपशमि नियुक्किगाथाद्वयार्थः । विस्तरार्थ तु भाष्यकार एवं वक्ष्यति । कतायिकक्षायकीपशमिकपारिणामिकाम्या पश्च भावान सा. अथ (१) सत्पथप्ररूपणता किमुच्यते ?, इस्याहमाम्येन जानाति न परतः। कुतः, इत्याह-यत्-यस्मा संत ति विञ्जमाणं, एयस्स जा परूवणया । देतावदेव यमस्ति; नाऽन्यदिति । इह क्षेत्रकाली सा-1 गइआइएसु वत्थुसु, संतपयपरूवणा सा उ॥ ४०७।। माम्येन द्रव्यान्तर्गतावेव केवलं भेदेन रूढत्वात्पृथगुपादान- जीवस्स च जं संतं, जम्हा तं तेहि तेसु वा पयति । मवसेयमिति। तो संतस्स पयाई, ताई तेसुं प्ररूवणया ॥ ४०८॥ आदेशस्य व्याख्यानान्तरमाह गत्यादिद्वारेषु सत्त्वेन चिन्त्यमानत्वात्पदं सत् उच्यते । पाएसो ति व सुत्तं, सुभोवलद्धेसु तस्स मइनाणं । ततश्च सतो-विद्यमानस्य पदस्य या पक्ष्यमाणेषु गत्यादिपसरइ वम्भावणया, विणा वि सुत्ताणुसारेण ॥४०॥ द्वारेषु प्ररूपणता सा सत्पदनरूपणतोच्यते । अथवाअथवा-आदेशः-सूत्रमुच्यते, तेन-सूत्रादेशेन सूत्रोप जीवस्य यत्सज्ज्ञानदर्शनादिकं तत्तैश्च कारणभूतैः, तेषु लब्धेष्यर्थेषु तस्य मतिशानिनः सर्वद्रव्यादिविषयं मति वाऽधिकरणभूतेषु यस्मात् 'पर्यात' त्ति-पद्यते-अनुगम्यते; शानं प्रसरति । ननु श्रुतोपलब्धेष्वर्थेषु यज्शानं तच्छुतमेव विचार्यते ततः-तस्मात्सतः पदानि सत्पदानि तानि गभवति, कथं मतिज्ञानम् ?, इत्याह-'तम्भावणये' त्यादि, त्यादीनि द्वाराण्युच्यन्ते तैः, तेषु वा प्ररूपणता 'मस्यादेः' तद्भावनया-श्रुतोपयोगमन्तरेण तद्वासनामात्रत एव यद् इति गम्यते, सत्पदग्ररूपणता । इति गाथाद्वयार्थः। द्रव्याविषु प्रवर्तते, तत्सूत्रादेशेन मतिज्ञानमिति भावः । ___ तान्येव सत्पदानि गत्यादिद्वाराणि दर्शयतिपतच पूर्वमपि 'पुवं सुयपरिकम्मियमस्स जं संपयं गइइंदिए य काए, जोए वेए कसायलेसासु । सुयाईय' स्यादि प्रोक्लमेव । इति गाथाचतुण्यार्थः । सम्मत्त-नाण-दसण-संजय-उवभोग-श्राहारे॥४०६।। विशे० । भ०। भासग-परित्त-पञ्ज-त्त-सुहम-सएणीय भविय-चरिमे य। (१३) तदेवं तस्वभेदपर्यायैर्मतिक्षानं व्याख्याय, विषय च द्रव्यादिकमस्य निरूप्य, साम्प्रतमिदमेव सत्पदग्ररूप पुव्वपडिवत्रए वा, पडिवजंते य मग्गणया ।। ४१०।। मताविभिनवभिरनुयोगद्वारैर्विचारयितुमाह एतेषु गत्यादिषु द्वारेषु मतिमानस्य पूर्वप्रतिपत्राः, प्रतिपद्यसंतपयपरूवखया १. मानकाः, तदुभयम् , उभयाभावश्च इत्येतचतुष्टयं चिन्त्यते । तत्र येषु स्थानेषु मतिशानिनो न प्रतिपद्यमानकाः, नाऽपि दबपमाणं च २ क्खेत्त३ फुसणा य ४। पूर्वप्रतिपन्नाः, किंतु उभयाभावः, तान्यपोद्धत्य दर्शयतिकालो य ५ अंतरं ६ भा एगिदियजाईओ, सम्मा मिच्छो य जो य सम्वन्नू । ग७ भाव अप्पाबहुं चेव ॥ ४०६ ॥ अपरित्ता य अभव्या, ऽचरिमा(य)एए सया सुष्मा४१२ सच तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणं सत्पदत्ररूपणं इह सर्वेष्वपि गत्यादिद्वारेषु यायान् कोऽप्येकेन्द्रियजागत्यादि द्वारेषु विचारणं तद्भावः सत्पदम्ररूपणता तीयः-एकेन्द्रियप्रकारः; एकेन्द्रियभेद इत्यर्थः । एष सर्वो'कस्मिन् गत्याविद्वारे इदं सद्' इत्येवं सतो-विद्य- उपि मतिज्ञानेन शून्यः, न तत्र मतिज्ञानस्य प्रतिपद्यमामका, मानस्याऽभिनियोधिकहानस्यगत्यादिद्वारेषुः प्ररूपणा क- नापि पूर्व प्रतिपन्नः संभवतीत्यर्थः । " उभयाभायो एगि व्यस्यर्थः १ । तथा द्रव्यप्रमाणमिति । ' मतिकानि दिपसु सम्मत्तलद्धीए " इति वचनादिति । कः पुनरेकेजीवद्रव्याणामेकस्मिन्समये कियन्तो मतिज्ञानं प्रतिपद्य- न्द्रियजातीयः ?, इति चेत् । उच्यते-इन्द्रियद्वारे-तावदेम्ते, सधै घा कियन्तस्ते ?, इत्येवं प्रमाणं वक्तव्यमि-- केन्द्रिय एव, कायद्वारे-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः । सूत्यर्थः । चशब्दः समुचये २ । तथा-क्षेत्रमिति ‘कियति क्ष्मद्वारे तु-सूचम इत्यादि। तथा-सम्यग्मिथ्यारपिरपि क्षत्रे तत्संभवति ?' इत्येवं मतिज्ञानस्य क्षेत्रं वक्तव्यम् ३। सम्यक्त्वद्वारे मतिज्ञानशून्यः । " सम्मामिच्छविट्ठी गं तथा-'कियत्क्षेत्रं मतिशानिनः स्पृशन्ति' इत्येवं स्पर्शना भंते ! किं नाणी, अन्नाणी?। गोयमा! नो नाणी, अराणावक्तव्या । यत्राऽवगाढस्तत्क्षत्रं पार्श्वतोऽपि च स्पर्शना, णी" इत्यादिवचनादिति । यश्च काऽपि द्वारे सर्वशः इत्येवं क्षेत्रस्पर्शनयोधिशेषः, चः समुश्चये ४। तथा-कालः केवली संभवति, सोऽपि तमळून्य एयः तद्यथा-गतिद्वारे ७८ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। भाभिणिबोहियणाव सिद्धिगती सिद्धः, इन्द्रियद्वारे-प्रतीन्द्रियः, कायद्वारे- कास्त्वमी न भवन्त्येव, पूर्वप्रतिपन्नमतिज्ञानानामेव क्षाअकायः, योगद्वारे-प्रयोगः, लेश्याद्वारे-अलेश्यः, बान- कोपशमश्रेणिप्रतिपत्तेः । इति गाथाद्वयार्थः । द्वारे-केवलज्ञानी, दर्शनद्वारे-केवलदर्शनी, तथा, संय- तदेवं संक्षेपतो गत्यादिद्वारेषु भाष्यकृता मतिमानस्य मपरीत-पर्याप्त-सूक्ष्म-संहि-भव्यद्वारेषु-यथासंख्यं नोसं कृता सस्पदमरूपणा । अथ विनेयाऽनुग्रहार्थ किंचिद्विस्तयत-नोपरीत-नोपर्याप्त-नोसूक्ष्म-नोसंशि-मोभव्या इति । रतोऽप्यसौ विधीयते-तत्र मतिझानं किमस्ति, नवा ? । पते सर्वेऽपि सर्वशत्यान्मतिज्ञानशून्याः, छमस्थस्यैव त यद्यस्ति, क?तदत्यादिस्थानेषु । तत्र नारकतिर्यड्नसंभवादिति भावः । तथा-परीत्त-भव्य-चरमद्वारेषु परी रामरभेदाइतिश्चतुर्दा । तत्र चतुर्विधायामपि गतौ मतिचा-ऽभव्याऽचरमा अपि मिथ्याइष्ठित्वाम्मतिक्षानशून्याः । मानस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमात्सन्ति , प्रतिपद्यमानकास्तु तदेवमेते सर्वे सर्वदेव मतिज्ञानशून्या मन्तव्या उभया- भाज्या:-विवक्षितकाले कदाचिद्भवन्ति, कदाचित नेत्यर्थः । भावात् । इति गाथार्थः। आभिनिबोधिकप्रतिपत्तिप्रथमसमये प्रतिपद्यमानका उच्य. अथ गत्यादिद्वारेष्वव पूर्वप्रतिपन्नप्रति न्ते, द्वितीयादिसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना इत्यनयोविशेषः । पद्यमानकचिन्तां कुर्वनाह इन्द्रियद्वारे-एकन्द्रियेष्भयाभावः । सैद्धान्तिकमतेन कावियला अविसुद्धलेसा, मणपज्जवणाणिणो अणाहारा । म्मिकग्रन्थिकास्तु-लब्धिपर्याप्तबादरपृश्यब्वनस्पतीन् कअसलि अणगारोव-ओगिणो पुचपडिवन्ना ॥४१२।। रणाऽपर्याप्तान् पूर्वप्रपन्नानिच्छन्ति, सास्वादनस्य तेषूत्पत्तेः । सेसा पुचपवमा, नियमा पडिवजमाणया भइया । विकलेन्द्रियास्तूभयमतेनाऽपि करणाऽपर्याप्ताः सास्वादन मेघ पूर्वभवायातमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्ना लभ्यन्ते, नतु प्रभयणा पुवपवमा, अकसायाऽवेयया होति ।। ४१३ ।। तिपद्यमानकाः, पश्चेन्द्रियास्तु सामान्येन पूर्वप्रतिपन्ना विकला:-द्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणा विकलेन्द्रियाः, तथा- नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः । अविशुद्धलेश्याःभावलेश्यामङ्कीकृत्य कृष्ण-नील-कापोत-ले- कायद्वारे-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदात्योढा का. श्यावृत्तयः, तथा-मनःपर्यायशानिनः, अनाहारकाः, अ- यः । तत्राचकायपञ्चके उभयाभावः । प्रसकाये तु पश्चेसंक्षिनः, अनाकारोपयुक्ताः; एते सर्वेऽपि मतिज्ञानस्य न्द्रियवद्वाच्यम् । योगद्वारे कायवाङ्मनोभेदात्रिधा योगः, यदि भवन्ति । तदा पूर्वप्रतिपत्रा एव, नतु प्रतिपद्यमान स एष त्रिविधोऽपि समुदितो येषामस्ति तेषां पञ्चेन्द्रियकाः, तथा हि-इन्द्रियद्वारे केचिद्विकलेन्द्रिया ये सा पद्वाच्यम् , मनोरहितवाग्योगिनां विकलेन्द्रियवत् , केवस्वादनसम्यक्त्वेन सह पूर्वभवादागच्छन्ति तेषां पूर्वप्रति लकाययोगिनां त्वेकोन्द्रियवदिति । घेदद्वारे-स्त्रीपुनपुंसकपत्तिमझीकृत्य स्यान्मतिक्षानं, प्रतिपद्यमानकास्त्वस्य वि भेदात् त्रिविधेऽपि वदे पञ्चेन्द्रिययत् भावनीयम् । कषायकलेन्द्रियाः सर्वेऽपि न भवन्त्येव, तथाविधविशुद्धधभा द्वारे तु चतुलनन्ताऽनुबन्धिषु सावादनमङ्गीकृत्य पूर्ववात् । तथा-लेश्याद्वारे-अविशुद्धलेश्या अपि पूर्वप्रति प्रतिपन्नो लभ्यते; न प्रतिपद्यमानकः, शेषेषु द्वादशसु कपन्नाः केचिद्भवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानकाः, विशुद्धभा- पायेषु पञ्चेन्द्रियवदेव । लेश्याद्वारे-भावलेश्यामङ्गीकृत्य वलेश्यानामेव तत्प्रतिपत्तेः शानद्वारे-मनःपर्यायज्ञानिनः कृष्णादिकासु तिसृष्वप्रशस्तलेश्यासु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवसर्वेऽपि पूर्वप्रतिपन्नाः भवन्त्येव, न तु प्रतिपद्यमानकाः, न्ति. न वितरे, प्रशस्ते तु लैश्यात्रये पञ्चेन्द्रियवदेव । सम्यक्त्वसहचरितप्राप्तमतिज्ञानस्यैव पश्चादप्रमत्तसंयता सम्यक्त्वद्वारे-निश्चयव्यवहारनयाभ्यां विचारः । तत्र वस्थायां मनःपर्यायशानोत्पत्तेः सम्यक्त्वसहचरितचारि व्यवहारनयो मन्यते-मिथ्यादृष्टिरक्षानी च सम्यक्त्वज्ञाअलाभे तु मतिसहचरितं मनःपर्यायक्षानं नोत्पद्यत एव, अत नयोः प्रतिपद्यमानको भवति, न तु सम्यक्त्यश्चानसहितः । पव बचना, अन्यथा अवधिज्ञानीव मन:पर्यायशाम्यपि निश्चयनयस्तु ब्रूते--सम्यग्दृष्टिानी च सम्यक्त्वज्ञान निश्चयनयमतेन प्रतिपद्यमानकः स्यादिति । श्राहारक प्रतिपद्यते, न तु मिथ्या दृष्टिः, अज्ञानी च । विशे०। ( यत्तत् द्वारे अनाहारकाः केचिद्देवादयः पूर्वभावाद् गृहीतसम्य 'कजकारणभाव' शब्ने तृतीयभागे (४१४) इत्यादिगाथाकवा मनुष्यादिषूत्पद्यमानाः मतेः पूर्वप्रतिपन्ना भवन्ति, नतु प्रतिपद्यमानकाः, तथाविधविशुद्धयभावात् । संक्षा भिः दर्शयिष्यते) द्वारे असंझिनो विकलेन्द्रियवद्भाबनीयाः । उपयोगद्वारे तस्मात्-'इय न श्रवणादिकाले नाणं' (४१७) इत्यनेन अनाकारोपयोगिनः केचित्पूर्वप्रतिपन्ना भवन्ति, नतु प्र- यदि सर्वेष्वपि धर्मश्रवणादिसमयेषु मतिज्ञानं निषिभ्यते, तिपद्यमानकाः, मतिज्ञानस्य लब्धित्वात्तदुत्पत्तश्चानाका- तदा सिद्धसाध्यता । अथ चरमक्रियासमयेऽपि तन्निरोपयोगे प्रतिषिद्धत्वादिति । उक्तशेषास्तु-गतिवारे नार- वार्यते, तदयुक्तम् , तत्र तस्य प्रसाधितत्वादिति । तस्मिकादयः, इन्द्रियद्वारे तु-पञ्चन्द्रियाः, कायद्वारे तु प्रस- श्च धर्मश्रवणादिक्रिया चरमसमये सम्यक्त्वं ज्ञानं च कायिकाः, इत्येवमादयो जातिमध्य पूर्वप्रतिपत्रा निय- प्रतिपद्यमानं प्रविपन्नमेति । अतः सम्यग्दृष्टिनिी च मतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीया:-कदाचिद्भ- सम्यक्त्याने प्रतिपद्यते । इति निश्चयनयमततात्पर्यम् । वन्ति, कदाचिनेति । अतिव्याप्तिनिषेधार्थमाह-भयणा व्यवहारनयस्तु ब्रूते-तस्मिश्चरमसमये सम्यक्त्वज्ञानयोपुष्वपयना' इत्यादि, कषायद्वारे अकषायाः, घेदद्वारे रद्यायसी प्रतिपद्यमानकः, प्रतिपद्यमानं चाप्रतिपत्रमेव । स्ववेदकाः, भजनया पूर्वप्रतिपन्नया एव भवन्ति, छमस्थाः अता मिथ्या दृष्टिः, अज्ञानी च सम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नाः मतेर्भवन्ति, नतु केवलिनः, प्रतिपद्यमान- उत्तरत्र क्रियानिष्ठासमये तु सम्यक्त्वज्ञाने युगपदेव ल Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिडियोहियाण भते । अतः प्रस्तुते सम्यक्त्वद्वारे एतन्मतेन सम्यग्रहप्रिराभिनियोधिकस्प पूर्वप्रतिपक्ष एव भवति नतु प्रतिपद्यमानकः सम्यक्त्वज्ञानयोर्युगपज्ञाभात् काले क्रियाया अभावात्. तदभावे च प्रतिपद्यमानकत्वायोगादिति नियमन तु सम्मनिबोधकस्य - प्रतिपन्नः प्रतिपद्यमान लभ्यते, क्रियायाः कार्यनिष्ठापाथ युगपद्वापस्य समर्थितत्वात् इत्यलमतिविस्तरेणेति । विश० । | ( ३११ ) अभिधानराजेन्द्रः । ज्ञानद्वारे मतिभृतावधिमनः पर्यायकेबल मेवात्यधा गम् । व्यवहारनयमतेन मतिसुतावधिमनः ज्ञानिनः श्राभिनिबोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्ना भवन्ति, नतु प्रतिपधमानकाः, ज्ञानिनो मनिज्ञानप्रति पस्ययोगस्यैतन्मतेन प्रागुक्तत्वात् । केवलिनां तूमयाभावः तेषां क्षयोपशमिकज्ञानातीतत्वात् । मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानविभङ्गज्ञानवन्तस्तु प्रतिपद्यमानाः कदाचित् भवन्ति युक्रेदर्शितस्वात् नतु पूर्वविपना निश्वययमतेन तु तावधिज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानका अपि भजनीयाः, ज्ञानिनो ज्ञानप्रतिपत्तेः समर्थितत्वात् । मनःपर्यायज्ञानिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवम्ति न तु प्रतिपद्यमानका पूर्वसम्यक्त्वलाभकाले प्रति पनमतिज्ञानस्यैव पश्यादन्त्यावस्थायां मनः पर्यायज्ञानवद्भावात् । केवलिनां तूभयाभावः । एवं मत्याद्यज्ञानवतामप्युभयाभाव एव, ज्ञानिन एव ज्ञानप्रतिपत्तेः । दर्शनद्वारे चतुरचतुरधिनमेवात् दर्शनं तु तुर्यामीकृत्य पूर्वप्रतिपक्षा निय मतः प्राप्यन्ते, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः, तदुपयोगं त्वाश्रित्य पूर्वप्रतिपद्मा एव नतु प्रतिपद्यमानकाः, मतिज्ञानस्य लब्धित्वात् लब्ध्युत्पत्तेश्व दर्शनोपयोगे निषिद्धत्वात् "ओ, सागारोप तस्य उपचजेति "इति वचनादिति । केवलदर्शनिनां तुमयाभावः । संयतद्वारे संयतादयश्वाऽऽभिनिबोधकस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमालभ्यन्ते, प्रतिपद्यमाना श्रपि भजनया प्राप्यन्ते । ननु सम्भावस्थायामेव मतिज्ञानस्य प्रतिपक्ष या संपतः कथं प्रतिपद्यमान को वाप्यते ? सत्यं किं तु यो निविशुद्धिवशात्सम्यक्त्वं चारित्रं च युगपत्प्रतिपद्यते स तस्यामवस्थायां प्रतिपद्यमानस्य संयमस्य प्रतिपन्नत्वा तोतेः प्रतिपद्यमानको भविश्यक "नस्थ चरितं सम्यदंसणं तु" । भजनामेव ग्रह मा सम्म उपयोगद्वारे उपयोगो द्विधा पश्च ज्ञानानि श्रीणि माशागानि साकारोपयोगः चत्वारि दर्शनानि अनाकारोपयोगः तत्र साकारोपयोगे पूर्वप्रतिपक्षा निय मात् सन्ति प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः । अनाकारोपयोगे तु प्रतिपक्षा एव नतु प्रतिपद्यमानकाः, अनाकारो योगे लत्पत्तेः प्रतिषिद्धत्वादिति । आहारकद्वारेआहारकाः साकारोपयोगवद् । श्रनाहारकास्त्वान्तरालगतो प्रतिपन्नाः संभवन्ति प्रतिपद्यमानास्तु न भवन्त्येव । 33 अभिषिपोहियाच भाषकद्वारे भाष्यकार एवाह भासासलडियो लभई, भासमाणो अभासमायो मा । पुब्वपडिवमओ वा, उभयं पि अलद्धिए नऽस्थि ॥ ४२७ ॥ भाषालब्ध्या सह वर्त्तते इति भाषा सलब्धिकः- भाषालधिमद्भिवतीत्यर्थः, तदा भाषमाणोऽभाषमाणो वा लभसे प्रतिपद्यते कम्मितिज्ञानं पूर्वविषयो वा भवति-भाषालब्धि मनुष्यादिजीत्यपेक्षया पूर्वप्रतिपनि यमाम प्रतिपद्यमानकोऽपि भजनयेति तात्पर्यम् अलधकेभाये पुनरुपमपि नास्ति सो एव, तस्य च प्रागुक्लव दुभयाभाव एवेत्यर्थः । इति गाथार्थः । पपरीताः प्रत्येकशरीरिणः, परीक्षीकृतसंसारा या स्तोकावशेषभवा इत्यर्थः । एते मयेऽपि पूर्वप्रतिपा नियमापन्ते प्रतिपद्यमानास्तु भजनीयाः अपरीतास्तु साधारणशरीरि पार्क पुलपरामपरिवर्ति संसारा या; मिध्यादृष्टित्वादुभयेऽप्युभयविकलाः । पर्यासकद्वारे - पपर्याप्तिभिः पर्याप्ताः परीतवद्वाच्यास्तदपर्याप्तास्तु प्रतिपक्ष एव नतिरे सूक्ष्मद्वारे सूपमा उभयवि कलाः । बादरास्तु पर्याप्तकवद्वाच्याः । संशिद्वारे दीर्घकालिकोपदेशेन संझिनो गृह्यन्ते, ते च बादरवद्भावनीयाः । अनितु अपदिति भपद्वारे भवसिद्धिका से शिवदू । अभयसिद्धिकास्तू पशून्याः । चरमद्वारे परमी भयो भविष्यति येषां ते मेदोपचाराचरमा मध्यमादिति तदेवं कृता गत्यादिद्वारेषु वृत्ती च सत्पदप्ररूपणता । अथ (२) द्रव्यप्रमाणमाह 1 महाभिणित्रोहियनाणि - जीवदव्त्रपमाणमिगसमए । पडिवजेजं तु न वा, पडिवंजे जहनओ एग्गो ||४२८ ॥ पलिश्रवमासं खभागउकोसओ पवजेजा । पृथ्वपदमा दोसु वि, पलिया संखेजईभागो ॥ ४२६ ॥ क्रिमिद्दाऽस्मिन् लोके श्राभिनिवोधिकज्ञानपरिणामापनजी द्रव्याणां प्रमाणमेकस्मिन् विवक्षितसमये शि पृष्ठे सत्याह-प्रतिपयेरन् नयेति । इदमुकं भवति यदि प्रतिपद्यमानानां प्रमाणं पृच्छसि तदा प्रतिपद्यमान कास्तस्य विवक्षितसमये प्राप्यन्ते न वा । तत्र प्रतिपद्यमानप्रतिपक्षे जघन्यत एकः प्रतिपद्येत, उत्कृष्टस्तु सर्वसो क्षेत्र पस्योपमासंस्वभागः प्रतिपद्येन । अथ पूर्वप्रतिपक्षानां तेषां प्रमाणमिच्छसि ज्ञातुं तईि पूर्वप्रतिपद्या द्वयोरपि पक्षयोर्जयो क्षेत्रमा ख्येयभाग प्रदेशराशिप्रमाणाः प्राप्यन्ते, केवलं जधन्यपदादुत्कृष्टं विशेषाऽधिकम् । इति गाथाद्वयार्थः । अथ (३) क्षेत्रद्वारमधिकृत्याहखेतं हवेज चोदस-भागा सत्तोवरिं हे पंच | इलियाई विगह गयस्स गमखेऽहाऽऽगमये । ४३० | नानाजीचानपेश्य सर्वेऽप्याभिनिबोधिज्ञानिनः पिडिता लोकसंख्येयमागमेव उपाप्नुवन्ति । जीवस्तु क्षे भवेत् इत्याह- सप्तचतुर्दश भागाः चतुर्दशीकृत - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) माभिणिवोहियणाप अभिधानराजेन्द्रः। आभिणियोहियणाण स्य लोकस्य सप्त भागाः; सप्तरज्जव इत्यर्थः, उपरि-ऊर्ध्वम् । विमानानामन्यतरविमाने उत्कृष्ट प्रत्रिशत्सागरोपमलक्षइलिकागत्या विग्रहगतस्य निरन्तराऽपान्तरालस्पर्शिनो- णदेवायुरनुभूय पुनरप्रतिपतितमत्याविज्ञान एवं मनुजेषु नुत्तरविमानेषु गमने, तत आगमने वा । अधस्त्वनर्यय उत्पन्नो देशोनां पूर्वकोटी प्रव्रज्यां विधाय तदैव विजयादिगत्या षष्टनरकपृथिवीगमने आगमने वा पञ्चचतुर्दशभागाः पूछटमायुः संप्राप्य पुनरप्रतिपतितमत्यादिशाम एव मनुष्यो पञ्च रज्जबः प्राप्यन्ते । इवमुकं भवति-यदाऽत्राऽभिनि भूत्वा पूर्वकोटी जीवित्वा सिध्यतीति । एवं विजयादिषु बोधिकहानी मृत्वा इलिकागत्यानुत्तरसुरेघूत्पद्यते, तेभ्यो वारद्वयं गतस्यः अथ वा-अच्युतदेवलोके द्वाविंशतिसागरो. वाऽत्र मनुष्यो जायते, तदाऽस्य जीवप्रदेशो दण्डः सप्त पमस्थितिकेषु देवेषु त्रीन् वारान् गतस्य तानि षट्पष्टिरज्जुप्रमाण क्षेत्रे भवति, अधस्त्वनयैव गत्या षष्टनरकथि सागरीपमाणि अधिकानि भवन्ति । अधिकं चह नरभवव्यां गच्छतः, तत श्रागच्छतो वा पञ्चरज्जुप्रमाण संबन्धिदेशोनं पूर्वकोटित्रयं चतुष्टयं वा द्रव्यम् । नानाजीक्षेत्रेऽसी लभ्यत इति । विराधितसम्यक्त्वो हि षष्ठपृथ्वीं वानां तु सर्वाऽद्धं-सर्वकालं मतिज्ञानस्य स्थितिः। इति गाथा यावत् गृहीतेनाऽपि सम्यक्त्वेन सैद्धान्तिकमतेन कश्चि (विशे०।)ऽर्थः। दुत्पद्यते, कार्मग्रन्थिकमतेन तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिय, मनुष्यो वा तेनैव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वनोत्पद्यते, अथाऽन्तरद्वारमाश्रित्याहन गृहीतेन; सप्तमपृथिव्यां पुनरुभयमतेनाऽपि वान्तेनैव एगस्स जहनेणं, अंतरमंतो मुहुत्तमुक्कोसं । तेनोपजायते । श्राह भवत्येवं किंतु यः सप्तमपृथिव्या पोग्गलपरिअट्टऽद्धं, देसूणं दोसबहुलस्स ॥ ४३७ ॥ गृहीतसम्यक्त्वोऽत्रागच्छति तस्याऽधः षट्चतुर्दश भामाः किमिति न लभ्यन्ते ? इति (विशे०।) ('सम्मत्त ' शब्दे इह कश्चिज्जीवः सम्यक्त्वसहितं मतिक्षानमवाध्य-प्रतिसप्तमे भागे स्फुटीभविष्यति) (स्पर्शनाद्वाम् । क्षेत्रस्पर्शन पस्य चान्तर्मुहूर्त मिथ्यात्वे स्थित्वा यदि पुनरपि सम्ययोर्विशेषश्च ‘फासणा' शब्दे पञ्चमभागे (४३१) गा क्यसहितं तदेव प्राप्नोति । तदेतन्मतिज्ञानस्य जघन्यमथया दर्शयिष्यते) म्तरमुहूर्तमन्तरं प्राप्तिविरहकालरूपं भवति । पाशातना दिदोषबहुलस्य तु जीवस्य सम्यकत्वात् प्रतिपतितस्य एकस्याऽऽभिनियोधिकज्ञानिजीवस्य ये क्षेत्रस्पर्शने, ताभ्यां देशोनपुगलपरावर्ताऽर्द्धरूपमुत्कृष्टमन्तरं भवति, एतावता सकाशानानाऽऽभिनिबोधिकजीवानां याः क्षेत्रस्य स्पर्शना कालेन पुनरपि सम्यक्त्वाऽऽभिनियोधिकलाभात् इत्येकस्ता असंख्येयगुणाः नानाऽऽभिनियोधिकजीवानां सर्वेषा जीयस्योतमन्तरम् । मसंख्येयत्वादिति भावः । अथ नानाजीवानां तदभिधिन्सुः, भायद्वारं च बिभणिषुराहकालद्वारमधिकृत्याह जमसुम्नं तेहि तो, नानाजीवाणमंतरं नऽस्थि । एगस्स अणेगाण व, उवभोगतो मुहुत्ताश्रो ॥४३४॥ मइनाणी सेसाणं, जीवाणमणंतभागम्मि ।। ४३८ ।। द्विधा मसिज्ञानस्य कालश्चिन्तनीयः-उपयोगतो, लब्धि यत्-यस्मात्तैः-श्राभिनिबोधिज्ञानिभिरशून्यं सर्वदेव नातश्च । तत्रैकजीवस्य तदुपयोगो जघन्यत उत्कृष्टतश्चाऽ रकादिगतिचतुष्टयाऽन्वितं त्रिभुवनमिदं ततस्तस्मानानान्तर्मुहर्तमेव भवति, परत उपयोगान्तरगमनादिति । सर्व जीवानाश्रिस्य नाऽस्ति मतिज्ञानस्याऽन्तरकालः । तथा मलोकवर्तिनामनेकाऽऽभिनिबोधिकजीवानामपीदमेवोपयोग तिहानिनः शेषमानवतां जीवानामनन्ततमे भागे वर्तन्त, कालमानम् , केवलमिदमन्तर्मुहर्तमपि बृहत्तरमवसेयम् । शेषशानिनो हि केलिसहितत्वादनन्ताः, अभिनियोधिक__लब्धिमङ्गीकृत्य कालमानमाह शानिनस्तु सर्वलोकेऽप्यसंख्याता एवेति भावः । इति लद्धी वि जहम्मेणं, एगस्सेवं परा इमा हाई । गाथाद्वयार्थः । अह सागरोवमाई, छावढि सातिरेगाई ।। ४३५ ॥ अथ भावद्वारम् , अल्पबहुत्वद्वारं चाऽभिधित्सुराहभाभिनियोधिकमानलब्धिरपि तदावरणक्षयोपशमरूपाss. भावे खोवसमिए, मइनाणं नऽस्थि सेसमावेसुं । याप्तसम्यक्त्वस्यैकजीवस्य जघन्यत एवमिति-एवमव: अ- थोवा मइनाणविऊ, सेसा जीवा अणंतगुणा ॥४३६॥ न्तर्मुहुर्तमेवेत्यर्थः । परतो मिथ्यात्यगमनात्, केवला:- मतिज्ञानाचरणे हि कर्मण्युर्दाणे क्षीणे, अनुदीर्णे तूपशान्ते याप्तर्वा । परा तूतकृष्टा तल्लम्धिरेकजीवस्येयम्-अनन्तर- मतिमानमुपजायते, अतः क्षायोपशमिक एय भावे तवबच्यमाणा भवति । अथ संबोच्यते-सातिरेकाणि पक्ष- तते, न तु शेषेष्वौदयिकक्षायिकादिभावेष्विति मतिज्ञानेन टिसागरोपमाणि। विदन्तीति मतिज्ञानविदः स्तोकाः शेषशानयुक्तास्तु सिरकेकथं पुनरेतानि भयन्ति, नानाजीवानां च कियान् ल- बल्यादयो जीवा अनन्तगुणा इति । एवमपि सावदरूपबहुत्वं ब्धिकालः ?, इत्याह भवति । केवलमियमुच्यमाने भागाऽल्पबहुत्वद्वारयोरर्थतः परमार्थतो न कश्चिद्विशेषो भेवो दर्शितो भवति । तेन तदो वारे विजयाइसु, गयस्स तिनचुए अहव ताई। स्यैवाऽऽभिनियोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकानाश्रिअहेरगं नरभवियं, नाणाजीवाण सव्वऽद्धं ।। ४३६ ।। त्याऽल्पबहुत्वं वक्तुमुचितं, पौनरुक्त्याऽभावादिति । इह कश्चित्साधुर्मत्यादिशानान्वितो देशोनां पूर्वकोटीं पतदेवाहयावत्प्रवज्यां परिपाल्य विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजित नेह स्थो विसेसो, भागप्परहण तेण तस्सेव । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१३) भाभिणियोहियणाण अभिधानराजेन्द्रः। भाभीरीचंचग पडिवअमाणपडिवनगाणमप्पाबहं जुत्तं ।। ४४०॥ । बोधिकम् । अभिनिबोधशब्दस्य विनयादिपाठाऽभ्युपगमात् गताथैव । "विनयादिभ्यः" ॥७।२।१६६॥ इत्यनेन स्वार्थे इकल्प्रत्ययः । — अथ यदेव युक्तं तदेवाह "निवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानि" इति षच. थोवा पवजमाणा, असंखगुणिया पवनयजहन्ना । नादत्र नपुंसकता, यथा विनय एव पैनयिकमित्यत्र । अथउकोसए पवना, होति विसेसाऽहिया तत्तो ।। ४४१ ॥ वा-अभिनिबुध्यते अस्मादस्मिन्वेति अभिनिबोधः-तदाबरप्राभिनियोधिकस्य "जहन्नणं, एको वा, दो वा, तिन्नि वा, गकर्मक्षयोपशमस्तेन निवृत्तमाभिनियोधिकम् , तश्च तज्ज्ञानं च आभिनियोधिकज्ञानम् , इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यप्रदेशाउकोसमं असंखेज्जा" इत्येवं प्रनिषद्यमानकाः प्रोच्यन्ते ते सर्वस्तोकाः । तेभ्यो जघन्यपदवर्तिनः पूर्वप्रतिपन्नास्ते उपस्थितवस्तुविषयः स्फुटप्रतिभासोः बोधविशेष इत्यर्थः, असेल्यातगुणाः, चिरकालसंकलितत्वात् प्रतिपद्यमानकानां स चासौ साकारोपयोगश्च श्राभिनियोधिकमानसाकारोतु विवक्षिकसमयमात्रभावादिति । उत्कृष्पदवर्तिनस्तु पयोगः। साकारोपयोगविशेषे, प्रशा० २६ पद ३१२ सूत्रटी। पूर्वप्रतिपन्नास्तेभ्योऽगि विशेषाधिका इति । पाभिसेक पाभिषेक्य-त्रिका अभिषेकमहति प्राभिषेक्यम् । प्रकारान्तरमप्यल्पबहुत्वे दर्शयति-- अभिषेकाऽहे, औ० । “प्राभिसक्कं हत्थिरयणं पडिकपेहि" अहवा मइनाणीणं, सेसयनाणीहि नाणरहिएहिं । (सूत्र-२६)। औ०।। कजं सहो भएहि य, अहवा गच्चाइभेएणं ॥ ४४२ ।। आभीर-आभीर-पुं० । श्रा-समन्ताद् भियं राति । रा-क । अधवा मतिज्ञानिनां शेषशानिभिः सहाऽलाबहुत्वं प्रथमं वाचः । शूद्रजातिभेदे, सत्र.१ श्रु० अ०२ गाथाटी। बाच्यम् , यथा-"मइनाखी सेसाणं जीवाणमणतभागम्मि" "श्रामीराणं अहिवाई" (४६२ गाथाटी०)। प्रा०म०१०॥ इति । ततो द्वितीयस्थाने-" नाणरहिएहिं" ति, शानानि गोगे. सङ्कीर्णजातिभेदे. स हि अल्पभीतिहृतोरप्यधिक व्याख्यानादिह मतिज्ञानादन्यानि गृह्यन्ते, सैरहिताः-वि- विभेतीति तस्य तथा तदिदं गृहाण । उद्भटः स च संकीयुक्ताः पूर्वप्रतिपद्यमानकमतिक्षानिन एवं केवला इत्यर्थः, तैः खवर्णः । “ब्राह्मणादुग्रकन्याया-मावृत्तो नाम जायते । भासहितं मतिशानिनामलाबहुत्वं स्वस्थान एव; वक्तव्यम् । भीरोऽम्बष्टकम्याया-मायोगव्यां तु धीखणः॥१॥" इति यथा-"थोवा पबजमाणा, असंखगुणिया पवरणयज- मनुक्तः । " श्रीकोकणादधोभागे, तापीतः पश्चिमे तटे । इना" इत्यादि ततम्तृतीयस्थाने उभयैः शेषशानिभिः समु- आभीरदेशो देवेशि, विन्ध्यशैले व्यवस्थितः" ॥१॥ इति । दितैः सहारूपयहुत्वं तेषां कर्तब्यम् । तद्यथा-" सव्वथोवा देशभेदे, तद्देशवासिनि, तद्देशराज च । वं०व० । “एकादश मणपजवनाणी, श्रोहिनाणी असंखेजगुणा, मइनाणी, कलाधारि-कविकुलमानसहारि। इदमाभीरमवेहि, जगणसुयनापी य दोवि सटाणे तुल्ला, मज्झिल्लेहितो विसेसा- मन्त्यमनुधेहि" ॥ १॥ इत्युक्तलक्षणे ५ मात्रावृत्तभेदे च । हिया, केवलनाणी अणंतगुणा" एवं पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्य. चाच०॥ मानकविभागेनाऽप्यरूपबहुत्वमिह स्वधियाऽभ्यूह्यमिति । अथवा-गस्यादिभेदेन तत्कार्यम् , यथा-सर्वस्तीका मति आभीरदेस-भाभीरदेश-पुं०1 देशभेदे, कल्प० । आभीरशानिनो मनुष्याः, नारका असंख्यातगुणाः, ततस्तियश्चः, देशे अचलपुरासने कना-वेन्नानद्यामध्ये ब्रह्मद्वीपे पञ्चशतं ततो देवा इति । एवं संभवतः सर्वत्र वाच्यमिति । तापसानामभूत् । कल्प०२ अधि०८ क्षण । ('जोग: अथोपसंहरनाह पिंड' शब्दे चतुर्थभागे १६४१ पृष्ठे ॥ 'बंभदीचिया' शब्दे लक्खणविहाणविसया-ऽणुओगदारेहि वनिया बुद्धी । पञ्चमभागे चात्र विशेषवृत्तं वक्ष्यते) तयणंतरमुद्दिई, सुअनाणमो परूविस्सं ॥ ४४३ ॥ आभीरविसय-भाभीरविषय-पुं० । देशभेदे, "आभीरविसये लक्षपम्-माभिनिबोधिकशब्दव्युत्पत्तिः, विधान-भेदोऽच कराहावमाणाम णई तस्स कूले बंभद्दीवो तत्थ पञ्च, प्रहादिः, विषयो द्रव्यक्षेत्रादिः, अनुयोगद्वारारिख सम्पदप्र तावसा परिवसंति। नि० चू०१३ उ०। पिं० ५०३ गाथा। रूपणतादीनि, पतैः सर्वैरपि यथोक्लकमेस्थाभिनिबोधिक श्रा० म०। प्रा०चू०। " एवं सो भगवं विहरंतो ततो मानलक्षणा बर्षिता व्याख्याता चुद्धिः । ततस्तदनन्तरो आभीरविसयं गो" प्रा. चू०१०। आव० १५० हिष्टं श्रुनशानं प्ररूपयिष्ये इति गाथापञ्चकार्थः । तदेवमा ६३४ गाथा। भिनिवाधिकज्ञानं समाप्तमिति । विशे० । श्रा०म० । । आभीरसाह-आभीरसाधु-पुं० । आभीरपुत्रे स्वनामख्याते प्रामिणबोहियनापलद्धि-आमिनिबोधिकज्ञानलब्धि- साधौ, उत्त० २ अ० । (तत्कथा 'अरणाण' शम्य प्रथमभागे स्त्री० । प्राभिनियोधिकज्ञानम्-मनिशानम् तस्य लब्धिः- ४८८ पृष्ठ गता।) योग्यता । अभिनियोधिक ज्ञानयोग्यतायाम् , "श्राभिणियो आभीरीवंचग-आभीरीवश्चक-त्रि० । भाभीया वचनहियवाणखद्धी जाय खवोपसमिश्रा" (सूत्र-२७४) । स्थ कारके वणिजि, उत्तः। तत्कथा यथा-"काऽपि प्रामे स्वावरखकर्मक्षयोपशमसाध्यत्वात् क्षायोपशमिकी | अनु० ।। कोऽपि यणिक हे क्रयविक्रयं करोति । अम्या एका भाभिणिबोहियनाणमागरोवनोग-आभिनिबोधिकज्ञानसा भाभीरी तागता । तया भणितम्-भोः रूपककारोपयोग-पुं० । अर्थाभिमुखो नियतः-प्रतिनियतस्वरूपा। इयस्य मे रुतं देहि । तनोक्नम्-श्वर्पयामि । अर्पितं तया बोधो-बोधविशेषः अभिनियोधः अभिनिबोध एवाभिनि- | सपकद्रयम् । तेन गिजा एकम्यैव रूपकम्य इतं पापाय Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) भाभीरीवचग अभिधानराजेन्द्रः। माम तोलयित्वा अपितम् । सा जानाति मम रूपकवयस्य (सूत्र-२४६ +) । स्था०४ ठा०१०। संज्ञा-प्राभोगः । रुतं दत्तम् । यश्चिता च सा । तस्यां गनायो स बिस्त- स्था०१० ठा० ७५२ सूत्रटी० । " आभोगे जाणतेण, जोयनि-ए कपको मया मुधा लब्धः, ततोऽहमेव उप- अश्यारो को पुणो तस्स" आव० ४ ० १२४६ मुखामि । तस्य रूपक्रस्व घृतखएडादि लास्वा स्वगृहे गाथाटी० । ज्ञानपूर्वके व्यापारे, पातु. १ सूत्रटी० । विसर्जितं भार्यायाः कथापितम्-अद्य बृहपूराः कुर्याः । परिम्फुटबुद्धौ, " प्राभोगेण वि तणुएसु" (१२ + तया घृतपूराः कृताः । तावता तगृहे समित्रो जामाता गाथा)। " परिस्फुडबुद्धीए वि" चूर्णिः । प्राभोगेसमायातः। तस्यैव तया घृतपराः पारवेषिताः। समित्रेण मापि-परिस्फुटबुद्धयापि, अविस्मृन्यापीत्यर्थः । जीत । तेन भक्षिताः । गतः समित्रो जामाता । वरिणग् गृहे समा-1 "अमस्थ प्रणाभोगेणं" (सूत्र +)। आभोजनमाभोगःयातः। स्मानं कृत्वा भोजनार्थमुपविष्टः । तया स्वाभा- प्राभोगोऽत्यस्तविस्मृतिरित्यर्थः, तेन अनाभोग मुक्त्वेविकमेव भोजनं परिवेषितम् । वणिक पति-कथं ना स्यर्थः। श्राव० ६ ० २५३ भाध्यगाथाडी० । विस्तारे, कृता घृतपूराः १, तया उक्तम्-कृताः परमागन्तुकेन | शा०१७०१ १०२७ सूत्रटी०। आभोजनमाभोगः 'भुज' समित्रेण जामात्रा भक्षिताः । स चिम्तयति मया सा पालनाभ्यवहारयोः, मादया अभिविधिना बा भोगनंपराकी भाभीरी वञ्चिता । परार्थमेवाऽयमात्मा पापेन पालनमाभोगः । प्रतिलेखनायाम् , ओधः। संयोजितः । एवं चिन्तयन्नेवाऽसौ शरीरचिन्तार्थ बहि (अस्यैकाथिकानि )र्गतः। तवानी प्रीष्मो वर्तते । स मध्याह्नवेलायां कृत-1 शरीरचिन्तः एकस्य वृक्षस्याधस्तात् विश्रामार्थमुपविष्ठः ।। भाभोगण मग्गण गवे-ससा य ईहा अपोह पडिलेहा । तेज मार्गेण गच्छन्तं साधुं दृष्टवान् । परिणगुवाच-भो पेखण निरिक्षणाऽवि य, पालोय पलोयगट्ठा ॥३॥ साधो ? विधम्यताम् । साधुनोक्तम्-शीनं मया स्वकार्ये (अस्या गाशायाः व्यास्था 'पडिलेहणा ' शम्ये पश्चमगम्तव्यम् । वणिजा उक्तम्-भगवन् ! कोऽपि परकायें भागे करिष्यते ) श्रोधः । प्रा भुर आधारे धम् । परिगच्छति !, साधुः प्राह-यथा स्वं स्वजनाऽर्थ क्लि- पूर्णतायाम् , सम्यक सुखानुभवे, वरुणस्य छत्रे च । श्यसि । अमेन एकेनैव पचनेन स बुखः । प्राह-भगवन् ! मेदिक वाच०। यूयं क्व तिष्ठथ । साधुना भणितम्-उद्याने । स साधुना भाभोगंझाण-प्राभोगध्यान-न० । श्राभोगो-मानपूर्वको समं तत्र गतः । तम्मुखार्ममाकर्ण्य भणति-भगवन् ! अहं व्यापारस्तस्य ध्यानम् । कानपूर्वकव्यापारस्य ध्याने, प्राप्रवजिष्यामि । नवरं स्वजनमापृच्छयाऽऽगच्छामि । गतो मानयनाभिप्रायेण फलाम्यपि मृद्नतो ब्रह्मदत्तस्येव । निजगृहे बाम्धवान् भार्या च भणति-अत्रापणे व्यव श्रातु० सूत्र-१४ टी० । ( अस्य वृत्तान्तं 'बंभवत' हारतो मम तुच्छलाभोऽस्ति देशान्तरं यास्यामि सार्थवाहवयमत्रायातमस्ति । एकः सार्थवाहो मूलद्रव्यमर्प शब्दे पञ्चमभागे निरूपयिष्यामि) यति, पुरं नयति, नच लाभं गृह्णाति । द्वितीयो मूल भाभोगण-भाभोगन-म० । प्राभोग्यतेऽनेनेति भाभोगद्रव्यमर्पयति सहगमनात् लाभश्च गृह्णाति, तस्कन सह नम् । अर्थावग्रहसमयसमनन्तरमेव । सद्भूतार्थविशेषाsगमनं युज्यते। तेरुकं प्रथमेन सह प्रजा अथ स गरिएका भिमुखे पालोचने, नं० ३१ सूत्रटी० । उपयोगविशेष, पाव. स्वजनैः समं बने गत्या उवाच-अयं मुनिः परलोकसार्थ- | ४१० ११ गाथाटी। वाहः स्वकीयमूलद्रव्येण व्यवहारं कारयति मोक्षपुरं चाभोगणया-भाभोगनता स्त्री० । प्राभोग्यतेऽनेनेत्याभोगनयतीति हान्तदर्शनपूर्वकं स्वजनानापृच्छय स वणिक | नम्-अर्थावग्रहसमयसमनन्तरमेव सद्भतार्थविशेषाभितस्य गुरोः समीपे दीक्षा अग्राहेति । उत्त०४०। मुखमालोचनम् तस्य भावः भाभोगनता। ईहायाम , मं. मामोइत्ता-पाभोगयित्वा-श्रव्य० । “पाभोइत्ताण णी- ३१ सूत्रटी। सेसं "(EEx गाथा ।। श्राभोगयित्वा-सात्वा निशेष-श्राभोगणिवत्तिय-भाभोगनिवर्तित-त्रि०। प्राभोगो-कामतिवारम् । दश०५०। मम् तेन निर्वर्तितः । ज्ञानेन कृते क्रोधादी, यजानन् कोपमामोएउं-भाभोज्य-अध्य०। विज्ञायेत्यर्थे, पं०५० १४२० विपाकादि रुध्यति । मानिकक्रोधविशषे, स्था० ४ ठा. १ उ०२४६ सूत्रटी। गाथा। माभोएमाण-प्राभोगयत-त्रि० । अवलोकयति, कल्प० १ भाभोगवउस-भाभोगवकुश-पुं० । प्राभोगः-साधूनामअधि०१क्षण २११ सूत्र । कृत्यमेतच्छरीरोपकरणविभूषणमिस्येवं ज्ञानम् , तत्प्रधानो भाभोग-प्राभोग-पुं० । प्राभोगनमाभोगः । उपयोगवि- बकुश आभोगवकुशः । बकुशभेदे, भ० २५ श०६ उ० ७५१ शेष, पाव.।प्राभोगे तह प्रणाभोगे " ॥४॥ श्राव० सूत्रटी०। ४०। “ लोकालोकावलोकनाभोगम् " ( १५ +) । श्राभोगिणी-पाभोगिनी-स्त्री० । विद्याभेदे, पृ.। "माभोपाभोगः-उपयोगा। षो० १५ यिय० । “अन्नाए भाभोग, गिणी य" ME५२४॥ आभोगिनी नाम विद्या, सा भएयते-या नाए ससई करति सम्मायं ॥ ७५४५ जनेना'माता: परिजपिता सती मानसं परिच्छेदमुत्पादयति । पृ०३ उ०। स्थितास्ततो रात्रावाभोगम् उपयोगं कुर्वतः तणीका | मि० चू०। संन्यथा उशाने,“प्राभोगणियत्तिए प्राम-प्राम-श्रव्य० । अभ्युपगमे, प्रा० । “माम अभ्यपगमे" Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राम ॥ ८ । २ । १७७ ॥ अमेत्यभ्युपगमे प्रयोकम्पम् "ग्राम बहला बोली "प्रा०| "दुविहं च तिविद्धं व श्रमं ति ॥ १६५ ॥ आमशब्दोऽनुमती सम्पतमेकं सर्वमिति भावः । य० १ उ० । “सो भए आमं दिहुं" आ० म० १ ० १३१ गाघाटी० " आमंति अमर" 'आम' इत्यनुमनायें इति 'आम' ति एतदभ्युपगम्यत एवास्माभिः नि० 66 । A ०१० 41 उ० ११७ गाथादी० । अपके, विशे० २३५ गाथाटी० । श्रमे वाममेगे " ( सूत्र - २५३x ) | आमम्- अपकम् । ( स्था० ) पुरुषस्तु श्रामः चयः श्रुताभ्यामव्यक्तः । स्था० ४ अमं ओमं च भुजीया " ॥ २०४ ॥ श्रामम्ठा० १ उ० । अपकम् । प्रा० म० १ अ० । ग्रामनिक्षेपथ ( ३१५ ) अभिधानराजेन्द्रः । नामं ठवणाश्रामं, दव्वाऽऽमं चेत्र होइ भावाऽऽमं । उस्सेइम संसेइम-मुक्खडं चेत्र पलिश्रामं ॥ ३२ ॥ श्रमं चतुर्द्धा । तद्यथा-नामाऽऽमम् १, स्थापना मम् २, व्याऽऽमम् ३, भाषाऽऽमम् ४ । तत्र नामस्थापने गतार्थे, देव दर्शयति- 'हम' इत्यादि उत्-निर्माया या उत्स्वेद उस् देन निर्वृतं उत्स्वेदिमम् । भाषादिमः ॥ ६ । ४ । २१ ॥ इति सूत्रेण इम प्रत्ययः । उत्स्वेदिमम्च तदामं ख उत्स्खेदमादमस एकाकिभावेन संस्थे दस्तेन नि संस्वेदि वाऽयम् संस्थेरियामम् २ तथोपस्कृता राजा थे बनबास्तेषां मध्ये यदामं तदुपस्कृताऽऽमम् ३ । पर्यायः स्वाभाविक श्रीपाधिको या फलानां पाकः परिणामस्तस्मिन् प्राप्तेऽपि यदामं तत्पर्यायाऽऽमम् ४ अथोत्स्येदिवादिचतुष्पमेव व्याडे उस्सेइम पिट्ठाई, तिला संमेइमं तुगविहं । कंकडुयाइ उवक्खड, अविपकरसं तु पलियामं ॥ ३३ ॥ 1 उत्स्वेदिमम् पिष्टादिपष्ट सूक्ष्मतादिचूर्ण निष्पत दिवान्तरितमथितस्योपोदकस्य वाप्येोरिस्वद्यमानं पदात्स्वेदयामम् आहिरोला दिपरिग्रहः । संस्वेदिमं पुनस्तिलादिकमनेकविधम् । इद क्वचित् पिठरादौ पानीयं तापयित्वा पिटिकायां प्रक्लूविकेन सिध्यन्ते ततति संस्थिते तेषां संविधानां मध्ये ये आमास्तत् संस्वेदिमा मम् थादिग्रहम-पदम्य संस्थितं संस्वेदि मामम् तथा मुद्गादीनामुपस्कृतानां येककाश्य आमास्ते उपस्कृताऽऽमम्, पर्यायाऽऽमम् पुनरविप कचरफलादिकमुच्यते तचतुर्विधम्। 1 9 तद्यथा इन्धधूमे गंधे, वच्छष्पभियामए म श्रमविही । एसो खलु श्रमविही, तथ्यच्चो अणुपुथ्वीए ॥ ३४ ॥ इन्धन पर्यायामम् १. पर्यायामम् २, गधपर्यायामम् ३, वृक्षयाममपीत्येवं पर्यायाने धामविधिः प्रकारः ४ । पतु मामविधिर्ज्ञातिः धानुपू वयोवाडा आ नाम पदपमाला पालवेनगननकरीप्रक्षेपणादिका यथायोगमामफलपात्रनाथ रचना, तथा ज्ञातव्यः श्रमविधिरिति । अथधूपपपामे विद्युलो कोइलालाई घुमे तदुगाइ पर्यंते । मझगडा मगणि पेरं वर्तिया विमे ।। ३५ ॥ कोद्रवपलालादिकमिन्धनमुच्यते, आदिग्रहणेन शालिपसालपरिग्रहः तेन बाम्रादीनि फलानाकपले सत्र यान्यपत्यानि फलानि सदिग्धनपर्यायामम् । तथा घूमेन तिन्दुकानि फलानि पाप कथं पाप इत्याद'मझगडा' इति प्रथम या मध्ये का प्रक्षिप्यते, तस्याश्च गर्त्तायाः पार्श्वेष्वपरा गर्त्ताः सम्यन्ते, तासु च गर्तासु तिम्बुकादीनि फलानि प्रक्षिप्य मध्यमायां कयाम् अगसि सि अनियत तास परंसिपल श्रोतांसि मया सह मीलितानि क्रियन्ते । ततस्तस्याः करीषगर्त्तायाः सकाशामस्ते भीतोभिः पर्यन्तगर्तासु प्रविशति ततस्त संबन्धिना घूमेन प्रसरता तानि फलानि पच्यन्त इति तेषां मध्ये यद्-श्रमं तद्धूमपर्यायाऽऽमम् । अथ गन्धपर्यायाने भावयति ८ " च आम -- चिनिमाई, गंधेणं जंच उपरि रुक्खस्स । कालपचं न पचर, वत्थपलियाममेवं तु ।। ३६ । दिल ते 1 कमिटीन आदिशब्दात् बीजपूरकादीनि या पानि फलानि तेषां मध्ये पकानि प्रतिप्यन्ते तेषां गन्धेन प्राक्तनाम्यामकानि पच्यन्ते । तत्र यदश्क्त्रं फल तद्गन्धपग्रामम् । तथा बीजं चेति चशब्दस्य पुनरयाचस्योपरि शाखायां वर्तमान काले वसन्तापाकसमये प्राप्तेऽपि परिपक्वपरफलेनपर्यायामम् व्याख्यातं चतुर्विधमपि ssमम् । तद्व्याख्याने च समर्थितं द्रव्याऽऽमम् । अथवा भावाऽऽमस्य रूपं निरूपयतिभावाssi पि यदुविहं, वयथाऽऽमं चेत्र खो य वयखाऽऽमं । वयणाऽऽमं श्रणुमयत्थे, आमं ति हि जो वदे वक्षं ||३७|| darussi दुविहं, आगमतो चेव नोश्रागमतो । भागमेनावडतो, नोभागमभो इमं होई ॥ ३८ ॥ भावाममपि द्विविधम्-यत्रनामं चैव, नोषत्रनामम् । वमनरूपमा यचागम् अनुमतार्थे, आममिति पा वचनं यदेतद्वचनामम् । यथा कोऽपि साधुर्गुरुणां कार्ये गच्छन्नपरेण पृष्टः- आर्य ! किं गुरुकार्येण गम्यते ?, स प्रत्याह- श्रामम् एवमेतदित्यर्थः । नोघचनामं द्विविधम्भागमती, गोभागमनश्च तथाऽऽगमत ग्रामपदार्थज्ञानयुक् त पोषयुक्त उपयोगस्य भावपत्यात्हानस्य चागमरूपत्वात् । नोश्रागमतो भाषाममपीदं भवति । संदेयादउम्गमदोसाईया, भावतो असंजमो अ ग्रामविदी । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१६) अभिधानराजेन्द्रः। मामंतिय अनो वि य पाएसो, जो वरिससयं न पूरेइ ।। ३ ।। हि प्रागुतभाषायांवलक्षणत्वान्न सत्या, न मृषा, नापिउद्गमदाषा:-प्राधाकोमयः श्रादिग्रहणाद-उत्पादनादोषा. सस्यामृषा, कलव्यवहारमात्रप्रवृत्तिहेतुरिस्यसत्यामुषा एव, एषणादोषाश्च; एतद् भावामं प्रतिपत्तव्यम् । तथा चाचारा भाषमा काा । ध.३ प्रधि०४३ कलाकटी० । दश० । असूत्रम्-"सम्बामगंधं परिन्नाय, निरामगंधो परिवए" विक्तिमेव च ।“ अट्ठमाऽऽमंतणीभवे " ॥२॥ (सूत्र(सूत्र-८७+) (प्राचा० १ १०२० ५ उ०1) असं १२६ +) | अष्टमी संबुद्धिः-आमन्त्रणी भवेत् । आमन्त्रयमश्च पृथिव्याधुपमईलक्षणो भावतः श्रामविधिरेवड़ा णाथै विधीयत इत्यर्थः । अनु । स्था० । नव्यश्चरित्राऽपक्वताकारणात् । यद्वाऽन्योऽपि आदेशः-प्र- भामंतणी भवे अट्ठ-मी य जह हे ३ जुवाण ! ति ॥६॥ कारो भण्यते-यो वर्षशतायुः पुरुष आयुष्कोपक्रमेण (मूत्र-६०६+) वर्षशतमपूरयित्वा म्रियते सोऽपि भावत श्रामः: श्रायुषः परिपाकमन्तरेण मरणात् । अत्र च द्रव्याणामधिकारसूत्रे अष्टभ्यामन्त्रणी भवेदिति । सु-औ-जसिति प्रथमापीय ऽपि वृक्षपर्यायाऽऽमेण शेषाणामुचारितसदृशतया विनेय विभक्तिरामन्त्रणलक्षणस्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् । लिव्युत्पादनार्थ प्रसङ्गतः प्ररूपितत्वात् । व्याख्यातमामपदम् । मार्थमात्रातिरिक्तस्य प्रतिपादकत्वेनाष्टम्युक्ता , यथा हे ३ पृ० १ उ०२ प्रक० । नि० चू० । अपरिशुद्धे, प्राचा० । युवन् इति । स्था०८ ठा०३ उ० । इयं चानुयोगद्वारानु"सब्याउमगंधं परिणाय" (सूत्र-८७४)। आमम् सारेण व्याख्यातम् , पादशेषु तु आमन्त्रणति दृश्यते। स्था० अपरिशुद्धम् । श्राचा०१ श्रु.२०५ उ०। " णिराम ८ ठा०३ उ० । " आमंतणी भये अट्र-मी उ जहा ह ३ गंधे धिम ठितप्पा" (सत्र-५ + ) | निर्गतः-अपगत जुवाण त्ति " (सूत्र-१२६ +) । आमन्त्रणी भवेदएमी, श्रामः-अविशोधिकोट्याख्यस्तथा गन्धो-विशोधिकोटि यथा-हे ३ युवनिति वृद्धवैयाकरणदर्शनेन चेयमएमी गण्यते, रूपो, यस्मात्स भवनि मिरामगन्धःः मूलोत्तग्गुणभेद ऐक्युगीनानां त्यसौ प्रथमैवेति मन्तव्यमिति । अनु० । भिन्नां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः । सूत्र. १ श्रु. ६ 'असत्यामृषा-अामन्त्र्यण्याशापनादिका । प्राचा०२ श्रु०१ अ० । अम-करणे घञ् । रोगमात्रे, वैद्यकोक्ने पद्दविधे | चू०४ अ०१उ० २३४ सूत्रटा । ( भासा ' शब्द अजीणे, रोगभेदे, वाच । अजीर्णरोगभेदे च । तत्लक्षणम् पञ्चमभागे दशवकालिकसप्तमाऽध्ययनद्वितीयोद्देशक "श्रा"आमे तु द्रवन्धित्वम्" (ध० ) । व्याख्या द्रवस्य मंतणि" २७६ इत्यादिगाथया बहुविस्तरं कथयिष्यामि) गूथस्य कथितनकादेरिव गम्धो यस्यास्ति तत्तथा तद्भा-आमंतित्ता-श्रामन्य-श्रव्य० । आ मन्त्र ल्यप् । सम्बोवस्तत्त्वमिति । ध०१ अधि० १० श्लोकटी०। ध्येत्यर्थे, याच०। श्रामइ (न)-श्रामयिन-पुं० । आमयो-रोगः स येषां अजओ! ति समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे विद्यते ते प्रामयिनः । रोगिणि, व्य। णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-किंभया पाणा ? समनाउं तिविहामयाणं, देइ लहामओ सह गणं तु ॥२५॥ णाऽऽउसो! (सूत्र-१६६+) त्रिविधतापादिजन्यरोगयोगतस्निप्रकारा आमया-रोगाः | 'अजो' स्यादि, सुगमम् । केवलम् 'अजो ति 'तिस येषां ते प्रामयिनः त्रिविधाश्च ते प्रामयितश्च तेषां त्रि पारात्-पापकर्मभ्यो याता आर्याः तदामन्त्रणम्-हे३ आर्या! विधामयिनाम् । व्य०१ उ०।। 'इति' एवमभिलापेनाऽऽमन्व्येति संबन्धः, श्रमणो भगमामंतण-आमन्त्रण-न० । आ मन्त्र ल्युट् । अभिनन्दने, वान् महावीरः गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थानेवम्-वक्ष्यसंबोधने, कामचारानुशारूपे, क्रियाभेदेषु प्रवर्तनव्यापारे माणम्यायनाऽवादीदिति, कस्माद् भयं येषां ते किंभयाः; च। व्यापारे च । युच् । आमन्त्रणाप्यत्र । स्त्री०। वाच०। कुतो विभ्यतीत्यर्थः, प्राणा:-प्राणिनः 'समणाऽऽउसो " प्रच्छन्ने, आचा।“ अणामं ति या परिटुवेति" ( सूत्र- त्ति-हे३ श्रमणाः हे ३ आयुष्मन्तः इति गौतमादीनामेघा५४ +)। अनापृच्छय प्रमादितया परिष्ठापयेत् । आचा० ऽऽमन्त्रणमिति । स्था० ३ ठा०२ उ०। २ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ० । " समणामंतणखमणे " मामंतिय-आमन्त्रित-त्रि० । आ-मन्त्र क्त। अनावश्यके ॥११.४॥ आचार्येण स्वगणस्य-स्वगच्छस्याऽऽमन्त्रणं कर्मणि नियोजिते, वाच० । “पुमं आमंतेमाणे आमंतिए प्रच्छनं कर्त्तव्यम् । व्य०१ उ०। (स्त्रीपुरुषयोर्वक्रव्यावक्त वा अपडिसुणमाणे रणो एवं यदेज्जा" (सूत्र-१३५ +)। भ्यामन्त्रणवचनानि 'भासा' शब्दे षष्ठे भागे “ तहेव काणं प्राचा०२७०१ चू०४ १०३ उ० । बाच० । परिभाकाण " ति (१२) इत्यादि दशकालिक ७ सप्तमाध्ययनस्थगाथाभिर्वक्ष्यते )।“ करेमि भंते ! सामाइयं " (ध.) पितायां सम्बोधनार्थे प्रथमायां विभक्ती, न० । “साम'भंते' इति गुरोरामन्त्रणम् । ( ध० ) आमन्त्रणं च त्रितम्" पाणिनिः। सम्बोधन या प्रथमा सामन्त्रिप्रत्यक्षस्य गुरोः, तदभाव परोक्षस्याऽपि बुद्धया प्रत्यक्षीकृत- तसंज्ञा स्यात् । सि० कौ० । “आमन्त्रितं पुर्वमविस्य भवति, गुरोश्चाभिमुखीकरणेन सर्वो धर्मः गुरुपाद- चमानवत् " नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यबमूले तनभाये स्थापनासमक्ष कृतः फलवानिति । ध० २ चनम् पा० । निमन्त्रिते, त्रि० । "प्रातरामन्त्रितान् अधि०७ श्लोक ।। 'भदंत' शब्दे षष्ठे भागे विस्तरम) विप्रान् " वाच० । मामंतणी-आमन्त्रणी-स्त्री असत्यामृषाभाषाभेदे, संथा० मामन्त्र्य-श्रव्यापा-मन्त्र-ल्यप् । सम्बोध्येत्यर्थे, याच। ७ गाथाटी आमन्त्रणी-हे ३ देवदत्त इत्यादिरूपा । एष। “मातिय उस्सयिया, भिक्षु प्रायसा निमंतंति" ॥ ५४॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१७) मामंतिय अभिधानराजेन्द्रः। प्रामयि खियो हि स्वभावेनैवाऽकर्तव्यप्रवणाः, साधुमामध्य-यथा श्रामज्जावंतं वा गमज्जावंतं वा साइज्जह" (सूत्र-२२४) उहममुकस्यां लायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं संकेत नि० चू०१७ उ०। (अनयोः सूत्रांशयोः व्याख्या 'अण्णग्राहयित्वा (सूत्र०) भारम् अामन्य-प्रापृच्छय अहमिहा- मराणकिरिया' शब्दे प्रथमभागे ४८० पृष्ठे गता) ऽऽयाता । सूत्र १७०४०१ उ०। जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी आमजेज वा पमजेज आमतेमाण -आमन्त्रयत्-त्रि० । प्रापृच्छति, प्राचाo“पुमं | वा आमअंतं वा पमजंतं वा साइजह ।। ६.॥ भामंतेमाणे आमंतिते वा" (सूत्र-१३५+)। श्राचा०२ श्रु०१ | "अच्छीणि वा प्रामजति णाम अच्छिपत्तरोमे संठवनि चू०४ १०३ उ०। पुणो पुणो करेंतस्स पमजणा । अहवा-खीयकरणगादीगं मामंद-आमन्द्र-पुं० । ईपन्मद्रः । प्रा० साईपदगम्भीर- सकृत् अवरायणे मामज्जणा पुणो २ पमज्जणा । नि० चू० शब्दे, "आमन्द्रमन्थध्वनिनसतालम्" भट्टिः । तपक्के. त्रि० ।। ३ उ० । मृदुगोमयादिना लिम्पने च । व्य. ४ उ. वाच । सर्गत्र लवरामचन्द्रे । बारा७६ ॥ इति रलुक । प्रा०। २७ गाथाटी। आमग-ग्रामक-त्रि० । अपक्वे, भ० १५ श०१ उ० ५५४ श्रामजंत-श्रामजमाण-पामार्जयत-त्रि० । सकृत् हस्ता दिना शोधयति, निचू " अामजंतं वा पमजंतं वा साइसत्रटी । “प्रामगमलगभूया" (सूत्र-७६+)| प्रामकम जा" (सूत्र-६०x) | निचू०३ उ०।"श्रामज्जमाणे वा" सकभूता-अपक्वाशरावकरूपा जलसंपर्क क्षणेन विलय ( सूत्र-३६४) । अामार्जयत्-सकृत् इस्तादिना शोधनात् । शा० १७०६०। प्रशस्रोपहते च । दश । "श्रा यन् । श्राचा०२ श्रु० १ चू०१ अ०७ उ० । मगं वियिह बीय" ॥१४॥श्रामकम्-प्रशस्रोपहतम् । वश०८१०२०। प्राचा "फले बीए य भामर" ॥७+॥ मामडाग-प्रामडाग-न। अर्द्धपके, अपके च । अरणिआमकं-सचित्तम् । दश० ३ ०। कतराखलीयकादिके, प्राचा० । “ सज्ज पुण जाज्जा मामडागं वा" (सूत्र-४६४)। 'प्रामडागं वा' इतिश्रामगंध-प्रामगन्ध-न० । श्रामं च गन्धश्च श्रामगन्धम् । आमपत्रम्-अरणिकतण्डलीयकादि तचाचपकम् , अपकसमाहारद्वन्द्वः । अविशुद्धकोटपन्तर्गतेषु प्राधाकर्मादिषु. म्वा । प्राचा०२ श्रु०१चू०१ १०८ उ०। प्राचा० । “सधाऽऽमगंध परियणाय सिरामगंधो परिवर" (सत्र-८७+ ) । सर्वश्च तदामगन्धम्च सर्वाऽऽमगन्धं, आमतर-आपतर-त्रि० । अतिशयेन प्रापके, रा० । "मसर्वशब्दः प्रकारकास्र्थेऽत्र गृहाते; न द्रव्यकात्स्ये, यामतराप चेय" (सूत्र- +) । द्रष्ट्रीणां मनांसि श्राआमम्-अपरिशुद्ध, गन्धग्रहणेन तु पूतिगृह्यते । ननु च प्नुवन्ति-आत्मवशतां नयन्तीति मनापस्ततः प्रकर्षपूतिद्रव्यम्याप्यशुद्धत्वादामशब्देनैवोपादानाकिमर्थ भेदेनो विवक्षायां तरप्रत्ययः प्राकृतत्वाच पकारस्य मकारे मणा मतरा इति भवति । रा०। पादानमिति !, सत्यम् , अशुद्धसामान्याद् गृह्यते, किंतुपूनिग्रहणेनेह आधाकर्माचविशुद्धकोटिरुपात्ता, तस्याश्च आममनगरूव-आममलकरूप-त्रि० । अपकशराषतुल्ये , गुरुतरन्धात्प्राधान्यख्यापनार्थ पुनरुपादानं, ततश्चायमर्थ:- तं । आममल्लगरूवे, निव्वयं वह सरीरे " ॥ ३२ ॥ गन्धग्रहणेन-प्रात्मकर्म १ श्रौद्देशिकत्रिकं २ पूतिकर्म३ मि- ११६ (श्रादितः गाथाङ्कः) ॥ (सूत्र-२%+)| अपकशरावतुल्य श्रजातं ४ बादरप्रभृतिका ५ अध्यवपूरक ६ चैते पडद्ग- शरीरे निवेदं वैराग्यं व्रजत । तं० । मदोषा अविशुद्धकोट्यन्तर्गना गृहीताः, शेषास्त्रयो विशु- आममहुर-आममधुर-न०। प्राममिव मधुरमाममधुरम् । बकोट्यन्तभूता श्रामग्रहणेनोपात्ता द्रव्या इति. सर्व ईषन्मधुरे फले, " आमे णाम एगे आममहुरे " ( सूत्रशब्दस्य च प्रकारकास्न्याभिधायकत्वाद्ययेन केनचि २५३ + ) । स्था०४ ठा०१ उ०। प्रकारण आमम्-अपरिशुद्ध पूतिर्वा भवति तत्सर्व सप आमय-आमय-पुं० । श्राम-रोगं यात्यनेन करणे घमर्थे कः । रिक्षया झान्वा प्रत्याख्यानपरिक्षया निरामगन्धः निर्ग श्रा। मीत्र हिंसायाम् । करणे अच् था। गेगे. अनामयः तावामगन्धौ यस्मात् स तथा परिव्रजेत्-मोक्षमार्गे ज्ञान निरामयः । “ समौ हि शिष्टरानाती, वस्यन्तायामयः स दर्शनचारित्राख्ये परिः-समन्ताद् गच्छेत् । संयमानुष्ठान च" माघः । वाच । व्य०१ उ० २५८ गाथाटी। सम्यगनुपालयेदिति यावत् । प्राचा०१ श्रु०२ १०५ उ०। मामयकरणी-श्रामयकरणी-स्त्री० । विद्याभेद, सूत्र. २ श्रामगोरस-पामगोरस-पुं० । श्रामं च तद् गोरसं च धुं०२ १०३० सूत्रटी। प्रामगोरसम् । कचदुग्धदधितकादिके, ध. २ अधि० ३४ | आमयभाव-प्रामयभाव-पुं० । रोगोत्पसी, वश । " निलोकटी। रामयाऽऽमयभावा" ॥ २२६ x ॥ निरामयामयभाचात् निआमाण प्रामार्जन-न० । सकत् कद्दमादिशोधने, प्राचा रामयस्य-नीरोगस्याऽऽमयभावाद्रोगोत्पतेः उपलक्षण - "णो आमज्जेज या" (सत्र-२६+)। नैव सकृदामृज्यानाऽपि | तत्साऽमयनिरामयभावस्य तथा चर्य वक्तार उपलभ्यन्तेपुनः पुनः प्रमृज्यात् कर्दमादि शोधयेदित्यर्थः। प्राचा०२ पूर्व निरामयोऽहमासं, सम्पति साऽऽमया जातः । दशक श्रु०१ चू०१ ० ५उ० । “ आमज्जेज वा पमजेज्ज | ४०। घा श्रामजंतं वा पमज्जंतं वा साइजह" (सूत्र-१६ +)। श्रामयि-श्रामयिन--त्रि० । रोगिणि, व्य० । "नाउं तिनि चू. १७ उ० । " प्रामजावेज्ज वा पमज्जावेज्ज चा विहामीण ॥२५% + ॥ शान्मा त्रिविधा वातादिजन्य - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) अभिधानराजेन्द्रः । ग्रामयि रोगयोगकारा आनोरोगः स येषां विद्यते श्रमयिनः । उप० १ उ० । 14 नाउं तिविद्दामद्दणं " ॥ १२३ ॥ 'आमति श्रामती-रोगतो, आमती जस्स अस्थि सो आमती मसुरो भवति नि० ० २० ४० जनपदस्ये वनामस्या अमरकुंड आमरकुण्ड-१० नगरे ती० । " 'आमरकुण्डनगरे तेलजनपद्मिभूष " 1 66 " ने रुचिरे ॥ गिरिशिखरभुवनमध्य स्थिता जयति पनि देवी ॥ १ ॥ ” ती० ५३ कल्प | ( अस्मिन् विषये बहुवृत्तम् मिशब्दे भागे बचते आमरणंत- आमरणान्त-अप मृत्युलक्षणावसानं यायदित्यर्थे पञ्चा" आमरतमजस्वं संज परिपाल विहिणा " ॥ ४६ ॥ श्रमरणान्तम्- मृत्युलक्षणावसानं यावद् । पडचा० ७ विव० । अस्स पायमूलं श्रमरतं न मोत्वं" ॥१३५७॥ एतस्य गुरोः पात्रमूलं समीपमा मरणानमो सर्वकालम् पं० प० आमरणंतदोस-आमरणान्तदोष - पुं०| मरणमेवान्तो मरणामतः आमरणान्तात्-धामरणान्तमसंजाताऽनुनापस्य कालसौरिकार या हिंसादिप्रवृत्तिः सैव दोष आमरणान्तदोषः । रौद्रध्यानस्य लक्षणमेदे, भ० । आमरणं तदो से ( सूत्र - ८०३+) । भ० २५ ८० ७ उ० । स्था० । ग०१ श्र० । "नानाविहारोखा ||२६|| " महदायतोऽपि स्वतः महदायतेऽपि च परे आमरणादनुताप कालसौरिक अपितु समानुपापर इत्यार दोष इति । श्रव० १ अ० । आमरणम्नदोसो जथा पञ्चतराई: परिगिलायमाग्रस्त षि भगतपचास थोषो विपच्छाताओ न भवति, अवि मरणकालेऽवि जस्स कामसोयरियसेवा उपरतो भवति, एस झामरखन्तदोसो ० ० १ ० १२२ गाधाि आमरिस- आमर्श - ० - रुप पत्र सम्प स्पर्शे, ल्युट् । श्रमर्शनमप्यत्र | न० । वाच० । आमर्ष पुं०। आममामर्थः संस्पर्शने, विशे० ७७६ गा थाटी० । आ० म० । र्श- तप्त-वज्रे वा ॥ ८ । २ । १०५ ॥ इति प्राकृतसूत्रे पंप स्पान्या इकारो वा । प्रा० । श्र मृर घञ् । कोपे, असहने, सम्यग् विवेके च । वाच० । श्यामलईक्रीडा-आमलकीक्रीडा-स्त्री० ! क्रीडांभेदे, तथा च भगवतो महावीरस्य वर्णकमधिकृत्य - समानवयोभिः कुमारैः सह क्रीडां कुर्वाणः श्रामलकी क्रीडानिमित्तं पुराद् त्र हेजगाम, तत्र च कुमारा वृक्षारोहणादिकारेण क्रीडन्ति स्म कल्प० १ अधि०५ क्षण । ( आमलकी क्रीडाकरणसमये देवलोके शुक्रकृत भगवत्वा कश्चित् मिध्यादृष्टिदेव भगवानार्थमिहागत इतर मार्ग शब्दे षष्ठे १०५ सूत्र विवरणे वक्ष्यते ) श्रामलकप्पा - श्रामलकल्पा- स्त्री० । स्वनामख्यातायां नगयम् । विशे० " आमलका यी मित्तरी र पिउडाई " ||२३३४|| श्रामलकल्पायां नगय्यां गतः, तत्र त्र नायकेनडादिना सत्यादि । आमाऽभिभूय दानेन प्रतिबोधित इत्यर्थः । विशे० प्रा० क० आ० चू० । आ० म०। श्राच० | उत्त० । रा० । “ इहेब जंबूदीचे दीवे भारहे वासे आमलकप्पानामं नयरी होत्था" । (सूत्र - १४= +)। शा०२ थु० १ श्र० । आमल चामल पुं० बहुवीज दे "मला वा २०, " (सूत्र - ४३x ) । आचा०२ श्रु० १ चू० १ ० ७ ० आमलग-धामरक पुं० । सामस्त्येन माथ्यम्, स्था० १० डा० (सूत्र- ७५५५ चिपकाया नवमेऽध्ययने च । न० | स्था० । तद्वक्तव्यता यथा सहमुद्दाहे आमलए (सूत्र ७५५+ ) 'आमलर रघुरामका सामस्त्येन मारि यमर्थवद्धं नवनगरे सिंहसे राजा श्यामाभिधानदेष्यामनुरस्तद्वचनादेये फोनानि प शतानि देवानां ता मिमारविषूणि ज्ञात्वा कुपितः सन् सम्मानृणामेकोनपञ्चशतान्युपनिमन्त्रय महत्यगारे यासं दया मादिभिः सम्पृश्य विद्यानि देवीकानि सप रिवाराणि सर्वतो द्वारबन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेन दग्धवांस्ततोऽसौ राजा मृत्याच पष्ठयां गत्वा रोहीतके नगरे दत्तसार्थवाहस्य द्विता देवदत्ताभिधानाऽभवत्साच पु ध्वनन्दिना राज्ञा परिणीता, स च मातुर्भक्लिपरतया तकृत्यानि कुर्वासामास तथा च भोगविघ्नकारिसीति तन्मातुलश्लोद्डस्पापापात्सहस व्यधायि । राहा वासी विविधताविविम्य विनाशितेति विश्रुते देवदत्ताभिधानं नवममिति ६ । स्था० १० ठा० ३ उ० । - 66 19 मामलफ जि० श्रामन् किन् श्री गौरा० की। बहुबीज के वृक्षभेदे, जी० १ प्रति० २० सूत्र० । प्रज्ञा० । ० प्र० । श्राचा० । स्थान | तत्थ णं श्रामलगा पक्खिता ( सूत्र - १४३ × ) | अनु० । ( धात्रीवृक्षे ) । वाच० । धात्रीफले च । न० | श्रामलगाई दगाहरणं च थासूत्र १०x ) । श्रामलकानि-धात्रीफलानि । सूत्र० १ श्रु० ४ ० २ उ० । Af आमलगमहुर आमलकमधुर भि० ग्रामलकमिव मधुरं यद्यन्यत् आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुरम् । ईषन्मघुरे, स्था० ४ ठा० ३ उ २३० सूत्रुटी० । आमलगमहुरफ़लसमाण - आगलक मधुरफलसमान--पुं०। ईपदुपशमादिगुणलक्षणमाधुर्य्यवति पुरुषभेदे, स्था० ४ ठा० ३ ३० २३० सूत्रटी० । । आमलगरस- आामलकरस पुं० धात्रीफलरसे, "शिशिरे चामलकरसः सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० ६३ गाथादी० । । आमलकर ( सूत्र - २६ + ) । आमलगर सिय-आमलकर सित- भ० बिपा० । “ श्रमलगरसियाणि य श्रामलकरससंसृष्टानीति । विषा० १० ८ ० । आमाऽभिभूय आमाऽभिभूतथि अपकरसेनाभिभूते विपा० । " श्रमाभिभूवगता" (+) आमेन। अपकरसन विपा० । । | 39 33 ( गा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिस आमिस आमिष न० अभिषति स्नेहम् अम-टिपदीर्घश्व वा मांसे स्नेहातिरेकात्तस्य तथात्वम् । वाच० । "केहि विदु३ पक्षिविशेपेरम्येभिर्मत्स्यबन्धादिभिः । 35 । " सूत्र० । श्राहारे, सू० १ ० १ ० ३ उ० हारे "सकुला थियफुल्लाऽऽमिस" ॥ २६ ॥ पञ्चा० ६ विष० । मांसादिके, स्था ४ ४० ४ उ० ३८५ सूत्रटी० । शा० । अशनादिके च भाग्यवस्तुनि घ० २०६१ सोडी० । " जं इस पुचितं आणि मिरवाहि । श्रमिसपासनिबद्धो, काहिर कज्जं भकज्जं वा ॥ १ ॥ सूत्र० १ श्रु० ४ अ० १ उ०४ गाथाटी० । उत्कोचे, सुन्दररूपादी, लोमे लोभनीय विषये च वाच० श्रमिष्यदेवी धनवान्यादिके च । उत्त० । किंवा उज्जुकडा निरामिसा ||३१+|| ” निष्क्रान्ता श्रमिपात्-विषयादिपदार्थात् इति निरामिया विषयादयः पदार्थ हि विषया जीवानां हेतुत्वादामिषोपमाः एतस्माददं निर्विषया सती । " उत्त० १४ अ० | सामिसं कुललं दिस्स, वज्झमाणं निरामिसं । आमि समुज्झिता, विहरिस्सामो निरामिसा ||४७|| २ राजन अहं सर्वम् शामिषम् अभिष्धनधान्या विकम् उज्झित्वा त्यक्त्वा निरामिषः त्यक्तसङ्गा सती - प्रतिबद्धविहारतया विहरिष्यामि किं कृत्वा साऽऽमित्रम् ( श्रामिषेण पिशितरूपेण )| उत्त० पाई। श्रभिषम् श्रभिधनधान्यादि उ०पा० १४ ० ४७ माथाडी आमिषसहितं फुललं युद्धम् अपरं पक्षियं वा परेरिति अवैध्यमाने पीने रष्ट्रा सामिपः पक्षी हि श्रा मिषाद्दारिपक्षिभिः पीड्यते । अथ वा-साऽऽमित्रम् - सस्पृहं, भोजनाचे लुग्ध, फुललं पियमानं पीपानं पावसामध्ये (३६६) अभिधानराजेन्द्रः । 66 " तोहि 5 दिग्या पाशादिना वच्यन्ते अभिवाहारी मदर्शनेनेय लोभनिय बध्यते सह आमिपरयास्यादलीन वर्तते इति साऽऽमित्तं खाऽऽमियम् उत्त० १४ अ० जम्बीरफले व वाय० पूजादी निवेदनीयेऽक्षतादौ च । दर्श० । पुप्फाऽऽमिस " ॥३७॥ पुष्पा मिषस्तुतिभेदात् विधा पूजा अम्ि खण्डाऽक्षतनारङ्गनालिकेर बीजपूरकफलविमलगलितज दधिघृताऽनेकविधि नैवेद्य स्वभावम् । दर्श०२ तस्व । " एत्तो चि फुल्लामिस थुइपडिपत्तिपूयमज्झमि ॥ २६४ ॥ इत एव संपूर्णाऽऽज्ञाकरणस्य भावसाधुसाध्यत्वादेव, 'फुल्लामिसथुइ पडिवत्तिपूर्णमज्झमि 'त्ति - पुष्पाणि – जात्यादिकुसुमानि, उपलक्षयाइखरनादीनामिवास्यमाषी यिः - मिषम् आहारः इहापि तथैव फलादिसकलवेयरप्रहो दृश्यः । पञ्चा० ६ विष० । मिसत्वि (न्) आमिषार्थिन् त्रि० आमिषम्-मांसा दिक अर्थयतः प्रार्थयतः मांसादियातिरि०१ ध्रु० ४ ० ५१ सूत्रटी० । प्रामिसप्पिय-आमिषप्रिय त्रि० । कङ्कपक्षिणि, मांसाभि आमेल लाषिणि च । वाच० । वल्लभमांसादिके, ज्ञा० १ ० ४ श्र० ५१ सूत्रटी० । प्रामिसलील अमिलोल- श्र० ग्रामपलम्पटे ०१ श्रु० ४ ० ५१ सूत्रटी० । आमिसाऽऽवन आमिषाऽऽवर्त पुं० श्रामिषे-मांसादि तद। धमायतः शकुनिकादीनामामिचावर्तः प्रा ठा० ४ उ० ३८५ सूत्रटी० । 64 आमिसाssहार - अमिषाऽऽहार- त्रि०। मांसादिभोजिनि, शा० १ ० ४ श्र० ५१ सूत्रटी० । आमुट्ठ--आमृष्ट-- त्रि० । आ-मृष्-त । श्रधर्षिते, आमर्द्दित च । आस्तिकरुचः खजो निरस्ताः " माघः । श्र- मृज-क्ल । परिमार्जिते, विशोधिते च । श्रामृश-क्ल । संस्पृष्टे च । वाच० | विपर्यासीकृते च । श्रोघ० । "हेट्ठारिया श्रम (मु) डुं " ( २६७ + भाध्यगा० ) । श्रधस्तादु च यत् ' आमुट्ठ' विपयासीकृतं भुङ्क्ते. ओघ० । “तोऽत् ॥ ८ । १ । १२६ ॥ ऋतः अस्वम् । श्रामृष्टम् । श्रमङ्कं । प्रा० | मुम्हि मुष्मिक त्रि० । अमुष्मिन् - परलोके भवः ठक दुपरि सप्तम्याः अलुक् टिलोपः । वाच० । अमुत्र भवः श्रमुकिः द्वितीयेीचारमेद परलोकसम्वन्धिनि स्वर्गसुखादी ० ३ ०१४ परभयविपाकमहानामुनिकोऽपि च ॥ १७ ॥ शके, द्वा० । C 39 आमुकपि परमवेदिकोऽपि द्वा०७० शास्त्रमासन्नभव्यस्य, मानमामुष्मिके विधौ " ॥ २० + ॥ आमुक विधी पालीकिके कर्मणि । शाखं मानम् । धर्माधर्मरतीयत्वेन पायस्ययोधने प्रमाणान्तरा 66 सामर्थ्यात् द्वा० १४० अमृत आमृशत् त्रि० सहदीषद् या स्पृशति दश - ४ श्र० ११ सूत्री० । " सुयं मे उसंतें " ( सूत्र - १ ) | आमृशता भगवत्पादारविन्दं करयुगलादिना स्पृशता । आचा० १ श्रु० १ ० १ उ० । स्था० । - - " 34 66 आ आमुसमागममृशत् त्रि० ईषत् स्पृशति भ० श्रामुसमाणे वा संमुसमा वा ( सूत्र - ३२५+ )। आमृशन: ईषत्स्पृशन्नित्यर्थः । भ० श० ३ ३० आमूल - आमूल न० । श्रभिव्याप्या कारणे, पो० । मूल परमे सर्वस्य हि योगमार्गस्य " ॥ १६ ॥ आमूलम्-अभिव्याप्त्या कारणम् । षो० १३ विय० । आमेड (गा ) घर - आमेष्टका गृह न० । अपक्केटका गृहे, व्य० । "पर पके मेयर ||५५५५॥ आमा कालाकितं दम्-आम् इय० ४ उ० । गृहस्यघरोऽपतौ || २ | १४४॥ इति घर । प्रा० आमेल (आवे) प्रापीड पुं० [--शेषरके, शा० १ ० १६० १२४ सूत्रटी० । पत्पीयूषापीडविभीतक कीदृशेदशे " ॥ ८ । १ । १०५ ॥ इति हैमप्रा[कृतकारस्यैत्यम् प्रा० " नीपापीडे मो वा 66 35 || ८ | १ | २३४ ॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेण पस्य वा मः । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स " ( ३२०) भामेल अभिधामराजेन्द्रः। आमेलो । प्रा०। "डोलः" ।। १ । २०२॥ इति हैम-| सरजस्कामर्षे सति, सह पृथिव्याविरजसा यस्तु स्पृएं प्राकृतसूत्रेण स्परात्परस्यासंयुक्तस्यानादर्डस्य प्रायो लः । तत्संस्पर्श इत्यर्थः, श्राव०४०। पामेलो । आवेडो । प्रा० । शिखामाश्ये शिरोभूषणे, आमोष-प्रामुष्णाति-श्रा-मुष-पचायच् । सम्यगपहारके वाय० । " वणमालाऽऽमेलमउलकुंडलसच्छंदविउव्यिया- चौरादौ, प्रामुष्-भावे घम् । अपहरणे, वाचा भरणबारुभूसणधरा" (सत्र-४७४)। 'आमेल' त्ति आमोसग-आमोषक-पुं०। प्रामुष्णातीस्यामोषकः । चौरे, पापीडशब्दस्य प्राकृतलक्षणवशत प्रापीड:-शेखरकः । प्रमा० २ पद । जी० । “ प्रावितिलयामेलाणं " स्था०५ ठा०२७०४१७ सूत्रटी।"श्रामोसगा सपिडिया (सूत्र- ४)। प्राविस्तिलक श्रामेलश्व शेखरको यका- गच्छेजा" (सूत्र-१३०४)। श्रामोषकाः-स्तेनाः । श्राचा०२ भिस्ता प्रावितिलकाऽऽमेलास्तासाम् । रा०। थूक चू०३ १०३ उ० । “तत्थ खलु विहरंसि बहवे प्रामो सगा बत्थपडियाए संपिडिया गच्छेज्जा" (सूत्र-१५१४)। आमेलग-आपीडक-पुं०। शेखरके, भ० । “णीलुप्पलक श्रामोषका:-चौराः। प्राचा०२ श्रृ०१७०५ ०२ उ०। यामेलपहि" (सूत्र-३८०४)| आमेल ' ति-प्रापीडः आमोसहि-आमशी(पौषधि-पुं०। पामर्शो हि-हस्तादिना शेखरः। भ. श० ३३ उ०मा० . " आमेलगो " स्पर्शः औषधिर्यस्य स मामशीपधिः । ग०२ अधि० ७२ । सूत्र-१२६ + )। आमेलकः-श्रापीडः, शेखरक इत्यर्थः, जी०३ प्रति०१ उ० । “आमेलग" ( सूत्र-२४ x ) | माथाटी। प्रवश्रामर्षणमामर्षः-संस्पर्शनमित्यर्थः । स आपीड:-शेखर पय स्तनप्रस्तायाश्चम्युकस्तत्प्रधानी प्रा पौषधिर्यस्यासावामावधिः कराविसंस्पर्शमात्रादेव व्या. मेलको वा परस्परमीषत्संबद्धौ । शा० १ श्रु० १० । ध्यपनयनसमर्थः, लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचारात्साधुरेवागृहबाहिनिस्सृतकाष्ठे व आपीडकमात्रे, त्रियास। मर्षीपधिरित्यर्थः । विशे० ७७६ गाथाटी० । मा० म० । लब्धिभदे, पा० १ सूत्र । औ०। यन्प्रभावात्स्वहस्तपादापामेलक-त्रि०। परस्परमीपत्सम्बद्धे, शा० १ श्रु०१० द्ययययपरामर्शमात्रेणैवात्मनः, परस्य वा सर्वेऽपि रोगाः २४ सूत्रटी। प्रणश्यन्ति सामीपधिः। प्रव०२७० द्वार १५०६ गाथा । मामोडक-पुं० । पुष्पोम्मिश्रे बालबन्धविशेष, पामोडकः- आमोसहिणाम रोगाभिभूतं अत्ताणं परं वा जये वितिपुष्पोन्मिश्री बालबन्धविशेषः। उत्त० ३ ० १५२ गा गिच्छामि ति संचितऊण आसुरति तं सक्खणा चव ववथाटी। गयरोगातंक करेति त्ति । सा य आमोसहिलबी। सरीरेआमोक्ख-आमोच-पुं०। आमुच्यतेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वा- गदेसे वा सव्वसरीरे वा समुपजति सि एवमेसा आआमोक्षः। परित्यागे, प्राचा० १ श्रु० १ ० १ उ. ७ मासहि सि भरणति । श्रा० चू०१०। गाथा। अशेषकर्मक्षये, सूत्र० । “श्रामोक्खाए परिब्व- आमोसहिपत्त-श्रामर्शी (ौं ) पधिप्राप्त-त्रि०। प्रामर्शःएज्जा" (सूत्र-२२४) । आमोक्षाय-अशेषकर्म क्षयप्राप्ति संस्पर्शः. स एवौषधिः-सर्वरोगापहारित्वात् तपश्चरणयायत् । सूत्र०१शु०३१०३ उ०। अशेषकर्मक्षयसाधके प्रमाबो लब्धिविशेषस्ता प्राप्ता येते तथा । अामी (पो) प्राचारे, प्राचा० । तथा चाचारैकाथिकानधिकृत्य-श्रा- षधिलब्धिविशेषमाप्रे, प्रश्न । “श्रामोसहिपत्तेहिं" (सत्रमोक्षस्य निक्षेपो नामादिस्तत्र व्यतिरिक्तो निगडादेः भा- २२४ ) प्रश्न०१ संघ द्वार। वामोक्षः कर्माएकोष्टनमशेषमेतत् साधकश्वायमेवाचार: आय-आय-पुं० । आगच्छतीत्यायः । द्रव्यादेाभे, सूत्र इति । प्राचा० १ श्रु० १ ० १ उ० ७ गाथाटी० । (अस्यैकार्थिकानि 'प्रायारंग' शब्दे ऽस्मिन्नव भागे ऽग्रे १ श्रु०१०अ०१० गाथाटी। उत्त०। श्रा० म०। ज्ञा० । श्रानु० । प्रव०।दश। विशे० धनागमे, वाम०।" प्राद्रव्यानि) यस्स हेउं पगरेर संग" ॥ १६+ ॥ आयस्स-लाभस्य श्रामोग-आमोक-पुं०। श्रा-मुच-घ-परिधाने, ल्युट श्रा- हेतोः-कारणात् । सूत्र०१ श्रु०६०। (प्रायं दृष्टा कार्य मोचनमध्यत्र । न । वाच । कचवरपुडे, न०।"प्रा- कुर्यादिति । (“गच्छसारणा' शम्दे तृतीयभागे बचपने) मोयाणि वा (सूत्र-१६६+) श्रामोकानि-कचबरपुआः । श्राय:-प्राप्तिाभ इत्यनान्तरम् । अनु०१५४ सूत्रटी । प्राचा०१७०७०२ उ०। नि.चू० । “गच्छपरिरक्षणट्ठा, अणागतं आउवायकुसअामोडग ( लय )-आमोडक-न। पासोधभेदे, "मुच्छि लेणं " ॥८६४४ ॥ श्रायो-नाम पार्श्वस्थादेः पार्थाभि प्रत्यूहसंयमपालनादिको लाभः । ०३ उ० । “दानादिकं च जंताणं आमोडगाणं" प्रा० ० १ ०।। लाभोचितमेव कार्यम्" " लाहाचियदाणे, लाहोचियभोग, आमोस-आमर्श-पुं० । अामर्शनमामर्शः । परामर्श, ज्ञा०१ लाहोचियपरिवार, लाहोवियतिहिकर सिपा" (सूत्र-२+)। श्रु०८ अ०७६ सूत्रटी० । संस्पर्श, प्रश्न १ सय द्वार २२ ( अस्य सूत्रांशस्य व्याख्या ' धम्म' शम्दे चतुर्थभाग सूत्र०। प्रव.ग ६८२ पृष्ठ वक्ष्यते) उक्त चात्र लौकिक:-"पादमायानिधि भामर्ष- पामर्षणमामर्षः । संस्पर्श, विश० ७७६ गाथा- कुर्या-त्पादं वित्ताय वर्धयत् । धर्मोपभोगयोः पाद, पाद टीमा०म०। अप्रमृज्य करेण स्पर्शने, जाग्रतोऽतिचा- | भर्तव्यपोषणे" ॥१॥ तथाऽन्यैरप्युक्तम्-"प्रायाद निरंभरे बापाव।"श्रामोस ससरक्खामोसे" अविधिनव युजीत, धर्म यद्वाऽधिकं ततः । शेषेण शेष कुर्वीत, श्रामर्षणमामा अप्रमृज्य करेण स्पर्शनमित्यर्थः । तस्मिन् । यतस्तत्तुन्छ प्रैहिकम् ॥१॥ " इत्यादि। पं० सू । श्रा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राय ( ३२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । गच्छतीत्थायो-- द्रव्यादे लभस्तन्निमित्तापादितेऽष्टप्रकारक कर्मलाभे च । " आयं न कुजा इह जीविश्रट्ठी " ॥ ११+ ॥ आगच्छतीत्यायो द्रव्यादेर्लभः तनिमित्तापादितोऽष्कारकर्मलाभः तमिहास्मिन् संसारे असंयमजीवितार्थी भोगप्रधानजीवितार्थीत्यर्थः । यदि वा श्राजीविकाभयात् द्रव्यसंचयं न कुर्यात् । सूत्र० १ ० १० प्र० । श्रवम्- कर्माश्रचखक्षं न कुर्य्याद् । सूत्र० १ ० १० श्र० ३ गाथाटी० । उपादाने, हेतौ का । विशे० १२२६ गाथाटी० । आयो-लाभः। प्राप्तिर्ज्ञानादीनामस्मादित्यायः । विशे० १६१ गाघाटी० । ओषनिष्पनिक्षेत्रेण सामान्यतः अङ्गाध्ययनो देशकादिके थुती, अनु० १५४ सूत्रटी० । तथा च नाणस्स दंसणस्स वि, चरणस्स य जेण आगमो होइ । सो होइ भावणाउ, आओ लाहो चि एगऽड्डा ॥ ३२ ॥ ज्ञानस्य-मत्यादेः, दर्शनस्य चोपशमिकादेः, चरणस्य चसामायिकादेर्येन हेतुभूतेनागमो भवति प्राप्तिर्भवति भवति भावाऽऽयः, आयो-लाभ इति निर्दिष्टः । अध्ययनेन व हेतुभूतेन ज्ञानाद्यागमो भवतीति गाथार्थः । दश०९ अ० । श्रोघनिष्पद्यनिक्षेपमधिकृत्य - ओहो जं सामरणं. सुयाऽभिहाणं चउब्विहं तं च । अभय अज्झीणं, आयज्झयणा य पत्तेयं ॥६५८ ॥ इह यच्छ्रुतस्य - जिनवचनरूपस्य सामान्यमङ्काध्ययनादेशकादिकं नाम तद् श्रोष उच्यते, सामान्यं शास्त्रनामेत्यर्थः । विशे० । अथाऽऽयनिक्षेपं कर्तुमाह से किं तं आए ?, आए चउनि पण्णत्ते, तं जहानामाऽऽए १, ठवखाऽऽए. २, दव्वाऽऽए ३, भावाऽऽए ४, नामठवणाश्रो पुत्रं भणिमाम्रो । 'आये' त्यादि आयः - प्राप्तिर्लाभ - इत्यनर्थान्तरम् अस्यापि नामादिभेदभिन्नस्य विचारः सूत्रसिद्ध पत्र यावत् । से किं तं दब्वाऽऽए १, दब्वाऽऽए दुब्बिहे पम्पते, तं जहा- आगमओ अ, नो श्रागमओ अ । म किं तं श्रागम दव्वाऽऽए ? श्रागमश्र दब्वाऽऽए जस्म णं प्रायति-पदं सिखितं ठितं जितं मितं परिजितं ०जाब कम्हा १, अनुवभोगो दम्बमिति कट्टु, नेगमस्स गं जावइश्रा अणुवत्ता अगमतो तावइया ते दव्वाऽऽया, ०जात्र सेत्तं श्रागमओ दव्वाए। से किं तं नो भागमओ दबाए, नागमओ दव्वाए तिविहे पाते, तं जहा - जाणगमरीरदव्वा, भविश्रमरीरदव्याए, जागगसरीरभविश्रमirat दव्वाए । से किं तं जाणगसरीरदव्वाए १ जासगसरीरदव्वाए आयपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुचचाविश्रचतदेहं जहा दव्वज्भगणेः ० जाव से । ८२ प्राय तं जाणगसरीरदब्वाए । से किं तं भविश्रशरीरदब्बाए ? भविश्वशरीरदब्बाए जे जीवे जोगीजम्मणक्खिते जहा दव्वज्य० जाव सेतं भविष्यसरीरदब्वाए । से किं तं जाणगसरीरभविश्वसरीरवइरिसे दव्बाए १ जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -लोइए. १, कुप्पावयखिए २, लोगुत्तरिए ३ । से किं तं लोइए ? लोइए तिविहे पष्मते, तं जहा सचित्ते, अचिते, मीसए से किं तं सचित्ते १, सचिने तिविहे पष्पते । तं जहादुपयाणं, चउप्पयासं, अपयाणं । दुपयाणं दासाणं, दासीगं । चउप्पया - आसाणं, इत्थीयं । श्रपयाणं श्रवाणं, अंबाडगाणं, आए. से वं सचिते । से किं तं भचिते १ अचित्ते अणेगविहे पाते. तं जहा - सुवम्परययमणिमोति - श्रसंख सिलप्पवालरय गाणं आए से तं श्रचित्ते । से किं तं मीसए ?, मीस अणेगविहे पष्पसे. तं जहा - दासाणं, दासी, आसाणं, इत्थीयं समाभरि आउञ्जालंकि चाणं आए । से तं मीमए । से तं लोइए || से किं तं कुप्पावयfe १, कुप्पावणिए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- सचित्ते, अचित्ते, मीसए । तिमिवि जहा लोइए० जाव से तं मी / से तं कुप्पावथिए । से किं तं लोगुत्तरिए १, लोगुरिए तिचि पण्णत्ते, तं जहा सचित्ते, अचिंत, मीसए । से किं तं सचिने ?, सचित्ते दुविहे परणते, तं जहा - मीसा, सिस्मणिश्राणं । सेतं सचित्ते । सेकिं अचि १, अचिते अगविहे पण्णत्ते, तं जहा- पडिग्ग हाणं, वत्थाणं, कंबलाणं, पायपुच्छणाणं आए । सेत्तं चिते । से किं तं मीसए १, मसिए तिविहे पण ते तं जहा - सिस्साणं, सिस्सणिश्राणं, सभंडोवगरणा आए । सेत्तं मीसए । सेतं लोगुत्तरिए । सेतं जाखगसरीरभवि - असरीरवइरिते दब्वाए। से तं नो आगमओ दव्वाए। सेतं दबाए । 'से किं तं अत्रिते ? सुवसे' स्यादि लौकिको चितस्य सुवर्णादेरायो मन्तव्यः, तत्र सुवर्णादीनि प्रतीतानि 'सिल' ति-शिला मुकाशलराजपट्टादीनां रक्तवस्त्राणि रत्नानि - पद्मरागरस्नानि संतसावरजस्स' ति सद्-विद्यमानं स्वापतेयं द्रव्यं तस्याऽऽयः, 'समाभरिया उज्जालंकियां' ति आभरितानां सुवर्णसंकलिकादिभूषितानामातो:- झल्ल प्रमुखरलंकृतानाम् । से किं तं भावाsse १, भावाऽऽए दुविहे पत्ते, तं जहाश्रागमश्रो अ, नो श्रागमश्रो अ । से किं तं श्रागमश्र भावाse ?, आगमओ भावाऽऽए जागर उवउत्ते, मेतं आगमश्र भावाए । से किं तं नोआगओ भावाए १, नो श्रागमश्रो भावाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - पसत्थे म For Private Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) प्राय अभिधानराजेन्द्रः। पायंगुल अपसत्थे अ। से किं तं पसत्थे ?, पसत्थे तिविहे पएणते, निफलमयसा-हणं च निउणं मुण्यव्वं ॥४२४॥" प्रायतौतं जहा-णाणाऽऽए,दसणाऽऽए,चरित्ताऽऽए, सेत्तं पसन्थे । आगामिकाले; परभवे इत्यर्थः । फलं साध्यमस्थत्यायति फलम् । पाठान्तरेण - आयतफलं-मोक्षफलम् । पश्चा० १२ से किं तं अपसत्थे, अपसत्थे चउबिहे पण्णते, तं जहा विव०। कोहाप, माणाए, मायाए, लोभाए । से तं अप्पसत्थे । से प्रायविराहग-प्रायतिविराधक-त्रि० । परलोकपीडाकरे तं णो आगमओ भावाए। सेत्तं भावाए। सेत्तं आए। पं० सू० । “आयइविराहगं समारंभ न चितिज्जा" (सूत्र(सूत्र-२५४+) अनु० । +) ॥ प्रायतिविराधकं-परपीडाकरं समारम्भम्-अलज्योतिषोक्ने लग्नायधिक राश्यवधिके च एकादशस्थाने, रकर्मादिरूपं तथा न चिन्तयेद् । पं० सू०। । लग्नावधिकैकादशस्थानस्याऽऽयत्वं च। तत्स्थामे प्रायस्य प्रायइसंपगासण-प्रायतिसम्प्रकाशन-न० । चतुर्थे सामभेदे, चिन्तनीयत्वात् । वनितागारपालके च । कर्मणि अच्, घम् । स्था० । चतुर्थ सामभेदमाधिकृत्य-"प्रायत्याः सम्प्रकाशवा । प्रामादितः स्वामिग्राह्यभागे, लभ्ये धनादौ, "तदस्मिन् नम्" अस्मिन्नेवळूते इदमावयोर्भविष्यतीत्याशायोजनम्वृद्धधायलाभशुल्कापदादीयते" पा० । ग्रामेषु स्वामिग्राह्यो प्रायतिसम्प्रकाशनम् । स्था० ३ ठा० ३ उ० १८५ सूत्रटी। भागः प्रायः । सि. कौ०। याच० । कृष्माण्ड भेद, प्रहा। प्रायंगुल-पारमाकुल-न०प्रात्मनोऽलमात्माकुलम् । प्रा. "पाए, काए, कुण" ॥४०+ ॥ (सूत्र-२३४) प्रशा०१ स्माइलप्रमाणभेदे, प्रव०। ('मङ्गल' शम्ने प्रथमभागे स्वपद । भावा०। (अत्र विस्तरः 'कुहणा' शब्दे तृतीयभागे स्वमुक्तम्) वक्ष्यते)। जं पुण प्रायंगुलमे-रिसेण तं भासिनं विहिणा ॥१४०७॥ भाज-त्रि०। श्राज्यतेऽनेन । श्रा अज घमथै क । घृते, ज- यत्पुनरात्माऽलं पूर्वमुद्दिष्टं तदीडशेन वक्ष्यमाणस्वरूपेण टा। अजस्येदम् अण् । छागमांसादी, त्रि० । अलंकृतं विधिना-प्रकारेण भाषित-प्रतिपादितं तीर्थकृगणधरैः । कुमारं कुशलीकृतशिरसमहतेन बाससा संवीतमणयेन वा तमेव विधिमाहअजिनेन ब्राह्मण, रौरवेण क्षत्रियम् , अाजन वैश्यम् । जे जम्मि जुगे पुरिसा, अट्ठसयंगुलमूसिमा हुंति । आश्व गृ० । " गव्यमाजं तथा चौष्ट्र-माविक माहिषं च तेसिं जं जं निम-गुलमायंगुलमेत्थ तं होइ ।।१४०८।। यत् । अश्वायाश्चैव नार्याश्व, करेणूनां च यत्पयः" ॥२॥ सुश्रुतः । अज भावे घम् । न यीभावः । विक्षपे, आजानेय । ये पुरुषाश्चक्रवर्तिवासुदेवादयो यस्मिन् युगे सुषमसुख मादिकाले निजाऽङ्गलेनैवाऽष्टोत्तरं शतमजुग्लानामुच्छ्रिताःवाच॥ उच्चा भवन्ति तेषां च स्वकीया अलेनाऽष्टोत्तराऽलशतोप्रायइ (ई)-आयति (ती)-स्त्री० । श्रा-य-ति । वा डीप् । अागामिकाले, "आयह जणगो" ॥+ ॥ पञ्चा० १६ थानां पुरुषाणां यन्निजम्-श्रात्मीयमङ्गलं तत्पुनरात्माऽ अलं भवति । इह च ये यस्मिन् काले प्रमाणयुक्ताः पुरुषा विव० । वृ० । व्य० । “से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई भवन्ति, तेषां सम्बन्धी प्रात्मा गृह्यते । तत प्रात्मनोनाऽवबुज्झ" ॥१॥ दश०१० । तत्र तेषु भोगेषु मूर्दिछतो-गृवो बालः प्रायतिम्-आगमिकालं नाऽबबुद्धयते-न लिमात्माऽगुल्लम् । इदं च पुरुषाणां कालादिमे देनानव स्थितमानत्यादनियतप्रमाणं द्रष्टव्यम् ।। सम्यगवगच्छति । दश १ चू० । आगामिकालविषयायां महत्यामास्थायाम् , व्य०।" जुवराजंमि उ उविए, एया जे पुण एयपमाणा, ऊणा अहिगा य तेसिमेयं तु । श्रो बंधति प्रायति तत्थ" ॥१६६+॥ आयतिम् अागामि आयङ्गुलं न भन्मइ, किं नु तदाभासमेव त्ति ॥१४०६।। कालविषयां महतीमास्था बन्धन्ति । व्य०४ उ०। सन्तती, ये पुनः-पुरुषा एतस्मात्-अष्टोत्तराङ्गुलशनलक्षणाप्रमाणावृ०। राजसुतदीक्षामधिकृत्य-" श्रायती इहिमतपूया य" मन्यूनाः समधिका वा तेषां संबन्धि यदलमतदान्माऽलं ।।८३+॥ श्रारतिश्व-सन्ततिरमीपामेतेन अविच्छिन्ना भ- न भएयते, किं तु-तदाभासमेव-आत्माङ्गलाभासमेव; परविष्यतीति । पृ.३ उ० । प्रभावे, कोषदण्डजे, तजसि, मार्थत आत्माले तन्न भवतीत्यर्थः । लक्षणशास्त्रोक्लस्वफलदानकाल च । प्रायति-स्त्री० । श्रा यम क्लिन् । स्नेहे, रादिशेषलक्षणवैकल्यसहायं च यथोक्लप्रमाणाधीनाधिक्यशिस्ये, सामध्ये, सीम्नि, शयने, प्रभाये, “आगतौ च मिह प्रतिषिद्धं न केवलमिति संभाव्यते, भरतचक्रवाउपाये च अनास्था च तत्कल्पनम्" । शा०भा०। वाच । दीनां स्वाऽलतो विशत्यधिकाङ्गलशतप्रमाणानामप्यत्र प्रायजणग-आयतिजनक-त्रि० । आयतौ-श्रागामिकाले निर्णीतत्वान्महाबीरादिनां च केषांचिन्मतेन चतुरशीत्याअर्भाएं फलं जनयति-करोति योऽसावायतिजनकः। श्रा घडलप्रमाणत्वादिति । प्रव० २५४ द्वार । गामिकालेऽभीष्टफलदायके, पश्चा० "प्रायजणगो"REx॥ पारमाङ्गुल सूच्य१लादिभेदात् त्रिविधम्पश्चा०१६ विव। से किं तं आयंगुले , आयंगुले (अनु०सूत्र-१३४+) प्रायइत्ता-आदाय-अव्य० । गृहीत्वेत्यर्थे, सूत्र० १ २०१२ तिविहे परमत्ते, तं जहा सूइअंगुले १, पयरंगुले २, पणंश्र०६ गाथाटी। गुले ३, (सूत्र-१३४४) अनु० । आयइफल-आयतिफल-न० । आयती प्रागामिनि काले (आत्माङ्गुलेन षडङ्गलानि पादः इत्यादि । ये यदा मनुष्या फलमम्यन्यायतिफलम् । परभयफलके, पश्चा० । “प्राय- | भवन्ति तेषां तदा आत्माकुलन स्वकीयस्थकीयकाल Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायंगुत अभिधानराजेन्द्रः। प्रायंबिल पञ्चक्खाण संभवीन्यवटइदादीनि मीयन्ते इत्यादि सर्वम् 'अङ्गुल' शब्दे स्थोत्क्षिप्तस्योद्वत्तस्य विवेको निःशेषतया त्याग उत्क्षिप्तप्रथमभागे प्रतिपादितम् ।) ( सूख्यकुलादिप्रदेशानामल्प- विवेकः उरिक्षप्य त्याग इत्यर्थः, तस्मादन्यत्र, भोक्तव्यद्रव्यबहुत्वचिन्ताऽपि 'अंगुल' शब्दे प्रथमभागे गता) स्य अमोक्तव्यद्रव्यस्पर्शनाऽपि न भर इति भावः, यतत्क्षेमायंत-भाचान्त-त्रि० । प्रा-चम-त । भाचमनकर्तरि, प्तुं न शक्यं तस्य भोजने भक्तः ‘गिहत्यसंसट्टेणं' गृहभाचान्तः पुनराचामेत् । काशी। कृतमाचमनं यस्य स्थस्य-भक्तदायकस्य संबन्धि करोटिकाविभाजनं वितारशे जलादौ च । पाच । गृहीताचमने, रा०। भ० । शौ- कृत्यादिद्रव्येणोपलिप्तं गृहस्थसंस्ष्ट, ततोऽन्यत्र, विकृत्याचार्थ कृतजलस्पर्श, नि०१ श्रु०३ वर्ग ३ ० । औ० । दिसंसृपभाजनेन हि दीयमानं भक्तमकल्पद्रव्यावयवमिधं "आयते चोक्खे परमसुइभूये" (सूत्र-+)। 'आयते' | भवति, न च तद्भानस्याऽपि भङ्गः, यद्यकल्पद्रव्यरसी इति-नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेनाचान्तो गृ बहुन ज्ञायते । 'वोसिरह' इति-प्राचामाम्लं चतुर्विधाहारं हीताऽऽचमनः। रा०। प्राचान्ती-शुद्धोदकेन कृताऽऽचमनी ।। च व्युत्सृजति । ध०२ अधि० ७८ श्लोक । “अटेवाऽऽयंकल्प०१ अधि०५क्षण १०५ सूत्रटीशा० भ०। बिलम्मि श्रागारा iEx" अष्टैच, न न्यूनाधिकाः । श्रा यामः-अवधावणम् , अम्लं च-सौवीरकं, ते एव प्रायेण भायंबिल-भाचामाम्ल-न० ल० प्र०१०२ गाथा । प्राचामः व्यञ्जने यत्र भोजने प्रोदनकुल्मापसमभृतिके तदायामाम्लं श्रयश्रावणम् , अम्ल चतुर्थों रसः, त एवं प्रायेण व्यञ्जने यत्र समयभाषयोच्यते, एतद्तं प्रत्याख्यानमपि तदेवत्यतस्तभोजने अोदनकुल्भाषसक्तुप्रभृतिके, तदाचामाम्लम् । स स्मिनायामाम्ले पायामाम्लस्य चाकारा भवन्ति । मयभाषयौदनकुल्माषसक्तुमभृतिके, ध० २ अधि० ६३ ते चैवम् । पञ्चा० ५विव० । सूत्रम्श्लोक। पायामाऽम्ल-म० पायामम्-अवश्रावणम्, अवश्रावणम्- आयंबिलं पच्चक्खाइ अम्मत्थणाभोगणं सहसाकारणं काधिकम् । ०१ उ०। (अत्रार्थे ' अवस्सावण' शब्दः लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं गिहत्थसंसदेणं परिट्ठावणिप्रथमभागस्थो द्रष्टव्यः) (अायामः-अवशायनम् ।) श्राव० यागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसि६ अ० १६०३ गाथाटी) अम्लंच-सौधीरकं, त एव प्रायेण रइ । आव० ६ अ० १६०५ गाथा । च्यञ्जने यत्र भोजने श्रोदनकुलमाषसक्तुप्रभृक्षिके, तदायामाम्लम् । समयभाषयौदनकुल्माषसक्तुप्रभृती, पञ्चा० ५ व्याण्यानं सर्व प्राग्वत् , नवरम् । प्रायामाम्ल प्रस्थाण्यातिविव०७ गाथाटी । अवस्यामे, (ने, श्राचा०२ श्रु०१ चू० तदेव मया भोक्तव्यमिति प्रतिजानीते । लेपो भोजनभाज नस्य विकल्या तीमदिना वा अायामाम्लप्रत्याख्यातुरकरप११०७ उ०४१ सूत्रटी०) ग०२ अधि० ७८ गाथाटी० । (श्राचाम्लभेदादि आयंबिलपचक्खाण ' शब्देऽनुपदमेव नीयेन लिप्तता, स चालेपश्च विकृत्यादिना लिप्तपूर्वस्य पच्यते) तद्गते प्रत्याख्यानभेदे च । पञ्चा०५ विव० भोजनभाजनस्यैव हस्तादिना संलखनतो निलेपतेति ले पालेपं तस्मादन्यत्र भाजने विकृत्याद्यवयबसद्भावेऽपि न ७ गाथाटी01(तद्वक्तव्यता प्रायविलपश्चक्खाण' शब्देनुपदमेव वक्ष्यते) भक इत्यर्थः, तथा उत्क्षिप्तस्य शुष्कौदनादिभक्त निक्षिप्तपू स्यायामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्याद्रवविकृत्यादिव्यआयंबिलपचक्खाण-प्राचा (या) माम्लप्रत्याख्यान-न० । स्य विवेको निःशेषतया पृथक्करणम्-उद्धरणमुरिक्षतविवेकप्रत्याख्यानभदे, ध०। स्तस्मादन्यत्र प्रत्यास्थानं भोक्तव्यद्रव्यस्याकल्पनीयद्रव्येण अत्र सूत्रम् संस्पर्शेऽपि न भङ्ग इति भावः । तथा गृहस्थस्य भक्कदामायंबिलं पञ्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, यकस्य सम्बन्धि संसृष्ट-विकृत्यादिद्रव्येणोपलिप्तं यत्करालेबालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं गिहत्थसंसदेणं पारिट्टा टिकादिभाजनं तद्गृहस्थसंसृष्टं ततोऽप्यन्यत्र विकृत्या दिसंसृप भाजनेन हि दीयमान भक्कमकल्पद्रव्यावयववणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तिमागारेणं. मिश्रं भवति, न च तत् भुञ्जानस्याऽपि भङ्ग इति भावः । योसिरह । प्राव०६अ। 'बोसिरइत्ति-अनायामाम्लं व्युत्पजतीति । पञ्चा० ५ आचामः-अवश्रावणम् , अम्ल चतुर्थों रसः त एव प्रायेण विव० ६ गाथाटी० । व्यञ्जने यत्र भोजने ओदनकुस्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचा- अधुना तदुपन्यस्तमेव चाऽऽचामाम्लऽमुच्यतेमाम्लम् समयभाषयोच्यते, तत्प्रत्याख्याति, प्राचामाम्ल गुम्नं नाम तिविहं. प्रोमण १ कुम्मास २ सत्तुश्रा ३ चैत्र । प्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः । प्राद्याधम्त्याश्च त्रय प्राकाराः पूर्ववत् , (लेवालेवेणं) लेपो-भोजनभाजनस्य विकृत्या तीम इकिकं पि अतिविहं. जहन्नयं १ मजिमुक्कोसं ॥१६०३।। नादिना या पात्रामाम्लग्रन्याख्यातुरकल्पनायेन लिप्तता, पायामाम्लामति गौणं नाम, पायामः-श्रय( शायनम् ) अलेपो-विकृत्यादिना लिप्तपूर्वस्य भोजनमाजनस्यैव हस्ता- श्रायणम् आम्ल-चतुर्थरसः ताभ्यां निर्वृतम् पायामादिना संलेखनतोऽलिप्तता, लेपश्चाउलेपश्च लपालेपम् , त- म्लम् , इदं चोपाधिभेदारित्रविधं भवति । श्रोदनः कुस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न भर- ल्माषाः, सनवाश्चैव । श्रोदनमधिकृत्य कुल्माषान्सकंश्चेति स्यर्थः । 'उक्खित्तविवेगणं' शुष्कोदनादिभने पतितपूर्व- एके कमपि चामीषणं त्रिविधं भवति । जघन्यम् , मध्यमम्, स्याचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्याद्रवविकृत्यादिद्रव्य-। उत्कृष्ट चति । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४, आयंबिलपचक्खाण भाभिधानराजेन्द्रः। आयंबिलपचरग्बाण कमित्यत्राह यबिलण रसमो उकोस गुणतो मझ. ते श्रेय मायामण दब्वे १ रसे२ गुणे बा३,जहनयं१ मज्झिमं च२ उकोसं३। दव्यश्री जहनं रस नो मरझं. गुणो मझ, ते व उरहो दएण दव्यो जहनं, रसो अद्द, गुणभो उकासं, बहु तस्सव य पाउग्गं, छलणा पंचव य कुडंगा ॥ १६०४॥ निजर सि भणिय होह। प्रहया-उकोसे तिमि विभासा द्रव्ये रसे गुणे वैव-द्रव्यमधिकृत्य १, रसमधिकृस्य २. गुणं | उकोसोकोसं, उन्कोसमज्झिम, उकोसाहन, कंजियमाचाधिकरयेत्यर्थः ३। किं जघन्यकं१. मध्यमर, चोरकष्एं थे। यामउगहोदएहि जहन्ना, मरिझमा, उकोसा निजरा । एवं ति३, तस्यैयायामाम्लस्य प्रायोग्य वक्तव्य, तथा श्रायामाम्ल | तिसु विभासियध्यं छलणानाम पगेणाऽऽयंबिलं पचक्लायं, प्रत्याख्यातमिति दाना मुजानस्य दोषः प्राणातिपातप्र- तेण हिंडतेण सुद्धोदणो गहिओ, अण्णाणण य वीरेया स्याख्याने तदनासेषमयदिति, छलना वक्तव्या, पञ्चैव कु- निमित्तं घेतूग्ण श्रागमश्रो पालोप पजीओ, गुरूहिं उहा-वऋविशेषा इति । भणिो -अज्ज तुज्म आयंबिलं पश्चक्खाय, भणा सयं, तद्यथा तो किं भुजसि ? जेण मे पश्चक्वायं , जहा पाणाइयाए पच्चक्यात ण मारिज्जा, एवं श्रायंबिले यि पच्चक्रवात । लोए १ वेये २ समये ३, प्रमाणे ४ खलु तहेव गेलने ५। तं न कीरइ, एसा छलग्मा" परिहारस्तु प्रत्याख्यानं भाजने एए पंच कुडंगा, नायव्या अंबिलम्मि भवे ।। १६.५॥ । तन्निवृत्तौ च भवति, भोजने पायामाम्लप्रायोग्यादम्यत् लोके बेटे समये अशाने मनु तथैव ग्लानरये लोकमकी- नत् प्रत्यास्याति प्रायामाम्ले च वर्तते, निवृत्ती चतु. कृत्य कुडलाः एवं वेदान् समयान् अमानं ग्लानत्यं च एते | विधमध्याहारं प्रत्याचक्षागम्य, तथा लोक एवमेव प्रत्यापश्च कुडमा शातव्याः आयामाम्ले भयन्ति, प्रायामाम्ल- | ख्यानार्थः । दोसु प्रत्येसु बट्टा भोजने मनिवृत्ती च. तेरण विषय । इति गाथात्रयसमासार्थः ॥ ५७ ॥ विस्तरार्थस्तु | एसा छलणा निरस्थिया। पंच कुडंगा लोप. थेदे. समप, वृद्धसंप्रदायसमधिगम्यः। अन्नाग, गिलाणे कुडंगो ति. ऐगणाऽऽयंबिलस्स पचसचाऽयम् खाय, नेम हिडनेण सखडी संभाविया, अयं वा उकोसं “एरथ आयंबिलं च भवति भायंविरूपाउग्गं च, तस्थो ललं, पायरियाणं मेइ, भणियं-तुम्म प्रायविलं पाचदणे आयंबिलं च आयंबिलपाउग्गंध आयंबिला सकूरा, पखाय, मो भगा-सपासमाणा ! अम्हेहिं बहूणि लोरजाणियब्बा करविहाणाणि अायिलपाउम्ग, तंदुलकणि याणि सस्थाणि परिमिलियारिण, तत्थ आयंबिलस्स सहो याउ कुटुतो ष्टुिं पिहुगा पिटुगोयलियाओ रालगा मंड नऽस्थि, पढमो कुडंगो १ । अहवा-वेदेसु चउसु संगोवंगेसु गादि, कुम्मासा पुज्यं पाणिएणं कहि जति पच्छा प्रो नऽथि आयंबिलं. बिनिओ कुडंगो २ । अहवा-समय खलीए पासंति, ते तिमिहा-मरणा, मज्झिमा, धूला. चरगचीरिगभिवखुपंडरंगाणं. तस्थ वि नऽस्थि, न जाएए प्राययिलं, आयंबिलपाउग्गाणि पुण जे तस्म तुम गामि एस तुम्भं को आगो ? तभी कुडंगो ३।मीसा कणियाओ ककंडगा य एवमादि, सनुगा-जयागा पाणण भणइ न जाणामि खमासमणा ! केरिसयं भायंवा, गोधूमाणं वा, बीहियाणं वा, पाओग्गं पुण-गोधूम बिलं भघर. अहं जाणामि कुसहि यि जिम्मा नि तेण भुजिया पिचुगालाया जाय भुजिज्जा,जेय जतएगा न गहिय, "मिच्छामि दुकड." पुणो गच्छामि, च उन्धो नीरति पीसिउं, तस्सेय निहारो कणिगादि पा. पयाणि कुडंगो ४। गिलाणो भणइन तरामि पायावलं काउं मूलं आयंबिलपात्रोग्गाणि, तं तिविहं पि आर्यावलं, निविह में उठेइ अन्न वा उद्दिसर रोगं ताहे न तीरह करेउं । एसउकासं मज्झिमं, जहन्न । वयो-कलमसालिकूरो उक्कोसो, पंचमा कुडुंगो ५ । तस्स अट्ठ आगागजवा जस्स पत्य कच्चा था, रालगो सामागो या जहनो, अण्णत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं लबालेवेणं उक्खिसेसा मज्मिमा, जो सो कलमसालीकूरी सो रसं पहुच्च तविगेणं गिहत्थसंमटेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्ततिविहो-उकोसो, मज्झिमो. जहन्नो य । तं चेव तिविधं पिआर्यावलं निज्जरागुणं पड्डन्च तिविध-उक्कोसो नि रागारेणं सबसमाहिवसियागारेणं वोसिरति । चरागुणो, मज्झिमो, जहन्नो त्ति । कलमसालिकूगे- | अणाभोगस हस कारा तहेव, लेयालेयो जहभायण पुर्व लेदश्वो उनोसं दम्ब चउत्थं रसिएण समुसिइ, रसओ पाडगाहयं च समुहट्ट संलिहियं जति तेण प्राणेति ण थि उकास नरस घपण घि आयामेण उकोम रसश्रो भुजति, उक्विनाविवेगो-जं आयंबिले पडति बिगतिमादि गुणो महानं थोया निजर ति भणिय होइ, सोचेष क. | उक्खिवित्ता विगिचतु मा गवरि गलतु अनं घा प्रायविसमायणो जया अन्नहि आयामेहिं तदा दव्वाश्रो उकोसो लम्स अप्पागां जा उद्धरितं तीर उद्धरिए न उवहरसो मजिममा गुणनो वि स मज्झिमो मेव, सो चेय । ममइ.गिहत्यसंसट्रेविजदि गिहत्यो डोलियं भाणिय था जया जयहोदपण तदा दब्बो उक्कोसं, रसो जहन्न । लेवाडं कुसणावी हि तेण इसि त्ति लेवार तं भुज्जद, जा गुग्ण ओ मज्झिमं चेव, जेण दयश्री उक्कोसं, न रसो। रसा श्रालिखिज्जा बहुओ ताहे न कप्पाइ, परिट्रायणितयारिंग जे मजिममा चाउलोवणा ते यो मज्झिमा, महमरासमाहीश्रो तहेव । व्याख्यानमतिगम्भीरबुद्धिना आयंबिलेणा रसो उक्लोसा, गुणश्रो मज्झिमा, तहेब च- भाष्यकारेणोपयस्तक्रममायामाम्लम् । प्राय० ६ ० । उपहाच एग बम्बो मझ रसतो अहवं गुणो मज्झ तथा च-"आयबिलमधि तिविहं" इत्यादिगाथाः १०२ मग्झिम वयं ति काऊम्परालगतगाकूरा दव्यो जहा - भारभ्य ६ पर्यास्ता: 'अचित' शब्द प्रथमभागे गताः) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चापिलपचक्याण आयचरित जं तिमिये कार्ड नो, स तं तं न कप्पइ राइ | पायें हिंगुं न कप्पर, दुकयदोसप्पसंग जयणा १०७/ दंतवणं तंबोलं, कायव्वं नेव बिलंमि नवे । जलभिमणाहारं, कप्पइ सव्वं पि तत्थ ठिए । १०८ ।। सोरिसिजलं, कप्पड़ नो अण्णमेस विहिपायं । सोवीरं सिद्धपि, निगेहं वियलमुकिडे ।। १०६ ॥ मज्झिमे घुग्घरियाई, हिंगुप्पमुहा पकप्पए भयणा । भजियाई, सप पकप्पड़ जहने ।। ११० ॥ काठिन्य सहनमसाखरपटिकादि यतस्तिमितुम् साऽऽख्याः षट्कायाः सचित्ता गृह्यन्ते । पश्चात् व्यवहितषट्कार्यानिक्षिप्तपिहितसंहत मिश्रादिषु आदिशब्दात् षट्कायाः परिणतपद्कायोपनिश्चित सि कर्दमप्रक्षिप्त बालवृद्धमत्तोन्मत्तव्यपनज्वरितान्धाः निगडकरचरणापाणिपादाः नपुंसकाः गुर्वी बालबरसा मुद्धती पिडीत प स्पन्ती ती पिठरकारिकपदी साधार परिवादी पति स्थापयन्ती परकीयमिमि कृत्वा ददती सप्रत्यपाया च ददती कूलबालकमुनिवतं त्याजयित्री मागधिका वेश्येव शाकिन्यादिश एतेभ्यो दायकेभ्यो ग्रहणे च, तथातिमानं च प्रमाणभूताहाराधिकभोजनं धूम श्रकर्ते न शक्यन्ते तत् श्राचामाम्ले अकल्यम् । दुनि चउअंगुलमा, नीरं जड़ हवइ सिद्धभसुवरि । अचि विसुद्ध दविज तो सब्बकहरं ।। १११ ।। जगराजीरगजुतं, ओयणमिह कप्पए जण पुणे | सङ्काशं नो कप्पर, नूपरि लघु। इयं विपुखे । ११२ ल०प्र० । श्रत्रोत्तरम्—तथा श्राचामाम्लमध्ये सुण्ठीमरिचादिकं आयंबिलबडूमाण - आचा (या) माम्लवर्द्धमान- न० । तपो भोजनं कारणविपर्यय निष्कारणे भोजनम् अतिमानधूमकारणविपर्ययः तस्मिन् एतेषु सर्वेषु विहितम् श्राचामाम्लं प्रायश्चित्तमित्यर्थः । जीत० । आयंबिल पाउग्ग- श्राचामाम्लप्रायोग्य त्रि० । श्रोदनादिसत्कं कूरादौ, श्राव० ६ ० । ( तानि च • श्रायंबिल पश्चपखाशब्देऽनुपदमेषान कल्पते तत्कि कारणेन स्वभावेन वेति ? ॥ ६ ॥ श्रत्र कारं विनापि कल्पते इति ॥ ६ ॥ तथा श्राचामाम्लमध्ये सुराठीमरिचादिकं कल्पते, पिप्पलीलवङ्गादिकं च न तरिक शास्त्राक्षरैः परंपरातो वेति ? ॥ १० ॥ तथा श्राचामाम्लमध्ये सुण्ठीमरिचादिकं पिप्पलीरितीप्रमु ते तत्कारयते दुग्धं भ दीयमानमस्ति तथा हरीतकीपिपल्यादिकं नासिकातोपक्कं सत् शुष्कीक्रियते, यथा युगन्धरीगोधूमादि पृथुको राद्धस्स चाचामाम्लमध्ये न कल्पते, युगन्धरी गोधूमादिक तुराद्धं सत् कल्पते इति संभाव्यते ॥ १० ॥ ही० ४ प्रका० । संप्रत्याचामाम्लशोध्यान् एतान् ( दोषान् ) संकलय गाथायुगलेनाद विशेषे, औ० । "आयंबिलवहुमाणं तवोकम्मं पडिवरणा (सूत्र- १५+) । यत्र चतुर्थ हत्या आयामा क्रियते पुनश्चतुर्थ, पुनद्वे आयामाम्ले, पुनश्चतुर्थे पुनस्त्रीणि श्रायामाम्लानि, एवं यावच्चतुर्थे शतं चाऽऽयामाम्लानां क्रियते इति इह व शतं चतुर्थानां तथा पञ्चसहस्राणि पञ्चाशदधिकानि ५०५० आषामाम्लानां भवन्तीति । श्री० । इति ( एतत्तपःकरणात् महासेनकृष्णा सिद्धिं प्राप्ता 'महाखेका शब्दे षष्ठे मागे दर्शयिष्यते ) 3 ८२ و मुद्देसिय मीसे, धायाइ पगासखाइएसुं च । पुरखम्मसंसनाऽऽलिनकरमचे ॥ ३७ ॥ अरं परिचनिक्खि-पहियसाहरियमी सिवाईसु । " माय धूमकारण विवअए विहियमायामं ॥ ३८ ॥ कमौदेशिक विभागदेशिक नयमभेदः मिश्र - पाव दर्थिकामेश्राख्यो मिश्रजाताद्यभेदः कर्मोद्देशिकमिश्रं तस्मिन् धाग्यादिप्रकाशमादिषु च धान्यादया धात्रीनिमि धना जीवनापिण्डनीपकल्पचादचिकित्साकरणको धमानपिण्डाः विविध विद्याम चूर्णयोगपिण्डाः प्रकाशनादयश्च प्रकाशुकरणं द्विविधं द्रव्यकीत, द्विविधं लो. किक - प्रामित्यपरिवर्त्तेन निष्प्रत्यपायं परग्रामाऽऽहृतं पिहितो G - पाटो उत्कृष्टमाला सर्वमाच्छेयं सर्वमनिपुं चेति धाग्यादिप्रकाशनादयस्तेषु पुरःकर्म:- पश्चाकर्मणो कुरा सि-भीमो भीमसेनपदिति न्यायादिताने अतिसाविति लिप्तकरमात्रलिप्तदोष इत्यर्थः, 'अइरं ' परिसोत्पन्नं प रिताशब्दोपलक्षणत्वात् पृथिव्यतेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्र (३२५) श्रभिधान राजेन्द्रः । " तत्स्वरूपं सूत्रतः आयंबिलं करेति ० ( अन्त० ) एवं एगुनरियाए बुड़ीए आयंबिलाई वति चतुत्थंतरियाई जाव आयंबिलसयं करे ति आयंबिल करेता चउर करेति । अन्त० १५०८ वर्ग १० अ० । आविलिय- आचा(पा) मालिक पुं० श्रायामा समयप्रसिद्धं तेन चरतीत्याचा मालिकः । स्था० ५ ठा० १४०३२६० श्रचामालसहिते, " आयंबिलमणायंबिले, आयंबिलगा. अणाबिलगा थ। श्रणायंबिलगा, आयंबिलगविरहिया " इति । श्राव० ६ श्र० । श्राचाम्लम्ओदनकुमाचादि तेन चरतीत्याचाम्लिक साधुमे सूत्र० २ ० २ अ० । आयग- आजक- न० । श्रजानां समूहः । वुञ् । छागसमूह, श्रयाणि वा वाच । श्रजापक्ष्मनिष्पन्ने वस्त्रादौ, ( सूत्र - १४५ x ) । क्वचिद्देशविशेषे श्रजाः सूक्ष्म रोमबत्यो भवन्ति तत्पक्ष्मनिष्पक्षान्याजकानि भवन्ति । श्राचा० २ ध्रु० १ चू० ५ ० १ ३० । प्रागपरित आयचरित्र ० " आयरिश ३६+ श्रयभूतं निरतिचारतया चारित्रं यस्य स श्रायचरित्रः । दर ३६ माथाडी० । 66 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६) मायचरित्त अभिधानराजेन्द्रः। भायत शातचरित्र-त्रि० । गृहीतचारित्र, "मायचरिता करह, यथा भवतीत्येवं कर्णायता । अायतकायनः । प्रयन्नेम सामरणं ॥ ३६४ ॥" प्रायभूत-निरतिचारतया चारित्रं | कर्णपर्यन्तमाकृऐ, “प्राययकराणाययं उसु प्रायमित्ता यस्य स ायचरित्रो हदचारित्रत्वात् प्राकृतत्वात्-श्रात्त- चिट्टा" (सूत्र-६८+)| भ०१ श०८ उ० । सामाम्येन कर्णबारित्रो-गृहीतचारित्रः गति-पालयति धामण्यं-थमण- पर्यन्तमाटे च । "पाययकराणाय उसु करे" (सूत्रभायम् । संथा। ३०३४)। आयतः-आकृष्टः सामान्येन स एवं कर्णयतः भायज्झ-टवेयू-धा० कम्पने, भ्वा०। प्रात्मा सका सेट् । आकर्षमाकृष्णः प्रायतकर्णायतस्तम् । भ० ७ श०६ उ०। बेपते । अपिता ऋदित् । चकिन इस्वः । टित् । वेपथुः। भायत (य)चवख-भायतचक्षुष-त्रि० । मायर्त-दीर्घवांचा पेरायम्बाऽऽयझो" बा१४७॥ इति हेमप्रा- मैहिकाममिकाऽपायदर्शिचा--ज्ञानं यस्य स प्रायतचतुः। कृतसूत्रेण येपेः प्रायम्ब प्रायज्म इत्यादेशौ पा । प्रायम्बद । ऐहिकामुष्मिका उपायदर्शिज्ञानोपेते, आचा० १ ० २ १० प्रायझर । यह । प्रा०। ५ उ०६३ सूत्रटी। भाय-प्रायतार्थ-पुं०। प्रायतः-अपर्यवसानाम्मोक्ष पब, | बायतचरित्त-आयतचरित्र-न० । प्रायत-चरित्रं सम्यक सचासापर्थश्चायतार्थः । मोक्षरूपेऽर्थे, । प्रायतो-मोक्षः चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकम् । मोक्षमार्गप्रसाधके चरित्रे, अर्थः-प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रयस्य तत्तथा। दर्शनादित्रय सत्र०।" श्रादायम्मि अायतचरितं" ॥२८या सूत्र०१ च । प्राचा०१ धु०११०२ उ०७१ सूत्रटी। श्रु०१०। मात्मार्थ-पुं० । 'आयट्ट ( सूत्र-७१४) प्रात्मनोऽर्थः प्रा भायत(य)जोग-प्रायतयोग-पुं०। प्रायतः-संयतो योगोस्मार्थः, सब शानदर्शनचारित्रात्मकः, अभ्यस्त्वनर्थ एव, | मनोवाकायलक्षणः, आयतमासी कोमचायतयोगः । मानअथवा-भारमने हितं-प्रयोजनमात्मार्थे , तच्च चारित्रानु चतुष्पयन सम्यग योगप्रणिधाने. आचाका "नायत जागताप ष्ठानमेव चारित्रानुष्ठाने, प्राचा० १ ० २ ० १ उ०। सेविस्था" ॥ Exप्राचा० १ श्रु०१०४ उ। "सयमेव भायमण-माकर्णन-न० । श्रवणे, "तत्थाऽऽयण्णणजाणण अभिसमागम्म प्राययजोगमायमाहिए " ॥ १६ ॥ गिण्डणपडिसेवणेसु उज्जुत्ता"। तत्राऽऽकर्णन-विनयबहु- आयतयोगम्-सुपरिहतं. मनोवाकायात्मकं विधाय । मानाभ्यां तस्य श्रवणमिति । ध०२ अधि०२२ श्लोक। | आचा०१ श्रु० अ०४ उ० । मायत-पायत-श्रा यम । दी, श्री० १० सूत्रटी०। प्रायतद-आयतार्थ-पुं०। आयतः-अपर्यवसानाम्मोक्ष एव श्रा०म०। अबु । उत्स० । स्था० । मायामयति, प्रश्न स कासावर्थश्चायतार्थः । मोक्षरूपेऽथे, आयता-मोक ३ श्राश्रद्वार १२ सूत्रटी। "गिरिवरे वा निसहोऽऽय- अर्थः-प्रयोजनं यस्य दर्शनानित्रयस्व तत्तथा। दर्शनादियाणं, रुयए व सेंटु वलयाऽऽययाण" ॥ १५+ ॥ यया निषधो प्रये, " पायलटुं संमं सम्सुवासेज्जा " (सत्र-७१+)। गिरियरी मिरीणामायनानां मध्ये जम्बूदीयेऽन्येषु वा द्वी- श्रायतः-अपर्यवसामान्मोक्ष एव, स चासावकायतागेषु देच्यण श्रेष्ठः--प्रधानः तथा वलयाऽऽयतानां मध्ये थोऽतम्तं, यदि वा-भायतो-मोक्षः-अ-प्रयोजनं यस्य रुचकः पर्वतोऽन्येभ्यो घलयायतत्वेन । सूत्र.१० दर्शनादित्रयस्य तत्तथा । आचा०१ श्रु०२० २३० । ६अ। साधर्म्यवसिनत्वेन दीवात् श्रायतः-मोक्षः ।। " पायतटुं सुश्रादाय, एवं वीरस्स पीरियं " ॥ १४॥ माक्षे, पं० सू० ४ सूत्रटी । पं० २० । आयतो-मोक्षोऽ- प्रायतः-मोक्षः अपर्यवसितावस्थानस्वाम्मोक्षः स चासापर्यवसिताऽवस्थानत्वात् । सूत्र०१श्रु०८०१८ गाथा- वर्थश्च तदर्थों का तत्प्रयोजनो वा सम्यकदर्शनशानचारित्रटी०। प्रायतोऽपर्यवसानान्मोक्ष एव । श्राचा०१०२ मार्गः स प्रायतार्थस्तं सुष्टु श्रादाय-गृहीत्या या धृतिअ०१ उ०७१ सूत्रटी। श्रावतो-वीधसर्यकालभवनागमोक्षः। बलेन कामक्रोधादिविजयाय च पराक्रमते पतद्वीरस्य सूत्र० १७०२ १०३ उ०१५ गाथाटी । आत्मनि, सूत्रः।। वीर्यमिति । सूत्र. १ श्रु०८०१८ गाथाटी०। "सखे पाणा पियाऽऽयया" (सूत्र-८०x)| आयतः-प्रारमनो. प्रायतट्टि (न्)-आयतार्थिन-पुं० । मोक्षार्थिनि, दश. ५ उनाद्यनन्तत्वात् स प्रियो येषां ते तथा सर्वेऽपि प्राणिनः अ०२ उ०१५ गाथाटी। प्रियात्मानः । प्राचा०१ श्रु०२० ३ उ० । आर अभिविधी, सामस्त्येन यतः-पायतः । आचा०१ धु०८१०८आयताहत (य) आयता। पायतद्वित (य)-प्रायतार्थिक-पुं० । मायतो-वीर्घः सर्वउ०१६ गाथाटी० । संयते, "मायतजोगताए सेवित्था" कालभवनाम्मोक्षस्तेनार्थिकस्तदभिलाषी । मोक्षाभिलाषि ॥ श्राचा० १ श्रु०६ १०४ उ० । आकृष्ट, यत्रवति च। णि, सूत्र० ।" पायपरे परमायतट्टिए" ॥ १५ ॥ मूत्र० भ० । “माययकराणाययं उसु आयामेत्ता" (सूत्र-६Ex)|| १७०११०२ उ०। कणे यावदायतः-प्राकृष्टः कर्णाऽऽयतः आयतं-प्रयत्नवद् प्रायतण-पायतन-न० । आयतन्तेऽत्र यत् आधारे युट् । यथा भवतीत्येवं कांयतः । भ०१ श०८ उ० । संस्थान गृहे, "सव्वासहाऽऽययणं" (सूत्र-१७ +) । पायभेदे च । स्था० १ ठा० । उत्त०। (तद्वक्तव्यता 'प्रायतसंठाण' तनं-गृहम् । तं० । " पायतणे टाणठवणा य " ॥१६॥ शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव वदयते) श्रायतने-भवने । पश्चा०८विव०। गुग्णाश्रये, प्रश्न. १ मायत (य) करणायय-प्रायतकायत-त्रि० । कर्ण याव-| संघ द्वार २३ सूत्रटी० । इयं विमाहाऽऽयतणं" दायतः- प्राकृपः कगायतः, पायतः प्रायतम्(वा)- प्रयत्नवद् । (मूत्र-२१५४) : विगतमाद्दानामायतनम्-श्राश्रयः । आचा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२७) माययण अभिधानराजेन्द्रः। प्रायतित्त १६०८१०४ उ० । स्थाने, संथा। प्राचा० । नि.चू०।। श्रादर्शप्रश्नादेः आयतनम्-श्राविष्करणं कथनं यथा विध"इम्सुगायतणाणि " (सूत्र-११५ ४ ) | दस्यून | क्षितप्रश्ननिर्णयनानि । यदिवा-प्रश्नायतनानि-लौकिकानां चौराणामायतनानि-स्थानानि । प्राचा०२ शु० १चू० ३ परम्परव्यवहारे मिथ्याशास्त्रगतसंशये या प्रश्न सति यथा. प्र०१ उ० । “पयाई प्रायतणाई" एतानि यादी- ऽस्थितार्थकथनद्वारेणाऽऽयतनानि-निर्णयनानीति । सूत्र म्यायतनानि-उपभोगास्पदभूतानि वर्तन्ते । प्राचा० ।। १ श्रु०६०। देवादियम्दनस्थाने, वाच । प्रश्न. १ श्राश्र. द्वार भायतणसेवा-आयतनसेवा-स्त्री०। प्रायतनसेवाशब्दः प्रथमे "नयरम्स पुग्वेण जक्खस्स पाययणं कयं" प्रा०म० । शीलभेदे. दर्श। शीलत्वभेदानधिकृत्य-नित्यमायतनसेवा, "भगवनो निव्वाणं गयम्स प्राययणं काराधिय भरहो अनायतमपरिहारः । तत्र पायतनं-पश्चविधाऽचाराssअषजमागो कालण य अप्पसोगो जाओ " मा० म० चरणप्रषणाः ससाधवः । दर्श०३ तस्व २४ गाथाटी०। १०४३६ गाथाटी। देवकुलपापवरके च। "मा- (आयतन) प्रतिसेवनाद्वारख्याचिण्यासया संबन्धं प्रतियतणाणि वा" ( सूत्र-१४ ) | आयतनानि-देयकुल আন্ধাपार्वापवरकाः । दशा० १६० १० अ० । प्राचा० । एवं खलु प्राययणं, निसेवमाणस्स हुञ्ज साहुस्स । धार्मिकजनमीलमस्थाने, ध०र० । भावधायकस्य शील कंटगपहेव छलणा, रागहोसे समासज्ज ।। ७८५ ॥ घस्वरूपं द्वितीयलक्षणं व्याख्यानयत्राह-"पाययणं ख निसेवा" ॥३७॥ भायतनं-धार्मिकजनीलनस्थानम् , उक्तं एवम्-उक्तनभ्यायेन पायतनं सेवमानस्यापि साधोः भवेत् चा(ोघनि०)। "जस्थ साहम्मिया बहवे, सीलवंता बहुम्सु. कएटकपथ व छलना, किमासाद्य?, अत पाह-रागद्वेषी या। चरिताऽयारसंपराणा, प्रायतणं तं वियाणाहि" ॥७८३॥ समाश्रित्य, सा च रागद्वेषेण सेवना द्विविधा भवति । खुरषधारण, प्रतिपक्षप्रतिषेधार्थः-ततश्चायतनमेव निषेवते एतदेवाहभाषश्रावको, न अनायतनमिति योगः। ध०र०२ अधिक पडिसेवणाऽवि दुविहा, मूलगुणे चेत्र उत्तरगुणे य । २ लक्ष० । दर्श० । कर्मोपादानस्थाने, प्राचा०। "इयाई मूलगुणे छट्ठाणा, उत्तरगुणे टुति तिगमाई ।। ७८६ ।। भायतणाई " (सूत्र-६१४) । इत्येतानि-पूर्वोक्लान्याय बाघ । ध०र०। तनानि कर्मोपादानस्थानानि । भाचा०१००१चू० १ पायत (य) तर-बायततर-त्रि० । प्रायत(त)रे सिया" अ०११ उ०। “कम्माययणेहिं" (सूत्र-१५ +)। कर्मणां ॥ १६४ ॥ श्राभिविधौ सामस्त्येन यत् आयतः अयमनज्ञानाधरणादीनाम् आयतनानि-श्रादानानि वा बन्धहेतव योरतिशयेनायत अायततरः । यत्नेनाध्यवसिते, प्राचा० इत्यर्थः । अन्त०१ थु०६ वर्ग १५ १० । विश्रामस्थाने यक्षस्थाने च । पाच० । भाभिविधी समस्तपापारम्पेभ्य | १ श्रु०८१०८ उ०। श्रात्मा प्रायत्यते-पानियम्पते तस्मिन् कुशलानुष्ठाने बा | पायतसंठाण-प्रायतसंस्थान-न० । संस्थानभेदे, आयतम्यस्नत्वात् क्रियते इत्यायतनम् । ज्ञानादित्रये, प्राचा० । दीघ यथा दण्डस्येति । उन्त० १ ० ३८ गाथाटी । "कायतणरयस्स इह विष्पमुकस्स गऽस्थि मग्गे विरत (आयतसंस्थाने कतिमयोगाः इति 'संजोग' शब्दे उस० स्स" (सूत्र-१४८+ )| प्राचा० १७०५ १०२ उ० ।। ॥४०॥४१॥ गाथाभ्यां सप्तमभागे बच्यते) मायतनं-द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । तत्र द्रव्यतो-जिन तथा चगृहादि, भावतस्तु-शानदर्शनचारित्रधराः साध्यादयः । एगो पिहुले (सूत्र-४७४)। प्रध० १४८ द्वार ६४६ गाथाटी० । श्रोघ०। पृथुल-विस्तीर्णम् , अन्यत्र, पुनः- इह स्थाने आयतमभिइदानीमायतनप्रतिपादनायाह धीयते, तदेव चेह दीर्घहस्वपृथुलशनैर्विभज्योक्लम् श्रा यतधर्मत्वादेषां, तश्चाऽऽयहं प्रतरघनश्रेणिभेदात् विधा, आययणं पि य दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । पुनरेकैकं सम-विषम-प्रदेशमिति घोढा, यश्चायतभेदयोदवम्मि जिणघर्राई, भावम्मि होइ तिविहं तु ||७८२॥ रपि इस्वदीघयोरादाभिधानं तद्वत्तादिषु संस्थानेष्यायप्रायतनमपि द्विविधम्-द्रव्यविषये, भावविषये च तस्य प्रायो वृत्तिदर्शनार्थम् । तथा हि-दीर्घायतः स्तम्भो सातव्यम् । तत्र द्रव्ये-जिनगृहादि, भावे च भवति वृत्तम्ध्यनश्चतुरस्रश्चेत्यादि भावनीयम् । विचित्रत्वादा त्रिविधम्-शानदर्शनचारित्ररूपमायतनमिति । सूत्रगतरेवमुपन्यासः इति । स्था० १ठा० । प्रज्ञा० । ( भेदादिबहुवक्तव्यता - संठाण ' शब्दे सप्तमे भागे जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलवन्ता बहुस्सुया । घचयते) चरित्ताऽऽयारसंपन्ना, पाययणं तं वियाणाहि ।। ७८३॥ भायतसंठाणपरिणय-प्रायतसंस्थानपरिणत-त्रि० । मा'जथे' स्यादि, सुगमा। यतसंस्थानभाजि, प्रशा. | " अायतसंठाणपरिणया " सुंदरजणसंसग्गी, सीलदरिदं पि कुणइ सीलई। ( सूत्र-४ + ) । आयतसंस्थानपरिणता दण्डादिवत् । प्रशा०१ पद। जह मेरुगिरीजायं, तणं पि कणगत्तणमुवेइ ।। ७८४॥ श्रायतित्त-श्रात्मतप्त-त्रि० । प्रात्मस्वरूपतुष्टे, अष्ट० । सुगमा । उक्नमायतनद्वारम् । अोघ । आविष्करणे, निर्ण- "श्रात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् " ॥६४॥ आत्मतृप्त:-आत्मसयने या सूत्र०।"पसिणाऽयतगाणि" ॥१६॥ प्रश्नस्य- रूपेऽनन्त गुणात्मके सृप्तः-तुषो भवेत् । अष्ट०१३ अष्ट। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) प्रायत्त अभिधानराजेन्द्रः। श्रायरणकप आयत्त-आयत्त-त्रि० । श्रा यतन । अधीने, वशीभूते, विधातुमुचितमित्यादिना प्रेरयिता-उपदेपा भवति, अर्नुवाच । श्रायत्तो-वशवी तदुक्तानुयायीति । दर्श०४ तत्व कृलेतरोपसर्गकारिणः, ततोऽसावुपसर्गकरणानिवर्तते त८० गाथाटी0। कृतप्रयत्ने च । वाच। तोऽकृत्या सेवा न भवतीत्यत आत्मा रक्षितो भवतीति १, आयस्त-त्रि० । श्रा-यस्-क्क । क्षिप्ते, “ आयस्तसिंहा तूष्णीको वा वाचंयमः; उपेक्षक इत्यर्थः २, 'स्यादिति' कृतिरुत्पपात" किरा। क्लेशिते, प्रतिहते, तीक्ष्णीकृते, | प्रेरणाया अधिपये उपेक्षणासामध्ये च ततः स्थानादुत्थाय, श्रायासयुक्ते च । वाच । 'आय'त्ति-श्रात्मना एकान्त-विजनम् 'अंतं' भूमिभाग मयकामेत्-गच्छेत् । स्था०३ ठा० ३ उ०। पायपइडिय-प्रात्मप्रतिष्ठित-त्रि० । स्वरूपप्रतिष्ठिते, "प्रा आयरक्खिय-आत्मरक्षित-त्रि०। श्रारमा रक्षितो दुर्गतियपइट्टिया " (सूत्र-१८६४)। स्था०३ ठा० ३ उ० । क्रोधभेदे, स्था०२ ठा०४ उ० १०० सूत्रटी० । ( व्याख्या हेतारपध्यानादेरनेनेति आत्मरक्षितः । " आहितान्या'कोह' शब्ने तृतीयभागे करिष्यते) दिषु" ॥३।१।१५३ ॥ दर्शनात् क्लान्तस्य पनिपातः । दुर्गतिहेतारात्मध्यानादेरात्मनो रक्षके, उत्त० पाई. २ आयपरण-आगतप्रज्ञ-त्रि० । अागता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्या अ० १५ गाथाटी०। सावागतप्रशः। संजातकर्तव्याकर्तव्ययिवेके, सूत्रः । “समितीसु गुत्तीसु य ायपरणे" ॥५+। सूत्र० १७० १४ अका आयरक्षित-त्रि० । आयो वा सानादिलाभो रक्षितोडनेआयमग्ग-आयतमार्ग-पुं० । मोक्षमार्गे, आयतो-मोक्षो नत्यायरक्षितः । झानादिलाभस्य रक्षके, उत्त० । “विरो ऽव्यवच्छेदात्तस्य मार्गो-शानादिः। पञ्चा० ११ वियः ४२ आयरक्खिए" ॥ १५ ॥ उत्त०पाई०२०। गाथाटी। आयरण-आचरण-न० । अनुष्ठाने,स्था। प्राचरणमाचारः । प्रायमण-आचमन-न०। पाचम् । भावे ल्युत् । निले- स्था०८ ठा० । विधाने, सूत्र० । पने, “श्रायमणत्थं वाऽवि योसिरह" ॥२६४४॥ पाच अस्सि धम्मे प्रणायारं, नाऽऽयरेज कयाइ वि ॥१॥ मनम्-निर्लेपनम् । वृ०१ उ०३ प्रक० । प्रायमणं-पिल्लेव- अस्मिन्धमें-सर्वज्ञप्रणीते व्यवस्थितः सन्ननाचारम्-सावणं । नि० चू०४ उ० ३०७ गाथाचूर्णिः । पुरीपोत्सर्गान- द्यानुष्ठानरूपं न समाचरेत्-न विदध्याद्। सूत्र०२ श्रु०५ म्तरं शौचकरणे च ।' श्रायमणभाणधुवण ॥ २३ ४ ॥ श्र० । केनचित्प्रकारेण परिणमने, दश । “दव्याऽऽयारं पिं०। " तिहि श्रायमणं अदरम्मि। श्रोघ० ३१७ गाथा । बियाणाहि" ॥१८० ॥ श्राचरणम्-श्राचारो द्रव्यस्याध०३ अधि०४ श्लोक । ( उच्चारप्रस्रवणे कृत्वा यो न चारो द्रव्याचारः। द्रव्यस्य यदाचरणम् तेन तेन प्रकारेण परिष्ठापयति तस्य प्रायश्चित्तं 'डिल' शब्दे चतुर्थभागे परिणमनमित्यर्थः । दश० ३ ० । परप्रतारणाय विविध२३८१ पृष्ठे वक्ष्यते) क्रियाणामाचरणरूपे मायाविशेषे च । भ० १२ श० ५ उ० आयममाण-आचमत-त्रि०। आचमनं कुर्वति, स्था० ५ ४४६ सूत्रटी। आचरत्यनेन करणे ल्युत् । रथे, शकटे च । त्रि० । वाच। ठा०२ उ०४१४ सूत्र । आयमिणी-आयमिनी-स्त्री० । विद्याभेदे.सूत्रका "आयमिणी आदरण-न० । मायाविशेषात्कस्यापि वस्तुनोऽभ्युपगमे, भ०१२ श०५ उ०४४६ सूत्रटी०। एवमाइयाओ विजाप्रो अनस्स हेउं पांजंति" (सूत्र३० +)। सूत्र०२ श्रु०२ उ० । आयरणकप्प--आचरणकल्प-पुं० । उत्सर्गाऽपवादयोः स्वआयम्ब-टुवप्र-धा० । कम्पने, “पेरायम्वाऽऽयज्झौ" स्थाने सबनाकर्तव्यतायाम् . नि० चू०। ॥४॥१४७॥ इति हैमप्राकृतसूत्रेण येपेरायम्बाऽऽदेशः । इदाणी इमो आयरणकप्पो भणित्ता गाहा"श्रायम्बह । श्रायझह । येवर । प्रा। जे भणित्ता उ पकप्पे, पुचाऽघरवाहता भवे सुत्ता। श्रायरंत--आचरत-त्रि० । अङ्गीकुर्वति, उत्तः। “तमायरंतो सो तह समायरंतो, सव्यो आयरणकप्पो उ ॥ ३८६ ।। चवहारं " ॥४२॥ उत्त०१०। कुति, उत्त० पाई०१० जे पकप एगूणवीसति उद्देस हिं पुवायरयाहया सुत्ता ४२ गाथाटी । विदधति च । उत्त० । “नायरेज कयाइ वि" अत्था वा भगिणता तहेव समायारंतस्स प्रायगणकप्पो भ॥१॥ नाचरत्-नाभिदध्यात् ( उत्त०अ०) न समाचरेत्-न यति । पत्थ पुवो उस्सग्गो, अवरोऽववादो। एत परोप्परविदध्यादिति संबन्धः । सूत्र०२ थु०५०। 'पाहता पतेसिं सट्टाणे सेवणा कर्तव्येत्यर्थः। आयरस्व-आत्मरक्ष-पुं० । आत्मरक्षके, स्था० । गाहासूत्रम् उस्सग अववायं, आयरमाणो विराहो हो ति । तो आयरक्वा पन्नत्ता । तं जहा-धम्मियाए पडि अववाए पुण पत्ते,उस्सग्गनिसेवो भइयो।।३०७॥ दारं चोयणाए पडिचाएत्ता भवइ, तुसिणीतो वा सिया, उ कया भयगाए कई उच्यते । जो धितिसंघयणसंपन्नो सो द्वित्तु वा पायाए एगंतमन्तमवकमजा । (मूत्र-१७२४) अववादट्ठागे पत्ते पि उसग्ग करेंतो सुद्धा जो पुण धि'ती श्राय' इत्यादि, सुगमा, नवरम् आत्मानं राग- निसंघयणहीणो अवधादट्ठागो उस्सग्गं करति सो बिराहणं गादेकन्याद्भवकूपाढा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः । धम्मि- पावति । एसा भयणा । गतो आयरगकप्पो । नि० चू० याए पडिचायगाए 'ति-धाम्पिकोपदेशेन नेदम् भवाशां २० उ०। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्त० । (३२६) भायरणया अभिधानराजेन्द्रः। भापरिय मायरख्या-श्राद(च)रणता-स्सी०। यतो मायाविशेषादादरण- ध। दशा। पायरियाणं' (सूत्र-१४) । मा-मम्-अभ्युपगम कस्यापि वस्तुनः करोत्यसावादरणम् , ताप या॑दया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते-सेव्यन्ते जिनशात्ययस्य च स्वार्थिकत्वादादरणता। मायाविशषे, आचरण सनार्थोपदेशकतया तदाकाङ्गिभिरित्याचार्याः । उक्तं चताऽप्यत्रैन । भ०१२ श०५ उ०४४६ सूत्रटी०।। “सुत्तत्थविऊ लक्खण-जुत्तो गच्छस्स मेढिभूमो य । मायरिय-माचारिक-पुं० । स्वकीयमतोद्भवानुष्ठानसमूहे , गणतत्तिविप्पमुको, अत्थं वापर पायरित्रो"॥१॥ इति । अथवा-श्राचारो-शानाचारादिः पञ्चधा, पा-मदिया याचारा-विहारः प्राचारस्तत्र साधषः स्वयंकरणामइह मेगे इइ (उ) मन्नंति, अपञ्चक्खाय पावगं । भाषणात्प्रदशर्नाश्चत्याचार्याः । प्राह च-" पंचविहं प्रापायरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ ।।६।। यार, प्रायरमाणा तहा पयासंता। प्रायारं संता, पायइह-अस्मिन्संसारे एके-केचित्कापिलिकादयो मानवादिनः रिया तेण खुचंति ६En" (श्राव०नि०) । अथवा-श्राइति मन्यन्ते, इतीति किम् ? पापकम्-हिंसादिकम् अप्रत्या ईषद: अपरिपूर्णा इत्यर्थः, चाराः-हेरिका येते प्राचाराः न्याय पापम्-मनालोच्याऽपि मनुष्य प्राचारिकं-स्वकी चारकल्पा इत्यर्थः, युक्ताऽयुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेया यमतोद्भवानुष्ठानसमूहं विदित्वा-सात्वा सर्वदुःखात् वि अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतयेत्याचार्याः । मुच्यते, पतायता "तत्वज्ञानान्मोक्षावाप्तिः" इति वदन्ति । भ०१२०१ उ०। दशा'चर' गतिभक्षणयोः, प्राकूजैनानां तु जानक्रियाभ्यां मोक्षः, शानवादिनां तु शानमेष पूर्वः । आचर्यते कार्यार्थिभिः सम्यते इत्याचार्यः । मुक्त्यनम् । उत्त० ६ ० । (एतन्मतनिराकरणं 'मोक्ख' "वर्णव्यानात् भयरण" ॥ ५। १ । १७ ॥ इति ध्यण् । शब्दे षष्ठे भागे करिष्यते) श्रा०म०१ अ. ६६३ गाथा । प्राक् मर्यादाभिविध्योः, चरिर्गत्यर्थ; मादया चरन्तीत्याचााः । आचारेण वा प्राचरित-न०। प्रा-चर-भावे क्तः । प्राचरणे, उत्त०। श्रा चरन्तीत्याचार्याः । प्रा० चू० १ ० ६६३ गाथाचूर्णिः । चरणमाचरितम् । तत्तत्क्रियाकलापः । उत्त०६ १०६ गा अट्ठारससीलंगसहस्साहिट्टियं तरणू छत्तीसइविहमाथाटी। पासवने, औ०४० सूत्रटी० । "अवज्झाणायरिअं" (सूत्र-६+) । पाचरितः-श्रासेवितः । उपा० १ श्रु० १ अ०। यारं जहडियं मे गिलाए महत्ति साणुसमयं पायरंति त्ति"ज किंचि वितहमायरिय" ॥६८२४॥ यत्किचिद्वितथम् वत्तयंति ति आयरिया । परमप्पणो य हियमायरंति अन्यथा पाचरितम्-प्रासेषितं भूतमिति वाक्यशेषः । श्रा० आयरिया। सब्यसत्तसीसगणाणं च हियमायरंति भाम.१० अनुष्ठानमापने "जं किंचि पितहमायरयं" यरिया । पाणपरिच्चाए विउ पुढवादीणं समारंभ ॥१०४ वितथम्-अन्यथाभूतं, संयमानुत्कलामत्यर्थः, श्रा नाऽऽयरंति, नारमंति, थाणुजाणंति, आयरिया । सुचरितम्-अनुष्ठानमापनमिति शेषः । पञ्चा० १२ विव० । हुमावरद्धेवि ण कस्सइ मसावि पावमायरति तिवा धम्मञ्जियं च ववहारं, बुद्धेहाऽऽयरियं सया । पायरिया । महा० ३५० तमायरंतो ववहारं, गरहं नाऽभिगच्छइ ॥ ४२ " स्याद्रव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्" ॥८।२। १०७ ॥ धर्मेण-वास्यादिकपणार्जितम्-उपाजितं धार्जिजतं, | इति हेमप्राकृतसूत्रेण चौर्यशब्देन समषु शम्नेषु संन हिक्षान्न्यादिधर्मविरहित इमं प्राप्नोतीति, चः पूरणे, युक्तस्य यात्पूर्ण इत् । प्रा०।" प्राचार्ये चोच॥ ८ । विविधं विधिवद्वा व्यवहरणमनेकार्थत्वात् श्राचर व्यव १।७३॥ इति हेमप्राकृतसूत्रेणाचार्यशम्दे चस्याऽऽत इहारः 'तम्' इति-कर्तव्यतारूपं बुद्धैः-अवगततत्त्वैराचरितं स्वमत्वं च । प्रा०। गुरी.पं०व०१३ गाथाटी०। पञ्चमदा-सर्वकालं, तमिति सदावस्थिततया प्रतीतमेव शा स्थविराणां मध्ये प्रथम स्थविरे, ध०३ अधि०५४ श्लोक। चरन्-व्यवहरन् , यद्वा-यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात्सुप्व्यत्य प्राचार्याः-अर्थदातारः । ६०१ उ०३ प्रक० ६३६ गायाच धर्मार्जिजतो बुद्धराचरितश्च यो व्यवहारस्तमाचरन्- | थाटी। आचार्यम्सूत्रार्थदाता, दिगाचार्यों वा । कल्प कुर्वन् , विशेषेखापहरति पापकर्मेति व्यवहारस्तम् , व्य ३ अधिक क्षण ४६ सूत्रटी० । प्राचार्यस्त्राओंभयवहाविशेषणमेतत् . एवं च किमित्याह-गहमिविनीतो: | बत्ता लक्षणादियुक्तश्च । श्राव. ३ अ०११६५ गाथाटी। यमित्यपंविधा निन्दा नाऽभिगच्छति-न प्राप्नोति यतिरिति विषयाःगम्यते । उत्त० ११० । आचर्यते स्म वृहत्पुरुषरण्याचरितम् । व्यवहारे, व्यवहारकाथिकान्यधिकृत्य (प्राह भाष्य (१) निक्षेप प्राचार्यपदस्य । कारः)-"पायरिए चव ववहारे" ॥७॥ व्य०१ उ०। (२) भेदाः-कलाचार्यः १, शिल्पाचार्यः २, धर्माचार्य _श्चेति ३ । तेषां विनयः । आचर्य-त्रिका प्राचर्यतेऽत्र । श्रा-चर-आधारे यत् । श्र-| (३) स्वरूपमाचार्यस्येह परत्र च । नुष्ठानयोग्ये देशे, वाच० । (४) प्रवाजनाचार्या उपस्थापनाचार्याश्च । प्राचार्य-पुं० । प्राचर्यते असावाचार्यः सूत्रार्थावगमार्थ | (५) स्वरूपमाचार्यस्य 'सुश्चत्थ' इत्यादि । मुमुक्षुभिरासव्यते इत्यर्थः । श्राव०४ १०४७ गाथाटी। (६) लक्षणमाचार्यस्य । (७) गुणा प्राचार्यस्य यै रहितो गुरुर्न भवति । १-'पावरिय'ति-सूत्रत्वात् । उत्त पाई०.६० (C) गुणा प्राचार्य्यस्य 'अपरिश्रावी' त्यादि। ८३ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। प्रायरिय (६) भ्रटाचारत्वं दुर्गुणस्सूरेः । र्शयति । एवं मन्तव्यं । एवमादि तेण ते भावायरिया (१०) पराऽहितकारित्वं दुर्गुणः । तेसिं फलं तहेव । श्रा०पू०२ अ०।। (११) सूरः स दुगुणो यन कुगुरुर्भवति । नामं ठवणा दबिए, भावे चउब्धिहो य ायरिश्रो । (१२) प्रमादिनमाचाय्य शिष्यो बोधयति । (१३) बैग शिष्यस्य गुरुः । दव्बंमि एगभवियाइ, लोइए सिप्पसत्थाई ।। ३०५॥ (१४) विनय श्राचार्यस्य । प्राचार्य इति कः शब्दार्थः, उच्यते- चरगतिभक्षणयोः' (१५) गुरुविनये वैद्यरान्तः। इत्यस्य ( चरेः) आङि वा गुरा (पा० ३-१-१०० वार्निक) (१६) नमस्कार प्राचार्य्यस्य । विति एयति प्राचार्य इति भवति, आचर्यतेऽसावित्याचायः, (१७) वैयावृत्त्यं गुरोः । कार्यार्थिभिः सेव्यत इत्यर्थः । अयं च नामादिभेदाच्चतु(१८) गच्छाधिपतिः कन कर्मविपाकेन भवति । र्विधः। श्राव. १० । इह नामस्यापन सुगमे । विशः। (१६) अनिशया श्राचार्यस्य । द्रव्यविचार पुनराह(२०) निर्ग्रन्थीनामाचार्यः ! आगमदव्वायरिओ, आयारवियाणो अण्वउत्तो। (२१) प्राचार्ये कालगते प्राचार्यान्तरस्थापनम् । (२२) प्राचार्यो ऽवधाविते प्राचार्यान्तरस्थापनम् । नो आगमओ जाणय-भवसरीराइरिचोऽयं ॥३१६१॥ (२३) लक्षणं "सुत्तत्थे णिम्माओ" इत्यादि। भविओ बद्धाऊ, अभि-मुहो मृलाइनिम्मिश्रो वाऽवि । (२४) एकपाक्षिकादेर्दिगाचार्यः । अहवा दबभूओ, दबनिमित्तायरणो वा ॥३११२।। (२५) लक्षणं मेढीभूतः । (२६) परीक्षा प्राचार्यस्य शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्वाचार्योऽयं कः इत्याह ' भविप्रो' इत्यादि, एकभाषिको, बद्धायुष्का; अभिमुख(२७) उद्देशः मैथुनादिप्रतिसेव्याचार्यत्वन । (२८) स्थापनाविधिराचार्यपदे गुरोः । नामगोत्रश्चेत्यर्थः, ' मूलाइनिम्मिश्रो वाऽवि ' त्ति-तथा (२६) परिच्छदहितस्यैवाचार्यत्वम् । मूलगुणनिर्मिमतः, उत्सरगुणनिर्मितश्च तद्व्यतिरिको द्र व्याचार्यो मन्तव्यः । तत्र मूलगुणनिर्मित आचार्यशरीर (३०) स्थापनायां स्थविराः प्रष्टव्याः । निवर्तनयोग्यानि द्रव्याणि उत्तरगुणनिर्मितस्तु तान्येव (१) निक्षेप आचार्यपदस्य तदाकारपरिणतानीति । अथवा-द्रव्यभूतोऽप्रधान प्राप्राङ् मर्यादाऽभियिध्योः, चरिर्गत्यर्थः, मर्यादया चर चार्यस्तव्यतिरिक्तो द्रव्याचार्यः प्रतिपाद्यते । यो वा न्तीत्याचार्याः । आचारस या चरन्तीत्याचार्य्याः । द्रव्यनिमित्तेनाचरति चेष्टते स द्रव्यानिमित्ताचरणाद् द्र"ते चाव्यहा-णामट्टवणाओ गतायो । द्रव्यभूतो वा व्याचार्यः, स च लौकिको, लौकिकमार्गे शिल्पशास्त्रादिद्रव्यनिमित्तं वा द्रव्यमेव वा दब्बं पायारवंतं भवति, विशेयः । यः शिल्पानि निमित्तादिशास्त्राणि च ग्राहयति स अनायारवंतं च नाम तं प्रति, तिरिण सिलया एरंडो इहोपचारतः शिल्पशास्त्रादिरुतः। अन्य विमं शिल्पशाय, धावणं प्रति, हारिहा रागो य वासण प्रति, को त्राचार्य लौकिकं भावाचार्य व्याचक्षत । शष सुगमांमति। ल्लुगा बरं व सिक्खवेणं प्रति, मदणसलागा भासादी 'पंचविहमि' त्यादिना लोकोत्तरी भावाचार्य उलः । पकरणं प्रति, सुबो घंटा लोहं च अविरोधं प्रति, कारं स. तरस्वरूपव्याख्यानार्थमाहकराय विरोधं प्रति, तल्लंदाणेधिरार्च एगमादि एत्थ गाधा"णामण-धाघण-वासण-सिक्खावण सुवमण अविरोधी आ मजायावयणो, चरणं चारो त्ति तीए आयारो । णि । दयाणि जाणि लोए, दव्यायारे बियाणाहि । अहवा- सो होइ नाणदंसण-चरित्ततवविरियवियप्पा ।।३१६३।। व्यायरिओ तिषिहो एगभविप्रो, बजाउओ, अभिमुह तस्सायरणपभासा-देसणो देसियाविमोक्खत्थं । णामगोत्तो। एगभविश्रा वतिरित्ते जो एगेणं भवेणं उयव जे ते भावाऽऽयरिया, भावायारोवउत्ता य ।। ३१६४ ॥ जिहि ति । यद्धाउओ जेण आउयं बझं । अभिमुहणामगोत्तो जेण पदेसा उच्छूढो । अहवा-मूलगुणणिश्यत्तितो, अहवाऽऽयरंति जं सय-मायारेंति व जमायरिजंति । उत्तरगुणणिठवत्तितो य । सरीरं मूलगुणा, बिऊकम्मादि मजाययाऽभिगम्म-ति जमुत्तं तेणमायरिया ।।३१६५॥ उत्तरगुणा । अहवा-जाणा, भविप्रो, यतिरित्तो, मंगुषायगाण समुहवायगाणं नागहस्थिवायगाणं जधासंखं पाठसिद्धा एव, नवरं ' तीए ' ति-तया-मर्यादया आयसो । प्रा० चू० ११० ।" व्यापायरियो सया: चरणमाचारः । तस्से ' त्यादि, तस्य-पञ्चविधस्या चारस्य स्वयमाचरणतः परेषां च प्रभाषगणतः तथा विनेभव्या " ॥ १३ + ॥ द्रव्याचार्यः प्राचार्यत्वयोग्यताया अभावादप्रधानाचार्यः । पश्चा० ६ विव० । भावारिश्रो यानां वस्तुप्रत्युपेक्षणादिक्रियाविधेर्दर्शनतो ये परात्मनो दुविहो-पागमतो, गोपागमतो य । तहेव । णोश्रागमतो मोक्षार्थ · दैसिय ' त्ति-देशितारस्ते भावाचारोपयुक्तदुबिहो-लोइयो, लोउत्तरिओ य । लोइसो-सिप्पाणि स्वादावाचार्या इति । अथवा-स्वयं यस्मादाचरन्ति चित्तकम्मादिसत्थाणि वाससियादि जो उपदिसति । सदनुष्ठानम् , आचरयन्ति चान्यैः । अथवा-प्राचर्यन्ते-मउत्तरिना-जो पंचविधं णाणादियं आयारं पायरति; दिया अभिगम्यन्ते यतो मुमुचुभिरिति यदुक्कमेतत्ताप्रभागति ग अरगसि आयरियारणं आचारतव्यानि द- पर्यमित्यर्थः, तेनाचार्याः । विशे। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। प्रायरिय कस्याऽऽचार्यस्याऽऽशा नाऽतिक्रमणीयेत्यधिकृत्य- सिप्पायरिए २, धम्मायरिए ३ । जाणासि णं तुम्हं पएसी गोयमा ! चउब्धिहा पायरिया भवंति, तं जहा- तेर्सि तिराह आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पउंनामाऽऽयरिया १, ठवणायरिया२, दव्यायरिया ३, भा- जियव्या ?,हंता जाणामि-कलायरियस्स, सिप्पायरिकाम्न वायरिया ४ । तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थ- उबलेवणं वा संमजणं वा करेजा,पुप्फाणि वा आणावेजा, यरसमा चेव ददुब्बा, तेसिं संतियाणं णाइक्कमेजा, से मंडवेजा वा, भोयवेजा वा, विउलं जीवियारिहं पीइंदाणं भयवं! कयरे णं ते भावायरिया भन्नति, गोयमा ! जे दलएजा, पुत्ताणं पुत्तियं वावि विकप्पेजा ।। जत्थेव धम्माअजपन्यइए वि आगमविहीए एयं पए पए आणाणु- ऽऽयरियं पासेज्जा तत्थेव बंदिजा णमंसेजा सकारजा ससंवरंति ते भावायरिया । जो णं वाससयदिक्खिए म्भाणेजा कल्लाण मंगलं चेव पज्जुवामेजा फासुरमणि-- वि हुत्ताणं वायामेलेणं पि आगमओ वाहिं करेंति ते जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेजा पाडिहारिणणं णामठवणाहिं णिोइयव्वे । से भयवं! आयरियाणं | पीठफलगसेज्जासंथारतेणं उवनिमंतिजा । मूत्र-+)। रा०। केवइयं पायच्छित्तं भवेजा। जेसिं गच्छस्स साहू णो तं प्राचार्यस्त्रिविधस्तद्यथाआयरियमयहरपविनिणीए य सत्तरसगुणं अहाणं सी- सीहाऽणुगवसभ-कोट्ठगाणूगे ॥ ४०० +॥ लखलिए भवंति । तो तिलक्खगुणं जं अइदुकरणासंजं सिंहाऽनुगो १. वृषभाऽनुगः २, कोष्टुका ऽनुगश्च ३ । सुकरं तम्हा सव्वहा सव्वपयारेहि णं आयरियमयहरे प- कोष्टुका-शृगालः । यत्र यो महन्यां निषद्यायां स्थितः वित्तिणिए य अत्ताण पायच्छित्तस्स संरक्खेयव्वं अ सन् सूत्रमर्थ वा वाचयति तिष्ठति वा स सिंहानुगः । यः १ पुनरेकस्मिन् कल्पे स्थितस्सन् वाचर्यात निष्ठात वा स खलिअसीलेहिं च भवियव्वं । महा० ५ अ०। वृषभानगःश यस्तु रजोहरणनिषद्यायामौपग्रहिकपादप्रोड्छ. (२) आचार्यस्य भेदाः ने वा स्थितो वाचयति तिष्ठति वा स कोष्टुकानुगः इति ४। तो पायरिया पामत्ता। सिप्पायरिया१. कलायरियार, व्य०१ उ० । नि० चू० २० उ० ३४३ गाथा । (क स्याचार्यस्य कः प्राचार्य आलोचनां दद्यात् इत्यादिबहुधम्मायरिया ३ । जे ते धम्मायरिया, परलोगहियट्ठाए, वक्तव्यता 'पालोयणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽग्रे वक्ष्यते ) निज्जरद्वाए. आराहेयव्या । अएणे कलायरिया, सि (३) स्वरूपमाचार्यस्येह परत्र च-- प्पायरियाए, कइएहिं, कित्तबुद्धिए, आराहियब्वे । आयरियो केरिमो, इहलोए केरिसो व परलोए । तत्थेगे धम्मायरिया, सोवायकरंडसमा । बद्धाइकथ इहलोए अमारणिो , परलोए फुडं भणंतो ।। ३८१॥ त्थप्पयगाहाइहिं जे सुद्धसभाए वक्खाणिति ते सो य एष उपग्रहकदाचार्यस्तमेव ज्ञातुमिच्छामि कीदृशः खवागकरंडममा । वेसाकरंडसमा-जो रीरी आहार वाचार्य इहलोके हितकारी, कीरशः परलोके इति, णसरिसजीहावक्खाणडंबरेणं अंतरं सुअसारविरहि- सूरिगह-चतुर्विधस्सामान्य नाऽचार्यः, तद्यथा-इह लोके याचि सुद्धसभाए जणं विमोहिंति णरविति अप्पाणं हितो नामको, न परलोक हिनः१ । परलोकहितो, नेह लोकहितः २ । इह लोके हितोऽपि; परलोके हितोऽपि ३ । धुतंसि आलुच्च अत्थेणे पाडिंति गोयमगणहराण उव न इह लोकहितो; नापि परलोकहितः ४। तत्र प्रथमहिमाए ते वेसाकरंडसमा । गाहावइकरंडसमा-जे संमं समु. तीयभङ्गव्यासपानमाह-' इहलोए' इत्यादि, तत्र यो वस्त्रवसियसुगुरूहिंतो संपत्तं अंगोवंगाई सुत्तत्थेसु परिच्छिय- पात्रभनपानादिकं समस्तमपि साधूनां पूरयतिन पुनः संयमे च्छेयगंथा ससमय-परसमयणिच्छया परीवयारकरणि सीदतस्पारयति सः-असारणिक सारणारहित इह लोके हितो न परलोके, एषा प्रथमभङ्गभावना । यः पुनस्यमयाकभल्लिच्छया । जणजोगविहीए अणुओगं करिति ते गा गपु प्रमाद्यतां सारणां करोति न च वखपात्रभनपानादिकं हावइकरंडसमा । रायकरंडसमा-जे गणहरा चउदसपु- प्रयच्छति, स केवल स्फुट भणम् कुर्वाणः परलोक हितो, विणो वा घडाओ घडसयं, पडाप्रो पडसयं, इच्चाई वि-1 नेह लोके, इति सामर्थ्यागम्यते, एपा द्वितीयभङ्गभावना । हाई सयसमाणिया ते रायकरंडसमा । गाहावइकरंडसमाणे, तृतीयचतुर्थमनभावना तु स्वयं भावनीया । सा चैवम् यो वनपात्रभक्तपानादिकं समस्तमपि साधूनां पूरयनि रायकरंडसमाणे, दोवि आयरिए तित्थयरसमाणे । अंग०।। संयमयोगेषु च सीदतस्सारयति स इहलोके हितः पर(श्राचार्यस्य यथोचितसत्कारः ) लोके च हितः चतुर्थ उभयरहितः । अत्र पर श्राह ननु यो भद्रस्वभावतया न सारयति वस्त्रपात्रभक्कादिक केसीकुमारसमणे पदेसि रायं एवं बयासी-जाणासि णं तु समस्तमापूरयति स एव समीचीनः, यः पुनः खरपुरुष तुम्हं पएसी केवइयाऽऽयरिया पण्णता ?, हता! जाणा- कुर्याण:-चराडरुद्राचार्य इव सार यति स न समीचीन, मि, तो पायरिया पामत्ता। तं जहा कलायरिए १, असमाथुत्पादकत्वात् । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायरिय (३३२) अभिधानराजेन्द्रः। पायरिय तत्राऽऽह परनिमित्ते वा यः केवल प्रवाजयति स प्रथमः प्रवजजीहाएमिलिहंतो, न भद्दतो जत्थ सारणा नत्थि ।। नाचार्यः । एवमेव-अनेनैव प्रकारेण द्वितीयः स केवलं दंडेणवि ता.तो. स महतो सारणा जत्थ ॥ ३८२ ।। मात्रम् उपस्थापयति; यः प्रवाजितस्य सदुपस्थापनामात्र करोति स द्वितीय इत्यर्थः । तृतीयः पुनरपि प्रवाजनमुपयत्र नाम संयमयोगेषु सीवां सारणा नाऽस्ति स | स्थापनं वाऽऽस्मार्थ परार्थ वा करोति, यः पुनःभयकारी प्राचार्यों जिह्वयाऽभिलिहन-मधुरवचोभिरानन्दयन् , उ स चतुर्थः । य स कस्माद्रवत्याचार्यः उभयविकलवापलक्षणमेतत्-बनपात्रादिकं च पूरयन् न भद्रको-म त्सरिराह--भण्यते स धम्माचार्यों धम्मरशकत्वात् स समीचीनः परलोकाऽपायेषु पातनात् । यत्र पुनस्सीदतां पुनगृही श्रमणो वा बेदितव्यः । साधूनां सम्यक सारणा-संयमयोगेषु प्रवर्तना समस्ति एवं च यत्राऽऽचार्याः तथा चाह-- समाचारों दराडेनापि ताडयन् भद्रका-एकान्तसमी धम्मायरिपब्वायण, तह य उट्ठावणा गुरू तइयो । चीनः सकलसांसारिकाऽपायेभ्यः परित्राणकरणात् । को तिहिं संपन्नो, दोहि वि एकेकएणं वा ।। ४१ ।। अथ सारणमकुर्वाणो जिहया बिलिहन् कस्मात्र समीचीन इत्यत्राह प्रथमा धर्माचार्यो यस्तत्प्रथमतया धर्म प्राहयति १। जह सरणमुवगया. जीवियववरोवणं नरो कुणइ। । द्वितीयः प्रजाजनाचार्यों यः प्रवाजात २ । तृतीयो गुरु रुरुपस्थापनाचार्यों यो महावतेषूपस्थापयति ३ । तत्र एवं सारणियाणं, पायरितो असारमो गच्छे ॥ ३८३ ॥ | कश्चित्त्रिभिरपि संपन्नो भवति । तथाहि--कदाचित्स एव यथा कोऽपि नर एकान्तेनाऽहितकारी शरणमुपागतानां धर्म ग्राहयति स एव प्रवाजयति स एवोपस्थापयति जीवितव्यपरोपणं करोति एवं साधूनामपि शरणमुपा- कश्चिद् द्वाभ्याम् , तद्यथा-धर्मग्राहकत्वेन प्रधाजनेन च, गतानां संयमयोगेषु प्रमादब्यावर्तनेन प्रवर्तनीयानामा-1 अथवा--धर्मग्राहकत्वेनोपस्थापनेन केनचिदेकैकेन गुणेन चाग्योऽसारको गच्छे भावमीयः । सोऽपि शरणोपगत- तद्यथा । कश्चिद् धर्ममेव ग्राहयति । कश्चित्प्रवाजयत्येष शिरोनिकर्तक व एकान्तेनाऽहितकारीति भावः । शरण- कश्चिदुपस्थापयत्येव । मुपगतानां संसारापारपारावारे निरनुकम्प प्रक्षेपणात् , स सूत्रम्-- च ताश इह परलोकहितार्थिना परित्याज्यः । यस्तु स्वर- चत्तारि आयरिया पन्नत्ता । तं जहा-उद्देसणाऽऽरिए परुषभणनेनापि संयमयोगेषु सीवतः सारयति स संसार एगे णाम; एगे नो वायणायरिए १, वायणायरिए एगे निस्तारकत्वादेकान्तेनाऽऽश्रयणीयः । व्य०१ उ०। नि० चू० णाम; एगे णो उद्देसणायरिए २, एगे उद्देसणायरिए वि (४) प्रवाजनाचार्याः, उपस्थापनाचार्याश्च । सूत्रम् बायणायरिए वि ३, एग नो उद्देसणायरिए, नो वायचत्तारि पायरिया पण्णत्ता, तं जहा-पञ्चायणायरिए हायरिए ४ ॥ १३॥ एगे नाम, नो उबट्ठावण आयरिए १ । उवट्ठावणायरिए अमीषां स्वरूपमाहनाम एगे; नो पञ्चावणायरिए २। एगे पव्वावणाय एगो उद्दिसह सुयं, एगो वाएइ तेण उद्दिटुं । रिएऽवि उवठावणायरिएवि ३। एगे नो पञ्चायणायरिए; उहिसई वाएइ य, धम्माऽऽयरिश्रो चउत्थो य ॥ ४२ ॥ नो उवठायणायरिए धम्मायरिए ४ ॥१२॥ एकः-प्रथमः ध्रुतमुद्दिशति न बाचयति यथा मालबुअस्य (सूत्रस्य ) संबन्धमाह द्धधा प्रथमत आचार्य उद्दिशति तत उपाध्यायः । अत्राअदढाऽपियधम्माणं, तबिवरीए करेंति पायरिए। । चार्यः प्रथममनधर्ती-उपाध्यायो द्वितीयभो. तथा चाहतेसि विहाणंमि इमं, कमेण सुत्तं समुट्ठि तु ॥३७॥ एको द्वितीय उपाध्यायस्तेनाऽऽचार्येणोद्दिष्ट वाचयति य एवाहिशति स एव वाचयति एष तृतीयः, उभयषिकलअबढधर्माणामप्रियधर्माणां चानुशासनाय स्थविरा श्चतुर्थों धर्माचार्यः । व्य०१० उ० । आचार्यते-सेव्यने चाचार्याः । व्याख्यानार्थमाह या प्राचार्यः, सच पञ्चधा-प्रव्राजकाचार्यः १. सचित्तापवावण उट्ठावण, उभय नोभयमिति चउत्थो । चित्तमिश्रानुशायी दिगाचार्यः २, प्रथमत एव श्रुतमुद्धिअतऽट्ठपरऽट्ठा वा, पव्वावणा केवला पढमे ॥ ३८॥ शति यः स उद्देशाचार्यः ३, उद्देष्टगुर्वभावे तदेवं श्रुतं समुदिशत्यनुजानीते वा यः स समुद्देशानुशाचार्यः ४, एवमेव य वितितो वि, केवलमत्तं उबडवे सो उ।। आम्नायम्-उत्सर्गापवादलक्षणमर्थे वक्ति यः स प्रयचतइयो पुण उभयं पि, अत्तऽट्ठपरऽ? वा कुण उ ।। ३६ ।। नार्थकथनेनानुप्राहकोऽक्षनिषद्यानुशायी आम्नायार्थयाचजो पुण नोभयकारी, सो कम्हा भवति आयरिगोउ। काचार्यः५, । ध० ३ अधि०११६ श्लोक । भमति धम्माऽऽयरितो,सो पुण गहितोव समणो वा ४० (५) स्वरूपमाचार्यस्य । कीदृश प्राचार्य्यस्तरस्वरूपमाहप्रथम-प्रवाजनाऽऽचार्यः । द्वितीये-द्वितीयभङ्गेन सूचित सुसस्थतदुभएहिं, उवउत्ता णाणदंसणचरित्ते । उपस्थापनाचार्यः । तृतीयभसूचित उभयः । प्रत्राजनो- गणतत्तिविप्पमुका, एरिसया हुंति पायरिया ।। ३२५ ।। पस्थापनाचाय्यः । तत्र प्रथमः-प्रथमस्यारमार्थस्य परास्य केवला प्रमाजना । किमुक्तं भवति-प्रान्मनिमित्ते,। Jain Education Interational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३३) आयरिय आभधानराजेन्द्रः पायरिय ये सवार्थतदुलयोपेता इति गम्यते । तया सततं ज्ञानदर्शन हयसच्छंदविकप्पविहि विहिन्तुं लिविगणितसइत्याणिमित्तचारित्रे समाहारो इन्धः । ज्ञानदर्शनचारित्रेषु उपयुक्ताः उप्पादपाराण पमिञ्चसभावजाएग वसुहसमं सोतघरस कृतोपयोगाः । तया गणस्य गच्चस्य या तप्तिस्सारा* तया माणे पुक्खरपत्तमिव, हिरवदेवं वायुमिव, अप्पमिबद्ध विप्रमुक्ताः । गणावच्छेदप्रतृतीनां तस्तप्तेः समर्पितत्वापस पव्वयमिव, हिप्पकंपं सागरमिव, अक्खोभं कुम्मो, श्व गु कमेतत् । शुनलकणोपेताच य एतादृशा नषन्त्याचा-ः। तिदियं जम्बकणगमिव, जायतेयं चन्दमिव, सोमं सूरमिव, ते चार्थमेव केवलं नाषन्ते न तु सूत्रमपि वाचयन्ति । तथा दित्ततेयं सलिलमिव, सव्वजगणिब्युश्करं गगणमिव, अपरिचोक्तं । “सुप्तत्यावलक्षण, जुत्तो गच्चस्स मेदिनूतोय ।। मित यायं मतिकतुं सूयकेतुं सुदिकृत्यं सुपराविहितत्यं एगं गपतत्तिविप्पमुक्को, अत्यं नासे आयरियो" ॥ अथ किं प्रायतसुहगवसगं होसजढं तिदमविरतं तिगारवरहितं कार यमाचार्यास्स्वयं सूत्रन्न वाचयन्तीत्यत भार॥ तिसल्लणिसलं तिगुत्तिगुत्तं तिगणविसुद्धं चन्विहविकदा एगग्गया य माणे वडी, तित्ययरअणगिई गरुया । विवजियमति च उक्कसायविजढं चनविदाविसुद्धबुधि चउन्वि प्राणयेज्जमिति गुरु, कयरिण करखो न वापई ॥ हाहारीरासंबमति पञ्चसमितं पञ्चमहब्बयधारगं पञ्च सूत्रवाचनाप्रदानपरिहारेणार्थमेव केवलव्याख्यानाय माचा गियंगनिदा इजा गं पञ्चविहचरित्तजा (गं पञ्चाविहचरित्त सक्ख गसंपन्न चिहविकहविवज्जग विहदव्वविधिवित्थ स्य॑स्य पकाप्रता एकाप्रमनस्कता ध्यानेऽर्थचिन्तनात्मके नष रजाणगं ठाणविसुद्धपञ्चपखाणदेसगं उज्जीवकायदयापर ति । यदि पुनस्सूत्रमपि वाचयेत्तदा बहुव्यग्रत्वादर्यचिन्तायामेकाग्रता न स्यात् एकाप्रतयाऽपि को गुण इत्यत आह। सत्तजयविप्पमुषकं सत्तविहसंसारजा गं सत्तविहगुप्तो वृतिः। एकाप्रस्य हि सतोऽर्थ चिन्तयतस्सूत्रार्थस्य तत्र स वदेसगं अकृषिहमा गमहणं अविहबाहिरणजोगरहियं दमार्योन्मीलनादृझिरुपजायते । तया तीर्यकरानुकृतिरेष कृता अविहब्जंतरमाणजुत्तं अठविहकम्मगंग्जेिदगं नघबंजचेर वावत्तिघातकं दसविहसम राधम्मजाणगं पकारससातिय प्रवति । तथाहिं । तीर्थकृतो नगवन्तः किनार्यमेव केवझं क्खर विहिवियाणगं पकारसम्वासगपझिमोवदेसगं बारस भाषन्ते न तु सूत्रं नापि गणतप्तिङ्कवन्ति । एवमाचार्या निक्खुपममाफासगं बारसंगतबजावणाजावितमात बारसं भपि तथा वर्तमानास्तीर्थकरानुकारिणो नवन्ति । गसुत्तत्यपारगं एवमाश्गुणोववेयस्स णिम्मधमदिरिसिस्स सूत्रवाचनां तु प्रयच्छतामाचारयाणां लाघवमप्युपजायते । सगर्ल सकम्म कितिकम्मं काऊणं नमाति नगवं बहुपु तद्वाचनायास्ततोऽधस्तनपदवृत्तिनिरप्युपाध्यायादिन्निःक्रिय रिसपरंपरागयं संसारणित्थरणोपायं प्रावस्सगाणुओग माणत्वादेवं च तस्य तथा वर्तमानस्य बोके राज श्व मिच्छामि तस्सायरिओ गुरुमहप्परचा आवस्सयाणुयोग महती गुरुता प्रादुर्भवति। तद्गुरुतायां च प्रवचनप्रनावना तथा परिकहरे. ॥ आ.चू.॥ आझायां स्थैर्यमाझास्थैर्य कृतं नवति तीर्थकृतामेवमाझा पा ईशशि गुरौ गुणमाह ॥ लिता जवतीत्यर्यः। श्यं हि तीर्थकृतामाझा ययोक्तप्रकारेण ममानुकारिणा आचार्येण नवितव्यमित्यस्मात् हेतुकापात गु जत्तिबहुमाणसका, यिरयाचरणंमि होइ सेहाणं ॥ हराचार्यः । कृतः ऋए.मोकोयेन स कृतऋणमोक्तस्तेन हि सा एआरिसम्मि नियमा, गुरुमि गुणरयणजनहिमि ।। १५॥ मान्यावस्थायामनेके साधवस्तत्र सूत्रमध्यापितास्ततऋणमो- व्याख्या । नक्तिबहुमानाविति नक्तिर्वाह्यविनयरूपा बहुमानो वस्य कृतत्वात्सूत्रं न वाचयति॥ उक्तमाचार्यस्वरूपम् । व्य नावप्रतिबन्धः एतौ नवतः ॥ शिक्षकाणामनिनवप्रवजिताना खं.१ .१॥ मिति योगः। केत्याह ईदृश्येवं जुते गुरोप्राचार्ये नियमानियमेन (६) लक्षणमाचार्य्यस्य ॥ पुनरपि स एव विशिष्यते । गुह रत्नजलधौ गुणरनसमुत्र इति आवश्यकचूर्णी॥ ततः श्रकास्थिरताचरणे जवतीति । तथाहि । गुरुनक्ति किंचि आयरियं आयारकुसलं एवं संजमपवयएसंगद बहुमानजावत एव चारित्रे श्रमा स्थैर्य च जवति नान्यथति बग्गहणुग्गहकप्पववहारपन्नत्तिदिहिवायससमयपरसमयकु- गाथार्थः॥ गुणान्तरमाह॥ सलं ओयसि तेयंसिं वच्चंसि जससि दुकरिसं अबदुगचित्त प्रणवत्तगो अएसो, हवादहूँ जाणई जो सत्ता॥ जितक्कोहं पयारं जितिदियं जीवितासं समरएनयविप्पमुकं चित्ते चित्त सहावे, अणणवत्तेतह उवायं च ॥१६॥ जियपरिस्सह पुव्वरयपुव्वकीबियपुध्वसंयवविरहितं णिम्ममं व्याख्या । अनुवर्तकश्च एषोऽनन्तरोदितो गुरुर्नवति रढम निरहंकारं पाणुताविं सक्कारवानानाभसुहदुखमाणा अवमा त्यर्थ कुत इत्याह । जानाति यतः सत्वान् प्रालिनश्चित्रान् ए सह अचवलं असबलम् असंकिविलु पिव्वणचरित्तं दसविह नानारूपाँश्चित्रस्वन्नावान्नानास्वन्नावान् अनुवाननुवर्तनी आसोयपदोसविहिन्मुंअहारसआयाराणजाणगं अविहालो यान् तथोपायं चानुवर्तनोपायंच जानातीति गाथार्थः । पं. ० यणरिहगुणवदेसगं आलोयणारिहं सुतरहस्सं अपरिस्सा पायच्चित्तकुसलं मग्गामग्गवियाणगं उम्गहईहअवायधारणाप (७)गुणा आचार्यस्य यै रहितो गुरुन जवति ॥ वरबुफिकुस अणुओगजाएगं एयविहिन्नुं आहरण्हेउका गुरुगुणश्च षट्त्रिंशदनुयोगशब्दे ॥ रणणिदरिसणउवमाश्रुित्तनहअदरं रिसिहि बहुविहलपा गुरुगुएरहितस्य गुरोर्विधिना परित्यागः ।। यागारोपदेस इंगितायारो गमनिससितमूगसम गुवदिहा वा गुरुगुणरहिओ उगुरू, नगुरू विहिचायमो न उद्दिहो। * ततिश्चिन्ता। प्रतिमाशतके श्लोक ६५ तमे ॥ अप्पत्यसकमेणं, ण उ एगागित्तणेति ॥ २४॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३४) पायरिय अभिधानराजेन्द्रः पायरिय व्याख्या । गुरुगुणाः संझानं सदनुष्ठानविशेषास्तै रहि- कपणापतेश्च सांपरायिककर्म कषायकर्म । २ । आलोचनातोहीनोगुरुगुपरहितःतुशद्धः पुनरर्थः । गुरुर्धर्माचार्योगुरुन- मंगीकृत्य तृतीयभंगपतितः आलोचनाया अपरिश्रावित्वात् धर्माचार्यों भवति । सुवर्णगुणविक सुवर्णमिव । ततश्च (वि । ३ । कुमार्ग प्रति चतुर्थभंगपतितः कुमार्गस्यहि प्रवेशनि हिचायमो उत्ति) वह मकारो बालिकस्ततश्च विधित्याग र्गमाभावात् ।।। याद वा केवश्रुतमाश्रित्य भंगा योज्यं पवागमिकन्यायेन परिहार एव तस्य गुरोरिष्टोऽनिमतो ते तत्र स्थविरकल्पिकाचार्याः प्रयमभंगपतिताः । १ । जिनानां । स च न यथा कथं चिदत एवाह । अन्यत्र गुरुकुलान्तरे हितायभंगपतितास्तु तीकृतः । १ । तृतीयत्नंगपतिता संक्रमे प्रवेशेन न पुनरेकाकित्वेन एकाकिविहारितयेति । गुरु- यया संदिकाः। तेषां तुक्वचिद परिसमाप्तावाचायादनिमय कुलान्तरसंक्रमणे विधिश्च" संदिठो संदिहस्स चेव संपज्जइ- सनावात् । ३। प्रत्येकबुद्धास्तभयाभावाश्चतुर्तभंगस्थाः सम्य उपमा ।। चउभंगो एत्थं पूण, पढमो भंगो हव सुद्धो,,॥१॥ क्सक्थेत्यर्थः (समपासी चेव होश्कज्जे सुत्ति) सममविपरीत इत्यादिरागमप्रसिद्ध इति सर्वथा गुरुरहितेन न भाव्य पश्यतीत्येवं शीलःसमदर्शी"दृशो नियच्छ पैच्छे"त्यादिना शेः मिति जावो यदाह"एस गमणेसणं वा, कहं तेनाहिंति जिग- पासादेशः । एवं विध एव योभवति क्व कार्येषु आगमव्या बरमयं वा ॥ करि मिव पोयाला, जे मुक्का पब्वश्य- ख्यानादिसकअव्यापारेण्वित्यर्थः । स आचार्यः रक्कति धत्ते मेत्ता" शतिशब्दः प्राग्वदिति गाथार्थः॥ पंचा. वृ. ११ ॥ कुमार्गे पतन्तमिति शेषः । कं गच्छं गणं किंनूतं सबाबाश्चते अथ गुरुगुएरहितस्तु गुरुर्न गुरुरिति विधित्याग एव तस्यष्ट वृद्धाश्च सबाल वृद्धास्तैराकृतः संकीर्णस्तं सबालवृद्धाकुवं इति यदुक्तं तत्र विशेषाभिधानायाह ॥ किमिव चरिव ॥ गुरुगुणराहिओ वि श्ह, दहव्यो मूत्रगुणविउत्तो ॥ यथाचार्यस्वरूपमाह। जोए उ गुणमेत्तविहीणोत्ति चमरुद्दो उदाहरणं ।।३५॥ सीआवेइ विहारं, सुहशीनगुणेहिं जो अबुधीओ ॥ सन बरं जिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ।। २३ ॥ व्याख्या। गुरुगु परहितोऽपि आप शब्दोऽत्र पुनः शब्दार्थस्तत व्याख्या (जो अबुद्धी ओत्ति) य आचार्योऽयुरिकस्तश्व गुरुगुपरहितो गुरुन भवति। गुरुगुणरहितः पुनरिह गुरु त्वझानरहितः ( सीयावे इत्ति ) सीदयति शियिनीकरोति कुलवासप्रक्रमे स एव अष्टव्योज्ञातव्यो मुलगुणवियुक्तो महाव्रतरहितः सम्यग्ज्ञानक्रियाविरहितोवा यो न तु नपुनर्गु कं विहारं नवकल्परूपं गोतार्थादिरूपं वा । कैः सुखशीलगुणैः णमात्रविहीनो मूलगुणब्यतिरिक्तप्रतिरूपताविशिष्टोपशमादि सुखशीलस्य साताभित्राषिणो गुणाः पार्श्वस्थादिस्थानानि गुणविक शति हेतोगुरुगुणरहितोदृष्टव्य इति प्रक्रमः उप सुखशीलगुणास्तैः (स नवरित्ति) केवसं लिंगधारी वेषमात्र प्रदर्शनार्थोवा इति शब्दः उक्तं हाथै " काल परिहा धारी संयम आश्रवनिरोधरूपस्तस्य योगः प्रतिलेखनादि णिदोसा,एत्तो काश्गुणविणेण ॥ अमेण विष्पव्वज्जा, व्यापारस्तेन रहितत्वात् निस्सारश्चर्विततांबूस वदिति गाष्ठादः॥ २३ ॥ दायन्वा सीसवंते" अत्रार्थे किं ज्ञापकमित्याह ।चारुचक कलाभिधानाचार्य उदाहरणं ज्ञापकं तत्प्रयोगश्चैवं गुणमात्र कुलगामनगररज्ज, पयहियं जो तेसु कुणइ हुममत्तं ॥ बिहीनोऽपि गुरुरेव मूबगुणयुक्तत्वात् चारुद्राचार्यवत् तया सोन वरि निंगधारी संजमजोएण निस्सारो ॥२४॥ यसी प्रकृतिरोषणोऽपि बहूनां संविग्नगीतार्यशिष्याणाममो व्याख्या । कुवं गृहं प्रामं सकरं नगरमष्टादशकररहितं राज्यं चनीयः विशिष्टबहुमानविषयश्चात् । पंचा० वृ० ११ ॥ सप्तांगमयं उपलकणत्वात् धूत्रीप्रकारपरिक्तिप्त खेटं कुनगरं (0) गुणाआचार्यस्य अपरिश्रावीत्यादि ।। कर्वट सर्वत्रातृतीयगव्यूतांतरग्रामान्तरहितं ममंचं जनपुनरप्याचार्यगुणानाह । पयोपेतं जनपत्तनं छीपमिव स्थापयोपेतं स्यनपत्तनं लोअपरिस्सावी सम्मं, समपासी चेव होई कज्जेस।। हादिधातुजन्म तमिरूपं आकर जत्रस्यलपयाज्यामुपेतं कोण मुखं वधिक समूहवासं निगममित्यादि शेयं ( पयहियत्ति) सोरक्खइ चापिब सबानबुढाउलं गच्छं ॥॥ प्रहायत्ति प्रहार्य प्रकर्षेण त्यक्त्वा पुनर्यः आचार्यस्तेषु कुयादिषु व्याख्या।न परिश्रवति परिकयितात्मगुह्यजलमित्येवं शीलोऽप करोति विधत्ते दु पुनरर्थे ममत्वं ममैतदित्यभिप्रायमित्यर्थः। रिश्रावी आलोचनामाश्रित्य आचारांगोक्ततृतीयभंगतुल्य स सूरिः नवरि केवलं वेषधार। संयमयोगेन निस्सार इति श्त्यर्थः। भंगाश्चैते । एकोहदः परिगतश्रोताः पर्यागयत् गाथा बन्दः॥२४॥ ओताश्च शीता शीतोदा प्रवाहाहदवत् । यतस्तत्र जझं अथ पुनरपि सुन्दराचार्यप्रशंसामाह ॥ निर्गच्छत्यागच्छति च ।। अपरःसुपरिगप्रच्छ्रोता नोपर्यागमत विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तं अत्यं च गाहइ ॥ श्रोताः पमहदवत् पान्हदे तुजलं निर्गच्छति नत्वागगति ।शतया परोनो परिगबत् श्रोताः पर्यागमत् श्रोताश्च लवणो सो धन्नो सो अपुणो अ, सबन्धू मुक्खदायगो ॥२५॥ दधिवत् लवणे आगच्छति जलं न तु निर्गच्छति । ३ । अपर व्याख्या "विधिणा धर्ममश्यहिं असुंदरेहि कारणगुणोवणि स्तु नो परिगलत् श्रोता नो पर्यागात् श्रोताश्च मनुष्य पहि पलहायन्तो अमणं सीसचाई आयरित्रो" इत्याद्याग मोकादिः समुज्यत्तत्र नागच्छति न चनिर्गच्छति। तत्रा गमोक्तप्रकारेण (जोउत्ति.) यः पुनराचार्यः (चो एत्ति) चो वार्यः भ्रतमंगीकृत्य प्रथमभंगपतितः श्रुतस्य वानग्रहण दयति प्रेरयति शिष्यगणं कृत्यकरणादी तया सूत्रमाचा सद्भावात् । १। सांपरायिककर्मापेकया तु द्वितीयभंगपतितः रांगादिश्रुतविधिनत्यस्यात्रापि सम्बन्धनात् व्यवहारदशमोहे कपानगाभापन गहाभानन तपः बायोमर्गादिना । शकायुक्तेन विधिना ग्राहयति पाउयति सूत्रपासनानन्तरं तस्य Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५) अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय निर्युकिभाष्य चूर्णि संग्रहणं सिटिप्पनकादिपरंपरोध विधिनेत्यस्यावाप्यनिसम्बन्धनात् "सुतोपमो बी श्री " इत्यादिना श्रीभगवती सूत्रपञ्चविंशतितमशतकतृती यो देशकश्रीनन्दिसूत्रावश्यक नियुक्त्याद्युक्तेन विधिनैव ग्राहयति योधयति श्रयवा सूत्रमर्थं च विधिना गाहते निरंतरं स्वयमज्यस्यतीत्यर्यः से आचार्योधन्यः पुण्यवान् अतएव ( सो अ पुणोयत्ति ) स पुण्य एव प्रवित्रात्मैव बंधुरिव बन्धुः । कुमत्यः दिनिवारकायेन परमहितकर्तृत्वात् अतरच ( मुक्य दायगीति) माकप्राप्तिहेतुङ्गानादिरत्नत्रय संजकत्वेन मोक्क दायक इति अनुष्टुप् छन्दः ॥ २५ ॥ सएव जम्मसत्ता च विपाहिए | दंसे जो जिगुदिनं, अडाणं जहा ॥ २६ ॥ व्याख्या । स एवाचाय्यां प्रव्यत्वानां मोकगमनयोपजनां नयनतुल्यो व्याहतः कतिजनादिनः । स कोयो जिन दिएमा मानाराधनमित्यर्यः । यथास्थितमतियं दर्शयति कुमतिमिराकरणेन प्रकटीकरोतीति अनुष्टुप्छन्दः ॥ २६ ॥ मध पून रेगुणविशेषेण तीर्यकरसाम्यमुत्तरानाकोपिनस्तस्य कापुरुषत्वं च दर्शयाद तिरययरसमोसूरी, समं जो जिरामयं पयासेई ।। आणं कमन्तो, सोकापुरिसो न सप्पुरिसो ||२७|| व्याख्या सरिस्तीयकरसमः सर्वाचार्यगुणयुक्ततया सुध मंदिरकल्प विशेषः नच वाच्यं यादिगुण विराजमानस्य तीर्थकरस्योपमा सूरेस्तविक स्यानु चिता । यया तीर्थकरोऽर्थे नापते एवमाचार्योऽप्यर्यमेव भाषते तथा । यया तीर्थकर उत्पन्नकेवलज्ञानो निकार्ये न हिंमते एवमाचार्योऽपि निक्कार्थं न हिंमते इत्याद्यनेकप्रकारैस्तीर्थकरानुकारित्यस्य सर्वातिशयित्वस्य परमोपकारित्वादेख स्थापनार्थ तस्या न्याय्यतरत्वात् । किंच श्रीमहानिशीथे पंचमाध्ययनेऽपि प्रायाचार्यस्य तीर्थकरसाम्यमुक्तं यया "सेजययं किं ति. त्पयरसंतियं काणं नाश्कामिन्जा ? उदा आपरिय संति भं गोअमा ! चव्विहा आयरिया जवन्ति । तं० नामायरिया, उपणायरिया, दन्यायरिया, नाचायरिया, सायनं जे ते जावायरिया ते तित्ययरसमा चैव दटुब्वा तेसिं सन्ति आणं नाश्क्कमेज्जत्ति, स कः यः सम्यग् यथास्थितं जिनमतं जगत्प्रनु दर्शनं नैगमसंग्रह व्यवहारर्जुसूत्र शब्दसमनिरूदैवं तूतरूपनयस सकात्मक प्रकाशयति व्यानां दर्शयतीत्यर्थः । तथा भा तीर्थकरोपदेशवचनरूपां अतिकामन् चितयत्ररूपणा दिनां लंघयन् स सूरिः कापुरुषः पुरुषाधमः नसत्पुरुषो न प्रधानपुरुषइति । चाचिनः कापुरुषत्वमात्रमेकं फलं पारसीकिकं तु तदनेकस्स हदुःखसन्ततिसम्बचितमनन्तसंसारित्वं श्रीमहानिशीथपञ्चमाध्ययनोक्तसाव द्याचार्यस्येव ज्ञेयं ॥ तस्माद्गच्छाधिपतिना सर्वदा सर्वार्येषु अप्रमत्तेन जाव्यमिति पूर्वाचार्यसंस्कृतः सापयाचा सम्बन्ध इत्येवं विलोक्याचार्योपाध्याय मोर्चा भगवदाइ या श्रागमार्योनिरूपणीयः न स्वमत्या तयात्वे ऽनन्तसंसारावा तिगाथाबन्द ॥ २७ ॥ ग. अधि. १ ॥ मायरिय (v) द्रष्टाचारत्वं दुर्गुणस्सूरेः ॥ अथ के सूरयः आज्ञामतिक्रामन्तीत्याह ॥ जद्वापारो सूरी जट्टायाराविक्खच्यो सूरी ॥ उम्मग्गट्टि प्रो सूरी तिविवि मग्गं पणासंति ॥ २८ ॥ व्याख्या । भ्रष्टः सर्वया विनष्ट आचारो ज्ञानाचारादिर्यस्य स भ्रष्टा चारः सुररधम्माचार्य १ शचाराणां विनष्टाचाराणां साधूनामुपज्ञकः प्रमादप्रनृत्तसाधूनामनिवारयितेत्यर्थः सूरिमंधम्मचार्यः । २। उम्मार्गस्थित तत्सुत्रादिप्ररूपण परः सूरिश्धमाथमाचार्यः ३ त्रयो ऽप्येते मार्ग ज्ञानादिरूपं मोकपथं प्रयाशयन्ति जिनाङ्गामतिकामन्तीत्यर्थः । गाथा बन्दः ॥ २८ ॥ अथ तेषां त्रयाणं संचकस्यानफलमाह । उम्मम्गनासए जोउ, सेवर सूरी नियमणं । सो गोयम ! अप्पाणं, अप्पं पामेइ संसारे ॥ २७ ॥ व्याख्या । उन्मार्गस्थितान् सन्मार्गनाशकान् १ (ख) शब्दात भ्रष्टाचारान् २ष्टाचारो से पर्युपास्ते नियमेन निश्चयेन स नरो हे गौतम ! आत्मानं अत्माना पातयति संसारे चतुगत्यात्मके इति गाथा उन्दः ॥ २९ ॥ अथ नंग्यन्तरेण एनमेवार्थे दृष्टान्तेन समर्थयन्नाह । उम्मग्गडिओ एको, विनासए जव्वसत्तसंघाए । तं मग्गामनुसरतं, जह कुत्तारो नरो होइ ॥ ३० ॥ व्या० सन्मार्गस्थितः उत्सूत्रप्ररूपणानिरतः एकोऽपि अधिकारात् सूरिनाशयति संसारसमुझे अनंतानंतमरणप्रदानेन विनाशयतीत्यर्थः । कानू जन्यसत्वसंघातान् किं कुर्वतस्तान् तन्मार्गस्थितप्रदर्शितपथं अनुसरतः श्रश्रयतः प्राकृतत्वात् वच्चनव्यत्ययः । अत्र दृष्टांतमाह । यथा कुतारः कुत्सिस्तारकोनरो नवति स बहून् प्रष्ठलग्नान् जंतुसमूहान् नद्यादौ विनाशयति गाथानन्दः ॥ ३० ॥ अथोन्मार्गगामिनामेवाशुभफलं दर्शयति । 1 उम्मग्गमगा संपडि, याण साहूणंगोमा ! नृणं । संसारो अणतो, हो ई सम्मगानासीण ।। ३१ ॥ व्याख्या । उन्मार्गगाः गोशालकब/टिक निन्दवादयः तेषां मार्गः परम्परा तस्मिन् अथवा उन्मार्गरूपो यो मार्ग स्तस्मिन् समित्येकी जावेन इति प्रकर्षे स्थितानां साधूनां साधुसिंग धारकारण हे गीतम! तूने निश्चितः संसारानुगत्यात्मक अनंतापयतो नयति दस्ताने चकः । किंभू सानां तेषां सन्मार्गनाशिनां शुरूपयोच्छेदकानां महानिशी मुनिसत् इति गाथानन्दः ३१ ग. अधि. १ ॥ ( प्रव्रज्याः पञ्चदशगुरवस्ते च प्रव्रज्याशब्दे ) सद्गुरुस्वरूपं दर्शयति ॥ देशं खितं व जाणिचा, वत्थं पतं नमस्यं । संग साहुवच सुचत्यं च निहाल ।। १४ ।। व्याख्या | आचार्यो देश मालवका दिकं क्षेत्रं रूका रुकनाविताज्ञाविताहिक () शब्दानादियोग्य दातृपरिणामादिरूपं नाव चात्वा चीव पात्रे पर उपायं मुनियोन्यालयं संग काका Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय बीत कोऽर्थः । श्राचार्यः केत्रादिकारणं ज्ञात्वा वस्त्रादिकं मेलferer प्रायोगृहस्थानामदर्शयन् स्वपाईव एव संरवेत् न तु यथाकथंचिदित्यर्थः । तथा ( साहु वम्गन्ति ) साधूनां वर्गीवृन्द साधुवर्गस्तं च साध्वीवर्गे च संगृह्णीत तु हीनाचारवर्ग तथा सुत्तत्थं च ( निहालए) इति सूत्रमाचारांगादि अथां नियुक्ति प्राप्यर्थिसंग्रहेणी वृत्तिटिप्पनादिः । सूत्रं चार्थश्चेति हारद्वन् सूत्रार्थ तन्निजालयति चिन्तयतीत्यर्थः । चशद्वासाधूनामपि सुत्रार्थ ददातीति एवं विधोयः स सदाचार्यः स्यादिति शेषः । इत्यनुष्टुप् नन्दः ॥ १४ ॥ ग. अधि. १ टी ॥ भ्रष्टाचारस्य सूरेर्निन्दा यथा ॥ समा डायारोसूरी, जट्ठायाराविक्ख सूरी || उम्मगड़िओ सूरी, तिमि वि मग्गं पणासन्ति || १ || उम्मग्गडिए सूरिंमिनिच्छ्रयं जव्वसत्तसंधाए । जम्हा तंमग्गमणुस्सरन्ति तम्हाणतंजुत्तं । एक्कंपि जोदुहत्तं सत्तं पनिबोहिं वे मग्गे । ससुरासुरंमि विजिगे तेण ह घोसिय प्राणाघोयं । नूए अयि जर्विस्सति के जगवन्दणीयकमले । जेसिं परहियकरणे कवच्छल करवाए वो निही कालं । नूर अणागए काले ण के इहोहिति गोयमा ! सूरी । णामग्गहणेण वि जेसिं होज्जनियमेण पच्चित्तं । ए यंग च्चिचवत्यं दुष्पसहाणं तरं तुजोख मे । तं गोयम जाणगाणं निच्छयो प्रणतसंसारि । जेसयल जीवजगमंगलेक्ककल्लाण परमकल्याणसिद्धिपए । वा वोच्छिन्ने पच्छित होई तं गणिणो । तम्हा गणिणं समसत्तु मित्तपक्खेण परहियरएणं harणकंणा पण विय प्रणाण संघेया । एवं मेरा संवत्ति एवं गच्छववच्छ संघितुनगारवेहिं पविचे संखाईए गणोज्जवि बोहिं न पावंति। ण बनेर्हिति तो परिजमं तित्यं । चउगइनवसंसारोचे विज्जचिरमुदुक्खत्ते ॥ महा. ए . । (१०) पराहितकारित्वं दुर्गुणः ॥ अथ ये नाममात्र नाऽपि पराहितकारिणः सुरय स्तानाद ॥ तीणागकाले, केई होहिंति गोयमा ! सूरी । सिं नामग्गहाणे, वि होइ नियमेा पच्चित्तं ॥ ३७ ॥ व्या० । अतीतकाले ते केचिदनिर्दिष्टनामानोऽनू वन्निति शेषः । अनागतकाले च ( होहिति ) भविष्यति प्राद्यंतग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायेन वर्तमानकाले संति । हे गौतम! सूरयः आचार्यनामधारकाः येषां परिच यकरणादिकं दूरे आस्तां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन निश्चयेन प्रायश्चितं । तथाचोक्तं । श्रीमहानिशीथपंचमाध्ययने " इत्यं चायरियाणं, पणपक्षं होति कोकिलक्खाओ | कोरिसद स्से को, स एय तह पतिपचेव ॥ १ ॥ पते स मज्जा एगे, निन्तु भोर गुणगणणो ॥ सव्युत्तमभंगणं, तित्ययरस्सा गुला रिगुरु" इति गायानंदः ॥ ३७ ॥ For Private आयरिय थाहेतुमाह ॥ जो सयरी जवंति, अणविक्खयाइ जह जिच्च वाहणा लोए । परिच्छेहि चोयणं, तम्हाउ गुरू सया जय || ३८ ॥ व्याख्या ( जयोति ) भिन्नं पदं यतो भणितं ( सयरित्ति ) स्वेच्छाचारीणि भवंति ( अणविक्खया इति ) अनपेक्षया शिकारहितत्वेन यथा लोके ( भिच्च वाहणारी ) भृत्याश्च सवका व वाहनानि च हस्त्यश्वद्वृषभमहिषादनित भृत्यवाहनानि । तथा विनेयाः गुरूए. प्रतिपृच्चाभिः कार्य २ प्रति पृच्छा ताभिः ( चोयहत्ति ) प्राकृतत्वादिभक्तिलोपः । चोदनाभिश्च विनेति शेषः । स्वेच्छाचारिणो भवंति ( तम्हाउति ) तस्मादेव कारणात्प्रतिपृच्छाभिश्वोदनादिभिश्वाचार्यो विनेयान् सदा सर्वकालं ( भयन्ति ) भजते सत्यापयति शिकयतीत्यर्थः । गाळानंदः ॥ ३० ॥ ग० अधि. १ । (११) सूरेः स दुर्गणो येन कुगुरुर्नवति । कुगुरु कदा भविष्यतीति महानिशीथे श्र० । जयवं केवणं कालेणं पड़े कुगुरुनावी होंति गोयमा ! इओ यमाइयाछतेरसहं वासस्याणं साइरेगाणं समझ ताणं परउ जवसुं से जयवं केणं अणं गोयमा ? तक्कालं वि रससायगारवसंगए ममीकरे अहंकारग्गीए तो संपज्जतवोदी अहमहंति कयमाणसे मुणि य समय सब्जावे गणी नर्वसु एएणं द्वेणं से जगवं किं सव्वे aira far कालगणि जवीयुं गोयमा ! एगंलेलं नो सव्व केयपुर्ण दुरन्तपंतलक्खणे प्रदद्वेषां एगाए जणणीए जगमगं पसूए निम्मेरे पावसले दुज्जायजम्मे सुरोद्देप यंमाजिगाहिय दूरमहामिच्छदिट्ठी जावसुं सेयं जयवं कहं ते समुबलक्खेज्जा गोयमा ! उस्सुत्तउस्सगायवत्तणुदिस्सणमइपच्चएण वा ।। ( १२ ) प्रमादिनमाचार्य्यं शिष्यो बोधयति ।। अथ कथंचित् प्रमादिनं गुरुं शिष्यो विबोधयतीत्याह । तुम्हारिसा वि मुणिवर, ! पमायवसगा हवंति जइ पुरिसा। तेन को अहं, लंबणं हुज्ज संसारे ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ युष्मादृशा श्रपि हे मुनिवर ! श्रमणश्रेष्ठ प्रमादवशगाः प्रमादपरवशा भवंति यदि चेत् पुरुषाः पुमांसस्तेन कार नान्यो युष्मद्व्यतिरिक्तः कोऽस्माकं मंदभाग्यानामालंबनमत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । सागरे नैौरिव भविष्यति संसारे चतुर्गत्यात्मके पततामिति शेषः । अनेनं विधिना शिष्यः प्रमा दिनं गुरुं विबोधयतीत्यधिकाराल्लभ्यते । तयाच विबोधनविधये आचार्य्यगुरानपि शिष्य आचार्यस्य दर्शयति यथा ॥ पुढवीविव सव्वसहं, मेरुव्व अकंपिरं वियं धम्मे । चंदुव्व सोमलेसं, तं आयरियं पसंसंति ॥ १ ॥ अपरिसावि आलोयणा, रिह हेजकारणविहिन्नुं । गंजीरं दुरिमं तं प्रायरियं० ॥ २ ॥ Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७) भायरिय अभिधानराजेन्द्रः। पायरिय कालन्नुं देसन्नु, नावन्नु अत्तरियं असंजत। सानां शिष्याणां शिरःप्रनृत्यवयवमिति शेषः। जिव्हयारसनया अणवत्तय अमाय, तं प्राय॥३॥ उपबिपौरिव वत्सस्य चुंबेत अत्यंतबाह्याहतं करोतीत्यर्थः। सोश्यसामाइएसु, सब्वेस जस्स वक्खयो। ननु बाबादीनां प्रवाजने निषेधोऽस्ति तत्कथं बाझानां शिष्यत्व मुच्यते।योऽयं प्रव्रजने बाटो निषिध्यतेस मनावर्षः अत्र त्वष्ट ससमयपरसमयमि अ, तं०॥४॥ घर्षोपरिषीबासो गृह्यते। अपवादपदेन तु नाष्टवर्षोऽपि॥ बारसहिंवि अंगहिं, सामाइयमाइपुन्वनिव्वथे। तथा सम्पकमार्ग मोकपयं न पाहयति दर्शयति न शिक सघट्ट गहियह, तं० ॥५॥ यतीत्यर्थः । स आचार्यों वैरीति जानीहि हे गोतम ! त्वमिति विषमाकरेतिगाथाऽनुशुचंदसी ॥१६॥ आयरियसहस्साई, बहई अ जीवो जवेहिं बहुएहिं । अय पुर्वाक्तार्यलेशं विशेषयन्नाह ॥ कम्मेसु य सिप्पेसु य,धम्मायरणेसु नो कहवि ॥ ६ ॥ जीहाए विनिहतो, नजदओ सारणा जहिं नत्थि। ने पुण जिणोवाडे, निग्गये पवयणमि आयरिया ।। दंमेणवि तातो, सनदओ सारणा जत्य ॥१७॥ संसारमुक्खमग्गस्स, देसगा ते हु आयरिया ॥ ७॥ व्याख्या. जिव्हया विविहन् शिष्यं चुंबन्नाचार्यों न जरुको न देवा वि देवलोए, निग्गय पवयणं अणुसरंता । श्रेष्ठो यत्राचायें सारणा हिते प्रवर्तनसकण स्मारणाषा कृत्यअच्चरगणमऊगया, आयरिए वंदयाति ॥७॥ स्मारणलकणा उपलक्ष्णत्वाधरणा अहितानिवारणसकणा बह दीवो दीवसर्य, पश्प्पए दिप्पई य ।। तोदना संयमयोगेषु स्खासतस्यायुक्तमेतद्भवाशां विधातु मित्यादिवचनेन प्रेरणा प्रतिनोदना तथैव पुनःप्रेरणा सो दीवसमा आयरिया, अप्पं च परं च दीवति ॥ ॥ नास्ति न विद्यते तथा दंमेनापि यष्टणपि किं पुनर्दष देवा वि देवलोए, निच्चं दिव्वोहिणा वियाणंता। रकादिना तामयन् शरीरपीमां कुर्वन् स भाचार्यो भद्रका प्रायरियमणुसरंता, पासणसयणाणि मुंचंति ॥१०॥ श्रेष्ठः । यत्र गणिनि सारणा उपलकणत्वावारणादि इत्यादि चंडकवेधकप्रकीर्णकोक्तं घाच्यमिति गायानन्दः ॥ ऽस्तीति गाथादः॥ ग०१ अधि. । ग.१ अधि०॥ (१४)विनय प्राचार्य्यस्य। प्रमादगतस्याचार्य्यस्य श्रमणोपासकेन कयं निवारणा कर्त प्राचार्ये सापेकैः साधुनिर्भवितव्यम् । तेषु च तेनेति रष्टान्तः म्येति (समणोपासग) शब्दे॥ प्रदर्शयति ॥ भय चोदनाया अकर्तुः फलं दर्शयन्नाह ॥ वशीधनमुजरियं, कोडागारं मस्ते कुटुंबिस्स । जो उ पमायदोसेणं, आलस्सणं तहेव य । किं अम्हमुहा देई, केई तहियं न अमीणा ॥ सीसवगं न चोएइ, तेण आणा विराहिया ॥३॥ एकः कौटुंबिकः स कर्षकाणां कारणे उत्पन्ने वृद्ध्या कालांतर व्याख्या।योगणी चशब्दाउपाध्यायादिश्च प्रमाददोषेण प्रमाद | रूपया धान्यं ददाति । तया च धृद्ध्या कौटुंबिकस्य कोष्ठा कपो यो दोषस्तेन तथैव चचकारामुक्तशेषैर्मोहादिभिश्च नक्तं गाराणि धान्यस्य सुनृतानि जातानि । अन्यदा च तस्यैकं व "आलस्स१ मोह श्वना,३भाधकोहा५पमाय ६किवि कोष्ठागार वृकिधान्यसुनृतं वन्हिना प्रदीप्तेन दह्यते ।नच सत्ता ७॥ भय ७ सोगा ए अन्नाणा,१० धक्खेद ११ कुऊहला केचित्कर्षका विध्यापननिमित्तं तत्र प्रदह्यमाने कोष्ठागारमसमा १२ रमणा १३ (१)" पतैहेतुभिः शिष्यवर्गमंतेवासिवृदं न प्रेर गताः । किमेष कौटुंबिकोऽस्माकं मुधा ददाति येन वयं विभ्याप पति मोकानुष्ठाने इति शेषः। तेनाचार्येण उपाध्यायादिना वा नार्थमभ्युद्यता नवामः ॥ माथेति जिनाझा विराधिता खंमितेत्यर्थः ॥ग. अधि. १ एयस्स प्रजावणं, जीवा अम्हेति एवं नाकणं । “भाचार्यस्यैव तत् जाड्यं, यच्चियो नापबुध्यते। गावो गोपा असे तु समझीणा, विज्झविए तेसिं सो तुहो। मकनेव, कुतीर्थेनावतारिताः (१)" आ. म. १. वं. १ अ.॥ अन्ये कर्षकापतस्य कौटुबिकस्य प्रनावेण च ये जीवंति स्म (१३) वैरी शिष्यस्य गुरुः ॥ जीवा अनुप्रत्यया जीविता इत्यर्थः। एवं ज्ञात्वा समानीनास्त अथ यसरिशिष्यस्य वैरी स्यात्त वृत्तघ्येनाह । असमागता विध्यापनाय च प्रवृत्तास्ततो विध्यापिते कोष्ठा संगहोवगाहं विहिणा, न करेइ य जो गणी । गारे स कौटुबिकस्तेषां तुष्टस्ततः किमकादित्यत पाह। समणं समाणं तु दिकिवत्ता, सामायारी न गाहए ॥१५॥ जे ओ सहायगतं, करसु तेसिं अवडियं दिन। बालाणं जो उ सीसाणं, जीहाए उवहिंपए । दहति न दिलियरे, अकासगा सुक्खजीवीया ॥ तं सम्ममग्न गाहेश, सो सूरि जाण वेरिउ॥१६॥ ये तु विध्यापने सहायत्वमकार्षुस्तेषामवृद्धिक कामांतररहित (संगहोवगाहंति ) संग्रहश्च शिष्यादीनां संग्रहणं उपग्रहश्च धान्य दत्तं । श्रषांतुसहायत्वमकृतवतां दत्तमित्युत्तरंविधा तेषामेव प्रक्तश्रुतादिदानेनोपष्टभन तथा तन्न करोति वा न य न दत्तं । ततस्ते अकर्षकास्संतो सुखवजीविनो जाता एप कारयति विधिना आगमोक्तप्रकारेण योगदी आचार्यस्तथा रष्टांतः॥ यः श्रमण श्रमणी दिकित्वा तु शब्दात्प्रतिच्छकगएमाप समा सांप्रतमुपनयमनिधित्सुराह । चारी आगमोक्ताहोरात्रक्रियाकलापरूपां सत्स्वगच्छोक्तां या आयरियकुटुंबी व, सामाणियथाणिया जवे साह॥ न प्राइयेनिर्जरापेकि सन्न शिक्कयदित्यर्थः।१५॥तथा यःपुनर्व- बावाहअगापितधा, मुत्तत्या जाण धनं तु ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३८) पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय प्राचार्यः कुटुंबीव कुटुंबितुल्य इत्यर्थः। सामान्यकर्षकस्थानीयाः । कार्य विदध्यात्तथा ( तसिवेसणे ) तस्य गुरोनिवेशनं स्थान साधवः। प्राचार्यस्य निकाटने वातादिव्याबाधाऽग्नितुल्या। सूत्रा यस्यासौ तन्निवेशनः । सदा गुरुकुमवासी स्यादिति नावस्तCन् जानीहि धान्यं धान्यतुल्यान् ॥ त्रच गुरुकुले निवसन् किंभूतःस्यादित्याह (जयविहारी यत एमेव विणीयाणं, काति सुत्तत्यसंगई थेरा ॥ मानो यतनया विहरणशीको विहारी स्यात् । यतमानः प्राण्यु होवेंति उदासीणे, किसजागी य संसारे ॥ पमईनमकुर्वन् प्रत्युपेकणादिकाः क्रियाः कुर्यादिति । किञ्च (एमेव) कौटुबिकदृष्टांतप्रकारेण ये विनीतास्तषां स्थविरा आ- ( चित्तनिवाती ) चित्तमाचार्याभिप्रायस्तेन निपतितुं चार्याः सूत्रार्थसंग्रहं कुर्वति सूत्रार्यान्प्रयच्छति । यस्तदासीन क्रियायां प्रवर्तितुं शीरमस्येति चित्तनिपाती सदास्यादिति । स्तत्र हापयतीतिन प्रयच्छतीति नावः। सचोदासीनो वर्तमानः | तया ( पंचणिज्जाती) गुरोः क्वचितस्य पयानं निर्ध्यातुं केवल सूत्रार्थयोग्यो भवेत् क्लेशनागी च संसारे जायते ।। प्रलोकितुं शीसमस्येति पयनिायो । उपत्रदणं चैतत् । शिश संप्रति दकिदृष्टांत विनावयिषुरिदमाह ।। यिषोः संस्तारकप्रलोकी बुचकोराहारान्वेषीत्यादिना गुरो जप्पसकारणे पुण, जइ सयमेव सहस्सा गुरू हिं।। राराधकः सदा स्यात्किञ्च (पलिवाहिर परि समन्ताद्गुरोरव ग्रहात् पुरतः पृष्ठतो वाचस्थानात्सदा कार्यमृते बाह्यः स्यादेत अप्पाणं गच्छेमुजयं, परिचयती तत्यिम नायं ॥ स्माच्च सूत्रात् त्रय ईर्योद्देशका निर्गता इति । किञ्च (पासिय सत्पन्ने कारवयमाणबको याद सहसा स्वयमेव गुरुरा इत्यादि) क्वचित्कार्यादौ गुर्वादिना प्रेषितः सन् दृष्ट्वाप्राणिनां स्मानं गच्छमुनयं च परित्यजति । तत्र चेदं वक्ष्यमाणझातमुदाह युगमात्रदृष्टिस्तदुपघातं परिहरन् गच्छेत्किञ्च (सश्त्यादि) रणं । तदेवाह ॥ स भिकुः सदा गुर्वादेशविधायो एतद्व्यापारवान् भवति । सोउं परवनमायं, सहसा एक्काणिओ उ जो राया ॥ तद्यथा । अभिक्रामन् गच्छन् प्रतिक्रामनिवर्तमानः संकुचन् निग्गच्छति सो वयती, अप्पाणं रज्जमुनयं च ।। हस्तपादादिसंकोचनतः प्रसारयन् हस्तादानवयवान् विनि यो निरपेको राज्ये परबसमागतं श्रुत्वा बनवाहनान्यमेनयित्या वर्तमानः समस्ताशुभव्यापारान् सम्यक् परिसमंतास्तपा सहसा एकाकी परबलस्य संमुखो निर्गच्छति स प्रात्मानं पादादीनवयवांस्तनिकेपस्थापनानि वा रजोहरणादिना राज्यं चेत्युजयं त्यजति बबवाहनन्यतिरेके । युझारंभे मरणना मुजन् परिमृजन् गुरुकुलवास वसदिति सर्वत्र संबंधनीयम् ॥ वात् एवमाचार्योऽपि निरपेकः समुत्पन्नेऽपि कार सहसा आचा. टी.।। निकामटनात्मानं गच्छमुनयं च परित्यजति निरपेकदमिकह अस्य बहुव्यक्तव्यता (प्रासायणा) शब्दे॥ शान्तनावना॥ अथेवमाचार्य रहिते शुथुषिते च को गुण इत्यत पाह॥ संप्रति सापेकदमिकदृष्टांतनावनामाह ॥ पुयांत य रक्खंति य, सीसा सव्वे गणीं सया पयया॥. सावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहिं परबसंखविया । इह परसोए य गुणा, हवंति तप्पुयणे जम्हा ।। अजिए सयपि जुजाइ, उवमा एसेव गच्छति॥ गणिनमाचार्य शिष्याः सर्वे सदा प्रयताः प्रयत्नपराः पूजयंति शुश्रुषते च । यस्मात्तत्पजने आचार्यपूजने श्ह लोके परझोके सापेकः पुना राजा प्रयम कुमारादीन युझाय प्रेषयात । ततः च गुहा भवंति श्ह लोके सूत्रार्यतदुपघाति परलोके सूत्रार्था कुमारादिभिः परबत्र कपयित्वा यदा कुमारने परवलं तदा त ज्यामधीताज्या ज्ञानादिमोकमार्गप्रसाधनं अथवा पारलौकिका स्मिन् जिते स्वयमाप राज्ञा युध्यते । एषैवोपमा गच्छेऽपि गुण"पायरिए वेयावश्यं करेमाये महानिजरमहापज्जवसाये कष्टन्या । प्राचार्योऽपि पूर्वयतनां करोति तयापि असंस्तरण भवति" इत्येवमादयः॥ व्य० कि. ख. ६ अ.॥ स्वयमपि हिंमते । एवं चात्मानं गच्छमुजयंच निस्तारयतीति • नावः । व्य. ६ उ.॥ गुरुशुश्रुषा (विणय) श दे ॥ आचार्य्यस्य चतुर्विधविनये आचार्यसमीपवर्तिना च शिष्येण किं विधेयमित्याह । नान्तेवासी अनृणी भवतीति विनयशब्दे ॥ प्राचार्यस्याराधने फलं यथा ॥ "गुर्वायत्ता यस्मात, शास्त्रा तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरकारे तस्सप्पी तमिवेसणे रंभा भवति सर्वेऽपि॥तस्मात् गुर्वाराधन,परेए हितकांतिणा नयं विहारी चित्ताणवाई पंणिज्माई बलिवाहिरे पासि भाज्यं "।१ । आवश्यकभाष्यकारेगाऽप्यन्यधायि। यपाणे गच्छेज्जा से अनिक्कममाणे पमिकममाणे संकुलेमा- गुरुचित्तायत्ताई, वक्खाणंगाइ जेण सव्वाइं । जेए पुण गो पसारेमाणे विणियहमाणे संपरिज्जमाणे ॥ आचा॥ मुप्पसम्म, होइज्जं आगारिंगियं ॥१॥ कुसलं जद सेयं, ४ अ.४ उ. ॥ वायतं वए पुज्जा ! तह वियसिं न वि कूम, विरसामियं (तहिडीए ) तस्याचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सततं वर्तित- कारणं पुव्वे ॥ ॥ व्य० १खं० १ उ०॥ व्यं हेयोपादेयेषु । यदि वा तस्मिन् संयमे दृष्टिस्तदृष्टिस्स एव वागमो रष्टिस्तदृष्टिस्तया सर्वकार्येषु व्यवहर्तव्यं तया (तम्मो (१५) गुरुविनये वैद्यदृष्टान्तः ।। तीप) तेनोक्ता सर्वसंगन्यो विरतिर्मुक्तिस्तन्मुक्तिस्तया सदा आचार्य्यसेवायां वैद्यदृष्टान्तो यया ॥ यतितव्यं तया (तप्पुरकारे) पुरस्करणं पुरस्कारः सर्वकार्य से जहा नाम एकेई महावाहिगहिए अणुहू च तवअप्यग्रतः स्यापनं तस्याचार्यस्य पुरस्कारस्तदुपुरस्कारस्त णे विमाया सरूवेणं निविले । तत्तो सुविज्जवयणेण स्मिस्तद्विषये यतितव्यं तया (तस्सम्मी) तस्य संहा तत्संज्ञा सम्मं तमवगच्चिअ जहा विहाणओपन हारकिरिअं ततझानं तद्वांस्तत्सझी सर्वकार्येषु स्यान्न स्वमतिविरचनया- निरुघजाहच्छाचारोतुच्छपच्छनोईमुचमाणे वाहियानि Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३९) पायरिय अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय अत्तमाणवेअणे सापत्नप्नारोग्गं पवट्टमाणतब्नावे तदा नतु तत्रैवाशक्त्या विपर्यस्त इति। ततः किमित्याह । निर्विास्त त्वतः। ततो जन्मादिवेदनायाः किमित्याह । सगुरुवचनेन हेतुना जनिव्वुइले तप्पमिबंधाओसिराखाराजोगेविवाहेिसमा अनुष्ठानादिना तमवगम्य सुगुरुकर्मव्याधि च पूर्वोक्तविधानत रुगाविमाणेणंट्टनिप्फत्तिओ अणाकुलानावयाए किरि स्तृतीयसूत्रोक्ते तध्धिानेन प्रपन्नस्सन् सुक्रियां प्रव्रज्यां विरुद्ध जवोगेण अपीमिए अव्वहिए सुहलेस्साएवढा विजं च प्रमादाचारो यदृच्छया असारशुरुजोजी संयमानु गुऐन अने बहू मन्न एवं कम्मवाहिगाहिए अणुनुअजम्माश्वेअणे वि न विधिना मुच्यमानः कर्मव्याधिना निवर्तमानष्टवियोगादि माया पुस्करू वेणं निविसे तत्तओ तो सुगुरुवयणेणं वेदनस्तया महिनिवृत्त्या किमित्याह । समुपखज्य चरगारोग्यं सपनभेन प्रवर्द्धमानशुभभावः। प्रवर्धमानचरणाराग्यभावः अट्ठाणाइणा तमवगच्छीअपुव्युत्तविहाएओ पव्वले सु| बहुतरकर्मन्यधिदिकारनिवृत्त्या तल्लाभनिवृत्त्या तत्प्रतिबंधावि किरिश्र पव्वजं विरुष्पमायायारे असारसछनोई मु- शेषात् चरणारोग्यप्रतिबंधविशेषात् स्वाभाविकात् कारणात्प च्चमाणे कम्मवाहिणा निवृत्तमाणिविओगाइवेअणे स रीषहोपसर्गभावेऽपि कुहिव्यादिव्यसनभावेऽपितत्वसंवेदनात मुवलन्न चरणारोग्गं पवढमाणसुहन्नावे तबातनिव्वुए सम्यक्झानाद्धेतोः। तथा कुशलाशयवृष्या कायोपशमिक भाववृद्धचा स्थिराशयत्वेन चित्तस्थैर्येण हेतुना तथा धर्मोपयोतप्पम्बिंधविसेसो परिसहोवसग्गालावे वि तस्स संवेअ गात् इतिकर्तव्यताबोधात्कारणात सदास्तिमितःभावद्वविर णामो कुसलासयबुढिओ थिराशयत्तेण धम्मोवओगाओ हेण प्रशान्तः । किमित्याह तेजोवेश्यया शुभप्रभावरूपया सया थिमिए । तेउवेसाए वडई गुरुं च बहमन्नइ जहोचिअं वते वृझिमनुभवति । गुरुंच बहु मन्यते । भाववद्यकल्प कथ असंगपमिवत्तिए निसग्गपबित्तिनावेण । एसा गुरुई वि मित्याह । यथोचितमोचित्येन असंगप्रतिपत्या स्नेहरहितस्तद् भावप्रतिपत्त्या । किमस्या उपन्यास इत्याह । निसर्गप्रवृत्ति आहा नावसारा विसेसओ जगवंतब्बहुमाणेण जाम भावन सांसिलिकप्रवृत्तित्वेन हेतुना एषाऽसंगप्रतिपत्तिणुर्वी परिमन्नइ सो गुरुत्तितदाणा अन्नहा किरिआ अकिरि- व्याख्याता भगवतिः किमित्याह। भावसारा तथोदयिकभाव आ कुद्धमा नारी किरियासमा गरहिआ। तत्त बेईणं विरहेण विशेषतोऽसंगप्रतिपत्तेः। इहैव युक्तचंतरमाह । भगअफलजोगओ विसण तित्तीफन्ननित्यनायं अवहे खू वद्वहुमानेन अचित्यचिंतामणिकल्पतीर्थकरप्रतिबंधेन कथमय मित्याह । यो मां प्रति मन्यते भावतस्स सुकर्मत्येवं तप्फलं असुहाणुबंधे आयओ गुरुबहुमाणो अवाकार तदाझा भगवदाझा। इत्थं । तत्वं व्यवस्थितं अन्यथेत्यादि । पत्तेण अओपरमगुरुसंजोगो तओ सिकीरसंसयं एसो-| अन्यथा गुरुबहुमानव्यतिरेकेण क्रियाऽप्यक्रिया प्रत्युपेकणादि ह सुहोदए पगिट्टतयणुबंधे नववाहितीगच्च नइओ सुं- रूपा अक्रिया सक्रिया तान्यां किंविशिष्ट श्त्याह । कुबटाना दरं परं जवमा इत्य न विज्जई ॥ पं. स. स. ।। री क्रियासमा पुःशीभवनितोंपवासक्रियातुल्या ततः किमि त्याह । गर्हिता तत्ववेदिनां विपुषां कस्मादित्याह । अफरयोगसे जहेत्यादि । तद्यथा । कश्चित्सत्वः महाव्याधिगृहीतः तः श्टफलादन्यत्फलं मोकात्सांसारिकमित्यर्थः । तद्यो कुष्ठादिग्रस्त श्त्यर्थः । अनुतूततवेदनोऽनुतूतन्याधिवेदनः। वि गात् एतदेव स्पष्टयन्नाह । विषान्न तृप्तिफलमत्र झनमल्प ज्ञाता स्वरूपेण वेदनायाानकंगृहीतकंयनकारिवद्विपर्यस्तः विपाकदारुणं विराधनासवनात् एतदेवाह।आवर्त एव तत्फलं निर्विणस्तत्वतस्तदनयति प्रक्रमः। ततःकिमित्याह । सुवैद्यव आवर्तते प्राणिनोऽस्मिन्नित्यावर्तः संसारः । स एव तत्वत कानेन हेतुभूतेन सम्यगवैपरीत्येन तंव्याधिमवगम्य यथाविधा स्तत्फलं विराधनाविषजन्यं । किंविशिष्ट आवर्त इत्याह । नतो यथा विधानेन देवतापूजादिबहाणेन प्रपन्नः सुत्रियां परि अशुभानुबंधः । तथा विराधनोत्कर्षण एवं सफर गुर्वबहुमान पाचनादिरूपां रुद्धयदृच्छाचारः सन् प्रत्यपायभयात्तयातुच्च मभिधाय तद्बहुमानमाह (आयत इत्यादिना ) आयतो गुरु पथ्यभोजी व्याध्यनुगुण्यतः अनेन प्रकारेण मुच्यमानो व्याधि मा खसराद्यपगमेन निवर्तमानवेदनः कस्वाद्यभावात् समुप. बहुमानः साद्यपर्यवसितत्वेन दीर्घत्वादायतो मोकः स गुरु सन्यारीभ्यं सदुपभेन प्रवर्डमानतद्भावःप्रवर्षमानारोग्यभावः। बहुमानः गुरुभावप्रतिबंध एव मोक इत्यर्थः । कथमित्याह । अवंध्यकारणत्वेन मोकं प्रत्यप्रतिबहसामग्रीहेतुत्वेन । पत तन्माननिर्वृत्त्या आरोग्यज्ञाननिवृत्त्या तत्प्रतिबंधात् आरो म्यप्रतिबंधातोः शिराकारादियोगेऽपि शिरावधवारपात देवाह । अतः परमगुरुसंयोगः । अतोगुरुबहुमानात्तीर्थकर जावेपीत्यर्थः । व्याधिसमारोग्यविज्ञानेन व्याधिशमाद्यदा संयोगः। ततःसंयोगादुदिततत्संबंधत्वात् सिद्धि रसंशय मुक्ति रोग्यं तदवयोधेनय॑यः । किमित्याह । इष्टनिप्पत्तरारोग्य रेकांतेन । यतश्चैवमत एषोऽत्र शुभादयो गुरुबहुमानः। कार निष्पतेहेतारनाकुवन्नावतया निबंधनाभावात् ॥ तथा क्रियो कार्योपचारात्। यथाऽऽयघृतमिति । अयमेव विशष्यते प्रत पयोगेन ति कर्तव्यताया बोधेन हेतुना अपीमितो ऽव्यायितो एतदनुबंधः प्रधानशुभोदयानबंधस्तथा २ राधनोत्कर्षेण तथा निवातस्थानामनौषधपानादिना । किमित्याह । गुमलेश्यया भवव्याधिचिकित्सकगुरुब हुमान एव हेतुफवभावात् । न श्तः संदरं परं गुरुबहुमानात् । उपमाऽत्र न विद्यतेप्रशस्तनावरूपया वर्द्धते बृफिमाप्नोति । तथा वैद्य च बहु मन्यते । महापायनिवृत्तिहेतुरयं ममेति सम्यक् हानात् एष गुरुबहुमाने सुंदरत्वेन भगवदहमानादित्यभिप्रायः ॥ पं. सू.टी.॥ रष्टांतोऽयमापनयः ( एवमित्यादि) एवं कर्मच्याधिगृहीतः प्राची किंविशिष्ट श्त्याह। अनुभूतजन्मादिवेदनः श्रादिशब्दा (१६) नमस्वार आचार्य्यस्य ।। जरामरणादिग्रहः । विज्ञाता प्रखरूपजन्मादिवदनायाः (णमो आयरियाग ) नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयो Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४०) मायरिय अभिधानराजेन्द्रः। पायरिय पकारित्वादिति ॥ नश०१२०१॥ क्खणसमणधम्मस्स विग्वे सम्मग्गमा निरयदारनूए सय॥आचार्यनमस्कारे फलं यथा ॥ प्रायरियनमोकारो, जीवं मोएइ जवसहस्सातो॥ सकित्तीकलंकलिकलहवेरायणवनिहाणनिम्मलकुलस्स नावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिल्लानाए ॥१॥ एं दुधारसअकज्जकज्जलकन्हमसीखपणे तेणं गच्छाहिआयरियनमोकारो, धनाणनवक्खयं करेंताणं । वइणाइत्थीना णिवितिएति गोयमाणोतेणं गच्छाहिहिययं अणुमोयंतो, विसोत्तिया वारतोहोई ॥२॥ वइतेहिएणं प्राणुमवि माया कया सेणं तहा पुइवइचकहरे प्रायरियनमोकारो, एवं खनु वस्पित्तोमहत्योति । जावत्ता एयरलोगनीज़ए णिविमकामनोगे तणमिव नो मरणमिउवग्गे, अजिक्खणं कारए बहुसो॥३॥ परिविच्चाणं तं तारिसं चोइसरयणनवनिहीतो चोसहीसपायरियनमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । हस्से वरजुवईणं बत्तीससाहस्सीओ अणादिवरनरिंद मंगलाणं च सव्वसि, तस्यं हवइ मंगलं ॥४॥ च्छनउईगामकोमीओ जाव ण खंगजरहवासस्स णं प्रा० म०३ खं १ अ०॥ देविंदोवम महारायननितीयं बहुपुग्नचाईए णीसंगे पव्वइ(प्राचार्य्यस्य मनसत्वम्मङ्गशब्दे) एय थोवकाझेणं सयलगुणोहधारी महातबस्सी मुयहरे (१७) वैयावृत्यं गुरोः॥ जाए जोगेणाऊणं गुरूहिं गच्छाहिवई समणुमाए तहेव गोयमा! तेणं सुदिसुग्गपहेणं जहोवइटसमणद्वेणं मागणं भाचार्य्यस्य वैयावृत्यमतिशेषशब्दे ( वेयावच) शब्दे च ॥ आचार्य्यवेयावृत्ते फलं यथा ॥ उग्गाजिग्गहाविहारत्ताए घोरपरिसहोवसग्गाहयासणेणं गुरुवेयावच्चेणं, सदण्टाणसहकारिजावाओ ॥ रागदोसकसायविवज्जणेणं आगमाणुसारेणं सुविहिए विउझं फझमिन्जस्स व, विसावगेणावि ववहारे।।२२॥ गणं परिचालणेणं आजम्मसमणा कप्पपरिजोगवज्ज प्याजगुरुवयावृत्त्येन आचार्यविषयणभक्तादिदानग्यानताप्रति गणं बकायसमारंजविवज्जणेणं ईसंपिदि चोरालियपरणादिसायन हेतुना सदनुष्ठाने गुरुगते जिनप्रवचनार्थप्रका मेहुणपरिणामविप्पमुक्को एं इह परमोगासंसाइणियाणमाशनगच्छपाझनादौ सहकारिभावो यःसहायककरणं स तथा याइसवाविप्पमुक्केणं णीसवाायणनिंदणगरहणणं जहोव तस्मात्सदनुष्ठानसहकारिभावतः। किमित्याहाविपुलं महत्फलं कर्मक्रयसवणं गुरुकुलवासिनो भवति । कस्मिन्निवेत्याह । वश्वपायाइत्तकरणेणं सव्वत्या पमिबछत्तणं सव्वपमाज्यस्येव सुघर्षबकादिमान महाधनपतेरिव।स केन विंशोप यालंबणं विप्पमुक्के णइ पइणिविडअवससीकए अणेगनकेनापि तदीयद्रव्याविंशतितमभागनापि । आस्तां सर्वेग वसंचिए कम्मरासी अहोगनवे तेणं माया कया तप्पम्यवहारे वाणिज्ये क्रियमाणे सति । तथा हि । सकपतिसंब व्बईणं गोयमा ! सविवागे सेनयवं कयरा उ ण अमनवे धिना सक्काविंशतिभागेनापि । आस्तां सर्वेण सहस्रपंचक तेणं महाणुलागणं मायाकया जीएणं एरिसो दारुणवि बाणेन व्यवहारतो वणिकपुत्रस्य महान् साभो भवत्येव । गुरोवैयावृत्यमात्रमपि कुर्वन् महत्फरमासादयति गुरुविषय वागो गोयमा! सेणं महाणुनागस्सगच्छाहिवईणोजीवेण वैयावृत्त्यमात्रस्यापि महत्वादिति। अन्ये त्वाहु इज्यस्य गृहा णूणाहिएयणा फलं लक्खइमेव जवग्गहणा। गतस्य विंशोपकेनापि व्यवहारे सत्कार शति गाथार्थः।। प्राचार्य्यस्य प्रायश्चित्तं महानिशीथे. अ.६ यया. ॥ पंचा० ११ वृ. । से जयवं जेणं गुरुं सहस्साकारणं अन्नयरे हाणे चुकेज प्राचार्य्यस्य च बल्लाभियोगमन्तरेणैव मोकार्थिना स्वयमेव प्रत्युतेच्गकार दत्वानन्यर्थितेनैव वैयावृत्यादि फर्सन्यमि- वा खोज्ज वा सेणं श्राराहगेण वा गोयमा ! गुरूणं तीयाकारशब्दे॥ गुरुगुणेसु वहमाणो अवानियसीले अपवादी अणान(१०) गच्छाधिपतिः केन कर्मविपाकेन जवति ।। । स्सी सव्वालंबणविप्पमुक्के समसतुमित्तपक्खे समग्गपक्खकेन कर्मविपाकेनाचार्यो सूत्वा ईप्सितं बभत शत वाए जावणं कहाजाणिरे सचम्म जुत्ते नवेज्जा णो एं महानिशीथे श्चमि यथा ।। उम्मग्गदेसए अहमाणुरए नवेज्जा सम्बहा सपयरिहिणं से जयवं ताकयरेणं कम्मविवागणं तेणं गच्छमाह गुरुणा ताव अप्पमत्तेणं नावयव्वं। णो णं पमत्तेणं जउणवइणा होकण पुण इच्छितं समच्छियत्ति गोयमा ! पमादी नवेज्जा सेणं दुरंतपंतमक्खणे अदब्वे महापारे मायापच्चएणं से जयवं कयरेणं से मायापच्चए जेणं जईणं सवीरिए हवेज्जा। तेणं कयदृच्चरियं जहावत्तं सपरपयणीकयसंसारे वीसयन्नपावायपणावीयविबुहजणे णिंदे सीसगणाणं पक्खाविय जहा दुरंतपंतलक्षणे अदहब्वे सुरहिबदव्ववयखंगचुन्नसूसकरियसमजावपमाणपागनि- महापाषकम्मकारी संमग्गं पणासेउ अहयंतिएवं निंदिताप्फममोयगमबगे व तस्स नक्खे सयमदुक्खे साणमा- गरहित्ताणं अालोइत्ताणं च जहा जणियं पायच्चित्तमलए रूयलसुहासणस्स परमपवित्ततमस्स एणं अहिंसान. एचेरज्जा । सेणं किं उसे आराहगे नावन्जा। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय पुणो संमग्गाउ जणं नीसले नियही विप्यमुक्के न परिसेज्जा । अहाणं परिजस्स ल णाराहे || मालोचनाचा समदाने आचार्यस्य प्रायश्चित माोषणा ) शब्दे ॥ श्राचार्यस्यावश्यकप्रमादे प्रायधिस (माग) शब्दे (१२) अतिशया आचार्यस्य ॥ प्राचार्यस्य पञ्चातिराया (असेस) शब्दे ॥ आचार्यस्य बहिर्गमने दोष (मसेस) शब्दे, (निनामन) शब्द च ॥ माचाय्यंस्य संज्ञाजू भिगमन (मरसेस) शब्दे (परिमल) शब्दे च गोचरच कारणे सत्याचाय्र्येण न गंतव्येति ( श्रइसेस ) शब्दे (गोयरिया) शब्दे च ॥ प्राचार्यस्य शुरुवांकीराम ( इसेस) शब्दे । उपायस्याऽन्तर्वाद व निन्नाचायों न दुष्यतीत्य (इसेस) शब्दे वसतिश च ॥ आचार्यस्याचारप्रकल्ये मुझे कर्तव्यता (आवारपकप्प) शब्दे । श्राचार्यः स्मरस्मरन् वा कल्पाकं उपस्थापयेन पापयेद्वा तत्र कर्त्तव्यता ( वाण ) शब्दे ॥ माचायोंपसम्पत(सपा) शब्दे ॥ याप्रमादिनि शिष्याणां गणान्तरोपसंपतिः ( उवर्सपया) शब्दे ॥ भावादी मृते न्यस्योपसपत् (सबसंपया) शब्दे । संयमसंर गार्यमन्यत्रोपसम्पद्येत तत्र दृष्टान्तादिः (उपसं पया ) शब्दे ॥ वर्षाचा कालगतेऽन्यत्रोपसम्पत्तिः ( उवसपंया) शब्दे ।। प्राचार्यस्य कृतिः (कम्म ) शब्दे ॥ चाचार्य्यस्य तीर्थकरसमानत्वं ( वेयावच्च) शब्दे ॥ त्रिकुणा कृतः शिष्य प्राचार्यस्येति (सीस) शब्दे ॥ वास्तुतिः शब्दे ॥ (२०) निर्ग्रन्यीनामाचार्यः ॥ श्रमणी नामाचार्यावश्यकता यथा ॥ प्रायरियवज्जातो, तइया य पत्तिलीओ समणीणं ॥ आणसि अडाणी, होइ एासे तिएडंपि ॥ अमणीनामाचार्य उपाध्यायस्तृतीया प्रवर्तिनीय प्रयति । श्रमदान त्याचापान्यायास्ततोऽन्येषामर्थाचेति सूत्र येsपि व्याख्यातम् । व्य० २ खं. ७ ० ॥ तथा च व्यवहारसूत्रम्. ॥ तिवासपरियाए समणो निग्र्गये तीसवासपरियाए समणीए निग्गंयीग्रो कप्पर उबज्जायताए उादसित्तए धारितए वा पंचवासपरियाए समये निम्गंये सहिया सपरियाए समणीए निग्र्गथिए कप्पड़ आयरियाए हरिनि ।। १६ ।। म्याक्या । विपर्यायश्रमको नियत्रियायाः श्रमण्याः कल्पते उपाध्या उद्देपुं । पंचवर्षपर्यायः श्रमको निर्मथः षष्टिवर्षपर्यायायाः श्रमण्या निर्मथ्याः कल्पते आयातथा उपाध्यायतया उद्देष्टुमिति एष सूत्रारार्थः ॥ संप्रति नाप्ये विस्तरः ॥ भायरिय तयंमिन उद्देसे, दिसासु जा गहरा समक्खाओ ।। सो चैव य होइ इहं, परियातो वश्वितो नवरं ॥ तृतीये चदेशे दिकु आचार्योपाध्यायप्रवर्त्तिस्थ विरगावदिरूपासु यो गणधर आचार्य उपाध्यायो वा समाख्यातः स एव शाप मिट पर्यायोऽधिको वर्णितः तत् स एव प्रबंध्यते ॥ तेवरिसोतीसिया, जहचत्ताए कप्पइ नबज्छे । वितियाए सा सयरा, य जम्मण्यणवास आयरितो !! त्रिवर्षपर्यय उपाध्याय कल्पते शिकायार्ष र्यायाया जन्मना जन्मपर्यायेण जघन्यतश्चत्वारिंशकायाश्चत्वा शिर्षपर्यायाया उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिकायाश्वत्वारिंश त्कथं स्यादिति चेदुच्यते । दशवर्षजातायाः प्रवज्यायाः प्रतिपतिव्रतपर्याय चत्वारिंशद्वितीयस्था श्रम या निर्भयाः षष्टिवर्षव्रतपर्यायाया जन्मतो जघन्यतः सप्ततीः सप्रतिवर्षपर्याय आचार्यः कल्पते उत्कर्षतो देशानपूर्वकोटिकाया जन्मनः सप्ततिर्वधि कथं भवतीति चेषुच्यते। द पर्यायायाः प्रन्याप्रतिपत्तिः प्रमजितायाः पश्यति । गीयागीतारुढाव, अनुम्ढा जाव तीसपरियाया । अरिहति तिदुसंग सा, फुसंग सा जयपरे ॥ गीता गीतार्था वा भवतु श्रगीता वा गीतार्था वा तथा वृद्धच । वाभवतु । अवृद्धचा वा यावत् त्रिंशद्वर्षपर्यायाः तावत्रिय मातृ प्रियाणामाचार्योप न्यायप्रवर्तिनीनां संग्रहमति संग्रह वा भयं पारणं त्रिंशद्वर्षपर्यायात्परतोऽभवङ्गीता विकल्पना सिंहमुपाध्यायस्य प्रवर्तिग्या या भरोधतः । एतदेव भावयति ॥ वयपरिणया व गीया, बहुपरिवारा व निध्वियारा व दोजर कापा, अप्पननिणिजानसठ्ठी ओ ॥ या परिणता गीताची बहुपरिवारा निर्विकारा व साया चतुषष्टिस्तावदनुपाध्याया वा भवेदप्रवर्त्तिनी वाएवं भवनि द्विसंदिका । दमेव अणायरिया, बेरी गणिणा व होज इपरीय। कागतोस व, दिसाए धारेति पुव्वदिसं ॥ षष्टिवर्षेभ्यः परतो गणिनी प्रवर्त्तिनी इतरा वा अप्रवर्त्तिनी स्वरा अनाचार्या भवेत् । कथमित्याह ( कालगतोसन्नाए वेत्यादि ) का अगतायामवसन्नायां वा दिशि आचार्य सकयायां पयिज्य परतो वर्तमाना धार्थिका धारयति पूर्वी दिशमे मनाचार्या भवति । किंकारणं संयतीनामवश्यं संग्रहीष्यते तत आइ ॥ बहुपचवाय अज्जाउ, नियमा पुण संग अपरिभूया । संगहिया पुण अज्जा, विश्यावर संजमा होई ॥ आर्या पुनर्व प्रत्यवाया ततः संग्रहे सति नियमात्परिजूतःनवति । पराभवस्यानमुपजायते संगृहीता पुनरार्या स्थिरस्था वरसंयम नषति । ततः संग्रह इष्यते । अथ के अपाया इत्याह । पेसी अश्या दीया, जे पुव्यमुदीहडा अवाया ॥ ते सव्ये पसव्यासंग वमयं तेशय । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२) पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय पूर्व कल्पाध्ययने घिसंग्रहं वर्णयता पेसीअजिका श्रादि शब्दा- पर्यायाणामपि गीतार्थानामपि दीयते। व्य.ख. ७ उ. । कुबपुत्रनोजिकादिपरिग्रहः । श्त्यादिका उदाहृता अपायास्ते (११) आचार्ये कानगते आचार्यान्तरस्थापनं ।। सर्वेऽत्रापि वक्तव्यास्ता बहूपायदर्शनतः संग्रहो मन्यत तदेव (१) आयरियउवज्काए गिलायमाणे अन्नत्तरं विवज दृढयति॥ अजागविउतरवंधा, लता वारण कंपते जले वा ।। अज्जो मारणं कागतंसि समणंसि अयंसमुक्कसियवे सेय नावा अनंपणावा, उपमा एस असंगहे होइ ।। समुक्कसणारिहि समुक्कसियवे णो समुक्कसिणारिहि पो अजातविपुलस्कंधा यया वातेन लता कंपते जले वा । यथा समुक्कसियवे अस्थि यो अत्य अकई समुक्कसिणारिहे से प्रबंधना बंधनरहिता नौरेषा असंग्रहे उपमयाऽप्यसंगृहीता समुक्कसियवे एस्थि या अत्य केइ अन्ने समुक्कसिणारिसती बहुप्रत्यवायचातात्कलिकाग्निरितस्ततः संयमात्कम्पते हे सो चेव समुक्कासयव्वे । तेसिं चणं समुकदासि परोवएज्जा श्त्ययः॥ दिलुतो गुग्विणीए, न कप्पटुगबोधिएहि कायव्यो। दुसमुकवंति अज्जोणिाखवाहितस्स एं णिखिवमाणस्स गन्नत्थे रक्खंती, सामत्थरवपुए अगमे। वा णत्थि केइ अत्ये एवापरिहारे वाजे तं साहम्मियं अत्र बोके रष्टान्तो गुर्विण्या कर्तव्यो बोकोत्तरे कल्पस्यकबो अहाकप्पाणं णोअन्नुढतेसिंवसबसि तप्पति य एवा धिकैः कुद्धकाचौरैः तत्र गच्छे पुत्र स्वगोत्रराजादयस्ता रकंति परिहारे वा॥ व्य० सू० ज. ४ ॥ स एष पुत्रप्रनावः।अवटे गते चौरे क्षुल्लकस्य तन्मारणाय साम (आयरिय उवज्झाए गिलायमाण) मित्यादि भथास्य सूत्रस्य Wपर्यालोचनं सोऽप्येष पुरुषस्य प्रज्ञावस्तत्र प्रथमतो गुर्विणी का संबंध इत्यत आह ।। दृष्टांतं विनावयिषुस्तायदिदमाद ॥ आयरियत्ते पगते, अणुयत्तं तेयकालकारणमि । सगोत्तरायमादीसु, गजत्योवि धणं सुतो।। गच्चे सावेक्खोवा, बुत्तोइ मतो वि सावेक्खो ॥ रक्खए मायरं चव, किमुता जायवद्वितो ॥ आचार्यत्वं पूर्वसूत्रेषु प्रकृतमनुवर्तमानं च कासकरणं तत गर्नस्थोऽपि यतः स्वगोत्रराजादिषु धनं जिघृकुषु धनं रक्षति आचार्यत्वे प्रकृते अनुवर्तमानमेवाकालकरणे श्दमपि सूत्र मातरं च किं पुनर्जातः प्रवर्द्धितश्च ससुतरां रकति । सूत्र मापतितमत्राऽप्याचारीवस्य काझकरणस्य वानिधास्यमानयथा गर्नस्थोऽपि रवति तथा प्रतिपादयति ॥ त्वात् यदि वा पूर्वमर्थतः सापेक उक्तोऽयमाप चाधिकृतसूत्रे पणिएपरायासिके, गान्निाणिधणमच्छ धूपसूयाए । पानिधीयमानः सापेक इति सापेक्वत्वप्रकरणादनंतरमस्य सूत्रस्योपनिपातः। अनेन सबंधनायातस्य व्याख्या॥प्राचार्य सव्वं सुयस्स दाहं, धूया पवत्तवेवाहे ॥ उपाध्यायो वा धातुकोनादिना ग्लायन् अन्यतरमुपाध्यायप्रएको वणिक् तस्य भार्या आपनसत्त्वा स वणिक् काबग- वर्तिगणावच्छेदकगीतार्थ भिक्कूणामन्यतमं सापेक्का सन् तस्ततः केनाऽपि राज्ञः शिष्टं देव!गुर्विण्या धनमस्ति राझोक्तं वदत् । आर्य!मयि कालगते सति अयं समुत्कर्षयितव्यः आतिष्ठतु तत्तिं । यदि प्रसूतायाःसुतो नविष्यति । ततः सर्व चार्यपदे स्वापयितव्यः। सचेत्परीकया समुत्कर्षणा) प्रवती सुतस्य दास्यामो हितरि च जातायां यावता नक्तं यावता ति । ततः समुत्कर्षयितव्यो नोचेत्समुकर्षणार्हस्तर्हि नो समुच विवाहस्तावन्मानं दास्यामः । एवं गच्छोऽपि । गर्नस्थोऽपि त्कर्षयितव्यः । अव यो ऽसौ पूर्वमाचार्येण समीक्वितः सोऽ सुतो राकःस्वगोत्रेज्यश्च धनंरक्वति मातरंच। अन्यथा स्वगोत्र ज्युद्यतविदारमन्युद्यतमरणं वा व्यवसितसूत्रमाह । अस्ति जैराका चाद्यापि तव पार्श्वे धनमस्तीति बदुधा विमुप्यते ॥ चात्र गच्छेऽन्यः कश्चित्समुत्कर्षणाईःस समुत्कर्षयितव्यः अथ जावित मौकिकमुदाहरणमधुना लोकोत्तरं जावयति ॥ नास्ति कश्चिदन्यः समुत्कर्षणाईस्तार्ह स एवान्यर्थ्यः समुत्क लोउत्तरिए अज्जा, खुबग वोहिहरणं पसरणीयं ।। पयितव्यः तस्मिश्च समुत्कर्षिते परोगच्छे वदेत्तं पुसमुत्क चोरो मरणं कूवे, सामत्थण चारणा लेह ॥ एं ते तव हेआर्य!तस्माभिक्तिप एवं तस्य निक्किपतो नास्ति लोकोत्तरिकोऽयं दृष्टांतः । क्वचिद्ग्रामे मालवशवरानीकमाप कश्चिच्छेदः परिहारो वा नपलकणमेतदन्यतपो वा सप्तरातितं । तत्र कैश्चिद्वौधिकैश्चोरैरार्यिकाणामेकस्य कलकस्य त्रादिक ये पुनः सामिका गवसाधयो यया कल्पेन आवहरणं कृतं । ते चौरा अन्यस्यैकस्य चौरस्यार्जिकाः कुल्लक श्यकादिषु यथोक्तविनयकरणबवणेन नोत्थाय विहरांति च समाऽन्यस्य हरणाय गताः। स चैव चौरस्तृषापीमितः तेषां सर्वेषां प्रत्येकं तत्प्रत्ययं यया कल्पनेऽन्युयानप्रत्य सन् कूपे पानीयायावतीर्णः । ततः कुडकश्चितयति । यश्छेदः परिहारः सप्तरात्रं वा तपः प्रायश्चित्तमिति सूत्रसके वयमिति । वयमेतावत्संख्याका बहवोऽयमेकस्ततः किमेक पार्थः । एनमेव भाष्यकृत्प्रपंचयन्प्रयमतो गिलायमाण स्थापि न प्राविम्याम इति विचिंत्य ता आर्यिका नहिताः। इत्यस्यार्थ नावयति ॥ पाषाणपुंजमेन कुर्मस्ता नेच्छतिनः मारयिष्यतीति कृत्वा ततः अतिसयनरिटतो वा, धातुक्खोजेण वा धुवं मरणं । कुलकेन तरुचः श्रुत्वा महानेकः पाषाणस्तस्योपरि मुक्तस्ततः नानं सावकखगणी, जणंति सुत्तम्मि जं वुत्तं ॥ पश्चात्ताभिः सर्वानिरेककार्स पाषाणा मुक्तास्ततः पाषाणपुंजे अतिशयेन श्रुतज्ञानातिशयादिना अरिष्टतो वा अरिष्टदर्शनतो नाक्रांतश्चोरोमरणमुपागमत् । ततः कुल्लकेन तास्ततो नि- वा धातुकोनेण वा ध्रुवं मरण ज्ञात्वा सापेका गच्छगपेकोपेता काशिता एवं कल्लको रक्तति किपुनर्महान् तत पतेन कारणे गरिनो यत्सूत्रे उक्त ( मनोकालगयंमी) त्यानित गति नपाध्याय प्राचार्यश्च त्रिवर्षपंचवर्षपर्यायरिंशत्पष्टिकर्ष- सांप्रत (मन्नतरं चपजा) इत्यस्यायेमाह ।। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय अन्नयर उवज्ञाया, दिगान गीयत्यपंचमा पुरिसा। | दोमादीगीयत्ये पुबुत्त, गमेण सति गणं विजए । उक्कसणमणणत्तिय, एगटुं गवणा चेव ॥ मीसेव अणरिहे वा, अगीयत्ये वा जएज्जाहि ।। उपाध्यायादिका उपाध्याय प्रवर्ती गणावच्छेदको गणी गीता- आचार्येण शिष्या निर्मापितास्ते छौ त्रयश्चत्वारो वा नेवयु र्थश्च निकुरित्येवं रूपा गीतार्थपंचमाः पुरुषाः तेषामन्यतमो- स्तेषु च्यादिषु गीतार्थेषु सति प्रभवति परिवारे पूर्वोक्तागमेन ऽन्यतरः समुत्कर्षणं मननं स्थापना आचार्यत्वस्थापनमि- तृतीयोदेशकोक्तेन प्रकारेण गण विभजत तेषु सर्वेष्वपि विनज्य त्यर्थः॥ पृयकगणोदातव्य श्त्यर्थः। तथा मिश्रानाम तेषामाचार्यशि पुव्वं गावेति गणे, जीवंतो गणहरं जहा राया । प्याणां मध्ये केचित् गीतार्थाः केचिदगीतार्यास्तानाप विनकुमरेन परिच्चित्ता, रज्जरिहं गवए रज्जे । जेत् । किमुक्तं नवति।यो गीतार्थास्तान् गणधरपदे स्थाप्य तया पूर्वमेव जीवनाचार्यों यशक्तिमान् तंगणधरं गणेस्थापयति। पृथक् कुर्यादितरांस्त्वगीतार्थाननहतया अथ वा यैरयों देशतो यथा राजा कुमारान्परीक्ष्य यःशक्तिमत्तया राज्याईस्त राज्ये गृहीतो न देशतो गृहीतस्ते मिश्रास्तान् विभजेत् पते मिश्रा अपि योग्या एते त्वयोम्या इति विभागेन स्थापयेत् तथा ये स्थापयति । कथं परीकेत्यतः परीक्षाविधिमाह शरीरेण जंगिकतया सर्वथा गणधरपदान स्तानापि विभजेत् दहि कुछ अमच्च आणत्ती, कुमारा अतिणएतहिएको । वाशब्दोऽपि शब्दार्थः॥ एकांतेनाऽयोग्यतया पृथक् स्थापयेत् पासे निरिक्खिकणं, असिमंति पवेसणे रज्जं ॥१॥ अगीतार्थत्वान्न नजेत् ।श्यमत्र नावना । योऽगीतार्थानामाचार्यएगो राया बहुपुत्तो, सो चिंतेइ जो सत्तिमंतो। सकणोपेतास्ताननईतया स्थापयति ये पुनरगीतार्था अपि संना तं रज्जे गवहामि, बतोकुमारे परिच्छिउ माढत्तो ॥२॥ व्य श्रुतसंपदा आचार्यलकणोपेतास्तान् योग्यतया पृथक् स्था आणता पुरिसा दहि, घमगे एगत्यओगासे । पयति ॥ ग्वेह तेहिं वेत्ता, रएणो निवेदियं अमव्वो नणितो।। संप्रति मिश्रपदव्यारव्यानार्थमाह॥ गीयागीया मिस्सा, अहवा अत्थस्स देसो गहितो उ। विच्छ तुमं दहिघमाणं, पासे अत्था हिगतोअमच्चो । तत्य अगीया परिहा, आयरिय तस्स होतील ॥ अन्नाते कुमारा सदाविता, नाणिया वत्थदहियममेकेक ४ केचित् गीता गीतार्थाः केचिदगीतार्था एते मिश्रा अथवा आणेह सेगया अमं, वहंतयं न पासंति।। अर्थस्य देशो यैर्ग्रहीतस्ते मिश्रास्तत्र ये अगीता आचार्यत्रकततो ते अप्पासेंता सयं चेव दहिधममेकेकं ॥५॥ एपरिभ्रष्टाश्च ते आचार्यत्वस्याऽनहीं भवति ॥ संप्रति "सेय घेनुसंपडियाएकोकुमारो, पासाणि निरिक्खेत्ता अमं च । समुक्कसणारिहे समुक्कसियन्वो नासमुक्कसणारिहे णो समुक्क हंतयमपासंतो अमचं जणति दहिय अमचे ॥६॥ सियव्वे, इत्यस्य नावार्थमन्निधित्सुः प्रथमतः पूर्वपक्कमुत्या पयति ॥ नेच्छाइ कुमारेण असिं, उज्जिरिऊण नाइजश्नेच्छास कहमरिहो वि अणरिहो, किंतुहु असमिक्खकारिणो सीसतेपामेमि अमव्वेणगहितो, दहिघको कुमारो तं घेत्तुं थेरा। गति जं अणरिहं, चोयग!सुण कारणमिणं तु॥ गतो रायसमीवं ॥रएणा एस सत्तिमंतोत्ति परिक्खि परो व्रते । कथं पूर्वमाचार्यविद्यमानवेबायामाऽपि सन् त्ता रज्जेठवितो ॥ ७ ॥ पश्चादन) जातो येनोच्यते।सचेत्समुत्कर्षयाहस्तर्हि समुकर्ष प्रकरयोजनात्वियं दधिकुटा एकत्र राका पुरुषैः स्थापितास्त. यितव्यः। किंतु वितर्क वितर्कयामि। हुनिश्चितमसमीक्वितकारि दनंतरममात्यस्याप्तिः प्रदत्ता।यथा घटानां पार्वे तिष्ठ।तत स्थविरा आसीरन्। यदनई स्थापयति । यथायं समुत्कर्षयितव्यः कुमारा दधिघटानामानयने निरोपितास्तत्रैकः कुमारः पाश्र्वा अत्र सूरिःप्राह । चोदक!ष्णु कारणमिदं येन पूर्वम)ऽपिप त निरीक्ष्याऽन्यमपश्यत् अमात्यस्योपरि असिरुमारितस्ततो श्वादनों जातः॥ मंत्रिणा दाधघटो गृहीतस्तेन दधिघटस्य प्रवेशने कुमारण तदेव कारणमनिधित्सुद्वारगाथामाद ॥ कारिते रटे तस्य कुमारस्य राज्यं दत्तवान् । अत्रोपनयमाद ।।। उप्पियणनीतसंदिसण, देसिए चेव फरुससंगहिए। दसविहवेयावाव्वतिल, कुसलज्जयाणमेवं तु । वायगनिप्फावग, अप्पससिइच्छाअहाकप्पो॥ गति सत्तिमंतं, असत्तिमंते बहूदोसा। (चप्पियणं) मुहुःस्वसनं तद्वारंजीतसंदेशनधारमदेशिक पवमाचार्योऽपि दशविधेवैयावृत्ये उद्यतानामुद्यतमतीनां हारं परुषधारमेतानि चत्वार्यपि प्रस्तुतार्थविषयाणि । संग्रहमध्ये (कुसलत्ति) यो यत्र कुशनस्तस्य तत्र नियोगं करोति द्वारं वाचकनिष्पादकं घारमन्यशिष्यधारमिच्छाधारं यथा तं तत्र नियोजयति। यस्तं शक्तिमतं गणधर स्थापयति प्रशाक्त- कल्पहारमित्येतानि संग्रहादीनि हाराणि ( अत्थियाई च मति तु स्थाप्यमाने बहवो दोषाः के ते इतिचेदुच्यते।सोऽश अम्म समुक्कसणरिहे) इत्यादि सूत्रविषयाणीति घारगाथा क्तिमत्वेन शक्नोति साधून यथायोगमनियोक्तु।तत भादारो- संकेपाथः॥ पधिपरिहानिर्निर्जरातश्च ते परिभ्रश्यति।प्रथाशुकारणतः पूर्व संप्रति प्पियणघारं विभावयिषुराह ॥ न स्थापितं स्यात्ततोऽपस्थापिते गणधरे स कालगतो न समिसेज्जागयं दिस्सा, सिस्तेहिं परिवारियं । प्रकाशयितव्य इत्यादि पूर्वोक्तमपि च सातव्यम्॥ अथैव विधिशेषमाद। * हस्तपादादिशरीरविकसतयेत्यर्थः । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४) पायरिय प्रभिधानराजेन्द्रः। पायरिय कौमुदी जोगजुत्तं व, तारापरिवुझ ससिं॥१॥ नवति । एवं चिन्तयित्वा गच्छसाधवः एवंति । तथाअवते गिहत्यपरतित्याहिं, संसयत्यिहि निच्चसा । "भामदाहामोपयस्सत्ति। इच्छामः कमाश्रमणाश्च तस्यामु कस्य दास्यामो गणधरपदमस्माकमप्येष सम्मतो यत एप सिविजत विहगेहि, सरं वा कमजोज्जलं॥२॥ गीतार्थो धयस्थः सपर्णानि गुन्नानि सवानि यस्याऽसौ स खज्जने अणुसासंतं, सफावतं समुज्जए । संपूर्ण गुनसका स्तथा एष सर्वेषां साधूनां संमतस्ततस्ते त्वगणस्स गिलाकुव्वत, संगहं विसए सए ॥३॥ या गणे स्थापितः।एवमेतौ द्वौ प्रकारानुप्पियणधारेण व्याख्या इंगियागारदकवहिं, सया बंदाणुबत्तिहि । तौ । एतौ द्वावपि जनौ यदि पूर्वमाचार्येण समाहिती अविकमियानद्देस, रायाणं च अनावकं ॥४॥ यथानहाविति तदा न कश्चिदाचायणामसमीक्षितदोषः। गतमुम्पियणद्वारम् ॥ सती नाम शोभना स्वकीया वा निषद्या सनिषद्या तस्यां अधुना भीतसदेशद्वारमाह।। गतमुपविष्ट शिष्यै परिवारितमित्यनूतमुपमयति।कौमुदीका तिकी पार्थमासीतयोगयुक्तं तारापरिवृतं शशिनमिवाश तथा असमाहियमरणंबे, करेमि जई मे गणं न देसि । गृहस्थैः परतीथिनिःसंशयार्थिनिश्च साधुनिनित्यशःसर्वकासं शति गीतेउ गीते, संदिसए गुरु तमोजीओ ॥ सेव्यमानं किमिवेत्यत आह (कमलोज्जलं) कमसपरिमंमितं कश्चिदगीतार्थः पापीयान् प्रत्यासन्नमरणमाचार्यमवगम्य सरस्व विहगैः पक्तिन्निस्तथा।श(सज्ज़मान् )कुस्थानावान् अनु ब्रूते । यदि में मां गणं न ददासि ततस्तेऽसमाहितमरणंतशासंतं सम्यक् बचताः समुद्यतास्तान् श्रझापयंत तेषांमहती था करो"मिवर्तमानसामीप्ये वर्तमानव।"तिवचनात् प्राकृतभकामुत्पादयंत तथा गणस्य गच्चस्य अगिलया निर्जरार्थ त्वाकविम्यति । वर्तमाना ततोऽयमर्थः । करिष्यामि यथा वीर्य मात्मोत्साहेन स्वके विषये प्रात्मीयया शक्तया श्त्यर्थः। संग्रह कासं संसारे भ्रमसि तत एवमुक्त तस्य नीत प्राचार्यों गीतो कुर्वत॥शा तथा इंगिताकारदकैच्छदोग्नुपर्तिनिः सदा सर्वका गीताथा देशकालपुरुषौचित्यवेदनात् गीतार्थान् स विशति समविकटितमिर्देशमखंमिताई राजानमिव अनायकं न विद्यते बयतस्मै मया गणोदत्त इति गीतार्याश्च विदितकारणानुबते। नायको यस्य स तचा।तंचक्रवर्तिनमिवेत्यर्थः। दृष्ट्वा कश्चिदगी आमंति वोत्तुं गायत्या, जाणताकरणं तमु । तार्थ उत्पन्नगौरवो नवति। कयठेवं तुनिजुहे, अतिसीसेय संवसे ॥ उप्पन्नगारवे एवं, गणित्ति परिकरित्रो । आमंच्गम इति उक्ता गीतार्थास्ततकरणं जानतः कृतार्ये उपियंत गणिं दिस्सा, अगीतो नासेइ इमं ॥ निर्यापिते आचार्य तं दृष्याभिप्रायं निर्गहति निष्काशयति। उत्पन्नमजिसषणीयतया जातं गौरवं यस्य स तशा । पव एवमेषोऽन)भवति । अथातिशेषेऽतिशयज्ञानी जानाताति महमपिगणीजवामि गणिपदमवाप्य परिपासयामि। ततःशा यथा सांप्रतमेष निर्दोषीनूतः स वा तस्मात् स्थानात् गुरुजनजनं जवतीत्येष परिकांकितः परिकांकावान् गपिनमाचार्य समकं प्रतिक्रांतस्ततःसंवास्यते ॥ गतं भीतसंदिसणवारम् ।। मुप्पियतं मुहुर्मुहुः इवसंतं मर्तुकाममसिंगं रष्ट्वा कावदगीतोऽ श्दानीमदेशिकद्वारमाह ॥ गीतार्थः कयमदं गणधरो भविन्यामीति विाचत्य यथा गच्च रिहोवि अणरीहो, होइ जो उ तेसिमदेसितो।। पत्तिनः साधवः एवंति। तडा मातृस्यानत श्वं वक्ष्यमाणं तुह्मदेसीव फरुसो, महुरोव असंग्गहो ॥ भाषते । तदेवाह॥ एक आचार्यस्तस्य षट् कुकुक्काः । तेषां मध्ये एक माचा असं मक गणेणात, तुम्ने जीवह मे चिरं । ण गणधरपदे समीहितोऽन्ये चाचार्यस्य शिघ्याः सिंधुदेशाकिमयं तोहे पुट्ठोउ, दिव्वए मे गणो किन ॥ दिषु विहरंति । ते सिध्वादिषु विहत्याञ्चार्यसमीपमागताः। असं पर्याप्त मम गणेन यूयं मम पुण्योदयेन चिरं प्रनूतं कालं- एक कुलमाचार्यसमीहितं मुक्त्वा अन्ये सबै कुरुकाः जीवथ । ततस्तेगच्छवर्तिनःसाधवस्तस्यागीतार्थ ब्रुवते। किमे केचित् कालगताः । केचित्प्रतिनम्मा एवं सकुरुक्कः कुरुष तत्त्वं भूपे । यथा अझं मम गणेन । एवं तैः पृष्टःसन् सोऽगीताथों देशोङ्गवस्तषां सैन्धवादीनामन) जातो येन ते तस्य जिन पक्ति।कमाश्रमणैः किल मे गणो दीयते।तत एवमुक्तं मयेति । देशिकत्वाफुल्लापनं परियति । अकरयोजनात्वेवमोंड अथवा उपियणद्वारस्यायमर्थः॥ प्यन) भवति । यस्तेषां तत्काबजाविना साधूनामदेशिको अहावि एव पुन्वंतु, गीयत्या उप्पियं तए । जिन्नदेशिको यथा सैन्धवादीनां कुरुक इति । गतमदेशिक घारम् ॥ आमदाहा मो एयस्स, संमतो एस अम्मवि ॥१॥ अधुना परुषधारमाह ॥(तखदेसीषफरुसो) तुस्यदेशीयः गीयत्यो पपयत्यो य, संपुमुहलक्षणो ॥ पूर्वसमीहितो गणधरपदे स पचात्परुषप्नावो जातः परुष सम्मतो एस सव्वेसि, साहू ते गवितो गणे ॥२॥ त्वाच प्रतिचोद्यमान आक्रोशति माकोशांचासहमानानावाशब्दःप्रकारांतरद्योतने। पूर्वमस्थापित गराधरे प्रियमाण प्रा- मुत्सवमादिकं कुर्वन् गजेदं करोति। एषमेष पश्चाद चार्यः किन (उम्पियंतित्ति) मुहुर्मुहुः स्वसिति तं च तथा- नईः । सप्रति (अस्थियाई म समुकसणारिहे ) इत्य नूतं दृष्ट्वा गीतार्थश्चिन्तयति प्राचार्यस्य वाङ्नास्ति यया ब्रूते स्यार्थ विभावयिषुः संग्रहधारमाह (महुरोष प्रसंग्गहो) यैः यथा अमुकं साधु गणधरं स्थापयथ।मातूत्सावाणी वयमेव पूर्व समाहितः स सत्यपि मधुरत्वे प्रसंग्रहो न संग्रहशीलः गवर्तिनः साधून जणामो यथाचार्यरमुकोगणधरपदे संदिष्ट अन्यस्तु संग्रहशीसः स समुत्कर्म्यते मेतर इति । सांप्रतम प्रति। तथाचोपायं करिष्यामो यथा गडसाधूनामकंपनीयो । स्मिन्नवार्ये बाचकनिष्पादकधारमाह। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय (३४५) अभिधानराजेन्द्रः । वायंतगनिष्फाग, चलरोजंगाल पढमो गन्ने त होइ, सो असो वा वाए | बायको निष्पादक कृति पयसंयोगतत्वारो नंगास्तव था । वाचयत्यपि निष्पादयत्यपति प्रथमः १वाचयतिन निष्पादयति तयः २न वाचयति निष्पादयति तृतीयः ३ न चाययति न निष्पादयति चतुर्थः । अत्र सत्यपि पूर्वसमी दिले या प्रथम गवर्ती संस्थाप्यते नेतरो द्वितीयादिगपत। तथाचा प्रथमको ग्राह्यः किती भङ्गकोन स्थाप्योऽनिष्याद कत्वात् । तृतीयस्तु गुम्यो बनाया मनाचे निष्पादकत्वायोगात् । यदि वा आत्मना न वाचयति अन्येन वाचयति । तदासोऽपि योग्यः चतुस्तु सर्वयान एव सांप्रतमत एवार्थेऽन्य शिष्यद्वारमाह ॥ असतीच अपसी, जाति गणम्पि जाप निम्मातो । एसो क्षेत्र अरिहो अहवा विइमो ससिस्सोषि ॥ आचार्याः कालं कर्तुकामा आत्मीयाः शिष्याः सर्वेऽप्यनि मीता इति तेषां मध्ये गणधरपदयोग्ये एक स्मिनप्यसति अन्य स्य शिष्यं प्रातीच्छिकं गये स्यापयंति च यावन्मम शिष्यो निर्मातो निष्पन्नो जवति तावत्त्वं गणधरः । निर्माते सति त्वया गवाधरपदं निकेतन्यं । यदि न निक्षिपति ततश्वेदःपरिहारास सप्तरात्रं वा तपः प्रायश्चित्तम् । एष समीहितो ऽप्यन हो जातः । श्रथवाऽयं स्वशिष्योऽप्यन ईस्तमेवाह । जो तो बहूणं, गणदर अवियतो दुस्समुकड़ो । दोसा आणि क्खिवंते, सेसा दोसं च पार्श्वेति ॥ भाचार्यैः कालं कुर्वद्भितो य एष मम शिष्यः सूत्र तोऽर्थतश्च निम्मीत एतस्मादयं बहुभिर्नागैर्गणधरगुणैरन्यधिको नविष्यति । केवल मिदानीमनिर्मातस्ततो योऽसौ निर्मातः स श्राचार्यैरुच्यते । यावदेनं त्वं निर्मापयसि । तवं तमस्तु निमषिते त्वया गणाधरपदं निशेभव्यम् । यत एष तव पार्श्वद्बहुभिर्नागैर्गच्छस्य प्रवचनस्य चोपग्रहकारी विष्यति तमतथा प्रतिपक्षम् भाचार्य कालग सः सच तेन निर्मापितो जातः समस्तस्याऽपि संघस्य प्रीतिकरः ततोयस्तेन निर्मापितो जातोऽनुमतो बहूनां स गणधरा स्थापनायो यवितोऽप्रीतिकरः पूर्व स्थापितः स दुस्समुत्कृष्ट इति वक्तव्यो निचिप गणधरपदमेवमुक्तो यदि न निक्षिपति तत स्तस्मिनिक्षिपति दोषाचेदं परिहारं सारा था तपः प्राप्नोतीति भावः । येऽपि च शेषास्तं ते तेऽपि दोष प्राप्नुव न्ति देवं परिहार समय वा तेऽपि प्राप्नुयंती त्यर्थः । यदेत जितमेतत्प्रसंगागतमयं पुनः स्फुटसूत्रेण निपातः ॥ अजयमेगयरं वचसियकार्ममि होइ सुतं तु । तेति कुशमुए, गीयं पच्छा जहिच्छा ते ।। आचार्ये कोऽपि स्वशिष्यः समीहितो यथाऽयमाचार्यपत्र योग्य इति ततो गीतार्थाः संदिश, एप सुमुत्कर्षयितव्यः सच कानगाचायें हते विहारं जनकल्पादिक मन्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्स्ये तस्मिन्यतमेकतरं बिहार मरणं । वाच्यवशात्तुमनसि नवति निपतति सूत्रम् । अस्थिया इत्थं अ के समुक्कस सरिदे से समुक्कसियग्वे नत्थि या च के अने समुक्कसणारिहे सेचैव समुक्कसियन्वे । तस्मिन्युद्यतस्यैकतर व्यवसातुकामे मस्ति चेदत्र गच्छे आयरिय ऽन्यः कश्चित्समुत्कर्षशास्ता स समुत्कर्षयितव्यो नास्ति बेदम कधिदन्यः समुत्कर्ष वास्ततः स एय समुत्कर्षचितन्यः कथमिति चेच्यते । गीतार्था अत्यर्धनपुरस्सरं श्र्वते । । यूयं गणधरपदं परिपालयत । एकमस्माकं कंचन गीतं गीतार्थ कुरुत निर्मापयत ततः पश्चात स्मिन्निमपिते ते भवतां यदि यत्प्रतिभासते तत्कुरुतेतिभावः । अत्रेच्छा एवमुक्ते तेन धरपदं प्रतिपाद्य कथनाप्येको निर्मापितः । पश्चात्तस्य चितमजायत । यथा श्रभ्युद्यतविहारात् गच्छपरिपालनं विपुलतरं निर्जराकारम् तस्मात्परिपालयाम्यदमेय गच्छमिति । तथाचाह ॥ निम्माऊण गइपि, मे निज्जरायदारं तु । निक्खव निक्खिवामी, इत्यं इतरे उ खुन्नत्ति ॥ स गणधरपदे स्थापित एक कंचनापि निम्र्माप्येवं चित्तमकार्षीतू इदमपि गच्छ परिपालनं महत् निर्जराया द्वारं । एवं व्यवसि ते तस्मिन् गच्छे गीतार्थ निराधरपदं स प्राहन निक्षिपामि किं विच्चामि गच्छं परिपालयितुमेवमुक्ते इतरे गच्छ्रगीतार्थाः कुत्र्यांत ते च कुत्र्यंतो यनुवते तदाह । दुस्समुक्कडं निक्खिव, जति गुरुगा अहिं तेय । एमेव ससे, निक्खिवणा गाहिते नवरं || पूर्व तव नेप्सितं गयधारणं पचादिदानीं यद्यपि रुचि स्यापि नरम रोचसे दुःसमुह त धरपदं । तस्मान्निपिति एवं प्रणति गच्छसाधुवर्गे प्रायचित्तं चत्वारो गुरुकाः (अणुहिंतेयमेवे ) त्यादि योऽसौ प्रात । किः स्थापित स चेत् यावदचापि न निम्मापयति कमपि शिष्यं तावदिच्छायो भाते निपि त्वं गणधरपद मिति तदा तेषां तथा माषमाणानां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । अथ तस्मिन्नन्यशिष्ये निर्मापयितुमिष्यमा अनुतिष्ठति अनिर्मापिते गणथरपदनिक्षेपणं करोति तदा तस्मिन्नन्यशि ये अनुतिष्ठति गणधरत्वं निक्षिपतः प्रतिच्चिकस्य प्रायश्चि तमेव चत्वारो गुरुका इत्यर्थः । यथा गीतार्थत्वेन गच्छसाधयः सेविष्यते तन्निमित्तमपि तस्य प्रायश्चित नगरं केवलं तस्मि अन्यशिष्ये प्रादिते निम्मपिते गरदनिक्षेपण कर्तव्या । नव तत्र तां कुर्यतस्तस्य च्छेदः परिहारः सप्तरात्रं वा तपः । गतमिठाद्वारम् ॥ संप्रति यथा कल्पारावसरस्तत्र ये गच्छसाधवस्ते स्वगसाधुं प्रतिच्चिकं च पूर्वस्यापितं यथा कल्पेनाऽभ्युत्तिष्ठति ययाकल्पानभ्युत्थानमेवाह ॥ यावस्सगरुत्तत्ये, जत्ते आसोयणाउवहाले । परिहाकितिकम्मं मत्तगसंथारगतिगं च ॥ आवश्यके क्रियमाणो यो विनयस्तस्य प्राचार्यस्य कर्तव्यस्तं च न कुर्वेति सूत्रमर्थं वा तस्य समीपे न गृद्धते । ( भन्ति ) आचार्ययप्रायाम्यं तस्य भक्तं न प्रयच्छति । (आयराति ) तस्य पुरतो नासोचयति (पति) श्राचार्यवत्र कंबल पात्रादिप्रत्युपेक्षणाय नोपतिष्ठते । नापि कृतिकर्म वंदनकमन्यका कुपीत नापि मात्रकत्रिकं तस्य दी कति तिखः संस्तारकमयस्ता अपि न प्रयच्छंति। तेषामा यथा कल्पमनन्युत्तिष्ठतां प्रायश्चित छेदः परिद्वारः सप्तरा वा तप इति । व्य. २ नं. ४ उ ॥ आचार्य मृते तत् यमेवान्यः स्वाप्यते। तथाच व्यवहारस Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय ( ३४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । गियरस णं णवरुहरतरुणगस्स प्रायारय उव जाए विसंनेज्जा णो से कप्पर । अणायरियडवश्चायस्स तर कप्पर । से पुव्वायरियं जदिसावित्ता ततोपच्छा उवइजायं से किमादु जंते! दुसंगहिए समणे णिग्गये तंज हा प्रायरियेणं उवायेणय ॥ ११ ॥ व्य. सू. ३ उ. ॥ निर्मन्थस्य णमिति वाक्यालङ्कारे । नवमहरतरुणस्य वा प्राचार्यसाईत उपाध्याय श्राचार्योपाध्यायस्तस्याचार्योपाभ्या वस्येत्यर्थः । विष्कंभयात् म्रियेत । ततः सेतस्य नवमदर तरुणस्याचार्योपाध्यायस्य सतो भवितुं न कल्पते वर्तितुं किन्तु पूर्वमाचार्यमुद्देशास्स्थापयित्वा ततः पश्चानुपाभ्यायमुद्देशा प्रत्येवमाचार्योपाध्यायस्य सतो नवितुं कल्पते । सेकिमाहु ( भन्ते ! इति ) से शब्दोऽथ शब्दार्थः । अथ भदन्त ! किं कस्मा कारणात भगवन्त एवमाहुः । सूरिराद । द्वाभ्यामाचार्योपाध्या बायां संगृहीतोद्धिसंग्रहीतः श्रमणो निर्धन्यस्सदा भवति तद्यथा श्राचार्योपाध्यायेन च एष सूत्रसंज्ञेपार्थः ॥ ११ ॥ (२) भावा मृते निर्मन्थीनामप्यन्य प्राचार्यः स्था प्यते ॥ तथा च व्यवहारसूत्रं ॥ निम्गन्थी एवं एवमहरतरुणियाए आयरियडवज्जाए प वित्तिणियं विसजेज्जा णो से कप्पइ प्रणायरिय से प्रणुवज्जाइयताए अपवत्तिणिएय होंतर कप्पर पुव्वं प्रायरियं तु दिसाविता तओ पच्छापतियो उबजायं ततोपच्छापवित्तिणियं से किमादु जंतेति संगाहिया समणी निग्गंथी | तंजहा । श्रयरिएणं सवाणं पवित्तिणिएय ।। १२ ।। व्य. सू. ३. ॥ निम्न्यीपणमिति पूर्ववत् नवमहरतरुण्याः श्राचार्योपाध्याय समासोऽत्रपूर्ववत् । श्राचार्योपाध्यायमेतत्प्रवर्तिनीय विष्कं भयात् नियेत । ततस्सेतस्या भनाचार्योपाध्यायाया उपलक्षणमेतत् प्रवर्तिनी रहितायाश्च नोकल्पते भवितुं । किन्तु पूर्वमाचार्यमुद्दिश्यते । ततः पश्चाडुपाभ्यायं । ततः पश्चात् प्रवर्तिनीं । कयानवितुं कल्पते ( से किमाडु) इत्यादि भथ प्रदन्त ! किंकस्मात् कारणात् भगवन्त एवमादुः । सूरिरादं । त्रिभिः संग्रहिता भ्रमणी निर्मन्थी सदा प्रवति तद्यथा प्राचार्येणे पाध्यायेन प्रवर्तिन्या च एष सूत्रसंकेपार्थः । (२२) चावधाविते प्राचार्य्यान्तरस्थापनं ।। पूर्वाचार्योऽवधावेत नवः स्थाप्यः ॥ तथा च व्यवहारसूत्रं आयरिय उवश्कार उहायमाणे श्रन्नयरं वएज्जा प्रज्जो मरणं उदायांस समणंसि अयं समुकसियब्वे । जाव सव्वेसिंतेसिं तप्पतियं च्छेए वा परिहारे वा ।। १३ ॥ व्य. सू. ४ उ. ॥ म्याक्या । भाचार्य उपाध्यायो वा मोहेन रागेण वा भवधा (मन्यतर) मुपाध्यायादिकानां गीतार्थपंतमानां पुरुषायामन्यतमं वदेत् यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठगे द्रष्टव्यः ॥ जो ममं सिणं उहावियांम समाणंसि अयं समुक सियन्बो सेय समुकसणारिदे समुक्कसियव्वेसिया सेयनो समुकसणारिदे नो समुक्कसियव्वे सिया अत्थिया इत्य अछे कई समुकसणारिहे से समुकसियन्वे नत्यियाइत्य आयरिय ने केइ समुकसणरिहे से चैव समुक्कसियव्वे तेसिंचगं समुक्किसि परोवएज्जा दुस्समुक्किहंते अज्जो निक्खिवाहि तस्स णं निक्खिवमाणस्स नात्यि केइ च्छेदे परिहारे वा ।। अस्य व्याख्या प्राग्वत् व्य. सू. ४ उ ॥ धुना नियुक्तिविस्तरः । केन पुनः कारणेन्तऽसाववधाव सीति चेदत आह ॥ मोहेण वा रागेण, ववहाणं सयं पयते ।। धम्मकहाए निमित्तेणं, णाहसालागवेसणया ॥ भवधावनं मोहेन वा कामोदेकरूपेण रोगेण वा । तत्र मोड़ विषया यतना प्राकू तृती योद्देशकेऽनिहिता । यदि रोगेप ततो नाधावितव्यं । किंतु प्रयत्नेन भेषजं दातव्यम् ॥ तच्च धर्म कथानिमित्तेन चोत्पादनीयं । तथाऽप्यलाने श्रनाथशालातो गवेषणा नैषजस्य कर्तव्येति नियुक्तिगाथायाः संकेपार्थः ॥ एतामेव संप्रति नाप्यकृद्विवरीषुरिदमाद । मोहेण पुन्वयिं, रोगेल करेंति माएजयणाए ॥ प्रायरियकुलगणे वा संघो व कमेण पुव्वृत्तं ॥ यदि मोहेनावधावनं कर्तुमीहते तदा यत्पूर्व तृतीयोदेशके मोचिकित्सा विषयं प्रणितं तत्कर्तव्यमय रोगेण तदाऽनयाच क्ष्यमाणया प्रथमतः ततः प्रासुकेन तदबाने वाऽप्राकेनापी त्येवरूपया यतनया पूर्वोक्तं भैषज्यं प्रयत्नेक संपादनीयमित्या दिरूपं कुर्वन्ति केते कुर्वेति । तत श्राचार्य्यकुलं गणसंघोवा कथमित्याह । क्रमेण परिपाटचा तामेव परिपार्टी कालवियमनपूर्विकामाद ॥ छम्मासे प्रायरियकुतु, संवच्चराणि तिभि जवे ॥ संवच्चरं गणो खलु, जावज्जीवं जवे संधो ॥ प्रथमत प्राचार्य्यः ष एमासान् यावत् चिकित्सां कारयति तथाप्यप्रगुणीभूतं तं कुत्रस्य समर्पयति ततः कुलं श्रीन्सं वत्सरान् यावत् चिकित्सकं भवति । तष्ठाऽप्यप्रगुणी नवतं गणस्य तं समर्पयति । तदनंतरं संवत्सरं यावत् गएः खलु चिकित्सको भवति । एतचोक्तं भक्तविवेकं कर्तुमशक्नुवतो यः पुनर्नक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति । तेन प्रथमतोऽष्टादशमासान् चिकित्सा कारयितव्या । विरतिसहितस्य पुनः संसारे दुःप्रापकत्वात् तदनंतरं चेत्प्रगुणी नवति । तत सुन्दरमथ न भवति । तीं भक्तविवेकः कर्तव्यः ॥ प्रत्रैक देशांतरमाद || हवा विश्यादेसा, गुरुवसंने निक्खुमादिते गच्छं । जत्यि वारसवासा, तिक्कमासो अमुष्णं ॥ अथवा द्वितीय आदेशो गुरौ च ते निक्कादौ यथाक्रमं चिकित्सां कारयति यावज्जीवं द्वादशवर्षाणि त्रिषट्कमष्टादश मासान् कथमित्याह अशुद्धेना पिशब्दोऽत्र लुसोरन्यः प्रथमतः शुकेन तदभावे चाशुकेनापि । तदनन्तरं मिक्कादिना भक्त विवेकः कर्तव्यः । गुरुस्सुगच्छप्रवर्तकशते तस्य यावज्जीवं चिकित्सा तत्र प्रथमोद्देशेन च विषेकं कर्तुं शक्नुवंसं प्रत्यष्टश दशमासान् ॥ कश्चिकित्साविधिस्तमनिधित्सुराद् ॥ पत्ते प्रसहं से, करेंति सुकेण उग्गमादीहिं । पहाणीए लंजे, धम्मकहाहिं निमित्तेहिं ॥ प्रथमतः प्रयत्नेनोद्गमादिभिः शुद्धेन वस्तुजातेन (से) तस्व भौषधं कुर्वति । तदलाभे पंचपरिदान्या यावच्चतुर्गुरुकेनाप्यशुद्धे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय नापि तथा या निमित्तैरपि ॥ ( २४७ ) अभिधानराजेन्द्रः । धर्मचानिस्तदोषधमुत्पादयति ता तहावे जे अनुषं माहिहियसामाहिना एसहादि । नत्यंत बहिदाणं, ससिंगविसणेण उड्डाहे || तथापि निमित्तैरपि चेद शुद्धं नलनेत ततोनाऽथशात्रा या आ रोम्यशाळा तस्यां मध्ये न प्रविशति किंतु परिस्थितास्तत आरोग्यशालात औषधं गवेषयित्वा समानयंति । अथ ते शाला निवासिनो न प्रयच्छंति । ता यस्तस्या भारोग्यशालायाः प्रतुरधिपस्तमनुशास्य याचते । तवाप्यमाने स धर्मकथया मावर्जनी यस्तायनावर्जने निमित्तेस्वािऽप्यवर्जयितव्यः तत्रापि वहिः सितानामौषधप्रदानमनिच्छति यत्यस्यार्जितं लिंगं तेन लिंगेन प्रविशति प्रविश्यौषधमानयंति । अथ स्व सिंगेनापि तत्र कस्मान्न प्रविशति तत भए । स्वलिंगन्यसनेन स्वगप्रवेशेन प्रवचनस्पोडादः नामी किमपि जानते स चामीषां धर्मः श्रेयानतः क्वचिदपि किंचिदप्यसभमाना कानाथा श्वात्र समांगता इति प्रवचनस्योपघातः । एतदेव पहाणी एमनंभे इत्यादिकं विवरीपुरिदमाद || पणगादिज्जागुरुगा, अलप्नमाणे बहिंतु पायोज्जा ॥ महिसागसता, तत्य परस्थासादि ॥ पंचकपरिदान्या पंचकादिप्रायश्चितमीषोत्पादनायता बदासेवनीयं यावच्चत्वारोगुरुकास्तचापि पहिः प्रायोग्ये भीष अक्षज्ये आरोग्यशालाया बहिः स्त्रिता औषधस्य गवेषणं कुर्वते तत्र तद्वास्तव्यानामदाने यः प्ररारोग्यशालायामधिपतिस्तस्यानुशास्ति आदिशब्दाचानिमिव प्रज असई अशियलिंगेनरक्तपटादिरूपेण प्रवेशनं कुर्वति तेषुच प्रवि ष्टेषु प्रतिभानवंतः प्रतिवचनदानसमर्था वृषनास्ते स्वलिंगेन गत्वा प्रचुं भाषते यथा कोयुष्माकं सिद्धांत एवमाभाप्य तत्र सिद्धांतविषये प्रणागृहीतलिंगेश्चसद् परस्परमुवापकुर्वति । यहा उत्तरवादिनो वृषभा भवंति । भन्नु वा यदि प्रति पत्तिकुशलाः परप्रतिपादनवृषभास्ततस्ते गत्वा से तस्य प्रनोनिजकत्वमात्मत्वं नावयति । तथापि सिकांतविषये तै हीतसिंगैः सद् परस्परमुल्लापं तथा कुर्वेति । यज्ञा ते आ चकृत इति ॥ अडवा परिवचिकुला, तेण सर्व करेति लक्षानं । पनवंतो विय सोवी, वसनेऊ उत्तरी कुणति ।। अथवा ये प्रतिपत्तिकुशलाः परप्रतिवचनदानसमर्थास्तत स्ते गत्वा तेन प्रनुणा सह परस्परमुवापं तथा कुर्वति गृहीत लिंगाध तथा तं नावयंति तथा सोऽपि भास्तां गृहीतलिंगा इत्यपिशब्दार्थः । प्रभवन्नपि वृषभानुत्तरीकरोति उत्तरबादिनः करोति । ततः स निरुत्तरीकृतः सन् यद्रूते तदाह ॥ तोनणइ कलह मित्चा, ममेव हेज्जह उदंतंति । तं विपणिंति एवं एगच्छम्मासा ॥ ततः सिद्धांतोला पराजितः सन् भणति यूयं मम कलह मित्राणि कलहानंतर यानि जातानि मित्राणि तानि कदमित्राधि सतोमे ममोदतं वहत एवमुक्ते तेपि वृषभाः प्रतिशृएवंति भज्युपगति । तत एवं गत्या गतिभिस्तमतीषावर्ज्य ता षण्मासान् या तंत्र चिकित्सां कारयति । एवमेकस्यामनाथशात्रायां मासा एवं द्वितीयस्यां तृतीयस्यामपि च तथा चार ॥ उम्मासा म्मासा, विय तइयार एव सामाए । आयरिय काऊ अहारस ऊम, पउणे ताहे विवेगोउ ॥ एवमुक्तप्रकारेण द्वितीयस्यामनाथशालायां पदमासा एवं तृतीयस्यामपीति सर्वसंकलनया अष्टादशमासान् चिकि सां कारयित्वा प्रगुणीकरोति । अथ प्रगुणा न भवति ततस्तस्य भक्तविवेकं कर्तुमुचितः संप्रति प्रागुक्तं द्वितीयमादेश स्पष्टयति अवा । गुरुणो जावज्जीवं फासूय अकारण ते गिल्यं । बसने वारसमासा, अहारस जिवणोमासा || गुरोराचार्य्यस्य यावज्जीवं चिकित्सां प्रासुकेनाऽधासुकेन घा कुर्वति सर्वस्यापि गच्छस्य तदधीनत्वात् यथाशक्ति निरंतरं सुषार्थनिर्णयप्रवृतेध वृपने दादशवर्षाणि चिकित्सा ततः परं शक्तौ भक्तविवेकः एतावता कालेनान्यस्यापि समस्तगच्छ भागे नसमर्थस्य वृषभस्योत्थानात् अष्टादशमासा भिको चिकित्सा ततः परमसाभ्यतया शक्ती सत्यां भक्त विवेकस्येव कर्तुमुचितत्वात् ॥ व्य. ४ च. ॥ (२३) सण सुतर निम्माओ इत्यादि । स्म्मा, पिदधम्मो ॥ जाईकुलसंपल्यो, गंजी रोलवितो ।। १५ ।। व्या० । षायें निर्मितो निष्ठता प्रिपरदधर्मः जययुक्तोऽनु बर्तनाकुशलः उपायः । जातिकुलसंपन्नः । पतयसम न्वितो गंजीरो महाशयसन्धिमा उपकरणाद्यधि गाथार्थः ॥ संगहुबग्गहीनरच्यो, कपकरणो पययणापुरागीय ॥ एवं विहो जाओ, गणसामि जिणवरिंदेहिं ॥ १६ ॥ म्या० । संग्रहणोपग्रहनिरतः संग्रह उपदेशादिनोपग्रहश्च प्रादिना व्यत्यय इत्यन्ये । कृतकरणो ऽज्यस्त क्रियः । प्रवच मानुरागी च हत्या परावृतःपधि एव भणितः प्रतिपादितो गणस्वामी रेजिनपर मंगवारिति गाया थेः ॥ पं. व. ॥ आहारवत्यादिमुलक, आदेशापर्क कमीणदेहं । सकारज ममिलोर, पूर्वति सहाय पिहूजणाय ॥ भादारवस्त्रादिसन्धियुक्तमदेयवाक्य मही नदेई परिपूर्णदेहा वयवं तथा मतिमति लोके सत्कारभाजं विषज्जनपूज्यमित्वर्थः शकाः पूजयंति पाठांतरम् "सकारजम मं मिलोए " तत्राऽयमर्थः । सक्कारेण हियते भविष्यते इति स कारहायोऽयं यतोनोफस्त पर्व हतेऽस्मिन् के महार चादिषु युक्तमित्यादिः शककाः पूजयेति । पृष जना बहुमन्यते । ततः स तादृशो गप्यधारी कर्तव्यः । व्य. ३. ॥ आयरियवाया, नाखाया जियो सिप्पट्टा ॥ पाणे चरणे जोगा, बहाउ ते अणुलाया || आचार्या उपाध्यायाच जिनेस्तीने याप शिक्षणनिमित्तमनुज्ञाताः कैः कारणैः पुनरनुज्ञातास्तत श्राह । ज्ञाने चरणे च ये योगास्तेषामाचार प्रापका यतो प्रविष्यन्ति ततस्ते अनुज्ञाताः । ज्ञानचरणस्फार्तिनिमित्तमनु ज्ञाता इत्यर्थः । श्रपि चेदृशा आचार्योपाध्याया अनुज्ञाताः ॥ व्य. १ खं. ४ . । (२४) एकपालिकादेर्दिगापायः ॥ नूतनाचार्य्यस्थापनायामेकपाक्षिकमित्रहरूयोग्यता Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४८) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय ऽयोग्यता यथा॥ स्तं तयारंभः पृथिव्यादधुपद्रवणानि उपत्रवणत्वात्संरभसमा एगपक्खियस्त जिक्खस्स कयई इंतिरियं दिसं वा रंभावपि । तत्र संरंभः संकल्पः समारंभस्तु परितापकरः । अणुदिसं वा धारित्तए वा जहा वा तस्स गणस्त उक्तं च ।। परियांस वा ॥ २४ ॥ व्य. सू. ३ न.॥ संकप्पो संरंनो, परितावकरो नवे समारंनो ॥ एकपाक्षिकनिन्नपाकिकयोोग्याऽयोग्यता (चानुपावणाकप्प) आरंजो उद्दवो, सुकनयाणं तु सध्वेसि ॥१॥ शब्द। तत्र स्वान्ययोः प्रवर्तकस्तं तया पीठकमासनं आदिशब्दात (२५) अक्षणं मेढीतूतः ॥ फलकपट्टिकादयस्तत्र प्रतिबकः कारणं विनापि ऋतुबक काल तत्रगणस्य बहुवतिनीसमुदायात्मकस्य प्रत्येक परीक्का कर्तुं तत्परिभोजीत्यर्यः ॥ ग. १ अधि.॥ न शक्यते अयाचार्ये च परीक्षिते प्रायोगणोऽपि परीक्षित (३६) परीक्षा प्राचार्य्यस्य ॥ एव मेढयादिसमानत्वेन तत्प्रवर्तकत्वादाचार्यस्य गणस्य च | सुखस्सय पारिच्छग, खममययेरेयतरुणखज्जमे॥ तदनुवर्तित्वादित्यतः प्रथममाचार्यमेव परीकेतेत्याह ॥ दोमादिमंमसीए, सुकमसुके ततोपच्छा। मेढी लंबणं खंनं, दिहि जाणमुउत्तमं ।। शुरूस्य परीका कर्तव्या कस्मिन्विषये इत्यत आह । । सूरी जंहोइ गच्चस्त, तम्हा तं उ परिकए ॥ ७॥ कुखके स्तुविरे तरुणे खज्जः स्वनावाद्वकाचारः तस्मिस्तथाव्याख्या यदद्यस्मात्कारणात सरिः सदाचार्यों गच्छस्य गण द्वयोरादिममल्योः पताभिः परीक्षानिर्यदि निवर्तितस्ततः स्य ( मेडित्ति ) मेदिः खन्ने गोबंधस्यूणा तत्समानो जवति ।। शुद्धः श्तरस्त्वशुरुः शुद्धस्य च गणधरपदानुका कर्त्तव्या ना यथा तया बलानि पशुवृदानि मर्यादया प्रवर्तते तयाचार्यो शुद्धस्य ततः शुभाशुरूप्रतिपादनानंतरं चोदकं पृच्छा सपनमेढीबको गच्गेऽपि मर्यादया प्रवर्तत श्त्ययः । तथानं- क्वणमेतदाचार्यस्य प्रतिवचनं च वक्तव्यं एष द्वारगाथासंकेबनं दस्ताद्याधारस्तत्समानः यया हस्ताद्याधारो गर्तादी पार्छ । सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रयमतः कुल्लकविषयं पतजंतुं धारयति । तया ऽचार्योपि नवगते पतंतं गच्छ परीक्षाविधिमाह ॥ धारयतीत्यर्यः । तथा (खमंति)स्तंभः स्थूणा अत्र नपुंसकत्वं उच्चफलो अहखुड्डो, सनणिच्छावोपवासिउं दुक्खं । प्राकृत्वादेव तत्समानः । यचा स्थंभः प्रासादाधारः स्यात् पुठोवि होहिति न वा, पग्निमयो सारवंतस्स ॥ तथाचाय्यापिगच्चप्रासादाधारः तथा (दिहित्ति) रष्टिनेत्रं तत्समानः ययाजंतोर्नेत्रं शुनाशुभवस्तुप्रदर्शकं भवाति तया तस्य व्यजावपरिच्छेदोपेतस्य गणधरपदयोग्यता परी ऽऽचाय्योपिगच्चस्य नाविशुन्नाराजप्रयशकास्यात् तया(जावं कणाय प्रयमतः कुखको दीयते । एवं विविधामपि शिकां त्वं सूत्तमति )यानं यानपात्रं सूत्तममतिप्रधानमच्छिमित्यर्थः ग्राहय ततः स एव मुक्तः सन् यदि चिंतयति यया (अहत्ति) तूतूसमाचो यथा अछिद्रयानपात्रं समुज्तीरं नयति जंतून पष कुखका उच्चं चिरकालभाविफलं यस्मात्स उशफलश्चिरका तथाचाय्यापिगच्छे नवति तस्मात् प्रथमं संतुस्तिनोरवकारार्थ लेनोपकारी तावता काबेन किमपि नविष्यतीति कोवेद ततः त्वात् तमेवाचार्यमेव परीकेत गच् परिक्वेच्छः साधुरित कमेनं शिकां ग्राहयिष्यति यदि वा शकुनिशावसिवावत्पोष्यः अनुष्टुप्वंदः । एवंचात्र ग्रंछे त्रयोधिकाराः सचिताः तथा पोच्यते । पुनः पुनर्बुनुक्काभावादिति भावः । अपि च पुष्टोऽपिआचार्यस्वरूपाधिकारः १ साधुस्वरूपाधिकारः २ साध्वी सन्नष मम भविष्यति वानवा को न जानाति अन्यश्चामुं स्वरूपाधिकारश्च ३ तत्र प्रथममाचार्यस्वरूपाधिकारं निरुप- धारयतः सारं कुर्वतो मम सूत्रस्य च महान्पलिमंथो यितुकामः कैश्चिन्दैः उमस्थ उन्मार्गप्रस्थितमाचार्य परीकेतेति | व्याघातस्ततो नैतस्य मे शिकया प्रयोजनमेव चिंतयन् योन प्रश्नयन्नाह ॥ ग्राहयति सोऽनहस्तहिपरीतो ऽहस्ततो यः स्यविर एष जयवं कहिं लिंगहिं, सूरिं उम्मग्गपढिअं । प्रवचनोपग्रहकरो नविष्यति दृढदेहोवा यया आचार्यरक्तितः विप्राणिज्जाउ उमत्ये, मुणि! तमे निसामय ॥ पितेति कारणतो दीकितस्तिष्ठति स शिकस्तस्य समर्पते ॥ एवं हिविधामपि शिकां ग्राहयति तस्मिस्तत्समर्पिते यदि व्याख्या ।.हे भगवन् ! परमैश्वर्यादिसमन्वित ! कैसिङ्गैश्चिन्दै स इदं चिंतयति ॥ मन्मार्गप्रस्थितमसन्मार्गस्थितं सरिमाचार्य गद्यते केवनमानं केवनदर्शनं चात्मनोऽनेनेति उझ तत्र तिष्ठतीति समस्यस्तं पुट्ठोवा स मरिसति, पुराणुवुत्तो न वेडपामेयारो । विजानीयात् परीकेतेति परप्रश्ने गुरुराह हे मुने! यैश्चिन्द मुत्तत्ये परिहाणी, थेरे बहुयं निरत्यं तु ॥ राचार्यमुन्मार्गप्रस्थितं उद्मस्थः परीकेत तन्मे मम कथय इति एष प्रयमालिकादिदापनतः शिकाग्राहणतश्च पुष्टीकृतोऽप्यारा शेषः (निसामयत्ति ) त्वं निशामयाकर्णयोत अनुष्टप शीघ्र मरिष्यति च शब्दः चिंतांतरसमुच्चये । यदिवा वृद्धः स्य चंदः ॥ ४ ॥ अय वृत्तब्येनपूर्वोक्तशिष्यप्रश्नोत्तरमेवाह ।। नावात् पुरनुवत्य पुःखेनानुवर्त्य तेन वा अत्र वृहशिक्कापने कसच्छंदयारिं दुस्सीलं, आरंजेसु पवत्तयं ।। श्चित प्रतीकारः किमुक्तं भवतिनास्माइछात् कश्चित् प्रत्युपपुढवाइपमिवर्क, आनकायविहिंसगं ॥ १० ॥ कारोऽयवा वृको वृहत्वादेव जम्प्रज्ञश्च ततोस्य शिकणे मम सत्रार्यपरिहाणिस्तदेव स्यविरशिक्कां ग्रह्यमाणे बहकनिरर्थक मुबुत्तरगुणब्जर्से, सामायारीविराहयं ॥ मिति य एनं चिंतयित्वा योन शिकां ग्राहयति सोऽनर्हस्तद्धि अदिनाझोणं निचं, विकहास परायणं ।। ११॥ परितोऽर्ह इति तदनंतरं योऽसौ तरुणो मेधावीतं समर्प्य नायते अनयोर्व्याख्या ॥ स्वच्छंदन वानिप्रायेण न तु जिनाझ्या चर | यया एष ममन्त्रिपरिपाट्या प्रासापके दीयमाने सीदति तन नीति स्वच्छंदचारी तं तया दृष्टं शीसमाचारो यस्यस दुश्शील | स्त्वमेतमायाक्केपेण पाव्य ततः स इदं चिंतयात ॥ Jain Education Interational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४९) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय अहियं पुच्छति गिहा, वहं किं गुणो चरगए॥ एवमुक्त्वायद नह परीकामर्येनार्यमाश्रित्य प्रारूपयथाः। नन्धेवं होहिंति य विवछतो, एसो ममं पमितपत्ती ॥ सति च्योराप सूत्रार्थयोनवति विरोधः। उक्तस्वरुपस्या र्थस्याधिकृतसत्रणासूचनात् ॥ पप मेधावित्वादधिकं पृत्यवगृह्णाति वावधारयति बहुप्र अत्र सारराह ॥ जूतं तत थमस्येव सूत्रस्यार्थस्य चरकेण प्रदानत श्राक णिकतया को गुणो मम निरर्थकः कश्चिदित्यर्थः । केव संति हि आयरिय जगाणि, सत्याणि चोयग:सुणाहि ।। दोष निज सूत्रार्थपरिगवनादन्यञ्च एष हु निश्चितं विवर्षमानः सुत्ताणु सातो वि हु होइ कयाइ अणरिहोउ ॥ १॥ सूत्रतोऽर्यतश्च वृद्धि गच्छन् मम प्रतिसपत्नीव प्रतिपयीनविष्य- तेण परिच्छा कीरइ, सुवरमगस्सेव तावनिहसादी। ति। ततो न कोऽप्येनं पारयिष्यतीति योन शिक्ष्यति सोऽनई | तत्य इमो दिलुतो, रायकुमारेहिं कायव्यो॥२॥ स्ततः खज्ज दत्वा सजायते । अमुं तया ग्राहय या चोदक!शृणु मदीयं वचःसंति हिस्फुटं तानि शास्त्राणियासुझः समाचारीकुशलश्च जवति ततो यदि ॥ न्याचार्यद्वितीयकानि किमुक्तं नवत्याचार्यपरंपरायातसंप्रदाय कोही निरुवगारी, फरसो सव्यस्त वामवदो य । विशेषपरिकलितानि ततो यद्यप्यहीनह परीकालवणोऽर्थः अविणीतोत्ति व काउं, हंतुं सत्तं व निमुनती॥ सूत्रे साझानोपनिबद्धस्तथापि सूचनात् सूत्रमिति सोपिक्रोधी यदि या निरुपकारी अथवा परुषः परुषभाषी तया सूत्रेश सूचित इतिसंप्रदायादवगम्यते इति न कश्चिद्दोषः। तथा सर्वस्य साधुवर्गस्य वामावर्तः प्रतिकातया वर्तते यदि वा अ चसूत्रानुशापि हि निश्चित कदाचिदनों भवति। नच सूत्रमन्यविनीत ति कृत्वा शिकां ग्राहयति । अथवा आनुश्य शत्रुमिव थासर्वपक्षीतत्वात्तेन परीवापि सूचितेति। तापनिकषादिभिः वा हत्वा निष्काशयतिर्हि सोऽनहस्तद्विपरीतोऽईः॥ सुवर्णस्येव सूत्रानुझानस्यापि कुल्लकादिभिः परीका क्रियते । संप्रति चतुर्वपि यो जनेषु तधिपरीततया ययाहोभवति तत्राय वक्ष्यमाणवकणोदृष्टांतो राजकुमारैः कर्तव्यः ॥ तथा जावयति ॥ तमेवाह ॥ वत्याहारादीहिं,संगेह अवत्तए य जो जुयनं ।। सूरे वीरे सत्तिए, ववसाययिरे चियायधितिमंते ॥ गाहेइ अपरितंतो, गाहण सिक्खावर तरुणं॥१॥ । बुधिविण्यकरणे, सीसेवि तहा परिच्छाए। खरुमउएह अयत्तत्ति, खज्जू जेण पाइ पासेणं ॥ निम्नयओरस्सवनी, अविसाइपुणो करेंति संगणं ॥ गाढमवहारविजहो, तत्योडणमप्पणो कुणः ॥२॥ नवि संमात देति अणस्सित्तो उ व उहाणवित्ति य ।। यो नाम युगलं कुल्लकवृक्षकए वस्त्राहारादिभिः संगृहाति शहायगाथापदानां द्वितीयगाथापदैर्व्याख्यानं । तद्यथासूरो आत्मवशीकरोत्यनुवर्तयति च तरु रामपरिभ्रांतः परिश्रममगण नाम निर्भयः। सच कुतश्चिदापन जयमुपगच्छति । वीर और यन् ग्राहयति । ग्राहणं ग्राह्यते शिघ्य एतदिति बाहुसकातू कर्म सबनवान् तेनाक्लेशेन परबत्रं जयति । सात्विको नाम योमह एयनद । ग्राहणमाचाररादिसूत्रं आसेवनां शिक्कयति तया खज्जू त्यप्युदये गर्व नोपयात नच गरिष्ठेऽपि समापतिते व्यसने में खरमृभिर्वाक्यैस्तथानुवर्तयति । येन सपाशेन पतति अन्य विषादं । तथाचाह । अविषादि जपत्रकणमेतत् अगरी वा व्य था गतिं न बजते इति मन्यमानस्तदशीजवति तथाःयास्थानाद वसायी अनस उद्योगवानित्यर्थः । तथाचाह । पुनः करोति पिचवन्नपि सन् खाजूझतया विहारविजढो जवति विहार संस्थानं । किमुक्तं नवति । प्रमादतः कयचिद्यवसायविकलोन करोतीति जावस्तत्र उद्दणभंगीकारमात्मना करोति । यथै- ऽपि नत्वा पुनः करोति संस्थां कर्तुमुद्यच्छति स्वोचितव्यवसा नमहं खरेण मृना चौपायेन विहारक्रम कारयिप्यामीति यमिति भावःस्थिरोनाम उद्योगं कुर्वन्नपिन परिताम्यति तथा एष एवं भूतोयोग्यः॥ चाह । विश्राम्यतीति (वियायत्ति) दानरुचिर्यथोचित्यमाश्रित्य श्यमुच सुखममलिं, दाविजा अत्यममन्निं चेव । स्पेन्योऽन्ये ज्यश्च ददातीत्यर्थः।धृतिमान् राज्यकार्याणि कुर्वन् दोहि पि असीयंते, दे गणं चोइए पुच्छा॥ परनिश्रामनपेकमा तथाचाह (अणि स्तित्ति इति( बुद्धित्ति) इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारेण चतुर्वपि जनेषु सूत्रोपदेशतः औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयोपेतः । विनीतो गुर्वादिषु विनय कररी यथावित्य गुदिानामनुवर्तक श्त्यर्थः।करणे ति यदाज्ञः परीकितः सन् शुको भवति न मनागपि दोपः । ततस्तस्य कर्तव्यं तत्करणे कशतःपते परीका क्रियते किमेते गुणा सूत्रमंत्री दाप्यते अर्थमंत्री च एतयोरपि मल्योर्यदिनवि स्सन्ति न वा। तत्र य एतगुणैरुपेतो भवति । स राझो राज्येन्नि पीदति किंत्वपरिश्रांततया गच्छवर्तिनांप्रातीच्धकानां च झाना पिच्यते । दानशीनोऽत्रयः स्थिरस्सोऽपरित्रांतस्सन् कर्तव्यं द्यभिज्ञाषिणां चित्तग्राहको वर्तते ततस्तस्मिन् मूलाचायों गई करोति । कृत्वापि च पश्चादनुपतापी त्यागवान् नाम ददाति एवमुके चोदके चोदकस्य पृच्छा केत्यत आह । दानशीलः स च स्तोकादपि स्तोकं ददानो गणस्य बहुमानभाग् चोएइ जाणिकणं, उजयाग्निस्स दिज गणोत्ति ।। जवति ॥ सुत्तेय अणुन्नार्य, जयवं चरणं पनिच्चन्नो ॥१॥ उवसग्गो सोढव्वे, काये किच्चेसु या विदिसंतो । अपरिहाण परिह, परिउद अत्येण जं पुणो परुवेह ।। बुछिचउक्कविणीतो, अहवा गुरुमादिविणीतोउ ॥ एवं होइ विरोहो, सुत्तत्येणं दुवेतपि ॥२॥ धृतिमान उपसर्गान सोढव्यान् ध्यायति । कृत्येष्वपि कार्यचोदयति प्रश्नयति परोयया पूर्वमिदमुक्तं उजयच्छिन्नस्यव्य- प्वविषादं प्रवर्तते । बुझिविनीत इत्या श्दमपि व्याख्यानं ।बुद्धि भावपरिदविशेषात् शाकन्यपरिकलितस्य गणोदीयते । चतुष्टयं नीतं प्रापितमात्मान येन स बुझिविनीतः। सुखादिदर्श युक्तं चैतत् । यतः सूत्रेऽपिचशब्दोऽपि शब्दार्थः। भगवन् !धारणं । नात् तांतस्य पालिकः परनिपातः। अथवा (बुद्धित्ति) बुद्धिच गणधार एमझातं । परिउन्ने अन्यभावपरिषदोपेतमात्रे तत । तुष्कोपेतो विनीतो गुर्वादिषु विनीतः ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाम्च अभिधानराजेन्द्रः। आयग्यि दच्चाई ज जत्य न,जम्मि विकिव्वं तु जस्त वा जंतु।। । मृधः शरीरस्य केशादीनांच समारचनात् । तत स्तां तथारूपां कन्वइ अहीणकानं, जियकरणविणीयएगत्य ॥ पर्षदमवलोक्य चंदनखोमीदृष्टांतेन खरंटना कर्तव्या सायम आयरिया दिटुंतमेगं सुणंति । एगोइंगालदाहओ इंगाल यद्यत्र कन्याशुपयोगि यस्य वा यत्र यत्कृत्यं तत्सर्वमहीनकानं जितकरणः करोति कारयात । जितकरणो विनीत इति कहाणं अणेणहाए नदीकूलं गतोतत्थ पास । तम वायप्येकार्थो तात्पर्य विश्रांत्या शब्दार्थस्तु परस्परं जिनो जित ण बुझ्माणं गोसीसचंदणखोमि सो तं घेत्तूण पारवितो करणो नाम करणदक उच्यते। विनीत इति विनयकरशीलः। तमंतरा वणीअोपासई जाई एसा गोसीसचंदणखोमी। एवं जुत्तपरिग, जुत्तो वेतेहिमेहिउ अजोंगो ॥ ततातेण सोजणितो कि एएण कट्ठण तं करिस्सई । इंगानआहारादिधरेतो, तितिणिमाइहिं दोसेहिं ॥ दाहगो जणइ । दहिउण इंगाझे घेच्छामि। वणिजचिंतिते । पवमेतरनंतरोदितैः सूरत्वादिजिर्गुणैर्युक्ता उचिता या परी- जइत्ता हेयेच मज्जाहामोतो बहुंसकं माझंकाहिति तो कातया युक्तोऽपि निश्चितः एनिर्वदयमार्दोषैरयोग्यः। ताने जाहेमहिओ माढवोहिति ताहे किणीहामि। एवं चितित्ता वाह। आहारादि आहारोपधिपजानिमित्तं गुणं धारयन् ति जाव वणि उ मुखस्स काण घरंगंतु एति। तावत्तेण दिवा गो तिण्यादिनिश्च दोषैरयोग्यः ।तितिकीनाम यत्र तत्र वा स्तोके। सीसचंदणखोमी वाणिएण आगंतुं पुच्छितो । कहींत कटुं पि कारणे करकरायणं । आदिशब्दाचलचित्तादिपरिग्रहः॥ सोजणइदईति। एवं जाणएण खिसितो महानाग फिमिएतदेव व्याख्यानयति ॥ बहमुत्ते गीयत्ये, धरेइ आहारपूय गट्ठाइ ॥ तोसिइसरियत्तणस्स एवं जहा सो गालदाहओ सोयतितिणचन्नप्रणवट्टि, मुबन्न चरणा अजोग्गो उ॥ वाणियउ ईसरियत्तणस्स बुको। एवं तुमपि नाणादी दहबहुकालोचित सूत्रमाचारादिकं यस्य स बहुसत्रो गीतार्थी तो निव्वाणस्स बुकिहिति॥ विदितसूत्रार्थः । एतेन युक्तः परोकायुक्तोऽप्येतब्याण्यानयात एतदेवाह ॥ पवनूतोऽपि यो गई धारयाते (आहारपूय गटाई) उत्कृष्टो मे इंगामदाहखोमी, पबेसे दिट्टाउ वाणिएणं ।। आहारोनविष्यति पूजनं वा स्वपक्वतश्चत्येवमः आदिशब्दा तज्जामुद्रं आणयए,इंगाबहाए तादिद्या॥१॥ दुपधिरन्यद्वोपकरणमुत्कृष्टं मे भविष्यतीत्येवम परिग्रहः।सोऽ इय चंदणरयणनिना,पमाय तिखेण परसुणानेत्यं ।। योग्यस्तया । योतितिषणः स्वल्पेऽपि प्रयोजने करकरायमाणः। चसश्चनचित्तोऽनघस्वितः स्वप्रतिपन्ना निर्वाही । पुर्बन दुविहपमिसेवसिाहिणा, तिरियणमि तुमे दहा ॥२॥ श्वरचारित्रविषये उर्वत्र पतेऽप्ययोग्याः। अंगारान् दहतीति अंगारदाहस्तस्य पार्श्वे गोशीर्षचंदनामी प्रवेशग्रामप्रवेशे च वाण जादृष्य ।सच यावन्मूख्यमानयति। एवं परिक्खियम्मि, पत्ते दिव्वई अपत्तिपर्मिसेहो। तावत्तनांगारदाहकनाऽगारार्थ सा खोकीर्दग्धा इत्यक्वरार्थः सुपरिक्खियपत्ते, पुण चारियहाति मामेरा ।। जावार्थस्तु प्रागेवोक्तः सांप्रतमुपनयमाह ॥ श्यचंदणेत्यादि । एवमनतरोदितेषुगुणेषु च यदि परीकया निर्वटितो भवति गु- | इत्येवममुना प्रकारेण चंदनरत्ननिता गोशीर्षचंदनमुख्यात्रि गैरुपेतो दोषैश्च विप्रमुक्त इत्यर्यः। तदा स पात्रमिति कृत्वा त रत्न रत्नत्रयरूपा खोमीप्रमादरूपेण तीक्ष्णेन परशुना नित्त्वाहिस्मिन्परीक्षिते पात्रे गाणेदीयते । यस्तु प्रागुक्तैदोषैरुपेतो गुणे धा या प्रतिसवा मूलगुणप्रतिसेवा उत्तरगुणप्रतिसेवाचत्यर्थः । श्व विप्रमुक्तः सोऽपात्रमिति तस्मिन्नपात्रे गणदानस्य प्रतिषेध सैवशिखी वैश्वानरस्तेन त्वया दग्धा एवं वारितः सन् यदि स्तस्मिन् गमोन दातव्य इति नावः (दुपरिक्खिय) इत्यादि। निवर्तते ततः प्रायश्चितं दत्वा तस्य वापकाः स्थाविरा दातअथ कदाचित् सदुःपरीक्वितः कृतोजवेत् गणश्च तस्मै दत्तःस. व्याः । अथन निवर्तते तर्हि तस्य गणोपहरणीयः। न केवनमते च गणःसीदति तं दृष्ट्वाऽन्येऽपि गच्चवर्तिनः केचित् सामाचा ऽनहींः । किंचान्येऽपि तथा चाह ॥ रीशिथिमा नवितुं प्रवृत्तास्ततः परीक्विते पात्रे गणे प्रदत्ते एएण अणरिहेहिं, अने श्यसूझ्या अणरिहातो ।। सात गयोऽवसीदति । ये रात्र गजेऽन्यतीवधर्मका न सीदति के पुणे ते णमोत्त, दीणादिया मुण्यव्या।। तैरुपायेन प्रतिचोद्य वारयितव्यः। तत्र यदि वारणानंतरमावृ. एतैरनंतरोदितरनहरन्येऽपि खलु सूचिता अनर्हाः । के पुनस्तेत्योद्यच्चति ततस्समीचीनमय वारितोपि किंचित्कालमुद्य- सृरिराह । श्मे ते वक्ष्यमाणा दीनादयो ज्ञातव्यास्तानेवाह । म्य पुनःसमाचारी दापयति । तत श्यं मर्यादा कर्तव्या अयं दीणाजंगियचउरो, जातीकम्मे यसिप्पसारीरे॥ विधिःप्रयोक्तव्य इत्यर्थः। तमेवाह । पाणामावा किणिया, मोबागा चेव जातीए । दिवोवसमोसरण, अहवा थेरा तहिं तु वव्वान्त । दीनाःअनर्हाः कस्मादिति चेषुच्यते । तेषां नंदनाभावा परिसायघट्ठमट्ठा, चंदणखोमी करंटणेय ॥ उक्तंच॥ यत्र समवसरणे ज्ञायते आचार्योऽत्र प्रवेदयति । तत्र दीणानासं दीणे, गतिं दणिजं पिउं पुरिसं । गच्गेऽनुलोमवचसा प्रवेशनायः । प्रविश्य तत्र गत्वाऽ कं पेच्चासे नंदंतं, दीणाए दिहिए तत्य ।। चार्यस्य कययति । त्वं सीदन् तिष्ठसि नैव च तद्युक्तं तस्मात् मुंगिका होणाश्चत्वारोऽनः । तद्यथा जाती कर्मणि शिप नवगत्या वर्तस्व।अथवा कुनानि हिममानाःस्थावराःसूत्रग व शरीरे च । तत्रजाती जगिकाश्चत्वारस्तद्यथा । पाणायाः किजति तत्र दृष्टांतैः पर्षदसाधुपरिवारस्पा । घृष्टाः पादघर्षणात् रिका:१६पचाश्च तत्र पाणानाम ये ग्रामस्य नगरस्य च यहि Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । न्यायरिय राकाशे वसति तेषां गृहाणमनावात् । कौवा येषां गृहावि संति गीतं च गायन्ति । किणिका ये वादित्राणि परिणयन्ति । वन्यानां च नगरमध्ये नीयमानानां पुरतो वादयंति । श्वपचा येशुनः पचन्ति । तंत्रीश्व विक्री एन्तीति । एतेजाती लुंगा उपत्यका ये च ये च हरिकेशा तपोमया च परुमादयस्तेपि जाती जुंगिका दृष्टायाः संप्रति कर्मलि शिल्पे च तानाजधित्सुराह ॥ पोसग संवरन, ख वाहमच्छंधरयगवा गुरिया || पगारा य परीसह, सिप्पे सरीरे य वच्छामि ॥ पोपका ये स्वीफ्फुटमयूरान् पोषयन्ति संघरास्तानिकाः । शोधकाः नटाः प्रतीता ये नाटकानि नर्तयन्ति । संखा ये वंशादेरुपरिपूर्ण दर्शयति व्याथा मुग्धका मत्स्यबंधाः कैवतः रजका वस्त्राका वागुरिका मृगजालिकाजीविनः । एते कर्मि जुंगिकाः । पटकाराः कुंचिकादयश्चर्मकारा इत्यपरे परीपहा नापिता एते शिल्पे जुंगिकाः ॥ संप्रति शरीरे तान् वदयामि प्रतिकात नियति ॥ 1 हत्ये पाए कसे, नासाउद्वेहिं वज्जियं जाण ॥ वाम एगमनको दिया, काणा तह पंगुना चैव ॥ शरीरे अंगिका जानीहि हस्ते सन्म प्राकृतत्वात् तृतीयायें। एवं सर्वत्र । ततोऽयमर्थः । हस्तेन उपलक्षणमेतत् । हस्ताभ्यां वा वर्जित एवं पादेन पादाभ्यां वा कर्णेन कर्णाभ्यां वा नासया श्रेष्ठेन वा वामनका हीनहस्तपादाद्यवयवाः । मृरुजाः कुब्जाः कुष्टव्याभ्युपहताः काणाः एकाकाः । पंगुल्लाः पादगमनशक्ति विकता पतानपि शरीरे गिकान् जानीहि ॥ दिक्खेपि न कप्पंति, जुंगिया कारणेोवे दोसोवि ॥ अस्मादिक्वएवा, ताडं न करेंति आयरिए || पते धनंतरोहिताश्रत्यारोप का दहमपि न कल्पते किंपुनराचाय्र्यपदे स्थापयितुमित्यपि शब्दार्थः । कारणे तथाविधे समय दोषका निर्दोष यादमा संबध्यते । ज्ञाताश्चेत्कथमपि जुंगिका दीक्षिता भवेयुः ततस्तान् अज्ञात दीकितानज्ञात्वा कुर्वत्याचार्यगु रोपेतानप्याचार्यान् प्रवचननाप्रसक्तेः ॥ पच्छावि होति चिकना, आवरियनं न कप्पई तेसि ॥ सीसी वायव्य काणगमहिसो व निमम्मि ॥ पचादपि श्रमवस्थिता अगिनादिना विकला जात नामयाचार्यगुणानामप्याचार्यत्वं न कल्पते । येश्या नार्योपविष्टास्तः पधाधिका जायते । तेषामपि न कल्पते धारयितुमाचावं किंतु तैस्तया विक सि रात्मनः पदे शिष्यः स्यापयितव्यः । श्रात्मत्वे प्रकाः स्थापयितव्यः । क श्वेत्यत श्राह । काणकमपि श्व । निम्ने । श्यमत्र नावना | का कोनाम चोरितमहिषो माकोऽप्येन मद्राकी दिति हेतोग्रमस्य नगरस्य वा बहिर्गर्तरूपे निम्ने प्रदर्शपदिति गुपिले व नगदने स्थाप्यते । एव मेोऽयथा च प्रवचन दौनासकेर हादिदोषप्रसंग अथ यो वाऽऽत्मीयः शिष्यः पश्चाधिक त्रैराचायैः स्याप्यते । स कीदृश इत्यत आह । | गणि अगणी वागतो, जो अगीतोचि या गईमन्तो । लोगे स पगासिज्ज, तहावेन्ति न किञ्चमियरस्स || आयरिय गोश्यास्तीति गणी साधुपरिवारवाद यो वर्तते तावे अगदी वा यो गीतो गीतार्थः कालोचितसुत्रार्थ परिनिष्ठितः तस्याऽप्यनावे योवाप्यगीतोऽप्यगीतार्थोऽपि आकृतिमान् रूपेण मकरध्वजतुख्यः स गणधरपदे निवेश्यते । यथाऽयमस्माकमाचा यों नेतर इति । केवल मितरस्याऽपि जुंगिकाचार्यस्य यत्कृत्यं तत्स्थविरा श्रन्येऽपि च न हापयंति सर्वमाप कृत्यं कुर्वतीति भावः । संप्रत्यनदन् प्रतिपादयिषुरिदमा एयोस विमुकावि, णरिहा होंति से अवि ।। बाधादीया, तेसिं विभागो उ कायव्वो । पतेरनतरोदितैर्विमुक्त अपि भवत्यन्ये हम अनदः । के ते इत्याह । अत्याबाधादयस्ततस्तेषामत्याबाधानां विभागः पार्थक्येन स्वस्वरूपवर्णनं कतर्व्य । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति ॥ अव्वाबाध अवायन्ते नेच्छ अपचितए । एगपुरिसे कई निंदू काफवरा कई जये ।। (अन्यायाचेति ) प्रत्यायाध ( आचायतोति ) अशक्नुवन अनि तथा मचतकः चत्वारोऽ न केवलमेतेनी कित्येकपुरुषादयेऽपि तत्र शिष्यः प्राह । कथमेकपुरुषो भवति । कथं वा निंदूः कथं वा काकी कथं वा वंभ्येति । एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिः सकलविनेयजनाऽनुप्रप्रवृत्तः सर्वानप्यत्याबाधादीन् व्याख्यानयति ॥ पिपुरुषान अव्याचाच माहइन, मवितिधरेतमसमत्यो | तइयोन इच्छा तिथि ए ए अरिद्वातो ॥ अतिशयेन श्राबाधा यस्य सोऽत्याबाधः । स गच्छस्य विषिधेsप्युपग्रहे यपात्रादिज्ञानापरंनरूपे कर्तव्ये बांधां मन्यते द्वितीयोऽनुवन् गये धारयितुमसमर्थः दिविधमयुपग्र गच्छस्य कर्तुमशक्यः तृतीयोऽनिच्छन् समय ध्यान स्प न गणे धारयितुं नेच्छति। पते त्रयो ऽप्यनः ॥ आत्मचितकमाह । अनुज्जयमेगयरं, परिवज्जिस्सांत अत्तर्चितो उ ॥ जोवा गणे वसंतो, न वहति तत्तीतो अभेसिं ॥ आत्मानमेव केव चितयन मन्यते यज्ञाहमज्युभ्यते जिनकल्पं यथा दकल्पानामेकतरं प्रतिपश्ये शर्त । श्रात्मचितकः योऽपि गणेऽपि गच्छेऽपि वसन् तिष्ठन् न पडत न करोति तस्मिन्येषां साधनां सोऽप्यात्मचितः पती कायात्मकचनहीं एग मज्जति सिस्सं, पणबडे मरंति विवसंते वा ॥ अमयरस य एवं नवरं पुाय एए गो पत्ति ॥ पंचम एकपुरुष एकं शिष्यं मृगयते सह्येवं चितयति । किमात्मनः सहाये मृगयामि न सुखं तिष्ठामीति तथा कष्ट नितुल्याः शिष्या नियंते विध्वंसते वा प्रति वेति नावार्थः । इयमत्र भावना । यथा निंदूमहिला यद् यदपत्यं प्रसूते तत्तन्त्रियते । एवं योऽपि यं प्रवाजयति सस पिया ततः स हि नि । सस्थापि काकीत्यस्य पयमेट न पुनरेकं तिष्ठति किमु भवति यस्यापि यः शिष्यः यदिसते यामेकः तिष्ठति। उपमेतत्। न तदपि ष्टव्यं पयैकस्मिन् Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय प्रवाजिते सति हितीयविषये बधिरेव नारित स का- चार्यसकाः शेषकानं ममत्येवमित्वरिकान् कतिशिष्यान् सेोऽ कीव काकी काक्यापि हि किकं वारं प्रसूते इति प्रसिछिन प्यनईः॥ वंध्यातुल्यः सुप्रतीत इति न व्याख्या तदेवेदं व्याख्यानं । बंध्या पयंमियकालगया, पमिलज्जा वावितुम्न जे सीसा । किलाप्रसवधर्मा एवं यस्य नैकोपि शिष्य उपतिष्ठते। स व एए सव्ये अणरिहा, तप्पमिवक्खा नवे अरिहा।। ध्यव वध्यति । पुनरन्याननहान् प्रतिपादयिषरिदमाह ॥ यो देशदर्शनं कृत्वा समागतः सन् बूते युप्माभिर्दत्ताः साअहवा इमे अणरिहा, देसाणं दरिसणं करेतेण।। धवः परिवारतया ते सर्वे युष्माकं शियाः पथि कालगताः जेपव्वावियतेणं, थेरादि पयगत गुरुएणं ।। प्रतिभन्ना वा श्मे पुनः सर्वे मप्र शिप्या एते स्थविरादयो अथवेति । अनर्हाणामेव प्रकारांतरतोपदर्शने श्मे वक्ष्य- ऽनर्हाः तेषां पुनरनर्हाणामाचार्यसमीपगतानां येतैः प्रवाजिता माणा अनहास्तानवाह । देशानां दर्शनं कुर्वते । तेन ये शिष्यास्तानाचार्य श्यापयति वा न वागुरूणामत्राप्रमाण। प्रवाजिकास्यविरादयस्तान् प्रयति गुरूणां न तरुणादीन् व्य.१ खं. ३ ज.॥ पूर्व बहुवचनमनेकन्यक्यपेकयेत्यदोषः । स्थविरादीनेवाह। (२७) नद्देशः मैथुनादिप्रतिसेव्याचार्यत्वे न ।। थेरे अणरीहे सीसे, खज्जूढे एगलंजिए। मैथुनप्रतिसेवन त्रिवर्षान्यन्तरे आचार्यत्वन्न कल्पत इत्यउकखोवगयत्तिरिए, पये कालगते श्य ॥ त्र प्रमाण (मुद्देस) शब्दे । यास्यविरान् प्रयच्छति शिष्यान् यो वानर्हान योवा खज्जूमान् (२०) स्थापनाविधिराचार्यपदे गुरोः ।। यदि वा एकांभिकानथवा य एकं प्रधानं शिष्यमात्मना ___ आचार्यपदेऽन्यस्यापनाविधिश्च ।। मन्नते गृह्णाति शेषाँस्त्वाचार्यस्य समर्पयति । स एकमानेन कहणते आयरियस्तरवणविहीवियाहिया जंव जे श्रा चरतीति एकत्राभिकः । यो वा शिष्यारामुत्केपको यश्वाचा यरिया विहिपुत्वं ममाउआयरियेणं पट्टाविया तेवि श्रा र्याणामत्वरिकान् शिष्यान् करोति । योवा गुरुसंबंधिनः शिप्यान् पथि कालगतान् चशब्दात् प्रतिभग्नान् कथयति । एते यरिया तत्थ एगे नामायरिया दव्वायरिया ग्वणायरिया सर्वेऽप्यनस्तित्र स्थविरादीन् व्याख्यानयति ॥ जावायरिया । जंबू ! जे लावायरिया ते तित्ययरस थेराउ अतिमहरा, अणरिहा काणकंटमादीया ॥ मा। अहवा तक आयारीया पसत्ता सिप्पायरिया कमायरि खज्जूमाय अवस्सा, एगानी पहाणा ज॥१॥ या धम्मायारया जे तेधम्मायरिया परस्रोगगहियट्ठाए नि तं एगं न विवतीअ, विसेसे देइ जे गुरुणतु ॥ जरवाए आराहेयव्वा । अमो कलायरिया सिप्पायरिया अहवा वि एगदब्बे, बनंति जे ते देइगुरूणं ॥२॥ एकाएहिं कित्तबुछिए आराहियो । तत्येगे धम्मायरिया स्यविरानाम अतिमहांतो वयसाऽतिगरिष्ठा इत्ययः । अनहींः सोवायकरंगममा बकाइकथयप्पयगाहाहं जे सुक काणकुंटादयः खज्जमा अवश्याः।अयमत्र भावार्थः योऽसी पूर्व सजाए वखाणिति ते सोवागकरंसमा । वेसाकरंझसमाजो परीक्वितः स देशदर्शन कार्यते । तेन च देशदर्शनं कर्वता यदि ये स्थविरा प्रवाजिता येच जंगिका येच खज्जूमा वाते प्राचा. रीआहारणसरिसजीहावकखाणवरेणं अंतरं सुअसार यस्य समयते तरु श न व्यङ्गा विनीताश्चात्मनस्तदा सोऽनई विरहिया विमुफसजाए जणं विमोहिंति रविंति अप्पा ति। एगसानिनां यः प्रधानः शिष्यस्तमकं योन ददाति अवशे- णं युतंसि आबुच्च अगत्येपामिंतिगोयमा ! गणहराणं पांस्तु सर्वानपि प्रवाजितान् गुरूगां प्रयच्छति । अथवा येषा उवमाएतेवेसाकरमसमा गाहावइकरमसमा जे समं समु मेकरवतानो यथा यदि नक्तं बनते ततो वस्त्रादीनि न अथवखादीनि लभते तर्हि न भकमापि एकमेव बनते इत्येवं शाला वसियसुगुरुहितो संपत्त अंगोवंगाइसुत्तये सुपरिच्छिय एकमानिनस्तया चाह ।अथवा ये एकं द्रव्यं वनंते तान् शिप्या - च्यगंया सयसमयपरसमयणिच्या परोवयाकरणिक न गुरूणां यः प्रयच्छति।उभयसब्धिकानात्मन संबंधयति सोड नबिच्छया जणजोगाविहीए अणुओगं करिति । ते गा प्यनर्हः ॥ हावइकरमसमा रायकरंगतमा जे गणहरा चउदसपुब्बिउकखोवणं देतिन्नि वा, विउवणाति से समप्पणो॥ णोवा घमाओ घमसयं पमाओ पमसयं इच्चाई विहाई आयरिया णिात्तरियं, बंधइ दिसमप्पणो वहिं॥ सयसमणिया ते रायकरंगसमा गाहावइकरंमतमाणे श्यं किन समाचारी यावंतः किल देशदर्शनं कुर्वता प्रवाजिताः तावंतः सर्वे गुरूणां समर्पणीयाः यस्तु प्रवाजितान् रायकरंमाणे दोविए आयरिए तित्थयरसमाणे तेसिं विधा कृत्वा उरकेपेण हस्तोत्पाटनन धौत्रीन् वा शिप्यान् गुरू- उवण विहि गाहाबंधो ॥ ग्णामुपनयति शेषान् सर्वानन्यात्मना गृहति एपो जइगुण १ काल णिसिज्जाविज्ज पचंदपसमा केपकोऽनईः॥ ६ नदि ७ सगच्छोना ७ मंत रक १० णाम ११ तयाये के चन देशदशनं कुर्वता प्रव्राज्यंते ते सर्वध्यात्मन श्त्वरिका बंधनीयाः। यथा आचार्यसमीपं गता यूयं सर्वेऽप्या वंदण १२ अणुसडिं १३ निरुक १४ गणगुन्ना १५ चार्यस्य यत्पुनराचार्याणां दिशामित्वरिकां बध्नाति । आत्मनस्तु संगा १६ संगहणीगाहा ॥ यावत्कयिकां यथा बायतू यूयमाचार्यसमीपे तिष्ठत तावदा- । अन्नरिमादिकख वारसु, सुत्ते अत्ये य बायगत्तेय । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। पायरिय पणयात्रीसपरिसगुण, जुत्तोसारपयजग्गे ॥३॥ देसकुत्रं पसिधि, उत्तीसगुणगणालंकिओ दढचरित्ते । जयणाजुत्तो संघस्स, सम्मओ मुक्रवकखी य ॥३॥ कालाइव साइकाइ, गुण विहीणो विसुछगीयत्यो । गविज्जइ सूरिपए, उज्जुत्तो सारणासुंधा। सुगुणनावेन पुणो, गुणपरिहाणीउविजए सूरी॥ अप्पते सरिपयं, दिंतस्थ गुरुस्स गुरुदोसो ॥५॥ जउत्तंबूढो गणहरस्स, दोगोयमाहिं धीरपुरिसेहिं ॥ जोतं उवह अपत्ते, जाएंतो सो महापावो ॥ ६ ॥ कह जासेइ अगीअत्यो, चउरंगं सवलो असारंगं । नयमिअ चरंगेण, ह सुनहं हो चउरंग ॥७॥ नासेइ संगो, चउरंग सवनो य सारंग ॥ नटुंमिय चउरंगण, हु सुनहं होइ चउरंग ॥ ७॥ एयाए विहीएसुसीसस्त परिक्खा काऊण दुसमसमयाणुनावेणं पसत्ये तिहिनवत्त मुदुत्ते गहिए पानाइअकाले पट्टविए गुरुसी सिज्जाए करित्ता पसत्यजिणजवणा इखित्ते अकखए गुरुजुगे निसिज्जादुगे कातव्वे अणुओगाणुमवणत्यं कियसोयस्स सीसस्स सिरे गुरुणो वासं धे ति मंतिकण सीसे खिवति। सुसीसस्स से तो पुव्वविहीए देवे वंदावेइत्ता प्राणुओगाणुभव गत्यं काउस्सग्गं किर। सत्तावीसुस्सा संदुवोवे गुरुसीसा तोपयमं चउवीसं युतं पमित्ता वारत्तिगं पंचमंगबुच्चार करेंति । सुघट्टिया । गुरु अन्नोवा अक्खलियाइगुणोपवेय नंदिसुत्तं कट्टेइ । बुट्टसीसो अहोणयकायनजोमयकरकमनकुमलोपवमाणसंवेगो मु णे । तओ सीसो वंदितो नणे इच्च्यारिजते!तुम्हे आओ गंजाणह तो गुरु जण अहमेअस्स साहुस्स दवगुण पज्जवहिं खमासमणाणं हत्येणं अणुओगं अणुजाणामि विए संदिसह किं जणामि । वंदिचा पवेएह तइए इच्छ यारि तुम्हे अम्हं अणुोगो अणमाउं । इच्छामो अणुसर्टिति सांसेण नणिए गुरु जणइ । संम्मे अवहारे यव्वं अमेसिपवेयहचनत्ये तुह्माणं पवेइयं संदिसह साहणं पवेएमि पंचमेय इक्कणमुक्कारेण समोसरणं च गुरुं च पयकिवणेइ एवं तिनि वारानडेण तुम्हाणं पवेश्उ साहूणे पवेइकं संदिसह काउस्सग्गं करेमि । सत्तमे अणोगाणु जाणावणियं करेमि काउस्मगमिच्चाइणा उवसग्गे कए गुरुसमप्पिय णिसिज्जा जुओ गुरुं तिपयक्खिणीकरिय वंदित्ता गुरुदाहिणओ उच्चआसन्ने निसिज्जाए णिसी अइ। तउ णिसनस्म लग्गवेनाए दाहिणसवणे गुरुपरंपरा | गयमंतपए तिन्त्रिबारे परिकहेइ । तो बतिया उ तिमि क्खमुष्टिो देइ करयलपु सीमो तान उवउत्तो गिलइ।। तो गुरू तस्स नाम कारिय णिमिजाज उठेइ । सीसो तत्य णिसीयइ अहा सचिहीयसंघसहिओ गुरू तस्स बंदणं दे । इयं च तुट्यगुणाख्यापनार्यमुजयोरपिन दोषाय । यदाह । आयरियनिसिज्जाए उवविसणं बंदणं च तह गुरुणो तुरगुणाक्खायणत्यं ण तया पुठं दुवएहं पितउ वक्खाणं करेहत्ति। गुरुणा वृत्ते तत्थ हिनो चेव अहिणवसूरी नंदिमाश्यं परिसाणुरूवं वा वक्खाणं क रे । तस्सम्मतीए य संघो तं वेद । तोसोवि णिसिज्जाउ उठे गुरखो तत्य णिसित्ता उवहति । यथा ग्रायणीपुब्वे दसमसिस्रोगबंधेण सिक्खा दिति । नमोईऽसिकाचार्योपाध्यायसर्बसाधुन्यः । यथा । धन्यस्त्वं येन विज्ञात, स्संसारगिरिदारकः॥ वज्रवदुर्जिदश्चार्य, महानाग ! जिनागमः ।।१।। इदं चारोपितं यत्ते, पदं तत्संपदा पदम् ॥ श्रीगौतमसुधादि, मुनिसिंहनिषवितम् ॥२॥ धन्येच्यो दीयते नद्र, ! धन्या एवास्य पारगाः।। धन्या गत्वाऽस्य पारन्तु, पारं गच्छति संसृतेः ॥३॥ जीतं संसारकांतारा, साधुन्दमिदं मुदा॥ विमोचने समर्यस्य, नवतश्शरणागतं ॥४॥ अतो विधेयं यत्नेन, सारणावारणादिना ॥ अपायपरिहारेण, संसारारण्यपारगं ॥५॥ एवं तं नवहिप्रविणेयजणोविप्रासासियम्बो।यथा। युष्नानिरपि नैवेष, सुस्यवोधिस्यसभिलः॥ संसारसागरोत्तारी, विमोक्तव्यः कदाचन ॥१॥ प्रतिकूसन्न कर्तव्य, मनुकूलरतैः सदा ॥ जाव्यमस्य गृहत्यागो, येनवस्सफझो जवेत् ॥॥ अन्यथा लोकबंधना, माझालोपः कृतो जवेत् ॥ ततो विनंबना घोरा, नवेदिह परत्र च ॥ ३ ॥ ततः कुलवधून्यायात्, कार्ये निर्नत्सितैरपि ॥ यावज्जीवं न मोक्तव्यं, पादमूलममुष्य नोः॥५॥ तेझाननाजनं धन्या, स्तोह निर्मलदर्शनाः॥ ते निष्पकंपचारित्रा, ये सदा गुरुसविनः ॥५॥ इदं अणुसहि काजं दोवि णिरुक करते दोविसज्जायस्स कालस्सय पमिकमति । प्रायरियं पंचएए अइ सया ववहारगत्ये अनिहिया । जत्ते पाणे धोवणए, पसंसणा हत्थपायसोए य ।। आयरियअइसेसा, एइसेसा होत णायरिया ॥ १ ॥ नप्पन्ननाणा जहनो अती, चुत्ती सबुझाइसया जिणंदा। एवं गणी अहगुणोववेत्रा, सत्यावनो हिंमइक्लिमंतु ।। गुरुहिमणाम गुरुगा, वसने बहुगा णिवारयंतमि ॥ गीयागीयगुरुखह, प्राणाश्या बहृदोसा ॥३॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः। पायरिय पंचविनायरियाइ,यच्छति जहम्मए वि संथरणे ॥ त्येवमाकृप्य पवित्वा स्तवं पूर्वोक्तं ततो नमस्कारपूर्वक एवं पसत्यरंतो, सयमेव गणी अमइ गामे ।।४।। मेवाकर्षति । पन्यनुज्ञानंदीमिति गाथार्थः ।। सीसो विनाविअप्पा, सुणेइजह बंअं पुणो जए । इच्चाइगुणजुत्तस्स मुच्चेट्टवियारियस्स वा गणानुका इच्गकारेणम्हं, दिसाइ अणुजाणह तहेब ।। ३ ।। करोति । तत्यय सकरुणो पवयणागुरागीय एवं वि खमा व्याक्या । शिष्योऽपि नावितात्मा सन् धोत्युपयुक्तः अथ सणपुव्वं सीसो जणइ । इत्ययारि तुम्हे अम्हदिगाइ बंदित्वा पुनर्जणति शिष्यः । इच्छाकारणास्माकं भगवन् ! अणुजाणावणियं नंदिकारावणियं वासणिक्खेवं करेह दिगायनुजानीत तथैव नातीति गाथार्यः॥ इच्चाइ पुबुत्तविहीए चेइवंदणं चेश्वंदणपुव्वं काउसग्ग आह गुरु खमासमणं, हत्ये णिम्मस्स साहुस्स। करणं नंदिसुत्तस्स कट्ठणं गंधदाएं सत्तखमासणदावणं अणुजाणिअं दिसाई, सीसो वंदित्ततो जण॥४०॥ तो उस्सग्गाणंतरं सृरिसमीवे उबच्चिष्ट्रियस्स अनि व्याण्या । आह गुरुस्तत्रांतरे कमाश्रमणानां हस्तेन स्वमनी षयाऽस्य साधोः प्रस्तुतस्यानुक्कातं दिगादिप्रस्तुतं शिष्यो वगणहरस्स साहुणानो वंदणयं दिति । तो तस्सा पन्दित्वा अत्रांतरे ततो नहाते वक्ष्यमाणमिति गावाः ॥ यारयस्त सीसे हत्य दाऊणं सासणं देइ ॥ तंजहा। संदिसह किं जणामो, वन्दितु पवेअह गुरू जगइ। मंपारिऊण परमे,त्ताणाइ सुविहियतायणसमत्थो॥ वंदितुपवे अयई, नणइ गुरुतत्य विहिणाओ ।।४।। जवजयनयिाणदद,ताणं जो कुणई सो धनो ॥ १ ॥ व्या. ॥ सदिशति किं जणामि अत्र प्रस्तावे वंदित्वा प्रवेदय अत्ताणबाहिगाहिया, जइवि न सम्म इहातुरा हुँति ।। वं गुरु नपति वंदित्वा प्रवेदयति शिष्यो प्रणति गुरुस्तत्रतहवि पुण नावविज्जा, तेसिं अवर्णति तंवाहिं ॥२॥ विधिना तु वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः॥ तातंसि नावविज्जो, जवमुक्खीनवीमयातुम्हं ॥ वंदितु जणइ तुम्हं, पवेइयं संदिसह साहूणं । एवं सीसोनणद, नणइ गुरू पवेयह तओउ ।। २॥ एए हंदिसरणं, पवना मोएयन्वा पयत्तेणं ।। ३ ॥ चंदित्वा नणति ततः किमित्याह । युष्माकं प्रवेदितं संदिशत __ गच्चस्स सिक्खिदाणं पुण एवं ॥ साधनां प्रवेदयामि एवं भणात शिष्यः । अत्रांतरे गुरुराह तुम्कोहिं पिण एसो, संसारामविमहाकमीनीम ॥ | प्रवेदय ततस्तु तदनंतरमिति गाथार्थः। किमित्याह चंदित्वा सिछिपुरसत्यवाहो,' जत्तेण सया ण मुत्तव्यो॥४॥ नणति ततः किमित्याह । युष्माकं प्रवेदितं संदिशत साधनां नाणस्स होइ जागी, थिरयरओ दसणे चरित्तेय ।। प्रवेदयामि एवं भणति शिष्यः । अत्रान्तरे गुरुराह । प्रवेदय ततस्तु तदनन्तरमिति गाथार्थः॥ किमित्याह । धमा आवकहाए, गुरुकुमवासं ण मुंचन्ति ॥५॥ वन्दितु णमोकारी, कट्टलो से गुरुं पयक्षिणइ ।। एवंचिय समणीणं, अणसहि कुणा इत्य पायरिओ। सो विअदेवाईणं, वासोदाऊण तो पच्छा ।। ४३ ॥ तह अजचन्दणमिगावइ, णासा होइ परमगुणा॥६॥ प्या. ॥ चंदित्वा नमस्कारमाकार्ष सशिष्यो गुरुं प्रदकिया एवं उवणाविहीए, उविया जे हवन्ति अायरिया ॥ करोति सोऽपिच गुरुर्देवादीनां वासान् दत्वा ततस्तदनन्तरं बिहिवाहिया अणायरिया, जणिया सिरिचीरणाहेणम् पश्चादिति गाथार्थः ॥ किमित्याह ॥ ॥७॥ अंग, चू.। ध.३ अधि. ॥ सीसंमि पक्खिवन्तो, जणइ तं गुरु गुणेहिं वद्याहिं। नूतनाचार्यस्थापनविधिर्गुरुशिप्ययोरनुशासनं च पंचव एवं तु तिमिवारो, उवविसइ तओ गुरूपच्छा ।।४।। स्तुके यथा ॥ व्याख्या । शिरसि प्रतिपत्वा नान् भणति तं साधु गुरुगुणेएत्थाणुजाणणविही, सीसं काऊण वामपासम्मि। वर्धस्वेति एवमेव श्रीन वारानेतउपविशति । ततस्तदनंतर दवे वन्देश गुरू, सीसो वन्दियो तो जणइ ॥ ३६॥ गुरुः पश्चादिति गाथार्यः॥ व्याख्या ॥ पत्र प्रक्रमे अनुशाविधिरय शिष्यं कृत्वा घामपा सेसं जह सामइए, दिसाइ प्राणुजाणणाणि मित्तंतु । 9वें यात्मनः देवान्वन्दते । गुरुराचार्याश्शिम्यो पंदित्वा भत्रा णवरं इह नस्सग्गो, नवविस तो गुरुसमीवे ॥ ४५ ॥ तरे ततो जणति वश्यमाणमिति गाथार्यः ॥ ३६॥ व्या. शेष प्रादक्किएयादि तथा सामायिक तवष द्रव्यं दिगा इच्छाकारेणई, दिसाइ अणुजाणहत्ति आयरिया। दधनुशानिमित्तं तु नवरमिह कायोत्सर्गो नियमतएप सपषिइच्छामोत्ति जणित्ता, नस्सगं कुणो तयत्यं ॥ ३७॥ शति ततो गुरुसमीपे ससाधुरिति गाथार्थः॥ व्याख्या।इच्छाकारेण स्वेच्या क्रिययाऽस्माकं दिगाधनुजा- दिति अनो बंदणयं, सीसाइ तोगुरू वि अणुसडिं। नीतेति नापति अत्रांतरे आचार्य श्च्गमिति भणित्वा तदनंतरं दोएहविकरइ तह जह, एणोवि अयुद्धका कोई॥४६॥ कायोत्सर्ग करोति तदनन्तरं दिगाद्यनुज्ञार्थमिति गावार्थः ॥ व्या. बदतिचततो वंदनं शिष्यादयः सर्व एव ततो गुरुरप्य चळवीसत्थयनवकार,पारणं कहिथयं ताहे। नुशास्ति मौलायोरपि गच्छगणधरयोः करोति। तथा संवेगनवकारपुव्वयं चि अ, कड्डेइ अणुप्मणदित्ति ॥ ३०। सार ययाऽन्योपि च सत्वो बुध्यते कश्चिदिति गाथार्यः ।। व्याख्या। चतुर्विंशतिपूत्रपाउनमस्कारपारणं नमोरिईताइमि गधरानुशास्तिमाह ॥ Jain Education Interational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५ ) अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय , उत्तम मित्र पर्य, जिवरेहिं योगुप्तमेहिं परणतं । उत्तमफ संजय उत्तममणसेवित्र सोए ।। ४७ ।। व्या. उत्तममिदं गणधरपदं जिनवरे लोकोत्तमैर्भगवानः प्रश प्रमुत्तममजनक उत्तमजनसेवितं गणधराणामुत्तमायालोक ति गायार्थः ॥ धरणाण णिवेनिज, घरणागति पारमेग्रस्प | गन्तुं मस्स पारं पारं वच्यंति फुक्खाणं ॥ ४८ ॥ व्या. धन्यानां निवेश्यने एतद्धन्या गच्छति पारमेतस्य विधिना परंपारं व्रजति दुःखानां । सिव्यंतीति गाथार्थः ॥ संपाविण परमे, थालाई दुवियय तायणसमये । जयजयनाणे दर्द, ताणं जो कुछ सोचो ॥४५॥ व्या. संप्राप्य परमान् प्रधानान् ज्ञानादीन् गुणान् दुःखित समर्थीत् किमित्याद नवभयनीतानां प्राणिनां दर्द त्राणं यः करोति सधन्यो महासत्व इति गाथार्थः ॥ अण्णाणवाहिगहिया, जवि न सम्मं इहाजरा होंति । तहवि पुणजावविज्जा, तेसिं अवणिति तंवाहिं ॥ ५० ॥ च्या० ॥ अज्ञानव्याधिगृहीताः सन्तो यद्यपि न सम्यगिहातुरा भवति व्याधिदोपात्तवापि पुनर्भायवैद्यास्तात्यिकास्तेषामप नवतिव्याधिमा कृणामति गाथार्थः ॥ तातंसि जावविज्जा, जवमुक्खनिवीकिया तुहएए । हंदिमरणं पत्ररणा मोए अन्ना पयते ॥ ५१ ॥ व्या० ॥ त्वमसि भाषवैद्यो वर्तसे भवदुःखनिपीरिताः संत स्तयेते साध्या दिसरणं प्रपन्नाः प्रज्यादिप्रतिपत्या मोचयितव्याः प्रयत्नेन संम्यक्त्वकारणेनेति गाथार्थः ॥ मोए अप्पमती, परअिकरम थियो । जवसोक्खाको परिबद्धो मोक्खसोक्खंमि ||२२|| व्या०] || मोचयति चाप्रमत्तः सन् परतकरणे नित्योको य इति । नववीच्यायतिकोनिस्पृहः प्रतिको मोहसी नान्यत्र गायार्थः ॥ ता रिसोवितुमं, तह अणिओ सिसमाधीईए। प्रियावत्यासरिसं, जत्रयाणिच्चं पि कायव्वं ॥ ५३ ॥ प्यासी त्वं तथापि च भविता मया समपनीत्या करणेन निजावयासदृशं कुत्रमेव भवता नित्यमपि कर्तव्यं नान्यदिति गाथार्थः । गच्ठानुशास्तिमाह । जेहिं पिन एसो संसाराम चिमहाकमिमि । सिकिपुरसत्यवाहो जत्तेण खर्णपि मोजो ॥ ५४ ॥ या गुणाभिरपि नै गुरुः संखारारथी महाफ मिले गढ़ने सिद्धिपुरसार्थवाहः । तत्रागपायनयनाद्यत्नेन कथमपि मोकाप नेति गायार्थः ॥ परियं व एअस्स नारामिस्स । एवं गवाचा जं सफल होई तुम्हाणं ॥ ५५ ॥ घ्या. ॥ न च प्रतिकृ अयितव्यमशक्त्या वचनमेतस्य ज्ञानराशे गुरोरेवं गृहवासत्यागः प्रवज्यया यत्सफनो भवति युष्माक माशाराधनेनेति गाथार्थः ॥ हरा परमगुरूणं, आणानंगो निसेविउ होइ । यहाँति से मिनिअमाइ हो अपरओ आा।। ५६ ।। आयरिय व्या. ॥ स्तरथा तच्चनप्रतिसत्येन परमगुरूणां कृत माझाभंगो निषेधितो भवति निष्फली च भवतस्तस्मिन्नाभंगे सति नियमादरलोकपरलोकाविति गाथार्थः ॥ एकले निम्न विकबि । एस्पायसू आमरणं न मोब्वं ॥ ५७ ॥ व्याख्या । तत्तनादाम का निर्भतिरधि सः कचिदेतस्य गुरोः पादसूतं समीपमान मांव्यं सर्वकामिति गाथार्थः । पं. व. ४. ॥ सतनाचायस्थापने गुरुशिष्यानुशासनं (जिनकायिक) शब्देऽपि ॥ (२) परिच्छदसहितस्यैवाचार्यत्वम् ॥ आचार्यस्य गएधारणे परिच्छदावश्यकता । तथा च व्यवहारसूत्रम् ॥ जिक्स इच्छा गधारिचर जगच से अनिच्छि एवं सेनो कप्पई गाणं धारित जगवं च से पक्षि च्छ एवं से कप्पर गणं धारितए || व्याख्या ॥ निकुञ्श्वशब्दः आचार्यपदयोग्यानेकगुए समुच्चयार्थः । इच्छेत् गये धारवितुं भगवांध (से) तस्य भिकोरपि परिच्छेदः परिच्छदरहितः परिष्द दिघा यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः परिचादः शिष्यादिपरिवारः भावतः सूत्रादिकं । तत्र भगवानाचार्योऽपरिच्छदो व्यतो भावतः पुनर्नियमात्सपरिच्छदोऽन्यथाचार्यत्वायोग्यात् । चशब्दाङ्गिकु ध व्यतो परिच्छदो भावतः सपरिच्छदः परिगृत्द्यते एवं से इत्यादि पचममुनाप्रकारे (से) तस्य न कल्पते गणं धारवितुमेवं शब्दो विशेषद्योतनार्थः । सचा विशेषद्योतयति आचार्य अव्यतोsपरिच्छदे भिक्कोः सपरिच्छदस्य । न कल्पते गणं धारयितुमिति । भगवांश्च (से) तस्य द्रव्यतोपि परिच्छन्नः परिच्छेदोपेतशब्दात्सो विच व्यतोपि परिच्छन्नस्तत एवं (से) तस्य कल्पते गवं धारवितुमिति विशेषद्योतनार्थः। भाष्यकारोव्याख्यानयति ॥ येरे पछि सर्पपि वग्गहया तार्थ । छत्रो येरो पुण वा, इरो सीसो वे दोहिं || स्थविरोनाम आचार्यः असामेव प्रजापचनेन भगवन्दे नोच्यते । भगवानिति महात्मनः संज्ञा । सस्थधिरोऽपरिवन्नः परिच्छद्ररहितः चारणारापदाना भिकुरपि खयमप रिच्छन्नः तत्र स्यविरोऽपरिवन्नो ऽव्यतः परिवाररहितो रूष्टव्यः। भावतः पुनर्नियमात सपरिच्तः शिष्यः पुनर्वापयाम पि व्यभावाभ्यामपरिच्छन्नो भवति । तत्र भावतोऽपरिच्छन्नो नियमादयोग्य पच स्तरस्तु यतोऽपरिच्छदो भाषतः सपरि च्छदो योग्यः । अथाचार्ये अव्यतोऽपरिच्छदे किं सर्वथा भिोगणं धारयितुं न कल्पते हतास्ति शिकल्पनप्रकारः । अस्तीति धूमस्तथाचाह ॥ नोकारो खलु दे, परिसेहयती कयाइ कप्पेज्जा । ओसमिट थेरे, सोचैव परिच्छ तस्म ॥ १ ॥ पर्व नोकर पत्र मोल्दो देशवचनत्वात् देशं प्रति पतितेन कदाचिकपेतापि कदा कहते इति चेत भाइ । अवसन्ने श्राचार्ये । श्यमत्र प्रावना । यद्याचार्यो नावतः सूत्राद्युपेतस्तपः संयमोच्यतस्तस्मिन व्यतोऽपरिच्ने न Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) पायरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय कल्पतेऽयावसनस्ता तस्मिन् व्यतोऽपरिच्छदे वा कल्पते पतेन समुन्तुल्यतारूपण पाब्यसरः समानत्वेन गुणेन या खबु शब्दोविशेषणार्थः। स चैतत् विशिनष्टि । यो जावतः संप्रयुक्तो गच्छे गणधरः स्याप्यते । सचतगुणसंप्रयुक्तस्तदा सपारच्छदस्तस्य कल्पते न शेषस्य परिच्छदे वावसन्ने । प्रवति यदि प्रतिबोधादिनिर्वदयमाणगुणैर्युक्तो भवति । प्रतिआच पण धारयति शिष्ये य आचार्यस्य सपरिच्छदः बोधादयोगुणाः प्रतिबोधकादिदृष्टांतेज्योभावनीया इति । तापरिवारः स एव तस्य शिष्यस्य जनति व्यवहारस्तस्या नेव प्रतिबोधकादीन् दृष्टांतानुलिंगयति ॥ भावनात् श्तरस्य न किमप्याभवति शियित्वात् । श्ह- पमिन्बोहगदेसियसिरि, घरेय निजामगेय बोधव्वे ।। परिच्छदावण्या चतुनंगिका । तद्यथा । द्रव्यतोऽपरिच्छन्नो तत्तोय महागोवो, एमेया पमिवत्तिओ पंच ॥ भावतश्चापरिम्नः १ द्रव्यतोऽपरिच्छन्नोन्नावतः परिसन्नः ५ प्रतिबोधकः सुप्तोत्यापकः देशको मार्गदेशी श्रीगृहिकोनांद्रव्यतः सपरिदो जावतोऽपरिउन्नः ३ द्रव्यतः सप मागारनियुक्तो निर्यामकः समुझे प्रवहपनेता। तथा महागोपोरिच्छदो नावतश्च सपरिच्छदः । तत्र चतुर्थनंगवर्ती गुखः ऽतीवगोरकणकुशन एवमेता अनंतरोदिताः पंच प्रतिपत्तयोऽ शेषस्त्वशुद्धाः । एष सूत्रार्थः । मधुना नियुक्तिविस्तरः ।। धिकृतार्थ आभिरिति प्रतिपत्तय उपमा । तत्र प्रतिवोधकोपमा निकाबू इच्छा गणे, धारर अपव्वाविए गणो नत्यि। भावयति ॥ इच्छातिगस्त अघा, महातमागेण ओव्वम्म ।। जह ामिते गेहे, कोइ पसुत्तं नरं तु बोहेजा। जिकारिया गणं धारयितुं सच गयः स्वयं प्रवाजितो नास्ति जरमरणादिनयत्ते, संसारघरंमि तह उजिए। तस्मात्स्वयं साधवः प्रजाजनीयाः ॥ अथवा यद्यपि स्वयम यथा आसमंततो दीप्तगृहे कोऽपि परमबंधुः प्रसुप्तं नरं प्रयाजने गणोनास्ति तथा यद्यपि यदा प्रवसन प्राचार्या- प्रबोधयेत्तथा संसारगृहे जरामरणप्रदीप्ते जीवान् अविबुद्धान जातो जवति तदा योसावाचार्यस्य गपः स एव तस्य भावसुप्तान प्रबोधयति । स स्थापनीयो गणधरादेशितस्तीर्थप्रवति इच्छा च गणं धारयितुं त्रिकस्य ज्ञानादिरत्नत्रयस्या- करैरुक्तः प्रतिबोधकदृष्टांतः । संप्रति देशकादिरयतमाह ॥ र्थाय नतु पूजासत्कारनिमित्तमत्रायें चौपम्यभुपमा महाता- बोहेइ अपमिबुके, देसिय माईविजोएज्जा ॥ गेन । किमुक्तं नवति पद्मसरसा महातमागेन ग परिवर्क- एयगुणविप्पहीणो, अपामेच्छन्ने य न धरेज्जा ॥१॥ स्योपमा कर्तव्या । सा चाग्रे नावयिप्यते । एष नियुक्तिगाथा संक्षेपार्यः । ग पनि पम्प्रतिपाद्य ॥ ( बोहे अपम्बुिळे ) इति पूर्वगाथाव्याख्यायां व्याख्याता नेर देशकादीनपिछतान्योजयेत् ।ताँश्चचं यो प्रामादीनापंथाजावगण हिगारो, सो उ अपवाविए न संनवति। ममृजुकं केमेण प्रापयति सदेशक श्यते। एवं ज्ञानादीनामविइच्छातियगहणं पुण, नियमणहेउं तो कुगइ।।। राधनां कुर्वन् यो गच्छं परिवर्डयाति स गणधरः स्यापनीयो भावगन नो आगमतो नावगयेनाधिकारः प्रयोजनं स च न शेषः । श्रीगृहकदृष्टांतजावना । यया यो रत्नानि सुनिरीकिजावगणो ययोक्तपः स्वयं प्रवाजितो नास्ति । तस्मात्स्वयं तानि करोति स श्रीगृहे नियुज्यते एवं यो ज्ञानादौनामात्ममंसाधवः प्रजाजनीयाः ते परिवारतया कर्तव्याः । अथवा यमयोश्चाविराधनया गणं वयति स ताशोगणस्य नेता प्रमायत्याचार्य यः परिवार तथा स को नियुक्तिकारो हार- कर्तव्यः ॥ निर्यामकदृष्टांतभावना । यया निर्यामकस्तथा गाथायामिच्गत्रिकग्रहणं नियमहेतुं करोतीत्युक्तं । तत्र किं कयंचनाऽपि प्रवहणं वाहयति । यथा किप्रमविघ्नेन समुफनियमयति सूरिराह । निर्जरानिमित्तमेवं गणं धारयति नतु स्य पारमुपगच्छति एष एव च तत्वतोनिर्यामक उच्यते । शेषो पूजादिनिमितं । स च गणं धारयन् यतिप्रनुर्महातमागेन नामधारकः । एवं य आचार्यस्तया कथंचनापि गच्छपरिवर्डसमानो भवति । महातमागेन समानतामेव जावयात ॥ पति तया किप्रमावि नात्मानं गच्छंच संसारसमुषस्य पार तिमिमगरेहिं न खन्नइ,जहंबुनाहो वियंजमाणेहिं॥ नयति । स तत्वतोगणधरः शेषावै नाममात्रपरितुष्टः । महागो पांतभावना यो गाः स्वपदेषु विपमेषु वा प्रदेशेवटव्यां वा सोय महातमागो पप्फुकपउमं च जं अन्नं ॥ पततीर्वारयित्वा च क्रमेण स्वस्थानमानयति । स महागोप यथाऽचुनाथस्तिमिमकरैर्विज्टंभमाणैर्न कुन्यति न स्वस्या- सच्यते । एवमाचार्योऽपि यो गणमस्थानेषु प्रत्यंतदशादिषु नाबन्नति । स एव चांबुनाय इह महातमागस्तथा विव- विहारिणं धारयात । पूर्वाभ्यासवृत्तानि च प्रमादस्वामिता कणात अथवा समुद्रात यदन्यत् प्रफुलपमं महासरस्तत् भ्यपनयति स तादृशो गणपरिवर्डकः करणीयो न शेषः । महातमागम्॥ अथवा प्रतिबोधको नाम गृचिंतक उच्यते । यो गृहं चिंतउपनयमाह। यन् यो यत्र योग्यस्तं तत्र व्यापारयति । तत्र च्याप्रियमाणेच प्रमादतः स्खलनं निवारयति स गृहचिंतक उच्यते । एवं यः परवादीहिं न खुन्नइ, संगिएहतो गणं च न गिझाइ । स्थापितो यो यत्र योग्यस्तं तत्र नियुक्त । नियुक्तांश्च प्रमादतः होतिय सया जिगमो, सत्ताण सरोव्व पउमहो॥ स्वतः शिकयति । स स्थापनीयो गणधरपदे नेतर इति । तिमिमकरैरंबुनाथ श्व परवादिजिरातिप्यमाणोन कुज्यात यश्चैतद्गणविहीणः प्रतिबोधादिगुणविकलो यश्च रुच्यतो न च गचं संगृह्यन् यथौचित्येनानुवर्तमानोग्लायति । यथा वा जावतेश्चत्ययः । ग्नः परिच्छदडीनः स गणं धारयेत् । न स सरः पद्माव्यं सत्वानां सदाभिगमं भवत्येवं सदा सत्वानाम गयधरपदे स्थापनीय इति प्रायः॥ निगमसाधुः प्रजुर्नवति॥ दोहिं वि अपविच्छन्ने, एककणं व अपरिच्चनो य। एयगुणसंपनत्तो, वा विजो गणहरोउ गच्छमि । अहारणा हॉति इमे, जिक्युमि गणधरं तमि॥ पमिव्बोहादीएहि य, जइ होइ गुणेहिं संजुत्तो॥ अन्यतोऽपरिच्छन्नो नावतश्चापरिच्चन इत्यादिचतुर्नगी प्रा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३५७) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय वोपदर्शिता।तत्र निकौगणं धारयात द्वाज्यामपि अच्यतो भाव ति । ततो सीहं पायवमिया विमवेति । तुम्हे अम्हं तश्च नेतव्यः । अपारच्छन्ने परिच्छदरहिते प्रथमभंग उपात्तः। एकैकेनवा अपरिच्छन्ने द्वितीयनंगवर्तिनि द्रव्यतोऽपरिच्चन्नेतृ मिगरायाो नित्थारोह । सीहेणं नपा । पुंडे मम तीयभंगवर्तिनि वदयमाणानि उदाहरणान भवंतितान्यवाद । पाणयं लग्गा । ततो सीहेण पत्रुतं कयं । सोझसहत्ये निक्रवू कुमारविरए, कामण पंतीसियालरायाणो। । विकंतो सह मिगाई हिंमीणं अन्नया पुणो वणदवो जावित्तत्यजुक असती, दमगजयगदामगाईया ॥ तो । तहेव मिगादयो तत्थ पविट्ठा । ततोएको सियालो भिदौ अन्यन्नावाच्यामपरिच्छन्ने गणं धारयति कुमारदृष्टांतः। सीहेण उत्तारियषुब्यो चिंते । अहं पि सीहो चेव विरयो बघुश्रोतारूपो मापनवनदवे हितीयो दृष्टांतः । तृ- उत्तारेहामित्ति मिगादयो नणंति । मम पुच्चें धणियं तीयः पंक्तिदृष्टांतः । चतुर्थः शृगाबराजदृष्टांतः। पंचमा वित्र लग्गेहते लम्गा तेण सियालेण प्युतं कयं । वियरए सह स्तेन सिंहेन सह युरूस्याभावो दृष्टांतः । पते पंचदृष्टांता अप्रशस्ताः । प्रथमभंगवर्तिनि प्रशस्ताश्चतुर्थनंगे हितीये मिगाइएहिं पनि यो सब्बे विणट्ठा । तेहाणातीआवजमकदृष्टातस्तृतीयनंगवर्तिनि नृतकस्य सतो दामकादिपरि तीसु गीयत्येणं बायपए जयणानिसेवणा मिए गच्छं ग्रहो दृष्टातः । अत्रादिशब्दात् मयूरांगानिकादिपरिग्रहः।। नित्यारियं पासित्ता अगीयत्यो चिंतेइ । सब्वेवि एवमातत्र कुमारदृष्टांतभावनार्यमाह ॥ यत्ति एवं मन्नतो निकारणे वित्तियपदेण गच्चेण समं बुछीबापरहणिो, कुमारपञ्चंतममरकरणं तु । विहरइ सो तहा विहरंतो नगरगाइनववियरए अप्पाणं अप्पणेव बसणं, गिएहो वणमासणा रना ।। गच्छं च पामेइ॥ पको राजकुमारः बुद्धिबलपरिहीनो हस्स्यादिबबपरिहीनश्चे- एष भावार्थः । अधुनाऽकरायोविनियते ।वनदवे जाते सत्वाति भावः । एतेन द्रव्यभावपरिच्छदरहितत्वमस्याख्यातं। स प्र- नां मृगादीनां वियरयपरिवृत्ते वेटे समागतः। तेषां सिंहस्य त्यंतदशे स्थितो ममरं देशविप्लवं करोति । ततो दायादेन राका पुच्छे लमानां सिंदेन सह व्यपरजसा लघुश्रोतोरूपस्य जलाशतं बुद्धिया परिहीनं झावा अल्पेनैव बझेन दंम्प्रेषणेन ग्रहापणं यस्य मेपनं संघनं ततोदृष्ट्वा जंबुफेनाऽप्यन्यदा तत्कर्तुमारब्धं । तस्य राज्ञा कृतं । ग्रहणानन्तरं च शासना कृता । ग्राहयित्वा तेन च तथाकर्तुमशक्नुपता मृगादयः तस्मिन् व्यपरजसि तू. स बिमाशित इति भावः ।। दाः क्षिप्ता एष दृष्टांतः ॥ अत्रैवोपनयमाह। संप्रति दाटीतिकयोजनामाह॥ मुत्तत्थअणुववेतो, अगीयपरिवारगमणपञ्चन्तं । अट्ठाणादिसु एवं, दटुं सव्वत्थ एव मन्नन्तो । परतित्थक हावण, सेवगसहादवमाउ । जवचिरियं अग्गीतो, पामइअन्नेवि पवमन्तो॥ एवं सूत्रण अर्थेन वानुपपेतोऽसपन्नोऽनेन भावतोऽपरिच्छन्न अध्वादिग्वापत्स्वव द्वितीयपदेन यतनानिषेवणतो गच्च नितामेवाह । अगीतपरिवारोऽगीतार्थपरिवृतोऽनेन ट्यतोऽप स्तारयतं दृष्ट्वा अगीतोऽगीतार्थःसर्वत्रैव मारयितव्यमिति मन्यरिच्छन्नत्वमुक्तं । स प्रत्यतं देशं प्रति गमनं विधाय आचायत्वं कराति । स च तथा प्राचार्यत्वं विम्बयन् परतीर्थिकैः मानोनिष्कारणयतनया हितीयपदेन गच्छ परिपालयन् भावपरिमीय निःपृष्टध्याकरणः क्रियते । तदनंतरं श्रावकाणा वियरयमिति हितीया प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे । नरकादिभवरूपे मपन्नाजना । यथा विमंबिता यूयं न भवदीयोधर्मः शोभनः । व्यपरजसि प्रपतन् अन्यानपि स्वगच्छवासिनः पातयति । गतं तथा च भवदाचार्य-पृष्टः सन्न किमप्युत्तरं ददाति । किंत्वस व्यपरजोधारम् ॥ मंजसं प्रत्नपतीति । तथा शिप्या आप तैर्विपरिणम्यते।पवंच अधुमा पंक्तिद्वारमाह ॥ जायते महाननर्थः शासनस्यातदेवं यतश्मे दोषास्तस्माद्रव्य जम्बुककूवे चन्दे, सीहेणतारणा य पंतिए । परिच्छदरहितेन भिकुणा न गणो धारयितव्यः। गतं कुमार जंबुक सपन्तिपमणं, एमेव अगीयाणं ॥ द्वारम् ।। एगया जेट्ठामासे सियाला तिसिया अरत्ते कूवअधुना वियरयदृष्टांतमाह ।। तमे छिया । कूवं पलोयंति। तत्य ते जोएहाए उदए चंदवणदवसत्तसमागम, विरए सिंहस्स पुरवणया। बिंब पासंति । चिंतेतिय चंदो कुवे पमितो । तत्थ य सीहो तं दिस्सं जंबुएणो, विविरयवूढा मिगाईया । वियरयो नाम बघु श्रोतोरूपो जलाशयः । स च षोमशहस्त आगतोचेइततो तेहिं सियाहिं सीहो विएणावितो विस्तारो नद्यां महागायां वा तस्याऽकुचः त्रिहस्तविस्तार तुमं मिगाहिवतीए सवि गहा हिवती कुवे पमितो एयस्स स्तस्य प्रवेशे मध्यो वेट ॥ गुणेणं अम्हे दिवसायाए रत्तीए सुहं निरुवसग्गा बिय अभया अमवीए वणदवो जातो सो सव्वतो समंता रामो ततो जुज्जसि तुमे गहाहिवतिमुत्तारिउ । सीहो दो बच्चइ ताहे मिगादयो सत्ता तस्स वणदवस्स जीया जणति। पतिए समं पुच्छे लग्गित्ता बियरह अंतिबस्स परिधावं वेदं पविट्ठा । तत्थवि सो वणदव्वा महतो चंदो लग्गिहिति ताहे सव्वे प्लुतेनोत्तारेहामिति ततोते आगच्छद । तत्य य सीहो पविट्ठो। पासितोयमिगादी पंताए सीहपुच्छे लग्गा कूबमज्के उत्तिएणा सीहेण प्लुतं जाया चिंतिति । वेंटए स वणदवो पविसइत्ति दन्जियवं- काळ सव्वे उत्तारिया । उवरि गगणे चंदं पासेंति । कूष Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायरिय ( ३५८) अभिधानराजेन्द्रः। पायरिय तमेय आरोलिए उदएचंदं अपासमाणा जतरियत्तिम मंति । अन्नया तहेव चंदं पासेत्ता सोहेण उत्तारियपुव्बो सियालो एवं चिन्तेइ । अहमावि सीहोइव उत्तामि ॥ एवं चिंतिता सोसियानो लणइ । पतीए मम पुच्छे बग्गित्ता उयरहते उत्तिन्ना। सीयालेणं उत्तारेहामित्तिप्युतं कयं । ततो असमत्योत्ति तह पुच्छे सग्गित्ता सह कूवे पमिता । तत्येव मतो एवमहाणादीसु आवईसु गीयत्येणं वितियपदे जयणा निसवणाए। श्त्यादि । उपनयः पूर्ववेदष भावार्योऽधुना अकरायः । एक दा जंबुकाः कृपतटे मिलितास्तैः कूपे कूपमध्ये चंम्रो रपः । तस्मिन् रटे तकरणाय सिंहपुच्छवित्रग्नानां पंक्तचा प्रविशनां शगामानां सिंहेनोत्तारणा कृता । तत् रया अन्यदा एकेन जंयुकेन सिंहोत्तारितपूर्वेण तथा कर्तुमारब्धं । ततस्तस्य जंबुकस्य संपक्तिकस्य कूपे पतनमेवमननव दृष्टांतद्वयोक्तेन प्रकारेण गीतागीतयोर्भवकृपे गच्छेन सह पतनं तत उत्तारण च गच्चस्य परिभावनीयमिति । गतं पंक्तिद्वारमिदानीं शृगालराजद्वारमाह ॥ नीलारागे खसट्टम, हत्यासरना सियाझकच्चन ॥ बहुपरिवारअगीते, विन्यूयणो हावणपरेहिं ॥ एको सियालोरतिघरं पविट्ठो घरमाणुसेण तितो निच्च निउमाढत्तो सो पुणगाईहि पारहो नीझीरागरंजणे पारितो किहवि ततो उत्तिनो नीलवनो जातो तं अन्ने सरजतरकखु सियाझादी पासि जणति । को तुम एरिसो सो जणइ अहं सव्वाहिं मृगजातीहि खसटुमो नाम मिगराया क ओ। ततो अहं एत्यमागतो पासामि । ताव कोमन्नति ते जाणंति । अपुम्बो एतस्स एसदेवेहिं अणुग्गीहतो ततोल गंति अम्हे तव किंकरा। सदिसह किं करेमा खसटुमो नणइ हत्यिवाहणं देह दिलो विमग्गो वियरति । अन्नया सियाक्षेण उव्वुइयं । ताहे खसटुमेणं तं सियानसहावमसहमाणेण नबुझ्यं सतो हक्षिणा सियालोत्ति, नाउं सोमा पोतुं मारितो॥ एवं कोइ अगायत्यो अगायत्यपारिवारं सत्ता पचंत देसं तं गायरिउत्ति पकासेइ । सो कहिंवि विओसेहिपे यालितो जानष्ठिकिंविजाण एवं तेण अप्पा जहामितो । एष जावार्थोऽधुना अकरायः। नील्यासंबंधी रागो यस्य स नीबारागः शृगालःखसट्टमानाममृगराजो जातः। तस्यहस्तिनः सरजाः शृगामा उपकपमेतत् । तरक्कादयश्च परिबारः । सोऽ न्यदा कस्यापि शृगानस्योचदमाकर्य शृगालोमादितमकरोत् । ततःशुगाझोऽयमिति ज्ञात्वा हस्तिना मारित इति शेषः । एवं गीताबहुपरिबारे अगीते अगीतार्थ विहरति बचतोऽहमाबार्य इति बहुजमविश्रुत विकुर्वाणः प्रज्याकरणासमर्यतया परेज्या पकपर्ति ज्यवापभ्राजना भयति । अथवा अयमम्य उपनयः ॥ सेहादिकज्जेमुंवा, कुनादिममितिम जंपर अयं तु | गीएही विस्सुयंतो, निहोमएमपचनो सेहि । वाशब्द उपनयांतरसूचकः । शैशकादिकार्यबु कुमादिसमबा ये नियुक्तः कुअगसंघसमवायेषुश्रावकाः सिद्धपुत्राश्च वत अयमेव तुरवकारार्थः। बहुश्रुतो जल्पतु व्यवहारनिर्णयं करोतु ययाकस्य भवतीति । ततस्तेनाव्यवहारमुक्तं तब गीताधर्वश्रुत ततस्तै निहोरुण मिति निहेरितं यथा अगीतार्थ एप नजानति व्यवहारमिति। ततः शे के प्राकृतत्वात् पछ्यर्थेस समी । एकवचने बहुवचनं । शैक्ककाणामुपलक्कएमेतत् श्रावकाण सिम्पुत्राणां च तच्चत्यप्रत्ययो जातः चितयति च एप श्य कालमस्माभिर्गातार्थः संजावित इति । गतं शृगा बराजद्वारम् ॥ संप्रति ( वित्तत्यजुरू प्रसतित्ति ) हारं व्याचिल्यासुराद ।। एककएगजाती, पतिदिण सममेव गिएहा ।। सीहेण टु जुजइत्ति, पारद कृम्मि ससगेण ॥१॥ एमेव जंबुग्गो, वा कुवे पमिविचमप्पणो दिस्स । उवाय तत्य मरणं सामाया गयिअगीयाणं ॥ ॥ एगो सीहो सो हरिणजातीएं खुच्छो दिवसे शहरिणं माऊण खाइ। तो हरिगोहिं विमविप्रो किमंगरायं तुमं हरिणजातीएं एक्याण परिनिविट्ठो ता पसायं कहि । सवामगजातीणं वाराणं पइदिवसमेक्ककं मिगं खाहि । सीहेणं चिंतियं जुत्तमेस जण ततो सव्ये मिगा मेसित्ता सीहेण चणिया । तुब्ने कुझजुत्तत्ताए आत्मी यकुनौचित्येनेत्यर्त्यः सव्वामिगजातीणं वारएणं पइदिवस सहाणष्ट्रियस्त एगं पेसिज्जाह। तेहिं अन्वगयं । ततो ते वि मिगा तहेव पेसति । अन्नया ससगजातीए पारए । ससगा संपसारैति. मन्त्रयंतीत्यर्थः । कोवचनअन्ज सीहसगासे एगो वुड्ससगो लणइ । अहं बच्चामि । जो सव्वेसि मिगाणं संति का एमित्ति सो बानी अंतराने मरुयकवसरिसे कूवं दद्रु उस्सूरे सीहसगासमागतो । ताहे सीहेण चणियं किं रे तुम उस्सूरे आगतोसि । ससगो जणइ । अहं पाए आगच्छतो संतो अनेण सीहेण रुको । जहा कहिं बच्चसि । ततो मए सब्जावो कहितो । ताहे सोजणइ अनोन होइसो मिगराया ततो मए जणियं । जइ अहं तस्स मिगरायस्स सगासंन जामि तो सो रुट्ठो सव्वे ससगा उच्चादेहित्ति । तम्हा जामि तस्म सगासं कहेमि । ततो जो तुमं वलितोहोहित्ति तस्स अम्हे आणं कहामो । ताहे अहं तेण जाणतो क्या कहा जण आगन्ज मम सगास जदि ते सत्ती अवि ततो सीहे जणति दसोह ममं तं सहिं । ततो समओ सहिण ममागम्म दरं आग; दरत्योववदति । जणइ य एत्य पविट्ठो चिट्टा । जा तपत्तियाम नो तुमं अगजय जेण Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ ( ३५९ ) अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय सो वि उग्गज्जइ । ततो तेरा उग्गज्जियं उग्गज्ज परिसद्दो उट्ठित्तो ततो मुहुत्तं प्रच्छइजाव न पुणो को वि उग्गज्जइ ताहे सीहो वितेइ मम नए वित्तत्योतो न गज्जइति । निष्फरुइ वा तं एत्येवज्जएविसितामारे मिति पति कुवे | अपेक्खमाणो चिंतेइ नूर्णनिसुक्को ता सीहो गज्जर रोक्किरइय ततो चिंतेइ न जुज्जिउकामो मए समं एवं जुदासतीए सीहो प्लुतं काउं उत्तिणो | एवं गीयत्यस्स विजयविच्छक्षणा जवति । ता सो जाएगतणेण अप्पा वि सोहेइ । तहाएगो जंबुगे। सो जर्मतो कहावे कृवत मे समागतो कूवे पाणियं पादाइयं दिहं प्रत्तणो परिवित्रं । तओ उन्नय‍ ताहे उच्छ परिसहो । तं सोउ मेहक्कार इतिराया सिया ते पकिलो तं मगाणं प्लुतं काउमसमत्योत्ति तत्ये मतो एवमणीयत्यो झिओ वि न सकेइ अप्पाणं पव्बुरिमिति तत्र गणो न दाषव्वो ॥ पजाबायनाक्कारार्थनिवरणं । सर्वा मृगजातको मिलित्वा प्रतिदिवस मेकैकमेकस्या जातेः सिंहस्य स्थानस्थितस्य समर्पयति । अन्यथा शशकस्य वारोजातः । सोऽपांतराले easy प्रतिबिंबं मरुकुपसदृशमतीवोएकं कृपे त्यर्यः । चिराहि सकाशमागतः ततश्शशके सिंहस्य पृच्छा कस्मा चिरादागतः । तस्याद्यसिंहकथनं तत (एजति) सिंहस्य कृपसमीपागमनं तदनंतरं पूर्वप्रकारेण कृपे केप आत्मनः प्रति. केपः ततः प्लुतेनोत्तरणं । एवमेवेत्यादि पवमेव यथाप्रवृत्यैवेत्यर्थः । जब कोऽपि कूपे प्रतिबिंबमात्मनोदृडा मे पनकं प्रति केपणकमात्मनः कृतवान् तच्च तस्य मरणमेवं समवतार उपतयो यथाक्रमं गीतागीतार्थयोः कर्त्तव्यः । स च प्रागेव कृत इति । सांप्रतमेतान्युदाहरणाने यं भंगमाश्रित्योपदर्शितानि तत्र योजयति ॥ एए उदाहरणा, दवे जावे य अपच्छिन्नंमि | दव्वेण अपच्छिन्ने, होंति इमे तश्य जंगमि ॥ एतान्यनंतरोदितानि पंचाप्युदाहरणानि अप्रशस्तानि व्ये नावे च सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे । अव्येण भावेन च अपरिच्ने इति प्रथमभंगवर्तिनि वेदितव्यानि । प्रशस्तानि चतुर्भगेऽव्यतो जावतश्च परिच्छन्ने इति वाक्यशेषः ॥ द्रव्ये श्रपरिच्छन्नेऽनेन इव्यतोऽपरिच्छन्नो नावतः परि न्न इति वा तृतीयमंगसूचितंसूत्रं । तथा भावे सप्तमी तृतीया । भावेनापरिनो भावतोऽपरिकन इति तृतीयभंग इति न सूत्र इति न इमे वक्ष्यमाणे उदाहरणे । तत्र प्रथमतो द्वितीयभंग उपात्तः ॥ दमगे वइया खीरा, बहुचिताय कुकुमिष्पसवो । धणारुणमणेरि, ऊसी सगनिंदणघमीए || एगो दमगो गोउनं गतो तत्य गोडझिएहिं दुद्धं हं पाहतो अन्नया से दुछस्स नारया घरिया दि मा । सोतं घेतॄण घरं गतो खट्टाए। ऊसिममुझे उ For Private आयरिय निवो चिंतिजमाढतो । एयाए दुघरियाए कने कुक्क तो किस्सामि ताहे पसको होहिति तं पसवं विकेहामि ततो तं मूढए । पर्उजेहामि । एवं सुबद्धुं धणं पिंकित्ता कुलाणं समाणेतरकुझप्पसूर्य कधा । परिणित्ता आमि। ताहे सा कुलमदेण उसीसएणं सेज्जं वमिहिति ततोकिंउस्सीसएणा सज्जं वमिसिति पहाए आहणिस्सामिति पादोउच्छूढो तेरा सा घी जग्गा । करयोजनां त्वियं । द्रमकोरंकः स व्रजिकायां गोकुले गतः । सेन दुग्धपानानंतरं कीरभृता घाटका बन्धा सा गुड़गतेनखट्वा या मुच्छीर्षकले स्थापिता । ततश्चिंताऽनूत् किंविषयेत्यत आ द । कुकुट्टः क्रेतास्तदनंतरं तासां प्रबंधेन प्रसवः पुनस्त स्य मूल्येन विक्रमस्ततो वृद्धियोगेन धनपिंगनं कृत्वा (समाणे तर ) मिति | समानां समान कुलप्रसूता मिवेतरामसमान कुलप्रसूतां कन्यां परिचीयतां अमदेनोच्छीर्षकेन चटती पादेनाइनिष्या मीति दुग्धघटकायां भेदनमकात् ॥ अत्रोपनयमाह ॥ पव्वावइत्ताण बहूउ सिस्से, पच्छा करेस्सामि गणादिवत्तं । इत्यं त्रिकप्पेहि विसूरमाणो, सज्जायमेवं न करेइ मंदो || बहूनू शिष्यान्प्रवाज्य पश्चात्करिष्यामि गणाधिपत्यं एव मिच्छाविकल्पैस्स मंदो नित्यकालं विस्तरयन् स्वाध्यायं न करोति सूत्रार्थtreatर्न करोतीत्यर्थः । ताश्वाकुर्वाणः पूर्व गृहीतान् सूत्रार्थान्नाशयति । यया समको दुग्धघटिकां नाशितवान् ॥ संप्रति तृतीयभंगे उदाहरणमाद ॥ गावी गोरक्खंतो, घेत्यं च जत्तिए पड्डिया तत्तो । हिंतो गोवरगे, होहिंति य वच्छिगा तत्य ॥ १ ॥ तेसिं तु दामगाई, करेमि मोरंगचूलितोय | एवं तु तयजंगे, वत्यादीपिंमणमगीतो ॥ २ ॥ एगो घोसो गाविंतो रक्खंतो चिंत्तोति । अहं गोरक्खणमोक्षेण परियातो गहिस्सामि ततो मे पत्रमाणो गोग्गो विस्तति तम्मिय पवद्रुमाणे गोवरगे वच्चगा बहुयाउ होर्हिति ततो करेमि । तासां जोग्गाओ मोरंगच लियाओ य एवं चिंतिंता सो तहापकरेति एव मगीयथो वि जावेणा पतिच्छन्नो तज्ञ्यं जंगीलो बहगे परिवारे चिंतेतिइति वत्यादीणी बहूणि पिकेति ॥ अरयोजना त्वियं । गोरक्षणे गोपालोऽचिंतयत् भृत्या मुल्येन पड़िका अभिनवप्रसूता गा प्रहिष्यामि ततो मे प्रवर्द्धमानो गो वर्ग:विष्यति । तत्र तस्मिन्प्रवर्द्धमाने गोवर्गे वत्सिका नविव्यंति । ततेोऽतस्तस्यां योग्यानि दामकानि करोमि । मयूरांग चूलिकाच मयूरांगचूलिका आमरणविशेषरूपा एवं चिंत यित्वा स तथा प्राकृतवान् ॥ तत्रोपनयमाह । एवं तु एवमेव तुरेवकारार्थस्तृतीयभंगवर्तमान स्य श्री अगीतार्यस्य वस्त्रादिपि मनमवगंतव्यं । अस्य यद्यपि परिवारो नास्ति तथा वस्त्रादिषु लब्धिरस्तीति इव्यतः परित्यमंगीकृत्य तृतीयभंगे इत्युक्तं ॥ अस्य दोषानाद ॥ Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६०) पायरिय अभिधानराजेन्द्र । आयरिय ताई बदइं पमिबेहयंतो, अट्ठाणमाईसुय संवहतो।। प्रकृतिलिंगवचनानि"विनयशब्देऽस्यपुंस्वेऽपि प्रत्यये समानीते एमेव वा सम्मतिरित्तगंसे, वातादिखोजेजुयएव हाणी ॥ नपुसकलिंगता ततशिष्यान् कारयितुमगीतार्थत्वात्। नच तस्य तानि वस्त्राणि बहानि प्रतिदिवसमुन्नयकालं प्रतिलेखयन् पार्श्वे सूत्रमर्यो वा जावतोऽसंउन्नत्वात् । ततः सूत्राज्य अप्रतिलेखने प्रायश्चित्तापत्तरबन्धादिषु अध्वनि मार्गे आदि गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् अप्रतिबकाः संतः शि प्याः परिभवमेव केवलं मन्यते ।जन्मनो निष्फलीभवनात् । शब्दात् वसत्यंतरसंक्रमेणादौ च संवहन् श्राम्यति। श्रमाच्च तेन च परिभवेत् । तस्य तृतीयभंगवर्तिनो चैनयिकं कार ग्लानत्वे च संयमविराधना सूत्रहानिश्च पवमेव अनेनैवप्रकारेण यितुं जानतोऽपि न चापि नचैव ते शिप्या विनयं कुर्वति । वर्षास्वपि दोषा वाच्याः केवलं (से)तस्य उभयकालं तानि तस्मान्न तृतीयनंगवी गणधारणयोग्यः ।। प्रतिलेखयतोतिरिक्तकर्म अतिरेकेण वातादिवाभो भवति । सांप्रत (मासत्तित्ति) पदं व्याख्यानयन् हितीयभंगगतातथा च सात सुवीर्घ भुते सूत्रस्य च शब्दार्थस्य च परि वाकेपपरिहारावाह ॥ हानिः॥ वियनंगे पमिसेहो; जं पुच्चस तत्य कारण सुणसु ।। अत्र परस्याऽधकाशमाह। चोदेति न पिंमेतिय, कज्जेगिएहनि यजो सक्षघीओ।। जइसेहोज्ज धरेज्जा, तदनावे किं न कारेउ ॥ १ ॥ तस्स न दिज किं गणो, नावे उण जो उ संच्छन्नो । ताप यहु दव्व संगह, परिणिं परिहरंति सेहादी । चोदयति पुरो यया यः स लब्धिको भावेन च योऽसंवन्नो संगहरीए य संगलं, गणधारित्तं कहं होइ ॥ ॥ परिच्छदरहितो न पूर्वमेव वस्त्रादीनि पियति । किंतु कार्य यत्पृच्चासि त्वं यथा हितीयनंगे धिनीयभंगवर्तिना गणधा समुत्पन्ने गृह्णाति तस्य किं कस्मात्कारणात् गणो न दीयते रणे कस्मात्प्रतिषेधः कृतस्तत्रकारह मिदं शृगु तदेवाह यदि(से) प्रागुक्तदोषसंभवात् अत्र सूरिराह ॥ तस्य गणो भवेत्ततो धारयेत् तदभावे गणभावे किनु धारयेचोयग ! अप्पब्ल्यअसी, पूयापमिसेहनिज्जरतमा । तूनैव किंचिदिति भावस्ततो गणभावादेतस्य गशधारणप्रति षेधः । अपि च तंबहु इत्यादि तमपिच भावयेत् । संन्नएसते से अजाणसि, पब्वइए तिन्नि इच्छासे ॥ मपिच बहु निश्चितमलब्धिकतया व्यसंग्रहपरिहीनं वस्त्रपाहेचोदक !स भावतोऽपरिच्चन्नोऽप्रनुरहितोऽतस्तस्मात्तस्मै बाह्यपकरणसंग्रहरहितं शक्कादयः शङ्कक आदिशब्दात् मुनिगणो न दीयते । एतौ तृतीयभंगवर्तिन्याकेपपरिहारौ (अस वृषभादिपरिग्रहः । परिहरति वस्त्राद्यन्नावात् तेषां सादनात् तित्ति) यस्य तृतीयभंगवर्तिन आकेपपरिहारावभिधातव्या ततः संग्रहमृते विना सकलं परिपूर्णगएधारिवं कथं भवति विति वाक्यशेषः । तथा (पृयत्ति) पूजार्थे गणो ध्रियते इति नवै नवतीति भावः तदभावाच्च तस्य तत्प्रतिषेधः। श्दमलब्धिकस्यापि वचनं तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः। किंतु निर्जराये गणो कमधिकृत्योक्तं । याद पुनर्षितीयनंगवर्त्यपि वक्ष्यमाणगुणैरुधारणीय इति वाच्यं । निर्जरार्थं व्यवसिताः केचित्पजामपी पेतोभवति ततोऽनुझाप्यतेऽपि गरधारीदोषानावात्तथाचाह। च्छति । तत्र निर्जराथ गणं धारयतः पूजामपि प्रतीच्छतः आ आहारवत्यादि इत्यादि गाथा ३१९ पृष्ठे ३० पक्ती अष्टव्या॥ चार्यस्य न दोषस्तथा तमागं दृष्टांतत्वेन इष्टव्यं । तथा यो संप्रति (पूयापमिसेहे ति) पदे व्याख्यानयन्नाह भावतः परिच्चनशिप्यो लब्धिमांश्च सततं परिवारं(से तस्या पृयत्थं नाम गणो, धरिज्जति एव ववसितो सुणत्ता ।। त्मीयस्य आचार्यस्य अनुजानाति कियंतमित्याह । जघन्यत आहारोवहिपया, करणेन गणो धरेयव्वो ॥१॥ स्त्रीन्प्रवाजितान् । किमुक्तं भवति । जघन्यतस्त्रयः प्रवाजिताः पूजां प्राप्नुयामित्येवमये नाम गणो ध्रियते इत्येवं कश्चित् व्य अवश्यं दातव्याः ( इच्छासत्ति) इच्छावो (से ) तस्याऽचायस्य । श्यमत्र भावना । आचार्य प्रात्मनो यथेच्या श्रीवा वसितो ऽज्युपगतवान् । एतावता (पूया) इत्यंशो व्याख्या तः। अत्राचार्यः प्राहः । शृणुत यदर्थ गोध्रियते । तत्र परोबहतरान्या सर्वान्वा प्रवजितान् गृहातीति एष गाथासंके क्तप्रतिषेधमाह । आहारोपधिपजाकरणेन उत्कृष्ट आहारः पार्थः । व्यासार्थ तु भाप्यधिवकुः प्रथमतः (चोयग अप्प शोजन नपधिमहती पूजा स्यादिति कारणतोऽत्रविज्ञक्तिलोपः नुत्ति पदं ) व्याख्यानयति ।। प्राकृतत्वात् न गणोधारयितव्यः । एतावता प्रतिषेध इति जम्प अविगीयस्स. उ, नवगरणेदीहिं जई विसंपत्ति । विवृतं ॥ तह विन सो पज्जतो, वोढव्ये करीलकाअोव्व ।। किमयं तर्हि गणो धारयितव्य इत्यत आह ।। चोदकेनाकेपे प्रागुक्ते कृते सति प्रतिवचनं भण्यते । अविगी- कम्माणानिज्जारट्ठा, एवंखु गणोनवे धरेयच्चो ॥ तस्य विशिष्टगीतार्थरहितस्य हु निश्चितं यद्यपि सपकरणादी- निज्जरणहेतुववसिया, पृयपिव केइ इच्छंति ॥१॥ नामुपकरण शिष्यादीनां गाथायां वा तृतीया पष्ठ्यर्थे प्राकृत पवमनेन कारणेन खु निश्चितं नवति गणोधारयितव्यो यात त्वात् । संपत्तिस्तथापि न सपर्याप्तः समर्थो वोढव्ये उपेक्तेि कर्मणां झानावरणीयादीनां निजराथ मोक्कायैव तत्ववदिनां गणेभारं किमवेत्यत माह (करीत्रकाप्रोब्व) करीयो नाम प्रवृत्तेसहारादीनां चैहिकत्वारकेवलं केचित्स्थविरकल्पिका वंशजातिविशेषो पुर्बलस्तन्मया कापोतीव कस्मामणभारव निर्जराहतोगणधारणं व्यवासिताः । पूजामाप वदयमाणलकहनेन समर्थ इत्यत आह ॥ . पामिच्छति । किमुक्तंभवति यद्यपि नाम तत्वतः कर्मनिर्जरणन य जाणइ वेणश्यं, कारावेउं न यावि कुव्वंति ॥ निमित्तं गणे ध्रियते तदापि पूजामप्येष प्राप्नुयादिति पूजातइयस्स परिनवेणं, मुत्तत्येणं अप्पमिवका ।। निमित्तमपि तस्य गधारणमनुज्ञाप्यते ॥ वा यस्मादर्थे यस्मान्न जानाति विनय एव वैनयिक विनया पूजामेवाद॥ विश्व इति स्वार्येश्कण्प्रत्ययः । “भतिवर्तते स्वार्थप्रत्ययकाः । गणधारिस्साहारो, उवकरणं संथवो य नकोसो॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६१) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय सकारो सीसपमिच्छा, एहिं गिहिअन्नतित्थेहिं ॥१॥ एगो चिट्ठइ पासे, सन्ना आवित्तमादिकज्जत्था । गणधारिणस्सतः उत्कृष्ट आहार उत्कृष्टस्संस्तवस्सतां जिक्खादिवियारदुवे, पव्वयहउं व दो हेउं । गुणानां प्रख्यानं तथा शिष्यैः प्रतीचफैहिभिरन्यतीर्थिकैश्चो एकः पार्श्वे समीपे संज्ञापुरीपोत्सर्गे आबप्तमाअपनं कस्या त्कृष्टः सत्कार उपाध्यायादिभिः पूजनं क्रियते ततः पूजानिमि- उज्याचार्यः कारयेदित्यादि कार्यार्थ तिष्ठति ॥ द्वौ च भिक्वायात्तमपि तस्य गणधारणमनुज्ञापनं संस्तवनं व्याख्यानयति ॥ मादिशब्दात् औषधानयनादौ विचारे बहिर्जूमौ गच्चतः यदि सुत्तेण अत्येण य उत्तमोउ, आगादपासुयनावियप्पा ।। वा सूत्रार्थासंवादप्रत्यये हेतू हौ जवेतां संप्रति प्रागुक्तायामवे जननिओयाचि चिमुरुजावो, संते गुणवं पविकत्ययंते ॥ चतुर्भग्यां विशेषं वक्तुकाम आह ।। सत्रण अर्थेन च एप उत्तमः प्रधानः परिपू स्य सूत्रस्यार्थ दव्वे जावे पलिच्छ दे, दव्वे तिविहो उ होइ चित्तादी । स्य वावदातस्यास्य संभवात् । तथा आगाढप्रझानि शाखाणि सोइयलोउत्तरिओ, मुविहो वा वारजुत्तियरो। तेषु नावितात्मा तात्पर्यग्राहितया तत्राऽतीव निषम्ममतिरिति परिच्छदोधिविधो हिप्रकारोजच्ये भावे च। तत्र द्रव्ये व्य जावः । तथा जात्या सकलजनप्रशस्ययान्वितो युक्तो जात्य- परिच्छदस्त्रिाविधोनवति । (चित्तादी ) सचित्तोऽचित्तो न्वितः । तया विकः स्वपरसंसारनिस्तारणकतानतयाऽव- मिश्रश्च एष त्रिविधोऽपि द्रव्यपरिच्छदो नूयो ध्धिा लौकिको दातो जावोऽभिप्रायो यस्य सविरुजावः । एवं स्तुतो गणान् लोकोत्तरिकश्च । तत्र लौकिकः सचित्तः त्रिविधो हिपदचतुगणधारिणः शिष्या अपरे च प्रकर्षतो हर्षातिरेकवणतो प्पदापदनेदात् । अचित्तो हिरण्यादिमिश्रःसचित्ताचित्तसमविकत्ययंते इमाघंते । एवं पूज्यमाने आचार्य पूजकानां वायेन लोकोत्तरिकः सचित्तो द्रव्यपरिच्छदः शिष्यादिराचत्त यो गणस्तमुपदर्शयति ॥ नपधिमिश्रः सचित्ताचित्तसमवायतः । तत्र लौकिके आगम्म एवं बहुमाणितो हु, आणा विरतंच अजाविएम् । सोकोत्तरिके च व्यपरिच्छदे धिा । यथा व्यापारयुक्त मुणिजरावेणइयाय निञ्च, माणस्सगोवि य हुज्जयंते।। श्तरो व्यापारायुक्तश्च तत्र निदर्शनमाह ॥ पूज्यमाने आचार्य पूजकैरागमो बहुमानितो बहुमानविष दो नाउया विजत्ता, एक्को पुण तत्थ उज्जुतो कम्मे । यीकृतो नवति । आगमस्य तत्रस्थत्वात् । तया भगवता. नवि उन्नतिप्पदाणं, अकालहीणं च परिवही॥ मईतामाझा परिपालिता जवति । भगवतां हि तीर्यकृतामि- छौचातरौ तौ परस्परं विजक्तौ धनं विविच्य पृथक्पृयक् जातायमाझा यफुत गुरोः सदा पूजा कर्तव्या । तयाचोक्तं "जहादि वित्यर्थः । तत्र तयोर्डयामध्ये पुनरेका कृषि कुर्वन् कर्मणि अग्गी जलनं नमसे, नानाहुतीमंतपयाभिसित्तं ॥ पवायरी नाक्तः । किमुक्तं भवति स्वयं कर्म करोति नृतकांश्च कारयं नववेटपजा, अशंतनायो विगतोविसंतो,, तथा गुरुवि- यति । नृतकानां वा का परिदीनां उचितां परिपूर्ण नृति नयकरएन यर्नाऽद्यापि जावितास्तेवनावितेषु क्रियमाणपूजा मूल्यं ददाति। अकालपरिहीनं च परिपूर्ण नक्तं । एवं च तस्य दर्शनतः स्थिरत्वमुपजायते । यथा वैनयिर्विनयनिमित्ता व्याप्रियमाणस्य कृषः परिवृफिरजायत साधुवादश्च ॥ विनिर्जरा कर्मनिर्जरणं नित्यं सदा सतत भवति । गुरुविनय कयमकयं व न जाणइ, न य उज्जम ए सयं न वावारो। स्य सदा कर्तव्यत्वात् । तथा मानस्याऽहकारस्य भंगोऽपि जत्ति जक्तकालहीने, दुग्गहियकिसीए परिहाणी॥ च कृतो जवति । यते पृजकानां गुणाः॥ संप्रति निर्जरायमेव गणधारिणं व्यवसितस्य पूजामपीच्यतः । हितीयो व्यापारायुक्तो नृतकैः कि कर्म कृतं किं वा न कृत मिति नैव जानाति स्वयमपरिभाषनादन्यतश्चाष्प्रच्छनान्न च आचार्यस्य दोपानावे यस्तमागष्टांतस्तं जावयात ॥ स्वयं कर्मकारणायोद्यच्छति । न वा मध्ये स्थित्वा नृतकान् लोइयधम्मनिमित्तं, तमागखाणावियमि पउमादी। व्यापारयति । नृतिभक्ते च नृतकानां कात्रहीने ददाति । न विगरिहियागुनोत्तुं, एमेव इमं पिपासामो ॥ किमुक्तं भवति । नृतिमपरिपृी ददाति । कासहीनां केनापि लौकिकी श्रुतिमाकार्य धर्मनिमित्तं तमागं खानितं। च एवं भक्तमपि । तत एवं दुगृहीतायाः कृषस्तस्य परिहातास्मिंश्च तमागे पद्मादीनि जातानि । वर्षाराने चापगते यत्र निरनृदसाधुवादश्च ॥ यत्र पानीयं शुप्यति । तत्र तत्र धान्य वापयति । तत्र यथा संप्रति लोकोत्तरिकं व्यपरिच्चदे व्यापारयुक्तमाह ॥ पद्मादीनि अनुनवितुं नोक्तुं गृहामाणान्यपि न तस्य विगहि. जो जाए लकीए, उववेओ सत्य तं निजोएंति । तानि नवंति । लोके न तया सम्मतत्वादेवमेव अनेनैव प्रका नवकरणे सुत्तत्ये, वादे कहणे गिझाणे य॥ रेण श्दमपि गणधारणं पश्यामः । निर्जरार्थमाचार्याणां यो यथा सन्ध्या उपपेतो युक्तो वर्तते । तत्र तं नियोजयंति गणधारणमुक्त प्रकारेण पूजानिमित्तमप्यदोषायति जावः॥ सूरयस्तद्यया उपकरणे शति उपकरणोत्पादने (सुत्त)इतिसूत्रसंप्रति (सं तंसे ) इत्यादि पश्चाऊँ व्याख्यानयति ॥ पाग्वन्ध्युपेतं सूत्रपाठे अर्थग्रहणे सब्धिसमन्वितं परवासंतमिउ केवो , सिस्सगणो दिज्जतीति ता तस्स । दिमयने धर्मकयनबब्धिपरिकलितं धर्मकथने ऽखानमिति पव्याविते समाणे, तिनि जहन्नेण दिज्जत्ति ॥ चरणपटीयांसं वानं प्रति जागरणे ॥ भावपरिच्चनस्य शिष्यस्य सति विद्यमाने परिवारे तेन जह जह वावायरते, जहा य वाचारिया न हायति । तस्याऽचार्यस्य ततो गणधारणानुहापनानंतरं कियानू शिष्यगाणे दीयतां । अत्रोत्तरं प्रत्राजिते शिप्यगाणे सति तत्र त्रयो तह तह गएपरिवती, निकर वढी वि एमेव ॥ जघन्येन दीयते । उत्कर्पतो बहतरका सर्वे का इति वाक्य- यथा यया तत्तवध्युपतान् तत्कर्माणि व्यापारयति यथा यथा शेषः । छथ कि कारणं जघन्यतस्त्रयोऽवश्यं दातव्या । चव्यापारा न हीयते । देशकालस्वनाचौचित्येन व्यापारणात इत्याह ॥ तथा तथा गणस्य गच्चस्य परिवृहिर्जवति । निर्जरावृति Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । आयरिय तद्यतिरिको रप्येवमेव निर्जरा तथा परिवर्तत इति व्यापारयुक्तस्तस्य गच्छपरिहानिर्भवति निरेति ॥ संप्रति भावपरिच्छेदमाह ॥ दंसणनाथाचारचे, तदेव विजए य होइ जावम्मि ॥ संजोगे च जागा, विइए नायं वइरतं । दायोपशमिकादिभेदनि सम्यकृत्तदि चारित्रं सामायिकादि, तपोऽनशनादि, एष भावतः परिच्छदः अयोधयनाथपरिच्य भाषतः परिष्ठः इत्येवं रूप द्वितीये भंगे हातमुदाहरणं पतिस्तदेवाह । जरुपच्छे नहवाहण, देवी पदमावती बरती। ओरोहक गाणय, कोउयनिव पुच्छदे विगमो ।। १ ॥ कत्यत्ति निवाएसो, सयमासण एसचैव चेकिकहा ॥ परिदारण मदाणं वि, रूवपरिवाररहिए ॥ २ ॥ नरुपच्छे नवरे नहवाहणो नाम राया तस्स परमावती देवी । तत्य नपरे वरती आवारियो महाकई अप। रिवारो रूत्रेण य मंदरूवातीव किसो तस्स कवं तेरे गिज्जति सा य पनमावती देवी तेण कव्त्रेण हरियया कया सिंते। जस्से क कमतं पेजिन्ना । तयो रायं अएणविचा दासी संपरिवुमा मरियपयागारं औचित्येन टोकनी पेतुं वरभूतिस्स बसिहिं गता से वाराहियं पासिता बरमेव नियिं धेनुं निगतो । परमावती कहियं कहूं वरन्ती आप रितो भूतिया आयरिएण जाणिवं बरिंगतो दासीए सन्नियं एस चेव वइरतूती ताहे विरागं गया चिंते यदिट्ठासिकसेरुमती पीयते । पाणियं यं वरं तुह नाम न दंसायं छात्र कसेरुमती नाम नदी । तस्याः प्रतिविरतीव । नच तत् प्रसियनुरूपं तस्याः पानीयमिति देपः । तातं पयागार दिएवं वियं । एतं आयरियस्त दिजसित्ति गया ।। संप्रत्यकरघटना । भरुकच्छे नभोवाहनो नाम राजा तस्य पद्मावती देवी तत्र जतिराचार्योऽपतत्पुरे तत्का व्यानं कौतुकेन नृपं वा देव्यास्तद्वसतौ गमः तदनंतर पृच्छा कुत्र वज्रभूतिराचार्यस्तस्य प्रस्तर बहिर्निर्गतः । सवायार्थः सपरिवाराभावात् स्वयमासनं गृहीत्वा मध्याद्वाईरागतः या दास्याः कथानकमेष एवं वज्रतुतिस्ततो विपरिणाम, विपरिणामाच साकाददानं विरूपे परिवाररहिते च तस्मिन्ना. चायें एतेनैतदावेदितं यः परिवारवानपि रूपेणाऽविरूपः सोऽपि व्यपरिष्देनापरिच्छन्नः ततो यद्यपि तस्य परिवा रोस्त। तयापि योऽधस्तात् अन्यपरिच्छदो वर्णितस्तस्य मूलमाकृतिस्तदभावे तस्याभावः । तथाचाद् ॥ मूलं खलु दव्यपनि च्छपस्स सुंदरमोरसचनं च । कितितो हि नियमा, साविति सीतो ॥ समस्तस्याऽपि प्रागुक्तरूपपरिष्द्स्य मूत्र व सौंदर्य मौरसं च बलं हृदयनिष्ठता सर्वव्यापारेषु दादयमिति भावः । कुत इति चेदत आद । यस्मादाकृतिमतः सतो निय भायरिय माच्छेषा अपि लब्धयो वस्त्रादिविषया जयंति । न त्वाकृतिविरहितस्य तथा प्रत्यक्कृत एव दर्शनात् तत आकृतिरहितोप व्यपरिष्वदरहित इति न तस्यापि गयधारणानुज्ञा ॥ संमतिवयमाणयसंबंधनार्थमाह ॥ जो सोट पुच्चन्नणितो, अपतो छ प्रविसेसिभ तहिये । सोचैव सोसिन, इहर सुने य प्रत्येय ॥ योग अप्प इत्यादिना प्रेथेन सः पूर्वः भणित इस तत्रापि विशेषत यथोक्तः श्वस्मिन्यस्ताचे अत्रेऽथ विशिष्यते । तोता तस्याज्यत्वं त्यिते इति भावः । तदेवाह || दुस्सु गीयत्ये, दिट्ठेता सप्पसीसवेज्जसुए । अत्यविणो परंते, मासा चतारि जारीय ।। बतातापान्यां मंगलया। अदुभुतोप्रयोगः १ अतो गतार्थ २ तो गतार्थः ३ बहुत गीतार्थः तत्र यस्य निशाचादिकं सूत्रो तो न गतं प्रयमो जंगः यस्य पुनर्निशी या दिगतौ सूत्रार्थी विस् मृती सतीषनंगः पुनरेकाद गांगधारीतार्थ स तृती जंगः। सकलाविताः अत्र बहते गीता या पतेनादयगत्रयमुपातं तस्मिन् गये धारयति दृष्टांती सर्पशीर्षक वैदवसुतश्च । श्यमत्र भावना। श्रदधानां teri नंगानामन्यतरो यदि गंधं धारयति । ततः स सहगणेन विनश्यति यथासीक वैसुतो या पतयंतच्यं यथा कल्पाध्ययने तथा जावनीर्य ( अत्यविहूणेत्यादि ) अर्थ विहीने अगीतायै त्यर्थः सूत्रे इत्यपि स्मिन् अर्थविदीने या धारयति। उपलक्षणमे निजति या प्रायश्चित्तं चत्वारो मारिया ति ) गुरु का मासाः ॥ अवस्ते अगीवत्ये, निसिरए वा धारए गम ॥ तद्देवसियं तस्स उ, मासा चत्तारि जारिया ॥ गीता वा यदि गणं निसृजति धारयति वा स्वयं । किमुक्तं नवति । श्रद्यानां त्रयाणां नंगानामन्यतरो यदि गीतार्थस्य वा निसृजति स्वयं वाऽद्यानां त्रयाणां भंगाना मेकतः सन् यदि गणं धारयति एक दीया दिवसात्कर्षतः सप्तरात्रंदिवान ततस्तदिवसिय सताना दिवानां निमित्तस्तस्य धेरिति प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा गुरुकाः ॥ सत्तरतं तवो दोही, ततो बेदो पधावती । छेदेन विपरियार, ततो मूर्य ततो दुगं ॥ अन्यदन्यतः सप्तरात्रं यावरुणस्य निसर्जने धारणे वा प्राय श्चित्तं तपो नयति। तपः प्रायश्चित्तसमाप्त्यनंतरक्रमेण वेदःप्रधावात बेदेन चेच्छिन्नपर्यायो जवति ततो च्छिन्नपर्याये तस्मिन् मूलं दीयते । ततोऽप्यतिक्रमे अंतिमं द्विकमनवस्थाप्य पारांचितलक्षणं । इयमत्र नावना। प्रथमसप्तदिवसानंतरमन्यानि चेत्ससदिनानि गणं निसृजति धारयति वा स्वयं ततः प्रायश्चित्तं पद। ततोऽप्यन्यानि सप्तदिनानि ततः पर गुरु म्यानि चेत् सदनानि ततोय दिनानि करदः ततोऽन्यदिवस तिक्रमे परदः । तदनंतरमप्यन्यसमपिसातिवादने प गुरुकच्छेदः । एतावता कालेन यदि पर्यायो नच्चिनन्ति ततस्त्रि Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) अभिधानराजेन्द्र | आयरिय चत्वारिंशत्तमे दिवसे गणं धारयतो निस्रष्टुर्वा प्रायश्चित्तं मूलं चतुश्चत्वारिंशत्तमे दिवसे अनवस्थाप्य पचचत्पा चितं तदेवं यत इत्थं प्रायश्चित्तं ततो न वर्तते । श्रद्यानां त्रया ri गानामेकतरः स्थापयितुं कः पुनर्गणधरः स्यापयितव्य इति चेडुच्यते गुरूः ॥ अथ कोसी प्रतिशुरूकृणमाद जोसो चउत्यजंगो, दव्वे जावेय होइ संच्छन्नो । गणधारणंम अरिहो, सो सुठो होइ नायव्वो ॥ योगगवर्ती को ऽसावित्याह । इज्ये भावे च यो नयति यः परिच्छदविशेवेध परिक्षित इति भावः ॥ (३०) स्थापनायां स्थविरा: प्रष्टव्याः ॥ स्थविराननापूज्य गणं न धारयेदाचार्यः व्य. सू. ३ उ. ॥ जिक्खू इच्छेज्जा इत्यादिगाथा ३२७ पृष्ठे १४ पंक्तौ व्याख्याता ॥ निक्खू य इच्छेज्जा गणं धारितए । यो कप्पड़ से थेरे अापुच्छितागणं धारिनए कप्पड़ से धेरे आपुच्छि तागणं धारित्तए । यविरा य सेवयरेज्जा एवं से कप्पर गणं धारित थेरा य से एगेवियवेज्जा एवं से णो कप्पर गणं धारित जणं येरेहिं अविदिन्नं गणं धारेति से संतरा ए वा परिहारे वा ।। १ ।। व्याख्या | भिकुरिच्छेत् गणं धारयितुं तत्र (से) तस्य न कल्पते । स्थावरान् गच्छगतान् पुरुषात् अनापृष्ठ गये धारयितुं पते (से) तस्य स्थावरान् आपृच्च गएं धार यितुं स्थविराध (से) तस्य वितरेपुरनुजानीयुवाधार पूर्वोः कारणैरत्वात्। तत एवं सति (से) तस्य कल्पते ग धारयितुं स्थविराम (स) तस्य न वितरेयुपधावान स्वादेव सति न कापते धारयितुं यः पुनः स्थविर रवितीर्णमनुज्ञातगणं धारयेत् ततः (से) तस्य कृतादनंतरादपन्यायात्प्रायश्चित्तं च्छेदो वा परिहारो वा वशब्दादन्यद्वा तपः । एष सूत्राकरार्थः । भावार्थ जाष्यकृदाह ॥ कार्ड देसद रिसाणं, आगतउवद्वियम्पि उबरया येरा । सिवादिकारणेहि, वनवावितो साहगस्स असती ॥ सा कागते म्म उगतो, विदेसं व तत्य च अपुच्छा ॥ धेरे धारे व गणं, जावनिमिषं अणुग्धाया ॥ देशदर्शननिमित्तं गतेन ये प्रवाजितास्तान् यद्यात्मनोयावत्कचि कान् । का शिष्यतया नाति ततस्तस्य प्रायश्चितं चतुगुरु तथा देशदर्शनं कृत्य तस्मि स्थापिते च तचापदे विरा यस्याचार्या उपरताः कालगता यदि वा स प्रत्याग तोऽप्याशवादिभिः कारणैर्यद्वासाधकस्य (अस तित्ति) अजावेना यापदे स्थापितोऽचतेरचाऽवार्यः । ततस्तस्मिन्का दि वा गतो विदेश तत्रैव विदेशे गं धारयितुमिच्छेत् । पतेषुस वैष्यपि कारणेषु समुत्पत्रेषु यदि स्थविरान् गदतोपृष्ठा यद्यपि तस्याचार्येव भावतो गणो निसु सोऽनुतस्तथापि स्थविरा श्रप्रच्छनीयास्तत आह। भावनि सृष्टमपिगणं धारयति तर्हि तस्य स्यविरानापृष्ठाप्रत्ययं प्रायश्चित्तं अनुद्घाता गुरुकाश्चत्वारो मासाः उपलक्षणमेतत् । भाकाऽनवस्था मिथ्या आयरिय त्वविराधनारूपाश्च तस्य दोषाः ॥ सयमेव दिसावं, प्रणमुहाते करे अशापुच्छा। येरेहिं व परिसिको, सुफा सग्गा उड़ता ॥ यो नाम स्वयमेव आत्मच्छंदसा को मम निजमाचार्य मुक्त्वाऽ न्य आपृधनीयः समस्तीत्यध्यवसायः पूर्वाचाणामनुशत श्राचार्यपदे तस्याऽस्थापनात्स्यविरान् गच्छमहत्तररूपान् नापृच्छच दिग्बंधं करोति । स्थविरैः प्रतिषेधनीयाः । यथा निवर्तते भाचे! तव तीर्थकराणामा सोपाधितुं पर्व प्रतिवे दितोऽपि यदि न प्रतिनिवर्तते सा स्वचिराः वृद्धाः सन्तः चतुर्गुरुके प्रायश्चित्ते लग्नाः । अथ स्थविरा उपेक्षते तर्हि ते संपका प्रत्ययं चतुर्गुरुके लग्ना यत एवमुपेक्काबामनापृच्छायां च तीर्थकराभिहितं प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषास्तस्मात्स्यविरैरुपेन कर्तव्या तेन च स्थावरा आपृच्छनीयाः । सगणे पेराणसती. तिगधेरे वा लिंगं तु वच्ाति । सेवः सति इत्तरियं धारेश् न मेलितो जाव ॥ अस्वच्छे पनि संति तर्हि गणे स्वगच्छे राणामसति भन्नाये ये त्रिककुलगणसंचरूपे स्थविरास्तान् त्रिकस्थावरान् त्रिकं वा समस्तं कुलं वा गणं वा संघो घा इत्यर्थः । उपतिष्ठेत यथा यूयमनुजानीत मह्यं दिशमिति । अथ अशिवादिनि कारणेनं पश्ये कुलस्यचिरादीनामसत्यनाये इत्वारकां दिशं गणस्य धारयति यावत्कुलादिभिः सह गणे न मिलितो नवति ॥ जे उ महाकप्पेणं, अणुणायंमि तत्य साहम्मि । विरहन्ति अमट्टाए, न तेसि बेच्यो न परिहारो ॥ ये तु साधर्मिकाः स्वगच्छ्रवर्तिनः परगच्छ वा यथा कल्पेन श्रुतोपदेशेन तेषां सूत्राद्यर्थं तत्रोपस्थानात् विषये तदर्थाय सूत्राणामर्थाय मासेचना शिक्षपिकावर्थ अनुज्ञाते गणधारणा तत्र गच्छे विहरति । ऋतुसे काले मासकल्पेन वर्षावन प्रत्ययोपदेशात गणं धारय तीति तत् प्राय छेदो न परिहार उप aaणमेतन्नान्या तपः श्रुतोपदेशेन तेषां सूत्राद्यर्थं तप उपस्था नातू विषयलोलता हि तस्यासमीपमुपतिष्ठमानानां दोषोन सूश्राद्यर्थमिति । व्य० ३ ० ॥ , शिल्पिनि भीषण शिल्पोपाध्याये ( ठेवायरिपश्यदढफदिदीला ) प्रेफेन निपुणेनाचार्येण शिल्पोपाध्यायेम रचितो दृढो बलवान् परिघोऽर्गला इन्द्रकीलच सम्पादितकपाटयाधारहूतः प्रेवशमध्यभागो यस्यां सा तथेति ॥ राज० ॥ प्रा(१)रिष आर्य पुं० भाराद देवयज्यो याताः प्राप्ता सपाहेयधर्मेभ्यो देयधरित्यायः । पृषोदरादय इति रूपनिष्पतिः प्रहा प. १ । प्रव. २५ . ॥ स्वादभव्य चैत्यची समेषु यात्। २ । १०७ इति प्राकृत सूत्रे स्पादादिषु श्रीयशब्देन समेषु च शब्देषु संयुक्तस्य यात्पूर्व यति आराहरे याता गताः सर्वदेषधर्मेज्य इत्याय्यः । सूत्र० १श्रु. ३ अ. ॥ चारित्रा, धाचा० अ. . २. उ. ५. ( अणारियवया मे) माराद्याताः सर्वदेवयज्य इत्यायस्त 'द्विपर्ययादनार्याः क्रूरकर्मा इति । श्रचा. ४ . ए . ॥ (मिच्छदिट्ठी अशारिया ) सारादचाताः सर्वदेयधर्मेन्द Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) मभिधामराजेन्द्रः । आयरिय इत्यार्याः । सूत्र० १९ श्रु. १ अ. ॥ "एसठाणे आरिए" श्ररादयातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यम् सूत्र. २. श्रु. १ अ. । ( एगमवारियं धम्मियं सुवयां सोच्चा ) श्रार्य श्रारादयातं पापकर्मन्य इत्यायें अत एव धार्मिकमिति । भ. श. १.उ.७ । श्री देशभाषाचरित्रार्थ्या इति श्रचा. ४ . २ उ. । विवेकिन. ( तमेव पासित्ता आयरिया वयंति ) आर्य्या विवेकिनः सदाचारवंतः एवं ब्रुवते । सूत्र. २ श्रु. १ अ श्रार्यदेशोत्पन्ने ( श्रायरियमाणयरियाणं ) आर्या समार्थदे शोत्पन्नानाम्. उपा. १ अ. । स. ३४ स. । श्रप. । आर्यनेदाः ॥ सेकितं यरिया ? आयरिया दुविहा पएलता । तंजहा । पित्तारिया य पित्तारिया य । से किंतं इटिपत्तारिया ? २ बविहा पण्णता, तंजहा अरहंता चक्क - वही बलदेवा वासुदेवाचारणा विज्जाहरा सेत्तं इष्टिपत्तारिया ।। सेकिंतं प्रणिढिपत्तारिया ? २ नवविहा पणता, तंजहा खेत्तारिया जाति आरिया कुलारिया कमारिया सिप्पारिया नासारिया पायारिया दंसणारिया चरितारिया सेकिंतं खेत्तारिया ? २ अव्वी सति विहा पता, तंजा । रायगिहमगहचंपा, अंगा वह तामलित्ति बंगा य । कंचनपुरं कलिंगा, वाणारसि चेत्र कासीय ॥ १॥ साएयको सलागय, पुरं च कुरुसोरियं कुसहाय । कंपिल्लं पंचाला, अबित्ता जंगला चेव ॥ २ ॥ दारवती य सुरट्ठा, मिहिनविदेहा य वच्छकोसंबी । नंदि पुरं संमिला, नद्दिलपुरमेव मयाय ॥ ३ ॥ वइरामबच्छवरणा, अच्छा तह मतियावईदसा ।। सोत्तिय मझ्याचेदी, बीइजयं सिंधुसोवीरा ॥ ४ ॥ महुरा यसूरसेणा, पावा जंगी य मासपुरिवट्टा || सावत्थी य कुणाला, कोमीवरिसं चलाढा य ॥ ५ ॥ सेयंविया वियनगरी, केयइ प्रपंच आरीयं जणियं ॥ एत्युप्पत्तिजिणाणं, चक्कीणं रामकहाणं ॥ ६ ॥ सेत्तं खेत्तारिया सेर्कितं जाइ प्रायरिया ? २ बबिहा पता जहा बाय कलिंदा विदेहा वेदगाइय हरिया चंचुणा चे व उपया इब्नजाइ सेत्तं जाइआयरिया य सेर्कितं कुलारिया ? २ बव्विहा पत्ता तंजहा उग्गा जोगा राणा इक्खागा नाता कोरव्वा सेतं कुलारिया सेर्कितं कम्मारिया ? २ अणेगविहा पत्ता तंजहा । दोस्तिया सुत्तिया कप्पा, सिया मुत्ताविया जीया ।। कविया लिया कोला, लिया नरवाहणिया ॥ १ ॥ यावले तहप्पगारा सेत्तं कस्मारिया सेकिंतं सिप्पारिया ? २ गविहा पत्ता । तंजहा । सुएणागा तंतुवाया पगारा देयका वरुका कट्टयाउयारा मुंजपा आयरिय उयारा बत्तारा बंजारा पन्जारा पोत्यारा लेप्पारा चित्ता रासंखारा दंतारा अंगारा जिन्नगारा सेद्वारा कोकि गारा जेयावन्ने तह पगारा सेत्तं सिप्पारिया सेकिंतं जासारिया ? २ जेणं अमागहाए जासाए जासंति जत्य aिri जी लिवी पवत्तइ बंजीएणं द्विवीए अहारस हे लेख विहाणे पण ते । तंजहा बंजी, जवणाणिया, दोसा, पुरिसा, खरुट्टी, पुक्खरसारिया, जोगवइया, पहराज्ञ्या, अंतक्खरिया, क्खरपुट्ठिया, बेणझ्या, निएहइया, अंकसिवी गाणयलिवी गंधव्वलिवी, आयासलि वी, माहेसरी, दामिनी, पोलिंदी । सेत्तं नासारिया सेर्कितं नाणारिया ? २ पंचविहा पणत्ता तंजहा आनि बोहियनागारिया सुयनाणारिया ओहिनालारिया मपज्जवनाणारिया केवलनाणारिया ।। सेतं नाणारिया सेर्कितं दंसणारिया ? २ दुविहा पणत्ता । तंजहा सरागदसणारया यवियरागदंसणा • सेर्कितं सरागदंसणारिया ? २ दसवा पणता तंजढ़ा || निस्सग्गुवदेसरुई, आणारुह सुत्तवयरुइ चेत्र । अभिगमवित्याररुई, किरिया संखेव धम्मरुई ||१|| यत्येणाधिगया, जीवा जीवा य पुराणपावं च । सहस्सं मुझयासव, संवरो यवेयइएस सिग्गो ॥ २ ॥ जो जिणदिट्ठे जावे, चउव्विहे सद्दहा सयमेव । मेहति य, सिग्गरुइति णाश्व्वो । ३ ॥ एए चैव उ जावे, उवदिट्टे जो परेण सदहइ । मत्थे जिणे, व स्वएस रुइति णायव्वो ॥ ४ ॥ जोहेउमयाणतो, आणाएरोयए पवयणं तु । मेहति य, एसो आणाई नाम ॥ ५ ॥ जो सुत्तम हित्तो, सुएण प्रोगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण, वसो सुत्तरुइत्ति नायव्वो ।। ६ । एगपगाई, पदाई जो पसरइ उ सम्मत्तं । उदइव्व तिह्नबिंदू, सो वीयरुइत्ति नायव्वो || ७ | सो होइ निगमरुई, सुयनाणं जस्स प्रत्यदिहं । एक्कारस अंगाई, पइएणगा दिट्टिवायोय ॥ ८ ॥ दव्वाण सव्वजावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवझच्छा | सव्वाहिं यविहीहिं, वित्थाररुइत्ति मायव्वो || || दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सव्त्रसमिइगुत्ती सु । जो किरियानावरुई, सो खलु किरियारुई नाम ||१०|| जिगहिय कुदिट्ठी, सेखेवरुइत्ति होइ नायव्वो । विसारओ पवयणे, अणनिग्गहियो य सेसेसु । ११ । जोत्थि कायकम्मं, सुयधम्मं खल चरित्तधम्मं च ॥ Rees जिणानिहियं, सोधम्मरुइति नायव्वो ॥ १३ ॥ परमत्यसंयवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि ।। वावन्नकुदंसणव, ज्जणा य सम्मत्त सद्दहणा ।। १३ ॥ निस्सकिय निकंखिय, व्वितिमिच्छा अमुददिडीय । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६५) आयरिय अभिधानराजेन्द्रः। आयरिय उववृहथिरीकरणे, वच्चसपनावणे अह॥१४॥ सेकित अजोगिकेवान्निवीणकसायवीतरागदसणारिया सत्तं सरागर्दसणारिया ।। सेकिंतं वीयरागर्दसणारि- ? दुविहा पएणत्ता तंजहा पढमसमयअजोगकेवलि या ? २ विहा पएणता,तंजहा नवसंतकसायवीयरा खीणकसायवीतरागदसणारिया अपदमसमयअजोगिकेगर्दसणारिया खीणकसायवीयरागर्दसणरिया य। सेकिंतं वलिखीणकसायवीतरागर्दसणारिया य । अहवा चरिम उवसंतकमायवीयरागदसणारिया ? श्ऽविहा पएणता. समयअजोगिकवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया प्र तंजहा पढमसमयनवसंतकसायवीतरागदसणारिया अपढ चरिमसमय प्रजोगिकेवनिखीणकसायवीतरागदसणारिया मसमयउवसंतकसायवीतरागदसणारिया, अहवा चरिम- य। सेत्तंअजोगिकव लिखीणकसायवीतरागदसणारिया । समयउवसंतकसायवीतरागदसणारिया अचरिमसमय- से केवालिखीणकसायवीतरागदंसणारिया से खीणनवसंतकसायवीतरागर्दसणारिया य । सेकिंतं खीण- कसायवीतरागर्दसणारिया सेत्तं वीतरागर्दसणारिया कसायवीतरागदसणारिया ? २ विहा पएणता, तं- सत्तं दसणारिया । सेकिंतं चारित्तारिया? विहा पप्प जहा उउमत्यखीएकसायवीतरागदसणारिया केवलि- तां। नहा।सरागचरित्तारिया वीतरागचरित्तारिया य । खीणकसायवीतरागदसणारिया य । सेकिंतं उउमत्य- सेकिंतं सरागचरित्तारिया ? ३ विहा पएणता खीकसायवीतरागदसणारिया ? श्ऽविहा पएणत्ता। तंजहा सुहमसंपरायसरागचरिचारिया बायरसंपरायसतंजहा। सयंबुचउमत्यखीएकसायवीतरागदंसणारिया रागचरित्तारिया य । सेकिंतं मुहमसंपरायसरागचरित्ताबुधबोहियउउमत्यखीएकसायवीतरागर्दसणारिया य । रिया ? २ दुविहा पएणत्ता तंजहा पढमसमयमुहमसंपसेकिंतं सयंवुउन्मत्यखीएकसायवीतरागर्दसणारिया? रायसरागचरित्तारिया अपढमसमयमुहमसंपरायसरागसयंबु उमत्यखीण विहा पएणता। तंजहा पदम चरित्तारिया य अहवा चरिमसमयमुहमसंपरायसरागसमयसंयबुकबउमत्यखीएकसायवीतरागदसणारिया य चरितारिया अचरिमसमयसुटुमसंपरायसरागचरिअपढमसमयसयंबुग्नमत्यखीएकसायवीतरागर्दसणा तारिया य अहया सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया दुषिरिया । अहवा चरिमसमयसयंबुधबउमत्यरवीणकसा- हा पएणता तंजहा संकिनिस्समाणा य विमुज्जमाणायवीतरागदंसणारिया अचरिमसमयसबुकग्जमत्यखी- यसेत्तं सुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया । सेकिंतं वायरसणकसायवीतरागदसणारिया य । सेत्तं सयंबुचउमत्थ- परायसरागचरित्तारिया ? ३ विहा पएणता तंजहा ग्वीणकसायवीतरागदसणारिया सेकिंतं बुकबाहियउन- पदमसमयवायरसंपरायसरागचरिचारिया अपदमसमयमत्यवीणकसायवीतरागदसणारिया ? दुविहा पएणत्ता, वायरसंपरायसरागचरित्तारिया य । अहवा चरिमसमयतंजहा पढमसमयबुझबोहियउनमत्यखीणकसायवीतराग- वायरसंपरायसरागचरित्तारिया अचरिमसमयवायरसंपरादसणारिया अपढमसमयबुधबोहियउ उमत्यखीणकसा- यसरागचरित्तारिया य अहवा वायरसंपरायसरागचरित्तायवीतरागर्दसणारिया । अहवा । चरिमसमयबुकचोहिय रिया दुविहा पएणता । जहा। परिवाई य अपमिबाई उमत्यखीएकसायवीतरागदसणारिया अचरिमसमयबु- यसेत्तं वायरसंपरायचरित्तारिया सेत्तं सरागचरित्तारिया से छबोहियनउमत्यखीएकसायवीतरागर्दसणारिया । सत्तं किंत वीतरागचरित्तारिया? दुविहा पम्मत्ता तंजहा। उबबुवोहियउउमत्यवीणकसायवीतरागर्दसणारिया । संतकसायवीतरागचरित्तारिया खीणकसायवीतरागचरिमत्तं उउमत्यखीणकसायवीतरागदसणारिया । से- तारिया य सेकिंत जवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया ? किंतं केवलिखीणकसायवीतरागर्दसणारिया? दुविहा सुविहा प० तंजहा पढमसमयनवसंतकसायवीतरागचरिपएणत्ता,तंजहा सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणा तारिया अपढमसमयउवसंतकसायवीतरागचारित्तारिया य रिया अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागर्दसणारिया य । अहवा चरिमसमयनवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया अच सेकिंत सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया रिमसमयनवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया यसेत्तं नवसं? २ दुविहा पएणत्ता। तं जहा पदमसमयसजोगिकेव- तकसायवीतरागचरित्तारिया । सेकिंतं खीणकसायवी लिखीणकसायवीतरागर्दसणारिया अपढमसमयसजोगि तरागचरित्तारिया ? दुविहा पएणत्ता तंजहा उनमत्थ केवलिखीणकसायवीरागर्दसणारिया या अहवा। चरिमस वीणकसायवीतरागचरित्तारिया केवलिखीणकसायवीतमयसजोगिकेवानिखीणकसायवीतरागर्दसणारिया अच- रागचरित्तारिया य सेकित बउमत्थखीणकसायतिरा रिमसमयसजोगिकेवलिखीएकसायवीतरागदसणारिया- गचरित्तारिया ? २ दुविहा पएणत्ता तंजहा सयंबुझाउन य । सेत्तं सजोगिकेवनिखीणकसायवीतरागदसणारिया।।। मत्यखीएकसायतिरागचारित्तारिया बुझबोहियग्नम . Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायरिय (३६६) अभिधानराजेन्द्रः। आयायिखेत्त. त्थरची णकसायवीतरागचरित्तारिया य सेकिंतं संयंबुफर चरित्तारिया । से किंतं ओवट्ठावणीयचरित्तारिया उमत्यखीणकसायवीतरागचरित्तारिया दुविहा पामत्तातंज ? विहा पएणत्ता तंजहा । साइयारा ओवट्ठावहा पढमसमयसंबुफखीणकसायवीतरागचरित्तारिया अप | णीयचरित्तारिया निरइयारा ओवट्ठावणीयचारित्तारिढमसमयसयंबुचाउउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया या। सेत्तं ओवट्ठावणीयचरित्तारिया । सेकिंतं परियअहवा चरिमसमयसयंबुउउमत्यखीणकसायवीतराग हारविमुछियचरित्तारिया ? विहा पमत्ता । तंजहा चरित्तारिया अचरिमसमयसयंबुझउनमत्थखीणकसायवी निविस्समाणपरिहारविमुछियचरित्तारिया निन्विट्ठकातरागचरित्तारिया य सेत्तं सयंबुषछनमत्यखीणकसायवी श्यपरिहारविमुफियचरित्तारिया य| सेत्तं परिहारविमुतरागचरित्तारिया। सेकिंतं बुधबोहियउउमत्यखीणकसा छियचरित्तारिया । से किंतं मुहुमसंपरायचरित्तारिया यवीतरागचरित्तारिया?२ऽविहा पमत्ता, तंजहा पढम ?विहा पएणत्ता तं जहा, संकिलिस्समाणमुहमसंसमयबुकबोहियउपमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया परायचरित्तारिया विमुज्माणमुहमसंपरायचरित्तारिया अपढमसमयबुधवोदियछनमत्यखीणकसायवतिरागचरि- सेत्तं सुहुमसंपरायचरित्तारिया । से किंतं अहवायचारे चारिया य अहवा चरिमसमयबुधबोहियछउमत्यखीण तारिया? दुविहा पझत्ता, संजहा ग्नमत्थअहक्खाकसायवीतरागचरित्तारिया अचरिमसमयबुधबोहियटनम यचरित्तारिया केवामिहक्खायचरित्तारिया य सेत्तं ब्रहत्यस्वीणकसायवीतरागचरित्तारिया य सेत्तं बुधबोहिय क्खापचरितारिया । सेत्तं चरित्तारिया।सेत्तं अणहिपछउमत्यखीणकसायवीतरागचरित्तारिया सेत्तंछनमत्थखी- तारिया । सेत्तं आयरिया ॥ प्रा. १. प. ॥ णकसायवीतरागचरित्तारिया । सकिंतं केवग्लिखीणकसा पारायातः सर्वहेयधर्मेत्य इत्यार्यः । मोकमार्गे, (भारिय यवीतरागचरित्तारिया? दुविहापसाचा । जहा सजोगी उपसंपजे.) सूत्र.१७. अ. भारान् यातं सर्वकुयुक्तिन्य केवलिखीणकसायवीतरागचारचारिया अजोगीकेवालखी श्त्यार्य तत्वम्।तत्वे, (आयरियं विदित्ताणं, सब्बक्या विमु प) भापरियंति सूत्रत्वात् आराद् यातं सर्वकुयुक्तिन्य इएकसायवीतरागचरित्तारिया य। सेकिंतं सजागीकेवलिखी त्यार्य तत्वं तद्विदित्वा ज्ञात्वेति । उत्त अ६ गुगे, न्यायोपणकसायवीतरागचरित्तारिया?श्वविहापएणत्ता । तंजहापन्ने, मार्य प्रगुणं न्यायोपपन्नमिति । प्राचा०२ अ.५ न. ॥ पदमसमयसजोगीकेवानिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया आयरियउबज्काप-आचार्योपाध्याय-पुं० प्राचार्यसहित अपदमसमयसजोगीकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारि उपाध्याय भाचार्योपाध्यायः । भाचार्यसहित उपाध्याये (भायरियनबज्झाए विसंभेजा)व्य.सू.३ २.। आचार्यसहित या य अहवा चरिमसमयसजोगिकेवनिखीणकसायवीतरा उपाध्याय भाचार्योपाध्यायः । आचार्य उपाध्यायश्चेत्यर्थः गचरित्तारिया अचारमसमयसजोगिकेचलिखीणकसायवी भाचार्यश्च स पबोपाध्यायः आचार्योपाध्यायः आचार्यरूपे तरागचारतारिया य सेत्तं सजोगिकवलीखीणकसायवी- सपाध्याय, सदि केषांचिदाचार्यः केषांचिदुपाभ्याय इति । तरागचरित्तारिया य सेकिंतं अजोगीकेवलिखी | ग्य० ३२.॥ णकसायवीतरागचरित्तारिया ? ३ दुविहा पपत्ता । आ (य) रियखत्त-आर्यक्षेत्र-न मर्कषाविंशतिजनपदोपह किते राजगृहमगधादिके, सूत्र. १ श्रु. ५ अ.॥ तंजहा पढमसमयअजोगीकेवालेखीणकसायवीतरागचरि सापञ्चविंशतिः आर्यकेत्राणि (प्रायरिय ) शब्दे पृष्ठे ३३६ तारिया अपदमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीतरा पंक्तौ ११वक्तानि॥ गचरित्तारिया य अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलि यस्मावा एतषु साईपविशतिसंख्येषु जनपदेपूत्पत्ति खीणकसायवीतरागचरित्तारिया । अचरिमसमय नानां तीर्थकराणां चक्रवर्तिनां रामाणां बलदेवानां कृष्णानां बासुदेवानां तत भार्यमतेन केत्रस्यार्यानार्यव्यवस्था दर्शिता जोगिकेवलिखणिकसायनीतरागचरित्तारिया य सेत्तं अ या तीपकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य शेषमनायमिति । आवश्यजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया । सेत्तं कची पुनरित्यायव्यवस्था उक्ता " जेसु केसुवि परसेसु केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया । सेत्तं खीण- मिदुणगाणि यद्विपसु हकाराईया नीई परूढा ते मायरिया कसायवीतरागचरित्तारिया सेत्तं वीतरागचरित्तारिया। सेसा अधारिया इति" पते च प्रत्यासत्या भरतकेत्रवर्तिन अहवा चरित्तारिया पंचविहा पप्पत्ता । तंजहा सामाइ एव आर्या रक्ताः। उपजकणत्वाञ्चषामन्येऽपि महाविदेहांत यचरित्तारिया, बेअोवट्ठावणीयचरित्तारिया, परिहारवि पतिविजयमध्यमखमादिवमी बहवो अष्टव्या इति । प्रव. १७६ घा.। सुछिचरित्तारिया, सुगुमसंपरायचरित्तारिया, अहक्खा आर्यकेत्रसीमा निशीयचूर्णी यथा १६ अ.। पचरित्तारिया य । सेकिंतं सामाश्यचरित्तारिया ? मगहा कोसंबीया, यूणाविसओ कुणालविसओ य॥ सुविहा पएणत्ता । तंजहा । इत्तरियसामाश्यचारित्तारि- एसा विहारतमी, पत्ता आयरियं खेत ॥ ६३५॥ या आवकाहयासमाश्यचरित्तारिया य । सेत्तं सामाइय- पुन्वेण मगहविसोदक्षिणेण कोसंबी अवरेण थूणाविसो Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायरियद्वाय उत्तरेण कुणालाविस पतेसि मझ्छं आयरियं पुरतो श्रणारियं । (a) रियद्वाण -यस्थाननः सर्वतो विरत्यादौ, संयमस्थाने "जासा सम्यतोवर सट्टा अवारंभट्टा भरिए तत्र चेयं विरतिः सम्यक्त्वापूर्विका सावधारम्मान्निवृतिः सावधानुष्ठानरहितत्वात् संयमस्थान स्थानमा पा नम् । सूत्र ०२ भु. २ अ. । आ (य) रियदेसि (न) आदर्शिन् पु० भा प्रगुणं न्यायोपपन्नं पश्यति तसादन्यायो पपन्नदर्शन, ( मायारण मारियप धारिवदसी) बाचा. २ अ. ५. । (३६७) अभिधानराजेन्द्रः । (य) रिपदिमा आर्यन - ०पार्श्वनाथस्य प्रथमे गवधरे प्रव. १ ूा. । आ (य) रियदेस - आर्यदेश – पुं. मगधाद्यर्द्धष विंशतिजनप देषु, ( आयरियम जे समुप्या) पं. व. १ कार्य देशसमुत्पन्नः शुरूजातिकुत्नान्वितः ध. ३ अधि । तत्र आर्यदेशा जिनचक्रचर्द्धचक्रधात्तम पुरुषजन्मनू मयस्ते च संख्यया मगधा द्याः सार्कपंचविंशतिः प्रायाणां वासाही देशः । प्रव. । भार्याव चांदी देव (व) रिवयम् आर्यधर्म पुण्यार्यस्य धर्मः सदाचारे भुतचारित्ररूपे धर्मे च ( वेज पिजरापेटी धारिचं धम्ममणुतरं.) धारापमभ्यां यात इत्यायस्तं धम्मं तचा रित्ररूपमिति उत्त. २ अ. ॥ (य) रिवसिय आर्यमदेशित त्रितीर्थंकरप्रणीते - ( एवं से धम्मे आयरियपपसिए । आचा ६ अ. ४ . । आ (य) रिपारण आर्यम. भार्या प्रज्ञा यस्य सभाप्रज्ञः । श्रुतविशेषितमतौ, भाचा० २ अ. ५ . । आयरियपरिनावि (न्) आचायपरिभाविन् श्र० माया परिपर्त्तरि । ――― महरो अकुलीणोति य, दुम्मे हो दमगमंदबुद्धित्ति । अवि अप्पाजी सीसो परिजवर आवरियं ॥ १ ॥ कश्चित्कुशिष्यस्सूचया असूचया वा भाचार्य परिभवति । सूचा नाम स्वव्यपदेशेन परस्वरूपसूचनं । यथा कोपचयः परितं सामाचार्य भीतिप्रद्यापि रुदरा बाजा वयं किमाकमाचार्यपदस्य योग्यत्यमिति । अयूबा मे ब परोपघाटनं यथा नो आचार्य ! त्वं ताद्यापि मह मुग्धः कीरकंठो वर्त्तसे अतः कीदृशं भवत आचार्यकत्वमिति । योकजीन भावास्तमुद्दिस्य जयति दो समता अमी योग्य पचाचार्यपदस्य पयंत दोन प्रोत्पन्नाः कत स्माकं सुरपयोग्यता याचिकाएं दीनोऽभ्ययमाचार्य पदे निवेशित इति तथा दुर्मेधा मंदको फमको नाम दर हो त्वा यः प्रति मंदबुद्धिः स्यत्यमतिः अपि संभावनायां संभाव्यते कुतोऽपि कारण देवविधो ऽप्याचार्य इति अल्पा तुच्छा पात्रादिना पर्यस्य सोऽपलाभङ्गन्धिः । पतानप्येव मेव सूचया असूचया च परिभवति ॥ अथ शिष्यपदं व्यापदं व्याचष्टे ॥ सो विसीसो दुबो पारियो सिक्ख चैव । सो सिक्ख छतिविहो, मुझे प्रत्येतय ॥ आयाइद्वाण यः शिष्य गुरून् परिभवति सोऽपि च द्विविधः । प्रत्राजित कः शिष्यकश्चैव यस्तेनैव परिभूयमानगुरुणा दीक्षां ग्राहित स्व प्रवाजितकः । शिष्यकस्तु गगंतरादध्ययनार्थमायातः स च शिष्यकस्त्रिविधः सुत्रेऽर्थे तनये च सूत्रको हकस्तडुनयग्राहकश्चेत्यर्थः । वृ. । नि० ० १० अ० ॥ आयरियपायमूल आचार्यपादमूल न चाचान्यन्तिके तूणावरियाम्मि) आचापादयन्तिक इति. पं. २ द्वा. ॥ आपरियजातिय आचार्य्यापित-न. प्रश्नव्याकरणदशायाचतुर्थेऽध्ययने, स्था० १० वा. ॥ आप रियमग्ग-आयमार्ग पु. बराह यातः सर्वदेयधर्मेत्य इत्यार्थी मागों निर्दोषः । पापलेश्याऽसम्पृक्ते मार्गे, ( आरियं मां असंपत्ता) सूत्र० २ ० १ अ० ॥ सदनुष्ठानरूपे मार्गे, जैनेन्द्रशासनप्रतिपादिते मोकमार्गे च १.३ अ. (जे तत्थ आरिअं मग्गं परमं च समादिए ) सूत्र. वि. ०श्रु० ३ भ० ॥ आयरियार्वज्जा - प्राचार्य विद्या स्त्री० [घाचत्वारिंशत्तमे पुरुष कन्नाभेदे, कल्प० ॥ रियविप्पत्ति-आचार्य विमतिप१ि० पञ्चमेऽध्ययने, स्था० १०वा. । प्रा (२) रियन्देय- आवेद-तीर्थकर स्तुतिरूपे आपकधर्मप्रति पादकेच. (दाणं च मारणाएं वे प्राकासोपुनिया आर्यान् वेदान् कृतवांश्च स भरत एव तत्स्वाध्याय निमित्त मिति तीर्थकर स्तुतिरूपान् श्रावकधर्मप्रतिपादकारेच अना यस्तु पश्चात्सुलभा याज्ञवल्क्यादिभिः कृता इति श्राव. २ भ. । आ. म. २ भ. । आयरियवेयावच्च प्राचार्य्यवैयावृत्य-न. आचार्यस्य वैयावृत्यं प्रशनादिभिरुपएंम्भः वैकृत्यभेदे श्रपः ॥ आयरियन्त्र- आचरितव्य - त्रि० आ. चर. तथ्य। अनुष्ठेये । (जं जम्मि हो का, सावरियज्यं स कालमायारो)। नि.. १ उ. ॥ आयारियादेस आचार्यदेश-पुं. आचार्यकमने ( भायरिय देसायाहारिण अत्येण ) आचार्यादेशात् आचार्यकथनात अवधारितेनेति । व्य० ३ उ. । प्रायसायण - आयसजाजन-न. लोहजाजने, ( तोयमिव ना शियार ततायसनाय योदत्वा तच तदावसनाजनं च बोहजाजनमिति ॥ आव० ४ अ. ॥ आया-आनाति खाजन् फिर भाजनमा जातिः सम् पपाततो जन्माले, स्या. १०वा. । श्रजायतेऽस्यामित्याजातिः मनुष्यादिजातौ । तया चाचाराने आचारैकार्थ कानधिकृत्य दानीमाजातिराजायते तस्यामित्याज्ञातिः । साऽपि चतु व्यतिरिक्त मनुष्यादिजातिः भावाजातिस्तु नाथाचार स्तुतोऽयमेवाचार इति । आचा० १ अ. १ उ. ॥ आयाति स्त्री. या. या जावे- क्तिन्-भागमने स्थानान्त रगमने च ( आयातिर्वा गतिरिति ) स्था. वा. ३ आयातिर्गभी निष्क्रम इति स्था. ग. १ उत्तरकाले च दशा० ॥ प्रायाइद्वाण - आजातिस्थान न आजननमाजातिः सम्म नपाततो जन्म तस्याः स्थानम् । संसारे, स्था. १०६ा. आया तिस्थानन० उत्तरकालस्य स्थाने (मायातिट्टानं सम्मतं Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६८) आयाइद्राण अभिधानराजेन्द्रः। आयार आयाश्टाणेति आयतिनाम उतरकालस्तस्य स्थानं पदमिति । तुचतुर्धानिक्केपः ॥सचायं नामाचारःस्थापनाचारो जन्याचारो दशा० ॥ भावाचारश्च बोद्धव्य इति गाथावरार्थः भावार्थ तु वक्ष्यति । आयाश्हाणज्जयण- आजातिस्थानाध्ययन न० आजन तत्र नामस्थापने क्षुम् अतो प्रन्याचारमाह। नमाजातिः सम्म नगर्भापपाततो जन्म तस्या : स्थान सं नामणधावणवासण, सिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । सारस्तत्सनिदानस्य भवतीत्यवमर्थप्रतिपादनपरमाजातिस्था दव्वाणि जाणि लोए, दवायारं वियाणाहि॥ ६॥ नमुच्यत इति । आचारदशाया नवमेऽध्ययने, स्था० १० ग.॥ व्याम्नामनधावनवासनशितापनसुकरणविरोधीनिषच्याणि आयागर-प्रयाकर-पुण् लोहाकरे। (आयागरेवा ) यानि लोके तानि ब्याचारं विजानीहि । अयमत्र भावार्थः । अयआकरो सोहाकरो यत्र सोहं ध्मायत इति स्था ग.॥ | आचरणमाचारः व्यस्याऽचारो व्याचारः व्यस्य यदाचआया(चा) म आचामन अवनाष पानकभेद "भायाममव रणं तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः तत्र नामनमवनतिकरस्रावणमिति"। वृ. आष.६ अ.। प्रा. म. पि. नि. स्था३ ग.उ. णमुच्यते । तत्प्रतिधिविध व्यं भवति । प्राचारवदनाचारवश्व त.१५ अ.(मायामवासोवीरंवासुरुवियमंधातहप्पगारंपाणग तत्परिणामयुक्तमयुक्त चेत्यर्थः । तत्रतिनिशलतादि आचारवत् जातं पुवामेष भालोपज्जा) आयामाम्समवश्यानमिति आचा० परंमाद्यनाचारवत् । एतमुक्त भवति । तिनिशलतादि आचरित श्रु. १, चू॥ भावं तेन रूपेण परिणामात नत्वरंमादि । एवं सर्वत्र भावना कार्या । नवरमुदाहरणानि प्रदश्यते । धावनं प्रति हरिकारक्तं आयाम-पु. भा-यम्-भावे घन दैन्य, स्था० ग. ॥ बस्नमाचारवत् सुखेन प्रकासनात् कृमिरागरक्तमनाचारवसनि.च. उ॥ आ. म. । राजंजी. "आयामेणं दुधेयर्थ तीसे स्मनोऽपिरागानपगमात् वासनं प्रतिकवेमुकाद्याचारवत् सुखेन वाहामो श्रमपट्टित्ताभो भवति"ायामश्चदक्विनोत्तरायततया पाटलाकुसुमादिभिर्वास्यमानत्वात् । वैडूर्याद्यनाचारवदशक्य प्रतिपत्तव्यो विष्कम्नः पूर्वापरायततयोत । सू.प्र. प्रा. ॥ त्वात् शिक्कापनां प्रत्याचारवच्युकसारिकादि मुखेन मानुषभाआयामग-आचा (या) मक- न० आयाममेवायामकम् षाद्यसंपादनात् अनाचारवच्छकतादि तदनुपपत्तेः।सुकरणं प्रअवस्रावणके पानकनेदे-नुत्त. (आयामगंचेव जवोदगं च ) त्याचारवत्सुवर्णादि सुखेन तस्य कटकादिकरणात् अनाचारवआयामकं धान्यस्यावस्रावणम् । उत्त० १५ अ.॥ घंटामोहादि तत्राऽन्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति । आयामसित्यनोइ (न् ) आचा (या) म सिक्यचोजिन्- अविरोधं प्रत्याचारवंति गुमध्यादीनि रसोत्कर्षाऽपभोगगुत्रि० प्रवनायणगतसिक्यभोक्तरि, तथा चौपपातिके "रस- णाच्च अनाचारवंति तैलतीरादीनि विपर्ययादिति । एवंजपरित्यागभेदानधिकृत्य-आयामसित्थनोत्त" औप० ॥ तानि व्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तव्याव्य आयामेत्ता-आचम्य-अव्य० आचमनं कृत्वेत्यर्ये, ( परमहो तिरेकाव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथा चरणपरिणामस्य जा ण माहणे आयामेत्था ) आमत्थत्ति, आचामितवान् तशोजन वत्वेऽपि गुणाभावाव्याचारं विजानीहि अवबुध्यस्वेति दानद्वारेणोच्चिष्टतासम्पादनेन तच्छुद्धयर्थमाचमनं कारितवान् गाथार्थः ॥ भाजितवानिति तात्पर्यम् भ०१५ श.न.माहणे पायाम. उक्तो अव्याचारः सांप्रतं भावाचारमाह ॥ श्रआयामेश्त्ता स उत्तरोठं मुंमं करेइ, भ. १५ श. १ उ.।। दंसणनाणचरित्ते, तवायारे य विरियायारे । आयार-आचार-पुं. प्रा. चर-भावे घन.आ. मादायां एसो जावायारो, पंचविहो होइ नायव्वो ॥ ७ ॥ चरणं चारः मर्यादया कालनियमादिसण्या चार आचारः व्या० दर्शनशानचारित्रादिष्वाचारशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते प्रा.म. ॥ आचारो ज्ञानाचारादिः पञ्चधा आ मर्यादया वा दर्शनाचायेज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपाचारश्च वीर्याचारक्षति। चारोविहार आचारःभ.१श.१७॥ दशा.विशे. "आमज्जायाव- तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते न चकुरादिदर्शनं तच्च कायोपयणो, चरणं चारोत्तितीए आयारो।सोहोनाणदेसण,चरित्त- शमिकादिरूपत्वात् भाव एव । ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार तववी रियवियप्पो" ॥ अनुष्टाने स्था० ४ ग.॥ प्राचारणमा- इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयं भावार्य तु वक्ष्यति एष भावाचारः बारोऽनुष्ठानमिति,सूत्र.श्रुपअ. स्या.।प्राचारोमोक्षार्थमनुष्ठा पंचविधो भवति ज्ञातव्य इति गायाकरार्थः । दश. अ. ३ नविशेष,शति.प्राचा.१अ.३३.। आचारोझानादिविषयमनुष्ठान- विस्तरस्तु (णाणायार) शब्दे ॥ मिति का.॥आचारः श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाभ्यनादीनि तयाच निशीयचूणी १ न. निकेपोयथा ।। भ०५ श.१७.आचरणीये आचारे आव०॥डाचर्यते गुणवि- जंजणियं आयारे, चविहोणिक्खेवो सो इमो॥ वृरुये इत्याचार अष्ट.॥ आचारःसाधुसमाचार इति । स्था.श्ग. णामउवणायारो, एसो खल्ल आयारे पिकेवो चउबिहो आचारोलोचाऽस्नानादिसुष्षुक्रियारूपतिाध.१आधास्थाग. दशा ॥ पायारे चेव भावतेणेय ॥ आचारे साधुसामाचार्या होइ।णामणघोवणमासण, सिक्खावणमुकणविरोधाणि। विषये शताप्रश्न.सं३घाााचारस्तत्परिहरणपरिष्ठापनरूपति। गाहा ॥ स्था.माचारः शास्त्रविहितो व्यवहार इति।ग० ॥ आतु.। नामग्वणाल गयाउदव्यायारो पुविहो आगमओ णोप्रागमओ भाचरणमाचारः । आचर्यते शति वाऽऽचारः । पूर्वपुरुषाच- यागमभो जाणए अवगत्ते णोआगमओ जाणगसरीर रिते ज्ञानाद्यासेवनविधी, । नं.। शिष्टाचारतो ज्ञानाद्यासेषन- प्रवियसरीरं जाणगभवियसरीरवरित्तोमो णामणधोवस्म विधिरिति । पा०॥धार. ॥ अनु०॥ साध्वाचरितो ज्ञाना- गाहा पामादिपपसु आयारो भय । तेण सिद्धिमिच्छतो चासेवनविधिरित भावार्थः । सम. ॥ यसरी अणायारं पि पावेति दीर्घ-हस्वव्यपदेशवत् णामणे प्राचारस्य चतुर्विधो निक्षेपः दश, ३ अाचारस्य पमुख मायारमंतोतिणिसो प्रणायारमंतोपरमो धोवणं पमुच्च Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६९) पायार अभिधानराजेन्ज:। आयारंग कुसुनरागो आयारमंतो अणयारमंतो किमिरागो। वास आचारातिक्रमे दोषो पथा। णाए कवेल्लुगादीणि आयारमंताण वरं अशायारमंतं ।सुफ' आयारंगं अणंतगमपज्जवहिं पएणविजमाणं समवधारिसाझहियादि । सिक्खावणं परुश्च आयारमंताणि वायसगो यं तत्य यं उत्तिसायारे पएणविजत्ति तेसिं च णं जे वगादि भंगादि अणायारमंताणि सुकरणे सुवम्म आयारमंतं घंटालोई अणायारमंतं । अविरोह पमुश्च पयसकराणं भायारो केइ साह वासाहुणी वा एणयरमायारमइकमज्जा से णं दहितल्लायविरोधे अणायारमंता॥ गारबीहिं उवम्मेयं अहएणहा समणुढे वायरेज्जा पएणदवाणि जाणि लोए, दव्यायारं वियाणाहि। विज्जा वा तओ णं अएंतसंसारी नवेजा ।।महा.१ अ.। णाणे दंतणचरणे, तए विरिए य जावमायारो। गाहा। ॥ आचाररहितस्य कर्मोपादानमाचाराने यथा । गुणपर्यायान् द्रवतीति व्यं जाणत्ति अधिदिघसरूपाणि एत्यंपि जाणे उवादीयमाणा जे आयारेण रमंति । अहया पताणि चेव जाणि भणियाणि लोक्यतेशत लोकः पतस्मिन्नपि प्रस्तुते वायुकाये अपिशदात् पृथिव्यादिषु दृश्यते श्त्यर्थः तस्मिन् लोके आधारजूते दवायारं वियागाहि समाश्रितमारंनं ये कुर्वति ते उपादीयन्ते कर्मणावस्यन्ते एकएवमनिहिताननिहितेषु व्येषु अन्याचारो विज्ञातव्य इति स्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्ताशेषनिकायवधजनितेन कर्मणा गतो दवायारो॥ वा वध्यन्ते किमिति येनहि एकजीवनिकायविषय आरंभः श्याविनावायारो जणस्स सोऽयं पंचविहो श्मो ॥ शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कर्तुं शक्यते अतः स्त्वमेवं णाणदंसणगाइ8, पच्चकण एएसिं पजेया गहिया। जानीहि अनेन श्रोतुः परामर्शः पृयिन्याद्यारंनिणः शेषका यारंजकर्मणापादीयमाना जानीहि के पुनःकर्मणापादी अहट्ठदुवालस, विरिय महाणीतु जातेसिं ७ गाहा। यन्ते इत्याह ( जे भायारेत्ति ) ये अविदित परमार्थाः पाणायारो अटुविहो दसणायारो अकृविहो चरित्ता पंचविधे आचारे न रमन्ते नधृतिं कुर्वन्ति ॥ यारो अटुविहो, तवायारो बारसविहो, वीरिआरो पत्तीस आचा० १ अ०७०।। तिविहाण, ते अत्तीस भेया पए चेव नाणादी मलिया आचारस्वरूपम्महानिशीबे यथा भहा । १ अ. १ उ. । जवंति । बीरिअमिति वीरिआयारो गहिओ अहाथी असीर्ण जं तेसि नाणायाराणं स एव वीरिभायारो भव ॥ सेनयनं १ केरिसे आयारे कयरेवा सेणं अणायारे । आचारस्य नेदाः ॥ गो आयारे अणायारेणं तप्परिपक्वा तस्य जेणं आ. दुविहे आयारे पामत्ते तंजहा णाणायारे चेव नोणाणायारे णापामक्खे बसे णं एगते ण सव्वपयारेहिं णं सव्वहा। चेव । नाणायारे दुबिहे पाणते तं जहा दंसणायारे चेव वज्जणिज्जे। जे य णं णो आणापमिका से णं गंतेणं नोदंसणायारे चेत्र नो दंसणायारे दुविहे पएणते तंजहा सव्वपयारेहिं । सव्वहा आयराणिज्जा । तहा णं गो० चरित्तायारे चेव नोचरित्तायोरेचेव णो चारेत्ताचारे दुविई जंजाणज्जा जहा णं एस एं सामन्नं विहारेज्जा से सव्वहा विवज्जेज्जा महा०॥ पएणते तं जहा तवायारे चेव वीरियायारे चेव ।। आचारप्रतिपादको प्रयोऽप्पाचारः ॥ सम॥नं । आचारस्या. ग.॥ क्रियाभिधानादाचारः । आ. मअ. ॥ श्राचार आचारोपदेसूत्रचतुभ्यं कंठ्यन्नवरं । आचरणमाचारो व्यवहारो ज्ञानं | शहेतुत्वात् । दशए।अ. आचारानिधायकत्वादाचारः। स्थाशुनशानन्तद्विण्य प्राचारः कासादिरविधोकानाचारः॥ १ग. । द्वादशाङ्गचाःप्रयमेने,ध.र. ।। अनु साध्वाचारप्रतिपंचविहे आयारे पएणते तं जहा णाणायारे दसणायारे- पादको ग्रंथ आचार ति।विशेगा एतहुवक्तव्वता (आयारं चरित्तायारे तवायारे चीरियायारे स्या. ग.५। ग) शन्दे । नवमपूर्वस्थ प्रत्याख्यानस्य स्वनामख्याते विंशतिभाचारेणैवात्मसंयमो भवति । उक्तंच । तस्याऽत्मा संयतो वस्तुषुटतीये वस्तुनिच। पचक्याणस्स तश्यवत्यूनो आयायो हि सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च रनामधेजो । व्य० । १२. उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश पूर्वाणि जिनो हितः॥१॥ इति ॥ दश अ. । तथा च धर्मसंप्रदे तत्र नवमं पूर्वप्रत्याख्याननामका तस्मिन् विशतिर्वस्तूनि । घमूत्रगुणेपूक्तमायाणामाप ज्ञानाद्याचाराणं मुख्यत्वख्यापनार्थ स्तूनि नाम अर्थाधिकार विशेषा स्तेषुविंशती वस्तुषु टतीयतरपालनस्य स्वातन्त्र्ये पाऽनिधित्सयाऽह॥ माचारनामधेयं वस्त्विति व्यः । आच०१ आ ईपतू अपरिझानादिपंचाचाराणां, पासनं च ययाक्रमम् । पूर्णा श्त्यर्थचारा हैरिका येते ।प्राचाराश्चारकल्पा इत्यों युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेया इति न. १ श. १.। गच्छवासः कुसंसर्ग, त्यागोऽर्यपदाचंतनम्-धन्अधि.३ दशा॥ आचारशुचौ दि सामान्यायानापि कुलादधुत्पत्तौ पुरुषस्य नाप कुलादधुत्पत्ता पुरुषस्य | आयारउवगच्छण आचारोपगमन न. मायाकरणरूपे योग, महात्म्यमुपपद्यते । यच्चोक्तान कुलं हीनवृत्तस्य, प्रमाणमिति मे आयारोवगयशब्दे कथा । आव०४ अ.॥ मतिः । अन्त्येवपिहि जातानां, वृत्तमेव विशिष्यत, इति ॥ध० | १ अधि.॥ आयारंग आचारंग ॥ न. द्वादशाङ्गायाः प्रथमेग्ने सम आचारमाचरतः प्रशंसा यया ॥ तहतल्या प्राचारांगटीकायाम् । इह हि रागडेपमोहाद्यमियारमायरंते, एगखेत्तेवि गोयमा मुणिणो । नूतेन सर्वेणापि संसारिजन्तुना शरीरमानसानेकपुःखोपह तेन तदपनयनाय हेयोपादे यपदार्थपरिझाने यत्नो विधेयः। स वासमयं पि वसन्ते, गीयत्याराहगे जणिए । बन विशिष्टविवेफमृते । विशिष्टविषेकश्च न प्राप्ताशेषाति Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३००) अभिधाबराजेन्द्रः । आयारंग यादे समन्तरेव भातश्च रागद्वेपनोहादीनां दोषाया मात्यन्तिकात्। स वाईत पवात प्रारज्यते नुयोगः । सच चतुर्धा तद्यथा धर्मकयानुयोगो, गणितानुयोगा, । कन्यानुयोगश्चरण करणानुयोगश्चेति । तत्र धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनादिकः गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः । कन्यानुयोग स्सम्मत्यादिकश्चरणकरणानुयोग भाचारादिकः स च प्रधानतमः शेषाणां तदर्थत्वात्तदुकं चरणपरिचर्ति दे, जे पाय तिथि अनुमति तथा वरणपरिचतिहेनं, धम्मकहा कादिमाया विषदंसणसेही दंसण गुरुस्सचरर्थ तु । गणधरैरथ त एव तस्यैवादौ प्रणयनमकार्यतस्तत्प्रतिपादककाचागस्यानुयोगः समारज्यते । स च परमपदातिहेतुत्वात्। " श्रेयांसिबडुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अभेषसि प्रवृत्तानां क्वापि पान्ति विनायकाः तस्मादशेषप्रत्यू होपशमनायमङ्गलमभिधेयं दिमध्यावसानभेदात्रिविधं तत्रादिमङ्ग सुने आउ तेर्ण भगवया एवमक्वाय " मित्यादि भत्र च भगवदे. चनानुषादो सङ्ग अथवा धृतमिति सुर्ता तथ नन्प्रतिपातित्वान्मङ्गमित्येवाविध्वेनानितिशाखार्थपार मध्यमङ्गतं सोकसारा ध्ययनपञ्चमादेशसूत्रं से जहा के वि दरए परिपुन्ने तिठ्ठश् समं । सि नोम्मे उवसभर एसा रक्खमाणेत्यादि यत्र पार्ददुर्नराचार्य गुणोत्कीर्तनमाचार्याथ पञ्चनमस्कारान्तः पातित्वान्मङ्गनामस्पेतच्चानिलपित शास्त्रार्थ स्थिरीकरणार्थ अवसानमङ्गलं नवमा भ्ययने ऽवसानसूत्रं अमि निल्चुमे अमाई भ वकदाप प्रयवं समियासी अत्राभिनिर्वृतग्रहणं संसारमहातरुकन्दो तथा गमनकार द्यविप्रतिपत्या ध्यानकारित्वान्मङ्गतमित्येतशिष्यप्रति शि व्यसन्तानान्यच्छेदार्थ नित्यध्ययनगतसूत्रं मत्वप्रतिपादने नैवाभ्ययनानामपि सत्यमुक्तमेवेति न प्रतन्यते सर्वमेयचा मङ्गलं ज्ञानरूपत्वा तस्य निर्जरार्यत्वेनच तस्याविप्रतिपत्ति युक्त (जं अनाणी कम्म बापासकामीदि ताणी तिर्हि गुप्ता प्रवेश उसास मित्तेषं) मङ्गलवनि मां गायत्यपनयति नवादिति ममा विष्णो गासो या नाश शास्त्रस्येति ममित्यादिशेापपरिहारा दिक मन्यतोयसेयमिति। साम्प्रतमाचारानुयोग प्रारज्यते श्राचारस्यानुयोगो ऽर्थकथनमाचारानुयोगः सूत्रादनु परयादर्थस्य योगोऽनुयोगः । साम्प्रतमाचाङ्गस्योपक्रमादीनामनुयो गधाराणां समायोग किम्बिभिणिषु रशेषप्रत्यूहोपशमनाय मनायें प्रेक्षापूर्वकारि च प्रवृत्यर्थ सम्बन्धानिधेय प्रयो जनप्रतिपादिकानि युक्तिकारो गाथामाद ॥ वन्दित् सम्यसि जय अणु भोगदायरसच्वे । आयारस्स भगवओ निति कित्तयिस्थामि । चन्दित्वा सर्वसिकान् जिनांधेति मनुयोगदायकानि तच सम्बन्धवचनमपि श्राचारस्वेत्यभिधेयवचनं नियुक्ति करिष्ये इति प्रयोजन कथनमितितात्पर्यार्थः । अवययार्थस्तु वन्दित्वेति पदमभियादस्तु रित्यर्थया मिधायिधातुस्तत्रानि वादनं कायेन । स्तुतिर्वाचाऽनयोश्चमनः पूर्वकत्या करणत्रयेापि नमस्कार आविदितो प्रति सितं ध्यानमेषामिति सिद्धाः प्रक्रीणाः सर्वे ते सखियाः सर्वग्रहणं तीर्थाांती यांनन्तरपरंपरादिसिद्धप्रति आयारंग पादतान्यदिति सम्बन्धः सर्वत्र योज्यः । रामजितो जिनास्तीर्थ कृतस्तानपि सर्वानतीतानागतवर्तमान सर्व क्षेत्र गतानिति अनुयोगदायिनः सुधर्मस्वामि प्रनृतयो यावदस्य भगवतो नियुक्ति कारस्य भवाडुस्वामिनधतुर्दशपूर्वर स्याचार्योऽत स्तान् सर्वानित्यनेन चाम्नाय कथनेन स्वमनी बिकान्युदासः तो नयति यन्दित्तकृत्वा प्रत्ययस्योत्तरक्रिया सभ्यपेत्या दुतरक्रियामाद आचारस्य यथार्थनाम्नः भगवत इति श्रर्थधर्मप्रयत्नगुणभाजस्तस्यैव विधस्य निश्चये नार्थप्रतिपादिका युक्ति नियुक्तिस्तां कीर्तयिष्ये अनिधास्ये इति मन्तस्तत्वेन निष्पक्ष नियुक्ति यदि स्तत्वेन प्रकाश विष्यामीत्यर्थः यया प्रतिज्ञातमेव विभणिषु निकेपार्हाणि पदानि सात हत्याचार्यः संपीय कथयति । आयार अंगमुपसंध, वंजचरथे तब पसत्येय | परिभाए निक्खेयो, तह दिसाणं च ॥ २ ॥ न० १ अ. १ उ. । आयारेत्यादि आचार अङ्गश्रुतस्कन्ध अावरण शस्त्रपाि संा दिसा मित्येतेषां निशेषः । कर्तव्यशर्त तत्राचार ब्रह्मचरण शस्त्र परिज्ञा शब्दानां निष्पने निक्केपे प्रष्टव्या अङ्गश्रुत स्कन्ध शब्दा भोघनिष्पन्नसंज्ञादि सूत्रा लापक निष्पन्ने निष्केपे षष्टव्या इति एतेषां मध्ये कस्य कति विधो निकैप इत्यत आह ॥ 66 चरणदिसावज्जाणं, निक्खेवो चउकप्रय नायव्वो । चरणमिच्छवि खलु सत्तविहो हो ओदिसाणं ॥ ३. माचा० १.१ ० चरणादिवनां चतुर्विधो नि पः चरणस्य परुविधा दिकशब्दस्य सविधो निपः अत्र च क्षेत्रकालादिकं यया सम्नवमायोज्यं नामादिचतुष्टयं सर्वत्रन्यपस्थया दर्शयितुमाद आचा० १ ० १ ० । जत्य य जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं जत्यवि न जायेज्जा, चलकयं निक्खिवे तत्य ॥ अत्ययज्ञमत्यादि यत्र चरणदिशब्दादी निक्षेत्रका सादिकं जानीयात् तत्र निरवशेषं निषेद्यत्र तु निरवशेषं न जानीयादाचाराद्वादी तथापि नामस्थापना द्रव्यभावस्तु कात्मकं निज्ञेपनि पेदित्युपदेश इति गाथार्थः । प्रदेशान्तरम सिकस्यार्थस्य सावमिच्छता नियुक्तिकारेया गाथापा आगारे मिय, पुत्र ोि पटकनिक्यो । नवरं पुण नातं, जात्रायारंमि तं वोच्छं ॥ ५ ॥ मायारे इत्यादि कुलिकाचार कथायामाचारस्यप्यौदोन शेपोयस्य तु चतुरङ्गाभ्ययनं पश्चात्र विशेषः सोभिधीयते भावाचार विषय इति ॥ यथा प्रतिज्ञातमाद् ॥ तस्संग पण, पढमंगगणी तहेच परिमाणे । समोयारे सारेय, सतरि दारेहिं नाणचं | तस्येत्यादि गाथा तस्य भावाचारस्य एकार्याभिधायिनो चाच्या केन प्रकारेण प्रवृतिः प्रवर्तनमाचारस्यानृतय वाय तया प्रथमाङ्गता च बाच्या तथागण्याचार्यस्तस्य कतिविधं स्थानमिदमिति च वाच्यं परिमाणमियता वाच्या तथा किं समयतारस्येतीत्येतचवाच्यं तथा सारथ वाच्य इत्यभि कीरैः पूर्वस्माङ्गावाचारादस्य नेदो नानात्वमिति पिंकार्यः । अवयवार्यस्तु निर्युक्तितृदेवाभिधातुमाह । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारंग (३७१) अभिधानराजेन्द्रः | आयारो चासो आगास आगरो व आसंसो गरियो अंग चिय प्राश्ना जाइया मोक्खो || श्रचा० १२० १४० । आचर्यते श्रसेव्यत इत्याचारः स नामादित इशरीरं नयशरीरं तदतिरिको व्याचारो ऽनया गाथयानुसर्तव्यः " णामणघोयणवासण सिरकावणसुकरणाविरोहीणि दव्वाणि जाणि लोए दब्वायार विपापादि" नावाचारो द्विधा मीकिको ओकोतरध तथ लौकिका पापाद्यः पञ्चरात्रादिकं कुर्वन्ति ते विद्वेषा सोकोत्तरस्तु पञ्चधा हानादिका आधारशब्दे दर्शितः प पञ्चविध आचार एतत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थविशेषो नाषाचाः । एवं सर्वत्र योज्यम् इदानीमायाः साचात्पते ऽनेनेति निधिरं कर्मादी त्याचानः खोपि संतुर्धा व्यतिरिक्त वा यः नावाचात्तः स्वयमेव ज्ञानादिः पञ्चधा इदानीमागानः आगमवमागाः समप्रदेशावस्थानं पितुव्यतिरिक बतादे निंनप्रदेशावस्यानं भाषागा ज्ञानादिक एकस्यात्मनि रागादिरहिते ऽवस्थानमिति कृत्वा । इदानीमाकारः आगत्य तस्मिन् कर्षन्तीत्याकारो नामादि सुव्यतिरिको रजतादि भावाकारोऽयमेव ज्ञाना दिस्तत्प्रतिपादकःञ्चायमेवग्रन्यो निर्ज. रादिरत्नानामत्रनानात् । इदानीमाइवास आरव संत्यस्मिनित्याश्वासो नामादिसूत्रव्यतिरिक्तो पानपात्रही पादिनावस्थासौ नादिरेच दानी मादर्शः आश्यते श्रस्मिनित्यादश नामादिव्यतिरिक्तो दर्षणं भावादर्श उक्त एवं यतोऽस्मिन्निति कर्तव्यता यते । इदानीमंग अन्यते व्यक्तीवियते ऽस्मि भित्य नामाष मुन्यतिरिके शिरोवाहादि भावगमेा चारः । इदानीमाचीर्ण मासेवितं तश्व नामादि षोढा तत्र व्यतिरिक्त कल्याण सिंहादेस्तृणादिपरिहारेण पिशित लक्षणं क्षेत्राची बाल्दीफेस तयः कोकणेपुपेयाः कोटाचीर्ण त्विदं । सरसीवन्दणपको, घर सरसा य गन्धकासादी | पाम मिसिरीस मशिय पिवाई काले निदाहम्मि || भाषाचीर्णन्तु दानादि पञ्चकं तत्प्रतिपादकर याचारक्रम्यः । स्दानीमाजातिराजापते तस्यामित्याज्ञातिः सापि चतुर्दा व्यतिरिक्ता मनुष्यां दिजातिः भावाजातिस्तु नाचाचार प्रसू तिरयमेव ग्रन्य इति । इदानीमामा के श्रमुच्यन्ते ऽस्मिनित्यामोकथं वा मोको नामादि स्तत्र व्यतिरिक्तो निगमादेः नाका. मोकाको एनमशेषमेतत् साधकाचायचाचार ति एते किञ्चिद्विशेषादेकमवार्थ विशेषन्तः प्रवर्तन्तत्येकायिकाः शक्रपुरन्दरादिवत् एकार्याभिधायिनां च बन्द श्रेति बन्धाम्यादि प्रतिपत्यर्थमुद्यनं च ॥ बन्धमा समय लाघवं असम्मोहो । सन्तगुणवीयरागे, त्रिय एग गुणाहवन्ते || स इदानीं प्रवर्तनाधारं कहा पुनर्भगवताचारः प्रणीत इत्यत श्राह ॥ दारं सव्वेति आयारो, तित्यस्त पत्तणो पढमयाए । सेसाई अंगाई, एकारसआणुपुबीए ॥ आ. १. १. समित्यादि सर्वे करा ती त्यादा वाचारार्थ प्रयमतया नूद्भवति भविष्यति च ततः शेषां गार्थ इति गणधरा अप्यनयेवानुपूर्व्या सूत्रतया ग्रन्यन्तीति इदानीं प्रथमत्वे हेतुमाह ॥ आयारंग आपारी अंगाणं, पदमं पालमपि । एत्य य मोक्खोवा ओ एन व सारो पत्रयणस्स || यमाचारो द्वादशानाम प्यङ्गानां प्रथम मङ्गमेतस्य कारण माद । यतोत्र मोकोपायश्श्चरण करणं निगद्यते एपच प्रवचनस्य सारं प्रधानं मोक्षहेतुप्रतिपादना दत्र च स्थितस्य पगाध्ययनयोग्यत्वादस्य प्रथमतयोपन्यास शति । श्दानी गधि धाराघव गणिगुणगणो या गणः सोऽस्यास्तीति गणी आचारायतं च गणित्वमिति प्रदर्शयन्नाह ॥ भा. १ अ. १ जं. । आयारंमि अहीए, जं नाउ होई समणधन्मो छ । तम्दा आयारधरो, दुबइ पढमं गणि हाणं ॥ १० ॥ ( आयारम्मीत्यादि ) यस्मादाचाराध्ययनात् कांत्यादिक इचरण करणात्मको वा श्रमण धर्मपरिज्ञातो भवति तस्मात्सवैषां गणित्वकारणा नामाचारधरत्वं प्रयममायं प्रधानं वा गणिस्थान मिति । इदानीं परिमाणं कि पुनरस्याध्ययनतः पदतश्च परिमाण मित्यत छाड् । नव वंजचेरमइओ, अट्ठारस पदसदस्सियो वेन । हवय स पञ्च चूसो, बहु बहुतर ओ पपगेयं ॥ १ . १ . (त्यादि ) तथाभ्ययनतो नवमहाचर्या भिधानाध्ययनात्मको वेद इति विदन्त्यस्मा केयोपादेय पदार्थानिति वेदः क्कायोपशमिक नाववर्त्ययमाचारः सह पञ्च भिमानि वर्तत ति स पञ्चचूम इचभवति । तत शेपानुवादिनी मा तत्र प्रथम पिंके सण सेजरिया भासज्जा पायवत्थया एसा उग्गह परिमति । सप्ताध्ययनात्मिका कितीया सत्तसतिया तृतीया भावना चतुर्थी विमुक्तिः पचमी निशीथाध्ययनं धटुरो ( पदमोति तत्र चतुञ्जिकात्मक दितीयभूतस्कन्ध्या निशीथ पञ्चमवृत्रिका प्रकेपा द्वहुतरोऽनन्तगमं पर्यायात्मकविवक्षया बहुतमहच पदाप्रेण प्रमाणेन प्रयतीति प्रदानी सुपनमांतर्गत समवतारद्दारं तता मानव ब्रह्मचर्याध्ययनेण्यवतरन्तीति दर्शयितुमाह ॥ प्रायारगाणत्यो, बंजचेरेसु सो समोयरइ । सोविय सत्यपरिणाए, पिंमियत्यो समोयर ।। १२ ॥ सत्यपरिणापत्यो, उस्तु विकार समोयर । जीवणिया अत्यो, पंच, सुविसु न यर ।। १३ ।। पंचय महव्ययाइ, समोयरंतेन सव्व दव्वे सु ।। सञ्वेसि पज्जवाणं, अणन्तनागमि उयईति ॥ १४ ॥ इति । १ ० ० १ आयारे इत्यादि । सत्ये इत्यादि । पंचेश्त्यादि । उत्तानार्था नवरमाचाराप्रावि चूलिकाः अन्याि धर्मास्तिकायादीनि पर्याया अगुरुबध्वादय स्तेषामनन्तनागे व्रतानामवतार इति ॥ कथं पुनर्महाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतार इति तदाह ॥ बज्जीवशिया पढमे, वयंमिचरमे विति एय सव्वदव्वाई | से सामव्यया खयु ते दिसे ।। १५ ।। वणिया इत्यादि । स्पष्ट कथं पुनर्जतानां सर्वद्रव्येष्वव सायेन सर्वपर्याग्विस्युभ्यते येनानिये दिया स Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) आयारंग अभिधानराजेन्धः । आयारंग सर्वाकाशप्रदेशसंख्याया अनन्तगुणं सर्धनभः प्रदेशवर्गीकृतप्र- पहोपसर्गावा । प्रादुर्भवेयुस्ते सम्यक् सोढव्याः । अष्टमे त्वयं माणमित्यर्थः । ततोधितीयादिस्थानरसंख्यातगच्छगतै रनंत- निर्माणमंत क्रिया सा सर्वगुणयुक्तेन सम्यग्विधेयेति । नव नागादिकया वृद्धया पदस्यानकानामसंख्येयस्यानगता श्रेणि मेयं अधध्ययनप्रतिपादितोऽर्थस्सम्यगेवम् वर्धमानस्वामिना बति एवंचैकमाप स्थानं सर्वपर्यायान्वितं न शक्यते परि- विहित इति तत्प्रदर्शनं च शेषसाधूनामुत्साहार्थ । तमुक्तम् छत्तुं कि पुनः सर्वाण्यपीत्यतः केऽन्ये पर्याया येषामनन्तभा- तित्ययरो च उरणणी, सुरमहिओसि सिकिसव्वय गे व्रतानि वर्तरनिति स्यान्मतिरन्ये केवसगम्या इतीदमुक्त धुवंमि। अणिगृहियबसविरिओ, सव्वत्थाने सुउज्जम।। नवति केवलगम्या प्रज्ञापनीयपर्यायाण माप तत्र प्रक्वेपाघहु, किं पुण अवसेसे हिं मुक्स्वक्रूयकारणा सुविहिएहिं । होति त्वमेवमपि ज्ञानझेयास्तुल्यत्वात्तुल्या एव नानन्तगुणा इति न उजामियव्वं स पव्ववायमि माणुस्से आचा. १ अ० १.॥ अत्राचार्याह । यासी संयमस्थानश्रेणिनिरूपिता सा सर्वा तथा च समवायांगे आचारस्य श्रुतस्कंधष्य रूपस्य प्रथमां चारित्रपर्यायैर्याने दर्शनपर्यायसहिते तत्प्रमाणा सर्वाफाश गस्य चुलिका सन्तिममध्ययन विमुक्तयनिधान माचारचप्रदेशानन्तगुणा इह पुनश्चरित्रमा प्रोपयोगित्त्वा पर्याया नन्त लिका तदुवर्जानां तत्राचारे प्रथम श्रुतस्कंधे नवाध्ययनानि भागवृत्तित्व मित्यदोषः द्वितीये पोशनिशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयश्वान सारद्वारं कः कस्यसार श्त्याह ।। णात् । षोमशानां मध्ये एकस्या चार चूलिकति परिहतत्वात् अंगाणं किं सारो, आयारो तस्स किं हवइ सारो। शेषाणां पञ्चदश सम॥५७ स॥ अणुओगत्यो सारो, तस्तवियपरूवाणासारो॥१६॥ आयारस्त णं जगवो सचूलियगस्स पाणवीसं असारोपरूवणाए, चरणं तस्स वि य होइ निव्वाणं ॥ ज्जयणा पतं सत्यपारमा लोगविजओ सीओसणी निव्वाणस्स ज सारो, अव्वाबाहं जिणो वेति ॥ असम्मत्तं । श्रावन्ति धुयविमोहउवहाणसुयं महपश्रा. १ अ. १ उ. ॥ अंगाणमित्यादि स्पष्टा केवलमनुयोगार्यो | रिएणा ॥१॥ पिंमेसणसिफिरिया, नासज्जयणा य व्याख्यान नृतोऽर्थस्तस्य प्ररूपणा यया स्वविनियोग शति । अन्यच्च सारो इत्यादि स्पष्टैव । एतेषांचान्वर्थाभि धानानि बत्यपएसा । उग्गहपमिमा सत्तिकसत्तया चावणविमदर्शयितुमाह ॥ त्ती ॥३॥ निसीहज्जयणं पण वीस इमं ।। सत्यपरिएणा लोग, विजयो य सीसणिज्जसम्मत्तं ॥ सम ॥२५॥ आयारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स तह लोगसारनामं, वृत्तं तह महापरिमा य॥ ३१ ॥ पंचासीश्वद्देसणकाला प० टी० तत्राचारस्य प्रयमांगस्य नवा ध्ययनात्मकप्रथम श्रुतस्कन्धरूपस्य ससियागस्स इति छिअट्ठसए य विमोक्खा, नवहाण मुयं च नवमगं नाणियं ।। तीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे पञ्चचूमिकास्तासु च पञ्चमी इच्चेसो आयारो, आयारग्गाणि सेसाणि ॥ ३२॥ । निशीथाख्येहन गृह्यते भिन्नप्रस्थानरूपत्वात् तस्यास्तदन्याश्चत सत्य इत्यादि अटुसए इत्यादि स्पष्टे केवबमित्येष नवाभ्ययन- सस्तासुच प्रथमद्वितीये सतसताध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थी स्प प्राचारो द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनानि शेषाण्याचाराग्राणो चैकैकाध्ययनामिकेतदेवं सह चूलिकाभिर्वर्तत इति सचलिका। ति साम्प्रतमुपक्रमान्तर्गतीर्थाधिकारी द्वधा अभ्यनार्थाधिकार कस्तस्य पञ्चाशीतिरुद्देशनकासा भवंतीति प्रत्यध्ययनं नईउद्देशार्थाधिकारश्च तत्राद्यमाह ॥ शनकाज्ञानामेतावत्संख्यत्वात्तथाहि प्रथमश्रतस्कन्धे नवस्वध्यजियसंजमो य लोगो, जह वज्इ जह य तंपन्जहियवं। यनेषु क्रमेण सप्तषट चत्वारश्चत्वारः षट् पञ्च अष्टचत्वारः सुहदुक्रवाततिक्खा वि य, संमत्तं लोगसारो य ।। ३३ ।। सप्त चेति द्वितीयश्रुतस्कन्धेषु तु प्रथमचझिकायां सप्तस्वध्य यनेषु क्रमेण एकादश अयस्त्रयः चतुर्यु दी द्वौ द्वितीयायां निस्संगया य बहे, मोहसमुत्था परीसहोवसग्गा । सौकसराणि अध्यनानि एवं तृतीयैकाध्ययनामिका एवं चनिज्जाणंअट्ठमए नवमेय जिणेण पयंति ॥ ३४॥ तुर्थ्यपीति सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति तथाचनन्द्यध्ययने ॥ जिअश्त्यादि णिस्संग इत्यादि तत्र शास्त्र परिझाया मय सेकिंतं आयारे आयारे णं समणाणं निग्गंयाणं मर्याधिकारो ( जिय संजमोत्ति) जीयेषुसंयमा जीबसंयमा आयारे गोयरविण्यविण्यश्यसिक्खानासा अन्नामा स्तेषु हिंसादिपरिहारः स च जीवास्तित्यपरिझाने सति जव त्यतो जीवास्तित्व विरति प्रतिपादनमत्रार्था धिकारबोकविजये चरणकरणजायामायावित्तीओ आपदिति । से समातु सोको जहवज्जर जहायत्तं पजहियव्यं ति विजितभावतो सो पञ्चविहे पणते तं जहा नाणायारे दंसणायारे केन संयमस्यितेन लोको यया वध्यते अष्टविधेन कर्मणा यया चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे आयारेणं परिता वाच तत्प्रहातव्यं तथा झातव्य मित्ययमर्याधिकार स्टतीये त्वयं यणा मखिज्जा आयोगदारा संखिज्जा वेढा सखिज्जा संयमस्यितेन जितकषायेणानु कूलप्रतिकूलोपसर्गनिपातसुख सिलोगा सखिज्जाओ निज्जुत्तीओ संखिजाओ पमिपुखःतितिकावि धेयेति। चतुर्थे त्वयं प्राक्तनाध्य यनार्थसम्पन्ने बत्तीओ सणं अंगठ्ठयाए पढमे अंगे दो सुयवधा न तापसादिकष्टतपासेविनामष्टगुण श्वर्यमुद्वादयापि दृढसम्य कत्वेन भवितव्यमिति पंचमे त्वयं चतुरध्ययनार्थस्थितेनासार पणवीसे अज्ळया पञ्चासीई उद्देसणकाला पञ्चापरित्यागेन सोकसार रत्नत्रयो द्युक्तेन नाव्यमिति । षष्ठे त्वयं सीई समुद्देसणकाना अद्यारस पयसहस्साणि पयजणं प्रागुक्तगुणयुक्तेन निस्संगता युक्तेनाप्रतिबछेन नवितव्यं । संखिज्जा अक्खरा अणंतागमा अणंतापज्जवा परित्ता सप्तमेत्वयं संयमादि गुरयुक्तस्य कदाचिन्मोह समुत्थाः परि । तसा अणंता यावरा सासयकमनिबछनिकाया जिए Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आयारंग पनता जावा आघविज्जति पन्नविज्जन्ति परूविज्जति दंसिजन्ति निर्देसिज्जति वदंसिजति से पर्व आयासे एवं नायासे एवं विद्याया एवं चरणकरणपरूवणा विज्जइ सेतं आया रे || सर्फितमित्यादि । अथ किं तत् आचार इत्यादि अथवा कोऽय माचारः आचार्य मद ( भायारेण मित्यादि) आचरणमाचारः आचर्यते इति चा आचारः पूर्वपुरुयचरितो ज्ञानाद्यासेवन विधिरित्यर्थः । तत्प्रतिपादको ग्रंथो ऽप्याचार एव उच्यते अनेन चाचारण करणनूतेनाथवाबारे आधारभूते णमिति वाक्यासं कारे श्रमणानां प्रानिरूपित शब्दार्थानां निर्मन्यानां बाह्याभ्यन्तर ग्रंथरहितानां आ । श्रमणा निर्प्रन्या एव भवंति । तत्किमर्थ निर्मन्यानामिति विशेषणमुच्यते । शाक्यादिव्यवच्छेदार्थ शा क्यादयोऽपीह लोके भ्रमणा व्यपदिश्यते तडुकं ( निमान्यसकता सगे रुम आजीवपञ्चदा समणा इति ) तेषामाचारा व्याख्यायते । तत्राऽचारो ज्ञानाञ्चारायनेकभेद जिनो गोचरो भिकामणविधिः विनयो हानादिनिय चैनयिक विनयफलं कर्मकयादि शिकणं शिक्षा आसेचनशिका च विनयशिति चूर्णिकृत् । तत्र विनेयाः शिष्यास्तथा भाषा सत्या असत्या मृषा च अभाषा मृषा सत्यामृषा च चरणं व्रतादिकरणं पिरुविरुधादि च (वयसमणधम्मसंजय या ari च भगुप्तिभो । नाणा इति यतव कोह, निम्गाई चरणमे तु ॥ १ ॥ मिथसोहि समि प्राणपरिमादिनिरोहो । परिणगुप्तीभो । अभिग्गदो चैव करणं तु ॥ २ ॥ ( जाया माया विसिओत्ति ) यात्रा संयमयात्रा मात्रा तदर्थ मेष परिमिताहारग्रहणं वृत्तिर्विविधैरनिग्रहविर्विर्तन - चारश्च गोचरस्वेत्यादिदान्ता भाचाररचिनयनयिक शिका भाषाणा माचरणकरणयात्रामात्रावृत्तयः आस्यायंते रह पत्र कचिदन्यतरोपादानेन्यतरगतार्थाभिधानं तत्सर्व तद् प्राधा म्यख्यापनार्थमवसे ( से समासभ) इत्यादि समाचार समासतः संकेपतः पंचविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा ( नाणाचारो इत्यादि तत्र आयारेण मित्यादि आचारे णमिति वाक्यालंकारे परिसा परिमिता ततः महाप पार्कात्यायन्तोप सन्धैरयवा उत्सर्पिणीमवसर्पिणीं वा प्रतीत्य परिक्षा अनन्ता न भवति ( भाश्चन्तो वनंभणाओ तणामो अहवा श्रोसपिर्णीमुखीका पहुच्च परितातीयाणागयसम्बद्धं च परुष्य अयंता ) इति तथा संख्यानि अनुयोगधाराणि उपक्रमादीनि तानि ह्यध्ययनमध्ययनं प्रति वर्तते श्रध्ययनानि व संख्येयानीति कृत्वा तया संख्येया वेढा वेढो नाम च्छन्दोविशेषः । तथाच संख्येयाः श्लोकाः प्रतीताः तथा संख्येया निर्युतयस्तथा संस्था प्रातपतयः प्रतिपत्तयो नाम च्या दिपदार्थाभ्युपगमा प्रतिमाद्यनिमद्विशेषा या साः सूचनबद्धाः संख्येयाः । आह च चूर्णिकृत् । "दव्वाश्पयत्थपुन्वगमा, परिमादनिगढ़ पिसेसा परियती उत्ते समासतो सुत परिषद्धासंखेति " (सेमियादि) स आचारो समिति वायाकारे अंगार्थतया अंगार्थत्वेनार्थपरता यां सूत्रादस्य गरीयस्त्वस्यापनार्थ अथवा सूर्योभयरूप श्राचार इति ख्यापनायें प्रथममंगं एकारांतता सर्वत्र मागधनापालकृष्णानुसरणतो या स्थापनामधिकृत्य प्रथममंग मित्यर्थः ॥ तथा धौ श्रुतस्कन्धौ अध्ययन समुदायरूपौ पञ्चविंशतिरभ्ययनानि । तद्यथा ॥ आयारंग सत्यपरिक्षा सोगविजओ, सीओसणिज्जं सम्मतं । आवंतिधुय विमोहो, महापरिनोवहाएणसुयं ॥ पतानि नवाध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कंधे “पिरे सणासेज्जिरिया, भासजाया यवत्थपाएसा । उग्गहपकिमासत्ता, ससिक्कया यभा विमुती ॥ १ ॥ अत्र ( सेनिरियप्ति ) शय्याध्ययनमीर्याध्ययनं च (वायपासत्तिणाध्ययनं पापा भ्ययनं च अमूनि घोरुशाभ्ययनानि द्वितीय एव मेतानि निशीयवर्णानि पंचविंशतिरभ्ययनानि प्रति तथा पञ्चाशीतिदेशनकाला: रूपमिति चेपुच्यते ॥ दास्य सुतस्कन्धस्याध्ययनस्यादेशकस्य चैकदेशनका प शस्त्रपरिज्ञायां सप्तोद्देशनकाला | लोकविजये षट् ॥ शीतोष्णाभ्ययने चत्वारः ॥ सम्यक्त्वाध्ययने चत्वारः लोकसाराध्ययने षट् ॥ धूताध्ययने पञ्च ॥ विमोहाभ्ययनेऽष्टौ ॥ महापरिज्ञायां सप्त ॥ उपधानभूते चत्वारः ॥ विषयायने एकादश ॥ शब्देषणाध्ययने त्रयः ॥ वस्त्रैषणाध्ययने छौ ॥ अवग्रहप्रतिमाभ्ययने द्वौ ॥ सप्तसप्ततिकाध्यचनेषु भावनायामेकां विमुक्तावेकच ॥ एवमेते सर्वेऽपि पिंमिताः पञ्चाशीतिभवन्ति ॥ अत्र संग्रड्गाथा || 33 सतय बच्च उचउरो, पंचअट्टेवसत्तचउरोय । एक्कारस तिनि य दो दो, दो दो दो सप्तेक एको य ॥ १ ॥ पर्व समुदेशनका अपि पचाशीतिभवनीयाः । तया पदाग्रेण पदपरिमाणे नाष्टादश पदसहस्राणि द यथार्थोप सन्धिः तत्पदं पर माह । यद्याचारे द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरभ्ययनानि पदायेण चाादश पदसदस्याणि ति यगणितं " नव बंनचेरमइओ अट्ठारसपथसदस्सिभोवेत्र इति तद्विरुभ्यते । अत्र दि नषत्रह्मचर्याध्ययनमात्र पवाटादशपदसहस्रप्रमाण आचार उत्तोस्मिस्वभ्ययने श्रुतस्कन्धद्वयात्मकः पञ्चविंशत्यध्ययनरूपोऽष्टादशपदसहस्रप्रमाण इति । ततः कथं न परस्परं विरोधः तदयुक्तमजिप्रायापरिज्ञानाद ही भुतस्कन्धी पञ्चविंशतिरभ्ययनानि एतत्समग्रस्याऽचारस्य परिमाणं श्रष्टादशपदसहस्राणि पुनः प्रथमथुतस्कन्धस्य नवमाचर्याध्ययनमयस्य विधिवादार्थनिवानि दणि भवन्ति तय नयां सम्यगर्थागमो गुरुपदेशतो नयति नान्यथा अचार पूर्ववदन्धा पणवीसं अज्जयाणि एयं भायारगा सहियस्स श्रायारस्स पमाणं प्रणियं अट्ठारसपयसहस्सा पुण पढमसुयसंधस्स नपर्यमचेरमश्यस्त पमाणं दितिसुताय गुरुवएस भोर्सि भत्थो जाणियव्योति,, तथा संख्येयान्यकराणि पदानां संख्येयत्वात् तथा ( अणंता गमा) इति इह गमा अर्थगमा गृहांते । अर्थगमा नाम अर्थपरिच्छेदाः ते चानन्ताः एकस्मादेव सूत्रादतिशायि मतिमेधादिगुणानां तत्तद्धर्मविशि शानां तत्तकर्मात्मवस्तुप्रतिपत्तिभावात् । एतच टीकातो व्याख्यानं चूर्णित पुनराद | अभिधानाप्रियपतो गमा भवंति ते चानन्ताः अनेन च प्रकारेण वेदितव्याः । तद्यथा । सुर्य मे वसंतेणं जगवता एव मक्खायंति, इदञ्च सुधर्मस्वामी स्वामिनं प्रत्याद सत्रायमर्थः श्रुतं मया दे आयु मन् ! तेन भगवता वर्षमानस्वामिना एवमाख्यातं अथवा श्रुतं मया आयुष्मदते आयुष्मतो भगवतो वर्षमानस्य स्वामिनो समीपे णमिति वाक्यालंकारे तथाच भगवता पवमा Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४) अभिधानराजेन्द्रः | आयारंग ख्यातं । अथवा श्रुतं मया श्रायुष्मतोऽयवा श्रुतं मया जगवत्पादारविंदयुगलमामृशता । श्रथवा श्रुतं मया गुरुकुलवासमाचसता । अथवा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! ( तेणंति ) प्रथमार्थे तृतीया तत् भगवता एवमाख्यातं । अथवा श्रुतं मया हे आयुमन् ! (ते ंति ) तदा भगवता एवमाक्यातं । अलवा श्रुतं मया दे युष्मन् ! (ति) तत्र पर जीवनिकायविषये तंत्र वा विवर्द्धितेन समवसरणे स्थितेन भगवता एवमाख्यातं अथ वा श्रुतं मया श्रायुष्मन् ! वर्तते यतस्तेन भगवता एवमा ख्यातं एवमादयस्तं तमर्थमधिकृत्य गमा भवति । अनिधानवशतः पुनरेवं गमाः “सुयं मे आवलं त्रास सुयं मे मे सुयं, उस मित्येवमर्थभेदे तया तथा पदानां संयोजनतोऽभिधानतो गमा नवन्ति एवमादयः किल अनंता गमा नवंति । तया अनन्ताः पर्यायास्ते च स्वपरनेदनिनाः श्रकरा गोचरा मेदितव्याः तथा परीक्षा परिमिताप्रसा न्द्रियादयः स्थावरा अनन्ता वनस्पतिकायादयः ( सासपकरनिनिकाश्यति) शास्त्रता धर्मास्तिकायादयः कृताः प्रयोगविभ्रूसा जन्याः घटसन्ध्याभ्ररागादयः । एते सर्वेऽपि सादयो निबकाः सूत्रे स्वरूपतः उक्ताः । निकाचिता निर्युकम हेतूदाहरणादिमिरनेकथा व्यवस्थापिता जिनप्रप्ता भावा: पदार्या भाख्यायंते सामान्यरूपतया विशेष. रूपतया वा कथ्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदोपन्यासेन प्रपच्यन्ते प्ररूयन्ते सामादीनामेव नेदानांपपये स्वरूपने पृथग्विनक्ताः स्थाप्यन्ते दर्श्यन्ते उपमाप्रदर्शनेन यथा गौरिव गवइत्यादि निदर्शनेोदन्ते निग मनेन शिष्य निरकं व्यवस्थाप्यन्ते साम्प्रतमाचाराङ्गग्रह फर्ज प्रतिपादयति स एवमित्यादि स इति आचार्य गग्राहकोऽजिसम्बध्यते एवमात्मा एवंरूपो नवति ॥ अयमत्र नावः अस्मिन्नाचाएंगे भावतः सम्यगधीते सति तदुक्तक्रियानुशानानुपरिपाठात्साहान्मूर्त श्याचारोजयति । आच टीकाकृत् । तदुक्तक्रियापरिणामाव्यतिरेकात्स एवाचारो भवतीत्यथः । इति तदेवं क्रियामधिकृत्योक्तं संप्रति ज्ञानमधिकृत्याह ( एवं नायत्ति ) यथाआचारांगे निबका नावास्तथा तेषां भावानां ज्ञाता भवति तथा ( एवं विनायत्ति ) यथा निपुंसिंप्रददादरणादिभिर्विविधं प्ररूपितास्तया वि विधं ज्ञातारो भवति एवं चरणकरणप्ररूपणा आचार आख्या यंत सतं भायारोति ॥ नं० ॥ सेकितं भायारे आयारेणं समणणं निधार्थ भायारगोयर विजयवेणश्यागमनक मपमा जोगजुंजणभासा समितिगुप्ती से जो वनित्तपाण उमामासाविस शुचयनियमतबीचहापसत्यामादि से समासमा पविदो पं० [सं० णायारे, सायरे, वरित्तायारे, तवायारे, आयारस्स णं परतावायला संखेज्जा अणुश्रोगदारा संखेज्जाओ परिव ओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखज्जाओ निज्जुसीओ से णं गट्टयाए पढमे अंगे दो सुयक्खंधा पणवीसं पचासी उद्देसणकाला पञ्चासी समुदेणकाळा अट्टारस पदसहस्सा पदग्गेथा संखेज्जा अक्खरा श्रणंतागमा अणता पज्जवा परिता तसा असा यावरा सासया कमानिबा धिकाश्या जिणपचसा भावा भाघविनंति पक्षविजति परुविज्रंति नंदिस्संति नवदंसिज्जा से एवं णाए एवं विद्यार एवं चरणकरणपरूवणया आघबिज्जंति पर विजति नन्दि आयारकुसल सिजंति नवदंसिज्जति सतं आयारो ॥ सम०१२ स. । आचाराङ्गस्य व्यवच्छेदकाला ॥ विरहमुणिम्मि मरते, हरितगोसम्मोतिीसार । बरिसाणसदस्सेर्टि आचारंग पो च्छेदो ॥ साम्प्रतमुदेशाधिकार रात्रपराचा अर्थ जीव इत्यादि तत्र प्रथमादेशके सामान्येन जीवारितायं प्रतिपाद्य शेषेषु तु षट्सु विशेषेण पृथिवीकायाद्यतित्यमिति सर्व चावसाने बन्धविरतिप्रतिपादनामिति । एतच्चान्ते उपात्तवान् प्रत्येक मुद्देशार्येषु योजनीयं प्रथमोद्देशके जीवस्वपवधे वधो विरतिष्विति एवमिति तत्र शस्त्रपरिज्ञा ॥ श्रचा. १० अ० १४० साम्प्रतमाचारादिमदानस्य सुखप्रतिपतये दृष्टान्तोपम्यासेन विधिराख्यायते ॥ यथा कभिराजाऽजिनवनगर निवेशेच्या भूखंएकानि विजज्य समतया प्रकृतिभ्यो दत्तवांस्तथा कचवरापनयने शस्योकारे स्थिरीकरणे पकेटकापी उमासादचने रत्नाद्युपादाने सोपदेशं दत्तचीस्तीय प्रकृतमस्तदुपदेशानु सारेण तथैव कृत्वा यथाभिप्रेतान् प्रोगान् बुजिरे । अयमश्रार्थोपनयः। राजसरहोन सूरिणा प्रकृतिसशिष्यगणस्य भूखदशः संयमो मिध्यात्वकचपराद्यपनीय सर्वोपाधिशुरुयारोपणीयस्तं च सामायिकसंयमं स्थिरीकृत्य के कापी तुल्यानि मतान्यारोपणीयानि ततः प्रासादकल्पोऽय माचारो विधेयसुत्ररपथ शेषशास्त्रादिन्यान्याद निर्माणभाग्नवति । भाचा. १ अ. १ ब. ॥ आपारंगचूला आचाराङ्गचूका स्वी० आचाराङ्गस्य किती धुतल्ये (तद्वक्तव्यताऽऽचारसिकाशब्दे ) प्रय माचारकृति आचा० । आयारकुसल आचारकशल पुं० चाचारेण ज्ञानाचाचारेण कर्मकुः कर्मोदकः आचारविषये सम्यक परिज्ञानयति श्राचारे ज्ञातव्ये प्रयोक्तव्ये वा कुशलो दक्ष आचारकुशलः । आचारज्ञाने आचारप्रयोगे वा दके, च । व्य० च० ३ । आचारकुशलशद्वस्य व्याख्यानार्थमाद ॥ बाणे आखण, किंकरकरणमविनति । पट्टिय जोगजुंजण, नीयोगपूजा जड़ा कमसो | अफरुस अणबल मयमभगोमसी भरणा सहित समादिय गुणनिहि आयार कुशलेोड ॥ आचार कुशलो नाम यो गुर्वादी नामन्युपानं करोति (आखणति ) आसनप्रदानं तेषामेव गुर्वादीनां विधन्ते समागतानां पीठिकापनयतीति नाचः। तथा प्रातरेचागाय चाचार्यान् वदति संशित फिकरोमीति स किंकरः तया ( अन्भासकरणमिति ) ये अभ्यागतास्तेषा मात्मसमपिवर्त्तित्वकरणमभ्यासकरणं अविनक्तिर्विभागानायः शिष्यः प्रतिविकानां विशेषकरण मितिभावः ( परिरूव योगजुंजणत्ति ) प्रतिरूपः खम्मु विनयः कायिका दिनेदतश्चतु वस्ताद पीठिकायामनिदितस्तदनुगता लेगा मनोचाका यास्तेषां योजनं व्यापारणमवश्यकरणं श्रविभक्तविभागयोजनं ( नियोगति ) योयत्र वस्त्राद्युत्पादने नियोक्तव्यः तस्य तत्र नियोगं करोति ( पूजा जहा कमसोस ) गुर्यादनधानुरूपं क्रमश येन पूजा कियते अपरूपमनिपुरं मनः मन्दादित्यर्थः तापते ( प्रणवसत्ति ) तत्र प्राकृतत्वात् यकारलोपः तेन वलया इति षष्टव्यं तस्याऽभावोऽणबल्लया अकुटिलत्वमित्य र्थः । ञ्चपलः स्थिरस्वभावः अकुक्कुयो हस्तपादमुखादिवि रूपचेष्टारहितः। अदजको वंचनानुगतवचनविरहितः। सीभरो नाम य उल्लपन् परं बालया सिंचति तत्प्रतिषेधादसनिरः । प्राकृतत्वात्स्वार्थे कप्रत्ययविधानेन असीभरकः एष सर्वोऽपि Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७५) अभिधानराजेन्द्रः । भावारगोचर किल विनय इति वीर्याचारः प्रतिपादितो दृष्टव्यः संप्रति शेषाणां ज्ञानाद्याचाराणां प्ररूपणानिमित्तं पश्चार्द्धमाह । सहितो नाम यस्य हानादेरचितः कालस्तेनोपेतः । किमुक्तं भवति काले स्वाध्यायं करोति । काले प्रतिलेखनादिकं काले च स्वोचितं तप इति सम्यक आदितो यत् यस्योपधाने तत्करणे या स्वाभिप्राय समाहितः उपशमी हामादीनां दितः स्थित भीत्पत्ति हाना द्यधिकं निजतरं मात्मनोवान् सदेव गुरु बहुमानपर इति नायः । एवंज्ञानाद्याचारसमन्वितो गुणनिधियति । तत बाद गुणनिधिर्गुण नामाकरः एप आचारकुशलः सांप्रतमेत देव गायाद्वयं विनेयजनानुग्रहाय भाष्यकृद्व्याख्यानयति । गुरुमायाण पदार्थ व दोष तस्सेच गोसे चब आयरिये संदिसदा किं करोमिति अत्र गोले ) इति प्रातरेवेत्यर्यः " सन्भासकरणधम्मं, बेयाण विभत्ति सीसपामिच्छे । परिरुवजोगो जड़, पीढियाए जुजणं करेमि धुवं " अत्र प्रतिरूपयोगो यथा पीठिकायां प्राक् प्रतिरूपविनयाधिका रेऽनिहितस्तथा प्रतिपत्तव्यः ( जुंजणं ) इत्यस्य व्याख्यानं यत् भुवमादीनं प्रतिरूपयोगात्करोति पारयतीतिभावः । (पूयं जहाणुरूवं, गुरुमादीणं करेह कमसोन । चल्दादिजणमदर्स भचपला होत्र) च्हादजननमिति मनः महाजन" बचतधिरस्समायो अदवायोर अनुयाज्ञानसीजर सहितो फालेलणाणादि" प स्पंदनता भंगोचितस्तपादादिचेष्टाविकलता सम्म महियनायो समाहितो समीयम्मि नाणादिचं तु सकितो गुणनिदजोभागरो गुणाणं गाथापंचकमपि गतार्थम् ॥ व्य. ॥ आवारगी आचारापती श्रीमाचा चास्नानादिस्तत्प्रकाशनेनापधी आचारापथी । आपथी कथानेदे ॥ स्या० ४ डा. ॥ आयारगोयर- प्रचारगोचर पुं० आचारो मोहार्यमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो विषय आचारगोचरः भाचा० ॥ 9. अ. १ ४० । आचारः साधुसमाचारस्तस्य गोचरो विषयो मतपदकादिराचारगोचरः साधुसमाचारविषये व्रतपट्कादिके, आचारश्च ज्ञानादि विषयः पञ्चधा गोवरश्ध निकाचयेंत्याचारगोचरं ज्ञानाचारादिके, भिकाचयां च न ॥ सें भाचारगोयरं प्रणयाए अन्नुट्ठेयव्वं भवर स्था० डा. विनक्तिविपरिणामादाचारगोचरस्य ग्रहणतायां शिक्षण कमाचारावर प्रावितुमित्यर्थः ॥ श्या० आयारगोयरं विणयवपश्यचरणकरणजायामायावत्ति यं धम्ममाश्क्खीयं ॥ आचारः श्रुतज्ञानादि विषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादिगोचरो निक्कादनम् एतयोः समाहारद्वन्द्वस्ततस्तवा. ख्यातमिच्छामीति योग इति ॥ प्र० १ ० १ ० ॥ क्रियाकलापे, पुं० दश० ६ अ० ॥ रायाणो रायमा य, माहया अदुवा खत्तिया । पुच्छंति निहुप्पा कहं आयारगोयरं ।। डा. व्या० ॥ राजानो नरपतयः राजामात्याश्च मंत्रिणः ब्राह्मणाः प्रतीताः (अनुवति) तथा कृत्रियाः भादयः पृच्छति नितात्मा असता रचितांजनयः कर्म तेवत आचारगोचर कियाका स्थित इति सूत्रार्थः ॥ सिसोदितो सम्बन्य मुदावहो । सिक्खा एस समाउतो आइक्वेज्ड त्रियक्खरो ॥ ३ ॥ व्या० ॥ तेज्यो राजादित्यः भली वर्णी निन्तोऽसंगत उचितधः कार्यस्थित्या दांत आयारग्ग मनोदमायां सर्वत सुखावहः सर्वप्राणिहितस्त्वर्थः । शिया ग्रहणासेवनरूपया सुसमायुक्तः सन्तु एकीनावेन युक्तः श्राख्याति कथयति चिकणात इति सुचार्थः । ( इंदि धम्मत्थकामाणं, निगथाण सुणेह मे । श्रायारगोयरं भोमे सपदिवि ) सन्या० ॥ इंदि तमेनं धम्मार्थकामानामिति धर्मचारिधर्मादिस्तस्यार्थः प्रयोजनं मोका वितानुष्ठानफरणेनेति धम्मार्थकामाः मुमुक्तवस्तेषां निर्भयानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहि तानां शृत मम समीपात् आचारगोचरं क्रियाकलापं भीमं कर्मशवपेया रौद्रं सकलं संपूर्ण दुरधिष्ठं कुरुसत्वैईराश्रयमिति सूत्रार्थः ॥ आयारग्ग- आचाराग्र न० आचारांगस्य द्वितीये श्रुतस्कंधे तद्वक्तव्यताऽचारांगटीकायाम् ॥ ( आचारमेरो-गदितस्य शतः प्रवमिच्छषिकवृञ्जिकागतां । प्रारिप्सितेऽर्थे गुण वान् कृती सदा, जयेत निः शेषमशेषितक्रियः १ ) तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचारश्रुतस्कंधः सांप्रतं प्रतस्थ समारज्यते अस्य चायमभिसंबंधः उक्तम् प्राचारपरिमाणम् प्रतिपादयता तद्यथा ( णवबंभचेरमश् कोलारस पयसदस्सिय देयो र यस २ अयरो पयग्गेणं ) तत्राद्ये वे नवब्रह्मचर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि तेषु चन समस्तोऽपिविवहितोऽयमि दितोनसिप संक्षेपतोऽतोऽनिहिताय निधानाय संपो कस्य च प्रपंचाय तद्गूनूताश्चतस्रश्नमा उक्ताः अनुक्तसंगहिका प्रतिपादयते ॥ तदात्मका योप्रधुतस्कंध इत्यनेन संथधेनायातस्यास्य व्याख्या प्रतन्यते तथा चाचारांग नियुक्ती अनिक्षेपस्प्रतिपाचाद ॥ क्यारेण उपमयं आयारस्सेव उवरि माई | तुरुवस्वपन्यस्य जह अम्गाई गई वाई ||२|| उपकाराप्रेणात्र प्रकृतमधिकारः यस्मादेतान्याचारस्यथोपरि वर्त्तन्ते शेषवादितया तत्वज्ञान तथा पर्वतादेरप्राणीति शेषाणि त्वप्राणि शिष्यमतिव्युत्पत्यर्थमस्य चोपकारामस्य सुखप्रतिपत्यर्थमिति त तचारिस सरिसं जं वितं परुव विहिणा, जेणदि गारो तं मिळ, परुचिए होम खुद सहानी वाच्यं केनैतानि निदान किमये कतो त्यतमाद ॥ धरदि अम्गादड्डा, सिसदियं होत पागमत्थं च ॥ श्रयारात भत्यो, आयारग्गेसु पविमतो गाढा ॥ घेरेीत्यादि स्थवि श पूर्व विर्निवृंदानीति किमये शिष्यदितं भवत्विति कृत्या अनुप्रदायें तथा अप्रकटोऽया प्रकटोयथास्यादित्येवमर्थ च कुतोनिर्व्यूढाचारात् सकाशात्समस्तोऽप्यर्थः भाचाराप्रेषु विस्तरेण प्रविनक्त इति ॥ सांप्रतं यद्यस्मादि तादानाचष्ट इति ॥ विर अस्स व पंचम, अमगस्स बीधाम उदेसो ॥ णि पिसज्जा, वत्यं पाप्रोग्गहे चैव ॥ ४ ॥ पंचमगस्त चडत्ये इरिया वणिज्जइ समासेणं ॥ स्य पंचमए, जासज्जाया वियाणाहि ॥ ए ॥ सत्तेकाणि सविदाई महापरिघावो || सत्यपरिष्मा जाण, सिदार पुवावेतो ॥ ६ ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारग्ग (३७६) अभिधानराजेन्द्रः । आयारपकष्पोट, पञ्चखाणस्स तयवत्यूच्यो । आयारणामधेना, विसइमा पातुरुच्छेया ॥ ७ ॥ विश्यस्सेत्यादि चतस्रो । गाथाः ब्रह्मचर्याध्ययनानां द्वितीय मध्ययनं लोकविजयाख्यं तत्र पंचमोद्देशके इदं सूत्रं ( सव्वामगं परिक्षाय निरामगंधो परिव्या) तत्रामग्रहणेन दननाथास्तिन- फोटो गृहीता गन्धोपादानादपरास्तिन पताः परय विशोधिकोटचस्ताश्वेमा स्वतो हंति घातयति प्रन्तमनु जानीते तथा पचति पाचपति पवन्मनुजानीत इति तथा तत्रैव सूत्रं ( अदिस्समाणो कयविकहिति ) अन नापि तिम्रो विशोधिकोटथी गृहीतास्ताश्वेनातिकाप यति श्रीतमन्यमनुजानीते तथाऽहमस्य विमोदाध्ययनस्य फीयोदेशके दं सूत्रं ( भिक्खु परिक्रमेन्ज वा चिज या वीसिया सुयेज्ज वा सु साणंसि देत्यादि) बायत् (बहिया विहरेज्जा तं भिक्खुं गादावति नवसंकमिन्नुवएज्जा अमा उसंतो समणा तुग्भट्ठाये असणं वा ४ पाणाएं न्याएं जीवा सत्तारं समारम्भसमुदिस्स की पामिच्च) मित्यादि पतानि सर्वाण्यपि पाएकादशपणा निर्व्यूढास्त यास्मिययाध्ययने पंचमोदेश के सूत्रं ( से कार्य परिगा दं कंब पायणं समादं चकासपमिति ) तत्र व सपाद्पुंग्नग्रहणात् वस्त्रेपणा निर्व्यूढा पतद्ग्रहपदात्पात्रैषणा निर्व्यूढा अवग्रह इत्येतस्मादवग्रहप्रतिमा निर्व्यूढा कमासनमित्येतस्माच्छय्येति तथा पंचमाध्ययनार्वत्याख्यस्य चतुष्ठद्देशक सूत्रे (गामाणुगाम॑ अ॒च्यमानस्य दुज्यायं दुष्परकंतामित्यादि संकेपेण व्यावणितेत्यत ईर्याध्ययनं निर्व्यूढं तथा षष्ठाध्ययनस्य वाण्यस्य पंचमोदेशक (आरपार कि कृति धम्मकामी) त्येतस्माद्वाषाध्ययनमा विज्ञान पास्त्वमिति तथा महापरिज्ञाययने सप्तदेशकास्तेभ्यः प्रत्येकं सप्तापि सप्तकका निर्व्यूढास्ता शस्त्रपरिध्ययनाद्भावना निर्व्यूढास्तथा धृताध्ययनस्य द्वितीयचतुर्थकोद्देशकाच्यां विमुताध्ययनं निन्दमिति तहाचारप्रकल्पो निशीचा स प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत् तृतीयं वस्तु तस्याऽपि यदाचाराख्य विंशतितमं प्रानृतं ततो निर्व्यूढ इति ब्रह्मचर्याध्ययनेज्य आ. चाराग्राणि निदान्यतो निदनाधिकारादेव तान्यपि शस्त्रपरिकाभ्ययनानि निदानीति दर्शयति ॥ अव्योगको जणिओ, सत्यपरिएणाए दंक निक्लेवो ॥ सो पुल विज्ञमाणो, तहा तहा होइ पायव्वो ॥ ८ ॥ उ आयारह भवति । पुनर्म्मनोवाक्काययोगभेदात्रिविधः स एव चतुर्याम भेदाच्चतुर्धा पुनः पञ्चमहाव्रतभेदात्पंचधा । रात्रिभोजनविरतिपरिग्रहाच पोडेत्यादिषया प्रयियाभिद्यमानो याचदा दशशीलांगसनपरिमाणो भवतीति किंपुनरसी संयमस्तत्र तत्र प्रवचने पंचमहाव्रतरूपतया भिद्यते इत्याह ॥ प्राक्व चिज विधान सुतरं होई । एएए कारणे, पञ्चमहव्वया पाविज्जंति ॥। ११ ॥ संयमः पञ्चमहाव्रतरूपतया व्यवस्थापितः सन्नास्यातुं विभक्तुं विज्ञातुं च सुखेनैव भवतीत्यतः कारणात्पञ्चमहाव्रतानि प्रज्ञाप्यते । एतानि च पञ्चमहाव्रतान्यस्खलितानि फलयन्ति भवत्यतो रहातो विधेयस्तदर्थमाद] ॥ तेसिं च रक्खाडा, जावा पचन येके । तासत्यपरियार, एसो अनितरो होइ ।। १२ ।। तेषां च महाव्रतानामेकैकस्य तद्वृत्तिकल्पाः पंच २ भावना भर्पति। ताश्च द्वितीयातस्कंध प्रतिपा शस्त्रपरिज्ञाभ्ययनाभ्यंतरो भवतीति ॥ सांप्रतं चूमानां यथा स्वं परिमाणमाह ॥ जालम्गहपरिमाओ, पढमा सन्ति किगावीय चूला प्रावणविम्मुति आयrरपकप्पा तिमि इति पंच | १३ | पिंषणाध्ययनादारज्य श्रवग्र प्रतिमाध्ययनं यावत् पतानि सप्ताऽध्ययनानि प्रथमाचूमा सप्तसतकका द्वितीया भावना तृतीया विमुकः चतुर्थी आचारविकल्पो निशीथः सा पंचमी चूमेति आचा. २४.१ च. आयारचूला आचारचुला श्री० उरुशेषानुयादिना आचारस्य चूला आचार चूहा। आचाराने आचारांगस्य द्विसीवेध्यतस्कंधे, आचा० अ. १. उ. आचाराग्राणि चूलिका इति आचा० ॥ श्राचारांगस्याद्वितीय तस्कंधे पञ्चास्तत्र प्रथमा (पिने सणसेरिया, नासा या य पासा। उग्गहपरिमत्ति) सप्ताध्ययनात्मिका द्वितीया सत्तसत्तिकया तृतीया भावना चतुर्थी विमुक्तिः पञ्चमी निशोथाध्ययनमिति । आचा० अ० १ ० १ ॥ पताश्चावारभूतस्कंधस्य नवज्यो म्हार्याध्ययनेज्यो निदा इति आचाराप्रशब्दे ॥ आयारलिया - आचारचूमिका स्त्री०आचारायाम्, आयारस्सणं जगवो सतृतीयागस्स पन्दासां उसणकाला सम० ८५ स ॥ आचारांगस्य विमुनिधाने सर्वोतमेयने पतिपदं गणिपिरुगाणं, श्रायारचूलियावाणं सत्तावन्नं अज्क्रयणा प० सम० ५७ स. ॥ - अव्याकृतोऽव्यक्तोऽपरिस्फुट इति यावत् भणितः प्रतिपादितः कोसी नशेः प्राणिमिणस्तस्य निपा परित्यागः संयम इत्यर्थः । स च शस्त्रपारिकायामन्योऽजड़ितो चतस्तेन पुनर्विभज्यमानोऽस्वप्यभ्ययनेप्यखाये तथा तथा नेकप्रकारो ज्ञातव्यो भवतीति ॥ कथं पुनर संयमः संज्ञेपोऽभिहितो विस्तायत याद । एगो पुसो, संजमोति प्रकात्थ बाहिरेय दुहा । मणवयणकायतिविहो, चलविहो चालजामोउ || पंच य महव्बयाई तु, पंचहाराइ जोयणं बठ्ठा । सीगसहस्सा णि य, एसो उ अजित दोइ ॥ १० ॥ (गविहो ) इत्यादि (पंचय ) इत्यादि अविरतिवृतिकण एकविधः संयमः सपवाऽध्यात्मिकबाह्यभेदात् द्विधा | आयारट्ठ-आचारस्थ त्रि० भाचारे स्थित भाचारस्थः काना आचारस्य श्रुतस्कंधद्वयरूपस्य प्रथमाङ्गस्य चूलिका सर्वान्तिममध्ययनं विमुक्तयभिधानमाचारचूलिका तर्जानामिति सम० टी. ॥ आपारीगा आचारटीका श्री० सिंगाचार्यविरचितायामाचारांगन्याच्यायाम, तथाचायासंगी कायाम आचारीका करणे । “माचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः ॥ तथैव किञ्चिदतः स एव मे, पुनातु धीमान् चिनार्पिता गिरा ॥ १ ॥ शस्त्रपरिधाविवरण, मतियडुमदनञ्च गन्धहस्तिकृतं॥ तस्मात्सुखबोधार्थ, गृएहाम्यहमञ्जसा सारम्॥ २ ॥ " आचा० टी. अ. १ च १ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । मायारणिज्जुत्ति चारादिपंचविधाचारयुके, " नाणंमि दंसणंमिय, तवे चरितेय समणसारांम । ण च पति जो ग्वे, अप्पाणं गणं न गणहारी । एसगण हरमेरा, आयारस्याणवमिता सुत्ते,, । पं० ना० ॥ एसा गणधरमेरोर्मदा सीमा इत्यर्थः (आयारद्वाणंति पंचविहे आयरे जुत्ताणं) भाचारे स्थित आचारस्थः तेषां वर्णिता स्तत्र प्रणीता इत्यर्थः । पं० ० ॥ घ्यायारणिज्जांचे आचार नियुक्ति स्त्री० निर्युक्तानां सूत्रेऽनिधेय या व्यवस्थापितानामर्थानां युक्तिर्घटना विशिष्ट योजना निर्युक्तियुकिरत स्निग्ध वाच्ये युक्तशब्द सोपा नियुक्तिरित्युच्यते । समस. ९ श्राचारस्य निर्युक्तिराचारनिर्युक्तिः। प्राचार सूत्रानां विशिष्ट योजनायाम्, तथाच समवायांगे। आचारांग मधिकृत्य "संतुसिमो समय १ स ॥ आचारांग नियुक्ति भद्रास्वामिना रचिता । तथाचाचारांग कार्या भवादुस्वामिनमधिकृत्य पूर्वमावश्यक निर्युकि विधाय पथादाचारांग नियुक्ति चक्रे तथाचेोकं ( भावस्यस्स दस काaियस्स तह उतरज्जयमायारप्ति ) आची. अ. १. १ यायारते आचारस्तेन - त्रि० विशिष्टाचारवत्तुल्यरूपे "मायारभावतेणेय कुवर देवकिव्विस ४६ " दश० अ. ५ . २ ॥ आपारदशा-आचारदा स्त्री० माचरणमा चारे इानादि चित्रयः पंचधा । आचारप्रतिपादनपरा दशा आचारदशा । दशाभैदे, दशाध्ययनात्मिका आचारदशा दशाश्रुतस्कंध इति या रूढोति स्पा. वा. १० ॥ अङ्गदशा । अएहावि हु उ बासगादि तु विसेस यावारशा तुम्मो, जेणेत्यं परिया भा० आचारदशानामभ्वयनविभागमाद । या स्था. १०वा. ॥ आयारदसाणं दस भायणा पक्षता । तंजदा वीसं असमादिगणा इवीसं सबला तित्तिसं आसायणाओ भgविदा गणिसंपया दस विससमादिद्वाणा इकारस वासगपरिमाश्री बारस भिक्खुपरिमाभो फज्ञोपणा कप्पे तिसं मोहणिज्जगणा ॥ समाधिस्थानानि पैरासेवितमपरोनथानामिद परचो प्रयत्र वा असमाधिरुत्पद्यते तानीति भावस्तानि च विशति तचारित्वादीनि । तत एवावगम्यनीति तत्प्रतिपादक मध्ययनमसमाधिस्थानानीति । प्रथमतया एकविंशतिः शबत्राः शचत्रं कर्बूरं सव्यतः पटादिः नावतः साऽतिचारं चारित्रमिह व शतचारित्रयोगात् शबलाः साधवस्ते च करमेनार मैनादीन्येकविंशतिपदानि ॥ १ ॥ तत्रे वोक्तरूपाणि सेवमाना उपाधित एकविंशतियति । तदर्थ मभ्ययनमेकविंशति नवा इत्यभिधीयते ॥ २ ॥ ते तो समासापायति हाल दिगुणाः श्रा समस्येन शात्यते अपभ्वस्यते यकानिस्ता भाशातना रत्नाधिकविषयाः अवि नयरूपाः पुरतो ममतादिकास्तमसि काशिदा यत्राविधीयते तदद्भ्ययनमपि तथैवोच्यत इति ॥ ३ ॥ (ट्टेत्यादि) अष्टाविया गणिपत् भाचारभूतशरीरवचनादिका प्राचार्य गुणरिष्ठस्थानको रूपा यत्राभिधायिते तद्भ्ययनमा शते ॥ ४ ॥ (वखेत्यादि) दशचित्तसमाधिस्था नानि येषु सत्सु वित्तस्य प्रशस्तपतिर्जायते तानि सपा सत्यपर्वतोत्पादानि तव प्रसिद्धान्यभि श्रीयन्ते यत्र तत इति । (कारे त्यादि पकादशी आयारपकप्प पासकानां धयका प्रतिमा प्रतिपत्तिविशेषाः दर्शन सामयिक/दिविषयाः प्रतिपाद्यते यत्र तत्तथैवच्यते ॥ ६॥ (बारसेत्यादि भिषां प्रतिमा अभिमा मासिकी हिमा सिप्रनृताभिधीयन्ते तच योच्यत इति ॥ ७ ॥ पनोइत्यादि । पर्याया ऋजूका इन्यक्षेत्रकालभावसंबन्धिन सुज्यन्ते यस्यां सा निस्कविधिना पर्यासवमा अथवा परीति सर्वतोपादिभावेन्य उपशम्यते यस्यां सा पनामा परि सर्वधा एक बतः सप्ततिदिनानि ततः परमासान् वसने निरुकादेव पणा तस्याः कल्प चारोमर्यादेत्यर्थः ॥ पयसपनाकल्पः पर्युपश मनाकल्प पर्यषणा कति स च सजवणं विनय वयमित्यादिस्तत्रैव प्रासस्तदर्थमध्ययनं स पचोच्यत इति ॥ तीस मित्यादि) निम्नकर्मणो बन्धस्था नानिबन्धकारणानि वारिमगदिता तसे पाि सादिकानि तव प्रमोद यानानि त्यति पादकमभ्ययनं तथैवोयतशत ॥ ९ ॥ श्रयास्ट्राण ) मिति श्राजननमाजातिः सम्मूर्द्वनगनोपपाततो जन्म तस्याः स्थानं संसारतास निदानस्य भवतीत्येवमर्थप्रतिपादनपरमाजाति स्थानमुच्यते ॥ इति गं. टी. ग. १० ॥ आयारपकप्प - आचारप्रकल्प - पुं० आचार एवाचार प्रकल्पः क्रिया आचारक्रियायाम्, आव० ४ श्र ॥ आचार भावारांगम कपोनिययनम् तस्यैय पञ्चमन्ता] प्राचारेण सहितः प्रकल्पः आचारप्रकल्पः निशीथाध्ययनसहिते आचाएंगे, ध० अ. ३ ॥ अट्ठावीस रवि आयारपकप्पे आव ३ भ. ॥ सत्यपरिना लोगविजओ, सिप्रोस णिज्जं संमत्तं ॥ आरति विगोड़ो, उहाण महपरिभा ।। ५१ ।। पिंकेक्षण सिज्जीरिजा, जासन्ना या य बत्यपाएसा ।। उग्गहासाने कमतयं जावणविमुति ।। ५२ ।। उपायमा आरोपणतिविमो निसीत ॥ इति अट्ठाविसविहो, आधारपकप्पनामायं । ५२ ।। अशीवशतिविधे प्रचार प्रकल्पे श्राचार एवाचारप्रकल्पः क्रिया पूर्ववत्। देणागादा १५२ म्यागाथाचयं निगद सिमेव । अष्टाविंशतिविवः आचारप्रकरूपः निशोथांतमाचारांगमिस ॥ सत्यपरिक्षा ? लोकविजओ 2 सीग्रोसणिज्जा ३ संमतं वंति व ६ विमोहो उ छवहाणत्ययं ४ मदपरिक्षा प्रथमस्य श्रुतस्कंपस्याऽध्ययनानि । तीयस्य तु पिंकेतण १ सेज्ज २ इरिया ३ नासाजाया यवत्य ५ पाएमा ६ डग्गाहुपरिमा ७ सचसतिक या ४ जावा विमुत्ति ६ उग्धा अम्बाइ २ आ रुहणा३तिविमोनिसीहं तु इति अट्टाविसविड़ो आयार पकप्पनामोति ॥ जाति यत्र घुमासादिकं प्रायति धात कं तु यत्र गुरुमासादि भारोपणाच पत्रकार मन्त्रान्य दयारोप्यत इति ।। प्रश्न. सं. ५. ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८) मायारपकप्प अभिधानराजेन्द्रः। पायारपकप्प अष्टाविंशत्या भाचारप्रकल्पैः आचार आचारांगं प्रकल्पो आयारो अग्गति, पकप्पे तह चुलीया णिसीहंति । निशीयाध्ययनं तस्यैव पंचमचूना । भाचारणे सहितः णिसीतं सुत्तत्थ तहा, तह आए पुबिअक्खातं शगाहा।। प्रकल्प आचारप्रकल्पस्तैः पंचविंशत्यध्ययनात्मकत्वात्पंचा एसादारगाहा वक्खमाणसरुवा आयारमाईयाणि इमा शतिविध आचार द्धातिममनुद्धातिममारोपणेति त्रिधा प्रक सामाणिक्खेवलक्खणा गाहा ।। पोमीलनेऽष्टाविंशतिविधस्तत्र पंचविंशतिरभ्ययनान्यमूनि॥ आयारे णिक्खेवो, चविधो दशाविधो य अग्जाम्म । सत्यपरिक्षा १ रोगविजयो ५ सीओसणीज्जं ३ बकायपकप्पंमि, चनीयाए निशीथे या नि..१उ. संमतं व आवंतियोगसारंवा ५ धुयं ६ क्मिोहो ७ उव आचारप्रकल्पः पंचविधः तहाच स्थानांगे ॥ हाणसुअंत महापरिश्मा एपिसणा १० सिज्जा११ पंचविहे आयारपकप्पे पं0 तं०। मासिए उग्याइए १ माइरिया १५ नासाजायं १३ वत्येसणा १४ पाएसणा१५ सिये अग्याइए २ चउम्मासिए उग्याइए ३ चजग्गहपमिमा १६ गणसत्तिक्कयं १७ निसीहासत्ति उम्मासिये अाग्याइये ४ अरोवणा ।। स्था.५ ग.।। कर्य १० उच्चारणसवणसत्तिकयं १५ सदसत्तिकयंशन आचारस्य प्रयमांगस्य पदविनागसमाचारी वकणरूवसत्तिकयं १ पराकरिसत्तिकयं २ अन्नोन्नकि- प्रकृष्टकल्पाऽनिधायकत्वात्प्रकल्प प्राचारप्रकल्प निशीथाध्यरिासत्तिकयं २३ नावणा शव विमुत्ति २५.ध.३.अ. यनं स च पंचविधः । पंचविधप्रायाश्चत्तानिधायकत्वात्तथा हि। तत्र केषुचिऽद्देशकेषु बधुमासप्रायश्चित्तापत्तिरुत्पयते १ आयरणं आयायारो सो य पंचविहो पाणदंसण केषुचिच्च गुरुमासापत्तिः एवं अघुचतुर्मास ३गुरुचतुर्मासाथ चरित्ततवाक्यारो य तस्स पकारसेणं कप्पणा पक- रोपणाश्चेति एतत्र मासेन निष्पन्नं मासिकं तपस्तश्च उद्घातो प्पणा सपनेदनिरूपणा आ.चू.४ अ. नि. चू. नोगपातो यत्रास्ति तदुद्घातिकं सध्वित्यर्थः। यत उक्तं अकेण बिन्ने सेस, पुन्बकेणं तु संजुयं कालं । देजाहि सहु य दाणं, गुरुदाणं तत्तियं चेवत्ति ॥१॥ पंचेवत्ति । एतावना मासिभाचारः प्रयमांगन्तस्य प्रकल्पोऽध्ययनविशेषोनिशीथामत्य कतपोऽधिकृत्योपदश्यते । मासस्याऽईच्छिन्नस्य शेष दिनानां परानिधानस्य वाऽऽचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादि विषय पंचदशकं तन्मासापेक्षया च पूर्वस्थ पंचविंशतिकस्याऽन स्य प्रकल्पोऽध्यवसायामित्याचारप्रकल्पः। सम० स. २० ॥ साधादशकेन संयुतं कृतं सार्दा सप्तविंशतिनेवतीति । श्राआचारस्य प्रथमांगस्य पदविभागसमाचारीलक्षणप्रकृरकल्पा रोपणा तु (चढावणित्ति जणियं हो३) योहि यथा प्रतिषेवित निधायकत्वात् प्रकल्प आचारप्रकल्पः निशीथाभ्ययनं आचारां मालोचयतितस्य प्रतिषेवानिष्पन्नमेव मासाघुमासगुरुप्रनृतिगस्य निशीथाध्ययने, स्था०५हा.। कं दीयते । यस्तु न तथा तत्तावद्दीयते एवमायासनिष्पन्नं यस्मात्तत्रदशविध आचारः ज्ञानदर्शनचारिश्रतपोवीर्याचा चान्यदारोप्यत श्त्यारोपणेति ॥ ग० टी० ग०५॥ रश्च प्रकल्पते ण्याप्यते प्रज्ञाप्यते इत्यर्थ इत्यत आचारप्रक- अस्याष्टाविंशतिभेदाः समवायाने यथा ॥ ल्प इति पं०० अट्ठाविस विहे आयारपकप्पे ५० तं० ॥ मासिया प्राप्राचारप्रकल्पस्य नामधेयानि निशीथचूर्णी यया । रोवणा सपंचरामासीया आरोवणा सदसराइमासियाआयारपकप्पस्स उ, इमाई गोणाई णामधिज्जाई। आरोवणा सपन्नरसराइमासिया आरोवणा । सवीसश्राआयारमाइयाई, पायच्छितेणहीगारो ॥३॥गाहा इमासिया आरोवणा । सपंचवीसराइमासिया आरोवणा। आयरणं आयारो सो य पंचविहो णाणदसणचरित्ततव एवं चव दोमासीया आरोवाणा सपंचराश्दोमासीया वीरियायारोय तस्स पकरिसेणं कप्पणा पकप्पणा सप्रभे आरोवणा एवं तिमासीया आरोवणा चउमासीयाआरोदप्ररुपऐत्यर्थः श्माईति वक्खमाणात्ति गोणग्रहणं पारिजासिय नदासत्यं तंजहा अमुद्दोसमुदो इंदं गोवयतीति इंद वणा नवघाइयाआरोवणा अणुघाश्या आरोवणा कगोवगो एवं तस्स आयारपकप्पस्स णाम न भवति गुणा- सिणा आरोवणा अकसिणा आरोवणा। एतावता आप्फर्म भवतिं "गुणनिष्फम्मं गोणं, तंचेव जहत्य मत्थवीपति यारकप्पे एतावताय आयरियव्वे । सम. १० स.॥ तं पुण खवयो जमणो, तवणो पवणो पदीवो य ॥१॥" णामाणि, अभिधेयाणि नामधेज्जाणि अहवा धरणियाणि वा धे अत्रैव निगमनमाह। जाति णामधेज्जाति सार्थकाणीत्यर्थः । आयारो आदीजास एतावांस्तावदाचारप्रकल्प इह स्थानके प्रारोपणामाश्रित्य विवक्तिोऽन्यया तध्यतिरेकेणाऽपि तस्यैतद्वातिकरूपस्यताणि नामाणि पायारादीणि पंच पायच्छिते अहीगारेसि भत्थेलु, दारं सीसो पुजाति ण पायच्छिते अहिगारोत्ति भावात् अथ चैतावानेवायं तावदाचारप्रकल्पः शेषस्यात्रैषांत पुच्चाहि अत्याहिकार एव नणिओ आयरिओनणति सन्य नावात् स. स. २८॥ तत्थ नणिओ इह विशेषज्ञापनार्थ भणति अमत्थवि ऑयारस श्राचारप्रकल्पो महानिशीथः । स च प्रत्याख्यानपूर्वस्य य सवणा कया श्हतु आयारसरुवंपायचित्तंपरूविज्जति अहवा तृतीयं वस्तु तस्यापि यदाचाराख्यं विंशतितमं प्रान्त प्रायश्चित्ते प्रयत्न श्त्यर्थः॥ ततो नियूद इति प्राचा० कि. श्र. भ. १ ॥ प्रदवा शहभणिो तत्थ दट्ठन्यो प्रायारमाझ्याति जंभणि तथा च निशोथों । यंताणि य इमाणि ॥ निर्मायं णवमा पुव्वा, पञ्चक्खाणस्स तत्तियवत्युउ । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प अभिधानराजेन्द्रः। पायारपकप्प आयारनामधेज्जा, वासनिजापाहुमच्छेदा ॥१५॥ ओसप्पिणीसवणाणं, हाणिं णानण आगबमाणं। पुव्वगतेहि तो पश्चक्खाणपुचणाम णवमपुव्वात्तस्सं वीस होहिं तु वग्गधं, करा पुव्वगतं मि पहीणंमी॥२॥ वत्पु वत्युत्ति वत्थुनूतं वीसं अत्याधिकारात्तसु तत्तिय भाया खेतस्स य कानस्स य, परिहाणिं गहणधारणाणं च। रणामधिज्जं जं वत्युं तस्स वत्थुस्स बीसं पाहुरच्छेदो परिमाणपरिजिम्माप्राभृतवत् अर्थच्छेदपाहुमजेदा जति । तेसु वि बनविरिए संघयणे, सफाउच्गहतो चे व॥३॥ जं वीसतिम पाडुमच्छदं ततो णिसीहं सिकं॥ किं खेत्तं कालो वा, संकुयति जेण तेण पारहाणी। तथाच व्यवहारकटपे॥ जप न संकुयंति, परिहाणी तेसि तु गुणहिं॥४॥ यारपकप्पो ऊ, नवमे पुव्वंमि आसि सोधीय । जणियबदुसमाए, गामा होहंति त्तमसाणसामाइय । तत्तोचि य निज्जदो, शहाणियतो किं न सुधिजवे॥ आचारप्रकल्पः पूर्व नवमे पूर्वे आसीत् शोधितश्च ततोऽनषत् खत्तगुणहाणि काले, विनहोतिमाहाण समये ।।५।। श्वार्नी पुनरिहाचारांगे तत एव नवमानियूह्याऽनीतः । ततः समयणता परिहा, यंते उवएहमादीया । किमेष आचारप्रकल्पो न भवति किं वा ततः शोधिनापजाय. दव्वादीपज्जाया, अहोरत्तं तत्तीयं चेव ॥ ६ ॥ ते । एणेण्याचारपकल्प: शोधिश्चास्मादवशिष्टा भवतीति भावः ॥ व्य. ३०॥ उसमग्रम एमुजोवणं, साहुज्जोग्गा तु सुयनाखेत्ता तथाच पंचकल्पनाये ॥ कालोचे य दुल्लक्खा, अलिक्खणं होंतिममरायं ।। आयरदसाकप्पो ववहारो नवमपुव्वा णिसं दोचारित्तर- दूसमअनारेण यपरिहाणीहोति श्रो सहवाणं । क्खपट्ठा सुयकमस्सुवरिविताई अंगदसा एहा वि तेणमणुाणं पि, तु अाउगमे हादि परिहाणि ॥७॥ दु नब्बासगादीण तेणतु विसेसो आयारदसा नइमो दारा संघयणं पि य हिय इतत्तोय हाणीय घितिबलस्स जेणेत्यं वएिहयायारो, दसकप्पववहारा एगमुतखंधे कर नवो विरिय सारिरबलं तंपिय परिहातिसत्तं च हायंति इच्छति । केई च दसाएकं कप्पववहारवीयं तु रयणा यसहाओ गहणे परियट्टणे यमणुयाणं उच्चाहो उज्जो गरयाणीयं णवमं पुन्वं तु तस्स नीसंदो परिगान- गो अणालमत्तं च एगट्ठाश्यणा उं परिहाणि अणुपरिस्सावो । ग्गहट्ठाए एस साहुणं णिज्जूढणुकंपाए दिलुतेहिं इमेहि (जम्हा तेण नगवता आयरपकप्पा दसाकप्पव्यवहाराय तु पगरणे चेमणुकंपादक विदश्तेहिं होयगारीणं जह उमेवी नवमपुत्वनिसंदनवा निजूढा) तेनाऽसौपूजाईः भायारपकप्प यत्नत्त राहा दिएहं जहएणवयस्स एवं अप्पतच्चिय पुव्व इति विधिः यस्मात्तत्र दशविध आचारो ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारश्च प्रकल्पते ॥ ख्याप्यते प्रज्ञाप्यत इत्यर्थः॥ गतं के मा हु मरिहिं तिन्नोउयरिऊण ततो हेठाओ श्त्यत आचारप्रकल्पः दशाकल्पव्यवहाराणां पूर्वोक्तं निरुक्तं | तारियं तेहिं । दारं । मायदु बोलिज्जीहिती चरणणुउ॥ पं. चू. ॥ एते दशकप्पववहाराः किं कारणं ॥ गोत्ति तेण णिज्जूदं । वोच्छीएहे बहुयं मी चरणाजावोन निज्जदाचरित्तसारिस्स,रक्वणट्टाए खझियस्स। विज्जाहि कहं पुण तेण गेहं तु दिएहाई तत्थीमो तु तहिं सोहि किरति, तहो होति निरुपहतं । पं. जा. ॥ दिट्ठतो जहकोई पुरारोहो सुसुरनिकुसुमो तु कप्पवुमो चारित्र इति चारित्तरक्खणट्टा गाहा पंचप्रकारं चारित्रं सा पुरिसा केइ असत्ता तं आरोदुण कुसुमगहणहा तेसिं मायिकाद्यमथाख्यातपर्यवसानं तस्य रकणार्थ जूतिः रक्कायाः परिपालनार्थमित्यर्थः । पं. चू.॥ अणुकंपणहा कोइ ससत्तो समारुझा धेत्तुं कुसुमा सुहसूयक मुवरिवित्ता, जह्मा त पंचवासपरियायो॥ महणहतुगं गथिनं दले तेसिं तह चोदसपुव्वतरु आरुढो। सुयकममहज्जतिनुत्तो, ज्जोग्गो होतिसो तेसि ॥ जद्दबाहू तु अणुकंपट्टा गुथितुं सुयगमस्सुप्परिं ववीरो सूत्रकृतांगस्योपरि व्यवस्थापित आह । किमर्य सूत्रकृतां ।दारं । तं पुणतो वयेसेण वेव गहितं एसेच्छाये ग्रह गस्योपरि व्यवस्थापित अधोवा न व्यवस्थापितः । न- गहिए दोसो असाह गाहोंति नाणमाईणं केसवनेच्यते।सूत्रोपदेशादिति यस्माद् व्यवहारसूत्रे तृतीयोद्देशकेऽ रीणि तं वक्खातं पुव्वसामइए अहवा तिगीच उ तुज प्युक्तं त्रिवर्षपर्यायस्य कहपते आचारप्रकल्प इति णहियं वावी उसहं देज्जा तेहिं तुण कज्जसिकि विव तया व्यवहारस्लेव दशमोद्देशके सूत्रमस्ति त्रिवर्षपर्याय रीयए जवति दाणं पारिच्छपरिच्छीतु यकप्पमादि दलं स्य कल्पते सूत्रकृतांगमुद्देष्टुं एतदर्थ सूत्रकृतांगस्योपरि ति जोग्गस्स परिणामादीणं तुदारुगमादिहीं णात्तहिं कृता इति किं कारणं तेण जगवता नवमात्रओ पुवाओ। पारिच्छा आदिसुत्ते पुच्वं जणियातु जान विहिमुत्ते नीणीओ उच्यते पं. चू०॥ पं० जान्॥ सेण घणादि परिसा पूरंताइ यनामिहिं परिसा । दारं । श्रणकप्पा वोच्छेदो, कुसुमानेरी तिगिच्छपारिच्छा। जाणितं कप्पदारं॥कमेण हु इदाणिं किं पुण उकमकरणं कप्पे परिमा य तहा, दिता आदिसुत्तमि ॥१॥ बहुत्तव्यात नानणं किंपुण कप्पज्जयणे बं निज्जर . Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प अभिधानराजेन्षः। आयारपकप्प जन्नति सुण सुतावजे अनिविदिता तु अच्छातहियतेऊ- निवास परियागस्स वि अपरिणामगरस अतिपरिणा समाणं । पं० जा॥ मगरस वा न दिज्जति यारपकप्पो पुण परिणामगस्स जसप्पिणी समणाण । गाहा । जम्हा जसप्पिणी दिज्जति नी चू० १ उ.। दोसेणं। परिहायति साहूणं आउयं बलं बुछियएतनि- एगविहकुसुमपुज्जो, वया रसरिसा नकेइ अहिगा । मित्तं नवग्गहकरा जविस्संति पुच्चगये परिहोणे किंचखे सस्सवति नूमिनावित, गुणसति बप्पे पकष्पमि । ४१६॥ त्तस्स य कालस्सय । गाहा ॥ अणगजातिपदि अणेगवएणोहिं पुष्पावयारोकोविष ती खेत्ते ताव नसप्पिणिं, चेव पमित्रपरिहाणी। दीसत्ति पर्व सुतत्य विकप्पिया अणेगविहा अधिकारा दव्या कई उच्यते ए कप्पो सो केरिसो गुणसश्व प्रतुल्लो बप्परूपकं महणधारणाणं, च तहा बनविरियं ।। श्मंसस्य॑यस्यां नूनौविज्जतेसासस्यवतीसस्ययुक्ता कचिच्चाबझं सारीरं वीरियं वीर्य व्यवसायो वा तहा संघयण सिकचिदिक्षुः कचिज्जवा क्वचिद्रीहयःभावितोगुणेहि झोसो सफा मेषा उयं च खेत्तदोसणयं परिहार्यति । गाहा । भावितगुणः गुणगत इत्यर्थः । तवगुणा सतिमादि सती अणुकंपा वोच्छेए नक्तं च सिफसेनकमाश्रमणगुरुजिः । णामविशिय समृमिनिरूपहतत्वं शतिवजितत्वंबहुफलं च पनि गुणरुपपेतोवप्रः । इदाणि उवण उबप्पो श्व पकप्पो पनिपालाइणणुकंपा, संखमिकरणंमि गाहवोच्छेयं । मादीणिवा उद्देसत्याधिका सस्यवृहिरिव अनेकार्थःनिरुपहतमि पहचानो मेय पीय, चतर मीदिएंजणवयस्स कुसुमो ।। मिवदोषविवर्जित इति वर्जितमिव पासत्थचरगादि सोप इति तवनियमनागरुक्खंगाहा जेरीचंदणकंथाते इच्चि वर्जिता बहुत्वमिति पदि कल्पत्विसंभवात् ॥ शैकप्रकल्पे त्तिपालगिलाण गाहा। तेण जगवता अणुकंपिएण मावो भनेकार्थाधिकारा इत्यर्थः ॥ चिजीस्संतीति काउंदुरारोहमिवयादवं आरुह्य अप्पणा एवं पुण कप्पज्झयणं कस्स ण दायव्वं केरीसगुणयुतस्स मालिताण कुसुमाणि अवेसिं च दत्ताणि तवोदुवा वा देयव्वं अतो भणति गाहा । बसविहो णियमा इंदियनो इन्दियनियमनिग्रहःनिरोध जिएणरहस्सवतार, निस्साकर एव मुक्कयोगी वा। बबिहगति गुविनं मी, सो संसारे जगविदीहे । ४१७। इत्ययः ।इंदियनियमोसो इंदियविसयपयारनिरोहो वा लिए रहस्सोणामजो अववादपदे असिंकप्पियाणं सीहत्ति सो इंदियपत्तेसुवा प्रत्येसुरागदोसनिग्गहो जाव फार्सिदिय णिस्साकरणामं यो किंचि अववादपदं सनित मुसझं पक्खिनो इंदिय अकुसल मणनिरोहो । वा कुसलमणो घर । मुक्कयोगीणाम जेण मुक्को योगो णाणदसणचरित्त ईरणं वा माणसो वा एगत्तिनावकरणं । कोहस्स उश्य तबणियमसंयमादिसु सो एस मुक्कयोगी। परिसस्स जोदेति निगेहो वा उदयपत्तस्सवा विफलीकरणं जाव लोजस्स। सो संसारे चनप्पगारे वा पंचप्पगारे वा उप्पगारे या एव तपसा नियमेन ज्ञानेन चसंप्रयुक्तो वृक: किंच सम्यगदर्श मादिगति गुविले गुचिस्रोत्ति गहणो घुमा वयतीति घोरा परिसे संसारे भामिहिति दिहं कासं परिसे सुण दायव्वा नचारित्रतपोनियमसंयमस्तं समवृकादेव तत्पुरुषः समासः। एएसि पमिवक्ता जे ते सुदायव्वा ॥ ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रात्मक एव वृद्धः । ततस्तेन जगवता भा ते य श्मे गाहा ॥ बाहुना पूर्वरत्नाकरश्रुतसमुद्रान्प्रयत्नेनादृतः सत्धृतमित्यर्थःन तु स्वेच्च्यातेनाऽसौश्रुतकर्ताऋषिरित्यपदिश्यत ऋषिरित्ययं अरहस्स दारए पारय, य असट्टकरणे तुलोवमे समिते । स्थानार्जवेति ऋषिः यस्मादसौ जगवतामार्जवे सम्यकदर्शन कप्पाणु पानणादीवणा, य आराहणविष्मसंसारो।।१४ झानचारित्रात्मके निर्वाणमार्गे व्यवस्थितः। अतीवरहस्सं तंजो धरोत सो अइरहस्स धारगो जो तं श्ादिभिश्च समितिभिर्युक्तः इत्युक्तो ऋपिः। अरहस्सं एकं दो तिमि वादिणा धति ण तेणे अहिगारो सेपुण अप्पणो इच्छाए सुत्तं अत्यंवा करे तस्स मुत्ते जातं रहस्सधरणं जीवियकालं पारं णेति तेण अहिकारो चउबहु अत्ये चो गुरू । आणाय विराहणादि असढकारणो एाम सम्वत्थादान जो अप्पाणं माया पढाति असढो हेळणं कसिणं करेति तुलसमो णामसममट्टिता तुला हंतो वंदणजेरीय वासुदेवस्स असिवप्पसमणे सा कृता जहा ण मम्गतोपुरओ वा णमात एवं जो रागदोसविमुको सो कंथा पच्ग अहया नप्प समे एव सच्छंदविगप्पिए सुत्तं तुझासमो नणति । समितो णाम पंचहिं समितिहि समिता मोख्कस्स असावकं जवात पितिया पासत्याउप्पत्ति वंने प गुणसंपयोते परेतो पयं गुणसंपत्ते याद विणयकंप्पाणु यया दोएह विजेरिणं कप्पव्ववहारा पुणपुरिसंपरिक्खि पानणा कया जवति । अहवा एकप्पे जं जहा नणितं तस्स ऊण दिज्जति जहा आइसुए पुरिसा परिसा परियासे अपासना जो करेति तस्स देयो यकप्पाशुपालणा पय दीवणे कअमेसि दिवियं दरिसियं गमियं एवं कायव्यमिति सघा कुमग गहा एवं सुसिस्सदिज्जति ॥ अह वा दीवणा जो अरिहाणं अणामस्से वक्खाणं ण तत्रशैवघननिकुढचाननीमसकमाजारादयः अनहीं हंसमे षजयूकजाहकादयो योग्याः। प.. ॥ करेति तस्सेयं देयंति दीवणाए य मोक्खममास्स आराहणा कता जवति । पाराहणायेय च नगति गुवियो दीदसणआचारप्रकल्पश्च कस्मै उद्दिश्यते कस्मै नेति( उद्देस) शब्दे ॥ वयम्गो निमिय संसारे जंतं सिवमय झयमरुयमस्वयम आयार पकप्पोत्तिवा सपरियागस्स ारेण तंदिज्जति ब्वाबाहमपुणगवत्तयं नाणं तं पावंति तं च एतो कम्पविमुक्को Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८१) भायारपकप्प अभिधानराजेन्द्रः। पायारपकप्प सिको भवति ॥ नि० ० ० ०॥ प्रवर्तित्वं स्थविरत्वं चेति परिग्रह शेषं तथैव । भत्राह शिष्यः। नष्टाचारप्रकल्पाया निग्रंथ्याःप्रवर्तिनीत्वं गणावच्छेदिकात्वं पुरुषोत्तमो धर्म इति पूर्व निर्ग्रयसूत्रवक्तव्यं पश्चानिधिसूत्रं । च नोद्दिश्यते । तथा च व्यवहारसूत्रम् ॥ पूर्वत्र वाऽभ्यवनध्ये पूर्व निग्रंथसूत्राएयुक्तानि पश्चाग्निपी णिग्गंथिस्स एवमहरतरुणगस्स आयारकप्पे नाम सूत्राणि अत्र विपर्ययः कृतः । सरिराह ॥ अज्जयाणे परिजढे सिया से य पुच्छिवे केण केण कार- जइवि य पुरिसादेसो, पुव्वंतहवियविव्वज्जो जुत्तो। णणं अजो आयारकप्पे नाम अकयणे परिजो सिया जिण समणि उपगया य, पमायबहुमा य अथिरा य ।। किं आबाहेणं उदाहुपमायणं सेवएज्जा णो आबाहेणं यद्यपि च पुरुषोत्तमो धर्मः पूर्वत्रध्वाध्ययनध्ये पूर्व पुरुषापमायेणं जाव जीवाए तस्स तप्पतियं, णो कप्पति देशस्तत्राप्यत्र विपर्ययो युक्तः केन कारणेनेत्याह । येन कारणेन श्रमएयः प्रकृत्या तया प्रायः श्रमण्यः प्रमादबहुना आयरियत्तं वा जाव गणाव इयत्तं वा उदिसित्तएवा अस्थिराश्च न तु श्रमणा अध्ययनस्य च नाशः प्रायः प्रमाद धारितए वासेयवएज्जा आवाहेणं णो पमाएणं से यसंह स्ततः श्रमएयधिकारादधिकृतसूत्रार्थस्थामत्वात् पूर्ष निग । विस्सामिति संग्वेज्जा । एवं से कप्पति पायरित्तं वा सूत्रमुक्तं पश्चानियसूत्रं । जाव गणावइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा तं नवमहरतरुणीनां व्याख्यानमाह ।। सेयसवच्चेसा म्पित्ति को संग्वेज्जा एवं से णो कप्पति तेवरिसा होइन वा, प्रहारसिया महरिया हो। प्रायरियत्तं वा जावगणावच्छेश्यत्तं वा नगदसित्तए वा तरुणी खनु जा जुवइ, चनरो दसगा ववृत्तासा ॥ धारित्तएवा ॥ १४॥ णिगंयिएणं एवमहरस्स तरुणि व्रतपर्यायण यावत् त्रिवर्षा तावङ्गवतिन वा जन्मपर्यायेण याच याए प्रामारकप्पे नाम अजायणे परिमठे सिया साय दष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा तावद्भवति । महरिका तरु णी खमु तावदू रष्टव्या यावत् युवतिः। अथवा। पूर्वोक्तास्तृतीपुच्छ्यिय्वा केण कारणेणं अज्जे आयारकप्पे नाम अज्ज योद्देशके नवमहरतरुणिसूत्रे ये अभिहितास्तरुणचत्वारो यणे परिजढे सिया किं आवाहेणं फ्माएणं सायवएज्जा दशकाश्चत्वारिंशद्विर्षाणीत्यर्यः। तेत्रापि तरुण्या कष्टपो आवाडेणं पमाएणं जावजीवाए तीगसे तप्पतियं व्याः । १४ । १५ ॥ गोकप्पति यं पवितिणं वा गणावरणितं वा उदि सा एव गुणोक्या, सुत्तत्यहिं पकप्पमऊयणं । सित्तए वा धारित्तएण वा सायत्रदोजा आवाहेणं णो सयहिं किया इतो पा, वि आगया न वसु अम्मा। पमाएणं सायसंग्वेस्तामिति संडवेज्जा । एवं से कप्पड़ सा नवमहरा तरुणी पतावद्गुणोपेता सूत्रार्थाच्या प्रकल्पपवत्तिणित्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा स यं सटुं नामकमध्ययनमधीता अधीतिनी । ततः सा प्रवर्तिनित्वस्य योग्या सूरिनिः संसाधिता । अय च तस्याः सूत्रतोऽर्थतश्चाविस्सामिति णो संडवेज्जा। एवं सेनो कप्पति पवित्तिणि चारप्रकल्पः परितुष्टः स कय ज्ञात इत्याह । श्तश्चापि मागता तं वा गणावइणियत्तं वा उद्दिासत्तए वा धारित्तए वा भन्यगच्छादन्या साध्वी उपसंपन्ना । सा विज्ञापयति ॥ ॥१५॥ व्य. ५ उ.॥ कथमित्याह । (निग्गंथिएनवमहरतरुणाए) इत्यादिसूत्रार्डकं अस्य व्याया। प्रत्येण मेधाकप्पो, समाणितो न य जिनो महं जतो। निप्रेथ्या नवहरतरुण्या वक्ष्यमाणस्वरूपाचा भाचार अमुगा मे संघाम, ददंतु वुत्ता नसा गुरुणा ॥ प्रकल्पो नामाध्ययन परिवष्ट स्यात् सा च प्रष्टव्या केन कार हे भवंत!जगवन् अर्येनार्यतो मम श्राचारप्रकल्पः समानी णेन आचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परितुष्टमभवत् किमाबाधेन तो समाप्ति नीतः । परं न च न वै मम स जिनः परिप्रमादेन वा एवं प्रष्टा सती सा यदीति गम्यतेवदेव नो श्रा चितोऽनूत् । ततोऽमुकायाः प्रवर्तिनीत्वेन संभाषितां संघार्ट बाधेन किं तु प्रमादेन तर्हि यावज्जीव तस्यास्तत्प्रत्ययं प्रमाद पूज्या ददतु । एवं तया विज्ञप्तं गणिना आचार्येण सा तक्ता। तोऽभ्ययननाशनप्रत्ययं नो कल्पते प्रवर्तिनीत्वं चा गणाव आर्ये! देहि (से) तस्याः संघाट । छोदिकात्वं उदेष्टुं नापि तस्याःस्वयं धारयितुं अथ सा वदेत् आबाधेन नष्टं न तु प्रमादेन सा च नष्टमध्ययन संस्थापयामी सा दाउं आढत्ता, नवरं पणटुं न किंचि आगच्छे । त्युक्त्वा संस्थापयेत् एवं तर्दि (से) तस्याः कल्पते प्रवर्तिनीत्वं एमेव मुणंति चिट्ठति, मुणिया य सा तीये ॥ घा गणावच्छेदिकात्वं या उद्देष्टमनुज्ञातुं स्वयं धारयितुमथ संघाट दातुं प्रवृत्ता परावर्तयितुं व्याख्यातुंचप्रवृत्ता इत्यर्थः नष्टमध्ययन संस्थापयिष्यामीत्युक्त्वाऽपि न संस्थापयेत् एवं । न वरिष्ठं तदध्ययनं न किमयागच्छति केवलमेव मुण ताई से) तस्याःन फल्पते प्रवर्तनीत्वं वा गणावच्छेदि मुणन्ती अव्यक्ताकरं किमपि घुवंती तिष्ठति । ततः सा तया कात्वं वा नद्देषु वा स्वयं वा धारयितुमिति एवं निर्ग्रयसूत्रमपि मुणिता यथा न किमप्येतस्या मागच्चति ॥ भावनीवं॥ पुनरवि साहतीगाणिणो, सा नमुया दयाहमे अन्न । (नवहरतरुण ) व्याख्यानं च प्रागुक्तमवसेयं ( तेवरिसो अन्जक्खाणंपि सिया, वाहितुं होइमा पुच्चा ॥ दोश नवो ) व्रतपर्यायेणेतिवाक्यशेषः । आसोससगं तु ततः सा पुनरपि गाणिन माचार्यस्य कथयात । यथा नष्ट जन्मपर्याधणेति गम्यते। महरगंचेति (तरुणोवत्तासत्तरुणम- श्रुता तस्मान्ममान्यां सहायां ददतु । एवमुक्ते भाचार्येण किमो थेरमो सेसो) आचार्यत्वं वा यावत्करणादुपाभ्यायत्वं विचारयितव्यं सत्यं । किं परिदृष्टं तस्या भययनं कि वा Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८२) अभिधानराजेन्द्रः । आयारपकप्प न को जानाति अयाख्यानमपि काचित्केनापि कारणेन प्रि टा सती दद्यात्ततस्तां व्याहृत्य तस्या श्यं वक्ष्यमाणा पुच्छा कर्तव्या ॥ तामेवाह ॥ कइनिक्स्लेवे, आवसियाए निसीहिया । गुरुणं च अपणामेव जण आरोवणा काउ || रुकस्य प्रत्युपेक्का प्रवर्जना व्यतिरेकेण ग्रहणे निकेपणे च तथा आवशिक्या पेधियाकरणे यदि प्रदेशादाग ता बसानः प्रवेशे नमः कमाश्रमणेभ्य इत्येवं गुरुणामप्रणा मा च प्रामाकरणे च का प्रारोपणा प्रायवित्तं नवति ॥ पुट्ठा निव्वहंति, किहिं नहं वाहतो पमाएणं । साहे पमाणं सोप पमादो इमो होइ ॥ सा एव पृष्टा सती यदिन निर्वहति न यथावस्थितमुत्तरं ददाति । तदा सा अनिर्वदंती भूयः प्रष्टव्या । कथं केन कारणेन ते नष्टमाचार प्रकल्पनामकमभ्ययनं किमाबाधेन उत प्रमादेन । तत्र यदि सा कथयति प्रमादेन । स च प्रमादोऽयं वक्ष्यमाणो भवति ॥ तमेवाड़ धम्मक हनिमित्तादि, उपमातो तत्थ होइ नायव्वो । मायवगणसेणा तरंगवश्याओ पम्मका ॥ तत्र तस्यां संयत्यां धर्मकथानिमित्तादिकः आदिशब्दात् ग्रहचरितादिपरिप्रप्रमादो नयति ज्ञातव्यस्तत्र धर्मकथा महयचतीमगधसेनात रंगवती भादिशब्दात् वसुदेवस्था दिपरिग्रहः । एतां कथामधीयानाया विस्मृतिगतं प्रकल्पनामकमध्ययनं ॥ ग्गहचारयविज्जमन्ता, चुम्यनिमित्तादिणा पमाएणं । नमि संपत असंतीवमाननो ॥ " गहचरितं ज्योतिष्कं । ससाधना विद्या । साधनरहितोमंत्रयोगः । निमित्तमतीतादिभाषकथनमादिशन्दात् कुकशास्त्रादिपरिषद् इत्यादिना प्रमाणेन इत्याद्यध्ययनजिन प्रमादेन न प्रकल्पे नाम्नि अध्ययने यदि भूषा सा तत्संदधाति । यदि या न सदधाति तथापि सा संद्धति था यावज्जीवं गणे न लभते ॥ जावजीवं तु ग, इमेहि नाहि लोग सिकहिं ॥ अतिवान जो पाएगाईजन्मफलगोण ।। १ । पाचगणं न लभते पनिरजापालक देहांत पोधे प्रसादाचरितं सम्यन्विदितधनुरादिनिर्ध जीवाभिमान्यसञ्जितानि । किन्तु भझफलकेन सरितपतिसमय मि न केवहां नवज्ञातेन ॥ तत्र प्रथममजापालकदृष्टान्तमाह ॥ रेवते अश्या, पणासिया जेण सो पुणो न बने ॥ सूत्राधिरूपा नडा, वित्रहति एमेव उत्तरिए ॥। १॥ कोइ अयवा झोवे, पण आयातो रक्खेइ तेल | तरता वहगादि, स्वञ्जणादिहि पमाएहिं ॥ २ ॥ नासियातोसो अथा तो दवावितो जण पुणो क्वामि न परिसंकामि, सो एवं जणंतो वि ॥ ३ ॥ ॥ आयारपकप्प जावज्जीवं अनस्य विनति अहमुलं सेचाद्वयं जरोवा ।। अतिया उरो आागतो, ततोनट्ठा ततोदो सो पुना विलनते रक्खिजं ॥ ४ ॥ मकरणमनिका । येन जातादिना करता अजिकार प्रणाशिताः स पुनर्न बनते यावज्जीवमन्यत्राऽप्यता रक्षितु मयखादिरुजा चत्रादिशब्दादत्याज्वरादिपरिषदस्ता प्रजा नष्टास्ततः पुनरपि लभते ।। अधुना वेदज्ञानं भावयति ॥ जति से सत्यं नई पेच्छ पेसष्ठ कोसगं गंतु ॥ हीरति कiकिए, जोगो जूयादिदप्पेणं || कोइ मोर कथं विततोतेां जूयपमादेव विसयपमादे विज्जसत्यं नासियं सत्यकोसगारी पच्छागादीणि किटकांकियाणि न निसीयर अएणया रएां क जायं सदावितोविज्जोसो किवदेसं न किश्चि सकेइ बो ततो रणा जणियं किमियं ततो सो जाइ मेपोत्यगाचोरेह दिया पाकिगं पिनस्थितो मम नई बेवासस्वं नात्थ पुरा मम अह्मोपमातो जेण वेळसत्यं नासिय ताड़े रखा पुरिया पेसिया ॥ यदि (से) तस्य शास्त्र न तर्हि (से) तस्य सूर्य गाथा शासकी तुकं प्रेभ्वं हियते राज्ञः समर्प्यते । दृष्टानि राज्ञा समस्तानि प्रतम नृतीनि शास्त्राणि किटकउंकितानि ततस्तेषु कलकते र कार्त या तादिदतादिना प्रमादेन विनाशितं वैद्यशास्त्रं ततो भोगचिन्नः पश्चादन्यत्र गत्वा वैद्यशास्त्रं पुनरप्युज्ज्वाल्य समागतो भूयोऽपि राज्ञः समीपे भोगान् याचते स च याचमानोऽपि न सजते एवं लोकोत्तरेऽ म्युपनयनाचना मान्य योभावनार्थमाद ॥ दुम्को जड़ सरनेही सहा विपक्षोएड से सरे गंतुं ॥ ककककं वा जग्गमजग्गाणि य परणि ॥ १ ॥ को जोहो भवेयं, अहिज्जितो गुरुवरसे ॥ अन्नासेण य सो, पासंतो विसदेणं ॥ २ ॥ विधति रना कयप नूय, वितिन्नो कतो अन्नया तेण ॥ विसयपमागतं, धणुव्वेय सत्यं तं च ॥ ३ ॥ अनासकरणं नासियं, नया युवकज्जेसमावकिए ॥ एन किन्न सके विधि पराजितं ॥ ४ ॥ मारा पुच्छितो, किमेवेति सो जणइ ॥ नत्थि मे पमादो नाहे रणानणियं ॥ पदनाम प्रमादारणत एकस्वरवेधी स्थापि (से) तस्य शरान् गत्वा प्रलोकयत् किंतत् शरजासमलंकं बाधनूष्यपि जनान्यनग्नानि वा इष्टं शरजालकं कलंकितं धनूंषि भग्नानि ततो ज्ञातं प्रमादतः सबै नष्टं कृतो वृत्तिव्यवच्छेदः सोऽन्यत्र गत्या धनुर्वेदशाखमुन्यात्य कृतान्यासः पुनरागतो वृति याचमानोऽपि बायीन हमले को नयः प्राग्वत्कर्तव्यः । फलकज्ञातमाइ ॥ फानहियस्सवि एवं जश्झतो जग्मग्गोतो।। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प . जोगोहीरति सव्वेसि पि य नशोगहारो जवेकले ॥ १ ॥ कोई गवनप्पति, पत्तसागादिकलिए || फलए हानि, निछतो सोवि सपपमारणं ॥ २ ॥ जयपमाण वा न रक्खड़ न व पाणिएणं ॥ पाति सोय फलहो, लोगे णाणरूवे हि य ॥ ३॥ उषितो को, य न किंचि ततो बाफलादि ॥ प्रागच्छर, फलह सामिणा जणियं ॥ ४ ॥ किमयं सो जार, किं करोमि रकवेमि तानई । नत्थि मे पमादो, रातो फलहसामिणा फक्षहो गवेसावितो ॥ ५ ॥ ( ३८३ ) अभिधानरराजेन्द्रः । तथाचार (पाकिकस्य फलकस्थामिन एवं पूर्वरान्तेषु राह श्व फलगवेषणा चिन्ता जाता । यदि फलको प्रसुनो प्रविष्यति ततोऽस्य भोगोलियां वर्तमानसामीप्येव मानव"तिपचतो भविष्यति वर्तमानता कस्मात् हरिष्यते इत्याह कार्ये प्रयोजन समापतिते सर्वेषामधि कुन भोगदान स्थादिति देतो पण ते फमको गोपादिनिविना बुझो जनसेनाकरचतस्तरास्तस्य पृतिदिना ततो नाई नूय एवं करिष्यामीति याचमा नोऽपि यायीयं न पियकर्त यस्तेमवाद | एवं दप्पपणासिते, पण विदिति गए पकप्पमायणे ॥ प्रवाहेणं नासिए, लादिण दक्षयंति ॥ १ ॥ एवं पूर्वोक्रान्तप्रकारेण दर्पतो धर्मकथाभ्ययनतो व्याकरणाभ्ययनतो निमित्त शास्त्राद्यभ्ययनतो वा इत्यर्थः प्रणाशिते प्रकल्पनारम्यभ्ययने यावज्जीवमाचार्यस्तस्या गणनदद मिश्रबातिनत्यादिना पुनर्नाशितो भूयः प्रत्यादिसति प्रयच्छति । एतदेव सप्रपंचं नावयति ॥ गेला अस वाओ, मोयरिया य राय डे वा ॥ er नासियं मी, सन्धे माणए दिति गणं ॥ १ ॥ मानत्वे वा जाते मानप्रतिजागरणे या कृते शिवे बा समुपस्थित अवमौदर्ये वा दुर्भिक्के जाते भिकापरिभ्रमणतो राजधि वा पलायनतो वा यदि नष्टं प्रकल्पनामकमध्ययनं तत पतैः कारणैर्नाशितेऽपि पुनः सम्बन्धंत्या गणं ददति प्रय छति । नाचितमधुना नियन्यसूत्रे विनाय तदेवं निधी चिपुराह ॥ एवमेव य साहूणं, वागरणनिमित्तछन्दकमादी । बीयं गातो मे अडाणी चेव वृजेय ।। एवमेव अंजनप्रकारेण साधूनामपि सूर्य भावनीयं नरे त प्रमादो व्याकरण निमित्तच्छदः कथा द्यधीयानस्य प्रतिपत्तम्यः । द्वितीयमाबाधलक्तणं कारणं सूतै। ग्लाने ग्ज्ञानप्रतिजागरणे या भयमोद अशिषादिकारणतोऽभ्यनि वा गमने स्था कष्टम्यमियमत्र भावना । यदि व्याकरणाध्ययनतो निमित्त शास्त्राभ्ययनतश्छन्दः शास्त्राध्ययनतो धर्मकथाभ्ययनत प्रादिशब्दाधिद्यामन्यादिव्यापतो यदि प्रकल्पाभ्ययनं नाशितं तापचापि यायञ्जीवं तस्मै गणं सूरयो न आयारपकप्प प्रयच्छेति मय ज्ञानत्वाच्यावाचतो नाशितं तदा तस्मिन्पुनरबलिप्रतिप्रमाददोषाभावात् तत्र खानत्वाविषय आ बाधः प्रतीतः ॥ सम्प्रति स्तूपविषयमाह ॥ महरा मगाया, बणदेवयश्रा आणवेजति । किं मम अजतीए, अप्पतिय दोहिती कर्ज यूगति तच प्रणिवि वा यच्छम्मास संघो को | सत्तोखमगस्सभ्गा, कंपणखिसणमुक्का कयपरगा ॥ मथुरायां नगर्यो कोsपि कृपणक आतापयति यस्यातापनां दृष्ट्वा देवता आवृता तमागतमागत्य वन्दित्वा ब्रूते यन्मय (कर्तव्यं तन्ममाज्ञापयेऊवानिति । एवमुक्ते स कपकेण नण्यते । किं मम कार्यमसंयत्या भविष्यति । ततस्तस्या देवताया अप्रीतिकमतूद | अप्रीतिवत्यचेतनयोक्तमवश्यं तव मया कार्य भविष्यति । ततो देवतया सर्वरत्नमयः स्तूपो निर्मितस्तत्र भिक्वो रक्तपटा वपस्थिताः प्रयमस्मदीयः स्तूपस्तैः समं संघस्य षण्मासान्विवादो जातस्ततः संघो ब्रूते को नामात्राऽर्थे शक्तः केनापि कथितं या अमुकः कूपकस्ततः संघेन स नएयते कपक ! कायोत्सर्गेण देवता माकंपय । ततः कृपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया कम्पनम् | सा आगता छूते । संदिशत किंकरोमि रूपकेण भणिता तथा कुरुत यथा संघस्य जयो नवति ततो देवतया कृपकस्य ख्रिसना कृता । यथा एतन्मया असंयत्या अपि कार्ये जातं एवं सिंसित्वा सा ग्रूते । यूयं राज्ञः समीपं गत्वा श्रुत । यदि रक्तपटानां स्तूपः । ततः कल्ये रक्ता पताका दृश्यतां अथाऽस्माकं तर्हि शुक्ला पताका । राज्ञा प्रतिपन्नमेवं भवतु ततो राज्ञा प्रत्यकिपुर स्तूपो रक्षापितो रात्री देव तया गुपताका कृता । प्रभाते दृष्टा स्तूपे युक्का पताका जितं सघेन व्य० सू० ५ उ. ।। थेरा थेरपित्ताणं प्रावारपकप्पे णाम प्रकरूपये परिभवे सिया कप्पतिं तेसिं ठवेत्ताणं वा आयरियत्ते वा जायगणावच्छेयणं वा तरित्तिएवा धारित एमा । व्य. एच. ॥ व्या०स्यविराणांऽस्थविरभूमिं प्राप्तानामाचार्यपदं प्राप्तानामाचारप्रकल्पो नामान्यधर्म परिन स्यात्कल्पते । तेषां सूर्य से स्थापयतामसंस्थापयतां वाचार्यत्वं वा यावत्करणाडुपाध्यायत्वं वा शत परिग्रहः । गणावच्छेदकत्वमुद्देष्टुमनुज्ञातुं - जीर्णमदत्वकरणतः सूत्रधारणात्। एष सूत्रसंक्षेपार्थः ॥ सम्प्रति भाष्यविस्तरः । सुत्ते अणिते लगा, अत्ये प्रणिते धरेंति चउगुरुगा । सुनेा वायणा, अत्ये सोही तो दोड़ एछाया ॥ इदं सूत्रमापवादिकमुत्सर्गतः पुनः सूत्रे अनागच्छति यदि गणं धारयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । प्रर्थेऽनागच्छति यदि गणं धारयति चत्वारो गुरुकाः । प्राशादयध दोषास्तस्मादुषधारणगणोधारचितव्यः। किंफारणमत आद सूत्रेणगच्छता वाचनां ददाति । अर्थनागच्छता प्रायश्चित्तस्थानमापन्नानां शोधिं करोति । तस्मात् धात्र्यामपि संपन गणधारणेऽनुज्ञातः ॥ विपविणासुणं ववहारे पचतो होइ ॥ तेण उणधारि सो तो ॥ १ ॥ मपि च पिनास पहारे क्रियमाणे प्राययो भवति । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४) मायारपकप्प अभिधानराजेन्द्रः। भायारपकप्प तस्मादू व्यवहारे अर्थनिर्देशं कुर्वता सूत्रमवश्यमुधारणीयं ।। कुबके वा निधाने उत्खनितव्ये तस्य तदनुरूपमुपचारमुत्स्वायथा श्द सूत्रं तस्मादयमेवात्र व्यवहारस्ततः प्रत्ययो भवति | नको याद करोत ततस्तमुत्खनितुं शक्नोति अय न करोति तेन स गणधारी उभयपरोऽनुज्ञातः॥ तदनुरूपमुपचार तर्हि वृश्चिकाद्युपत्रवतो न शक्नोति एवं असती कजोगी पुण, अत्येयं तं किमप्पतिधारे ॥ याद स रत्नाधिकऽवमरत्नाधिके वा सूत्रमय वा प्रत्युज्ज्वाल यन् अपूर्व वा पठन् तदनुरूपं विनयं न करोति तदा निर्जजुषामहदा सुत्तं, न तरति पञ्चुक्यारेजें ॥१॥ रानाभस्तस्य नोपजायते । नच शास्र स्थिरपरिचितं भवति सभयधरस्य असत्यभावे यः कृतयोगी नाम यः पूर्वमु विभंगं वा तस्य ज्ञानं विभ्रंशितया प्रान्तदेवता कुर्यात्कसह । प्रयधर आसीत् । तदानीं सोऽर्थे समागच्चति गण धारयितुं एतदेवाभिधित्सुःप्रथमतः प्रायश्चित्तमाह ॥ कल्पते । अथ केन कारणेन तस्य सूत्रमानशत् श्रत आद। (जु महशो) श्त्यादि जीर्णो नामको नो महान् यस्तरुणक सुत्तं मिय चउन्नहुगा, अत्यमियचक्रगुरुं च गच्छेण । एव सन् जरसा परिणतो जातःनो जीर्णो महानितिध्तिीयः।। कित्तिकम्ममकुव्वतो, पावति थेरोस विबलंमि ॥ यो कोपि सन् बढशरीर: जीर्णोऽपिच तृतीयः।नो जीर्णो नो स्थविरः प्रत्युज्वालयन्त्रपूर्व पठन् वा सति बले यदि गर्वेण महानिति चतुर्थः । एष शून्यशेषाणां तु प्रयाणामेकतरोन कृतिकर्म न करोति तर्हि तदकुर्वन् सूत्रे सूत्रविषये चतुरो शक्नोति प्रत्युज्ज्वालयितुमतः सूत्र तस्य नश्यति॥ सधुकान्प्राभ्येति अर्ये चतुर्गुरुकं ॥ उमयधरंमिन सीसे, विजंते धारणा उ इच्छाए । 'नवयारहीणमफलं, होश निहाणं करेश वाणत्यं । मा परिजवनयाणं वा, गच्छेवअणिच्छमाणमि ॥१॥ श्यनिजरा य लाजो, न हो। विब्नंगफलहो वा ।। सनयधरे सुत्रार्थधरे शिष्ये विद्यमाने स्वयं गणस्य धारणा यया उपचारहीनं निधानमफलं भवति नोत्खनितुं शक्यते च्या स्वयं वागणं धारयति तस्य वा शिष्यस्योभयधरस्य इति भावः । अनर्थ वा करोति वृश्चिकाद्युपध्यकारणात बदाति सहगणस्य शिष्यस्य वा जावं जानाति । यदि शिष्य इति एवमनेनैव दृष्टान्तप्रकारेण कृतिकम्माकरणे निर्जर या स्य गणं दास्यामि तत एते मम परिजवं करिष्यति । अथवा मां लाभो न नवति प्रान्तदेवताकोपवशाहिभागो था तस्योत्य कृत्वा गन्धमादाय गमिष्यन्ति। यदि वा तमुजयधरं गणधरे पजायेत काहो वा ॥ स्थाप्यमानं गणो नेच्छति । ततो मा परिजवमेतेऽकार्पुर्नयन दूरत्थो वा पुच्चय, अहवनिसज्जाय सचिसो उ। वा मां त्यक्त्वाऽन्यत्र गच्छस्याकार्षुरिति हेतोरनिच्चति वा अचासम्बनिविदु, ट्ठिए य चउजंगो वोच्चत्यो । गणे तस्य गणं न ददाति । किन्तु स्वयं धारयति तत्र सूत्र। अंजलिपणाम अकरणं, विपक्वते दिसाहो नमुहे। तेनोनयधरेण शिष्येण पाचयत्यर्थमात्मना ददाति । प्रागुक्तदोषाभावे तस्य गणं समर्पयति ॥ जासंतणुवउत्ते, वहसंते पुबमाणो उ॥ थेराणं येरजामिपत्ताणं आचारपकप्पे णाम अज्यणे एएम सत्तेसु वि, मुत्ते बहुतो उ अत्थे गुरुमासो। परिजवे सिया कप्पत्ति तेसिं सणिसणाण का यासे नाजीतोवरिलहुगा, गुरुगमहो कोय कन्दुयाण ।। वियाण वा उत्ताणण वा तुयहाण वा पायारपकप्पे दूर स्थितो वा पृच्छति अथवा निषद्यायां सभिषमः पृच्छति शृणोतीति भावार्थः । यदि वा प्रत्यासन्न करुणा णाम अझयणे दोच्चंपि तच्चपि पामिच्चित्तए वा परि करं संघृष्य गुणोति निविष्टोस्थिते चतुर्भेगी बोजुन्या। सारेत्तए वा ॥१७॥व्य. सू. उ.॥ सा चैवं निविष्टशेवा निविष्टं पृच्छति १ निविष्ट सत्थितं पृ। (थेराणं थरेनूमिपत्ताण ) मित्यादि स्थविराणां स्थघिरनूमि जति ३ मस्थितो निविष्टं पृच्छति ३ स्थित उस्थितं पृप्राप्तानामाचारप्रकल्पो नामाभ्ययनं परिवष्टं स्यात् कल्पते छति । यथा अंजनेरकरणमर्यपरिसमाप्ती प्रणामस्याऽकरण तेषां सन्निषण्णानां वा निषद्यागतानां (संतुयहणे वेति)। तथा दिशो विप्रेकमाणः पृच्गत १ यदिवाग्धोमुख ऊर्ध्वसम्यक्त्ववर्तनेन स्थितानां उत्तानानां वा (पासिल्लयाण मुखो वा गणेति न गुर्वभिमुखः५ अथवा पेन तेन पा सर यत्ति) पार्वतः तिष्ठतां या आचारप्रकल्पनामकमभ्ययनं भाषमाणः शृणोति अनुप्रयुक्तो ३ वा शृणोति हसम्धा पृ. हितीयमाप तृतीयमपि अपिशब्दात् चतुर्यमाप धारं प्रत्येष्टुं छति। एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु सूत्रे श्रूयमाणे प्रायश्चित्त या प्रतिसारयितुं वा भवमरत्नाधिकः प्रतिसारयति स्थविराः सघुको मासः भर्थे गुरुमासः तथानाभित उपरि सूत्रं शृण्वतः प्रतीचंति एष सूत्रसकेपार्थः ॥ कायाकयने चत्वारो अघुकाः । प्रर्य शृएषतश्चत्वारो अधुना भाष्यविस्तरः। गुरुकाः। नानितोऽधस्तात् सूत्रश्रवणे कायकएमयने चत्वाएमेव विश्यमुत्तं, कारणियं सति बनेन हावेत्ति। रोगुरुकाः । नवरं तपाका सयोरन्यतरेण गुरुकाः । जं जत्थन कितिकम्म, निहाणसमओ मराइणिए॥ तह्मा वज्ज तेणं, गणाणे याणि पंजलुक्कुसुणा । यथा प्राक्तन सूर्य कारणिकमेवमेषेवमपि सूत्रं कारणिक सोप्पवए यत्तेणं कित्तिकम्मं बाविकायव्वं ॥ सूत्र प्रत्युज्ज्वालयन् सति बले विनयं न हापयात । अथ कोऽसो विनयो यस्तेन सूत्र प्रत्युज्वालयता सति यसेन यस्मादेवमविनयकरणे प्रायश्चित्तविधिस्तस्मादेतानिप्रागम हातव्य इत्यत आह (जजत्यठ) इत्यादि यस्कृतिकर्म धन्दन न्तरमुपदर्शितानि वर्जयित्वा प्रांजलिना प्रकृतोजामिनासकुछ कं यत्र सूत्रे अर्ये वाऽधिकृतं तत्रावमरत्नाधिके निधानसमे केन प्रयत्नेनादरपरतया श्रोतव्यं । कृतिकर्म धापि वंदन सूत्रमर्थं च प्रत्युज्वालयता तत् न हापयितव्यं । निधानसमे कं कर्तव्यं । यद्यपि वंदनकेनोपस्थितं वाचनाचार्योऽनुइति वदता निधाने रष्टान्तः सूचितः। स चैवं । यथा महति । जानाति तथापि कमाश्रमण दत्वा कृतप्राजासना श्रातव्य । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्पधर (३८५) अभिधानराजेन्द्रः । नेणविधारयन्वं पच्छापि उणि मंगलितो बेड निवास सारेवच्वं हवति नम्रो ॥ तेनापि श्रोत्रवत् व्याख्यानमंकल्या वा श्रुतं तत् मंगलीत उत्यितेन पश्चादपि धारयितव्यम् । तस्य च धारयत उपधिस्य ऊर्ध्वं स्थितस्य निष्पन्नस्य वा क्वचित् स्खलने तेनापि वाचनाचार्येण नूयो नवीत स्मारयितव्यं गमयितव्यम् अह से रागेो न हो, ताहे जासंत एगपामि । समिस तु पहोवा, प्रत्थ अग्ग पव्वत्तो । अथ (से) तस्य स्थविरस्य रागो न नवत्तर्हि व्याख्यानमंकव्या उत्थितो ज्ञाषमाणस्य अनुभाषमाणस्य चिन्तापयत इत्यर्थः । एकपार्श्वे तत्सेवाबुद्धया सशिषाः सम्यग्निषद्यागतत्वग्वर्तितो वा नापमाणस्याऽनुपदमवृत्तस्तिष्ठति । पर आह । erra किंतुप, देणं किलेसकरणेण । नाइ एगनुवयोग, सफजणं णा च तरुणाणं । अथ तस्य स्थविरस्य जीर्णमहतः किमेतावन्मात्रेण क्लेशकरणेन । सूरिराह । एधते अत्रोत्तरं दीयते । एवमाचरतस्त सूत्रार्थायां सह एकत्वोपयोगोपयुक्तस्य तु सूत्रार्थः सम्यगति । तथा तरुणानां च श्रकाजनवं कृतं भवति । तथाहैि । व्याख्यानमंख्या उत्थितमपि निजमाचार्य जीर्ण महान्तमे विनयं कुर्वन्तं दृष्ट्वा चिन्तयंति । यद्युष्माकमाचार्यो जीर्णो महानप्येवं तस्य विनयं करोति ततोऽस्माभिस्तरणैः सुत कर्तव्यः आद शिष्यः । यथा जीर्णमदन आचार्यश्पाद क्रियते । यथाऽनुनाषमाणस्य एकपार्श्वे सन्निषम्य स्त्वग्वर्तितो वा तिष्ठतु एवमन्यस्यापि क्रियते इति ब्रूमस्तथा चाह । सो गयी अगवा, असं तर सुति पामि । नव देहो, होमं वातणो सुचिरम् ।। सजीर्णो महान् गणी आचार्य उपाध्याय गच्छेदको वा अगणी वा भभ्यो यः स्थाननियुक्तः सोऽनुनापमा स्य चिन्तापयतु एकस्मिन्पावें विततो वाणोति यतो न शक्नोति जीर्णदेहो बकालनो नवितुं सुचिरं काल मिति ॥ व्य. उ. ५. ॥ आयारपकष्पधर आचारप्रकल्पधर पु० निशीयाध्ययनधारि णि, ग.१ अधि । निशीथाध्ययन सूत्रार्यधरे, च व्य. उ. ३। पं. चू. ॥ तिविहाय पकष्पधरा सुत्ते प्रत्थे य तदुतये चैव । आयारपकप्पपरो, कप्पववहारधारओ भज्जो ॥ व्य० । योगयणं परियहि राहातो पं. चू आयारपकप्पधरो गाहा । आचरणमाचारः क्रिया इत्यः सचाष्टप्रकारः पंचसमितयो गुप्तिश्रयं एष चारित्राचार आरकल्प नाम निशीयेषु सार्थपरार्थ कपव्यवहारधरश्च ( अजोत्ति ) आमन्त्रणे निर्देशे वा नयनन्तीति नयाः दुपारणं दुक्खक्लयकार ओ जम्हा पण गणपरियाई आपहाओ आह समनुज्ञातः । पच्छितकरण अणुपालणा, यजहिताओ कप्पववहारे । एते अस्यपारी, गणधारी जो चरणधारी । श्रयारपणिहि अज्जोतिआमंतणाणिद्देसे, वा एयस्त सुताई । जातिं तु दिट्टिवाते, पच्चित्तं दिज्जते तह तु । तेहि विणा विजाणति, आायारपकप्पवार जम्हा । सम्हा तु अनुहातो, गणपरिवदि तु सोणियमा । पायच्छित जम्हा, पायच्छित्तकरणं अनुपात हा गणे अणुपासीज से पकप्प पकप्पववारे प्रणिय पण सत्यधारी जो सो गणपरियही अदाओ प रणजुत्तो जर जवइ गाहा पं० जा. चू. ॥ करणापायातु पज्जवकसिणं समासतो पाणं करणाणुपादुकासेणं नवेतिषिद्धं । दुत्तिपण च्छ्ककणयं, तरेसु सोलस हवंति ठगाई । करण्डाएपसत्या, करणट्ठा अपसत्या || एवाई बाणाई, दोहि विगाहाहि जाई जलिचाई | तेसिंपवणविणयो, समासतो होति बोधव्या । करणं तु किया होति पाडिले मादिसामापारी तु ॥ तं पालेज्जतु णाणे, ण तं च दुविहं मुणेयव्वं । दारं । प्रज्जवकसिणसमासो, पज्जवकसं तु चोदसपुब्वा । सामाश्यं पकप्पो, होति समासो मुणेयव्वो ।। पज्जवक सितिपि सुत्ते अस्य तये चैवार्थ जा. करणाणुपात्रयाणं तं दुविहं पज्जवक सिणं समासतश्च पजचकसिणं नाम पुष्याणि समासभ आधारपकपोस मासः संकेप इत्यर्थः । यथा समुद्रनृतस्तभागः चन्द्रमुखीदेयता सिदे माणवकः एकदेशापूर्व धरः सर्वपर्यायेषु सूत्रार्थेषु चरणकरणादयः पदार्थः सर्व पयेषु सूत्रार्थेषु चरणकरणादयः पदार्थः प्रज्ञापयितुं समर्थाः । आचारकापरस्तः (दोव्वरणकरण अग्रपा लेउ समय लेनेकदेशामित्वं प्रतीत्य बया समासतोप्यर्थधरः कल्पव्यवहारादयो गणपरिपाक्षण समर्थ जवंतिपज्ज वकसिणं तिविहं सुत्ते प्रत्थे तदुभयय ॥ पं० च० ॥ आयारपकप्पिय- आचारप्रकल्पिक पु० आचारप्रकल्पाsभिधा नाध्ययनधारिणि, (आयारपक पितो जोग्गो ) व्य. न. ५ । आयारपरमयुत्त आचारमथममत्र न० "सुर्यमि भाउ ते भगवया एवमक्वाय" मित्येवं रूपे आचारानिधानप्रथमांगा दिवाक्ये, पंचा. वृ. ११ । एसा य परा आणा, पपमा मं गुरुकूलं मोचयं । आयाममुत्ते, एतोदिय सियं पयं ।। १ ।। आयारपातिपर-आचारमइतिघर पुं० आचारधरे, प्रमि धरे, च । यारपात्तिधरं दिवीवाय महिज्जगं । चविकखलियं नचा, न तं उवहसे मुणी ||५० ॥ सूत्रं व्या० | आचारप्रज्ञप्तिघरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवं नृतमिति दश० अ. ८ । आवारपणहि प्राचारमणिधि पु० काचारप्रणिधाने तिपाद के दावेकालिकस्य स्वनामध्यातेऽष्टमेव । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायारपणिहि अभिधानराजेन्द्रः। पायारपाणिहि तथा च दशवैकालिके ॥ प्रमृज्य तां रजोहरणे न निषादेत् ज्ञात्वेत्यचेतना ज्ञात्वा याचव्याख्यातं वाक्यद्वयध्ययनभिदानीमाचारप्रणिधानाख्य यित्वाऽवग्रहमिति यस्य सबन्धिनी पृथिवी तमनुग्रह मनुकामारभते । अस्य चाऽयमजिसम्बन्धः । इहानतराध्ययने प्येति सुत्रार्थः॥ साधुना वचनदोषगुणाभिझेम निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्ये उक्तः पृथिवीकायविधिरपफायविधिमाद । तमुक्तं श्द तु ते निरवद्य वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति। सीओदगंन से विज्जा, सिलावद्ध हिमाणि ।। तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतपुच्यते । उक्तंच ॥ जसिणोदगं तत्तफासुअं, पमिगाहिज्ज संजए ॥६॥ पणिहाणरहिस्सेह, निरवज पि नासियं । शीतोदकं पृथिव्युद्भवसचित्तोदकं न सेवेत । तथा शिक्षा सावज्जतुवं विनेयं, अज्मृत्यणहसम्बुमं॥ घृष्टं हिमानि च न सेवेत । तत्र शिवाग्रहणेन करकाः परिगृधइत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनं अस्य चाऽनुयोग न्ते । वृष्टं वर्षणं । हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति यद्येवं धारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निक्षेपस्तत्र चा कथमयं वर्तेतेत्याह उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं चारप्रणिधिरिति धिपदं नाम ॥ सत्मासुकं त्रिदएमोदृतमुष्णोदकमात्र प्रतिगृण्डीयावृत्यर्थ साम्प्रतं सूत्राऽनापकनिष्पन्नस्याऽवसर इत्यादि वचः पूर्वव- संयतस्साधुः। एतच सौवीराद्युपत्रकणमिति सूत्रार्थः॥ तथा ॥ तावद्यावत्सूत्राऽनुगमेऽस्वलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं. । उदनवं अप्पणो कायं, नेव पुंडे न संलिहे ॥ तश्चेदं। समुप्पेह तहा नूअं, नो णं संघट्टए मुणी ॥ ७॥ आयारपणिहिं सऊ, जहा कायव्व निक्खुणा। नदीमुत्तीर्णो भिक्काप्रविष्टो वा वृष्टिहत उदकार्डमुदकाबतम्ने उदाहरिस्सामि, आणुपुचि सुणेह मे ॥१॥ चितमात्मनः कायं शरीरं स्निग्धं वा नैव पुचयेत् । यतृणा अस्य व्याख्या । प्राचारणिधिमुक्तबवणं सवा प्राप्य येन दिनिर्नव संबिखेत् । पाणिना अपितु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य तथाप्रकारेण कर्तव्यं विहिताऽनुष्ठानं भिकुणा साधुना तं प्रकार चूतमुदकादिरूपं नैवं कार्य संघट्टयेत् मुनिर्मनागपि न तेन प्रवद्ज्य उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि । आनुपा स्पृशेदिति सूत्रार्थः॥ परिपाट्या त ममेति गौतमादयः स्वशिप्यामाहुरिति सक्तो ऽप्कायविधिस्तेजस्कायविधिमाह॥ सूधार्थः ॥ अंगानं अगणिं अचिं, असायं वा सजोइअं ॥ तं प्रकारमाह ॥ उजिजा न घट्टिज्जा, नो एं निव्वावए मुणी ॥ ॥ पुढविदगअगणिमारुय, तणरुरकस्स बीयगा। भंगारं ज्वालारहितं अग्रिमयः पिएमानुगतमर्चिश्चिन्नज्वालंत्तस्ता य पाणा जीवति, इइ वुत्तं महेसिणा ॥२॥ अल्लातञ्चोल्मुकं वा सज्योतिस्साग्निकमित्यर्थः । किमित्याह । व्याख्या । पृयिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसबीजा पते पञ्च नोत्सिचेतू न घट्टयेत् तत्रोजनमत्सेचनं प्रदीपादेर्घट्टनं मिकेन्ज्यिकायाः पूर्ववत् असाश्च प्राणिनो हीन्छियादयो जीचा थश्चाबनं तथा नैनमाग्निं निर्वापयेत् अन्नावमापादयेन्मुनिस्साइत्युक्तं महर्षिणा वर्षमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्यः॥ धुरिति सूत्रार्थः॥ तेसिं अत्यणजोएणं, निचं हो अव्वयं सिया। प्रतिपादितस्तेजस्कायविधिर्वायुकायावधिमाद ॥ मणसा कायवकेणं, एवं हवइ संजए ॥३॥ तालविंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा। • यतश्चैवमतस्तेषां पृथिव्यादीनामकणयोगेनाहिंसाव्यापारण न वीइज्ज अप्पणोकायं, बाहिरं वावि पुग्गझेपणा नित्यं भवितव्यं वर्तितव्यं स्याभिकुणा मनसा कायेन वाक्ये तालवृतेन व्यजनविशेषेण पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना शाखया न त्रिभिः कारणैरित्यर्थः । एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् वृकमालरूपया विधूननेन वा । किमित्याह । न वीजयेत् श्राजवति संयतो नान्योति सूत्रार्थः ॥ स्मनः काय स्वशरीरमित्यर्थः । बाह्य वाऽपि पुलमुष्णोदकाएवं सामान्येन पम्जीवनिकाहिंसया संयतत्वमभिधाया दीति सूत्रार्थः॥ घुना ततविधिविधानतो विशेषेणाऽऽह ।। प्रतिपादितो वायुकायविधिर्वनस्पतिकायविधिमाह ॥ पुढाव जितिं सिविं लेबु, नेवनिंदे न संलिहे ॥ तणरुक्खं न बिंदिज्जा, फलं मूतं च कस्सई । तिविहेण करणजोएण, संजए सुसमाहिए ॥४॥ आमगं विविहं बीअं, मसावि ण पत्थए ॥१०॥ व्या०॥ पृथिवीं शुझां भित्ति तटीं शिला पाषाणात्मिका सेठ, तृणवृक्तमित्येकवनावः तृणानि दर्भादीनि वृताः कदम्बामिट्टासखंझ नैव भिंद्यात् न संविखेत् । तत्र भेदनं वैधीभाधो दयः पतान्न बिंद्यात् । फलं मूलं वा कस्यचिकादेग्यिात् । त्पादनं संलेखनमीपल्लेखनं त्रिविधेन त्रिकरणयोगेन न तथा आगमशास्त्रोपहतं विविधमनेकप्रकारं बीजं मनसाऽपि करोति मनसेत्यादिना सयतस्साधुस्सुसमाहितः श्रुरुजाव न प्रार्थयेत किमुताश्नीयादिति सूत्रार्थः॥ शति गाथार्थः॥ तथा। गहणेसु न चिहिज्जा, बीएसु हरिएसु वा । सुखपुढवि न निसीए, ससरक्खमिअ आसणे ॥ उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥११ ॥ पमज्जित्तु निसीज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ॥५॥ गहनेषु वननिकुञ्जषुन तिष्ठेत् संघट्टनादि दोषप्रसङ्गात्तथा शुभपृथिव्यामशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां न निषादेत् । तथा बीजेषु प्रसारितशाल्यादिषु हरितेषु वा दूर्वादिषु म तिष्ठेल । रजस्के वापृथिवीरजोवगुपितेवा प्रासने पीचिकादौन निषी- उदके तथा नित्यं अत्रोदकमनन्तवनस्पतिविशेषः। यथोक्तं "उदेत् । निवीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः । अचेतनायां तु | दए अवए पणए " इत्यादि । उदकमेवान्ये । तत्र नियमतो Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपाणिहि अभिधानराजेन्डः। आयारवाज्जय बनस्पतिभावात् । उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठेत् । तत्रोत्तिङ्गः चन्जमा इति । यथा कृत्स्ने वाभ्रपटे गते सति चन्को विराजते सर्प उत्रादिः । पनक उल्लिवनस्पतिरिति सूत्रार्थः ॥ शरदि तध्दसावपेतकर्मघनः समासादितकेवनारोको उक्तो वनस्पतिकायविधिस्त्रसकायविधिमाह ॥ विराजते इति सूत्रार्थः। दश. अ.॥ तसे पाणे न हिंसेज्जा, वाया अदुव कंमुणा ॥ आयारपत्त -आचारमाप्त -त्रि ब्रह्मवताद्याचाराऽपन्ने, तथाच नवर ओसव्व लूएसु, पासेज विविहं जगं ।। १२॥ तएफुलवैकालिके । स्त्रियोऽधिकृत्य (दूषणं आयारपत्ताणं) प्रसप्राणिनो हीन्द्रियादीन् न हिंस्यात् । कथमित्याह । दूषणं कसंका केषां आचारप्राप्तानां ब्रह्मवताद्याचारापमाना वाचा ऽथवा कर्मणा कायेन मनसस्तदन्तगतत्वाद्ग्रहणं । मिति । तं०॥ अपि चोपरतः सर्वजूतेषु निकिप्तदएमस्सन् पश्येद्विविधं जग- आयारपरकम-आचारपराक्रम-पुं० आचारे ज्ञानादी पराक्रमः कर्मपरतंत्र नरकादिगतिरूपं निर्वदायेति सूत्रार्थः॥ प्रवृत्तिबलं यस्य स आचारपराक्रमः।कानाद्याचारप्रवृत्तिबरोउक्तः स्यूलविधिस्सूदमावधि माह ॥ पेते, दश० चू.२॥ अट्ठ सुहमाइ पेहाए, जाई जाणितु संजए । तम्हत्ति सूत्रं ॥ दयाहगारी नूएस, आसचिट्ठस एहिवा ॥१३॥ तम्हा आयारपरक्कमेणं, सम्बरसमाहि बहुलेणं ॥ अष्टा सूक्ष्माणि वक्यमाणानि प्रेकोपयोगतः आसीत् । तिष्ठ चारया गुणा य निअमा, होंति साहुणदहका ॥४॥ यीत वेतियोगः । किं विशिष्टानीत्याह । यानि ज्ञात्वा सं व्या. यस्मादेतदेवमनंतरोदितं तस्मादाचारपराक्रमणेत्यायतो झपरिझया प्रत्याख्यानपरिझ्या च दयाधिकारी नूतेषु चारे ज्ञानादौपराक्रमः प्रवृत्तिवलं यस्य स तथा विध इति भवत्यन्यथा दयाधि कार्येव नेति तानि प्रेक्ष्य तद्रहितः पवा गमकत्वाद्वहुवीहिः। तेनैवलतेन साधुना संवरसमाथिबहुऽसनादीनि कुर्य्यादन्यथा तेषां सातिचारतति सूत्रार्यः ॥ दश. सेनेति सवर द्रियविषये समाधिरनाकुलत्वं बहु प्रभूतं यस्य स तयाविध ति समासः पूर्ववत् तेनैवं विधेन सता आचारप्रणिधिफलमाह॥ अप्रतिपाताय विशुद्धये च किमित्याद । चर्या भिकुभावनसातवं चिमं संजमजोगयं च, सज्मायजोगंचसया अहिट्टिए। धनी बाह्या अनियतवासादिरूपा गुणाश्च मूबगुपयोत्तरगुण रूपा नियमाश्चोत्तरगुणानामेबपिमविशुद्धयादीनांस्वकासासे सुरेव सेवाएसमत्तमानहे,अनमप्पणो होइअझं परेसिं६५ वननियोगा भवति । साधूनां मष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां सूत्रव्याख्या । तपश्चेदमशनादिरूपं साधुसोकं प्रतीतं संयम अष्टव्या भवति । सम्यम्झानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः। योगं च प्रथिव्यादिविषयं संयमव्यापार च स्वाध्याय आयारनंग-आचारजमक-न. पात्रपटक्षरजोहरणादिके। योगं च वाचनादिव्यापार सदा सर्वकावं अधिष्ठाता तपः प्रभृतीनां कर्तेत्यर्थः । ह च तपोनिधानात्तग्रहणेऽपि स्वा सव्वावगरणमाया य साह पापारजम्गेण समं आधार ध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदाभिधान मिति । स एवं- मंकपात्रम् भोघ.॥ नूतः शूर श्व विक्रान्तः भट श्व सेनया चतुरंगरूपया इन्द्रि- आयारनंमसेवि (न्) आचारजाएमसेविन्-पुं० प्राचारः शायकषायादिरूपया निरुरुः सन् समाप्तायुधः संपर्यतपःप्र- स्त्रविदितो व्यवहारस्तेन भाएममुपकरणमाचारभाएमम् तजातखडाचायुध अनमित्यर्थ मात्मनो भवति संरक पाय सेवितुं शीलं यस्य स भाचारभाएमसेवी। शास्त्रविहितन्यवभखंच परेषां निराकरणयेति सूत्रार्थः॥ हारेणोपकरणसेविनि, अणायारभंगसेवी जन्ममरणाणुतदेव स्पष्टयन्नाह ॥ बन्धाणि आतु॥ सज्काय सज्माणरयस्स ताइणो, अपावजावस्स तवे । आयरमन्तर-आचारान्तर-न ज्ञानादिके आचारविशेषे, मारयस्स । विसुज्मइ जसिमझं पुरे कर्म, समीरियं रुप्पमलं चारव्यवधाने, च (आयारमन्तरेण विसयमन्तरे सेहिमो) व जोइणा ॥६३ ॥ पा०॥ सूत्र व्याख्या. स्वाध्याय एव सम्यानं स्वाध्यायसम्यान तत्र आयारमन्तरेति भाचारान्तरे कचित् ज्ञानाचाराविशेषे रतस्य सक्तस्य त्रातुः स्वपरोभयत्राणशीलस्य अपापभावस्य विषय नुते आचारव्यवधाने वा सति ज्ञानादिक्रियाया अकनभ्याद्यपेक्षारहिततया शुरुचित्तस्य तपस्यनशनादी यथा- रणे सतीति भावः । पान्टी० शक्तिरतस्य विशुरुचते अपैति यदस्य साधोर्म कर्ममनं पुरा- आयारमट्ठ-आचारार्थ-त्रिक ज्ञानाद्याचारनिमित्ते, ( भायार कृतं जन्मांतरोपात्तं दृष्टांतमाह । समीरितं प्रेरितं रुप्पमझमिव महाविण यं पञ्जे) दश० अ०९०३ आचारार्थ ज्ञाना. ज्योतिषा अग्निनेति सूत्रार्थः ॥ ततश्च । द्याचारनिमित्तं विनयमुरुतकणं प्रयुक्त कराताति। दशटी० सेत्तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएणजुत्ते अममे अकिं- आयार (मंत) वं-आचारवत-त्रिज्ञानाऽसवनाच्या पञ्च चणे ॥ विरायई कम्मघणीम अवगए, कसिणजपुमावग प्रकाराऽचारवति, स्थाग० कानासेवनाच्या कानादिपश्चमेवचंदिमि तिबेमि ॥६॥ प्रकाराचारयुक्त, अयं हि गुणत्वेन श्रद्धेयवाक्यो भवति पंचासूत्रव्याख्या सतादृशोऽनन्तरगुणपरिषहयुक्तः साधुःःखसहः वृ०१५ । न० श.२५.७। ध० अ०२(आयारमंतागुण परीपहजता जितेन्डिया पराजितश्रोत्रेन्डियादिश्रुतेन युक्तो वि. सुटियप्पा) श्राचारवंतो ज्ञानाद्याचारसमन्विता इति दश०। द्यावनित्ययः। अममःसर्वत्रममत्वरहितः।अकिञ्चनो व्यना- भए ३ आचारः शास्त्रोक्तानुष्ठानं कर्तव्यतयाऽस्त्यस्य मवाकञ्चनरहितो विराजते शोजते । कर्मघने झानावरणीयादि तुप मस्य वः शास्त्रोक्ताऽनुष्ठानयुक्त खियां ङीप वाच०। । निदशनमाह । कृत्स्नाञ्चपुटापगम श्व अयारवज्जिय-प्राचारवजित त्रि० आचारेण वर्जितः शास्त्रो Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८ ) अभिधानराजेन्द्रः । मायारविण्य काचारीने भाचारहीनाइयो वाच ॥ आयारविणय- आचारविनय पुं० आचारो प्रतिनां समाचार स एव विनीयते भपनीयते कर्म्माऽनेनेतिविनय आचारविनया विनयभेदे । सचतुर्द्धा यथा संयमसामाचारी १ तपः सामाचारी २ गणसामाचारी ३ एकाकिविहारसामाचार ४ च । तत्र संयमं स्वयमाचरति परं च प्राहयति तत्र च सीदंतं स्थिरीकरोति तत्रोद्यतं चोपदतीति संयमसामापा १ पाक्षिकादिषु तपः कर्म स्वयं करोति परंच कारयति निक्काचर्या स्वयमनुतिष्ठति परं च तपांनि इति तपःसामाचारी । २ । प्रत्युषे रुणा बालादिवैयावृत्यादिकार्येषु स्वयम् यतो सान्यागणंप्रेरयतीतिगणसामाचारी । ३ । एकाकिविहारप्रतिमां स्वयंप्रतिपद्यते परं च ग्राहयतीति एकाकिविहारसामाचारी ॥ | ४ | प्र० प्रा० ६४ दशा० ॥ सेकिं तं प्रयारविणए ? २ चलव्विहे पाते । तं ज हा । संजमसामायारीयावि भवति तवसामायारी यावि जवति (महासामायारीयावि जनते) गणसामाहारयावि नवति एगनविहारतासामायारीयावि जवति से तं प्रया रविछा ५ दशा० अथ कथं चाचारविनयेन शियति इति पृच्छा (सेकिं मित्यादि) मुराद मायारविणमित्यादिभचारान येनेत्यत्र तृतीयान्तता शिक्षयति । अनेन सम्बन्धेनोक्ता अथवा. कोऽसावाचारचिनयो वाक्याशंकारे चतुविधः द्यथा । संयमसमाचारी चापि भवति १ एवं तपः २ गणं ३ एकलविहारसमाचार्यपि भवति ४ तत्र संयमः सप्तदशप्रका रस्तस्य समाचारीति समाचरणं समाचारीति समाचरणं स माचारस्तस्य भाषे गुणवचनब्राह्मणादिभ्य इति ङ्य तस्य च चित्करणसामर्थ्यात् त्रियामपि व्यतिरिति चिन्हौराज्य तिषि सामाचारीशिकपिता इति शेषः । भयतिकोऽर्थः । पृथिव्यादिषु संघनपरितापनोपपादि परिवर्तयति शि कार्यता यति चापि शब्दी पञ्चरिमायासंग्राही १ एवं तपः सामाचा व तपः पा पधिकैः कारयति परैः स्वयं च करोति पाक्षिकादिषु तपश्वतुर्थादिरूपं द्वादशविधो वात्र तपः प्रकारो यथावसरं अष्टव्यः ३ एवं गणसमापि ममशब्देन समुदायः साधूनामिति शिति यथा प्रतिशेधना प्रस्फोरादिव प्रद र्तमानात् ॥ १ ॥ नोदयति बाडुर्बानष्टकादि वैयावृत्या दिषु आप्रवर्तमानान् दृष्ट्वा तान् तथा जयति । स्वयं वा तान् दुःखिता रहा तत्र प्रवर्तते विहारप्रतिमामन्यान अंगीकारयति । तथा विधानभूतसंमना समुचिता रहा स्वयं च कृतकृत्यो गणे तथाविधमायार्यादिकं स्थापयित्वा विशिष्टानुष्ठानतुलनोपयोगी त्यर्थः । स न तां प्रतिपद्यते । धनेनाग्चारेणात्मानं परं च विनयति शिक्षयति ॥ ब्यवहारकल्पे । आचार विनयमाह ॥ आयारे विप्रो, खलु च उन्निहोहोर आणुपुवीए । संगमसामायारी, तवे या गणविहरणा चेव ।। १ ।। एगलविहारे य, सामायारीयए च उनेया । यातुविजानं वृच्छामि ॥ २ ॥ आयारसंयया आचारे श्राचारविषयः खबु विनयश्चतुर्विधो भवति । आनुपूर्व्या परिपाट्या । तद्यथा । संयमसामाचारी १ तपःसामाचा री २ गणविहणसामाचारी ३ एकाकिविहारसामाचारी 8 एवमेषा चतुर्भेदा सामाचारी पतासांसामाचारीणां विभाग यथानुपूर्व्यायाम आयारवेई आचारवेदी - स्त्री० आचारस्य बेदीष पुण्यज्ञमौदेम० वाच० । प्रायारसंग्या आचारसंपत् श्री० श्राचरणम चारोऽनुष्ठानम् पियास पच या सम्पतृितिस्तस्य वा सम्पत् सम्पत्ति प्राप्तिराचारसम्पत् प्रव० ६० ६४ ० ० ० आचारो नाम प्रथममं तस्मिन्द् अधीते दाविधभ्रमणधर्मो हातो भवति तस्मादाचाराङ्गं यो भणति सुत्रतोऽर्थतः सम्पद्युक्तो भवति यः स आचारसम्पत् दश० भ० १ उत्त० भ० १ गणिसम्पफेवे। आचारसम्पचतुर्धा संयमधुपयोगयुक्ता १ संग्रह २ अनियततिकता बेति तत्र संयमधरणं तस्मिन्रो योगः समाधिस्तयुक्तता कोऽर्थः समतो पयुक्तता १ असंप्रग्रहः समंतात् प्रकर्षेण जात्यादि प्रकृतसकणेन ग्रहणमात्मनोऽवधारणं सम्यग्रहस्तद्भाष जात्याद्यनुत्सि कतेत्यर्थः २ अनियतवृत्तिरनियत बिहाररूपाऽश्र शीलता वपुषि मनसि च विभृतस्वनावता निर्विकारतेति यावत् स्था० ० ० ६० दश० । प्रायारसम्पदा चव्विहा पं० तं० संजमधुवजोगजुत्ते यावि जयति १ असंपश्यहियप्पा २ प्रति वित्ती वसले यावि ४ जयति दश० ॥ टी०संयमध॒वयोगयुक्तात्मा अनिवृत्तिः ३ वृद्धीन ४ वापि जवति तत्राचाचारोनामप्रथममं तस्मिन् अधीने दशविधभ्रमणथम्महातो नयति तस्मादारांगं यो नणति सूतोऽयंत सम्ययुक्त नवति । परसमचासम्पत् । स च संयमेत्यादि । संयमो नाम चरणं । तस्य ये धवा अवश्यं कर्तव्यत्वात् योगाः प्रतिलेखनास्वाभ्यायादयः । तैर्युक्तो भवति । अथवा संयमः सप्तदशप्रकारः पञ्चाश्रवाद्विरमणमित्यादिकः तस्मिन् ध्रुवो नित्योयोगो व्यापारो यस्य स संयमध्रुवयोगयुक्तः । अथवा संयमेधुबोनित्योयोगोव्यापारीयस्यस संयमभ्रपयोग युक्तः शब्दा तू ज्ञानादिष्वपि नित्योपयोगः । अपिशब्दग्रहणात्परमपि योजयति । इत्येका १ अनुसेवामा यस्य स्वोरमा निरभिमान इत्यर्थः । यथा अमाचार्यो बहुतस्तपस्वी सामाचारी कुशलो जात्यादिमान्य इत्यादि मदरहितः २ विषता अनिश्चितावृत्तिव्यंवहरणं बिहारी वा यस्य सोऽनिवृत्तिर्यया श्रामे एगराई नगरे पंचरा इत्यादिका। अथवा निकेतनं नाम गृहं तत्र वृत्तिर्वर्तनंयस्य सनिकेततिः न निकेततिरनिति अथवा चांदि तपो विशेषैरेषण समितियोगेन च निकेतवृत्तिः परिचितगृहेष्वंगया तिरुशओ निन्तः अवचनशी सियायत । नादियु सम्बन्याकृत्यादिकरणकारा एवं विच या शीता म नितृतस्वभावता निर्विकारतेतियावत् ॥ प्रवद्वा० ॥ पण नसि Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९) अभिधानराजेन्द्रः | मायारसमाहि आचरणमा चारोऽनुष्ठानं तया स एव वा सम्पति स्तस्य वा सम्पत्सम्पत्तिप्राप्तिराचारसम्पत् । एवमग्रेऽपि व्युत्पत्यर्थो जावनीयः । सा चतुर्धा यथा ॥ चरणजओ मयरहियो, अनिययावत्ती अचंचझोचवत्ति चरणयुतो मदरदियो नियत सिरमेति तत्र चरणं चारित्रं व्रतभ्रमणधम्र्मेत्यादि सप्ततिस्थानरूपं तेनयुतो युक्तश्वरणयुतः । अन्यच तु संयमभुपयोगयुक्तेत्येवमिपते। तत्राप्ययमेव परमार्थो यतः संयमश्चारित्रं तस्मिन् भ्रवोनित्यो योगः समाधिस्तेन युक्तता तत्र सततोपयुक्ततेत्यर्थः । तथा मर्जातिकुलतपः श्रुताद्युङ्गवैरहितो मदरहितो प्रन्धान्तरे तु असम्प्रग्रद् इति पठ्यते । तत्राऽपि सपवार्थो यतः समन्ताव्यकर्षेण जाति ततपरूपादिमत्कृतानामनो प्रद ममेवं जातिमानित्यादिरूपेणावधारणं सम्मान तपा सम्मो जात्याधनत्यमित्यर्थः । मनियतचिः श्रामादिव्यनियतविहारस्वरूपता याच वयो तुयते तत्र वृद्धशीता चपुपि मनसि कामिनी मनोमोहने वयसि वर्तमानस्यापि निस्वनावता निर्विकारतेति यावत् यतो ॥ मनसि रजसामिनृता जायते चनेऽपि वि मूढधियः पुनरितरे जवंति वृद्धत्व नावेऽपि प्रव० ६४० ॥१॥ तत्राचारश्चतुर्विध स्तद्यथा चरणकरणगुप्तता १ मदोहंकारस्तद्रहितता २ प्रव्य क्षेत्रका जादिनियतवृचिता ३ मत्याय खपलता दश० ॥४॥ आयारसत्य आचारशास्त्र- न० आचाराने याचा० ० १ ॥ आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यया, जगाद वीरो जगवे हिताय यः ॥ तथाच किञ्चिदतः समेऽधुना पुनातु धीमाद विनयार्पिता गिरः ॥१॥ आधारसमादि-याचारसमाधि- पु० समाधि भेदे आचारसमधमाह । दश कालिके ० ० ४ आपारसमाही जब जहां नो ह योग पाए आपारमहिडिजा १ नो परसोगडगाए - यारम हिहिज्जा २ नो कित्तिवन्नसदसि लोगढयाए आयरमहिडिज्ला अस्य असिंतेहिं हेकहिं आयारमहिडेना ४ च प जव जयस्य सिलोगो ॥ १० ॥ चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः कार्यमित्यादि आवारामधानेन पूर्ववत् यावन्नाम्याते रईसम्बन्धिभिर्हेतुभिरनाभवत्यादिनिरा चारं मूत्रगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेत् । निरीहस्सन् यथामोक्क एव भवतीति चतुर्थपदं भवतीति । नवति चात्र लोक इति पूर्ववत् सचायं ॥ जिवयणरए अतितो, परिपुन्नात्रयमाययट्ठिए । आपारसमाहितुमे, जन य देते जावसन् ।। aro जिनवचरतः आगमे सक्त (बर्तन) ना चिक्तः सन् असूयया नूयो २ बक्ता । प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । श्रायतमायतार्थिक इत्यत्यन्तं मोक्कार्थी । आचारसमाधि संवृतः इत्याचारे यः समाधिः तेन स्थगिताश्रवधारः स वाराणुयोग नवति। दांत न्द्रियनो इन्द्रियमायां भावसन्धको भावोमोस्तत्सन्धकः । आत्मनो मोकासन्नकारीति सूत्रार्थः अयारसुय-आचारश्रुत-न० आचारश्च श्रुतं व आचारश्रुतं काया भाचारतसमाहारे सूत्रांगहितीयत स्कन्धस्य पञ्चमेऽध्ययने च सूत्र २ ५ . ॥ साम्प्रतं पञ्चममध्ययनमारज्यते । अस्य चायममिसम्बन्धः । श्दानन्तराध्ययने प्रत्याख्यानवियोका साथाचारसंयवस्थित रूप सतोप्रयतीत्यतस्तदनन्तरमाचारभूतान्यवनमभिधीयते । यदि वा नाचारपरिवर्जनेन सम्यक्प्रत्याख्यानमस्खलितं भवतीत्यताना वारताभ्यवनमनिधीयते । यदिवा प्रत्याख्या नयुक्तः सन्नाचारवान् भवतीत्यतः प्रत्याख्यानक्रियानन्तरमाचारताय । तातिपकतमनाचाभ्ययनं पा प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याऽध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि नवति । तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्था धिकारोऽयं तद्यया अनाचारं प्रतिषिध्य साधूनामाचारः प्रतिपाते नामनिष्य तु न भावातमिति द्विपदं नाम सदनयोर्निपानिदाद थामं उपणा दविए, दव्वे नावे प होति नायव्या ॥ एमेव य सुत्तस्स, क्विवो चाहि होत्ति ॥ १॥ णावणेत्यादि । तत्राचारो नाम स्थापना द्रव्यजावभेदभिनश्चतुर्धा द्रष्टव्यः । एवं श्रुतमपीति । तत्राचारश्रुतयोरन्यत्रामितियोचार्थमतिदेशं कुर्यभार आयारसुर्य नणियं वज्जेयन्दा सया अथायारा ॥ अवस्यस्स होज्जा, विरहेणा इत्य जयव्वे ॥२॥ आचारसूयमित्यादि । श्रचाधव भार कयास्तनयनमिति तत्राचारा कुलिकाचारकथायामभिहितः तः । श्रुतं तु विनयते । नाचार्थस्तु वर्जयितव्याः परिहार्यः सदा सर्वका यावज्जीवं साधुरनाचारास्वतगीता न सम्यक् जानातीत्यतस्तस्य विराधना भवेत् । बहुशन्दोचार बहुत विराधना न गीतार्थस्येत्यतोऽत्र सदाचारे तत्परिज्ञाने व यतितव्यं । तापका कुमार्जनेन नापथगामी नि नग्मादयते मनाचाचपत्राचारवान् नपति नचानाचारयुज्यत इत्यतस्तत्रनिषेधार्थमाह ॥ एस्पासेोमशंभ होत नापवा || तोअणगार होई नाम तु एयस्स ।। २ ॥ ( एयरस इत्यादि) पतस्याऽनाचारस्य सर्वदोषास्पदस्य गतिगमनको प्रतिषेधो निराकरण सदाचारप्रतिपत्य महाध्ययने ज्ञातव्यः स च परमार्थतोऽजगारकारणमिति । ततः | तस्यान्यवनस्थानगारतमित्येतनाम भवतीति ॥ आयारसृयखंध- आचारश्रुतस्कंध - पु० श्राचारांगस्य नवग्रहा चभ्ययनामक आधारस्थति आचाराङ्गा श्राचा० . डि. अ. १ । आयारालुओग-आचारानुयोग - पु० भचारस्यानुयोगी ऽनुयोगः सूत्राध्ययनात्पश्चादर्थ कथनम् । आचाराङ्गस्याकपने आचाराङ्गस्य सुशध्ययनात्मवादकथने च आचा २। द्वि० ० अ० ११ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार अभिधानराजेन्द्रः। प्रारम्भ (आचाराणुयोगे) अणोर्वा बधीयसः सूत्रस्य महता थेन | ततश्वविदित्वा सर्वमेतत्प्रतुर्नगवान् सर्ववारं बहुशो नियायोगोऽनुयोगः । आचाराङ्गस्य महतार्थेन योगे च आचा रितवान् इति सूत्र०टी०। आयारोवगय-प्राचारोपगत वि. चतुर्दशे योगसङ्कहे । चतुर्थ्याः पंकप्रनायाः पृथिव्याः स्वनामख्याते महानिरये (भायार विणयोवगए ) आचारोपगतत्वं विनयोपगतत्वं च स्था० म०४ा ऋकर्तरि संझायां कन् दएमान्तर्षर्तिन्यां चेत्यर्थः तिप्रश्नः। छा०५सं०। शलाकायां खी० टाप (कसंकुसारणि वाय दमणाणि प्राआयार विणययोवगएत्तिधारध्यम् । आचारोपगतः स्यान्न- राच प्रवणी परायणदएमान्तर्वतिनी शलाकेति प्रश्न । मायां कुर्या दित्यर्थः। विनयोपगतः स्यान्नमानं कुर्यादित्यर्थ आरओ-आरतस्-अन्य शहरोके, (इहलोके आरओ वा |सम ०स०३२। विहा वियअसंजया) सूत्र० श्रु० १ अ०० आचारो पगत माह । प्रा०क। आरतः परति इहलोक परलोकयोरिति, सुत्र० टी० पामलिपुत्त हुआसण जझणसहाचेव जनणदहणणे। भारतः परतश्चेति लौकिकी वायुक्तिरितिएवं पर्यासोच्यमाना असोहम्मपनि पयणए आमनकल्याइनट्टविही ।।। ऐहिकामुष्मिकयोर्डिधापि स्वयंकरणेन परकरणेन वा संयता नगरे पाटली पुत्रे, श्रावको तू ताशनः । तज्ञार्याज्वलनशिखा, जीवोपघातकारिण इत्यर्थः सूत्र० श्रु०१ अ०० दहन ज्वाना सुतौ ॥१॥ व्रतंचतुर्भिरण्यात्तं, ज्वलनात्सर अर्वागित्यर्थंच आरेण पन्याए व्य० उ०४ जात्मनः । मायावी दहमोऽज्येही,त्युक्तोऽगाचाहिचागमत् । प्रयाणां वर्षाणामारतोऽर्वाक यानि प्रवाजयतीति व्य०॥ ॥२॥ मृतोऽसातदनासोच्य, सौधर्मेद्वावपीयतुः । पञ्चपट्य | आरम्न-आरंज-पु० प्रारभ घश् मुम् धगन्य स्थिती जाती, शक्राज्यन्तर पर्षदि ॥ ३॥ पुर्यामामनकल्यायां प्राकृतसूत्रेणानुस्वारस्य वर्गपरे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गश्रीवीरः समवासरत् । तौद्धावप्यागतौदेवी, नाट्यं दर्शयत- स्यान्त्यो वा भवति प्रारंजो आरंनो इति प्रा० उपक्रमे प्रथमस्तदा।। ४॥ ऋजून्येकस्यरूपाणि, वनाएयन्यस्य चानवन्। कृती वाच० प्रयमोत्पत्ती (ओहिन्नाणारम्भो परिनिट्ठाणं चतं तरष्वागौतमः स्वामी पप्र स्वामिनं ततः ॥५॥ तत्प्राग्भवं जेसु) येष्ववधि झानस्यारंभः प्रथमोत्पत्तित्रवण इति । प्रतुः प्राह, मायादोषागवत्यदः । आचारोपगतकस्य, द्विती विशे० (काऊण पञ्चमंगहमारंभोहोई सुत्तरस) आ०म०। यस्य च ना नवत् ॥६॥ आ०० ॥ आषः॥ हिंसादिकेसावद्यानुष्ठाने-सूत्र० श्रु० १ ० १ श्राचा श्रायास-यायास-पुंआ-यस-घा खेदे। चिन्तायास निचि अ०१३ उ०७॥ विपुलसालो चिन्ताश्च चिन्तनानि आयासाश्चमनः प्रनृतीनां आरंजतिरियंकटटु आत्तताए परिव्वये-आरंभं सावधावेदास्तएव पागन्तरेण चिन्ताशतान्येव निचिता निरन्तरा नुष्टानारूपं तिर्यकृत्वेति सूत्र । ध्रु० १ अ. ३ । प्रारंजेसु विपुला विस्तीर्णा शात्रा शाखायस्य सतयेति प्रश्न हा०५। अणिस्सिए आरभेसावद्यानुष्ठानरूपे प्यनिश्रितोऽसंबन्धोऽप्र(आयास विसूरणा कबह कम्पियम्गसिहरो ) आयास वृत्त इत्यर्थ इतिसूत्रधु०१०॥ शरीरखेडः विस्तरणा चित्तखेदः कनहोवचन नएमम् पत देव आरंजगंचेवपरिग्नहंच विनस्सियाणिस्सियायदंगा प्रकम्पितं कम्पमानमशिखरंशिखाराग्रं यस्य स तथा प्रश्न ॥हा॥५॥ आरंभ सावधानुष्ठानच तया परिग्रहं वा व्युत्सृज्य परित्यज्य आयास हेतुत्वात्परिग्रहेच परिग्रहस्य गीणनामान्यधिकृस्य तस्मिन्नेवारंभेक्रयविक्रय पचनपाचनादिके ता परिग्रहे धनआयासो आयासः खेदः तसेतुत्वात्परिग्रहोऽन्यायास उक्त धान्यहिरण्यसुवर्ण चतुष्पदादिके निश्चयेन श्रितायकानि श्रिता ति सूत्र श्रु.२०६॥ आहच । शरीरमनसोळयामेच ( आयासविसरणां) आ प्रारंजः सावणेयोगति प्राचा० अ०५०५॥ यास विस्तरण स्वदार गमने शरीरमनसोायाम कुर्वतीति प्रहतम् । परदार सेवनायांच विस्तरणमप्राप्ती मनः खेदं पर आरम्भणमारंभः शरीरधारणायानपानाद्यन्वेषणात्मक इति । स्प वा मनः पीकां कुर्वन्तीति । प्रश्नद्वा०॥५॥ आचा०॥ आरम्भः कृष्यादिव्यापार शति प्रश्न द्वा०२॥ आयासत्रिवि-आवासत्रिपि- स्त्री० ब्राम्याक्षिपेरष्टादशसु आरंजश्चस्वयं कृष्यादि करण मिति । पञ्च०॥ अपविधाने पञ्चदशे सेख्यविधाने प्रज्ञा पद १ प्रारंभो हलदंतोबूखलादिखननसूना प्रकार इति । आव० ॥ पार-आर-पु. परभावापेकया हनवप्रव्रज्यापेकया गृहस्थ आरंभः परोपद्रव इति । आतु०॥ वे मोकापेकया संसारेच (णाहिसिप्रारंकओ परंवेहासे आरंजो जीवानांमुपज्वण मिति । प्रदनाघ०१॥ कम्मोह किश्चती) सूत्र० श्रु० अ०२ तन्मार्ग प्रपन्नस्त्वमपि आरंजाः प्रथिव्याद्युपज्वलक्षणानि । ग० । अ०१॥ कार्थास्यसि प्रारमिहर्भवं कुतोवा परं परलोकं यदि वा संकप्पो संरंजो, परितावकरोजवे समारंभो । आरमिति गृहस्थत्वं परमिति प्रवृज्या पर्यायम् । अथवा बारमिति ससार । परमिति मेझं एवं जूतश्चान्यो ऽप्युभयन्वष्ठः आरंजो नदवओ, सव्वनयाणं वि सुकाणं ॥ (वेहसित्ति ) अन्तरात सनयाभावतः स्वकृतः कर्मभिः कृ प्राणातिपातंकरोमीति यः संकल्पोऽध्यवसायः स संरम्नःत्यो पीयनति । परलोकापेकयाश्हलोके नरकाद्यपेकया यस्तु परस्य परितापकरो व्यापारः स समारम्भः अपडावयमनग्यतोके च( लोग विदिता आरं पारंचसचं पलूवारियस तो जीवितात्परं प्यपारोपयतो व्यापार आरंजः । पादच । चूर्णिकृत् ॥ स्ववारं) सत्र० श्रृ० १ अ०६ लोकविदित्वा प्रारमिह बोकाख्यं पारं परलोकाख्यं यदि वा पाणवायं करोमिति जोसंकप्पकरे इति ॥ आरं मनुस्योकं पारमिति नरकादिकंस्वरुपतस्तत्प्राप्तिहेतुं चिंतयतीत्यर्थः॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९१) अभिधानराजेन्द्रः । आरम्भ संरंभे वट्टर परितावणं करेइ समारंभे वट्ट । पतश्च समारंजादि त्रितयं सर्वनयानामपि शुद्धानां सम्मतं अथवा शुद्धाणमित्यत्र प्राकृतत्वात्पूर्वस्याकारस्य दोषो यः ततोयमर्थः सर्वनवानामप्यकानामासमारंभादित्रितयं सम्मतं नत्वझुकानामिति - व्य० च १ प्रा० २२ पद धर्म्म० अधि० ३ ग० ० १ आचा० श्र० २ ० १ ॥ सव्वपाणारम्नं पच्चक्खामिति प्राणानामारंभ विनाशादिरूपं प्रारंभमिति भातु० ॥ मनकायमा काययापारानधिकृत्य तयापारा पादित चिंतणातिपातादकिया निर्ऋतिरंज प्रति श्राचा० अ० १ ॥ प्रारंभं नूतोपमर्दनमिति । दश० ॥ आरंजणारे प्रथिव्यामइति प्र० ७ ॥ प्रायुपकारिणि व्यापार इतिसू० ० १ ० ॥ ॥ प्राण्युपमर्द्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरंमे व्यापारे, सू. . १ अ. १ चामेण जीवोपमर्दकारिणा व्यापारेणेति सूत्र... आरंभः पृथिव्यादिजी पोषम कृप्यादि विषय इति श्रीप. आरम्भा कृप्या दिहारण पृथिव्यामई इति स्था ठा. २ । जेयआरम्भणिस्सिया सूत्र० । ये चान्ये वर्णापसदा नानारूपसाधारम्भनिधिता यंत्रीमन न न कमरदादादिभिः क्रियाविशेषेोपमर्दकारिण प्रति सूः . १. ए ( पुढवा सुभारम्भ ) पृथिव्यादिकार्येषु विषयभूतेषु आरम्न इत्यारम्भणमारंभः संघहनादिरूप इति पं. व. । प्रमत्तयोगे च । आरम्नः सावद्यानुष्टानम् प्रमत्तयोगो वा उक्तच । आयाणे जिवलेले, जासुस व गणगमणादी | सदोषमन ओगो, समणस्सड होइ आरम्नो ॥१॥ आचा० अ. ५ . २ । स्था० वा. ए । प्राणवधे, च। संघट्टनादिरूप इति प्राणवधस्य गौणनामान्यधिकृत्य आरम्न समारम्भोऽथवे हारम्भसमारम्भयेोरेकतर एव गणनीयो बहुसमरूपत्वादिति प्रश्न ० . १ । यया श्रम्भः आरम्नसमारम्भयो वैविध्यम् दशाघ्रतस्यन्थे । समी धावपित्रिप्रकारी तद्यया मानसिकवाचि ककायिक भेदात् । तत्र मानसिको मंत्रादिध्यानं परमारणे हेतोः प्रयमः तथा समारम्भः परपीकाकरोच्चाटनादिनिबन्धनध्यानं वाचिको परव्यापादनमवाद परावर्तन संकल्पको व्यगिरेव समाजः परपरितापकरमन्याद परावर्तन कायिको पया भरग्नोऽतिघाताय परिमादि करणं समारम्भः परितापकरो मुष्ट्या अभिघातः तथा चोत्तराध्ययने ( आरम्भे च तदे वय मणं व ताणं तु नियते अयं जई ) उत. अ. २४ । श्रारम्भः परप्राणापहारक मोऽन परिणामस्तस्मिन् परिणामे वर्तमान मनो निवर्तयेत् । आरम्भः परेषां वशोधादनमारणादिमन्त्रजापकरणं तत्रापि प्रवर्त्तमानं वचो निवारयेत् उत० टी ( आरम्भय तहेव य कायं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई ) उत्त० अ. २४ । आरम्भे तथैव पुनः प्राणवचाकरे पचादिप्रयोगे कार्य प्रवर्तमानं निवर्तयेत् इति उत्तर . २४ । आरम्जस्य भेदाः स्थानाङ्गे यथा स्था० ग. ७ । सत्तविहे आरने पं० से. पुढवीकाय आरम्ने जान आरम्भ tant रम्ने एवमणारम्ने वि एव सारम्ने वि एवमसारम्ने वि एवं समारम्ने वि एव मसारम्ने वि । टी० पुढवीत्यादि । सुगमं नवरं । प्रागनिहितं । आरती उदओ परितारकरो नवे समारम्जो । संरम्नो कप्पो सुरूणयाणं तु सव्वेसिं ॥ नत्यारम्भादयोपकारण परितापादिरूपा स्पा०.७ नैरविकादीनां सारम्भानारम्भकत्वं चतुर्विनि प्र रूपयन्नाह । नेरख्या अंते ? किं सारंजा सपरिग्गहा उदाहु अणा रम्ना अपरिग्गहा ? गोयमा ? नेरइया सारम्ना सपरिग्गहा नो अणारम्ना अपरिग्गहा से केण्डेणं जाव अपरिग्गहा गोयमा ? नेरइवाणं पुठावकार्यं समारजति, जावतकार्य समाजांत सरीरा परिग्गढ़िया जवान, सचित्ता चित्तमासयाई दव्बाई परिग्गहियाई जवंति से तेणं तं चैव असुरकुमाराणं जन्ते ? किं सारम्ना पुच्छा गोपमा ? असुरकुमारा सारम्जा सपरिग्गहा नो अणारम्ना अपरिग्गा से केद्वेणं गोयमा ? अमरकुमारा पुढाकार्य समारम्जेति जावतकार्य समारंजंति स रीरा परिगडिया जयंति कम्मा परिगहिया जयंति जवणा परिग्गाहिया जयंति देवा देवीओ माणूसा माणूसीप्रतिक्खिमोनिया निरिक्ख परिग्गहिया जवंति, आसणस्यणजे ममत्तोवगरणा परिग्गहिया जवंति ? सचित्तचित्तमीसयाई दव्वाई परिरंगहियाई जयंति ? से तेरा सब एवं जाय चारीतहेव यकुमारा ॥ मोवमरणाते ॥ इह नांमानि म्रमय भाजनानि पात्राणि काश्यभाजनानि उपकरणानि लौहीकटाह करुच्छु कादीनि केन्द्रियाण परिषद प्रत्याख्यानादयः ॥ बेन्द्रिया ? किं सारंजा सपरिग्गहा से चैव जाव सरीरा परिगडियाजवंति बाहिरिया रुमत्तो वगरणा परिगडिया जयंति सविताचित जाव जयंति एवं जायचहरिंदिया बाहिरया शंके मत्तोवगरणाति । उपकारादिशरीरागृहकाई न्यवसेयानि । पंचिदियतिरिक्खजो णियाणं जंत ! तं चेत्र जाव कम्मा परिगडिया व टंका का सेसा सिहरी पन्नारा परिगडिया प्रति । जनयविलगुणा परिग्गहिया जति उज्जर निकरचित पहल चिष्पिणा परिगहिया जति अगागदहनदी ओ वादीपुरकरिणी दीहिया गुंजालिया सरासरपंतियाओ सरसरपंतिया विलपंतिया परिग्गहियाओ नवंति आरामुज्जाणका गणावणावणारा परिगहिया नवेति । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९२) भारम्भ अभिधानराजेन्द्रः। प्रारम्भ देव नलसजपवयूलखाश्य परिखाओपरिग्गहियाओ श्रयत्वं च काबभेदेनावगन्तव्यं तथाहि कदाचिदात्मारना जवति । पागारट्टालगचरियदारगोपुरपरिग्गहिया जवंति कदाचित् परारंभाः कदाचित्तभयारम्नाः अत एव नो अनारम्नाः निन्नाश्रयत्वं तु पवं पके जीवा असंयता इत्यर्थः पासायघरसरणलेण आवण परिगाहया जवति । सिं आत्मारम्भा वापरारम्ना वेत्यादि अथैकस्वन्नावत्वात जीवानां पामगतिग चटकचच्चरचनम्मुहमहापहापह पहापारिग्ग- बेदमसम्भावयन्नाहासेकेणतुणन्ति अथ केन प्रकारेण नेत्यर्थः।। हिया नवति सगमरहजाणजुम्गगितिथिविसीयसंदमा पुचिहापत्तत्ति । मया चान्यैश्च केवझिभिरनेन समस्तसर्व णियाओ परिग्गहिओ जवति लोहीलोहकटाहकमुच्छ विदांमत नेदमाह मतभेदे तु मतधि रोधिवचनतया तेषाम सत्यवचनतापत्तिः। पाटलिपुत्रस्वरूपाभिधायकविरुद्धवचनयापरिग्गहिया जति जवणा परिग्गहिया जवंति। देवा पुरुषकदम्बकवदिति प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुनश्च योगः देवीओ मणुस्सा मणुस्सीअोतिरिक्खजोणिया तिरिक्ख- स्यात्संयतत्वात् प्रमादपरत्वाचेत्यत आह शुभंयोगं पमुश्चति। जोणिणीओ आसणसयण खंजमसचित्ताचित्तमीस- शुभयोग उपयुक्ततया प्रत्युपेवणादिकरणं अशुनयोगस्तु याई दव्वाइं परिगहिया नवंति । से तेणटेणं जहा तदेवानुपयुक्ततया आह च (पुढवी आ नक्काए तळवाळवणतिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि जाणियव्वा वाण स्सश्तसाणं । पहिलेहणापमत्तो बएहं पि विराहो होइ। तथा सम्वो पमत्तयोगो समणरस उ हो प्रारम्भोत्ति) मन्तरजोसियवेमाणिया जहा जवणबासी तहा ने भतः शुभाशुनौ योगावात्मारम्भादिकारणमिति अधिरयव्या ज० श० ५ उ . पमुञ्चत्ति श्हायम्नावो यद्यप्यसंयतानां सूद मैकेन्द्रियादीनां जीवा णं जंते किं आयारम्ना परारम्ना तउन्जयारंजा नात्मारम्भकादित्वं साकादस्तितथाप्यविरतिम्प्रतीत्येतदस्ति अणारम्ना गोयमा? अत्यंगइया जीवाभायारम्ना वि तेषां ते न हि ते ततो निवृत्ता अतोऽसं यतानामविरतिस्तत्र कारणमिति । निवृतानां तुकथं चिदात्माद्यारम्भकरवेऽप्यनापरारम्ना वितउन्जयारम्ना विणो अणारम्ना अत्थे रम्नकत्वं यदाह " जाजयाणस्स भवे विराहणा सुत्तविगइया जीवा पो आयारम्ना णो परारम्ना णो तदु- हिसमग्गरस । सा होई णिज्जरफला अब्भत्थविसोहि जयारम्ना अणारम्ना से केणद्वेणं जन्ते एवंवुच्च अ- जुत्तस्सत्ति"॥१॥ भ० २०१० १ त्येगझ्या जीवा आयारम्ना वि एवंपमिउच्चारेयव्वं गो- णोरझ्या णं नंते किं आयारम्ना परारम्ना तदुत्नयायमा जीवा सुविहा परमत्ता तंजहा संसारसमावागा रम्ना अणारंजा गोयमा णरइया आयारम्जाविजाय असंसारसमावसमगा य तत्थणं जे ते असंसारसमा वणो अणारम्ना से केपटेणंनंते एवं बुच्चइ गोयमा? वागाय तेणं सिका सिघाणं णो आयारम्ना जाव अविरतिं पमुच्च से तेणटेणं जाव णो अणारंजा एवं अणारम्ना तत्यणं जे ते संसारसमावसागा ते सुविहा जाव पंचिदियत्तिरिक्खजाणिया मणुस्सा जहा जीवा पं० ० संजया य असंजया य तत्यणं जे ते संजया ते पवर सिघविरहिता जाणियव्वा वाणमन्तरा जाववेमादुविहा पं० सं० पमत्तसंजया य अपमत्तसंजयाय तत्य णिया जहा परश्या सनेस्सा जहा श्रोहिया किएहलेस एं जे ते अपमत्तसंजया ते णं णो आयारम्ना णोपरा- स्स नीझलेसस्त काउनेसस्स जहा ओहियाजीवा एवरं रम्ना जावणारम्ना तत्यणं जेते पमत्तसंजया ते पमत्त अपमत्ताण जाणियब्बा तेउलेसस्स मुकलेसस्स सुहं जोगं पमुच णो आयारंजा णो परारंना जाव जहा ओहिया जीवा णवरं सिकाणं जाणियचा॥ अणारंजा असुहजोगं परुच आयारंजा वि जाव णो टोणेरझ्याण मित्यादि व्यक्तं नवरं मणुस्सेत्यादी अयमर्थः अणारम्ना तत्थ एणं जे ते असंजया ते अविरतिं पमुच्च मनुष्यपुसंयतासंयत प्रमत्ताप्रमत्तभेदाः पूर्वोक्ताः सन्ति ततस्ते आयारंजावि जाव णो अणारम्ना से तेणटेणंगोयमा ! यथा जीवास्तथाऽध्येतव्याः किंतुसंसारसमापन्नाश्तरेचतेन वाच्या नववर्तित्वादेव तेषामित्येतदेवाह सिद्धविरहियेत्यादि एवं बुच्च अत्ये गश्या जीवा जाव अणारंजा ॥ व्यन्तरादयो यथा नारकास्तथाध्ययाःअसंयतत्वसाधादिति, टी०॥ जीवा णं भंते १ किं आयारम्भेत्यादि । आरम्भो जी- आत्मारम्नकत्वादि निर्धम्म वा निरूपितास्ते च सोश्याश्चा बोपघात उपवणमित्यर्थः सामान्येन वाश्रवद्वारप्रवृत्तिस्तत्र बेश्याश्च जवन्तीतिसोश्यांस्तांस्तरेव निरूपयन्नाह सोसा प्रात्मानमारभंते आत्मना वा स्वयमारभंते इत्यात्मारम्नस्तथा जहा ओहियत्ति लेश्या कृष्णादिव्य सान्निध्यजानतो जीवपपरमारते परे वारम्भयन्तीतिपरारजास्तफुजयमात्मरूप रिणामो यदाह।कृष्णादिषव्यसाचव्यात् परिणामो य यात्मनः । तकुनयेनवारनंत इति तनयारम्नः आत्मपरोजयारम्भव- स्फटिक स्येव तत्राय बेश्या शब्दःप्रयुज्यते। तत्र वेश्यावन्तो र्जितास्वनारम्भा पति प्रश्नः । अत्रोत्तरं स्फुटमेव नवरं जीवाः जहा ओहियत्ति यथा नारकादि विशेषणवर्जिता अस्तिशब्दस्याव्ययत्वेन बहुत्वार्थवादस्ति विद्यन्ते सम्ती- जीया अधीता जीवाणं भते किं पायारम्ना परारम्भे त्यात्यर्थः । अथवा अस्ति अयं पक्को यत । एगयत्ति । एकका दिना दएमकेन तथा सोश्या जीवा अपि घाच्या सोश्या पके केचनेत्यर्थः । जीवा आत्मारम्भा अपीत्यादायपिशब्दः नाम संसारसमापन्नत्वस्यासंभवे नासंसारसमापोत्यादि उत्तरपदापेक्या समुच्चये सचात्मारम्नत्वादिधर्माणामेका- विशेषण वर्जितानां शेषाणां संयतादि विशेषणानां तेष्वपि श्रयता प्रतिपादनार्थः भिन्नाश्रयताप्रतिपाद नार्थो वा एका- । युज्यमानत्वात्तत्र चायं पाक्रमः ससेसाणं नंते १जीवा किं Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९३) प्रारम्भ अभिधानराजेन्धः। आयारनेत्यादि तदेव सर्व नवरं जीवस्याने सवेश्या इति वणे परिग्गडं अममायमाणे काले अणुहाई अपमिले दुहा वाच्यमिति अयमेको दएमकः कृष्णादि लेश्यानेदात् तदन्ये तोच्चित्ताणियाइ वयं पमिग्गहं कंबलं पायपुचणं पट् तदेव मेते सप्त तत्र किएह देसस्यत्यादि । कृष्ण बेश्यस्य नीनवेश्यस्य कापोतोश्यस्य च जीवराशे र्दएको जग्गहं च कमासणं एएसु चेव जाणेज्जा बके आहार ययोधिकजीवदएकस्तथा ध्येतव्यः प्रमत्ताप्रमत्त विशेषण आगारे मायं जाणेज्जा से जडेयं जगवया पवेइयं सावर्यः कृष्णादिषु हि अप्रशस्त नावटेश्यासु संयतत्वं नास्ति जोत्ति ण मजेज्जा असानोति ण सो एज्जा वापिस यञ्चोच्यते पुत्रं पमिवन्नरो पण अन्नयरीए देसापत्ति तत् jण णिहे परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केजा अायद्रव्यवेश्यांप्रतीत्येति मन्तव्यं ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावस्तत्र हाणं पासए परिहरेज्जा एस मग्गे अरिएहि पवेदित सूत्रोच्चारण मेव । किएहसाणं ते जीवा किं आयारंजा ? ४ गोयमा ? जहेत्यकुलसेणोव लिप्पिज्जा ॥ सित्तिबेमि ।। टी० जमिण मित्यादि।यरविदितवैधरिदमिति सुखदुःखप्राप्ति आयारंजा वि जाव णो अणारम्जा से केण्टेण ते परिहारक्रियाणां कायिकाधिकरणिकाप्रांदोषिकापरितापनिका एवं बुच्च गोयमा ? अविरई पाच । प्राणातिपातरूपाणां वा समारम्भा इति मायगृहणाद्वहुवचन एवं नीत्रकापोतोश्या दएमकावपीति तथा तेजोलेश्यादे निर्देशाच समारंभारंभयोरप्युपादानं भावनीयमित्यर्थः।शरीकजीवराशेईएमका यथौधिका जीवास्तयावाच्याः नवर सत्राद्यर्थ संरम्भसमारम्भाः क्रियतेऽनुष्ठीयंते तत्र सरंभ तेषु सिद्धा न वाच्या सिझानामश्यत्वात्तेचैवं । इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहाराय प्राशातिपातादिक्रियानिवृत्तिररिसंकतेनले साणं ते जीवा किं आयारम्ना ? ४ गो. ल्पावेशस्तत्साधनसन्निपातकायवाथ्यापारजनितपरिमापना दिनक्वणः समारंजः तदत्र प्रयव्यापारापादितचिकीर्षितप्राणया अत्यैगइया आयारम्ना विजाव नो अणारम्ना लिपातादिक्रियानिवृत्तिरारंभः कर्मणोवाऽप्रकारस्यसमारम्ना अत्ये गइया नो अणारम्ना अत्ये गया नो आयारंजा उपार्जनोपायाः क्रियन्त इति बोकस्येतिचतुर्थ्यषष्ठी सापि जाव अणारंजा से केण टेणं जते ? एवं बुच्च ? तादर्थे । कः पुनरसी लोको यदर्थ संरम्भसमारम्भाः क्रियात गोयमा ? विहा तेउलेस्सा पं. तं० संजया य, असं- इत्याह तं जहा अप्पणो से इत्यादि यदि वा बोकस्य तृतीजया इत्यादि न. श. १ न.१। यार्थे षष्ठी यदिति हेती यस्माल्लोकेन नानाविधैः शखः कर्म समारम्भाः क्रियन्त इत्येतस्मिन् बोके साधुवृत्तिमन्वोप्य ययआरम्भ वक्तव्यताऽऽ वाराङ्गे लोकविजयाध्ययनस्य पद. मोद्देश्य के यथा तस्य चायनिसम्बन्धः इह जोगान् परित्यज्य दर्थ च लोकेन कर्मसमारम्नाः क्रियन्ते तद्यथेत्यादिना दर्शलोकनिश्रया संयादेहप्रतिपालनार्थ विहर्तव्यमित्युक्त यति तं जहा अप्पणी इत्यादि तद्यघेत्युपप्रदर्शनार्थ नोक्त.मातदत्र प्रतिपाद्यते । इह हि ससारोळेगवता परित्य त्राभेचान्यदाप्येवं जातीयकाभिदादिकं " दृष्टव्य से तस्यारम्भा क्ततोगाभिलाषेण मुमुकुणेरिकप्तपञ्चमहावतभारेण निरव रिप्सार्थमात्मा दरीरं तस्मै अर्थ तदर्थ कर्म समारंजाः द्यानुष्ठानविधायिना दीर्घसंयमयात्रार्थ देहप्रतिपालनाय पाकादयः क्रियते ननु च बोकार्य समारम्भाः क्रियत लोकनिश्रया विहर्तव्यं निराश्रयस्य हि कुतो देहसाधर्म्य इति प्रागभिहितं नच शरीरं लोको नवति तदस्ति चेति उक्तं हि धर्मञ्चरतः साधोलोके निश्रयपदानि पञ्चापि यतः परमार्थदृश्यं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकमात्मतत्वं बिहायाराजगृहपतिरपरः षटकायगणसरीरेच ॥१॥ वनपात्राना दत्सर्वशरीरा द्यपि पारपश्यमेव तथाहि बाह्यर यापी प्रशिक्षकसन, शयनादीनि तत्रापि प्रायः प्रतिदिनमुपयोगित्वादाहारो स्याचे तनस्य कर्मणो विपाकभृतानि पञ्चापि शरीराणीगरीयानिति ॥ २॥ स च बोकादन्येष्टव्यो लोकाच नाना त्यतः शरीरात्मापि लोकशब्दानिधय इति तदित्यं कश्चिविधैरुपायैरात्मीयपुत्रकात्राद्यर्थमारम्नप्रवृत्तस्तत्र साधुना सं चरीरनिमित्तं कर्मारजते परस्तु पुत्रेयो हितन्यः यमदेहाथ प्रवृत्तिरन्वेषणीयेति दर्शयति आचा० अ. स्नुषा वध्वस्तात्यो झातयः पूवापरसम्बन्धाः स्वजनाः तेन्यो ४ . धात्रीयो राजत्यो दासेभ्यो दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीजमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं बोगस्स कम्नसमारम्ना ज्यः आदिश्यते परिझाय प्रत्याख्यानपरिक्ष्या प्रत्याण्याय मिरामगंधः सन् परिव्रजेत् संयमानुष्टानं सम्यक् पालयेत् कजति तंजहा अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुबहाणं जन। यस्मिन्नागते तदातियायेत्यादेशः प्राधर्णक स्तदर्थ णाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कर्मसमारंभाः क्रियन्त इति सम्बन्धस्तया पुढोपहणायेत्यादि कम्मकरीणं आदेसाए पूढोपहेणाए सामासाए पायरा पृथक् पृथक पुत्रादिन्यः प्रहेणकार्य तथा समासापत्ति श्यामा साए सणिहिसंणिचओ कजा इह मेगेसिं माणवाणं रजनीतः श्यामाशः तदातदर्थ तया(पायरासयेति प्रातरशनं प्रा तराशस्तस्मै कर्म समारंम्नाः प्रियन्त ति सामान्येनो तावपि जोयणाए समुट्टिये अणगारे आयरिये आयरियो आ विशषार्थ माह सनिहीत्यादि सम्यग्निधीय इति संनिधि रियदंसी अयंसंचिति अदक्खु से पादिये णादियावये एणं विनाशिव्याणां दभ्यो दनादीनां संस्थापन तथा सम्यगनि समगुजाणाति सव्वामगंधपरिमाय णिरामगन्धो परि- श्चयेन धीयते ति संनिचयो विनाशिद्रयाणामन्या ब्वये अदिस्समाणों कयविक्रयेसु सेकिणकिरण किणावये सितामढीकादीनां संग्रहः संनिधिश्च सनिचयश्च संनिकिणन्तं ण अणुजाणेजा सेलिकपूकानणे बामणे मापणे सिनिचयं प्राकृत शैल्या पुद्धिङ्गता अथवा संनिधेः संनिच यः संनिधिसंनिचयः स च परिग्रहमझदया दाजीधिकाभखेयणे खणयणे विणयणे सप्तमयए परसमयणे ना- याहा धनधान्यादरपयका दिनः फियत शति स य किमर्भ . .. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९४) प्रारम्भ अभिधानराजेन्द्रः । प्रारम्भ मित्याह । हत्यादि होत मनुष्यलोक एकेषामिह लोकन्न- धयिषुराह । श्रादिस्स । इत्यादि क्रयश्चश्च विक्रयाच क्रयत परमार्थ बुझीनां मानवानां मनुष्याणां भोजनायोप जोगा- विक्रय। । तयोः क्रयविक्रययोरदृश्यमानः कीदश श्चतयोरायधमिति तदेवं विरूपरूपैः शस्त्रैरात्मपत्राद्यर्थे कर्म समारम्न मानो नवति यतस्तयोनिमित्तत्तष्प्याभावादि कः चनोऽयया प्रवृत्ते मोके पृयक प्रहेणकाय श्यामाशाय प्रातराशाय केषां- क्रयविक्रययोरदिश्यमानोऽनुपदिश्यमानः काच तयोरनपदिचिन्मानवानां नोजनार्य सन्निधिसन्निचय करणोद्यते सात इयमानो नवति यःक्रीतकृतापरिनोगीभवतीत्याहचसनकिणे साधुना किं कर्तव्यमित्याह(समुछिए)इत्यादि यावत् णिराम- इत्यादि स मुमुक्तरकिञ्चनो धमापकरणमपि न क्रीणीयात् गंधोपरिवए सम्यक् सन्ततं संगतं वा संयमानुष्टानेनोस्थितो स्वतो वा नाप्यपरेण क्रापयेत् क्राणन्तमपि न समनुजानी नानाविधशस्त्र कर्मसमारम्नोपरत श्त्यर्थः नविद्यतेहगारं गृह यादयवा निरामगन्धः परिव्रजेदित्यत्रामग्रहणेन हनन को मस्येत्यनगारः पुत्रहितृस्नुषाशात धान्यादिरहित इत्यर्थः टित्रिकं गन्धग्रहणेन पाचनकोटित्रिक क्रयण कोरिक हरुनः सोऽनगार आराद्यात सर्वहेयधम्मध्य श्त्यार्थश्चारित्राई स्वरूपेणैवोपत्तमतो नवकोटीः परिशुरुमाहार विगतांगारधूआर्या प्रज्ञा यस्यासावार्यप्रइः श्रुतविशेषता सुमुखीक इत्यर्थः मं सुंजीत एतद्गुण विशिष्टश्च किंस्तो वतीत्याह से आर्य प्रगुणन्यायोपपन्न पश्यति तच्छीलाचेत्यार्यदर्शी भिक्ख(कालो कालः कर्तव्यावसरस्तंजानातीति काल झोधिपृथक् प्रहणकस्य श्रमादिसंकल्परहितश्त्त्यर्थः अयं सन्धीति दि तबेदधस्तया बाबको बहंजानातीति बालाजान्द सत्याही सन्धान सन्धीयते वासाविति सन्धिर्यस्य साधोरसावयं स. त्यमात्मवलसामर्थ्य जानातीति यथाशक्तयनुष्टानविधाय्य विश्वान्दसत्वाधिभक्तरसुगिययं सन्धिर्यथाकालमष्ठानाव- निगहितबलवीर्य इत्यर्थस्तथा(माया) यावत् अव्यापाँगता धायी यो यस्य वर्तमानः कालः कर्तव्यतयोपस्थितस्तत्कर- मात्रा तां जानातीति मात्राइस्तथा (खेयो खेदोऽन्यासस्तेन णतया तमेव सन्धत रति एतदुक्तं भवति सर्वाःक्रिया प्रत्यूपे जानातीति खेदझो यथा खेदः थमः संसार पर्यटन जनितस्तं कंपोपयोगस्वाध्यायाभिकाचर्याप्रतिक्रमणार्दिका असम्पन्ना अ जानातीत्यक्तं च "जरामरणदौर्गत्य व्याधयस्तावदासतां मन्ये न्योन्याबाधयात्मीयकर्तव्यका करोतीत्यर्थ ति हेती यस्मा जन्मव वीरस्य नूयोनूयरूपाकरमिति ॥१॥ अथ क्षेत्रज्ञः संसक्त द्यथाकालानुष्ठान विधायीतस्मादसावधपरमार्थपश्यतीत्याहुः। विरुरू व्यपरिहार्य कुलादिकेत्र स्वरूपपरिच्छेदकरतथा रूण (अदक्षुत्तिति) व्यत्ययनकवचनावसरे बहुवचनमकारि तत यणे)कण एव कणकोऽयसरी निकाय मप सर्पणादिः यरतं जा श्वायमों योऽवार्थेआर्यप्रज्ञ आर्यदी काबश्च सएव प नातीति तया(विझयणो )विग्यो शानदर्शनचारित्रौपचारिकरू रमार्थमजाकीनापर शति पानान्तरम्या अयं सन्धि अदवख पस्तं जानातीति तथा(ससमयमे स्यसमयं जानातीति स्वस अयमनन्तरोक्तविशेषेण विशिष्टः साधुः सन्धि कर्तव्यकालं गयझो गोचर प्रदेशादी दृष्टः सन् सुखनैव निकादोषा नाचष्टे अदाकीदृष्टवानेतदुक्तंमवति यः परस्परावाच्या हितप्राप्ति तद्यथा पोमोगमदोषास्ते चामी आशकर्म उद्देशिक पूतिकर्म परिहाररूपतया विधेया विधयावसं वेत्ति विधत्तरं च सपर मिश्रजातं स्थापना प्रातिका प्रकाशकरण क्रोतं उ८तकं परिव मार्थ ज्ञातवानिति अथवासंघिनिदर्शनचारित्राणामभिवृद्धिः तितं अज्यातं उमिन माझाहतं आयो अनिसष्टं अध्ययसच शरीरमृते न भवति तदापि नोपटभकारणांतरेण तस्य पूरक श्चेति फेोमशोत्पादनादोपास्ते चामी धात्रीपिकः दृति च सावधस्य परिहारः कर्तव्य इत्यत आह( सेवाए )इत्या. पिंकः निमित्तीप आजीवपिमा वनीमकपिःचिकित्सापिमः दिस निकुस्तद्वा कलप्पं नादीत न गृहीयान्नाप्यपरमादा धापमा मानपिः मायपिंमः सोनपि पवसंस्तवपिकः पयेऽग्राहये नाप्यपरमनेषणीयमादानं समनुजानीयायवा पश्चासंस्तवपिंक विद्यापिका मंत्रपिंः चूर्णयोगपिमामूलसंरंगानं समंवा नाद्यान्न जाये नापरमादापयेत् ददन्तं कमपि श्चेति तथा दशैषणादोषास्ते चामी संकितं म्रवित वा नसमनुजानीयादित्याह सम्बामगम्यमित्यादि प्रामंच न्ध निक्षिप्तपिहितसंहतदायकोन्मिश्रापीर तसिप्लोप्सितदोषापयां चामगन्धं समाहारनपस्सर्वतदामगन्धंस मगन्धं सर्वश चोद्गमदोषा दातृकृतां पवनवत्ति उत्पादनादोषारतु साहब्द-प्रकारकाय॑ऽत्रगृह्यते न प्रव्यकात्स्न्ये आममपरिशुद्धगधं जनिता एषणादोषा श्चोभयापादिता इति तथा परसम्यो ग्रहणेन तु पूर्तियते ननु च पूति व्यस्याप्यशुद्धत्वादामशब्देनै प्रीममध्यान्हतीबतरतरणिकरकिरावलीढगातरवेदविपु" घोपादानाकिमर्थ भेदेनोपादानमिति सत्यमशुक.सामान्यात् का निबयुष्करसाधुः कनचिहिजातिदेशेनाभिहितं कि गृह्यत किन्नडब्यकान्ये ऽत्रगृह्यते किन्तु पूतिग्रहणेनेह मिति भवतां सर्वजनाची स्नानं नसम्मतामति स आह प्रायः प्राधाकर्मा द्यविशुद्ध केटिरूपता तस्याश्चगुरुतरत्वात्प्राधान्य संपामेवयतीन कामांगत्वात् जबस्नानं प्रतिषिई (स्नानं ख्यापनार्थ पुनरुपादानं ततश्चायमर्थः गन्धग्रहणेनात्मक मददकर कामा प्रथम स्मृतं । तस्मात्कार्म परित्यज्य म्देशिकत्रिकं पूतिकर्ममिश्रजातं बादरप्रतिकाध्यवपूर नैवस्नति दमेरता इत्यादि तदेव समुभयस्त हिषये प्रइने काश्तेषमुममदोषा अविश्रुद्धकोट्यन्तर्गता गृहीताः शेषण उत्तर दानकुशलो भवति तया(भाव) जायश्चित्ताभिप्रायो स्खयोःविशुरू कोट्यन्तर्तता आमग्रहणेनोपात्ता दृष्टच्या इति दातुः श्रोतुर्वा तंजानातीति भावः किच (परिगह) अममासर्वशब्दस्य च प्रकारकात्यभिधायकत्वाघद्येन केन चित् यमाण)परिगृहात ति परिग्रहःसंयमातिरिक्तमुपकरण दिःतमप्रकारेण आममपरिशुरू पूति वा भवति तत्सर्व इपरिझया ममीकुर्वन् अस्वीकुर्वन्मनसाऽयनाददान इति यावत्स एवं ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिझया निरामगन्धः निर्गतो वामगन्धो विधी भिकुः कालज्ञो मात्राः केत्रशः दणशो विनयज्ञः समय झो जावः परिग्रह मममी कुर्वाणश्च किं तो भवतीत्याह यस्मात् स तथा परिव्रजेत् मोकमार्गे ज्ञानदर्नचारित्रा ख्ये (कालामुट्ठा)यद्यस्मिन् काले कर्तव्यं तस्मिन्नेवानुष्ठातुंशीकमपरिसमताक छेत् संयमानुष्टानं सम्यगनुपाबयदितिवायत् स्यति कालानुष्ठायी कालानतिपातकर्तव्योयतो नन चास्यार्थस्य आमगृहरेन प्रतिषिअपि क्रीतते तथाप्यल्पसत्वानां विक्ष- से भिक्खू कालाणु इत्यनेनैव गतार्थत्वास्किमर्य पुनरभिधीयत कोल्याबम्वननया मात्र प्रवृतिरतस्नदेवानामग्रारं प्रति इति नैपदोपस्तत्र दि शपरिव केवगाभिहिता कतत्यकावं Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९५) प्रारम्भ अभिधानराजेन्द्रः । प्रारम्भ जानताह पुनरासवना परिक्षा कर्तव्यकाले कार्य वित्त इति यातकश्चिनियमोऽप्यस्तीत्याह सन्धश्त्यादिलब्धे प्राप्ते किञ्च (अपमिसे) नास्य प्रतिहाविद्यतइत्यप्रतिज्ञा प्रतिज्ञा च सत्याहारे आहारग्रहणं चापत्रकणार्थमन्यस्मिनपि वस्त्रीकपायोदयाद विरातिः । तद्यथा ऋोधोदयात् स्कन्दकाचार्यण पधादिके अनगानिकर्मात्रांजानीयाद्यावन्मात्रेण गृहीतन स्वशिप्ययनपीमनव्यतिकरमवोक्य सबवाहनराजधानी- गृहस्थः पुनरारम्भे न प्रवर्तते यावन्माण यात्मनों समन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञाकारि । तयामानोदयाद्वा विवदितकार्यनिप्पत्तिर्भवति तथा तां मात्रामवगच्छदिति हबसिना प्रतिक्षा व्यधायि। यथा कथम शिशून स्वतात भावः एतच्च स्वमनीषिकया नोच्यत इत्याह से जहेयं इत्यादि पन्नभिरावरणानान् ब्यस्थः सन् यामीति तयामानोद तद्ययेदमुहेशकादेरार यानन्तरसूत्र यावागवता ऐश्वर्यादियान्मल्लिस्वामि जोवन यथा पर यत्ति विप्रजनं भवति तथा गुणसमन्वितेनार्डमागध्या भाषया सर्वस्वभाषानुगतया प्रत्याख्यानपरिझा जगृहे तथा सोभोदयत्वाद्विदितपरमार्थाः सवमाजाच्यां पदिकवतानचका अवलोक्य प्रवेदित साम्यतेविणोत्पत्या मासा मासकपणादिका अपि प्रतिहाः प्रतिपादितं सुर्मस्वामी बस्वाभिने दमाचष्टे किञ्चान्यत् कुब्बते अयया प्रतिको निदान वसुदेववत्सयमानुष्ठानं कुर्वन् साभोत्ति इत्यादि लाभोवस्त्राहारादेर्मम संवृत्त इत्यतोऽ निदानं न करोतीत्यथवा गोचरादों प्रविष्टः सन्नाहारादिक सब्धिमान इत्येवं मदं नपिदध्यान्न च तदभावे कान्निनूत ममैवैताधिप्यतीत्येवं प्रतिझायदि वा स्याद्वादप्रधानत्वात् भौ विमनस्कोभूयादित्याह च ( असानोत्ति) इत्यादि असाभे सति नी-मागमस्येकपकावधारण प्रतिज्ञा तहितोऽप्रतिइस्तकानि शोकन कुर्यात् कथचिन्मन्दभाग्योऽहं थेन सर्वदा दानोद्यतेमैप्युनविषयं विहायान्यत्र न क्वचित् नियमवती प्रतिक्षा विधे नापि दातुन लभेहमिति अपि तु तयोर्मा नावानयोर्माध्यस्थ्य या यत उक्तं। भावनीयमित्युक्तं च बज्यते साधुः साधुरेव न बध्यते । ए य किञ्चि अणुमायं, पमिसिहं वाविनिणवरिंदेहि। अब्ध तपसोवृद्धियब्धे तु प्र.णधारगमित्यादितदेवं मोत्तु भेहुण नावं, न विणा तं रागदोसहिं तया देसा पिंपात्रवस्त्राभरणभेषणः प्रतिपादिताः सांप्रतं सनिधि जेण निरजति, जेणाग्निजन्ति पुब्धकम्माई, मो मोक्खो प्रतिषधं कुर्वनाह बहुझं पित्यादि पहपिसन्धाणं वान, रोगावत्थासु समणं वा । जेज तिया उ हैन णि तेत्ति नस्थापयेरा सनिधि कुर्यात् स्तोकं तावन्न .वस्त तज्वेय तत्तिय मोक्यो । गगणातीता लोया सभिधीयत एवं वहपि न समिदम्या दित्यपि शब्दार्थन केयनमाहारसन्निधि न कुर्यादप रमपि वस्त्रपात्रादिकं संयदोएह वि पुस्मा नवे तुबा मोप करातिरिकं न चितय.दित्याह पहीत्यादि परिगृह्यत इत्यादि अब सन्धीत्यारज्य काबेगुट्टाइति यावदतेज्यापूत्रव्य इति परिग्रहो धर्मोपकरणाति रिक्तमुपकरणं तस्मा दारमा एकादशपिवणा नियंढा इत्येवं तईप्रति इत्यनेन सूत्रेद न मपथके दपसर्पये दथक संयमोपकरण मपि मळया मापत्र न कचित् केनचित्यतिझा विधेया प्रतिपादिताश्चागमे नानाविधा अभिग्रह विशेषास्ततश्च पवोत्तर-याइतिरेव सदय परिग्रहो नवति म परिग्रह इति वचनात्तत आत्मानं परितश्त्य त आह । ग्रहा दपसर्पयन्नुप करणे तुरगवन्मर्ग न कर्यात् ननु च यः (हत्तिणियातिषिते रागेण पेण वाया प्रतिक्षा तां कंश्चिद्धम्मोप करणा या परिग्रहो न सचित्त कायुष्यं मुने विस्वा निश्चयेन नियतं च याति ज्ञानदर्शनचारित्राण्ये मोक नवति तथाद्यात्मीयोपकारीण उपघातकारिणि च स्तः मार्गे संयमानुष्ठाने वा भिकाद्यर्थञ्च एतदुक्तं भवति रागद्वेषा परिग्र सति रागषी नेदिष्ठौ तेत्यश्च कर्मबंध तत्क परिछित्त्वा प्रतिक्षा गुणवतव्यत्यय इति स एवं नूतो निक्तः कासको ग्रहो धर्मपकरण उकं च (ममाहमिति) चैत्र यावदनिमानबायको यावत् ध्धिा दनकं कुर्यात् इत्याह (वयं पनिमाह दाहज्वरः कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशांत्युन्नयः । यशः इत्यादि) यावत् एपसुचेवजाणिज्जा एतेषु पुत्रारथमारम्भप्रवृ सुखपिप सिरयमसावनोंत्तरैः परपसदः कुतोऽपि कथमसषु समिधिसनिचयकरणोद्यतेषु जानीयाद्धाशुरुतया प प्यपाकृप्यते ॥ १॥ नै दोषः नहि धर्मोपकारणे ममेदमित्येवं रिविध तत्परिजेदश्चैवमात्मकः शुरुगृहीयादशुरूं परिहरदिति साधनां परिग्रहयोगोऽस्ति । तथाह्यागमः । अबियप्पणी यावत् किं न जानीयात्रं वस्त्रग्रहणेन वटैषणा सूचिता विदेहमि णापति ममा । यदिह परिगृहीत कर्मबन्धायोतथा पतद्ग्रह पात्रमेतद्ग्रहणेन च पत्रिषणा सूचिता । कंब पकल्यते स परिग्रहो यत्त पुनः कर्मनिर्जरणार्थ प्रनयति अमित्यनेनाविकः पात्रनियोगः कल्पश्च गृह्यते पादपुंचनक- तत्परिग्रह पर न जवतीत्याह च । अम हाणंश्त्यादि णमितिभित्यनेन च रजाहरणमित्यभिश्च सूत्ररोघोपधिरोपग्रहिकश्च वाक्या अंकारे अन्य पा अन्येन प्रकारेग पडूयका सन् परिग्रह सूचितस्तयेतेय एव वस्त्रैषणा पात्रैषणा च नियंढा तया परिहरद्ययाह्यविदितपरमार्या गृहस्थाः सुखसाधनाय परिगृहे अवगृह्यत इत्यवग्रहः सच पञ्चधा देवेन्डावग्रहः राजावग्रहः पश्यन्तिन तथा साधःतथाह्ययमस्याशयःआचार्यसक्तमिवमप ग्रहपत्यवग्रहः शय्यातरावग्रहः साधर्मिकावग्रह श्चेत्यनेनाथप्र- करणं न ममेत्ति रागद्वेषमूलत्वात्परिग्रहाग्रहयोगोऽत्र निषेहप्रतिमा सर्वाः सूचिता प्रतएवासी नियंढा .वग्रह कल्पि- भ्यो न धम्मोपकरणं तेन विना संसारार्णवपारगमनादि नसंच कास्मिन्नेव क्रियते तथाकटासनं कटग्रहणेन सं.तारको ( साध्य तथाकथंचित् स्व:पं कार्य महच न तयेति । प्लवनगृह्यते आसनग्रहणेन वासन्दकादिविष्टरमिति प्रास्यते स्थी- मते नहि शक्यं पारं गंतु समुत्रस्य ॥१॥) अत्र चाहताभायते अस्मिन्निति वा आसनं शय्या ततश्चासनग्रहणेन शय्या सेवादिकः सह महानविवादोस्तीत्यतो विवक्तिमय तीर्यकसचिता अतएव नियति एतानि च समस्तान्यपि प्रूा राभिप्रायेणापि सिसाधयिबराह । एसमम्मेइत्यादि । धमापदीन्याहारादीनि चैतेषुस्वारम्भप्रवृत्तेषुगृहस्थेषु जानीयात् करणं न परिग्रहायेत्यनंतरोक्तो मार्गः। आराद्याताः सर्वहेयधसर्वामगन्धं परिझाय निरामगन्धो यथा नवति तया परिव्रजे- म्मत्य इत्यार्यास्तीर्थकृतस्तैः प्रवेदितः कथितो ननु यथालिन रारतेषु नारसनाने र परिमजनुगामातंगी। वरिः कशिमकानटुिकानटिका अवणिकानयाधियायानि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारम्भ अभिधानराजेन्द्रः। भारम्भ स्वरुचिविरचितो मार्ग इति नमुथा यथा मौनिस्वाति- त्याह अयं संधीति। पुत्रान्यां शैकोदनि ध्वजीकृत्य प्रकाशितः इत्यनया दिशा अदक्खु जे इमस्स विगहस्स अयं खणेत्ति अणेसीए अन्येऽपि परिहार्या इति । इह तु स्वशास्त्रगौरवमुत्पादयितु समगे प्रायरिएहिं पवेदिते नहिते एो पमापए जाणित मार्यैः प्रवेदित इत्युक्तमस्मिश्चार्थे प्रवेदिते मार्गे प्रयत्नवताभाज्यमित्याह । जत्थेत्यादि सम्धकर्मनूमि मोकपादपबीज दुखं पत्तेयं सायं पुढोबंदा शह माणवा पुढो दुक्खं पवेनूताश्च बोधि सर्वसंचारित्रं च प्राप्य तया विधेयं यथा दितं से अहि समाणे अण्वपमाणे पुटो फासे विपकुशलो विदितवेद्योऽत्रास्मिन्नार्यप्रवेदितमागे आत्मानं पापेन णोदए एस समिया परियाए वियाहिए जे असत्तापावेकर्मणा नोपतिपयेदिति एवंचोपलिपनं जवात यदि ययो हिं कम्महि उपा हुत्ते आयं का फुसंति ति उदाहु धीरे क्तानुष्ठान विधायित्वं न भवति सतां चायं पन्थाः यत यत् ते फाप्ते पुट्ठोहिया सए से पुध्वं पेय पच्छाप्य जिउरधस्वयं प्रतिज्ञातं तदंत्योच्छवासं यावधेियमित्युक्तंच (राजांगुणाघजननीजननीमिवार्यामत्यन्तशुरूहदयामनुवर्तमानाः ते म्मं विच सणधम्म अधुवं अणित्तियं ।। जस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति सत्यस्थितिव्यसनिनो न अयं सधीश्त्यादि अविवक्षितकर्मका अप्येककर्मका धातवी पुनः प्रतिज्ञा १) इति शब्दोऽधिकारसमात्यों ब्रवीमाति ॥ यया पश्य मृगेधावत्यवमत्राप्यद्राकोदित्यतत् क्रियायोगे भारम्नप्रशंसकस्य निन्दा दर्शनशुद्धौ यथा। ऽप्ययं संधिरित प्रथमा कृतेति अयमिति प्रत्यगोचरापन्न जे मय आरंजयाते,जीवा हॉति अप्पदोसयरा, तउ महा आर्यकेने सुकुलोत्पती यिनिवृत्ति श्रझा संवेगवाणः संधि रवसरो मिथ्यात्व वयानु दयबहाणो वा सम्यकत्वावाप्तिहेतु पावयए, जे प्रारम्नं पसंसति । नूतः कर्मविपर बक्वणः सन्धिः शुभाश्यवसायसंधानतो पर्श० ॥ भारम्भ प्रसतानां निन्दा गच्छाचारे अ. श्यथा ।। बा संधिरित्येनं स्वारमव्यवस्थित मडावी झावानियतःक्षणआरंसु पसत्ता, सिर्फ तपरंमुहा विसयागिधा मप्येकं न प्रमाधेत विषयादिप्रमादवशगो नूयात्कञ्च न प्रममुत्तमुणिणो गोयम, वसिज्ज, मजसु हियाणम्१७४ ।। तः स्यादित्याहा(जे श्मस्स स्यादि) । इत्युपलब्धतत्वे ऽस्याव्या. आरंभेषु पृथिज्या वघुपर्मदनेषुप्रसक्तास्तत्पगःसिद्धां ध्यकस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्ठप्रकारं कर्म तद्वेतर शरीरधितपराजमखा पागमोक्ता नुष्टानशन्या विषयेषु शब्दरूपरसगंध शिष्ट बाह्ये प्रियेण गृह्यत इति विग्रहः औदारिकं शरीरं तस्या स्पर्शषु गृका संपटा हे गौतम? ये एवंविधास्तान मुनीन् यं वार्त्तमानिकः कण एवं नूतः सुखपुःखान्यतररूपश्च गत मुकत्वा परित्यज्य सुविहितानां सदनुष्टानो घतानां मध्ये वस पचं ततश्च नावात्येवं यः अन्देरणशीला: सोऽन्येषा सदा न्मुनिरिति ॥ प्रारम्भजीधिनो प्रशंसा ऽनारम्नजीविनश्च अप्रमत्तः स्यादिति स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह । (एसमगो) प्रशंसा ऽऽवारांगे लोकसाराध्ययनस्य द्वितीयोदेशके यथा इत्यादि पषो ऽनंतरोक्तो मागौ मोकपथ आयेंः सर्व हेयधमा रातीयवर्तिभिस्तीर्थ करगणधरैः प्रकर्षणदो वा वेदितः कथि॥०॥ अस्य चायमनिसबंध इह प्रागुहेशके पक चर्याप्रति तःप्रवेदिति इति न केवल मनंतरो वायमाणश्च तीर्थकरः पन्नेपि सावद्यानुष्टाना द्विरतेरनावाच्च न मुनिरित्युक्तामह तु तरिपर्ययेण यथा मुनि नावः स्यात्तयोच्यत इत्यनेन संबं प्रवेदित इत्याह (जट्टिएइत्यादि संधिम धिगम्यो स्थितो धर्म चरणाय कणमप्येक न प्रमाद्येत् किं वा ( परमधिगरमत्याह) धेना यातस्यास्यो देश्यकस्यादिसूत्रं ॥ आचा ॥ जाणित्ति इत्यादि झाल्या प्राणिनां प्रत्येकं दुःसंतापादानं वा आवत्ती केयावती लोगास अपारंजजीवी ते सु चेव कर्म तथा प्रत्येक सातं च मन आह्लादि ज्ञात्वा समुत्यितो न अणारंजजीपी एत्यो वरए तं को समाणो धम्म प्रमादन् न केवसं पुःखं कर्म वा प्रत्येकतपादानरत्तोऽयवअतासयं चयोवजन यं विपरिणाम पासह एवं रूवय स सायो ऽपि प्राणिनां भिन्न पवेति दर्शयितुमाह (पढा इत्यादि) पृथग्जिनान्दो ऽभिप्रायो ये येषां ते पृथक गन्दा नानान्तघि समुवेह माणस्त एकायतणरयस्स इयस्स इह विप्प बन्धाभ्यवसायस्याना इत्यर्थः श्रुति संसारे सैझिलोके वा पुक्कस्स णत्यि मग्गे विरतस्सत्ति तिवाम ॥ के ते मानवा मनुष्या उपबहार्थावादन्ये ऽपि संझिनां टी० आ॥ आवत्तीत्यादि यावत् केचन लोके ऽनारज- पृथक् संकल्यत्वाच तत्कार्यमपि कर्म पृथगेव तत्कारणामपि जीषिनि प्रारभः सावधानुष्टानं प्रमत्तयोगो वा उक्तञ्च । पुःखं नानारूपमिति कारण नेद कार्यभेदस्यावश्यं नारित्या " आयाणे मिक्खेवे जासुसग्गे य गणगमणादी दित्यतः पूर्वोक्तं स्मारयकाह (पुढो इत्यादि, ) :सम्बो पमत्त जागो समणस्सओहोइ आरंलो" । खे पादान भेदात् फुःखमपि प्राणिनां पृथक् प्रवेदितं तद्विपययणत्वनारभस्तेन जीवित शासमेषामित्यनारंजीविनो सर्वस्य स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वामान्यकृतमन्यपटुक्तं पश्ये यतयः समस्तारंभनिवृत्तास्तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्थशरीरा तन्मत्वा किं कुर्यादित्याह से इत्यादि सोऽनारंभ जीवी प्रत्येक सुखदुःखाध्यवसायो प्राणिनो विविधैरू पाये बर्थमारंभ जायनो भवन्ति पतदुक्तं भवति सावद्यानुष्टान- रहिसस्तथानपवदन् अन्यथव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा बदप्रवृत्तषु गृहस्थषु देहसाधनाथ मनवद्यारंभजी विनरसाधवः सापवदन् मृपावादमब्रवमित्यर्थः यस्य च नृतस्यापि प्राकृतपकाधारपकजवान लेपा एव नवति । यद्ययं ततः किमि- स्थादर्थत्वाद्वालोपः पवं परस्वमगृहकित्याचप्यायोग्य पतदित्याह । पत्थोबरप इत्यादि अत्रारिमन् सघद्यारने कर्तव्ये धायीच किमपरं कुर्यादित्याह (पूढोइत्यादि) सपञ्चमहादत उपरतः सकुचितगात्रः अत्र चाहत धर्मो व्यवस्थित उपरतः व्यवस्थितः सन् यथा गृहीतप्रतिमानिर्वाहणोदधतः स्पृष्टः पापारजात् किं कुर्यात्तत्सायद्यानुष्टानायातं । कर्म जोषयन् परीषहीपसगैस्तन तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान दुरूस्पकृपयन मानभाव जजत प्रति किगमिसंध्य अत्रीपरतः स्यानि शान् वा तत्सदिग्णा तया अनाकलो विविधैः प्रकार: ससार Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९७ ) अभिधानराजेन्द्रः आरम्भ भावनादिभिः प्रेरयन् तत्प्रेरणं च सम्यक् सहनं न तत् कृतया दुःखासिकयात्मानं भावयेदिति यावत् यहि सम्यक्करणतया परीपान् सहेत स किं गुणः स्यादित्याद एस इत्यादि पोत को परीपदानां प्रणोदकः समयः सम्बद्दशमिता वा शमोsस्यास्तीति शमी तद्भावः शमिता पर्यायः प्रव्रज्या सम्यकशमितया वा पर्यायः वास्तव बहुमीहि स सम्यक् प्रययः शमिता पर्यायो वा व्याख्यातो नापर इति तदेच परीषहोपसर्ग कोज्यतां प्रतिपाद्य व्याधितां प्रतिपादयन्नाह जे असत्ता इत्यादि, ये उपाकृत अदनतया समतृणमणिलेष्टकांचनाः समतापन्नाः पापेषु कर्मस्वसाः पापादानानुष्ठानरता उदाहु कदाचित्तांस्तयानूतान् साधन आतंका आग्रजीवितापहारिणः शुादयो व्याधिविशेषाः स्पृशेत्यभिभवति पीयन्ति यदि ततः किमित्याद इति उदाहु इत्यादि इत्येतदव माणमुदाहृतवान् व्याकृतवान् aisir धीरो धीस्तया राजते स च तीर्थकृत् गणधरो वा किंतदुदाहृतवांस्तै रातकै स्पृष्ठः सन् तान् स्पर्शान् दुःखानुभवान् व्याधिविशेषापादितानभ्यासयेत् सहेत किमाकथ्ये स्वाद से पुज्य इत्यादि स स्पृष्टः पीनित आशु जीवितापहारिभिरातकैरेतज्ञावयेद्यथा पूर्वमप्येतदसातावेदनीय विपाकजति दुःख व सोपानदेव सदनीयं यतः संसारोदर वियरवन विद्यतवासी यस्यावासी वि पाकापादिता का न भवेसाथादि के वमोऽपि मोरमायादिद्यातिचतुष्यादुत्पन्नानस्य वेदमीयसावेन स. उदय/तत्सम्भव इति यतश्च तीर्थंकरैरप्येतहरु स्पृष्टनिन काचनावस्थायातं कर्म्मावश्यवेद्यं नान्यथा तन्मोहोतोनेनासातावेदनीयोदये सनत्कुमारऽष्टांतेन मयैवैतत्साढव्य म यत्कथ्यनोद्विशितव्यमित्य "स्पहतपरिणामां दुर्ग यानांविपाकः पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य ॥ स्वयमभक्तोऽसीमकाय सो भवशतगति देतु: पतेऽ च्छितस्ते"दीदा किं शरीरं सुचिरमरायनायुपबृंहितं मृणमयामघटादपि निस्सारतरं सर्वथा सदा विशराबिति दशयन्नाह । उरधम्मं इत्यादि यदि वा पूर्व पश्चादप्येतदादारिकं शरीरं वयमाणधर्मस्वभावमित्याह । भेदधम्मयादि स्वयमेव भियत इति भिपुरा स धर्मोस्य शरिरस्येति भिदुरध इदमौदारिकं शरीर सुपोषितमपि बेदमारोऽवस्थत भित इति निविसवन्धम्मं पविययविध्वंसन. तू तथावश्यं भावितं त्रियामांते सूर्योदयवत् ध्रुवं न तथा तथा प्राणस्थरस्वभावतया कूटस्थनित्यपेन व्यवस्थितं सत्यं नै तथा तेन तेन कारायत् स्यतीति ततोऽदशाहारोपभोगतायुषः भादी दारिकशरीरवगंणापरमा पच यायावे न परमादपच यत्प यस्य तच्चयापचय मतपत्र विविधपरिणामोऽन्यथाभावामो धर्मः स्वभाषो यस्य परिणामध मिस्र को का सूर्च्छनास्य श मानुष्ठानमृतेऽन्यथा साफल्य मित्येतदेवाह पासह इत्यादि पत्तेन पयरूपं संधिनि रपमानासीदारिक पंचेन्द्रिय भाषा हा विविधाक जनितानस्प मध्यासयेदिति एतत्पश्यतश्च यस्यात्तदाह । समुवेह इन्या #1 आरम्भ दि सम्यगध्येक्ष्यमाणस्य पश्यतोऽनित्यताप्रातमिदं शरीरक मित्येवमवधारयतो नास्ति मार्ग इति संबंधः । किंच आ अभिविध समस्त पापारंभेज्य आत्मा आयत्यते श्रनियम्यतेतस्मिन् कुशलानुष्टाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनं ज्ञानादिजयमेकमद्वितीयमायतनमे कायतनं तत्र रतस्य किंच शरीरे जन्मनि वा विविधं परमार्थभावनया शरीरानु स्यात्प्रमु विप्रमुकस्तस्प नास्ति न विद्यते कोसी मार्गी नरक तिर्यङ्मनुष्यगमनपरुति वर्त्तमानसामीप्ये वर्तमान दर्शना भविष्यति मानीत्युक्तं यदि वा तस्मियजन्मनि समस्त कर्म नीति नरकादिमार्गः कस्येति दर्शयति विरतस्य हिंसा द्यावद्वारे ज्यो निवृत्तस्य इत्यधिकारपरिसमोति सुधर्मस्वाम्यात्मानमाह ॥ यद्भगवता वीरपर्कमा मिनादिव्यनिनार्थानुपज्य साम्योगेनोकं तदर्द नवतां ब्रवीमि न स्वमतिधिरचनेनेति ॥ आरम्नोपरमणं च सोननं तथा चाचाराङ्गे ॥ जस्त णत्यिपुरे पच्छा मजे तस्स कुतो सिया । से हु पाणमने बुके, आरंभोवरए सममेव ति ॥ पासह जेण व पोरं परितावं च दारुणं । परिच्छेदिय बाहिरगं च सोयं ॥ जसनाथ इत्यादि, पस्य भोगविपादिना मु स्मृतिर्नास्ति नापि पाश्चात्य कालभोगानिज्ञापिता विद्यते तस्य व्यापि विचिकित्सारूपान् भोगान् भावयतो मध्ये वर्णमानकाले कुतो भोगेच्छा स्वात् मोहनीयस्योपशमा स्थाि त्यर्थः यस्य तु विकारविषया भोगेच्छा निता सकत स्यादित्या ॥ सेत्यादि स्वाद यस्मातिगामिसास्तस्मात्स मानवान् प्रकृष्टं ज्ञानं जीवाजीवादिपरिच्छेतृ तद्वियते यस्यासौ प्रज्ञानवान् यत एव प्रज्ञानवानत एव बasaगततत्वः यत एवंभूतोऽत पवाह आरजोवरए सावद्यानुष्ठानमारंभस्तस्मा परत भरतोपरतः पतयारनोपरमण शोभनमिति दर्शया सममित्यादि यदिदं खावचार स्नोपरमणं सम्यगत नमेतत्सम्यक्त्व काय त्वाद्वा सम्यकत्वमेदित्येवं पश्यत एवं गृहीत यूयमिति कि मित्यारंभोपरमणं सम्यगिति चेदाह जेण इत्यादि येन कारणेन सावद्यारं भप्रवृतो बंधं निगमादिनिर्बंधं कसादिभिर्घोरं प्राणसंशयरूपं परितापं शारीरमानसं दारुणम सहामात्य भारोप रमण सम्पतं कुर्यात किंवा पििदि इत्यादि पतिष्ठतं पापपादानं तथा धनधान्या रएयपुत्र कत्रादिरूपं हिंसाद्याश्रवद्वारात्मकं च शब्दान्तरं च रागद्वेषात्मकं विषय पिपासारूपं चेति ॥ तथाच महानिशीथे २ प्र० प्रत्येगे गोयमा ? पाणी जेणो वयर परिग्गहं जावइयं गोयमा तस्स सचित्ताचित्तने यत्तगं, पन्यं वाकुजी वस्स नवेज्जा उपरिग्गदं । तावइणं तु सोपाणि ससंगो मुक्साहाचा आरा तम्हा वपरिग अयेगे गोमा पाणि जे पयट्टे ताए परिमई आरंजं न विवेज्जेज्जा अंपियं जवपरंपरा आरंजे पत्थियस्सेगवि यजीव व संघटणा इयं कम्म वं गोषमा ? एगे येईदिए जीने एवं समय अणिमाणे Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९८) प्रारम्भ अभिधानराजेन्द्रः । श्रारम्भ वनानिओगणं हत्येणं वा पाएणं वा अन्नयरेण वा समा- बेतिपागन्तरं ॥३॥ अनिवृत्तस्य दोषमाह (जमिणमित्यादि) गाइ ओवगरणं जाएणं जे केइ पाणि आगाद संघटेज " जमिणं जगात पुढो जगा कम्मेहि छुप्यति पा णिणो । सयमेव कमेहि गाहरु णोतस्स मुच्चेज पुट्ठयं वा संघट्टावेज्जा वा संघट्टिज्जमाण वा आगाद परेहि ॥ ४ ॥ टी० ॥ ( जमिणमित्यादि ) यद्यस्मादनिवृता समजायेज्जा सेणं गोयमा ? जाया तं कम्म उदयं नामिदं भवति किं तत् जगति पृथिव्यां ( पुढोत्ति ) गच्छेज्जा तया णं महया केसेणं उम्मासणं विदिजा गाद पृथग्नता व्यवस्थिताः सावधानुष्ठानापचितैः कर्मभिर्वि सुवालसहिं संवच्छरोहिं तमेव आगाढं परित्रावेज्जा वास सुप्यते नरकादिषु यातनास्थानेषुत्राम्यते । स्वयमेव च कृतः कर्मनि नेश्वरायापादितहते नरकादिस्थानानि यानि सहस्तेणं गाद दसहि वाससहस्सेहिं तमेव आगाद तानि वा कर्माणि दुःख हेतूनि गाहते उपचिनोति । अनेन च किझामेज्जावासमक्खेणं गाढं दसहिंवा तमक्खहिं अहा हेतुसद्भाबः कर्मणामुपदर्शितो जवात न च तस्या शुभाचरिणं नकविज्जा तउ वासकोमीए एवं ती चउपचिंदिएसु तस्य कर्मणो विपाकेनास्पृष्टोऽगुप्तो मुच्यते जंतुः कर्मणामुदय दहव्वं सुहमस्स पुढावजीवस्स जत्येगस्सवि अप्यारनं मननुनूय तपोविशेषमंतरेण दोकाप्रवेशादिना न तदपगमं वि धत्त शतनावः॥भारंज रहितएव च मुनिर्जवति तयाच सूत्रक तयं चिंते गोयमा ? सव्वकेवली सुहुमस्स पुढविजीवस्स ताङ्गेधम्हस्स यपारप मुाण आरंजस्स य अंतए ट्ठिएसोयंति वावि ती जत्यसंजवे महारंजं तयं वेति गोयमा ? सव्व- यणं ममाश्णो जो सम्भंति णियं परिगह॥णा धर्मस्य श्रुतचा केवली एवं तु समिन्नं तेहिं कम्मकुरुमेहिं गोयमा ? सेसो रित्रभेदाभिन्नस्य पारं गतीति पारगःसिकांतपारगामी स म्यक चाारमानुष्ठायो वेति । चारित्रमधिकृत्याह । प्रारंभस्य जहो अणंतेहिं जे प्रारंजे पक्तए प्रारंने बमाणस्स सावधानुष्ठानरूपस्यांते पर्यते तदनावरूपे स्थितो मुनिनवति बकपुट्ठनिकाइयं, कम्मं वई नवे तम्हा, तम्हारंजं विव- ये पुन नवं नवंति ते अकृतधर्माः मरणे पुखे वा समुपस्थिते ज्जए १ पुढवि इ अजीवकायंता सव्व जावे हि सव्वहा। आत्मानं शोचंति । णमिति वाक्यासंकारे । यदि चेष्टमरणाआरंजे जे निऋज्जासे अइए जम्मजरामरणसव्वदारि दावर्थनाशे वा (ममाणोत्ति) ममेदमहमस्य स्वामीत्येवदमुक्खाण विमुच्च इति अ०२ । तथाचहत्करपे वस्त्र मध्यवसादिनः शोचंति । शोचमाना अप्येते निजमात्मीयं परि समंतात् गृह्यते आत्मसाक्रियत इति । परिग्रहो हिरण्यादिच्छेदनमधिकृत्य विनाय आरंनमिणं सदोसं तम्हा रिष्ठस्वजनादिर्वा । नष्टामृतं वा न अभंते न प्राप्नुवंतीति । जहानसमधिष्हिहिज्जा, वृत्तं स ए उ खबु जावदेही यदि वा धर्मस्य पारगं मुनिमारंभस्यांते व्यवस्थित मेनमागत्य ण होति सो अंतकरी तु जावे । स्वजना मातापित्रादयः शोबंति ममत्वयुक्ताः स्नेहानवः न श्यमनंतरोक्तं सर्वत्रोकपूरणात्मकमारंजं सदोषं सूक्ष्मजीव- च ते अभंते निजमन्यात्मीयपरिग्रहबुद्धधा गृहीतमिति । विराधनया सावद्यं विज्ञाय तस्मात्कारणाद्ययारब्धं वस्त्रम आरम्नस्य पुःखविपाकत्वं सूत्रकृताङ्गे यथा ॥ धितिष्ठेत् न च्छेदनादिकं कुर्यात् यतनक्तंजणित व्याण्याप्राप्ती वेराई कुबई वेर, तनवेरिहिं रजती। यावदयं देही जीवः सैजः सकंपचेष्टावानित्यर्थः । तावदसौ पावोवग.य आरंजा मुक्खफासाय अंतसो ॥ कर्मणो भवस्य वा अंतकारीज भवति तथा च तदासापकः सांप्रतं जीवोपधातवियाकदर्शनार्थमाह । (वेराई इत्यादि) जाव गए सजीवं सयास.मयं एयइ वेयइ बसइ फंदइ वैरमस्यास्तीति वैरी स जीवोपमईका जन्मशतानुबंधीघट्ट खऊ अोदीरइ ॥ नि वै राणि करोति । ततोऽपि च बैरा दप रबररनुरुध्यते । तं तं भावं परिणम ताव णं तस्स जीवस्स अंते किरिया वैरपरपरानुषंगा जवतोत्यथः । किमिति । यतः पापं उपन जवति । प्रारंभाचावश्यं विरमेत् वृ० उ०३॥ सामीप्येन गतीतिपापोपगाः क पते आरंभाः सावद्यानुष्ठान तथा च सूत्र कृताङ्गे श्रु.१ अ. ॥ रूपाः । अन्तशो विपाकका दुःखं स्पृशंतीति पुःखस्पर्शा असातोदयविपाकिनो भवंतीति ।। सूत्र श्रु० १ ० ८ मायाहि पियाहिं सुप्यइ नो मुनहा सुगई य पेचओ। (सारम्भस्य सपरिग्रहस्य च मोकमार्गो नास्ति) तथा एयाइ जयाइं पहिया आरंजा विरमेज्ज सुबए । सूत्राकृताङ्गे ॥ दी० तथा मायाही इत्यादि कश्चिन्मातापितृभ्यां मोहेन स्व सपरिग्गहा य सारंजा इह मेगेसिमाहियं । अपरिग्गहा जनस्नेहेन च न धर्म प्रत्युद्यम विधत्ते स च तैरेव मातापित्रादिभि प्यते संसारे घ्राम्यते । तथाहि । विहितममोहमहोम अणारंजा जिक्ख ताणं परिव्बए ॥३॥ दन्मातापितृपुत्रदारयधुसंह । स्नेहमयमसुमतामतः किं बंध सपरिग्गहा इत्यादि सह परिग्रहेण धनधान्यहिपदचतुष्पने श्रंखलं खोन धात्रा ॥१॥ तस्य च स्नेहाकसिनमानसस्य दादिना वर्तते तदनावेऽपि शरीरोपकरणादौ मूर्जावंतः पदसहिवेकविकल्पस्य स्वजनपोषणार्थ यकिचनकारिण सपरिग्रहाः । तया सहारंजणे जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापाम्हैव सद्भिनिदितस्य सुगतिपिप्रेत्य जन्मांतर नो सुखभाऽपि रेण वर्तत शत तदभावेऽप्योदेशिकादिनोजित्वात्मारंभाः। तुमातापितृव्यामोहितमनलस्तदर्य क्रिश्यतो विषयसुखप्तात तीबिकादयः सपरिग्रहारंभकत्वेनैव च मोकमार्ग प्रसाधयंअ दुर्गतिरेव भवतीत्युक्तं भवति । तदेवमेतानि भयानि भय- तीति दर्शयति । इह परलोकचिंतायामेकेषां केषांचिदाख्यातं कारणानि मुगतिगमनादीनि (पेदियत्ति) प्रेक्ष्य प्रारजात्साय भाषितं यथा किमनया शिरस्तुमर्मुम्नादिकया क्रियया परं याऽनुष्टानरूपाशिरमेत् । सुवतः शोजनव्रतः सन् सुस्यितो । गुरोर गुग्रहात्परम करावाप्तिस्तद्दीकावाप्तिर्वा यदि नवति ततो Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९९ ) अभिधानराजेन्द्रः । आरम्भ Parth वतीत्येवं षमाणास्ते न त्राणाय भवतीति । ये तु प्रातुं समथास्तान्पश्चार्थेन दर्शयति । अपरिग्रहाः । न विद्यते धर्मापकारणाचे शरीरोपभोगाय स्वल्पोऽपि परिग्रहो येषां ते अपरिग्रहाः । तया न विद्यते सावद्य आरंजो येषां तेनाजास्वं कर्मघवः स्वयं यानपात्रक उपाः संसारभूताः महोदधे सारणसमर्थास्तान निधुनिज्ञणशील उद्देशिकापरभोज भाणं शरणं परिसमंतात ॥ ३ ॥ कथं पुनः पुनस्तेनापरिग्रहेणाऽनारंभेण च वर्त्तनीयमित्येत दर्शयितुमाह ॥ कपास मेसेजा, पिक दस परे । 1 अगियां विप्पक्को, उमाणं परिवज्जए ॥ ४ ॥ डी० ॥ करेसु इत्यादि गृहस्थे परिप्रहारंभारेणात्मार्थ ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता उच्यते । तेषु कृतेषु परकतेषु पनि तेष्वित्यर्थः अनेन च षोडशोप्रमपरिहार सूचि तः । तदेवमुप्रमदोषरहितं प्रस्यत इति प्रास आहारस्तमेवंभूसमवेत यायेत्यर्थः तथा विज्ञान संकरकनिपुणः परेशंसादोषरहिते श्रेियसच्या सत्यनात्पादनयाः परिगृहीतायाः ॥ तदेवं ते दत्यचात्रीनिमित्तादिदोषरहिते माहारे स मि पण पण बरे तिष्ठेदित्यनेनापि दशेषणा दोषाः परिगृहीता इति मंतव्य । तथा । श्रगृद्धोऽभ्युपपन्नोऽस्तिस्तमिनाहारे रागद्वेषविप्रमुक्तः । अनेनाऽपि च प्रासेषणा दोषाः पंच निरस्ता प्रयसंयाः स पर्वतो निशुः परेषामपमान पराम दर्शित्वं परिवर्जयेत् परित्यजेत् । न तपोमदं ज्ञानमदं च कुर्यादिति जावः सूत्र० श्रु० १ ० १ ॥ आरं च विद्याचरणे न लभते तथा च स्थानाङ्के विद्याचरणेच कयमात्मा न लभत इत्याइ ॥ स्या० ग० २ ॥ दोना अपरियाणित्ता प्रयाणो केवसी पचतं धम्मं सज्ज सवण्याए तंजहा आरंजे चैव परिग्गहचैव दोहाणाई अपरियाश्ता आयायो केवलं बांधि बुकिजा जहा आरने चेन परिन चैव ।। दो हाणाइत्यादि सूत्राण्येकादश के स्थाने हे वस्तुनी । (अपरियाणिति ) । अपरिज्ञाय पहिया पचैताचारम्परि महावनययता अर्जममायामिति परिहाराभिमुख्या रेण प्रत्याख्यानपरिज्ञया श्रप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत्तयोनिविम इत्यर्थः ॥ अपयाति । कितापदाय दीत्वेत्यर्थः श्रात्मनो नैव केवप्रितं जिनोक्तधम्मै लभेत श्रवगतया श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्यः तद्यथा श्रारम्नाः कृप्यादिधा रेण पृथिव्याद्युपमापरिषदा धर्मसाधनव्यतिरेके धनन्यायस्तानि कवक्रमेऽपि व्यत्ययेनमवधारणसमुच्चयो स्पध्यायादिति वा दर्शन सम्यक्त्यमध्ये अनुभवा केरा यांति विभक्ति परमोच्यं जीवादति गम्यतेतति ॥ स्या० २ ग. दोडालाई अन्नो केवलं मुझे नवित्ता आगाराओ अत गारियं पव्वेज्ञा तंजहा आरजे चैव परिग्गहे चेव एवं णां कवल बंजचरं वावि समावसज्जा णी केवलण संज आरम्भ मेरी जमेना नो केवल संवरेणं संवरेता नो केवलमानिए. के हिय गाणं उप्पादेज्जा पदं सुअणाणं प्रोहिना मणपजवनाणं केवलनाणं दो ठाणाई परियाइसा आया केवल्लीपचं धम्मं मनेन समणयार जहा आरजे चैव परिग्गहे वेब एवं जान केवलनाणमुप्पाज्जा ॥ टी० ॥ मुखको अव्यतः शिरोलोचनं नावतः कषायाद्यपनयनेन त्या संपय अगाराभेदाधिकम्येति गम्यते यज्ञामित्य सम्बन्धारयाम्परिपर्णा विशुद्धां या अनगारितां प्रत्यजेत् यायादिति । एवमिति । यथा प्रारू तयांतरartist || दोarणा इत्यादि ॥ वाक्यं पठनीयमित्यर्थः ब्रह्मचर्येणाह्मविरमणेन वासो रात्रौ स्थापः तत्रैव वा वासो निवासोवासः तमापकुर्यादिति संयमेन पृथिव्यादि रणझणेन संयमपेत्मानमिति संघरण अनिरोधक णेन संवृणुयादवद्वाराराणीति गम्यते केवलं परिपूर्ण सर्व स्वविषयग्राहकं । आभिणियोयिणाणं ॥ कर्षानिमुख विप परूपत्वान्निपतोऽसंशयस्वभावत्वाद्वधोवेदन मानिधिः स एवानिनियोधिकं तच्च तज्ज्ञानञ्चेत्याभिनिबोधिकज्ञान मि न्द्रिय नियनिमितं बोधः सर्वयपर्याय ठप्पा मेति । उत्पादयेदिति तथा एवमित्यनेनोत्तरपदेषु नो के संप्रति 'सुपणाणति यते तदिति तं राइ एव स च नावश्रुतकारणत्वाज्ञानं श्रुतज्ञानं श्रुतप्रन्थानुसारिओषतः पर्याय विषयमादिभेदमिति तथा ओहिणाति । अवधीयते अनेनास्मादस्मिन्वेत्यषधिः श्रवधीयत इत्यधोधो विस्तृतम्परिच्छिद्यते मर्यादया वेति श्रवधिज्ञानावरण योपशम एव तदुपयोग हेतुत्वादिति अवधानम्वाऽवधि विषयपरिच्छेदनामिति श्रवधिश्वासौ ज्ञानचेत्यवधिज्ञानं इन्द्रियमनो निरपे इमात्मनोरूपिद्रव्यसाक्वाकारणमिति तथा मणपजवनाणंति ॥ मन से मनसो वा पर्यवः परिच्छेदः स एव ज्ञानमथवा मानसः पर्यवाः पर्याया वा विशेषावस्था मनः पवाद वा ज्ञानमनापवहानमेव मितरत्रापि समय क्षेत्रगतसं हिमन्यमानमनोद्रव्यला कात्कारीति । (केवलनाति) व सहायं मत्यादिनिरपेकृत्वादक सङ्कञ्चावरणम बाजावात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवा शेषतदावरणाभावतः सम्पूर्ण पत्तेरसाधारणं वा मन्यसत्यादनन्तं या है यानंत त्वातच तजज्ञानञ्च केव प्रज्ञानमिति गं. २ ॥ कुमारग्धमेव चारब्धव्यम् तथा चाचाराने अ. ३ स. १ ॥ कुलले पुणो के णां मुका सम्म च आरंभ ।। जं च णारजे अणारकं च ण आरज ॥ डी०॥ कुशखेत्यादि कुशलोऽधातिकम्मतिः स च तीर्थकृत्सामान्यकेवली वा स्यो हि कर्म्मणा बको मार्थी पायान्वेषकः केवली तु पुनतिकर्मक्षयाओ बको प्रयोपग्राहककसाया मुसो दिया मस्य यानिधीयते कुशको वासह निदर्शनधारियो मिध्यात्यद्वादशकषायोपशमायादयचानिय न बद्धोऽद्यापि तत्क तासावाच मुक्त इत्यादि पर्वत कुशल केसी स्थ या पदाचीयामाचरितवान् तदपरेणापि मुमुकुणा विधेयमिति दर्शयति संजय इत्यादि सकुशलो यदारभते आरध Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४००) प्रारम्नग अभिधानराजेन्द्र आरम्भधि (न) वान्वा शेषकर्मकपणेपायं संयमानधानं यश्च नारभते मिथ्या वैशेषिकादिमतसिके महत्वाचुपचयाय अवयवानां विजातीत्वाविरत्यादिकं संसारकारणं तदारब्धव्यमनारंजणीयं चेति यसंयागेच, तत आरम्भसंयोगनाशः ॥ मुक्ता ।। आरम्नसंसारकारणस्य च मिथ्यात्वाविरत्यादेः प्राणातिपाताद्यष्टा- वादशब्दे ॥शा भा० उदा०॥ दशरूपस्य चैकांतेन निराकार्यत्वात्तनिषेधं च विधेयस्य प्रारम्नजीविन्-आरम्जीविन् पुजारम्नः सायद्यानुष्टानं संयमानुष्ठानस्य सामर्थ्यायातत्वाचनियेधमाह । अणाररू प्रमत्तयोगो वा तेन जीवितुं शीलमेषामित्यारम्भजीविनः। चेत्यादि भनारब्धमनाचीण केवसिाभर्विशिष्टमानिभिर्या तन्म सावदरानुष्ठानप्रदते (होगस अणारंजीवी ) आ० चा० मुक्त रजेत नोकुर्यादित्युपदेशो यश्च मोक्कांगमाचीर्ण तत्कु अ५१॥ यात प्रस्तावने वधे दयें चडच्याणांजव्यान्तरेण गुणामांगुणा आरंम्भः सायद्यानुष्टानं प्रमत्तयोगो वा उक्तंच "आयाणे णिन्तरेणोत्पादे बैशेषिकोते व्यापारे- च्यारंभश्चतुषु स्यात् वखे, जासुसग्गेय वाणगमगादी, सब्यो पमत्तजोगो समएकर्मणि घञ् आरज्यमाणे । फलानुमेयाः प्रारम्नाः स्स को होश आरंम्भो ।। ताहिपर्ययेण त्वनारमतरतेन जीवितुं संस्काराः प्राक्तनाश्व- रघुः चित्रार्पितारम्नश्यावतस्थे ॥ शीहमेषामित्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताकुमा० वाच॥ आरज्यत इत्यारम्भः जीवे-प्रारज्यते विमा- स्तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमारम्भजीविनो भवन्ति श्यन्ते इत्यारंजा जीवा इति ॥ प्रश्न. ०१॥ एतदुक्तं नवति सावधानुष्टामप्रकृतेषु गृहस्थेषु देह साधनार्थआरंजकम-आरंजकृत् त्रि० (प्रारम्नेण कृते ) आरंभकोति मनषद्यारम्नजीविनस्साध्यापकाधारपंच.जबकि पायव भववा सावजकत्ति वा पयत्तकमेत्ति वा (आरंभकृतमेतत् न्ति प्रारम्नेण जीवितुं शीलमस्येत्यारन्जीवी महारम्परिग्रसावधकृतमेतत् ) प्रयत्नकृतमेतदित्ति ।। आचा० अ०४०१ हप्रकल्पितजीवनोपाये । आ-चा अ५ ॥आरंभजीवी प्रारंजकरण-आरम्नकरण-न व्यापारकरणे (हिंसालीय- उ भया गुपस्सी ॥ आचार अउ १ सावद्यानुष्ठानस्थिात के अदत्तादाणमेडणपरिग्गहारंभकरणकारावणाणुमोदणअवि. सावद्यानुष्टानवृत्तिके च ॥ हअणि टुकम्मपिमितगुरुनारकन्तग्गजसोघदूरनिबोलिजमा - आरजहाण- आरम्नस्थान न० सायद्यारजाश्रये सूत्र णउम्मग्गनिमग्गबहत्तसं) हिंसालीकादत्तादानमैथुनपरि- (तत्थणं जासा सवतो अविर पसटाणे प्रारंभटाणे प्रहलवणा ये प्रारम्ना व्यपारास्तेषां यानिकरणकारणानुमो- श्रणारिप जाव असव्वदुःखप्पहीणमगे पगंतमिच्छे ) असाह दनानीति ।। प्रश्न हा०३॥ प्रारम्नणमारम्नः पृथिव्याधु- तत्र पूर्वोक्तेषु येयं सर्वात्मना सर्वस्मात विरतिविरति परिपमईनन्तस्य कृतिः करणम् स एव वा करणमित्यारम्भकर- णामाभावः । एतत्स्थानं सावद्यारम्भस्थानमाश्रयस्तदाश्रित्य णम् करणभेदे स्था० छा०३॥ सर्वाण्यपि कार्याणि क्रियते यत एवमत पतदनार्यस्थान आरंजकहा-आरंजकथा- स्त्री० तित्तिरादीनामियत्तां तत्रोप- निःशकतया यत्किचनकारित्वाद्यावदसर्वपुःखप्रवीणमागोंयोग इत्यारंजकया विकयाभेदे सा च भक्तकथायास्तृतीयो ऽयं तथैकांतमिथ्यारूपो साधुरिति आरम्न एव स्थानम् वभेद ति॥ स्या००४॥ स्तु प्रारंजस्थानम् प्रमत्तयोगलकणे वस्तुनि तथा च स्थानाङ्गे।। आरंजकिरिया-आरंजक्रिया-स्त्री० क्रियाभेदे आरंभक्रिया स्था. ना.१०॥ अथ महापद्मस्यात्मनश्च सवइत्यात्स विविधा जीवारंजाकिया अजीवारंभत्रिया तत्र जीवारंभक्रिया पोश्च मतामेदात् नेदे चकस्थायथावस्तुदर्शनेनाऽसर्वइ.ता जीवानारभते अजीबारम्भाक्रिया अजीवानारभत इति ।। प्रा० प्रसंगादित्युभयोभगवान समां बस्तप्ररूपणां दर्शयन्नाह ।। च॥ एतद्वतन्यताऽऽरम्भिकीशब्देऽपि ॥ से जहा नामए अज्जोमए समणाणं निग्गंयाणं एगे आरंजकाण-आरजध्यान- न० आरम्भः परोपजवस्तस्यध्या आरजहाणे प० एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं नम् परोपद्रवध्याने ( आरंजकाणे ) प्रारंभः परोपजवस्तस्य- निग्गंयाणं एगं आरंजहाणं पनवेहिति ।। ध्यानम् कुरुमोन्कुरुम्योरिव ६ीपायनस्येव वा तस्मिन् इति टी०॥सेजहेत्यादि सश्स्यथार्थोऽथशवश्च वाययोपन्यासार्थों ॥ आतु.॥ यथेत्युपमार्थः । नामपत्ति ॥ वाक्यालंकारे ॥ अज्जोत्ति ॥ आरंजग-आरम्भक-त्रि पारज एबुब् मुम् प्रारम्नकारके शिष्यामंत्रणं । पगे आरंनट्ठाणेत्ति ॥ श्रारम्नपव स्थानं वस्तु ॥वाच॥ सायद्यारम्भप्रकृत्ते आचाराङ्गस्य पंचमाध्ययनप्रथ- आरम्नस्थान मेकमेव तत्तत् प्रमत्तयोगलवणत्वात्तस्य यदाह मोद्देशकस्योद्देशार्थ मधिकृत्य निर्युक्तौ, हिंसगविसयारंभो सव्वो पमत्तजोगो समणस्सउ होइ आरंभोत्ति ना० । पगचरोत्ति न मुणि पढमगाम |आचा० ५.१ अ.हिनस्तीति हिंसक प्रारम्भणमारम्भो विषयाणामारम्नोऽस्येति विषया आरंजाहि (न् ) आरम्नार्थिन् पु० सावद्यारंजप्रवृत्ते, रम्नका व्यधिकरणस्यापि गमकत्वात्समासः एबुरुन्तस्य आरंजट्ठी अणुवयमाणे हण पाणे धायमाणे हणओ वा याजकादिदर्श नारसमासो विषयाणामारम्भको विषयार. यावि सम जाणमाणे ॥ आचा० अ०६ उ०४ जक इति हिंसकश्च विषयारम्भश्चेति विगृह्य समाहारद्वंद्ध: प्रारम्भार्थी सावद्यारम्भप्रकृतः कुत आरम्नार्थी यतः प्राप्राकृतत्त्वात् पुद्धिंगता अयमों हिंसकः प्राणिनां विषयारम्भ- एयुपमईवादानवद.तद् ये तद्यथा आई प्राणिनोपरै रेवं कश्च विषयार्थ सावद्यारम्भप्रवृत्तश्च न मुनिस्तथा विषयार्थ. घातयन् प्रतश्चापि समनुजानासीति, ॥ ० (तेश्हमेक पय चरत्येकचरः स च न मुनिरित्येतदधिकारश्रयं प्रथ- आरंभट्ठी) ते अनधीताचारगोचर निक्काचर्यास्ते न स्वेदमोद्देशके ॥ आचा०॥अ०५ १० १॥ (सावधानष्टाने पुं० मनपरीषह तार्जिताः सुखविहारिभिःशावयादि निरात्मसात्यआरम्भगं चेव परिगहं च अविनस्सिया णिस्सिय आयदंगा रिणामिता शह मनष्यलोके आरम्नार्थिनो जवन्ति ते वा आरम्भं सावधानुष्ठानमिति ॥ सूत्रः ॥ शृ० २ अ०६॥ । दशावयादयोऽन्ये वा कुशीयाः मायद्यारम्भार्थिन ॥ शति Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भपरिएणाय आचा० अ. 9 उ. १ ॥ आरम्भणिस्त्रिय-आरम्ननिधि धारम्भे हिंसादिके सावधानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः सम्बका अभ्युपपन्ना आरम्भनिचिताः दिखादिकसाचानुष्ठानेऽयुपपन्ने इह आरम्प्रणिस्सिया सूत्र० श्रु १ अ २‍ ॥ जे य श्रारम्भणिस्सिया ) ये चान्ये वर्णीपसदानानारूपसावद्यारम्भ निचिता यंत्रपरून निधीकारादादिनः क्रियाविशेष जीवेोपमकारिण इति ॥ सूत्र० श्रु० १ ० ए ॥ ( मंदा आरम्नणिस्सिया ) ॥ आरम्भे प्रापयुपमर्दकारिणि व्यापारे निखिता भासतासम्ब का अभ्युपपचा इति । प्राणयुपमर्दकारिणि विवेकशननिन्दिते आरम्भे व्यापारे निश्चयेन नितरां चाश्रिताः सम्बकापुप्रापयोरभाव स्त्वाधित्य परलोकनिरपेकृपाऽऽरम्ननश्रिता इति ॥ सूत्र ॥ श्रु० १ ० १ ॥ आरंजदोस - प्रारम्नदोष- पु० क्रियाफले ( पागोवजी विणो सिव जिप्तारं भदोणं) पाकोपजीविन रवि कृत्वा जिप्यते मारम्भादारक्रिया करण्यफले नेत्वति ॥ दश० अ० १ ॥ आरंजपकमा आरम्नप्रतिमा स्त्री० अष्टम्यां प्रतिमायाम् अटौ मासान् स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्ठमी ॥ ध० अधि २ ॥ आरंभपरिग्गहच्चाय - आरम्भपरिग्रहत्याग - पु० आरम्भपरिप्र वर्जने (नावेण नियमित आरंभपरिचाओ) पं० व० ॥ भावेनेति भावतः परमार्थतः जिनमत एव रागादिजेतृस्वामिनः । [सम्मत एव वीतरागशासन एकेत्यर्थः भारत रित्यागः । वयमाणारम्भपरिषद जिनशासन एवान्यशासनेष्वारम्भपरिग्रहस्वरूपानवगमात्सम्यक्त्यागानुन व इति गाथार्थः । प्रारम्भपरिग्रहस्वरूप प्रतिपादनायाद (४०१) अभिधानराजेन्द्रः । पुढवा आजो परिमाो धम्मसाहणं मुं मुच्य सत्यवायो इरेयरो मित्यतमाईओ || ७ | व्याख्या । पृथिव्यादिषु कार्येषु विषयज्ञतेषु आरम्भ इत्यारम्भणमारम्भः संघट्टनादिरूपः परिग्रहणं परिग्रहः असौ द्विविधः बाह्याभ्यंतरश्च तत्र धर्म्मसाधनं मुखवास्त्रकादि मुक्त्वा वा इति संबंधी अन्यपरिग्रहणमिति गम्यते, स तत्र धर्मोपकरणवाह्या एव परिग्रह शत इतरस्त्यांतरपरिग्रहो मिथ्यात्वादिरेष आदिशब्दादविरात योगा परिगृहांते न कारणलतेन कर्मणा जीय इति गाथार्थः । आरंजपे सउदिद्ववजय-प्रारंभमेगोष्टिवर्धक पु० श्ररम्प स्यागन्दा न्याचिया ॥ चामेसि संग मणवयकाहिं अप्पवित्तिओ । एसा खलु पव्वज्जा मुक्खफल्ला होइ नियमेणं ॥ व्याख्या । त्यागः प्रोज्जनमनयो रारम्भपरिग्रयोः सम्यकू प्रवचनन विधिना मनोवाक्कायैः त्रिभिरप्पप्रवृत्तिरेव । आरम्भेपरिग्रहे च मनसा वाचा कायनाप्रवर्त्तनमिति भावः एषा खल्विति पचैव प्रव्रज्या यथोक्त स्वरूपा मोकफला भवतीतिमोः फलं यस्याः सा मोकफला नवति नियमेनावश्यं तया भावमंतरे णानादी मनोऽत्यसंभवादिनि गाथार्थः ॥ आरम्नपरिक्षाय आरम्नपरिज्ञात पुग्आरम्भः पृथिव्याद्युपम आरम्भसंनिय दन] अरुणः परिज्ञातस्तथैव प्रत्याख्यातो येनसावारम्भपरिज्ञातः श्राद्धः श्रष्टम्या उपासकप्रतिमयोपेते श्राद्धे तथा च समाया मममुपासकप्रतिमामधिकृत्य ( बारंभपरिश्राए ) ॥ सम० ११॥ आरंभः पृथिव्याद्युपमर्द्दनकृणः परिज्ञातस्तथैवप्रत्या स्यात येनासावारेनपरितः प्रतिमेति ॥ आरम्भपसत- आरंभप्रसक्त त्रि० आरम्नेषु पृथिव्याद्युपमईनेषु प्रसक्तस्तत्परः प्रारम्नतत्परे ग० . २ ॥ आरंजय आरम्नज त्रि० प्रारम्भः सावयक्रियानुष्टानं तस्माजातमारम्नजं सावद्यक्रियानुष्ठानेन जाते। श्राचा ० का ३४१ ( आरंभजं दुक्खमिति णच्चा ) ॥ प्राचा० अ २ ४ १ ॥ आरम्भः सावयक्रियानुष्ठानम् तस्माज्जातमारम्नजं किंततदुःखं तत्कारणं वा कर्म श्वमिति प्रत्यक्ष गोचर/पन्न मशेषारम्भप्रवृत्त प्राणिगणा नृत्यमानमित्येतत् त्या परिच्छिद्य निरारक्तोत्पादित जागृहि साबणयानुष्ठानमार फितखमिदमिति सप्रमाणित्य तथा दि कृषिसेवा पाणिज्यासारम्प्रवृतो पहारीरमानसं दुःखमनुभवति तथा चामगोचर इत्यतः प्रत्यानिधाविनेदमितिकपत्रदर्शने इत्येतदनुभवसिद्धं हत्या मृताचा धर्म विद ऋजवश्च जवन्तीति ( पाणाश्वाप दुविहे पाते तंजा संकप्पओअ १ श्रारंभओअ २ ) आव० ॥ रंभातरम्नो सोखादिन सुनाप्रकार तस्माच्खवंदन पिपित्रिकाधान्यगृह कारिकादि संघट्टन परितापा पडावण तण इति । आव० । मुपासक प्रतिमायां तथाच पञ्चाशके । आरंज पेसउज्जिए समय 1 अष्टम्या पं० वृ० १ तथा आरंभश्च स्वयं कृष्यादिकरणं प्रेषधप्रेषणं परेषां कृप्यादिषु प्रवर्तनं उद्दिष्टं चाधिकृतश्रावक मुद्दिश्य सचेतनं सततं पया यो वर्जयति परिहरसाचारंन प्रेद्दिश्यर्जक प्रतिमेति प्रकृतमेव पद प्रतिमाति मावतोरनेदादेवमुपन्यासः ॥ १५ ॥ आरंजरय - आरंजरत - त्रि० सावधानुष्ठानरते । जेमय आरंजरा, तेजीया होति अप्प दोसर, ओमहापाववरा, जे आरंपरांति। दश० । आरंजवंत- आरंभवत्-त्रि० आरंभप्रवृत्ते पो० विष०९ आरंभवज्जय- आरंभवर्जक - त्रि० आरंभपरिहारके० दशसूपासक प्रतिमास्वष्टमी प्रतिमेति प्रश्न. घा ५ अष्टमासानू हायमारंजं न करोतीत्यष्टमीति । ध० अ० २ । आरंभविषय- आरंजविनय आरंभानावे. आ०.४४.२ प्रारंभविणयि (न्) आरंभ विनयिन् पु० भारंभ विनय आरंभानावः सविद्यते येषामिति मत्वर्थीयः प्रारंभानाववति । श्राचा० अ० ४ ०२ । आरंभसंजिय-प्रारंभसंभृत-त्रि० धारंनैः संभृता आरंभसं नृता आरंभपुष्ठेभारंभ सनिया कामा मते विनोयगाः । आरंभैः सम्यकूनृता आरंभपुष्टा आरंभाच जीवोपमर्दकारि जोडतो नते काम संभृताः आरंभ निश्रिताः परगृहनिविष्टाः दुःखयतीति दुःखमष्टप्रकारं कर्म तद्विमोचकाभवंति तस्याऽ पनेतारो भवतीत्यर्थः । सू० ० १ ० ए । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भिन् अभिधानराजेन्द्रः। - भारक्खिय प्रारंजल-प्रारंजसत्य-त्रि प्रारंभोजीवोपघातस्तद्विषयं व्या। पभिः पूर्वोक्तैः पानिरपि कायैरूस स्थावररूपैः सत्य मारंभसत्यं आरंभविषये सत्ये भ. श०० उ०१।। सूक्ष्मवादर पर्याप्तका पर्याप्तक नेदनिम्नैनोरंजी नाऽपिपरिप्रही आरंजतचम गप्प भोग-आरंजसत्यमनः प्रयोग-पुं० आरंनो स्यादिति संबंधः । तदेतब्धिान् सश्रुतिको परिक्षया परिझाय प्रत्याख्यान परिझया मनोवाकाय कर्मजिजीवोपमईजीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारभसत्यं तद्विषयो यो मनः कारिणामारंभं परिग्रहंच परिहरेदिति ॥ प्रयोगः आरंभ सत्यविषयक मनःप्रयोगे भ० २०००। प्रारंजस बम एप्प प्रोगपरिणय-आरंजसत्यमनः प्रयोगपरिण प्रारंनिया-प्रारंजिको-स्त्री० आरंभः प्रथिव्यायुपमईः स प्रत-त्रि० प्रारंजो जीवोपघातस्तहिषयं सत्यमारंभसत्य योजनं कारणं यस्याः सारंभिकी। स्या० ग०५ क्रिया नेदे-ज० श० १०॥ सहिषया यो मनःप्रयोगस्तेनपरिणतं यत्तत्तया आरंजसत्य आरंनिया किरिया विहा पं० त० जीवआरंजिया विषयक मनः प्रयोगपरिणते यादो (जसश्चमणप्पयोग परिणए कि आरंज सश्चमणप्पओग परिणए श्रणा रंभसचम चव अजीव प्रारंजिया चेव ।। स्यान्ग ए । णप्पग परिणए)जश००१॥ जीव प्रारंनियाचेवत्ति-यजीवानारभ माणस्योपमृद्रतः कर्म प्रारंजसत्त-प्रारंजसक्त-त्रि० पारने सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तो बन्धनं सा जीवानिकी अजीवारंभिया वसि सम्नः प्रारंभत्रम्ने । सू० श्रु-११ यश्चाजीवान् जीवकओवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतीश्चयखावेराणगिके (पागन्तरे श्रारजसत्तो) णिचयंकरेति, दीन्वा रंजमाणस्य सा अजीवारंभिकीति स्याण प्राव। इओ चुते सुकुहमट्ठदग्गं । तम्हाउमेधावि समिक्ख ध आरंजियाणं नंते ! किरिया कस्स कज्ज गोयमा ! म्मं चरेमुणी सधोविष्णको ॥ ७॥ त० टी० । अभयरस्स वि पपत्तसंजतस्त, प्रा०॥ पद १२ ॥ व्या । येन केन कर्म हा परोपतापरूपण वैरमनुवध्यते ज अनयरस्स वि पमत्तसंजतस्स शति ॥ अत्रापि शब्दो निक क्रमः प्रमत्त संयतस्याप्यन्यतरस्य एकतरस्य कस्यचित्प्रमावे न्मान्तरशतानुयायि भवति तत्र गृको वैरानुगृद्धः पागन्तरं सति काय-प्रयोगनावतः पृथिव्यादरुपमर्दसम्भवात्वा (प्रारंजसत्तोत्ति) आरंभे सावधानुष्टानरूपे सक्तो छ अपिशब्दोऽन्येषामधस्तन गुणस्या न वर्तिनां नियम प्रदर्श म्नो निरनुकम्पो निचर्य द्रव्योपचयं तन्निमित्तापादितकर्मनि नार्थः प्रमत्तस तस्याप्यारंनिकी क्रिया प्रवति किं पुनः चय स्थाना पुतो जन्मान्तरं गतःसन् वाकरोति पादत्ते स शेषाणां देशविरति प्रतृतीनामिति एव मुत्तरत्राण ययायोगपव तूत उपात्तरः कृतकोपवय इत्यतोऽस्मात्स्थानाच्युतो मपिशब्दभावना कर्तव्या ।। जन्मांतरं गतः सः दुःखयोति दुःखं नरकादिकयातनास्था प्रारंनोवरय -आरम्लोपरत-त्रि० सावद्यानुष्ठानादुपरते ॥ न मर्थतः परमार्यतो दुर्ग विषमां दुरूत्तरमुपैति यत एवं तत्सस्मान्मेधावी विवेको मर्यादावान् वा संपूर्णसमाधिगणं जाना जे य पत्रमाणतो पबुघा आरंजोवरता सम्ममेयंति नो धम श्रुत चारित्राण्यंसमो क्या सोच्यांगोकृत्य मुनिःसाधुः पासह । श्राचा० अ० ज०५। सर्वतःस बाह्यान्यंतरात्संगाद्वि प्रमुक्तोऽपगतः । संयमानुष्टानं आरंजः सावद्योयोगस्तस्मादुपरता प्रारंजोपरता शति । मुक्तिगमनकहेतुजूतं चर दनुतिष्टेतू रुयारंभादिसंगाधिप्रमुक्तो आचा। निःवितभावेन विहरेदिति यावत् ॥(प्रारंभसत्तापकरंतिसंग) सेहु परमाणमंते बुके आरंजोवरए सम्ममेयंति पासह आर सण मारंभः सावथा पुष्ठानम् तस्मिन् सक्तास्तत्परा आचा० अ० ज०३। इति । प्रा० अ०१७ प्रारंजसमारंज- आरंजसमारंज पु० प्रारज्यंत विनाश्यते इ सावद्यानुष्ठानमारंभस्तस्मादुपरता आरंभोपरता शति । त्यारंजाः जीवा स्तेषां समारम्भ उपमई: अथवा प्रारंभः आरक्ख-आरत-प० आ-रक-अच्-हस्तिकुंभाधः स्यो, आर कृष्यादि व्यापारस्तेन समारजो जीवोपमईः अथवारंभो कमग्रमवमत्य सृणि शितानां । माघः । हस्तिमस्तकचमणि, जीवाना मुपवणं तेन सह प्रारंभः परितापन मित्यारंभः सन्यच रक्तके, त्रि० (सहसाहस्र मारकं मध्यगं रक्कसां कपि समारम्भः जीवोपमईः कृप्यादिव्यापारण जीवोपम परिताप जट्टिः (तेषामारभूतन्तु पूर्व दैवं नियोजयेत् । मनुः सहित जीवाना मुपज्वेण च प्राणवधेचतबाचप्रश्नव्याकरणे प्राणवधस्य गीणनामान्यधिकृत्य आरंजः समारंजःप्राणवधस्य चोरो य णगररक्खेण परिजस्समाणो तत्येवअतिगतो पर्यायः इति प्रश्न । द्वा० १। नि चू० १ ० । आ० म०। आरंजि (न्) प्रारंनिन्-पु० पापारंभान्वेषिणि ॥ राहामात्मरक्षक-स्थाग्ग शम्प्रे. उप्रवंश्ये, च आरक्ककानद प्रदएमकारित्वाउमा इति । श्रा. म. उग्रा आदिराजेनारकक बएणादेसीणारंने कंचण सम्बनोए। त्वेन व्यवस्थापितास्तवइयाइचोति स्था० ६ ग० । भावे कप्पमुह पिदितप्पातेले ॥ आ० अ०५ न०॥ घञ् रकायां-पु. वाच॥ सचवतः सन्नारंभी स्यात् कुमार्ग परित्यागेन न पापा- आरक्खिय-आरक्तिक-पुं० कोहपाले । वृ०। रंभान्वेषी नवतीत्यर्थः आचा० सूत्र० श्रु०१०ए। आरक्खिय पुरिसेहिय अहोराभराक्खिज नि००१०॥ एतेहिं नहिं काएहि, तं विजं परिजाणिया। आरक्खि प्रो पुवजणिो आरक्खिगोत्ति । मगसा काय वकणं, णारंजी ण परिग्गही ।। दंग्यासिग्गो । नि० चू० १६ ज०। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०३) भारम अभिधानराजेन्द्रः । भारबग आरस्कियपुत्तेण हिंमतेण चोरोत्ति काऊण जबएणाहया तु आरभे.वाचाडो रमे रम्नढवी पतिप्राकृतसूत्रेणा जः परस्य रमे रन ढव इत्यादशी वा भवतः | आरंभ आढआवम॥ व । आरजश्॥ प्रा० व्या० ॥ प्रारग-आरक-१० आकेपे. व्य० १ ००। पारन(म्न)इत्ता-आरज्य-अव्या आ० रजस्यप् | उपकआरगय-आरगत-त्रि० श्राराजागस्थिते (आरगयाई सहाई मेत्यर्थे.॥ सणे णो परगयाई) भाराद्भागस्थितानिन्छियगोचरानि-मरमरजाण- निग्रारंभ कति मामिज भार. त्यर्थः। भ०५०४॥ भंता. आरजमाणा इति ।स्या. ग०७॥ विनाशयति च स्त्रियां पारण-आरण-पु. सकाविमान प्रधानारणायतंसकाभिधान | डीए । संघट्टता रजन्तीय आरजमाणा तानेव षट्कायान् विमान विशेषोपनक्ति आरणः अनु० कल्पनेदे,सम०१०।। विनाशयंतीति.। पिवृत्ति० ॥ करपोपग वैमानिक देव झोकमदे.च० विशे० (आरणाअच्चु आरनम-आरजट-नानाट्यभेदे स्था. उ०४ अष्टाविंशातिमे याचेवर श्कप्पो वासुरा) उत्त० अ० २ प्रज्ञा पद०२। नाट्यविधिनेदे च पारनटं नाम अष्टाविंशतितममिति । राजा। आरनाल-भारनान-न० सौवीरे पानकनेदे ॥ स्वनामख्याते दिवसनवे। मुहुर्ते पु० ग्वेवयआरजमो सोसेजं पुण पाणगजायं जाणेज्जा तंजहा तिनोदगंवा- मित्तोपंच अंगुझो हो दपना पारःसामध्यन गामीभटः तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सौवीरं वा सुका शूरे वीरे० पु०। हेम । वाच वियमंवा अप्सतरं वा तहप्पगारं पाणगजायं पुवामेव आरजमलसाज- प्रारजटजसान- न० ३० नाटक आनोएज्जा । आचा० अ १ उ०७। नेदेवारजट नसोसं नाम त्रिंशत्तमामति । राजा आ०म०॥ प्रारजमा- आरजटा-स्त्री० प्रमादप्रतिक्षेखनानेदे (भारभव्या। यत्पनः पानकजातमेवं जानीयात् तद्यथा तिनोदक तिलः केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकमेवं तुषै यवर्षा तथा मासम्महा व यज्वाय मोसमी तश्या ) आरभटा विधेर्षिआचाम्न मवश्यानं सीवीरमारना शुरूविकटं प्रासुकमुदक परीतकरणं १ त्वरित ५ पृथक ३ नवीनवस्रग्रहण एषा प्रथमन्यद्वा तथा प्रकार द्राकापानकादि पानकजातं पानीयसा मा प्रमाद प्रतिलेखनेति । स्याराग०६॥ मान्य पूर्व मेवावोकयेत्प यत् । प्रारमा वितय करण रूपा अथवा त्वरितं सर्वमारभमाणप्रारमय-भारण्यक-न० आवश्यके लौकिकं श्रुतमधिकृत्य स्यायमा प्रत्युपेक्षिता एवैकत्र यदन्यान्यवनग्रहणं सा आरसौकिकवारण्यकादि दृष्टव्यमिति ।आ०म०३०१६(भारण्यग) भटा साव वर्जनीया सदोषत्वात् इति.( वित्तहकरणे च तुरिय श्रमं अर्थच गिवहारजमा ) ध० अ० ३ ॥ त्रि आरंण्यं गांतीत्यार एयगाः पारस्पगंतरि । नि००। वितर्थ विपरीतं यत्करणं तदारभटाशब्दे नोच्यते साचारजप्रारमरासि-पारण्यराशि पु० नि० कर्म आरण्यशब्दाते टा प्रत्युपेशणा न कार्या इत्यर्थः । वा विकटपेनेयं चारजटोसिंहे मकरादिमाढे दिवसे मेष वृषचराशौ । वाच। च्यते यत त्वरितमाकुवं यदन्यान्यवनग्रहणं तदारजटा पाराय-भारण्यक पु० अरण्ये वसत्यारए का कंदमूल शब्देनोच्यते । पंच० औ० फलाहारे तापसे । दशा०अ०१० अरण्ये वसंत्यारए कास्तेच कन्दमूसफजाहारास्सतः के वन वृतमन्ने वसंतति सूत्र. १० आरजमी-प्रारजटी-स्त्री०पारज्यतेऽनया प्रा० रतभट५ अ०३। अरण्येन्यामारएका तीर्थकधिशषे । द डी० नाटचे. । रचनाभेदे-वाच ॥ प्रारमिक पु० अरण्ये चरत्यारण्यकाकंदमूत्रफनाशिनि ता- | प्रारनिय- प्रारजित-न० नाटयविधिभेदे (अप्पेगश्यादेपसादी पूत्र ०२०। । षा आरनियं णट्टविहिं पदंसेश) राज०॥ आरत-प्रारक्त पु० षिक्तवणे, वाच०। आरक्त मीषफक्त | प्रारमण- प्रारमण-न. आ० रमजावे. ल्युद-पारामे. मिति आचा। अ २००३ । तद्वतिसम्यगनुरक्तच त्रि० विश्राम. पारम्यतेऽनेन करणे स्युट प्रारति साधने । वाच। भावे. क्त. अनुरागे. न. पाचा०॥ आरय- आरत-त्रि० आ. रम्, क्त, उपरते विरतेचः । सूत्रा पारात्तिय-आरात्रिक-नदीपार्तिक्ये, (आरात्रिकं जिनाचायाः, कृतं श्राके ज्वाभिखं । दीप्यमानौषधीचक्रं शैक्षy श्रु०१०४। अपगते । सूत्र. श्रु० १ ० १५॥ गवि बकम् । ध० अधि०२॥ आरयमेहुण- भारतमैयुन- त्रि० आरतमुपरत मैथुनं कामा मिनायो यस्यासा वा रतमैयुनः । सूत्र १०१ ०४ ॥ प्रारक-प्राराक-त्रि० । आ० रा०क्त० संसिखेतिका फि (वढे प्रारय मेहुणे ) आरतमुपरतमपगतं मैपुनं यस्यसआरकायनिः तदपत्ये. पु० स्त्री०।वाच । भारब्धः आरत मैथुनोऽपगतेच्छामदनकामाभावाचसंयमे रढोसौ प्रथत्रि० आर०क्त० कृतारम्भणे, (प्रारब्धादन्यकार्याणां करणं परिवर्तकः ) अनारब्ध कार्य एषतु इत्यादि ॥ तीति । सूत्र० श्रु०१० १५ ॥ कयवशकतुमारभ तादृशः पदार्थ प्रार/प्रारब- प्रारब-पु० म्लेच्छदशनेदे-जं०॥ ग्धः । वाच० कठिटमारको-नि० चू० स० भावे. कः।। तत्र नवेम्झे जाति नेदे। प्रदना ॥१॥ आरभेन। वाचा स्त्रियां जीपू आरबीहिं । भ०० ए ०३३॥ प्रारन (म्न)-आरज- भारत स्वा.. आश्रारंभेश्रारबग-प्रारबक-पु. आरबदेशोजवे म्बविशेष सक अनिट्यजादौ प्राधातुके मुम्भारंभःप्रारंजण सिटि- प्रारबके रामक अससमाव प्रारबके रोमके असमविसथवासीअपिक्खु रे काम Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०४) अभिधानराजेन्द्रः । आराम मुद्दे जेणेए म उत्तरेवेभ संसि मेच्छा जाईबहुप्पगारा ॥ या धारवकार भारदेशवाद रोमांध रोमकदेशवान् कालमुखान् जोनकाँध म्लेच्छविशेषानिति । जं० ॥ आरसंत-आरसद त्रि० विपति आरतो भैरवमतिभी पण शब्दरसन विपश्निति उ० प्र० १९ ॥ आर सिय-ओरसित न आरटिते ( मेदारपणं जायमे तिणं चैव महया २ सद्देणं विधुठे विसरे आरसिए तपणं एयस्स दारगस्स आरसिय सर्वे सोच्चा णिसम्म हस्थिणातरे बहवे जयरे गोरुवा जाव भीया । विपा० अ० २ । महया २ चिश्चि आरसित्ति महता चिथी त्येवं चीत्कारेणेत्यर्थः आरसित मारदितं द्विज्जति सुभगवया आरसियन्ति । आ० म० अ० १ ॥ आरा-आरा त्री० आ० ऋ० अ० चर्मभेदकास्त्रभेदे । बौहास्त्रे प्रतोदेच । वाच० । ( तत्ताहिं आरादि नियोजयन्ति ) सू० ० १ । अ. १ । तत्राभिराराभिः पीड्यमानास्तप्त त्रयुपा नादिके कर्मणि नियोज्यन्ते व्यापार्यन्त इति । सूत्र० १४. ५० आराम - आराम- पु० आरम्यतेऽत्र श्र रम् आधारे घञ् श्रागत्या गत्य जोगपुरुषा । वरतरुणीभिः सद्यत्र रमन्ते क्री मंति स आरा मो नगरान्नातिदूरवर्ती की माश्रयस्तरुखएकः । राज० । माधवी तापते दम्पति रमणाश्रये यनविशेषे प्रश्न० ४ द्वा० ॥ ( भारामुज्ञाणमणाभिरामपरिमहिश्वरस ) आरामै दम्पति रतिस्थानलता गृहोपेतवन विशेषे रिति प्रश्न ३८० श्रारामाः पुष्पजातिप्रधाना वनखएका इति. जं० प्र० श. ३३ उ० | स्था० । ग० ५ । औप० । आरमन्ति येषु माधवी बतागृहादिषु दंपत्यादीनि ते आरामाः । झा० १२० | दशा० न० ५ ० 9 ० । औप० । ( आरामाश्व ) आरामा विविध पोलिताः कल्यादिषु स्त्रीहितानां पुंसां रमण स्थानभूता इति । स्या० २ ० । ( आरामेसुवा ) श्रारामेषु कदल्याघ'बादितेषु स्त्रीपुंसयोः श्रीमास्थानेषु । कल्प | रमणीयता ऽतिशयेन स्त्रीपुरुषमिथुनानि यत्रारमंतिस विविधपुष्प जात्युपशोभित आरामः । अनु० । माधवी लतासु दंपत्यादीनि येष्वारमन्ति क्रीमति ते आरामाः पुष्पफलादिसमुकानेकवृक्षसंकुखानीति । अनु० ( आरामेसुब) आगत्य रमन्तेऽत्र माधवीलतागृहादिषु दंपत्य इति स आरामपुष्पादिमवृक संकुलमिति० । जी० ३ प्रति० । शा० १ अ० । राज० । आरामा वनोद्याननूमय इतिकृत्रिमवने घाट यांचया आरामक मरवरस ) श्रारामः कृत्रिमवनं कस्य कर्मरजसः कर्मपरागस्य या कर्मच निवि मोहनीयादि रश्वकामः चश्चचौरः कर्मरचं तस्यारामोवाटिकेति । तं० | आरामयतीत्यारामः आराम कारके त्रि० । खियोऽधिकृत्याचाराने ( एससे परमाराम जामम इत्थिओ ) आचा० अ० ५ ० ४ आरामयतीत्यारामः परमश्चासावारामश्चपरमारामः ज्ञाततत्वमपिजनं हास विलासापाने निरीक्षणादिनिर्विष्यांकीमोदयतीत्यर्थः । अ० ५ ० ४ वृत्तरत्नाकरटी कोक्ते षोमशभिश्वरगणै राराम इत्युक्ते दmaकभेदेच आ-रम नावे घम् आरतौ । अन्तःसुखो तरारामः । गीता० अन्तरात्मनि धारामो यस्येति विग्रहः । शारिद्रयारामो मोघपार्थ स जीवति गीता. चाच० रहा. आराहग रामं परिक्षाय अल्लीणगुत्तो परिव्वर आचा० अ. ५ ७० ६ शहास्मिन् मनुष्यलोके आरमणमारामो रतिरित्यर्थः । सचारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकान्तिक रतिरूपः संयमः समासेवनपरिक्षा परिचय आनो परिवजेत आचा० अ० १ ० २ आरामगय-आरामगत- वि० भारामो विविधपुष्पजात्युपशोमितस्तत्र गते आरामगयं वा स्था० वा० ५ । आरामागार - आरामागार-न० आरामेऽगारं गृह मारामागारं आराममभ्यगृहे (बारामागारे सुवा) आराममध्य रायारामागाराणीति आचा० आगंतगारे आरामगारे समणीतेण वेतिवास श्रारामेगारमागारभिति सूत्र० ५० १ अ० ६ आरामिय- आरामिक- त्रि०भारामे तषङ्कणे नियुक्तः ठक् उद्यान पाले, मालिके, ( धारासिट पढ ) आ० म० । सायश्राया आरामियेण गहिया नि० ० उ० १ । स्थाo aro ४ ॥ आराहग (य) आराधक - पुं० निष्पादके, औप० । श्राराध यति सम्यक् पालयति बोधिमित्याराधकः । राज० । ज्ञानाद्या धनवति । पंचा० वृ० ८ । धाराधकोज्ञानादीनामाराधयितेति भ० श०३ ०१ । ( आराहए विराहए ज्ञानादीनारायन) प्रति मोहमार्गस्थाराधका त्यर्थ भ०वा०० ६०० | सद्दष्टिराराधकः आराधको ज्ञानाद्याराधनकर्तेति प्रति०। (नहुते आराहगामणिया ) आराधका उत्तमार्थ साधकाः । श्रातुः । श्राराधको ज्ञानाद्याराधनकर्तेति ॥ श्राराधकस्यफलं पंचाशके. यथाः ॥ आराढगो व जीवो, सव्यजयेहिं पावतीशिय मां, जम्मादिदोस विरहा, सासय मोक्खतुं णिव्वाणम् ॥ २० ॥ व्या० । आराधकश्च ज्ञानाद्याराधनावान् च शब्द पुनरर्थः जीव प्राणी सप्ताष्टभवैः सप्तभि रष्ट्राभिरित्यर्थः इदंच जघन्या राधनामाश्रित्योक्तम् अन्यथा तव पत्र कश्चित् सिध्यतीति पतेय ताजा प्राराधनायुक्ता दण्या इतरथानुसेव प्राप्नुवन्ति लभते नियमादवश्यं तथा कुतः किंविधं किमित्याह । जन्मादिदोषराज तिजरामरणप्रतिपणाांगा तच्चपदंशास्वत सौख्यमित्यनेन प्राप्नोतीत्यनेन वासंबन्धनीयं शास्वत सौख्यं नित्यसुखमेव नतु स्वास्थ्यमात्रं निर्वाणं निवृत्तिमितिगाथार्थः । अथ आराधकस्य कथंभवति. औघ० मेसेजागेसूच्य वतोबिदेसमाराहो । जहिपुणसन्चाराद्दण, मिच्छारीणं निसामेहि व्वा० । शेषेषुयोगेषु अवर्तमानः सम्यकशास्त्रोक्तेन म्यायेन प्रत्युषां कुर्वपिदेशक आराधक सीन सर्व मारानियति तेन यदि पुनः सम्पूर्णानामित्यादि सुगम कथंच सर्वाराघको भवत्यतश्राह । पचिदिप गुणो, मणमाई तिपिट करण मा उत्तो ॥ सशियम संयममि, जुत्तो आरामो होई ।। ४६ । या । पचभिरिन्द्रियैः मानखादिना शिविधेन करणेन युक्तो यत्नवान् तपसा द्वादशविधेनयुक्तः नियम इन्द्रिय नियमो नो इन्द्रिय नियमश्च तेन युक्तः संयमः सप्तदशप्रकारः ढत्रिकाओ आकाओ वाक्काओ वणस्सइकाओ वे इंदिय से इंदिचरिदिय जीवकाय संजमो पेढे । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराहग अभिधानराजेन्द्रः। आराहग जपेहो पमजणं परिछावणं मणवकाए । पताते समणाउसो जयाणं तो दिविव्वगातो समुद्दग्ग वि अत्र संयतः सन् मोकस्य आराधको भवति प्रवज्याया वा इसिं पुरेवाया जाव महावाया वायंति तयाणं सब्वे दीवमाराधकः। दवा पत्तिया जाव चिट्ठति एवामेवसमणाउसो जो जाव "सिकेउवसं पध्मो, अरहते केवमित्तिजावणं । अम्हं पव्वत्तिए समाणे बदणं समणाणं बहूणं अणइत्तो एगयरेणं वि, एएण आराहेउ होई ॥२०॥ जस्यिय गिहत्याणं नो सम्म सहति एमएं मए पुरिसे "लज्जाई गारवेणं य, बहु सुयमयेण वावि दुच्चरिय। सव्वविराहए पामते समणाउसो जयाणं दिब्विगावि जेन कहति गुरूणं, नहुते आराहगा हुंति ॥ ए॥ समुद्दगावि शसि पुच्चपुरो वायंति तयाणं सच्चे दावपंच महव्वय सव्वय, संपुरम चरित्त सीलसंज्जुत्ता। दवा पत्तिया जाव चिठंति एवामेव समणानसो जे अम्हे जहतह मया महास, हवंति आराहग समाणं ॥२७॥ पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं । बहूणं अम्म उत्थिपमिमासुसीह निक्कीलियासु, गोरे अनिगाहा ईसु । यगिहत्याएं सम्मं सहइ एसणं मए पुरिसे सब्बाराहे बब्बीह अब्नंतर एवं, जयतवे समणु रन्ना॥४०॥ पपत्ते एवं खलुगीयमा! जीवा आराहगा विराहगा अवि हनशीला पारा, पमिवन्ना जेय उत्तम अहूं। वा नवंति एवं खनु जम्बू समणेणं जगवया महावीरेणं पुब्बिलाणयमाणय नाणया आराहणा चेव ॥४१ । एकारसमस्स अज्य णस्स अयमढे पहात्तेतिबेमि । जह पुबह अगमाणा, करण विहिणोवि सागरोपोओ। ज्ञाता० । अ०११ । तीरासनं पावई, रहिलं अवलगाइहिं ॥४॥ व्या। अयैकादशंविवियते अस्य च पूर्वण सहायं संबन्धः तहसुकरणो महेसी, ति करण आराहउ धुवं होई ।। पूर्वच प्रमाद्य प्रमादिनोर्गुणहानिवृष्मिकणावनार्थावक्ता अहलहई उत्तम हुँतं, अइसानं नणं जाणं ॥४३॥ विहतु माराधनविराधनान्यां तापच्यते इति संबकमिदं आराधकत्वं विराधकत्वं च ज्ञाताऽध्ययने-यथा. सर्व सुगम नवरं । आराधका ज्ञानादिमोकमार्गस्य बिराधका एकारस मस्त के अहे परमत्ते एवं खलु जम्बू तेणं अपितस्यैव (जयाणमित्यादि) दीविश्वगा प्याजीपसंभवा ईषत्पुरेवाताः मनाक् सचेह वाताश्त्यर्थः पूर्वदिसंबंधिनो वा कालेणं तेणं समएणं रायगिहे पयरे सामी समोसदे पथ्यावाता वनस्पतीनां सामान्यनहिता वायवः पश्चाद्वातावा गोयमा ?। एवं बयासी कहणं ते ! जीवा आराहगा मंदाः शनस्संचारिणः महावाता लहंगवाता वांति । तदा विराहगा वा नवंति सेजहा नाम ए एगास समुद्दकुरसि अस्पगश्यत्ति ) अप्यके केचनाऽपिस्तोका इत्यर्थः। (जुम्मत्ति) दाव दवानामा रुक्खा पत्ता किएहा जाव निजरंव जीर्णा श्व जीर्णाः क्रोमपत्रादि शाटनं तद्योगात्तेपिक्रोमा अतएव परिशाटितानि कानिचिश्च पांमूनि पत्राणि पुष्पफलानूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियग रिरिज्माणा निच येषांतेतथाशुष्क वृक्तकश्चम्बायंतस्तिष्ठति इत्येष दृष्टांतो। सिरीए अतीव जवसोजेमाणा चिट्ठति जयाणं दीविच्च योजनात्तस्यैवं। पवामवेत्यादि ( अन्ननस्थियाणन ) अन्यग्गाशसिं पुरे वाया पच्छा वाया मंद मंदं वायं वायति यूयिकानां तीर्थान्तरीयाणां कपिलादीनामित्यर्थः दुरवचनातदाणं बहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिहति अप्पे दीनुपसर्गान् नो सम्यक् सहत ति (एसणंति) एवंच नूत एषपुरुषो देशविराधको ज्ञानादिमोकमार्गस्य। श्यमत्र विकल्प गतिया दावदवरुक्खा जुलाजोमा परिसामय पंकर पत्त चतुष्टयोप भावना यथा। दावदवक्तसमूहः स्वजापतो द्वीपपुप्फफलासुक रुक्ख विव मिलायमाणा चिट्ठति एवा वायुनिः बहुतरदेशैः स्वसंपदासमृधिमनुनवांत देशेनचा मेव समणानसो जे अम्हाणं निग्गयोवा जाव पव्वात्ति समृद्धि समुभवायुनिश्च देशैरसमलिं देशेनच समृकि एसमाणे बहूर्ण समणाणं ४ सम्म संहति जाव अहिया मुभयेषांच वायूनामनावे समृध्यन्नावमुभय सजावेच सर्वतसेति बदणं अण जात्ययाणं बहूर्ण गिहत्थाणं स्समृद्धि मेवं क्रमेण साधुः कुतीर्थिकगृहस्थाना पुर्वचनादी. न्यसहमानः कांतिप्रधानस्य ज्ञानादिमोकमार्गस्य देशतोविराणोसम्म सहति जावनो अहिया सेति एसणं मए पुरि धनां करोति श्रमणादीनां बहुमान विषयाणां पुर्वचनादि से देस विराहए पमत्ते समणानसो जयाणं समुद्दगाइसिं कमणेन बहुतरदशानामाराधनात् श्रमणादिर्वचनानां पुरे वाया पच्छा वाया मंदवाया महावायावायति तत्तेणं त्वसहने कुतीर्थिकादीनां सहने देशानां विराधनेन देशत बहवे दावदवा रुक्खा जुबाजोमा जावमिझायमाणा पव आराधनां करोति । उन्नयेषामसहमानो विराधनायां सर्वथातस्यवर्तते । सहमानश्वसर्वथाराधनायामिति ॥ चिट्ठति ! अप्पे दावदवा रुक्खा पत्तिया पुफिया फनिया शहपुनर्विशेषयोजनामेवं वर्णयति ॥ जाव नवसोनेमाणा चिट्ठति एवामेव समणानसो जे (जह दावदवतरुणमेवं, साहु जहेह दीविव्वा वाया तहसअम्हं निग्गयोवा २ पव्वति समाणे बदणं अबलात्थ मणाश्यसपक्वधयणाश्दुस्सहाई।।जहासमुद्दयवाया तहण तित्था कम्यवयणाई।कुसुमाईसंपयाजहसिवमग्गा राहणागिहत्याणं सम्म सह निबहणं समणाणं समणीणं तहोशाजहकुसुमाण विणासोसिवममा विराहणातहनिया। नो सम्मं सहति । एसणं मए पुरिसे देस पाराहए। जहदीववायुजोगे बहुश्ही ईसियमणिट्टी ॥३॥तहसाहाम्मय Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । आराहग घयणा, सहण माराहणभवे बहुया । श्यपणमस इणेदुण सिचमग्गविराहणाचे वा ४ जजयायोगे देवि, बहुरा मणिडीओ तयपरपणे बाराणमी वियरं ॥ ५॥ जह सभयवाय विरहे सव्वातरु संपया विणदृत्ति । अनिमित्तो भयमच्छर रुवेह विराणा तय ॥ ६ ॥ जलभय वायजागे सव्वसमिविणस्स संजाया। तह उजयण सहणे सिवमग्गा पहणापुणा ॥ ७ ॥ तापुन्नसमणधम्मा ग्रहणवितो सयामहा सन्तो । सब्वेण विकीरतं सहेज्जसव्वं धिपरिक्स मिति ॥ ॥ मायमायांकृत्वा नाराधकोभवतीति मायी शब्दे स्था०ग० आराधका भनाराधका औपपातिके विस्तरेण । यथा--जीवेणं नंते ? अतंजये आवरण अपमिय पचक्रवाण पावकम्मे पेचा देवेसिआ गोयमा ? प्रत्येगइया देवेसिया अत्येगइया पांदेवे सिया सेकेद्वेणं जंते ? एवं वृचइ अत्थे गइया देवेसिआ प्रत्ये आपोदेवेसिभ गोषमा ? जे इमेजीवा गामागर एगर निगमरायहाणि खेम कव्वक मरुव दोणमुहवट्टणा समसंवाद सर्विसेस अकाम तरहाए अकाम तुहाए अकामचेर मासणं अकाम प्राराहाण कसियाय बस मसग से अक्षम पंक पर अप्पतरोपा भुज्जतरोवा का अप्पान परिकल्प्रेसंति अप्पतरोचाका अप्पार्थ परिकले सित्ता कालमासे कालकिला भातरे व मंरे देवोएस देवताए उबवत्तारो जवंति तर्हि संगीत सि जिती तर्हि तेर्सि उपचार पाते सेजते ? देवाणं केति का विती पाणता । गोयमा ? दसवास उस्लाई जिती पणा सा तत्यजते ? | तेसि देवाणं इडीबाजईबा जसेतिया मोतिया वीरिएड़ना पुरस्कार परिकमे इवाहंता प्रस्थितेणं जंते ? | देवा परको वाराहुगा णोति पट्टे समेह । औप० ॥ क्या० । ( जीषणमित्यादि) व्यक्तंनवर ( उति ) बाहुल्यतः कालमासे ( कालंकिश्चति ) मरणाऽवसरे मरणं विधायेत्यर्थः । पचास) इतः याच्युतो ः प्रेत्य जन्मान्तरे देवः स्यात् (सेकेण जति ) अथ केन कारण नेत्यर्थः । ( जेश्मेजोवत्ति ) यश्मे प्रत्यक्का सन्नाः जीवाः पञ्चन्द्रियतिर्यङ्मनुष्यलक्षणा प्रामाग. रादयः प्राग्वत् श्रकामतः ( तद्वापत्ति) श्रकामानांनिर्जरा न मित्राषिणां सतां तृष्णा तृदू अकाम तृष्णा तया एवमन्यत्पदद्वयम् । अप्पतरोवा नुजतरोवा कालेति प्राकृतत्वेन विजक्ति परिणामा दल्पतरं वा न्यस्तरं वा कायावत् (अणतरेति) मध्ये एकतरेषु (पायमंतरेस सिन् तरेषु देवदेवजनेमध्ये ( तेहित संगति ) तस्मिन्वा नंतर देवतेपमसंयता विविशेषणीयानां । पुनः ( ते वापर बाराहात) कामनिव नवाग्यंतराः परलोकस्य जन्मान्तरस्य निर्वाणसाधनाऽनुकस स्य श्राराधका निष्पादका इतिप्रश्नः ( नोइणसि ) नायमर्थः ( समति ) समर्थः संगन इत्युत्तरं अयमनिप्रायो येहि सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वकानुष्ठानतेोदेयाः स्यु स्तपवावश्यं तया मानंतयें भाराहग पारंपर्येणया निर्माणाऽनुकूखं प्रयान्तरमावर्जयंति तदन्येभाज्या । सेने इमेगामागर नगर निगम रायहाणि खम कव्वभूम मंत्रदोणमुह पहणा सम संवाद समिले आजवंति तंजा एकाणि अलबरूका हमित्रकका चा रगबरूका हत्यच्छि कापायच्छिन्नका कष्ाच्छिन्नकाएक च्छिका उच्छिका निम्नािका सीसका मुखचि का मच्छिमका कच्छच्छका हिपहपारिवा पायगा दस पाकियगा वसणुपारियगा गोवच्छिका नका कागणिमंसं खाइयया संचि आचिव पंसि अया घोलिया फारिया पीलिया सूमिका खारवत्तिया वक्ऊवत्तिया सोहपुच्छ्रियया दव गिडिया कोसा का पंकेतका यमका समयका बियाणमयका अंतसमयका गिरिपरिका तरुपि रुपमा गिरिपक्खंदोलिया तरुपक्खंदोनिया मरुपक्खंदोलिया जपवेसिका जलपवेसिका विसनक्खि ता सत्यवातिका बेहाएसिया गिरूपिका कंतारमंतका क्खिमंतका असंकिलिट परिणामा तंकालमासे का किया मातरे वाणमंतरेसु देवलोपसु देवदत्ताए अवतारो प्रति वहिति निवा पण सेसिणं ते देवाणं केवलिं कालती पत्ता गोयमा ? वारसवास सहस्सा विती पहाता ते ते देवा इड़िया जुड़वा ज सेतिया वझेतिया बीरीपतिया पुरस्कार परिक्रमेतिचा ताअत्यी तेणं ते ? देवा परयोगस्सारागाहणेति डे सम । प्रप० । (ग) अवलम्बितकाः रज्या बडा गतीदायमतारिता पर्यायास्तु ते भवन्ति पैदासका देवयमाणत्वात् (सीपुयियति । पुष्शब्देन मेहनं विवजित मुपचारात् ततः सीहपुच्छं कृतं संजातं वा येषां ते सिंहपुच्छितास्तपवसितिका सिस्य दि मैथुनातिस्वात्वाकर्षणात् कदाचित्पति । एवं ये कचिदपराधे राजपुरुषस्त्रीतिमेहनाः किन्ते सिंह पुच्छितक (व्यपदिश्यन्ते । ( संकि लिट्ठपरिणामप्ति ) संक्लि परिणामा हि महार्तरौषध्यानावेशेन देवत्वं न सनन्तइति भावः ॥ ६ ॥ से जे इमे गामागर णनरणिगमरायाणिवेकरू बदोमुहपट्टए।समसंवाहसं निवसेसु म, या जवंति संजा पगतिका पगति संता पतिपतणुकोड़माणमाया लोहा मिउमदवसंपष्ट अक्षीणा विणीआ अम्मापि उस्का अम्मापण अणनिकमणिज्जवयण। अपिच्छा अप्पारंजा अप्पपारग्गटा अप्पेणं आरने प्र प्पण समारंजे अप्पाणं आरंजे समारंजेणं विधिक Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०७ ) अभिधानराजेन्द्रः | आराहग पेमा या बहुरं वासाई आनअं पातंति पाक्षित्ता कालमा से कालंकिच्चा अएणतरेसु बाए मंतरेसुदेवन्झोएस देवताए उववत्ताजवंति तहि तेसिं गत। ता तेसिं विती ताते सिंवत्राए पणते तेसिंणं जंते । देवाणं के वइयं कालं ती पणता गोअमा चन्दसत्राससहस्ता ।। आप. टी ० ॥ अम्बापित्राः शुश्रूषकाः सेवकाः अत एव (अमापिकथं श्रणहक्काम णिज्जवयणा ) इहेव सम्बन्धाः श्रम्बा पित्रोः सत्कमनतिक्रम य वचनं येषा ते तया तथा ( अपिच्छा अ मका अप्पारंभा अप्पपरिग्गहत्ति ) हारम्भः पथिव्यादि जीवेोपमः कृप्यादिरूपः परिग्रहस्तु धनधान्यादिस्वीकारा एतदेव वाक्यान्तरेणाह । ( अप्पेणा आरम्भेण मित्यादि ) छ हारम्भो जोवानां विनाशः समारम्नस्तेषामेव परितापकरण भारम्भसमारम्भस्त्वेतदद्य ( वित्तिति) वृति जीविकां (कप्पमाशति ) कल्पयन्तः कुर्वाणाः ॥ ५ ॥ से जान इमान गामागरणगरनिमराय हाणिखेरुकव्त्ररुममं वदोमुहपट्टणा समसंवाहसंनिवेसेसु इत्यित्र्या नवंति। जहा अंतोरिओ गयपत्तिआओ मयपत्ति प्राक्रो बालविहवायो बतिक्षित्ता इमा रक्खो पिपरविव आओ जायरक्खियाओ कुल घरर किवा ससुर कुञ्जरक्खिआओ परूढमण हमस केतक खरोमा वत्रगय पुष्पगंधमहालं काराओअहा re से अजमल पंकपारतावि याओ ववगयखीरहि वणी सपंत गुनलो महुमऊ मंस परिचत्तकयाहा राम्रो अप्पिच्छिम्रा ओ अप्पारंभाम्रो अप्पपरिग्गाओ अप्पेणं हा रम्नेणं अप्पेणं समारम्भेणं अप आरम्नेणं समारम् नेणं वित्ति कप्पमाणी काम बम्नचरवासेणं तामेत्र पतिं सेज्जं णातिकमति ताउ इत्य एवाहंरूपेण विहारेणं विहरमाणी ओ बहूई पासाइ सेसं तं चैव जाव चउसट्ठि वाससहस्साई वित्ती पाता ॥ ८ ॥ से जाओ (इमाओन्ति ) अयया पता तो ( अंतेपुरिया श्रोत्ति ) अंतर्म्मध्ये अंतः पुरस्यति गम्यं ( कुलधररक्खियाओति) कुलगृहं पितृगृहं ( मित्तवानिययसंबन्धिरक्खियाओत्ति क्वचित् तत्र मित्राणि पितृपत्यादिनां तासामेव वा सुहृदः एवं ज्ञातयो मातुजादिस्वजनानिजका गोत्रिया सम्बन्धिनो देवरादिरूपाः (परूण के सकक्खरोमाओत्ति) प्ररूढाः वृद्धिमुपगताः विशिष्टसंस्कारा नावान्नखादयो यासां तास्तया पाठान्तरे (प्ररूढन केसमंसुरोमाओत्ति ) श्ह श्मश्रूणि कूचरोमाणि तानि च यद्यपि स्त्रीणांन नवन्ति तथापि कासांचिदल्पानि भवन्ति अपीति तद्ग्रहणं ( अणहाणगसेयजलमलपंकपरतावा ओ ) अस्नानं केन हेतुना स्वेदादिभिः परितापो यासां तास्तथा तत्र स्वेदः प्रस्वेदः जल्लो रजोमात्रं मनः काहनी चूतं तदेव ( ववगयखीरद हिणवणीयसप्पितेलगु लोणम हुमज्जमंसपरिचतकयाहाराओति ॥ व्यपगतानि कीराद। नि यतस्तथा परित्यक्तानि मध्वादी नियेन स एवं विधः कृतोऽभ्यवहृत श्राहारो यकाभिस्तास्तथ: तामेव राहग ( पश्सेज नाश्कर्मति ) यानिधुवनार्थमाश्रीयते तामेव पतिशय्यां भर्तृशयनं नातिक्रामति उपपतिना सह नाऽऽश्र - यन्तीति ॥ ८ ॥ से जे इमे गामागर एगर लिगमरायहा णिखेक कव्वमममंत्रदोष मुहपट्टणा नमसंवाह स भवेतेसु मणुया जवंति तंजा दगवित्तिया दगतइया दगसत्तमा दगएकारसमा गोमा ? गोन्बइया गहिधम्माधम्मचिंतका अविरुद्ध विरुद सावकम्पनितिया तेसि मणुत्रा णं लोकour इमाओ नवरस विओ आहा रित्तए तं जहा खीरं दहिं एवनयं सपि तेक्षं फाणितं महुं मज्जं मंसं णणत्य एकाए सरलव. वगइ एतेणं मणुत्रा अपिच्छा तं चैव सव्वं वरं चउरासी इवा ससदस्साई वित्ती पाता ॥ एए ॥ से जे इथे गंगागा वा पत्या तावसा जवंति तंजहा होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जाई सहई घालई हुंपडा दक्खयां उम्मज्जका संम्मज्जका निमज्जका संपक्खाला दक्खिगकूलका उत्तरकूलका संखधमका कूलधम्मका मिका हत्यितावसा उरुका दिसापो क्खिणो वा कवासिणो बुवासिणो जलवा सणो विलवासिणो रुक्खन जिया नक्खिणो वाउन क्खिणो सेवालन raणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुष्काहारा बीयाहारा परिसकियकंदमूलतयपत्तपुष्फफ साहारा जन्नाजिसे कवि गायनया आयावणाहिं पंचवग्गित्ताहिं गालसोलियं कंरुतोलियं कंठ सोलियं पित्र अप्पा करेमाणाबहू वासाई परियायं पाजणंति बहूई वनाई परियायं पाठणित्ता कालमासे काअंकिया कोसेणं जोइसिएस देवेसु देवत्ताए उववत्तारो जवंति पविमं वासलय सहस्तमन्नहिं वित्त आराहगा पोतडे समहे समणो जवंति ।। १० ।। ॥ ० ॥ जतामित्रेककठिनं गात्रं भूतः प्राप्ता ये ते तथा ( गालस/लियति) अङ्गारैरिव पकं (कंमुसो नियंति) कन्दुक्काम - वेत्ति पविमं वाससयस इस्समम्भहिर्यति) मकारस्य प्राकृ तनवत्वर्षशतसहस्राज्यधिकमित्यथः अथवा पस्योपमं वर्षशतसहस्रमप्यधिकं च पल्योपमादित्येवं गमनिकाः ॥ समणोजवंति जहा कंदपिया कुक्कुझ्या मोहरिया गीरइपिया नचणतीला ते एए विहारेणं विहरमाणा बहु वासाईं सामापरियायं पाउणति बहुइ वासाइ सामएणपरियायं पाजाणत्ता तस्स वगणस्स आणानोइअ अकिंता कालमासे काझं किवा उक्कोसेणं सोहम्मेकप्पे कदंप्पिएस देवे देवताए उबवत्तारो जवति तर्हि तेति गति तहिं तेसिं विती से तंचेव नवरं विमं वाससहस्समज्जहि त्रिति । ११ । औ० ॥ मनिवेस सु परिव्वायगा जवंति तंजहा संखजोई कविलानि For Private Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (806) अभिधानराजेन्द्रः । आराहग उच्चा हंसा परमहंसा बहुउदद्या कामेच्वया कण्हपरिव्वायगा । तत्यख इमे अट्टगाहणपरिव्वायगा नवंति तंजा का करकं अमेय परासरे । कहे दीवायणे चैव देवगुती पाये । तत्य खलु इमे अट्टक्खति अपरिव्वाय या जवंति तं सीलाई सासह गई माईति विदेहे राया एमे बजे तिअ । तेणं परिच्वायगा रिउच्वेदजजुब्वेद, सामवेद अहव्वा वेदइतिहास पंचमाणं पिबाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउहेबेदाणं सारका पारगा धारका वारगा समगवीसहि विसारदा संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे बंदे णिरुते जोतिसामयणो मे बंजारा सत्येसु सुपारिणिट्टातावि हत्या तेरा परिव्वायगा दाणधम्मं च सो अधम्मं च तित्याजिसेयं च आघवेमाणा पपवेमाणा परूवेमाणा विहरंति | जंम्ह किंचि सु नवति तां उदय महिआए अपक्खालित्रं सु जवात एवं खनु अम्ह चोक्खा चोक्खापारा सुइ सइस मायाराजवेत्ता जिसे अजनपूाप्पाणो अविग्घेण सग्गं गमिस्लामो तेसिणं परिव्वायगाणं णो कप्पड़ अगमं वा झायं वा ई वा वा वा पुक्खरिणीं वा दीहियं ना गुंजाक्षि वा सरं वा सागरं वा ओगाहितर णमत्य प्राणगम णो कप्पइ सगळं वा जाव संदमाणि वा दूरहित्ताणं गच्छित्तए तेसिणं परिव्वायगाणं पो कप्पर संवाहत्यिवाउवा गोण्विामहिसं वारंवारुहितालगमित्तए तेसिणं परिव्वाय गाणंणोकप्पइनरुपेच्छा वा जाव माग येच्छाइ वा पिच्छित्तए तेसिं परिव्वायाणं णो कप्पर हरियाणं बेसणत्ता वा घ हणत्ता वा यंजणता वा लूसत्ता वा उप्पामात्ता वा करिए तेतिं परिव्वायाणं को कप्पर इत्थि कहाइ वा जसकाइ वा देसकाइ वा रायकहा : वा चोरकहाइ वा जणवयकहाइ वा अणत्यादमं करित्तए तेसिणं परिव्वायां णो कप्पर अयपायाइ वा तपायाणि वा तंवपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रूप्पपायाणि वा सुपायाणि वा मयराणि वा बहुमुखाणि वा धारित णात्य ला उपाएण वा दारूपासण वा मदिया पाएण वा तेसिणं परिव्वयाणं णो ays aणाणि वा तत्र्प्रबंधणाणि वा तत्रबंधणाणि जाव बहुमुक्षाणि धारित्तए तसिणं परिव्वायाणं पो कप्प णाणाविव परागरत्ताई वत्याई धारितए गएणत्य एकाए धानत्ताए तेसिणं परिव्वायाणं णो कप्प हारं वा अ हारं वा एकावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगाव वा रयणाव िवा सुरविं वा कंठ मुरविं वा पाल For Private आराहग वा तिसरयं वा कमित्तं वा समुदियाणंतकं वा करुवाणि वातुकियाणं वा गयाणि वा केऊराणि वा कुंरुक्षाणि वाममं वा लामा वा पिरत्तिए माष्ठात्य एकेणं तंवणं पवित्तणं तेसिणं परिव्वायाणं णो कप्पर गां मिरिम संघातिम चउन्विहे मल्ले धारितए एमत्य एकेक पुरे सिणं परिव्वायाणंणो कप्पर गलू एणा वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अझिपित्तए ए एए त्य एक्काए गंगामहित्र्याए तेसिणं परिव्वायाणं कप्पड़ मागह ए पत्यए जलस्सपरिगाहित्तए सेविवहमाणे णो चवणं अवहमाणे सेवियथामे प्रदए णो चेवणं कदमोए सेवि बहुं तो णो चेवणं अवदुपसतो सिविअपरिपुत्ते णो चेत्र णं अपरिपूते सेवि अदि णो देव णं अदि विपत्तिएको चैत्र एां हत्यपायचरुचसंपक्खा लट्टाए सिणाइताए वा तेसिणं परिव्वायाणं कप्पर मागहए अकाढए जलस्स परिग्गाहित्तए सेविय माणे णो वर्ण वहमाणे जावणो चेवणं अदिएणे सेविय इत्यपायचरुचं मासं पक्खा ए डयाइए णोचेवणं पिवश् वा तेणं परिव्वाया एया रूवेणं विहा रेण विरमाणा बहु बासाइ परियाई पाउणत्ति बहू‍ वासा पाठणित्ताकाल मासे का किच्चा टक्कासेणं बनलोए कप्पे देवत्ताए ववत्तारो जवंति तेहि तेसिं गई सागरावमावि एणता से तंचैव ॥ १२ ॥ ६ ॥ ते काणं तेणं समएणं अम्मरुस्स परिव्वायगस्स सत्त प्रवासियाइ गिम्हकालसमयसि जेट्ठामूलं मासांस गंगाए महानईए उननकुले कंपिल पुरानो गराओ पुरिमा एगारं संपडिआ विहाराए तयणं तेसिं परिव्या यगाणं तसं अगामियाए विष्णो वायाए दोहडाए अमव.ए ॥ टी० ॥ कपरुयादयः पोश परिव्राजका लोकतो ऽसया (ऋनवेदजजुवेद सामवेय अहध्ववदन्ति ) इह पाष्टबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेद सामवेदाथर्ववेदानामिति दृश्यं ( इतिहासपंचमणंति) इतिहासः पुराणमुच्यते ( निघंटुबड्डा णांत ) निघण्टो नाम कोश: ( संगोवंगाएंति ) अङ्गानि शिकादीनि उपाङ्गानि तटुक्त प्रपञ्चनपर प्रवन्धाः ( सरह स्वाणंति ) पेदम्पर्ययुक्तानामित्यर्थः ( चउ एडवेयाणंति ) व्यक्तं सारयति अध्यापम घोरेण प्रवर्त्तकाः स्मारका वा अन्येषां विस्मृतस्य स्मरणात्पारयति पर्यन्तगामिनः धारयत्ति धारयि कमाः [ रंगवीप्ति ] बरुंगविदः शिकादि विचारकाः [ सहितंत विसारयंति ] कापिलीय तन्त्रपएिकताः [ संखाणेप्ति ] संख्याने गणित स्कंधे सुपरि निष्टिता इति योगः अथ पतंगानि दर्शयन्नाह । [ सिक्खाकव्येति ] शिक्काग्रहरस्वरूप निरूपकशास्त्रं कल्पश्च तथाविध समाचार निरूपकं शास्त्रमेवोत शिक्षकल्पस्तत्र ( वागरणसि ] शब्दबाणशास्त्रे ( बन्देत्ति ) पद्यवचन लक्षणशास्त्रे ( निरूप्तेति ] शब्दनिरू तिप्रतिपादके ( जोइसामयणेति ) ज्योतिषामयने ज्योति Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाराहग अभिधानराजेन्द्रः । माराहग इशारे अन्येषुचबहुषु (भम पसुर्यात्त) ब्राह्मणकषुच बंद राहका सेसं तं चेव ॥ १५॥ व्याख्यानरूपेषु शास्त्रेषु आगमषु वावाचनान्तरे ( परिन्याए टी. भसजावाद्भावनानिः ( मित्तानिनिघसेहियत्ति) सुयनएसुत्ति ) परिव्राजकसंबन्धिषु च नया न्यायषु (सुप मिथ्यात्वे वस्तुविपर्यासे मिथ्यात्वाचा मिथ्यादर्शनाख्यकमणः रिनिम्वियायाविहोत्थत्ति) सुनिष्णाताश्चाप्य तूवमिति (मा सकाशादभिनिवेशाश्चित्तावष्टम्ना मिथ्यात्वाभिनिवेशास्तैः घवेमाणत्ति) आख्यन्तः कययन्तः (पमधेमाणत्ति ) बोध (धुमगाहमाणत्ति ) व्युग्राहयमाणा कुअहे योजयन्तः (धुयंतः (परूवेमाणत्ति ) उपपत्तिनिःस्थापयतः ( चोक्खा प्पाएमाणत्ति) व्युत्पाद्यमानाः असमायोज्ञावनास समर्थीचोक्खायारति) चोका विममदेडनेपथ्याः चोकाचाराः । कुर्वन्त इत्यर्थः (णासोश्यपमिकांतत्ति ) गुरूणां समीपे निरवद्यव्यवहाराः किमुक्तंनवतीत्याह । (सुसुई समायर अकृतामोचनास्ततो दोषादानवृत्ताश्वेत्यर्थः एतेषां च विशिष्टति) अभिस्सेयजलपुयप्पाणेत्ति) अभिषेकतो जलेन पूयति धामण्यजन्यं देवत्वं प्रत्यनीकतया जन्यं च काल्पषिकत्वं ते पवित्रित आत्मायैस्त तया अविग्धेणं विघ्नानावेन (अवरंगती हिचएमाअप्राया एव देवमध्ये नवन्तीति १५॥श्रीप० । अवटकूप ( वाचित्ति) वापीचतुरस्रजलाशयविशेषः ( पुक्क सेजेइमे समिपंचिादयतिरिक्खजोणिया पज्जत्तया रिणीवत्ति) पुष्करिणीवर्तुः स एव पुष्करयुक्तोषा (दीहि. यवत्ति) दीपिकासारणी (गुंजामियवत्ति) गुंजाहिकायक्र नवंत तं जहा जन्नयरा खहयरा थायरा तेसि जं सारणो (सरसिपत्ति) कचिदृश्यते । तत्र महत्सरः सरसी प्रत्येगइयाणं सुनेणं परिणामेणं पसत्येहिं अज्जवसास्युच्यते ( णमत्थ प्रकाण गमणे णांत ) न इतियोनिषेधः ऐहिलेसाहिं विसुज्जमाणाहिं तहावरणिज्जाणं कम्माणं सोऽन्यत्राभ्यगमनादित्वर्थः सगवत्यत्र यावत्करणादिदंरक्ष्य खोवसमइएणं इहा तह मणगवेसणं कारमाणानं (दं वा जाण वा जुगं वा गिर्छि वा थोविं वा षवहणं वा सियवेत्ति ) एतानिच प्रागिवन्यारव्ययानीति (हरियाणं सणीपुब्वे जाईसरणे समुप्पजति तएणं ते समुप्पामसेसण यावत्ति ) संश्लेषणता ( घट्टणयावत्ति) जाइसरणसमाणां सयमेव पंचाणुब्बयाई पमित्रजति संघट्टनं ( जणयावत्ति) स्तंभनमूचीकरणं ( बूसणया पमिवन्जिता बहूहि सीसव्वयगुणवरमए पञ्चक्रवाणपोपत्ति ) कचित्तत्र यूषणं हस्तादिनापनकादेः संमार्जन सहोववासाई अप्पाणं जावेमाणे बहूई वासाई आउयं (अप्पास्नयाघा) उन्मूलनं अयपायाणिवेत्यादिसूत्रं यावत् करणात् अपकसांसकरजतजातरूप काच (धर्मतिय ) वृत्त पालति पाक्षित्ता जतं पञ्चक्रांति बहूजताई अणसणाए सोह कंसमोह हारपटक रातिका मणि शहदन्त चर्म यंति २ ता पालोइय पमिकता समाहिं पत्ता काममासे चेन शस शहषिशेषितानि पात्राणि दृश्यानि (अएणयरा. कालंकिच्चा नकोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए नववत्तारो णिवा तहप्पगाराणि महद्धण मोल्लाई) शत च रश्यम्-तत्रा नवंति तेहिं तेसिं गती अट्ठारस सागरोवमाई ठिती यो होई-रजतं रूप्यं जातरूपं सुवर्ण काचः पाषाणविकार (वेतियत्ति) रूदिगम्यं वृत्तहाई त्रिकटीति यमुच्यते को पमत्ता परलोगस्त पाराहगा सेसं तंचव ॥ १६॥ स्यमोहं कांस्यमेवहारपुटकं मुक्ताशुक्तिपटकं रौतिका पित्तत्रा टी० (समी पुषजाईसरणेति) संहिनां सतां या पूर्वजाअन्यतराणिवा येषांमध्ये एकतराणि पततिरिक्तानि वा तथा तिः प्राक्तनो जवस्तस्या यस्मरण तत्तथा ॥ प्रकाराणि भोजनादिकार्यकरणसमर्थानि महत्पत्तं धनं सेजे इमे गामागरजावसभिवेसेसु अजीवकम् नवंतितंजमयं मृष्य प्रतीतं येषांतानि तथा ( अमाबुपायणंति) अमा हा घरतरिया तिघरतीरया सत्तघरंतरिया उप्पन बुपात्रात् तुबकनाजनादित्यर्थः तथाअयथंधणानि चेत्यत्र यावत् करणात् पुकबधनादीनि शबंधनान्तानि यानि ट्टिया घरसमुदाणया विजुअन्तारया उट्टिया समणा (अमायराई तदपगारामहरूणसवाई)श्त्येतबारयमिति तेण एयारू वर्ण विहारेणं विहरमाणे बहुरं वासाई पुस्तकांतरे समप्रमिदं सूत्रध्यमस्त्येवेति (णमत्थपगाए धा- परियायं पानणित्ता काममासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सरत्तापत्ति ) इह युगनिकयेति शेषो रइयः हारादीनि अच्चुए कप्पे देवत्ताए जववत्तारो जवति तेहिं तेसिंगती प्राग्वत् । औप०। वावीसं सागरोवमाई ठिती अणाराहका सेसं सं व संस्मे गामागरजाणसामवसेमु पञ्चश्या समाणाजवंति ॥१७ ।। स जे इमे गामागरजावसामवेसेसु पब्बइया तं जहा आयरियामिणीया जवज्कायपमिलीया कुन समाणा जवंति तं अनुक्कोतिया परपरिवाइया नूइकम्मिपरिणाया मणपमिणीया आयरियउवज्कायाणं अय या जुज्जो कोऊयकारका तणं एतारूवणं विहारणं सकारगा अवकारगा अकित्तिकारगा बहहिं असब्जा विहरमाणा बहूइ वासाई सामएणपरियागं पाउणंति वृन्नावणाहिं मिच्चत्तानिषिवेसेहि य अप्पाणं च पाउणित्ता तस्स गणस्स प्रणालोश्यअपमिकता कालपरं च तउन्नयंच बुग्गाहेमाणा बुपपाएमाणा विहरित्ता मासे कालंकिच्छा उकासेण अच्चुए कप्पे अजियोगिएम बहइ वासाइं सामपपरियागं पाजणंति बहुतस्स गणस्स देवेमु देवत्ताए उववत्तारो जति तेहिं तेति गई बावीसं प्रणालोइयअप्पमिकता कालमासे कालं किच्चा उक्कासणं | सागरोवमा रिती परलोगस्स अणाराहगा सेसं तं संतए कप्पे देवकिबिसिएमुदवकिचिसियत्ताए उबवत्तारो चेव ॥१०॥ नति तेहि तेसिं गतौ तेरससागरोवमाइ गिती अणा- टी.(जो तुजो(कोलगकारगत्ति) भूयो भूयः पुनः पुनः Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) भाराहग अभिधानराजेन्द्रः। भाराहग कौतुकं सोनाग्यादिनिमित्तं परेषां स्नपनादि तत्का ण तालए वहंबध परिकिसाओ पनि विरया जावजी रः कौतुककारकाः ( आनिभोगिएसुत्ति) अभियोगे आदेश वाए एकचाओ अपमिविरया एकच्चाओ राहाण महण कम्मणि नियुक्ता. अनियोगिका आदेशकारिण इत्यर्थः एतेषां च देवत्वं चारित्रादानियोगिकत्वं चात्मोत्कर्षादेरिति ॥ १० ॥ वाम विवण सद्द फरिस रस रूव गंध म मौ०॥ झाकाराओं पमिविरया जावजीवाए एकच्चाओ अपामसेजे इमेगामागरजावसभिवेससु णिएहका नवंति तंबहुरया विरया जेयावो तहप्पगारा सावज्जजोगा वहिया कम्मंता १जीवपदेसिया श्अबत्तिया ३सामुच्छिया दोकरिया ५ परपाणपरियावणकरा कच्छति ततोजावए कचाओ अतेरासीया ६ अव्वालिया ७ इच्छेते सत्त प्पवयणणिएहका पमिविरया तं समणोवासका जवंति अजिगयजीवा केवनचरिया सिंगसाममा मिच्छविहा बहहिं असन्ना- जीवाप्रो बझकु पुमपावाओ आसव संबर निजरकिबुन्नावणाहि मिच्चत्ताजिसिणिवेसेहिय अप्पाणं च परं रिया अधिकरण बंधमोक्खकुसला असहेजाओ देवाच तनयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरिता सुरणागजक्खरक्खसकिंपुरिसगरुलगंधव्यमहोरगादिएहिं बहु कासाइ सामन्मपरियागं पाउणंति कालमासे कालं- देवगणेविं निग्गयात्रो पावयणाओ अमाइक्कमणिज्जा किच्चा उक्कोसेणं नवरिमेसु गेवेजेसु देवताए उववत्तारो णिग्गंये पावयणे हिस्संकिया णिकंखिया निन्वितिअवंति तेरि तेसि गती एकत्तीसं सागरोमा विती पर । एकत्तास सागरामाश् वित। पर- गिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्चियट्ठा अनिगयट्ठा विमोगस्स अणाराहगा सेसं तं चेव ॥ १५ ॥ णिच्चियट्ठा अद्विमिंजये माणुरागत्ता अयमाउसोणिगये ॥ टी.॥ उपत्रकणञ्च तत् सक्रियावर्तिव्यापनदर्शनानाम पावयणाअटे अयं परपडे सेसे अणढे ऊसियफलिहा म्येषामपीति (पवयणनिएहयत्ति ) प्रवचनं जिनागमं निन्हुवते अपमपन्त्यन्यथा तदैकदेशस्यान्युपगमाते प्रवचननिन्हयकाः अवंगुयवारा चित्तंतेनरपरघरदारप्पवेसा चळदसट्टमुदिकेवलं (चरियालिंगसाममा मिच्छादिटुंति) मिथ्यारष्ट्रयस्ते हपुप्तामासिम्ली सु पनिपुर्ण पोसहं सम्म ऋणुपालत्ता विपरीतबोधाः नवरं चर्यया निकाटनादिक्रियया लिङ्गेन च समणणिग्गये फासुए साणज्जेणं असणपाणखाश्मसाइरजोहरणादिना सामान्यः साधुतुल्य इति ॥१५॥ मेणं वत्यपमिग्महं कंवलपायपुंजहोणं ओसहनेसजेणं से जे इमे गामागरजावसविणवेसेसु मण्या जवंति तं पमिहारएणयप ढफलहगसेज्जासंथारएणं पमिलानेमाणा जहा अप्पारंना अप्पपरिग्गहा धम्मिया घम्माणुया विहरंति विहरित्ता जत्तं पञ्चक्खंति तंबहूनत्ताई अणधम्मिट्ठा धम्मक्खाइ धम्मप्पलोइ धम्मपन्नज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणंचे व वितिं कप्पेमाणासु सीमासु व्व सणए च्छेदित्तिच्छेदित्ता आलोइयपमिकता समाहिपत्ता कालमासे कालंकिच्चा डकोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए यासु परियाणंदा साहूहिंति एकच्चाओपाणाश्वा ताओ | उववत्तारो नवंति तेहिं तेसिं गती बावीसं सागरोवमाई पमिविरया जावजीवाए एकबाओ अपमिविरया एवं | चिती आराहया सेसं तहेव ॥३०॥ जाव परिग्गहातोश एकबाओ कोहाओ मायाओ लो टी०॥ (धम्मियत्ति) धम्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्ति येते जाओ पेज्जाओ कन्नहाओ अब्जक्खाणाश्रो पेसुम्मायो धार्मिकाः कुत पतदेवमित्यत आह (धम्मिटुत्ति) धर्मश्नुतपरपरिवादाओ अरतिरतीओ मायामोसानो मिच्छादं- रूप एवेटो वचनः पूजितो वा येषान्ते धर्मेष्टाः धर्मिणांचष्टाः सणसमाओ पमिविरया जावनीवाए एकच्चाओ अप- धर्मीयाः अथवा धोऽस्ति येषान्ते धर्मिणः त पवान्येमिविरया एकचाओ आबंजसमारंजानो पमिविरआ ज्योतिशयवन्तो धम्मिष्ठा अत एव (धम्मक्खाइत्ति) धर्म मारव्यान्ति भन्यानां प्रतिपादयन्तीति धर्माख्यायिनाधमांद्वा यावज्जीवाए एकच्चाओ अपमिविरा एकच्चाओ ख्यातिः प्रसिद्धियेषान्ते धर्मख्यातयः (धम्मपक्षोश्यत्ति) करणकारावणाओं पमिविरया जावज्जीवाए एकच्चाओ धर्म प्रलोकयन्ति उपादेयतया प्रेक्षन्ते पाषएिमषु वा गवेपयणपयावणाओ पमिविरा जावज्जीवाए एकच्चाओ षयन्तीति धर्मप्रलोकिनः धम्मगवषणानन्तरं वा (धम्मपअपमिविरा एकबारो करणकारावणाओ पमिविरया सजणत्ति) धर्मे प्ररज्यन्ते आसज्यन्ते ये ते धर्मप्ररजनाः ततश्च (धर्मसमुदाचारत्ति) धर्मरूपश्चारित्रात्मकः समुजावज्जीवाए एकचाओ पयएणपयावणाओ पमिविरया दाचारः सदाचारः सप्रमोदोवाऽचारो येषान्ते धर्मसमुदाजावज्ज व.ए चेव वित्तिं कप्पेमाणा सुसीमा सुव्वया चाराः अत एव (धम्मेण चे व वित्तिकप्पेमाणत्ति) धर्मेणवसुप्पमियाएंदा साहूहिंति एकचाओ पाणाइवा ताओ चारित्राविरोधेन श्रुताविरोधेन वा पूर्ति जीषिका कल्पयन्तः पमिविरया जाज्जावाए एकच्चाओ अपमिविरया एवं कुर्वाणा विहरन्तीति योगः ( सुष्वयत्ति) सदूवृत्ताः शोभन चित्तवृत्ति वितरणा वा (सुप्पमियाणदा साहिति)Eजार परिगहातोश एकचाओ कोहाओ मायाओ प्रत्यानन्दः चित्ताहादोयेषान्ते सुप्रत्यानन्या साधुषु विषय मोनाप्रो पेज्जा प्रो कसहाओ एकच्चाओ पयागपयाव- नूतेषु अयवा ( साहित्ति ) उत्तरवाक्ये सम्बध्यते ततध पाओ अप-िविरया एकचाओ कुट्ठण पिट्टण तज्ज- साधुन्यः सकाशात् साध्वन्तिके इत्यर्थः ( पगचाओ पाणा Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४११) पाराहग अभिधानराजेन्धः । पाराहणा वाया प्रोत्ति ) एकस्मात् न सर्वस्मात् पाठान्तरे (एगश्या- सं सागरोवमा लिई आराहका सेसं तं चेव ।। आत्ति) तत्र एकक एव एककिकः तस्मादेककिकात इत टी० आवाहेति रोगादिबाधायां एगचा पुण एगे भयं दं सूत्रं प्रायः प्रागुक्तार्थ नवरं मिच्छादसणसवाात्ति इह तारोत्ति एगा असाधारणगुणत्वात्हितीया मनुजभवभाविनी मिथ्यादर्शन तज्जन्यान्यपूथिकवन्दनादिका क्रिया ततो भावतो वा अर्चा पूजायपान्ते एका_ः पुनः शब्दः पूर्वोक्तार्थाविरताः राजाभियोगादिभिस्त्वाकारैरविरता इति ॥२०॥ उपेक्वया मुत्तरवाक्यार्थस्य विशेषद्योतनार्थः। एके केवलज्ञान एवं सामान्यनोक्तानां मनुष्याणां विशेषनिर्देशार्थमाह । भाजनेन्यो अपरे (भयंत्तारोत्ति) भक्तारो अनुष्ठानविशेषस्य (तंजहत्ति) एते इत्यर्थः (सेजहानामएत्ति ) क्वचित्तत्राप्य सेवयितारो भयत्रातारो वा अनुस्वारस्त्वसावणिकः (पुव्वकयमेवार्यः॥ म्भावसेसेण ) कीणावशेषकर्माणो देवतयोत्पत्तारो से जे इमे गामागरजावतारीणवेमु मणश्रा नवंति भवन्तीति योगः ॥ तंजहा अणारंजा अपरिग्गहा धाम्भया नाव कप्पमाणा आराहण-आराधन-श्रा राध-ल्युट्-श्रा सामस्त्येन राध्यते सुतीलासुब्बता सुपमियाणंदा साहु सन्याओ पाणावा- साध्यते पर्यन्तक्रियाऽनेनेत्याराधनमन इ.नम् अनशने,संस्ता. यातो पमिविरया जाव सव्वाअो परिग्गहाओपमिवरया आराहणपमागा-राधनपताका- स्त्री० श्राराधनरूपपता समाओ डाओ माणाओ मायाओ लोजाम्रो जाव कायाम् दण् प०॥ संसाररगमज्के, विश्वन वञ्चसाय वद्धकवाओ ॥ हेतूण मिच्छादसणसल्लायो पमिविरया सव्वाओ आरंजसमा मोहमवं, हराहि आराहणपमागं ॥ २ए ॥ द० प०। रंजाओ पमिविरया सव्वाअो करणकारावणाओ पामिति चतारियकसाप,तिन्निगारवे पंच इदियम्गामे। हंता परीसहस स्या सव्याओ पयणपयावणाश्रो पमि.विरया सव्वाओ मूहे, राहि आराहणपमाग ॥३४॥ कट्टणीपट्टातजणतान्त्रणवन्नबंधपरिकिसानो पमिति आराहणय-आराधनक-पुं० संस्तारके, संस्ता०॥ रया सयाओ एहाण मद्दण वएणक विजेवण सद्दफरिस आराहणया-आराधनता स्त्री० संस्तारके, एस किनाराहणया रस रूवगंध माझंकाराओं पमिविरया जेतावरणे तह आसामस्त्येन राध्यते साध्यते पय॑न्तक्रियाऽनेनेत्याराधनमन शनम् तस्य भाव आराधनता आराधनमेव वा आराधनका प्पगारा सावजजोगे वहिया कम्मत्ता परया गपरियावण स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादाराधनका अयमर्थः एष संस्तारक करा कजत्ति ततो विपमिविरया जावज्जीव ए से जहाणा आराधनता आराधनका वा चारित्रधर्मात्यापनकल्पा शति मए अणगारा नवंति। इरियासमिया नासासामया जावइ- सस्ता०॥ णमेव णिगंयं पावयणं पुरओ काउंविहरति तेसिजगवं आराहणा-आराधना-स्त्री० आ राध णिच् युस् स्त्रीवाट्टाए ताणं एतेणं पिहारेणं विहरमाणाणं अत्येगश्याणं अणते सेवायाम, वाच० । पासनायाम, पंचा. वृ.७ ॥ मोकसुख साधनोपाये, दर्श० ॥ आराधनमाराधना झानादिवस्तुनोऽनुजाव केवावरणागदसणे समुप्पज्जात । ते बहुई वासा बवर्तित्वम् निरतिचारज्ञानाद्यासवायाम् स्था० ग. २ ई केवनिपरियागं पानणते । पाजाणत्ता जत्तपञ्चक्खति आराधना झानादिगुणानां विशेषतः पालनेति. औप०(आराजत्तं बहूइंजत्ताई अणसणाई बदइश्त्ता जस्सद्वाए हणागुणाणं) आराधनाऽखएमनिप्पादना गुणानामिति ध० कीरइ णग्गजावे जाव अंतं करांत जेसि पियणं एग या अधि. ३ ( अपत्रिममारणतिय संघहणा जोसणाराहणाय) प्रारंधिनाऽख एमकालस्य करणमित्यर्थः । श्राव। उत्तमार्थ णं णो केवलवरदंसणे समुप्पज ते बहई वासाई उउ प्रतिपत्ती आतु। चरमका निर्यापणे, च आराधना चरममत्यपरियागं पान २ आवाहे नप्पएणे वा अणुप्पएणे काले निर्यापणरूपेति । का० । दश ० अ. १० ॥ वा जत्तं पञ्चकवति ते बहई जताई अणमणाए दे सा च विविधा तथा च स्थानाङ्गे २ वा. ता जस्सट्ठीए कीरए गगनावे जाव अंतं करेइ जति दुविहा आराहणा प० तं० । धम्मियाराहण चेव पियाणं एगइयाणं णो केववरदंसणे समुप्पज्जा । ते केवानिाराहणा चेव धम्मियाराहण दुविहा प० वह वासाई उउमत्यपरियागं पाओ २ आबाहे नप्प तंजहा सुयधम्माराहण चेव चरित्तधम्माराहणा चेव एणे वा अणुप्पएणे वाजत्तं पञ्चक्खति । ते बहूई नत्ताई केवलिआराहण दुविहा पन्नता । तंजहा अंतकिरिया श्रणसणाए दे ५ त्ता जस्सटिए करिए णग्गजाको चेव कप्पविमाण ववत्तिया चेव ॥ जाव तमट्ठमारा हित्ता चरिमहिं उस्तासणसासहिं टी विहेत्यादि ॥ सूत्रं कण्ठ्यं नवरं । आराधनमाराधना झानादिवस्तुनोऽनुकत्रवर्तित्वं निरतिचारज्ञानाद्यासेवेति याअणतं अत्तरं निवाघायं निरावरणं कारणं पमिपुरणं वत् धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धाम्मिकाः साधवस्ते केवावरणणदसणं नप्पामिति तओपच्चा सिजका जाव षामियं धार्मिमकी सा चासावाराधना चेति निरतिचारज्ञानाअंतंकरोहित्ति एकच्चा पुण एकेनयं तासे पुचकम्मावसे दिपालना धार्मिमकाराधना केवबिनां श्रुतावधि मनःपर्याय सेणं कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सव्वट्ठसिके | केवलज्ञानिना मियं कैवक्षिकी सा चासावाराधना चेति कैव सिकाराधनेति । सुयधम्मेत्यादौ विषयजेदेनाराधनाभेद नक्तः महाविमाण देवताए नववत्तारोनवति तेहिंतसिं गई तेती केवलिआराहणेत्यादौ तु फनभेदेनेति तत्र अंतो जवांत स्तस्य Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१२) श्राराहणा अभिधानराजेन्डः । भागहणा क्रिया अंत क्रिया नवच्छेद इत्यर्थस्तकेतुयाऽराधना शैक्षशिरूपा | टी० ।। उत्कृष्टज्ञानचारित्राराधना संयोगसूत्रे तत्तर यस्योसा अंतक्रियेत्युपचारात् एषा च कायिकहानिकेवकिनामेव त्कृष्टा ज्ञानाराधना तस्य चारित्राराधना उत्कृष्टा मध्यमा वा भवति । तया कपषु देवलोके न तु ज्योतिश्वारे विमानानि स्यात् उत्कृष्टकानाराधनावता हि चारित्रं प्रति मालपतमप्रयदेवा वासविशेषा अथवा कल्पाश्च सोधमादयो विमानानि नता स्यात्तत्स्वन्नावत्वात्तरयति । उत्कृष्टचारित्रागधनायतस्तु च तदुपरिवर्ति प्रयकादीनि कल्पविमानानि तेषु उपपत्ति- कानं प्रति प्रयत्नत्रयमपि भजनया स्यात्, एतदेवातिदेशत रुपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानापपातिका आह जहा उक्कोसिए इत्यादि ।। कानाचाराधना एषा च श्रुतकवल्यादीनां भवतीति एवं फला जस्लणं नंते ! उक्कोसिया दमणराहा तस्मुक्कोसिया चेयमनंतरफारेणोक्ता परंपरया तु भवांतक्रियानुपातिन्येवेति॥ चरित्ताराहण जस्सुक्को सया चरिताराहण तस्सुकोत्रिविधापि भगवत्याम् यथा न. श०७०१० सिया दंसराहण गोयमा ! जस्स कोसिया दंसकाविहाणं जंते ! आराहणा पामत्ता ? गोयमा ! | पराहण तस्स चरित्ताराहणा कोसा वा जहाण तिविहा आराहणा पएणता तंजहा नाणाराहणा ? वा अजहएणमणुकोसा वा जस्स पुण उक्कोसिया चारदसणाराहणाश्चरित्ताराहणा३ नाणाराहाणणं जंते! ताराहण तस्त दसणराहण नियमं नकोसा। कइविहा पहाता ? तिविहा पहात्ता जहा- नकोसिया ॥ी॥ उस्कृष्टदर्शनचारित्राराधना संयोगसूत्रेत्तरं ॥ मझिमा जहाणा दसणाराहणाणं जंते ! काविहा? एवं (जस्सुक्कोसियादसणाराहणेत्यादि )॥ यस्यात्कृधा दर्शना राधना तस्य चारित्राराधना त्रिविधापि भजनया स्यात्कष्ट द. चेव तिविहावि एवं चरिताराहणावि ॥ र्शनाराधनावतो हि चारित्रं प्रति प्रयत्नस्य त्रिविधस्याऽप्यटी0 आराधना निरतिचारतयानुपासना तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकार विरुरूत्वादिति ॥ उत्कृष्टायां तु चारित्राराधनायामुत्कृष्टैव द. श्रुतं वा तस्याराधना कानाडुपवारकरणं दर्शनं सम्यक्त्वं र्शनाराधना प्रकृष्टचारित्रस्य प्रकृष्टदर्शनानुगतत्त्वादिति॥ तस्याराधना निशंकितत्वादि तदाचारानुपासनं चारित्रं अथाराधनानेदानां फलदर्शनायाह.ज. श००३०१० सामायिकादि तदाराधना निरतिचारता ( उक्कोसियत्ति । - जक्कासयं णं ते । नाणराहणं आराहेत्ता कशहिं स्कर्षा ज्ञानारराधना ज्ञानकृत्यानुष्ठानेषु प्रकृष्टप्रयत्नता मज्झिमत्ति नवग्गहणेहि सिज्जइ जाव अंतं करेगोयमा अत्येगइए तेष्वेव मध्यमप्रयत्नता जहमत्ति। तेष्वेवाल्पतमप्रयत्नता । एवं दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति ॥ स्था० ० ३ ॥ तेणेव जवग्गहणेणं सिज्ज जाव अंतं करेइ अत्येगइए झानस्य श्रुतस्याराधना कानाध्ययनादिप्यष्टसु आचारेषु प्र- दोचेणं जवग्गहणेणं सिज्मइ जाव अंतं करेइ अत्यगइए वृत्त्या निरतिचारपरिपालना ज्ञानाराधना एवं दर्शनस्य निःश- कप्पोवएसु वा कप्पातीतएसु वा उववजइ, उक्कोसिया डितादिषु चारित्रस्य समितिगुप्तिषु सा चोत्कृष्टादिभेदाभाव | दात्काभेदाति ज्ञानादिप्रतिपतनलकणः ॥ णं जंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता कहिं नवग्गहणहिं अयोकाराधनाभेदानामेव परस्परोपनिबन्धमभिधातुमाह। एवं चेत्र । उक्कोसियं णं नंते ! चरित्ताराहणं आराहेभ००१०१० त्ता एवं चेव, णवरं अत्यगइए कप्पातीत एमु नववज्जा जस्तणं ते! नकोसिया नाणराहण तस्स उक्कोसिया | टी०॥ तेणेव नवम्गहणणं सिजति ॥ उत्कृष्टां हानारादंसणराहण जस्स उक्कोसिया दंसणराहण तस्स धनामाराध्य तेनैव जवग्रहणेन सिम्त्युत्कृष्टचारधाराधनायाः उकोसिया नाणराहण गायमा ! जस्स उक्कोसिया णण सझाव कप्पोवपमुवत्ति ॥ कल्पोपगेषु संधिमादिदेवको कोपगेषु देवेषु मध्ये उपपद्यत मध्यमचारेबाराधनासराहण तस्त दनणराहण उकोसा वा अजहन्नुकोसा जावे । कप तीएसुवत्ति ॥ प्रेवयकादिदेवेषूपपद्यते मध्यमाबाजस्त पुण उक्कोसिया दंतणराहण तस्त नाणराहण स्कृष्टचारित्राराधनासनाव इति ॥ तथा उक्कोसिय ण उकोसा वा जहएण वा अजहएण मणुक्कोसा वा ॥ भंते ! दसणाराहणमित्यादी एवंचवत्ति करणातणव भवग्ग॥ टी॥ जस्स णमित्यादि ।। अजहमुक्कोसावत्ति ॥ ज बन्या हणेमं सिळईत्यादि दृश्यं तवसिम्यादि च तस्यां स्थाचाचासायुत्कर्षा चोत्कृष्टा जघन्योत्कर्षा तनिषेधादजघन्योत्कर्षा रिचाराधनायास्तत्रोत्कृष्टाया मध्यमायाश्चोक्तत्वादिति ॥ तथा मध्यमेत्यर्थः । उत्कृष्टज्ञानाराधनावतोह्याद्ये हे दर्शनाराधने लक्कोसियं णनंते! चारित्ताराहणमित्यादि एवंचव तिकरणाजवतो न पुनस्तृतीया तथा स्वभावत्वात्तस्येति ॥ जस्स पुणे- तणेव भवग्गहणणमित्यादि दृश्यं केवलं तत्र अत्थगए त्यादि। उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि ज्ञान प्रति त्रिप्रकारस्यापि कप्पोवगेसु बेत्यभिहितमिह तु तन्नवाच्यमुक्कृष्टचारित्राराधप्रयत्नस्य सम्नवोऽस्तीति त्रिप्रकारापि तदाराधना नजनया नावतः सौधर्मादिकल्पेष्वगमनाघाच्यं पुनः अस्थगए कप्पाजवतीति ॥ तीतपसु उववजाति, सिकिंगमनाभावे तस्यानुत्तरसुरेषु जस्तणं नंते । उकोसिया नाणाराहणा तस्स नको- गमनादेतदेव दर्शयतोक्तं ॥ सिया चरित्ताराहणा जस्स उक्कासिया चरित्ताराहणा मजिकमियं नंत! नाणराहणं आराहेत्ता काहिं तस्सुकोलिया नाणाराहणा१ जहा उक्कोसिया नाणारा- जवग्गहणेहिं सिक जाव अंतं करेइ गोयमा ! अत्येहणा य दंसणाराहणा य जणिया तहा नकोसिया गए दोच्चे णं नवग्गहणणं सिकश जाव अंतं कोइ तवं माणाराहणा य चरिताराहणा य जाणियव्या।। पुण जग्गहणं णइकमइ । मकिमियं णते।दसणा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१३) भाराहणा अभिधानराजेन्द्रः। आराहणा राहणं आराहेत्ता एवं चेव एवं मकिमियं चरिचा- टी॥ तस्मादकमपि श्लोक पंचपरमेष्टि नमस्कारा दिम्पं राहणं पि॥ यः पुमान् मरणदेशकाले आराधनोपयुक्तः सन् चिंतयति टी०॥ नवरमित्यादि ॥ मध्यमझानाराधना सूत्रे मध्यमत्वं सतं चितयन् स्मरनाराधको प्रयति ॥ ७४॥ अयाराधकस्य किम्फसमित्याह आतु। कानाराधनाया अधिकृत नवएव निर्वाणजवेपुनरुत्कृष्टत्वमवश्यं आगहणोवनत्तो, सम्मं काजण मुविहिओ कालं ॥ भावीत्यवसयं निर्वाणाऽन्यथानुपपत्तेरिति । दोश्चेणंति ।। अधिकृतमनुष्यभवापेक्वया द्वितीयेन मनुष्य नवेन ॥ तचं पुण नकोस तिबिजो, गंतणं लाइ निवाणं ।। ७५ ॥ प्रधम्गहणति ॥ अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं म- टी० ॥ आराधनाया उत्तमार्यप्रतिपत्त्या आराधनायां षा नुष्य नदग्रहणं ॥ उपयुक्त उद्यतः सावधान इत्यर्थः कालं मरणं कृत्वा सुविहितः जहरिणयं पंजते ! नाणराहणं पाराहेत्ता कहिं सुसाधुः सम्यग शुद्धनावनोत्कृष्टत उतधाराधनाथहीन नवग्गहणेहि सिक जाव अंतं करे गोयमा ! अत्ये- भवान् गत्वा अमते निर्माणं मोकमित्यर्थः । यदि परमसमाधि ना का करोति ततस्तृतीये भवेऽवश्यं सिरुस्तीति भावः। गइए तच्चे जवाहणेणं तिज जाव अंतं करे अत्राह शिष्यः । ग्रंथांतरे उत्कृष्टतो निरंतरमष्टभवाराधनया सद्वत्तजवग्गहणई पुण नाइक्कमइ एवं दसणाराहणं पि। जघन्यतस्त्रिकनवाराधनयापिसिभ्यतीत्युक्तं अत्र तु तृतीयन एवं चरित्ताराहणं पि॥ सिध्यतीति तदेतनाप्युत्कृष्ठं नापि जघन्यं ततश्च कथ न विरोधः पताश्च चारित्राराधमा संवनिता ज्ञानाद्याराधना श्ह विव. उच्यते यदेकेननवे नसिद्ध्यतीत्युक्तंतजऋषभनाराच संहन किताः कयमन्यथा जघन्यज्ञानाराधनामाश्रित्य वक्ष्यति सत्त. नमाथित्य एतच्च संवात्तसंहनन मंगीकृत्योच्यते सेवार्तसंहन हुनवग्गणापुण णाश्वमत्ति ॥ यतश्चारित्राराधनाया पवेद नोहि यद्यत्कृष्टाराधन करोति ततस्तृतीयेनवे सिद्धधतितकफबमुक्तं यदाह अजवाग्वचरित्तत्तिा भ्रतसम्य स्वदेश टशब्दश्चात्रातिशयार्थः । आराधनाविशेषणं च षष्टव्यः । नतु विरतिभवास्त्वसङ्घया उक्तास्ततधरणाराधनारहितहानद- भवानगीकृत्य जवांगीकरणे पुनरुत्कृष्टतोष्टनिरेष न्यः सेर्शनाराधना असायनविका अपि जवन्ति गत्वमविका वात्तसंहननः सिध्यतीति न विरोधः ॥ ७५॥ एवेति । तथाच व्यवहारकल्पे (आराहणा तिविहा उक्कासा आराधनानिमुखस्य फलम् । पा०॥ मज्कमा जहमाउ॥एगगतिगज हुन्नं दुतीगठभवानक्कोसा) जय इमं गुणरयण, सायरमविराहिऊण तिएणसंसारा। माराधना त्रिविधा उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च । तत्रोत्कृष्टा ते मंगलं करित्ता, अहमवि आराहणालिमुहो ॥२॥ राधनायाः फलमेको भवः मध्यमाया द्वौनवी जघन्यायालयो टी०॥ तया ( जेय इम इति ) ये महामुनयश्वशब्दो प्रवाः यदितवमी कानावस्तदा उत्कृष्टाराधनायाः फ जघन्य मंगलांतरसमुच्चयार्थः । श्मं जैनशासनप्रसिद्धं ( गुणसंसरणं द्वौ भवौ मभ्यमायास्त्रयो जवा जघन्याया अष्टौ नवाः रयणसायरंति) गुणा महाव्रताश्यस्त एवरत्नानि विशिष्टफ॥ द०प० म. प.ए । दसणनाणचरितं तव य आराहणा सहेतृत्वात्सर्ववस्तुसारत्याच गुणरत्नानि तान्येव बहुत्वात्साचलखंधा । सब्वे च हो तिविहा उक्कोसामज्मि जहन्ना ३७ गर श्च सागरः समुझो गुणरत्नसागरः तं किमित्याह । माराहे उणविक उक्कोसाराहणं चउक्खधं । कम्मरविप्प अविराध्य अखसमनुपाल्य तीर्णसंसारालंधितनवोदधयो मुक्को तेणेच भावेण सिफिज्जा ३७ आराहेऊणविक जहन्न जातास्तान्परमात्मनो मंगलं कृत्वा शुनमनोवाकायगोचर माराहणाचलक्खंधा। सत्तटुभवम्हणे परिणामेकण सिज्जिा समानीयेत्ययः। अहमाप न केवामुक्तन्यायेनाराधकत्वाते ३०॥ तीर्मजवाभवाः। किंत्वहमाप संसारार्णवसंघनार्थमेवाराधजणइ य तिीवहा जणिया, सुविहिय आराःण जिणिं नायास्संपूर्ममोकमार्गानुपाबनाया अनिमुखः संमुखः कृत. देहिं । सम्मत्तमिय पढमा, नाणचरितहिं दोअएण॥१५॥ नयतश्यर्थः ॥ आराधनाभिमुखः संजातइति ।। सहगा पत्तियगा, रोयगा जस्स वीरवयणस्स । समस आधाकम्मादितुजानस्य नालोचयताप्रतिक्रामतश्च नास्त्या राधना ।। सरंता, दंगणाराहण हुन्ति ॥१६॥ मम्मरसमावन्ने य तथाच दर्शनशुद्धी दर्श॥ गविहे हे मस्सिएचेव । एएसुविहे जावे, आणाए सह मुंजा आहाकम्मं, समं नय जो पमिकमा सको। हे नि १७ धम्माधम्मागास, दुग्गा जे जीवमाच्छका- सव्वजिणणावमुहस्स तस्स राहणा नत्थि॥ यंच । आणइ सहकहतां, सम्मत्ताराहगा नणिया १७ टुक्तऽज्यवहरति बोल्यादापग्निपतितो वा प्राधाकर्म उपलकआराधनामधिकृत्य महाप्रत्याख्याने. द० प० दियसहसो- णत्वात् कीतान्याहूताद्याप सम्यक्नच नैव प्रतिक्रामति मयेदछलन, धोरपरीसहपराश्यपराज्जा । अकयपरिकम्मकीवो, मनुचितमाचरितमिति सम्यग्भाधेनेत्यर्थः यः सुब्धो बोनवान् सुज्जर आराहणाकाक्षे ।। ९३ ॥ सुज्जरं मुक्करकारी, जाणई तस्य किं नास्ति न विद्यते साराधना मोइसुखसाधनोपायो मयति पावए कित्ति । विणिगृहितो निंदई, तम्हा पाराहणा यदर्थ गहानिकांत इत्यर्थः । कथं नूतस्य सर्वजिनाझाविमुखसेया ॥ ॥द०प० चश्कण कसाए दिए य सावयगार स्य ॥१०॥ बेइंतु तोसलिय रागदोसो करेद आराहादणा सुम्॥ि४४॥ श्रामोअणमाबुचण, विमीकरणं च जावसोहीअ॥ आराधनोपयुक्तस्य फलम् यथा. आतु। श्रामोइम, श्राराहण अणलोइए जयणा ॥१५॥ एप सिसोग जो, पुरिसा मरणदसकालाम । अघोकनं आयुचन विकटीकरणं चभावयद्धिश्च यहकान्धिान प्राराहणावनुत्ता, विततो पाराहगो होइ॥ ७॥ पुणमाक्षःकार स्वस्यारामस्य सदाधिसंध्यमवलोकनं करोतिकि Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०४ ) अभिधानराजेन्द्रः । आराहणा कुसुमानि संत्युक्त नेति दृष्ट्वा तेषामाकुंचनं करोति ग्रहणमित्यथैः ततोविकटीकरणं विकसितमुकुलितार्द्धमुकुलितानां भेदनं विभजनमित्यर्थः च शब्दात् पश्चात् ग्रंयनं करोति ततो ग्राहका गृह्णति ततोऽस्यानिलषितार्थलाभो नवति भावश्वि वित्तप्रसादलक्षणा श्रस्या एव विवचितत्वात् अन्यस्तु विपरी तकारी मालाकारस्तस्य न भवति एवं साधुरपि कृतोपधिप्रत्युप्रे कृणादिव्यापारा उच्चारादिभूमिप्रत्युपेक्ष्या घातविरहितः कायोत्सर्गस्थोऽनुप्रेकते सूत्रं गुरौ तु स्थिते दैवसिकावश्यकस्य मुखवस्त्रकाप्रत्युप्रेकृणादेः कायोत्सर्ग तस्यावलोकनं करोति पश्चादाकुंचनं स्पष्टबुरुधाऽपराधग्रहणं ततो विकटीकरणं गुरुनघूनामपराधानां विनंजनं च शब्दादालेोचनं प्रतिसेवनानुलोमेन प्रथनं ततो यथाक्रमं गुरोर्निवेदनं करति एवं कुर्वतः प्रावरुपजायते । औदयिकभावात् कायाप शमिकप्राप्तिरित्यर्थः । इत्थमुक्तेन प्रकारेणालेोचिते गुरोरपराध जाले निवेदिते आराधना मोकमार्गाखंमना जवति कनालो चिते अनिवेदिते भजना विकल्पना कदाचिद्रवति, कदाचिन्न जवति तत्रेत्थ नवति । आलोयणापरियो, समं समुवट्टि गुरुसगासं । जइ अंतराय कालं, करेज्ज राहयो तहवि | १ | एवं तु न जवति इड्डी, एगारवेणं ब्याहुसुयमरणावाि चरियं । जो न कहे गुरूणं नहु सो आराहा जाण ओति ।। गायार्थः । आव. ।। आहाकम्मं अणवज्जेत्ति मगं पहारेता जवइ सेणं तस्स गणस्स अणालोश्यपमिकते कालं करंइ नात्य तरस आराहणा सेणं तस्स गणस्स आलोइयप किंते का करेइ अत्तिस्त आराहणा एएणं गमण नेयवं कवि र कतारनत्तं पुब्जिक्खन तं वदलियाजतं गिनायनत्तं सेज्जायपि मं राय पिकं आहाकम्पंअणवज्जेति बहुजगमज्जे जासित्ता सयमेव परिभुंजित्ता जब सेणं तस्स वास्स जान प्रत्थि तस्स आराहणा एपि तह चैव जाव रायपिंगं आहाकम्मं अणवज्जेत मस्त अणुपदावेत्ता जवइ सेगं तस्स एवं तह चैव जाव रायपिमं आहाकम्मं णं प्रणवज्जेति बहुजणमज्जे पावसा जवइ सेणं तस्स जाव अस्थि आराहा जाव रायपिं । ज० श० ६ उ० ॥ ( अणवज्जेति ) अनवद्यमिति निर्दोषमिति ॥ मणं पहातिति ॥ मानसं प्रधारयिता स्थापयिता भवति । रध्यगति । मोदकचर्णादि पुनर्मेोदकादितया रचितमौदेशिक भेदरूपं ( कतार संत ) । कान्तारमरएयं तत्र निक्कुकाणां निर्वाहाथ यद्विहितं भक्तं तत्कान्तारनक्तं एवमन्यान्यपि नवरं, वार्दलिका मेघदुर्दिन । ( गिल. णभत्तंति ) ज्ञानस्य नीरोगतार्थ किकदानाय यत्कृतं नक्तं तत् ज्ञानभक्तं अधाकमदीनां सदोषत्वनागमेऽभिहितानां निर्दोषताकल्पनं तत ५व स्वयं जोजनमन्यसाधुभ्यो ऽनुपदापनं समयां निर्दोषताजानञ्च विपरीतश्रद्धानादिरूपत्वान्मिथ्यात्वादि, ततश्च ज्ञानादीनां विराधना स्फुटेवेति ॥ For Private राहणा निग्गंयेण य गाहाइकुलं पिकवायप कियाए पविद्वेषां अरे का परिने वए तस्स एं एवं जव इहेव ताव अहं एयस द्वाणस्स झोएम परिकमा मि निंदामि गरिहामि विहामि विसोहामि प्रकरणयाए, अन्नुमिहारिहं पायच्छित्त तवोकम्मं परिवज्जामि ओपच्छा पेराणं अंतियं श्रालोएस्सामि । जाव तवोकम्मं परिवज्जिस्तामि से यसपट्ठिए असंपत्ते पेराय पुन्वामेव मुहा सिया । से ण ! किं आराह‍ विराहए ? गोयम ( ! राहए नोविराहए से य संपट्टिए संपत्ते अपणाय पुव्वामेव अमुहे सिया से एांनंते ! किं आराहए विराहए गोयमा ! आराहए नो विराहए से य संपडिए असंपत्ते येराय कालं करेज्जा से अंते ! किं राहए विराहए गोयमा ! आराहए नोविराहए से य संपट्टिए असपत्त य अप्पणाय पुव्वामेव कालं करेज्जा सेणं ते! किं राहए विराहए गोमा ! आहए नो विराहए से य संपट्टिए संपत्ते राय मुहा सिया सेण जंते! किं आराहए विराहए गोयमा • आराहए नोराह से य संपट्टिए असंपत्ते अपणाय एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा जाणियव्त्रा । जव असंपत्तेयं निग्गंथेण यवहियारभूमिं वा विहारजनि वा नि. खंतेगं मायरे किंचट्ठाणे पार्कविए तस्स एवं जब देव ताव अहं एवं एत्यवि ते व आजावा जाणियव्त्रा जाव नो विराहए। निगं य गामा गामं दइज्जमा अयरे किचाणं परितेविए तस्स णं एवं जव इहेव ताव एत्यवि ते चेत्र अड्डा जायिव्त्रा जाव नो विराहए । निग्गयाए माहाकुलं । पिंश्वा यप. मयाए अणुप्पविद्वाए अरे । अचिठाणे परितेविए तीसेणं एवं जव देव ताव अहं एयस्त ठाणस्त आलोएमि जाव तवोकम्मं परिवजामि तम्रो पच्छा पवित्तणीए नोएस्सामि जाव परिवज्जिस्तामि सा य संपत्ता पवित्तीय मुहालिया साणं राहिया विराहिया ? गोयमा ! राहिया विहिया साय संपड़िया जहा सिग्गं यस्स तिथि गमा जगिया एवं निगयोए त्रि तिमि आलावगा जारिया जाव राहिया नो विराहिया । से केलट्टेणं ते ! एवं बुच्च आराहए नो । वराहए ? गोयमा ! से जहा नाम ए केइ पुरिसे एग महं उष्पालोमं वा गयलोमं वा सोमं वा कप्पासोमं वा तस्यं वा उहा वा ति वा संखेज्जहा वा विदित्ता अगणिकार्यसि पक्खिवेज्जा से गोमा ब्रिज्जमा छिमे पक्खिप्पमापं संपट्टिया ते ! किं Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहणा अभिधानराजेन्द्रः। पाराहियसंजम पक्खिने दफमाण दद्वेत्ति वत्तव्यं सिया हंता जगवं ! आराहणाय मरणं तित्ति आराहणाए ) मरणकासे योगाः चिजमागे जिससे जाव दहात्त वत्तव्वं तिया सजहानाम ए संगृह्यन्ते तत्रोदाहरणं प्रति गायापश्चा:माह भाराहणार केइ पुरिले वत्यं अहतं धोयं वा तं ग्गयं वा मंजिट्टदो मरुदेवा ओसप्पणिए पढमसिका ॥ आसीत्पुर्या विनीतायां, नूपतिर्भरतेश्वरः॥ पीए पक्खिवेजा से गुण गोयमा ! मवि वप्पमाणे श्रुत्वा विभूषितं तं च, मरुदेवाऽज्यधादिदं ॥१॥ नक्खित्ते पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते रज्जमाणे रत्तेत्ति वत्तव्वं त्वत्पितापीही त्यक्त्वा, विनूषामेककोऽनुमत् ॥ सिया हंता जगवं ! नवित्तमाणे उक्खत्ते जाव रत्तेत्ति उवाच जरतः क्वासौ, भूतिम तस्य यादृशी ॥२॥ वत्तव्वं सिया से ते गडेणं गोयमा! एवं बुच्चा आराहए चेन्न प्रत्योषि तद्यामो, निर्ययौ भरतेश्वरः ॥ मरुदेवीं करिस्कंधे, ऽधिरोप्य प्रचसनिधौ ॥३॥ नो विराहए || न० श० ७ उ । श्रुत्वा समवसरणे, देवेन्योस्याः स्तवं मनोः॥ निग्रन्थप्रस्तावादिदमाह ॥ आनंदान:शा नीलो, गतोऽपश्यरप्रनोः श्रियं ॥४॥ निग्गयं चणमित्यादि ॥ इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य घटना चैवं अयाचे भरतो मातः पुत्रनूषा विलोकिता॥ निर्ग्रन्थं कनियिाम्पातप्रतिझ्या प्रविष्ट पिएमादिनेोपनिम कुतो ममेशी साय, चिंतयंतीप्रमोदतः॥५॥ न्त्रयेत् तेन च निर्ग्रन्थेन पुनः ॥ अकिञ्चट्टाणेति॥ कृतस्य कर- विवेशापूवकरणं, जातिस्मृतिरनूननु ॥ णस्य स्थानमाश्रयः कृत्यस्थानं तनिषेधोऽकृत्यस्यानं मूगुणा वनस्पते यदुवृत्ता, करिस्कंधजुषोऽप्यथ ॥६॥ दिप्रतिसवारूपोऽकायविशेषः (तस्स पंति) तस्य निग्रथ उत्पन्नं केवलं मनु, प्राप प्रथमसिहतां ॥ स्य संजातानुतापस्यवं नवति एवं प्रकारं मनोभवति पयस्स ईदृगाराधनायोगा, जायते योगसंग्रहः॥ ७॥ आ 0 कया। गणस्सत्ति) विनक्तिपरिणामादेतत् स्थानमनन्तरासबितमा. मोकाराधनहेतुत्वादाराधना. आवश्यके. आवश्यकस्यैका सोचयामि स्थापनाचार्यनिवदनेन प्रतिक्रमामि मिथ्या दुष्कृत- र्थिकान्यधिकृत्य (नाओ आराहणामग्गो) अनु०॥ दानेन निन्दामि स्वसमकं स्वस्याकृत्यस्थानस्य वा कुत्सनन आराहणालिमुह-आराधनाजिमुख- त्रि० आराधनाया गहें गुरुत्तम कुत्सनेन (विटामिति) वित्रोटयामि सदबन्ध सम्पूर्ण मोकमार्गानुपासनाया अभिमुखः सम्मुखः कृतोद्यम सिनन्धि विशोधयामि प्रायश्चिताज्यपगमेन अकरणतयाऽकर श्त्यर्थः आराधनायां कृतोद्यमे. पा॥ णेनान्युत्तिष्ठाम्यज्युद्यतो भधामीति ( अहारिहंति ) यथाई अराहणी-आराधनी-खी०आराध्यतेपरलोकापीम्या यथावद योचितमेतञ्च गीतार्थतायामेव जवति नान्यया (तियति) समीपं गत शति शेषः (थेराय अमुहा सियत्ति ) स्थविराः | भिधीयते वस्त्वनयत्याराधनी. द्रव्य नावभाषानेदे ( आराह पुनरमुखानिर्वाचः स्युर्वातादिदोषात्ततश्च तस्याःोचनादिप. जीओदव्वे सच मोसाविराहणी होर) दश० अ०७॥ रिणामे सत्यपि नालोचनादिसम्पद्यत इत्यतः प्रश्नयति। आराहणावत्त-आराधनोपयुक्त-त्रि० आराधनया उत्तमा (सेणमित्यादि) आराहपत्ति मोकमागऽस्याराधकः शुद्धश्त्यर्थ प्रतिपत्त्या आराधनायां वा उपयुक्त उद्यतः सावधान आरा मावस्य शरुत्वाङ्गवति चालोचनागरिणता सत्यां कयश्चित्त धनोपयुक्तः आराधनयोपयुक्ते. आराधनायामुपयुक्ते च (आ दप्राप्तावप्याराधकत्वं यत उक्तं । मरणमाश्रित्य आखायणापरिण राहणोवउत्ते विततो भाराहगो हो३) आतु०॥ भोसम्म सपट्टिओ गुरुसगासे ॥ जर मर अंतराविय तहा पाराहिता-आराध्य अव्य ० सेवनं कृत्वत्यर्थे, ( पाराविशात्त भावाओत्ति ॥ १॥ स्यविरात्मभेदे न चह है हिता आणाए अनुपासश्त्ता) आराध्य ययोक्तोत्सर्गापवा भमुखसूत्र के कागतसूत्रे इत्यवं चत्वारि सम्प्राप्तसत्राणि दनयविझानेन सेवनं कृत्वेति-वत्त . अश्य सम्पाद्येत्यय, सम्प्रारुमत्राएर प्येवं चत्वायव एवमेतान्यो पिएमपातार्थ पं. व. ॥ कल्प ॥ गृहपतिकुने प्रविष्टस्य एव विचारतूम्यादावष्टा एव ग्रामग श्राराहिय-आराधित - प्रा.राध-णिच त सेविते, वामनेऽष्टाचवमेतानि चतुर्विंशतिसत्राणि । एवं निग्रन्थिकाया संपादित, पं. व. सम्यक्पासितति । आतु । सम.॥ अपि चतुर्विशतिसूत्राणीति अथानालोचित एवं कथमाराधक परितोष प्रापिते-(पाराहितो रजसपट्ठबंध कासीयरायानदुव इत्याशङ्कामुत्तरं थाह ॥ सकेणामित्यादि ॥ तणसूययत्ति तृणा- कवरस्स)आराधितः केनाऽपि गुणविशेषेण परितोषं प्रापित ग्रंबा ॥ ग्जिमाण जिम्नेत्ति ॥ क्रियाकाप्रनिष्ठाकालयोरभेदेन इति-वृ ० ( हरिणगमसिं देवं भत्ति बहुमाणेणं आहिया) प्रतिकणं कार्यस्य निष्पत्तश्विद्यमानं निमित्युच्यते एवमसा आ. म. अस्त्रमिते, (जह चेव व मोक्त्रफला आणा. आराहि वालोचनापरिणती सत्यामाराधमा प्रवृत्तं आराधक पवेति ॥ आ जिणिदाण) पं. ब. ॥ निष्ठां मीते,-अहिंसासवणं प्रथम अहयं वत्ति ।। अहतं नवं (धोयंति) प्रकासितं ॥ तंतुम्गुयंति संवरहारमधिकृत्य ( प्रारहियं आणाए,) आराधितमेनिरव तत्रोक्तं तुरीवेमादेरत्तीर्णमात्र ॥ मंजिहदोणीपत्ति ॥ मांजिष्ठ- प्रकारनिटांनतमिति - प्रश्न सं. हा.(आराहिया विरागजाजने ॥ न. टी.॥ भव) एमिरेव प्रकारेः सम्पूणैर्निष्ठां नीता भवतीति. स्था० आराधकत्वावराधकत्ववक्तव्यताऽऽराधकशब्दे माथिनोना ग. ७ (आराहियं पयारेहि सम्ममाहं निविय) आरा स्त्याराधनति प्राबोयणाशब्दे शीलसम्पन्नश्रुतसंपन्नादीनां धितञ्चव एभिरव प्रकारनिष्ठां नोतमिति. प्रव नपा . देशाराधकत्वसर्वाराधकत्वादि पुरुषजातशव्द ॥३॥ अ. १ आराहियनाणदसणचारित्तजोगनिस्सल्ससुद्धसि. तदात्मके द्वात्रिंशत्तमे योगसंग्रहे च. ( आराहणा य मर द्वाजयमम्गभिमुहाणं, सम । नि. प्यू १ आचागंते) मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्रेत्यतो द्वात्रिंशद्योगसंग्रह आराहियसंजम आराधितसंयम-त्रिपरिपारितसंयमे ( आरा इति सम० स० ३२ । प्रश्न० ० ५। आव०( श्याणि हियसजमाय सुरखोग पमिनियत्ता-सम । Jain Education Indemnational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१६ ) अभिधानराजेन्द्रः ! आरिय मारि (य) आारित - त्रिसविते-आरितो आर्यरितो सेवि तथा एगति - प्रा. चू. । आकारिते. श्रारिओ आगारियो स्सरिओ वा एगति आव ० ॥ मारित. आर्ष- त्रि० विवाहदे, गोमिथुनदान पूर्वमार्ष इति. घ० सं० ॥ प्रारु (रो) - आरोग्य - न० अरोगस्य नावः प्यञ् रोगशून्यत्वे, रोगाभावे, उत्त० अ.२७ ॥ आरोग्य सति यदव्याधि, विकारा जवंति नो पुंसां । तर्म्मारोग्ये, पापविकारा अपि ज्ञेया ॥ ८ ॥ टी० ॥ आरोग्ये रोगानावे सति ज्ञायमाने यद्वदिति यथा व्याधिविकारा रोगविकारा भवंति नो पुंसामारोग्यवतां तदिति तथा धर्मारोग्ये धर्मरूपमारोग्यं तस्मिन्सति पापविकारा अपि वक्ष्यमाणा न नवतीति विज्ञेया षो० वि.३ ॥ नीरोगतायाम् उत्त० अ. ३ ॥ आरोग्यं नीरूजत्वं प्राक्तनसहजरपातिकरोग विरहणम् । पो० विव. ३ स्था० वा. १० । आरोग्गसारियं मासत्तणं सवसारियो धम्मो विज्ञानिच्छि सारा सुहाइ संतो ससाराति १ । दोषाणां समत्वं चारोग्यम् "तेषां समत्वमारोग्यं कयवृद्धी विपर्य्यय" इतिवचनात् नं० । भावतः सम्यक्त्वे मोके च लोकोत्तरतत्वप्राप्तिमधिकृत्य श्रद्यं भावारोग्यं बीजं चैषां परस्य तस्यैव | आदौ - नवमाद्यं भावारोग्यं भावरूपमारोग्यं तच्चेद् सम्यक्त्वं तदूपत्वाल्लोकोत्तरंतत्वंतत्प्राप्तेर्बीजं चैषां लोकोत्तरत्वसंप्राप्तिः परस्य प्रधानस्य तस्यैव नावारोग्यस्य मोकलकणस्य राग छेपमोहानां तन्निमित्तानां च जातिजरामरणादीनां भावरोगरूपत्वादिति. वि. ४ । अरोगस्य नाव आरोग्यं सिद्धत्वे ० अधि. 12 आव० ॥ आवाधारहिते त्रि. कल्प. । ज्वरादिवर्जित, आरोग्गा अरोगा ज्वरादिवर्जिता इति स्था० वा. ४ ( आरोगारोग्गं दारयं पाया ) आरोग्या आबाधारहिता सा त्रिशला आरोग्यं आधारातम् | कल्प | जां रयणि तिसता खतिपाणी समणं जगणं महावीरं आरोभारोग्यं पया । श्राचा० अ. ४ । गदिय - आरोग्यद्विज पुं० उज्जायनी वास्तव्ये द्विजे । तत्कथाच ध० र. ॥ पुरी उज्जेणी, सक्कवित्तूसिया हरितणुव्व । किंतु गयलक्खकालिया, बहुसंखसिरीइ जवगुढा || १ | तत्यात्थ देवगुत्तो, विप्पो गर्त्तिदियो पवरगुतो । सुविहिअसदाणंदा, नंदानामेण तस्स पिया ॥ २ ॥ जाउता जमप, निरोगेहि मुच्चए नव । यिनामो रोगुत्ति, चैत्र सो विस्सुओ जाओ ||३ ॥ कश्या तिस गेले, जिक्रखत्यं कवि वरमुत्तो । पामिनं सुयं पाए, माहणेणं इमो जाओ ॥ ४ ॥ रोगोवसमोवार्य, इमस्त पदुकहमुकारुन्नं । सेससुया तेहि, कहा न कहिज्जइ इयमुणी आह || तो ते मऊ, सह नियपुत्त्रेण गंतुउज्जाण । नमिकण तयं पुट्ठो, एवं सो महरिसी आह ||६| पावाओ होइ दुक्खं तं पुण धम्मो नासए खिप्पं । For Private आरुग्गबोहिलाभ जलणपतिं गेहूं, सलिलपवाहेण विज्जाइ ॥ ७ ॥ धम्मेण सुवम्मेणं, सिग्धं नासति सयलदुक्खाइ । या रिसाइ नियमा, नयमा न य इंति पुणो परन वे वि ॥८॥ इय सुणिते बुधा, गिहत्यधम्मं दुवे विगिएहति । धम्मो सो माह, पुतो जाओ विसेसेण ॥ ए ॥ धारिज इतो सायरो, कलोल भिमकुल सेलो । अनं मनिम्मिय सुहामुहो दिव्वपरिणामो ॥ १० ॥ इचा विलयंतो, रोगायंके सहे संयमियो । सावच दिविग्गिं माणसा वि न पच्छ कयावि ॥ ११ ॥ अहहरणादधमुत्त, संसिन सो कयावि तो इच्छा । पत्ता असता दुबे सुराविज्जरुवधरा ॥ १२ ॥ जयंति इमं बालं, पणे मोजई को किरियं । तस पाणहि पुढं, सोकेरिसया इमो बत्ति ॥ १३ ॥ मोहो पढमे, पहरे चरिमे ओजन्नसुरपाणं । नवणीयं जयं कूरं, निसि सह पियएण त्तव्त्रं ||१४|| तो दियतेतं इमेसि एगंपि नेव पकरेमि । वांगी चित्तो, जीववदो तह पु.को चेव || १ || उक्तंच ॥ मये मांसे तयाकोडे तक्रान्नीतेनवोद्धृते । उत्पद्यते विजयंते, तद्वर्णाः सूक्ष्मजंतवः ।। १६ ।। विजेहि तभोजओ, देहसिणं धम्मसाहणं जहं । जह वा तह वा मनणिय, पत्यापत्यन्नमायर ||१७|| तयाचोक्तं सव्वत्य संजमसंजमानो, अप्पा, मेव रक्खिज्जा । मुचइवाया, पुणोविसोही नया विरई ॥ १८ ॥ सोहन सोही, पावी करिस्स एओएयं । किंकरs पढमं पिटु, नदा कद्दमफरिसणं च ॥ १७ ॥ यस या हितित्तेण वि जणियो विन जाव मन्नए एसो । ताते पमुश्यचित्ता, अमरा पर मंतिनिय सरूवं ॥ २० ॥ काहे सकपसंसं, नीरोग को इमो तेहिं । तुझे से सयणगुणणे, राया पुलयकि जाओ ॥ २१ ॥ तं पाहणा, जयपथमं जइ धम्ममाहप्पं । बुधा बहवे जीवा, वयपाल ए उज्जया जाया || २२ ॥ तप्पन इमो लोए, आरुग्गदिओति विसुओ जाओ । पानिज, कमेण सुनावणं एसो ॥ २३ ॥ एवमारोग्यविप्रस्य वृत्तंवरं । धीरधर्म्मात् श्रुत्वैतच्चमत्कृत्परं व्यलीका निशम्य प्रकंपां सदा पालयध्वं व्रतानि स्फुरसंपदाः ॥ आरु ( रो ) ग्गफल - आरोग्यफल —त्रि आरोग्य साधके ( अतिहारोम्गफलं, धो ऽहं जेणिमं णायं ) पंचा वृ. १५ । आरु ( रो ) ग्गवो हिलाज - आरोग्यबोधिलाज – पुं आरोग्याय बोधिलाभ आरोग्यबोधिलानः श्राव । श्ररोग Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरुगबो हिलान स्प नाव आरोग्यं सिदः प्रणीत रोयोधिज्ञानः 1 मोती कित्तिय वंदिय महिया, जे एलोगस्स उत्तमा सिधा । आरोग्यधोदिझानं समाहिपरमं दि . २ प्र. रोगस्य भाव आरोग्यं सिद्धत्वं तदर्थ बोधिलाभ आरोग्य बोधिलाभः प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिबोधित्रानोऽानवीयते। सचाऽनि दानों मोहाय प्रशस्यते इति । २. समादिवरमुदितु) इत्यारोप बोधितानस्य प्रार्थनयुक्तत्वं (णियाण ) शब्दे व्याख्यास्यते ॥ आरु (रो) गादियानाइत्यणाचित्-आरो ग्वोधिप्राजादिमार्थनाचित्तस्य त्रि० भारोग्यवाधि भरोमानोवानं समादिवरमुत्तमं दिवं रूपा या प्रार्थना तत्प्रधानं यश्चित्तं मनस्तेन तुल्यं समानम । तथाच पञ्चाशके - तपोऽधिकृत्य आरोग्गबोहितानाश पत्थण चित्ततुति, पंचा वृ. १९ आरु () गसाग आरोग्यसापक त्रि० आरोग्यनि ष्पादके, ध. अ. १ आरुस्स - आरुष्य - अव्य० कोपं कृत्वेत्यथें, ( आरुस्स विज्ऊंति तू देणपिठे ) सूत्र . १ अ. ५ ( आरुस्स विकिकाओ सो ) आरूप्य क्राधं कृत्येति सूत्र० . १ . ५ । आरुहरुआ रुपया० प० अदि-सक धरो आरुहेश्वरी अ. ४ वा इतिप्राकृतसूत्रेणादेरेताचा. देशौवा च वनग्गर- आरुहश्-प्रा० । चरति बग्गनि आरु हत्तित्ति एग निश् च्. उ. १८ ॥ आरुहमारा आरोहयत्रि आरोहणं कुर्वति श्रामाणे या ओरुहमाणे वा स्थाग. ५ अभिधानराजेन्द्रः । आरू - आरू - पु० ऋ. ऊ णिच्च पिंगलवणे आरुशब्दायें कर्करादीचा सायां क ( आ ) हिमाचल प्रदिपभेदेवाच ॥ आरूढ - आरूढ ० रुह कर्त्तरि क्त-वाच । श्राश्रिते ( तव नियमनाणरुखं आरूढो केवली श्रमियनाणी ) विशे० ॥ श्रारूढ आश्रित इति आ. चू. प्राप्ते, (आरूढाः शूरूभुमिकाम् ) आरूढाः प्राप्ताः अ० ( आरूढेप / उपाहिंच) पिं० । मत्तं च गंध वासुदेव जग आरुटो सोदर अयि सिंर कामणी जहा (सिया पर्ण तो समारुढो) ६० अ. १२ - आरुडस्यारोह- आरुहस्यारोह- पु० आरुदमहामाचे ( आरूढ हत्थारो हे) आरूढा हस्यारोहा महामात्रा येषु ते तथा । विपा० अध्य. २ आरेग-आरेक पुं०रिपत्र अतिरेकेच. वाच० ॥ आरेगा-आरेका स्त्री० इकायाम (विजाहेतु विसोत्तियं ) आचा० विहाय परित्यज्य विस्रोतसिकां शंकां सा च विधा सर्वशंका देशशंका व तत्र सर्वशंका किमस्यार्हतो मागौन येति किं विद्यन्तेऽप्रकायादयो जीया विशेष्य तु स्पष्टतनात्मविद्यन्ते त arrearsarai विहाय सम्पूर्णाननगाग्गुणाननुपालयेत रोवणा आचा० ॥ ० १ ० २ ॥ प्ररेण अव्ययं आरादित्यर्थे ० ॥ आरो-उस-या पर सेकसो उसे मणिपुल आगुजोद्धारोषः ॥ ४ ॥ १०१ ॥ इति प्राकृ तसूत्रेणोहसराय इत्यादेशः । श्रारोअर उलस प्रा० ॥ आरोव-आरोप- पुं० आरुप णिच्-करणे ल्युट् श्रन्यपदार्थेऽन्यधर्मस्यावभासरूपे मिथ्याइने - वाच० अन//सुखं मोह, त्यागादनुभवन्नपि । आरोपप्रियलोकेषु कुमाश्चर्यवान् भवेत् ॥ ७ ॥ ष्ट ॥ ४ ॥ आरोपण-आरोपण -- भारोपशब्दार्थे, आरोहणासम्पादने च. आता पणमन्यताम्] कुमा० रघुः वाचः ॥ " आरोवणा - आरोपणा- स्त्री० आरोप्यतइत्यारोपणा । प्रायश्चित्तभेदे व्य० आरोप्यतेऽति बारोपणा । प्रायाधितानामुपर्युपर्य/रोपणं यावत् परमासाः परतो वर्धमानस्वामितीथें आरोपणायाः प्रतिषेधात् ॥ व्य० उ० १ ॥ सांप्रतमारेपणाप्रायश्चित्तमाह ॥ पंचादी आरोवणा, ने यव्वा जावहुति छम्मासा । ते पणगादिया, वण्ड वरिसो ज्जोसणं कुज्जा ॥ रात्रिंदिवपंचकादारज्यारोपणापंचादिः । रात्रिंदिवपंच कादिका आदिशब्दादशचाविशति रात्रि दिवमा सिकादिपरिग्रहा ज्ञातव्याः । तावद्यावत्षण्मासा भवंति नाधिकं यत एवं तेन प्रकारेण तेषां पां मासाना मुपरि ( पणगाश्या णंति ) रात्रिं दिवपंचका दीनां ज्योषणापनयनं कुर्यात् । पण्मासाना मुपरि य दापपद्यते प्रायश्चित्तं तत्सर्वं त्यज्यते इति भावः । उक्तं च चूर्णी (साप बावजतं सव्यध हिज्जरति ) अत्र चोदक आह । किं कारणं न दिजर बम्मासाणं परतो न आरुवणा । भणइ ण मोजं कारणाज्जोसिया सेसा । पपमासानां परत आरोपणा प्रायश्चित्तं न दयिते । अत्र किंकारनमः प्रतिपचनमादजं कारणंतिनिमित्तकारण देतुपु सर्वा विभक्तय शर्त वचनात् अत्र हेतौ प्रथमा । ततोऽयमर्थः । येन कारणेन परमासानां परतः शेषाणि रात्रिदिवपचकादीनि प्राधितानि तानि तत्कारणं पुनरिदं वयमाणमिति गुरुर्भणति । सच कारणं दर्शयति ॥ आरोप निष्पनं मत्ये जिणेहिमुकोसा। संतस्त्र उतिरथं वचहरणं धनपिगं च ॥ पत् जिने स्वस्थकाला तपः कर्म से तस्य यकाराध सिंच योजनीयस्तदेव तावत्प्रमाणमेवारोपणानिष्पन्नं तपः कर्म्म व्ययति इति व्यवहरणं बहुवचनात्कम्मेन्द्र यमिति भावः । किमिवेत्यत आह । धान्यपिटकमय धान्यस्थक व किमुक्तं भवति । येन राज्ञा यो धान्यप्रस्थकः स्थापितस्तत्काले स एव व्यवहर्तव्यो न पुरातनो नाप्यन्यः स्वमतिपरिकल्पितस्तथा भगवताऽपि तीर्थकरेण येन नद्मस्थकाले यावत्प्रमामुत्कृष्टं तपः कम्मं कृतं तस्य तीर्थे आरोपणानिष्प नं प्रायश्चित्तमपि तावत्प्रमाणमेव व्यवहरणीयं नाधिकमन्यया Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८) श्रभिधानराजेन्द्रः | आरोवणा राजाज्ञाख न तो राजप्रयुक्तदंडस्येव भगवदाज्ञाखं मनतः संसा रकस्य प्रवृत्तेः ॥ पनमेव चान्यपिकतं भावयति ॥ जो जया पत्यिवो होश, सो तया धन्नपच्चगं । परिक्षेणं, वाहारी य दंए । वे यो यदा पार्थिवः पृथिवीपतिर्भवति स तदा स्वकाले धान्य प्रस्थकमन्यं स्थापयति तस्मिथ स्थापित थे परिशेति पुरातनेनोपलक्षणमेतत् स्वमतिपरिकल्पितेन व्यवहरति तानूतथा व्यहरतो दंश्यति । एवं तीर्थकृदपि भगवान् यो याव प्रमाणमुत्कृष्टं तपः कर्म को कुर्वन् तपः पम्परिमाणं स्थापयति स स्वतीतायमाणन्दधिकं तपः काव्यचतः संसारयति । तस्मात्तस्य तीर्थे तायमाणमेव व्यवहर्तव्यमिति ॥ अथ कस्य तीर्थे कियत्प्रमाणं तपः कम्मेत्यत आह ॥ सच्चरं तु पदमे, मामगाड मासि हो । उम्मापच्छिमस्त माणं जशियं तु कोर्स ॥ प्रथमे मतीर्थकरकाले मानं तपः कर्म्मपरिमाण भ पितं सेवासमेव तुरेकारार्थः मध्यमकानां द्वाविंशतितत तप कर्म परिमाणमुत्कृष्टं भवत्यष्टमासप्रमाणं पश्चिमस्य तु. भगवतो वर्धमानस्यामिनः तपः कर्म परिमाणम णितमिति । षण्मासाः । अत्रैव भूयः शिष्य (शंकामाह ॥ पुणरविचाएइ ततो, पुरिमा चरिमा विसमसोही या । किह सुज्जंती तेल, चोयगण मोसुण सुवोत्थं ॥ एमनंतरो सूरणानिदिते पुनरपि शिष्योदयति ॥ यदि न ततः पूर्वा मादितीर्थकर यतिनमा पश्चिमतीर्थकर तीर्यवतनो विषमशोधिका विषमप्रायश्चिता भवन् । ततः कथं ते विषमशोधिका श्रविशेषेण शुध्यति । सर्वात्मना युद्धमासादयंति न खघु कारणवैषम्ये कार्यवैषम्यं दृष्टमत्र तु विषमं प्रायश्चित्तं वशांधिस्तु सर्वेषामप्यविशेपेण तु ततो दुः तुल्या वैषम्ये कारणं यथा च कारणविषमतायामपि तुझ्या विशोधिस्तदेततिधिपादयिषुः प्रथमतः प्रायश्चिसपन्ये कारणममिभिरिदमा योगत्यादि देखोदक! प रिन् प्रायश्चित्तवैषम्ये इदं वक्ष्यमाणं कारणं वक्ष्ये तथ यक्ष्यमाणमवदितमनाः प्रतिज्ञातमयदितमनाः शृणु। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति । कासनिया, देवचचर्मपुरि तदयंत जागहीणं, कमेण जा पच्छिमो अरिहा || पुरि पूर्वेककालस्य स्निग्धता हेतु प्राणिनां देव शरीर तदिष्टं ततो धृतिय च आसीत् तत् अवसर्पिणी कालस्य तथा स्वजावतया यत् क्रमेण प्रतिक्षणमनंतभागहीनं तत् ताददायात पाय जगामानस्वामी ततः शारीरस्यति लस्य च विषमत्वात् विषमं प्रायश्चित्तं । तथा चाह । सच्चरेणाविनता आति जोगाण हाली वि मि । जेया विधिज्जादिप्रणोववेया, तम्मया सोहय एतएवि || तेषामादितीर्थ करतीर्थवर्तिनां साधूनां विविधे बजे शारीरे आरोवणा बजे धृतिप्रत्यंतमुपचयं प्राप्ते सति संवत्सरेणाऽपि संयप्रमाणमपि तपः कुर्वतां नागानां संयमव्यापाररूपाणां हानिरासांत मध्यवर्तिनां धमेणानंतभा गीलम पश्चिमती करतीर्थयातिनामत्यंतहीनमतो मध्यमकानां संवत्सरप्रमाणे तपः कुर्वतां महती योगदानिरिति तेषाममासिकाएं तपः कन्ययस्यापितमपक्षिमीकर तदपि कुर्वतां योग हानिः पापमासिक तप कम्मे प प्रायश्चितवैषम्येकारणं संप्रति तुल्यांवि धिं प्रतिपादयति । ये चापि मध्यमतीर्थकर तीर्थ वर्तिनश्च धैर्या धनुपेता धर्मेण पूर्ति दिशात सहनवलप दोनुपपेताः तपति तानपि तता पा आदितीर्थंकरी वर्तितव धम्मौऽशरत्वादिकस्यनावो येषां तद्भावस्तता सा शोधयति यम भावना अन येना निगृहितवीर्यतया यथाशक्ति तपः कर्मणि प्रवृत्तिविशेोधिरांतरकरणं तच्च बाह्यतपः कर्म पवित्रम्येऽपि सर्वेषामय्यावेशितः सर्वेषांत्या विशोधि युकं चैतत् तथादि प्रथमती करतीर्थेऽपिनसां देवांच समानमथ च सर्वेषामप्यशवभावतया प्रवृत्तेस्तुल्या विशोधि रेमपावनीयात्यदोषः अत्रैव निदर्शना । पत्यगा जे पुरा आसी, हीणमाणात येणा । माणमाणि धन्नाणि, सोहिं जाणितद्देवय ॥ ये पुरा पूर्वे काले प्रस्थका आसन् । ते कालदोषतः क्रमेण हीना हीनतरा जायमाना अत्यंतहीन माना जातास्तथापि धान्यानि माननानि प्रस्थकादिपरिमाणपरिच्छेद्यानि तथैव संख्या व्यवहारस्य सर्वदाऽ प्यविशिष्टत्वात् । एवमिपिम्येपि भावभावेन तक कम्मैचि प्र चिरांतरकारणं सर्वेषामप्यविशिष्टमात शोधमपि द स्यापि शब्दार्थस्य निमत्यात्। तथैच चान्यानां प्रस्थक परिच्छेद्यतामिव तुल्यां जानीहि । प्रस्यकदृष्टांतेन सर्वत्र तुल्यां विशोधिमभ्यस्येति प्राचः । वजारोपण प्रायश्चित्तम् ॥ व्य. व. १ ॥ आरोप पञ्चविधा । स्था० ग० ए । आरोवा पंचविदा पाता महापलिया उचिया कसिया कसिणा हारुहमा ।। आरोपणोक्तस्वरूपा तत्र ( पविर्यात्त ) बहुस्वारोपितेषु यन्मासगुर्वादिप्रायश्चित्तं प्रस्थापयति वोदुमारजते तदपे या प्रस्थापितत्युक्ता ॥ १ ॥ ( उपियति ) यत्प्रायस्त्रितमापस्तस्य स्थापितं कृतं न वाहयितुमारब्धमित्यर्थः ॥ यदि वृत्यकरणार्थ तकि यदन शांति वैयावृत्य कर्तुं वैयावृत्यसमाप्तौ तु तत्करिष्यतीति स्थापितोच्यत इति ॥ मयत कोपस्त्वयमिह तीर्थ परमास तमेव तपस्ततः पष्णां मासानामुपरि यान् मासानापन्नोऽपराधी कृपणमनारोपणं प्रस्थ चतुः सेतिफतिरिक्त धान्यस्येव काटनामित्यर्थः । उपाभावेन सा परिपुर्णेति स्युच्यत इतिभावः ३ अकृत्स्ना तु यस्यां परमासाधिकं जायते तस्या हि तदतिरक्तादनेनापरिपूर्णत्वादिति ॥ ४ ॥ ( हामहकेति ) यल्लघुगुरूमासादिकमापन्नस्तत्सद्य एव यस्यां दीयते सा हामहको कति एतत्स्वरूपं च विशेषतो निशीथविंशतिसमादेशकादयमिति Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारोवणा अभिधानराजेन्द्रः। ग्रारोवप्पिय कति भदा आरोपणाया उच्यते पंच तया चाह न्य० १०॥ मासिक्यारोपणा भवतिीतथा पंचरात्रिकभियोग्य मासिकच (पढवितिया) पविया कसिणाऽकसिण तहेव हाम्हमा शुद्धियोम्यं चापराधब्यमापनस्ततःपूर्वदत्तप्रायश्चित्ते सपंचरा लारोपणा पंचविधा पचप्रकारा तद्यथा प्रस्थापित्तिका स्था. बिमासिकप्रायश्चित्तारोपणात्सपंचरात्रमासिक्यारोपणाषद६ पिता करना हामहमाच । एषा पंचप्रकाराऽप्यारोपणा प्राय. एवं हिमासिक्यः ६ धिमासिक्यः ६ चतुर्मासिक्यः ६ चतुश्चित्तस्य । तञ्च प्रायश्चित्तं पुरुषजातेः कृतकरणादौ ययायोग्य विंशतिरारोपणाः तथा साईदिनदयस्य पक्कस्य चोपघातनेन मवसेयमेष गायासंकेपार्थः। बघुनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते प्रारोपणा उपघातिकारो दामोमतामेव गाथां व्याख्यानयन्त्रयमतः प्रस्यापितिकादि | पणा यदाह॥ भेदचतुष्टयं व्याख्यानयति॥ अकेण निमसेसं, पुवकेणं तु संजुयं कालं । पट्टवित्तिया वहते, वेयावच्चट्टिया वितिया उ । देज्जाय बहुपहाणं, गुरुदाणं तत्तियं चेवत्ति ।। कसिमाकोसविरहिया, जहिज्कोसोसा अकसिणाओ। यया मासाई १५ पंचविंशतिका च साद्वादशवर्षे सर्व यदारोपितं प्रायश्चित्तं वहति एषा प्रस्थापित्तिका आरोपणा यो मीनने सार्कसप्तविंशतिरिति सघुमासाः। तया मासघ्याई धैयावृत्त्यकरणअन्धिसंपन्नः आचार्यप्रभृतीनां वैयावृत्यं कुर्वन् मासो मासिकस्यापक उन्नयमीलने सार्कोमास इति यत्प्रायश्चित्तमापनस्तस्यारोपितमपि स्यापितं क्रियते । यावत् मधुरिमासिकं २५ तया तेषामेव साईदिनध्यायनुघातनेन यावृत्त्यपरिसमाप्तिभवति । द्वौ योगावेककासं कर्तुमसमर्थ गुरूणामारोपणा प्रानुघातिकारोपणा २६ तथा यावतो इति कृत्वा सा आरोपणा स्थापितिका । कृदना नाम यन ऽपराधानापन्नस्तावतीनां तजुकीनामारोपणा कृत्स्नारोकोषो न क्रियते । अकृत्वना यत्र किंचित् जोष्यते । हामहमा पणा तथा बहुनपराधानापन्नस्य षएमासांतं तेषु इति षण्मात्रिविधा तद्यथा सद्योरुपा स्थापिता प्रस्थापिता च तत्रेयं साधिकतपः कर्म तेष्वेवांतर्भाव्यं । शेषांतर्भाव्यशेषमारोप्यते सोरूपा ॥ यत्र सा अकृत्वारोपणेत्यष्टाविंशतिरेतच सम्यगनिशीवि उन्यायम ग्वायं, मासादितको नदिज्जए सव्वं । शतितमोद्देशकादवगम्यम् ॥ सम. २० स०॥ मासादी निक्खित्तं, जं सेसं दिज्जए तं तु ।। प्रारोपणायाः स्थापनासंचयः पायच्चित्तशब्ने । उद्धात लघु अनुदातं गुरु यत् मासादिमासिकमादिशब्दात तत्प्रतिपादके निशीयाभ्यनभेदे, च आरोपणा यत्रैकस्मिन् द्वैमासिकं त्रैमासिकं वा इत्यादि तप आपनस्तद्यदि सद्यस्त प्रायश्चित्तऽन्यदारोप्यत शति प्रश्न हा०५ ॥ आष०॥ का दीयते न कालरूपेण तदा सा हामहमा आरोपणा स बंधमोचने, प्रतिक्षेखने, च ( पक्खिया आरोवणा) कल्प०. योरूपा यदि पुनर्यन्मासादिकमापनस्तत् वैयावृत्यमाचार्या पक्खिया आरोवणत्ति। कोऽर्थःपके २ संस्तारकदवरकाणाम बन्धा मोक्तव्याः प्रतिमेखितव्याश्चेत्यर्थः । अथवाऽऽरोपणा दोनों करोतांति स्थापित क्रियते । तस्मिश्च स्थापिते यदन्यत् कोषमुद्घातमनधातवा पद्यते तत्सवमपि प्रमादनिवारणाथ प्रायश्चित्तम् पके ग्राह्यं सर्वकानं वर्षासु विशेषतः। कल्प प्ररूपणाभेदे, च विशे। मनुदघातं दीयते सा हामहमा आरोपणा ॥ स्थापिता प्रस्थापितायाः स्वरूपमाह ॥ तत्रारोपणा श्यं केत्याह॥ उम्मासादि वहते, अंतरे श्रावने जा उ आरूवणा । किंजीवो होज्ज नमो, वाजीवोत्ति जं परोपरो । सा होति अणुग्याया, तिनि विगप्पा उ चरिमा य ॥ अज्कारोवणमेसो, पच्चगणुजोगये मयारूवणा ॥ पाएमासिकं तपो वहन आदिग्रहणात् पांचमासिकं चातु- किंजीव पथ प्रवेनमस्कारः नमस्कार एव वा जीयो भवति मासिकं त्रैमासिकंवैमासिकं वा वहन् अंतरा यदन्यदापद्यते यत्परम्परावधारणादभ्यारोपणं पर्यनयोजनं एष पर्यनुयाग उघातमनुद्घातं वातस्याप्यतिप्रमादनिवारणार्थमनुग्रहकरने प्रारोपणा मता सम्मतेति ॥ श्रा०म०॥ प्रा. चु.॥ न चानुद्घातं यत् प्रारोप्यते एषा हामहमा आरोपणा | आरोवणापायच्छित्त-अारोपणापायश्चित्त-० आरोपणमेप्रस्थापिता । पते यो विकल्पाश्चरमाया हाम्हमायाः कापराधप्रायश्चित्तेपुनःपुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताभ्या अथवा श्मे यो विकल्पाः ॥ रोपणमारोपणा यया पञ्चरात्रिन्दिवं प्रायश्चितमापनः पुन सा पुण जहन्न ठक्कोसा, मज्झिमा तिनि वि विगप्पा । स्तत्सेबने दशत्रिन्दिवं पुनः पंचदशरात्रिदिवमेवं यावत् मासो उम्मासा वा, जहम्मुक्कोसजे मज्के । षएमासान् ततस्तस्याधिकं तपो देयं न नवत्याप तु शेषतसा हाहमा आरोपणा त्रिविधा । तद्यया जघन्या उत्कृष्टा पांसि तु तत्रैवान्तर्मवनीयानि श्ह तीर्थे षएमासान्तत्वात्तपस मध्यमा च पते त्रयो विकल्पा हाम्हमाया प्रवति । तत्र शति उक्तञ्च । गुरुका मासो जपन्या परमासा गुरुच उत्कृष्टा पतयोहयो पंचाईयारोवणे, नेयव्वा जाव होंति बम्मासा । योमध्यये गुरु द्विमासादयो गुरुमासपंचकर्पयताएषा जघन्यो- तेग परमासियाणं, गएडवरि कोसणं कुज्जत्ति ॥ स्कृष्टा हामहमा सा चतुर्विकल्पा तथा मासिकगुरकं आरोपणायाः प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तं । प्रायश्चि त्रैमासिकं गुरुकं चातुर्मासिकं गुरुकं पांचमासिकं गुरुकमिति ॥ त्तभेदे । स्था० वा.। प्रायारपगप्पशब्दे आचारप्रकल्पस्याष्टाविंशतिनेदप्रतिपाद कंसूत्रमुक्तम् । तट्टीकायामारोपणाभेदा इत्थं ॥ आरोवाणिज्ज-आरोपणीय-त्रि० आरुह-णिन्-अनीयर्नत्र क्वचित् ज्ञानाद्याचारविषये अपराधमापनस्य कस्यचित् | अारोपाहे, पारेराप्ये वस्तुनि-चाच०॥ प्रायश्चित्तं दत्त पुनरम्यमपराधविशेषमापनस्ततस्तत्रैव प्राक्तने आरोवप्पिय-आरोपप्रिय-त्रि० आरोपो मिथ्योपचारः प्रियो प्रायश्चित्ते. मासवहनयोग्य मासिकं प्रायश्चित्तमारोपितमित्येवं यस्य स आरोपप्रियः मिथ्योपचारप्रिये, ॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२०) आरोवसुह अभिधानराजेन्डः। आलम्बण अनारोपसुखं मोह, त्यागादनुभवन्नपि ॥ आरोपप्रियलोकेषु, | हपरिणाहयुक्तता । शरीरसम्पदे, उत्त' अ०१॥ वक्तुमाश्चर्यवान्भवेत् ॥१॥ अष्ट० ॥ आरोहपरिणाहयुक्तता उचितदध्य विस्तारता इत्यर्थः स्या० आरोवसुह-आरोपमुख - न. आरोपजे सुखे-अष्ट। । गा॥ आरोविज्ज-आरोग्य-त्रि० आ-रुह- णिन् कर्मणि यत्- | आरोहपारेणाहसंपा-आरोहपरिणाहसम्पन्न-पुं० शरीरसआरोपणीय, यथा मुखं चन्ड इत्यादौ मुखे चंद्रत्वमारोप्य।। म्पदे । आरोहपरिणाहसप से यावि नवर, इह चारोहो वाच॥ दैर्य परिणाहो विस्तारस्ताच्या सम्पणेःचापि शब्दावन्यांगप्रारोबइ-पुञ्जिधा.-पुञ्जीकरणे-पुंजेरारोबवमाडौ ॥१०॥ सुन्दरत्वख्यापकाविति यन नच्यते लौकिकेरेपि यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्तीति।दशा॥ ति प्राकृतसूत्रेण पुंजरतावादेशीवा, आरोवश्वमालइ.पुजर पुंजयति प्रा०॥ आरोह-आरुह्य-प्रव्य आरोहण कृत्वेत्यर्थे (आरोहमुणिवणिपारोस-आरोप-पु.म्लेच्छजातिदे-प्रश्न घा.१॥ यामहग्यसागरयणपमिपुम्मं ) आरोहुमिति समारुह्य के मुनिवणिजः दर्श। आरोह-आरोह-० आरुह. घञ्-प्राक्रमणे, नीचस्थानादू आन-बान-न० श्रा-अल- पर्याप्तो. अच्-अनल्पे श्रेष्ठ वदेशगमने, अङ्क-रादिप्रादुर्भाव-शदच. गजवाजिनामुपरि च त्रि. वाच० । प्राकृतोक्ते मन्वयके प्रत्ययभेद च। गमने दीर्घत्वे वाच. (आरोहो दिग्धतं) व्य.स.५ ॥ सत्त. आल्घिल्लोल्लाअवत्समन्तत्तरमणामतोः ॥२॥ १५॥ प्रा.स भ. १ दशा ० ॥ उचितदैय-स्या. 19 । उच्छ्ये आरोहो सहालो जमानो फमालो रसालो प्रा. व्या० । उक्तंच मतुयंनाम शरोरेण नातिदेयं नातिन्हस्वता अथवा आरोहः शरी मिमुणे जह आने श्लं मण च मतुयं चेति-श्राव। रोच्चाय इति-वृ. । श्चत्वे च नितम्बे वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा वरवर्णिनीअमरः। सारमान वरारोहा, उजटः।मा आलश्य-आसिंगित-त्रि० पारोपिते-चपा. अ०२। आविद्ध रोहनिबिम्वृहनितम्बबिम्बैः माघः वाच । जी प्र.४ ॥ परिहिते,कल्प। आरोहतात्यारोहः हस्यारोहादी, नि. चू. उ. ए॥ आनइयमानमनम-आल(सिंगितमान(मा)मट-त्रि आत्र आसाणय हत्यीय, दमगा जे पदमताए विणएंति ॥ गितमालमारोपितक् मुकुटो यस्य स तया तस्मिन् नपा० भ.२ आगितो यथास्थानं परिहिता मासामुकुटा येन स परियहमेपच्छा, आरोहा जुकाबंमि ॥१०॥ तथा तस्मिन् कल्प. ।। मात्राच मुकुटरच मामुकुटं आलगि जे पढमं विणय गाहेति ते दमगा जे जवजोगासणेहि तमाविद्धं मा सामुकुटं येन स आगितमाधामकटः । आविरूवावारं वा बहेति तो मंदा जुरूकाले जे भारुहंति ते आ मालामुकुटे जी. प्र.४ (आबश्यमानम उमे) आस गितमालाम रोहा॥ कुटः कृतकपठे मासः आविहशिरसि मुकुट इति भावः॥ आरोहश्यन्व-आरोहयितव्य-त्रि० आरोपणीये, व्य. न.१ | आ.म. भ. श. ३ न.२॥ श्राराहग-आराहक-त्रि० श्रारुह. एधुल. आराहणफत्तरि. आकारियसना-आलंकारिकसना-स्त्री० चमरचंचाराजधाधाच० । हस्तिपके ( वरपुरिसारोहगसंपत्ताण अ.सयं नीस्थे सभाविशेष, आबंकारिका यस्यामक्रियत इति गया) तत्रारोहका हस्तिपकाः औ० ॥ स्था ग.५॥ आरोहण-आरोहण-न० आ० रुह ल्युट्रानो चस्थानादूर्ध्वस्या | आनंद-आनन्द-न० का विशेष, तत्रोदकार्डः करो यावता नगमन वाच॥ आरोहणार्थं नवयौवनेन कामस्य सोपान | शुष्यति तत आरज्योत्कृष्टतः पंचराविदिवानि यावत्कालीन मिव प्रयुक्तम. कुमा. अइन्कुरादिप्रानावे च. पारुह्यतेऽनेन समयपरिभाषय.बंदमित्युच्यते । विश०॥ करणे. व्य.सोपाने च.। आरोहण स्यात् सोपानम्. । अमरः भाटिय-आलंटिक-त्रि० आअदस्यानतिक्रमेण चरतीति । आवाच०॥ साइचारिणि, विशे०॥ आरोहणिज-आरोहणीय-त्रि. आरोहणं प्रयोजनमस्य अनु आनंबण-आझम्बन-त्र आअम्ब्यतेऽवष्टायत दुर्गपर्वतादि प्र. आरोहणसाधने पदार्थ, पारुह. कर्मणि. अनीयर. प्रा स्थानमधिरोहकामैरित्यासम्बनं दर्शन आश्रये (लंबणं च रोढुं योग्य हयादौ वाच । मे आया अवससं च वोसिरे ) आअम्बनं चाश्रयोऽवष्टंभ श्रा आरोहपरिणाह-आरोहपरिणाह-पुं. शरीरस्याऽरोहस धार इत्यर्थः । आतु.। (आलंवणेण केण ) आबम्बन मः परिणाहः । शरीरोपसम्पदभेदे. व्य० २.५। आरोहप- त्यालम्बनम् प्रपतनाधारणस्थानम् तेनालबनेन केनचिदिति रीणाहो, आरोहो नाम शरीरेण नातिदैर्ध्य नातिन्हस्थता प श्राव(जो मरणदेशकालेन होई आझयणं किंचि)(श्रावं रिणाहो नातिस्थौड्यं नाति पुर्बलता अथवा आरोहः शरी. बनमाधारतूतं । तं०। (मोढासम्बण खमं) आसम्बनं हस्ता रोच्छ्यः परिणाहो बाह्वोर्विप्कंभ पती घावपि तुल्यो न द्याधार गर अधि०१ ( जमणेगत्थाबंबणमपज्जदासपारक हीनाधिकप्रमाणाविति । वृ०।। चियं चित्तं)यञ्चितं यन्मनोऽनेकार्यालम्बनमनेकार्थप्रतिभासांप्रारोहो दीर्घत्वं परिणाहो विष्कं तो विशालता तत्र यावताऽ दोलितमिति विशे॥ आलम्बनेन चक्कुरादिज्ञानविषयेण प्रति रोहस्तावान् यदि विष्कंभो भवति तदा एषा नपसंपत् मादिनेति । पो॥ आलंबनं ब्धिा व्यतो गर्तादौ निमज्जश्राराहपरिणाहे ज्ञातव्या ॥ व्य. न०५॥ तोरज्यादि । जावतः संसारगर्तायां निपततां झानादि । वृध। आरोहपरिणाहजुत्तता-आरोहपरिणाहयुक्तत्ता-स्त्री० आरा घ. अधि. ३ नि. चु० उ.१ आविज्जति जं तमाखवणं विहं हो दैव्य परिणाहो विस्तरः तास्य तुल्याच्या यक्तता भारो- दवे वन्धि वियाणा नावे य णाणादि । नि.चू० । आवधि Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलंबण अभिधानराजेन्द्रः। आवंबण कमणि ल्युट् । आसम्न्यन्ते आश्रीयन्ते तान्यालम्बनानि । श्री. आसंबणहीणो पुण, निवाइ रवलिओ अहे दुरुत्तारे । आश्रयणीय, आलम्बनादाश्रयणोयादिति॥स्याग.३यान्या इअनिकारणसवी, पमर जवोहे अगामि ॥ ७ ॥ सम्ब्यन्त तान्यासम्बनानि जश. २५ उ. ७ कारणे प्रव.हा १०४॥ नि. चू.५ न. । कारणमालंबणं मोत्त, कारणं नामा टी॥ आसंबनहीनः पुनर्निपतितः स्वायतः काह दुरुत्तारे गत्तायां उरुत्तारायां श्य एवनिकारणसेवी साधुः संबनम् आ.म प्र.अ.१॥ (सपञ्चवारण निरासंबणणं) निष्कारणे न प्रत्यपायसंभवे वा त्राणायावंबनीयवस्तुवर्जितेनेति झा पुष्टा बनरहित इत्यर्थः । पतति भौधे अगाधे पतति जयग अ.ए ॥ आलंब्यत इत्यालम्बनम् । प्रवृत्तिनिमित्ते, आव० । त्तीयां अगाधायां अगाधता पुनरस्यापुत्खनोत्तरणसनवादि ति गाथार्थः ॥ यथा चरणविक या असहायज्ञनदर्शनपक्षआलम्ब्यते निश्चनक्रियते मनो येनेत्यालम्बनम् उत्तश्र.२।। प्रयोजने, (आनंबणे य काले मग्गे जयणाए चव परिसुरू ) माअम्बत्येवं नित्यवासाद्यथाह ॥ आचा० अ.२ न. ३ नि० उ. १० आवंबणेत्यादितः प्रवचन जेजत्य जया जग्गा, अोगासं ते परं अविदंता ॥ संघगच्नचार्यो दिप्रयोजनम् प्राचा० । एष्टा सम्बनस्य मुबगु- गंतु तत्य चयत्ता, इर्म पहाणंति घोसति ॥ए॥ णप्रतिसेवने न दोषः वृ० । अयापुष्टायनोनिरासंबनो वा टी०॥ ये साधवः शीतवविहारिणः यत्र नित्यवासादौ प्रतिसवते । ततः संसारोपनिपातमासादयति ॥ यदा यस्मिन्काले भग्नानिधिणा अवकाश स्थानं ते परं - तथाचान दृष्टांतमाह। न्यत् (अविदातत्ति) अमनमानाः गंतुं तत्र शोभने स्थाने अश तुच्छमवबमाणो, पेहति निरासंवतो यदुग्गमि । कनुवंतः किंकुति इदं पहाणंति घोसंति यदस्माभिरंगीकृतं सांप्रतं कासमाश्रित्यदमेव प्रधानमित्येवं नाघोषयति ॥ ए॥ सावंबनिरालंबे, अह दिलुतो णिसेवंतो॥ आव. ३ अ । आ.क. हा०१४ अत्र सार्थेन रयतः॥ इहालंबनं द्रव्यभावभेदाद्विधा तत्र गादौ पतनिर्यद्रव्यमालं स्वरूपोदकतरुच्छायं, सार्थः काश्चद्यथापयं ॥ म्यते तत् व्यासंबनं तच्च विधा पुष्टमपुष्टं च । अपुष्ट दुर्घसं कुशवस्वकादि पुष्ट बलिष्ठं तथाविधकठोरवत्यादि नावासंब प्रपन्नस्तत्रकेऽप्यस्युः, परिश्रमजुषोऽवसाः॥१॥ नमपिपुटपुटभेदाध्धिा पुष्टं तीर्थाज्यवधित्तिग्रंथाध्ययनादि तिनतंत्रिकमाया, स्वपि गयासु निर्वताः॥ अपुष्ट शतया स्वमतिमावोत्प्रेक्तिमासंबनमात्र । ततश्च तैस्तैश्च गमत, शब्दयत्यपरानपि ॥२॥ व्यासंबनं पुष्टमपुष्टमवलंबमानो निरालंबनो वा यथा उगै प्रधानामिदमेवात्र, स्थानामत्यर्थके च न ।। गादौ पतति यस्तु पुष्टा बनमवतंबते स सुखेनैवात्मानं गादौ पतन्तै धारयति । एवं साधोरपि मुबगुणाद्यपराधा- ये तद्वचः प्रपद्यास्यु, स्ते कुत्तृमदुःखिनोऽजवन् ॥३॥ निषेवमाणस्य सासंबनिराखंबविषयोऽथायं दृष्टांतो मंतव्यः॥ स्त्रीचक्रे तद्वचोयेन, तमध्वानं विसंध्यते ॥ किमुक्तं भवति । योनिरालंबनोऽपुष्टासंबनो वा प्रतिसेवते स शीघ्र शीतोदकच्चाय, सुखनाजोऽयतेऽनवन् ॥ ४॥ आत्मानं संसारगर्तायां पतंतं न संधारयितुं शक्नोति । यस्तु पुष्टाबबनः स तदवष्टभादेव संसारगत सुखेनैवातिसंघयति ॥ यथा ते पुरुषास्तस्युः, पावस्थाद्यास्तथालसाः॥ अथ कस्मादालम्बनमन्वेषणीयमित्याह ॥ ये तद्यमात्तं निस्तीर्णाः मुखिनस्त सुसाधवः ॥५॥ सावंबणो पतो, अप्पाणं मुग्गमे विधारे। साम्प्रतं यमुक्तमिदं प्रधानमिति धोषयति तद्दर्शयति ॥ निअयावासविहारं १, चेश्अजतिंच आज्जआ मानं इअसालंबणसेवा, धारे जई असदनावं ॥६॥ ३ विगईसु अपमिबंध, निद्दोसं चोश्यं विति । १०। कानि पुनस्तान्याअम्बनानीत्याह ।। पमिदारगाहा॥ टी०॥ नित्यवासेन विहरतनित्यवासकाहं अवित्तिअदुवा अहीहै, तोवहाणेसुव उज्जमिस्सं । कल्पमित्यर्थः चैत्येषु शक्तिस्तां च चशब्दात्कुलकार्यादिपरिगणं वनिइए बहुसार विस्त, साझवसेवा समुवेश् मुक्खं ॥ प्रहः । आर्यिकान्योलाजस्तंकीराद्या विगतयो अभिधीयते ॥ व्या काहमित्यादिवृत्तं यःकश्चिदेवं चिंतयति यथा करि- तासु विगातषु प्रतिबंध आसंगं निर्दोषं चोदिता अन्येनोद्य प्याम्यहमत्र स्थितोऽगित्तिमव्यवस्थितिं जिनधर्मस्येति शेषो तविहारिणेब्रुवते नणंतीति गाथार्थः॥ राजादर्जिनशासनावतारणादिभिः (अदुवेति) अथवा अहमध्ये | अधुना चेझ्यदारं गाहा ॥ प्ये सूत्रतोऽर्थतश्च हादशांग दर्शनप्रभावकाणि वा शास्त्राणि चे अकुलगणंस, अन्नं वा किं चिकाउ निस्साणं । यदि वा तपोबन्धिसमन्वितत्वातपविधानेषु नानाप्रकारेषु अहवा वि अजवइरं, तो सेवती अकरणिज्जं ॥ तपस्तु उज्ज्वमिस्सशति उद्यस्यामि उद्यम करिष्याम गणं वा गच्छ वा ( नईमुयत्ति ) सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वाशीतिनिः चैत्यकुबगणसधं अन्या किंचिवपुष्टमव्यवस्थित्यादिसूत्रोक्तैर्निः सारयिष्यामि गुणैःप्रवृद्धिं करिष्यामि स एवं सा कृत्वालंबनमित्यर्थः । कथं नास्ति कश्चिदिह चैत्यादि प्रतिसंबनसेवी । एतैरनंतरोदितैरालंबनैर्यतनया नित्यवाममपि जागरूकः अतोऽस्मानिरसंयमोऽङ्गीकृतः । मानूश्चैत्यादिव्यप्रतिसेवमानो जिनाझानुलंघनात्समुपैति प्रामवेति मोकं सिद्धि वच्छेद इति अथचाय्यवैरं कृत्वा निश्रांततः सेवंते अकृत्य तस्मातीर्याव्यवच्छेदादिकमेव यथोक्तझानदर्शनचारित्राणां असंयम मंदधर्मा प्रति गाथार्थः ११४ आव० अ०३॥ समुदितानामन्यतरस्य वा यदृषिजनकं तदावंबनं जिना- चेअपना किं, वइरसामिणो सुअपुव्वसारेणं । झावशाउपादेयं नान्यत् ॥ १४॥ . न कया पुरिआइ तया. मुक्खंग सा विसाढणं ॥११॥ संप्रति सिसाधयिषितार्थव्यतिरेकदर्शनायाह ॥ टीका ॥ मकरार्थः सुगमः | भावार्यस्त कयानका. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२२) मालंधण अभिधानराजेन्द्रः। भालबम दवसेयस्तच कयितमेव तत्र वैरस्वामि नमासंबनं कुर्वाणा उक्तस्तैनाlते राज्य, चिरादव्युद्ग्राहितोऽथ सः। श्वं नेहंत मंदधियः । किमित्याह ॥ पशुपास्यैकया साधोः , सविषं दध्यदापयत् ॥५॥ श्रोहावणं परोसिं, सतित्य उन्नावणंच बच्छवं । पुष्टाः पुनरमात्यास्ते, सर्वत्राऽप्यादिशन् पुरे। न गणंति गणे माणो, पुलीच पुप्फमहिमंच ॥१६॥ राजर्षेरस्य युष्मानि, र्दातव्यं सविर्ष दधि ॥६॥ टी० ॥ अपनाजनां सांगनं परेषां शाक्यानां स्वतीर्थो भावनां च दिव्यकरणेन तथा वात्सल्य श्रावकाणां एतन्न हृत्वा तद्दवतानाणी, महर्षे ! साविषं दधि । गणयत्यासंघनानि गणयतः संतः तथा पुष्योचिर पुष्फमहि त्यजेतत्यसमेतेन, पुनर्व्याधिरवर्फत ॥७॥ मंच गणयंतीति पूर्वावचितः प्राग्गृहीतैः पुष्पैः कुसुममहिमा पुनदध्याददे सोऽथ, पुनर्देव्यहरद्विषं । यात्रा तामिति गाथार्थः १६ ॥ चत्यजातिधार गत ॥ एवं तत्पृष्ठतो लग्ना, देवता संचचार सा || अधुनायिकासामधारम् । तत्रेयं गाया ॥ अज्जियनाने गिझा, सएणलानेणजे असंतुट्ठा । तस्याः प्रमादतोऽन्येद्य, बुजे सविर्ष दधि । तत्तापातः शुजध्यानः, केवलं प्राप्य निर्वृतः ॥७॥ जिक्खायरिया जग्गा, अभिर पुत्तं ववइसति ॥ तस्य शय्यातरः कुंज, कारो देवतया तदा। अनिअपुत्तायरिओ, जत्तं पाणं च पुष्फचलाए । सिनपल्यां कृतो राजा, राजर्षेनक्तिमानिति ॥१०॥ उवणीअंजतो,ते एवनावे अंतगमी ॥ कुंनकारकृताम ते, तनाम्नाऽजनि तत्पुरं । टी० अकरायोनिगदसिमाभावार्थस्तु कथानकादषसेयः। सथ मन्धिकापुत्राचार्यशब्दे । तेन मदमतय श्वमालयन पांशुष्टया पुनर्वति, जयं सर्व स्थलीकृतं ॥११॥ कुर्वतः श्दमपरं ने कंते ॥ किमत आह॥ ऋषिहत्याकरमिति, कोपाद्देवतया तदा । गयसीसगणं अोमे, निक्खायरिश्रा अपञ्चनं थेरं । कारणाधिनुग्युक्तः, कर्तुमासंबनंन सः१शा.क.।। न गएंति सहो विसढो, अजिअक्षानं गवेसेज्जा ॥ सीअलबुक्खाणुचिअं, वएसु विगईगएण जावंतं ।। टी० गतः शिष्यगणोऽस्येति समासस्तं प्रोमे निक्के नि हहा वि नणंति सहा, किमासि उद्दायणो न मुणी ॥१॥ काचर्यायां अप्पश्चलो असमर्थः भिकाचर्यायां अपचन असम- टी.। शीतलं च तद्रकं च शीतसरुकं अन्नमिति यस्तं स्यविरं वृद्ध एवं गुणयुक्तं न गणयंति नामोचयति गम्यते।तस्याऽननुचितः अननुरूपः नरेंद्रप्रवजितत्यारोगाभिसहा विसढा समर्थाः अपि शब्दात सहायादिगुणयुक्तत्वे नृतत्वाश्च शीतलहक्काननुचितस्तं व्रजेषु गोकुलेषु विगतिंगतेन भपिशग मायाविन आर्यिकासानं गवेषयंतीति अन्धिषत बिगति यातेन यापयंत ( हट्ठावित्ति) समर्था अपि भणंति इति गाथार्थः ११०॥ गतमाथिकासानद्वारं विकृर्दिधारमधुना तत्रेयं गाया.। शगः किमासीत् ( उहायणो न मुनिः ) मुनिरेव विगत्ति परिभोगे सत्यपि तस्मानिर्दोष पवायमिति गाथार्थः॥७॥ जत्तं वा पाणं वा, जुत्तूणं लावसानिमि विसुकं । एवं नित्यवासादिषु मंदधर्माः संगमस्थविरादीन्यालंबनान्यातोवज्जपमिच्चबा, उदायणरिसिव्य वसती॥ २०॥ श्रित्य सीदति। अन्ये पुनः सूत्रादीन्येवाधिकृत्य तथाचाह । टी०॥ नन्तं वा ओदनादि पानं पा प्राक्क पानादि शुक् आव०॥ स्वा उपहज्य(सावसिावयति लोपेतं अशुद्धं विगतिसंपर्कदो पात् तथाच निः कारणे प्रतिषिक एव विगतिपरिमोगः॥ मुत्तत्थबाझबुले, असहदव्बाइआवश्रो श्र। सक्तंच। निस्साणपयं कालं, सत्यरमाणा विसीअंति ॥२॥ विगति विगति जीया, विगतिमयं जो क नुंजति साहू । सूत्रश्चार्यश्च बालश्च वृक्षश्च सूत्रार्थबालवृधाः । तान् तथा विगति विगतितहावा, विगति विगति वसानोति ॥ असहम व्याधापदच असहव्याचापदस्तांश्च निश्राणां आवंबनानां पदं कृत्वा संस्तरंतोऽपि संयमानुपरोधने ततः केनचित्साधुना चोदिताः संतोऽधधप्रतिमन्नाः पाप वर्तमाना अनिसंतः सीदति । एतदुक्तं भवति । सूत्रं निश्रापदं प्रादिता उदायमा ज्यवादशत्यासंबनतयति गायार्थः ॥१॥ कृत्वा यथाई पगमि तावकि ममाऽन्यन एवमर्थ निश्रापदं भाव. ३ अ.॥ कयाचंयम्। कृत्वा शृणोमि तावत् एवं बासत्वं वृद्धत्वं असहत्वं असमर्थप्राप्तीदायनो नाम, राजा वीतजयाधिपः। त्वमित्यर्थः । एवं द्रव्यापदं झभमिदं व्यं, तथा केत्रापदं क्षुद्धकमिदं केत्र, कासापदं पुर्भिकं वर्सते, तथा भावापदं राज्ये निवेश्य जामेयं, प्रव्रज्यां स्वयमग्रहीत ॥१॥ ग्लानोऽहमित्यादि, निश्रापदं कृत्वा संस्तरतोपि विषीदत्यस्यनिकाहारस्य तस्यानूद, व्याधिवैधेरजाणि सः। सत्वा इति गाथार्थः॥॥ केवलं दधि जुंजीथा, येन व्याधिन वर्मते ॥॥ आलंबणाण लोगो, नरिओ जीवस्स अजनकामस्स ।। राजर्षिस्तु ब्रजेष्वस्या, तत्रयत्सुसनं दधि । जंज पिच्चइ लोए, तं तं श्रावणं कुण॥२३॥ सोऽगाद्वीतजयेऽन्येशु, स्तत्र तज्जामिसून॒पः ॥३॥ ऊचेऽमात्यैः स्वराज्यायी, जितसर्वपररीषहैः । टी०॥ आनंबनानां प्राङ्निरूपितशब्दार्थानां सोको मनु प्यलोको भूतः पूर्को जीवस्य ( अजतुकामस्सति) अयतितुराजर्षिराजगामात्र, राज्यं दास्यामि सोऽवदत् ॥॥ कामस्य तथा चायतितुकामो यद्यत्पश्यात लोके नित्यवासादि Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२३) अभिधानराजेन्द्रः । भलंबाजोग दानं करोतीति गायाः ॥ २३ ॥ किंच विविधाजयंति प्राणिनो मंदश्रद्धास्तीवनकारच तत्रान्यतू मंदाना मालम्बनमन्यश्च तीव्रश्रकानामित्याह च ॥ जे जयाजय हुतु पराकरण पन्ना || जहाजं ते समायरंती, आसंवणं मंदसवाणं ॥ २४ ॥ डी० ॥ ] केचन साधयो यत्र ग्रामनगरादी यदा यस्मिन् सुखी (पश्यति यदा दुर्निशादी बहु ताचरणकरणप्रभ्रष्टाः संतः यत्ते समाचरति । पार्श्वस्थादिरूपं तदावन मंदकानां भवतीति वाक्यशेषः । तथा ह्याचायी मधुरामः सुमियाहारादिप्रतिबंधापरित्यागात्पार्श्वस्ता मनमा जिने पति गाथाभिप्राया ॥ २४ ॥ जे जत्य जया जे बहुस्सुप्रा चराकरणसंपत्ता ।। लंबणं तिव्वतकाणं ॥ २५ ॥ जं ते समायरंती, ये केचन यत्रामनगराई पदा सुखदुःखमादी (अश्यति) यदा च काका बहुश्रुताधरणकरणसंपता मा चराते निकुप्रतिमा तदालम्बनं सीधकानां जयतीति गायार्थः ॥ भव. ३ ० ॥ आलंचनं राज्यादि तदापत्रतादिनिस्ता कन्यादानम् आलम्बनसदृशे च ज० श. १८ उ० २ (आहारनूप श्रबणे) प्रालंबनं वस्त्रादिकमिव । का०प्र० ७ ॥ ( मेढी सम्वर्ण ) स्तंज्ञं ) श्रालंबनं हस्ताद्याधारः तत्समानः यया हस्ताद्याधारो गोपचारयति तथाचार्यो भवतें पतं गच्छं धारयतीत्यर्थः ० अधि० १ ( मेढीयपमाणे आहारे तंवणे) आपने राज्यादि तदापदिनिस्तारका दालम्बनम्. राज. । आलमन्यत इत्यालम्बनम् भावेऽनट् त्ययः कर्म० ॥ अवटुम्भे यथा मंदशक्तिः कश्चित् नगरे परिभ्रमणाय मिलते ततस्तद्भते । जातसामर्थ्य विशेषा सन् तान् प्राणापानादिपुमान् विसृजतीति कर्म. प्र. शब्दे निधीनां ग्रहणं चयते ॥ लंबराजोग आवणयोग- पु० श्रालम्बनवाच्ये पदार्थे ईत्स्वरूपे उपयोगस्यैकतानत्वम् । एतस्य बहुवक्तव्यता योगशब्दे अ० ॥ सालम्बनो निरालम्बनश्च योगः परो द्विधा ज्ञेयः । सह आयनेनानविषयेण प्रतिमादिना वर्तत इति सासम्बनम् ष०वृ० १३ । योगभेदेच अष्ट० आलंबनूय आज्ञम्बननूत त्रि० म्बन (आईबणभूप ) आलंबनं रज्वादि तदापकर्तादिनिस्तारकत्वादालवनम् । झा० अ १ । मामा आलम्बमान त्रि० बाग्हादौ गृहीत्वा धारयति, देशतः करेण गृह्णाति । वृ० 1 आसंवि (न्) आलम्बिन् जि० या उवि मिनि आधमिणि, “गजाजिनादिकृतधारिया " कुमा. बाच प्रासंविय-आलम्बित त्रि० लवि कः धृते, गृहीते, च वाच० । आज आम् पु० आज पक्ष नुम संस्प दिसने २ आलंजिय-आलजिक-म० स्वनामध्या नगरे, पत्र - तको गृहपतिरासीत् स्यानांगे बुद्धशतकमधिकृत्य ( सवाल वाच० ॥ आालय मिका भिधाननगर निवासी ) स्था० वा. १ । (आसंनियणयरं मज्जं मज्जेण णिम्गच्छ ) प्र० श. ११ व १२ ॥ भवनि काय नगरूपितं तत्प्रतिपादक संदेशको या भिक इत्युच्यते । ततोऽसौ द्वादशः जगवत्या एकादशशतकस्य देश | - प्रातंनिया श्रासन्निका श्री० स्वनामस्यातायनग ०श. ११ . १ ततो यर्थाभिनयरों गतो ) ० म. । कप० ॥ आ० ० ॥ अस्या वर्णको भगवत्याम् यथा ॥ ते काणं ते समय आतंजिया धार्म नवरी होत्या संखवोय भो तत्य आलंनिया ए एयरीए बहवे इसिनदपुत्तप्पामोक्खा समणोवासगा परिवर्तति । जाव अपरित अभिगयजीवाजीवाजाव विहति ॥ अ० श. ११ . ११ । आनत- आप्त- त्रि ० श्रभाषिते, ( आलसे चाहिते ) सोनाम आर्य ! किं तव वर्त्तत इत्येवमाभाषित इति वृद. (सवपुरीसो को माउसो ) भ्रातः संभाषित इति । व्य ० . २ ॥ शब्दिते. ततश्चाप्ताः शब्दिता वा तुणिभावं जन्ते । श्रचा. अ. ६ उ. ४ । आसपने. न. ( आतमादिकज्जत्था ) आलप्तमा लपनम्. व्य. उ. १० । आल. प्रसन्ध त्रि० आ लभ क संसृष्टे, संयुक्ते, स्पृष्ठे, हिंसिते, च. प्रान्नप्प - आलाप्य--त्रि ० श्रा. प. कर्मण. पयत्. कथनीये. णिच्. यत्. आभाष्ये. वाच० । आलवंत - प्रालपत्-- त्रि० ईषरूदति, ( आलंवते लबते वा ) पति सति पतित अ. १ पति (अचित्तरचा ) प्रापितं सकृत् प्रति आपने कुर्वति चाणं सुरयाणं नदिई गाणं ) मुरज मृदंगनीदमृदगानामालपनम् । राज० आ. चू. । आसपात्र पं. भाजीयतेऽस्मिन् मा. श्री. माघारे अन्न. आधारे वाच • आश्रये, स्था० वा. ३ स्या. ग. २ ॥ जं० ॥ आवास गृटे, सं. स्थाने विशे. (हिमालय नाम नगाधिराजः ) कुमा० तत्रामराजय मरालमराल केशी नै० नहि दुष्टात्मना मायां निवसन्त्यालये चिरम्, रामा० (देव शत्रूणां सुघोरं खाकथं वनम् ) भा.आ० प०। घालीयंते साधवोऽत्रेत्यालयः धृ० । वसती, स्था० वा. ॥ आ. . । (आपणं विहारणं) आलयो वसतिः भव । प्रतरेण. सरणं येन स्त्रीषादिसतिसेवनेन काप० ॥ उपाश्रये ॥ वृत्कये उपायस्यैकार्यिकानधिकृत्य ( उवत्सगपरिस्वगरिजा भानुयवसधी निसी हिया गणे, वृह० । शरीरे, च. निसीडिया सरीरगं वसही चंषि च जयति । यतेोनिगीहिया नाम श्रालयो वसही थांगलं च सरीरस्स यो सरीरं जीवस आल्योति । प्रा. चू. ॥ ॥ वर्तिनि च (विहारसमिओ) मालका सूचकत्वादावर्ती] [सफ कधिक निषेद त्यर्थ. ३ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भाषा प्रालयगुण अभिधानराजेन्द्रः। अलिंगाणिया भावे घन संश्लेषे, मर्यादायामव्ययी० बयपर्यन्ते. अव्य. दावित्यादिविधिनेति ॥ प्रवाद-उच्चारणविधौ च- (एसास वाच० ॥ घोमसव्वत्त-) एष ईदृश आप उच्चारणविधिः वृह० आलयगुण-श्रालयगुण-पु० बहिश्चेष्टादी, प्रतिलेखनादौ,उपश ( आलावौदेवदत्तादि कि नोति कि देवदत्तत्ति.) (अम्मामगुणे च वृ॥ यावनणे आवावसद्दो सुओ) नि० चू॥ प्रालयविन्नाण-आलयविज्ञान-बौद्धपरिभाषितेक्वणिकविज्ञा- अामावग--आनापक-पुं. आ लाप. क. उच्चारण विधौ ( पवने, आव॥ मिकेके आलावगा भणियवा) चत्तारि आलावगा, स्था० आलयसामि (1) आलयस्वामिन् पु० साध्वाश्रयप्रभी, | ग. ६॥ (सेजायरोति भमति भालयस्वामी उ तस्स जो पिमो)| प्रासावण-आलापन-न. आ अप णिच. जावेल्युद. परस्पर आक्षयस्वामी तु साध्वाश्रयप्रतुरेव-पंचा० १० १७ कथोपकथने, आनाषणे, आत्रापशब्देऽस्य प्रवृत्तिहेतुत्वमुक्तम आलयसुच्छाशलिंगपरिसुछ-श्रालयशुधादिसिंगपरिशुक्छ स्यादाभाषणमालापश्त्यमरः । स्वस्तिवाचन,च ( मंगवालापुं० आअयशुखादीनि वसतिनिदोषताप्रभृतीनि यानि त्रि पनमः ) रामा ० वाच । संभाषणे. वृ० । सकृत्सनाषणे ङ्गानि सुविहितचिन्हानितै परिशुशोनिश्चितसुविदितनावोयः आव.॥ नाणने. (जो लावसेजा असणस्स हेक ) आत्रा स आलय शुझादिलिङ्गपरिशुरुतस्मिन्. ( तम्हा जहोश्यगु पयेद् भाणयेत. सूत्र शु. अ. ० ॥ आ साप्यते आलोपन णो आवयसुझाशलिंगपरिसुद्धो) पंचाग वृ० ११ ॥ क्रियत एभिरित्याबापनानि. रज्यादौ. जश. म. पानवम-आझवएय-न० नबवणन तक अनवणस्यनावः आलावा वंध-आमापनबन्ध-पु.मात्राप्यते आतीनं क्रियतेभ्यम् लवणरसनिन्नत्वे नास्तिबवणं यत्र बहु० तत्ववा व्य. पभिरिति आमापनानि रज्वादीनि बन्धस्तृणादीनामालाअ-अलवणता-स्त्री० अनवणत्वंत. न० लवणन्यत्त्वे वाच०। पनबन्धः । बन्धनेदे. न-श. उ.ए । तथाच भगवत्याम्. आलस-आनस-त्रि० आझसति, ईषत्व्याप्रियते-अच्. क्रिया सेकिंतं आलावणवंधे जमं तणनाराण वा कहना मान्ये अलसस्य पत्पम् बिदा० अञ्-अवसापत्ये पुं० स्त्री० युन्यपत्ये हरिता० फञ् आवसायनः तस्य यून्यपत्ये-पु० राण वा पत्तजाराण वा पत्राननाराण वा वेस्खन्नाराण स्त्री०वाच। वा वेत्तलया वा गवरतरज्जुवीनकुशद जमाइएहिं आ आलस्स-आलस्य-न. असस्य भाव : प्यञ् अनुद्यमने लावणबंधे समुप्पज्जा । जहणणं अंतोमहत्तं डकोसणं उत्त०१०॥ संखेज कानं । सेत्तं आसावरावंधे ।। औदासान्ये प्रमादो यत्र आवस्यमादासीन्यं च हेतुषु आलस्यं च हेतष समाधिसाधनेवादासीन्य माध्यस्यं नत | आधि-आदि--पु. वनस्पतिविशेष, । जी प्र.३॥ पक्कपातः द्वा० ३.१६ ॥ प्रा०म०॥ प्रात्रीकदल्यौ वनस्पतिविशेषो. झा०३ अ० ॥ आस्राव-आशाप-पु० आसप्-करणे घञ्-वाच० आङ पदर्थ- | आझिग-आलिङ्ग-पुं० मुरजनामके, वाद्यविशेषे, राजप्र.३ त्वादीषद्धपनमात्रापःस्थाग०५ ईषज्ञाषणे,ध अधि०२ आलिंगोमृग्मयो मुरजः जी०.३ प्र. उताहिजताणं आदि असकृत्संभाषण, च (आबावं वा सेखावं वा) आबापः गाण, राज आ. चू.॥ (आहिंग पुक्खरे वा ) आसिंग्य संनाषणं संलापस्तदेव पुनः पुनः भ० २०३०१॥ वाद्यत इत्याबिंगो मुरजवाद्यविशेषस्तस्य पुष्करं चमपुट अालावत्ति सकृजल्पं सावत्तिमुहुर्मुहुर्जल्पं. भ० २० ॥ तत् किलात्यतसमिति तेनोपमा क्रियते ति. प्रा. म.प्र. ०४॥ध अधि०३ ॥ ईषत्प्रथमतया वा जल्पने, चतुर्भि १ अ. जं.॥ इच स्थानैर्निर्ग्रन्थस्य निर्ग्रन्थ्या सममालापे न दोषः। आलिशान्य त्रि. आ. बिग. एयत् प्रालिंगनीये प्रियादौ, वा तथाच स्थानाङ्गे स्था० घा०४॥ च० ॥ मुरजनामके वाद्यविशेषे, पु. ( अलिंगपुक्खरे श्व) अहिंग्यो नाम यो वादकेन मुरज आहिंग्य वाद्यते हदि धृत्वा चरहिं गणोहिं णिग्गंथे विगंथि आसवमाणे वा संत्र वाद्यत इत्यर्थः । क्षिग्यो मुरजावाद्यविशेषः ॥ एष यका वमाणे वा णाकमइ तं० पंचं पुजमाणे पं0 देसमाणे रान्तः शब्दः। जी. प्र. ३ असणं वा पाणं खामं वा साइमं वा दलयमाणे दवावे- आलिंगण-आलिंगान-न० आलिगि व्युर-आश्लेष-अष्ट. । ईमाणे वा ॥ परस्पर्शने प्रव. द्वा. १७० नि. चू. उ.१ दश अध्य. ६ स्था० टी० (चहीत्यादि) स्फुटं किंतु आलपन्नीषत्प्रथमत. ] आलिंगनवट्टि-आनिङ्गनवर्ति-स्त्री० शरीरप्रमाणे उपधाने या वा जल्पन् संपन् मिथो नाषणेन भातिक्रामति न संघ. (तारिसगंसि सयणिज्जसि साधिगमवहिप) सहाकिंगन यात निर्ग्रयाचारं ( एगो पगस्थिए सहि ने व चिकेन संवे) घा शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत्तत्तथा-प.प्रा.२०। जी० विशेषतः साध्या इत्येवं रूपं मार्गप्रश्नादीनां पुष्टात्रम्बनत्वादि प्र.३ । भ. श. ११ उ. ११ । झा०.१ ति तत्र मार्ग पृच्छन् प्रश्ननीयसाधमिकगृहस्थपुरुषादीनाम- आखिंगणवट्टिया-आलिंगनवर्तिका-श्री. शरीरममा दी जावे हे आयें ! कोऽस्माकमितो गच्चतां मार्ग इत्यादिना ऋमेण धे, गएमोपधोन, भाबिंगनवर्तिका नाम हरीप्रमाणं दीर्घ मार्ग वा तस्यादेशयन् धर्मशी बेऽयं मार्गस्ते इत्यादिना ऋमेण गएमोपधानम् । कल्प० ॥ श्रशनादि चाददद्धर्मशीले ! गृहाणदं अशनादीत्येवं तथा | आलिंगाणिया-आलिंगनिका-श्री. पुरुषापमाणे पधाने, अशनादि दापयन् आयें! दापयाम्येततुऽयं आगच्छेह गृहा आलिंगनिकायां पुरुषप्रमाणायां राजेलिपुण्या समातिम्य Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) आलिंगपुक्खर अभिधानराजेन्द्रः । पालुख राजान्तः पुर्य्यः शेरते. जी०प्र०१ फरिसग्विग्हिाझुंखाबिहाः ॥ १॥ शत प्राकृतम्त्रेण स्पृशप्राधिगपुक्खर--आलिंगपुष्कर-न मुरजमुखे,भ० श. २ च. तेराखिहादेशः आविहरु प्रा. ॥ स्पृशति अस्पाकीत् अस्पाकी मुरजमुखपुटे, च भ. श. ६ उ. ७ जंग । प्रा. म. प्र० त् अस्पृक्त पस्पर्श । वाच.॥ १ . राज.॥ आमिहमाण-आलिखत त्रि० विन्यस्यति, ( आविहमाणे आग्निपत-आधिपत-त्रि आसेपं कुर्वति(आक्षिपंतं वा विनि- २ अप्पविस) आसिखन् ३ विन्यस्यन् १ अनुप्रविपंतं वा साजर) नि.न. उ०३ शति ।। जं०॥ आक्षिपावंत-आबेपयत्-त्रि० आक्षेपं कारयत्ति (अप्पयरेण वा | आलिहिज्जमाण- आग्निख्यमान त्रि० विन्यस्यमाने, (मैमोहिं भावेवणजापणं आविंपावंतं वा) निचू. उ.१७ | प्राविहिजमाणहिं ) जं॥ आनिधरग-आनिगृहक-न० आसिर्वनस्पतिविशेषस्तन्मया-! आली- आली-स्त्री० सख्याम् ॥ प्रा० ॥ नि गृहकाणि । आलिमये गृहे, राज। आलीढ-पानीढ त्रि० प्रा-लिह-क्त-युशासनविशेषे॥ वाचा.॥ आलित्त-आदील-त्रि० समंततो दीप्ते. " जह आमित्ते गेहे, तत्र दकिणमुरुमग्रतो मुखं कृत्वा बाममूरं पश्चान्मुखं प्र कोर पसुत्तं नरं तु बोहे जा" आसमन्ततो दी गृहे, व्य सारयति । अंतरराबड़योरपि पादयोः पंचपदोः ततो उ.३ अंत० अ.५ अभिविधिना ज्यसिते, भ० श.२.१ __ वामहस्तेन धनुर्गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यंचामाकर्षति तत् प्रदीपने, न० कोटिमघरे वसते प्रावितमि विन मज्जई तेणे आसिढम् ॥ व्य० -१ श्रा०म-अ-१॥ श्रा-चू-॥ श्रादीप्तेऽपिप्रदीपनकऽपि न दह्यते इति-ज्य. उ.४ उत्तक १ अ.। निचू-११ प्रालिप्त-त्रि. आ. बिप. क्त. कृतानेपने,दत्तादीपने, च वाच०॥ आमीण-भालीन-त्रि. आबी कतरिक्त आश्लिष्टे, वाच० आर्स आलिक-आदिग्ध-त्रि० बग्ने, ( अत्थेगश्या पुढवीकाश्या गिते, कल्प० सुश्लिष्टे, झा० अ५ आलिका) आदिग्धाः शिक्षायां शिवापुत्रके च लग्ना ति किंचिबम्ने, च ॥ जं. ॥ प्राकृते ( प्राविडोवी ॥५४॥) इति सूत्रेणालियतेः अल्ली इत्यादेशो भवति । अविर भ० श. १ए उ.३ आश्लिष्ट-त्रि० । आ. शिवष् क्त आश्विष्टे, बधौ । एशत अल्बीणो ॥ प्राण ॥ (अल्बी एयमाएजुत्तस्सवणा) आसी नौ मस्तकभित्ती किंचिल्लग्नौ नतु रप्परौ प्रमाणयुक्ती स्वप्र प्राकृतसूत्रेण आश्लिष्टे संयुक्तयोर्ययासंख्यं बध इत्येतौ भव माणोपेती श्रवणी कौँ येषां ते ॥ जंग ॥ (माणेि मद्दए तः प्रा०। आलिंगिते संबके (शिखाभिराश्लिष्ट इवाम्नसां विनाये) आलीनः सर्वगुणैरालिंगितः॥ कल्प० ॥(आलीणगुनिधिः । आश्लिष्टतमि रसितारमुच्चैः) इति माघः वाच। त्तो परिव्वए) आचा० ३५ ॥ भावे क्तः संश्लेषे, न. श्रामिछमणाविघवंदण-आश्विष्टानाशिवष्टवन्दन-न० सप्त तत्र साधु अए वंगे धातुभेदे तस्य धात्वन्तरसंश्लेषकारक विशे वन्दनकदोषे, तञ्च(आविष्मणालि रयहरसीसे य हो त्वात् तथात्वं । वाच ॥ चरभंगो) वृ०। अश्लिष्टमनाश्लिष्टं चेति पदद्वयमाश्रित्य आलीणगुत्त-आनीनगुप्त- त्रि० प्राङ् मर्यादयेन्द्रियरोरजोहरणशिरसो विषये चतुर्भगिका भवति।साच अहो कार्य धादिकाबीन आलीनो गुप्तो मनोवाकायकर्मभिः कूर्मवत्संकाय इत्याद्यावर्तकान्ते संभवति । रजोहरण कराज्यामाश्लि वृतगात्रः । आत्रीनश्चासौ गुप्तश्चानीनगुप्तः । इन्द्रियरोगादियुते प्यात शिरश्चेत्येको १ रजोहरणं श्लिष्यति न शिर शति द्विती मनोवाकायकर्मनिमुने, कर्मवत्संवृतगात्रे, च प्राचा० अ.३२.२ यः शिरश्लिष्यतिन रजोहरणमिति तृतीयो ३ न रजोहरणं (आबीणगुत्तोपरिब्वए) आलीनो गुप्तश्च परिव्रजेत् आचा.॥ न शिरः श्लिष्यति । शप्ति चतुर्थो भंग इति अत्राऽऽद्योनंगः शुद्धः। शेषनंगाये आश्लिष्टदोषदुष्टप्रकृतवंदनमवतरति ।। बाबु-आल-पुं०आ बाति-वा-मित् ऋगणच रस्य नावा प्रव.द्वा. १ ध० अधि। आव आ.चू.२ अ.॥ पेचके, भेयके, । शब्दरत्ना० स्वल्पवारिधानिकायाम् सनाले जलपात्रभेदे, स्त्री० कन्द नेदे राजनिः तस्य नेदा नानाविधाः आनि (ली) वग-आदीपक-त्रि० आदीपयत्यन्यगृहमाग्नि "कंदा बहुविधो लोके आबुशब्देन नण्यते॥ कञ्चामुश्चैव घंटामु, ना। आ. दीप णिच् एवम् गरगृहस्य दाहके, गृहादिदीपनक पिंझाबुझशर्करादिकम् ॥ काष्ठाबुश्चैव माद्यं स्यात् तस्य नेदा कारिषु प्रश्न हा०३ । अग्निदातरि झा० अ.१ उद्दीपके, च अनेकशः" । वाच॥ वाच ॥ आचाराङ्गन्दीपिकायाम् । कात्रिंशदनंतकाय वनस्पति प्रालि (बी) वण-आदीपन-न० आ. दीप णिच युद। जविानधिकृत्य-(आलू तह पिमालू बत्तीसं जाणि अणंतातएकुत्लादिसूर्णमिाश्रितजलेन गृहादौ चित्राकारलेपनभेदे, ६) आचाण अ.१.३॥ उद्दीपने, च वाच ॥ग्रामादिप्रदीपने ( पालीवणेहि य ) व्या आपूतह पिकाबू हवन्ति पए अणन्तनामेणं । ध० अ० २। कुललोकानां मोषणार्थ ग्रामादिप्रदीपनैः । विपा० अ.११ । आबू शति दीर्घान्तोप्यत्र । आलि (सी) विय-आदीपित-त्रि० आ. दीपणिच् क्त दत्ता- आई-आबकी-झी० बल्लीनदे,। आचा ० अ.१ . ५ दीपने गृहाङ्गनादौ, उद्दीपिते, च वाच ॥ ॥प्रव घा.१०॥ आलितं (ति) दग-आलिस (सि)न्दक-पुं. धान्यावशे | आख-दह-दाहे--भस्मीकरणेच सक ज्वा० ५० अनिषे दशा. (आनिसंदगत्ति) चपत्रकार.टी०(आलिसदगत्ति) द-दहेरहिल मुखौ ॥ २०७॥ शति प्राकृत सूत्रेण बहेराचवसकप्रकाराः चवनका एवान्ये । जश. ६ न.७ झुंखादेशः आढुंखर महश् प्रा० प्रालिह-स्पृश् स्पर्श तु. पर. सक. अनिट् । स्पृशः फासफंस- आवख-स्पश-स्पर्श-तु० पर सक० अनिट् (स्पृशः फासफंसफ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलुच रिसबिवाहामुंखालिहा. ८१ ॥ इति रासुंखादेशः लुख ॥ प्रा० ॥ आकुंचन - बुंचन- न० ० बुचि देर्बन्धराहित्ये, च ॥ वाच ० ॥ ग्रहणे आसुंटण - आयुंग्न न० आ लुटि वाच ० ॥ ( ४२६ ) अभिधान राजेन्द्रः | प्राक्रतसूत्रेण स्पृशे -- ल्युट् उत्पाटने, केशा ॥ आव ० ॥ ल्युट् वलादपहरणे, आप बुम्ब०ि श्रासमंताल्युंपतीत्यानुंपः धनापहारके, आपे सहसाकारे । स हि बोना नितान्तः करणोऽपगतकर्तव्याकर्तव्यविवेकोऽर्थ जो नैकदत्तदृष्टिरैहिकामुष्मिकविपाक - कारण र्निग कर्तनचौर्य्यादिकाः क्रियाः करोति ॥ आचाअ. २ न. १० ॥ ( पर विपह) आलुंपतवस्त्रादिकं विपत् सर्वस्वापहारेण ॥ आग (य) आबुक पुं० प्रा. लाति पृथ्वीं कासरोगं वा श्राला. मित्र रु संज्ञायां कनू. शेषनागे, कासालौ, व आबु. स्वा. कन् कन्दभेदे, न० वाच० ॥ ( तरुणगएलानुयत्ति वा ) आमुकं कन्दविशेषः । तश्चानेकप्रकार मिति विशेषपरिग्रहार्थ argकमित्युक्तम् || अपु० अ.१ ॥ साधारणशरीरबाद रवनस्पतिकायिकानधिकृत्य ( साहारणसरीरा अणोगदा ते पकित्तिया श्रलु ए मूलए चैव सिंगवरे तहेव य ) उत्त० श्र. ३६ ॥ ज० श. ७ . २ ॥ प्रज्ञा ० पद १० ॥ जी० प्र. १ ॥ आबृग - आलून-त्रि० बू० त० ६पच्छिन्ने, सम्यकूने, च तेनामरवधू हस्तैः सदयालूनपल्लवाः कुमार० ॥ वाच० ॥ वि शीणं ॥ श्र० म० ॥ आदम् अव्य० आश्लेषं कर्तुमित्यर्थे, स्वार्येकश्च वा शर्त प्राकृतसूत्रेण स्वायें कः ॥ प्रा० ॥ आप- आप- पु० आ-लिप् घञ्-उपत्रेपे, आलिम्पने, च आयते कर्मणि ल्युट् आलिप्यमाने च ॥ वाच० ॥ आवरा-आलेपन - न० आलिप् ल्युट् उपलेपे, आलिम्पने, च वाच ॥ सल्लेपने नि० ० उ. १२ ईषल्लेपने ॥ वृ० ॥ दिवा गृहीतगोमये रात्रौ व्रणाद्या लेपननिषेधो ॥ नि ० ० ॥ जे चिक्बू दिया गोमयं परिग्गदेत्ता । दिया कार्यसि वज्जि वा विलिपेज्ज वा अति वा विक्षितं वा साइज्जइ || ३ || जे जिक्खू दिया गोमयं परिगता रतिं कार्यं सिवणं आलिंपेज वा विीिंपेज्ज वा पितं वा विझितं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥ जे क्रित्तिं गोमयं परिग्गदेत्ता दिया कार्यसि वणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्ज वा आर्जितं वा साइज्जइ ॥ ४१ ॥ जे भिक्खू रत्तिं गोमयं परिग्गहत्ता रत्तिं कार्यसि वणं पेज्ज वा विज्जि वा वा विक्षिपतं वा साइज्जइ ॥ ४२ ॥ चन्कजंगमुत्तं उच्चारेयव्वं । कायः शरं रं व्रणः क्षतं तेण गोमयेण आलिंपइ सकृत् विलिंप‍ अनेकशो परिवारमासन्नहूँ । परिवासिते चउमंगे चहुं तवकालविभिट्ठा आणादिया दोसा । गाहा । For Private लेवण दियएतो गोमत्तेणं चनकनयणा तु जाव ऐवृत्ता ।। एतो एगतरेण पक्वत्ताणाहिणो दोसा ॥ २१६ ॥ चउक्कन यण चजंगो तत्ति देस जाव वृत्ता इहंपि सच्चेव । गाहा । ततुप्पतित्तं क्खं अभिनृतो वेयणा एत्तिव्वाए । अका अन्वहितो तं क्खहिया सते सम्मं ।। २१७ || अब्बोच्छित्तिणिमित्तं जीयाए समाहिजं वा । एते हि कार हिं जयापि कुज्जा ।। २१८|| पूर्ववत् गोमय गहामा विधी गाहा । अनिणववोसडासत्ति इतरे योगं का जगणं तु माहिस सत्तीगव्यं तवच्छं विधाता ||२१|| वोसिरियमोत्तं घेत्तव्यं तं बहुएं तस्सासवियर चिरकाल वोतिरियं तं पि उत्रकरे तु गहणं दिसतं पि मादिसं घेत्तव्वं मोहिसासतिग तं पणायवेत्तियं जायायामित्यर्थः । तं असुसितं विघाती जवति प्रायवत्यं पुण सुसियरं सम्मगुणकारी सुतं जे जिक्खू दिया आणि जायं परिग्गाहेत्ता दिया कार्यसि वर्ण पेज्ज वा विलिपेज्ज वा आक्षिपतं पितं वा साइज्ज‍ || ४३ || जेजिक्खू दिया आपण जायं परिग्गाहेता रतिं कार्यंसि वणं आि पेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आपितं विलिंपतं वा साइज्जइ ॥४४॥ जे निक्ख रातं प्रक्षेव जायं परिग्गाहेत्ता दिया कार्य विस पेज्ज वा विधिपेज्ज स आक्षिपतं वा विक्षिपतं वा साइज्जइ ॥ ४५ ॥ जे निव्बू रत्तिं लेवजायं परिग्गाहित्ता रत्ति कार्यभि वणं प्रतिपेज्ज वा विक्षिपेज्ज वा प्राक्षिपतं वा विक्षितं वा साइज्जइ ॥ ४६ ॥ आलेवण जातं आलेवणप्प गारा ॥ गाहा ॥ दियरातो लेवेणं, चटकनयान जाव ऐवत्ता || तो एगतरेणं, मव्वेताणादिणा दोसा नि. चू. उ. १२ पर्युषितेना लेपनजातेनासेपननिषेघो । बृहत्कल्पे ॥ णो कप्पड़ निग्गंयाणं वा निग्गंयीणं वा पारि यसिए जेवणजाएणं लिपित्तए वा विक्षिपित्तए वानन्नत्य गाढेोहं रोगासंकेहिं ॥ एवं कुणसूत्रमप्युच्चारणीयं ॥ व्याख्यातः कल्पते निर्मन्यानां वा २ परिवासिते नालेपन जातेनापयितुं वा ईषपयितुं विद्वेषयितुं विशेषेण लेपयितुं नान्यत्र आगाढेज्यो रोगातंत्र्य इति सूत्रार्थः ॥ अथ भाष्यं ॥ मऊणं द्विप, एस कमो होइ वतिमिच्छाए । ज‍ तेा तप्पमाणं, माकुण किरियं सरीरस्स ॥ परः प्राह ॥ ननु व्रणचिकित्सायां पूर्व व्रणो मृहित्वा ततः पिमी श्रदानेन आदिप्यते एष क्र.मस्ततः प्रथमं मृकणसूत्रमुक्त्वा पश्चादात्रेपनसूत्रं भणितमुचितमिति भावः । याद चैतत्तव न प्रमाणं ततोमा शरीरस्य क्रियामकार्योंरिति सूरिराह । Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२७) अभिधानराजेन्द्रः । श्रावण आक्षेपणे पण जो उवणो मसणेण किं तत्य । होहि वणो मासे आलेो दिज्जई समणं । नायमेकान्तो यदवश्यं वणे म्रक्षणमाहे पनं च जवति । किन्तु कुत्रचिदेकतरं कुत्राऽप्युभयं ततो यः किल व्रण आलेपेन प्रगुणीनवति तत्र किं प्रकणेन कार्ये किंचिदित्यर्थः । यद्वा । मा मे व्रणो नविष्यतीति कृत्वा प्रथममेवालेपः शमनमौषधं दीयते किंच ॥ चाउरे कज्जे करित्ति, जह लाजकज्जपमिवामी । अणुव्विसंतनिवे, जुज्जइ न उ सब्बजाई ।। या भागाकार्ये यथा आम बालापो का य प्रथमं सज्यते तेनैव चिकित्सां कुर्वन्ति । कुत्र नाम परिपाटि कमो विद्यते व्यक्ति वा सहिभाषा विद्यमानविकृति सूत्रचिकित्सायां क्रियमाणायामानुपूर्वी चिकित्साशास्त्रेण भणिता परिपाटिर्युज्यते घटते न पुनः सर्वजातिषु अतः मित्र मनोति ॥ सूमि कहियंमि, आलेवपत्ति चटसह हंति ।। आणाइदोसा, विणा इमेहिं तु ॥ सूत्रार्थकथनेन सूत्रे आकृष्टे सात निर्युक्तिविस्तर उच्यते । यथा लेपं रात्रौ स्थापयति । तदा चतुर्लघु, आज्ञादयश्च दोषाः विराधना च श्रमीः स्थानैर्भवति ॥ निके दवे पणी, आकजणपाणतन्खणव्खरणा । यंके विविज्जा, सो मासलढुगा य ॥ स्निग्धे वे प्रणीते आलेपे स्थापिते प्राणिनामाय ततत्क्षणकरणं तस्य प्रयादेः स्यन्दनं भवति । अन दोषभावना ग्राम्यत् आतकेच रोगे विषयसेन क्रियाकरणे वयमाणं प्रायश्चित्तं मासेति ॥ आगाढाना गाढकारणमन्तरेण पदे परिवासयत्ति । ततः प्राद्युकादौ स्याप्यमाने चतुर्लघु । श्रप्राशु कादौ चतुर्गुरु । इदमेव व्याचष्टे ॥ तिच्चिय संचयदोसा, तयावि से बाल बिवण लिहणं वा । वीयं विश्ए, उज्जमज्जंति जे दोसा ॥ त एवं संचयादयो दोषा मन्तव्याः ॥ त्वग्विषः सर्पः त्या जिन्यावात् तीये दिन दुष्यते। अनुज्यतो या ये दोषास्ताद प्राप्तान् यत एते दोषास्ततः ॥ दिवसे 2 गहणं, पिट्टमपिडे य होय जयणाए । आगाढे निश् िअपि पिडे व जयगा ।। यदानार्थमापो न प्रयोजनं भवति तदा दिवसे २ ग्रहणं विधेयं । तत्र प्रथमं पिष्टस्य पश्चादपि पिष्टस्यापि यतनया कर्त्तव्यं नवति । आगाढे च वानत्वे श्रापस्य निक्केपर्म परिवासनमपि कुर्यात् तद्यपिष्टस्य पितस्य वा यतनया कर्तव्यम् अथार्तकान्यज्यासं व्याख्याति ॥ आगाढे अणागार्द, अणागाढे वा वि कुइ आगाढं । एव तु विजासं, कुणइ बचाए कफतिगिच्छं । गाढे लानत्वे अनागाढां क्रियां करोति चतुर्झघु । अनागाढेवा आगाढं करोति चतुर्लघु या वाते चिकित्सनीये कफचिकित्सां करोति च विपर्यासो मंतयः । भालोइयपात यसेसे सहगायत पदं व्या अगलाण संसो, दब्वाई ति विह आव जटो था। पाच्छेते मगाया परिचासितं तस्मिमा तस्स ॥ शेषो नाम य आगाढोग्नागाढो वा सानो न भवति यो वा या विविधया थापा जो मुक्तः सदेव उच्यते तस्य परिवासयत श्यं प्रायश्चित्तमार्गणा । फासुगमफासुगे वा, चित्तचित्ते परित्तणं तेवा । सिने इसि हसए, अथाद्वारा हारगुरुगा । मायुकं स्थापयति स स्थापयति अवस्थाप्यमाने च सवितुर्गुरु परिते चतु धु अनन्ते चतुर्गुरु संगते अदायगावे चतुर्गुरु अनाहारे चाहारे चतु ॥ ० ॥ वाजिष्यते अनेनेत्याद्वेपनं साधनसाधने आयो तिथिधो वेदनप्रशमकारी पाककारी प्रणादिणीहरणकारी। नि० ० ० ३ ॥ जेवण जाय-लेपनजात- न० आलेपनप्रकारे, ( श्रालेणजाएणं आलिंपेज वा विसिंपेज वा ) नि० चू० उ० ३ ॥ आओढ आलेख- पुं० श्रा - लिख-धय् सम्यकूलेखने, आधारे घञ् लेखपत्रे, च ॥ वाच० ॥ चित्रे ॥ श्र० म० प्र० ॥ सेक्स प्रारूप ० बालि यत् चित्राद लेख्यंदेवादिप्रतिबिम्बे, विधातुमा लेख्यमशनुवंतः । माघः । इति संरंभिणो वाणी बन स्याट्लेख्यदेवताः । माघः । अहो रूपमा लेख्यस्य शकु० लेखनीये- त्रि० आधारे एयत् चित्रे ॥ वाच० ॥ आलोकण-प्रोक्य- अन्य विश्येत्य (ओोकना एवं ) आलोच्य विमृश्येति ॥ पंचा. वृ. १४ वृ. ३ ॥ आलोइय-आलोकित - त्रि. आ लोक- क. दृष्टे ॥ वाच. ॥ (आलो गियमेव नया) आलोकितं निरीक्षितमिति ॥ इस. अ. एच. ३ ॥ आश्यपण जोपण नोई से निचे आलोकितं प्रत्युपेक्षितमशन दियोक्तव्यं तत्करणे दोपसंनवात् ॥ अचा० अ० ७ ० २ ॥ आलोचित त्रि० आ - मुचु. णिच् क आलोचनाविषयी भूते विशेषदर्शनादिना कृतासोचने (आनोचितमिन्द्रियेणेति ) सां० कौ० इति कर्त्तव्यतयावधारिते च ॥ वाच० ॥ निवेदिते ॥ भ. श. २ ब. १ ॥ ( आलोश्यमि आराणाअणालोप भवणा) होचिते गुरोरपराधा निवेदिते ॥ बाय आलोचनावति च ॥ भ० ॥ श. ७ उ.२ ॥ आलोइयणिदिय-आलोचितनिन्दित - त्रि० सम्यक् कृता लोचननिन्दाविधी ॥ कपपावो वि मस्सो आलोयनिंदियगुरु समासे । हो अइरेगलहुओ, हरियमव्य जारवहो । आलोयनिदिति भातिनितः सम्पक ताम्रोचननिन्दा विधिरित्यर्थः ॥ ध० अधि. २ ॥ आलोयमित प्रासोचितमतिक्रान्त- ०ि प्रति गुरूणां निवेदितं तिचारजातं तत् प्रतिक्रान्तमकरणविषयी कृतं येनासाचा प्रतिकान्तः तस्मिन् योचनादानात्य विकान्त मिथ्या दुष्कृतानादाडोचितप्रति Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२८) भासोएमाण अभिधानराजेन्दः । आलोयणा कांतः ॥ भ० श.२ २.१। आलोचनाप्रदानपूर्व प्रदत्तमिथ्या नम् ॥ निच उ.२०॥निवेदने, उपदर्शने, च आरायणपुष्कृते, (आमोश्यपमिकता गवयति तोगणे) वृ०॥ दायणं च दाऊणं आलोचनं यथा गृहीतभक्तपाननिवेदन आलोएमाण-आलोकयत्-त्रि० पश्यति आचा० अ.५॥ तयोरेवोपदर्शनञ्च प्रश्न सं. द्वा.१ । आलोपाहि गुरुज्यो आलोएयव्व-आलोचितव्य-त्रि प्रकाशनीये, पंचा० ७.१५ | निवेदयेति ॥ उपा० अ.३॥ स्था० ग. ३ ॥ आयोश्तए निवेदनीये अपराधादौ, च. ॥ पंचा० पृ. १७ ॥ आसोचयितुं गुरवे अपराधाभिवेदयितुम् ॥स्था० ग.॥ आलोय-आलोक-पु. आरोक्यतेऽनेन आ मुक् सोक वा आलोचनं गुरोःपुरतः स्वापराधस्य प्रकटनम् ॥१०॥ आङमर्यादायाम सा च मर्यादा श्य । करणे घझ प्रकाशे । दश अ. ॥ भाव०॥ ( आसोमो बजोओ दित्तीजासापहा पयासो य)प्रा०को०॥का० १० जह बालो जपतो कज्जमकज्जं च नज्जयं नाइ। प्र.श्रामोकस्याने गवाकादी, च वाच॥ तं तह आलोइज्जा, मायामयविष्पमुक्को उ । यो गाहावइकुलस्स, आलोयं वा थिगलं वा संधि वा| अनया मर्यादया सोच्दर्शने चुरादित्वामिच लोचनं सोचना प्रकटीकरणं आलोचना गुरोः पुरतो वचसा प्रकाशनमिति दगलवणं वा हाओपगाब्जिय ५ अंगुलियाए वा नहि भावः। यत्प्रायश्चित्तमालोचनमात्रण शुरुषति तदाऽऽत्रोचनासिय उदिसिव नममिय अमिय णिज्काएज्जा । ईतया कारणे कार्योपचारासोचनम् । प्रायश्चित्तभेदे । प्रवा पालोकस्यानं गवाकादिकम् प्राचा. भ. १२.५ भालोय घा.एG ॥ व्य० उ.१॥ थिम्मन दारं आलोक निर्यहकादिरूपं दश० भ.५ ॥ भालो- अस्यशिषवक्तव्यताऽऽलोचनाशब्दे प्रायोचनाईशब्दे च ॥ क्यत श्त्यालोकः लोके, तथा चावश्यके लोकपर्यायशब्दान- सामाचारीभेदे च तश्चपिमादिनिवेदनं, ॥ग अधिश॥सोचधिकृत्य (आलोकश्पोकर संसोकईय एकट्ठा) प्रा० म०॥ नपर्यन्ते, अव्य० । “मालोचनान्तं श्रवणं वितत्यरघुः। प्राचारांगे ( सोयासोयपवंचायो पमुच्चति ) पासोक्यत पाच॥ श्त्यालोकः कर्मणि घञ् । मोके चतुईशरज्वात्मके आसोको आत्रोयणजायण-आलोकननाजन-ज०प्रकाशमुझे नाजने । लोकालोकस्तस्य प्रपंचः पर्याप्तापर्याप्तकसुभगादिकविक- प्रश्न सं.१हा.॥ ल्पस्तद्यया । नारको नारकत्वेनालोक्यते एकेन्द्रियादिरेके- अह कोइ न इच्छेज्जा, तो नुजेज्ज एको। जियादित्वेनैवं पर्याप्तापर्याप्तकाद्यपि वाच्यम् । तदेवं जूतात्पपंचान्मुच्यते।चतुर्दशजीवस्थानान्यतरन्यपदेशाों न भवति आस्रोयनायणे साहू, जयं अयरिसामिय। शत यावत् ॥ प्राचा० ॥ रष्टिविषये केत्रादौ ॥ ज्ञा० अ० १॥ भालोकनाजनं मकिकाद्यपाहाय प्रकाशप्रधाने भाजने इत्यविषये ॥ औप० ॥ आलोकनमालोका भावे घझ दर्शने, । र्थः । दश ० अ. ५ ॥ आव० ॥ ज्ञा० अ.॥(पात्रोए समणसम भगवओ महावी आलोयणा-आलोचना-स्त्री० आङ्मादायाम सा च मर्यारस्स पणामं करे) आलोके दर्शनमात्रे, ॥ कल्प० ॥ आलो. दा श्यम्॥ कनमालोकःमर्यादयानिविधिना वासोचनम् निरीक्षणे,(पि- जह बाझो जंपतो, कज्जमकज्जं च नज्जुयं नणइ । खणनिरिक्त्रणावि य आलोयपसोयणेगट्ठा) ओघ०॥ तं तह आलोइज्जा, मायामयविष्पमुक्को न ॥ आलोयग-आलोचक-त्रि० आ-अच्-णिन्-एवुल् आलोचना-1 अनया मर्यादया सोचूदर्शने चुरादित्वामिन् सोचनामोकारके, ॥ वाच॥ आलोचनाया योम्या आलोचका मालो- चनं प्रकटीकरणम् आलोचना गुरोः पुरतो वचसा प्रकाचनाशब्दे ।। व्य० उ.१॥ शनम् प्रव० घाए । व्य उ.१०॥ जीत ॥ प्राझोयचन-आलोकचस-त्रि० श्रासोकनमालोकस्तस्मिन्नासो विषयाः के चसमालोकचनं दर्शनलालसे, प्रासोप्रचनं चक्मा मगुब्वतं (१) आलोचनाया व्युत्पत्तिरर्थः स्वरूपंच। कर यिरं काउं । आव० टी०। पालोयण-आलोकन-न० आ. मुक सोक वा भावे स्युट (३) व्यादिनिक्षेप आलोचनायाः। दर्शने, ॥ आचा० अ.३ २.५ दश० अ.४॥ ततस्तदासो- (३) आलोचनाया मूत्रगुणोत्तरगुणेन नेदाः । कनतत्पराणाम् । नुवनारोकनप्रीतिः स्वर्गिभिर्नानुनृयते ॥ (४) विहारादिलेदनालोचना त्रिविधा तजंदाश्च । कुमार० । “व्रजति हि सफलत्वं वल्लनालोकनेन,, माघः ॥ (५) शस्योकरणार्यमालोचनकरणविधिः । पाच०॥ (६) आलोचनीये विषये यथाक्रममालोचनाप्रकारः । निरीकणे, ॥ आव०॥ निरूपणे, ॥ मोघः॥प्रकाशे, प्रश्न (७) आलोचनायां शिष्याचार्य्यपरीकणे-आवश्यकाझा.१ सं.॥ ग्रामोचन-ना -मुच णिच् भावे ज्युद विशेषधर्मादिना दिवाराणि। विवेचने नैया वाच॥विचारणे, (पुवामंव आरोपजा) (0) का लोचना सहीतव्या तानि स्थानानि । आलोचयेहिचारयेत् ।। आचा० अ. ३ न. ५। आरोचयह (ए) व्यादे चतुर्विधमालोचनीयम् । सावधामो भवेदित्यर्थः ॥ आचा० शु.२ अ. १३.६॥ (१०) अपराधालोचनायांप्रशस्ताऽप्रशस्तषव्यादयः । सामान्यवस्तु पाहिज्ञानविशेषे, चसामान्दवस्तुग्राहिहानमा (११) ययाजतेषु व्यादिष्वासोचना तादृशानां पतिसोचनम । तहक्तव्यतार्यावग्रहवक्तव्यताऽवसरेऽवग्रहशब्दे ॥ आमादायां लोवृदर्शने -दयाऽसोचनं दर्शनमालोच- | पादनम् । Jain Education Interational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२९) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा (१२) आलोचनासमयवर्णनम् । अथालोचनाशब्दार्थमाह ॥ (१३) कस्य समीपे आलोचना कर्तव्या आमोयणं आकिच्च, अनिविहिणा देसणं तिलिंगेहिं । (१४) गीतार्यमवाप्य शयानुकरणादौ दोषगुणादि- वइमादिएहिं सम्मं, गुरुणो आलोयणेया ॥३॥ के जावयता यद्विधेयत्वम् । व्याख्या । आलोचनमा खोचना झेयेति योगः। आलोचनमेव (१५) मरणानिमुखेनाप्यासोचना करणीयात्र ब्राह्म किमित्याह । अकृत्ये अकरणीयविषये स्वगतस्याकृत्यस्येत्यर्छ। अभिविधिना सामस्त्येनेत्यायः दर्शनं प्रकाशनमिति सोचणदृष्टान्तः। धातोःकारितां तस्यार्थ शतिशब्दोऽने योक्ष्यते । कथमकृत्यद (१६) अदत्तालोचने व्याघदृष्टान्तजावना । निमित्याह । भिंगैः परोकाकृत्यगमकैहेंतुभिर्वागादिभिर्वचन(१७) स्वगणपरगणवासिकानां समीपे आलोचना। कायविकारविशषैः। सम्यक्भाव शुभ्या कस्य तदर्शनमित्याह । (१७) आसोचनाया अष्टौ स्थानकाः दशस्थानकाच गुरोरालोचनाचार्यस्येति । एषा आलोचना प्रकरणाद्विकया सातव्या तच्चब्दज्ञानार्थिनिरिति गाथार्थः ॥ पंचा.व.१५ (१ए) सामुदानिकाऽतिचारासोचना । आलोचनास्वरूपं व्यवहारकल्पे यथा ॥ (२०) आलोचयित्रा एतानि वर्जनीयानि । "आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य कार्यस्य पूर्व कार्यसमा(१) सम्यगालोचनादाने कि लिंङ्गम् । कर्फ वा यदि वा पूर्वमाप पश्चादपि गुरोः पुरतो वचसा (२२) कृतानां कर्मणां क्रमत अालोचना। प्रकटीकरणम् ॥ ३॥ व्य. १ उ.॥ (२३) आलोचनायां दत्तायां न विरतिजंगः सदृष्टा (३) व्यादिनिक्षेप आयोचनायाः ॥ आलोचनानिकेपश्चतुर्धा तथाच महानिशीथे प्र.७॥ (२४) आयोचनायामकृतायां मृत्वाऽनाराधको जवति। तंजहा नामालोयणं ग्वणाबोयणं दन्यासोयणं जावा. (५२ ) आबोचनायाः कसम् । सोयणं एते चउरो वि पए अणे गहा वि[१ ) (१) आलोचनाया व्युत्पत्तिरर्थस्स्वरूपं च ॥ उघोज्जति तत्य ताव समासेणं णामालोयणं नाममेतेणं आ अनिविधिना सकसदोषाणां सोचना गुरुपुरतः प्रकाशना उवणालोयणं पोत्थयाइसुमालिहियं दव्वालोयणं नाम जं प्रासोचना भ० श. १७ न.३| आलोएत्ताणं असढनावत्ताए जहोवश्टुं पायच्चित्तं प्रासामस्त्येन स्वगताऽकरणीयस्य वागादियोगत्रयेण गुरोः पुरो मावशुध्या प्रकटनमालोचना ध. अधि.२ गुरुत्यो नाणूचिठे एते तोवि पए एगतेणं गोयमा ! अपसत्थे जे निजदोषकथने, ध० अधि. २॥ आमादायां सोचूदर्शने यणं से चनत्यपए जावालोयणं नाम तेणं तु गोयमा!। आलोचना नाम आलोचना प्रकटना ऋजुभावनेति ॥५००॥ आलोएत्ताणं निंदित्ताणं गरहिसाणं पायच्चित्तमणु. आलोचनमालोचना मर्यादयाऽझोचनं दर्शनमाचार्यादेरासो- चरित्ताणं जाव ण आयहियहाए संपज्जित्ताणं संक. चनेत्यभिधीयते । ओघ०॥ ज्जुत्तमढं आराहेज्जा से जवयं कयरेणं से चउत्थे यए आलोयणा णाम जहा अप्पणो जाणति तहा परस्स पागम् करे।नि० चू० ज०३०॥ गोयमा ! नावालोयणं से जयवं! जावालोयणं जेणं आ अपराधमर्यादया सोचनं दर्शनमाचार्यादेः पुरत इत्या निकाबू परिसे संवेगग्गगए सीखतवदाणजावण लोचना ध० अधि.३। चनबंधसुसमणधम्ममाराहणाकंतरसिए मयजयगारवागुरोः स्वचरितप्रकाशनात्मके, प्रायश्चित्तनेदे,॥ पंचा. वृ.१६ दीहिं अचंतविप्पमुक्के सच्चनावनाजावंतरोहिं नीसवे आ" व्यवहारो आसोयणा सोही पच्चिसमेव एगठ्ठा" व्यव- सोइत्ताणं विसोहिए य पमिगाहित्ताणं तहत्ति समाहिहार आलोचना शोधिः प्रायश्चित्तमित्येकार्थः॥ व्य०. प्रास्रोचनाया एकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह ॥ . या सबुत्तमं संजमकिरियमणुपाझिज्जा ।। तं जहा ।। आलोयणा वियमणा, सोही सब्जावदायणा चेव । कयाई पाबाई, इमाई जेहिं अहाणवज्जए । निंदागरहविउहा, सध्युचरणेय एगहा ॥१३॥ तेसिं तित्ययरवयणहिं, सुखी अम्हाणकीरज ॥१॥ आलोचना विकटना शुद्धिः सावदापना जिंदणगरहण परिनिवाणं तयं कम्म, घोरं संसारदुक्खदं । विठ्ठण सल्तुभधरणं चेति एकार्थिकानि इति। ओघ.॥ मगोजयकायकिरियाहिं, सीबजारं घरेमि॥३॥ आलोचना प्रयोजनतो हस्त शताहिर्गमनादौ गुरोर्विकटना जह जाण सम्वन्नू, केवली तित्थंकरे । ॥ आव०॥ स्थाग.४॥ पायरिए चरित्त, उबकाए य सुसाहुणो ॥ ३॥ जे जिका मासिय परिहारहाणं पमिसेविता आलो जह पंचझोयपाले, य सताधम्मे य जाणए । एज्जा । व्य० उ०१॥ आलोचयेत् लोचूदर्शने चुरादित्वामिन् आङ्मादायाम तहाम्रोएमिहं, सव्वं तिसमित्तं पि न निन्हवं ॥४॥ आ मर्यादया (जह बासोपंतो) इत्यादि रूपया प्रास्रोचयेत् तत्य जं पायचित्तं, गिरिवरगुरुयं पि आवए । प्रयात्मनस्तया गुरोः प्रकटीकुर्यात् ।। व्य० २.१। तमणुच्चरोमि है, सुखी जह पावं विविज्जए ॥५॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) मालोयणा अभिधानराजेन्द्रः । आलोयणा मरिचणं नरयतिरिएसु, कुंजीपाएसु कत्थई । निन्विनकामजोगाय, तवं कालं मया पुणो ॥२६॥ कत्यय करवत्तनतहिं, कत्या जिनो न सृलिए ॥६॥ अणुत्तरविमाणेसुं, निम्विसिनणे हमागया । घसणं घोलणं कहविमि, कत्याच्चैयणं जयणं । हवंति धम्मतित्थयरा, सयक्षतेखोकबंधवा ॥२७॥ बंधणं ण कहविमि, कत्यई दमणमंकणं ॥७॥ एस गोयम विनेए , सुपसत्ये पए जावालोयणं । णत्याणं वाहणं कहिमि, कत्थइ बहणत्तानगं । नाम अक्खयंसिवसोक्खदायगो ॥श्नातिबेमि ॥ गुरुकमणं कहिं, विकत्यइ जमवाराविधणं ॥७॥ (३) आलोचनाया मूलगुणोत्तरगुणेन जेदाः । जरपछि अहिकमिनंग, परवसो तएहं हं । भालोचनाया मूलगुणोत्तरगुणनेदेन भेदा यथा ओघ० ॥ संतावुव्बेवदारिद, विसहिहासि पुणो विहं ॥ आलोयणा दुविहा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। नारहं चेव सव्वंपि, नियदुच्चारियं जहठियं । एकेका चमकन्ना, दुवग्गसिफावसाणा य ॥१शा आबोएत्ता निंदित्ता, गरहित्ता पायच्चित्तं चरितुणं।१०। भासोचना चहिविधा मूलगुणासोचना । उत्तरगुणालोचना निहहेमि पावयं कम्मं, अतिसंसारदुक्खयं ।। चेति।साहिविधाप्येकैकमूत्रगुणालोचना उत्तरगुणालोचना च (चरकरणावग्गत्ति) प्योरपि साधुसाधीवर्गयोरे फैअन्तुष्ठित्तातवं घोरं, धीरं वीरपरकम ॥ ११ ॥ कस्य चतुष्कर्णा भवति । एक आचार्यः द्वितीयश्वासोचकासाअञ्चतकमयमं कडं, मुक्खरं दुरणुच्चरं । धुरेवं साधुवर्गे चतुष्कर्णा नवति साध्वीवर्गेऽपि चतुष्कर्णा जग्गगायरं जिणानिहियं, सयकल्लाणकारणं ॥१॥ भवति । एका प्रवर्तिनी हितीया तस्या एव या पालोचयतीति पायच्छित्तनिमित्तणं, पाणसंथारकारयं । साध्वी एवं साध्वीवर्गे चतुष्कर्णा नवतीति। श्रथवा एकैका प्रायरेण तवंचरिमो, जेणुल्नेसोक्खइं तणुं॥ १३ ॥ मूत्रगुणे उत्तरगुणे च चतुष्कर्णा भवति । योश्च साधुसाध्वी घर्गयोर्मिलितयोरष्टकर्णा भवति। कथमात्महितीयः प्रवर्तिनी कप्ताए विहलीकटुं, इंदिए पंचनिग्गहं । चात्मद्वितीया आलोचयति यदा तदाऽष्टकर्णा भवति । सामामणोवश्कायदंमाणं, निग्गहं धणियमारंजं ॥१४॥ न्यसाध्वी वा यथासोचयति तदाष्टकर्णाश्चेति अयथा ॥ पासवदारे नेरुजित्ता, चत्तमयमच्छरअमपरिसो । उकएणा होज्जा, यदा वुट्टो आयरिओ हवा । गयरागदोसमोहोई, निस्संगो निपरिग्गहो ॥ १५॥ । तदा एगागिस्सवि, साहुणीदुगं आलोए । निम्ममो निरहंकारं, सरीरअचंतनिप्पिहो । एवं उकएणा हवइ, सव्वहा साहुणीज अज्ज । महब्बयाई पालेमि, निरइयारा निच्चिो ॥ १६ ॥ विश्याए आलोयब्वं, न तु एनागिणी एत्ति ॥ दहीहा अहलोह, पावोपावमती अहं॥ एवं तावदुत्सर्गतः आचार्य आलोचयति शल्यं तदनाघे पाविद्यो पावकम्मोणं, वाहमोहमायारो ॥१७॥ सवदेशेषु निरूपयित्वा मालोचयितव्यं एवं तावत् याषत अहं कुसीबोहचरिती, जिबसूणोवमो अहं॥ सिकानामप्यानोचते साधूनामभावे ततश्चै सिकावसाना आलोचना दातव्येति ॥ चिमातो निक्किचो पावी, कूरकम्माहं निग्घिणो ॥१०॥ तथाच वृहत्कल्पे राहस्यिकी पर्षदमधिकृत्याह ॥ व.॥ णमो मुसहं अनिऊ, सामन्नं नाणदंसणं ॥ सम्युकरणे समणस्स, चाउकामा रहसिया परिसा। चारित्तं वा विराहिता, अणाबोइयनिंदिय ॥ १७ ॥ अजाणं चाउकएणा, बक्कन्ना अट्ठकन्ना वा ॥ गरहियअकयपच्चित्तो, वावज्जतो जई अहं ॥ विविधं शल्यं व्यशल्यं जावशल्यं च द्रव्यशल्य कंटकादि ता निच्छ्यै अणुत्तारे, घोरे संसारसायरे ॥२०॥ प्रावशल्यं मायानिदानमिथ्यात्वादि अथवा भावशल्यं मनोनिव्वुमोलवको मिहिं, समुत्तारं ताण वा पुणो॥ त्तरगुणातिचारस्ततः श्रमणस्य भावशल्योद्धरणे आचार्यजरा जाव ण पीमेइ, बाही जाव न केश मे ॥ १ ॥ समीपे आलोचयत इय॑थः । राहस्यिकी पर्षद् भवति । कथं. जार्विदिया ण हाइंति, ताव धम्मं चरित्तु हैं ।।। जूतत्यत आह । चतुष्कर्णा Eावाचार्यस्य हौ साधोरिति च स्वारः कएर्णा यत्र सा तथा। आचार्याणां चतुष्कर्णा षट्कर्णा निदहमपरेण, पावाई निदिउंगरहिउ चिरं ॥२॥ मा तत्र यदा निग्रंथी निग्रंथ्याः पुरतः आलोचयीत तदा चतुपायच्चित्तं चरिताएं, निक्कलंको जवामि हैं। कर्ण। यया निग्रंथस्य निग्रंथपावें आलोचयतः यदा च निकलुसनिक्कलंकाणं, सुषजावाण गोयमा!॥३॥ हितीयस्थविरगुरुसमीपे आलोचयति सद्वितीया निक्षुकी बन्नो नटं जयं गहिया, सुहराम विपरिवनित्तुणं । तदा षट्कर्श । स द्वितीयतरुणगुरुसमीपेसहितीयाया स भिकुक्या आलोचयन्त्या अष्टकर्णा तत्र प्रथमतः सयतस्य कलिकबुसकम्ममलमुकं, जइणो सिकिज्जतक्षणं ।।। चतुष्कर्णा जावयति। ताव यं देवरोगम्मि, निबुप्रो एसयंपहे। आलोयणे पनंजइ, गारवपरिवन्जितो गुरुसगासे । देवकुंडहिनिग्घोसे, अच्छरासयसंकुझे ॥२५॥ एगंतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए । तो चुया इहागंतुं, सुकुझुप्पत्ति सजित्तुणं । एकांते अनायाते एकोऽद्वितीय एकस्याद्वितीयस्याऽचार्य Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा स्य नित्रया तत्पुरत इत्यर्थः । गैौरवपरिवर्जितः ऋद्धिरसागौरवपरित्यक्तो गौरवाद्धि सम्यगाब्लोचयितव्यं न भवतीति तत्प्रतिषेधः गुरुसमीपे आलोचनाऽचार्यसमीपे आलोचनां प्रयुक्ते । कथमित्याह । विरहंभिदिसानिग्गह, उत्कुरुतो पंजली निसेज्जा वा । एस सपकले परपले, मोतु च्छति सिज्जा वा ॥ एकांत कोचिन तिष्ठति तत्र विरहे प्रदेश पूर्व गुरो निवद्यां कृत्वा पूर्वामुत्तरां चरंति । कां वा दिशमभिगृहा वंदनकं दत्वा उत्कुहकः प्रबद्धांजलिः अथासौ व्याधिमान् या लोचनी ततो निषद्यामाप्याोचयति । पप सपने आलोचनाविधिः । परपके नाम संयती तत्र उन्नं मुक्या आलोचना दातव्या निषद्या च न कार्यने । श्यमत्र भावना । यदा संयती संयतस्य पुरत आलोचयति तदा बन्नं वर्जयति किं तु यत्र लोकस्य संजोकस्तत्रालोचयति निषद्यां वाचार्यस्य न करोति ॥ आत्मनाऽज्युत्थिता आलोचयति । श्रमणीमधिकृत्यालोचनाविधिश्चतुष्कर्णत्वमाह ॥ आलोय पउंज, गारवपरिवज्जिया उ गणिणिए । एतमणावा, एमाएगाए निस्साए ॥ या श्रमण गौरवपरिवर्जिता गणिन्याः पुरत आलोचनां प्रयुक्ते । चेत्याह । एकांते श्रनायाते एका अद्वितीया एकस्या द्वितीयाया गणिन्या निश्रया ततो गुरुसमीपे श्रमणस्येव अमत्या अपि गणिन्याः पुरतः भचयातुकर्णा प नवति ॥ ( ४३१) अभिधानराजेन्द्रः । कर्णामाह ॥ आप एते बहुजनस्स संबोए। अदितिययेरगुणो, सवियईया निक्खुणि निद्रया ॥ अद्वितीयपरिसमीपे सहितया मिश्री निता निर्व्यापारा न दिशो नापि विदिशः आलोकयति नापि यत्कि पिवति इत्यर्थः । एवं भूता सती कांत बहुजनस्य लोके च थुंके अथ कीदृशी तस्या द्वितीया भवतीत्यत आह ॥ नासा संपला, पोदा वयसपरिणया । इंगियागार संपचा, नशिया सीसेवि इज्जिया ॥ ज्ञानदर्शनसंपन्ना प्रौढा समर्था या संयतस्य तस्या वा जायं विहाय नमंत्रणं कर्त्तुं ददाति किंतु वदति पाचि तर्दि प्रशमोनोचेोचनयापि न प्रयोजनमिति । यथा वय परिणता परिणतयास्तथा ईगिताकारसंपस इणितेनाकारेण च यस्य यादृशो जावस्तस्य तं जानातीत्यर्थः एवं नूता सा तस्या द्वितीया गणिन्या सा पुनः कियद्दूरे तिष्ठति । उच्यते। एके सूयो वदति पत्रकारा परेशस्येति ॥ अटकणमाह । आयोयणं परंज, एगंते बहुजणस्स संबोए । सचित्तियतरुणगुरुणो, सच्चिइया निक्खुणि निहुया || एक बहुजनस्य संप्रोके सद्वितीयस्य तरुणगुरोः समीपे मद्वितीया तादशी प्रागुक्ता ॥ संप्रति यादस्य आचार्यस्य द्वितीयस्तादृशमाह ॥ नाणेण दंसण व परिततवविनयग्राखयगुणेहिं । वयपरिणाम य, अभिगमे । इयरो हवइ जुत्तों ॥ य, भालोयणा हानेन दर्शनेन चारित्रेण तपसा विनयेन मानयगुणैर्वदि टाभिः प्रतिलेखनादिभिरुपशमगुणेन च यथा वयःपरिणामेन अभिगमेन सम्यक् शास्त्रार्थकौशलेन युक्तो भवत्याचार्यस्येतरो द्वितीयः ॥ वृ. ॥ सशल्यमाचचितन्यम्। मोघनियुक्तो ॥ गंतण गुरुसगासं, काळणय अंग नियम | पन्वेश अचतोड़ी, कायव्या एसओ उपरसो || १५।। सुगमा ॥ न दुइ सस्तो, जह नणियं सासणे धुवरयाणं । रिय सव्वसलो, सुज्जइ ज वो धुअकिलेसो ||२०|| न चैव पति राक्ष्यः पुरुषः कथं पुनः शु प्रणितं धुतरजसां शासने तथा शुद्धधते । कथं पुनः गुरूचति अत आ| उद्धृतः सर्वशल्यो जीवः शुभ्यति धुतलेश इति । तस्माद्यद्यपि कथमपि किचिदकार्य कृतं ततस्तदाम्रोच यितव्यं ॥ कथं पुनस्तत्कृतं भवतीत्यता । सहसा प्रमाणेण व, जीएण व पेलिएण व । कपणे नार्य, केण व महेण वा रागदोसेहिं ॥ २१ ॥ सहसा तर्कितमेव प्राणियधादिकम् कार्य यदि ततस्तस्मात्प्रतिकमितव्यमित्येतद् द्वितीयगाथायां वक्ष्यते । अज्ञानेन च तं नत्र प्राणिहातां व्यापादितस्य भीतेन तेन आत्मभयात् मानूदयं मां मारयिष्यतीत्यत आह । प्राणिव्यपरोपणं यदि कृतं प्रेरितेन वा परेण यदि कृतं व्यसनेन वा भापदा यदि कृतं भकेन ज्यरायुपसर्गेण यदि इसे सून या राग द्वेषैर्यदि कृतं किंचिदकार्य ततः ॥ प जं किंचि कपमकर, न हुसे अन्नापुणो समापरियं । तस्स परिकमियं न से हियण बोड ||२२|| यत्किचित्तमकार्थे तत्पुनने हुनेव समाचरितुं लभ्यते । यथा तथा प्रतिक्रमितन्यं । एतडुक्तं भवति । किंचिदकार्यं कृत्वा पुनर्वधा च भवति नैव क्रियते तथा तस्व प्रतिकमितव्यं न तु सद्कार्य हृदयेन वोढभ्यं सर्वमायोचयितव्यमित्यर्थः ॥ कथं पुनस्तदाल्लोचयितव्यमित्यत श्राह ॥ जह बालोजंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं जाइ । तं तह आबोएना मायामयविप्यमुकोमो ||२२|| सुगमा || तस्य पायति, जं मग्गविक गुर पचपसंति । तं तह आयरियवं अश्वच्छपसंगजीणं ॥ २४ ॥ तस्य च साधोर्यत्प्रायश्चित्तं मार्गविदो गुरव उपदिशति । तत्प्रायश्चित्तं तेनैव विधिना आचरितव्यं कथमनवस्थाप्रसंगप्रीतेन सता आचरितव्यं अनवस्था नाम यद्यकार्यसमा चरणात्प्रायश्चित्तं न कृतं तदा अन्येऽपि न समाचरिष्यन्ति ॥ वितं सत्यं व विसं वदुप्पटत्तो य कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो य पमाइणो कुछो || ३५ ॥ न तत्करोति दुः खं शस्त्रं नापि विषं नाऽपि दुः प्रयुक्तो दुः साधितवेतालः यत्रं वा दुःप्रयुक्तं सप्पों वा कुरूः प्रमादिनः पुरुषस्य ः खं करोति ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (VAR) अभिधानराजेन्द्रः । आलोयणा जं कुइ जाबसनं, अहियं उत्तिमकासंमि । जो संसारियतं च ।। २६ ।। यत्करोति भाषराव अनुभूतं शस्त्रादिन्यानि पुनरेकमय एव जयंति अतः संयतेन सर्वमालोचयितव्यं । ता कति गार व गहियास पुन्नवण्याणं । मिच्छादंसणस, मायास नियाणं च ॥ २७ ॥ ततः पवमालोच्य गौरवरहिता मुनयः उति उत्पाटयति शूलं पुनर्भवतानां यत् मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशल्यं निदानशल्यं च वरूतीति ततः ॥ उरियं सव्वसलो, आसोइय निंदियो गुरुसगासे । होइ अगलओ, लकारवनरुव्वनारवहो । २० ॥ सुगमा न परं अतिरेकप्रत्यर्थ अपर्भवति इत्सीरयभरो उत्तारि सजराभारब हो गई नादिः स यथा लघुर्भवति । एवमालोचिते ति कर्मत्वं नवतीति । यतञ्चैवंविधः सः ॥ उरिय सन्दसो, नतपरिणाए बणियमाहतो । मरणाराहणचो, चंदगपिऊ समाणे ॥ २७ ॥ बुद्ध रितसर्वशल्यो जक्तपरिवार प्रक्तमत्वाख्याते धनिकम स्य अयुक्तप्रयत्नपरः मरणाराधनयुक्तः स एवंविधश्चंद्रवेधं समानयति करोतीत्यर्थः । अत्र च कथानकं राधावेधमंगीकृत्य आवश्यकादयसेयमिति ॥ श्रोष ॥ ( ४ ) विहारादिभेदेनाखोचना त्रिविधा तदाथ || आलोचना त्रिविधा । तद्यथा । विहारा लोचना उपसंपदा लोचनाsपराधालोचना च व्य. स. १ तत्रप्रयमां विहारा लोचनां तावदाह ॥ - तं पुण ओवा, दर से ओह जान नि ।। तेल परेण विजागो, संजमसच्छाइयणाओ || १॥ तत्पुनर्विहारा लोचनं दिधा तद्यथा ( श्रविभागे ) इति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी । ओधेन विभागेन वा श्रोषः समान्यं विभागो विस्तरः । तत्र ये साधवः समाना ( भोदरजुते ) इति वास्तायसाधुभिरिति गम्यते । भोकुमारब्धवतां वास्तव्य साधनामित्यर्थः प्राचूर्णकाः समागताः (तहत घोपेोचति पाल्पा विराधना मृगु या पार्श्वस्थादिषु दानप्रणतश्चेत्येषमालोच्य मंत्यां झुंजते तत्र यदि मूत्रगुण/पराधनिमित्तं वा प्रायश्चित्तं पंचकादि यावत् । भिन्न भिन्नमासः भिन्नमासपर्यंतमापन्ना भवंति सदाभासोनामसोच्य साधुनि प्रशसास्य प्रशस्तो चि पकः ततोऽयमर्थः । प्रशस्ते वा दिवसे रात्रौ वा न स्यातामिति "हो तया" इति तृतीया पुनरपराधाच ना विनागतो. दीयमाना चिपकृतः सर्पस्यवाक्यस्य विप वच्छेदकतया साधारणत्वाधिपत एव प्रशस्त दिवसे रात्रौ वा भवतीति भावः ॥ सांप्रतमेघालोचनायाः प्रकारमाह ॥ एव या गुणे, उत्तरगुणतो चिराणा अप्पा | अप्पापासत्यादिमु, दाणुज्जहसंपयो गाहा ॥ १ ॥ अल्पा स्तोका विरराधना मन्त्रगुणेषु प्राणातिपात निवृत्यादि पुरात्रियोजनचिरमणपर्यंतेषु धन्या विराधना | उत्तरगुणेषु विशुद्ध्यादिषु अल्पा विराधना । पार्श्वस्थावसन्नकुशील आलोयणा संसक्तेषु दानग्रह संप्रयोगतः दानसंप्रयोगतो ग्रहणसंप्रयोगतश्च । एषा ओघात श्रोघेना सोचना एवमालोच्य मंगल्यामेकत्र समुद्दिशति ॥ व्य० उ० १ ॥ विहारविभागाओोचनाया विधिमाह || चिक्त्वादिनिगवे रहिएवियत दरुगपईओ । सबसम के ते वीस रयं तु सारैति ।। भिकादिनिर्गतेषु निकादि आदि शब्दाद्विचार मिगमनार्थमन्यप्रयोजनार्थ वा बहिर्विनिर्गतेषु शेषेषु साधुषु । किमुक्तं भवति । यस्यां वेज्ञायां शिष्याः प्रतीच्छकाच बहिर्विनिर्गतः भवंति । तदानीं रहिते रहितस्य एकाकिन आचार्यस्य समीपे स्पर्टकपतिकास्पदेयमिनो विकटयति। श्रोति। केचित्पुनराचार्या पतते ये स्पर्धकपतिना सद समा गताः साधवस्तेषां समकं स्पर्ककपतयो विकटयंति । किं कारणमिति चेत् आह । ते वीसरियं तु सारैति । यस्माते यत्किमपि विस्मृतं तत् स्मारयति कथयंति ॥ व्य० १ ० ॥ (५) शस्योरथार्थमालोचनाकरण विधिः ॥ शल्पोखरणायाऽलोचना विधेया तत्फलं च केवलहानम तथाच महानिशीथे १ अ. ॥ बरं सुहासु सच्वं सुविशगं समवधारण ॥ जं तत्थ सुविगे, पासे तारिसगतं तहा जवे ।। ५१ ।। जई सुंदरंग पासे, सुमितो इमं महा ॥ परमत्यतत्वसारस्थं सस्युरणं सुतु नं ॥ ए२॥ देज्जा लोणं सुरूं, अहमठ्ठा विराहयो । रंजतो धम्मतित्ययरे, सिद्धे लोगगासहिए ।। ५३ ।। आबोएत्ता ण णीस, सामएणेण पुणो त्रिय ॥ वंदिता साहू, विपुवेण खभावए ॥ ५४ ॥ स्वामिया पावसा, निम्पूषुकरणं पुरुषो । करेज्जा विहिपुत्रेणं, रंजंतों समुरासुरं जगं ॥ २५ ॥ एवं होऊण निस्सयो, सव्वजावे पुणोरवि ॥ विहिपुचे बंदे खामे सामिए तहा ।। ५६ । नवरं । जेल समं वुत्यो, जेहिं सर्फि परिहरियो । खरफारिस चोरो, जेहिं हि सर्प पाइयो । ५७ ।। जे विकजमकर वा जाणेश्रो खरफरुसानंददुरं ॥ शिवा किंचिसोजइ जीवई नई मुओ ||५|| खामेयव्व सव्वजावेण, जीवंतो जत्थ चिट्ठई || तत्य गंगा विणण, मडवी साहुमाक्स्वयंम ॥ ५० ॥ एवं वाममरिमाणं, कार्ल तिण िजाओ ।। मणकाहिं, एवं घोसेज्ज निच्छियो ।। ६० ।। स्वमावेमिस मध्ये जीवा स्वमंतु मे ॥ मि मे सब बेरं मऊ केण वि ॥ ६१ ॥ स्वमपि सव्वंमिं सव्वजांपेण सव्वा ॥ नये नये व वाया ममाप कम्मणा ।। ६२ ।। एवं घोसे तु बंदिज्जा, चेहय साहू विहियो ।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। पालोयणा गुरुस्लावि विहीपुव्वं, खामणमरिसामणं करे ।। ६३॥ ण माणंण संघेयं पाण, परिच्चयणकेवनी ॥३॥ खमावेंतु गुरुं सम्मं, नाणमहिमं स सात्तिओ ॥ अन्नं होही सरीरं मे, नो वोही चेव केवली ।। काऊणं वंदिऊणं च, विहिपुव्वेण पुणोवि य ॥ ६ ॥ सुबकामिणं सरीरेणं, पाविणीहणकेवनी ॥ ४॥ परमतत्तसारचं, सख्युचरणमिमं सणे ॥ अणापावकम्ममन्त्रं, निघोवेमीह केवड़ी। मुणेज्जा तहमानोए, जह आसोयतोचेव ।। ६५ ।। वीयंत न समायरियं, पमाया केवनी तहा ॥ ५॥ नप्पाए केवलं नाणं, दिने रिसनावत्यहि निसदा ॥ देहे खवन सरीरं मे, निजराजावउ केवजी। आलोयणा जेण, आलोयमाणाणं चेव जप्पन्न तत्थ- सरीरस्त संजमं सारं निक्कलंकं तु केवली॥ ६ ॥ केवलं ॥६६॥ मणसा विखंगिए सीने, पाणेण धरामि केवल्ली। केसि विसोदिमो नामे, महासत्ताण गोयम! । जेहिं ना- एवं वश्कायजोगेणं, सीसं रक्खे अहं केवली ॥७॥ वणा लोययं, तेहिं केवल नाणमुप्पाइयं ॥ ६७ ॥ एवमाई अणादीया, कालाउ एंते मुणी। हाहा जुट्नु को साहू,हाहा उतु विचिंतिरे । केश्यामायणासिके, पच्चित्ता जाइ गोयमा! ॥10॥ हाहा दुट्नागिरे साहु, हाहा टुवुम मते ।। ६०॥ खंता दंता विमुत्ता य, जिइंदी सम्बनासियो। संगालोयगे तह य, नावालोयणकवली ॥ बकायसमारंजाओ, विरत्ते तिविहे पओ ॥ नए। पयखेन केवली चेव, मुहणांतगकेवली ॥ ६ ॥ तिदंमा सवसंवरिया, इथिकहासंगवजिया । तहा पच्छित्तकेवली, सम्म महावेरग्गकेवली ।। त्यिणं लावनिरयाय, अंगोवंगणिरक्खणा ॥ ५० ॥ आलोयणकवली तहय, हा हं पावित्तिकेवली ।। ७०॥ निम्ममत्ता सरीरेवि, अप्पमित्रा महायसा । उसुत्तमग्गं पनवए, हाहा अणायारकेवली ।। जीयाइत्यित्यिगन्नवसहीएं, बहुदुक्खाओ जावो सावजं न करेमित्ति, अक्खमिय सीलकेवली॥ ७१ ॥ तहा तोपरिसेणं, जावणं दायव्या आलोयणा । तबसंजमवयसं, रक्खे निंदणगरहणे तहा । पच्चित्तं पि व कायव्वं, तहा जहा चेव एहिं कयं एशा सव्वतो सीलसंरक्खे, कोमीपच्चित्ते वि य ॥ ७ ॥ न पुणो तहा आरोएयव, मायामनेण केण । निप्परिकम्मे अ कंपणे, आणिमिसत्यी य केवली। जह आलोयणं चेव, संसार बुटिनवे ।। ३ ॥ एगपासित्तदोपहरे, मूणव्ययकेवली तहा ॥७३॥ अणंतेवाइकालाओ, अत्तकम्मेहिं उम्मइ । न सकोकाउ सामन्न, अणसणे वामि केवन्नी। बहुविकप्पकब्रोले, आझोए तेवि अहोगए ॥ ४ ॥ नवकारकेवली तहय, य निचासोयणकेवली ॥७॥ द० ५० ॥ नहु सिकई स स समो, जह जणियं सानीससकेवझी तह य, सखुधरणकेवन्नी। सणं धुयरयणा। . धन्नोमितिसंपुनो, स ताहंपी किन्न केवली ॥७।। सन्नबो हं न पारेमि, वसकहरयकेवली । उघारियसबसलो, सिज्मइ जीवो धुअकिलेसोश।।। पावसुधा विहाणे य, चाउम्मासी य केवनी ॥७६॥ सुबहुपि नावसवं, जे नालोयंति गुरुसगासंमि । निसलासंथारग, सुञ्चितिवाराहगा हुंति ॥ २५ ॥ संवच्छरमहपच्चित्ते, जहा चनजीविते तहा। अप्पाप जावसयं, जे नालोयंति गुरुसगासंमि । अणिचे खामविकंसी, मणुपत्ते केवसी तहा ॥७७॥ वैतपि सुयसमिछा, नहु ते आराहगा हुंति ॥ २६ ॥ आलोयं निंदरं दियए, घोरपच्चित्तबुकरे । नवि ते सत्यं च विसं, च दुप्पनत्तो वि कुणा वेयाला। लखोवनग्गपच्चित्ते, संमहिया सण केवली ॥ ७॥ जंतं च दुप्पनत्तं, सप्पुव्वपमाइओ कुछो ॥ २७॥ हत्योसरणनिवासे य, अटकवनासि केवली । जं कुण जावसवं, अणुष्ठियं उत्तमकालमि ॥ एगसिधगपच्छित्ते, दसअसो केवली तहा ॥७॥ सुनलब्बोहियत्तं, अणंतसंसारियंतं च ॥ २० ॥ पच्चित्ताढवगोवेसु, पच्चित्तचकयकेवमी। तत्युचरंति गौरव, रहिया म्नं पुगज्वलयाणं ।। पच्चित्तपरिसमत्ती, य अहस नकोसकेवनी ॥७॥ पिच्चगदंस एसलं, मायासनं नियाणसचं च ॥ २० ॥ न सुकिवि न पच्चित्ता, नावरं खिप्पकेवसी । मरिकं ससक्षमरणां, संसारामविमहाक.मम्मि ॥ एग काऊण पच्चित्तं, वीयं न नवेजह चेव केवली।1०२॥ सुचिरं जमति जीवा, अणोरपारंमि अोइन्ता ।। ४२॥ तं वा यराम पच्चितं, जेण गच्छइ केवली।। व्याख्या । मृत्या आसेव्य सशल्यमरणं प्रतीतं ततः किमितं वा यराम जेण तमं, सफली होइ केवल्ली।। न्॥ त्याह । संसारामविमहाकमिले भवारण्यगुरुगहने सचिकिं पचित्तं चरतोडे, चिहणो तवलीजिणा ।। रमतिदीर्घकाझं घमंति पर्यटति जीवा देहिनः अनर्याक पारे Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) भालोयणा अभिधानराजेन्डः । बालोयणा अर्वाभागपरजागवर्जित अवतीर्णा अवगाढा ति संवेग कया संसष्टेन हस्तेन संसृष्टेन मात्रकेण वा यत् निकाग्रहण कृत्वेति योगः॥ कृतं । तदेव मयाऽऽयोचीति सर्वत्रापि सामर्थ्यात् योजनीयम तथा ॥ "विश्य महार पंधेषा, इति पृथिवीकायविराधनालोचनानंतर उकरियसबसवा, तित्थगराणाए सुत्थिया जीवा । हितीये अपकायविषये यदुदकार्दादि प्रादिशब्दात्सस्निग्धादि जवसयकयाई खविओ, पापाइं गया सिवं थाम ।। ४३॥ परिग्रहः। एतयुक्तं भवति । उदकाःण सस्निग्धेन वा हस्तेन मात्रेण निवाग्रहावं कृतं पथि वा मार्गे वा अयतनया उदकव्याख्या । उद्धृत सर्वशल्याः कृतालोचनास्तीर्थकराझाया जिनोपदेशे सुस्थिताः सुष्टु ब्यवस्थिताः संतो जीवा देहिनः मुत्तीर्ण वा एवमादि तयासोचयेत् । भवशतकृतानि जन्मशत विहितानि कपयित्वा प्रकपय्यश तइए पइडियादी. अजिधारणवीयणादिवामि। प्योद्धारसामर्थ्यात् पापानि कर्माणि गताः प्राप्ताः शिवं निरु. | वीयाइघट्टपंचमे, इंदिये अण्वायतो उढे॥ पञ्षं (थामंति) स्थानं सिकासयमित्यर्थः॥ अप्कायविराधनालोचनानंतरं तृतीये तेजस्काये यत् प्रतिसम्बुकरणं च इमं, ति लोगवंधहिं दासयं सम्म । ष्ठितादितेजसि परंपरादिप्रतिष्ठितं नक्तं पानं वा गृहीत ॥ आदि. प्रवितहमारोगफलं, धएणोहं जीणमं णाय ॥४॥ शब्दात सद्योषितिया वसतावस्थानं कृतमित्येवमादीतिभावः । तदा लोचयेत् । तदनंतरं वायौ वातकाये यत् अनिधारणधीव्याख्या । शल्याकरणमालोचना च शब्दः पूर्वगायाद्वयोक्ता जनादि कृतं। धर्मार्तेन बहिर्वातोऽभिसंधारितो भक्तं पानं शर्थापेक्कया समुच्चयायः । श्दमनंतरोक्त विधानं त्रिशोकबंधु रीरं वा वीजनिकादि वा जीवितं एवमादि तदालोचयेत्। ततः भिर्जिनैरियर्थः दर्शितमुक्तं । सम्यक् सोपपत्तिकं अवितय पंचमे वनस्पतिकाये “वीयाश्घटुत्ति,,। यत् बीजादिघट्टनं मव्यभिचारि आरोग्यफनावारोग्यसाधकं ततश्च धन्योऽहं आदिशब्दात् हरितकायादिपरिग्रहः उपलक्षणमेतत् । तेन पुण्यवानहं येन मया श्दमेतजस्योद्धरणं ज्ञातमवगतं ॥ यदि वा बीजादिकं भिक्कासु पतितं गृहीतमित्येवमादि तदाता उच्छरेमि सम्मं, एय एयस्स गाणरासिस्स । स्रोचयेत् । तदनंतरं षष्ठेऽत्र प्रसकाये इंद्रियानुपात्तत इंद्रियआवोदय असप्त, अणियाणो दारुणविवागं ॥१५॥ वृरिक्रमेणालोचना दातव्या ॥ तद्यया । प्रथमतो। हींद्रियाणां व्याख्या । ता इति यस्मादिदं मया ज्ञातं तत्तस्मापुरूराम्य- संघट्टनपरितापनाद्यालोचयेत् । तदनंतरं त्रीणियाणां चतुरिंपनयामि सम्यग् न्यायेन एतत् भावशल्यं एतस्य गुरोझोन- जियाणां ततः पंचेंद्रियाणामिति । एवं प्रथममूलगुणापराधेषु राशेः अग्रे सद्बोधनिकरस्यावेद्य कथयित्वाऽशेष सकस क्रमेणास्रोचितेषु सत्सु॥ मनिदानो निनिदानः सन् दारुणविपाकं रौप्रफलं शल्यमिति दुन्नासियहासयादी, विए तइए य जावियग्गहणं । प्रक्रमः॥ संघट्टणपुन्धरयादी, इंदियाझोगमेहम्मे ॥ श्य संवेगं काऊं, मरुगाहरणादिएहिं विधेहिं॥ द्वितीये मूलगुणापराधिमृषावादे मृषावादविषये यत् पुर्नारढपुणकरणाजुत्तो, सामायारि पनजज्जा ॥ १६ ॥ षितहासतादियत्किमपि उर्जाषितं हासेन वा मृषावादो ॥ व्या० ॥ इति एवमनंतरगाथाचतुष्कोक्तप्रकारं संवर्ग भणितः आदिशब्दात् । क्रोधेन वा मानेन माययावा लोनेन धा शुभाभ्यवसायविशेष कृत्वा विधाय कैरित्याह । मरुकाहरणा- यत्किमापि मृषा भणित मिति परिग्रहस्तदासोचयेत् । तदनंतरं दिमित्राम्हणोदाहणाद्यैः समयप्रसिद्धैश्चिन्हडिंगमरणान्युप- तृतीयेन मूलगुणापराधे अदत्तादानलकणे यत् अयाचितस्य गमेनापि युकिः कार्येत्येवंनूतार्थ-गमकैः ॥ पंचा-वृ-१५. तृणमगलकादेर्ग्रहणं उपलक्कणमेतत् । तेन अनुज्ञाप्य या अवनविसुज्झतिससल्ला, जहन्नणियं सवन्नावदसीहिं। प्रहं कायिकादिव्युत्सृष्टं भवेदित्यादि परिग्रहः । तदालोचयेत् । गरणापुणन्नवरहिआ, आलोअणनिंदणासाहू याद.प.४॥ मैथुनविषये तोमैपुने यत् घट्टने पूर्वरतादि । किमुक्तं भवति । (६) आसोचनीये विषये यथाक्रममालोचनाप्रकारः॥ चैत्यनवनम हिमादिषु प्रनूतजनसंमः स्त्रीशरीरसंघट्टने संप्रति यत् अालोचनीयं तदालोचनाविषयं तस्य विधिमाह । स्पर्श मास्वादितो भवेत् । पूर्वरतकीमितं वा अनुस्मृतं मूलगुणपढमकाया, तत्थवि पढमं तु पंथमादीसु । स्यात् (इंदियत्ति) इंद्रियाणि वा मनोहरणानि उपलक्क णमेतत् । वदनस्तनादिमतिसुमनोहरमवेक्ष्य मनाक रागं पाय अपमज्जणादी, विश्ए नवापंथे वा ॥ गतो भवेत् । इत्यादि तदालोचयेत् ॥ शह द्विधा अपराधा (मूलगुणापराधा उत्तरगुणापराधाश्च मुच्छातिरित्तपंचमे, बढे लेवामअगयसुंगदी। तत्र सन्जयसंजवे प्रथम ) मूत्रगुणापराधालोचना । तेष्वपि मू गुत्तिसमिऽविवक्खा, णामि गहणुत्तरगुणेसु ॥ सगुणापराधेषु मध्ये प्रथम मुबगुणापराधः प्राणातिपात इति सः प्रयममा लोचनीयः स च षजीवकायविषय इति काया चतुर्थमूलगुणापराधालोचनानंतरं पंचमे मूत्रगुणापराधे प्रथमत आयोचयिन्यास्ते च कायाः पृथिव्यादिक्रमेण तत्र सूत्रे परिग्रहे विषयजूते यत् उपकरणेषु मूळ कृता भवेत् । सपन्यस्ता इति (तत्थवि) तेष्वपि कायेषु पृथिव्यादिषु (अशरित्तित्ति) अतिरिक्तो वा उपधिः परिगृहीत एतदालोमध्ये प्रथम पृथिवीकायमेवमासोचयेत्।"पंथमादीसु पादअ- चयेत् । तदनंतरं षष्ठे मूलगुणापराधे रात्रिनोजने (सेवामेत्ति) पमजणादी,, पंयादिषु यत् पादप्रमार्जनादि कृतं । किमुक्तं न- लेपदवयवः कथमपि पर्युषितो जवेत् । अगदं वा मुख्यायति । पथि वजिता स्थं मिलादस्थमिताद्वा स्थंमिलं कृष्णम- दिकं किंचित्सन्निहितं परिजुक्तं भवेत् । पवमादि आसोचयेत् त्तिकातो वा नोलमृत्तिका नीलमृत्तिकातो वा कृष्णमृत्तिका एवं क्रमेण मूबगुणापराधालोचनां दत्वा सदनंतरमुत्तरगुणेषु मेवं शेषवणष्वपि नावनीयं । संक्रामता पादयोर्यप्रमार्जनं न विषयेषु गुप्तिसमितिविपक्काः कृताः । अनेषणीयग्रहणं वार कृतं । तथा वातोद्धृतेन सचित्तेन रजसासचित्तया वा मृत्ति- कारि । किमुक्तं भवति । गुप्तिषु कदाचिदगुप्तः स्यात् । समि Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । अलोयणा तिषु कदाचिदसमितोऽनेषणीयं वा नक्तं वा पान वा गृहीतं स्यादित्यादि आलोचयेत् तथा ॥ संतंमि विलारिए, वाणे जंन जमियं । एसा बिहार विमा, बोल्यं वसंपणातं ॥ सत्यपि विद्यमानेऽपि बलं शारीराणः वीर्यमांतरीशक्तिर्यशात्तपः कुर्वन् शरीरस्यातिकृशतायामपि न संयमयोगेषु सीदति बलं च वीर्ये च बलवीर्ये समाहारे इंस्तस्मिन् तपसो द्विपदस्यापि उपधानं तस्मिन्नोद्यतं नोद्यमः कृतपतंदपि बालोचयेत् । एषा विहार वकटना विहारातो चना । उपसंपदालोचनाऽपि प्राय एवंरूपा केवलं यनानात्वं तत् वक्ष्ये ॥ व्य० | तत्रप्रथमत उपसंपदालोचनाया अपराधालोचनायाञ्च विदारालोचनया सह नानात्वं दर्शयति ।। एगमणेगा दिवसेस, होह आहे य पदविजागे य । नवसंपयावराहे, नायमनायं परिच्छंति ॥ उपसंपचापराधक्ष उपसंपदपराधस्तस्मिन् आलोयमेति प्रस्तावात गम्यते उपसंपदालोचना अपराधालोचना चेत्यर्थः । प्रत्येकं दिधा ( श्रधेय ) इत्यादि तृतीयायें सप्तमी । भोधेन पदविजागेन च तथा एकैकापि दिवसेषु चित्यमाना ( एनमणेगा ) इति पदेकदेशे पर समुदायोपचारात् । एक दिवसिकी अनेकदिवसिकी च भवति । श्रोघालोचना एकदिवस विनागालोचना एकदिवसिकी अनेकदिय केत्यर्थः ॥ तवेषमुतमानानात्यमधुनानात्वमुपदर्शयति (नाथमनाथ परिकति) उपसंपद्यमानो द्विविधो भवति । ज्ञातोऽज्ञातो खा । तत्र यदि ज्ञातस्ततः स न परी यते तस्याग्रेऽपि ज्ञातत्वात् अथाहातस्तारं स दिभिः पदैः परीक्षणीय इति ॥ संप्रति युक्तं विभागेन ( अप्पसत्ये दिन ) मित्यादि । तद्वधाख्यातुकाम आइ ॥ दिपरातो वसंपय, अमरादे दिवसतोपसत्यमि । उव्वातो दिवस, तिएहंतु प्रतिकमे गुरुगा ॥ विहारालोचनात् उपसंपदानोचनापि विभागेन प्रशस्ते वा दिवसे रात्रौ वा दातच्या दोषाभावात् । तथा पूर्वसुरिनि नुमा अपराधे अपराधविषये पुनरालोचनादिवसतो इति सप्तम्यन्तात् तद्दिवसे उपलक्षणमेतत् । रजन्यां वा प्रशस्ते विष्टि व्यतीपातादिदोषवर्जिते " व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिरिति ” न्यायात् स्व्यादिषु प्रशस्तेषु दातव्या नाऽ प्रशस्तेषु पचा जिनाशा । तथा उव्वातो तद्दिवसमिति यस्मिन् दिवसे उपसंपद्यमान आगतः । तस्मिन् दिवसे यदि उद्वातपरिश्रांत इति कृत्वा न पृष्ट आचार्येण ततः स आचार्यः गुरुः । श्रयाणां तु दिवसानामतिक्रमे । किमुक्तं भवति । त्रिषु दिवसेषु मध्ये याद न पुस्ततयतु दिवसे तस्यापृच्छतः परिहारस्थानं गुरुकात्वारो गुरुमासाः पाखपरियाक्यास्यते ॥ समग्रन्नग निमित्तं, नवसंपज्जेत्ते य होइ एमेव । अनवरं, विजागतो कारणे नइयं ॥ उपसंपद्यमानो दिधा तद्यथा । समनोज्ञो ऽसमनोतत्र समनोहस्य समीपे समनोह उपसंपद्यमानो चिकने मित्तं उपसंपद्यते । तथद्या ज्ञानार्थ दर्शनार्थेच न चारित्रार्थ आलोयणा येन चरणं प्रति ससदृश एव समनुझे किनिमित्त मुपसंपद्यमाने एवमव विहारालोचनेव भवत्यालोचना । श्यमत्र नाना मोहोनिमित्त गुपपद्यमान बलोचन विहा नाम नाति पविनान नाशोचना | एकदिवसेन वा भवत्यनेकदिवसैर्वा । एवं सम मोहस्य उपसंपदाोचना (अरणमपुर) त्यादि । अन्यो नाम जिन संभोगका समनोहो विद्मः सो ऽ समो शश्च उपसंपद्यमान त्रिक निमित्त मुपसंपद्यते । तद्यथा ज्ञाना थे दर्शनाये परिजाय या समिध सथोपसंपद्यमाने पूर्वषदालोचनां विधिः । अत्रा ऽपीयं भावना अन्यो ऽसमनोको वा आलोचनां ददाति । श्रोधेन पदविभागेन च ददान एकदिव सेन वा ददाति । अनेक दिवसै र्वा नवरमिति विशेषेएष पुनरत्र विशेषः । तस्याऽस्यासमनोज्ञस्य वा श्रलोच ना उत्सर्गतो विभागतः सर्ववाक्यं साधारणमिति विभागत एच कारण पुनर्नजितं विकल्पितं वेलाप्राप्तौ विभागालोचना जयति सक्षम सादिषु पुनः कारणेषु तदप्राप्तायांचे नाचनेतिभावः । एषा नजना अपराधालोचनाया श्रपि द्रष्टया तथाहि । अपराधालोचना व्युत्सर्गतः पद विभागेन दातव्या अपवादकारणे पुनः संभ्रम सार्थादिलक्षणा श्रघेनापीति । संप्रति उच्यते । तांव समिति व्याख्यातुकाम आद। पदम दिणमविफाले, अनु विए गुरुताइए अनुषा । त्रिय तम्हाकणे, सुमयुकोविमेतुि ॥ I यः स मनोह उपसंपदनार्थमागतस्तं पद्याचार्यः प्रथमदिवसमिति सम्ये द्वितीया प्रथमदिवसे (पिफ) देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः वानसि पुच्छति वागडुमिति, यया कुत आगत कुत्र वा गमिष्यसि । किं निमित्तं वा समागत इति । ततस्तस्य दिवसे एव मविष्फाअने परिहारस्थानं (अति) मास द्वितीये दिवसे यदि न पृच्छति ततो ( गुरुति) मात्र गुरु (तहतृतीये दिवसेच्ने (अया) इति चत्वारो मधुमासा चतुर्थेऽपि दिवसे यदि न पृच्छति। ततः ( ति तु मे गुरुगा ) इति वचनाश्चतुर्गुरु पंचमादिषुदिवसेष्वप्रच्छने तदेव चतुर्गुरु लिएरंतु अक्षमे ) गुरुगा इति निरवधितया वचनप्रवृत्तेः । "तच्चियतस्साकरणे" इति ते च प्रायश्चित्तवि शेषाः क्रमेण तस्याकथने । तद्यथा । स पृष्टः सन् यदि ते कयिष्यामि न तु कथयति । तस्मिन् प्रथमदिवसे अकथने लघु । द्वितीयदिवसेऽप्य कथयतो मासगुरु । तृतीय दिवसे चतु चतुर्थ दिवसे पकथयतश्चत्वारो गुरुमासाः । ततः परं पंचमादियादिवसेय कथने तदेव च । इदानीं उद्वातो तद्दिवसमिति व्याख्याया अवस्रः । तद्दिवसे प्रथमदिवसे उडात प्रतिकृत्या न पृच्छति। तत श्राचार्य प्रथमदिवसे विस्फाले अपृच्छने ( लहुयन्ति ) लघु न दोषगुरुः शुद्ध इत्यर्थः । कारणवशेनापृच्छनात् द्वितीयदिवसे न पृष्ठति मासगुरु तृतीयविषयग्रदने चतुर्गुरु पर्वतेनोपसंपद्यमानेन पृष्टेन वा यदव्याख्यातं जवति । तथाचाह ॥ ननु केन कारणेन वा समागत इति । तत भगतचितनीयः (सुमोषति शुद्ध वा अत्र परवारो मंगास्तद्यचा निर्ण मनमप्य शुरूमागमनमप्ययं निर्गमनममागमनं २ निर्गमनं शुद्धमागमनमशुद्धं ३ निर्गमनमपि शुरूमा गमनमपि Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६) अभिधानराजेन्द्रः | आलोयणा शुद्धं तत्र प्रथमभंगेनिर्गमन (स्मेतुिति) पनिर्वश्यमा धारेश्चितितान्येव द्वाराणि दर्शयति ॥ गिरणगतिजोगे पीक निकम्मे । मेरे सच्छंदमपियायो । यदि स उपसंपद्यमानोऽधिकरणतः स्वस्थानानू निर्गतः विगतति) पिया (योगति) योगोभीया परिणति ) प्रत्यनीको मे साधुरिति दया तथा" इत्यादिस्तस्य शते धान्य इति यानि इति वा अलस इति वा स्वच्छंदमतिरिति वा विनिर्गतस्तत स्तस्य निर्गमन मिति ज्योति ) परिहर्त्तव्यः । तदपरिहरणे प्रायश्चित्तं तत्राधिकरणविषये प्रायश्चित्तमाह । गिहिसंजय अगिरणे, लघु गुरुगा तस्स अपणोच्छेदो । विगई न देइ घेत्तु, उत्तरयं व गहिये वि ॥ दितिः संयते सदाधिकरणे विनिगत पद्याचा स्वीकरोति ततो ययाक्रमं प्रायश्चित्तं लघुगुरुकं । श्यमत्र भावना यदि गृहस्थेन सदाधिकरणं कृत्वा विनिर्गतस्तं प्राचार्यः सुरात ततस्तस्याचार्यस्य परिहारस्थानं चत्वारो घुमासाः श्रय संयतेन सममधिकरणं कृत्वा समागतं संगृहाति त्यागुरुकाः । तस्य पुनरागंतुकस्य (पति) रात्रिदिवपंचप्रमाणाः पर्यायस्य धेयः । पदाधिकरणादि दोपतो विनिर्गतास्ते प्रश्ने या सति ततिवशादवसीयते । तत्र विकृतिपविनितपुस्य या व उपस्तं दर्शयति ( विगमादि ) आया विकृतादि कांग्र अददाति तथा योगवाहिभियोगोत्तीर्णैः कायोत्सर्गकरणतो गृहीतोऽपि परिपूर्ण विकृतिज्ञाते या चरिता पि तिस्तामपि नानुजानाति किंच नवजिया विदेहो, पराईए ब्लोअनंते! | जावियल इरिनयगणं धारण करतो ॥ यिोनाम देशीवचनत्वादिः । उच" बचियायगोढच्च " इति नववज्जियाववत् देहो यस्य स तथा । श्यमत्र भावना । स ते अहं भगवन् ! नवे कुतुल्यो मम देहो यथा सः पानीयेन विना शुष्यति तथा ममापि देो विकृति विना सोदति । अन्यचाऽहं स्वनावेन दुर्बलो न विकृतिमंतरेण पत्रको भवामि तथा सर्वदेव त्याचितवेदस्ततस्त प्रायितस्य सतोममेदानी तस्याभावेन न सू अर्थस्य वा प्रहणमशक्तत्वात् । पूर्व गृहीतस्य सूत्रस्यावधारणं कुतः तत् प्रशस्या सर्व दूरत एव विस्मृतं । ततोऽहं विनिर्गतः ॥ संप्रति योगविषये प्रत्यनीकविषये चोतिविशेष दर्शयति ॥ एगंतर निव्वगत्ती, जोगोपव्वत्यिगोवमेत्यि । बुक्स एड विराणि कडेय गुरूणं ॥ तस्मिन् गधे एकांतरनिर्विकृतिका किस प्रयति । पृष्टवा ब्रूते । तस्याऽचार्यस्य गच्छे योग एकांतरोपवासेनोह्यते । एकांतरा चाम्ब्रेन वा तया योगवाहिनो योगोतीर्णस्यापि ते आचार्या विकृर्ति न विसृजति । ततः कर्कशा सुत्र योगा इति विनिर्गतः ॥ न तया तत्र गच्छे मे मम प्रत्यर्थिकः । प्रत्यनीकोऽस्ति स कथं विसामाचारीयोगेषु "युद्ध" युके विस्तृते सामावारी विशेषे स्वाझिने प्रत्युपेणादिके आलोयणा मां गृह्णाति त्यर्थे खरंटयति । अथवा बुक्कस्खलितेषु जातेषु ताल स्थान अपराधपत्रे विषाणीयाणि डा ति गृहीत्वा गुरु कययति पश्चात् गुरयो मांस ततो विनिर्गतः ॥ संप्रति लुब्धस्य स्तब्धस्य चोक्तिविशेषं दर्शयति ॥ चकमणादिगणे, कामगहणं काउ नत्थि वाह एवं ॥ लुंजइ सयमक्कासं, तयदेति नेमिबुदेवं ॥ १ ॥ स्तब्ध एवं जाषते चंक्रमणादावृत्याने कटिग्रहणं स्वाध्यायश्च नास्ति । एतदुक्तं भवति । यद्याचार्याश्चंक्रमणं कुर्वेति । श्रदि शब्दात् यदि वा कायिक्यादिभूमि गच्छंत्यागच्छेति वा तथा तथाऽप्यन्युत्यातव्याः । तेषां नायकत्वात् । ततः एवं चंक्रमपादावज्युत्तितामस्माकं कटी वा तेन गृह्यते भूयोभूय उत्थाने पक्षिमंथभावात् सूत्ररूपस्याऽर्थरूपस्य वा स्वाध्यायस्य दानिः । अथ नात्यः साचार्य प्रायश्चित्तं ददाति खरंयति च । ततोऽहं विर्निंगतः बुब्धः पुनरेवं व्रत यत्किमप्युत्कृष्टं शिखरिणीमोदकादि तदाचार्यः स्वयं मुक्तं नवज्योति बन्यो वा वायुर्वप्रधुके ज्यो ददाति ततः एवमसहमानोऽहं निर्गतः ॥ tear नियोगक्तिविशेषं प्रकटयति ॥ आव पापमाण, अकरणे उज्जदंमनिकम्मो ॥ बालावकादीड़ा, निवखायरिया य उम्जामा ॥ १ ॥ सः सवं वक्ति आवश्यक प्रमार्जनी करणे चदग्रा आचार्याः । श्यमत्र भावना । यदि कथमपि निर्ग प्रविशन् वा आवश्यक नैषधिकों च न करोति दंशादिकं वा गृह्णन् निक्षिपन्वा न प्रमार्जयति । तत आचार्य निरनुकंपाः संतः चयं प्रायश्चित्तरूपं दंभं प्रयच्छति ततोऽहं दंरुजयाधिनिर्गतः । यः पुनरलसः स एवं व्रते । बालाद्यर्याय बासवृषादीनामर्थ। तस्मिन् गच्छेदाभिकाचार्या अया कुछ कं कर्कशं वा तत् क्षेत्रं ततो दिने दिने चङ्गामा भिक्काचर्या प्रतिदिवसमन्यत्र ग्रामान्तरे गत्वा निक्का नीयते इति भावस्तथा यदिकथमप्यपर्य/तेन समागम्येत ततो गुरुः खरटयति किं वसतौन महानसमस्ति येनापर्याप्तः समागतः । तस्माद्योऽपि न निकायत कोयापि बहू प्राप्य इति ततोऽहं निर्गतः ॥ सांप्रतमनुबरूवैरस्वच्छंदमत्योरुक्तिविशेषं दर्शयति ॥ पाव झुंजवि, एगतो मपि अणुबको । एगागिस्स न लब्जा, बलिडं घेवंपि सच्छंदो ॥ अनुषको नयति मेदित्वाऽपि नमन फलदस्त मपि कृत्वा पाणशुनका शव एकत्र झुंजते ॥ श्यमत्र जावना ॥ यथा पाणाचं मात्राः शुनका कुर्कराः परस्परं भरित्वा तत्क णादेवैकत्र झुंजते । एवं तत्र संयता अपि नवरं मिथ्याडुकृतं परस्परं दाप्यं इति विशेषः । अहं पुनर्न शक्नोमि हृदयस्थन शल्येन तैः सह एकत्र समुद्देष्टुमिति विनिर्गतः । स्वछंदमतिः पुनरेवं भाषेत एकाकिनः सतः स्तोकमपि न झ ज्यं चलितुं । किमुक्तं नवति । संज्ञानूमावप्येकाकिनः सतां न तुं प्रयच्छंति किंत्वेवं ब्रुवते नियमात्संघाटक रूपतया केनापि सहितेन गंतव्यं । ततस्तमसमानो ऽमत्रागतः । एतापधिकरवानि पदायाचार्य या परित्यजीत पन किरणादिपदे रागतस्य तस्योपसंपद्यमानस्य चाती तयाचार्यस्येव प्रायश्चित्तं । I Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा जाकिणी, सुके अणुबन्धरोस चजगुरुगा || सेसा ण हुति लडगा, एमेव परिच्छमाणस्स || यो यतिभिः सह मनं कृत्वा समागतः । यश्च तत्र मे प्रत्यनीकः साधुरिति कृत्या समागच्छेत्। यथ सुग्यो धातुरू शेषः पतेषामुपसंपद प्रतिपद्यमानानां प्रायधितं चतुर्गुरुकाः चत्वारो गुरुमासाः शेषाणां लंडनकारिविकृतिपट गतस्तन्यनिम्मंस्यतीनां का इति क्यारो - काय पुनराचार्यस्तदाचार्यानतुझ्या प्रायश्चिसदानमतरेण च प्रतीच्छति तस्यापि प्रायश्चित्तमेवमेव । तद्यथा । यतिकारी धाराप्रतीच्यायारोमा (४३७ ) अभिधानराजेन्द्रः । साः शेषान् षट्पतीच्तम्भत्वारो लघुमासाः । अथवा ये पते दोषा उकास्तेषां मध्ये एकेनापि दोषेण नागतो भवेत् किंत्वे नियमास्तानेपा । पगे अपरिणय वा अप्याधारे व चेरए । गिझाणे बहुरोगी व मंदधम्मे य पाहुये ॥ यदि एक एकाकी पधादाचार्यः। यदिवा अपरिणए बा, अप्पाधारे य थेरए । मिला बहुरोगी य, मंद व पाहु । यदि एकतः सहितः स च कल्पिकखाद्युत्पादने अधिमानचया तहाचार्योऽपाचाराः सुषार्थनेपणधिः स च पृष्टः सन् सुनार्थकपने निपुणः शकिमात् यदि वा तदाचार्यः परिवारो वा स्थविरो जरसा वृरूशरीरः । स च तेषां प्रतिजागरूकः अथवा पश्चादेकोग्नानः । स च तस्य बिताकारी यदि वा पातको बटुरोगी नाम बहुभिः साधारणैराज प्यशरीरः स च तस्य वर्त्तापकः । यदि वा पचनार्थपरिवारा सर्वोऽवि निमकरोति के तयात् किमपि करोति । तथा तत्र पश्चात् गुरोः केनापि सद्प्रतं वर्त्तमानमस्ति । प्रातं नाम अधिकरणं स च गुरोः क्रमेण अपनतः साहाय्यकारी एवं प्राग्वर्त्तमाने यदि समागतो भवति । तदा तस्य निर्गमनमशुद्धत्वाच्च परित्या ज्यमिति ॥ नामेव गाय व्याक्यातुकाम प्रथमत एका परिणताऽपा धारद्वाराणि व्याख्यानयति ॥ पाणिर्य पमोचुंबत्यादि अकम्पमा सहियं । अप्पाधारावायणं, तं चैव य पुच्छि देइ ॥ एकमेकाकिनं पचादाचार्य मुक्त्वा यदि समागतः । अथया कपि प्रथममपि महीतरकल्पि सहितं मुक्त्वा पतेनापरिणत इति व्याख्यातं । यदि वा अल्प सूत्रस्याऽर्थस्य वा आधार इति समास्तमेषा शेखाधुन्यो पाच दाति तार मुक्त्वा पतेनाऽल्पाधार इति विवृतं ॥ येरं प्रतिम, अनंगर्म मोजु आगतो गुरुं तु ॥ सोन परिसाच थेरा, अहं तु अहावगोता ॥ १ ॥ स्थावरमेय व्यापती महान्तमजंगमं गमनशक्तिविक गुरु उपलक्षणमेतत् परिवारं या स्थविरमुतमुक्त्या पहि समागतः स च प्रतिजागरुक स्तथा च तस्य पृष्टस्य सतोमु. मेवोक्तिविशेषं दर्शयति । स च श्राचार्यः स्थविरः पर्षद्वा परिवारोपाभासीत् भदं तु येषां गुदीन का प्रति जागरूक एतेन स्थविर इति पदं व्याख्यातं ॥ आलोयणा मानव रोगनिर्म्मपदानि व्यास्यानयति ॥ तत्य गिलाणोएगो, जप्पसरीरो य होइ बहुरोगी ॥ निम्मा गुरुप्राएं, न करेंति समं पमोत्तणं ॥ १ ॥ तत्र गच्लान एकोऽस्ति यदि वा बहुरोगी यो आप्यशरीरो नवति । स बहुरोगी तंग्लानं बहुरोगिणं वा विमुच्य यदि स समागतस्तथा निर्धर्म्मपरिषद्विषये तस्य पृष्टस्य सत विशेषयति । निम्मधर्मवासनारहितस्तस्य समाचार्यस्य शिष्याः सर्वथा न कर्वति मां प्रमुध्य 1 मम पुनराज्ञां न कुर्वेति । तादृशं वा निर्म्म परिवारं मुक्त्वा यदि समागतस्तर्हि स न प्रतिग्राह्यः । केवलमयमुपदेशस्तस्मे दातव्यः ॥ मेवा | एयारिसं विप्रोसज्ज, विप्पवासो न कप्पई ॥ सीसायरियपरिच्छे, पायच्चित्तं विहिज्जइ ॥ १ ॥ तामेकाक्यादिस्वरूपं गुरुमन्यं वा सानादिकं व्युत्स्टज्य परित्यज्य विशेषेण प्रवासोऽम्यत्र गमनं विप्रवासो भद्रं तव न कल्पते । बहुगुणाधारो भवान् कयमीशं कृतवान् । तस्मात् अद्यापि प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य पश्चात् गच्छ । स च समागतस्तस्य प्राक्तनाचार्यस्य शिष्यो वा स्यात् प्रतीको या पवमागतमुपसंपद्यमानं बोडप्याचार्यः प्रतीच्छति सोऽपि प्रायश्चित्तभाक् । ततः शिष्यप्रतीकाचार्याणां प्रायश्चित्तं विवक्षुरिदमाह ॥ (सांसरियादि) शिष्ये आचार्य प्रतीके च प्रायधि सं विधीयते । प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यते इति भाषः ॥ प्रतिज्ञातमेव नियति ॥ गेमागे वा तिहवि गुरुगा उसीसमादीणं ॥ सेसे सिस्से गुरुगा, परिच्छदगा गुरुसरिसं ॥ एकस्मिन् पाकिनि गुरी हाने वा तत्र गच्छे तिष्ठति यदि समागतः । शिष्यः प्रतीको वा भाचार्येण वा तथा समागतः सन् यदि प्रतिस्तदा शिष्यादीनां शिष्यप्रतीच् काचार्याणां त्रयाणामपि प्रायश्चित्तं गुरुकाभ्धत्वारो गुरुमासाः । या पुनरन्यः परिचताभ्यवाधारस्पषिरव डुरोगमं धर्मपरिचारणस्तस्मिन् शेषे यदि समागतः शिष्यः ततस्तस्य प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमालाः । अथ प्रतीकः समागतस्ता तस्य धुकास्थायारो समासाः ( गुहारसमिति ) पुरोरपि प्रतीच्जकसदृशं प्रायश्चितं । किमुक्कं भवति यदि शिष्यं प्रतीति ततः प्रायश्वितं चत्वारो रु मासाः । अय प्रतीच्छकं तहिं चत्वारो का इति ॥ सीसपमिछे पाहुच्छेदो राईदियाणि येथेव । प्रायश्यिस्स उ गुरुगा, दोवेए परिच्छमाणस्स ॥ यदि प्रानृते गुरोः केनापि सड़ाधिकरणावर्त्तमानः शिष्यः प्रतीकको वा समागतः । तदा तस्य प्रतीकस्य वा प्रायचिदिचान पर्यायस्य द्वेदः साचार्यस्य पुन यष्येती प्रतीच्तः प्रतिगृद्धतः प्रायश्वितं । गुरुकाश्यायारो गुरुमासाः । तदेवं प्रथमभंगे निर्गमनदोषा उक्ताः आगमनमशुकं तदा भवति यदा यजिकादिषु प्रतिबध्यमानः समागतस्त त्रापि प्रतिषेधनिमित्तं प्रायश्चितं मानुसारतो वतव्यं । गतः प्रथमो जंगः द्वितीयभंगोऽत्येतादृश एव न वरं । तत्रा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४३८) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा गमनं शुरू कचिदपि वाजिकादौ प्रतिबंधकरणात् तृतीयचतु- भगवंतः शिक्कयन्तां मां शरणमुपागतं परित्यजत एवं परीर्थनंगावनुक्रमेणाह॥ कानिर्वर्तितः परिग्राह्यः । इतरस्तु परित्याज्यः॥ एतद्दोसविमुकं, वइयादी अपमित्रछमायातं ॥ तत्राऽवश्यके यथा परीक्षा कर्तव्या तथोपदर्शयति । दाऊणं पच्चित्तं, पमिबई पमिच्छेजा ॥१॥ हीणाहियविवरिए, सतिविवले पुवटुंते चोएइ ॥ पतैरनंतरोदितैरधिकरणकारित्वविकृतिबापटवादिदोषैर्विम- अप्पणवो देती नममंति इहं मुहं वसिउं । तमेतेन निर्गमन शुष्मुक्तं । तथा वजिकादी अप्रतिबद्धं हानं नाम यत्कायोत्सर्गसूत्राणि मंदमंदमुच्चार्य शेषेषु साधुषु कचिदपि प्रतिबंधमकुर्वतमायातमनेनाऽगमनं शरुमपि दर्शितं चिरकालं कायोत्सर्ग स्थितेषुपश्चात्स कायोत्सर्गे तिष्ठति । एष चतुर्थोनंगः । एष एवोत्सर्गतः श्रेयानिति झापनार्थ तृती- इत्यादि । अधिकं नामंकायोत्सर्गसूत्राएयति त्वरितमुच्चायार्नुप्रेयनंगात्पूर्वमुक्तः । एवं भूतं प्रतीच्छेत् । तृतीयभंगमाह (सणे) काकरणार्थ पूर्वमेव कायोत्सर्गे तिष्ठति रत्नाधिके घोत्सा त्यादि यस्त्वधिकरणकारित्वादिदोषैर्विनिर्मुक्तो निर्गतः केवलं रितेकायोत्सर्गपश्चाश्चिरेण स्वं कायोत्सर्गमुत्सारयति इत्याअजिकादिषु प्रतिवद्धमप्यपवादपदेन बजिकादिषु प्रतिबंधका- दि । विपरीत नाम प्रादोषिकान्कायोत्सर्गान् प्राभातिकानिव रणमनूत्तनिमित्तं प्रायश्चित्तं दत्वा प्रतीच्छेत् ॥ करोति । प्रानातिकान् प्रादोषिकानिव इत्यादि । हीनाधिक (७) आलोचनायां शिष्याऽचार्य्यपरीक्षणे आवश्य च विपरीतं समाहारद्वंद्वस्तस्मिन्प्रमादतोवर्तमानात् अथवा सूर्ये किम अस्तमितमात्रे एव निर्व्याघाते सर्वैरपि साधुकादिद्वाराणि ॥ जिराचार्येण सह प्रतिक्रमितव्यं । यदि पुनराचार्यस्य सुकंपमिचिकणं, अपरिच्छणा बहुय तित्रिदिवसाणं। श्राद्धादिधर्मकथादिभिर्व्याघातस्ततो पासवृक्षरसामासहान सिस्से आयरिए वा, पारिच्छा तत्थिमा होइ ॥ निषद्याधरं च मुक्त्वाशेषैः सूत्रार्थस्मरणार्थ कायोत्सर्गेण शुकं निर्गमनागमनादिदोषरहितं प्रतीच्छय प्रतिगृह्य त्रीन स्यातव्यं । ये सत्यपि वले पूर्व कायोत्सर्गे न तिष्ठति तान्पूर्वदिवसान्यावत् परीकेत । किमेष धर्मश्रकावान् किं वा नेति मतिष्ठतश्चोदयंति यः पुनः परीक्ष्यते तं प्रमाद्यतमापन शिक्कयदि पुनर्न परोकते । ततोऽपरीक्षणे परीकणाकरणे (बहु यति । ततो यदि स एवं व्यवस्यति । यथा आत्मीयान यत्ति)मासाघु प्रायश्चित्तं आचार्यान्तरानिप्रायेण चर्तुमास प्रमाद्यतश्चोदयति । न मामिति सुखमिह वसितुमिति । स लघु । सा च परीक्षा उजययाऽपि शिष्य आचार्य परीकते इत्थं नूतः पंजरभग्नो ज्ञातव्यो न प्रतीच्छनीयः॥ आचाः शिष्यं उ नययापि च परी का आवश्यकादिपदैस्त- जो पुण चोइज्जते, दवाण नियत्तए ततो गणा। थाचाह ॥ ( सिस्तिश्त्यादि ) तत्र तस्मिन् उपसंपद्यमाने जण अहं नेवतो, चोएह ममंपि सीयंत ॥ प्रतीचिते सति शिष्ये आचार्ये च परस्परमियमावश्यकादि यः पुनश्चोद्यमाना न शिक्ष्यमाणान् शेषसाधन रष्ट्वा ततः पदैर्वक्ष्यमाणा परीक्षा भवति ॥ स्थानात् निवर्तितैर्भणति । गुरुपादमूने गत्वा मन्युभराक्रांती तामेवाह॥ गादवरेण अहं युष्मचरणमागतोऽपि भगवन् युष्माभिः आवस्सयपमिलेहण, सज्झाए हुजणा य जासाय । शिकाया अप्रदानतस्त्यक्तः । न चैतत् भगवतां परमकरुणापवीयारे गेलने, निक्खग्गहणे पमिच्छति ॥ रीतचेतसामुचितं । तस्मात्प्रमादमाध्माय मामपि सीदंतं शिष्यवमिति एष इत्थं नूतः प्रतिग्राह्यः कृता आवश्यकमआवश्यके, प्रतिलेखने, स्वाध्याये, भोजने, भाषायां, विचारे, धिकृत्य परीका ॥ बहिर्भूमौ, साने, शिकाग्रहणे, च परस्परमाचार्यशिष्यो संप्रतिप्रतिलेखनस्वाध्याय भोजनभाषाहाराणि अधिकृत्य परीक्ष्यते ॥ तामाह ॥ तत्राऽवश्यकादिपदान्यधिकृत्य यथाचार्यः शिष्यं परीक्तत पहिणसज्काए, एमेव यहीणअहिय विवरीयं । थोपदर्शयति॥ के पुव्यनिसिद्धा, केई सारे तन सारे। दोसेहि वा वि मुंज, गारत्थियढलए नासा ॥ एवमेवावश्यकोने नैव प्रकारेण प्रतिवेस्खने, स्वाध्याये, च संविग्गोसिक्खमग्गह, सुत्तावलिमो अणाहो है ॥ हीनमधिकं विपरीतं च कुर्वत आत्मीयान् शिवयते न तु तं केचित्साधयोवृषभादयः तस्योपसंपत्कासात् पूर्वमेव आ- परीक्ष्यमाणमित्यादि पूर्ववत् तत्र प्रतिलेखनाया हीनाधिकता वश्यकादिपदेषु ये दोषास्तेच्या निपिछा यया आचार्या श्द- नाम यत् कालतो हीनामधिकां वा प्रतिलेखनां करोति । मिदं च माकाषुरिति । ते तव वर्तमानास्तिष्ठति । ये पुनः- खोटकादिभिर्वा हीनामधिकां वा । विपरीतता नाम प्रजात कचित् अभिनवदीक्षितत्वादिना कारणेन प्रमायति तान् गुरुः यत् मुखपेतिकादि क्रमेण न प्रत्युपेक्वते । किं तु स्वेच्छया मारयति । सम्यग् ययोक्तागुष्टाने वर्तयात । तं पुनरुपसंप- यदि वा पूर्वाद्धरणं निःपश्चिमं प्रत्युपेक्वते । अपराएहे तुसर्य नं प्रमादस्याने वर्तमानमपि न सारयति । तत्र यदि स उप. प्रथममित्यादि । स्वाध्याये हीनता नाम यदिप्राप्तायामपिकाल मपद्यमानः संविनो जवति । ततः सोऽप्रतिने द्यमानः सन्नेवं वेझायां कानप्रतिक्रमणं करोति अधिकता यदतिक्रांताय माप चितयति। येषु स्थानेष्वन्यानप्रमाद्यत आचार्याः सारयति कालवेवायां कासं प्रतिक्रामति । वंदनादिक्रियायां वा तदनुअहो अहमनाथः परित्यक्त एतैरिति चियित्वा संविनविदा- गतां हीनाधिकां करोति विपरीतता पौरुषीपाग्मतिक्रांतायां गमिच्छन् भाचार्यपादम्झे गत्वा ( सुत्तावलिमो ) इति पौरुष्यां पठति । धकाधिक पौरुष्यामिति तथा नोजनद्वारे निपातः पादपूरणाच्छिन्नमुक्तावलीप्रकाशान्यभूणि विमुंचन् आनोकादिविधानसूत्रोक्तेन न तुंक्ते देषिर्वाऽपि (असुरसुरं पादयोः पतित्वां शिकांमार्गयते याचते यया मामप्यत्यादरेण अचयच अट्टयमवलंबियमि ) त्यादि विपरीतरूपैर्नुक्ते । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयगा तत्रात्मीयानतथा मुंजानान् शिक्कयतेन तु परीक्ष्यमाणमित्यादि पूर्ववत् जापाद्वारे या अगारस्थिते भाषागृहस्थभाषा चढ़ कुरभाषा स्यूरस्वरभाषा तां भाषते । तत्रात्मीयान् तथारूपया भाषया भाषमाणान् शिवयत न पुनः परीछ यमाणमित्यादि विभाषा पूर्ववत् ॥ शेषाणि त्रीणि हाराण्यकगाथया प्रतिपादयति ॥ यमियसामायोहि, हवेश अतरंतगं न पमिजये ॥ अजीणतो लिक्ख, न हिंमद अणेसणाच पेढे॥ स्यमिले सामाचारी पादप्रमार्जनम्गाकग्रहणं दिनालोक. नादिरूपां हापयति परिभवति विद्रुपतीत्ययः । तत्र तथा सामाचारी विझुंपत प्रात्मीयान् साधून शिक्यते न परीक्ष्य माणमित्यादि प्राम्वत् । गतं विचारहारम् ॥ ग्लानद्वारमाह। प्रतरतगं असमर्थ मानमित्यर्थः। नप्रतिजागत्ति नापितस्य ग्यानस्य खेलमलकादि कसमर्पयति। अत्रापि म्यानमप्रतिजाग्रत आत्मीयान साधून शिक्कयते। नतु परिक्ष्यमाणमित्यादि भाषा पूर्ववत् । गतं म्यानहार। जिताग्रहणद्वारमाह। अनणितः सन् भिकां न हिंमते भणिनोऽपि च षहिमने सति प्रतिनिवर्तते अनेषणायां भिक्कां गृह्णाति । प्रादिशब्दात् कौटिल्ये नचोत्पादयति इत्यादि परिगहः । तं तथा भिकागहणे प्रवर्तमानमपि न शिक्कयति । किं त्यात्मीयान् साधून इत्यादि प्राग्वत् । तस्य चागमो द्वाज्यां स्थानाच्या नवति । ततस्ते एव के स्थाने प्रतिपादयति ॥ जयमाणपरिहवते, आगमणं तस्स दोहि नाणेहिं। पंजरजग्ग अजिमुहे, आवस्सगमादि आयरिए । तस्योपसंपद्यमानस्यागमनं घायां स्थानाच्या नवेत् । तद्यथा । यतमानज्यः परिजवद्यश्च यतमाना माम संविग्नाः परिभवंतः पाश्वस्थादयः । उक्तं च।। सो पुण जयमाणगाण, वा साहूण मूलातो । आगतोढुजा परिजवंताण मन्नान,आगतो हुज्जा परिजवंता नाम पासत्थ। इति । तत्र यो यतमानसाधनां मूसादागतः संज्ञानदर्शनार्थ पंजरभम्रो पा समागतो नवेत् । यः पुनः परिभवतां मूलावागतः स चारित्रार्थमुद्यंतकामः समागतो भवेत् । अनुषंतु कामो वा ज्ञानदर्शनार्थमिति । अथ वा यो यतमानेभ्यः समागतः स पंजरभग्नः यः पुनः परिभवत्य नधुतुकामश्चारित्रार्थ समागतः। सोऽभिमुखःपंजरानिमुखः पतयोईयोरपि ममागतयारावश्यकादिभिः पदराचायण परीक्ष्यमाणानपि मोदतः पश्यति तत आचार्येन्यः कथयति । तेन कथितेसति यद्याचार्याः सम्यक प्रतिपद्य तान्प्रमादिनः प्रति नोदयंति । प्रायश्चित्त च प्रयच्छति । ततस्तत्रोपसंपत्तव्यं । अथ कथिते ऽपि ते प्राचार्यास्तूष्णोतिष्ठति । भणंति वा किं तव यद्यतेन मम्यवर्तते । तर्हि अन्यत्र गच्चांतरे उपसंपत्तव्यं । न तोति प्रय यतमानेन्यः समागतः पंजरभन्न इत्युक्तं तत्र पंजरे इति किमुच्यत । तत आह॥ पणगाइसंगहो होइ, पंजरो जायसारणाणोमं । पच्चित्तं चढमणाहिं, तिवारणं, सउणिदिटुंतो॥ पंचक नाम आचार्योपाध्यायप्रवर्तिस्थविरगणावच्छेदकरूपं आदिशब्दात् निक्कयो वृष ताः क्षुद्धकवृझाश्च परिगृह्यते । तयां संग्रहः पंचकादिसंग्रहो भवति । पंजरः प्रथया भाचा- । र्यादीनामन्योन्यं परस्परं यत् । मृडमधुरभाषया सोपासंभ धा शिक्कयति एष वा पंजरः । यदि वा यत् प्रायश्चित्तं चमढनाभिरसमाचार्यों निवारणपूर्व रवरपुरु स्तर्जयित्वा पश्चात्प्रायश्चित्तप्रदानेन यदा सामाचारीता निवर्तनं तत् पंजरः अत्राथें शकुनिदृष्टांतः। यथा पंजरे शकुनेः शनाकादिनिः स्वच्छंदगमनं निवार्यते । तथा आचा यदिपुरुषगच्चपंजरे सारणाशलाकया सामाचारीरूपोन्मार्गगमनं निवार्यते इति । अत्र ये यतमानानां मूत्रात् झानदर्शनार्यमागता ये च परिजवतां मूलात् चारित्रार्थमागच्छन् ते संग्रहीतव्याः। ये पुनः पंजरभया ज्ञानदर्शनार्थमागता येच परिजवतां मूत्रात् ज्ञानदर्शनार्थमागमन् ते न संग्रहीतव्याः । तत्र ये संग्रहीतव्यास्ते एको वास्मादनेको वा यत प्राह ॥ ते पुण एगमणगाणं, गाणं सारणा जहा पुव्वं ॥ . उवसंपयानडे, अणानढे अन्नाहिं गच्छे ॥१॥ ते पुनरुपसंपद्यमानाः कदाचिदेको वा स्यादनेको घा तत्रानेकेषां या सारणा सा यथापूर्व कल्पाध्ययने " नवपसो सारणा चेव तश्या पहिसारणा" इत्यादिना ग्रंथेन भणिता तयाऽत्रापि षष्टव्या यः पुनरेकोऽसमीचीनं कुर्वन् शिक्ष्यमाण श्व यद् व्यावृत्तः शिकां प्रत्यनिमुखोभवति । ततस्तस्मिन् आवृत्त षष्ठीसप्तम्योरथै प्रत्यनेदात्तस्यावृत्तस्य उपसंपति यदिपनीवर्तते । तदा तस्मिन् अमावृत्ते श्दं भएयते । अन्यत्र गच्छमात्र स्था इति । अथवा श्दमुत्तराईम् (प्राय स्सगमाश्यायरिप ) इति यमुक्तं तस्य व्याख्यानं आवश्यकादिषु गच्छवासिनः प्रमादिनो दृष्ट्वा प्राचार्याय कथयत् । कथिते च सति यदि आचार्यः सम्यगावर्तते निजसाधून सम्यक् शिकयते प्रायश्चित्तं च तेभ्यः प्रयच्छति ततस्तस्मि नावृत्ते तस्य तत्रोपसंपद्भवति । अथ कथित नावर्तते तूष्णों करेति न भणति किं तवतैः स्वयं सम्यग्वतथा इति । तदाऽन्यत्र गच्छेदिति । यमुक्तं प्राक॥ दाऊण पच्चित्तवतंपी पमिच्छेजा इति ॥ तत् व्याख्यानयति । ( निग्गमणे अपरिसुद्ध, इमाए जयणाए वारेति ) तृतीये भंगे निर्गमने परिशुके प्रागुक्तदाषषर्जिते आगमने अशुझे व्रजिकादिषु प्रतिबंधकरणादिषु प्रतिबंधकरणाहितीये पदे अल्पदोषतयाप्रतीच्गबुझौ सत्या प्रायश्चित्तं प्रतिबंधमात्रनिष्पन्नं ददाति । दत्वा च प्रतीच्छति निर्गमने पुनः प्रथमनंगे द्वितीयनंगे वा अधिकरणमेव अधिकरणादिभिः । पगेऽपरिणए वा इत्यादिभिर्वा दोषैरपरिशुश न प्रतीच्चनीयः किंतु वारणीयः । तं वाऽनया वकमाणया:थतनया वारयति ॥ तामेवाह ॥ नत्यिसंकियसंयाम, मंगनी निक्खवाहिराणयणं । पच्चित्तविनस्सग्ग, निगमसुत्तस्स बाणेण ॥ यः पंजरभनो ज्ञानदर्शनार्थमागतः तं प्रतीयं वाग्यतना यत्वं श्रुतमभित्रषसि । तन्मम पाव नास्ति अथ स यात् मया श्रुतं यथाऽमुकोग्रंयोऽमुकस्यपावं युष्माभिः श्रुत इति तत् श्दं वक्तव्यं श्रुतः स ग्रंथः केवझमिदनी बहुषु स्थानेषु संकितं जातं न च शंकितं श्रुतमन्यस्मै दीयते प्रवचने निषेधात् तस्मादन्यत्र निम्झांकितश्रुतात् गवेषयस्व । यस्तु स्वच्छदमतिःसंघाटकोहिनःसंज्ञानूमिमध्यकाकिना गंतुंन नत्यमिति Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४०) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा मामागतस्तं प्रतीदं वक्तव्यं । अस्माकमाचार्यपरंपरात श्य ( संघामत्ति ) मंझलीति च धारद्वयं व्याचिख्यासुराह ।। मामाचारी संज्ञानूमिमात्रमपिन गंतव्यमेतश्च तब हुकरम- एगागिस्स न लब्जा, वियारादी विजयणसच्चंदे । नोऽन्यत्र गच्च तावदिति । यः पुनरनुबरूवैरत्वेनागतस्तं जोयणसुत्ते ममन्त्री, पढमते वा नियंति ॥ प्रतीदं वक्तव्यं । मंगसीति । अस्माकमीशी सामाचारी स्वच्छन्दे म्वन्दमती निवारणार्थमियं वाग्यतना अस्मायदवश्यं मंगल्यांसमुद्देष्टव्यं । यद्यपि च न पनतिन शृणोति कमेकाकिनः सतोविचारादायपि बहिर्भूम्यादावपि तन्न सायं या तयापि सूत्रपौरुप्यांमगल्यामुपविक्ष्यार्यः श्रोतन्यान कदा गन्तुमिति । अनुबरूवरे । इयं वाम्यतना। अस्मदीया मुनिकृया चनाणि साधूनां स्वरदत्यमेतच भवतोऽप्रीतिकरं तस्मादन्यत्र नोजने सूत्रे उपलकणमेतत् अर्थे वा परतोऽपि ममस्यां निगम्यतां । यस्त्वनसत्वेनागतस्तं प्रतीदं वाच्यं । (जिक्खवा. योजयंति । एतच तवदुष्करमिति ॥ हिराणं)। मिकाया बहिः प्रदेशादानयनं । किमुक्तं नवति ॥ अधुना : भिक्खवाहिराणयणं पवित्तविनस्सग्गे" इति अस्माकमत्र केत्रे बहवो बालवृद्धाः स म्यानाः साधवः ते श्रीणि काराणि व्याख्यानयति ॥ च भिकां न हिंमते । ततो यदि प्रतिदिवसं निका बहिःप्रदे अलसंजणति वाहि, निखबहिंमसि अम्हएत्थबालादी। शादानयसि ततस्तिष्ठ परमेतत् पुष्करं तब तस्मात् यत्र पच्चित्तं हामहमं, अविनस्सग्गो तहा विगई॥ सुखेन तिष्ठसि तत्र याहि किमत्र कोशसहनेन यस्तु निर्क. अबसं प्रति भणत्याचार्याः । अस्माकमत्र को बहवो वासार्मा उपदमा आचार्या इति विनिर्गतस्तंप्रतीदमुत्तरं ( पछि. तत्ति) अस्माकमियं सामाचारीयदिःप्रमाजनादिमात्रमपिक. दयस्ते च भिकां न हिंमंत ततो यदि बहिर्भिकां हिंमस । रोति । तदातत्कालमेवप्रायश्चित्तं यथोक्तं दीयते न कासक्केपेण तहि तिष्ठ अन्यथा व्रज स्थानांतरमिति । निर्माणं प्रात पुनमापि पकपातादिना स्तोक हासेन यस्तु विकृतिसंपटोन मा रिव वदति अस्माकं केऽपि दुःप्रमार्जनादौ कृते प्रायश्चित हामहरू देशीपदमेतत् तत्कालमित्यर्थः । दीयते अन्यथा विकृतिमनुजानातीति विनिर्गतस्तं प्रतीयं वाग्यतना ( आवि. सस्सम्पति) अस्माकमप्ययं समाचार्यागमः ॥ अज्युत्सगों मूलत पव सामाचारीविलोपप्रसक्तेः विकृतिसंपर्ट प्रति पुनरिनुत्कलनं विकृतरिति व्याख्यानतो गम्यते । योगवाहिना य वाम्यतना योगवाहिनो वाऽस्माकं गच्छे विकृतरव्युत्सगा ऽनुकानं नवांश्च पुर्बशरीरोनवेवावि पानीयैर्विकृत्याऽल्पअयोगवाहिना वा विकृतिर्न प्राह्या इत्यर्थः । अत्राधिकरण स्वभावास्तस्मादन्यत्र प्रयाहीति । प्रत्यनीकस्तब्ध मुग्धविषये यतनानोक्ता विचित्रत्वात् सूत्र अत्र चोदक आह॥ भाष्यगते सत्राधिकरण यतना यथा कस्पाध्ययने तथा रष्ट । ज्या । शेषविषया तु विनेयजनानुग्रहायानिधीयते तत्र य तित्य जवे मायमोसो, एवं तु नवे अणुज में तस्स । प्रत्यनीकस्तत्र मे प्रत्यनीकोऽस्तीत्यागतः सनण्यते ममापि वुत्तं च उज्जुलूते, सोही तेस्रोकदंसीहि ॥ शिष्याः प्रतीच्चकाच ईषदपि प्रमादं न कमंते मह्यं कथयांत । यदेतत् निर्गमना शुझे उपायन प्रतिषधनमुक्तं तत्र कस्यचिन् अहं च दोषानुरूपं द प्रयच्छामि । अन्यथैकतरपक्वपातकर- मतिः स्यात् । एवं प्रतिषेधतो माया भवति । मृषावादश्च । णतोगमुद्राभंगः । सर्वज्ञाकाविलोपश्च । तस्मादत्राप तत्र यत् परिचिंतनं तन्मायाविद्यमानमाप श्रुतं नास्ति शंकित तवदुष्करमिति नस्थातुमुचितं स्तब्धः पुनरेवं भएयते। अस्मा वा तिष्ठतीत्यादि कुर्वाणस्य मृषावादः । एवं तु अमुना प्रकारे कमिय सामाचारीचंक्रमणादिकुर्वति गुराव ज्युत्यानं अनन्यु पण पुनर्माया मृषां कुर्वते नवेत् । तस्याऽनार्जवमनजुता मायातः तिष्ठतः प्रायश्चित्तदानमिति झुग्धं प्रत्येषा वाम्यतनालस्कृ- कुटिमनावभावात् उक्तं पुनस्रोक्यदर्शिभिरिवं शोधिकल्प टद्रव्याणिमोदकादीनि अस्माकं वासवृकसानप्राधूर्णिकेन्यो ऋजुनूते सोहीतज्जुयस्लेत्यादेः प्रदेशांते श्रवणात् ततो ने दीयते। तदेव स्वच्छंदचारित्रप्रनृतीनां निवारणे वाम्यतनोक्ता माया मृषा भाषणमुचितमिति ॥ यदि पुनरेते तया निवारिता अपि न वदयमाणप्रकारण अत्र सरिः प्रत्युत्तरमाह ॥ प्रत्यावर्तते नापि निर्गच्छति येऽपि च विशुद्धनिर्गमाः प्रती एसअगिते जयणा, गीते वि करेंति जुज्नई जे तु ॥ चिताः संतः सीदति तेषां परिस्थापने यतनामाह (निम्गम- विदेसकर इह ए, मच्छवि दोव फुमरुक्खो ॥ १ ॥ मुत्तस्स ग्रोण ) यदा परिस्थापयितुमिष्यमाणस्य स्वयं एषा अनंतरोदिता वाम्यतना अगीते अगीतार्ये गीतेऽपि गीता निकादिनिमित्तं निर्गमो भवति । यदा रात्री निम्या सुप्त- थेऽपि निर्गमनाशुद्ध निवारणा क्रियते । स्फुटावरैयया स्तदा तं त्यक्त्या नष्टव्यं ॥ एवं नूतदोषात् त्वमत्रागत एवं नूतदोषश्च न सुविहितः कथमित्याह ॥ प्रतीच्यते इति न चैवं जणितगीतार्थो हि सर्वामपिसामाउभेनाप्रकटमल्पसागारिकं किमुक्तं नवति । ये अपरिणता चारीमवबुध्यते । अवबुध्यमानाश्च कथमप्रीति विवर्ष वा बादादयो वा तत्र गच्छे तेषां न कथ्यते यथाऽमुमेवं त्यक्त्वा कुर्वतीति । नष्टव्य मिति । मा रहस्यनेदं कार्षरिति कृत्वति एष गाथार्थः॥ तथाचाह ॥ (करेंति जुजई जंतु ) यत् अत्र युज्यते युक्तिमासांप्रतमेनामेव गाथां विनेयजनानुग्रहाय विवृणोति ॥ पतति तत् गीतार्थाः कुर्वति । नाप्रीत्यादिमिति । शहरति । नत्येयं मिज मिच्छसि, सुयं मया आमसकियं तं तु । इतरया यद्यगीतार्थेऽपि स्फुटरकर्निवारणा क्रियते । ततः न य संकियं तु दिजइ, निस्संकसुए गवेस्साहि॥ स्फुटरूके भापिते सति स्फुटं नाम मभृतदोपाचारणं रू यदिच्छसि शास्त्रं श्रोतुं तदेतत् मे मम पाव नास्ति । अथ स्नहोपदर्शनरहितं यदि वा स्फुटमेव परम्य रुकतोत्पादनात व्यात् । मयदं श्रुतं यथाऽमुकं शास्त्र नवतिः भूतमिति । त. रूकं स्फुटरकं तस्मिन् भापितेन तत भाष्यमाणं वचस्तेषां प्राह । शाम तत् शास्त्र केवमिदानी शंकितं जात नच | विद्वेषकर विष्पोत्पादकं भवति । अगीतार्थ वात चिंतयति शंकितं दीयते । तस्मानिः शंकश्रुतान् गवेषय ॥ च मत्सरभावले मुत्रमर्थ वा न प्रयच्छनि । नतो मत्सपिण Jain Education Intematonal Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । भालोयखा पत इति एवं च चिंतयित्वा खपके परपके च मत्सरिण एते इति प्रकाशयति । ततो ओके मासप्रवादो विष रास्तेषां मा भूदिति प्रपतनया निवारण क्रियते वचनेमायामृपादोषसेनक यतः परप्रीत्यनुषादकतया परि णाममसुंदरता चोभधोरपि गुणकारित्वमवेक्ष्य तापाय तना क्रियते । न विप्रतारणबुद्धयेति ॥ एतेषामेव प्रतीच्ने अपवादमाह ॥ निगमसुमुवागरण, वारिया गेएहए समाजनुं || अडिगरपषिक, मेगागिजदं न साएजा ॥ निर्गमो यस्य स निर्गमारू उपायनप्रागुत नाणेन पारितं समवृतं गुरदाति किमुकं भवति। यदि स तथा प्रतिषिद्धः सन् श्रुते भगवन्मिथ्या मे दुष्कृतं न पुनरेवं करिष्यामि । किन्तु यथा यूयं प्राणिष्यथ तथा करिष्या मि । मुतो मया पापखनावो दुर्गतिवर्द्धन इति । तत एवं तं समावृत्तं गृहाति किं सर्वमपि नेत्याइ ॥ (अमिरजेत्यादि) योsधिकरणं कृत्वा समागतस्तं यश्च मे तत्र प्रत्यनीकोऽस्तीत्युक्तवान् तं तथा अनुबरूरोषं येन च पश्चादेकाकी आचार्यस्तंन (सारखा) न सामयेत् न सात्मीकुर्यादिति भावः ॥ प्रत्यनीके अपवादोऽस्ति तमेवाभिधिसुराद परिणीयमि उ जगणा, गिमि आयरियमादिदुमि ॥ संजयपीए पुण, न होति उवसामिए जयणा ॥ प्रत्यनीके लगना तामेवाद। गृहिणी गृहस्ये प्राचार्यादिदुरे । किमुक्तं भवति । यदि कोऽपिनाम गृहस्थ श्राचार्यस्य आदि शब्दाऽपाध्यायप्रवर्त्तिस्थविरगणावच्छेदन पनि प्रणिः स चानेकथा उपशम्यमानोऽपि नोपशवस्ततस्त स्मिन् श्राचार्यादिप्रडुष्टे गृहिण्यनुपशति तङ्गयादागतः सन् प्रतिगृह्यते । यदि पुनः स ब्रूयात् संयतोमे तत्र प्रत्यनीकोऽस्ति ततस्तस्मिन् संवतप्रत्यनीकेन भवत्युपसंपत न स प्रतिगृह्य इत्यर्थः । श्रयवा स भव्यते । गच्छ त्वं कमयित्वा समागच्छ । एवमुक्तो यदि तत्र गत्वा तं न कमयति ततो न स प्रतिगृह्यते अथ तेन गत्वाऽसौ कामितः केवलं स एव न कमते तर्हि पश्चादागतः प्रतिग्राह्यः । अथ स वक्ति मया स तदानीमेवागकामितः। तदा तस्मिन्नुपते स नियमात् प्रति एन जयति नजना निर्दोषत्वा ॥ सो पुण उपसंपले, नागडा दंसणे, चारचे, य एएसिं नाणसं, बुच्छामि ग्रहाणुपुवीर ॥ स पुनरुक्तप्रकारेण संगृह्यमाण उपसंपद्यते हाना हाननिमित्तं दर्शने दर्शनानिमित्तं सप्तम्या निमित्ते विधानात् । दर्शन नायक/निमित्तमित्यर्थः । पारिवायै चारित्रनिमित्तं एतेषां ज्ञानाद्यर्थमुपसंपद्यमानानां नानात्वज्ञेदं यथोपन्यास या आनुपूर्वी तया वयामि ॥ प्रतिनियति संघाचे गणे सुचत्य तबुजए। वेवायचे समणे, काले प्राक्काए || हानामा योपसंपत्प्रत्येकं त्रिया तथा सूपं चार्चश्च तदुभयं च सूत्रार्थतदुभयं तस्मिन् सूत्रऽर्थे तदुभयस्मि पर्थ निमित्त देयं ततोऽयं भावार्थ दर्शनाकोपसंपद्यमाना प्रत्येकं सूत्रायें या प आलोयणा या मया बेति पुनरेका प्रत्येकं भवति त्रिधा । तद्यथा । वर्तनेति अत्र सप्तमीलोपः प्राकृतत्वात् । वर्त्तनायां वर्तमानिमित्तमेवमेव धनाय संधनानिमितं प्रप्रणा निमित्तत्र पूर्वीतस्य सूत्रार्थस्य तनुभयस्य वा पुनःपुनः राज्यसनं वर्तना । पूर्वगृहीतस्य विस्मृतस्य पुनः संस्थापनं संधना । तथा प्रणे तत्प्रयमतया अपूर्वस्य सूत्रार्थस्य तदुभय स्वा प्रणनिमिष पहने होने प्रत्येकं नवति त्रिधा उपसंपत चरणोपसंपद्यमानविद्योपसंपद्यते। तद्यथा। पैयानृत्ये रुपये व वैयावृत्यानिमित्तं कृपणानिमित्तं च ते फा उपसंपद्यमानाः कातो यापजीवं भवेयुश्च शब्दादित्व राध । एनामेव गायां व्याख्यानयति ॥ दंसनाणे सुत्तत्य, तनए वत्तणा य एकेके ॥ उपसंपदा व चारचे, बेयायचे व खमणे य ॥ १ ॥ दर्शनविशोधकानि यानि सूत्राणि शास्त्राणि वा तानि दर्शन शेषाणि सूत्राणि शाखाणि वा ज्ञान । तत्र दर्शनाने ख प्रत्येकमुपसंपक्षिया। सूत्रनिमित्तमर्थनिमित्तं यदुनयानिमि एकैकस्मिन् सूत्रादी प्रत्येकं वर्त्तना संधना प्रह किमुक्तं नवति । सूत्रेऽपि वर्त्तनानिमित्तमुपसंपद्यते । संघना निमित्तमुपसंपद्यते । अपूर्वग्रहणनिमित्तं वा उपसंपद्यते । पवमपि शितयमुनयेऽपि त्रितयामीति दर्शनेऽपि नवविधोप संपद् ज्ञानेऽपि नवार्वधोते । चारित्रे चारित्रविषया उपसंपत् वैयावृत्ये, कृपणे च ॥ शुरू अपामेच्छणे, अदुगा अकरेंते सारणा अणापुच्छा। तेसु विमासो बहुतो, वत्तणादिसुत्यासु ॥ १ ॥ देतत् सर्वमधीतं सतगुरुनिरनुतो विधिना आपृच्छय व्रजकादिष्वप्रतिवध्यमान आगतः । श्रागतश्च सन् त्रीन् दिवसान् यावत् परीक्षितः शुरूः । इत्यंभूतं यो न प्रतीत्यावार्थस्तस्य प्रायश्वितं काश्चत्वारो समासाः योऽपि उपसंपत्र वर्तनानिमित्त संघनानिमि प्रणनिमित्तं वा स यदि वतनां संधनां ग्रहण दान करोति तदा तस्मिन् वर्तनादिकमकुर्वेति प्रत्येकं त्रिष्वपि स्थान व सेनादिषु मासोः प्रायधित्तं श्राचार्योऽपि संप प्रमाद्यतं न सारयति तदा तस्मिन्नपि सारणा । अत्र विनकोप वात् । अकुर्वति त्रिष्वपि वर्त्तनादिषु रूपानेषु मासप्रघु पनथ प्रायश्वितविधानं सूत्रविषयम् । די संत शिध्ये अर्धनिमिसमुपसंपन्नं प्रमायति गुरीच प्रत्येक विष्वपि वर्त्तनादिषु स्थानेषु प्रायश्वितं मासगुरु चनयविषये च प्रयोरपि प्रत्येकं वर्त्तनादि त्रिष्वपि स्थानेषु पृथक उभयं प्रायश्चित मासगुरु मासघु चेति । एतच गाथायामनुतमपि संप्रदायादवसितं । यया ( अणापुरा ) इति । श्रनापृच्छायामननुहायामित्यर्थः । अत्र चत्वारो भंगास्तद्यथा । अननुहातोऽनुज्ञातेन सह वर्तनां करोत्येकोभंगः १ श्रनुज्ञातो अननुज्ञातेन खट्टेति फितीयः २ अननुतोऽनुज्ञातेनेति तृतीयः ३ अनुज्ञातेनेति चतुर्थः एवं संचनाचां ग्रह्णेऽपि च प्रत्येकं चा ये गंगाः । एवमपि नवस्मिन्नपि च प्रत्येकं वर्त्तनादि यावारो भंगाः । तत्र सूत्रविषये विष्वपि पर्सनादिषु स्थानेषु प्रत्येकमाद्येषु भंगेषु ददानस्य गृएहानस्य च प्रायश्चित्तं माघु । तपःकालविशेषितं । तद्यथा । वर्त्तनायामाचेषु Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। पालोयणा त्रिषु नंगेषु मासलघु संघनायां मासाघु । तपो गुरुकामघु।। यावत्कथिको तत्रापि यो सन्धिमान् स कार्यते इतरोऽन्येन्यो ग्रहणे मासमधु घान्यां गुरुस्तद्यथा तपसा कालेन च । एव दीयते । यदि पुनर्वावपि सन्धिको यावत्कथिको च तत्र मयें तपःकालविशेषितं मासगुरु । तनयप्रायश्चित्तमर्थविष- अन्यतर उपाध्यायादेः कार्यते। भयकोऽपि तस्य नेति यं च प्रायश्चित्तं गाथानुपात्तमपि व्याख्यानादधगतं । चतु- तत आगंतुको विमुच्यते । अथ धापाप सबधिकावित्वरी नंगःपुनः सर्वत्राऽपिशुरु इति न त कस्यापि प्रायश्चित्त च तत प्रागंतुक नपाध्यायादीनां वैयावृत्यं कार्यते सूत्रालापमिति । हाचार्यस्यापि प्रमादतः सूत्रादिषु वर्तनादिकमकु. कश्च उपाध्यायादिवैयावृत्त्यफलप्रदर्शकस्ततः प्रोत्साहना बैतमुपसंपन्नमसारयतः प्रायश्चित्तमतो नियमात्स आचार्येण. थै पग्नीयः॥ सारयितव्यस्तया च एतदेवाह॥ नवजायवेयावच्चं, करेमाणे समणे ।। सारेयव्यो नियमा, उपसंपन्नोसि जं निमित्तं तु । निग्गये महानिजरे, महापज्जक्साणे होई ॥१॥ तं कुण सु तुम नंते!, अकरेमाणे विवेगोन ॥ इत्यादि । अथ नेच्छाति तर्हि तस्मिन्नन्यस्य उपन्यायादिवे स उपसंपन्नो नियमात्सारयितव्यः कथमित्याह । अहोनदंत! यावृत्यमनिच्चाति वा शब्दोभिन्नक्रमत्वात् । वारपण चेत्येवं ज्ञानाचज्यासकारितया परमकल्याणयोगिन् इह शिष्यस्याउ योजनीयः । द्वावपि वारफेण कार्येते कियत्कासमेकः कियप्याचार्येण प्रोत्साहनार्थ तथाविधयोग्यतासंनवमधिकृत्यैववि कालमपर इति । यदि वास्तव्यो धैयावृत्यकरोऽनुमन्यते। धमण्यामंत्रणं कर्तव्यमिति ज्ञापनार्थ । अन्यथा भदंतति गुर्वा- अय नाऽनुमन्यते तत आगंतुकस्तावतं कासं प्रतीकाप्यते। मंत्रणे रूढत्वात्तत्रैव न्याय्यं न शिष्ये इति । यनिमित्तमुपसं- यावत् वास्तव्यस्य वैयावृत्यस्य इत्यरकामसमाप्तिमपयाति। पन्नस्त्वं तत्कुरु। एवमेकधित्रिवारसारितोऽपि यादन करोति- अथ न प्रतीक्वते तर्हि विसृज्यते अथ ध्योरपि तयर्विवाघृत्यक वर्तनादिकं ततस्तस्मिनकुर्वति विवेक एव परित्याग एव रापणविधिः ॥ कर्तव्यः । तुरेषकारार्थः॥ अथ एक इत्वर एको यावाकर्थिकस्तत्राह ( तवसु घ)श्त्या (यमुक्तमणापुच्ग) इति तत् व्याख्यानयति ॥ दि । तस्ययोर्सध्यासमानयोर्यावरकाथकः स कार्यते । तरो अणणुनमणुएणाए, दितं पमिच्चंतनंगचउरो न। ऽन्यस्योपाध्यायादेः सन्नियोजनीयः । भथ वास्तव्यो यावत्कजंगतियंमि विमासो, दुहतोणुएणाए सको उ॥ थिकस्तर्हि स भएयते विश्राम्य त्वं तावत् यावदित्वरः करोति अननुज्ञातो मकारोऽलाकणिकः। अननुहातो ददाति श्त तथा चाह । तस्य वास्तव्यस्य वैयावृत्यकरस्य मतेन इच्च्या रस्तु प्रतीच्छतीत्येवं ददानप्रतीच्छतां चत्वारो भंगास्तत्र श्वरो वा कार्यते वैयावृत्यकरस्तथा प्रहापितोऽपि नेच्छति भंगकिपि आयेप त्रिष्वपि वर्तनादिषु स्थानेषु प्रत्येक तर्हि न कार्यते । स हि पश्चादपि यास्यात । तत स्तरो वास्त प्रायश्चित्तं मासो लधुमासः । अर्थे गुरुमासस्तउन्नयास्मिन् व्यो न करिष्यतीति । अथ श्त्वरो यावत्कथिकश्च धावपि सबन्धिको तत्र यावत्कथिकः कार्यते। इतरोऽन्यस्य नियुज्यते तदुभयं प्रायश्चित्तमिति व्याख्यानात् ॥ (हतोएणुएणाए) इति उभयतो ददानतया प्रतीच्छकतया चाऽनुकाते भग विसृज्यते वा । अथवा इत्वरः स सब्धिकस्तत्र यावत्कथिको भएयते । विश्रम्य तावत् वर्तितव्यम् । यावदेष श्वरः सन इचतुर्थः शुद्ध पक्ष । तुरेवकारार्थः एषोऽकरार्थः । भावार्थस्तु ब्धिकः करोति । पश्चात्त्वमेव करिप्यसि । अथ नेच्छति तर्हि प्रागेवोपदर्शितः। एष प्रायश्चित्तविधिहानायमुपसंपद्युक्त एवं दर्शनार्थमुपसं स एव कार्यते । इतरस्त्वन्यस्मै दीयते । तस्य तत्रानिच्चायापदि अष्टव्यस्तथा चाह॥ स विसज्यते अथवरोऽलब्धिको लब्धिमान तत्र यावत्कार्थक्र: एमेव दसणाबी, वत्तणमादी पया न जह नाणे । कार्यते । इतर उपाध्यायादेः समर्प्यते । अथ तस्य तत्रा निच्न तर्हि विसृज्यते । इह यदि वास्तव्यवैयावृत्यकरणा वेयाक्चकरो एण, इत्तरितो आवकीहतो य॥ ननुकातो वेयावृत्यं कारयति । यदि वा नापृच्छया अन्यंवैयायथा ज्ञाने वर्तनादिपदान्यधिकृत्य प्रायश्चित्तविधिमक्त एव- वृत्यकर स्थापयति तदा तस्याऽचार्यस्य बहवो दोषास्तामेव अनेनैव प्रकारेण दर्शनेऽपि वर्तमानादीनि पदान्यधिकृय नेवाह॥ वदितव्यः । गता ज्ञानदर्शनोपसंपत् ॥ श्दानी चारित्रोपसंपत् भावनाया ॥ अणएणमाए बहुगा, अचियत्तमसाहजोग्ग दाणादी। तत्र कासे ( आवकहाए य ) इति पदं व्याख्यानयात । निजरंमहती हुजवे, तवस्सिमाई ण करणे वी॥ (वेगावचे)त्यादि वैयावृत्यकरो वैयावृत्यार्थमुपसंपन्नः पुन- वास्तव्ययावृत्यकरणाननुहायामुपसतणमेतत्तस्यानापृच्यामिश्वरः स्वल्पकानभावी यावत्कथिको यावजधिभावी। यांवा यद्यागंतुकमित्वरं वैयावृत्ये स्थापयति । ततस्तस्य प्रायअस्य च द्विविधस्यापि चैयावृत्यकरापणविधिरय एको ग हिच लघुकाश्चत्वारोबंधुमासाः । अन्ये धृवते अनापृच्छायां बवासी वैयावृत्यकरोऽपरःप्राधूर्णकः सच वक्ति अहं वैया- मासाघु। अननुज्ञायां चतुर्लघु । अन्यच्चाननुकायामनापृच्छायां वृत्य करोमि। घा वैयावृत्यपदे अन्यस्येत्वरस्य स्थापने वास्तव्यस्य अवियत्त तत्र विधिमाह। मप्रीतिरुपजायते । अप्रीत्या च कलहं कुर्यात् (असाहजोतुबेसु जो सुलची, अबस्स व वारएण निच्छते । मादी) इति यानि दानादीनि दानश्रकादीनि कुलानि योग्यानि तुझेम व आवकही, तस्स मएणं च इत्तरिओ॥ तान्यागतुकवयावृत्यकरस्य न साधयात । न कथयात तयाद हावपि काढतस्तुल्यावित्वरौ च तत्र योकोबन्धि- स्मात्स त्वर आगंतुको वयावृत्त्यकरः प्रज्ञाप्यते । त्व तपस्या मान् अपरोऽसब्धिकस्तर्हि तयोस्तुल्ययोर्यःस सब्धिकः स दीनां कपकादीनां वैयावृष्यं कुरु तेषामाप क्रियमाणे वैयावृत्त्ये कार्यते सरन्तु उपाध्यायादिस्यो दीयते । अथ द्वावपि- महती निर्जरा ॥ तदेवं घयावृत्यबारं गतम् ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४३) आलोयणा अभिधानराजेन्डः। आलोयणा श्दानी कपणहारावसरः॥ युगपत्पारणकदिने समापतिते पर्याप्त्या पारणकलव्ये अज्ञानआवकही इत्तरिए, इत्तरियविगिट्ठ तह विगिटे य ।। तोऽसति असंस्तरणं भवेत् । असंस्तरणाच यदेषणादि प्रेरयंसमणामंतणखमणे, अणिच्छमाणं न ओ नियोगो ॥ ति तनिमित्त प्रायश्चित्तमाचार्यस्याऽपतनि श्राझानंगादयश्च कपक उपसंपद्यमानो द्विधा यावत्कचिक श्त्वरश्च तत्वरो दोषा जायते । तथा पारणकप्रायोग्यजन्यसंपादनेन संस्तरणविधा विकृष्टतपःकारी अविकृष्टतपः कारीच। तत्र चतुर्थ मकुवत्सु साधुषु विषये सोऽग्रीति कुर्यात् । अप्रीत्या च षष्ठाटमकारी अविरुष्टतपः कृत् । दशमादितपः कारी विकृष्ट अनागाढामागाढवा परितापनां प्राप्नुयात् । तथा च सति तपःकृत् तयाध्योरप्युपसंपद्यमानयोः ( समणामंतणत्ति ) तनिष्पन्नमपि प्रायश्चित्तमाचार्यस्य अन्यच्च शिष्याः प्रतीच्छआचार्येण स्वगळस्यामंत्रणं प्रच्छनं कर्तव्यं । यथा आचार्या! काश्च प्योरपि वपकयायावृत्त्यकरणतो भग्ना एवं चिंतयेपष विकृष्टतपः करणार्थ समागतः किं प्रतीक्यतामुत प्रति युर्यथा अन्यान्यकपकर्षयावृत्त्यकरणेन नाऽस्माकं सूत्रमों षिभ्यतामिति । तत्र यदि तेषामनुमतं भवति । तदा प्रतीप्यते वा तस्मादन्यत्र बजाम शति । तथा (गिवाणीवम ) शति तेषु अनियां प्रतिषिभ्यते यदि पुनः केचिन्न मन्यत तर्हि यः गवासिषु साधुषु वास्तव्यकपकवयावृत्त्यकरणेन व्यापृतेषु कश्चिन्भेष्टवान् तमनिच्छतं तस्य कपकस्य वैयावृत्त्ये बलान | ग्वानोपमा जायते । तदा तस्याऽचार्यस्य प्रायश्चितं चतुर्गुनियोजयेत् । बानियोगस्य सूत्रे निषेधात् । यस्तु प्रतीच्छितः।। रुकाः। (अमम्पत्ति) तथा गच्छ वास्तम्यकपककरणव्यास पृष्टव्यः किं त्वविकृष्टं तपः करोषि अविकृष्टं वा यदि प्रत पृततया भक्तंपानं पागंतुकस्याददाने स भक्तार्थ पानार्थ बा अविकृष्टं ततो नूयोऽपि प्रष्टव्यं त्व पारणकदिने कोहशोभवसि। स्वय हिंमते प्रतियखनादिक्रियां च स्वयमेव कुर्यात् । यदि प्राह खानोपमः तत्राह ॥ हिंम्मानश्च क्षुधा पिपासया शीतोष्णेन वा पीमितो यद्यनाआयोगहकिनम्मं तं, जणंति मा खम करोहे सज्जायं । गाढां परित्तापनां प्राप्नोति तदा प्रायश्चित्तमाचार्यस्य चतुर्लघु अथागाढं तदा चतुर्गुरु । अथ सूर्गत तदा षट्मधु ॥ तथा सक्काकिामिन जेवि, विगिटेणं तहिं विमरे । परिताप्यमानो ग्रोषणां प्रेरयति तदा तन्निमित्तं प्रायाश्चत्त अविकट तपसि काम्यन्तंभणन्ति सूरयो मापय माकपणं अथ न प्रेरयति । तदा प्रतूतमटतोयदानागाढादिपरितापनां कुरु न युक्तं तव कपणं कनुमशक्यभावादित्यर्थः। तस्मात्कुरु प्रामोति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं | अय तत्र गच्छेऽन्योवास्तव्यः स्वाध्याय तपःकरणात्स्वाध्यायकरणस्य बहुगुणत्वात् । अपि कपको न विद्यते । तदा नियमतः प्रतीच्छनीयः। केवलं च । स्वाध्यायोपि परमं तपः । यत उक्तं ॥ सोऽपि गच्छानुमत्या । अन्यथा न किमापि तस्य गच्चः करिवारसविहम्मि वि तवे सब्जि तरबाहिरे कुसन्मदिट्टे ॥ म्यति । तत्र याद प्रमादतो वैयावृत्त्यभीरुतया गच्चो नानुमनवि प्रात्य न वियहोहिश, सज्जायस तवोकम्मं ॥ ज्यते । तदा स प्रज्ञापनीयः । अथ कारणवश अग्बानोपमस्त्वविकृष्टतपः कारो तपः कार्यते यस्तु विकृष्ट तप' तस्तदानप्रतीच्छनीयः । यदि पुनर्गच्छाननुमत्याऽपि प्रतीच्छति करोति स यद्यपि पारणकदिने खानोपमोजायते तयापिस तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तथा गच्छानुमती कार्यते । यत आह ( सक) इत्यादि अदि शब्दः पुनरथे ये यो यतः प्रतीज्यते ततः कपकप्रायोग्यमानयति । अननुमती पुनस्तपस्विनो विकृष्टेन तपसा पारणकदिने कमयितु शक्याः च नकोऽपि किमप्यानयतीत्यसति पारणकादिने पर्याप्त्याप्राकाम्यते इतिभावः तत्र तेषु तपास्वषु वितरेत् दद्यत् तपः योग्यजव्ये असंस्तरणमसंस्तरणाञ्च परितापनाद्छुःख । तन्नि मित्त प्रायश्चित्तमाचार्यस्य तथा पारणकदिने म्यानोपमो जायते करणं तेषां तथा रूपाणामपि समनुजानीयात् । न तु वारणी तथा शेवसाधुप्रयोजनांतर व्यापृततया भक्तपानं वा ददानेषु यं विकृष्टतपः करणस्य महागुणत्वात् केवलं भक्तपान प्रेष स्वयं हिममाने ये दोषास्तेऽपि वक्तव्याः ॥ संप्रति तस्य कपजादिकमानाय्य दातव्यं । अथ म्यानोपमो न भवति । किंतु कस्य वास्नव्यस्याऽगंतुकस्य वा कृतप्रत्याख्यानस्यापि यत् स्वयमेव संस्तारकप्रतिलेखनादीन् व्यापारान् सर्वानप्यहीना प्रतिादवस कर्त्तव्यं तदाह । (पमिबेहणे ) त्यादि । तस्योतिरिक्तान् करोति प्रतीच्छते एवं च तत्र यो विकृष्टेन तपसा पकरण कल्पादि यथायोगमुभयकालं प्रतिलेखनीयं संस्तारकग्यानोपमो जवात । तत्रेयं सामाचारी ॥ श्व तस्य कर्तव्यः । तथापानकं पानीयं तस्योचितमानीय अन्नपमिक्षणे लहगा, असति गिलाणोवमे अमंते य ।। दातव्यं तथा मात्रकत्रिकं च नच्चारमात्रकं प्रस्त्रवणमात्रक पमिलेहणसंथारग, पाणग तह मत्तगतिगं च ॥१॥ खेलमात्रक च यथाकालं समर्पणीयं परिस्थापनीयंया ॥ तस्मिन्गच्छे यद्यन्यः कोऽपि विकृष्टतपः कारी कपको विद्यते सांप्रतमेनामेव गायां व्याख्यानयन् प्रथमतो (अन्नपमिच्छेणे स च पारणकदिने म्यानोपमो वा नवेद म्यानोपमोवा तयाऽपि सहुगा ) शति च व्याख्यानयात ॥ तस्मिन्विद्यमाने कपके अन्य कपकमाचार्यों न प्रतच्छित प्राक्त एणेगतरे खमणे, अन्नपमिच्छतसंथरे आणा। नस्य हि कपकस्य पारणकदिने म्यानोपमस्याग्नानोपमस्य वा सतोऽवश्यं कर्तव्यं । न च ध्योर्वैयावृत्यकरणे साधष: अप्पत्तियपरितावण, सुत्ते हाणि अन्नहिं च मे ॥ प्रभवति तस्मान्न प्रत्येषणीयः। यदि पुनः साधवोऽनुमन्यते वास्तव्ये कपणे कपके द्वयोः ग्यानोपमयोरन्यतरस्मिन्विद्यसोऽपि प्रतीयतां तस्यापि वैयावत्यकरणेन समाधिमुत्पादाय माने यदि गच्चानापृच्छया अन्यं प्रतीच्छति । तदा तस्मिनित्यं प्याम शति तदाप्रतीच्छनीयः यदि पुनर्गच्चे विद्यमानेप प्रतीच्छति प्रायश्चित्तं लघुकाश्चत्वार इति वाक्यशेषः । तथा विकृतपः कारािण वपके गगननुमतावाचार्योऽन्य युगपत् द्वयोः पारणकदिने युगपत्समापतित प्रायोग्यजन्य प्रतीच्छति तदा तस्यान्यप्रतीच्चने प्रायाश्चत्तम् । अक्षाभतोऽसति यदि वास्तव्यकपकवैयावृत्त्यकरणब्यापृतनालघुकाश्चत्वारो बघुमासाः ( असतित्ति ) तथा असति प्रा- मागंतुकस्य वैयावृत्त्यकरणे वेज्ञातिक्रमतोऽसस्तरणं प्रवेत् योग्यव्ये ये दोषास्ते च वक्तव्याः। तेचामी।व्योवपकयो ! तस्मिधामस्तरणे यादेषणादिप्रेरयति तनिमित्तप्रायश्चित्तमाचा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४४) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः । आलोयणा यस्य तथा ( प्राणत्ति ) श्राझापदेकदेशेपदसमुदायोपचा- गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। रात् आझानंगानवस्थामिथ्याविराधनादोषाः प्राफुःप्युः । तस्य अन्येतु बुनते । षण्मासानां परतो यदि न पृतीच्छत्यालोचना वा संस्तरणे अप्रीतिरप्रीत्या च परितापननिमित्तमपि प्राय- ततः प्रायश्चित्तमाचार्यस्य गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः । अन्ये श्चितं तथा शिष्याः प्रतीध्याकाचवं चितयेयुरस्माकं तु ब्रुवते षएमासानां परतो यदि न प्रतीच्छत्यालोचनां तदा द्वयोः कपकयोः वैयावृत्यकरणब्यापूतानां सूत्रे हानि सघमासः ।हितीयदिनेऽप्यप्रतीच्छने मासगुरु । तृतीयदिने रूपयक्कणमेतत् अर्थे च तस्मादन्यत्र बजामः । संप्रात चतुर्लघु । दिनत्रयातिक्रमे चतुर्थादिषुदिनवप्रतीच्चने चतुर्गु(गिलाणो धाममंतयत्ति) व्याख्यानयति (गेमपण तुल्ल रुका इति कार्यादिप्रयोजनवशतो व्यापृत इमां यतनां गुरुगा अते परितावणा य सयकरणे । णसणगहणागहणे कुर्यात् ॥ जुगार्ह मंतमुच्चाय)साधुषु वास्तव्यकपक वैयावृत्यकरणतः अनेण पमिच्छावे, तस्मासति सर्व पमिच्छए रात । प्रयोजनान्तर व्यापृततया वा वैयावृत्यमकुर्वत्सु यथागंतुक उत्तरवीमसाए, खिन्नो य निर्सिपिन पमिच्छे । कपको मानतुल्यो ग्लानोपमो जायते । तदा सूरेः प्रायश्चित्त यद्यन्यो गीतार्थस्तस्याचार्यस्य समीपेऽस्त्यालाचनाई स्तर्हि चर्तुगुरुकाः । तया भक्तं पानं च अददत्सु स्वयं (दुगडहितात्ति) स संदेशनीयो यया ऽयमापच्छता । मालोचनाचास्य प्रतीदिकार्थ च हिममाने स्वयं बा उपकरणस्य प्रत्युपेक्षाणादेः कर- प्यतामिति । अथ नास्त्यन्यो गीतार्थस्तदा तस्य गीतार्थस्या णे या परितापना अनागाढा वा(मूर्चायति) मूर्धा च तान्न- ऽसति जावप्रधानोऽयं निर्देशोऽभावे स्वयमेव रात्रौप्रतीच्चिमित्तं प्रायश्चित्तमाचार्यस्य तत्रागाढपरि तापनानिमित्तचतु स्यानोचनां अथ यया श्रीगुप्तेन षमुळूकः षएमासान् यावत् बंधु । आगाढपरि तापनानिमित्तं चतुर्गुरु मुनिमित्तं षट वादं दत्वा निर्जित एवं दीर्घकालावझविनिविवादे रात्रावप्युत्त लघु ।णेसणगहणागहणे । ति स स्वयं हिमानः कुधापि रविमर्शेन प्रत्युत्तरचिंतया खिन्नपरिभ्रांतो निशायामापन पासया वा शीतन धा उष्णनवा परितापितः सन् यदि प्रतीच्छत्यालोचनां दत्तामिति अयवा अत्राप्यपवादस्त नेषणीयमाप गृहाति तनिमित्त प्रायश्चित्तमग्रहणे ऽनेषणी मेवाह ॥ यस्य प्रनूतं हिम्मानो यदवाभोति । आगाढपरि तापनादिक दोहिंतिहिं वा दिणेहिं, जइच्चिज्जा तेनहोइ पच्चित्तं । तनिमित्त माप यत एवमादयो दोषाः । तस्मानच्छतमापूजय तदनुमत्या प्रतीचेत् । प्रतीभितस्य च सवप्रयत्नेन निजरा- तेणपरमगुएणवणा, कुमादिरन्नो व दीवंति ।। थतया कत्तिव्योमति । इह आगतः सन्प्रथमदिवसेऽपि प्रजनी यदि षाणां मासानां परतो कायां दिनाज्यां त्रिनिर्वा दिनः यो यया केन कारणेन त्वमिहागतो ऽसीति अन्यया यदि तम- परप्रवादी नियमात् पराजेष्यते कुबादिकार्य वा समानिमु. प्रवेव आनोचना मदापायत्वा च संवासयति। तदा प्रयश्रित्तं पयास्यतीत्येवं निश्चीयते । ततस्तेष्वपि दिनेष्वप्रच्चने आतदेवाह ॥ सोचनाया अप्रतीच्छने वा न प्रायश्चित्तं भवति । अथ पढमदिम न पुच्चे, बहुओ मासो न वाश्गुरुओय। ज्ञायते तेष्वप्येकहित्रादिषु दिवसेषु न कुबादिकार्यसमाप्ति भविष्यति । न च परवाजेप्यते तदा षएमासाऽसमाप्ता चेव तड्याम डंति बहुगा तिएहं तु अतिकमे गुरुगा ॥ राज्ञः समीपे गत्वा ज्ञापनीयम् । ययाहं दिनमेकमक्कणिको यदि प्रयमे दिने न पच्छेत् तर्हि तस्या ऽचार्य स्य प्रायश्चित्तं नविष्यामि नान्यथा ग्रहीया इति कवादिकार्येप्यपि कुत्रादी अधुमासः हितोये दिने पृच्छतो मासगुरु तृतीये नवति च न्यनुज्ञापयति तथाचाह (तेण परमित्यादि ।) तेनत्यव्ययं स्वारो बघमासाः। त्रयाण तु दिनानामतिक्रमे चतुर्था दिषु तत इत्यर्थे ततः पदमासन्यः पर कार्यापरिच्छितो संजायमा दिवसे प प्रायश्चित्त चतुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः । अधुना नायामनुज्ञापना कुत्रादेदिनमेकंयावत्कर्तव्या राज्ञश्च वादिविअपवादो भग्यते यदि कार्यादिप्रयोजन वशात्तमेक द्वे त्रीणि पये कारण दीपयंत्याचार्याः यथाऽहं कारणवशेन दिनमेकमदिनानि पदमासानपि यावन्न प्रवति तयापिन प्रायश्चित्त कणिकोभविष्यामीति । एवं चन्न कवति तदा प्रायश्चित्त भाक् तथाचाह ॥ चतुगुकाः । तदेवमुक्तः कपणोपसंपविधिरिदानी झानार्थ कजे जत्तपरिणा, गिलाणराया य धम्मकहवाद।।। दर्शनार्थ प्रतीतो नियमादालोचनां दापयितव्यस्तच छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वक्कमे गुरुगा ।। दाप्यमानः कथमालोचनां ददाति उच्यते ॥ कार्य नगणसं घविषये व्यापतो नवेदाचार्यः । तथाकेना आनीयणा तह चव य, मूलत्तरे न वरिविगमिपश्मंतु। अपि साधुना जक्तपरिझा कृता तस्य समीपे लोकानूयानाग. इत्यं सारणवायण, निवेयणं तेवि ए मेव ।।। छति । तत्राचार्यों धम्मकथने व्यापतः। मानप्रयोजने या यया सांजोगि कानां विहारालोचनायां मूत्रगुणातिचारविषय व्यापूतः।। ( रायाएधम्मकहीति) उत्तरगुणातिवारविषये च भणितं । तथात्राऽपि जणितव्यं । राजाचधार्थी प्रतिदिवसमेति ततस्तस्य धर्मः कथाये किमुक्तं नवति । उपसंपद्यमानोऽप्याचनां ददानः पूर्व मूत्र तव्य ति धर्मकथिक त्वेन ब्यापृतः । वादीया कश्चन प्रबल गुणातिचारायागुक्तक्रमेणास्रोचयति पश्चात्तरगुणानिति । समस्थितः स निग्रही तथ्य स्तत पतैः कारणाकृतः सन् नवरमय विशेषः । विकटिते आयोचिते एकत्र स्थितान आचार्य जधन्यत एक त्रीणि वा दिनानि जपतो यावत् निन्नस्थितान्या प्रत्येक वन्दित्वा इदं भणति ॥ पामासास्ता वदाग तकं प्रधुमायोचनांवा प्रदापयितुं न प्र आलोयणामे दिया, इच्छामि सारणवारणवोयणं । पारयेत् । प्ररथमप्रपारणे च दोषाभावः तेषां षाणां मासान तेऽप्येवमेव प्रतिवणन्तो निवेदनहुर्यन्ति (अजो अम्हे विपुनःतिक्रमे किमुक्तं भवति । पएमासेयः परतोऽपि यदि न सारजा वारेपजा ) इति गता नपसेवदासोचना साम्प्रतमपूजति ना ऽपि दाययत्वासोचनः ततः प्रायश्चित्तमाचार्यस्य पराधात्रोचनयाऽत्र प्रकृतं ॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। भासोयण एमेव य अवण्हे, किं तेन कया तहिं वियविसोही । व्याख्या । यथा यन्त संक्लेशाजागादिनकण चित्तमासिन्या अहिंगरणादीसाहति, गीयत्योवा तहिं नस्थि ॥ दिहा त्यासेवने बंधो ऽशुभकम्पादन जीवस्य नवति व्ययथा विहारासोचना यामुपसंपदासोचनायां चावधिणित वदानं दैप शोधन शति वचनात् शुद्धिः ततो व्यवदानात्पपषमेव तथैव अपराधे अपराधालोचनायामाप व्यो याव श्चात्तापरूपचित्तविशुः सकाशात्तया तद्विगमा निर्जरणमत्पृशे वा अपृष्टो वा ब्रूते अहमपराधालोचकः समागतः। ततः कृत्यकरणजन्याशुनकर्मणो जवति यद्यवं ततः किमित्याह आचार्येक्तव्यः । केनकारणेन ते त्वया तत्रैव स्वगच्छे एव (तंपुणत्ति) तत्पुनर्व्यवदानमनया नियमादयश्यतया भवतिनकृता विशोधिः प्रायश्चितांगीकरणेन एवमुक्ते यदि साधयाति विधिना विधानेन वदयमाणेन सकृत्सदासुप्रयुक्तया नावकथयति अधिकरणादीनि । अधिकरणं तैः सह आदिशब्दात् सार प्रवर्तितयेत्यतः सफरेयमिति गाथार्थः विधिना प्रयुक्ता प्रागुक्तविकृतियोग प्रत्यनीकादि कारणपारग्रहः। अथवा वाक्त सोचनाव्यवदानतः सफमा स्यादित्युक्तमयोक्तस्यय विपर्यतत्र गीतार्थो नास्ति । तत्राधिकरणादिवविशुरुकारणेषु यमाह। समागत एवं प्रतिजणनीयः ॥ इहरहा विवज्जो वि हु, कुवेज्ज किरिया दिणायतोणेओ। नत्थि इहं पमियरगा, खुल्लखेत्तं नग्गमावि य पच्चित्तं। अवि होज तत्य सिकीप्राणानंगा ननणएत्थ। संकीयमादीव पदे, जहकम्मं ते तहविलासे ।। व्याख्या । इतरयाऽविधिप्रयोगे आलोचना या विपर्ययोऽपि प्रस्तीति निपातो बहुवचनार्थः प्रतिचारका नाम अप व्यवदानाजावेन आलोचना निष्फलत्वमाप अनर्थफसत्वं वा राधापन्नस्य प्रायश्चित्ते दत्ते सपः कुर्वतो ग्लानायमानस्य धैया स्यात् न केवलं विधिना सफलत्वमविधिना विपर्ययोऽपि स्यावृत्यकरास्ते श्ह मे पायें न संति खसक्के नाम मंदभिकं यत्र दित्यपिशब्दार्थः हुर्धाक्यालंकारे । कुत एवमिदमित्याह । षा प्रजूतमुपकारि घृतादिद्रव्यं न सत्यते ताशमिदं के कुवैद्याक्रियाविकाततः उर्मिषक प्रवर्तितरोगचिकित्साप्रभृत्यु तथाविधदानश्रद्धश्रावकानावात् वयमपि च स्तोकेऽष्यपराधे दाहरणेनादिशब्दादविधिविद्यासाधनादि परिग्रहः केयो उग्रं प्रायश्चित्तं दमः तथा गुरुपारंपर्य समागमात् तथा ज्ञातव्यः । अविभ्यालोचनायां विशेषमाह । अपीति संभाग्यत एतत् यत भवजायेत पुण्यान भावात् तत्र कुवैद्य यानि (नत्थी संकिय संघामे) त्यादि प्रागुक्तगाथोपन्यस्तानि चिकित्सायां सिकि प्रयोजननिष्पत्तिरारोग्यमित्यर्थःन पुनशंकितादीनि पदानि तानि संभवेन यथाक्रमं तयेति समुचये रत्र नत्वविध्यालोचनायामिसिफिकुत इत्याह आज्ञाभंगाविनाषेत ब्रूयात् यथा प्रायश्चित्तसूत्रमनुसृत्य प्रायश्चित्त दाप्तोपदेशाचतुपासनादिति गाथार्थः एतदेवस्पष्टयन्नाह ॥ दीयते तदिदानी विस्मृतं शंकितं वा जातं नचार्थ स्मरामि । ततः कथं प्रायश्चित्तं प्रयच्छामि अथवा प्रायश्चित्ते प्रतिपन्ने तित्यगराणं आणा, सम्म विहिणा उ होइ कायव्वा । सति तत्तपः त्वयेह कर्तव्यं । तत्रचेयमस्माकं सामाचारी तस्सामहा उकरण, मोहादतिसंकिलेसोत्ति ॥ बहिनूमिमात्रमपि संघाटकं विना न गंतव्यं यदि पुनः कोऽपि बंधो य संकिले सा, तत्तोण सोवेति तिव्वतरगाओ। गच्छति ततस्तस्मै प्रायश्चित्तमत्युग्रं ददामि इत्येवं यथासंनयं ईसिमलिणं ण वत्थ मुजश्नीलीरसादीहिं॥७॥ शंकितादीनि ब्रूयात् न तु दद्यादालोचनामिति यस्तु निर्गमन शुद्ध प्रागमनेन गुको वा प्रतीम्यते तस्यासोचनायां विधि व्याख्या । तीर्थकराणां जिनाना माझोपदेशः सम्यक् भावतः वक्तव्यः ॥ व्य. न.१। विधिना नुवत्यमाणविधानेनैव भवति स्यात् कर्तव्या विधि नन्वकृत्येसमासेविते यत्कर्मबकं तदनुनवनीय मेघत्यासोच विपर्यये दोषमाह तस्या जिनाझाया अन्यथा तु करणे प्राविनायां को गुण श्त्या शंकायाम्॥ धिविधाने पुनः कुत इत्याह। मोहादज्ञानात् किमित्याह प्रतिआसेविते वकिवेणा जोगादिहिं होति संवागा। संकेशं प्रात्यंतिकं चित्तमालिन्यं भवति इति शब्दः समाप्ता विति बंधचा शुभकर्मबंधः पुनः सवेशादुक्तरूपाद्भवति । किअणूतावो तत्तो खबु, एसा सफमा मुणोयव्वा ॥३॥ चेतस्ततः संकेशान्न सः नैवासी कर्मबंधोऽपैत्यपगच्छति ( पंचा) वृ. १५ आसेवितेऽप्याचरितेप अनासेविते किंजूतात् संकेशादित्याह । तीव्रतरकादकृत्यासेवाहतुनूतकाभावात् फलाकाऽनुपालनादित्यापि शब्दार्थः । प्रकृत्ये सक्केशापेकयातिशयोत्कटात अविश्वालोचना कृताझाभगजसाधूनामविधेये कथमित्याह अनाभोगादिभियान प्रभृति- न्यादित्यर्थः ॥ भिस्तद्यथा ॥ हाथै दृष्टांतमाह। सहसाणानोगेण व जीएण व पेखिएणव परेण व । ईषन्मसिनं मनाम्मायुक्तं न नैव वस्त्रंवासः शुद्धधात निर्मबी सणेणायं केण व, मुढेण व रागदोसेहिं ।। भवति नोखीरसादिभिर्गुत्रिकाव्यप्रतिनिर्वहुतरमालिन्यहेतुभवति जायते कुतः इत्याह संवगा संसारभयावनुतापः भिरादिशब्दात् रुधिरादिपरिग्रहः । यथाहीषन्मसिनं प्रचुरमापश्चात्तापः प्राकृतारूल्य विषयस्तजन्यकर्म कपणहेतुतः सिन्यहेतुना शुध्यत्येवमकृत्यासेवाकृतोबंधोअतिगादतरंबंधहत आलोचनायामिति गम्यते ततः किमित्याह । ततो ऽनुतापात् ना प्राज्ञानंगहेतुनूतसंकेशेनापतीतिगामाश्यार्थः पंचा.वृ.१५॥ खाक्यालंकारे, एषाआलोचना स फमा सार्थिका (मणो व्यवहारे बालोचनायाश्चमे गुणाः। यव्वति ) ज्ञातव्येति गाथार्थः॥ सहुयी महादीजणणं, अप्पपर नियत्ति अजवं सोही। अय कथमनुतापादालोचना सफला भवतीत्यत आद ।। जहसंकिसओ इह, बंधो बोदारणो तहा विगमो। दुकरकरणं विणओ, निसबत्तं च सोहि गुणालधोजीवो।। लघुता यथा नारवाही अपहतनारोमघुर्नवति तथा आलोचको तं पुण इमीए णियमा, विहिणा समुप्पउत्ताए । प्युधृतराख्यो अधुर्नवात शति अधुता तथा ल्हादनं ल्हादिणा Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४६) आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा दिक प्रत्ययः प्रल्हत्ति स्तस्याजननमुत्पत्ति हादिजननं- हितीये मूत्रक्रमः प्रामाएयानुसरणात् प्रतिक्रमणं तस्मिन् प्रमोदोत्पाद शति यावत् तथा ह्यतीचार धर्मतप्तस्य चित्त- हितीये प्रतिक्रमणसवणे प्रायश्चित्ते नास्ति विकटना आरोस्य मन्त्रयगिरि पवनसपर्केणेव आलोचना प्रदानेनाती चार चना तथाहि सहसाऽनाभोगतो वायदा किंचिदाचरितं भवति धमा पगमतो भवति संविग्नानां परम मुनीनां महान्प्रमोद यथा मनोज्ञेषु शब्दादिष्विद्रिय गोचरमागतेषु एव मनोज्ञेषु शति । तथा ( अप्पपर नियत्तित्ति) आलोचना प्रदानतः हेषगमनं तदा तदनंतरमेव मिथ्यापुष्कृतमिति खते तच तेनैव स्वयमात्मनो दोषेच्योनिवृत्तिःकृतातांचदृष्ट्वाऽप्यन्ये आलोचना शुर्ति यातीति नालोचयात ( वा उविवेगत्ति ) वा शब्दो वि. निमुखा नवंतीत्यन्येषामपि दोषेन्यो निवर्तनमिति । तथा भाषायां विवेके विवेकाहें प्रायश्चित्ते आसोचनाया विभाषा यदतीचारजातं प्रति सवितं तत्परस्मै प्रकटनामात्मन आर्जवं कदाचित् भवति कदाचिन्ननवतीतिभावः । तथाहि तत् सम्यग्विजावितं नवति । आर्जवं नाम अमाया बिता तथा विवेकाई नाम प्रायश्चित्तं यत्परिस्थापनया शुध्यति यत्रअतीचारपकमधिनस्यात्मनश्चरणस्य वा प्रायश्चित्तजन यदकल्पिकमाधाकर्मिमकादिपूर्वमविदितत्वेन गृहतिं पश्चाच्चकअतीचार पंकप्रकाबनतो निर्माता शोधिः। तथा पुष्करकरणं धमपि झातं तत्यदा परिस्थापयतः शुजन्नावनाध्यारोहे केवपुष्करकारिता तथाहि यत्प्रतिसेवनं तनष्करं अनादिन्नवा सज्ञानमुत्पद्यते । तदाऽसौ कृतकृत्यो जात इति नालोचयति ज्यस्तत्वात् यत्पुनरालोचयति तत् दुष्करं प्रननमोक्का अनुत्पनेतुज्ञानातिशये नियमादागत्य गुरुसमीपमालोचयनुयायि वीर्योल्लास विशेषेणैव तस्य कर्तुमक्यत्वात् । तथा तीति। (तदाविठस्सगेति) यथा विवेके आलोचना विभा. (विण उत्ति) आलोचयता चारित्रविनयः सम्यगुपपादिता षा तथा व्युत्सर्गेऽपि किमुक्तं भवति । व्युत्सर्गेऽपि कदाचिदाप्रवति (नेस्सवत्त ) मिति सशल्य आत्मा निः शल्यः कृतो सोचना भवति । कदाचिन्नन्नवति । यथा स्वो हिंसादिकमानवतीति निःशल्यता एते शोधिगुणा आलोचनागुणाः पालो- सेवितं तच्छफिनिमित्तं च कायोत्सर्गः कृतस्तदनन्तरं च चनाशोधिरित्यनीतरत्वात् । व्य.च. १। भन्नावनाप्रकर्षित केवलज्ञानमुत्पादि । मरणं वा तस्याऽकआलोचनायांदत्तायां ये गुणा नवन्ति ते भक्तप्रत्याख्यान स्मिकमुपजातमिति नास्त्यालोचना अनुत्पन्ने तुझाने जीवितं शब्दे वक्ष्यन्ते । यावनियमादवश्यंविकटना यत् आलोचयति । यथा ।। (G) कालोचना ग्रहीतव्या तानि स्थानानि ।। स्वप्ने मयाहिंसादिकमासेवितं कार्योत्सर्गेण च विशोधितआलोचना ये कार्येषु कर्तव्या तानि व्यवहारकरपे यथा मिति ॥ (आलोयणत्ति का पुणकस्स सगास व हो कायब्वा । केसु तञ्चालोचनाईम्पायश्चित्तमेतेषु स्थानेषु भवति । ब्य० उ०१ व कजेसु नये गमणा गमणादि पसुंतु) का किस्वरूपालो करणिजेसु नजोगेसु, छनमत्थस्स निक्खुणो । चनति प्रथमतः प्रतिपाद्यं ततस्तदनंतरं कस्य सकाशे समीपे जाति कर्तव्या नोचनेति वाच्यं तथा केषु काय्येषु भवत्या आलोयणपच्छितं, गुरूणं अंतिएसिया ॥ लोचना तत्र प्रतिपत्ति लाघवाय संपतो ऽत्रैव निर्वचनमाह ।। करणीया नाम अवश्य कर्तव्या योगा श्रुनोपदिष्टाःसंयमहेतवः गमनागमनादिकेषु गमने आगमने आदिशब्दात शय्यासं. क्रिया अथवा योगामनोकायव्यापाराः (जोगो विरियं थामो स्तारकवस्त्र पात्रपादप्रोउनकग्रहणादिपरिग्रहः । तशब्दो उच्चाहपरक्कमो तहा चेला सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवंति विशेषणे । संचतादिशिनष्टि गमनागमनादिष्ववश्यकर्तव्येषु पजाया)इति वचनाततेचाऽवश्यंकर्तव्यं श्मे कर्म श्व वसतीसंसम्यगुपयुक्तस्याऽष्टनावतया निरतिचारस्य उद्मस्थस्याप्र बीनगात्रःसुप्राणहितपाणिपादावतिष्ठते वचनमपि सत्यमसमत्तस्य यते रालोचना नवतीति आह यानि नामावश्यकर्तव्या त्या मृषांवा ब्रूते न मृषां वेति मनसोऽप्यकुशवस्य निरोधनं कुशनि गमनादीनि तेषु सम्यगुपयुक्तस्याऽदृष्टभावतया निरति सस्योदोरणमेवं रूपेषु करणीयेषुसम्यगुपयुक्तस्य निरतिचार. चारस्याप्रमत्तस्य किमालोचनया तामन्तरेणाऽपि तस्य शुरू स्यति वाक्यशेषः सातिचारस्योपरितनप्रायश्चितसंजवात् वात् यथासूत्रं प्रवृत्तेः सत्यमेतत्केवलं याचेष्टानिमित्ता सूम बनस्थस्य परोक्कझानिनो नतु केवबज्ञानिन स्तस्य कृतकृत्यत्वप्रमादनिमित्ता वा सूक्ष्मा आश्रवक्रियास्ता आलोचना मात्रेण नालोचनाया अयोगात् उक्तंच (ग्नमत्थस्स हव आलोयणा द्वयंतीति तच्बुझिनिमित्तमालोचना नक्तं च ॥ न केवलिणो) इति तवा तत्रोक्तेन प्रकारेण निकत इत्येवंजया नवनती नेरझ्यारो ये करे ये करणिज्जायत्ते शीलो भिक्षुस्तस्य यतेरालोचनाप्रायश्चितं स्यात्तदपि च जोगा तत्य को विसोही आझोइए आणामोइए वा गुरु गुरूणामंतिके समीपे नान्येषामिति ॥ प्रव० द्वा० ए धर्म. जणइ तत्य जाविष्ट निमित्ता सुहमा आसवकिरिया ता अ०३॥ उसुझंति आलोयणामत्तणंति ॥ इह करणीया योगा ति सामान्यनोक्तम् । तत्र का नामालोचनेति यत्प्रवमं हारं तत्सुप्रसिम्त्यादन्यत्र अधुनानामग्राहं करणीययोगप्रतिपादनार्थमाह व्य. उ. १। वाकल्पाध्ययनादिषुव्याख्यात तथापि स्थानाशून्याकिंचि- निक्खवियार विहारे, आणसुय एवमाश्कज्जेसु ।। च्यते । आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य कार्यस्य पूर्व अविगामियांम अविण तो, होज्जअमुके व परिजोगो।। कार्यसमाते रूम वा यदि वा पूर्व मपि पश्चादपि गुरोः परतो निकाया विचारे विहारे अन्येष्वपि चेवमादिकेषु कार्येषु वचसा प्रकटीकरणं सालोचना उपरितनेषु प्रायश्चित्तेषु केषु चित्सलवात केपुचिन्न संजवति । तत्र येषु संनवति तत्प्रति आलोचना प्रायश्चित्तं भवतीति वर्तते श्यमत्र भावना गुरुसिध्यर्थमिदमाह॥ मापृच्छय गुरुणाऽनुज्ञातः सन् श्रुतोपदेशेनोपयुक्तः स्वयोम्य भिक्कावस्त्रपाबाय्यासंस्तारकपादप्रोग्नादि यदि वा प्राचाविश्ए नत्यि वियमणावा न विवगे तहा वि जस्सग्गो | योपाध्याय स्थघिरबासम्नानशकककपकासमर्थप्रायान्यवनआलोयणाउ य नियमा गीयसगीए व केसि वि।। पावनक्तपानौषधादि गृहीत्वा समागतो विचार नचार चूमि Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा स्तस्माद्वा समागतो विहारो वसतावस्वाभ्यायिकं तमकृत्वाबसते रन्यत्र गमनं तत पचमादित्यचंदननिमित्तं पूर्वगृहीत फकरायासंस्तारकप्रत्यर्पणानिर्मितं ता पूर्वसंविविम्नानां वंदन प्रत्ययं वा सशयव्यचच्छेदाय वा श्राद्धस्वात्पयपणा हाराणामवरोधाय वा साधाण वा संयमोत्साहनिमित्तं हस्तशतात्परतरमासन्नं वा गत्वा समागतो यद्यपि नास्ति कश्चिदतीचारस्तथापि यद्वापि या विधिगुरुसमकुमालोचयितव्यम् अन्यचा सूक्ष्मय निमित्तानां सूक्ष्म प्रमादनिमित्तानां वा क्रियाणां शुरूधभावात् अन्यनिरतिचारोऽपि यदि गुरोः समाचयति ततोऽचिनयो भवति । अरुपरिभोगो वा । तथाचाह । अविकटितेऽनालोचिनिया परिभोगो भवेत्याहोचिते यदोषा भावःनत्व विनयदोषाभावः स्याद शुरू परिभोगाभावः कथमुच्यते केनापि साधुना भिक्क प्रचुरासत्कारपुरस्सरा लब्धा तस्य शंकितमुपता किनामेयं भिका का वा तत्र यनाच्य के ततोऽपरिभोगो भवति तेनाचितं आचार्येण ए. मन्यदिवसेषु तस्मिन् गुरेनिहायत फियंतो वा जोजनकारिणः प्राघूर्णका वा केऽप्यागताः संखंकी वा जाता इत्यादि विज्ञाषा एवं च पृष्ठे तेन यथावस्थितं कथितं ततः आचार्येण ज्ञाता शुद्धा अशुका वा तस्मादाबोचयितव्यं ॥ अन्यश्च ॥ त्यो तनहा वा हवेज्ज जवयोगो ॥ झोलह सो परियाणईसोया ।। (४४७ ) आभधान राजेन्द्रः । अन्यश्च किंचान्यदित्यर्थः । ब्राद्मास्थिकः सामान्य साधुगतः उपयोगस्तथा यथावस्थित सारी धन्यथाचा विपरीतो जवेत् । श्रचार्यस्तु मतिमेधाधारणादिगुणसमन्वततया बहुततया वातिशयज्ञानी ततः शंकितमालोचिते अशंकितमालो तो निःशंकित करोति तथा यद्यपि गृहतः शंकितमुपजात । तथापि कदाचिदालोचयन स्वप्रथाष्पदेत ततः खम म या स्वयमेव जानाति यदि या नही यामालोचनां त्या श्रोताऽप्याचार्य्यादिकः पूर्वोक्तेनप्रकारेणयदेिवा आचार्य्यादिकस्य पार्श्वे बालकाः समागच्छन्तियज्या कविता विषयं लोकतः श्रुत्वा जानाति शुरुवा तस्माद बटुकं गुरुणं अंतिरे सिया) शत त स्यादित्यस्य व्याख्यानमाह ॥ आकमवाभि य होइ सिया अवहिए तर्प पगयं ॥ गणतनिविष्यतिक्वे वावि आसंका || स्यात्शब्द आशंकमिति प्राकृ तत्वादाशंकायामवधृते चार्थे आशंका नाम विज्ञाषा यथा स्यादिति कोऽर्थः ॥ कदाचिङ्गवेत् कदाचिन्न भवेत् । अवधृतं नाम अवधारणं तत्र तयोर्द्वयोरर्थयोर्मध्येऽवधूतेऽवधारणे प्रकृतमधिकारः । अवधारणाथोऽवस्याच्छन्द इतिज्ञाचः । ततोऽयमर्थः ॥ गुरुणामन्तिकेनियमादालोचना यदि वा आयामपि कृतं नत्रयमर्थः गुरुणामति स्यात्तापदाशेचना यदि पुनरा गतिविमुक्तो भवति ततस्तस्मिन्गणतानिप्रमु उपाध्यायस्य समीपे आलोचना अयोपाध्यायस्याऽपि कुल्लादिकार्य श्राद्धादिकथनै म्याक्षेपस्तस्तोऽन्यस्य गीतार्थस्य तदभावे गीतार्श्वस्याऽपि समीपे आलोचयितव्यं गतमालोचनाप्रायश्चितंय आशोचनीयाऽतिचाराः व्यवहारदे । आलोयगा तिएटमइकमाएं बालोएज्जा परिकपंजा शिंदेज्जा गहिग्ना जाव परिवज्जेज्जा से जहा शाणाइकमस दंसणा कमस्स चरिता कमस्स एवं वकमाणं - वाराणं अणावारा एवं स्था वा ३ ॥ अतिक्रमाणांत्रयाणां गुरवे निवेदनम् ॥ तिएदं अकमाणंति । षष्ठया द्वितीयार्थत्वा त्रीनतिक्रमानालोचयेत् । गुरवे निवेदयेदित्यादि । प्राग्वत् नवरं यावत्करणात् विसोहेजा विट्टेजा अकरणयाए अनुजा अहारिअं तवो कम्मं पायच्छ्रित्तमित्यध्येतव्यमिति ॥ स्था. टी. । अपात्रोचितव्यापरादर्शनार्थमाह पंचारा. १५ । आलोयच्या पुण अश्यारा समवायसमं । गाणा यारादिगया पंचविहो सोय विएणेओ २२| व्याख्या । आलोचना विधिस्तावदय माझोचयितव्याः पुनः प्रकाशनीयास्तु प्रतीचारा अपराधाः सूक्ष्मवादराः लघु गुरुका न तु लघवएव बादरा एववा सम्यग् भावद्युधधाज्ञानाचारादिगता हानदर्शनचारित्रतपोषी यांच्चार विषयाः पंचविधः पंचप्रकारः स च श्राचारः पुनर्विशेयो ज्ञातव्य इति गायार्थः । १ कः पुनस्सोऽतिचारः कुतोवा प्रनृत्यालोचयितव्यमिति प्रत्तपच्चक्खाण शब्दे ॥ (ए) प्रव्यादिचतुर्विधमालोचनीयं ॥ किंपुनस्तदा लोचनीयं । उच्यते । चतुर्विधं । द्रव्यादि तथा चाह । ( वेयणमचित्तदव्वं जणवयसठ्ठाणे होई खेप्तम्मि । दि निसि सुभिक्ख दुभिक्खकाले भावम्मि हेट्ठियरे ) ॥ रूप्यतश्चेतनं सचितमुपलक्षणमेतत् मिश्रं वा अचित्तमचेतन वा अपि यत्किचित्सेवितं जनपदे या अध्यन वा काढतो दिने निशिवा यदि वा सुभिया दुर्मि या नावे रे सप्तमी तृतीया हन इतरेण या ज्ञानेन सता यतनया वा दर्पतः कल्पतो वा सोचयति । कथमिया (जालोमा चटक भयई। हाम्रो मायामय विप्यमुक्कोच ) । यथावाला पुरतो जप कायकाय ऋतु कमकुटिलं भणतितथा आलोचकोऽपिमायामदविप्रमुक्तः सन् तदालोचनीयं । यथा ऋजुनावेनालोचयेत् व्य. स. ४ ॥ गोचरचर्यातः प्रतिनिवृत्तस्यालोचना पञ्च वस्तुके । यथा । (ओगम नवकारेण त ओ व अरिता । पढिऊण घयंता साहू आलोअप विहिणा ॥ ३ ॥ ) पुनः चितयित्वा योगमखिलसामुदानिक नमस्कारेण ततश्च तदनंतरं पारयित्वा णमोअरहंताण मित्यनेन । ततः परित्वा स्तव (मतैश्चतुर्विंशतिस्तवपाठानन्तरं गुरुसमीपं गत्वा साधुर्भावतश्चारित्रपरिणामापन्नः सन्नालोचने तफिक्कानिवेदनं कुर्य्याधना प्रवचनांमेति गायार्थः पं. व. ॥ गोवरचया आगत्य गुरोरावणोचनं गोचरचशब्दे गोवरचयामकृत्यं प्रतिषेज्यालोचयतो मोहमार्गाराधकत्वमाराधना शब्दे ॥ भ० ॥ श. उ. ६ ॥ यव्यहारकल्पे ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४४८) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। पालोयणा (१०) अपराधालोचनायां प्रशस्ता प्रशस्तव्यादयः ।। हिं व चलत्थि वारसिंच, दोरहंपि पक्खाणं ॥ अपराधासोचनामधिकृत्य प्रशस्ताप्रशस्तव्यादयो यथा वह शखप्रत्ययः प्राकृतेस्वार्थे प्रतिकृष्टा एष प्रतिकुष्टचकाः । व्य०॥१॥ तेच ते विषसाश्च प्रतिकुष्टेसकदिवसाः। प्रतिषिका दिवसादन्बादिचउरजिग्गह, पसत्यमपसरलेते दुडेकेके । स्तान्वर्जयेत् । तानेव नामत आह ध्योरपि शुक्लकृष्णरूपयोः अपसत्येवजेड पसत्यएहिं तु आलोए । पक्कयोरष्टमी नवमीं षष्टी चतुर्थी द्वादशी च । पता हि तिथयः अपराधासोचनायां दीयमानायां द्रव्यादयो कम्यकेत्रकास शुनप्रयोजनेषु सर्वेष्वपि स्वभावत एष प्रतिकृतास्ततो वर्ज नीयाः इदं कासतोप्रशस्तं वयं संभ्यागतादिकं नत्र भाषाश्चत्वारश्चतुःसंख्याका अपेकणीया भवंति । तथा (अनिम्गहत्ति दिशामभिप्रहः कर्तव्यः । ते च ज्यादयो तदेवाह॥ दिशग्ध एकैकं प्रत्येक ब्धिा जिप्रकारास्तथा । प्रशस्ता संज्कागयं रविडेरं, सग्गहं विझवि च। मप्रशस्ताश्च रात्र प्रशस्तान् व्यादीन् भप्रशस्तांश्च दिशो राहयं गहजिणं, वज्जए सत्तनक्खत्ते ॥ पर्जयित्वा प्रशस्तैव्यादिभिदिग्विशेषैश्च । किमुक्तं भवति । संभ्यागतं नाम यत्र नको सूर्योऽनंतरं स्थास्यति । तत् प्रशस्तेषु म्यादिषु प्रशस्ताच दिशोऽनिगृह्य मासोचना आदित्यपृष्ठस्थितमन्येपुनराहुर्यस्मिन्नुदित्ते सूर्य उदेति तत दद्यात् ॥ संभ्यागतमपरे त्वेवं ब्रूयते यत्र रविस्तिष्ठति । तस्माचतुर्दश ताप्रशस्तभ्याविमतिपादनार्थमाह ॥ पंचदशं वा नक्कत्र संगतं यत्र रविस्तिष्ठति । पूर्वहारिक नको जग्गघरे कुमेसु य, रासीमय जे दुमा य अमणुप्मा । पूर्वदिशा गंतव्ये यदा अपरयादिशा गच्छति । तदा तत् विधार विगतहारमित्यर्थः । यत्सकरप्रहेणाक्रांतं तत् सग्रह तत्य न आसोएज्जा, तप्पमिवक्खदिसा तिमि ॥ विसंधि यत् सूर्येण परिनुज्ज्य नुक्तं अन्ये स्वाहुः । सूरगतान यत्र स्तंजकुमा कुड्यादीनामन्यतमकिमपि पतितं सत् नकवान् पृष्ठतस्तृतीयं तत् पृष्टतस्तृतीयं विधि इति । राहुप्रनगृहं तत्र तथा ( कुमेसुशत) कुड्यग्रहणात् कुज्यमात्रा हतं यत्र सूर्यस्य चंद्रस्य वा प्रहणं यस्य मध्य नग्रहोगमत विशेषे यत्र पागंतरं (रुद्देसुय) इति तत्त्र रुक्षेषु रुषगृहेषु तथा प्रहभित्र । एतानि सप्तनकत्राणि चन्द्रयोगयुक्तानि घर्जयेत् । राशिषु अमनोतिसमाषकोऽवादिधाम्यराशिषु ये च द्रुमा यत पतेष्विमे दोषाः ॥ अमनोका निष्कंटफिप्रनृतयोऽमनोझा अप्रशस्ता सूत्रिते संज्कागयंमि कहो, होइ कुलुत्तं विसं विनक्वते । तेवप्याश्रयतूतेषु उपलकणमेतत् अप्रशस्तासु तिथिषु अप्र- विडोरपरविजयो, आदिश्चगए अनिव्वाणी ॥ शस्तेषु च संभ्यागतादिषु नकत्रेषु अप्रशस्ताश्च याम्यादिदि शोऽभिगृह्य नालोचयेत् । किंतु सत्प्रतिपके प्रशस्तव्यादि जं सग्गहमि कीरइ, नक्खत्तेतत्यबुग्गहोहाइ । रूपे आलोचयेत् तथा प्रशस्ताच तिस्रो दिशः पूर्वामुत्तरां राहुह यमि यमरणं, गहनिले सोणिजग्गालो ।। प्रतीचींचाभिगृह्य आसोचयेत् । इदानीममनोकधान्यराश्यादिषु संध्यागते नको शुनप्रयोजनेषु प्रारज्यमाणेषु कमहो कष्यादित्वयोजनामाह ॥ रामिभवति । विसंबनको कुभक्तं विद्वारे परेषां शभ्रूणां श्रमणुप्पधणरासी, अमणुमदुमायहोति दव्वमि । विजयः । आदित्यगते रविगते अनिर्वाणिरसुखं स्वग्रहे पुनर्नजग्गघररुद्दऊसर, पवायदड्डा खितमि ॥ कत्रे यत् क्रियते तत्र व्युग्रहः संग्रामो भवति । राहुहते मरणं अमनोझधान्यराशयो ऽमनोकद्रुमाश्च भवम्ति अव्ये कष्ट प्रहभिन्ने शोणितोफारः शोणितविनिर्गमः। एवं नृतेष्वप्रशस्त द्रव्यकेत्रकामभावेषु नालोचयेत् किंतु प्रशस्तेषु तत्र प्रशस्ते थाः । जनगृहं प्रागुक्तस्वरूपं (रुद्दत्ति) रुद्रप्रह ( उसरप्ति) जव्ये शाख्यादिप्रशस्तधान्यराशिषु मणिकनकमौक्तिकषजकषरं यत्र तृणादि नो गच्छति। जिलटका तटीप्रपातः नृगुप्रपातादिकंवा दग्धं दवदग्धमादिशब्दाविधुरूतादिपरिप्रहः बैर्यपारागादिराशिषु च प्रशस्त क्षेत्रं साक्षादाह ॥ इत्यादि सर्वे के अष्टम्यं तत्र यंत् भमणुष दुमाय तप्पभिवक्खेखेत्ते, उच्चुवणा सालिवेश्यघरेवा । होति दव्वंमीत्युक्तं तदेतत् व्याख्यानयति ॥ गंजीरमाणुणाए, पयाहिणावत्तउदयएय ॥ निष्पत्तकंटो, विज्जुहते खारकम्य हवे य । तस्य प्रागुक्तस्याप्रशस्तस्य केत्रस्य प्रतिपक्के प्रशस्तक्के अयत्तजयत्तंब सीस, गदव्वे घमाय अमणुप्मा ॥ कुधने उपलक्कणमेतत् । पारामे वा पत्रपुष्पफलोपेते निष्पन्नाः स्वभावतः पत्ररहिताः करीरादयः । केटकिनो (सावित्ति) वन शब्दोऽत्रापि संबंध्यते । शानिधन चैत्यगृहे बदरीवब्यूनप्रतृतयः। विद्युम्ता विद्युत्प्रपातमन्नाः काररसा या शब्दो विकल्पो न तथा गंभीरे गंभीरं नाम अग्नत्वादिदोष मोरहप्रनृतयः । कटुकाः कटुकरसा रोहिणी कुटजनिबादयः। वर्जितं शेषजनेन च प्रायेणाकणीयमध्यमभागं स्थानं गंभीदग्धादावदग्धाः एतान् दुमान् अमनोहान् जानीहीति वाक्य रमस्थाद्यमिति वचनात् सानुनादे यत्रोच्चरिते शब्द प्रतिशब्दः समंतात् सत्तिष्ठति । तत्सानुनाद तथा प्रदक्विणावर्तमुदक शेषः नकेवप्नममनोकधान्यराशयो मनोका दुमाश्च व्ये यत्र नयां पसरसि वा तत् प्रदक्षिणावत्तादक तस्मिन्या वर्जनीयाः । किंतु अयस्त्रपुताम्रसीसकराशयो जव्ये वर्जयि वशब्दो या शब्दार्थः कचिघा शब्दस्यैव पावः । प्रशस्त तव्याः ( अमणुष्माधराशी) इति व्याख्यानयात । अमनो कासमाह॥ कानि धान्यानि चशब्दः । पुनरय प्रमनोजधान्यराशयः ॥ संप्रति कामतो यदिच सा वर्जनीयास्तानाह ॥ उतदिणसेसकामे, उबट्ठाणा गहाय जावंमि। पमिकुटिगदिवसे, बजेज्जाअहमि च नवमि च । पुबदिसनत्तरा वा, चारंनि य जाव नवपुच्ची॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४९) आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः । पालोयणा उक्तानि यानि दिनानि अष्टम्यादीनि तेन्यो ये शेषाहितीया- तं प्रथमसूत्रे (दब्वादिच ठरभिम्गहे) त्यादिना प्रथेन ततःप्रादयो दिवसास्ते च स कासश्च लक्तदिवशेषकानस्तस्मिन्प्र. गुक्तदोषवर्जिता आलोचना प्रशस्ते अव्ये केत्रे काले भावे च शस्ते व्यतीपातादिदोषवर्जिते उपलकणमेतत् । प्रशस्ते च प्रागुक्तस्वरूपे दातव्या नाप्रशस्ते । इह प्रतिसेवितं घिधा भकरण प्रशस्ते च मुहते एतत् कामतः प्रशस्तमुक्तं बति । शुद्धमगुरूंच। तत्र यत् शुद्धेन जावेन प्रतिसेवितं यतभावतः प्रशस्तमाह । उच्चं स्थानं येषान्ते तश्चस्थाना नया च तत् शुद्ध । तब गुरुत्वादेते न प्रायश्चित्तविषयाः । ग्रहाः । भावे भावविषयं प्रशस्त । किमुक्तं भवति । यत्व शुकेन भावेन प्रतिसेवितमयतनया च तदशुद्धं । तब जावत उच्चस्थाने गतेषु तत्र प्रहाणामुख स्थानमेवं ( सूर्यस्य प्रायश्चित्तविषयेऽशुरुत्वात् तस्मि श्वाशुके प्रायश्चित्तानि केवमेष नथः स्थानं । सोमस्य वृषः। मंगलस्य मकरः। बुधस्य कन्या सानि मासिकादीनि सातिरेकाणि च तत्र सातिरेकाण (स. वृहस्पतेः कर्कटकः । शुक्रस्य मीनः । शनैश्चरस्य तुझा। स. सिणिके) इति सस्निग्धे हस्ते मात्रके वा सति तेन निक्कानर्वेषामपि च प्रहाणामात्मीयादुधः स्यानात् यत्सप्तमं स्थानं हणत उपलकणमेतत् तेन बीजकासंघटनादिनाऽपि सातिरेतत् नीचः स्थान । अयवा जावतःप्रशस्ता ये सोमग्रहा बुध- काणि व्याणि तत्र सातिरेकाणि कष्टव्यानि ॥ व्य०पंचा० ॥ शुक्रबृहस्पतिशशिन पतेषां संबंधिषु राशिषु पतैरवलोकितेषु च (१२) आलोचनासमयवर्णनम् ॥ सनेषु आलोचयेत् । तया तिमोदिशःप्रशस्ता प्रायाः। तद्यथा कालो पुण एताए, पक्खादी वभितो जिणिदेहिं॥ पूर्वा उत्तरा वरती च वरंती नाम यस्यां जगवानई विहरति पायं विसिहिगाए, पुवायरिया तहा चाहु॥ए॥ समान्यतःकेवलज्ञानी मनःपर्ययज्ञानी अवधिज्ञानीचतुर्दशपूर्वी प्रयोदशपूर्वी यावन्नवपूर्वी यदि वा योयस्मिन् युगे प्रधान व्या कालोऽवसरः पुनः शब्देम्वेवं योज्यं । पालोचनाया श्राचार्यःस प्रातिहारिकान् यया विहरति। पतासां तिसृणां दि विधिस्तावदयं । कानः पुनरेतस्या आयोबनायाः पक्कादिरशामन्यतमस्या दिशोऽभिमुख आलोचना)ऽवतिष्ठते तस्ये कमासप्रभृतिरादिशब्दाचतुर्मासादिग्रहावर्णित उक्तोजिनहरई यं सामाचारी॥ द्भिःप्रायो बाहुल्येन । प्रायोग्रहणं यदेव विशिष्टमपराधमाप निसज्जासति पनिहारी य,किइकम्मं काउयं जबुकमुओ। प्रस्तदैवासोचना कदाचित्करोति सानत्वोत्थितोदीर्घाध्वगता. दिर्वा न पक्कादिकमपेक्कत इत्येतदर्थसूचनार्थ किं सर्व पहपमिसेवरिसां, सय अणुमवेचं निसज्जमातो ॥ स्यालोचनायाः पकादिकाल इत्यत्राह । विशिष्टकाया विशेषआत्मीयकल्पैरपरिजुक्तराचार्यस्य निषणं करोति । अस. वत्याः सामान्या पुनरावश्यकच्ये प्रतिदिनं विधीयत एवेति ति आत्मीयकल्पानामभावे अन्यस्य सक्तान् या कल्पान् पकादिकमालोचनाकालं पूज्यवचनेन दर्शयितुमाह । पूर्वागृहीत्वा करोति । कृत्वा च यद्याचार्यः पूर्वाभिमुखो निषीदति चार्या नद्रबाहुस्वामिमिश्रास्तथा च तेनैव प्रकारेण पकादिप्रतत आलोचकोदकिणत उत्तरानिमुखोऽवतिष्ठते । अथाचाय तिपादनपरतया आहुर्घवत इतिगाथार्यः यदाहुस्ते । उत्तरानिमुखो निषमः तत आलोचको वामपार्वे पूर्वाभिमु तदेवाह ।। खस्तिष्ठति । वरंती च दिशं प्रत्याभिमुखो जवति । ततः कृति पक्खियचानम्मासे, आलोयणणियमसो उ दायव्या ।। कर्महादशावर्तवंदनकं कृत्वा प्रवृद्धोंजलिर्येन स प्रांजलिः। गहणं अजिग्गहाण य, पुव्वगाहिए णिवेएनं ॥१॥ उत्सर्गत उत्कटुकस्थितः सन् आलोचयेत् । याद पुनर्बहुप्रति व्या० ।। पके मासे भवं पाकिकं पर्व चतुर्दशी पंचदशी सेवितमस्तीति चिरेणासोचनापरिसमाप्तिमुपयास्यति तावंतं वा । चतुषु मासेषु भवं चातुर्मासं पर्व च ततो बंकत्वात्पाच कासमुत्कुटुकः स्यातुं न शक्नोति । यदि वा अ#रोगवत उत्कुटुकस्य सतोऽसि कोभमुपयांति ततो बहुप्रतिसेवी । विकचातुर्मासे किमित्याह ॥ आलोचना उक्तार्था स्वत्वं प्राकृतत्वात् (नियमसाउत्ति) सकारस्य प्राकृतत्वात्रियमेन अशेः सुबहुसु गुरुमनुकाप्य निषद्यायामापग्रहिकपादोग्ने वावश्यतयैवान्यनियमा दातव्या देया । तथा ग्रहणं चोपादानं वा अन्यस्मिवा यथाहे आसने स्थितः आलोचयति किंपुनस्त विधेयमनिग्रहाणां नियमानां चः समुथयार्थो योजितश्च दालोचनीयं उच्यते । चतुर्विध द्रव्यादि । तथा चाह ॥ पूर्वगृहीतान् प्रागुपात्तान् निवेद्य गुरोराख्यायेति गाथार्थः॥ चेयणमचित्तदव्वं, जणवयसहाणे होइ खत्तमि । किंपुनःपक्कादावनिमतेयमित्याह ।।। दिणनिसिसुनिक्ख, सुन्जिक्खकाने नावमिहेटियरे ॥ जीयमिणं आणाओ, जयमाणस्सवियादोससन्नावा ।। व्यतश्चतनं सचित्तमुपत्रवणमेतत् । मिश्रं वा अचित्तम. पम्हसणपमायाओ, जन्मकुंजमलादिणाएण ॥ ११ ॥ चेतनं चा अकाल्पक यत्किंचित्सेषितं केत्रतो जनपदे वा अध्वनि वा कासतो दिने निशि वा याद वा सुभिक्के या भाषे व्या०॥ जितमाचरितं पूर्वमुनीनामिदं पक्कादावनतिधारणाहेट्ठियरे सप्तमी तृतीयार्थे हटने श्तरेण वा ग्यानेन सता यतनया मप्याघत प्रायोचनादानं तया आशातः श्राप्तोपदेशात्पकादा. या दर्पतः कल्पतो वा तत् अालोचयति ॥ पासोचनेति प्रकृतं तया यतमानस्याऽपि च संयमे घटमा(११ ) ययाजूतेषु-व्यादिष्वालोचना-तादृशानां नस्यापि चास्तामितरस्य दोषसझावादतिचारसभवादालो. चनेति प्रकृतमथकथं यतमानस्यातिचार श्त्याह । (पम्हसप्रतिपादनम् ।। अंति) विस्मरणं प्रमादरच प्रमत्तता ताज्यामत्रोदाहरणमाद। सम्प्रति यथातूतेषु द्रव्यादिष्वासोचना तथासूतमन्यादि जलकुंभमयादि कातेन नीराधारघटमालिन्यहेतुप्रनृत्युवाहरप्रतिपादनार्थमाह ॥ १ व्य० १ स.॥ णेन यथाहि जनकुने नित्यं प्रकाल्यमानेऽपि मनसंचयो आलोयणा विहाणं,तं चेव ज दिव्वखित्तकालेय। । भवतीत्येवं यतमानस्याऽप्यतिचारभाव आदिशब्दात् प्रहकनावे सुघमसुको, ससाणके सातिरेगाई ॥१॥ । चवरादिग्रहः । आह। वासोचनाविधानं तदेवत्रापि सविस्तरमभिधानन्यं या-। जहगेहं पतिदियहंपि, सोहियं तहय पक्खसंधीसु। जहगह Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा सोडियम सविसेस, एमियपि नायकम् ॥ इति गाथार्थः ॥ आलोचना परसाही ( ४५० ) अभिधान राजेन्द्रः | १५ लोणंदानं, सतिमितिहप्पणो दानं । जे विदु करेंति सोहिं, ते विससन्ना विलिहिडा ॥ ब्राह्मोनां विकटनामदत्वाऽवधायक कुर्वीत - नया तथा ( सश्रनंमि विति ) श्रन्यस्मिन् परस्मिन् गीतार्थे सत्यपि विद्यमानेऽपि तथेति समुच्चये आत्मनः स्वस्यैव दत्वा विधाय सज्जादेः कारणान् अनेन च परसद्भावे परस्यैव तां यच्छन् शुरूयतीत्युक्तं भवति यदाह । छत्तीसगुणसंपना, गाते णावि अवस्वकायच्या । परसक्खिया विसोही, सुढवि ववहारकुसले || पराभावेयात्मनोऽपि यच्छति सिकान् साहीकृत्य यदाह । (सिद्धा च साणायतया ) गीतार्थप्राप्ती निवे दयिष्यामीत्यभ्यवसायान् स्वयमेव प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यत दधानो गीतार्थः शुद्ध्यतीत्युक्तं भवतीति । येऽपि श्रपिशब्दाद्ये न कुर्वत्येवं दुम्कृती कुवैत सोधि विशुमा चितप्रतिपत्त्यादिना तदन्ये सा पेता विनिर्देश का जिनेरिति गायार्थः । स्वयं श स्योद्धारे सशल्यतैवेति दृष्टांतेनाह । किरिया वसंमंपि, रोहिउ जद्द वणो ससमोन । ओहोर अपच्छो, एवं अवाढवणो विचिनो ॥ ४० ॥ किया चिकित्सावेदिनाप्यस्यां सदन सम्प गपि सर्वथाऽप्यास्तामसम्यक् रोहितो रूढतां नीतः यथा यहतवृणो देहकतं सशल्यो दुष्टगजॉपातः सन्तुशब्दो saधारणे freeमश्च भवति जायते श्रपथ्य एवाहित एव परिणती मरणकारणत्वात् एवं तदन्यस्मै अनिवेदितशल्यस्यापथ्या एवानंतमरणादिकारणत्वात्कोऽसावित्याद अपराधावयोऽपि मरणरूपशरीरावतिवारकृतमपि न केवलं देहवण एव विज्ञेयो ज्ञातव्यस्तत्वतस्तस्यानुद्धृतत्वाइम्यधिनियनमेव हि शस्योकार ति गाथार्थः । इदानीं यस्मै आलोचना दीयते तेनायचायतव्यम इत्येतदेवं प्रदर्श (सेत्यादि) जातिरूपादिशिणसमन्वि तेनापि अवश्यं पर साक्तिका विशाकः कर्तव्या सुष्वअपिकानाकियाव्यवहारकुराओ न सुविहितनोति ॥ व्य० . १० ॥ जह कुलो विज्जो, अस्स कहे असावादि विज्जस्सय सोयंनो, परिकम्मं समारजतो ।। जाणं तेाविएवं, पायच्छ्रित्तविमिप्पणो विउणं । तहावे य पागमतस्यं, झोएयव्वयं होइ ॥ याकुवेोऽन्यस्यात्मनो व्याधि कथयति । सोsपि वैद्यस्य श्रुत्वा व्याधिकथनं ततः प्रतिकर्म्म समारजते । एवं प्रायश्चित्तविधिनात्मनो निपुणं जानताऽपि तथापि प्रकट तरमालोचयितव्यं भवतीति कृत्वा अन्यस्य समीपे आलाचfear || ओघ० ॥ ग० अधि० १ ॥ (१३) कस्य समीपे आलोचना कर्त्तव्या || आलोयणापनियमा गीयसगीए त्र केसिवि । ( श्रालीयगाउयादा आलोचना नियमादयश्या गीतामात आलोयणा प्राकृतत्वात् । षष्ठ्यर्थे प्रथमा तस्य गीतार्थस्य सकाशे कर्तव्या नागतार्थस्य च मतांतरमाद (अगयिकेसिंथि) - चिदाचार्यणामिदं मतं उत्सर्गतस्तावदाचार्यस्य समीपे आओति यदा पुनराचार्थसकादिप्रयोजनमत प्रयति । गीतार्थस्यापि समीपे तदा भिकाचाचनीयमिति ॥ गीतार्थस्यालोचना देयेत्युक्तमथ दुर्लभत्वे तस्य यद्विधेयमतदाह ॥ पंचा० वृ० १५ ॥ सल्फरणानिमितं गीयस्सो समाउनकोसा ॥ जोयणसवाई सत, हबारसचरिसाइ कायव्या ||४१ ॥ या शरणागतमाशेचनार्थी तस्वर्गीतार्थस्यगुरो रन्वेषणा तु गधेपणा पुनरुत्कर्षात किया का विषयवाद । योजनशतानि प्रतीतानि सप्त तु सप्तैव थावत् तष्ठा घादशवर्षाणि संवत्सरान् यावत् कर्तव्या विधेयेति । इह च । शेषविशेषणनुपादानेन ताणं कृतं तत्सकोगुणविगीतार्थमात्रस्याभ्यालोचनाचार्यया पनार्थ यतः पचवतो गीतार्थसंविपाक्षिकविषय चनदेवतानामल्लाभसिकानामथालोचना देया सशल्यमरणस्य संसारकारणत्वादित्याह च ॥ ( संविग्गे गीयत्थेससई पासत्थमाई सा रुवीति) गाथार्थः॥ प्रवच० द्वा० १२९ ॥ तयाच व्यवहार विहारासोचनामधिकृत्य ) १ व्य० उ० १ ॥ 1 पक्खियच नवसंवच्चर, उक्कोसं वच्चरउक्कोसं बारसएहरिसाणं समझा आयरिया, फरुगपतितायविति । समनोका एकसंभोगिका आचार्याः परस्परं तया स्पर्द्धकप तपय स्वताचार्यस्य समीपे पाक्षिके तथाभावे चातुर्मासिके तत्राप्यनावे सांवत्सरिके तत्राप्यसत्यन्यदा (उकोस ) मित्यादि खत्कर्षतो द्वादश निषेधः सूत्रे पष्ठी तृतीयायें प्राकृतत्वा द्वादप्यागत्य विहार विकटयंति प्रकटयंति । आलोयंतीत्यर्थः। एम गाथा करार्यः । जावार्थो वृरुसंप्रदायादवसातव्यः ॥ सायं संजोइया आयरिया परिसर आलोऐति ahiraणीस आलोes | रायणितो मरायलियम्स आनो भइसेरायणियो नाच्छ । जह पुण मराणितोविगो वा गीयत्यो न जवइ । तो वा पम्मासिए आनो तथा चि असंच्छरिए तथा जि छतसीए जन्य मिल रायशियस्तच्यो मनीयत्यस्स वा तत्य कसें वारसहि वरिसेहिं दूरतोवि आगंतु saroj | फरुगयइहिं वि आगंतु सोएयव्वं मुगयइयान आगे परिस्वया अमृलापरियस समीचे नोति इति ॥ तथा च व्यवहारसूत्रम् ॥ जेनिक परं कथगणं परिसेविता इच्छे नोत्तर जत्येव अप्पणो आयरियं जनज्काए पासिज्जा कप्पई तेसिं तिए आलोत्तएवा परिकमित्तए वा विदित्तए वा सोहितए वा अकराए अद्वित्तएवा Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। पालोयणा अहारहं तवोकम्मं पायच्चित्तं परिवज्जित्तए वा को हारिणं पागंतरं बम्हागममर्थतः प्रसूतागमं पश्येत्तस्यांऽतिके पालोचयेदत्रापि यावत्करणात्पमिकमज्जा इत्यादि पदकदवचेव णं अप्पणो आयरियं नवज्काए पासज्जा जत्येव कपरिग्रहः । यदि पुनस्तस्य नावे अन्यस्य सकाशे आसो. संजोइयं बहुस्सुयं बहु आगमं पासेज्जा कप्प से तंम्म चयति । तदा चतुबघु वक्तव्यं । सांभोगिकसाधम्मिकबहुश्रु. लिए आलोइत्तए वा जाव पस्किमित्तए वा णो चेवणं तस्यांतिके तस्याऽप्यभावे सारूपिकस्य बदुभुतस्यांतिके संजोइयं साहम्मियं बहुस्सुयं बहुआगमं पासे जाव जत्थे समानांतरं सरूपं तत्र भवः सारूपिको वक्ष्यमाणस्वरूपः व असंनोइयं साहम्मियं बहुस्सुय बहुआगमं पासेज्जा तस्याऽप्यभावे यत्रैव सम्यग्भाषितानि जिनवचनवासितांतः करणानि देवतानि पश्यति तत्र गत्वा तेषामंतिके आसोचकप्पश्सेवं संविएआनोत्तए वा जाव परिवजित्तए वाणणे येत् तेषामप्यभावे बहिमस्य यावत्करणात् ॥ चवणं अनसंजोइयं साहाम्मयं बहुसुयं आगामियं पासे. नगरस्स वा निगमस्स वा रायहणिए वा खेमरस वा । ज्जा वा सारूवियं बहुस्मुय बहुआगमं पासज्जा कप्प- पट्टणस्स वा दोएणमुहस्स वा असमस्स वा संवाहस्स इ तंसतिए आलोइत्तए वा पक्किमित्ति वा जाव पाव वा संनिवेसस्स वा॥ जीत्तए वा नो चेवणं सारूवीयं बहुस्सुयं बज्मागमं पासे शतिपरिग्रहः प्राचीनाभिमुखोवा नदीचीनाभिमुखो या सूर्यज्जा जत्थेव समणो वासगंपच्छा कबहुस्सुयं वज्काग दिगनिमुख उत्तरदिगभिमुखो वा इत्यर्थः ॥ श्ह चिरंतनव्या म पासेज्जा कप्पइ से तस्सातिए आलोइत्तए वा जावपाम करणेषु दिश्यपिस्त्रियामभिधेयामामीनप्रत्ययः स्वाथै भवति । तत एवं निर्देशः । पूर्वोत्तरादिग्रहणमालोचनायामेतयोरेष बज्जित्तए वा णो चेवणसमणो वासगं पच्क म बहु- दिशयोरर्हत्वात् ।करतबाज्यां प्रकर्षण गृहीतः करतलप्र. स्सुयं वज्झागमं पासिज्जा जत्येव दसमंजावियाई चेइया गृहीतः । तं तथा शिरस्यावतों यस्य स शिरस्यावर्तः कंठे इ पासेज्जा कप्पइसे तस्संतिए आमोइत्तए वा जावपार्म कालवदलुकसमासः। तं मस्तके अंजलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमावज्जित्तए वा णो चेव समन्नावियाई चेझ्याई पासेज्जा णरीत्या वदेत् । तामेव रीतिं वर्शयति । एतावंतो मे ममापराधाः एबहियागामस्स वा जाव साभिवेसस्स वा पाइणानिमुहे वा तावत्कृत्व पतावतो वारान् यावदहमपराक एवमपराध एदिणाजिमुहेवा करपक्षपारम्गहियं सिरसावत्तं मत्थए। धमहतां तीर्थकृतं कथंभूतानामित्याह । सिद्धानामुपगतमअंजलिकटु कप्पई सेएएवं ववइत्तए एवइयामे अवराहा सकल्पकानामंतिके आलोचयेदित्यादि पूर्ववदेष सूत्रसंकेपार्यः॥ एवं तिक्खु ता य अहं अवरके अरिहंताणं सिघाण अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः। तत्र ययुक्तमकृत्यं स्थानं से वित्वति तद्विषयमुपदर्शयति । अंतिए आ लोएज्जा पमिकमज्जा निदेज्जा जाव पाय अन्नयरं तु अकिव्वं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । चित्तं पविजेज्जासित्तिबेमि ॥३३॥ मूलं व सव्वदेस, ए मेव य उत्तरगुणेसु ॥ व्याख्या । भिकुरन्यतरत् अकृत्यस्थानं सेवित्वा प्रतिसेव्य अन्यतरदकृत्यं पुनः सूत्रोक्तं मूलगुणे मूलगुणविषयमुत्तरगुणे स्च्छत् । आलोचयितुं स वासोचयितुमिच्छर्यौवात्मन आचा वा उत्तरगुणविषयं वा तत्र मूबं मूलगुणविषयं सर्वदेशं वा योपाध्यायान्पश्यत्तत्रैव गत्वा तेषामंतिके समीपे आलोचयेद सर्वथामूबगुणस्योच्छेदे देशतो वा इत्यर्थः। एवमेवानेनैव प्रतीचार जातं वचसा प्रकटीकुर्यात् प्रतिक्रामेन्मिथ्यानुष्कृतं कारेण उत्तरगुणेष्वपि द्वैविध्यं भावनीयं । तद्यथा । उत्तरगुतहिषये दद्याधावत्कारणात् निदे ज्जा गरहेज्जा घिउद्देज्जा णस्यापि सर्वतो देशतो वा उच्छेदेनेति तत्रैव व्याख्यानांतरविसोहेज्जा । अकरण्याए अब्तुवेज्जा अहारिहं तयो- माह॥ कम्मं पायश्चित्तं पमिषज्जेज्जा ) इति परिग्रहः तत्र अहवा पणगादीयं, मासादीयं वावि जाव उम्मासा निंदाशत्मसाविक जुगुप्सेत् गर्हेतु गुरुसातिक निंद्यात शह निंदनगईणमपि तात्विकं तदा प्रबति यदा तत्करणतः एवं तथारिहं खलु, बेदादि चउपहवेगथरं ।। प्रतिनिवर्तते ॥ तत प्राह ( नबछेज्जा ) इति तस्माद अथवेति अकृतस्य स्थानस्य प्रकारांतरतोपदर्शने पंचकादिकृत्यप्रतिसेवनात् ब्यावर्तेत निवतेत । व्यावृतावपि कृतात् के रात्रिंदिवपंचकप्रवृतिप्रायश्चित्तस्थानमकृत्यं स्थानं यदि था पापात्तदा मुख्यते यदात्मनो विशोधिर्भवति । तत आह । मासादि तच्च तावद्यावत्पएमासाः। एतत् खलु अकृत्यस्पानं आत्मानं विशोधयेत् । पापमलस्फोटनतो निर्मलीकुर्यात् । सा तापाई तपोरूपप्रायश्चित्ताईयाई वा दादीनां चतुर्मा प्रायच विकिरपुनः करणतायामुपपद्यते । ततस्तामेव । पुनः श्चित्तस्थानमकृत्यस्थानं तदेवमधिकृत्य स्थानं व्याख्याय यथाकरणतामाह । अकरणतया पुनरज्युत्तिष्ठत् पुनरकरणतया स्वकीयाचार्योपाध्यायादीनामदर्शनं संभवति । तथाप्रतिअन्युत्थानपि विशोधिःप्रायश्चित्तप्रतिपतिर्भवात । तत आह पादयति ॥ यथाई यथायोग्य तपः कर्म तपोग्रहणमुपवकणं वेदादिकं श्राउयवाघायं, वाहुनहगीयं चपत्तकालं तु। प्रायाचितं प्रतिपद्येत । यदि पुनरात्मीयवाचार्योपाध्यायेषु अपरक्कममासज्ज व,मुत्तमिणंतदिसा जाव ॥ सत्सु अन्येषामंतिके आलोचयति । ततः प्रायश्चित्तं तस्य चतु | स्वकीयानामाचार्योपाध्यायानामायुषो व्याघातोऽभवत् । जी गुरु यदि पुनरात्मन प्राचार्योपाध्यायान पश्येत् अभाषादूर- वितस्य बहुघातसंकुलत्वात् याद वा तस्यैवाऽलोचकस्यायुव्यवधानतोवा ततो यत्रैव सांभोगिकं साधर्मिक विशिष्टसा- यावदाचार्योपाध्यायादिसमीपे गति तावत् न प्रभवति माचारीनिष्पन्न बहुश्रुतं च्छेदप्रथादिकुशसं उभ्रामकमुद्यताव- - स्तोकावशेषत्वात् । तत आयुषो व्याघातं वा आश्रित्य तथा Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोयणा अभिधानराजेन्धः। प्रालायणा भविष्यति कालो यत्र पुर्जनो गीतार्थः छालोचनार्हस्तत तत्य न कप्पा वासो आहारो जस्व नत्यि पंच इमे । एष्यन्त कालमधिकृत्य दुर्बनं गीतार्थ चाश्रित्य तथा जंघाबन राया वेजापणिमं नेवइया रूवजक्खा य।। परिहान्या रोगातकेण वा जातोऽपराक्रम आलोचकस्ततस्तं तत्र गमनं कल्पते वासो यत्रेमे पत्यमाणाः पंच नाधाराः । वा प्रतीत्य सूत्रमधिकृतं प्रवृत्तं यावदिशादिसूत्रं । अत्र पर केते श्याह । राजा नृपति वैद्यो भिषक् अन्ये च धनवन्तो प्राह । ननुपूर्वमेकाकिविहारप्रतिमासूत्राणि व्याख्यातानि । नैतिका नीतिकारिणो रूपयकाः धर्मपाउकाः कस्मादिति यथा एकाकिविहारे दोषाः । तदनंतरं पार्श्वस्थादिविहारोपि प्रतिषिद्धः । ततो नियमाद्च्छे वस्तव्यमिति नियमितं । एवं च चदत आह॥ नियमिते कथमेकाकी जातो येनोच्यते यत्रैवात्मन प्राचार्यो दविणस्त जीवियस्स व,वाघातो होज्ज जत्थ नत्थेतो। पाध्यायान्पश्येत्तत्रैव गत्वा तेषामतिक आसोचयेदित्यादि । वाघाए एगतरस्स, दव्वसंधामणा अफला ॥ अत्र सूरिराह ॥ यत्र नसंत्येते राजादयः परिपूर्णाः पञ्च नियमतो रूविणस्य मुत्तामणं कारणियं, आयरियादीण जत्य गच्छमि । धनस्य जीवितस्य वा व्याघातो भवेत् वैद्येन विना जीवितस्य पंचएहं हो असती, एगो व जहिं न वसियव्वं ।। राजादिनिर्विना धनस्य व्याघातो चैकस्य धनस्य जीवितस्य सूत्रमिदमधिकृतं कारणिकं कारणे नवं कारणिकं कारणे या द्रव्यसंघाटना दम्योपार्जना विफला परिभोगस्यासम्भषासत्येकाकिविहारविषयमित्यर्थः । श्यमत्र भावना । बहुनि ख- दथवा ॥ स्वाशवादीनि एकात्विकारणानि ततः कारणवशतायो रमा जुवरमा वा, महरयय अमञ्चतहकुमारेहिं । जात एकाकी तहिषयमिदं सूत्रमिति न कश्चिद्दोषः अशिवा- एएहिं पमिग्गहियं, वसेज रज्जं गुणविसालं ।। दीनि तु कारणानि मुक्त्या प्राचार्यादिविरहितस्य न वर्तते राशा युवराजेन महत्तरकेनामात्येन तयाकुमारैरेनिः पंच पपस्तं तया चाह। यत्र गच्छे पंचानामाचार्योपाध्यायगणा रिगृहीत राज्यं गुणविशालं नवति गुणविशालत्वात् तसेत् घोदिप्रवृत्तिस्थविररूपाणामसदभावो यदि वा यत्र पचानाम आचार्योपाध्याप्रवर्तिस्थविरगीतार्थान् प्रतिपाद्य १ व्य० स १ न्यतमोऽप्येकोन विद्यते। तत्र न वस्तव्यमनेकदोषसम्नवात्ता पवमाचार्यपंचकसमेते गच्छे वस्तव्यं । यदि पुनः किचिदपनेव दोषानाह। राधं प्राप्तो नपति गच्छश्च पंचकपरिहीनस्तदायं दृष्टांतः । एवं असुलगिलाणे परिपकुलकज्जमादिवग्गउ । जह पंचकपरिहीणं, रज्जममरजयवारेव्विग्गं । अमस्सतिससस्सा जीविययाते चरणघातो ॥ जग्गहियसगमपिझगं, परंपरवञ्चए सामि ॥ एवमुक्तेन प्रकारण एकादिहीने गच्छे एकोऽशुभकार्ये मृतक- यथा राज्यं राजादिपंचकपरिहीनं संतं ममरं स्वदेशोत्यो स्थापनादौ अपरो ल्हानप्रयोजनेष्वन्यः परिझायां कृतभक्तप्र विप्लवः जयं परचक्रसमुत्थं तस्कराश्चौरास्तैरुहिममुपगतं प. त्याख्यानस्य देशनादौ अपरः कुत्रकार्यादौ व्यग्र इति । अन्य- रित्यज्य आत्मीयं चशकटपिटकमुद्गृह्य परंपरंस्वामिनं दाग स्य पंचमस्याऽप्यंन्यावस्थाप्राप्तस्य आलोचनाया असंभवेन व्रजति यत्र स्वास्थ्यं बनते। सन्यस्य सतो जीवनाशे चरणव्याघातश्चरणगात्रशश्चरण- श्यपंचकपरिहीने, गच्चे आसन्नकारणे साहू । दंशे च गुजगतिविनाशः । अत्र पर आह॥ एवं हो विरोहो आलोयणापरिणतोउ सुफोन । आलोयणममहतो, परंयाव चसिके। इत्येवमनेन दृष्टांतप्रकारेण पंचकपरिहाने प्राचार्यादिपंचक एगतेण पमाणं परिमाणो वीन खल अम्हं॥ विरहिते गच्छेप्रायश्चित्तस्थानमापन्नः साधुः कारणेन प्रागुनत्वेवं सति परस्परविरोधस्तयाहि भवद्भिरिदानीमेवमुच्य. तेन आयुर्व्याघातादिरूपेण निजाचार्यादीनामंतिके आलोचना ते । सशल्यस्य सतो जीवितनाशे चरण मुंशः । प्राक्त्येवमु. मलभमानः सूत्रोक्तया नीत्या परंपरमन्यसांनोगिकादिकं तमदत्तासोचनेऽप्यालोचनापरिणामपरिणतः शुरु इति ततो तापजति यावत सिकान गच्छति । एतदेव सविशेषमाह। भवति परस्परविरोधः । अत्र सूरिराह ( एगते णेत्यादि)न आयरिए आलोयण, पंचएहं असति गच्छे बहियाजो। खल्वस्माकं स्वशक्त्यनिगृहनेन यथाशक्तिप्रवृत्तिविरहितः केवनपरिणामः एकांतेन प्रमाणं तस्य परिणामाभासत्वात्किंतु वोचत्येचनबहुगा, गीयत्ये होति चनगुरुगा सूत्रं प्रमाणीकुर्वतो ययाशक्तिप्रवृत्तिसमन्धितः। नचैकारभाव आचार्यआचार्यसमीपे आलोचनादातव्या । गच्छे पंचानामा गच्छे वसन् सूत्रमनुवर्तते । ततस्तस्य तात्विकपरिणाम एव चार्यादीनामसति गच्गदहिगंतव्यं श्यमत्र भावना । प्रायनेति सशल्यस्य जीवितनाशे चरणनाशः । पुनराप वक्तव्यां चिनस्यानमापन साधुना नियमतः स्वकीयानामाचार्याणां तरं विवक्षुः प्रश्नमुत्थापयाति। समीपे प्रायोचयितव्यं तेषामभावे उपाध्यायस्य तस्याऽग्य भावे प्रवर्तिनस्तस्यानाचे स्थविरस्य तस्याऽप्यनाये गणावचोयग किंवा कारण, पवएहसती तहिं न वासियव्वं ॥ च्छेदिनः अथ स्वगच्छे पंचानामप्यनाथस्ततो पहिरन्यस्मिदिलुता वाणियए, पिमियात्थे पसिनकामो ॥१॥ न्सांनोगिके गंतव्यं । तत्राप्याचार्यादिक्रमेण आलोचयितव्यं । चादक आह ॥ यत्रपंचानां परिपूर्णानामसदभावः तत्र न घ. सांभोगिकानामाचार्यादीनामभावे संविनानामसांजोगिकानां स्तव्यमित्यत्र किंवाकारणं को नाम दोषः॥ सूरिराह ॥ अत्र समीप गंतव्यं । तत्राप्याचार्यादिक्रमेणासोचना प्रदातव्या । अधिकृतार्थे वाणिजोपीमितार्थेन वस्तुकामेन रयन्तः ॥ उप यदा पुनरुक्तकमोवंधनेनासोचनां प्रयच्छति तदा प्रायश्चित मागायायां सप्तमी तृतीयायें ॥ श्यमत्र नावना ॥ कोऽपि व- चतु घु । तथा चाह ( वावु चलहुगा) इति व्यत्यस्ते णिक तेन प्रभूतार्थे पोस्तिस्ततः सोऽचितयत् कुत्र मया वस्त- | विपर्यासे सक्तकमोखंघने इत्ययः। चत्वारो सघुकाः मधुमासा व्यं यत्रनम: परिजहमिति ततस्तन परिचित्यदं निश्चिक्ये।। यदि पुनरुक्तक्रममलंघयन अगीतार्थसमीपे आमोचयति। तद Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५३) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु । एतदेवाह (गायत्ये होति च गुरुगा) आहारःपिं उपधिपात्रनियोगादिः शय्या वसतिरेषणाशतदेवं संविमानां संभोगिकात यावत् विधिरुक्तः । दः प्रत्यकमभिसंबध्यते । आहारैषणायामुपज्येषणायां शश्यसंप्रति शेषान्प्रति विधिमाह॥ षणायामादिशब्दानियवैयावृत्यादिषु च भवति । तेन यतिसंदिग्गे गोयत्ये, सरूविपच्छाको य गीयत्ये। तव्य कथमित्याह । अनुमोदनेन कारापणेन च । किमुक्तं भवपमिते अन्नुहिय, असती अन्नत्य तत्येव ।। ति । यदि तस्यासोचनाईस्य कश्चिदाहारादीनुत्पादयति । ततस्तस्यानुमोदनाकरणतः प्रोत्साहने यतते । अन्यथाऽन्यः संविग्ने अन्यसांभोगिक प्रवणे असति अविद्यमाने पार्श्व कश्चिनोत्पादयति ततः स्वयमालोचक पाहारादीन शुकानुस्थस्य गीतार्थस्य समीपे आलोचयितव्यं तस्मिन्नापि गीतार्थे त्पादयति । अथ शुरनोत्पद्यते । ततः श्राझात् प्रोत्साहाकपावस्थे असति सारूपिकस्य वायमाणस्वरूपस्य गीतार्यस ल्पिकानप्याहारादीन् यतनया उत्पादयतीति । अथाकल्पिका मीपेतस्मिन्नपिसारूपिके असात पश्चात्कृतस्य गीतार्थसमीपे नाहारादीनुत्पादयतः तस्य महतीमनिनतोपजायते । अथचभायाचयितव्य । एतेशं चमध्ये यस्य पुरत आलोचना दातुमिप्य सद्धिकरणार्य तदंतिकमागतस्ततः परस्परविरोधः । अत्राह ते । तमन्युत्थाप्य तदनंतरस्य पुरत आलोचयितव्य । अन्यु (सिम्खसिपयम्मितो सुद्धो) यद्यपि नाम तस्यालोचनाईस्थानं नाम बंदनकप्रतीनादिकं प्रत्यन्युपगमकारोपणा ॥ स्थायायाकल्पकानन्याहारादीनुत्पादयति । तयाप्यासेवनातथा चाह । ( पमिकते अनुहिएत्ति) अन्युत्थिते वंदनाप्रतो शिका तस्यांऽतिके क्रियते । वितिपदे अपवादपदे स तथा अनादिकं प्रति कृतान्युपगमेऽतिक्रांतो नूयात् नान्यथा अय ते पावस्थादय आत्मानं हीनगुण पश्यतो नान्युत्तिष्ठति तत वर्तमानः शुद्ध एव एतदेव भावयति ॥ आह (असतिति ) असति अविद्यमाने अभ्युत्थाने पावस्था चोक्ष्यसे परिवार, अकरेमाणे नणाइ वा सदढे ॥ दीनां निषद्यामारचग्य प्रणाममात्रं कृत्वा सोचयनीयमितरस्य सव्वोच्छिनिकरिस्स न, सुयजत्तीए कुणहययं ॥ तु पश्चात्कृतस्य श्वरसामायिकारोपणं लिंगप्रदानं च कृत्वा प्रपमतः । से तस्यासोचनाहस्य परिवारं वैयावृत्त्यादिकमययाविधि तदंतिकमालोचनायं ( अन्नत्य तत्थवत्ति ) यादे कुर्वतं चोदयति शियति । तया प्रहणासेयना शिक्कानिपाश्वस्यादिकोऽत्युत्तिष्ठति । तदा तेनान्यत्र गंतव्य येन ष्णात एष तत एतस्य विनयवैयावृत्त्यादिकं क्रियमाणं महानिप्रवचन माघवं न भवति । तत्र च गत्वा तमापन्नप्रायश्चितं जैराहेतुरिति । एवमपि शिकमाणो यदि न करोति । ततस्तशुद्धतपो वहाते मासादिमुत्कर्षतः पामासपर्यवसान यदि स्मिन्नकुर्वाणे स्वयमाहारादीनुत्पादयति । अथ स्वयं शुद्ध वा प्रागुक्तस्वरूपं परिहारतपः । अथ सनाऽत्यत्तिष्ठति शुरूंच प्रायोग्यमाहारादिकं न बनते । ततः श्राकान् भणति प्रज्ञापतपः । तेन प्रायश्चित्तं दत्त ततस्तत्रय तपो वहति । एतदव यति प्रज्ञाप्य च तेज्योऽकल्पिकमपि यतनया संपाद असात इत्यादिकं व्याख्यानयति ॥ यति नच वाच्यं तस्यैवं कुर्वतः कथं नदोषो यत पाह असतीए लिंगकरणं, सामाश्य इत्तरं च कितिकम्म। (अब्बोधित्तीत्यादि ) अव्यवजित्तिकरणस्य पावस्थादः तत्येवय मुफतवो, गवेसणा जाव सुहदुक्खे ।। श्रुत क्तया हेतुनूतया अकहिपकस्याप्याहारादेः श्रुतभत्त्या असति अविद्यमाने पश्चात्कृतस्याऽन्युत्याने गृहस्थत्त्वात् पूजां कुरुत यूयं नच तत्र दोष एवमत्रापि । श्यमत्र भावना ॥ जिंगकरणं श्वरकात जिंगसमर्पणं तया इत्वरमित्वरका यथा कारणे पावस्यादीनां समीपे सूत्रमय च गृहानोऽकसामायिकमारोपणोयं । ततस्तस्यापि निषद्यामारचय्य कृति ल्पिकमप्याहारादिक यतनया तदर्थं प्रतिसेवमानः शुको प्रह णशिकायाः क्रियमाणत्वादेवमासोचनाईस्याऽपि निमित्त कर्म वदनकं कृत्वा तत्पुरत आलोचायतव्य । तदेवमसतीति व्याख्यातमधुना तत्थेवत्ति व्याख्या । यदि पावस्थादिको प्रतिसेवमानःशुरू एव प्रासेवनाशिकायास्ततत्समीपे क्रियमानान्यतिष्ठति शुद्धं च तपस्तेन प्रायश्चित्तं तथा दत्तं ततस्तत्रैव णत्वादिति । एतदेव स्पष्टतरं भावयति॥ तत् शुद्धं तपो वहति यावत्तपो वहति । तावत्तस्या नोचना दुविहा सती एतेसिं, आहारादी करे सव्वेसि । प्रदायिनः सुखःखे गवेषयति । सर्वमुदंतं वहतीत्यर्थः । पणहाणी य जयंतो, अत्तहाए वि एमेव ।। पश्चात्कृतमेव विधिमाह ॥ इह परिवाराभावे तस्यायोचनाईस्य कर्तव्यामिति सामा निंगकरणं निसज्जा, कितिकम्ममणिच्छत्तो पणामो य। चारो तेषां च पावस्थादीनां विहा असती शति परिवाराएमे व देवयाए, न वरं सामाश्यं मुत्तुं ॥ भावो विविधः।विद्यमानाभावोऽविद्यमानानावश्च । विद्यमानः पश्चात्कृतस्यत्वरकालसामायिकारोपणपुरस्सरमित्वरकासं सन् अभावाऽसन्वैयावृत्यादेरकरणात् विद्यमानाभाषः । सिंगकारणं रजोहरणसमर्पणं तदनंतरं निषचाकरणं तत: अविद्यमानः सन्नभावोऽविद्यमानाभावः तत्र शिविधेऽप्यभावे कृतिकर्म वंदनकं दातव्यं । अथ स वंदनक नेच्छति । तत (स)तस्यालोचनस्याऽहारादिकंसर्वकल्पमकल्पिकंचायतनया स्तस्य कृतिकर्ममनिच्छतः प्रणामो वाचा कायेन प्रणाममात्र करोति उत्पादयति । यतनया कथमकल्पिकमुत्पादयति इति कर्तव्य पार्श्वस्थादेरपि कृतिकानिछायां प्रणामः कतयः । चेदत आह । पंचकहान्या यतमानः । किमुक्तं भवति । अप रिपूर्ण मासिकप्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनापत्ती गुरुलाघवपर्यासोएवमेव अनेनैव प्रकारेण देवताया अपि सम्यक्त्वनावितायाः पुरतः आलोचयति ते वरंसामायिकारोपणलिंगसमर्पणं न च चनया पचकादिपंचकहीनमासिकमायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनां कर्तव्यमविरतत्वेन तस्यास्तद्योग्यताया अनावात् । ययुक्तं करोति । तामाप यतनया पंचकग्रहणमुपलकणं तेन देशादि हान्यापि यतमान ति व्यं । एवं सर्वत्र न केवसमालोच(गवेषणा जाव सुहसुक्ख) शति तद्व्याख्यानयति ॥ नार्थिमेवं यतते किं तु कारणे समुत्पन्ने आत्मार्थमप्येवमेवं आहारजवाहिसेन्जा, एएसणमादीसु होइ जश्यव्वं । पंचकहान्या यतते इति । यमुक्तं सम्यक्त्वभाषितायाः पुरत णमोयणकारावण, सिक्खत्तिपयम्मितो सुको॥ आयोचयितव्यमेतदेतज्ञापयति ॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालोयणा । ४५४) अभिधानराजेन्द्रः। पालोयणा कोरंटगं जहा जावि, यछम्मं पुच्छिकण वा अ॥ असति अरह सिके, जाणतो सुच्छो जावेव ॥१॥ कोरंटकं नाम नरुक उद्यानं तत्र भगवान्मुनिसुव्रतस्वामीअर्हनजीणं समषमृतसूत्र तीर्थकरेण गणधरैश्च बहान प्रायश्चितानि च दीयमानानि तत्रत्यया देवतया दृष्टानि ततः कोरंटकं गत्वा तत्र सम्यक्त्वनावितदेवताराधनार्थमष्टमं कृत्वा तत्र चसम्यक्त्वकंपितायादेवतायाः पुरतो यथोचितप्रतिपत्ति पुरस्सरमामोचयति । सा च प्रयच्छति यथाई प्रायश्चित्तं । अथ सा देवता कदाचित् व्युता भवेत् पश्चादन्या समुत्पमा तया च न राष्टस्तीर्थकरस्ततः साष्टमनाकंपिता ते महार्यवहे तीर्थकरमापृश्य समागच्छामि ततः सा तेनाऽनुज्ञाता महावि देहे गत्वा तीर्थकरं पृच्छति पृष्ट्वा च समागच्छत्यसाघवे प्रायश्चित्त कथयाति । यथा च कोरटकमुद्यानमुक्तमेवं गुणशिमादिकमपि कष्टव्यम् अत्राऽप्यनीक्षणं वर्षमानस्वाम्यादीनां समवसरणात् । तासामपिदेवतानामभावे अईत्पतिमानां पुरत स्वप्रायश्चित्तदानपरिक्षानकुशल आमोचयति । ततः स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तं तामप्यसत्यभावे प्राचीनादिदिगभिमुखो ऽईतः सिकाननिसमीक्ष्य जानन प्रायश्चित्तदानविधिः । विद्वा न आलोचयति । आलोच्य च स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तं सचतथा प्रतिपद्यमानः शुरू एव सत्रोक्तविधिना प्रवृत्तेः । य दपि विरचितं तत्रापि शुरूप्रायश्चितप्रतिप्रत्तेरिति । कारं. टकं जहत्यत्र यथाशब्दोपादानात्कोरंटकसमुद्दिशताऽन्यान्यऽप्युद्यानानि सुचितानीति प्रकटयिषुराह । सोहीकरणा दिट्ठा, गुणसिलमादीनु जह य साहूणां। नोर्देति विसोहीतो, पच्चुप्पएणा व पुच्छांत ॥ गुणशीलादिषूद्यानेषु याभिर्देवताग्निः साधूनां तीर्थकरैगणधरैमानेकशो विधीयमानानि शोधिकरणानि रटानिताः स्वयं वदति प्रयच्छति । विशोधीः प्रायश्चित्तानि याः पुनः प्रत्युत्पाः देवतास्ता महाविदहेषु गत्वा तीर्थकरान् पृच्छति । पृवाच साधुन्यः कथयति ॥ आ.म.१०० ग.आध.१ प्रतिमा. श्लो. ६४॥ (१४) गीतार्थमवाप्य शस्यानुफरणादौ दोषगुणा दिकं नावयता यद्विधेयत्वम् ।। श्रथ गीतार्थमवाप्य शल्यानुशरणादौ दोषगुणादिकं भाव यता यध्धेियं तदाह । पंचा० । वृ. १५ ॥ मरिचं ससचमरणं, संसारामावमहाकमिवामि । सुचिरं जमंति जीवा, अणोरपारंमि ओइना ॥ ४॥ व्या. । मृत्वा आसव्य सशल्यमरणं प्रतीतं ततः किमित्याह । संसारामविमहाकमिल्ले नधारण्यगुरुगहने सुचिरमति दीर्धकासं चमंति पर्वटांत जीवा दहिनः अनवाक्पारे अवाक नागपरभागवर्जिते अवतीर्णा अषगाढा इति संवगं कृत्वातयोगः तथा ॥ नकरियसव्वसना, तित्यगराणाए मच्छिया जीवा। जवसयकयाइं खाविओ, पावाई गया सिवं थाम । ४३ | व्या० । उद्धृतसर्वशव्याः कृतामोचनास्तीकराज्ञायां जिनोपदेशे सुस्थिताः सुप्तु व्यवस्थिताः संतो जीवा देहिनः नवशतकृतानि जन्मशतविहितानि कपायत्या प्रकपप्य शल्योकारसामर्थ्यात् यानि यानि कर्माणि गताःप्राप्ताः शिवं निरुपरूवं यामति स्थानं सिद्धारयमित्यर्थः । सस्सुकरणं चइमंति, बोगबंधूहि दरियं सम्मं । अवितहमारोग्गफलं, धमोहं जणिमं पायं । ४४। व्या ० । शव्योकरणमासोचना चशब्दः पूर्वगाथाघ्योक्ता पक्कया समुच्चयार्थः । इदमनंतरोक्तविधानं त्रिलोकबंधु भिजिरित्यर्थः दतिमुक्तं सम्यक् सोपपतिक वितथमव्यभिचारि आरोग्यफलं भावाराग्यसाधकं ततश्च धन्याह पुण्यवानहं येन मया श्दमेतच्चस्योकरणं हातमवगतम् ॥ तानवरोमे सम्मए, य एयस्स णाणरासिस्स । आर्वोदयं असेसं, अणियाणो दारुण विवागं । ४ए। व्याताति यस्मादिदं मया हातं तत्तरमादुनहराम्यपनया मिसम्यग् न्यायेन एतत् भावशल्य एतस्य गुरोनिराशेः अप्रे सद्बोधनिकरस्यायेद्य कथयित्वाऽशेष सकतं अनिदानो निर्निदानः सन् दारुणविपाकं रोषफलं शल्यमिति प्रक्रमः। श्यसंवेगं कालं मरुगाहरणादिगार्ह विधेहिं । दढ पुण करणजुत्ता, सामायारिं पउंजेज्जा॥ व्या । इति एवमनंतरगाथाचतुष्कोत्तप्रकारसंवेगं अभाध्यवसायविशेष कृत्वा विधाय करित्याह मरकाहरणादिनिप्राह्मणोदाहरणाद्यैः समयप्रसिश्चिन्हैकिंगमरणायुपगमेनापि शर्मः कार्यत्येवं भूतार्थगमकैः सशस्यतादोषझापकर्या श्रादिशब्दात्पीयमहापीगदिग्रहः दृढमत्यर्थमपुनः करणयुक्तः पुनरमुमपराधं न करिष्यामीत्यभिप्रायवान् सन् सामाचारीमालोचनागतसमाचारं वंदनकदाननिषद्यादानादिक प्रयुजीत विदध्यादालोचनाकारीति ॥ (१५ ) मरणाऽजिमुखेनाऽप्यालोचना करणीयात्र ब्राह्मणदृष्टान्तः॥ मरुकज्ञातं चैतत् ॥ नगरे पाटलीपुत्रे, विन श्रामीत् त्रिलोचनः । वेदवेदांगगर्नार्थ, विशारदशिरोमणिः ॥१॥ तस्य पार्षे बटुः कोऽपि. समा यातः प्रणम्य तम् ।। उवाच मयका मोहा, त्परदाररतिः कृता ॥३॥ तस्यपापस्य मे शुचिः क्रियतां सोऽप्यनापत । तनावस्य परीक्षार्थ, यथा जो विप्रपुत्रक ! ॥३॥ तप्तां लोहमयीं नारी, फुसकिम्शुकसन्निनाम् । आझिंगय यतो नान्य, प्रायश्चित्तमिहागसि ॥४॥ तेनापि पापजीतेन, प्रतिपन्नमिदं ततः । सोपि विज्ञाय तनावं, शधिमन्यां न्यवेदयत् ।। ५॥ अथवा मरुकोदाहरणमेवं ॥ बजून ब्राह्मणः कोऽपि वेदापु विशारदः । स्वागमाहितबोधन, धर्मार्थोनृत्स तापसः॥१॥ ततस्तपस्यतस्तस्य, वसतस्तापसाश्रमे । कंदमूनाशिनोऽत्यर्थ, कष्टानुष्ठानकारिणः ॥॥ स्नानाद्यर्थ नदीतीरे, प्रयातस्यैकदा किल । पश्यतो मत्स्यबंधाना, मत्स्यमांसस्य नक्षणम् ॥ ३ ॥ तत्र जातानिझाषस्य, जेमितस्य प्रयाच्य तत् । तस्यैवाऽजीर्णदोषेण, समुत्पन्नो महाज्वरः॥४॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५५/ आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोया तचिकित्सार्थमानीतो, वैद्यः सोऽपि च पृष्टवान् । तव्यमुरबानामानागी एष रातः । सांप्रत दाीतिकयाज नामाह॥ किंनो स्त्व जुक्तवान् ब्रहि, सोऽप्यत्नापत सज्जया ॥५॥ वाहत्याणी साहू, वाहिगुरुकंटकादिवराहा । कंदमझफलाहारा, रतापसा यत्पनुंजते । सोही य श्रोतहाइ, पसत्यनाएण वणतो उ॥ तनक्त न पुनस्तेन, कथितं मत्स्यनक्षणम् ॥ ६॥ व्याधस्थानीयाः साधवः व्याधिस्थानीयो गुरुः कटकादिवैधोऽपि तस्य वाक्येन, झाला तं वातिकंज्वरं । स्थानीया अपराधा औषधानि दंतमलादीनि तत्स्थानीया तथाविधानियां चक्र, नचात्तृतपरमुक्तता ॥ ७॥ शोधिः अत्र द्वौ व्याधष्टांती प्रशस्तो प्रशस्तश्च प्रायोप्रशस्तो पुनः पृष्टोऽद्ययेन, तदेव ख्यातवानसौ । द्वितीयः प्रशस्तः । तत्र प्रशस्तेन ज्ञातेन दृष्टांतेनोपनयः क तव्यः । आचार्योंपि यदि तान् उपेकते ततः कंटकादीनामचक्र क्रियां सतामेव, विशेषान्नत्वजनगुणः ॥७॥ पक्कको व्याध श्व सोऽपि पुस्तरामापदमामोति । तथा अन्यदावेदनाक्रांतो नीतोऽसौ मृत्युराक्षसात् । चाह॥ सज्जां विहाय वैद्याय, न्यगादीमत्स्यनोजनं ॥ ए॥ पमिसेवंते नवेक्खइ नयणं ओवीलए अकत्यंतो । ततोवैधाऽन्यगादीतं, मुष्ठ पुष्वु त्वया कृतं । संसारहत्यिहत्यं पात्रति विवरीयमियरोवि ॥ यदीयंति दिनानीदं नाख्यातं रोगकारणं ॥१०॥ श्तरोऽपि प्राचार्योऽपि तुशब्दोऽपिशब्दार्थः । यः प्रतिसेवअधुनापि कृतं साधु साधो यत्साधितं त्वया ॥ मानात् उपकते ननु निषेधति नवा कुर्वतोऽकुर्वाणात् प्रायश्चि स्तमुत्थीमयति । न भूयः प्रायश्चित्तदानदंमेनतामयन कारयति निदानं ज्वररोगस्य, करोमीता रुजः वयम् ॥ ११ ॥ सविपरीतमाचार्यपदस्य हि यत्रोक्तनीत्या परिपालनफलमचितस्योचितं ततो वैद्यः, क्रियां कृत्वा तकं व्यधात् ।। रात मोकगमन तहिपरीतं संसार एव हस्तिहस्तं प्रामोति । व्याधिब्बाधाव्यपेतांगं, पुष्टदेहं महोजसमिति ॥१२॥ पुस्तरं संसारमागच्चतीति भावः । उपसंहारमाह ॥ (१६) अदत्तासांचने व्याधदृष्टान्तनावना. आलोयमणालोयणदोसा य, गुणा य बलिया एए । कंटगमादिप बढे, नोघर सयं नहोइ एकहए । एते अनन्तरोदिता आलोचनायांगुणाआनालोचनायां दोषाव र्णिताः उ०१ आगमन्यवहारिक सकाशे आलोचना (आगमकमीजयवणगए, आगलणं खाजियामरणं । नववहारि ) शब्दे ॥ वह किल व्याधा वने संचरंत उपानही पादेषु नोपनातिमा इदानीमागमभ्यवहारिणामभावे समयानुसारेणोत्कृष्टश्रतानां हस्तिन उपानहोः शब्दान श्रीषुरिति । तत्रेकस्य व्याधस्याऽ न्यदा बने उपानही विना परिभ्रमतो योरपि पादयोः कंट श्रुतम्यवहारिणां सन्निधावासोच्यत शति । जीत. । कादयः प्रविष्टा आदिशब्दात् लणं किलिंबादिपरिग्रहः ॥ (१७ ) स्वगणपरग वासिकानां समीपे आलोचना. तान्प्रविष्टान् कंटकादीस्वयं नोहरति । नापि भोजिकाय स्वगगपरगणवासिकानां समीपे आलोचना गचूमिकानिजलार्यायै व्याधि कथयति । ततः स तैः पादतनप्रविष्टः याम.॥ कंटकादिभिः पीमितः सन् वनगतो हस्तिना पृष्ठतो धावता कहणं नंते सदुरूवे आयरिय उवज्काए पमायवते । सप्रेर्यमाणो धावन् कमीतूतः स्थळे कमरे श्व मंदगतिरतूत्- गण परगण वासियाणं समीवे पावं आमोइज्जा तएणं सतः प्राप्ता हस्ती प्रत्यासन्न देशमिति जानन् क्षुधाकोनंगत्वा अजसुहम्मे जंबू एवं क्यासी । जंब जिणसासणे ववहारो (आगमण ) मितिवैकल्यं प्राप्तः। ततो मरणमष गाथाकराथः । नावार्थस्त्वयं। बनवतो त्यि जिक्ख अणागदकम्मं अम्मतरं अकिच्चएगो वाहो नवाहणातो विणावणे गतो तस्स पाय हाणं पमिसवित्ता आलोएज्जा तत्य पासेज पुणो आयतमा कंटगाईणं नरिया ते कंटगाइयानो सयमुकरियानो रियनवज्कायं बहुस्सुयं बहूआगमं कप्पइ से तस्संतिए विय वाहीए नवराविया अन्नया वणे संचरंतो हत्यिणा श्रामोइत्तए पमिक मेत्तए णिदए गरिहारत्तिए विओदिहो तो तस्स धावंतस्स कंटगाड्या दूरतरंमंसे पविक । दित्तए अकरणयाए अहित्तए अहारिहं पायच्छि ताहे अतिदुक्खेण अदितो महापायवो इवाचिन्नमूलो | पमिधज्जित्तए जत्यवणो आयोरयनवज्कायं पासेज्ज बहु हत्यित्नएणं पवेयणतो पमितोहत्यिणा विणासितो स्सुय बहुआगमं तत्येव संजोइय अवश्काय आयरियवितिए सयमुघरती अणुहिए जोइयाए नीहरः । पासेज बहुस्सुयं बहुआगमं कप्पइ से तस्संतिए जाव परिमदणदंतमन्नादि पूरणं वणगयपलातो॥ पामे बज्जित्ता ।१ । जत्येको संजोय आयरियनवसायं अन्यो हितीयो व्याध उपानही विना वने गतः । तस्य वने पासेज तत्येव अण संजोय आयरिय उवज्जायं पासेसंचरतः कंटकादयः पादतने प्रविष्टा स्तान्स्वयमुहरति ये च ज्ज तत्येव बहुस्त आगमं तस्सतियं जाव परिवज्जि स्वयमरुतु न शक्तान् अनुद्धृतान् भोजिकया निऊभार्यया त्तए । ६ । जत्येव णो असंजोश्य आयरिय नवव्याधा नीहारयंति निष्काशयति तदनंतरं तेषांकंटकादिवेधस्थानानामंगुष्ठादिना परिमर्दनं तदनतर दंतममादिना आदि ज्मायं पातेज तत्थेव सावयं पासेज बहसुग्रं तस्संतिशब्दात । कर्णमलादिपरिग्रहः। पूरणं कंटकादिवेधानां ततोऽ ए आलोयत्तए ॥४॥ जत्येव णो सावयं जत्येव सार न्यदा वनगतः सन् हस्तिना इथेऽपि पलायितो जातो जीवि. विह जत्येव णयेतत्थेव पच्चा कम्जाव आलो० ।। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) पालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। पालोयणा जत्येव णो पच्चा० । तत्ये समनावियाई चेझ्याइ च्यमाने विराधना शीलस्य भिन्नकथादिना प्रागृक्तस्वरूपेण पासिज्ज जाव कप्पइ जत्येवणो समजावियाइं पसिज्ज भवति तथा निपक्का धृष्टा सती यांचां या कुर्यात् तथा रष्टिरागतो मुखरागतोवा परस्य नावं विजानीते यथा मामेष तत्येव गमेणगरस्त वाहिं पाश्णालिमुहस्स या उदीणा एषा वा इच्छतीति ततो घटना स्यात् न केवलमेते विपके जिमुहस्स वा हिचा असोइज्जा जाव पमित्रजिन्जा आलोचनायां दोषः किंत्विमेऽपि तानवाह ॥ एवं जंबू जहाविवएहारुदेसएपप्पत्तं तहा करिजा होय अप्यचयनिम्नया, पिल्लणया जईपगासणे दोसा । रपातमि एसु रांजेज्जा । वयणी वि होइ गुम्मा, नियए दोसे पगासिंति । निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च स्वपकपरपडयोरासोचना व्यव वंदत्ते वा उडे वा, गच्छो तह सहसगत्तणाण गणे। हारकल्पे तथा च व्यवहारसुत्रम् न. ५ । विगतिपि जमिनदुं, दवणुदाहकुवियन्न ॥ जे निम्गंया निग्गं यीनयंसंमोश्या सियाणे एहं कप्पइ यतेः संयत्याः पुरतः प्रकाशने प्रासोचनायामिमे दोषाः अम्मममं कप्पई अणमणहस्त अंतिए आमोइत्तए अ तयथा अप्रत्ययः किमेश वराको जानातीति तवासातो यतिक थिय इत्व के आलोयणा रिहेकापति से तस्मतिए- मपि सा प्रायश्चित्तं ददाति तत्र विश्वासाभावः तथा नूयोऽप अान्नोए तरणज्जिया इत्थं के इ अणो आसोयणारिहे राधकरणे गुरुगरीयांसंदरदास्यतीति महत्याशंका संयती एवण्हं कप्पा प्राममहासतिए नोएत्तए ॥ १५ ॥ नां तु पुरुषस्य न जयमिति निर्नयता तज्ञावाच्च नूयो तूयोऽपराधकारण प्रवृत्तिस्तथा ( पेवणयेति ) यदि व्य. ५३० अस्य सूत्रस्य संबंधप्रतिपादनार्थमाह ॥ महत्प्रायश्चित्तं ददाति ततः संयतो व्रते न भवत्येतत्प्रायथेरो अरिहो आलोयणाए आयारकप्पितोजोग्गो। श्चित्तं किंत्विदमित्येवं प्रायश्चित्तस्य प्रेरणा । तथा प्रतिसाय न होइ विवक्खे नेव सपरके अगीएम न्याप यादे संयतस्य पुरत आलोचयात ततः सा निजस्पविरः पूर्व सोभिहितः स च आलोचनाया अहः सेो- कान् दोषान् प्रकाशयंती गम्या जवति यथा एकवार ऽपि च योग्य आझोचनाया नवत्याचार कल्पिक प्राचारप्रक- सावदिदमाचरितं योऽपि संप्रति मया सह स समास्पा विधानाध्ययन धारी । तत एवंसति सा आसोचना न विप चर्यतां पश्चात्प्रायश्चित्त दास्यते इति द्वितीयगाथा संप्रके नाऽपि सपके अगीतेष्वगीतार्थेष भवति । तत्र संयक्षा दायात व्याख्यया । यद्येवं ताई कथ पूर्वमार्यिकाः छेदश्रुतमसंयतीनां विपः संयत्यः संयतानां । सपः संयता धीयरन् कथं चालोचनां दास्तउत्तरमाह । संयतीनां संयत्यः सयंतीनां तत्र विपके सपके वा गीतार्थे ततो जाव अजराक्खिय, आगमववहारिणो वियाणत्ता। प्वालोचनाप्रतिषेधार्थमधिकृतं सूत्रं व्याख्याय निर्ग्रन्यानिम्र न जविस्साते दोसो, तितो वायती नच्छेदसयं । थ्यो वा संभोगिका स्युस्तेषां (नोएडमिति) वाफ्यालंकारे कल्प ते अन्योन्यस्य परस्परस्याप्रतिके आसोचपितुमगीतार्यत्वा यावदार्यरकितास्तावदागमध्यवहारिणोऽनूवन्ते चागमव्यतू अस्तिवेदत्र कश्चिदा तोचनाई एवं सतिन कल्पतोऽन्यान्य वहारबन विज्ञाय यथा एतस्याश्रुनेदश्रुतवाचनायां स्यांतिके आलोवयितुमेष सूत्रसंक्षेपार्थः ॥ सम्मोगीवनागं दोषो न भविज्यतोति सयतीमपि छेदश्रुतं वाचयंतिस्म । सप्रपचम्प्रतिपाय॥ आरेणागमरहिया, मा विदाहिं तितो नवाएंति । सांप्रतमालोचनाविधिमाह ॥ तेए कहं कुवंत, सोहित अपाणमाणोतो ॥ आलोयणा सपश्खे, परपक्खे चनगुरुं च। आर्यरक्षितादारत आगमरहितास्ततस्ते माछेदश्रुताध्ययनतः आणाद। निन्नकह दि, विराहणं दट्टण व जावसंबंधो ।। संयत्यो विज्ञास्यति विनयतीति हेतोश्छेदश्रुतानि संयतीन भानोचना सपके दातव्या । तद्यथा । वाचयतीति । अत्राह । तेन बेदश्रुताध्ययनाभावेन कथं ताः संयत्योऽजानानाः शोधिं कुर्वतु । अत्राचार्य आह ( ततो जाव निग्रंथो निग्रंथस्य पुरत पात्रोचयति । निर्ग्रयो निग्रंथ्याः अज्जरक्खियस गणे पगासरसुवणोता । असतीए विवक्वमि पुरतो यदि पुनर्विवानोचयति । यथा निर्ग्रये निर्ग्रन्थ्याः वि एमेव य होति समणावि) यतः पूर्वमागमव्यवहारिणः पुरतो निग्रन्थी पा निर्ग्रन्यस्य तदा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकं स्युच्छेदश्रुतं च संमत्योऽधीयेरन् ततो यावदार्यरतितास्तावत् कित्वाकादयश्च दोषा श्वशब्दै भिन्नक्रम : सचतथैवयोजितः वृतिन्याः स्वस्थाने स्वपके संयतीनां प्रकाशने प्रकाशनामकस्मादेवमत आह निन्नकहादि इत्यादि च चतुर्थवताति- कार्पः स्वप काभावे विपकेन्या तोचितवत्यः श्रमण्यः । एव चारमा प्राचयंत्याः संयत्या जिन्न कथादोषो भवति चतुर्थवता मेव श्रमणा अपि नवंति ज्ञातव्याः। किमुक्कं जवति । श्रमणा तिवारकयनतस्तस्याः कदाचि दानोचनाधारस्य नावनेदो अपि सपके आनोचितवंतस्तदवाने विपरपि श्रमणी नांप. भवतीत्यर्थः । प्रादिशब्दात् षष्ठी नूता सा यांचामिति कुर्या- पूर्वे इत्यर्थः दोषाभावात् । आगमन्यवहारिभिर्हि दोषाभावमदिति परिग्रहः एवं सति शीअं विराहणं दटुणं भावसंबंधो बबुन्य दश्रुतवाचना संयतानां दत्ता नान्यथति । आर्यरकिरधिविकारेण मुखविकारेण वा स वा सा वा नाव रष्ट्रा तादारतः पुनः श्रमणानामेव समीपे आलोचयति श्रमण्योऽपि मामिच्छतीत्यभिप्रायं ज्ञात्वा संबंधो घटना स्यात् एतदेव श्रमणानामागमव्यवहारच्छेदादत्रैव परमतमाशंक्य दूषयति ।। भ्याख्यानयति॥ मेहुणवजं आरेण, केइ समणेसु ता पगासंति ॥ मलगुणेसु चनत्ये, विगमिजते विराहणा हुज्जा। तंतु न जुज जम्हा, बहुसगदोसा सपक्खेवि ॥ नित्यकचिहिमहुरा, गतो य जावं बियाणंति ॥ भार्यरीकतादारतः श्रमणेषु श्रमणानां पार्थे ताः श्रमण्यः मझगुणेष मध्ये चतुर्थे मूलगुणातिचारे विकथ्यमाने आलो. प्रकाशयत्यानोचयंति मैथुनवयं मैयुनं पुनः श्रमएयः श्रमण, Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५७) अभिधानराजेन्द्रः । भालोयणा नामेव सकाश श्रचयंति इति केचिद् व्याच कृते तत्तु न युज्यते यस्मात् अघुस्यक पाः सपऽपि किमुक्तं भवति पिस्कोपस्तु त्वरूप स्वकदोषतः परिखात्यं कुर्युः परिभवं वा समुत्पादयेयुस्तस्मान्मैथुनमपि श्रमणानामेवातिके विकटनीयं । सती कमजोगी, पुण मुत्तूयं संकियाई ठाणाई || इघुवक कम्मिय, तरुणी थेरस्स दिडपट्टे ॥ १ ॥ तापि याई संस्थागुणापराधाचार्यराज्यस्तर्हि संयत्याः सकाशे आनोच्यते । तस्याऽसति भना यः कृतः सूतोऽर्थतश्च वर स्थविरस्तस्व समीपे आलोचयति नवरं शंकितानि स्यानाने यक्ष्यमाणानि शून्यगृहादीनि मुक्त्वा किंत्वाचीर्णे उचिते प्रदेशे श्राश्लोचयितव्यं यत्र भयकमिको दपि वर्तते च पश्यति न तु शृणोति । राम जयनिकांतरिता यापयति तरुणां घेरस्येत्येव तृतीयमं ग उपात्तः । स च शेषभंगानां त्रयाणामप्युपत्र कृणं । ते खेमे । स्थविरा स्वरस्यानोचपति स्वरात तरुणी स्थविरचयति ३ तरुण तरुणस्य ४ यदुक्तं मुक्त्या शंकितानि स्यानानि ॥ संप्रति तादर्शयति ॥ सुमघरदेउ लज्जाण, रपच्छम्पुत्रस्सयस्तो || एयंचियायंति चिहवा पंच ॥ १ ॥ शून्यगृहं देवकुलं उद्यानमरण्यं प्रच्छन्नं च स्थानम् तथा उपाय स्यांग्तमध्ये एतद्विवर्जे एतधिरहिते प्रदेशे आलोचनानिमित्तं तिष्ठति । ते च जघन्यतस्त्रया यादे वा चत्वारोऽथवा पंच ते च त्रिप्रनृतयो वयमाणभंगकानुसारेण प्रतिपसव्याः भगाने वाह | थेरगा, चरो सम्वत्यपरिहरे दिहिं || दोपुण तरुणार्थ, येरे येरी यमचुरसं ।। १ ।। स्वचिरतरुणेषु गाचारस्ते गोपदर्शिताः । स्थविरा स्थविरस्यापचर्यतीत्यादि । तत्र याहि जवनिकाया अवकाशो नास्ति ततः सर्वत्र चतुर्ष्वपि मंगेषु परिहरेत्। भूमिगत टिका सती मातीचयेत् यथा सोचना शुनोति तत्र चतुःस्वस्थपि च प्रत्यमिति । प्रत्यासी सढायौ दीयेते । येन परस्परं ती दृष्टिं न बनोतोनापि मुख विकारं कुरुतः। एवमस्मिन् चतुर्थे भंगे चत्वारो भवंति ॥ थेरो पुरा असहाय, निग्गंधी थेरिया वि ससहाया। सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचमं कुज्जा ॥ १ ॥ : तृतीयभंगे पुनः स्थविरोऽसहायोऽपि भवतु । तरुण्यः पुनः स्थविरासहाया दीयते । द्वितीयभंग निर्मयी स्थविराऽपि ससदाया कर्तव्या ।] तरुणस्याऽचनार्हस्य सदायो वा न वा कश्चिद्दोषः । एवं तृतीये द्वितीये च भंगे प्रयेो जना भवति । तथा सदृशवयो नियमतः सहायानां विवर्जयेत् तद संजावे सदृशवया अपि जवेत् । तत्र प्रथमभंगे चतुर्थभंगे या सदराव सहायसमये पंचम कुलकका प कुर्यात् ॥ ईसि अतारिया ल आसोचए विश्वमि सारपवस्त्रे 'कुडु, पंजाल चिहोतो || विपके श्रमणस्य समीपे श्रमण श्रासोयति ईषत् अवनता आलोयणा यति ॥ ऊर्ध्वस्थिताः सदृशप के पुनः श्रमणः श्रमणस्य पार्श्वे पुनरुकाकृत होचपति । अथ सोऽव्याधिपीतिकृत्य अनुहातः सन् निषद्यामुपच दिट्ठीए होंति गुरुगा, सविकाराच्या सरत्तिसा नणिया । तस्स वितरागे, तिमिच्छजपणार कापण्या ॥ दृष्टिति तस्य दृष्टौ सविकारायां भवंति प्रायचित्ततया चत्वारो गुरुकास्तत्र ये ते द्वितीयका दत्तास्त यदि एकतर पश्यति तत श्राभोचनातोऽपसारयेति यथा श्रपसरतापसरत यूयं न किमप्या लोचनया प्रयोजनमिति । अथ सा निप्रेंथ । स्वभावत एबोरालशरीरा सविकारा दृष्टा श्रपसरेति प्रणिता सती अपसृता तथापि तस्याऽनोचनाचार्यस्य यदि तस्या उपरि विवर्द्धितो रागस्तर्हि तस्मिन् सति यतनया चिकित्सा कर्तव्या ॥ तामेवयतनामाह ॥ हि पगारिएहि, जाहो नियतेडं से न तीरति ॥ घेणा जरणाइति, गच्छजयणाए कायन्त्रा || यदा अन्यैः प्रकारैस्तं भावं निवर्तयितुं न शक्नोति तदा तस्याः संयत्या आनरणानि वस्त्राणि गृहीत्वा यतनया चिकिरस कर्तव्या ॥ एतामेवा ॥ जारित है जिया, तारिसएहि तमस्तती परिया || संजोयकेपण, बेशक चिमेो ॥ यस प्राकृतः सा संयती उपविष्टा दृष्टा तार शैर्यस्तम धकारमस्यास्तीति तमवती रात्रिस्तयां तरुणसाधुरितः प्रावृतः क्रियते ततः संजजीति दूती प्रयत विना वितृको नरविहीनो य भको निवासो गृहमित्यर्थः । तत्र केतनं संकेतो दीयते दत्वा च स तत्र स्थितस्तावत्तिष्ठति यावत्स तरुणसाधुः संयती नेपथ्योपेत आगच्छति । तस्मिंश्चागते चिकुर के गंग्य विशेष फीरनं करोति तत्र पद्येता चता निपाततस्तिष्ठति ततः सुंदरं । अथ नोतर्हि संपत नेपथ्योsपसार्यते प्रकारांतरमारज्यते ॥ तदेव प्रकारांतरमाह ॥ अहवा विसितिं, पुत्रि गमे ऊण तीए सित्रएहि परियकालिया, मुल्यागरादिसंमेो ॥ अथति प्रकारांतरद्योतने पूर्व सि गमयित्वा तस्याः सवत्याः विवृत्य काशिकायां कृष्णायां रात्री शून्यगृहा दिषु तया सह तस्य मेलः संगमः कर्तव्यः । व्य. ॥ सा चोबाचनाss चाय्र्या शिष्यभावे भवति तत्र च शिष्या चाणामियं मय्यादा सामाचारि पच्छित्तशब्दे ॥ सम्मति पादशा] उत्सर्गत प्राोचना ही स्तानभिधित्सुराह ॥ व्य० ५ उ० ॥ गीत्या कयकरणा, पोटा परिणामिया व मंजीरा । चिरदिकिया बुट्टा जई आसोषणा जोगा | गीतार्थ सूत्रार्थतभवनिष्णातत्वात् कृतकरणा अनेक पारमालोचनाय सहावी नयनात प्रौढाः समर्थ त प्रायश्चितदानपात्ययापरिणामिकावा परिणामिका वा गंभीरामहत्यप्यासीचस्प दोष ते प रिश्रविणखिर दीक्षिताः प्रसूतक प्रवजिता वृः श्रुतेन Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५८) भालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा पर्यायेण वयसा च महांत एवंनूता यतीनां साधूनामुप- (१०) श्रासोचनाया अष्टौ स्थानकाः दशस्थानसकणमेतत् संयतीनां चालोचनायोग्याः ॥ व्य. न.५॥ काश्च ॥ तथाच महानिशीथे जयवं कस्सा लोएज्जा, पच्चित्तं का बदिज वा। अहहिं गणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहर आलोयणा कस्त व पच्चित्तं देज्जा, आलोवेज्जा वा कहंगो ॥ पमिच्छत्तए । तं जहा । आयारवं आहारवं ववहा रवं बोयणं ताकेवल्लीए बहसुधि ! जोयणसएहिं गंतुणं सु. जीवनए पकुव्वए अपरिस्सावी पिज्जवए अफजावेहिं दिज्जए । चननाणीणं तया जावे एवं । पायदंसी॥ मोहिमईसुजस्स विमझयरे तस्स तारतम्मेण दिजई। काहीत्यादि । सुगर्म । नवरं । आयारवति। ज्ञानदिपंचप्रकानमग्गपनवितस्स नस्सग्गोपवियस्त य । उसग्गरयो राचारवान् ज्ञानावनाच्यामाहारवांत अवधारणावान् आसोचकेनामोच्यमानानामतचिाराणामिति आह च । चेव सबजावं तरेहिणं । १। जवसंतस्स दंतस्स संजयस्स आयारवमायारं, पंचवि मुणाई जोय आयर। तवस्तिणो। सुमिती गुत्तीपहाणस्स दढवीरितस्स अस आहारवमहारे, आलोई तस्स तं सव्वति ॥ दजाविणोशआनोएज्जा पमिच्छेज्जादेज्जादाविज्जवा ववहारवति आगमथुताझाधारणजीतबहाणानां पंचाना परं । अहबिसंत दुद्दिटुं पायच्चित्तं अणुच्चरो ॥३॥ मुक्तरूपाणां व्यवहाराणां झातेति ( उव्वीसपति) अपनीपंचावृ. १५ श्राचारवान् कानासेषायां ज्ञानादिपंचप्रका- ति घिसज्जोकरोति यो बजया सम्यगनासोचयन्तं सर्वे राचारयुक्तोऽयं हि गुणत्वेन श्रद्धेयवाक्यो भवति । तथा यथा सम्यग्रोचयति तथाकरोतीत्यपत्रीमिकः अनिहि(पाहारवत्ति) अवधारः आलोचकोक्तापराधानामधारणा तद्वानसहिसर्वापराधेषु यथावत् शुद्धिदानसमर्थो जवति तथा ववहारववहरं, आगममाश् न सुण पंचविहं । (ववहारत्ति) मतुस्रोपाद्व्यवहारवान् भागमभुताझाधारणा ओबीलुवगृहंतु, जह आरोए इत्तसव्वंति । १। जीतकणपंचप्रकारव्यवहाराऽन्यतरयुक्तः व्यवहारवांश्च यथा (पकुब्वपत्ति ।) आलोचिते सति यः शुक्षि प्रकर्षणं कारयबत् शुद्धिकरणसमथों जवतीति तथा (ओवील एत्ति)मजया तिसंप्रकारीति नणितं च (आयओयस्यमि सोहि जो कारावे अतिचारान् गोपायंतमुपदेशविशेषेरपीम्यति विमताजां सो पकुवाओत्ति । अपरिस्सात्ति )न परिश्रवति नालोकरोतीत्यपनीमकाय ह्यालोचकस्याऽत्यंतमुपकारको भवती- चकदोषानुपश्रुत्याऽन्यस्मै प्रतिपादयति य एवंशीलः सोऽपति अवधारादिपदत्रयस्य चकर्मधारय कार्य-तथा (पकवीत) रिश्रावति यदाह (जो अनस्स न दोसे न कहेश अपरिसाभालोचिताऽतिचाराणां प्रायश्चित्तदानेन शुकिं प्रकर्षण कारयतो सो होति।) ( निवपति ) निर्यापयात तथा करोति त्येवंशील इत्येतदर्थस्य सामायिकस्य कुर्वधातोर्दर्शनात प्रकु यया गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिप्यो निर्वाहयतीति निर्यापक इति घी आचारवत्वादिगुणयुक्तोऽपि कश्चित् शुकिदान नायुपग न्यगादि च (निजवप्रोतह कुणइनिचहेजेण पच्चित्तंत्ति।) (अवायदंसिति ।) अपायाननर्थान् चित्तभंगानिर्वाहादीन पतीत्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थ प्रकुव/त्युक्तं । चः समुच्चये। तथा (निजापत्ति)प्राकृतत्वान्निर्यापकोपपत्तेः प्रायश्चित्तस्य निर्वा निकदीबन्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशीयः सम्यगनासोच नायां च पुल नबोधिकत्वादीनपायान् शिष्यस्य दर्शयतीत्यपापकोऽयं हि तथा विधत्ते यथा साधुर्महदपि प्रायश्चित्तं घोएं यदर्शीति नणितं च ॥ शफ्नोत्यतएवायमिहमहोपकाति तत्तथा अपायान पुर्भिक इमिरवधुब्बाइ, इहलोएजाणए अवाएन । दुर्बलत्वादिकानैहलौकिकानर्यान् पश्याति । अथवा दुर्लन बोधिकत्वादिकान् पारलौकिकान् सातिचाराणां तान् दर्श उदइय परलोए, बहव्याहित्तसंसारोत्त ॥१॥ यतीत्येवं झीलोपायदर्शी अयं चात एवात्रोचकस्योपकारी ज० १५ २०७० स्वाग० । तथा न परिश्रवति आलोचकोक्तमकृत्यमन्यस्मै न निवदय दसहि गणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ अत्तदासं आतीत्येवं शीलोऽपरिश्रावी तदन्यो ह्यासोचकाणां साधवकारी लोयणं पमिच्छित्तए तंजहा आयारवं आहारवं जाव स्याचः समुच्चये । बोकच्यो शेय इति अालोचनाचार्य इति अवायदंसी पियधम्मे दधम्मे । ग. १० । योगः ॥ पं. चू.। अधिकमिह प्रियधर्माधर्म प्रियो दृढधर्माय प्रापद्यापि धर्मानतहपरहियम्मि जुत्तो, विसेसओ सुहुमजावकुसलमती। चन्नतीति । प्रायोचितदोषाय प्रायश्चित्तं देयम् । जावाणमाएवं तह, जोग्गो पाझोयणपारओ १५ अट्टाहिं गणेहिं संपन्ने अणगारे अरहर अत्तदोस आतथेति समुच्चये । परहिते परोपकारे युक्तः सयुक्त सद्यत इत्यर्थः । तदन्यो हि परेषामवधारको नवति । तथा स्रोएत्तए । तंजहा। जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने विणयसंपन्ने नाणविशेषत आचार्यान्तरापेक्कया विशेषण सूदमभावकुशन. संपन्ने दसणसंपन्ने चरितसंपन्ने खते दंते । मतिः कोकशास्त्रगताऽस्थूलार्थनिपुणबुद्धिः अत एव नावा टी० ( अत्तदासत्ति ) आत्मापराधमिति जातिकुले मातानुमानवान् परचेतसामिगितादिभिर्निश्चायकः । अयं हि परभावानुसारेण शरुिदाने शक्ती भवति । तथेति समुच्चय पितृपकी तत्सम्पन्नः प्रायोऽकृत्यन्न करोति कृत्वाऽपि पश्चाता पादासोचयतीति तद्ग्रहणं यदाह ॥ योग्य सचित आलोचनाचार्यों विकटना गुरूक्तगुणकलाप शून्यो हि न शुद्धिकरणकम शर्त गाथाध्यार्थः ॥ पंचा.वृ. १५।। जाइकुन्नसंपन्नो, पायमकिचं न सेवा किंचि । तथा च स्थानांगे-स्था०॥ ग.. आसविउंचयच्छा, तग्गुणओसम्ममालाएत ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। भासोयणा विनयसंपन्नः सुखनैवाताचयति तथा ज्ञानसंपन्नो दाविपा- धर्मकथादिना व्याक्रित गुग आलोचयत् मायुक्तमुपयोक प्रायश्चित्तं वावगमति यतो॥ गतत्परं उपशांतमनाकुप्रगुरुं दृष्ट्वा उपस्थितमुद्यतं चकात्या वा विनाणेउ संपन्नो, दोसविवागं वियाणियो घोरं। एवंविधं अनुशाप्य मेधावी आसोचयेत् सुसंयुतः साधुः। श्राझोएइ सुहं विय, पावचित्तं च अवगच्छत्ति ॥१॥ इदानीमेतामेव गायां व्याख्यानयन भाष्यकदाह ॥ दर्शनसपन्नः शुशोऽहमिति एवं श्रद्धते चरित्रसंपन्नो नूयस्त कहणाई अवक्वित्ते, कोहाइ अणाउने तदुवनुत्ते । मपराधं न करोति सम्यगाोचयति प्रायश्चित्तं च निर्वाहयति संदितहत्ति अणुना, काउण विदिन मानोए॥५॥ इति उक्तं च॥ धर्मकथादिना व्याप्तिोक्रोधादिमिरनाकुले तपयुक्ते भिक्कासुखो तहत्ति सम्म, सद्दहई दंसणेण संपन्नो। सोचनोपयुक्त (संदिसहति ) अ गुलं काऊण संदिसत भालो चरणेगन संपन्नो, न कुरा नुज्जो तमवराहंति ॥१॥ चयामीत्यवं अनुज्ञा कृत्वा मार्गयित्वेत्यर्थः ( विदिपत्ति) कान्तः परुष भणितोऽप्याचार्यन रुष्यतीति । श्राह च ॥ आचार्येण दत्तायामझायां नणत इत्येवं सक्षणायां तत खंतो आपरिएहिं, फरुसं जणि ओ विन विरूसेति ॥ आलोचयेत्। तथा च पञ्चाशद्वारविवरणायाह पंचा० वृ० १५ दान्तः प्रायश्चित्त दत्तं वोढुं समर्थोभवतीति । आह च ॥ संविग्गोचव मादी, मइमं कप्पडिओ अणासंसी। दंतो समत्यो वोढुं पच्छित्तं जमिह दिज्जए तस्सत्ति ।। ॥ स्था० ग॥ पअवाणिज्जो सट्ठो. आणाइत्तो दुदुककतावी ॥१२॥ दसहि गणेहिं संपने अणगारे अरिहरु अत्तदासं तधिहिसमूसुगो खनु, अनिगाहासेवणदिमिंगजुत्तो । आनोत्तए । तं जहा । जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने एवंजहा प्राप्नोयणापयाणे, जोगो जणितो जिणिंदेहि ॥१३॥ अहवाणे खते दंते अमाईअपच्छाणुतावी ॥ ग०१० व्या संविनस्तु संसारभीरुरेवाऽयोचनाप्रदाने योग्यः इति योगः । तस्यैव पुक्करकरणाध्यवसायित्वात् पुष्करं चालोच(पर्वति) अनेन क्रमेण यथा अष्टस्थानके तयेवं सूत्र पठनीय. नादानं यदाह ( अविरायाचरारजंनयाञ्चरियं कहे) तथा मित्यर्थः कियदरं यावत् (खंतेदंतेत्ति) पदे तथाहि ॥ अमायी अशा याहीहिन यथा यावत् पुष्कृतं कथयितुं विषयसंपमे नागसंपले दंस संपमे चरणसंपत्ति । शको ति तथा मतिमान् विवांस्तदन्या खालोचनीयादिस्वरूपअमाईन पच्गणुतावीति ॥ मेव नजानाति । तथा क:पस्थितः स्थविरजातसमाप्तकल्पादि पदध्यमिहाधिकं प्रकटं च नवर ग्रन्थान्तरोक्तं तत्स्वरूपमि- व्यवस्थितादन्यस्य हतोचारविषया जुगुप्सव न स्यात् यथा दम्॥ अनाशंसी आचार्याचाराधनापारहितः सांसारिकफसाननोपनि चेमाई, अपच्छ्यावो न परितप्पेति ॥ पेको वा । आशंसिनो हिन सममातिचारासोचना संजव(१५) सादानिकाऽतिचारासोचना । त्याशंसाया एवातिचारत्त्वात् । तथा प्रज्ञापनीयः सुखाययो ध्यस्तदन्यो हि स्वाग्रहादकृत्यविषयानिवर्तयितुं न शक्यते श्रोधनियुक्ती सामुदानिकानतिचारानधिकृत्य इदानीं साम तथा श्रासः श्रमायुः स हिगुरुतां शुक्षि श्ररुते । तथा भाका दानिकानतिचारान् आलोचयति याद व्यापादिरहितो गुरु वान् आप्तोपदेशवत्तों सहि प्रायोऽकृत्यं न करोत्येव तथा प्रवति भय व्याकिप्तो जवति । तदा नालोचयतीत्येतदेवाह। सुकतेनातिचारासेवनेन तप्यते । अनुतापं करोत्येव शीमः वि.खत्तपराहुते, विप्पमत्ते माकयाइअालोए। अष्कृततापी स एव तदालोचयितुं शक्नोतीति । तथा तEिआहारं च करेंतो, णीहारं वा जप करे। ॥ ७ ॥ धिसमुत्सुकः खल्वासोचनाकल्पनासस पर स हि तविधि व्याक्षिप्तो धर्मकयादिना स्वाभ्यायनापराण्डुतो पराङ्मुखाः प्रयत्नेन परिहरति । तथा अभिग्रहासेवनादिनिर्धव्यादिनिअन्यतोऽभिमुखः प्रमत्तः विकथयात एवं विधे गुरुन् कदा यमविधानविधायनानुमोदनप्रभृतिसिंगरासोचनायोग्यतासकचिदासोचयेत् तथा आहारं कुर्वति सति तया नीहारं वा गैर्युतो युक्तोयः स तथा । आलोचनाप्रदाने प्रतीते योग्योऽहों यदि कोत ततो नालोचयति । श्दानीमेतामेव गाथां भा भणित उक्तोजिनस्तीर्थकरैरितिगाथाघ्यार्थः । ओघ. ॥ ध्यकारो व्याख्यानयनाह। किमेतावन्त एव करणीययोगा माहोस्विदन्येऽपि सन्ती त्याह। कहणाईवक्खित्ते, विगहाए पमत्ते अन्नो । जं चन्नं करणिज्जं, जेयणो हत्यसयवाहिगयारियं । बमुहो अतरमकाए, वाणीहारे सकमरणं वा ॥७३॥ अविगम्यम्मि अशुको, आलोयतो तयं सुको ॥७॥ धर्मकथादिना था प्रमत्तः अन्यतोऽभिमुखो वा भवति यापूर्वेक्तकरणीयव्यापारन्योन्यत्तत्करणीय क्षेत्रप्रति सेखनास्थएिमयान्वेषणशैकनिष्कमणाचार्यसोखना विहस्तहुंजतेऽपि वा नालोचनीयं किं कारणं (अंतरति) अंतराय भवति यावदासोचनां शृणोति अकारकं वा शीतनं भवति शताहिराचरितं तस्मिन्पूर्वोक्ते च करणीययोगनिवहे अवि कटिते गुरोरप्रकाशितेऽनामोचित अशुरूः समित्यायतिचारयावदासोचनां वा शृणोति तथा नीहारमपि कुर्वतो नालोच सेशवान् आलोचयस्तं करणीययोगनियहं शुद्धः प्रासोचनानीयं किं कारणं यत् प्राशंकया साधुजनितया कायिकादि ख्यप्रायश्चित्तेन समित्याधतिचारलेशस्य निवर्तनामस्तशतानिर्गति अथ धारयाति ततो वा मरणं नवति यस्मादेते दो ज्यन्तराचरितं किञ्चित्प्रश्रषणादिकमानोच्यते । किंचिच पास्तस्मात् । खेलसंधानजवनिवसनोत्थानविजृनणाकुञ्चनप्रसारणोच्चास अन्तक्वित्तानतं, नवसंतमुवध्यिं च नाऊणं । । निः श्वासचेष्टादिकनासोच्यते । अत्राह शिष्यः । करणीय अप्लोणचेत्तमहावी, पालोएत्ता सुसंजए ॥ ४॥ योगेवाहारादिग्रहणायेषु यथोक्तविधिना कृतेप्यपि यद्या दारगाहा। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। आलोयणा सोचनाप्रायश्चित्तयोग्यता जवात । तहि न किमपि कर्तव्यं आनोएज्जा सुविहिरो, हत्यं मत्तं च वावारं ॥७॥ व्रतमादाय प्रयममेव सव्यरण्यनशनकाय । गुरुराह । तन्न । नृत्यनामोचयति । चतश्च नाऽसोचयात । अङ्गानि चामयएवं सति तीर्थोच्छेदः स्यात् । कः केन प्रतिबोध इष्यते । मासोचयति । तथा गृहस्थभाषया नालोचयति । किं तर्हि किश्च न खलु मालिन्याशंकया वस्त्राणि न परिधीयन्ते।। संयतभाषया आलोचनीयमिति । तद्यथा। "मयारियाओ" अपरिधानहिं षिवलंतथा सर्वेषांपशुरूपतापत्तिस्ततःपरिधीयंत इत्येवमादि, तथा आलोचयन केन स्वरेण नाझोचयति मिणि एव । जातमालिन्यानि च जलेन प्रकाल्य निर्मग्री क्रियन्ते । मिणे । तया दरेण च स्वरण चर्नालोचयति । एवं विध एवं चारित्रमपि करणीययोगकरणे संजातातिचारलेशमलं स्वरं वर्जयेत् । किम्पुनरसावालोचयतीत्येतदाह ॥ आलोचनाप्रायश्चित्तजन विशोभ्य निर्मसीकार्य । आसोचयेत्सुविहितःहस्तमुदकस्निग्धंतथामात्रकं गृहस्यसत्क अतिचारलेशवशतोऽपि तनुरुये भवत्यालोचना परं निर- कटच्छुकादि उदकाद्रादि तथा गृहस्थया कृतमव्यापारकुर्वता तिचारस्य किमित्याह। तदेतचालोचयति । इदानीमेनामेव गाथा व्याख्यानयन्नाह । कारणविणिम्गयस्सय, सगणाउपरगणागयस्स विय। करपायस्समुह, सीसत्यि उद्दमाईहिण दिएणाम ॥ नवसंपयाविहारे अ, प्रामायणानरयारस्स || ॥ चन्नणं हत्यसरीरे, बलणं काए चूयनावे य ॥ ७ ॥ टीका। कारणेनाशिवजुक्तिराजादिप्रत्यनीकत्व लामो करस्य तया पादस्य नवशिशरसः अणः ओष्ठस्य चवमासमाथिविराधनागुर्वादशाघिनिर्गतस्य निरतिचारस्याऽ दानामङ्गानां सावकारं चैनं नर्तितं नाम तच नर्तितं कुर्वता थ विराधितसमितिगुप्तिकस्याऽप्यालोचना प्रवति । साच सोचयति । चलनं हस्तस्य शरीरस्य कुनालोचयति । मिधा । ओघतो विनागतश्च । तत्र यः कारण विनिर्गत: तथा चननं कायस्य करोति मोटनं कुर्वन्नालोचयति तथा पक्काज्यन्तरे समागच्छति।ागतमात्रश्चैापथिकीम्प्रतिक्रम्य भावतश्चननं अन्यथा गृहीतमन्यया आसोचयति ॥ समुद्देशवमाया अर्वागेवाऽत्रोचर्यात । तस्याऽप्योघालोचनामात्र अमवियदुज्ज गारत्यिय, नासा उवज्जए म्यवरं च सरं। भवति ॥ यथा ॥ आनोएवाचारं, संसठियकरमतो ॥ 6 ॥ अप्पा मूलगुण सुविराहणा, अप्पा उत्तरगुणेसु । आलोचयेत्गृहस्थनाषया न आलोचयति यत्त (संगणील अप्पा पासत्याइसु, दाएगह संपनगोहा।। महाउ मंगलका बठ्ठा) इत्येवमादि किन्तु संयतभाषया आलो अल्पशब्दोऽजावधाचीतिन मूलगुणेषु विराधना अपानकदा. चनीयं ( मयारिया) इत्येवमादि मकस्वरे मनाक ढङ्कर च चित्तरगुणेप्वष्यल्पा न काचित्पावस्थावसन्नादिषु दानग्र- महान्तं स्वरं वर्जयित्वाऽनोचयति । व्यापारं गृहस्थाः संबन्धि हान्यां संप्रयोगः सम्पर्कः सोऽप्यल्पः । सोपिनासीदित्यर्थः न तथा संसृष्ट उदकादि श्तरं असंपृष्टं किं तत्करं संसृष्ट श्यमोघालोचना । यस्तु पक्काज्यन्तरागतोऽपि समुपदेशा- असंमृष्टं च उदकेन ता मात्र गृहस्थसत्क मेतिकादि उद नन्तरमासोचयात । यावत्पनात्परतः समागतः समुद्देशाद- कसंसष्टंचेति । एतदासोचयति ॥ ओघ.। पं. व. ॥ बांगप्यारांचयति । तयोनिरतिचारयोरपि विभागालोचना तथाच स्थानाङ्गे ग.१.। विशेषालोचना सुव्यक्ता । निः शेषनिजाऽनुष्ठितनिवेदनरूपा। दस आलोयणादोसा पाणत्ता। वस्तुतकशिक्षायां धर्मचक्रस्य मयुरायां स्तूपस्य पुरु आकंपइत्तु आएमाणइत्तु, जं दिवायरं च सुहुमं वा ।। कायां जीवत्स्वामिप्रतिमायाः तीर्यजन्मानः क्रमणकाननिवाणमीनामयोध्यादीनां दर्शनार्थ स्वजनगोकुलविवाहादि सं च्चनं सदाननगं, बहुजण अव्यत्ततस्सेवि ॥१॥ खंमिकाप्रेकार्थ यत्र विशिष्टाहारोपधी बायेति । तत्र निप्सया टीका । आकम्प्य आवयेत्यर्थः । यदुक्तं ॥ रम्यदेशदिदृश्यादिना चागुर्वनादेशादिनिगतोऽकारणविनि- वेयावच्चाहिं पुर्व, प्राकपत पायरिए । र्गतस्तस्य साऽतिचारत्वेन वृहत्तरप्रायश्चित्तशोध्यत्वाचासो- आलोएइ कहं मे, थोवं वियरेज्ज पच्चित्तंति ।। १॥ चनामात्रेण शुद्धिः । तया स्वगणात्सांभोगिकरूपादेकमंगली (अणुमाणश्त्ता ) अनुमानं कृत्वा किमयं मृदएम उतोनभोजिनः उभयतोऽपि संविना संविग्नरूपादागतस्याऽपि च दएम इति ज्ञात्वेत्यर्थोऽयमभिप्रायोऽस्य । यद्ययं मृदएकनिरतिचारस्य उपसंपयत्ति उपसंपद्यमानस्य सा चोपसंपत्प स्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति उक्तञ्च॥ चधा । भूतग्रहणायान्यमाचार्यमुपसम्पद्यमानस्य श्रुतोपसं किं एस नग्गदंमो, मिनदंमो वत्तिएवमणुमायो॥ पत्३मार्गबजतोममयौष्माकीनिश्रेतिमागापसंपत्ध विनयं कर्तुं गांतरमुपसंपद्यमानस्य विनयोपसंपदू ५ नायकृताश्युक्तं ॥ आएणयविंतियोवं, पच्चित्तं मज्देजाहिति ॥१॥ उपसंपयपंचविहा, सुय मुहदुक्खे यखित्तमम्गे य । (जंदिहाति ) यदव रएमाचा-दिना दोषजातं तदेवासोचविणउपसंपयाविविय, पंचविहा होइ नायव्वा ।। यति । नान्यदोषश्चायमाचार्य रजनमात्रपरत्वनासविनत्वा दस्येति । उक्तश्च ॥ एतासामन्यतरामुपसंपद प्रयममाददानस्य विभागालोचना प्रवति । विहारत्ति । विहारे कृते निरतिचारस्याऽप्यासोचना दिहाव जेपरेणं, दोसावियमेयं तेच्चियण गाणे ॥ भवति । अयनावः । एकाहात्पकार्षाघ यदा सानोगिकार सोहिलया जाणंतु, वएसो पयावदोसोगत ।। १॥ स्पर्ककपतयो गीतार्थाचार्या मिसन्ति । तदा निरतिचारेऽप्य (वायारंबति) बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्म न्योन्यस्य विहारालोचनां स्वस्वविहारक्रमानुष्ठितप्रकाशरूपां मिति ( सुहमवत्ति ) सूदममेव वातिचारमानाचयात । यः ददाति ॥ जीत.॥ किन सूक्ष्ममालोचयति स कथ धादरं संतं नामोचयस्येव रूपं (२०) आलोचयित्रा एतानि वर्जनीयानि ।। जावसम्पादनायाचार्यस्यति । आह च। एमु चझं जान जूयं तह दंडर च वजेजा ।। वायरवददुवएहे, जो आलोए मुहमनालोए॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भालोयणा अभिधानराजेन्द्रः। भालोयणा अहवा सहमानोए वरमाणंतोउएवं तु ॥१॥ माकुण्याविकृतत्वमपीत्येतदर्थः । आकुट्टिकोपेत्यकरणं दो जो सुहमे आनोए, सो किह नालोय बायरे दोसेति ॥ वलानादिः । प्रमादा मद्यादिस्मृति शादिवा एषां चन्द्रोऽत(उन्नत्ति ) प्रच्छन्नमालोचयति यथात्मनैव शणोत नाचार्य स्तन्यस्तत आकुट्टिकाव पंप्रमादतस्तया कल्पतो वाऽशिवाभणितं ( एणतह आरोए जह नवर अप्पणा सुणत्ति) दिपुष्टासम्बनतो वा कल्पश्च यतनादिविषय इत्यत आह । (सहाउनयत्ति) श देनाऽ शब्दाकुवं वृहदेनालोचयति। यतनया यथाशक्सियमरकारूपया कार्ये वा प्रयोजने वा यथान्येऽप्यगोतार्थास्तवृण्वन्तीत्यनाणि च । (सासवट्टेणं संचमहेतोः प्रदीपनकादावयतनयाऽनापक्तिसारतराषिनाग सद्देणाझोय जर अगियाविवाहेत्ति बहुजणंति) यहयो जना तया यदासषित तदिति गम्यं ययास्थितं यथावृत्तं सर्व समपायाचनाचार्या यस्मिन्नासोचने तदहुजनं । अयमभिप्रायः॥ स्तमकृत्यमालोचयेत् । गुरुयो निवेदयेच्नुमिकाम पतिएगस्तामोत्ता जो, आनोएसणोवि एणस्स ।। गाथार्थः॥ १०॥ पंचा० १५ वृ०॥ ते वय अबराई, तं होई बहुजणं नामोत्तै ॥ १ ॥ (१) सम्यगाऽनोचनादाने किंलिङ्गम् ॥ सम्यगालोचनादाने किम्पुनङ्गिमित्याह ॥ पंचा०पू०१५ (अब्वत्तेति ) अध्यक्तस्यागातार्थस्य गुरोः सकाशे यदानो चनं तत्तत्सबन्धादब्यक्तमुच्यते । उक्तञ्च । (जो य अगीयस्थ आलोयणासदाणे, हिंगमिणे विति मुणियसमयत्या। स्स आप्रोए तं तु होइ अव्यत्तमिति तस्स विति). ये पत्तिकर णमुचितं, अहकर यं चेव दोसाणं ॥४०॥ दोषा आयोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदासो | व्याख्या । आलोचनासु दाने सम्यगालोचनायां सिंगं चिन्हचनं स तत्सेविसकणमालोचनादोषस्तत्र चाऽयमभिप्रायः मिदं वक्ष्यमाणं युवते सादु मुणियसमयस्या कातसितार्थाः आलोचयितुः॥ प्रायश्चित्तकरणं विशुशिविशेषासेवनमुचित योग्यं गुरूपदेशाजह एसो सत्तो , नो दाही गुरुगमेव पच्चित्त॥ नुसारितथा अकरणकमेवाविधानकमव चैयेत्यवधारणे दोषाइय-जो किनिटचित्ता, दिएणा आलोयणा तेषांत ॥ णामानोचितापराधानामिति गाथार्थः॥ न. श. २५ उ. ध. अध.। पं. .॥ कमनरलोचनादानं शुधिकरणं जवतीत्याह । दत दोशविप्पमुक्क, तम्हा सव्वं अगहमाणेणं। श्यनावपहाणाणं, आणाए सुठियाण होति इमं ॥ किंपि कयमक जं, तं जहवतं कहेयव्य ॥ ३ ॥ गुणहाणसुधिजनगं, सतं तु विवज्जय फळति || द०प०॥ व्याख्या । इत्येवमुक्तनीत्या भावप्रधानानां संवेगसाराणां तया आझायामाप्तोपदेशे सुस्वितानां सुप्तु व्यवस्थितानां पालोचनायाम्परुषवचने दोषा ( ववहार ) शब्दे ॥ कयमुनरात्मनः शोधिजातमप्यासोचयेदित्याह॥ भवति स्यात् श्दमालोचनादानं गुणस्यान शुक्षिजनकं प्रमत्ता. दिगुणविशेषनिर्मलताधायक शेषं तुक्कादन्यत्पुनर्विपर्ययफलं जह बालो जंपतो, कजमजं च उजयं जणति । गुणस्थानका शुद्धिजनकमिति शब्दः समाप्ताविति गाथार्थः ॥ तं तह आनोएज्जा, मामयाप्प मुक्कोउ ॥ ७॥ तयाच महानिशीथे अ०१॥ व्याख्या । यथा यदानः शिशुर्जस्पन्भाषमाणः विवक्ति खंता दंता विमुत्ता य, जिइंदी सम्बनासिणो ॥ मिति गम्यते । कार्यमकार्य वा विधेयमविधेयं वा निर्विशेष मृजुक अवक्रमयन् गोपायन्नित्यर्थः। भणत्यभिधत्ते मात्रादि उक्कायसमारंजाओ, विरत्ते तिविहेणओ || नए। के प्रतीतमित्यालोचनीयाऽपराधं तदा तद्धालवक्तव्यमवक्त तिदंगा सन्मसंवरिया, इथिकहासंगवज्जिया ॥ व्यं वाऽसोचयत गुरोनिवेदयेत् । मायामदविप्रमुक्तस्तु शता शत्यिसलावनिरया जीय, अंगोवंगनिरक्खणा ॥ ए०॥ गर्चरहित एव मायामदयुक्तो हिन सम्यगासोचयितुं शक्नो निम्ममत्ता सरीरोवि, अप्पमित्रका महायसा ॥ तीत्यतस्तद्रहिते श्युक्तम् । व्य. २०४।१०। पंचावृ०१५ आओचनाविधिः॥ जीया इत्यित्थिगन्न,सहोणं बहुउक्खाअोजावओए? एत्यं पुण एसविही, अरिहो अरिहम्मिदल्लयति कमेण । तहातो परिसण, नावेणं दायचा आझोयणा ॥ श्रावणादिणा खयु, सम्मं पुवादि मुछीए ॥ ७॥ पच्चित्तं पित्र कायव्यं, तहा जहा चेव एहिंकयं ।।। व्याख्या । अत्रालोचनायां पुनः शब्दस्य चैवं संबंधो विधि- न गुणो तहा आलोएयवं, मायानेण केणई ।। नायोचना देया । अत्र पुनः एषोऽयं वश्यमाणो विधिः क जह आलोयणं चेव, संसारं वुतीनवे ||३|| ल्पस्तद्यया । अई आलोचनादानोचितः। तथा अहें आसोचनादानयोग्य गुरौ विषयनूते ( दबय इत्ति) ददाति प्रयच्च अणतणाइकासाओ, अत्तकम्मेहिं पुम्मद ॥ ति तथा ऋोगाऽनुपूर्वेण किं विधेनेत्याह । प्रासेवनादिना बहक्किप्पकझोले, ग्रामोए तेवी अहोगए ॥४॥ खलु प्रतिषव प्रभृतिनैव प्रादिशब्दादासोचनाक्रमग्रहः । त. गोयम ! केसि विना माई, साहिमोतं निबोधय ।। था सम्यम्यथावत् आकुट्टिकादिनावप्रकाशनतः॥ जेमालोयणपच्चित्ते, जावदोसिक्ककासिए ॥ एए॥ तथा च्या दिशुमौ व्यकेत्रकासन्नावशुद्धौ सत्यां प्रश ससझे घोरमहं मुक्खं, दुरिहियासंसुफसहं ॥ स्तेष जन्यादिवित्यर्थः॥ अथ सम्यागति यमुक्तन्तत्राह ॥ अण्हवंति चिकृति, पावकम्मे नराहमे ॥ ६ ॥ तह प्राउट्टियदप्प ओ, कप्पमायप्पनवजयपाए॥ गुरुगा संजम नाम, साहू निद्वंद्वसे तहा।। कजे वा जपणाए, जहट्टियं सधमालोए ॥ १७॥ । दिद्विवायाकुसीले य, मणकुसीले तहेव य । ए७॥ व्याख्या । तथोत शब्दः समुच्चये । यथाक्रममालोचनाङ्गमेव मुहुमालोयगे तहय, परवंचयसा सोयगे तह॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) अभिधान राजेन्द्रः । आलोयणा किंवा सोयगा तहयण, किंवा लोयगे तहा ॥ ए८ ॥ कालोयणे चैव जणरंजवणे तहा || नाहं काहामि पच्चित्तं, बम्मासा लोयणमेव य । एए। मायागंजपर्वचीय, पुरकरुतववरणकहो ॥ पच्छित्तं मे किंचि, न कायालयचरे ।। १०० ।। सायणक्खाई, नुं पच्तित्तजायगो ॥ भ्रम्हाणा लोइयं चेहे, मुहघालोयगे तहा ।। १०१ ॥ गुरुपच्चित्ताहमतकेय, गिलाणालंबणं कहे ॥ अमालायेगे साहू, गुणाणि तवय ।। १०२ ॥ निच्छिन्ने वियपच्छित्ते, न काहं बुडिसायगे ॥ रंजवणमंतयोगाणं, वाया पच्छित्ते तहा ॥ १०३ ॥ परिवज्जणपच्छित्ते, चिरयालए वेसगे तदा । प्राण द्वियपायाच्छत्ते, अमजणियाहारे तहा | १०४ । श्रीयमहापावे, कंदप्पादप्पे तहा । जयासेवणे तहय, सया त्र्यपच्छित्ते तहा । १०५ ॥ दिट्ठयोच्छ्रयपाय च्छित्ते, सयं पच्चित्तकष्पगे । एव इयं इच्छयपच्छित्तं, पुव्वा ओइयमणुस्सरे |१०६ जाइमय किए चैव, कुलमद किए तहा । जाइकुलोजयम या संके, सुत्तलाजिस्तिरि सर्कयांए तंही | ७ | तवोमया संकिपचेत्र, परिचायतं किए तहा । सकारमयबुद्धे य, गारवसंहसिए तहा । १०८ । पुज्जो वा विजंमे, एगजंमेव चिंतगे । पावपि पावतरे, सकस चित्तालोयगे |१०| परकहावगे चैव, विणयालोयगे तहा । योगे साहू, एवमादी दुरप्पणो । ११० । ण णाइकाणं, गोयमा ! अत्तदुखिया | हो अहो जावतत्त, मियं जावदासेक ओगए ।११११ गोयम ! ते चिठ्ठति, जे अमादिए ससनिए । नियत्नासदाससवाणं, भुज्जंते विरसं फलं । ११२ । चिति प्रज्जवि, तेणं सङ्क्षेण सञ्जिए । अपणायं कालं तम्हा सनं न धारएां मु णित्ति ॥ ११३ ॥ (२२) कृतानां कर्मणां क्रमत आलोचना || आलोचनाक्रमश्च । तेय परिसेवणार, लोमा हाँति वियमणाय । त्रिविमणाए, एत्य चउरो जवे जंगा ||८१ ॥ तांश्चातिचारान्प्रतिसेवनानुलोमेन यथैव प्रतिसेवितास्तन वानुक्रमेण कदाचिश्चिन्तयति । तथा ( वियमणापत्ति ) विक. टना आलोचना तस्य च अनुलोमा एव चिंतयति एतदुक्तभवति । पढमं बहुओ दोसो परिसेवित पुणोवो वहुतरो चिते । एवमेव ततश्च प्रतिसेवनायां अनुकूलमालोचनायामपि अनुकूलमेव । यतः प्रथमं लघुको दोष आलोच्यते पुनर्वृहत्तरः पुनर्वृत्तमः इति एष प्रथमो भंगकः । अनोपरि सेवा अनु For Private आलोयणा कूलो न उणवियरुणा एतदुक्तंनवति । आसिवियं पढमं व पुणो लहुयं पुणो । पुणो वढ्ढयरं चिंतेइ ।। एवमेव ततश्च प्रतिसेवनायाः । अनुकूलं । अनु मत्वासो चनाया यतस्तत्र प्रथमं लघुराबोध्यत । पुनर्वृहत्तरः पुन वृत्तमः इति एष द्वितीयो भंगः । " अन्नो पनि सेवणापवि अण कुत्रो आहोणार पण अनुकुलो,, । एतदुकं भवति । अठ्ठावियठ्ठापमि सेवणापचि अणधुकलो आहोयणापवि - एक्लो | एतदुक्तम्भवति पदम वट्टो प०ि संविभपुणो वडायरो वितेति पुण जं जहा संभरण पढमं घड्ढो पुणो बहुओ पुणो वट्टो पुणो बहुयारो एवं अपमिवियडुं चिते तस्स ण पविणा या कल्लो एस चइत्थो एसो वज्जेयब्वो ॥ इदानीममुमेवार्थ गाथार्जेनोपसंहरन्नाह । ( परिसंववियरणा एय हो इत्थाप चठभंगो) ६दं व्याख्यातमेवेति ॥ ओघ ॥ तया च पंचाशके वृ. १५ ॥ दुर्विणोमे, सेवावियरुणानिहाऐणं । आवलोमं जं जह आसेवियं विपमे || १६ || आलोयणाणुली, गुगवराहे उपच्छओ वियमे । पग्गा दिला कमेण, जहजह पच्चित्तबुद्धि ॥ १७ ॥ व्याख्या । विधेन द्विप्रकारंणानुलोम्येन त्रमण है विध्यमेवाह । आसेवना यदानुलोम्यं तदासेवनमेव विकटनेन च यत्तनिवास्ते एवानिधाने यस्य तत्तथा नेनासेवन विकटनाभिधानेनालोचनां ददातीति घारगाथा सर्वाधिपदंसंबंधनीयं । तत्राद्यं स्त्ररूपत आह । श्रासैवनानुलोम्यमुक्त शद्वार्थ तदिति शेषः । यत्किं येन क्रमेणासेवितं यथा सिंचितं विकटयत्यालोचयत्यालोचनाकारीत । आलोचनानुलोम्यं पुन व्यक्तशब्दार्थं तद्यदिति शेषः । गुरुकापराधान्महातिचारान् तु शब्दः पुनरर्यः । स च योजित एव पच्छत्ति प्राकृतत्वात्पवाद्यथापराधानंतर विकटयत्यालोचयति । कथमित्याह । पण गाणति । समयनापत्यात्पंचकादिना पंचदशकप्रभृतिना क्रमेणा किमित्याहं । यथा ययायनयेन प्रकारेण प्रायश्चित्तवृद्धिर्विशुवर्डनं तथातथायद्विकयतीति प्रकृतमिह च लघावचोर पंचकंनाम प्रायश्चित्तं गुरुके तु दशकं गुरुतरे तु पंचदशक मित्येवमादति तुशब्दः पूरणार्थः । अत्र च गीतार्थ आलोचनानुलोम्येनैवालोचयति कारणं तु गीतार्थगम्यमितरत्या सेवनातुलोम्येनाहोच ना तु सोम्यान निझत्वा त्तस्य च कारणमतिचाराणां सुस्सर त्वमिति गाथायार्थः ॥ संयतीनामालोचना | महानिशीथे श्र० १ ॥ गोयम ! समीणोसंखा जा उनिकसनीसवी शुनिम्मलवमणमाणसान अज्जपविसोहीए आलो यत्ताणसुपरिपुमं । नीरूकं निखिलं निरावं नियवं निय चरियमाईयं सव्वंपिनास अहारिहं तवो कम्मं पायच्छितं मणुचरित्ताणं निकोपपावकम्पमझले वकलं काओउप्पन्न दिव्यपरकेवल नाणाओ महाणुभावाओ महाय । साओ महासत्तसंपन्नाओ सुगाहियनामाधेया तमसोक्खं मोक्खं पत्ताओ || अणं Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। अालोयणा कासिंच गोयमा नामे, पुत्र नागाण सहिमो ॥ जम्म तवं च बहु सुक्ख जायणं ॥ २२॥ अणिचं मेसिमालोयमागीणं, नप्पणंसमणीणकेवलं ॥२॥ रवणविसी, बहुदं दोषसंकरं । तत्थवि इत्थीसंहाहाहापाकम्माणं, पावापावमती ॥ जाया, सयन्नत्तेलोकनिंदिया ॥३॥ पावं गणं वि पावयए, हाहाहाद्विचिंतिमे ॥३॥ तहावि पावियं धम्म, णिविग्यमणं तराश्यं । ताहंतन हाहा हाइच्चे नावं, मे ताविहजं मेउवडियं ॥ विराहेमि, पावदासेण केणई २४ । सिंगाररागसवित हावीणघार वीरुगं. कटुंतवसंजमं धरं ॥ ३॥ गारं, साहिलासंन विठिमो । पसंताए विदिहीण, मा अणंतपावरासोओ, समिनियात्रो जयानवे ॥ तु धम्मोवएसगं ।२५। अन्नं पुरिसं न निज्मा याणासंवं तझ्याइच्छित्तणं सके, शुकं पावाण कम्मणा ॥४॥ समणिकेवल्ली। तं तारिसं महापावं, कायो अक्कहणीय एगतिमी जूताणं, समुद्दयंतणतो तह ।। तं ।२६। सञ्जमविउपन्नं जह, दत्तालायसमणिकेवली । करेमि जह न पुणो, इत्यीहं होमि केवली ॥५॥ पमादि अणंतसमणी न, दानसुधीसोयणं । नीसद्याकेदिहीए वि न खंझामि, सीनं हंसमणि केवली ।। वलं यप्पा,सिका ज अणादीकालेण गोयमा ! खंता दंता हाहामण्णमे किंपि, अट्ठदुहट्ठचिंतिय । ६ ॥ व मुत्ताउ जिईदिया उ सव्वनाणिए । कायसतमाहोइत्तालहुँ, सुचिगिएहहं समणिकेवली॥ मारंजा विरया तिविहेण उ । तिदमा सव्वसंबुमा पुरिदिग्णमऊलावएणं, रूवं कंतिदित्तिसिरिं ॥ ७॥ सकहासंगवज्जिया पुरिससंबवविरया उ परिसंगोषंगान माए रपयं गाहमाज तु, खयमणरुमणीय केवली॥ रक्खणा निममत्तान सरीरे अप्पमिबछा उ महायसा वातमोत्ताण नो अन्नो, निच्छयं मह तणुच्छिवे ॥ ७ ॥ जीयत्यिगन्जवसहीणं बहदुक्खाओ नवसरणो तहा कार्य समारंनं, न करेहंसमएि केवली॥ ताएरिसेणं नावणं दायव्वा आनोयणा पायच्चित्तं पि पोग्ग:करे कारुगुज्जतं पाहे जहणं तरे तहा । । । कायव्वं ॥ जणाणा एविण दंशेमि, ससंगुत्तं गोवं गासमणी य तह जह एयाहिं समणिहिं कयं णनणं तह आलोएकेवली ।। बहुलवतरकोमीओ, घोरं गजपरंपरं ।। १०॥ यव्वं । माय.मंजण केणई जहानीयमाणी णं पावकपरियोतीए सुन्नम्मे, णाणचारीत्तसंजुअं । मागुस्स म्मबुढीनवे आणंतेणा कालेणंमायाउं तत्य कम्मदोसेणं नम्मं सुसंमत्तं, पावकम्म क्खयं करं ॥११॥ तासम्बना कवमालोयपकानसमणी उ सबीउ आतिन गयस्सरेणं वहीसझा, काकोएमी खणखणे ॥ पायच्चित्तमाण्ठामि. वियं पुढविंग या । ३३ । बकासिंवगोयमा ! नामेसावीयंतं न समारनं ।। १२॥ जेणागउइपबित्तं, वायामणु हिमो तंति बोधयजाउ आलोयमाणि उ जावदोसेसु छुसाय कम्मुणा । पुढविदगागणिवाऊ, हरियकायं तहे त्तरगपावकम्ममापचनिया नवसंजमसीलगाण णीसतवय ॥ १३ ॥ बीयकाय..मारंनं, विति चनपचिंदिया परियं तं परमनावविसोहिए विणाखाणपि नानवे णया ।। सुसाणापि न जासमि, समरक्खंपि अदिनयं तो गोयम केसिमित्यिणं चिसविसोहिं सुनिम्ममाजवंतार ॥१४॥ न गिएहांस मणतेवि, णपच्छ मणसावि विमो होही जेण नीसझयानावे उहमदसमदुवालसेहि मेहाणं ॥ परिग्गरं न काहामि, मृबुत्तरगुणरवलणं तहा सुक्खंतिकेवि समणि नत हवि यसंरागजावं गाणालोयं. ॥ १५ ॥ मयजयकसायदमेसु, गुत्तिसमिति दिएसु य । तीर्ण उमतिबदविहवि कप्पकरोलमालाओ किल्लगाहणं अठारसीनं गसहस्साहिडियट्टीतणू ॥१६ ॥ सकाय- वियरं तंतण लक्विज्जा २५ दुखगाहमणसागरं ते कइकाणयोगेम, निरमं समीकेवनी॥ तेलोकमक्खण- मालोयणं दि तं जासि चित्तं पि नोबसे सवंजो ताणमु. खंज धम्मतित्यकरण जं ॥ १७ ॥ तमहलिंगंधारण, घरए ।२६। स बंदणीअोखणे खणे । असणेहि पीयनाणिज्जा विजंते निफिलियं ॥ मज्कोमकीय दोखमा. पुष्येणं धम्मसुकब्बसावियं । सीलंगगुणहाणेसु उत्तमेमुं फालिज्जामि तहेवय ॥१७॥ अहपाक्खप्यामि दिनाग्ने, धरेइ जो । ६ जीबहुबंधणमुकंगिहकसत्ता विचारगा। अहवा बिजे जइसिरं ॥ तावीह नियमवयजंगं, सीन्न सुविमुखमुनिम्मन्नचित्तं णीसवं सोमहायशो दडव्यो चारित्तखंगणं ॥ १५ ॥ मणसा वी एकजं, मकएण वंदणीयो य देविंदाणं सउत्तमो दीणत्थी सव्वपरित्तूयं कुण समाणकेवनी ॥ खरुटगोणजाइमुं, सरागाहिंग्यिा विरहाणे जा उत्तमे वरेणा स्रोएमि अहं समणी देक अहं ।। २० ।। विक्रम पि समायरियं, अणंते जवजवंतरे हे किंचि सा हुणि बहुदोसं न कहं समणी जे दिवं तमेव खरकम्ममह, पवज्जाए ट्ठियाकुणं ॥ १॥ घोरंध । समणिहितं कहं असायज कहासमीण बहु प्रावणा यारपायाला. जेणणोणिहरं पुणो । मियाणमाणसं कहा पमा। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४) मासोयणा अभिधानराजेन्द्रः । आसोयणा या खावगा समर्माण पाविट्ठा बन्नमामो कहा योगविरुष्क- हियविकयपायच्छित्तनासो उत्तमठाणमि विओकहा तह य परवएसा मोयग सयपत्तिा तहया जोइ ए मा फुसावेज्जा। आलोइयनिंदियगरहिओविकयपा जायादीमयसंकिया । सूसगारनीरुया चेव गारव.स- यच्छित्तसंविग्गो उत्तमनगपामितिओमाविराहिज्जा अत्ता पदृसिया तहा । एवमादि अणेगनवादासबसनेहिं पूरि- णं आलोइयर्निदियगरहिउमाकयपायच्चित्तंसंविग्गेचिन्नं यानिरंतरा अपतेणं कालसमएणं गोयमा ! अइकतेणं पि तणं हरियं असइमणगं मा फरिसे आनोइयनिदियगर अणंतान समाणोश्रो बहुरवावसगया गोयमा! प्रणं हियो विकयायत्तिं विग्गो उत्तमगणंमे विन जावताउ चिंति जाणादी सशतबीया ।नावदासे कसे. ज्जीव एतसिं बेईदियतेंदियचरो पंचिंदियाणं जीवाणं हिं जुजमाणीओ कटुबिरसं घोर म्गतरं फलं चिटइरसं संघाणपरियाव किलावणोदवणमाकासी आलोइयानंदि ति अज्जावि तेहि सद्धेहिं सद्धिया अणंतं पिणागयं यगहिओविकपपायाच्चत्तसविग्गो उत्तमठाणमि विओ कानं तम्हा सत्रं सुसुमंपि समणो णो धारेज्ज रवणं सावज्जं माना गेज्जा आमोश्यनिदियगरहिओ विकय चिमि पायचित्तसंविग्गो लोयतेण विई गहियागहिओ विवि (३) आओचनायर्या दत्तायां न विरतिजंगः सह उदिन्ना ग्रामोश्यानिंदियारहिमोविकयपायच्चित्तनिजोटान्तः ॥ सोजोइत्यि संमोवेज्जा गोयमा! कत्यमुज्जिाहाड़िय प्रासोचनायां बचायामपि विरति नेगो नकरणीयः । महानि निंदियगरहियोविकयंपायच्छित्तसंविग्गोंचउद्दसधम्ममुव शीये । अ.७॥ गरणे उट्टमापरिहगं कुज्जा तेसुंपि वि ममतो अमुच्छिो पाणाइवाय निरइ, सेवफझया गिहिनण ताधीमं अगडिओ दवहविया अहवा कुज्जाउ ममत्तं तासुखी मरणावयं मिपत्ते मरेन्जविरह न खंमिज्जा १ अभियव गोयमा! नत्य किं बहुणा गोयमा !नत्यइत्यंदानणं आएस्स विरश, सावजं सव्वमवि न नासिज्जा परदबह लोयाँ रयाणेए आविए पाणम्कत्यगम् तु समुकिही रण विरई, करेज दिने वि मालोयं ५ घरगं तुफरवं प्रामोश्यनिंदियाराहे प्रो विकयपायच्छित्तनीसद्धो छइजब्वयस्सकाउं परिग्गहवायं ॥ राइनोयणविरह, पं करेमेणरक्खे जो कत्यमुधि लज्ज से महा. अ.७॥ चिंदियनिग्ग विहिणा ३ अग्नेय कोह माणा, एग आलोचनायां दत्तायां विरतिभङ्गो न करणीयस्तथा उपदोसे य आनोयणं दाउं । पमाहारअहंकारे, गायढे चारात्तत्कारणभूतप्रमादक्रियायाऽच ध.२.। सव्वं पव्वतणे । जह तव संजमसज्जा यम, गाणमाश्सु- बालोचनायाः प्रायश्चित्तस्य प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वासुकि नावेहिं उज्जमियव्वं गोयम ! विज्नुलयाचंच तदात्मके प्रयमे योगसङ्गहे, च । “ प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमिसे जीवे किं बहुणा गोयमा! इत्यं दानणं पुढविकार्य सत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते,, सम. ३१ स.। मोक साधनयोगसनहाय शिष्येणाऽचाव्या लोचना इत्तेति । विराहिज्जा कत्यगंतुं समुज्जिही किंबहुणा गोयमा! पर्छ अत्रोदाहरणम् । दोनणं आनोयणं वाहिणंपाणिं तहिंजम्मे जो पिए उज्जणि अट्टणे खड्नु, सिंहागरि सोपारए पुह हवई । कत्य । मजिही किं बहणा गोयमा ! एत्यं दाउणं मच्चिअमझे पुरुस, क्ववित्रो फलिहमने अ॥१॥ श्रामोयणं उन्हवक्जामय जाइ फसिनत्ताकत्यसुज्जिही पुरुबस्वबिया ग्रामाः फनहीशब्दो देश्यो घमणीवाची। किं बहुणा गोयमा ! इत्यं दाऊण आमोयणं वाउकायं उज्जयिन्यामुज्जयिन्यां, समस्तनगरावलीः । उदिरिज्जा कत्यगनु समुझिहि किं बहुणा णं गोय- जितशत्रनृपस्तत्र, मतस्तस्याहनानिधः ॥ १॥ इत्यादि, मा! एत्यम्दाउणम् आलोयण जोहरियतणं कप्पांवाफरिसे | (अट्टन) शब्दे तत्कथा । कत्यमसु किहि किंबहुणा गोयमा ! इत्यं दाऊणं आझायणं ययाट्टनस्तथाचाय्यः, पताकानिवृत्तिः पुनः । अक्कम बीजकार्य जो कच्जगंतो समुज्किही किं बहुणा साधुमश्नोऽपराधास्तु, महारास्तान् गुरोहि यः १० गोयमा!इत्यं दानणं आलोयं वियझंदीवति चळपंचि आलोचयति निः शल्य, स निर्वाणपताकिका ११ दियपरिगव जो कत्य समुत्यही किं बहुणा गोयमा त्रैलोक्यरंग गृहाती, त्युक्ताः शिष्यगुण इमे । इत्थं दाउणं आमायणं बकाए जो तं न रक्खेज्जा । आव. क. । श्रा. चू. । आव. ।। मुहुमे कल्समुच्चिही किं बहुणा गोयमा ! इत्थं दानणं ( १ ) अालोचनायामकृतायां मृत्वाऽनाराधको भानायाणं तमशावरो जो न स्कवे कत्थगंतु समुचिही जबात। थानाध्यनीदियगहियओविकयपाठित्तनिसझो उत्तम | जिक्व य प्रायरं अभिट्ठाणं पमिसवित्ता सेणं तस्स गणमि विउपुढवारंजं परिहरिज्जा । आलोशनिदिनगर- गणस्त प्राणानोश्यपमिकते कामं करेइ । णत्थि तस्स Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा अभिधानराजेन्द्रः। भालोयणा आराहणा । सेणं तस्त गणस्य पालोझ्यपमिकतं कालं तिहिंगणेह मायी मायं कटु को कालोएज्जा करेइ। अत्यि तस्स आराहणा।निक्ख अएणयर अकि- | णोपमिक्कमेज्माणो गिंदेज्जा णो गरहेज्जा को विउडेका चट्ठाणं पमिसेवित्ता तस्स णं एवं जबइ पच्गविणं अहं- णो विताहेज्जा णो अकरणाया ए अन्नुढेज्जा यो चरिमकाससमयति एयस्स घणस्स आमोइयस्तामि अहारिहं पायच्चित्तं तवोकम्म प.माज्जिज्जा । तं०। जाव पमिकमिस्तामि । सेणं तस्स गणस्स प्राणा- अकरि सुवाहं करेमि वाहं करिस्सामि वाहं । तिहिं लोइयपरिकते जाव णत्यि तस्स आराहणा । सेणं गणेहिं मायी मायं कटु णो आलोएज्जा णो पमितस्त गणस्स आमोश्यपमिकते काझं करेइ । अत्यि | कमज्जा जाव नो परिवज्जज्जा । तं जहा । प्रकितस्स आराहणा निकाय अएणतरं अकिञ्चगणं पमि- तीवा मे सिया अवन्ने वा मे सिया अविणये वा मेसिया सेवित्ता तस्स णं एवं जव जइ ताव समणोवासयावि तिहिं गणेहिं मायी माय कटुणो आमाएज्जा जाव कानमासे कानं किवा अएणयरेसु देवलोएस देवताए: यो पनिवज्जज्जा तं० कित्तिवा मे परिहाइस्सर जसोचा उवातारो नवति । किमंग पुण अणवएिणयदेवत्तणं पि मे परिहाइस्ता पूयसकारे वा मे परिहाइस्सइ । तिहिं गको बानिस्सामित्ति कटु सेणं तस्स गणस्स प्रणालो,य- हिं मायी मायं कटु आलोएज्जा पमिकमज्जा पनिको का करेइ नत्यि सस्त श्राराहणा। सेणं तस्स निदेज्जा जाव पमिवज्जेज्जा। तामायी स्सणं स्सि मो गणस्स आलोश्यपमिकते कामं करेइ अस्थि तस्स आ गेगरहिए नावइ उववाए गरीहए जव आयाई गहिया राहणा से ते! तेत्ति || ज.१० श. उ.। जवइ । तिहिंगणेहिं मायी माय कटु आलोएज्जा जावटीका | ह च शब्दश्चेदित्येतस्यायें वर्तते । स च भिको परिवज्जेज्जा तं अमाइस्सणं अस्सि लोगे पसत्ये नवर रकृत्यस्थानासेवनस्य प्रायेणासंभवप्रदर्शनपरः ( पनि सेविसत्ति) अकृत्य स्थान प्रतिषविता नवतोति गम्यं । वाचनांतर उववाए पसत्ये व प्राई पसत्ये गवई । तिहिं त्वस्य स्थाने (परिसेविज्जत्ति) दृश्यते । सेति । स भिक्कः गणेहि मायी मायं कट्ट असोएज्जा जाव पमिवज्जज्जा तस्स गणस्सति ततस्थानम् अणपन्नियदेवतण पि नो र तंगाणट्टयाए दंसण हयाए चरितट्टयाए स्था.ग. ३.॥ भिस्सामिति प्रणपत्रिका व्यतरनिकायविषास्तत्सबंधिदेवत्वमणपन्निकदवत्वं तदपि नोहस्ये इति भ. ॥टी.। तिहिं गणेहिमित्यादि व्याख्या । मायी मायावान् मायं। (२५) आलोचनाफलम् ॥ मायाविषयं गोपनीय प्रधानमकार्य कृत्वा नो श्रावोचयेत् मायामवेति शेषसुगम नवरमालोचनं गुरुनिवेदनं प्रतिश्राझोयणाएणं नंते ! जीवे कि जणय आलोयणा क्रमणं मिथ्यादुष्कृतदानं निदाऽमसादिकागर्दागुरसारिकाएणं मायाणिया । मिच्छादरिसणसवाणं मोक्खमग्ग- वित्रोटनं तदभ्यवसायनिरुदनं । प्रारमनश्चारित्रस्य चाड विग्याणं अणंतसंसारबंधणाणं उकरणं करे । उज्जु- तिचारमनकालनमकरणता 5.यस्थानं पुनर्नतत्करिष्यामीजावं चजण्यइ । उज्जु नावपामवएण वियणं जीवे अमाइ त्यस्यपगमः । अहारिहं । यथो चितं पायचित्तंति पापच्चशत्यिवेयं नपुंसगवेयं च न बुच्चइ पुन्वत्र च णं निजरेइ ।। दकं प्रायश्चित्तविशोधकं वा तपः कर्म नियिंकृतिकादिप्रति पद्येत तद्यथा अकार्षमामिदमतः कथं निन्द्यमित्यालोचयि५ उत्त० अ० १ ॥ गुरु शुश्रूषां कुवतोऽप्यतीचारसंभव आलोचना तया माया प्यामि स्वस्य महात्म्यहानिप्राप्तरित्यवभिमानात् । तथाशाठ्यं निदानं ममःऽतस्तपःप्रवृत्यादेरिदं स्यादिति प्रार्थना करोमि चाहमिदानीमेव कथं साध्धिति भणामि करिप्यात्मकं मिथ्यादर्शन सांशयिकायेतानि शट्यानीव शल्यानि तेषां मीति चाहमेतदकृत्यमनागत कामेऽपीति १.५प्रायशितं प्रति ततः कर्मधारये मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानि तथाहि तो पद्यत इति कीतिर कादम्गामिनी प्रसिकिः सर्वदिग्गामिनी मरादिशल्यानि तत्कानमुखादानेप्यायते पुःखदायीन्येवं मा. सैव वर्णो यशः । पर्यायवादस्य अथवा "दानपुण्यफमा कीयादीन्यपीत्येवमुच्यते तेषां मोक्वविघ्नानां पापानबधनत्वेन तिः पराक्रमकृतं यशः " तश्च वर्णयति तयोः प्रतिषेधोऽकीमुकत्यंतरायाणां तथानतं संसारं वयंति वृद्धि नयंतीत्यनं तिरवणश्चेति । अधिनयः साधुरूतो स्यादिति । दंच सूत्रतसंसारवनानि तेशामुकरणमपनयनं करोति तकरणतश्च मप्राप्तप्रसिरुिपुरुषापेकं माय कटुति मायां कृत्वा मायाँ ऋजभावं चार्जवं जनयति ॥ ( उज्जुनावपमिधएण्यत्ति ) पुरस्कृत्य माययत्यर्थः 1 परिहास्यति हीना जविष्यति पूजा प्रतिपन्नऋजुनावश्चजोवाऽमायीमायारहितस्ततः पुंस्वनिबंध पुष्पादिभिः । सत्कारो पनादिनिरिदमेष विवक्षितमक नत्वादमायित्वस्य ( स्थिवेयत्ति)प्राग्वदिउसोपस्त्रीवदं नपुं- रूपत्वादिति । श्वं तु प्राप्तप्रासिफिपुरुषापेकं शेष सुगमं। सकवेदं च न बध्नाति पूर्वबई च तदेव घ्यं यहा सकामपि उक्तविपर्ययमाह। कम्म निर्जरयति कपयति तथाच मुक्तिपदमामोतीत्यनिमा- (तिहि) मित्यादि सूत्रत्रयं स्फुट किन्तु मायी ( मायंकटु यः । उक्तंहि । "फियदंमो साहू अचिरेण उपे.त सासर्य भासपज्जति वह मायो अकृत्यकरणकास एव आसोचनादिका गणं । सोच्चिय गुडियदंगो संसारपकी होत्तिति ॥२॥" मेवमाण्यवासोचनाघन्यथानुपत्तरिते (भास्सिति)अयं यतो उत्तरटी०॥ मायिन इह मोकाद्या गर्हिता प्रवन्ति । यतश्चामायिन हिलो श्राझोचनापरिणतस्य म्रिमाणस्यापि आधारकत्वमाराध- | काधा प्रशस्ता नवति यतश्चामायिनः भालोचनादिना निरती नाशब्द ॥ चारीभूतस्प कनादीनि स्वस्वभावं समन्ते। ताहन Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोयणाणय अभिधानराजेन्द्रः। पावकहिय मायी त्या प्रासोचनादि करेमी.तनावः॥ रण तु सेकसार ति स्था० ग.ए। सम० । प्रायः आमोयणाय-पालोचनानय-पुं० श्राभिमुण्येन गुरोग (आयाण परणावंत। गोणनामेण लोगसात्ति) आदीयते स्मदोषप्रकाशनमाओचना स एव नयः। मानोचनायाः नयदे, प्रथममेव गृह्यत इत्यादानम् तच तत्पदं चादानपदम् तेन तक्तव्यता (सामाश्य ) शब्दे विशे० प्रा.च.२.। करण भूतेनावंतीत्येतजमाध्ययनादावावंतीशब्दस्योचारणात आलोयणारिह-आलोचनाई-न. मा मर्यादया “जह यासो आचा० अ. ५ २.१॥ अंपतो, कजमकर्ज व उज्जनो भण। तं तह प्रासोज्जा, आव-( जाव ) यावत्-त्रि प्रादेोजः ॥४५॥ इति प्राकृतमायामयविप्पमुकोय " इत्येवंरूपयानोचनं गुरोः पुरतः सूत्रेण पदादेर्यस्य जो वा नवति आर्षे सोपोऽपि । प्रा० । प्रकाशनं तावन्मात्रेणैव यस्य पापस्य शुद्धिस्तदासोचनाई यत्परिमाणमस्य मतुर । यतारिमाणे स्त्रियां डीप यावति तशिशोधिक प्रायश्चित्तमप्युपचारावासोचनाहम् । जीत. साकल्ये अवधी, व्याप्ती, माने, अवधारणे च । अव्य. अमरः । म्य. न. १ बालोचना गुरुनिवेदनां विशुरूये यदर्हत्यतिचार- एतब्दयोगे कितीया । वाच॥ जातं तदामोचनाईन्ततिशोधकमासोचनामवणं प्रायभित्त-श्रावकह-यावत्कथ-प्रव्य यावजीवमित्यर्थ, । प्रावकहं नमप्युपश्चारावासोचमाईम् ग. म. १०२ औप. प्रायश्चित्त दे। गर्ष समित्तासि ॥१६॥ यावत्कथमिति यावजीवम् प्राचा माओबनाई यद्गुरुनिवेदनया हुचतीति ग, ३ ग.भग.श. म.ए .॥ २५ रु. ७ भाजीचमा गुरुनिवेदनम् । तथैव यजुरुपत्य आवकहा-यावत्कथा-खी० यावती यत्परिमाणा कथा मनुतिचारजातं तत्र तबईत्वादाचनाम् । तच्नुरूपयत्प्राय ध्योऽयं देवदत्तादिर्वाऽयमिति व्यपदेशहरणा यावरकथा चित्त तवयाहोचमाईतच्यासोचव स्था० ३०१०॥६॥ यावज्जोवे जत्थवियणं आवकहाए चिर स्था० वा.४से पा पतस्याशेषवक्तव्यतातोचनाशब्दे आमोचमायोग्ये प्राचा रए आवकहाए यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः। प्राचा० अ.९ रादिके. पु, ते चासोचनाशब्दे व्य० उ. १० घ. माध.२ उ.४ जे आवकहा समाहिए कियंतं कालं यावत् कथा देव नि. च..२०॥ दत्तो यहादत्त ति कथा यावदिति सूत्र० श्रृ.१ अ. २ धमा ग्रामोयणायरिय-आलोचनाचार्य-पं० विकटनागुरौ (जोगो | आवकहाए गुरुकुमवासं ण मुंचंति ॥१६॥ यावत्कथं यावजीभामायणायरिभो ) पानाचनाचार्यों विकटनागुरुस्स च धम् । पंचा १०वृ. ११॥ कीरशो योग्य त्यालोचनाश पचा०१५ वृ.ध.अधि.२॥ आवकहिय-यावत्कायक-प्रि यादजीविके । पंचा०वृ. ११ मालोयगाविहिसुन-ग्रामोचनाविधिसत्र-म० शिष्यनिवेदि एत्थ नसावय धम्म,पायमणुध्वयगुणव्वयाश्च। प्रावकहियां तप्रायश्चित्तपालोचनविषयप्रायश्चित्त भिधायिनि सूत्रे आ- सिक्खा, वयाई पुण इत्तरां-॥ मोसनाविधिसुत्ता नाम गुरुं शिष्येण गुरेनिवेदिते गुरुणा इति पंचा१वृ.। यावत्कथिकानियावती यत्यरिमाणा कथा प्रायाचित्तपय्यो सोचनविषयाणि मायाचित्ताभिधायिनि मिण मनुष्योऽयमित्या देव्यपदेशरूपा यावत्कथा तस्यां नवानि सू. न.२॥ यावत्कथिकानि यावज्जीवानीत्यर्थः । पंचा.॥ भानोयदरिसणिज-प्रान्तोकदर्शनीय-त्रि० प्राडोकं रणिगोचर यावत्कथिकानीति सद्गृहीतानि यावज्जीवमाप भावनी याषदुरश्यत्तश्युच्चत्वेन यःसासोकदनीयान.श.९३.३३ यानीति । आव. । सामयिकनेदे-तश्च मध्यमवैदहकतीर्थकर पासोके रधिविषये के स्थितोऽयुश्चतया रश्यते यःस आ तीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयम् । तेषामुपस्थापनाया अभावात् । मोकदर्शनीयः अत्युचतया यावदाष्टिगोचरं यमाने हा पंचा वृ. ११ । प्रात्मनः कथां यावद्यदास्ते तद्यावरक यं म०१ (सणरश्यायो प्रदरिसणिज्जा) आलोकं पिया यावज्जीवमित्यर्थः । यावत्कथमेव यावाकाथकम् । सामा परश्यते अत्युचस्त्वेन या सा आसोकदर्शनीयेति औपर यिकचरित्रगुणप्रमाणभेदे, । एतच भरतरावतष्याधचरमनात्युचतया आशोकमात्र एव दर्शनीये मङ्गस्यत्वात् प्रस्यान वर्जमध्यमतीर्थकरसाधनां महाविदेहयतीनां च संभवति ! समये द्रष्ट योग्ये, ब॥ अनु. । यावत्कथस्य भाविव्यपदेशान्तराभावात् यावज्जीविदरिसणरश्यानोयदरिसणिजा॥ कस्य समायिकस्याऽस्तित्वात् यावत्कथिकः । सामायिक आमाके बहिः प्रस्थानसमय नाविनि दर्शनीया भटुं योग्या संयतभेदे,। स च मध्यमजिनमहाविदहजिनसम्बन्धिसाधुः । मंगल्यत्वात् अन्ये त्या दुरानोके दर्शनीयान पुनरत्युच्चा आलो भ० श.२५.७ प्रतिक्रमणभद,च स्थाग.॥यावाकाथकदर्शनीयति राज.॥ कं यावज्जाविक महाव्रतजक्तपरिधानादिरूपं प्रतिक्रमणत्वं प्रासोन्म-ग्रामोल-त्रि० षत् सोमः प्रा० स० षपञ्चसे , । चाऽस्य निवृत्तिवकणाऽन्वर्थ योगादिति । श्राव० ॥ "मामोअपुष्करमुखोलसिौरभीक्ष्णम् माघः"वाच.॥ पंच यमहब्धयाई, राई छाई चाउजा मोधे । आमोनिय-श्रामोमित-त्रि० मा मुस् णिच् क्त ईषपञ्च जत्तपरिना य तहा, दुन्हं पि अ आवकहिआई ॥ सीकृते ॥ पंच महावतानि प्राणातिपातादिनिवृत्तिमकणानि राइआवंत-आवन्त-पु. अवन्तेयं राजा भए अवन्तिदेशाधिपे भायणटुइिति । उपसबाणत्वात् रात्रिनोजननिवृत्तिषष्ठाबसपश्ये नृपभेदे, वाच॥ नि पुरिमपश्चिमतोर्यकरयोस्तीर्थ इति । चतुर्यामश्च निवृत्तिआवन्ति अजयण-प्रावन्त्यध्ययन-1० भाचाराङ्गस्य नवब्रह्म धर्म एव भत्तपरिका च तथा चशम्दादिगितमरणाविपरिहा चययनान्तर्गते झोकसाराख्ये पञ्चमेश्ययने । आवंतीत्या इयोरपि पुरिमपश्चिमयोःचशब्दान्मभ्यमानां च याबरकथिचारस्य पञ्चमाध्ययनम् तत्र खादावेवाधतीत्यामापका विद्यते कान्येतानीति गाथार्थः ॥ इल्यादानपदेनतनाम | अनु। आवंतीति आद्यपदेन नामान्त- अशनभदे, च-भ० श.२५ उ.७॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावग अभिधानराजेन्डः। प्रावट्ट सेकित आवकहिए आव दुबिहे प० तं पा भीयतेयोऽनर्थ ज्ञात्वा परिहरति यश्चायमर्थः । संसारश्रोतः ओवगमणे य जत्तपञ्चकवाणे य॥ प्रव. घा.६दश.अ १।। संग रागषात्मक ज्ञात्वा यः परिहरति स एव चावर्तः श्रावग-प्रावक-त्रि अवति, अव एवृक्ष-रके, वाच० | श्रोतसोः संगस्याभिज्ञाता ( आवट्टमवम गुपरियटुंति भावा वर्तः संसारस्तमरहट्टधटीयंत्रन्यायनानुपरिवर्तन्ते । तास्वेष आवज-आतोष न०(ोतोऽद्वाऽन्योऽन्यप्रकोष्ठाताद्याशरोवेद | नरकादिगतिषुनूयो २ भवन्तीति आचा० अ. ५ स. १॥ नामनोहरसरोरुहे तो इच वः ॥१ । ५६ इति प्राकृतसूत्रे (विषये आवट्टमेयं तु पेहाए एत्थ विरमेज्जवेदवी) आवहं णप्वोतोऽत्वं वा नवति तासंनियोग च यथा संनवं ककार- तुश्त्यादि रागषकषायविषयावर्त कर्मबन्धावर्तधातुशब्दातकारयोर्षदिशः। प्रा० । वीणादी वाय, अत्रत्याबहुक्तप्यता त्पु नः शब्दार्थ भावावर्त पुनरुत्प्रेक्कात्राऽस्मिन् नावावर्ते विषय (आउज) शब्द। रूपे । वेदविदागमविहिरमदाश्रवचारनिरोधं विदध्यात् । भावज्ज-आवर्जन-न उपयोगे व्यापारे, च केवडिसमुद्घा श्राचा अ.५ २.६ ससारकारणे, शब्दादिगुणे, च (जेगुणे तगन्तुमनसा केवधिना कर्तव्यमावर्जीकरणमधिकृत्य ( आव से आपट्टे जे आवटे से गुणे ) आचा० अ. १ उ. ४ ज्जगमुव प्रोगो वावारो वा तदत्थमाश्ए) तदर्थ समुद्घातक पावतॊ नामादिभेदाच्चतुर्धा । नामस्यापने कुम्मे व्यावतः रणार्थमादी केवलिन उपयागो मया अधुनेदं कर्तव्यमित्येवंरूप स्वामित्वकरणाधिकरणषु यथा संनवं योज्यः । स्वामिउदयावत्रिकायां कर्मप्रकेपरूपो व्यापारोवाऽऽवर्जनमुच्यते । स्वेनद्यादीनां कचित्यविभागे जलपरिजमणं च्यावतः इति विशे। अनिमुखीकरण, आ चु०॥ द्रव्याणां वा हंसकारंम्वचक्रवाकादीनां व्याम्नि कीमता मावो नादावतः । करणे तु तेनैव जलद्रव्येण भ्रमता यदप्रायज्जिय-ग्रावर्जित-त्रि-वृज-णिच्-क्त अभिमुखे,प्रा.चू० न्यदावर्तते तृणकालिंबादि स द्रव्येणावर्तः ।तथा पुसीस आवजियकर-प्रावर्जितकर ए-न अभिमुखीकरणे, । केव कोहरजतसुवोरावर्तमानैयदन्यत्तदन्तः पात्या वर्तते। स विसमुद्घातारपूर्व कर्तव्ये कवकिनोव्यापारविशेषे च आ.चू० व्यैरावर्तत शति ।अधिकरणत्वविवकायामेकस्मिन् जसअन्ये केविदावार्जेतकरणमिति वर्णयंति। आवतः ॥ तया रजतसुवर्णरीतिकात्रपुसीसकेप्बेकस्थीकृतेषु तेषामप्यावर्जितशब्दस्याऽतिमुखपर्यायवाचित्वात् आव- बहुषु व्येप्वावर्तः । भावावतों नामान्यो भावसङ्क्रान्तिः र्जितकरणसद्धिः कथमावजितमनुप्यक्त् यथा कोके दृष्टमेत- औदरिकभावोदयाघा नरकादिगीतचतुष्टयेषु नावावर्तः । दाजितो मनुष्याभिमुखीकृत ति तथाच सिद्धान्तः। सरूप श्राचा. १ अ.५ उ.॥ र्यायपारण.माभिमुखीकरणं यत्तदावर्जितकरणं येन कारणन उत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनावि परिणत आत्मा नियमात सिद्धतत्पर्यायपरिणामाभिमुखो भव- शेष, सूत्र० श्रु० १ ० ३॥ तीत्यर्थः॥ अह मे संति आवट्टा, कासवणं पवेइया । आवज्जीकरण-अवनीकरण-न. समुद्घातकरणार्थमादी बुफाजत्य वसप्पंति, सीयंति अबुहा जहि ।।१।। केवभिन उपयोगो मया अधनेदं कर्तव्यमित्येवं सदयावनि- टीका । अत्यधिकारांतरदईनार्थः । पागतरं वा अहो कायां कर्मप्रकपरूपो व्यापारा वा आवर्जनमुच्यते । तथा इति । तच्च विस्मये श्मे इति प्रत्यकासन्नाः सर्वजनविदित नूतस्य करणमाघजीकरणम् केवक्षिसमुदघातात्पूर्व केवद्धि- त्वात् संति विद्यते वक्ष्यमाणा आवर्तयंति प्राणिनं नामयंना कर्तव्ये व्यापारनेदे, विशे. . तीत्यावर्तास्तत्र ब्यावर्त्ता नद्यादेर्भावावर्तास्तूत्कटमोहोदयाप्राव (१)(क)() त-आवर्त पुं० आवर्तनमावर्तःसबस पादित विषयानिवाषसंपादकसंपत्प्राथर्नाविशेष एते चावर्ता काश्यपेन श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनाऽनुत्पन्नदिव्यज्ञाने मुद्रादेश्चक्रविशेषाणांचेति । स्थावा.शा.अ.१ आ. म. नावेदिताः कथिताःप्रतिपादिताः । यत्र येषु सत्सु बुझा अवप्र. । आवर्तयति प्राणिनं भ्रामयतीत्यावर्तः । सूत्र० श्रु.१ अ. गततत्वा आवर्तविपाकवेदिनस्तेज्योऽवसर्पते प्रमत्ततया त३। आ. वृत. भावादी घम् चक्राकारेण जलस्यपरिचमणे । हरगामिनो भवंत्यबुद्धास्तु निर्विवेकतया ये हवसीदत्यासक्तिं पाच ॥ तस्याधूर्ताद।।२।३०॥ इति प्राकृतसूत्रेण तस्य भवति धृतादीन वर्जयित्वा बाहुनकाधिकाराद् धृतादावपि कुर्वतीति । आवर्तने, वाच. हादशावर्तादिवन्दनकगते सूत्राप्रा० । जलादीनां परिचमणे आचा० अ० १ उ.५ छावर्त निधानगर्ने कायव्यापारविशेषे । आवत्तेवारसवय आवश्रावर्तन परिचमणमिति ज्ञा० अ०१ मोहावत्तं महान्नीमं । पौनः पुन्यभवने । मोहोमाहनीयं कर्म तदेव तत्र विशिष्टनामजनकत्वादावता मुक्खाणमेव आवढे अणुगरियट्टइ आचा० अ.न.३ यस्मिन्स तथा विधस्तमित आव । स्था०.४॥ सुक्खाणमित्यादि । दुःखानां शरीरमानसानामावतः पौनः चत्तारि आवत्ताप मत्ता । तं. खरावत्ते उन्नयावत्ते गूढायत्ते पुन्यभवनमनुपरिवर्तते पुःखावर्तावमग्नी बंभ्रम्यत इत्यर्थः ।। भामिसावते ग.।आवर्तन्तपरिजमंति प्राणिनो यत्र स आवर्तः णि जावे अच् पुनःपुनश्वासने परिघट्टने । धातूनां बावणे। ससारे आचा० अ. १ । ५ ( आषट्टे सो एसंगमभिजाणति) चिन्तायाश्च । चिन्तयाहि चित्तं स्वविषयेषु पुनः पुनश्चाव्यते श्राचा अ. ३३।१।आवट्ट इत्यादि भावावर्ती जन्मजरामर शति तस्यास्तथात्वम् । वाख्यघोटकचिन्हे रोमसंस्थानभेदे । रोगशोकव्यसनोपनिपातात्मः संसार इत्युक्तं हि "रागोष- आवर्तिनः दशावर्तयुक्ताः प्रशंसायाम् णिनिः ते च । घाखुरपशाविद्धं, मिथ्यावर्शनस्तरं || जन्मावर्ते जगत् किप्त, प्र- स्यौशिरस्यौ ही है। द्वौ रन्ध्रोपरन्ध्रयोः। एको भाले छपाने मादाद् चाम्यते नृशं ॥१॥भावश्रोतोऽपिशब्दादिकामगुणवि- च, दशावता धुवाः स्मृताः॥१ ॥ पयोधिपक्के जमचमः षयामेवाष आवर्तश्च श्रोतश्च आवर्तश्रोतसी तयोरागडेषा- मचि. वाच०। ज्यांसम्बन्धःसगस्तमभिजानत्यानिमुख्यन परिच्छिनत्ति यथा वों देवमणिनामहयानां महालक्षणतया प्रसिक शत जं यं सग आवर्तधातसाः कारणं जानानाश्चपरमार्थतः कोऽभि- । प्रावतीकारे, देहिनां रोमसंस्थाननेदे, चवाच० प्रादोंदादी Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६८ ) भाव? अभिधानराजेन्द्रः। प्रावरण णे भागे, दक्षिणः शुभकन्नृणाम् । वामो घामऽतिनिन्द्यः स्यात, (वश्रामयीतो यावत्तणपढि आउ ) आवर्तनपीका नाम दिगन्यत्व तु मध्यमः ॥ १॥कल्पाराजावर्तनामके मणी ए. यत्रेन्कीसका नक्तं च विजयद्वारचिन्तायाम जीयाममा पाच माणे प्राणभेदे आवर्तादीनि मणीनां बाणनीति ॥ टीकाकारेण “आवर्तनपीगिका योन्द्रकीको भवतीति" ॥ मा. म.प्र.जी.प्र.३ राज. । मेघाधिपभेद, पाच । स्त- राज । जो. ॥ नितकुमारेन्जस्य घोषस्य स्वनामस्वात लोकपाले स्तनितकम श्राव (ट्ट) तणेज-आवर्तनीय-त्रि. आ. वृत-णिन्-अनीयर रेन्जस्य महाघाघस्य स्वनामव्याख्याते लोकपासे, च स्था नग. __ डायणोये धात्वादी, वाच ॥ न. श.३ २. स्वनामख्याते जंबूद्वीपस्ये दीघवैताधिप श्राव () तय-आवर्तक-पु० आवर्त एव स्वाथै कन् पावर्त घेते, स्था. ग. ए एकखुरे चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्डियात शब्दार्थ प्रा.॥ व्यंग्यानिकभेदे, प्रा. पद १ अहोरात्रभवे स्वनामख्याते पंचविंशतितम मुहूर्त, सम स. ३४ । स्वनामख्याते प्राम आव (हा) त्वायत-पावतीयमान-त्रि० आवर्त कुर्वाणे भ. (आवते, मुहत्तासे) ततो जगवान् आवर्ते प्रामे वदेवगृहे | श. ११ उ. प्रदक्षिणं भ्रमति, च कल्प॥ प्रतिमा प्रतिपत्र इति आ.म.द्वि.आ.चू. माक्षिकधाती, श्रावत्तायंतवट्टताम्यविमझसरिसनयणं । म. वा. स्वनामख्यातं विमानभेदे, सम. स १७ । (पावत्तायत्ति प्रावर्त कुर्वाणं तद्वद् ये वृत्तं च तमिदिव अंशुमारपारस्त्ये सीताया महानद्या उत्तरस्थे स्वनामच्याते विमझे च सरशे च परस्परेण ते सोचने यस्य स तथा तं चक्रवर्तिविजय क्षेत्र, स्था ग.७। दो आवत्ता स्था. ग. ।न. ११ श. ११३. ॥ महाविदेहस्थ चक्रवर्तिविजयकेचे, च ।। (पावत्तायति) आवायमानं प्रदक्षिण भ्रमन्एवंविधं यत कहि ते महाविदेहे वासे आवतणाम विजए (प्रबरकगगति) प्रवरकनक तत्वते (तम्यिविमति) पणत्ते गोमा ! पीजवंतस्स बासहरपब्वयस्त दाह विमा या तमित विद्युत् तत्सदृशे नयने लोचने यस्य स तथा तम् । कल्प०॥ एं सीआए माहणःए उत्तरणं णमिणे कूमस्स | श्रावमिय-आपतित-त्रि० समन्तात्पतिते,॥ बक्खागपवयस्त पच्छिमेणं दहावतीए महाणइए प्रावण आपण-पुं० हट्टे, कटप०॥ पुरच्छिमेणं एत्यणं महाविदेहे वासे प्रावते णामं विजए आवरग-आवरक-न-आ वृ-करणे अप संझायांकन अपपणते सेसं जहा कच्छस्त विजयस्स ॥ जं.। वरके, आच्छादके वस्त्रादौ, ॥ श्राव (१)पञ्चावमसेटियतोत्यिय सोवत्यिय पूसमाण- आवरण-आवरण-० भावियते देहोऽनेन आ वृ करणे ल्युद वचमाणगत्यंमामकरंमाजारामाराफुलाव लियपनमपत्त पाच. आ मर्यादया वृणातीत्यावरणम् । स्था. ग.। सागरतरंगवणायपनमनयनत्तिचित्तं ॥ अंगरक्कादिके, ज्ञा० अ.। कवचादिके उत्त० ३ अ.। भावर्तप्रत्यावर्त अणिप्रणिस्वस्तिकपुप्यमाणवर्धमानकम (जाणाधरणपहरणे) आवरणं कवचादि प्रा.क. नाकमकरारामकजारमारपुष्पाव निपनपत्रसागरतरंगवा प्रावरणे कवचाद। सूत्र०१श्व.अ.। ससा प्रताप ममताभकिचित्रनस्वनामख्याते मारयविधिभदे. (जोहाणयंप्पती आवरणाणं पहरणाणं च) आवरणानां राज०॥ समाहानाम् स्थाएग.॥ प्राव (१) तक-आवर्तकृम-न० महाविदेहस्थनमिनकूटव आवरणानां ककटानाम् ज्ञा०१६ अ.। कस्कारपर्वतस्थे स्वनामख्याते कटे, ज.॥ स्फुरकादिक (सच बसरपहरणावरणभरियजुरुसज्जाणं) भाव (हत्तण-आवतेन-आवृत आधारे ल्युट सूर्यस्य पश्चिमाद आवरणानि च स्फुरकादीनि । औप.। फलादिके, आचा' १ अ. गस्थितमायायाः पूर्वदिमगमनसमये मध्यान्हका "श्रावर्त ५ .। मातु पूर्वराहोऽपराएहस्तु ततः परम्:" स्मृतिः वाचा विस आवियते आकाशमनेनेत्यावरणम् प्रसादनगरादिके, स्था. यने, (आवकृती तत्य असाहुकम्मा ) आवर्तते विडीयते एम.॥ इति ॥ सत्र.१श्रु.५ अ.॥ आच्छादनसाधनमात्रे, वाच. स्थगने, वृ.१०.। पामने, ( श्रावतीकम्मसु पावपसु ) आवर्त्यते पीमयते ईषद्धरणे आवरिज वाणिवारजश्वा श्रावरिज्जतिष. दुखभाग् जवतीति सूत्र०१ श्रु. १ अ.॥ . वियत । न०एश. ३३ उ.। प्रावियते चैतन्यमनेन वेदान्तिमतसिद्ध चैतन्यावरणे हाने, आकंपने (कहणाउट्टण प्रागमणपुजणा दीवणा य कज्ज | धाचा स्स) आवर्तनमाकंपनं राको भक्तीभवनम् व्यः एउ.। प्रावियते आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् या प्राणोत्याच्छादय आ.वृत भावे ख्युट आसोमणे, गुणने, च धातूनां कावणे ति जन्यादिन्यः कर्तर्यानटप्रत्यये आवरणम् । मिथ्यात्वादिके मार्वतयेति संसारबक्रम प्रा. वृत णिय कर्तरि ल्यु विष्णी, कर्मभेदे, स च जीवव्यापाराइतकमवर्णान्तः पाती विशि(आवर्तनो निवृत्तात्मा विषासह०) जम्बुकीपोपडीपने पुलसमूहः । कर्म०। प्रव०.२१५ द्वा.। चावयेतेऽनया ल्यूडीपू दाम् स्त्री आधारे ब्युटीप तच्चाद्वावधमानावरणं दर्शनावरच(नाणस्स ईसणरस धातुमव्यावणाधा नूषायाम, करणे, ल्युट्वेष्टने, प्राचीरादौ आवरणं वेयणीयं य) पं. सं. ३६०। नावाच॥ (पढम नाणावरणं वीयं पुणदसणस्स प्राधरणं ) ज्ञायते प्राव(हत्तणपेढिया-श्रावतेनपीठिका-स्त्री०द्रको सिकानिवश परिजियते वस्तु छनेनेतिज्ञान । सामान्यधिशेषात्मके वस्तु स्थाने, भावर्तनपोरिका यत्रन्द्रकोरके निवेश्यत इति जी. ३ प्र. नि विशेषग्रहणात्मको बोधः। आप्रियते भाच्चायतेऽनेनेत्या. Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावरण अभिधानराजेन्द्रः । प्रावरण वरणं मिथ्यात्वादि,सचित्तजीवव्यापाराहतकर्मवर्गणा तःपाती तस्य मानातं नवे सिरियषान्ते भवसिस्किाः ॥ ननु सर्वेविशिष्टः पुलसमहज्ञानस्य मत्यादेरावरणं कानावरण तथा षामपि सिर्भिव एव कस्मिश्विनवति । किमनेन व्यषरश्यतेऽनेनति दशनं सामान्यविशेषात्मक वस्तुनि सामान्य धित । सत्यम् । किंत्विह व्याख्यानाद्भव एव भवा गृहाप्रहणात्मको बोधस्तस्यावरणं दर्शनावरणं प्रव. ११५ Er.॥ न्ते । तद्भवसिफिका इत्यर्थः । तऽपि न सभन्ते किमुता. कर्म.। पंचप्रकारं ज्ञानावरणं चतुष्पकारं दर्शनावर ऽनव्याः। इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ णम् क.प्र.। आवरणानि मतिझानावरणश्रुतज्ञानाधरणावधि माध्यम् ॥ कानावरणमनः पर्यायज्ञानावरणकेवलज्ञानाधरणचकुर्दशना धरणाचकुर्दर्शनावरणावधिदर्शनावरणावधिदर्शनाबरणा के खवणं पमुख पदमा, पढमगुण विगाइणोत्ति वा जम्हा । बनदर्शनावरण प्रवणानि नव । पंचविधं ज्ञानाधरणं नव- संयोयण कसाया, जवादिसंजोयणा अति॥ विधं दर्शनावरणं आवरणानि कानावरणपञ्चकदर्शनावरण- गतार्थव । विशे॥ नवकस्वरूपाणि ॥ कर्म.॥ श्राओ बउवादाण, तेण कसाया अश्रो कसस्साया । पंचविहं नाणावरणं, नव या दसणस्स । चत्तारि बहुब्बयणो, एवं वीआदओ वी मया । तेच नेवा कानावरणस्य (नाणावरण ) शब्द । दर्शनाव तेच बहुवचनानर्देशाशत्वारः क्रोधादयो गम्यन्ते । एवं देरणस्य ( इंसणाधरण) शब्दे। शविरत्यायुत्तरोत्तरगुणपातित्वान्तिीयतृतीयचतुर्थत्वेन कषाप्रावरणस्य द्विविधानि स्पर्शकानि जवन्ति । सोपघाती यशब्दादिवाच्यत्वेन च द्वितीयादयोऽपिमताः सम्मता इति॥ नि देशोपघातीनि च । सबै स्वाचार्य गुणमुपनन्तीत्येवं शीआनि सर्वोपघातीनि । स्वाचार्यस्य गुणस्य देशमुपानं भवसिकियावीत्येतद् व्याख्यानयति ॥ जवसिीच्याविजणिए, नियमान अनंति तहमजव्यादि। तीत्येवं शीयानि दशोपघातीनि । आह च प्राध्यकृत् ।। मइसुयनाणावरणं, दसणमोहं च तवयातीणि। अविसद्देणवगहिया, परित्तसंसारिया ईया ॥ भवसिलिका अपीत्युक्तेऽपि शब्दादनव्यास्तं नैव बभन्त इतप्फडगाइं दुविहाई, सबदेसोवघाइणि ॥ आ. म.द्वि त्यवगम्यत एव । अयवाऽपि शब्दात्परित्तसंसारादयोऽपि न१ अ.॥ पं. सं. ३ घा.। अनन्त इति गम्यत शत गाथार्थः॥२३१॥ मिथ्यात्वादिक च किङ्कस्याऽऽवारकमित्याह ।। मुक्ताः सम्यक्त्वस्याऽवरणभूताः कषाया अथ देशविरत्याअहुणो जस्सोदयो, न बप्नइ दंसणाईसामश्यं ॥ | घरण नूतीस्तानाह॥ स्तकं पुणो व जस्सइ, तदिहावरणं कसायाई ॥ विश्र कसायाणदये, अप्पचक्खाणणामधेजाएं । सुगमा । नवरं तदिह कषायादिकावरणमुच्यते । तत्रा सम्मइंसणसंनं, विरया विरइं न उ बहंति ॥ उनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयं मिथ्यात्वश्च सम्यक्त्वस्याऽव सञ्चप्रत्याख्यानं देशप्रत्याख्यानञ्चन येथामुदये बज्यतेऽप्ररण । श्रुतस्य क्षुतज्ञानाऽवरणं । चारित्रस्य चारित्रमोहनी त्याख्यानाः । अकारस्य सर्वप्रतिषेधवचनत्वादप्रत्याख्यानयमिति ॥ इति नामधेयं येषामप्रत्याख्याननामधेयानां हितीयस्य देशावबदेवाह ॥ पढमेल्लुयाण उदएत्यादि। रतिगुणस्याऽऽचारकत्वात् । फितीयास्ते च ते कषायास्तेषां अथवा पातनान्तरमाह। हितीयकषायाणामुदये भव्याः सम्यग्दर्शनझानं अभन्त इतिअहवा खयाइओ, केवनाई जं जेसि ते कई कसाया धाक्यशेषः ॥ अयं च वाक्यशेषः (विरयाविरई न उ सहति । को वाकस्सावरणं, को वक्रवाई कमो कस्म ॥१६॥ इत्यत्र तु शब्दोपादानात बज्यते । एषामुदये भव्याः सम्यम्मअथवा यत्केवमादिकमाविशव्यादर्शनचारित्रपरिग्रहः एषां र्शनसानं लभन्ते ते विरताविरति देशविरतिम्पुनस्रनम्त इति करायाणां कयादितो भवत्यादिशब्दारकायोपशमादि परिग्रहः। वाक्यसअन्तरिति विरतिं वा। विरतिश्च यस्यां निवृत्ती साधिते कति कषायाको वा कस्य साहायिकस्याऽवरणं को वा रताविरतिस्तामिति नियुक्तिगाथाथः॥ कयादिक्रमः । कस्यति गाथार्थः॥ भाष्यम् ।। अथ क्रमेणोत्तरमाह॥ सव्वं देसो वजओ, पञ्चक्रवाणं न जेसिमदएणं । पढमीस्सुयाण उदए, नियमा संजोयणा कसायाणं । ते अप्पचक्खाणा, सम्बनिसहे मोकारो ॥१॥ सम्मइसणनंनं, जवसिची या विन सहति ॥२॥ सम्मइंसणसंज, अनंति नवियति वक्सेसोयं । तत्र प्रथमीहलुकानां संयोजनाकषायाणामुदये नियमारस- विस्याविरविसेसे,णं तुसईसझखिोयंच ॥२३॥ म्यदर्शनसानं नवसिछिका अपि न लभन्ते । किमुताउन गतार्थव । व्याः । श्त्यकरयोजना । नावार्थस्वयं प्रयमा एवं देशीवच. अथ तृतीयस्य सर्वविरतिगुणस्याऽचारकांस्तृतीयकषामतः प्रयमिल्लुकास्तेषां प्रथमिल्लकानमनन्तानुबन्धिक्रोधमान यानाह। मायामाभानामित्यर्थः । प्राथम्यञ्चैषां सम्यक्त्वाख्यप्रथमगु तइयकसायाणदए, पच्चक्खाणावरणनामधेजाणं । णविधातित्वात् कपणक्रमावति । उदये विपाकाऽनुनये गति देसिकदेसविरई, चरित्तनं न न बहंति ।। नियमानियमन अस्य व्यवहितसम्बन्धरसचदर्शित पथ। सर्वविरतिसकणतृतीयगुणघातित्वावपणनमा तृतीया कि विशिष्टानां प्रयमिल्लुकानामित्याह । कर्मणा सत्फसन- स्तेच ते कषायाम मृतीयकषायाः क्रोधाश्यः चत्वारः तेषा ससंसारे संयोजनाहेतवः कषायाः संयोजनाकषायास्तेषाम- मुदयं कथं नूतानामावृण्वन्त्यावरणाः प्रत्याख्यानं सर्वविरति दय नियमात्सम्यगविपरीतं दर्शनं सम्यग्दर्शनं । सम्यक्त्वं सवणं तस्यावरणा पतदेव नामधेयं यषां से प्रत्याख्यानावरण Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७०) भावरण अभिधानराजेन्द्रः। श्रावलियापविट्ठ नामधेयास्तेषां । आह न त्व-प्रत्याख्याननामधयानामुदये| श्रावरिय-प्रावत्त-त्रि आ० वृक्त कृतावरणे, अप्रकाशीकृते, सर्वेथा प्रत्याश्यानं नातोयुके । ताप्रतिबिरुत्वादिहापि आधादित, वाच० (आवरिओ कम्मेह) आवृत्तःप्रमादितः चावरण शाइन प्रत्याख्यानत्व सर्वस्यापि निषेधो गम्यत इति। निच.१०। आवरिया विरणमहे) प्रावृता अपि सन्नकप प्रतिविशेष श्त्यत्रोच्यते । तत्र नसर्वनिषेधे उक्तः। रूसम्राहा । अपि व्य०१०॥ रह स्वाडोमर्यादेपदर्थवादासर्वविरतिप्रत्याख्यानमर्यादया अ | आवरिस ग-यावर्षण-न उदकादिना ग्टकप्रदाने, ॥ थवा विस्ताप्रयोगातुप्रतिमात्रविरतिरूपं प्रत्यानपानमावृएवं तीति प्रत्यास्थानावरणा इति व्युत्पत्तस्सर्वविरतिरूपप्रत्या समजणावरितण नवन्नेवणसुदुमदीएवए चेव । क्याननिषेधार्थ पवायं वर्तते न देशविरतिप्रत्याख्याननिषधे। वर्षणमुदकेन पटकप्रदानमिति वृ० ज०१॥ आवरिसणं भाषरण शस्तथाचाह देशच देशकदेशी तत्र देशः स्यूस पाणिरण फासण निच.३०(उववणसम्मजणा प्राणातिपातादि, एकदेशस्तु तस्यैव दृश्य नस्पतिकायाय बरिसण) आवरेणं गन्धोदकादिनेति ग.२ अधि० अनु. । तिपातस्तयोविरतिः निवृत्तिस्तां सभंत तिवाक्यशेषः (चरि- उदगदि प्रापरिसणं न्दकेनाविशदाद घृतेन सोनवाऽऽषतसं न उसहति) इत्यत्र तुशब्दोपादानादेव सत्यते । चरत्य- पणं करोति वृ०४ च.॥ निक्तिमनेनेति चारित्रं । अष्टविधकर्मचयरिक्तीकरणावाचा समतावर्षण (आपरिसजा) प्रासमन्तात् राजा॥ रिख । सविरतिक्रियत्यर्थः। तस्य माभस्तमेषामदय लभत आवरिहिय-आवहित-त्रि आ० वृह उद्यमने णिच् क्त प्रा देशैकदेशषिति पुनर्न लभत इति नियुतिगाथार्थः। विशे.॥ वहाँहंसायाम् क्तः । उत्पाटिते, उन्मूलिते. वाच ॥ प्रत्याख्यानावरणवक्तव्यता (पञ्चकुवाणावरण) शाद। श्रावक्षण-भावान-न० मोटन (गझगवलावणमारणाणि) प्रयोक्तमेवाथै संगृह्य विभणिषुस्तथा चतुर्थकषायाणां यथा | गलस्य कास्य गवनस्य शृंगस्याऽधनं च मोटनम् प्रदन ख्यातचरित्रादिविघातित्वं च दिदर्शयिषुराह॥ १द्वा०॥ मूनगुणाणं संनं, न बहर मन्त्रगुणघाणो जदये । श्राव (नि)बी-आव (लि)सी स्त्री० श्रा पर था ङी संजनगाणं उदए, न सह चरणं अहक्खायं ।। पती विशे० अगु०१० (कोचावनी वा हारावली इह सम्यक्त्व महात्रताणुनतानि च मजनूता गुणा मझ- वा वनयावधी वा) आवक्षिपदोपादानं वत्किटघ गुणाः उत्तरगुणानामाधारजतत्वात्तयां मूत्रगुणानां साभं न नार्थम् । अस्यार्योजीवाजोवशन्ने दृष्टव्यः॥ सनते। कदेत्याह। यथोक्तान् मत्रगुणान् इंतुं शीतयेषां ते भावानेय-श्रावलित-त्रि० श्रावन चलने क्त ईषचलिते , समूमगुणकातिनस्तेषां मूगुणघातिनामनंतानुबंधि अप्रत्या म्यचत्रिते, च । वाच। मामोटिते,॥ ख्यानप्रत्याख्यानावरणानां बादशानां कषायाणामुदये पतच (पढमिल्लुयाण उदए ) इत्यादिना सर्व नावितमेव (अणञ्चावियंअोवानियं) अपवितं यथात्मनो वस्त्रस्य चवनि तथा ईपज्ज्वलनात्संज्वझनाःसंपदि ज्वानाहासंज्वलनाःपरी तमिति मोटनं न भवतीति । उत्त०१६ अ.॥ पहदिसंपाते चारित्रिगमपि ज्वनयन्तीति या संज्यसनाः प्रावप्निय (या) शिवाय-प्रावनिकानिपात-पुं० प्रावलि क्रोधादय एष चत्वारः कषायास्तेषामुदये न सभंते सम्धं वा कया क्रमेण निपातःसंपात आवधिकानिपातः क्रमेण संपाते,॥ त्यजति चरण चारित्रं किंसर्वमपि मेत्याह । यथैव तीर्थकरगण ताजोगति व पुस्त आवप्नि (त) याणिवाते आहितेति धरैराण्यातं । अकशयमित्यर्थः । सकषायं तु लभते । नच वदेजा ताइति ।। यथाण्यातचारित्रमात्रमेवोपम्नति संज्वलनाः किं तु विशेष चारित्राणामपि देशोपघातिनो नवति । तददये शेषचारित्र प्रास्तां तावदन्यकथनीय संम्पत्यतावत्कथ्यत । योग शति । देशाभिचारसिझेरितिनियुक्तिगाथार्थः। विशे० आव. म.। वस्तनो नत्रजातस्य प्रावलिकानिवायोति)आवमिकया क्रमे ण निपातश्चन्द्रसूर्यः सहसंपात आख्यातो मयति वदेत् सू० आवरणसत्य-प्रावरणशास्त्र-न प्रावियते आकाशमनेत्या प्र.प्रा. १०। चं.प्र. प्रा. १०। वरणम् ।जवनप्रासादनगरादि तडकणं शास्त्रमाप तथा वास्तु आवशिय (या) पबिह-श्रावलिकामविष्ट-त्रि० आवलिविद्यात्मके पापश्रुतनेदे, स्थाएगा। आवरणावरणपविजत्ति -प्रावणावरणप्रविक्ति-न नाट्य कासु श्रेणिषु प्रविष्टा व्यवस्थिता प्रावमिकामाविष्टाः श्रेण्या विधिभदे,॥ व्यवस्थित, जी. ३ प्र.॥ चंदावरणपविनत्तिं च सूरावरणपविनति च आवरणा इमे सेणं ते रयणप्पनाए पुढवीए णरगा कि संवि वरणपवित्तिं णाम दिव्यं णविह उबदसह ॥ ता प० गो० दावहा पं० श्रावलियपविटा य आवास चन्नावरणप्रविभक्तिसूर्यावरणप्रविन्नक्तियुक्तमाधरणावरण यवाहिराय तत्यणं जे ते आवालेयपवित्र ते तिविहा प्रविभक्तिपर्यावरणप्रविनक्तिनामकमष्टम नाट्यविधिमुपदर्श पं.तं. वडा? तसा इचउरसा ३ जी. प्र.३। यन्ति । राज०॥ श्रावलिकाले संस्थानमधिकृत्य त्रिविधाः प्राप्तास्तद्यथा । प्रावरणी-आवरणी- स्त्रो आवरणकारण्याम् विद्यायाम, वृत्तास्त्र्यनाश्चतुरस्राः । जी. टी.। का०१६ अ०॥ प्राधरिज्जमाण-यात्रियमाण- वि० स्वल्पमान, (श्रापरिज. मोहम्पीसाणसु णं ते कणेसु विमाणे किं सविता माणावा ।आधरिजमाणत्ति) वापमानानि न०१॥ शाम प० गोग दुबिहाग पं० तंग आवासियाए बाहराय । प्रावरिना-आयत्य- अव्य आवरण कृत्वत्यर्थ (आयरित्ता नत्रावलिकाप्रविशान नाम यानि पृादिषु चतसृषु दिक्कु चिर) स्था॥ भ्रायोवस्थितानि यानि पुनगवत्रिकाप्रविशनां प्रांगणप्रवंशे Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७१) प्रावलियापविनात अभिधानराजेन्द्रः। भावस्सय कुखुमप्रकरश्व यतस्तता वित्रकोणनितान्यावहिकाबाह्यानि। (सुयमे आनसते गंजगवया एवमकवाय मुयमे आउसंतणति तानि च पुष्पावकोानीत्युच्यन्ते । पुप्पाणीव इतस्ततो- मयत्यस्य विशेषणात्तत आङिति गुरुदार्शतमर्यादया वसता धकीएर्णानि विप्रकोणानि पुप्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तः अनेन तत्वता गुरुमर्यादावर्तित्वरूपत्वात गुरुकुमबासस्यसद्विधा जी.टी. प्र.॥ नमथत उक्त ज्ञानादिहेतुरवात स्था.१ ग. (गारमावसंताह) श्रावनिय (या ) पविनत्ति-प्रावलिकामविनक्ति-न० आगारमावसनिःसेवमानः आचा० ५ अ. ३ च.॥ दिव्य नाट्यविधिनेदे, ॥ श्रावसह-आवमथ-पुं० आवसत्यत्र मा बस अथ. गृह, चंदावधिपवित्तिं च सरावलिपविनातिं च हंसावनि- सूत्रा०२१.२ अ.॥ पवित्तिं च एगावलिपवित्तिं च तारावलिपविति च प्रति०(श्रावसहं च जाणमतं च) आवसथं गृहमिति सूत्रः मत्तावामिपविनति च श्रावलियपवित्ति एम दिवं १श्र.४ अ. । आश्रये, (भावसहं वासमुस्सिणामि) आवस थे वा युप्मदाश्रयं समुच्छणोमि भाचा० ७.२.। परि महाविहं जबदसेइ ॥ बाजकाश्रये रजाकार गृडे, आवसथः परिव्राजकाश्य पति चन्जवलिप्रविभक्तिसूर्य्यावलिप्रविभक्ति, वक्षयावलिप्रविभत्ति प्रदन०१.आवसथास्तापसाध्या उदजादयः । दशा, हंसावतिप्रविजक्तधेकावन्त्रिप्रविनक्ति, तारायझिप्रतिभाक्त, म (जेणवपरिव्वायगावसहे तणघ बागच्चन परिवायाषस क्तावलिप्रविनक्ति, कनकायलिप्रविनक्ति, रत्नावसिप्रविनक्तया हेत्ति) परिवाजकमाउःज. श.१ उ. केचनासपटजा नितथात्मकमावलिप्रविभक्ति नाम पञ्चमं नाट्यविधिमुपदर्श कारष गृहेषु वसंतीतिसूत्र.२.भ.ाराचंदोरचिते यन्ति राज०टी०॥ कोषनेदे, वाच॥ भावनिया या) बाहिर-श्रावलिकाबाह्य-त्रि० इतस्ततो पावसाय-आवसयिक -पं. आवसथो गृहं तेन च विप्रकोण, अत्र यक्तव्यन्तद् (आवसियापविट्ठ) शब्द उत्तम् रंतीत्यावसयिकः । प्रति० सूत्र.१.१ अ. आवसथे गृहे जी०प्र०॥ सति व खियां डीप गृहस्थे, वाच. पावसथास्तापसाश्रया श्रावनिया-आवलिका-स्त्री० पत्तौ वृ० ३.। आधति का उग्जादयस्तत्रवसत्तीत्यावसयिकाः ॥दशा तीर्थकषिशेषे पक्तिरमिधीयते । आमश्रेिणावली पङ्क्तिरिति वचनात् पं० सत्र. २ श्रु.७ अ. आवसथिकाः केचनावसथेष्टजाकारेषु सं०(मरावक्षियत्ति वा)चमरावली चमरपङ्क्तिः राजा गृहेषु वसतीति सूत्र.१२.२ अ.॥ एकान्ते स्थितायां विच्छिन्नायाम्मामल्यां च । या विधिमा आवसाह-आवतति-स्त्री. वसत्यत्र गृहे वसतिः रात्रिः एकान्ते भवति मएमसी सा आवलिका या पुनःस्वस्थान पर सम्यक वसतिः प्रा० स. निशीथे, वसतेः सम्यकत्वश्वावश्य सा मएमली। व्य०४ उ.। गृहवासयोग्यचं तच्चाहरात्रेऽवश्यं भवतीति तस्य तथात्वम् अथावलिकाया मंझब्याइच कः प्रतिविशेष इत्यत आह ॥ याच ॥ बिएणाविमा विसेसो, आवलियाएउ अंतएगत्ति । आवस्सय-आपाश्रय-पुं० आमर्यादानिविधिवाची। आमर्याममन्त्रीए सहाणं, सञ्चित्ताएसु संकमति ॥ दयाऽभिविधिना वा गुणानामापाथय आधार श्दमित्याण भावनिकाममल्योः परस्परं बिनामिनरूपो विशेषः प्रापालिका भ्रयः । सामायिकादिके आवश्यके,॥ गिन्ना विविक्त एकांतो नवात । मंझलिका स्वच्छिन्ना (आव. विशेषावश्यके आवश्यकपर्यायनामान्यधिकृत्य । सियतथलमा मंझलिया हो अनिमा) इति वचनात् । श्रावस्तयं अवस्तकरणिज्जं धुवनिग्गही विसाहीय । एतदेव सुव्यक्तमाह । आवक्षिकायामुपाध्यायकोऽन्तमध्ये धि श्रामर्यादयाऽभिविधिना वा गुणानामापाश्रय आधार इद विके प्रदेश तिष्ठति । मंगल्या पुनः स्वस्थानमाभवनं च पाठ यितरिसंक्रामतिसचित्तादिषुतगतसचित्तादिविषय(आष मित्यापाश्रय गुणाधार इत्यर्थः। नन्धाधारवाचक आपाश्रय नियममनिकमो पुद्युतो निम्मठिमभदेण) व्य० १०. क्रमे, शब्दः पुछिने वर्तते । तत्कथमापाश्रयमिति नपुंसकत्वमितिसूर.प्र.१० प्रा.चं.प्र.१० प्रा. काविशेषे, असंख्येयसम चेन्न । प्राकृतशशीवशतोऽदोषादिति। विशे०। यसंघातात्मक कामविशेष आवक्षिका । विशे। असंख्यातः आवश्यक-न० अवश्य भाष आवश्यकं मनोज्ञादि समयैरावत्रिका जघन्ययुक्ता संख्येयसमयराशिमानेति । तं०। ज्यश्चेति मनोकादेरधिकृतत्वाश् । आ० चू.२.। भनु० । असंख्यातसमयसमुदायात्मिका आवक्षिकाः कुख अवश्यंजावे नयत्ये,वाच अवश्यं कर्म आवश्यकं अवश्यकभवग्रहणकावस्य षट्पञ्चाशत्तरशितमभागता शति. कर्तव्यक्रियानुष्ठाने, । नं. स्थाग.श्च० प्र.प्रा.१० श्रा०म०। श्रावस्सगपरिसुचीय, होति निक्खुस्स लिङ्गाई। असंखजाणं समयाणं समुदयं समइ समागमेणं सा एगा श्रावश्यकपरिशुकिश्वावश्यं करणीययोगमिरतिचारतेति । श्रावन्नियत्ति पवुच्चइ । ज.। दश० अ.१०। हा.| भाव. धर्म. अनु. । पंचा.। स्था. टी० असावधातानां सम्बन्धिनो ये समुदया वृन्दानि तेषा १० ग. । नियमात्कर्तव्ये, आवश्यकामि नियमत पर करणीयाः समितयों मीहनामि तासां यः समागर्म संयोगःससम- यानीति आव०४. । अवश्यं नाविन्याहाच्यवाहावश्यक दयसमितिसमागमस्तन यत्का प्रमान नवतीति गम्यत से स्था०४ग.अनु. अवश्यङ्कर्तव्यमावश्यकम भ्रमणादिभिरवश्य कावकिति प्राच्यत (संखेजा श्रावत्रियत्ति किन्न षट् प मुनयकालं क्रियते इति भावः । कचिदितिकर्मणि बाहुसकाइ शाशदधिकशतवयमावलिकानां शुष्टकभवप्रहणं भवतिभ.६ प्रत्ययः। पृषोदगवय शतिनिपातनात् शेषरूपसिभिः अथवा हा. न. ॥ मनु विशे० नं० पं. स. दर्श० कर्मज्योतं.।। कानादिगुणानामाममसायमात्मानं करोति । यदि वा श्राबावमन-आवगन-त्रि० प्राथासं कुर्वन्ति । समन्ताहण्या इयिकायादिभाषशप्रषो यस्मात्तदाष Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । भावस्सय श्यकं । शेषातिकप् प्रत्ययः याद वा ज्ञानादिगुणकदम्बकं वसनिवास इति गुणशून्यमात्मानं गुणैरासमन्ताहासयति मोकोवा प्रासमन्तादृश्यः क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकं । आ० म. गुणसांनिध्यमात्मनः करोतीत्यावासकं । अथवा यथावद प्र. १ अ.1 प्रव० स्था. ग. । विशे। प्रोधः।। वासघपादिभिस्तथा गुणैरासमन्तादात्मानं वासयति भावयदसणविणए आवस्सए असीमव्वए निरइआरो। तिरंजयत्यावासकं। यदि वा बस आच्छादने गुणरासमंताआवश्यकं अवश्यकर्तव्यं संयमन्यापारनिष्पर्ण तस्मिन्पिक दात्मानं गदयति । ग्द षट्ट संवरणे । दोषेज्यः संघृणोत्या विशुद्ध्यायुत्तरगुणकसाप, इति । आ० क । का.। घश्यकमिति तदेतदेवमावस्सयत्याचं पय्यायनाम व्याख्यातं । तत्प्रतिपादके सामायिकादिषमभ्ययनकलापात्मके अङ्गबाधे शेषायतिदिशन्नाह ॥ श्रुतविशेषे च अनु० । विशे० । स्था। नंदी। समएणं सावएणय, अवस्सकायव्वं हवई जम्हा। एवं विप्र सेसाई, विठसाय सवखणाणुसारेण । अंतो अहो नितस्सय, तम्हा आवस्सय नाम सेत्तं कमसो वत्तव्बाई, तहा सुयक्खंधनामाई॥ एवमेव शेषायपि अवश्यकरणीयादिनामानि सिकान्तंबक्कआवसयं ॥ णानुसारेण क्रमशो विदुषा वक्तव्यानि । तद्यथा । ममुनि टी. श्रमणादिना अहोरात्रस्य मध्ये यस्मादवश्य क्रियते । रवश्यं क्रियतइति अवश्यंकरणीयमिदमुच्यते । तथा अर्थतो तस्मादावश्यकं । एवमवश्यकरणीयादिपदानामपि व्युत्पत्तिभ्रष्टश्या । उपमणत्वादस्य शति गाथार्थः । अन.।। ध्रुवत्वाधास्वतत्वाध्रुवं । निग्राने इन्द्रियकषायादयो नावशतसाच विशेषावश्यक । आवश्यकस्य पायनामान्याभ प्रवोऽनेनेति निग्रहः । अन्ये तुप्रवाहतोऽनादिकालीनध्रुवं कर्म धित्सुराह। तविग्रह्यते अनेनेति धुवनिग्रह प्रत्येकमवेदं पर्यायनाम व्याच क्वते । कर्ममशिनस्याश्मनोविशुभिहेतुत्वाधियः । सामापर्यायाः॥ यिकादिषध्ययनात्मकत्वादध्ययनषट्कं । वृजी वर्जने वृज्यन्ते तस्साजिन्नत्याई, सुपसत्याई जहंनु निययाई। दूरतः परिहियन्ते रागादयो दोषा अननोत वर्गः । अन्येतुषमअव्यामोहाई, निनित्तमाहपज्जाय नामाई॥ ध्ययनकापात्मकत्वादभ्ययनषट्कवर्ग तीदमत्येकमेव पतस्याऽवश्यकस्य पर्यायनामान्याह शर्त संबन्धः । कथंनू- यायं नाम अषते । अभिप्रेतार्थ.सः सम्यगुपायत्वान्यायः तान्यभिन्नार्थानि सुप्रशस्तानि यथाथों व्यवस्थितस्तथैव निय- अथवा जीवकर्मसंबन्धापनयनान्न्यायः । अयमभिप्रायो यथा तानि निश्चितानि । किामेत्याह ।। अवामोहादिनिमित्तं एका काराणकैथै न्यायोब्योरर्थप्रत्यर्थिना मिद्रव्यादिसंबंधे र्थिी पर्यायनामभितिरन्योन्यस्यानेष्वन्यान्यनामश्रवणतः चिरकालानमप्यपनयत्येवं जीवकर्मणारनादिकाशीनमप्याश्रशिष्यो नमुह्यति । आदिशब्दान्नानादेशजविनयानां सुखेनवार्थ यायिनावसम्बधमपनयतीत्यावश्यकमपिन्याय उच्यते । मोप्रतिपत्तिभवति इत्यादि वाच्यामिति ॥ वाराधन हेतुत्वादाराधना मोकपुरप्रापकत्वान्मार्ग व मार्ग कानि पुनस्तानि पर्यायनामानीत्याह । शति ॥ विशे०॥ अनु० ॥ आ०॥०॥ आ० म०प्र०॥ आवस्मयं १ अवस्सकरणिजं धुव ३ निग्गहो । आवश्यकस्य चतुर्धा निकेपो नामस्थापनाव्यभावनंदात वितोहिय ५ अज्झयण ६ बक्वग्गो ७ घनान G सेकिंतं आवस्मयं चनधिहं पम्पत्तं । तंजहा। आराहणाए मग्गो १० नामावस्सयं १ उवणावस्सयं दवावस्सयं ३ नापतानि दश पय्योयनामानि॥ अनावश्यकमिति कः शब्दार्यः श्त्याह । वावस्सयं ४॥ समण सावमय, अवस्सकायब्धयं हवई जम्हा। (सेकित आवस्सय) मित्यादि अत्र से शब्दो मागधवेशी अंतो अहोनिसिस्ता, तम्हा श्रावस्सयं नाम ।। प्रसिद्धोऽथ शब्दायें वर्तते। अथ शब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः। श्रमणादिभिरहोरात्रिमध्यवश्यंकरणादावश्यकमितीह तात्प | स्तथा चोक्तम् ॥ येमिति ॥ अय प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमंगोऽपन्यासनिर्वचनसमुच्चयेष्विति पतदेव सविशेषमाह॥ किमिति परप्रश्ने । तदिति सर्वनामपूवप्रक्रान्तपरामर्शायें । जदवस्सं कायचं, तेगावस्सयमिदंगुणाणं वा । ततश्चायं समुदायार्येध्य किं स्वरूप तदावश्यकं । एवं श्रावस्सयमाहारो, आमज्जायानिमिहिवाइ । प्रश्रिते सत्याचार्यः शिष्यवचनाऽनुरोधेन समाधानार्थ प्रत्युअवस्संवा जावं, करेइ जं नाणदंसणगुणाणं । च्चार्य निर्देिशति॥ (आवस्सयं च विहं) इत्यादि अवश्य कर्तव्यमावश्यकम् । संनिधनावगत्ययणेहि, वा वासयं गुणोओ ॥ अथवा गुणानामासमंताश्यमात्मानं करोति इत्यावश्यकम्। यद्यस्मादवश्यं कर्तव्यं तेन तस्मादावत्यकमिदमित्यत्तत्प्रा. ययोऽतं करतीति अन्तकः । अथवा आवस्सयंति प्राकृत कनगाबायाः पर्यवसितार्थकयनमेव । अञ्चवा आङ्मर्यादाभि हौल्या आवासकं । अत्र वस निवासे पति गुण शग्यमात्मानं विधिवाची। प्रामर्यादया अनिविधिमा घा गुणानामापाश्चय वा समंताबासयति गुणरित्यावश्यकं (चविहं पण तंत्ति) आधार श्वमित्यापाश्रयं गुणाधारमित्यर्खः । नन्चाऽधार चतस्रो विधा बेदा अस्येति चतुर्विधम् प्रज्ञप्तं प्ररूपितमर्थत पाचक प्रापाश्रयशब्दः पुंल्लिंगे वर्तते । तत्कथमापाश्रय स्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैस्तद्यया ( नामावस्सय) मित्यादि तीति नपुंसकत्वमितिचन्न । प्राकृतशैलीधशतोऽदोषादिति । नामावधानतदूरूपमावश्यकं नामावश्यकं आवश्यका भिधाभयवा ज्ञानादिगुणानामासमंताध्यमात्मानकरोतीत्यावश्य- नमेधेत्यर्थः । अथवा नाम्ना नाममात्रेणाऽवश्यक जीवादी के । यथा । अन्तं करोतीत्यंतकः । सान्निध्यभावच्छाद. त्यर्यस्तवक्कणञ्चदम् । यद्वस्तुनोऽनिधानं स्थितमन्थार्थ तदर्थनैर्वा आवासकं गुणत श्त्यावासकमुच्यते । श्वमुक्त भवति। नरपके पर्यायाननिधेयं च नाम यादृच्छिक तथा विनेयाऽनु Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) श्रावस्सय अभिधानराजेन्धः । श्रावस्सय प्रहार्यमेतद्व्याख्या यवस्तुन इन्द्रादिरभिधानमिन्छ इत्याद बहूनां जीवानामावासनाम भवति । दानामुनयस्यावा' वर्णावलिमात्रमिदमेव आवश्यकलकणवर्णचतुष्टयावलीमात्र सकसंझा भाज्यते । तत्र गृहदीर्घिका अशोकवनिकायुपशोमिदमेव। भितःप्रासादादिप्रदेशो राजादेरावास उच्यते । सीधादि भावश्यकनकणवर्णचतुष्टयावनिमात्रं । यत्तदोर्नित्यान्निसंब विमान चा दवानामावासोऽभिधीयते । अत्र च जमवृकादयन्धात्तन्नामेति संटंकः॥ स्सचेतनरत्नादयश्च जीवा इष्टकाः काष्ठादयो चेतनरत्नादयअथ प्रकारान्तरण नाम्नोलवणमाह। स्थितमन्यार्थे तदर्थ- श्चाजीवास्तनिष्पन्नमुनयं तस्य कपप्रत्ययोपादाने आवासनिरपेकं पर्यायाननिधेयञ्चति तदपि नाम यत्कथंनूतमित्याह क संज्ञा सिहा । उभयानां स्वावासक संझा यथा सम्पूर्णलग। अन्यश्वासावर्थश्च अन्यार्थो गोपालदारकादिनक्कणस्तत्र रादिक राजादीनामावास उच्यते । सम्पूर्णः सौधर्मादिकस्थितमन्यत्रन्द्रादाचर्थे यथार्थत्वेन प्रसिकं तदन्यत्र गोपालदार रूपो वा इन्द्रादीनामावासोभिधीयते । अत्रच पूर्वोक्तमासा कादी यदारोपितमित्यर्थः। अतएवाह । तदर्थनिरपेक्रमिति। दविमानयोजघुत्वादकमेव जीवाजीवोभयं विवक्तिमत्र तु तस्येन्डादिनाम्नोऽर्थः परमैश्वर्यादिरूपस्तदर्थः । स चा नगपदोनां सोधर्मादिकल्पानां च महस्वादहूनि जीवाजीसावयश्चेति वा तदर्थस्तस्य निरपेकं गोपालदारकादो तया वोत्रयानि विवकितानीति विवायाजेदो दृष्टश्यः एवमन्यत्रातदर्थस्याऽभावात्पुनः किम्तूतं तदित्याह । पर्यायानन्नि ऽपि जीवादोनामावासकसंझा यया सम्भवं जावनीया ॥ धेयामिति । पर्यायाणां शक्रपुरन्दरादोनामननियमवाच्य दिमाशप्रदर्शनार्थत्वादस्थ निगमयन्नाह । (सेतमित्यादि) गोपामदारकादयो हीन्जादिशब्दैरुच्यमाना अपि शचीपत्य (सेत/मित्यादि वा कचित्पावः तदेतन्नामावश्यकमित्यर्थः॥ दिरिव शक्रपुरन्दरादिशब्दैनभिधीयन्ते । अतस्तन्नामाऽपि श्वानां स्वापनावश्यकनिरूपणाईमाह ।। नाम तहतोरनेदोपचारात्पर्यायानभिधेयमित्युच्यतेच शब्दा सेकिंतं उवणावस्सप २ जम्मं कटकम्मे वा पोत्यकम्मे साम्न एव बकणान्तरसूचकं शचीपत्यादी प्रसिक । तन्नाम धाच्यार्थशून्ये अन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितं तदपि नामे वा चित्तकम्मे वा लिप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेदिमे वा ति तात्पर्य्यम् । तृतीयप्रकारेणापि बरणमाह । यादकि पूरिमे वा संघाइ मेवा अक्खेवा वरानए वा एगोवा अणे च तथेति । तथाविधव्युत्पत्तिशून्यं मिथकपित्यादिरूपं यार- गोवा सजावठवणा वा असज्मावणा वा असहाय चिकं स्वेच्छया नाम क्रियते तदपि नामेत्यार्थिः ॥ अनु०॥ वगा वा आवस्सएत्ति हवगाउविज्ज सेत्तं हवणावप्रश्न नामावश्यकस्वरूपनिरूपणार्थ सूत्रकार एवाह । सयं । नाम हवणाणं कोपशवसेसो णामं आवस्सकहि सेकिंतं नामावस्मयं जस्स एं जीवस्स वा अजीवस्स उवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा ॥ वा जीवाण वा अजीवाण वा तउन्नयस्त वा तउजया टीका । सेकितमित्यादि अथ किंतत् स्थापनावश्यकमिति ण वा आवस्सएत्ति नाम कन्जइ सेत्तं नामावस्मयं ॥ प्रइने सत्याह । (ग्वणा आवस्सय जन्म) मित्यादि । तत्र अथ किं तन्नामावस्सकमिति प्रश्ने सत्याह । ( नामावस्सयं स्थाप्यत शुष्कोध्यमित्यनिप्रायेण क्रियते निर्वयंत ति ससाजस्स ण ) मित्यादि । अत्र विकलकणेनाऽङ्केन चितं कि पना । काष्टकर्मादिगतावश्यकवत् साध्वादिरूपा । सा चासो तीयमाप (नामावस्सयं) ति पदं षष्टव्यं । एवमन्यत्रापि आवश्यकतहतोरजेदोपचारादावश्यकं च स्थापनावश्यके यथासभवमन्यूह्यम् । णमिति वाक्यालङ्कारे। यस्य वस्तुको स्वापना झक्कणं च सामान्यत श्दमुक्ते । यो तदर्थवियुक्त जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानामजीवानां वा ( तभय. तदभिप्रायेण यच तत्कराण सेप्यादिकर्म तत्स्थापनति स्स वा) तभयानां वा आवश्यकमिति यन्नाम क्रियते तना क्रियते अल्पकालं च ॥१॥ति विनेयाऽनुग्रहार्थमत्रापिण्यामावश्यकमित्यादिपदेन संबन्धः ॥ नाम च तदावश्यकं चेति. ख्यातुशब्दो नामसवणस्य स्थापनासकणस्य भेदसूचकःस व्युत्पत्तिरथवा यस्य जीवादिवस्तुनः आवश्यकामिति नाम क्रि- चासावर्थश्च तदर्थो जान्छभावावश्यकादिक्षतणस्तेनवियुक्तं यते। तदव जीवादिवस्तु नामावश्यकं । नाम्ना नाममात्रेणाव रहितं यस्तु तदनिप्रायेण भावेन्द्राधभिप्रायण क्रियते स्थाप्यश्यकं नामावश्यकामति व्युत्पत्तिर्वाशब्दाः पक्वान्तरे सूचका तेतत् स्थापनेति संवंधः। किंविशिष्टं यादित्याहा यश्च तत्करणि इति समुदायार्थस्तत्र जीवस्य कथमावश्यकामति नाम संभ तेन भावेन्द्रादिना सहकारणिः सादृश्यं तस्य तत्करणि तासपतीत्युच्यते । यथा लोके जीवस्य स्वपुत्रादेः कश्चित्साह को देवदत्त इत्यादि नाम करोति । तथाकश्चित्स्वाग्निप्रायव दृशमित्यर्थः । चशब्दात्तदकरणिवाकादिवस्तु गृह्यते। अवसशादावश्यकामित्याप नाम करोति । अजीवस्य कयमिति चेषु रशमित्यर्थः । किंपुनस्तदेवंनूतं वस्त्वित्याह । सेप्यादिकर्मेति ब्यते । हावश्यकावासकशब्दयारेकार्थता प्रागुता । ततश्चो सेप्यपुत्तलिकादीत्यर्थः । श्रादिशब्दात् काष्ठपुससिकादि गृह्यते कंशुष्कोऽचित्तो बहुकोटराकोएलो वृक्तोऽन्यो वा तथाविध अकरादि अनाकारं कियंतं कास तत् क्रियते इत्याह । अस्पः कश्चित्पदार्थविशेषस्सपोदेरावासोऽयमिति लोकिकैर्व्यपदि कामो यस्प तदल्पकास मित्वरकाशमित्यर्थः । चशदायावइयत एव । स च वृक्कादिर्यद्यप्यनन्तैः परमाणुलवणैरजीव कथितं शाश्वतप्रतिमादि यत्पुनविन्डाद्यर्थरहितं साकार द्रव्यैनिप्पन्नस्तथाप्यकस्कंधपरिणातिमाभित्यकाजीवत्वेन विव मनाकारं वा तदर्थानिमायण क्रियते तत् स्थापनेति तात्पर्यकित इति स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेकानि वयस्यावास मित्यार्थिः॥ कनाम सिद्धम् ।जीवानामपि बहूनामावासकनाम सन्दृश्यते । इदानी प्रकृतमुच्यते (जांति) णमिति वाक्याऽसंकारे यत्काष्ठ यथा इटकापाकाद्यग्निर्मूषिकावास इत्युच्यते । तत्र हाम्नौ किल कर्मणि चा चित्रकर्मणि षा वराटके वापको वा भनेको वा मूषिकाः संमूर्च्छन्त्यतस्तेषामसङ्ख्येयानामम्निजीवानांपूर्व- सझावस्थापनायां वा असजावस्थापनायबा। मावल्साति। दापासकनाम सिकम् । अजीवानान्तु यथा नी परिणाम आवश्यकतहतार दोपचारात्तनिह गृहातेस्तकोषामनेवास कृत्युच्यते । तची बहुभिस्तृणाद्यजीनिष्पद्यते । इति । को वो कर्य नूतां अत उच्यते । आवश्यकक्रिया पानावश्यक Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४ पावरसय अभिधानराजेन्द्रः। आवस्सय क्रियावन्तो वा (ग्वणा वित्तेत्ति) स्थापनारूपं स्या थोपनः । सोऽध्यत्वान्नेह विवक्षित इत्यदोषः । उपत्रकणमात्रं प्यते क्रियते आवृत्या बहुवचनांतत्वे स्थापनारूपाः स्थाप्यते चेदं । कालभेदेनतयोर्भेद कथनमपरस्यापि बहुप्रकाराभेदस्य तत् स्थापनावश्यकमित्यादिपदन संबन्ध इति समुदायार्थः। सम्भवात्तथाहि । यथेन्मादिप्रतिमास्थापनायां कुएमनांगदादि काष्ठकर्मादिष्यावश्यक क्रियां कुर्वतो ये स्थापनारूपा सा- जूषितः सनिहितशचीयजादिराकार उपमन्यते ।न तथा भ्वादयः स्थाप्यते तत् स्थापनावश्यकमिति तात्पर्यम् । नामेन्त्रादौ । एवं यथा स्थापनादर्शनाभावः । समुल्लअधुना अवयवार्थमुच्यते । तत्र क्रियत इति कर्म काष्ठकर्म सति मैव मिन्धादिश्रवणमात्राद् । ययाच तत् स्थापनार्या काष्ठनिष्कुट्टितं रूपकमित्यर्थः । चित्रकर्म चित्रलिखितं लोकस्योपय चितेवापूजाप्रवृत्ति समीहितानादयोरश्यन्ते रूपकं (पोत्थकम्मवेत्ति) अत्र पोत्थं पोतं वस्त्रमित्यर्थः तत्र नैवं । नामेन्मादावित्येव मन्यदपि वाच्यामिति । कर्म तत्पशवनिष्पन्न वा उल्लिकारूपकमित्यर्थः । अथवा उक्तं स्यापनावश्यकम् । पोत्यं पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते । तत्र कर्म तन्मध्ये अत्र नाम इदानी व्यावश्यकनिरूपणाय प्रश्न कारयति । घर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः । अथवा पोत्थं तानपत्रादि सेकिन दव्यावस्मयं दवावसयं विहं पहात्तं । तंजहा । तत्र कर्म तच्छेद निष्पन्न रूपकं लेप्यकर्म लेप्यरूपकं ग्रन्थिम आगमओ अनो आगमओ अ॥ कोशमातिशयाद् प्रन्धिसमुदायनिष्पादितं रूपकं वेष्टिमं पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्नमानन्दपुरादि प्रतीत्य रूपमथवा पकं द्वे टी. अथ किंतत् व्यावश्यकमिति पृणे सत्याह । (दब्यावबीणि वस्त्राणि वेष्टयित्वा यत् किंचित् रूपकं तत्स्थापयति स्लयं दुविह) मित्यादि तत्र द्रवति गच्छति तास्तान् पर्याया तहेष्टिमं । पूरिमं भरिमं पित्तवादिमयप्रतिमावत् । संघातिम निति व्यं विवक्तियोरतीतभविष्यजावयाः कारणम् अनुबहुवस्त्रादिख एमसंघातनिष्पन्न कञ्चुकवत् । अवश्चंदनको जतं विकिनन्नावं अनुनविप्यविक्तिभावं चास्ति इति धराटकः कपर्दकः । अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तका द्रव्यभूतस्य भाविनो वा नावस्य हिकारणं तु यल्लोके तत् प्रव्य दिपदानि दृश्यते । तान्यप्युक्तानुसारतो भावना यानि । वा तत्वज्ञः सचेतनचेतनं कथितम । शब्दाः पकान्तरसूचकाः । यथासम्भवमेवमन्यत्रापि एतेषु व्यातव्य तत्वहः कधितं तत्कथंभूतं व्यं यत्कारणं काष्ठकर्मादि आवश्यकियां कुर्वतः एकादि साध्यादयः सङ्गा- हेतुः कस्येत्याह । जावस्य पर्यायस्य कथभूतस्येत्याह । वस्थापनया असझावस्यापनया वा स्थापनावश्यक । तत्र नूतस्या तीतस्य नाविनोवा भविष्यतो वा मोके आधारतूते काष्टकमादिष्वाकारवती सज्ञावस्थापना साश्चाद्याकारस्य तत्र सचेतनं पुरुषादि अचेतनं च काष्ठादि नवति । तत्र सनावात् । अक्वादिषु तु नाऽकारवती असद्भावस्थापना एतदुक्तं भवति । साध्याकारस्य तत्रास झावादिति निगमयन्नाह । (सेत्त मित्या यः पूर्व स्वर्गादिष्विन्जादित्वेन जूत्वा श्दानीं मनुष्यादित्वेन दितदेतत् स्थापनावश्यकमित्यर्थः । अत्र नामस्थापनयोर परिणतः अतीतस्येन्डादिपर्यायस्य कारणत्वात्सांप्रतमपि द्रदेवं पश्यचिदमाह (नाम घ्वणाणं कोपरविसेसोत्ति) व्यमिद्रादिभिधीयते । अमात्यदिपदररिज्रष्टामात्यादिवत् नामस्यापनयोः कः प्रतिविशेषो न कश्चिदित्यभिप्रायः । तथा अग्रेऽपि य इन्जादित्वेनोत्पस्यते स श्दानीमपि नविष्यतयाह्यावश्यकादिभाचार्यशून्ये गोपानदारकादौ द्रव्यमात्र दिन्छादिपदपर्यायकारणत्वात् द्रव्यत इम्जादिरभिधीयते । यथावश्यकादि नाम कियते तत् स्थापनापि तव । तन्न्ये जविष्यद्राजकुमारराजवत्। एवमवेतनस्यापि काष्ठादे तत्नकाष्ठकर्मादी च्यमात्रे क्रियतेऽतो नावशून्य च्यमात्रे क्रिय विष्यतूपर्यायकारणत्वेन व्यता भावनीयेत् शत तात्पर्यार्थः । माणत्वात् विशेषानानयोः कश्चिविशेषः। अमोत्तरमाह। (नामं श्तः प्रकृतमुच्यते । तच्छेह व्यरुपमावश्यकं प्रकृतं तत्रा श्रावकहिय) मित्यादि नाम यावत्कथिक स्वाश्रयष्यस्या वश्यकोपयोगाधिष्ठितः साध्वादिदेहावन्दनकादिसूत्रोच्चारण स्तित्वकथां यावदनुवर्तते न पुनरन्तराऽप्युपरमते । स्थापना मकणश्चागमः | आवर्तदिका क्रिया चावश्यकमुच्यते । आपुनरित्वरा स्वरूपकासभाविनी वा स्याधावत् काथिका वा वश्यकोपयोगशून्यस्तु ता एवं देहागमक्रिया द्रव्यावश्यकं । स्वाश्रयजध्ये अवतिष्टमानेऽपि काचिदितराऽपि निवर्तते। तश्च विविध प्रज्ञप्तमिति । तद्यथा । आगमत आगममाश्रित्य । काचित्तु तत्सतां यावदवतिष्ठत इति भावस्तथाहि । नाम आ नो आगमतो नो आगममाश्रित्य नो आगमशब्दार्थ ययावसरवश्यकादिकं मेरुजम्बूदीपकसिङ्गमगधसुराष्ट्रादिकं चाद्यात् मेव वक्ष्यामः । चशब्दो प्यारापि स्वस्वविषये तुल्यप्राधान्यस्वाश्रयो गोपालदारकदेहादिः शिक्षासमुच्चयादि समस्ति- स्थापनार्यः। तावदवतिष्ठति शति । तद्यावत् कथिकमेव । स्थापनात्वावश्य अत्राद्यभेदं जिज्ञासुराह। कत्वेन योग्यः स्थापितः स कणांतर पुनरपि तथाविधप्रयोजन सेकिंतं आगम ओ दव्वावस्सयं २ जस्सणं आवस्तसम्नवे इम्मत्वेन स्थाप्यते । पुनरपि च राजादित्वमेत्यहपका सवर्तिनः शाश्वतप्रतिमादिरूपा तु यावतकधिकारवर्तते तस्मा एत्ति पदं तिक्खितं हितं जितं मितं परिजितं नाम समंघासतु अईदादिरूपेण सर्वदा तिष्ठतीति स्वापनेति व्युत्पतेः ।स्था समं अहोणकक्खरंणचकखरंअव्वाइफक्वरं अक्खपनात्वमवसेयं नतुस्याप्यत इति स्थापना शाश्वतत्वेन केनापि लिअं अमिनिअं अबच्चामेझियं पमिपुरमं परिपुष्पस्थाप्यमानत्वाभावादिति । तस्माजावशून्यद्रव्याधारसाम्ये घोस कंटोगविप्पमुकं गुरुवायणावगयं सेणं तत्थ वाय ऽप्यस्यनयोः काकृतोविशेषः । अत्राह । ननु यथा स्थापना। काचिदल्पकालीना तथा नामाणि किञ्चिदम्पकालीनमेव । गो पाए पुच्चणाए परिअटणाए धम्मक हाए नो अणुपहाए पामदारकादी विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरावृत्तिदर्शन- कम्हा अव प्रोगे दव्यामिति कन्टु । मुच्यते। टी०से किंत मित्यादि-अथ किं तदागमतो द्रव्यावश्य सत्यं । किन्तु प्रायो नाम यावत् कायकमेव। यस्तकाचदन्य- कमिति माह । (आगमतो दवावसयं जस्सण ) मित्यादि Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७५) अभिधानराजेन्द्रः । यावत्सय णमिति पूर्ववत्। जस्सत्ति यस्य आवस्सपति पयंति । आव इयकपदाभिधेयं शास्त्रमित्यर्थः । ततश्च यस्य कस्यचिदा वश्यकशास्त्रं शिङ्कितं जितं यावत् । वाचनेोपगतं भवति ( सेणं तत्थति । सजन्तुस्तत्रावश्यकशास्त्रे वाचनाप्रच्छना परिवर्तनाधकथभिवर्तमानोऽप्यावश्यकोपयोगे अवर्तमान आगनतः आगममाश्रित्य इन्यावश्यकमिति समुदायार्थः । are | नन्वागममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरूपमिदं आवश्यकमित्युक्तम् प्रयति । एतया । यतः आगमो ज्ञानं ज्ञानं च भाव एवेति । कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते । सत्य. मेत कित्वागमस्य कारणमात्मा तदधिष्ठितो दे हशब्दश्वोपयोग शून्यसूत्रोच्चारणरूप दहास्ति नतु साकादागमः । एतच्च त्रितयमागमकारणत्वात्कारणे कार्योपचारादागम उच्यते । कारणं च विवक्तिभावस्य इव्यमेव नवतीत्युक्तमेवेत्यदोषः । अनु०॥ शिक्षितादिपदानां व्या Maataraarvafari प्रतिपूर्णघोषं । अत्राह । समयुक्तमेतत्क र विशेष इत्युच्यते धोपसम नितिशामक प्रतिपूर्ण घोष तु परावर्तनादि कामधिपति विशेषः ॥ तदेवं यस्य जन्तोरावश्यकशास्त्रं शिक्षितादिगुणोपेतं भचति । स जंतुस्तत्रावश्यकशास्त्रे वाचनया शिष्याध्यापनलक पाया प्रध्यायादिर्गुरु प्रतिक्षणापरावर्तन यापुनः पुन स्वार्थाऽन्यास या धर्मकथयाहिंसादिधम्मप्रेरूप णस्व. रूपया वर्तमानोऽप्यनुपयुकत्वादिति साध्याहारमाग मतो solatesमित्यनेन सम्बंधः । ननु यथा वाचनादि जिस वर्तमानोऽपश्यावश्यकं नवति तथानुमेयाऽपि तत्र वर्तमानस्तद्भवति नेत्याह । ( नो अणुप्पेहापत्ति ) अनुप्रेक्या ग्रन्थार्थीनुचिंतनरूपया तत्र वर्तमानो न द्रव्यावश्यकमित्यर्थः । अनुहायामुपयोगमन्तरेणाऽनावादुपयुक्तस्य च द्रव्यावश्यकत्वायोग्यादितिज्ञावः । अवाह परः । ( म्हत ) ननु कस्मा हावाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि अव्यावश्यकं कं. स्माच्चानुप्रेकया तत्र वर्तमानो न तथेति प्रच्कानिप्रायः । एवं प्रत्याह । ( अणुवओगोदव्व ) मिति कृत्वा उपयोजनउपयोगोपि जीवस्य बोधरूपोव्यापारः । सचे विवचितार्थं चि तस्य विनिवेशस्वरूपो गृह्यते । न विद्यते सो यत्र सोऽनुपयोगः पदार्थः । सविवहितो पयोगस्य कारणमात्रत्वात् व्यमेव भवतीति कृत्वाऽस्मात्कारणान्तराजपथ शेष तदुक्तम प्रयत्युपयोगपूर्वका अनुपयेोगपूर्वकाय वाचना प्रच्छनादयः संभवत्येव तत्रेह षव्यावश्यकचिन्ता प्र. स्वावादनुपयोगपूर्वका व सूत्रेण निहितस्य पक्याच्याहारस्ततोऽनुपयोगस्तुभावशून्यता राज्य न्यं वस्तु व्यमेव भवतीत्यतोवाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि व्यावश्यकम् । अनुप्रेक्षा तूपयेोगपूर्विय संभवत्यतस्तथ वर्तमानो न तथेति नावार्थः । अत्राह । नयागममोपाध्यायश्यकमित्येतावसिके. शितादिश्रुतगुणकीर्तनमनर्थकम् । अत्रोच्यते । शिक्षिता गुणोत्कीर्तन कुपितवं तमपि निर्दोष श्रुतमुच्चारयतोऽनुपयुक्तस्य व्यतं स्यावश्यकमेव भवति किं पुनः सदोषकरूपादिमपि नः थुतमेव भवति । एवमन्यचाच प्रत्युपेक्षणादिकयाविशेषणः सर्वे निर्दोष अव्यपस्तथाविधफल शून्य प आवस्य उपयुक्तस्य न मतियेकल्पादित सोपा प्रथम कर्ममागमा यस्य विस्तरेण ॥ वह जिनमते सर्वमपि सूत्रमर्थश्च श्रोतृजनमुपेक्ष्य ( नत्थिनए िविहणं सुतं अत्यो व जिणमए किंचि आसज्जन सोयारं नए नयविसार ओप्या) इति वचनात् इदमपि व्यावश्यकं नश्चिन्यते तेच मूलदानाश्रित्य नैगमादयः सप्त तडुक्तं ॥ निगमसंगवा, उज्जर नेत्र होई बोये ।। सदयसमजिरूढे, एवं नूते य मूलनया ।। १ ।। रागमस्ताचाक्कियति ज्यावश्यकानीत्याद नैगमस्तुणं एगो वसो आगमओ एगं दव्याप सर्व दोविता आगमचं दो िदव्यावस्सपाइ तिणि अणुवत्ता यागमओ तिथि दव्यावस्थपाई एवं जाइआ उत्ता आगमओ तावइआई दव्वावस्सयाई एवमेव बहारस्तंवि संगहस्स णं एगो वा अणेगो वा अवतो वा अणुवहताना आगम दव्यावरसयं व्यावसयाणि वा उस्म एगे अवतो आगमतो एगं दव्त्रावसयं पुहुत्तं नेच्छइ तिएहं सहानयाणंजाए अपने प्रवस्यु कम्हा जर जाणए अणु बढते न जयसि सेर्त्त । आगमनुं दव्यास्त्रयं । डी० निगमस्सेत्यादि । सामान्यविशेषादि प्रकारेण नैको तु बहवो गमा वस्तुपरिच्छेदो यस्यासौ निरुक्तविधिना ककारोपाइ नेगमसामान्यविशेषादिप्रकार बहुरूप गमपर इत्यर्थ: । तस्य नैगमस्यको देवदत्तादिरनुपयुक्त आगमत एक व्यापक ही देवदत्तागमत अल्याचश्यके त्रयो देवदत्त दत्तसोमदता अनुपयुक्त गमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । किं बहुना । एवं यावन्तो देव दत्तदयुक्ताः सम्यतीतादिकापवर्ती गमस्था गमती व्यावश्यकानि एतदुक्तं भवति । नैगमो हि सामान्यरूपं विशेषरूपं च वस्वन्युपगच्छत्येव मे पुन माणसं प्रवासामान्यरूपमेव ततो विशेषत्यादित्यस्येद प्राचान्देन विकितावाद्यान्तः के यन देवदत्तादिविशेषा अनुपयुक्त स्तावन्ति सर्वा एयप्यसौ द्रव्यावश्यकाने न पुनः संग्रहवत्सामान्य वादित्वादेवारस व्यवहरणं व्यवहारो लौकिकप्रवृत्तिरूपस्तत्प्रधानो नयोऽपि व्यवहारस्तस्याप्येवमेव । नैगमवदेको देवदत्तादिरनुपयुक्तोऽथागमत एकं द्रव्या वश्यकमित्यादि सर्ववयमिदमुकं प्रति व्यवहारयो लोकल्यवहारोपकारिण एव पदार्थानन्युपगच्छति न शेषान् । सोकव्यवहारेच जसा हरणीदानादि के पटनियाद विशेष पुनस्तदतिरिक्तं तसामान्य मिति विशेषाने वस्तुवेन प्रतिपद्यतेऽसीन सामान्य व्यव दारानुपकारित्वाद्विशेष व्यतिरेकेाषउज्यमानत्वात विशेष दिनेगममत साम्येनातिरिष्ठ अत्र चालनार्थ समतिक्रम्यवहारोपन्यासः इति भावनीयं ( संग्रह त्यादि) सर्वमानयाऽन्तर्यवि स्मृति कुरु संगृह्णाति सामान्यरूपतयाऽध्यवस्यतीति संग्रहस्तस्य मते एको वा अनेको वा अनुपयुक्तोऽनुपयुक्ता वा यदा गमतो व्यावश्यक द्रव्यावश्यकानि वा तत्किमित्याह (स पंगति ) तदेकं द्रव्यावश्यकम् इदमत्र हृदयं । संग्रहनयः सा 1 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४७६) भावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । भावरसय मान्यमेवान्युपगति न विशेषानभिदधाति च सामान्या- व्याक्रियामावर्तादिकं कुर्वन्नित्याच्याहार बागम च बंदविशेषाद्व्यतिरिक्तास्युः। अव्यतिरिक्तास्युः अव्यतिरिक्ता वा नकसूत्रादिकमुच्चारयन् भावशून्यो य आवश्यक करोति सो यद्याचः पक्षः । तर्दिन सत्यमी निःसामान्यत्वात् खरबिषाण ऽपि नी आगमत इह जव्यावश्यकमितिशेषः । अत्र च क्रिषत् । अथापरः पास्ता सामान्यमेव तेतव्यतिरिक्तत्वात्सा यावादिकागमो न जयति जमत्वागमस्य च ज्ञानरूपत्वादतमान्यवरूपवत्तसारसामान्यज्यतिरेकेगा विशेषासिन्य निका स्तस्यागमस्य देशे क्रियाबवणे निषेधो जवति । क्रियाभागमो निविद्रव्यावश्यकानि तानि तस्सामान्याव्यतिरिक्तत्वादेकमेवं न जवतीत्यर्थः मतोनो आगमतश्तीह । किमुक्तं भवति । देशे संग्रहस्य जव्यावश्यकमिति ( उज्जसुयस्से) त्यादि । ऋज्व- क्रियालकणे आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकामात गाथार्थः॥ तीतानागतपरकोयपरिहारणमांज वस्तु सूत्रयस्य न्युपगच्छ- तदेवं नो आगमतः । आगमाभावमाश्रित्य व्यावश्यक त्रितीति । ऋजुसूत्रः । अयं हि वर्तमानकामभाव्य वस्त मन्यु विध प्रकप्तं तद्यथा शरीरकव्यावश्यकं १ भव्यशरीरदूच्यावपगात नातीत विनष्टत्वाचाऽप्यनागत मनुत्पन्नत्वाद्वर्तमान श्यक शरीरव्यशरीरव्यतिरिक्तं व्यावश्यकम्।३तत्राकानभाग्यपि स्वकीयमेव मन्यते खकार्यसाधुकत्वात् स्वधन. उभेदविवरीषुराह॥ पत्परकोयन्तु नेच्छति स्वकायाप्रसाधकत्वात् । परधनवत्तस्मा- सेकिंत जाणयसरीरदव्यावस्सयं श्रावस्मयस्स पयत्या देको देवदत्तादिरनुपयुक्तोऽस्यमते आगमत एक द्रव्यावश्य। हिगारं जाणयस्स जं सरीरयं ववगतचुतचा वितचत्तदेखें कमिति (पुहत्तं त्ति ) पुहत्तंनिच्छति । अतीतानागतो जीवविप्पजÉ शिज्जागतं वा संहारयगतं वा निसीहि. बतः परकीयभेदतश्च पृथक्त्वं पार्थक्यं नेच्छत्यसी फि तर्हिवर्तमानकालीनं स्वत्वमेवंचान्युपति तचैकमेवति (तिएहं आगतं वा सिकिसिझातागंतवापासित्ताणं कोइजणेज्जा सहनयाण) मित्यादि शब्दप्रधाना नया शब्दनयाः शब्दसम अहोणंम णं सरीरसमुस्सएणं जिण दिटेणं नावणं मिरूदैव नूतास्ते हि शब्दमेव प्रधानमिच्छतीत्यर्थन्तु गाणं श्रावस्सएत्ति पयं आधविरं पवि परूविधे दास शब्दवासनवार्थप्रतीतित्रयाणां शब्दनयान ज्ञापकोऽथवानुप निंदसिय उवदासिनं जहा को दिलुतो अयं घयकुंने युक्त इत्येतदेव तु न सम्वतीदमित्यर्थः। (कम्हेति) कस्मादेवमुच्यते इत्याह । यदिशापकस्तानुपयुको न भवति ज्ञान भासी अयं महुकुंजे आसीसेत्तं जाणयसरीरदबावस्सय ।। स्योपयोगरूपत्वादिदमत्रहदयं । आवश्यकशास्त्रास्तत्रा चानु टी० । अथ किंततज्ञशरीरव्यावश्कमिर्ति प्रश्ने निर्वधनमाह। पयुक्त आगमतो च्यावश्यकमिति प्राग्निर्णोतमेव स्वामी न (जाणयसरीरदज्वावस्सयं आवस्सपत्तीत्यादि) इतवानिति प्रतिपद्यते यावश्यकशास जानाति कथमनुपयुक्तोऽनुपयु- इ-प्रतिकण शीयत इति शरोरं ज्ञस्यशरीर इशरीरं तदेव अनुयुक्तम्चेत् कथं जानाति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वात् यदप्याग नूतनववाद व्यावश्यकं किंतदित्याह । यच्चरीरकं संपर्क मकारणादात्मदेवादिकमागमत्वेनोक्तं तदप्योपचारिकत्वाद च वपुरित्यथः । कस्य संबधीत्याह । प्रायस्सएतीत्यादि मीन मन्यन्ते । शुरुनयत्वेन मुख्यवस्त्वत्युपगमपरत्वात्तस्मा भावश्यकमिति यत्पदं आवश्यकपदाभिधेयं शामित्यर्थः । देतन्मते व्यावश्यकस्यासंभव इति निगमयन्नाह (सेत्तमि तस्यार्थ एवार्याधिकारोऽनेके वा तत्तार्था अधिकारा गृह्यन्तेप्यादि) तदेतदागमतो व्यावश्यकन्तेनउक्तम् आगमतोमच्या तस्यतेगंवा वाज्ञातु संबंधि कथं नूतं तदिदं ॥शरीरं द्रव्या वश्यकमिदानीम् ॥ वश्यकं भवतीत्याह व्यपगतच्युतं त्यक्तदहं जीवविप्रमुत्तमिश्दानी ना आगमतस्तदुच्यते॥से किं तं नो आगमओ दवा स्यकरयोजना । इदानीं भावाथः कश्चिमुच्यते तत्र । व्यपगतबस्सय २तिविहं पमत्तं तंजाणय सरीर दवावस्सयं ॥ टी० चैतन्यपर्यायादचैतन्यत्रकणं पर्यायान्तरं प्राप्तमत एष च्युत अथ किंतन्नो आगमतोषच्यावश्यकामति प्रश्नः। उत्तरमाह मो आगमउ दव्यावस्सयं तिविहं पातमित्यादिनो आगमत सवासमिःस्वासजीवितादिवश विधप्रमाणेभ्यः परितष्टम् । इत्यत्र नो शब्द आगमस्य सर्वनिषेधे देशनिषधे वा वर्तते अचैतन्यं श्वासाद्ययोग्यत्वादन्यथा लेतादीनामपि तत्प्रसंगा तन्यश्वपरिचशस्वभावादिभिःकश्चित् स्वन्नावतएवान्युपगयत उक्तं पूर्वमुनिभिः॥ म्यते । तदपोहार्थमाह । च्यावित आयुःकयण तेभ्यःपरिभसिआगमसम्बनिसेहे नोसदोअहंबदेसपमिसेहे।। तीन नुस्वभावतस्तस्य सदावस्थितत्वेन सर्वदा तत्प्रसंगादेवं सव्धे जहासरीरं जबस्स य आगमानावा ।। च सति कर्थ नूत तदित्याह । त्यक्तदेह दिह पचये त्यत्तो व्याख्या । आगमस्यावश्यकादिज्ञानस्य सर्वनिषेधे वर्त्तते देह आहारपरिणामजनितोपचयो येन तस्यक्तदेहं । अचेत नोशब्दोऽथवा तस्यैव देशप्रतिषधे वर्तते । तत्र ( सव्यत्ति) नस्याहारग्रहणपरिणत्योर जावात् । एवमुत्ते.न विधिना जीवेसर्वनिषेधउदाहरणमुच्यते यथेत्युपर्दशने ( सरीरति ) तस्य नात्मना विधमनेकथा प्रकर्षण मुक्तं जीवविप्रमुक्तकं कि जानतःशरीरं शरीरं मो आगमत श्ह च्यावश्यकं भव्यस्य तदेतदावश्यकं । इस्य शरीरमतीता वश्यकभावस्य कारणच योग्यस्य यथारीरं तदपि नो आगमत इह व्यावश्यक त्वाचव्यावश्यकम् । अस्य च नो आगमत्वमागमस्य तद्नी कुत इत्याह । आगमस्यावश्यकादिज्ञानप्रकणस्य सर्वथा अ- सर्वथा नावानो शब्दस्य चात्र पके सर्वनिषेध वचनत्वादिति भावादिदमुक्तं प्रायः। ननु यदि जीवविप्रमुक्तमिदं कथं तह्यस्य व्यावश्यप्रवति । शरीरं जन्यशरीरं चानन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपं कत्वं श्रेष्ठतादीनामाप तत्प्रसंगात्तत्पुभयानामपि कदाचिदावना आगमतःसर्वथा आगमामावमाश्रित्य व्यावश्यकमुच्यते। श्यकतृभिहीत्वा मुक्तत्वसंभवादत्याशक्याह । ( सज्जा नोशब्दस्याऽत्र पक्के सर्वनिषेधवचनत्वादिति गाथार्थः। गत) मित्यादि यस्मादिद शय्यागतं वा संस्तागतं न नषधिदेशप्रतिषेधवचनेऽपि नोशब्दे उदाहरणम् । यथा ॥ कीगतं वा सिद्धशिनातागतं वा दृष्ट्वा को ऽपि ध्याद होने किरियागमुच्चरंतो, आवासं कुणई जायसुनेउ । न शरीरसमुच्छायेण जिनदृष्टितभोवन भाषश्यकमित्येतत्पदं किरियागमा न होई, तस्स निसेहो जवेदेसे ॥ गृहीतमित्यादि यावऽपदार्शतमिात तस्मावतीतवर्तमान Jain Education Interational Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावस्सय अभिधोनराजेन्द्रः। भावस्सय कालभावि वस्त्वेकत्वमाहिनयानुसारिणामवं वादिनां स- हितीयभेदनिरूपणायमाह। म्मवायोक्तशरीरस्य अन्यावश्यकत्वं न विरुभ्यते लेष्ट्वाविव से किंतंजविसरीरदव्याबस्सय जे जीवे जोणिजशेने पुनर्नेत्यंततः प्रत्ययः कस्याप समुत्पद्यत इति । न तेषां म्मणनिक्वते इमे णं चेव अत्तएणं सरीरसमुस्सएणं तत्प्रसंगस्तेनैव करचरणोरुग्रीवादिपारणामनानन्तरमेवाषश्यककारणत्वेन ध्यावृतत्वातदेव तथाविधप्रत्ययजनकं . जिणदिटेणं नावण आवस्सयति पयं सेअकाले सिक्खिव्यावश्यक सेवादय तिभाव रति समुदायार्थः। इदानीम स्सति न ताव सिक्वति जहा को दिहतो अयं महकुने अयथार्थ उच्यते । तत्र शय्या महती सांगप्रमाणा तां गतं जविस्सइ अयं घयकुंजे नाविस्सइ सेत्तं नावअसरीरदशम्यास्थितमित्यर्थः । संस्तारो अधुकोऽतृतीयहस्तमान स्तंगत तत्रस्यमित्यर्थः । यत्र साधवस्तपःपरिकर्मिमतशरीराः व्यावस्सयं ॥ स्वयमेव गत्वा भक्तपरिहानशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपद्यते प्रतिः अथ किं तद्भव्यशरीरदब्यावश्यकमिति प्रसत्याह (भविपत्स्यन्ते च तत्सिरशिलातसमुच्यते । क्षेत्रगुणतो यथा नक यसरीर व्यावस्स जे जीवे)इत्यादि। विवक्षितपर्यायेण भकदेवतागुणतो पा साधूनामाराधनाः सिध्यति ।श ततिक विष्यतीति भव्यो विवक्षितपर्यायाईस्तयोम्य इत्यर्थः। तस्य वा अन्येऽप्याचक्ते। यत्रमहर्षिः कश्चित्सिरूस्तत् सिकाशमा शरीरं तदेव भाषिभावावश्यककारणत्वात् कण्यावश्यक तसं तद्वतं तत्र स्थित सिमाक्षातलगतम्। इह निसीहयाग भव्यशरीरब्यावश्यक किं पुनस्तदित्यत्रोच्यते । यो जीवो संचेत्यादीन्यपि पदानि वाचनातरे श्यते तानि च सुगमत्या योनिजन्मभिनिष्कांतोऽनेन च शरीरसमुच्यणजिनोपदिष्म त् स्वयमेव भावनीयानि।नवरं नैषेधिकी शवपरिस्थापननूमिः भावेन भावश्यकमित्येतत्पदं मागामिनि कामे शिकिम्यते अपरं चात्रान्तरे (पासित्ताण को नणिज्जेति) ग्रंथः । कचि- न तावनिक्कते यजीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यहारीखव्यादृश्यते स च समुदायार्थकथनाघसरणे जित एष यत्र तुन वश्यकमिति समुदायार्थः सांप्रतमवयषार्थ सच्यते । श्यते तत्राभ्याहारो द्रष्टव्यः । अहो शब्दो दैन्यविस्मयामंत्र- तत्र यः कश्चिजीवो जंतुर्योन्या योषिदवाच्यदेशमकणाघेषु वर्तते । स चेह विष्वनि घटते तथाह्यनित्यशरीरमिति या परिपूर्णसमस्तहो जन्मत्वेन जन्मसमयेन निकांत दैन्ये आवश्यकं कातमिति विस्मयेऽन्य विपास्थितमामंत्र- न पुर्नगर्भावस्थ एव पतितो योनिजन्मत्वनिकांतः । प्रयमाणस्यामंत्रणे अनेन प्रत्यक्षातया द्रश्यमानेन शरीरमेय पु- नेन च शरीरमेव पुससंघातत्वानुत्पत्तिसमयादारज्य हासंघातत्वात् समुन्यस्तेन जिनपुष्टेन तीर्थकराभिमते- प्रतिसमयं समुत्सर्पणाचा समुच्चयस्तेन । प्रात्तेनादत्तेन न भावन कर्मनिर्जरेणाभिप्रायेण भवा नावेन तदाव षा गृहीतेन प्राकृतशेखीवशादात्मीयेन वा जिनोपविष्टेनेणकर्मकयोपशमनवणेन अावश्यकपदाभिधेयं शास्त्रम त्यादि पूर्ववत् (सेयकातित्ति) गंदसत्वादागामिनि कामे ( प्रावियति ) प्राकृतशैल्या गंदसत्वाश्च गु रोः स. शिकिप्यते अभ्येष्यते । सांप्रतन्तु न तावदद्यपिशिकते तज्जी काशादूगृहीतं प्रशापितं सामान्यतो विनयेन्यः कश्चितं वाधिष्ठितशरीरं भव्यशरीररुच्यावश्यकं नो बागमत्वं चाप्या प्ररूपितं तेज्य एव प्रतिसूत्रमर्शकचनतः । दर्शितं प्रत्युपेकणा गमाभावमाश्रित्य मन्तव्यं । तवांनी तत्र षपुण्यागमानावान्नो दिक्रियादर्शनतः। श्वं क्रिया पनिरकरैरोपात्ता । इत्वं च क्रि शब्दस्य चावापि सर्वनिषेधवचनत्यात् । अत्राह ।नन्याययते इत्येवं विनयेन्यः प्रकटितमितिभावः । निदर्शित कचि श्यकस्य कारणं ज्यावश्यकमुच्यते । यदि स्वत्र वपुण्यागमादगृहतः परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुनदर्शितं । उपदर्शित भावः । कथं तर्हितस्य तं प्रतिकारणत्यं न हि कार्याभावे बसर्वनययुक्तिनिः आह । नन्वनेन शरीरसमुच्चयेणाऽवश्य- स्तुः कारणत्व युज्यते अतिप्रसंगात् । ततः कथमस्य व्यावकमागृहीतमित्यादि नोपपद्यते गृहणप्ररूपणादीनां जीवधर्म- श्यकता । सत्य । किन्तु भविष्यत्पर्यायस्येदानीमपि योऽस्तित्वेन शरीरस्याञ्घटमानकत्वा सत्यं । किन्तु भूतपूर्वगत्या स्वसुपचारितनयस्तदनुवृत्यास्यव्यावश्यकत्वमुच्यते।तथा च जीवशरीरपोरभेदोपचारादित्यमुपन्यास इत्यदोषः । पुनर तदनुसारिणः पति भाविनि नूतवदुपचार शति अत्रार्थेष्टांत प्याह ।ननु यद्यपि तच्छरीरकं शय्यादिगतं वा पूर्वोक्तवतारो विदर्शयिषुः प्रथं कारयति । यथा कोऽत्र दृष्टांत इति निर्वचन भवंति तथापि कथं तस्य द्रव्यावश्यकता यत्नावश्यकस्य माह । यथायं मधुकुंनो भविष्यतीत्यादि । एतदुक्तं भवति कारणमेष द्रव्यावश्यकं वितुमर्हति नृतस्य भाषिनो घेत्या- यथा मधुनिघृते वा प्रहप्तुमिष्टे तदाधारत्वपर्याये नविष्यत्यपि दि पूर्वोक्तवचनात् । कारणं चागमय चेतनाधिष्ठितमेष शरी- सोकेऽयं मधुकुंभो घृतकुंजो वेत्यादिव्यपदेशो दृश्यते । तथा नत्विदं चेतनारहितत्वात्तस्थापि तत्कारणत्वेऽतिप्रसंगात्स- स्याप्यावश्यक कारणत्व पाये भविष्यत्यापि तदस्तित्वपरत्य । कित्यतीतपर्यायानुवृत्यज्युपगमपरतयानुवृत्यातीतमाय. तयानुवृत्या दुव्यावश्यत्वमुच्यते इति नावः । निगमयन्नाह । श्यककारणत्वपर्यायमपेक्य द्रव्यावश्यकताऽस्योच्यत इत्य- सेत्तमित्यादि तदेतव्यशरीरदून्यावश्यकमिति । सक्तो मो दोषः । स्यादेवं । यद्यत्राधिका कश्चिदष्टान्तः स्यादिति वि. आगमत व्यावश्यकहितीयजेदः॥ कल्पात् प्रच्चति यथा कोऽत्रदृष्टांत ति प्रष्टेसत्याह । यया. तृतीय नेदनिरूपणार्थमाह ॥ भयं घृतकुम्भ आसीत् । अयं मधुकुम्भ प्रासादित्यादि । ए से किं तं जाणयसरीरजविसरीरवरित्तं दवा तदुक्तं भवति । यता मधुनि घृते या प्रतिप्यापनीते तदाधार पर्यायातिक्रांतेऽप्ययं मधुकुम्भोऽयं च घृतकुंज इति व्यपदेशा वस्सयंतिविहं पणतं । लोश्र कुप्पावणि मोके प्रवर्तते। तथा आवश्यककारणत्वपर्यायतिक्रांतेऽपि मोउत्तरिअं३ पर्यायानुवृत्या ज्यावश्यकमिदमुच्यत इति नावः। निगमय- अथ कि तत् शरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यक साह । (सेत्तमित्यादि) तदेतत् शरीरद्रव्यावश्यकम् ॥ निवचनमाह ॥ (जाणगशरीरभवियसरीरवशरित्ते एव्यावभक्तोनो भागमतो द्रव्यावश्यकप्रथमनेदः। ॥ स्सए तिधिह) इत्यादि यत्र शरीरजन्यशरीरयोः संबधि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७८) भावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । श्रावस्सय पूर्वोक्तकणं न घटते । तसुभान्यां व्यतिरिक्तं भिन्नं व्याव न्यादियेषां स्नानाजरणपरिधानादीनां तानि फणिहः कंकतश्यकमुच्यते । तच त्रिविधं प्राप्तं । तद्यथा । बौकिकंकुप्रावच कस्तं मस्तकादौ व्यापारयति । सिकार्थाः सर्षपाः। हरितानिकं । लोकोत्तरिकम् ।। निका दर्या पतवयं मंगलार्थ शिरसि प्रक्विपति । आदर्शषु तत्र प्रथमभेदं जिज्ञासुराह ॥ मुखादि नि ते वस्त्रादि धूपयांत अग्रथितानि पुष्पाणि ता सेकितं सोनं दवावस्वयं जे इमे राईसरतलवर- न्येवग्रथितानि माल्यम् अथवा विकसितानि पुष्पाणि वा मामविप्रकोबिअश्लसेमिसेणावश्सत्यवाहपनित तान्येवाविकसितानि माल्यमेतेषां च मस्तकादिषूपयोगः । शेषस्वरूपत उपयोगतश्चप्रतीतमेवएतानि द्रव्यावश्यकानि कृओकवपाप्पनायाए रयणीए मुविमझाए फुरसुष्पाक त्वा ततः पश्चादाजकुबादी गच्चति तत्र रमणीयतातिशयेन खीमनकोमयुम्मिलिअंमि अह पंरए पनाए रत्तासोगप पुरुषमियुनानि यत्रारमंति सविविधपुष्पजात्युपशोभित आरागासकि मुसुमुहगुंजकरागसरिसे कमन्नागरनझिाणे मः वस्त्राभरणादिसमसंकृतविग्रहाःसंति हिताशनाद्याहारामसंम्बोहए उहिमि सूरे सहस्सरस्तिमिदिणयरे ते असा दनोत्सवादिष कीमार्थ मोका उद्याति यत्रतश्चम्पकादितरुख एममणिकतमुद्यानं भारतादिकथाविनोदेन यश्च लोकस्तिष्ठति जलंत मुहयोअणदतपक्खालणतेचफणिहसिस्थबहार सा सना शेष प्रतिम् । अत्राह । ननु राजादिनि: आनि अदागधूवपुफ्फगंधमझतंबोलवत्या आई प्रनाते अवश्यं क्रियत शत व्युत्पत्तिमात्रेणावश्यकत्वं भवतुइब्वावस्सयाई कालं ततो पच्छा रायकुझं वा देवकुलं मुखधावनादीनि नावावश्यककारणं न भवन्ति । सत्यं । किंतु वा आराम वा उज्जाणं वा सजं वा पव्वं वा गच्छाति गतस्य भाविनो वेत्यायेव द्रव्यवकणं मतव्यं । किं तर्हि सेत्ते सोइअंदवावस्सयं ।। (अप्पाहणे वि दब्वमहो) तीतिवचनादाह । अप्रधानवाच कोऽपि जव्यशब्दोऽवगंतव्यः । प्रधानानि च मोक्वकारणभासोश्यमित्यादि । लोके भवं बौकिकं शेषं तथैव अत्र राज वावश्यकापेक्षया संसारकारणानि राजादिमुखधावनादीनि श्वरा तमवरादयः प्रनातसमये मुखधावनादि कृत्वा तत ततश्च द्रव्यलतान्यावश्यकानिदच्यावश्यकाान एतानीत्यदोषः पश्चाजाजकुमादी गच्छंति । तत्तेषां सम्बंधि मुखधावनादि नो आगमत्वं चेहाप्यागमानावानोशब्दस्य च सर्वनिषेधवश्रीकिकं शरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तं व्यावश्यकं मिति चनत्वादित्यवं विस्तरेण निगमयन्नाह ॥ समुदायाथेः॥ (कद्धं पानपनायाए ) इत्यादि कल्यमिति विभक्तिव्यत्य ( सत्तं लोइय) मित्यादि । तदेतञ्इ.शरीरजव्यशरीरव्यतियेन सामान्यन प्रजाते प्रभातस्यैव विशेषावस्थाः प्राह रिक्तं लौकिक च्यावश्यकमित्यर्थः । रुक्तो नो आगमतो इत्यादि । प्रायुः प्राकाश्ये ततश्च प्रकाशप्रभातायां रजन्यां जच्यावश्यकांतर्गतकशरीरभव्य शरीरव्यतिरिक्तः च्यावश्यकिंचिप बज्यमानप्रकाशायामिति भावः । तदनतरं सुवि कप्रथमनेदःन्तिीयभेदनिरूपणार्यमाह । मलायां तस्यामेव किचित्परिस्फुटतरप्रकाशायाम् । अथशब्द से कितं कुप्पावयणि अं दवावस्तयंजे इमे चरगआनंतये तदनंतरं पांकुरे प्रजाते कथं नूत इत्याह । फुद्धोत्पल चीरिंगचम्मखंमिअनिक्रवोम'मरं गगोअमगोवत्तिअगि कमनकामोन्मीलिते फुलु विकसितं तश्च तत्पन्नं च फुद्धो- हिधम्मधम्पचिंतग अविरुष्कवनयिकवुकसावगणजित्तो त्पलं कमलो हरिणविशेषः फुलोत्फवं च कमनश्च फुलोत्पल कममा तयोः कोमनमकगेरं दबानां नयनयोश्चेन्मीलितमु पासंमत्या कवं प्पाउप्पनाए जाए जा वते असा जलं न्मीलनं यत्र प्रभाते । तद्यथा । अनेन च प्रागुक्तायाःसुविमल. ते इंदस्त वा खंदस्स वारुदस्स वा सिवस्त वा वेसमणस्स तायाः वदयमाणसूर्योदयस्थ चांतराअनधिनी पूर्वत्यादिश्य वा देवस्स वा नागस्स वा नूअस्स मुगुदस्स वा अरुणप्रनावस्थामाह । तदनंतरम (ट्टिए सूरए त्ति) अन्युमते आदित्य कय नूते इत्याह । रक्ताशोकप्रकाशकिंशुक ज्जाए वा कोट्टकिरिाए वा नवनवणस्स मज्जणावशुकमुखगुंजार्फरागसदृशे । रक्ताशोकप्रकाशस्य पुष्पितं रिसाम धूवपुप्फगंधमद्वादिआई दवावस्सयाई करेंति पलाशस्य शुकमुखस्य गुंजास्यच रागेण सहशो यः सेतथा सत्तं कुप्पावयाणि दवावस्सयं ॥ तस्मिन् आरक्ते इत्यर्थः । तथा कमलाकरननिनिखम्बाधके से किंतं कुप्रावचनिक व्यावश्यकमत्र निर्वचनं (कुप्पावकमनानामाकरा उत्पत्तिभूमयो हृदादिबाशयविशेषास्तेषु यणियं दब्बास्सयंत्ति) श्मे इत्यादि कुत्सितं प्रवचनं येषां ते यानि नलिनीखएकानि तेषां बोधको य स तया तस्मिन् कुप्रवचनास्तेषामिदं कुप्रावचनिकं व्यावश्यकं किं पुनस्तपुनः किं ते तस्मिन्नित्याह ॥ सहस्त्ररश्मौ दिनं क- दित्याह । जे श्मे इत्यादि ॥ एते चरकचीरिकादयः प्रभातरोतीति दिनकरस्तस्मिन् तेजसा ज्वलति । तत्रैवैते भावाः समये इंजस्कंदादेरुपलेपनादि कुवैति तत् कुमावनिकं - सर्वेऽपि संतीति झापनार्थ सूर्यस्य विशेषणबहुत्वं अनेन चो- व्यावश्यकमिति समुदायार्थः॥ त्तरोत्तरकालभाविना आवश्यककरणकालविशेषणकलापेन प्र- देवताक्तिीशमातापितृगुरुणामविरोधेन विनयकारित्वादकृष्टमध्यमजघन्योधमवतां सत्वानामभिमतमावश्यकरणसम- विरुका वैनयिकाः पुण्यपापपरखोकाद्यनन्युपगमपरा अक्रियायमाह । तथाहि केचित्प्रकृष्टोद्यमिनः किंचित्प्रकाशमानायां यादिनो विशुकाः सर्वपार्षमिभिः सह विशुद्धचारित्वादत्राह रजन्यां मुखधाक्नाद्यावश्यकं कुर्वति । मध्यमोचमिनस्तु त- ननु यद्यते पुण्याचनान्युपगमपराः कथं तोषां वक्ष्यमाणामम्यामव सुविमलायामरुणप्रभावसरे का । जघन्योद्यमिनस्तु बापनेपनं संभवति पुण्यादिनिमित्तमेव तस्य संजवात्सत्यं समुद्रत सवितरीति (मुधोवणेत्यादि ) मुखधावनं च दंत- किंतु जीविकादिहतोस्तेषामपि तत्संभवतीत्यदोषः॥ प्रकासनं च तैलं च फणिहश्च सिद्धयर्थश्व हरितालिका च आ- प्रभृतिग्रहणात परिव्राजकादिपरिग्रहः पार्षवत तत्र तिष्ठदर्शश्च पुष्पाणि च माल्यं च गंधाश्च तांबवं च वस्त्राणि च ता. तीति पारस्थाः। (कई पानुपमायाए) इत्यादिपूर्वयद्या Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । पावरसय बत्तजसा ज्वतीति।इंदस्स वेत्यादि । तत्रेद्रःप्रतीतः स्कन्दः या स्वच्छदं विरुद्धती कराझा याहा स्वस्वरुच्याधिविधचणाः कार्तिकेयः रुखो हरः शिवस्त्वाकारविशेषधरःस एव व्यंतर- कृत्वा तत्रोनयकानं प्रभातसमयेऽस्तमयसमये च चतुर्थ्यर्थे विशेषो वा वश्रवणो यानायकः देवः सन्मान्यः नागो भवन षष्ठीति कृत्वा आवश्यकाय प्रतिक्रमणायोपतिष्टते तस्तेषामावपतिविशेषः यान्तो व्यंतरविशेषो मुकुंदो बलदेवः आर्या- श्यकम् अत्र द्रव्यावश्यकत्वं भावशून्यत्वात् फलाभावत्वा प्रशांतरूपा दुर्गाऽस्यैव महिषारूढा । तत्कुट्टनपरा कोट्टक्रिया दप्रधानतया अवसेयं । नो आगमतो देशे क्रियासक्वण श्रागभोपचारादिंद्रादिशब्देन तदायतनमप्युच्यते । अतः तस्यद्रा- मानावाम्नोशब्दस्य चात्र देशप्रतिषेधवचनत्वादिति अत्र च दिरूपोपलेपनसम्मार्जनवर्षणपुष्पधूपगंधमाल्यादीनि व्याव- लोकोत्तरिके द्रव्यावश्यके उदाहरणं। वसंतपुरे नगरे अगीताश्यकानि कुर्चति । तत्र लेपनं गणादिनाप्रतीतमेव 1 सम्मा- संविग्ने गचे एकोविचरति तत्र श्रमणगुणमुक्तयोगीसं जन दंम्पुउनादिना । वर्षणं गंधोदकादिना । शेषं गतार्थम् ॥ विग्नानासः साधुरेकः प्रतिदिनं पुरः कादिदोषदुष्टमनेषणी तदेवं य एते चरकादय इंद्रादेरुपझेपनादि कुर्वति तत कु- यं भक्तादि गृहीत्वा महता संवेगेन प्रतिक्रमणकाले आलोचय प्रावचनिकं व्यावश्यकम् । अत्र द्रव्यत्वमावश्यकत्वं नो ति। तस्य गच्छाचार्य गीतार्थत्वात्प्रायश्चित्तं प्रयच्छन् प्रणति प. आगमत्वं च लौकिकद्रव्यावश्यकोक्तमिव नावनीयं निगयवाह इयत अहौकथमसी भावमगोपयन् प्रशतया सर्व समासोच(सेत्तभित्यादि) तदेतत् शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं कु- यति । सुखं हि आसेवना क्रियते पुःखं चेत्थमालोचयितुं तस्माप्रावचनिकं अव्यावश्यकमित्यर्थः । उक्तो नो आगमतो ज्या- देष अशक्तयेव शुकोसौ तथा चतं प्रशस्यमानं दृष्ट्वा अम्येऽप्य वश्यकत्तिर्गतकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तव्यावश्यकहि- गीतार्थश्रमणाः प्रशसंति चिंतयति चगुरोश्चेदिच्या जाव्यस्त तीयभेदः॥ हिं दोपासवनायामसकृत्पतितायामाप न कश्चिद्दोषः । श्रास्रोच अथातृतीयनेदनिरूपणार्थमाह ॥ नाया एव साध्यत्वादित्थं चान्यदा तत्र संविम्नगीतार्थः कश्चिसे किं ते सोगुत्तारे अंदबावस्तयं जे इमे समणगुण- दायातस्तेन च प्रतिदिनं तमेव व्यतिकरमालोक्य सूरिरुक्तस्थ मुक्कजोगीउक्कायनिरणकंपा हयाइव नदमा गया इव निरं मित्थमस्य प्रशंसा कुर्वन् विवक्तितक्वितीश श्च बढ्यसे।तथाहि गिरिनगरवासी कश्चिदम्निभक्तो वणिक पद्मरागरनानां गृहं कुशघट्टा मट्टा तुप्पट्टा पांकुरपम्पाउरणा जिणाणमणाणाए नृत्वा प्रतिवर्ष वाहिना प्रदीपयति तथा विवेकतया तत्र नरप सच्चंदविहरिकणं इनउका आवस्सयस्स नबट्टावय तिम्रोक श्लाघमाणःअहोधन्योऽयं वणग् जगवंतं इतनुजामति से लोगुत्तारअंदवावस्सयं सेत्तं जाणय सरीरल स्थमौदार्यभक्तयतिशयाजत्नस्तप्पयति । अन्यदा च प्रबलपव विग्रसरीरवतिरित्तं दवावस्तयं सेत्तं नो आगमतो दव्या नपटनप्ररितस्तप्रदीपितदहनः सराजप्रासादं समस्तमपि तनगर दहतिस्म । असाच राज्ञा दंडितो नगराश्च निष्कासित वस्मयं । सेत्तं दवावस्मयं ॥ स्तदेवं राज्ञा तस्य प्रशंसां कुर्वता आत्मा नगरं लोकश्च नाशित अय किं तवकोत्तरिक द्रव्यावश्यकमत्र निर्वचनमाह। स्तथा त्वमपि अस्याप्रविधिप्रवृत्तस्य प्रशंसां कुर्वन्नात्मानं समलोकस्योत्तराः साधवः अयवा सोकस्योत्तरं प्रधानं लोकोत्तरं स्तगच्छं चोच्छेदयसि यदि पुनरेनमक शिक्कयसि तदा तथाविध जिनशासनं तेषु तस्मिन्वा नवंति लोकोत्तरिकं अत्यावश्यक न पश्व त्वंपरिकारानिरपायतामनुभवसि । तथा वन्येन केनचि मिति व्याख्यातमेव कि पुनस्तदित्याह । जे श्मेत्यादि । य काका तैयव कुर्वन् कश्चिणिगाकर्णितस्तेन्यो नगरदाहापापते श्रमणगुणमुक्तयोगित्वादिविशेषणविशिष्टाः साध्वाभासा यदर्शनात कितोशन अरण्यं गत्वा किमित्थं न करोषीत्यादि जिनानामनाया स्वच्छदावरुकतयोभयकालमावश्यकाय प्र- वची भिस्तिरस्कृत्यदरिमतो निष्कासितश्च एवं त्वमपीत्याद्यप तिक्रमणायापतिष्ठते तत्तेषां प्रतिक्रमणानुष्ठानं लोकोत्तरकं - नयोगतार्थः । इत्यादि बहुप्रकारं भणिता यावदसा तत्प्रशंसा व्यावश्यकामति समुदायार्थः । इदानीमवयवार्थ उच्यत । तत्र तो न निवर्तते तावत्तन -गीतार्थसाधुना शेषसाधवोभिहिता श्रमणाः साधवस्तेषां गुणा मूरोत्तरगुणरूपास्तत्र जीववधवि- एष गणाधिपो महानिर्द्धर्मातास्पदमगीतार्यों यदि न परित्यरत्यादयो मूत्रगुणाःपिविशुख्यादयस्तूत्तरगुणास्तेषु मुक्तो ज्यते तदा भवतां महते अनर्थाय प्रभवतीति तदेवं तत्साध्याय योगो व्यापारी यैस्ते सर्वधनादराकृतिगणत्वात् श्रमणगुण श्यकप्रकार सर्व लोकोत्तरिक व्यावश्यकमिति निगमयन्नाह मुक्ता योगिनः पते च जीववधादिविरतिमुक्ता व्यापारा अपि (सेतमित्यादि ) तदतबोकोत्तरिक व्यावश्यकं पतझणनेमनसा कदाचित्सानुकंपा श्राप स्युरित्याह । षट्सु कायेषु इशरीरभव्यशरीख्यतिरिक्तं त्रिविधमाम व्यावश्यक समपृथिव्यादिषु विषये निर्गता अपगता अनुकंपा मनसा दया चितं भवत्यतस्तदपि निगमयति । सेत्तमित्यादि । एतत्समर्थन यो यस्ते तजा निरनुकंपाःतीश्चत्तमव हया श्व तुरगा श्व उद्दा नो आगमतो व्यावश्यकस्य प्रभेदस्य समर्यितत्वात्तदाप निग माश्चरण निपातजोवोपमई निरपेहत्वात्तदचारिण इत्यर्थः ॥ मयति । सत्तं नो पागमतो इत्यादि एतत्समर्थने च यत्प्रक्रांतं । किमर्पीत्यवं नृतास्ते इत्याह । यतो गजा श्व पुष्टहिरदा श्व व्यावश्यकं तस्योत्तरःभेदमप्यवसितमतो निगमयति सत्वं निरंकुशा गुर्वासाव्यतिक्रमचारिण इत्यर्थः । अत एव घट्टत्ति । दवावस्सयमिति तदेतत् द्रव्यावश्यक समर्थितमित्यर्थः । येषां जंघ श्लदणीकरणार्थ फेनादिना घृति भावतस्तेऽवय उक्तं सप्रपंचंच्यावश्यकम् ॥ चावयविनारभेदोपचारात घृणास्तथा मति । तैमोदकादिना साम्प्रतमवसरायातभावावश्यकनिरूपणार्यमाह ॥ येषां कशाः शरीरं वा मृष्टं ते तथैव मृणा अथवा कशादिषु सेकिंत नावावस्मयं चविहं पप्पतं तंजहा आगमतो मृष्टुं विद्यते येषांत मण्वन्तो वत्प्रत्ययोपान्मष्टाः तथा । (तुप्पाति) नुप्रामकिता वदनेन वा वेहिताशीतरकादिनि अनो आगमतो अ॥ मित्तमाष्टा येषां ते तुप्रौष्ठा तथा मत्रपरीपदासहिष्णुतादरी. टी०॥ अथ किंत भावावश्यकमित्यत्र निर्वाचनमाह ॥ ना. कृतत्वात्पांगरा धौतपटः प्रावरणं येषां ते तथा जिनानामनाक- । वावस्सयं दुविहमित्यादि वक्तृविवकितपरिणामस्य भवनभाव Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८.) भावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । भावस्सय उक्तं च भाषो विवक्तिक्रियानुसूतियुक्तो हि वै समाख्यात टी० (से कितं कुप्पाषणीय) मित्यादि अत्रच निर्वचनसर्वरिषदिवदिहेदनादिक्रियानुभावात् व्याख्यावक्तुषिक्ति- माह । कुप्पावयणिय प्राधावस्सयं जेईम त्यादि कुत्सितं प्रवतक्रियया विवक्तिपरिणामस्य इंदनादेरनुभवनमनुनाति चनं नावापश्यकं किंतच्यते । य एते चरकचीरकादयः स्तया युक्तोऽर्थः संनषस्तयोरभेदोपचारः सर्व समारण्यातो पाषंस्था यथावसरे ज्यांजसिहोमादीनि भावरूपाम्यावनिर्देशनमाह । धादिवदित्यादि यथा दिनादिक्रियानुभावात् वश्यकानि कुर्वेति । तत्कुप्रावनिक नावावश्यकमिति परमैश्वर्यादिपरिणामेन परिणतत्वादिबादिभाव नष्यते श्त्य संबंधः । तत्र चरकादिस्वरूपं प्रागेवोक्तम् । ज्यांजल्यादिथैः।नावश्चासाबावश्यकं च प्रावमाश्रित्य था। स्वरूपमुच्यते । तत्र यजनमिति याग इत्यर्थस्तविषयाजसतत्रायनेदनिरूपणार्यमाह । स्यांजनिीरज्यांजलिः । यागदेवताएजावसरनावीति हृदय से कितं श्रागमतो जावावस्सय २ जाणए जवउत्ते सेत- अयषा यजनीमज्या पूजा। गायध्यादि पापकं विप्राणां प्रागमतो नावावस्सयं ॥ संध्याचनीमययः। सूत्रांजलिरिज्याजति भयषा देशीभाषाया अथ किं तदागमतो नावावश्यकमत्राह (आगमोजावाव मिज्येति माता तस्या नमस्कार विधौ तक्तैः क्रियमाणः करस्सयं जाणए ) इत्यादि कापकोपयुक्तं प्रागमतोमावावश्यक कुममममी सनसलको जसिरिज्यांजमिः होमोऽग्निहोत्रिकैः श्वमुक्तं जयत्यावश्यकपदार्थकस्तजनितसंवेगविगुरूमानप क्रियमाणममिहयने जापो मंत्राल्यासः । मंपुरकात्ति । देशीरिमाणामस्तत्रयोपयुक्त साध्यादिरागममते भाषावश्यकम. वचनं मं सुखं तेन रकं वृषभाविशयकरणं मधुरकं । देष भाषश्यकार्योपयोगमकणस्याऽत्र साषात् भावावश्यकता तादिपुरतो घृषनगर्जितादिकरणमित्यर्थः । नमस्कारोनमो चात्रावश्यकोपयोगपरिणामस्य सद्भावात । जावमाश्रित्यभा- भगवते विवसनाथायेत्यादिक पतेषां कई ज्यांजलिहो वश्यकम ति व्युत्पत्तेः अथवा आवश्यकोपयोगपरिणामान- मजापमंदरुकनमस्कारास्ते आविर्येषां तामि ।। तथा आदिन्यत्वात्सावादिरपिभाषस्ततश्च भावभासावश्यकं वेति म्यु- शब्दात् स्तवादिपरिप्रहः एतेषां चरकादिभिरवश्य क्रियस्पतेरण्यसौ मंतम्याति (सेत्तमित्यादि) निगमनं । माणत्वादावश्यकत्वमेतत्कर्तृणां च तदर्थोपयोगकादिअथ भावावश्यकहितीयभेद निरूपणार्थमाह ॥ परिणामसभावात् प्रावत्वं । अन्य चरकादयस्तदर्थोपसे कितं नो आगमयो नावावस्मयं वितिविहं पम्म- योगमकणो देश प्रागमो देशस्तु करशिरोव्यापारादिक्रिया तं तं जहा । मोइ कुप्पावणि लोगुत्तरि॥ सक्कणोनागमस्ततो देश आगमानावमाश्रित्य नो आगमत्वमष भय किं तन्नो भागमतो नावावश्यकमत्राह नो भागमतो गंतव्यं । नोशब्दस्यहापि देशनिषेधपरत्वात्तस्माबरकादयनावावश्यकत्रिविधं प्राप्तं तद्यथा मौकिक कुप्रावधानिक स्तउपयुक्ता यथावसरं यदवश्यमिज्यांजस्यादि कुवात तितः मोकोत्तरिकं च॥ कुप्रावचानक । नावावश्यक भाषावश्यकशब्दस्य च व्युत्पतत्र प्रथमभेदनिर्णयार्थमाह ॥ तिघ्यं तथैव सेत्तमित्यादि निगमनं । उक्तो नो भागमतो से किं तं सोधे नावावस्सय ३ पुवएहे नारई प्र- भावावश्यकहितीयभवः । अय तृतीयनेदनिरूपणार्थमाह । परहे रामायणं से तं लोइअंजावावस्मयं ॥ से किं तं लोगोत्तरि नावावस्सनं जसमणे वा सम अश्व किं तद्वौकिकं भावावश्यकमित्याह (सोश्यं नावा- णिवा सावत्रो वा सावित्रा वा तञ्चिते तंमणो तोस्तेबस्सयं पुवराहे ) इत्यादि लोके भव सौकिकं यदिदं सोक: तदध्यवसिते तदवसाणे तदट्ठीवउत्ते तदप्पिकरणे पूर्व भारतमपराहे रामायणं वाचयति राणोतिवातद्वौकिक तम्नावणानाविते अमात्थकत्थश्मण अकव्वमाणे नवनावावश्यकं हि भारतरामायणयोर्वाचनं श्रवणं या पूर्वाहापराख्योरेव रूढं विपर्ययदोषदर्शनासतःस्वच्छमनयोलोंवश्य नत्ते जिणवयणधम्मामुरागस्तमणे प्रत्यंतरे उत्नयोकालं करणीयत्वादावश्यकत्वंतहाचकस्य श्रोतृणां च तदर्थोपयोगप- श्रावस्सयं करेंति सेत्तं मोगुत्तरियं जावावस्मयं ॥ रिणामसझावात वाचेत्थं तद्वाचकःश्रोतारश्च पत्रकपरावर्तन सेत्तं नो आगमतो नावावस्सयं से नावावस्मयं । हस्तामिमयगात्रसंयमनकाकुम्मनमीलनादिक्रियायुक्ता जति क्रिया वा नामत्वेन प्रागवोक्ताकिरियागमोन होइति वचनात् । से कितं लोउत्तरियमित्यादि । अत्र निर्वचनं सोउत्तरिय ततश्चक्रिया सक्कणे देशागमस्याऽभावात् आगमत्वमपि भाव- भावावस्सयं जन्ममित्यादि । जति णमिति वाषयाकारे । नीयं नो शब्दस्यात्र देशनिषेधवचनत्वाद्देशे वागमोऽस्तिसी- यदिवं श्रमणादयस्तच्चित्तादिविशेषणविशिष्टा उभयकासं किकाभिप्रायेण भारतादेरागमत्वात्तया निर्दिष्टसमये लौकि- प्रतिक्रमणाद्यावश्यकं कुर्वति । तमोकोत्तरिकं भाषावश्यककास्तउपयुक्ता यदवश्य जारतादिघाचयंति एतिवातल्ली- मिति। संटकस्तत्र श्राम्यतीति श्रमणः साधुः। श्रमणीसाधी। किकं भावावश्यकमितिभावमाश्रित्यावश्यकं भावश्चासाबाव- श्टणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां समाचारी मिति श्रावकः इयकंचेति वा भावावश्यकमित्यवं विस्तरेण से त्तमित्यादिग श्रमणोपासक श्राविका श्रमणोपासिका । पाशब्दाः समुच्च मनम् । नक्तो नो आगमतो भावावश्यकप्रथमन्नेदोऽयं ॥ तद् यार्थाः। तस्मिन्नवाघश्यक चित्त सामान्योपयोगरूपं यस्येति हितीयभेद निरूपणार्थमाह ॥ तश्चित्तः । तस्मिन्नेव मनो विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः सेकितं कुप्पावणिभं जावावस्मयं जे इमे चरग- तत्रैव लेश्या भपरिणामरूपा यस्येप्तिसतलश्यस्तथा तदध्यव चीरिंगजावपासण्यायं २ इनांजग्निहोमजपमन्दरकन मितः हाऽभ्यवसायाऽध्ययामत ततभ तचित्तादिनावयुक्तस्य सतस्तस्मिन्नवावश्यकऽभ्यमित पियासम्पादनन विषयस्यति मोकारमादि पाइलावावस्मयाइ कंगनि सनं कुष्पावय तभ्यासतः । था। तत्तापायवसायस्तस्मिन्नभाषावश्यके णिअंजावावस्सयं ॥ तीचं प्रारंजकालादारस्य प्रतिकणं प्रफर्मयायिप्रयतविशेषा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८१) अभिधानराजेन्द्रः । मावस्सय ग्रावस्सय कणमध्यवसानं यस्य स तथा । तदर्थोऽपयुक्तस्तस्यावश्यकस्यार्यस्तदर्शस्तस्मिन्नुपयुक्तस्तदयापयुक्तः। प्रशस्ततरसवेगविशुद्धयमानस्तस्मिन्नेव प्रतिसूत्र प्रतिक्रियं चापयुक्त इत्यर्थः। तथा तदर्वितकरणः करणानि तत्साधकतमानिदेहरजोहरणमुखवत्रिकादीनि तस्मिन्नावश्यके तथोचित व्यापारनियोगेनाऽर्पितानि नियुक्तानि तानि येन स तथा ।स म्यग् ययास्थानं न्यस्तोपकरण इत्यर्थः । तथा तद्भावनाभावितः तस्याऽवश्यकस्य जावना अव्यवछिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य पुनः पुनस्तदनुष्ठानरूपा तया भावितोढभावेन परिणतावश्यकानुष्ठानपरिणामस्तद्भावनाभावितः । तदेवं. यथाक्तप्रकारेण प्रस्तुतव्यतिरेकतोऽन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन्तु पत्रकणत्याहाचं काय चान्यत्राकुर्वनेकाथिकानि वा विशेषणान्येतानि प्रस्तुतोपयोगप्रकप्रतिपादनपराणि प्रमूनि चसिंगपरिणामतः श्रमणीश्राविकयारपि योज्याने । तस्मान्तचित्तादिविशेषणविशिष्टाः श्रमणादयः उभयकालमुभयसंध्ययदावश्यक कुर्वति तब्बोकोत्तरिक नावमाश्रित्य नावश्चासा. घावश्यकं चेति वा नावावश्यकम् । अत्राप्यवश्यं करणादा. वश्यकत्वं तदुपयोगपरिणामस्य च सगावात जावत्वं । मुख. पत्रिकाप्रत्युप्रेशणरजोहरणव्यापारादिक्रियाबकणदेशस्याऽनागमत्वात् नो आगमत्वं भावनीयं । संत्तमित्यादि । अनु०॥ निगमनं तदेवं स्वरूपत उक्तं भावावश्यकमनेन चात्राधिकार, एतदेवं संगृहप गायोपनिबध्नन् चतुर्विधं निवेपमाह । विश०॥ तब नामस्थापने क्षुएणत्वानोच्यते । व्याऽवश्यकं तु विधा मागमतो नो आगमतश्च । तत्राऽगमतः प्राह ॥ आगमओदबावास्तय, तमावस्सय पर्व जस्त । सिक्खियमिच्चाश्तयं, तदवउत्तोनिगदमाणो । आगमतो जव्यावश्यकं भवति कश्त्याह॥तदावश्यकं निग' दत्यवदन्नध्येता कथंभूतस्तस्मिन्नावश्यकेऽनुपयुक्तस्तदनुपयुक्तः यस्याऽभ्येतुः । किमित्याह । यस्य तदावश्यकपदं प्रथम शिक्वितं जितमित्यादिविशेषणविशिष्टं भवति । अथ तान्येवाऽनुयोगका रादिसूत्रोक्तानि शिक्कितादिविशेषणानि व्याख्यानयन्नाह ॥ सिक्खिय मंतं नीयं हिययं मयिं जियं रुयं । एइस क्खियवस्माइमियं परिजयमेरुकमेणामि । जहसिक्वि ओयं समानामतहतंवि तहाठियाइ नामसमं गुरुजाणयं योससरिसं संगाहियमुहत्तातोतेय नविहीणखमाहिय क्रवरं च वोच्चच्चरयणमालम्बवावकरकरमेयं वच्चा सियव मासं न खनियावाहणं पिव अमिलियमसरूवधनमे लोब्बवोशत्तगब्बमहवा अमिलियपयवकविच्छेयं । नय विविहसत्वपक्षपाविमिस्समगण विनमाहियं वा निव्वा मेलियकोलिययायसामव सरिकथं वा मनाइनियमाणं प मिपुमं चैदसाहवत्येणं नाकखायसवोतुं पुणगुदताई घोसहिं॥ कंगोरविप्पमुकं नाउत्तं बालसुयनाणियं वा । गुरुवायणो क्यातं न चोरियं पुच्छयाउ वा ॥ इहानुयोगद्वारेऽप्युक्तं ॥ सेर्कितं आगमओ दवावस्मयं जस्सणं आवस्स । यत्ति पय सिक्खियं ग्यिं जियं मियपरिजियं नामसमं घोस समं अहीणक्खरं अच्चरकरं अब्बाइकाक्खरं अखलिय अमिलियं अविचामनियं पमिपुत्रं घोसं कंगेहविप्पमुकं गुरुवायणोवगयं सेणं तत्य वायणाए पुच्छणाए परिग्रह णाए धम्मकहाए । वतेत इत्यध्याहारः॥ नोभ पहाए हापि वर्तत इति शेषः श्वं च सूत्रं पागमभोदवावस्सयमित्यादि प्रागुक्तगाथायाः प्रायो व्याख्यातं शिकि तादिपदानि विदानाव्याख्यायंतेतशिक्षितमिति कोऽयम्तं नीत सर्वमधी मिति स्थित हदिव्यवस्थितमप्रच्युतमित्यर्थः। जित हतमाग तिच्चवर्णादिभिः संख्यातमितं यतक्रमेणाऽप्येत्या ऽगच्छतितत्सर्वतो जितं स्वकीयेन नाम्नासमै नामसर्म यथा स्वनाम शिकितं तथा तदप्यावश्यकं तथा यथैव स्वनामस्थि. तादिविशेषणविशिष्टं घटते।स्थितंजित मितं परिमितमित्यर्थः। पर्वतदप्यावश्यकमतः स्वनामसममुच्यते । याचनाचार्याभिहितोदात्ताऽनुदात्तस्वरितन्त्रणैक्षिः सहशमेव गृहीत तत् घोषसमं न हीनाकरं नाप्यधिकार (घोचो) त्यादि यथा प्रासाजीरिपोतरनमायाविपर्ययन्यस्तरक्षनिचया भवंस्येवंयद्यत्पासितवर्णविन्यासं विपर्ययोपन्यस्तवर्णसंतानमित्यथैः । तमाकरन तथावा विकाकर श्वं वर्णमात्रापेक विवक्यते नतु वाक्यापर्क पदास्यविपर्ययस्तस्य वक्ष्यमाणमीलितविषयत्वादिति उपयशकलाकुसलतले हलामिव यन्त्र स्खस ति तदस्खलितं । विसहशानेकधान्यमेक्वद्यन्न मिति तदमिखितं । अथवा विपर्यस्तपदवाक्यग्रंथ मिलितं नैवं यतद मिक्षितं ( अमिलियपवक्कविच्छेयंति) अथवेत्यत्रापि तृतीयव्याख्यांतरसूचकः संबध्यते । अमिलितोऽसंसक्तः पदवाक्य विछेदोयत्रताऽमिलितमुच्यते। अव्यत्यामेक्षितंव्याख्यातुमाह। नयविविहेत्यादि विविधानि नानाप्रकाराण्यनेकानि शास्त्राणि सेषांपवाक्यावयवरूपा बहवाः पल्लवास्तैर्विमिश्रव्यस्याममित अथवा स्थानचिन्नप्रयितं व्यत्या मितं यया । प्राप्तराज्यस्य रामस्य रावसानिधनं गताः। कोसिकपायसवझेरीकंधावा यथोक्तरूपं यन्न भवति तव्यत्यानेरित परिपूर्ण ध्धिा ।सूत्रतो ऽर्थतश्च । तत्र दसा बंदः समाश्रित्य मात्रादिनियतमानं सप्रतःपरिपूरण । यत्वनाकांकादिदोषस्तदर्यतोऽपरिपूर्ण यकियाऽभ्याहार नाऽपेकते । अध्यापकश्च तंत्रं च भवति तदर्थतः परिपूर्णमिति नावः। परिपूर्णघोषमिति व्याख्यातुमाह (पुत्र-) मित्यादि । उदात्तादिघोषैः परावर्तनादिकासे नचारयति । तत्परिपूर्णघोषं । श्ह च शिक्काकालेश्यापकनिगदितोदासादिघोषैःसमं शिकमाणस्य घोषसमं । शेषकासेतु परावर्तेनादि कुर्वन्यजुदात्तादिघोषैः परिपूर्णमुचारयात तत्परिपूर्णपोषमि त्यनयोर्विशेषः । कंगोष्ठविप्रमुक्तं न तु बासमूकनाषितवदव्यक्त गुरोः सकाशाद्वाचनया उपयातमायातं न पुनः पुस्तकादेव चोरितः खतरेणैवाऽधीतं वाशब्दात्कणेफाटकेनवा गृहीतमिति। अत्र प्रेरकः प्राह। श्रागमओऽणुवनुत्तो, वत्ता दध्वंति सिफमावासं । किसिरिकयाइ सुयगुण, विसेसणो फलामिहत्तहियं । नन्वागमतोऽनुपयुक्तो वक्ता न्यावश्यकमित्येतायतैष सिकमागतो व्यावश्यक किं शिकितं स्थितं जितमित्याद्या घश्यकतगुणविशेषणरिहा अत्यधिकं फामिति ॥ अत्रात्सरमार॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८२) प्रावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । आवरसय जह सव्वदोसरहियं पि, निगदओसतमणुवनत्तस्स ।। श्रकासुरयं महाभागः सुखेनासेव्यते दुष्करं च यदित्थमालो च्यते । अतोऽमरत्वादेव शुद्धोऽयमंतश्च दृष्ट्वाऽन्यमुग्धसाधवदवस्सुयं दवावासय, च तह स वकिरिया उपयो॥१॥ श्चितंयत्यहो आओचयितव्यमवेत साध्यं । तश्चेत्रियते तबनवउत्तस्त य खनियाइ, यं पिसुफस्स नाव अोमुत्तं ।। कृत्याऽसेवनऽपि न कश्चिद्दोषश्त्येवं सर्वस्मिन् गच्छे प्रायः साह तहकिरिया ओ, सव्वाओ निजरफनाओ॥।॥ प्रवृत्तमसमंजसति । इत्थं च व्रजति काले अन्यदा गीतार्थः हाशिलितादिविशरणकापं कुर्वन्नाचार्य शत साधयते साधुः कश्चित्तत्र गच्छे प्राघूर्णकः समायातस्तन चासो ततः कथयतीति द्वितोयगाथायां क्रिया किंसाधयतीत्याह- विधिःसर्वोऽपि दृएस्तोश्चतितमहोऽनेनागोताथगुरुणा सवायथा शिक्षितादिगुणे रेतत्वात्सर्वदोषरहितं सूत्रमनुपयुक्त प्यय नाशितो गच्छ स्ततस्तेन माणितो गुरुराह । स्य निगाइतो ज्यश्रुतं वकमाण व्यावश्यकं चोक्तस्वरूपं त्वममुं नित्यमकृत्यासवकं साधुमित्थ प्रशसन् जयसिनगरभवति । तया प्रत्युपेकणप्रमार्जनेत्यादि क्रिया ऽपि सर्वा अनु- नृपतेस्तनगरवासिसोकस्य च सरशः कथमित्यत्रोच्यते । पयुक्तस्य कुर्वतों इतःप्रणिधानन्यत्वाव्याक्रियास्तत्फ- गिरिनगरं नाम नगरं तत्र चैकावाणक कोटीश्वरो निवसावक.सा भवति । तथा यथैव सामर्थ्यादिदं बध्यते उप. सति । स च वैश्वानरभक्तवात्प्रतिवर्ष रत्नानामपवरक युक्तस्य त्वंतःप्रणिधानयुक्तस्य कारणवैकल्यादिकारणात्कय नृत्वा वाहिना प्रदीपयति।तंच तथा कुर्वतं राजा मगर बोकश्च मपि स्स्वनितादिदोषपुष्टमपि सूत्रं निगदतो भावतः सर्वदा प्रशंसति । यता अहो वैश्वानरे नक्तिरस्य यदमुं शुरूस्य तस्य नावसूत्रमेव भवति । तपा सपिप प्रत्पुपेक भगवंतं प्रतिवर्षमित्थं रखैस्तर्पयत्यसौ । एवं च प्रशस्यमानोऽय मादिक्रिया उपयुक्तस्य कुर्वतः कमनिर्जराकमा पव भवं मादृततरः प्रतिसंवत्सरं तथाऽतिष्ठति । ततोऽन्य दा प्रचएमत्यतः सर्वेष्वाप नगवदुक्ताऽनुष्टशनप्वतःप्रणिधानेजतिशयः पवनाळूतस्तेन प्रदोपेतावन्हिःसराजगृहं समस्तमाप मगर प्रयत्नः कार्य इति ॥ विशे.॥ जस्मसात्करोतिस्म । ततः सनगरंण राझा किमस्मानिरि अथ नो भागमतोऽभिधत्सुराह ।। स्थ कर्वन्नासौ पूर्वनिषितः किंवा प्रशासित इत्यादि बह पश्चानो आगमांजाणय, नन्दसर राइरित्तमावासं । त्ताप कृत्वा दमिता निर्वासतश्च नगरादसौ वणिगिति । सोश्यलोउत्तरिय, कुप्पावयणं ज हा सुत्त ॥ एवमाचार्यत्वमपि अविधिप्रवृत्तस्याऽस्यसाधानित्यमित्थंप्रशंमो आगमतो द्रव्यावश्यकत्रिविधं इशरीरद्रव्यावश्यकं भव्य सां कुर्वन्नमुमात्मानं गच्छंच नाशयसि। तस्मान्मपुरापुरीनरपते शरीरळ्यावश्यका तजुभयव्यावश्यकव्यतिरिक्तं च तत्र स- स्तन्निवासिलोकस्य च सदृशोभव यतोऽमर्थभाग्न भवसि । म्यकपूर्वाऽधीताऽवश्यकं सिहशिनातागतं जीवाविप्रमुक्त कथमित्यत्राभिधीयते ॥ मुनिशरीरमनुनूतनावत्वात् शरीररुच्यावश्यक । यत्पुनरा" मपुरानगर्यामपि वैश्वानरभक्तेन केनापीश्वरवणिजा इत्थमेव वश्यकार्थज्ञास्यति । न पुनरिदानी जानाति तत्सचेतन. देव रत्नभृतं गृहं प्रदीपयितुमारब्धम् ततः स नगरोकेन राहादत्तादिशी योग्यत्वाव्यशरारद्रव्यावश्यक । पतदुनयन्य दंरतः तिरस्कृतश्चासावणिगटव्यां गृहं कृत्वा किमित्थन प्रदी तिरिक्तं तु नो आगमता व्यावश्यकं त्रिविधम् । लौकिक पयसीति निष्कसिता नगरााहोते त्वमपीथंकुवन्नमुमात्मान सोकोत्तरं कुप्रावचनिकं च । तत्र लौकिकराजादीनां मुखप्रक्का गच्छ चानथ ज्यो र कसि तदित्य युक्तिभिः शिक्ष्यमाणोऽप्य सनाद्यावश्यक लोकोत्तरंतु येश्मे श्रमण गुणविप्रमुक्ता सिंगमा सा गुरुरगीतार्थत्वन साग्रहतया निर्धर्मतया च स्वप्रवृत्तननिप्रधारिणः साध्याजासाः प्रतिपदमनेकान्यसंयमस्थानान्यास घर्तते । ततस्तन प्राघूर्णकसाधुना गच्छसाधाऽभिहिताः। म्योभयकाले प्रतिक्रमणाद्यावश्यकं कुर्वति तहिहे.यं । कुप्राव अनमवं नूतस्य गुरोर्वशवर्तित्वेन परिड़ियतामयमन्यथा सर्वे चनिक तु यत्पाखंन्निश्चामुंगायतनोपत्रेपनाद्यावश्यक कुवति षामनर्थय संपत्स्यत । ततस्त वाऽनुष्टितं तैरिति । तदेवं तबोकव्यं नोशब्दश्चेह सर्वत्रागम सर्वनिषध अष्टव्यः । एतच भूतस्य गच्चस्य सत्क ना आगमतो सोकोत्तरं द्रव्यावश्यकम सर्वमपि नो आगमतो व्यावश्यकं सप्रभेद यथा सूत्रे । अनु निधीयत इति तदेव सोदाहरणमुक्तं ऽव्यावश्यकं । योगहाराख्य प्रोक्तं तथा विझेयमिति । इह लोकोत्तरं यत्रो अधुना नावावश्यकमभिधीयते । तश्च विधा आगमतो नो प्रागमतो व्यावश्यकमुक्तं तत्रादाहरणमाह॥ श्रागमतश्च । तदेतभयमण्याह॥ सोउत्तरे अनिकखण, मासेवाजोय प्रो उदाहरणं । आगमओनावावस्सयं, तदत्योवओगपरिणामो । नो आगमोजावे, परिणामो नाण करियासु ।। सरयणदाहगवाणिय, नाण जइ जवानखे ॥ स्रोकोत्तरं नो आगमतोऽव्यावश्यकेऽभीषणमासवका रोचक आगमता भावावश्यकमावश्यकार्थोपयोगपरिणामः नो आ गमतस्तु कानक्रियो नयपरिणामो मिश्रवचनत्वानोशब्दस्यति । साध्वाभास उदाहरणं । आसेवकश्वासावाबोचकश्चेति स इदं च त्रिविधमपि दर्शयन्नाह ।। मासः । आसेवकालोचकस्य च योऽगीतार्थीगुरुः स रवलु र नदाहकवणिम् झानेन गीतार्थयतिनिरुपाबन्धः इत्यारार्थों सोइयनोउत्तरियं, कुप्पावयणं च तं समासेणं । भावार्यस्तु कथानकगम्यस्तञ्च कथ्यते।। सोनत्तरं पसरलं, सत्ये तेणाहिगारोयं ॥ वसतपुरं नाम नगरं तत्र चाऽगीतार्थः संविग्नानास एको तनो आगमता भावावश्यकं त्रिविधं । बौकिकं लोकोत्तरं गधः सू रसहितो विचरति । तन्मध्ये चकः साध्वाभासस्ति- कुमावचनिक । पर्व चोपन्यासः पूर्व व्यतिरिक्तव्यावश्यकत्र ष्ठति । स च प्रतिदिनमुदकाऽऽहस्तादिदोषपुष्टान्यनेषणी चभावावश्यक वंधानुलोभ्यादिना केनापि हेतुना कृतो यावताऽ यभक्तपानकादीनि गृहीत्वावश्यककाने महांतं संवगमिव नुयोगबारसूत्रेण इत्थमुक्तं । लौकिक कुप्रावचनिकं सोकोत्तर हन् सर्वगुति केऽन्यहमालोचयति गुरुरपितबैव प्रायश्चित्तं चेति । तत्र लौकिकं नो आगमतो नावावश्यकं । पूाजारतं प्रयच्छति । तत्र प्रच्छन्नगीतार्थत्वेन नित्यमेव वक्तघहो धर्मः । अपराहे रामायणं वाचनीयमित्यादि प्रावनिक । मंत्रादि Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावस्सय अभिधानराजेन्द्रः । भावस्सय पासपूर्वकमिज्यांजविहोमादि बोकोत्तरं पुनरुपयुक्तम्य गणा आवश्यकाकरणेऽसमाचारी दोषः।। देर्मुखवत्रिकाप्रत्युपेकणाव दि क्रियामिश्रमुभयक माव न करती आवस्सं, हिणाहियनिविच पाउयनिविना! श्यकसूत्रोच्चारणं एवं सर्वत्र ज्ञानक्रियामिश्रता जावनीया। श्ह चत्रिविधेऽपिनो आगमतो नावावश्यके पारमार्यिकाऽनुपमा दंगाहणादिविणयं, राइण्यिादीणा न करेंति ॥ पवर्गसुखप्राप्तिहेतुत्वाल्लोकोत्तरमेव प्रशस्तं । तदेव चेह शा आवश्यकं मूत्रत एव न कुवति । यदि वा हीनं अधिक वा सोऽधिक्रियत इति । विशे० प्रा० म०प्र०१ अ.। श्रा० कायोत्सर्गाणां हीनकरणतोऽधिकं वा प्रेताय कायोत्सचू०१ अ.॥ र्गाणामेव चिरकाप्रकरणतः कुर्वति । यदि वा निषण्णा उपआवश्यकं च गुरुसाक्तिकमेव कर्तव्यम् । विष्टाः प्रावृत्ताः शीताः शीतादिनयतः कल्पादिप्राचरणमा तथा च विशेषावश्यके ॥ वृत्ता निषण्णास्त्वग्वर्तनेन निपतिताः प्रकुर्वति । व्य. १३. । आवस्सयंमि निचं, गुरूपादमृलंमि देसियं सव्वं होइ । आवश्यकाकरणे प्रायश्चितम् । महा. ७ अ.॥ वीसपि हुसंवसओ, कारणो जंदजिसेज्जाए । से जयवं केवइयाइं पायच्चित्तस्स णं पयाई खाइयाई अनेन गुर्वामंत्रणवचनेन आवश्यकं प्रतिक्रमणं गुरुपादमूत्र गोपायत्यिस्स पयाई संखाश्याई से जयवं तेसिणं एव नित्यं कर्तव्य इति दर्शितं नवात । यद्यद्यस्मादनिश- संवा इयणं पायच्चित्त पयाणं किंतं पढमं पायच्चिग्यायां द्वितीयवसतावित्यर्खः । कारणतः कारणवशाति तस्स एं गोयमा ! पइदिण किरियं सेजयवं किंति ध्वगापि संवसतः साधोः कल्पग्रंथे श्यं सामाचारी प्रोक्तोत शेषः का पुनरियं कल्पसमाचारीत्युच्यते । पश्देणकिरियं गोयमा ! जं मां समयाअहमिसाजइ खुटुलगा वसहीतो, अन्नगतॄणा कपयया साहूणो। यणोवरमजावण्डेयव्वाण संखेज्जाणि श्रावस्सगाणि । वसंति तत्राचार्यसमोपे (पमिक्कमि पासिय) कासग्रहणो से जयवं केणं अटेणं एवं बुच्चइ । जहा ण श्रावस्सत्तरं कानं सूत्रार्थपौरुषीं कृत्वा अन्यस्यां गच्छतो अांतरा गाणि गोयमा ! असेसकसिणट्ठकम्मक्खयकारि उत्तश्वापदादिभयं ततोर्यपौरुषां हापयति तथा सूत्रपौरुर्षामाप मतम्मदसणं चारित्तंअचंतघोरवीरुग्गकट्ठमुदकरं तवकाममपि तथा चरमं कायोत्सर्गन्तिीयमाद्यं यावत्तिष्ठत्यपिसहस्रररमा तत्र यांतीति न केवलं प्रतिक्रमण कित्येवमेव साहणट्ठाए परूविज्जति।नियमियविनत्तादह परिमिएणं शेषाएयपि सर्वाणि साधुभिरवश्यं कर्तृत्वान्यावस्यकानि । कानसमएणं पयं पयेणाहं निसाणुसमयमाजम्मं अवगुरुनाच कर्तव्यानीत्येतद्झापितमामंत्रणवचनाद्येन सर्वे स्तमेव तित्यराइसु कीरति अणुहिज्जयंति नवशसिज्ज बामप्यावश्यकानां सामायिकमेवादी मतं भदंतशब्दश्च य ति परुविज्जति पनविज्जति सययं एराणं अटेणं एवं स्मात्तदादो निर्दिष्टस्तेनानुवर्तते तत्कोऽसो सवैप्वष्याव श्यकेषु कथमित्याह ॥ श्दमिद च करोमि भदंता! शत। चुच्चइ । गोयमा! जहाणं आवस्सगाणि तसिं चणं गोएतदेवाह॥ यमा ! जे निरकू कालाइक्कमेणं वेझाकमेणं समयाश्कएवं चिय सव्वावस्सयाइ आपुच्चिडण कज्जाई जाणा म्माणं आनसायमाणे अणोवओपमत्ते अविहीए प्रवियमामंतएवयणा । जेए सव्वसिं सामाश्यमाश्यं ओ नेसि व असर्ट उप्पायमाणो अभयरमावस्सगं पमाइयर्स यं जदंत! सद्दोयत उदाइ एतेणाझवत्ता तीकरोमि ! तेणं बझवीरिएणं सातलेहमताए आलंबणं वा किंचिनंते ति सव्वेसु॥ घेत्तणं विराश्यं पउरियाणाणं जहुतयानं समाढेजागतार्थे । किमिति गुरूनापृछचैव सर्वावश्यकानि कर्तव्यानी- सेणं गोयमा! महा पायच्चित्ती नवेजा ॥ स्याह । किश्चाकि गुरवो, विदंति विणयपमिवतिहेकं च । अकएसु य पुरिमा, सणमायायं सव्वसो चउत्थं तु । नस्सासाप मोर्नु, तदपुगए पमिसि॥शा पारसिका। यत्र ती गुरुन भवति तत्र कि विधेयमित्याह ॥ पुचमपहिय मित्र, निसिवो सिरिणे दिवासुवणे ५३॥ अकृतेषु पुनः कार्योत्सर्गेषु वंदनकेषु च एकादिषु एकहित्रिषु गुरुविरहाम्मि य उवणा, गरूवसेवोवदंसपत्थं च । पुरिमकाशनाचामाम्बानि ( सव्वसो चनत्थंतु) सर्वस्मिस्तु जिणविरहम्मि वि जिण, बिंबसेवणमंतणं सफझं १ प्रतिक्रमणे अकृते चतुर्थन्तु । तथा पुर्व सन्यायामप्रेकितरनोवपरोकवस्स वि, जह सेवामंतदेवया एव ।। स्थगिमले निशि संशोत्सर्गे कृते चतुर्थ । तथा दिवसे निद्राक ते चतुर्थ ॥ ५३॥ जीत..॥ तह य परोक्खस्स वि, गुरुणो सेवा विणयहेक ५ निव्वीतियपुरिमकोअंबिलखपणा य आवासे ॥ अहवा गुरुगुणनाणो, चउगननाव गुरुसमा एसो। आवासे आवश्यके एकादिकायोत्सर्गाऽकरणे सर्वावश्यकाशह विणयमा धम्मो, वएसणत्यं चनीजयं विणयसासाण- करणे यथासंख्यं निर्विकृतिपूर्वार्काचाम्बकपणानि । श्यमत्र महो । विणीऊंसंजाऊ जवो, विणयाविष्पमकस्स क- भावना । आवश्यके यद्येकं कायोत्सर्ग न करोति ततः प्रायउधम्मो ३ कनतवो विणउवयारं, माणस्स जंजणापू विसं । निर्विकृतिकं कायोत्सर्गध्याकरणे पूर्वार्द्ध त्रयाणा यणा गुरुजणस्स । तित्ययराणय आणा, मुयधम्मा मपि कायोत्सर्गकरणानामकरण आचाम्नं सर्वस्याऽपि चाव. श्याकस्याफरणे अजक्तार्था इति । भ्य. १२.॥ राहणा किरिया॥ देशतः सर्वती पाऽऽघश्यकाकरणकारणान्याभिशय्यागममपागसमा एवेति॥ वेलामधिकृत्य व्यवहारकरूपे ॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय श्रावस्यं तु काउं, निव्वाघारण होइ गंतव्वं । बायारण उजपणा, देस सव्यं । (868) अभिधानराजेन्द्रः । I व्याघातस्य स्तेनादिप्रतिबंधस्याऽभावोनियघातेन भवति यं वसतिराचार्यः सममावश्यकं कृत्वा व्याघातो न पुनर्हेतु जूतेन नजनाविकल्पेन का भजनेत्यत आह । देशं वा आवश्य कंकृत्वा सर्व वावश्यकमकृत्वा संप्रति यैः कारणैः प्रतिबन्धस्ताम्युपदर्शयति । णासावयवाला, गुम्मिय आराखनत्रणपीणीए । इत्निपुंससत नास चिरकाकंडे य ॥ " स्तेनाधरास्ते संध्यासमयकारकलुषिते संचरेति । याप दानानि यसि तदा तान दिया था ह अंगमादयो वातादिपानाय नूयांसः संवति तचा गुल्मेन स समुदायेन संचरतीति गौल्मिका आरक्षिकाणामत्युपरिस्थाविनोदका पुररकारले कामना तथा वति । कचिदेशे एवं रूपा स्थापना क्रियते । तथा अस्तमिते सूर्वे रथ्यादिषु सर्वथा न संवरणीयमिति प्रत्यनीको वा कोयं साविघातकरणार्थ निवर्त्तते खियो नपुंसक या काम हुलास्ता उपसर्गयेयुः । संसक्तो वा प्राणजातिनिरयांतरा मार्गः । ततोऽयकारणयपथिकीन शुद्धयति वर्ष वा यत्तत् संतापते (वासविख्यति कम या पथि भूयानस्ति । ततो रात्रौ पादक्षम्नः कर्दमः कथं क्रियते ( कंटन्ति ) कंटका वा मार्गेऽतिवहस्ते रात्री परिहर्तुं न शक्यते पतियाघातकारगैः समुपस्थितैः देशतः सर्वतो वा वश्यकमकृत्वा गच्छति तदेशतः कथमकृत्येत्यत बाद ॥ पुतिमंगलकितिकम्मे, उस्सग्गो यतिविहकियकम्मे । तत्तो य पकिमणे, आलोयणायाए किति कम्मो ॥ स्तुतिमंगलमकृत्वा स्तुतिमंगहाकरणे चायं विधिः । आवश्य के समाप्ते द्वे स्तुती उच्चार्य तृतीयांस्तु तिमकृत्वा अभिशय्यां ग कति तत्र गत्वा चर्यापथिकिं प्रतिक्रम्य तृतीयां स्तुतिं ददति अवश्य समझे कां स्तुति कृत्वा स्तुती प्रशि गत्वा पूर्वविधिनोच्चारयति । अथ वा समाप्ते श्रावश्यके अभिशय्यां गत्वा तत्र तिस्रः स्तुतीर्ददति । अथवा स्तुतिज्यो यदवतिवहतिक तस्मिन्नकृतेऽनियां गत्वा तत्रेर्याप चिप्रतिक्रम्य मुख प्रत्युपेत्य कृतिका ददति (कागो य तिविहन्ति) त्रिविधे कार्योत्सर्गे क्रमेण ते तथा परमकार्योत्सर्गमत्वा अनिशव्यांगत्या तंत्र पर मकायोत्सर्गी दिकं कुर्वति । श्रवा द्वीकार्योत्सर्गौ चरमावकत्वा यदि वा त्रीनपि कार्यासंगान अकृत्वा अथ वा कार्योत्सयत् कृतिक तह उपरणमेतत् । ततो अर्याने कामणेयदि वा ततोऽन्यर्वाक्तने कृतिकर्म्मणि अकृते श्रथ वा ततोऽप्यवकने प्रतिक्रमणे प्रकृते यदि वा ततोऽप्ययांकले सोखने हते अथवा ततोऽप्यर्याने कृतिकर्मणि प्रकृते अभिशय्यामुपगम्य तत्र तदाद्यावश्यकं कर्तव्यमिति । पवमावश्यकस्य देशतोऽकरणमुक्तमिदानीं सर्वस्याकरणमाह । काउसरगमकाऊं, कितिकम्मालोयणं जहोणं । गमणम्मी एसपी, आगमणम्मीविहीं दो || यो मेसिका तिचारानुप्रेकार्थे प्रथमः कार्योत्सर्गस्तमप्यकृस्वा किमुकं भवति । सर्वमावश्यकमकृत्वा ऽभिशय्यां गच्ति । किमयमेव गच्छन्ति । उतास्ति कश्चन विधिरुच्यते । अस्तीति भ्रमः । तथा चार । (किनिकम्मालोयणं जगणंति) । यावस्सय जघन्येन जयपदे सर्वमावश्यकमकृत्वा सर्वे गुरुयो कृत्या सर्वोतमोज्येष्ठः साच्य तदनंतरमनांग त्या सर्वमावश्यकमदीनं कुर्वति । एपोनयां गमने Sभिजातः प्रत्यागमने पुनयविधिस्तमिदानीं वक्ष्ये ॥ प्रतिमेव नियति आवस्सगं अकाशं निव्याधारण होइ आगमणं । पायाम्प जपणा, देशं स च काचणं ॥ यदि कनापि ध्यायातो न नयति तोनियांघातेन व्याघा ताभावेनावश्यकमकृत्याभिशय्यातो वसतायागमनं भवति । श्रागत्य च गुरुभिः सहावश्यकं कुर्वति व्याघाते नजना कापुनजनेत्यत आह । देशमावरकस्य कृत्वा सर्व वाऽऽवश्यकं कृत्वा तत्र देशत आवश्यकस्य करणमाह ॥ काउसका किर्तिकम्पा झोपणं परिक्रमणं । किश्कम्पं तिविद्धं वा काउस्सगं परिचय | कार्योत्सर्गमाद्यं कृत्वा वसतावागत्य शेष गुरुभिः सह कुर्वति श्रय या प्रोकार्योत्सग कृत्वा यदिवा श्री कार्योत्सर्गान् कृत्वा अथवा कार्योत्समंत्र्यानंतरं यत् कृतिकर्म तत्कृत्वा - थवा तदनंतरमाचमपि वा यदि वा तत्परं त्यतिमणं तदपि कृत्वा अथवा तदनन्तरं यत्कृतिकर्म विभेद का मणादवनं परचेत्यर्थः ॥ तदपि कृत्वा पाठांतरं तिविहं ते विभूतिकमा त्रिविधं वा कृतिकर्म्म कृत्वा श्रथवा कायोत्सर्गे चरम पाण्मासिकं कृत्वा परिज्ञाप्रत्याख्यानं तामपि वा कृत्वा । अत्रायं विधिः । सर्वे साधवश्वरम कायोत्सर्ग वसतावागत्य गुरुसमीपे वंदनकं कृत्वा सर्वोत्तमश्च ज्येष्ठः आलोच्य सर्वे प्रत्याख्यानं गृह्णीत । अथवा सर्वमावश्यकं कृत्वा एकां स्तुति दत्वा शेषे स्तुती कृत्वा शेष गुरुसकाशे कुर्वति तदेवमुक्तं देशतः आवश्यकस्य करणमधुना सर्वतः कारणमाइ ॥ युति मंगलं च काऊं, आगमणं होति अनिनिसिज्जातो । चितियपदे जयणाऊ, गिलाणमादी उकायन्वा ॥ अयया प्रत्याख्यानं तदनंतर स्तुतिमंग व स्तुतित्रया कर्षणरूपं तत्र कृत्वा अनिशय्यात श्रगमनं भवति । तत्रेयं समारी गुरु ज्येष्ठ एक आलोक्यति भाष्य प्रत्यापेस्य पुरत आलोचना प्रत्यायानं कृतं वंदनकं च सर्वे दति कामणं च । द्वितीयपदे अपवादपदेानादिषु प्रयोजनेषु नजना कर्तव्या किमुकं प्रयति नानादिकं प्रयेजनमुद्दिश्य वसतौ नागच्छेयुरपीति खाना दीन्येव प्रयोजनान्याह || लावा समाहिता, पदुक ते जरे निवेगी ॥ हिगर हत्यि संजम ए, गेलम्मनिवेयणा नवरं ॥ लानत्वमेकस्य बहूनां साधूनां तत्राऽनवत् तत्ः सर्वेऽपि साधवस्तत्र व्यापृतीचूता इति न वसतावागमनं अथवा वर्षे पतितुमारब्धं मिहिका वा पतितुं लग्ना यद्वा ( पटुत्ति ) प्रविष्टाः कोऽप्यंतराविरूपकरणाय तिष्ठति । अतः पुरं वा तदा नीं निर्गतुमारब्धं । तत्र च राज्ञा उद्घोषितं यथा पुरुषेण न केनापि रथ्यासु संचरितव्यं । राजा वा तदा निर्गच्छति । तत्र गजपुरुषादीनां संगमा तोऽधिकरणं वा गृहस्थेन समं कथमपि जाते ह स्तदुपशमयितुं लग्ना दस्तिमो वा जातः किमुकं भवति । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावरसय अभिधानराजेन्द्रः। श्रावस्सय हस्ती कथमप्याऽयानस्तंभं क्या शन्यासनःस्वेच्छया तदा च तदैव च श्रावकप्रतिदिन क्रियां प्रतिपादयताऽचार्येण परिभ्रमति । एतेषु कारणेषु नागरायुरपि बसति नवरमेतेषु चिश्वंदणमो इत्येतावदेवोक्तमय वषे । कारणेषु मध्ये मानत्वे विशेषः यदि म्यानम्वमागाढमुपजातमे समण सावएणय, अवस्सकायब्वयं हवश्जम्हा। कस्यबहूनां वा तदा गुरूणां निवदना कर्तव्या ।। व्य. १०.॥ अंतो ग्रहो निसिस्सय, तम्हा आवस्मयं नाम ।। काआयतिक्रमेणाध्वश्यके प्रायश्चित्तम् । तथा च महानिशीये इत्यस्यामनुयोगहारगाथायां श्रावकस्य तदुपदिष्टमिष्टमि७ .॥ चौ हेतुः नैवं तत्र चैत्यवदनादिनवावश्यकस्य गतार्थत्वाएवं जेणं निकाखू सुताइक्कमणं कालाकमेणं आवस्सगं चतोयदवावश्यं कर्तव्यं तदेवावश्यकमवश्यकर्तव्यं च चैत्यकुनीया । तस्स एणं कारणिगस्स मिक्कमंगोयमा! पायधि पूजावंदनादिश्रावकस्य यदि पुनरिदं षषिधावश्यकमवश्यक ज वसेज्जा जइ णं आकरिणिगतसिं तूणं जहाजो तव्यतया श्रावकस्योपदिष्टमनविष्यत्तदाय एवषविधावश्य ककारी सपव श्रावकोजवियनचैवविरतानामाप सामायिगं चनत्थाई॥ ककारिणां श्रावकत्वान्युपगमादिति । अत्रोच्यते । यदुक्तमुपावश्यके च प्रमादो न कार्यः। पं० प्रा० । पासकरशादावमुक्तत्वात् भावकाणामावश्यकमयुक्तमिति । माकुणहप्पमायं, आवस्सएहिं संजमतवोतहाणेहिं । तदयुक्तमनुपदिष्टत्वस्यासिहत्वात्तथाहि । यद्यप्युपासकदशाहिस्सारं माणुस्त, दुसनमानं वियाणेत्ता। दो नोपदिष्टं । ततेग तथाप्यनुयोगद्वारेषु तदुपदिष्टं तथाहि ॥ (माकुण हप्पमायं,) प्रमानानाः प्रतिषेधे माकुरुत कषाययो- जं इमंसमणे समणीवा सावए वा साचिया वा तच्चित्ते गादिभिः प्रमादं आवश्यकरणीयमावश्यकं । किंचित् तदा- तम्मणे जाव उनोकालं उब्विहं आवस्सयं करेंति वश्यकं संयमतपोध्यानादिनिः । एष आवश्यकः तप एष सत्तं सोनुत्तरियं जावावस्सयंति॥ उपधानं तपो पधानं किमये । यस्मानिः सारं मानुष्यं जल यत्रोक्तं । चैत्यवन्दनादि श्रावकस्याऽवश्यकमिति तदप्यसं. बुद्बुदसमानं कुशाग्रजचिमुसन्निभं चेत्यादि सतश्चैवं गुणं गत (मज्क्रयण उसवग्गो) इत्यादि तदेकर्थिकपदापन्यासेन जातीयं उसनं प्राप्यमित्यर्थः । विविधमनेकप्रकारं वा तस्य पतिधत्वेन निश्चितत्वाऽमास्वातिवाचकेनाऽप्यस्थ समज्ञात्वा दिटुतो ।। पं.च.॥ र्थितत्वात्तवाहितेलोकसम्यग् दर्शनसंपन्नः पहिधाषश्य श्रावट्यकप्रमादे प्रायश्चित्तम् ॥ कनिरतश्च श्रावको भवतीति गम्यते । तथा प्रशउसमाचरित सेजयवं जेणं गणी किंचि आवस्सगं पमाएज्जा गोयमा ! त्वादिजीतप्रकणानामिहोपपद्यमानत्वेन जीताभिधानपंचमव्यजेणंगणा प्रकाराणगे किंचीखएमेगमवि पमाएसेणं अ- वहारसमार्थतत्वात्तथा । यदुक्तं । (समणेण सावरण य) बदंउवसेजाजओणं तुम महाकारणिगे वि संते गणी इत्यत्र गाथायां यदि षडियावश्यक वियक्तिमभविष्यत्तदा खणमेगमविणकिंचि पियमावस्सगं पमाए सेणं वंदे पए तत्कारिण एवथावका अभविष्यन्नान्ये इति । तदप्यसंगत । श्रमणपकेऽप्यस्य दूषणस्य समानत्वात्तयादि। य एव पद्धिमा दहब्वे जावणं सिके बुके पारगएखीणटकम्ममन्ने नीरए वश्यकं कुर्वन्ति त एवं श्रमणाः स्युस्ततश्च कारणजाते प्रतिनवइसेज्जा सेसं तु महयाए बंधेणं सत्याणे चेव नाणिहिइ क्रमणकारिणां मध्यमतीर्थसाधूनामश्रमणता स्यान्न चवमय एवं पच्चिने विहिं सोनणाणती अदीशमणो जंजय चरमतीर्थसाधूनाश्रित्येयं गायोक्ता । सत्यं । केवलं यदि जहा थाम जे से आराहगे जाणए ।महा० ७ अ०॥ श्रावकाणां पद्विघावश्यकमज्ञापनार्थापि स्यात्तदा किंवृषण मिति । अथ पूषे षविधावश्यकमतिचारकिरूपं वर्तते । न सम्प्रति श्रावकस्य बहारंजरतस्याऽप्यावश्यके न पुःखांतो च श्रावकाणामालोचनादि दशप्रकारशुकेमध्यादेकापि प्रकनवतीति दर्शयितुमाह।। स्पादिग्रंथेषपनज्यते । न च तेषामतिचारा घटते । संज्वलनोश्रावस्तरण एएण, सावग्रो जवि वहरओ होइ । दय एव तेषामुक्तवादित्यत्रोच्यते । यद्यपि थाषकाणां प्रकल्पा सुक्खाधमतकिरियं, काही अचिरेण कालेणं दिग्रंथेषु शुद्धिर्न दृश्यते । तथाऽप्यसौश्रावकजीतकरूपादे सका आवश्यकेनतेनेतिषविधभावावश्यकरूपेण नतु दंतधावना- शादवश्यान्युपगंतव्या । अन्यथोपासकदशासु यमुक्तं किस दिना द्रव्याघश्यकेण श्रावको यद्यपि बहुरजा बहुबरूधमान. भगवान् गौतममुनिरानन्दश्रावकं प्रत्यवादीत् ॥ कम्बहरतो वार्विविधसावगरंभासको भवति तथापीत्यभ्या तु मएणं आणं दाएयस्स अट्ठस्स आसोयाहि पमिकमाहि हाराद् दुः सानां शारीरमानसानां (अंतकिरिय) अंतक्रियां विनाशं करिष्यत्यचिरेण स्तोकनैव काझेग-प्रत्र चांतक्रिया, निंदाहि गरिहाहि अहारिहं तवोकम्मपायाचित्तं पामयां अनंतरहेतुर्यथास्थातचारित्रं तथापि परंपराहेतुरिदमपि बज्जाहीति ॥ जायते सुदर्शनादेरिवेति । ध०१ आधि.॥ तत्कथं घटेताऽतएव ज्ञापकादतिचारा अपि तेषां भवतीति श्रावकस्याऽवश्यकम् ॥ सिहं याचारा असंज्वलनोदयेऽपि भवन्ति । तथा प्रागुक्तं अविरुको बहारो, काले तह जोयणं च संवरणं ।। किंच यदीदं चैत्यवंदनादिकमावश्यकं स्यासदाऽतो अहो निसिस्लय शत मुनिवचनेन सध्यादय एष श्रावकस्य तद्विचे इहरागमसवणं, सकारो वंदणाईय ॥ पंचा० धेयं स्यात् श्रूयते । पुनरवं ॥ नत्वावश्यककरणमित्यसंगतं श्रावकं प्रति व्रतावियत्तस्या दंसागसुकिनिमित्तं, तिकानं देववंदणाश्यांत गमे विधेयतया उपविष्टत्वात्तथा ह्यसौ सपामकवशादी मूमा. । अतः सन्ध्याध्यकरणनियमः षविधावश्यकस्यैवोपपद्यते गमेनोपदेशोकापकं चोपलज्यते तपाररूपे श्रावकमप्यादी साधनामिवेति किंच॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) अभिधानराजेन्ः | भावस्सय सव्वंति जाणिवां, चिरई ख जस्सब्बिया नत्यि । सोसव्वरवाद, चकदेसं च सव्वं च ॥ इत्यनया गाथया सामयिकसूत्र सर्वशब्दवर्ज श्राषकस्योक्तं । चतुर्विंशतिस्तवस्तु सम्मग् दर्शन शुद्धिनिमित्तत्वात् सम्यग् द. शनस्य च धावकस्यापि शोधनीयत्वात्कर्तविशेषस्य चानमितित्याचरितत्यापपन्न एवास्येति । किंनर्याधिका प्रतिक्रमणस्य गमनागमनमात्रेण शब्देन नगवत्यां शंखपा क्यानकेषु पुष्कविधायककृतत्वेन दर्शितत्वाध्मनागमनशब्दस्य विधिकापण्यांयतया जगवत्यामेष तप्याख्यानके घनियुक्तियों व प्रसिकत्वाद। योपथिका कायोत्सर्ग च चतुविंशतिस्तवस्य प्रायश्चिन्तनीयत्वाच्चाऽसौ सिद्ध इति वन्दन कमपि गुणवत् प्रतिपत्तिरूपत्वात् गुणवत् प्रतिपत्तेश्च श्रावक स्याध्यविकत्वात् कृष्णादिभिधतस्य प्रवर्त्तितत्वात्संगतमेवास्य तु ॥ पंचमहव्वयजुतो, अनलसमानपरिवज्जियमती य । संविग्गनिज्जरही, किई कम्मकरो, हब साहुति ॥ अनया निर्युक्तिगाथा साधुग्रहणेन श्रावकस्य व्यवच्छेदान्न संगतं । तस्य वन्दनकं नैवं ततः साधुग्रहणं तत्र तदम्यवन्दनको पलवणार्थे नतु श्रावकव्यवच्छेदार्थ । यदि तु व्यवच्छेदार्यमनविष्य सदा साध्या अपि व्यवच्छेदो भविष्यन्न वासी संगतो मातुर्विशेषणं वन्दनकनिषेधाचदा । मायरं पिवरं वा नि, जेडगं वा वि जागरं । किकम्मै न कारेक्जा, सब्बेराई लिए तदा ॥ तथा (पंचम व्वयजुत्ते) अनेन यया महावतग्रहणादपुत्रतयुकस्प व्यवच्छेदस्तथा पंचातयुक्तस्य मध्यती पोरपिस्त्यतो निर्विशेषं वन्द नकमपीति प्रतिक्रमणं तु सामान्यत ईर्ष्यापथप्रतिक्रमण मणनेनैव सिद्धमथ विचित्राभिप्रवतां श्रावकाणां कथमेकेन प्रतिक्रमणसूत्रेण तदुपपद्यते । यते। प्रतिपन्नान्यतरव्रतस्य तदतिचा नवे च तच्चारणमसंगतमेवान्यथा महाशताति वाराणामचारणप्रसंग इति । नैवमप्रतिपन्नाम्यतर मतरूपापितहतियारोचारतो धज्ञानादिविषयस्य प्रतिक्रमणस्यानुमतत्याद्यत उक्तं ॥ पारसिकाणं करणे, किवा अकरणे परिकमां । असद हय तहा वियपरूवणाएव ।। अत एव साघुरप्रतिपन्नावः ग्रुपासक निक्षुप्रतिमासु ( एगारसपदि उपागमा बारसदिभिरिमा ) त्येवं प्रतिक्रामति । नतु यद्येवं तदा साधुमतिक्रमण सूत्रेणैव से प्रतिमा को या किमाद के बावकरतिक्रमणसूत्रम - तादिविषयस्य प्रतिसिद्धाचरणस्य प्रपंचाभिधायकत्वात् सोपयोगतरमिति तेन ते प्रतिक्रामति नतु साधुप्रतिक्रमणान्निं आावकप्रतिक्रमणसूत्रयुक्तं नियुकिप्राय परि नाकादिदश शास्त्री व्यतिरेकेण निकी नाम पातिका युगान व सूर्यया नाना प्रसंगालतः प्रतिक्रमणमप्यस्ति । तेषां कायोत्सर्गस्तु ईर्यापथप्रतिक्रमणात् पंचमप्रतिमाकरणात् सुभद्रा आविषादिनिवशेनतथ आपक स्य विधेयतया प्रतिपत्तव्यो यदि हि साधवोऽपि भंगभयात्सा कारका प्रतिपादिभिः सुतरामसी तथा प्रतिपेया ने गमनैष्ठिकत्वादिति । एवं प्रत्या भावरसयटीगा कमपि तु परिष्ठापनिकादय प्राकाराः समामेव घटते। ततो गृहिणामयुक्तमेतदेवं यतो यया गुर्वादयः परि छापनि कानधिकारिणो ये यथा वा भगवती योगवादिनो गुद संसृनधिकारिणं प्रपपरिष्द्वाप निकायाकाररोचारणेन प्रत्याख्याति अखं मं सूत्रमुच्चारणीयमिति न्यायादेव गृहस्था अनि दोषस्तस्मात्पदाविधमप्यावश्यक आवकस्यास्तीति प्रतिपत्तव्यमित्यलं प्रसंगेन विस्तरेणेति गायार्थः ॥ ४४ ॥ पंचा० १ वृ० ॥ ज्ञाता० १ अ० । ध० २ अधि० ॥ आवाय आवश्यक १० समस्यायेगुणप्रामश्याध्यासकमित्यावश्यकम् । अनु०। सामायिका र्दिके, । स्था० २ ० ॥ आवासक न० गुणशून्यमात्मान मासमंशाहासयति गुणैरित्यावासकम् - सामायिकादिके ॥ ग० २ अधि० अथवा आ यस्यति प्राकृतशल्पाऽऽवासकम् ॥ गुण शून्यमात्मानं गुणेयवारयतीत्यापासकम् । गुणसाखियमात्मनः कीि आ० म०प्र० १ ० | अनु० ॥ सन्निज्जावत्यापमेहिं वावसयं गुणओ । साभिर्वा आयसकं गुणत इत्याचासकमुच्यते । इदमुक्कं भवति । वस निवास इति गुणशून्यमात्मानं गुणैरासायति गुणाभिष्यमात्मनः करोतीत्यवासकम् । यययययापदि निस्तथा गुणैरासमन्तादात्मानं वासयति भावयति रंजयत्यावासकम् । यदि वा वस श्रा च्छादने गुण समन्तादानं दाद संवरणे दोषेभ्यः संवृणोत्ययासकमिति विशे० ॥ यावस्तयकरण - आवश्यककरण न० केवलि समुद्घातात्पूर्व haar क्रियमाणे व्यापारनेदे, शब्दा ते स्वोपात्तमनुप्यायुपोतः प्रपशाकस्यान्तमुपेसिज्यत्पर्यायानि मुखा अवश्यकरणमिति प्रश्ने प्रदर्श्यते । श्रन्वर्थत्वादवश्य कारणसंज्ञायाः जास्करवत् अवश्यकरणीयत्वादचश्यकरणं कुनैतीति कथमिदमावश्यकरणमिति कथमिति द इयते। अर्थमनुगता या संज्ञा साम्यध । मंगीकृत्य प्रय र्तत इत्यर्थः । कथमिह यथा भास्करसंज्ञा अन्वर्था । कथमस्वर्थाजासं करोतीति भास्कर इति यो नासनार्थमंगी कृत्य प्रवर्तत इत्यर्थः । तथावश्यककरणमिति श्यं संज्ञा वर्षा कमिति चेत् घूमहे । अवश्यं क्रियत इत्यावश्यकरणं इति । योऽवश्यकरणार्थोऽवश्यकर्त्तव्यतार्थमंगीकृत्य प्रवर्तते यरमा तस्मात्सर्वमेभिः समापारकरण मित्यर्थसंज्ञा सिफिरथवावश्यं भाव आवश्यक घ मनोहादिज्योति मनोर्फिसत्यावश्यक सिद्धिः । आवश्यकं करणं आवश्यककरणं । कुतः लोके दृष्टत्वाद् मल्लस्य कक्काबंधकरणवत् यथा मल्लोयुयुत्सुनाबभ्वा शाटकं युध्यते । स हि प्रथममेव शाटकेन करूं बध्वा अतः परावश्यकेाधकरणं मारत तांतरतयः शेषेण केवलिभावसिकता प्रथममेवेदं करणं श्रवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यककरणमिति श्र. चू. २ अ. । श्रावस्य कि आवश्यककृति-स्वी० प्रतिक्रमणकर ३ अधि० ॥ आवस्यपटोगा आवश्यकटीका ] ०रिमस्वामिविरचि सायामावश्यकवृत्तौ, आवश् ६ अ. ॥ यदर्जितं विरचयता सुबोधां पुण्यं मयाऽवश्यक Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८७) प्रावस्सयणिज्जुत्ति अभिधानराजेन्द्रः। आवस्सयसुर्यक्खंघ शास्त्रटीका । नवे नवे तेन ममैवमेव, चूयाज्जिनोक्ते स्वगतानेकभेदसूचकः । ( से किं त) मित्यादि अथार्कितदाऽनुमतेः प्रयासः ॥२॥ वश्यकं । सूरियह ॥ श्यञ्च द्वाविंशतिसहनामिका "हाविंशतिसहस्राणि, आवश्यकं षविधं प्राप्त । तद्यथा । सामायिकमित्यादि निगद प्रन्याग्रन्थनिसंख्यया । अनुष्टुप् दस मान, मस्या उद्देशप्तः सिर्फ सेसमित्यादि तदेतदावश्यक सेकितमित्यादि । भव किंतदावश्यक व्यतिरिक्तं वा आचार्य आह । आवश्यक व्यकृतम्" १ श्राव.॥ तिरिक्तं विविधं प्रतं । तद्यथा । कामिकमुत्कालिक च। तत्र श्रावस्सयपिज्जुति-आवश्यक नियुक्ति स्त्री. जबाहुस्या- यदिवसनिशा प्रथमपश्चिम पौरुषीद्वये एव पठ्यते तत्कामिविरचितेप्रावश्यक व्याख्याने, । तथाचाऽवश्यकनियुक्ति लिकं । कासेन निर्वृत्त कालिकमिति त्युत्पत्तेः । यत्पुनः कालविवृण्वन् मयगिरिराह । आम.प्र.१ . । वेत्रावर्ज सर्वकालेषु पठ्यते तत्कासिकं । आह च चूर्मकृत नत्वा गुरुपदकमनं, प्रजावतस्तस्य मन्दशक्तिरपि ॥ तत्थकालियं दिणराश्ण पढम चरमपोरसी सुपढिज्जा । जं आवश्यकनियुक्ति, विवृणोमि ययागमं स्पष्टम् ॥ ३ ॥ पुणकालवेयापज्जं पढिवजातं उकालियांत । तत्राऽल्प वक्तयद्यपि च विवृतयोऽस्या, स्सन्ति विचित्रास्तयापि व्यकत्वात् नं.टी०॥ आवस्सयवरित्तेत्यादि । यदिह दिवसनिशा प्रथमपश्चिम विषमास्ताः । संपति च जनो जम्धी, यानिति पौरुषीध्ये एव पठ्यते तत्कालेनिर्वृतंकालिकमुत्तराध्ययनादिवित्तिसंरम्नः ॥४॥ यापुनः कावसावर्ज पठ्यते तदूर्फ कालिकादित्युत्कालिक तत्र प्रेशावताम्प्रवृत्त्यर्थमाद। प्रयोजनादिकमुपन्यसनीयम दशवकालिकादीनि । ग. वा.॥ म्यथा न युक्तोऽयमावश्यकप्रारम्भप्रयासो नियोजनत्वा- आवस्सयवित्ति-आवश्यकवृत्ति स्त्री० आवश्यकविधरणे था. स्कएटकशास्त्रामईनवत् निरनिधेयत्वात्काकदन्तपरीक्कावत् म. प्र. १ श्र.॥ असंबरूत्वादश दमिमानि पम्पूपा इत्यादि वाक्यवत् । श्रावस्सयविसुकि-आवश्यकविशकि स्त्री० श्रावश्यकरणीय स्वेच्छगविरचित शास्त्रबद्धत्याशङ्कातः प्रेक्कावन्लोन प्रवर्तेरन् । योगनिरतिचारतायाम,॥ तथा मङ्गलमप्यादौ वक्तव्यमन्यया । आवश्यकविशषिश्वानिकोर्सिगान्यकीयन् । आवश्यकषिशु कर्तुः श्रोतृणां चाविनेनेष्टफलसिद्धियोगात् ॥ विश्वावश्यकरणीययोगनिरतिचारता । एतानि भिकोलिंगान्य प्रेक्षावतां प्रत्यर्य फादित्रितयंस्फट ।। कीर्तयन् गौतमादयो महर्षयः । ०२७ घा०॥ मंगलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यामिष्टार्थसिखये ॥१॥ आवस्सयसुयखंध-आवश्यकश्रुतस्कंध-पु० पामांश्रुतविशेषाश्रावश्यकनियुक्तों काश्चन नियुक्तिगाया अन्यकतृकाः प्रकि. णांस्कंधः श्रुतस्कंधः । प्रावश्यकं च तत् श्रुतस्कंधश्नावश्यक सास्ताश्च टीकाकृता तत्र व्याख्यानावसरे तथा सूचितास्ता. शुतस्कंधः । अनवाऽऽवश्यकं च तत् श्रुतंचावश्यक श्रुतं । स्वपि काश्चिहीकाकारण नियुक्तिकृत्कृतत्वेन मता अपि अ तस्यषमभ्ययनसमुदायात्मक आवश्यक भुत स्कंधः । स्वनाम न्यतृका ति केपक श्रेणि शब्दे ॥मनयगिरिवचसा दर्श- ख्यात श्रुतविशेष, । विशे. । द्वा.॥ यिष्यामि करमशब्देऽपि करणशब्दे ।। श्रावस्सयस्त जइसो, तत्थं गाइण अहपुच्ची ओ। आवस्सयपरिसुधि-आवश्यकपरिशकि-बी० अवश्यंकर ते होश सुय खधो, अयणा इं च नउ सेसा ॥ णीययोगानरतिचारतायाम् ॥ यद्यावश्यकस्यायोगस्तच्चावश्यकं श्रुतविशेषस्ती त्रांगादीआवश्ययपरिसुचीय, होति जिक्खुस्स सिंगाई॥ | न्याश्रित्याशौ पृच्गः संजवंति । तद्यथा। आवश्यकपरिशुभिचावश्यकरण ययोगनिरतिचारता च आवस्स यन किं अंगं, अंगाइ सुयखधो सुयरकंधाअप्रवति भिकोर्भावसाधोगिानीति दश०१० अ.द्वा.२७हा.॥ जयणं अऊयणाई उद्देसो श्रावस्सयवहरित-अावश्यकव्यतिरिक्त- न० अंगबाधे श्रु उहसा इति अत्रोत्तरमाह ॥ इह तदा वश्यकं पऽत्ययनतभेदे,॥ समुदायलकणः श्रुतस्कंधः प्रत्येकमध्ययनानिच षमिति । शेतथाचांगवायं श्रुतमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह । पाः पप्रकाराः प्रतिषेकन्याः असंतवित्वादिति । अत्रप्रेरका सेकित आवसयं यच्चधि पसत्तं । तंजहा । सामाइयं १ चवीसच्चन ३ वंदण्यं ३ पमिकमणं ४ का ननु नंदिवरकाणे, जणियमणं गै शह को संका। जसग्गो ५ पञ्चखाणं.६ । सेत्तआवस्सयं । सेकि तं आ जामइ अक ओ संका, तम्त नियमं वदाए । यस्तयवहरितं । श्रावस्सयवारित्तं दुविहं पात्तं । जहा। ननु नंद्यध्यने व्याख्यायमाने । ( इमं पुण बन्धणं पसुब्ध, अंगवाहिरस्स उद्देसोसमुद्देसो अणु माणुरोगो पव्यत्त) कालियं नक्कानियंच न०॥ इत्यादिवचनादावश्यकमंगबाह्यत्वादंग न जवतीति भणितटी॥ अयकिं तदंगवाह्य सूरिराह। मेवेति । कुतोऽत्राशंका येन प्रच्ग क्रियते । अत्र निर्वाचनमाह । अंगबाह्यश्रुतं विविध प्रकत । तद्यथा । आवश्यकं च आव- भायतेऽनोत्तरं । श्रुतस्कंधादि विषये तावमस्त्येवा शंका । श्यकव्यतिरिक्तं च । तत्रावश्यकर्म आवश्यकं अवश्यक- तत्राऽस्यार्थस्याऽनिर्णीतत्वात भतस्तहिषयास्तावत्कर्तव्या एव व्यक्रियानुष्ठानमित्यर्थः । अथवा गुणामाममिविधिना पश्य पृच्चाः । अंगानंगरूपतायामपि यदा नंद्यध्ययनमश्रुत्वा विनेयः मात्मानं करोतीत्यावश्यक । अवश्यकर्त्तव्यसामायिकादि प्रथमत एवेवं शृणोति । तथा अकृते नंदिव्याख्यानेऽस्त्वेष क्रियानुष्ठानं तत्प्रतिपादक श्रुतमपि आवश्यक । च शब्दः च शंका । किमावस्यकमगं तदाचं वेति । आह । ननु नद्य Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) भावस्सयसुयखंध अभिधानराजेन्द्रः भावरसयसुयखंध ध्ययन शुरवा तत् आवश्यकं श्रोतव्यमितीत्थं मोऽतः कथं यनानि तत्र तेग्यः षमभ्ययनमिति समासः अत्रोच्यते । येन मंद्यध्ययनस्य प्रथमव्याख्यानाकरणं येन प्रस्तुतशंका स्यादि षभिराधिकारविनियुक्तं नियुक्तं । स्थाशंक्याह । (तस्से ) स्यादि तस्य प्रथमं नदिव्याख्यान निवतेचषार्थाऽधिकाराःसामायिकादीनां षष्मामध्ययनाना करणस्याऽत पवांगानगप्रश्ननिर्णयवचनादाचार्योऽनियमं दर्श यथासंख्यमेव कष्टव्या शत । विशे.॥ यति । पुरुषापेकयाऽन्यथापि नंणदिव्याख्यामकरणादिति । नन्यावश्यक किमिति बमध्ययनान्यत्रोच्यते षमाधिआह । ननुमंगलार्थ सर्वेषामाप शास्त्राणामादौ दिव्याख्या कारयोगात् के पुनस्ते इत्याशंक्य तदुपदर्शनार्थमाह । नम् कर्तव्यमेवेति कथं तदनियम श्स्याह ।। श्रावास्सगस्त णं इमे अत्याहिगारा जवति । तंजहा। नाणानिहाणमित्तं, मंगलमिटुं नती एवरकाणं । सावजजोगविरक्ष, उत्तणगुणवनयपमिवत्ती । खलि इह सव्वत्थाणे जुज्जइ, जं सावीमुं सुयक्वंधो॥ अस्सय निंदमा, वणतिगिक गुणधारण चेव ॥ कानपं वकाभिधानमात्रमेव शास्त्रादी मंगमिष्टं नतु तस्या मद्याः सर्वस्या अपि शास्त्ररूपाया हास्थाने व्याख्यानं युज्यते भावश्यकषमभ्ययनस्य पक्ष्यमाणा अर्थाधिकारा नवतिाततथाहि पथि प्रस्थितमंगलचूतं दधिदूर्वाकतादिवस्तूनामभि राथा । सावजजोगगाहा व्याख्या । प्रथमेसामायिकसवणे भानदर्शनावीन्येव मंगप्रतया गृह्यते नतु तकणतद्गुणवर्णा अध्ययने प्राणातिपातादिसर्वसाधण्योगविरतिराधिकारः दीन्यपि क्रियते । तयेहापि ज्ञानोत्कीर्तनमात्रमेव मंगलं यु. (उकितणत्ति )हितीये चतुर्विंशतिस्तवाध्ययने प्रधानकर्मज्यते मतु नंदिव्याल्यानमिह तस्य स्यामत्वानह्यावश्यकशास्त्रा कारणत्वावग्धबोधिविशुब्तुित्वात्पुनबोंधिसानफप्रत्वात्सारेने शास्त्रांतरजूताया नद्या व्याख्यानं युज्यते अतिप्रसंगानच अद्ययोगविरत्युपदेशकत्वेनोपकारित्वाच तीर्थंकराण गुणोवक्तव्यं सर्वशास्त्रांतरजूतव नंदी यद्यस्मात्साविष्वक्पृथगंव कीर्तनार्थाधिकार ।। (गुणभोयपरिवत्ति) गुणा मूसोत्तरश्रुतस्कंधतया सिद्धांते प्रसिका श्रुतस्कंधत्वं चास्याः पदवाक्य गुणरूपा प्रतपिएमविशुद्धयादयो विचंते यस्य स गुणवांस्तसमूहात्मकत्वेनैव द्रष्टव्यं नत्वध्ययनकापात्मकं पारनाषित स्य प्रतिपत्तिर्वदनादिक कर्तव्येति तृतीये वंदनाध्ययनेऽधिमेकाध्ययनरूपत्वेन रूढत्वादिति । मनु यदि नंदिव्याख्यानस्य कारश्वशब्दात्पुष्टासम्बने गुणवतोऽपि प्रतिपतिकर्तव्यक्ति द्रष्टस्थानमिदं ताकिमितीत्थमादायेवं नवञिानपंचकं विस्तरेण व्यं । उक्तं च ॥ व्याख्यासमिति पौर्वापर्येण स्वषचननिरोध इत्याशंक्याह । परियायपरिसपुरिसं, खेत्तं कामं च भागमं ना । इहसाणुग्गहमुइयं न उ नियमोयमहवा पवादोयं । कारणाजाए ताए, जाहारिहं जस्स संजोगं ॥ दाइज कहणा, एकया पुरिसादवि क्वाथ । (खनियस्स य निंदणते ) स्खसितस्य मझोत्तरगुणेषुप्रमामहावश्यकारभे यद्विस्तरेण कानपचकऽस्यादौ व्याख्यातं दाचीर्णस्य प्रत्यागमसंवेगस्य जंतोर्विद्ध्यमानाभ्यवसायस्या तत्सानुग्रह शिष्यानुग्रहमास्थायोदितमस्माभिर्नपुनरयं निय कार्यमिदामिति भावयतो निदाप्रतिक्रमणे अर्वाधिकारः । वणम एष कामोत्कीर्तनमात्रस्यैष नियमेन मंगातयात्राऽनीष्टत्वा ति गच्चतीतिवणः। प्रणचिकित्सा कायोत्साध्ययनाधिइथवा कथनया कथनर्विधरपवादोऽयं दृश्यते यथेह पुरुषा कारः । श्दमक्तुंभवति । चारित्रपुरुषस्य योऽतिचाररूपो चऽपक्कया कदा क्रमेणापि शाखाणि व्याख्यायन्ते भन्यारंभ. भाववणस्तस्य दशविधप्रायाश्चत्त भेषजेन कार्योत्सर्गाथान्यद्वा व्याख्यायत शत तस्मादावश्यकश्रुतस्कंधस्याऽनुयोग ध्ययने चिकित्सा प्रतिपाद्यते ( गुणधारणा चवत्ति) शत स्थिते किमिदानी कर्तव्यमित्याह । गुणधारणा प्रत्याख्यानाध्ययने अर्थाधिकारः। अयमत्र श्रावस्सयसुयखंधो, नामं सत्यस्स तस्स जेजेया। नावार्थः । मूत्रगुणोत्तरगुणप्रतिपत्तिस्तस्याश्च निरतिचार संधारणं यथा भवति तथा प्रत्याख्यानाध्ययने प्ररूपा ताई अज्जयणाई, नासो आवस्सयाएं ॥१॥ करिष्यतेच शद्वादन्येऽर्थाधिकारा विकेयाः। पयकारोऽवधारण कप्पोपिदविहाणं, जहत्य मजहत्यउनसुम्पत्ति । ति गाथार्थः । तदेवं यदादौ प्रतिज्ञातमाघश्यक निकेपस्यानामे चेव परिगग, तं जय होहि जहां ॥३॥ मीति इत्यादि । तत्रावश्यकश्रुतस्कंधरवणानि त्रीणि पदानि यह प्रस्तुतशास्त्रस्यावश्यकश्रुतस्कंधति नाम तस्यचावश्य निकितानि।सांप्रतं त्वध्ययनपदमवसरायात मपि निपूस्यते कस्य ये सामायिकादयानेदाः स्तान्यभ्ययनान्यऽभिधीयते षयमणिनिकेपानुयोगधारभोधनिष्पन्ननिक्केपे तस्य निक्केप्य तत प्रायश्वकादिपदानामावश्यकं श्रुतस्कंधोऽध्ययनमित्येषां मानत्वादत्रापि भणने च ग्रंथगौरवापत्तेरिति ॥ पदानां न्यासो निकपः पृथकार्यकुतश्त्यस्मकेतार्यतकिचि- श्दानीमावश्यकस्य यव्याख्यान यच व्याख्येयं तदुपदर्श माम तावद्यथार्थ भवति यथा दीपो दहन इत्यादि । किंचित यन्नाह। त्वयथार्थ भवति यथापनाशोमंगपत्यादि अपरं त्वर्थशून्यमव श्रावस्मयस्स एसो, पिंगत्यो वसिओ समासेणं । ति यथा मित्यकपित्थश्त्यादि यथार्थ च शाखाभिधानमिप्यतेत्रिय समुदायाचगतेरतो नाम्न्येव परीक्वाविचारणाक्रिय एत्तो एकेकं पुण, अस्मयणं कित्तस्सामि ॥१॥ ते ततोमाद्यामिदं याद यथार्थ स्यादिति । विशे० ॥ तं जहा । समाश्य १ चउवीसत्थो २ बंदणय ३ भथ सामायिकाद्यभ्ययनानामर्थाधिकारर्दशनार्थ प्रस्ताव पाकिमणं ४ काउसग्गो ५ पञ्चक्खाणं ॥ नामाह। व्या० आवश्यकस्यावश्यकपदानिधयेस्य शाखास्य एष किंपुण उकळयणं, जेणग्नत्या हिगारावाणिउत्तं । पूर्वोक्तप्रकारपिएमादिसमुदायाथों वर्णितः कथितः । समासामाझ्याश्याणां, ते य इमे तज्जहासंखं ॥ सन संकेपेण । श्वमत्र हदयं । आवश्यकभूतस्कधीत शाख माह किं पुनरिह कारणं येन पमध्ययनमिदमावश्यक परभ्य | माम पूर्व व्वाण्यातं । तब सामर्थ्य ततश्च यथा सात्वर्यादा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावस्या चारादीनामत एव तद्वाच्यशास्त्रस्य चारित्राद्याचारोऽत्राभि धारयते इत्यादिणः समुरायार्थः प्रतिपादितो भवत्येयमंत्राप्यावश्यकश्रुतस्कंध इति सान्वर्थनामकथनादेवावश्यं करणीयं सावद्ययोगविरत्यादिकं वस्त्वत्राभिधास्यत इति समु दायाचः प्रतिपादित जयति मत कई पुनरेकेकमध्ययनं कीर्णः यिष्यामीति गाथार्थः । तत्कीर्तनार्थमेवाह तद्यथा सामायिक चतुर्विंशतिस्तवो वंदनं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गप्रत्याख्यानं 1 विशे० आ० म० प्र. १ अ. ॥ आवस्यवाणुओग आवश्यकानुयोग आवश्यकव्याख्याने, अनु० । आ० चू ०१ अ. । विशे० ॥ ( ४८९ ) अभिधान राजेन्द्रः - कयपत्रयपणामो, वोच्छं चरणगुणसंग सयलं । आवस्वषाणुओगं गुरुवसानुसारेणं ॥ व्याख्या | वोच्छमिति क्रिया वक्ष्येऽभिधास्येत्यर्थः । किमि त्याह (आवस्सया ओगंति) अवश्यं कर्तव्यमावश्यकं सामायिकादिरूपं । कचिदावासया प्रयोग मितिपावस्तत्राप्या समंतात् शानादिगुणैः शून्य जीयं वासयति तैर्युक्तं करोतीत्यापास सामायिकादिरूपमेव तस्य चयमाणशब्दानुषगोव्या स्यानं विधिप्रतिषेधाश्यामप्ररूपणमित्य त्याह (पवपणपणामोति ) प्रोच्यते अनेनास्मादस्मिन्वा जीवादयः पदार्थ शत प्रवचनं । अथ वा प्रशब्दस्याव्ययत्वेनाऽनेकार्थद्योतकत्वात्प्रगतं जीवादिपदार्थव्यापकं प्रशस्त मादौ वा वचनं दशांगं गणिपिटकं आदित्वं चास्य विव. तितीर्थकराया इव्यं । नमस्तीचयेति वचन करे. णापि 'तन्नमस्करणादिति । अथवा जीवादितत्वं प्रवक्तीति प्रवचनमिति व्युत्पत्ते द्वादशांगं गणि पिटकोपयोगानन्यत्वादा चतु वियत्री श्रमण संघोऽपि प्रवचनमुच्यते। तो विहितो यो प्रवचनस्य प्रणामो नमस्कारो येन मया सोऽहं कृतप्रवचनप्रणामः किस्वरूपमावश्यकानुयोगमित्याह (चरणगुणसंग ति) चर्यते मुनिरासेप्यते इति चरण अथवा चपते गम्यते प्राप्यते भवावः परक्रमनेनेति चरणं भ्रमणधर्मादयो सूत्रगुणाः गुरते संख्यायंत इति गुणा चिमविरु तरगुणरूपाः चरणंच गुणाश्च चरणगुणाः अथवा चरणशब्देन सर्वतो देशतश्च चारित्रमिह विवचितं । गुणशब्देन तु दर्शनज्ञाने ततश्च चरणं च गुणौच चरणगुणास्तेषां संगृहीतिः संप्रद्धरणगुणसंपदस्तं स च देशतो नयतीत्याह । सक लं परिपूर्ण आह । नत्थावश्यकानुयोगस्तावदावश्यकव्याख्या नं चरणगुणसंग्रामदर्शनचारितिरूपस्ततो प्रत्यंतनिनाधिकरणत्वात्कथमनयोः सामानाधिकरण्यं सत्यं किंतु (सामाश्यं च तिविहं सम्मत्तसुअं तहाचरितं चेत्यादि ) वक्ष्यमाणवचनादेकोऽपि सामायिकानुयोगस्तावत्संपूर्ण चरण संपादकः कि पुनः सकाश्यानुयोगस्तता संपूर्णचरणगुण संग्रहयुक्तत्वादावश्यकानुयोगोऽपि संपूर्ण चरणगुण संग्रह त्वेनोको यथा दंयोगा इएमः पुरुष इत्यदोषः अथ वा धरणगुणानां संग्रहोत्राऽपश्यानुयोगेऽसौ परणगुणसंग्रह इति महिपते प्रेयमेय नास्ति केमस्मिन् प समिति विशेषणमावश्यकानुयोगस्य चरणसंग्रह र्णत्वापेकयैव व्यमित्येतच्च कष्टगम्यमित्युपेक्षते । आह । ननु यदि (सामाश्यं च तिविह) मित्यादि वक्ष्यमाणवचनात्सामायिकस्य संपूर्णचरणगुणसंग्राहकत्वं तर्हि तदनुयोगस्य सद्रूपचे किमया तदेवं सामायिक अनु भयागुयोग गस्तु व्याख्यानं व्याख्येय व्याख्यानयोधिकानिमायत्यादिदा देन विपाददोष इत्यमितिचर्यति अनेन य संपूर्णच रणगुणणेन स्वरूपविशेषणेनावश्यकानुयोगस्य म हार्थतां दर्शयति नाष्यकारः । ग्रह । ननु यदि त्वया आवश्य कानुयोगः समनीषिका बयते तदाऽनादेय पाहाय सति वतंत्रता निधीयमानत्ययारुपाय दिति परवचनमा शंक्य तदुपन्यस्तहेतोर सिरुतां उपदर्शयन्नाह (गुरुवरसासारेणति ) गृणंति तत्वमितिगुरवस्तीर्थकरगणधरादयस्तेषामुपदेशो मणन तद्नुसारेण तत्पारतंत्र्येणाव कानुयोग ये तु स्यमनीषिका धीयमानत्वादित्यसिको हेतुरिति भावः । यो हि बद्मस्थः सन्प गुरुपदान स्वतंत्रमेव यति रम्यावस्येव तस्य वचनादेयमिति ॥ वयमपि मन्यामहे केवलं तदिह नास्ति परमगुरूपदेशानुसारे वावश्यकानुयोगस्य मयाऽभिधीयमानत्वादिति । तदेव कृतप्र वचनप्रणामो गुरुपदेशनिक चरणगुणसंप्ररूपमायश्यकानुयोगमहं वक्ष्ये इति पिंकार्थः ॥ आह । ननु श्रीमद्रबाहुप्रणीता सामायिकनियुक्तिरिह भाग्ये व्याक्यास्यते तत्कथमिमावश्यकानुयोगोऽविधीयते तदेवमभिप्रायापरिज्ञानात्तथाहि । सामायिकस्य षविधावश्य कैकदेशत्वादावश्यकरूपता तावन्न विरुभ्यते । तन्निर्युक्तिस्त तयाख्यान व्याख्यानपोमेकामिमात्या तरमेवोक्तं । तस्मात्सामायिकस्य तसिंस् कत्वात्तस्य चेह व्याख्यायमानत्वादावश्यकानुयोगरूपता नाष्य स्य न विहन्यत इत्य संविस्तरेण । अस्याश्च गाथायाः प्रथमपादेन संघाला मंगत्यादिदेवतानमस्कारः कृतः । शेषपादत्रयेण त्वभिधेयप्रयोजनसंबंधाभिधानमकारि । तत्रा वश्यकानुयोगं पति पता आवश्यनुयोगोऽस्पशात्रस्याऽभिधेय इति साकादेवोक्तं प्रयोजनसंबंधौ तु सामर्थ्या तथादि संपूर्ण चरणगुणसंग्राहकत्वं दर्शयामा रित्राधारताऽस्य शास्त्रस्य दर्शिता भवति । तद्रूपाणि शास्त्राणि पाठनश्रवणादिभिरनुशीस्यमानानि स्वर्गापवर्गप्राप्तिनिवं धनानि भवतीति प्रतीतमेव । अतः स्वर्गमो कफलावा तिरस्य शास्त्रस्य प्रयोजनमिति सामर्थ्यादुक्तं जवति । श्रभिधेयाऽनिधायकयोश्च वाचकलक्षणः संबंधोऽप्यर्थादनिहिता भवति । अस्यां च संबंधप्रयोजना निधानादिचर्यायां बह्वपि वक्तव्यमस्ति hi बहुषु शास्त्रे तिचर्चितत्वेन सुप्रतीतत्वात्तथाविधसाध्य शून्यत्वाच्च नेहोच्यते । श्रनेन चाऽभिधयामिधानेन शास्त्रस्य श्रवणादौ शिष्यप्रवृत्तिः साधिता भवति । अन्यथा हि न श्रवणादियोग्यमिदं निरभिधेयत्वात्का कदंत परीक्कावादित्याशंक्य नेह कश्चित्प्रवर्त्तते । उक्तंच ॥ सीप वित्तिनिमित्तं अभिधेयपओ अणाई संबन्धो । त्या सत्ये, तस्सुन्नत्तं सुणिजिहरा ॥ एवं मंगलाद्यनिधाने व्यवस्थापिते कश्चिदाह । नन्वईदादय देवानप्रस्तिमिति तान्विदाय चनस्य नमस्कारः कृतः । इत्यत्रोच्यते । नमस्तीर्थायेति वचना दर्ददादीनामपि वचनमेव नमस्करणीयं पादाय स्मादितिरेव शते तीर्थमपि रिकार्ड प्र चचनाथनेने प्रयतइत्यादिविषादादिज्योि नस्य प्रधानत्वात् ज्ञानादिगुणात्मकत्वाचेष्टदेवतात्वं नविरुद्ध्यत Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९.) श्रावस्सयाणुओग. अभिधानराजेन्छः। आवस्सयाणुप्रोग. प्रवचननमस्कारं च कुर्वनिः पूज्यैः सिद्धांततत्वावगमरसाऽनु- षामुपक्रमादिघाराणां नेदनिरुक्तक्रमप्रयोजनानीन्येवं षष्ठीतत्पुजितहृदयत्वादात्मनःप्रवचनभक्त्यतिशय प्रख्यापितो जवति रुषसमासाविधेयः। चः समुच्चये वाच्यानीति यथायोगमर्थतः इत्यनमितिविस्तरेण । मंगझादिविचारविषयह्याकेपपरिहारा- सर्वच योजितमेवेति द्वारगाथासंकेपार्थः ॥ २॥विस्तरार्थतु दिकमिहव ग्रंथकारोऽपि संक्तपेण वक्ष्यतीति तदेवमियं गाथा भाग्यकार एव दिदर्शयिषुर्यथाद्देशं निर्देश इति कृत्वा प्रेकालतां सर्वोऽपि चायं ग्रंथो महामतिभिः पूर्वसूरिभिर्गभीरवाक्यप्र प्रवृत्यर्थमावश्यकानुयोगफलप्रतिपादितां तावनाथामाह। बंधैः व्युत्पन्नभणितिप्रकारेण व्याख्यातः तच्च व्याख्यान नाणकिरियाहिं मुक्खो, तम्मयमावस्मयं जोतेणं । मित्थं युक्तमपि गौरत्वं पांगरोगन्यायेन मतिमांद्यात्सांप्रतकाली तन्वक्खाणारंजो, कारणोकज्जसिफित्ति ॥ नशिष्याणां न तथाविधार्थावगमहे तुतां प्रातपद्यत इत्याकबस्य मंदमतिनापि मया तेषां मंदतरमतीनां शिष्याणां अर्थावगमनि व्याण्या।झानं च सम्यगऽवबोधरूपं क्रियाच तत्पूर्वकसावद्यामित्तममुना ऋजुभणितिप्रकारेणेयं गाथा व्याख्याता । सर्वोपि ऽवद्ययोगनिवृतिप्रवृतिरूपा ज्ञानक्रिये ताज्यां तावन्मोक्कोऽशे षकर्ममक्षकलंकाभावरूपःसाध्यत शत सर्वेषामपि शिष्टानां प्रच ग्रंथोऽयमनेनोल्लेखेन व्याख्यास्यत इति प्रतिपत्तव्यं । न च वक्तव्यं येषां महामतिपूर्वपुरुषवचनैरवबोधो न संपटते तेषां माणसिद्धमेव दर्शनस्य ज्ञान एवांतर्निहितत्वादिति । याद नाम कानक्रियान्यां मोकस्तावश्यकानुयोगस्य किमायातं येन फ मंदबुझेजवतो वचनेन कुतोऽयंसंपत्स्यते इति यतोजायत एव लवत्तया प्रेक्कावतां तत्र प्रवृत्तिः स्यादित्याह तन्मयमावश्यक समानशीबवचनैः समानशीबानामर्थप्रतिपत्तिर्यदाह ।। ताज्यां कानक्रियाज्यां निर्वृत्तंतन्मयं ज्ञानक्रियास्वरूपमावश्यक गामिस्बुयाण गामिल्खु, एहिं मिच्ाण हुति मिच्छेहिं । तत्कारणत्वादिति जावः । यथा वायुझिकारणत्वेनोपचारासम्म पमिवत्ती ओ, अत्यस्स नविबुहनणिएहिं ।। लाके घृतमायुरुच्यते नरवादकं वा पादरोगकारणत्वात्तथैवा नियलामायेनणंति, समाणसीमि अपमिवत्त।। भिधीयते एवंप्रस्तुतानुयोगविषयीकृतं सामायिकादिषमभ्यय नसूत्रात्मकमावश्यकमाप सम्यग्ज्ञानक्रियाकारणत्वात्स्वरूप जाय मंदस्स वि, न नण विविह सक्कयपबंधेहिं । मेव तदध्ययनश्रवणचिंतनतदुक्ताचरणप्रवृत्तानामवश्यं सम्यग्श्त्यसंबहुभाषितेनेति गाथार्थः। आवश्यकानुयोगोऽत्राऽभि झानक्रियाप्राप्तेस्तस्मादुक्तन्यायनशानक्रियात्मकं यतूआवश्यकधास्यत इत्युक्तं किंपुनरस्य फलादिकं यदवगम्य वयं तच्छ्व मतस्तस्यावश्यकस्य व्याख्यानं अनयोगस्तद्वयाख्यानं तस्यारं णादी प्रवर्तामह इति प्रेक्कावचिष्यवचनमाशंक्यावश्यकानु नप्रेक्कावता क्रियमाणोनविरुध्यते। आवश्यकात्सम्यानक्रियोगस्य फसादीन्यन्निधित्सुस्तत्संग्रहपरां घारगाथामाह ।। याप्राप्तिधारेण मोक्कलकणफसिके ।नान्वित्यंतह्यावश्यकात्सतस्सफाजोगमंगल, समुदायत्था तहेवदाराई। म्यग्ज्ञानक्रियाप्राप्तिस्तान्यां च मोक्कलकणफलसिफिरित्येव तब्यनिरुतकम, पओ यणाई चवचाई ।। मावश्यकस्यैव पारंपर्येणमोकात्मकं फलं स्यात् नपुनस्यदनु व्याख्या ।तस्येत्यावश्यकानुयोगस्य प्रेक्कावतांप्रवृत्तिनिमित्तं योगस्य फलचिंता त्वस्यवेह प्रस्तुतेतिचेत्सत्यं कित्वावश्यक फलं मोकप्राप्तिवकणं तावदत्रग्रंथेवक्तव्यं ततोऽस्यप्रयोगःशि व्याख्येयं तद्व्याख्यानं चानुयोगो व्याख्यानेचव्याख्येयगत एव सर्वोऽभिप्रायः प्रकटीक्रियतेऽतोव्याख्येयस्ययत्फलं व्याख्या प्यप्रदाने संबंधोऽवसरः प्रस्तावो वाच्यः । आवश्यकानुयोगच क्रियमाणे किं मंगलमित्येतदाप निरूपणीयं सामायिकाद्यध्यय. नस्य तत्सुतरामवसेयं तयोरेकाऽभिप्रायत्वात् तस्मात् मोकल कणं फलमनिवाञ्चता आवश्यकानुयोगेऽवश्यं प्रवर्तितव्यमेव नानां ( सावज्जजोगविर ओ, कित्तणगुणवओ अपमिवत्ती) ततोऽपिज्ञानक्रियाप्राप्ते स्ताज्यां च मोकफबसिद्धिरिति । त्यादिगाथया समुदायार्थश्च सावद्ययोगविरत्यादिकोऽभिधानीयः । फलं च योगश्च मंगलं च समुदायार्थश्चेति समासः यदि नामावश्यकानुयोगतो ज्ञानक्रियावाऽप्तिस्तायां च मो क्वसिकिस्तथापि किमितितत्र प्रवृर्तितव्यं न पुनर्यत्र कुत्रचित्ष( तहेवदारांइति) तथा काराणि चोपक्रमनिकेपादीनि कथनीयानि तेषांटाराणां भेदोवक्तव्यः तद्यथा आनुपूर्वी नामप्रमा ष्ठि तंत्रादावित्याह । कारणात्कार्यसिद्धिर्नाकारणादिति कृत्वा णवक्तव्यतार्थाधिकारसमवतारभेदादुपक्रमः पोढा । ओघनि कारणे हि सुविवेचितेप्रवर्त्तमानाः प्रेक्कावंतः समीहितमप्रति प्पन्ननामनिष्पन्नसूत्रासापकनिष्पन्नभेदान्निपत्रिधा । सूत्रनि हतं कार्यमासादयंति नाकारणे अन्यथा तृणादपि हिरण्यमयुक्तिभेदादनुगमोकिंधा नगमादिभेदान्नयाःसप्तविधा इत्यादि। णिमाक्तिकावाप्तेः सर्घविश्वमदरिषं स्यात्कारणं च पारंपर्यउपक्रमणमुपक्रमो निवेपणं निकेप इत्यादि निरुक्तं च शब्द- णावश्यकानुयोग एव मोकस्य न षष्ठि तंत्रादिकं ज्ञानक्रियाजव्युत्पत्तिरूपं भणनीयं तथा (कमत्ति) तेषामुपक्रमादि धारा- ननधारण तस्य मोकसंसाधकत्वादितरस्य तु पारपर्यणापिपांप्रथममुपक्रम एव ततो यथाक्रमं निकेपादय एवेत्येवंरूपो तदसाधकत्वादिति गावार्थः। योऽसानियताक्रमः सयुक्तयाभिधानतोनिर्देष्टथ्यो युक्तिं चात्रैव उक्त फलद्वारमधुना योगद्वारमनिधित्सुराह । वत्यति । तद्यथा नानुपकांतं निक्तिप्यतेना निक्किप्तमनुगम्यत जव्वस्स मोक्खमग्गाहि,लासिणो विअगुरूवएसस्स । इत्यादि तथापक्रमादिकाराणां एवं प्रयोजन शास्त्रोपकाररूपं आइए जोगामिणं, वालगिमाणस्स वाहारं ॥ नगररष्टांतेन वाच्यं । यथा सप्राकारं महानगरं किमप्यतधार लोकस्य नाश्रयणीयं भवत्येकादिधारोपतमपि पुखनिर्गमप्र व्याख्या । यदादा प्रतिज्ञातं शिष्यप्रदानेऽस्य योग्योऽवसरो वेशं जायते चतुर्भारोपेतं तु सर्वजनाभिगमनीयं सुखनिर्गम वाच्यति । तत्राह । समस्तद्वादशांगाऽध्ययनकालस्यादौ प्रथप्रवेश च संपद्यते। एवं शास्त्रमप्युपक्रमादिचतुर्धारयुक्तं सुबोधं ममिदं षाविधमावश्यक योग्यमुपदिशंति मुनयः शेषसमग्रभुत सुखचितनधारणादिसंपन्नं भवतीत्येवमुपक्रमादि हाराणां प्रदानकायस्यादौ प्रथममेवावश्यकप्रदानस्थाऽवसरशतिनावः सुखावबोधादिरूपः शास्त्रोपकारः प्रयोजन महवयत शति कस्य पुनरिदमावश्यकं योग्यमादिशंति मुनयःश्त्याह। भव्य भावः भेदश्च निरुक्तंच क्रमश्च प्रयोजनं चति इंद्वंकृत्वा पश्चात्ते । स्यमक्तिगमनयोग्यस्य जतोः सच कश्चिद्दरजव्योऽसंजात. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१) आवस्सिया अभिधानराजेन्द्रः। प्रावस्सिया मोकमार्गाभिलाषोऽपि भवति । तथ्यवच्छेदार्थमाह । मोक्क- छन् साधुरावश्यकीति वदति उपाश्रयात् बर्हि निःसरणं चाय मार्गः सम्यक ज्ञानवर्शमचारित्ररूपस्तमुत्तरोत्तरविशशिरूपम श्यकी विना न स्यात् तेन आवश्यकीति प्रथमा सामाचारी जिलषितुं शीलमस्य स तस्य अयं चैवविधोऽपरिणतगुरूपदे ज्ञानाद्यासंबनेनोपाश्रयात् बहिरवश्यं गमने समुपस्थितेऽवशोऽपि स्यात्तनिरासार्थमाह । स्थितः कर्तव्यतया परिणतो श्यंकर्तव्यमिदमतोगच्छाम्यहमित्येवं गुरुं प्रतिनिवेदनाऽऽव गुरूपदेशो यस्यासौ स्थितगुरूपदेशस्तस्य किं यथायोग्यमुप- श्यकीति हृदयम् । अनु० । वृ०१ उ. । स्था० । प्रष० । दिशंतीत्याह । बाबखानयोरिवाहारं यथोपदिशंति भिषजोत (गमणे आवस्सियं कुज्जा)उत्त० गमने स्वस्थानादन्यत्रगमने गम्यते, । श्दमुक्तं भवति। यथा आदौ बालस्य कोमलमधुरा अप्रमत्तत्वेन अवश्यकर्तव्यव्यापार नवा श्रावश्यिकी तां प्राषदिक ग्लानस्य च पेयमुद्गयूषादिकं तत्कालोचितं उत्तरोत्त झियी कुर्यात् यतोहि साधोर्गमनंनिष्प्रयोजनं नास्ति यदि रखनपुष्टयादिहेतुमाहारयोग्य भेषजं समुपदिशति तथेहापि अवश्यं किंचित्कार्य समुत्पन्नं वर्तते तदैव साधुः स्वस्थानाभव्यादिविशेषण विशिष्टस्य जंतोरादाविदमेवावश्यकमुत्त पुत्थितोस्ति इति भावः। रोत्तरगुणवृद्धि हेतुनूतयोग्यमुपदिशति तीर्थकरगणधरा इति अथाऽवश्यकीस्वरूपमाह । आवश्यकस्य चादी शिष्यप्रदानाऽवसरे प्रतिपादिते तदनुयो कजेणं गच्छतस्स, गुरुणिोएणमुत्तणीइए । गस्याऽसौ प्रतिपादित एव बष्टव्यस्तयोरेकत्वस्यानंतरमेवाख्यातत्वादिति गाथार्थः॥४॥ आवस्सियत्तिणेया, शुका अपत्थजोगाओ ॥ आह ननु यस्य नव्यादिविशेषणविशिष्टस्यादौ योग्यमिद व्याख्या। कार्येण ज्ञानादिप्रयोजनेनानेन निष्कारणगमनमावश्यकं तस्मै योग्यमित्येतावन्मात्रमेव ज्ञात्वा तद्ददत्याचार्या निषेध उक्तो गच्छतो वसतेर्निर्गच्छतः साधोः किंस्वच्चंदन आहो स्विदन्योऽपि तत्र कश्चिद्विधिरपेकणीय इति शिष्यवच- नेत्याह । गुरुनियोगेन गुर्वनुशया तत्रापि सूत्रनीत्यागमन्यायेन नमाशंक्यास्मिन्नेवानुयोगद्वारे तहान विधानादि किंचिल्लेशतः (श्यास) मित्यादिलकणेन किमित्याह । प्रासंगिकमभिधित्सुराह। श्रावश्यिकी अवश्यकृत्यनिर्वृत्ता निर्गमक्रियात्सूचिका वाहकयपंचनमुक्कारस्स, दित्तिसामाझ्यायं विहिणा। ति एवमुक्तन्यायेन शेयाऽवसेया किंचूतगुकाऽनवेद्याकुतश्त्याआवस्सयमायरिया, कमेण तो सेसयसुअंग ॥ ह । अन्वर्थयोगान् अनुगतशब्दार्थसंबंधान् अन्यश्चिाक्त पष प्र. कारांतरेण पुनरशुकोत गाथार्थः ॥ व्याख्या । नव्यादिविशेषणविशिष्टस्याप शिष्यस्य कृत कार्येण गवत इत्युक्तं किंपुनस्तदित्याह ॥ पंचनमस्कारस्य चतुर्थ्यर्थे षष्ठी कृतपंचनमस्काराय मंगला' कज्जविप्माण दंसण, चरित्तजोगाणसाहगं जंतु। र्थमुच्चारितपंचनमस्कृतिमंगवायेत्यर्थः॥ सामायिकादिकमावासकं विधिना प्रशस्तव्यकेत्रकालभाव जश्णो सेसमकज्जं, तत्थ आवस्सियासुका ॥ १५ ॥ रूपेण प्रशस्तदिगनिमुखव्यवस्थापनारूपेण च समयोक्तेन व्याख्या । हापि शब्द : पुनरर्थः ततश्चावश्यिकी कार्येणगददत्याचार्या नपुन योग्यमित्येतावन्मात्रकमेव ज्ञात्वति नाव: छतोजवति कार्य पुननिदर्शनचारित्रयोगादित्रयगतव्यापा(तत उर्ध्वमस्मै किं न किंचित् ददतीत्याह) क्रमेण ततः शेष राणां साधकं हेतुचूतं भिकाटनादि यत् इह तादीत शेषोडश्य मप्याचारादिश्रुतं प्रयच्छति यावतश्रुतोदधेः पारमिति गाथार्थः स्तुशब्दश्चैवकारार्थस्ततश्च तदेव नान्यत् कस्येत्याह । यतेः आवश्यकानुयोगप्रदानेऽप्ययमेव विधिरित्यावेदयितुमाह । साधो शेषं ज्ञानादिसाधनादन्यदकार्यमप्रयोजनमुमुकुत्वात्सा तेणेवयाणुओगं, कमेण तेणेव याहिगारोयं ॥ धोरिति किं वातश्त्याह नैव तत्र कानाद्यसाधनप्रयोजनेगच्चत शति गम्यते भावश्यिकी पूर्वोक्तनिवचनासुद्धानिषान्कों जेणविणयहियत्या, यत्येरकप्पे कमो एसो ॥१॥ भावादिति गाथार्थः। चकारोऽपि शब्दार्थोजिन्नक्रमश्च । ततस्तेनैव पंचनमस्कार यद्यसौन शुद्धा तर्हि किंविधा सेत्याह ॥ करणादिना क्रमेणानुयोगमाप सूत्रध्याख्यानरूपं ददत्याचार्या वश्मेनं णिन्चिसयं, दोसायमुसत्तिएव विमेयं । इति वर्तते अनयोश्च सूत्रप्रदानक्रमानुयोगप्रदानक्रमयोर्मध्ये कुसलहिं वयणाओ, वरेगेणंजओनणिय॥३॥ तेनैव प्रस्तुतगावाप्रक्रांतेनानुयोगप्रदानक्रमणायमस्मद भिमतो व्याख्यावागेव वचनमेव वाङ्मासाविश्यिकीति प्रकृतंवाद ऽधिकारः अनुयोगस्यैवेह प्रस्तुतत्वादितिभावः । कुतः पुनरि मात्रमित्यत्रावधारणार्थमात्रशब्दस्य व्यवच्छेद्यं यदाह निर्विषयं हानुयोगप्रदानक्रमेणैवाऽथिकारः इत्याह । येन कारणेन विनेय निर्गोचरमनर्थकमित्यर्थः किंफलंच तदित्याह दोषायर्कमबद्धन हितार्थ शिष्यवर्गस्योत्तरोत्तरगुणप्राप्तिमपेक्वेत्यर्थः । स्थविरा. कणदृषणार्थ कस्मादवमित्याह मृषोत अनृतमिति कृत्वा प्रतीणां गच्छवासिनां साधूनां योऽसौ विकल्पःसामाचारविशेषस्त संचानृतस्य दोषार्थत्वमिति (पवत्ति) श्हानुस्वारस्याऽश्रवणं स्यैषोऽनंतरगाथावक्ष्यमाणअक्कणः क्रमः परिपाटीरूपस्तेन ग्दोषशात् एवमुक्तस्वरूपं विक्रय कातव्यं कुशसनिपुणैरन्या कारणेनाऽनुयोगप्रदानक्रमेणैवेहाधिकारोऽयमिति. विशे०॥ कानासकवावचननादागमाद्विवक्तितवचनस्यैव प्रस्तावनार्थआवस्सिया-आव श्यिकी-स्त्री० अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् | माह । व्यतिरेकेण प्रकृमाविपर्ययण यतोयस्माणितमुक्त सामातत्रभवाऽऽवश्यिकी अनुग अवश्यकर्तन्ययोगैर्निष्पन्नाऽऽवश्य- यिकनियुक्ताविति गाथार्थः ॥ की स्था. ग. १० । अवश्यं कर्तव्यैश्चरणकरणयोगनिर्वृत्ताऽऽ यदुक्तं तदाह ॥ बश्यकी जीत. । आव. ३ अ. | अप्रमत्तत्वेनावश्यकर्तव्यज्या आवस्सियान आवस्स, एहिं सबेजुत्तं जोगस्स।। पारे भवाऽऽवश्यकी उत्त०१६अ.प्रावश्यकेषु अप्रमत्ततया एयस्सेसो उचिओ,श्यरस्स णचेवणत्तिात्त । ऽवश्यकर्त्तव्यव्यापारेषु सत्सु भवाऽऽवश्यिकी ग०५ भ. व्याख्या । आवश्यिकी तु प्रागुक्तनिर्षचना तु पुनः शम्दार्थः सामाचारीभेदे, (पढमा भावस्सिया नाम) सत्त. १६ भ. । आवश्यकैः प्रतिक्रमणादिभिः सर्व समस्तैर्युक्तयोगस्य संयुप्रथमा सामाचारी आवश्यकी नाम्नी यतः उपाश्रयात् निर्ग-I क्तकायादिचेष्टस्य गुमानघतीति शेषः । सदिदंव्यतिरेकभणितं Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९२) भावस्सिया अभिधानराजेन्द्रः। श्रावास त नैवविधस्य वाङ्मात्रत्वात्तस्या शतकथमेवं विधस्येयं छियग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थ अस्ति चायं न्यायःसामान्यग्रहणे एका भवतीत्याह पतस्यावश्यकयुक्तस्य एष इति पूर्वतमगा- सत्यपि प्राधान्यख्यापनार्थ नेदेनोपन्यासो यथा ब्राह्मणा योक्तोऽन्वर्थयोगः आवश्यकीशब्दोचाररूपे उचितः संगतो आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति उक्ता आवश्यकी । प्रा. म. विद्यमानत्वात् नक्तव्यातरकेमाह (श्यरस्सात्ति) श्होत्तरस्य छि.१ अ.॥ पुनरर्थस्य चशब्दस्य संबंधादितरस्य पुनरनावश्यकयुक्तस्य आवह-आवह-पुं० श्रावहति आभिमुख्येन गच्छति श्रा-बह नैव उचितएष ति प्रकृतं कुतश्त्याह नास्तीति कृत्वाअविद्य अच्-सप्तस्कंधापनवायोः प्रथमे स्कंधे भूवायौ नृवायुरावहरह मानत्वादन्वर्थानावादित्यर्थः । अतस्तस्य वाङ्मात्रमेवासावि. प्रवहस्तदूर्ध्वम्-सि०शि० (आवहःप्रवहश्चैव विवहश्च समीति गाथार्थः। उक्ताऽवश्यिकी पंचा० १२ वृ०॥ध० ३ अधि०॥ रणः । परावहः संवहश्च सहश्च महाबलः । तथा परिवहः साम्पतमावश्यिकी नैपेधिकी धारध्याषयवार्थमभिधित्सुः श्रीमान्) हरि वं० आवहति प्रापयात आ-यह-अच् प्रापके त्रि. पातनिका गायामाह। वाचा (जो पूयणं तवसाआवहेज्जा)नापि तपसा पूजनं सत्का श्रावस्मियं च नितो, जं चायं तो निसीहियं कुणइ ॥ रमावहेत्न पूजनसत्कारनिमित्तं तपःकुर्यादित्यर्थःसूत्र.७० एवं इच्छंनाडं, गणिवरतुतिए निनणं ॥ आवहमाण-श्रावहमान- त्रि-आ-वह-शानच्-मागते-घाच. । आवाश्यको पूर्वोक्तशबाळ तां आवाश्यकी (नितो)निर्गच्छन् अवाब-भावाप-पु-या-वप्-आधारे वा घञ् वाच । प्रविशन श्त्यर्थः। नैषेधिकी करोति एतत् श्रावाश्यकी (नितो) आवावकहा-पावापकया-स्त्री० विकथाभेदे व्याख्या भत्तकहा निगच्छन् यो च(आयतो)आगच्छन् प्रविशन् श्त्यर्थः नैषेधिी शब्दे स्था॥ करोति एतत् प्रावश्यिको रूपवयमपि स्वरूपादिनेदभिन्नं इ- आवास-आवश्य न० आवश्यके व्य०११०॥ पामि कातुं हेगणिवर? युष्मदतिके निपुणं सूक्म एतत् ज्ञातु- आवास-पुं० श्रावसन्ति येषु ते प्रावासाः भ. १श.४ उ. मिगमीति क्रिया विशेषणं एवं शिष्येणोक्ते सत्याह आचा- प्रा-घस-आधारे-घम् आश्रये-स्था० वासस्थाने गृहादी वाच० जेसिं ते आवासा-येषां देवानां ते निधय आवासा श्रावस्सियं चनितो, जंचायतो निसीहियं कण । आश्रया इति स्था० ए ग. आवसंत्यस्मिन्नित्यावासः मनुवजणमेयं तु वुहा, अत्यो पूणहोइसो चेव ।। प्यादिलवे मनुष्यादिशरीरे च (अणिश्चमावासमुवेति जंतुणा आवश्यिकी निगच्छन् यां च प्रविशन्नषेधिी करोति पतद आवसंत्यस्मिन्नित्यावासो मनुष्यादिजवस्तच्चरीरं वा तमव्यंजनं शब्दरूपं हिधा किमुक्तं भवति आवश्यकीं नैषेधिकी नित्यं उपसामीप्येन यति गच्छति जंतवः प्राणिन इति बेति यं शब्द पव भिन्नमर्थः पुनर्भवत्यावश्यकीनैषेधिक्योः आचालानरका चासानरकावासशब्द । अथासुराद्यावास. स एव एकएव यस्मादवश्यकर्तव्ययोगक्रिया आवश्यकी । विषयमनिलाषं दर्शयति । सम । निषिद्धात्मनश्वारज्यः क्रिया नैषेधिकी नासाववश्यकर्त्तव्य केवइयाणं जंते असुरकुमारवासा प० गोयमा०श्मीसेम् व्यापारमुच्य वर्तते आह । यद्येव नेदोपन्यासः किमर्थः णं रयणप्पनाए पुढवीए असी उत्तरजोयणं सयसहस्स नच्यते गमनस्थिति क्रियाभेदात् आह । आवश्यकी निर्ग- बाहदाए उवरि एगंजोयणसहस्सं श्रोगाहेत्ता अट्टहवन्नित्युक्तं नत्र साधो किमवस्थान कटु यत आह । सरिंजोयणसहस्से एत्यणं रयणप्पनाए पुढवीए चनएगागस्स पसंतस्स, नहोंति इरियादयो गुणा होति। सम् िअसुरकुमारावास सयसहस्सा ५० तेणं जवणावाहिं गंतव्वमवस्सं, कारणमि आवस्सिया हो। वट्ठा अंतो चउरंसा अहो पोक्खर कपिआसंगण संएकमग्रमासंबनं यस्येत्यस्यावेकाग्रस्तस्य स च प्रशस्तानं बनोऽपि भवति तत आह । प्रशांतस्य क्रोधराहतस्य सतस्ति ठिया नकिम्मंतर विनन गंजीर खाय फलिहा अट्टामृतः किं न भवति शायः ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः । इह सय चरिय दार गोउर कवाम तारेण पमिवार देस या कार्य कर्म ईशब्न गृह्यते । कारणे कार्योपचारात् जागा जंत मुसा नुसंढि सयग्घि परिवारिया अनका या पादिर्वेषांमात्मसंयमविराधनादीनां दोषाणां ते र्यादये, अमयाल कोहरइया अभ्यासकय वम माला मानदोन जति । तथा गुणाश्च स्वाध्यायध्यानादयो नवंति । प्राप्त तर्हि संयतस्य आगमनमेव श्रेय इत्यपवादमाह । नचाव श्य महिया गोसीस सरस रत्तचंदण दद्दरविष्म पंचंगुस्थाने खलूक्तगुणसंजवानगंतव्यमवश्यं नियोगतः कारणे वितझा कालागुरु पवर कुंदुरुक तुरुक्कमज्जंत धूवमघमन गुरुग्लानादिसंबंधिनियतस्तत्रागच्छतो दोषास्ततः कारणे ग गधु याजिरामा सुगंध वरगंधिया गंधवट्ट नूया अच्छा छत आवश्यकी भवति आह कारणेन गच्छतः किं सर्वस्यै वावश्यकी भवति उत नेति उच्यते नेतिकस्य तर्हि तफुच्यते। सोहा लोहा घग मग नीरया णिम्ममा वितिमिरा आवस्सिया न आवस्स, एहिं सव्वेहि जुत्तजोगिस्स । विशुका सप्पना समर्राया सउज्जोआ पासाईया दरिस मणवयणकायगुत्ति, दियस्स आवस्सिया होई॥ णिज्जा अनिरूवा पनिरूवा एघं जंजस्स कमातीतं तस्स आवश्यकी आवश्यक प्रतिक्रमणादिभिः सधैर्युक्ता योगि- जंजं गाहाहिं नणियं तहचव वाओ ॥ नो भवति शेषकालमपि निरतिचारस्य क्रिया स्थास्यति भा- टो० वृत्तप्राकारावृत्तनगरवत् अंतः समचतुरस्राणि तदवकावार्थः । तस्य च गुरुनियोगादिना प्रवृत्तिकासेऽपि(मण)श्त्या- शादेतस्य चतुरस्रत्वात् अधः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितादिमनोषाकायायैछियैर्गुप्तस्य किमावश्यकी जवति । सूत्रे इंडि नि पुष्करकर्णिकापनमध्यन्नागः सचोलतसमचित्रबिकिनीनयशब्दस्य गावानंगभयाध्यवाहित उपन्यासः कार्यात् पृथार्ग- वतीति तथा उत्कीतरविपुलगम्भीरखातपरिखानि लत्कीर्ण Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९३) श्रावास अभिधानराजेन्द्रः। प्रावास तुवनमुत्कीर्य पानीरूपं कृतमंतरमंतराखं ययोस्ते उत्कोणांतर (दरिसणिज्जत्ति ) दर्शनीयानि तानि हि पश्यश्चक्षुषा न ते विपुलगम्भीरे खातपरिखे येषां तानि तत्र खातमध उपरि श्रमं गच्छतीति भावः ( अनिरूवत्ति) अनिरूपाणि कमनीच समम्परिस्वा उपरि विशाखा अधः संकुचिता तयोरंतरेषु यानि (पभिरूवत्ति) प्रतिरूपाणि दृष्टारं प्रतिरमणीयानि पानी अस्तीति भावः। तथा अट्टालका प्राकारस्योपर्याश्रयवि- नैकस्य कस्यचिदेवेत्यर्थः । पवमित्यादि यथासुरकुमारावास शेषाः चरिका नगरप्राकारयोरंतरमष्टहस्तो मार्गः पागन्तरेण सूत्रे तत्परिमाणमभिहितमेवमेवमिति यथा यदुनयनादि(चतुरयंति) चतुरकाः समाविशेषाः ग्रामप्रसिद्धाः (दारगोम- परिमाणं यस्य नागकुमारादिनिकायस्य क्रमते घटते तत्तरत्ति) गोपुरधाराण प्रतोयो नगरस्येव कपाटानि प्रतीतानि स्य वाच्यमिति किंविधं तत्परिमाणमतआह । “ जंजंगाहार्दितोरणान्यपि तथैव प्रतिकाराणि अवांतरद्वाराणि तत एतेषां भणियं" यद्यत्रगाथाभिः चनसहिअसुराणमित्यादिकानिरपंछ पतानि देशलकणेषु भागेषु येषां तानि तथा शह देशो भिहित किंम्परिमाणमेव तथावाच्य (तहेत्याह) । (तहचेववभागश्चानेकार्थस्ततोन्योन्यमनोविशेष्यविशेषणभावो दृश्य- मोत्ति) यथा असुरकुमारजवनानां वर्णक उक्तस्तथा सत ति तथा यंत्राणि पाषाणकपणयंत्राणि मुशबानि प्रतीता र्वेषामसौ वाच्य इति तथाहि । नि तुझुंज्यः प्रहरणविशेषाः शतन्यः शतानामुपधातकारिण्यो केवश्याणं नंते नागकुमारावासा पामत्ता गोयमा इमीमहाकायाः काष्ठशैलस्तम्भयष्टयः ताभिः ( परियारियत्ति)परि वारितानि परिकरितानीत्यर्थः। तथा आयोधानि योधयितुं सं. सेणं रयणप्पनाए पुढवीए असीनत्तर जोयण सयसहग्रामयितुदुर्गतत्वान्न शक्यते परबग्र्यानि तान्ययोधानि अवि- स्स पमाणाए नाप्पं एगं जायणसहस्सं ओगाहेत्ता । द्यमाना वा योधाः परबासुभटा यानि प्रतीतान्ययोधानि हेडावेगं जोयण सहस्सं वज्जेत्ता मज्के अट्ठहत्तरेजोतथा ( अमयायकोगरश्यत्ति ) अष्टचत्वारिंश दभिन्नाव यण सहस्ते एत्यणं रयणप्पनाए चुलसीइ नागकुमारा चित्रछंदोगापुररचितानि अन्ये भणंति अझयानशब्दः किन्न प्रशंसावाचक तथा (अमयाबकयवसमायत्ति) अष्टचत्वारिं वाससयतहस्सा पामत्ता तेणं जवणा इत्यादीनि सम.।। शझेदभिन्नाः प्रशंसाः कृता वनमाला बनस्पतिपयवस्रजो तयाच जगवत्याम् ॥ येषु तानि तथा (बाश्यति) यन्मेजगणादिनोपलेपनं (नवी केवझ्याणं नंते असुरकुमारा जवणावास सयसहस्सा पं. श्यति) कुमघमालानां सेटिकादिनिःसन्मृष्टीकरण ततस्ताच्या गोयमा! चउसटिं असुर कुमार जवणावाससय सहस्सा मिवमहितानि पूजितानि (साउवोश्य) महितानि तवा गोशीर्ष चन्दनविशेषः सरसंच रसोपेतं यद्रक्तचंदनं चंदनविशेषः ता पं० तेणं जन्ते ! किंमया पं० गोयमा ! सव्वरयणामया न्यां दर्दराज्यां घनान्यां दत्ताःपंचांगुलयस्तताहस्तकाकुड्येषु अच्छा सएहा जाव पमिरुवा तत्यणं वहवे जीवाय पोग्ग येषु अथवा गोशीर्षसरसस्य रक्तचन्दनस्य सत्का दर्दरेण माय बक्कामंनिविउक्कामंतिचयति नववज्जति सासयाणं ते चपेटाभिघातेन ददरेषु वा सोपानवीथीषु दत्ताः पंचांगुत्रयस्त जवणा दव्वट्ठयाए वापज्जवहिं जाव फासपज्जवहिं अझा येयु तानि गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपंचागुनित सासया एवं जावयणियकुमारावासाज. श. १एन.७॥ सानि तछा कामागुरुः कृष्णागुरुगंधद्रव्यविशेषः प्रवरःप्रधानः आवासपरिमाणं चासुरादीनामपि दशानां गाचया संगृ. कुन्दुरुकरचीमा तुरुष्कः सिल्हकं गंधद्रव्यमेव एतानि च तानि हाति ॥ ( मज्जतित्ति) दह्यमानानि चेति विग्रहः तेषां योधमो (मघ चउसहि असुराणं, चउरामीईच होइ नागाणं ।। मधेतत्ति) अनुकरण शब्दोऽयं मघमघायमानो बंहलगंध. श्त्यर्थः । तेनोधुराणि उत्कटानि तानि तथा तानि च तान्य' वायत्तरि सुबन्नाणं, बानकुमाराण वासोई॥३॥ निरामाणि रमणीयानीति समासः । तथा सुगन्धयः सुर दीवादिसानद हीणं, विज्जकुमारिंदणियमग्गीणं ।। जयो ये घरगंधाः प्रधानवासास्तेषां गन्ध आमोदो अवस्ति बाहपि जुवलयाणं, बावत्तरिमो य सयसहस्साशासम० तानि सुगन्धि वरगंधिकानि तथा गंधवर्ति गंधद्रव्याणां गंध (उएहपि जुयायाणति)दकिणोत्तरभेदेनासुरादिनिकायोद्विनदा युक्तिशालोपदेशेन निवर्तितगुटिकातदतानि तत्कल्पानी भवतीति युगलान्युक्तानि तत्र षट्षु युगलेषु प्रत्येकं पदसप्तातति गन्धवर्तितूतानि प्रवरगन्धगुणानीत्यर्थः । तथा अच्चानि नवनबकाणामिति एषां चासुगादिनिकाययुगलानां दक्तिश्राकाशस्फटिकवत् । ( साहत्ति ) श्लणानि सदमस्कंध- णोत्तरदिशोरयं विभागः (चउतीसा चमत्ता, अटुत्तसिं च दलनिष्पन्नत्वात् लणदसनिम्पन्नपटवत् (सएहत्ति ) सयसहस्साहं । परणाचत्तालीसा, दाहिणो होति जयमसृणानीत्यर्थः। घुटितपटवत् (घट्टत्ति) घृष्टानि खरशा- णाई॥१॥चत्ताबीसत्ति ॥ दीपकुमारादीनांपएणांप्रत्येक णया पाषाणप्रतिमावत् (मट्ठत्ति) मृष्टानीव मृष्टानि सुकु- चत्वारिशझवनसवाणि तीसा चत्तालीसा, चोत्तीसं चेव मारशाणया पाषाणप्रतिमेव शोधितानि वा प्रमार्जनिकयेष सयसहस्साईगयाना उत्तिसा.उत्तरयोहोति जवणाई॥३॥ अतएव (नीरयत्ति) नीरजांसि रजोरहितत्वात् (निम्मसत्ति) (पत्तासत्ति )ीपकुमारादीनां पण प्रत्येकं पत्रिशवनिर्ममानि कविनमनाभावात् (वितिमिराणि) निरंधकारत्वात् नयकाणीति ॥ ज०१० ५.। (विशुरुत्ति) विशुझानि निष्कसंकत्वान्नचन्द्रवत् सक केवश्याणानंते ! पुढविकाश्यावासा प०गोयमा ! ' कानीत्यर्थः तथा ( सप्पहत्ति) सप्रभाणि स प्रनावाणि अ- असंखेज्जा पुढविकाझ्यावासा प० एव जाव मणुस्सति । थवा स्वेनात्मना प्रजांतिशोभंते प्रकाशंते चेति स्वप्रमाणि यसः ॥ दी। केवश्यानंते पुढवीत्यादि गतार्थं । नवरं मनु(समरीयत्ति) समरीचीनि सकिरणानि अतपय (सन- प्याणां गर्नव्युत्क्रान्तिकानां असंख्यातानामनावात् संख्याता ज्जोयंति) सहनद्योतेन वस्वंतरप्रकाशनेन घर्तत इति सो- एचावासाः संमूर्डिमानां त्यसंख्येयत्वेन प्रतिशरीरमावासायोतानि (पासाश्यत्ति) प्रासादीयानि मनः प्रशांतिकराणि | नावादसंख्याता इति भावनीयामिति ॥ न. श०५०१ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासपव्यय अभिधानराजेन्द्रः। प्राविह केवइयाणम्नंते ! वाणमंतरावासा पं० गोयमा ! इमीसे- आवाहविवाहवरकहा-आवाहविवाहवरकथा--स्त्री० आवाह णं रयणपनाए पुढवीए रयणामयस्स कंमस्स जोयण- विवाहप्रधानायां परिणेतृकथायां,(आवाहविवाहवरकहावि) सहस्स बाहब्बस्स नवार एगं जोयणसयं ओगाहेत्ता हे आवाहोऽभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्याऽनयनं विवाहश्व पाणि ग्रहणं तत्प्रधाना या वरकथा परिणतृकथाभावाह विवाहवरा हाचेगं जोयणसयं वज्जेता मजे असु जोयणसएमए वा या कथा सा तथा सापि न कथयित व्येतिप्रक्रमः । त्यणं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा नोमेजा | प्रश्न. सं. ४ घा.॥ नगरावाससयसहस्सा पं० तेणं जोमेजा नगरा बाहिं | आविश्-आविची-स्त्री० । अविचदेशोजवायाम-राज.॥ वटा अंतो चउरंसा एवं जहा जवणवासीणं तहेव णेय- आविंधइत्ता-आविध्य-अव्य परिधायेत्यर्थे ( पावं वा सु. व्वा । एवरं । पमागमालाउला मुरम्मा पासाइया दरि | घमसुत्तं वा आविधेज वा पिणिधेज वा) आचा० ६ अ. सणिज्जा अनिरूवा पभिरूवा केवइयाएं जंते वाणमंतर ३ .॥ जोमेज्जणयरावाससयसहस्सा पं. गोयमा ! असंखेळा आवीक (वीक ) म्म (न्)-आविष्कर्मन्-न०-प्रगटक्रियाबाणमंतरा जोमेज्जा जयरावासासयसहस्सा ५० तेणं याम्- स्थाएग. कल्प०॥ नंते ! किंसच्यिा पं० सेम तं चेव ॥ ज १५ श आविट्ठ-आविष्ट-त्रि-आ-विष-क्त-भूतादिग्रस्ते, आवेश्ययुक्ते, निविष्टे, व्यास, च-वाच ॥अधिष्ठिते, स्था ५ वा.॥प्रविष्टे, (म ७ उ०१॥ गविट्ठाव केयणे) केतने मत्स्यबंधने प्रविष्टा निर्गतिकाः। ॥टी० ॥ भोमेज्जनगरत्ति । नमेरंतर्नवानि भौमेयकानि तानि सूत्र १ श्रु. ३ अ. युक्ते, च सम०३ स.॥ च तानि नगराणि चेति विग्रहः ॥ भन्टी० ॥ आविछ-आविछ-त्रि आ- व्यक्त-तामितेऽविक, निद्रिते, अरुणोदगे समुद्दे गंतूणं पंच आवासा । द्वी.॥ क्विते, च ( नश्यतीषुर्यथाऽऽविकः) मनु-वाच. परिहिते, कल्प निरयावासा निरयावासशब्दे । भावेल्युट् सम्यग्वासे वाचन औप०॥ (आविरूमणिसुवएणे) श्राविकानि परिहितानि म । निवासे, प्रश्न ४ घा०॥औप०॥ अवस्थाने, सम०॥ णिसुवर्णानि येन सः । तं.॥ औप०॥ श्राविकानि परिहितानि स. ७० ॥ स्था०४०॥ (आगारमावसंता वि) अ- मणिसुवर्णानि बकणया मणिसुवर्णानि सुवर्णमयादिचूषणानि गारं गृहं तदावसन्तस्तस्मिस्तिष्ठतो ग्रहस्था इत्यर्थः सूत्र.१ येन स तथा तस्मिन् । कल्प. ॥ (आविष्वग्धारियमवदामक श्रु०९ १०॥ (तं जोनूयं च सया वसेज्जा) आवसेत सेवे- बाव) परिहितप्रखंबपुष्पमालासमूहे, । झा.२ अ. । त गुर्वन्तिक एव यावज्जीव वसेत् सूत्र०१श्रु. १२ अ०। (क आविच्छवीरवनय-आविधवीरवलय-त्रि० आविधानि वीर म्मोवगाकुणिमे आवसंति-) आ समन्तासति तिष्ठंतीति ॥ वनयानि वीरत्वगर्वसूचकानि वलयान येन तथा तस्मिन् सूत्र नीमे, व्य० १०॥ आवासपव्यय-आवासपर्वत-पुं० निवासत्तूते पर्वते, (गोयू सुभटोहि यदि क्वचिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतानि वयानीति स्पर्डयन् यानि कटकानि नस्स णं आवासपब्वयस्स) स०॥ आवासय-आवश्यक- ना झुप्तयरवशषसां दीघः १ । ४३ परिदधाति तानि वीरवनयानीत्युच्यन्ते । औप० ॥ कल्प० ॥ इति प्राकृतसूत्रेण प्राकृतलकणवशाल गुप्ता याद्या उपर्यधोवा ये झा०१ अ.॥ पांशकारवकारसकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घा जवति आविन्नाव-आविर्नाव-पुं० आविस-भू-घञ् प्रकाशे, वाच। प्रा० ।। अवश्यकर्त्तव्ये सामायिकादिके, विशे०॥ (आविन्नावतिरोजावमेत्तपरिणामिदब्वमेवायं) आविर्भावआवासकन आसमन्तात् ज्ञानादिगुणः शून्यं जीवं वासयति श्वकुएमलादिरूपेण तिरोभावश्च मुष्किादिभावेन आविर्भाव तिरोभाची । तावेव तन्मात्रम् तेन परिणतुं प्रवर्तितुं शीलं यतैर्युक्तं करोतीत्यावासकम सामायिकादिके, विशे। आवासो स्य तदाविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामि सुवर्णादिकं द्रव्यमेवदं नीममावास पवावासकानीके, पु.वासगगयं तु षोसति चास. नतु तदतिरिक्ता गुणाः । विशे०। गगयंति प्राकृतत्वादाद्याकारस्य लोपः आवासो नीम्मावास पवावासकः । व्य०१० (सावासगापविन मनमाणं)। आविन्नूय-श्रावित-त्रि० आ-विस्--नू-कतरिक्त--प्रकस्वकीयादावासकात्स्वनीमात्. सूत्र०१७० १४ अ०॥ | टिते,-अनिव्यक्ते, । वाच०॥ आवासयाणुओग-आवासकानुयोग-पु० । आवश्यकव्या- आविन-आविन-त्रि० आकुत्रे, (कसाविझचेयसे) सम० ख्याने, “आवासयाणु प्रोगं" या समंतादुझानादिगुणैः शून्यं सूत्र० ॥ अस्वच्छ, आवित्रमाविमत्रमस्वच्छमिति जी० ३. प्र.। जीवं वासयति तैयुतं करोतीत्यावासक सामायिकादिरूपमेव प्राविति दृष्टि स्तृणाति-विज्ञ स्तृतौ-क-कलुषे, अयं विक्ष भेतस्य वक्ष्यमाणशब्दार्थोऽनुयोगो व्याख्यानं विधिप्रतिषेधा दने विज्ञप्रकृतिकत्वात् वयेवमध्य इति रायमु. वाच० ॥ ज्यामर्थप्ररूपणमित्यर्थः विशे०॥ "जिन्नसोए श्रणाविने-" अनाविनोऽकलुषो रागद्वेषासंपृक्तआवाह-आवाह-पु०-आइयंते स्वजनास्तांबूनदानाय यत्र स तया मरहितोऽनाकुलो वा विषयाप्रवृत्तेः-स्वच्छचेता इति आवाहः । विवाहात् पूर्व ताम्बूलदानोत्सबे, जी ३प्र.। सूत्र.१ श्रु. १५ अ.। अनिनवपरिणीतस्य वधूवरस्यानयने । प्रश्न सं.४ द्वा. ॥| आविज्ञप्पा-आविसात्मन्-पुं०। आकुझात्मान, (अभयं करे वध्या बरगृहानयने, च प्रश्न०४ा . ।। भिक्खु अणाविझप्पा ) अनावित्रो विषयकषायैरनाकुन श्रात्मा आवाहण-आवाहन-न-आ. वह-णिच्-ल्युट-सानिध्याय यस्यासावनावितात्मा ॥ सूत्र०१श्रु०१७ अ.। देवानामाव्हाने-वाच॥ | आविह-आविध-पुं० आविध्यतेऽनेना-व्यध-घार्ये कन्या काष्ठादि. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९५) आवी अभिधानराजेन्द्रः । प्रास वेधनसाधने सूच्याकाराने अस्त्रे, वाच.॥ जानातेपर्यन्तस्य वोक्काबुक्क इत्येतावादेशौ वा-चोकर भावुआवी प्रावी-स्त्री. अविरेव स्वार्थ-अप-डीए-रजस्वलायां ना कश्-विएणवई । प्रा. व्या.॥ राम, गर्भवत्यां, च। गर्भस्यदनमावीनां,प्रणाशः इयावपाए आवृद्धि-आवृष्टि-स्त्री० आ-वृष-क्तिन्. सम्यग् वर्षण, वा-पं । ता-सुश्च० ॥ वाच ॥ आवेढिय-आवोष्टित-त्रि० सकृवेष्टिते, -स्था० १०॥वि० । आबीइमरण-आवीचिमरण-न० आसमन्ताद्वीचय श्व धीचय सर्वतोवेष्टिते, च. न०१६ श० ६ उ.सधा समंतात आयुर्द बिकविच्युतिबकणा अवस्था यस्मिस्तदावीचि अथवा आवेढिय परिवेढिय-श्रावेढियति सकृदावष्टितम् परिवेढियं वीचिर्चिच्छेदस्तदमावादवोचिः दीर्घत्वं तुप्राकृतत्वात्तदेवं नूतं ति असदिति-स्था० ॥ आवेढियति अभिविधिना चेष्टितं मरणमावीचिमरणम् । प्रतिक्कणमायुर्द्रव्यविचटनलवणे मरण सर्वत इत्यर्थः परिवढियांत पुनः पुनरित्यर्थः॥ भ०॥ भेदे, समा १७ स.। आवढियपरिवढिय-आवेष्टितपरिवेष्ठित-त्रि० गाढतरं संधि " अणुसमयं निरंतर, मावीइसन्नियं तं जणंति । ते, ॥ प्रज्ञा पद १५॥ पंचविहं दवे खत्ते, काने नवे जावे य संसारे,॥ आवेय-आवेग-पुंगा-विज्-घश्-वरायाम,अष्टा आवेत-त्रि बन्ने प्रदेशे कुड्येऽवष्टस्य ऊर्वीकृते ,। व्य० उ०॥ अणुसमय समयमाश्रित्य इदं च व्यवहितसमयाश्रयणतो. ऽपि भवतीति मानूांतिरत आह। निरंतरं न सान्तरालमंत आवेयग आवेदक--त्रि० आ-विद्-णिच्-एवुन विज्ञापके । रावाजावात् किं तदेवंविधमावीचिसंहितं आसमंताही आवोम-श्राव्योम-अव्य. व्योम मर्यादीकृत्येत्यर्थे,- (श्रादीपचय श्व वीचयः प्रतिसमयमनुनूयमानायुषोऽपरायुर्द निको. ___ माव्योमसमस्वभावम्)आव्योमं व्योममर्यादाकृत्येतिस्यायश्लो. दयात्पूर्वर्युदलिकविध्यतिबकणा अवस्था यस्मिन्मरणे तदा श्रास-अश्व-पु. अभूते व्याप्रोति मार्गम्-अश-कन्-घोटके का.१७ वीचि तत् आवीचीति संझा संजाता यस्मिन् तदावीचिसं अ.॥अनु.॥ अश्वस्तुरंग इति औप. प्रासो सत्तीवाहो-एका वितं तारकादित्वादितचि रूपमिदं । अथवा वीचिर्चिच्छेदस्तद वाल्हीकादिदेशोत्पन्ने जात्यश्वेदश.६अ.॥ जात्या आगमभावादवी चिः दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात् उभयत्र प्रक्रमान्मरणं नशीबा अश्वाः-शेषा घोटकाः जी. ३ प्र.। तदेवं नृतं प्रतिकणमायुध्यविचटनलकणमाचीचिमरणं पंचविधं नणति । तीर्थकरगणधरादयोऽस्मिन् संसारे जगति अश्वानां वर्णको ज्ञाताध्ययने यथा । पंचविधत्वमेवाह, (अध्ये केत्रे काले भवे भाव च) अव्या बहवे तत्व आसे पासंति । किं ते हरिरेणुसोणिसुत्तगवीचिमरणं केत्रावीचिमरणं कालावीचिमरणं जवावीचिमरणं आइमावेढो-झा० १७ अ०॥ भावावीचिमरणं चेत्यर्थः॥ तत्र व्यावीचिमरणं नाम यन्ना- यहूंश्चात्राश्वान् घोटकान् पश्यति स्म किंतेसि किंजूतान अरकतिर्यनरामराणामुत्पत्तिसमयात्प्रतिनिजनिजायुः कर्मद- घोच्यते । हरीत्यादि। आईनवेढोत्ति। श्राकीर्णा जात्या प्रश्वाः सिकानामनुसमयमनुनावनाविचटनं तु तश्च नारकादिभेदाच. तेषां वेढोत्ति वर्णनार्या वाक्यपकातिराकीर्णवेष्टकः । सचायं तुर्विधमवं नारकादिगतिचातुर्विध्यापेक्वया तहिषयं केत्रमापि. हरिरेणुसोणिसुत्तगसकविलमज्जारपायकुक्कुमोम्समुग्गचतुर्विधं ततस्तत्प्राधान्यापेक्या केत्रावीचिमरणमपि चतु. विधम् । काल इति यथाऽयुष्ककालो गृह्यते नत्वयथाकास्त. यसामवएणा गोहुमगोरंगगोरपामसगोरा पवालवाणा य देवादिष्वसंजवात् स च देवायुष्ककात्रादिभेदाश्चतुर्विधस्त. धूमवएणा य केइ ॥१॥ तलपत्तरिहवएणा सालीवाणा प्राधान्यापेकया कालावीचिमरणमपि चतुर्विधमेव । चतुर्वि- य नासवाणाय । केई जंपिय तिलकीमग्गय सालोयरिधनवापेकया भवावीचिमरणमपि चतुर्थैव । तेषामेव च ढगाय पुंमपश्याय कणग्पीमाय केई ॥ ॥ चक्कागनारकादीनां चतुर्विधमायुः कयलक्षण नावप्राधान्यापेक्क्यानावावीचिमरणमपि चतुर्धेवेति ॥ प्रव० १५७हा.. पडवएणा सारसवाणाय हंसवएप्लाय केई । केई आसमन्ताद्वीचयः प्रतिसमयमनुनूयमानायुषोऽपरायुईत्रि- अन्नवएणा पक्कतसमेहवएणाय बाहुवएणाय केई॥१॥ कोदयात्पूर्व पूर्वायुर्दविकविच्युतिबकणा अवस्था यस्मिस्तदा. संज्माणुरागसरिसा सुयमुहगुंजघरागसरिसच्चकेई । एवीचिकम् । अथवा अविद्यमाना वीचिर्विच्छेदो यत्र तदवी झापामगोरा सामायागवन्नमामला पुणोकेई ॥ ४॥ चिकम् । अवीचिकमेवावीचिकम् तच्च तन्मरणं चेत्यावीचि बहवे एणे अणिढे सा सामा का सीसरत्तपीया। अञ्चकमरणम् । मरणभेदे, । भ० १३ श. ७.॥ आनीइसलिय-आवीचिसंझित-न० । श्रा समन्ताही चय तविमुका वियणं आएण जाइकुलविणीयागमच्छरा श्व वीचयः प्रतिसमयमनुनूयमानायुषोऽपरायुर्दलिकोदया' हयवरा जहोवए सकमवाहिणोवि य णं सिक्खाविणीय त्पूर्व पूर्वायुर्द बिकविच्युतिसकणा अवस्था यस्मिन्मरणे तदा- विणया लंघणवग्गणधावणधोवणतिबईमईणसिक्खियगई वीचि तत् आवीचीतिसंझा संजाता यस्मिन् तदावीचिसंझितं किं ते माणसा बिनविहिंताई अणेगाइं आससयाई तारकादित्वादितच् आवीचिसंडके मरणभेदे, प्रव.१५७ द्वा.॥ पासितित्ति ॥ श्रावीकम्म-आविष्कर्मन्-न० प्रगटकर्मणि, कल्प० ॥ तत्र हरिजेणवश्च नीलवर्णपांशव श्रोणिसूत्रकं च यासकानांचा श्रावकण-विज्ञापन-ना विज्ञा. णिच्-पुक-ट्युट्-विशेषेण बो दिदरवरकरूपं कटिसूत्रं तकि प्रायःकालकंजवति सह कपिलेन धने, वाच॥ पक्तिविशेषेण यो मार्जारो बिमानःसच तथा पादकुक्कुटविशेषः (विज्ञापर्वोक्काबुक्की । ४।३०) इति प्राकृतसूत्रेण विपूर्वस्य । सच तथा बोझ कापसीफया तस्यसमुझकं संपुटमभिन्नावस्थं Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास अन्निधानराजेन्दः । यासंदिया कार्पासीफसमित्यर्थः तश्चेति इंस्तत एषामिव श्यामो व- (उन्विहिताति) उरपतंति ( अणेगाई आससयाति) न एणों येषांते तथा । इह च सर्वत्र हितीयार्थे प्रथमाऽतस्ता- केयलमश्वानेकैकशोऽपि तु अश्वशतानि पश्यति स्मेति गमनिति तथा गोधूमो धान्यविशेषः तद्वद्गौरमंगं येषां ते निकामात्रमेतदस्य वर्णकस्य । भावार्थस्तु बहुश्रुतबोष्यति ॥ तथा। तथा गौर। या पाटला पुष्पजातिविशेषस्तब्दये गौरास्ते धावमानस्याश्वस्योदरवर्तिशब्दाविचारो नगवत्याम् । तथा ततः पदष्यस्य कर्मधारयः । गोधूमगौरांगगौरपाटला आसस्सणं जंते ! क्खु धावमाणस्स किं क्खुक्खुत्ति गौरास्तान तथा प्रवासवर्णाश्च विमवर्णान् अनिनवपखवयर्णान् वा रक्तानित्यर्थः(धूमवएणायत्ति) धूम्रवर्णाश्चधमवर्णान्या करेगोयमा! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जग पांकुरानित्यर्थः (केईत्ति) कांश्चिम्न सर्वानित्यर्थः। श्दं च हरी- यस्स य अंतरा एत्य कक्कुमए नाम वाए समुच्चिए जेणं त्यत भारत्त्य पांमुशब्दे कल्पिता: रूपकं नवति । तालपत्राणि आसस्स धावमाणस्स खुखुत्ति करे ।। न. १ श० तामाभिधानवृक्तपर्णानि रिष्टा च मदिरा तवों येषां ते ता सपत्ररिष्वर्णास्तां स्तथा शालिवर्णान् शुक्लानित्यर्थः। (भा ॥ टी०॥ हृदयस्य यकृतस्य दकिणक्तिगतोदरावयषविशेष सावएणायत्ति) भस्मवर्णाश्च नासो वा पक्तिविशेषस्तष्क स्यान्तरान्तराले । नाटो॥ श्च कांश्चिदित्यर्थः (जंपियतिलकामगायत्ति ) यापिताः अश्विनीनवत्राधिष्ठातरि देवे, तदधिष्ठातृके अश्विनीनवरे, च कालांतरं प्राप्ता ये तिकीटा धान्यविशेषास्तवद्ये वर्णसाचा अश्वनामको देवविशेष प्रति जं०॥ अश्वोऽश्वदेवतोपतक्विता ते तथा तान् यापिततिकीटकांश्च ( सालोयरिट्टगायत्ति) अश्विनीति चं०२० प्रा. ।। आशुगमनादश्वः मनसि, जी. ३ सावलोकं सोचोतं यषिष्टक रत्नविशेषस्तध्ये वएणसाधा प्र. ।। प्रशा.२ पद ॥ ते सापसोकरिष्ठकास्तांश्च (पुंरुपश्यायत्ति) पुंकाणि धवला आश-पुं०-अशनमाशः । अश्भोजने-धञ्-भोजन-आ. म. नि पदानि पादा येषां ते तथा त पव पुपदिकास्तांश्च तथा प्र०१ अ.। (सामासाए पायरासाए) प्रातरशनं प्रातराशःप्रत्यूष कनकपृष्ठान् कांश्चिदिति रूपकं ॥२॥(चक्काग पट्टवहिणारी) स्येव भोजनमिति सूत्र. श्रु.१ अ.॥ चक्रवाकः पक्तिविशेषस्तत्पृष्ठस्येव वर्णो येषां ते तथा तान् कर्मणि उपपदे कंतरि अण-उपपदस० तत्तद्वस्तुनक्कके। सारसवांश्च । हंसवर्णान् कांश्चित् शत पद्यार्द्ध (केश अन्न यथा हुताशः आश्रयाशः मांसाशः पलाशः हविष्याशः ॥ वएणेति ) कांश्चिदेवाचवान् ( पक्कतसमेहवएणीयत्ति)पका याच॥ पकपत्रो यस्तबस्तासवृत्तः स च मेघश्चति विग्रहस्तस्येव वों येषां ते तथा तान् (पविरञ्जमहवएणत्ति) कचित्पा: आसइ-(न्) आश्रीयन्-श्रा-श्रि-शनि-आश्रयकारके, आश्रिते, तथा (बाहुवमाके इति बभ्रुवर्णान् कांश्चिपिंगलानित्यर्थः । "मयूरपृष्ठाश्रयिणा गुहेन" रघुः। पर्यन्ताश्रयिनि-निजस्य सह बहुवर्णानिति कचित् दृश्यते रूपकमिदं ॥ ॥ तथा (संज्काणु शं नाम्नः किरातैः कृतम् रत्ना. । वाच.॥ रागसरिसत्ति)संध्यानुरागेण सदृशा वर्णत इत्यर्थः (सुयम आसश्त्ता-आश्रित्य--अ० आ. श्रि--ल्यप्-अवनम्म्येत्यर्थे, हगुंजरूरागसरिसच्चके इत्ति) शुकमुखस्य गुंजा“स्य च प्रती वाच ॥ तस्य रागेण सदृशो रागो येषां तथा तान् । अत्र श्ह काश्चिदि- आसंकणिज-आशंकनीय-त्रि-। मा-शकि-अनीयर् शंकया त्य (एमापामगोरत्ति) एखा पाटला पाटसाविशेषोऽथवाएमा विषयीकायें-अनिष्टतया चिन्तनीये, चवाच. ॥ च पारझा चेत्येझापाटो।तद्वारा ये ते तथा तान्(सामनयाग- यासंग-संग-पुं० । अभिष्वक्रे, । षो० ॥ स्वरूपम् ॥ वासामला पुणो केशत्ति) श्यामनता प्रियंगुन्नता गवलं च महिषशृंगं तत् श्यामझान् पुनः कांश्चिदिति रूपकं ॥ ४ ॥ प्रासंगेऽप्यविधाना, दसंगसक्युचितामत्यफलमेतत् ॥ (बहवे एणे अणिवैसत्ति) एकवर्णनाव्यपदिश्यानित्यर्थः । जवतीष्टफलदमुच्चै, स्तदप्यसंगं यतः परमं ॥ ११ ॥ अतएवाह ॥ (सामाकासीसरित्तपीयत्ति ) श्यामाकाश्च आसंगपीत्यादि । श्रासंगेऽपि चित्तदोषे सति विधीयमाना कासीसं रागद्रव्यं तब्येते कासीसास्ते च रक्ताश्च पीताश्च ये नुष्ठाने श्वमेव सुंदरमित्येवंरूपे अविधानं शास्त्रोक्तविधेरजावा ते तथा तान् शबझानित्यर्थः (अश्चंतधिसुद्धावियणति) नि- तू शक्तिरनवरतप्रवृत्तिः न विद्यते संगो यस्यां सयमसंगाभिदोषांश्चत्यर्थः । णमित्यद्वकारे (आशाण जाश्कुलविणीयगयम- ध्वंगो नाववती असंगा चासौ शक्तिश्च तस्या उचितं योग्यचरसि) आकीर्णानां यवादिगुणयुक्तानां संबधिनी जातिकुझे मिति कृत्या फसमेतदिष्टफारहितमेतदनुष्ठानं भवति जायते । येषां ते तथा तेच ते विनीताश्च गतमत्सराव परस्परामह- एफलदमिष्टफलसंपादकमुषैरत्यर्थं तदपि शास्त्रोक्तमनुष्ठान नवर्जिता निर्मात्सराश्चेति । ते तथा तान् (हयवरसि) हयाना- मसंगमभिष्वंगरहितं यतो यस्मात्परमप्रधान प्रासंगयुक्तं मश्वानांमध्ये वरान् प्रधानानित्यर्थः (अहोवदेसकमबाहिणो धनुष्ठानं तन्मात्रगुणस्थानकस्थितिकार्ये च न मोहोन्मूलनका वियणति) यथोपदेशक्रममिव उपदिष्टपरिपाटपनतिक रेण केवनकावोत्पत्तये प्रजवति तस्मात्तदधिना भासंगस्य मेणेष वाई शीलं येषां ते तथा तानपि च णमित्यसंकारे (सि दोषरूपता विझेयेतिषो.१४ वि. द्वारा गायें, सूत्र. ११.३ खाविणयत्ति)। शिकयेवाश्वदमकपुरुषशिकाकरणादिव वि प्र. रोगाचा प्र.५३..४॥ नीतोवाप्तो विनयो यैस्ते तथा तान् (बघणंवग्गणधावणधोरनतिपईजणसिक्खियगईत्ति) संघनं गर्तादीनां वसानं कूर्दनं आसंग-पुं० वासगेहे, “ आसंगो आसवणं प्रालयणं बासगे धावनं वेगवझमनं धोरणं चतुरत्वं गतिविषयं त्रिपदीमवस्येव हम्मि" देशी. व. १ श्लो. ६६॥ रंगनूम्यां गतिविशेषः । पतदूरुपा जविनी वेगवती शिक्तितेव | श्रासंदय-सन्दक-न-पासनावशेष, (बासनमासनकादत्ति) शिक्वितागतियस्ते तया तान् किं ते इति किमपरं (मणसा आचा. १.५.॥ विडावाहि तात्ति) मनसाऽपि चेतसाऽपि न केवलं वपुषा | प्रासंदिया-प्रासंदिका-स्त्री-मंचिकायाम्- (आसंदियचन Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसंदी अभिधानराजेन्डः। प्रासंसा वसुत्तं ) प्रासंदिकां मंचिकाम् सूत्र. १ श्रु. अ. ॥ कज्जीह दंम समारंज्जा -आचा. २०२ न.॥ आसंदी-आसन्दी-स्त्री-आसद्यतेऽस्याम्-आ-सद्-अब्दादिनि टी. ॥ अथवा आशंसनमाशंसा अप्राप्तप्रापणाभिलाषः गौरा. डीप-उपवेशनयोग्ये आसनयंत्रे कुषखट्वायाम्, वाच.॥ तदर्थ दएकसमादानमादत्ते तथाहि ममतापरुत्परारि वा प्रेत्य मंचके, सूत्र०२ श्रु. १ अ. (आसंदी पत्रियंके य) आसंदी- परलोके चोपस्थास्यत इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्तते राजानं त्यासनविशेष इति । सूत्र० १ श्रु. ए अ.॥ वाऽर्थाशाविमोहितमना विझगति-आचा. ॥ विशेषावश्यके आसंबर-आशाम्बर-पुं० दिगंबरे जनसाधुभेदे, पतेन यदाहु आशंसादृषितं प्रत्याख्यानमधिकृत्य ॥ राशाम्बराः न स्त्रीणां निर्वाणमिति तदपास्तम् इति । नं.॥ आसंसाजा पुन्ने, सेविस्सामिति दृसियं तीए। आसंसप्पोग-आशंसाप्रयोग-पुं० आशंसनमाशंसाऽभिला या एवंविधपरिणामरूपा कथजतः परिणाम इत्याह । पूर्णे पस्तस्याः प्रयोगो व्यापारणम् करणमाशंसाप्रयोगः । आशं प्रत्याख्याने देवोकादौ सुरांगनासंजोगादिभोगानहं सेविष्ये सैव वा प्रयोगोव्यापार आशंसाप्रयोगः। आशंसाया व्यापारे, इत्यवं नृतपरिणामरूपा च या आशंसा तया प्रत्याख्यानं दृषितं च प्राशंसारूपे व्यापार, । प्रव० १ द्वा.॥ आशंसप्पओगी जवति । विशे०॥ आ. म. वि.१ अ.। नाम निदानकारणम् इति ॥ नि. चू. १ उ. ।। तया च सूत्रकृतांगेदसविहे आसंसप्पओगे प० तं जहा १ इहलोगासंस से जिक्ख अकिरिए अयूमए अकोहे अमाणे अमाए प्पओगे २ परस्रोगासंसप्पोगे ३ पुहोस्रोगासंसप्प अलोहे नवमते परिनिब्बु णो आसंसं पुरतो कुज्जा ओगे । जीवियासंसप्पओगे ५ मरणासंसप्पओगे ६ श्मणं मे दिटेण वा सुएण वा मुएण वा णाएण वा विनाकामासंसप्पोगे ७ नोगासंसप्पोगे लाजासंसप्प एण वा इमेण वा सुचरियत्तबनियमबंजचेरवासेण श्मेण ओगे ए पूयासंसप्पओगे १० सकारासंसप्पओगे। स्था. वा जायामायावृत्तिएणं धम्मेणंई नबए पेच्चा देवो सिया १० वा.।। कामजोगा वसवत्ति सिके वा अदुक्ख मसुने एत्थ दसविहेत्यादि । श्राशंसनमाशंसा इच्छा तस्याःप्रयोगो व्या एत्यविणो सिया ॥२ श्रु. १ अ. ॥ पारणं करणमाशंसैव प्रयोगो व्यापारः आशंसाप्रयागः सूत्रे सेनिक्खु इत्यादि ॥ समूोत्तरगुणव्यवस्थितो भिकुर्नास्य च प्राकृतत्वात् ( आसंसप्पओगेत्ति) जणितं तश्च श्हास्मिन् क्रिया सावद्या विद्यते इत्यक्रियः संवृतात्मकतया सांपरायिकप्रज्ञापकमनुष्यापेक्या मानुषत्वपर्याये यो धर्तते लोकःप्राणि कर्माबंधक इत्यर्थः । कुत एवंनृतो यताप्राणिनामलूषकोऽहिंस वर्गः स इहलोकस्तद्दयतिरिक्तस्तु परसोकस्तत्रहलोकं प्रात कोऽनुपमर्दक इत्यर्थः । तथा न विद्यते क्रोधोयस्येत्यक्रोध पआशंसाप्रयोगो यथा नवेयमहमितस्तपश्चरणाश्चक्रवादि- वममानोऽमाग्यलोभः कषायोपशमाञ्चोपशांतः शीतीततस्तरितीहरोकाशंसाप्रयोगः१ एवमन्यत्रापि विग्रहः कार्यः। परसो- उपशमाच्च परिनिर्वृत श्व परिनिर्वृतः । एवं तावदैहिकेन्यकाशंसाप्रयोगो या भवेयमह मितस्तपश्चरणादिन्द्रःसमानि- कामनोगेन्यो विरतः पारलौकिकेन्योऽपि विरत इति दर्शय को वा द्विधा लोकाशंसाप्रेयोगो यथा भवेयमिन्द्रस्ततश्च- ति । नो आसंसं श्त्यादि । नो नैवाशंसां पुरस्कृत्य ममानन क्रवर्ती ३ अथवा इह लोके श्ह जन्मनि किंचिदाशास्ति एवं विशिष्टतपसा जन्मांतरे कामनोगावाप्तिर्भविष्यतीति । एवंतपरजन्मन्युभयत्र वेति एतत्त्रय सामान्यमतान्ये तहिशेषाः । तामाशंसां न पुरस्कुर्यादित्येतदेव दर्शयितुमाह । श्मेण मे पवास्तिच सामान्यविशेषयोर्विबक्कापेको भेद इत्याशंसाप्रयो- इत्यादि । अस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतपश्चरणफोन दृष्टेना गाणां दशधात्वं न विरुध्यते। तथा जीवितं प्रत्याशंसा चिरम्मे मर्षोषध्यादिना पारलौकिकेन च श्रुतेनार्डकधम्मिलब्रम्हदजीवितं नवत्विति जीविताशंसाप्रयोगः। तथा मरणं प्रत्या त्तादीनां तथा (मुएणवत्ति) मननं ज्ञानं जातिस्मरणादिना शंसा शीघ्र में मरणमस्त्विंति मरणाशंसाप्रयोगः॥ ५॥ तथा. झानेन तथाचार्यादेः सकाशाझिानेनाऽवगतेन ममापिविशिएं कामौ शब्दरूपे तो मनाझौ मे नूयास्तामिति कामाशंसाप्रयो. जविष्यतीत्येवं नाशंसां विदध्यात् । तथाऽमुना सुचरित्रतपो गः॥६॥ तथाजोगाः गंधरसस्पर्शास्ते मनोज्ञा मे नूयासुरिति नियमब्रह्मचर्यवासेन तथामुना वा यात्रामात्रावृत्तिना धर्मेणा नुष्ठितेनातोस्माजवाकयुतस्यप्रेत्यजन्मांतरेस्यामहं देवस्तत्रस्थस्य भोगाशंसाप्रयोगः ॥७॥ तथा कीर्तिः श्रुतादिलानो नूयादिति चमे वशवर्तिन कामभोगा भवेयुरशेषकर्माऽवियुतोवा सिको. बाभाऽशंसाप्रयोगः ॥७॥तथा पूजा पुष्पादिपूजनं मे स्यादिति ऽदुखः शुनागुनकर्मप्रकृत्यपक्तयेत्यवंभूतोऽहं स्यामागामिकाल पूजाशसाप्रयोगः ॥ ॥ सत्कारः प्रवरवस्त्रादिनिः पूजनं तन्मे श्त्येवमाशंसां न विदच्यादिति । यदि वा विशिष्टतपश्चरणास्यादिति सत्काराशंसाप्रयोगः॥१०॥स्था.टी.|आव.६ अ.॥ दिनाऽऽगामिनि काममाणिमालघिमेत्यादिकाएप्रकारा सिकिआसवण-वासगेहे, देशी. १ व. ६६ श्लो.।। भविष्यतीत्यनया च सिद्धया सिद्धोऽहमदुःखोऽशुन्नो वामध्यस्थ आसक्ख-पाक्तिविशेषे, " आसक्खो सिरिवर" श्रीरीत व इत्येवं रुपामाशंसां न कुर्यात् । तदकरणे च कारणमाह । एत्थ दतीति श्रीवदः प्रशस्तः पक्तिविशेषः । देशी.१ ३.६७श्लो.। विश्त्यादि । अत्रापि विशिष्टतपश्चरणे सत्यपि कुतश्विनिमिआसबंध-अश्वस्कंध-पुं. हयग्रीवायाम्, स्था.२ ग. । तापुष्प्रणिधानसशाषे सति कदाचित्सिकिः स्यात्कदा चिश्च नैवाशेषकर्मक्यबकणा सिकिस्यात् । तथा चोक्तं(जेजत्तिया आसंसा-आशंसा-स्त्री-आशंसनमांशसा--अभिनाये, प्रव. ५ उहेओ, भविस्सते चेव तत्तिया मोक्खे ) इत्यादि । यदि घा.॥ आव.६ अ.॥ आशंसनमाशंसा--इच्छायाम, स्था. वाऽत्रायणिमाद्यष्टगुणकारणे तपश्चरणादौ सिकिः स्यात्कदा. भाशंसनमाशंसा-अप्राप्तप्रापणाभिलाषे,--आचा०।२ अ.न.२ चिच न स्यात् तद्विपर्ययोपि वा स्यादित्येवं व्यवस्थिते प्रेक्काप अहवा आर्ममा एतं परिणाय मेहाविणे वसयं एएहिं कारणां कथमाशंसा कर्तुं युज्यते शनि । सिकिश्वाप्रकारेयं Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासंसाविप्पमुक्क अभिधानराजेन्फः। भासग अणिमा १ गरिमा सधिमा ३ महिमा ४ प्राप्तिः ५ प्राकाम्यं- यस्यान्तु गौरियोपवेशनं सा गोनिषधिका यत्र तु ताज्यामुप ६ ईशित्वं वशित्वं यत्र कामावसायित्वामति । तदेवी- विश्यकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिशुमिका पर्यङ्का प्रतीता दिकार्यमामुमिकाथै च कीर्तिवर्णश्लोकारार्थं च तपो न विधे अर्बपर्यंका यस्यामेकंजानुमुत्पाटयति एवं विधया निषघ्या चयमिति खितं ॥ ५॥ सूत्रन्टी०२४०१०॥ रतीति नैषधिको उत्कुटिफासनन्तु सुगमत्वालाग्यकृतान ध्याप्रासंसाविप्पमुक-श्राशंसाविममुक्त-त्रि० इहलोकायपेक्षया ख्यातम् ।। विप्रमुक्त, १० सू०॥४॥ आशंसया विनिर्मुक्तोऽनुष्ठानं सर्व वीरासनन्तु सीहासणेव जहमुक्कजणु कणि विट्ठो ॥ माचरेत् । मोके भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः प्रव०५ दंके लगंगनबमा, आयतखुज्जायएहंपि ॥ १॥ हा.॥ प्रासंसि(न्)-प्राशंसिन्- त्रि० आ-शनस-णिनि-आशंसौ वीरासन नाम यथा सिंहासने उपविष्टोचून्यस्तपादमस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासनश्यनिविष्टे मुक्तजानुकश्व निरामाशंसाकरि, स्त्रीयां जीप-चाच. ॥(विश्जुत्तो प्रणासंसी) संबनेऽपि यदतिदुष्करं चैतदतएव वीरस्य साहसिकस्यासन मनाशंसी भोतृभ्यो न वस्त्राचाकारकति-भाचा.१०॥ वीरासनमित्युच्यते तदस्यास्तीति धीरासनिका । दंगासनि प्रासंसित्ता-प्राशंसित-त्रि० श्रा-शंस्-तृ-त्राधियुभेन्ग का नगमशायिका पदद्वये यथाक्रमंदस्य समस्य चायतकु वति, खियां जीप-चा०॥ म्जताज्यामुपमा कर्तव्या तद्यथा। दंगस्येवायतं पादप्रसारणेन प्रासंसिय-प्राशंसित-त्रि० आ-शन्स्-त-कथिते, वाषिष दीर्घ यदासनं तहमासनं तदस्यास्तीति दमासनिका । यीनूते, जावे क माशंसायाम म०वाच॥ सग किन उस्संस्थितं काष्ट तत्कुम्जतया मस्तकपाणिप्रासका-प्रश्वकर्ण-पुं० अश्वमुखीपात्परतोऽतरद्वीपमेदे, कानां वि अगनेन पृष्ठस्य चासम्मेत्यर्थः । या तु यथाविध्य (अंतरदीव) शब्द विवृत्तिः । स्था.४ ग०। प्रष. १६१वा.॥ भिग्रह विशेषेण शेतसा बर्गमशायिनी । अवाङ्मुखादीनितुपपासण-प्रासन-. भास्यते उपविश्यतेऽस्मिाभिस्यासनम् । दानि सुगमत्वान व्याख्यातानीति रघुव्यम् एते सर्वेऽप्यनिग्रह मातापनास्थाने, सत्त.१ अ.। बसत्यादी, सूत्र. १.अ.। विशेषाःसंयतीनांप्रतिषिकाः एतान्प्रतिपद्यमानानां दोषानाह। स्थाने, सत्त.१५.११. .५. प्रास्यतेस्थीयतेऽस्मिमिति जोणी खुल्नणपिसण, गुरुगा पत्ताणहोइ सइकरण । शय्यायां प्राचा.२.५ उ.पीउफसकादी, आष. अ. । गुरुगासवेनगम्मी, कारणे गहनं वग्धरणंच ॥ स्था.एग. नि. १.१.सम. स.१०। भाष.५ अ.. व्या० । नर्वस्थानादौ स्थानविशेषस्थिताया आर्यिकायाभाधारसकणे धर्मास्तिकायादीनां सोकाकाशादिके, आ. १ योनेः कोजो नवेत् तरुणा वा यथास्थितां दृष्ट्वा प्रेरययुः प्रति म. पवेशन योग्यनिषद्यादिके, वृ. ३ . । विष्टरे, प्रम. १ सेवरन् अतएवैताननिमाहान् प्रतिपद्यमानायास्तस्याश्चतुकाहंसासनादिके, जी. ३ प्र. । नग. १२.११ च.। गुरु जुक्तलोगिनीनां च येन कारणेन स्मृतिकरणं इतरासां उपवेशने, स्था. ए ग.॥ कौतुकं च जायते तथा वक्ष्यमाणसूत्रे प्रतिषेधयिष्यमाणं निग्रन्थ्या यारशानि भासनानि कल्पन्ते तान्याह । सवेन्टकं तुम्बकं यदि निर्ग्रन्थी गृपहाति तदा चतुर्गुरु स्मृति नो कप्पा निग्गंधीए गणाझ्याए हूं तए नो कप्पद नि- करणादयश्च त पव दोषाः कारणेतु तस्यापि गृहणं धारणगंथिए पमिमइयाए ९ तए पदं नेसज्जियाए उक्कु चानुकातम् । पतञ्चाप्रस्तुतमपि लाघवार्थ स्मृतिकरणादिदो षसाम्यादत्र भाष्य भाष्यकृताऽभिहितमिति संजाषयामः । गासणियाए दंगासणियाए बगंमसाश्याए पठमन्थि अन्यथा या सुधिया परिभाष्यम् ।। याए उत्साणियाए अन्तरकुन्जियाए एगपासियाए । वीरासणगोदोही, मुत्तं सव्वे विताणकप्पन्ति । मो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः स्थानाय तया भवितुं पदं प्रतिमास्थायिन्या नैषेधिकाया उत्कुमिकासनिकाया वीरासनिकाया ते पुण पमुच वेडं, मुत्ताअोबाजिग्गहं पप्प ॥ दएमासमिकाया संगमशायिन्या प्रवाङ्मुखाया सत्तानिकाया अन्तरोक्तासनानां मध्यात वीरासनं गोदोहिकासनं च मुकअन्ते कुब्जिकाया एकपार्श्वशायिन्या इति सूत्राकरसंस्कारः॥ त्वा शेषाएयूर्वस्थानादीनि सर्वाएयपि ता कल्पन्ते प्राद अत्र जाप्यकारो विषमपदानि व्याख्यानयति ॥ सूत्रे तान्यपि प्रतिषिकानि तत्कथमनुशायन्त इत्याह । तानि पुनःशेषाणि स्थानानि चेष्टां प्रतीत्य कल्पतेन पुनरभिग्रहाधजहाणं हाणे, यतंतु पमिमाउ हुंति जासाई॥ शेष सूत्राणि पुनरनिग्रहं प्राप्य प्रतीत्य प्रवृत्तानि तत श्वमुक्तं पंचवाणिसिज्कान, तासि विनासाउ कायव्वा ॥१॥ प्रवति । प्रनिग्रहविशेषास्तूप्रस्थानानि संयतीनां न कस्पते। व्यास्यानायतं नामोर्चस्थानरूपमायतं स्थानं तद्यस्याम सामान्यतः पुनरावश्यकाविषेसायां यानि क्रियन्ते तानि कल्पस्ति सास्थानायतिका ।केचित्तु (गणाश्ग) मितिपठन्ति तत्रा न्ते एवापर प्राह । ननु चाभिप्रहादिरूपं तपः कर्म निर्धारणायमर्थः । सर्वेषां निषदनादीनां स्थानानामादितूतमूलस्था र्थमुक्तं ततः किमेवं संयतीनां तत्प्रतिषिभ्यते उच्यते। नमतः स्थानानामादौ गवतीति स्थानादिगंतच्यते तद्योगा तो सोन अगुन्ना ओ, जेण सेसं न बुप्पश् । वार्यिकापि स्थानदिगेति व्यपदिश्यते । प्रतिमा मासिक्यादि. का तासु तिष्ठतीति प्रतिमास्थायिनी (नेसजियायत्ति) निषाः अकामियं पि पेवेज्जा, वारिउत्तेण निग्गहो । पवैध नवन्ति तासां विभाषा कर्तव्यासाचेयम् निषद्यानामोपये ध्या तपस्तदेव नगझिरनुकातं येन शेष ब्रह्मचर्यादिकं गुण शमविशेषास्ताः पञ्चविधास्तद्यथा ॥ कदंबकं न लुप्यते कथंपुनः शेषं सुप्यत इत्याह अकामियमिसमपादयुता गोनिषधिका हस्तिशुमिका पर्यका अर्बपर्यका. त्यादि । दंगायतादिस्थानस्थितामार्यिका राष्ट्र कश्चिदुदीबात तत्र यस्यां समौ पादीयुतीच स्पृशतः सा समपादयुता , कम्मो नाम कामी काममनिच्छन्तीमपि प्रेरयेत् प्रतिसंवत Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९९) भासण अभिधानराजेन्द्रः । पासण तेन कारणेन वारित पतारशस्तासामभिप्रहः। किन्तु ॥ व्या.। यान्येतानि व्युत्सृष्टकायिकत्वादीनि पदान्युक्तानि तानि जे य दंसादओपाण, जेय संसप्पगा तुवि । कारणे सिंहादिनिरभित्रूतस्य देवताकंपननिमित्तं वा गीता बिस्नुस्स अट्ठियातावि, सहन्ति जह संनया ॥ र्थस्याऽ गीतार्थस्य वा कल्पन्ते अकारणे पुनरगीतार्थस्य व्या । वह विधा कायोत्सर्गश्चष्टायामन्निभवेत्तत्राभिन्नव न कल्पन्ते गीतार्थस्य निष्कारणे निर्जरानिमित्तं कल्पन्ते कायोत्सर्गस्तासां प्रतिषिक रति कृत्वानिधीयते ये च दंश अचेझत्वादकमा गीतार्थस्य जिनकल्प प्रतिपद्यमानस्य मशकादयः प्राणिनो ये च नुवि संसर्पकाः संचरणशीला कल्पते एवं संयतपक्के एतान्यचेन्नतादीनि सर्वाएयपि पदानिनन्दिरकीटकादयस्ते कृतानुपज्वान् यथासंयताः सहन्ते विभाषयेत । सावश्यके आसने निर्ग्रन्थीनां ॥ तथा ता अप्यार्यिकाबेष्टाकायोत्सर्गस्थिता आवश्यकादि नो कप्पा निग्गन्थीणं सावस्मयंसि पासणसि आसइत्त वेबायां सम्यक् सहन्ते तत एवं ता अपि कर्मनिर्जरां कुर्वन्ति एवा तु अहित्तएचा कप्पा निग्गन्थाणं सावस्सयांस श्राह यादीर्णकर्मणा तरुणादिना प्रेर्यमाणापि सा संयती- आसणारी प्रासश्त्तएवा तु यहित्तएवा । नामुत्पादयति ततः किमिति येनानिमहाविशेषेण बहुतरा कर्म सावधयं नाम यस्य पृष्ठतोऽवष्टंनो जवति । एवंविधे भासने निर्जरा प्रवति सर्वा यत उच्यते ॥ निर्ग्रन्थीनां नोकल्पते निर्ग्रन्थानां सावश्रये आसने आसितुं वा वसिज्जा बनचरंसि, नुज्जमाणी तुकीदितु । कस्पते निर्ग्रन्थ्य पतारशे आसने यापविशति शेरते वा तदा तदाचित्तं तत्तति, थेरा आवयसन्नीरुणो॥ तएव गर्वादयो दोषाश्चतुर्गुरु च प्रायश्चित्तं द्वितीयपदे अस्पव्या। यद्यपि काचिदार्यिका धृतियलयुक्ता युज्यमाना प्रति सागारिकस्थविरोम्बानो वा उपदिशेत् । निन्यानामपि न कल्पते यापविशन्ति तदा चतुर्बघु सूत्रं तु काराणिकं तदेव सेव्यमानापि भावतो ब्रह्मचर्ये वसेत् तथापि स्थविरा गौतमा कारणमाह ॥ दयः सूरयः प्रवचनापयशः प्रमादन्नीरवस्तां न पूजयन्ति नप्र सावस्सय इत्यादि पश्चाई योवृक प्राचार्यःस पूर्वकृते गृहसंतीत्यर्थः किंच॥ स्थैस्सा निष्पादित सावायऽप्यासने उपषिष्टोऽसागरिके तिव्वानिग्गहसंजुत्ता, घाणमोणासणे रता। एकान्तवा यहिनयानां वाचनां दद्यात् सूत्रम् ॥ जहा मुज्झन्ति जयउ, एगाणेगं विहारिणो । नोकप्पा निग्गीणं सविसाणंसि परिसि वा फलगांस लज्जं च बंजचज च, रक्खंतीनतवारता । वा आसइत्तएवा तुयहि एवा कप्पा निग्गयाणं सविसागच्चे चव विमुज्जन्ति, तहा अणसणादिहि ॥ णंसि पीवंसिवा फलगंसि वा प्रासश्त्तएवा तुयहित्तएवा।। व्या। तीर्डव्यादिविषयैरभिप्रहै। संयुक्तः स्थानमौनासन | सविषाणं नाम यथा कपाटस्योभयतः शृंगे भवतः । एवं यत्र विशेषेषु रता एकानेकविहारिणः कचिदेकाकिविहारिणो भिसिकादौ पीठे फलके वा विषाणं शृङ्ग भवति तत्र निम्रजिनकल्पिकादय इत्यर्खः केचिश्चानेकविहारिस्थविरकर्हिपका न्थीनामासिवा न कल्पते निर्ग्रन्थानान्तु कल्पते । निर्ग्रन्थास्तु इत्यर्थः एवंविधा यतयोयथा शुध्यन्ति तथा निर्ग्रन्थ्योऽपि सज्जा सविषाणे पीठे फलके वा यापविशन्ति शेरते च तदा चतुब्रह्मचर्य च सूत्रोक्तविधिना रवन्त्यस्तपोरता स्वाध्यायादितपः गुरुके आझादयश्च दोषाः । तथा ॥ कर्मपरायणा गच्छ एव वसन्त्योऽनशनादिभिर्यथोचितस्तपो सविसाणे नडाहो, पावमादीयते पमिक्कुटम् । भिः शुरुचन्ति न तीरनिग्रहैः । अपिच ॥ वितियपए वासासु, कप्पा विएणे विसाणम्मि । जोविदिकंधणोहुजा, इत्यविधोनुकेवल्ली। सविषाण आसने उपविशत्यामार्यिकायामुडाहो भवति । नसते सोवि गच्छंती, किमुच्चीवेदसिंघणा॥ पादकर्मादयश्च दोषास्सनवन्ति । ततः प्रतिकुष्टं तत्रोपवेशन न्यायोपि दग्धेन्धनो जस्मीकृतवेदमोहनीयकर्मा स्त्रीचिन्हो मितिगम्यते द्वितीयपदे वर्षासु पीवफलकदुर्लभतायां सविषाण बहिःस्त्रीलकणसक्तिः केवली भवति सोऽपिगच्छवासे वसति मपि गृह्यते तस्य च विषाणंचिता परिष्ठाप्यते एवं चिन्ने किंपुनर्या संयती स्त्रीवेदेन सन्धनासासुतरां गच्छे वसेदिति- विषाणे स्थविराया अन्यस्या वा कस्पते ॥ जावः। यद्यप्युक्तं यदि न स्वादयति ततः कोनाम तस्याअनिग्रह जंतु लज्म नित्तुं तं, थेरीणं दसंति सविसाणं । ग्रहणदोषः तदप्ययुक्तं प्रतिसेव्यमानाया पास्वादनस्य याह इति यसे दंम्पानं, उणघणमट्टिया एवा । त्रिकत्वात्कथमिति चेदुच्यते ॥ यत्र पुनःस्थातुं न कल्पते ततः सविषाणमपि तदासनं स्थअलायं घट्ठियं ज्काइ, फुफुगा सहसाय । विरसाधीनां साधषः प्रयच्छन्ति । तदियं च दंम्पादोग्न कोवितो वकृती बाहा, इत्थी वेदेवि सोगमो॥ घनं गदयन्ति । तेनच चेष्टयित्वा स्थूबतरं कुर्वन्तीत्यर्थः । मृ. व्या. । प्रनातं अल्मकं घटितं चालितं सत् यया ध्यायति त्तिकया परिवेष्टयन्ति निग्रंथानां सविषाणमपि कस्पते । कुन प्रज्यसति यया फुफुकाघहितं साहसायात भृशं दीप्यते यथा इत्याह। व्याधिरपथ्यासवनादिना कोपितो बढ़ते । स्त्रीवेदस्याऽपि समणाणउ ते दोसा, न हुँति तेण तपणुमा य । समवगमो मन्तव्यः सोपि घट्टितः प्रज्वलतीत्यर्थः । अतोयाह पीठं आसणहेलं, फसगं पुण होइ सेन्जट्ठा । शिक स्यादमिति आह । संयतीनां प्रतिषिका अमी श्रमणानां पुनस्ते पादकदियो दोषान जयन्ति ततो अपि प्रनिग्रहाः परं संयतानां का वार्ता अत्रोच्यते। पीवकफलके सविषाणेप्यनुज्ञात । तत्र पीउमासनहेतोः फलक कारणमकारणधिय, गीयत्यमिय तहा अमीयमि । पुनः शय्यार्थ शयननिमित्तं वर्षासुगृह्यते। अथ किमर्थं वर्षास एए सब्वे विपए, संजयपक्खे विनासिज्जा ।। तत्रोपवेशनं शयनं वा क्रियते इत्याह । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५००) पासणअभिग्गह. अभिधानराजेन्धः। ग्रासय कुत्थण आयदयट्ठा, नायग अरिसवायरक्वट्ठा । उपरि च संबके, जी। कल्प। पाणा सीता दीहा, रक्खट्टा होइ फलगंतु । आसत्य-अश्वत्थ-पु० न० पिप्पले नि० चू० स०॥ आओयां चमौ स्याप्यमानाया निषद्यायाः कयनंनवन्तिीत- आश्वस्त-त्रि मागेजनितश्रमापनयनेनाश्वत्थतामपगते, कल्पक लायां च नूमावुपविशतां धान्यं न जीर्यति ततो खानत्वेनात्म भ०११ श.उ.११ मनागाश्वसिते ओ० (आसत्था मंजाय करविराधनोदयार्थ च जीवदयानिमित्तं वर्षाभूमौ नोपवेष्टव्यं । पत्र समोसरह)का०। (उज्जायगंति) भूमेराओंभावेन मलिनीनूतस्योपधे र्जुगुप्सनीय आसदेत्ता-अस्वाद्य-अव्य० आस्वादनं कृत्वेत्य) (सहफरिस तास्यात्पर्शासि वाकुल्येयुः वातोवाऽधिकतर प्रकुष्येत तत- __ रसरूवगन्धे आसदेत्ताभव३) स्या. ७ ग.। पतेषां रकार्थ पीवकं गृहीतव्यं । तथा शीतायां नृमौवहवः आसधर-अश्वधर-पु. अश्वधारकपुरुष, श्री. येऽश्वान् धारयन्ति । पनकप्रततयः प्राणिनः संमूत्रेयुः ततो नूमौ च योनीनां तेषां विराधनाभवति दीर्घजाताया वा नूमर्निर्गत्य दशेयुरुपलकण आसपुरा-अश्वपुरा-स्त्री.पद्मविजये पुरीयुगले, स्था(. दो आमिदं । ततोपधिको न जीर्णतादयोऽपिदोषा नवन्ति । एतेषां सपुरानो) स्या. ग. रक्वार्थ वर्षासु फलकं गृह्यते । वृ.५ १०॥ आसम-आश्रम-पु० तापसावसयोपनविते आश्रयविशेष, व्या गुरोः पुरतः आसन विधि (विणय ) शब्दे वक्ष्यामि । दर्श. जी. प्रयमस्तापसादिभिरावासितः पश्चादपरोऽपितोकसुख स्थिरासनोपेतं-स्थिरसुखमासनमिति पतंजलिहा.श्ता. स्तत्र गत्वावसति वृ.नि. चू. प्रशा. श्री. प्राचा. अनु. तीर्थ स्थाने, च. स्था.॥ आसणअजिग्गह-आसनानिग्रह-पु० या यत्रोपवेष्टुमिन- (ब्राह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोयतिस्तया) इति चतुर्ष, लोक न्ति तत्र तत्रासननयने, पंचा० २ वृ.॥ प्रसिकेषु अवस्थाविशेषभाक् मनुष्येषु । तिष्ठत एव गुरोरादरेणासनानयनपूर्वके अनोपविशत इति | आसमद्दग-अश्वमद्देक-त्रि.घोटकानां मर्दनाधिकारिणि पुरुषे.का । नणने दर्शनविनयभेदे, प्रव०।सम ९१ स.। नि.चू. आसमपय-अाश्रमपद-न. तापसाश्रमोपल्यक्तिते स्थाने. उत्त. उ. ध. ३ अधि.॥ | (कणखसं नाम आसमपदं) प्रा. म.कि.। पासणगय-आसनगत-त्रि० स्वस्थाने स्थिते, उत्तआसना- | श्रासमन्जेय-आश्रमजेद-पु० " ब्रह्मचारी गृहस्थ श्ववानप्र सीने (आसणग कोण पुच्चे जाणवसेजागओकयाइवि)उत्त.। स्योयतिस्तथत्यादिनोक्तस्वरूपे तूमिकाविशेषे, पंचा० १०वृ.। आसणचाग-आसनत्याग-पु० आसनत्यागे, पीउकाद्युपनयने आसमाण-आसीन-वि०निषम,(अजयं आसमाणोय पाण तूयाघा० ३९ हा.॥ हिहिंसई) आसीनो निषम्मतयाऽनुपयुक्त आकुंचनादि नावन. आसपत्थ-आसनस्थ- त्रि० उत्कुटकागोदोहिकावीरासना द०४ अ.। द्यवस्थे, प्राचा. १ श्रु. ए अ.। ( आसणत्यो पढिनमारवा- आसमि-आश्रमिन्-पु० सिङ्गिनि, पं. व. १६.। हेति) नि.नृ.१.। आसमित-अश्वमित्र-पु० सामुच्छेदानां निन्हवानां धर्माचार्य, आसणदाण-आसनदान-न० पीठकाशुपनयने, ध. १ अधि.। योहि महागिरिशिष्यस्य कमिन्यानिधानस्य शिष्यो मिथि श्रामणपयाण-आसनप्रदान-नए प्रासनदानमात्रे दर्शनविनय बायां नगा बदमीगृहेचैत्ये अनुप्रवादाभिधाने पूर्व नैपुणि रूपे विनयभेदे, ग. नि. चू. ॥ के वस्तनि चिन्नच्छेदनाय वक्तव्यतायां (पमुण्पन्नसमया आसणाणुप्पयाण-पासनानुपदान-न० गौरवमाश्रित्यासन- नेरझ्या वाच्चिजिस्सन्ति एवं जाव वैमाणियात्त एवं वितिस्य स्थानान्तरसंचारणे, भ. १४ श. ३ उ. पंचा. १७७ याइ समए सुवत्तव ) मित्येवं रूपमासापकमधीयानो मि स्था .७ .॥ थ्यात्वमुपगतः सामुच्छेदिकनिन्हावान् प्रावर्तयत् इति आसाम-आसन-त्रि. निकटवर्तिनि, उत्त०१ अ.। स्था. या समुच्छेदिकशब्द। विवृत्यार्थिनाऽन्वेष्टव्यः ॥ स्था०७.। म. पंचा. ३३.३.३ अधि. श्राव.! प्रत्यासत्तिमति,षो."उज्जे उत्त, १ अ. विशे.॥ णीए नयरीए आसन्नोणमाणं गामा" आ. म. ॥ आसमुह-अश्वमुख-पु. प्रादर्शमुखबीपस्य परतोऽतरहीप, आसमझकपइज-पासनलब्धप्रतिन-त्रि० परतीर्थीकादी। तत्स्थे मनुष्ये च अन्तरछीपशब्दे विवृत्तिः उत्त. ३६. अ. । नामुत्तरदानसमर्थे, ग.१ अधि.। सूरी. प्रव.॥ प्रव. । २६५ का.। स्था.४ ग.॥ आसमसिछिय-आमन्त्र सिच्छिक-त्रि-समासन्नाभूतनिवृत्ति | आसय-प्राशक- त्रिनोजिनि, आचा०५ अ. ज. आशय के,पं०॥ आसतर-अश्वतर-पु. वेसरे, धनि . चू० ॥ स्वकीयदर्शनाज्युपगमे, सूत्र० ११ १. । परिणामे, Er २५ छा० । अभिप्राये. सूत्र, १ श्रु. १५ अध्यवसायविशेष, आसत्त-आसक्त-त्रि० मिलग्ने झा. मी संवासे न०॥ पो०३ विव.। आसत्ति-आसाक्त-स्त्री योगिपरिभाषितेऽर्थे ज्ञा. नेदे स्था. प्रणिधिप्रवृत्तिविनजय, सिद्धिविनियोगभेदतः प्रायः । बाधिर्यकुंचतांधत्वजमताजिघ्रतामुकताकाण्यपंगुत्वक्लैब्योदा - धर्मइराण्यातः शुभाशयः पंचधात्र विधी ॥६॥ वर्तमत्ततारूपकादोन्न्यिवधतुष्टिनवकविपर्ययसिम्यष्टकविप प्रणिधानादिशिरुक्तस्तमेव संख्याविशिष्टं नामग्राहमाह । र्ययलकणसप्तदशवुद्धिभेदादाविंशतिधासक्तिः ॥ (प्रणिधीत्यादि) प्रणिधिश्च वृत्तिश्च यिनजयश्च सिद्धिश्च आसत्तोमत्त-आमक्तोत्मक्त-त्रिक या अवा अधोनूमौ सक्त विनियोगश्च पतएव भेदास्तानाश्रित्य कर्मणि ल्यब्लोपे पंच आसक्तो नमी बन रत्यर्थः सर्व सक्त तत्सकः नमो नमोचने ! मी । प्रणिधिप्रवृत्तिविजयासाईविनियोगभेदतः प्राय इति Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०१) अभिधानराजेन्द्रः । आसयंत प्राचुर्येण शास्त्रेषु धर्मज्ञैर्धर्म्मवेदिनिराख्यातः कथितः शुभा शयः शुभपरिणामः पंचधा पंचप्रकारः । अत्र प्रक्रमे विधौ कर्त. स्योपदेशे । प्रतिपादिताशयपंचकल्यतिरेकेण पुष्टिद्रिय सकणरूयमनुबंधि न भवतीति प्रणिधानादिना स्वरूपमन्यत्र जन्मदनी कर्माशये फ्रेशकर्मविपाकाविरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः पो० टी० पा० ॥ प्राधय पु० श्राश्रयतीत्याश्रयः माकादी देती, अनु० । प्रत्यये, श्राचा. १ अ. । श्राधारे, ऋष्ट. । आलये, स्था. ३ वा. । भजनीये, झा० १० अ. ॥ आस्यक- न० मुखे, झा० ए अ. 1जी. | आचा. ( श्रासेणनत्थि डुरो ) आस्येन मुखेन द० ॥ . ॥ आसमंत आज० गृहति विशे षद्भजमाने म. १३ श. ६ व. आश्रयणीयं वस्तु. न. ११ श. ११ उ. ॥ आसवजेव-आशयजेद-५० अध्यवसायविशेषे, कथमयं परा कोधर्मकान्तारोहरणेन निखिखविरह भाजनं भविष्यतीत्या दिरूपे प्रति० ॥ पो आसपमच आशयमहत्व - २० भाशयस्य चित् १ वि० ॥ आसवावसेस प्राशयविशेष- पु० चित्तोत्खाहातिशये, डा० २१६० ॥ प्रासरयण-- अश्वरत्न - न० चक्रवर्तिनोऽश्वोत्कृष्टे, यक्कसहस्रा घिष्ठितेऽश्वे, स० १४ स० ॥ जरतस्य कमलामेनं नायेणं प्रासरयणं सेणार्या कमेणं समजिरूढे | जं० प्रा० चू० १ स० ॥ स्था० ७ ० ॥ प्रज्ञा० १० पद ॥ अवर्णकः - तणं तं स इमंगलमूसिअं णवण उइमंगुलपरिणाहं सयमंगुलमायतं बत्तीस मंगलमूसित्र्यसिरं चनरंगुकागं वीस अंगुल बाहागं चनरंगुलजाणूकं सोन्झस अंगुल पागं हरंगुलसिपुरं मुनोसीसंवत अमईसि पाप संगयप सावप सजाय - पहुं पसत्यप विसिप एर्ण जाशय विज्ञयघट्टप वित्तलयकसणिवायअं केाष्पहारपरिवज्जियंगं तवणी जासम्महिलाणं वक्खण सृफुलथासगविचित्तरयणरलुपासं च मणि काग पपर गयाणाविह पटिय जानमुचिप्रा जासप परिमंदिरा पण सोजमाणेए सोनमाणकडेयण इंदनी अमरगयमसारगामृहमंण रय आविकमाणिक्कसुत्तग विजूसिं कणगमय परम सुकयतिलकं देवमइविकप्पित्र्यं सुरवरिंदवाह णज्जोग्गं वयं सुरूचं माण पंचवाह चामरा मेल पते अण जवाई अक्षवण कोकासी अवरह्मपचलच्छसेवा वरण नवकरण गतचियतवणि ताजी हासर्पमि अनि घोणं पोक्खरपत्तामिव, सलिलबिन्दु प्रचंचलं चंचल सरीरं चोक्खचरगपरिव्वायगो विवहिलीयमाणं २ खुरचलणचंच पुमेहिं धरणिनं अभिहणमाणं २ दोवि आसरयण अचलणेजमगसमगं मुहाओ विणिग्गमंतं च सिग्घयाए मुणानतंतु उदगमविणिस्साए पकर्मतं जाइकुसरूपव्ययप सत्यबारसावत्तकविसुद्धल्लक्खणं मुकुलप्पसूत्र तेहावि जयं विणीयं प्रणु असुकुमाललोमनिष्ठच्छविं सुजायं अमरमणपवाह गरुडझमाणं सम्यगामि इसिमिव खतिखमाए सुसीसमिव, पञ्चक्रवया विणीयं उदगहुतवहपासायं कदमसकर सता तरुगविसपपन्नार गिरिदरीत्या जपण पिचण गिरणासमत्वं अर्थरुपाम रुपात सुपाति कालतालु च कालर्हेसि जि निहं गवेसं जिअपरिसहं जच्चजातीयममहाणि सुगपत सुवयकामेला जिरामं कमलामे णामेणं श्रासरवणं ॥ टीका ॥ तपणं तं असी इमंगुलमुसिा इत आरज्य सिणावक्रमेण समभिरुदे इत्येतेन सूत्रेण पयोजना । तत इति क्रियाक्रम सूचकं वचनं तं प्रसिकगुणं नाना कमलामेलं अश्वरवं सेनापतिक्रमेण सन्नाहादिपरिधानविधिना समजिरूढ आरूढः किविशिष्टमित्या अशा अंगुत्र मानवि शेषः । नव नवत्र्त्यगुलानि एकोनशतांगुझानि एकोनशतांगुलप्रमाणः परिणाहो मध्यपरिधिर्यस्य तत्तथा । अष्टोत्तरशतांगुलानि श्रायतं दीर्घं सर्वत्र मकारोऽसाकणिकः । तुर ङ्गाणां तुंगत्वं खुरतः प्रारभ्य कर्णावधि परिणाहः पृष्ठपार्श्वेदरांतरावधि । भायामो मुखादिपुच्छमूलं । यदाद पराशरः । मुखादापुच्छकंदे, पृष्ठपायदांतरात आनाद उच्छ्रयः पादा, दियो यावदासनम् ॥ १ ॥ तत्रोश्चत्वसंख्यामेल्लनाथसाकादेव सूत्रदाह ॥ लोचितशिरस्कं चतुरंगुल ( बत्तीसमित्यादि)। द्वात्रिंशदंगुं प्रमाणं कर्म स्वकर्णत्वस्य गलक्षणत्वात् । अनेन कर्णयोरुयत्वेनास्थिरयौवनत्वमभिहितं शंकुकर्णत्वात् हयानां यौवनपाते वनितास्तनयोरिव अनयोः पातः स्यात् । दीर्घत्वात् अत्र योजनीयाः क्रमप्राप्त धान्येन पूर्वकर्णविशेषणं हे पचास अभ्यसका सुबत रत्वात् विंशत्यंगुलप्रमाणा वाहाः शिरोजागाधोवर्ती जानुनोरुपरिवर्ती प्राक् चरणनागो यस्य तत्तथा । चतुरंगुल प्रमाणं जानु जंघ संधिरूपोऽवयवो यस्य तत्तथा। षोमशांगुलप्रमाणा जंघा या च संख्या पूर्वोक्ता असीवर्ती खुरावधिरवयवौ यस्य त तथा चतुरंगुलोच्छ्रिताः खुराः पादतलरूपा अवयवा यस्य त तथा । एषामवयवानामुच्चत्वमीलने सर्वसंख्या पूर्वोक्ता अशी त्यंगु रूपा मकारः सर्वत्राला कणिकः । यतु श्रेष्ठाश्यमानमाश्रित्या लौकिकपराशरथे " जघन्यमभ्यश्रेष्ठानामश्वानामार्यातिये शतं दीनं विशत्या दशभिः परि आनि स्यात् सप्ततिः सप्तसप्ततिः । एकाशीतिः समासेन त्रिविधंस्याद्यथाक्रमम् २ तथा षष्टिश्चतुष्षष्टिरष्टषष्टिः समु ष्यः । त्रिचतयुताः विंशतिः स्यान्मुखायतिः ३ त्य सप्तनवत्यंगुलान्यायति एकाशीत्यंगुलानि परिणाहः भ्रष्टषष्टय गुलाम समुच्छ्रयः समर्पयानि मुखायतिरिक्तमस्ति तद्रथानाश्रित्य तु चरित्नमा विशेषः। पुरुषोत्सेधे सामुद्रिके उसमपुरुषाणामोत्तरशत प्रावधः । उत्तमोत्तमानां तु विशत्सरशतानि अनास्य प्रमाणापेतत्वं सूचितं । सम्प्रत्यवयवेषु सपापति को नाम अध उपरि च सणांमध्ये Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०२) आसरयण अभिधानराजेन्द्रः। आसरयण त्वीपहिशाला कोष्ठिका तत्संवृत्तं सम्यग्वर्तुलं वसितं नम- यस्य तत्तथा । कचित्पागन्तरेतु (सिरिसातिसे अघोण)मिति नस्वन्नाव नतु स्तब्धमध्यं यस्य तत्तथा । परिणाहस्यमध्यपरि- दृश्यते तत्र शिरीषं शिरीषपुष्पं तब्दातश्वेताघाणायस्योत धिरूपस्य चैव चित्यमानत्वाचितेयमुपमा । ईषदंगुलं याव- तथा पुष्करपत्रमिव कमरदरमिव समिक्षस्य बिन्दवोयत्र त्प्रणतं नतु प्रारब्ध अतिप्रणतस्योपवेष्टुपुःखावहत्वात् पृष्ठे प- तदेवं विधं कोयः यथा पुष्करपत्र जलान्तस्थ वाताहतजलयोयस्थानं यस्य तत्तथा आरोहकसुखावहपृष्ठकमित्यर्थः । स- बिन्ध्युतं भवति । तथैतदपि सनिलं पानीयं बावण्यमित्यर्थः । म्यग् यथा क्रमेण नतं पृष्ठ यस्य तत्तथा। सुजातं जन्मदोषरहितं तस्य बिन्दवः वटास्तैर्युतं बिन्दुगृहणेनात्र प्रत्यंग लावण्यं पृष्ठं यस्य तत्तथा । प्रशस्तशालिहोत्रसवणानुसारि पृष्ठं यस्य सूचितं बोकेऽपि प्रसिम्मेतत् । मुखेऽस्य पानीयमिात अचंच तत्तथा । किंबहुना विशिष्टपृष्ठं प्रधानपृष्ठमिति यावत् । उक्तं झं स्वामिकार्यकरणे स्थिरं साधुवाहित्वात् चंचलं शरीरं जापृष्ठे पर्याणस्थानवर्णनं । अथ तत्रैवावशिष्टभागं विशिनष्ट। तिस्वन्नावात् । अथ यदि चंचझाङ्गस्तदायुमध्यवस्तुस्वापस्वाएणी हरिणी तस्या जानुवदुन्नतं उभयपार्श्वयोर्विस्तृतञ्च च- ङ्गप्रवर्तको भविष्यतीत्याह । चोक्कः कृतस्नानश्वरको धाटिभि रमभागे स्तब्धं सुदृढं पृष्ठं यस्य तत्तथा। वेत्रो जलवंशःवता वा काचर परिव्राजको मस्करी ततश्चरकसहितः परिव्राजकश्चकशा चर्मदएहस्तेषां निपातास्तैस्तथा अंकेवणप्रहारस्तर्जक रकपरिवाजकः प्रथमा द्वितीयार्थे । नचोकपरिव्राजकमिव प्राविशेषाघातैश्च परिवर्जितं अश्ववारमनोऽनुकूलचारित्वात् कृतशैल्याअकारप्रश्लेषादभिलायमानंअधुनिः संसर्गशंकया आत्मानं संवृण्वान्ति आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विवचनम्। अंगं यस्य तत्तथा । तपनीयमयाः स्थासका दर्पणाकारा अभ्वारकारविशेषा यत्र तदेवंविधं अहिराणं मुखसंयमनविशेषो एवमग्रेऽपिभाज्यं । अथाऽस्य क्रियाविशेषैर्जात्यत्वं नक्कयति खुयस्य तत्तथा । वरकनकमयानि सुष्ठ शोभनानि पुष्पाणि स्था रप्रधानाचरणाखुरचरणास्तषां चंचुपुटा आघातविशेषास्तैर्धरसकाच तैर्विचित्रा रसमयी रज्जुः पार्श्वयोः पृष्ठोदरान्तवर्त्य णीतत्रमजिन्नदननुनूतविलेखनं सामान्यतःपुंसश्वाऽश्वस्योपवयवविशेषयोर्यस्य तत्तथा । बध्यते पट्टिकाः पर्याणदृढीकर बकणमिति एतस्य लवणत्वेन शालिहोत्रे प्रतिपादनाद्यतः णार्यमश्वानामुभयोः पार्श्वयोरिति कांचनयुतमणिमयानि के "खुरैःखनेद्यः पृथिवी मश्वोरोकोत्तरः स्मृतः" इति। अश्ववारप्रवनकनकमयानि च प्रतरकाणि पत्रिकाभिधाननूषणानि अन्त योगनर्तितोहिहयोग्रपादावुदस्यति तत्रास्यशक्तिविशेषणहारण रान्तरीयेषु तानि तथानूतानि नानाविधानि घटिकाजामानि दर्शयति द्वावपि च चरणौ यमकसमकं युगपन्मुखाद्विनिर्गम मैक्तिकजालकानि च तैः परिमांमतेन पृष्ठोन शोभमानकर्केतना दिव निस्सारयदिव कोऽर्थः । श्वमग्रपादावर्या नयत्तथा मुखान्तिकं प्रापयति यथा जन उत्प्रेक्वते श्मौ मुखाद्विनिर्गदिरसमय मुखमंझनाई रचितं आधिकमाणिक्यं प्रोतमाणि मयति पुनः क्रियांतरदर्शन तद्विशिनाष्ट । शीघ्र तया क्यसूत्रकं हयमुख नूषणविशेषणविशेषस्तेन विभूषित कनक बाघवविशेषेण मृणानं पद्मनावं तस्य तंतुः सूत्राकारोऽव मयपमेन सुष्ठ कृतं तिसकं यस्य तत्तथा देवमये न स्वर्गिचातु यविशेषः सच उदकं च ते अपि निश्रयावसंव्य प्रास्तामन्य येण विविधप्रकारेण कस्पितं सर्जितं । सुरवरेन्प्रवाहनमुचैः दुर्गादिकं प्रक्रामत् संचरत् । अयमर्थः । यथा अन्येषां संचरिश्रवा हयस्तस्य योग्य मंत्रकरणाच्यासस्तस्या बजगताद- ष्णूनां मृणालतंतूदकादावष्टंभकेन भवतः तथा नास्यति सूत्रे त्यस्य ल्युप्रत्यये वजनं प्रापकं । ये गत्यर्थास्ते प्राप्त्या इतिवच- चैकवचनमार्षत्वात् तथा जातिर्मातृपक्का कुलं पितृपक्का नात् । अयंभावः। यादर्श खुरलीं अयमुचैःश्रवाः करोति तार- रूपं सदाकारसंस्थानं तेषां प्रत्ययो विश्वासो येन्यस्ते च ते शोऽयमपि । अत्र षष्ठपणे कितीया प्राकृतत्वात् । यथासरूपं प्रशस्ताः प्रदक्विणावहत्वात् शुभस्थानस्थितत्वाश्च ॥येद्वादसुंदर वंति इतस्ततो दोलायमानानि सहजचंचप्साङ्गत्वा- शावर्तास्ते यत्र तत्तया बहबीहिलक्कण का प्रत्ययः । बन्जालमौलिकमंध्यमूलविनिवेशितत्वेन पंचसंख्याकानि या- विशुद्धा निर्दोषा मिश्रितानि बकणानि अश्वशास्त्रप्रसिद्धाने नि चाहाण चामराणि तेषां मेझक एकस्मिन् मूळनि संगमस्तं यस्य तत्तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । द्वादशा धरम्हत्वामरा इत्यत्र स्त्रीनिर्देशःसमयसिक एव । गौममतेन वर्ता श्च श्मे वराहोक्ताः । “ये पाणि गलकर्णसंस्थिताः वा चामरा इत्यादन्तः शब्दः । अत्रापमिशब्दे व्याख्यायमाने मू पृष्ट मध्यनयनोपरि स्विताः । ओष्ठसक्थिजकुक्तिपार्श्वगास्तेविंकारएवोक्तोभवात नतु कर्णाद्यसंकार-दृश्यतेस्रोके एकंचा ललाटसहिताः सुशोभनाः ॥ १॥ अत्रवृत्तिलेशः । प्रपाणमरं मर्धा संकारजूतं चामरं एकंच कर्णालंकारभूतं एकंचभाला मुत्तरोष्ठतलं गलः कं यत्र स्थित आवों देवमणिनाम संकार नूतं एकं च कंगसंकारजूतान्नति तेनयोक्तव्याख्यानमे हयानां महाबवणतया प्रसिकः। कर्णी प्रतीतौ एतेषु स्थानषु व सुन्दरं । अथ देवमतिविकल्पितादिविशेषविशिष्ट उचैःश्रवा संस्थितास्तथोष्ठपर्याणस्थानं मध्य प्रतीतं । नयने आप नामशकहयोऽपिस्यादित्याह । अनभ्राचारीबाहोऽश्वानुचैः श्र तथैव तपरि स्थिताः तथा प्रोष्ठी प्रतीती। सक्यिनी वास्तदन्य (अदम्जवाहमिति ) पाठे तु अदन नूरि बहतीति पाश्चात्यपादयोर्जानूपरिजागनुजौ प्राक्पादयोर्जानपरिगःकुक्ति अदनवाहस्तत् अनेलेदोषादिना असंकुचिते नयने यस्य तत्त रत्नवामो दविणकुदयावर्तस्य गर्हितत्वात् ॥ पाश्वौँ प्रसिद्धी था । अतएव कोकासिते विकसिते बहले दृढे अननुपातित्वात तमताः बलाट प्रतीतं तदावर्तनासहिताः अत्र कर्ण नयनादिपत्रझे पदमवती नतु पैद्रनुप्तिकरोगवशाडोमराहते अतिणी स्थानानां द्विसंख्याकत्वेऽपिजात्यपेक्वतया हादशव स्थानानि यस्य तत्तथा । सदाचरणे शोनार्थ दंशमशकादि स्थानभेदाऽनुसारेण स्थानिनेदा अपि हादशैवेति ॥ तथा रतार्थ वा प्रच्गदनपटेन च कनकानि नव्यवस्तुवर्णानि सुकुलप्रसूतं हयशास्त्रोक्तं कृत्रियाश्च पितृकं मेधावी स्वामी यस्य तत्तथा । स्वर्णतंतु स्यूतप्रच्चन्दनपटमित्यर्थः । तप्तं पदसंझादि प्राप्ताशेधारकं अदुष्टं विनीतं स्वामीकारित्वात् । तपनीयं तदरुणे तालुजिव्हे यत्र तदेवं विधमास्यं यस्यत. अणुकतनुकानामतिसूक्ष्माणां सुकमायानां झोम्नां स्निग्धा तथा । ततः पूर्वविशेषणेन कर्मधारयः । श्रीकाया सदम्या वि यत्र तत् तदा । सष्ठ यानं गमनं यस्य तत्तथा । अमरअनिषेकोऽभिषेचन नाम शारीरसकणं घोणायां नासिकायां मनः पवनगरुमाप्रतीताःतान वेगाधिषधे न जयतीति अमरमनः Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसरह पवनगरुरुजाय अतएव चपलं शीघ्रगतिकं पश्चात्पदद्वयस्यक र्मधारयः । कांत्या क्रोधाभावेन नत्वसामर्थ्येन या कमा तया ऋषिमिवानगारमिव कुमाप्रधानत्त्वात्तस्य न चरणयोत्तादा यकं । न तु मुखेन दशकं न च पुच्छाघातकरमिति । सुशिष्यामेव प्रत्यतो चिनी । अत्र ताकार: प्राकृतरीत्री भवस्तेन प्रत्यक्aविनीतं । उदकं हुतवहोऽग्नः पाषाणः पांशुः रेल कमः शर्कर धूप स्थानं सवालु । अत्रार्थ प्रत्ययः । बहुमसिकताका स्थान तरं नदीत करको गिरिनितंब विषमप्राग्भारी प्राग्वत् । गिरिदर्यः प्रतीताः । तासु अंचनमतिक्रामणं प्रेरणं आगस्य पुंसोऽनिमुखे दर्शनघाचना दिना संज्ञाकरणपूर्वकं प्रवर्तनं निस्तारणा तत्पारप्रापणा त समर्थनाभरणापातितंवत् पततीत्येवंशी दंरुपाति अतर्कितमेव प्रतिपक्कं स्कंधावारे पतनशीलं अनेना Sस्योत्पतनस्वभावोऽपि सूचितः । मार्गादिखेदेष्वपि नाश्रुपातय सीत्येवं शीलमनपाति तथा अाता श्यामतापूर्व रक्ततावर्णितेऽपि यत्पुनरकालताल शति विशेषणं तत्ताबुनः श्यामत्वमतीतरामपलचणमिति तनिषेधख्यापनार्थ चः समुये काकानां राजनिर्णयार्थकाधिवासनादिके समये द्वेषते शब्दायत्येवं शीलं कामदेषि जितार्नाभासस्ययेन तत् जितनिषं । त्यक्तावस्यमित्यर्थः । कार्येष्वप्रमादित्वात् यथा श्रुतायें व्याख्यायमाने हयशास्त्रविरोधस्तथाहि । "सदैव निद्रा वरागा, निषा च्छेदस्य संभवः । जायते संगरे प्राप्ते, कर्मा रस्य च नकणे " इति । यद्वा जितनिषत्वं समावसर प्राप्तत्वा दभ्वरत्नत्वेनात्पानिधाकत्याच तथा] गवेषकं पोस गोदो उचितानुचितस्थानान्वेषकं । जितपरिषद शीता तपाद्यातुरत्वेऽपि अखिश्नं जात्यं प्राधान्या जातिर्मातृप कस्तत्र भयं जाये जातीय निर्दोष निर्दोषत्वं तु प्राणको हिसमये स्वामिने नम यगतस्वकारणत्वात् व्यतिकरः प्रकृतिचिन्तितखामिोहक शोरवत् मल्लिचिल्लिकुसुमं तत्त्रं श्रश्लेष्मत्वेनाना विलिप्तपूतिगंधिच घ्राणं पाथो यस्यतन्तथा । इकारः प्राकृत शैक्षी नवः । ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः । शुकपत्रवत् शुक पिच्छत् सुवर्णो यस्य तत्तथा । कोमलत्वं कायेन ततः पदद्वयस्य कर्मधारयसमासः मनोभिरामम् । जं. टी. ॥ ग्रासरह अश्वरथ- पु० अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः ज्ञा०१ अ. अश्व. युक्तोरथोऽश्वरथः । अश्वेन युक्ते रये, ( चानुग्घंटं श्रासरयणं डुमुढे ) नि० सू० १३ अ. । ( ५०३ ) अनिधानराजडः । आसराय प्रवराज पु० नगरे जाते पोरपाट महमने गुर्जरयधिपती, अहिल वाचपट्टणे य पोरवाल कुलमंरुणा आसराय कुमरदेविलणया गुजरधराहिवई । प्रधानेऽश्वे, स्था० ५ ० । आमव आसव पु० अपकायतेजस्काय पचनचनस्पतिकायादि पिएकरूपे । पिं० । मूत्र खर्जूरसार निष्पन्ने, प्रज्ञा० पत्रादिवासक द्रव्यभेदादनेकप्रकारे निर्याससारे, जी० मादकरसे अ. कुसुमोत्पन्न मधे उत्त० । चंद्रहासादिके, रा० । आश्रवश्रवति यत् करति जलं यैस्ते आश्रवाः सूक्ष्म रंध्रेषु भ० । अशोत्यादत्ते कर्म्म येस्ते आश्रवाः । धर्मः । अनवति प्रविशति कम्मं येन स श्राश्रव । सूत्र० । श्राश्रवति अष्टप्रकारकं कम्म येन स । ग्रा० सम्म आधीयते उपाज्येते कर्म्म पभिः इत्याश्रवाः । प्रव० | उत्त० । प्राणानिपात मृषावादादन्तादानमै युनमिय्यात्वादिए । आव. । परिग्रह सणं या । श्राचा० रा० । विषयकपायादिकेषु वा । - आसवजावणा आचा० । श्रो० । सू० । कर्म्मप्रदेशद्वाररूपेषु० । सू० पापोपादानकारणेषु । ग० औ० । रागे आसवे । आश्रवति प्रविशन्ति येन कर्म्माल्यात्मनीति आश्रवाः कर्महेतुरिति नावः । स्या० | ar० । ( एगे आसवे ) आश्रवंति प्रविशति येन कर्मापात्मनीति आवक कम्बन्धहेतुरितिनाचः । सर्वेन्द्रियकपाया व्रतक्रियायोगरूपक्रमेण पंचचतुः पंचपंचविंशतिनेदः । उक्तञ्च । इन्द्रिय | कसाय ४ अन्वय ५ किरिया २५ पण चन अपंच पणवीसा | जोगतिणेव भवे आसो भयाउ वाया बन्ति । तदेवमयं द्विचत्वारिंशति धोऽथवा द्विविधो व्यभावनेदात्तत्र इज्याश्रवो यज्जल्लान्तरगतावादी तथा प्रवेशनामावा आवस्तु पीपानाम्यवेन्द्रियादितिः इति सावाश्रव सामान्यादेक एवेति । सम० । स्था० ॥ श्रचा० । कर्म ० प्र० । जे आसवाते परिस्सवा । श्राचा० । य इति सामान्य निर्देश आश्रवत्यप्रकारं कर्म यैरारंभैस्ते श्राश्रयाः परिसमा गति तुष्टानविशेषले परिश्रवाः यएवाश्रवाः कर्मबन्धस्थानानि तएवपरिश्रवाः ॥ कर्मनिर्जरास्पदानीमुक्तं धयति । यानीतरजनाचरितानि गंगनादीनि सुखकारणतया तयाने कर्मबन्धहेतुत्वादाश्रयाः पुनस्तान्येव तत्वचिदां विषय सुखरामुखानां निरसारख्या संसारसरणिदेश्यानीति कृत्वा वैराग्यजनकान्यतः परिश्रवा निर्जरास्थानानि आश्रवतीत्याश्रवः कर्मबन्धके आचा० ४ अ० ६ उ. । आश्रवति तान् शोभनत्वेनाशेोजनत्वे वा गृह्णातीत्याश्रवाः । सूत्र० १ ० १४ अ आ समन्तात् शृएवंति गृएहर्त । गुरुवचनमाकर्णयतीत्याश्रवाः उत० १ . गुरुवचने स्थिते । tear वचने स्थित इति हैमः बत० १ अ. । आसत्रणिरोहजाव-आश्रयनिरोपाव-पु० आधवस्य कमी दान देतोरचिरस्यान्तरार्थस्य निरोधो निषेधा परतस्थ यो जावः सत्ता स तथा संवरसत्वे, पंचा० । वृ० । आसवदार - आश्रवधार न० | आस्रवणं जीवतमागे कर्मजलस्य संगनमाश्रवः कर्मबन्धनमित्यर्थः । तस्य धाराणीव द्वारा णि उपाया आश्रवदाराणि स्था० ५ ० । कर्मोपादानोपायेषु मिथ्यात्वादिषु । स. १. स. । पंच आसवदारा । प० मिच्छतं विरई जोगा | आव० १ ० ॥ पमाया कसाया आप च । प्राणातिपातादिषु । स्था० । आव । श्रचा ० । अये गोवा पाणी, जेएम सिं आसवदारे णिरोहादि इयरहे पसोक्खंचरे। महा० || आसवजावणा-याश्रवनावना- स्त्री । आसवतत्वालोचने, ध डा. आश्रवभावना चैवं । मनोवा कायकर्मणि योगाः कर्म शुजानं । यहाति जंतूना माधवास्तेन कीर्तिताः ।। १ । मैत्रयादिवासितं चेतः कर्म स्यूते शमात्मकं । पापा वतनोपरानं मनः ॥ २ ॥ तन्त्र मंत्र सर्वेषु सत्वेपु. प्रमोदेन गुणाधिके । मायाविनीते. कृपया दुःखितेषु वा ॥ ३ ॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) भासवमाण अभिधानराजेन्द्रः । आसाढभू सततं वासितं स्वातं, कस्यचित्पुण्यशालिनः। आस्वादयत्-त्रि० श्दवादेरिव ईषत्स्वादयति बहु त्यजात च वितनोति शुनं कर्म, विचत्वारिंशदात्मकामति ॥४॥ आचा. कल्प० । वि०। तथा-श्रुनार्जनाय निर्मिथ्यं, श्रुतझानाश्रितं वचः । आसागह-आशाग्रह-पु० चित्तन्याकेपकारित्वात् प्रतुल्यविपरीतं पुन:य, मानार्जनहेतवे ॥५॥ वांगयाम्,। शरीरेण च सुप्तेन, शरीरी चिनुते शुजं । आराध्य नूपतिमवाप्य ततो धनानि, जोक्ष्यामहे किल्ल सततारंजिणा जंतु, घातकेनाशुनं पुनः॥६॥ वयं सततं सुखानि । इत्याशया बत विमोहितमानसानां, कषायविषया योगाः, प्रमादाचरती तथा । कामः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् ॥१॥ एहिगच्छ मिथ्यात्वमातरौ चे, त्यानं प्रति हेतवः ॥ ७ ॥ पतोत्तिष्ठ वद मौनं समाचर । इत्याद्याशाग्रहग्रस्तैःक्रीनि नन्वते बंध प्रति हेतुत्वेनोक्ताः । यदाह वाचकमुख्यः । मिथ्या धनिनोऽर्थिनिःश आचा०॥ दर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव ति सत्किमाश्रष- आसाढ-आषाढ-पु । आषाढी पूणिमा यत्र मासे स प्राषाढः । भावनायां बंधहेतूनामेतेषामनिधानं सत्यं प्राश्रवनावबंध आषाढीपूर्णिमा घटिते मासे,। आषाढे मासे सकृत् कर्कसंक्रां जावनापि महर्षिनिर्भावनात्वेनोक्ता । आश्रवभावनयैव गता तौ उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति । स०१७ स.। र्थत्वात् आश्रवण कषायात्ताः कर्मपुत्रा आत्मना संबद्यमाना आसाढणं मासे एगूणतीसं राइंदिआई राइंदियणेणं बंध इत्यभिधीयंत यदाह सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान प० । स. २ए स. ॥ पुत्रानादत्ते सबन्धः स्यात् इत्यतोऽपि कर्म पुयादानहेतावाश्रवे बंधहेतूनामभिधानमदुष्टुं । ननु तथापिबंधहेतूनां आषाढपुनिमारण नकोसपए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे पायो निरर्थका नेवं बंधाश्रवयोरेकत्वेनोक्तत्वादाश्रवहेतूनामे- जव जहनिया ज्वालसमुहुत्ता राई नव न० ११ श. वायं पात इति सर्वमवदातमिति । १? उ. । उत्त०।२६ अ. ॥ पासवमाण-प्रास्रवत्-त्रि० शनैः प्रस्रवति-(उदयं आसवमाणं आव्यक्तिकनिन्हवानां धर्माचार्य, । विशे० । वा. । आषाढो पेहारा) आचा४ अ. १ उ.। येन हि श्वेतांब्यां नगर्या पोझासा उद्याने च शिष्याणां प्रतिपन्ना पासवर-प्रश्नवर-पु० अश्वानां मध्ये प्रधाने-औ भए गाढयोगानां रात्रौ हृदयाबेन मरणमासाद्य दिवेन सूत्वातदश.३३ उ.. नुकंपया स्वकीयमेव कोवरमधिष्ठाय सर्वी समाचारीमनुप्रव आसवसकि-(ए) आस्रवसक्तिन्- त्रि० आस्रवा हिंसाद- तयता योगसमाप्ति शीघ्र कृत्वा वंदित्वा तानभिहितं च कमयस्तेषु सक्तं संगं आस्रवसक्तं तद्विद्यते यस्य प्रास्रवसक्ती णीयं भदंता! यन् मया यूयं चंदनकारिताः यस्य च शिष्या हिंसाधनुषंगवति, आचा०। ५ अ.१ उ.। श्यचिरमसंयतो वन्दितोऽस्माभिरित विचिंत्या व्यक्तमतमा श्रिताः । स्था. ग.७। उज्जयिन्यामवधाविते स्वनामख्याते आसवार-प्रश्ववार-पु. अश्वारुढपुरुषे-भाएश. ३३ उ.। ततो आसवारेण विछो-आम॥ प्राचार्यच । स्थिरीकरणशब्दे कडा० । निचू।। आसवोदगा-आसवोदका-स्त्री० आसवमिव चंद्रहासादिपर आसाढपाभिवया-आषाढपतिपत-स्त्री० । प्राषाढपूर्णमास्या मासवमिवोदकं यासांताः आसवोदकाः । आसवमिष्टोदकासु अनन्तरा प्रतिपदाषाढप्रतिपत् । श्रावणकृष्णप्रतिपदि, स्था। वापीषु । जी०३प्र. रा०। ग. ॥ श्राससेण-अश्वसेन-पु० चतुर्दशे महाग्रहे जं-कल्प० । पार्श्व- आसाढलूइ-आषाढति-पु. धर्मरुचिसरिशिष्ये, पिाम | जिनपितरि, साकल्प भरतकेत्रेऽवसर्पिल्या जातस्य चतु- | विश्वकर्मा नाम नटः तस्य दुहितरौ ते च भप्यतिसुरूपे र्थचक्रिणः पितरि, स०। आव० । अतिशयातेयेनवदनं कात्या दिनकरफरोज़ासितकमाश्रियं नयप्रासा-आशा-स्त्री० वांगयाम् शा० १ अ. तं। इच्छाविशेष नयुगलेन चंचरीककुवघलययुगनं पीनोन्नतनिरंतरेण पयोधप्रश्न० । भोगाकांक्षायाम् । आसंच बंदं च निगिव धीरे रयुगओन संहतताक्षफलयुगझं बाहुयुगलेन सपववासताः आचा० । आहारोपकरणगणस्वजनशरीराधनाभध्वंगरूपाया- त्रिवनिगुरेण मध्यभागेनेंद्रायुधमध्यं जधनविस्तरेण जान्हमिच्चायाम् । अनु० । अप्राप्तार्थानां प्राप्तिसंभावनायाम् घीपुलिनदेशं करुयुगलेन गजकनभनासाजोगं जंघायुगोन औ०। परसत्ववस्तुप्राप्त्यनिसाषे । आतु.। कुरुविंदवृत्तसंस्थितिंचरणयुगलेन कूर्मदेहाकृति सुकुमारतया प्रासाइ जो पहुत्तं, देइ सदा सत्तमप्पणो वस्स । शिरीषकुसुमसंचयं वचनमधुरतया वसंतमासोन्मत्त कोकि सारवं अन्यदा च तत्र यथाविहारक्रमं समाययुः । धर्मरुचयो इय सम्बत्थमूझा, परिहरियव्वा सया अासा ॥संघा.।। नाम सूरयः। तेषामंतेवासी प्रज्ञानिधिराषाढभूतिः स भिक्वार्थउत्तररुचकपर्वतस्य विजयकूटवासिन्यां दिकुमाराम् । स्था. मटन् कथमपि विश्वकर्मणो नटस्य गृहे प्राविशत् । तत्रच ग. ही। विशि, च वाच। सन्धः प्रधानो मोदकः हारे च विनिर्गत्य तेन चिंतितमेष प्रामाई-आश्वयुजी-स्त्री० अश्वयुगश्विनी तस्यां नवाइवा. सूरीणां नविष्यति तत आत्मार्थ रूपपरावर्तमाधायान्य युजो । आश्विनेयमासनाविन्याममायां पूर्णिमायां । जं.। मोदकं मार्गयाम ततः काणरूपं कृत्वा पुनः प्रविष्टो सम्धा प्रासाएनाण-आशातयत्-त्रि० आशातनां कुर्वति । स्था० द्वितीयो मादकः । ततो नूयोपि चितितं एष उपाध्यायस्य ४ग.। जविष्यति । ततः कुब्जरूपमभिनिर्वयं पुनरपि प्रविष्टः सन्धः Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०५) भासाढभज्ञ अभिधानराजेन्द्रः । मासाढा सृतीयो मोदकापष द्वितीयसंघाटकसाधीभविष्यतीति विचित्य नूमिकाया उपरि सुप्ते तिष्ठतः। राजकुस परराष्ट्रदूतः समाकुष्टिरूपं कृत्वा चतुर्थवेसायां प्रविष्टः बन्धश्चतुर्थो मोदकः ए- यात इति राको व्याकेपो बत्तूव । ततो मयसर इति कृत्वा तानि च रूपाणि कुर्वन् माझोपरिस्थितेन विश्वकर्मणा नटेन प्रतीहारेण मुत्कबिता सर्वेऽपिनटाः समागता स्वं स्वं प्रवन परशे। चिंतितं चानेन सम्यगेषोऽस्माकं मध्ये नटो नवति । आषाढभूतिश्च निजावासे समागत्य यावत् हितीयत्तूमिका पर केनोपायेन स यतितव्य ति। एवं च चिंतयतः समुत्पन्ना मारोहति । तावत्ते के अपि निजभार्ये विगतवरबीभत्स्ये तस्य शेमुषी पुहिन्यां कोभयित्वा ग्रहीतव्य इति। ततो मा- पश्यति ततः स महात्मा चिंतयत् अहो मे मूढता अहो मे सापुत्तीर्य सादरमाकार्यापाढनूतिः पात्रतरणप्रमाणैर्मोदकैः निर्विवेकता, । अहो मे पुसिसितं, यदेतारशमप्याचिकरप्रोभितः जणितश्चासावहो जगवन् ! प्रतिदिवसमस्माकं भ. मकतूतानामधो गतिनिबंधनानां कृते परमशुचिततमिह परत.दानग्रहणेनानुग्रहोऽनुविधातव्यः ततो गतस्वोपाश्रयमाषाढ- लोककल्याणपरंपराजनकमाकेपेण मुक्तिपदनिबंधनं संयमऋतिरकथयश्चांते रूपपरावर्तनवृत्तांतं विश्वकर्मा निजकुटुंबस्य मुकाम्बनूव ततोऽद्यपि न मे किमपि विनष्टमपि, गच्छामि भणिते च दुहितरौ यथा सादरं दानस्नेहुदर्शनादिना तथाक गुरुपादांतिकं, प्रतिपये चारित्रं, प्रकासयामि पापपंकमिति, र्तव्यं । यथा युष्माकमायत्तोभवति प्रतिदिवसमायाति च भि विचित्य गतो गृहात् । दृष्टः कथमाप विश्वकर्मणा सक्कित क्षार्थमाषाढतिर्दुहितरावपि तथैवोपचरतः ततोऽत्यंतमनुरक्त इंगितादिना यथा विरक्त एष यातीति ततः सत्वरं निजदुमवगम्य रहसि भणितो यथायमत्यंतं तवानुरक्तस्ततोऽस्मान् हितरावुत्थाप्य निर्नयति । हा दुरात्मके ! हीनपुण्यचतुर्दपरिणीय त्वं परिक्वेति अत्रांतरे च तस्यादयमियाय चारि- शीके ! युष्महिलसितमेतादशमवलोक्य सकानिधाननूतो प्रावरणकर्म गलितो गुरूपदेशः प्राणे सति विवको दूरीनूतः युष्यार्ता विरक्तो यातीति तद्यदि निवर्तयितुं शक्नुथस्स्तर्टि कुलजात्यनिमानस्ततस्तेनोक्तमेवं भवतु परमहं गुरुपादांतिके निवर्तयथो नो चेतू प्रजीयनं याचव्यमिति ततस्ताः सनम सिंगं विमुच्य समागच्छामि गतो गुरुसमीपं प्रणतस्तेषां पाद: परिहितवसनाः पृष्ठतः प्रधाव्य गच्छतः पादयोःम्ना घदंति युगलं प्रकटितो निजाभिप्रायः। ततो गुरुभिरवादि वत्स! नेदं चाहा स्वामिन् ! कमस्वैकमपराधं निवर्तस्व मास्माननुरक्ताः युष्मादृशां विवेकरलैकशरणानामवगाहितसकशास्त्रार्थाना परिहर एवमुक्तोपि स मनागपि चेतसि न रज्यते ततस्तामुमयझोकजुगुप्सनीयं समाचरितुमुचितं । तथा(दीहरसी संप न्यामवाचि । स्वामिन् ! यद्येवं तर्हि प्रजीवनं देहि येन पश्चा रिपालि, ऊण विसपसु वच्छ मार मसु । को गोपयमि बुमर उपस्ति रिजण बाहाहिं )श्त्यादि । तत उधाचाषाढतिर्नग दपि युष्मत्प्रसादेन जीवामस्तत एवं अवस्थिति दाक्किएयववन् ! यथा ययमादिशथ तथैव केवलप्रतिकूलकर्मणोदयः । शादनुमत्य प्रतिनिवृत्तः । ततः कृतं भरतचक्रवर्तिनश्चरितप्रतिपकभावनारूपकवदुर्वतया मदनावरेण निरंतरं समुत्र प्रकाशकं राष्ट्रपालं नाम नाटकं । ततो विज्ञप्तो विश्वकर्मणा सिंहरथो राजा । देव! श्राषाढतिना राष्ट्रपासं नाम नाटके स्यमृगनयनरमणीकटाकविशेषोपनिपातमादधता शतशो मे विरचितं । तत्संप्रति नर्त्यतामिति । परं तत्र राजपुत्रपंचशनेजर्जरीकृतं हृदयं एवं चोक्त्वा गुरुपादान् प्रणम्य तदंतिके रजो राजरणविनूषितैः प्रयोजनं । ततो राका दत्तानि राजपुत्राणां हरणं मुक्तवान् । ततः कथमहममीषामनुपकृतोपकारिणाम पंचशतानि तानि यथातथमाषाढनूतिना शिक्वितानि ततः पारसंसारोदधिनिमग्न जंतुसमुकरणकचतसा सकसजग प्रारब्ध नाटकं नर्तितुं तत्र आषाढतूतिना शिकित श्दया स्परमबंधुकल्पानां गुरूणां पृष्ठं ददामीति पश्चात्कृतपादप्रचारो कुवंशसंनतो जरतश्चक्रवर्तिपदस्थितो । राजपुत्राश्च यथायोगं हा कथमहं नूयोऽप्येवंविधगुरूणां चरणकमर्स प्राप्स्यामीति कृताः सामंतादयः । तत्र च नाटके यया भरतेन भारतं घटविचिंतयत् वसतेर्विमिर्गत्य विश्वकर्मणो भवनमायातः । परि खंझ प्रसाधितं । यया चतुर्दशरत्नानि नव महानिधयः प्राप्ता भावितमस्य सादरमनिमपस्या नरदुहितृपयां वपुः प्रत्य यथा बा दर्शगृहावस्थितस्य केवालोकप्रादुर्जावो, यथा च भासत । सकलजगदाश्चर्यमस्य रूपं ततोप्यचिंतयतामिमे अहो पंचशतपरिवारेण सह प्रवृज्या प्रतिपना तत्सर्वमप्यानिनीयने कौमुदीशशांकममममिवास्य मनोहरकांतिवदनं, कमसदस ततोराज्ञा बोकेनच परितुष्टेन सर्वेणापि यथाशक्ति हारकुंमलायुगनमिव नयनयुगात्रं गरुत्मत श्व तुंगमायतं नासानावं कुंद दीन्याभरणानि सुवर्णवस्त्राणि च प्रदत्तानि । ततः सर्वजनानां मुकुनश्रेणिरिव सुस्निग्धा दशनपरुतिः, महापुरकपाट मिव धर्मना प्रदाय पंचशतपरिवार आषाढ तिर्गतुं प्रावर्तत । विशालमस्य मांस, वकःस्थतं मृगरिपोरिव संवर्तितः कटि ततः किमेतदिति राझा निवारितस्तेनोक्तं किं नरतश्चक्रवतीप्रदेशो निगूढजानुप्रदेशं जंघायुगलं सुप्रतिष्ठितकूर्मयुगअभिव प्रव्रज्यामादाय निवृत्तायनाई निष। ति गतः सपरिधारी चरणयुगलं ॥ ततो विश्वकर्मा प्रयोचत् महानाग तवायत्ते गुरुसमीपं वनाजरणादिकं च समस्तं निजनार्याच्यां दत्तवान् अप्यम् कन्यके ततः स्वीक्रियतामिति । ततः परिणीते ते हे तश्च प्रजीवनकं किन्न तयोर्जातं । गृहीता दीका तदपि च अपि तेन कन्यके जणिते च विश्वकर्मणा यो नामैतादृशीमप्यवस्थां गतो गुरुपादान् स्मरति सनियमादुत्तमप्रकृतिः । तत नाटकं विश्वकर्मणा कुसुमपुरे नर्तितुमारब्धं । तत्रापि पंचशएव निकावर्जनार्थ सर्वदैव मद्यपानविरहितानियुष्माभिः तसंख्याः कृत्रिया प्रव्रजतो निक्कत्रियां पृथिवीं करिप्यंतीति स्थातव्यं । अन्यथैष विरक्तो यास्यति । आषाढभूतिश्च सकल नाटकपुस्तकमग्नी प्रवेशितं । पि० । मायापि श्दमुदाहरकलाकलापपरिकानकुशलो नानाविधैर्विज्ञानातिशयैः सर्वे पामपि नटानामग्रणीतष ततस्ते च सर्वेपि नटाः स्वां स्वां आषाढा-पापाढा-स्त्री० नक्कत्रभेदे (दो प्रासादा) स्था०२ युति स्तस्वमहे विसुप्य च राजकुअंगता । आषाढनूति । प्राषाढे पूर्वाषाढा नतराषाढा च-धाच० । । मार्याच्यामपि चितितमद्य राजकुले गतो ऽस्माकं प्रर्ता सक- आसाढायरिय-आषाढाचार्य पुं०आव्यक्तिकनिन्हवाचार्यश्री। लामपि च सा गमयिष्यति । ततः पिबामो यथेच्चमासच-1 प्रासाडी-आषाढी-स्त्री०आषाढानत्रयुक्ता पूर्णमासी पापाई। मिति तथैव कृतं । मदवशायपगतचेतने विगतवने मितीय प्राषाढमासभाविन्यां पर्णिमायाम-सू० च. आव०। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासापास अभिधानराजेन्डः। पासायणा आसापास-आशापाश-पु० । श्च्चाविशेषरूपे बन्धने आसा- शत जघन्यतो दश देवाशातनाः। प्रव० ३० द्वा तंबोरेत्यापासपरिवरूपाणा.। आशा इच्गविशेषः सैव पाशो बन्धनं दिगाथायां तांबूलपानभोजनोपानत्स्त्रीनोगस्वपनानिष्ठीवनानि तेन प्रतिबकाः संरुका नियंन्ति इति गम्यं प्राणा येषां ते मूत्र प्रस्रवणं चारं पुरीषं घृतमंधकादि वर्जयेत् । तीर्थकदातमा । प्रश्न०३०( किंकिन कुण जीवो आसापासेण वा । शातनाहेतुत्वाजिनमंदिरस्यांऽतर्विवेकी जन इति । बद्धो),-संघा०। मुत्त १ पुरीसं २ पाणं ३ जाणा सण ५ सयग ६ आसावी-आशावधी-स्त्री० सोमनाथभंगसमये यवन - इत्यि ७ तंवोझं 6 निहीवणं च ५ जूअं १० जाइशितस्य कर्णदेवस्य मातरि, ती०।। श्रासाय-आस्वाद-पु.श्रा ईषदपि अ इति न स्वादः आस्वाद पलोयणं ११ विगहा १२॥१॥पल्हत्यीकरणं १३ पिहुमनागस्वादे रसनेन्द्रियजन्ये झाने । आस्वाद्यतेऽनेनेति कृत्वा पासायपसारण १४ परुप्परविचाओ १५परिहासो १६ यत्प्रकर्षाद्दिव्यरससंविदुपजायतेतस्मिश्च हा ज्ञा। विशेष मगरा १७ सीहासणमाइपरिजोगो १७ ॥॥ अनिलाषे २ आचा. अ० । केससरीरविनूसण १ए उत्ता २० सि २१ किरी २५ प्रासायण-आशातन-न आ समन्ताच्गतयति मुक्तिमार्गाद चमरधरणं च ५३ धरणं २४ जुबईहिं सविधारहास २५ भ्रंशयति इत्याशातनम् अनन्तानुबन्धिकषायवेदने । विशे। प्रासायणा-आशातना-स्त्री०ज्ञानादिगुणा आ सामस्येन शा- खिड़प्पसंगाय २६ ॥ ३ ॥ अकयमुहकोस २७ मनित्यन्ते अपभ्वस्यन्ते याभिस्ता आशातनाः स्वा० । प्रतीपवर्त- एंगवत्य २० जिणपूअणामणसोअणेगयत्तं शए सचिनेषु । अधिकेपेषु । सम्म विनयनशेषु आव. । प्रतिषि- त्तदविआणविमुआणं ३०॥४॥ अचित्तदबिअबुद्धकरणेषु । आ० चू० । बधुतापादनेषु । द० । आतु । श्रा स्मणच ३१ तहणेगसामिअत्तचि ३२ जिणदंसणेअशातना ज्ञानदेवगुर्वादीनां जधन्यादिभेदाः त्रिविधाः तत्र जसि ३३ जिणंमि दिटुंमि अ अपूा ३४ ॥५॥ झानस्य, तत्र जघन्या ज्ञानाशातना झानोपकरणस्थनिष्ठीवनस्पर्शेऽतिकस्थे, च । तस्मिन्नधोवातनिसर्गोहीनाधिकाकरो- अहवा अणिकुसुमाइपूअणं ३५ तह अणायरपवित्ती च्चार इत्यादिका १ मध्यमा आकालिकं निरुपधानतपो वा ३६ जिणपामणीअनिवारण ३७ चेअदबस्सुबेहणमो ऽध्ययनं त्रांत्यान्यथार्थकल्पनं ज्ञानोपकरणस्य प्रमादात्पादा ३०॥६॥सइसामयिनवाणह ३ पुव्वं चिइवंदणादिस्पर्शातपातनं चेत्यादिरूपा श्लत्कृष्टत्वनावरमार्जनं जपयुपवेशनशयनादिज्ञानापकरणेऽतिकस्थे उच्चारादिकरणं इपढणंच ४० जिबनवणाठिाणं चालीसायणा ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा निंदा प्रत्यनीकतोपघातकरणमुत्सत्रभा एए॥७॥ षण चेत्यादिस्वरूपा ३ जघन्या देवाशातना वासकुंपिकाद्या इति मध्यमतश्चत्वारिंशदाशातना ॥ उत्कृष्टाः ७४ । ध। स्फासनश्वांसमवस्त्रांचलादिस्पर्शाद्या १ मध्यमा शरीराद्याद्वया पूजनं प्रतिमानूनिपातनं चेत्याद्या ५ उत्कृष्ठा प्रतिमायाश्च. खलं ? केनिकग्निं ३ का ४ कुलवयं ५ तंबोल रणश्लेष्मस्वेदादिस्पर्शननंगजननावहेलनाद्या च ॥ श्रुताशा- मुग्गानयं, ७ गालीन कंगुलिया । सरीरधुवणं १० तना फसमुवहाणशब्दे महा० । प्रवचनाशातक आचार्यः । केसे ११ नहे १२ सोहि अं१३ | जत्तोसं १४ तय १५ महा० ५ अध्य० ॥ से जयवं जणं कई कहिं कयाई पमायदोसओ पवयण पित्त १६ वंत १७ दसणा १७ विस्सामणा १५ दामणं, मासाएजा । से णं किं पायरियं पावेजा । गोयमा ! २० दंत १च्छी नह २३ गय २४ नासिअ२५ जेणं केई कहिं वि कयाई पमायदोसओ असई कोहेण | सिरो २६ सोत्त ७ वीणमझं ॥१॥ मुत्तं ए वा माणण वा मायाए वा लाजेण वा रागेण वा दोसेण मीनण ३० सिक्खयं ३१ विजजणं ३२ नंमार ३३ वा नएण वा हासेण वा मोहेण वा अन्नाणदोसेण वा घटासणं ३४ गणी ३५ कप्पन ३६ दावि ३७ पप्प पवयागस्स अन्नयरहाणे वइमेत्तेणं पि अणगारं असमा- ३० की विस्सारणं ३ए नासणं ४० अकंदं ४१ वियारीपरूवमाणे वा अणुमन्नेमाणे वा पचयणमासाएज्जा कह ४२ सरुच्नुघनणं १३ तेरिसंहावणं ४४ अग्गीसे गं वोहिं पिणो पावे किंमंग! आयरियपझनं । से सेवण ४५ रंधणं ४६ परिखणं ४७ निस्सीहिआनंजयवं ! किं अनब्बे मिगदिट्टी। आयरिये जवेज्जा । जणं ४ ॥॥ उतो ए वाणह ५० सत्य ५१ गोयमा! जवजा । एत्यं च णं इंगालमहगाईन एसे चामर ५२ मणोणेगत्त ५३ मलंगणं ५४ सच्चित्ताण ५५ जयवं किं मिउद्दिही निखमेजा । गोयमा निक्ख मचाय ५६ चायमजिए ५७ दिहीइनो अंजती ५० सामेज्जा देवस्य ।। मगुत्तरमंगनंग एए मन ६० मोनिं ६१ सिरोसहर अथवा देवाशातना जघन्या दश मध्यमाश्चत्वारिशउतकृष्टाचतुरशीतिस्ताश्च क्रमेणैवमाहः॥ ६२ हुड्डा ६३ जिंमुहगेडिआइरमणं ६४ जोहार ६५ तंबोल? पाण २ नोअण, ३ वाहणहत्यीनोग ५ | जमकिअं ६६ ॥ ३॥ रेकारं ६७ धरणं ६० रणं ६॥ मुवण ६ निट्ठवणं ७॥ मुत्तु चारं ए अं, १० वजे विचरणं वाल्माण ७० पल्हस्थिधे ७१ पाक ७२ पायजिएमंदिरस्संत॥१॥ पसारणं : पुमुपुमी ७४ पंक ७५ रओ ७६ मेहणं Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५०७) श्रासायणा अभिधानराजेन्जः। प्रासायणा ७७ जुधे जेमण ए गुज्क ७० विज ७१ व- जिहत्ति कंदुकः गिंदुका तत्केपिणी चक्रयटिका ताज्याणि २ सिजं ७३ जनं ४ मजणं । एमाई श्रो मादिशब्दामाविका कपर्दिकादिनिश्च रमणं क्रीमने तथा अमज्जकजसुजुआवजे जिकिंदालए॥ तथा ज्यात्कारेणं पित्रादीनां । तथा नांझानां विटानां क्रिया कक्का चोदनादिका ति तृतीयवृत्तार्थः। तथा रेकारं तिरस्काविषमपदार्थे यथा ॥ प्रासायणाओ चुत्रसी इति । अष्टाात्र रप्रकाशकं रेरे रुरुदत्तत्यादि वक्ति । तया धरणकंरोधनमपशत्तमंघारमाह ॥ खत्रं केबिकत्रिमित्यादि शार्दूबवृत्तचतुष्ट कारिणामधमादीनां च तथा रणं संग्रामकरणं । तथा वियमिदं व्याख्यायते । तत्र जिनभवने इदमियं च कुर्वनाशातनां चरणं बाबानां विजढीकरणं तया पर्यस्तिकाकरणं । तथा करातीति तात्पर्यार्थः। प्रायं लाभं ज्ञानादीनां निम्शेषकल्याण पादुका काष्ठादिमयं चरणरकणोपकरणं तथा पादयोः प्रसासंपल्लतावितानाविकाबीजानां शातयंति विनाशयंत्याशातनाः। तत्र खेनं मुखग्लेष्माणं जिनमंदिरे त्यजति । तथा केसि रणं स्वैरं निराकुजतायां। तथा पुटपुटिकादापनं तथा एकं क्रीमा करोति । तया कवि वा काहं विधत्ते तथा केत्रा धनु कर्दमं करोति निजदेहावयवकालनादिना तया रजो धूली तत्र पादादिनम्नां । काटयति । तथा मैपुनं मियुनस्य कर्म । बंदादिकाः खलूरिकायामिव तत्र शिक्कते । तथा कुवलयं गं तया युकां मस्तकादिन्यः क्विपति वीक्कयति वा तथा जेमनं मूषं विधत्ते तांबूलं तत्र चर्वयात तया तांबूसंबंधिनमुकाम. भोजन तथा गुह्यं विगं तस्यासंवृतस्य करणं जुज्झमिति तु माचीसं तत्र मुंचति । तथा गात्रीश्चकारमकारादिकास्तत्र पाने युबै दृम्युबाहुयुकादि । तथाविज्जत्ति वैद्यकं तथा वा ददाति । तथा कंगुलिकां लची महतीं च विधत्ते । तथा शारीरस्य धावनं प्रकानं कुरुते । तथ। केशान् मस्तकादित्य णिज्यं क्रयशकणं तथा शय्यांकृत्वा तत्र स्वपिति तथा जलं पर्यस्तत्पानाद्यर्थतत्र मुंचति पिबति वा तथा मज्जनं स्नानं तत्र स्तत्रोत्तारयति । तथा नखान् हस्तपादसंबंधिनः फिरति। तथा लोहितं शरीरानिर्गतं तत्र विसृजति तथा भक्तोषं सुखा करोति । एवमादिकमवयं सदोषं कार्य ऋजुका प्रांजलचेता दिकां तत्र खादति तथा त्वचं व्रणादिसंबधिनीं पातयात । तया नद्यतो वा वर्जयजिनेहाबये जिनमंदिरे एवमादिकमित्यनेनेपित्तधातुविशेषमौषधादिना तत्र पातयति । तथा वांतं वमनं दमाहन केवप्रमेतावत्य एवाशातनाः किंत्वन्यदपि यदनोदितं करोति । तथा दशनान् दंतान् किपति तत्संस्कार वा कुरुते । हसनचजनादिकं जिनालये तदप्याशातनास्वरूपं यं नन्येवं तथा विश्रामणामंगसंबाधनं कारयति तथा दामनं बंधनमजा. तंबोझपाणेत्यादिगावयैवाशातनादशकस्य प्रतिपादितत्वाच्छेदितिरश्चां विधत्ते तथा दंताविनखगनासिकाशिरश्रोत्रग्वीनां षाशातनानांचैतद्दशकोपनकितत्वेनैव झास्यमानत्वादयुक्तसंगधिन म जिनगृहे त्यजति तत्र विः शरीरं शेषाश्च तद- मिदं धारांतरमिति चेन्न सामान्याभिघानेपि मात्रादिबोधमार्थ वयवा शंत प्रयमवृत्तं । तथा मंत्र जूतादिनिग्रहलकणं राजा- विभिनविशेषाभिधानं किं यत एव यथा ब्राह्मणाः समागता दिकार्यपालोचनरूपं वा कुरुते । तया मीलनं क्वापि स्वकोयवि. वसिष्ठोपि समागत शति सर्वमनवा नन्वेता आशातना जिवाहादिकृत्ये निर्णयाय वृरुपुरुषाणां तत्रोपवेशनं । तथा लेख्यकं । नाश्रये क्रियामाणा गृहिण कंचन दोषमावति । उतैयमेव व्यवहारादिसंबंधि तत्र कुरुते तथा विभजनं विभागं दायादा न करणयास्तत्र नमो न केवगृहिणां सर्वसावधकरणोदीनां तत्र विधत्ते । तथा भांमागारं निजद्रव्यादेविधत्ते तथा द्यतानां भवचमणादिकंदोषमावहंति किं तु निसद्याचाररदुष्टासनं पादापरि पादस्थापनादिकमनौचित्योपवेशनं कुरुते । ताना मुनीनामपि दोषमावतीत्याह । आसायणान इत्यादि तथा गणी गोमयपिंः कर्पदं वस्त्रं दामिर्मुशादि िदवरूपा पताः आशातनाः परिस्फुरद्विविधदुः खपरंपराप्रभवनवन्नमपर्पटवटिके प्रसिके । तत पतेषां विसारणं च नापनकृते णकारणमिति विभाव्य परिजाव्य यतयोऽस्नानकारित्वेन विस्तारणं । तथा नाशनं नृपदायादादिनयेन चैत्यस्य गर्भगृहा मनमलिनदेहत्वात् न जिनमंदिरे निवसति । इति समयः दिवंतानं तथा आक्रंदं रुदितविशेषं पुत्रकात्रादिवियोग सिद्धांतस्तमेव समयं व्यवहारजाप्योक्तं दर्शयात दुनिगंधेतत्र विधात्त तथा विविधाः कथा रमणीयरमण्यादिसंबंधिनीः कुरुते तथा शराणां बाणानामिक्षणां च घटनं सरच्छति पाने त्यादि । एषा तनुःस्नापितापि दुरभिगंधम प्रस्वेदशाविणीतथा किंधावायुपथोऽधोवायुनिगम उत्श्वास निश्वासनिर्गमश्च या तु शराणां अस्त्राणां च धनुः शराणां घटनं । तथा तिरश्चामवगवादीनां संस्थापन तथा अग्निसेवनं शीतादौ सति तथा विधा मुखन अपानेन च वायुवहो वापि वातवहनं च तेन रंधनं पाचनमन्त्रादीनां तथा परीकणं ज्यादीनां तया नषेधि कारणेन न तिष्ठति यतयश्चैत्ये जिनमंदिरे यद्येवं प्रतिनिश्चैत्ये कीभंजनमवश्यमेव हि चैत्यादौ प्रविशक्षिः सामाचारीचतुरै प्वाशातनाभीरुभिः कदाचिदपि न गंतव्यं । तत्राह तिभिवानषेधिकी करणीया । ततस्तस्य अकरणं भजनमाशातनति करश्त्यादितिस्रः स्तुतयः कायोत्सादनंतरं या दीयते ताः हितीयवृत्तार्थः । तथा उत्रस्य तथा उपानहोस्तथा शस्त्राणां यावत्कर्षति भणतीत्यर्थः किंविशिष्टास्तत्राह त्रिश्लोकिकाः । खड़ादीनां चामरयोश्च देवगृहाद्वहिरमोचनं मध्ये वा धरणं त्रयः श्लोकाः चंदोविशेषरूपा आधिक्येन यासुतास्तथा सिकाणं तथा मनसोऽनेकांतता नैकाध्यं नानाविकल्पकल्पनमित्यर्थः श्र- बुद्धाणमित्येकश्लोको जोदेवाणवि इति हितीयं एकोवि नमोज्यंजनं तेनादिना तथा सचित्तानां पुष्पतांबलपत्रादीनामत्यागो कारो तितृतीयति अग्रेतनगाथा व्यं स्तुतिश्चतुर्थीगीतार्थीबहिरमोकणं तथा त्यागःपरिहरणमजीए शनि अजीवानां हा- चरणेनैव क्रियते गीतार्थाचरणं तु भूतगणधरभणितमिव सर्वररत्नमुडिकादीनां बहिस्तन्मोचनो हि अहो निक्काचराणामयं विधेयमेव सर्वैरपि मुमुक्षुभिरिति तावत्कायमेव तत्र जिनमधर्माश्त्यवर्णवादो दुष्टोकैर्विधीयते । तथा सर्वप्रतिमारपी दिरेऽनुज्ञातमवस्थानं यतीनां कारणन पुनर्धर्मश्रवणाद्यर्थमुपहम्गाचरतायां नो नवांजझिकरणमंजशिविरचनं तया एकशाट- स्थितं नविकजनोपकारादिना परतोपि चैत्यवंदनाय अग्रतापि कन एकोपरितनवखेण उत्तरासंगभंग उत्तरासंगस्याकरणं यतीनामवस्थानम नुज्ञातं। शेषकाले तु साधूनां जिनाशातनातथा मुकुट किरीटं मस्तके धरांत तथा मौलिं शिरावेष्टनाव दिभयानानुझातमवस्थानं तीर्थंकरगणधरादिनिम्ततो प्रतिशेषरूपां करोति तया शिरः शेखरं कुसुमादिमयं धत्ते । भिरप्येवमाशातनाः परिन्हियंते । गृहस्थैस्तु सुतरां परिहर तथा हंमा पारापतनाझिकेरादिसंबंधिनीं विधत्ते तथा । णाया इति श्यं तीर्थकृतामाझा आशानंगश्च महतऽनाय Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यासाणया अभिधानराजेन्धः । प्रासायणा संपद्यते यदाहुः ( अणा चियचरणमित्यादि) दर्श। तीर्थ- गुरुपन्वश्या आसा-यणा तु धम्मस्स मूलदो य ।। कराशातनाः । । तत्र तीर्थकरं यथा शातयात तथा चनपददासा एते एत्तो वेसेसियं बोच्चं ॥ ३ ॥ निधीयते॥ गुरुविनयकरणे कम्मक्खए जो आतोत सादेति अहया गुरुपाहुमियं अणुमत्पति, जाणतो किं च मुंजती जोगे। पब्वतितो णाणाओ पाउतं अविणयदोसो ण सादेति न भषपीतित्यपि य वञ्चति, अतिकरकमदेसणायावि ।। तोत्यर्थः । विणोधम्मस्समूलं सोय अविणयजुत्तो तस्स द्र प्राकृतिक सुरावरचितसमवसरणमहादिपूजानक्कणाम करेति । अहवा धम्मस्स मुलं सम्म गुरुत्रासायणा प ईन् यदनुमन्यते तन्न सुंदरं । ज्ञानत्रयप्रमाणेन च भवस्व- तस्स नेदं करेति दव्वादिएसु चम्सु वि एते सामए तो दो. रूपं जानन् विपाकदारुणान् भोगानिमित्तेनुक्ते मन्विनाथस्य सा नणियाएत्तो एक्के, कस्स वि वेसेसेण भणामि ॥ खिया अपि यत्तीर्थमुच्यते । तदतीवासमीचीना अतीव सच्चित्तखट्टकारग, अविकमणमदंसणे नवे दोसो ॥ कर्कशा प्रतीवपुरनुचरा तीर्थकरैः सर्वोपायकुशराप यदि इंगास अविवितेणि, गलगुत्तुदातिसेसे तु ॥ ४० ॥ कमावता साप्ययुक्ता॥ गुरुणो अणासोतियं अपरिदेसियं वा जर खंजति ता इमे अझंच एवमादी, अविपम्मिामुविति सोगमाहिताणं । दोसा सचित्तं फसकंदादी मुंजेज अतिप्यमाणे वा मुंजेज नं पामरूवमकुव्वंतो, पावति पारंचियं डाणं ॥ अरिं तं हादेज्ज व मारेज्जसरीरस्स वा अकारगं सुजेज अन्येप्येषमादिकं तीर्थकृतामधर्म नाते तथा अपात्यन्युच्च तेण से वाही मुंजेज्ज अतिप्पमाणे वा मुंजेज्ज तं अजीरनं ये । त्रिलोकमहितानां जगवतां याः प्रतिमास्तास्वपि यद्यवर्म महादेज व मारेज्ज व सरीरस्स वा अकारगं मुंजेज्ज लेण भाषते एतासां पाषाणादिमयीनां माल्याझंकारादिपजा सेवा ही मंजेज्ज रंगासधूमं वा मुंजे प्रविधीए वा मुंजे सुरु क्रियते एवं कवन्प्रतिरूपं वा विनयं वंदनस्तुतिस्तवादिकता. सुरं चैव चउ अंविसंबितं स परिसामिमणवयणकापसु वा सामेष बुद्धचा अकुर्वन्पासंचिकं स्थानं प्राप्नोति अग्रमहिषीश- गुत्तो हुंजे सचित्तविहानोयवजित्ते तणीयं जवति । गणादि ताभिः सहेजाः भोक्तु.मनीशाः प्रत्याशातनाभयादित्युक्तम सयणा सणयावणा य गुरुभावे सत्तविहो बालोगों सत्ता वि गुरोः १० वृ०॥ जेभिक्खु जदतं अमायरीए अण्णयरीए जयण सुविहियाणं समुत्तिराइणिएण सकि वकं माय ए भच्चासायाणाए अच्चासाइए अच्चासायंतंवा साज्ज। रसिय ३ ममम इत्यादिगाएमाजज्या तुरिए अतिप्पमाणेणं दसासु तेत्तीसं आसायणा भणिता तासि अषणतराए प्रासा वा कवने उबूढे आयराहणा। दिया दोसा सव्वासादणा गता। दणाए श्रासादेति आङित्युपसर्गो वाचकः पद्मृविसरणगत्य दाणि खेत्तासादणा दोसा गाहा ॥ घसादनेषु । गुरुं पउच्च विणयारणे जं फंसतमायं सादेतीति घट्टणरेणुविणासे, तिपास लावणलवे पुरतो । प्रासादणा य सो य प्रासादणा चनविहा गादा। दल्वे खेत्ते कानावे आसायणा मुणेयन्वा । खेत्ते कासग्गमिते गिनाणअमुणेत अधिकरणं॥४१॥ आसमां गच्चतस्स गुरुणा संघट्टणा जवति पादुट्टियरेणुणा पतेसिं णापत्तं वोच्चामि अहाणुपुबीए ॥ ३६॥ य वरपुविमासेो भवति सो जति पासतो वामतो दाहिणतो चनुपद दव्वादियाण इमावक्खागाह। ॥ मम्गतोय पुरतो गच्छतो भावणा आयरियस्स यसक्वेत्तासा दवेआहारादिसु खेत्ते गमणादिएसु नायव्वा ॥ ३७॥ दणा गता श्मे कागतो बियालेवा पिल्लिजीत पायरियस्म दव्वे भाहारादिएसु सेहेराइणिएण सअिसणं बाह पाहा- वहरतस्त अपमिसुणेमाणस्स सीसस्सा गिलाणविराहणा रेमाणे तत्थ सेहतराए खट्टखट्वं आहारेति सेहराणिएण सर्कि हवे नवकरणदाहो वा अजगमो वा आयरिओजो अपमि असणं बाहुपनिगाहेत्ता तरातिणियं अणापुच्चित्ता जस्स इ. सुणेमाणो वा अणण । साहुणा भणितो कीस । अकस्मासुपण छेति तस्स खर खर्फ दसति आदिम्हणाओ बच्छादिया। अच्छसित्ति उत्तरामुत्तरेण अधिक रणसंभवो कामासादणा गुरुणो अदसिया पम्लुिजति खेत्ते पुरतो पासतो मम्गो वा गता। भासणं गमणं करेति आदिग्गहणातो चिटणाणसीयणाद। श्वाणि भावासायणा गाहा पासणं करेति कासंमि विवश्चासाणमसट्टे एतिम्मियस्स रातो साहादीण अवमा, परउत्थियगंमपरिजवो लोए । वा वि याने वा वाहरणमाणस्स अपमिपुभेत्ता नवति विपण जावासायणएसा, संममणाउहणा चेव ॥ ४ ॥ पमिसुणेयव्वं तस्स पुण विषण अपमिसुणेमाणस्स नुस्सत्त भवति तेण वि वश्चासो भवति नाव जं गुरू नणंति तेण प सहादिणो विचितेजं जहा पते अम्हं जेट्टतरा पायरियस्म मिवज्जति अपविजंतेय मिमा नवति गाहा ॥ वहां करोति तहा णज्जति णूण एसपतितो ते विसेहा अयहां कालांमि विवच्चासे मिठा परिवज्जणा जावे, काले तु करेज एवं ससिस्सेह परिज़तो परितिथियाण विगम्मो भवति सुणेमाणे अपमिसुणेतस्स होति पासायणा, हितादि सोगा य परितूतो भवति एते नावासादणा दोसा गुरुणो फरुसाना अंतरजासा य कहणाया ॥ ३० ॥ उपदेसपदाणे समणा नटुंतस्स भावासादणा चेष मिच्ग पनि कात्ति रातो वावियाने वा गुरुणो बाहर तस्स सुणेतो घि वजणा नवति । अस्य व्याख्या । गाहा। असता विच अच्छात एस कामासादणा पदाणि जावा मिच्चापमिवत्तीए जे जावा जन्य हॉति सब्ज़या । सादणां । मिच्छामि पमिबत्तितो भावेत्ति दि सित्ति वत्ता कि तेसु व तहं पमिवजणा य ासायणा य तम्हा ।।४।। तुमं तिबा फरुसं भणति गुरुणोवा धम्मकहं तस्स अंतरजा- मिहा मदतं प्रतिपादनं प्रतिपत्तिःजत्थेत्ति दब्वादिपस जावासए मा भावासायणा दग्यादिणसु चनसुवि श्मो अविणय विपदेसु हा सुत्तज्यणमयक्खधेस वा सम्तयाज जिणदोसो गाहा ॥ प्राताभावा ने गुरु प्रयाणंती परिमामके पासवान नस्थ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०९) प्रासायणा अभिधानराजेन्द्रः । प्रासायण नवदेसासीसो तुहिका अच्छति जाह द्विवस्थाणाओ ताई राओ वा दिया वा गिलाणवावको गुरुस्स बाहरंतस्स ण सीसे पगते गुरुणो सम्भावं सहात अह सीसो तेसु पदत्थेसु देज्ज सई सेहस्स वा सागारियं वोर्हि अंतोहिंतो सुणेता वि परिसामकेचेव वितहपमिवज्जणा एत्य वुत्ताणं करिज्जा ताहे सद्दणादज्जमासमायगासरंपच्छनिजाणित्ता उप्पवाहितिमा अविणयो जवति । अविणयपभिवत्तीए य तम्हा पासायणा हुर्हि वा प्रोतप्रोतं संवाहुस्स एयासज्ज अक्षनंतो उन्नुप्पिन भवति। अहया परिसामग्के गुरू चोदितो वितहपमिवज्जणं वयंतस्स चा अधिकरणादी दोसा भविस्संति तम्हा आय. करोति न सम्यक् प्रतिपद्यत इत्यर्थः। तम्हा सीसस्स आसा- रियो सणियं वा हरति तं च असुणतो तुसिणीयो सुद्धोपयणा भवति अहवा गुरू जाणतो चेव अमहा अत्यपंक्षवेति धिकरणदोसभया वा तुसिणीओ अज्जति तहाविसुद्योगादा। मा परप्पवादी दोसं गेएहेज जहा सव्वस्स केवलिस्साजुग उहावं तु असत्तो दानं गिनाणो तहेव उठे । वंदो णाथि उघोगा एगो प्रयोगप्रतिपादनमित्यर्थः। तहसह तुसिणी तत्थगोवा सुणेज्ज सो वाहरंतस्स ।।५०॥ तराए तोजाणति जहा अवसित पमवेत जतिवितहपनिवज तिप्रासादणा सेहस्स चोदगाहा जमत्थं आयरिश्रो ण याणति चावाहरंतस्स गुरुस्स गिबाणो उहावं दाउमसत्तो गिमातमत्थं सीसो कहं जाणति जम्मति | गाहा ॥ जो तुसिणीयो । अत्येजलवा भासत्तो तत्थ गतो पमिसुणेज्ज जंगारणगारते सुतंतु, सहसंमुतं तर्ज किंचि । शब्दं ददातीत्यर्थः । तं गुरुअंगह कहणे, व मिदं उपामवत्ती॥४४॥ श्वाणी जावस्स अववादो भाति गाहा। भंतेण सेहतरापण गिहत्यत्तणे सुपवयं अणगारते वा अमा- वणतिरहे जइ एवं हवेज्ज णिद्दोसमिहरहा दोसा । तो सुयं अप्पणो वाहिंतं तं गरुस्स अप्पहा कतिस्स सो तुज्के वि ताव कहहनणति पगासे विदढमूढे ॥५१॥ भणेज्जा ण पयं नवमिळापरिवत्तिो पासादणा भवति । सेहतरापण आयरिओ परि सामज्जेणवत्तव्यो जहा तुम गाहा ॥ पनवेसि एवं ण भवतित्ति तो काहि तेण भाणियव्वं सच्यते एवं जपतो दोसा, इमं सुतं वमं हिमए एवं । जहा हं पमवेति जति एवं नमति तो णिहोस श्हरहा जहा सब्जूयमसब्लूए, एवं मिच्न परिवत्ती॥ ४५ ॥ तुम पनवेह एवं समयविराहणा दोसो भवति तुम्नेविमयापवं गुरुपमिकूनं भणतो आसादणा दोसो प्रवति अहवा भिहितं अत्थं जहह किंघमतिण घमतीति तायशब्दः परिमासीसो गुरू भण तुज्ज एवं पनावितस्स समयविराहणा णवाचकः जहा श्मेण ने पहेण गंतव्यं जाति तं दन्वं पप दोसो जवति मम एवं सुयं अमायरियसमीवे एवं पम्नविज्जते इणमत्थं पुब्वावरेण ताव महह जा नवे अभिगो अहवा समयविराहणा दोसोन नवति एवं सीसस्ससम्भूयमसब्जूयं पादपूरणे वा ददं जो मूढो नृतत्यं पनिवजंतो पगासं परिएवापरिसाम मिच्न पमियत्तिओआसायणा नवति। गाहा। सामको भमति ओसणादी चढत्यंमि ।। अस्य व्याख्या वितियं पढमे ततिए, य होति गेलप्मकज्जमादीम। गाहा। अचाणादी वितिए, ओसम्मादी चउत्यंमि ॥ ४६॥ विरटुत्तमहायतं नसणं जणति परिसमवि । वित्तियत्ति अववायपदं पढमेत्ति दव्वासायणा ततिपत्ति- णेवि जाणसि हित्ता बम्पमियं किं जवे तेणं ॥५॥ कावासादणा वितिपत्ति अहाणादिसु खेत्तासादणा चरिथत्ति उस प्रादिसुछियस्स तत्थ पढमतत्तियत्ति मेलणं पटुश्च प्रोसम्मो आयरिश्रो विरहे एगते वहुभणितो सागारवविरमावितियपदं भवति । गाहा। हित्ति अट्ठायंतो अविरमंतेत्यर्थः । परिसामत्ये विजपति ण याणसि तुमं हि तवा अहियवारणम्पमितेण वा किं तुज्के होज गुरु गिलाणो, अपत्थदव्वं व से इष्टुं । पर्म पादेहिं वा संघट्टिज्जति जेण सो अवमाणितो चितेत अवगममदंसितं वा, मुंजे खट्वंचगेहेन्ज ॥४७॥ पते मंदे वयमिव पेक्खंता दाणि म उसम्पदोसेण दोसगुरुं गिनाणी तस्स यजं अपत्थदव्वं तं सद्ध ताहे त अवि- मिव पासंति । तंण एतेसिं दोसो नामजदोसो उज्जमामि । यमित अदंसियं वा समुंजे अमास्स वा अणापुच्गए खटुं नि० चू० उ. १० । द. अ. उ. १ दलयत्ति मासोरा तिणि ओ सयं त्रुजिहित्ति एवं गुरुरक्खणदा अविणयं पि करतो सुद्धो ॥ गाहा॥ तेत्तीसं आसायणाओ पएणता तंजहा सेहे राडकंगइ साहणा अथ, बनावमीणो अट्टाणे । णिअस्स पुरो गंता जवइ आसायणा सेहस्स ॥१॥ संवाधुवस्सए वा, विस्सामगिमाणछेदसए ।। ४॥ सेहे राशणियस्स सपक्खं गंता जवइ आसायणा बेत्तासादणं पमुच्च अवत्तो भम्पति अट्ठाणे कंदासादणट्ठा पुर मेहस्स ॥ ॥ सेहे राइणियस्स आसायणा सेहस्स तो गच्छति विसमे वा अवयवटापासतो अवीणो गच्छति | ३ एवं एएणं अनिझावणं सेहे राइणियस्स पुरो। गिलाणस्म वा अवटुन्नणट्टा अहीणो अच्गत बाहुस्सपया चिद्वित्ता जवा आसायणा सेहस्स५ सहे राइणियस्स आसपट्टिओ अच्ाति गच्छति वा आयरियस्स चा विस्सा सपक्खं चिट्ठित्ता जवइ आसायणा सेहस्स एसेहे राइमणं कारंतो भासणं चिट्टति मंघहति वा गिझाणस्स ब्वतणादी करेंतो संघट्टणादी करेनि अमंधा चिट्ठति । यसुयं णियम आसामं चिट्ठित्ताजवइ पासायणा सहस्म ६ पा वक्लाणतो अप्पस वक्वाणनि मा अपरिणया सुटिं- महे राशणियस्स पुर ओ निसीइत्ताजवा आसाथणा सेहति ताहे सोतारा आसणं नविज्जति श्मकोसायवादागाहा ॥ स्म ७ सेहे राशणियस्म सपक्वं निसीइत्ता नवा आसायका गिलाणवावमसेहस्स वसारियं नत्र वाहि । णा सेहस्स - सेहे राइणियस्स आसमं निसीइत्ता संवाधुवस्सए वा अहिकरणादी इमा दोसा ।। ४॥ | जव आसायणासे हस्स ए एवं पएणं अनिलावणं सहे Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासायगा अनिधानराजेन्द्रः। श्रासायण राशणिएणं सम् िबहिया विहारमि निक्वते समाणे वा निसीइत्ता तुयट्टित्ता वाजवइ आसायणा सेहस्त ३० से तत्य पुव्यामेव सीहतराए आयामइ पच्छाराशणिए हे रायणियस्स उच्चासणं सिवा ३१ समासणं सिवा प्रासायणा सेहस्स १० सेहे राशणएणं सर्फि बहिया चिट्टिरता वा निसीइत्ता वा तुट्टित्ता वा जवइ आविहारजूमि वा निवते समाणे तत्थ पुवामेव सीहतरा सायणा सेहस्स ३२सेहे राणियस्स वाहरमाणस्स तत्थ ए प्रामोएइ पच्छा राइणिए आसायणा सेहस्स ११ गए चेव पमिमुणित्ता जवा प्रासायणा सेहस्स।।३३।। सेहे राइणियस्स राओ वा विआने वा बाहरमाणस्स टी॥ अथ त्रयस्त्रिंशत्तमस्थानकं तत्र आयः सम्यग्दर्शनाअज्जो के मुत्ते के जागरे तस्य सेहे जागरमाणे राशणि द्यवाप्तिकणस्य शातनाः खाना निरुक्तादाशातनास्तत्र यस्स अप्पमिसुणेत्ता जवइ अासायणा सेहस्स १३सेहे शक्कोऽल्पपर्यायो रात्रिकस्य बहुपर्यायस्य आसन्नमासत्तिय राणियस्स पुव्वं संयवित्तए तं पुवामेव सीहतराए प्रा थारजोचवादिस्तस्य बगात तथा गन्ता भवतीत्येवमाशातना शैक्ष्यस्येत्येवं सर्वत्र ( पुरओत्ति ) अग्रतो गंता भवति (सलव पच्छा राइणिए आसायणा सेहस्स १३ सेहे अ पक्वत्ति) समानपकं समपाश्र्व यथा भवति समश्रेण्या सणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पमिगाहित्ता तं गच्छतीत्यर्थः । (चिट्ठत्ति) स्थाता आसिता भवति यावपुब्बामेव सीहतराए गिहस्स आरोएइ पच्छा राइणिय- स्करणादशाक्षुतस्कन्धानुसारेणान्या इह अष्टव्यास्ताश्चैवमर्थतः आसन्नपरः पार्वतः स्थानेन तिम्रोऽत्र निवीदनेन च तिस्रःतया स्स आसापणा सेहस्स १४ सेहे असणं वा ०४॥ विचारनूमौ गतयोः पूर्वतरमाचमतः शकस्याशातना १० एवं पम्गिाहिता पुवामेव सीहतराए गिहस्स पमिदंसेइ पूर्व गमनागमनमालोचयतः ११ तथा रात्रौ को जागीति पृणे पच्चा राशणिए आसायणा सेहस्स १५ सेहे असणंवा० रात्रिकेन तच्चनमप्रतिश्प वतः१२ रात्रिकस्यापूर्वमानपनीय ४ पछिमाहित्ता पुव्यामेव सीहतराए अन्नस्स नवाणिमं- कंचन अवमस्य पूर्वतरमालपतः । १३ अशनादिनन्धमपरस्य तेइ पच्छा राशणिए आसायणा सेहस्स १६ सेहे राइ पूर्वमालोचयतः ।१४। एवमन्यस्योपदर्शयतः ।१५। एवं निमं प्रयतः ॥१॥ रात्रिकमनापृच्छयाऽन्यस्मै जक्तादि ददतः।१७। णिएणं सकिं असणं वा ४ पमिगाहित्ता तं राइणियं स्वयं प्रधानतरं लुजानस्य ११। कचित प्रयोजने ब्याहरतो अणापुच्चित्ता जस्स जस्स इच्छा तस्स तस्स खर्फ २ रात्रिकस्य च वा प्रतिश्रावतः१६वरात्रिकम्प्रति तत्समक्वता दसयइ आसायणा सेहस्स १७ सेहे राशणिएणं सकिं वृहता शम्देन बहुधा नाषमाणस्य ।२०। व्याहतेन मस्तकेन असणं वा ४ आहारेमाणे तत्छ सेहे खट्वं खट्वं मायं वन्दे इति वक्तव्ये किम्भणसीति ब्रुवाणस्य । २१ । प्रेरयति रात्रिके कस्त्वं प्रेरणायामिति वदतः ।२३। प्राचार्यग्नानं किं न मायं रसियं रसियं नसढं नसद मणुप् मणप्पं मणामं प्रतिचरसीत्याद्युक्ते त्वं किं न तं प्रतिचरसीत्यादि नणतः।२३। मणाम निकं निकं मुक्खं सुक्खं आहारेत्ता जव धर्म अर्थयति गुरविन्यमनस्कतां भजतोऽनुमोदयति इत्यर्थः । आसायणा सेहस्स १० सेहे राइणियस्त बाहरमाणस्स १२वा कययनि गुरौ न स्मरसीति बदतः ।२५ । धर्मकथामाअप्पमिसुणित्ता जवइ आसायणा सेहस्स १५ सेहे छिदतः ।२६। भिकावेला वर्तते इत्यादि वचनतः पर्षदं भिंरायणियं खक खर्फ वत्ता जवइ आसायणा सेहस्स दानस्य ।२७। गुरुपदानेदोनुस्थितायास्तथैव व्यवस्थिताया धर्म कथयतः२७। गुरोः संस्तारकं पादेन घट्टयतः।। गुरोः २० सेहे राइणियं किं वश्त्ता जवइ आसायणा सेहस्स संस्तारके निवीदतः ।३०। नश्वासने निषीदतः ।३१। समास११ सेहे राइणियं तुमं इइवत्ता जवइ अासायणा सेह- नेऽप्येवं ।३शत्रयस्त्रिंशत्तमा सूत्रोक्ता च रात्रिकस्यानपतस्तत्र स्स २२ सेहे रायणियं तज्जाएणं तज्जायं पमिजाणित्ता। गत एवासनादिस्थित एव प्रतिशृणोति आगत्य हि प्रत्युत्तरं जवा आसायणा० १३ सेहे राइणि यस्स कहं कहेमा देयमिति शैकस्याशातनेति । सम० ३३ स० । दशा । गस्स नो मुमिणे जवइ प्रासायणा सेहस्स २४ सेहे - अहवा अरिहंताणं आसायणाइ सजाए किंचि । गयणियस्स कहं कहेमाणस्स नो सरसि एवं वत्ता नाहीअं जा कंठसमुद्दिट्ठा तितीसासायणाओगाथाद्वयं जबइ आसायणा०२५ सेहे राइणियस्स कहं कहेमा- सं० व्या | आसायणा समत्ता समत्ता व सा पमिक्कणस्त कहं आमिंदित्ता जव आसायणा सेहस्स २६ मणसंगहणी अत्रपदं । अरिहंताणं आसायणाए सिक्कामहे राहाणियस्त कहं कहेमाणस्स परिसंजित्ता नवा एं आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवाआसायणा सेहत २७ सेहे राइणियस्स कहं कहेमाण- याणं आसायणाए साहूणं आसायणाए साहुणीणं म तीसे य परिसाए अहिआए अजिनाए अवो आसायणाए सावयाणं आसायणाए साबियाणं आसा चिन्नाए अवोगमाए होचं पि तच्चं पि तामेव कह कहेत्ता यणाए देवाणं सायणाए इह लोगस्स आसाजवह आसायणा सेहस्सएन्सेहे राइणियस्स सज्जा- यणाए परसोगस्स आसायणाए केवपिनत्तस्स धम्मस्स संयारगं पारणं संघट्टित्ता हत्येणं अणुमवेत्ता गच्छ आसायणाए सदेवमाआसुरस्स बोगस्स श्रासायणाए आसा०२० सेहे राइणियस्म सेजामंथारए चिहित्ता। सधपाणनूअजीवसत्ताणं आसायणाए कालस्स य Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५११ ) अभिधानराजेन्द्रः । आसायणा सायण सुस्स प्रसायणाए सुदेव आए आसाarre वायणायरिअस आसायलाए जंवाइदं वच्चामे लियं हीएक्खरं अच्चक्खरं पयहीणं विणयहीणं घोस जोगीणं सुदिनं दुट्टपरिच्त्रियं अकाले को सिज्जाकाले न कओ सिज्जाओ असज्जाइयं ॥ सांप्रतं सूत्रोक्ता एव त्रयस्त्रिंशद्व्याख्यायते । तत्र अरहंताणं सायणाए अर्हतां प्रानिरूपित शब्दार्थानां संबंधिन्या आशा तनया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति किया एवं सिद्धादिपदेष्वपि योज्येति इत्थं चाभिदधता. महतामाशातना भवति ॥ नत्रितत्ति जाणतो कीस मुंजई जोगे । पाहुमियं नवजीयं एत्र वदं उत्तरं इणमो || १ | जोगफल निवत्तिय पु अपीए मुदयवाहला । जुंजइ जोए एवं पाहुमियाए इम सुणमु ||२||णाणादिरोधक प्रघातिमुहपायवस्त वेदाए । तित्यंकरनामाए उदया तह वीयरागत्ता ॥ ३ ॥ सिद्धाणं आसायलाए (सिकानामाशातनया क्रिया पूर्ववत्) सिद्धाणं सायण एवं जणतस्स होइ मुस्स । एत्थिणि चेट्ठा वासवावी अहव उवोगे ||४|| रागदोसा धुवत्ति तहेव कालमुत्र योगे । दंसणनाणाणं तू होइ असन्वन्नुया चित्र ||२|| अनोन्नावरणाहव एगत्तव्यं वा वि नाणदंस ओ। जन्नति न वा एएसिं दोसो एगो वि संजवइ ॥ ६ ॥ प्रत्यित्ति नियमसिदा सदाओ चैत्र गम्मए एवं । नचेडा विजवंति विरियक्खयो न दोसो हु ॥ ७ ॥ रागदोसा न जवे सव्वकसायाण निरवसेसखया । जियसा जव्वाण गोगो ण य मया प्रय ॥ ८ ॥ न पिहू आवराम दव्वडिय वा मरणं पु-रागतं वा जवति दंसणनाणाणदोनं प || || णाणदंसणणए पहुच णाणं तु सव्वमेव । सव्वं उदंसणं तीएम सव्त्र या का हु ॥ १०॥ सण व पच्चागवायं वओगो दोनं पि । एवमसव्त्रनु ता दोसो एसीन संजवर ११ आयरियाणं आसाय गाए आचार्याणामा शातनया क्रिया पूर्ववत् आसातना तु । महरो कुलीोति कुम्मोहो दमगमंदबुदिया। अवियप्पला किसीसो परिजन आयरियं १२ अहवा विवए एवं जबएसपरस्त देंति एवं तु । दस विहवेयावच्चे कायन्त्रं सयं न कुव्वंति १३ महरो विनाणबुको आकुक्षिणोति य गुणाञ्जियो कि । दुम्मेहादीणि वि ते जणंत संताइ दुम्मे हा १४ जाति न वियन एवं निकम्मा मोक्खकारणं णां | निच्चंपच्चासयता वेयात्रच्चादि कुव्वंति १९ नबज्जा याणमासायणाए उपाध्यायानामाशातनया क्रिया पूर्ववत् आशातनापि साकेपपरिहारा यथाचार्याणां नवरं सूत्रपदा उपाध्याया इति । साहूणं आसायणाएत्ति साधूना For Private आसायणा माशातनया क्रिया पूर्ववत् । जो सुणियसमयसारो साबु समुद्दिस्स जासए एवं अविसहणा तुरियग्गा ते जंगल कानं च तह चैत्र १६ पाणसुण्या व जुंजंति एगत्तो तह विरूवनेवत्या | एमादिवयदवनं मूढो न सुइ एयं तु १७ विहणादिसमेया संसारसजावजाणणा नेव। साहू या वऊसाया जो यजुंजंति एगओ तह वि १० रूवा वत्थं एवमादिवयव मुट्टणेति एयं तु । अविसहयादिसमया संसारसहावजाला व साधुयोवकसाया जो य जति ते तहवि १७ साहुजीणं प्रसायणाए । साध्वीनामा शातनया क्रिया पूर्ववत् । आशातना । कहिणिया बहुउवही ग्रह वा वीसमणुवदवा समणी गया जियापुत्तमामवाजिस्म सेवालो । २० । अत्रोतरं । कत्ति त्रणाण कसाए कम्पबंध परति । संजलाण सुदईसिं कन्नड़े विको दोस्रो २१ उवही बहुविकल्प बंजर खणत्यमत्तासि । जणि जिणेहि जम्हा तम्हा उवहंमिलो दोसो २२ समलाल यया बायदो सम्ममापुसरंताए । आगेमचिहिमहत्याजणवयणसमाहिप्पाणं २३ सावगाण सायण (ए। श्रावकाणामाशातनया क्रिया तथैव जिनशासनभक्ता गृहस्थाः श्रावका जयंते । आशातना तु लट्टण मस्सतं णाऊण वि जिणमयं ण जे विरतियमिवजनि कहते धणोवृश्चंत लोगम्मि। सावग सुत्तासा यणमिच्छुत्तरकस्मपरिणश्वसेण जर वि पवज्जांत जति तह वि वम्मतिमभग डिया | सम्यग्दर्शनादिमार्गस्थितत्वेन गुणयुक्तत्वादित्यर्थः । साविगाणं सायणाए श्राविकाणामाशातनया क्रियापपरिहारौ च पूर्ववत् देवाणं श्रालायणाए देवानामासातनया क्रिया तथैव आशातना ॥ कामपसत्ता विरतीए, वज्जिया अणमिसाय णिचेट्ठा । देवा सामत्यं मित्रिणय, तित्यस्मरणतिकरा य ॥ एत्य पासी मोहणि, यसायवेयकम्मलदयायो । कामपत्तविरति, कंमोदयन व्त्रिणयत्तेसिं ॥ अमिसदेव सजावा णिचेट्ठा अणुत्तरा कियकिच्चा । कालजात्राति बुपित्र्णत्य कुव्वंति ॥ देवी आसाणा देवी नामशातनया क्रियापपरिहारी च प्राग्वत् रह बोकस्याशा तनया क्रिया पूर्ववत् इहलोको मनु tears: आशातमा तस्य वितथप्ररूपणादिति । पर लोगस्स सायणाए परोकस्याशातनया क्रिया प्राग्वत् । परलोको मनुष्यस्य नारक तिर्यगमराः आशातना त्वस्य वितथप्ररूपणादिनै द्वितया के परिहारौ च स्वमत्या काय्यैौ केवलिपनतस्स धम्मस्स आसायणा केवलिप्तस्य धर्मस्याशातनया क्रिया प्राग्वत् स च धम्म विविधः । श्रुतधम्मंश्चारित्रधर्मश्च आशातना तु ॥ पागय नासा नित्र को वा जाणइ पणीयं केशेयं । Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासायणा अभिधानराजेन्द्रः। भासायणा किं वा चरणेणं तू दाणेण विणान जव इत्ति ॥ अन्नोन्नमवाहतो अव्वत्तो होश कायव्यो । उत्तरं। प्राग्धर्मधारेण श्रुताशातनोक्ता इह तु स्वतंत्रभुतविषयेति न बान्नस्त्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणां । पौनरुक्त। सुयदेवयाए प्रासायणाए भुतदेवताया आशाअनुग्रहार्थ तवः सिकांतः माकृतः कृतः ।। तनया क्रिया प्राग्वत् अाशातना तु श्रुतदेवता सा न विद्यते निपुणधर्मप्रतिपादकत्वाच सर्वप्रणीतत्त्वमिति चरणमा अकिंचित्करी वा नानधिष्ठितो मौनींद्रः खल्यागमः अतोऽसाश्रित्याह।. वस्ति न वा किंचित्करी तामासंम्य प्रसस्तमनसः कर्मवयदर्शदानमौरविकेणापि चंगामेनापि दीयते । नात् (वायणारियस्स आसायणाए) वाचनाचार्य्यस्याशातनया येन वा तेन वा शीलं न शक्यमनिरनितुं । क्रिया प्राग्वत् । तत्र वाचनाचार्य उपाध्यायस्संदिष्टो य उददानेन जोगानाप्नोति यत्र तत्रोपपद्यते । शादिकं करोति अशातना त्वियं निर्दुःखसुखप्रजूतं वा वंदनं । दापयति उत्तरं तु श्रुतोपचारः एष क श्व तस्यात्र दोष शति । शीनेन जोगान् वर्ग च निर्वाणं चाधिगच्छति ॥ "जंवादं वचामेक्षिय होणक्वरियं अचक्खरियपयहीणं घोसतथाभयदानं दाता चारित्रवानियमत एवेति। सदेवमणुया- हीणं जोगहीणं सुदिनं दुपहिच्कियं अकाटे को सज्जाओ सुरस्स झोयस्स प्रासायणाए सदेवमनुष्यासुरस्य झोकस्याशा काले न कओसज्जाओ असज्जायं सकाश्यं सजाए न सका तनेया क्रिया प्राम्बत् । आशातना तु वितथप्ररूपणादिना | यति एए चरद्दशसुत्ता पुविल्लयाय एगूणवीसंतिएते तेत्तीसमाप्राह च भाष्यकारः। सायणस्थवन्ति " एतानि चतुईश सूत्राणि श्रुतकलापकगोचर देवादीयं सायं विवरीय जणइ सत्तदीबुदहिं । खान्न पौनरुक्तभाजीनीति तथा दोषदुष्टं श्रुतं यत्पवितं तद्यथा तह कयपयावदीणं पगतिपुरिसाण जोगे वा ॥ आविर्क विपर्यस्तरत्नमालावदनेकप्रकारेण या पाशातना अत्रोत्तरं। तथा हेतुभूतया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्याऽष्कृतमितिसत्तसु परमियसत्ता मोक्खसुनत्तणं पयावणा। क्रिया एवमन्यत्रापि योज्या व्यत्यानेमितं कोलिकपायसवन होनाकरं अकरन्यून प्रत्यकर अधिकाकरं पदहीनं पादनेय केण को तणपच्छा पयईए कहं पवत्तित्ति ॥१॥ हीनं अकृतोचितविनयं घोषहीनं उदात्तादिधोपहिरतं योगजेय चेयणेति पुरिसत्थनिमित्तं किस बयपवत्तत्ती सा य हीनं सम्यक्तयोपचारं सुष्टु दत्तं गुरुणा दुष्ठ प्रतीतं कमुषितां तोसे चिय अपत्तिपरोत्ति सञ्वंचिय विरुद्धं सव्वपाणनूय. तरात्मनि अकाले कृतस्वाभ्यायो यो यस्य श्रुतस्य कालिकादरजीवसत्ताणं । आसायणाए सर्वप्राणि नूतजीवसत्वानामाशा का इति कालेन कृतः स्वाध्यायः यो यस्यात्मीयोध्यनकाल तनया क्रिया प्राग्वत् । तत्र प्राणिनो द्वींद्रियादयः व्यक्तो- उक्त इति अस्वाभ्यायिके स्वाध्यायितं । भाष४ अभ्य ॥ चासनिश्वासा अपि नूयो भवंति भविष्यति चेति जूतानि पृथि- आत्मानं परवानाशातयदिति ।। प्राचा व्यादयः जीवंतीति जीवा आयुष्ककर्मा तु तव युक्ताः सर्व एवे- अणुवी इनिक्खुधम्ममाइक्खमाणो णो न्यर्थः सस्वाःसांसारिकसंसारातीतभदाः एकार्थका वा ध्वन अत्ताणं आसाइजा णो परं आसाएज जो अप्पाई पाय इति पाशातना तु विपरीतप्ररूपणादिनैव तथा जंगुष्ठपर्व णाई जूताई जीवाई ससाई आसाएजा से अणासायए मात्रो कीजियाद्यात्मेति पृथिव्यादयस्वजीवा एव स्पंदनााद अणासायमाणे व नकमाणाणं ज़याणं जीवाणं सत्ताणं चैतन्यकार्यानुपअन्धेर्जीयाः कणिका ति सत्वाः संसारिणः अंगुष्ठपर्वमात्रा एव भवंति संसारतीताः नश्यत्येवापि तु जहा से दीवे असंदीवे एवं से सरणं जवति महामुणी। प्रध्यातदीपकल्पोपमो मोक इति । उत्तरं देहमात्रेणैव सुखः टी० ॥ अतस्तेषां कात्यादिकं दशविधं धर्म यथायोगं प्रागुस्वादि तत्कार्योपलब्धेः पृथिव्यादीनां त्यल्पचैतन्य यात्तत्का पन्यस्तं शांत्यादिपदाभिहितमनुविचित्य स्वपरीयमिकणशीमा उनुपाधि जीवन्वादिति जीवा अप्येकांतवाणका न नवंति निक्षुर्धर्मकथासन्धिमानाचक्कीत प्रतिपादयेदिति यथा च धर्म कथयत्तदा (अणुवी भिक्खुमा) इत्यादि यावत् भवतिसरणं निरन्वयनाशे उत्तरकणस्यानुपपत्तेः निर्हेतुकत्यादेकांतनष्ट (महामुणित्ति) स जिभुर्मुमुक्षुरनुविचिंत्य पूर्वापरेण धर्म पुरुष म्यासदविशेषात् सत्वाः संसारिणःप्रत्यक्का एव संसारातीता वासोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तं धर्ममाचक्काण आडिति अपि विद्यत एवेति जीवस्य सर्वया विनाशाजावात्तया तैर मर्यादया यथानुष्ठानं सम्यगदर्शनादेः शातना पाशातना प्युक्तं । नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । नन्नयो तयात्मानं ना आशातयेत्तथा धर्ममाचक्रीत बयोन्मनाशागपदृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदार्शनिः” इत्यादि । कास्स य तना न जवेद्यदिवारमन आशातना किंधा छव्यतो भावतश्च बासायणाए " कामः पचात भूतानि काबः संहरते प्रजाः। द्रव्यतो यथाहारांपकरणादेऽव्यस्य कासातिपातादिकृताशाकानः सुप्लेषु जागर्ति कालोहि दुरतिक्रमः" इत्यादि कालोऽस्ति तना बाधा न भवति तथा कथयेदाहारादिव्यबाधया च नमंतरेण बकुबचंपकादीनां नियतः पुष्पादिप्रदानभावो न शरीरस्यापि पीमा भावाशातनारुपा स्यात् कथयतो वा यया स्यात् न च तत्परिणतिर्विश्वं एकांतनित्यस्य परिणामानुपपत्तेः। गात्रभंगरूपा भावाशातना न तस्य स्यात्तथा कथयदिति । "सुयस्स भासायणाप "श्रुतस्याशातनया क्रिया पूर्ववत नया नापरं हाभ्रषः आशातयेत् यक्ष:-परी हीनया पितः पाशातना तु॥ सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीमाय प्रवर्सेनाऽतस्तदाशातनां को आनरस्स कालो, मयंवरधोव्यागे व कात्री अ। वर्जयन धर्म बयादिति । तथा नान्यान्धासामान्यन प्राणिनो भूतान् जीवान् नो भाशातज मोक्खहेतुनाणं, को कालो तस्म कालो वा ।। याधयेत एवं स मुनिः स्वतोऽनाशातकरैरनाशातयन तथा इत्यादि उत्तरं ॥ परानादानयताऽनुमन्यमानाऽपरेप बन्यमानानां प्राणिनां जोगो जिणमामणमि सुखक्खयो पनजना। भूतानां सवानां जीवानां यथा पीमा नापद्यते नथा धर्म Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आसायणिज्ज रुपयेदिति तथा यदि सीकिशानका स्थादिदाना नि प्रशंसत्यवतकागादीनि वा ततः पृथिवी कायादयो व्यापा दिता भवेयुरथ दूषयति ततोऽपरेषामंतरायापादनेन तत्कृतो विपाकानुभवः स्यादुक्तं च । जे दाएं पसंसन्ति वहमिति पाणि । जे उपमिति विशिष्ठ कति ते ।। तस्मातपटलमागादिविधितिषेधसेन यथास्थि दानं शुद्धं प्ररुपयेदसावधानुष्टानं चेत्येवं च कुर्वन्नुभयदोषप रिहारी जननामाभ्यासच दृष्टांतारं दर्शयति यथा सौद्वीपो दीनः शरणं भवत्येवमसाघपि महामुनिः तक पायोपदेशतः बध्यमानानां बधकानां च यवसायानि वर्त्तते न विशिष्टगुणस्थानापादनाच्चरण्यो नवति तथा हि यथोद्दिन कथा विधानेन धर्मकथां कथयन् कांश्चन प्रत्राजयति कश्चन आयकाविध कश्चन सम्पदर्शनयुजः रोति केचित्प्रकृतिभतामापादयति । आचा० उ०अ० व्य० आमापनि आमादनीय त्रि० आ. स्पद ि मिति कर्तर्यनीयः । प्रज्ञा० जी० ईषत्स्वादयोग्ये, दशा० जं० । आसायनमिया आस्वादपनिका स्त्री०विषयनोगप्रतिकायाम आचा० । आसान आसारयत आसालिय-प्रशानिक तिर्यग्नंदे, प्रज्ञा० । सेवितं सालिया कहि जंगे आमालिया समतिगामा ! तो मस्सा दीवेयु निव्वापाणपार कम्ममी पापानं पच पंच मराविदेदे पक्क्वही संपावार वासुदेववचाचारे बलदेवखंधावारेसु मंगलियखंधावारेसु महामंमलियखंधावारेसु गामनित्रे नगरनिवसेस निगमनित्रेसेस खेम नियेगे पनि मनसे दोषमुहनियेगे पट्टणनिवेमेसु ागरनिवेस ग्रासमनिवसेसु संवाहनि सुरायाणिनिवसेस एए सिणं चेत्र विणासेसु एत्थ णं साला समृति जहां अंगुलरस असंखिज्ज जागमिसीए ओगाटणार, उकोलेणं वाग्सजोयणा । तहाणुरूवं च विक्रांज वाहणं भूमिं दाबि ताणं समुहेति । सन्नी मिच्छादिट्ठी अन्नाणी तो मुहत्तदान या चैव का करेइ । सेतं आसालिया || जी० ॥ आमात्रग-आश्रावक - त्रिः बन्धके विशे० । आमाविणीचा विणी-स्त्री०शायाम | स्थानापानापति ० परिसंस्थचरपये जहा प्रसाविणिजाइ दुरुहिया, इच्छति पारजागं ཊུ अंतराय विसीयति । सूत्र. श्रु० १ । अ० ११ ॥ आसास - आश्वास-पु० श्राश्वासयस्मिन्नित्याश्वासो नामादिसूनयतिरिको इज्यो यानपाीपाद भावतो हानादी आचारांगे श्राचा० धीरो भव अहं ते सर्वमपि वैयावृत्त्यं करिष्ये इत्यादिरूपे प्राणिनामाश्वासने, वृ० प्रश्न, विश्रामे, भारं बदन आश्वासाः स्थान आसास जार हमाणस्स चत्तारि सासा पहाता जहा जन्य णं साओ अंसं साहस तस्य विय से एगे आसा पाने स्थवि उचारं वा पायवणं या परिवानि तत्य विय से एगे सासे पत्ते जत्य वि यामकुमारावासंसि वा सुकुमारावासंसि वा पार्स वं तत्य विय से एगे आसासे पणत्ते जत्य वियां आवकहाए चि तत्थ विय से एगे आसासे पाते । एवमेव समणोवासगस्स चत्तारि प्रासासा प० तं जहा सम्यगुणत्रयवेरमणपचचक्रवाण पोसहोयवासाई - hars तत्य विय से एगे आसासे पम्प से जत्य विय णं सामाश्यं देसावगासियमपासे तत्य विप से एगे आमासे पाते जरयवि य णं पादास डिपुष्मि मासीसु परिपुत्रं पोसहं सम्मं पाले तत्थ विय से एगे सासे पसते जत्य वि य णं पच्छिममारणंतियसले हाजूसणाऊ सिएन तपाल परियाइ क्खिए पाओए काक्षमणत्रवमाणे विरह तस्य विंय से पगे आसामे पाते || भारे धान्यमुष्यदि वहमानस्य देशान्तरं नयतः पुरुषस्य अश्वास विश्रामाः। भेदश्य तेषामवसरने देनेति यत्रावसरे - शशादेकस्मात स्कंधाशमिति स्कन्धान्तरं नयनि नामिति प्रक्रमः तत्रावसरेपि चेति उत्तराश्यासापेक्षया स मुच्चये स तस्य वोदुरिति परिष्ठापयति व्युत्सृजति नागकुमा रावासादिकमपणमतो थत्रया यतने पास रात्री पावती यत्परिमाणा कथा मनुष्ययं देवद वयमिति व्यपदेशन कणा यावत्कथा तया यावज्जीवमित्यर्थः । तिष्ठति वसतीत्ययं दृष्टान्त एवमेवेत्यादिदार्शन्तिकः श्रमणान् साधूनुपास्त इति श्रमणोपासकः श्रावकस्तस्य सावद्यध्यापारभाराकान्तस्याश्वासास्तद्विमोचनेन विश्रामाश्चित्तस्याश्वा सनानि स्वास्थ्यानि इदं मे परलोकभी तस्य वाणमित्येवंरूपानीति सहि जिनागम संगमाथदातधुतिया आरम्भपरिप्र ही सरंकारसंसारकान्तारकारणन्ततया परियाज्यावित्याकयन् करणभटवशतया तयोः प्रवर्त्तमानो महान्तं संताप जयंति भाषयति वैदि । एवं जिलाण आणा - चरियं मह एरिसें अएणस्म । एयं प्राप्पा अचादरं वि सत्रयः || १ || हयमाणं नाणं यमम्हाणं मनुस्वमाहप्प | जे किस किया चिचिट्टिमा वा ॥२॥ वासरेवानि समाधानविशेषा ब्रह्मा प्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि अन्यत्र तु शीला अनितानि सदिन व्याख्यातं गुणानां पादानादगुणते दिव्योपभागपरिभोगकृणेविणाम्यनर्थदविरतिप्रकारा रागादितिय ना प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहिताई नि पीपधः पदिनमादि तोपवसनं भच्यर्थः पीपयोपचास पतेस्तान प्रतिपद्यतेज्युपगच्छति तत्रापि च स तस्यैक आश्वासः प्र यत्रापि सामायिक भावद्ययोगपरिवर्जन निरव योगप्रति Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) अभिधानराजेन्द्रः । आसासंकर • वनलक्षणं यधावस्थितः श्राद्धः श्रमणनूतो भवति तथा देश दिखतस्य दिपरिमाणस्य विभागोवकाशोऽवस्थानम बतारो विषय यस्य संदेशावकाशं तदेव देशावकाशिक दिख नगृहीतस्य दिकूपरिमाणस्य प्रतिदिनं संकेपकरण लक्षणं सर्वमतसंकेपकरणलक्षणं वानुपालयति प्रतिपत्यनन्तरमख एकमा संयत इति तथापि च तस्यैव आश्वास्त प्रत इति रिय मावास्यापरिपूर्णमित्व दोरात्रं यावत् भाद्वारा रसत्कारत्याब्रह्मचर्यव्यापार क्षण भेदोपेतमिति यत्रापि च पश्चिमेवा परिहारार्थमपश्चिमा चासौ मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र नवा मारणान्तिकी सा चेत्पश्चिममारणान्तिकी सा चासौ संख्यिते अनया शरीरकपायादीनि सल्लेखनात्तपोविशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसं लेखनात् तस्याः (कुसणत्ति ) जोषणा सेवनालकणो यो धर्मस्तया ( जूसिपत्ति ) जुष्टः सेवितोऽथवा किप्तः कपितदेहो यस्स तथा । तथा भक्तपान प्रत्याख्याते येन सः पादपवत् उपगतो निश्चेष्टतया स्थितः पादपोपगतः अनशन विशेषं प्रतिपन्न इत्यर्थः । कालं मरणकालं अनयांकन तथा शयर्थः विरति तिष्ठति । स्था० ४ ग० ॥ आसासंकरसमुब्जव - आश्वासांकुरसमुद्भव - न० आश्वास ए बांकुरप्ररोहस्तस्य समुद्रव उत्पत्तिर्यस्मादाश्यासांकुरस मुयमानस्याभ्वासरोदवीजे ०१ ४० ॥ आसासदीय-आभासी ५० यास्यतेऽस्मिन्निति आया सः स चासौ द्वीपश्चाश्वासदीपः यदिवा आश्वसनमाश्वासः आश्वासाय द्वीप आश्वासद्वीपः । नदी समुद्र बहुमध्यप्रदेशे, भिन्नयधिस्थादयो यमवाप्य श्वासति तस्मिन्द्रपविशे ये सच विधा सन्दी नोऽसदीनश्च - आचा० ६ अ० ३ ० पं० सू० 35 सित-आसिक्त-पुं० स्त्रीशरीरावसते, "नपुंसकविशेषे, स व मोहोत्कटतया मेहनं योनावनुप्रवेश्य नित्यमास्ते वृ० ४ उ० पं० भा० पं० चू० ॥ जो विग्ग अपवेसि उतीसा गारिस आसितो यायोक्स असतो सो विजये पं० ना०| सुगंधानेन कल्प उदकटने दश० कृता सेरु जी० १ प्र०३ प्र० । ० १ अ० आ० म०प्र० ६ अ० । ईषत्सिते. भ० ए ० ३३ ० । ( आसित सित्तलुई सम्मट्टरत्थंतरावणविहियं ) आसि कानीपत्सिक्तानि च तदन्यथा अत एव सुचिकानि पवित्राणि संमृष्टानि कचव पनयनेन रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च हट्टमार्ग यत्र तत्तथा ज० ३० ३३ उ० । सिम आशियन १० आशोभयमनिि वाचः । आसिय-आश्रित-त्र० प्रतिष्ठिते स्था० ६ ० आश्रयं प्राप्ते शरणागते वाचः । आविक प्रश्वान् भारतान् हरति पति आवहति या नञ्जारन्तस्याऽश्वस्य हारके वाहके आवाहके । अश्वस्य निमित्तं संयोग उत्पातो वा उकू अश्वनाभसूचके संयोगे उत्पाते निमित्ते च । वाच० ॥ अश्वस्वामिनि, ४ व्य. ॥ जो णाम मारहीनं सजो राइनो दमए । आसीस 5 वि जोसे, दमेइ तं आसियंवित्ति । पं० ० १ द्वा० ॥ सियाण-प्रश्रितापन १० अपहरणे ०१० निष्का शयितुमासादने । व्य० १० व्य० स्तैन्ये, वृ० ४ ० । • बहुपुत्रो आसियाबाय- आशीर्वाद पु० पुत्र बहुधा बहुधर्मोदीर्घायुरुत्वं भूषा प्रत्यनो, आसियाचाय पिया गरे सू० १ ० १४ अ० । आसी-आशी- स्त्री० सर्पदंष्ट्रायाम् विशे० । स्था० ४ ० । ग्रासीण - आसीन - त्रि० उपविष्टे । प्रश्न० १ [सं० द्वा० । श्रासिते । भाव० २ म० । आसी विस- आशीविष-पु० आइयो ष्ट्रास्तासु विषं यस्य सः । आसीदादाताव महाविसा आसीदिसा इति । दंष्ट्रानयेदकरसर्वनेदे प्रा० १ पद जी० १४० नागे. प्रश्न० १ ८० । स्था० ४० आशीविष इवाशीविषः यथा हि तमत्यन्तमवजानानो मृत्युमेवाप्नोति एवमेतमपि मुनिमवजानानानामवश्यंभावि मरणम् । श्रशीविषलब्धिमति शापानुग्रहसमर्थे । उत्त० १२ अ० । ( आशीविषाणां भेदाः ) कविता जेते! आसीदिसा पाना २ गांयमा ! हा सविसापयत्ता । तंजहा। जाइ ग्रासीवि साप कम्ममीमाय ॥ कइत्यादि । भसीविसति ॥ आशीविषा दंष्ट्राविषाः । जाइ सविसन्ति । जात्या जन्मना श्राशीविषा जात्याशीविषाः कम्मासीपिति कर्मणा किया शापादिनाकरण नाशविक कम्मी विपातन पंचेन्द्रियतिर्षयो मनुष्याध कमशीविषाः पर्याप्तका एव एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यता वगुणतः खन्याशीविषा भवन्ति शापप्रदानेनैव व्यापादयत स्वर्थः । एते चाशीविषन्धित्वभावात्स द्वारान्तदेवेष्ययोप पद्यन्ते । देवास्तपव से देवत्वेगोत्पनास्तेयकायस्थायामनुतभावतया कर्म्माशीविषा इति । उक्तंच | शब्दार्थाभेदसंवादिनाष्यकारेण आसीदादालाय. महाविखासीषिसाहिया ते कम्माभरण गदा गया। ॥ १ ॥ ज० टी० ० ० २४० ॥ जात्याशीविषाः । जाइओसीविसायां नेते ! कविडा २ पाला गोप मा ? चव्त्रिा पत्ता | तंजहा । विच्छुयजाइआसीविसे १ मंकुकजाइ आसी विसे 2 उरगजाइयासीविसे ३ मस्सा सविसे४ । स्था० ४ ना० । ज० ॥ विच्छुयजाइआरसीविसस्तणं जंते । केवइए विसए पछाने २ गोयमापणं विच्यारासाविसे अजरप्प माणमेतं बोदिविलेणं विसरमाणं पकरेचर एव नो चेवणं संपत्तीए करिसु वा करंति वा करिस्संतिवा मंकु कजाइसी विसपुच्छा गोयमा ! पणं मंरुकजाइसी विसे जरयमाणमेतं दिवसेयं विपरिगयं सेव जाय करितिया एवं सरगनाइसीमिया नवरं । Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१५) अभिधानराजेन्द्रः । सविस जंबुद्दीप्यमाणमेतं वोदिं विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चैव जावकरस्संति वा । मगुस्सजाइयासी विसस्स वि एवं चैत्र । नवरं । समयखेत्तप्यमाणमेतं बोदिं विसेणं विसपरियं सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा ॥ (केवपत्ति) कियान् । विसपन्ति । गोचरो विषस्येति गम्यं । रमाणमेतति । अर्द्धभरतस्य यत्प्रमाणं सातिरेकत्रिषष्ट्यधिक योजनशतद्वयलकणं तदेव मात्रा प्रमाणं यस्याः तथा तां ( ॥ चोदिति ॥ ) तनुं ( विसेणन्ति । ) विषेण स्वकाशीप्रभषेण करणभूतेन (विसपरिगयंति) विषं भावप्रधानत्वानिर्देशस्य विषतां परिगता प्राप्ता विषपरिगताऽतस्तामत एव । विसहमाणंन्ति । विकटयन्तीं विलन्तीम (करेत्तपसि ) कर्तुम् (विसंपसंति ) गोचरोऽसौ अथवा ( से ) तस्य वृश्चि कस्य ( विसयापत्ति) विषमेवार्थो विषार्थस्तद्भावस्तत्ता त स्या विधार्थताया विषत्वस्य तस्यां वा ( नो चेवति । ) नैवेत्यर्थः ( संपत्तीपत्ति ) संपत्या एवंविधवोधिसम्प्राप्तिद्वारेण ( करिंसुति ) अकार्षुवृश्चिका इति गम्यत इह चैकवचनप्रक्रमेपि बहुवचननिर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थमेवं कुर्वेति करिष्यति त्रिकालनिर्देशश्चामीषां त्रैकालिकत्वज्ञापनार्थः । समय खेतप्ति । समयक्षेत्रं मनुष्य क्षेत्रं ॥ कर्माशीविषाः ज० जम्मासवसे किं नेरइयकम्मासीविसे तिरिक्खजोलियकम्मआसी विसे मस्सकम्पास विसे देव कम्मासीविसे । गोयमा ! नो नेरइयकम्मासीविसे ति रिक्खजोशियकम्मासीविसे वि मस्सकम्मासीविसे दे मासव । इ तिरिक्खजोणियकम्मासी विस किं एगिंदियतिरिक्खजोणिय कम्पासीविसे जान पंचि दियतिरिक्खजोणियकम्मासी विसे गोयमा ! नो एगिंदियति रिक्खजोयिकम्मा सी विसे जाव | नो चउरिदियतिरिक्खजोयिकम्मासी विसे पंचिदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीविसेज‍ पंचिदियजावकम्मासीविसे किं सम्मुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्पास विसे गब्ज वकंतिय पांचदियतिरिक्खजोयिकम्मासवसे । एवं जहा वेनव्वि यसरीरस्स ने जब पज्जत्ता संखेज्जवासाउयगन्ज वर्क तियकम्मभूमियपंचिंदियतिरिक्खजोशियकम्मासी विसे नो अपज्जता संखेज्जवासान य जावकम्मासीविसे। जइ मणुस्स कम्पासविकं समुच्छ्रिमम पुस्तकम्पास विसे गब्जवकंतियमपुस्तकम्मासी विसे २ गोयमा ! नो संमुच्छिममणुरूपकम्मासीविसे गजवकंतियमणुस्तकम्मासीविसे । एवं जहा वेजव्त्रियसरीरं जाव पज्जत्ता संखेज्जवासाउ यकम्मभूमियगजवकंतियमपुस्तकम्मासी विसे नो अपज्जत्ताजाकम्पासीसेि । जइ देवकम्मासीविसे किं जवणवामीदेवकम्मासविले जाव मायदेवकम्मासी विसे गोयमा ! वणवा देवकम्मास विसे वि वाणमंतरदेवजोइसियवेमाणिकपास वसे त्रि । जइ जवणवासी देवकम्मासी सविस विसे किं असुरकुमारजवणवासीदेवकम्मासीविसे जाव यणिय कुमारजावकम्पासी विसे २ गोयमा ! असुरकुमारजवणवासी देवकम्मासीविले जाव याणियकुमारजाकम्मासीविसे जड़ असुरकुमारजावकम्मासीविसे किं पज्जत्ता असुरकुमारजवणवासविकम्मासीविसे किं अपज्जत्ता असुरकुमार जावकम्मासीवि से गोयमा ! नो पज्जत्ताअसुरकुमार जावकम्मासीविसे अपज्जत्ता असुरकुमारजववासीजावकम्मा सर्विसे । एवं यायिकुमाराणं । ज‍ वाणमंत देवकम्मासीविसे किं पिसाय वाणमंतरदेवकम्पासीविसे एवं सव्वेसि अपज्जतगाणं जोइसियाणं सव्वेसिं पज्जतगां । जइ वैमाणियदेवकम्मासीविसे किं कप्पोव गवमाणियदेवकम्मासीविसे कप्पातीयवमाणियदेवकम्मासीविसे गोयमा ? कप्पोत्र गवेमाणियदेव कम्मासीविसे नो कपातीमाणियदेवकम्पासीविसे । जइ कप्पोवगवेमायदेवमासीविसे किं सोहम्मकप्पोवगजावकम्मासीविसे जाव अच्चुयकप्पोवगजावकम्मासीविसे गोयमा : सोहम्मकप्पोवगत्रेमाणियदेवकम्मासीविसे वि जाव सहस्सारकष्पोव गवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि, नो आणयकपोमाणि देवकम्मासीविसे जाव नो अच्वयक T मणिदेवकम्मासीविसे । जइ सोहम्मकप्पोवगवेमाणि यदेवकम्मासविंसे किं पज्जत्ता मोहम्मकप्पोवगजावकम्पासीविसे अपज्जत्ता सोहम्मजात्रकम्मासीविसेगोयमा ! नोपज्जत्ता सोहम्मयोगमाणियदेव कम्मासीविसे पज्जता मोहम्मकष्पोत्रगवेमाणियदे व कम्पासी विसे एवं जाव नो पज्जत्ता सहस्मारकप्पोवगवेमाणियदे कम्पास विसे अपज्जत्ता सहस्सारकष्पोव गजावकम्मासीविसे ।। टी एवं (जहा वेलावयसरी रसभे श्रोसि) यया वैक्रियं भणत जीवभेदो भणितः तथेहापि वाच्यासावित्यर्थः । स चायं -गोयमानो संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिय कम्मासाविसे गब्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संखेजयासाव्यगजवकंतिय पंचिंदियातीरक्खजाणियकम्मासार्विम संवेज्जवासात य जाव कम्मासीविसे गोयमा संखेज्जयासाउ य जाव कम्मासीविसे नो असंखेज्जवासान य जाय क मासीविसेज संखेज्जजावकम्मासाविसे किं पज्जन्त्तसं अजावकम्मासीविसे अपज्जत्त संखेज्जजाव कम्मासीविसे ? गोयमा । शेषं लिखितमेवास्ते । भ. टी. श. १ उ. ॥ एतदेवसंकिप्याह । (आसविस शर्त ) आश्यो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आशी विषाः ते द्विविधा जातितः कर्म्मतश्च तत्र जातितो वृश्चिक कोरगमनुष्यजातयः क्रमेण बहुबहुतरब हुतमचिवाः वृश्चि afai sarsfतोऽर्धनरत क्षेत्रप्रमाणं शरीरं व्याभोति । कवि भरत क्षेत्रप्रमाणं । भुजंगमविषं जंबूद्वीपप्रमाणं । मनुष्यविषं समय क्षेत्रप्रमाणं । कर्म्मतश्च पंचेंद्रिय तिर्यग्यो Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासाविसत्त अभिधानराजेन्द्रः। पासेय नयो मनुष्या वेवाश्चासहस्रारात् । पते हि तपश्चरणानुष्ठा- आसुरा-दी-आसुरी-स्त्री० असुरा भवनपतिदेवविशेषास्तेषामतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिकलुजंगादिसाभ्यां क्रियां मियमासुरी येम्वनुष्ठानेषु वर्तमानोऽसुरत्वं जनयति तैरात्मनो कुवैति । शापप्रदानादिना पर व्यापादयंतीति नावः । देवा- वासने वृ. उप. स्था। स्वपर्याप्तावस्वायां तच्छक्तिमंतोऽवसातव्याः। ते हि पूर्व म चनहिं गणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पकरेति तंजहा नुष्य नवे समुपार्जिताशीविषयब्धयः सहस्रारांतदेवेष्वजिनवोत्पमा अपर्याप्तावस्थायां प्राग्नविकाशीविषयाधिसंस्का कोवसीयाए पाहुमसीलयाए संमत्ततवोकम्मेणं निरादाशीविषसन्धिमंतो व्यवड़ियंते। ततः परं तु पर्याप्तावस्या मित्ताजीवयाए । स्या. ग. यां संस्कारस्यापि निवृत्तिरित न तव्यपदेशनाजः । यद्यपि व्या० चाहिं गणेहिमित्यादि कंठ्यं नवरं असुरेषु भव आच नाम पर्याप्ता आप देवाः शापादिना परं व्यापादयति । सुर असुरविशेषस्तजाव आसुरत्वं तस्मै आसुरत्वाय तदर्थ तथापि न अग्धिव्यपदेशो भवप्रत्ययतस्तथा रूपसामर्थ्यस्य मित्यर्थः अथवा असुरतायै असुरताया वा कर्म तवायुष्कादि सर्वसाधारणत्वात् गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो सब्धिरिति प्रकुर्वन्ति कर्तुमारभन्ते तद्यया क्रोधनशीलतया कोपस्वभावप्रसिकिः ।। आ. म. प्र.१ अ.। विशे० प्रव. हा० १३॥ त्वेन प्राभृत शीतया काहनसंबंधतया संसक्ततपःकर्मणा जंबधीपे मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या दक्विणे वक आहारोपधिशय्यादि प्रतिबजावतपश्चरणेन निमित्ता जीधस्कारपर्वतविशेष, स्था०४10। ग. । (दो आसीविसा) नतया त्रैकालिकामालाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराद्युपस्था०२०। जीवनेनेति । स्था.४ ग.। आसीविमत्त-पाशीविषत्व-नशापानुग्रहसामये-स्था.५वा.। अथासुरीमाह । आसीविसनावणा-आशीविषनावना-स्त्रीपाशीविषत्वं पूर्वो- अवकविग्गहो वि य संसत्ततवोनिमित्तमाएमी। तस्वरूपं जाव्यतेप्रतिपाद्यते यासु ग्रन्थपरुतिषु ता आशीवि- निकिवनिराणुकंपो आसुरियं जावणं कुणइ ।। पजावना अंगवाह्यकालिकधुतनेदे। पा० आशीविषभावनायां अनुवाविग्रहसंसक्ततया निमित्तादेशी निप्पो निरनुकंपपिटिकायामाशीविषत्वसम्घेर्यथा समाचरणैराशीविषतया- स्सन्नासुरी नावनां करोतीति नियुक्तिसमासार्थः । वृ... कर्म बध्यते व्य० १ उ. सा च चतुर्दशवर्षपर्यायस्य दीयते प्रवधा पं० वा आसुर्यपि सदा विग्रहशीसत्व १ संसक्तपं००२चा.॥ तपः निमित्तकथन ३ निष्कृपता ४ निरनुकम्पता ५ भेदेन आसीविसमाधि-आशीविपलब्धि-स्त्री० (तपश्चरणमाहा- पंचविधा उक्तंच सविमाहेत्यादि १ असुराणामियमासुरी म्यादू, गुणादितरतोपि वा ॥ प्राशीविषसमर्थाः स्युनिग्रहे सूत्र । रौघाणां रुद्रकर्मकारिणां भावदिशि, उत्त। ऽनुग्रहेऽपि च ॥ १॥ ग० अधिः । इत्युक्तस्वरूपे निग्रहाऽनुग्र- आमुरि-अमुरि-पु० सांख्याचार्यकपिलप्रथमशिष्ये, यदाह प्राहसामर्थ्य. ग. अ. आ० चू०१ सुरिः विविक्त दकपरिणती भागोऽस्य कथ्यते । स्या० । आ० आसीस-आशिष-स्त्री प्रा. शास क्वि-श्रापूर्वकत्वात् अत | म.प्र. आ. चू.। इत्वम् गोणादित्वादन्यस्यात्वम् । इष्टार्थाविष्करणे प्रार्थने, आसुरिय-श्रामरिक-पु० असुराणां चामकोपेन चरन्तीति च । वाचा आसुरिकाः। प्राक्संयतभवे कृतचएम कोपेषु, असुरत्नोत्पश्राम-आशु-अव्य. शीघ्र,-वि० । नि० श्राव. | सूत्रविप्रे नेषु । आतु। सूत्र० १७.४ अ. ॥ स्व:पकाने-प्राव.। आसुर्य-न० असुरभावे, प्रश्न । प्रामुक्कार-आशुकार-पु० करण कारः आचित्तीकरणं गृह्यते आसुरुत्त-प्रामुरुस-त्रि० श्राशु शीघ्रं रुतः कोपोदयाधिमूढो पाशु शीघ्र कार पाशुकारः ।मारणे, । तडेतुत्वादहिविषाव रुप सुप विमोहने शत वचनात् भ. श. ७ न.ए। शीघ्र कोसूचिकादौ, आव० मरणावसरे, च । आतु०॥ पविमूढबुडी. भ० । श. ६०.१ । स्फुरितकोपनिंग । हा.। अ. .। आसुकारोवगय-प्रागुकारोपगत-त्रि प्राशुकारेण शूलादिनो प्रामुक्त-त्रि. प्रासुरमसुरसत्ककोपेन दारुणत्वात परतः कासगत आशुकारोपगतः। शूलादिना मृते । व्य. ४ उ.। नक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः । असुरसदृशकोपेन दीर्घ आसुग-आशुग-पु० आशु-गम्-ड-बायौ, सूर्ये याणे । बाच. शब्दकारिणि, नि। आसुपा-पाशुप्रज्ञ-पु० आशु शीघ्र कार्याकार्येषु प्रवृत्तिनिवृ आशुरुष्ट-त्रि.आशु शीघ्र रुष्टः क्रोधेन विमोहितो यासःनि०कोत्तिरूपा प्रज्ञा मतिर्यस्य स आप्रज्ञः उत्त० विप्रप्रझे। सूत्रः पेन विमोहिते, विपा. अ-ए वि० । कुपिते विपा० । क्रुद्ध१श्रु. १५ अ. पटुबुखी। सदसदविवेकविको ।सूत्र.२ श्रु.१ झा अ१६ अ. निरावरणत्वात् आव० सर्वत्र सदोपयोगादच्छमस्थे० आसाण-आशनि-नव्येनाशूनः सन् आ समन्ताच्यूनीभवति सूत्र १.६ अ.। मनसाऽपर्यानोच्यैव पदार्थपरिधिसिविधा बनवानुपजायते तदाशूनीत्युच्यते। घृतपानादी आहारविशेष यके सूत्र १ श्रु. ६ अ. । केवबज्ञानिनि उत्पन्नदिव्याने रसायनक्रियायां, च सूत्र० १६ । आमूणिमपिखराग (णेआमुणीकासव आसुपने) सूत्र.१ श्रु. ६ अ.॥ च गिद्धवजायकम्मगं-सूत्र। आसुयर-आशुचर-त्रि शीघ्रसंचरणशीने-विशेः। आसूणिय-आशुनित.-त्रि०ईपरदनीकृते-प्रश्न। श्रामुर-आसुर-० असुरकुमारभावे, उत्त० । असुरभावनाज- | आसेय-आसेक-१०।ा सिन्न-घन-जलादिना वृक्वादेरीष नितेऽनुष्ठाने, । स्था. पणबन्धेन कन्याप्रदाने - विवाहभदे-ध० । सेचने,आ सम्यक सिच्यते येन. । करणे स्युट आसेचनसाश्रासुरता-प्रासुरता-स्त्री प्रासुरभावे. स्था। धने पात्रे, पाच । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१७ ) अभिधानराजेन्द्रः | आसेवण - । आहरण आहरण-१० व्यवस्थापने, माया० । स्वीकरणे आचा० । मानयने, -सूत्र० शु० २ अ० २ । आचा० आदाने, ग्रहणे, सूत्र० १० १ ० ८ । उदाहरण –२० उदाद्दियते प्राबल्येन मेनाशीन्तिको इत्युदाहरणम् ० साम्यसाधनान्ययप्रदर्शनेते आ. म. प्र. । विशे० ! सेवा सेवन न० सम्यसेचने, सततसेचने पौनःपुन्ये, आरत-आनयतु वि० धानयति द च वाच० । सम्यकूपालने । मैथुनक्रियायाम्, । ६० । सेवणा-सेवा-स्त्री० प्रतिसवायाम्, पंचा. । संयमस्य विपरीताचरणे - ध० अधि० ३ । प्रव. । अभ्यासे, प्रा० चू० यथावस्थितसूत्रानुष्ठाने । सूत्र० ५० १ भ० १४ । सेवणाकुसील - प्रासेवनाकुशील पु० संयमस्य विपरीताराधनया कुशीले, प्रव० । स्वरूपमस्य कुसीलशब्दे ॥ सेवणासिक्ला- प्रासेवनाशिक्षा. श्री० सौधिक दराधा ssख्या च तथा पदविभागयुक् । सामाचारी त्रिधेत्त्युक्ता तस्याः सम्यक् प्रपाननम्" इत्युक्तलक्षणे शिक्षानेदे-ध. अधि. ३ । सेवियावित त्रि०सहरकरणात् (हा० आचा० पंचा० ) प्रतिसेविते सम्यक सेविते, पीना पुन्येन सेविते च नावे. कः प्रासेवनायाम्, । वाच. । अश्वपून पु० श्विनमा जो० ( सोचमा वासा ने मजिणिदस्स) । आ. म. प्र० । आसोत्य- अश्वत्थ - पुची विशेषे प्र० । हरणं दुवि चहहिं होइ इक्मेकं तु । अभिविधिना हियते प्रतीती नीयते ततोऽर्थोऽनेने त्याहरणं यत्र समुदित एव दाष्टौतिकोऽर्थ उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्यैवेति । द० अ० १ स्था० । पद्मने । संजा आचाए । हरणे च आसो ॥ आयाति प्र ग्रहच्च - आहत्य - अव्य० सहसा इत्यस्य ( आचा० ) कदाचिदित्यस्य वार्थे ज० नि. चू. ४ व्य । आचा० । उत्त० श्राहत्य अव्य० ढौकित्वा आचा० । रुपेत्य । श्राचा० ॥ व्यवस्थाप्य । सुत्र ० २ ० १ । सूत्र । परित्राज्य । परिभागीकृत्यश्त्यस्य वार्थे, आचा० " आइपुदिजमाणं झुंजमाणे " सबसे हाय दीयमाने स्वस्थानात्साम्यर्यमनिमुखानमानीय दशा. 1 श्रहच्चा - हत्या-त्री० आहनने, प्रहारे । नि० । आदर आहन मेहसिकायां वृ० ॥ ग्राहहु - आहृत्य-श्रव्य व्यवस्थाप्य अपाहृत्य वेत्यर्थे । सूत्र० अहिमं प्राहुट्ट देखियं । सूत्र० श्रु० २ ० १ । आहरु - आवृत - त्रि० प्रत्यादौमः ८ । १ । ६ । इति तस्य कः ० समय नीयते तदा ष० ०१ २०५ आनीते, भाव० श्राचा० दर्श० । प्राहणके- वृ० उ. २ । श्रहतं द्विधा स्वप्रामाहृतं परनामाहृतं । सप्रत्यवायमप्रत्यवायं चेत्याद्यन्याहृतशब्दे । जीत० नि. चू० व्य० । आहरिया प्रहतिका श्री० प्राण ००२। प्राहत्तहिय - याथात्म्य - न० यथातथान्नावो याथातथ्यम् धर्ममार्गसमवसरणाख्याभ्ययने तत्रोक्तार्थे तत्त्वे सत्तानुगतसम्य कृत्वे चारित्रे, व सूत्र० यथावस्थितेऽर्थे। सूत्र० श्रु०१ अ० १ परमार्थेन परमार्थचतायां सम्यग्ज्ञानादिके सूत्र० श्रु १ अ० १३ प्रतिपादक त्रयोदशे कृताभ्ययने सम०२३ स. आम्मई आदम्प-प्राम्य-पा. हम्म गती. आापूर्वः । आहम्मति - प्रा० । अहम्मत् श्रहन्यमान- वि० वाद्यमानेषु पणचादिषु आम्म ताणं पणवाणं परिहाणं । प्रा० । आप आत ०ि अननुषये स्था० प्रेरिते-आ० रा० आवश्य कर्त्तव्ये - गमनागमनादी प्रय चूर्णिते प्रति०। आहूत ० पति-प्रति० । श्राख्यात - न. आख्यानकप्रतिबळे - प्रज्ञा० । जी० स्था० ॥ श्र० म. प्र० । प्र० । आहारण दोस उपाए उवणाकम्मे पकुप्पचविणासी सांप्रतमुदाहरणमत्रिधातुकाम आइ ॥ पछड़ा समु प्रहरने होर अपराध उपाय उपाय । तह य पशुपाविणासमेव पदमं चविगप्पे ॥ ५४ ॥ व्या० तुक बदादरणं भवति श्रय तु दाहरणे विचार्यमाणे भेदो भवति । तद्यथा । अपायः उपायः स्थापना तथा च प्रायुत्पन्नविनाशमेवेति स्वरूपमेव प्रपंचेन दतो निपुंक्तिकार एव वयति ० ० १ अपायादीनां व्याख्या न्यत्र स्वस्वस्थाने । प्रहरतदेश-प्रहरणतदेश- ५० तस्य देशदेशः ख चापचारादाहरणं चेति प्राकृतत्यादादरणशब्दस्य पूर्वनिपाते। भारतदेशः हाताने दारिपाचे स्योपनयनं क्रियते ततदेशे उदाहरणमिति यथा चन्द्रश्यमुखमस्या इति । इह हि चन्द्रे सौम्यगोपनयननानिष्टेन नयननासावर्जितत्वं कलंकादिना । स्था० वा. ४ श्राहरणतसे चव्विदे पनते तंजाः असहि उबालभे पुच्ाणिस्सावयणे । श्रनुशास्त्यादीनां व्याख्या स्वस्थाने । ब्राहरणतदोस- आहरणतदोष पु० तथा तस्यैवाहरण देश स्यैवाहरणस्य संबन्धी साक्षात्प्रसंगसंपन्नो वा दोषस्तदोषः स चासौ धर्मे धर्मिण उपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादाहरणतद्दोषः । अथवा तस्याऽऽहरणस्य दोषो यसिंस्तत्तथा । दुर्हेतुभेदे, स्था० वा. ४ छह साध्य साधन के " नाम दोषो यचासत्यादिवचनरूपं तद्दोपाहरणं यथा सर्वग्राहमसत्यं परिहरामि गुरुमस्तक नवदिति । यासाभ्यासादपि दोषान्तरमुपनयति सतिदे यथा सत्यं धर्ममिति किमुनयोऽपि वरं कृपशतापापी वरं वापीशतात् ऋतुः । वरं क्रतुशतात्पुत्रः सत्यं पुत्रशतारमिति " १ वचनादिति धन पुष्मत्प्रतृतिषु प्रायः संसारकारणेषु धर्मप्रतीतिरादिति श्राहरणतद्दोषतेति यथा वा बुद्धिमता केनापि कृतमिदं जगत्सन्निवेशविशेषवत्वात् घटवत् स बेश्वर इति अनेन हि स किमान काल्योपस्परः सिभ्यतीति ईश्वर स विवक्ति शर्त स्था० । ४ वा. तद्यथा । आहरणतहांसे पनि पचते । तं जहा । अथम्यते पहिलोमे आतोवणीए रोबणीए । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारजमाण स्था० वा. ४ दश० अ. २ । आहरितमाण-विमान-त्रि खाद्यमाने ( ११८ ) अनिधानराजेन्द्रः | गा हारे अभ्यवन्हियमाणे, स्था० वा. १० । आहारतया जीवेन गृह्यमाणे, स्था० ग. ३ । आहरित - ग्राहम् - अध्य० अदनं कर्तुमित्यर्थे । तं । हरिसिय-प्रति-त्रि० भत्सिते, आ० म. प्र० । आहरण-प्रदानन० संशब्दने, पंचा० १ वृ. ( श्रग्गिकुमाराहवर्ण ध्रुवं एगं हं वेति ) । पंचा० । आपणी-आयर्वणी-स्त्री० [स्वाभिधानायां कारि एयां विद्यायाम्, सुत्र० श्रु. १ अ. २ । माहाकांचा हायाम कांकेरादादिसंघादिसंख चकमहसि हविझुंपाः । ४ । इति कांकेरादादेशः । आहार | कांति । प्रा० । आहार - आधार - पु० अधिकरणे, विशे० आ. चू. अ. १ अनु० । दोए गजरवाणं आहारे पं.तं. मात्र दियतिरिक्खजोणियाणं पे ॥ टी० [पयोरेव गर्नस्थयोराहारोऽन्येषां गर्भस्थेवाभाया. दिति । स्था० ग. २ । स चतुर्भेदस्तद्यथा वैषयिको व्यापक श्रपश्लेषिकः सामीप्यकश्च आ. म. हि. यया । आहारोआहेवं च होइ दन् तब जाना य व्यं आधारो भवति पर्यायाणाम् विशे० आश्रये, हा० अ. २. आम्ने, संचा० आधेयस्यैव सर्वशोकानामुपकारित्वात् (का० अ. १) आधार श्वाधार श्राश्रय इति यावत् । सम्यकृत्वे, यथा धरातलमन्तरेण निरालंबं जगदिदं न तिष्ठति एवं धर्म जगदपि सम्यकूत्वल कुणाधारव्यतिरेकेण नावतिष्ठत इति या भावनीयम् । प्रव. घ० । श्रधारणादाधारः । आकाशे, भ० श. २ उ. २ । आहार पु० - आहरणमाहारः । ग्रहणे, क-प्र० ] भोजने, प्रश्न० अव्यवहरणे प्रव० । आहारनिकेपः । नाम पद रखे जावे य होंति बोपव्यो । सोख हारे निक्खेवो होइ पंचविहो । नाम उपनेत्यादिनामस्थापना पूज्य क्षेत्रभावरूप पंचत्रकारो नवति निकेप आहारपदाश्रय इति । तत्र नामस्थापनेअनादृत्य इस्याहारं प्रतिपादयितुमाह । दब्बे साचादी खते नगरस्म जाओ हो । जावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्रखेवे || दवे इत्यादि) इन्याद्वारे विमाने सवितादियदारयषि धो नवति। तद्यथा सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च तत्रापि सचित्तः पद्विधः पृथिवीकायादिकः । तत्र सचित्तस्य पृथिवीकायस्य लकणादिरूपापन्नस्याहारो प्रष्टव्यः तथाप्कायादेरपीति एवं मि श्रचिनयोज्यः नरमनिकायमचितं प्रायशो मनुष्या आ दारयति नास्पत्वादिति । केशादार रम आहारः क्रियते उत्पद्यते व्याख्यायते । यदि वा नगरस्य यो देशो धान्यथनादिनोपनोम्यास केषाद्वारः तद्यथा । मपुरावा समा सन्न देशः परिभोग्यो मथुराहारो माठरकाहारः खेमाहार इत्या दिभाषादारचयं कुर्यादयाकृपर्यायोपपत्रं वस्तु दाहार आहार यति स नावाहार शर्त तत्रापि प्रायश आहारस्य जिव्हेन्द्रियविपयत्याणिककककवायाणमधुररसार तथा चोक्तं "राईभत्ते नावओ तित्ते वा जाव मधुरेत्यादि" अन्यदपि प्रसंगेन गृह्यते । तद्यथा । खरविशदमभ्यवहार्य भक्ष्यं तत्रापि पुष्पढ्य ओदनः प्रशस्यते न शीतः । उदकं तु शीतमेव तथा चोक्तं शैत्यम प्रधानो गुणः । एवं तावदन्यवहा यमाश्रित्य भावाद्वारा प्रतिपादितः । सांप्रतमाहारकमाधित्य जाहार निद्रा भाषादारविकारो नयति । श्राहारकस्य जंतोस्त्रिभिः प्रकारैरा हारोपादानादिति । प्रकारानाह ( आहेत ) तैजसेन शरीरेण तत्सहचरितेन च कर्मणा कार्मणेनायां घायामप्याहारयति यावदपरमौदरिकं शरीरं न निष्पद्यते । तथा चोतं "तपण कम्मरणं आहारे अनंतरं जीवो | तेण परं मिस्सेणं जाव शरीरस्स निप्पत्ती ॥ तथा। ओहारा जीवा सव्वे आहारगा अपऊत्ता । बोमाहारस्तु शरीरप रावचा ओमनिरादारो सोमाहारस्तथाप्रपेण कनादेराहार प्रकेपाहारः स च वेदनीयोदयेन चतुर्भिः स्थानराहारसाचा तथा गणे आहारसन्ना समुप्पज्जश् तं जहा प्रोमोध्याए बुडावेय णिज्जस्स कम्मस्स उदपणं मई एतमहोबओ गेणंति ॥ सांगतमेतेषां त्रयाणामप्येकचैव गाथया व्याख्यानं कर्तुमाह । सरीरेणोपाहारो तयायफासेण झोमआहारो | पकखेवाहारी पुण कावलित होइ नायथ्यो । सरीरेणेत्यादि ॥ तैजसेन कार्मणेन च शरीरेण दारिकादिशरीरानिष्पत्तेर्मिश्रेण च य आहारः स सर्वोऽयोजाहार इति केचिद् व्याचते । दरिकादिशरीरपर्याप्तापर्यासोपा नापान जापानः पर्याप्तिनिरपर्याप्तः शरीरेणाहार जा हार इति गृह्यते तदुत्तरकालं त्वचा स्पर्शेप्रियेण श्राहारः स सोमादार इति । हेपाहारस्तानि प्यादित प्रतिकान्यो भयति के ओजाहाराः के सोमादाराः के प्रपाद्वारा पुनरप्येषामेव स्वामिधिशेषेण विशेषमाथि भया ओयाहारा जीवा सच्चे अपना मुणेयव्या । पज्जतगा य लोमे पक्खेवे होइ नायव्वा ॥ ४ ॥ ओयाहार इत्यादि । यः प्रागुक्तः शरीरेणौजसाहारस्तेनाहारेणा हारका जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्तका ज्ञातव्याः । सर्वाजिः पर्याप्तिभिरपर्याप्तास्ते वेदितव्याः । तत्र प्रथम पूर्वशरीररित्या विद्वेषाविप्रदेश बोल्यान कार्मणेन शरीरेण तप्तग्रहपतितपावन्त प्रदेशस्थानात्पुरु खाना राजमपि यावदपर्याप्तावस्था लादोज आहार इति पर्याप्तकारियादिभिः पतिभिः पर्याव केचिन्मतेन शरीरपर्याप्तायादेवं तेलोमाहारा भवंति तत्र स्पप्रियेणोष्मादिना तप्तच्छायया शीतवायुनोदकेन प्रीयते प्राणी गर्नस्थोपि पर्याप्युत्तरका सोमाटार तिमपाहारे तु भजनीया देवपाहा नान्या सोमादारता तु वाय्वादिस्पतिस श्रीमाहारश्चक्षुष्मतामन पथमवत तोऽसौ प्रतिसमयवर्ती प्रायशः प्रकेपाहारस्तुपलभ्यते प्रायः स च नियतकाशीयः । तद्यथा । देवकुरूत्तरकुरुप्रभवा अष्टमभक्ताहाराः संख्येयधर्षायुषामनियतकालीयः प्रकेपाहार इति ॥ सांप्रतं प्रपादार स्वामिविभागेन दर्शयितुमाह ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राहार अभिधानराजेन्धः । पाहार एगिदियदेवाणं नेरझ्याणं च नत्यि पक्खेवो। पंचमसमयोत्पत्तौ बज्यते नान्यत्रेति।नवस्थकेवलिनस्तु समु रातेमथे तत्करणोपसंहारावसरे तृतीयपंचमसमयीही लो सेसाणं पक्खेवो संसारत्याण जीवाणं ॥ कपूरणाच्चतुर्थसमयेन सहितात्रयः समया भयंतीति । (एगिदिय इत्यादि) पकमेव स्पशैभियं येषांभवति ते एकेन्द्रि पुनरपि नियुक्तिकारः सादिकमपर्यवसानं कासमनाहारकत्वं याः पृथिवीकायादयस्तेषां देवनारकाणांच नास्ति प्रकपस्ते हि दर्शयितुमाह ॥ पर्याप्त्युत्तरकालं स्पर्शेड़ियणवाहारयंतीति कृत्वा बोमाहाराः तत्र देवानां मनसा परिकल्पिताः शुभाः पुत्राः सर्वेणेव अंतो मुहुत्तमचं सेझेसीए नवे अणाहारा । कायेन परिणमंति नारकाणां त्वगुना इति । शेषास्त्वौदारि- सादीयमनिहणं पुण सिद्धायणाहारगा होति ।। कशरीराद्वीन्ज्यिादयस्तियङ्मनुष्यास्तेषां प्रक्वेपाहार इति । (अंतोमुत्तमित्यादि) शलेश्यवस्थाया आरज्य सर्वथानाहातेषां संसारस्थितानां कायस्थितरवाभावात्प्रवेपमंतरेण काव- रकः सिझावस्थाप्राप्तावनंतमपि कालं यावदिति पूर्व तु काव त्रिक आहारो जिन्हेंज्यिसनावादिति अन्ये त्वाचार्या अन्यथा विकाख्यव्यतिरेकेण प्रतिसमयमनाहारकः कावलिकेन तु व्याचकते तत्र यो जिव्हेंजियेण स्यूबशरीरे प्रक्तिप्यते स प्रक कादाचित्क इति । सूत्र. श्रु.२ अ. ३॥ सयोगिकेवली अना पाहारः यस्तु घाणदर्शनश्रवणरुपवज्यते धातुजावन परि- हारक इति वदतां दिगम्बराणां तस्याऽऽहारकरवसाधनेम णमति स ओजाहारः। य पुनः स्पशेन्धियेणैवोपक्षज्यते धातु- प्रतिकेपः कृतः । सुत्र। सम्म० । तदेवं संसारस्या जीवा भावेन प्रयाति स स्रोमाहार शत। सूत्र श्रु.२१३प्रवद्वा२०५ विग्रहगती जघन्यनैकं समयं उत्कृष्टतः समयत्रयं भवस्थकेव सांप्रतं कालविशेषमधिकृत्याऽनाहारकानभिधित्सुराह । बीच समुद्घातावस्थाः समयत्रयमनाहारकः शश्यवस्था एकं च दोवसमए तिन्निवसमए मुहत्तमचं वा । यांत्यतर्मुहूर्त सिद्धास्टुसादिकमपर्यत कालमनाहारका ति सादीयमनिहणं पुण काममणाहारगा जीवा ।। स्थितं ॥ पक्कं चेत्यादि । तत्र “विग्गहगश्मावन्ना केवक्षिणोसमोहया अ सांप्रतं प्रथमाहारग्रहण येन शरीरेण करोति तदर्शयति ॥ योगीया। सिकाय अणाहारासेसााहरगाजीवा" आस्था से जोएण कम्मएणं आहारेई अणंतरं जीवा । शतोयऽमर्थः उत्पत्तिकाले विग्रहगतौ चक्रगतिमापन्नाः केव तेण परं मीसेणं जीवशरीरस्स पज्जत्ती ॥ बिनो लोकपरणकाले समुहतावस्थिता अयोगिनःशैलेश्यत्र- जोएणेत्यादि । ज्योतिस्तेजस्तदेव तत्र वा भवं तैजसं कार्मस्थाः सिद्धाश्चानाहारकाः शेषास्तु जीवाहारकाः श्त्यवगंतव्यं णेन वाहारयात । तैजसकामण हि शरीरे आसंसारभावनि तत्रभवाद्भवांतरं यदासमवेण्या याति तदानाहारको न लज्यते ताज्यामेवोत्पत्तिदेशे गता जीधा प्रथममाहारं कुर्वति ततः यदापि विश्रेण्यामकेन वक्रेणोत्पद्यते तदापि प्रथमसमय पूर्व- परमादारिकमिश्रेण वैक्रियमिश्रणेन वा यावच्चरीरं निष्पद्यते शरीरस्थेनाहारितहितीये त्ववक्रसमये समाश्रितशरीरस्थेन ताबदाहारयति । शरीरनिष्पत्तौ त्यौदारिकेण वैक्रियेण वाऽऽहा तिवक्रष्ये तु त्रिसमयोत्पत्तीमध्यसमयेनाहारक शति।इतरयो | रयंतीति स्थित । सूत्र० श्रु०२ अ० ३ श्रा०। स्त्वाहारक शत वक्रत्रयेतु चतुःसमयोत्पत्तिके मध्यवर्तिनोःस. केवलिनां प्रच्चन्नावाहारनिर्हारो ॥ स०॥ मययोरनाहारकश्चतुःसमयोत्पत्तिश्चैव नवति । प्रसनामया ब- पृथ्वीकायिकादीनामाहारनिरूपणम्-कथं किंवा ते भाह हिरुपरिटादधोधस्ताहापर्युत्पद्यमानो दिशो विदिशि विदि- रन्ति ।। शो वा दिशि यदोत्पद्यते तदा बज्यते । तत्रकन समयेन त्र- सुयं मे आनसते णं जगवया एवमक्खायं इह खलु सनामी प्रवेशो हितीयेनोपर्यधो वा गमनं तृतीयेन च बहिर्नि: आहारपरिमाणामयणे तस्स णं अयमढे इह खबु सरणं चतुर्थेन तु विदिक्षुत्पत्तिदेशप्राप्तिरिति। पंचमसमयस्तु वसनाड्या बहिरेव विदिशो विदिगुत्पत्ती बज्यते । तत्र च मध्य पाईणं वा सव्वत्तो सव्वावंति च णं लोगसि चत्तारि वीधर्तिषु आनाहारक श्त्यवगंतव्यं ।आद्यतसमययोस्वाहारक यकाया एवमाहिति । तं जहा अग्गवीया मूलवीया पोइति । केवलिसमुद्घातपि कार्मणशरीरवर्तित्वानृतीयचतुर्थपं रवीया खंधवीया ते सिं च णं अहाविएणं अहावगासे चमसमयेष्वनाहारको अष्टव्यः शेषेषु वौदरिकतन्मिथवर्तित्वा णं हे गतिया सत्ता पुढवी जोणिया पुढविसंनवा पुढवीवुदाहारक शत (मुहुत्तमऊंचत्ति) अंतर्मुहूत गृह्यते । तच केवल्ली क्कमये तजोणिया तस्सनवा तदुवकमा कम्मोवगा स्वायुषः कये सर्वयोगनिरोधे सति -हस्वपंचाक्वरोकिरणमा अकालम यावदनाहारक इत्येवमवगंतव्यं सिरुजीवास्तु शैले कम्मणियाणेणं तत्थ वृक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढासु श्यवस्थाया आदिसमयादारज्यानंतमपि कामनाहारका रुक्रवत्ताए विउटुंति ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं इति । सांप्रतमेतदेव स्वामिविशेषविशेषिततरमाह। एकं च दोव समए केवसिपरिवज्जिया अणाहारा। पुढवीणं सिणेहमाहारेंति ॥१॥ ॥टी०॥ सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह। तद्यथा श्रुपंचमि दोणि लोए य पुरिए तिन्नि समयाओ। तंमयाऽऽयुष्मता तु भगवतेदमाख्यातं । तद्यथा । आहारपरिएकंचेत्यादि । केवनपरिवर्जिताः संसारस्था जीवा एकंद्वी झेदमध्ययनं तस्य चायमर्थः । प्राच्यादिषु दिक्षु सर्वत इत्यूवा अनाहारका भवंति तेचहिविग्रह त्रिविग्रहोत्पत्ती त्रिचतुः र्वाधो विदिदा च (सवावंतित्ति) सर्वस्मिन्नपि लोके केत्रे सामयिकायां द्रष्टव्यः चतुर्विग्रहपंचसमयोत्पत्तिस्तु स्वल्प- प्रज्ञापकभावदिगाधारजूतेऽस्मिन् चत्वारो बीजकाया बीजमेसत्वाश्रितेपि न साकादुपात्ता । तथा चान्यत्राप्यभिहित ए. व कायर्या येषां ते तथा बीजं वक्ष्यमाणं चत्वारो बोजप्रकारा कं ही वानाहारकः। वाशब्दात् त्रीन् वा आनुपूर्व्या अत्युदन समृत्यत्तिनेदा नवति तद्यथा अग्रे बीजं येषामुत्पद्यते तेतलता उत्कृष्तो विग्रहगो चतुरः समयानागमेऽभिहिताः तेच ।। निसहकारादयः शाल्यायो था। यदिवाप्राएयेवोत्पत्ती Jain Education Intemational Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२० ) अभिधानराजेन्द्रः । आहार कारणतां प्रतिपद्यते येषां कोरंटादीनां ते अप्रबजिास्तथा मूबीजा आर्द्रकादयः पर्वबीजास्त्विक्ष्वादयः स्कंधबजाः स लक्यादयः । नागार्जुनयास्तु पति (वणस्सश्काश्याणं पंचविदा जयती पपमादिज्जर से जदा भमापो यहा उडापि पहिया समृद्धिमा बाजा यथा दव मनीषु नानाविधानि हारितान्युरुवंति पनिन्यो वाऽनिनयतमागादाविति तेषां च चतुर्विधानामपि वनस्पतिकवान यद्यस्य वीजमुत्पत्तिकारणं तद्यथा बीजं । तेन यथावी जेनेति । श्वमुक्तं भवानि । शाल्यंकुरस्य शानिजमुत्पत्तिकारणं । एवमन्यदपि षष्टव्यं । यथावकाशेति यो यस्यावकाशः यथस्योत्पत्तिस्थानमथवा भूम्यंबुका लाकाशबी जसंयोगा यथावकाशे गृहांते तेनेति । तदेवं यथाबीजं यथावकाशेन हासिन जगत् केचन सस्या ये तथाविधकमयानस्पतित्पित्सस्ते हि वनस्पतत्पद्यमाना अपि पृथिवीयो निका नवति यथा तेषां वनस्पतिबीजं कारणमेवमाधारमंवरेणोत्पत्तेरभावात्पृथिव्यपि शैवाल अंबालादेरुदकवादति । तथा पृथिव्यां संभवः सदा भवनं येषां वनस्पतीनां तथा । रुदमुकं भवति न से सोनिकापस्थितिकायेति । तथा पृथिव्यामेव विविधानम पृथिन्युक्रमाः । इदमुक्तं प्रचति। पृथिव्यामेवतेपासू कणा वृद्धिर्भवति । एवं च ते तद्यो निकास्तत्संभवास्तदूव्युमाइत्येतदाप्यपरं वा आद कम्मोयगात्यादि । ते हि तथाविधेन वनस्पतिकायसंभवेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तेष्वेव वनस्पतिपसामीप्येन तस्यामेव पृथिव्यां गीतिका भयंते तेहि कर्मचास्पतिकायादागत्य तेष्वेव पुनरपि वनस्पतिषूत्पद्यते । न चान्य श्रोप्ता अन्यत्र जविष्यंती ति उक्तं च । “कुसुमपुरोते बीजे मथुरायां नाङ्कुरः समुङ्गवति । यत्रैव तस्य बीजं तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः तया ते जीवाः कर्मनिदानेन कारणेन समाकृष्यमाणास्तत्र वनस्पतिकाये वा व्युक्रमाः समागताः संतो नानाविधयोनिकासु पृथिवीचित्यन्येषामपि पच कायानामुत्पत्तिस्थानभूतासु सचिताऽचित्तमिश्रासु वा श्वतकृष्णादिवर्णतिक्तादिर ससुरन्यादिगंधमृदुकर्कशादिस्पर्शादि के विकल्प कारा भूमिषु वृक्कतया विविधा वर्तते ते च तत्रोत्पन्नास्तासां पृथि ari स्नेहं स्निग्धभाषमाददते स एव च तेषामाहार इति । नच ते पृथवी शरीरमादारयतः पृथिव्याः पीनामुत्पादयति ॥ सूत्र० . २ - ६ । ते जीवा आहारेति पुडवीशरीरं आतशरीरं शरीरं वाजशरीरं वणस्सइसरीरं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं चित्तं कुब्बत परिवित्यं तं शरीरं पुण्या हारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूवियकरुं संतं प्रवरेचियर्स पुढचोणिवाणं स्ववाणं सरीरा जाणाबाणा णागंधा खाणारसा णाणाफासा हाणासंाणसंविया पाणा विहसरीरपुग्गलविड व्वित्ता ते जीवा कम्मोभगा जयतीति मनवार्य ॥ 39 पी डी० पचमकावतेजोवायुवनस्पतीनामाज्यं । कानुत्पादनेऽयं दृष्टान्तः । तद्यथा । अएकोद्भवाद्या जीवामातुरुमणा विवर्धमाना गर्नस्था एवोदरगाहारतो नातीच पीमामुत्पादयत्येवमसावपि वनस्पतिकायिकः पृथि आहार 1 वी स्नेहमाहारयन्नावि तस्याः पीमामुत्पादयति उत्पद्यमानः समुत्पनाच वृषिमुपगतो ऽसरवरचा बा विदध्यादपीति । एवमकायस्य भौमस्यांतरितस्य वा शरीरमाहारयति तथा तेजसो प्रस्मादिकं शरीरमाददति । एवं बाय्यादेरपीति प्रष्टव्यं । नानाविधानां प्रस स्थावराणां प्राणिनां यच्छरीरं तत्ते समुत्पद्यमाना श्रचितमपि स्वकायेनाचष्टज्य प्रासुकी कुर्बति । यदि वा परिविभ्यस्तं पृथि श्रीयादिशरीरं किंचित्परितापितं कुर्वेति ते वनस्पतिजीया तेषां पृथिवीकायादीनां तरी पूर्वमाहारितमिति तैरेव पृथिवी कायामित्यभिदारितवासी पकायायेन परिणामितमासीत् । तदधुना वनस्पतिजीवस्तत्रोत्पद्यमान उत्पन्नो वा त्वचा स्पर्शेनाहारयत्याहार्य च स्वकायत्वेन विपरिणामयति विपरिणामितं च तच्छरीरं स्वकायेन सह स्वरूपतां नीतं सतन्मयतां प्रतिपद्यते । अपराएयपि भूझ शाखा प्रतिशाखापत्रपुष्पफलादीनि तेषां पृथिवीकायिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि तथादिचस्यान्यधातो वर्णो सूत्रस्य चान्याह इति । एवं यावज्ञानाविपशरीरेषु पुत्राविकुर्वितास्ते भवतीति । तथाहि । नानारसवीर्यविपाका नानाविधपुरुझोपचयात्सुरूपकुरूपसंस्थानास्ते भवतीति । तथा दृढाल्पसंननाः कृशस्थूअकं भवत्येवमादिका नानाविधस्वरूपाणि ति स्थितम् ! केषांचिच्छाक्यादीनां वनस्पत्याद्या स्थावरजीवा एव न भवतीति तत्पतिषेधार्थमाद से गांवा इत्यादि । ते वनस्पतिपुत्पन्ना जीवा उपयोग हत्या श्रीपानां तेषामन्यायो त्सर्पणादिकया क्रिययोपयोगो लक्ष्यते । तथा विशिष्टाहारोपचयापचयाच्यां शरीरोपचयापचयसङ्गावादर्भकजीवाः स्थावरास्तारोहणात्स्यायात्सत्यमपहरणे मरणादित्ययमा दयो देवयोग्याः यदत्र केचित्पटेपि वनस्पतीनां चैन्ये सिद्धनिकांतिकाचादिकमुकं स्वदर्शनानुरागा तदपनी न हि सम्यगाई तमताभिज्ञो ऽसिरुविरुद्धानैकांतिकोपन्यासेन व्या मोद्यते सर्वस्य कयाचिदज्युपगतत्यात्प्रतिषिद्धत्याच्चेति तेजीवास्तत्र वनस्पतिषु तथाविधेन कर्मणा उपपन्नगाः । तथेदं एकेंद्रियजातिस्थावरवामवनस्पतियाम्यायुष्कादिकमिति त कर्मोदयेन रात्रोत्पला उप्यते न पुनः कालेश्वरादिना तत्रोत्याद्येते स्वमाख्यातं तीर्थकरादिभिरिति । एवं तावत्पृथिवीयोनिका वृक्का अभिहिताः सूत्र० श्रु० २ ० ३ । सांप्रतं तपोनिष्येव वनस्पतिषु अपरे समुत्पद्यत इत्येत ईर्शयितुमाह । सूत्र महावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंजना क्युकमा तोणिया तस्मैजवाबकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं । तत्थ वृक्कमा पुढवी जो एहिं रुक्खेहिं रुक्खत्ताए विजति ते जीवा तेसिं पुढ बीजोणियाणां रुक्खाणं सिरोहमाहारेति ते जीवा आहारेंति पुढवी सरीरं आउतेजवाजवणस्सइसरीरं णाणाविद्वाणं तसचावराणं पणाणं सरीरं अचितं कुवंति परिचित्यं तं सरीरं पुष्याहारियं तपाहारिचं विष्परिणाम साविक संतं अरेवियो तेर्सि रुक्रव जोणियाणं समस्याएं सरीरा णाणावना णाणागंधा हाणारसा णाणाफासा णाणासंत्राणसंठिया वाणाविट Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२१) आहार प्राहार अनिधानराजेन्द्रः। सरीरपुग्गल विनचिया ते जीवा कम्मोववनगा जवं- | अचित्तं कुवंति परिविछत्यंतं सरीरंग जाव सारूविकर्म तीतिमक्खाय ॥३॥ संत अवरे वि यणं तेसिं रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं टी। सुधर्मस्वामी शिष्योद्देशेनेदमाह ॥ अथापरमेतदा क्खंधाणं तयाणं सामाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा ख्यातं पुरा तीर्थकरेण यदि वा तस्यैव वनस्पतेः पुनरपर वक्ष्यमाणमाख्यातं यद्यथेहास्मिन् जगत्येके केचन तथाधि णाणावमा णाणागंधा जाव णाणाविहसरीरं पुग्गलविउधकाँदयवर्तिनः सत्वाः प्राणिनो वृक्का पव योनिरुत्पत्तिस्था वित्ता ते जीवा कम्मोववनगा जवंतीति मक्खायं ॥५॥ नमाश्रयो येषां ते वृकयोनिकाः । इह च यत्पृथिवीयोनिकेषु अथापरमेतत्पुराऽण्यातं यदयमाणमिहैके सत्वा वृक्तयोवृतवभिहितं तदेतेष्वपि वृकयोनिकेषु वनस्पतिषु तपच निका नवति तत्र ये ते पृथिवीयोनिका वृक्कास्तेष्वेव प्रतिप्रदेयकर्तृसर्वमायोज्यं यावदाख्यातमिति। सूत्र. श्रु०२ अ० ३।। शतया ये परे समुत्पद्यते तस्यैकस्य वनस्पतेर्मसारंजकस्योसाम्प्रतं वनस्पत्यवयवानधिकृत्या ऽऽह ॥ पचयकारिणस्ते वृक्तयोनिका इत्यभिधीयते । यदि वा ये ते अहावरं पुरक्खायंगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्ख मूलकंदस्कंधशाखादिकाः पूर्वोक्तदशस्थानवर्तिनस्त एषमनिसंजवा रुक्खवुकमा तजोणिया तस्संजवा तदुवकमा क धीयते तेषु च वृक्कयोनिकेषु वृक्केषु कर्मोपपादननिष्पादितेषु उपर्युपरि अध्यारोहंतीत्यध्यारुहावृक्कोपरिजातावृतानिधानाः म्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ बुक्कमा रुक्खजोणिएसु कामवृक्कानिधाना वा द्रष्टव्यास्तदभावे वाऽपरे वनस्पतिकायाः रुक्खत्ताए विनति ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं समुत्पद्यते वृक्तयोनिकेषु वनस्पतिविति। हापि प्राम्यश्चत्वारि सिणेहमाहारैति ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं पाउते सूत्राणि अष्टव्यानि। उवाउवणस्सइसरीरं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं अहावरं पुरक्खायं श्हेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया कुव्बंति परिविक्षत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारिय रुक्खसंजवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया तस्संनवा तदुवविपरिणामियं सारूविक संतं अवरेवियणं तेसिं रुक्ख कमा कम्मोववनगा कम्मनियाणेणं तत्य बुकमा रुक्खजणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावना जाव ते जीवा जोणिएहिं रुक्खेहिं अजमारोहत्ताए विनति ते जीवा कम्मोववनगा जवंतीति मक्खायं ॥४॥ तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा अथापरमेतदाख्यातं तदर्शयति । हास्मिन् जगत्येके न सर्वे आहारैति पुढवीसरीरं जाव सारूविक संतं अवरे वि. तथाविधकर्मोदयवर्तिनो वृक्योनिकाःसत्वा भवति तदवयवा यणं तेसिं रुक्खजोणियाणं अकारहाणं सरीराणाणा श्रिताश्च परे वनस्पतिरूपा एव प्राणिनो भवति तथा यो धेको वनस्पतिजीवः सर्ववृत्तावयवव्यापी भवति तस्य चापरे तद वन्ना जाव मकरवायं ॥६॥ वयवेषु मूलकंदस्कंधत्वक्शाखाप्रवासपत्रपुष्पफसवीजभूतेषु तद्यथायोनिकेषु वृक्केष्वपरेभ्यारुहाः समुत्पद्यतेतेच तत्रोत्प नाःस्वयोनिनूतं वनस्पतिशरीरमाहारयति तथा पृथिव्यप्तेजोधा दशसु स्थानेषु जीवाः समुत्पद्यते ते च तत्रोत्पद्यमाना वृक्त रवादीनां शरीरकमाहारयति तथा तच्चीरमाहारितं सदचित्तं योनिका वृक्तव्युत्क्रमाश्चोच्यते इति । शेषं पूर्ववत् ह च प्रा विध्वस्त परिणामितमात्मसात्कृतं स्वकायावयवतया व्यवस्थाकचतुर्विधार्थप्रतिपादकानि सुत्राण्यभिहितानि । तद्यथा वन. पर्यत्यपराणि च तेषामभ्यारुहाणां नानाविधरूपरसगंधस्पस्पतयः पृथिव्याधिताभवंतीत्येकं १ तजरीरं अकायादिशरीरं शोपेतानि नानासंस्थानानि शरीराणि नवांत ते जीवास्तत्रवा हारयंतीतिहितीयं तथा विवृक्षास्तदाहारितं शरीर- स्वकृतकर्मोपपन्ना जवंतीत्येतदाख्यातमिति प्रथम सूत्रम् |सूत्र० मचित्तं विश्वस्तं च कृत्वात्मसात्कुर्वतीति तृतीयं ३ अन्यान्य ७०२ ० ३। पि तेषां पृथिवीयोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि मूलस्कंधकं अहावरं पुरक्खायं शहगतिया सत्ता अज्कारोहजोणिया दादीनि नानावानि भवंतीति चतुर्थ ॥ ४ ॥ एवमत्रापि घनस्पतियोनिकानां वनस्पतीनामेवंविधार्थप्रतिपादकानि चतु. अज्मारोहसंजवा जाव कम्पनियाणेणं तत्व बुक्कमा रुक्ख प्रकाराणि सूत्राणि अष्टन्यानीति यावत्ते जीवा वनस्पत्यवयव जोणिएसु अज्मारोहेसु अज्मारोहताए विउति ते मुझस्कंधादिरूपाः कर्मोपपन्नगा भवत्येवमाख्यातं । सूत्र-श्रु. जीवा तेसिं अज्कारोहजोणियाणं अज्मारोहाणं सिणे. २-अ.३॥ हमाहारेति ते जीवा आहारेंति ते जीवा पुरवीसरीरं अथ वृकोपर्युत्पन्नान वृक्तानाश्रित्याह । जाव सारूविक संतं अवरे वि यणं तेसिं अज्मारोहअहावरं पुरक्खायं हेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्ख जोणियाणं अज्कारोहाणं सरीरा णाणावमा जावमसंजवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया तस्सजवा तवक्कमा क्खायं ॥ ७॥ कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा रुक्खजोणिए हितीयं त्विदमथापरं पुराख्यातं । ये ते प्रावृक्कयोनिषु वृक्केसु रुकावेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए नयत्ताए सास षु अध्यारुहाः प्रतिपादितास्तेष्वेवोपरि प्रतिप्रदेशोपचयकर्ताताए पवासत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फमत्ताए बीयत्ताए रोऽध्यारुहवनस्पतित्वेनोपपद्यते ते च जीवा अध्यारुहप्रदेशेविउदृति ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेह- वृत्पना अध्यारुहजीवास्तेषां स्वयोनिनूतानि शरीराण्याहार यंति । तथाऽपराण्यापि पृथिन्यादीनि शरीराणि आहारयांत माहोरेंति ते जीवा आहारति पुढचीसरीरं आनतेउवाउ अपराणि चाध्यारोहसंभवानामध्यारुहजीवानां नानाविधयर्ण वणस्सइमरीरं जाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं कादिकानि शरीराणि जयंतीत्यवमाख्यातं । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२२ ) अभिधानराजेन्द्रः । आहार महावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता अजारोहजोलिया अज्जारोह संजवा जाव कम्पनियाणेणं तत्य वुक्कमा अज्जारोहजोगिएसु अज्कारोहचाए विजति ते जीवा तेसिं अज्जारोह जोशियाणं अज्जारोहाणं सिणेहमा हारेंति ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरा आउसरीरा जावसारूविक संत अवरे वि य णं तेसिं अज्जारो हजोणियाणं अज्जारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जाव मक्वायं ॥ ८ ॥ तृतीयं त्विदं ॥ श्रहावरमित्यादि । अथापरं पुराख्यातं तद्यथा इहैके सत्वा अभ्यारुहसंभवेष्वभ्यारुहत्वेनोपपद्यते ये चैवमुत्पद्यं तेऽभ्यारुहजीवा आहारयंति तृतीये त्वभ्यारुड्यो निकानामध्यारुहजीवानां शरीराणि षष्टव्यानीति विशेषः । महावरं पुरकखायं इहेगतिया सत्ता अज्कारोह जोणिया अज्जारोहनवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा - मारोहजो पिए जारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विहंति ते जीवा तेसिं अज्जारोहजोणियाणं अज्जारो हा सिणेहमाहारेंति जाव अवरेवियां तेसिं अज्जा रोहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाएं सरीरा णाणावन्ना जाव मक्खायं ॥ ए ॥ इदं तु चतुर्थकं तद्यथा ( अहावरमित्यादि ) अथापरमिदमाख्यातं । तद्यथा के सत्वा अभ्यारुह योनिकेष्वभ्यारुहेषु मूलकंद स्कंधत्वक्शाखाप्रवालपत्रपुष्पफल बीजभावनोत्पद्यते ते च तथाविधकर्मोपगा नवतीत्येतदाख्यातमिति शेषं तदेवेति । साम्प्रतं वृकव्यतिरिक्तशेषवनस्पतिकायमाश्रित्याह । अहावरं पुस्क्वायं इहेगतिया सत्ता पुढविजाणिया पुढविसंजवा जाव णाणाविह जोगियासु पुढवीसुतणत्ताए विहंति ते जीवा तेसिं णाणाविह जोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना जयंतीति मक्वायं १० एवं पुढविजाणिएस तणेसु तणत्ताए विज हंति जाब मक्खायं ११ एवं जोणिए तो तणता विउति तणजोणीयं तणसरीरं च आहारेंति जाव मक्वायं १२ एवं त जोणिएस तणेसु मूलत्ताए जाव बीय विजर्हति ते जीवा जाव एवमक्वायं १३ एवं ओसहीणं विचत्तारि आलावगा १४ एवं हरियाणं विचत्तारि आ भावगा ।। १५ ।। साम्प्रतं वृकन्यतिरिक्तं शेषवनस्पतिकायमाश्रित्याह । (अहावरमित्यादि ) अथापरमिदमाख्यातं यमुत्तरत्र वक्ष्यते । तद्यथा st सत्त्वाः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसंभवाः पृथिवीव्युत्क्रमा इत्यादयो यया वृकेषु चत्वार आलापका एवं तृणान्यप्याश्रित्य । ते चामी नानाविधासु पृथिवी योनिषु तृणत्वेनोपपद्यते पृथिव शरीरं चाहश्यन्ति १० द्वितीयं तु पृथिवीयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यन्ते तृष्णशरीरं चाहारयंतीति ११ तृतीयं तु तृणयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यते तृणयोनिकं शरीरं चाहारयंतीति १२ चतुर्थ तृणयोनिकेषु तृणावयवेषु सूझादिदशप्रकारेष् For Private आहार त्पद्यते तृणशरीरं चाहारयंत्येवं यावदाख्यातमिति १३ एव मौषध्याश्रयाश्चत्वार आलापका जणनीयाः १४ नवरमैौषधिग्रहणं कर्तव्यमेवं हरिताश्रयाश्चत्वार श्रमापका भणनीयाः । कुहणे त्वेक ararusो द्रष्टव्यस्तद्योनिकानामपराम भावादिति नायः । हावरं पुरवखायं इगतिया सत्ता पुढबिजोलिया पुढविसंवा जाव कम्पनियाणणं तत्य बुकमा णाणाविहजो णियासु पुढवी आयत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूहणare कंदुकत्ताए उव्वेहयित्ताए निव्वेहणियत्ताए सत्ताए उत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउति ते जीवा तेसिं णाणाविह जोणियाणं पुढवीणं सिणेहमातिते वि जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं वरे विय तेसिं पुढबिजो शियाणं श्रायत्ताणं जाव कुराणं सरीरा वा जाव मक्खायं एगो चेव आलावगो सेसा तिमि यत्थि ॥ १६ ॥ इह चामी वनस्पतिविशेषा लोकव्यवहारतोऽनुगंतव्याः प्रज्ञापातो वावसेया इति । अत्रार्थे सर्वेषामेव पृथिवी यो निकत्वात्पृथिवीसमाश्रयत्वेनाभिहिताः इह च स्थावराणां वनस्पतेरेव स्पष्टचैतन्यलक्षणत्वात्तस्यैव प्राक्प्रदर्शितं चैतन्यं । सांप्रतमकाययोनिकस्य वनस्पतेः स्वरूपं दर्शयितुमाह । अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोलिया उद्गसंजवा जाव कम्मनियाणेणं तत्य वृक्कमा णाणावि हजो एिएस उदरसु रुक्खत्ताए विउर्हति । ते जीवा ते सिं णाणाजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं वरेत्रिय णं तेसिं उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावस्या जाव मक्खायं । जहा पुढबिजोलियाणं चत्तारि गमा अज्जारुहाणं वि तदेव तणाणं प्रसहीणं हरियाणं चत्तारि आज्ञावगा जणियव्वा । एक्केके तहा उदगजोणियाणं रुक्खाणं इक्कके।। १७॥ ग्रहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उ दगजोलिया उदगसंजवा जाव कम्मणियाणं तत्य वुक्कमा णाणाविह जोणि एसु उदयेसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगचार सेवाला कलंबुगत्ताए हमत्ताए कसेरुगत्ताए कच्छजाणियता उप्पलत्ताए पलमत्ताए कुमुयत्ताए नलिए त्ताए सुगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंमरियताए महापमरियताए सयपत्ताए सहस्सपत्ताए एवं कहलारकोकणपत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए जिसनिसमुणासपुक्खन त्ताए पुक्खअस्थिजगत्ताए विजयंति ते जीवा तेसिं णाणाविह जोणियाएणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेति पुढवी सरीरं जाव संतं वरेवियां तेसिं उद्गजोणियाणं उद गाणं जाव पुक्खलत्थिनगाणं सरीरा पाणावस्या जाव मक्खायं एगो चैव झवगो ॥ १८ ॥ ( अहावरमित्यादि) अथानंतरमेत ह्रक्ष्यमाणमाख्यातं तद्यथा Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आहार के सत्वास्तथाविधकर्मोपचयादुदकं योनिरुत्पत्तिस्थान येषां ते तथा । तथेोदके संभवो येषां ते तथा । यावत्कर्मनिदानेन संदानितास्तदुपक्रमा भवतीति ते च तत्कर्मवशगा नानाविधयोनिषूदकेषु वृकत्वेन व्युत्क्रामत्युत्पद्यते । ये च जीवा asयोनिका वृत्वेनोत्पनास्ते तच्छरीरमुदकं शरीरमाहारयति न केवलं तदेवान्यदपि पृथिवी कायादिशरीरमाहारयंतीति शेषं पूर्ववत् यथा पृथिवी योनिकानां वृकाणां चत्वार श्र areer एवमुदकयानिकानामपि वृकाणां नवंतीत्येवं द्रष्टव्यं परस्य प्रागुक्तस्य विकल्पाभावादिति किं तर्हि एक एवा झापको भवति १७ एतेषां हि उदकाकृतीनां वनस्पतिकायानां तथावयवपनक शैव त्रादीनामपरस्य प्रागुक्तस्य विकल्पस्याs भावादिति । एते च उदकाश्रया वनस्पतिविशेषाः कलंबुका shirt लोकव्यवहारतोऽवसेया इति ॥ १८ ॥ साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वनस्पत्याश्रयमालापकत्रयं दर्शयितुमाह । हावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता तेसिं चैत्र पुढवीएहिं रुक्aहिं रुक्खजोगिएहिं रुक्खेहिं रुक्खजो मूत्रेहिं जाव एहिं रुक्खजोगिएहिं अज्कारोहिं अारोह जोणिएहिं अज्कारुहेहि अज्जारोहजोगिएहि मूजेहिं जाव बीएहिं पुढ विजोणिएहिं तहिं जो णिएहिं तहिं तणजोणिएहिं मूलेहिं जात्र बीएहिं एवं सहीहिं वितिनि आलावा एवं हरिएहि वितिभि लावगा पुढविजोणिएहिं वि हिं काहिं जाव क्रूरेहिं उदगजोणिएहि रुक्खेहिं रु जो णिएहिं रुक्खेहिं रुक्खनो णिएहिं मूलेहिं जाव बीहिं एवं प्रारुहेहिं वितिमि तणेहिं वितिमि लागा सहीहिं वि तिमि हरिएहिं वितिमि उदगजोणिएहिं उदरहिं अवएहिं जाव पुक्खलत्थि - एहिं तसपाणत्ताए विउति || १ || तद्यथा । पृथिवी योनि कैर्वृकैवृक्कयोनि कैर्वृकैस्तया वृक्कयोनिकैर्मू आदिभिरिति एवं वृक्कयो निकैरभ्यारु है स्तयाऽभ्यारुहयो निकैर्मूत्रादिभिरिति एवमन्यपि तृणादयो व्याः एवमुदकयोनिकेष्वपि वृकेषु योजनीयं ॥ १५ ॥ तदेवं पृथिवी योनिक वनस्पतेरुदकयानि कवनस्पतेश्च भेदानुपदर्थ्याऽधुना तदनुवादेनोपसंजिघृकुराह ॥ जीवा तेसिं पुढव जोणियाणं जदगजोणियाणं रुक्खजोणियाएं अज्जारोहजालियाणं तएजोलियाणं श्रोसही जोगियाणं हरियजोणियाणं रुक्खाणं अज्जारुहा तणा सहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव करवाणं उदगाणं गाणं जाव पुक्खञ्जत्थिनगाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा आहारैति पुढवी सरीरं जाव संतं वरे वि य एंतेसिं रुक्खजोणया अज्कारो जोणियाणं तबजोलियाणं प्रोसहि जोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोगियाएं कंदजोशियाणं जाव बीयजोणियाणं आयजोणियाणं कायजोणि आहार याणं जाव क्रूरजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणिया जाव पुक्खलत्थिनगजाणियाणं तसपाणाणं सरीरीराणावा जाव मक्खायं ॥ २० ॥ (तेजीवा इत्यादि) ते वनस्पतिपुत्पन्ना जीवाः पृथिवी योनिकानां तथोदकवृकाभ्यारुहतृण । षधिहरितयोनिकानां वृक्षाणां यावत्स्न हमारयतीत्येतदाख्यातमिति । तथा त्रसानां प्राणिनां शरीर महारयन्त्येतदवसाने द्रष्टव्यमिति । तदेवं वनस्पतिकायिकानां सुप्रतिपाद्यचैतन्यानां स्वरूपमभिहितं शेषाः पृथ्वीकायादयश्वत्वार एकैडिया उत्तरत्र प्रतिपादयिष्यंत । सूत्र. शु. २ अ. ३ । उत्पन्नादिजीवानामाहारो वनस्पतिशब्दे | मनुष्याणाम् ॥ सांप्रतं कावसरः स च नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेafter as arrer अप्रत्यकत्वेनानुमानग्राह्या दुष्कृतकर्मफलजः केचन संतीत्येवं ते ग्राह्या तदाहारो ऽप्येकान्तेना पुननिवर्त्तितजसा प्रकेपेणेति । देवा अप्यधुना बाहुल्येनानुमानगम्या एव तेषामप्याहारः शुभ एकांतेनीजो निवर्तितो न प्रकेपकृत इति । सचाभोगनिवर्तितो नाजोगकृतश्च । तत्र नाभोगकृतः प्रतिसमयभावी आनोगकृतश्च जघन्येन चतुर्जककृत उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्रनिष्पा दित शर्त शेषास्तु तिर्यङ्मनुष्यास्तेषां च मध्ये मनुष्याणामज्यर्हितत्वात्तानेव प्रान्दर्शयितुमाह ॥ महावरं पुरखायं पाणाविहाणं मणुस्साणं तं जहा कम्पनूम गाणं कम्म मगाएं अंतरदी वगाणं अरियाणं मिलक्खयाणं तेसिं च णं अहावीएणं अहावकासे इत्यी पुरिसस कम्मकमाए जोणिए एत्थणं मेहु बत्तिया वणामं संजोगे समुप्पज्जइ ते हयो वि सिणेहं संचिति तत्थं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए एपुं सगत्ताए विजति ते जीवा माओओ पिठसुकं तं तनयं संसद्धं कसं किञ्चिसं तं पढमत्ताए आहारमाहा रेंति ततो पच्छा जं से माया पाणाविहान रसविईड आ हारमाहारेति ततो एगदेसेणं श्रयमाहारेंति प्रणुपुच्चे बुढा पचिपागमविना ततो कायातो अभिनित्रमाणा इति वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति पुंसगं वेगया जयंति ते जीवा महरा समाया माउक्खीरं सप्पि आहा रेति प्रणुपुत्रेण बुड्ढा प्रयणं कुम्मासं तसथावरेय पाणे ते जीवा हात पुढविसरीरं जाव सारूविकमं संतं वरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मगाणं कम्प्रमाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खू सरीरा पाणावस्था जर्वतीति मक्खायं ॥ २१ ॥ (अथावरं पुरक्खाय) मिल्यादि । अयानंतरमेव तु पुरा पूर्वमाख्या तं तद्यथा श्रार्याणामनार्याणां च कर्मभूमिजा कर्म भूमिजादीनां मनुष्याणां नानाविधयोजिकानां स्वरूपं वक्ष्यमाणनीत्या समा ख्यातं तेषां च स्त्री नपुंसक नेद जिम्नानां । यथाबीजनेति । यद्यस्य बीजं तत्र स्त्रियाः संबंधि शोणितं पुरुषस्य च शुकं एतदुभयमप्य. विध्वस्तं काधिकं सम्मनुष्यस्य शोणिताधिकं स्त्रियास्तत्स Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार मता नपुंसकस्य कारणतां प्रतिपद्यते । तथा यथावकाशनेति । योऽर्थस्यावकाश मातुरुदरकुत्यादिकस्तत्रापि किन नामा स्त्रिया दक्षिणा कुकिः पुरुषस्योभयाश्रितः पंढ इति । अत्र चाविध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजमिति चत्वारो भंगाः तत्राप्याद्य एव मंग उत्पत्तेरवकाशोन शेषेषु पुंसयोर्वेद ये सति पूर्वकर्मनिवर्तितयां पोनी मैथुनाधिको रताभिला षोदयजनितोऽग्निकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सवो जंतव स्कार्मणाज्या शरीराज्यां कर्म नितास्तत्रोत्पचंते तेच प्रथममुनयोरपि स्नेहमाचिन्वत्यविभ्यस्तायां योनी सत्यामिति । विध्वस्यते तु योनिः "पंचपंचाशिका नारी सप्तसप्ततिः पुरुष इति” तथा द्वादश मुहुर्त्तानि यावच्तुक्रशोणिते श्रविध्वस्तयोनि प्रवतस्तत ऊर्ध्व ध्वसमुपगच्छत इति । तत्र जीया उजयोरपि मा स्वकर्मविपाकेन यथा स्वं स्त्रीपुत्रपुंसकभावेन । ( विचतिति ) वर्तते समुत्पद्यंत इति यावत् । तडुतरकालं च स्त्री कुक्की प्रतिप्ताः सन्तः स्त्रिया हा रितस्याहारस्य निर्यासं समाददति तत्कोनच ते जंतून क्रमोपचयादानेन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते ( सप्ताह कल दोसता इत्यादितमनेन क्रमेण तदेकदेशेन या मातुराहारमोजसा मित्रेण वा झोमनिर्वानुपूर्वेणाहारयति यथाकममानुपूर्वेण वृद्धिमुपागताः संतो गर्नपरिपार्क गर्न यति मनुमतो मातुः कायादजिनियर्तमानाः पृथग्भवंतः संतस्तद्योर्निर्गति । ते च तथाविधकर्मोदयादात्मनः स्त्रीभावमप्येकदा जनवादयत्यपरे केचना नपुंसकमा च । इदमुक्तं नवति । स्त्रीपुंनपुंसकभावः प्राणिनां स्वकृतकर्म निवर्तितो भवति न पुनर्यो पर नवे सोमवारयेति ते दर्जातवाका संतः पूर्वभवान्यासादाहाराजियामिति मातुः स्तन्यमाहारयेति तदाहारेण चानुपू. व्येण च वृद्धास्तचरका नवनीतस्योदनादिकं याय व्यापाद भेजते तचादार ने पगताखसार स्थापना नस्ते जीवा आहारयंति तथा नानाविधपृथिवीशरीरं लवणा. दिकं सचेतनं घाहारयंति तचाहारितमात्मसात्कृतं सारूप्य मापादितं सत्रसार मांसमेदोऽस्थिमणि घातय इति सा व्यवस्थापयत्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानावर्णम्याविर्भवति । ते च तद्योनिकत्वात्तदाचारलतानि नानावर्णानि शरीराख्यादरपंत ( ५२४ ) अभिधानराजेन्द्रः । मिति ॥ २१ ॥ सूत्र० . २ अ. ३ । तिर्यग्जलचराणाम् | पाचयुत्तमनुष्याः प्रतिपादितास्तदनंतर सं नजानामवसरस्तांश्चोत्तरत्र प्रतिपादयिष्यामि । तिर्यग्योनिकस्तथापि जलचरानुद्दिश्याद महावरं पुरखायं णाणाविहाएं जन्नचराणं पचिदियतिरिक्खजोणियाणं । तं जहा । मच्छाएं जाव सुसमाराणं सिंअहावीर अढागासेणं इत्थीए पुरिसस्स कम्पकमा तब जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेति पुत्रेणं बुढा पलिपागमणुविना ततो कायाओ अजिनिमाण वेगया जणयंति पोयं वेगया जण. यंति से उज्जिज्जमाणे इत्थि वेगया जलयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुंसगं वेगया जणयंति ते जीवा आहार महरा समाणा सिणेहमाहारेंति आणुपुत्रेणं वुढा यतिकार्य तावरे व पाये ते जीवा आहारेति । पुदवीसरीरं जाव संत अपरे विषणं तेसिं नानाविहागां लचरपंचिंदियतिरिक्खजोगियाएं मच्छाणं सुसुमाराणं सरीरा जाणावा जाव मस्वायं ॥ २३ ॥ अथानंतरमेतदयमाणं पूर्वमाख्यातं गद्यया । नानाचिपंचेन्द्रियम्पनिकानां संबंधि ग्राहमाह । तद्यथा । ( मच्त्राणं जाव सुसुमाराण ) मित्यादि तेषां मत्स्यकन्पमकरग्राह सुषुमारादीनां यस्य यथा यद्वीजं सेन तथा यथावकाशेन यो यस्योदरादायक पुरुषस्य च स्वकर्मनिवर्तितायां योनाबुत्पद्येते ते च तत्राभिव्यक्ता मातुराहारेण वृद्धिमुपगताः स्त्रीपुंनपुंसकानामन्यतमेनोत्पद्यते । ते च जीवा जलचरा गर्भाद्व्युत्क्रांताः संतस्तदन्तरं यावदति अघवस्तार नेमकाचा त्यति मानुपूर्व्येण च वृद्धाः संतायनस्पतिकाये तथापराधसस्थावरांव्याहारयति यावद्रयानप्याहारयति तथा चोक्तं" अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम शतयोजनविस्तरः । तिमिंगिगोप्यस्ति व्यस्त राधयः " तथा ते जीवापृथिवीश रीर कईमस्वरूप कमेण वृद्धिमुपगताः संत आहारपति तथा दारितं समानरूपकृतमात्मसात्परिणामति शेषं सुगमं यावत्पगता भवतीत्येवमाख्यातं ॥ २२ ॥ हावरं पुरखायं णाणाविहाणं च नृप्पयथलयरपंचिदि यतिरिकखजोगिया एगरबुराणं दुखुराणं गं मीपदार्थ सणपाणं ते सिंचणं अहावीएं अहात्रगासेणं इत्यपुरिस कम्प जाव मेहुणवत्तिए एामं संजोगे समुपज्जई तेदुसिहं संचित त्यणं जीवा इत्यचार पुरिसत्तार जाव विजति ते जीवा मानओयं पिउसुक्कं एवं जहा महस्वानं शैत्य वि वेगया जगवंति पुरिसं पिनपुसंग पि ते जीवा महरा समाणा माउ क्खीरं सप्पि आहारेति आपृच्वे बुड्ढा वस्त्रका तयाचरेय पाणे ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संतं वरे वि यणं तेसिं पाणात्रिहाणं चनुप्पययज्ञयरपंचेदियतिरिक्खजोलियाणं एगखुराणं जात्र सणप्पयाणं सरीरा णाणावमा जात्र मक्खायं ।। २३ ।। टी० अथापरमेतदाख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां तद्यथा । राणामित्यरादीनां तथा गोमहिण्यादीनां तथा गंभीपदानां हस्तिगंग कादीनां तथा सनखानां सिंहज्याप्रादीनां बचावीजेनाकाशेन सपर्या तयोत्पन्नाः संतस्तदनंतरं मातुः स्तन्यमाहारयंतीति । क्रमेण वृद्धोपरेषामपि शरीरमादारयति। शेष सुगम यावत्कर्मोपगताः भवतीति ॥ २३ ॥ साम्प्रतमुरः परिसर्पानुद्दिश्याह । अहावरंपुरकखायं णाणा विहारांउरपरिसप्पयञ्जयरपंचिंदिय तिरिक्स्पोनियाणां तेखि चणं तं जहा अहीणं अपगराणंभ साक्षिया गोरेगाव अहावीरणं अहारगासे के Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२५) पाहार अभिधानराजेन्डः। माहार इत्थीए पुरिस जाव एत्यणं मेहुणं एवं तं चेव नाण तद्यथा । सा पकिणी तदंगकं पक्काज्यामावृत्य तावत्तिष्ठति तेसिंच णे अंमं वेगश्या जणयति पायं वेगश्या जण यावत्तदंगकं तदृष्मणा हारितेन वृषिमुपगतं सत् कालावस्था परित्यज्य चंचादिकानवयवान् परिसमापय्य भेदमुपयाति यंति से अमे नन्जिज्जमाणे इत्य वेगइया जणयति परिसं तदुत्तरकासमाप मात्रोपनीतेनाहारेण वृद्धिमुपयात शेष विणपुंसगं पि ते जीवा महरा समाणा वानकायमा प्राग्वत् ॥१६॥ हारेति प्राणपुवणं बुला वणस्सकायं तसथावरपाणे ते विकमेन्द्रियाणाम्। जीवा आहारैति पुदवि सरीरं जाव संतं अवरे वियणं तेसिं व्याख्याता पंचेंडिया मनुष्यास्तिर्यञ्चश्व तेषांचाहारोवेधा। णाणाविहाणं नरपरिसप्पयनयरतिरिक्खा पंचिंदियअ आभोगनिवर्तिताऽनाजोगनिवर्तितश्च तानाजोगनिवर्तितः । प्रतिकण जाब्याजोगनिवर्तितस्तु यथास्वं कुवेदनीयोदयहीणं जाव महोरगाणं सरीराणाणावरमा णाणागधा जाव जावीति । मक्खायं ॥४॥ सांप्रत विकलेंद्रियानुद्दिश्याह । टी.नानाविधानां बहुप्रकारणामुरसाये प्रसप्पैति तेषां तद्यथा अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ताणाणाविहजोणिया अहीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणं यथावकाशेन णाणाविहसंजवा णाणाविहवुकमा तज्जोणिया तस्संजवा यथाबीजत्वेन चोत्पत्त्यांमजत्वेन पोतजत्वेन वा गर्भानिर्गच्छ तबुकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ बुक्कमा णाणातीति ते च निर्गता मातुरूप्माणं वायुं चाहारयांत तेषां जाति प्रत्ययेन तेनैवाहारेण कीरादिनैव वृद्धिरुपजायते। शेषं सुगमं विहाणं तसथावराणं पोग्गलाणं सरीरेसु वा सचिचेसु याबदाख्यातमिति॥ वा अचित्तेसु वा अणुसुयत्ताए विउति ते जीवा तेसिं सांप्रतं तुजपरिसर्पानुद्दिश्याह॥ णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहाति ते प्रहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जयपरिसप्पथलयरपं जीवा आहारैति पुढवीसरीरं जाव संतं अवरे विय णं चिंदियतिरिक्खजोणियाणं तं जहा । गोहाणं नन तेसिं तसथावरजोणियाण अणुसूयगाणं सरीरा पाणाव लाण सिंहाणं सरमाणं ससाणं सरघाणं खराणं घर मा जाव मक्खायं ॥ ७ ॥ कोशनियाण विस्सनराणं मुसगाणं मंगुसाणं पयत्नाइ (भहावरमित्यादि) अथानंतरमेतदास्यातमिहास्मिन् संसारे याणं विरालियाणं जोहाणं चनप्पाइयाणं तेसिं च णं एके केचन तथाविधकर्मोदयवार्तिनःसत्वाः प्राणिनो नानावि अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जहा धयोनिकाः कर्मनिदानेन स्वरुतकर्मण उपादाननूतेन तत्रोजरपरिसप्पाणं तहा जाणियध्वं जाव सारूविक सतं त्पत्तिस्थाने उपक्रम्यागत्य नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु अचित्तेषु सचित्तेषु वा (अणुसुयत्तापत्ति) अपरशरीराअवरे वियणं तेसिं णाणाविहाणं नुयपरिसप्पपचिदि भिततया परनिश्रया विवर्तते समुत्पद्यते शति यावत् तेच जीवा ययनयरतिरिक्खाणं तं गाहाणं जाव मक्खायं ॥२५॥ विनीयाः सचित्तेषुमनुष्यादिशरीरेषयकामिकादिकत्वेनोटी० नानाविधाज्या नुजाज्यां ये परिसर्पति तेषां । तद्यथा। स्पद्यते। तथा तत्परिनुज्यमानेषु मंचकादिवचित्तेषु मत्कुणत्वे गोधानकुमादीनां स्वकर्मोपात्तन यथाबीजेन यथावकाशेन नाविर्भवंति तथाऽचित्तीभूतेषु मनुष्यादिशरीरकेषु विकधिचोत्पत्तिर्भवतिातेचांमजत्वेन पोतजत्वेनचोत्पन्नास्तदनंतरंमा- यशरीरेषु वा ते जीवा अनुस्यूतत्वेन परनिश्रयाः कृम्यादित्वेनोतुरूष्मणावायुना वाहारितेन वृमिमुपयाति शेष सुगम यावदा- त्पद्यते । अपरे तु सचित्ते तेजाकायादी मूषिकादित्वेनोस्पयंते ख्यातमिति । यत्र चानिस्तत्र वायुरित्यतस्तदुवा अपि व्याः तथा पृ सांप्रत खेचरानुदिश्याह ॥ थिवीमनुचित्य कुंयुपिपीलिकादयो वर्वादावूष्मणा संस्वेदजा अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं खहचरंपचिंदियतिरि जायते तथोदके पूतरका मोल्लणकन्चमरिकाच्छेदनकादयःस मुत्पद्यते तया वनस्पतिकाये पनकतमरादयो जायते तदेवं क्खजोणियाणं तं जहा चम्मपक्खीणं सोमपक्वणिं समु ते जीवास्तानि स्वयोनिशरीराण्याहारयतिइत्येवमाख्यातमिति । ग्गपक्खीणं विततपक्खीणं तेसिं च णं अहावीएणं सांप्रतं पंचेंद्रियमूत्रपुरीषोदनवानसुमतः प्रतिपादयितुमाह अहावगासेणं इत्यीए जहा उरपरिसप्पाणं नाणत्तं ते एवं दुरूवसंजवत्ताए ॥ २॥ जीवा महरा समाणा मानगात्तसिणेहमाहारेति भानु- एवमिति पूक्तिपरामर्शः । यथा सचित्ताचित्तशरीरनिश्रया पुबेणं बुला वणस्सतिकायं तसयावरे य पाणे ते जीवा विकडियाः समुत्पद्यते तथा तत्संभवेषु मूत्रपुरीषवांतादिषु अपरे जंतवोटविरूपं रूपं येषां क्रम्यादीनां ते दुरूपास्तआहारैति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तसिं संभवत्वेन तनावनोत्पद्यते ते चतत्र विष्ठादौ देहानिर्गते. णाणाविहाणं खाचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चम्म ऽनिर्गते वा समुत्पद्यमाना उत्पन्नाश्च तदेव विष्ठादिकं स्वयोपक्खीणं जावमक्खायं ॥ २६ ॥ निनूतमाहारयति । शेषं प्राग्यत् ॥२०॥ नानाविधानां खेचराणामुत्पत्तिरेवं अष्टव्या यया चर्मपक्किणां एवं खुरदुगत्ताए ॥२०॥ चर्मकीटवल्गुलीप्रभृतीनां तया झामपक्तिणां सारसराजहंस- सांप्रतं सचित्तशरीराश्रयान् जंतून प्रतिपादयितुमाह ( एवं काकबकादीनां समुपकिविततपक्षिणां वहिडीपवर्तिनामतेषां खुरगुत्तापश्त्यादि) एवमिति यथा मूत्रपुरीषादावुत्पादस्तथा यथाबीजेन यथावकाशेन चोत्पन्नानामाहारक्रियेचमुपजायते । तिर्यकशरीरेषु । खुरदुगत्ताएत्ति । चर्मकीटतया समुत्पते । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहार अभिधानराजेन्द्रः। आहार स्वमुक्तं भवति जीवतामेव गोमहिप्यादीनां चर्मणोतः प्रा- तसथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावमा जाव णिनः संमूवते ते च तन्मांसचर्मणी भक्कयति भक्कयंतश्च मक्खायं ॥३१॥ बर्मणो विवराणि विदधतिगच्छोणितेषु विवरेषु तिष्ठतस्तदेव भथापरमाख्यातमिहास्मिन् जगति उदकाधिकारेवा एके सशोणितमाहारयति। तया अचित्तगवादिशरीरेऽपि तया सचि स्वास्तथाविधकर्मोदयातवशोत्पन्नत्रसस्थावरशरीराधारमु सचित्तवनस्पतिशरीरेऽपि धुणकीटकाः संमूळते ते चतत्र दकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा तथोदकसनवा यावत्कर्मसंमूतस्तचरीरमाहारयंतीति ॥ २९॥ निदानेन तत्रोत्पित्सवस्त्रसस्यावरयोनिकेषदकेष्वपरोदकतया साम्प्रतमपकार्य प्रतिपादयिषुस्तत्कारधनूतवातप्रतिपाद- विवर्ततेसमुत्पद्यते ते चोदकजीवास्तेषां प्रसस्थाधरयोनिकानानपूर्वकं प्रतिपादयतीत्याह । मुदकानां स्नेहमाहारयंत्यन्यान्यपि पृथिव्यादिशरीराण्याहार प्रहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता हाणाविहजोणि- यति । तच पृथिव्यादिशरीरमाहारितं सत् सारूप्यमानीयात्मया जाव कम्मणियाणणं तत्थ वृक्कमाणाणाविहाणं तस सात्मकुर्वत्यपराएयपि तत्र प्रसस्थावरशरीराणि निवते ते तेषां थावराणं पाणाणं सरीरेषु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं चोदकयोनिकानामुदकानां नानाविधानि शरीराणि निव तन्ते श्त्येतदाख्यातम् ॥ ३१॥ सरीरगंवायमंसिकंवा वायसंगहियं वा वायं परिगहियं उद्द तदेवं प्रसस्थावरसंजवमुदकयोनित्वेन प्रदाऽधुना निर्विवाएसु जहानागी जबति अहेवाएसु अहेलागी जवति शेषणमकायसंनवमेवाप्कायं दर्शयितुमाह । तिरियंवाएसु तिरियं जागी जबति तं जहा ओसाहिमए अहावरं पुरकरवायं इहे गतिया सत्ता उदगजोणियाणं महियाकरए हरताए सुकोदए ते जीवा तेसिं णाणा जाव कम्मनियाणणं तत्थ बुकमा उदगजोणिएम विहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारैति ते जीवा उदएस नदगत्ताए विउदृति ते जीवा तेसिं उदगआहारेंति पुढविसरीरं जाव संत अवरे वि य गं तेसिं जोणियाणं जीवाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति ते जीवा तसयावरजोणियाणं अोसाणं जाव सुफोदगाणं सरीरा पाहारेति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे विय णं जीवाणं णाणावमा जाव मक्खायं ॥ ३० ॥ नदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा पाणावना जाव (महावरमित्यादि) प्रथानंतरमेतदयमाणं पुरा पूर्वमाख्यातं मक्वायं ॥ ३२॥ हास्मिन् जगत्येके सत्वास्तथाविधकर्मोदया नानाविधयो (महावरमित्यादि)अथापरमाल्यातमिहास्मिन् जगत्युवकानिकाः संतो यावत्कर्मनिदानेन तत्र तस्मिन्यातयोनिके ऽकाये व्युत्कम्यागत्य नानाविधानां बहुप्रकाराणां प्रसानां परम धिकारे या एके सत्वाःस्वकृतकर्मेदियाउदकयोनिषूदकप्त्पते भूतीनां स्थावराणांच हरितसवणादीनां प्राणिनां सचित्ताचित्त तेच तेषामुदकसंभवानामुदकजीवानामात्माधारनूतानां शरीरदभिनेषु शरीरेषु तदप्कायशरीरं वातयोनिकत्वादकायस्य माहारयंति शेषं सुगमं । याबदाख्यातमिति ॥ ३२॥ पायुनोपादानकारणजूतेन सम्यक् ससिकं निष्पादितं तथा सांप्रतमुदकाधारानपरान् पूतरकादिकांखसान् दर्शयितुमाह । बातेनैव सम्यग्गृहीतमभ्रपटांतरनिर्वृत्तं तथा पातेनान्यो- अहावरं पुरक्खायं श्हेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं म्यानुगतत्वात्परिगतं तपोवंगतेषु यतिषवभागी भवत्यप- जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा उदगजोगिएमु उदएसु कायो गगनगतवातवशादिवि संमूर्चते जसं तथाधस्तातेषु तशावत्यधोजागीत्यप्काय एवं तिर्यगतेषु र्तियग्भागी तसपाणताए विनति ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं प्रवत्यपकायः। श्दमुक्तं भवति । वातयोनिकत्वादकायस्य यत्र नदगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं यत्रासौ तथाविधपरिणामपरिणतोनवति तत्र तत्र तत्कार्यनूतं जावसंतं अवरे वियण तेसिं उदगजोणियाणं तसपाणाणं जनमपि संमूर्धते।तस्य चाभिधानपूर्वकं भेदं दर्शयितुमाह। सरीराणाणावमा जाव मक्खायं ॥ ३३॥ तद्यथा(ओससि)अवश्यायः (हिमयेति) शिशिरादा वातेरिता दिमकणाःमिहिका धूमिकाः। करकाम्प्रतीताः(हरतणुयत्ति) ( प्रहाघरमित्यादि ) प्रथापरमेतदाख्यातमिद के सत्वा तृणाप्रव्यवस्थिता जलविदवः शुद्धोदकं प्रतीतमिति । हा हदकयोनिषु चोदकेषु त्रसप्राणितया पूतरकादित्वेन विधर्तन्ते स्मिन्नुदकप्रस्तावे एके सवास्तत्रोत्पद्यते स्वकर्मवशगास्त समुत्पद्यते ते चोत्पद्यमानाः समुत्पन्नाश्च तेषामुदकयोनीनामुद त्रोत्पमास्ते जीवास्तेषां नानाविधानां प्रसस्थावराणां स्वोरप कानां स्नेहमाहारयति शेषं सुगम याबदाख्यातामति ।। ३३॥ स्याधारजूतानां स्नेहमाहारयति ते जीवास्तब्धरीरमाहारयति साम्प्रतं तेजस्कायमुद्दिश्याह ॥ मनाहारकानाजवंतीत्यर्थःशेष सुगमयावदेतदाख्यातमिति३०॥ प्रहावरं पुरक्खायं शहेगतिया सत्ताणाणाविहजोणिया तदेवं वातयोनिकमकार्य प्रदाधुनाऽकायसंभवमेवाकाय जाव कम्मनियाणेणं तत्थ बुकमा हाणाविहाणं तसथावदर्शयितुमाह। राणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगअहावरं पुरक्खायं शेगतिया सत्ता उदगजोणिया उद पिकायत्ताए विन{ति ते जीवा तेसिं जाणाविहाण गसंजवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा तसथावर- तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा श्राहाजोणिएसु उदएसु नदगत्ताए विउहन्ति ते जीवा तेसिं तस- रेति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वियणं तेसिंतसथावर थावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा जोणियाणं अगणीणं सरीरा पाणावमा जाव मक्खायं आहारोंत पुढवीसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं- सेसा तिनि आशावगा नदगाणं ॥३४॥ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२७) आहार अनिधानराजेन्दः । आहार (अहावरमित्यादि) अथैतदपरमाख्यातंश्हास्मिन् संसारे पके साम्प्रतं सोपसंहारद्वारण सर्वजीवान सामान्यता विज केचनसत्वाःप्राणिनस्तयाविधकर्मोदयवर्तिनो नानाविधयोनय णिषुराह। प्राक सन्तः पूर्वजन्मान तथाविधं कर्मोपादाय तत्कर्मनिदानेन __अहावरं पुरक्खायं सन्चे पाणा सव्वेत्तृता सव्वे जीवा नानाविधानां प्रसस्थावराणां प्राणिनां सचित्तेष्वचित्तेषु शरी सव्वे सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंजवा णाणा गेषु चाग्नित्वेन विवर्तन्ते प्रादुर्भवंति। तथाहि । पंचेंद्रियतिरश्चां विहबुक्कमा सरीरजोणिया सरीरसंजवा सरीरबुकमा दंतिमहिषादीनां परस्परं युझावसरे विषाणसंघर्षे सात अग्निरुत्तिष्ठते एवमचित्तेष्वपि तदस्थिसंघर्षादग्रुत्थानं तथा ही- सरीराहारा कम्मोगा कम्पनियाणा कम्मगतीया कम्मजियादिशरीरेष्यपि यथासंभवमायोजनीयं तथा स्थावरण्याप हिश्या कम्मणा चेव विष्परिया समवेति ॥ ३७॥ वनस्पत्युपहादिषु सचित्ताचित्तेष्वग्निजीवाः समुत्पद्यते ते (अहावरमित्यादि) अथापरमेतदाख्यातं । तद्यथा । सर्वे चाग्निजीवास्तत्रोत्पन्नास्तेषां नानाविधानां प्रसस्थावराणां प्राणा प्राणिनो ऽत्र च प्राणिसूतजीवसत्वशम्दाः प-यत्वेन मेहमाहारयति । शेष सुगम यावङ्गवतीत्येवमाख्यातं । अपरे दृष्टन्याः । कथंचिकेदं चाश्रित्य व्याख्येयाः। ते च नानाविधप्रयोऽप्यासापकाः प्राग्वदृष्टव्या ति । योनिका अतो नानाविधासु योनिषूत्पद्यन्ते नारकतिर्यग्नरासाम्प्रतं वायुकायमुद्दिश्याह ।। मराणां परस्परगमनसंभवाते च यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्तच्चअहावरंपुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणि- रीराण्याहारयन्ति तदाहारवन्तश्च तत्रागुप्ताश्रवद्वारतया कर्म वशगा नारकतियनरामरगतिषु जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितयों याएं जाव कम्मनियाणेणं तत्य बुकमाणाणाविहाणं तस अवंति । अनेनेदमुक्तं भवति । यो यागिह भवे स ताहगेधाथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा बाउ मुत्त्रापि नवतीत्येतन्निरस्तं नवति । अपितु कर्मोपगाः कर्मनिकायत्ताए विनइंति जहा अगणीणं तहा जाणियन्वा च दानाः कर्मायत्तगतयो जवन्ति । तया तेनैव कर्मणा सुखसि नारि गमा ॥३५॥ प्सयो ऽपि तद्विपासं पुःखमुपगच्छंतीति ॥ ३७॥ भधापरमेतदाख्यातमित्याद्यग्निकायागमेन व्याख्येयम् । सा- साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृकुराह ॥ म्प्रतमशेषजीवाधारं पृथिवीकायमधिकृत्याह । से एवमायाणहसे एवमायाणिता आहारगुत्ते सहिए प्रहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणि- समिए सयाजए तिबेमि ॥ बियसुय क्खंधस्स आहारप याणं । जाव कम्पनियाणेणं तत्व बुकमा णाणाविहाणं तस रिमा णाम तईयमज्जयणं सम्मत्तम् ।। थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा पुढ- ' यदेतन्मयादितः प्रनृत्युक्तं । तद्यथा। यो यत्रोत्पद्यते स तच्च वित्ताए सकरसाए वायत्ताए इमाओ गाहाओ अणु- रीराहारको भवति आहारगुप्तश्च कर्मादत्ते कर्मणा च गंतव्वाश्रो पुढवी य सकरा वा सुयाय जबले सिला य नानाविधासु योनिषु अरहघटीन्यायेन पौनःपुन्येन पर्यट सोणूसे । अयत उय तंव सीसगरुप्प सुवो य वश्रेय ? हरि सीत्येवमाजानीत यूयं पतदिपर्यासं पुःखमुपगतीति । एतत्परिझाय च सदसध्वेिक्याहारगुप्तः पञ्चनिस्समितिभियाले हिंगुलए मणोसिमा सासगंजणपवाले। अन्नपाल स्समितो याद वा सम्यक् कानादिके मार्गे श्तो गतः समिप्पवाल यवायरकाए मणिविहाणागोमेज्जए य रूयए तस्तथा सह हितेन वर्तते सहितः सन् सदा सर्वकालं याव अंके फलिहिय लोहियक्खे य । मरगयममारगोनूयमो- दुवासंतावद्यतेत तत्संयमानुष्टाने प्रयत्नवान् भवेदिति।शति यग इंदणीले य ३ चंदण गेरुयहंसगन्ने पुलए सोगंधिए य परिसमात्यो ब्रवीमीति पूर्ववत् । गतोऽनुगमः साम्प्रतं नयाबोकच्चे । चंदपजवेरुम्मिए जलकंते सूरकंते य एयाओ स्ते च प्राग्वदूदृष्टव्याः॥३०॥ समाप्तमाहारपरिकाख्यं तृतीयम ध्ययनम् ॥ ३॥ एएमुजाणियमा एओगाहाम्रो जाव सूरकंताए विदंति आहारस्य दिक्॥ ते जीवा तेसिंणाणाविहाणं तसयावराणं पाणाणं सिणेह माहारेति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे हिं दिसाहिं जीवाणं आहारे पवत्तइ । वि य एं तेसिं तसथावरजोणियाणं पुढवीणं जाव तंजहा पाणाए जाव अहाए॥स्था ग०६। सूरकताणं सरीरा णाणावाणा जाब मक्खायं सेसं आहारः प्रतीतः सोऽपि षट्स्वेव दिनु एतद्व्यवस्थितप्रदे शावगादपुदवानामेव जीवेन स्पर्शनात्स्पृष्टानामेवाहरणात् । तिएिण आलवगा जहा उदगाणं ॥ ३६॥ स्था० टी० ।। जीवा० प्र०१॥ स च देशतः सर्वतश्च । अथापरमेतत्पूर्वमाख्यातं के सत्वाः पूर्वं नानाविध दोहिंगणेहि आया आहारइ देसेण विसव्वेण वि। योनिकाः स्वकृतकर्मवशा नानाविधनसस्थावराणां शरीरेषु पृथिवीत्वनोत्पद्यन्ते। तद्यथा।सपेशिरस्सु मणया, करिदंतेषु आहारयति देशेन मुखमात्रेण सर्वेण भोज आहारापेक्कया मौक्तिकानि, स्थावरेष्वपि वेएवादिषु तान्यवेति । एवमचित्ते आहारमेव परिणमयति परिणामन्नयति खबरसविनागेन भक्ता पूपलादिषु सवण नावनोत्पद्यन्ते । तदेवं पृथिवीकायिका नाना श्रयदेशस्य प्लीहादिना रुरुत्वात् देशतोऽन्यथा सर्वतः । स्था० ग०टी० ॥ विधासु पृथिवीषु शर्करावाबुकोपयशीतालवणादिभावेन चतुर्गतिषु आहारः॥ तथा गोमेदकादिरलभावेन च बादरमणिविधानतया समुत्प धन्ते । शेष सुगम । यावश्चत्वारोऽप्याज्ञापका सदकागमेन रइयाणं चरबिहे आहारे पन्नत्ते तंजहा । नतव्या शत ॥ ३६॥ इंगाझोनमे मुम्मुरोनमे सीयने हिममीयो । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२८ ) अभिधानराजडः | आहार नारकानाहारतो निरुपयन्नाह नेरस्याणमित्यादि । व्य केवलं अंगारोपमा पकासहादत्यारोपमः स्थिरतरदा त्यातः शीतवेदनोत्पादकत्वादिमतोऽत्यन्तश तोऽत्यंतशीतवेदनोत्पादकत्वात् अधोऽध इति क्रम शर्त ॥ स्था० वा० ४। तिरिक्खजोगिया पर आहारे पं. नं. कंकोनमे चिसोवमे पाणमसोमे पुचसोवमे । मथुस्साणं पठ विहे आहारे पं.स. असणे नाव साश्मे देवाणं पठविहे आहारे पै.सं. सामंते गंधमंते रसमंते फासते ।। तिरिक्खजोणियाण मित्यादि । व्यक्तशवरं कंकः पक्तिविशेष स्तस्पाहारेणोपमा पत्र स मध्यमपरोपाको मध यथा हि संकल्प रोऽपि स्वरूपेणाहारा सुखदयासुखपरिणामश्च प्रपात पर्ष पस्तिरस्यां सुखसुखपरिणामश्च स कङ्कोपम इति । तथा बिले प्रवेशषम्यं बिसमेवतेनोपमा यंत्र स तथा । बिले हि धनन्धरसास्वादं ऊटिति यथा किंचितविशति एवं यस्तेषां गमविले प्रविशति स तथेोच्यते। पाणो मातस्तन्मांसमपूरयत्वेन शुगुप्या दुःखाचं स्यादेषं यस्तेषां दुःखाइरस पाणमांसोपमः । पुत्रमांसन्तु स्नेहपरतया दुम्मादपतरं स्यादेवं वो ज्याद स पुत्रोपमः क्रमेण येते मात देत वर्णचानित्यादी प्रशंसायामविज्ञायने या मतुरिति । स्या ग० ॥ ४ ॥ टी० ॥ आहारमधिकृत्य वक्तव्यार्थाः । सचिचादारही केली किंवा सितो व । कतिनागं सब्बे खलु परिणामे चैव बोधव्वे ॥ १ ॥ एगिदियसरीरादि लोमाहारे तहेवमणजक्खी । एतेसिंत पदाणं विचारणा होई कायव्या ॥ २ ॥ प्रथमोऽधिकारस्स वित्तपदोपसहितस्य चैवं ( मैरश्याणं भंते! कि साहारा बिशाद्वारा) इत्यादि १तीय आहारार्धन इति २ तृतीयः । (केवश्यन्ति ) कियता. कालेन आहारार्थः समुत्पादितुर्थः किमाहारमाहारयन्तीति पदोषतिः ४ पंचमः सर्वतशत पदोप तिरस] - श्यानं सम्यतो परिणामन्तीत्यादि । ५ । येय शब्दसमुच्चये (भाति गृहीतानां पुखानां कतिनागमाहारयन्तीत्येवमादि षष्ठोऽधिकारः ६ तष्ठा ( सव्यं इति चान्पुताना हारतथा गुरहन्ति तान्किं सम्यगपरियो या आदारयन्ते तत सभ्यनित्येवमुपलक्षितः सप्तमोऽधिकारः ७ तथा अष्टमोऽधिकारः परिणामः परिणामरूपो बोरू स चैवं ( रश्याणं भंते! जे पोम्ाले आहारसाप गिरइंति ते तेर्सि पुम्गला की सत्ताप ओ १ परिणामन्तीत्यादि - ) रूफ नवमोऽधिकारः एकेन्द्रियादीनि शरीराणि सर्व(मेरश्याणं ते! कि पर्मिदियसरीरा चाहारेति जाव पचिदियशरीराई आहारैति ) इत्यादि ए दशमोऽधिकारो सोमाहारो लोमाहारवतव्यतारूपः । १० । ऐकादशो मनोजवििवक्तव्यतारूपः । ११ । एपसि तु इत्यादि । एतेषां सामान्यतोऽनन्तरमुद्दिष्टानां पदानामर्थाधिकाराणां विभावना विस्तरतः प्रकाशना नाम भवति कर्तव्या । सुत्रकारवचनमेतत्प्रतिज्ञातमेव निहयितुकामो यथोद्देशनिश इति न्यायाप्रथमाधिकारं विज्ञावयति । प्रज्ञा० पद० २८ । भ० श०१ उ १ ॥ आहार सविताहाराः ॥ नेरइयाणं जंते ! किं सचिताहारा अचिताहारा मीसाहारा ? गोपमा ! नो सचिताहारा अविचाद्वारा नो मी साहारा एवं असुरकुमारा जाय बेमाविया । उरासिय सरीरा जान मयूसा सचिचाद्वारा वि अपिसाहारा वि सहारा ॥ नैरयिका भवन्त ! किं सविताद्वारा सचितमाहारयन्तीति सचिताहाराः एवमचित्ताहारा मिश्राहारा इत्यादि भावनीयं भगवानाह (गोयमेत्यादि) रह वैकियशशरीरिणो बैकिय शरीरपरिपोषयोग्यात् पुत्रमानाहारयन्ति ते वा संप्रबंति न जीवपरिगृहीता इत्यचित्ताहारा नापि मिश्राहारा चमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो यता वैमानिकाय देदितव्याः । मोदारिकशरीरि णः पुनरीरिक शरीरपरिपोषयम्यान्मारयन्ति च पृथिवीकायिकादिपरिणामपरिणता इति । सचिताहारा मिदारा अपि घटते तयाचाद (उपक्षियसरी जाय मासा इत्यादि श्रदारिकशरीरिणः पृथिवीकायिकेभ्यः प्रारभ्य यावन्मनुष्याः । किमुक्तम्नवति पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपा एकेन्द्रिया द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया मनुष्याच पते प्रत्येकं सविताद्वारा अपि अचित्ताहारा पि मिश्राहारा अपि वकन्याः ॥ उक्तः प्रथमोऽधिकारः ॥ सम्प्रति द्वितीयानष्टपर्य्यन्तान्सप्ताधिकारान् चतुर्विशतिदएककक्रमेण युगपदनिधिसुः प्रथमतो नैरचिकाणामभिदधाति । नेरइयाणं ते! आदारी? हंना आहारडी शेरयाणं जंते ! केवइकालस्स आहारडे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! रइयां विहारे पाते । तं० आनोगनिवत्तिएय अणाजोगनिव्वत्तिए य । तत्य णं जे से प्रणाजोगनिया से असमर्थ अविरहिए आहार समु प्पच । तस्य णं जे से आनोगनिव्यचिए से णं असंखेजसमध्य अंतोचिए आहार समुप्पन्न ॥ ( रयानमित्यादि) नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे मदत ! चार्थिनो रविका इति यदि बादारार्थिनस्ततो भगवाना (ते) तुमतीमा रार्थिनां नैरधिका इति यदि महारानिस्तो प्रदन्त! नैरा काणमिति पुर्ण्यवत् (केवर फारसी या । कियता कालेन श्रहारार्थ आहारलक्षणं प्रयोजनं आहाराभिलाष इति यावत्समुत्पद्यते - नगवानाह ( गोयमेत्यादि) नैरयिकाणां द्विविधो द्विप्रकार आहारस्तद्यथा । भामोगनियर्तित आहारयामीति पूर्वनिम्मपित इति यावत् । सद्विपरीतोऽनाभोगनिवर्तितः । आहारयामीति विशाम स्तरेण यो निष्पाद्यते प्रादाते प्ररतरसूत्राद्यभिगीत पुरुला या हारवत्सोऽनाभोगनिर्वर्तित शते भावः । ( तत्थणमित्यादि ) तत्रानोगानाभोगनिर्वर्तितयोर्मध्ये योऽनाजोगनिय र्तितः आहारः ( सेणमिति ) पूर्व्ववत् अनुसमयं प्रतिसम २ समर्थ २ इत्यर्थः । इत्यदीर्घकालोपनोगस्याहारस्यैक वारमपि ग्रहणे तावतं कालमनु समयम्नषति । तत बाजयपर्यन्तं सातत्यग्रहणप्रतिपादनार्थमाह । श्रविरहित आहारा र्थस्समुत्पद्यते । अथवा सततप्रवृत्ते आहारार्थेऽपांतराले Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२९) आहार अभिधानराजेन्दः। पाहार चुक्कस्खलितन्यायेन कयश्चिदिरहे भावेऽपि लोके तदगणनया तेसिं पोराणा वनगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विपरिअनुसमयमिति व्यवहारः प्रवर्तते । ततोऽपान्तराले बिरहा णामइत्ता परिपीलदत्ता परिसामइत्ता परिविकंसइत्ता भावप्रतिपादनार्थमित्युक्तं । अनुसमयविरहितोऽनाभोगनिर्वर्तित आहारार्थः समुत्पद्यमान ओज आहारादिना प्रकारेणा अन्ने अपुल्वे वनगुणे गंधगुणे फासगुणे उप्पामेत्ता बसेयः। (तत्थणमित्यादि )तत्राभोगानाभोगनिवार्तेतयोर्मध्ये आयसरीरखित्तोगाढे पोग्गझे सव्वप्पणायाए आहारमा योऽसावनानोगनिवर्तित आहारायः सोऽसंख्येयसामायिको हारेइ ।। ऽसंख्ययैः समयनिवर्तितम् । यथासंख्येयसमयनिवर्तित टी गैातमभ्यतो द्रव्यस्वरूपपर्या लोचनायो अनन्तप्रादेशितत् जघन्यपदेऽप्यन्तर्मुहुर्तिकम्नवात । न हीनमत आन्तर्मुह- कानि द्रव्याणि । अन्यथा ग्रहणासंभवात् न हि संख्यातप्रदेर्तिक आहारार्थः समुत्पद्यते । किमुक्तं भवति । अन्तर्मुहुर्तकाझं शात्मका असंण्यातप्रदेशात्मका वा स्कंधा जीवस्य ग्रहणयो यावत्प्रवर्तते न परतो नैरयिकाणां हि योऽसावाहारयामीत्य भ्या जवन्ति । केत्रतोऽसंस्येयप्रदेशावगाढानि । कासतोऽन्यत भिशापः स परिगृहीताहारद्रव्यपरिणामेन यजनितमतितीव रस्थितिकानि जघन्यस्थितिकानि मध्यमस्थितिकानि उत्कृष्टतरं पुःखं तावादन्तर्मुहूर्तानिवर्तते । तत प्रान्तर्मुहूर्तिको स्थितिकानि चेति भावार्थः । स्थितिरिति चाहारयोग्यरकंधनैरयिकाणामाहाराचः (नेरश्याणमित्यादि) नैरयिकाणामात परिणामत्वेनावस्थानमवसेयं । नावतो वर्णवंति गंधवंति पूर्ववत् किंखरमाहारयन्ति भगवान्च्यादिभेदतस्तमाहा. रसवंति स्पर्शवंति च । प्रतिपरमाएवेकैकवर्णगंधरसहिस्परयन्तोति निरूपयितुकाम प्राह (गोयमेत्यादि)। नावात् । (जाइंभावओ वनमंताएं) इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं किमाहारमाहारयन्ति ॥ जगवानाह । (गोयमा ! गणमग्गणं पमुश्चेत्यादि ) तिष्ठति रक्ष्या णं ते ! किमाहारमाहारेंति ? गोयगा! विशेषा अस्मिन्निति स्थानं सामान्यमेकवएर्ण विवरण त्रिदवो अणंतपदेसियाई खत्तओ असंखेज्जपदेसोगाढा वर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गणमन्वेषणं तत्प्रतीत्य सामान्य चिन्तामाश्रित्येति भावार्थः । एकवर्णान्यपि हिवर्णान्यपि इं कानो अनतरकासाहतियाई जावतो वनमंताई इत्यादि सुगमं । नवरं तेषामनन्तप्रादेशिकानां स्कन्धानामेकगंधमताई रसमंताई कासमंताई जाइं नावओ वनमंताई वर्णत्वं विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमतापेक्कया । निश्चय आहारंति ताई कि एगवन्नाई आहारंति जाव किं पंच नयमतापेकया तु अनन्तप्रादेशकस्कंधीयानपि पञ्चवर्ण एव बनाई आहारंति ! गोयमा गणमग्गणं पमुच्च एगवन्नाई प्रतिपत्तव्यः । (विहाणमम्गणं पमुछेत्यादि )॥ विव्यक्तमि तरव्यवच्छिन्नं धानं पोषणं स्वरूपस्य यत्तद्विधानं विशेषः पि आहारति । जाव पंचवन्नाई पि आहारंति विहाण कृष्णो नील इत्यादिविशेष इति यावत्तस्य मार्गणं तत्प्रतीत्य मग्गणं पमुच कासवनाई पि आहारंति जाव मुकिवाई स्यक्त्वा सवणान्यप्याहारयंतीत्यादि सुगम । घरमेतदपि पि आहारांत । जाई वन ओ कालवनाई आहारंति ताई व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यं । निश्चयतः पुनरवश्य तानि पञ्चव णान्येव ॥ जाई वन्नो कानवन्ना पीत्यादि ॥ किं एगगुणकामाई आहारंति जाव दसगुणकालाई प्रा. सुगम । यावदनन्तगुणसुकियाई पि आहारंति । एवं गंधरसहारंति संखिज असं खिज्ज अणंतगुणकामाई आहारंति। स्पर्शविषयाणि सूत्राएयपि नावनीयानि (जाई भंते ! अनगोयमा ! एगगुणकालाई पि आहारंति जाव अणंत न्तगुणबुखाई इत्यादि ) यानि भदन्त ! अनन्तगुणरुवाणि उपत्रकणमेतत् । एवं गुणकामादीन्यप्याहारयन्तीति तानि गुणकालाई पि आहारति एवं जाव मुकिवाई। एवं गंध च भदन्त ! किं स्पृष्टान्यात्मप्रदेशस्पर्शविषयाण्याहारयन्ति तो वि रसतो वि । जाइं जावओ फासमंताई ताई नो उतास्पृष्टानि । जगवानाह । स्पृष्टानि नो अस्पृष्टानि (जहा एगफासाइं आहारंति नो दुफासाइं आहारति । नो भासुद्देसए जाव नियमा । गईसित्ति) अतकर्व यया नायो द्देशके प्राकसूत्रमनिहितं तयात्रापि दृष्टव्यं । तत्र तावत् यावतिफासाइं आहारंति चउफासाई पि आहारंति । जाव नियमाः (नहिसिंति ) पदं तश्चैवं । अहफासाई पि आहारंति । विहाणमगाणं पमुच्च कक्ख जाई पुट्ठाईआहरंति ताईते! किं प्रोगाढाई आहामाई पि आहारंति जाव बुक्रवाई पि आहारांति । जाई रंति गोयमा ! ओगाढाई आहारंति णो अपणोगाढाई फासओ कक्खमाई आहारंति ताई कि एगगुणकाखमा आहारंति । जाइं नंते ओगाढाई आहारंति ताई किं इं आहारंति । जाव अणंतगुणकक्खमाई आहारति गो अणंतरोगाढाई आहारंति परंपरोगाढाई आहारंति गो० यमा! एगगुणककमाई पि आहारंति जाव अपंतगुणकक्क अणतरोगाढाई आहारंति नो परंपरोगाढाई आहारंति माई पि आहारंति एवं अहविहफासा जाणियब्बा। जाव जाई अणंतरोवगाढाई आहारंति ताई जंते! किं अणूई अणंतगुणयुक्रवाई पि आहारंति। जानते! अंणतगुणा आहारंति बादराई आहारंति ? गोयमा! अणुं पि आहाक्खाई आहारति ताई किं पुछाई आहारति अपुटाई! रति बायरापि आहारंति । जाइं नंते ! अणूवि आहागोयमा ! पुढाई आहारंति नो अपुट्ठाई आहारंति जहा रंति बायराई पि आहारंति ताई किं उर्छ आहारंति आहे जामुद्देसर जाव नियमा गदिसिं आहारंति ओसन्न का- आहारंति तिरियं आहारंति गोयया! उलंपि आहारंति रणं पसुच्च वनओ कामनीमाई गंधओ दुब्जिगंधाई रस अहे वि आहारेंति तिरियं पि आहारंति जाई नंते ! ओ तित्तरसकमुयाइं फासओ कक्खमंगरुयसीतयुक्खाई। उपि आहारंति अहे पि आहारति तिरियं पि आहरंति Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार अभिधानराजेन्द्रः । आहार ताई आई व आहारंति मज्के आहारंति पजवसाणे (अगणिपुरा) इत्यत्र आहारयन्ति नो अनानुपूर्व्या कलमआहारंति? गोयमा! आईपिआहारतिमकेवि आहा धस्तिय॑ग्वा यथासनं नातिक्रम्याहारयन्तीति नावनीयानि । भदन्त!आनुपूर्व्या आहारयन्ति तानि किं (तिदिसिति)। तिम्रो रंतिपजवसाणे विआ जाई नंते ! आई पि आहारंति दिशः समाहतास्त्रिदिक तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चमके वि आहारंति पज्जवसाणेवि आहारंति ताईते ! तुर्दिशि पचदिशि पदिशि वा श्ह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यकिं सवितए आहारंति अविसए आहारति ? गोयमा! पदे त्रिदिभ्यवस्थितमेकदिगव्यवस्थितं वा अतखिदिश सविसए आहारंति नो अविसए आहारंति । जाइते आरज्यप्रमः कृतः । भगवानाह । गौतम ! नियमात् पदिशि व्यवस्थितान्याहारयन्ति । नैरयिका हि त्रसनाड्यां मध्ये व्यव सविसए आहारंति ताई किं आणुपुबिए आहारंति । स्थितास्तत्र चावश्यं षादिक्संनव शत। (ोसन्नकारणं परअणाणपुब्बिए । गो! आणुपुन्धि आहारंति नो अ. चेत्यादि) प्रोसनशब्दो बाहुल्यवाची । यथा ओसनं देवापाणुपुन्धि आहारेंति । जाई ते ! आपुचि पाहा सायं वेयणं वेयंतीत्यत्र । तत ओसन्नकारणं बाहुल्यकारणं प्रतीत्य किंतद्वाहुल्यकारणामति चेदुच्यते । अशुभानुभाव रति ताई कि तिदिसि आहारंति । चनदिसिं आहारंति एव । तथापि प्रायो मिथ्यादृष्टयः कृष्णादीन्याहारयन्ति न तु पंचदिसि आहारति उद्दिसि आहारंति ? नविष्यत्तीर्थकरादयः । तत भोसनेत्युक्तं । वर्णतः कासनी अस्य व्याख्या । श्हात्मप्रदेशैः संस्पर्शनेनात्मनः प्रदेशा सादि । गन्धतो पुरनिगन्धादि । रसतस्तिक्तकटुकानि । स्पवगाढारक्षेत्रादहिरपि सम्भवति ततः प्रश्नयति । (जाईनंते! र्शतः कर्कशगुरुशीतरुक्कादिश्त्यादि तेषामाहार्यमाणानां पुकश्त्यादि) यानि भदन्त ! स्पृष्ठान्याहारयति तानि कि अघ नानां पुराणान् अग्रेतनान वर्णगुणान् गन्धगुणान् स्पर्शगुणान् गाढानि प्रात्मप्रदेशैः सह एककेत्रावस्थायीनि उत अनवगा (विपरिणामश्त्ता परिपीसश्त्तापरिसामरत्तापरिविकंसश्त्ता) ढानि आत्मप्रदेशाचगाढकेत्राद्वहिरवस्थितानि । भगवानाह। पतानि चत्वापि पदान्येकार्थिकानि विनाशार्थप्रतिपाद गोतम! अवगाढान्याहारयति नानवगाढानि । नत अवगाढा- कानि नाना देशजविनेयानुग्रहार्थमुपास्तानि विनाश्य किमिनि आत्मप्रदेशावगाढकेने किमनन्तरावगाढानि । किमुक्त भव ति माह । अन्यानपूर्वन्विर्णगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणाति। ययात्मप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि वैरात्मप्रदेशैस्ता गुत्पाद्य प्रात्मशरीरकेत्रावगाहान् पुशलान् ( सव्वप्पणयाए) न्येवाहारयति उत, परम्परावगाढान एकहयाद्यात्मप्रवेशा सर्वात्मना सवरेवात्मप्रदेशैराहारमाहाररूपानाहारयन्ति । व्यवहितानि । जगवानाह । गौतम ! अनन्तरावगाढानिआहा प्रज्ञा. पद २० । जी. प्र. १ । भ. श. ६०४। रयंति नो परम्परावगाढाने । यानि नदन्त ! अनन्तगधगाडा नेरइया णं ते ! जे पोग्गमा अत्तमायाए अाहरंति न्याहारयति तानि किमणूनि स्तोकान्याहारयन्ति न्त यादरा ते कि आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमाए आहारंति णि प्रजूतप्रदशोपचितानि । नगवानाह । अणून्यप्याहारयन्ति बादराएयप्याहारयन्ति । हाणुत्ववादरत्वे तेषामेवाहारयो अणंतरखेत्तोगाढेपोग्गले अत्तमायाए प्राहरंति परं पर म्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेकया वेदितव्ये शति । खेत्तोगादे पोग्गले अत्तमायाए आहरंति? गोयमा प्राययानि नदन्त ! अणून्यप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमूर्ध्व सरीरंखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमाया एआहारंति नो अणंमुखप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अधस्तिर्यग्वा । इह कवाध- तरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारति नो परंपर स्तिर्यकत्वं यावति केत्रे नैरयिको ऽवगाढस्तावत्येव केत्रे तदपेशया परिभावनीयं । भगवानाह । कर्वमप्याहारयन्ति छ खत्तोगाढे जहा नेरइया तहा जावे वेमाणियाणं दंमओ। प्रदेशावगाढान्यप्याहारयंति एवमधोऽपितियंगपि । यानि टी० नरेश्याणमित्यादि । (मत्तमापत्ति ) । प्रात्मना आदाय नदन्त ! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्यगप्या गृहीत्वेत्यर्थः । जीवाधिकारादेषेदमाह । (भायसरीरे खत्तोहारयन्ति तानि किमादावाहारयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्य गादेत्ति) स्वशरीरकेत्रे अपस्थितानत्यिर्थः। (भणंतरखेत्तो वसाने आहारयन्ति । अयमत्राभिप्रायो नैरयिका हनन्तप्रा गाप्ति)। आत्मशरीराषगादक्केत्रापेक्या यदनन्तरं केत्रतत्रादेशिकानि द्रव्याण्यन्तर्महः कालं यावउपभोगोचितानि वगाढानीत्यर्थः ( परंपरबत्तोगाढेत्ति) आत्मकेत्रानन्तरक्वेत्रा द्यत्परं केलं तत्रावगादानीत्यर्थः ) ॥ न. श. ६ । उ ०१० । गृएहन्ति ततः संशयः किमुपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहू तप्रमाणस्यादौ प्रथमसमये आहारयन्ति जत मध्ये मध्येषु नेरइयाणं ते सव्वश्रो आहारति सचो परिणासमयेषु आहोस्वित्पर्यवसाने पर्यवसानसमये ? जगवा- मंति सव्वो ऊससन्ति सबओ नीससंति अजिक्खणं नाह । गौतम ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसाने ऽप्याहा रयन्ति । किमुक्तं भवति । उपनोगोचितस्य कालस्यान्तर्मु आहारंति निक्रवणंश्परिणामन्ति आनिक्खणं उसस हूर्तप्रमाणस्यादिमभ्यावसानेषु समयेषु आहारयन्ति उत ति अनिक्खणं नीससति आहच आहारंति पाहच्च परिअविषयाणि स्वोचिताहारयोग्यान्याहारयन्ति । नगवानाह। णामति अाहच्च ऊससंति आहच्च नीससंति । हंता गोयगौतम! स्वविषयानाहारयन्ति नो अविषयान् । यानि भद- मा! रइया सबओ आहारंति एवं चेव जाव आहच म्त ! स्वविषयानाहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्ध्या नीससंति ऐरइयाणं नंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए आहारयन्ति अनानुपूर्व्या?। प्रानुपूर्वी नाम यथासनं । तद्वि परीता अनानुपूर्वी । भगवानाह । गौतम ! आनुपूर्व्या सूत्रे गएहति तेणं पोग्गलाणं सेयासंसि कतिजागं आहारति द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् यथा आचाराङ्गे- । कानागं आसायंति? गोयमा! असंखेज्ज जागं पाहा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राहार अन्निधानराजेन्द्रः। आहार रति अपंतनागं आस्साएंति णेरझ्याणं जंते ! जे पोग्ग माहारयन्ति उत नो सर्वान् सर्वैकदेशनृतान् । जगवानाह । ने आहारत्ताए गिएहंति ते किं सम्बे आहारंति नो तान्सानविशेषेणाहारयन्ति नज्जितशेषाणामेव केवसानासव्ये आहारंति गोयमा ! ते सव्वे अपरिसेसिएश्रा माहारपरिणामयोग्यानां गृहीतः स्यात् (नेरश्याणमित्यादि) नैरयिका णमिति पूर्ववत् । यान्पुमलानाहारतया गृहन्ति ते हारति ॥ पुत्राणमिति पूर्ववदेव । नरयिकाणां कीदृक्तया फि स्वरू(नेरश्या णं भंते इत्यादि) प्रश्नसूत्र सुगम । (नेरझ्याणं पतया भूयः परिणमन्ते । भगवानाह । गौतम! श्रोग्रेन्द्रिमंते! जे पोम्गलाश्त्यादि ) नैरयिका णमिति पूर्ववत् नद यतया यावत्करणाच्चकुरिम्ध्यितया घ्राणेम्ब्रियतया जिहेन्त ! यान् पुझबानाहारतया गृएहन्ति नैरयिकास्तेषां गृही नियतयति परिग्रहः । स्पर्शनेन्जियतया इन्द्रियरूपतयापि तानां पुतानां (सेकाउंसि) एष्यत्काले ग्रहणकामोत्तरका परिणममाणाः शुन्नरूपाः कित्येकांताशुभरूपाः । यत आह । सग्रहणकालमित्यर्थः ( कश्नागं ति ) कतिथं नागमाहार- (अणिद्वत्ताए इत्यादि ) श्ष्टा मनसा च्गविषयी कृता यथा यन्ति आहारतयोपर्नुजते । तथा । कतिनाग कतिथं नागमा "शोभनमिदं जातं यदित्यमिमे परिणता इति" । तद्विपरीता माहार्यमाणपुलानामास्वादं गृएहति । न हि सर्वे पुला अनिष्टास्तद्भावस्तत्ता तया श्ह किंचित्परमार्थतः श्रुतमपि पाहायमाणान्यास्वादमायान्ति इति पृथक प्रश्नः । नगवा- केषाश्चिदनिष्टं भवति । यया मक्किाणां चन्दनकर्पूगदिस्तत नाह । गौतम! असंख्येयं नागमाहारयन्ति । अन्ये तु गवादि. आह (अकंतत्ताप )कांता कमनीयाः अकांता अत्यंताशुनपृयमवृहप्रासग्रहण श्व परिसटंति। आहार्यमाणानांच पु घोपेतत्वात् अत एवाऽप्रियतया न प्रिया अप्रिया दर्शनापात सानामनन्तनागमास्वादयन्ति । शेषास्त्वनास्वादिता एव काटेऽपि तत्प्रियबुडिमात्मन्युत्पादयंतीति भावः। तद्भावोऽप्रिय शरीरपरिणाममापद्यन्ते इति ॥ ता तया (असुजत्साए इति) न शुभा अशुभा अशुभगन्धरणरइया णं नंते जे पोग्गने आहारत्ताए गएहति ते णं सस्पर्शात्मकत्वात् तद्भावस्तत्ता तया ( अमानत्ताए शत) न मनोझा अमनोझा विपाककाले दुःखजनकतया न मन तेसिं पोग्गमा कोसत्ताए जुज्जो नुज्जो परिणमंति? प्रहादहेतव इति भावः । तद्भावस्तत्ता तया (अमणामत्ताए) गोयमा ! सो दियत्ताए जाव फार्सिदियत्ताए अणि- भोज्यतया मन आप्नुवंतीति मन आपा प्राकृतत्वात्पकाहत्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए अमणुनाए अमणाम- रस्य मकारत्वे मणाम इति सूत्रनिर्देशः । न मन आपा अमन ताए अणिच्चियत्ताए अजिज्जियत्ताए अहत्ताए नो नक्कू आपा न जातुचिदपि भोज्यतया जंतूनमनोज्ञान् कुर्वन्तीति नावः । तद्भावस्तत्ता तया अत एव । (अणिचियत्ताए शति) त्ताए दुकखात्तए नो सुहत्ताए एतेसिं जुज्जो तुजो परि अनीप्सिततया भोज्यतया स्वादितुमिष्टा ईप्सिता न ईप्सिता मंति असुरकुमाराणं ते! आहारही?हंता ! आहा- अनीप्सितास्तद्भावस्तत्ता तया । (अभिज्जियत्ताए ।) अनि रही । एवं जहा रश्याणं तहा असुरकुमाराणं विना- भ्यानमभिभ्या भभिलाष इत्यर्थः। अभिभ्या साता येष्विति आभभ्यितास्तारकादिदर्शनादितच् प्रत्ययः । तनावस्तत्ता णियध्वम् जाव तेसिं नुज्जो ३ परिणमन्ति । तत्य णं तया । किमुक्तं प्रवति । ये गृहीताहारतया पुला न ते तृप्तिजेसे आजोगनिव्वत्तिए सेणं जहणं चनत्यजत्तस्स हेतवोऽनुवन्निति न पुनरनियषणीयत्वेन परिणमन्ते तथा । नक्कोसेणं सातिरेगस्स वाससहस्सस्स आहारढे समुप्प- (अहत्ताए ति) अधस्तया गुरुपरिणामतयेति भावः। नो जा श्रोसन्नकारणं पमुच्च बन्नओ हालिहसुकिदाई ऊर्ध्वतया सघुपरिणामतया अत एव दुःखतया गुरुपरिणाम गंधो सुन्निगंधाई रसओ अविसमदुराई फासो परिणतत्वात् न सुखतया अधुपरिणामपरिणतत्यानावात् । ते मउलयणिधुएहाई तेसिं पोराणं वन्नगुणे जाव फासिं पुत्रास्तेषां नैरयिकाणां तूयः परिणमन्ते एतान्येष आहारा र्थिन इत्यादीनि सप्त धाराण । असुरकुमारादिषु भवनपतिषु दियत्ताए जाव मणामत्ताए पच्चियत्ताए निकियत्ताए चिचिंतयिषुरिदमाह ( जहा नेरश्याणमित्यादि) यथा नैरउदृत्ताए नो अहसाए सुहत्ताए नो दुहत्ताए तेसिं थिकाणां तथा असुरकुमाराणामपि भणितव्यं । यावत् तेसि तुज्जो परिणमंति सेसं नहा रश्याणं एवं जाव तुज्जो २ परिणमन्तीति पय॑न्तपदं । तत्र नैरयिकसुत्रस्य थणियकुमाराणं । नवरं आनोगनिव्वत्तिए नकोसेणं दिव विशपमुपदर्शयति (तत्य णं जेसे इत्यादि) एवं चोपदर्शित सूत्रन मन्दमतीनां यथास्थितं प्रतीतिमागच्छति ततस्तदनुमसपटुत्तस्स आहारहे समुप्पज्जइ ॥ हाय सूत्रमुपदय॑ते (असुरकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी 'हंता नैरयिका णमिति पूर्ववत् यान्युफलानाहारतया गृएहति- आहारट्टी असुरकुमाराणं भंते ! केवश् कालस्स आहारट्टे इह प्रहणं विशिष्टमवसेयं । ततो ये उज्झितशेषाः केवना समुप्पज्ज।) मत्र सप्तम्यर्य षष्ठी कियति कासेऽतिक्रान्ते सति हारपरिणामयोम्या पवावतिष्ठन्ते ते ऽत्राहारतया गृह्यमाणाः भूय आहारार्थः समुत्पद्यत इत्यर्थः। (असुरकुमाराणं दुबिहे पृथा कष्टज्याः । अन्यथा निर्वचनसूत्रमपेक्ष्य पूर्वापरविरोध- आहारे पन्नत्ते । तंजहा। आभोगनिव्यत्तिए अणाभोगनिव्धप्रसङ्गो नच भगवचने विरोधसम्भावनाण्यस्ति तत श्व- त्तिए य तत्थ णं जेसे अणाभोगनिव्यत्तिए सेणं अणुसमयम मेव व्याख्यान सम्यक । अत एवंविधपूर्वापरे विरोधाशङ्का- बिरहिए थाहारट्टे समुप्पज्जा। तत्थणं जेसे भानोगनिव्य व्युवासार्थे पूर्वसूरिभिः कामिकसूत्रस्यानुयोगः कृतः उक्तश्च । सिए सेणं जहनेण चनत्यनत्तस्स नकोसेणं सारेगस्स"जं जह सुत्ते भाणयं तहेव तं जा वियानणा नत्थि । किं पाससहस्सस्स आहारट्टे समुप्पज्ज।)अत्र तु चमत्थभत्तकामियाजोगो विट्ठो विटिप्पहाणोहिं" ॥ १ तान किंसा - | स्सेति सप्तम्यर्य षष्ठी । चतुर्थभक्त श्रागमिकीय संका एकस्मि Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहार अभिधानराजेन्द्रः। पाहार दिवसेऽतिकान्ते इत्यर्थः । नूयो जघन्येनाहारार्थः । समुत्प- परिणमंति । एवं जाव वणस्सइकाइया। बेइंदियाणं जंते ! चते । एतच्च दशवर्षसहानायुषां प्रतिपत्तन्यमुत्कर्षतः साति आहारट्ठी? हंता गोयमा आहारट्ठी। बेदियाणं नंते ! रेके अत्यधिके वर्षसहनेऽतिक्रांते । एतच सागरोपमायुषा. मवसेयं ॥ केवकालस्स आहारह समुप्पज्जइ जहा ऐरक्ष्याणं न असुरकुमाराणं नंते ! किमाहारमाहारयंति ? गोयमा ! वरं तत्थणं जेसे आनोगनिव्वात्तिए सेणं असंखेज्जसमए दव्यत्रो अणतप्पएसियाई खेतो असंखेजपएसोगा अंतो मुहुत्तिए आहारहे समुप्पज्जा सेसं जहा पुढविहाई कालो अन्नयररियाई नावओ वनमंताई गंधर्म काझ्याणं जाव पाहच्च नीससंति नवरं नियमा दिसिं ताई रसमंताई फासमंताई जाव नियमा। नहिसिं आहा येइंदियाणं पुच्छा जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गएहंति रंति ओसन कारणं पमुच्च वनो हानिदसुकिदाई। तेणं तेसिं पोग्गलाणं कश्नागं आहारति । कइजागं प्रासागंधओ सुरनिगंधाई, रसओ अंबिलमधुराई, फासो यति । एवं जहा नेरइयाणं । बेइंदिया णं नंते ! जे पोग्गले मउयनहणिधुएहाई, तेसिं पोराणं वनगुणं गंधगुणे फास आहारत्ताए गिएहति । तेसिं किं सव्वे आहारंति । बेइंगुणे जाव इच्चियत्ताए अनिझियत्ताए जहत्ताए नो दियाएं दुविहे आहारे पएणते । तंजहा । सोम आहारे य पक्खेवाहारे योजे पोग्गले सोमबाहारत्ताए गिएहति अहत्ताए मुहत्ताए नो उहत्ताए एतसिं तुज्जो २५ ते सव्वे अपरिसेसे आहारंति । जे पोग्गले पखवाहाररिणमंति * यथा चासुरकुमाराणां सूत्रमुक्तं । तथा नाग ताए गएहति तेसिं असंखेजइनागमाहारांति अणेगाई कुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानांवक्तव्यत्र चणं जागसहस्साई अफासाइज्जमाणाणं अणास्साजवरमाजोगनिवर्त्तिताहारार्य चिन्तायामुत्कर्षानिधानानुसा रेण * "नकोसणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ"* माणाणं विछसमागच्छति ॥ प्रा. पद २० ॥ इति वक्तव्यं । एतच्च पल्योपमासंख्येयनागापुषां तदधि टी० (पुढधिकाश्याणं भंते! इत्यादि) सर्व पूर्ववदसुरकु मारवज्ञावनीयं नवरं (निव्वाघापणं गहिसिमित्यादि) व्याकायुषां चावसेयं । शेषं तथैव । तथा चाह । एवं जाव घातो नाम अझोकाकाशेन प्रतिस्खननं व्याघातस्तस्याजावोथपियकुमाराणमित्यादि ।। निर्व्याघातः।"शब्दे यथावदव्ययपूर्वपदार्थनित्यमव्ययीभाव" सम्प्रति पृथिवीकायिकानामेतान्सप्ताधिकारान् चिंतयितुका- श्त्यव्ययीभावस्तेन वा तृतीयायामिति विकल्पेन आम्विधानाम आह । पृथ्वीकायिकानाम् ॥ त्पक्केऽत्राम नावः । नियमादवश्यतया पादशि व्यवस्थितानि पुढवीकाइयाणं ते!आहारही हंता आहारट्ठी। पुढवि पज्यो दिग्न्य आगतानि च्याएयाहारयंतीति नावः । काश्याणं नंते ! केवकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जा । व्याघातम्पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटादौस्यात्कदाचित् । त्रिदिशि तिसृज्यो दिग्न्य आगतानि कदाचिञ्चतुर्दिगन्यः कदाचिगोयमा! अणुसमयं अविरहिए आहारढे समुप्पज्जइ । त्पञ्चदिग्न्यः । कात्र जावनेति चेपुच्यते । इह लोकनिष्कुटे पुढविकाश्याणं ते! किमाहारमाहारंति । एवं जहा। पर्यंताधस्त्यप्रतराग्निकोणावस्थितो यदा पृथिवीकायिको धर्तणेरइयाणं जाव ताईते कइदिसि आहारे निव्वाघाए ते तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तत्वादधोदिक पुद्रनाभावः । बदिसि वाघायं पमुच सिय तिदिसिं सिय चनादिसिं आग्नेयकोणावस्थितत्वात्पूर्वदिक पुनसाभावो दकिणदिकपुसिय पंचदिसिं नवरं उसकारणं न जाइ । वमओ द्गलानावश्च । एवमधः पूर्वदकिणरूपाणं तिसृणां दिशाम लोकेन व्यापन्नता अपास्य याः परिशिष्टा उर्धा अपरा उत्तरा काझनीललोहियहानिदसुकिल्लाई, गंधओ मुब्जिगंध च दिए व्याहता वर्तते तत आगतान्पुरानाहारयन्ति यदा मुन्जिगंधाई, रसओ तित्तरसकम्यकसायअंबिझमहुराई, पुनस्स एव पृथिवीकायिकः पश्चिमां दिशममुश्चन् वर्तते तदा फासओ करकमफासगरुयलहुयसीतसिणाणकयुक्खा पूर्वा दिगन्याधिका जाता। देव दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे असो इं, तेर्सि पोराणा वनगुणा । सेसं जहा । नेरइयाणं केन व्याहृते शति स चतुर्दिगागतान्पुनसानाहारयति । यदा पुनरूज़ हितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिगवनम्ब्य तिष्ठति तदा जाव आहच्च नीससंति पुढविकाइयाणं जंते ! जे पोग्गले अधस्त्याप दिगन्यधिका लभते केवलदविणैवैका पर्यन्तआहारत्ताए गएहति। तेसिणंजते ! पोग्गनेणं सेयालास वर्तिनी अझोकेनव्याहतेति पञ्चदिगागतान्पुद्रलानाहारयन्तीति कतिजाग आहारति। कातिनागं प्रासायति ? गोयमा !अ शेषं सूत्रं समस्तमपि पूर्ववद्भणयिं यस्तुविशेषस्तमुपदसंखज्जाइनागं श्राहारंति अणतनागं ासायन्ति पुढ र्शयति (न वरमुसन्नकारणं न हव इत्यादि ) सुगमं ( फा सिदियवेमायत्ताए शति) विषममात्रा विमात्रा सस्यानावो विकाइयाण ते!जे पुग्गले अाहारत्ताए गएंहात तेकि सव्वे विमात्रता तया श्टानिष्टा नानाजेदतयेति जावो न तु यथा श्राहारंति नो सब्बे आहारंति जहेव णेरया तहेव । पुढ- नारकाणामेकान्ता गुनतया सुराणां च शुन्नतयैवेति । एवं जाव विकाझ्याणं जंते ! जे पोग्गझे आहारत्ताए गएहंति वणस्सश्काश्याणंति । यथा पृथिवीकायिकानां सूत्रमुक्तमेवतेणं तेसिं पोग्गलाणं कीसत्ताए जुज्जो जुज्जो परिण मप्तेजोवायुवनस्पतीनामपि नणनीयं । सर्वेषामपि सकसयो कन्यापितया विशेषान्नावात् (बेदियाएं नंते ! इत्यादि) मंति ? गोयमा फासिदियवेमाणियत्ताए तेसिनुज्जो । सुगम नवरं। (लोमाहारे पक्खेवाहारेयत्ति) सोम्न आहारा Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३३ ) अभिधानराजेन्द्रः । आहार लोमाहारः । पक्किप्यतेऽर्थान्मुखे इति प्रक्केपः स चासावाहारश्च प्रकेपाहारः तत्र यः खल्वोघतो वर्षादिषु पुत्रमप्रवेशो मूत्रादिगम्यस्स सोमाहारः । कावलिकमुखप्रक्पाहारः । तत्र यान्पुसान् लोमाहारतया गृहाति तान्सर्व्वानपरिशेषानाहारयन्ति तेषां तथा २ स्वभाषत्वात् । यान्पुलान्प्रक्के पाहारतया गृएदंति तेषामसंख्येयतमं नागमाहारयन्ति । अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि बहवो ऽसंख्येया जागा इति अस्पृश्य मानानामनास्वाद्यमानानां बिध्वंसमागच्छंति । किमुक्तं प्रवति । बहूनि sorrinter अस्पृष्ान्येषाऽनास्वादितान्येव विध्वंसमायान्ति नवरं यथायोगं केचिदतिस्थौल्यतः केचिदतिसौदम्यतः इति । प्रज्ञी० । पद ॥ २८ ॥ सम्प्रत्यस्पृश्यमानानामनास्वाद्यमानाञ्च परस्परमल्पबहुत्वभिधित्सुराह ॥ एए सिणं ते! पोग्गलाएं अणासाइज्जमाणाणं फा साइज्यमाणा य करे कयरेहिंतो अप्पा वा ? गोयमा ! सव्वत्यो वा पोग्गला अणासाइजमाए। अफासाइज्ज माणा पोरगा अनंतगुला || ( पप सिणं भंते ! इत्यादि ) शह एकैकस्मिन्स्पर्शयोग्ये भागे अनन्ततमो नाग आस्वाद्यो नवति ततो येनास्वाद्यमानाः पुमास्ते स्तोका पवाsस्पृश्यमानपुप्रलापे क्या तेषामनन्ननागवर्तित्वात् । अस्पृश्यमानास्तु पुत्रला अनन्तगुणाः ॥ बेइंदियाणं ते जे पोरगले आहारत्ताए पु० ! गोयमा ! जिनिंदिय फासिंदियबेमायत्ताए तसिं ज्जो प० एवं जव चरिंदिया नवरं गाई च णं नागसहस्सा इं अणुग्घाइज्जमाणाई फासा इज्जमालाई विस मागच्छति ॥ ० ॥ ( जिजिदि फासिंदिय बेमायत्ताप इति । ) विमाsaraft प्राग्वद्भावनीया । एवं जाव चरिदिया । एवं द्वीन्द्रि योक्तप्रकारेण । सूत्रं तावद्वक्तव्यं यावच्चतुरिन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिय गतं सूत्रं प्रायः समानवक्तव्यत्वात् । वस्तु विशेषस्ल उपदर्श्यते नवरमित्यादि यान्पुङ्गवान्प्रकेपाहारतया गृहंति तेषां पुतलानामेकम संख्येयतमं नागमाहारयन्ति । अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि संख्यातीता असंख्येयनागा इत्यर्थः । अनाघ्रायमाणानि अस्पृश्यमानानि अनास्वाद्यमानानि विभ्यं - समागच्छन्ति तानि च यथायोगमतिस्थौल्यतोऽतिसौदम्यतच वेदितव्यानि । श्रत्रैवास्पबहुत्वमाह । एते सिणं जंते पोग्गलाणं श्रणुग्घाइज्जमाणाणं अणासाइज्जमाणाएं फासाइज्जमाणाणं य कयरे कयरेहिं तो अप्पा वा ? गोयमा ! सव्वत्यो वा पोग्गला अणु ग्याज्जमाणा णामाइज्जमाणा प्रांतगुणा फासा इज्जमाणा प्रणतगुणा तेइंदियाणं जंते ! जे पोग्गले पुच्छा गोयमा ! घादिय जिजिदिन फासिंदिय वे माय तार तेसिं जुज्जो जो परिणमंति । चरिंदियाणं चक्खिादय जिजिदिय घाणिदिय फासिंदिय बेमायत्ताए तेसिं जुज्जो जुज्जो परिणमंति सेसं जहा तेइंदियाणं पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया नवरं तत्थणं आहार जैसे जोग निव्वात्त से जहनेणं अंतो दुत्तस्स न कोसेणं बडत्तस्स आहारडे समुप्पज्जइ । पंचिंदियति रिक्खजोणियाणं जंते ! जे पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा ! सोइंदिय चक्खिदिय घाणिदिय निदिय फासिंदिय मायत्ताज्जो मुज्जो परिणमति । मणूसा एवं चैव नवरं जोगनिव्वात्तिए जहन्नं अंतोमुदुत्तस्स नको० मस्स आहारडे समुप्पज्जइ । वाणमंतरा जहा नागकुमारा एवं जोइसिया वि नवरं भोगनिव्वत्तिए जहां दिवसप उक्कोसेण वि दिवसपहुत्तस्स आहारट्ठे समुपज्जइ । एवं वेमाणिया वि नवरं जोगनिव्वति ए जहणं दिवसप नक्को० तेतीसाए घासस हस्ताणं आहारट्ठे समुप्पज्जइ । सेसं जहा असुरकुमा राणं जाव तेसिं भुज्जो जुज्जो परिणमति सोहम्मे आजोगनिव्वत्तिए जहणं दिवसप० उकोसेणं दोएहं वाससहस्साणं आहार समुपज्ज | ईसाणे पुच्छा गोयमा ! जहनं दिवसपु० सा तिरेगस्स नकोसेणं सातिरेगाणं दोएहं वास सहस्सा। सणंदकुमाराणं पुच्छा गोयमा ! जहभेणं दोएहं वाससहस्साणं नक्कोसेणं सत्तएहं वाससहस्साणं । माहिंदे पुच्छा गोयमा ! जहभेणं दोएहं वाससहस्ताणं सा तिरेगाणं नकोसेणं सत्तएवं वास सहस्ताणं सातिरेगाणं । finale पुच्छा । गोयमा ! जहणं सत्तएहं वाससहस्साणं उक्कोसेणं दसहं बाससहस्साणं । अंतर पुच्छा । गोयमा ! जहां दसहं वाससहस्ताणं उक्कोसेणं चोदसएदं वाससहस्साणं । महासुकेणं पुच्छा । गोयमा ! जहएहं चोदसहं वाससहस्साणं नकोसेणं सत्तदसएहं वास सहस्सां । सहस्सारे पुच्छा गोयमा ! जहां संतदसएहं वाससहस्साणं नक्कोसेणं अडारसरहं वाससहस्साणं आणणं पुच्छा गोयमा ! जहां अट्ठारसएहं वाससह साणं नकोसे एगूवी साए वाससहस्साणं । पापएण पुच्छा गोयमा ! जहन्नं एगूणवीसाए बाससहस्साणं उकोसेणं बसाए वाससहस्साणं । आारणेणं पुच्छा । गोयमा ! जहन्नेणं वीसाए वाससहस्ताणं उक्कोसेणं एकवीसाए वाससहस्साणं । अच्चुएणं । पुच्छा ! गोयमा ! जहणं एकवीसाए वाससहस्साणं । नक्कोसेणं बावीसाए वास सहस्ताणं | हेट्टिम 2 गेविज्जगाणं पुच्छा गोयमा ! जहणं बावीसाए वाससहस्साणं उक्कोसेणं तेवीसार वाससहस्साणं । एवं सव्वत्थ सहस्साणि जाणियवाणि । हे हिममज्मिाणं पुच्छा, गोयमा ! जहां तेवी साए उको चवीसाए हे डिमजवरिमाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नं चवीसाए उक्कोसेणं पणवीसा । मज्जिमहेडिमापुच्छा । जहनं पणवीसाए उक्कोसेणं बब्बीसाए । ர் For Private Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३४) माहार अभिधानराजेन्द्रः। आहार मजिकममज्मिाणं पुच्चा,गोयमा! जहन्नं उच्चीसाए नको- न्यूनानीत्यर्थः । एतनिषेधादीचिडव्याणि । अयमत्र नावोसेणं सत्तावीसाए । मन्किम उवरिमाणं पुच्चा । गोयमा ! थावता ब्यसमुदायेनाहारः पूर्यते स एकादिप्रदेशो नो जहानेणं सत्तावीसाए । नक्कोसेणं अघावीसाए। नवरिमहे वीचिद्रव्याण्युच्यते । परिपूर्णस्त्ववीचिडव्याणीति टीका कारः । चर्णिकारस्वाहारद्रव्यवर्गणा अधिकृत्येदं व्याख्यातमिाणं पुच्छा । गोयमा ! जहएणं अट्ठावीसाए उक्कोसेणं वान् तत्र च याः सर्वोत्कृष्टा आहारद्रव्यवर्गणास्ता अवीचिएगूणतीसाए। जवरिममन्किरमाणं पुच्छा, गोयमा ! जहाणं द्रव्याणि । यास्तु ताज्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचि पगुणतीसाए नकोसेणंतीसाएज्वरिमश्गेविज्जगाणंपुच्ग व्याणीति (पगपपसूणाई पि दव्वाति) एकप्रदेशोनान्यपि गोयमा! जहन्नणं तीसाए उक्कोसेणं एकतीसाए वाससह अपि शब्दादनेकप्रदेशोनान्यपीति ॥ न. १४ श. ६ उ.॥ स्साणं । विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं पुच्छा । गोयमा! अनन्तरा हाराः परम्पराहाराः । णरक्ष्याणं ते! अणंतराहारा तत्तो निव्वत्तणया तसो जहनेणं एकतीसाए उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं । परियाणया तत्तो परिणामणया तत्तो परियारणया सव्वसिचदेवाणं पुच्चा, । गोयमा ! अजहन्नमाणको तत्तो पच्चा विनवणया? हंता गोयमा ! परइया अणंतसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहार समुप्पज्जा ॥ टी०। पपसिणं जंते ! श्त्यादि । श्ह एकैकस्मिन् भागे स्प राहारा तत्तो निव्वत्तणया तत्तो परियाणया तत्तो योग्येऽनन्ततमोजाग आस्वादयोग्यो नवात । तस्याप्यनन्त परिणामणया तो परियारणया तो पच्ग विउव्वणया तमोभाग आघ्रायमाणयोग्यः । ततो यथोक्तमल्पबहुत्वं नवति असुरकुमाराणं ते ! अणंतराहारा तो निव्वत्तणया शेषं सर्व सुगमं । पंचेन्जियसूत्रे-जहन्नेणं अंतो मुहुत्तस्सेति । तो परियाणता तओ परिणामणता तओ विनव्वषष्ठयाः सप्तम्यर्थत्वादन्तर्मुहुः गते सति भूय आहारार्थः णया तो पच्छा परियारणया? हंता गोयमा! असुरसमुत्पद्यते सत्कर्षतः षष्ठन्नक्ते ऽतिक्रान्ते पतञ्च देवकुरुत्तरकुरुत्तिर्यक्रपंचेडियापेक्कया द्रष्टव्यं । मनुष्यसूत्रे नक्कोसेणं अष्ठ कुमारा अणंतराहारा तो निव्वत्तणया जाव तो मनत्तस्सत्ति । उत्कर्षतोऽष्टमभक्ते ऽतिक्रान्ते । एतश्च तास्वेव पच्छा परियारणया । एवं जाव थणियकुमारा । पुढविदेवकुरूत्तरकुरुषु द्रष्टव्यं ब्यंतरसूत्रे नागकुमारसूत्रवत् । ज्योति काश्याणं जंते ! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तो कसूत्रमपि तथैव यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति । नवरं (जह परियाइणता तो परिणामणता तओ परियारणता तओ शेण वि दिवसपुडुत्तस्स नक्कोसेण वि दिवसपुत्तस्सत्ति ) ज्योतिषका हि जघन्यतोऽपि पल्योपमाष्टमभागप्रमाणायुष विनवण्या ?हंता गोयमा! ते चेव जाव परियारणता नो स्ततस्तेषां जघन्यपदेण्युत्कृष्टपदेपि दिवसपृथक्त्वेऽतिक्रांते चेवणं विनवणता एवं जाव चनसिंदिया नवरं वाउकातूय आहारार्थः समुत्पद्यते । पल्योपमासंख्ययभागायुषां च इया पंचिंदियतिरिक्खजोणिया माणुस्सा जहा परइया स्वरूपतएव दिवसपृथक्त्वातिक्रमे तूय आहारार्थस्समुत्पद्यते। धैमानिकसूत्रे-नवरं (आनोगनिवत्तिए जहन्नण दिवसपुहु वाणमंतरजोसियवमाणिया जहा असुरकुमारा। तस्स इति) पतत्पल्योपमाद्यायुषामवसेयं । सक्कोसणं तेत्ती टी। नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे । भदन्त ! परमकसाप वाससहस्साणं ति । एतदनुत्तरसुराणामवसेयं । वह ल्याणयोगिन् ! परमसुखयोगिन् ! वा अनन्तरमुपपातकोत्रयस्या यावन्ति सागरोपमाण स्थितिस्तस्यास्तावत्सु वर्ष प्राप्तिसमयमेव आहारयन्तीत्यनन्तराहाराः । तता निव्वत्तसश्च स्थितिपरिमाणं परिभाव्य वैमानिकसूत्र सकलमपि णया ति । ततोऽनन्तराहारग्रहणादारज्य क्रमेण शरीरस्थति स्वयं विज्ञेयमिति ॥ प्रज्ञा. पद.॥२७ ।। निवर्तिता निष्यत्तिवति । तओ परियाणया इति । ततइश संयतशब्दे तदाहारः॥ रीरनिष्पोरारज्य पर्यादानं यथायोगमङ्गप्रत्यङ्गोमाहारादि नैरयिकाः किंवीचिद्रव्याण्यवीचिजव्याणि वाहारयति।। ना समन्ततः पुद्गलादानं । तओ परिणामणया इति । ततः पुद्गलादानादनन्तरं तेषां पुद्गलानाम्परिणामनमिन्द्रियादिरूपणेरड्याणं ते ! किं वीचिंदबाई आहारेंति अवीचिं तया परिणामत्यापारनं । ततो परियारण्या इति । तत इन्डिया दव्वाई आहारति ? गोयमा ! रइया वीचिदवाई पि दिरूपतया परिणमत्यापादनादूर्व परिचारणा यथायोग शब्दाआहारेंति अवीचिदन्याई पि आहारोंत । से केणटेणं दिविषयोपभोगः ततः पश्चात् विकुर्वणा वैक्रियाधिवशात् विक्रिया नानारूपा पवमुक्ते जगवानाह-हंसा गोयमेत्यादि । नंते ! एवं बुच्चइ । ऐरइया वीची तं चेव आहारति ! हंतेत्यज्यनुकायां हंता गौतम ! नैरयिका अनंतराहारा श्या गोयमा जेणं णेरइया एकपदे सूणाईपि दव्वाइंश्राहारैति दि । तदेवं यथा नैरयिकाणामनंतराहारादिवक्तव्यतोक्ता तथा तेयं परश्या वीचिदव्वाई आहारैति जेणं णरझ्या पनि असुरकुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानां वक्तव्या पुषणाई दबाई आहारेति तेणं णेरइया अवीचिदम्बई नवरं पूर्व विकुर्वणं पश्चात्परिचारणा ते हि विशिष्टशब्दाधुप नोगवाञ्चायां पूर्वमिष्टं वैक्रियरूपं कुर्वन्ति पश्चात् शब्दााप आहारेंति से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच जाव आहा भोगमित्येष नियमः । शेषास्तु शब्दाधुपभोगसंपत्ती सत्यां रेंति एवं जाव वेमणिया आहारेति ॥ हर्षवशाद्विशिष्टतरशब्दाघुपत्नोगवावगती ऽन्यतो वा कुतश्विटी.बीई दन्याईति ॥ वीचिर्विवक्षितद्रव्याणां तवषयवानां कारणाविकुर्वते । ततस्तेषां पूर्व प्रविचारणा पश्चाद्विकुछव परस्परेण पृथग्भावो "विचिर पृथग्जाव" इति वचनात् णेति पृथिवीकायविषये प्रश्नसूत्रे तथैव उत्तरसूत्रे तावक्तव्य तत्र वीचिप्रधानानि न्याणि वीचिव्याणि एकादिप्रदेश । यावत्परिचारणा तेषामपि स्पर्शोपनोगसंन्नवात् । नो चेवणं Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३५) प्राहार अभिधानराजन्यः । पाहार विउवणयत्ति । न चैव तेषां विकुर्वणा घाच्या वैक्रिय बन्धर- तव्यः । एवं शेषाणामपि जीवानामाभोगनिवर्तितोऽनाजोग संजवात् । एवमित्यादि । एवं पृथिवीकायवदप्कायादयो निर्वर्तितश्चाहारो भावनीयः । नवरमेकेन्द्रियाणामतिस्तोका वातकायवर्जास्तावदध्येतव्या यावश्चतुरिन्छियाः सर्वेषामपि पटुमनोद्रव्याधिसंपन्नत्वात् । पदतर आभोगो नोपजायते । इति तेषां सर्वदानाभोगनिवर्तित एवाहारो न पुनः कदाचिद्चैक्रियझब्धेरसनवन सूत्रस्य समानत्वात् धातकायान् प्रति वि प्याजोगनिवर्तितः । अधुनाहाय॑माणपुजनविषये ज्ञानदर्शने शेषमनिधित्सुः समानगमत्वात्पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणामपि चिन्तयति । नेरश्याणं इत्यादि । नैरयिका णमिति वाक्यानवातकायैः सहानिर्देशमाह । नवरमित्यादि । जहा नेरझ्या ङ्कारे । नदन्त ! यान्पुमतानाहारतया गृएहन्ति । इति । यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्याः । किमुक्तं भवति । नैर- भगवानाह गौतम ! जानन्यवधिज्ञानेन लोमाहारतया यिकवद्विकुणाप्यतषां वक्तव्या वैक्रियलब्धिसंन्नवात् । साच तेषामतिसूक्ष्मत्वेन नारकावधेरविषयत्वात् ॥ न च प्रविचारणायाः पश्चादिति । वाणमंतरजोसियवेमाणिया पश्यति चक्षुरिन्द्रियविषयाभावात् । द्वीन्ड्रिया न जानन्ति । मिथ्याझानतया तेषां सम्यकपरिझानाभावात् । द्वीन्द्रियाणां जहा असुरकुमारा शति । असुरकुमाराणामिव व्यन्तरादीना. हि मत्यज्ञानं तदापि चास्पष्टमनःप्रपाहारमपिन ते स्वयं माप पूर्व विकुर्वणा पश्चात्परिचारणा वक्तव्येति भावः । सुर गृह्यमाणमपि सम्यक् जानन्ति न च पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियागणानां सर्वेषामपि तथा स्वानाव्यात् । उक्तञ्च मूखटीकायां नावात् । एवं त्रीन्जिया अपि झानदर्शनविकला जावनीयाः । "पुग्वं विनवणा खलु पच्या परिचारणा सुरगणाण । सेसाणं चतुरिन्न्यिाः । अत्येगश्यत्ति । सन्त्येकके स्वयं गृह्यमाणमपुव्वं परियारणाश्रोपच्छा विनव्वण्या,, शति । प्रहा. ३४ पद । प्याहारप्रकेपकत्त्वरूपमपि न जानति । मिथ्याझानित्वात् । तेषामपि हि द्वीम्ब्यिाणामिव मत्यज्ञानं तदपि चाविस्पष्टमिति सम्प्रत्याहारविषयमाभोग चिचिन्तयिषुरिदमाह । चक्षुषा पुनः पश्यति चक्षुरिन्द्रियसद्भावात् । तथाहि । पश्य णरइया णं नंते ! आहारे किं आलोगनिव्वत्तिए अ- | न्ति मक्किकादयों गुमादिकमिति एवम हारयन्ति तथा संत्य णाजोगनिव्वत्तिए ? गोयमा! आनोगनिव्यत्तिए वि कके चतुरिन्द्रिया ये न जानन्ति मिथ्यात्वान्न च पश्यन्ति अन्ध कारादिना चक्कुर्दर्शनस्य व्याहतत्वात् अनानोगसंजवाहा । अणाजोगनिब्बत्तिए वि । एवं असुरकुमाराणं जाव तिर्यपञ्चेन्नियतिरश्चां चतुभंगी प्रक्पाहारं झोमाहारश्चाधि वेमाणियाणं नवरं एगिदिया ण नो आजोगनिव्वत्तिए कृत्य नाचनीया। तत्र प्रक्पाहारमधिकृत्यैवं नावना । सन्स्येअनाजोगनिव्वत्तिए । णेरड्या एंजते ! जे पोग्गले आ कके तिर्यपंचेन्द्रिया ये प्रक्वेपमाहारं जानन्ति सम्यकानि तया तेषां ययावस्थितपरिज्ञानात् । पश्यन्ति चक्षुरिन्छियनाहारत्ताए गएहंति ते किं जाणंति पासंति आहारंति उ वात् । एवमाहारयन्ति । सन्त्येकके ये जानन्ति पूर्ववन्न च दाह न जाणंति न पासंति आहारति गोयमान पश्यन्ति दर्शनस्यान्धकारादिना अनाजोगेन वा व्याहत जाणंति न पासंति आहारंति । एवं जाव तेइंदिया । त्वात् । तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति मिथ्याज्ञानतया सम्यक चनरिंदियाणं पुच्छा, गोयमा! अत्येगइया न जाणंति | परिझानाजावात् । पश्यन्ति पुनश्चक्षुरिन्द्रिययोगात्। तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति । मिथ्याझानित्वान्न च पश्यति पूर्वपासंति आहारंति, अत्यंगतिया न जाणंति न पासंति वत् । एवमाहारयान्त लोमाहारापेक्वया त्वेवं नावना सन्ये आहारंति । पचिंदियातरिक्खजोणियाणं पुच्चा । गोयमा! कके तिर्यक् पंचेन्डिया ये लोमाहारमाप जानान्ति विशिष्टा अत्यंगतिया जाणंति पासंति आहारंति अत्थेगतिया वधिज्ञानपरिकलितत्वात् । पश्यन्ति । तथाविधक्कयोपशमजाणंति न पासंति आहारंति अत्येगतिया न जाणंति भावत इन्जियपाटवस्यातिविशुरुत्वात् । एवमाहारयन्ति । यथा सन्त्येकके ये जानन्ति पूर्ववत् । न च पश्यन्ति तथा पासंति आहारंति, अत्यंगतिया न जाणंति न पासंति विधस्येम्ब्रियपाटवस्याज्जावात् । तथा सन्त्येकके न जानन्ति आहारंति । एवं मणुस्सावि । बाणमंतरजोइसिया पश्यन्ति तथारूपपाटवानावादिति एवं मनुष्याणामपि लोमाजहा परइया । वेमाणियाणं पुच्चा । गोयामा ! अत्ये हारप्रकेपाहारी प्रतीत्य चतुर्नगीनावनीया। बाणमंतरजोगतिया जाणंति पासंति आहारंति अत्यंगतिया न इसिया जहा नेरश्या । नैरथिकावधिरिव व्यन्तरज्योति कावधिरपि मनोभाकीत्वेऽप्याहारपुद्गलानामाविषयत्वात् । जाणंति न पासंति आहारंति । से केण्डेणं नंते ! एवं वेमाणियाणं पुर्वति । वैमानिकानाम्पृथक् सूत्रं वक्तव्यं । बचइ-वेमाणिया अत्यंगतिया जाणंति पासंति आहा- वेमाणियाणं भंते ! जे पोग्गने आहारत्ताए गिएहति ते कि गति । अत्यगतिया न जाणंति न पासंति आहारंति ? जाणंति पासति नदाह न जाणंति न पासात आहरति शत । गायमा ! बमाणिया विहा पातमत्ता, तंजहा माई भगवानाह गोयमत्यादि । माया पूर्वभवकृता विद्यते येषान्ते मायिनो मायया हि यथा तथा वादररूपकृतया कबुषकर्म मिच्छदिट्ठी नववनगा य अमाई सम्मादट्ठी उववन्नगा प्रादुर्भावः। कबुषे च कर्मण्युदयमागते भवप्रत्युदयादप्युपय। एवं जहा इंदियउद्देसे पढमे जाणए तहा जाणि जायमानो ऽवधिर्नानिसमीचीनी भवति । एते च यव्वं जाव से तोगटेणं गो. एवं वृन्चइ ।। सम्यग्दशा बेदितव्याः तथामिथ्याविपर्यस्ता दृष्टिर्जि नप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषान्ते मिथ्यादृष्टयः । मायटी० आभोगनिवतितो यदा मनःप्रणिधानपूर्वमाहारं गू. नध मिथ्यादृष्टयश्च मायिमिथ्यादष्टयस्ते च ते नपपन्नाश्च एहाति शषकासमनानोगनिवर्तितः स च यामाहारोऽवसा- मायिमियादृष्टचपपन्नास्त एवं स्वार्थिककप्रत्ययविधानात Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहार निधानराजन्छः । आहार मायिमिथ्यारघुपपन्नकास्ते चोपरितनोपरितनप्रैवेयकपर्यव पासन्ति अनुत्तरघे वा" इति वचनात् । ततस्ते मनोभश्याहासाना विझेयाः । तेषां यथायोगमवश्यं मिथ्यादृष्टित्वस्य मायि रयोग्यानपि पुसलान् जानन्ति प्राह चमूलटीकाकारः।ते जानत्वस्य च भावात् । तधिपरीता प्रमायिसम्यग्दृष्ट पपन्नकास्ते न्ति आहारयांतच विवाञ्चत्वावधेरिन्द्रियविषयस्य चातिषि चानुत्तरविमानवासिनस्तषामवश्य सम्यन्तष्टित्वं पूर्वानंतर वाद्धत्वात्पश्यन्त्यपि इति । अत्रेन्ज्यिविषयस्येति इन्द्रियपाटव स्येतिभाषः । अपसंहारवाक्यं प्रतीतार्थ । भवे नितरां प्रतनुक्रोधमानमायासोनत्वस्योपशान्तकषायस्थ सम्प्रत्येकेन्धियशरीरादीनामधिकारमभिधित्सुराह॥ स्य च भावात् । आह च मूसटीकाकारः (वेमाणिया मामि च्छदिट्ठी अवधनगा जाव वरिमगवेज्जा अमायिसम्मदिट्टी नेरइयाणं ते ! किं एगिदियसरीराई आहारंति जाव सपवनगा) अनुत्तरा एव गृह्यन्ते इति । एवं जहेत्यादि । एव पंचिदियसरी राई आहारंति ? गोयमा ! पुव्वनावपन्नवमुक्तेन प्रकारेण प्राक् यथा शन्द्रयसत्के प्रथमोहेशके प्रणितं णं पमुच्च एगिदियसरीराईपि आहारांत जाच पंचिंदियतथा नणितव्यं । तच तापत् यावत्सर्वान्तिमं । से पणमित्या- सरीराई पि आहारंति । पप्पन्ननावपन्नवर्ण पच्च निदिना निगमनवाक्यं तचैव यमा पंचिंदियसरीराइं पिएवं जाव थणियकुमारा | पुढवितत्य णं जेते माथिमिच्चदिष्टिउववनगा तेणं नयाणंति काश्याणं पुच्छ, गोयमा ! पुव्वजावपन्नवणं पमुच एवं न पासंति आहारंति तत्थ णं जे ते अमायिसम्मादष्टि चेव पप्पनजावपत्रवणं पच्च नियमा एगिदियसरीराई नववनगा तेणं विहा पएणता । तं अणंतरोववनगा आहारंति । बेइंदिया पुब्बनावपन्नवर्ण पमुच्च एवं चैव परंपरोववनगा य । तत्य णं जे ते अतरोववनगा ते न परप्पन्ननावपन्नवणं पच्च नियया बेइंदियसरीराई याणंति न पासंति आहारंति । तत्थ णं जे ते परंपरो- आहारांते । एवं जाव चारिदिया जाव पुध्वजावपन्नववनगा ते विहा परमत्ता । तं० पज्जत्तगा य अपज्ज वर्ण पमुञ्च एवं पप्पनजावपन्नवणं पमुञ्चनियमा जस्स जइ तगाय तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा तेन याणंतिन इंदिया तस्त इंदियसरीराइं ते पाहारांत। सेसं जहा नेपासंति आहारंति । जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पत्ता। रइया जाव वेमाणिया ॥ तं. नवनत्ता य अणुवउत्ताय । तत्थ णं जेते अणुवनत्ता टी.॥नेरश्याणं भंते!श्त्यादिप्रश्नसूत्रं सुगम निर्वचनसूत्रमाह । गोयमेत्यादि । पूर्वोऽतीतो नावस्तस्य प्रज्ञापना प्ररूपणा ताम्प्रते न याणंति न पासंति आहारंति । तत्थ णं जे ते नव तीत्य एकेन्धियशरीराण्यापि यावत्करणात् द्वित्रिचतुरिन्द्रियनत्ता ते जाणति पासंति आहारांत से तेणद्वेणं गोयमा! शरीरपरिप्रहः पिंचेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्ति । श्यमत्र नाएवं वुच्चइ । अत्थेगश्या न जाणंति न पासंति आहा- बना। यदा तेषामाहार्यमाणानां पुत्रानामतीतो नावः परिजा रति । प्रत्येगइया जाणति पासंति आहारंति इति । व्यते तदा ते किंचित्कदाचित् एकेन्द्रियशरीरतया परिणता पासीरन् । कदाचित् पीनियशरीरतया परिणता आसीरन् । अस्यायमर्थः । सूत्रे ये ते माथिमिथ्यादृष्धुपपन्नका उपरि- कदाचित् श्रीन्छियशरीरतया कदाचिश्चतुरिन्थ्यिशरीरतया तनोपरितनोपरिौवेयकपर्यवसाना इत्यर्थः । ते मनोनदया कदाचित्पश्चेन्ज्यिशरीरतया ततो यदि पूर्वजाव श्वानीमहारयोग्यान्पुनलान् न जानति अवधिकानेन तदेवावधेस्तेषा भ्यारोप्य विवढ्यते तदा नैरथिका एकेन्द्रियशरीराण्यपि मविषयत्वात् । न पश्यन्ति चकुषा तथाविधपाटवाभावात् । यावत्पञ्चेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्तीति नवति । पप्पनना येऽष्यमाथिसम्यग्सष्टघुपपनका अनुत्तरविमानवासिन इत्य वपन्नवर्ण पञ्चेत्यादि । प्रत्युत्पन्नो वार्तमामिकः स चासी नार्थः । ते बिधा अनन्तरोपपन्नकाः परम्परोपपन्नकाश्च । प्रथम- वश्च प्रत्युत्पन्नावस्तस्य प्रज्ञापना तां प्रतीत्य नियमादवसमयोत्पन्ना अप्रथमसमयोत्पन्नाश्चेत्यर्थः । अत्र ये ते अनन्त इयतया पंचधियशरीराण्याहारयन्ति । कथमिति चेपुच्यते रोपपन्नकास्ते न जानन्ति न पश्यन्ति प्रथमसमयोत्पन्नतया- । श्ह प्रत्युत्पन्ननावप्रकापनां करोति नय ऋजुसूत्रो न शेषा ऽवधिज्ञानोपयोगस्य चक्षुरिन्षियस्यानावात् । किन्त्वेवमे- नैगमादयः। ऋजुसूत्रश्च क्रियमाणं कृतमज्यवाहियमाणमन्यबाहारयति । तत्र ये ते परम्परोपपन्नकास्ते विविधास्तद्यथा वहतं परिणम्यमाणं परिणतमन्युपगच्छति । अध्ययव्हियमापर्याप्ता अपर्याप्ताश्च ।तत्र येते अपर्याप्तकास्ते न जानन्ति णाश्च पुजलास्ते उच्यन्ते ये स्वशरीरतया परिणम्यमाना वर्तन च पश्यन्ति पर्याप्तानामसंपूर्णत्वेनावध्याधुपयोगानावात् । न्ते । अज्यवन्हियमाणं चाज्यवहृतं परिणम्यमानश्च परिणतये ऽपि पर्याप्तास्ते ऽपि विविधास्तद्यथा उपयुक्ता अनु- मिति तन्मतेन शरीरमेवाज्यवन्हियते । स्वशरीरञ्च तेषां पंपयुक्ताश्च । तत्र ये ते उपयुक्तास्ते जानन्ति अवधावनं चेन्द्रियशरीरास्तेषामत उक्तं नियमात्पञ्चेन्द्रियशरीराण्याहारशतो यथाशक्तिनियमेन ज्ञानस्य स्वविषपरिच्छेदाय प्रवृत्ति- यन्तीति । एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवसंभवात् । पश्यन्ति चक्षुषा शन्जियपाटवस्य तेषामतिविशि- नपतयो वक्तव्याः । पृथिवीकायिकसूत्रे प्रत्युत्पननाषप्ररूपणाछत्वात् । ये त्वनुपयुक्तास्तेन जानन्तिनच पश्यन्ति अनुपयुक्त- चिन्तायां नियमादेकेन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति वक्तव्य । वादेव ।उपयुक्ता अपिकथं मनोभदयाहारयोग्यान्पुनसान जान तेषामेकेन्द्रियतया तच्चरीराणामेकेन्द्रियशरीरत्वात् । एवं न्ति इति चेमुच्यते । हावश्यकप्रथमपीछिकायामवधिज्ञाना. बीजियसूत्रे नियमादीन्द्रियशरीराएयाहारयन्तीति वक्तव्य। धिकारेऽनिहित संखेजकम्मदब्वे ओपधोऊणय पबियं"।. श्रीन्जियसूत्रे नियमात्रीन्जियशरीराणि चतुरिन्छियसूत्रे नियस्यायमर्थः । कार्मणशरीरद्रव्याणि पश्यन केत्रतो लोकस्य सं- माश्चतुरिन्जियशरीराणीति । तिर्यपत्रकिया मनुष्या व्यंतख्येयान् नागान्पश्यन्ति।कालतः स्तोकाः पल्योपमं वावत् अ- रज्योतिष्कवैमानिकाच नैरयिकवकन्याः तथाचाह (पुरनुत्तरास्तु सम्पूर्णा लोकनामीम्पश्यन्ति। “सम्जिन्नरोगनाश्रीनिं वीकायाण पुच्ा ) इत्यादि । प्रका०प०२०॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३७) अभिधानराजेन्द्रः | आहार अधुना लोमादाराधिकारं विनावयिषुरिदमाह ॥ नेरइया में अंते! किं लोमाद्वारा पक्खेवाहारा ? गोयमा ! लोमाहारा नो पक्खेवाहारा । एवं एगिंदिया सव्वे देवाय जाणियच्या जाब पेमाणिया बेईदिया जान मस्सा लोमाहारा वि पक्खेवाहारा वि ॥ (श्यामित्यादि) सुगमं नय मेरधिकाणां प्रपादारो न भवतीति वैकियशररािणां तथा स्वभावत्वात् लोमाहारोऽ पिच पसानामवसेयो नानामिति ॥ चमेििदया त्यादि) पर्व नैरधिकोकेन प्रकारेण केन्द्रियाः पृथियतेजोवायुपस्पतयः सर्वे देवासुरकुमारादयो बानिका भणितव्यास्तत्रैकेन्द्रियाणां प्रकेपाहाराजावो मुखाभावात् । असुरकुमारादीनां वैक्रियशरीरितया तथा स्वभावात् द्वित्रिचरिन्द्रियातिपद्रिय मनुष्या होमाहारा पिक व्याः प्रक्पाहारा अपि उजयरूपस्याप्याहारस्य तेषां संभवात् चरममर्थाधिकारमभिधसुराह मेरश्या पां अंते । किं प्रोपाहारा मणनक्खी गोवमा ! श्रोषाद्वारा शो मणक्खी एवं सच्चे उराक्षियसरीरा वि देवा सव्ये जाव बेमाणिया ओवाहारा वि मणजीवि तत्यणं जे ते मक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ इच्छामोणं मणक्खणं करिए नए तेहिं देवेहिं एवं मसीए समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इछा कंता जाव मणामा तेसिं मणक्खत्ताए परिणमंति से जहा नामए सीता पोग्गला सीतं पप्पी ताणं चिति उमिणा वा पोला उमिणं पप्पहसि चैव प्रति चाणं चिति एवामेन तेहि मणक्स कए समा से इच्छामहे खिप्यामेव प्रति । (मेरश्या णं ते! प्रत्यादि) भोज उत्पतिहर म्यपुनससमूहः । ओज आहारो येषान्ते श्रजभाद्वारा मनसा भक्कयन्तीत्येवं शीला मनोजविणः। तत्र नैरथिका प्रोज आहारा भवन्ति । अपर्याप्तावस्थायामोजस एवाहारस्य संभवात् मनोजणिस्त्वेते न भवन्ति मनोजकणलक्षणो ह्याहारस्सलच्यते । ये तथाविधकियान्मनसा स्वशरीरपुजिनका पुला अन्यवन्यन्ते । यदद्भ्यवहरणानन्तरञ्च दृष्टपूर्वः परमसम्तोष उपजायते नयेतभैरवाणामस्ति । प्रतिकृतक म्र्मोदयवशतस्तथारूपशक्त भावादेवं (सब्वे वरालियशरीरावि) इति । एवं नैरविकांतेन प्रकारेण दारिकशरीरिणो सबै पृथिवी कायिकादयो मनुष्पपर्ण्यचसाना वक्तव्याः । - द्यथा । ( पुढविकाश्या णं नंते ! किं ओयाहारा मणक्खी ? गोमा ! याहारा नो मणनक्खी त्यादि ) देवा इत्यादि देवासवै याज्ञमानिका ओजवाहारा अपि मनोनकिणोऽपि वक्तव्याः । तद्यथा असुरकुमारा जंते किं श्रयाद्वारा मोजक्खी ? गोयमा ! ओषाद्वारा विमक्खी निजा माशिया पुच्छा गोपमा श्रोपाहारा विमनपरी वि ॥ सम्मति मनोनत्वं देवानां यथा नवति तथोपयति । तत्र तेषु संसारिषु जीवेषु मध्ये णमिति वाक्यालंकारे । येमनोन किणो देवास्तेषां णमिति प्राग्वत् । मनः प्रस्तावादाहार महार विषयं समुत्पद्यते । केनोल्लेखेनेत्यत श्राह इच्छामो अभिलाषामोति पूर्व्ववत् मनोविणमिति मनसा भकूणं मनोभणं कर्तुमिति तत एवं तैर्मनसि कृते व्यवस्थापिते मनोजक पणे सति तथा विधभकमयवशात् प्रिमेव तत्कालमेवेति भावः । ये इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोज्ञाः मन आपा पुद्गलास्ते षां व्याख्यानं प्राग्वत् । तेषां देवानां मनोभवतया परिणमन्ति कथमित्यत्रैव दृष्टान्तमाह (से जड़ा नाम) से शब्दोऽथशब्दार्थः सचात्र वाक्योपन्यासे यथा नामेति विवक्तिताः शीताः पुद्गलाः शीतं शीतयोनिकं प्राणिनं प्राप्य ते शीतत्वमेवातिव ज्यातिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति किमुक्तं भवति । विशेषतश्शीतीय शीतयनिकस्य प्राणिनः सुखित्यायोपकल्पन्त इति । उष्ण वा पुजला उष्णम् उष्णयोनिकं प्राप्य कृष्णमेव उष्णत्वमेवातिव्रज्यातिशयेनगत्वा तिष्ठन्ति विशेषतस्स्वरूपलान सम्पत्त्या तस्य सुखित्वायोपतिष्ठन्त इति भावः । एवमेव श्रनेनैव प्रका रेण तैर्देवैः प्रागुरीया मनोज कृते सति स तेषां देवानामिच्छा मन आहाराविषयेच्छा प्रधानमनः क्किप्रमेवापैति तृप्तिन्नावान्निवर्तत इति भावः । इयमत्र भावना यथा शीत पुरुताः शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्ते उष्ण पुछा वा उष्णयोनिकस्य तथा देवैरपि मनसाऽज्ययन्दिय माणाः पुत्रास्तेषां तुम परमसंतोषाय श्रीपकल्पन्ते तत आहारो विषयाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति । अत्र च श्रोज आहा रादिविनागप्रतिपादिका श्मास्सुत्रकृताङ्गनिर्यु क्तिगाथाः । सरीरेणोसयाहारो तपादिफासे लोम आहारो । प्रक्खेवाहारो पुण कावलियो होइ नायकको ॥ १ ॥ याहारा जीवा सव्वे पज्जन्त्ता मुणेयव्वा । पज्जतगा य लोमे पक्खेने होते जायन्ना ॥ २ ॥ गिदियदेवाणं रयाणं च णत्थि परयो । साणं जीवाणं संसारत्थाणपक्खेवा || ३ | लोमाहार एगिंदिया रश्यसुरगणा चैव । सेसा आहारो झोमे पक्रखेव चैत्र ॥ ४ ॥ याहारण व सब्बे सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमे पक्वेवो चेव || २ || अथक आहार आनोगनिवर्तितःको वाऽनाभोग निर्वर्तितः शत चेमुच्यते । देवानामाभोगनिर्तित योजदारास चाप तावस्थायां कोम आहारोऽपि अनाभोगनिसिप सावस्थायां श्रनोग निर्वर्तितो मनोभऋणलक्षणः स व पर्यातावस्थायां आजोगनिर्वर्तितो मनोज कृणलक्षण निर्वर्तित आहा पर्याप्तावस्थायां होमाहारः पर्याशावस्यायां नैर होमाहारो नैषिकाणां बोमाहार बोगनिवर्तितीन्द्रि यादीनां मनुष्यपय्र्यवसानानां यः प्रपाहाररस आजोगनि विर्तित एवेति ॥ नैरविकादिषु आहारपुद्गलानां चयोपचयादिजीवशब्दे । आहारपदस्य द्वितीये संदेशेऽयाधिकाराः। आहारजवियस लेस्सादिट्टी व संजयकसाए । नाजोगुवयोगे बेदेयसरिपनचि ।। १ ।। प्रथमं सामान्यत आहाराधिकारो, द्वितीयो नव्याधिकारो अव्यविशेषितदाराधिकारः । एवं तृतीयः संज्ञाधिकार, धतुर्थी श्याधिकारः, पंचमष्टाधिकारः, षष्ठः संयताधिकारः, सप्तमः Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार अभिधानराजेन्द्रः। पाहार कषायाधिकारो, ऽष्टमो ज्ञानाधिकारो, नवमो योगाधिकारी, प्रतिसमयमनंतानां विग्रहगत्योत्पाद्यमानानां सत्यमानतया दशम उपयोगाधिकार, एकादशो वेदाधिकारो,द्वादशः शरी- अनाहारकपदे ऽपि सदैव तेषु बहुवचनस्यसम्नवात्। तथाराधिकार, स्त्रयोदशः पाप्यधिकारः । इह जव्यादिग्रहणेन चाह(एवं जाव वेमाणिया नवरं एगिदिया जहा जीवा इति) तत्प्रतिपक्कजूता अभव्यादयोऽपि सचिता अष्टव्याः । तथैवाने ॥ एवं नैरयिकोक्तनङ्गप्रकारेण शेषा अप्यसुरकुमारादयस्ताव वदयमाणत्वात् ॥ द्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः । नवरमेकेन्छियाः पृथिव्यप्तजोवा तत्र प्रथम सामान्यत आहाराधिकारं विनावयिषुरिदमाह । युवनस्पतिरूपाः प्रत्येकं यथा उन्नयत्रापि बहुवचनेन जीवा जीवे णं जने ! किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! उक्तास्तथा वक्तव्याः॥ सिकेष्वेक एव जंगो ऽनाहारका इति सिय आहारए सिय अणाहारए । एवं नेरइए जाव सकसशरीरप्रहाणितस्तेषामाहारासंभवात् । बहुनाञ्च सदा भावादिति। गतं प्रथमघारम् । असुरकुमारे जाव वेमाणिए । सिकेणं जंते! किं पाहा द्वितीयं भव्यद्वारमन्निधित्सुराह । रए अणाहारए? गोयमा ! णोआहारए अणाहारए। जवासधिएणं जंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? जीवेणं जन्ते ! श्त्यादि प्रश्नसूत्र सुगम जनवानाह । गोयमे त्यादि गौतम ! स्यात्कदाचिदाहारकः कदाचिदनाहारक: गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए एवं जाव कथमिति चेदुच्यते । विग्रहगतौ केवलसमुद्घाते शैलेश्य बेमाणिए। वस्थायां सिरुत्वे चानाहारकः शेषास्ववस्थास्वाहारक उक्तं जवसिकिएणं भंते ! इत्यादि । भवैः संख्यातैरनन्तै सिच । “ विम्गहगश्मावना, केवक्षिणी समोहया अजोगी य । किर्यस्यासी प्रवसिरिको जव्यस्स कदाचिदनाहारकः । सिका यप्रणाहारा, सेसा आहारगा जीवा"॥१॥ तदेवं सामा विग्रहगत्याद्यवस्थायां नवति अन्ये च पूर्वोत्पन्नतया आहारका न्यतो जीवञ्चिन्तां कृत्वदानी नैरयिकादिचतुर्विंशतिदएमक अनवन् । तदा एष जङ्गो सत्यते । तृतीयभङ्गमाह-भहवा क्रमेणाहारानाहारकचिन्तां करोति (सिद्धणं जन्ते ! किं आ पाहारगा य अमाहारगा याअत उभयत्रापि बहुवचनं एषच हारेत्यादि ) सुगम तदेव सामान्यतो जीवपदे नैरयिकादिषु अंगो यदा बहवो विग्रहगत्योत्पद्यन्ते तदा अष्टव्यः । शेषनंचैकवचनेन आहारकानाहारकत्वचिन्ता कृता । गकास्तु न संभवन्ति आहारकपदस्य नैरयिकाणां सर्वदैव सम्प्रति बहुवचनेन तां चिकीर्षुराह ॥ बहुवचनविषयतया बज्यमानत्वात् । पवमसुरकुमारादिष स्तनितकुमारपर्यवसानेषु द्वीमियादिषु च वैमानिकपर्यन्तेषु जीवाणं जते ! किं आहारया अणाहारया ? गोयमा! प्रत्यकं भङ्गत्रिकं नावनीयम् । उपपातविरहनावात् । प्रथम आहारया वि अणाहारया वि । नेरइयाणं पुच्चा ? भङ्गस्य एकादिसंख्यतयोत्पत्तेः । शेषस्य च भगवयस्य सर्वगोयमा ! सम्बे वि ताव होज्जा । आहारगा।१। त्रापि बन्यमानत्वात् । एकेन्डियेषु पुनः पृथिव्यप्तेजोवायुअहवा आहारगा य अणाहारगे य ।। अहवा वनस्पतिरूपेषु प्रत्येकमेकशेष एवैको जंगः । आहारका अपि आहारगा य अणाहारगा य । ३। एवं जाव वेमाणिया अनाहारका अपि पृथिव्यप्तेजोवायुष प्रत्येक जायमाना अ नाहारकाः शेषकानं त्वाहारका एवं चतुर्विशति दएमकेऽपि । नवरं । एगिदिया जहा जीवा । सिकाणं पुच्छा। प्रत्येकं वाच्यं । तथाचाह-एवं जाव वेमाणिए । अत्र च सिगोयमा ! नो आहारगा अणाहारगा ॥ किविषयं सूत्र न वक्तव्य मोकपदप्राप्ततया तस्य जयसिद्धिप्रश्नसूत्रं सुगमं । नगवानाह । गौतम! आहारका अपि अना कत्वायोगात् ॥ हारका अपि सदैव बहुवचनविशिष्टा उन्नये ऽपि बज्यन्तेश्त अत्रैव बहुवचनेनाहारकानाहारकत्वचिन्तां चिकीर्षुराह ॥ भावः । तयाहि । विग्रहगतिव्यतिरकेण शेषकासं सर्वेऽपि जवासिफिया एं जते! जीवा किं आहारगा अणाहार संसारिणो जीवा आहारका विग्रहगतिस्तु कचित्कदाचित्क स्यचित्तु भवतीति सर्वकालमपि सन्यमाना सम्प्रति निय गा। जीवेगिंदियवज्जो तियनंगो अनवसिछिए वि । तानामेव बज्यते तत आहारकेषु बहुवचनं अनाहारका अ एवं चेव नो जवसिधिए नो अनवसिकिएणं जते ! पि सिद्धास्सदैव बज्यन्ते ते चाभव्यज्यो ऽनन्तगुणाः । अन्य जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा !नो आहा श्व सर्वकालमेकैकस्य निगोदस्य प्रतिसमयसंण्ययनागो रए अणाहारए एवं सिके वि । नो जवासिफिया नो विग्रहगत्यापन्नो बज्यते ततोऽनाहारकेष्वपि बहुवचनं नैरयिकसूत्रे सर्वे ऽपि तावङ्गवेयुराहारकाः । किमुक्तं भवति । अजवसिरियाणं नंत जीवा किं पाहारगा अणाहा कदाचिन्नैरयिकाः सर्वे ऽप्याहारका एव जवन्ति न त्वेको रगा ? गोयमा ! नो आहारगा अपाहारगा एवं ऽप्यनाहारकः कथमिति चमुच्यते । उपपातविरहात्तथाहि। सिछा वि॥ नरयिकाणामुपपातविरहो हादश मुहूर्ता एतावति चान्त (भवसिफिएणं ते! इत्यादि )अत्राप्याहारद्वार श्व जीव रे पूर्वोत्पन्नविग्रहगत्यापन्ना अपि श्राहारका जाता अन्य- पदे एकेन्द्रियेषु च प्रत्येकमुनयत्र च बहुवचनेनैक एव भंगो स्त्वनुत्पद्यमानत्वात् । अथवा आहारका अनाहारकपदे यथा आहारका अपि अनाहारका अपि शेषेषु नैरयिकादिषु बहुवचनमनाहारकपदे एकवचनमिति जावः । कथमेष स्थानेषुजंगत्रिकं कदाचित्केवला आहारका न त्वेकोऽप्यनाहाभङ्गो घटामियाति चेषुच्यते इह नरकेषु जन्तुः कदा रकः। अथवा कदाहारका एकोऽनाहारकः । अथवा । आहार चिदेक उत्पद्यते कदाचिद् द्वौ कदाचित्त्रयश्चत्वारो याव- का अपि अथवा ऽनाहारका अपि । सन्जयत्रापि बहुवचनं । संख्याता असंख्याता वा । तत्र यदा एक उत्पद्यते सो तथाचाह । “जीचे गिदियवज्जो तियानगो" ति । यथाच ऽपि विग्रहगत्यापनः प्रतिसमयमसंख्यातानां वनस्पतिषु । भवसिछिके एकस्मिन् बहुषु चाहारकानाहारकत्वचिन्ता Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३९) अभिधानराजेन्द्रः । आहार कृता तथा अभवसिद्धिकेऽपि कर्तव्या । उभयत्रापि एकवचने न भगसंख्यायास्सर्वत्रापि समानत्वात् । तथा चाह । श्रनवसिद्धिए एवं चैव । अभवसिद्धिकोऽपि नवसिफिक व एकवचने बहुवचनेन वक्तव्यमिति यस्तु न भवि नाप्यभवसिद्धिः स सिः स हि नवसिकिको न भवति नवातीतत्वात् अभवसिस्किस्तु रूढ्या यस्सि डिगमनयोग्यो न भवति स उच्यते ततो नवसिकिकोऽपि न भवति सि प्राप्तत्वात् । तथाच सति नोजवसिद्धिकाना अनवसिद्धि कवचितायां द्वे एव पदे । तद्यथा । जीवपदं सिद्धपदञ्च च जयत्राप्येकवचने एक एव नंगो नाहारक इति बहुवचने ऽप्येक एवानाहारक इति ॥ # संहिधारम् * ॥ सभी जंते! जीवे कि आहारए अनाहारए ? गोप मा ! सिय आहारए सिय अणाहारए । एवं जाव बेमा शिए नवरं । एििदयविगसिंदिया न पुच्छति । सभीणं जंते ! जीना कि आहारणा प्रणाहारगा गोयमा ! जीवादिओ जिंगो जाव बेमाणिया ॥ (सभी अंत !) श्यादि । प्रसू सुगम निर्वाचनसूत्रमाह । गोयमेत्यादि । विग्रहगत्या ऽनाहारकः शेषकालमाहारकः । ननु संही समनस्तु उच्यते विग्रहगतौ च मनो नास्ति ततः कथं संज्ञी समनाहारको बज्यते उच्यते इह विप्रहगत्वापोऽपि संययुष्माही व्यते यथा नारका युष्कवेदनाभर न दोषः । एवमित्यादि । एवंमुपदर्शनेन प्रकारेण तान्यामानिक वैमानिकसू न वरं मेकेन्द्रियावकलेन्द्रिया न प्रष्टव्याः । किमुक्तं भवति तद्विषय सर्वथा न कम्यं तेषाममनस्कतया संहित्वायोगातू बहुत जीवपत्रे नैरधिकादिपदेषु च प्रत्येक सर्वमङ्गतया सर्वेऽपि ताद्भवेपुरा द्वारका १ अथ essहारकाश्च अनाहारकश्च २अथवाऽऽहारकाश्च अनाहारकाश्च ३ तथाचाह । " जीवाश्ओ तियनङ्गो जाव वेमानिया" इति ॥ तंत्र सामान्यतो जीवपदे प्रथम सकलोपेक्षा संहि नोत्तराभावात् द्वितीय एक हिन इगत्याने तृतीयनंगे बहुषु संकिषु विग्रहगत्यापन्नेषु एवं नैरयिका दिपयपि मंगनावना काय " असं शिद्वारम् ॥ I सभी जेते जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए एवं रइए जात्र बाणमंतरे नपरे जोइसियवेमाणिया न पुति । सन्नीणं नंते ! जीवा किं आहारगा प्रणाहा रंगा ? गोयमा ! आहारगा वि अलाहारगा वि एगो जंगो असन्नीनं जेते! रश्या कि आहारमा प्र हारगा ? गोयमा ! आहारगा वा अणाहारगा वा हवा अहारए य प्राणाहारए य अहवा आहारए य अणाहारगाय । अवा आहारगा य प्रणाहारए य । अहना आहारगाव प्रणाहारगा य एवं एते उजंगा एवं जाव यणियकुमारा, एगिं दियेमु अजंगकं बेइंदिय जाव पंचिंदियतिरिक्खजोगिएसु तियजंगो मणुस्वाणमतरेसु बजेगा नो सन्नी जो असन्नीदं जंते जीने कि आहारए माहार ' णाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय प्रणाहारए एवं मवि सिके भशाहारए पु नो सन्नी नो असन्नी जीवा आहारगा विणाहारगावि मस्से तिवरंगो सिका अनाहारगा ।। ( असन्नीणं भंते! इत्यादि ) अत्रापि विग्रहगतावनाहारकः शेषका समाहारकः ( एवं जाव वाणमंतरे शत ) एवं सामायतो जीवपद्श्व चतुर्विंशतिक्रमेण ता यावद्वानव्यन्तरो धानत्र्यंतर विषयसूत्रं । अथ नैरयिका जव नपतयो वानव्यन्तराश्च कथमसंज्ञिना येनासंज्ञिसूत्रे तेऽपि पठ्यंत इति उच्यते । छह नैरथिका जवनपतयो व्यन्तराश्च संज्ञिज्योऽप्युत्पद्यन्ते । संहिज्योऽपि असंशिज्यश्चोत्पद्यमाना संज्ञिन इति व्यवन्दियन्ते । संहिज्य उत्पद्यमानाः संझिनततो हिप से उप्रकारेण पश्यन्ते । ज्योतिष्कमा निकास्तु संहिज्य एवोत्पद्यन्ते । नासंविज्यः असंज्ञित्वव्यव हाराजावादिह ते न पठ्यन्ते । तथाचाह । " जोइसियवेमाणिया न पुच्छिज्जांत” किमुक्तं जवति । तद्विषयसूत्रं न वक्तव्यं तेषामत्वाभावादिति बहुवचनचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे एक एव जंगस्तयथा आहारका अपि अनाहारका अपि प्रतिसमय मेकेन्द्रियाणामनन्तानां विग्रद्गत्यापन्नानामतएवानाहारकाणां सदैव वज्यमानतयाहारकपदेऽपि सर्वदा बहुवचननावात् । नैरयिकपदे षरुगाः । तत्र प्रथमो भंग आहारका इति श्रयं च जंगो यदाऽन्यो संज्ञी नारक उत्पद्यमानो विगत्यापन न लभ्यते । पूर्वोत्पन्नस्त्वसंज्ञिनः । सर्वेऽप्या हारका जातास्तदा बज्यन्ते । द्वितीयोऽनाहारक इति एष यदा पूर्वोत्त्रोऽसंही नारक एकोऽपि न विद्यते । उत्पद्यमानास्तु विगत्यापन बढ्यो सन्ते तदा विज्ञेयः । तृतीय आहारकश्च अनाहारकश्च द्वित्वेऽपि प्राकृते बहुवचन चिन्तायामेोऽपि नंगरसमीचीन इत्युपन्यस्तः । तत्र यदा चिरका सोत्पन्नएको संही नारको विद्यते। अधुनोत्पद्यमानोऽपि विप्रगत्यापन पकस्तदायं भंगः चतुर्थः आहारकचानाहार एकश्विरकालोपत्रे एकस्मिन्नसंज्ञिनि नारके विद्यमाने बहुधुनोत्पद्यमानेषु असंक्षिषु विग्रहगत्यापन्नेषु द्रष्टव्यः पंथम आहारकाधानाहारकार्य विरका बहु संक्षिषु नारकेषु अधुनोत्पद्यमाने विग्रहगत्यापन्ने एकस्मि नसंज्ञिनि विज्ञेयः । षष्ठः आहारकाश्चानाहारकाञ्चषु बहुषु विरात्पद्यमानेषु चाशिषु वेदितव्यः । एवमेते पगा एवमुपदर्शितेन प्रकारेण एते षरूभंगा स्तद्यथा । आहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेनैकः । १ । अनाहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेन द्वितीयः । २। आहारकपदस्यामादारकपदस्य च युगपायायेकमेकवचनेन तृतीयः । ३ । आहारकपदस्यैकवचनेन अनाहारकपदस्य बहुवचनेन चतुर्थः || ४ || आहारकपदस्य बहुवचनेन श्रनाहारकपदस्यैकवचनेन पञ्चमः ॥ ५ ॥ जयत्रापि बहुवचनेन षष्ठः ॥ ६ ॥ शेषास्तु जंगा न सम्भवन्ति । बहुवचनचिन्तायाः प्रक्रान्तस्वात्। ते च गा असुरकुमारादिष्यपि स्तनितकुमारप व्यसनेषु वेदास्तथा वाद एवं जाव पनियकुमारा एर्गिदिपसु अनंगमिति ” एकेन्द्रियेषु पृश्चिव्यतेजोवायुवनस्पतिरूपेष्वभंगकं जंगकाभावः । एक एव जंग इत्यर्छुः । सचाऽयं आहारका अपि अनाहारका अपि । तत्राहारका बहवः सुप्रसिका अनाहारका अपि प्रतिसमयं पृथिव्य 66 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) पाहार अभिधानराजेन्डः। आहार वायवः प्रत्येकमसंख्येयाः । प्रतिसमयं वनस्पतयो ऽनन्ताः तियनंगो इति" पवमित्यादि । एवं यथा सामान्यतः सवेश्यसर्वका अत्यन्ते शति तेऽपि बहवः सिद्धाः कीजियत्रीन्द्रि- सूत्रमुक्तं तथा कृष्ण लेश्याविषयमपि नीसवेश्याविषयमपि यचतुरिंद्रियतिर्यपञ्चेन्षियेषु प्रत्येक नंगत्रिकं । तद्यथा। कापातोश्याविषयमपि सूत्रं च वक्तव्यं । सर्वत्र सामान्यतो आहारका अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च । अथवा आहा- जीवपदे एकेन्छियेषु च प्रत्येकमनङ्गक शेषपदेषु भङ्गात्रिकं । रकाश्चानाहरकाश्वतत्र द्वीन्द्रियान् प्रतिभावना यदा द्वीन्द्रिय तेजोलेश्याविषयमपि सूत्रमेकत्वं प्राग्वत् बहुत्वं पृथिव्यप्वनएकोऽपि विग्रहगत्यापन्नो बज्यते तदा पूर्वोत्पन्नाः सर्वे स्पतिषु षम्नङ्गाः तेषु कथं तेजोवेश्यासंनव शत चेदुच्यते। प्याहारका इति प्रश्नमो भंगः । यदा पुनरेको विग्नहगत्यापन्न जवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानांदेवानां तेजोमेश्यावतास्तदा पूर्वे सर्वेऽप्याहारका उत्पद्यमानस्त्वेकोऽनाहारक शत। तत्रोत्पादनावात् । उक्तश्चास्या पव नगवत्याः प्रज्ञापनायायदा तूत्पद्यमाना अपि बहवो बन्यन्ते तदा तृतीयः । एवं इचपणी "जेणं तेसु नवणवश बाणमंतरजोसियसोहम्मी श्रोन्द्रियचतुरिन्जियतिर्यक्पञ्चेन्धियेष्वाप भावना कार्या । साणया देवा ॥ नववजन्ति तेणं तेउलेस्सा सम्भ १" इति। मनुष्यव्यतरेषु षानंगाः । ते च नैरयिकेषु च भावनीयास्त- ते पर नगा श्मे सर्वे आहारकाः॥१॥ अथवा सर्वेऽनाहार थाचाह । “वेदियजावपंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु । तिय- काः२ अथवा आहारकश्वानाहरकः ३ अथवा आहारकश्चाभंगो मणूसवाणमंतरेसु बभंगा ॥१॥"शति ।नो संझी नो हारकाध ४ अथवा आहारकाचानाहारकश्च ५ अथवाअसंझी च केवली सिरुश्च । ततो नोसंझिनोअसंज्ञित्व- आहारकाचानाहारकाश्च । ६। शेषाणां जीवपदादारज्य चिन्तायां त्रीणि पदानि तद्यथा । जीवपदं मनुष्यपदं सिद्ध- सर्वत्रापि भङ्गत्रिकं । तयाचाह (तेनलेस्साएपुढवी आजव पदञ्च । तत्र जीवपदे सूत्रमाह "नो सन्नी नोअसन्नी नंते! जस्सश्काश्याणं उभंगा सेसाणं जीवाओ तियभंगा जीवे" इत्यादि । स्यात्कदादिदाहारका केवासिनः समुघा- इति) आह किं सर्वेषामविशेषेण जीवपदादारज्य भङ्गत्रिक ताद्यवस्याविरहे आहारकः । स्यात्कदाचिदनाहारकः। समुद्- मुत केषां चिदत आह (जेसि अत्थि तेजोसा इति) घातावस्यायां सिम्त्वावस्यायां वा भावनीयं । सिके प्रणा येषामस्ति तेजोबेश्या तेषामेव नङ्गत्रिकं वक्तव्यं न शेषाणां हारए इति । सिके सिद्धविषये सूत्रे । अणाहारए इति वक्तव्यं । पतेन किमावेदितं नवति । नरयिकविषयं तेजोवायुविषय (पुडुत्तणंति ) पृथक्त्वेन बहुत्वेन चिन्तायामिति प्रक्रमः वित्रिचतुरिन्जियविषयञ्च तेजोवेश्यासूत्रं वक्तव्यमिति तथा (आहारगा वि अणाहारगा वि ति) तत्राहारका आप बहना पद्मश्यासूत्रं वक्तव्यमिति तथा पद्मलेश्या च येषां संनवति केवलिनां समुद्घाताद्यवस्थाहितानां सदैव अन्यमानत्वात् । तद्विषयं तयोः सूत्रं वक्तव्यं तत्र पनवेश्या शुक्रलेश्या च । अनाहारका अपि सिद्धानां सदैव नावात्तेषां चानाहारकत्वा तिर्यक्पश्चन्छियेषु मनुष्येषु वैमानिकेषु च सत्यते न शेष दिति (मणुस्सेसु तियन्नंगो इति ) मनुष्यविषयं भंगत्रिक विति । तयोः प्रत्येकं चत्वारि पदानि । तद्यथा । सामान्यतो तद्यया । आहारका एष भंगो यदा न कोऽपि केवनी समुद्घा जीवपदं तिर्यक्पञ्चेन्धिपदं मनुष्यपदं वैमानिकपञ्च सताद्यवस्थागतो जवति । अयवा । आहारकाइचानाहारकरच। र्वत्राप्येकवचनचिन्तायां स्यादाहारक शत भंगो बहुवचन एष नंगो एकस्मिन्केवलिनि समुदघाताद्यवस्थागते सति चिन्तायां जङ्गत्रिकं । तद्यथा। सर्वे ऽपि तावावेयुराहारकाः बन्यते अथवा आहारकाइचानाहारकाइच । एषु बहुषु केव १ अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च २ अथवा अाहारकाविषु समुद्घाताद्यवस्थागतेषु सत्सु वेदितव्यः ॥ प्रज्ञा०॥ धानाहारकाश्च ३ । तथाचाह ( पम्हलेसाए सुक्कलेसाए वेश्याद्वारम् । जीवाईओ तियभंगोत्ति) अबेश्या जीवास्ते चायोगिकेव सलेसेणं जंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए? गो- बिनः सिद्धाश्च ततः स्यात्त्रीणि पदानि । तद्यथा । सामायमा ! सिय आहारएसिय प्रणाहारए एवं जाव वेमाणि न्यतो जीवपदं मनुष्याः सिझाश्च । सर्वत्राप्यकवचनेन बहुए सलेस्सा एं ते!जीवा किं आहारगा अणाहारगा? चनेन चानाहारगा ति ॥ गोयमा जीवेगिंदियवज्जो तियनंगो । एवं काहस्सानी सम्प्रति सम्यग्दृष्टि हारम् ॥ सम्मदिट्ठीणं नंत ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? ललेस्सा कानोस्साए वि! जीवेगिंदिय तियनंगो तेनले गोयमा! सियाहारगा सिय प्रणाहारगा । बेइंदिय स्माए पुढविभाउवणस्सइकाइयाणं नंगा सेसाणं तेइंदिय चीरदियउनंगा । सिछा अणाहारगा जीवादिओ तियनंगो जेसिं अत्यितेउझेसा पम्हलेसाए अवसेसाणं तियनंगा । मिच्छदिष्ट्ठीसु जीवेगिदिसुकमाए य जीवादिओ तियनंगो अझेस्सा जीवा माणुस्सा सिघाएगत्तण वि पुहत्तेण विनो आहारगा।। यवज्जो तिय नंगो । सम्मा मिच्छदिहीणं ते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा आहा टीका । सामान्यतः सवेश्यसूत्रमाह । (सोसणं भंते ! जीवे इत्यादि) इदं सामान्यतो जीवसूत्रमिव भावनीयं । अत्रापि रए नो अणाहारए एवमेगिंदियविनिंदियवजं जाव सिकसूत्रं वक्तव्यं सिमानामवेश्यत्वात् । बहुवचनचिन्तायां वेमाणिए एवं पुडुत्ते वि।। जीवपदे एकेन्धियेषु च पृथिव्यादिषु प्रत्येकमेक एव नंगस्त- सम्यग्दृष्टिश्चेहोपशमिकसम्यकत्वेन सास्वादनसम्यक्त्वेन द्यथा । आहारका अपि अनाहारका अपि उन्नयेषामपि सदा क्वायोपशामिकसम्यक्त्वेन कायिकसम्यक्त्वेन वाप्रतिप्रत्तव्यः बहुत्वेन बज्यमानत्वात् । शेषेषु तु नैरयिकादिषु प्रत्येक नंग सामान्यत उपादानात्तथैव चाग्रेभङ्गचिन्तायामपि करिष्यमाणत्रिक । तद्यथा। सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः १ अथवाऽऽ त्वात् । तत्रोपशमिकसम्यग्दृष्टयादयः सुप्रतीताः वेदकसम्यग्ड हारकाश्चानाहारकश्वश्अथवा आहारकाच अनाहारकाश्च ३ ष्टिः पुनः क्वायिकसम्यक्त्वमुत्पादयन् चरमग्रासमनुनवन्नवसे अमीषाश्च भावना प्राम्वत् । तथाचाह । “जीवगिदियवजो या एकत्वे सर्वेप्वपिजीवादिपदेषु प्रत्येकमेष जंगःस्यादाहा Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (488) अभिधानराजेन्द्रः । आहार रकः स्यादनाहारक इति नवरमंत्र पृथिव्यादिविषयसूत्रन्न वक्त यं तेषां सम्यायोगात् उनयानायो (पुढचाश्य) इति पचनाद्वहुवचनविषयसुषं । सामान्यतो जीवपदे आहारका अपि अनाहारका श्रपीत्येष एव भंगः उज्जयेषामपि सदा सम्यग्द्रष्टीनां बहुत्वेन सज्यमानत्वात् । नैरयिकनवनपतितिर्यद्रयमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेषु प्रत्येक नं गत्रिकं । तद्यथा कदाचित्सर्वेऽप्याहारका एव १ कदाचिदाहारका एकश्वानाहारकः २ कदाचिदाहारका अनाहारकाश्च ३ द्वित्रयद्रियेषु नो गाने प्रायज्ञावनीयाः । द्वीन्द्रियादीनां च सम्यग्ष्टित्वमपर्याप्तावस्थायां सम्भवति । सास्वादनसम्यकूत्वापेक्क्या अष्टव्यं । सिद्धास्त्वनाहारकाः । तेषां कासिम्पट्टत्वयुक्तत्यात् । तथा च वेदिय दियचतुरिंदर नंगा सिका अणाहारगा अवसेलाएं तियतंगो) मिध्यादृष्टिष्यपि एकवचने सर्वत्र स्पादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं । बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिपरेषु च प्रत्येकमादारका अपीति उजवेषामपि सर्वदेव पदेषु बहुत्वेन न्यमानावेन शेषेषु तु सर्वेषु स्थानेषु मंगत्रिक सिद्ध चात्र नवक सिद्धानां मिथ्यात्वापगमादेतदे याद मासु जीगिदियो तियनंगो सम्मामिच्छदिट्टी ते जीवे ॥ इत्यादि सूर्य सुगमं नगवानाह । गौतम ! श्राहारको नो अनाहारकः कस्मा दिति यत पर संसारिणामनाहारकत्वं विधयती न सम्यग् मिथ्यारष्टिर्विग्रहगत्यभावतो ऽना हारकत्वाभावः । एवं चतुर्थकमेण सर्वत्रापि च । नमे 66 विकलेन्द्रिया न करते सम्य मिध्यादृष्टित्वा भवात् । एवं बहुवचनेऽपि वक्तव्यं । तद्यथा ॥ ● सम्मा मिच्छदिट्ठीर्ण अंते! जीवा किं आहारगा ! गोपमा ! आहारगानो आहारा सम्पामिच्छदिकीर्ण जन्ते ! नेरश्या किं आहारगा प्रणाहारगा ? गोपमा ! आहारमा नो अणाहारगा । एवमेर्निदिपचिंगादिपवा जाव वैमाशिया ॥ * इति ॥ गतं दृष्टिद्वारम् ॥ सम्प्रति संयतद्वारम् ॥ संजरणं जंते कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सियाहारए सिय प्रणाहारए एवं मस्से वि । पुहुत्तेणं तियांगो असंजय पुच्छा, गोवमा सिव आहारए सियाहार पुहुत्ते जीवेगिंदियवज्जो तियनंगो संजताजते जीवे पंचिदियतिरिक्खमोणिए मासे एते एगते विपुहत्तेण वि आहारगा नो अणाहारगा नो संजते नो संजए नो संजयासंजए जीवे सिद्धे य एते एगतपुहतेण वि नो अहारगा अणाहारगा ॥ संयतत्वं मनुष्याणामेव तत्र द्वे पदे । तद्यथा । जीवपदं मनुस्यपदञ्च । तत्र जीवपदे सूत्रमाह ( संजपणं भंते ! जीवे इत्या दि) सुनबरं अनादार केवलसमुद्घातावस्थाया मयोगित्वावस्थायां वेदितव्यं शेषकालमाहारकत्वं । एवं । (म संवित्ति एवं मनुष्यविषयं सूत्रे वतन् तद्यथा । (संजपणं नंते. मणूसे कि आहारय प्रणाहारण ? गोयमा ! सिय आहार लिय अणाहारए) भावनान्तरमेवोक्ता ( पुहुत्तणं आहार 1 षु तियभंगोन्ति) पृथक्त्वेन बहुवचनेन जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकं प्रगत्रिकं । तथैवं सर्वेऽपि तापहारका एप जंगबहान को केवसमुद्धतमयोगित्वं वा प्रतिप भवति वेदितव्यः । अथवा आहारकाश्चानाहारकञ्च एष एकस्मिन् केवfafe समवहते शैलेश गते वा प्राप्यते अथवा श्र हारकाश्च अनाहारका पत्रु बहुषु केवलिषु समवहतेषु शया अन्य असंयतसूत्रे पचने सर्वत्र स्थादाहारक इति वक्तव्यं । बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिषु च पदेप्रत्येकमाहारका अनाहारका अपि इत्येष भङ्गः रविकादिषु स्थानेषु प्रत्येकं मंगत्रिक संयतासंयत देशविर तास्ते व तिर्यकूपंचेन्द्रिया मनुष्या वा न शेषाः शेषाणां स्वभावत एव देशविरतिपरिणामाभाषादेव श्रीणि पदानि । तद्यथा । सामान्यतो जीधपदं तिर्यक् पञ्चेन्द्रियपदं मनुष्यपदचैतेषु त्रिष्वपि स्थानेषु एकवचने बहुवचने च आहा रका भवन्ति । भवान्तरगतः केवलिसमुद्घाताद्यवस्थासु देशविरतपरिणाम संतो यतासंयतो । गतं संयतद्वारम् । तश्चितायां से पदे । तद्यथा । जीवपदं सिरुपदश्च । उभयत्रा ऽप्येकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेववक्तव्यं नत्वाहारकत्वम् । सिद्धानामनाहारकत्वात् ॥ सम्प्रति कषायद्वारम् ॥ ! सकसाई अंते जीवे कि आहा० प्रा० सिय आहा० सिय अशाड़ा एवं नाव वैमाणिए पुर्ण जीवेगिदियो पिजंगो को कसाई जीवाईसु एवं चैव नवरं देवे जंगा माणकसाईसु मायाकसा ईसु देवर नंगा अवसेसाणं जीवेगिंदियवज्जो - तियजंगो | सोनसाई ने उनंगा । अपसेसे जीवेदियो तिजंगो कसाई जहा नो सभी नोनी । (सफाई ते जीये) इत्यादि ॥ चनविषयं सुगम बदुयय ( जीवेगिदियो तियमंगोलि ) यदि च पंचसु पदेषु प्रत्येक आहारका अपि अनाहारका अपि वक्तव्यं । उभयेषामपि सकपायाणां सदैव तेषु स्थानेषु बहुत्वेन वज्यमानत्वात् । शेषेषु तु स्थानेषु भंगत्रिकं । कोहकसाए एवंचेवत्ति क्रोधकषाय्यपि एवमेव सामान्यतः सकपायवदवसेयः । तमपि जीवपरे पृथिव्यादि पदेषु चाभङ्गकं शेषेषु तु स्थानेषु भंगत्रिकमिति भावः । किं संव व्यविशेषेाने भंगत्रिका (नयर देगा ) देवा दिवा सोभा भवन्ति न कोपादिय दुलाः । ततः क्रोधकपाणि एकादयोऽपि प्रयन्ते इति भङ्गास्तद्यथा । कचित्सर्व्वे ऽप्याहारका एव क्रोधकपायिण एकस्यापि विग्रद्गत्यापन्नस्यालभ्यमानत्वात् १ कदाचित्सर्वे ऽप्यनाहारका एकस्यापि क्रोधकषायिणस्तत श्राहारकस्याप्राप्यमाणत्वात् क्रोधोदयो हि मानाद्यदयविबिक पविचयते । न मामासदियो से अधकपाणिः ततः कदाचिदाहारकस्य सर्वथाऽप्य नावः ॥ २ ॥ तथा कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः ॥ ३ ॥ कहाकि आहारको बदयोऽनाहारकाः ॥ ४ ॥ कदाचिद्रव आहारका एकोऽनाहारकः ॥ ५ ॥ कदाचिह्न Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४२) अभिधानराजेन्द्रः | आहार हव आहारका बढ्योऽनाहारकाः ॥ ६ ॥ इति मानकषायसूत्रं मायाकषायसूत्रं चैकवचने प्राग्वत् । बहुवचने विशेषमाह । ( माणकसासु) इत्यादि । मानकषायिषु मायाकषायिषु बहुवचनेयमानेषु देवेषु नैरधिकेषु च प्रत्येक पगाः । नैरfयका हि भवस्वभावतः क्रोधवडुद्धा देवास्तु सोजवहुआस्ततो देवानां नैरविकायाञ्च मानकषायो भाषाकपायध प्रविरन इति प्रागुक्तप्रकारेण षभंगाः । जीवपदे पृथिव्यादि पदेषु च प्रत्येकम नंगकमाहारकाणामनाहारकाणां च मानकपाणां मायाकषायिणाञ्च प्रत्येकं सदैवतेषु स्थानेषु बहुत्वेन सज्यमानत्वात् । शेषेषु तु स्थानेषु मंगत्रिकं । सोनकषाय सूत्रमप्येकवचने तथैव बहुवचने विशेषमाह ( लोभकसा ईसु इत्यादि) सोनकषायिषु नैरयिकेषु षम् नंगास्तेषां लोभबहुलतया षर्भग्यसंजवात् । जीवेष्वेकेन्द्रियेषु च प्राग्वदेष एव भंगः । आहारका अप्यनाहारका अपीति ( कसाई जहा जो सभी को असीति ) अकपाणि मोहिम मोहिलो उक्तास्तथा वक्तव्याः किमुक्तं नवति । श्रकषायियोऽपि मुनुष्याः सिका मनुष्या उपशांत पायादयो वेदितव्याः ॥ अन्ये सकषायित्वात् । तत एतेषामपि श्रीणि पदानि । तद्यथा । सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिरुपदश्च तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमेकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं । सिरुपदेष्वनाहारक एवेति । बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपीति । केवलिनामाहा काणां सिकानामनाहारकाणां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्या मनुष्यपदे भंगत्रिकं । सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारका १ अथवा आहारकाश्चानादारकश्च १ अथवा आहारकाश्चनाहाकाश्च ३ भावना प्रागेवानेकशः कृता सिद्ध पदे त्वनाहारक एक एव ॥ सम्प्रति ज्ञानद्वारम् ॥ नाही जहा सम्मदिङ । आनिधियो हियनाणी सूपनाई दियतेइं दियच नरिदिएसु बनंगा । अवसेसु जीबादिओ तिवरंगो जर्सि अत्यि ओहिनाणी पंचिदियतिरिकखजोणिया माणूमा य आहारमा नो अणाहारगा असे से जीवादिप्रतियांगो जर्सि ओहिनाणं मापन बनाणं जीवा मासा व एमतेश विपुलेा वि आहारगा नो अणाहारमा केवलनाणी जहा जो सभी नो असली भाणमति नाणी सुय अभागी जीवेगिंदियवज्जो तियगो विनंगनाणी पंचिदियतिरिक्वजोलिया मणूसा आहारगा नो अणाहारगा अवसेसेसु जीवादिश्रो तिगो || ( तत्र नाणी जहा सम्मदिडीति ) ज्ञानी यथा प्राकू सम्यरुक्तस्तथा वक्तव्यस्तद्यथा ॥ ॐ नाणी जंते ! जींचे किं आहारए अनाहारए गो० सिय आहारए सिय प्रणाहारए नाणी जंते ! नेरईए कि आहार अणाहारए ? गो० सिय अहारए सिव अणाहारए एवमेर्गिदियवजं जात्र वेमालिए नाणी जीवा किं आहारगा अशाहारमा ? गो० आहा गाव पाहारगाव नाणी जंते ! रश्या किं महार आहारगा अणाहारगा गो० सब्बे मि ताव होला आहारगा? अहवा आहारगा प अणाहारगे १२ अहवा आहारगा प अणाहारगा य एवं जान पशिमकुमारा । बेदियाणं पुच्छा गो० सव्वे वि ताव होज्ज १ आहारगा अहवा अणाहारगाय २ अहवा आहारमेय अहवा आहारगे य प्रणाहारगा य ४ अहवा श्राहारगा व प्रणाहारगे व अहवा आहारगाव प्रणाहारगा य ६ एवं तेई दियाया वि जाणियम्या असा जाव मालिया जहा नेरझ्याणं सिद्धाणं पुच्छा गो० ॥ * (धणादारणा इति ) अभिनियो धिककानसूत्रे बैंक प्राम्यदयसे । बहुवचने द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु प्रङ्गः जीयादिस्थानेयेकेषु भङ्गविषं तचैव ॥ शेषेषु * प्रतिनिबो हियनाणी णं नंते ! जीवा किं श्राहारगा णाहारगा ? गोयमा ! सव्वेवि ताव होज्ज आहारगा १ हवा आहारगाय अाहारगे य २ अहवा आहारगाव अणाहारगा प इत्यादि । तथा चाह। आजिनिबोहियनाएं। सुपनाणी पत्रेईदियचरिदिये गंगा वसेसेसु जीवाइओ तियनंगो तेसिं प्रत्थि इति सुगमे । नगरं जेसि अत्थि येषां जीवानामानिनिबोधका मभ्रतानस्तः। तेषु मंगात्रकं वक्तव्यं न शेषपृथिव्यादिष्विति । अवधिज्ञानसूत्रमेकवचने राथैय बहुवचनचितायां पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिका आहारका एव नत्वनाहारकाः । कस्मादिति चेडुच्यते । इह पंचेन्द्रिय तिरश्चामनाहारकत्वं विप्रग तो न च तदानीं तेषां गुणप्रत्ययतोऽवधियो गुणानामेबासंभवान्नाप्यप्रतिपतितावधिर्देवोमनुष्यो वा तिर्यकृत्पद्यते । ततोऽवधिज्ञानिनः सन्तः पंचेन्द्रियतिरइचोऽनाहारकत्वायोगः । शेषेषु तु स्यानेयेकेन्द्रियचिकमेन्द्र प्रत्येकं मंगत्रिकं । एतदेवाह । " “ओडिनाणीणं पंचिदियतिरिक्खजोशिया आहारमा अव सेमेसु जीवाइ ओ तियनंगो । जेसिंअत्थि ओहिनाण मिति ।। मनः पर्यायज्ञानं मनुष्याणामेव ततो द्वे पदे । तद्यथा । जीवपद मुजयत्रापि चैकवचने बहुवचने व मनःप निन आहारका एव वक्तव्याः नत्वनाहारका विप्रड्गत्याद्यव स्थायां मनः पर्य्यायज्ञानासंभवात् । केवलज्ञानी यथा प्राक् नो संकी नो ऽसंज्ञी वक्तस्तथा वक्तव्यः । किमुतं नवति केवलज्ञानचिन्तायामपि त्रीणि पदानि । तद्यथा । सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिकपदम् तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्यपदे चैकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारकः इति वक्तव्यं सिरुपदे त्वनाहारक इति बहुवचने सामान्यतो जीव पदे आहारका अपि अनाहारका अपि मनुष्यपदे भंगत्रिकं । तच्च प्रागेवोपदर्शितं सिरूपदे त्वनाहारका अपि अज्ञानिसुत्रं मत्यकानिसूत्रं श्रुताङ्गानि च एकवचने प्रागेव पनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु पृथिव्यादिषु प्रत्येकमाढारका अनाहारका अपि इति वक्तव्यं शेषेषु अंगत्रिकं । विनज्ञानसत्रमध्येकवचने तथैव बहुवचनचिन्तायां प तिर्ययोनिका मनुष्या आहारका एष वक्तव्याः । नत्वनाड़ारका भिकानासस्य चिमगाया तिपचेन्द्रियेषु 46 Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४३) पाहार अभिधानराजेन्द्रः। भाहार मनुष्येषु चोत्पत्तिसम्भवात् । अवशेषेषु स्थानेषु एकेन्छियावि- वैमानिका न वक्तव्याः । तेषां न नपुंसकत्वादहुवचने जीवै कलोन्द्रयवर्जेषु प्रत्येकं भंगत्रिकं । गतं शानद्वारम् ॥ केन्द्रियवर्जेषु नंगत्रिक । जीवपदे एकोन्जियपदेषु च पृथिव्यासंप्रति योगद्वारम् ॥ दिषु पुनरभंगकं प्रागुक्तस्वरूपमिति । अवेदो यथा केवली तथा मजोगीसुजीवेगिंदियवज्जो तियनंगो मणजोगी वजो- एकवचने बहुवचने च वक्तव्याः । जीवपदे मनुष्यपदे च एकगीय जहा सम्मामिच्गदिट्ठी । नवरं वइजोगी विग वचने स्यादाहारकस्स्यादनाहारक शति बहुवचने जीवपदे माहारका अपि अनाहारका अपि मनुष्येषु भंगत्रिक सिके हिंदियाण वि कायजोगीसु जीवेगिदियवज्जो तियनंगो। त्वनाहारका इति वक्तव्यमिति नावः ॥ गतं वेदद्वारम् ॥ अजोगी जीवमणूससिका अणाहारगा । दारम् ॥ शरीरद्वारम् ॥ तत्र सामान्यतः सयोगसूत्रमेकवचने तवैव बहुवचने जीवै- ससरीरे जीवेगिंदियवज्जो तियनंगो। नरालियसरीरिभु केन्द्रियपदानि वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु नङ्गत्रिकं, जीवपदे जीवमणूसेसु तियनंगो । अवसेसा आहारगा नो अपृथिव्यादिपदेषु च पुनः प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति जङ्ग उन्नयेषामपि सदैवतेषु स्थानेषु बहुत्वेन सत्य- पाहारगा जेसिं अत्थि नराशियसरीरं वेनब्धियसरीरी मानत्वात् । मणजोगी वश्जोगी जहा सम्मामिच्छादिट्टीयत्ति। आहारगसरीरीय प्रणाहारगा जेसिं अस्थि तेयगकम्ममनोयोगिनो वाग्योगिनश्च । यथा प्राक् सम्यग्मिथ्यादृष्टय गसरी जीवेगिदियवज्जो तियनंगो। असरीरी जीव उक्तास्तथा वक्तव्याः। एकवचने बहुवचने वाऽऽहारका एव वक्तव्या नत्वनाहारका शत भावः ( नवरं वश्जोगी विगसिदि सिधा य नो आहारगा प्रणाहारगा ॥ याणवित्ति) नवरमिति । सम्यगमिथ्याष्टिसूत्रादत्रायं विशे- शरीरद्वारे सामान्यतः शरीरसूत्रे सर्वत्रकवचने स्यादाहारकः षः । सम्यगमिथ्याष्टित्वं विकलेन्ष्यिाणां नास्तीति तत्सूत्र स्यादनाहारक शति । बदुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु शेषेषु तत्रोक्तं । वागयोगः पुनर्विकलेन्द्रियाणामप्यस्ति तत्सूत्रमपि स्थानेषु प्रत्येकं नंगत्रिकं । जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येक वाग्योगे वक्तव्यं । तश्चैवं ॥ मनङ्गकं प्रागुक्तमिति । औदारिकसूत्रमेकवचने तथैव नष *मणजोगीणं नंते जीवे किं आहारए अणाहारए? रमत्र नैरयिकभवनपतिव्यंन्तरज्योतिष्कवैमानिका न वक्त गोयमा! आहारए नो अणाहारए एयमेगिदियवर्ज ब्यास्तेषामौदारिकशरीराभावात् । बदुवचने जीवपदे मनुजाव वेमाणिए एवं पुहुत्तेण वि ॥* प्यपदेषु च प्रत्येकं नंगत्रिक । तद्यथा । सर्वेऽपि तावद्भवेयु काययोगिसूत्रमप्येकवचने बहुवचने च सामान्यतःसयोगि राहारका एष भंगो यदा न कोऽपि केवली समुदातगतयोगी मूत्रमिव (अजोगीणं ते! जीवे किं आहारए) तेनात्र त्रीणि था । अथवा आहारकाचानाहारकश्व एष एकस्मिन्केबसिनि पदानि । तद्यया जीवपदं मनुष्यपदं सिरूपदं च विष्वपि स्था समुद्घातगते ऽयोगिनि वासति प्राप्यते । अथवा आहारका नेष्वेकवचने बहुवचनेनाहारकत्वमेव । श्वानाहारकाच एष भंगो बहुषु केवसिषु समुद्धातगतेषु अधुना उपयोगद्वारम् ॥ अयोगिषु वा सत्सु वेदितव्यः । शेषास्त्वेकेन्छियहीन्द्रिय सागाराणागारोवनत्तेसु जीवेगिंदियवजो तियनंगो श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियातिर्यक् पंचान्द्रया आहारका पर वक्त व्याः, नत्वनाहारकाः । विग्रहगत्युत्तीएर्णानामेचौदारिक सिछा अणाहारगा । दारम् ।। शरीरसम्नवात् । वैक्रियाहारकशरीरिणश्च सर्वे ऽप्येकवचने तत्र साकारोपयोगसूत्रे च प्रत्येकमेकवचने सर्वत्र स्यादना बहुवचने चाहारका एव नत्वनाहारका नवरं येषां चैक्रियमाहारक इति वक्तव्यं सिद्धपदे त्वनाहारक ति बहुवचने जी हारकं वा संनवति त एव वक्तव्या नान्ये । तत्र नैरयिक वपदे पृथिव्यादिपदेषु चाहारका अपि अनाहारका अपीति भवनपतिवायुकायिकतियपचीन्द्रयमनुष्यव्यतरज्योतिष्कवैभङ्गः। शेषेषु नङ्गत्रिकं । सिकास्त्वनाहारका इति सूत्रो मानिकषु आहारकं मनुष्यवेव । सूत्रोबेखश्चायं । खस्त्व यं ॥ *सागारोवओगोवनत्तेणं ते! जीवे किं आहारए अणा * वेब्बियसरीरिणं!तेजीवे किं आहारए अणाहारए? हारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए ।* गोयमा ! आहारए नो अणाहारए ! वेउव्वियसरीरेणं गतमुपयोगद्वारं ॥ जंते ! नेरइए कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! वेदद्वारम् ॥ आहारए ना अणाहारए ॥ * सवेदजीवेगिंदियवज्जो तियनंगो । इत्यिवेयपुरिसवेएम इत्यादि । तैजसकामणशरीरसूत्रे चैकवचने सर्वत्र स्यादाजीवाइओ तियनंगो । नपुंसगवेदए जीवेगिंदियवज्जो हारकस्स्यादनाहारक ति । बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जषु स्थानेषु नंगत्रिकं जीवपदे एकेन्द्रियेषु पुनरनंगकं । अशरीरितियनंगो । अवेयए जहा केवलनाणी॥ एस्सिद्धास्तेन तत्र वे एव पदे । तद्यथा । जीवास्सिकाश्च । सामान्यतः सवेदसूत्रमेकवचने स्यादाहारकस्स्यादनाहारक तत्रैकवचने बहुवचने चोजयत्राप्यनाहारक एवं ॥ गतं शरीइति बहुवचने जीवपदे एकेम्ब्यिाश्च वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु रद्वारम् ॥ प्रङ्गात्रिर्फ जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पुनःप्रत्येकमभंगकं आहारका सम्प्रति पर्याप्तिद्वारम् ॥ अनाहारका अपीति स्त्रीवेदसूत्रं पुरुसवेदसूत्रं च एकवचने तथै आहारपज्जत्तिपज्जत्तए सरीरपज्जतीपज्जत्तए इंदिय व नवरमत्र नैरयिकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्यास्तेषां नपुंसकत्वात् बहुवचने जीवादिषु प्रत्यकं भंगत्रिक। नपुंसकयदे पज्जत्तिपज्जत्तए आणापाणूपज्जत्तीपज्जत्तए एतासु ऽपि सूत्रमेकवचने तथैव नवरमत्र जवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क चउसु वि पज्जत्तीमु जीवेसु मणूससुय तियनंगा अवमेसा Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार ( ५४४ ) अभिधानराजेः । आहारगानो अणाहारगा नासामणपज्जतिपचिंदिया अवससाणं नत्यि आहारपज्जती अपजनए नो आहारण अणाहारण एगतेण वि पुनेणनि । सरीरपज्जीत प्रज्जत्तिए सिय आहारए सिय प्रणाहा रए । चरिनियासु चउसु अपज्जत्तीसु णेरध्यदेवमाणूसे जंगा | अवसेसाणं जीवेगिदियोतिषजंगो । नासाम एपज्जतीए जीवेसु पंचिदियतिरिक्खजो - पीएम व विगो रहयचे देवमासे जंगा सच्च पदेसु एते एगतपुहते जीवादियो दरुगोपुच्छाए जाणियो जस्स जं प्रत्थि तस्स तं पुनिज्जइ जं नत्थि तं न पुच्चिज्जइ जाव जासामणपज्जत्तीएस अपज्जत्तएसु देवमाणूस उगा सेसेसु प तियजंगा || तत्रागमे पयसः पञ्च प्रायामनः पर्यापत्योरेकत्वेन विव शान्ताय पीने शरीरपत्या पते कृत्या पापापा पयसे प्रापाम न पत्या पते चिन्यमानेऽचैव सर्वसंकलनामाद । पतासु पञ्चस्वपि पतिषु समर्थितासु चिन्यमानास्थिति शेषः । प्रत्येकमेकवचने जीवपदे मनुष्यपदे च स्यादाहारकस्स्यादनाहारक इति । शेषेषु तु स्थानेषु आहारका इति बदबने जीवे मासे व गोति जयपदे मनुष्यपदे भवितव्यं । तदारिकशरीरसूत्रमिष नाघनीयं । अवशेषास्सर्वेऽप्याहारका वक्तव्याः नवरं भाषामनः पर्य्यातिपाणामेषेति । तत्सूत्रे एकेन्द्रियविषन्द्रियानव्याः किन्तु देोषाः । तदेवाह । भासामयपज्जती पंचिदियाणं नस्थि इति । आहारपर्याप्त्यपर्थ्याप्तसूत्रे एकवचने सर्वत्राप्य नाहारको वक्तव्यो नो आहारक श्राहारपर्याप्त्या हापयो विमद्गतायेष अन्य उपपातक्षेत्रमासस्य प्रथम समय एवाहारकपर्य्यपत्या पर्याप्तत्वनावादन्यया तस्मि समये आहारकत्वानुपपत्तेर्वहुवचने वनाहारका इति । शरी त्या पर्य्यातिसूत्रे एकवचने सर्वत्र स्थादादारक इति । विगताचनादारक उपपातक्षेत्रप्राशस्तु शरीर परिसमाप्ति यावदाहारक इति । एवमिन्द्रियपर्याप्त्या पर्यायतिसूत्रे प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तसूत्रे भाषामनः पर्याप्त्या पतिसूत्रे च प्रत्येकमेकवचने स्यादाहारकस्स्यादनाहारक इति बहुवचने (बरिया) इत्यादि उपरितनी शरीरपयशिप्रभृतिषु चतसृप चिन्त्यमानासु प्रत्येकं नैरयिकदेवमनुष्येषु परूंगा वक्तव्यास्तद्यथा । कदा चित्सर्व्वेऽप्याहारका एव १ कदाचित्सर्व्वे ऽप्यनाहारका एव २ कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः ३ कदाचिदेक आहारको बहवोsनाहारकाः ४ कदाचिद्वहव आहारका एक धानाहारकः । कदाचिद्वत्व आहारका बहवश्चानाहारकाः ६ अवशेषाणां नैरधिकदेवमनुष्यव्यतिरिक्तानां जीवकेन्द्रिय भङ्गत्रिकं यकव्यं । तद्यथा सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः १ अथवा आहारकाश्चानाहारका २ अथवा आहारकाश्यानाहारका ३ जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पुनहशरीरपर्य्यत्या पर्य्याप्तिसूत्रे इन्द्रियपर्याप्त्या पर्य्याप्तिसूत्रे प्राणापानप तिसूत्रे च प्रत्येकमनङ्गकं आहारका अपि अनाहारका अपि । उभयेषामपि च सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् । भाषा आहार मनः पर्याप्त्यपर्य्याप्तकास्त्वेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न भवन्ति किन्तु पञ्चद्रिया एव येषां हि भाषामनः पतिसंभवोऽस्ति तएव तत्पर्य्याप्ताः प्रोच्यन्ते न शेषा इति । ततस्तत्सूत्रं । बहुवचने जीवपदेपि पञ्चेन्द्रियतिर्व्यग्योनित्रिके पंचेन्द्रियतियेयो हि सम्मूमिः सदैव बहयो बज्यन्ते । ततो यावदद्यान्यन्यो विग्रहगत्यापन्ने सयमाने द्वितीयो भङ्गः श्राहारकाश्चानाहारकश्च शति । यदा तु विग्रद्गत्यापन्ना अपि बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयो नङ्गः । आहारकाधाना द्वारकाोति जीप या ( रश्यति) नैरयिकदेवमनुष्येषु प्रत्येकं षरुगाः । ते च प्रागेवोक्ताः । इह भव्यपदादारज्य प्राय एकत्वेन बहुत्वेन च वियकितानि सूत्राणि जीवादिदक्रमेण नोच्ानि ततो माम दमतीनां सम्मोह इति तद्विषयमतिदेशमाद ( न सम्यपपसुपगते ) इत्यादि । पते जीवादयो दएककास्सर्वपदेषु सर्व्वेयपि परेषु एकत्वेन बहुत्येन पृष्या उपमेतचने च प्रणितव्याः । किं सर्वत्राप्यविशेषेण कर्तव्या । नेत्याह । यस्येत्यादि । यस्य यदस्ति तस्य तत्पृच्छति तद्विषयं सूत्रं भएयते यस्य पुनः यनास्ति न तस्य तत्पृष्टव्यं न तद्विषयं तस्य सूत्रं वक्तव्यमिति भावः । कियद्दूरं यदेव कर्तव्यमिति शङ्कायां वरमद एकवक्तव्यतामुपदिशति ( जाव भासामणपजन्तीपसु ) इत्यादि नावितार्थ रहाधिकृतार्थ नावनार्थमिमाः पूर्षाचाय्र्यप्रतिपादिता गाथाः । सिगिदियसहिया नहिं तु जीवा अभंग तस्य । सिगिंदियवज्जे- हिं होइ जीवेहिं तियजंगो ॥ १ ॥ सनीय नरश्य, देवमएस होंति छनंगा | पुढविदगतरुगणेसु य, बन्जंगा तेजलेसाए ॥ २ ॥ कोहे माणे माया, बन्गा सुरगणेसु सव्वेषु । माणे मायासोने, पहि पि सम्गा ॥ ३ ॥ आशिषोडियनाणे, सुयनाणे लघु तब सम्मले । उगा खनियमा, मियतिय चलरिदिये नये ॥ ४ ॥ बरिपज्जतीच नेरयदेवम | छगाख नियमा बज्ने पदमा उपजाती ॥ ५ ॥ सभी किस्सा, संजयाह चितिसुपनाशे | पुराणवेदविगा व तिपजंगो ।। ६ ।। सम्मामिच्छमणव, मणनाणे बालपं मियवेडब्बी | आहारसरीरंमि य नियमा प्राहारया होति ॥ ७ ॥ ओहिम्मिनि जंगम, नियमा आहार पाउ नायन्या । पंचिंदिया विरिच्छा मया पुण होंति विष्नंगा ॥ ० ॥ राक्षसरीर म्मिय, पज्जत्ती च पंचसु तदेव || तिगो नियम- होति आहारगा सेसा ॥ ५ ॥ णो व विसा, जोगियो तहय होंति असरीरी । पदमा अपजतिए, तह नियमा अणाद्वारा ॥ १० ॥ समास पित्ता, वेयकसारणो य केवह्मिणो । तियनंग एकत्रयणं सिवाणाहारया होति ।। ११ । पताश्च सर्वा अपि गाथा उक्तार्थप्रतिपादकत्वाद्भावितार्था Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार अभिधानराजेन्द्रः। आहार इति न जूयो भाव्यन्ते । ग्रन्थगौरवभयात् । न वरं । (एक्कव- जीवेणं जते ! कं समयं सवप्पाहारए जबइ ? गोययणे सिकाणाहारया होति इति।) पक्वयणे इत्यत्र तृती मा! पढमसमयोववाए वा चरिमसमयत्नवत्थे वा एत्थ यार्थे सप्तमी । एकवचनेन एकायनेति नावः । सर्वत्र सिका अनाहारका प्रवन्तीति विझेयम् ॥ प्रशा० २० पद ॥ णं जीवे सबप्पाहारए जवा दमओ जाणियव्यो जाव जीवः कं समयमनाहारकः! वेमाणियाणं । ज०-७ श.१ उ.॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं-वयासी जीवेणं कस्मिन् समये साल्पः सर्वथा स्तोको न यस्मादन्यः स्तोकनंते ! के समयमणाहारए जवा ? गोयमा ! पढमे समये तरोऽस्ति स आहारोयस्य सः सर्वाल्पाहारः स एव सर्षा स्पाहारका (पढमसमयोववएपपत्ति) प्रथमसमय सत्पत्रस्य सिय आहारए सिय अणाहारए, वितिए समये सिय यस्य प्रयमो वा समयो यत्र तत्प्रथमसमयं । तदुत्पन्नमुत्पआहारए सिय अणाहारए, तइए समये सिय आहारए त्ति यस्य स तया उत्पत्तेः प्रथमसमय इत्यर्थः । तदाहार प्रह सिय अणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए, एवं णहेतोः शरीरस्या ऽल्पत्वात्सर्वाल्पाहारता भवतीति । (चर दंगो जीवा य एगिदिया य चउत्ये समए सेसा त मसमयभवत्थेवत्ति)। चरमसमये भवस्य जीवितस्य तिष्ठति ए समए । ज०-७ श.१ ज.॥ यः स तया आयुषश्वरमसमय इत्यर्थः । तदानी प्रदेशान्गं संहृतत्वेनाऽल्पेषु शरीरावयवेषु स्थितत्वात्सर्वाल्पाहारतेति । ( के समयमाणाहारएत्ति ) परजवं गच्छन् कस्मिन्समये वनस्पतिः सर्वाल्पाहारकः। उंनाहारको अवतीति प्रश्नः । उत्तरन्तु यदा जीव ऋजु वणस्सइकाइया णं नंते !कं काझं सबप्पाहारगा वा गत्योत्पादस्थानं गच्छति तदा परभवायुषः प्रथम एव समय आहारको नवति । यदा तु विग्रहगत्या गच्छति तदा प्रथम सव्वमहाहारगा वा जति ? गोयमा ! पानसपरिसारसमये वक्रेऽनाहारको नवति, उत्पत्तिस्यानाऽनवाप्तौ तदा- तेसु णं एत्थणं वपस्सश्काश्या सव्वमहाहारगा जवंति। हरणीयपुसानामनावादत आह ( पढमे समए सिय तयाणंतरं च णं सरए, तयाणंतरं च णं हेमंते, तयाणंतरं आहारए सिय अणाहारपत्ति ) बथा यदा पकेन वक्रेण चणं वर्तते, तयाणंतरं च णं गिम्हासु, णं वणस्सइकाइया हान्यां समयान्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेऽनाहारको हितीयेत्वाहारको यदा तु वक्रयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदा सबप्पाहारगा जवंति। जइणं नंते ! गिम्हासु वणस्सप्रथम द्वितीये चानाहारक इत्यत आह (बीयसमये सिय इकाइया सव्यप्पाहारगा नवति । कम्हाणं जंते! गिआहारए सिय अणाहारएत्ति ) तया यदा वक्रष्येन त्रिनि- म्हासु बहवे वणस्तइकाइया पत्तिया पुफिया फलिया स्समयैरुत्पद्यते तदा थोरनाहारकस्तृतीये त्वाहारको यदा हरिय गरेरिजमाणा सिरीए अतीव अतीव नवसोनेमाणा तु वक्रत्रयेण चतुर्भिस्समयैरुत्पद्यते तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्षे त नियमादाहारक शति कृत्वा(तश्प समए सिय०) उचिट्ठति ? गो यमा! गिम्हासु णं बहवे उसिणजो. श्त्यायुक्तं वक्रत्रयं चेत्थं नवति । नाड्या बहिर्विदिग्व्यवस्थि णिया जीवा य पोग्गला य वणस्सकाइयत्ताए वकमंति तस्य सतो यस्याधोलोकादूर्ध्वलोके उत्पादो नामचा बहिरेव विनकमति चयंति उववज्जति । एवं खलु गोयमा ! दिशि भवति सोऽवश्यमेकेन समयेन विश्रेणितस्समश्रेणी गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुफिया जाव प्रतिपद्यते हितीयेन नामीम्प्रविशति तृतीयेनोसोकं गच्छति चतुर्थन लोकनाहीतो निर्गत्योत्पत्तिस्थान उत्पद्यते । श्ह चिट्ठति । सेनूणं जंते ! मूला मन्त्रजीवफुमा कंदा कंदनीय चाद्ये समयत्रये वकषयमवगन्तव्यं । समायव गमनात् । फुमा जाव बीया बीयजीवफुमा ? हंता गोयमा ! मूला अन्ये त्वाहुः । वक्रचतुष्टयमपि सम्नवति । यदाहि विदिशो मनजीवफुमा जाव बीया बीयजीवफुमा । जपणं जंते ! विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत् । चतुर्थसमये तु मूला मूत्रजीवकुमा जाव वीया बीयजीवफुमा कम्हाणं नामीतो निर्गत्य समश्रेणी प्रतिपद्यते पञ्चमेन तत्पत्तिस्यानं नंते ! वणस्मश्काश्या आहारंति परिणामति ? गोयमा ! प्रानोति । तत्र चाद्ये समयचतथ्य वक्रवतुष्कं स्यात्तत्र चाना हारक इति । श्दश्च सूत्रे न दर्शितं प्रायोत्यमनुत्पत्तरिति मुन्ना मनजीवकुमा पुढवीजीवपमिवच्छा तम्हा आहा( एवं दमओत्ति) अमुनाऽनि लापेन चतुर्विंशतिदएमको था रंति तम्हा परिणामंति कंदा कंदजीवफुमा मूलजीव च्यस्तत्र च जीवपद एकेन्द्रियपदेषु च पूर्वोक्तभावनयव पमियका तम्हा आहारंति तम्हा परिणामति एवं जाव चतुर्ये समये नियमादाहारक इति वाच्य । शेषेषु तु पदेषु बीया बीयजीवफमा फलजीवपमिबका तम्हा आहारंति तृतीयसमये नियमादाहारक शति । तत्र यो नारकादित्रसस्त्र तम्हा परिणामंति। सवेवोत्पद्यते । तस्य नाड्या बहिस्तादागमनं गमनञ्च नास्तीति तृतीयलमये नियमादाहारकत्वम् । तथाहि यो मत्स्या (वणस्स) श्त्यादि । (कं कावंति ) कस्मिन्काले । दिर्भरतस्य पूर्वनागदिरवत-पश्चिमनागस्याऽधो नरकेषूत्पद्य (पाउसेत्यादि । ) प्रावुमादी बहुत्वाजत्रस्नेहस्य महाहारते। सपकेन समयेन भरतस्य पूर्वजागात्पश्चिमं नागं याति द्वि तोक्ता प्रावृद श्रावणादिवषारात्रो ऽश्वयुजादिः । ( सर एत्ति ) तीयन तु तत ऐरवतपश्चिमं भाग ततस्तृतीयेन नरकमिति । शरन् मार्षशीर्षादिस्तत्र चाल्पाहारा भवन्तीति झेयं । अत्र चाद्ययोरनाहारकस्तृतीयत्वाहारक एतदेव दर्शयति ग्रीप्मे सर्वाल्पाहारतोक्ता । अत एव च शेषेष्वप्यल्पाहारता (जीवाय एगिदिया य चनस्थे समये सेता तश्यसमात्ति।। क्रमेण द्रष्टव्येति । ( हरितगरेरिजमाणत्ति ।) हरितकाश्च ते कास्मन् समये सर्वाल्पाहारकः । | नीलका रेरिज्यमानाश्च देदीप्यमाना हरितकरेरिज्यमानाः । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४६) पाहार श्रभिधानराजेन्धः । पाहार (सिरीपत्ति । ) वनवदम्या । ( उसिणजोणिपत्ति । ) उष्ण परित्तोसधीणसोधी, एसे व गुरुअणंताणं ।। २० ॥ मेव योनिर्येषान्ते अयोनिकाः । (मूबामूत्रजीवकुमत्ति)। आश्लेसु दोसु नंगेसु चउअहूं । पच्छिमेसु दोसु जंगेसु मूलानि मूत्रजीवैः स्पृष्टानि व्याप्तानीत्यर्थः । यावत्करणात् मासबहुँ जहाकम प्रातिद्वातो समारब्भ तवकाबविसेसिया (खंधाखंधजीवफुमा) एवं ( तया साला पवाला पत्ता पुष्पा कायवा । पढमे दोहिं वि गुरु वितिए तव गुरु ततिए कालफात्ति) दृश्यं । ('जश्ण) मित्यादि । यदि नदन्त ? मूला गुरु चनत्ये दोहिं वि बहु एवं परित्ते भणियं अणंतवीपसु एवं दीन्येव मूत्रादिजावैः स्पृष्टानि तदा ( कम्हत्ति ) । कस्मारकेन पच्चित्तं गुरुगं दत्तब्वं । हेतुना कयमित्यर्थः । वनस्पतय आहारयति । श्राहारस्य चोदगाह। नूमिगत-न्मलादिजीवानां च मुत्रादिव्याप्य वावस्थितत्वा स्केषाश्चिश्व परस्परव्यवधानेन नमेर्दूरवर्तित्वादिति । अत्रोत्तरं अप्लोमेण विरुषं तु, सोविसुतंव मा जणसा । । मूलानि मूलजीवस्पृष्टानि केवलं पृथिवी जीवप्रतिबकानि।। संघट्टणे तुसोही, पंचाहा नुंजतो सुत्तं ।। २ए। ( तम्हत्ति)। तस्मात्तत्प्रतिबन्धातोः प्रथिवीरसं मलजीवा सुत्तगहणतो इहसुत्ते वितिएसु मासबहुं सो वि गहणा श्राहारयन्ति कन्दा कन्दजीवस्पृष्टाः केवलं मूलजीव प्रतिबद्धा हेच पढिगाए अत्थेवीपसु पाणगं दत्तं एए दो वि अमोम स्तस्मात्तत्प्रतिबंधान्मत्रजीवोपात्तं पृथिवीरसमाहारयंतीत्येवं विरुका पर्व मा जणाहि आचार्याआह सातु संघट्टणे पच्चर्क स्कंधादिष्वपि वाच्यं ॥ न.श. ७.२॥ पंच राशन्दिया अत्येण जे वीएसु भणिता ते संघट्टणा श्मं पुण आहारकाणां कायस्थितिः (कायवि ) शब्दे उक्ता ॥ अद- झुंजओ सुत्ते मासबहुं अंतो भणियं तम्हातो अम्लामविरुद्ध समाहारमाहारयति ॥ श्रमे पायरिया वक्खाणेति । अत्यतो चोप प्राचार्य उत्तरजे निक्खू आयरिय उवज्काएहिं अदिन्नं पाहारं माह अप्पोक्षेण गाहा शेषं पूर्ववत् । आहारे आहारतं वा साइजा ॥ २२॥ जे निक्खु पुणरवि चोयगाह।। पायरियनवजकाएहिं अविदिन्नं विगयं आहारेति आहा- गा०-जं च वीएसु पंचावो, कुंकरोट्टेसु मासियं । रंतं वासाइज्जइ ॥ २३ ॥ तत्थपाती तु सो वीय, कुमरोहतुणिञ्चसान ॥ ३०॥ आचार्य उपाध्यायः । असहीणोवायरिए उवज्जाओ पुच्चि प्रचोदको भणति वीपसु संघट्टिएसु पणगकुंझरोटेसु संघ. उजर । अथवा उवधायगहणेणं जो जं पुरतो का विह- ट्टितेसु मासबहुं पत्थ किं कारणं तुसमुहीकर्षिया कुक्कसरति सो तेण पुच्छियवो अविदिम अदत्तं अणुमा य अ- मीसा कुरगंजणति असत्थो वहतो आमो चेयणं च तले माय अमातरं गहणतोणवविगत्तीओ जो आहारेश तस्स बोहो भगति आयरियो भष्मति तत्वे पाती तु पच्चकं चोश्ते मासबहुं पस सुत्तत्यो ॥ निचू०४॥ तत्थेव उत्तर भणति पाति रक्खति सो तुसो तं बीयं तेणं ओषधीराहारयति । तत्थपणगं कुमरोट्टे पुण पितुसा तेग वत्यमहंततधरी पीमा जे जिक्खू कसिणाओ ओसहीओ आहारेइ आहारत अतो तत्थ मासितं । बा साज्जा ॥ ४॥ गा०-एते सामसतरं, कसिएं जोक अधिउ आधारे। कसिणा संपुमा दव्वतो अभिमा श्रोसहीओ सालिमा- सा आणा अणवत्यं, मिच्छत्त विराधणं पावे ॥ ३१॥ तियाओ पाहारेति हुँजति तस्स मासलहुँ कसिते ओसहीए तिनमुम्गमासचवलगा गोधूम चणयसानिकंगुमातीयाणं दव्यनाहिं चउन्नंगो कायवो दव्वतो॥ अर्थतरं कसिणं हुंजति सो आणाती दोसे पावति श्मे दोसा। कासिण तमोसहीणं, दवे नावे व डक्कनयणान। गा-पलिमंथोणाश्म, जोणिग्यातो असंजमे । दब्वेण जातु सकला, जीवजुता जावितो कसिणा।।२।। अतिजुत्ते य आयाए, पत्यारांम पसज्जणा ॥३॥ कसिणा सम्पुमा अखंमिता अप्फुमिता नावकसिणा जा चमप्रयमातयिासु संगासु सचित्तासु अचित्तासु वा पत्रिमंसचेयणा ॥ थो पगरि सिगं संजमो मंयिजति जग सो पत्रिमयो साहूसतुसा सचेयणाविय, पढम नंगोउ ओसधीणी। ण वा तओ अमारपणा जोणी नूते बीए जोणी घातो भववितिओ सचेतणा अतु-सा ओखएिकता अतिच्चमिता। तीत्ति सचित्ते असंजमो भवति रसाले वा अति तुत्ते विसूरजा सतुसा दव्यतो अनिष्मा सचेयणा य एस पढमलंगो यत्ति आयविराहणा अम्मतर वादीहे रोगायक मवति तत्थपजा सचेयणा अतुसा चेयणा तंजुला ससा वा खंमिता त्यारपसंगो प्रसूरण प्रस्तारप्रसंगःउत्तरोत्तरदुःखसंनय इत्यर्थः। अतिजमा पगपुच्छमा वा कता एस वितिय नंगो । तत्थ परितावमहामुक्खे ॥ णियगाछितिमतिकंता सतुसा वीयान ततियोनंगो । गान-वितियपदं गेझाणे, अट्ठाणे चेव तह य मंमि ।। पढममतिविवरीओ चनत्यनंगोमुणे तव्यो ॥२७॥ कसिमोसहीणगहणो, जतणाए कप्पती कांजे ॥३३॥ पियगा आत्मीयस्थिति मतिकन्ता अचेतना इत्यर्थः । दब्बतो वेज्जुवदेसागिन्माणो चुंजति भत्तासंभे अट्ठाणे अकञ्चं ता वा पुण सतुसा अखंमिता अप्फुमिता एरिसा जा ओसहीयो उमेकसिणो वा उमेकसिणोसही गहणं करेज नं पि अयणाएस ततियनंगी नावतो णियगठितिमतिकन्ता दव्वतो भिष्मो ए ए पागातिमासपत्तो पच्छाचरिमनंगेण ततो तत्तियनंगे, स पहमनंगविवरीतो चतुर्थनंगा भवतीति । ततो वितियभंग, ततो पढमेण एवं गहणं काउं कप्पति ॥ पतेसु चउभंगेसु श्मंपत्तिं । यावर्जावं कियटुक्ते ॥ दोमु लहुया दोसु बहुओ, तवकासाविसे सिता जघा कमसे । चत्वारि य उसासकोमिसए जाव चत्तासीसं च Jain Education Interational Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार अन्निधानराजेन्द्रः। माहार ऊसास सहस्साई जीवतो अफतेवीसं तंसवाहे थश्त्युच्यते कल्लन्ति श्वः प्रातः काश्त्यर्थः प्रस्थो भवति नोज मुंजइ । कहमाउसो अच्छतेसिं तंसवाहे नुंजइ । नायति सायमिति संध्यायां प्रस्थो भोजनायेति १ एकस्मि मागधप्रस्थके कति तंदुरा भवन्ति इत्याह । साह गोयमा मुचनाए खंमियाणं वनियाए पहियाण ख चतुःषष्टि तंदुरसाहनिको मागधप्रस्योभक्त्येकः एवं कवलं यरमसापच्चाहयाणं ववगयतुसकाणयाणं अखएकाणं कार्तभिः तंदुः स्यादित्याह (विसाहस्सिपर्ण कवसेणंति) अफुमियाणं फझगसरीयाएं एकिकं वीयाणं अच्छतेरस- द्विसाहस्रीकेण तंबुलेन कवलो भवति तत्र गुजा कति अवन्ति पलियाणं पत्थयणं सेवियणं पत्थ ए मागहए कांपत्यो यथा एकविंशत्यधिकशतप्रमाणः किचितन्यूना एका गुंजाचति अनेन कवनमानेन पुरुषस्य द्वात्रिंशत् कवरूप आहारो जयतिर १ सायंपत्यो ३ चनसहितंझसाहस्सीओ मागहो ष स्त्रिया अष्टाविंशतिकवनरूप आहारः पंरकस्य नपुंसकस्य त्यो विसाहस्सिएणं करनेणं बतीसं कवना पुरिसस्स चतुर्विंशतिकवलरूप आहारः ३ ( एवमेवेति ) सक्तप्रकारेण आहारो १ अट्ठाविसं इत्यीयाए ३ चनवीसं पं- वक्ष्यमाणप्रकारेण च हे भायुष्मन् पतया गणनया पतन्मानं मगस्त ३ एवमेव पानसो एयाए गणणाए दो असईओ प्रवति । अथासत्यादिमानपूर्वक भष्टाविंशतिसहस्त्राधिकसक पसई १ दो पसईउसेश्या होइश्चउवीसं पंझगस्त ३ एव तंकुलमानं चतुः षष्ठीकवनप्रमाणं प्रस्थद्वयं प्रतिदिनं इंजम् प्रतिवर्षण कति तंबुलवाहान् कतितंमुलांश्च हुनक्तीत्याह मेव आउसो चत्तारी सेइयाकुलन चत्तारिकुलया पत्यो (दो असईओ पसई इत्यादि ) धान्यभृतोऽपामुखीकृतो ४ चत्वारि पत्या आढगं ५ सट्ठीएआढगाणं जहन्नए हस्तोऽसतीत्युच्यते द्वाज्यामसतीभ्यां प्रसृतिः १ द्वाज्यां य कुंने ६ असाए आढगाणं मझिमे कुंने ७ आढगसयं प्रसृतिभ्यां सेतिका भवति । चतसृप्निः सेतिकानिः कुरुषः३ नकोसए कुम्ने - अहेव आढगसयाणि बाहो एएणं चतुर्भिः कुरुवःप्रस्थः ४ चतुर्भिःप्रस्यैराढक: ५ षष्ठ्याप्रावाहपमाणेणं अच्छतेवीस तंदुसवाहे मुंज ते य गणिय ढकर्जघन्यकुंभः ६ प्रशीत्याढकैर्मध्यमकुंजः आढकशतेनो त्कृष्टः कुंभः अष्टभिराढकशतः वाहोनषति ए अनेनवाह निद्दिडा "चत्तार य कोमिसया, सहि चेव य हवंति प्रमाणेन सार्बजाविंशति तंसवाहान् जुनक्ति वर्षशतेनेति ने कोमियो । असीई च तंजुझसय-सहस्सा हवंतित्ति वि च पाहोक्त तंमुसा गणयित्वा संख्यां कृत्वा निर्दिष्टाः कथिताः क्खायं" ४६०७०००००० तं एवं अफतेवीसं तंदुस- यथा चत्वारिकोटिशतानि षष्टिचैवकोटयः अशीतिस्तंदुसशवाहे मुंजतो असन्ढे मुगाकुंने तुंजइ । अपर मु तसहस्त्राणि जयतीत्याख्यातं कथितं एकेनप्रस्थेन चतुःषष्टि स्तंदुलसहस्राणि भवन्ति प्रस्थद्वयनाष्टाविंशतिसहस्त्राधिक गाकुम्ने मुंजतो चनवीसं नेहाढगसयाई नुजा चनवीस सकं भवति प्रतिदिनं द्विभॊजनेन एतावततंझान् शुनक्तीति नेहाढगसयाई जुजतोबत्तीसं अब प्रपत्रसहस्साई लुजइ अतोष्टाविंशतिसहस्राधिकस वर्षशतेन पत्रिंशहिनसहस्रमाबत्तीसं लवणपन्नसहस्साहं नुंजतो उप्पमगसामगसयाई नत्वात् षट्त्रिंशत्सहस्त्रैर्गुण्यन्ते । शून्यानि पंच भवन्ति चत्वा नियंसे दोमासीएण परियट्टणएणं मासिएण वा परि रिकोटिशतानि षष्टि कोटयः अशी तिलवाणि। ४६०००००००० तंकुलानामिति (तं एवंति) तदेवंसा द्वाविंशति तफुलवायटेणं बारसपमसामगसयाइं नियंसेइ एवमेव आजसो हान् चुंजन सार्द्धपंचमुकुंभान् जुनक्ति सापंचमुकुंजान् वाससयाउयस्स सव्वं गणियं तुनियमवियं नेहलवणनोयणं हुंजन चतुर्विंशति महाढकशतानि नुनक्ति चतुर्विशति नेहागयणंपि एवं गणियप्पमाणं दुविहं नणियं महरिसीहिं ढकशतानिनुजन् षट्त्रिंशवणपत्रसहस्राणि जुनक्ति षट्जस्सत्यि तस्स गुणिजइ जस्स नत्थि तस्स किं गणिज्जइ । विशालवणपत्रसहस्राणिमुजन् षट्पटकशाटकशतानि (नियसे इति )परिदधाति द्वाज्यांमासाज्यां (परियट्टएणन्ति) परावर्स'ववहारगणियदिटुं, मुहुमं निच्चयगयं मुणेयव्वं ॥ मानत्वेनेति वा अथवा मासिकेन परावर्तित्वेन द्वादशशतशाटक जइ एयं नविएयं, विसमा गण णा मुणेयव्या' ॥१॥ शतानि नियंसे इति परिदधाति (पवमेवेत्ति) अक्तप्रकारेण हे चत्वारि उच्च्वासकोटिशतानि यावश्चत्वारिंशपुच्छ्वास आयुष्मन् वर्षशतायुषः पुरुषस्य सर्वगुणितं तंऽसप्रमाणादिसहस्राणि जीवन्सार काविंशति तंदुसवाहान् वदयमाण ना तुधितं पत्रप्रपाणादिनाम वित्तमसत्तीप्रसृत्यादिना प्रमाणे स्वरूपान् जुनक्ति। कयं हे आयुष्मन् ! हे सिझार्थनंदन! सार्क न तत्किमित्याह । हलवणभोजनाच्छादनमिति पतत्पूर्वोक्तं विशतितंदुसषाहान् हुनाक्त संसारीति-हे गौतम ! दुर्वलि गणितप्रमाणं द्विधाभणितं महर्षिन्निः यस्य जन्तोरस्ति तं. कया स्त्रिया कंमितानां यावत्या रामया बूटितानांशूपादिना बादिकं तस्य गुण्यते यस्य तु नास्ति तस्य किं गुण्यते न खदिरमुशाप्रत्याहतानां व्यपगततुषकणिकाणां अखंझानां किमपीति व्यवहारगणितएं स्यूबन्यायमंगीकृत्य कथितं संम्पूर्णवयवानां प्रस्फुटितानां राजिरहितानां ( फसगस सूक्ष्म निश्चयगतं ज्ञातव्यं यदि पतनिश्चयगतं नवती तदा पत रियाणं) फाक वीनितानां कर्करादिकर्षणेन एकैकबीजानां व्यवहारगणितं नास्त्येव अतो विषमा गणना ज्ञातव्येति १ वीननार्थ पृथक यकृतानामित्यर्थः । एवं विधानां सार्द्धद्वाद आहारकारणानि ॥ शपनानां तंऽमानां प्रस्थकोभवति णं वाक्याझंकारे ॥ पल गहिं गणेहिं समणे निग्गन्थे आहारमाहारमाणे मानं यथा पंचभिजानिषिः षोमशमाषाः कर्षः अशीतिगुंजाप्रमाण इत्ययः। स यदि कनकस्य तदासुवर्ण संझनान्य णाइकमइ तंजहा "वेयण वेयावच्चे, इरियहाए य संजमहाए। स्यरजतादेरितिचतुर्निः कः पत्रमिति विंशत्यधिकशतत्रय- तह पाणिवत्तियाए, उढे पुण धम्मचिंताए"। गुंजाप्रमाणमित्यर्थः (३२०)सपिच प्रस्यकामगधे जयो माग- | ॥टी०॥कएज्य प्रवर माहारमशनादिक माहारयन्नज्यवह Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४८) पाहार अभिधानराजेन्डः। आहार रन् नातिकामत्याज्ञां पुष्टिकारणत्वादन्यथात्वतिक्रामत्येव रागा अथवा षभिः स्यानैवदयमाणस्वरूपैः संयतः आहारं न कुदिनावा त्तद्यथा वेदनेत्यादिगाथा वेदना च कुवेदनावैयावृत्यं र्यात् तत्र विचित्रा सूत्रगतिरिति षष्ठं शरीर-व्यवच्छेदलक्षणं चाचार्यादिकृत्यकरणं वेदना वैयावृत्यं तत्र विषये तुजीत वेद कारणं व्याख्यानयति ( पच्छा इत्यादि ) पश्चात शिप्यानप्पा. नोपशमनार्य वैयावृत्यकरणार्यंचेति नावः ईर्या गमनं तस्याः दनादि सकसकर्तब्यतानंतरे पश्चिमे काले पाश्चात्त्ये वयसि विशुर्युिगमात्रनिहितष्ठित्वमार्याविशुमिस्तस्यै इदमीर्यायि- ( अप्पक्खमति)संलेखनाकरणेनात्मानं वपयित्वा यावज्जीवशुभ्यर्थे वह च विकिशब्दसोपादीर्यार्थमित्युक्तं बुजुक्कितो मशनप्रत्याख्यानकरणस्य कम योग्यमात्मानं कृत्वा नोजनं हार्या शुद्ध्यावशक्तः स्यादिति तदर्थामात च समुच्चये संय- परिहरेशान्यया । एतेन शिप्यनिप्पन्नाद्यन्नावे प्रथमेवा द्वितीय मा प्रकोत्ताप्रार्मजनादिलकणस्तदर्थ तथेति कारणान्तरस वा वयसि संलेखनामन्तरेण वा शरीरपरित्यागार्थमदानप्रत्या मुख्य प्राणा उच्छ्वासादयोबबंवा प्राणास्तेषां तस्य वा वृत्तिः ख्यानकरणे जिनाझाभङ्गमुपदर्शयति । पिंक०॥ पाननं तदर्थ प्राणसंधारणार्थमित्यर्यः षष्ठं पुनः कारणं धर्मचि (नावत एवाहरेदिति अस्मिन्नेव शब्द ।) न्तायै गृपनानुत्प्रेहायमित्यर्थः इत्येतानि षट् कारणानीति आहारत्यागकारणानि । स्था०६गणा। हिं गणेहिं समणे निग्गंधे आहारं वोच्चिदमाणे अधुनाकारणे द्वारमाह । गहि कारणेहिं साहू, आहारेन्तो य ायर धम्म । गाइक्कमइ तंजहा " आतंके उवसग्गे, तितिक्रवणे बंज गह चेव कारणेहिं, नज्जूहिन्तो वि यावर ॥ चेरगुत्तीए । पाणिदया तवहेलं, सरीरवोच्छेयणढाए" पानिर्वदयमाणस्वरूपैः साधुराहारयाप्याहारमाचरति (वोदिमाणेत्ति ) परित्यजन् आतंके ज्वरादावुपसर्गे धर्म पभिरेवकारणे वत्यमाण स्वरूपै भोजनकारणनिबंधनैः राजस्वजनादिजनिते प्रतिकूल स्वभावे तितिक्कणे अधिसहने (निज्जाहिन्तो वित्ति) परित्यजन्नप्याचरति धर्म तत्र यैःषम्निः कस्याः ब्रह्मचर्यगुप्तेः मैथुनव्रतसंरक्षणस्याहारत्यागिनो हि कारणराहारमाहारयति तानि निार्दशति "वेयण वेयाषच्चे, ब्रह्मचर्य सुरकं स्यादिति। प्राणिदया च संपातिम-प्रसादिसंरइरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तहपाणिवत्तियाए, नटुं पुण धम्म कणं तपश्चतुर्थादि षण्मासान्तं प्राणिदया तपस्तच तहचिन्ताए " इह पंदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् (बेयात्ति) तुश्च प्राणिदया तपो हेतुस्तस्मात् प्राणि दया तपो हेतोर्दयादि कुवेदनोपशमनाय तथा आचार्यादीनां वैयावृत्तिकरणाय तथा निमित्तमित्यर्थस्तथा शरीरव्यवच्छेदार्थ देहत्यागाय पाहारं यापार्थि संशोधनार्थ तथा प्रेवादिसंयमनिमित्तं तथा प्राण- व्यवचिन्दनातिकामत्याज्ञामिति प्रक्रम इह गाथे। “आयंको प्रत्ययार्थ प्राणसंधारणार्य षष्ठं पुनः कारणं धर्मचिन्तानिवृ- जरमाई, रायासन्नागयज्यसगे। बंजवयपासणटा, पाणिदया ध्यर्थं तुञ्जीतेति क्रियासंबन्धः। वासमहियाई ॥ १ ॥ तवहेल चनस्था, जाव य उम्मासिनो एनामेव गाथां विवृएववन्नाह । तवो हो । नटुंसरीरवोच्छे यण-ट्टयाहोति प्रणाहारोत्तिा॥" नत्थि बुहाए सरिसा, वियणा मुंजेज तप्पसमणहा । स्था०६ग०॥ गमो वेयावचं, न तर काउं अओ लुंजे ॥ ___संप्रत्यभोजनकारणानि निर्दिशति । शरियं न विसोहेई, पेहाश्यं च संजमं कालें । श्रायंके नवसग्गे, तितिक्खए बंजचेरगुत्तीम् । यामो वा परिहायई, गुणनमणुप्पेहासु य असुत्तो ।। पााणिदया तबहेउ, शरीरवोच्यणहाए । नास्ति कुधाया पुलुक्काया सदशी वेदना उक्तं च “ पंथसमा आतंके ज्वरादावुत्पन्ने ससि न मुंजीत । तथा उपसर्गे राज नत्थि जरा, दालिहसमो य परिजवो नत्थि । मरणसमं नस्थि स्वजनादिकृते देवमनुष्यतिर्यक् कृते वा संजाते सति तितिकार्थ प्रयं,खुहासमा वेयणा नत्थिानस्थि जन्न वाहरु,तिमतुसमि मुपसर्गसहनार्थ तथा ब्रह्मचर्यगुप्तिस्विति । अत्र षष्ठवर्थे सप्तमी। ततोऽयमर्थः ब्रह्मचर्यगुप्तीनां परिपालनाय तथा प्राणिसंपियए कायस्सासनिकंसवउहाई,देति आहारहिययस्स" दयार्थ तथा तपोहेतोस्तपः करणनिमित्तं तथा चरमकाले ततस्तत्पशमनार्य मुंजीत तया कामो बुनुक्कितः सन् वैयावृत्त्य शरीरव्यवच्छेदार्थ सर्वत्र न झुंजीतेति क्रियासंघन्धः । न शक्नोति कर्तु। तथाचोक्त। "गश्ववं उच्चाहो, अवे सिढिने इसयबवावारे । नास सत्तं अरई, विवट्ट असणरहियस्स" एनामेव गाथां विवृण्वन्नाह ॥ श्रतो वैयावृत्त्यकरणाय तुंजीत । तथा बुलुक्तिःसन्नीर्यापये न आयको जरमाई, रायासनाइ गय उवसग्गे । शोधयत्यशक्तत्वादतस्तच्चोधननिमित्तं वा अश्नीयात् तथा का बंजवयपाक्षणहा, पाणिदया वासमाहियाई ।। धातः सन् न प्रेक्वादिकं संयमं विधातुमसमतः संयमानिवृयय तुजीतं तथा स्थामं बझं प्राण इत्येकार्थःततःबुलुक्तिस्य अातंको ज्वरादिस्तस्मिन्नुत्पन्ने सति नहुंजीत यत उक्तं "बलापरिहीयते परिहार्न याति। ततोऽश्नीयात् तथा गुणनं ग्रन्थ वरोधिनिर्दिष्टं ज्वरादौ संघनं हितं । कृतेऽनिलसमक्रोध-शोक परावर्तनमनुप्रेक्का चिन्ता तयोरुपसक्कणमेतत् वाचनादिश्याप कामकतज्वरान्, राजस्वजनादिकृते उपसर्गे यद्वा देवमनुष्यबुनुक्तितः सन् असक्तोऽसमर्थो जवति ततोऽश्नीयात् इत्यंभू तिर्यकृते उपसर्गे जाते सति तपशमनार्थ नाऽश्नीयात् । तश्च निः कारणैः समपैरन्यतमेन वा कारणंनाहारयन्नति तथा मोहोदये सति ब्रह्मवतपावनार्थ न तुंजीत नोजननिषेधे हि त्रायो मोहोदयोविनिवर्तते । तथा चोक्तम् ॥ " विषया कामति। संप्रत्यनोजनकारणप्रतिपादनार्थ संबंधगाथामाह । विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्येवं, परं राष्ट्रा निवर्तते"। तथा । वर्षे वर्षति मिहिकायां वा निपतम्यां अहवन कुज्जाहारं, हिंगणेहिं संजओ। प्राणिदयार्थ ना यात् । आदिशब्दात् सूदमममूकादिसं. पच्चा पच्चिमकालाम्म, कारं अप्पखमं खमं ।। सक्तायां नूमौ प्राणियार्थमटनं परिहरन् न तुजीत । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाहार अभिधानराजेन्द्रः। ग्राहार तबहेन चलत्याई, जाव उम्मासिओ तवो होई । यः काम निकामं प्रणीतं वा प्रक्तपानमाहारयति तथाऽतिबहुशरीरवोच्चे-यणड्डया हो अणाहारो। कमतिबहुशश्च तस्य प्रमाणदोषा ज्ञातव्याः॥ संप्रति प्रकामादिस्वरूपमाह॥ तपोहतोस्तपःकरणनिमित्तं न तुंजीत तपश्चतुर्थादिकं चतु वत्तीसाइपरेण, पगाम निश्चतमिव उ निकाम । र्थादारज्य तावद्भवति यावत्याएमासिकं षण्मासप्रमाणं परतो भगवर्द्धमानस्वामितीथें तपसः प्रतिषेधात् षष्ठं पुनः जं पुण गलितसिहं, पणीयमिति तं बुहा विति ॥ प्रागुक्तविधिना चरमकाझे शरीरव्यवच्छेदनार्थ प्रवत्यनाहारः । द्वात्रिंशदादिकवलेन्यः परेण परतो शुआनस्य योजनं तदेवमुक्तं कारणद्वारं । पिं० । उत्तम. ३०॥ तत्प्रकामभोजनं तदेव तत्प्रमाणातीतमाहारं नित्यन्तं प्रतिजह कारणं तु तंतू, पमस्स तेसिं च होति पम्हाई। . दिवसमभतो निकामभोजनम् । यत्युनर्गसितस्नेहं भोजनं तत्प्रणीतं बुधास्तीर्थदादयः ध्रुवते ॥ तथानाणातिगरसेवं, आहारो मोक्खनेमस्स ॥ यया पटस्य तन्तवः कारणं तेषामपि च कारणं पदमाणि अश्वहुयं अश्बहुसो, अइप्पमाणेण नोयणं जुत्तं । प्रवन्ति । एवमेव प्रकारेण ज्ञानादित्रिकस्य (मोक्खनमस्स हाएज व वामेज क, मारेज्ज व तं अजीरंत। ति)। नेमशम्दो देश्यः कार्यानिधाने रूढः सतो मोक्को नमः प्रतिबहुकं वत्यमाणस्वरूपमतिबहुशोऽनेकशोऽमृष्यता सता कार्य यस्य तस्य कारणं भवत्याहारः।पि०नि० चू०१.॥ भोजन तुक्तं सत् हादयेत् अतीसारं कुर्यात् तथा वामयत माहारप्रमाणद्वारम् यहा तवजीर्यन्मारयेत् । तस्मान प्रमाणातिकमा कर्तव्य इति । संप्रति अतिबह्वादिस्वरूपमाह। बत्तीस किर कवना, श्राहारोकुचिपूरओ जणिो । बहयातीयमश्वई, अइबहुसो तिमिसिभि परेणं । पुरिसस्स महिमियाए, अट्ठावीसं जवे कवना ॥ तंचिय अप्पमाणं, तुज्जइ वा अतिप्पंतो ॥ पुरुषस्य कुक्तिपूरक आहारो मध्यप्रमाणो द्वात्रिंशतकवसः बहुकातीतमतिशयेन बहु अतिशयेन निजप्रमाणान्यधिककिन्नत्याहारस्य मध्यमप्रमाणतासूचकः । महिलायाः कुक्किपू. मित्यर्थः। तया दिवसमध्ये यखीन वारान् तुंक्ते त्रिज्यो वा रक पाहाये मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिकवासः । नपुंसकस्य वारेज्या परतस्तद्भोजनमतिबहुशः । तदेव च पारत्रयातीतचतुर्विंशतिः स चात्र न गृहीतो नपुंसकस्य प्रायःप्रवज्यानई मतिप्रमाणमुच्यते अश्प्पमाणे त्यवयवो व्याख्यातः । अस्यैव स्वात् कवमानाच प्रमाणं कुकुयामम् ।कुकुटी च विधा। प्रकारांतरेण व्याख्यानमाह॥ तुक्त यहा अतृप्यन् एष प्रश्द्रव्यकुष्टी भावकुकुटी च । व्यकुखुरपपि द्विधा । उदर- प्पमाण इत्यस्य शब्दस्यार्थः । अश्पमाण इत्यत्र च शानन् कुकुटी गजकुकुटी च। तत्र साधोदरं यावन्मात्रेणाहारेण प्रत्ययस्ताच्छील्यविवकायां या प्राकृतमकणवशादिति । न न्यूनं नाऽप्याध्मातं नवति स आहार उदरकुकुटी । नदर- संप्रति प्रमाणयुक्तहीनतरादिभोजने गुणानाह। पूरक आहारः कुकुटी च उदरकुकुटीति मभ्यमपदसोपिस- हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । मासाश्रयणात् । तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोडएमकं तत्प्रमाण: न ते विज्जा चिगिच्छति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा। कवाः स्यात्तथा गझः कुकुटीव गवकुकुटी गम एव कुकुटी हितं द्विधा द्रव्यतो भावतश्च व्यतोऽविरुकानि व्याणि त्यर्थः। तस्यान्तराझमएमकम् । किमुक्तं भवति । अविकृतस्य भावत एषणीयं तदाहारयति ये ते हिताहाराः। मितं प्रमापुंसो गयान्तराने यः कवलोविनमः प्रविशति तावत्प्रमाणं णोपेतमाहारयन्तीति मिताहाराः । छात्रिंशकवलप्रमाणाकपसमभीयात् । अथवा शरीरमेव कुष्टी तन्मुखमएम दप्यल्पमल्पतरं वा प्राहाराः । सर्वत्र वा बहुव्रीहिः हित तत्राविकपोसभ्रवां विकृतिमनापाच यः कवनो मुखे प्रवि पाहारो येषां ते हिताहारा इत्यादि एवंविधा ये नरास्तान शति तत्प्रमाणम् । अथवा कुकुटी पकिणी तस्या अंक प्रमाण वैद्या न चिकित्संति हितमितादिजोजनेन तेषां रोगस्यैवा कवनस्य । जावकुकुटी येन आहारण शुकेनन भ्यून नाउ संजवात् किं त्वते स्वत पर रोगोत्थानप्रतिषेधकरणेनाऽऽत्मप्यत्याध्मातमुदरम्नवति । वृतिञ्च समुदहति । कानदर्शन नैवात्मनस्ते चिकित्सकाः। चारित्राणाश्च वृहिरुपजायते । तावत्प्रमाण पाहारो भावकु सांप्रतमहितहितस्वरूपमाह ॥ कुटी । अत्र जावस्य प्राधान्यविवझणादेष प्राग व्यकुकुट्य तेसदहिसमा जोगा, अहितं उ खीरदहिकजियाणं च । प्युक्तः । वह नावकुकुटी उक्तः। तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागा अएक कप्रमाणो तत्कवरस्य । पत्यं पुण रोगहरं, विनासगं होइ रोगस्स । एत्तो किणईडीणं, अकं अवगं च श्राहारं। दधितैनयोस्तथा कीरदधिकांजिकानां च यः समायोगः सोऽहितो विरूक इत्यर्थः। तथा चोक्तं शाकमनफपिण्याकसाहुस्स वेति धीरा, जायामायं च ओमं च ॥ कपित्थलवणैः सह करीरदधिमत्स्यैश्च प्रायःकार विरुभ्यते पतस्मात् द्वात्रिंशत्कवनप्रमाणादाहारात (किणई इति) इत्यादि अविरुष्द्रव्यमेननं पुनः पथ्यं तब रोगहरं प्रादुर्चेत किञ्चिन्मात्रया एकेन द्वाज्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा कवः सा रोगविनाशकरं नचनाविनो रोगस्य हेतुः कारणम् । उक्तच घोहानं हीनतरं यावदर्भमर्मस्याऽप्यचमाहारं यात्रामात्र “अहिताशनसम्पर्को, बहुरोगोद्भवो यतः । तस्मात्तवाहितं माहार धीरास्तीर्थकृदादयो युवते न्यूनच एष यात्राहार एष | पथ्यं, न्याय्यं पथ्यनिषेवणम्" । एष वाऽयमाहार शतिनावः । पि०॥ ___ सांप्रतं मितं व्याचिण्यासुराह । संप्रति प्रमाणदोषानाह ॥ अटमसणस्त सव्वं, जणस्स कुजा दवस्त दो नागे । पगामं च निगाम च, पाणीयं जत्तपाणमाहारे । वाउपवियारणटुं, बन्जायन कणयं कुज्जा। अइबदुयं अइबहुसो, पमाणदोमो मुणेयव्यो। इह किन्न सर्वसुन्दर पभिनागर्विनज्यते तत्रार्क भागत्रय Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहार अभिधानराजेन्द्रः। श्राहार रूपमशनस्य सव्यंजनस्य तकशाकदिसहितस्थाधारं कुर्यात आहारे एसणं गोयमा ! सइंगाले पाणजोयणे जेणं तथा हौ भागी द्रव्यस्य पानीयस्य षष्ठं तु भागं वायु निग्गंथे वा निग्गयी वा फासुएसणिजं असण पनि प्रविचरणार्थन्यनं कुर्यात् इह कामापेक्कया तया तथा आहारस्य ग्गहेत्ता महया अप्पत्तियकोहकिक्षामं करमाणे आहा प्रमाणं भवति । कालश्च विधा तथा चाहसिओजसिणो साहारणो य, कालो तिहा मुणेयव्यो। रमाहारेइ एस एं गोयमा! सध्मे पाणजोयणे जेणं साहारणमि काले, तत्थाहारे श्मा मत्ता ॥ निग्गंथे वा जाव पमिगहत्ता गुणप्पायणहेउं अपदव्वेणं त्रिधा कालो ज्ञातव्यस्तद्यथा शीत उष्णः साधारणश्च तत्र साई संजोएत्ता आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! संजो तेषु कालेषु मध्ये साधारणे कासे पाहारविषया श्यमनंतरोक्ता यणादोसट्टे पाणजोयणे एपणं गोयमा ! संगानमात्रा प्रमाणम्। स्स समस्स संजोयणादोसहस्स पाएनोयणस्स सीए दवस्स एगा, जत्ता चत्तारि अहव दो पाणी। अढे पत्ते ॥ उसिणे दवस्त दोभि न,तिमि व सेसा उजत्तस्स ॥ (संगालस्सत्ति) चारित्रेन्धनमगारमिवयः करोति भोजनविष शीते अतिशयेन शीतकाले व्यस्य पानीयस्यैको भाग: कल्पनीयश्चत्वारि प्रक्तस्य । मध्यमे तु शीतकाले हौ भागी यरागाग्निःसोऽङ्गार एवोच्यते तेन सह यततेपानकादि तत्सा पानीयस्य कल्पनीयो नयस्तु जागा मक्तस्य । वा शब्दो गारं तस्य ( सधूमस्सत्ति ) चारित्रेन्धनधमहतुत्वामो द्वेमध्यमशीतकाल संसूचनार्थः । तथा उणे मध्यमोष्णकाझे षस्तेन सह यत्पानकादि तत्सधूमं तस्य ( संजोयणादोसाहोनागी व्यस्य पानीयस्य कल्पनीयो शेषास्तु वयो नागाः दुस्सत्ति) संयोजना व्यस्य गुणविशेषार्थ द्रव्यान्तरण जक्तस्य । प्रत्युष्णे च काले प्रयो भागा व्यस्य शेषी द्वी योजनं स श्व दोषस्तेन दुष्टं यत्तत्तथा तस्य (जेति ) नागी नक्तस्य । वा शब्दोऽत्रात्युष्णकालसंसूचनार्थः सर्वत्र विभक्तिपरिणामाद्यमाहारमाहारयन्तीति संबन्धः (मुच्छिच षष्ठो जागो वायुप्रविचरणार्थमुक्तोऽतो मोक्तव्यः । एत्ति) मोहवान् दोषाननिझत्वात ( गिछेत्ति) तद्विशेषाकासंप्रति नागानां स्थिरचरविभागप्रदर्शनार्थमाह । कावान् (गढिएत्ति) तद्गतस्नेहतन्तुभिः संदर्भितः ( अकोएगो दवस्त नागो, अवट्टिनो जोयणं दो जागा॥ वकृति व हाइति वदो दो नागा न एकेके ॥१॥ वयमत्ति) तदेकाग्रतां गतः ( आहारमाहारे त्ति ) नोजनं एको जव्यस्य भगोऽवस्थितो द्वौ नागी भोजनस्य शेषौ करोति ( एसणंति ) एष आहारः साङ्गार पाननोजनम् तो द्वौ नागौ एकैकस्मिन् जक्ते पाने चेत्यर्थः । वईते वा-हीये. (महयाअप्पत्तियंति) महदप्रीतिकमप्रेम (कोहकिलामंति) ते वृक्ष वा व्रजेते हानि वा व्रजेते इत्यर्थः । तया हि । अति क्रोधारक्रमः शरीरायासः क्रोधमोऽतस्तं ( गुणु प्यायणशीतकाले द्वौ नागौ नोजनस्य वर्धते अत्युषणकाले च पानीय हेचंति) रसविशेषोत्पादनायेत्यर्थः ।। न.७ श०१०। स्य । अत्युष्णकाले च द्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीत उत्तरगुणानधिकृत्याह ।। काले पानीयस्य। मुके सिया जाए न दूसएज्जा । एतदेव स्पष्ट भावयति ॥ अमुच्चिएण जमुववन्नएवा ॥ एत्थ उ तइयचनत्था, दोभियप्रणव ट्ठिया नवे जागा। घितिमं विमुक्केण य पूयणहि । पंचमहो पढमो, विइअोविअवडिया जागा ॥१॥ आहारविषयी तृतीयचतुर्थी नागावनवस्थितौ तौ ह्यतिशी न सिसोयगामी य परिबएज्जा ॥ २३ ।। तकाले नवतोऽत्युषणकाने वन नवतः । तयाऽ यंपानविषयः निक्खम्म गेहान निरावकंखी । पंचमो भागो यश्च वायुप्रविचरणार्थ षष्ठो जागो यौ च प्रयमद्वि कायवि उस्सेज नियाणनिने ॥ तीयावाहारविषयावेतेसर्वेऽपिजागा अवस्थितान कदाचिदपि णो जीवियं णो मरणावकरखी। जवंतीतिजावः। तदेवमुक्तं प्रमाणघ्यम्।पिं०।सूत्र.१श्रु.७अण चरेज जिवाव वझया विमुक्केत्तिवेमि ॥२४॥ "माहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्छ, स्यादाहारःप्रासंधारणार्थ ॥ प्राणाधार्यास्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वं झेयं येन नूयो ननूयात्"। (सुकेसिया इत्यादि ) उझमोत्पादनैषणाभिः शुद्ध निर्दोष ॥१॥ आचा० अ०३०१॥ स्यात् कदाचिद्याते प्राप्त पिके सति साधू रागद्वषाज्यां न प्रणीताहारजोजनं न युक्तं ब्रह्मचारिण इति (बम्हचेरसमा दूषयेत् । उक्तं च " बायाबीसेसणसं, कमि गहणमि जीव हि) शब्दे॥ नहु चलिओ। इण्हि जह न बिजसि, मुंजतो रागदीसेहिं" स्तोकाहारफलं (पमिकमण ) शब्दे ॥ तत्रापि रागस्य प्राधान्यख्यापनायाह । न मूर्चितोऽमूर्छितः आहारस्यांगारधूमादिदोषाः (अंगारधूमादि ) शब्देषु उक्ता- सकृदपि शोजनाहारलाभे सति गृकिमकुर्वन्नाहारयति । तया अपि संग्रहेणाह॥ नाऽध्युपपन्नस्तमेवाहारंपौनः पुन्येनाननिसषमाणः केवलं संयम अह जंते ! महंगामस्स सधूमस्स संजायणादास यात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत् प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशि म पाणलोयणस्स के अ? परमत्ते ? गोयमा ! जेणं नि टाहारसन्निधावभिलाषातिरेको जायत इत्यतोऽमुर्वितोऽनध्यु गंथे वा निग्गयी वा फामुएसणिज्ज असणपाण पमि पपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम् । उक्तं च "नुत्तभोगी पुरा जो वि, गीयत्थो वि य भावियो । संते साहारमासु, सोविगहेत्ता समुच्चिए गिके गढिए अज्कोववाए आहारं । खिप्प तु खुज" ॥ सूत्र.श्रु.१ अ०१०॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाहार भभिधानराजेन्तः । माहार शास्त्रातिक्रान्त आहारः॥ मनुद्दिष्टमनौदेशिक ( नवकोहीपरिसुति ) ह कोटयो अह ते सत्यातीयस्स, सत्यपरिणामियस्स, एसि विभागास्ताश्चेमा बीजादिकं जीवं न हन्ति न घातयात मन्तं नानुमन्यते । ३ । एवं न पचति । ३। न क्रीणाति । ३ । इत्येवं यस्य, वेसियस्स, समुदाणियस्स, पाणनोयणस्स, के अहे रूपाः (दसदोसविप्पमुक्कंति) दोषाः शंकितम्रवितादयः। परमत्ते ? गोयमा ! जेणं निग्गथे वा निक्खित्तसत्थमु- (नग्गममुप्पायणेसणासुपरिसुरूति) उस्मश्च आधाकर्मासझे बवगयमालावल्लगविक्षेवणे ववगयचुयचइयचत्तदेहं दिः षोमश विधः । उत्पादना च धात्रीदूत्यादिका षोमशजीवविप्पजदं अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूयमकिय विधैव उन्मोत्पादने एतषिया या एषणा पिएम विडा शिस्त या सुष्ट परिगुको यः स उजगमोत्पादनषणासु करमणुद्दिडं नवकोमिपरिसुचं दसदोसविप्पमुक्कं जग्ग परिशुको तस्तम् अनेन चोक्तानुक्तसंग्रहः कृतः। बीतामनप्पायणसणासु परिसुद्धं वीइंगालं वीइधूमं संजो- गारादीनि क्रियाविशेषणान्यपि जवन्ति । प्रायोऽनेन च प्रासैयणा-दोसविप्पमुक्कं असुरसुरं अचवचवं अदुयमावलंबियं षणा विगुद्धिरुक्ता ( असुरसुरति) अनुकरणशब्दोऽयम् अपरिसामि अक्खोवंजणवणाणुलेवणुतूयं संजमजाया एवं (अचवचवमित्यपि) (अदुयंति) अशीघ्र ( अविलंमायावत्तियं संजमनारवहणट्टयाए विलमिव पराग-। वियंति) नातिमन्थरम् (अपरिसार्मिति ) अनवयवोज्जितं (अक्खोवंजणवणाणुसेवणनूयंति) प्रकोपांजनं च शकटलूएणं अप्पाणणं आहारमाहारे एसणं गोयमा ! धूम्रकणं व्रणानुलेपनं च तस्यौषधेन विलेपनं भक्कोपांजनसत्यातीयस्त, सत्थपरिणामियस्स, जाव-पाणलोयण- व्रणानुलेपने ते श्व विवक्षितार्थसिकिरसादिनिरनिष्वङ्गता स, अयमढे पत्ते तं चेव सेवं ते तेत्ति ॥ साधाद्यः सोकोपांजनवणानुलेपन जूतोऽतस्तं क्रियाविशे(सत्थातीतस्सत्ति) शस्त्रादध्यादेरतीतमुत्तीर्स शस्त्राती- षणं वा ॥५॥(संजमजायामायावित्तियत्ति ) संयमयात्रा तम् एवं नूतं च तयाविधप्रयुकादिवदपरिणतमाप स्यादत संयमानुपाबनं सैव मात्रा आलम्बनसमूहांशः संयमयात्रा आह (सत्थपरिणामियस्सत्ति) वर्णादीनामन्यथा करणे. मात्रा तदर्थ वृत्तिःप्रवृत्तिर्यत्राहारेस संयमयात्रामात्रावृत्तिको नाचित्तीकृतस्येत्यर्थः । अनेन प्रासुकत्वमुक्तम् ( पसिय इतस्तं संयमयात्रामात्रावृत्तिक वा यथा भवति संयमस्सत्ति) एषणीयस्य गवेषणाविशुरुया गयेषितस्य (वेसि- यात्रामात्रा वा प्रत्ययो यत्र स तथाऽतस्तं संयमयात्रा यस्सत्ति ) विशेषेण विविधैर्वा प्रकारैरेषितं व्यषितं गृह-। मात्राप्रत्ययं वा यथा नवति । एतदेव वाक्यान्तरेणाह । *षणापासपणाविशोधितं तस्य अथवा वेषो मुनिनेपथ्यं स (संजमभारवहणट्टयाएत्ति) संयम एव भारस्तस्य वहन हेतुोने यस्व तषिर्क आकारमात्रदर्शनादवाप्तं नत्वावर्जन पासनं स एवार्थः संयम नारवहनार्थस्तद्भावस्तत्ता तस्यै या अनेन पुनरुत्पादनादोषापोहमाह । ( समुदाणियस्सत्ति) (बिनमिव परणगएणं अप्पाणणंति) विझे श्व रन्धे श्व ततस्ततो निकारूपस्य किं नूतो निर्ग्रन्थ इत्याह । (निक्खित्त पन्नगनतेन सर्पकल्पेनात्मना करणभूतेन श्राहारमुक्त सत्यमुसलत्ति ) त्यक्तखड्गादिशस्त्रमुसलः ( ववगयमाला- विशेषणं आहारयति शरीरकोष्ठके प्रतिपति । यथा किस वामगविनेवणेत्ति ) व्यपगतपुष्पमालाचंदनानुलेपनः स्व. बिसे सर्प प्रात्मानं प्रवेशयति पार्खानसंस्पृशन्ने साधुर्व रूपविशेषणे चेमे न तु व्यवच्छेदार्थे निम्रन्यानामेवं रूपत्वा- दनकंदरपावा॑नसंस्पृशन्नाहारेण तदसंचारणतो जठरबिले देवेति (ववगयचुयचश्यचत्तदेहति ) व्यपगता स्वयं पृथ आहारं प्रवेशयतीति । ( एसणंति ) एषोऽनंतरोक्तविशेषण ग्लूता भोज्यवस्तुसंनवा आगंतुका वा कृत्यादयश्च्युता आहार शस्त्रातीतादिविशेषणस्य पानभोजनस्यार्थो निधेयः मृताः स्वत एव परतो वा ज्यवहार्यवरत्वात्मकाः पृथिवीका प्राप्तः । ज०-७ श. १ उ०॥ अनु । वि० । यिकादयः। (चश्यत्ति ) त्याजिता भोज्यव्यात् पृथक्का आहारपरिष्ठापना (परिछावणा)शब्दे ॥ रिता दायकेन (चत्तंत्ति) स्वयमेव दायकेन त्यक्ता प्रक्ष्य नक्तपरिज्ञा तु समाध्यर्थमाहारो दीयते । (इति भत्तपरिणा) न्यात पृथक् कृता देहानेदविवक्कया देहिनो यस्मात् स तथा तमाहारम् । वृरुव्याख्या तु व्यपगत ओघतश्चेतनापर्यायाद शब्दे । युगबिनः कन्दाद्याहारा आसन् ऋषनस्वामिनाऽ पेतश्च्युतो जीवनक्रियातो भ्रष्टच्यावितस्तत एवायुष्ककयेण नाहारिणः कृताः। भ्रंशितस्त्यक्तदेहः परित्यक्तजीवसंसर्गजनिताहारप्रनवोपच सूत्रं । जे निक्खू पिउमंदपनासयं वा पमोलपनासयं वा यस्तत एपां कर्मधारयोऽतस्तं किमुक्तं भवतीत्याह (जीव विसपनासयं वा सीनदगवियण वा उसिणोदगविविप्पजदंति ) प्रासुकमित्यर्थः ( अकयमकारियमसंकप्पि यटेण वा संफाणिय संफाणिय आहारे आहारतं वा यमणाहूयमकीयकरमणुदिई) अकृतं साध्वर्थमनिर्वर्तितं दायकेन एवमकारितं दायफेनैव अनेन विशेषणद्वयेनानाधाक साइज्ज ॥१४॥ र्मिक उपात्तः असंकल्पितं स्वार्थ संस्कुर्वता साध्वर्थतया न पिचुमदरो निंबो पलासं पत्तं संफाणियति धोविजं अहवा संकल्पितं अनेनाप्यनाधाकर्मिक एवं गृहीतः स्वार्थ संफोमि मेखितुमित्यर्थः । मारब्धस्य साध्वर्थ निष्ठां गतस्याऽपि आधार्मिकत्वात् । गा-आहारमणाहारस्स, मग्गणा णिमसा कता होति। न विद्यत आहूतमाह्वानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्र निवपमोलादीहिं, दियराओ चनक्कलयणाओ। ३। मन्नं ग्राह्यमित्यवं रूपं कर्मकराधाकरणं वा साध्वथै स्थानान्त दन्नाद्यानयनाय यत्र सोऽनाहूतोऽनित्यपिएको ऽनन्याहृतो को आहारो को वा अणाहारो एतेहिं सिंबपझोलापहिं मग्गघेत्यर्थः। स्पर्धया वाऽहतं तनिषेधादनाहूतोदायकनास्पर्धया णा कता भवति आहार आणाहारे दियरे वा राति चवन्नंगी दीयमान इत्यर्थः । अनेन भावतोऽपरिणतानिधान एषणा दियागहियं दियाजुत्तं एवं च भंगो॥ दोषनिषेध उक्तोऽतस्तमक्रतिकृतं क्रयेण साधुदेयं न कृत | गा०-जा हट्ठस्साहारो, चविहो परियासियं तं तु । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५२) आहार अभिधानराजन्नः । माहार णिवपमोलादीयं सति माजे व परिवसति ॥ ३५॥ आहारनिमित्तेण, अह यं सम्बेसु नरयोएसु । हट्टो णिरोगो णिव्याधितो समतो तस्स जो आहारो असणा- उपवनोमिय बहुसो, सव्वासु य मिच्चजाईसु ५३ ।। चलम्विहो तं परियासि जो संजति चउन्नंगेण तस्स आहारनिमित्तणं, मिच्या गच्छति दारुणे नरए । पबित्तं । श्मं । साच्चित्तो आहारो,न खमइ मणसा वि पच्छेनं ॥ ५४ ।। गा-पाहारे चनजंगे, चनगुरुगेतरे व चनलहुगा ॥ महा०५०॥ मुत्तं पुण तद्दिवसं जो धुवति अचेतणा पलासो॥४०॥ आन्हियते इत्याहारः । श्रोदनादौ, ॥ सूत्र०॥१श्रु.७.। श्राहारे परियासिते चनसु चनगुरुगं इतरे अणाहारिमेसु चन विहे आहारे ५०० असणे पाणे खाइमे साइमे ।। पाउसु विनंगेसु चलनहुं श्मे पुण सुत्तं जो तहेवसिय अचित्तं धुवित्रो मुंजात तस्स भवति अणाहारियं परियासियं पथ स्था० ४ ग०॥ अविहे आहारे पहात्ते तं० ॥ भमति॥ मणुप्पो असणे पाणे खाइमे साश्मे अमाणुप्मे असणे गा-जयणपदाण चनएहं, अमतराएण जो तु आहारे। पाणे खाश्मे साइमे । स्था०ग०॥ णिवपमोलादीयं, सोपावति आएमादीणि ॥११॥ असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा । चठरो नंगा जयणापदात्ताह जो आहारोत तस्स आणा- एसो आहारविही, चनविहो होइ नायव्वो ॥ ३६॥ दिदोसा संफाणति सुत्तपदं तेर्सिस मायक्वा ।। प्रशनं मंझकौदनादि पानं चैव काकापानादि खादिमं फलादि गा-सतिएव उसिणेणव, वियमेणं धोवणानुफंसामा । स्वादिमं गुमादि एष आहारविधिश्चतुर्विधो नवति ज्ञातव्य इति अहवा जायं धोवति, संफाहो एगहाणेगाहं॥१३॥ गाथार्थः । श्राव०।६ अ०। एगाहाणेगाहं पगाणेगदिवसर्पिमिताणि धोवति श्मा विराहणा। सांप्रत समयपरिनाषया शब्दार्थनिरूपणायाह। गा-उडवतविराधणता, पाणादीया समुच्छति । आसु खुहं समेई, असएं पाणाणुवग्गहे पाणं । तदिवसधोवणहा, तंणिस्सितघाती तुजंतो॥४३॥ खेमाइ खाइमंति, साएइ गुणे तो साइ ॥ ३७॥ ग्टुं रातीनोयणवयं तं विराहिजति मच्चियातिपाणा तत्थ- सव्वो वि अाहारो, असणं सब्बो वि वुच्चई पाणं । तिबिंति ते गिहिकोलिया तिर्णति किछतेसु वा पिमिपसु सव्यो विखाइमंति अ, सब्यो वि असाइमं होई ॥३ना कुंयुमाती संमुच्छति । आद्य शब्दः तर्कणादिदोषादिप्रति जा असणं चि असव्वं, पाणगमविवज्जणंमि सेसाणं । पादनः यथा गवाद्यां ब्राह्मणान् परिजोजयत् पते परिवासिते दोसा श्मे तहेवसिते विविपत्ताति अणट्ठा घेत्तुं थोविलं हवा असेसविवेगो,तेण विजत्ताणि चनरो वि।३।। गंजंतस्स तमिसियपाणिघातो भवति धावंतस्स य प्झा- असणं पाणगं चेव, खाश्मं सामं तहा । वणदोसो अतो तहेवसियपि ण कप्पति मुंजिलं कारणा एवं परूवि मीस-दहि ओ जे सही होइ ।। १०॥ कप्पति ॥ (आसुत्ति) आशु शीघ्र कुधां बुक्षुकां समयताति वितियपदं गेमप्लो, वेज्जुवएसे य दुब्सनंदव्वं । अशनम् । तथा प्राणानामिन्द्रियादिलक्षणानामुपग्रहे उपकारे तदिवसंजत्तणाए, वी गीयत्यसंविग्गे ॥४४॥ यद्वर्तते शति गम्यते तत्पानमिति । खमित्याकाशं तच्च मु. गिलाणकारणे वेज्जवदेसेण सफाणे दुखनं दव्वं वा अणेग स्वविवरमेव तस्मिन्मातीति खादिमम् । स्वादयति गुणान् दिवसे संफाणेतितदेवसियं पुण परसफाणियं गेएहांत रसादीन् संयमगुणान्वा यतस्ततः स्वादिमं । हेतुत्वेन तदेवाअसति अप्पणा वि संफाणेति तहेवसियमि अ अभंते वितिय स्वादयतीत्यर्यः। विचित्रनिरुक्तिपागञ्जमात रौति तभ्रमरमिति आगाढे पोयणे गीतत्ये संविम्गे सविगरणं पि करे श्त्यादिप्रयोगदर्शनात् साधुरेवाऽयमन्धर्थः इति गाथार्थः ज्ज तं पुण पित्तादिरोगाणं पसमणट्ठा श्मं गेण्हे ॥ ॥३७ ।। उक्तः पदार्थः पदविग्रहस्तु समासभाक् पदविषय शत नोक्तः अधुना चालनामाह ।। (सवो वि यत्ति) यद्यनंपनमप्पलमाउबुंगे, एरंमे चेव णिंबुपत्ते य । तरोदितपदार्थापेक्कया अशनादानीति । यतः सर्वोऽपि वेज्जुवदेसे गहणं, मीतत्थे विकरणं कुज्जा ।। ४५॥ चाहारश्चतुर्विधोऽपि तथा । अशनं सर्वोऽपि चोच्यते । पिउँदए म परमप्पवाससिं वाए निंबाए मातुमुंग वा एरंगो पानकं सर्वोऽपि च खादिम सर्व एव च स्वादिमं जति संभेणि च पत्ता तदिवस जयणापत्ति । अस्य व्याख्या। बेज्जु. अन्वर्थाविशेषात् । तथा हि यथैवाशनमोदनसमकादि वयसे गहणंति । वितिय संविग्गेत्ति । अस्य व्याख्या। गीयत्थे क्षुधं शमयति एवं पानमपि तत्तथैव द्राक्षाहीरपानादि । विकरणं कुज्जाएतदेवार्थ स्फुटतरं करोति ॥ खादिममाप फलादि, स्वादिममपि गुमादि । यथा च पानं प्रासंफाणितस्स गहणं, असती घेत्तण अप्पणा धोवे। णानामुपग्रहे वर्तते एवमशनादीन्यपितथा चत्वार्यपि खेमान्ति तदिवसिगिनासति, णेगा विणिसा तु संफाणो ।ए । चत्वार्यपि वा स्वादयन्ति अस्वायते चेति न कश्चिद्विशेषस्ततद्देवसियस्स अमाले अणेगदिवसे वि करेति ।। नि.चू. उ. स्मादयुक्त एवं नेद ति गाथार्थः ॥३०॥ श्यं चालना । प्रत्यव(सचित्तवृत्त मधिपायनाहारः कार्य इति सचित्तरुक्खशब्दे ।।) स्थानं तुयद्यपि एतदेव तथापितुल्यत्वार्थप्राप्तावपि रूढितो नीति प्रयोजनं च संयमोपकारकमस्त्येवंकल्पनया अन्यथा दोषस्त (पाहारग्रहणविधिः-गोयरचरिया,शब्दे ।) था चाह ( जर असणत्ति ) यद्यशनमेव सर्वमाहासंसार चकवाले, सव्वे ते पुग्गनामए बहुसो । रजातं गृह्यते ततः शेषापरिभोगेऽपि पानकायवर्जने उदकाअहारिया य परिणा-मियाय न यहंगो तत्तिं ॥५॥ परित्यागे शेषाणामाहारभेदानां निवृत्तिन कृता भवतीति Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार निधानराजेन्डः। आहारग पाक्यशेषः ततः का नो हानिरिति चेत् भवति विशेषविवेकः भत्ते पाणे वा परिवासियनविते सप्पादिणा जंघासणेण लामस्ति च शेषाहारजेदपरित्यागः न्यायोपपन्नत्वात् प्रेवापूर्व साविससंमिस्सा मुक्को हवेज्जा तया विसेण वा फसितं हथेनेत्यर्व कुकुट्या पठ्यते अर्द्ध प्रसवाय कल्पत श्त्यपरिणतानां ज्जा तेहिं वासगतेहिं वीर्य निसंत्रं तं पोज्जा। घरकोस्लोवा श्रद्धा च न जायते एवं सामान्यविशेषन्नेदनिरूपणया सुखाच सुत्तेज्जा गिहकोकिन अवयवसंमिस्सेण नुत्तेण पोट्टे किन सेयं सुखश्रमेयं च भवतीति गाथार्थः॥ ३॥ गिहकोश्या संमुजति मुझंगा संमुदि वा परिपायस्थ मुझंगासु तथा चाह-असणंगाहा, असनं पानकं चैव खादिम स्वादिमं महा परिहायति। मेहापरिहाणीए णाणं विराहणा सेसेसु श्रायतया । एवं प्ररूपिते सामान्यविशेषभावनाख्याते तथ्यावया विराहणा परियावणा परियावणादि जाव चरिम पावती धात् श्रधा प्रवर्तते उपकार्थत्वाद्दीयते पाल्यते च सुख वितियपदे आगाढो कारणे निक्खिवतो अदोसो तं च श्मं ॥ मिति गाथार्थः। ४०॥ वितियपदं गेलप्पो,अट्ठाणो मे य उत्तमद्धेय । उपस्कृतसंपन्नादिना आहारचातुर्विध्यम एतेहि कारणांह, जयणाए णिक्खमे निक्खू ॥१॥३॥ चनबिहे आहारे पं० तं० उवक्खरसंपन्ने उबक्खम गिनाणस्स पदं दिर्स अलभते अट्ठाण पावं नाणं असंथरणे दुग्जिक्खे य असंयते उत्तमट्रपाविघ्नस्स असमाहाणे संपन्ने सनावसंपन्ने परिजुसिय संपन्ने ।। तक्षणमनने एवमादिकारणेहिं जयणा ते परिवासेज्जा श्मा उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करो हिंग्वादिस्तेन संपन्नो युक्त अपस्क जयणागाहा ॥ रसंपन्नस्तथा उपस्करणमुपस्कृतं पाक इत्यर्थस्तेन संपन्न ओदनकममकादिः उपस्कृतसंपन्नः पागन्तरेण नो नपस्कारसंप सवलपमुहे वा, दद्दरमतणातीअपार-हुंजते । सो हिंग्वादिभिरसंस्कृत प्रोदनादिः । स्वनावेन पार्क विना इंदरजए सरावं, कंटियरवरिंअहेनत्ति ॥१४॥ संपन्नः सिकः द्राकादिः स्वन्नावसंपन्नः ( परिजुसियाति) बामए सवोढं उज्कति अप्पमुहे वा कुममुहादिसु तत्थ बोईं पर्युषितं रात्रिपरिवसनं तेन संपन्नः इरिकादिः यतस्ताःपर्यु चम्मेण घणेण वा चीरेण दहरेति दहरासति सरावादीपिधाणं दातुं संधिमयण सिंपति नगरोण मट्टियाए वा ततो अश्या पिताकानीकृता आम्बरसा नवांत । आहारस्य बौकिका लौकिकोत्तरिकाश्च नेदाः (पिशब्दे बाहे एगंत ति, जत्य चंदरजयं तत्य सिकं एकातुं चेहासे उति, जदि रज्जए उंदरा अवतरति तत्यंतरा सरावं ग्बेति, धक्ष्यंते) पिंमरूपत्वात् तस्य । कंटकाउ कार्य वा कद्दमे उहंमुहा करेंति । एसा उवरिरिक्खा . आहारपरिश्रावणम् । तमिछियस्त वा अहोनूती करेंति परिगणनया चेहा स॥ सूत्रं-जे निक्रवू असणं वा ४ अणागाढे परिसा- ट्रियस्स अहोजती करिज्जति जत्थ पिवालिगनयं तसगायवे परिसावंतं वा साइज्जा ।। १४ ॥ णस्थि रज्जवा मूसहि बिदेण जयं तत्थिमा प्रासयविही । जे निवस्व परिसावियस्स असणं वा तया पमाणं वा ईसिं जूमिमपत्तं, असणं वा विनिणरक्खट्ठा । मुंजप्पमाणं वा विंदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ पमिहनजयकालें, अगीय अंतरं न आपतु ।१५। आहारं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥ भूमिए सिं अपत्तं रज्जूए उसारेति आसमं बाहेढा अणअग् नोजने । खाद भक्कणे । पा पाने । स्वद आस्वादने फिरतं ग्वंत्ति किमेवं विज्जति जादि मूसगेण रजनिज्जति पते चतुरो तिमि दो अमायरं वा जे रातो अणागाढेण आगा तो सपाणभायणं पमितं पिण जिजति रस्किय प्रवति पुवा ढं अणागाढं तंमि जो परिवसावेति तस्स चमगुरुं आणाति वरासु य समासु पमिलेहपमजणा कति अगीतगिलाणा विराहणा य भवति श्मा निजत्तिगाहा ।। जत्थ वसहीए, तत्य ग्वति ते वा अगीय-गिलाणा मध्यस्थ ग्वेत्ति । नि०० ११ उ.॥ जे निक्वू असणादि, रातो अणागाणिक्खवेज्जाहि श्राहारप्रतिपादकत्वात् प्रज्ञापनाया अष्याविशे पवे,। सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे ।१७।। प्रशा० १ पद ॥ (आगाढचातुर्विध्यमागाढशब्द) आहारएसणा-आहारैषणा-स्त्री०-आहारस्य एषणा ग्रहणाद अणागाढे श्मं सुत्तं अणागाढं परिवसावति तस्स य सोहि | | गवेषणादिग्रहणस्तदर्थसूचकत्वादाहारषणा ।मपुष्पिका नाम संजमो य विराहणादोसा य तत्य संजमे श्मा विराधणा ॥ | नि दशवकालिकस्य प्रथमे अध्ययने, दश०१०॥ संमुच्छति तहिं वा, असे आगंतुगावलग्गंति । |आहारओ-आहारतस्- अव्य० व्यप् लोपे कर्मणि पंचमी । परनोपरगममाणा, विसएमेव असणादि ॥ १ ॥ आहारमाश्रित्येत्यर्थे, "आहारओ पंचकवजणेण" आहार असणादिए परिवेसाविते किमिरसगादीपाणा संमुच्छति माश्रित्य पञ्चकं वर्जयन्ति । "बसणं पत्रांमुःकरजीकीरंगोमां असो वा मुछियमसगमकोमपिवीलिगादी पति तक्कोत सं मद्य चेत्येतत्पंचकवर्जनेन मोकं वदन्ति।" सूत्र०११०७०॥ परंपरतो वा भवति तं परिवासिदब्वं मच्चियगपइंगमुसगा आहारग-आहारक- न०-चतुर्दशपूर्वविदाऽऽव्हियते गृह्यते दि तकेंति, मच्छ्यिातो गिहिकोनिया तक्केति, गिहकोश्वगं इत्याहारकमथवा अन्हियन्ते गृह्यन्ते केवलिनः समीपे सूदम मज्जारो तक्केति, मज्जारं साणो तकति, एस तक्केता परंपरओ अहच जायणं परिगशिति तत्थ वि परिगलितं एवं चेव तक्केत्त जीवादयः पदार्या अनेनेत्याहारकम् । अनु०। विशे० । स्था। परंपरओ, अत्र मधुर्वेदोपाख्यानं दृष्टव्यं एसासंजमविराहणा गा।शरीर नैदे, स। बाला तया विसो वा, नंदरपिंमी व पमणसुकं वा ।। अणाहारगशब्दे दंगकमुक्तम् ॥ ओजोयोमप्रक्वेपाहाराणामन्यतमाहारमाहारयतीति पाहाघरकोइलसुत्तेजा पिवीलगा मरणतो णाणं ॥ १५॥ रकः । अनाहारकविलवणे जीवे, कर्म० ॥ चर्तुदशपूर्वविदा Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारगंगो आन्नधानराजेन्द्रः। पाहारपच्च. तथाविधकार्योत्पत्ती विशिष्टलब्धिवशादाव्हियते निवर्त्यते | आहारजतित्ति-आहारजतप्ति-स्त्री. भोजनजनितबुलुक्कोपइत्याहारकं । अथवाऽऽन्हियंते गृह्यते तीर्थकरादि समीपे सूदमजीवादयः पदार्था अनेनत्याहारकं । बहुबमिति कर्मणि आहारजाइ-आहारजाति-स्त्री०अत्यवहार्यसामान्ये, पंचा. वृ. करणे वा णकः । यदवादि “कमि समुप्पन्ने, सुयकेवलिणा विसिटुसकीए । जं इत्य आहरिजश, नएंति आहारगं तं तु आहारजात-आहारजात-न अज्यवहार्यसामान्ये पंचा०१०७. ॥१॥"कार्य चेदं।पाणिदय-रिदिरिसण, बम्मत्थो वम्गहण | आहारणी-ग्राहारनीति-स्त्री. संस्कृताहारजवणप्रकारे, देऊ वा* संसयवुच्छे यत्थं,गमणं जिणपायमूसम्मिश:कर्म। ऋषभस्वामिनो गृहावासात् पूर्वमसंस्कृताहारेण प्रासन ते पतचाहारकं कदाचनापि लोके सर्वथा पिन भवति तथा च तदा ऋषभस्वामिनाऽनाहारिणः कृताः इति उसभशब्द उजवनं जघन्यत एकं समयमुत्कर्षतः पएमासान् यावत् । । उक्तं । आ० चू०॥ नक्तंच "आहारगाई मोके उम्मासा जान होत विकया। । कोसेणं नियमा, पकं समयं जइभेणं,,जी०१प्र. प्रकार आहारणीहार-आहारनिहार-पु० विसर्जने, विविसर्जने, नि० २० पद । पं० सं०।द्वा. । आव० सूत्र। चू०२०॥ आहारकहारीरं चतुः कृत्वा मोक तिन सर्वस्य आहारपश्मा-आहारपरिका-स्त्री० आहारस्य परिकामरुपर्विण शति (समग्घाय) शब्दे ॥ ओगाहणशब्दे तदवगाहना।। | के सूत्रकृतांगस्य श्व०हितीयेऽध्ययने, स्था०७ ग.। श्राव०। आहारकाः सदैवानाहारका विग्रह गतौ सदैवानाहारकाः प्रश्न०५ अावा॥ भवन्ति, स्था० ३ग० ॥ प्राहारकशरीर वति, विश०॥ आहारपच्चक्खाण-आहारपत्याख्यान-न०सदोषाहारपरिहा आहारकशरीरबन्धिसंपन्ने कल्प०॥ रे, तत्फलं यथा ॥ आहारगंगोवंगणाम-आहारकाङ्गोपाङ्गनामन्- न०-अकोपा आहारपच्चक्रवाणेणं ते जीवे किं जणयइ ? आहाझनामकर्मनेदे, यदयादाहारकशरीरत्वेन परिणतानां पुजा रपञ्चक्खाणेणं नीबियासंसप्पओगं वोच्चिदा जीविया नामङ्गोपाङ्गविज्ञागपरिणतिरुपजायते, कर्म०॥ संसप्पओगं वोचिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न सांकि श्राहारगजुगन-आहारकयुगल- न-आहारशरीराहारकां लिस्सइ ॥ ३५॥ उत्त. २ए अ.॥ गोपांङ्गवकणे आहारकद्विके, कर्मः। हेनदन्त ! आहास्य प्रत्याख्यानेन सदोषाहारत्यागेन उपधा आहारगणाम-आहारकनामन-न-आहारकनिबंधने नाम्नि सादिना जीवः किं फलं जनयति गुरुराह हेशिप्य ! श्राहारप्रकर्म०॥ त्याण्यानेन जीवो जीविताशंसप्रयोग व्यवच्छिनात्त । जीविते आहारगग-आहारकहिक-न० आहारकशरीराहारकांगो प्राणधारणे प्राशंसा अभिवाधस्तस्याःप्रयोगो व्यापारो जीवि ताशासंसप्रयोगस्तं व्यवाचनत्ति निवारयति जीविता शंसा पांगकणे नामकर्मोत्तरप्रकृतिद्वयेऽर्थे, पं० सं.॥ रहितो मुनिन क्लेशभाक् स्यात् इति भावः ॥ आहरगनधि-आहारकलब्धि- स्त्री० आहारकशरीरकरण -ति-चउविहारेसु कप्पम् लघुप्रवचने यथाशक्ती, आहारकशरीरं च हस्तप्रमाणमेकस्मिन् नवे, द्विः संसारे च चतुः कृत्वस्तीर्थकरस्फीतिदर्शनार्थे चतुर्मासाः । ग० जहँ धन्नं सव्वं, बदाम अक्खोमनच्चुगंमुनिया ।। २ अधि । प्रव०॥ फापकन सव्वं, बहुबिहं खाश्मं मेयं ।। ४०|| प्रामरगवग्गणा-आहारकवर्गणा-स्त्री० आहार पवाहारक दंतवणं तंबोरं, चित्तं तुलसी कुहेमगाइयं ॥ स्तत्प्रायोग्यवर्गणा आहारकवर्गणा आहारकशरीरग्रहणकपा महु पिप्पली मुंठि मरी, पाप्मागं जाइफलाणं च ॥४॥ योग्यवर्गणायाम् कर्म०प्र० । वम्गणाशब्दे स्वरूपं । एलदुर्ग लविंगं अजमोयतियं तियं च अनयाणं ॥ आहारगसमुग्घाय-आहारकसमुद्घात-पु. आहारके प्रारज्य स कप्पुर-काविट्ठाई, हिंगुलवण्याण असणगं च ॥५॥ माणे समुद्धात आहारकसमुद्धातः। प्रव०॥ आहारकर्मविष विमलवण बमिंगबुन, कंटकरुक्खाणच्चल्लिया सव्वा । ये, पं.सं. ॥ चतुर्दशपूर्वविद आहारक सन्धिमंत कचित्संदेहापगमाय तीर्थकरांतिकगमनार्थमाहारकशरीरं समुपादा फोफसकसेबपुक्खा, रजवासपठणकूलगयजन्सी तुं बहिरात्मप्रदेशप्रवेशे, आचा० ॥ प्राहारकसमुद्घातस्तु तिन्व्य सुगंधि धहाय, पत्तजमी पप्पकी वरट्टा य ।। जीवप्रदेशान् शरीरादेर्वहिनिष्क्रम्य वाहल्यमात्रमायामतश्च रसजाई नेसज्जपमुहं साइमं अणेगविहं ।। ५२ ॥ संख्ययानि योजनानि दएफ निसृजात निसृज्य च यथा दुविहारे काप्पज्जइ, पाणं साइमणेगहासव्वं ।। स्थूवानाहारकशरीरनामकर्मपुद्गबान शातयात ॥स्था० ग. ७। प्रज्ञा०॥ तिविहारे पाणं, पुण चउहारे किमवि नो कप्पं ।।३।। आहारगसरीरकायप्पोग--आहारकशरीरकायप्रयोग-पुरु सामगयासिमामि, न कप्पए तह पसंग दोसाओ ।। आहारकशरीरनिवृत्तेः प्रधानेऽङ्ग । न० श० १ ० । गुरुजवणहिंगुमींधव, जीरय धरणा वरट्टा य ।। ५४ ॥ आहारगुत्त--आहारगुप्त--त्रि० अनतिमात्रास्निग्धाहारभो- अजमो अतियं काविहं, आमलगं च तह कपूरकंदा य ।। जिनि, आव० ४ अ.। सूत्रः॥ अंबोलगं च सूया, एमाई असणववहारो ॥ ५५ ॥ * सुहमंपच्चावगहण हेचं, शति पाठो जीवानिगम टीकायाम्। ' चउहारे रयणीए, कपिज्जा जाणिमाणिं वत्यूणि ।। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५५) अभिधानराजेन्द्रः । आहारपज्जन्ति " समजागच्या तिहसा, निंचोसीर चंद्रणवं ॥ ५६ ॥ गोयुतं करुरोहिणी, कधी अथवा प रोहिली तुम्गा ॥ गुग्गुवया करीरव, लिंबपंचग जासगणो ॥ ५७ ॥ यह आसगंधि पंजी, बीमसिदा व कुंदडा ॥ बिसना व चमासो, बोस बीया अरिद्धा य ।। ५० ।। fine मजिgiकेलि, कुमारि कंथेरं बेरकट्ठा य || कप्पारुवीय पत्तय, अगुरु तुरुष्का य तंतु वा ॥ ५८ ॥ धवखयरपल्लासाईं, कंटकरुक्खाणबुनियासाणा || जं करुयरसपरिगर्व आहार पिच्छणाहारं ।। ६० ।। इच्चाइ जं आणि, पंकुवमंतं नवे अणाहारं || जं इच्छाए मुंज, तं सव्वं हव आहारं ॥ ६१ ॥ आहारपज्जनि- आहारपर्याप्ति स्त्री० श्राहारपुरुसमा रिणमनतावात्मनः शक्तिविशेषे, पं० सं० ॥ यथा बाह्यमा हारमादाय खरसरूपतया परिणमयति खाऽऽहारपयांसिः | कर्म० | दर्श० । जी० १ प्र. नं० । प्रज्ञा० १ पद ॥ प्रव० ॥ पर्याप्तिर्नाम शक्तिस्तत्र यया शक्त्या करणभृतया नुक्तमा हारं खलरसरूपं च या करोति सा ॥ वृ० १ उ. । आहारपुर- आहारपूति श्री० (सिओमोपरि राष जर व गेलने । अाण रोहपवा, गहणं आहारपूप ३०० ) इत्युक्तत्रणायामाहारगृह, नि० सू० १ उ. । आहारपोसह - आहारपोषध- पु० आहारः प्रतीतस्तद्विषय स्तनिमित्तं पोषधश्वाहारपोषधः । आहारविशेषत्यागे, "आहा रपोस हो विहो, दसे सब्वे य देसे श्र अमुगा विगतिश्रयं विल एकसि वा दो वा १ सव्वे चविहोत्ति आहारो होरतं पथ क्खा " आच० ६ श्र.! श्राहारपोषधो देशतो विवहिते विकृतेरवि हास्य या सहदेव वा नोजनमिति सर्वतरतु चतुर्विधस्याहारस्याहोरात्रं यावत्प्रत्याख्यानं । ध० २ अधि. । आहारसला- आहारसंज्ञा- स्वी० कुदनीयोदयात्कार्याणि कायादारासोपादानक्रियैव संज्ञायतनया स्थानियाहारसंज्ञा ॥ १०७ श. उ. । स्था० १०वा. ॥ श्रहारानिलापरूपे कंदनीय प्रभवे आत्मपरिणामविशेषे ५० ॥ अभिप ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद्यदीदमवाप्यते ततः समीचीनं भ वतीत्येवं शब्दस्वष्टिनिमित्तप्रतिनियत वस्तु प्राप्यभ्यवसायरूपः । जी० १प्र. । प्रज्ञा० ७ च । संज्ञाशब्दवक्तव्यता ( सम्मा) शब्दे । चलहिं गणेहिं आहारसमा समुप्पज्जइ । तं जहा ओमकोच्याए रहावेपणिजस्स कम्मस्स उदरणं मईए ओगे || स्था. ४. ॥ टी० मा रिकोदरतया मन्या आहारकथाश्रवणा दिजनिता योगेन सततमादारचिन्तयेति ॥ आहारा कम्मणि, मोहामिन्यवयस्य, द्वा. ३०खा. आहारादिचागडा आहारा दिल्यागानुष्ठान न० भोजन वेदसत्काराब्रह्मव्यापारपरिहारकरणं । पंचा० १० वृ. ॥ आहारिज्जमाण- आन्डियमाण त्रि० संगृह्यमाणे, अज्यवन्दि यमाणे च न० १ श. १ उ. ।। खाद्यमाने, स्था० १० वा. । आहा रिज्जस्पमाश हरिष्यमाण ०-अनागते काले हारं करिष्यमाणे भ. १ श. । १० । अहारिए - अहर्तुम् अव्यः--अज्याचा० प्रहारित प्राहारित- त्रि० नुक्ते, तं० ॥ श्राहारत्वेन गृहीते, अनु० ॥ आहारयन्न आहर्तव्य श्रि० अन्ययायें स्वा० ३ वा. ॥ आहारमाण आहारयतु शि० अभ्यवहरति स्था० आचा० ॥ वा. श्राहारेसला श्राहारैषणा- स्त्री०अज्यवहार गवेषणायांवश १अ.। व्याहारोजचय- आहारोपचय- वि० भहारेणोपचयोग्य आहारोपचिते, आहारोपच्या देहा परीसदगुरा " - - आचा० 9 प्र. २ व. । आहारोचिप आहारोपचित० आहाररूपतया संचितेषु भ० १६ श. १ उ. 1 आढावणा-आजावना श्री उद्देशमाचे अपरिगणनायामपि। आहि-आधि-पुश्शारीरमानसपी काविशेषे पो० १५ चित्र. मनः पीकायां । न० १ श. १ ख । आहिंग-आहिएकक - पु० भ्रमणशीले गच्छनिर्गतसाधौ, मौ० इदानीमादिकान् प्रतिपादया ॥ उवएस वसा, दुविहा आहिंरुगा समासेणं । उवएसदेसदंसण, यूनाई हुंति एवएसा || ७ || रात्र एके उपदेशादिका अपरे अनुपदेशहरुका पवमेतत् द्विधा अरुका मुनितव्यास्तत्र उपदेसन्ति द्वारा मश: (देखणीत देशाधिपतिस सूत्रार्थी गृहीत्वा पति उपदेशहरुका अनुपदशेत्वमी नवंति (यूनाई हाँति परसा ) स्तूपादिगमनशीला अनुपदेशा हिमकाः औ ० । व्य० । आहिंकिका आहिय अन्य परिभ्रत्यर्थे संघा आरिक- आधिक्य न० सजातीयपरिणाम द्वा० ॥ श्रादिदेविय आधिदैविक न० सप्रदायादेश देतुके - यकराकसग्रहाद्यावेश डुः खादौ, स्था. ग० ॥ आहिनोतिय-आजिौतिक न० मनुष्यपद्मपतिमृगस सृपस्थावरनिमित्ते दुः खादौ, स्था० ना० ॥ आहिय-आख्यातत- त्रि० प्रतिपादिते कथिते । सूत्र० १ १ । स्था० अनु० । श्राख्यानकप्रतिबके, सू० प्र. । आविनविते, भावे क्तः श्रभिप्राय, छहमेगेसि श्राहियं । सूत्र० ॥ ध्रु० अ आहित- त्रि० प्रवचन ऋषिनापितादौ श्रात्मनि वा व्यवस्थिते सूत्र. । व्यवस्थापिते, स्या. ४ वा. । निवेशिते, जं० । ढौकि ते, अनुष्ठिते । सूत्र० । प्रयोगविश्रसाभ्यां स्वकर्मपरिणत्या बा जनिते । श्राचा० । समताकिते च सूत्र० ॥ आहियग्मि प्राहितानि पु०हतापसादिह्मणे, दश.. ब. अपनचितायां स्थापितवन्तस्तेन कार 'नाहिताग्नयः । श्र० म० प्र. ॥ आहीर - - आहियसिसन प्रातिविशेष-१० शेषरुपचचना या शिष्टोत्पादन मतिविशेषतायां |रा| सत्यवचनातिशये । सम आहीर आजीर - पु० गाचारिप्रधाने देशनेदे । प ( आभीरंदश अचत्रपुरासन्ने कृष्णवेणानद्योर्मध्ये Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२ ० १ ०१ अधिगतः कर्माधिपाल प्रज्ञा प्राहु अभिधानराजेन्दः। आहिय द्वीपः। कल्प. अहिर तिख्याते शूद्रजातीये, सत्र.१७.१ अ.॥ आहेण- न० विवाहोत्तर वधूप्रवेशे वरगृहे क्रियमाणे नोजने । आहु-आहोतृ-त्रि० दातरि, । शा. १ अ. । औ०॥ आहुणिज्ज-आहवनीय-त्रि० सम्प्रदानभूते का०१ अ.। औ०॥ आहेबच्च-आधिपत्य-न० । अधिपतेः कर्माधिपत्यम्-रकाथम पाहणजमाण-आधयमान-त्रि०कम्पमाने विद्रवमुपागते.। ०। कल्पा साजाप्रका० । आ० म०प्र० IEO का० एअ.। औ०॥ ।वि० । स्वामितायाम् । स्था० ए ग. । तदाश्रितलोकेन्यः आहुणिय-आधुनिक-पु. अष्टाशीतेमहाग्रहाणां पंचमे, । दो। आधिक्येन तेष्ववस्थायित्वे, श्री०॥ आहुणिया,स्था०२ ग.। कल्प० । ०। सू०प्र०॥ | आहेवण-आक्षेपण-न० पुरकोनादिकरणे,प्रश्न०३ वा.॥ आहूय-आहूत-त्रि०कृताव्हाने, वाच० अ. ज.। आहोहिय-प्राधोऽवधिक:- पु०-नियतकेत्रयित्वेविषयाव आइय-अन्य उपादायेत्यर्थे, (कम्माहूय जंच ) कर्मा- | धिज्ञानिनि ॥ न.७ श. ७ न. । स. प्रज्ञा.। दूय ॥ श्राचा आजोगिकः- पु०-आलोग उपयोगः स प्रयोजनं यस्य तदा आहेन-प्राधातु-अव्य० प्राधानं कर्तुमित्यर्थे । सूत्र०, १श्रु. ए.। भोगिकम् उपयोगप्रधाने, कल्प०॥ COCON eGolgalcovebal000000000000000000000000coloomatoolcalcalcalcalcokalselselcololcalcolsalcololoocelcole 朱朱朱朱朱伟未米米米米米米张伟未未未未刑法兴未未牛牛米卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡朱米米米米去法米米米 - इति श्रीमहत्सौधर्मातपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञ श्रीमनद्वारक-जैन श्वेताम्बराचार्य १०० श्री श्रीविजय-राजेन्प्रसूरिविरचिते अनिधानराजेन्छे “आकारादि शब्दसङ्कलनम्” ॥ समाप्तम् ॥ ********************************************************* goooryoneryoneayedyoooojaayenyeareryonyooooooooyengage.yoryesyoryesyaayegyaayegyeyesyeGReseajesyaayesyouye န်း ၊ ခ န်း နှင့် ဒန် မှ န် ခ န ခ ခ ခင်ခ ခ ခ က နေ နေ အ - မ ဒန်ခ ရီး အ ခ င် ခန်းမ အန် ခန် ဖန်၊ ခန်း AM Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. अर्हम् । अभिधानराजेन्द्रः । ( इकार ) इ-इ- पु. अस्य विष्णोरपत्यम् श्र. श्ञ् कामदेवे, गायत्री । एका० । स हि रुक्मियां विष्णोरंशात् कृष्णात् जातः । तत्कथा च यथा-रुक्मिण्यां वासुदेवाच्च, अदम्यां कामो धृतव्रतः । शम्ब रान्तकरो जके, प्रद्युम्नः कामदर्शनः । हरि० १६३ अ. । एवं न्युत्यतिमत्वेन कामदेवस्यैवार्थानामित्रापस्येति बहवः। कामदेवदेवत्याच अमित्राचे श्रीपचारिक इत्यन्ये वाचण करपे, सायके, सधैं, सरसीरुहकेसरे । शक्रचापे, पाणे कमायाम् रचनायाम, होगी पद्मदले हाने गती च । एका०| नञर्थकस्य अ इत्यस्येदम् अश्ञ् । दे ३ सरो बोती, ४ निराकरणे, ५ अनुकम्पायाम्, ६ गये, 9 विस्मये, निन्दायाम् सम्बोधने च । अव्य० चादि । निपातैकाच् कत्वात् अस्य प्रगृह्यसंज्ञा तेन इन्द्र इत्यादी न सन्धिः। वाच० वायाकारे च वहि निपातः पादपूरचाय प्रयुज्यते "डी वा जुवा" शब्दो निपाताद्वारार्थ इति । औप० । [झा० १ ० ।" उसने ६ वा पढमराया इवा, पढमनिक्खा रेवा, पढमजिणे वा पढमतिव्थंकरे " क. सू० । इकारः सर्वत्र वाक्यालंकारे इति वृत्तिः । कल्प. ( सुप्तंमि याद में पुण अत्यतो निसटेड ) व्य० पादपूर इतिवृतिः व्य. ५ च ॥ तथा चाह वररुचिः स्वप्राकृत लकणे 1 इजेरापादपूरणे इति” आ. म. वि. 'वह ई भणिया पुरिसजाया" । व्य. सू. । ६ इति पादपूरणे इति वचनात् सानुस्वारता प्राकृतत्वात् । प्राकृते हि पदान्ते सानुस्वारता भवतीति । व्य०१ उ. । ६-६ गती न्यादि० स० पनि प्रयाति देवी श्याय यतुः For येथ आयन् । ई इति प्रश्लेषात् श्रयं च धातुः कटी गतौ इत्यत्र बन्धः । सि० कौ० । वाचः ॥ इ ( क् ) । इक् स्मरणे इति वचनादिति भ० १ ० २ ० अधिपूर्वक एव तु किरणमा विशे पार्थम् | अदादि० पर० सक० अनिट् अध्येति अध्येषीत् । घाय० ॥ इ (ङ) ङ अध्ययने “श्ङ् अध्ययने इति वचनादिीत" भ० १ ० १ ० ॥ अध्ययने अधिपूर्व एव ङित अदा० आत्म० सक० अनिट् अघी अधीयीत अभ्यैष्ट । वाच० । इ ( ण् ) इण् गतौ “इण् गताविति वचनादिति भ० १ श. १ उ. ॥ ति भेदार्थम् अदा० पर. सक. अनिदूति इतः यन्ति श्यात् हि पेत् श्रायत् अगात् । वाच० ॥ इ (व) -श्व- - त्रि० पति गच्छति ६ किए गत्वरे, व्याकरणो 0 इइ ( ति.) के प्रक्रियाकामोच्चारिते स्थापिनि वर्णने लिए सिप इत्यादी पकारादि ॥ वाच० ॥ (स) - इ० किए। १ कर्मणि कि इष्यमाणे २०३ अ ते अन्तकर्मणि ि ४ पचणीये, - गतौ भावे किप् । ५ यात्रायाम, स्त्री० वाच० इ (ति) इति-अव्य० १"गई एय" इति शब्द आद्यर्थस्तथ गईदियका "त्यादि द्वारकापेऽवधिय शर्त । विशे० श्यताप्रदर्शने माने याच० (सम्मति ) इति शब्दः इयत्ता प्रद दर्शनार्थः पते क्षुधादयः सम्यक्त्वान्ता धार्विशतिरिति न न्यूनाधिकाः परिषदा भवन्तीति । प्रव० ८४ द्वा. । उपदर्शने "मया जसदेव या "इ संयोगादिति शब्दो अव्यः स चोपप्रदर्शने इति वृत्तिः । ज्ञा० १ ० । " इति चोदित परंतु ते सप्तायो य सणे इति,, । नि. तू. ३ उ. ॥ औप । स्था० वा० ३ । सूत्र० २ ० ४ अ । विशे.।" इश्वेवं संवच्चरियं धेरकप्पं इति रूपप्रदर्शने तं पूर्वोपदर्शितसांवत्सरिकंस्यविरकल्पमिति वृत्तिः । कल्प० । नि० चू. ४ उ । “असोगवणे वा " प्रतिशब्द उपदर्शने अनुस्वारः संधिप्रकृतत्वादिति भ० १ श. १ उ. । औप० । प्रश्न० । गच्ा ।" इति भो इति नोति ते श्रम किचाएं। करथिनाएं पच्च पुग्भवमाणा विहरति " ( इति भोति) एतत् कार्यमस्ति भोशब्दश्चामन्त्रणे शर्त । ज०३ श. १. ॥ " उल्लेखे" इतिशब्द उल्लेखार्थ इति । र० ।" तर णं से पावर देवे तस्स णं दीवस्स जालवि माणस्स तो बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं विवब्वर से जहा नाम गिरे वा "इत्यादि इति शब्द उपमानृतवस्तुपरिसमातियोतक इति प्रा. म. प्र० सर्वेऽपिवस्वोपमान्तवस्तुसमा विद्योतक इति "तत्य जे ते किल्हा मणीतणा य तेसि णं भयमेया रुवेवा वासे पसले तंजा से जहा णामपजीमूते वा "इत्यादि सूत्रं इतिशब्द उपमानृतवस्तुनामपरिसमातियोतक प्रति जं० ॥ raari, ser इतिशब्द एवकारार्थे दटुव इति निश्च०२० ॥ "अवा. इतिसदो एवार्थे" नि० ० १५॥ एवं प्रकारार्थे, उक्तप्रकारेणेत्यर्थे, पो० प्र० १० । “महभयं दुःख ति येमि " ॥ इतिशब्द एवमर्थ, एवमहं ब्रवीमीत्यर्थः । आचा ६ अ० । श्रमुना प्रकारेणेत्यर्थे । सूत्र. २ श्र० ५ अ० । “मिच्छा पावयणेति य इत्येवं प्रकारे" स्था० वा० ॥ पूर्वप्रान्तपरामर्श इतिकम्मं परिधाय इति पूर्व प्रकान्तपरामर्शक इति । आचा० २ भ० ६ ० ॥ उचियं काय, सन्वत्य सया गरेण बुमिना । इति शब्दा ॐ० | राय Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५८) अभिधानराजेन्धः। इंखिणिया. इ फसासिकी णियमा, एस च्चिय होइ आणत्ति ॥ परित्यागादश्रुतार्थस्य कल्पनात् । प्राप्तस्य बाधादित्येवं परिइत्यनेनोचितकरणेन फमसिकिरिति वृत्तिः । पंचा०६ वृ० संख्या त्रिदोषिका , मीमांसकाः । तत्र हेतौ श्तीय धारामबघश विजामसंचरे" श्तीत्येवंरूपां विद्यां सम्यग ज्ञानपालन धीर्य,, । नैष । “इति स्म सा कारुतरेण मेखितं" नैष । रूपामन्विति सकीकृत्य संचरेत् सम्यक् संयमाऽध्वनि यायादि प्रकारे, "इति मदमदनाज्यां रागिणः स्पष्टरागाः "माघ० प्र ति सूत्रार्थ इति ॥ उत्त०१२ ॥ इति संखाए" इतिरूपप्रद काशार्थे, “इतिहरि" श्त्यादौ अव्ययी। इदमर्थे, धिरोधिसिशेन, इत्येतत्पूर्वोक्तनीत्योचावचस्थानोत्पादादिकामति वृत्तिः द्धमितिकर्तुमुद्यतं । प्रकरणे , शति कृत्यमिति कर्तव्यम् ति आचा०१०३ 3०1"थिरसंघयणं तिकट्टतं अणुप्पविसामि" वृत्तम् । वाच० ॥ण गती नावे तिन्। आव० गती; संथा। ति कृत्वा इति हेतोस्तदनु प्रविशामीति वृत्तिः । न० १५ चेष्टायाम् । श्राव० । झाने, वाचा प्रवृत्तौ, च स्त्री स्था. छा० । श.१० " अधारणिज्जमितिकट्ट तुरए निगिबह" इति कृत्वा शति हतारित्यर्थः । न०१३श०७७० । समाप्तौ, झा०५ | इ (ति) कह-तिकथ-त्रि० शत श्त्यं कथा यस्य । अर्थअ०। परिसमाप्तिप्रदर्शने, " से हु मुखी परिमाय कम्मति शून्यवाक्यप्रयोक्तरि, अभयवचने, । वाच। बेमि " इतिशब्द पताथानयमात्मपदार्थविचारः कर्मबन्ध | इ (ति) कायन्वया-इतिकर्तव्यता-स्त्री० इत्येवं रूपा कर्तहेतुविचारच सकसोद्देशकेन परिसमापित शति प्रदर्शका म्यामां नावः कर्तव्यता। आचा ०१०१० सूत्र। सम । विपा० । वाक्यस ... सर्वत्रानाकुलता, यतिनावाव्ययपरा समासेन । माती, इति शमो पाक्यसमाप्त्यर्थ इति । विशे० । यथा- कालादिग्रहणविधो, क्रियेति कर्तव्यता गवति ॥ "गिहत्यधम्मामो चुकति " ग । दर्श० । वाक्यार्थसमाप्ती इत्युक्तलक्षणायां क्रियायाम, इति कर्तव्यता माह (सर्वपंचा० । यया-" से ही संजयोत्ति" शत शब्दो व्यव त्यादि) सर्वत्र सर्वस्मिन्मनाकुसता निराकुलता प्रत्वरा यते स्थितवाक्यार्थपरिसमाप्ती, प्रभ० सं० घा० ४ ॥ अधिका विः सामायिकरूपस्तस्याऽव्ययपराव्ययानावनिष्ठाऽनाकु रपरिसमाप्तियोतके, यथा" से केणटेणं नंते। एवं ३ मरहे | सता वायतिनावाव्ययपरा न किंचितिभावान् प्येत्यपगच्च वासे” |१इति सूत्रेण नामार्थ प्रच्चतो गौतमस्य प्रति तीति कृत्वा तयोच्यते विशेष्यत्वात् क्रियाभिसंबध्यते समासेन वचनाय "तथण विणीपाए रायहाणीए भरहे णाम राया संपेणकालादिग्रहणविधी कालस्वाध्यायादिग्रहणविधिषि चामरंतचकवट्ठी समुप्पञ्जित्था" इत्यादिसूवर्नरतचरित्रं प्रप षया क्रिया चेष्टा स्वशारुप्रसिका इतिकर्तध्यता भवति श्चितं तच परिसमाप्तमित्यर्थः । जं०। स्वरूपपरामर्श, अस्माके इत्येवं रूपा कर्तव्यानां नावः कर्तव्यतोच्यते पो०३ विव० । तोरित्यर्थे,-उत्त। शश (ति) ह-इतिह-अव्य० इति एवं ह किब म्हः। उप जाणाहिमे जायण जीविणोत्ति, सेसावसेसंबजोतवस्सी। देशपरंपरायाम, ययाऽत्र वटे यक इत्युपदेशपरंपरैव न तु जानीतावगच्छत ( मेत्ति) सूत्रत्वात् मां (जायजीविणोत्ति) केनापि दृष्ट्वा तथा कवितमिति तस्य प्रसिछिमात्रता इति याचनेन जीवन प्राणधारणमस्येति याचनजीवनं पार्षत्वादि- होचवृकाः : सि० को. वाच. कारः पठ्यते च" जायणजीविणोत्ति" इतिशब्दः स्वरूप (तिहास-इतिहास-पु. इतिह पारम्परयोपदेश प्रास्ते परामर्शकस्तत एवं स्वरूपं यतश्चैवमतो महामपि ददश्व ऽस्मिन् । पास आधार घा-६ त. वाच. पुराणे,- (इतिहास मिति भावः । कदाचित्कृष्टमेवासौ वावत इति तेषामाशयः पत्रमाणे ) इतिहासः पुराण पंचमो येषां ते तथेति । कल्प० । स्यावत भाह । अथवा जानीत मा याचनजीवितं याचनेन इतिहासः पुराणमुच्यते इति । औप० । पुरुषस्य द्वासप्ततिकजीवनशीनत्वात् हितीयार्थे षष्ठी। पागन्तरे तु प्रथमा । सान्तर्गते कलाविशेषे, कल्प. " धर्मार्थकाममोकाणामुपश्तीत्यस्माकेतोः किमित्याह-शेषा विशेषमुद्धरितस्याप्युरू- देशसमन्वितम् ॥ पूर्ववृत्तकयायुक्तमितिहासं प्रचकते " ।। रितमन्तः प्राप्तमित्यर्थः । अभतां प्रानोतु तपस्वी यतिराको उक्तबकाये पुरावृत्तप्रकाशके भारतादिग्रंथे, ॥धाच। वा । उत्त० १२ अ०॥ इओ(तो) (दो) (एत्तो) इतस्-अव्य० इदम्-तसिन् शादेशः जामिएगे इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थे, स्था० ३ ग०॥ "तो दो तसो पा" प्रा०।२।१६०ति प्राकृतसूत्रेण तो दो प्रकाशने , निदर्शने , प्रकारे , अनुकर्षे , प्रकरणे, स्वरूपे , इत्यादेशौ वैकल्पिकौ । पंचाशके। एसो इति । अस्मादित्यर्थे, सानिध्ये, विवक्कानियमे, मते, प्रत्यक्के, व्यवस्थायाम, परामर्श, वाच० (श्मओ चुतेसु दुइमदुपुमां ) इतः स्थानाच्युतो जन्मा माने, प्रकर्षे, उपक्रमे च । तत्र स्वरूपयोतकता विधा ॥ न्तरं गत इति । सूत्र. १ श्रु. १० अ०॥ (श्म आउखए चुया) " शब्दस्वरूपद्योतकता प्रातिपदिकार्य घोतकता वाक्यार्थ- श्तो मनुष्यजन्मनः सकाशादायुः नये मरणे सति च्युता इति द्योतकताचेति तत्र शब्दस्वरूपद्योतकत्वे तोगेन प्रथमा प्रश्न. १ द्वा० । (एत्तोऽणाभोगमि विपरमवणिज्जो श्मो होइ) "वीरेति मग नाम यस्य वाचि प्रवर्तते" ॥ “प्रत एव पतोचि श्तोऽस्मादाझारुचित्वात प्रज्ञापनीयो नवतीति योगः गवित्याह , नूसत्तायमितीहशमिति” भर्तृहरिः ॥ प्रातिप- पंचा० ३ वृ. ॥श्तः स दैत्यः प्राप्तधीत एवाईति क्षयम् । दिकार्थद्योतफत्वे प्रयमा । "क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः"। “श्तो निषीदेति विसृष्ट चूमिः" ।कुमा.। प्रयुक्तमप्य त्रमितो ( श्त्यादौ ) माघ । बदन्त्यपणात च तां पुराविदः । कृथा स्यात" रघुः । वाच । कुमारसम्नः । वाक्यार्थद्योतकत्वेन प्रयमा । निपातेना-| इखिणिया-इंखिणिका-स्त्री०परनिन्दायाम् । “अबु इंखिणिया निहिते प्रातिपदिकार्थे एव प्रथमाविधानात् । वाक्यस्य उपाविया" इंखिणिया परनिंदा तु शब्दस्यैवकारार्थत्वात् च शक्त्या सक्कणया वा एकार्थबोधकत्याभावेन प्रातिपदि- पापिकैव दोषवत्येव अथवा स्वस्थानावधमस्थाने पातिकेति कत्वानावात् ॥ सत्तायामितीदृशं" भर्तृ० । “भ्रतार्थस्य वृत्तिः। सूत्र०१६०५०। Jain. Education International Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईखिणी इंखिणिका हि कर्णमूले घंटिकां चानयन्ति ततो यक्काः खध्चागम्य तास कर्णेषु किमपि पतिं कथयतीयुक मिसिक विशेष (इथियारूयं वा पुच्छा) इति प्रा० म०प्र० । नि. चू. इंखिणी सीखी० अम्यनिन्दायाम ( अह सेयरी ॥ सिसिणी ) अथाऽनंतरमसी अधेयस्करी पापकारिणी इंखिणीति निन्दा अन्येषामतो न कार्येति वृत्तिः । सूत्र० १० २ अ० ॥ 3 इंग-इ-५० गिनाये पत्र १ बने २ कम्पने, ३ शङ्किते च कर्तरि भन्न् अङ्गमे त्वया सृष्टमिदं सर्वे यधेनेति भा. व० अद्भुते, च । वाच० ॥ इंगाल-अङ्गार - पु . विगतधूमज्वाले दह्यमाने इन्धनादिके, उत्त. ३६ अ. | अंगार इत्येतत् प्रकरणे एवंविधाः शब्दाः । इंगालकम्प - अङ्गारकर्मन् न० अंगारकरणपूर्वकस्तक्रिय एवं यदन्यदपि वह्निसमारम्भपूर्वकं जीवानामिष्टकादिपाकरूपं तदङ्गारकर्म तस्मिन् ॥ उपा. अ. १ ॥ इंगिअ ( प ) इति न० प्रा० गिनाये का ह गतनाचावे, पाच निपुणमतिगम्ये प्रवृत्तिनिवृतिसूचके ( ५५९ ) अभिधानराजेन्द्रः । 1 शिरःकंवा धाकारे पेशाधिपे उतरे। "इंगि अतिय परिययविषाणिया-" उस. २०१६ङ्गितेन नयनादि चेष्टाविशेषेण चिन्तितं परेश हृदि स्थापितं प्रार्थितं चाऽनिल षितं च जानन्ति वास्तथा तान्निरिति वृत्तिः । दशा । "आलोश यं इंगियमेव पच्चा, जो बंदमाराहरू एस पुजो " । दश. ९३. न भगोपांगादिमनात्मके स्वाधिकार के विशेष च ( न जंपियं इंगियपेहियं वा - इंगितमङ्गोपाङ्गादिमोटनं स्वचित्तविकारसूचकं तच स्त्रीणां न साधुना रागेण द्रष्टव्य मिति । उत्त । इंग अज्ज - इंगिनड़-पु० "हां" पाद. २.०३ इति सू अस्य या नयनादिविशेष ध्या० । इंगप्रभु - इंगित - पु० नयनादिचेष्टा विशेष, प्रा० ध्या० । इंगम (प) मरण- गितमरण-१० गिले प्रदेशे मरणगितमरणम, मरणविशेषे, तक्तन्यता इंगिसी मरणशब्दे । ग. । पंचा. । दश. । इंगिणी - इंगिनी स्त्री० पते प्रतिनियतदेशस्याम नानक्रियायामिती दिनी चिहिते यातिद्विशिष्ट यावत्कयिकानशनतपानंदे, न्र । ध. ३ अधि । उत्त । सम । इंगिणी मरण- इंगिनीरा- २० ले प्रतिनियतदेश प यस्यामनशनमिति निविहितः क्रिया विशेषस्तद्विशिष्टमनशनमिंगिनी तथा मरमिङ्गिनी मरणम् । सम. १७ स. । तदुपलक्षितं वा मरणमिङ्गिनीमरणम् ॥ ध. ३ अधि. । उत्त ५० । प्रव. । पतिमरल विशेषे । तकि चतुर्विधाहारस्य प्रत्याख्यातुर्निप्पत्तिकर्मशरीरस्येतिदेशाज्यंतरवर्तिन एवेति । सम. १७ स । तवकणं चेदम् ॥ 'मिस हाहारचायनि 66 जसं, नन्त्रेण इंगिणी मरणं " ॥ २१ ॥ स्या २ ग० ॥ अत्र नियमाच्चतुर्विधादारचितिः परपरिकर्मविध स्वयं पुनरिंगित देशाऽभ्यंतरे उद्वर्त्तनादिशत्मकं परिकर्म यथासमाधि विदधाति । प्रच. द्वा० दश । संया० ॥ इंगिणी भरण धर्मसंग्रहेऽपि "इंगिनी मरणं चेश, बतामाहारवर्जनात् ॥ " आहार वर्जनात्सव हारपरित्यागात् चतुविधाहारपरित्यागेनेत्वर्थः । इंगिनी मरणमुक्त देशयतां परिमितासहि तानां सर्वाहारत्यागाद्भवति । अयं ज्ञावः । अस्य प्रतिपत्त्या तेनैव क्रमेणायुषः परिहाणिमपवृज्य तादृशसंद्ननाना पाल्पा दीपगमनकर्तुमशका स्लोककानजीवितानुसारेण संच कृत्वा प्रव्रज्याकालादारज्य च विकटनां दत्वा चतुर्विधाहारं नियमात्प्रत्याख्याति । तथाविधे एव च स्थाएिकले एकाकी यात उष्णं उष्णतश्च वायां संक्रामभितींगितदेशे सचेष्टः सम्यग्ध्यानपरायणः प्राणान् जहाति । अयं च परकृत परिकर्मरहितः स्वयं तत् करोति । ध. ३ अधि. । अथ परितोऽस्थान को विशेष इत्याह । अयप्परपमिकम्मं, जत्तपरिभा य अणुमाता । परवज्जियाय इंगिण विहाहार विरई या ।। प्रक्तपरिज्ञायां द्वे अपरिज्ञाते तद्यथा आत्मना स्वयं परिकर्म्म परेण च इंगिनी पुनः परवर्जिता परस्तत्र परिकर्म न कार्यते । तथा नक्तपरिज्ञायां चतुर्विधस्य त्रिविधस्याहारस्य विरतिर्भवति इंगिन्यां तु नियमाच्चतुर्विधाहारविरतिः । परपरिकर्मविवर्द्धनमेव भावयति । ठगणं निसीयतुवा इतरियाई जहा समाहीए। सयमेव यसो कुचि, उपसम्परी सहाय अहियासे ॥ संघयण धिती जुत्तो, नवदसपुच्छा सुए अंगा वा । इंगियातोवगमं, नीहारी वा अनीहारी ।। स्थानं उर्ध्वस्थानं निषीदनमुपवेशनं च त्वम्वर्तनं शयनं पतानि त्रास यथासमाधि स्वयमेव नतु परतः कारयति । तथा दिव्यादीन् उपसर्गान कुचादिपरिसहां सम्यगध्यास्ते सहते । तथाहि चतुर्विधादात्या ख्यानासस्य पानकमपि जवति । नाप्यपवादतश्चरमाहारदानमिति । तथा संहननेन त्रयाणामाद्यानामन्यतमेन धृत्या च युक्तस्तथा श्रुतेन सूत्रतो यस्य पूर्वाणि नवदश वा केवलानि अंगानि । स इनिनमरणं प्रतिपद्यते । व्य० द्वि० १० उ० । निशचूर्णी तु । जाय वो णिच्छिन्ति ताव ऐयन्वं पंचधान बेचणं इंगि णांमरणं परणओ भयं यावचं परोन कडे विपमा चाहारचिरई परितो भागीदार अह गच्छे तो नीहारिमं पढमविश्यसंघवी परिवज्जद जेण श्रहीय एवमपुचस्स तश्यं आयारवत्युं पक्कारसंगी वा परिचितियामा सम्पादि उपाि हियासे । नि० ० ११ ३० । 1 गिनीमयमा । पाद कार्ड, नेप जाय होयोच्छिनी । पंच तुझेण तवो इंगिणिमरां परिणओत ॥ यदि शिष्यारोः अर्थमन यतं या संगस्य परिपूरि तीर्थस्याव्यवच्छेदः कृतः तत श्राह । तावज्ञातव्यं यावद्भवति व्यवच्वित्तिः तत्पर्यतं कृत्वा पंचतपः तंत्र सश्चैकत्वबललकपानि तोलयित्वा स इंगिनी मरणं परिणतः प्रतिपन्नो नवति । व्य० १० उ० ॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) अभिधानराजेन्द्रः । इंगियार संपण ( अस्य सविचाराविचारत्वसपरिकर्माऽपरिकर्मत्वनिहरित्वानिहरित्वानि मरणशब्दे । ) ( अस्य परिमतमरणेषु मध्यमत्वं परिमयमरण शब्दे ) । गिनी मरणं विशिष्टतरप्रति संयतामेव भवतीति मियमरणशब्दे । इंगिनी मरण चाणक्यः प्रतिपन्नस्तद्यथा ॥ पानिपुमि पुरे, चाराको नाम विस्तु प्रासी । सव्वारंज निवतो, इंगिनी मरणं ग्रह निवतो || पाटलीपुत्रे पुरे वाक्यनामा मन्त्री विश्रुतः स्यात मासीत् सर्वारम्भनिवृत्तः त्यक्तसर्व राज्यव्यापारः इंगिक मरणं इंगित - प्रदेशाद्वहिर्निर्गमरूपं मरणमथ निवृत्तः सुप्तः प्रास्त ततः गोबाट इंगिनी मरणं प्रतिपद्य तस्मिन्कर गिनीमरणेन व्यवस्थितः । इदम् । इंगियदेसंमि सर्व चहाहारवाय निष्पनं । अप्यमिकम्मे नियमा प्रभेण व इंगिणीमरणं ॥ चाणक्यस्थ रंगिनी मरणे नवितं न पुमरंगमी मरणमेव यतः भावकाणां पाचपोपगमेगिनी मरण निषेधः । यदाह । " सव्वावि य अजाउ, सग्वे वि य पढमसंघयथा । सज्ये वि देसरिया, परचक्खा मरति " इति । संथा० । इंगिनी मरणविधानम् यथा । इंगिणिमरण विहाणं, आएवज्जं तु विभ्रमणं दाश्रो संझेणं च काश्रो, जहासमाही जहाकालं ॥ इंगितमरण] विधानमेतदवश्यमेव प्रयाकानाकटनां कृत्वा संलेखनां च कृत्वा ययासमाधि जन्यतो भाव तध यया कानमिति गाथार्थः । " पथक आहारं च नियम गुरुसमी इंसिंमि तहा, चिहं पि हु इंगि कुलाइ ॥ प्रत्याख्यात्याहारमरानादिचतुर्विधं नियमान्तान् त्रिविधं गुरु समीपे गितदेशे तथा परिमिते चेष्टामपीगित करोतीति गायार्थः । छब्वत्तः परिअत्तर, काइमाई होइ विजासाउ | किमपि अप्प णसि, अलं जड़ नियमेण धित्रले त ॥ कायिकादि नयति विभाषा प्रकृतिमा स्मसात्करोति वा न वा कृत्यमप्यात्मनैव युंक्ते । उपाधिप्रत्यु पेणादिनियमेन प्रतिषधी स भगवानिति गाथार्थः। पं. व ०२ द्वा । ( इङ्गितमरणवक्तव्यता मरणशब्दे वयते । ) इंगियागारसंपा - इंगिताकारसंप्रज्ञ - पु० इंगितं निपुणमतिगम्य प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचक मिन्दु शिरःकंपादि आकारःस्यू अधीसंवेद्यः प्रस्थानादिगनादिः नयो ईन्द्रे इंगिताकारौ सम्यक् प्रकर्षेण जानातीति इङ्गिता कारसंग्रहः। इताकार प्रकर्षेण हारिस १० इंगिताकारसंपन्न - पु० गिताकाराज्यां संपन्न युक्तः गिताकार संपन्नः । इंगिताकाराज्यां युक्ते. उत्त. १ भ० । इंगियागार से वीवीरसि दुरदर” गिताकारीताय योग गुरुगती सम्यक प्रकर्षेणजानाति इंगिताकारसंग्रहः । या इंगिताकाराज्यां गुरुनावपरिज्ञानमेव कारणे काय पचा इन्द. रार्दितिकारशब्देनोकं तेन संप युक्तः स इत्युक्तविशेषणान्वितो विनीतो विनयान्वित इति सूत्रपरामर्शेनोच्यते । तीर्थकृपधरादिभिरिति गम्यते । उत्त. १ अ० । इंगुई इंगुदी श्री, वनस्पतिविशेषे, तत्फलेन तैविधानतीति । आचा० अ० उ० ॥ इंतयत्-त्रि. गच्छति (इंसस्स पच्युगच्छागच्छत गौरस्याऽनिमुख गमनमिति भ० । श. १४ उ. ३ ॥ । इंद - इन्द्र- पु० इन्दतीतीन्द्रः । अनु० । इदि परमैश्वर्ये इति धात्यनुसारादिन्दनादिन्द्र आत्मा । सर्वद्रव्योपलब्धिसर्वोपनोगरुपपरमैवयोगात् आत्मनि (ये) नं. १.० म० । स्था. । । इन्दो जीवो सोवनविजोगपरमेसरत्तए इदिपरमैश्वर्थे इन्दनात्परमैश्वर्य्ययोगादिन्द्रो जीवः । परमैवर्यमस्य कुत इत्याह (सध्या ) इत्यादि भावरणाभावे सर्व स्यापि वस्तुन उपसंभानानानावेषु सर्वस्यापि त्रिजगतस्य वस्तुनः परिभोगाच्च परमेश्वरो जीव इति तस्य परमैश्वम् विशे० । इन्दनादिन्द्रः परमैश्वर्य्ययुक्त इत्यर्थः एवं नूतेन चार्थेन युक्तमिदं नाम । परमार्थत स्त्रिदशाधिपे एव वर्तते तस्य तात्विकपरमैश्वर्ययुकत्वात् । प्रा० म० प्र० । अनु० ॥ इन्द्रः शक्रः पुरन्दरः । सूत्र० २ ० ७ अ० । अष्ट० । राज० सहस्राक्षः । प्रति इति पर्यायाः परमेोगादिनी परमे भवरे) स्था. ग० ४ । महति च। स्था. ४ ठा० । ऐश्वर्यान्विते त्रि. भूपमात्रे उपमितसमासे उत्तरपदस्थः श्रेष्ठत्वतमन्द्रः वारणेन्द्र इत्यादि । वाच० । इन्द्रशब्दस्य निक्षेप स्थानाङ्गे दर्शितो यथा. तो इन्दा पहाचा जहा नामिन्दे उपशिंदे ददे ।। (तम्रो इत्यादि) व्याख्या साच सुरेच नवरं । नामेन्द्रः । कुरा इन्दनादिन्द्रः नाम संज्ञा तदेव यथार्थ ममिन्द्रो नामेन्द्रः अथवा सचेतनस्याचेतनस्य वा यस्येन्द्र इत्ययथार्थ नाम क्रियते स नामनामवतोरजेदोपचारात् नाम यासाविन्द्रश्चेति नामेन्द्रः । अथवा नाम्नवेन्द्र इति इन्द्रार्थ हून्यत्वान्नामेन्द्र इति । नाम कर्ण पुनरियम । " यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षं ॥ पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्चिकं च तथा " ।। १ ।। इति अयमर्थः यद्वत्यादिना ययार्थवित मित्यादिना त्वयथार्थ गोपानादावित्यादि पाकमनयेकं मध्यादीति । अथवा यदिन्दनाद्यर्थनिरपे गोपालाद वस्तुन इत्यादिकमभिधानमययातथा शादान्य स्थित तामेति । इन्द्रादयस्तुना निधानमिन्दनानिरासादावन्यायें स्थितं तन्नामति स्था ३ ग० ॥ अनाजिरपायकपा, सत्ता चेवणमचेवणे वाचि । उणादीनिरविक्खा केवलसताल नामिदो ॥ चेतनेऽचेतने वा द्रव्ये या आत्माभिप्रायेण स्वेच्छया इन्द्र प्रतिसाद स्वाद बाह स्थापनादीनां स्थापनाइन्यभाषादीनां निरपेक्षा । किमुक्त Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्डः । नवति । यत्र स्थापनादीनामेकमपि नास्ति किन्तु केवना योगो द्रव्यमिति वचनात् । अयमेवार्थो मङ्गनमाश्रित्य भाष्ये एका संझा तदर्थनिरपेका स नामेन्छः । उक्तं नामन्त्रक लक्तस्तथाहि "आगमनोवडत्तो, मंगासहाणुवालिप्रोवत्ता। णम् । वृ.१ उ.॥ तन्नाणसरिजुत्तो, विणोवत्तोत्ति नो दव्वंति" तथा नो आगस्थापनेन्द्रमाह ।। मतस्त्रिविधो कन्येन्स्त द्यया शरीरजग्येन्झो जग्यशरीरतथा इन्द्रावलिप्रायेण स्याप्यत इति स्थापना सेप्यादिकर्म व्येनो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो अव्येन्मश्चेति ॥ तत्र सैवेधः स्थापनेन्द्रः । इप्रतिमा साकारस्यापनेन्द्र कस्य शरीरं शरीरंकशरीरमेव द्रव्येन्द्रःशरीरव्येन्द्रः पत अादिन्यासस्त्वितर ति । स्थापनासकणमिदम् । यच्च मुक्तं जवति। इन्धपदार्यज्ञस्य यसरीरमात्मरहितं तदतीतकातदर्थवियुक्तं, तदभिप्रायेण यच्च तत्करणम् । सेप्यादिकर्म सानुभूततद्भावानुवृत्या सिहशिनातनादिगतमपि घृतघटातत्स्थापनेति क्रियतेऽष्पकारश्चति ॥ १ ॥ तया "सेपगढ़ दिन्यायेन नो आगमतो कन्येन्द्र ति । ज्ञानशून्यत्वाच्च त्थी हस्थित्ति एस, समाविमा नवे व्वणा । हो असम्नावो तस्पेह सर्वनिषेध एव नोशब्दार्यः । तया नव्या योग्य इन्शपुण,हत्यित्ति निरागिई अक्लोत्ति” ॥२॥ ॥ स्था. ३ म०। ब्दार्थ ज्ञास्यति योनतावद्विजानाति सभव्यः शति तस्य शरीर. अधुना स्थापनेन्द्रलकणमाह ॥ म्नव्यशरीरंतदेव जव्येन्द्रोभव्यशरीरद्रव्येन्द्रः अयमत्र नावार्थों सन्नावमसनाचे, उवणा पुण इंदकेन माश्या । नाविनों वृत्तिमङ्गीकृत्येन्डोपयोगाधारत्वान्मधुघटादिन्यायेनैव इत्तरमणित्तरा वा, ग्वणा नामं तु आवकह। तद्वाझादिशरीरं भव्यशरीररुच्यन्द्र इति नो शब्दः पूर्ववत् । स्थापना स्थापनेमा पुनस्तावेऽसद्भावे च इन्केत्यादि सकञ्चमङ्गनमधिकृत्य "मंगापयत्थजाणय, देहोभब्वस्स वा स जीवो वि । नो आगमओ दव्वं, आगमरहिमोत्ति जंभणियं का इन्द्रकेतुप्रभृतिको द्रष्टव्यः। अत्रादिशब्दादिन्द्रप्रतिमा ति" इशरोरजन्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्येन्द्रो नविन्द्वकार्येष्वकवराटकादिपरिग्रहः । श्यमत्र भावना । या इन्द्र ति व्यापृत आगमतोऽनुपयुक्तव्येन्जयत् । तया यसरीरस्थापना अकवराटकादिवसद्भावेन या चन्द्रकेविन्द्रप्रति मात्मव्यं वातीतनावपरिणामन्तश्चोभयातरिक्तव्येन्को मादिषु सद्भावतःस स्थापनेन्जः। श्ह नामस्थापनयोः कः प्रति विशेष ख्यते (इतर इत्यादि) स्थापना इत्वराच जवति इशरीरव्येन्द्रवत् । तथा यो जावेन्द्रपर्यायशरीरयोग्यः यावहूज्यनाविनी अयावद्व्यनाविनी चेत्यर्थः । नाम पुन पुरुराशियच भावीपर्यायमात्मन्यं तदप्युनयातिरिक्तो नियमात यावत्कथिकं यावद्व्यभावीपष प्रतिविशेषः। वृ.१०.॥ व्येन्ः भव्य रद्रव्येन्द्रवत् । सचावस्याभेदेन त्रिविध. संप्रति नामेन्छस्थापनेन्छयोः प्रकारान्तरेण स्तद्यया एकजविको बहायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्चति । तत्रप्रतिविशेष-मभिधित्सुराह । कस्मिन् नवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भावेजतयोत्पत्स्यते इति स चोत्कर्षतस्त्रीणिपल्योपजह उवणिदो वुच्चइ, अाग्नहत्थी हितहननामिन्दो। मानि जवन्ति देवकुर्वादिमिघुनकस्य नवनपत्यादीन्छतयोत्पएसे व दबनावे, पूयायुतिन्नछिनाणत्तं । १।। त्तिसंजवादिति । तया स एवेन्मायुबन्धानन्तरं बद्धमायुरनेने. यया स्थापनेन्द्रः अनुग्रह एवार्थोऽनुग्रहार्थः स येषामस्ति अ ति बहायुरुच्यते । स चोत्कर्षतः पूर्वकोटिविनागं यावदस्मा नुग्रहार्थिनस्तैर्वाणनिःस्तूयते पुपादिभिरय॑ते चनतया नामे त्परतःआयुष्कन्धाभावात् । तथा अभिमुखे सम्मुखे जवन्द्रो माणवकस्ततो महान् नामेन्स्थापनेन्द्रयोः प्रतिविशेषः । योत्कर्षाच्या समयांतर्मुहूर्तानन्तर नावितया नामगोत्रे इन्द्रएवमेव अनेनैव प्रकारेण द्रव्येन्छे भावन्द्रे च पूजास्तुतिन सम्बन्धिनी यस्य स तथा । तया भावैश्वर्ययुक्ततीर्यकरादि. धिनिनानात्वमवसातम्यम् तद्यया । द्रव्येन्द्रोऽपि नामेन्द्र जावेन्द्रापेक्रयाऽप्रधानत्वाच्छादिरपि रुप्यन्दू एष दूज्यशश्वानुग्रहार्थिभिःन स्तूयते नापि पूज्यते यस्तु भावेन्द्रः स ब्दस्याप्रधानार्थेऽपि प्रवृत्तेः ।। स्था० ग०३॥ स्थापनेन्द्र श्व स्तूयते पूज्यते च ततो व्यन्नावन्दूयोरपि ॥ ध्येन्दुलकण माह ।। महान् प्रतिविशेषः । अन्यञ्च दुव्येन्द्र इन्द्रसब्धिहीनो यस्तु दव्वं पुण तसछी, जस्सातीता नविस्सते वा वि। भावन्द्रः स तसब्धिसंपन्नस्तथाहि स सामानिकत्रायस्त्रिंश जीवो वि अणुवउत्तो, इंदस्स गुणे परिकहेइ ।। कादिपरिवृतो विशिष्टद्युतिमान् स्फीतं राज्यमनुभवति उपयोगचिन्तायामपि भावेन्द्र उपयोगाधिमान् दूध्येन्द्र उप दूज्य व्यविषयः पुनरिन्द्रीयस्स तवन्धिरिन्द्र सन्धिरतीता योगवन्या परित्यक्त ति वृ. १ न.॥ भविष्यति स च प्रतिपत्तव्यः । किमुक्तं भवति । यस्सर्वमि नृत्वं प्राप्तो यश्च प्राप्स्यति स यथाक्रम नृतभावत्वाद्भाविव्यन्द्रमा ।। भावत्वाच्च दृव्यन्द्रः । नक्तं च । "नूतस्य भाविनोबा, भावतथा द्रवति गति तांस्तान्प-यान्दूयते वा तैस्तैः पर्या स्य हि कारणं तु यलोके । तद्रव्यं तत्त्वज्ञा, सचेतनाचेतनं कस्यैो सत्ताया अवयवो विकारो वा वर्णादिगुणानां काव थितम्" यो वापि इन्द्रस्य गुणान् परस्मै परिकययति परमस्समूह इति द्रव्यम् । तश्च भूतभावं भाविभावं चेति माह नुपयुक्तः सोपि दूट्येन्द्रः अनुपयोगी व्यमिति वचनात् च “दवए दूयते दोरव, यवो विगारो गुणाणसंदावो॥ वृ० १०॥ उक्तोदव्येन्द्रः ।। दव्वं जव्वं नावस्स नूय नावं च जं जोग्गत्ति । तथा “नूत नावेन्द्रमाह । स्य नाविनो वा नावस्य हि कारण तु यहाके । तद्व्यं तत्त्वहः भावेन्द्रस्त्विह त्रिस्थानकानुरोधानोक्तस्तचक्कणं चेदम्नावसचेतनाचेतनं गदितम्" ।।१।। तया अनुपयोगो ऽव्यमप्रधा. मिन्दन क्रियानुजवन अक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्रः इन्दनपरिणानश्चेति तत्र व्यं चासाविन्द्रश्चेति अन्यन्तः ॥ स्था० ३ ॥ मेन नवतीति वा स चासाविन्द्रश्चोत नावन्डोयदाह "जाबो सच किंधा । अागमतो नो आगमतश्च । तत्रागमतः ख- विवक्तितक्रिया-तुनूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वरिल्दाल्यागममधिकृत्य कानापेक्षयेत्ययः । नो आगमतस्तु तद्विपर्य- दिव-दिहेंदनादिक्रियानुन्नवात् ॥१॥ सच विधा आगमतो यमाश्रित्य तत्रागमत इन्शब्दोऽध्येताऽनुपयुक्तो व्येन्द्रोऽनुप । नो आगमतश्च तत्रागमत इन्द्रज्ञानोपयुक्तो जीवोनावन्द्रः कथ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद (५६२) अभिधानराजेन्द्रः | 1 मिहेन्द्र/पयोगमात्रात्तन्मयतावगम्यते । नह्यग्निज्ञानोपयुक्तो मानवकोऽभिरे दहनपचनाशनाचकियासाधकावा भावादिति वनानिप्रायापरिज्ञानात् निमगमो भाव इत्यनर्थान्तरं । तत्रार्थानिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया इति सर्ववादिनामविसंवादस्थानं यया कोऽयंघटः किमयमाह घटशब्दं किमस्य ज्ञानं घर इति अग्निरिति च यज्ञज्ञानं तदूव्य तिरिका ज्ञाता तो गृहाते अन्यथा ज्ञाने नोपसज्येताऽतन्मयत्वात् प्रदीप हस्तान्धवत् पुरुषान्तरया । नवानाकारं तत्पदान्तरवद्विवचितं पदार्थपरिच्छेदप्रसंगात् बन्धाद्यभावश्च ज्ञानाऽज्ञानसुख दुः परिणामान्यत्वादाकाशव वनः सर्ववदनाकियाको स्मा भादिति प्रसंन मो आगमाभावेन्द्र नामगोत्रे कर्मणी देव परमेाजनं सर्वनिषेध वन स्वादस्य वतस्तत्र नेन्द्रपदार्थज्ञानमिदन्यपदेशनिबन्धनतया विवक्तिमिन्दनक्रियाया एव च विवचितत्वात् । अथवा तयाविधज्ञान क्रियारूपो यः परिणामः स नागम एव केवलो न चानागम इत्यतो मिश्रवचनत्वान्नशब्दस्य नो आगमत ६ त्याख्यायत इति । नतु नामस्थापनाद्रव्येष्विन्द्रानिधानं विवकितना शून्यया यत्यं च समानं वर्तते तक व विशेषः आहच " अजिदाणं दव्यतं, तदत्यसुत्तत्तणं च तुल्लाई। को भाववज्जियाणं नामाईणं परविसेसोति " ॥ १ ॥ अयोध्यते यया हि स्थापनेन्द्रः खलु इन्द्राकारो यते तपा कर्तुः सद्यूतेन्द्राभिप्रायेो भवति तथा दृष्टुस्तदाकारदर्शना दिन्द्रप्रत्ययस्तथा प्रणतिकृत धियश्च फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्तन्ते, फलं च प्राप्नुवन्ति । केचिद्देवतानुग्रहान्न तथा नामद्रव्येन्द्रयोरिति तस्मात्स्थापनायास्तावदित्थं भेद इति । आह च "आगारा निष्पाम्रो, बुझक्की या फलं च पारण जह दीसर वन्दे न तहा नामिन्द दव्विन्दे प्ति,, । यया च द्रव्येन्द्रोजावेन्द्र कारणतां प्रतिपद्यते तथोपयोगापेक्कायामपि तडुपयोगतामात्यवाप्तवांश्च न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं वि शेष इति । आह च जास्त कारणं जह, द जावो य तस्स पज्जाओ । उव प्रोगपरिणमश्ओ न तदा नाम न वा वयन्ति " | स्था० ३ ० ॥ 6 अत्र पर आई ॥ न हि जो धर्म विद्याण, सोपी व नो य वा अग्गी। नाणत्तिय जावोति य, एगडमतो अदोसोति ॥ १ ॥ न हि यो घटं विजानाति स घटी जवति यस्य वा निविज्ञानं सो प्रत्यके विरोधात् ततो 'मिन्दस्वाहिगारं वि जाणमाणो तवन्तो इति, तन्मिथ्या । अत्र सूरिराह । ज्ञान मिति भाव इति वा च शब्दादध्यवसाय इति उपयोग इति वा एकार्थमतोऽदोषः । श्यमत्र भावना । श्रर्थाभिधानप्रत्ययास्तुव्यनामधेयास्याहि घटोऽपि बाह्य पयते घटशब्दपिपानमपि पट इति ज्ञानं घटकाम्यपि पटयुच्यते किन्यपि अनिरित्यदोषः ॥ एतदेव भावयति ॥ जमिदं नाणं इन्दो तथ्यतिरिति तय ताणी ॥ म्हातारं वयंति जो जो ॥ १ ॥ यदिदमिन्द्र इति ज्ञानं तस्मात्तज्ञानी पानी व्यतिि व्यते तस्माद्वा तस्य तादाद इंद त्यो बदन्ति ज्ञानकानिनोरतेट एवं कथं सिद्ध इति पच्यते विषसंगात् ॥ तमेवाह ॥ चेrगस्स उ जीवा, जीवस्स उ चेयणा उ अन्नत्ति । दस्यिं स्वर्ण व विश्न न य बन्धमोवा ॥ चैतन्यस्य जीवा जीवस्य चेतनाया अन्यत्वे सव्यं जीवरूव्य मकणं चेतनाबकणो जीव इति लक्कणरहितं नयेत् । खेतनाया घटादिवज्जीयादध्ये कान्तव्यतिरिक्तत्वाल्लक नावे च लक्ष्यस्याऽप्यनाव इति खरगवदत्यन्तमसन् जीवोऽप्यत्य न्तमसन् स न बध्यते बन्धस्य वस्तुधर्मत्वान्नापि मुच्यते बन्धानावादिति बन्धमोकावपि न स्यातामय मन्येया अचेतनोऽपि संबध्यते मुच्यते चेति तदप्ययुक्तमचेतनानामप्येवंधर्मास्तिकार्यादीन बन्धमस्तस्मात्साधक मिशा जा नन् तदुपयुक्तोजावेन्द्र इति । वृ० १ ० ॥ उक्ता नामस्थाप नाइज्येन्द्राः । इदानीं भावेन्द्र त्रिस्थानकावतारेणाह । तो इंदा पातंजा णाशिन्दे दंसणिदे चरितेन्दे । ( ओदेत्यादि - ) कंठ्यं नवरं ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः परमेश्वरो हानेन्द्र तरङ्गानयाविष चितवस्तुविशरः केवली वा एवं दर्शनेन्द्रः कायिकसम्यग्दर्शनी चारित्रेन्द्रो ययाख्यातचारित्रः एतेषां च भावेन सकनावप्रधान कायिक लक्षणेन विवक्तिक्कायोपशमिकलकणेन या जातः परमार्थतो हत्या ससंसार्यप्राप्तपूर्वगुणअक्ष्मी अकृणपरमेश्वरा भावेन्द्राय सेयेति । भा जो पुरा महत्व तो, सुकाणं तु एस नाविन्दो । इन्दस्य व अहिगार, विषाणमाणो बहतो ॥१॥ यः पुनर्वयार्थेन बचावस्थितेन मन परमेश् शद परमैश्वर्य इति वचनात् साक्षादिन्द्रनामगोत्राणि कर्माणि वेदयमान इत्यर्थः सं भावेन्द्रः । एष शुरूनयानां शब्दादीनां यथावस्थितायेादकायां वर्तमानविषयकाणां संमत न शेषनामेादिः । अथवा इन्द्रस्य इन्द्रशब्दस्याधिकारमयै जानन् तदुपयुकस्तस्मिन्शिब्दार्थ उपयुक्त मावेन्द्रः प योगो भावनिकेप इति वचनात् ॥ उक्तमाध्यात्मिकैश्वर्य्यापेकया जावेन्द्रविभ्यम् । अथवा तदेवाद इन्दा पाता जहा देविंदे अस्मि । तं तो त्यादि भावितार्थवरं देवा वैमानिका ज्योतिष्क वैमानिक वा रूढेः । असुरा जवनपतिविशेषा भवनपतिध्यंतरा वा सुरपर्युदासात् मनुजेन्द्रचक्रवर्त्यादिरिति ॥ स्था० ३ ठा० ॥ तेन्ा स्थानानुपशास्त्र देवेन्द्रा यथा । दो असुर कुमारिंदा पातंजहा चमरे चेर बसी चैत्र दो नागकुमारिंदा पत्ता तंजहा घरणे चैव याणंदे चैव । दो सुकुमारिंदा पत्ता तंजहा वेणुदेवे चैव वेणुदासी | दो विकुमारिंदा पं० तं हरिमेव हरिस्सडे | दो कुमारिंदा पं० तं० रिंगसिद्धे चैव प्ररिंग मावे चैव । दो दीवकुमारिंदा पं० तं पुन्ने चेत्र बसि Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भनिधानराजेन्द्रः । हे चव । दो उदधिकुमारिंदा पं० २० जसकते चव जल __ सौधर्मादिकल्पम्फा यथा ॥ प्पने चेव । दो दिसाकुमारिंदा पं० त० अमियगई चेव सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं० त० सके चेव अमियवाहणे चेव । दो बाउकुमारिंदा पं० त० वेझंवे चेव ईसाणे चेव एवं सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु दो कंदा पं० पनंजणे चेन । दो थणियकुमारिंदा पं० तं० घोसे चेव तं. सणंकुमारे चेव माहिंदे चेव । बनसोयमंतगे दो महाघोसे चेव । इंदा पं० २० बजे चेव संतए चेव महासुक सहस्सारेसु (दोभसुरेत्यादि ) अच्चुएचेवेत्येतवन्तं सूत्रं सुगमम् । णं कप्पेसु दो इंदा पं०० महामुक्के व सहस्सारे चेव नवरं असुरादीनां दशानां नवनपतिनिकायानां मेपेकया प्राणय-पाणया-रण-चुतमु णं कप्पेस दो इंदा पं० २० दक्षिणोत्तरदिग्याश्रितत्वेन द्विविधत्वादिशतिरिन्बास्तत्र चमरो दाक्षिणात्यो बली त्वौदीच्य श्त्येवं सर्वत्र स्था॥ पाणए चेव अच्चुए चेव ॥ ग०॥ सौधर्मादि कल्पानान्तु वशेन्द्राः स्था०२ ग० ॥ अंतिम ____एतेषां सङ्ग्रहो यथा ॥ देवलोक चतुष्टय इन्वय सावादितिन०३झ०९३०॥ "चमरे १ धरणेश् तह वे गुदेव ३ हरिकंतश्रगिसीहे य५।। इत्येवं सर्वेऽपिचतुः षष्ठिरिति 'देवास्तव'प्रकीर्णके व सर्वे पुम्मे ६ जसकते वि य, ७ अमिय विलंबे य ए घोसेय"। इन्द्रा गाथया प्रदर्शिता स्तथा । १०॥ एते दक्षिणनिकायेन्द्रा इतरे तु “बलि १ तूयाणंदे बत्तीसा देविंदा, जस्स गुणेहिं उवहम्मिया गयं । २ वेणुदालि ३ हरिस्सहे४ अगिमाणव ५ बसिरे ६ नो तस्स वि यच्छेयं, पायच्चायं नु वेहामो ॥६॥ जसप्पभे ७ अमियवाहणे पहंजणे एमहाघोसे"॥न.टी.। ३ श०१०। बत्तीसं देविंदत्ति, जणियमित्तं निसापि यं जणा। व्यंतरेन्डा यथा। अंतरजासं ताहे, को होमा को वहोणं ॥७॥ दो पिसायदा पं० त० काले चेव महाकाले चेव ।। कयरे ते बत्तीसं, देविंदा को व कत्थ परिवसइ । दो जूयइंदा पं० २० सूरूवे चेव पमिरुवे चेव । दो ज केवइया कस्स ईि, को जवणपरिग्गहो तस्स ॥७॥ किंवदा पं० तंग पुमान चेव माणिजद्दे चेव । दो र केवड्या च विमाणा, जवणा नगरा च हुंति केवइया । क्रवसिंदा पं० तं नीमे चेव महाजीमे चेव । दो कि पुढवीण य बाहुखं, उच्चत्तविमाणवनो वा॥ ए॥ बरिंदा पं० २० किमरे चेव किंपुरिसे चेत्र । दो कि कारंत व कालेण, नक्कोसं मज्झिमजहनं । पुरिसिंदा पं० २० सप्पुरिसे चेत्र महापुरिसे चेव । .. उस्सासो निस्सासो, ओही विसोव को केसि ॥१०॥ दो यहोरगिंदापं तं० अइकाये चेब महाकाये चेव । विणय नवयार उपहंमि,या श्हास वसमुव्वहंतीए। दो गंधम्बिदापं० त० गीयरई चेवगीयजसे चेव । स्था। एवं व्यतराणामष्टनिकायानां विगुणत्वात पोमशेन्द्रास्थाग परिपुच्चि न पियाए, जणसु अणु तं निसामेह ॥११॥ ग०॥ पतेषु च प्रतिनिकायं दक्षिणोत्तरभेदेन बौद्वाविन्द्री सुअणाणसागरात्रो,सुविणं उपमिपुच्छणाइपं सफ। स्याताम् । पुण वागरणावनिअं, नामा वलिया इंदाणं ॥१॥ अणपत्रिकायादीनां व्यंतरविशेष वाणज्यन्तरनिकायाना मुणु वागरणावलि, रयणं वयणं सियंच वीरोहिं। मिन्डा बथा। तारावमिन्न धवलं, हियएण पसमचित्तेणं ॥ १३ ॥ दो प्रणपनिंदा पं० त० संनिहिए चेव समाणेचेव । दोपणपनिंदा पं० त० धाए चेव विधाये चेव । दो सिवा रयणप्पनाई कुम निकुम, वासीसु तणु तेउमेसागा। इंदा पं० २० सिञ्चेव इसिवाने चेव । दो ज्यवाय वीसं विकसियणयणा, जवणवई मे निसामेह ॥१४॥ इंदा पं0 तं० ईसरे चेव महेसरे चेव । दो कंदिदा पं० दो जवणवई इंदा, चमरे वइरोअण असुराणं । तं० मुवत्थे चेत्र विसाले चेत्र दो महाकदिदा पं० तं० दो नाग कुमारिंदा, नूयाणंदे य धरणे य ॥ १५॥ हासे चेव हासरई चेव । दो कुंजरंदा पं० २० सेए चेव दो सुयणु सुवणिंदा, वेणुदेवेय वेणुदालिंदा। महासेए चेव ।। दो पयगिंदापं०० पए चैव पयगवईचेव।। दो दीवकुमारिंदा, पुग्ने य तहा वसिढे य ॥ १६ ॥ भणपत्रिकायादीनामप्यष्टानामेवण्यंतरविशेषनिकायानाद्विगु दो उदहिकुमारिंदा, जबकतें जसप्पने य नामेणं । णत्वात् पोमशति । स्था०५०॥ अमियगइ अभियवाहण, दिसाकुमाराण दो इंदा ॥१७॥ ___ ज्योतिष्कदेवानामिन्द्रा यथा ॥ दो वा उ कुमारिंदा, वेनंब पनंजणा य नामेणं । जोसियाणं देवाणं दो इंदा पं० त० चंदे वेव दो थणिय कुमारिंदा, घासे य तहा महाघोसे ॥ १० ॥ सूरे चेव ॥ दो विज्जुकुमारिंदा, हरिकंत हरिस्सहे य नामेणं । ज्योतिष्काणां त्वसंख्यातचम्छ सूर्यत्वे विजातिमात्राश्रय- अग्गिसिह अग्गिमाणव, हयासणवइ विदो इंदा ॥१॥ पादावेव चन्छसूर्याख्याबिनकायुक्ती ॥ स्था०२ ग० ॥ । एए विकसियनयणे दस, दिसीविय सिय जसा मए कहिया। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनिधानराजेन्डः। इंदगोवगा मुण वाणमंतराणं जवणवई आणुपुबीए ॥ ६॥ रके, (तत्कथा सामाश्य शब्दे ) अष्टव्याकरणान्तर्गते व्याकरण पिसाय नूअ जक्खा य, रक्खसा किनरा य किंपुरिसा। विशेषे, श्राव. ५ अ. ॥ कुटजवृके रात्री, च धरणिः । नारत वर्षीय छीपनेवे, शब्द मा दो ग्रंथ प्रसिके,पएमात्रा प्रस्ता यहोरगा य गंधव्या, अविहा वाणमंतरा ॥ ६ ॥ वे, आद्यन्तगुरुच्येन अधुद्वयमध्येन युते चतुर्थे नेदे, इन्द्रधारुएए हिन समासेणं, कमिया ने वाणमंतरा देवा । एयाम् स्त्री०टाप् ॥ वाच॥ पत्तेयं पियबुच्छं सोझस इंदे माहक्लिए ।। ६५ ॥ ऐन्छ-त्रि०इन्द्रस्येदम् इन्जसम्बन्धिनि, (ऐई धाम हदि काले य महाकाले, सुरूव पनिरूव पुष जद्देय । स्मृत्वा) ऐन्छ मिति । दिपरमैश्वर्ये शति धात्वनुसारादिअमरवई माणनदे, जीमे य तहा महानीमे ॥ ७० ॥ । न्द्र आत्मा तस्य सम्बन्धि ऐ धामेति । नयो । इंदकंत-इन्धकान्त- न० विमानविशेषे सम० १५ स०॥ किनर किंपुरिसे खबु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । इंदका (गा) श्य-इन्धकायिक-पु० श्रीन्द्रियसंसारसमापअईकाय महाकाए, गीयरई चेव गीयजसे ।। ७१ ॥ पजीवविशेषे, प्रज्ञा १ पद। जी(वोधव्वा इंदगाईका) ममिहिए सामाणे, धाए विधाये इसीय इसिवाए। उत्त० ३६ अाकायिका इत्यपिकुवाचिद्धोकप्रसिका स्त्रीन्द्रिइस्सर महिस्सरेया हवइ सुबत्थे विसालेय ॥ ७॥ याः । उत्त०टी०॥ हासे हासरई वि अ सेए अतहा नवे महासेए । इंदकील-इन्कील-पुं० गोपुरावयवविशेषे । औप०। (गोमेकपयए पययवई, विय नेयवा आणुपुब्बिए । ७३ ॥ मयाशंदकीमा) संपाटितकपाटद्वयाधारभूतः प्रवेशमध्यन्नाग इति । राज० । गोपुरकपाटयुगसंनिवेशस्थानमिति ।न० ३ अप्पलिया उ तारा, नरकत्ता खड्बु तो महलिए । श०१ २०। जंग। इन्स्य कील श्व अत्युश्चत्वात् मन्दरपर्वते नक्खते हिं तु गहा गहेहिं सूरा तर चंदा। ए६ ॥ इन्स्य की श्व इन्द्रध्वजे । न वाच॥ कप्पवई विय बुच्छ, बारस इंदे महिक्लिए ॥ ६४ ॥ दकुंजर-इधकुञ्जर-पु० ६ त० ऐरावते, तस्यामृतमन्थन पदमो सोहम्मवई, ईमाणवइए सवामिओबीओ। कासे इन्द्रेण गृहीतत्वात् तथात्वम् यथाह "श्वेतैर्दन्तश्चतुर्भितत्तो सणकुमारो, हवइ चनत्थोन माहिंदो ॥ ६५ ॥ स्तु, महाकायस्ततः परम् । ऐरावतो महानागोजवतजभृतापंचमए बमिंदो, गहो पुण संत जलदविंदो । धृतः ॥ जा आ० । इन्गजशक्रगजादयोऽप्यत्र । वाच॥ सत्तम श्री महसुक्को, अहमउजवे सहस्सारी ॥६६॥ | इंदकुंज-इन्धकुम्म-पु० कुम्नानामिन्छः इन्जकुम्लो राजदन्ता नवमो अ प्राणतिंदो, दसमो पुणपाणतेंददे विंदो। विदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः । महाकाशे, राजा महि दकुंभसवाणा ) कुम्भाना मिन्द्र कुभो महाँश्वासाधिआरण इकारसमो, वारसमो अच्नुए इंदो ।। ६७ ॥ दकुंजश्च तस्य समाना महन्दकुंजसमाना महाकलशप्रमाएए पारस इंदा, कप्पवई कप्पसामिया जाणिया ॥ णा तिजं०१प्र०ाजीराजावीतशोकाया राजधान्या उत्तर प्राणाईसरियं वा तेण परं नत्थि देवाणं । ६ ०५० पूर्व दिग्जागस्थिते उद्याने, (तीसेण बीयसोगाए रायहाणीए इकाणां भवनस्थित्यादिवक्तव्यता तत्तच्चव्वे ॥ उत्तर पुरछिम दिसीभाप इंदकुत्रणाम नजाणेशति, का० ए अनीकानि तदधिपतयश्चाऽशीक शब्चे। भ. । नेमिजिनस्य प्रथम शिष्ये, चासम०२४ स.। अप्रमहिन्यो ऽगमाहिसी शब्द ।। इंदकुमारिया-इन्द्रकुमारिका-स्त्री. स्वनाम ख्यातायां योषि उत्पातपर्वता चप्पायपव्वय शदे कल्पेन्शा कप्प शदेऽपि॥ ति । प्रा. म १ अ.।। परिषदः परिजद-शब्द विमानानि बिमाण शब्बे॥ इंदकेउ-इन्छकेतु-पु० इन्द्रयष्टयाम, प्रश्न ४ हा० (सोईदकेलोकपाझा झोकपाल शब्द ।। उपासेत्ति लोकेण महिजतं ) इति आ. चू॥ सामानिकाः सामाणिय शब्दे ॥ काणामेकाऽवतारित्वाकावतारित्वादि-प्रश्नोत्तरमुखन प्रति इंदगोवग-इन्छगोपक-पुं०इन्गोपायतीति । नि० चू० । गोपो पादितं यथा । सम्प्रति ये इन्द्राः सति ते सर्वेऽप्येकातवा रक्तकोऽस्य वर्षानवत्वात्तस्य । वाच० । प्रयमप्रावृदकान रिणो नवेति प्रश्नः संप्रति ये इन्का: संति तेषां मध्ये केच भाविनि कीटविशेष, स हि प्रवृतःसन्नीषत्पाएमुरतो भवतीमैकावतारिणो मसर्ये इत्युत्तरमिति । हीर० । इमायतने, च ति।राज.।श्रा-म-प्रसप्रज्ञाकाहा.!आचागजी.( इंदगोवग समप्पनेसु ॥) इन्द्रगोपको वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च समा इंदस्स वा जावकोकिरियाए वा उवझेवण संम प्रभा येषां ते तथा तेषु रक्तेष्वित्यर्थः। झा.। अयश्च विकन्द्रिजणाव रिस्सणधूवपुप्फगंधमयादिबाई दवावस्सयाई यजीवविशेष प्रति-अनु. । स च संसारसमापन्नत्रीन्द्रियजीकरेंति ॥ विशेष शति-प्रशा० पद.१ । जी.। (इंदगोवमाझ्या णेगहा एवमाश्ओ) इन्द्रगोपादिकाःइन्दगोपको (ममोसा) इति प्रसिअत्रोपचारादिन्द्रादिशब्देन तदायतनमप्युच्यत इति--अनु. क एवमादिकास्त्रीन्द्रिया अनेकधा जीवा इति. उत्त३ अ. | टी. इन्द्र देवताके ज्येष्ठा नक्षत्रे, अधिष्ठातरि अधिष्ठेयस्यो पचारात्। वास्था०२ ग. अनु. जेहा श्वदेवयाए।शति चरिंदिय इंदगोवादि। नि० चू० १ ० । ज्यो०, । विष्कुम्भादिषु योगेषु षार्षिशे योगे, पाच इंदग्गह-इन्छग्रह-पुं० प्रहविशेषे । जी० ३.। कृष्णस्य शुक्मस्य च पकस्य पञ्चदशदिवसेषु स्वनामख्याते इंदग्गि-इन्धानि-पुं० द्वि०० इन्चाग्निश्च देवताबन्। सतमे दिवमे, कल्पगरमजीपुरस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिदा- । शान्योमिलितयोर्देवतयोगवाचाविशाखानकषाधिष्ठातरि Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६५) इंदचंदण अभिधानराजेन्द्रः । इंदाण देवे, अनु० । “दो रंदग्गी" अष्टाशीतिमहामहान्तर्गते सप्तत्रिं ताहे सो जणति । तस्स आकिति पेच्छामि । ताहे सक्को शत्तमे महाप्रहे चास्या०२ गाविसाहा दिग्गिदेवयाएइति । जणति जेण तुमं उत्तमपुरिसो तेण ते अहं दामि एग ज्यो । तदधिष्ठातृके विशाखानको च । अधिष्ठातर्यधिष्ठे यस्योपचारादिति । जं०७वका कल्प० । पदेस ताहे एगं अंगुलिं सव्वासंकारविनृसितं काऊण इंदचंदण-इन्छचन्दन-न-इन्डप्रियं चंदनम् शा०त. हरिच- दाएति सो तं दहणं अतीव हरिसं गतो । ताहे तस्स न्दने, वाच। अट्टाहियं महिमं करेति ताए अंगुलीए आकिति इंदचिनिमी-चिनिटी-स्त्री०-इम्स्यात्मनः प्रिया चि- काऊण पच्छा स इंदकया एवं वरिसे वरिसे इंदमहो जिंटी शान्ता सतानेदे, साच तुल्यवर्णकुसुमा पुष्पान्वित पव्वत्तो । पढम उसको जरहो जणति तुमं सि देविंदो मजरीका दीर्घवृन्ता युग्मफयान्विता कवी शीतवीर्या पित्त अहंमणुस्सिंदोमित्तामो एवं होनात्त । प्रा. चू१० अ.॥ कामनााशना बकुष्याचा राजानधनवाच। इंदवाण-इन्छस्थान-न-भवननगरविमानरूपे चमरादिसम्ब इंदजव-इन्ध्य व-न-पु०-इन्द्रस्य कुटजवृकस्य यथाकृतिबीज म्याश्रये, स्था०६ वा० ॥ तन्झोपपातविरहितकासो यथात्वात् यवश्व बीजम् । कुटजवक्तस्य यथाकारे तिकरसे स्वना इंदवाणे णं ते ! केवतियं कालं विरहिते नबवाते मण्याते वीजे,“ऐको यवत्रिदोषनः, संग्राही कटुशीतमः। ज्यरातिसाररक्तार्श:-क्रमिवीसर्पकुष्टनुत् ॥ दीपनो गुदकी णं पाते ? गो!जहोणं एक समयं उक्कोसणं उम्मासा मानवाताम्रश्लेष्मराजित् । नाव प्रावाच..। (दहाणेणमित्यादि) इजस्थानं नदन्त ! कियन्तं कासमुइंदजसा-न्धयशस्-स्त्री-पश्चिादेशस्यकांपिल्यनगरस्य पपातेन विरहितं प्रकप्तम् ! भगवानाह गौतम! जघन्यनैक प्रयनामकराको भार्यायाम, तस्य च चतस्रो भार्याः । “इंद समयं यावत् उत्कर्षतः षएमासान् । जी०३प्र०॥०॥ वसु १ दजसा १ श्दसिरी ३ चुचणीदेवी । य" । उत्त. स्थानाङ्गेपि। १३ भ०॥ एगमेगे णं इंदवाणे उकासेणं जम्मासे विरहिए उववाएवं ईदजान-इन्छजानन-वासप्ततिकमान्तर्गते कमाविशेषे,कल्प.। (एगेत्यादि) एकैकमिन्छस्थानं चमरादिसम्बनभ्यायो भवशम्शण कौशल्यायैश्वर्येण जान छुनेत्रावरणं यथास्थितवस्तु ननगरविमानरूपस्तऋत्कर्षेण षण्मासान् यावधिरहितमुपदर्शनाकमवसाधनात् । इन्द्रस्य परमेश्वरस्य जासं मायव वा पाते नेन्डापेक्वयेति । स्था.६ ग. ॥ इम्बोपपातावरहिते मन्त्रौषधादिना अन्यथास्थितस्य वस्तुनोऽन्यथास्वेन दर्शमसा सन्मस्थाने किंजवतीति जीवाभिगमे प्रतिपादितम् । तद्यथाधने (कुहक) ( वाजी) १ पदार्थे, २ मायारूपे जासे च। तेसि नंते ! जया देवाणं इंदे चयति से कहमिदाणी शण इन्द्ररुतेन योगविशेषेण जामें कुछोपायनेदे च । इन्द्र- पकरेंति ? गो!चत्तारि पंच सामाणिया तडाणं उपजाझंच अन्यविशेषसंयोगेन मद्धतषस्तुदर्शकम्यापारः (क्या- संपजित्ताणं विहरति नाव तत्थ अमे ईदे नवबसे मष्टरि ) इति प्रांगमनापाप्रसिकः । मन्त्रद्रव्य विशेषण जवति ॥ वस्तुनोऽन्यथाकरणच । वाच। पुनः प्रश्नयात (तेसिणं भंते इत्यादि) तेषां नदन्त ! ज्योति इंदजासि ( 1 ) इन्धजासिन्- त्रि०-पेपरचनादिस्वपरहा कदेवानां यदा इन्श्च्य वते तदा ते देवा श्वानी इन्डविरह सोत्पादके विस्मापके, स्था० ४ ग॥ . काझे कर्थ प्रकुवैति । भगवानाह । गौतम! यावचत्वारः पंच इंदजानिय-न्द्रजालिक-त्रि-इन्द्रजासं शिस्पतयास्त्यस्य वा सामानिका देवाः समुदितीय तत्स्थानमुपसंपच विहरउन् । इन्द्रजासकारके, । इन्द्रजालिकीत्यप्यत्र त्रियां की ति तदिन्कस्थानं परिपालयन्तीति चेदतमाह यावदन्यस्तत्र वाच । आ० मा विशे। शन्ड उपपनो नवति । जी. ३ प्र०॥ इंदज्य-न्मध्वज-पु०-इन्द्रत्वसूचको वा ध्वज इम्प्रध्वज एवं बाह्यज्योतिष्कदेवस्थानेऽपि तथाच सूर्यप्रकप्तौ । इति । प्रतिमहति ध्वजे, | प्रव०४० द्वा०॥ ता तेसिणं देवाणं जाव इंदे चयति से कथमिदार्णि " आगासगओ कुमिनी सहस्स परिमंमियानिरामो पकरेंति ता चत्तारिपंच सामाणियदेवा तहाणं अवसंइंदज्को पुरश्रो गच्च" ॥ पजित्ताणं विहरंति जाविंदा तत्योववामगा इत्थं इंदे उव ( भागासग मोति) प्राकाशगतोऽत्यये तुझमित्यर्थः (कुमि बोजवति ता इंदहाणे केवतियं कालं विरहिते उबवाते भित्ति) मधुपताका संजाव्यते । तत्सहस्त्रैः परिमएिकतश्चासावभिरामचातिरमणीय शति विग्रहः । (श्वज्योति) पामते ता जहमेणं एक समयं उक्कोसेणं उम्मासे ॥ शेषायजापेछयातिमहत्वात् इश्वासी ध्वजश्च इन्द्रध्वज (तातेसिपत्ति) ता इतिपूर्ववत् तेषां ज्योतिष्काणां देवानां शति । (पुरोत्ति ) जिनस्याप्रतो गब्धतीति दशमोऽतिश यदा इन्द्रश्यवते तदा ते देवा श्वानी इन्डविरहका कर्य यः । सम० ३४ स॥ प्रकुर्षन्ति भगवानाह ता इत्यादि पूर्ववत् चत्वारि पंच षा इंदकया-इन्छध्वजा-स्त्री-इन्दूसम्बन्धिम्यां तत्संतोषाय स्था- सामानिका देवाः समुदितीभूय तच्न्यमिन्द्रमुपसम्पथ विह रंति तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्तीति चेदत माह । यावदिन्द्रः पितायां ध्वजायाम, वाच । तत्पत्तिरावश्यकसूर्णी जरत. तत्रन्द्र उपपत्रो प्रवति (साद हाणणत्ति)ता शति पूर्ववत् कपामधिकृत्योक्ता यथा इन्द्रस्थान कियकाममुपपातेन विरहितं प्रकसं ? भगवानाह __ताहे सो सकं जणति नुजकेहि केरिमेण रूबेण तत्थ (ताश्त्यादि) जघन्येन पकं समयं यावत् उत्कर्षेण षएमासान्।। अत्यहति ताहे सको जाति ए सका नं मागासेणं दहुँ।। सूर्य०१५पा. ॥ इन्द्राणांप्रत्येक स्थानानि तत्तदेवस्थाननिरूप Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६) इंदणक्खत्त अभिधानराजेन्द्रः। इंददत्त. णावसरे (गण) शब्दे । इन्द्रयष्टिस्थापनाय कृते स्थाने च ॥ उसियपमागं नगरं कयं रंगो को तत्थ चकं तत्य एगजेणेव इन्दट्ठाणे तेणेव नवागए। मि अक्ख अटु वकाणि तेसिं पुरज धूया विया सा (दहाणेत्ति) यत्रेन्यष्टिरूपी क्रियत इति। अन्त ! पुण पुच्चिमि विधेयव्वा राया सन्नद्धो निम्गतो सहपुत्तहिं ता हे सा कन्ना सव्वालंकारनृसियाए मंमिया से प्रत्यक्ष इंदणक्खत्त-इन्धनत्र-म०-इन्स्वामिकं नक्षत्रम् । ज्येष्ठान सो रंगो रायाणय ते पत्तेयदंगनटभोयणा जारिसो दोवतीप कत्रे, तस्य तत्स्वामिकत्वात्तथात्वम् । इन्द्रनामकं नकत्रम् । ए तत्थ रनो जेटुपुत्तो सिरिमाबीनामकुमारो भणिओ एस फाल्गुनी नक्षत्रे च । वाच। दारिया रज्जं च नोत्तवं सो वि तुट्टो अहं नणं अहिंतो इंदणाग-इन्धनाग- पु०-वसंतपुरस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठि रातिहिं अब्भहिओ ताहे सो भणति विदहित्ति ताहे सो कुमारे, तेन च वासतपसा सामायिक बन्धमिति (सामाश्य) अकयकरणो तस्स समूहस्स मज्के तं धणु घेत्तुं चेष न वाते शब्दे । आ० म०वि०॥ किहविणेण गहियं तेण जंतो वव्वश्त्तो वञ्चनत्ति कर्म इंदणीस-इन्धनीब-पु०-इन्द्र श्व नीव श्यामः वाच । स्वर मुंमं तं जमां एवं कासश्णा अरयंवो बीणं कास दो तिन्नि वादरपृथिवीकायात्मके नीलरत्नविशेषरूपे मणिविशेष, उत्त० अनसिं वाहिरेण चेवणिति तेण वि अमञ्चेण सोणत्तगोणसा सत्र०२९०३५० । राजा जी । प्रज्ञा० । कस्प० । वित्रो तदिवसमाणिो तत्थ अत्थर ताहे गया श्रोहयमणसंकऔप०। (नीलम) इति ख्याते मरकतमणी, तल्लकणमुक्तं प्पो करयझपखत्यमहो अहो अयं बोयमके पुत्तेहिं धरिसिओरत्नपरीकायाम् । “ क्वीरमध्ये विपन्नीवं कीरञ्चन्त्रीसतां त्ति प्रत्यक्ष ताहे सो अमच्चो पुच्च किं तुज देवाणुपिया ओ बजेत् । इन्द्रनीन इति ख्यातं सर्वरत्नोत्तमोत्तमम्" वाच । हया जाव कायह ताहेसा जण पपहि अप्पहाणो कोताहे इंदतोया-इन्छतोया-स्त्री० इन्भमैश्वर्यान्वितं तोयमस्याः, इन्ण भण अत्थि पुत्तो अन्नो वि तुषं कहिं सुरिंददत्तो नाम कुमारो पूरितं तोयमस्या वा । गन्धमादनसमीपस्थे नदीनदे ॥ - तं सो विताव विनासेत ताहेतंराया पुच्च कहं मम परिसोतोयां समासाच गंधमादनसन्निधौ । भा.प०२४ चाच. ॥ पुत्तो ताहे ताणि सिट्ठाणि रहस्साणि ताहे राया तुटो जण इंददत्त-इन्छदत्त-पु० स्वनामख्यातेऽभिनंदनजिनस्य प्रथमनि- सेयं तवपुत्ता पते अदुवको नेतण रजसोक्खं नियुत्तिदारयं कादातरि, सम०५वस आ.म. वासुपूज्यजिनस्य पूर्वनव पावित्तए ताहे सो कुमारो गणं आबीद गश्य गेवर धनु केपतन्नामधेयेच। सम.२४स.॥ पुरनगरस्थे स्वनामख्याते सक्खानिमुहं सरं संधेश्ताणि तस्स रूवाणितेय कुमारा सव्व नृपे, तत्कया मानुष्यदुर्लनत्वे। तितिकायाम् शीले चसम्नवति ओरोमावेति अन्ने यदोनि पुरिसाअसिब्वम्महत्योताहे सोपणा श्रा.म. | प्रा.क. पा. चूछ। उत्त.। पं००। माव. । मरनो बकायस्स य करे सो वि से उवकाओ जयं दाए व्य. । विपा. । नि०चू. । इन्पुरं नगरं ददत्तो राया । पए दोन्नि पुरिसा जश फिमसि सीसं ते फिम तेर्सि दोन्नवि पुरिसाणं तेण चत्तारिते य वावीसं अगणतो ताणं अट्ठन्ह रह. इति । प्रा.चु.१०। इन्दपुरे ददते य । व्य.२ खं०६० चकाणं विंदाणि जाणिकण एगम्मि गिंदे नाऊण अफिम्याए इंदपुरइंददत्ते, वावीससुश्रा मुरिंददत्ते अ। दिट्ठिए तमि लक्खसेण अनमियमणं पाऊणमाणेण साधीतामहुराए जिसत्तू सयंवरो निब्बुई एव ॥ ए०॥ या अधिमिविकातत्य नटुसीहनादसाधुकारो दिनो एसादअस्य व्याख्या ॥ कथानकादवसेया। तच्चेदं । थपुर नगर पतितिक्खा एस चेव विनासानावे वि उपसंहारो।जहा कुमारो इंदवत्तो राया तस्स हाणं देवी सेवावीसं पुत्ता अपने प्रणंति तहा साह, जहा ते चत्तारि तहा चत्तारि कसाया, जहा ते वा एगाए देवीए ते सव्वे रनो पाणसमा प्रश्ना पक्का धृया अम- वीसं कुमारा तहा वावीसं परीसहा, जहा ते स्वे मणसा तहा च्चस्स साजंपरिणय तेण दिट्ठा सा अन्नया कयाइ न्हाया स रागदोसा,जहापुत्तलिगा विधेयव्वा तहा आराहणा,जहा निब्यु माणी प्रत्यक्ष ताहे रायाप.दिता का एसा तेहिं जणियं तुज्ऊ त्तिदारिया तहा सिद्धितितिक्खत्ति गयं ॥श्राव० ४ अ० । देवी ताहे सो ताए समं एकं रत्तिपुत्तो वेला जं च रायाए "आसीदिन्द्रपुरं नाम, नगरं गुरुकं गुणैः । उस्मवियं सत्तंकारो तेण तं पत्तए लिहियं सो य सार तत्राभवन्यिामिन्छ, इम्प्रदत्तो महीपतिः॥१॥ वेश नवन्हं मासाणं दारओ जाओ तस्स दारचेकाणि तद्दिवस प्रीतिपात्रः कलत्राणां, तस्य द्वाविंशतिः सुताः॥ जायाणि तं अग्गियो पव्वयत्रो वहुलिया सागरग तागि सह बभूवुमिपालस्य, प्राणज्योऽप्यतिववनाः॥॥ जायाणि तेण कमायरियस्स उवणीओ तेण नेहाश्याओ बाव अन्या नार्या जवत्तस्य, नूपस्यामात्यपुत्रिका ॥ सरिकमायो गहियान जाहे तारो गाहेश् श्रायरिश्रो ताहे ताणि सा च तेन परं दृष्टा, पाणिग्राहं प्रकुंवता ॥३॥ कटुति किं छिय पुठवपरिच्चपण ताणि रोति सो वि ताणि अथान्यदा कदाचित्सा, ऋता स्नाता विलोकिता। न गणेश गहियाम्रो कामोते अन्ने गाहिज्जति बावीस पि कु राझा पृष्ठाश्च पाश्वेस्था, यथेषा कस्य का च भोः॥४॥ मारा जस्स ते अप्पिज्जति आयरियस्त तं पिट्टति मत्थपहि ते ऊचुदेव देवी ते, ततो राजा तया सह ॥ य हणति अह नवजाओ ते पिट्ट अपढ़ते ताहे सहेति मा. रात्रिमेकामुवासाथ, तस्या गोऽजवत्तदा ॥ ५ ॥ इमिस्सिगाणं ताहे ताओ नणंति । किं सुप्रभाणि पुत्तजम्मा सा च पूर्वममात्येन, नाणिताऽऽसीद्यदा तव ॥ णि ताहे न सिक्खियाश्यमहुराय जितसत्तुराया तस्स सुया गर्भो नृतो नवेगळे, तदा त्वं मे निवेदयेः ॥ ६॥ नियुश्नाम कन्नगा सा अनंकियपन्नावणीया राया जण ततः सा गर्नसंभूति, राजसंवासवासरं ॥ जो ते रोयसो ते जत्ता ताहे ताए नायं जो सूरो वीरो वकतो मुहूत राजजल्पं च पितुः सर्व न्यवेदयन ।।७।। सा पुण रज्ज वेज्जा ताहे सा तं बनवाहणं गहाय गया पंदपुर सत्यकाराय तत्सवे, व्यदिखत्सोऽपि पत्रके ॥ नगरं रायसपुता बहवे अहवा यो पयटुिल ताहे आवाहिया । सम्यक् तां पाबयामास, काले बाजनि दारकः ॥७॥ सम्वे रयाणो ताहे तेण रायाणएण सुयं जहासाप, हट्टतुट्ठा - तहिने दासरूपाणि, ययुश्चत्वारि तद्गृहे ।। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंददत्त अभिधानराजन्नः । इंदपुर अग्निकः पर्वतश्चाय, बहुलीसागरस्तथा ॥७॥ श्रावस्तीवास्तव्ये कपिलपितुः काश्यपस्य मित्रे, कपिलस्योसुरेन्द्रदत्त इत्येषा, राजसूनोः कृताभिधा ॥ पाध्याये स्वनामख्याते ब्राह्मणे, उत्तपातथाच कपिलकथा कयासूरेरसी पार्श्व, कताः कात्रे गृहीतवान् ॥१०॥ याम् "सावत्थीए णयरीए पिमित्तो इन्ददत्तो नाम माहणो गृहतश्च कास्तस्य, चक्रिरे तानुपद्वान् ॥ इति" उत्त । तत्कथा कपिलशब्दे । मयुरानगरस्थे स्वनामन चासो नाविभत्वान्नृपस्तत्तु व्यजीगत् ॥ ११ ॥ ख्याते पुरोहिते च । तत्कथा यथा-मयुरायां इन्दत्तः पुरोहितेच घाविंशतिः पुत्रा ग्राह्यमाणाः कलाः किन तोऽस्ति स जिनशासनप्रत्यनीकः स्वगवाकस्थः सन् अधोनिनिघ्नन्तिस्म कनाचार्य, गात्रीस्तस्य तथा दः॥१२॥ गच्छतो जैनयतेमस्तकोपरि निजचरणं विततं करोति । एवं सूरिणा तामितास्ते तु, स्वमातृत्यो न्यवेदयन् ॥ निरन्तरं कुवार्ण तं दृष्ट्वा साधुन कोपि कुप्याति परमेकः श्रावकः तं च ताः कुपिताः शाप-श्वकरुगभाजनम् ॥ १३॥ कुपितः तत्पादच्छेदप्रतिज्ञामकरोत् अन्यानि तचित्राणि अन्नएवं ते ययुरझाना, सूरिणा समुपेक्विताः ॥ जमानेन, तेन श्रावकेण तत्स्वरूपं गुरोः पुरः कथितस् । गुरुश्तश्च मयुरानाथ, आसीपर्वतको नृपः ॥ १४ ॥ णोक्तं सह्यते सत्कारपुरस्कारपरीषहः साधुनेति । तेन स्वप्रतत्सुता निर्वृतिर्नाम, यौवनोद्भेद सुन्दरा ॥ तिज्ञा कथिता । गुरुभिरुक्तम् । अस्य गृहे किं जायमानमस्ति वरार्थ तेन सावाचि, भारं वृणु वाचितम् ॥ १५ ॥ तेनोक्तं नवीनप्रासादे राजा निमन्यमाणोऽस्ति पुरोहितेन । सा पुनस्तमनुज्ञाप्या चत्रदिन्द्रपुरं प्रति ।। गुरुनिरुक्त तर्हि त्वं तत्प्रासादे प्रविशन्तं राजानं करे धृत्वा राजपुत्रा यतस्तत्र नूयांसः सन्तिसद्गुणाः ॥ १६ ॥ प्रासादोऽयं पतिष्यतीति कथय । अहं च प्रासादं विद्यया पाततः सन्जपुरं प्राप-दाप्रलोकसमन्विता ॥ तयिष्यामि । ततस्तेन तथाकृते प्रासादः पतितो राझोक्त तुष्टेन चेन्द्रदत्तेन राझाऽकारि पुरे महः ॥१७॥ किमिद आतं । श्रेष्ठिनातं महाराज! अनेन तव मारणाय कपटं निर्वृत्या भणितं राझो, राधावेधं करिष्यति । मएिकतमजूत ततो रुष्टन राज्ञास पुरोहितस्तस्य श्रेष्ठिनोऽर्पितः यः कुमारः स मे नर्ता नविष्यत्यपरो न तु॥२७ ।। सच श्रेष्ठी इन्द्रकीलके तस्य पादं किप्त्वा प्रतिझापूरणार्थ च सदाकर्ण्य नृपो रंगं कारयमास तत्र च ॥ पिष्टमयं पादं कृत्वा चिन्नवान् उक्तवांश्च सर्व तत्स्वरूपं पुरोहिएकत्राकेऽष्ट चक्राणि तत्पुरः पुत्रिका तथा ॥ १५॥ तेनोक्तमतः पर नैवेर्श करिष्यामीति। जानकंपेन श्रावकेण सा च च कुषि वाणेन, नेत्तव्याधो विवर्तिना ॥ स मुक्तः। उत्त०२०॥ ततः सैन्ययुतोराजा, रंगे तस्थौ सपुत्रकः ॥२०॥ इत्थर्मिदत्तो पुरोहिओ गवक्खट्रिो मिच्छदिदी अहोय निर्वृतिश्चेकदेशेऽस्य, स्थिताअङ्कृतविग्रहा ॥ तस्स साहुस्स मत्यए नवरि पायं कुणंतो सेहेण गुरुभत्तिए यथास्वं च निविष्ठेषु, सामंतनागरादिषु ॥ २१ ॥ पायहीणो करो" ती॥ श्रादिष्य ज्येष्ठपुत्रोऽथ, राझा श्रीमाविनामकः । इंददारु-दारु-पु० इन्द्रस्य तद्ध्वजस्य साधनं दारु देवभिस्वा राधां गृहाणेमां, कन्यां राज्यं च पुत्रक ॥ २२॥ ___ दारु वृके इन्द्रघुमादयोप्यत्र । वाच ॥ ततः सोऽशिक्कितत्वेन, साध्वसोत्कंपिविग्रहः। इंददि-इन्कदिन-पु. कौटिकगच्चस्थे सुस्थितसुप्रतिबुद्धा शशाक नवतांनन-मेवं ते शेषका अपि ॥२३॥ परनामधेययोः कौटिककाकन्दकयोः शिष्ये स्वनामख्याते ततो राजा स्वपुत्राणां, मर्खतां वीक्ष्य तत्क्षणात् । आचार्ये, “ सुट्टियसुप्पमिबुझाणं कोमियकाकंदगाणं वग्घाशुशीच हस्तविन्यस्तगमो नून्यस्तदृष्टिकः ॥२४॥ ततोऽमात्यस्तमापृच्छत्, देवः किं दैन्यवान् भवान् । वच सगुत्ताणं अंन्तेवासी थेरे अज्जददिमे कोसियगुत्ते ।। सोऽवाचासुतरतैरहं भो धर्षितो जन ॥२५॥ ति"-कल्प० । “ तदनु च सुहस्तिशिष्यो, कौटिककाकंद कावजायेताम् । सुस्वितसुप्रतिबुझौ, कौटिकगच्चस्ततः सम ततोऽमात्योऽवदद्भपं ययान्यापि च ते सुतः । विद्यते सोऽपि देवेन राधावेधे नियुज्यतां ॥२६॥ भूत् ॥ तन्त्रदिन्नसूरि-नंगवान् श्रीदिमसंझसूरीन्द्रः ॥ राजाऽवोचत्कुतो मेऽन्यः, सुतोऽमात्योऽप्युवाच तम् । शति गच्छा० ॥ मद्दौहित्रस्ततः पत्रं दर्शयामास तस्य तत् ॥२७॥ अयं च खरतरगच्चपट्टावस्यनुसारेण वीरजिनात्त्रयोदशः॥ संजातप्रत्ययो राजा संतुष्टस्तं बजाण च । तपागच्छपट्टावलीप्रमाणतो दशमः। आनयाऽमात्य तत्पुत्रं, तस्य तं सोऽप्यदर्शयत् ॥२॥ इंदपव्यय-इन्प र्वत- पु. इन्जनामकपर्वतः । महेन्पर्वते, आसिङ्गा मूनि चाघ्राय, तं बभाषे सुतोत्तमम् । इम्प्रवर्णः पर्वतः । नीलवर्णे गिरिभेदे, वाच॥ कन्यां गृहाण राज्यञ्च नित्वा राधां त्वमद्भुतां ॥५९ ।।। इंदपाभिवया-इप्रतिपत- स्त्री० अश्वयुक्पूर्णिमायां अनयदादिशति तातस्तत्करोमीत्यभिधाय सः। धनुर्वेदोपदेशेन राधां नेत्तुमुपस्थितः ॥ ३०॥ न्तरभाविन्याम्महाप्रतिपदि तस्यां चास्वाध्याय इति- । तान्यस्य चेटरूपाणि ते च द्वाविंशतिः सुताः। स्था०४०। उहतासीनरौद्वीच नाना चकरुपवान् ॥ ३१ ॥ इंदपुर-इन्पुर-नन्द्रदत्तनृपस्य भारतवर्षस्थे स्वनामख्याते काचार्योऽप्यऽवोचत्तं न चदाधां विभेत्स्यात ॥ नगरे, आव० अ० / E०॥ प्रा० ० । आ. म. । तदेता च शिरो वत्स बेत्स्यते दारुणी नसे ॥ ३॥ स्था० । इडेय जंबूदीवे जारहेवासे ईदपरणामणयर, ॥ इति ततोसावयगण्यैतान् बन्धनकोऽप्रमादवान् । विपा०१० अ०व्या "परमिन्द्रपुरं नाम सावादिन्द्रपरं किस"। चक्राणामंतरं ज्ञात्वा राधां द्रागिति विध्वान् ॥ ३३॥ श्रा०क० ॥ माणीपुरस्थं स्वनामख्याते नगरे च ॥ "माणी ततश्चास्फावितं तर्य साधुकारः कृतो जनः । पुरं गयरं णागदत्त गाहावई इंदपुरे अणगारे पमिवानिए राजादिस्तोपितो झोक ढाकन्या च तेन सा ॥३॥ पंचा० जाव सिके इति" विपा० ७ अ॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६८) इंदपुरग अभिधानराजेन्षः। इंदपुरग-इन्द्रपुरक-न० (वेसवारिय ) गणस्य चतुर्यु कुलेषु पुनरप्याह॥ चतुर्ये कुले, । तह होश इंदपुरगं च । कल्प बच्चेज च मुक्खजणो, देवा न कहमणेण विम्हयं नीया। इंदपुरोहित-इंपुरोहित- पुर-६ त० । सुराचार्यबृह वंदति संयुएंति य, जेण सव्वमुबुकीए॥ स्पती-चाचा वृजद्वा तत्पादमूसं मूर्खजनो मूर्खतया युक्तायुक्तषिधक इंदलूइ-इन्धनति-पु-स्वनामख्याते महावीरस्य प्रथमगण विकसत्वात देवास्तु कथमनेन विस्मयं नतिा येन विस्मय घरे प्रथमगणनायके प्रथम शिष्ये, प्रवद्वा०। समः। नयनेन सर्वज्ञबुच्चा तं वन्दन्ते संस्तुवन्ति च । सूत्र। “समणस्स नगवो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंद अहवा जारिसतोच्चिय, सो नाणी तारिसा सुराते वि। तूई अणगारे गोयमसगोसणं इति । कल्प० । अन्त० । विपा। "जियवीरस्कारस पढमो से इंदनूश्यत्ति पामेण अणुसरिसो संजोगो, गामनमाणं च मुक्खाणं ।। इंदशत्ति गोयमो वंदिऊण विविहेण" । ०प्र०१पा०॥ अयवा यारश एव स ज्ञानी तेऽपि सुरास्तारशा एव मूर्खा तत्कथाच-" दिईणामो पंचखंमियसयपरिवारो सञ्च इत्यर्थः । ततोऽनुसदृशोऽनुरूपः संयोगस्तस्य कानिनः पतेषां प्पहाणो मगहा विसर सो य अन्नदीक्खितो मक्खितो य च देवानाम् । कयोरिवेत्याह- प्रामनदयोरिष सूर्खयोर्यथा मज्झिमा य अच्छति श्य सज्जाणो देवुज्जाव पासित्ता हरि प्रामे मुखों नटोऽपि तथाविधविद्याषिकसत्वात मूर्स पति परसियमको चितेकणं भासति तेसिं पुरओ अहो मया मताह स्परं तयोः संयोगोऽनुरूपमेवमेषोऽपीति ॥ सुरा आहूया जे जमे समुवड़िता एवं बोतृणं खंमिगहिसह काळ हयप्पयावं, पुरतो देवाण दाणवाणं च । निग्गतो नजाणे अ पासमाणो उत्तरपुरचिमे दिसि जाए नासे हं नीसेस, खणेण सव्वन्नुवार्य से ।। देवसभिवायं पासति जासति किमेतति । अह से कहितं जहा एस सिरूत्यरायपुत्तो महावीरवकमायो तब कार्ड देवानां च दानवानां च पुरतोऽग्रे तथाविधप्रभजाईतप्र. केवली जाओ किन्न सवम सम्वन्नावदरिसी तं वयणं सो भो ताप कृत्वा कणमात्रेण (से) तस्य सर्वकवाद निशेषमहं प्रासति अमरसिओ को अन्नो ममाहितो अम्नहितो जस्स नाशयामि ॥ देवा पति ताहे बच्चामो जम्मं पराजिणंमि किं सो जाणति श्य बोत्तूणं पत्तो, दट्टणतिनोकपरिव वीरं । एति ण पणिहाणेण पहावितो पंचखंमियसतपरिवारो वेदप चोत्तिसातिसएहिं, ससंकितो बच्तिो पुरतो ॥ दाणय अत्थो जगवता से कहितो पत्य समतो संबुको य इति पुर्वोक्तमुक्त्वा प्राप्तो भगवत्समीप राष्ट्रवाच जगवन्तं वीर जण पंचखंमियसते एस सव्वा श्रहं पथ्वयामि तुम्भे जहि त्रैलोक्यपरिवृतं चतुर्विंशदतिशयनिधि स शङ्कितः पुरतोड चितं करेहि ते नणंति जदि तुम्ने परिसगा होता पव्वयह वस्थितः॥ तो अहं का अन्ना गमित्ति एवं सो पंचसयपरिवारो पवत्ति अत्रान्तरे । तो भा०० १०॥ आजट्ठो य जिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । तेहि देवाः स्वं यज्ञवाट परिहत्य समवसरणाव निपति नामेण य गुत्तेण य, सब सव्वदरिसीणं ।। तवन्तः तांश्च तथा इट्टा स्रोकोऽपि तत्रैव जगाम नगवन्तं त्रिद शमोकेन पूज्यमानं हवा अतीव हर्प चक्रे प्रवाश्च सञ्जातः । आजाषितः संजपितो जिनेन नगवता महावीरेण जातिः प्रसर्वज्ञोऽत्र समवसतस्तं देवाः पूजयन्तीति । अत्रान्तरे खल्बाक सूतिर्जरावयाहानिलकणा मरणश्च दशविधप्राणविप्रयोग र्णितसर्वज्ञप्रवादो ऽमर्षामातइन्द्र नतिर्नगवन्तं प्रतिप्रस्थितः रूपमभिर्विप्रमुक्तस्तेन कयमानाषित इत्याह नाना हेन्द्र तूते! "सोनण कीरमाणिं, महिमं देवेहिं जिणवरिंदस्स ॥ श्त्येवरूपेण तया गोत्रेण च यथा हेगौतमगोत्र! किं विशिष्ट अह अहं माणीय, अमरिसिओ इंदनूशत्त" ॥१॥ न जिनेनेत्याह । सर्वझेन सर्वदर्शिना, पाह-यो जरामरणविश्रुत्वा जनपरंपरात् प्राकार्य पाठान्तरतो दृष्टा वा महिमा प्रमुक्तः स सर्वक एवेति गतार्थमिदं विशेषणमितिचेन्न नयवापूजा देवैः क्रियमाणां जिनवीरेन्द्रस्य जगवतो वर्षमानस्वामिनः दपरिकल्पितजात्यादिविप्रमुक्तनिरासार्थत्वात् । तथाहि-कैअयास्मिन् प्रस्ताव पति आगच्छति जगवत्समीपं अहमेव श्चित गुणविप्रमुक्तमोकवादिभिरचेतना मुक्त इभ्यते ततस्तविद्वानिति मानोऽस्येति अहं मानी अमर्षों मत्सरविशेषः स निरासार्थसूचे । सकेन सर्वदर्शिनेति इत्यं नामगोत्राच्या संजातोऽस्य सोऽमर्षितः माय सति कोऽन्यः सर्वक श्त्यपनया. संबपितस्य तस्य चिन्ताऽजवत तथा चाहम्यद्य सर्वज्ञवादमित्यादिसंकल्पकत्रुषितान्तरात्मा कोऽसा- | हे दत्तू गोयम ! सागयमुत्त जिणण चिंते । वित्याह। इंजनूतिरितिनाना प्रथितः स च भगवत्समीपं प्राप्य सोमं पि मे वियाण अहवा को मं न याणाई।। जगवन्तञ्च चतुर्विंशदतिशयसमन्वितं देवासुरनरेश्वरपरिवृतं दृष्ट्वा माशकत्तदप्रतस्तस्थौ ॥ हेदूनूते ! गोतम ! स्वागतमिति जिनेनोक्ते स चिन्तयति एतदेव सविस्तरं नाष्यकार आह । अहो नामापि मे विजानाति अथवा सर्वत्र प्रसिकोऽहं को मोत्तूण ममं लोगा, किं वच्च तस्स पायमूबंमि । मां न जानाति । अनो वि जाणइ मए, ठियमि कत्तो चियं एयं ।।। जइ वा हिययगयं मे, संसय मभेज अहव च्चिदेजा। मां सकाशास्त्रपारगं मुक्त्वा किमेष लोकस्तस्य पादसलं ततो होज विम्हतो मे, श्य चितंतो पुणोजणिश्रो । ब्रजति नचासौ मदपेक्कया किमपि जानाति तथाहि माय प्रति- यदि मेहतं संशयं मन्येत जानीयात् अथवा निन्द्यादप पादिनि स्थिते अन्योऽपि किमपि जानातीति कौतस्त्यमेतत् । नयत् ततो मे विस्मयो भवेत् भविष्यति इति चिन्तयन् पुन मैवैतत् संभवतीति भावः ॥ रपि जगवता भाणतः । किं भणित इत्याह Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभू इंदभू भनिधानराजेन्द्रः। किंमन्ने अस्थि जीवो, जयाहु नत्यित्ति संसओ तुजा । भावातू-तदयुक्तम् भूतगुणत्वे सति पृथिव्याः कानिम्यस्यैव वेयपयाण य अत्यं, न याणसी तेसिमो अस्थो । सर्वत्र सर्वदा चोपलंजप्रसंगात् । न च सर्वत्र सर्वदा चोपहेगौतम ! किं मन्यसे अस्ति जीव उत नास्तीति नन्व सत्यते चैत्यन्यं लोष्ठादौ मृतावस्थायां चानुपसम्भात् । अथ यमनुचित एव संशयो यतोऽयं संशयस्तव विरुरूवेदपद तत्रापि चैतन्यमस्ति केवसं शक्तिरूपेण ततो नोपनत्यते तदश्रुतिनिबंधन इति । तान्यमूनि वेदपदानि “ विज्ञानधन ए सम्यम्विकल्पध्यानतिक्रमात सा-हि शक्तिचैतन्याबिसकणा चैतेच्यो जूतेज्यः समुत्याय पुनस्तान्येवानुविनश्यति न उत चैतन्यमेव यदि विकणा ततः कथमुच्यते शक्तिरूपेण चैप्रेत्यसंझास्तीत्यादि " तथा स वै अयमात्मा ज्ञानमय श्त्या तन्यमस्ति न हि पटे विद्यमाने पटरूपेण घटस्तिष्ठतीति वक्तुं:दीनि च एतेषां च वेदपदानामयमों भवतश्चेतसि विप शक्यं तथाचाहान्योऽपि "रूपान्तरेण यदि सत्तदेवास्तीति रिवर्त्तते । विज्ञानमेव घनानन्दादिरूपत्वात् विज्ञानघनः स मा रटीः । चैतन्यादन्यरूपस्य भावे तमियते कथम् " । अथ पव एतेज्योऽध्यकतः परिजिद्यमानस्वरूपेन्यः पृथिव्यादि हितीयः पकस्तार्ह चैतन्यमेव तत्कथमनुपक्षयः भावृतत्वा सकणेज्यो जूतेज्यः समुत्थाय उत्पद्य पुनस्तान्यवानुविनव्य दनुपनम्न तिचेत्तत्त्वावृत्तिराधरणं तबावरणं किं भूतानां विति तान्येव नूतानि अनुसृत्य विनश्यति तत्रैवान्यक्तरूपतया यक्तिपरिणामाना-मुत परिणामान्तर-माहोस्विदन्यदेव जूतासंझीनो भवतीति भावः न प्रेत्यसंझास्ति मृत्वा पुनर्जन्म तिरिक्त किश्चित् । तत्र न तावद्विवक्कितपरिणामामावः एकान्ततु प्रेत्येत्युच्यते तत्संझास्ति न परोकसंकाऽस्तीति भावः । जरूपतया तस्यावारकत्वायोगात् अन्यथा तस्याप्यतुधरूप ततः कुतो जीवः युक्योपपन्नश्चायमर्थ इति ते मतिः यतो तया जावरूपतापत्तिोषत्वे पृथिव्यादीनामन्यतमो भाषो मासौ प्रत्यकेण परिगृह्यते अतीन्धियत्वात् नाप्यनुमानेन यत जवेत"पृथिव्यावीन्येव नूतानि तस्वामतिषचनात्"पृयिव्यादी. स्तविकलिङ्गिसम्बन्धपूर्वकञ्च । न चात्र लिङ्गिना सह सम्ब निच नृतानि चैतन्यस्य व्यजकानि नावारकाणीति कथमान्धः प्रत्यक्गम्यो निङ्गिनोऽ तीन्जियत्वात् । नाप्यनुमानगम्यो पारकत्वं तस्योपपत्तिमत-अथपरिणामान्तरं तदयुक्त परिणाऽनवस्याप्रसकेस्तदपि हि सिङ्गशिङ्गिसम्वन्धग्रहणपूर्वकं तत्रा मान्तरस्यापि चूतस्वभावतया नूतपदव्यजकत्वस्योपपत्तेनीपिचेयमेव वार्ता, इत्यनवस्थानुषङ्गः नाप्यागमगम्यः पर वारकत्वस्य, अथान्यदेव जूतातिरिक्तं किश्चित्तदतीषासस्परविरुवार्थतया तयागमानां प्रमाणत्वाभावात् । तथाहि मीचीनम् । लतातिरिक्ताऽज्युपगमे चत्वार्येव पृथिव्याकेचिदेवमाहुः"पतावानेव लोकोऽयं, यावदिन्छियगोचर भने दीनि सूतानि तस्यामिति तत्त्वसंख्याब्याघातप्रसंगात् प्रापि वृकपदं पश्य यद्वदन्त्य बहुश्रुताः" इत्यादि । अपरे प्राहु-नरूप चेदं चैतन्यं प्रत्येकं वा नूतानां धर्मः समुदायस्य था मीकवः पुमला इत्यादि पुरुले रूपं निषेधयन्ति अन्ततत आत्मे न तावत्प्रत्येकमनुपअम्लात् नहि प्रतिपरमाणुसंवेदनमुपक्षत्यर्थः अन्ये पुनरेवम् " अकर्ता निर्गुणो नोक्ता" इत्यादि । ज्यते । अपि च यदि प्रतिपरमाणुसंवेदनं प्रवेत्तर्हि पुरुष अपरे एवम् " स वै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि, नचैते सर्व सहस्रचतन्यवृन्द मिव परस्परं जिन्नस्वभाषमिति नैकरूप पव प्रमाणम् परस्परविरोधात् व्यानिधायकपरस्परविरु नवेत् । अय चैकरूपमुपत्रज्यते अहं पश्यामि अहं करोमीत्येवं कवाक्यपुरुषवातवत् आत्मानं विनः किमस्ति नास्तीत्यय सकाशरीराधिष्ठितानेकस्वरूपतयानुभवात् प्रथ समुदायतवानिप्रायः। तत्र वेदपदानांचार्थ न जानासि च शब्दात् युक्ति स्य धर्मस्तदप्यसत्प्रत्येकमसत्समुदायेऽपि न भवति यया द्वयं च तथाहि वेदपदानामयमर्थः विज्ञानघन एवेति ज्ञानोप रेगुषु तैनं स्यादेतन्मधानेषु प्रत्येक मवशक्तिरदृष्टापि समुदा योगदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्यत्वात्मात्मा विज्ञानघन: येऽपि जवन्ती दृश्यते तचैतन्यमपि भविष्यति को दोषः तद प्रतिप्रदेशमनन्तविज्ञानपर्यायःसंपातात्मकत्वात्वा विज्ञानधन सम्यक् प्रत्येकमपि मणरेषु मदशक्त्यनुयायिमाधुर्यादिगुणदएव शब्दोऽवधारणे विज्ञानघनादनन्यधनत्वात् विज्ञानघन एव र्शनात् तथाहि दृश्यते माधुर्यमिकुरसे धातकीपुष्पे च मनाक् पतेज्योलतेन्या कित्युदकादित्यः समुत्थाय कयंचित्पद्यति विकतोत्पादिन चैवं चैतन्यं सामान्यतोऽपि नूतेषु प्रत्येकमुप घटविज्ञानपरिणतो हि आत्मा घटाद्भवति तज्ञिानकयोपश सन्यते ततः कयं समुदाये तद्भवितुमर्हति मा प्रापत्सर्वस्य मनस्य तत्रारूपत्वात् अन्यथा निरालम्बनतया तस्य मिथ्या सर्वत्रानावप्रसक्तातिप्रसङ्गात् । किंच यदि चैतन्यं भूतधर्मस्वप्रसक्तरेवं सर्वत्र नावनीयम् । तत उक्तं तेन्यः समुत्थाय त्वेन प्रतिपनं ततोऽवश्यमस्यानुरूपो धर्मः प्रतिपत्तव्यः भानुरूकचिपुत्पद्येति पुनस्तानेव नूतानि अन विनश्यति ते विवकितेषु तेषु व्यवहितेषु वा आत्मापि तबिकानधनात्मना प्याभावे जमकाविन्ययोरिव परस्परधर्मधम्मिभावोऽनुपातः उपरमते अन्यविज्ञानात्मना उत्पद्यते यदि वा सामान्य नच नूतानामनुरूपो धर्मी वैवकण्यात तथाहि चैतन्यं बोधतन्यरूपतयाऽवतिष्ठत इति न प्रेत्यसंकास्ति न प्राकृतिकघटा स्वरूपममूर्तं च नतानि तद्विलकणानि ततः कयमेषां पर स्परं धर्मधर्मिनावः । नापि चैतन्यमिदं जूतानां कार्यमत्यंत दिविज्ञानसंज्ञाऽवतिष्ठते । सांप्रतविज्ञानोपयोगनिधितत्वात अथवा एवं व्याख्या विज्ञानधन पवैतेन्यो तेत्यः समुत्थाय विकणतया कारपन्नावस्याप्ययोगात् तया बोक्कम "कापुनस्तान्येवानुविनश्यतीत्येतन यतःप्रेत्यसंझास्ति परलोक चिन्याचोधरूपाणि, चूतान्यध्यकसिद्धितः । चेतनाजगतपा संझास्ति । यदप्युक्तं नासौ प्रत्यकेण परिगृह्यते इति तदप्यस सा कर्य तत्फलं नवेत्" अपिच यदि नूतकार्य चैतन्य तर्हि किं मीचीनमात्मनः प्रत्यक्वसिद्धात्तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवेदन न सकलमपि जगत् प्राणिमय प्रवति परिणतिविशेषसद्भावा प्रमाणसिकत्वात्तयाहि स्वसंविदिता पवावग्रहापायादय भावादिति चेन्ननु सोऽपि परिणतिविशेषसद्भावः सर्वप्रापि उदयन्ते लीयन्ते वा ततस्तद्गुणस्य स्वसंविदितत्वात् सिक- कस्मास प्रवति सोऽपि हि नूतमात्रनिमित्तक पव ततः कथं मात्मनः प्रत्यकत्वम् । अथ अवीव जूतगुणाश्चैतन्यं तथा वेदे- तस्यापि कचित् कदाचिद्भावः । अन्यथ स किंरूपः परिणप्युक्तम् "पतेन्यो नूतेज्यस्समुत्थायेत्यादि"ततः कथं ज्ञानस्य तिविशेष इति वाच्यं कधिनत्वादिरूप इति चेत्तथाहि काष्ठास्वसंविदितत्वे ते प्रात्मनः प्रत्यक्त्वं ज्ञानस्यात्मत्राणत्वा | दिषु दृश्यन्ते घूणादिजन्तवो जायमानास्ततो यत्र कधिनत्वा För Private & Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७०) - मानिधानराजेन्डः । इदन विविशेषस्तत्प्राणिमयंन शेषमिति तदप्यसत व्यभिचारदर्शना तत्र न तावदायः पक इन्जियरूपानुत्पत्ताविन्द्रियबुकि तथा विशिष्टेऽपि कग्नित्वादिविशेषे कच्चिद्भवन्ति कचिच वर्तमानार्थग्रहणमसक्तः शन्डियं हि वार्तमानिक एवार्थे कठिनत्वादिविशेषमन्तरेणापि संस्वेदजा नभसि च धिता व्याप्रियते तत्सामर्थ्यापजायमानं मानसमपि कान इन्जिय कानमिव वर्तमानार्थग्रहणपर्यवसितसत्ताकमेव भवेत् अथ जायन्ते किंच समानयोनिका अपि विचित्रवर्णसंस्थानाः प्राणिनो श्यन्ते तयाहि-गोमयायेकयोनिसंभविनोऽपि केचि. यदा चक्षुरूपविषये व्याप्रियते तदा रूपे विज्ञानमुत्पादयति सीलजन्तयोऽपरेपीतकाया अन्य विचित्रवीसंस्थानमप्येतेषां न शेषकासं ततस्तदपिविज्ञानं वर्तमानाधिषयं वर्तमाने परस्पर विभिनंतदिनूतमात्रनिमित्तं चैतन्यं ततएकयोनिकाः एवार्थे चक्षुषो व्यापारात् । रूप विषयव्याप्रीयनावे च मनोज्ञानं ततो न तत्प्रतिनियतकासविषयम एवं शेषेष्यपि सर्वेप्येकवर्णसंस्थाना नवेयुनजवन्ति तस्मादात्मन एव तत्तत्क सम्झियेषु वाच्यम् ततः कथमिव मनोकानस्य वर्तमानार्थग्रहण मवशात्तथा तथोत्पद्यन्तेशति । स्यादेतत् प्रागच्छन् गच्छन् प्रसक्तिस्तदसाधीयो यत इन्छियाश्रितं तदुच्यते यदीजियषापात्म्म नापमन्यते केवलं देहे सति संवेदनमुपसन्नामहे दे व्यापारमनुसृत्योपजायते शन्छियाणां च व्यापारः प्रतिनियते हाभावे च तस्यामेवावस्थायांन, तस्मान्नात्मा किंतु संवेदनमा एव वार्तमानिके स्वस्वविषये मनोज्ञानमापयाम्ब्रिय व्यापाराअमवैकं तबदेहकार्य देहे एव च समाश्रितं कुमपचित्रवत् नहि श्रितं तत इन्द्रियहानमिव वार्तमानिकार्थग्राहकमेव जयेत् अन्य चित्रं कुरुषविरहिसमवतिष्ठते नापिकुरुपांतरं संक्रामति प्राग था शन्छियाश्रितमेव तत्र स्यात् तथा च केचित्पन्ति "अक्कमनं वाकुमांतरात किंतु कुमश्च एवोत्पन्न कुमधएष च विश्ली व्यापारमाश्रित्य भवदवजमिप्यते । तद्व्यापारोन तत्रेति कथ यते एवं संवेदनमापि तदप्यसत् आत्मा हि स्वरूपेणामूर्त श्रान्त मक्कनवं जयेत् । " अथानीन्द्रिय रूपादिति पक्वस्तदप्ययुक्तरमपिशरीरमतिसुदमत्वान्न चक्षुर्विषयस्तयुक्तमन्यैरपि “अन्त स्तस्याचेतनत्वात् नम्बचेतनत्वादिति कोर्थः यदीछियविज्ञान रा नवदेहे पि सूदमत्वानोपबज्यते । निष्कामन् प्रविशन्धा रहितत्वादिति सदिप्यते एव यदि नामोन्डिय विज्ञानं ततो न स्मानाभावोनीकणादपि"ततआन्तरशरीरयुक्तोप्यात्मा श्रागच्च भवति मनोविज्ञानं तु करमान्न नवति । अथ मनोविज्ञानं गच्चन्या नोपमन्यते विंगतस्तूपान्यते । तथाहि कमेरपि नोत्पादयतीत्यचेतनत्वं तदा तदेव विचार्यमाणमिति प्रतिज्ञाअन्तोस्तत्कामोत्पन्नस्याप्यस्ति निजशरीरविषयः प्रतिबन्धः थैकदेशासिको हेतुः तदप्यसत् अचेतनत्वादिति किमुक्तं उपघातमुपसत्य पलायनदर्शनात् यश्च यद्विषयप्रतिबन्धः स अधति स्वनिमित्तविज्ञानःस्फुरधिपतयानुपलब्धेःस्पर्शादयो तद्विषयपरिशीलनाच्यासपूर्वकस्तथादर्शनात् नखल्वत्यन्ताप हि स्वस्वनिमित्तविकानैः स्फुरश्चिपानुपलायन्ते ततस्तेज्यो रिफातगुणदोषवस्तुविषये कस्याप्याग्रह उपजायते ततो ज ज्ञानमुत्पद्यते शति युक्तं केशनखादयस्तु न मनोकानेन तथा स्फु मादी शरीराग्रहः शरीरपरिशीलनाज्यासजनितसंस्कारानि रश्चिपा अपनज्यन्ते कथं तेज्यो मनोज्ञान भवतीति प्रति बन्धन इति । सिद्धमात्मनो जन्मान्तरादागमनं तथा च केचि ध्यायन्तु सुधियः बह च “चेतयन्तो नदृश्यन्ते केशस्मश्रुमखा त्पन्ति "शरीराग्रहरूपस्य नजसः संजयो यदा । जन्मादी दयः । ततस्तेन्यो मनोज्ञान जवतीत्यतिसाहसम्" अपि च देहिनो रठः किं न जन्मान्तरा गतिः, ॥ अथागतिः प्रत्यक्षतो याद केशनखादिप्रतिबकं मनोझानं ततस्तडदे मूलत पवन नोपमन्यते ततः । कथमनुमानादयसीयते नैष दोषः अनुमेय स्यात् तदुपघाते चोपहतं भवेन च भवति तस्मानायं पकः विषये प्रत्यक्कवृत्तरनन्युपगमात् परस्परविषयपरिहारेण हि क्वोदकमः। किंच मनोज्ञानस्य सूक्ष्मार्थनेतृत्वस्मृतिपाटवादयो प्रत्यक्वानुमानयोःप्रवृत्तिरिप्यते ततः कथं स एव दोषः। श्राह विशेषा अन्वयव्यतिरेकाज्यां व्यत्यासपूर्वका दृष्टाः तथाहि च "अनुमेयेऽस्ति नाध्यक्वमिति कैवात्र पुष्टता । अध्यक्तस्यानु तदेव शास्त्रमाहापोहादिप्रकारेण यदि पुनः पुनः परिनाम्यते मानस्य विषयो विषयो न हि" अथ तज्जातीयेपि प्रत्यक्व. ततः सूक्मसूत्मतरार्थावबोधे उसति स्मृतिपाटवं चापूर्वत्तिमन्तरेण कथमनुमानमुदयितुमुत्सहते न खलु यस्याग्नि मुज्जृम्लते एवं चैकशाने अन्यासतः सुदमार्थनेतृत्वशक्ती विषया प्रत्यकवृत्तिर्महानसेऽपि नासीत्तस्वायत्र कितिधरादौ पाटवशक्ती चोपजातायामन्येष्वपि शास्त्रांतरेषु अनायासेनैव धूमाकूमभ्वजानुमानं भवति तदन्यसम्यक् अत्रापि तज्जातीय सूक्ष्मार्थावबोधः स्मृतिपाटवं चोदसति तदेवमच्यासहेतुकाः प्रत्यकवृत्तिजावात तथा हानहान्यत्र परिशीनाच्यासप्रवृत्तः प्रत्यकत पयोपलब्धस्ततस्तपटम्नेनेहान्यनुमानं प्रवर्तते - सूदमायनेतृत्वादयो मनोझानस्य विशेषदृष्टाः । श्रथच कस्य चिदिह जन्माच्यासव्यातरेकेणापि दृश्यन्ते ततोऽवश्यं पारतंच "भाग्रहस्तावदन्यासात् प्रवृत्त मुपत्नज्यते । अन्यत्राध्य लौकिकाच्यासहेतुका इति प्रतिपत्तव्य कारणेन सह कार्यकतः साक्वात्ततो देहेऽनुमान किम्"यो पिच रटान्तः । प्रागु स्यान्यथानुपपन्नत्वप्रतिबन्धेन दृष्टतत्कारणस्यापि तकार्यत्वपन्यस्तः सोप्ययुक्तो वैषम्यात् तथाहि चित्रमचेतनं गमनस्व विनिश्चितेः । ततः सिकः परलोकयाथी जीवः। सिके च भावरहितश्च प्रात्मा च चेतनः कर्मवशारत्यागती च कुरु तस्मिन परलोकयायिनि यदि कथांचदुपकारी चाकुषादेर्विते ततः कथं रातदार्शन्तिकयोः साम्यं ततो यथा कश्चिदे. ज्ञानस्य देहोभवेत् न कश्चिद्दोषः कयोपशमहेतुतया देहस्यापि घदत्तो विवक्तेि ग्रामे कतिपयदिनानि गृहारंभ कृत्या प्रामा कथंचिपकारित्वान्युपगमात्. नचैतावता तन्निवृत्ती सर्वथा न्तरे गृहान्तरमास्थायावतिष्ठत तदात्माप विवक्तिते भवे. तन्निवृत्तिः नहि वहिरासादितविशेषो घटो वह्निनिवृत्ती सम् देहं परिहाय भवान्तरे देहान्तरमारचल्यावतिष्ठते । यच्चो सोचेदं निवर्तते केवमं विशेष एव कश्वनापि यथा सुवर्णस्य क्तम् तच संवेदनं देहकार्यमिति चाक्षुषादिकं संवेदनं यता एवमिहापि देहनिवृत्ती ज्ञानविशेष एव कोऽपि तत्प्रतिदेहाधितमपि कथंचित जवतु चक्षुरादीडियघारेण तस्यो- वको निवर्त्तते न पुनः समूझं ज्ञानमपि यदि पुनर्देहमात्रमिामत्पत्तिसंजवात् यत्तु मानसं तत्कथं न हि तदेहकार्यमुपपत्ति त्तकमेव विज्ञानमिप्यते देहनिवृत्तीच निवृत्तिमत तर्हि देहस्य मत् युक्तघयोगात् । तथाहि तन्मानसं झानं देहापुत्पद्यमान तस्य भस्मावस्थायां मा भूत्तइहे तु तथानूते पवावतिष्ठमाने मिन्द्रियरूपाद्वा समुद्घातानीनियरूपाचा केशनखा दिसतणा। मृतावस्थायां करमान्न जवात प्राणापानयोरपि हेतुत्वात्तद Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७१ ) अभिधानराजेन्द्रः । इंदभूइ नायेन भवतीतियांगानादेव तयोरपि प्रवृत्तिस्तथाहि यदि मन्दी प्राणापानीम च्यते ततो मन्दी भवतः दीघों चेत्तर्हि दीर्घाविति यदि पुनर्देह मात्रनिमित प्राणापानी प्राणापाननिमित्तं च विज्ञानं तर्हि नेयमावशात् प्राण पानप्रवर्त्तमाना दृष्टप्राणापाननिमित्तं च यदि विज्ञानं ततः प्राणापाननि-हास तिशय संभविज्ञानस्यापि निहासातिशयौ स्याताम् अवश्यं हि कारणे परिहीयमाने अविमाने व कार्यस्थापि हानिरुपत्रया भवति यथामहति मृत्पितमे महान् घटोऽल्पे चाल्पीयान् अन्यथा कारणमेव तत्र स्यात् भवतः प्राणापाननि-डासातिशयसंभवे विज्ञानस्यापि विनि-हासाविशयी, विपर्ययस्यापि नावात् मरणावस्यायां प्राणापानातिशयसंभवेऽपि विज्ञानस्य -डासदर्शनातू । स्थादेतत् तता वातपित्तादिनिदोस् विगुणीकृत्या प्रावापनातिशयसंभवे ऽपि चतन्य स्पातिशयसंभवां स एव मृतावस्यायामपि चैतन्यदेवस्य faणीकृतत्वात् तदसमीचीनतरमे वसति मृतस्यापि पुनरु जीवनप्रसक्तेः । तथाहि मृतस्य दोषाः समीजवन्ति समीभ वनं च दोषा समवसीयते ज्वरादिविकारादर्शनात् समया [रोग्यं तथाचकाः तेषां समत्वमारोग्यं कृपी विपर्यय" इति । आरोग्यलाजत्वादेहस्य पुनरुज्जीवनं भवेत् अन्यथा चेह कारणमेव चेतसो न स्यात् तद्विकाराभावानावान्नतु विधानात् एवं हि देहकारणता विकारस्याश्रया स्यात् यदि पुनरुज्जीवनं भवेत् स्यादेतद्युक्तमिदं पुनरुज्जीवनम संगोपादाने तो वद्यपि दोषा देदस्यायेगायमाधाय नि तास्तथापि न तत्कृतस्य वैगुण्यस्य निवृत्तिः न हि दहनकृतो विकारः काष्ठे दहनविर्युतां निवर्त्तमानो दृष्टः तदयुक्तमिह हि चिकिदिनिवर्त्य विकारारम्भकम् । यथा वह्निः काष्टे श्यामनामाचमपिवाि त्पुनः क्वचिन्निवर्त्यविकारारम्भकं यथा स एवाग्निः सुवर्णे तथाहि अनाक्रमणं जयति अनि निवर्त्तते तत्र वाता दयानि चिकारा काश्चिकित्सा प्रयोग । यदि पुनरनिवत्यं विकारका प्रवे नर्ताद्व कारनिवर्त्तनाय चिकित्सा विधीयेत वैफल्यप्रसंगात् न च वाच्यं मरणात् प्रान्दोषा अमिय विकारारम्भका मरणकाले | निय विकारात एकस्य एक नित्यनिचयविकारा रम्नकत्वायोगात् । न होय तय निवस्यविकारारम्भक चानुभवितुमर्हति तथा दर्शनात् । ननु द्विविधो हि व्याधिः साध्योऽसाभ्यश्च । तत्र साध्यो निवर्त्यस्वनावस्तमेव चाधि कृत्य चिकित्सा फलवती असाध्यो ऽनिवर्त्तनीयः नच साध्या साध्यभेदो न वा व्याधिद्वैविध्यमप्रतीतं सकललोकप्रसित्वात् व्याधिश्च दोषेण कृतस्ततः कथं दोषाणां निवर्त्त्यानिवत्यविकारा रम्भकत्वमनुपपन्नमिति तदद्भ्यसत् भवन्मते साध्यासाध्यव्याध्य उपपत्तस्तथाह्य साध्यता व्याधेः कचिदायुःकया च तथाहि तस्मि वैद्यकाच तून प्रतिकृतकर्मोदयात् प्रतिकृम प्यारी का पति द्विविधम पिव्याधेर साध्यत्वमर्द्दतामेव मते संगच्छते न जवतो नृतमात्र तत्यवादिनः कचित्पुनरसा व्यापारयन समय निषेधस्याभावात् वैद्यस्य वा वैद्योपधपकीभावेि व्याधिः प्रमत् समयायुरुप न तु पक्कीजावादेवास्माकमपिं पुनरुज्जीवनं भविष्यति न हि तद भू स्तिया वा यत्पुनरुजीवयति तदप्ययुकं धिकार निवर्त्तनार्थमिष्यतेन चैतन्यस्योत्पादनायें तथा ज्युपगमात् दोषकृताञ्च विकारा मृतावस्थायां स्वयमेव दर्शनात्ततः कि शी धान्वेषणेनेति सदस्य एव पुनरुजीवनसंग पिकि पाणामुपमेयकस्माद्रियते कथविशेषपुवेऽपि जीव किमुपप समदेसि तया च केोष स्योपशमयति मरणं कस्यचित्पुनर्जी स्यान्मते" अर्हतां तु शासने यावदायुः कर्मविजुते तावांचैरतिपादितोऽपि जीवति आयुः कम्ये च दोषा णामधिकृतावपि यिते तदेकारणं संवेदनम् । अन्यश्च देहः कारणं संवेदनस्य सरकार वा भवेद का यदि सहकारितं तदिष्यत एव देहस्यापि कयोपशमहेतु तया कथंचिद्विज्ञानहेतुत्वाभ्युपगमात् । अथोपादानभूतं तद मुक्तमुपादानं हि तत्तस्य यद्विकारेणैव यस्य विकारो यथा मृदुद्घटस्य नय देविकारंीय विकार संवेदस्य देहा कारानावेsपि जयशोकादिना तद्विकारदर्शनात् तत्र देउपा - दानं संवेदनस्य तथा पन्युपादान कयमपरे अहि यद्वस्तुना यः पदार्थों विकार्यते उपादानं तत्तस्य युक्तं गोगवयादिवत् एतेन यडुच्यते मातापितृ चैतन्यमेतच्चेतनस्योपादानमिति तदपि प्रतितिं तत्रापि तद्विकारे विकारित्वं तदविकारे वा मानद अन्य यत् स्योपादानंत तस्मादभेदेन व्यवस्थितं यथा मृदो घटः मातापितृ चैतन्यं सुत चैतन्यस्योपादानं ततादिजेदेन व्यव नित नयति तस्मादेतत्र नृत्य भूतर्षि वा चैतन्यं किंचात्मनो गुण इति तद्गुणस्य प्रत्यक्षसिक आत्मा अनुमानसिद्ध तथानुमानमरूपादीद्रयाणि विमानप्र योजकानि कर्मकरणत्वे सति ग्राह्यग्रादकरूपत्वात् यः कर्मकरणे सति ग्राह्यग्राह करूपस्सद्विद्यमानप्रयोजको यथा शंदेशो यः पिल्के कर्मकरणरूपाणि च सन्ति ग्राह्यग्राहकरूपाणि रूपादीन्द्रियाणि ततो विद्यमानप्रयोजकानीति नचेन्द्रियायां स्वत उपनयं येन रूपाणिं प्रति तेषां कर्तृत् करणत्वमचेतनत्वेन स्वत उपलम्भकत्वायोजनात् तथा चात्र प्रयोगः यदचेतनं तन्नोपलब्धं यथा घटोऽचेतनानि च द्रव्यन्द्रि याणि न चायमसिको हेतुः यतः खबु द्रव्येन्द्रियाणि निर्वृत्युपकरणरूपाणि निर्वृत्युपकरणे व सर्व मचेतनं पुरुलानां काठिन्यावबोधरूपतया चैतन्यं प्रति धम्मिंयोगरूपी सर्वत्रापि च यथाका प्रति पृथिव। यदि पुनरनुरूपत्वाभावेपि धर्म्मधर्मिन्ावी नवेत् ततः कायियोरपि संभवती तरमादचेतनाः पुत्राः तथाचेोक्तं “वाहसनावममुत्तं विसयपरिच्छेयगं च चेयन्नं । विवरीय सहावाणिय, व्यणि जगप्पासिकाणि ॥ १ ॥ ता धम्मपस्मिना, कदमे वाय पानावे afaण किं न जवे ॥ २॥ ततः स्वत उपलम्भकत्वाभावात् रूपादिग्रहणं प्रतीन्द्रियाणां करणभाव एव न कर्तृनाव इति स्थितम् । श्रथ चेदमनुमानं स भोक्तृकमिदं शरीरं नोग्यत्वात् स्याल स्थितादनवत् भोग्यता च शरीरस्य जीवन तथा निवसता नृज्यमानत्वात् द्वयोरपि च प्रयोगयोः साध्यसाधनप्रतिबन्धसिद्धान्ते प्रत्यक्षप्रमाणसिकेति नोतलिङ्गलिङ्गी संबन्धाग्रहरूपदोषावकाशः। श्रागमगम्यप्येष जीवः तथा चागमः "दिगुणं दुनेयं मया । सिद्धं परति 1 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदन्नु ( ५७२) इंदनू अभिधानराजेन्छः । सव्यन्न, नाणसिका य साहुणों" अत्र झानसिकाः साधवो इत्याधुक्ते सति स दध्यौ ।। अवस्थकेवलिनः शेषं सुगपम् नचागमानां परस्परविरुझार्थ नूनमेष महाधूता मायायाः कुबमंदिरम ।। तया सर्वेषामप्यप्रामाण्यमन्युपेयं सर्वइ.सूत्रस्यावश्यं प्रमा कथं बोकसमस्तोऽपि. विनमे पातितोऽमुना" ||२|| णत्वेनान्युपगमाहेत्वादद्याप्यसम्यक् प्रमाधाप्रमाणविभागा नक्कमे कणमात्रं तु तं सर्वझं कदाचन ॥ परिणतेः प्रेक्कावतां वितिप्रसंगात् । अथ कथमेतत् प्रत्येयं तमस्तोममपाकर्तु. सूर्यो नैव प्रतीक्वते ॥ ३॥ यथायमागमः सर्वमूत्र इति उच्यते-यदुक्तोऽर्थः प्रत्यक्केणा वैश्वानरः करस्पर्श केशरोल्लुचनं हरिः॥ नुमानेन वान बाध्यते नापि पूर्वापरव्याहतः सोवसीय सर्वक कत्रियश्च रिपुक्केत्रं न सहन्ते कदाचन ॥ ४ ॥ प्रणीतोऽन्यस्य तथारूपत्वासंम्भवात् ततस्तस्माद्यसिर्फ गता गौमदेशोद्भया दृरदेश नयाजर्जरा गौरास्त्रासमायुः । तत्सर्व सुसिकम् । उक्तश्च “दिद्रुणं स्टेण य, जमि विरोहो मृता मालवीयास्तिमाङ्गास्तिदंगो-द्भवा जझिरे पतिमता मन हज कहिं वि । सो आगमतत्तो ज, नाणं तं सम्मनाएं द्भयेन ,, ५ ॥ अरे बाटजाताः क याताः प्रणष्टाः प्रदिष्टा अपि ति ॥ ततः प्रत्यक्वानुमानागमप्रमाणसिम्त्वावेदपदप्रतिष्ठित द्राविमा वीमवार्ता ।। अहो वादिलिप्सातुरे मय्यमुस्मिन, जग त्वाच सौम्य! अस्ति जीव इति प्रतिपत्तव्यम् ।। आ० म० त्युत्कटे वादिनिक्कमेतत् ॥ ६ ॥ “तस्य ममाने कोऽसौ, द्वि०॥ (श्ह वेद पदोपन्यासस्तेन वेदानां प्रमाणवेनाकीकृत वादी सर्वमानमुद्वहति ॥ इति तत्र गन्तुमुक्तं, तममिति - त्वात् ) आहच गादेवम ,, ॥ ७॥ " किं तत्र वादिकीटे, तव प्रयासेन यामि निबंमि समयंमि, जाजरामरण विष्पमुकेणं । बन्धोऽहम् ।। कमलोन्मन्ननहे तो-नेंतव्यः किं सुरेन्छगजः ,, ॥ सो समणो पन्चइओ पंचहिं सह खंमियसएहिं ॥ ॥ ॥ अकययदयेन्जूतिर्यद्यपि मद्भातृजय्य एवासौ । उक्त प्रमाणेन जिनेन जगवता वर्षमानस्वामिना जरामर- तदपि प्रवादिनाम श्रुत्वा स्यातुं न शक्नोमि ॥ ॥चित्रं चैव णान्यामुक्तकणान्यां विप्रमुक्त श्च विप्रमुक्तः तेन चिन्ने त्रिजगति सहस्रशो निर्जिते मया वादैः ॥ विप्रचटस्थाल्या निराकृते शंशये स इन्द्रततिः पंचनिः खशिमकशतैः गत्र- मिव ककुंदुकोऽसौ स्थितो वादी॥१०॥ शतैः सह श्रमणः प्रवजितः सन् साधुः संवृत्त इत्यर्थः । श्रा अस्मिन्नजिते सर्व जगज्जयोदतमपि यशो नश्येत् । म.द्वि. । आव० ॥ आ००। अल्पमपि शरीरस्थं शल्यं प्राणान् बियोजयति ॥ १२॥ कल्पसुबोधिन्यामिन्द्रततेः कया विस्तरेण एवं प्रतिपादिता निद्रे स्वल्पेऽपि पोतः किं, पायाधौ न निमज्जति । यदा जगवान् महावीरो विहरन् अपापापूर्या महसेनवने एकस्मिन्निष्टके कृष्टे, दुर्गः सर्वोऽपि पात्यते ॥१२॥ जगाम तत्रच यकारयतः समिविप्रस्य गृहे बहवो इत्यादि विचिन्त्य विरचितकादशतिनका स्वर्णयझोपब्राह्मगाः मिश्रिताः (कल्प०) अन्येऽपि उपाध्याय शङ्कर ईश्वर वीतभूषितः स्फारपीताम्बरामम्बरः कैश्चित्पुस्तकपाणिभिः शिवजी जानी गङ्गाधर महीधर भूधर बदमीधर श्रीधर कश्चित् कमएम्बुपाणिभिः कैश्चिद्दर्भपाणिभिः सरस्वतीपिया विष्णु मुकुन्द गोविन्द पुरुषोत्तम नारायण वे श्रीपति कएलगतरण वादिविजयादमीशरण-वादिमदगञ्जनवादिसख उमापति विद्यापति गणपति जयदेव व्यास महादेव शिव भजन-चादिगजसिंह-वादीश्वर विद-वादिसिंहाष्टापद-वा दिविजयविशद-वादिवृन्दतमिपाव-वादिशिरिकाब-वादिक देव गङ्गापति गौरीपति त्रिवामी श्रीकए नीलकान हरिहर दलीकृपाण-वादितमन्नाण-वादिगोध्मघरमर्दित-वादिमर रामजी रावन मधुसूदन नरसिंह कमझाकर जोसी पूनो दृ वादिघटमुद्र-वादिघूकनास्कर-वादिसमुघागस्ति-वादि रामजी शिवराम इत्यादयो मिबिताः सन्ति अत्रान्तर च तरून्मुझनहस्ति-वादिसुरेन्द्र-वादिगरुगोविन्द-यादिजन भगवन्नमस्यार्थ मागच्चतः सुरासुरान् विलोक्य ते अचिन्तयम् अहो यज्ञस्य महिमा यदेते सुराः साक्षात्समागताः अथ राज-वादिकंसकृष्ण-वादिहरिणहरि-वादियथमन्वयादि तान् यज्ञमामपं विहाय प्रनुपाश्व गच्छतो विज्ञाय द्विजाः विषे हृदय शल्य-वादिगण्जीक्क-वादिशबनप्रदीपक-वादिचक्र उस्ततोऽमी सर्वज्ञ वन्दितुं यान्ति इति जनश्रुत्या श्रुत्वा इन्द्र चूमामणि-पवितशिरोमान--विजितानेकवादिसरस्वती जतिः सामर्षश्चिन्तयामास । अहो मयि सर्वज्ञे सत्यपि अप लब्धप्रसाद श्त्यादिविरुदवृन्दमखरितादिकचः पंचभिश्गत्र रोऽपि स्वं सर्व ख्यापयति पुःश्रवमेतत् कर्णकटु कथं नाम शतैः परिवृत इन्धनतिर्वीरसमपिं गच्छश्चिन्तयामास । अहा थ्यते । किं च कदाचित्कोऽपि मूर्खः केनाचिर्तेन वञ्च्यते धृष्नानेन किमेतत् कृतम् । यदहं सर्वज्ञाटोपेन प्रकोपितः अनेन सुरा प्रापि वञ्चिताः यदेवं यइमएमपं विहाय तत्समीपं यतः " समीरानिमुखस्थेन, दवाग्निलितोऽमुना । गगन्ति । अथवा यादृशोऽयं सर्वस्तादृशा पवैते सुरा अनु- कपिकच्चूबता देह-सौख्यायासिङ्गिता ननु ॥ १॥" रूप एव संयोगः यतः (कि मेतेन अधुना निरुत्तरीकरोमि यतः) " पश्यानुरूपमिन्दि-न्दिरेण माकन्दशेखरो मुखरः । तावदति खद्योतस्तावद्गजति चन्माः । अपि च पिचुमन्दमुकुन-मौकुत्रिकुबमाकर मिलति"॥१॥ उदिते तु सहस्त्रांशी न, खद्योतो न चन्द्रमाः ॥३॥ (तथापि नाहमेतस्य सर्वज्ञाटोपं सहे) सारङ्गमातङ्गतुरङ्गमाः पत्राय्यतामाशु बनादमुष्मात्।। यतः।व्योम्नि सूर्यद्वयं किं स्या-गुहायां केसरिद्वयम् । साटोपकोपस्फुट केशरश्रीमंगाधिराजोऽयमुपेतवान् यत्३ प्रत्याकारे च खङ्गो द्वौ, किं सर्वज्ञावहं स च ॥२॥ मम जाग्य जराद्यघा, वाद्ययं समुपस्थितः॥ ततो जगवन्त वन्दित्व। प्रतिनिवर्तमानान् सोपहासंजनान् अद्य तां रानाकएकू-मपनेप्ये विनिश्चितम् ॥४॥ पप्रम नो नो दृष्टः स सर्वज्ञः कीदृशः किंस्वरूप इति जनैस्तु सकणे मम दकत्वं साहित्य संहिता मतिः॥ "यदि वियोकी गणनापर: स्या-त्तस्यासमाप्तियाद नायुषः तर्के कर्कशतात्यर्थ क शास्त्रे नास्ति मे श्रमः ।।५।। स्यात् ॥ पारपराध्य गणितं यदि स्यात, गुणेयनिश्शेषगुणो- अनयं किम वज्रस्य, किमसाध्यं महात्मनां ।। पि स स्यात् ॥१॥ क्षुधितस्य न कि खाद्यं किं न वाच्यं खसस्य च ॥६॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७३) इंदन अभिधानराजेन्द्रः। इंदन तथा ममापि त्रैलोक्य-जित्वरस्य महौजसः॥ संझाऽस्ति कोयः न प्राक्तनी घटाधुपयोगरूपा संझा अवति अजेयं किमिवास्तीह तद्गच्छामि जयाम्यहम् ।। 911 ष्टते वर्तमानोपयोगेन तस्या नाशितत्वादिति । अपरं च स वै इत्यादि चिन्तयन् प्रन्नु-मवेक्ष्य सोपानसंस्थितो दध्यौ । अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि, तथा दददकोः दमो दानं कि ब्रह्मा कि विष्णुः सदाशिवः शङ्करः किं वा ॥७॥ दया इति दकारत्रयं यो वेत्ति स जीवः किंच विद्यमानमोक्तक चन्छः किं स न यत्कलङ्ककसितः सूर्योऽपि नो तीव्ररुक मिदं शरीरं नोग्यत्वात् अोदनादिवत् इत्याद्यनुमानेनापि । मेरुः किं न स यनितान्तकचिनो विषणुन यत् सोशितः॥ तया "कीरे घृतं तिने तैवं काष्ठे ऽग्निः सौरनं सुमे । चन्छ ब्रह्मा किं न जरातुरः स च जरानीरुन यत्सोऽतनु-1 कान्ते सधा यद्व-त्तथात्माप्यङ्गतः पृथक्" "एवं च प्रवचनै तिं दोषविवर्जिताखिनगुणाकीर्णान्तिमस्तीर्थकृत् ॥॥ विधनसंदेहः श्रीमतिः पंचशतपरिवारैः प्रबजितः । तत्क हेमसिंहासनासीनं सुरराजनिषेवितम् ॥ णाश्च"नप्पनेश वा विगमे वा ३ धुवेश्या ३१ति"प्रतुव दृष्ट्वा वीरं जगतत्पूज्यं चिन्तयामास चेतसि ॥ १०॥ | दनान्त्रिपदीं प्राप्य द्वादशाङ्गी रचितवान् । कल्प० ॥ कथ मया महत्त्वं हा, रकणीय पुरार्जितम् ।। इतिवर्णको यथाप्रासाद कीक्षिकाहेतो-नङ्ग को नाम वाञ्छति ॥४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जगवओ महावीएकेन चाजितेनापि मानहानिस्तु का मम ॥ रस्स जेढे अंतेवासी इंदती णामं अणगारे गोयम जगज्जैत्रस्य किं नाम करिष्यामि च सांप्रतम् ॥ ५॥ गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंगणसंगिए बजरिसहअविचारितकारित्व महो मे मदर्धियः ।। जगदीशावतारं य-जेतुमेनं समागतः ॥ ६॥ नारायसंघयणे कणगपुलगणियसपम्हगोरे नग्गतवे दिअस्याग्रेऽहं कथं वक्ष्ये पार्श्वे यास्यामि वा कथम् ॥ त्ततवे नत्ततवे महातवे उराख्ने घोरे घोरगुणे घोरतवस्सि संकटे पतितोऽस्मीति शिवा रक्तु मे यशः ॥ ७ ॥ घोरबंजचेरवासी नच्चूढसरीरे । संखित्तविनलतेउलेस्से कथञ्चिदपि भाम्येन चेद्यदत्र मे जयः॥ चनदसपुची चनणाणोवगए सव्वक्खरसमिवाती सम तदा पएिमतमूर्छन्यो जवामि तुवनत्रये ॥॥ णस्स जगवो महावीरस्त अदूरसामंते नजाणू अहोश्त्यादि चिन्तयनेष सुधा मधुरया गिरा। आनाषिता जिनन्हेण नामगोत्रोक्तिपूर्वकम् ॥ ए॥ सिरे ज्माणकोटोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं जावेहे गोतमन्नू ते त्वं सुखेनागतवानसि ॥ माणे विहर ॥ इत्युक्ते ऽचिन्तयत्ति नामापि किमसौ मम ।। १०॥ (तेणमित्यादि ) तेन काझेन तेन समयेन भ्रमणस्य नगजगत्रितयविख्यातं को वा नाम न वेत्ति माम् ।। वतो महावीरस्य (जेटेत्ति)प्रथमः ( अन्तेवासित्ति) शिष्यः जनस्याबाबगोपालं प्रच्चन्नः किं दिवाकरः ॥११॥ अनेन पदव्येन तस्य सकलसंघनायकत्वमाद (इंदभूपत्ति) प्रकाशयति गुप्तं चेत्संदेहं मे मनःस्थितम् ॥ जनतिरिति मातृपितृकृतं नामधेय ( नामंति) विभक्तिविपतदा जानामि सर्वइ-मन्यथा तु न किचन ॥१५॥ रिणामात नाम्नेत्यर्थः अन्तेवासी किन विवकया श्रावकोऽपि चिन्तयन्तमिति प्रोचे प्रतुः को जीवसंशयः॥ स्यादित्यत आह । (अणगारत्ति) नास्त्यगारं विद्यत इत्यन विभावयसि नो वेद पदार्य श्रृणु तान्यय ॥ १३ ॥ गारः अयश्चावगीतगोत्रोऽपि स्यादित्यत आह ( गोतम समुको मथ्यमानः किं गङ्गापूरोऽथवा किमु ॥ गोत्तेति ) गौतमसगोत्र इत्यर्थः । अयञ्च तत्कामोचितदेह आदिब्रह्मध्वनिः किं वा वीरे वेदध्वनिर्बभौ ॥ १४ ॥ मानापेकया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादित्यत प्राह ( सतुस्सेवेद पदानि च "विज्ञानघन एवैतेज्यो जूतेत्यः समुत्थाय हेत्ति) सप्तहस्तोच्या अयंच बकणहीनोऽपि स्यादित्यत पाह तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसझास्तीति " त्वं तावदेतेषां ( समचरंससंगणसंविपत्ति ) समं नानेपरि अधश्च पदानामर्थमेवं करोषि यत् विज्ञानघनो गमनागमनादिचेष्टा सकरपुरुषसकणोपेतावयवतया तुल्यं तच तच्चतुरनं च प्रवान् श्रात्मा एतेन्यो भृतेन्यः पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशेज्यः धानं समचतुरस्रमथवा समाः शरीरलकपोक्तप्रमाणा विसं समुत्याय प्रकटीनूय मांगेज्यो मदशक्तिरिव ततस्तानि वादिन्यश्चतस्रोऽश्रयो यस्य तत्समचतुरस्रम् । अश्रयस्त्विह चतुनूतान्येव अनुविनश्यति तत्रैव विलयं याति जझे बुबुद श्व दिग्नागोपनविताः शरीरावयवा इति । अन्ये त्वाहुः-समाततो लतातिरिक्तस्य ·आत्मनो-नावात् न प्रेत्यसंझाऽ अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यश्रयो यत्रतत् समचतुरस्रम् अश्रयश्च स्तीति मत्वा पुनर्जन्म नास्तीति । परभयुक्तोऽयमर्थः शा पर्येकासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् श्रासनस्य ससाटोपरिजातावदेतेषामर्थम् । विज्ञानघन ति को ऽर्थः विज्ञानघनो ज्ञान गस्य चान्तरं दकिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं वामस्कन्ध दर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानं तन्मयत्वादात्माप विज्ञानघनः स्य दक्विणजानुनश्चान्तरमिति अन्ये त्वाइर्विस्तारोत्सेधयोः सम प्रति देशं प्रदेशमनन्तकानपर्यायात्मकत्वात् स च विज्ञानधन त्वात् समं चतुरश्रं तञ्च तत्संस्थामं चाकारः समचतुरभ्रसंउपयोगात्मक आत्मा कचिद्भतेन्यस्तद्विकारज्यो वा घटा स्थानं तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा। अयं च हीनसंदिन्यः समुत्तिष्ठते उत्पद्यत इत्यर्थः । घटादिज्ञानपरिणतो हननोऽपि स्यादित्यत आह (वज्जरिसहणारायसंघयणत्ति) हि जीवो घटादिज्य पव हेतुनतेज्यः नवति घटादिज्ञानपरि इह संहननमस्थिसंचयविशेषः वज्रादीनां बकणमिदमणामस्य घटादिवस्तुसापेकत्वात् । एवं च पतेज्योलतेज्यो " रिसहो य होइ पट्टो, वजं पुण काश्रियं विजाणाहि । उभ घटादिवस्तुज्यस्तत्तदुपयोगरूपतया जीवः समुत्थाय समु ओमकम्बंधो णारायं तं, वियाणाहि त्ति" तत्र वजं च तत्कीत्पद्य तान्यव अनुविनश्यति कोऽर्थः तस्मिन् घटादौ वस्तुनि नष्टे लिकाकीलितकाष्ठसम्पुटोपमसामर्थ्य युक्तत्वात् । ऋषभश्च स्रोव्यवते वा जीवो ऽपि तदुपयोगरूपतया नश्यति अन्योपयो हादिमयपट्टवाकाष्ठसम्पुटोपमसामान्चितत्वात् । वर्षनः गरूपतया उत्पद्यते सामान्यरूपतया अवतिष्ठते ततश्च न प्रत्य। स चासोनाराचंच उजयतो मर्कटबन्धनिबरूकाष्ठसम्पुटोपम Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदन अभिधानराजेन्द्रः । सामोपेतत्वात् वज्रर्षभनाराचं तत्संहननमस्थिसंचयवि त्यत आह ( उजापुत्ति ) ऊर्ध्व जानुनी यस्यासावूर्ध्वजानुः । शेषोऽनुत्तमसामर्थ्यायोगाद्यस्यासौ बज्रर्षभनाराचसंहननः । शुरूपूथिव्यासनवजनादीपग्रहिकनिषद्याया अभावाश्चोत्कुटुअन्ये तु कीजिकादिमत्त्वमस्थ्नामेव वर्णयन्ति अयश्च निन्द्यवों कासन इत्ययः (अहोसिरत्ति) अधोमुखो नोर्क तिर्यग्वा ऽपि स्यादित्यत आह (कपायपुजयनिघसपम्हगोरे) कनकस्य विक्किमहाधिः किंतु नियतनूभागनियमितदृधिरिति भावः ॥ सुवर्णस्य (पुलगत्ति) यः पुलको अबस्तस्य यो निकषः कषपट्ट (माणकोडोवगपत्ति ) ध्यानं धयं शुक्न वा तदेव कोष्ठः कुके रेखाबवणः तया ( पम्हक्ति) पनपक्ष्माणि केसराणि तद्व सूसो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतस्तत्र प्रविष्ठो ध्यानकोष्ठेपगतो गौरो यःस तथा । वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादेर्यपुत्रका यथाहि कोष्टके ध्यानं प्रतिमविप्रसृतं भवत्येवं स जगवान् सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो रेखा तस्य यत्पदम भ्यानतो विप्रकी छियान्तःकरण वृत्तिरिति ( संजमेणंति ) बहुलत्यं तौरो यः स तथा अथवा कनकस्य यःपुसकोद्भुतत्वे संचरण (तवसत्ति ) अनशनादिना चशब्दः समुच्चयार्थों सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशो यः स तथा (पम्ह मुप्तोऽत्र अटव्यः संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोवाङ्गत्व त्ति) पद्यं तस्य चेह प्रस्तावात्केसराणि गृह्यन्ते ततः पनवौ ण्यापनार्थप्रधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तप रो यः स तथा । ततः पदध्यस्य कर्मधारयः-अयश्च विशिष्ट सश्च पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन जवति चानिनवकर्मानुपादाचरणरहितोऽपि स्यादित्यत आह (जमातवेत्ति) अग्रमप्रधृप्यं नातू पुराणकर्मकपणाच्च सकसकर्मक्य झवणो मोव इति ॥ तपोऽनशनादि यस्य स अग्रतपाः यदन्येन प्राकृतपुंसा न ( अप्पागं भावेमाणे विहर शति ) आत्मानं वासयं शक्यत चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः (दित्त स्तिष्पतीत्यर्थः । न.१श०१०चं० ॥ पद्मग्रहणेन पाकेस तवेत्ति) दीप्तं जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनस- रात्युच्यन्ते अवयव समुदायोपचारात् यथा देवदत्तस्य हस्ता मर्थतया ज्वलितं तपो धर्मध्यानादि यस्य स तथा (तत्ततवेत्ति) ग्ररूपोऽवयवाऽपि देवदत्तः तया च देवदत्तस्य हस्ताग्रं तप्तं तपो येनासौ तप्ततपाः एवं हि तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि स्पृष्टा बोको वदति देवदत्तो मया स्पृष्ट इति.। सू० प्र० पा० सन्ताप्यन्ते न तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः सन्तापितो यतो चन्द्र० (गणधर शब्देऽस्य मातापितपुरादीनि) ऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति (महातवेत्ति) आसंशादोष-इंदजेसज्ज-इन्जे पज-न० इन्ण प्रकाशित भेसजम । शुरहितत्वात् प्रशस्ततपाः ( उरालेत्ति)जीम उप्रादिविशेषण एम्याम् । शब्दरत्न । वाचा विशिष्टतपःकरणात्पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानांभयानक इत्यर्थः। इत्यथः।। इंदमह- मह-पु० ः शक्रस्तस्य महः प्रतिनियतदिव. अन्येबाहुः ॥ (उरावत्ति) उदारः प्रधानः ( घोरेति ) सभाची उत्सव इन्जमहः ! प्रतिनियतदिवसनाविनि इन्सघोरो निणः परिषहेन्डियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दय न्तोषार्थे महोत्सवरूप महामहन्नेदे, । जी० ३३० । जंहा० इत्यर्थः । अन्ये त्वात्मनिरपेक्वं घोरमाहुः (घोरगुणेत्ति) घोरा आचारा । "दमहेश्वा" । ज० श० ०३३। विपा० । अन्येषुग्नुचरा गुणा मृबगुणादयो यस्य स तथा (घोरतव श्दमही आसायपुरिजमाए भवतीति । आ०००४॥ स्सित्ति घोरैस्तपोभिः स्तपस्वीत्यर्थः (घोरबनचेरवासित्ति) आय० । स्था० । प्रवानि च। “इंदाश्महापायं पश्घोरं दारणमल्पसत्त्वैदरनुचरत्वाद्यब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं नियया ऊसवा हॉति" । उत्सवाः प्रायः प्रतिनियता वर्षमध्ये यस्य स तथा (सच्चूढसरीरत्ति) उच्चूदं उज्जितमिवोज्जितं प्रतिनियतनाविन इन्डादिमहा इति। प्रा० म०प्र० । अयंच शरीरं येन तत्संस्कारत्यागात्स तथा ( संखित्तविचलतेय जरतकालादेव प्रवृत्त इति । आ० म०प्र० (प्रवृत्तिकारणमिमेसत्ति) संक्षिप्त शरीरान्तीनत्वेन न्हस्वतां गता विपुला दज्जया शब्दे)। विस्तीणों अनेकयोजनप्रमाण क्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वातेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यशब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला इंदमहकामुग-इन्डमहकामुक पु० इन्जमहे वर्षादिकाले कामुकः यस्य स तया । मूबीकाकृतातु (उच्ढसरीरसंखित्तविचल कामयिता । कुक्कुरे,वर्णदावेव तेषांव्यवायधम्नों लोकप्रासिकः। वाच॥ तेयलेसेत्ति ) कर्मधारयं कृत्वा व्याख्यातमिति (चन्ह सपुग्वित्ति) चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां | इंदमुकाजिसित्त-इन्डम निषिक्त-पु० एकैकपकस्य पञ्चरचितत्वादसौ चतुर्दशपूर्वी अनेन तस्य श्रुतकेवसितामाह स दशदिवसेषु स्वनानख्याते सप्तमे दिवसे, "दमुकानिसित्तेय" चावधिज्ञानादिविकोपि स्यादत आह (चउनाणेवगणपत्ति) । चं०१० पाहु । ज्यो ॥ केवलज्ञानवर्जनकानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः वक्तविवेषणद्व- इंदय-इन्धक-पु. इन्श ब्दार्थे, स्था. ६ ०। ययुक्तोऽपि कश्चिन समयधुताविषयव्यापिकानो भवति इंदयणिरय-इंधकनिरय--पु० निरयेन्द्रकमहानिरये,स्था.छगन चतुर्दशपूर्वविदां षट् स्थानकपतितत्वेन श्रवणादित्यत आह इंदराय-इन्धराज-पुं. इन्जे, “घणसमए इंदरायस्स" ति०॥ (सव्वक्खरसन्निवात्ति) सर्वे च ते अकरसन्निपाताश्च तत्सं | इंदनष्टि-इन्जयष्टि-स्त्री० इन्केती, निव्वत्तमहेव्व इंदबट्ठी योगाः सर्वेषां चाक्वराणां सन्निपाताः सर्वाकरसन्निपातास्ते यस्य जयतया सन्ति स सर्वाकरसन्निपाती । श्राव्याणि वा विमुक्कसंधिबंधणा ॥ ज्ञा० १०॥ श्रवणसुखकारीणि अकराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शील इंदवरा-इन्छवजा-स्त्री० स्यादिन्द्रवजा याद तो जगी गः मस्येति श्राव्याकरसन्निवादी स च एवं गुणविशिष्टो नगवान् नक्ते हादशाकरपादके वर्णवृत्तनेदे, वाच० । वृत्तर०॥ विनयराशिरिव सावादिति कृत्वा शिष्याचारवाच (सम-दवसा-इन्वंशा-स्त्री० स्यादिन्द्रवंशा ततजेरसंयुतः वृत्त स नगवओ महावीरस्स अदूरसामंते विरहतीति) योग र० चक्ते द्वादशाकरपादके वर्णवृत्तभदे, वान.॥ स्तत्र दूरं च विप्रकृष्टं सामन्तञ्चसनिकृष्टं तनिषेधाददरसामन्त इंदवन-इन्धवसु-स्त्री० पांचादेशस्थकांपिल्यनगरनिवासि तत्र नातितूरे नातिनिकट इत्यर्थः । किंविधः संस्तत्र विहरती बादत्तस्य जायायाम् । वर० १३ अ०॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७५) इंदवागरण अभिधानराजेन्डः। इंदिय इंदवागरण-इन्धव्याकरण-न० शब्दशास्त्रोदे, कल्प० । तयश्च अणिय शब्दे) जंबमंदरोत्तर वर्तिन्या रक्तवतीम्महानदी__तच गवत झषभदेवस्य समये संजातम् ॥ समुपयान्त्याम्महानद्याम्, । स्था० १० ग०। अह त अम्मा पियरो, जाणिसा अहियअहवा. इंदा-इन्डा-स्त्री० दि रन् इन्द्रवारुण्याम्, । राजनि शकयकोउयलंकार, लेहायारयस्स नवणेति ॥ च्याम, शब्दर । वाच॥ जम्बूमन्दरोत्तरवर्तिन्यां रक्तवती अय भीषणानन्तरं कियत्काबातिकमे जगवन्तमधिकाष्टवर्ष महानदी समुपयान्त्याम्महानद्याम, स्था० १० गाधर णस्य नागकुमारेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामप्रमहिण्याम, स्था. मातापितरौ ज्ञात्वा कृतानि कौतुकानि रवादीनि अझङ्काराश्च ६ ग केयूरादयो यस्य स तथा तं प्रवरहस्तिस्कन्धगतं तु परितोमुक्काजासमाल्यदाम्ना उत्रेण ध्रियमाणेन चामराज्यां वीज्यमा ऐन्धी-स्त्री. इन्द्रो देवता यस्याः सा ऐन्छ।। पूर्वस्यान्दिशि नं मित्रातिपरिजनसमेतं खाचार्याय उपाध्यायाय उपन- स्या० १० ग० । ज० । विशे० । “रंदा विजयदागणुसा यतः। पामन्तरं वा "नवणीसु" उपनीतवन्तौ उपाध्यायस्य रतो" ॥ ऐन्डी दिक विजयद्वारानुसारतः प्रतिपत्तव्या यत्र महासिंहासनं रचितं अत्रान्तरे देवराजस्य स्खल्यासनकम्पो विजयद्वारं सा ऐन्द्रीतिभावार्थः।प्रा०म०वि०॥ यारुचकात् बनूव । अथावधिना च प्रयोजनविधि विज्ञाय अहो खन्यप- विजयद्वारानुसारेण विनिर्गता दिक् सा ऐन्द्री । ऐन्छी नामपू त्यस्नेहविनसित शुधनत्रयगुरुं प्रति भातापित्रोर्येन भगवन्त वेत्यर्थः ॥ श्रा० म०द्वि०॥ मपि लेखाचार्यायापनेतुमन्युद्यताविति संप्रधागत्य च उ इंदाणी-इन्काणी-स्त्री०इन्स्य पत्नी । कीप् प्रानुकच । इन्ज पाध्यायपरिकल्पिते वृहदासने भगवन्तं निवेश्य शब्दबकणं स्याग्रमहिन्याम, । स्था०४ ग. । पृष्टवान् । कल्प०॥ इंदायरिय-ज्ञाचार्य-पु. योगविधिकारके स्वनामख्याते. अमुमेवार्थ प्रतिपादयति । आचार्य, जैन३०॥ सक्को य तस्ममक्ख, जयवंतं आसणे निवेसित्ता। इंदासण-इन्छासन-पु. इन्छ आत्मा अस्यते विक्तिप्यतेऽनेन सद्दस्त लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा इंदं ।। असु केपे करणे ल्युट । (सिकि) संविदावृके तत्सेवने हि शक्रो देवराजस्तत्सम लेखाचार्यसमकं नगवन्तं तीर्थक आत्मनो विक्षिप्तत्वात्तस्य तयात्वम् । पञ्चमात्रिकस्य प्रस्तावे रमासने निवेश्य शब्दनकण पृच्छति जगवता च व्याकरण आदिमधुके शेषगुरुद्वयात्मके प्रथमे दे, वाच०॥ मन्यधायि । " व्याक्रियन्ते हकिका. सामयिकाश्च शब्दा अने- | इंदाहिहिय-इन्डाधिष्ठित-त्रि इन्ध्युते, " इंदाहिट्ठिया" नेति व्याकरणं" शब्दशास्त्रं तदवयवाः केचन उपाध्यायेन पत्र तदवयवाः कचन उपाध्यायेन | इति । इन्डाधिष्ठिता तक्तत्वादिति । न. ३ श०१० । गृहीतास्ते च संदर्भितास्ततः ऐई व्याकरण संजातम् । आ० | "दशकप्पा दहिटिया पसत्ता" । सौधर्मादीनामिन्माधिम.द्वि० । प्रा० चू०॥ ष्टितत्वमेतेष्विन्त्राणां निवासादिति वृत्तिः । स्था० १० ग। इंदसत्त-इन्मशत्रु-पु० इन्द्रः शत्रुः शातयिता यस्य । वृत्रासुरे, | इंदाहीण-इन्धाधीन-त्रि०वश्ये, ज०३ श० १७०। वाच॥ इंदसम्म (न्) इशर्मान-पुं० आस्यिकग्रामस्थस्य शूलपा इंदाहीएकज-इन्द्राधीनकार्य-त्रि० इन्जवश्यकार्ये, न.३ णियकस्यार्च के ब्राह्मणे , “इन्द्रशर्मा भृतिन्दत्वा ग्राम्यैस्त श० १०॥ स्यार्चकः कृतः "शति ॥आका। आञ्चू । “तत्य रंदसम्मो इंदिय-ईन्डियन इदि परमैश्वर्ये शदितो नुम् इन्दनादिन्छ नाम परियारगो कओ" | प्रा०म०६० । मोराकसभिवे आत्मा (जीव) सर्व विषयोपलब्धि (ज्ञान) नोगतकणपशस्ये स्वनामण्यात गृहपतौ च (तत्कया महावीरस्य मोराक- रमैश्वर्ययोगात् तस्य विचिन्हमविनाभाविलिङ्गसत्तासूचनात् सधिवेशं गतस्य विहारसमय-महावीरशब्दे वदयते) प्रदर्शनादुपनम्नाद व्यञ्जनाच्च जीवस्य निङ्गमिन्ष्यिसिङ्गमि इंदसलह-इन्श नज-पु० इन्द्रजातः वर्षाकालजातशमनः। ज्यिविषयोपनम्नात् झापकत्वसिहि तत्सिको उपयोगलकइम्बगोपे, वाच॥ णो जीव इति जीवत्वसिकिः। अष्ट । आ० म०द्वि० । तेन इंदसिरि-इन्छ श्री-स्त्री० पंचायदेशस्थकाम्पियनगरनिवासिनो दृष्टं सुष्टं जुष्ट दत्तमिति वा इन्ज्यिम् । स्था०५ गान्धि हा ( राज) दत्तस्य भार्यायाम, उत्त०१३ अ०। यमिति निपातनसूत्रापनिष्पत्तिः-नं0 जी01 विशे०।पा। ऐन्छश्री-स्त्री० इमोजीवस्तस्येयमैन्द्रीसा चासोश्रीचन्द्रश्री। पंसं शब्दादियप्रत्यय इति । प्रशा०१५पद।आञ्चू०॥ श्रोत्रादौ, । उत्त०१६ अ०। सूत्र० । नयनघदनजघनवक्कास्य आत्मगुण सदम्याम् "पेन्श्रीसुखमनेन, लीलालग्नमिवास्खिलम् सनाभिक कादौ, उत्त०१६अ० "नो निग्गये इत्थीणं दियाई सश्चिदानन्दमनेन, पूर्ण जगदवेदयते ।।" अष्ट०१०। मणोहराईमणोरमाई अानोश्त्ता निज्माश्त्ता भवति" उत्त० इंदसेदि-ऐन्छश्रेणि-स्त्री० इन्फ्राणामियमैन्डी सा चासौ श्रेणि श्चेति पेन्द्रप्रेणी। इन्अपंक्ती, “ ऐन्छश्रेणिनता प्रतापभवनं इंदो जीवो सन्यो-वधिजोगपरमेसरत्तणन । जव्याङ्गिनेत्रामृत सिद्धान्तोपनिषाविचारचतुरैः प्रीत्या प्रमाणी सोत्ताइनेयमिंदिय-मिह तट्विंगा जावाउ । कृता । मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन्मो इदि परमैश्वर्ये इन्दनात्परमैश्वर्ययोगादिलो जीवः परमैश्वर्य होन्मादधनप्रमादमदिरामत्तैरनाझोकिता"॥१॥ प्रतिः। मस्य कुत इत्याह (सम्बो इत्यादि) प्रावरणानावे सर्वस्यापि इंदसणा-इन्सेना-स्त्री० ६ तान्द्रस्य कटके, “ गंधयन वस्तुन उपप्तम्नानाभावेषु सर्वस्यापि त्रिजगतस्य वस्तुनः हयगय-रहनाणियागासवदाणं । वेमाणियाणि बसहा, परिजोगाच्च परमश्वरो जीव इति तस्य परमैश्वर्य तस्येन्द्रपहिसाथ अमोनिवासी या संघसू०। (स्वरूपमधिप- स्थ जीवाङ्गचिन्ह तेन दृष्टं वा निपातनादिहजियमुन्यते Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय अभिधानराजन्यः । इंदिय तविनादिनावादिति । तश्च श्रोत्रादिनेदं श्रोत्रनयनत्राणरस- स्युपकरणेऽव्येजियवन्ध्युपयोगी भावेन्डियमिाम । तत्र निर्वनस्पर्शनभेदात्पञ्चविधीमत्यर्थः । विशे॥ त्तिम प्रतिविशिपः संस्थानविशेषः साऽपि द्विविधाः वाह्यास्था। प्रव०। सूत्रः । पञ्च स्पर्शादीनि बुहीन्द्रियाणि वाक ज्यन्तराच तत्र वाह्या पर्पटिकादिरूपा साच विचित्रान प्रतिरूप पाणिपादपायूपस्यरूपाणि पश्च कर्मेन्द्रियाणि एकादश मन नियतरूपतयोपदेणं, शक्यते । तथाहि । मनुष्यश्रोत्रे नेत्रयोरुभइति सांख्याः । सूत्र०१ श्रु०१०। यपार्श्वतो भाविनी भ्रवी चोपरितनश्रवणबन्धापेक्कया समे वातस्य च नोइम्यत्वं स्थानाने उक्तम् । तद्यथा जिनीनेत्रयोरुपरि तीदणे चाग्रजागे इत्यादि जातिदानानाहिं इन्जियत्या पामत्ता तंजहा सोइंदियत्ये जाव विधा प्राज्यन्तरा तु निवृत्तिः सर्वेषामपि जन्तूनां समानता फासिंदियत्ये नो इंदियत्थे । मेववाधिकृत्य वक्ष्यमाणानि संस्थानादिविषयाणि सूत्राणि के तत्र श्रोत्रेन्डियादीनामा विषयाः शब्दादयः मनस अान्तर वत्रं स्पर्शनेन्द्रियस्य निर्वृत्ताह्यान्यन्तरजेदा न प्रतिपत्तव्याः करणत्वेन करणत्वात्करणस्य चेन्द्रियत्वात्तत्रान्तररुढ्या वा पूर्वसरिनिनिषेधात् । प्रशा०१५ पद । प्रा०म० द्वि० तत्वार्थमू मनस शन्छियत्वात्तद्विषयस्यन्छियार्थत्वेन पमिन्द्रियार्था इत्यु सटीकायामनन्युपगमात् । जी०१०। कम् । औदारिकादित्वार्यपरिच्छेदकत्वनवणधर्म द्वयोपेतमि छियाणां संस्थानान्याह । न्द्रियं तस्यौदारिकादित्वधर्मबक्कणदेशनिषधा-नोन्द्रियमनः पुष्फ कनंबुयार, धन-मसूरादिमुत्तचंदो य । सारश्यार्यत्वाद्वा मोशब्दस्यार्थपरिच्छेदकत्वे नेन्द्रियाणां सहशमिति तत्सहचरमिति वा नोशन्द्रियं मनस्तस्यार्यों विषयो होई खुरुप्पनाणा, किई य सोइंदियाईणं ॥ जीवादिनो शन्छियार्थ इति । स्था०६ ग० । श्रोत्रस्यान्तनिवृत्तिःकदम्बपुष्पाकारमांसगोलकरूपा दृष्टव्या । १-इन्जियाणां पञ्चत्वेऽपि नामादितश्चातुर्विध्यं व्यादितो चकुषन्तु धान्यमसराकारा, घ्राणस्य अतिमुक्तककुसुमचन्द्रकाद्वैविध्यं तत्संस्थानञ्च । कारा, रसनस्यकुरणाकारा, स्पर्शनं तु जानाकृतिटव्यमित्येष -इन्द्रियाणां बाहुल्यपृयक्त्वप्रदेशावगाहनास्तरात वे श्रोत्रादीनां तन्निवृत्तराकार इति । विशे। दना च। तथाच प्रज्ञापनाया पश्चदशे पदे । ३-इन्डियाणां पधुत्वं तदवगाहना च । ४-इन्डियाणामस्पबहुत्वं तद्गुणाश्च । सोइंदिए णं जन्ते ! किं संलिए पप्तात्ते ? गोयमा ! ५-नैरयिकादिषु संस्थानाद्यल्पबहुत्वचिन्तनम् । कलं यापुप्फसंताणसंविए पतात्ते चविखदिएणं पुच्छा ६-इन्द्रियाणां वर्तमानार्थग्राहकत्वम् । गोयमा ! मसूरा चंदसंगणसंठिये पहात्ते, घाणिं दिएणं ७-इन्द्रियाणां स्पृास्पृष्ट विषयता तद्ग्रहणप्रकारश्च । पुच्ा गोयमा ! अइमुत्तगचंदसंगणसंविए पप्तमत्ते, -इन्ज्यिाणां प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्तनम् । ए-श्रोत्रलकणादीडियाणां प्राप्यकारित्वं नयनमनसारप्राप्य-1 जिदिनदिएणं पुच्चा गोयमा खुरुप्पसंगणसं लिए पत्ते कारित्वम् । फासिदिएणं पुच्चा गोयमा ! नाणासंगणमंपिए पप्पत्ते, १०-इन्द्रियाणां विषयनिरूपणम् । ११-इन्ज्यिासंभृतत्वरूपस्येन्द्रियासम्बरदोषस्य चाभिधानम्। तत्रान्तः श्रोत्रन्छियस्यान्तर्मध्य नेत्रगोचरोऽतीता केवत्रिदृष्ण अतिमुक्तककुसुमाकारा देहावयवरूपा काचिनिर्वृत्तिरस्ति १२-इन्जियाणां गुप्तागुप्तदोषाभिधानम् । १३-अनामितानि चेन्द्रियाणि दुःखाय जवन्ति इत्यत्रोदाह शब्दग्रहणोपकार वर्तते चक्षुरिन्डियस्यान्तमध्ये केवलिगम्या धान्यमसूराकारा काचिन्निवृत्तिरस्ति या रूपग्रहणोपकारे - रणानि । १४-इन्डियाश्रितत्वे जीवानां नेदाः । वर्तते । प्राणप्रियस्यान्तर्मध्ये केवलिदृष्टा अतिमुक्तककुसुमा(१) इन्द्रियाणां पञ्चत्वेऽपि नामादितश्चातुर्विध्य अव्यादि कारा देहावयवरूपा काचिन्निर्वृत्तिरस्ति या गन्धग्रहणापेतोविध्यं तत्संस्थानश्च। कारे वर्त्तते । रसनेन्द्रियस्यान्तर्मध्य जिनगम्या क्षुरप्रहरणा कणं जंते ! इंदिया पामत्ता ? गोयमा ! पंचिंदिया कारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति या रसग्रहणोपकार पामत्ता तंजहा सोइंदिए चक्खिदिए पाणिदिए निन्नि वर्तते । स्पर्शनेन्द्रियस्यान्तः कवविदृष्टा देहाकारा काचिन्निव त्तिरस्ति या स्पर्शग्रहणोपकार वर्तते ।। तंदु०॥ दिए फासिदिए। उपकरणं खङ्गस्थानीया बाह्या नितिर्या खड्धारासमानाकति कियत्संख्याकानि णमिति वाक्याबारे भदन्त ! स्वच्चतरपुससमूहात्मिका अत्यन्तरा निर्वत्तिस्तस्याः शक्तिइन्ड्रियाणि प्रागनिपतितशब्दार्यानि वक्तव्यानि भगवानाह। विशेषः श्दञ्चोपकरणरूपं व्यन्छियमन्तरेनिवृत्तेः कथं चिदगौतम ! पञ्चन्द्रियाणि प्राप्तानि तान्येव नामत आह "सोई धान्तरं शक्तिशक्तिमतोः कथंचिभेदात्कथञ्चिद्भेदश्च सत्यामाप दियए " इत्यादि । प्रशा० १५ पद । तस्यामान्तरनिवृत्ती घ्यादिनापकरणस्य विघातसम्नधात् पतानि च पञ्चापि इन्द्रियाणि नामादिभेदाचीवधानि तथाहि-सत्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरनिर्वृत्ता तं नामाइ चनका, दव्वं निबित्ति नवगरणं च । वतिकोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपधाते सात नपरिच्छे आगासे निवित्ति, चिंतावकाय माअन्नो ।। तुमीशत जन्तवः शब्दादिकमिति । प्रा० १५ पद । तन्नामेन्द्रियस्थापनेन्द्रियमित्यादि नेदाच्चतु तत्र इभव्य विसयग्रहणसमत्थं, नवगरणिं दियं तरं तं पि । शरीरव्यतिरिक्तं व्यं व्यन्द्रियं निर्वृत्तिरुपकरणं चेति द्विनदेम् । विशे०।। नते ह तवघाए गिएहइ निव्वत्तिजावे वि ॥ जावतो बन्युपयोगात्मकानि आह च तत्त्वार्थसूत्रकृत् निर्वृ तस्य एव कदम्बपुष्पाकृतिमांसगोरकरूपायाः श्रीवाद्यन्तर्नि For Rrivate & Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७७) इंदिय निधानराजेन्धः । इंदिय वृत्तेर्यद्विषयग्रहणसमर्थ शक्तिरूपमुपकरणं अव्येन्जियमुच्यते तेण त्थि तदावरण-क्खोवसमसंजवो तेसि ॥१॥ शत शेषः । यथा खङ्गस्य नेत्री शक्तिर्वर्वा दाहादिका यस्मात् किम बकुबचंपकतिलकविरहकादीनां वनस्पति शक्तिस्तथेदमपि श्रोत्राद्यन्तनिवृत्तविषयग्रहणसमर्थशपिं विशेषाणां स्पर्शनाच्छेषाणि यानि रसनघ्राणचकुम्श्रोत्रसकणा अपव्यम् । तीन्तर्निर्वृत्तिरेव तत्तच्चक्तिरूपत्वान्न पुनर्नेदान्तर- नीम्याणि तत्संबन्ध्युपसम्भो दृश्यते तेन ज्ञायते तेषामपि मित्याशंक्याह । तदपीडियान्तरं अन्येन्ज्यिस्य जेदान्तरमि- बकुलादीनां तदावरणक्कयोपशमसंनवो रसनादीन्द्रियावार त्यर्थः कुत श्याह (जमित्यादि) यस्मादिह कदम्बपुष्पाधाकृ- ककर्मक्कयोपशमस्य या च यावती मात्रा अस्तीति अन्यथा दि तेर्मासगोलकाकारायाः श्रोत्राद्यतनिवृत्तर्या शब्दादेविषयच्चे बकुलस्य शृंगारितकामिनीवदनार्पितचारुमदिरागएफूषेण चंश्री शक्तिस्तस्या वातपित्तादिना उपघाते विनाशे सति यथो- पकस्यातिसुरनिगन्धोदकसेचनेन तिबकस्य कामिनीकटाकक्तांतर्निवृत्तिसद्भावेपि न शब्दादिविषयं गृह्णाति जीव विक्केपेण विरदकस्य पञ्चमोदारश्रवणेन पुष्पपदवादि श्त्यतो ज्ञायते अस्त्यन्तर्निवृत्तिशक्तिरूपमुपकरणेन्षियं 5- संभयो न घटेत। विशे०॥ यद्यपि अव्यरूपं भावरूपं चेत्थामव्यन्छियस्य हितीयो नेद शताविशे० "इंदियाणि ऽविहाणि ज्यिमनेकप्रकारं तथापीह बाह्यनिर्वृतिरूपमिन्द्रियं पृष्टमव दविदियाणि भादियाणि अ दबिदियं दुविहं णिवत्तणाए गन्तव्यं तदेवाधिकृत्य व्यवहारप्रवृत्तेः तथाहि बकुलादयः उवकारणे य णित्तव्वणाए जहा लोहकारो जणितोपतेण सोहेण पञ्चझिया श्व भावेन्द्रियपश्चकविज्ञानसमन्विता अनुमानतः परसुं वासिं थोभणयं च णिवत्तेहिंति तेण तं गहाय ततार्ह प्रतीयन्ते तयापि न ते पञ्चेन्द्रिया ति व्यवन्दियंते बाहन्छि पमाणेहि खंमियाणि जाव कम्मरस समत्थाणि सा णिवत्तणा यपञ्चकासनवात् । जी० १०॥ कजसमत्थाणि जायाणि उवगरणाई" || आ००२०॥ पंचिंदियव्य बउझो, नरोव्व सचविसयोववंजान ॥ जावेन्द्रियमपिद्विधा सब्धिरुपयोगश्च तत्र सब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादि तह विन जाइ पंचें-दिश्रोत्ति वकिदियाजावा॥१॥ विषयस्तदावरणक्योपशमः उपयोगः स्वस्वविषये - पंचडिय श्व बकुल शति प्रतिज्ञा सर्वेषामपि शब्दरूपादिवि अभ्यनुसारेणात्मनः परिच्छेदव्यापारः। जी०१०। "भावैदियं शेषाणामुपसम्भादिति हेतुः नरवदिति रष्टान्तः। ननु बकुलस्य विहं सहिए वोगत्तो य जाणि जेण जीवेण लकाई इंदियाणि सा का पगिदियाणं पगा फासिदियसकिदिया रसनेन्धियोपनम्न एवोक्तस्तत्कथमस्य सर्वविषयोपशम्नसंणं तेइंदियाणं चरिंदियाणं पंचेंदियाणं पंचविहो उघओगो जव इति सत्यम मुख्यस्तावत्स एव संभवति गौणवृत्या तु शेषन्छियविषयोपलम्नोऽप्यस्य संजाव्यते शृङ्गारितस्वरूप जाहे जेण इंदिपण लवजुञ्जतिसव्धजीवाय किर उवओगंप/वर एगिदिया"श्रा०-३०२ अ०॥ तरुणीमदिरागंडूषार्पणात् तस्यां च तनुलतास्पर्शाधररस चंदनादिगन्धशोभनरूपमधुरोद्वापलवणानां पञ्चानामपीनिक तदाह॥ यविषयाणां संभवादिति अन्यथा वा पञ्चेन्द्रियत्वमस्य सुधिसरोगो जावि-दियं तु बहिात जोखनवसमो। या नावनीयं तयेकन्डियो बकुलः कथं प्रसिहः पञ्चन्छियोऽपि होइ तदावरणाणं, तबाने चेव सेसं पि॥१॥ कस्मान्न व्यपदिश्यत इत्याह । तथापि पश्चेन्द्रियोऽसौ न सन्ध्युपयोगो जावेडियं तत्र यदावरणानां तेषामिन्द्रियाणा- जण्यते बाह्यानां निर्वृत्त्यादि व्यन्छियाणामभावादिति ॥ मावारककर्मणां कयोपशमो नवति जीवस्य सा सब्धिः शेष अमुमेवार्थ कुंभकारव्यपदेशदृष्टांतेन समर्थयन्नाह ॥ मपि अव्येन्द्रियं तल्लान एव सब्धिप्राप्तावेव भवतीति इष्ट- सुत्तो वि कुंजनिबत्ति, सत्तिजुत्तोत्तिजह सघमकारो। व्यमिति ॥ उपयोगः क इत्याह ॥ सदिएण पंचें-दिओ तहाबज्किरहियो वि ॥ जो सविसयवावारो, सो उपभोगो स चेगकामम्मि ॥ सुबोधार्थमिन्द्रियाणां जानक्रम उच्यते। तत्र यदा अव्ये नियसामान्य भावेन्डियसामान्य वाश्रित्य पृच्च्यते तदा तदा एगण होइ तम्हा, नवओगाओ न सव्वो वि ॥१॥ भे चैव "सेसपित्ति" प्रागुक्तवचनाल्लब्धिमाश्रित्य प्रथमं भायः श्रोत्रादीन्छियस्य स्वविषये शब्दादौ परिच्छेद्य व्यापा वन्द्रियत्नाभस्ततो व्यन्छियमान इति षटव्यम् । यत्तु रः स उपयोगः स चैकस्मिन्काले एकेनैव श्रोत्राद्यनन्तरेण अव्येन्द्रियनावेन्द्रियसामान्याद्भिन्नः कृतो लाजः पृच्छयते इन्द्रियेण नवति न बुद्ध्यादिभिः तस्माऽपयोगमाश्रित्य सर्वो विशेषरूपतया पृश्यते इत्यर्थः तदित्यं द्रष्टव्यं प्रथममि पिजीव एकेन्द्रिय पव सर्वस्मिन्काने देवादीनामप्येकस्यै छियावरणक्योपशमरूपा सब्धिर्भवति ततो बाह्यान्तरनेद व श्रोत्राद्यनन्तरेन्द्रियोपयोगस्य सद्भावादिति । यद्यपयोगतः निन्नं निवृत्तः शक्तिरूपमुपकरणं तदनन्तरं चेन्द्रियार्थोप सर्वोपि जीव पकेंड्रियस्तहाँडियो द्वीडिय इत्यादिर्जेदः योग इत्येतदेवाह ॥ कथमागमनिर्दिष्ट इत्याह मानकम्मे उसकी, निच्चउवगरणउपयोगो। एगेंदियाइनेया, पमुच सेसे दियाणि जीवाणं ॥ या दव्वेदिय नावि-दिय सामन्त्रओ को जिनो।। अहवा पमुच्चमकिं-दियं पि पंचेंदिया सन्चे ॥१॥ व्याख्याता तदेव व्याख्यातमिजियस्वरूपम् । विशे० अतो जीवानामेकेन्द्रियादयो भेदाः शेषाणि निर्वृत्त्युपकरण नातं०। श्रा० म० द्वि०। प्रका०। जी०। स्थाः । पा० । अब्धीन्द्रियाणि प्रतीस्य एव्यं तानि यस्य यावान्त तावद्भि अष्ट० । आचा। यंपदेश तिन तुपयोगतः अथवा लब्धीन्द्रियमप्याश्रित्य अत्र्येन्डियभावेन्डियभेदाः यथा-- वक्ष्यमाणयुक्तितः सर्वे पृथिव्यादयोऽपि जीवाः पञ्चडिया ए वेति कुतः सर्वे पश्चंडिया इत्याह । कतिविहा णं जते! इंदिया पामत्ता? गोयमा! दुविहा जंकिर वनलाईणं,दीस सेमेंदिओवज्ञजो वि॥ पात्ता,तं जहा दचिदिया यजाविंदिया य । करणं ते! Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७८) इंदिय अभिधानराजेन्सः। इंदिय दलिदिया पणते ? गोयमा ! अहदबिंदिया पाते, बकेगा सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा । विजयवे तंजहा दो सोत्ता दो नेता दो घाणा जीहा फासे । नेर जयंतजयंत अपराजियदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! अतीता अणंता बकेवगा असंखिज्जा पुरविमा असंखिज्जा याणं जंते! कादम्बिदिया पणता? गोयमा अट्टाएते चेव सबसिछगदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! अतीता अर्णता एवं असुरकुमाराणं जाब थाणियकुमाराण वि । पुढवि या बच्चेवगा संखिज्जा पुरक्खमा संखेम्जा ॥ काइयाणं जंते ! कादम्बिदिया पसाता? गोयमा ! एगे (कविहाणं ते इंदिया पत्ता शति) व्यन्छिय सुगावं फासिदिए पम्पते । एवं जाव बणस्सहकाइयाणं । बेई प्राग्भावितत्वात् । (कविहेणं भंते! दबिदिया पत्ता इति) दिवाणंचंते!करदबिदिए पाते? मोक्मा !दो दम्बिादिया सम्बन्धिवसंख्याविषयं दएकसूत्रापारसिकम् । एक पमत्ता, तं जहा फासिदिए य मिचिदिएमा तेइंदियाएं जीवविषयातीतपरपुरसतव्यन्छिवचिन्तायाम-यो नैति को ऽनन्तरमनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्व मानुषजवसम्बपुच्चा, गोयमा ! चत्तारि दबिदिया पक्षता दो घाणा धीम्यष्टौ, यः पुनरन्यतरभवे तिर्यक् पञ्चेन्धियत्वमवाप्य जीहा फार्सिदिए । चउरिदियाणं पुच्छा, गोयमा ! - तत उत्तो मनुष्येषु गत्वा सेत्स्यति तस्यायै तिर्यपञ्चेदबिदिया पात्ता, तं जहा-दो नेत्ता दो घाणा जहा छियानवसम्बन्धीन्यौ मनुष्यभषसम्बन्धीनीति पोमश । यः फासे सेसाणं जहा नेरझ्याणं जाव बेमाणियाएं । पुनरनन्तरं नरकादुदवृत्तस्तिर्यक् पञ्चेन्छियत्वमवाप्यतदनन्तर मेकमधे पृथिवीकायादिको नत्या मनुष्येषु समागत्य सेत्स्यति एगमेगस्स एं नंते !नेरइयस्स केवइया दबिदिया अईया तस्याष्टी तिर्यपञ्चेन्नियनवसम्बन्धीनि एकं पृथिवीकायादि ? गोयमा ! अणंता । केवश्या बच्छमगा? गोयमा! अट्ट । भषसम्बन्धि अष्टीच मनुष्यनवसम्बन्धीनि शत सप्तदश संख्ये यकालं संसारावस्थाविनःसंख्येयानि असंख्येयकाममसंख्येया केवइया पुरक्खमा ? गोयमा! अट्ट वा सोलस वा सत्त नि अनन्तकालमनन्तानि, असुरकुमामारसूत्रे-पुरक्खमा अट्ट वा रस वा संखेज वा असंखेज वा अणंता वा । एगमेगस्स नव वा इत्यादि। तत्रासुरजवादुद्वृत्त्यानन्तरभवे मनुष्यत्वमवा णं ते! असुरकुमारस्स केवश्या दबिदिया अतीता? प्य सेत्स्यत्यतोऽष्टौ, असुरकुमारादयस्त्वीशानपर्यन्ताः पृथिगोयमा ! अणंता । केवइया बोरगा? अट्ट ! केवइया व्यब्वनस्पतित्पद्यन्ते ततो योऽनन्तरभवे पृथिव्यादिषु गत्वा तदनन्तरं मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य नव संख्येयाविनापुरक्खमा ? अट्ठ वा नव वा संखिजा वा असंखिज्जा बना प्राग्वत् पृथिव्यवनस्पतिसूत्रे पुरखमा अटु वा नव वा अपंता वा । एवं जाव थणियकुमाराणं ताव जाणि वेति ॥ पृथिव्यादयो धनन्तरमृकृत्य मनुष्येषूत्पद्यन्ते सिच्वंति यव्वं । एवं पुढ विकाइयआउकास्यवणस्सइकाइयस्स वि च तत्र योऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य मनुष्य नवरं केवड्या बकेरगत्ति पुच्छा, एवं उत्तरं एके फा जवसम्बन्धीन्यपी यस्त्वनन्तरमेकं पृथिव्या अवमवाप्य तद नन्तरं मनष्यो नृत्या सेत्स्यति तस्य नव तेजोवायवो सिंदिए दबिदिए एवं तेउक्काइय । वाउक्काइयस्म वि ऽनन्तरमुवृत्ता मनुष्यत्वमेव न प्राप्नुवन्ति द्वित्रिचतुरिन्छि नवरं पुरक्खमा नव वा दस वा । एवं बेइंदियाण वि यास्त्वनन्तरं मनुष्यत्वमवाप्नुवन्ति परं न सिद्यन्ति, नवरं बकेवगपुच्छाए, दोमि। एवं तेइंदियस्स वि बके ततस्तेषां सूत्रेषु जघन्यपदे नवनवेति वक्तव्यं शेषभावना प्रागुक्तानुसारेण कर्तव्या, मनुष्यसने पुरस्कृतानि व्येदगा चत्तारि। एवं चनरिदियस्स वि नवरं बच्चेगा। क्रियाणि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्तीति तद्भव एवपंचिंदियतिरिक्खजोणियमाणुस्सवाणमंतरजोइसिय सो सिश्चतो न सन्ति शेषस्य सन्तोतिभावः यस्यापि सन्ति हम्मीसाणगदेवस्स जहा असुरकुमारस्स । नवरं मण सोऽपि यद्यनन्तरजवे नूयोऽपि मनुष्यो नृत्या सेत्स्यति तस्याप्टौ स्सस्स पुरक्खमा कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि जस्स यः पुनः पृथिव्यायेकजवान्तरितो नृत्या सिछिगामी तस्य. अत्थि अह वा नव वा संखिज्जा वा असंखिज्जा वा नव शेषनावना प्राग्वत् । सनत्कुमारादयो देवा अनन्तरमु वृत्ताः न पृथिव्यादिवायान्ति किन्तु पञ्चेन्द्रियेषु ततस्ते अणंता वा । सर्णकुमारमाहिंदबंजवंतगसुक्कसहस्सार आ नैरयिकवक्तव्याः तयाचाह-" सणंकुमारमाहिद बंभलोपलं णयपाणयआरणअच्चुयगविज्जमदेवस्स जहा नेरक्ष्य तगसुक्कसहस्सार आणय पाणय आरण अच्चुय गेवेजगदेवस्म । एगमेगस्स एं नंते ! विनय-वेजयंत-जयंत-अप स्सय जहा नेरश्यस्स" विजयादिदेवचतुष्टयसूत्रेषु योऽनन्त राजियदेवस्स केवइया दबिदिया अतीता ? गोयमा ! रभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्याष्टौ यः पुनरेकवारं मनुअणंता, केवइया बसगाअट्ठ। केवइया पुरक्खमा? प्यो भूत्वा योपि मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य पोकश यस्त्वपान्तराने देवत्वमनुतूय मनुष्यो भूत्वा सिकिगामी तस्य अस वा सोलस वा चवीसा वा संखेज्जा वा । चतुर्विशतिर्मनुष्यनवे ऽष्टौ देवन्नवेऽष्टौ नूयोपि मनुष्यभवे सबसिगदेवस्स अतीता अणंता बकेट्सगा प्रह अष्ट्राविति संख्येवानि संख्येयं कावं संसारावस्थायिन ह पुरक्खमा अट्ठ। नेरइया णं ते! केवइया दींचीदया विजयादिषु चतुर्युगताः प्रनतमसंख्येयमनन्तं वा कालं संसार अतीता ? गोयमा! अणंता । केवड्या बसगा? गो नावतिष्ठन्तेततः संखेज्जा वा इत्येवोक्तं "मा संखज्जा अणंता वा" इति सर्वार्थ सिहस्त्वनन्तरभवे नियमतः सिस्चात तत यमा ! अखिज्जा । केवइया पुरक्खमा ? गोयमा ! स्तस्याऽजघन्योत्कृष्टपुरस्कृता अष्टाविति । बहुवचनचिन्तायां अणंता । एवं जाव गेवेज्जगदेवाणं नवरं मणुस्साणं नैरयिकसूत्रे बद्धानि अन्येन्द्रियाणि असंख्येयानि नैरयिका Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७९ ) अभिधानराजेन्द्रः | इंदिय णामसंख्यातत्वात् एवं शेषसूत्रेश्वप्युपयुज्य वक्तव्यं नवरं मनुष्यसूत्रे "सियसंखेजा " इह सम्मूमिमनुष्याः कदाचित्सर्वया न सन्ति तदन्तरस्य चतुर्विंशतिमुहूर्त्त प्रमाणस्य प्रागभिधानात् तत्र यदा पृच्छासमये सर्वथा न सन्ति तदा संख्येयानि गर्नजमनुष्याणां संख्येयत्वात् । यदा तु संमूच्छिमा अपि सन्ति तदा असंख्येयानि । सर्वार्थ सिद्धमहा बिमानदेवाः संख्येया बादरत्वे महाशरीरत्वे च सन्ति परिमित क्षेत्रवर्तिस्वात् ततो बानि पुरस्कृतानि वा तेषां मन्येन्द्रियाणि संख्येयानि ॥ एगमेगस्स णं ते!-नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया दवि दिया प्रतीता ? गोयमा ! प्रणता । केवइया वळेलगा ? । केवइया पुरखमा ? गोयमा ! कस्तइ अस्थि कस्सइ नत्थि । जस्स अस्थि ग्रह वा सोलस वा चवीसं वा संखिज्जा वा असं खिज्जा वा अणता वा । एगमेगस्स णं जंते ! नेरइयस्स असुरकुमारते केवइया दव्विर्दिया प्रतीता ? गोयमा ! प्रांता । केवइया बकेलगा ? गो यमा ! नत्थि । केवइया पुरक्खका ? गोयमा ! कस्सइ अयि कस्सर नत्थि । जस्स अत्थि अट्ठ वा सोलस वा चडवीसं वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रांता वा । एवं जाव थणियकुमारते । एगमेगस्तणं नंते ! नेरइगस्स पुढविकास केवइया दबिंदिया अतीता ? गोयमा ! प्रणता । केवइया बचेगा ? गोयमा ! एत्थि । केव या पुरक्खका ? गोयमा ! कस्सर प्रत्थि कस्सड़ एत्थि जस्स प्रत्थि एको वा दो वा तिभिवा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणता वा । एवं जाव वास्स इकाइयत्ते । एगमेगस्मणं जंते ! नेरइयस्स वेइंदियत्ते केवइया दबिंदिया अतीता ? गोयमा ! प्रांता । केवइया बागा ? गोयमा ! एत्थि, केवइया पुरखमा ? गोयमा ! कस्स अस्थि कस्स नत्यि । जस्स अस्थि दो वा चत्तारि वा छ वा संखिज्जावा - संखिज्जा वा अनंता वा । एवं तेईदियत्तेवि नवरं पुरक्खमा चत्तारि वा अट्ठ वा वारस वा संखिज्जा वा असंखिज्जा वा अता वा । एवं चरिंदियत्तेवि नवरं पुर क्खा वा वारस वां अट्ठारस वा संखिज्जा वा असं खिज्जा वा प्रणता वा । पंचिदियतिरिक्खजो शियत्ते जहा असुरकुमारते । मणुस्सत्ते वि एवं चैव नवरं केवड़या रक्खा वा सोनस वा चडवीसं वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणता वा, सव्वेसि मणुस्सर्वजाणं पुर क्खमा मणुसत्ते कस्तइ प्रत्थि कस्सर नत्यित्ति एवं न बुच । वाणमंतरजोइसियसोहम्मग जाव गेवेज्जगदे वत् अतीता अनंता । वनगा नत्थि । पुरकखमा कस्स अस्थि कस्स नत्थि जस्स अस्थि अहं वा सोलसं वा चवीसं वा संखिज्जा वा असंखिज्जा वा अनंता वा । एगमेगस्स णं जंते ! नेरइयस्स विजयत्रेजयंत जयंत अप इंदिय राजितदेवत्तेकेवइया दबिंदिया प्रतीता ? नत्थि केवइया बगा ? नत्थि । केवइया पुरक्खमा ? कस्सर प्रत्थि aers after reg अस्थि टु वा सोलस वा । सव्वह सिद्धदेवत्ते अतीता नत्थि, बफेलगा नत्थि, पुरक्खका क सत्थि कस्स नत्थि जस्स अस्थि अट्ठ । एवं जहा नेरइए दंमओ नीतो तहा असुरकुमारेण वि नेयत्रो जाव पंचिदियतिरिक्खजोएिवं नवरं जस्स सहाणे जइ बद्धि लगा तस्स त जाणियन्त्रा । एगमेगस्सलं नंते ! मगुस्स रूस नेरश्यते केवइया दत्रिदिया प्रतीता ? गोयमा ! - शांता केवइया बागा नत्यि केत्रश्या पुरक्खका ? करस अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अहं वा सोलसं वा चवीस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रांता वा । जात्र एवं पंचिदियतिरिक्खजोणियते नवरं एगिंदिय बिसिदिए जस्स जति पुरक्खका तस्स तत्तिया जाणिव्वा । एगमेगस्स एवं जेते ! मस्सस्स मनुस्म her दविदिया अतीता ? गोयमा ! अनंता । केत्रया बजेगा ! गोयमा ! अद्ध, केवइया पुरक्खा कस्मइ प्रत्थि कस्स नस्थि जस्त अस्थि अहं वा सोलसं वा चवीस वा संखिज्जा या असं खिज्जा वा प्रणता वा । वाणमंतरजोड़सिय जाव गेवेज्जगदेवते जहा नेरइयने । एगमेगस्स णं जंते ! मस्सस्स विजयवेजयत जयंत अपरजयदेवते केवइया दबिंदिया प्रतीता ? गोयमा ! कस्स अत्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थिवा सोअसं वा । केवइया बलगा एत्थि । केवइया पुरrant कस्सर प्रत्थि कस्सइ नत्यि जस्त प्रत्थि अ वा सोन वा । एगमेगस्स णं जंते ! मणुस्सरत सम्ब सिगदेवते केवइया दव्दिदिया अतीता ? गोयमा ! कस किस्सा नत्थि जस्स अस्थि, केववइया बलगा णत्थि, केवइया पुरक्खमा कस्सर - त्थि कस्स नत्थि जस्स प्रत्थि । वाणमंतरजोड़ सिया जहा नेरइए | सोहम्मगदेवेवि जहा नेरइए नवरं सोहम्मगदेवस्स विजयवे जयंत जयंत अपराजियदेव केव या अतीता ? कस्सर प्रत्थि कस्सइ नत्यि जस्त यि केवतिया बागा णत्थि, केवतिया पुरक्खमा कस प्रत्थि कस्लाइ णत्थि जस्म अस्थि ग्रह वा सोलस वा । सव्वहसि देवत्ते जहा नेरइयस्स एवं जाव गेवेज्जगदेव सव्वहसिकदेवत्ते ताव नेयव्वं । एगमेगस्सणं जंते ! विजयवेज पंत जयंत अपराजियदेवस्स नेर इयत्ते केवइया दविदिया अतीता ? गोयमा ! अनंता, केवइया बकेगा ? एत्थि, केवतिया पुरक्खका ? नत्थि । एवं जात्र पंचिदियतिरिक्खजोणियते । मणुस्सते अयंता Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय (५८.) अन्निधानराजेन्डः। अतीता बहोगा णत्थि, पुरक्खमा अट्ट वा सोलस वा यदेवत्ते केवतिया दबिदिया अतीता? गोयमा ! संखि चनवीसं वा संखेज्जा वा । वाणमंतरजोसियत्ते जहा ने ज्जा दबिदिया अतीता केववतिया बसगा नत्थि, रइयत्ते । सोहम्मदेवत्ते अतीता अणंता बफेसगा अस्थि केवतिया पुरक्खमा सिय संखिज्जा सिय असखिज्जा । पुरक्खमा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्यि जस्स अस्थि एवं सव्वट्ठसिम्देवत्ते वि वाणमंतरजोसियाणं देवाणं अट्ट वा सोलस वा चउवीसं वा संखेज्जा वा । एवं जाव एवं चेव सोहम्मदेवाणं एवं चेव नवरं विजयवजयंतजयंता गेवेज्जगदेवत्ते विजयजयंतजयंत अपराजितत्ते अतीता पराजियदेवत्ते अतीता असंखेज्जा बच्चलेगा नत्यि, पुर कस्ता अस्थि कस्सइ नत्यि जस्स अस्थि अह । केव क्खमा असंखिज्जा । सव्वट्ठसिचदेवत्ते अतीता नत्यि तिया बछेवगा अह, केवतिया पुरक्खमा कस्स अत्यि बफेब्सगा नत्यि पुरक्खमा असंखिज्जा । एवं जाव गेवि कस्स नस्थि जस्स अत्यि अह । एगमेस्स पं नंते ! ज्जदेवाणं । विजयवेजयंतजयंतापराजियाणं देवाणं नंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स सव्वट्ठसिद्धदेवत्ते ।। नेरइयत्ते केवतिया दबिदिया अतीता गोयमा अणंता। केवइया दबिंदिया अतीता ? गोयमा ! णत्थि । केव- केवइया बच्चेवगा नत्यि। केवड्या पुरक्खमा एस्यि। एवं तिया बकेवगा णस्थि, केवतिया पुरक्खमा कस्सइ अस्थि जाव जोइसियत्ते नवरं एसि मणुस्सत्ते अतीता अणंता कस्सइ णस्थि जस्त अत्थि अह । एगमेगस्स एं नंते। केवड्या बच्चेवगा नत्थि, पुरक्खमा अमखेज्जा । एवं सबसिब्गदेवस्स नेरझ्यत्ते केवतिया दबिदिया अ- जाव गेज्जगदेवत्तेसहाणे अतीता असंखेज्जा । केवइया सीतागोयमा ! अणंता । केवड्या वद्धबगा नत्थि, बरगा असंखेज्जा । केवइया पुरक्खमा असंखेज्जा । पुरकखमा नपि । एवं मणुस्तवज्जं जाव गेवेज्जगदेवत्ते सबट्ठसिकगदेवत्ते अतीता पत्थि, बरगा एत्यि, मणुस्सत्ते अतीता अणंता, केवइया वद्धतगा पुरक्वमा असंखेज्जा । सबसिगदेवाणं ते ! नेर नत्यि । केवझ्या पुरक्खमा अट्ट विजयवेजयंतापराजिय इयत्ते केवड्या अतीता? गोयमा ! अणंता, केवइया बके देवत्ते अतीता कस्स३ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स आत्थ द्वगाणत्यिो केवड्या पुरक्खमानस्थि।दारं कतिणं ते! अट्ठ। केवइया बच्चेवगा ? णत्यि । केवइया पुरक्खमा ? नाविंदिया पागत्ता ? गोयमा! पंचनाविंदिया पसात्ता पत्यि । एगमगस्स एं नंते ! सबसिफदेवस्स सव्व तंजहा-सोइंदिए जाव फासिदिए । नेरझ्याणं नंते ! का हसिकदेवत्ते केवझ्या दबिदिया अतीता ? गोयमा ! जाबिंदिया पहात्ता ? गोयमा ! पंच नाविंदिया पामुत्ता, णत्थि, केवइया बागा? अट्ठ । केवइया पुरक्खमा , तंजहा-सोईदिए जाव फासिदिए । एवं जस्स इंदिया तस्म नत्थि । नेरझ्याणं नंते ! नेरक्ष्यत्ते केवइया दम्बिदिया- तत्तिया जाणियचा । जाव वेमाणियाणं । एगमेगस्स अतीता? गोयमा! अता। केवइया बकेवगा? असंखे णं नंते ! नेरइयस्स केवइया नाविंदिया अतीता गोयज्जा। केवझ्या पुरक्खमा ? अणंता। नेरइयाणं ते! असुर मा ! अणंता । केवश्या बकेवगा पंच । केवश्या पुरकुमारत्ते केवतिया दबिदिया अतीता? गोयमा ! अणंता। क्खमा पंच वा दस वा एकारस वा संखेज्जा वा असंकेवड्या बच्छसगा? नत्थि, केवड्या पुरक्वमा ? अणंता। खेज्जा वा अर्णता वा । एवं असुरकुमारस्स वि नवरं पुर एवं जाव गेविज्जगदेवते । नेरइयाणं ते! विजयवेजयंत क्खमा पंच वा दस वा छ वा संखेज्जा वा असंखज्जा जंयतापराजियदेवत्ते केवइया दबिदिया अतीता ? नत्थि । वा आता वा । एवं जाव थणियकुमारम्स । एवं पुढवि केवतिया बसगा? नत्थि, केवड्या पुरक्खमा?असंखेज्जा काझ्या आनकाझ्या वणस्सइकाइस्स वि । वेइंदिय-तेइंदिय । एवं सचट्ठसिचदेवत्तेवि एवं जाव पंचिंदियतिरिक्ख चनरिंदियस्स वि । तेनक्काश्य-वाउक्काझ्यस्स वि । एवं चेव जोणियाणं सबट्ठसिक देवत्ते जाणियव्वं । नवरं वणस्सइ नवरं पुरकरवमा उ वा सत्त वा संखिज्जा वा असंखिज्जा काइयाणं विजयवेजयंतजयंतापराजियदेवत्ते सव्वट्ठसि वा अणंता वा । पंचिंदियतिरिक्खज्जोणियस्स जाव कदेवत्ते य पुरक्वमा अणंता। सब्बेसि मणुस्ससव्वट्ठसि ईसाणस जहा असुरकुमारस्स । नवरं माणुस्सस्स पुरफगवज्जाणं सहाणं बकेवगा असंखेज्जा परहाणे बछे- क्खमा कस्ता अस्थि कस्सइ नत्यि ति जाणियव्यं । बगा नस्थि । मणुस्सा णं नंते ! नेरझ्यत्ते अतीता सकुमार जाव गेवेज्जगस्म जहा नेरइयस्स। विजय-वेजय अणंता । वकबगा नत्थि। पुरक्खमा अणंता । एवं त-जयंत-अपराजियदेवस्स अतीता | अणंता बोझगा पंच, जाव गविज्जदेवत्ते नवरं सहाणे अतीता अणंता। बछे- पुरक्खमापंच वा दस वा पन्नरस वा संखिज्जा वा। सचट्टसि झगा मिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा । पुरक्खमा कगदेवस्स अतीता अणंता, बनगा पंच. केवड्या पुरअर्णता। मस्सा णं नंते ! विजयवेजयंतजयंतापराजि क्खमापंच | नरेइयाणं नंते केवश्या नावि दिया अतीता? Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८१) अभिधानराजेन्द्रः । इंदिय गोयमा अता या बागा असेना, केव या पुरखा अंता । एवं जहा कव्विंदियासु पोहओतिहा जात्रिंदिएस पोहत्तेणं दं ओ जाणियो। नवरं वस्सकाइयाणं बकेगावि अर्णता || एगमेगस्स व जंते ! नेरइयस्स नेरइयले केया जाविंदिया प्रतीता ? गोयमा ! अता, बफेलगा पंच, पुरक्खका करस अस्थि कस्सा नत्थि जस्स अस्थि पंच वा दस वा पनरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणता वा । एवं असुरकुमाराणं जाय यणियकुमाराणं । नवरं बलगा नत्थि । पुढविकाश्यते जाव बेईदियत्ते जहा दबिंदिया, तेइंदियते तदेव नवरं पुरक्खका तिथिवाया नववा संखेला वा असंवेला वा अता वा । एवं चछरिदियले चिनवरं पुरस्वमा चत्तारिया वा वारस वा संखेजा या असंखेला वा अनंता वा । एवं ते चैव गमो चत्तारि नेयव्वो, जे चैत्र दव्बिंदिए नवरं ततिय-गमो जाणियन्बो, जस्स जइ जे इंदिया ते पुरक्खमेमु मुणेपव्वा चछत्थगमो जहेब दविदिया जाय। सव्व सिगदेवाससिदेवचे केवतिया जात्रिंदिया तीता नत्थि । बलगा संखेज्जा पुरक्खका नत्यित्ति ( एगमेगस्स णं ते नेरइयस्स नेरइयत्ते इत्यादि कस्सर अस्थि कस्स नत्यत्ति ) यो नरकाडुवृत्तो नृयोऽपि नैरयिकत्वं नावास्यति तस्य न जवन्ति यस्त्ववाप्स्यति तस्य सन्ति सोपि यद्येकवारमागामी ततोऽष्टौ द्वौ वारौ चेत्तर्हि पोशम यदि वा त्रीन् वारान् ततश्चतुर्विंशतिसंख्येयानि वारान् आगामी न संख्येयानीत्यादि मनुष्यत्व चिन्तायां कस्सर अस्थि कस्सर नत्य इति न च मनुष्यागमनस्यापश्यभाषित्वा ततो जयपदेऽनन्तीति विजयजयंत जयंता पराजिताचिन्तायामतीतानि इन्द्रियाणि न सन्ति क. स्मादिति चेदुच्यते इह विजयादिषु चतुर्षु गतो जीवो नियमातत उद्वृत्तो न जातुचिदपि नैरविकादिपञ्चेन्द्रियतिर्यक् पर्यवसाने तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु मध्ये समागमि. प्यति तथा स्वानान्यान्मनुष्येषु सीधमादिषु वा गमि ध्यति तत्रापि जघन्यत एक हौ वा नवानुत्कर्षतः संख्ये या न पुनरसंस्याननान्यतरस्य विजयादित्य अतीतानि इज्येन्द्रियाणि न सन्तीत्युकं पुरस्कृतान्य पो माथा विजयादिषु द्वित्पन्नस्यानन्तरनवे नियमतो मोक गमनात्। एवं यया नैरयित्यादिषु चतुस्थानेषु चिन्ता कृता तथा असुरकुमारादीनामपि प्रत्येक कर्त्तव्या । पूर्वोकभावनानुसारेण स्वयमुपयुज्य परिनापनीयानांचे न्द्रियसूत्राण्यपि सुगमान्येव केवलं इव्येन्द्रियगतभावनानुसारेण तत्र भावना जावयितव्या इति । प्रज्ञा० १५ पद । तत्र यानि व्येन्द्रियाणि तानि जीवानां पर्याप्तौ सत्यां भवन्ति यानि च भावेन्द्रियाणि तानि संसारिणां सर्वावस्थाभावीनीति-तं (२) इन्द्रियाणां वाहुल्य-पृथकृत्यप्रदेशा वगाना - स्तपा तवेदना च ॥ इंदिय तत्र बाहुल्यादि यथा सोइदिए णं जंते वयं पाहणं पाते ? गोपमा ! अंगुल असेल जागे वाहणं एवं कार्सिदिए खो दिया था पावसिद्धं उक्तश्चायमर्थोऽन्यत्रापि " बादलतो य सव्वाई - असंखेज्जभागमिति" अत्राट ययवस्थासंख्येयजागो बाहुस्यं स्पर्शनेन्द्रियस्य ततः कथं खड्गकुरिकाद्य निघाते अन्तःशरीरस्य वेदनानुभवः तदेतदसमीचीनं सम्यग् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्त्वगिन्द्रियस्य विषयः शीतादयः स्पर्शाः यथा चक्षुषो रूपं गन्धो घ्राणस्य स्पर्शनं च खड्गकुरिकाद्य निघाते अन्तः शरीरीरस्य शीतादिस्पर्शपेनन्तु वेदनं तथ दुःखरूपवेदनामात्मा सकलेनापि शरीरेणानुजयति न केवले न त्वगिन्द्रियेण ज्वरादिवेदनावत् ततो न कश्चिद्दोषः अथ शतपानका दिपाने अन्तः स्पर्शवेदनाप्यनुभूयते ततः कथंमा घटामाव्यते इति उच्यतेत्यनिन्द्रियं सर्वत्र प्रदेश तवा विद्यते तथा पूर्वसूरिभिः व्याख्यानात्तथा चार मूलटीकाकारः सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्त्तित्वाच्च त्वचोभ्यंतरोऽपि शुषिरस्योपरि त्वागन्द्रियस्य भावाडुपपद्यते ततः शीतस्पर्शवेदनानुभवः । प्रा० १५ पद (पातनापिलेशतोष्याण्यता) (३) इन्द्रियाणां पृयुत्वं तदवगाहना च । पृथुत्वविषयं सूत्रमाह ॥ सोईदिए णं ते वयं पोटचे पाते ? गोयमा ! अंगुल असंखेज्जइ जागे पोहणं पपत्ते एवं चक्खिदिए वाणिदिए वि जिनि दिएवं पुत्रा, गोयमा ! अंगुनपुते पत्ते फालिदिएणं पुच्छा, गोयमा ! सरीरपमाण मेणं पाते । ( पोहणं पत्ते इत्यादि ) इह पृयुत्वं स्पर्शनन्द्रियव्यति रेकेश शेषाणामिन्द्रियाणामात्मा प्रतिपत्तव्यं पनि न्द्रियस्य वच्न ननु देदाश्रितादे खोया प्रयते" उस्सेपमाचतो मिष देि तिवचनात् " ततः न्द्रियायामानुं युज्यन्ते । नात्मामेति रकम जिहादीनामुच्छ्रयांगुन त् प्रमित्युपगमे गिन्तीनां मनुष्याणां राज्यवहारोच्छेद प्रसक्तेस्तथाहि - त्रिगव्यूतादीनां मनुष्याणां परुगव्यूतादीनां च इत्यादीनां स्वस्वशरीरानुसारितया अतिविशाज्ञानि मुखानि जहाच तो प्रकारतयो कस्यान्यन्तरनिर्वृत्यात्मकस्य जिहेन्द्रियस्यात् णो विस्तारः परिगृह्यते तदा अल्पतया न तत्सर्वे जिह्वां व्याप्नु या सर्वव्यापित्वाभावे च योऽखी बाहुल्येन सर्वात्मना जाया रसवेदन कृणपतिप्राणप्रसिको व्यवहारः सव्यवच्छेदमानु यादेवं घ्राणादिविषयेपि यथायोगं गन्धादिव्यवहारोच्छेदो नायनीय तस्मादात्मानजिहादीनां पृत्यमय गोष् यांगुलेनेति । आह च भाष्यकृत् "इन्दियमाणे विणय, नणियजं जति गाडयाईणं । जिग्निदियाश्माणं, संववहारं विरुज्जेज्जा " अस्या अरगमनिका तत उच्छ्रयांगुल मिन्द्रियमानोपि आस्तामिन्द्रियपरिमाणवितायामित्यपिशब्दार्थः भजनीयं विकल्पनीय कागुनेत्यर्थः किमुतं नवतिस्पद्र प्रत्यपरिमाणचिन्तायां ग्राह्यमन्येन्द्रियपृकृत्यपरिमातायां न तेषामात्माजेन परिमाणकारणादिति कय Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८२ ) अभिधानराजेन्द्रः । इंदिय मेतदवसेयमिति चेदत आह यद्यस्मात्सर्वेषामपीन्द्रियाणा मुच्छ्रयासेन परिणामकारणम् त्रिगःसूतादीनामादिशब्दात् गिब्यूतादि परिग्रहो जिह्वेन्द्रियादिमानं सूत्रोक्त संव्यवहारं विरुध्येत । यथानन्तरमेव जावितमिति । सम्प्रति कतिप्रदेशावगाहनाते प्रतिपादयति । सोइदिए णं जंते ! कइ पदेसिए पाते ? गोयमा ! तपदेसिए पाते एवं जान फार्सिदिए सोईदिए णं ते ! कइ पदेसोगाढे पण ते ? गोयमा ! असंखेज्ज पदेसोगा एवं जान फार्सिदिए । ( टीका न गृहीता ) ( ४ ) इन्द्रियाणामल्पबहुत्वं तद्गुणाश्च । एतेसि णं जंते ! सोइंदिय चक्खुइंदियघादियजिब्नि दियफासिंदियाणं ओगाहृणध्याए पदेसट्टयाए ओगा हापदेस याए करे करेहिंतो अप्पावा ४ गोयमा ! सव्वत्योवे चक्खिदिए प्रोगाहण्डयाए । सोइंदिय प्रोगाहणध्याए संखिज्जगुणे । घाणिदिय ओगाहणडयाए संख गुणे । जिनिदियोगाहणडयाए संखिज्जगुणे । फासिंदियप्रगाढण्डयाए असंखेज्जगुणे । पदेसडयाए सव्वत्थोवे । चक्खिदिएपदे सडयाए सोईदिए पदेसइयाए संखेज्जगुणे । घाणिदिए पदेव याए संखेज्जगुणे । जिनिदिए पदेसइयाए संखेज्जगु । फासिंदिय पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणे । ओगाह एएपदे सट्टयाए सव्वत्योवे । चक्खिदिए ओगाह पाए सोईदिए ओगाहण्डयाए संज्जगु । घाणिदिए प्रोगाहणडयाए संखेज्जगुणे । जिजिदिए प्रोगाहण्डयाए संखेज्जगुणे फार्सिदिए गाण्डा संरेखज्जगुणे । फासिदिंयस्स ओोगाTusarहिंतो चक्खिदिएपदेसट्टयाए अनंतगुणे । सोइदिए पट्टयाए संक्रिवज्जगुणे । घाणिदिए पदेसहया संखिज्जगुणे | जिनिदिए पदेसध्याए संखे ऊगुणे फासिंदिए पदेस याए असंखिज्जगुणे । (पणसि णं भंते ! इत्यादि) सर्वस्तोकं चक्रुरिन्द्रियमवगाहनातया किमुक्तं नवति सर्वस्तोकप्रदेशावगाढं चकुरिन्द्रियं ततः श्रोत्रेन्द्रियमवगाहनार्थतया संकेपगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यऽवगाहनानावात्ततोऽपि घ्राणेन्द्रियमवगाहनार्थतया संख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यावगाहनोपपत्तेस्ततो ऽपि जिहेन्द्रियमवगाहनार्थतया असंख्येयगुणं तस्याङ्गुवपृयकुत्वपरिमाणविस्तारात्मकत्वात् यस्तु दृश्यते पुस्तकेषु पाठः संख्येयगुण शते सोऽपि पाठो युक्तधुपपन्नत्वात्तथा हि-चक्षु रादीनि श्री एमपीन्द्रियाणि प्रत्येकमङ्गला संख्येयभाग विस्तारा. त्मकानि जिह्वेन्द्रियं त्वङ्गासंख्येयपृयकत्वाविस्तारमतोऽसं गुणमेव तदुपपद्यते नतु संख्येयगुणमिति ततः स्पर्शनेन्द्रियमसंख्येयगुणम् । तथा हायकूत्वप्रमाण विस्तारं जिह्नन्द्रियंप्रयकत्वं द्विप्रभृत्या नवज्यः स्पर्शनेन्द्रियं तु शरी प्रमाणमिति सुमहदपि तदुपपद्यते संख्येयगुणमिति । यस्तु बहुषु पुस्तकेषु दृश्यते पाठोऽसंख्येयगुणमिति सोऽपपाठो युक्तिविकत्वात् । तथा ह्यात्मात्रप्रथक्त्वपरिमार्थ जिह्वे For Private इंदिय न्द्रियं शरीरपरिमाणं तु स्पर्शनोन्द्रियशरीरमुत्कर्षतोऽपि - लकयोजनप्रमाणं ततः कथमसंख्येयगुणमुपपद्यत इति । श्रनेनैव क्रमेण प्रदेशार्थतयापि सूत्रम् जावनीयम् । उक्तप्रकारेणैव चोजयसूत्रमपि । इदानीमिन्द्रियगुणविषयकं सूत्रमाह । सोइंदियस्सणं जंते! केवतिया कक्खरुगरुयगुणा पणत्ता ? गोमा ! आता कवखरुगरुयगुणा प० एवं जात्र फासिंदियस्स सोईदिवस णं जंते ! केवझ्या मउयल हुयगुणा पणत्ता ? गोयमा ! प्रांता । एवं जाव फासिंदियस्स, एतेसि णं जंत ! सोइदिय - चक्खिदिय - घालिंदिय - जिजिदिय फासिंदियाणं कक्खमगरुयगुणाणं मनTagयगुणाणं कखरु गरुयगुणमजयनहु गुणाणय कयरे करेहिंतो अप्पा वा ४ ? गोयमा ! सव्वत्यां वा चक्खिदियस्स कक्खरूगरुयगुणा । सोई दियस्स कक्खम गरुगुणा तगुणा | घाणिदियस्स कक्खम गुरुयगुणा गुण । जिजिदियस्स कक्खम गरुयगुणा अणंतगुणा । फासिंदियस्स कक्रखमगरुयगुणा अांतगुणा । मयगुणणं सव्वत्यो वा फासिंदियस्स मजयबहुगुणा जग्निदियस्स मउयल हुयगुणा अांतगुणा । घालिंदियस महुगुणा अनंतगुणा । सोइंदियस्स गुणानंतगुणा । चक्खिदियस्स मउयलय गुणाअनंत गुणा । कक्खमगयगुणणं मन्यष्ट्रय गुणाल यसो वा चखिदियस्स कवक गरुयगुणा । सोइंदि यस्स क्रुरुगुणा अांतगुणा । चाििदयस्स. कक्रुयगुण प्रणतगुणा । जिन्निदियस्म कक्खरुग रुयगुणा अंतगुणा । फासिंदियस्स क्वक गरुयगुणा अांतगुणा । फासिंदियस्स कक्खरुगख्यहिंतो तस्स चैत्रगुणात गुणा । जिग्निदियस्स मन ययगुणा अनंतगुणा । घालिंदियस्स मउयवदुयगुणा तगुणा । सोइंदियस मन्यदुयगुणा अनंतगुणा । चक्खिदियस महुहुगुणा प्रांत गुणा । यानि कर्कशगुरुगुणा दिसूत्राणि तानि पात्रसिद्धानि नवर मल्पबहुत्वे चकुःश्रोत्रत्राण जिह्वापशनेन्द्रियाणां यथोत्तरं कर्कशगुरुगुणा मामेव च पञ्चानुपूर्व्या यथापूर्व मृदुगुणा अनन्तगुणास्तथैव ययोत्तरं कर्कशतया ययापूर्वी चातिकोमलतयोपलभ्यमानत्वात् युगपदुनयालपबहुत्वसूत्रे फासिंदिय-कक्ख गरुयगुणेोर्हितो तस्स चैव मन्यतडूयगुणा गुणा शति सरीहि कति पया एव, प्रदेशा उपरि वर्तिनः शीतातपादिसम्पर्कतः कर्कशा वर्तन्ते । अन्ये तु बहवः तदन्त र्गता अपि मृदव इति घटन्ते । स्पर्शनेन्द्रियस्य कर्कशगुणेयो लघुगुणा अनन्तगुणा इति । प्रज्ञा० १५ पद० ॥ (५) अन्येव संस्थानादीन्यल्पव हुत्वपर्यन्तानि द्वाराणि नैरविकादिकेषु चिन्तयति ॥ नेरइयां जेते ! कई इंदिया पम्पत्ता ! गोयमा ! पंच इंदिया पाता जहा सोइंदिए जाव फार्सिदिए । नेरइया Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८३) इंदिय अभिधानराजेन्द्रः। इंदिय णं ते ! सो दिए किं संठिए परमत्ते ? गोयमा ! कलं संगणं बाहनं पोहत्तं पदेस प्रोगाहणाय जहा प्रोहियाणं बुयासंगणसंगिए पाते । एवं जहा ओहिया वत्तव्ययो जणिया तहा जाणियव्या नवरं फासिदिए हुंगसंगणजणिया तहेव नेरइयाणं पि अप्पा वा बढुया वा दोनि- संगिए पत्ते इमो विसेसो एतेसि एंजते ! बेदियाणं वि नवरंनरझ्याणं जते ! फासिंदियस्स किं संविए पहाते निम्निदियफासिंदियाणं ओगाहणट्ठयाए पदेसट्टयाए मोयमा ! सुविहे पम्मत्ते तंजहा जवधारिणजे य उत्तर उगाहणपदेसट्ठयाए कयरे कयरहितो अप्पा वा ?गोपबेनबिए य तत्थ णं जसे जवधारिणिज्जे सेणं दुगसंगण मा ! सव्वत्योवे बेदियाणं जिजिदिए ओगाहणट्टयाए संगिए तत्थ एंजे से उत्तरविउब्बिएतेचेवसेसंतंचेव। अ. फासिदिए ओगाहणट्ठयाए असंखेज्जगुणे पदेसट्टयाए सुरकुमाराणं नंते !कर इंदिया पमत्ता ? गोयमा ! पंचिं सम्वत्थोवे बेइंदियाणं जिजिदिए पदेसट्टयाए फासिदिदिया पम्मत्ता एवं जहा ओहियाणं जाव अप्पाबहुगाणेि यपदसट्टयाए असंखेज्जगुणे ओगाहणपदेसट्टयाए सबदोमि वि नवरं फासिदिए सुविहे पम्पत्ते तं जहा जव त्थोवे बेइंदियस्स जिग्निदिए प्रोगाहणघ्याए फासिंदिधारिणिज्जे उत्तरवेउव्विए य तत्यणं जे ते जनधारिणि योगाहणट्टयाए असंखेज्जगुणे फासिंदियस्स ओगाहजे से णं समचरससंगणसंगिए पत्ते तरथ णं ने णयाएहितो जिग्निदियपदेमट्ठयाए अणतगुणे फासिंते उत्तरवेलीव्बए से णं नाणासंगणसंगिए सेसं तं दिएपदेसट्टयाए असंखेज्जगुणे बेदियाणं जंते ! जिचेव एवं जाव थणियकुमाराणं । पुदविकाश्याणं नंते ! कइ दिनदियस्स केवइया कक्खमंगरुयगुणा प० १ गोयमा! इंदिया पहाता ? गोयमा ! एगे फासिदिए पहलत्ते पुढवि अर्णता एवं फासिंदियस्स वि एवं मन्यन्नयगुणा वि एतेकाइयाणं जंते ! फासिदिए कि संगणसंगिए पहाते ? सिणं बेइंदियाणं जिदिनदियफासिंदियाणं कक्खमंगरुगोयमा ! मसूरचंदसंगणसंलिए पाप्मत्ते पुढविकाश्याण यगुणाणं मनयनहुयगुणाणं कक्वमगरुयगुणाणं मउयमदु फासिदिए केवश्यं बाहलेणं पाप्मत्ते ? गोयमा ! अं- यगुणाप य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा ४१ गोयमा ! गुलस्म असंखजानागं बाहोणं पम्पत्ते पुढबिकाइयाणं सच्चत्यो वा बेदियाणं जिजिदियस कक्वझगरुयगुफासिदिए केवश्यं पोहत्तेणं पहात्ते ? गोयमा : सरीर- णा फासिंदियस्त कक्वमगरुयगुणा अणंतगुणा फासिंप्पमाणमेत्तणं पप्पत्ते पुढविकाइयाणं फासिदिए कति- दियस्स कक्व झगरुयगुणेहितो तस्स चेव मउयनहुयगुणा पदेसे पप्तमत्ते ? गोयमा ! अणंतपदसिए पापत्ते पुढ- अणंतगुणा जिब्जिदियस्स मउयनहुयगुणा अर्णतगुणा विकाइयाणं जते ! फासिंदिए कइ पदेसोगाढे पत्ते ? एवं जाव चरिंदियत्ति नवरं इंदियपरिवलिकायव्वा तेईगोयमा ! असंखज्जपदेसोगाढे पामते एतेसि णं नंते ! दियाणं घाणिदिए योबे चनरिदियाणं चक्विदिए थोवे पुढविकाझ्याणं फामिंदियस्स ओगाहणच्याए पदेस- सेसं तं चेव । पंचिदियतिरिक्वजोणियाणं मणुस्साण य ट्ठयाए कयरे कयरहितो अप्पा वा ४ ? गोयमा ।। जहा नेरझ्याणं नवरं फासिदिए उबिहसंगणसंगिए सव्वत्यो वा पुढविकाइयाणं फासिदिए ओगाहणट्टयाए ते पप्पत्ते तंजहा समचउरंसोणिग्गोहपरिमंझले सादिखुज्जे चेव पदेसट्टयाए अणन्तगुणे । पुढविकायियाणं जंते ! वामणे हुँझे चाणमंतरजोसियवेमाणियाणं जहा असुर फासिदियस्स केवड्या कक्खमंगरुयगुणा पामत्ता ? गोय- कुमाराणं ॥ मा ! अणता एवं मन्यनद्यगुणा वि एतमि ण नंते ! नेरश्याणं नंते ! इत्यादि । सुगम नवरं नरश्या ते फापदविकाझ्याणं फासिदियरम कक्खमंगरुयगुणाण मउ सिदिए किंसंविए पन्नत्त इत्यादि । द्विविधं हि नैरयिकाणां याहयगुणाणं कयरे कयरहितो अप्पा वा ? गोयमा ! शररिं नवधारणीयमुत्तरवैरियं च तत्र भवधारणीयं तेषां न वस्वभाधत एव निर्मुलं विबुप्तपकोत्पादितसकश्रीधादिरोमसव्वत्था वा पुढविकाश्याणं फासिंदियस्स कक्वमगरुयगु पक्कशरीरवदतिबीभत्ससंस्थानोपेतं यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि णा तस्स चेव पउयनायगुणा अणंतगुणाएवं प्रानकाइ- हुामसंस्थानमेव तथाहि यद्यपि ते वयमतिसुन्दर शरीरं विकुयाणं वि जान वणस्सस्काइयाणं नवरं संगणे इमो विष्याम इत्यभिसन्धिना वैक्रियशरीरमारजन्ते तथा पि तेषां विमसो दहचो आउकाझ्याणं वि वुगविंदुसंगणसंलिए अत्यन्तामं तयाविधनामकर्मोदयादतीवाशुभतरमेवोपजापहलत्ते । तेनुकाइयाणं मृइकनापसंगणसंगिए पहलने । यते शति-असुरकुमारसूत्रे. जवधारणीयं समचतुरस्त्रसंस्थान सथा स्वाभाब्यातू-उत्तरवैक्तिवन्तु नानासंस्थितं स्वेच्या वानकाझ्याणं पमाारसंठाण संविए पाते । वणस्स- तस्य निष्पत्ति नावात् प्रधिज्यादिविषयाणि नु सत्राणि सुप्रइकाइयाणं णाणासंगाए मंपिए पालत्ते, बेदियाणं - तीतान्यव प्रका० १५ पद० ॥ ते ! कइंदियां पाणका? गोयमा दोदिया पासत्ता (६) इन्द्रियाणां च वर्तमानार्थग्राहकत्वम् तंजहा जिजिदिए य फार्मिदिए य दोएहं पि इंदियाणं अत्ये य पमुष्पएणे, विणियोगे इंदिय बहा॥ Jain Education Interational Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८४) इंदिय अभिधानराजेन्त्रः। इंदिय इन्डियं पुनश्चक्षुरादिकं विनियोग व्यापार बनते प्रत्यु- एयपि निवृत्तन्द्रियमध्ये प्रविश्य कटित्युपकरणेन्डियमभिव्य त्पने वर्तमानार्थविषयं नातीतानागतार्थविषयमिति नावः॥ जयन्ति । श्रोत्रेन्डियं च घ्राणेन्द्रियाद्यपेक्या स्वविषयपरि ०१ न.। धियं हि वार्त्तमानिक एवार्ये व्याप्रियते तत च्छेदे पटुतरं ततः स्पृष्टमात्राण्यपि तानि श्रोत्रेन्छियमुपानं स्तत्सामर्थ्यापजायमानं मानसमपि ज्ञानमिडियझानमिव ते नास्पृष्टान् सर्वथात्मप्रदेशैः संबन्धमप्राप्तान् श्रोत्रेन्डियस्य वर्तमानार्थग्रहणपर्यवसितसत्ताकमेव नवत् ॥ अथ यदा प्राप्तविषयपरिच्छेदस्वभावात् यथाच श्रोत्रेन्ष्यिस्य प्राप्तकाचकूरूपविषये व्याप्रियते तदा रूपविज्ञानमुत्पादयति न शेष रितातया नन्द्यध्ययनटीकादौ चर्चितमिति ततोऽवधार्थम (पुहा कासं ततस्तद्रूपविज्ञानं वर्तमानार्थविषयं वर्तमान एवार्थे इंते ! रुवाई इत्यादि) ॥ सुगम निर्वचनमाह । गौतम! न चकुषो व्यापारात् स्वरूपविषयव्यावृत्त्यनावच मनोज्ञानं ततो स्पष्टानि रूपाणि पश्यति चहुः किन्त्वस्पृशनि चकुषोऽप्राप्ति न तत् प्रतिनियतकालविषयमेवं शेषेवपीन्द्रियेषु वाच्यमानं०॥ कारित्वाच्च तच्चाप्राप्तिकारित्वं तत्त्वार्थटीकादी सविस्तरेण (७) श्रोत्रेषियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्रतिपादयिषुरादौ प्रसाधितमिति ततोवधारणार्थ गन्धादि विषयाणि सूत्राणि विषयांस्तग्रहणप्रकारचाह ।। सुप्रसिकानि नवरं स्पृष्टान् गन्धानाजिबूतीत्यादियद्यप्युक्तं त *दोहिंगणेहिं आया सद्दाइं सुणेइ तं देसेण वि पाया थापि वहस्पृष्टानीति इष्टव्यम यत उक्तमावश्यकनियुक्ती (पुढे सदाई मुणेइ सव्वेण वि आया सद्दाई सुणे एवं रूवाई सुणेईत्यादि ) तत्र स्पृष्टानीति-पूर्ववत् बद्धानिति-प्रात्मप्रदेश रात्मीकृतान् “बरूमप्पीकयं पएसेहि” इति वचनात्-विशे पास गंधाई आघाय रसाई आसाएइ फासाई पनि षणसमासश्च बकाश्च ते स्पृष्टाश्च बरूस्पृष्टास्तान् श्हस्पृष्टास्प संवेए॥* शमात्रेणापि भवन्ति । पथा शब्दस्ततः स्पर्शमात्रव्यवचे (देशेणवित्ति)। देशेन शृणोत्येकेन श्रोत्रेणैकश्रोत्रोपघा देन स्पर्शविशेषप्रतिपत्तिरव्याहता स्यादिति बहग्रहणं बहरू ते सति सर्वेण वा ऽनुपढ़तश्रोत्रन्छियो यो वा संजिनश्रोत्रा पाये स्पृष्टास्तान् परिच्छिनत्तिनान्यानि कस्मादेवमितिचेदुच्यते जिधानसब्धियुक्तः स सर्वरिन्द्रियैः शृणोतीसि सर्वेणति व्यप गन्धादिब्याणां बादरत्वादरूपत्वादभावकत्वाच्च-घ्राणाद।दिश्यते एवमिति यथा शब्दान् देशसर्वान्यां एवं रूपादी निद्रयाणामपि श्रोत्रनियापेक्वया मन्दशक्तिकत्वादिति। प्रहार नपि नवरं जिह्लादेशस्य प्रसुप्त्यादिनोपघाताद्देशेनास्वाद पद०१५। यतीत्यवसेयमिति । देशसर्वाज्यां सामान्यतः श्रवणायुक्तं इन्द्रियाणां प्राप्या प्राप्यकारित्वम् । विशेषविवकायां प्रधानत्वात् देवानां तानाश्रित्य तदाह । चत्तारि इंदियत्या पुट्ठा वेदेति । तंजहा । सोइंदियत्ये दोहिं गणेहिं देवे सद्दाइं सुणेइ तंजहा देसण वि देवे १ घाणिदियत्ये ३ जिजिदियत्ये ३ फासिदियत्ये । सद्दाई सुणे सब्वेण वि सद्दाई मुणेइ जाव णिज्जरे ॥ (पुत्ति ) स्पष्टा इन्जियसंबछा (बेतित्ति ) वेद्यन्ते प्रा ( दोहीत्यादि ) एतदपि विवक्तितशब्दादिविशेषापेक्कया | स्मना झायन्ते नयनमनोवर्जानां श्रोत्रादीनां प्राणायपरिच्छेदसूत्रचतुर्दशकं नेयमिति देशतः सर्वतो वेति अनन्तरोक्ता स्वभावत्वादिति ॥ स्थापग०। भावाः शरीर पब सति सम्भवन्तीति देवानां च प्रधानत्वात्तेषा आहच॥ मेव । स्था०२ ग०। पुढे सुणेइ सई, रूवं पुण पासई अपुटुं तु ॥ पुढाई नंते ! सद्दाइं सुणेइ अपुट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गंध रसं च फासं च, बछपहुं वियागरे ॥१॥ गोयमा ! पुट्ठाइं सदाई मुणेइ नो अपुट्ठाई सद्दाई सुणेइ श्रोत्रेन्द्रियं कर्तृशब्दं कर्मतापनं शृणोति । कथंनूतमित्याह । पुढाई जते ! रूवाई पासंति अपुट्ठाई रूवाइं पासंति ? स्पृशत इति स्पृष्टस्तं स्पृष्टं तना रेणुवदानिङ्गितमात्रमित्यर्थः। गोयमा ! नो पुट्ठाई रूवाई पासंति अपुट्ठाई रूवाई पा- इदमुक्तं भवति स्पृष्टमात्रायेव शब्दषव्याणि श्रोत्रमुपरसंति पुट्ठाई नंते : गंधाई अग्याति अपुट्ठाई गंधाई अ. जन्ते यतो ब्राणादीन्द्रियविषयभूतप्रव्येन्यस्तानि सूदमाणि ग्याति ? गोयमा ! पुट्ठाई अग्याइ नो अपुट्ठाई अग्धाइ। बहूनि नाकानि च पटुतरं च श्रोत्रेन्द्रिय-विषयपरिच्छेद नाणेन्द्रियादिगणादिति श्रोत्रेनियस्य च कर्तृत्वं शब्दश्रवणा एवं रसाण वि फासाण विनवरं रसाई आस्लाइ फासाई न्ययानुपपत्तेत्रज्यते । एवं घ्राणेन्द्रियादिष्वपि वाच्यम् तापमिसंवेदेति अनिझाओ कायव्यो ।। नि पुनः कयं गन्धादिकं गृहन्तीत्याह । गभ्यत ति गन्ध(सहा सुणेश इत्यादि) प्राकृतत्वान्सूत्रे शब्दशब्दस्य न स्तमुपलभते नाणेजियम् । रस्यत इति रसस्तं च गृहानि पुंसकत्वमन्यथा पुंस्त्वं प्रतिपत्तव्यं । स्पृष्टान् जदन्त ! श्रोत्रे रसनेन्डियम स्पृशन इति स्पर्शस्तं च जानाति स्पर्शनन्धिछियमिति कर्तृपदं सामान्यते । शब्दान् शृणोति तत्र यम् । कधऋतं गन्धादिकमित्याह । बहस्पष्टं तत्र स्पृष्ठमितिपूस्पृश्यन्ते ति स्पृष्टास्तान् तनो रेमिवालिङ्गितमात्रानि वदेव बळं तु गाढतरमाश्लिष्टमान्मप्रदेशस्तोयवदात्मात्यर्थः "पुरणं व तणुंमि” ति वचनात् शब्द्यन्ते प्रतिपा कृतमित्यर्थः । ततश्च गंधादिषत्र्यसमूहं प्रथम स्पृष्टमाझिङ्गित धन्ते अर्था एनिरिति शब्दाः तान् शृणोति गृहाति उपत्र ततश्च स्पर्शनानन्तरं बहमात्मप्रदेशाढतरमागृहीतमयोज्यते ति यावत् । विमुक्तं भवति । स्पृएमात्राण्यत्र च शब्द पलभते नाणेन्द्रियादिकमित्येवं व्यागृणीयात प्ररूपयेत् कच्यागि श्रोत्रेनिध्यमुपलभन्ते । न तु घ्राणलियादिवत् बक प्रज्ञापकः । यतो प्राणन्छियादिविषयभूतानि गन्धादि स्पृष्टानीति कस्मादिति चेपुच्यते इह शब्दजव्याणि घाणे ऽव्याणि शब्दच्यापेक्वया स्तोकानि बादरायभावकानि च छियादिविषयत्ततेच्यो ऽव्येच्यः सूक्ष्माणि । तया न विषयपरिदे थोत्रापेकया एटनि च प्राणादीन्यतो बद्धस्पृष्ट तथा तत्रभाविशब्दयोग्यव्यवासकानि च ततः सदमत्वा- मेव गन्धादिप्रत्र्यसमूह गृहन्ति न पुतः स्पृष्टमात्र भितिभावः दतिप्रभूतत्यान् तदाऽन्यद्रव्यवासकत्वाचात्मप्रर्दशैः स्पृष्टमात्रा- । ननु यदि स्पईनान्तरं बरूं गृहन्ति तर्हि 'पुबह मिति Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८५) इंदिय अभिधानराजेन्धः। इंदिय पागे युक्त इति चेपुच्यते । विचित्रत्वात्सूत्रगतेरित्यं निर्देशो अजिचकलनेषु या पुनत्यौगपद्यधिषणा मनीषिणाम् । ऽर्थतस्तु यथा त्वयोक्तं तथैव अष्टव्यम् । अपरस्त्याह । पद्मपत्रपटनीविनोपवत्सत्वरोदयनिबन्धनैव सा ॥२॥ यदकं तत्स्पृष्टं भवत्येव विशेषबन्धे सामान्यबन्धस्यान्तर्जा- प्रथमतः परिसृत्य शिलोचयं निकटतःवणमीकणमीकसे। वात् ततः किं स्पृष्टग्रहणेनेति तदयुक्तं सकलधोतृसाधारणत्या- तदनुदूरतराम्बरमएमली तिककान्तमुपेत्य सितत्विषम् ३ छात्रारम्भस्य प्रपश्चितज्ञानग्रहार्थमर्धापत्तिगम्यार्थानिधाने कुर्महेत्र वयमुत्तरकेली कीरशी रगिह मितयोक्ता । ऽप्यदोषादिति चतुरिन्द्रियं त्वप्राप्तमेव विषयं गृह्णातीत्याह किन्तु मांसमयगोलकरूपा सदमताभृदपरा किमु कापि ॥ "रूवं पुण पास अपुढे विति" रूपं कर्मतापन्नं च चक्षुरस्पृष्ट- आदिमा यदि तदापि किमर्थो झोचनानुसरणज्यसनीस्यात् । मप्राप्तमेव पश्यति पुनः शब्दस्य विशेषणार्थत्वादस्पृष्टमपि सोचनं किमुत वस्तुनि गत्वा संसृजोस्प्रिय व प्रणयिन्यामा५। योग्यदेशस्थमेव पश्यति नायोग्यदेशस्थसौधर्मादिकटकुड्या- प्रत्यक्बाधः प्रथमप्रकारे प्राकारपृथ्वीधर सिन्धुरादिः। दिव्यवहितं वा घटादीति नियुक्तिगाथार्थः ॥ संबक्ष्यते पदमपुटोपटंकी प्रत्यक्वकाले कसयाऽपिनो यत् ॥६॥ ____ अर्थे तव्याख्यानाय नाष्यम् । पक्केऽपरत्रापि स एव दोषः सर्पन्न बस्तु प्रतिवीक्ष्यतेऽक्ति। पुढे रेणु व तणुम्मि, बरूमप्पीकयं पएसेहि। संसर्पणे वाऽस्य सकोटरत्वप्राप्त्यापुमान् किन जरहमास्यात्। निकाई चिय गिएडा, सहदब्वाइजुत्ताई ॥ चक्षुषःसूक्ष्मतापक्के सूक्ष्मता स्यादमूर्तता । बदुसुहमन्नाचुगाई, जं परुयरयं व सोत्तविमाणं । गंधाई दवाई, विवरीयाई जो ताई ॥ यद्वाल्पपरिमाणत्व-मित्येषा कल्पनोजयी ।।७।। फरिसाणत्तरमत्तर, मत्तप्पए समीसीकयाई । स्याद्व्योमवद्व्यापकता प्रसत्तथा सर्वोपनम्नः प्रथमप्रकारे । घेप्पंति पटुयरविणाई जं च न घाणाश्करणाईव प्राकारकान्तारविहारहार मुख्योपसम्भो न भवेद्वितीये ।। स्पृष्टमित्यस्य ब्याख्यानम् ॥ न खत्रु न खबु शास्त्रं स्वप्रमाणात्प्रथिष्ठे पटकटशकटादौ भेद(पुटुरेणुं व तणुम्मित्ति)। यथा रेणोस्तनौ संबन्धः इत्ये कारि प्रसिकम् । अथ निगदसि तस्मिन् रस्मिचक्र क्रमेण, तावन्मात्रेण यद्वस्तु संबकं तदिह स्पृष्टमुच्यत इति भावः ॥ प्रसरति तत एतत्स्यादनल्पप्रकाशम् ॥१०॥ तथाहि(बझामित्यादि ) यदात्मीकृतमात्मना गाढतरमागृहीतमा प्रोदाममाणिक्यकणानुकारी दीपाडूरस्त्विट्पटलीप्रनावात्। स्मप्रदेशस्तनुलग्नतोयवन्मिश्रीततं तद्वकमुच्यते इत्यर्थः ॥ किं नैव कश्मीरजकज्जसादीन्प्रधीयसोऽपि प्रथयत्यशेषान् तत्र (विक्काई चि) अतिस्पृष्टान्येच शब्दद्रव्याणि गृहाति ॥ ११॥ नन्वेवमध्यक्वनिराक्रिया स्यात्पक्के पुरस्तापयक्तितेश्रोत्रं यतस्तानि बहूनि सूदमाणि भाबुकानि च वासकानि ऽस्मिन् । प्रौढप्रनामएकत्नमएिमतोऽर्थो नाजासते यत्प्रतिभा चेत्यर्थः । पटुतरं च श्रोत्रविज्ञानं गन्धादिद्रव्याणि तु विप- समानः ॥ १२ ॥ अथाप्यनुद्भूततया प्रनायाः पदार्थसंपर्करीतानि स्तोकबादराभावुकानि यतोऽतस्तानि स्पर्शानन्तरमा- जुषोप्यनीका । सिकिस्तदानीं कथमस्तु तस्या ब्रवीषि चेत्तैरमप्रदेशर्मिश्रीकृतानि स्पृष्टबकानि गृह्यन्ते । घ्राणादिनिः पटु जसताख्यहेतोः ॥१३ ।। रूपादिमध्ये नियमेन रूपप्रकाशकतरविज्ञानानि च न नवन्ति यतो प्राणादिकारणानीतिगाथा- त्वेन च तैजसत्वम् । प्रनाषसे चक्कुसि संप्रसिद्धं यथा प्रदीपात्रयार्थः । अय रुवं पुण पास अप्पुटुंचित्यत्रोपपत्तिमाह। दूरविधुदादौ ॥ १४ ॥ तदिदंघुसृणविमिश्रणमंध्रपुरन्ध्रीक " अप्पत्तकारिनयणं, णेयं नयणस्स विसयपरिमाणं । आयं- पोबपाशीनाम् । अनुहरतेव्यनिचारापक्कणसंनिकर्षेण १५॥ गुण बक्वं, अरित्तं जो अणाणंतु" प्रागुक्तयुक्तचा अप्राप्त व्यत्वरूपेऽपि विशेषणे स्या-केतोरनैकान्तिकताअनेन ।तकारि अप्राप्तस्यैव बस्तुनः परिच्छेदकारि यतो नयनं मनश्च स्यापि चैत्तेजसतां तनोषि, तन्वादिना किन्तु तदाऽपराकम् ततो ऽस्पृष्टमेव रूपं पश्यति नयनेन्द्रियम् । विशे० (अधिक ॥ १६:सौवीरसौर्चासँधवादि निश्चिन्वते पार्थिवमेव धीराः तु विस्तरजयान्न प्रपञ्च्यते तत्ततत्रैव दृष्टव्यम् ) कृशानुनावोपगमोऽस्य तस्मा-दयुक्त एवं प्रतिभात्यमीषाम् (G) सम्प्रतीन्द्रियाणाम्प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्तां कुर्वन्नाह ॥ ॥ १७ ॥ तथाच-सौवीरसौवर्चसैन्धवादिकं स्यादाक पविटाईते : सहाई सुणे अपविहाई सद्दाई सुणे रोतिवर्शन पार्थिवम् । मृदादिवन्न व्यभिचारचेतनं चाम।? गोयमा ! पविट्ठाई सद्दाई सुणेइ नो अपविट्ठाई सुणे करणानुगुण निरीक्ष्यते ॥ २८ ॥ चामीकरादेरपि पार्थिवएवं जहा पुढाणि तहा पविठ्ठाणि ।। त्वं लिंगन तेनैव निवेदनीयम् । शाब्दप्रमाणेन न चाऽत्रवा(सद्दाई इत्यादि ) फासिरूं नवरं स्पर्शस्तनौ रेणोरिया धा पकस्य यन्नास्ति तदत्र सिद्धम् ॥ १९ ॥ अञ्जन मरिचऽपि भवति । प्रवेशोमुखे कववस्येवेति शब्दार्थस्य भिन्नत्वा रोचनादिकंपार्थिवं ननु तवापिसम्मतम् । अञ्जनेपि तदसौ तु भिन्नविषयता स्पृष्टप्रविष्टसूत्राणामिति-प्रज्ञा० १५ पद। प्रवृत्तिमा-नप्रयोजकविसम्बमम्बरी ॥ २० ॥ हनूमवाल(9) श्रोत्रन्नकणादिचतुरिन्छियाणां प्राप्यकारित्वं नय बांगून-बम्बात्त साधनादतः। न सिकिस्तजसत्वस्य दृष्ट नमनमोस्त्वप्राप्यकारित्वम् । सुस्पष्टदूषणात् ॥ २१॥ चकुर्न तैजसमभास्वरतिग्मन्नावाप्राप्यकारीणीनिधयाण्यप्राप्यकारीणिवेति तत्र प्राप्यकारीएये दम्नावदित्यनुमितिप्रतिषेधनाच्च ! सिकिंदधाति नयनस्य न वति कणभकाकपादमीमांसकसाख्याः समाण्यान्ति । चक्षुः तैजसत्वं तस्मादमुष्य घटते किमुरहिमवत्ता ॥५५॥ अपित्र। श्रोत्रेतगणितानि तथेति ताथागताः । चक्षुर्वजानीति तु तथा प्रत्यकबाधासमयक्ति पक्के न रश्मयो यद्दशि दृषपूर्वाः। तथा च स्याहादावदातहृदयाः । तत्र प्रथमे प्रमाणयन्ति । शास्त्रेण तवच काला-तीतत्वदोपोऽप्युदपादि हेतोः ॥२३॥ चकुःप्राप्य मतिं करोति विषये बाह्यन्डियत्वादितो। अनुद्भवपजुपो भयुश्चप्रश्मयस्तत्र ततो नदोषः। नन्वेवमेत यद्वाह्येन्न्यितादिना परिगतं तत्प्राप्यकारीवितं ।। स्य पदार्थसार्थप्रकाशकत्वं न सुवर्णवत् स्यात् ॥२४ ॥ जिह्वावत् प्रकृत तथा च विदितं तस्मात्तथा स्थीयतां । आयोकसाचिव्यवशास्थास्य प्रकाशकत्वं घटनामियति । नाऽत्रासिफिमुग्वध दूषणकणस्तवकणानीकणात् ॥ १॥ नन्येवमेतत्सचिवस्य किं स्यात्प्रकाशकत्वं न कुटीकुटादेः२५। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८६) इंदिय अभिधानराजन्छः । इंदिय अथास्तु काम ननु तैजसत्व-मुत्तेजित किं न भवेवयास्य । त्रैव हि साधनेन । पदार्थसाथै प्रति यन्नसर्प जिह्वेन्द्रिय तथा च नव्यस्त्वदुइ एषोऽवतप्रवादोर्जान तैजसत्वे २६ केनचिदिष्टपूर्वम् ॥ ७ ॥ पक्कान्तरे तु व्यभिचारमुद्रा कि उत्पद्यन्ते तरणिकिरणश्रेणिसंपर्कतश्चे-त्तत्रोद्भताः सपदि चेतसा नैव समुज्जजृम्भे । यस्मात्तदप्राप्यसुपर्वशैलस्वर्ग रुचयो सोचने रोचमानाः । यद्गृह्यन्ते न खलु तपनालोकसं समुत्पादयति प्रतीतिम् ॥४॥ शरीरस्य बाहिदंशे स्थायित्वं पत्प्रतान-स्तस्मिनहेतुर्नवतिहि दिवा दीपभासामनासः॥२७॥ याद जलप्यते । बाहोन्धियत्वमत्र स्यात्संदिग्धव्यनिचारिता अत्रय प्रतिक्रिया-मुहिग्राह्य कुवलयदबश्यामनिम्नाऽविलिप्ते ॥ ॥ अप्राप्तार्थपरिच्छेद नापि साई न विद्यते । हेतोर्बा स्फीते ध्वान्ते स्फुरति चरतो घूककाकोदरादेः । किं बद्दयंते बेन्जियत्वस्य विरोधो वत कश्चन ॥ ५० ॥ क्वचित्साध्यनिकणमपि रुचो लोचनेनैव यस्मादालोकस्य प्रसरणकथा वृत्त्या तु हेतुव्यावृत्तिदर्शनात् प्रतिबन्धप्रसिकिश्चत्तदाकाचिदप्यत्र नास्ति ।।श्ना उत्पत्तिरुङ्गततयाथ तासां तत्रैव त्रापि कथं न सा ॥५१॥ रसन-स्पर्शन-घ्राणोत्रान्येन्द्रियता यत्रास्ति रवि प्रकाशः । काकोदरादेरपि तर्हि नैताः कीट- बलात् । चकुरप्राप्यविज्ञातृ-मनोवत् प्रतिपाद्यताम् ॥५२॥ प्रकाशे कुशला भवेयुः ॥ २५॥ अविवरतिमिरव्यतिकर साध्यव्यावृत्तितोऽत्रापि हेतुज्यावृत्तिरीक्ता । नच कश्चिपरिकरितापवर कोदरे वचन । वृषदंश दृशि न दृष्टा द्विशेषास्ति, यनैकत्रैव सा मता ॥ ५३ ॥ बाह्येन्द्रिय त्वं सकलङ्कमेव न तार्किकान प्रीणयितुं तदीऐ । भ्रविमरीचयः किमु कदाचिदथ ॥ ३०॥ अत एव विलोकयन्ति भ्रमो धनगनामिनानां वैदग्धनाजो नजते न चेतः ॥ ५ ॥ सम्ब-क्तिमिराङ्करकरवितेऽपि कोणे । मूषकपरिपन्थिनः पदा किंचात्र संसूचितमादिशब्दाद् वृत्ते पुरश्चारिणि कारकत्वं । र्थान् ज्वलनासोकविजृम्भणं विनैव ॥ ३१ ॥ अत्रोत्तरम् यत्प्राप्यकारित्वसमर्थनाय नेत्रस्य तरकाणगञ्जनानम् ॥५॥ चाकचिक्यप्रतीजास-मात्रमत्रास्ति वज्रवत् ।नांशवःप्रसरन्त यस्मादिदं मन्त्रजपोपसर्प-त्योहामरामाच्यानिचारदोषातू । स्तु, प्रेक्ष्यन्ते सूक्ष्मका अपि ॥ ३२॥ मार्जारस्य यदीक्षण उत्तासयेताय करायकेबि-कलंकितश्रीकामवावनाति ॥५६॥ प्रणयिनः केचिन्मयूखाः सखे विद्येरन् न तदा कथं निशि तपाहि । कनकनिकषस्निग्धां मुग्धां मुहर्मधुरस्मितां चटुसभृशं त्तचक्कुषा प्रेक्तेि । प्रोन्मी सत्करपुअपिञ्जरतनी संजा कुटिलभवितान्तिं कटादापटुच्छटाम । त्रिजगति गतां कश्चितवत्युन्दरे प्रोज्जृम्नेत तवापि हन्त धिषणा दीपप्रदीपाद्यथा न्मंत्री समानयात कणातूतरुप रमणीमारा-मन्त्रान्मनोवि सं॥ ३३ ॥ कृशतरतया तेषां नोचेदेति मतिस्तव प्रभवति स्मरन्।५ । कश्चिदत्रगदति स्म यत्पुनमन्त्रमन्त्रणगवीसमाकथं तस्याप्यस्मिन्नसौ निरुपयवा । घटना नपुणा साक्वा नयेत् । युक्तमेव मदिरेकणादिकं तेन नाभिहितपणोदयः स्प्रेक्वाविधौ हि ततिस्त्विषां न खलु न समा धीमन् ! सा ॥ । मन्त्रस्य साकाद्घटना प्रियादिना परंपगतो यदि चोभयत्र विनाव्यते ॥ ३४ ॥ अमृहम्मूषिकारीणां तस्मादस्ति वा निगद्यते । साकान तावद्यदयं विहायसो ध्वनिस्वरूपस्तव स्वयोग्यता । यया तमस्यपीवन्ते, न चकरश्मिवत्पुनः ॥३५॥ सम्मतो गुणः ॥ ५० ॥ ततोऽस्य तेनैव समं समस्ति संसश्त्यं न चकुषि कयचिदपि प्रयाति. ससिहिपतिमियं खड्बु क्तिवार्ता न तु पदमहावया । अथाराहाम्वनवेदनं स्या, रश्मिवत्ता। तस्मात्कथं कयय तार्किकचकुषः स्यात् प्राप्यैव न्मन्त्रस्तथाप्यस्त्वियमात्मनैव ॥ ३०॥ अथापि मन्त्रस्य निवे वस्तुनि मतिः प्रतियोधकत्वम् ॥ ३६॥ बहिरर्थग्रहोन्मुण्यं द्यते त्वया संसक्तिरेतत्पतिदेवतात्मना । संतोषपोषप्रगुणा बहिःकारणजन्यता स्थायित्वं वा बहिर्देशे किं बाहोन्द्रियता च सा प्रियां प्रियं प्रति प्रेरयति स्वयोगिनीम् ।। ६१॥ - जवेत् ॥ ३७ ।। तत्रादिमायां निदि चतसा स्या-देतस्य है महऽत्र ननु देवतात्मना मन्त्रवर्णविसरस्य का घटा । अम्ब रस्य गुण एव तत्कथं देवतात्मनि भजेत संगतिम् ॥ ६॥ ताय॑निचार चिह्नम् अप्राप्यकारि प्रकरोति यस्मान्मन्दा आश्रयद्वारतोऽप्यस्य संसों नास्ति सर्वथा । व्यापकाव्यकिन। मन्दरबुद्धिमेतत् ।। ३० ।। दोषः स पवोत्तरकल्पनायां यदात्मनः पुद्गव एष बाह्यः । चेतश्च तस्माऽपजायमान में यार्यस्मा-संसों नामुना मतः ॥६३ ।। व्यापकेषु वदति व्यतिषङ्ग-यस्तु तेन मनसा ध्वनिना वा-ऽतीतवस्तुविषयण तद्वहिःकारणजन्यताभृत् ॥ ३५ ॥ चेतः सनातनतया क विमृश्य स्पष्ट एच विवसन्-यनिचारः ।।६४॥ अयस्कावितस्वरूपं सर्वापकृष्ट परिमाणपवित्रितं च । प्रायः प्रिय न्तादनकान्त-स्तयाऽत्र परिभाध्यताम् । आक्केपश्च समाप्रणयिनीप्रणयातिरेकान्देतत्करोति हृदये ननु तर्कतझा।। धिश्च यो रत्नाकरादिह ॥६५॥ कारकत्वमपि तन्न शोएतत्र विततीक्रियमाणं प्रस्तुतेतरदिव प्रतिनाति । वि भत प्राप्यकारिणि यदीकणे मतम् ।प्राप्य वस्तु वितनोति स्तराय च भवेदिति चिन्त्यं तकिलोक्य गुरुगुम्फितवृत्तिम् तन्मतिं नैव चक्षुरिति तत्वनिर्णयः ॥६६॥ अजिचका॥ ४१ ।। पक्के तृतीये विषयप्रदेशः शरीरदेशो यदि वा नेषु येत्यदःप्राक प्ररूपितमुपैति नो घटाम् । रश्मिसंचयविरबहिः स्यात् । स्थायित्वमाद्ये विषयाश्रितत्वं यद्वा प्रवृ चितं हि तत्ते च तत्र नितरां व्यपाकृताः ॥ ६७॥ किंच। त्तिर्विपयोमुखी स्यात्॥४२॥प्राचीनपके प्रतिवाद्यसिद्धिः चक्षुरप्राप्यधीहत, व्यवधिमतोऽपि प्रकाशकं यस्मात् । कलङ्कपङ्कः समुपैति हेतोः । स्याहादिना यत्प्रतिवादिनास्य अन्तःकरणं यद्वध्वतिरके स्यात् पूना रसना ॥१७॥ अथ नाङ्गीकृतं मयसमाश्रितत्यम् ॥ ४३ ।। पक्के तया साधनहा द्रुमादि-यवधानभाजः प्रकाशकत्वं ददृशे न हो। ततोऽप्य न्यतास्मिन् दृपान्तदोषः प्रकटः पटूनाम् । जिह्वेन्द्रियं नार्थ यं हेतुरसिद्धतायां धौरेयन्नावं बिनरांबभूव ।। ६९ ॥ पतन समाश्रितं य-किलोकयामासुरमी कदाचित् ॥ ४५ ॥ हि युक्तं शतकोटिकाच-स्वच्छोदकस्फाटिकन्नित्तिमुख्यः । नीयकल्पे किमसी प्रवृत्ति-रानिमुख्येन विसर्पणं स्यात् ॥ पदार्थपुले व्यवधानमाज संजायते कि नयनान्न संबित आश्रित्य किंवा विषयप्रपञ्च-प्रतीतिसंपत्प्रतियोधकत्वम् ॥ १०॥ दम्भोधिप्रभृतिप्रनिद्यभिउराश्चेस्रोचिषश्चक्षुषः सं!!४५ ॥पके पुरश्चारिणि सिसिवन्ध्यं स्यात्साधनं जैनम- सगापगताः पदार्यपटहीं पश्यन्ति तत्र स्थिताम् । एवं तानुगानाम् । यस्मान्न तोंचनरश्मिचक्र-मङ्गीकृतं वस्तु- तर्हि समुच्चसन्मजन्नर जित्वा जलं तत्कणा-त्तनाप्यन्तरिमुखं प्रसपत् ।। ४६॥ निदर्शनस्य स्फुटमेव दृष्टं वैकल्यम- तस्थिनीननिमिषा नासोकययुन किम् ॥ ७॥ विध्याता Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय अभिधानराजेन्डः। इंदिय स्तेन तेचेद्विम झजसनराकि नजन्ते न शान्ति, किं चाम्नः काचकूपोदरविवरगतं निप्पतेत्तत्तदानीम् । दोषश्चे नैष तूर्णं यदयमुदयते नूतनव्यूह रूपः सर्वंयुस्तर्हि नैताः कथमपि रुचयो सोचनस्यापि तस्मिन् ॥७२॥ नवति परिगमश्चे द्वेगवत्वादमीषां कतिपयकलयास्तु कीरपातस्तदानीम् । न च भवति कदाचिगुददस्यापि तस्मा-प्रपतनमिति युक्त स्तस्थ नाशः किमाशु॥७३॥ किंच ॥ काशकुनिशप्राकारात्रिविष्टपकन्दरा-कुहरकर्षितं विश्वं वस्तु प्रतीकणनंगुरम् । ज्वझनकक्षिकावरिकत्वस्मिन्निरन्तरतानमः प्रभवति वदन्नित्यं शाक्यः कथं प्रतिहन्यते ॥ ७॥ तस्थौ स्थेमा तदस्मिन् व्यवधिमद मुना प्रेक्ष्यते येन सर्वम् तत्सिका नेत्रबुद्धिय॑वधिपरिगतस्यापि भावस्य सम्यक् । कुड्यावष्टन्धबुकिवात किमु न चन्नेडशी योग्यतास्य प्राप्तस्यापि प्रकाशे प्रनवति न कयं सोचनान्धबुकिः । ७५॥ किं वा न प्रतिजासते शशधर कर्मापि तदूपवत् दूराचेद्विखसत्तदस्य उदये लक्ष्येत किं बाच्छनम् । तस्माञ्चकृषि योग्यतैव शरणं साकी च नः प्रत्यय-स्तत्तर्कप्रगुण प्रतीहि नयनेप्वप्राप्यधीः कर्तृताम् ।। ७६ ॥ रत्ना०२ परि०५ सूत्रे ।। तथा।च विशेषावश्यकेपि नन्विन्धियत्वे तुल्येऽपि केयम्मुख परीविका यश्चतुई स्पर्शनान्दियषु प्राप्यकारिताऽन्युपगम्य नतु नत्रा सोरित्याहनवाया गुग्गहो, जंताई पत्तकारीणि । तत्र विषय नूतं शब्दादिकं वस्तुप्राप्त संश्लेषद्वारेणासादितं कुर्वन्ति परिजिन्दन्तीति प्राप्तकारीणि प्राज्यकारीणि स्पृधार्थग्राहीणीत्यर्षः । कुतः पुनरेतान्येव प्राप्यकारीणीत्याह। उपघातश्चानुग्रहश्वोपघातानुग्रही तयोर्दशनात्कर्कशकंवादि स्पर्शने, त्रिकटुफाद्यास्वादने, अशुच्यादिपुलाघाणे, भेर्यादिश दश्रवणे, त्वककानाापबातदर्शनाच्चंदनादिस्पर्शने, कीरशकंराधास्वादने, कपुमक्षाघ्राणे, मृमन्दशब्दाद्याकर्णने तु शैत्याद्यनुग्रहदर्शनादित्यर्थः। नयनस्य तु निशितकरपत्रप्रो ल्लसवादिवीकणेऽपि पाटनाद्युपघातानवलोकनाश्चन्दनागरुकर्पूराद्यवोकनेऽपि शैत्याद्यनुनाहाननुभवात् । मनसस्तु वहृयादिचिन्तनेपि दाहाद्युपघातादर्शनाज्जयचन्दनादिचिन्तायामपि च पिपासोपशमानुग्रहाऽसंभवाञ्चति । अत्र परः प्राह। जुज्जइ पत्तविसयया, फरिसणरसणेन सोत्तघाणेसु । गिएहंति सविसयं चिन, जुत्ताई जिबदेशं पि॥२०॥ प्राप्तः स्पृष्ट विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो ययोस्ते प्राप्तविषये तयो विः प्राप्तविषयता सा मते घटते । कास्मन्नित्याह । स्प शनं रमनं चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् स्पर्शनरसनेजिय इत्यर्थः । अननिमतप्रतिषेधमाह । न श्रोत्रघ्राणयोः प्राप्तविषयता यज्यत । यात्मात्कारणादितो विवक्वितात्स्वदेशाति नदशर्माप स्वविषयमंव गृहीतोस्याथस्यानुनयसिकत्वात न हि शब्दः कश्चिन प्रिय प्रविशन्नुपान्यते नापि श्रोत्रेन्धि यं शब्ददेशे गान् समीयत न चान्यामन्येनापि प्रकारण विषयस्पर्शनं घटत । दंग पप कस्यापि शब्दः श्रयत इत्यादि जनोक्तिश्च श्रयते कारकुंकुमकुममादीनां दरम्यानामपि गन्धी निर्विवादमनुतूयते च तस्मात् श्रीत्रवाणयाः प्राविषयता न युज्यत पवति गाथार्थः । अत्राच्यो पावंति सहगंधा, ताई गंतुं सयं न गिएहति । जं ते पोग्गलमइया, सकिरिया वाग्वहणाउ ॥२०६॥ धूमोन्य संहरण उ, दाराणु विहाणो विसेसेणं । तोयव नियंवाइसु, पमिघाया ओ यवाउच ॥२०७।। (पावंति सदगंधा ताइंति ) शब्दगन्धा कर्तृनूतौ ते श्रोत्र घाणेन्डिये कर्मतापन्ने अन्यत आगत्य प्राप्नुतः स्पृशत शत प्रतिज्ञा । अननिमतप्रकारप्रतिषेधमाह । गंतुं सयं न गिण्डं तित्ति ) ताति-संबध्यते अत्रापि । ततश्च ते श्रोत्रवाणे कर्तृनूते पुनः स्वयं शब्दगन्धदेशं गत्वा न गृहीतःशब्दगन्धाविति विनक्तिन्यत्ययेन संबध्यते आत्मनोऽबाह्यकरणत्वाच्यत्रघ्राणयो स्पर्शनरसनवदिति । ननु शब्दगन्धावपि श्रोत्रघ्राणे कुतः प्राप्नुत इत्याह । (जं ते पोमात्रमश्या सक्किरियत्ति) यस्माकारणात्ती शब्दगन्धी सक्रियो गत्यादिक्रियावन्ती तस्मादन्यत आगत्य श्रोत्रघ्राणे प्राप्नुतः कथंभूतो सन्त सक्रियो तावित्याह । पुनः पुकामयी यदि पुनरशिक्षिकत्वादसौ स्यातां तदा यया जैनमतेन सक्रियप्वाकाशादिषु गतिक्रिया नास्ति तथैव तयोरपिन स्यादित्यारोच्य पुनमयत्वविशेषणमकारि पुलमयत्वे सति सक्रियाविति नावः। यश्चवंतं तत्र गतिक्रियास्त्येव यथा पुनस्कन्धेग्वित्याह-ननु पुशलमयत्वेऽपि सति शब्दगन्धयोतिक्रियाऽस्तीति कुतो निश्चीयत इत्याह(वा उवहणाउ धूमोव्वत्ति) वायुना वहनं नयनं वायुवहन तस्मादिदमुक्तं भवति यथा पवना धूम श्वगतिक्रियाभाजी तौतयाविशेषण द्वारानुविधानतस्तोयवत्तद्वन्तावेतौ तथा पर्वतनितम्बादिषु प्रतिघातात्प्रतिस्खननाचायुवदेती गतिक्रियाश्रयावितिगायाच्यार्थः । हेत्वन्तरेणापि शब्दगन्धयोः सुयुक्तिकं गतिक्रियावत्त्वं समर्थयन्नाद गएहति पचमत्यं, नवधायाणग्गहोवाघीओ ॥ वाहिजपूश्नासा-रिसादओ कहमसंबके॥२०॥ प्राप्तमन्यत आगत्यात्मना सह संबई शब्दगन्धलकणमय गृहीतः श्रोत्रघाणेन्डिये शति गम्यते । एतेन शब्दगन्धयारागमनक्रिया प्रतिज्ञाता भवति कुतः प्राप्तमेव गृहीत श्याह उपघातश्चानुग्रहश्चपिघातानुग्रहौ तयोरुपलब्धः तथाहि र्यादिमहाशब्दप्रवेशे श्रोत्रस्य पाधिर्यरूप उपघातो दृश्यते कोमनशब्दश्रवसे त्वनुग्रहः प्राणस्याप्यशुच्यादिगन्धप्रवेशे पूतिरोगाऽव्याधिरूप उपधातोऽवलोक्यते कर्पूरादिगन्धप्रवेशे त्यनुग्रहः शब्दगन्धासंबन्धेऽपि श्रोत्रवाणयोरेतावनग्रहोपघातौ नवियत तिचेदित्याह (वारिजोत्यादि) बाधिर्यच पृतिश्च नासाकोयनको रोगविशेषः नासासि च तानि आदिर्यषां शेषोपघाताऽनुग्रहाणां ते यथा नृताः कथमुपगच्छेयुः क्व सति इत्याह (असंबत्ति) स्वहेतुनूते शब्दगधनकणवस्तुनीति गम्यते । इदमुक्तं भवति। श्रोत्राणाज्यां सह संबछा पव शब्दगन्धाः स्वकार्य नृतं बाधियाँपघातममुग्रहं वा जनयितुमवं नान्यथा सर्वस्यापि तज्जननप्राप्नरातिप्रसङ्गादिति गाथार्थः । तदेवं स्पर्शनरमनवाणधोत्रागां प्राप्यकारित्वं समर्थितम् ॥ विश० ॥ आ० ॥ माम्प्रतं नयनमनमारप्रायकारित्वसमर्थनायाह । कथमप्राप्यकारित्व नयाग्यमीयते उच्यत विषयकृतानुग्रहो. पघाताजावान् तथाहि यदि प्राप्तमय चर्मनो वा गृह्णीयात् तर्हि यया स्पर्शनन्द्रियंम्रक्चन्दनादिकमगारादिकं च प्राप्तमर्थ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (456) अन्निधानराजेन्रूः । इंदिय परिन्दानुग्रहोपघातात प्रबति तथा हर्मनसी अपि नक्तां विशेषाभावात् न च भवतस्तस्माद्प्राप्तकारिणी तेन तु दृश्यते एवं विषयकृतात तथादि-धनपटन विनिर्मुके मनसि सर्वतो निविस्तरतमो येत करप्रसरमनि सर्पयन्तममागमनवरतमचोकमानस्य जयति चष विघातः शशाङ्करकदम्बकं यदि वा तर पशोि तरुमएकलं च शामवद्धं निरन्तरं निरीक्ष्यमाणस्य चानुग्रहः । तदेतदपरिभाषितनाषितं यतो न ब्रूमः सर्वथा विषयकृताबनुग्रहोपघातौ न भवतः किं त्वेतावदेव बदामो यदा विषयं विषयतया चायते तदा तत्कृतानुप्रदोषघाती तस्य न भवत इति तद्प्राप्यकारि शेषकाने तुप्राप्तेनोपपातकेनीघातो भविष्यत्यनुमादकेण वानुग्रहस्तनांमाजिनो रश्मयः सर्वत्रापि प्रसरमुपाददाना यदांशुमालिनः सन्मुखमीक्ष्यते सदा ते देशमपि प्रायन्ति ततः संप्राप्तास्ते स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरुपतन्ति शीतांशुरश्मयश्च स्वभावत एव शीतलत्वादनुग्राहकास्ततस्ते चक्कुः संप्राप्तास्सन्तस्तत्स्पर्शनेन्द्रियमिव चकुरनुगृह्णांत तरङ्गमाला संकुल जल्झावलोकने च क्षण संपृकमी रापपतोऽनुग्रहो भवति शाहूकपि शासतरुच्छायासंपर्कशीत समी रणसंस्पर्शात् शेषकानं तु जल्लाद्यवलोकने अनुग्रहाजिमान उपनावादी भवति । चोपघाताभावेऽनुग्राभि मानो ययातिसूक्ष्मायियासुनी रत्नवस्त्राद्यवलोकने इत्यं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा समासेन संपर्क यया सूर्यमी कमाणस्य सूर्येणोपघातो भवति तथा इत्यणोकने दामादयोपि कस्मान भवन्ति अपि यदि यः प्राप्यकारि वर्हि स्वदेशगतजो माञ्जनशाकादिकं किं न पश्यति तस्मादप्राव्यकार्येच चक्षुः । ननु यदि चक्षुरप्राप्यकारि नर्हि मनोवत् कस्मादविशेषेण सर्वानपि दूरं व्यपदितानाति यदि हि प्राप्तं परिधिर्दियदेवानाकृतमदूरदेश या देवी यातना देशं या तत्र मीनां गमनासंभव संपर्कसंभवात् ततो युज्यते नान्यथा तथाप्राप्यकारि रुपयनुपतयोरनावरचे तरापेकणाच " । यदि हि चक्करप्राप्यकारि भवेत् तदावरणभावादनुपलब्धिरन्ययोपलब्धिरिति न स्यात् । नहि सदावरणमुपपातकरणसमये प्राप्यकारित्वं घानादुपर्यात मानव्यापातात् अति च गमनाभावादिति प्रयोग विषयपरिमाणमप्राप्यकारित्वान्मनोप तदेतदयुक्ततरं दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् न खलु मनो व्यशेषान् विषयान् गृह्णाति तस्यापि सदमेवागमनादि वर्थेषु मोहदर्शनात् तस्माद्यथा मनो प्राप्यकार्यपि स्वावरण योपशमात्यायितविषयं तथा चरपि स्वायरणकयो मसापे कन्यादाय कार्यपि योग्यदेशावस्थितनियतविष यमिति न व्यवहितानुपप्रसंगी नापि दूरदेशस्थितानामिति । श्रपिच दृमप्राप्यकारित्वेऽपि तथा स्वनावविशेषायोग्यदेशापेक्षणं यथा ऽयस्कान्तस्य न खल्वयस्कान्तोऽयसो याकर्षण प्रवर्तमानः सर्वस्याप्ययसी जगद्वर्तिन आकर्षको नवति किंतु प्रतिनियतस्यैव । शङ्करस्वामी प्राह अयस्कान्तोऽपि प्राप्यकारी अयस्कान्तश्वायानिः समाकृष्यमाण वस्तुनः संवन्धभावात् केवलं ते छायाएवः सूक्ष्मत्वान्नोपनज्यन्ते इति तदेतदुन्मत्तप्रत्रपितं तड्राहकप्रमाणजावात् नाह इंदिय तत्र गया संभवग्राहकं प्रमाणमस्तिन चाप्रमाणकं प्रतिपनं शशुभः भथास्ति तदूग्राहकं प्रमाणमनुमानम्-इह यदाकर्षण तापक बचायोगोत्रकस्य संदर्शनाकर्षण वायलोsयस्कान्तेन तत्र साकादयस्कान्ते संसर्गः प्रत्ययाधि त इति अर्थात् गयापुनिः सह दृष्टव्य इति तदपि वाि जति तोकांतिकत्वात् मन्त्रेण व्यभिचारात् । तया दि-मन्त्रः समर्थमानोऽपि विहितं वस्तु ग्राकर्षति न को ऽपि तत्र संसर्ग इति । अपिच यथा बायाणवः प्राप्तमयः समाकर्षन्ति तथा काष्ठादिकमपि प्राप्तं कस्मान्न कर्षन्ति शक्ति प्रतिनियमादिति चेन्मनसः शक्तिप्रतिनियमो ऽप्राप्तावपि तुल्य पवेति पर्यायापरिकल्पनम् अन्यस्वाद अस्ति चष प्राप्यकारित्वे व्यवहितानुमानं प्रमाणं तदयुक्तम ऋषि देतोनिकान्तिकत्वात् कायानपरस्परकैरन्तरितस्याप्यपः प्रथेदमाच । नयनरम गृहन्तिनायनारदमयस्तेजसा तेज प्रति स्वल्यन्ते ततो न दोषः तदपि न मनोरमं महा स्वोषस्तस्मादारि चरित स्थितम् नं० श्रा० म० ( मनसो ऽप्राप्यकारिता मनः शब्देपि ) तयाच विशेषावश्यकेनयनमध्यकारित्वमभिधित्सुनयनस्य तादाद लोणमपत्तविस, मणो व्व जमलुम्गहाइ सुांति | सोया, दीसंति अणुमहोधाया ।। भावोऽचिपयो ग्राह्यवस्तुरूप यस्त प्राप्तविषयं लोचनमप्राप्यकारीत्यर्थः इति प्रतिज्ञा । कुत इ त्याह-यद्यस्मादनुग्रहादिशून्यमादिशब्दाऽपघातपरिग्रहः बा वस्तुतानुपघातम्यत्यादित्यर्थः अथ च हेतुमा वदिति दृष्टान्तः । यदि हि लोचनं ग्राह्यवस्तुना सह संवध्य तत्परिच्छेद कुर्यात्तम्यादिदर्शने स्पर्शनस्येव दादाप घातः स्यात् कोमनतरपाद्यवलोकनेत्यनुग्रहो प्रवेत् व चैवं तस्मादप्राप्यकारि लोचनमिति भावः मनस्यप्राप्यकारित्वं परस्यासिकमिति कथं तस्य दृष्टान्तत्वेनोन्यास इति चेत्सत्यं किन्तु युक्तिस्ति तसिद्धमिति निश्चित्य तस्पे तत्वेन प्रदर्शनमित्यदोषः । अथ परो हेतोरसिकतामु याजयादि) आदिशब्द आये कमनिसम्यते राजादीनामात्र बोधनस्यानुग्रहो tयते सुरादीनां त्वालोके उपघात इत्यतोऽनुग्रहादिशून्य त्यादित्यस्वा हेतुरित्यर्थः । मुकं जयति जय सनवनस्पतीन्दुमएफलाद्यवलोकने नयनस्य परमाश्वासनक गोनुग्रहः समीक्ष्यंत सूरसितमित्यादिदर्शने तु जलबिगड़ना दिरूप उपघातः संदृश्यत इत्यतः किमुच्यते ( जमणग्गदा सुतीति गायार्थः अत्रोत्तरमाह पानि रचि-कराइ फरमान को दोस्रो || मणिज्जा ग्राहं पिव उवयायाजावओ सोम्मे ।। २१० ॥ अयमत्र नावार्थः अस्मदभिप्रायानजिज्ञोऽप्रस्तुता निधायी परो न हि वयमेतमो यचक्षुषः कुतोऽपि वस्तुनः सकाशात्कदापि सर्वचानुग्रहोपघाता न भवतस्ततो रधिकरादिना दाहात्मकसपना परिच्छेदानन्तरं पचाचिरमयति तञ्चकुः प्राप्य समासाद्य स्पर्शनेन्द्रियमित्र दत दाहादिकणस्तस्योपघातः क्रियत इत्यर्थः एतावता चाप्राप्यकारिनकुर्यादिनामस्माकं को दोषो न करिस्य याधिराज्य Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९ ) अभिधानराजेन्द्रः । इंदिय स्वादितिभावः । तया यत्स्वरूपेणैव साम्यं शीतलं शीतरश्मि घृतचन्द्रादिकं वस्तु तस्मिंश्चिरमवलोकिते उपघाताजावादनुग्रहमिव मन्येत चकुः को दोषः इत्यत्रापि संबध्यते न कश्चिदित्यर्थः इति गाथार्थः श्राह यद्युक्तन्यायेनोपघातकानुग्राहकवस्तुज्य उपघातानुग्रहाजावं चकुषो न श्रूषे तर्हि यदू तत्कयय इत्यासयाह ॥ गंतुं न रूवदेसं, पासइ पत्तं सयं च नियमो ये । पण न मुत्तिमया वयापाणुग्गहो होज्जा | अयं नियमः इदमेवास्यानिनियम्यत इत्यर्थः किं तदित्याद रूपस्य देशो रूपदेशः श्रादित्यादिसमायदेशरूप स्तं गत्यावनतस्तं समाजिष्य च पश्यति न परि चिन्नत्यन्यस्याश्रुतत्वाडूपमिति गम्यते ( पत्तंसयंचत्ति ) स्वयं वा अन्यत श्रागत्य चकुर्देशं प्राप्तं समागतं रूप चने पदयात कित्यासमेव योग्यदेशस्य विषयं तत्य श्यति अत्राह परो नन्वनेन नियमेनाप्राप्यकारित्वं चक्षुषः प्रतिहतं भवति नच प्रतिज्ञामात्रेचैव तया समन्त रोग समीतियस्तु सिकिरतो हेतु (जनमाहार तुती) त्यनेन पुर्वोच्य गाथावयवेन विषयकृतानुग्रहोप Paragaणीयमनिहित एवेति चेदहो जराविधुरितरवेव सुमिरणशीखता यतो ( जमाती मेन) विषयादनुग्रहोपघाती वो निषेधयति पावि रविकराणा फरिसणंचे ) त्यादिना तु पुनरपि ततस्तौ तस्य समनुजानीत श्रतो न विद्मः कोप्येष वचन क्रम इति नैतदेवमनिप्रायापरिज्ञानाद्यतः प्रथमत एव विषय परिच्छेदमात्र कानुग्रहोपघात शून्यतां हेतुत्वेनोक्ता पश्चातु चिरमवतः प्रतिपतुः प्रातेन रविकिरणादिना द्रम मूर्ति एकेनाप्युपघाता ग्राहकेन च विषयेोपघातानुग्रहौ भवेताम् । अपीत्येतदेवाह (पतेण छ मुमिया इत्यादि अनेनाभिप्रायेण ती पुनरपि समातेन विस्मरणशीलता पाई पुनर्विषय परिसिमामपि तमप्यवनं करोतीति नियम्यते ताधिकारककर करपत्र सीवीराञ्जनादि परितापित दादस्फोट केदारनीरोगतादिवो पघातग्रसङ्गः नहि समानायामपि प्राप्ती रविकरादिना तस्य भवन्ति दाहादयो न वन्ह्यादिनिः । तस्माद्व्यवस्थितमिदं विषयमप्राप्यैवं चक्षुः परिच्चिनति भंजनदहनादिकृतापोपायान्यनयत् परिदानन्तरं तु पराम केनाप्युपासन अनुग्राहकेण वा मूर्तिमता रूपेण तस्यो पघातानुग्रहौ न निषिध्येते विषशर्करादिभकणे मूर्गस्वा स्थ्यादय श्व मनस इति । अत्राऽपरः प्राह - नयनान्नायना रश्मयो निर्गत्य प्राप्य च रविविम्बरश्मय श्व वस्तुप्रकाशयन्तीति नयनस्य प्राप्यकारिता प्रोच्यते सुक्ष्मत्वेन च तेषां चन्द्यादिभिदादयो न भवन्ति रविरश्मिषु तथा दर्शनास देतदयुक्ततरं तेषां प्रत्यक्त्वादिप्रमाणाप्राथत्वेन श्रातुमशक्यत्यातयाविधानामप्यस्तित्वकल्पनेऽतिप्रसङ्गास्तुपरिच्छेदान्ययानुपपत्तेस्ते सन्तीति कशी वेन्न तामन्तरेणापि परिच्छेदोपपत्तेः नहि मनसोरश्मयः सन्ति न च तदा। वस्तुपरिनिविश्यमाणयु किन्यस्तस्य तीन रविदाहरणमात्रेणचेतनानां नयनरश्मीनां वस्तुपरि छेदो युज्यत प्रादिगतशरीररश्मी नामपि स्पर्श इंदिय विषयवस्तुपरिच्छेदप्रसङ्गादित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः । तदेव जनज्वलनादिविषयविहितानुग्रहोपघातशून्यत्वलचणहेतोर प्राप्यकारितां चकुः प्रसाभ्य हेत्वन्तरेणपि तस्य तां प्रसाधयितुमाह जपचं गिरिहग्जन तायमंजणरओमनाइयं ।। पिच्छेज्ज यं न पासइ प्रपत्तकारि तो चक्खु || १२ || यदि तु प्रातं विषयं चतुर्गृहीयादित्युच्यते तदा ततमात्मसंवदनजोम शाकादिपदगच्छेत् तस्य निि वादमेव तत्प्राप्तत्वेनोपलब्धेः यस्माच्च न पश्यति ततोऽमातकारि चकुरिति स्थितम् । यद्यप्राप्यकारि कुस्ताप्राप्त स्याविशेषात्सर्वस्याप्यस्याविशेषेणमा एक स्थान प्रतिनियत स्येति चेन ज्ञानदर्शनावरणादे स्तत्प्रतिबन्धकस्य सद्भावान्मनसा व्यभिचाराश्च तथा हाप्राप्यकारित्वे सत्यपि नाविशेषेण सर्वार्येषु मनः प्रवर्तते इन्द्रियाप्रकाशितं सर्वथा अदा श्रुतार्थेषु तत्त्वदर्शनादित्यप्रति गायार्थः तदेवं व्यवस्थापिता चकुषोऽप्रान्यकारिता-विशे० ॥ संदेयं नयनमनोविस्तरेण प्राप्यकारितार्या साधितायां नयन पश्यापि दूषणशेषमुत्पश्यन् पराजनयनिदिय पतकारि सन्चल गिरहए कम्हा ॥ गागणं किंकयमपच विसयन सामने ।। १ ।। ययुकं युनियन्द्रकारिताम वनन्तं वस्तुनि रम्यं कस्मान्न गृह्यति अपवादिशे पादतीकरोति विषयो यस्य तदपि आयोऽप्राप्त तस्मिन् सामान्येऽविशिसतिय दिदं पदस्य कस्यचिदर्शन धने किंचित्पश्याम इतिभावः इतिगायार्थः । तस्मा आचार्य ? तरूप दपणे विषयपरिमाणनैयत्यमा मोतीत्येतदेवाद सिपपरिमाणमनिययमपत्त विमयति तस्स मणसोच्व । मणसोपविलय नियमो नमः यो समस्य । विषयस्य ग्राहकस्य परिमाणमनियतमपरिमितं प्राप्नोति तस्य चष प्रति ज्ञानहेतुमाह अप्राप्तविषय इति कृत्वा मनसहावेति दृष्टान्तप्रयोगः यदप्राप्तमपि विषयं परिनिन्ति न तस्य तत्परिमाणं युक्तं यया मनसः । अप्राप्तं विषयमनुगच्छति च क्षुस्तस्मान्न तस्य तत्परिमाणं युक्तमिति । अथेह प्रयोगे दृष्टान्तस्य साभ्यवैकल्ये विदर्शयति मनसो दृष्टान्तस्या प्राप्यकारिणो विषयनियमो ऽस्त्येवेति शेषः । कुत इत्याह । ( मन सति तदपि सर्वेप्यर्थेषु न कामति न प्रसरति इति गा थार्थः । तथाहि प्रत्यगहणे मुज्कुइ सत्तेसु वि केवलाई गम्मेसु । तं किं कपमम्मद अपतकारिणसाम ।। अर्थात्वाद्दनावि तेभ्यनन्तेषु सत्यमपि विद्य मानेष्वपि कथं नृतेपित्याह । केव केवलहानमादियामयत्रिज्ञानागमादीनां तानि केवलादीनि तैर्गम्यन्ते ज्ञायन्ते केवलादिगम्यानि येषं तेष्वर्यगढ़नेषु सत्स्यापि कस्यचिन्मन्दमतेर्जन्तोर्मनो मुह्यति कुएठी नवति । तदवगमनाय न प्रभवति तान् गहननूतान् केवलादिगम्यान् सतोज्ज्यत्र गृह्णाति तात्पर्य तत्र तत्राहमपि भवन्तं पृच्छामि तदेतन्मनसोऽग्रहणम पीनां किं किं निबन्धकारित्वसामान्येऽप्राप्तकारित्वे Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९०) इंदिय अभिधानराजेन्द्रः। इंदिव तुल्येहीत्यर्थः। तस्मान्मनसोऽपि विषयपरिमाणसद्भावादन- तया तथा च मोके वक्तारः श्रूयते कस्यापि दूरे शब्द इति । न्तरगायोक्तसाध्यविको रष्टान्त शी स्थितमिति गाथार्थः॥ अभ्यच यदि प्राप्तःशब्दो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तर्हि चाएमासोतकिकृतमग्रहणमर्यनामपीत्यत्रपराभिप्रायं आशङ्कमानःप्राह कोऽपिशब्दः श्रोत्रेन्ष्येिण श्रोत्रेन्षियसंस्पृष्टो गृह्यते इति श्रोकम्मोदय उवसाहा चनन ना सोयणे वितं तुझं । बेन्द्रियस्य चारामावस्पर्शदोषप्रसंगः तनश्रेयः पदवीप्रतिष्ठामतुझो वनवासंनो एसो संपन्न विसए वि॥ भितिष्ठति श्रोत्रेन्ड्रियस्य प्राप्यकारित्वं तदेतदिति महामोह मनीमसनाषितं यतो यद्यपि शब्दोप्राप्तो गृह्यते श्रोत्रेन्डियेण यत्केषांचिदर्यानां मनसो ग्रहणं तत्तदावरणकर्मोदयावा स्वभा तथा ऽपि यत चत्थितः शब्दस्तस्य दूरासन्नत्वे शब्देऽपि स्ववाद्वाति परोयाचवेतबोचनेपि तुल्यं यतस्तदण्यप्राप्यकारि भाववैचित्र्यसंजवात् दूरासन्नादिनेदप्रतीतिर्नवति । तथा त्वे तुल्योऽपि कर्मोदयात् तत्स्वभावाद्वा कांश्चिदेवार्थान् गृहाति हि-दूरोदात्तः शब्दः कोणशक्तित्वात् खिन्न उपलक्ष्यते स्पष्टमसानिति तदेवं नयनस्य प्राप्यकारित्वेऽतिप्रसङ्गप्रकणं प्रा रूपो वा ततो लोके लोको वदति दूरे शब्दः श्रूयते यस्य च प्रकारिवादिना यदूषणमुक्कं तत्परितम् अथवा यो नयनम वाक्यस्यायं भावार्थो दूरादागतः शब्द श्रूयते शति स्यादेत नसोः प्राप्यकारित्वमन्युपगच्छति तस्याप्येतदूषणमापतत्येव देवमतिप्रसंगः प्राप्नोति तथा तदपि वक्तुं शक्यते दूरे रूप याप्योर्दूषणं न तदेकस्य दातुमुचितमित्येतचेतसि निधाय मुपत्नज्यते किमुक्तं भवति दूरादागतं रूपमुपमन्यते ततश्चकु प्राह 'तुहोवेत्यादि' वाश्त्ययवा एषोऽतिप्रसंगलकपनपानम्न रापे प्राप्यकारि प्राप्नोति न चेष्यते तस्मान्नतत्समीचीनमिति स्तुख्या समानः केत्याह संप्राप्तविषयत्वपि नयनमनसोरज्यु पगम्यमाने तथा त्रापि शक्यते वक्तुं यदि प्राप्तमर्थगृहाति चकु तदयुक्तं यत इह चक्षुषो रूपकृतावनुग्रहोपघातौ नोपमन्यते श्रोत्रन्द्रियस्य तु शब्दकृत उपघातोऽस्ति पतश्च प्रागेवोक्तं ततो स्तईतिसंप्राप्तनयनाजनरजोमनशलाकादीन कस्मानगृहाति। नातिप्रसंगादानमुपपत्तिमत् । अन्यच्च प्रत्यासन्नोऽपि जनः मनोऽपि प्राप्तान् सर्वानपि किमिति न गृहाति घटप्राप्तिकाले पवनस्य प्रतिकूबमवतिष्ठमानः शब्दं न शृणोति पवनवमनितु पटादयो न प्राप्ता एवेति चेन्न तदप्राप्ती हेत्वभावात्तथाहि न वर्तमानो दूरदेशस्थितोऽपि शृणोति तथाच लोके वक्तारो न तावत्कटकुल्यादयस्तेषामाचारकास्तरन्तरितानामपि मेर्वादीनां वयं प्रत्यासन्ना अपि त्वदीयं वचः श्रुषुमः पयनस्य प्रतिकूलम मनसोपरिजेदानुभवात्कर्मोदयात्स्वनावाचा प्रतिनियतमेव वस्थानात् यदि पुनरप्राप्तमेव शब्द रूपमिव जनाः प्रमिणुयु मनः प्राप्नोतीति चेन्नन्वेतप्राप्यकारिणो नयनस्यापि समान स्ता वातस्य प्रतिकूद्धमप्यवतिष्ठमाना रूपमिव शब्दं यथा मिति गाथार्थः । तस्मारिकमिह स्थितमित्याह ।। वस्थितं प्रत्यासन्नाः प्रमिणुयुर्न चप्रमिएवन्ति तस्मात्प्राप्ता एव प सामयाजावाओ मणोच विसयपरउ पगिएहेश् ॥ रमाणवः श्रोत्रेन्षियेण परिगृह्यन्ते श्त्यघश्यमन्युपगन्तव्यं तथा कम्मक्खोवसमश्रो साणुग्गहो य सामत्यं ॥१॥ च.सति पवनस्य प्रतिकुलमप्यवतिष्ठमानानां श्रोत्रेन्द्रियं न शब्द चकु सिकान्तनिर्दिष्ट नियतविषयपरिमाणात्परतो न गृहा- परिमाणवो वैपुल्येन पाप्नुवन्ति तेषामन्यथा वातेन नीयमातीति प्रतिज्ञा चषश्वेह कर्तृत्वं प्रक्रमागरबते सामर्थ्यानावा नत्वात् ततो न ते शृण्वन्तीति न काचित वितिः । यदपि दिति हेतुमनोवादिति दृष्पान्तः सामर्थ्यनावो नयनस्य कुत चोक्तं चारामासस्पर्शदोषः प्रामोतीति तदपि चेतनाविकपइत्याह (कामवो इत्यादि) तदावरणकर्मक्कयोपशमात् रुषजाषितमिवासमीचीनं स्पर्शास्पर्शज्यवस्था या लोके स्वानुग्रहतश्चाप्राप्तेष्टायपि केषुचिद्योग्यदेशावस्यितेवर्थेषु प- काल्पनिकत्वात् तयाहि न स्पर्शस्य व्यवस्था लोके पाररिच्छेदे कर्तव्ये सोचनस्य सामर्थ्य नवति इदमुक्तं भवति अ- मार्थिकी तथाहि यामेव नुवमग्रे चाएकातः स्पृशन् प्रयाति प्रासत्वे समानेऽपि येष्वर्येषु ग्रहणविषये कर्म कयोपशमो जवति तामेवपृष्ठतःश्रोत्रियोपि, तया यामेव नावमधिरोहतिस्म चातया स्वस्यात्मनो रूपाओके नमस्कारादिसामन्याः। सकाशाद एमावस्तामेवारोहति श्रोत्रियोऽपि, तथा स एव मारुतश्चाएमा नुग्रहो भवति तेष्वर्थेषु कर्मयोपशमसद्भावाजेषसामग्रय. समपि स्पृष्ट्वा श्रोत्रियमपि स्पृशति, न च तत्र लोके स्पर्शदोषनुग्रहाचकुषो ग्रहणसामर्थ्य नवति येषु त्वर्थेषु ग्रहणविषये व्यवस्था तथा शब्दपुत्रसंस्पर्शेऽपि न भवतीति न कश्चिकर्मक्कयोपशमः शेषसामग्रयनुग्रहश्च नास्ति तेषुतस्य सामर्थ्या होषः । अपि च यदा लोके केतकीदननिचयं शतपत्रादिपुष्पजाव इत्यापत्तित एव गम्यते तस्माद्व्यवस्थितमप्राप्यका निचयं वा शिरसि निबध्य वपुषि वा मृगमदचन्दनाद्यवलेपन रित्वं नयनस्य । विशे॥ मारचय्य विपणि वीथ्यामागत्य चाएमासोऽवतिष्ठते तदा ताइहसुगतमतानुसारिणः श्रोत्रमप्राप्यकारि प्रतिपद्यन्ते तयाच तकेतकीदनादिगन्धपुत्राः श्रोत्रियादिनासिकास्वपि प्रवितन्थाः चकः श्रोत्रं मनोप्राप्यकारीति तदयुक्तमिहाप्राप्यका शन्ति ततस्तत्रापि चाएमावस्पर्शदोषःप्राप्नोतीति तदोषन्नयाना रितत्प्रतिपत्तुं शक्यते यस्य विषयकृतानुग्रहोपघातानावो यथा सिकेजियमप्राप्यकारि प्रत्तिपत्तव्यं नचैतनवतोऽप्यागमे प्रति चर्मनसोः श्रिोत्रेन्डियस्य च शब्दकृत उपघातो दृश्यते सद्यो पाद्यते ततो बाबिशजल्पितमेतदितिकृतं प्रसंगनेतिानंआ.म.। जातबाबकस्य समीपमहाप्रयत्नतामितमचरीरणत्कारश्रवण- तथाचरत्नावतारिकायाम् "बौछाः पुनरिदमाहुः श्रोत्रं न प्रातो यद्वा विद्युत्पपाते तत्प्रत्यासन्नदेशवर्तिनां निर्घोषश्रवणतो व प्य बुझिमारुत्ते । दिग्देशव्यपदेशान् करोति शब्दे यतो दृग्वधिरीजावदर्शनात् । शब्दपरमाणवो हि उत्पत्तिदेशादारज्य त् ॥ ७७ ॥ तथाहि । प्राच्यामत्रविजृम्नते जलमुचा मत्यूर्जितं सर्वतो जलतरंगन्यायेन प्रसरमनिगृह्णानां श्रोत्रेन्डियदेशमा- गर्जितं प्रोन्मी सत्यनमेष चातकरवो कामकण दक्विणः। केकाः गच्छन्ति ततः संत्रवत्युपपातः। ननु यदि श्रोत्रन्ड्रियं प्राप्तमेव कोकिकुटुम्बकस्य विवसन्त्येताः कलाः काननादिन्देशव्यशब्दं गृहाति नाप्राप्तं तर्हि यथा गन्धादौ गृह्यमाणेन तत्र दूरा पदेशवानिति न किं शब्दस्ति संप्रत्ययः॥30॥ प्राप्यकारि सत्रादिजेदप्रतीतिरेचं शब्दोऽपि न स्यात् प्राप्तो दि विषयः यदि तु श्रवणं स्यातर्हि तत्र न कथंच न सैषः। प्रस्तुतः समुपरिजिचमानः सापि सन्निहित एव तत्कथं तत्र दूरासना- दयाह्यपदेशः शर्करास्पृशि यथा रसनायाम ॥ ७० ॥धेश्या दिनेदप्रतीतिर्भवितुमर्हति अथ च प्रतीयते शब्दो दूरासन्नादि । नुरागप्रतिमं तदेतत् सुस्पृएदृष्टव्यानिचारदोधात् । प्राणं यदेतद् Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९१) इंदिय अभिधानराजेन्द्रः। इंदिय व्यपदेशनाजं प्राप्तप्रकाशं कुरुते मनीषाम् ॥७॥ तयाच “मन्द- नयणस्तत्ति" उत्कर्वतस्तु श्रोत्रेन्धियं द्वादशज्या योजनेच्य मन्दमुदेत्ययं परिमनप्राग्माधवीमएम्पाद्भूय: सौरभमुद्वमं- आगतान अजिन्नान अध्यवहितान् नान्यैः शब्दान्तरर्वातादिकैमयुपवने फुधाःस्फुटं मल्लिकाः गन्धो बन्धुर एष दकिणति: वा प्रतिहताकिकानित्यर्थः पुगतान अनेन पौलिकशब्दो श्रीचन्दनात्याप्तवानित्यतानुविद्यते तनुभृतां प्राणात्तथा प्रत्ययः नाम्बरगुण इति प्रतिपादितम् । यथाच शब्दस्य पौमिकता ।। १।। अस्ति त्वगिडियेणापि व्यभिचारविनिश्चयः । शेम तया तत्वार्यटोकायाम् प्रपञ्चितमिति न नूयः प्रपञ्च्यते स्पृबीमादधानेन दिदेशव्यपदेशिनी ॥शातयाहि । सेयं समीरन ष्टान् स्पृष्टमात्रान् शब्दान् प्रविष्टान् निर्वृतीन्छियमध्यप्रविष्टान् हरीहरिचन्दनेन्दु-संवादिनी वनवः प्रसने प्रवृत्ता। स्फीत शृणोति न परतोऽप्यागतान् कस्मादिति चेदुच्यते परत पागस्फुरत्पुलकपनवितांगयष्टि मामातनोति तरुणी करपववश्व०३ तानां तेषां मन्दपरिणामत्वनावात तयाहि परतः आगताः अयानुमानादाधिगम्य तेषां हेतूंस्ततस्तद्व्यपदेशिनीथीः । खनु ते शब्दपुस्तास्तया स्वानाव्यात् मन्दपरिणामास्तयोन प्राणतः स्पर्शनतश्च तारा प्रत्यकरूपा प्रथते मनीषा ॥४॥ पजायन्ते येन स्वविषयं श्रोत्रविज्ञानं नोत्पादयितुमीश्वराः । श्रोत्रपि सर्व तदिदं समानमालोकमानोऽपि न मन्यसे किम् । श्रोत्रेन्द्रियस्यापि तत्तथाविधमततरंब न विद्यते येन पररघुव्यत्रीकामपिकामीनों य-संमन्यते कामुक एव साध्वीमाय तोऽपि आगतान शब्दान् शृणुयादिति चकुरिन्छियमुत्कर्षतः स्मृत्वा ययैव प्रतिबन्धमाशु शंखादिशब्दोऽयमिति प्रतीतिः । सातिरेकान् योजनशतसहस्रादारज्याविनान् कटकुमघादि प्राच्यादिदूरादिगतेऽपि शब्दे तथैव युक्ता प्रतिपत्तिरेषा । भिरब्यवाहतान् पुरुशान् अस्पृष्टानू दूरस्थितान् अत एवाप्र॥६॥ दिखेशानां श्रुतिविषयता किंच नो युक्तियुक्ता युक्तत्वे विष्ठान (रूवात्ति) रूपात्मकान् पश्यति परतोऽव्यवहितथानवात न कथं ध्यानरूपत्वमषाम् । तस्माद्भिनप्रमिति वि. स्यापिपरिजेदे चक्षुषः शक्यभावात नन्वङ्गवमिह त्रिधा तद्यषयास्ते विशिवन्ति शब्द सिके चैवं नवतु सुतरांसाधने साध्य था प्रात्माङ्गलमुच्या प्रमाणाङ्गमञ्च तत्र "जेणं जयामणासिकिः ॥७॥ अपिच । गृह्यते यदि विनैव संगति किं तदानु सातेसिं जं होमाणरूवं तं तं भणियमिहायांगुननणियपमाणं गुहमारुते ध्वनौ । दूरतोपि धिषणासमुन्मिवे-दन्यथा तु निक- पुण मन्तु" इत्येवं रूपमात्माङ्ग " परमाणू तसरेणू रहरेणू टेऽपि नैव सा ।। ७॥मुहुर्मखत मन्यरं स्फुरति सानुलोमाग. अम्गयं च वास्त । निक्खा ज्या य जवा अट्टगुणा विवकि मे समुसितववकीवपकवाकवापता । सकामतनका- या कमसो । तत्रेन्द्रियविषयपरिमाणं किमात्माङ्गोनाहोश्चित् मिनी कबितयोजनामम्बरा न किंनिशि निशम्यते सपदि दूर उच्छ्यांगुनेन नुच्यते प्रात्माङ्गलेन तथा चाह चकुरिन्छियतः काकली ॥ ए ॥ पटुघटितकपटसंपुटौघे भवति कथं विषयपरिमाणचिंतायां भाष्यकृत् " अप्पत्तकारि नयणं मणो सदनेऽपि शब्दबुकिः। पदुघटितकपाटसंपुटौघे भवति कयं स. य नयणस्स विसयपरिमाणं । प्रायांगुलेण सक्खं अयरित्तं दनेऽपि गन्धबुकिः॥०॥ तयाहि । कर्पूरपारीपरिरंजजा- जोयणाणं तु"। प्रज्ञा. १५ पद । जी श्रीखामखएक मृगनानिमिधे । धूमायमाने पिहितेप्यगारे अंगुलजायणनक्खो समहिओ नव वार मुक्कसो विसओ। गन्धप्रबन्धो बहिरज्युपैति ॥९१ ॥ द्वारावतेऽपि सदने प्रणय- चक्खू तिय-सोयाणं अंगुल अस्संखनागियंते ॥ प्रकर्षा-देवं प्रिये स्फुरदपत्रपया स्वयंती। द्वारिस्थितस्य सर अस्या व्याख्या-स्वं च तदंगुलं च स्वांगुलं जगवरपनादेरारसाकुप्रबात्रिकायाः कर्णातिथीभवति मन्मथसूक्तिमुका ॥२॥ ज्य यस्ययद्भवति तेनांगुन योजनबक्तः समधिकः किचिद्विएवं च प्राप्त एवैष शब्दः श्रोत्रेणगृह्यते।श्रोत्रस्यापि ततः सिका- षयोत्थपरिचित्तेश्वषःनवहादशयोजनानि सांगुलेनेत्यत्रापि निर्वाधा प्राप्यकारिता, ए३॥ रत्ना०२५०॥ अष्टव्यः । चत्कर्षत उत्कृष्ट ततत्रिश्रोत्राणां ययाक्रम योज्यं(१०) संप्रति इन्ष्यिाणां विषयपरिमाणनिरूपणार्थमाह- तत्र त्रयाणां स्पर्शनरसनघ्राणानां नव योजनानि धोत्रेन्द्रियस्य सोदियस्स णं नंते केवतिए विसए पहमत ? गोयमा पुनद्वादश जघन्यतः पुनरंगुनासंख्येयनागिति गाथार्थः । दर्श। जहनेणं अंगुलस्त असंखेजइलागेकोसेणं बारसहिं ननु देहप्रमाणमुच्यांगुनेन क्रियते देहाश्रितानि चन्छिजायणहितो उिन्ने पुग्गने पुढे पविटाई सदाई सुणेइ ।। याणि ततस्तेषां विषयपरिमाणमाप च्यांगुनेन कर्तमचितं कयमुच्यते आत्मांगुवनेति नैष दोषः यद्यपि हि नाम देहाश्रिचक्विदियस्स एं नंते केवतिए विसए पत्ते ? गोयमा ! तानीन्द्रियाणि तथापि तेषां विषयपरिमाणमात्मांगुनजहनेणं अंगुलस्त संखेनइलागो उकोसेणं सातिरेगा- कदेहानन्यत्वाद्विषयपरिमाणस्य तथा चामुमवार्यमाकेपपुर ओ जोयणसयसहस्साओ अचिन्ने पुग्गने अपुढे अप- स्सरं नाष्य कृदण्याह । “नणु नणियमुस्सयंगुन, पमाणतो विटाई रुवाई पासात । घाणि दियस्त पुच्चा, गोयमा ! जीवदहमाणा । देहपमाणं तं चियन उ इंदियविसयपरिमाजहन्नेएं अंगुनस्ल असंखेजइ नागो नक्कासेणं नवहिं णं" ॥१॥ अत्र देहपमाणन्तं चिय इति यत्र उच्छ्यांगुलमेयत्वं जोयणेहिं चिन्ने पोग्गने पुढे पविट्ठाई गंधाई अग्घाई। नोक्तं तहेहप्रमाणमात्रमेव नत्विन्धियविषयपरिमाणं तस्या स्माइलप्रमेयत्वादिति अथ यदि विषयपरिमाणमिन्द्रियाणामुएवं जिबिनदियस्त वि । फासिदियस्स वि॥ च्याङ्गन स्यात्ततः को दोष आपोत पञ्चधनुशतानि मनुष्या इह श्रोत्रादीनि प्राप्तविषयपारच्छेदत्वात् अङ्ग यासंख्येयभा- णां विषयव्यवहारविच्छेदस्तथाहि यद्भरतस्यात्माइलं तत्किगादप्यागतं शब्दादिषव्य परिजिन्दन्ति नयनं वा प्राप्यकारीति ब प्रमाणाङ्गवं तच्च प्रमाणावमुच्याङ्ग बसहस्रण नवतितजघन्यतोऽअसंख्ययभागादव्यवहितं परिच्छिनत्ति किमुक्त- "उस्सेहंगुअमेगं हवः पमाणांगुलसहसगुणमितिवचनात् "। म्भवति अ गुवसंख्येयभागमात्र व्यवस्थितं पश्यन्ति ततो जरतसगरादिचक्रवर्तिनां या अयोध्यादयो नगयों ये तुस्क नतु तते पतिरि-मिति प्राणिप्रसिहश्चायमर्थः। तयाच ना न्धावारा आत्माइलेन हादशयोजनायामतया सिद्धान्ते प्रसितिसशिष्टम अनादिकं चक्कुः पश्यति । उक्तश्च- "अ- दास्तेनुच्याइनप्रमित्या अनेकानि योजनसहस्राणिस्युः तथा चरमसंखेन गुणं गातो नयणवजाणं । संखेजंगुअनागा । चसति तत्रायुधशासादिषु तामितभेर्यादिशब्दश्रवणेनसर्वेवामा Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९२ ) इंदिय अभिधानराजेन्द्रः। इंदिय पोत "बारसहिंजोयणेहिं आनिगिण्डएसई"इतिवचनात् । अथ नेरश्य तिरिक्खजोणिय मणुस्सदेवाणं सरीरोवगाहणा न च समप्रनगरव्यापी समस्तस्कन्धावारव्यापीच विजयढक्कादि मिज्जत्ति" ॥ तदस्मिन् सूत्रे शरीरावगाहनवोच्छ्यांगुलमेय शब्द प्रागमे च प्रतिपाद्यते तयैवं च जनव्यवहारस्तत पवमा त्येनोक्तो नत्विन्छियपरिमाणोद्यतस्तदात्मांगुझेनैव द्रष्टव्य मिति गमे प्रसिकः पञ्चधनुः शतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारो व्यव गाथार्थः॥ विशे०॥ च्छेदं माप्रापदित्यात्माइनेन्द्रियाणां विषयपरिमाणमवसात तस्मात्सर्वमिन्द्रियविषयपरिमाणमात्माङ्गलेनैवेति स्थितं व्यं नोच्यांगुलेन तथानाप्यकृत्-"जं तेण पंचधणुसय, नरादि ननुन्नवत्वात्मांगुलेन विषयपरिमाणं तथाधिकृतसूत्रोक्तं चक्कुविसयविवहारवोच्छेत्रो। पाश्सहस्सगणियं. जेण पमाणगुलं रिन्द्रिय विषयपरिमाणं न घटते श्रधिकस्यापि तद्विषय तत्तो" ॥१॥ अत्रतस्मादात्माङ्गोनैवेझियाणां विषयपरिमा परिमाणस्यागमान्तरे प्रतिपादनात् तथाहि-पुष्करछीपाः णं नोच्छ्रेधागुबेनति । उपसंहारवाक्यं स्वतः परिजावनी मानुषोत्तर पर्वतसमीपवर्तिनो मनुष्याः कर्कसंक्रान्ती प्रमा यम् ॥ प्रशा० १५ पद ॥ अपिच यानि देहस्यात्मभूतान्येवे णांगुबनिएनः सातिरेकैः एकावंशति योजनबकैर्व्यवस्थित जियाणि तान्यपि तावत्सर्वाण्युच्छ्यांगुलेन मीयन्ते किंपुनरि मादित्यमवलोकमानाः प्रतिपाद्यन्ते । शास्त्रान्तरेच तथा तदजियविषयपरिमाणमिति दर्शयति ॥ ग्रन्थाः “गवीसं खबु अक्खा, चउतीसं चेव तह सहस्साई तह पंचसया जणिया, सत्ततीसाए अतिरित्ता॥१॥२ नयण इंदियमाणे वि तयं, जयणिज्ज जति गानाशणि ।। विसयमाणं, पक्वरवरदीवरुवासमायाणं । पब्वेण य अवरेण जिन्जिदियाइमाणं, संववहारे वि मज्जा ।। य.पिहिं पिहिं होश्मणुयाणं॥शाश्त्यादि । ततः कथमधिकृत इन्डियाणि श्रोत्रादीनि तानि चेह "कायव्य पुप्फुगोल यम- सूत्रात्मांगनेनापि घटते प्रमाणांगुटेनापि व्यनिचारिभावात् । सूरअश्मुत्तयस्स कुसुमं" चेत्यादिना प्रोक्तानि व्यन्छियाणि नक्तञ्च- " लक्खेहिं पक्कवीसाण, सायरं गेहिं पुषखरकमि ।। गृह्यन्ते तेषां मानं प्रमाणमङ्गवासंख्येयभागादिकं तत्रापि- उदए पेनन्ति नरा,सूरं उक्कोसए दिवसं ॥३॥णय णिदियस्स कर्तव्ये गृहीतव्ये बोधव्य वा तमुच्चयांगुलं जजनीयं क्वापि व्या- तम्हा, विसयप्पमाणं जहा सुए भणियं ॥ आनस्सेइपमाणं पार्यते वापि नेत्यर्थः स्पर्शनेन्द्रियमेकं तेन मीयते शेषाणि गुमाणपक्कण वि न जुत्तं ॥ ४॥" प्रा० १५ पद । त्वात्मांगुलेनैवेति भावः कुत इत्याह (जमित्यादि) गद्यस्मा- ननु पुष्करवरद्वीपस्य मानुषोत्तरपर्वतद्विधाकृतस्याग्निा निगन्यूतीत्यादिमानानां युगबधर्मिणां जिह्वेन्द्रियादिमानं य. गवर्तिन्य मानुषोत्तरसन्निधावुत्कृष्टे दिवसे कर्कटकसं धुच्यांगुलेन गृह्यते तदा संव्यवहारे कल्पद्रुमरसादिपरिझान कान्त्यामुदये उपलकणत्वादस्तसमये च नरा मनुष्याः सूरमा बकणे विरुद्ध्येत न घटतेत्यर्थः । श्दमुक्तं जवति “बाहलओ दित्यं पश्यन्ति अवलोकयति, कियद्दर व्यवस्थितमित्याह य सब्बाई अंगुल असंखभाग एमेव पुहुत्त नवरं अंगुल सातिरकैरेकविंशतिनकोजनानां । एतदुक्तं भवति " सिया पुहत्तस्स णं इत्यादि वचनात् अंगुलप्रथक्त्वविस्तरं जिहे सीससहस्सा,दोयसया जोयणाण तेवहा । एगीससद्रिभागा जिय नितिं त्रिगञ्यूतादिमानानां च जन्तनां च तदनुसा कक्कममाशम्मपच्छनरा” इति वचनाद्यर्थादत्र कर्कसंक्रातात्रु रितया विशालानि तुपानि जिह्वा च ततो याच्यांगुलेन तेपां स्कृष्ट दिवसे पतावति दूर व्यवस्थितं सूर्य मनुष्याः पश्यन्ति कुरप्राकारतयोक्तस्य जिह्वन्छियस्यांगुलपृथक्त्वनवणो विस्तरो यथा-पुष्करा:मानुषोत्तरसमीपे प्रमाणंगुबनिप्पन्नः साति गृह्यत तदाऽत्यल्पत्या सर्वामपि जिह्वां न व्याप्नुयात् ततश्च रेकैरेकविंशतियोजनबकैर्व्यवस्थितमादित्यं तत्र दिने तन्नि सर्वव्यापितया रसवेदनलकणो व्यवहारो न घटते. तस्मादा वासिनो रोकाः समवलोकयन्ति तत्र भ्रमति बाहुल्यात्सूर्या मांगुलेनैव जिह्वादिमानं घटते ततश्च देहात्मभूतानीकिया णां च शीघ्रतरगतित्वामुक्तं च "गवीसमित्यादि " तस्मा एयपि सर्वाण्युच्यांगुलेन यदा न मीयन्ते तदा इन्द्रिय नयनेन्द्रियस्य सातिरेकयोजनबक्तस्वरूपं विषयपरिमाण विषयपरिमाणस्य दूरे वार्ता इति गाथार्थः । तदेवं “ उस्से यथा श्रुते प्रज्ञापनादिकेऽनिहितं तथा तेन प्रकारेणात्मांगु हपमाणओ मिणे देह" इत्यत्र पारिशेष्याहिशब्देन यन्वयते लोत्सेधांगुलप्रमाणांगुलानामेकेनापिगृह्यमाणं न युक्तं प्रमाणां तदर्शयन्नाह-- गुले निष्पन्नस्यापि योजनबकस्य च निप्पन्नसातिरकैक तामाणं चिय तेणं, हविज नणियं सुए वितं चेत्र। विंशतियोजनझकेन्यः एकविंशतितमभागवर्तित्वेन वृहद एएण देहमाणाइ, नारयाईण मिजत्ति। म्तरत्वात्तस्मादकत्र सातिरेक छक्कमन्यत्र सातिरेकैका तस्मादिन्छियपरिमाणे इन्द्रियविषयपरिमाणे चैकान्तेनो- शतिबकाणि योजनानां नयनस्य विषयप्रमाणब्रुवतः श्रुत च्यांगुलेनेष्यमाणे दोषस्य दर्शितत्वात्पारिशेप्यात्त्वनुमानमेय स्य पूर्वापरविरोध इति परस्योक्तमिति गाथाध्यार्थः॥ तेनोत्संधांगुबेन भवेन्न पुनरिन्जियपरिमाणं विषयपरिमाणं विश०॥ तया-नयनस्य विषयो प्रकाशकवस्तुपर्वताद्याश्रित्या वेति जावः ॥ युगलधर्मिणां रसवेदनव्यवहारस्य चक्रव मांगुलेन सातिरेक योजनवकं स्यात् प्रकाशकेत्वादि र्तिभरतनगर्यादिषु भेादिशब्दश्रवणव्यवहारस्य चाना त्यचधादिवदधिकमपिविषयपरिमाणं स्यात् नात्र विषय वप्रसङ्गस्य दर्शितत्वादिति । किंचेन्द्रियपरिमाणं तद्विषय नियमः कोपि निर्दिष्टोऽस्ति सिमान्ते यतः पुष्करवरद्वीपादि परिमापं बोच्यांगुलेन परः स्वमनीषिकयार्था पत्त्यैव व्रते- मानुषोत्तरपर्वतसमीपे कर्कसंक्रान्ती मनुष्याः प्रमाणांगुलजवः न पुनः श्रुते साक्कादेतत् काप्यनिहितं किं पुनस्तर्हि साका सातिरकैरेकविंशति योजनबकैर्व्यवस्थितं रविं पश्यन्तः जत्राऽभिहितमित्याह (भणिअंसुप वितंचवेत्यादि) श्रुतेपि प्रोच्यन्ते शास्त्रान्तरे इति तं। तदेव देहमानमेयोच्छ्यांगुखन भणितं नान्यदिति केन पुनर्निग्रन्थे सत्यमेतत् । केवलमिदं सूत्र प्रकाश्यविषयं अष्टन्यं न तु नेत्ते ऽभिहितमित्याह (एएणेत्यादि) अर्थनिर्देश पवायं प्रकाशकविषयं ततः-प्रकाशकोधिकरणमपि विषयपरिमाणं सूत्रासापकस्त्वेष एव्यस्तद्यथा “श्चएणं अस्सेहंगुलपमाणेणं न विरुभ्यते-इति न कश्चिद्दोषः । कथमेव विधोऽर्थोऽवसीयत Jain Education Interational Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय भभिधानराजेन्कः। इंदिय शति चतुभ्यते पूर्वत्रिकतव्यास्थानात् सकलमपि हि काल- द्वादशनषयोजनेज्यः परतः समायातानां शम्दादिगन्धादि कधुतं पूर्वसूरिकतव्याख्यानानुसारेणैव व्याख्यानयन्ति महा- व्याणां मन्दपरिणामत्वान्न खलु परतः समायातानां तेषां धियो न यथाक्करमात्रसन्निवेश पूर्वगतसूत्रार्थसङ्ग्रहपरनगा, तथाविधपरिणामो भवति येन श्रोत्रघ्राणादिषिकानं जनयेयुः। कालिकस्तु तस्य कचित्सप्तिस्याप्यर्थस्य महता विस्तारण श्रोत्रादीन्द्रियाणामपि च तथाविध वसं न भवति येन परतः कचिद्विस्तारवतोप्यतिसकेपणानिधाने अक्तिनःस्वमति यथा समायातानि शब्दादिव्याणि गृहीत्वा स्वविकानं जनयन्तु वखितार्यतया कातुमशक्यत्वादत एवोकमिवमन्यत्र- " जं तदेवमुक्तमिन्छियाणां उत्कृष्ट विषयपरिमाणम् । अथ जघन्य जह जणियमित्यादि" तस्मात् पूर्वसूरिकृतव्याख्यानान्नाधिकृत तद्धिमणिपुराह (अवरमित्यादि) अवरं जघन्यं विषयप्रमाण प्रन्यविरोधः ॥ आहच नाध्यकृत् “सुत्सामिप्पाश्रो यं पया- मुच्यतेकिमित्याह । असंख्याततमादामादसंख्येयनागादागतं सयणिज्जेतयं न स पयासप । वाखाणओ विसेसोनहि संदे- गन्धादिकं प्राणादीनि गृहन्ति किमेतत्सर्वेषामपन्छियाणां हादिसक्खणया । प्रका० १५ पद ॥ जघन्यविषयप्रमाण नेत्वाह नयनवर्जानां नयनस्य तर्हिका वार्ता सातिरेकयोजनमकं नयनविषयप्रमाणं अवतः सूत्रस्यायमन्नि प्रायः श्यं विवका यदुत स्वयं तेजोरूपप्रकाशरहितत्वात्परप्र- संखिजजागाओ, नयणस्स मधस्स न विसयपमाणं। काशनीयं यद्वस्तु पर्वतगर्तादिकं तत्रैव तत्सातिरेकयोजनसके नयनविषयप्रमाणतया द्रष्टव्यं नितु स्वयमेव तेजोयुक्तत्वेन प्र. पोग्गझमित्तानबंधा, जावाओ केवलस्सेवा ॥ काशे चन्द्रार्कादिकं प्रकाशके वस्तुनि, एतदुक्तं नवति कश्चि अङ्गनासंख्येयनागाद असंख्येयनागमवधौ कृत्वा नयनस्य निर्मवचकुर्जीवः सातिरेकयोजनमक्के स्थितं पर्वतादिकं वीक्ष्य जघन्यं विषयपरिमाणमतिसंनिकृष्टस्याञ्जनशलाकारजोममात ति प्रकाशनीयपर्वतगर्तादिके वस्तुनि नयनस्य तद्विषय- देस्तेनानुपसम्भादिति भावः । मनसस्तु केत्रतो नास्त्येव प्रमाणमुक्तं प्रकाशकत्वादित्यादिकेनियमः । कुतः पुनरयं विषयप्रमाणं नियमेन रेआसने च तत्प्रवर्तत इत्यर्थः कुत इसूत्राभिप्रायो गम्यत, श्त्याह-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः त्याह । पुस्ममात्रस्य निबन्धो नियमस्तस्याः नावान्मर्ता कर्तव्या नतु संदेहाउभयपक्वोक्तिमकणत्वात्सूत्रस्य सर्वकप्र- मूर्तसमस्तवस्तुविषयत्वेन पुजलेष्ववेदं प्रवर्तत इत्येवं नूतस्य णीतस्यासकताऽसमञ्जसानिधायिता व्यवस्थापनीया व्याख्या- नियमस्याभावात्केवास्यवेत्यर्यः । इह यत्पुझममात्रनिबन्ध नात्सूर्ण विषयविनागेम धारणीयं न तूभयपक्कोक्तिमानभ्रमिते नियतं न भवति न तस्य विषयपरिमाणमस्ति यथा केवस्तहिरोध बद्भावनीय इत्यर्थःउक्तंच । “जंजह सुत्ते जाणि सस्य, पुनसमात्रनिबंधाऽनियतं च मनस्ततो नास्य विषयपयं तहेव जर तं वियाबणा नदि । किं कालियाऽशुरोगो रिमाणं यस्य तु विषयपरिमाणं तत्पुमलमात्रनिबंधरहितमदिट्ठो दिटिप्पहाणेहिं ।" तदेवमप्राप्तकारिता विचारप्रक्रमेण पिन नवति यथाऽवधिमनःपर्यायझाने इति । अत्राह-जन्यऽनैनयनस्य विषयप्रमाणमुक्तम् ॥ विशे०॥ कान्तिकोऽयं हेतुर्मतिश्रुतज्ञानाच्यां व्यनिचारात्तथाहि मूर्तामतथा घ्राणेन्द्रियजिह्वन्जियस्पर्शनेन्द्रियाणि गन्धादीनुत्कर्षतो समस्तवस्तुविषयत्वेन तावन्नैते पुसमात्रनिबन्धनियताऽथ च नवयोजनेन्यः आगताम् अचिन्नान व्यान्तरैरप्रतिहतशक्ति- दृश्यते श्रोत्रादीन्द्रियप्रनवेयोस्तयोद्वादशयोजनादिकं केत्रतो कान् परिच्छिन्दति न परत आगतान् परत आगतानां मन्दप विषयप्रमाणमिति तदेतदसमी शिताभिधानमेव यतः इन्छियप्र रिणामत्वाजावात् घ्राणादीन्द्रियाणां च तथारूपाणामपि तेषां नवयोरेवतयोरिदं विषयपरिमाणं शन्छियाणि च पुद्रझमात्रनिपरिच्छेदं कर्तुभवशक्यत्वात-आह च भाष्यकृत् । "यारसहि बन्धनियतान्येवेतिकुतो व्यभिचारः।मनःप्रभवयोस्तुतयोरस्ति तो सुत्तं, ससाणं नवहि जोयणेहिंतो । गिएहति पत्तमत्थं पुन्नमात्रनिबन्धानावः केवलंतयो केत्रतो विषयपरिमाणमपि पतो परतो न गिएहति" (प्रज्ञा० १५ पद) मेघगर्जि नास्त्यतः कुतोऽनैकान्तिकतेत्यसंविस्तरेणेति। विशेणा०म० तादिशब्दमुत्कृष्टतो हादशयोजनेयः समायातं गृहाति श्रो प्रातंदु। आ०चूला छियाणि च रकणीयानि । सचत्रम, उक्तशेषाणि त्विन्छियाणि घ्राणरसनस्पर्शनलकणानि गध "इन्छियाणि न गुप्तानि बासितानि न चेच्छया।मानुष्यं धर्सनरसस्पर्शजवणमर्थमुत्कर्षतो नवयोजनेन्यः प्राप्तं गृहन्ति ॥श्तः म्प्राप्य न तुक्ता विशेषितम्" इति । आचा० १७० १ ०२०। परतोऽपायातं शब्दादिकमेतानि न गृहन्ति । ननु मेघगर्जितादि विषयः शब्दः प्रयमप्रावृषि दूरे प्रथम मेघवृष्टी सत्यां मृत्ति (११) अथेन्डियासम्भृतानां स्वरूपस्येन्छियासंवरदोषस्य कादिगन्धश्च दूरादण्यायातो गृह्यमाणः समनुभूयते रसस्पर्शी चाभिधाराकं गाथाकदवकं ज्ञाताधर्मकथायाः सप्तदशेऽध्यय ने ययातु कयमिति चेडच्यते-दूरादागतानां गन्धव्याणां रसोपि तावत्कश्चिद्भवत्येव स च तेषां जिह्वासंबन्धे सति यथासंभवं करलरिनिय महुरतंती-तल तान वंसककुदानिरामेमु । कदाचित केनचित् गृह्यत पव । तथा च वकारो प्रयन्ति "कटु- सदसु रज्जमाणा रमति सोइंदियवसट्टा ॥१॥ कस्य तीवणादेर्वा वस्तुनः संबंधी अयं गन्ध" इति । यदिह सोइंदियइंत-त्तणस्स अह एत्तिो हवा दोसो ॥ कटुकत्वं तीकणादित्वं चोच्यते तसस्यैव धर्मस्ततश्च शाय दिवगरूवमसहतो, बहवंधं तित्तिरो पत्तो ॥२॥ ते जिलासंबन्धि तेषां कटुकादिरसोऽपि गृहीत इति स्पर्शोऽ पि शीतादिदूरादापशिशिरः पद्मसरः सरित्समुकादेमध्येनाया थण-जहण-चयण-कर-चरण-णयण-गन्धियविनसियगइसु तस्य वातादेरनुतूयत पवेति । यद्येवंतर्हि द्वादशनवयोजनेन्यः रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिदियवसट्टा ॥३॥ परतोप्यागताः शब्दगन्धादयः किमिति न गृह्यन्त श्त्याह- चक्खिदियदुदंत-तणस्स अह एइओ हवइ दोसो॥ दनाणं मंदपरिणा-मत्ता परओ न इंदियबलं पि। जं जलणंमि जयंते, पय पयंगो अक्षुधीओ ॥४॥ अवरमसंखिजंगुन-नागओ नयणवजाणं ॥ अगुरुवरपवरधूवण-उयमद्वाणुझेवणविहीसु ॥ Jain Education Intematooal For Private & Personat Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९४) शंदिय अभिधानराजन्तः । इंदिय गंधेसु रज्जमाणा, रमंति घाणिं दियवसट्टा ॥ ५॥ क्तम् ॥ १॥ (सोइंदियदुइंतेत्ति) काठ्या ॥ नवरं शाकुनिका घाणिं दियदुईत-तणस्स अह एत्तिओ हवा दोसो ॥ पुरुषसंबन्धी पंजरस्थतित्तिरिॉपिक उच्यते ॥ तस्य यो र वस्तमसहमानः स्वनियानिर्गतो बन्धममरणं बन्धंच पंजरजं ओसहिगंधेणं, विलो णिचावई उरगो ॥ ६ ॥ बंधनं प्राप्त इति ॥२॥ (थणजघणवयणेत्ति) स्तनादिषु तथा तित्त-काय-कसायं, महुरं-बहु खन्ज-पेज्ज-लेज्जेसु ॥ गर्वितानां सौभाग्यमानवतीनां स्त्रीणां या विनासिता जातवि. आसायंमि उ गिछा, रमंति जिनिंदियवसट्टा ॥ ७ ॥ सासाः सविकारागतयः तासुचेत्यर्थः (रुवेसु रज्जमाणा रमं. ति)। प्रतीतमेव ॥३॥ (चविखदियत्ति)॥४॥ कंठ्या ॥ जिन्जिदियदुदंत-त्तणस्त अह एत्तिो हवा दोसो । (अगरुवरपवणेत्ति) कंठ्या नवरम् अगरुवरः कृष्णागरुः जंगलमग्गक्खित्तो, फुरइ थलविरेसिओ मच्छो ।। प्रवरधूपनानि गन्धयुक्तघुपदेशविरचिता धूपविशेषाः (जनउउलयमाणसुहे सुय, सविनवहिययगमणणिबुइकरेसु । यत्ति) ऋतौ २ यान्युचितानि तानि आर्तवानि माझ्यानि फासेतु रज्जमाणा, रमति फासिंदियवसट्टा ।। जात्यादिकुसुनानि अनुलेपनानि च श्रीखामकुंकुमादीनि विफासिं दियदुइंत-तणस अह एत्तिो हवई दोसो ॥ धय एतत्प्रकारा इति ॥५॥( घाणिदियउद्देत्ति ॥६॥ कंठ्या । (तित्तकम्यत्ति) पुर्ववन्नवरं तिक्तानि निम्बवटकाजं खणइ मत्ययं कुं-जरस्स सोहंकुसो तिक्खो ॥१०॥ दीनि कटुकानि श्रृंगवेरादीनि कषायाणि मुझादीनि अम्बानि कसरिजियमहरतंती-ततान वंसककुहाजिरामेसु ॥ तक्रादिसंस्कृतानि मधुराणि खंमादीनि खाद्यानि कूरमोद सद्देसु जेण गिधा, वसट्टमरणं ण ते मरए ॥ ११ ॥ कादीनि पेयानि जनमद्यदुग्धादीनि लेह्यानि मधुशिखरिणी प्रभृतीनि आस्वादेरसे॥७॥ (जिभिदियत्ति)कएठ्या ।नवरंगलं थणजहण वयण कर चरण गाब्बिय विज्ञासियगइसु ।। बमिशं तत्र सम्नः कएचे विरूत्वात् उरिकप्तो जलाकृतस्ततः रूवेसु जेष रत्ता, वसट्टमरणं ण ते मरए ॥१२॥ कर्मधारयः स्फुरात स्पन्दते स्सने भूतो (विरल्लिओत्ति ) प्र अगुरुवर पवर धूवण, ननयमवाणु सेवणविहीसु ॥ सारितः किप्त इत्यर्थः यः स तया । उभयमाणे-कंठ्या ॥ गंधेसु जण गिफा, वसट्टमरणं ण ते मरए ॥१॥ नवरं ऋतुषु हेमंतादिषु नजमानानि सेव्यमानानि यानि सुतित्तं कायकसायं, महुरं बहु खज्ज पेज्ज लेजेसु ॥ खानि सुखकराणि तानि तया तेषु सविनवानि समृधियुक्तानि महावचनानीत्यर्थः । हितकानि प्रकृत्यनुकूमानि सविनावानां मादेसु जेण गिका, वसट्टमरणं ण ते मरए ॥१॥ वा श्रीमतां हितकानि यानि तानि तथा मनसो निवृत्तिकराणि जननयमाणसुहेसु य, सविनवाहिययमाणणिन्युइकरेसु। यानि तानि तथा ततःपदत्रयस्य तदद्वयस्य वा कर्मधारयस्तत्ते फासेसु जेण गिधा, वसट्टमरणं ण ते मरए ॥१५॥ सचन्दनाङ्गनावसनतुल्यादिषु व्यष्विति गम्यते । फासिंदियञ्इंतेत्ति-नावनाप्रतीतैव ॥१०॥ अथेन्ब्यिाणां संसदेसु य नद्देसु य, पावएमु सोय विसयमवगएसु ॥ वरे गुणमाह-(कसरिनियमुहुरेत्ति) पूर्ववन्नवर मिह तन्त्रादयः तुट्टेण व रुद्वेण व, समापेण सया ण होयव्यं ॥१६॥ शब्दकारणत्वेनोपचाराच्छन्दा एवं व्यवस्थिताः अतः शब्देवि रूवेसु य जद्दगेसु, पावएसु चकबुविसयमुवगएसु ॥ त्येवतस्य विशेषणतया व्याख्येयास्तथावशेनेन्ज्यिपारतन्त्र्येण तुडेण वरुटेण व, समणेण सया ण होयव्वं ॥१७॥ ऋतापीमिता वार्ताःवशं वा विषयपारतन्व्यत्रता प्राप्ताः गंधेसु य जद्देसुय, पावएसु घाणविसयमुवगएसु॥ घशार्ताः तेषां मरणं वशार्तमरणं वशार्त्तमरणं (वा नतेभरएत्ति) नियन्ते गन्दसत्वादेकवचनप्रयोगेपि बहुवचनं व्याख्याततुटेण वरुटेण व, समणण सया ण होयध्वं ॥ १० ॥ मिति ॥ ११ ॥ (थणजघणेत्ति) ॥१२॥ एवमन्यास्तिस्रोरसेसु य नद्दएसु य, पावएसु जिब्नविसय मुवगएमु ॥ गाथा पूर्वोक्ता वाच्या ॥ १५ ॥ उपदेशमिन्द्रियाश्रितमाह तुटेण व रुटेण व, समणेण सया ण होयव्यं ॥ १॥ (सहसुयनदत्ति ) कंठ्यम् । नवरं । नद्रकेषु मनोज्ञेषु पापफासेसु य जद्देसुय, पावएसु कायबिसयमुनगएसु ॥ केप्वमनोझेषु क्रमेण तुष्टेन रागवता रुऐन रोषवतेति ॥१६॥ एवमन्या अपि चतस्रोऽन्येतन्याः। श्हविशेषोपनयमवमाचकते तुटेण व रुटेण व, समणेण सया ण होयव्वं ॥२०॥ "जह से कामियदोवो, अणुवमसोक्खो तहेव जाधम्मोय । (करिनियमहुरतंतीत्ति) का अत्यन्तश्रवणहृदयहरा अव्य- जह आसा तह साहु, वणियव्वणुकदकारि जो ॥१॥ जह तध्वनिरूपाः अथवा कलावन्तः परिमाणवन्त इत्यर्थः । रिभिता सहाअगिझो, पत्ता नो पासबंधणं आसा । तह विसपसु अगिस्वरघोसनाप्रकारवन्तः मधुराःश्रवणसुखकराये तन्त्रीतलतात्र- का, वनंति न कम्मणो साहू ॥२॥ तह सच्चंदविहारो, वंशास्त तथा। तत्र तन्त्री वीणा तसतामा हस्तताना अथवा- आसाणं तह हं वरमुणीणं । जरामरणाश्वज्जिय-सायत्तातमा हस्तास्ताझाः कसिकाः वंशा वेणवः श्हच तन्व्यादयः गंदनिब्वाणं ॥३।। जह सहाश्सु गिझा, बझा प्रासातहेह विस कवादिभिःशब्दधमैर्विशेषिताः शब्दकारणत्वात्ते च ते ककुदाः वरया । पाति कम्मबंधं परमा सुहकारणं घोरं ॥४॥ जह ते प्रधानाः स्वरूपेणाभिरामाश्च मनोझा ति कर्मधारयोऽतस्तेषुर- काप्रियदीया जीया अमत्थ मुहगणं पत्ता । तह धम्मपरिमन्ते रति कुर्वन्तीति योगः । (सद्देसु रजमाणा रमंति सोयंदि- बनडा, अधम्मपत्ता इहं जीव पावंति कम्मनरवयवसद्देत्ति) शब्देषु मनाइवनिपु श्रोत्रविषयेषु रज्यमाना वसया संसार बाहियात्रीए | आसप्पमदएहि व नेरश्याहरागवन्तः धोत्रेन्डियस्य वशेन बन ऋताः पीमिता शति पिपुक्खाइति । झा०१७ अ०। विग्रहाय शब्देपुरज्यन्ते तत्कारणेषु तन्त्र्यादिषु श्रोत्रेन्ड्रियवशा (२२) पञ्चम्ध्येि गुप्तागुप्तयोर्गुणदोषी झाताधर्मकथायां कूप्रमन्ते इति वाक्यार्थः । अनेन च कार्यतः श्रोत्रेन्जियस्वरूपमु- म्मानिधाने चतुर्थेऽध्ययने यया Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय ( ५९५ ) अभिधानराजेन्द्रः । समपूर्ण बाणारसी नाम नयरी होत्या ती वाणरसीए नगरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसा गंगाए महानईए मयगंती रद्दहे णामं दर्द होत्या पुत्रजायवपगंजीरसीयज अच्छविमलसत्रिपलिनं संपत पुष्पपल्ला बहुउप्पन्नापनमकुसुमन लिनसुन गसोगंधियपुं मरियमहापुंरीय सयपत्तसहस्पतकेसरपुप्फोवचिए पासादिए ॥ ४ ॥ तत्य एं बहूणं मच्ाण य कच्छत्ताण य गाहाण य मगराण य सुमाराण य सयाणि य साहस्सियाणि य जूहा य निब्जयाई णिरुव्विगाई सुहं सुहेणं अजिरममाणा विह रंति तस्स णं मयंगती रद्दहस्त अदूरसामंते एत्यमहं एगे माया कच्छ होत्या व तत्यणं दुवे पावसियालगा परिवति पात्रा चंमानरुदा तबिच्छा साहस्सिया झोहितपाणिमित्य मिसाहार आमिसप्पिया आमिसोझा प्रामिसं गवेसमाणा रत्तिवेयायचारिणो दिया पचिणया विचिति तरण ताओ मयंगती रद्दहातो अनया काई सूरियंसि चिरत्यमयंसि विन्नयासज्जाए य विरनमाणुसं सिणिसंतं पकिनिसंतंसि दुबे कुम्मगा आहारत्थी आहारंति गवेसमाणा सहियं २ उत्तरंति तस्स य भयंगती रद्दहरू परिपरे ते सव्वतो सम्मंता परिघोलेमाणे‍ वित्तं कप्पेमाणे विहरति तयायंतरं च णं ते पात्रमिया लगा आहारत्य आहारं जाव गवेसमाणा मालूया कच्यातो परिणिक्खमंत जेणेव मयंगती रद्दहे तेणेव उवा गच्छति तस्सेव मयंगती रद्दहस्स परिपरे तेणं सव्वत्र समंता परिघो माणा २ वित्ति कप्पेमाणे विहरति तपणं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति जेणेव - कुम्मए तेणेव पहारेत्यगमणा ते तरणं ते कुम्मगा ते पावसियाले एज्जमाणे श् पासंति शत्ता जीया तत्था तसिया उब्बिग्गा संजायनया हत्येय पाए यगीवाओ सएहिं काएहिं संहरति शत्ताबिना लिप्कंदा तुसणिया संचिति तपणं ते पात्र सिगाला जेणेव ते कुम्मगा तेऐव जवागच्छंति 2 ताते कुम्मगा सव्वतो सम्मता उच्चतेत्ति आसारेत्ति चात्रेत्ति घट्टेत्ति फंदेत्ति खोजेंति नेहेहिं आपति दंतेहिय आखो में ति नो चेत्र णं संचारति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स अवा वाहं वा उत्पात्तित्तए विच्छेयं वा करित्तए तए णं ते पात्र सियालगा ते कुम्मए दोघं पि तच पि सव्वतो समंता व्यत्तेति जात्र नो चेत्र संचाएति करित्तए ताहे संता तंता परितंता णिन्त्रिणा समाणा सणियं २ पचोरुटत्ति एian कर्मति णिचला णिष्फंदा तुसिणिया संचिद्वंति तए णं एगे कुम्मए ते पाव सियालए चिरगते दूरं गए जाता सयं एवं पायं निक्खुनंति तत्थ एां ते पात्र इंदिय सियाला ते कुम्मणं सशियं ५ एवं पायें तिणियं पासतिश्ता सिग्यं चवलं तुरियं वंमं जइणवेगसियं जेणेव से कुम्मर तेणेव उवागच्छता तस्स णं कुम्पस्स तं पायं नहिं पति दंतेहिं यखार्मेति ततो पच्छा मंसं च सोशियं च प्रहारेचिश्त्ता ते कुम्मणं सव्वतो सम्म उच्चतेति नो चेत्र णं संचारत्ति करेत्तर ताए दो पित पि वकमंति एवं चत्तारिपाया जाव सहीयं ‍गीत्रं णि‍तात ते पावसियालगा तेणं कुम्मणं गीवंता य पासंति शत्ता सिग्यं चत्र नहेहिं दंतेहिं कवानं वि हातिश्तातं कुम्मगं जीवियाउ ववशेवेति मंसं च मोणियं च आहारेति एवमेव समाउसो जो अम्ह गिंयो afainter रियायाणं वा त्र्यंतिते पञ्चए समाणे पंच से इन्दिया अगुत्ता जवंति सेणं इह नवे चैत्र बहूणं समणाणं समणीणं साववाणं सावियाणं हणजे पर लोगेत्रिय णं आगच्छई बहूणं दंरुणाणि जात्र परियह जहा व से कुम्पए अगुचिदिए तर ते पापसियानगा जेणेव से दोचे कुम्मए तेथेव उवा गच्छत्ता तं कुम्मए सव्वतो संमंता जवर्त्तिवि जाव दंतेहिं निखोति जात्र करितए तरणं ते पाचसियालगा दोचं पि जाव नो संचाए ति तस्स कुम्मस्स किंचि अवश वाहं वा जाव विच्छेयं वा करिनए ताहे तंता परितंता निव्विणा समाया जामेव दिसं पाया तामेव दिसं पगिया तपर्ण से कुम्मए तेयेव पावसियालए चिरए दूरगए जाणित्ता सणियं‍ गीवंतिणेत्ति २ दिम्पलोयं करेंति जमगसमगं चत्तारि पाए नीऐइश्ता ताए किडाए तुरियाए कुम्मगतीए वतीवयमाणे‍ जेणेव मयंगतीरद्द व वागच्छ शत्ता मित्तणाइनियगसया संबंधि परियणं सर्फि अनिसमा गए यात्रि होत्या ए वामेव समाजसो जो अहं समणो वा २ पंच य से इंदिया तिगुत्ताई जवति जाव जहा से कुम्मए गुतिदिए । ( टीका सुगमत्वा व्याख्यातापि न गृहीता ) नवरं "विससु इंदियाई, रुनंता रागदोसनिम्मुक्का । पावंति निम्बु सुहंकुम्मुच्च मयंगद इसोक्खं ॥ १ ॥ इयरे उ अणत्य, परंपरान पार्वति पावकम्मवसा । संसारसागरगया, गोमान गसियकुम्मो व्व । ज्ञा० ४ ० ॥ (१३) तानि चानामितानि दुःखाय भवन्तीत्यत्र घ्राणेन्द्रिये उदाहरणम् कुमारो गंधपिओ सो अवश्यं नागकरूपण खेल । माइ सवतीए पयस्स मंजूसाए विसं बोढ़ण नदीण पवाहियं तेणं fear उत्तारिया उघाऊण पाइन पवत्तो परिमंजसाइप डि भो समुगको दोसो अमेण उग्वामिण जंघित्तो मत्तो य एवं शुक्खायत्राणिदिये । आम द्वि० ॥ फार्सिदिए उदा हरणम् वसंतपुर नयरे जियसत्तूराया कुसुमालिया से भज्जा तासे Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९६) इंदिय अनिधानराजेन्द्रः। इंदिय अतीव सुकुमालो फासो राया रतिदिन चिंतेश् सो ताप निच बि-उदेहिका कासास्थिक-त्रपुस-बीजक-तुस्थुरुकादयः। चमेव परिनुज्जमाण अत्थई एवं कालोबञ्चई निश्चेहि सम मति- त्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचकुर्बकणानि इन्द्रियाणि येषां ते चकण तीए सह निच्चूढो पुत्तोज्जेट्ररवितो ते अमवीए वञ्चति तुरिन्धियाः। भ्रमर-मक्तिका दंश-मशक-वृश्चिक-कीट-पतंगासातिसाश्या जनं मग्गई। अच्छीणि से वद्धाणि मावीहेहित्ति। दयः। पंच स्पशनरसन ब्राणचकः श्रोत्रन्नकणानि शन्द्रियाण सिरारुहिर पज्जिया रहिरे मुखिया चूसा जेण न थिज्ज । येषां ते पंचेन्द्रियाः। मत्स्य-मकर मनुजादयःतेच । द्विजेदाः । बुहाश्या उरूमस दिनं उरूग सोरोहिणीएरोहियांजणवयं प- संझिनोऽसंझिनश्च तत्र संज्ञानं संझा चेतनवद्भाविनावश्यंभावसाणि आभरणगाणि साववियाणि पत्थ वाणियत्तं करे। पर्या लोचन सा विद्यते येषां ते संझिनः विशिष्टस्मरणादिपंगुय से वीहाए सो बम्गो घटितो सो भणई न सकुणोमि रूपमनोविज्ञाननाज इत्यर्थः । यथोक्तं । मनो विज्ञान विकला एगागिणी गिहे विचिद्धि विजय लाभार्हि चिंतियं वणेण असंझिनः पतेच सर्वोपि प्रत्येकं सपर्याप्ताश्चपं०सं०१वा.अ. निम्बाकपंगू सोनणो व ततो नणसी नेडवालो निउत्तो तेण निन्ज्यिा अपर्याप्ता:कतिनासिकाश्चति।सा०६वा०। एकेन्धिगीयनियकहाहिं आवज्जिया पच्छा सातत्येव सम्गाजत्ता यादीनाम्बहवो भेदास्तत्तचन्देऽपि दृष्टव्याः (इन्द्रियमाश्रित्य रस्स व्हिाणि मगई जाहे न बह ताहे उमाणिया एगतो बन्धोदयसत्तासंबन्धानां विचारः 'कम्म' शब्वे) रेतसि, सुविनवो वहुमज्जं पाएत्ता गंगाए पक्खित्तो सावितं दन्वखा वीर्ये, च । वाच॥ ऊण तं वह गायति घरघरे पुजिया जण मायापिरहिं ए ऐनिमय-त्रिशब्रियेण प्रकाश्यते अण् । इन्जियप्रकाश्ये प्रत्यरिसो दिनो किं करेमि सोय रायाए कच्चनगरे उच्चत्रितो रु कात्मके ज्ञानभेदे, तस्येदं अण इन्द्रियसंबंधिनि, वाच । क्खायाए पमुत्तो न परावत्तरगया तत्थ राया अपत्तो मतो इंदियअवाय-शभियापाय-पु. इन्द्रियैरपाय ईहितस्य निर्णआसो अहिवासितो तत्थ गतो जयजयसद्देण परिवोहितो राया जातो ताणि वितत्थगयाणि रमो कहियं अमोवि याणि यरूपोऽभ्यवसायः इन्द्रियापायः। ईहितं शापवायम्। शाङ्ग सा पुच्छियासाकहइ । अम्मापिहिं दिनोराया नण"बाहुल्यां पवायमित्यादिरूपेन्द्रियैः कृतेऽवधारणात्मक निर्णये, “कर विहेणं भंते ! इंदियअवाए पत्ते साइदिए अवाए जाव फाशोणितं पीतं उरुमांसं च भक्तिम् । गंगायां वाहिता प्रर्ता सिदिय अवाए एवं नेरश्याणं जाव घेमाणियाणं जस्स जश साधु साधु पतिव्रते" निविसयाणि प्राणत्ताणि एवं फासिं इंदिया अस्थि" | प्रा०१५ पद०। दिय दोएहं वि दुक्खाय विसेसिता सुकुमाबियाए किंच "शब्दासने यतो दोषा मृगादीनां शरीरजाः। सुखार्थी सततं इंदियनग्गहणा-इन्डियावग्रहणा-स्त्री० इन्द्रियैः परिच्छेदे, स विद्वान् शब्दे किमिव संगवान् र पतंगानां वयं दृष्ट्वा सद्यो रूप च परिच्छेदो ऽपायादिभेदादनेकधेति । तद्भेदादि प्रज्ञापना प्रसंगतः । स्वच्छ चित्तस्य रूपेषु किं व्यर्थः संगसंजवः॥॥ याम् यथाउरगान गंधदोषण परतन्त्रान् समीप कः। गंधासको जवे- काविहाणं जंते ! इंदियोगाहणा परमत्ता? गोयमा ! कोयं स्वभावं वा न चिन्तयेत् ॥ ३ ॥ रसास्वादप्रसंगेन पंचविहा इंदियोगाहणा परमत्ता तंजहा-सोइंदिय मत्स्या उत्सादितायतः। ततोदःखादिजनने रसेकासंगमाप्न ओगाहणा जाव फासिदिय ओगाहणा एवं नेरइयाणं यात् ॥ ॥ स्पर्शातिरिक्तचित्तानां हस्त्यादीनां समैवत जाव वेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इंदिया तस्सतइ अस्थि । अस्वातंत्र्यं समीक्ष्यापि कास्यात्स्पर्शनसंगतः ॥ ५ ॥ एवं विधानीछियाणि संसारवर्डकानि विषयबाबसानि पुर्जयानि (कतिविहेत्ति)। कतिविधं कतिप्रकारं भदन्त ! यैिर वग्रहणं परिच्छेदे प्रज्ञप्तः । प्रज्ञा १५ पद । ( अपायेहा वग्रहा दुरन्तानि। प्रा० म० कि०। आ००(अथान्यान्युदाहरणानि दयस्तत्सच्चब्दे द्रष्टव्याः)। 'सोदियादि' शब्द) (१४) इन्द्रियमाश्रित्य जीवानां भेदा यथा इंदियउवोगका-इन्जियोपयोगाचा--स्त्री० इन्जियोपयोगदुविहा सबजीवा पत्ता तंजहा सेंदिया चेव अ- स्याद्धाकाले, स च यावन्तं काबमिन्द्रियरुपयुक्तं आस्ते ताकिंदिया चेव ॥ वत् काल ति । प्रशा० १५ पद । विदेत्यादि । कंठ्या चेयं नवरं सेन्द्रियाः संसारिणोपनि कति विहाणं नंते ! इन्दियउवओगका पमत्ता ? छिया अपर्याप्तकेवीसिकाः । स्था०म०। गोयमा ! पंचविहा इंदियनवोगका पप्पत्ता तंजहा अहवा बिहा सव्वजीवा पहाता तंजहा एगिदिया सोइंदियनवोगका जाव फासिंदियनबोगछा एवं जाव पचिदिया अणिंदिया। स्या० ६ ग०। नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इंदिया एकेन्ष्यिाः द्वीन्छियाःत्रीन्द्रियाः चतुरिन्छियाः प्रसंझिसंझि अस्थि । एससि णं नंते ! सोइंदिय-चविखदिय-याणिं नेदभिन्नाच पंचेन्द्रियाः पते च सर्वेपि प्रत्येकमपर्याप्ताश्च । तत्र पकं स्पर्शनवकणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः पृयि दिय जिब्जिदिय फासिंदियाणं जहनियाए नवोग ध्यप्तेजोवायुवनस्पतयः ते प्रत्येक द्विधा सूदमा बादराश्च छाए नकोसियाए नवोगछाए जहन्नुक्कोमियाए नव तत्र सूक्मनामकर्मोदयात् सूदमाः सकललोकव्यापिनः बाद- ओगकाए कयरे कयरहितो अप्पा वा ४ गोयमा ! रनामकर्मोदयात् बादरा लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः । तथा सव्वत्यो वा चक्विदियस्त जहनिया नवोगछा सोई द्वे स्पर्शनरसनलकणे इन्डिये येषां ते द्वीन्डियाः शंत्रश्च सूक्तिका-चंदनक कपर्दक जबकी ऋमि गंमोलक पूत्तरका दियस्स जहनिया नवोगच्छा विसेसाहिया, घाणिदि दयः । तथा त्रीणि स्पर्शन-रसन-प्राणनवणानि इनिध्याणि यस्स जहनिया जवओगका विसेसाहिया, जिग्निदि येषां-ते त्रीन्द्रियाः यूका-मत्कुण-गर्दनेन्जगोप-कुंषु-मक्कोट-पिपी। यस जहनिया उवओगका विसेसाहिया, कासिंदिवसमा Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदियनवचय अभिधानराजेन्द्रः। इदियजय जहनिया नपाओगछा विसेसाहिया, उक्कोसियाए उवओ यथा "घ्राणस्य गोचरो गन्धो गन्धत्वादिरापि स्मृतः। तथा रसो गछाए सनत्यो वा चक्रिवादयस्त उक्कोसिया नवओ रसझायास्तथा शब्दोऽपि च श्रुतेः”! आदिपदात् सुरनित्वासु रनित्ययोर्ग्रहणं तथा रसत्वं माधुर्यादिसहितः एवं शब्दत्व गफा, सोइंदियस्स उकासिया नवोगका विसेसा तारत्व मन्दत्वादि सहितः “उद्भतरूपं नयनस्य गोचरोऽव्याण हिया, घाणिदियस्स उकोसिया नवोगद्धा विसेसाहिया, तद्वन्ति पृथक्त्वसंख्ये । विनागसंयोगपरापरत्वस्नेहद्रवत्वं जिब्लिदियस्स उकोसिया नवोगका विसेसाहिया, फा परिमाणयुक्तम्" वाच ॥ सिंदियस्त उक्कोसिया नवप्रोगका विसेसाहिया, जहन्नु इंदियग्गाम-इन्ज्यिग्राम-पु० ६० इन्डियसमुदाये, “बलवानि कोसियाए उव योगछाए सबथो वा । चक्विादयस्स जियग्रामः पणिकतोऽप्यत्र मुह्यति" प्राचा०१ श्रु२५ अ०४ उण जहनिया जवोगका साइंदियस्त जहनिया जबओ इंदियचोर--इम्झियचौर--इन्द्रियरूपे चोरे, “जिणवयण अणु गया विसेसाहिया, घाणिदियस्स जहानिया उवोगका गया मे, होउ मज्माणजोगमल्लीणा । ताहे इंदिय चोरा, विप्लेसाहिया, जिम्नादियस्स जहनिया नवोगका करिति तवसंजमविलोमं ॥ ७ ॥" महा०प०॥ इंदियजय--इन्जियजय--पु. प्रियाणां श्रोत्रादीनां जयः । विसेसाहिया, फासिदियस्स जहानिया जबओगघा वि शन्छियजयः। इन्डियाणामत्यन्ताशक्तिपरिहारेण स्वस्वविकासेप्ताहिया, फासिंदियस्स जहनियाहिंतो नवओगका रनिराधे, ध०१ अधि० । “अजिइंदिपहिचरणं, कळंव घुणेहि हिंतो, चक्विदियस्स डक्कोसिया जवोगका विसेसा कीर असारं। तो धम्मत्यिहिदळू, जश्नब्वं दियजयस्मि ॥ हिया, सोइंदियस्स उक्कोसिया नवोगका विसेसाहिया, इन्जियपराजयग्रन्थे, तत्स्वरूपञ्चाष्टके यथाघाणिदियस्त उक्कोसिया नवओगछा विसेसाहिया, विजेषि यदि संसारामोक्षप्राप्तिश्च कांकसि । तदेन्द्रियजयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरुषम् ॥१॥ जिजिदियस्स उक्कोसिया उवओगका वितेसाहिया, वृक्षास्तृष्णाजलापूर्ण-रामबाबै किन्द्रियैः । फासिंदियस्म उकोसिया जवओगका विसेसाहिया। मूर्जामतुच्छां यच्छन्ति विकारविषपादाः ॥२॥ प्रज्ञा १५ पद । (टीका सुगमत्वान्न व्याख्यातेति न सरित्सहस्रदुष्पूरस्समुमोदरसोदरः । गृहीता.) तृप्तिमानिन्जियग्रामो ऽभवतृप्तोऽन्तरात्मना ॥ ३ ॥ इंदियनवचय-शन्छियोपचय-पं० उपचीयते अपचयन्नीयते । आत्मानं विषयः पाश-नववासपराङ्मुखैः । इन्द्रियाणि निबध्नन्ति मोहराजस्य किङ्कराः ॥ ४॥ न्द्रियमननेत्युपचयः प्रायोग्यपुद्गवसंग्रहणसम्पत् इन्छियाणा गिरिमृत्स्नां धनं पश्यन्धावतीन्द्रियमाहितः। मुपचयः शन्जियापचयः इन्जियोपचयबकणः परिणामः (न. १० श० ३ ० ) इन्द्रियपर्याप्ती, प्रशा। तद्नेदाः यथा अनादिनिधनं पार्श्वे झानधनं न पश्यति ॥ ५॥ काविहे गं जंते ! इंदियनवचए पत्मत्ते ? गोयमा ! पुरस्पुरस्स्मरन् तृष्णा मृगतृष्णांनुकारिषु । इन्द्रियार्येषु धावन्ति त्यक्त्या ज्ञानामृतं जमाः ॥ ६॥ पंचविहे इंदियनवचए पाते तंजहा-सोईदियनवचए पतङ्गमीनेजनृङ्ग-सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । चविखदियनवचए घाणिदियनवचए जिग्निदियउवचए एकैकेन्द्रियदोषाच दुष्टैस्तेषां न पञ्चभिः ॥ ७ ॥ फासिंदियनवचए नेरइयाणं जंते ! कतिविहे इंदियउव विवेकद्विपदैर्यकै-स्समाधिधनतस्करैः। न्द्रियैर्न जितो योऽसौ धीराणां धुरि गण्यते ॥॥ अष्ट०॥ चए पहात्ते ? गोगमा ! पंचविहे इंदियनवचए पप्मात्ते तं “संयमाद् प्रहणादीनामीन्द्रियाण जयस्ततः"। जहा सोईदियउवचए जाव फासिंदियनवचए एवं जाव टी०-संयमादिग्रहणादयो ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वावेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इंदिया तस्स तइविहो चेव नि तत्र ग्रहणमिन्द्रियाणां विषयानिमुखीवृत्तिः, स्वरूपं सामा इंदियउवचो नणियव्यो । न्येन प्रकाशकत्वम्, अस्मिता अहंकारानुगमः, अन्वयार्थव त्वे प्रागुक्तबवणे । तेषां यथाक्रम संयमादिन्द्रियाणां जया (दियोपचए पम्पत्ते इत्यादि) सुगम (जस्स जर इंदियाइ- जवति । तयुक्तं ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्वसंयमादिन्द्रि त्यादि ) यस्य नैरयिकादेर्यति यावन्ति इन्ज्यिाणि सम्जवन्ति यजय इति । द्वा०२६ द्वा०।"आपदा कथितः पन्या इन्ध्यिा तस्य ततिविधस्तावत्प्रकार इन्जियोपचयो वक्तव्यः नत्र नैराय णामसंयमः । तज्जयः संपदा मार्गो यनेष्टं तेन गम्यताम् । कादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां पञ्चविधः पृथिव्यप्तजोवायु इन्जियाण्येव तत्सर्व यत्स्वर्गनरकाबुनौ । निगृहीतानि सृष्टा वनस्पतीनामेकविधो द्वीन्द्रियाणां द्विविधः त्रीन्द्रियाणां त्रिवि नि स्वर्गाय नरकाय चति ” सर्वथेन्द्रियजयस्तु यतीनामेव धश्चतुरिमिष्याणां चतुर्विधः तिर्यकपञ्चन्छियमनुष्यब्यन्तरजो- श्ह तु सामान्यतो गृहस्थधर्म एवाधिकृतस्तनवमुक्तं युक्त तिष्कवैमानिकानां पञ्चविधः । क्रमश्चैवं स्पर्शनरसनधाणचक्षुः- मिति । ध०१०। पंचानामाप स्पर्शादीनामिन्द्रियाणां जयो श्रोत्राणीति ॥ प्रझा. १५ पद ।। दमनं यस्मादसाविन्द्रियजयः शन्जियजयतुत्वादिन्छियजयः। इंदियगोयर-सन्जियगोचर-पुत्रियस्य गोचरः विषयः। शब्दा तपोविशषे, तवक्कणादि यया "पुरिमकासणं निविगई दिषु विषयेषु, ते हि प्रतिनियतमकैकस्येन्द्रियस्य ग्राह्या यया अप्रायचित्रोववाहि । पगलयाय पंचहि होइ तवा इंदिये श्रोत्रस्य ग्राह्यः शब्दः, त्वगिन्छियस्य स्पर्शस्तधिशिष्टव्यञ्च, जओत्ति" तपति निर्दहति पुष्कर्माणीति तपः तत्त नानाविधी चक्षुषो रूपं तदाश्रयन्यञ्च, रसनाया रसः, प्राणस्य गन्ध इ. पाधिनिबन्धनत्वादनकप्रकारं तत्त्वन्छियजयमत्रत्वाजिनधर्म त्यादि । एवमन्यान्यपि न्यायादिमते तत्तदिन्त्रियग्राह्याएयुक्तानि । स्य प्रथममिन्जियजयाडं यत्तपः तत्प्राह प्रथमदिने पूर्वार्ड Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९८ ) अभिधानराजेन्द्रः | इंदियहारा इंदियजति । द्वितीय तृतीय दिने विकृति चतुर्यदिने इंदिया-अधिगम्यन्त इत पचास इत्येयं पचभिदाता न्द्रियार्थाः । वा० ४ । अर्थ्यन्ते ऽभितप्यन्ते क्रियार्थिभिरित्ययः श्रेणिःपरिचाधकाः वर्कवेयमा स्व इन्द्रियाणामर्था इन्द्रियार्थीः । स्था०पा० प्रव० नि००। रूपा एकैका बता क्रियते ततः पञ्चभिताभिः पञ्चविंशत्या "तार दियाया साथ विडिय दिवसैरिन्द्रियजयाख्यस्तपोविशेषो भवति इन्द्रियाणां स्पर्श त्ये, जिम्भिदियत्ये, फासिदियत्" टी० (पुन्ति) इन्द्रियसम्ब नादीनां पञ्चानामपि जपो दमनं यस्मादाविन्द्रियजयः । वेद्यते श्रात्मना ज्ञायन्ते नयनमनो वजनां श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थइन्द्रियजयदेत्यादिन्द्रियजयः। यद्यपि सवस्यपि तपांची परिच्छेदस्वनावादिति सद्दमित्यादि । कियमाणत्वा स्था० ४ | "पंच इंदियत्था पत्ता तंजड़ा सोईदियत्ये जाव फासिंदिया"धूप तदिन्द्रियं द्र तस्यार्थो ग्राह्यः श्रोत्रन्द्रियार्थः शब्दः एवं क्रमेण रूपरस गन्धे स्पर्शाश्च कुराद्यर्था इति । स्था०५ ना० । अस्य पधित्वमपि इंदियत्या पक्षता तंजहा सोइदियत्ये जाव फासिंदियत्थे नो इंदियाथे" स्या० ६ ० ॥ 66 इन्द्रियार्थानामतीतप्रत्युत्पन्नानागतजेदा यथा न्द्रियजये प्रभविष्णुनामा दस्यैव तपसस्तकेतुत्वं पूर्वसूरिभिरभिहितमेवमुत्तरत्रापि वाच्यम् । प्रव० २७० द्वा० ॥ इंद्रियाणादयस्थान न० स्पर्शनर नाराचाख्यानीन्द्रियाणि तेषां स्यानान्यवकाशाः । श्रोत्रादीन्द्रियागामुपादानकारणेषु आकाशादिषु याणि) इन्द्रि यांपासून स्थानानि तद्यथा-यस्याका सुचिरात्म कत्वात् । प्राणेन्द्रियस्य पृथिवी तदात्मकत्वात् । चकुरिन्द्रियस्य पत्वात् रसनेन्द्रियस्यापः स्पर्शनेन्द्रियस्य वायुरिति । सूत्र० १ ० १ ० ॥ इंदियणिग्गह- इन्द्रियनिग्रह - पु० इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां निग्र दो दिविषयेषु सम्पद्धपरिहारेण वर्त्तनम् । तदात्मके संयमनेदे, घ० ३ अधि० । इष्टेतरेषु शब्दादिषु राग द्वेषाकरण च । इंद्रियाणं च निमाहो " इन्द्रियाणां च श्रादन निग्रहस्तरेषु शब्दादिषु रामपाकरणमनगार गुणः आवः ४ अ० ॥ 66 इंदियगिरोह - इन्द्रियनिरोध- पु० इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनधा धीरूपाणां निरोधः स्वस्वविषयेभ्यो नम प्रानिर्विषयेषु रागद्वेषाभावे । ६० ३ अधि० ॥ चकुरादिकरणपश्ञ्चसंयमे, सम्म० । तदात्मके करणनेदे च । ध० ३अधि० । थोघ० । इंद्रियणिव्वत्तणा -इ इन्डियनिर्वर्त्तना स्त्री० इन्द्रियाणां निर्वर्त्त मा बाह्याभ्यन्तररूपा या निर्वृत्तिराकारमात्रस्य निष्पादनम् । इन्द्रियाकारमात्रस्य निष्पादने, तद्भेदादि यथा कतिविद्धे णं ते! इंदियनिव्वत्तणा पम्पत्ता ? गोयमा ! पंचविद्या इंद्रियनिच्तणा पहाता तंत्रा सोईदियनि व्वत्ता जाव फासिंदिय निव्वत्तणा एवं नेरझ्याणं जाव माणिया नवरं जस्स जइ इर्दिया अस्थि तस्स तया चैव सोइंद्रियनिपचणा णं जंते ! कह समइया पा ? गोपमा खेल समया तो मुमुत्तिया पाता । एवं जात्र फार्मिदियनिव्वत्तणा । एवं नेरइयाणं जाव माणियाणं । निर्वर्तना नाम बाह्याभ्यन्तररूपा या निर्वृतिराकारमात्रस्य निष्पादनं तदनन्तरं वा निर्यर्तमा कति समया भवतीति प्रश्ने ऽसंख्येयाः समयास्तस्या भवेयुरिति निर्वचनं वाच्यम् । प्रज्ञा ० १५ पद | इंदिया- इन्द्रियज्ञान-१० जानम प्रत्यके ज्ञाने, वाच० । इंडियावरण-इन्द्रियानावरण-१० यदादिसा मान्योपयोगाचरणे व्य०१० ४० (पतद्भेदादिशन्ताः परिणामय-शब्दे ) दस इंदियत्यातीता पम्मत्ता तंजड़ा देसेण वि एगे सदा ईर्ण विएंगे सदा सुर्णिसु देसेण वि एगे रुवाई पासिं सव्त्रेण वि एगे रूवाएं पासिंसु । एवं गंवाई रमाई फासाई जाव सव्वेण वि एगे फासाई दिस इंदिवरया पहुचा पत्ता तंगहा देमेण वि एगे सदाई सुर्णेति सव्त्रेण वि एगे सद्दाई सुति । एवं जात्र फासाई । दम इंदियत्या अणागया पम्मत्ता तंजहा देसेण वि एगे सद्दाई सुणिस्स सच्चेण विएगे साई णिस्स एवं जात्र सम्वेणचि एग फा साई परिसंवेदिस्स | (दस दिन वित्ति शब्दादेरोन देश एक कश्चित्तानि सम्पत्ति ) सर्वतया सर्वानि स्वयः । यया या ओबेन्द्रिये देशतः सिं अधियुक्तावस्थायां सर्वेन्द्रियैः सर्वतोऽयवेयरोंग देशत उभाभ्यां सर्वत एवं सर्वत्र । स्था १० ना० । तुझे वि इंद्रियस्ये, एगो सज्ज विरन्नई एगो | अन्नत्यं तु पमाणं न दित्थाति || तुल्येऽपि समानेऽपि इन्द्रियार्थे इन्द्रियविषये रूपादी रागतावेको रज्यते रागमुपगच्छति । द्वितीयो विरज्यते विषयपरिणामस्य दारुणतां परिभावयम् विरक्तो भवति । तस्मात्प्राय वित्तापयनापत्तिविषये अध्यात्मनान्तरपरिणामस्य प्रमाणं न इन्द्रियार्थ इति जिना जगवन्तः सर्वज्ञा ब्रुवते । व्य० प्र०२ ४० ॥ (इन्द्रियार्थेषु रागकर प्रायश्चित्तं विसय-शब्दे ( दार्थसंवेदनप्रकार इंदिरा ) इंदियत्य (वि) कोण - इन्द्रियार्थ (वि) कोपन-१०(त्रि) इन्द्रशब्दादिविषयाणां विकोपमं विकोप न्यायिक या पनम् । कामविकारे, स्या० ए ० । ( एतस्य रोगोत्पत्ति कारणता रागुत्पत्ति-शब्दे ) ॥ इंदिपति स्त्री० यथा धानुरूपतया परि पतिमादारमिन्द्रयरूपतया परिणामयति सा मिः । तथा चायमर्थोऽन्यत्रापि नंग्यन्तरेणोक्तः पञ्चानामिकिया प्रायोग्य पायाभागनि Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दियपय सद्भावनचनशक्तिरिन्द्रियपतिरिति पर्याप्तिने, प्रज्ञा० १ पद । प्रव । कर्म० । नं० 1 पं० सं० ॥ इंदियपइनद्रा ( ५९९ ) अभिधानराजेन्द्रः | प्रतिबडे प्रका पनायाः पञ्चदशे पदे । न०२०४४० । अत्र च धावुदेशकौ तत्र च प्रथम देशके ये ऽर्थाधिकारास्तत्सङ्काइ कमिदं गाधाद्वयाम् संवाद, पोडसे कह पदेस ओगाडे । - ईधण विपथग्रहणपाटचमिन्द्रियम् इन्द्रियाणां स्वविषय ग्रहणपाटचे (इंदियाका द्रिस्य पुष्टिर तिशाय पोषः न्द्रियस्ति वयन्ति नन्यादित्वादन । न्द्रियपुनः जी०३ प्रति० ( अस्य बहुदा पीरिय इंदियमोहिय-इन्द्रियमोहित त्रि० विषयास प्र० बहुवि चिसप परिमाण अणगारे ॥ १ ॥ इंदिया- श्री० इन्द्रियाणां पिः । सदावरत अदाय असिमी, पुडपणे तेलाशियवसाय | vaणाग्नि दीवोदहि लोग लोगे य ॥ २ ॥ ( संद्वाणं बारहस्यादि) प्रथम मिन्द्रियाणां संस्थान बत व्यम् । सस्यानं नाम आकार विशेषः ततो बाहुल्यं वक्तव्यं वा हुल्यं नाम बहुलता पियकत्वमिति भावः । तदनन्तरं पृयुत्व विस्तार: । तदनन्तरं (कति पदेशति) कतिप्रदशमिन्द्रिय मिति वक्तव्यम् । ततः ( ओगाढमिति ) कति प्रदेशावगाढ मिन्द्रियमिति वाच्यम्। तदनन्तरमयानादिविषयं कर्कशा दिगुणविषये चाल्यवत्वं ततः ( पुति ) स्पृग्रहणमुप कर्मोपमरूपायित्वमासी० १५ पद तद्भेदा यथा “कति विहा णं नंते ! इंद्रियसद्धि पान्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियक्षकि पत्ता तंजहा- सोइंदिय जाव फासिंदियकी । एवं नेरश्याणं नवरं जस्स जर इंदिया प्रत्थि तस्स तावश्या भाणियब्वा" प्रज्ञा० १५ पद ॥ इंदियवन-इन्द्रियवशाइिन्द्रियवशेन तत्पातच्येण त पतिःशागतः कणं तेन स्पृष्टास्पृष्टविषयं सुत्रं वक्तव्यं तदनन्तरं ( पविटुति) प्रविशप्रविविषयचिन्ताविषयं ततो विषयपरिमार्थ ततो शा सः प्रियपारतयेण परिपात गते । म० १२ श० २ ० ॥ इंदिय विजय - शन्द्रयविजय - पु० तपोविशेषे, पंचा० १० वि० । ( एतद्वक्तव्यता इंदियजय शब्दे ) ॥ इंद्रियविनति-इन्द्रियविनक्ति स्त्री० इन्द्रिय इनगारविषये तदनन्तरं पशाचिपयं ततः कन्यविषयं ततः स्थूणाविषयं तदनन्तरं ( थिग्गलत्ति ) अगासथिमानविषयं ततो द्वीपोदधिविषयं ततो लोकविषयं तदनन्तरमेवालोकविषयमिति । प्रज्ञा० १५ पद १ ० । भवद्वितीये त्वर्थाधिकारसंग्राहकं गाथाद्वयम् । ईदिय उपचयनित्र-समाज खेज्जा | की उवओगका, अप्पा बहुए विसेसहिया । । १ ॥ ओगाढणा अवाए, ईहा वह वंजणा वग्गडे य दविदि जाविंदिय, तीया बक्का पुरेक्खमाया य ॥ २॥ ( इंदिय उचय इत्यादि) प्रथमत इन्द्रियाणामुपचयो वक्त प: उपचीयते उपवन्यमनेनेत्युपचयः प्रायेो ग्यसंग्रहणसम्पत् इन्द्रियपर्याप्तिरित्यर्थः । तदनन्तरं निर्वर्तना वक्तव्या । निर्वर्तना नाम बाह्याभ्यन्तररूपाया निर्वृत्तिराकारमात्रस्य निष्पादनं तदनन्तरं सा निर्वर्त्तना कति समया भवतीति प्रश्न ऽसंख्येयाः समयास्तस्या नवेयु रिति निर्वचनं वाच्यं तत इन्द्रियाणां लब्धिस्तदावरणकर्म कयोपशमरूपा वक्तव्या । तत उपयोगाका तदनन्तरमल्प बहुमान पूर्वस्याः २ सरोवरा उपयोग पाधिका वक्तव्य ततः ( ओगाहणा इति ) अवग्रहणं परि दो वक्तव्यः स च परिच्छेदोऽपायादिनेदादनेकधेति तदनन्तरमपायो वक्तव्यस्तत ईहा तदनन्तरं व्यञ्जनावत्र शब्दस्यानुक्ता समुदायकत्वादपद व्य तदनन्तरं यद्रयभावेन्द्रियसूत्रं तो सीतवपुर कृतानि ज्येन्द्रियाणि तदनन्तरं भानेन्द्रियाणि विचिन्तन यानि । प्रज्ञा १५ पद०२ ४० । इंदियपरिणाम- इन्द्रियपरिणाम - पु० इन्दनादिन्द्रः आत्मज्ञान पः सह सनिकर्षः सम्बन्धभेदः प्रत्यसाधने इन्द्रियस्य स्वस्वविषयैः संबन्धभेदरूपे - प्रत्य कूजनकव्यापारे । वाच० । इंदियावरण- इन्द्रियावरणइंदियावरण- इन्द्रियावर -न० इन्द्रिय विषयेष्वव शब्दादिषु वि ००१०० पदादिचकन्यता दृष्टान्त परिणामक शब्दे ) -न इंदीवर इन्दीवर हरितभेदे वनस्पतिविशेषे । प्रज्ञा ० १ पद । नीलोत्पले उत्पन्नमात्रे च । वाच० । नियुप्पचं वियाग हकुवलय मिंदीवरं च ॥ प्रा० ना० ॥ ग्रहणपरमैश्वयागात्तस्येदमिन्द्रियमिति । निपातनादिन्द्र० उति बन्दिया वं करोति उन् शब्दादेयस्ययः याय परिणामः सन्द्रयपरिणामः । न्यरुपे जीवस्य परिणामभेदे, पका० १२ पद । इंडियन - इन्द्रियवल-नन्द्रियाशं चक्षुरादीनां व स्वस्व पञ्चधा एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् सूत्र० १४०अ० इंदियविसय-इन्द्रियविषय- पु० इन्द्रियाणां चकुरादीनां विषया मनोहरूपादय द्रविश्याः। चकुरादीनां विषयेषु रूपादिषु, उत्त० ५ ० । इन्द्रियविषयभेदा इन्द्रियविषयपुलपरिणामनेदाश्च भगवत्यास्तृतीयशतकदशमोद्देशके जीवाभिगमस्य ज्योतिष्क देश के च प्रतिपादिता (विसय शब्दे ) इंद्रियवियत्रसगय-इन्द्रियविषयवशगत त्रि० इन्द्रियाणां चकुरादीनां विषया मनोरूपादयस्तद्वरा गताः प्राप्ता इन्द्रियवशगताः । रूपादिविषयवशगते । उत्त० ५ ० ॥ इंदियपीरियनानां स्वस्वविष साम सू० १ ० ० ( तदा निशेपाचसरे पीरियशब्दे शब्दे च ) ॥ इंदियसंवरण - इन्द्रियसंवरण- न० पञ्चेन्द्रियाणि तेषां संवनिपये रागद्वेषायां प्रवर्तमानानां निग्रहणमि विवरणम् इन्द्रियाणां निग्रहणे, पा० सू० ॥ इंदियगिरि-कर्षयस्य स्वस् देरिव । चन्द्रे, प्रा० ना० ॥ कुत्तरवार्ड लग-इन्फोन० विमानविशेषे सम इन्क इन्धन१० - Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईधनधूम पादौ, “ जह चिरसंचियसिंघण मन लोयत्रण सहिओ ई मह" इन्धनं काष्ठादीनि । आव० ॥ अ० । कोदवपलालमादी इंधणेण फलाइ पश्चति । नि० चू० १५ उ० । दाहो, काष्ठादौ " ओसारि नरो जद परिवार कमसेो दुआसो वा " अपसारितधननरो ऽपनी तदाह्यसंघात इति । श्रव० ॥ श्र० । इन्धयति धनिनाचे ब्युट् बज्चा बने, न । वाच० । उद्दीपने, उत्त. १४ अध्य० । ( ६०० ) अभिधानराजेन्द्रः । धूम इन्धन पु०००१०। पणपलियाम इन्धनपयमानफले, कोहन पलासमादी इंधणेण फलाइ पश्चति ॥ जहा कोदव पलाले अंगादि फलाणि येता पावि आदि साहि बालेण वि तत्थ जेण पक्का फला ते धण पलियामं भणति । नि० च० १५ न० । मो -- इंधणसाझा - इन्धनशाला - स्त्री-यत्र तृणकरी पकचवरास्तिष्ठत्ये वम्भूते गृहे, वृ०२० । घणसाला अत्य तणा करिसतारा त्यत्ति" । नि० ० १६४० । इंपिय-प्रत्यासित "सविधि हम सदिप्पति दिसते "त्रियाः शब्दे वैधन्धितः प्रत्य जितो मोदानिः कस्यापि हीनसत्वस्य कल भोगिनो वा संदीप्यत इति । वृ० ४ ० । इक-देश प्रवेशाने तथा च विशेषावश्यके सामयिक निरुक्तिमधिकृत्योक्तम् इकमप्पर पवेसण मेयं सा सामाश्यं नेयं " इकशब्दो देशीवचनः क्वापि प्रवेशार्थे प्रव र्तते इति । विशे० ॥ इक्कम इक्कम-न-ढंढणसदृशे तृणविशेषे । प्रश्न २ । ३ सं० द्वा० पर्व क (ग) जाती ये वनस्पतिविशेषे । प्रज्ञा० १ पद सूत्र० । वणस्सर नेत्रा रक्कमा लामा पसिका इति नि००२७० श्राचा०वृ० इक्कममय - इक्कममय - त्रि० श्क्कको वनस्पतिभेदः (नि० ० २० ) तन्मये संस्तारका दौ, वृ० ३० उ० । कुन भावेो दाव इक्खपरिए " ईक्कस्व तद्विपाकं आलोचयेति सूत्र० १ श्रु० २ अ० २ ० । दर्शने, करणे, नेत्रे, वाच० । करबाग (गु) पा० भ० प्रा० तश्च प्रथमप्रजापतेर्नात्रेयस्य जगवत ऋषनदेवस्य कुलमिति । स्था० ६ ० | कुलार्येषु ऋषभदेवस्वामिवंशोऽवेषु । श्रप कल्प० । ० । श्राचा० । कोशल जनपदे च । यत्रायोध्या नगरीति, झा० अ० । ," ० मिनो वंशस्य 39 66 पदेवस्था राजानां देवानामकरणं यथा "देणगं च वरिसं सक्कागमणं च वसवणा य आ० म० प्र० । सको वंसठवणे शक्ख अगू तेरा होति इक्खागा" ति० । कथानकशेष जीयमेव तीय पप्पामागार्थ दे पदमतित्थवणंकरेशर को नियगण संपरि वुको सक्को आगतो पच्छा किहरिक हत्थतो पविसामित्ति मक्खु गाय आगतो इतो य नाभिकुनगरो उसजामिया अंकगण अत्र सक्केण य नवागपण इक्खदिन गरणं जपणं विजपणं भयवं बद्धाविओ । भयवया बठीसु दिट्टी पारिया ताहे के भणियं भयवं इक्ख अगू कू भ ऋणे नकयसि ताहे सामिणा पसत्य धरो अलंकियविनू 66 इक्खु सिम्रो दाहिणहत्यो पसारितो अतीव जगवयस्स तासु हरिसो जातो तपणं सक्क्स्स देविंदस्स देवरो अयमेयारुवे संक समुप्पज्जित्ता जम्हा जयवं तित्ययरो इक्खं अनिलसर तम्हा इक्खागुवंसो भवन । आर म०प्र० । गाथाकरगम निका सातवर्षे नगपति प्रथमजिनवंशस्थापनं । शक्रः स्वजतामति कर्माणि स्वामिस मी यस्यामीति महतीमधुपमादाय नानिकुकरास्थ रूप मनोरम तस्वीर दिनेन स्वामिना करे प्रसारिते श्रुं नयसीति भणित्वा तां दत्वा श्वािषा त्स्वामिनो वंश श्वाकुनामा जवतु । कल्प० । आ० ० । शक्रः सैrधर्मेन्द्रो वंशस्थापने प्रस्तुते एकं गृहीत्वा श्रागतः अक अग कुटिला गती कार्यातून घात रौणादिके उण्प्रत्ययः अकुशब्दो ऽनिलापार्थः ततः स्वामी शक्तोः प्राकुना जिलाषेण करं प्रासारयत् शक्रः श्रार्पयत् तेन कार णेन भवति । इक्ष्वाकुवंशभवाः पेवाकाः । आ० क० । " आसी य इक्खु भोई शक्खागा तेण खत्तिया होति " कत्रि या येन कारणेन बाहुल्येनेकुनोजिन आसन् तेन कारणेन ते कत्रिया श्वाकवो लोके ख्याताः । श्र०म० प्र० प्रा० च० । इक्खाग (गु) कुलाकुकुन०या क इक्ष्वाकुकुलम् । ऋषभेदवस्वामिवंशे । आ० म० प्र० । इस्लाग ( ) माती यायाम तीर्थ० " वागमिता साथ विणीय कोसलपुर च" आव० २ अ० । इक्खाग (गु राय-वाकुराज पु०- श्वाणामिया कुवंराजानामथवा इक्ष्वाकुजनपदस्य राजा । इदवाकुवं शीयानां कोशलजनपदस्य वा नृपे । ज्ञा० ० अ० । उत्तर परिवुडी इक्खागराया" स्था० g aro | इक्खाग (गु ) वंश - इदवाकुवंश-पु-ऋषभेदवस्य वंशे,' "श्रा सीक्वा स सं नानामा" इति लिए। ( वक्तव्यता इक्खारा (गु) शब्दे ) इक्खु ( नच्छु ) - इक्षु पु० - इष्यते ऽसौ माधुर्यात् "इक्स प्र ariat " इति प्राकृत सूत्रेणादेरत सत्वम प्रा० व्या १ पाद ८ अध्याo आप इक्खु इति च भवति प्रा० व्या० । मधुररसो पेते असिपत्रे स्वनामख्याते, वाच० । पर्वकवनस्पतिकाय भेदे, उत्त० प्रा० । चतुर्विंशतिधान्यान्तर्गत धान्यभेदे, प्रव० १५६ द्वा० । वरट्टिका सम्भाव्यत इति । धर्म० १ अधि० " बच् जवसात्रिकाaिया इति " औप० कुग्रहणाग्रहणे यथा"से निक्खु वा निक्खुसी वा अनिकंबेजा उच्चवणं नवागच्छि तर जे तत्थ इसरे जाव उग्गहंसि ग्रह जिक्ख इच्छेजा बच्नोत्तर वा पाय वा सेजं च जाणेजा स खरं जाव जो परिगरिजा अतिरिच्यं वदेवत सेनिक्खू वा निक्खुणी वा सेज्जं पुण अभिकंखेज्जा अंतरुया वा उपाया sughraj वा नोत्तर वा पायर वा सेज्जं पुण जाणेज्जा अंतरुच्यं वा जाव मागं वा स अं जाव णो परिगाहेज्जा से जिक्खू वा निक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा अंतरुच्यं वा जाव कालगं वा अप्पमं जाय पनिगाहेज्जा अतिपरिणाज्जायमानयमिति नवरं अंतरुच्यंति पर्वमध्यामिति श्राचा० २ ० १ २०२० ॥ 66 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०१) अभिधानराजेन्रुः | इक्खकरण जे निक्ख वा जाव समाये से पुरा जागेला वा काणं अंगारियं संमिस्सं बिगसितं वा वेत्तगंवा कंदचिप वा परं वा सहयगारं आ अस त्थपरिणयं जाव । याचा० २ ० १ ० ० उ० | सचितावित्तेक्षुभकणाभकणे प्रायश्चित्तम् ययासच या साइने क्लूिसिव वासा जे जिक्र सचिच्तुं वा, उच्छुपे सियं वा, उच्बुजितिं गावाच्या उच्चोया विस विमंसं वा साइज्जइ | ६ | जे नि० सचित्तं उच्चुं वा उच्छु पे० वा च्युमिनिया उच्च चोपगवा विमंसजे जिलू सचित्तं पट्टियं उच्छं मुंजइ मुंजंतंवा साइज्जइ छ। जेजिक्खू सचिर्च पर डिंय उच्छे सिवा साइज | | ने भिक्खू सचित्तं पट्टियं उच्चुं वा उच्छुपेसियं वा उच्छुतिनिं वा उच्चुसाझगं वा उच्चुमाक्षगं वा उच्छुचोयगं वा मुंज झुंज वा साइज १० । जे क्खि सचितं पद्वियं उच् या उच्चपेसिया उच्चुभिति वा सालगंवा उच्चोयगं वा विसर विकतं वा साइज्जइ । ११ । ते दो सचित्तपट्टते सुता । जति जे क्खूि तो मिया पुण निमंसति णायन्त्रा जीवजु सचित्तं चित्तं सवेयणपतिद्वं । उच्छे इवस्तु (उच्छु) गंडिया- कुगरिका श्री० सप पतसि चैव चाहं सुत्ताणं श्मो अतिदेशो । सचिव फलेपियर से जोग मोसमाती । सोचैव मेसो सोझसमे होति उक्खमि । ११० । कंख्या अणादियाय दोसा चहुं पच्चित्तं श्मे तत्थ विभा सुत्ता जे भिक्खू सचित्तं अंतरुच्छ्रगं वा जुंजति इत्यादि सचिव विसर त्यादि सचित पदो पथ्यसहितं तु तत्यति हो । किछेदो, माय पुए उचिपचिपरिहीणं । ३१००१ परं उभयो पवदेससहितं खरं पुत्र्यं उजयो पेरुरहियं अंत सकिछे सोये अच्तरां गिरा। चोयं तु होड़ हीरो, सगले पुण तस्स बाहिरा बी । कोणं पुण सकं मा, इतरजतं तप्पइङ्कं तु । ३२० । 1 सही रसंवितो चोपयं नम्माति सालगं वा हरिच्छली नति पु काणियं भंगार वान सिपाहीदि पा स्वयं उपरि सुकं स्यरंति सवितो सतत सचि सवित्तत्तं सचित्तत्तमि सविनागे पतिट्ठियं जति । नि० चू० १६ ० । गोमांस गोररय) (ख) कर-कर -न० दिना संस्कारयति । सूत्र० १ ० १ ० इक्कवः क्रियन्ते यत्र कि०१०। () स नि०० १६७० चापरिणतं तद्धि पर्वतो यद्वर्तते तदनाचरितमिति । दर्श३० । श्राचा० १४० १ ० १० उ० । इक्खु (च्) पर इकु-म० दशपुरनगर उद्याने, प. चार तिस्तोश त्रिपुत्रादाचाव्यादी कां जमादेति । विशे० । श्रा० म० । श्र० चू० । (प) योग-कुचोदक-१० पीडितेोदिका याम्, । आचा० १ ० १ ० १० ० । (उप) अंत कुमा इच्छकार त० । इक्षुनिच्ची के यन्त्रे वाच० । इक्खु (ख) मा कुमालक०, आचा० १० १० १० ० । अवल्कले इक्षुच्छेदे च । कालगम वकिलच्छेदो इति । नि० ० १ ० । इक्खु (उच्छु ) पेसिया - इक्षुवेशिका - स्त्री० इक्कुगरिकायाम नि० च० १६ न० । इक्खु (उच्चु ) जित्ति - इक्षुनित्ति स्त्री० कुख एके, नि० ० १६। इक्खु ( उच्छु ) मेरग - इक्षुमेरक- न० अपनी तत्वची कुगणिक कायाम, आचा० १ ० १ अ० १० उ० । ( लच्छु ) सडि सुष्टि श्रीकुदर, आ० ० २ अ० अ० म० प्र० प्रा० व्या० ! इव वालु) पण-वन-नो पर्व (ग) कवनस्पति विशेषस्य वने, आचा० १ ० १ ० १० उ० । इखु (उच्बु ) वाम - इक्षुवाट - पुण्कोः पर्वगवनस्पतिविशेष स्य वाटे, “सुचिरं पियत्यमाणो नवथंजो उच्छुवाममज्जमि' आव० ३ ० | (च्) पाया-वाटिका स्त्री० पर्वगवनस्पतिका यदे, प्रज्ञा० १ पद | इक्खु (उच्छु ) सालग-इक्षुसान्नग-न०श्क्कोर्दीर्घशाखायाम्, । आचा० १ ० १ ० १० उ० । बाह्यग्ल्यांच " सालग पुण तस्स वाहिरा बली" नि० ० १६ ० । इच्चा - इत्वा - अज्ञात्वेत्यर्थे, आचा० १० १ ० ३ ० । श्वेवं- इत्येवम् - अपूर्वप्रक्रान्तपरामर्शे, “ श्श्चेवं परिल्लेइंति " सृ० १ श्रु० ३ श्र० । “श्श्वेवमा हु से वीरे " सूत्र० १० ४ ० । इच्छष्धा० वाजायाम्, तुदा० पर० सेट् वेद क्तः “गमिष्यमासां वः" इति प्राकृतसूत्रेण ब्रकारः च् इच्छति । प्रा०arre अध्या० ४ पाद । " इच्छामि खमासमणो वंदिनं" छायामित्यस्योत्तमपुरुयैकवचनम् । प्रा० ३० अनु+ अन्वेषणे, प्रति प्रतिग्रदे, प्राप्तौ च । परि अन्वेषणे च । अभि + सम्यगिच्छायाम् । वाच० ॥ इच्छा इच्छाध्यान-१०३च्छा संभाव्यमान ज्ञानस्यार्थस्यानिलाषातिरेकस्तस्या ध्यानमिच्छ्राध्यानम् । द्विमाषार्थिनः कोटिसुवर्णाभेऽपि प्रवर्द्धमानलोजस्य कपिलस्येव सम्भाव्यमानत्राभार्याभिज्ञापातिरेकयाने जार० ॥ इच्छंत इच्छत्- -त्रि० वाञ्छति, “इच्छतो हियमप्पणो” उत्त० १ अ० ॥ इच्छका (च्छाका) र इच्छाकार पु०पणमिच्छा स्वाभिप्राय स्तया करणं तत्कार्यनिर्वर्त्तनमिच्छाकारः । गच्ना०२ अधि० । विव तित्पिप्रवृत्यन्युपगमः । अनुच्या साभियोगमन्तरेण Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छकार अनिधनराजेन्डः। इच्छक्कार कारः श्च्ाकारः इच्छाक्रियेत्यर्य इति । स्था०१० म०प्रव०। प्रस्तुतार्थप्रदर्शकः । एवमनिगृहितबलवीर्येण तावत्साधुना श्रा० म०प्र० गया:करणमिच्गकार इतिवृ० १०॥ जवितव्यम् । पामन्तरं वा “ अणिमूहियवधीरिएण जण स्वकीयानिलाये, | "इच्छगकारण संदिसह भगवन् देवसिअं साहुणा होयचं " अस्यायमों येन कारणेन अनिहितआयोएमि" इच्छाकारेण निजच्चयेति । आत्मीयेच्छयेति । बनवीर्येण साधुना भवितव्यमिति युक्तिः अतोऽत्यर्ययितुं न स्वकीयानिलाषेण न पुनर्यलानियोगेनेति च । ध०२ अधिः । युज्यते पर इति आहेत्थं तहन्यर्यनाविषयेबाकारोपन्यातदात्मके षष्ठे सामाचारीवेदे च । इच्छाकारो अग्टुओ इति। सोऽनर्यकः । नच्यतेउत्त०२६ अाच्छाकारण ममेदं कुरु श्च्छाप्रधानया क्रियया जा होज तम अनझो, कऊस्स वियाणा नतं वाण । न बनाभियोगपूर्विकयेति । स्था० १० ग० । इच्छाकारण ममेदं कुरु तत्र चाहं करोमीति निर्देशोऽन्युपगमो वा इच्छा गिनाणाइ विहिपहोज्जा, वावको कारणेहिं सो ॥ कार इति । ध० ३ अधि०। प्रव० । आ०म० प्र० । वृक्ष। यदि नवेत्तस्य प्रस्तुतस्य कार्यस्यानयो समर्थः यदि वा न "इच्छाकारो य सारेण" इति । उत्त०१६ असारण शति विजानाति तत्कार्य कर्तुवाणमिति निपातः पादपूरणार्थः म्यानाऔचित्येनात्मनः परस्य वा कृत्यं प्रतिप्रवर्तते । तत्रात्म दिर्वा जयेत् व्यापृतः कारणैरसौ तदा संजातन्तिीयपदाज्यसारेण यथेच्छाकारण युष्मच्चिकीर्षितं कार्यमिदमहकरो थनागोचरमिच्छाकारं रत्नाधिक विहायान्येषांकरोतितयाचाह मीति । अन्यसारेण च मम पात्रोपनादि इच्छाकारेण कुरुतेति रत्ताणि य वजेता, इच्छाकारं करेइ सेताणं । ग.२ अधि० । अस्य च प्रयोगः स्वार्थम्परार्थ वा चि- एवं मजं कजं, तुम्नेह करेह इच्छाणं ॥ कीर्षन् यदा परमत्यर्थयते इति । स्था० १० ग. “ इच्छा- रत्नानि विविधानि अव्यरत्नानि भावरत्नानि च । तत्र मरकतकारपोगोणाम जं इच्छया करणं तं बलानियोगादिणा श्वे- वजनीववैर्यादीनि व्यरत्नानि सुखमधिकृत्य तेषामनयस्स अत्यस्स संपयत्यं श्च्छकारसई पनजति ।आ० चू०२ कान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च । जावरत्नानि सम्यग्दर्शनअ०। उत्सर्गतः साधूनां सति सामर्थ्य कार्यार्थपरो भाज्यर्थ- झानचारित्राणि सुनिबन्धनतामङ्गीकृत्य तपमिकान्तिकयितव्यः अनिगृहितबलवीर्येण जाव्यं तत्कार्यस्य असामध्ये त्वात् आत्यन्तिकत्वाञ्च नावरत्नमधिको रत्नाधिकस्तं वर्जअप्रावीण्ये वा रत्नाधिकं विहायान्येषापयर्थनाविषयमिच्छा यित्वा श्च्छाकारं करोति । शेषाणां कयमित्याह । एतन्मम कारं करोति । यदि वा नान्यर्थितोऽपि कोऽप्यन्यस्तत्प्रयो- कार्य वस्त्रसीवनिकादिरूपं कुरुत श्या न बसानियोगेजनकरणशक्तो निर्जरार्थी साधुः कंचन साधुं चिकीर्षित- नेति । तत्र यदुक्तम् । ( ज अम्भत्येज परं कारण जाते शति) कार्य विनाशयन्तं गुरुतरकार्यकरणासमर्थमविनाशयन्तमप्य- तत्र प्रथमगाथया यदीत्यस्य भावार्य उपदर्शितः । द्वितीयज्यर्थयन्तं वाजिपितकार्यकरणायान्यतरंसाधु वा तत्कार्य गाथया कारणजातानि कथितानि । अनया तुपूर्वानाध्यर्थनाकर्तुकामस्तत्रापि च्वाकारं प्रयुञ्जीत । श्च्गकारण युष्मद। विषयो दर्शितः। उत्तराऊन त्वत्यर्यनायाः स्वरूपम् । संप्रति यमिदं कार्य करोमीति युष्माकभिच्गक्रियया करोमि नबना- "करेजवासे कोई" शति अस्य गायावयस्यावयवार्थः प्रतिदित्यर्थः । ध०३ अधि। पादनीयस्तत्रान्यकरणसंजयकारप्रतिपादनायाह ।। तत्रेच्छाकारो येष्वयेषु क्रियते तत्प्रदर्शनार्थमाह । अहवा वि विणासंतं, अब्नत्यं तं च अप्ताद?णं । जइ अन्नत्येअ परं, कारणजाते करेज सो को वि। अन्नो कोइ जणिज्जा, तं साहुनिफरहान ॥ तत्य वि इच्ाकारो, न कप्पइ बलानिओगो न ॥ अथवेति "ज अब्नत्थेज परं कारणजाए" इत्यपेकया प्रकायदि इत्यन्युपगमे अन्यथा साधूनामकारणे अज्यर्थना नैव शं ततो द्योतनाथ विनाशयन्तं चिकीर्षितं कार्यमपिशब्दातूकल्पते । ततश्च यदि अन्यर्थयेत् परमन्यं साधुं खानादौ सोऽन्यस्मिन् गुरुतरे कायें समयस्ततो यदि स तत्र व्याप्तो कारणजाते समुत्पन्ने सति ततस्तेनाज्यर्थयमानेन इच्छाकारः जयति तर्हि तेन गुरुतरप्रयोजनं सीदतीति परिजाव्य विनाप्रयोक्तव्यः।यदि वा अनन्यर्यितोऽपि काऽप्यन्यः साधुः(से) शयन्तमपि, यदि वा स्वयमसमर्यतया अभिलाषितकार्यकरतस्य कर्तुकामस्य कस्यचित् साधाः कारणजातं कुर्यात् । णाय साधुमन्यमत्यर्ययन्तं दृष्ट्वा निर्जरार्थी कोऽप्यन्यः साधुः तत्रापि तेनानन्यर्थितन साधुना तस्य चिकीर्षितं कर्तुकामेन साधुंजणेत् । किं भणेदित्याहइच्चाकारः प्रयोक्तव्यः । इह विराः केचिदनन्यर्यिता एवं अह यं तुजमेयं, करेमि कजं तु इच्चकारण । परकार्यकर्तार इति कोपातिग्रहणम् । अथ कस्मादिच्छाकार तत्थ वि से इच्छा से, करेइ मन्जायमूलीयं ॥ प्रयोगः क्रियते । मुच्यते-बझानियोगो मा नूदिति हेतोस्तथा अहमित्यात्मनिर्देशे युप्माकमेतत् कर्तुमभीष्टं काय करोमि चाह अतो न कल्पते बसानियोगःसाधनाम् तत इच्छाकारप्रयोगः कर्तव्यः । तु शब्दः क्वचिद्ववाभियोगो मा नूदिति क इच्छाकारेण युप्माकमिडाक्रियया न बलादित्यर्थः तत्रापि ल्पते इति सूचनार्थः । स कारापकः साधुः इच्छति इन्कार (स)तस्य स्वयमि__उक्तगाथावयवार्थप्रतिपादनार्थमाह। नाकारण कर्तुमन्युद्यतस्य करोति नत्वसौ तेनेच्नाकारण अब्द्धवगमंमि निजइ, अब्जत्येउं न वइ परो न । याचितस्ततः किमयमिच्चाकार करोतीत्यत आह-मर्यादासूत्रीय म् । मर्यादा साधूनां व्यवस्था तस्या मूत्रं मर्यादामूसं तत्रअणिगृहियवज्ञविरिएण, साहुणा ताव होयव्यं । जबो मर्यादास्त्रीय इच्छाकारस्तं निमित्तकारण हेतुषु सर्वामां यदि अन्त्यर्ययेत्परमित्यस्मिन् याद शब्दप्रदर्शिते अज्युपगमे विजक्तीनां प्रायो दर्शनमिति हताहितीया । ततोऽयमर्थःमयासति ज्ञायते किमित्याह । अज्यरयितुं न वर्तते न युज्यते परः । दामवन्त इच्छाकार स्तयाहि-साधनामियं मर्यादा न किचिकिमित्यत आह-न निगहिते बनवायें येनासावनिगृहितब- दवस्याव्यतिरंक ए कश्चित्कारयितव्यः । तदवं व्याख्यातोऽधिवीर्यस्तेन । बजं शारीरं, वीर्य मानसशक्तिविशेषःतावच्चदः । कृता गायावयवः॥ Jain Education Interational Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०३) इच्छक्कार अभिधानराजेन्द्रः। इच्छक्कार संप्रति तत्यवि इच्छाकार इत्यत्र योपिशब्दस्तस्य विषयं | खनीनग्रहणे जात्यवाहीकस्येवातः (सेसंमिन अनियोगोत्ति) प्रदर्शति शेषे विनयरहिते अनियोगो बनानियोगः प्रवर्तते कथानकाअहवा सगं करतं, किं वा अन्नस्स वा वि दट्टणं ।। जनपदजाते यया चैष गायाद्वयसमुदायार्थः । अवयवार्थस्तु तस्स वि करे इत्य, मजं पि इमं करहेति ॥ दवसयस्तच्चेदं । " वाहनविसए एगो आसकिसोरो सो दमिज्जिनकामो वेयात्रियवेझाए अहियासकाण एमाए ! अ अथवा स्वकमात्मीयं पात्रलेपनादि किं कुर्वते अन्यस्य वा त्येऊण वाहियानीपनीओ खत्रिणं से ढोश्यं सयमेव तेणगहियं किंचित् कुर्वन्तं दृष्ट्वा तस्यापि आस्तां प्रायुक्तस्यत्यपि शब्दा. विणीय इत्तिराया सयमेवारूढो मोयहियच्चियं बूढोरना चर्थः आपन्नप्रयोजनः सन् श्च्ाकारं कुर्यात्-कयमित्याह-ममापीदं पापनादि इच्छाकारेण कुरुतेति ॥ यरिनण आहारयणादिणासम्म पमियारेज गदियंह चमुकश्दानीमच्यार्यतसाधुविषयं विधि प्रदर्शयति॥ त्तणं तो पवं वहति न तस्स बनाभिओगो पवत्तः । अवरोपुण मगहादिजणवयजाम्रो पासो सो दमिजिनकामो वियानवेतत्य वि सो इच्छं से, करेइ दीवेइ कारणं वा वि । साए हि वासित्तो मायरं पुच्छत्ति किमयंति ताए भणियं इहरो अणुग्गहत्यं, कायव्वं साहुणा किच्चं ॥ पुत्त ! विषयगुणक ते एयं कवं पुण मा खत्रीणं पमिच्छितत्रापि एवमत्यर्थनऽपि साधोरज्यर्थितसाधुरिच्गकार हसि मावा वहिसि तेण तहेव कयरना चिरं कोरकरेण पिटिकरोति इच्छाम्यहं तव करोमि । अथ तेन गुर्वादिसकं कार्या- तो बनाविकवियं दाऊण वाहिनो पुणा जवसंसे निरुके न्तरं कर्तव्यं तर्हि दीपयति कारणं वापि श्तरथा गुर्वादिकार्य- तेण माऊए कहिए सा भणः पुत्त ! वे दिट्टियफसमिणं कर्तव्याभावे सत्यनुग्रहार्यमवश्यं साधोः कृत्यं कर्तव्यमिति ।। तं दिट्ठो भयमग्गा जो मग्गो ते रुचतं करोहिसि एस दिटुंतो अपिशब्दात् वितेच्गकारविषयविशेषप्रदर्शनार्यवाह अयमुवणतो जो सयं न करे वयावश्चादितत्थ बलानियोगो अहवा नाणाईणं, अट्ठाए जा करेज किचाणं । विपया विजजणवयजाए जहा पासोति " तस्माद्वलावेयावचं किंची, तत्थवि तेसिं जवे इच्छा ॥१॥ भियोगमन्तीव मोकार्थिना स्वयमेव प्रत्युतेच्छाकारं दत्वा अथवा ज्ञानादीनामादिशब्दाद्दर्शनचारित्रपरिग्रहः ! अर्थाय अनन्यतिनैव वैयावृत्त्यादिकर्तव्यम् । तथापि अनन्यर्थि यदि कुर्यात् कृत्यानामाचार्यादीनां वैयावृत्त्यं कश्चित्साधुः तस्य स्वयमिच्छाकारकरणं न युक्तमित्याशङ्कयाहपागन्तरं च किंचीति किंचिति श्रावणादि तत्रापि तेषां कृत्या अब्जयाणाए मरु ओ, वानरओ चेव होइ दिटुंतो। नां-तं साधुं वैयावृत्त्ये नियोजयतां जाव इच्छति भवेदिच्छा- गुरुकरणे सयमेव य, वाणियगा दोन्नि दिटुंता ॥ कार इच्छाकारपुरसरं योजनीय इत्यर्थः किमित्यत आह अज्यर्थनायां मरुको अष्टान्तः पुनः शिष्यनोदनायां वानरयस्मात् कश्चैव भवति अष्टान्तः गुरुकरणे स्वयमेव तु धौ वणिजी आणा बलानियोगो, निग्गंयाणं न कप्पए काउं । अष्टान्तः एष गाथा समासार्थो ज्यासार्थः कयानकेन्यो ऽवसाइच्छा पउंजियचा, सेहए रयणिए तह ॥ तव्यस्तानि चामूनि “ एगस्स साहुस्स बझी अत्थि सो न आझापि ममाझा भवतदं कार्यमेवंरूपा तया विवक्षित कार्य करे वेयावच्चं बालवुवाणं पायरिएण चोश्रो भणश् को मं माझापितस्याप्यकुर्वतो वक्षात्कारेण नियोजन वनानियोग अम्भत्येश् आयरिएण जणितो तुमं अजत्थणं मग्गंतो चुकिएतैवपि निर्ग्रन्थानांन कल्पते कर्तु किन्तु इच्छेति श्च्चाकारः हिसि जहा सो मरुगो नाणमयमत्तो कत्तियपुन्निमाए नरिंदप्रयोक्तव्यः प्रयोजनेऽनुत्पन्ने सति शतके तथा रत्नाधिके च जणवपसुदाणं देनमट्रिपसुन तत्य वञ्चई भजाए जाणआसापादिप्रषुकामेन आद्यन्तग्रहणान्मध्यस्यापि ग्रहणमिति तो जाहे सो भण३ एगं ताव सुद्दाणं परिग्गह करेमि विययं व्याख्यायान्येषु च पषु तावत्स नक्तः। अपवादतस्त्वाझावना घरं तेसिं गच्छामि जस्स आसत्तमस्स कुवस्स कजं सो मम जियोगावपि विनीते प्रयोक्तव्यौ तेन चेहोत्सर्गतः संवास अणेत्ता देन एवं सो जाव जीवाए दरिदो जातो एवं तुमं पि एव न कल्पते बहुजनादिकारणप्रतिबझतया त्वपरित्याज्यः अत्थणं मग्गमाणो चुक्तिहिसि निघए एतेसिं वालवुताणं श्रय विधिः प्रयममिधाकारेण योज्यते कुर्धनाझ्या पुन काणे चेच अहं अप्पणो घेयावञ्चं करेमि अन्ने अन्यिवरंतगा बंझानियोगेनेति आहच ॥ तुक चिप स कि एवं चेव विराहिति ततो सो एवं भणियो जह जबवाहनाणं, आसाणं जणवएमु जायाणं । एवं सुंदरं जाणंता अप्पणा कीस न करेह । आयरिया भणंति सयमेव खलिणगहणं, अहवावी बलानियोगेणं ।। सरिसो तुमं तस्स वानरस्स जहा एगो बानरो रुक्खे अत्य वासासु सीतवातेहिं ऊमिज्जतो ताहे सुघराए समणिगाए पुरिसज्जाए वितहा, विणीय विणयमि नत्यि अनियोगो। भणि प्रो वानर! पुरसोसि तुम निभयं वहसि बाहुदमाईजो सेसंमि न अजिओगो, जणवयजाए जहा आसो ॥ पायवस्स सिहरणं कसि कुझिपमालिं वासो एवं विभणि प्रो यथा जात्यवाहिकानामश्वानां जनपदेषु मगधादिषु जाता- तुन्नि को प्रत्यक्ष ताहे सो दोचंपि तपि जण ततो सो रुट्रो नां च शब्दबोपोत्र अष्टव्यः स्वयमेव खत्रीनग्रहणं भवति । तं रुक्खं दुरिहिन माढत्तो सा ना तेण तीसे तं घरं सुवं अथवाऽपि बनानियोगेन खडीनं कविकं किमुक्तं जवति । विक्खिन्नं नण न विसिसमं महतरिश्रा न विसिसमं सोहि यया जात्यवाहीकानामश्वानां स्वयमेव खझीनग्रहणं भवति वावणिडा वा सुघरे अत्यसु विघरा जा चहसि लोग तित्तिसु जनपद जातानां च वनानियोगेन एवं पुरुषझातेपि ज्ञाता- सुहं दाणि अत्थ एवं तुम पि ममं चेव नवरिएण जाओ किंत्र ब्दः प्रकारवचनः पुरुष प्रकारेऽपि कथनूते इत्याह ( विणीय मम अन्नं पि निजदारं अस्थि तेण ममं बहुतरियाणि घरातं बाई यिणय इति ) विविधप्रकारं नीतः प्रापितो विनयो येन स दुकिहामि जहा सो वाणियगो दो वाणि जाव ववहरति एगो विनीतविनयस्तासिन्नास्यानियोगः स्वयमेव विनये प्रवर्तनात् | पढमपाचसो मद्धं दायब्वं होहितित्ति सयमेव शसाढपुलिमा Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०४) इच्छमाण निभानराजेन्धः । इच्छा प घरं पुच्चा श्तो वीराणं अटुं वा तिभागं वा दाऊण वा वि. कामेच्छा रजन्यादिकामानिलाषः " रयणिमहिसारियाच, ससयं ववहर तण तद्दिवसं विकुणो साहबको श्यरो चुक्को चोरा परदारिया य इच्छति । ताजायरा सुनिक्ख, बहुधना एवं तो अचिंतणेण सुत्तत्था नासंति ते हियते नट्रेहिं गच्छ- केर भिक्खं" जावेच्या प्रशस्तेतरभेदा प्रशस्तज्ञानाद्यभिसारवणा भावेण गच्चस्स अपमियप्पणो बहुतरं मे नास साषः। आव० ३ अ आ००। शति तथाचाह * सुत्सत्थेसु अचिंतण, आदेसे बुकसेहगेबन्ने । विस्तरेणेच्छानिवेपमाह ॥ वाले खमगे चाइ, श्ठीमायी अणिहिया १एपहिं कारणहि-तु जाई इच्चइ अत्यं, नामादि तस्स साहबई इच्छा। बनूतो न होइ आयरिश्रो। वेयावच्चे करणं, कायवं तस्स नामंमि जंतु नाम, इच्छसि नाम व जं जस्सि ॥२॥ सेहेहिं ५ जेण कुवं प्रायत्तं, तं पुरिसं आयरेण रक्खेज्जा। नहि तुंबंमि विण डे,अरया साहरया होति ३* आदेशे प्राघूर्णके यो नाम यमर्थ नामादिवकणमिच्छति तस्य सा जति वृके शैक्के खाने तथा बाझे लघवयसि कपके च यद्याचार्यः इच्छा यो नामेच्छसि तस्य नामेच्छा । स्थापनामिच्छतः स्थास्वयं वैयावृत्त्यं करोत तर्हि सूत्रार्थयोरचिन्तनं भवति तथा पनेच्या । एवं अव्येच्गदिकमाप नावनीयम् । इच्छायाश्च वादिनि श्रागते ऋछिमति च नगरश्रेष्ठ्यादौ श्रादिशब्दाद्रा निक्केपः पोढा । तद्यथा-नामेच्छा स्थापनेच्छा व्यच्च जादिपरिग्रहः । आचार्य बैयावृत्त्याय पानकादिगते प्रवचनबा केत्रेच्या कारच्या भावेच्छा । तत्र नामेच्छामभिधित्सुराहगवं भवति अनर्सिका पते अनीश्वरप्रवजिता एते इत्यर्यः। तत नाममित्यादिना तु नामविषया इच्छा श्यं नाम देवदत्ता पतैः कारणैराचार्यः शेषसाधूनामरकप्रायाणां तुम्बनतो भवति दिकस्य नाम इच्छा नामेच्छेति भावः । अयवा यस्येति नाम ततो वैयावृत्त्यविषये यत् करणं करणीयं तत्तस्य शेषैः कर्त्तव्यं स नामनामवतोरजेदोपचारातू नाम चासौ श्च्याच नामेच्छा। न पुनःसस्वविषये परविषये वा वैयावृत्ये प्रवर्तमान उपेक्षणीय स्थापनेच्छामाह । एतदेवाह (जेणेत्यादि) येन पुरुषेण कुलमायत्तं तं पुरुषमाद एमेन होइ उवणा, निक्खिप्पश्च्च एव जं उवणं । रेण रकेतू यतो नहुनैव तुम्बे विनष्टे अरकाःसाधारकाःसाधा- सो मित्ताई जह सं-नवतु दन्वादिसुंजणसु ॥ ३ ॥ रा भवन्ति आह श्च्याकारणाहं तत्र प्रथमालिकादिकमान- एवमेवानेनैव नामगतेन प्रकारण नवति स्थापनेच्या प्रतियामीत्याभिधाय यदा सध्याभावान संपादयात तदा देशोक्तमेव यदिच्छेति निक्तिप्यते सा स्थापना चासाविच्चा निर्जरामानविकमस्तस्येच्छाकारस्ततः किं तेनेत्याशङ्क्याह च स्थापनेच्छेति व्युत्पत्तेः। अथवा यतः स्थापनामिच्छति *वेयावच्चे अब्तु-ट्ठियस्स सकाए काउकामस्स । लाभो चेव सा स्थापनेच्ग स्थापनीया इच्छा स्थापनेच्छेति व्युत्पत्तेः । तवसिस्स होइ यहीणमणसस्स * वैयावृत्त्ये संयमव्यापारे कन्येच्ग द्विधा आगमतो नोप्रागमतश्च । तत्र आगमत इच्छा अच्युत्यितस्य, तथा श्रच्या प्रसन्नेन मनसा श्ह लोकपरलोका पदार्थकाता तत्र चानुपयुक्तो नोआगमतनिधा-शरीरशंसाविप्रमुक्तेन कर्तुकामस्य (लाभो चेव तवस्सिस्सत्ति) भन्यशरीरे प्राग्वत् तव्यतिरिक्ता च यद्यमिति सा च त्रिधा प्रकारणानिर्जराया लाभ एव तपस्विने जवति अध्यादौ सचित्तव्यच्छा अचित्तद्रव्येच्या मिश्रद्रयेच्छा । तत्र सचित्तअदीनं मनो यस्यासावदीनमनास्तस्यादीनमनसः ॥ आ० म० अव्येच्छा विधा-द्विपदचतुष्पदापदन्नेदात् । तत्र हिपदासचित्त द्विापंचा। आ००। व्येच्जा यत् नियमिच्छति पुरुषामिच्छति इस्येवमादिाचतुइच्छमाण-इच्छत-त्रि० अनिलष्यति, पंचा०५ विव०॥ पदसचित्तव्येच्ग यदश्वमिच्छति गावमिच्छतीति । अपइच्छा-इच्छा-स्त्री० एषणमिच्चा-इषुश्च्ायाम्। इष-भावेश दसचित्तद्रव्येग आन्त्रस्येच्या मातुविङ्गस्येत्यादि । प्राचिप्रत्ययः स्था.१० वा० । आ० म.प्र. । मायाकायदे, त्तव्येचा सुवजव्येच्या हिरण्येच्चादि । मिश्राव्येच्या सम०५१ स०। अनिवाषे, प्रश्न ५ द्वा०। पंचा० आव। सुवर्णालंकारविनूषितस्य द्विपदादेरिच्चा । अथवा द्रव्यादिषु सूत्र।दश। स्था। वृ०।" इच्छामि नामि (१) का कंत्रकालेषु ययासंजवं स्वामित्यादि । स्वामित्वं स्वकरण उस्तम्ग " इषु इच्छायामित्यस्योत्तमपुरुषैकवचनस्य “इषुग- करणानि भणतः स्वामित्वादिग्निः प्रकारः द्रव्यकेत्रकालेमयमांच"इति उत्वे इच्छामीति नवतिइच्छाम्यनिषामिस्था- च्छा वक्तव्येति नावः । तत्र स्वामित्वेन ब्येच्छा यथा आत्मनः तुमिति। आव०५ अासन्नाव्यमानाभस्वार्थस्याभिझापा- पुत्रमिच्छति इत्यादि करणेन यया मद्याद्यन्यवहतेन तैरिच्ग तिरके, आतु० । आगतानागतान्यतरार्थप्रार्थनायाम् , ध. कामेच्छा वा जायते इत्यादि । अधिकरणे यथा सुप्रतारितायां ३ अधि० अन्निप्राय, नं० ।गा। विशे० चितःप्रवृती, प्राचा शय्यायां स्थितस्य कामेच्छा समुत्पद्यते केत्रकालाबचेतना ११० अ०१०। अच्युपगमे, ध०१अधि० प्रीती, द्वा० ततो न तयोः स्वयं स्वामित्वेनेच्या नवति ततः करणाधि२० द्वारा प्रीतिसाधकभावानिया, अष्ट०२७ । स्पृहाया- करणान्यां तत्र योजना तत्र केत्रेण अब्धेन क्रीमनेच्छा म, अपर ११ । परिग्राह्यवस्तुविषयकवाञ्चाकरणे, संथा। वपनेच्छा जायते । अधिकरणेन यथा गृहे स्थितस्य जोगेच्छा पंचा० । अन्तःकरणप्रवृत्ती, सूत्र. २ श्रु० अ० । इन्द्रिय- कामेच्छा वा, सद्गुरुकुलवासे सम्यगनुष्ठानेच्या वा समुपजायते मनोनुकूलायाम्प्रवृत्ती, प्राचा० १ श्रु०४.२० । विव- श्त्यादि। काले करणे यया यौवनकालेन धनेच्छा कामेच्छा था कितक्रियाप्रवृत्त्यज्युपगमे, अनु.॥ जायते इत्यादि । अधिकरणे यया हेमन्ते रात्री शीतेन पीमिएतस्य निकेपो यथा तः सूरोक्रमकासमिच्छति । भावत इच्छा द्विधा-आगमतो मो नाम उवणा दविए, खित्ते का तहेव नावे अ।। आगमतश्च तत्रागमतः इति पदार्थज्ञाता तत्रचोपयुक्त "नुएसो खयु इच्गए, निववो बिहो होइ ॥ १॥ | पयोगो नावनिकप" इति वचनात् नो आगमत आहनामस्थापने गतार्थे प्रत्येच्या सचित्तादिव्यानिबापः। अनु जावे पसत्यमपस-त्यिया य अपसत्थियंत इच्छामी। पयुक्तस्य वेच्गमीत्येवं नणतः केत्रेच्चामगधादिक्केत्राभिवापः।।। इच्छामो य पमत्य, नाणदीयं तिविहमित्यं ॥४॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाकाम अनिधानराजेन्द्रः। इच्छगपरि आगमतो जावत इच्छा द्विधा प्रशस्ताप्रशस्ता च । मकारो प्रधानस्येच्योगत्वे तदङ्गस्यापि तथात्वामति दर्शयन्नाह । साकणिकः । तत्राज्ञानादिविषया इच्छा अप्रशस्ता, प्रशस्ता साङ्गमप्येककं कर्मा, प्रतिपन्ने प्रमादिनः ।। झानादिविषया । व्य. प्र. ३००। राविनिवृत्तः फवं यथा न त्वेच्छायोगत इति श्रवणादत्र मज्जति ॥३॥ कंखिजा जो अत्यो, संपत्तीए नतं सुहं तस्स ।। साङ्गमपि अङ्गलाकत्येनाविकामपि एकक स्वल्पं किंचि त्कर्म प्रतिपन्ने बहुकालव्यापिनि प्रधाने कर्मण्यारते प्रमाइच्छाविणिवित्तीए, जं खल बुधप्पवाओ अं॥६॥ दिनः प्रमादवतः नत्वेच्छायोगत इति श्रवणादत्र श्गयोगे कांक्ष्यतेनिनष्यते योऽर्थः आदिसंप्राप्त्या न तत्सुखं तस्या निमज्जति निमग्नं भवति । अन्यथा होच्चायोगाधिकारी जगर्थस्य श्च्चाविनिवृत्त्या यत्खलु सुबुरूप्रावादोऽयमाप्तप्रवादोय वान् हरिजनसरियोगदृष्टिसमुच्चयप्रकरणप्रारम्ने मृषाबादमिति गाथार्यः। परिहारेण सर्वौचित्यारम्भप्रदर्शनार्थ न विच्चायोगतो मुत्तीए वनिचारो, तत्तो जसा जिणेहि पन्नत्ता ॥ योगमित्यादिनाविवकत्वाइनमस्कारमात्रस्याल्पस्य विधिइच्ग विणिवित्तीए, चेव फलं पगरिसं पत्तं ॥७॥ शुब्स्यापि संभवात् । प्रतिपत्तस्वपर्यायान्ततत्वेन च प्रकृतमुक्त्या व्यभिचारस्तत्काढणे तत्प्राप्त्यैव सुखभावादेत- नमस्कारस्यापीच्चायोगप्रनवत्वममुशमिति विनावनीयम् । दाशझ्याह । तत्र यद्यस्मादसौ मुक्तिर्जिनः प्राप्ता तीर्थकरै- द्वा०१ए द्वा। रुक्ता इच्छाविनिवृत्तरेव फन पुनरीच्छापूर्वकमिति प्रकर्ष इच्छाणुलोम-इच्छानुलोम-त्रि० श्च्छाऽनुकूले, प्रतिपादयितुर्या प्राप्तसामायिकं संयतादेरारज्योत्कर्षेण निष्ठाप्राप्तमिति गा- इच्ग तदनुस्रोमा तदनुकूला इच्या इच्छानुलोमा । नाषाभेदे, थार्थः। किंच स्त्री० न०१०।०३ उ०। इच्छगनुलोमा नाम यथा कश्चित् किंजस्मिच्गए जायइ, संपत्ती तं पश्चिम नणिअं। चित् कार्यमारज्यमाणः कंचन पृच्चति स प्राह-करोतु प्रवामुत्ती पुण तदनावे, जमाणच्छा केवनी जणियाए। न ममाप्येतदनिप्रेतमिति । प्रज्ञा० ११ पद ॥ यस्यार्यस्येच्या प्रवृत्तिनिमित्तभूतं यजायते संप्राप्तिस्त | इच्छगणलोमिय-ऐच्छानुसोमिक-त्रि० श्च्छा चेतःप्रवृत्तरमर्य विनयादिकं प्रतीत्येदं भणितं काझ्यते इति। मुक्तिः पुन | जिप्रायस्तस्यानुलोममनुकूमम् तत्र भवमैगनुलोमिकम् । स्तदभावे इच्छाऽभावे जायते । कुत इत्याह-यद्यस्मादनिच्छाः इच्छाभावानुकूल्यताभाजि, । आचा०१ श्रु० ३ ०४०॥ केवनिनो प्रणिताः "अमनस्काः केवलिन" इति वचनादिति गायायः। पं०व०१द्वारापास्य पञ्चदशसु रात्रिषु स्वनाम इच्छापणीय-इच्छामणीत-त्रि० । इन्डियमनोविषयानुकूला ख्यातायामेकादश्यां रात्रौ च । ज्योपा० ॥ ज०॥ चं। प्रवृत्तिरिहेच्या तया विषयाभिमुखमभिकर्मबन्धसंसारानिईसा-स्त्री० आप्तुमिच्छा आप-सन्-अ । आप्तुमिच्छायाम, मुखं वा प्रकर्षेण नीतः इच्गप्रणीतः। श्च्या विषयानिमुखं कर्मबन्धाभिमुखं संसाराभिमुखं वा नीते, “इच्छापणीता इच्छायां च । वाचा वंका णिकया" ये चैवंचूतास्ते वङ्का निकेता वङ्कस्यासंयमस्याइच्छाकाम-इच्छाकाम-पु०-एषणमिच्ग सैव चित्ताभिलाषरूप ऽऽमर्यादया संयमावधिभूतया निकेतभूता आश्रया इति । त्वात्काम इच्छाकामः । श्च्यारूपे कामे, "इच्ग पसत्थमप आचा० १ १०४ अ०२०॥ सत्यिगा य"। इच्छा प्रसस्ताऽप्रशस्ताचाअनुस्वारो नाक-उच्चापरिमाण-इच्छापरिमाण-न०३चाया धनादिविषयस्याणिकः सुखमुखोचारणार्थः । तत्र प्रशस्ता धर्मेच्छा मोकेच्छा। अप्रशस्ता युकेच्ग राज्येच्छा । व्यक्ता इच्छाकामा इति । भिलाषस्य परिमाणं नियमनमिहापरिमाणम् । देशतः परि ग्रहविरतिरित्यर्थः । स्था० ५ गश्छा परिग्राह्यवस्तुविषया दश०१०। इच्गगहण-इच्छाग्रहण-न०अभिप्रायपरीकणे, वृ०१०। चाग तस्यास्तया परिग्राह्यवस्तुनाम्परिमाणमियत्ता श्वापरि माणम् । पंचा०१विवाधनधान्यादिनवविधपरिग्रहप्रमाणनइच्छाउंद-इच्छाउन्द-पु० यथाउन्दे, "एसोउ अहा दोग कणकणे पञ्चमे अणुव्रते, तल्लकणं यथापुत्ति एगहा" २० इति । श्राव. ३ अ०। परिग्रहस्य कृत्स्नस्याऽमितस्यं परिवर्जनात ॥ इच्छाजम-इच्छायम-पु० यमजेदे,-" इच्छायमो यमेष्विच्छा, इच्छापरिमाणकृति जगः पञ्चमं व्रतम् ॥ २५॥ युता तद्वत्कथामुदा"-इच्छेति तद्वता यमवता कथातो या मुत परिगृह्यत इति परिग्रहस्तस्य कीरशस्य कृत्स्नस्य नवविधप्रीतिस्तया युता सहिता यमेप्विच्छा इच्छायम उच्यते इति । स्येत्ययः चतापटिनेदीप्येष नवविधपरिग्रहे अन्तर्भवतीति:न द्वा०२०७०। कोपि विरोधः।पुनः कीदशस्य तस्य अमितस्य परिमाणरहितइच्छाजोय-इच्छायोग-पु. इच्छाप्रधानो योगो व्यापारः इच्छा स्य परिवर्जनात्यागात त्यागनिमित्त जूतेनेत्ययः वाया अनियोगः । योगभेदे, तवकणं यया माषस्य यत्परिमाणमियत्ता तस्य कृतिःकरणं तां पञ्चमं प्रतं चिकीर्षोः श्रुतशास्त्रस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः । अधिकारादणुव्रतं जगद्गुरव ऊचुर्जिना इति संटङ्कः । इदमत्र कान्नादिविकलो योग इच्छायोग नदाहृतः ॥२॥ तात्पर्यम् परिग्रहविरतिधिा सर्वतोदेशतश्च तत्र सर्वथा सर्व चिकीर्षोः तथाविधक्कयोपशमानावे ऽपि निर्व्याजमेव कर्तु- भावेषु मूर्गस्यागः सर्वतः तदेव देशतस्तत्र श्रावकाणां सर्वतः मिच्चोः श्रुतायस्य श्रुतागमस्य अर्थ्यते ऽनेन तत्त्वमिति कृत्वा तत्प्रतिष्नुतेरशक्तौ देशतस्तामिळापरिमाणरूपांप्रतिपद्यतेयतः ऽर्थशब्दस्यागमवचनत्वात् । शानिनोऽपि अवगतानुष्ठेयतत्वा- "अपरिमिअपरिगहं समणोवास प्रो पचक्खा । परिर्थस्यापि प्रमादिनो विकयादिप्रमादवतः कासादिना विकलो. माणं नवसंपन्ज से अपरिग्गहे दुविहे पत्ते तंजहा सचित्त ऽसम्पूर्णी योगश्चैत्यवन्दनादिव्यापार इच्छायोग उदहृतः परिग्गहे अचित्तपरिग्गहे अत्ति । ध०२अधि। परिग्रहणं प्रतिपादितः। परिग्रहः अपरिमितश्चासौ परिग्रहश्चेति समासः अपरिमितप Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छापरिमाण अभिधानराजेन्द्रः। इच्छापरि० रिमाणस्तत्र श्रमणोपासकः प्रत्याख्याति सचित्तादेः परिमा- व्याख्येयम्। किमित्याह॥ वित्तं बहुप्रकारमेतत्तथाहि कश्चिन्निः णात् परिग्रहाद्विरमतीति भावना । श्च्छायाः परिमाणं तप- स्वोऽपि विपुत्रवित्तो नवति अन्यस्त्वन्यथा । तथा कस्यचिसंपद्यते सचित्तादिगोचरेच्यगपरिमाणं करोतीत्यर्थः । स च दूनूरिवित्तमन्यस्य स्तोकम् । तया कचिद्देशेऽत्यन्त धान्यचतुपरिग्रहः द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथेति प्राम्वत् । सह चित्तेन सचि- पदादिसंग्रहो विधीयते अन्यत्र तु न तथा । कोपि राजवंश्योसं द्विपदचतुष्पदादि तदेव परिग्रहस्सचित्तपरिग्रहः । अचित्तं ऽन्यो वाह्मणवणिग्वंश्यादिस्तस्य च प्रायो राज्यादिसनवावस्तु रत्नकुप्यादि तदेवाचित्तपरिग्रहः । आव० ६ अ०॥ संभवी स्तश्त्येवं स्वचित्तवित्तादीनामधिरोधेनानेकविधनि स्तद्विधीयमानमनेकधा नवतीति गायार्थः॥ पंचा विव०। ननु गृहे स्वल्पव्याप सति पारिग्रहपरिमाणे तु व्यसह (श्च्छापरिमाणवतस्योदाहरणम, विस्तरतः स्वरूपश्चानन्दसनकादिप्रतिपत्त्या श्च्यावृषिसंनवात् को नाम गुण इति चेन्मेवम् इच्छावृकिस्तु संसारिणां सर्वदा विद्यमानैव यतो कथायामाणदशब्द) “तत्यय पंचमा गुब्बए अनियतस्स नमिराजर्षिवचनमिन्धं प्रति-"सुवम रुप्पस्स य पब्वया भ दोसाणि य तस्स गुणा तत्थोदाहरणं । "लुखनंदो कुसीमृत्रियं वे, सिया हु के तोससमा असंखया । नरस्स मुझस्स न लुद्धनंदो विणटोसावगो पुश्ओ भंमागारवई थविरो॥ आव. तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतया" एवं चेवाया ६अ। परिग्गहे असंतुटुस्स दोसा संतुटुस्स गुणा तत्थ अनन्तत्वे तदियत्ताकरणं महते गुणाय यतः "जह २ अप्पो से उदाहरणम् ॥ झुद्धणंदो कुसीसा तो नहीहिं विक्कियातो एहो, जहश् अप्पो परिम्गहारंभो । तह २ सुई पववश, धम्म मंतगए गमणं । पुत्तेहिं गिल्वियातो अक्खिज्जती जम्मा लोएस्स य होश संसिकी" तस्मादिच्छाप्रसरं निरुध्य सन्तोषे य ण दिट्ठा पो कहितं सुकणंदेणं पाया जम्मा सावगो पूजितो । एवं जधा णामोक्कारे । आ००६अ। तितव्यं सुखस्य संतोषमूत्रत्वात्।यदाह-आरोगासारिमाणु अहवा वाणिगिणी रयणाणि विकिण बुहाए मरंति से?ण त्त सञ्चसारिओ धम्मो विज्जा निश्चयसारा, सुहा संतोस जणिया पतिप्रो परिकरो नत्मि अन्नस्स नियाणि ताए साराई" तदेवमेततस्याऽत्रापिसंतोषसौख्यलक्ष्मीस्थैर्यजन जण जं जोगं तं देहिं सोतत्य देश सुनिक्खे तीए भत्तारो प्रशंसादिफलं परत्र तु नरामरसमृकिसिद्ध्यादि । प्रतिसोनानिनूततया चैतहतस्यास्वीकृतौ विराधनायां दारिरुधदास्य आगो पुच्छर रयणाणि केहिं नई वत्तियाणि मे कहि दिन्नाणि सा जण गोहुम सेश्याए पकेक दिन्नं अमुदौ ग्यागत्यादि । यतः " महारंभयाए महापरिमाहाए गस्स वाणियगस्स सो वाणियगो तेण प्रणियो रयणाणि कुणिमाहारेणं पंचिदिअवहेणं जीवा नरयानअं अडोशत्ति"। अप्पहि पूरं वा मोल्लं देहि सो नेच्छर तो रनो मूलं गओ ए मूर्गवान् हि उत्तरोत्तराशाकर्थितो पुःखमेवानुभवति । रिसे अग्घे तहमाणे एयस्स मणिरयास्स एएण पत्तियं दिनं यदाह-"उक्खण खण निहणश, रत्ति न सुअ दिआ वि सो विमासिओ पढम पुण ताणि रयताणि रयणाणिसावगस्स प्रससको । डिंपर उप सययं, संगिन पमिलांचिरं कुण" विकेण याणि गश्याणि तेण परिग्गह पयाणातिरित्ता इति का १९ । परिग्रहत्वमपि मूव मूर्गमन्तरेण धनधान्यादेरपरि ऊंन गहियाणि सावगेण नेच्छर सो पुश्त्रो, । आव०६०। ग्रहत्वात् । यदाह " अपरिग्रह एव नवे-द्वस्त्रात्ररणाद्यवंकृतो पवमादिश्णापुणो श्मा नावेज्ज संतोसंगहियमादीणि आया पि पुमान् । ममकारविरहिते सति, ममकारे सङ्गवान्ननः" मणमाणेण एवं गेपिदस्साम्मो णं चित्तंजा । श्रा० चू०६ १०। ॥१॥तया "जाप वयं व पायं वा, कंबलं पायपुरणं । तं पि संजम कडा, धारिती परिहरंती अ१न सो परिग्गहो वुत्तो, श्दं चातिचाररहितमनुपालनीयं तथाचाह। नायपुत्तेण ताश्णा । मुच्चापरिगहो वुत्तो, श्वुत्तं महेसि इच्छापरिमाणस्स समणोवासपणं इमे पंच अइारा पत्ति"तिन मूर्गनियमनाथै सर्वमूर्गत्यागाशक्तस्यैतत् पञ्च जाणिअन्वा न समायरिअव्वा तंजहा खित्तवत्पुप्पमा ममणुवतम् ॥ ध०२ अधिः । तथाच पञ्चाशके माइक्कमे । १ । हिरन्नसुवनप्पमाणाइक्कमे।। धणधनइच्छापरिमाणं खा, असयारंजविणिवित्तिसंजणगं । प्पमाणाइक्कमे। ३ । दुपयचनप्पयप्पमाणाश्कमे ।। खत्ताश्वत्युविसयं, चित्तादविरोहरो चित्तं ॥ १७ ॥ कुविअप्पमाणाइमक्के । ५। इच्ग परिग्राह्यवस्तुविषया वाञ्छा तस्यास्तया परिग्राह्यव इच्छापरिमाणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिधारा कातल्या स्तुनः परिमाणमियत्ता इच्छापरिमाणं खमु वाक्यालंकारे न समाचरितव्याः । तद्यथा । केत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः तत्र पञ्चमाणुव्रतं भवतीति प्रक्रमः । तच्चापरिमाणं किंफल- सस्योत्पत्तिनूमिः केत्रं तश्च सेतुकेतुनेदाद्विविधं तत्र सेतुमित्याह । असदारम्भविनिवृत्तिसंजनकमसुन्दरारम्नप्रवृत्ति- केत्रमरघट्टादिसेक्यं केतुक्केत्र पुनराकाशपतितोदकनिष्पाद्यं निबन्धनम्। जवात हीच्यापरिमाणे कृते इच्छाविषयीकृतकात- वास्त्वगारं तदपि त्रिविधं खातमुत्सृतं खातोत्सृतं तत्र खातं पयपदार्थानां किंचिन्न शुजव्यापारैराप प्राप्तेरसुन्दरतरव्या- तूमिगृहकादि उत्सृतं प्रासादाद खातोत्सृतं तूमिगृहकस्योपारेज्यो विनिवृत्तिर्यतः-प्रनूतार्यप्राप्यर्थमेव नूतघाताद्य- परि प्रासादादि एतेषां केत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः । प्रत्या सुन्दरव्यापारेषु प्रायः प्राणिनः प्रवर्तन्ते इति।तश्च केत्रादिवस्तु- ख्यानकालं गृहीतप्रमाणोडक्वनमित्यर्थ इति । तया हिरण्यविषयं केत्रादीनि विशेषप्रनृतीनि वस्त्वन्यों विषयो गो- सुवर्णप्रमाणातिक्रमस्तत्र हिरण्यं रजतमघटितं घटित वाने चरोऽस्येति विग्रहस्तमुक्तम् ॥ "धणं धन्नं खेत्तं वत्पुरुप्पं सुवास कप्रकारं द्रव्यादि सुवर्णप्रतीतमय तदपि घटिताघटितमे कुवयं दुपयं चप्पयं चेत्यादि " अत्रचादिशब्दः प्रकारवचने तग्रहणाचेन्जनीसमरकताधुपरग्रहः प्रकरगमनिका पूर्ववत् । केत्रादयः केत्रप्रकारा धनादय इत्यर्थः । चित्तं मन आदिर्येषां तथा धनधान्यप्रमाणातिक्रमः तत्र धनं गुमखएमशर्करादिगोमचित्तदेशवंशादीनां ते तया तेषामविरोध आनुकूख्यमनुरूपं चि- हिष्यजाधिकार प्रतुगादि, धान्यं ब्रीहिकोषवमुझमापतिलगोत्ताद्यविरोधस्तस्याः चित्ताद्यविरोधतः(वित्तादविरोहोत्ति) | धूमयवादि अक्करगमनिका प्राग्वदेव । तथा द्विपदचतुष्पदपागन्तरं तत्र च वित्ताद्यविरोधतो वृत्ताद्यविरोधतो वेति । प्रमाणातिक्रमः । तत्र द्विपदानि दासीदासमयूरहंसादीनि Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०७ ) अभिधान राजेन्द्रः । इच्छापरि० चतुष्यदादित्यवमहिष्यादीनि अरगमनिका प्राम्यदेव । तथा विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः । तत्र कुप्यमासनशयनमकरो कोटाद्युपस्करजातमुच्यते तद्द्मणाच्च यत्र अपरिग्रहः । श्रकरगमनिकापूर्ववत् । एतान् क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमादीन् समाचरन्नतिचरति पञ्चमा पुव्रतमिति । "पत्य दोसा जीवघायाश्या जाणियञ्चा” । आव ०६ अ० श्रावण सत्य समाचादिपमा महितं तं पालिकाम यं या पर्ण यही तो बही चारेशियो अजा या देखा समयधादिकाताहे या देखा एवं पचिरा चिराय विभासिन्चो सो सा वगो चिंतेजा जहा मए दध्वम्पमाणं जं गदितं तं अजावि न परेति । एवं व धारवितो तसा श्मं देति तिकि दक्ष देत जध इमं । एवं खत्तवत् युष्पमाणातिक्रमणं कुणतो प्रतियरति । एवमादिविनास सव्वत्य एसो विभागे उवसंपुणो लयसह स्से वा कोरिए वा सत्र्यंगणिज्रमाणं । तस्स एसेव एक्को अतिवारी विभाग पदे पदे अतियारो विनास पाणं थूलप्पमाये गहिते संववहारेतेपि वा सया ण कयविक्कयस्स दिवे २ परिमाणं करोति जं धरन्तिण न करेंति । तस्स य पव पखातिति आरंपरिमादमाहादि एप पदेसु विभा सियच्वं । जधाविहं एत्थ नावणा “जह १ अप्पो लोभो, जय अप्पो परिग्गहारंजा । तह २ सुई पवनुति, धम्मस्स य होति संसिद्धी " धन्ना परिग्गदं उजि-ऊण मूत्रमिह सत्र पावां | धम्मचरणपवन्नो, मणेण एवमविचितेज्जा" आ. चू. ६अ. धनधान्यक्षेत्र वास्तु, रूप्यं स्व च पञ्चमे ॥ गोमनुष्यादिकुष्यं चे स्पेषां संख्या व्यतिक्रमः ॥ ४७॥ धनं धान्यं वास्तु रूप्यं सुवर्ण गोमरिष्यादिकुप्य सेति पचानां संख्या यावज्जीवं चतुर्मासादि काढावविपत्परिमाणं गृहीतं तस्य ये अतिक्रमा उल्लंघनानि ते पञ्चमे पञ्चमावतेऽ तिचारा ज्ञेयास्तत्र धनं गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदाच्चतुर्धा यदाद "गणिम गफार परिमं तु कुमार मे चोप heaters, रवत्याश्परिच्छेज्जं ॥ १ ॥ धान्यं चतुर्विंशतिधा व्रताधिकार एवोक्तं सप्तदशधापि यतः " सालि १ जव २ वीहि ३ कुदव, ४ रालय ५ तिल ६ मुग्ग ७ मास ८ चवल चणा १०। तुवरि ११ मसूर १२ कुलत्या १३ गोधूम १४ निष्पा व १५ अयसि १६ सिणा ॥ १७ ॥ धनं च धान्यं चेति समाहारः । अत्र च समादारनिर्देशात्परिभ्रस्य पानातिचारपञ्च सुयोग्य भवति वास्तुवेति समाहार न्द्रः तथा रूप्यं रजतं घटितमघटितं चानेकप्रकारमेवं सुवर्णम पि रूप्यं च स्वर्ण चेति समाहारः गावश्च मनुष्याश्चेति गोमनु ध्यं तदादि र्यस्येति समासः गवादिमनुष्यादि चेत्यर्थः । तत्र गादि गोमयमेषाधिककरनसरन संयश्वादि मनुष्यादि पु त्रकलत्रदासदासीकर्म करशुकसारिकादि, तथा कुप्यं रूप्य स्वर्णव्यतिरिक्तं कांस्य सो इतानसी सत्र पुमुद्भाएकत्वाविसार विकारो कि काम फम चिकामसूरकरयशकट दजादिदोष स्काररूपमिति यच्चात्र क्षेत्रादिपरिग्रहस्य नवविधत्वेन नव संगति पञ्चसंख्यात्वमुक्तं तत्सजातीयत्वेन शेषमंदानामयन्तीयात् शिष्यतस्य च प्रायः सर्वत्र मध्य मगतचितत्वात् पञ्चकसंख्या तिचारपरिगणनमनुचि तमतो धनधान्यादिसंख्यवातिकाराणां गुणानामुपपन्नमिति इच्छालोन धर्म बिन्डुवृत्त । ननु प्रतिपन्नसंख्या तिक्रमा भङ्गा एव स्युः कथम तिचारा इत्यत आह ॥ बन्धनाद्योजनात् दाना-गर्जतो जावतस्तथा ॥ कृतेच्छापरिमाणस्य न्याय्याः पञ्चापि न धर्मी बन्धनात् योजनात् दानात् गर्भतो भावत इत्यमी गृहीतसंस्वातिक्रमाः पापाका अपि परिमाणस्य प्रतिपन्नपञ्चमव्रतस्य श्रावकस्य न न्याय्या न घटमाना व्रतमापितुयात् । अयं भावः । न साहात्संख्यातिषमः किन्तु व्रतसापेकस्य बन्धनादिभिः पञ्चभिर्हेतुभिः स्वबुद्ध्या व्रतभङ्ग मकुर्वत एवा तिचारा भवन्ति बन्धनादयश्च यथासंख्येन धनधान्यादीनां परिग्रहविषयाणां संबध्यन्ते तत्र धनधान्यस्यबन्धनात् संख्यातिक्रमो यया कृतधनधान्यपरिमाणस्य कोऽपि लभ्यमन्य धनं धान्यं ददातितनुर्मासादिपरतो गृह गतधनादिविकये वा कृते ग्रहीष्यामीति नावनया बन्धनात् नियन्त्रयात् रज्ज्वादि संयमनात्सत्यं कारदानादिरूपाद्वा स्वीकृत्य तद्गृहे एव स्थापयतोऽतिचारः ॥ १ ॥ तथा क्षेत्र वास्तुनो योजनात् षयास्त्वन्तरमनाद संख्या मो या नवति तथाहि कित्रैकमेव क्षेत्रं वास्तु केवभिग्रवतो किरनिवासात् प्राथनादियासद्गृहीत्वा स तस्यैकत्वकरणाय वृत्तिनीत्याद्यपनयने च तत्तत्र योजयतीमत्वात्कर्यविधिरतियाच नाचाविचारः ॥ २ ॥ तथा रूप्यस्वर्णस्य दानाद्वितरणादूगृही तसंख्यायाः अतिक्रमः । वया केनापि चतुर्मासाद्ययाधना रूप्या दिसंख्या विड़िया तेन च तुष्यादेः सकाशादधिकं त तथान्यस्त्रे मतभङ्गभवात् ददाति यदीष्यामीति नायनयेति व्रतसापे कृत्वात्कर्यचिद्विरतिबाधाच्चातिचार इति ॥ ३ ॥ गोमनुष्य देत संख्यातिमो यथा किस केनापि संसदचतुप्पदानां परिमाणं कृतं तेषां च संवत्सराम पव प्रसर्वधिकद्विपदादिभाषाङ्ग स्यादिति तद्भयात्कियत्यपि काले गते गर्भग्रहणं कारयतो गर्नस्वपिदादिभावेन बहिर्गततदजावेन च कथांचंदू व्रतभङ्गादतिचारः ॥ ५ ॥ कुप्यस्य नावतः संख्यातिक्रमो यथा कुप्यस्य या संख्या कृता तस्याः कथंचिदू द्विगुणत्वे भूते सति व्रतनङ्गप्रयात्तेषां घयेनैकैकं महत्तरं कारयतः पर्यायान्तरकरणेन संख्यापूरवात् स्वाभाविक संख्यावाचनाचा तिचारः । प्रत्ये त्वाहुः तदर्थित्वेन विवक्तिकालावधेः परतो हमेतत् करोटिका दिव्यं ग्रहीष्यतो नान्यस्मै देवमिति परामदेवतया व्यव स्थापयतोऽतिचारः । नामत उक्ताः पञ्चातिचाराः॥ घ०२अधि । इच्छापरिमाणाकइ - इच्छापरिमाण कृति - स्त्री० इच्छाया लाषस्य यत्परिमाणमियत्ता तस्य कृतिः करणं इच्छापरि माकृतिः । पञ्चमेऽणुव्रते, ध० २ अधि० ( तषक्तव्यता इच्छापरिमाण शब्दे ) इच्छामि ( मे ) त इच्छामात्र न० अभिप्रायमात्रे, सूत्र १० ७ अ० । इच्छामुच्छा इच्छा मूर्ग - स्त्री० इच्छा च परधनं प्रत्यभिलापः गादाभिषङ्गरूपा तरुतुकत्वाददत्तप्रहणस्पति शासनविंशेऽधर्मारभेदे प्रश्न०पा०| इच्छालीन इच्छानो पु० अनिता सावासी - भश्च शच्छाबोभः । युक्तयुक्तोऽतिद्युक्तो यथा । महालोने, Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छालोनिय अभिधानराजेन्द्रः। इटाल "इच्छालोनो त उवहिमरेगोत्ति" स्था०६ ग०। “श्च्ा दरख्यापनाय चैवं निर्देशः । झा० १ अ० । "इच्छियमेयं देवासोनं न सवेज्जा"। इच्छारूपो बोनः इच्छानोभश्चक्रवर्तितच्या एप्पिया पमिचियमेयं देवाणुप्पिया इच्छियपमिच्चियमेयं निझाषादिको निदानविशेषस्तमसौ निर्जरापेकी न सेवेत देवाणप्पिया" इच्चियमेयंति ईप्सितं तत् पमिजियमेयंति प्र. सुरार्किदर्शनमोहितो ब्रह्मदत्तवन्निदानं न कुर्यादित्यर्थः ।आचा० तीष्टं युष्मन्मुखायसदेव गृहीतमिचियपमिनियंति उन्नय१श्रु०० अ०००।"श्चगसोने मोत्तिमम्गस्स पनिमंधू धर्मोपेतम् । कल्प० । आहारोवहिदेहेसु इच्छगनोभे उ सज्जई" स्था०६ ग० । शच्छियव्य-ईप्सितव्य-त्रि० सर्वैरपि मुमुश्चनिरीप्स्यते प्राप्तुमइच्गोलिय- इच्छालोनिक-त्रि इच्छासोभो यस्यास्ति र्थ्यत श्तीप्सितव्यः। व्यवहारे, । "तत्तोय इच्चियब्वे, आयारे स इच्गमोनिकः। महेच्छे, अधिकोपधौ, स्था०६ ग०(श्रस्य चेव पवहारे" व्यवहारस्यैतान्येकार्थिकानि । व्य०१०। मुक्तिमार्गपरिमन्यत्वं पत्रिमंयशब्द) एष्टव्य-त्रि. इषुवाञ्गयाम् तव्य ।प्रार्थनीये, । आव०४० इच्छासोल-इच्छालोल-पु० इच्छा अनिझाषः सा चासौ बोन इज्जंजलि-इज्याञ्जनि-पुण्यजनमिज्या इत्यर्थः तद्विषयो जनश्वेच्गलोस्रो महानोन इत्यर्थः यथा निझानिजामहानिति । अधिकोपकरणादिमेलनलकणे महासोभे, "श्च्याझोलेय नवहि स्याञ्जलिः ज्याञ्जनिःयागदेवतापूजावसरनावीति दृदयम् । मतिरागात्" इच्छासोबस्तु स उच्यते यल्लोभानिजूतत्वेनोपधि अथवा यजनमिज्या पूजा गायत्र्यादिपाठपूर्वकं विप्राणां समतिरिक्तं गृह्णाति इति । " इच्छालोले मोक्खमम्गस्स पशि ध्यार्चनमित्यर्थस्तत्राञ्जलिः इज्याञ्जलिः अथवा देशीयभा. मन्थू" इच्छालोलो मोकमार्गस्य प्रतिमन्युः स च "इच्छामो षया ज्येति माता तस्या नमस्कारविधौ तद्भक्तैः क्रियमाणः सेयनवहिमतिरेगा बहुओतिविहं च तहिं अतिरेगे जे जणिय करकुडानमीबनकणोजनिरिज्याञ्जनिः । यागदेवतापूजादोसा" वृ०६०। घप्तरभाविनि जनाञ्जनौ, विप्राणांगायत्र्यादिपारपूर्वकसन्ध्या इच्चिय-इच्छित-त्रि०च्या संजाता ऽस्येति इच्छितः तारका चनविषयके जवाञ्जली,-मातुनमस्कारार्थन्वद्भक्तैः क्रियमाणे करकुङाझमीमने च । अनु०। ( कुप्रावचनिकभावावश्यक दित्वादितम् । स्पृहायुक्त, । पाच. मधिकृत्य व्याख्यातम् ) ईप्सित-त्रि० आप सन् क्त०। मनोवाभिते, तं०। पं० चू। इज्जति-इयन्ती-स्त्री० आगच्छन्त्याम्-" दिव्बसो सिरिमि जं०। पं०मा० । ज्यो । ज्ञा०। “च्चियमेयं देवाएप्पिया" | शति-कल्प०। क्रियाफोन प्राप्तमिटे, कर्तुरीप्सिततमं कर्म जंति, दमेन पमिसेहए"-दश००५उ । पा" निर्वृत्त्यश्च विकार्य च प्राप्यञ्चेति त्रिधा मतम् । तच्चप्सि इज्जा-ज्या-स्त्री० यजनमीज्या यज-नावे क्या स्त्रीत्वादाप् । ततम कर्म, चतुर्कीन्यत्तु कल्पितम्" भर्तृ० इच्छाविषये, वाचण यागे, (देवपूजायाम) अनु० पूजायाम, स्था०१०ग । भ० । इच्चियकामकामि (न्)-इप्सितकामकामिन-त्रि. ईप्सितान औप० । यजनभिज्या पूजा गायच्यादिपारपूर्वके विप्राणां मनोवाञ्चितान कामान् शब्दादीन् कामयन्ते अर्थात् नुज्यन्ते सन्ध्यार्चने, देशीभाषया मातरि च । अनु० । यजेर्दानार्थत्वा श्त्येवं शीला येते तथा ईप्सितकामकामिनः । मनोवामितश त् ५ दाने, संग्रामे च । कर्मणि क्यप् ४ प्रतिमायाम, ५ ब्दादिविषयजोक्तरि, "च्छिय कामकामिणो ति"जश्वक. | कट्टिमन्याञ्च । जके, अमरावाच । इच्छियत्य-ईप्सितार्थ-पु० मनोवाञ्चितेऽर्थे, पं० ना० "सुत्तत्य शजिस-ज्यैष- त्रिज्यां पूजामियत्येषयति वायःसज्यै पः। णिज्जरानो मोक्खो वा चियत्थोत"-पं० ना० । एवं गुण पूजाभिलाषिणि,-ज०ए० ३३० ज्यां पूजां स्वन्त्येषयजुत्तो विशेष्यः ईप्सितानाननुप्राप्नोति सभत इत्यर्थः । न्ति था ये ते ज्येषास्त एव।स्वार्थ इकप्रत्ययविधानादिज्यपं० च। षिकाः । पूजाभिलाषिणः,-भः । इजियमच्चिय-इच्चितप्रतीच्छित-त्रि० श्च्छासजाताऽस्ये इक-इन्ध-दीप्तौ-रुधा-प्रा० अक-सेट्-निष्ठायामनिद वर्तमाति इच्छितं प्रतीच्या संजाताऽस्येति प्रतीचितम् इच्छितं च ने चातो निष्ठा । वाच. इन्धौ का-इति-प्रा-सूत्रण संयुक्तस्य का तत् प्रतीचितं च इच्चितप्रतीचितम् । इच्छाप्रतीच्यो- इत्यादेशः । इज्जश्-इन्धे-प्रा व्या० २ पा०प०। प्रयधर्मे, । "शजियपमिच्छियाएण" इच्छाया अवग्रह । इकमाण-इध्यमान-त्रि० दीप्यमाने, पुवावरदाहिमुत्तराग चितप्रतीच्छितेन इच्छितप्रतीभितम् आनवनव्यवहारस्था पहिं वा पाहि मंदाय मंदा इमे इज्झमाणा, इति । राज.॥ पना यथा यत्पयि तन्यते तदस्माकं यद्ग्रामे तत् युष्माकम यदिवा यत्सचित्तं तदस्माकं यदचित्तं तयुष्माकम् । अय इट्टगा-इष्टका-स्त्री० इष तकन् टाए । इटिका पितृदेवत्ये इति वा या स्त्रीवतग्रहणार्थमुपतिष्ठति सा अस्माकं पुरुषो युप्मा नियमानत्वम् । (ईट) मृदादिनिर्मिते मृतखामदे, दारत्तिनु कम् । यद्वा यात्रा युप्माकं वृद्धोऽस्माकम् । अथवा यः साथ- वारं भमति तं पुब्बकयमिट्टगार्हि वक्ष्य मुग्धामेति । नि० चू० १ न सह बजतां बानः सोऽस्माकं अस्माकं सार्थे युष्माकम्। यदि जापिं "पयावह दृकाओममघरटुयाए" पाचयत चेष्टका वा-यो यवनते तत्तस्यैव एवं जूतेनीच्छतप्रतीचितेन य पान गृहार्थमिति । प्रश्न०२द्वा०॥ वनव्यवहारः स इच्छाया अवग्रहः । व्य. द्वि०४०। ईप्सितप्रतीप्सित-त्रि० ईप्साप्रतीप्सोनयधर्मोपेते, । झा०१अ. इट्टगापाग-इष्टकापाक-पु. इष्टकापचने, पिं०॥ इष्टप्रतीष्ट-त्रि० इच्छाप्रतीच्गेभयधर्मोपेते, " इच्चियमेयं पकि इट्टा-टा-स्त्री स्यानुस्ट्रेयासंदष्टे अश्पा ।इति प्रा० सूत्रेण जियमेयं इच्चियपमिरियमेयं ” इच्चियंति-इष्टां ईप्सितं श्ष्टा शब्दस्य निषेधान्न प्रा०टिकायाम, स्था० मा चा पमिच्छियति प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा अन्यपगतमित्यर्थः । इट्टान-इट्टान-न० टकायाम, "होज कटुसिवा वि इट्टालं इष्टप्रतीप्रमीप्सितप्रतीप्सितं वा । धर्मद्वययोगातू-अत्यन्ता-] वा वि एगया वियंसं कमट्ठाए, तं च होज चनाचतं ६५" Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटावाय अभिधानराजन्षः । इति भवेत् काष्ठं शिवा वापि इट्टाझं वाप्येकदा एकस्मिन् काले प्रा- इट्टाफलासिफि-इष्टफनामिछि-स्त्री. अभिमतार्थनिप्पत्ती, पं. वृक्षादौ स्थापितं संक्रमार्य तश्च भवेश्चयाचझमप्रतिष्ठितं नतु चा०४ विवः । अविरोधिफलनिष्पत्ती, ब०॥ स्थिरमेवेति सूत्रार्थः । दश०५ अ०॥ इहरूब-इपृरूप- वि० श्ष्टस्वरूपे, “सुबाहुकुमारे २२ रुवे"। इट्टावाय-इष्टापाक-पु०३एकायाः पचनस्याम,-'इट्टा वाए वा।। विपा० अ०१श्रु.॥ स्था ग ॥ इहवं-इष्टवत्-त्रि यज-श्ष्क-वतु-स्त्रीयांङी । यजनकर्तरि, इट्ठ-शष्ट-त्रि. इष्यते स्म प्रयोजनवशात् अर्य क्रियार्थिनिरिती- वायुक्ते च । इष्टकर्मकर्तरि, त्रि० स्त्रियां कीए । वाच॥ धः । स्था०२ ग० विपा। औप.भ.जाण कर्मणि | श्टसह-इष्टशब्द-पु० वीणादिसंबन्धिनि शब्दे, वीणादिसंबन्धातः । एस्यानुप्लेष्टासंदष्टे ०२पा० । शति-प्रा० सूत्रण : | वन्तीष्टाः शब्दादयः इति । प्रज्ञा०२३ पद ॥ प्रा० व्या अभिप्रेते, “आरंज मिझोज्जति पासवाय"--यथा| इसिधि-इष्टसिधि-स्त्री० अभिमतानिप्पत्ती, "सोउ मंगवसई रम्नस्तयाऽवाय कर्मोपादानायष्टोऽभिप्रेत ति । ०३ सुणंमि जहा उ सिधित्ति"श्रुत्वाकर्ण्य मङ्गमित्येवरूपो उ०।अभिमते, प्रश्न०३द्वा०विशे०पंचागषो ।अनिया- मङ्गननूतो वा विजयसिद्धयादिशब्दो मङ्गप्रशब्दस्तं शकुने पणीये, आव०४ अाअभिलाषाविषयभूते, ज्ञा०० अ० अभी शकुनविषये यथा तु यद्वदेव श्ष्टसिद्धिराभिमतार्थनिष्पत्तिनवपिसते, जी०३प्रति । अविरोधिनि,-नाश्च्याविषये, तं०। ति। पंचा०४ चिव०॥ राज० । मनस इच्छामापने, जी०१प्रान्छियमनःप्रमोद ट्ठसुय-इसुत-पु०वखने पुत्रे,-"श्ठसुयं पेखिकण की लं" 4. दायिनि,-द्वा०१० द्वा०ाईप्सिते,पंचा०१२ विधः । योग्ये,। चा०७विव०॥ विशे० । वडने, प्रिये, औप० । अष्ट० । झा० । नि० 1 पंचा। "स्ट्रेहि कंतेहि य विप्पहणा-" सूत्र०१थु ५०१ श्टस्सर-इष्टस्वर-पु० वद्धभस्वरे,-प्रज्ञा०१३ पद ॥ १०। विहित, उत्त०१६ ०। इञ्च इच्छाविषयः तश्च इसापुत्त-इष्टापत-न० श्ष्टं च पूर्त वक्ष्योः समाहारचन्दः । पृषो. द्विविधं गौणं मुख्य च । तत्रश्तेरच्यानधीनच्या विषयो मुख्यं त दरादित्वात् पूर्वपदस्य दीर्घः । इष्टशब्दोक्ते ऋविम्भिरिति द्वाधनं गीणम् । तत्र मुख्य मिष्टं सुख पुःखानावश्च । तदिच्छाया सक्तेि दाने, “वापीकपतमागादि-देवतायतनानि च। अन्नइतरेगनधीनत्वात् । तत्साधनं पाकनोजनादि गौणं सुखं प्रदानमाराम-पूर्तमित्यभिधीयते” इति । पूर्ते च । प्रति. पुःखाजावेशयैव तदिच्छायः समुन्मेषात् । अनिष्टमिष्टमिश्र- वाच । इष्टापूर्तविणपुरुषत्वानभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोश्च प्रिविधंकर्म चोच्यते । इच्या कल्पिते,-"इट्रकृतिरष्टगुणि- पहतमना खरूयते-इति " प्रयाप्त मन्यमाना वरिष्टं नान्यता व्येकासिता विनाजितेष्टेन" लीला- । वाचः । यज् नावे क्त- यो योनिनन्दन्ति मूढाः । “नाकस्य पृष्ठे तेन सुकृतेन भूत्वा यज्ञादौ,न आव० १०। प्रा० म०प्र० । कणिक्त-पूजि श्मं लोक हीनतरं वा विशन्तीति वचनात, स्या०१५ श्लो। ते,-प्रौप० । परएमवृक्के, पु. संस्कारे, न० । वाचा ऋत्वि- " स्तोकानामुपकारः स्यादारम्नाद्यत्र नूयसां तत्रानुकम्पा भिमन्त्रसंस्कारै-ाह्मणानां समकतः। अन्तर्वेयां हि यइत्त न मता यथेष्टापर्तकर्मसु ।" द्वा० १वा ! इष्टापूर्त न मोकाङ्गं मिएं तदनिधीयते । १। द्वा० १द्वा०। प्रति। "एकाग्नि सकामस्योपवर्णितम् । प्रति। कर्म हवन त्रेतायां यश्च दयते । अन्तर्वेद्याञ्च यहत्तमिष्टं तद- टावत्ति-उछापत्ति-स्त्री० ६ त० कमेधा वा। इष्टस्यापत्ता, भिधीयते” जातुकर्णोक्ते धर्मकार्ये, न-। “इष्ट दत्तमधीत वा | इष्टायामापत्तौ च । वादिना दर्शितापत्तेः प्रतिवादिन इष्टविमृश्येत्यनुकीर्तनात्"-देवतः । ज्ञानतोषिते, । वाच । त्वे हि सा जवति इष्टापत्तौ दोषान्तरमाह । वाच०। गंध-इष्टगंध-पु० कर्मधारयः । सुगन्धी, श्यो गन्धो ऽस्य ।। शमिक-मिक-पु. वननवे गगे, हेम । अपवृषे, चासनीगसुगन्धिव्ये, त्रि० वाझुकायाम,न मेदि ज्ञापंचा। दितशिरा मिथाधिरूढवान् । प्रा०क०। प्रो० । वाभिते, । पंचा, १२ विव० । औ०। इति (कि)(रिकि)ऋषि-स्त्रीऋध्भावे-क्तिन् । इत्कृश्तत्तदंसणवाइ [-]-इष्टतत्त्वदर्शनवादिन-पु० षौक भेदे, ब०। पादौ अ०२ पा० । इति प्राकृतसूत्रेणेत्वम्-प्रा०॥रिकेव घट्टतर-सष्टतर-त्रि० अन्नीप्सिततरे, । " तेणं किएहमण। पत्तो सस्य अ०१पा० । इति सूत्रेण रिश्त्यादेशःप्रा० । कार्कि ट्यपए चेव"। ते कृष्णमय पति जीमूतादेरिएतरका मु ऽन्ते वा। अ०१पा। शतिसूत्रेण वा ढः। तपोमाहाएवं कृष्णेन वर्णेन प्रतीप्सिततरका एवेति । राज । जी० । त्म्यरूपायामामोषध्यादिकायां अब्धी, (सम्पदि) उत्त०३० इट्ठपुर-इष्टपुर-न० श्ष्टं पुरं पत्तनमिष्टपुरम् ॥ श्ष्टपत्तने,- "अम दश । स्या० । नं० । विशे० । आचा। आ० ० । षो० विसपशवायं, वोयत्ता देसोवदेसेण । पावंति जहिदपुर भवा- (ऋभिनेदाः सब्धिशब्दे व्याख्यास्यन्ते-अस्य विस्तरतः सर्वे मबि पितहा जीवा" अटवी प्रतीता सप्रत्यपायां व्याघ्रादिप्रत्य- नेदाः सकिशब्दे ऋबहुवतता समिकि शब्देऽपि)"नार्थ पायबहुलाम् (बोलता ) अवध्य देशकोपदेशेन निपुणमा- नणं पर सोए, विवावि तवस्सियो । अदुवा वंचिओ मित्ति, गझोपदेशन प्राप्नुवन्ति यथा जटपुरमिष्टपत्तनम् । आमद्धि। २२ भिक्खू न चिंतए” । नत्त० ३ ०। इटफन-इष्टफल-त्रि०टं वाश्चितं फलं साध्यं यस्य तदिष्ट- ऋहिर्वा तपो माहात्म्यरूपा अपिः परणे कस्य तपस्विनःसा फलम् । वाचितसाधक, अजिमतऽर्थे, ईप्सितेऽर्थे च । पंचा० च आमर्षीषभ्यादिःपादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधवः कणा विव०।४ अविरोधिनि फले, बा। कुयुः त्रिभुवनविस्मयं जनानू दयुः कामांस्तृणाग्राद्वा "धर्मा द्रत्नामिश्रित-काञ्चनवर्यादिसर्गसामर्थ्यम् । अद्भुतनीमोरुघट्टफझसाहग-इष्टफनसाधक-त्रि०ईप्सितार्थ निष्पादक,पंचा० शिनासहस्त्रसंपातशक्ति"श्चत्यादिका च तस्या अप्यनुपनज्य विवा। मानत्यादितिजावः। उत्त०३ अगईश्वरत्वे, "णेगविहारहीरो Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। इथिअप्पवण गविहात्तणाणप्पगारा का तापवीत्रो कृित्ति इस्सरियत्तं कोष्ठागारं धान्यगृहमित्यर्थः तेषांतान्यवधा ऋझिा सा तथा तं पुण विज्जामंतं तवोमंतं वा विठवणागासगमथविनंगणा सचित्तादिका पूर्ववद्भावनीयेति ॥५॥झाना:विशिष्भुतणादि ऐश्वर्यमिति- नि० चू० १ ० । स्था॥ नरेन्द्र पूजा- संपत्-दर्शनर्हिः प्रवचने निश्शङ्कितादित्वं प्रवचनमजावचार्यत्वादिके, स्था० ३ गई। शक्ती, । न०१० श० ३ ० कशास्त्रसम्पद्वा । चारित्रर्कि: निरतिचारता ।।६॥ सचित्ता आत्मशक्तौ प्रव०१४दा चक्रवर्तिमप्यधो नयेदित्यादिकायां शिष्यादिका अचित्ता वस्त्रादिका मिश्रा तथैवेति इहच विकुर्वा विकरणशक्तौ," अप्परएमहलिए" ऋभिर्विकुर्वाणा तया स- णादि ऋरूयोऽन्येषामाप भवन्ति केवलं देवादीनां विशेषवहित इति । उत्त० १ ० ॥ सम्पत्ती, पंचा० । “वीण त्यस्ता इति तेषामेवोक्त इति । स्था० ३ ग. मूत्रमेसो" सीनां सम्पदां ममिव मूर्ख कारणमेष धर्म देवानामृख्यो यथा ॥ शति। पंचा०विवा परिवारादिके, प्रज्ञा०२पदा०।ओ० सोधम्मीसाणं देवाणं करिसगावीपमत्ता? गोयमा! स्या वस्त्रसुवर्णादिसम्पत्ती, । विपा० ३ भादशा। महिलिया महज्जुया जाव महानागा ही परमत्ता सम० । स्था० । प्रतूतवलपात्रादिके, स्था० ५ ० । राज्य- जाव अच्चुओ गेवेजअणुत्तरा य सब्वे महि क्रिया जाव श्वर्यादिके, आतु। वितूती, आव०४० स्था० । विमान सचे महाजावा अणिद्दा जाव अहमिंदाणामं ते देवगणा वस्त्रनूषणादिकायां समृकी, स्था०३ ग०। उप० । तृणाप्रा पहाता समणानसो॥ दपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपायां समृगी, उत्त०१ अऋ (सोहम्मीत्यादि) सौधर्मेशानयोर्बदन्त! कल्पयोर्देवाः कर्जेदा यथा-धम्मिी जोगिठी पाविठ्ठी अतिहा भवे श्डी कीदृशा ऋद्ध्या प्राप्ता जगवानाह-गौतम ! महर्डिका यावन्मध०२ अधि॥ हानुन्नागा अमीषां पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् एवं तावद्वक्तव्यं तिविहा इवी पन्नत्तातंजहादेविटी राइट्टी गाणही। यावदनुत्तरोपपातिका देवाः । जीवा०प्र०२०॥ देविकृतिविहा परमत्ता तंजहा विमाणिक विगुब्बिणित्री ___सर्वजीवानां येषु यया शक्तिर्नास्ति तथा आह॥ परियाराणी। अहवा देविठ्ठी तिविहा परमत्ता तंजहा हिंगणेहिं सबजीवाणं णत्यि इति वा जाव पर सचित्ता अचित्ता मीसिया । राइछी तिविहा पहात्ता कमेति वा-तं. जीवं वा अजीव करणयाए अजीव वा तंजहा रमो अइयाणिती रो णिज्जाणिवी रमो जीवं करणयाए एगसमएणं वा दो जासाओ नामित्तए बझवाहणकोस कोडागारिही। अहवा राइसी तिविहा सयं कम वा कम्मं वेएमि वा मा वा वेएमि । परमाणु पमत्ता तंजहा सचित्ता अचित्ता मीसिया । गणिती पोग्गलं वा किंदित्तए वा निंदित्तए वा अगणिकाएण तिविहा पत्ता तंजहा णाणिही दंसणिकी चरित्तिकी समोदहित्तए वाहिया वा लोगंता गमाणयाए। अहवा गणिती तिविहा पत्ता तंजहा सचित्ता (उहीत्यादि)। षट्सु स्थानेषु सर्वजीवानां संसारिमुक्तस्व रूपाणां नास्ति किर्वितिरिति इत्येवं प्रकारा यथा जीवादचित्ता मीसिया ॥ रजीवादिः क्रियते वा विकल्पे एवं यातिः प्रेमा माहात्म्यमित्य(तिविहाहीत्यादि) सूत्राणि सप्त सुगमानिनवरं देवस्येन्द्रा- र्थः । यावत्कारणात् । “जसेवा बनवावीरिपवा परिसदेशतिरैश्वर्य देवहिरवं राज्ञश्चक्रवदिर्गणिनो गणाधिपते- कारपरक्कमेवत्ति" इदंच व्याख्यातमनकश इति नव्याख्याराचार्यस्येति विमानानां विमाननवणा वा झछिः समृहिर्का- यते तद्यथा- ॥जीवं वेत्यादि-जीवस्याजीवस्य करणतायां त्रिंशद्वकादिकं बाहुल्यं महत्वं रत्नादिरमणीयत्वं चेति-वि- जीवमजीवं कर्तुमित्यर्थः१ अजीवस्य वा जीवस्य करणतायां मानर्भिवति च द्वात्रिंशल्लकादिकं सौधर्मादिषु विमानवाहु- (एगसमएणवत्ति)युगपद्वा द्वे जाषे सत्यासत्यादिके नाषितुमिल्यं यथोक्तम् । वत्तीसट्ठावीसा, वारस अट्ट चरो सयसह- ति ३ स्वयं कृतं वा कर्मवेदयामि वा मा वा वेदयाम इत्यत्रश्चास्सा । आरणे बंभोग, विमाणसंखाभवे एसा ॥१॥ पंचा. वशेवदनऽबेदने वा नास्ति बनमिति प्रक्रमोऽयं अभिप्राया नहीं सचत्तउच्चव, सहस्सावंतसुक्क सहस्सारे ॥ सय चनरोप्रा- वावशतःप्राणिनां कर्मणःकपाकपणौस्तो बाहुबलिन श्वापि णय, पाणपसु तिचारणयए ॥२॥ पक्कारसुत्तरं हेही-मेसु त्वनाभोगनिवर्तित ते भवतोऽन्यत्र केवग्निसमुदातादिति परसत्तत्तरं चमकिमए । सयमेगं उपरिमए,पंचव अगुत्तर विमा माणुपुवा खङ्गादिनाब्धिीकृत्य नेमुवासूच्यादिनाविणत्ति ॥३॥ उपनवणं चैतत् नवननगराणामिति वैक्रियकर- दवा दादी परमाणुत्वहानरनिकायन वा समवदग्धमतिसूक्ष्म णअक्कणा शाहिक्रियऋषिः। वैक्रियशरीरैर्हि जम्बूहीपद्वय- त्वेनादाह्यत्वात्तस्यति ५ बहिस्ताद्वा लोकामनतायाम् ६ अनो मसंख्यातान्वा द्वीपसमुझान् पूरयन्तीत्युक्तश्च नगवत्यां चम- कस्यापि लोकतापत्तेरितिजीवमजीवं कर्तुमित्त्युक्तम् ।स्या०६ रेणं ते ! के महिडिएश्त्यादि । परिचारणा कामसेवा त गा। गोचरचर्या नूमिभेदे, यस्यामेकां दिशमनिगृह्योपाभयादृधिः अन्यान् देवान् अन्यसत्का देवी स्वकीया देवीरजियु- निर्गतः प्राञ्जलेनैव यथा समश्रेणिव्यवस्थितगृहपङ्की निकांपज्यात्मानं च विकृत्य परिचारयति इत्येवमुक्तकणेति ॥१॥ रितमन् तावद्याति यावत्पती चरमगृहं ततो भिको गृहन्मेवासचित्ता स्वशरीराग्रमदिष्यादिविषया सचेतनवस्तुसंपद पर्याप्तेऽपि प्राञ्जलयैव गत्या प्रतिनिवर्तते सा ऋद्धिरिति । वृ० चेतना वस्त्राजरणादिविषया । मिश्रा अपंकृतव्यादिरूपा ॥२॥ १० । वृझौ,सम्पत्ती, सिकौ च। (ऋफिदर्शनेन सामायिकअतियानं नगरप्रवेशस्तत्र ऋद्धिस्तोरणहशोनाजनसंम-| बज्यते तत्कथाच दसारणनशब्द) ददिबकणा निर्याणं नगरानिगमस्तत्रऋकि हस्तिकल्प नसा-शविकि ] अप्पवट्टण-ऋठ्यप्रवतन-न० ऋकीनामामी मन्तपरिवारादिका ॥३॥ बझञ्चतुरङ्गबाहनानि वेगसरादीनि | अध्यादीनामनुपजीवनेनाप्रवर्तनमव्यापारणम् । श्रामपौषध्या-- कोशा भाएमागारं कोष्ठा धान्यभाजनानि तेषामगारं गृहं गेहूं। दीनामप्रवर्तने, द्वा०१० द्वा० Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड़िढगारव अभिधानराजेन्द्रः। इत्तर इक्कीगारव-ऋछिगौरव-न ऋद्या नरेन्द्रादिपूजामवणया | मेतानि गुरू म्यादराविषया यस्य सोऽयमृफिरससातगुरुकः । आचार्यत्वादिविकणया वाजिमानादिधारण गौरवम् । ऋरू अथवा पनिर्गुरुकस्तेषां प्राप्तावभिमानतोऽप्राप्तौ च प्रार्थनातोऽ वा गौरवमृद्धिगौरवम् । नावगौरवनंद,-तच ऋद्धिप्रत्य शुभनावोपात्तकर्मभारतया लघुः । ऋफिरससातानामादरजिमानप्राप्तिप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुनोनावो भावगौरवमित्य कारके, ऋद्धिरससातैरनधौ च । स्था ३ ग० ॥ र्थः । स्था० ३ ग०॥ शकिरससायगुरुया उज्जीवनिकायघायर्यानरयाए। शहिगारककाण-ऋषिगौरवध्यान-नाराज्यश्वर्यादिरूपा ऋछि जे नवदिसंति मग्गं कुमग्गमग्गस्सिता ते न ॥ १५ ॥ स्तया गौरवमात्मोत्कर्षरूपं तस्य ध्यानं दशार्णनास्येव ऋछि (शविरसेत्यादि ।) ये केवन अपुष्टधर्माणःशीतनविहारिणः गौरवध्यानम् । अाननंदे, आतु॥ शकिरससातगारवेण गुरुका गुरुकर्माण आधाकर्माद्युपनोगेन इतिपत्त-ऋषिमाप्त-पु. ऋषिरामर्षोषध्यादिबकणा तां प्राप्तः पाजीवनिकायब्यापादरताश्चापरे तेन्यो मार्ग मोकमार्गमाऋभिप्राप्तः प्रामपोषध्यादिवशणामृझिम्प्राप्ते, । न० । ऋकि त्मानुचीर्णमुपदिशन्ति तथाहि शरीरमिदमाचं धर्मसाधनमिति मत्वा कानसंहननादिहानेश्वाधाकर्माद्युपनोगोपि न दोषाये श्व प्राप्नोति प्रथमतो विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वार्थप्रतिपादकश्रुतम- त्येवं प्रतिपादयन्ति । तश्चैवं प्रतिपादयन्तः कुत्सितमार्गास्तीवगाहमानः श्रुतसामर्थ्यतस्तीव्रतीव्रतरशुजनावनामाधिरोहन्न र्थकरास्तन्मार्गाश्रिता भवन्ति तु शब्दादेतेऽपि स्वयूथ्या एतदुपप्रमत्तः सन् । उक्तश्च"अवगाहतेच स श्रुतजाधिप्रामोति चा दिशन्तः कुमार्गाश्रिता भवन्तीति किं पुनस्तीथिका इति। सूत्र वधिज्ञानम् । मनसः पर्यायं वा ज्ञान कोष्ठादिबुझिर्वा" इति ।। नि०१श्रु० ११ अ०॥ प्रज्ञा० २१ पद ।। प्राप्तर्कि-पु० आमर्कषभ्यादिका ऋकिः प्राप्ता यैस्ते प्राप्तयः | इक्विविनूसा-ऋषिविजूषा-स्त्री. ऋच्या सत्कारेण निर्यामि प्राप्तामषिध्यादिके, "इहीपत्ते य वोहामि" इह गाथानङ्गन तायां विभूषायाम, "डिविनूसा य परिकम्मे" किसकारणे याद्व्यत्ययोऽन्यथा निष्ठान्तस्य बहुब्रीही पूर्वनिपात एव भव निजामिया विनूसेति । आव ५ अ०॥ तीति । विशे॥ शसिंजुत्त-ऋछिसंयुक्त-त्रि ऋच्यो नानाप्रकारा पामर्षीशविपत्ताणुप्रोग-ऋछिमाप्त्यनुयोग-पु० प्राप्तामषिभ्यादिक- पध्यादयो अब्धयस्ताभिःसंयुक्तःसमन्वितः। आमर्पोषध्यादिबस्य व्याख्याने, विशे०। (तच विस्तरतो अडिशब्दे रश्यम्) | धिसमन्विते, पो. १५ विव०॥ इपित्तारिय-ऋषिप्राप्ताN-पु० आर्यनेदे,-"से किंतं शकिप शठिसकारसमुदय-ऋषिसत्कारसमुदय-पु० ऋफिसत्कारसतारिया बिहा पामत्ता तंजहा अरिहंता चक्कवही बनदेवा मुदाये, "श्वीसकारसमुदपणं मम सरीरगस्स णीहरणं करेह" ऋच्या ये सत्काराः पूजाविशेषास्तेषां यः समुदायः वासुदेवा चारणा विजाहरा" प्रशा०१ पद स्था॥ स तया तेन अयवा झफिसत्कारसमुदायरित्यर्थः । समुदयश्च हिम (त)-ऋछिमन-त्रि ऋषिरामर्षांषध्यादिकासम्पत्- जनानां सज इति । न.१५ श०१० च्या वस्त्रसुवर्णातदेवं रूपा प्रचुरा प्रशस्ताऽतिशायिनीवा ऋफिर्विद्यते येषान्ते दिसम्पदा सत्कारः पूजाविशेषस्तस्य समुझयो यः स तथेति । ऋझिमन्तः । प्राप्तामोषध्यादिऋझिके, । स्था०५ ग० ।। विपा० ३ अ० "मिंणाम ईसरोत्ति" निचू०१५ महाके, “एगे| इसिसिय-शहिमिय-शहिसियत्ति रूदिगम्या इति न०एश० णं हिमंतणं वागिए" ऋकिमत्वे महाकतायामिति, वृ०। ३३१०॥ ३ न० ॥सम्पदुपेते, । दश ७ अतद्भेदा यथा । "पंचविहा इ-एतत्-त्रिविप्रकृष्टवर्तिनि, दे० ना॥ शक्लिमंता मस्सा पम्मत्ता तंजहा अरहंता चक्कवट्टी बसदेवा वासुदेवा भाविया पाणो अणगारा" । नावितः सहासनया इणमो-एतत्-त्रि अदूरवर्तिनि, दे० ना०॥ वासित आत्मा यैस्ते भावितात्मानोऽनगारा इतिएतेषां च ऋ-[इबिह-श्दानीम-अपतत्कालेऽथे, दे० ना०॥ छिमत्वमामोषध्यादिभिः अर्हदादीनां तु चतुणी यथासंभ-इत्त-मत्-प्र० प्रस्त्यर्थ, आश्विलोख्याअवन्तमन्तेत्तेरमणामतोः घमामर्षोषध्यादिनाऽई त्वादिना चेति । स्था०५०२०॥ एशत मतोरित्तत्यादेशः यया-कन्वश्तो माणश्तो'प्रा. "इकिमतं नरिंदस्स, किमतं तु आप्रवे" । ऋफिमन्तं सम्प] अ०२पा० । उपतं नरं दृष्ट्वा किमित्याह । ऋछिमन्तमिति ऋकिमानयमि उत्तर-इत्वर-त्रि०क्षण करप १ पथिके नीचे ३ फरकर्मणि च त्यवमानपेत् । व्यवहारतो मृषावादादिदोषपरिहारार्थमिति ४खएमे-पु० स्त्रियां करबन्तत्वान् ङीप साचानिसारिकायां सूत्रार्यः । दश ७ अ॥ खियाश्च । वाच । स्तोके (अल्पे)अनु। उत्त०नि०० शक्षिमपुत्त-ऋछिमत्पुत्र-पु. राजादौ, -मिपुत्तो वा राजा- अल्पकाले, अल्पकालीने, ध०२ अधि। पंचा० । परिमित दीत्यर्थ इति ॥ नि० चू० १ ० ॥ काये, । प्रव०६ द्वादशाअल्पावस्यायिनि, । "श्यमित्तरा इरिससायगारवपर-ऋषिरसमातगौरवपर-त्रि० ऋच्या शिवित्ती" विषयोपनोगकापर्यन्तभाविनी श्वराऽल्पावस्या यिनी निवृत्तिरिति । श्रा०। इत्वरमलपकानं यावश्चतुर्मासादिषु गौरवमादरस्तत्प्रधाना ऋहिरससातगौरवपरा । दिकालावधित्वनेत्यर्थ शत । पंचा । (श्वरानशनस्य वक्तव्य ऋछिरससातादरप्रधाने, ऋफिरससायगारवपरा बहये ता' अगसण'शाद । चित्राङ्गादिगतस्थापनाया इस्वरत्वं करणाबसा परूवति । प्रश्न हा ॥ 'ग्वणा' शब्द । इन्वर व्रतानि 'वय' शब्दे । श्वरचारित्राणि किरमसायगुरुय-ऋचिरमसातगुरुक-त्रि ऋमिराचार्यत्वा 'चरित' शदे स्थविरकल्पस्यत्वरत्वं 'कप्प 'श) प्रति दी नरेन्द्रादिपूजा रसा मधुरादयो मनोज्ञाः सातं सुख- | क्रमणविशेष च । तच्च स्वल्पकालिक दैवसिकरात्रिकादि । स्था० Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तरकाल अन्निधानराजेन्धः। इत्थिकलेवर ६ ग० । परिक्कमणं देवसि राश्नं च इत्तरियं " इत्वरं नूतः । वाचः । इदं प्रकारमापन्ने, । प्रशा०२ पद। अनेन प्र. स्वल्पकालिकं देवसिकादि इति । आव०४०। कारणेत्यर्थे च । विशे। नक्तप्रकारेणेत्यर्थे, । द्वा०१द्वा०॥ इत्तरकाल-इत्वरकाल-त्रि० । स्वल्पकाले, अनु। पूर्वोक्तप्रकारेणेत्यर्थे, । ७० ॥ इत्तरपरिग्गहा-इत्वरपरिग्रहा-स्त्री०श्वरमपमुच्यते ततश्त्व- | इत्यंथ-इत्यस्य त्रि० इत्थं तिष्यतीति इथंस्यः । श्रा० म.द्विरा रमल्पं परिग्रहो यस्याः सा इत्वरपरिग्रहा श्वरकानं परिग्रहो प्रहा। अनेन प्रकारेण स्थिते, विशे०।" इत्यर्थ च वय यस्याः सा तया काशब्दखोपोऽत्र एज्यः । अथवा इत्वरी- सव्वसो सिके वा हवा सासए" दश०ए०४० ॥ प्रतिपुरुषमयनशीला वेश्येत्यर्थः परिगृह्यत इति परिग्रहा कांच | इत्थि (त्यी) आणमणी-रुयाज्ञापनी-स्त्री. आझाप्यते स्कालं नाटीप्रदानादिना संगृहीता इत्वरी चाऽसौ परिग्रहा । शासम्पादने प्रयुज्यतेऽनया सा प्राज्ञापनी स्त्रिया आझापनी च सा तया पुवकावश्चात्र कार्यः प्रव०७द्वा० । नाटीप्रदानेन | ख्याज्ञापनी स्त्रिया आदेशदायिन्याम्भाषायाम् प्रज्ञा०२ पद । कियन्तमपि कानं दिवसमासादिकं स्ववशीकृतायां वेश्याया | इत्यि (त्थी)कम्म-स्त्रीकर्मन्-नास्त्रियोनरतिरश्च स्तासां कर्म म्, आव०६अग(तां चासेवमानरूपस्य चतुर्थाणुव्रतस्य स्व वशीकरणादिकर्म। स्त्रीणां वशीकरणादिकर्मणि, "परिग्गदि दारसन्तोषस्यातिचार इति 'सदारसंतोस' शब्द) त्यिकम्मं च तं विज्जं परिजाणिया" सूत्र०१ श्रु० अ०॥ इत्तरपरिग्गहिया-इत्वरपरिगृहीता-स्त्री० इत्वरकाझं परिगृ-त्थि- (त्यी) कला-स्त्रीकला-स्त्री० महिलागुणे, ते च हीता कानशब्दसोपादित्वरपरिगृहीता, कियन्तमपिकालं दि- | चतुषष्टिसंख्याकाः । " चोसदि महिसागुणे " जम्बूहीपप्रधसमासादिकं भाटीप्रदानेन स्ववशीकृतायाम् वेश्यायाम ज्ञप्तौ तु चतुष्षष्टिः स्त्रीकलाश्चेमाः । नृत्यम् १ श्रीचित्यं चित्रं आव ६ अध। ३वादि वमन्त्रम् ५ ज्ञानं ६ विज्ञानं ७दएमा जलस्तम्भः ९ इत्तरपरिग्गहियागमण-इत्वरपरिगृहीतागमन-नक्षत्तरमल्प गीतगानं १० तासमानं ११ मेघवृष्टिः१२फआकृष्टि: १३ तन्त्रम् ॥ कालं भाटीप्रदानतः कनचित्स्ववशीकृता धेश्या तस्यां गम- बारामगोपनम्१५आकारगोपनं१६धर्मधिचारः१७ शकुनसारः नम् । ध०२ अधिक जाट प्रदानेन कियन्तमपि कासं दिवस- १० क्रियाकल्पः १५ संस्कृतजल्पः२० प्रासादनीतिः२१धर्ममासादिकं स्ववशीकृतायां मैयुनासेवने, । आव० ६ ० ॥ रीतिः २२ वर्णिकावृषिः२३ स्वर्णसिकिः २४ सुरभितन्त्र (चतुर्थाणुव्रतरूपस्वदारसंतोषस्यायमतिचार शति 'सदार करणं २५ बीमासंचरणं २६ हयगजपरीकणं २७ पुरुषस्त्रीसंतोस' शब्दे) सकणं २० हेमरत्ननेदः२ए अष्टादशलिपिपरिच्छेदः ३० इत्तरवास-श्त्वरवास-पु०स्तोकनिवासे, "इह जीवियमवपास तत्काझबुझिः ३१ वस्तुसिद्धिः ३२ कामविक्रिया ३३ वैद्यकहा, तरूणे एव वाससयस्स तुट्टत्ती । इत्तरवासे य बुज्मह,गि क्रिया ३४ कुम्भन्नुमः३५ सारिभ्रमः ३६ अञ्जनयोगः३७चूर्ण कनरा कामेसु मुधिया" || 0 | साम्प्रतं सुबहप्यायुर्वर्षशतं योगः ३० हस्ताघवं ३९ वचनपाटवम् ४० भोज्यविधिः४१ तञ्च तदन्ते त्रुट्यति । तच्च सागरोपमापेक्कया कतिपयनिमेष वाणिज्यविधिः४२ मुखमएमनं ४३ शानिखाएमनं ४४ कथाकप्रायत्वात् श्त्वरं वासकल्पं वर्तते स्तोकनिवासकल्पमित्येव थनं ४५ पुष्पग्रन्थनं ४६ वक्रोक्तिः ४७ काव्यशक्तिः सर्वबध्यध्वं थूयमिति । सूत्र० १७०२ अ० ॥ जाषाविशेषः४ए अनिधानानं५०नूपणपरिधानं ५१जत्योपइत्तरिय-इत्वरिक-त्रि० श्त्वरे स्तोके काले भवमित्वरिकम् चारः५श्गृहाचार:५३ वेशरचनं ५४व्याकरणं ५५परनिकारणं नियतकालावधिके, उत्त०३० अाश्त्वरः स्तोकः कालो यत्रा ५६ रन्धनं ५७ केशबन्धन ५८वीणानादःएएवितएमावादा६० स्ति तदित्वरिकम् । मुइ दिप्रमाण | पंचा० १० विवाश्त्व अंकविचारः ६१ लोकव्यवहारः ६२ अन्त्यावरिका ६३ प्रश्न रोऽपः काझो वत्सर दिर्यस्यास्ति वैयावृत्त्यादरसावित्वरिका प्रहेलिका ६४ शत। अत्रोपनकणामुक्तातिरिक्ताः स्त्रीपुरुष पंचा०विवास्वल्पकालीने, "इत्तरियं णाम थोवं इति" कसा अन्यान्तरे लोके च प्रसिका केयाः। अत्र च पुरुषकमासु नि० चू०२०। (श्त्वरिकाऽनशनस्य वक्तत्यता “अण स्त्रीकानां स्त्रीकबासु च पुरुषकवानां सङ्कयें तनयोपसण" शब्द । इत्वरिकमरणवक्तव्यता 'मरण' शब्दे । श्व योगित्वात् । ननु तर्हि 'चोसाई महिलागणे ति ' अन्य रिकोपधिप्रतिलेखना पमिलेहणा' शब्दे । इत्वरिकसामायिक विरोध उच्यते न ह्ययं ग्रन्थः स्त्रीमात्रगुणण्यापनपरः किंतु वक्तव्यता' सामाश्य' शब्द इत्वरिक वैयावृत्त्यवक्तव्यता स्त्रीस्वरूपप्रतिपादकस्तेन क्वचित् पुरुषगुणत्वेऽपि न विरोधः । घेयावश्च शब्द)॥ काव्यस्यो त.संख्याकत्वं तु प्रायो बहुपयोगित्वादित्य विस्तरेण । ०५वक। इत्तरी-इत्वरी-स्त्री०३त्वरीप्रतिपुरुषमयनशीला।भारीप्रदानेन इत्यि (त्थी) कोवर-स्त्रीकसेवर-न० योषिच्चरीरे, स्तोककानं परिगृहीतायां वेश्यायाम् । पंचा०वि०॥ इत्ति-एतावत्-त्रि० एतत्परिमाण, । एतदः परिमाणे मावत् अव्वंने पुण विरई, मोहगंडा स तत्तचित्ता य । प्रत्ययः । 'यत्तदेतदोऽतोरित्तित्र एतल्लुक च'10।।१५६ इत्यीकलेवराणं, तविरएमुं च बहुमाणो ४६॥ इति प्राकृतसूत्रेण-एतदं नवा मावत् स्थाने इत्तिय अब्रह्मणि स्त्रीपरिजोगवकणे पुनःशब्दो विशेषणे तद्भाधना चैवं गुर्वादिषु स्मरणं कर्त्तव्यमब्रह्मणि पुनर्विरतिर्निवृत्तिःकार्या आदेशः। प्रा० व्या। इत्तो ( इदो)-(ओ) इतस्-अन्य इदम्-तसिब् अस्मा तया मोहजुगुप्सा स्त्रीपरिभोगहेतुवदादिमोहनीयनिन्दा यथा यल्लज्जनीयमतिगोप्यमदर्शनीयं वीभत्समुख्वणं महाविपतिदित्यर्थे ' तो दो तसो वा' ।।११६० । इति प्राकृतसूत्रेण गन्धि तद्याचते कामिकृमिस्तदेवम् । किंवाऽनातिन मनोनवं तसः स्याने तो दो इत्यादेशौ वा । प्रा. व्या० । अस्मिन्नि वा मनसा इत्यादि । तया स्वतत्त्वचिन्तास्वरूपचिन्तनं केषां त्यर्थे च । वाच॥ स्त्रीकोवराणां योपिदेहानां यथा शुक्रशोणितसम्लुतं नवनिकइत्थम-इत्यम-अव्या दम्-यमु-दंप्रकारेण इत्थं नावः इत्थं । 5 मोवणमस्थित्रिकामात्र हन्त यो पिच्चरीरकं तद्विर Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिकहा अभिधानराजेन्द्रः। इत्थिकाम तेष्वब्रह्मनिवृत्तेषु मुनिषु । चशब्दः समुच्चये बहुमानोत्तरङ्ग- इत्थिकह करेंतस्स अप्पणो मोहोदीरणं नवति-जस्स वा करेप्रीतिरूपो विधेयो यथा-धन्यास्ते धन्दनीयास्ते तैयोक्षं पवि. त्ति परस्त तस्स मोहोदारणं भवति-इत्यिकह करेंतो सुओ सोत्रित। यैरेष वनकेशी काममल्लो निपातितः। पंचा०१ विवणा एक बड़ाहो अहो काणोवनत्तातबस्सिणो जाव इश्थिकह करेंत्यि (त्थी) कहा-स्त्रीकथा-स्त्री० स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा तिताच सुत्तपरिहाणी आदिसहातो पत्थस्स प्रोसिंचन संस्वीकथा । स्वीकथाविकथाभेदे, श्यं च कथेत्युक्तापि स्त्री जमो गाणं बंभब्धए अगुत्तीभवति नणियं च "वसहिकहणिसेविषयत्वेन संयमविरुरूत्वाधिकथेति भावनायेति । स्त्रीक जिदिय, कुईतरपुश्वकीशियपणीते । अतिमायाहारविनू-सणा थाया नेदा यथा यणं चबंभगुत्तीओ"एवं अगुत्तीनवति पसंगपवदोसोपसंगइत्थी कहा चउविहा पहाता तंजहा इत्थीणं जाइकहा दोसो कहापसंगाओ वा दोसा भवंति ते य गमणादी गमणं ल णिक्खमई श्रादिसहाप्रो वा कुलिंगी भवति स लिंगग्तिो इत्थीणं कुनकहा इत्थीणं रूवकहा इत्थीण नेवत्यकहा । था आगारि पमिसेवति संजर्ति वा हत्थकम्मं वा करेति ब्राह्मणीप्रनृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा था सा खीकयायां प्रायश्चित्तम् । श्यीणं कहा-इस्थिकहा सा चढजात्या जातेा कथेति जातिकया । यथा-धिक ब्राह्मणी विहा श्मार्धवाभाषे, या जीवन्ति मृता श्व । धन्या मन्ये जनैः जातीकधं कुझकधं, रूवक बहुविहं च सिंगारं । शूलीः पतिसकेप्यनिन्दिता ॥ १ ॥ एव मुग्रादिकुलोत्पन्नाना एता कथा कधिंते, चतुजमला कालगा चतुरो॥११।। मन्यतमायाः यत्प्रशंसादि सा कुत्रकथा । यथा-अहो चौमुक्यपुत्रीणां, साहसं जगतोधिकं । पत्युम॒त्यौ विशत्यग्नी, या जातिमादिया (चवजमबत्ति) चत्तारि जमझा मासप्रेमरहिता अपि॥२॥ प्रान्धीप्रभृतीनामन्यतमाया: रूपस्य विज्जति माससामने किं गुरुगा बहुगा नमति (कामगा) कासगतिगुरुगा मासा तेहिं चाहिं मासेहिं चडगुरुगत्ति यत् प्रशंसादि सा रूपकया। यया-चन्द्रवक्त्रा सरोजाकी, सहीः पीनघनस्तनी। किं झाटी नामतः सा स्या देवाना प्रणियं नवति परिसगा चउगुरुगा चनरोप्रमति नवंति जादमाप उर्सना ॥ ३॥ तासामेवान्यतमायाः कच्चबन्धादि नेप कहाए चचगुरुं, कुमकहाए चलगुरुं, रूवकहाए चमगुरु, सिंगा रकहाए चठगुरु पर्व चरो जातिए तवकाहिं सहगं सेथ्यस्य यत्प्रशंसादि सा नेपथ्यकथेति । यथा-धिङ्नारी कासगुरुं तवे बहुगं रूवे तवगुरुगं कालाई सिंगारे दोहिं वि रौदीच्या, बहुवसनाच्छादिताङ्गअतिकत्वात् । यद्यौवनं न गुरु अहवा चत्तारि जमझा जातिमातिसु भवंति के ते कामगा यूनां, चक्षुर्मादाय प्रवात सदा ॥ स्था०४ग०॥ चरो चगुरुगंति नणियं प्रवति तवकासविसेसो तहेव तत्र जातिकथा-ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमा प्रशंसति द्वेष्टि वा घहवा चतरोति संखा जमखं दो ते य तबकासा ताणि तव कुलप्रसूतानामन्यतमा, रूपकथा आन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमाया रूपं काना जुयमाथि चरत्ति भणियं प्रवति कामगा इति बहुव प्रशंसति “आन्ध्रीणां च धुवं बीबा चलितं भूतले मुखे। पास यणा चउगुरु ताणि चटगुरुगाणि चटरो अमावस्स बक्खा ज्य राज्यनारं स्वं, सुखं स्वपिति मन्मथ-श्त्यादिना फेष्टि वा एगाहा श्मा ॥ तथा नेपथ्यकथान्ध्रीप्रनृतीनामेवान्यतमायाः कथादिनेपथ्यं माति समुत्यातिपिति, वंसकुझं अहव प्रोग्गादी। प्रशंसति होष्टि वा । आव ४ अ० । जाति कथायां ब्राह्मणीप्रभृ. तीनामन्यतमा प्रशंसात द्वेष्टि वा, कुलकथायां पुनरुप्रादिकु बस्याकित्तियरूवं, गतिपेहिति लास सिंगारे ॥१०॥ मप्रसूतां वा । रूपकथा या रूपोद्देशेन विधीयते यथा। “आन्धी माउप्पसादा रूवं भवति जहा सोम एणं एवं जा कहा सा णां रूपसौन्दर्य, कालिङ्ग्या जघनं परम् । लाट्या विससितंचारु जाश्कहा । पिउपसादा रुवं भवति जहा एगो सुवमगारो कर्णाट्यास्तुरतिप्रदा"॥ अथवा निन्दात । मानविकी त्वनाला अव्वत्थं स्वस्सी गणिगाहिं भागिदाङ णिज्जति रितकासे जातेण जाया सा रूवास्सिणी भवति एवं कुमकहा सेस प्या, सराकी रूपवर्जिता । सौराष्ट्री कच्चजातापि, त्याज्या कं । नि० चू०१०॥ धर्भगशेखरा । नेपथ्यं केशचीवरसमारचनरूपं तड़पकया इत्थि (त्थी) काम-स्त्रीकाम-पु० स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीनेपथ्यकथा-यथा । साट्यास्तु कञ्चुकश्चरुरांन्यासीमन्तको कामाः । स्त्रियोपसक्किता वा काम्यन्त इति कामाः स्त्रीकामाः नघः । वेणिबन्धस्तु सौराष्ट्रवाः, कानिङ्ग्या नीविबन्धनम् । ख्यादिविषयेषु मदनकामविषयनूतासु स्त्रीषु कामेषु, शब्दादर्श० ॥ त्थिकहा-पसंसा निंदा सरूवा जहा सा तणुय दिषु च । स्त्रीकामेषु प्रसक्तानान्नरकयातना भवतीति यथातणू सुभगा सोममुही पठमपत्तनयणिवा गुरुयनियंबा जन्न एवमेव ते इस्थिकामहिं मुच्चिया गिधा गढिया यपत्रोहरा सझियगयगमणातिहा करहगई कागसराय ऽबभ गा संबजवरा पिगच्ची धासीसा सुप्भासा धिकीकोनिय इति अज्कोववन्ना जाव वासाई चनपंचमाई उद्दसमाइ वा ग०१ अधि० । आ० चू० । स्त्रीकथा दूरतस्त्याज्या तथा च- अप्पतरो वा नुज्जतरो वा कालं नुंजित्तुं नोगनोगाई “सा तन्वी सुनगा मनोहररुचिः कान्तेक्वणा नोगिनी, तस्या- पविमुत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहू पावाई कम्माई हारि नितम्बबिम्बमयवा विप्रेक्तितं सुभ्रवः । धिक्तामुष्ट्रग उसलाई संसारकमेण कम्मणा से जहा णामए अयतिं मलीमसतर्नु काकस्वरां दुभंगा-मित्थं स्त्रीजनवर्णनिन्दन कथा दूरेस्तु धर्मार्थिनाम" ॥ शत ॥ध०र० । (स्त्रीकथापरि गोलर वा सेनगोलइ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगत्यागस्य ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानत्वं 'बंभचेरसमाहिट्ठाण' शब्दे तनमवश्त्ताइ अहे धरणितलपइहाणे नवा एवमेव 'बंजचेरगुत्ति' शब्दे च) तहप्पगारे पुरिसजाते वजबहुले धृतबहुले पंकबडुले वेरबआयपरमोहुदीरण उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाण।। हुले आपत्तियवहुले दनबहुले णियमिबहुझे साइबहुले बंजबए य अगुत्ती, पसंगदोसा य गमगाइ ॥११॥ । अयसबहुले नसन्नतसपाणघाती काममासे कालं किच्चा Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।६१४) शथिकाम अन्निधानराजेन्द्रः। शत्थिगब्भ धरणितममइवत्ताइ अहे णरगतमपश्हाणे नवइ ॥६॥ सक्तस्यावश्यंभाविनी शब्दादिविषयासक्तिरित्यतः स्त्रीकामतेच विषयासक्ततया एतत्कुर्वन्तीत्येतदर्शयितुमाह (पव प्रहणं तत्र चासक्ताः यावन्तं कामासते तत्सूत्रेणैव दर्शयति। मेव इत्यादि ) एवमेव पूर्वोक्तस्वभावा एवं ते निष्कृपा निर- यावद्धर्षाणि चतुःपञ्चषस्दशकानि । अयं च मध्यमकालो नुक्रोशा बाह्याज्यन्तरपर्षदोरपि कर्णनासाविकर्तनादिनादएक- गृहीतः । एतावत्कालोपादानं च सानिमायं प्रायस्तीथिका पातनस्वभावाः । स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः यदि वा स्त्रीषु प्रतिक्रान्तवयसएव प्रव्रजन्ति तेषां चैतावानेव कानःसंन्नाव्यते यदि वा मध्यग्रहणात्तत कलमधश्च गृह्यते इति दर्शयति । मदनकामविषयनूतासु कामेषु च शब्दादिषु इच्छाकामेषु मूर्चिता गृका प्रथिता अध्युपपन्नाः एते च शक्रपुरंदरादिवत तस्माञ्चोपात्तादस्पतरप्रनूततरो वापि कासो भवति । तत्र च पर्यायाः कश्चिद्भेदं वाश्रित्य व्याख्येयाः । ते च मोगा ते त्यक्त्वापिगृहवासं तुक्त्वा नोगनोगान् इति खीनोगे सति सक्ता व्यपगतपरसोकाध्यवसाया याववर्षाणि चतुः पञ्च अवश्यं शब्दादयो भोगा नोगनोगास्तान तुक्त्वा ते च किल षट् सप्त वा दश पाल्पतरं वा काझं नुक्त्वा जोगासक्ततया वयं प्रचजिता इति न च नोगेन्यो विनिवृत्ताः यतो मिथ्यादृष्टि च परपीमोत्पादनतो वैरायतनानि वैरानुबन्धाननुप्रसूयोत्पाद्य तया ज्ञानान्धत्वात्सम्यग्विरतिपरिणामरहितास्ते चैवंनूतपरिविधाय तथा सञ्चयित्वा सञ्चिन्त्योपचित्य बहूनि प्रनूततर णामाः स्वायुषः कालमासे कासं कृत्वा निकृष्टतपसोपि सन्तो कानस्थितिकानि राणि करविपाकानि नरकादिषु यातना ऽन्यतरेवासुरिकेषु किल्विषिकेषु स्थानेषूत्पादयितारो भवस्थानेषु फकचपाटनशाल्मल्यवरोहणतप्तत्रपुपानात्मकानिक- न्ति। ते ह्यज्ञानतपसा मृता अपि किल्विषिकेषु स्थानेषुत्पत्स्यन्ते माएपष्टप्रकाराणि बकस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थानि विधा- तस्मादपि स्थानादायुषक्कयाष्प्रिमुच्यमानाच्युताः किल्विय तेन च संभारकृतेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तत्कर्मगुरवो वा नर षिकबाहुलास्तत्कर्मशेषेणैलवसूका एसमकास्तझावनोत्पद्यन्ते । कतमप्रतिष्ठानां भवन्तीत्युत्तरक्रिययापादितबहुवचनरूपयेति किल्विषिकस्थानाच्युतःसन्ननन्तरजवे वा मानुषत्वमवाप्य यसंबन्धः । अस्मिन्नेवार्थे सर्वत्रोकप्रतीतं दृष्टान्तमाह ( से थैमूकोऽन्यक्तवाक् समुत्पद्यत इति । तथा ( तस्यत्तायेत्ति) जहा णामपत्ति) तद्यथा नामायोगोलकोऽयस्पिएका शिला तमस्त्वेन जात्यन्धतया अत्यन्ताझानावृततया वा तथा जातिमकगोत्रको वृत्ताश्मशकलं वामदके प्रक्षिप्तः समानसविनतसमति त्वनापगतवाच श्ह प्रत्यागच्छन्तीतिसूत्र०३श्रु०२अगदशा ययातिनश्याऽधो धरणीतले प्रतिष्ठानो जवति। अधुना दाटी | इत्थि (त्थी) कामलोग-स्त्रीकामनोग-पु. स्त्रीप्रधाना त्रिन्तिकमाह (एवमेवेत्यादि ) यथासावयोगोत्रको वृत्तत्वाच्ची योपनकिता वा काम्यन्त इति कामा नुज्यन्त इति जोगाः घ्रमेवाधो यात्येवमेव तथा प्रकारः पुरुषजातः तमेव लेशतो स्त्रीकामनोगाः । ख्यादिकामनोगेषु, स्त्रीकामनोगासक्तानां दर्शयति । वज्रवद्धन गुरुत्वात्कर्म तद्वबस्तत्करणप्रचुरस्त परिणाममाहथा बध्यमानकर्म गुरुरित्यर्थः । तथा धूयत शत धूतं प्राग्यकं एवमेव ते इत्थिकामनोगहि मुच्चिया गिका गढिया कर्म तत्प्रचुरः । पुनः सामान्येनाह पङ्कयतीति पकं पापं तद्वहु- अज्कोववना बुझा रागदोसवसट्टा ते णो अप्पाणं समबस्तथा । तदेव कारणतो दर्शयितुमाह । वैरबहुलो वैरानुब- देंति, ते णो परं समुच्छेदेति, णो अप्लाई पाणाईलूताई न्धप्रचुरस्तथा (पत्तियंति ) मनसो दुष्पणिधानं तत्प्रधानस्त- जीवाइं सत्ताई समुच्छेदेति, पहीणा पुचसंजोगं आयथा दम्नो मायया परवञ्चनं तदुत्कटस्तथा निकृतिर्मायावेष रियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हच्चाए पो पाराए भाषापरावृत्तिमनना परमोहबुछिस्तन्मयस्तथा सातिबहुल इति सातिशयेन भव्येणापरस्य हीनगुणस्य व्यस्य संयोगः अंतरा कामनोगेसु विसन्ना ॥१५॥ सातिस्तद्वहुलस्तस्करणप्रचुरस्तयाऽयशो ऽश्लाघा संत्ततया एवमेव पूर्वोक्तप्रकारेण स्त्रीप्रधानाःस्त्रियोपत्नक्तिता वा काम्यन्त निन्दा यानि यानि परापकारनूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्ते शति कामा तुज्यन्त इति भोगास्तेषु सातबहुलतयाऽजितेतेषु तेषु कर्मसु करचरणच्छेदनादिषु अयशोभाग्भवतीति बियाः सन्तस्तषु कामनोगेषु मुळिता एकीनावतामापना गृ काकाङ्क्कावन्तो ग्रथिता अवयद्धा अभ्युपपना आधिक्येन भोस पवंचूतः पुरुषः कालमासे खायुषः क्वये कालं कृत्वा पृथिव्या रत्नप्रभादिकायास्तसमातिवर्त्य योजनसहस्रपरिमाण गेषु मुब्धा रागद्वेषार्ता रागटेषवशगा कामनोगान्धा वा त पवं कामनोगेषु प्राश्रववकासन्तोनात्मानं संसारात्कर्मपाशामतिमध्यनरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ भवति ॥ ६५ ॥ द्वा समुच्छेदयन्ति मोचयन्ति नापि पर सऽपदेशदानतः कर्मएवमेव ते इत्यिकामेहिं मुच्छिया गिका गढिया गरहि पाशावपाशितं समुच्चेदयन्ति कर्मबंधांनोटयन्ति नाप्यन्यान् या अज्कोववन्ना जाव वासाई चउपंचमाइं उद्दसमाई अ दशविधप्राणवर्तिनः प्राणान् प्राणिनस्तथा वानूवन् भवन्ति भप्पयरो वा नुज्जयरो वा खंजित्तुं जोगजोगाई काममासे विष्यन्ति च नूतानि तथा वा आयुकधारणाज्जीवास्तांस्त थासत्वास्तयाविधवीर्यान्तरायक्कयोपशमापादितवीर्यगुणोपेता कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किबिसिएमु गणेसु स्तान्न समुच्छेदयन्ति । असदनिप्रायप्रवृत्तत्वात् । ते चैवंविधाउववत्तारो जति ततो विप्पमुच्चमाणे तुज्जो शुज्जो एन स्तज्जीवतच्चरीरवादिनो सोकायतिका अजितेन्छियतया काममूयत्ताए तमूयत्ताए जाइ मूयत्ताए पञ्चायति ।। २१ । भोगावसक्ताः पूर्वसंयोगात्पुत्रदारादिकात्यहीणाःप्रभ्रया बाराएवमेव पूर्वोक्तेनैव कारणत्वेनातिमूढत्वादिना परमार्थमजाना घाताः सर्वहेयधर्मेच्यः श्त्यार्यों मार्गः सवनुष्ठानरूपस्तमसंनास्ते तीथिका स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः। यदि वा स्त्रीषु प्राप्ता इत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या ऐहिकामुष्मिकलोकध्यसदनष्टाकामेषु च शब्दादिषु मूर्षिता गृका प्रथिता अध्युपपन्नाः । अत्र नभ्रष्टा अन्तराल एव जोगेषु विषमास्तिष्टन्तिासूत्र०२१०६अ। चात्यादरख्यापनार्थ प्रनतपर्यायग्रहणं पतञ्च स्त्रीषु शब्दादिषु | त्थि (त्थी) गण-स्त्रीगण-पु० स्त्रीसमूहे, "नो पत्थिगणाणं सेच प्रवर्तनं प्रायः प्राणिनां प्रधानं संसारकारणं तथाचोक्तं | विता जव"नो स्त्रीगमनां पर्युपासको जवेदिति। स्थापना "मृझमय महम्मस्स महादोससमुस्सयमित्यादि" स्त्रीसा-शस्थि (त्थी)गब्ज-स्त्रीगजे-पु० रिश्रयाः सम्बन्धी गर्नः स. Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यिगुम्म जीवपुल पिल्लकः स्त्रीगर्भः । स्त्री सम्बन्धिनि सजीवपुद्गल - पिएमके, न० ५ ० ४ ० । (तक्तव्यता 'गन्न' शब्दे ) इत्वि (स्वी) गुम्म - श्री गुल्म २० युवतिजने, "इत्थमं परिनिज्म" ॥ श्रीगुरुमेन युवतिजनेन सामपरपरिवार स परिवृतो वेष्टित इति । दशा० १० अ० ॥ इत्वि (स्वी) विधीचिन्ह १० खिया असाधारणं चिम् योनी, खियामसाधारणे विहे, स्तनादी, खील या० ॥ इत्थि (त्य) चोर - स्त्रीचौर - पु० स्त्रियाः सकाशात् स्त्रीमेव चोरयन्ति स्त्रीरूपा वा ये चौरास्ते स्त्रीचौराः । चोरविशेषे, प्रश्न० ३ ० ॥ इत्थि (त्थी ) जण - स्त्रीजन पु० योषिजने श्रचा० १४० ४. शरिष (स्वी) निय-सीजिए-जि० खिया जिवाजिक श्रीपश्ये, स्त्री जितस्पर्शमात्रेण सर्वप्रणश्यति न मी पात की पापात् पापिनां स्त्री जितात्परः । वाच० । इत्थि (स्वी) डाण-श्रीस्थानन० स्त्रियः तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि निषद्याः स्त्रीस्थानानि । स्त्रीणां निषद्यायाम्, “नो इत्थाणारं सेवित्ता जवर " स्था० ए ० ॥ इत्यि ( त्यी ) पुंसंग - स्त्री नपुंसक - न० नपुंसकनेदे, " इत्यि ००१० ॥ इषि (स्वी) नाम श्रीनामन् १० कम्र्मविशेषे, स्त्री परिणामः स्त्रीत्वं यदुदयाद् भवति । ० ० ॥ (थ) शामगोमकम्प - श्री नामगोत्रकर्म्मन् १० श्री नाम स्त्री परिणामः स्त्रीत्वं यति नामभिति गोत्रमनिधानं यस्य तत् स्त्री नामगोत्रम् । अथवा यत्स्त्रीप्रायोभ्यं नाम कर्मगोत्रं च तत् स्त्री नामगोत्रकर्म्म | स्त्री प्रायोग्ये नाम कर्मणि, गोत्रकर्मणि च । ० ० ० । इस्थि (स्वी) विस्थीतीर्थ १० श्री योषितस्यास्तीर्थ करत्वेनोत्पद्यायास्तीर्थं वा तीचे माहितीर्थकरप्रणीते द्वादशाङ्गे, तत्सम्बन्धिनि संघे च । स्या० १० ग० तीर्थस्यात्वम् छे शब्दे ) ८ ० ० ० ॥ ( ६१५ ) अभिधानराजेन्द्रः | " - इस्य (स्वी) दोस-श्रीदोष पु० खीणां दोषे, "हत्विदोष संकिलो होत" त्रिया सद जपन्त टड्डा स्त्रीदोषाराद्दिनाथ ते जवन्तीति । सूत्र० १० ४ ० १ ० ( ते च स्त्रीदोषा' इत्थी' शब्दे द्रष्टव्याः) इत्थि ( थी ) पच्छाकम- स्त्रीपश्चात्कृत - पु० पश्चात्कृतस्त्रीत्वे, (इत्थच्छा को बंधर) नावप्रधानत्वा निर्देशस्य स्त्रीत्वं पश्चाचूतांनी नांवेदनासी श्रीपधात्कृत इति इथि (स्वी) पाणी श्री मापनी श्री कृष्णप्रति पादिकायाम् योगर्मृत्वमस्थैर्यं मुग्धतेत्यादिरूपायाम्भा पायाम, प्रज्ञा० ११ पद । ( तद्वक्तव्यता 'नासा' शब्दे ) इरी) परिपण श्रीपरिज्ञाध्ययन १० सुत्रह यकृताङ्ग निर्युक्तौ यथा परं संयम, माइट नाउ होति सीझस्स ॥ चितिए देव खन्निय-स्म अकथा कम्मर्वधीयं ||२८|| प्रथमे उसके अध्ययनार्थाधिकार सय्या इत्यपरिसह संस्तवेन परिचयेन यथा संत्रापेन निकाथानादिग्रहनादप्रत्यङ्गनिरी] कृणादिना कामोत्कायकारियो वेदत्वस्य शीलस्य चारित्रस्य स्खलनाचु शब्दात्तत्परित्यागो वेति । द्वितीये वयमधिकारस्तद्यथा शीतस्तस्य साधरियास्मिन्नेव जन्मनि स्वपकपरपककृता तिरस्कारादिका विरुम्ब चना तत्प्रत्ययश्च कर्मबन्धस्ततश्च संसारसागरपर्यटनामिति किंस्त्रीभिः कचित् शीलाद प्राप्यात्मवशतो येनैव मुच्यते कृत इति दर्शवितुमाह सूरा मोमता कति वदिया उपप्पिाणाहि । गहियाहुं अजय पतोष मवालादिणो बहने ।।५।। बहवः पुरुषा श्रभयप्रद्योतकूलवालादयः शूरा वयमित्येवं मन्यमानाः मो शर्त निपातो वाक्यालंकारार्थः कृत्रिमाजिः सद्भावरहितानिः स्त्रीनिस्तयोपधिर्माया तत्प्रधानाभिः कृतकप शाजिया आत्मतां नीतः केचन राज्यादपरे शीलात् प्रच्याये हैव विरुम्वनां प्रापिताः । अनयकुमारादिकथानका नि च मूत्रादावश्यक ादवगन्तव्यानि कथानक त्रयोपन्यासस्तु यथा कर्ममयुद्धमात्यन्तद्धि विक्रमतपस्वित्पापनार्थ ति यत एवं ततो यत्कर्तव्यं तदाह ॥ सम्हा वीसंजो गंतव्यो नियमेन इत्यी ॥ पदमुसे नणिया, जे दोसा ते गणणं ॥ ६० ॥ ( तम्हेत्ति ) यस्मात् स्त्रियः सुगतिमार्गागला माया प्रधाना पचना निपुणास्तस्मादेतदवगम्य नैव विभ्रम्नो विश्वासस्ता सांविवेकिना नित्यं सदा गन्तव्यो यातब्धः कर्तव्य इत्यर्थः । ये दोषाः प्रथमोदेशके अस्योपसणार्यस्यात् द्वितीये तात् गणयता पर्यालोचयता तासां मूर्तिमत्पराशितानामात्म हितमिच्छता न विश्वसनीयमिति । सूत्र० १० ४ श्र० १० । ( विस्तरतः पतययनार्या 'रवी' शब्द ) इश्यि (स्वी) परिक्षा श्रपरिज्ञा श्री० तुर्थेऽध्ययने, सम० २३ स० । स्व इत्थि (त्थी ) परिसह - स्त्री परिषद - पु० स्त्रीयाः परिषहणंच तनिरपेकत्वम् ब्रह्मचर्य्यमित्यर्थः । न ८०० । रुपायतः स्तृकुटि श्री सद्गरागदेतु गतिविकारविनेऽपि धरमांसमेदस्नाय “ त्वग्ररुधिरमांसमेदस्नाव स्थिशिरावणैः सुदुर्गन्धः । कुचनयनअघनवदनोरुमूर्च्छितो म म्यते रूपम् ।। तया निष्ठीवनं सत्यधरस्यं पिपति मोहित प्रसभम् । कुचजघनपरिश्रावं नेच्छति तन्मोहितो नजते । २ । इत्यादि भावनातोऽनिघास्यमानानीति परिषद्यमात्या परिषः स्त्रीपरिषहः । उत्त० २ अ० । प्रव० । परिषद नेदे, अस्यायमर्थो न स्त्री तस्यायमङ्गप्रत्यङ्गस्थान हसितललितविभ्रमाद्याधित्तपकारिणाश्चिन्तयेन जातुचिर निकम्मामा लसनासु कामयुद्धेति प्र०१ ८० । श्रवः । उक्तं च "दुर्भावङ्गपङ्का हि मोकद्वारा र्गनाः स्त्रियः । चिन्तिता धर्म्मनाशाय चिन्तयेदिति नैव ताः । ६० । संगो एस मस्साएं जाओ ओम इथिओ | जस्स एषा परिभाया, कर्म तर सामणं ।। १६ ।। एवमादाय मेहावी, पंका थिओ || नो परेरागपेस ।। १७ ।। मनुयन्ति रागादिवसमा जन्तोति सङ्ग पोऽनन्तरं वक्ष्यमाणां मनुष्याणां पुरुषाणाम् । तमेवाह । जा• सन्ति Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१६) इत्यिपरिसह अभिधानराजेन्द्रः। इत्थिपरिसह मोतीत्यविशेषाभिधानं ततो याः काश्चन मानुष्यो देव्यस्तिर- अम्गिसिहाए वत्थो, चाउम्मासे ण पुण दको॥४॥ यो वा ( मोगमित्ति ) सोके तिर्यग्लोकादो त्रियो नार्या प्रमो विय अणगारो, जणमाणो ईपि यूझजबसमो। पताश्च हावभावादिभिरत्यन्तमासक्तिहेतवो मनुष्याणामित्ये कंबमओय चंदणियाए मईलितो एगराईए ॥४१॥ षमुक्तमन्यथा हिगीतादिष्वपि सञ्जति एव मनुष्याः मनुष्यो (उनसगाथाषट्कं ) वृषभपुरं राजगृहं पाटलिपुत्रस्य भवपादानं च तेषामेव मैपुनसंझातिरेकः प्रज्ञापनादौ प्ररूपित इति त्युत्पत्तिः नन्दःशगमानः स्थूलभश्रीयको पररुचिखयाअतः किमित्याह । (जस्सेत्ति) यस्य यतेः पताः त्रियः णामनगाराणामाभिग्रह आसीत् (चडएहमासाणं) सुव्य(परित्रायेत्ति) सर्वप्रकारं ज्ञाताः परिज्ञातास्तत्र झपरिझयेह त्ययाच्चतुषु मासेषु वसतिमात्रनिमित्तं कः कुत्रोषितो निशापरत्रच महानर्थहेतुतया विदिताः तथाचागमः "विनूसा मयत । गणिकागृहे एको, द्वितीय उषितस्तु व्याघ्रवसतौ, खि संसम्गी, पणीय रसन्नोयणं । णरस्सत्तगवेसिस्स, विसं सर्पवसती तृतीयः, को पुष्करकारकोऽत्र तेषु मध्ये व्याघ्रो तामओम जहा" ॥१॥प्रत्याख्यानकपरिक्रया च तत एव च प्र वा सप्पो वा शरीरपीमाकरस्तु वक्तव्यो ज्ञानवा दर्शनं वा चात्याख्याताः(सुकर्मति) सुकृतं सुष्वनुष्ठितं पागन्तर-सुकरंवा रित्रं वा न प्रत्यसो भेतुं भगवानपि स्थूलनास्तीणे निशिसुखेनैवानुष्ठातुं शक्यं(तस्सत्ति )सुव्यत्ययात्तेन (सामति) तासिधारादीचक्रमितो न पुनःचिन्ने अग्निशिखायामुषितश्चाधामण्यं व्रतं किमुक्तं भवत्यवद्यहेतुत्यागो हितरागषावेव तुर्मास्यांन पुनःदग्धः अन्यो पि चानगारो मणन्नहमपि स्थूलतत्त्वतस्तकेतूउक्तनीतितश्चन स्त्रीच्या पर तन्मूसमिति तत्प्रत्या भसमा कम्बसकश्चंदनिकायामुच्चारभूमौ मसिनित इति ख्यानत्वसुकतत्वं श्रामण्यस्य यद्वोक्तनीतितः स्त्रिय पव ऽस्त्य नियुक्ति गाथाषट्कारार्थः । एतदर्थस्तु वृक्षसंप्रदायादव जास्ततस्ततत्यागे सक्तमेवापरमिति तत्प्रत्याख्यानतः सुकृत सेयः । उत्त० ३०॥ स च यूसभह-शब्दे )" जहा धूलत्वं श्रामण्यस्योच्यते । वक्ष्यति हि "पए उ संगे समकमि भहे णित्थिपरिसहो अहियासितो तहाहियासियव्या ण क्षण ता, सुदुत्तराचेव भवंति सेसा ॥ जहामहासागरमुत्तरित्ता, जहा तेण पाहियासिओत्ति, उत्त०३०(स्थूलनकथा नई नवेजा विवगा समाणा" ॥१॥ अतः किविधेयमित्याह । 'घूमनद्द शब्द) (एवमादाय) एवमित्यन्तरोक्तप्रकारेणात्यन्तासक्तिहेतुत्वल स्त्रीपरिषहोपपत्ती किंविदध्यादित्याहकणेनाकाय स्वरूपाभिव्याख्या अवगम्य मेधाव्यवधारणशक्ति से पनूतदंसीपजूतपरिमाणे उवसंते समिते सहिते सया मान् पक कईमस्तदूनूता मुक्तिपथप्रवृत्तानां विवन्धकत्वेन मालिन्यहेतुत्वेन च तपमास्तुरवधारणार्थः । ततः पङ्कनूता जए दह विप्पामवेदेति अप्पाणं किमेस जणो करिएव स्त्रियः । पठ्यते च "एवमादायमेहावीजहा एया बहुस्सि स्सति एस से परमारामो जाओ लोगंमि शत्यिओ मुणिगत्ति" । पवमन्तरमेव वदयमाणमर्थमादाय बुध्या गृहीत्वा णा हु एवं पवेदितं जवाहिज्जमाणे गामधम्मेहिं श्रवेणीच मेधावी तमेवाह यथेत्युपदर्शने एताः खियः (सहुस्सिगत्ति) तुच्याशयत्वादिना लब्धास्ततः किमित्याह । नो नैव तानिः सासए अविओमोदरियं कुज्जा अवि उर्ल गणं गज्जा स्त्रीभिर्विनिहन्यात् विशेषणसंजमजीवितव्यव्यपरोपणात्मके- अवि गामाणुगामं दूपज्जा अवि श्राहारं घोच्छिदिजा नातिशयेन च सामस्त्यतच्छेदरूपेणातिपातयेदात्मानमिति अवि चए इत्यीसुमणं पुवंदंगापच्छा फासा पुव्वं फासा गम्यते । कृत्यमाह चरेत धर्मानुष्ठानमासेवेत । आत्मानं गवे पच्चा दंमा इच्चे ते कन्नहा संगकरा जति पमिनेहाए षयेत् कर्थ मयात्मा भवानिस्तारणीय श्त्यन्वेषयेत " आत्मगवषक: सिस्विरूपापत्ति"रिति वचनात् । सिकिवात्मा श्रागमेत्ता आणविज्जा अणासेवणाएत्ति बेमि ।। ततः कयं ममासौ स्यादित्यन्वेषक प्रात्मगवेषको यद्वात्मान- (सश्त्यादि) स साधुः प्रभूतं प्रमादविपाकादिकमतीतामेव गवेषयते इत्यात्मगवेषकः किमुक्तं भवति चित्रालंकारशा- नागतवर्तमानं वा कर्म विपाकं द्रष्टुं शीसमस्येति प्रनुतदलिनीरपि स्त्रियोऽवझोक्य तद्दष्टिन्यासस्य पुष्टतावगमात् शी सांप्रतेक्तियान यत्किञ्चनकारीत्यर्थः तथा प्रनूतं सत्वर गिति तान्यो रगुपसंहारत आत्मान्वष्टैव भवति उक्तंहि- क्वणोपायपरिक्षानं संसारमोक्वकारणं परिकानं वा यस्य स "चित्तभित्ति न निजाए, नारिं वा सुप्रलंकियं । नक्खरं पिव प्रनूतपरिझानः यथावस्थितसंसारस्वरूपदीत्यर्थः । किदट्टणं, दिहिं पमिसमाहरे" ॥ श्च उपशान्तः कषायानुदयादिन्डियनोशन्छियोपशमाद्वा तथा संप्रति प्रतिमाघारं विवृण्वन् यस्यैताः परिझाता इत्यादि पञ्चन्निः समितिनिःसमितः सम्यग् वा मोक्कमार्गमितस्समिसूत्रसचितं चैदंयुगीनजनदायोत्पादक दृष्टान्तमाह ॥ तस्तथा कानादिभिः सहितः समन्वितः सह हितेन वा सउसलपुरं रायगिहं, पामनिपुत्तस्स होइ जप्पत्ती। हितः। सदा सर्वकावं यतः सदायतः। स एवंनूतो ऽप्रमत्तो गुरोरन्तिकमावसत् प्रमादजनितस्य कर्मणोन्तं विधत्ते सच एंदे सगमासथून-जद्दसिरीयेगा बररुई य ॥ ३६॥ रूयाद्यनुकूलपरीषहोपपत्ती किं विदध्यादित्याह (दट्ट इतिएहं अणगाराणं, अजिग्गहो पासि चउएहमासाणं । त्यादि) दृष्ट्वा अवझोक्य स्त्रीजनमुपसर्गकरणायोद्यतमात्मानं बसहीमेतनिमित्तं, को हिं नसिओ णिसामह ।। ३७ विप्रतिवेदयाति पालोचयति तद्यथा सम्यग्दृष्टिरस्मि तथा गणियाघरम्मि एक्को, वितितो जसितो न वग्यवसहीए। विसपञ्चमहावतभारशरच्छशांकनिर्मझकुशलब्धजन्माकार्याततितो सप्पवसाहिए, को दुक्करकारओ एच ॥ ३० ॥ कारणतयोस्थित इत्येवमात्मानं पर्यासोचयति तं च खीजन किमेष खीजनो मम त्यक्तजीविताशस्योमितैहिकसुखाभिवग्यो वा सप्पो वा, सरीरपीसाकरो न वत्तव्यो। साषस्योपसर्गादिकं कुर्यादथवा वैषयिकसुखस्य दुःखप्रतीणाणं च दमणं वा, चारित्तं वाण पच्चो नेत्तुं ॥३॥ काररूपत्वात्किमेष स्त्रीजनःसुखं विदध्याद-यो या पुत्रकपत्राजगवं पि पसनदो, तिक्खेचकमियो ए पुण निलो। दिको जनो मम मृत्युना जिघृक्तितस्य व्याधिमा षा दित्सितस्य Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१७) अभिधानराजेन्द्रः | इत्यपरिसह किं तत् प्रतीकारादिकं कुर्यादिति यदिचैनं स्त्री जनस्य स्वनायें चिन्तयेदिति सूत्रेणैव दर्शयति (ससे इत्यादि) स्वपय स्त्रीजन श्रारामयतीत्यारामः परमश्चासावारामश्च परमारामः ज्ञाततत्त्वमपि जहासवितासोपान कृष्णादिनिम्मि त्या कानो पिस्ता मोहरूपाः विज्ञाय यावन्न परित्यजन्ति तावत् स्वत एष परित्यजेत् एतच्च तीर्थकरेण प्रवेदितमिति दर्शयितुमाद (मुनिया इत्यादि ) मुनिना श्रीवर्द्धमानस्वामिना पात पूर्वी यथा स्त्रियो भावबन्धनरूपाः प्रवेदितं प्रकर्षेणादौ व्याख्यातमिति 66 तवमा प्रवेदितमित्य (प्यादि स्यादि ) सायन मोटोपनः पीयमाना मधमा इन्द्रियग्रामास्तेषां धर्म्माः स्वनावा यथा स्वविषयेषु वर्त्तनं तैरुद्वाभ्यमानो गज्ञान्तर्गतः सन् गुर्यादिनानुशाश्यते कथमनुशाश्यत इत्यत आह ( अवि इत्यादि ) अपि संभावनायां निर्बनं निस्सारमन्तःप्रान्तादिकं यद्द्रव्यं तदाशतस्तद्भोजी स्यायदि यानि सामर्थ्यमस्येति निपतनासीये ग्रामपम्मी रामदर्शनासहानिया हारहान्या स्वादिति दर्शयति भव्यम कुर्यादि प्रान्तासिनोषि न मोहोपशमः स्वातका दिन - वनमात्रं गृह्णीयात्तेनाप्यनुपशमे कायोत्सर्गादिना कायक्लेशं कुर्यादित्यति अवस्थानं तिष्ठेच्छतोष्णादी काय ( स णो काहिपत्ति ) स स्त्रीसङ्गपरित्यागी स्त्रीनेपथ्यकयां शुङ्गारकथां वा न कुर्यादेवं च तास्यक्ता नवन्ति तथा ( णो पासो) तासां नरबोधीनां स्वर्गापवर्गमा नामप्रत्यङ्गादिकेन पश्येद्यतस्तरीयमाणं मतेन प्रचती युक्तं च सन्मार्गे तावद्वास्ते प्रभवति पुरुषस्तावईये - माणसां तावद्वियते विनयमपि समाखम्यते तावदेव । चापकृष्टमुक्ताः श्रवणपयजुषो नीलपदमाण पते, यावलीआयतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति । तथा ( णो संपसारण ) साजिर्नरकविश्रम्भमिनिसान सं प्रसारणं पर्यालोचनमेकान्ते निजस्यादिभिरपि कुर्यादित्युतञ्च " मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो जवेत् । यलवानिन्द्रियग्रामः परितप्यत्र मुह्यत ।” त्येवमादि । तथा ( णो मानता स्वार्थपरा ममत्वं कुर्यात्तथा गोकयकि रिप) कृतानुष्ठिता तदुपकारिणी मएमनादिका क्रिया येन सकृतक्रिय इत्येवंभूतो न ज्यान स्त्रीणां वैयावृत्त्यं कुर्यात्काययोग निरोध इति नावस्या (वगुणे) येता सुभानुष्ठानपरि पायिनी यामात्रेणादिगनिरोधरता (अ ज्ऊपसंबु ) आत्मन्यध्यध्यात्म मनस्तेन संवृतोऽध्यात्मसं वृतः स्त्री जोगादत्तमनाः सूत्रार्थोपयुक्त निरुरूमनोयोग एवं तथ्य किमपरं कुर्यादित्याद ( परि इत्यादि) परिः समन्ताजयंत परिसदा सर्वका पाप किया कर्म्म उपसंहरणार्थमाह ( एयं इत्यादि ) एतद्यदेशकादेराराज्य मुरिदं मीन मुनिना वातात्मनि समासदात्मनि विदध्यात् । आचा० १ श्रु० अ० ४ ०२ । यी बालापन कुर्यातेनाप्यनुपशमे प्रामानुग्राममपिपिहरेनिष्कारणे विहारो निषिको मोहोपशमनार्थन्तु कुर्यात् किम्बहुना वेग येनोपायेन विषयेच्छा निवर्तते तत्कुर्यात्पर्यन्ते आदायदपि पातमपि चिन्यात् युधनं कु स्त्रीषु मनकुर्यादित्यादि) पिः समु ये स्त्रीषु यन्मनःप्रवृत्तं तत्परित्यजेत तत्परित्यागे हि कामाद्विअपि दूरत एव परित्यक्ता भवन्त्युक्तञ्च "काम ! जानामि ते रूप पायसेन यामि ततो मे इत्यि (स्वी) परिसह विजयीपरिषहविजय पु० त्वां संकल्पयिष्यामि, न भविष्यसि " किं पुनः कारणं स्त्रीषु मनो न विधेयमित्याह पुण्यं इत्यादि) खसकानामपरमार्थ पूर्वप्रथममेव तत्साविच्छेदार्थमर्थोपार्जनमवृत्तस्य कृषिवाणिज्यादिकिया रूपा एका - प्यारामनयनादिमदेशेषु गययोपगमप्रमत्ता इनमनःसङ्कल्पमपहरन्तीषु प्रमदास्यत्यन्त संवृतेन्द्रियान्तकरणस्याशुविपिक पपसितमृनाचणस विद्वासनिरीक्षण मणादिरूपाणां मन्मथशराणां विफलताकरणमेव स्त्रीपरिषद्विजयः श्रीपरिषदविफलताकरणे, पं० सं० ४ द्वा० ॥ - शस्य (स्वी) पोसप श्री पोषक १० स्त्रियं पोपलीतीपोषकः । स्त्रीपोषकेऽनुष्ठानविशेषे, " ओसियाओ वि इत्थि पोसे" पोषयन्तीति श्रीपोपकाः अनुष्ठानविशेषास्तेपिता अपि व्यवस्थिता अपि पुरुषा मनुष्या जोगिनो पि स्त्रीणां वशं व्रजन्तीति । सूत्र० १ ० ४ अ० १ ० ॥ इत्य (स्वी) पुंसखाखपुंसक्षणाखीपुं योः लङ्कणमस्याम् । स्तनश्मश्रुप्रभृतिस्त्रीपुरुष चिह्नधारिएयां स्त्रीयाम् पोटायाम् । श्रमरः ॥ इस्य (स्वी) जान खीजान पु०खीणां का दर्शनादि नाये "सिंगारियाई रियमाया उपदेसेमाथि शृङ्कार रसवतः स्त्री स्वजावान् कटाक्षसन्दर्शनादीनीति । उपा अ० इषि (स्वी) लोग स्त्री जोग-पु० क्रिया सह रास्थादिकर जिनमदमिति दर्श I तोपखाशीतोष्णादिपरीषद स्वैदिकरूपा दुःखे इमारते च स्त्रीसंभोगात्प्रयमेव क्रियन्त पूर्वमि त्युकं पचाच विषय निमित्तजनित कर्म्मविपाकापादितमरकादिडुःखविशेषाः स्पर्शा नवन्ति यदि वा स्याद्यकार्यप्रवृत्तस्य पूर्वरुपाताः पध्यास्तपादच्छेदादिकाः स्पर्शाः भवन्ति यदि वा पूर्व स्पर्शाः पश्चाद एमपाता इति अथवा पूर्व दएकास्तामनादिकाः पश्चात् स्पर्शः संबाधनानिभ्यनादिकास्तद्यथा बयानीताराम गयादी प्रणााजपु रुपावलोकनतामनेन मूर्हिता राजकुमारी, तदर्शनतो वाण मिन्द्रस्याग्रतोदकः पश्चात् स्पर्शा इति पूर्व या सुखा । दिस्पर्शः पचाइएको प्रतिकस्येचान्येोपपतीना मिति । किन्त्र (इश्चर इत्यादि ) इत्येते स्त्रीसंबन्धाः कलहः संग्रामस्ताः सत्यः सत्करा जयन्ति यदि वा कद्रः क्रोध आसो राग इत्यतो रागद्वेषकारिणो भवन्ति पद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह परिहार इत्यादि) पेटिका मुष्मिक पायतः स्त्र) प्रत्युपक्रया ( आगमितेत्ति ) ज्ञात्वा आज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति इति आइापमानमनावन पनि अधिकार परिसमाप्ती ब्रवीम्यहं तीर्थकर वचनानुसारेण । दुःखं च ताः परिमितत्रणोपायमाद इत्थमज्भगय से काहिए णो पासर्णाए णो संपसारए णो ममाए पो कय किरिए वयगुत्ते अज्जष्पसंवु मे परिवज्जए सदा पात्रं एयं मोणं समवासेज्जासि तिमि ।। - वि (स्वी) मागपत्रीमध्यगत० इत्यी भ " Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१८ ) इत्थिरज्ज अभिधानराजेन्डः। इथिलिंगसिफ योट्ठियासु मऊ जवति" तत्र गते, मऊ दोएड्तगत शति । स्त्रीलिङ्ग स्त्रीत्वस्योपलकणमित्यर्थः। तच्च त्रिधा । वेदः शनिचू०म०॥ रीरानिवृत्तिर्नेपथ्यं च । तत श्ह शरीरनिवृत्त्या प्रयोजनं न वेदनेइत्यि (त्या)रज-स्त्रीराज्य-न. स्त्रीस्वातव्ये,तश्चनिषिकमेव, पथ्याच्या वेदेसति सिद्धत्वान्नावात नेपथ्यस्य चाप्रमाणपत्वात्। स्त्रीराज्यस्यातिनिन्दनीयत्वमाह ॥ आह चनन्द्यभ्ययनचूर्णिकृत्" इत्थीए सिंगं यिसिंग इत्य नवअक्षणं ति वुत्तं भव तं च तिविहं घेदो सरीरनिवघणगज्जियहयकुहए, विज्जुग्गिज गृढहिययाओ। त्तीए नेवत्थे च श्ह सरीरनिश्चतीए अहिगारोन वेयनेवत्थे अज्जा अवारियाओ, इत्यीरजं न तं गच्छं ॥५॥ हिं ति" ।ततस्तस्मिन् लिङ्गे वर्तमानाः सन्तो ये सिफास्ते स्त्री वत्र गच्छे आर्या (अधारिआरोत्ति) अनिवारिताः अकृत्यं लिङ्गसिकाः । प्रज्ञा० १ पदा० म०प्र० । न०। सिककुर्वन्त्यः तत्परिवर्तकेनानिषिका निरङ्कशा इत्यर्थः वर्तन्ते । नेदे, तथा च ललितविस्तरायाम् (तीर्थसिकावतीर्यसिकती कयनूताः आर्याः (घण गजिए इत्यादि ) अत्र कुहकशब्देन र्थकरसिका तीर्थकरसिकाः स्वयंबुरूसिरुप्रत्येकबुझसिद्ध धावतोऽश्वस्य उदरप्रदेशसमीपे संमूतिवायुविशेष उत्प- बुरूवोधितसिमान्प्रतिपाद्योक्तम् ) एते च सर्वेपि स्त्रीलिङ्गदातेस प्रोच्यते यत उक्त परिशिष्टपर्वणिश्रीहेमचन्छसूरिपादैः। सिकाः केचित् २ ऍविङ्गसिकाः केचिन्नपुंसकलिङ्गसिधाः "दभ्यो न स्वर्णकारोपि, चरितं योषितामहो । अश्वानां इति आह तीर्थकरा अपि सिङ्गसिका प्रवन्तीत्याह यत उक्तं कुहकाराव-मिव को वेत्तुमीश्वरः ॥१॥ तयैकारोन्यत्ययान- सिम्पानृते “सम्वत्थो वा तित्ययरी सिका तित्थगरितिस्थ देशवार्षत्वात्ततोऽयमर्थः । घनगर्हितहयकुहकवविद्यच्च- णो तित्थगरसिका संखेज्जगुणा इति"०॥ कमेण गूढं मायाकरएकत्वेनाऽकानीयाशयं उर्लाह्य चास्थिर. स्त्रीणां सिकिर्यया । त्वेन गृहीतुमशक्यमाशय हृदयं यासां तास्तया संजवति एगोवि णमुक्कारो, वीरवरवसहस्स वच्छमाणस्स । चार्याणामपि कासांचित् स्त्रीजातित्वेन एवंविधत्वे यत लच्यते स्त्रीमधिकृत्य बोकेपि-"अश्वलतं माधवगर्जितं च स्त्रीणां संसारसागराओ, तारइ नरं व नारिं वा ।। चरित्रं भवितव्यतां च । अवर्षणञ्चाप्यातवर्षणं च देवो न जा इतिमहावीरस्तुतिम्प्रतिपद्योक्तम् । स्त्रीग्रहणं तासामपितद्भनाति कुतो मनुष्यः ॥१॥ तथा" जनमज्के मच्छपयं, आगासे व एव संसारकयो नवतीति ज्ञापनार्थ वचः। यथोक्तं यापनीपक्खियाण पयपंती महिलाण हिययमग्गो, तिन्नवि बोए नदी तंत्रण "णो खनु शत्यि अजीवो, ण यासु अन्नम्वाणया वि दंस णविरोहिणी, णो अमाशुसा, णो अणारिजापत्ती, णो असं संति ॥२॥ तथा । यदि स्थिरा भवेत् विद्युत्, तिष्ठन्ति यदि खेजाउया, पो प्रश्रमई, णोण वसंतमोहा, णोण सुकाचारा वायवः । दैवात्तथापि नारीणां, न स्थेम्ना स्थीयते मनः ॥३॥ णो असुरूबोंदी ववसायवजिया, णो अपुवकरणविरोहिणी, तत्स्त्रीराज्यमुच्यते नसगच्छ आर्याणां हि स्त्रीजातित्वेन सर्वकार्स तथाविधपरिवर्तकपारतन्त्र्येणैवावस्थानं समुचितं नतु णोऽणवगुणघाणरहिया, णो अजोग्गा सहिए, जो अकबाण भायणं ति, कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति" तत्र न खस्विति । स्वातन्त्र्येण कदाचिदपि यतो बोकेऽप्युच्यते-पिता रक्षति नैव स्त्री अजीवो वर्तते । किन्तु जीव एव जीवस्य चोत्तमधकौमारे, नर्ता र कति यौवने । पुत्रस्तु स्थविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । ग र्मसाधकत्वाविरोधस्तथादर्शनात् । न जीवोऽपिसर्वउत्तमध. आध० (आर्याणां स्वातव्यनिषेधः प्रजा शब्दे विस्तरेण अष्टव्यः)॥ मसाधकोनवत्यनव्येन व्यभिचारात् । तद्व्यपोहायाहन चास्व भव्यजातिप्रतिषेधोऽयं । यद्यपि काचिदजव्या तथापि सर्वैवाइत्थि (त्थी) रयण-स्त्रीरत्न-न० पञ्चेन्द्रियरत्नविशेष,स्था०, जव्या न भवति संसारनिर्वेदनिर्बाधधमाद्वेष शुश्रूषादिदर्शना७ग स्त्रीरत्नमत्यदूतकामसुखनिधानमिति । प्रथ०१४ त् । नव्योऽपि कश्चिदर्शनविरोधी यो न सेत्स्यति तन्निरासाद्वानीरत्नस्पर्श लोहपुरुषस्य गवनं यदा स्त्रीरत्नं लोहपुरुषं याह । नो दर्शनविरोधिनी । दर्शनमिह सम्यग्दर्शनं परिस्पृशति तदा स गवति तत्कथमिति प्रश्नः । स्त्रीरलस्पर्शा गृह्यते तत्वार्थश्रमानरूपंन तद्विरोधिन्येवास्तिक्यादिदर्शनात् । लोहपुरुषगमनमुत्कृष्टातिशयितकामविकारजनितप्रबलोष्ण दर्शनाविरोधिन्यपि अमानुषी नेष्यत एव तत्प्रतिषेधायाह । नो तापविशेषादित्युत्तरम् । ही। अमानुषी । मानुष्यजाती नावात् । विशिष्टकरचरणोरुग्रीत्यि(स्यी)राग-स्त्रीराग-पु० जामिन्यभिसापे,। द्वा०५६वा। वाद्यवयवसनिवेशदर्शनात्।मानुष्ययनार्योत्पत्तिरनिष्टा तदप इत्यि (त्थी) रूव-स्त्रीरूप-ख्याकारे, । तं। नोदायाह ॥ नो अनार्योत्पत्तिः अनार्येष्वप्युत्पत्तेः तथा तास्वइत्थि (त्या) लक्खण-स्त्रीलकण-न० सामुहिकप्रसिके- दर्शनात् । आर्योत्पत्तिरप्यसंख्येयायुनाधिकृतसाधनायेत्येतद्(जं.) द्वासप्ततिकमान्तर्गते कलाविशेषे, । का० १० । धिकृत्याह । नो असंख्ययायुः। सर्वैव संख्येयायुर्युक्ताया अपि ओघ । कल्प० । स्त्रीशकणं रक्तकरचरणादिकम् । इति । भावात् तयादर्शनात् । संख्येयायुरपि करमतिः प्रतिषिका ततत्प्रतिपादके पापश्रुताध्ययने च । सुत्र०२ श्रु०२ अ०। निराचिकीर्षयाह । नातिकरमतिः । सप्तमनरकायुर्निबन्धनरी शत्यि (त्यी) हिंग-स्त्रीलिङ्ग-न० स्त्रीया बिङ्ग स्त्रीलिङ्गम् । द्रध्यनाजावात् ॥ तद्वत्प्रकृष्टगुजध्यानानाव इतिवत् । न तेन स्त्रीत्वे, तच्च त्रिधा वेदः शरीरनिवृत्तिः नेपथ्यं च । प्रज्ञा०१ तस्थ प्रतिबन्धाभावात् तत्फलवदितरफनावेनानिष्ठप्रसपद । आ० म०प्र०नं स्त्रिया श्व लिङ्ग तत्काय यस्य तत् अात् । अरमातिरपि रतियारसाऽसुन्दरैव तदपोहायाह । स्त्रीलिङ्गविहितव्याकरणोक्तसंस्कारयुक्त शब्दोंदे, पु० ६ त नो न उपशान्तमोहा काचिपशान्तमोहापि संभवति तथा स्त्री० स च नदी महीत्यादिरिति-अनु० । चिह्न स्तनादौ दर्शनात् । उपशान्तमोहाप्यशुधाचारा गर्हिता तत्प्रतिकेपानावाच। याह । नो नाकाचारा काचित् शुझाचारापि भवत्यौचित्यि ( त्थी) त्रिंगसिक-स्त्रीलिङ्गासिच-पु० स्त्रिया लिङ्ग त्येन पराकरणवर्जनाद्याचारदर्शनात् । शुक्राचाराप्यशुरुवा Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१९ ) इथिलिंगसिद्ध अभिधानराजन्छः। इथिलिंगसिद्ध दिरसाध्वी तदपनोदायाह । नो अशुरुवादिः । काचित् शुझा स्त्रीणामपि सम्यग् दर्शनादिकं रत्नत्रयं परं न तत्संभवमात्रेण तनुराप नवति । प्राक्का तु वेद्यतः ससर्जनाद्याध्यदर्शनात् । मुक्तिपदप्रापकं भवति किन्तु प्रकर्षप्राप्तमन्यथा दीवानन्तरंकक्कास्तनादिदेशेषु युद्धचोदिराप व्यवसायावर्जिता निन्दि- मेव सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तिः सम्यग्दर्शतैव तन्निरासायाह । नो व्यवसायवर्जिता काचित्परोक नादिरत्नत्रयप्रकर्षश्च स्त्रीणामसम्नवी ततो न निर्वाणमिति । व्यवसायिनी शास्त्रात्तत्प्रवृत्तिदर्शनात् सव्यवसायाप्यपूर्व- तदप्ययुक्तं स्त्रीषु रत्नत्रयप्रकर्षस्सम्भवति सम्भवग्राहक करणविरोधिन्यव तत्प्रतिषेधमाह।नो अपूर्वकरणविरोधिनी। प्रमाणं विज़म्नते देशकालविप्रकृष्टेषु प्रत्यकस्याप्रवृत्तेस्तदप्रवृ. अपूर्वकरणासनवस्य । स्त्रीजातावपि प्रतिपादितत्वात् । ती चानुमानस्याप्यसम्नवात् । नापि तासु रत्नत्रयप्रकर्षास अपूर्वकरणवत्यपि नवगुणस्थानरहिता नेसिष्ये श्चसिध्यर्य- म्नवप्रतिपादकः कोप्यागमो विद्यते प्रत्युत सम्भवप्रतिपादमाह । नो नवगुणस्थानरहिता तत्संभवस्य तस्याः प्रतिपा- का स्थाने २ऽस्ति यथा श्दमेव प्रस्तुतं सूत्रं ततो न तासां दितत्यान् । नवगुणस्थानसंगतापि बन्धयोम्या अकारणमधि- रत्नत्रयप्रकासम्नवोऽथ मन्येथाः स्वजावत एवातपेनेवेच्छ कृतविधिरित्यत्प्रतिक्केपायाह । नायोग्या अब्धेः। आमोषध्या- या विरुध्यते स्त्रीत्वेन सह रत्नत्रयप्रकर्षस्ततस्तदसंनवोनदिरूपायाः कालौचित्येनेदानीमपि दर्शनात् कयं द्वादशाङ्गप्र- मीयते तदयुक्तमुक्तं युक्तिविरोधात् तथाहि रत्नत्रयप्रकर्षःस तिषेधः तयाविधविग्रहे ततो दोषात् । श्रेणिपरिणती तु उच्यते तताऽनन्तरमुक्तिपदप्राप्तिः स चायोग्यवस्था चरमस कारगम्यवद्भावतो भावो विरुरू पव। सब्धियोग्याष्यकल्याण- मयनावी अयोग्यवस्थाचास्मागप्रत्यक्का ततः कथंविरोधगभाजनोपघातानानिषितार्यसाधनायासमित्यत आह नाक- तिः नहि अहटेन सह विरोध-प्रतिपत्तुं शक्यते मा प्रापत पुरुल्याण नाजनं तीर्थकरजननात् नातः परं कल्याणमस्ति यत. षेष्वपि प्रसङ्गः॥ एवमतः कथं नोत्तवर्मसाधिकेत्युत्तमधर्मसाधिकेव अने. (नग्नः) ननु जगति सर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिः सर्वोत्कृष्टेनाध्ववसाये नतत्तत्काबापेक्यतावद्गुणसंयमान्वितर्वोत्तमधर्मसाधिके- नावाप्यते नान्यथा पतच्चोनयोरप्यावयोरागमप्रामाण्यबलतः ति विद्वांसः । केववसाधकश्चायं सति च केवने नियमान्मोक सिकम् । सर्वोत्कृष्टपुःखस्थानं सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं च । तत्र इति । ब०। सर्वोत्कृष्ट खस्थानं सप्तमनरकपृथ्वी अतः परं परमदुःखस्थापतेन यदाहुराशाम्बरा:-न स्त्रीणां निर्वाणमिति तदपास्तं नस्याभावात् ।सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं तु निःश्रेयसम् । तत्र स्त्रीणां व्यम् । स्त्रीनिर्वाणस्य सातादनेन सूत्रेणानिधानात् । तत्प्रति सतमनरकपृथिवीगमनमागमे निषिरू निषेधस्य च कारणं षेधस्य युक्त्यनुपपन्नत्वात् । तथाहि-मुक्तिपथो ज्ञानदर्शन तगमनयोग्यतयाविधसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यनावः । ततः चारित्राणि। "सम्यग्दर्शनकानचारित्राणि मोकमार्ग इति वच सप्तमपृथिवीगमनयत्त्वानावात् संमूर्तिमादिवत् । अपिच नातू " सम्यदर्शनादीनि पुरुषाणामिव स्त्रीणामप्यवि यासां वादलब्धौ विकुर्वणत्वादिलब्धौ पूर्वगतश्रुताधिगती च कलानि दृश्यन्ते । तथाहि दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रव- न सामर्थ्यगतिस्तासां मोक्तगमनसामर्थ्यमित्यति श्रद्धेयम्॥ चनार्यमभिरोचयमानाः जानते च पहावश्यककालिकोका- (सैकान्तिकः)तदेतदयुक्तं यतो यदिनाम स्त्रीणांसप्तमनरकविकादिनेदनिन्नं श्रुतं, परिपालयन्ति सप्तदशप्रकारमकलङ्क- पृथिवीगमनं प्रति सर्वोत्कष्टमनोवायपरिणत्यभावस्तत पतासयम, धारयन्ति च देवासुराणामपि दुरं ब्रह्मचर्य, तप्यन्ते च वता कयमवसीयत नि श्रेयसमपिप्रति तासांसर्वोत्कृष्टमनोवीतपांसि मासकपणादीनि, ततः कथमिवन तासां मोक्षसंनवः। र्यपरिणत्यनावो ? नहि यो नूमिकर्षणादिकं कर्म कर्तुं न श(नम्नः)-एतदस्ति स्त्रीणां सम्यम्दर्शनं ज्ञानं वान पुनश्चारित्रं कोति स शास्त्राएयप्यवगादन शक्कोतीति प्रत्येतुं शक्यं प्रसंयमाभावात तयाहि स्त्रीणामवश्यं वस्त्र परिभोगेन भवित त्यतविरोधात् । अथ संसूमिादिभयत्रापि सर्वोत्कृष्टमनोव्यमन्यया विवृताङ्ग्यस्तास्तिर्यक् स्त्रिय श्वपुरुषाणामभिभा वीर्यपरिणत्यनावो दृष्ठस्ततोत्रावसीयते । ननु यदि तत्र दृष्टवनीया भवेयुः । लोके च गोपजायेत ततोऽवश्यं ताभिर्वस्त्रे स्तर्हि कथमात्रावसीयते न खमु बहिर्व्याप्तिमात्रेण हेतुर्गमको परिभोक्तव्यम् । वस्त्रपरिजोगे च सपरिग्रहता सपरिग्रहत्वे भवति किंत्वन्तर्व्याप्त्या, अन्तर्व्याप्तिश्च प्रतिबन्धवझेन। नचात्र प्रतिबन्धो विद्यते न खा सप्तमप्रथिवीगमनं निर्वाणगमनस्य च संयमानाव इति ॥ कारणम्नापि सप्तमपृथिवीगमनाविनाजाविनिर्वाणगमनम् चर (सैकान्तिकः)तदसमीचीन सम्यसिमास्तापरिक्षानात्परिग्र मशरीरिणां सप्तमपृथिवीगमनमन्तरेणैव निर्वाणगमनाभाहो हि परमार्थतो सूर्णानिधीयते "मुच्चापरिमाहो वृत्तो"इति वात् । न च प्रतिबन्धमन्तरेण एकस्याभावेऽन्यस्यावश्यमनावचनात् । तथाहि मूग रहितो जरतश्चक्रवर्तीसान्तः पुरोप्या घोमा प्रापत् यस्य तस्य वा कस्यचिदनावे सर्वस्याधावप्रसदर्शकगृहेऽवतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते । अन्यथा केवलो- अः । यद्येवं तर्हि कथं सम्मूर्षिउमादिषु निर्वाणगमनानाव स्पादोन संभवत् । अपिच-यदि मूळया अभावेऽपि बत्र शति । उच्यते-तथा भवस्वाभाब्यात् । तथाहि संमूळिमादयो संसर्गमात्रं परिग्रहो प्रवेत्ततो जिनकस्पप्रतिपन्नस्य कस्य नवस्वन्नावत एव न सम्यग्दर्शनादिकं यथावत्प्रतिपत्तुं शक्यचित्साघोस्तुषारकणानुषक्ते प्रपतति शीते केनाप्यविषह्यो- न्ते ततो न तेषां निर्वाणसंभवः। स्त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथा पनिपातमद्यशीतमिति विनाव्य धर्मार्थिना शिरसि बस्ने प्र- वत्सम्यग्दर्शनादिरसत्रयसम्पद्योग्यास्ततस्तासां न निर्वाणकित तस्य सपरिग्रहता भवेत् । नचैतदिष्टं तस्मानपत्रसंसर्ग. गमनाजावः । अपिच तुजपरिसर्पाःहितीयामेव पृथिवीं यावमात्र परिग्रहः किन्तु मूळ । साच स्त्रीणां वस्त्रादिषु न विद्य बच्चन्तिन परतः परपृथिवीगमनदेतुस्तथारूपमनोवीर्यपरिणत्यते धर्मोपकरणमात्रतया तस्योपादानातान खमुता वनमन्त- भावात् तृतीयां यावत् पक्विणश्चतुर्थी चतुष्पदाः पञ्चमीमुरगाः। रेणास्मानं रयितुमीशते नापि शीतकासादिषु षाबशायां अथ च सर्वेप्यूमुत्कर्षतः सहस्रारंयावयन्ति तत्राधोगतिस्वाध्यायादिकं कर्तुं ततो दीर्धतरसंयमपरिपासनाय यतनया विषयं मनोवीर्यपरिणतिवैषम्यादर्शनादृर्वगतावपि च न वन परिनुजाना नताः परिप्रहपत्यः। अपोच्येत संभवतिनाम | तद्वैषम्यम् । माह च"विषमगतयोप्यधस्ता-सुपरिष्ठानुख्यमा Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२० ) इथिलिंगसिद्ध अनिधानराजेन्डः। इथिलिंगसिद्ध सहस्रारम् । गच्छन्ति च तिर्यञ्च-स्तदधोगत्यूनता हेतुः ॥१॥ पार्जनगोचरेण सत्वेन भवितव्यमिति नियमः समस्त्यन्यथा तयाच सात सिकंस्त्रीपुंसामधोगतिवैषम्येपि निर्वाण समम् । पङ्गवामनात्यन्तरोगिणः पुमांसोपि स्त्रीभिरभिनूयमाना दृश्ययदप्युक्तमपि च यासां वादलब्धावित्यादि तदप्यश्लीनं वाद- न्त इति तेऽपि तुच्छशरीरसत्वाः कथं तथाविधसिकिनि विकुर्वणत्वादिलब्धिविरहेपिविशिष्टपूर्वगतश्रुताभावेऽपि मानु- बन्धनसत्वकनाजो भवेयुः । यथा तु तेषां शरीरसामर्थ्यापादीनां निश्रेयसपदाधिगमश्रवणादाहच वादविकुर्वणत्वादि- सत्वेऽपि मोतसाधनसामर्थ्यमविरु तथा स्त्रीणामपि । ससब्धिविरहश्रुते कनीयसि च जिनकल्पमनःपर्यवविरहेऽपि न त्यपि वने मोकायुपगमे गृहिणः कुतो न मोक ति चन्म सिसिबिरदोऽस्ति । अपिच यदि वादादिवब्धिभाववत् निः मत्वसद्भावान्नहि गृही वस्त्रे ममत्वरहितो, ममत्वमेव परिग्रश्रेयसालावोऽपि सीणामनविष्यत् ततस्तथैव सिकान्ते प्रत्य- हः।सति हिममत्वे नग्नोऽपि परिग्रहवान् भवति शरीरेपि तद्भा पादयिष्यत् यया जंबुयुगद्वारातू केवलझानाभावो, न च प्रति- वात् । आर्यिकायाश्च ममत्वानावाऽपसर्गाद्यासक्तमिवाम्बरपाद्यते तस्माउपपद्यते स्त्रीणां निर्वाणमिति कृतं प्रसङ्गेन । मपरिग्रहः। न हि यतेरपि ग्राम गृहं वनं वा प्रतिवसतो मम प्रज्ञा १ पद । नं०॥ स्वादन्यच्चरणमस्ति नच निगृहीतात्मनां महात्मनां कासा रत्नावतारिकायामपि अथ दिकपटाः प्रकटयन्ति भवत्वेता- चित्क्वचिदपि मूळस्ति । तथाहि "निर्वाणस्त्रीप्रभवपरमप्रीतिती दृशस्वरूपो मोकः स उपात्तस्त्रीशरीरस्यात्मनः इति न मृ- वस्पृहाणां,मूर्ग तासां कयमिव भवेक्वापि संसारजागे। भोगे प्यामहे । न खत्रु स्त्रीयो मुक्तिभाजो नवन्ति । तयाच प्रभा- रागे रहसि सजने सजने उर्जने वा, यासां स्वान्तं किमपि चलः । स्त्रीणां न मोकः पुरुषेज्यो हीनत्वानपुंसकादिवदि मजते नैव वैषम्य मुद्राम । उक्तञ्च " अवि अप्यणो विदेहंति। अत्र ब्रमः सामान्येनात्र धर्मित्वेनोपात्ताः स्त्रियो विवादा मि, नायरंत ममाश्यंति” एतेन मूळ हेतुत्वनेत्यपि पक्काप्रति स्पदीलता था प्राचि पके पकैकदेशसिम्साध्यता असंख्या क्षिप्तः शरीरवश्चीवरस्यापि काश्चित्प्रतिमू हेतुत्वाभावेन तवर्षायुष्कषमादिकालोत्पन्नतिरश्चीदेव्यभव्यादिस्त्रीणांतूय परिग्रहरूपत्वाभावात् । तन्न सम्यग् रत्नत्रयानावेन स्त्रीणां सीनामस्माभिरपि मोकाभावस्याभिधानात्, द्वितीये तु न्यूनता पुरुषेच्योपकर्षः नापि विशिष्टसामर्थ्यासत्वेन, यतस्तदपि पक्कस्य विवादास्पदीनूतेति विशेषणं विना नियतस्त्रीमाभा तासां किं सप्तमपृथ्वीगमनानावेन वादादिबन्धिरहितत्वेनानावात् । प्रकरणादेव तल्लाने पकोपादनमपि तत एव कार्य ल्पश्रुतत्वेनानुपस्थाप्यता पाराञ्चितकशून्यत्वेन वा नवेत् । नस्यात् तथाप्युपादाने नियतस्यैव तस्योपादानमवदातं यथा न तावदाद्यः पको यतोऽत्र सप्तमपृथ्वीगमनाभावो यत्रैव धानुकस्य नियतस्यैव बकस्योपदशमिति हेतूकृतः पुरु जन्मनि तासां मुक्तिगामित्वं तत्रैवोच्यते सामान्येन वा प्राचि पापकर्षोऽपि योषितां कुतस्त्यः किं सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रया पके चरमशरीरिभिरनेकान्तः । द्वितीयेत्वयमाशयो यथैव भावेन विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वेन पुरुषानभिवन्द्यत्वेन स्मारणा स्त्रीणां सप्तमपृथ्वीगमनसमर्थतीव्रतराशुभपरिणामे सामधकर्तृत्वेनामहर्षिकत्वेन मायादिप्रकर्षकत्वेन वा । प्राचि र्थ्याभावादपकर्षस्तथा मुक्तिगमनयोग्योत्कृष्टशुनपरिणामेऽपि प्रकारे कुतः स्त्रीणां रत्नत्रयाभावः सचीवरपरिग्रहत्वन चारि- चरम शरीरिणान्तु प्रसन्नच धरानर्षिप्रमुखाणामुनयत्रापि पानावादिति चेत्तदचतुरनम् । यतः परिग्रहरुपता चीवर- सामर्थ्यान्कत्राप्यपकर्षस्तदयुक्तं यतो नायमविनान्नावः प्रामा स्य शरीरसंपर्कमात्रेण परिजुज्यमानत्वेन मू हेतुत्वेन वा णिको यत्कृष्टाशुजगत्युपार्जनसामोजावे सत्युस्कृष्टवाभगभवेत् । प्रथमपके क्वित्यादिना शरीरसंपर्किणाप्यपरिग्र- स्युपार्जनसामर्थेनापि न भवितव्यम् । अन्यथा प्रकृष्टानगहेण व्यभिचारः । हितीयप्रकारे चीवरपरिभोगस्तासाम त्युपार्जनसामर्थ्याचावे प्रकृष्टाशुनगत्युपार्जनसामर्थ्य नास्ती शक्यत्यागतया गुरूपदेशाद्वा । नाद्यःपको यतः संप्रत्यपि प्रा- त्यपि किं न स्यात्तथा चालव्यानां सप्तमपृथिवीगमनं न नवेत् । णानपि त्यजन्न्यो याः संदृश्यन्ते तासामेकान्तिकात्वन्तिका अथ वादादिलन्धिरहितत्वेन स्त्रीणां विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वं यत्र नन्दसंपदर्थिनीनां बाह्यचीवरं प्रति का नामाशक्यत्यागता । खल्वैहिकवादिविक्रिया चारणादिसम्धीनामपि हेतुः संयमनग्नयोगिन्यश्चकाश्चिदिदानीमपि प्रेक्ष्यन्त पय हितीयपकोऽपि विशेषरूपं सामर्थ्य नास्ति तत्र मोकहे तुस्ताविष्यतीति कः न सूक्ष्मः यतो विश्वजनीनेन विश्वदर्शिना परमगुरुणा जगवता सुधीः श्रद्दधीत तदचारु व्यभिचारात् । मासतुषादीनां तदमुमक्षुपक्मनाकीणां यदेव संयमोपकारि तदेव चीवरोपकरणं मावेपि विशिष्टसामोपलब्धेः । नत्र लब्धीनां संयमविशेष"नो कप्पर निगयीए अवेनाए होत्तपत्यादिनो" पदिष्टं प्रति. हेतुकत्वमागमिक कर्मोदयकयक्कयोपशमोपशमहेतुकतया तालेखनकमएमयूप्रमुखवदिति कथं तस्य परिजोगात्परिग्रह- सां तत्रोदितत्वात्तथा चावाचि “उदयखयखनवसमो वसमस रूपता प्रतिलेखनादिधर्मेोपकरणस्यापि तत्प्रसङ्गात् । तथा मत्था बहुप्पगाराव। एवं परिणामवसा, बझीनो हवंति जीवाच यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतऽपकरणं धर्मस्य हित- णं" चक्रवर्तियप्रदेववासुदेवत्वादिप्राप्तयोऽपि हि नब्धयो नच साधनमतोऽन्यदधिकरणं महान् उपकारकं हि करणमुप संयम सद्भावनिवन्धनात्तत्प्राप्तिः सन्तु वा तनिबन्धनाल्लब्धयकरणम् अधिक्रियन्ते घाताय प्राणिनोऽस्मिन्नितित्वधिकरणम् स्तयापि स्त्रीषु तासां सर्वासामनावोऽनिधीयते नियतानामेव अय प्रतिलेखनं तावत्संयमप्रतिपालनार्थ जगवतोपदिष्टं वस्त्रं वा। नाद्यःपक्कश्चक्रवयादिवब्धीनां कासांचिदेव तासु प्रतितु किमर्यमिति तदाप संयमप्रतिपालनार्थमवेति ब्रमः । षेधादामर्षीषध्यादीनांतुनूयसीनांजावात् ।द्वितीयपक्के तु व्यअजिनूयन्ते हि प्रायेणाल्पसत्वतया विवृताङ्गोपाङ्गसंदर्शन भिचारः पुरुषाणां सर्ववादादिबध्यानावेऽपि विशिष्टसामर्थ्यजनितचित्तभेदैः पुरुषेरङ्गना अकृतप्रावरणा घोटिका श्व स्वीकारात् । अकेशवानामेवातीर्थकरचक्रवादीनामपि च घोटकः । ननु यासामतितुच्चसत्यानां प्राणिमात्रेणाप्यानि- मोकसंभवात अल्पश्रुतत्वमपि मुक्तयवाप्यानुमितषिशिएसाप्रवस्ताः कथं सकत्रैलोक्यानिजाधककर्मराशिप्रक्कयसवर्ण | मध्यसितुषादिनिरेवानकान्तिकमित्यनुरोष्यमेव । अनुपमोक्तं महासत्यप्रसाध्यं प्रसाधयन्तीति चेत्तदयुक्तम् यतो | स्थाप्यता पाराश्चितकशून्यत्वेनेत्यप्ययुक्तं, यतोन तनिषेधादिमात्र शरीरसामध्यमतिरिक्तं यस्य भवति तस्यैव निर्वाणो- शिष्टसामार्थ्याभावः प्रतीयते योग्यताप कोहि चित्रः शाले वि Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२१) इथिलिंगसिक. अनिधानराजेन्द्रः। इथिविप्परियासिया शुध्युपदेशः नक्तंच । 'संवरनिर्जररूपो बहुप्रकारस्तपोविधिःशा इत्थि ( त्यी) वउ-स्त्रीवाक-स्त्री. खट्वालतेत्यादिनकणायां स्त्रीरोगचिकित्साविधिव-त्कस्यापिकथंचिपकारी "पुरुषान | स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिकायाम्भाषायाम,-प्रशा० ११ पद०॥ निवन्धत्यमाप योषितां नापकर्षाय । यतस्तदपि सामान्येन गुणाधिकपुरुषापेकं वा। आये असिम्तादोषः तीर्थकरजनन्या शत्थि (त्थी) वयण-स्त्रीवचन-न० वचननेदे, खीषचनं वीणा दयो हि पुरंदरादिभिरपि प्रणताः किमत! शेषपुरुषैः। द्वितीये कन्यादीति । आचा०५ श्रु०११०३०प्रशा॥ तुशिष्या अपिआचार्य भिवन्द्यन्त पवेति ते पिततोऽपकृष्यमा त्थि (त्थी) वस-स्त्रीवश-पु०६ त० स्त्रीवशीतूते, ख्यायत्त णत्वेन निर्वृत्तिनाजो न भवेयुः । नचैवं चएमरुवादिशिष्याणां तायां च । वाच । व्य० । “इत्थी वसंगया बाला "स्त्रीय शास्त्रे तनुश्रवणादिति मूबहेतोय॑निचारः। एतेन स्मरणा- शङ्गता यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते बाला प्रज्ञा रागद्वेषोधकर्तृकत्वमपि प्रतिक्किप्तम् । अथ पुरुषविषयं स्मारणाद्य- पहतचेतस इति । सूत्र० १ ० ३ अ०४०। कर्तृत्वमत्र विवक्तितं नतु स्मारणाद्यकर्तृत्वमात्रम् । न च स्त्रि स्त्रीवसङ्गतानामधमत्वश्च यथायः कदाचन पुंसां स्मारणादीन् कुर्वन्तीति नव्यन्निचार तिचे- समंगुलिवगुड्डावे, किंकरे तित्थएहायए चेव। त्तर्हि पुरुषेति विशेषणं करणीयं करणेष्यसिकतादोषः स्त्री णामपि कासांचित्पारगतागमरहस्यवासितसप्तधातूनां वापि गछावरं खिहद्दल-एएपुरिसाधमाउत्त ।। तथाविधायसरे समुच्चखझप्रवृत्तिपराधीनसाधुस्मारणादेर जदा इत्थी भणितो रंधेहिं तदा नणंति अहं न मि ताप विरोधात् । अथामहर्किकत्वेन स्त्रीणां पुरुषेयोऽपकर्षःसोऽपि तुमं अधिकरणीति त्यारं अवणेहित्ति तस्स त्थारे अवपीते किमाध्यात्मिकी समृद्धिमाश्रित्य बाह्यां वा । नाध्यात्मिकी स समंगुलीतो जणति इत्थीवयणाश्रो दग मायेति सोय स्रोगसं म्यग्दर्शनादिरत्नत्रयादेस्तासामपि सनावात् । नापि बाह्या कितो अप्पभाए व सुहसुत्ते पगे रोतो आणेतित्ति वा मेवं हि महत्यास्तीर्थकरबदम्या गणधरादयश्चक्रधरादि- मावो किंकरो पनाते उस्थितो इत्थी प्रणति किंकरेमि त्ति जं लक्ष्म्याश्चेतरक्वत्रियादयो न भाजनमिति तेषामप्यमहर्दिकत्वे- प्रणति तं करेतित्ति तित्थएदाय तो जयासि णं मग्गति च नापकृष्यमाणत्वान्मुक्त्यन्नावो नवेत् । अथ यासौ पुरुषवर्गस्य तदा इत्थी जणात गच्च तमागं तत्थ एहातो कलसं नरेनुमा महती समृहिस्तीर्थकरत्वलकणा सा स्त्रीषु नास्तीत्यमहर्सि- गच्छाहित्ति गकावरंखी भोयणकाले परिवेसणाए तो कत्वमासां विवदयते तदानीमप्यसिकता स्त्रीणामपि परम- पाहित्ति नणिताहे गिको श्वरिक्खंतो नोयणं उदृत्ति इत्थी पुण्यपात्रचूतानां कासांचित्तीर्थकृत्त्वाविरोधात्ताद्विरोधसाधक- भणितो कम्मं करेहित्ति ताहे परिभणति हंद अपयं हंदत्ति प्रमाणस्य कस्याप्यभावादेतस्याद्यापि विवादास्पदत्वादनु- गेएह अत्तयं पुत्तनम् एवं गएह जा कम्मं करमीत्यर्थः । पते मानान्तरस्य चानावात् । मायादिप्रकर्षवत्वेनत्यप्यप्रशस्य स्थ पुरिसा अधमा । नि० चू०१५ उ०। तस्य स्त्रीपुंसयोस्तुल्यत्वदर्शनादागमे च श्रवणात् श्यते हि पिं तेसिं गामनगराणं, जेसि इत्थी पणायिगा। चरमशरीरिणामपि नारदादीनां मायादिप्रकर्षवत्वं तत्र पुरु ते य धिकया पुरिसा, जे इत्थीण वसंगया ॥ ज्यो हीनत्वं स्त्रीनिर्वाणनिषेधे साधीयान हेतुः यत्पुनर्निर्वाणकारण ज्ञानादिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति, परमप्रकर्षत्या धिग्निन्दायां तेषां प्रामनगराणां येषां स्त्रीप्रणायिका प्रकर्षण स्वतन्त्रतया नायिका अत्र धिग्योगे द्वितीयाप्राप्तावपि षष्ठी त्सप्तमपृथ्वीगमनकारणापुण्यपरमप्रकर्षवदिति तेनैवोक्तं तत्र प्राकृतत्वात्तथा ते ऽपि पुरुषा धिकृता धिकार प्राप्तवन्तो ये मोहनीयस्थितिपरमप्रकर्षेण स्त्रीधेदादिपरमप्रकर्षेण च व्य स्त्रीणां वशमायत्ततां गताः । तथा। भिचारः । नास्ति स्त्रीणां मोकः परिप्रहयत्त्वात् गृहस्थवदित्यपि न पेशलं धर्मोपकरणचीवरस्यापरिग्रहत्येन प्रसाधि इत्थीओ बसवं जत्थ, गामसु नगरेसु वा। तत्वादिति श्रीनिर्वाणे संतपण बाधकोकारः। साधकोपन्या- सो गामो नगरं वावी, विप्पमेव विणिसई ॥ सस्तु मनुष्यत्री काचिनिर्वात्यविकतत्कारणत्वात्पुरुषषत् । यत्र प्रामेषु नगरेषु वा श्रीयो यमपत्यः स ग्रामो नगरं षा निर्वाणस्य हि कारणमविकसं सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयं तब | विप्रमेव विनश्यति । बहुवचनेनोपसंहारो जाती बहुवचनतासु विद्यत पवेत्यादित एवोक्तमिति । नासिकमेतद्विपक्का- मेकवचनं प्रवतीति ज्ञापनार्थः ॥ व्य० प्र०१०। मपुंसकादेरत्यन्तव्यावृत्तत्वान्न विरुकमनैकान्तिकं वा तथा | इत्थि (वी) विग्गह-स्त्रीविग्रह पु-श्रीशरीरे, । व्य-प्र. मनुष्यत्रीजातिः कयाचिद्व्यक्त्या मुक्त्यषिकसकारणवत्त्या । २० । आचा।। तद्वती प्रवज्याधिकारित्वात्पुरुषवत् । न चैतदसिद्ध साधनं | इस्थि (त्यी)विणवणा-खीविज्ञापना-खी० युषतिप्रार्थन। "गुव्वणी बालवच्चा य पधावेन कप्पर शर्त" सिकान्तेन तासां तदधिकारित्वप्रतिपादनाधिशेषनिषेधस्य शेषान्यनु याम, (रमणीसम्बन्धे) सूत्र०१० ३ ०४० भित्र कानान्तरीयकत्वात् रश्यन्ते च सांप्रातमप्यताकृतशिरोलुम्च दोषादोषविचारः इत्थी शब्द) ना उपात्तपिच्चिका कमएममुप्रमुखयतिलिङ्गाश्चेति कुतो नैता-त्थि (त्यी) विप्पजह-स्त्रीषिप्रजह-पु० नियो विविधैः सां प्रमज्याधिकरित्वसिकिर्यतो न मुक्तः स्यादिति । रत्ना० प्रकारः प्रकर्षेण च जहाति त्यजतीति नीषिप्रजहः सणादयो ७परि०॥ बहुममिति बहुसषचनाचः । श्रीपरित्यागपात, “ नारीसुमो इत्थि (त्थी) लिंगसिकेवानाण-स्त्रीलिङ्गासिककेवाज्ञान- पगिफिजा इत्याषिप्पजहे अणगारे " इति-सत्त०० म०। मालीसिंगे वर्तमाना ये सिकास्तेषां केवलकानं स्त्रीलिङ्ग- इत्थि (त्थी) विपरियासिया-स्त्रीविपर्यासिका-स्त्री० स्थामा सिककेवलज्ञानम् । केवलकानभेद, । भा०म० प्र० । त्थि न्तिकक्रियाविशेषे, “शस्थिए विप्परियासो स्थाविपरियासो। सिंगेण सिकाणं जमाणं तं शत्यलिंगसिरवसनाणति। प्रा० स्थमे स्त्रिया प्राचार्यविनाश इत्यर्थः विपर्यासो नाम प्रबंभघू०१०॥ खरेमिति" प्रा०पू०४०॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२२) इत्थिविलोयण भभिधानराजेन्द्रः । इत्थी इत्थि (त्थी) विनोयण-स्त्रीविलोचन-न० तैतिलापरनाम- काठिन्यं परित्यज्य संयमशरीराश्यन्ति । सूत्र०१श्रु०४० धेये चमसंझके करणनेदे, विशे० ( तदानयनादिकरण १०। स्त्रीभिः सामेकत्र वसतौ, ।। शब्दे वक्ष्यते) एवं विवेगमादाय, संवासोन विकप्पए दविए । इत्थि(त्थी)वेय-स्त्रीवेद-पुखियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्स- तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठानमादाय प्राप्य म्बन्धविपाकतश्च वेदयति कापयतीति स्त्रीवेदः ।वैषाय कादिके विवेकमिति वा क्वचित्पाउस्तद्विपाकं विवेकञ्चादाय गृहीस्त्रीस्वजावाविर्तावके कामशास्त्रे, "सुपुरिसाइथिवेय खयमा" त्या स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्यिनीनिः सार्धे संघासो वसतिरेकत्र स्त्रीवेदे खेदशास्त्रीवेदो मायाबहुल इति निपुणा अपिस्त्रीणांवशं न कल्पते न नुघते कस्मिन्डव्यनूते मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषवजन्तीति।सूत्र० १७०४०१०। वेद्यत प्रतिवेदः स्त्रियाः रहिते वा साधौ यतस्तानिःसाधंसंवासोऽवश्य विषेकिनामवेदःखीवेदः स्त्रियाः पुमांसंप्रत्यभिलाषः। तहिपाकवेद्यं कर्मा पिसदनुष्ठानविघातकारीति । सूत्र०१ श्रु०४ अ०१० । ऽपि स्त्रीवेदः। स्त्रियाः पुमांस प्रत्यन्निलाष, तद्विपाकवेद्ये नोकषा | शत्य (त्थी)संसत्त-स्त्रीसंसक्त-त्रि स्त्रीभिः संगते, “ करु यवेदनीयकर्मविशेषे च । प्रशा० २३ पद । यवशास्त्रियाः कोप्परमादीहिं स घटुंतो संसत्तो जवति दिछीए वा परोप्परं पुरुषं प्रत्यानिशाषो प्रवति । यथा पित्तवशान्मधुरभव्य प्रति स संसत्तो संगतो शति" तथा च नियुक्तिः संमत्ते उरुगादि फुफुमादाहसमः यथा २ ज्वाल्यते तथा २ ज्वलति दहति च घटुंतो इति॥ एवमवसापि यथा संस्पृश्यतेपुरुषेण तथा १ अस्या अधिकत सुविधं च होति मर्क, संसत्ता दिहिदिहि अंतो वा॥ रोऽमि नापो जायते तुज्यमानायान्तु उनकारीषदाहतुस्योनिसापो मन्द शति स्त्रीवेदोदयः कर्मस्था०। पं० सं०। सम्पाप्त: जावो व तासु णिहितो, एमे वित्थीण पुरिसेमु।।ए स्त्रीवेदकर्मोदयजनितो यः स्त्रीवेदःसर्किस्वरूप श्त्यावेदयन्नाह । च सदाओ संसत्तं पि विधं उरुगादि घटेत्तोसंसत्तो दिट्टि त्थिवेदेणं नंते ! किंपकारे पं० गो० फुफअग्गिसमा एवा इत्यीण वा मज्के अहवा संसत्तस्स श्मं वक्खाणं तेण तासु भावो णिहितो णिवेसितो ताहि वा तमिणि सेवितो परस्पर णे पम्पत्ते सेत्तं इत्थियारो॥ गृकानीत्यर्थः। नि०चास्त्रीनिःसमाकीर्णे (सेविते)स्थानादौ (श्त्यावेदे गं अंते इत्यादि) स्त्रीवेदेणमिति पूर्ववत् प्रदन्त- | चास्था.१०वा.(तञ्च साधुभिर्वर्जनीयमिति बंजचेरगुत्ति शब्द) किंप्रकारः किंस्वरूपः प्रज्ञप्तः । भगवानाह गौतम ? फुफुकाग्नि इत्थि (त्या) सला-स्त्रीश्रका-स्त्री० स्त्रीश्रद्धाने,सूत्र०१ श्रु० समानः फुफुका शब्दो देशीरूपत्वात् कारिषवाचकस्ततः । कारिषानिसमानः परिमानमदनदाहरूप इत्यर्थः प्राप्तः। ४०१०। (तत्कथादिकं इत्थी शब्द) जी०२ प्रति०॥ (स्त्रीवेदस्य स्थितिः गिई शब्थे । स्त्रीणां इस्थि (त्थी) सहाव-स्त्रीस्वजाव-पु०स्त्रीया श्व स्वनावी स्वजावादि श्त्थी शब्दे)। यस्य । अन्तःपुररक्कके महलके, ६त. स्त्रीणां शीसे च । शथि (त्थी)वेया-स्त्रीवेद-पु० स्त्रीवेदोमायाप्रधान श्त्येवं | वाच । सूत्र०। (स्त्रीस्वजावपरिझाने कथानकं इत्थी शब्दे) निपुणे, । सूत्र०१ श्रु०४०१०॥ इस्थि (त्थी) सेवा-स्त्रीसेवा-स्त्री-६ तालीसम्नोगे, व्यवा इत्थि(त्थी) संकिमिड-स्त्रीसं क्लिष्ट-त्रि स्त्रीप्रतिषेविनि, प्रव०। यसधर्मेण नारीसेवने, वाचलाखीसेवादय इह परत्र वा इत्थि (त्थी) संग-स्त्रीसङ्ग-पु० स्त्रीषु प्रवर्तने, सूत्र०२ श्रु० अकल्याणकारिण इति । व्य० । “अन्नपानैईरेद्वानां यौव२०॥ (तच प्रधान संसारकारणमिति इत्थी शब्द) नस्थां विनूषया । वेश्यां स्त्रीमुपचारेण वृद्धा कर्कशसेवया" शति-आ० म०वि०। प्रा०चू । त्थि (त्थी) संपक-स्त्रीसम्पर्क-पु० स्त्रीभिःसहसंबासे,सूत्र० इत्थी-स्त्री-स्त्रीच्यायतेस्तृणातेर्वा टि टित्वादडीप स्त्रीति १ श्रु०४०१०। (सच साधुभिर्न विधेय शति इत्थी शब्द) प्रव०६ द्वारा उत्त। “खिया इत्थी"१३० इति सूत्रेण शत्थि (त्थी) संपरिम-स्त्रीसंपरित-त्रि०स्त्रीनिः समन्ता स्त्रीशब्दस्य इत्यी इत्यादेशो वा-पके-थीति।प्रा०प्र०२पा त्परिवेष्टिते, “समंता परिवेटुिओ परिवुमो जमति परिमाण योविति,-अनु। पंचा। तं०। जाव तिमि चरो पंच वा वागरणाणि परतो उट्ठादि अप (१) स्त्रीलकणं तच्छब्दनिक्केपश्च । रिमाणं कहं कहेंतस्स चगुरुगं आणादिया य दोसा एस (२) स्त्रीवक्तव्यता त दवर्णनश्च । सुत्तत्थो श्मा णिज्जुत्तीगाहा (३) स्त्रीणां स्वजावादिपरिझानस्यावश्यकता । तत्कृत्यवमज्जं दोएहंत गतो, ससंति ऊसगादि वहुँतो ॥ र्णनञ्च। चनदिसिविताहिंतुवमो, पास गताहिव अप्फुसंतो॥ए॥ (४) स्त्रीसम्बन्धे दोषाः। अहवा पगदिसि वियाहिं वि अफुसंताहिं परिखुमो नणा (५) कतमानिः स्त्रिजिस्सा न विहर्त्तव्यम् । ति । नि० चू०२०॥ (६)श्ह लोके एव स्त्रीसम्बन्धविपाकः। (७) स्त्रीसंस्पर्श दोषाः। इत्यि (स्थी) संवास-स्त्रीसंवास-पु.लीभिः सार्क परिजोगे, (७)जोगीनां विमम्बना । जतुकुंने जोश्नवगूढे, आसुनि तत्तेणासमुवया ॥ (ए) त्रियो विश्वास्याकार्य कुर्वन्ति ।। एवि स्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ।।७।। (१०) स्त्रीणां स्वरूपस्य शरीरस्य चातिनिन्दनीयत्वम् । (जतुकुंभेत्यादि ) यया जातुषः कुम्भो ज्योतिषाम्निनोपग- (११) स्त्रीचरित्रं वैराग्योत्पादनाय अष्टव्यम् । ढः समाप्लिगिन्तोऽनितप्तोम्निनानिमुण्यन सन्तापितः विप्रं (१२) स्त्रीणामशुचित्त्वं सर्वस्वापकर्षकत्वञ्च । नाशमुपैति वीनूय विनश्यत्येवं स्त्रीभिः साधे संवसनेन प- (१३) स्त्रीणांबन्धनकारणत्वं तत्वोहानुगतस्य पुःखानि च। रिनोगेनानगाय नाशमुपयान्ति सर्वथा जातुषु कुम्भवत् व्रत- (१४) स्त्रीसंसर्गस्य सर्वथा परित्याज्यत्त्वं तत्यागेकारणानि च । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी ( ६२३) अभिधानराजेन्द्रः। (१५)स्त्रीषुशक्तस्य परिग्रहित्वं तासुसन्द्रियगुप्तन नाव्यम्। ओ चनप्पइयाओ मूसियाओ सुसुंसियाओ घरोलिया(१६) स्त्रीकरस्पर्शादिनिषेधः। ओ गोहियाओ जोहियाओ थिरावलियाओ से जुय (१७) खिया सांऊ विहारस्वाध्यायाहारोचारप्रस्रवणपरिष्ठा परिसप्पिणीओ । से किंतं खहयरोश्चनन्विहा परम पनिका धर्मकथादिनिषेधः। (१०) स्त्रीणां निर्ध्यानादिनिषेधः। ताओ तंजहा चम्मपंखीओ जाव सेत्तं खहयरीओ सेत्तं (१५) स्त्रीस्थानदूषणंतत्प्रसङ्गत्यागस्तत्सङ्गातिक्रमे गुणाश्च। तिरिक्खजोणित्थियाओ । से किं तं मास्सिस्थियाओश (२०) मतान्तरीयपूर्वपक्कदूषणानि । तिविधाओ पहात्ताओ तंजहा कम्ममियाओ अकम्म (१) स्त्रीसकणं तदनिकेपो यथा । तमियाओ अतरदीवियानो । सेकिंतं अंतरदीषियाओ “योनेप॑दुत्वमस्थैर्य-ममुग्धता कीवता तनौ । पुंस्कामितेति २ अट्ठावीसतिविधाओ पमत्ता तंजहा एगुरुईओ आ. जिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वे प्रवक्ते इति । तथान्यत्राप्युक्तम् । “स्त जीसानो जाव सुचदंताओ सेत्तं अंतरदीवे । से कित नकेशवती स्त्री स्यादिति"।स्था०३ ग० जी०। स्त्रीशब्दस्य निकेपो यथा-तत्र नाम स्थापने कुष्णत्वादनाहत्य स्त्री अकम्मनूमियाओ २ तीसतिविधाओ पल्लत्ता तंजहा शब्दस्य द्रव्यादिनिकेपार्य नियुक्तिकार आह पंचसु हेमवएसु पंचसु एरमवएसु पंचसु हरिवासेसु पंचसु दवानिनाव चिंधे, दवे जावे य इथिणिक्खेवो। रम्भगवासेसु पंचसु देवकुरुसु पंचसु उत्तरकुरुसु सेत्तं अकअहिनावे तह सिकी, जावे वेयंमि जवउत्तो ।। ५६॥ म्मजूमगमणस्सीअो । से किं तं कम्ममियाओ । तत्र व्यस्त्री संधा। आगमतो नो आगमतश्च । आगमतः पहमरसविधाओ पहाताओ तंजहा पंचसु नरहेसु पंचसु स्त्रीपदार्थकस्तत्र चानुपयुक्तो ऽनुपयोगो द्रब्यमिति कृत्वा नो एरवएसु पंचसु महाविदेहेसु सेत्तं कम्ममगमणुस्सीओ३। आगमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता विधा । एकनधिका (सेकिंतमित्यादि) अथ कास्ता स्त्रियः सूरिराह स्त्रियविविधाः बद्धाऽयुकाभिमुखनामगोत्रा वेति।चियते ज्ञायतेऽनेनेति चिह्नं प्रज्ञप्तास्तिर्यग्योनिस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो देवत्रियश्च (सेकिंतमि स्तननेपथ्यादिकं चिह्नमात्रेण स्त्रीचिहंस्त्री। अपगतस्त्रीवेदग्ध त्यादि ) तिर्यग्योनिस्त्रियस्त्रिविधास्तद्यथा जनचर्यः स्थमचर्यः स्थः केवनी वा अन्यो वा स्त्रीवेषधारी यः कश्चिदिति। घेद खचर्यश्च (सेकिंतमित्यादि ) मनुष्यस्त्रियोऽपि त्रिविधास्तद्यथा स्त्री तु पुरुषानिझाषरूपः स्त्रीवेदोदयः । अनिमापनाची तु कर्मनूमिका अकर्मनूमिका अन्तरद्वीपिकाश्च । कृष्यादिकर्मप्रनियुक्तिकृदेव गाथापश्चा:नाह । अभिलाष्यते श्त्यनिलाषः धाना नूमिः कर्मनूमिःजरतादिका पञ्चदशधा तत्र जाताः कर्मनू स्त्रीलिङ्गानिधानशब्दः । तद्यथा । शाखा माला सिफिरिति । मिजा एवमकर्मनूमिजा नवरमकमेनूमि गनूमिरित्यर्थः। जावत्री तु धा । आगमतो नो आगमतश्च । प्रागमतःस्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्त उपयोगो भाव इति कृत्वा नो आगम देवकुळदिका त्रिशब्धिा अन्तरेमध्ये समुषस्य द्वीपायेते तथा तेषु जाता आन्तरद्वीपास्त एवान्तरधीपिकाः ।स्था०३ ग०॥ तस्तु जावविषये निक्केपे वेदे स्त्रीवेदरूपे वस्तुन्युपयुक्ता तदु से किंतं देविस्थियाअोश्चनबिहाअोपमत्ताओ तंजपयोगानन्यत्वासावत्री प्रवति । यथा अनावुपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव नवत्येवमत्रापि । यदि वा स्त्रीवेदनिवर्तकान्युदय हा जवनवासिदोवित्थियाअोवाणमंतरदेवित्थियाअोजोतिप्राप्तानि यानि कर्माणि तेषूपयुक्तति तान्यनुवन्ति नावस्त्री- सियदेवित्थियाओ वेमाणियदेवित्थियाभोसे किंतंजवणति पतावानेव खियो निक्केप इति।सूत्र०१७०४० १०। वासिदेत्थियाओ दसविधानो पसत्ताओ तंजहा असु.(२) स्त्रीवक्तव्यता तद्भदवर्णनश्च। से किंतं इत्थीओतिविहाओ पत्ताओ तंजहा तिरि रकुमारजवणवासिदेवित्यियाओ जाव थणितकुमारक्खजोणित्थीओमणस्सत्थीनो देवित्थीनो से कितंति जवणवासिदेवित्थियाओ सेत्तं नवणवासिदेवित्थियाओ। रिक्खजोणित्थीओ शतिविधाअोपमत्तानो तंजहाज से किं तं वाणमंतरदेवित्थियाओ २ अहविधाओ पसअयरीनो थलयरीअोखहयरीओ।से किं तं जन्मयरीओ त्तानो तंजहा पिसायवाणमंतरदेवित्थियाओ जाव सेत्तं पंचविधान पमत्तान तंजहा मच्छीम जाव सुसुमारीउसे वाणमंतरदेवित्यियाओ। से किं तं जोतिसियदेवित्थियातंजलयरी से कितं थायरीउविहान परमत्ताओ ओ पंचविहाओ पाठयत्ताओ तंजहा चंदविमाणजोति संजहा चप्पदी य परिसप्पिणीच य । से किं तं चउ सियदेवित्थियाओ सूरविमाणदेवित्थियाओ गह विमाण प्पदी ३ चनविहाउ पमत्ता तंजहा एगखुरीत जाव देवित्थियाओ णखत्तविमाणदेवित्थियाओ ताराविमाणसणप्पई । सेकिंतं परिसप्पिणीउश्दुविहा पलत्ता तंज जोतिसियदेवित्थियाओ सेत्तं जोतिसियदेवित्थियाओ। हा जरगपरिसप्पिणीउ य जयगपरिसप्पिणीोय। से से किं तं वेमाणियदेवित्थियाओ ५ दुविहाओ परमकिं तं उरगपरिसप्पिणीओ सिविधाओ पसत्ताओ त्ताओ तंजहा सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ ईसा तंजहा अहीओ अयगरीमो महोरगीओ सेत्तं उरगप णकप्पवेमाणियदेविस्थियाओ सेत्तं वेमाणित्थियाओ। रिसप्पिणी से किं तं नुयपरिसप्पिणी अणेगविधाओ जी०३ प्रति० । ( सुगमत्वाका न व्याख्याता) पास्मत्तानो तंजहा गोहीओ णउलीओ सेधाओ सेवा स्त्रियो देवमानुपानेदाद्विविधा पताश्च सचित्तामचित्तास्तु प्रस्तरोप्याचित्रादिनिर्मिताः।ध०२प्राधि० । शब्देन पयसा ओ सेरमीश्रो सेरिंधीओ सावाओ खराओ पंचलोइया | च स्त्री त्रिविधामन्दशष्यामध्यमशब्दा तीवशब्दा चेति। वय Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7) अभिधानराजेन्द्रः । इत्या सातु स्थविरा मध्यमा तरुणी चेति । पुनरेकैका त्रिविधा अपनाभर्तृका प्रोषिता स्वाधीननका चेति । वृ० १४० मु धामध्या प्रौढा चेति । उत्त० १६० । “इत्थी ओ दुविधा अदु बिताय बंभणात वेसि सुद्दियडुगविता संभोश्य अक्खरिया ओ महचा रचमादिवात्ताओ दुविधा सपरिग्गदा अपरिग्गदाओ । नि०० ११० ॥ चारि धूमसिहाओ पछताओ जहा बामा काममेगा वामावता |8| एवामेव चत्ता रित्थियाओ पपत्ता तंजहा मामा णाममेगा मारा। ४ । पचारि अग्निसिहाओ प ताओ जहा वामाणाममेगा वामावचा |४| एनामेन चत्तारि त्यियाओ पपत्ता तंजहा वामा णाममेगा वामा वत्ता । ४ । चत्तारि त्रायमंगलिया पत्ता तंजढा वामायामयेगा वामायणा । ४। एवामेव पचारि त्यियाओ पातंजहा वामा णाममेगा वामावता ॥ ४ ॥ धूमशिखा वामा वामपार्श्ववर्त्तितयाऽनुकूल स्वभावतया वा वाम एवावर्तते या तथा चलनात्सा वामावर्त्ता १० स्त्रीपुरुपद् व्याख्येया कम्युदान्ते सत्यपि भूमशिखादिशन्तानां दान्तिके शब्दसाथ कोषपरत्वा जेवेनोपादानमिति ११ एवमग्निशिखापि १२ वातमएमालेका मएमलेनोप्रवृत्तो वायुरिति इह च स्त्रियो मानिन्योपतापचापल्यस्वना वा जयन्तीत्यनिप्रायेण तासु धूमशिवाशन्ततयोपन्यास ति उक्तञ्च "चला मणसीला, सिहपरिपुरिया विद्यावे दीवयसिहि व्व महिला, लरूप्पसरा नयं देश न्ति” ॥ चत्तारि कमागारसाला पत्ता तंजहा गुत्ता णा मेगा गुतवारा, गुता थामेगा अगुचदुवारा अगुत्ताणा मेगा गुदुवारा गुत्ता एामेगा अगुत्तदुवारा । एवामेव चारि त्यो पाचाओ जहा गुणा णायेगा गुति दिया गुचाणामेगा अगुसिंदिया ॥ ॥ तथा कूटस्येव आकाशे यस्याः शालायाः गृहविशेषस्य सा तथा । अयं च स्त्रीलिङ्गदृशन्तः स्त्रीलकणदार्थन्तिकार्थसा धावात गुला परिवारा वृता गुहान्तर्गता वस्त्रादिता ा सदस्यनाचा वा गुन्द्रिया तु नितानीत्य या एवं शेषा भङ्गा ऊह्याः । स्था०४वा० । पद्मिनी चित्रिणी हस्ति नी शखिनीति चतुर्विधाः स्त्रिय इति । उत्त० । १६ अ० । एतासां अकाणादिकम् - "पद्मिनी चित्रिणी चैव शङ्खिनी - स्तिनी तथा शशो मृगोऽभ्धखी सोजत म जयति कमलनेत्रा नासिकाकुगन्धा भरतकुचयुग्मा चारकेशी कृशाङ्गी मागतायानुरका सफल अनुशा पद्मनी पगन्धा १ भवति रतिरसानातिन दीर्घानासान्धिनी त्पला की धनकनिकुथाया सुन्दरी सकलगुणसमेता चित्रिणी विश्वका २ । दीर्घातिनयना परसुन्दरी या कामोपोगरसिका गुणशीतयुक्ता । रेखाश्रयेण च विभूषितकएवदेशा सम्भोग - रसिका किल शङ्खिनी सा । ३ । स्थूलाधरा स्थूल नितम्बभागा स्थूसाली स्थूलकुचा सुशीला । कामोत्सुका गाढरतिप्रिया या नितम्बख कारण मता सा ४ शशके पद्मिनी तुष्टा चित्रिणी रमते मृगे । वृषने शङ्खिनी तुष्टा हस्तिनी रमते हये । ५ पद्मिनी इत्थी पद्मगन्धा च मीनगन्धा च चित्रिणी ! शङ्खिनी कारगन्धा च मदगन्धा च हस्तिनी । ६ वाच स्त्रीणामुष्णस्वभावत्वं "गिमहो इत्यित्ति" ग्रीष्मास्त्री नवतीति । श्रप० ॥ (३) खीय स्वनावादि परिज्ञानस्यावश्यकता तत्कृत्यवर्णञ्च तत्र स्वनावपरिज्ञानं यथा ॥ जस्मिरियम परियाया सम्बकम्माबहाओ से दक्बू ।। यस्य स्त्रियः स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाता भवन्ति । सर्व कम्वदन्तीत सर्वकम्मपदाः सर्वपायोपादाननृताः सपा Statत्स एव यथावस्थितं संसारस्वनावं ज्ञातवानिति । एतदुक्तं प्रवति स्त्री स्वावपरिज्ञानेन तत्परिहारेण च स भगवान् परमार्थदर्यदिति । श्रचा ०१ श्रु० ३ अ० १ ० । श्री स्वावादिपरिका नियुक्ती यथा ॥ सुसमत्यावसमछा, कीरंति अप्पसतिया पुरिसा ॥ दीसंती सूरवादी, पारीवसगा ण ते सूरा ।। ६१ ।। परानीकविजयादौ समय अपि सम्याः पुरुषाः खीनिरा त्मवशीकृता असमर्थ भ्रूक्केपमात्र भीरवः क्रियन्तेऽल्पसात्विकाः स्त्रीणामपि पादपतनादिचाटुकरणेन निःसाराः क्रियन्ते । तथा दृश्यन्ते प्रत्यक्षेणोपलभ्यन्ते । शूरमात्मानं वदितुं शीलं येषां ते शुरवादिनोऽपि नारी वशगाः सन्तो दीनतां गताः एवंभूता न ते शूरा इति । तस्मात् स्थितमेतदविश्वास्याः स्त्रिय इति । उक्तंच । को वीससेज तासिं, कतिवय जरियाण श्चियट्ठाणे | खणरत विरतेणं, धिरत्षु इत्थीण दिययाणं ॥ १ ॥ अष्ां जणंति पुरओ, असं पासे विजमाणीओ । अनं च तासि हियए, जं च खमं तं करिति पुणे ॥ २ ॥ को पयाणं णाहिए, वेत्तलया गुम्मविचियाणं नायं भगासायं साधुष्पमती ॥ ३॥ महिनायरत्तमेत्ता, उच्छुखरं च सक्करा चेव । सा पुण विरक्षमिता, विंकरे विसंखेति ||४|| महियादि मारिज्ज वसंतविज्जवम गुस्सांतुट्ठा जीवाविज्जा, अवरणर कं च पावज्जा ॥ ५ ॥ ण वि रक्खं तेसु कथं, ण वि ऐहं ण वि यदाण सम्माणं ॥ कुलं ण पुश्वयं आय तं च शीलं महिलियाओ । ६ मावी संजह ताणं, महिलाहिययाण कवमभरियाणं । णिसेह निद्रयाणं, अभियवयणजंपरयाणं ||७|| मारेश जियंतंपि हु मयं विमर का भत्तारं ॥ विसद्रगश्वचरियं, वकविवंकं मला || || गंगाए वालुयं सागरे जलं हिमवओ य परि माणं ॥ जाति बुद्धिमता, महिला हिययं ण जाणंति ॥ एए ॥ रोवावंति रुवंतिय, अनियं जंपंति पत्तियावंति ॥ कवमेणय खंति विसं, मरंति ण य जति सब्नावं ॥ १०॥ चिर्तिति कज्जम , श्रं संतवर भासई अयं ॥ श्राढवर कुणइ अां, माइणमणियम खाये ॥ ११ ॥ असयारंभाण तदा सम्यसि मोग गरहणिज्जाणं ॥ परलोगवैरियाणं, कारण्यं चेव इत्थीओ। ॥ १२ ॥ अहवा को जुवईणं, जाणश् चरियं सहावकुमिलाण । दोसाण आगरो श्चिय, जणे सरीरे वसर का सा ॥ १३ ॥ मूलं धरियावर णरयस्त्र वतिर्ण विद्युता मोसम हाविग्धं, वज्जेयन्वा सया नारी ||१४|| धमा ते वरपुरिसा, जे विथ मन्त्राणिययजुवईओ । पव्वश्या कयनियमा, सिवम - यलमन्तरं पत्ता ॥ १५ ॥ " अधुना यादकः शूरो भवति तादृशं दर्शयितुमाह ॥ धम्मम्म जो दमाई, सोसूरी सचिव वीरो व ॥ पम्मणिरस्साड़ो, पुरिसो] सूरो सुनिश्री य ।। ६२ ।। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२५ ) अभिधानराजेन्ऊः | इत्थी धर्मे श्रुतचारित्राये हढा निश्चला मतिर्यस्य स तथा एवंभूतः सन्द्रियनोद्रियारिजयारा सात्विक महासत्वो वोऽसावेष वीरः कर्मदा समयमायेति किमिति यतो नैव धर्मनिरुत्साहः सदनुष्ठाननिरुद्यमः सत्पुरुषाची मार्गपरिभ्रः पुरुषः सुधामपि शूरो नयतीति ॥ बताय दोषान् पुरुषसंबन्धेन स्त्रीणामपि दर्शयितुमाह । एते चैव य दोसा, पुरिससमाए विइत्थियापि । तम्हाण पमा, विरागमग्गंमि तासिं तु ।। ६३ । प्रायः श्रीपरिचयादिन्यः पुरुषाणाममि हिता पत एव न न्यूनाधिकाः पुरुषेण सह यः समयः संबन्धस्तस्मिन् स्त्रीणामपि यस्माद्दोषा नवन्ति तस्मात्तासामपि विरासमार्गे प्रवृतानां पुरुषपरिचयादिपरिहारमा प श्रेयानिति परिययने च विस्तरेण स्वापरिकाम्यति पादितम् तद्यथा जे मायरं च पियरं च विप्पजड़ा व पुण्यसंजोगं । एगे सहिते परिस्सामि आरसमेटुणो विविने ॥ १ ॥ कसमस मातरं पितरं जननी जनयितारमेतदणादन्यदपि भ्रातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वरादिकं पचात्संयोगव्य चित्रहाय त्यत्वा यकारी समुच्चयार्थी को मातापित्राद्यभिष्यपर्जितः कषायरहितो वा तथा सहित नदर्शनचारित्रे व या दितः स्वदितः परमार्थान विधा यी चरिष्यामि संपनं करिष्यामीत्येवं कृतमतिः । तामेव प्रतिकां सर्वप्रधानांनेातो दर्शयति भारतमुपतं मैथुनं कामानिमाचो यस्यासावारतमैथुनस्तदेवंभूतो विविकेषु स्त्रीपशुपरमवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुत्पानेनोस्थाय विहरतीति कचित्पाठी (विविसित्तिचित्री रामकाद्विहितं स्थानं संमानुपरोयेषितुं शीसमस्य तयेति । तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधोर्यद्भवत्यविवेकिस्त्रीजना सदर्शयितुमाहसुमेतं परकम्म, उम्रपण इत्थियो मंदा । वायं पिता न जाणं, जहा निस्सति निक्खुणो एगे। २ | महापुरुषं साधु इमेणापर कार्यव्यपदेश तू ते उपदेनेति बनना कपटजालेन पराक्रम्य तत्समीपमागत्य यदि वा पराकम्येति शीग्रस्नयोग्यतापत्या अभिनू का खियः कूलवालकादीनामिव मागधगणिकाद्या नानाविधकंपटशतकरणदका विविधविष्बोकवत्यो भावमन्दाः कामोद्रेक विधायितया सदसद्विवेक विकलाः समीपमागत्य शीलात् ध्वंसयन्ति । एतदुक्तं भवति भ्रातृपुत्रव्यपदेशेन साधुसमीपमागत्य संयमाइंशयन्ति तथा चोक्तम् । " पियसुत्ते भाकरुगा, णतू च करुगाय या किरुगा य ॥ पते जोग्या किरुगा, पच्छन्नपरमहिलिया " यदि वा बन्नपदेनेति गुप्ताभिमानेन । तद्यथा । "काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरी मिथ्या न भाषा विशाने ते प्रत्यया ये प्रथमारेषु" इत्यादि ॥ साः खियो मायाप्रधानाः प्रतारणोपायमपि जाननयुत्पति जतया विदन्ति । पाठान्तरं वा ज्ञातवत्यः यथा लिप्यन्ते विवेमोऽपि तथाविधक मोंदयाशा सङ्गमुपयान्ति ॥ तामेव सुक्ष्मप्रतारणोपायान् दर्शयितुमाहपासे जिस णिसीयंति, निक्खणं पोसवत्यं परिहिंति । इत्थी कार्य अवि संत बालक कक्समय जे ॥ ३शा पार्श्वे समीपे भृशमत्यर्थमुरः परमतिनेमाविष्कुर्वत्यनिषीदन्ति विनम्नमापादयितुमुपविशन्तीति । तवा कामं पुष्णातीति पोषं कामोत्काचकारि शोभनमित्यर्थः । तच्च तह तदभीक्ष्णमनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन परिदधति स्वानिजामावेदयन्त्यः साधुप्रतारणायें परिधानं शिथिलीकृत्य पुनर्निषञ्जन्तीति । तथाऽपत्कायसूर्यादिकमनङ्गोद्दीपनाथ दर्श यन्ति प्रकटयन्ति तथा बाडुमुकृत्य कक्षामादस्यांनुसा वाभिमुखं व्रजेत् गच्छेत् संभावनायां लिङ् संभाव्यते एतदनत्यसंदर्शक श्रीणामिति ॥ ३ पियसणासहिं जोगेहिं इत्यच्यो एगता विमंनंति ॥ याणि चैव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि ॥४॥ शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं पर्यङ्कादि तथाऽऽस्यतेऽस्मिन्नित्यासनमासन्दकादीत्येवमादिना योग्येनोपनोगा कालोनि यो योषित एकदेति विकिदेशकालादी निमन्त्रयन्त्यज्युषगर्म ग्राहयन्ति । इदमुक्तं प्रवति । शयनासनापनोगं प्रति साधुं प्रार्थयन्ति । तानेव शयनासननिमन्त्रणरूपान् साधुविदि तषेधः परमार्थदश जानीयादययुभ्येत । स्त्रीसंवन्धिकारिणः पाशयन्ति बध्नन्तीति पाशा स्तान्विरूपरूपान् नानाप्रकारानिति । इदमुक्तं भवति । स्त्रियो ह्यासन्नगामिन्यो भवन्ति । तथाचोक । "अयं वा नियं या, असगुणेन आरुहार बनी। एवं इत्थी तो वि, जं आसन्नं तमिच्छति " । १ । तदेवं ताः थियो वा न ताभिः सार्धं साधुः सङ्गं कुर्याद्यतस्तदुपचारादिकः स दुष्परिहार्यो नयति त" जंतु जे, पुर्विव तं आमिसेण गिएहाहि । आमिसपास निबको, काहि कर्ज अकज्जं वा ॥ २ ॥ ४ ॥ किञ्च - नोताच संपेक्षा नो वि य साहसं समभिजाणे ॥ णो सहियं पि बिहरेजा, एवमप्या रविवओ होइ || ५|| नो नैव तासु शयनासनोपमन्त्रणपाशावपाशिकासु स्त्रीषु वयं संहयात्संयेा न तदूरी स्वष्टि निवेशयेत् । सति प्रयोजन या निरीकेत तथाचीतं " कार्ये पीचम्मतिमा खिरीकृते योषिदमस्थिरया । अस्निग्धया दशाध्य इया कुपितोपि कुपित छव ॥ १ ॥ तथा नापि च साहसमकार्यकरणं तत्प्रार्थनया समनुजानीयात्प्रतिपद्येत । तथा सति साहसमेतत्संग्रामावतरणवद्यन्नरकपातादि विपाकवेदि गोपि साधोदास जनमिति । तथा नैव खीनः सा प्रा मादा विहरेत् गच्छेत् । अपि शब्दान्न ताभिः सार्धं विविक्तासनो प्रवेद्यतो महापापस्थानमेतद्यतीनां यत् स्त्रीभिः सहसाइत्यमिति ॥ तथाचोक्तम् "माता स्वस्रा पुदिना वा न विविक्तासनो प्रवेत् ॥ बलवानिन्द्रियग्रामः पएिकतोप्यत्र मुह्यति ॥ १ ॥ एवमनेन स्त्रीसङ्गवर्जनेनात्मा समस्तापायस्थानज्यो रक्षितो नवति । यतः सर्वापायानां स्त्रीसंबन्धः कारणमतः स्वदिवा दूरतः परिहरेदिति ॥ ५ ॥ कथं चैताः पाशा श्व पाशिका इत्याह । आमंतिय उस्सविय, निक्खुत्र्यायसा निमंतंति ॥ पताणि चैव से जाणे, सराणि विरूवाणि ॥ ६ ॥ स्त्रियो हि स्वभावेनैवाकर्तव्यमा साधुमामन्य यचाममुकस्यां वेलायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं संकेतं ग्राहयित्या तथा विपत्ति ) संस्थाप्यांचावचैर्विधम्नजनसम्पतचित्वा पुनरकार्यकरणायात्म Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी ( ६२६ ) आनिधानराजन्नः । स्मनोपजोगेन साधुमन्युपगमं कारयन्ति। याद वासाधोर्नया- गृहान्तर्गतानामेतदवश्यं संजाव्यते । तद्यथा । “कोधाय पहरणार्थता एव योषितःप्रोचुस्तद्यथा भर्तारमामन्यापृच्छया- ओको समवित्तु कोहो वणाहिं काहो विजन वित्तको छहमिहायाता तथा संस्थाप्य भोजनपदधावनशयनादिकया ग्घाम पहियन परिणीयन कोवकुमारओ पमियतो जीवख क्रिययोपचर्य ततस्तवान्तिकमागतेत्यतो भवता सर्वी मद्भर्तृ- मप्पमेहि परबंध पवेह नारो" तथा " यन्मया परिजन जनितामाशङ्का परित्यज्य निर्भयेन भाव्यमित्येवमादिकैर्वचोभि- स्यार्थे-कृतं कर्म सुदारुणम् ॥एकाकी तेन वोहं गतास्ते फलविश्रम्नमुत्पाद्य निकुमात्मना निमन्त्रयन्ते। युष्मदीयमिदं शरी- नागिनः" ॥ १ ॥ इत्येवं बहुप्रकार महामोहात्मके कुटुम्बरकं यादकस्य कोदीयसो गरीयसो वा कार्यस्य कम तत्रैव कूटके पतिता अनुतप्यन्ते । अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन स्पष्टयति । निमज्जतामित्येवमुपप्रलोभयन्ति । स च भिकुरवगतपरमार्थ यथा कश्चिद्विषमिश्रं नोजनं नुक्त्वा पश्चात्तत्र कृसावेमाकुनिपतानेव विरूपरूपान्नानाप्रकारान् शब्दादीन विषयान् तत्स्वरू. तोऽनुतप्यते । तद्यथा । किमेतन्मया पापेन साम्प्रतक्विणा पनिरूपणतो परिझया जानीयाद्यथैते स्त्रीसंसर्गापादिताः सुखरसिकतया विपाककटुकमेवंचूतं जोजनमास्वादितशब्दादयो विषयादुर्गतिगमनैकहेतवः सन्मार्गार्गलारूपा श्त्ये- मिति । एवमसावपि पुत्रपौत्रहितृजामातृस्वसृभातृव्य वमवबुध्येत । यथा प्रत्याख्यानपरिझया च तद्विपाकागमेन भागिनेयादीनां जोजनपरिधानपरिणयनाझङ्कारजातमृतकपरिहरेदिति।६। मंतव्याधिचिकित्साचिन्ताकुयोपगतस्वशरीरकर्तव्य : प्रन(४) सीसम्बन्धे दोषा यथा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठानोऽहर्निशं । तद्व्यापारव्याकुलितमतिः । मणबंधणेहिं णेगेहि, कझुण विणीय मुवगसिताणं ॥ परितप्यते । तदेवमनन्तरोतया नीत्या विपार्क स्थानुष्ठानअनु मंजुलाइनासंति, आणवयंति निनकहाहिं ॥७॥ स्यादाय प्राप्य विवेकमिति वा क्वचित्पाउस्तद्विपाक विवेक मनो बध्येत यस्तानि मनोबन्धनानि मञ्जुनामापस्निग्धाव चादाय गृहीत्वा स्त्रीनिश्चारित्रपरिपन्थिनीग्निः सार्ध संवासो लोकनाङ्गप्रत्यङ्गप्रकटनादीनि । तथाचोक्तं । “णाहपियक वसतिरेकत्र न कल्प्यते न नुद्यते कस्मिन्द्रव्यभूते मुक्तिग मनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ । यतस्तानिः साध संवातसामियदतियजियाओ तुम मह पिओ त्ति । जीए जीयामि सोऽवश्यं विवेकिनामपि सदनुष्ठानाविधातकारीति ॥१०॥ अहं पहसितं मे शरीरस्स ॥१॥श्त्यादिग्निरनेकैः प्रपञ्चैः करुणामापविनयपूर्वकम् ( उवगसिताणंति ) उपसं स्त्रीसंबन्धदोषानुपदोपसंहरनाह । क्लिप्य समीपमागत्याऽय तदनन्तरं मञ्जुलानि पेशनानि तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसवित्तं च कंटगं नचा।। विश्रम्नजनकानि कामोत्काचकानि वा भाषन्ते । तदुक्तं जए कुत्राणि वसवत्ती, आघाते ण से विणिगंये॥११॥ "मितमहुररिजय जंपुल एहि इसीकमक्खहसिपहिं । सवि यस्माद्विपाककटुःस्त्रीनिःसह संपर्कस्तस्मात्कारणात स्त्रियो गारेहि व रागं हिययं पिहियं मयत्थीए ॥२॥ तथा भिन्नकथा- घर्जयेत् । तुशब्दात्तदाबापमापन कुर्यात् । किंतदित्याह । जी रहस्यालापमैयुनसंबकैर्वचोनिःसाधोश्चित्तमादाय तम- विषापलिप्तं कएटकमिव ज्ञात्वाऽवगम्य स्त्रियं वर्जयेदिति । कार्यकरणं प्रत्याज्ञापयन्ति प्रवर्तयन्ति स्ववशं वा ज्ञात्वा कर्म अपिच । विषदिग्धकएटकः शरीरावयवे जग्नः सन्ननर्यमापाकरवदाज्ञां कारयन्तीति ॥ ७॥ अपिच दयेत् खियस्तु स्मरणादाप। तमुक्तं । “विषस्य विषयाणां च सीहं जहा च कुणिमेणं, निब्जयमेगचरंति पासेणं ॥ दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपयुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि" ॥१॥ तया "वरिविसस्वट्टमं विसय, सुहक्क सुविसिणमरंति ॥ एवं थियान बंधति, संवर्स एगतियमणगारं ॥ ७॥ विसयामिसपुणघाहिया, एरणरहिं पति"॥१॥ तथौजए यथेति दृष्टान्तोपदर्शनार्थे । यथा बन्धनविधिज्ञा सिंह पिशि कोऽसहायः सनू कुमानि गृहस्थानां गृहाणि गत्वा स्त्रीणां तादिना मिषेणोपप्रबोज्य निर्जयं गतभीकं निर्भयत्वादेवै वशवर्ती तनिर्दिष्टवेत्राममनेन तदानुकूव्यं भजमानो धर्ममाकचरं पाशेन गनयन्त्रादिना वनन्ति बध्वा च बहुप्रकारं ख्याति योऽसावपिन निर्ग्रन्यो न सम्यक् प्रवजितो निषिकाचकदर्थयन्त्येवं स्त्रियो नानाविधैरुपायैः पेशलन्नाषणादितिः रणसेवनादवइयं तत्रापायसंभवादिति।यदा पुनः काचित्कुत( एगतियंति ) कंचन तयाविधमनगारं साधु संवृतमपि श्चिनिमित्तादागन्तुमसमर्था वृद्धा वा भवेत्तदा परिसहायःसामनोवाकायगुप्तमपि बध्नन्ति स्ववशं कुर्वन्तीति । संवृतग्रहणं ध्यभावे एकाक्यपि गत्वाऽपरस्त्रीवृन्दमध्यगतायाः पुरुषसमच स्त्रीणां सामोपदर्शनार्थम् यथाहि । संवृतोपि ताभि न्विताया वा स्त्रीनिन्दा विषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विबध्यते किंपुनरपरोऽसंवृत इति ॥ ७॥ किञ्च । धिना धर्म कथयेदपीति ॥ ११ ॥ अह तत्थ पुणो णमयंती, रहकारोव णेमि अणुपुवी। अन्वयव्यतिरेकाच्यामुक्कार्थः सुगमो भक्तीत्यनिप्रायवानाह। बके मिए व पासेणं, फंदेते विण मुच्चए ताहो ॥णा जे एय उमणगिका, अनयरा हंति कुसीलाएं। अथेति स्ववशीकरणादनन्तरं पुनस्तत्र स्वाभिप्रेते वस्तुनि सुतवस्सिए विसे जिक्खू नो विहरे सहाण मित्थी सु।१। नमयन्ति प्रहं कुर्वन्ति । यथा रथकारो वार्धकिर्नेमिकाष्ठं चक्रबाह्यचमिरूपमानुपूर्त्या नमयत्येवं ता अपि साधं स्वका ये मन्दमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः सांप्रतेक्विण पतदनन्तयानुकूल्ये प्रवर्तयन्ति । स च साधुर्मुगवत् पाशेन बको मोक्का रोक्तम् ( उंगंत) जुगुप्प्तनीयं गडं तदत्र खीसंबन्धादिकमथै स्पन्दमानोपि ततः पाशान्न मुच्यत इति ॥ ॥ किश्च । काकी स्त्रीधर्मकथनादिकं वा अष्टभ्यं । तदनु तत्प्राति ये गृद्धा अयुपपन्ना मूर्चितास्तेहि कुशीयानां प्रार्श्वस्थावसन्नकुशीलअह सेणु तप्पई पच्छा, नोचा पायतं च विसमिस्सं ॥ संसक्तययाच्दरूपाणामन्यतरा जवन्ति यदि वा काथिकप्पएवं विवेगमादाय, संबासो न विकप्पए दविए ॥ १०॥ स्यक संप्रसारकमार्मकरूपाणां वा कुशीमानामन्यतरा भवन्ति प्रयासौ साधुः स्त्रोपाशाववको मृगवत् कूटके पतितः सन् तन्मध्यवर्तिनस्तेपि कुशीला भवन्तीत्यर्थः । यत एवमतः सुतपकुटुम्बकृते अहर्निशं विश्यमानः पश्चादनुतप्यते । तथाहि । यिपि विकृष्टतपोनिष्टप्तदहोपि निशुः साधुरात्महितमिच्छ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी नू स्त्रीभिः समाधिपरिपन्थिनीतिः सह न विन्न कचिच्छेन्नापिसंतित तृतीयायें सप्तमी शमिति का ज्य ताङ्गारयतः खियो वर्जयेदिति भाषा ॥ १ ॥ (५) कतमा निः पुनः स्त्रीभिः सार्धं न विहर्तव्य - मित्येतदाशङ्क्याइ ॥ राहा, पाती दासीहिं ॥ महती हि वा कुमारीहिं संघ से न कुछ अणगारे |१३| अपिशब्दः प्रत्येकमसिंचन्यते । ( यराहिति ) दुहितृमिरपि साधेन विहरेत्तथा स्नुषाः सुतनार्यास्तातिरपि साध न विविकासनादौ स्थातव्यम् । तथा धात्र्यः पञ्चप्रकाराः स्तन्यदायिन्यो जननी कल्पास्ताभिश्च साकंन स्थेयम् । अथवा स तां तावदपरा घोषितो या अप्येता दास्यो घोषितः सर्वा सदास्ताभिरपि सहसंपर्क परिहरेत् तथा महसी निःकुमारीभिशब्दाची साथै संस्तवं परिचयं प्रत्यासतिकसोऽनगारो न कुर्यादिति । यद्यपि तस्यानगारस्य तस्यां दि तरि स्तुपादीया न वितान्यान्यमुत्पद्यते तथापि सत्र विविक्तासनादाय परस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्तङ्कानिरासार्थ स्त्री संपर्कः परिहर्तव्य इति ॥ १३ ॥ 2 ( ६२७ ) अभिधानराजेन्द्रः । अपरस्य शङ्काययोत्पद्यते तथा दर्शवितुमाद | अरुणा इथंच सुट्टीचा अणियं दद्द एगता होति ॥ निकासचा कामेहिं रक्खण पोसणे मस्सोसि || १४|| विविक्तयोषिता सार्धमनगारमयैकदा दृष्ट्वा योषिज्जातीनां - सुहृदां वा अप्रियं चित्त दुःखासिका भवत्येवं च ते समाशरन् यथा सत्त्वाः प्राणिन इच्छा मदनकामैर्गृका अभ्युपपन्नायाद्येवं भूतोऽययं भ्रमणः स्त्रीवदनावलोकनास येताः प रित्यक्त निजन्यापारेऽनया सा निहीकस्तिष्ठति । तम । मुराम शिरो वदनमेतदनिधि निहाटमेन न पदोदर स्य । गात्रं मन मलिनं गतसर्वशोनं, चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वा ॥ १ ॥ तथातिक्रोधाध्मातमानसाश्चैवमूचुर्यथा रक्षणं पोषणं चेति विगृह्य समाहारद्वन्द्वः तस्मिन् रणपोषणे सदादरं कुरु । यतस्त्वमस्या मनुष्योऽसि मनुष्यो वर्तसे यदि वा परं वयमस्या न्यावृतास्त्वमेव मनुयो पर्तसे यतस्त्वयैव सामयमेकाहि परित्यक पीति ॥ १४ ॥ किंचान्यत् ॥ समणं पि दहू दासीणं तस्य वितान एगे कुष्पंति ॥ अदु चोपणेहि त्यहि शत्थिदोससंकिणी होति । १५ आम्यतीति भ्रमः साधुः अपिशब्दो भिन्नक्रमः । तमुदासीनमपि रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा श्रमणग्रहणं तपःखोपणा तत्रैवं नृतेऽपि विषयद्वेपि साधी साथदुके केवन रहस्पत्री जपनकृतदोषत्वात्कुप्यन्ति । यदि वा पाठान्तरं समर्थ वासी "अमजद सीनं परित्यक्तनिजध्यापारं खिया सद जल्पन्तं दोपलभ्य तत्राप्येके केचन तावत्कृप्यन्ति किंपुनः कृतविकारमिति भावः । अथवा स्त्रीदोषाशङ्किनश्च ते नवन्ति ते चामी श्रीदो भोजननाविवेदारस्ते साध्यर्थमुपपद मेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमहर्निशमिहागच्छतीति । पदिवाभोजन यस्तै स स वः वागमनेन समानृता सत्यन्यास्मिन् दातव्ये ऽन्यद्दद्या इत्थी चतस्ते स्त्रीदोषाशङ्किनो येथे शीखानेनेव सदास्त इति । निदर्शनमंत्र] यथा कयाचिदन्या ग्राममध्यप्रान्नटप्रे क्षणैकगतचित्तया पतिश्वशुरयोनौजनार्थमुप विष्टयोस्ताकुला इति कृत्वा राश्काः संस्कृत्य दत्तास्ततोऽसौ श्वशुरेणोपत्रहिता निजपतिना कुरून तामिता अन्य पुरुषगतचित्तत्याशङ्कध पानिपतेति ॥ १५ ॥ कुति संथ ताहि, पन्ना समा हिजोगेहि ॥ तहासमा समेत पहिया ससेजाओ। १६ । तानिः प्रीतिः सन्मान[सद संस्तर्व तद्दगम नाशापदानसं कृणादिरूपं परिवपं तयाविधमोदोदयात्कुर्वन्ति विद्यति किला प्रकर्षेणः स्खलिताः समाि योगेभ्यः समाधिर्धर्मध्यानं तदर्थे तत्प्रधाना वा योगाः मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः प्रच्युताः शीतविहारिण इति । यस्मात् स्त्रीसंस्तवात्समाधियोगपरिभ्रंशो भवति तस्मात्कारणात् श्रमणाः सत्साधवो ( एसमेति ) न गच्छन्ति । लच्छो भनाः सुखोत्पादकतयाऽनुकूलत्वान्निषद्याश्व निषद्या स्त्रीभिः कृता माया यदि वा स्त्रीवसतिरिति आत्महिताय स्वहितं मन्यमानाः पतञ्च स्त्रीसंबन्धपरिहरणं तासामप्यैहिकामुष्मिकापायपरिहारातमिति । साह 64 'समणान जहाहि श्रहिताओ सन्भिसेज्जाम्रो " अयमस्यार्थः यस्मात्स्त्री संबन्धोऽनर्याय नवति तस्मात् हे श्रमण साधो तु शब्द विशेषार्थविशेषेण सविद्या खीवसतिस्प चाररूपा वा माया आत्महिताहेतोर्जहाहि परित्यजेति ॥ १६ ॥ किं के बनायापि प्राय स्त्री सम्बन्ध । कुयुयेनैवमुच्यते श्रमित्याह ॥ बहवे गिहाई वहद्दु, मिस्सी जावं पत्थुगा य एगे । धुवमग्गमेव पवयं-ति वाया वीरियं कुसीलाणं ॥ १७ ॥ बहवः केचन गृहाण्यपहृत्य परित्यज्य पुनस्तथाविधमोहोदयाम्मिता इति स्तुस्थ समकल्पा इत्येवंभूता मिश्री नावं प्रस्तुताः समनुप्राप्ता न गृहस्थापकान्तो नापि प्रतिदेवता अपि सम्तो मोकः संयमो वा तन्मार्गमेव प्रवदन्ति तथाहि ते वकारो नवन्ति च प्रायमेवादारो मध्यमः पन्या सेवा तथा नानां प्रत्यानिर्वदशं भवतीति सतीनांचा नानुष्ठाना मानव वयं प्रजिता इति तेषां खातगौरवशीतविहारिणां सह वीर्यम स्तीति ॥ १७ ॥ अपिच ॥ सुकं वति परिसाए, यह रहस्सम्पि एक्करं करेंति । जातियां तहानिया, माइले महासमेयंति ॥ १८ ॥ वादमात्रेणाविष्कृतवीर्यः पर्षदिव्य धर्मदेशनावसरे सत्यात्मानं शुरूमवगतदशेषमात्मानमायानुष्ठानं या रोति भाषते मयान्तरं रहस्येकान्ते ह पापं तत्कारणं वा सदनुष्ठानं करोति विद्याति तच्च तस्यागोपायपि जानन्ति विदन्ति के तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथाविदः इङ्गिताकारकृता निपुणास्तरि इत्य थेः । यदि वा सर्वज्ञाः एतदुक्तं जवति । यद्यप्यपरः कश्चिदकतंव्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति तत्परिज्ञानेनैव Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८) स्थिलिंगसिद्ध श्रभिधानराजन्षः। इथिलिंगसिद्ध किन पर्याप्तं यदि वा मायावी महासश्चायमित्येवं तथावि- अवि हत्यपादच्छेदाए, अदुवा वकमंस नकते। दस्तद्विदो जानन्ति । तथाहि प्रच्छन्नकार्यकारी न मां कश्चि- अवितेय साजितावणानि,निम्नत्यिय खारसिंचणाइंच।। जानातीत्येवं रागान्धो मन्यते अथ चतं तद्विदो बदन्ति । तथाचोक्तं । “न य लोणं लोणि स्त्रीसंपर्को हि संसर्गिणां हस्तपादच्छेदनाय नवति । अपि णय ओपिजश् वयं च तेलं वा । किहसका पंचेत अत्ता अणहूय कल्लाणो" ॥१॥ १० ॥ संभावने संभाव्यत पतन्मोहातुराणां संबन्धारूस्तपादच्छेकिंचान्यत् ॥ दादिकम् । अथवा बर्नमांसोत्कर्तनमाप तेजसाग्निनाऽभितासयं मुकर्म च न बदति, प्राइचो विपकत्थति बाले। पनानि स्त्रीसंबन्धिनिरुत्तेजितैराजपुरुषैर्भटित्रकाण्यपिक्रियन्ते वेयाण वीमाकासी, चोजतो गिलाइसे नुजो ॥१॥ या दारिकास्तथा वास्यादिना तक्तयित्वा कारोदकसेचनानि च प्रापयन्तीति ॥ २१ ॥ अपिचस्वयमात्मना प्रच्छन्नं यदुष्कृतं कृतं तदपरेणाचार्यादिना पृष्टो म वदति न कथयति यथाहमस्याऽकार्यस्य कारीरीति स च अमुकम्मणासनेदं, कंठच्छेदणं तितिक्खंति ॥ प्रच्छन्नपापो मायावी स्वयमवदन् यदा परेणादिष्टश्वोदितोप इत्थ पावसंतत्ता, न य विति पुणो न काहिंति ॥२॥ सन् बालोझोरागषकलितोवा प्रकत्यते प्रात्मानं श्लाघमानो अथ कर्णनासिकाच्छेदं तथा कएपच्छेदनं च तितिक्कन्ते कार्यमपलपति वदतिचयथाहमेवंचूतमकार्यकथं करिष्ये श्त्येवं स्वातदोषान्सहन्ते श्स्येवं बहुविधां विसम्बनामस्मिन्नेष मानु धार्धात्प्रकत्यते। तथा वेदः पुंवेदोदयस्तस्यानुषीच्याऽनुकूट्यं थेच जन्मनि पापेन पापकर्मणा संतप्ता नरकातिरिक्त वेदनामैथुनाभिसा तन्माकार्षीरित्यवं नूयः पुनश्चोधमानोऽसौ ग्या मनुभवन्तीति । न च पुनरेतदेवं नूतमनुष्ठानं करिष्याम इति यति ग्लानिमुपयात्यकर्णश्रुतं विधत्ते मर्मविको वा सखेदमिव अषत इत्यवधारयन्तीति यावत् । तदेवमैहिकामुष्मिका पुःखभाषते । तथा चोक्तम् । “संभाव्यमानपापोह-मपापेनापि किं विमम्बना अप्यङ्गीकुर्वन्ति नपुनस्तदकरणतया निवृत्ति प्रतिमया। निर्विषस्यापिसर्पस्य, भृशमुद्विजते जन" इति अपिच । पद्यन्त इति भावः ॥२२॥किंचान्यत्उसिया विशत्यिपोसे सुपुरिसा इस्थिवेयखदना। सुतमेतमेवमेगेसिं, इस्थि वेदेति हु सुयक्वायं ।। पमा समानतावेगे, नारीण वसं उवकसति ॥२०॥ एवं पिताव दित्ताणं, अदुवा कम्मणा अवकरेंति॥२३॥ त्रिय पोषयन्तीतिलीपोषका अनुष्ठानविशेषास्तेषूषिता व्यव श्रुतमुपलब्धं गुर्वादेः सकाशाल्लोकतो वा पतदिति यत्पूर्वमास्थिता अपि पुरुषा मनुष्या नुक्तभोगिनोपीत्यर्थः खीवेदशा: ख्यातम् । तद्यथा । पुर्विज्ञेयं स्त्रीणां चित्तं दारुणः खीसंबन्ध खीवेदोमायाप्रधान श्त्येवं निपुणा आप तथा प्रजया श्रौत्पत्ति विपाकस्तथा चलस्वनावाः । खियो दुष्परिचारा अदी प्रेक्विायः प्रकृत्या सच्च्या भवन्त्यात्मगर्विताश्चेत्येवमेकेषां स्था क्यादिबुध्या समन्विता युक्ता अप्यके महामोहान्धचेतसो नारीणां सम्यक् स्त्रीणां संसारावतरणवीथीनां वशं तदायत्त. ख्यातं जवति लोकश्रुतिपरंपरया चिरंतनाख्यासु वा परिकातं भवति । तथा स्त्रियं यथावस्थितस्वजावतस्तत्सबन्धविपातामुपसामीप्येन कषन्ति व्रजन्ति यद्यत्ताः स्वमायमाना अपि कार्यमकार्य वा युवते तत्तत्कुर्वते न पुनरेतजानन्ति यथता एवं कतश्च वेदयति झापयतीति स्त्रीवेदो वैशिकादिकं खीस्व भावावि वकं शामिति । तमुक्तम् । “दुर्गाचं हृदयं यभूता नवन्तीति । तद्यथा “पता इसन्ति च रुदन्ति च कार्यहे. तो-विश्वासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति । तस्माचरेण कुल. थैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं, नावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणांन विज्ञायते॥ चित्तं पुष्करपत्रतीयतरसं नैकत्र संतिष्ठते गार्यो शीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका श्व वर्जनीया ॥१॥ नाम विषारैरिव लता दोषैः समं वर्धिता ॥१॥ अपिच । तया "समुद्रवीचीव चस्वजावाः संध्याभ्ररेखेव मुहर्त "सुह विजयासु सुटु वि, पियासु सुटु सरूपसरासु। असु रागाः। खियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निष्पीमितासक्तकव. माहि लियासु य, वीसंभो नेव कायब्बो ॥१॥ उज्केट त्यजन्ति ।।३॥" अत्र च स्त्रीस्वभावपरिझाने कथानकमि अंगुलीसो, पुरिसो सयलंमि जीवस्रोयम्मि । कामे त दम् । तद्ययैको युवा स्वगृहानिर्गत्य वैशिर्ककामशास्त्रमध्ये पण नारी, जेण न पत्ता दुःखाई ॥२॥ अह एयाणं पगई तुं पाटलिपुत्र प्रस्थितः । तदन्तरानेऽन्यतरप्रामवर्तिन्यैकया सव्वस्स करेंति वेममास्साई तस्स ण करति णवर, जस्स योषिताऽनिहितस्तद्यथा सुकुमारपाणिपादशोभनाकृतिस्त्वं अन चेव कामेहिं ॥३॥ किंच कार्यमह न करिष्यामीत्येवक प्रस्थितोऽसि तेनापि.यथास्थितमेव तस्य कथितम् । तथा मुक्त्वापि वाचा ( अदुवति) तथा पि कर्मणापि क्रियया ऽप चोक्तं वैशिक पवित्वा मम मध्येनागन्तव्यं तेनापि तथैवा- कुवन्तीति विरूपमाचरन्ति । यदिवा प्रतः प्रतिपाद्यापि शा ज्युपगतम् । अधीत्य चासी मध्येनायातस्तया च स्नाननो- स्तुरेवापकुर्घन्तीति ॥२३॥ जनादिना सम्यगुपचरितो विविधहावनावैश्वापहतहदयः सूत्रकार एवं तत्स्वरूपाविष्करणायाह । संस्तां हस्तेन गृह्णाति ततस्तया महता शब्देन फूत्कृत्य ज- अन्न मणेण चिंतेति वाया अनं च कम्मणा अन्न । नागमनावसरे मस्तके वारिवर्डनिका प्रक्किप्ता । सतो लोकस्य तम्हाणसहहिं जिक्खू बहुमायाओशथियो एचा ।२४। समाकुले पवमाचष्टे यथायं गले लग्ननोदकेन मनाक मृताततो पातामोदरगम्नीरेण मनसाऽन्यश्चिन्तयन्ति तथा श्रुतमात्रपेश मयोदकेन सिक्त शति गते च मोके कि स्वया वैशिकशास्त्रो. या विषाकदारुणया वाचा अन्यद्भाषन्ते। तथा कर्मणानुष्ठाने पदेशेन खीस्वनावानां किं परिकासमित्येवं स्त्रीचरित्रं दुर्वि नान्यनिष्पादयन्ति यत एवं बहुमायाः त्रिय इति एवं ज्ञात्वा केयमिति नात्रास्था कर्तव्येति तथाचोक्तम् । "हृद्यन्यद्वाच्यन्य तस्मात्तासां भिक्षुः साधुन श्रद्दधीत तत्कृतया माययाऽऽस्मानं कर्मण्यन्यत्पुरोथ पृष्ठऽन्यत् ॥ अन्यत्तव मम चान्यत् स्त्रीणां न प्रतारयेत् । दत्तायशिकवत् । अत्र चैतत्कथानम् । दत्तासर्व किमप्यन्यत्" ॥२०॥ घेशिक एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमाणोपिता नेसाम्प्रतमिहनोक पर सीसम्बन्धविपार्फ दर्शयितुमाह॥ एवान् ततस्तयोक्तं किं मया दौाग्यकातिया जीवन्त्या Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी इत्थी अभिधानराजेन्द्रः । प्रयोजनमई त्वत्परित्यक्तानि विशामि ततोसाववोचत् माय- माद्यमझत्वमकं तावदकार्यकरणेन चतुर्थवतनको क्षितीय तया श्दमप्यस्ति वैशिके तदाऽसौ पूर्व सुरङ्गामुख काष्ठसमुदाय दपनपनेन मुषावादः। तदेव दर्शयति यत्कृतमसदाचरणं नूयः कृत्वा तं प्रज्वाव्य तत्रानुप्रविश्य सुरगया गृहमागता । दत्त- पुनरपरेण चोद्यमानोऽपजानीतेऽपत्रपति नैतन्मया कृतमिति स कोपि श्दमपि चास्ति वैशिके श्त्येवमसी विपन्नपि वातिक- पवं नूतोऽसदनुष्ठानेन तदपनपनेन च द्विगुणं पापं करोति । श्चितायांप्रक्किप्तस्तथापि नासौ तासुथकाने कृतवानेवमन्येनापि किमर्यमपनपतीत्याह। पूजनं सत्कारपुरस्कारस्तत्कामस्तदभिन श्रमातव्यमिति ॥२४॥ किंचान्यत् ॥ साषीन मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्य प्रच्छादयति। विषजुवती समणं बूया विचित्तकारवत्यगाणि परिहिता ।। मोऽसंयमस्तमेषितुं शीसमस्येति विषमेषी । किंचान्यत॥ विरता चरिस्सह रुक्खं धम्ममाइक्खणे जयंतारो ॥२५॥ संशोकणिजमणगारं, आयगय निमंतणेणाईसु ॥ युवतिरभिनवयौवना स्रो विचित्रवस्त्रालंकारविरूषितशरीरा बत्यं च ताय पायं वा, अन्नं पाणगं पमिग्गहे ।।३० । मायया श्रम प्रयात् । तद्यया । विरताई गृहपासान ममा- संमोकनीय संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कंचनानगार साधुमात्मनुकृयो भत्ती मा चासो न रोचते परित्यक्ता चाहं तेनेत्यत- नि गतमात्मगतमात्मझमित्यर्थः । तदेवं नूतं काश्चन स्वैरियो चरिष्यामि धर्ममाचकाणेति अस्माकं हे भयत्रातर्ययादमेवं निमन्त्रणेन निमन्त्रणपुरःसरमाहुरुक्तवत्यः। तद्यथा हेशयिन् । दुःखानां भाजनं न भवामि तया धर्ममावेदयति॥ साधो! वसं पात्रमन्या पानादिकं येन केनचिद्भवतःप्रयोजन किंचान्यत तदहं भवते सर्व ददामीति मद्गृहमागत्य प्रतिगृहाण त्वमिति अदु साविया पवाएणं, अहमास साहाम्मणीय समणाणं। उपसंहारार्थमाह ।। जतुकुंने जह उपज्जाइ, संत्रासे विदु विसीएज्जा ॥२६॥ णीवारमेवं बुझेजा, णो इच्छे अगारमागंतुं । अथवा ऽनेन प्रवादेन व्याजेन साध्वन्तिकं योषिउपसर्पत । बछेविसयपासेहिं, मोहमावज्ज पुणो मंदि॥३१॥ यथाई श्राविति कृत्वा युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणरियेवं एतद्योषितां वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्प बुभ्यत जनीयात् प्रपञ्चेन नेदीयसी सूत्वा कूलवायुकमिव साधु धर्मावंशयात यथाहिनीवारेण केनचिद्भत्यविशेषेण सूकरादिवशमाएतमुक्त नवति योषित्सान्निध्यं ब्रह्मचारिणां महते ऽनय नीयते एवमसावपि तेनामन्त्रणेन वशमानीयते अतस्तं नेच्छे तथाचोक्तम् “तज्ज्ञानं तश्च विज्ञानं तत्तपः स च संयमः। सर्व दगारं गृह गन्तुम् । यदिवा गृहमेवाबत्तों गृहावतों गृहं भ्रममेकपदे तष्ठं सर्वया किमपि खियः १" अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्त- स्तं नेत नाभिमष्येत् । किमिति यतो बद्धो वशीकृतो विषमाह यथा जातुपः कुम्नो ज्योतिषोग्नेः समीपे व्यवस्थित उप- या एव शब्दादयः पाशा रज्जुबन्धनानि बकः परवशीकृतः ज्योतिर्वर्ती विनीयते भवत्येवं योषितांसंवासे सानिध्ये विद्वा- स्नेहपाशानपत्रोदयितुमसमर्थः सन्मोहं चित्तव्याकुलत्वमागनयास्तां तावदितरो योऽपि विदितवेद्योऽसावपि धर्मानुष्ठान यति । किं कर्तव्यमूढो भवति पौनःपुन्यन मन्दोको जम प्रत्ति विषीदेत शीतलविहारी जवेदिति । १६ । शति । उक्तः प्रयमोद्देशकः । सांप्रतं द्वितीयः समारज्यते। अ(७) एवं तावत्स्त्री सान्निध्ये विपाकान् प्रदर्य स्य चायमनिसंबन्धः श्हानन्तरोद्देशके स्त्रीसंस्तवाचारित्रस्वतत्संस्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाह सनमुक्तं स्वनितशीलस्य या अवस्था रहैव प्रादुर्भवति जनुकुंने जोश उवगूहे, आसुजितत्तेण समुवयाइ । तत्कृतकर्मबन्धश्च तदिह प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धेनायातएवि स्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति।२७। स्योद्देशकस्यादिमसूत्रम् ॥ यथा जातपः कुम्जो ज्योतिषाग्निनोपगूढः समाबिङ्गितोऽनि- ओए सया ण रज्जेज्जा, जोगकामी पुणो विरज्जेज्जा ॥ ततोऽग्निनाभिमुण्येन संतापितः क्षिप्रं नाशमुपैति वीभूय जोगे समणाण सुणेह, जह खंति निक्खुणो एगे।। विनश्यत्येवं स्त्रीभिः सार्ध संवसनन परिजोगेनानगारा नाश अस्य चानन्तरं परस्परसूत्रसंबन्धी वक्तव्यः । स चायं संबमुपयान्ति सर्वथा जातुपकुम्नवत् । व्रतकाठिन्यं परित्यज्य धो विषयपाशैमोहमागच्चति । यतोऽत प्रोज एको रागसंयमशरीराश्यन्ति । २७। द्वेषावयुतः स्त्रीषु रागं न कुर्यात् । परस्परसूत्रसंबन्धस्तु संकुव्वंति पावगं कम्म, पुट्ठा वेगे व माहिसु ॥ लोकनीयमनगारं दृष्ट्वा च यदि काचिद्योषित् साधुमशनानोहं करेमि पावंति, अंके साइणी ममे सत्ति ॥॥ दिना नोवारकल्पेन प्रतारयेत्तत्रौजः सम रज्यतेति तत्राजो तासु संसाराभिष्बङ्गिणीष्वभिसक्ता अवधीरितैहिकामुष्मि- कव्यतः परमाणुजीवतस्तु रागद्वेषवियुतः स्त्रीषु रागादिहैव कापायाः पापं कर्म मै युनासेवनादिकं कुर्वन्ति विदधात । परि वक्ष्यमाणनीत्या नानाविधा विमम्बना अघन्ति तत्कृतश्च कर्म भ्रयाः सदनुष्ठानादेके केचनोत्कटमोहा प्राचार्यादिना चोध- बन्धस्तद्विपाकाचामुत्र नरकादौतीवा वेदना नवन्ति यतोऽत एमाना पवमा हुर्वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः । तद्यथा नाहमेवंभूतकुत्र- तन्मत्वा भावौजः सन् सदा सर्वकालं पाऽनर्यखनिषु स्त्रीषु न प्रसूतः एताकार्य पापोपादानतूतं करिष्यामि ममैषा दुहि- रज्येत । तथा यद्याप मोहोदयात् भोगानिलाषी नवेत्तयाप्यतृकल्पा पूर्वमङ्गेशायिनी आसीत् तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव हिकामुष्मिकापायान् परिगणय्य पुनस्तान्यो विरज्येत । एतामत्येवमाचरति न पुनरहं विदितसंसारस्वनावः प्राणात्यये तं जवति कर्मोदयात्प्रवत्तमाप चित्तं हेयोपादेयपालोचनया ऽपि व्रतभङ्गं विधास्य ति ॥ किंच झानाडूशेन निवर्तयेदिति । तथा श्राम्यन्ति तपसा खिद्यन्तीति श्रमणास्तेषामपि भागश्त्येतवृष्पत यूयम एतदुक्तं भवति गृह बानस्स मंदयं बीजं, जं च कर्म अवजाणई नुजो ॥ स्थानामाप भोगा विम्म्बनाप्राया यतीनां तु मोगा इत्येतदेव मुगुणं करे से पावं, पूयणकामो विसनेसी ।। शए । विम्यनाप्राय किं पुनस्तकृतावस्या । तथाचोक्तं मुएशिर बास्यास्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमार्थदश एतद्धितीय-। इत्यादि पूर्ववत् । यथा यया च भोगानेकेऽपुटधर्माणो भिक्क Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी निधानराजेन्डः। इत्थी वो यतयो विमम्बनाप्रायान् शुञ्जते तथोद्देशकसूत्रेणैव वक्ष्यमा- सकादिना अब्धेन पात्रादेमुखादि क्रियतशति तथा वल्गनि शोन णेनोत्तरत्र महता प्रबन्धेन दर्शयिष्यामि । अन्यैरप्युक्तम् । नानि फलानि नारीकरादीनि अक्षाबुकानि वा त्वमाहरानयेति । "कृशः काणः खजः श्रवणरहितः पुच्छविकाः कुधा कामो- यदिवा वाफशानिच धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्याजीर्णः पिउरककपालार्दितगलः । घृणैः पूय किन्नैः कृमिकुन- नरूपाया वाचो यानि फलानि वस्त्रादिवानरूपाणि तान्याहरेति शतैराविनतनुः शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः॥" | ॥४॥ अपिच॥ (८) जोगिनां विमम्बनां दर्शयितुमाह ॥ दारूणि साग पागाए, पज्जोन वा जविस्सती राओ। अहतं तु भेदमावन-मुच्छितं जिक्खु काममतिवद ॥ पाताणि य मेरयावेहि, एहि तामेपिडओ मद्दे ॥ ५॥ पलिनिंदियाएं तो पच्चा, पादुघट्टमुछिपहाणंति॥३॥ यथा दारूणि काष्ठानि शाकं पक्कवस्तुमादिकं अपशाकं अथेत्यानन्तर्यामः । तुशब्दो विशेषणार्थः स्त्रीसंस्तवादनन्त- तत्पाकार्थ कचिदन्नपाकायेतिपाठस्तत्रानमोदकादिकमिति र निर्बु साधु नेदं शीलभेदं चारित्रस्खलनमापन्नं प्राप्तं सन्तं रात्रौ रजन्यां प्रद्योतो वा नविष्यतीति कृत्वा अता अटवी स्त्रीषु सूचितं गृरुमध्युपपञ्चं तमेव विशिनष्टि । कामेष्विच्ग- तस्तमाहरेति । तथा पात्राणि पतगृहादीनि रञ्जयोपय येन मदनरूपेषु मतेर्बुकर्मनसो वा वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काम- सुखेनैव भिकाटनमहंकरोमि । याद वा पादावलक्तकादिना मतिवर्तः कामानिलाषुक इत्यर्थः । तमेवंतूतं परिभिद्य मद रजयेति । तथा परित्यज्यापरं कर्म ताबदेह्यागच्छ में मम पृष्ठज्युपगतः श्वेतकृष्णप्रतिपन्नो मशक श्त्येवं परिकाय यदि मुत्प्राबल्येन मर्दय बाधते ममाङ्गमुपविष्टाया अतः संहारयवा परिनिद्य परिसार्यात्मसात्कृतं चोचार्येति । तद्यथा मया पुनरपरं कार्यशेषं करिष्यसीति ॥५॥ किंचतव लुश्चितशिरसो जखमलावियतया पुर्गन्धस्य जुगुप्सनीय वत्थाणि य मे पमिलेहेहि, अचंपाणंच प्राहरा हित्ति । कक्कायकोवस्तिस्थानस्य कुलशीलमर्यादाबजाधर्मादीन परि- गंधं च रओहरणं च, कासवगं मे समणु जाणाहि ॥६।। त्यज्यात्मादत्तस्त्वं पुनरकिंचित्कर श्त्यादि भणित्या प्रकुपि- वस्त्राणि च अम्बराणि मे मम जीर्णानि वर्तन्तेऽतःप्रत्युपेतायास्तस्या असौ विषयमूर्जितस्तत्प्रत्यापनार्थ पादयोनि- कस्वान्यानि निरूपय यदि वा मलिनानि रजकस्य समर्पय पतितः । तथा चोक्तम् । “ व्यजिनकेसरवृहाच्चरसश्च मद्यपाधं वा मूषिकादिभयात्प्रत्युपेवस्वेति । तया अन्नपासिंहा नागाश्च दानमदराजिकृशैः कपोझैः । मेधाविनश्च पुरु- नादिकमाहरानयोत तथा गन्धं कोष्टपुटादिकग्रन्थि वा हिरषाः समरे च शूराः स्त्रीसन्निधौ परमकापुरुषा प्रवन्ति" एयं तथा शोजनं रजोहरणं तथा लोर्च कारयितु महमशक्ते॥१॥ ततो विषयेष्वेकान्तेन मृर्चित ति परिज्ञानात्पश्चा त्यतः काश्यपं नापितं मच्चिरो मुम्नाय श्रमणानुजानीहि त्पादं निजवामचरणमुकृत्योरिक्षप्य मूर्ध्नि शिरसि प्रधान्ति ता येनाहं वृहत्केशानपनयामीति ॥६॥ मयन्त्येवं विमम्बनां प्रायन्तीति" ॥२॥ अन्यच्च ___किंचान्यत्जा केसिआणं मए निक्खु, णो विहरे सहणमिथिए । अदु अंजर्णि अलंकारं, कुक्कुमयं मे पयच्ाहि॥ केसाण विह झुचिस्स, नन्नत्य मए चरिकासि ॥ ३ ॥ लोकं चलोछकुसुमं च, वेणुपलासियं च गुलियं च ।। कुटुं तगरं च आगरु, संपिठं सम्म उसिरेणं। केशाः विद्यन्ते यस्याः सा केशिका णमिति वाक्याबंकारे। तेवं मुहलिजाए, वेणुफलाई सन्निधानाए ॥७॥ हे निको! यदि मया स्त्रिया नार्यया केशवत्या सह नो विहरेस्त्वं सकेशया स्त्रिया जोगान् जुआनो ब्रीमायादवहसि ततः केशा अथ शब्दोधिकारान्तरप्रदर्शनार्थः पूर्वलिङ्गस्थोपकरणान्यधिनप्यहं त्वत्सङ्गमाकारिणी मुश्चिष्याम्यपनेष्यामि । प्रास्तां कृत्याभिहितमधुना गृहस्थोपकरणान्यधिकृत्याभिधीयते तद्यथा तावदलंकारादिकमित्यपि शब्दार्थः अस्य चोपक्षकणार्थत्वाद (अंजणीमिति) अाणिकां कजलाधारनूतां नलिकां मम प्रन्यदापि पुष्कर विदेशगमनादिकं तत्सर्वमहं करिष्ये त्वं पुनर्न यच्चस्वेत्युतरत्रक्रिया । तथा कटककेयूरादिकमकारंवा तथा मया रहितो नान्यत्र चरेः । श्दमुक्तं भवति मयारहितेन भव (कुक्कुमयंति) खुंखुणकं मे मम प्रयच्छ येनाहं सर्वालङ्कारविन्नू ता कणमपि न स्थातव्यमेतावदेवाहं प्रवन्तं प्रार्थयामि अहम षितावीणाविनादेन भवन्तं विनोदयामि तथा सोधं च बोधकुसु मंच। तथा (वेणुफलासियंति) वंशात्मिका श्लकणत्वक पि यद्भवानादिशति तत्सर्व विधास्य इति ॥ ३॥ (8) इत्येवमतिपेशलैर्विधम्मजननैरापातन कैरानापैर्विश्र काष्ठिका सा दन्तैामहस्तेन प्रगृह्य दक्किणहस्तेन वीणावघा. म्नयित्वा यत्कुर्वन्ति तहयितुमाह ॥ द्यते । तथौषधगुटिकां तथाजूतामानय येनाहमविनष्टयौवना अह एं स होई उपनको, तो पेसंति तहा नूएहिं। भवामीति ॥ ७॥ तथा ( कुट्टमित्यादि ) कुष्ठमुत्पलकुष्ठं तथा ऽगरं तगरं च एते द्वे अपि गन्धिकद्रव्ये पतत्कुष्ठादिकमुशीरे अलानच्छेदं पेहेहि, वग्गुफबाई आहहित्ति ॥ ४॥ ण वीरणीमूलेन संपिष्टं सुगन्धि नवति यतस्तत्तथा कुरु तथा अयेत्यानन्तर्यार्थः णमिति वाक्याझंकारे विश्रम्नालापानन्तरं तैलं बोधकुङ्कमादिना संस्कृतं मुखमाश्रित्य (जिंजपत्ति) अ. यदासा साधुर्मदनुरक्त इत्येवमुपलब्धो भवत्याकारैरिङ्गितै ज्यङ्गाय कियस्व। एतमुक्तं नवति । मुखात्यङ्गार्थ तथाविध भ्रष्टया वा महशग इत्येवं परिझातो भवति तानिः कपटना संस्कृतं तैलभुपाहरेति येन कान्त्युपेतं मे मुखं जायेत ( वेणुटकनायिकाग्निः स्त्रीभिस्ततस्तदभिप्रायपरिज्ञानात्तरकाझं फबाति) वेणुकाण करएमकपेटिकादीनि सन्निधिः सतथाभूतैः कर्मकरव्यापारैरपशब्दैः प्रेषयान्त नियोजयन्ति । निधानं वस्त्रादेर्व्यवस्थानं तदर्थमानयेति ॥ ७॥ किंचयदि वा तथाभूतैरिति सिङ्गास्थयोम्यापारैः प्रेषयन्ति तानेव दयितुमाह । अबाबुतुम्धं विद्यते येन तदसाबुच्छेदं पिप्पल नंदी चुम्मगाई पाहराहिं, बत्तोवाणहं च जाणाहिं। कादिशस्त्र ( पहाहित्ति) प्रकस्व निरूपय बन्नस्वेति येन पिप्प- । सत्यं च सूबच्चेज्जाए, आणीसंच वत्थयं रयावहिाणा Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी अभिधानराजेन्डः । इत्थी सुफणिं च सागपागाए आमन्नगा इंदगाहरणं च। । मदिराजाजनं वा तदानयोत क्रिया । तथा वोंगृहं पुरीपोत्स र्गस्थानं तदायष्मन् मदर्थ खन संस्कुरु । तथा शरा इषवः तिनगकरणिमंजणसालागंप्रिंसु मे विणयं विजाणेहि।१०। पास्यन्ते किन्यन्ते येन तरपारं धनुस्तज्जाताय मत्पुत्राय कृते (नंदी चुम्मगाइति ) व्यसंयोगनिष्पादितोष्ठमृकणचूड ढोकय । तया (गोरहगति) यहायणं बनीवर्द च ढोकयति निधीयते । तमेवंभूतं चूर्ण प्रकर्षेण येन केनचित्प्रकारेणाहरा (सामणपत्ति) श्रमणस्यापत्यं श्रामणिस्तस्मै श्रामणये त्वनयेति । तथाऽऽतपस्य वृष्टेर्वा संरक्षणाय उत्रं तयोपानही च पुत्रायगव्यादिकृते भविष्यतीति॥१शा तथा (घमिगंचेत्यादि) ममानुजानीहि । न मे शरीरमेभिर्विना वर्तते ततो ददस्वति । घटिकां मृन्मयकुल्लुमिका मिएिकमेन पटहकादिवादित्रवि तथा शस्त्रं दात्रादिकं सुपच्छेदनाय पत्रशाकच्छेदनार्थ दौकयस्थ शेषेण सह तथा (चेअगोदंति) वस्त्रात्मकं कंकं कुमार। तथा वस्त्रमम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय यथा नीनमीषनी सामस्त्येन वा नीलं भवत्युपत्रकणार्यत्वासक्तं यथा तूताय कुखकजूताय राजकुमाररूपाय वा मत्पुत्राय क्रीमनाजवतीति ॥९॥ तया (सुफणि चेत्यादि) सुष्ठ सुखेनवा फएयते र्थमुपानयेति । तथा वर्षमिति । प्रावृदकालोऽयमच्यापन्नोकाथ्यते तक्रादिकं यत्र तत्सुफणिस्थालिपिठरादिकंन्नाजनमजि निमुखं समापन्नोऽत आवसयं गृहं प्रावृटकालनिवासयोग्य तथा नक्तं च तन्दुसादिकं तत्कायोग्यं जानीहि निरुपय निधीयते तच्छगकपाकार्यमानय । तया अामाकानि धात्रीफबानि स्मानार्थ पित्तोपशमनायान्यवहारार्थ वा । तथोदकमाव्हियते प्पादय येन सुखेनैवाऽनागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावयेन तदकाहरणं कुटवर्धनिकादि अस्य चोपलवणार्थत्वाद् कालोऽतिवाह्यत इति । तमुक्तं “मासैरटनिरह्ना च, पूर्वेण घृततवाद्याहरणं सर्व वा गृहोपस्करं ढौकस्वेति । तिनकः वयसाऽऽयुषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते" क्रियते यया सा तिककर्णी दन्तमयी सुवर्णात्मिका वा श. ॥ १५ ॥ एवं च। साका यया गोरोचनादियुक्तया तिबकः क्रियते शति । यदि प्रासंदियं च नवमुत्तं, पाउमाई संकमट्ठाए । वा गोरोचनया तिनका क्रियते सा च तिककर्णीत्युच्यते । अपुत्तदोहलहाए-आणप्पा हवंति दासा वा ॥१५॥ तिनकाः क्रियन्ते पिध्यन्ते वा यत्रसा तिककर्मात्युच्यते तथा- मैले काष्ठपायुके चा संक्रमणार्थ पर्यटनार्थ निरूपय यतो अन सौवीरकादि शत्राका अणोरञ्जनार्थ शलाका अञ्जनश नाहं निरावरणपादा नूमौ पदमपि दातुं समर्थेति । अथवा नाका तामाहरति। तथा ग्रीष्मे उष्णाभितापे सति मे मम विधू पुत्रे गर्नस्थे दौहृदः पुत्रदौहृदः अन्तर्वनी फवादावनिलाधनकं व्यजनकं विजानीहि ॥ विशेषस्तस्मै तत्संपादनार्थ स्त्रीणां पुरुषाः स्ववशीकृता दासा संकासगं च फणिहं च, सीहलिपासगं च आणाहि। श्व क्रयकीता श्वाज्ञाप्या आज्ञापनीया भवन्ति । यथा दासा आदसगं च पयच्याहि, दंतपक्खालणं पवेसाहि॥११॥ अजितर्योग्यत्वादाशाप्यन्ते पवं तेऽपि बराकाः स्नेहपाशापूयफणं तंबोलयं, सूई सुत्तगं च जाणाहि । वपाशिता विषयार्थिनः स्त्रीनिः संसारावतरणवीथीजिरा दिश्यन्त ति ॥ १५॥ कोसंयमो च मेहाए, सुप्पु खन्नगंच खारगालणं च॥१॥ अन्यञ्चएवं संमासिकं नासिकाकेशोत्पाटनं फणिहं केशसंयम नार्थ कङ्कतकं तया (सीहनिपासगंति ) वीणासंयमनार्थमू जाए फल्ने समुप्पन्ने, गेएहं सुवाणं अहवा जहाहि । मयं कङ्कणं चानय ढोकयोत। एवमासमन्तादृश्यते आत्मा- अह पुत्तपोसिणो एगे, नारवहे हवंति उद्यावा । १६ । यस्मिन् स श्रादर्शः स एव आदर्शकस्तं प्रयच्छ ददस्वति । जातपुत्रः स एव फलं गृहस्थानाम्, तथाहि पुरुषाणां कामनो तथा दन्ताः प्रकाल्यन्ते अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रका गफलं तेषामपि फवं प्रधान कार्य पुत्रजन्मेति । तमुक्तम् । “दं सनं दन्तकाष्ठं तन्मदन्तिके प्रवेशयेति ॥११॥ (पूयफलं चेत्या तत्स्नेहसर्वस्वं, सममान्यदरिज्योः अचन्दनमनौशीर, ददयदि) पूगफलं प्रतीतं ताम्बूलं नागवदिवं तथा सूचीं च सूत्र स्थानुझेपनम् ॥१॥ यत्तच्पनिकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्तभाषिणा च सूच्यर्थ वा सूत्र जानीहि ददस्वति । तथा कोशमिति वार हित्वा सौख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते-" ॥शा यथा कादिजाजनं तन्मोचमेहाय समाहर तत्र मोचः प्रसवर्ष कायि स्रोके पुत्रसुखं नाम द्वितीयं सुखमात्मन इत्यादि । तदेवं पुत्रः केत्यर्थः। तेन मेहः सेचनं तदर्थ प्राजनं दौकय। एतदुक्तं भवति बहिर्गमनं कर्तुमहमसमर्या रात्री जयादतो मम यथा रात्री पुरुषाणां परमाज्युदयकारणं तस्मिन्समुत्पन्ने जाते तद्देशेबहिर्गमनं न नवति तया कुरु । एतश्चान्यस्याप्यधमतमत न याः विझम्बनाः पुरुषाणां नवन्ति । अमुं दारकं गृहाण त्व महन्तु कर्मासक्तान मे ग्रहणावलरोऽस्ति अथ चैनं जहाहि परिव्यस्योपलकणं अष्टव्यम् । तथा शूर्प तएमुखादिशोधनार्थ तथाबखन तथा किंचन कारस्य सर्जिकादेर्गाजनकमित्येव त्यज नाहमस्य वार्तामपि पृच्छाम्येवं कुपिता सती ब्रूते मयाध्य नवमासानुदरेणोढस्त्वं पुनरुत्सङ्गनाप्युद्वहने स्तोकमपि कानमादिकमुपकरणं सर्वमप्यानयोत ॥१२॥ मुद्विजस शति । दासदृष्टान्तस्त्वादेशदानव साम्यं भजते किंचान्यत् ॥ नादेशनिष्पादनेनैव तथाहि दासनयात्रुदन्नादेश विधत्ते चंदानगं च करगं च, वचघरं च आनसो खणइ । स तु खीवशगोऽनुग्रहं मन्यमानो मुदितश्च तथा देश विधत्ते सरपायं च जयाए, गोरहगं च सामणए य ॥ १३ ॥ " यदेव रोचते महां, तदेव कुरुते प्रिया । इति वेत्ति न जाना ति, तत्प्रियं यत्करोत्यसौ ॥१॥ ददाति प्रार्थितप्राणान् मातरं घामगं च समिमिमयं च, चनगोल्नं कुमार लूयाए । हन्ति तत्कृते ॥ किन्नदद्यात्किन्न कुर्यात्खीभिरज्यर्थितो नरः।श वासं समलि श्रावस्म, आव महं च जाण जत्तं च ॥१४॥ ददाति शौच पानीयं, पानी प्रकाशयत्यपि। श्लेष्माणमपिगृहाचंदामकमिति देवतार्च निकाद्यर्थं ताम्रमयं माजनमतच ति, स्त्रीणां वशगतो नरः॥ ३॥ तदेवं पुत्रनिमित्तमन्या मयुरायां चन्दाबकत्वेन प्रतीतामिति । तया करको जनाधारो यत्किचिनिमित्त मुद्दिश्यहासमिवादिशन्ति । अथ तेऽपि पुत्रान् । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी इत्थी (६३२) अभिधानराजेन्द्रः। पोषितुंशी येषांते पुत्रपोषिण उपसरणार्थत्वादस्य सांदेश- तास्तीर्थकरगणधरादिग्निः प्रतिपादिता इति ॥ १५ ॥ कारिण एके केचन मोहोदये वर्तमानाः स्त्रीणां निदेशवर्तिनो सर्वोपसंहारार्थमाह ।। ऽपहस्तितैहिकामूमिकापाया उष्ट्रा श्व परवशा भारवाहा एवं जयंण से याय इश, से अप्पगं निमित्ता। भवन्तीति ॥१६॥ णोत्यिणो पसृजिक्खुणोसयंपाणिणाणलजेज्जा।३०॥ किंचान्यात् ॥ एवमनन्तरनीत्या भयहेतुत्वात्स्त्रीनिर्विकप्तं तथा संस्तवस्तराओविनाडिया संता, दारगं च संग्वंति धाई वा । संवासश्च नयमित्यतः स्त्रीनिःसार्ध संपर्को नश्रेयसे असदनुसुहिरामणा विते संता, वत्थधोवा हवंति हंसा वा ॥१७।। ष्ठानहेतुत्वात्तस्येत्येवं परिझायस भिकुरवगतकामजोगविरात्रावप्युत्थिताःसन्तो रुदन्तं दारकंधात्रीपतसंस्थापयन्त्य- पाक आत्मानं स्त्रीसंपर्कानिरुध्य सन्मार्गप्यवस्थाप्य यत्कुनेकप्रकारैरुडापैः। तद्यया ॥ " सामिउसणीगरस्स-यणक- त्तिहर्शयति । न स्त्रियं नरकवी थिप्रायां नापि पधुंबीयेतातरस्स य हत्यकप्पगिरिपट्टणसीहपुरस्स चउणयस्स भिन्न- श्रयेत स्त्रीपयुज्यां सह संवासं परित्यजेत् । “ स्त्रीपशुपएम स्स य कुचिपुरस्स य कणकुज्जआयामुहसोरियपुरस्स य" कजिता शयेति" वचनात्तथा स्वकीयन पाणिना हस्तेनाइत्येवमादिनिरसंबः क्रीमनकापैःस्त्रीचित्तानुवर्तिनः पुरु- बाध्यस्य (ण लिऊोजति) नसंबाधनं कुर्यात् । यतस्तदपि ह. पास्तत्कुर्वन्ति येनोपहास्यतां सर्वस्य व्रजन्ति सुष्ट हार्वज्जा स्तसंवाधनं चारित्रं शवलीकरोति । यदि वा स्त्रीपश्यादिकं तस्यां मनोन्तःकरणं येषां ते सुहीमनसो सज्जालवोऽपि ते स्वेन पणिना न स्पृशेदिति । २० । अपिच । सन्तो विहाय मज्जास्त्रीवचनात्सर्वजघन्यान्यपि कर्माणि कुर्वते सुविसुक लेसे मेहावी, परकिरिअं च वज्जए नाणी।। तान्येव सूत्रावयवन दर्शयति । वस्त्रधावका वस्त्रप्रकासका मणसा क्यसा कारण, सव्वफाससहे अणगारे॥१॥ ईसा श्व रजका श्व जवन्ति अस्य चोपत्रकणार्थत्वादन्यदपि उदकवाहनादिकं कुर्वन्ति ॥१७॥ सष्ठ विशेषेण शुका स्त्रीसंपर्कपरिसंहाररूपतया निष्ककिमेतत् केचन कुर्वन्तीति येनैवमभिधीयते । सङ्का लेश्यान्तः करणवृत्तिर्यस्य स तया स एवंतूतो मेधावी वादं कुर्वन्तीत्याह । मर्यादावर्ती परस्मैरूयादिपदार्था क्रिया परक्रिया तां चज्ञानी विदितवेद्यो वर्जयेत्परिहरेत् । एतदुक्तं भवति । विषयोएवं बहुहिकए पुवं, नोगत्थाए जो जियावना ।। पजोगोपाधिना नान्यस्य किमपि कुर्यात् नाप्यात्मनः निया दासेमिव पेसे वा, पमुजूतेव सेण वा केई ॥१०॥ पादधावनादिकमपि कारयेत्ाएतच्च परक्रियावर्जन मनसा एवमिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकारणं पुत्रपोषणवखधावना- बचसा कायेन वर्जयेत्तथा ह्यौदारिककामभोगाथै मनसा न दिकं तद्वहुभिः संसाराभिष्वङ्गितिः पूर्वतथापरे कुर्वन्ति कारि- गच्छति नान्यं गमयति गच्छन्तमपरं नानुजानीते एवं वाचा प्यन्ति च ये भोगकृते कामनोगार्थमैहिकामुष्मिकापायमपर्या- कायेन च सर्वेप्यौदारिके नव भेदा पवं दिव्ये ऽपि नव सोच्याभिमुख्येन भोगानुकूल्येनापन्ना व्यवस्थिताः सावधनु- नेदास्ततश्चाष्टादशभेदभिन्नमपि ब्रह्म विनृयात् । यथाच स्त्री टानेषु प्रतिपमा शति यावत् । तथा यो रागान्धः स्त्रीवशीकृतः स्पर्शपरिषहः सोढव्य एवं सर्वानपि शीतोष्णदंशमशकतृणास दासवदशङ्किताभिस्तानिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते।। दिस्पर्शानपि सहेत । एवं च सर्वस्पर्शसहोऽनगारः साधुर्नवतथा वागुरापतितपरवशो मृग श्व धार्यते नात्मवशोनोजनादि- तीति । । क्रियापि कर्तुं लभते । तथा प्रेप्य श्वकर्मकर श्व क्रीत श्वव क एवमाहेति दर्शयति । चःशोधनादावपि नियोज्यते। तथा कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहित- इच्चेव माहु से वीरे, धुअरए धुअमोहे से निक्खू । तया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यत्वात् पगुन्नत श्व यथाहि पशु तम्हा अन्नत्थ विमुक्के,मुविमुक्के आमोक्खाएपरिब्बएज्जासि। राहारजयमैपुनपरिग्रहानिक एवं केवसमसावपि सदनुष्ठान (पान्तरं विहरे आमुक्खाए सिमि) श्च्वेषमाहुरित्यारहितत्वात्पशुकल्पः । यदि वास स्त्रीवशगो दासमृगप्रेष्यपशु दि (श्त्येवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्वसवीरो भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः ज्यो प्यधमत्वान्न कश्चित्, एतमुक्तं भवति सर्वाधमत्वात्तस्यत परहितैकरत आह उक्तवान् । यत एवमतोधूतमपनीरजःस्त्रीसुख्य नास्त्येष येनासावुपमीयेत । अथवा न स कश्चिदित्युभ संपर्कादिकृतं कर्म येन सधूतरजाः तथा धूतो मोहोरागद्वेषपत्रपत्वात्।तथादिन तावत्प्रवजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितत्वाना रूपो येन स तथा । पागन्तरं वा धृतोऽपनीतो रागमार्गों पिगृहस्थस्ताम्खूनादिपरिजोगरहितत्वाल्लोचिकामात्रधारित्वा रागपन्था यस्मिन् खीसंस्तवादिपरिहारात्तत्तथा तत्सर्वनग। यदिखा ऐहिकामुपिकानुष्ठायिनांमध्ये न कश्चिादीते॥१०॥ सांप्रतमुपसंहारद्वारेण स्त्रीसनपरिहारमाह ॥ वान् वीर पवाह । यत पर्वतस्मात्सनिकुरत्यास्मषिशुरूः सु विद्याकान्तःकरणः सुनु रागद्वेषात्मकेन स्त्रीसंपर्कण मुक्तः एवं खु तासु विअप्पं, संघर्ष संघासं च वजेजा। सन्नामोकायाशेषकर्मवयं यावत् परि समन्तारसंयमेऽनुष्ठाने तज्जातिआइ मेकामा, बजकरा य एवमक्खाए ॥१॥ बजेन्द्रच्छेत्संयमांयोगवान् नवेदिति ॥ सूत्र० ॥२ श्रु०४०। एतत्पूर्वोक्तं खुशब्दो वाक्यालंकारे तासु यस्थितं तासां वा (१०) खीस्वरूपस्य स्त्रीचरित्रस्य चातिनिन्दनीयत्वम् । स्त्रीणां संबन्धि यज्ञितमुक्त। तद्यथा । यदि सकेशया सह तत्र स्वरूपनिन्दा यथाम रमसे ततोह केशानप्यपनयामि इत्येवमादिकम् । तथा स्त्रीमिः सार्धं संस्तवं परिचयं तत्संवासं च स्त्रीभिः सहकत्र हा असुइसमुप्पनिया, निग्गया जेण चेव दारेणं । निवास चात्महितमनुवर्तमानः सर्वापायभीरुस्त्यजेजह्यात् । सत्ता मोहपसत्या, रमंतितत्थेव असुझ्दारम्मि ॥३॥ यतस्ताज्यो जातिरुत्पत्तिर्येषां ते कामास्तजातिकामा रमणी- हा ति खदे अबाविसमुत्पन्ना अपवित्रोत्पन्ना येनैष द्वारेण संपर्कोत्यास्तथाऽवचं पापं वजं वा गुरुत्वादधःपातकत्वेन निर्गताः चशवायोगत्वमापनमाः सत्वा जीवाः मोहप्रसपापमेव तत्करणशीसा अवद्यकरा बजकरा वेत्यवमाख्या- ता विषमरक्ताः रमन्ते क्रीम्यन्ति । तत्रैवाशुचिद्वारे दोक Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३३ ) अभिधानराजेन्द्रः । इत्थी समुप्रसूतकुमारयदिति । एवं शरीराच सति शिष्यः प्रश्नपति किह ताव घरकुमीरी, इसस्सेहिं अपरितं तेहिं । निज प्रसिं जपणंति सकज्जमूदेहिं ॥ ४ ॥ हे पुज्याः ! कथं तावद् गृहकुड्याः स्त्रीदेहस्येत्यर्थः अपरिराः तैरा परिश्रम गतैः कविसहस्रैः ( जघणंति ) स्त्रीकट्यग्रनागं जगरूपमित्यर्थः वा वचनविस्तारेण विस्तार्थतेजि नम् अशुचिवि परमापवित्रविवरम् उक्तं व " चखएक सदा निन्नमपानो फारचा सितम। तत्र मुद्धा हवं यान्ति प्राणैरपि धनैरपि ॥ ४ ॥ (तत्र प्राणैः शाक्यादयः कयङ्गताः धनैर्धम्मिल्लादय इति ) रागेश न जाणंति वराया कलमास्स निदमयं । ताणं परिदंती नीलप्लव च ॥ ५ ॥ शिष्य ! ती प्रकामरागेण न जानन्ति इदये च शब्दादन्ये षां न कथयन्ति वराकास्तपस्विनः कलमस्यापवित्रमतस्य निमनं खालु इति ( ताणंति ) णं वाक्यालङ्कारे तज्जघनं (परिदतीत्ति ) परमविषयास का वर्णयन्ति कथं वक्तार श्वाये श्व उत्प्रेक्ते फुलं प्रफुलं विकसितमित्यर्थः नीलोत्पल्लवनमिन्दीवरकाननम् ॥ ५ ॥ किचियमित्तं बने अमिनमध्यंमि वचसंघारो । " रागो हुन काययो विरागमुझे सरीरम्म ।। ६ ।। किमात्मा (वचेति) वर्णयामि शरीरे वपुषि हु यस्मादेवं तस्माद्रागो न कर्त्तव्यः । स्थूलभषवजूस्वामिजम्बूस्वाम्यादिवत् । किंतु अमेत्यं प्ररमस्मिन्निति मे मये गूयात्मके इत्यर्थः । वर्चस्कसंघाते परमापवित्रविष्ठासमूहे ( विरागमुलेति ) विशिष्ट रागो विरागः मनोहराग इत्यर्थः । तस्य मूलं कारणं कामासक्तानामङ्गारवती रूपदर्शने प्रद्योतस्येव । यद्वा विगतो रागो मन्मथनावो यस्मात्स विरागो वैराग्यमित्यर्थः तस्य कारणं कारित स्मिन्विरागमूले ॥ ६ ॥ किमकुलपर्सको अमुश्यमयुक्त्वे असास यमसारे । सेयमपुचमम्मी, निदेषं वचहसरीरे ॥ ७ ॥ कृमिकुशती (असुरयमनुपखति अबिके अपवि श्रमल व्यासे (अक्खे ) अशुरू सर्वथा धौतुमशक्यत्वात् । अशास्वते कणं २ प्रतिविनश्वरत्वात् । भसारे सारवर्जिते ( खेयमपुचममिति ) दुर्गन्धिस्वेदमविगविग/यमाने शरीरे जीवा यूयं निराम्यं तच्छविक यशोनृपस्येवेति ॥ 9 ॥ तमन्नगुहग, सिंहाणमले य बालमलबहुले । या रिसर्वस्ये, गुच्छ जिम्बि कोराओ ॥ ८ ॥ दन्तमप्र-कर्णमथकसिंघाणमते शब्दः शरीरगतानेकमनार्थः लाक्षामत्रयहुझे पतारशी गुप् नये सर्वथा निन्द्ये वपुषि को रागः ॥ को समयमा विकिरण-विदंसणचयणमरणाधम्मम्मि देहम्मी सास, कुहियकमान्यम्मि | 0 || देहे शरीरे कोऽनिलापो वाचा किंतूते शटनपतनवि किरण विध्वंसनच्यवनमरणधर्मे तर कुदादेः पत इत्थी माहादेः खच्छेदादिना विकिरणा विनश्यत्यं वि रोगज्वरादिना अर्ज करण, व्ययनं हस्तपादावेवैशयः मरणं सर्वथा कयः । पुनः किंजुते कुधितकनिकाष्ठभूते । वि कर्कश ॥ ॥ कागमुणगाण जवले, किमिकुलनचे य वाहिले य । देहाम्म मत्यजचे सुसासनसम्म को रागे ॥ १० ॥ देते को रामः किंजू काकानो पुकारी पण पोर्नये खाद्ये कृमिकुलभक्ते च व्याधिजक्ते च मत्स्यभक्ते स्मशान नक्ते च ॥ १० ॥ असुई अमिपुत्रं कुणिमकल्लेवरकुकियपरिसर्वति । तयसंवियं, नवविदमसासयं जाणे ॥ ११ ॥ चि सदाऽविरुममेध्यपूर्ण विष्ठाभृतम् ( कुणिमकलेवर कुमीति ) मांसशरी रहयोगृहम् ( परिसवंतीति) परिस्रयत् सर्वतो त्यागन्तुकसंस्थापितं मातापि शोणितयुदितं नवविरन्धोपेतम् अशाश्वतमस्थिरम् । एवंविधं वपुस्त्वं जानीहीति ॥ ११ ॥ पिच्छसि मुद्दे सति सविसेस राण अहरणं ॥ कक्खं सवियारं, तरत्नच्छि जुव्वणत्थीए । १३ ॥ पोवनस्त्रियास्तया मुखं तुएं नरकएक साधुसंयमनृपविषखएकं त्वं पश्यसि नन्दिषेण शिष्याईनकस्थूलमसतीर्थ्यवत् किंभूतं सतिलकं सपुएम् सविशेषं कुङ्कुमकज्जलादिविशेषसहितं केन सह रागेण ताम्बूनादिरागयता अपरेणोन सद सकटाक्षमवीक्षणसहितम् सविकारं भ्रूचेष्टासहितं यथा तपस्विनामपि मन्मथविकारजनकं तर चपले काकतीयत्रततरजाकि इति पिच्छसि बाहिरम न पिच्छीउरं कलिमलस्स मोहेण न चयतो, सीसघामिकं जियं पियारी || १३ ॥ एवं त्वं बहिर्मृष्टं बाईर्भागे मारितं पश्यसि सरागदृष्ट्या वि लोकयति न पश्यसि अन्यत्र विलोकयसि (उज्जरंति) मध्यगतं कुचेष्टां कुर्वन् (सीसघमी कंजिय पियसिप्ति ) मस्त कपटीरसमपवित्रं पिवति पानं करोषि चुम्बनादिकारेणेति ॥ १३ ॥ सीसघमी निग्गा, जं निट्टहसी दुर्गुच्छसी जं च । तं चैव रागरतो, मूढो अमुच्छिउं पियसि ॥ १४ ॥ मस्तकोवापचित्र पनि नयारी मृत्कृतपसि तुगुप्ससे कुत्सां करोषीत्यर्थः । यश्च त्वं तदेवरागरक्तो विषयासक्तो मूढो महामोहं गतः अतिमूर्च्छितः ततः पिबसि ॥ १४ ॥ पूयमी सकवालं, पूइयनासं च पूदेहं च । पक्ष्यचिदविदिं पुश्यचम्पेण ये पिणकं ॥ १५ ॥ पूतिकशीर्षकपालं दुर्गन्धिमस्तककर्परं पूतिकनासमपविमासिक प्रतिवेदं दुर्गन्धिगा पूतिकविषम अपविलघुविवरवृरूविवरं पूतिकचर्मणा अशुभाजिनेन पिनद्ध नियन्त्रितम् ॥ १५ ॥ गुन्हाणगुणेहि सुकुमाल | पुप्फुमीयिकेशं, जणई बास्स तं रागं ।। १६ । अनगुणसुविशुद्धं तत्राञ्जनं लोचनकज्जलं गुणा नामकगोरादिकादयस्तै सुविशुमत्यर्थशोनायमानं Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी अनिधानराजेन्द्रः। इत्थी स्नानोहर्तनगुणैः सुकुमारम् । तत्र स्नानमनेकधा कालन कामविश्वस्तः सदा विश्वासं गतः (आइक्खसुत्ति ) आख्या मुर्तनं पिष्टिकादिना मोत्तारणं गुणा धूपनादिप्रकाराः यद्वा हि कथय सद्भावं हाई (किम्हिसित्ति) कस्मादऽसि गृद्धस्त्वं स्नानोधर्तनाज्यां गुणास्तैर्मृत्वं गतं पुष्पमिश्रित केशमने- मूढो मूर्खः यद्वा हे मूर्ख यद्वा हे मूढ ब्रह्मदत्तदशमुखादिवत्।। ककुसुमवासितकुन्तनमेवंविधं तन्मुखं मस्तकं शरीरं वा दंता वि अकज्जकरा, बाला वि विवमाणबीनत्था । बालस्य मन्मथकर्कशबाणविकत्वेन सदसद्विवेकविकलस्य चम्मं पिय बीजत्यं, जण किं तसितं गोरागं॥२३॥ जनयति उत्पादयति राग मन्मथपारवश्य येन गुर्वादिकमपि दन्ता अपि अकार्यकरा बाला अपि विवर्कमानाः सर्पवत् न गणयति नन्दिसेणाषाढनूतिमुन्यादिवत् ॥ १६ ॥ बीनत्सा जयंकराः चापि च बीभत्सं नण कथय किं जं सीसपूरओ त्ति य, पुप्फाइँ जणंति मंदविनाणा। (तसित्ति) तस्मिन् शरीरे (तमित्ति) त्वं रागं गतः ॥२३॥ पुष्फाइंचिय ताई, सीसस्स य पूरयं सुणह ॥१७॥ सिंने पित्ते मुत्ते, गृहम्मि य वसाइ दंत कुमीसु । मन्दविज्ञाना मन्मथग्रहग्रथिवीकृताः (जंति ) यानि पुष्पाणि कुसुमानि शीर्षपूरको मस्तकाभरणमिति जणन्ति कथयन्ति जासु किमत्थं तुऊ, असुइमिवि वहिनो रागो।२।। पुष्पाण्येव तानि शीर्षस्य पूरक शृणुत यूयमिति ॥ ( सिनेत्ति ) कफे पित्तमायुषि मूत्रे प्रस्रवणे गूथे विष्ठायां मेग्रोवसायरसिया, खेल्ने सिंघाणए य बुजए यं। (वसात्ति) वसायाः ( दन्तकुमीसुत्ति) हडनाजने यहा मकारोऽवावणिकः दन्तकुड्यां यद्वा (दंतकुमीसुत्ति) दंष्ट्रासु अह सीसपूरओ ने, नियगसरीरम्मि साहोणो ।।१।। जण कथय किमर्थं तवायुचावपि वर्धितो रागः ॥२४॥ मेदोऽस्थिकृत् बसावस्नसा चशब्दोऽनेकशरीरान्तर्गतावय जंघध्यिासु ऊरू, पइट्ठिया तडिया कमीपिडी। वग्रहणार्थः । रसिका व्रणाद्युत्पन्नाः (खेत्ति) कामुखश्ले कमियविष्टियाई, अट्ठारसपिछिअट्ठीणी ॥२५॥ मा (सिंघाणेत्ति) नासिकाइखेमा ( पयंति) वर्चस्कमेतन्मेदादिकं (बुभपयं ) कृपध्वं मस्तके प्रपयत । अथ शीर्षपू (जलध्यिासुकरुत्ति) जंजास्थिकयोहरुप्रतिष्ठितौ स्थापितौ रको (जे) नवतां निजकशरीरे स्वाधीनः स्वायत्तो वर्तते ।१०। यद्वा जवास्थितयोरूरू भवतः (पट्रियत्ति) अत्रायं पदस सा किर दुप्पमिपूरा, वच्चकुमी दुप्पया नवच्छिद्दा । म्बन्धः तयोरूर्वोः स्थिता तत्स्थिता कटिःश्रोणिनवति कट्यां जक्कमगंधविसित्ता, बालजणो अइमुच्चियं गिच्छो॥१॥ प्रतिष्ठिता स्थापिता (पिट्ठित्ति) पृष्ठिर्जयति कट्यास्थिवेष्टि तानि अष्टादश १० पृष्ठयस्थीनि नवन्ति शरीर ति ॥२५॥ सा वर्चस्ककुटी विष्ठाकुटीरिका (किरत्ति) निश्चये दुष्पतिपूरा पुरयितुमशक्येत्यर्थः । किंजूता द्विपदा नवच्छिद्रा उत्क दो अच्छि अट्ठियाई, सोलस गीबहियामुणेयया । टगन्धविलिप्ता तीनदुर्गन्धव्याप्ता एवंविधा शरीरकुटी वर्तते । तां पिटिप्पइट्ठियाओ, बारस किन्न पंसुखी हुँति ॥२६॥ च बालजनो मूर्खलोकः अतिमूर्चितं यया स्यात्तथा गृको लम्प वे अक्ष्यस्थिनी प्रवतः षोमश ग्रीवास्थीनि ज्ञातव्यानि पृष्ठि टत्वं गतः ॥ १॥ प्रतिष्ठिताः द्वादश किलेति प्रसिके पंशुब्यो भवन्ति ॥२६॥ कथं गृक श्त्याह अयि कविणे सिरन्हा, रूबंधणे मंसचम्मक्षेवम्मि । जं पेमरागरत्तो, अवयासेऊण गूढमुत्तोर्सि। विट्ठा कोट्ठागारे, को वचघरो व मे रागो॥ दंतमनचिक्कणंग, सीसघमिकंजियं पियासि ॥२०॥ अस्थितिः (कविणे) कग्नेि यद्वा कग्निानि अस्थिकानि यस्मात्प्रमरागरक्तः कामरागग्रथिवीकृतो लोकः ( अवयासे- यत्र तत्तथास्मिन् सिराभ्रसानां अध्वीतराणां बन्धनं यत्र ऊणत्ति ) अवकाश्य प्रकाश्य प्रकटीकृत्येत्यर्थः ( गूढमुत्तो- तत्तया तस्मिन्, मांसचर्मोपे विष्ठाकोष्ठाकारे वर्चस्वग्रहोसिंति ) अपवित्र रामाजगं पुश्चिह्न वा जुगुप्सनीयं दन्तानां पमे कनेवरे रे जीव तव को रागः ॥२७॥ मनः पिप्पिका दन्तमसस्तन सह चिकणाङ्ग चिगचिगायमान- जह नाम वचकूवो, निचं निणिजयंतकायकली। मङ्गं शरीरमालिङ्गध च शीर्षघटीकाञ्जिकं कपासकर्परखट्टरसं चुम्बनादिप्रकारेण (पियसीत्ति) पिवसि अतृप्तवत् घुण्ट किमिएहिं सुझसुझायइ, सो एहिं य पूइयं वह ॥२०॥ यस्यतः ॥२०॥ ययेति दृष्टान्तोपदर्शने नामति कोमनामन्त्रणे संजावने वा दंतमुशलेसु गहणं, गयाणमंसे य ससयमीयाणं । ( वच्चकृवोत्ति) वर्चस्ककूपो विष्ठा नृतकूपो भवति किंतूतः भिणिनितिशब्दं (नणंतत्ति) भणन् शं कथयन् काकबालेसु य चमरीणं, चम्मनहे दीवियाणं च ॥१॥ कत्रियससंग्रामो यत्र सनिणिनिणित्यभणत्काककनिःक्रमिगजानां दन्तमुसलेषु (गहणंतीति ) ग्रहणमादानं लोकानां कैर्विष्ठानी बङ्गभिः सुझुसुनेत्येवं शब्दं करोतीति सुलुसुमायते वर्तते । मांसे चशब्दासाङ्गादौ शशकमृगाणां ग्रहणं वर्तते। श्रोतोनिश्च रेलकैः पूतिक परमदुर्गन्धं वहात स्रवति इत्यर्थः चमरीणां बालेषु ग्रहणं दीपिकानां चित्रकव्याघ्रादीनांचर्मनखे यथा विष्ठाकूपः तयेदमपि शरीरं ज्ञातव्यं मृतावस्थायां रोगाग्रहणं चशब्दादनेकतिरश्चामनेकावयवग्रहणं वर्तते । कोजावः द्यवस्थायां वेति । २७ । यथा गजादीनां तिरश्चांदन्तादिकं सर्वेषां भोगाय नवति तथा अथ शरीरस्य शवावस्थां दर्शयति गाथात्रयेण । मनुष्यावयवो न नोगाय भवति पश्चादतः कथ्यतेऽनेनादी जिनधर्मो विधेय इति ॥११॥ उछियनयणं खगमुह, विकट्टियं विप्पश्नबाहुलयं । पृश्यकाए य इहं, चवणमुहे निच्चकालवीसत्थो । अंतविकट्टियमासं,सीसघमी पागमीघोरं ।। प्राइक्खसु सन्नावं, किम्हिसि गिको तुमं मूढ ॥॥ जिणि जिणि जणंत सई, विसप्पियं सुनसासिंतमंसाऊं। यह पूतिककाये मपवित्रवपुषि व्यवनमुने मरणसन्मुखे नित्य- मिसिमिसंत किमियं, थिवि थिवि विवि अंतबीनच्छं।। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी पाग करणं पक्षियं विगरा गुफ संधिसंधायें । पनि सरीरमेयारिसं जाण ३१ । + ( ६३५ ) अभिधानराजेन्ध: । दूधृते निष्कासिते काकादिभिर्नयने लोचने यस्य शवस्य यस्मिन् यस्माचा धृतनयनं खगमुखङ्गिकै ( विकरियत्ति ) विकर्तितं विशेषेण कर्तितं पाटितं खगमुखविकर्तितम् विप्रकीर्णी अवकीर्णेौ विरह्नावित्यर्थः ( बाहुलयंति) बाहू प्रविष्टौ यस्य शवस्य तत् प्रकीर्णबाहुः (अंतविकदियमाअंति) विकर्षितान्त्रमानं शृगालादिभिरिति (सीस घरियामिति) प्रगटया शीघटिया तुम्बकिया घोरं रीडम् || २ || (भिणिनिणीति जणंतत्ति ) धातूनामनेकार्थस्वात्पद्यमानः निणिनिलीति शब्दो यत्र तत् भिणिनिणिजच्च मक्किकादिभिर्गणगणा यमानमित्यर्थः । अङ्गादिशिवत्वेन विस्तार (तपाति) त्रायमानमपुरम् ( मिसिनिसिमित किमियंति ) मिसिमिसीति मिसन्तः शब्दं कुर्वन्तः कृमयो यत्र तन्मिसिमिसि freeकृमिकं ( विविधिविधिविश्रंती भच्छंति ) जबजबायमानैरन्त्रैर्यजत्लं रौडमित्यर्थः ॥ ३० ॥ प्रकटिताः प्रकटत्वं प्राप्ताः पांशुलिका यत्र तत्प्रकटितपलिकं विकराल भयोत्पादकम् । शुष्काश्च ताः संघयश्च शुष्कसंघयस्तासां संघातः समुदाय यत्र संघातं पतितं गर्भादी नियंतन येत न्यवर्जितं शरीरं वपुः एतादृशं पूर्वोक्तधर्मयुक्तं त्वं (जाणत्ति ) जानीहि 'जाणे' इति पाठे तु निश्चेतनकं शरीरमहमीदृशं जानामीति ॥ ३१ ॥ माओ अहतरं नहिं सोए परिसतेहिं । मममगरू, निवेयं वयशरीरे ॥ ३२ ॥ नवभिः श्रतः परि वर्चस्काद्या चितरपवित्रतम (ग्रामममगरुचेति) अपकशराब शरीरे निर्वेदं वैराग्यं विष्णु श्रीशरीरे मियशोराजस्येव । ३२ । दो हत्या दो पाया, सीसं जयंपियं कबंधम्मि । कमल कोडागारं परिवहसि दुयादयं वच्चं ।। ३३ ॥ डिस्ले द्विपादे ( उच्चधियति ) शीर्ष/पेन चम्पितं यत्र तच्छ्रीर्षोश्वम्पितं तस्मिन् यद्वा शीर्षे उत्प्राबल्येन चम्पितमाक्रमितं यत्तत्तथा तस्मिन् । प्राकृतत्वात् अनुस्वारः शीपचपिते कम कोठागारे पर्याविधे कबन्धे (दुयादुपति शीघ्रं २ किं वर्चस्कं परिवहसि त्वमिति श्रत्र यथायोगं विभ क्तिविपरिणामो ज्ञेय इति ॥ ३३ ॥ तं चरितं वर्धतरायमन्गमां । परमं सुगंध मतो अप्पणी गंधे ॥ २४ ॥ तरी (किरति संभावना रूपवत्त्रामांगे (आता तंत्र परगन्धैः पाटलसम्पादन ग धकं जातं तत्र च त्वमात्मनो गन्धं ( मनतोत्ति ) जानन् हर्षयसीति ॥ ३४ ॥ परगन्धं दर्शयतिपापमचिगरूपचंद्रणतुरुक्ख मी या समयतो तो अप्पणी गं ॥ २५ ॥ पाट चम्पकमल्लिका गुरुकचन्दन तुरुष्कमिश्रं वा अथवा मिश्र योगोत्पादिकं गन्धकस्यादिकसिम यतोति ) सर्वतो विस्तरत् एवंविधं परगन्धमात्मगन्धमिति ( मनतोति ) जानन् हर्षयसीति ॥ ३५ ॥ इत्थी सुवासरहिगंध, वायग केसा न्हाण सुगंधा, कयरो ते अप्पणो गंध ।। ३६ ।। जवासैः सुन्दरचूर्णैः सुरभिगन्धं सुष्ठु गन्धं शुभवाससुर नि गन्धं वांतेः शीतलादिभिः सुखं शुभं या यत्र तत् वातसुखम् अन्धोपनादिति अग विधम गात्रं वर्तते ( केन्द्राणसुगंधति) च केशाः कचाः ते स्नानेन सवनेन सुगन्धा वर्तन्ते अथ कथय त्वं कतरः कतमः ते तवात्मनो गन्ध इति ॥ ३६ ॥ कमल खझो सिंघाण व पूव । अमुई मुतपुरिसो, एसो ए अप्पो गंध ।। ३७ ।। अमित दूषिकादिः कर्णमन्त्रः प्मा कण्ठमुखमा (पाणन्ति) नासिका सप्मा चशब्दादन्योऽदित मसजिद्दामा मनकामनादिः किंतः (पृयोति पूतिको दुर्गन्धः तथा च सर्वप्रकारैरनं मूत्रपुरीषं प्रश्रावगूथमेषोऽनन्तरोक्तस्ते तवात्मनो गन्धः ॥ ३७ ॥ (११) अथ वैराम्योत्पादनाथैीर दर्शयति यथा जाओ चिप इमाओ इथियाओगे कवरसहस्सेहिं विविपासपत्रिदेहि कामरागमोहेहिं वनि याओ ताओ व एरिसाओ जहा पगइविसमाओ १ पियत्रयणत्रवरीओ २ कइयमगिरिमित्रो ३ अरासहस्रणीओ ४ पजवो सोगस्स ए बिना सो बस्स ६ सूमा पुरिसाणं 9 नासो लज्जाए ८ संकरो अविणयस्सए निलओ नियकीणं १० वी व रस्त ११ सरीरं सोगस्स १२ नेओ मजायाणं १३ साओ रागस्स १४ निनओ कुमरिया १५ मा संमोहो १६ खणा नाणस्स १७ चन्नणं शीलस्त १८ विन्यो धम्मस्स १ अरी साहूणं २० दूसणं आपार पत्ताणं २१ आरामो कम्मरयस्स २२ फलिदो मुक्खमग्गस्स २३ जवणं दरिदस्स २४ अवि याओ इमाओ आमीसोप कपियाओ २५ मत्तगओ चित्रमपण परसाओ २६ पविव दुहियाओ २७ तच्छन वो अप्पासहियाओ २० मायाकार ओ विव नवयारसयबंध एपओत्ताओ २० आयरियसविधं पित्र बहु गिज्ज सन्नावाओ ३० फुंफुया वित्र अंतोदहणसीलाओ ३१ नाम णिवडियचित्ताओ ३२ अंतो दुट्ठ विव कुहियहियाओ ३३ किएहसप्पो वि अविसस्सधिजाओ ३४ संघारोप उनमाया ३५ संज्जरागो तिरागाओ १६ समुहवीची विवचनसावाओ ३७ मच्छो विव दुष्परियत्तणसीला ३८ वानरो विव चत्रचित्ताओं ३एम वित्र निव्वि साओ ४० काओ व निरकंपाओ ४१ वरुणो विन पाओ ४२ त्रिमिव निम्यगामिणो ४२ वि वि उत्तानहत्याओ ४४ नरो वि Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी इत्थी अभिधानराजेन्द्रः । उत्तासणिज्जाओ पए खरो विव दुःसीमाओ ४६ बुट्टा पतिलज्जायाः संघस्याऽऽषाढतियतिचारित्रमुष्टिकानटपुसो विव उद्दमाओ वालो श्व मुटुत्तहिययाओ४७ श्रीवत् (संक० ) संकरवत्करुटकऊकरमन इति जनो क्तिः कस्य अविनयस्य श्वेताङ्गख्यादिपुरुषाणां भार्याअंधयारमिव दुप्पवेसाओ Hए विसवब्बी अणबीय वत् १ (नित्र.)नित्रयो गृहंकासांप्रकृत्यान्तरदम्भानामित्यर्थः णिज्जाओ ५० दुटुग्गहा इव वापी अणवगाहाओ चएम्प्रद्योतप्रेषिता अजयकुमारवञ्चिकावेश्यावत१० (खणीति) ५१ गणनहो विव इस्सरो अप्पसंसणिज्जाओ ५२ खानिराकरः कस्य वैरस्य जमदग्नितापसस्त्रीरेणुकाबत् ११ किंपागफन्नमिव मुहमदुराओ ५३ रित्तमुट्ठी विव बा शरीरं शोकस्य वीरककादम्बिकत्रीवनमायावत् १२ नेदो नाशः मादायाः कुवरुपाया श्रीपतिथेष्ठिपुत्रीवत् यथा मर्याबलोनणिज्जाओ ५४ मंसपेसीगहणमिव सोबद्दवा दायाः संयमत्रवणाया विनाशः आर्डकुमारसंयमस्याईकमाओ ५५ जनियनुगमी विव अमुच्चमाण महणसीलाको रपूर्वनवस्त्रीवत् १३ (प्रासाप्रोत्ति ) आशा वाचा रागस्य ५६ अरिहमिव दुखंघणिज्जाओ५७ कूहकरिसावणो कामरागस्य तकेतुकत्वात् । यद्वा आश्रयः स्थानं रागस्य उपलविव कामविसंवायणसीलाओपन्चमसीमा विव दुक्ख क्वणस्वादूषस्यापि आर्षत्वादाकारः । यद्वा आईपदपि अइ ति न स्वादः श्रा अस्वादः कस्य [रागस्सत्ति ] धर्मरागस्य रक्खियाओ एए अइविसाओ६० दुग्गंडियाओ६१ दु. १४ (निझ०)नियो गेहं केषां दुश्चरित्राणां नूयगमचौरभरुवचाराअो ६५ अगंजीराओ६३ अविस्ससणिज्जाओ गिनीवीरमतीवत् १५ (माई०) मातृकायाः समहः कम६४ अणवत्थियाओ ६५मुक्खरक्खियाओ ६६ दुक्ख श्रेष्ठिसुतापमिनीवत् १६ (खा०) स्खलनाः खएकनाः ज्ञान स्य क्षुतझानादेः उपनवणाच्चारित्रादे रएमाकुरएमामुएिकपालियाओ ६७ अरइकराओ ६७ कक्कसाओ ६ए दढ कादिबहुप्रसङ्गे तदनावत्वात् । अईनककुल्लकवत् १७ वेराओ ७० रूवसोहग्गमनमत्तानो ७१ जुयगगइकुटि- (च) चनं शीलस्य ब्रह्मवतस्य ब्रह्मचारिणां तस्याः सङ्गे बहिययाओ७३ कतारगईगणनूयाओ७३ कुमसयाण- तन्न तिष्ठतीति भावः २० (विग्धो० ) विनमन्तरायं धर्मस्य मित्तजयण कारिकाओ७४ परदोसपगासियाओ७५ कय- श्रुतचारित्रादेः १५ (अरी०) अरिनिर्दयो रिपुः केषां साधूनां ग्यायो ७६ बन्नसोहियाओ ७७ एगतहरणलोकाओषत मोकपथसाधकानां चारित्रप्राणविनाशकहे तुत्वात् महानरक कारागृहप्रवेपकत्वाच्चकूझवाझुकस्य मागधिकावेश्यावत्३० चंचलाओपएजोईलमोवरागोविवमुहरागविरागाअोजन [दूस०] दूषणं कलङ्कः केषां (आया०) ब्रह्मवसाद्याचारापअवियाई ताओ अंतरंगजंगसयं १ अरज्जुओ पासो नानाम् २१ आरामः कृत्रिमवनं कस्य कर्मरजसः कर्मपराग२ अदारुया अम्वी ७३ अणामयस्स निनओ स्य । यद्वा कर्म च निविम्मोहनीयादि, रश्वकामः, चश्व चौरः, रच तस्याराम वाटिका १२(फनिहात्ति० ) अर्गमा यद्वा अक्खवेयरणी ५ अणामियावाहि ७६ अवि ोगो कम्पकः मोकमार्गस्य शिवपथस्य २३ जवनं गृहं दरिद्रस्य २४ विप्पन्नावो ७७ अरु उवसम्गो रइवतो नए चित्त (अवियाउमात्ति) अपि च या श्मा वत्यमाणाः खियः विब्लमो ए० सव्वंगो दाहो ए१ अणब्जयावज्जा- एवंविधा भवन्ति (आसिवि०) विव शब्द श्वार्य आशीविषसणी २ असन्नीलप्पवाहो ए३ समुदरओ ए४॥ धत्दष्ट्राविषजंगमवत् कुपिताःकोपङ्गता भवन्ति२५(मत्त.) (जाओ चिय श्मायो ) श्त प्रारज्य [समुइरो ] इति मतंगज उन्मत्तमतंगजश्व मदनपरवशा मन्मथविह्वला भवन्ति पर्यन्तं गद्य या एव श्मा वक्ष्यमाणाः स्त्रियः अनेकैः कविवरस अभयाराझीवत् २६ (वग्धी०) व्यात्रीवत् उदयाः इष्टहौः विविधपाशप्रतिबर कामरागमोहेमन्मयरागमूः ( वन्नि चित्ताः पाअगो मात्रपरमातृमहालक्ष्मीवत् १७ (तण) या प्रोत्ति)वर्शिताःशृङ्गारादिवर्णनप्रकारेणेति (ताओ वित्ति) तृणन्नकूप श्व तृणसमूहाच्छादितान्धवत् अप्रकाशहदयाः ता अपि ईदृशा वक्ष्यमाणस्वरूपा ज्ञातव्याः तद्यया (पगवि- शतकश्रावकभार्यारेवतीवत् २८ ( माया० ) मायाकारक समायोत्ति) प्रकृत्या स्वनावेन विषमा चक्रनावयुक्ता आवश्य श्व परवञ्चकमृगाधिबन्धक श्व उपचारशतबन्धनशतप्रयुक्ताः कोक्तपतिमारिकावत् १(पिय) प्रियवचनववर्या मिष्टवाणी- प्रयोक्योवा तत्रोपचारशतानि उपचारिकवचनचेष्टादिशतामार्योझातासूत्रोक्तजिनपालजिनरक्तिोपसर्गकारिणीरत्नहीप- निबन्धनानि रज्जुनहानि बन्धनशतानिच तेषा(पओत्ताओत्ति) देवीवत्२(कश्य) कैतवप्रेमगिरितट्यः कुशिष्यकाबासक- प्रयोगकर्यः श्ए (आयरि०)अत्रापि च श्वार्थे आचार्यसविपातिका मागधिकागणिकावत् ३ ( अवरा०) अपराधसहस्र- धमिवानुयोगकृतसमीपमिव बहुनिरनेकप्रकारैरनेकषुरुषैर्वा गृहरूपाः प्रादत्तमातृचुलनीवत् ५ (पनवो) अयं स्त्रीरूपो प्रायो ग्रहीतुं शक्यः । यद्वा आर्षत्वात् (अगिकत्ति) अग्राह्यः वस्तुस्वन्नावप्रजव उत्पत्तिस्थानं कस्य शोकस्य सीतागते सर्वथाग्रहीतुमशक्यः सद्भाय आन्तरचित्ताभिप्रायो यासांता रामस्येव ५ (विणा०) विनाशो बनस्य पुरुषबलस्य कयहेतु- बहुग्राह्यसद्भावाः। बलग्राह्यसद्भाचा वा ३० (फुफुल) फुफुकः स्वात् । नक्तंच। “दर्शने हरते चित्तं, स्पर्शने हरते बलम् । सङ्ग- करीषाग्निः कोजकस्तत् अन्तर्दहनशीशाः पुरुषाणामन्तर्दुःमे हरते वीर्य, नारी प्रत्यक्कराकसी" ॥ इति यद्रा विनाशःवयः खाग्निज्वाचनत्वात् । उक्तंच-" पुत्रश्च मूखों विधवा च कन्या, कस्य चत्रस्य शैन्यस्य कोणिकस्त्रीपद्मावतीवत् ६ (सूणा०) शवंच मित्र चपलं कात्रम् ।विज्ञासकाझेपि दरिकता च विनापुरुषाणां शूना बधस्थानं शुरिकन्ताराशीवत् ७ नाशो निना पञ्च दहन्ति देहम्" ३१ (नग्गय०)विषमपर्वतमार्गवत अजाया बजानावरहितत्वात् सदमणप्रार्थनकारिकासूर्प- अनवस्थितचित्तानैकत्रस्थापितान्तःकरणा इत्यर्थःअनसेनपणखावत् । यद्वा बज्जानाशः अस्याः सङ्गे पुरुषस्य सज्जा- सुवर्णकारजीवस्त्रीवत् यद्वा नम्नकमार्गवत् जिनकल्पिकपय नाशो नवति गोविन्दहिजपुत्रवत् । यद्वा नाशः क्षयः सज्जायाः | वत् । नैकत्रचित्ताः यद्वा नग्नकमार्गवत् नूतावेष्टिताचारवत् Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी अभिधानराजेन्द्रः। नैकत्र स्थानचित्ताः३२(अंतोदु०)अन्तर्दुश्वावत् कुथितहृदया: ५५ [जवि.] अमुञ्चन्ति अत्यजमानाः [जनियचुमिनीवितिअनहोन्मत्तरामावत् ३३ (किएह०) कृष्णसर्पवत् (अवि०) वत्ति ] प्रदीप्ततृणपूबिकेव दहनशीयाः ज्वासनस्वभावाः५६ विश्वासकर्तुमयोग्या इत्यर्थः३४ (संघा०)संहारवत् बहुजन्तु- [अरि०] अरिएमिव उर्द्धनीयाः ५७[ कूम०] कूटकार्षाप वयवच्छन्नमायाः प्रच्चन्नमातृकाः३५ (संज्क०)सन्ध्याचराग- ण श्वासत्यनाणकविशेष श्व कालविसंवादनशीला काय पत् मुहूर्तरागाःतयाविधदुष्टवेश्यावत्-३६ (समुद्द०) समु- विघातस्वजावा अकालचारिण्य इत्यर्थः ५[चम०] चएक वीचिवत्सागरतरङ्गवश्चलस्वजावाः चञ्चक्षस्वाभिप्रायाः३७ शील श्वतीघ्रकोपीव मुखरविता ५९ [अतिविसाश्रोत्ति०] (मच्छो०) मत्स्यवहप्परिवर्तनशीला महता कष्टेन परिव- अतिविषादा दारुणविषादहेतुत्वात् यद्वा [ अतीति ] अति तनं पश्चाद्वारयितुं शीलं स्वभावो यास तास्तथा ३० क्रान्तो गतोऽकार्यकरणे विषादः खदो यासां तास्तथा यद्वा (वानर०) वानरवत् चत्रचित्ताः चपनाभिप्रायाः ३ (मञ्चु विय) अतीति विषं अतिविषम् आ समन्तात् ददति पुरुषाणां सूरि मृत्युवत् मरणवत् निर्विशेषाः विशेषवर्जिताःकालोत्ति०) कान्तावत् यास्ता अतिविषादाः या अतीति नृशं दीति नादुर्भिककाल एकान्तकुषमाकाबो वा यद्वा बोकोक्तो पुष्टसर्प. नाविधः स्वादो विषयसाम्पट्यो यासां ता अतिविषादाः अथ स्तद्वत् निरनुकम्पा दयांशवर्जिता कीर्तिधरराजभार्या- वा अतिविषयात प्रबनपञ्चेन्जियसाम्पट्यात् षष्ठी नरकनूमि सुकास प्रजननोवत् । ४१ (वरु०) बरुणवत् पाशहस्ताः यावत् सुसढमातृवत् गच्चन्ति यास्ता अतिविषयगाः प्राकृतपुरुषाणामानिङ्गानादिभिः कामपाशबन्धनहेतुहस्तत्वात् ४२ स्वात् यन्दतारझोपे सन्धिः । यद्वा स्वन्द्रियविषयाप्राप्ती अति ( समि० ) सनिलमिव जत्रमिव प्रायो नीचगामिन्यः विषादा इति । या अतिवृष तीवं पुण्यं येषान्ते अतिवृषाः स्वकान्तनृपनदीप्रवेपिका अधमपङ्गाकामिका राजीवत् ४३ मुनयस्तेषामासमन्तात् वसत्यन्तो बहिश्च कायन्ति यमयन्ति [किव.] कृपणवत् उत्तानहस्ताः सर्वज्यो मातृपितृबन्धु यम श्वाचरन्ति चारित्रमाणकर्षणत्वेन यास्ताः अति वृषाकाः कुटुम्बादियो विवाहादावादानहेतुस्थात् ४४ (नरो०) यद्वा कायन्ति अम्नयन्ति समितिगृहज्वालनत्वेन यास्ताः अ नरकवत् श्रासनीया दुटकर्मकारित्वात् महाभयङ्कराः सदम तिवृषाकाः यद्वा लोकानामतिवृषे तीव्रपुण्यधने आनृशंचायन्ति णासाध्वीजीववेश्यादासीघातिका कुत्रपुत्रनार्यावत् ४५ चोरयन्ति यास्ताः अतिवृषाचाः ६० (गुंजि) जुगुप्सिका जुगु [खरो०] खरबत् विष्ठानककगईभवत् दुःशीक्षाः पुष्टाचाराः प्सा कर्तु योग्या:मुनीनाम् ६१ (पुरु०) दुरुपचाराः उष्टोपनिर्मजन्येन यत्र तत्र ग्रामनगरारण्यमार्गकेत्रग्रहोपाश्रयचैत्यगृ चारान्चितो वचनादिविस्तारो यासांतास्तथा ६५ अगम्नीरा हगर्तवाटिकादौ पुरुषाणां वाञ्चाकारित्वात् । तथाविवेश्या गम्जीरगुणरहिताः ६३ (अवि०) अविश्वसनीया विश्रम्नं कर्तुदुपदासीरहिमकामुहिककादीनामिव ४६ [दुटुस्सो०] दुष्टा मयोग्याः ६४ (अण) अनवस्थिताः नैकस्मिन् पुरुष तिष्ठन्तीश्ववत् कुशवणघेटिकवत् दुर्दमाः सर्वप्रकारौनिवजीकृता अपि त्ययः १५ (दुक्ख०)पुःखरकिता कऐन रक्कणयोम्याः यौवनावपुनः पुरुषसंयोगे स्वकामाभिप्रायकर्षणहेतुत्वात् ४७ [बालो] स्थायाम् ६६(क्खपा०) दुःख पालिता पुःखेन पालयितुं शक्या घालवत् शिशुवत् मुहूर्तहृदयाःमुहूर्तानन्तरं प्रायोऽन्यत्र रागधा बालावस्थायाम् ६७(अरइ०)अरतिकराः उद्वेगजनिकाः६७(क रकवत् कपिलब्राह्मणासक्तदासीवत् १८[अंधकार० ] कृष्ण क०)कर्कशा श्ह परत्र कर्कशदुःखोत्पादकत्वात्६एदृढ वैरा वह नूतेष्टादिभवमन्धकारमरुणवरसमुखोद्भवतमस्कायं वात परत्रदारुणवैरकारणत्वात्५०[रूव०] रूपसौजाग्यमदमत्ताः तत्र द्वत् दुप्रवेशाः मायामहान्धकारगहनं येन देवानामपि दुपये रूपंचार्वाकृतिःसौभाग्यं स्वकीर्तिश्रवणादिरूपंमदोमन्मयजगर्वः शत्वात् ४[विस.] विषववीवत् हालाहलविषमतावत् ७[[य][जगगतिवत्कुटिबहृदयाः ७२ किंता०] कान्तार [प्रणा ] अनाश्रयणीयाः सर्वथा सङ्गादिकर्तुमयोग्यास्ता गतिस्थानलूताः कान्तारे दुष्टश्वापदाकुठेमहारण्ये गतिश्चकाकाअप्राणप्रयाण हेतुत्वात् पर्वतकराजस्य नन्दपुत्रीविषकन्या कित्वेन गमनं स्थानं चैका कित्वेन वसनं तयोर्चतास्तुल्या दारु वत् ५० [ दुटुगाहा श्व०] पुष्टप्राहा नियमहामकरादि- णमहाभयोत्पादकत्वात् ७३ (कुलस०) कुवस्वजनमित्रनेदनजाजन्तुसवितावापीवत् । अनवग्राहा महता कटेनापि अप्रवे- कारिकाः वंशज्ञातिसुहृद्विनाशजनिकाः ७४[पर०]परदोषशयोग्याः सुदर्शनधेष्टिवत् ५१ [गणना] स्थानमुष्टः ईश्वरो प्रकाशिकाः अन्यदोषप्रकटकारिकाः ७५ (कय०) कृतं वस्त्राग्रामनगरादिनायकस्तद्वत् । यद्वा स्थानं चारित्रगुरुकुत्र- भरणपात्रादिप्रदत्तंन्ति सर्वथा नाशयन्तीत्येवं शीनाकृतप्नाः वासादिकं तस्माइष्टः ईश्वरश्चारित्रनायकः साधुरित्यर्थ- ७६ [बनसो०] बत्रं पुरुमवीर्य प्रतिसङ्गमसङ्गं वा शोधयन्ति स्तद्वत् । यद्वा स्थानं सिमान्तब्याख्यानरूपं तस्माअष्टः गानयन्तीत्येवं शीला बनशोधिकाः । यद्वा बलेन स्वसामध्यउत्सूत्रप्ररूपयेन ईश्वरो गगनायक आचार्य इत्यर्थः तव लक्कणेन च निशादी जारपुरुषादीनां शोधिकास्तच्चुहिकात् । यद्वा स्थानतर्थ याचारे रक्त श्त्ययः ईश्वर सत्यकीविद्या रिका बवशोधिकाः। यद्वा वयोरबोरक्याहरशोधिका स्वे धरस्तद्वत् भप्रशंसनीयाःसाधुजनैः प्रशंसांकर्तु योग्या नेत्यर्थः या पाणिग्रहणकरणत्वात् धम्मिनस्त्रीवृन्दवत् ७७ (पगं०) ५२ (किंपाग.) किंपाकफत्रमिव मुख आदी मधुरा महा एकान्ते विजने हरणं नेतव्यं पुरुषाणां विषयार्थमकान्तकामरसोत्पादिका परं पश्चाधिपाकदारुणाः ब्रह्मदत्तचक्रिव हरणम् यद्वा एकान्ते दूरग्रामनगरदेशादी स्वकुटुम्यादिजनरतू ५३ (रित्तमु) रिक्तमुष्टियत् पोल्लकमुहिकवत् बालो. हिते हरणं तत्र पुरुषाणां विषयार्थ लात्वा गमनमित्यर्थः तत्र जनीयाः अध्यक्तजनलोभनयोग्या वल्काचीरीतापसपत् ५४ कीयाः वनसूकरतुल्याः यथा सूकरः किमपि सारं कन्दा[मंस.] मांसपेसीग्रहाणमिव सोपध्या यया केनापि सामा दिकं जक्यं प्राप्य विजने गत्वा भवयति तयेमाः ७० [चंच.] न्यपक्तिणा कुतश्चित् स्थानान्मांसपेशीप्राप्तौ तस्य अन्यदुष्ट चश्वशाश्वपक्षाः ७० [जोश्नंमो०] ज्योतिर्भाएमोपरागवत् पकिकृतानेकशरीरपीमाकरिण उपद्रया भवन्ति तथा रामा- अग्निनाजनसमीपरागवत् [ मुहरा० ] मुखरागविरागा ग्रहणेऽनेके इह जवे परभवे दारुणा उपवा जायन्ते । यद्वा यथाग्निजाजनसमीपे मुखं रागवद्भवति अन्ते विरागं तथेमाः। यया मत्स्थानां मांसपेशीग्रहणं सोपत्र तथा नगणामयीति यद्वा (जोहनमोवरागाओत्ति ) पाठे तु ज्योति भएमस्येवो Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी (६३८) निधानराजेन्डः। इत्थी परागाः यथा ज्योति एकमग्निभाजनमुपसमीपे रागवद्भवति से हावनावमाईहिं रमंतित्ति रामाओ ५ पुरिसे अंगा तयमाः वस्त्रादिभिरुप समीपे रागवत्यो भवन्तीत्यर्थः ७० णुराए करंतित्ति अंगणाओ ६ नाणाविहेसु जुकम[अवियाईति ] अपि चेति अन्न्युच्चये पा शत वाक्याबंकारे णसंगामामविसु मुहाणगिन्हणसी उन्हमुक्वकिलेसमा [तम्रोत्ति] ताः खियः [अंतर० ] अन्तरङ्गसङ्गशतमत्यन्तरविघटनशतम् अस्यापेकयायात पुरुषस्य परस्परं मैन्यादिवि ईसु पुरिसे झालयतित्ति लक्षणाओ पुरिसे जोगनिओ नाशहेतुत्वात् । यद्वा अन्तर्मध्ये [रंगत्ति ] पुरुषाणां ब्रह्मवत- एहिं बसे गावं तित्ते जोसियाओ G पुरिसे नाणाविहेहिं नारित्रादिरागस्तस्य जङ्गशतं तस्य विघ्नहेतुत्वात् ७१(अरज्जु) नावेहिं वांतित्ति वस्मियाओ ए काई पमत्तनाव काई अरज्जुकापाशारज्जुकं बिना बन्धनमित्यर्यः[अदा] अदारु पयणं सविनम काई सनसासिन्य ववहरंति काई सत्त्वकाष्ठादिरहिता अटवी कान्तारं यथा दारुका अटवी मृगतृष्णाहे तुर्नवति तयेमाः यथा काष्ठादिरहिताअटवी कदापि न ज्वाति रोरो व काई पयएमु पणमंति काई नवणएसु उवणमंति यथेयमपि पापं कृत्वा न ज्वप्रति न पश्चात्तापं करोतीत्यर्थः काई कोनय नमतिओ काओ सुकम्वनिरिक्विएहिं वृषनकलङ्कदात्रीश्रावकभार्यावत् । ७३ [ अणास ] न सविनासमहुरहिं नवहसिएहिं नवग्गाहिएहिं उवसदेहिं आलस्यमनुत्साहो ऽनालस्यं तस्य नित्रयः अकार्यादौ सादर गुरुगदरिसणेहिं नूमिलिहण विलिहणेहिं च पारुहणन प्रवृत्तिहेतुत्वात् ७४ [ अश्क्खवयरणीत्ति. ] ईवदर्शनाङ्क नयोरिति वचनात् अनैवैतरणी अदृश्यवैतरणी परमा दृणेहिं च वायउवगुहणेहिं च अंगुलिफोमणघणपीधार्मिकविकुर्वितनरकनदी तत्सते तदवाप्तिहेतुत्वात् अती मणकमितमजायणाहिं तज्जणाहिं च अवि याई ताओ वणवतरणी वा ५ [अणा] अनामिको नामरहितो व्याधि पासोववसिन जे पंकुव्वखुप्पिन जे मञ्चव्व मरिचं जे अगरलाध्यरोग इह परत्र तत्कारणत्वात् ७६ [ अविप्रो०] न वि शिव्य महिलं जे असिव्य लिन्भिनं जे ।। योगः पुत्रमित्रादिविरहः अवियोगः विप्रतापः तीवखेदः ०७ (अवियाति) पूर्ववत् [तासिं शति] तासामुक्तवक्ष्यमाणानां अरुक रोगरहित उपसर्गः [अरु० ] यद्वा आर्षत्वाद्ध- स्त्रीणामधमाधमानां दासीकुरएमादीनामनकानि विविकारसोपे अरूपो रूपरहित उपसर्ग उत्पातः 1 [र३०]] धप्रकाराणि नामनिरुक्तानि नामपदभञ्जनानि भवन्ति पुरिस रतिः कामप्रिया विद्यतेऽस्येति रतिमान् कन्दपोऽयमिति इत्यादि यावत् [नारीश्रोत्ति] खएमयति कथं ना-आ-अरिनए(चित्त विनम) चित्रनमकारणम् यद्वारतिमान् सुखदायी तिना शति नानाविधैरुपायशतसहस्रः कामरागप्रतिबके पुरुष मनोनमो मनोविकारः ए[ सवंग.] साङ्गगः सर्वशरीर बधबन्धनं प्रति, आ-इति प्राणयन्ति प्रापयन्ति [अरीत्ति पुरुषाव्यापीदाहः ए१ [ अणम्भया वजासगीति ] अनलका णां च नान्यदृशः अरिः शत्रुरस्तीति नार्यः [तंजहत्ति तत्पूर्वोक्तं अचरहिता वजाशनिर्विद्युत् । यद्वा श्यं स्त्री [गसणीत्ति ] यथेति दर्शयति नारीति [तन्०] [नार्यादिशब्दानां व्युत्पत्तअशनिर्विद्युत् किंभूता अनभ्रका मेघरहिता वा पुनः किंजूता यस्तत्तच्छब्द अष्टव्याः][काश्पमत्तनावंति] काश्चित् कावज्रा वज्रतुल्या इत्यर्थः दारुणविपाका [अप्पसूया वजासणी- मिन्यः प्रकर्षण मत्तनावमुन्मत्तभाव व्यवहरन्ति स्वचेष्टां दर्श ति]पाठे अप्रसूता अपत्यजामरहिता [वजेत्ति]वर्या सुन्दरा यन्तीत्यर्थः । क श्व स्वासीव स्वासरोगीवत् । पुरुषाणां कारा एवंविधारामा[असणि०] अशानिर्वियुद्वामानां नरकादौ स्नेहभावोत्पादनार्थ [काईस०] काश्चित् शत्रुवत् प्रवर्तयन्नि दारुणदहन तुत्वात् "अप्पसूयावज्जासुणीति" पाठेतु अप्रसूता मारणार्थ मर्मस्थानग्रहणेन । यद्वा स्वभादीनां जयोत्पादनार्य नवयौवना परिणीता अपरिणीता वा सालङ्कारा अनसङ्कारा रिपुवत्प्रवर्तयन्ति [ रोरो ] काश्चित् कामतृष्णातृषिताः रोर वा मुषमा अमएमा वा एवंविधा रामा (सुणीति ) हमक्किका श्व रङ्क श्व रङ्गपुरुषाणामाप पादयोः पादान वा प्रणमन्ति शुनावत ममत्रीवत् वजेति वा सर्वथा साधुभिमाकं काड नगन्तीत्यर्थः। [काईचव.] काश्चित् उपनयनत्यप्रकारैरुप द्भिः ब्रह्मचारिनिश्चतुर्यवतरकां कातद्भिर्वर्जनीयेत्यर्थः । कायवाङ्मनोनिरिति ए[ असशिबप्पवाहोत्ति०] अजलप्रवा नमन्ति स्वसकाङ्गादिदर्शनार्थम् ( काईको जत्ति०) काश्चित हः "असनिअपवाबोत्ति' पागन्तम् । अजनप्लावाजलं विना कौतुकं वचननयनादिनयं कृत्वा विधाय नमन्ति नराणां रल्लिरित्ययः ए३ [ समुद्दरओत्ति] समुज्वेगः केनापि धर्तु हास्याधुत्पादनार्थम् काश्री इति पदमपियोन्यम(सुकमक्खि मशक्यत्वात् 'समारयोत्ति पातुसम्यगईं यस्मात्स समर्डः निरक्खिपहिति) काश्चित् तुकटावनिरीकिकः सुष्ठ नेत्रविकारएवंविधः [रओत्ति ] वेगः परमस्नेहवतां बान्धवानां परस्पर निरीकणैर्वालानापातयन्तीति विशेषः तैः काश्चित् पुरुषानामोस्त्रीकबहे सति गृहार्डकरणहेतुत्वात् भजातिजमाण्यौ श्रेष्ठि हयन्ति शत (उपहसिपहिति.) उपहसितैः काश्चित् हास्यपुत्राविव ए ॥ चेष्टाकरणः कामिनां हास्यमुत्पादयन्तीति (नवम्गहिहिति) नपग्रहीतानि पुरुषस्याशिनैः कान्तनयनालिङ्गा ग्रहणकरग्रहअवियाईतासिंशत्यियाणं अणेगाणीनाम निरुत्ताणि पु. णादीनि तैः काश्चित् नराणां स्वप्रेमभावं दर्शयन्तीति (वस रिसे कामरागपमिवईनाणाविहहिं नवायसयसहस्सेहिं हिपाहिति) अपशब्दानि सुरतावस्थायां बनवायमानादीनि वहबंध एमाणयति पुरिसाणं नो अन्नो एरिसो अरी- शब्दकरणानि प्रच्चन्नसमीपशब्दकरणानि वा तैः काश्चित त्यि ओत्ति नारिओ तंजहा नारी समाननराणं अरि कामिनां कामरागं प्रकटयन्तीति (गुरुगदरिसहिति) गुरु आ नारिओ १ नाणा विहोहिं कम्प्रेहिं सिप्पयाहिं पु काणि च प्रौढानि पयोधरनितम्बादीनि स्यूश्चित्वात्सुन्दराणि वा यानि दर्शनानि च प्राकृतयः तानि गुरुकदर्शनानि तैईरस्था गि मोइंतित्ति महिलाओ पुरिसे मत्ते करतित्ति पम एव काश्चित् कामिनां स्ववशं कुर्वन्तीति । यानिति गुहाप्रका यायो ३ महंत कतिजयंतित्ति महिनियाओ४ पुरि- शनन पुरुष पातयन्ति । यहा गुइति गुरं स्वजनकनादिकम Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३९ ) अभिधानराजेन्द्रः । इत्थी रोदनकरणेन पियति (१) पुरुपं कुर्वन्ति (२) ग इति स्थापित गमनादिमाये पुरुषमन्यन्तरागवन्तं कुर्वीत (३) इति दर्शनेन रक्तकृतिकामिनोतीति (४) रिइति सेरे मां मुञ्च रे मां मा कदर्थयेत्यादिकथनेन कुरामाः पुरुषं काकुर्वन्तीति मात्र पारि ति रतिकअहे घर मया सदमा कुरु उपदास मित्यादि रसिक सहकरणेन पुरुषं की मयन्तीति श्रर्थत्वात् अरिइति ( ५ ) स इति अन्योकशृङ्गारगीतादिक शब्दकरणेन साधूनपि सकामान्कुर्वन्तीति ( ६ ) ण इति सकज अकविकारसजन्नाज्यां नेत्राभ्यां पुरुषं सकामं स्वयरोग स्वकार्यकर्तारमपराधभोकारं कुर्वन्तीति (3) गुरुगादिशनेरिति (भूमिविण विलिसि भूमिलेखनानि भूमौ पदादिनाऽकरलेखनानि विखिनानि विशेषतो रेखास्यस्तिकाः पुरुषादाप यन्तीति भूमिखिन विलिखनेरिति चकारोऽत्र समुचयार्थः ( आरुहणनह हिचेति ) आरोहणानि वंशाग्रादिचटनानि नृपतिः पुरुषादिकम वन्तं कुर्यतीति ( बातय उपगूहणेहिं चेति) बानका मूर्खः कामित्यर्थः तेनाविप्रकृष्णाि पगूहनैः कुमाः स्वकामेच्छां पूरयन्तीति । या बालकाः के राजापास्तैरुपगूहनानि रचनाः स्वच्छवस्त्राच्गदितादीनि तैर्मन्मयप्रस्तान धमाधमान् स्ववशं कृत्वा यञ्जीवईवत् वादयन्तीति । च शब्दात्कपिवामयन्ति अश्ववारयन्ति श्रेणिकजान श्री राजीवत् | स्वार्यप्राप्तौ प्राणत्यागमपि कुर्वन्तीति (अंगुजि०) अस्टना ने किरणानि पा लीनां परस्परं तामनानि । स्तनपीरून नि कराच्यां पयोधर चायनामनानि या करितातनानि श्रो णिभागपीनानि कराज्यां वक्रगत्या वा तैः कामिनां चित्तान्यान्दोलयन्तीत ( तज्जण हि चेति) तर्जना नि अङ्गुत दुलिमस्तकदिनानि तैम-मवर्षमुत्पादयन्तिकामिनां च शब्दा नेपथ्यकरणैराभरणशब्दोत्पादनैः सविलासगत्या चतुवादीने रित्याद्यनेकप्रकारे पतुया कु मा साधुनिरासां सङ्गस्याज्य इति तया (अि याति) पूर्ववत् " तापासोयवसिनुंजे" शर्त प्राकृतत्वादिङ्ग व्यत्ययः । या करएकादयः स्त्रियः सन्ति जगति [ ताओत्ति ] ताः पुरुषान् पाशवत् नागपाशवागुरादिबन्धनवत् वसित धातूनामनेकार्थत्वात् परये नराणां बन्धनकारणत्वात् [ पंक्वखुप्पिनंजेत्ति ] ताओत्ति अपि अनु वर्तते याः कुटिलादयः सन्ति ताः नराणां पङ्कवत् । अगा या बहुसमुद्रादिकमपि वर्तते [ मधुज्यम रिजति ] याः स्पैरिण्यादयः सन्ति ताः नराणां मृत्युवत् कृतान्तवत् मारयितुं मारणार्यमित्यर्थः प्रवर्तन्ते । [ अगणिवहिजति ] या जगति सन्ति ताः कामिनामीचद्दग्धं ज्वानयितुं परिभ्रमन्ति [ असिवच्चिज्जिजप्ति ] या मृगा कुवामा तरुण परिवाजिकादयः सन्ति ताः कौटिल्य करमाः सापि असि द्विपाक अथ स्त्रीवर्णनं पद्येन वर्णयति ययाअमिमसिसारिवीणं, कंतारकवा मचारयसमाणं । पोरनिउरंकंदर, तीज त्यावाणं ॥ १ ॥ नारीणां सर्वया विश्वासो न विधेयः किंभूतानाम् असिम I इत्थी सीसीनां करोवालक जतुल्यानाम् । श्रयमाशयः यथा परिनिर्दयतया वेदयति तथा अनाथ नाय sपि नरानिह परत्र दारुण दुःखोत्पादनेन बेदयन्ति । यथा न कज्जनं स्वभावेन कृष्णमस्य श्वेतपत्रादिसंगमे सति तस्य कृष्णत्वं जनयति तयोन्मत्तनारी स्वनावन कृष्णण दुःष्टान्तःकरणत्वा सत्संगमे उत्तमोत्यानामुत्तमानामपि कृष्णत्वमुत्पादयनि यशोधन राजविदम्बनादिहेतुत्वात् पुनः किंनका तारकपाटचारकसमानाम् अरण्यकपाटकारागृहतुल्यानाम् । अयमाशयः । यथा गनं वनं व्याघ्राद्याकुलं जीवानां भयोत्पाद कं भवति तथांनायविजयं जनयन्ति धनजीवितादिविना त्यात कपड़े से केनापि गन्तुमशक्य से तथा नरे नारीकपाहये इसे सति केनापि कुत्रापि धर्मवनादी गन्तुं न शक्यते । यया च जीवानां कारागृहं दुःखोस्पादकं प्रवति तथा नराणां नार्योपीति । पुनः किंभूतानां (घोर नि०) घोरा रौद्राः प्राणनाशहेतुत्वात्। निकुरम्यं धर्म अगाधमित्यर्थः पत्कामति जतस्य दरो मात् तपुराधिपदेवरतिराजस्येव स निकुरम्बकन्दरः । कमिति अध्य यशब्द उदकवाचकः । चरन् पुरुषं २ प्रति भ्रमन् बीजत्सो भयङ्करः छह परत्र महाजयोत्पादकत्वादेवंविधो भाव अन्तरमायावकस्वनादो पासांता घोरनिकुम्यकन्दीभा भावास्तासां घोरजावानाम् ॥ १ ॥ दोससयगगरी, तस्यविसप्पमाण हिययाणं । कइवपन्नत्तीणं, ताणं अन्नायसीनाएं ॥ २ ॥ दोषाणां दोषाः परस्परक समत्सरगदान मद्घाटन प्रदानजल्पनशापप्रदानस्वपरप्राणघात चिन्तदयानि तेषाम् गरीका नाजनविशेषास्तासां दोषतगरिकम् [ अजस० ]न यशःशतानि श्रयशः शतानि तेषु विसविस्तारं गच्छद्धृदयं मानसं यासां ताः अयशः शतविसर्पहृदयास्तासाम् । तथा [ कश्यवत्ति [ कैचानि पानि नेपथ्यभाषामा परासन [पतीसि] प्राप्यन्ते यात्रिस्ताः केतकरस्यः यहा केतवानां दन्तानां प्रकृनानि कमल तापानी बचा ताः केनवः। पद्मा कैतवेषु प्रहावा बदेशतिरादान यासां तास्तासां कैतवप्रकृतीनाम् । तथा [ ताणंति ] तासां नारीणां अज्ञातशीलानां परिमतैरप्यऽज्ञातस्वभावानाम् । यदु- देवादाणवाणं मतं निमंतनिवा जे झथी परियम्मिता पिता का जाधर्मि हरे विवि अंगरक्खेहिं । निवरक्खियावि लोप, रमणी यग्भमग्गाय २ मच्छपयं जनमज्जे आगासे पंखियाण पती भी हिमति विनीत ३ इति यथा न ज्ञातं नाङ्गीकृतं शीलं ब्रह्मस्वरूपं यानिस्ता अशास्तासाम या मनः कुत्सार्थ सा शीघ्रं साध्वीनां याभिः परिवाजिकायोगिन्यादिभिस्ता अज्ञा तानामुनिः प्रसान्त जल्पनेकत्रमास विश्याससवनादिव्यापारों वर्जनीय इति ॥ २ ॥ " अन्नं रति अनं, रति पारस दिति अत्र करतारेओ अभी पतरे 66 । ॥ ३ ॥ fasurgeria अन्यं स्वनावसमीपस्थं नरं रजयन्ति अवीकृणादिना कामरागवन्तं कुर्वन्तीत्यर्थः । पल्ली Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४०) इत्था अभिधानसजेन्द्रः। इत्थी पतित्रघुमातरं प्रति अगादत्तस्त्रमिदनमञ्जरीवत । यद्वा निधियं च घेणं, लोए वि अतिविय पिं ॥७॥ स्वकुशीनत्वं केनापि झाते सति ( अन्नं पतित ) अन्यद्विप यादृशमिति गम्यते निर्धान्यकंधान्यका विवर्जितं चारामंता भक्षणकाष्ठभक्कणादिकं रचयन्ति कपटेन निष्पादयन्ति । यहा दृशं तरुणीमामलं शूभन्नावनाकुसुमरहितत्वात् । यादृशा नि जारस्य स्वान्तःकरणाशापनाय [अन्नरयंतित्ति ] अन्यदात्म- ईग्धिका दुग्धरहिता धेनुगाँस्तादृशान्त्रवतिनीधर्मध्यानदुग्धाव्यतिरिक्तं तृणतन्तुद्रामादिकं रदन्ति उत्पाटनं कुर्वन्तीत्यर्थः । भावात्तथा लोके अपि शब्दः पूरणार्थे यादृशं (अतिढ़ियति) रद विझेखने इति विलेखनमुत्पाटनमिति । यद्वा अन्य रयन्तीति सर्वया तैयाशरहितं पिएम खलखंएमं तादृशं महिलाव्याघ्री अन्यं स्वकान्तव्यतिरिक्तं पुत्रधातृकान्तमित्रादिकं प्रति रामा मएमवं परमार्थेन स्नेह तैवविवाजतत्वात् । ७। अधमकामाः रय गती खु गतौ वा रयन्ते रबति वा गच्छन्ति । जेएंतरणलोय--णाणि निमिसति तण य वियसंति । तथा [अन्नं रमंतित्ति ] अन्यं स्वकान्तव्यतिरिक्त नरं रमन्ते तेणंतरे विहिययं, चित्तसहस्सानसं होइ ।। ७॥ मैथुनतत्पराः क्रीमयन्तीत्यर्थः पातासुन्दरीक्त । एतादि स्त्रीणां येन परमवासनेन सर्वार्थसंप्राप्तिकारकेणान्तरेण चिना प्रकारेण क्रीमयन्ति या [अन्नस्सदिति जलावंति] छान्यस्यो सोचनानि प्रफुल्लनत्रााण तत्क्षणे निमिषन्ति संकुचितनाथ क्तव्यतिरिक्तस्य ददति प्रयच्छन्ति उल्लापं वचनं बोअरूपम् । गचन्तीत्यर्थः च पुनस्तेनैव परमवल्लनेन स्वार्थप्राप्त्यकारके यद्वा अनेक नरपरिवृता अपि अन्यस्य नरस्य मार्गादिगच्चतः णान्तरेण विना विकसन्ति प्रफुल्खनेत्राणि भवन्तीत्यर्थः। तेणं स्थितस्य वा उत्प्राबल्यन लापं मन्मयोद्दीपनशब्दं ददतीति । तरे इति प्राकृतत्वात्ततीयायें सप्तमी अपि शब्द एवार्थे तथा नल्लापयन्ति पारे तु कामिनरहित्र्यादिसनवे सति उन्मत्ता कुसस्त्रीणां हृदयं कदाचित्स्ववद्धन्ने प्रवर्तते स्ववल्लजे सत्यपि कुरामाः अन्यस्मै ददति उखातं प्रबहादप्रहारमित्यर्थः कदाचित्तासां चित्तं स्वमानसं सहस्राकुलं स्वकान्तव्यतितया अन्यः कश्चिद्धतीवरूपः कटान्तरितः कटान्तर्वर्ती प्रज रिक्तपुरुषान्तरसहस्रषु आकुवं मन्मधमावेन परिचममाणं नरक्तितो जवतीति । तथा अन्यस्तत्कटाक्षवाणसाहेन ग्या नवतीत्यर्यः । शाकिनीवत् । अतो मुनिवरैरत्नत्रयरकणपर नीकृतः । पटकान्तर वस्त्रविशेषान्तर स्थापितो नवेत् खान मुक्तगृहारम्नन्नरैरासां कुरएममुएमीदासीयोगिन्यादीनां यथा वत् इति । ३। कथंचित्परिचयो न कार्य इति । अस्या अन्यदपि व्याख्यान्तरं गंगाए वाबूयाए, सागरजलं हिमवओय परिमाणं । सद्गुरुप्रसादात्कार्यमिति ॥ ॥ तन्दु० ॥ उग्गरस तवस्स गइ, गन्नुप्पत्तिं च विझयाए ॥४॥ (१२) स्त्रीणामशुचित्वं यथासिंहे कुंमबुयारस्स, पुट्टनकुकुहाश्यं अस्से । "मंसं श्मं मुत्तपुरीसमीसं, सिंहाणखे झाण य निजरंतं । एवं अणि किमिआण वासं, पास नराणं मश्वादिगणं " जाणति बुधिमंता, महिलाहिययं न याति ॥ ५ ॥ इत्यादि-धर्म। गङ्गायां वासुकां वाजुकणा-सागरे समुद्रे जलं जपरिमाण सर्वस्वापकर्षवत्वं यथामित्यर्थः । हिमवतो महाहिमवन्नगस्य परिमाणमुधिस्तिय नो रकरवसी गिज्जि-जा गंमवत्यामुणेगचित्तार। कुपरिधिप्रतरघनमानम् । नग्रस्य तीवस्य तपसो गति फल जाओ पुरिसं पोनित्ता,खेनंति जहाव दासहिं ।१०। प्रापिरुपां गोत्पत्तिं च (वियाएत्ति ) वनिताया नार्याः सिंहे कुम्बुयारमिति रूढि गम्यं (पुट्टयति) जठरोजवं (कुकुहा नो ने बराकस्य व रावस्यः स्त्रियस्तास्तु यथा हि रावस्यो श्यंति) गतिकाझे शब्दविशेषमश्वघोटके जानन्ति अवगच्च रक्तसर्वस्वमपकर्षन्ति जीवितंच प्राणिनामपदरन्त्येवमेताअपि न्ति बुझिमन्तः प्रज्ञावन्तः महिलायाः कूटकपटोहपरवञ्चन तत्वतोहि झानादीन्येवं जीवितं स्वार्य च तानि चताभिरपव्हिय न्त एव तथा च हारिवः "धातोद्धतो दहति हुतनुग्देहमे कं परायाः प्रबनमन्मथानिधगधगायमानायाः अतर्कितातुच्चो नराणां, मत्तो नागः कुपित तुजगश्चैकदेहं तथैव । झानं झीसं छवितककागद्गद्गीयमानमधुरगेयध्वनिमृगीकृतमुनि वरायाः बनाटे पट्टतटघटितघनश्रीखएमति प्रकचन्द्रचकोरी विनय विभबौदार्यविज्ञानदेहान्सर्वानर्यान् दहति वनिता मुष्मि कानैहिकांच" (गिभिज्जत्ति) गृध्दभिकाङ्क्तावान् नवेत् कुतचतुरायाः पीनपयोधरपायुभिर्मधामकस्थूवमुक्ताफवहारश्वताविषतु जगमगतार्यवेकचैतन्यकृतानेकपादक .. कीटशीषु (गंम्वत्थासुत्ति) गएर गएकह चोपचितपिशितायाःहृदय गूढान्तः करणं न जानन्ति न सम्यगवगच्छन्ती तपिएकरूपतया गवत्पूतिरुधिराईतासंतवाच्च तपमत्वानि । नक्तं च "रोजाती दाम्भिकता,भोरुकता नूयसी वणि द्वपके कुचायुक्ती । ते वकसि यास तास्तथानूतास्तासु वैरा ग्जाती । रोषः कत्रियजाती, द्विजातिजाता पुनाभः ॥१॥न ग्योत्पादनार्थ चैवमुक्तम् । तथा अनेकान्यनेकसहचानि चञ्चस्नेहेन न विद्यया न च धिया रूपेण शोर्येण धा, नेयावाद बतया चित्तानि मनांसि यासां तास्तासु अनेकचित्तासु श्राभयार्थदानविनयक्रोधकमामार्दवैः । बजायौवननोगसत्य करु हच “ अन्यस्याङ्के बबाति विशदं चान्यमानिङ्गच शेते, अन्य णासत्वादिभिर्वा गुणैर्गृह्यन्त न विनूतिभिश्चलहना दुःशीन वाचा वपति हसयत्यन्यमन्यं च रौति । अन्य द्वेष्टि स्पृशतिचित्ता यतः" ॥२ इति । कशति प्रोणुते चान्यमिटं,नार्यो नृत्यत्तमित श्च धिनचञ्चकाएरिसगुणजुत्ताणं, ताणं कइयव्य संधियमणाणं। वाधिकाश्च" तथा (जानत्ति) याः पुरुषं मनुष्य कुशीनम पीति गम्यते प्रयोज्यत्वमेव शरबत्वमेव च प्रीतिकृदित्यादिकान हुने वीससियव्यं. महिलाणं जीवोगम्मि । निर्वाग्निर्विप्रतार्य क्रीमन्ति (जहावत्ति) वा शब्दस्यैवकाईदृशगुणयुक्तानामुक्तवक्ष्यमाणसवणान्वितानां तासां नारी. रार्थत्वाद्यथैव दासः एह्यागच्च मा वद वं मायासीरित्यादिणां कपिवद्वानरवत्संस्थितमनसां नव प्रवद्भिः विश्वसितव्य विवक्कितप्रतिक्रीमानिर्विवसन्तीति सूत्रार्थः॥ १७ ।। महिलानां जीवनोके इति ॥६॥ पुनस्तासामेवातिहेयतां दर्शयन्नाह। निन्नयं च वाय, पुप्फेहिं विवज्जियं च आराम। । नारीसु नो पगिजिमज्जा, इस्थिविषयहे अणगारं। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४१ ) अभिधानराजडः इत्थी मंच पेनच्च तत्थ इविज्ज निक्खमप्पाएं ॥ १७ ॥ नारीषु मनैव शब्द आदिकर्मणि ततो मारनेशापि न किं पुनः कुर्यादिति नाथ (पीपिदिय) स्त्रियो विविधैः प्रकारैः प्रकर्षेण च जहाति त्यजति इति स्त्रीवि प्रजह उणादयो बहुलमिति बहुलवचनाश्च । यद्वा ( इत्यित्ति ) स्त्रियो (विप्पज होस ) विप्रजह्यात्पूर्वत्र नारीप्रइणान्मनुष्य स्त्रिय देवसिंबन्धिन्यपि त्याज्ययांच्यन्ते श अ० ॥ न पौनरुक्यमुपदेशत्वाछा । अणगारः प्राभवत् । उत्त० (स्त्रीणां दुर्गाहधहृदयत्वम् ' इत्थिरज ' शब्दे ) [१३] स्त्रीणां बन्धकारणत्वं- बथा वाज जनमचेति पिया लोगांत इत्यत्रो ८ ॥ 可 हरियो ने सेवंति आइमोक्ला हु ते जणा ॥ तेजाचा नाचकंवंति जीविषं ॥ ए ॥ वायुर्यथा सततगतिर स्खलितयाऽग्निज्वालां दहनात्मिकाम. प्येति अतिक्रामति पराजवति न तथा पराभूयते एवं लोके मनुष्यलोके हावभावप्रधानत्वात्प्रिया दयितास्तत्प्रियत्वाश्च दुरतिक्रमणीया अत्येत्यतिक्रामति न तानिर्जीयते तत्स्वरूपा वगमान्तजय त्रिपाकदर्शनाश्चेति । तथा चोक्तम् || स्मितेन प्रायेन मन पराइटी हितैः पचनि कसन लीलया, समस्तज्ञावैः खतु बन्धनं स्त्रियः ॥ १ ॥ स्त्रीणां कृते जातयुगस्य नंदः, संबन्धिनेदे स्त्रिय एव मूलम् । अप्राप्तकामा बहवो नरेन्द्रा, नारीजिरुत्सादितराजवंशाः ॥ २ ॥ इत्येवं तत्स्वरूपं परिज्ञाय तज्जयं विधत्ते नैताजिजीर्यत शत स्थितम् । अय कि पुनः कारणं श्रीप्रसङ्गाभवद्वारेण शेषाश्रय द्वारोपणं क्रियते न प्राणातिपातादिनेति । अत्रोच्यते केषां चिद्दर्शनिनामङ्गनोपजोग आश्रवद्वारमेव न जवात । तथा चोचुः । न मांसनकणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा चू तानां निवृत्तिस्तु महाफला" । इत्यादि तन्मतम्युदासार्थमेव मुपन्यस्तमिति । यदि वा । मध्यमतीर्थकृतां चतुर्याम एव धर्म इह तु पञ्चयामो धर्म इत्यस्यार्थस्याविर्भावनायानेनोपलकमकारि । अथवा । पराणि व्रतानि सापवादानीदं तु निरपवादमित्यस्यार्थस्याविभीवनाय प्रकटनायैवमकारि । अथवा सर्वाएयपि व्रतानि तुल्यानि एकखाएमेन सर्वविराधनमिति कृत्वा न शो में दोपायेति [ इत्यित्वादि] ये महासत्त्वाः कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारणतया स्त्रियः सुगतिमार्गर्गनाः संसारवीथीभूताः सर्वाविनयराजधान्यः कपटजाबशताकुवा महामोहनशक्तयो न सेवन्ते न तत्प्रलङ्गमनिषन्ति ते एवंभूता जना इतरजनातीताः साधवः आदी प्रथम मोहोऽशपन् परमपदेषादिः । हरवधारणे। आदिमका एव तेऽचगन्तव्यः । श्मुकं भयात सर्वा विनयास्पद नूतः स्त्री प्रसङ्गो यैः परित्यक्तस्त एवादिमोक्षा: प्रधाननूतमो काण्यपुरुषार्थोद्यताः । श्रदिशब्दस्य प्रधानवानित्यान केवलमुद्यतास्ते जनाः स्त्री पाशबन्धनोन्मुक्ततयाऽशेषकर्मबन्धनोन्मुक्ताः सन्तो नायकान्ति नजिन्ति संयमजीवितम परमपि परिग्रहादिकं नाभिलषन्ति । यदि वा परित्यक्तविषयेच्छाः सदनुष्ठानपरायणा मोकैकताना जीवितं दीर्घकालजीवितं नाभिकांक्वन्ति इति ॥ ९ ॥ सूत्र० २ श्रु० १५ श्र. नारीस्ने दुःखं यथा "नारीनेहा पुगया, गणश् न सीझ कुलं दपणे गुरुमपि दर्श इत्थी (१४) स्त्रीसंसर्गश्वावश्यम्परित्याज्यस्तथा च । वशीकुर्वन्ति ये लोके, मृगान् दर्शनतन्तुना । संसर्गवागुराजिस्ते, स्त्रीव्याधाः किन ते पंचा० १० वि० । स्त्रीसंसर्गपरित्यागे कारणमाह । जहा कुक पोयस्स, निचं कुल जयं । एवं वैजयारिस्स, इत्। किंगओ जयं । ५४ । खु यथा कुटपोतस्य कुकुटचेल्लकस्य नित्यं सर्वकालं कुलअतो माजराद्भयमेवमेव प्रायारिक साधोः श्रीविग्रहातू श्रीशरीरात् विग्रणं मृतविग्रहा िभयस्थापनार्थमि ति सूत्रार्थः यतश्चैव मतः चित्त नित्ति न निज्जाए, नारिं वा सुत्र्प्रलंकियं । क्रं पिदडणं दिहिं पार्कसमाहरे ।। ५५ ।। चित्रभित्ति चित्रगतां स्त्रियं न निरीचेत न पश्येत् नारीं वा संतनामेवं स्वतामुपमेतदनकृत पान निरीकेत कथंचिद्दर्शनयोगे ऽपि नास्कर मिवादित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टि प्रतिसमाहरेत् प्रागेव विनियतेदिति सुचार्थः किंबहुना हृत्यपाय कथं नासं विगप्पियं । विवास नारी, पंजवारी विजय ।। ५६ ।। हस्तपादप्रतिष्विनामिति प्रतिब्धिहस्तपादां करणासाधिकृतामिति विकृतकर्णनासामपि वर्षशतिकां नारीमेचिधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणी तान्नु सुतरामेव ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधन श्व तस्करान् विवर्जयेदिति । श्रपिच । विसा इस्थिसंसग्गो, पणीयं रसनोयणं । नरस्पचगचेसिस्स, जिसं तासव जहा ।। ५७ ।। चिया दिदा श्रीखर्गीयेम केनचित्कारेण सं बन्धः प्रणितं रसनोजनं गलत्स्नेह रसाभ्यवहारः एतत्सर्वमेव विषादि नरस्यात्मगवेपि आत्महितान्वेषणपरस्य वितापुढं यथा तामन्यापत्ति करविषकल्पमाई तमिति सूत्रार्थः । अंगपर्वगाणं चारुश्पिपीहियं । इत्थीणं तं न निज्जाए, कामराग वित्रणं ॥ ५८ ॥ अङ्गप्रत्यङ्गसंख्यानमित्यङ्गानि शिराकृतीनि यानि नयनादीनि पतेषां संस्थानं विन्यासविशेषस्तथा चारु शोभनं लपितं जल्पितं प्रेकितं निरीक्षितं स्त्रीणां संबन्धि तदङ्गप्रत्य ङ्गसस्थानादि न निरीक्षेत न पश्येत् । किमित्यत आह । काम रामचिमिति तकि नियमान भिलाषं वईयति अत एवास्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधातार्थतायामपि प्राधान्यस्थापनाच भेदेनोपण्यास इति सूत्रार्थः । दश० ० ० ॥ तया चान्यत्रापि "आवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां, दोषाणां सन्निधानं कपटशतगृह क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । स्वर्गद्वारस्य चिनं नरकपुरमुखं सर्वमायाकार, स्वीयत्र न सृष्टं विप विषमयं सर्वलोकस्य पाशः ॥ १ ॥ मो सत्येन मृगाङ्क एव दीदी सोच र यष्टिः कृता । किन्त्वेवं कविभिः प्रतारितमनास्तत्त्वं विजानआप मांसस्यमयं गां मत्या जनः सेवते ॥२॥ तत्पूर्णमुदारातिर मुख तत्यङ्गधाः किन यति पाऽधरमधुसकि पाक घुमकसि Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४२ ) अभिधानराजेन्ः | ॥ ३॥ इत्थी S रसं व्यतीतेऽस्मिन् काले विषमिष नवि दीपेणाचिन गतिना तेजस्विता भोगिना, नीलघुतिनाऽहिना वरमहं दष्टो न तच्चक्षुषा ॥ दष्टे सति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण पुष्पार्थिनो, मुग्धाही कणपीतस्य ग दि में वैद्य न वाप्यषधम् ॥ ॥ ॥ संसार ! तव निस्तर पदवी न दवीयसी । अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेकणाः ॥ ५ ॥ नूनं दि ते कविवरा विपरीता ये नित्यमारा इति कामिनीनाम | यानिरि शक्रादयेोपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः ॥ ६ ॥ जल्पन्ति सार्कमन्येन, पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः । हृदये चिन्तयन्त्यन्यं प्रियः को नाम योषिताम् ॥ 3 ॥ सव्वत्थे इत्विग्गम्मि, अप्पमत्तो सया विस्सत्यो । नित्थर बंजचेरं तब्बिवरी ओ न नित्थर ।। ६७ ॥ सर्वत्र सर्वस्मिन् प्रव्रजिता प्रव्रजितरूपे स्त्रीवर्गे अप्रमत्तः नि. प्राधिकचादिशमादरहिता सदा सर्वकाचियस्तो विश्वास रहितः सन् निस्तरति पापीत्यर्थ रूपं तद्विपरीतः सविशेषणरहितो न नि ब्रह्मचर्यमिति गाथार्थः । ग० २ अधि० । [ सान्धी संस दोषातिशिया' शब्दे || श्री संसर्गादिपरित्याग न रगुप्ति शब्दे ] निि [१५] खीषु सतस्य परिषदोऽवश्यं भवति ययाइत्यी सत्तेय पुढो य वाले, परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे ॥ स्त्रीषु रमणीष्वासक्तो ऽभ्युपपन्नः पृथक् २ तद्भाषितहसित विशरीरावयवेष्यति यावद्वासोऽः सदसद्विवेकविकलस्तदवसक्ततया च नान्यथा अव्यमन्तरेण तत्संप्राप्तिर्भततो येन केनचिदुपायेन तपायनृतं परिग्रहमंच प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुच्चिनोतीति । सूत्र० १ ० १० ० । [ स्त्रीषु कामेषु चासक्तानामवश्यं नरकयातना जवतीति इत्थिकाम' शब्दे] स्त्रीषु च सर्वेन्द्रियगुप्तेन भाव्यम् तथा च ॥ सादियाजिनिब्बु पयासु, चरे मुणी सभ्यतो विष्यमुके। सर्वाणि च तानीन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि तैरनिनिर्वृतः संवृतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्यः । क्व प्रजासु स्त्रीषु तासु हि पञ्च प्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्ते तथा चोक्तम् । "कलानि वाक्यानि विलासिनीनां गतानि रम्याण्यवलोकितानि । रतानि चित्रा च सुन्दरीणां, रसोपि गन्धोऽपि च चुम्बनादे ॥ १ ॥ तदेवं श्री पञ्चेन्द्रियविषयसम्वाद्विषये संवृत सर्वेन्द्रियेण भाग्यमेतदेव दर्शयति चरेत्संयमानुष्ठानमनुतिष्ठे मुनिः साधुः सर्वतः सबाह्याभ्यन्तरात्सङ्गाद्विशेषेण प्रमुक्तो निःसङ्गो निष्किञ्चनश्चेत्यर्थः । सूत्र० १ ० १ ० । स्त्रीणां दर्शननिषधो यथा - " स्त्रीरम्याङ्गे कणतरक्षितविलोचनो हि दीपशिखायां शन व विनाशमुपयाति । ध० ३ अधि० । [ अत्र प्रायश्चित्तं राधि] [१६] स्त्रीकरस्पर्शादिनिषेधो यथाजत्थित्थीकर फारसं अंतरियं कारणे व उप्पने । विमदिगी, सिंव मुणिवजय गच्छे ०३ । यत्र गणे स्त्रीकरस्पर्शः अथवा स्त्रियाः करेण स्पर्शःस्त्रीकरस्वात् श्रीपादादिस्पर्श क इत्थी [ अंतरियति ] अपि शब्दस्येहापि सम्बन्धादन्तरितमपि वस्त्रादिना जातान्तरमपि किं पुनरनन्तरितं कारणेऽपि कण्टकरीगोमत्यादि उत्पने सजाते सति किं पुनः कारणे दृष्टिविषश्च सर्पविशेषः दीप्ताग्निश्च ज्वलितवह्निर्विषंच हाला दक्षादीनि समाहारादिव व उत्सर्गमाण दूतानि समुदायः [गति ] स गच्छ स्यादिति शेषगाथा बन्दः ! बाझार बुट्टाए, नतु अ दुहिआ अह व अणीए । नय कीर तफरिसं, गोयम ! गच्छं तयं जयिं । । ८४ ।। शहाङ्गस्पर्शस्य सर्वत्र सम्बन्धात् बालाया अपि श्रप्राप्तयौवनाया अपि किं पुनः प्राप्तयौवनायाः वृषाया अपि अतिक्रान्त यौवनाया अपि किंपुनरनतिक्रान्तयौवनायाः एवंविधायाः कस्या इत्याह । नप्तृका पौत्री तस्या अपि दुहिता पुत्री तस्या अपि अथवा भगिनी स्वसा तस्या अपि नालको पलकत्वादस्पदोषीमातु पितृष्वसृमातृष्वसृजननी मातादी कोकादिकानामेकादशानां गावानामपि किमान तनुरुप उपनत्वात्सवास शब्दश्रवणादि च यत्र गच्छे न च नैव क्रियते हे गौतम ! स गणित सम्बधिन्या अपि खियाङ्गस्पर्शादि वर्जनं स्त्रीस्पर्शस्योत्महोदयहेतुत्वात् ॥ जय स्वीकरफरिसं, झिंगी अरिहो सिम करिजा निओ गोम ! नापिज्जा सगुणन ॥ ८५ ॥ यत्र गणे श्रीकरस्पर्शम् विद्यते अस्यासी साधु पचान् भऽपि पदच्यादिमाचयादियोग्योऽपि स्वयमपि अपेरेचकारात्यात् स्वयमेव कुर्यात्तंग नियती गीतम जानीयान् परिचरहितमिति ॥ श्रीकरस्पर्शादिकमुत्सर्गपदेन निषिध्याथापवादपदेनापि निषिध्यति ।। कीर बीयपणं, सुत्तमणियं न जन्य विहिणाओ ॥ उप्पने पुर्ण करने, दिक्सा आर्थकमाईए ।। ८६ ।। अगम्यमानत्वादुरसपाका द्वितीयपदेनापि अपवाद पदेनापीत्यर्थः [ सुतम प्रतियंति ] मकारस्याला कणिकत्वात्सूत्राणितं सूत्राननुज्ञातं सर्वथागमनिषिद्धं स्त्री करस्पशादिकमित्यर्थः । ग० २ अधि० । [ कण्टकाकरणवक्तव्यता विस्तरेण कण्टकुकरण शब्दे ] । १७ । स्त्रियाः साई विहारस्वाध्यायाहारोच्चारप्रवणप रिठापनाधर्मकथादिनिषेध यथा- जे आतागारे या आरामागारे या गहावइमुगहा व कुले वा परियागसदेसु वा एगो एगइत्थीए सि बिहार का करे सज्जा या करे असणं वा ४ आहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिवेश अायरं वाणरियं मेणं असणं पाओगक कहे कहने पर सा ज्जइ ॥ १ ॥ नि० ० ७ ० | कहता आगागे, ते कहिं कतिविधाता। आगंतागारादि सविगारविहारमादीया | सप्तमस्स अंतसुते त्यी पुरिसागारा कडिता ते कहिं डवेज्ज गंगापसुते रामादिसते आगंतरादिस माणं कतिचिदा ते भागा विगोया पद पुण्यरूविया Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी इत्थी (६४३) अनिधानराजेन्द्रः। पमा साहू ग. । त्थियार सहिं समाणं गामाओ गाम-| संजमनयवासासु य, खत्तियमादीसु विप्लायं ॥ ए तरी अहवा गगतं चंकमणं सायं करेति असणादियं असावको सा सव्वाणि विहारादीणि करेज्ज । श्दाणि वा आहारेति नुयारं पालव परिवेति एगोएगित्थीए सम्-ि गेझम्मे ॥ ५ ॥ वियारभूमि गच्ग र अणारिया कामकहा णिरतरं वा अप्पियं खमण सद्देसम्मि वोत्ये, गेलले जा विधी समक्खाता । कई कहति कामनिटरकहाओ पता चेव असमणपानग्गं अ. सा चेव य वितियपदे, गेमप्लो अहमुद्देसे ।। १०॥ थवा देसजत्तकहादिसंजमोवकारिका ण जवति सा सव्वा कंठ्या ॥ निचू० उ० ॥ असमाणपानगा। आगंतारे आरा-मा गारमिह कुलावसहे य । इदाणि सत्तमयवासं तिमिवि दाराए पगगहापदेसत्ति पुरिसिथिएगणेगं, चउक्कनयणा उपक्खे वि॥॥ आकुयय गाहा । आउमादिया संभमाबोहियमच्छादिभय गो यर-अमता वासण अब्भवहतो एगणिलए वि होज्जाएगे एगिथिए समि, अणेगिथिए सद्धि, अणगा एगियी जझसंजमे थलादिसु, चिटुंताणं नवेज चननंगो । प, आणेगा अणे ॥ जा कामकहा साहा, तणारिया रोकिकी च नत्तरिया। एगतरुवएसए वा, बूढगनं ते व सव्वत्तो ॥६॥ एग तरज्कामिए ज, वसयमिमज्ज वावि जावसदी। णिदुर नही कहणं, नागवतपदोसखामणया ॥ ३ ॥ तत्य सोश्या परवाहणरधकधा बोगुत्तरिया तरंगवती मन एमेवय वा ताम्मिवि, तेण जयावाएिण मुकारं ॥६६॥ यवती मगधसेणादिणिटुरंणामवद्वी घरकहणं एगो साधू भरू जोइतमाई विरुके, रोधेरद्दादिणं तु संनमो होज्जा । दखिम्मायहं सच्छेहेणयामो य भागवरण पुच्छितोकिमयं भन्बी वोहियामित्य जएत्ता, गुत्तिणिमित्तं च एगत्था।। ६७॥ घरति तेण साहुणा बारवतिदाहतो आरभ जहा वासुदवे य एगो पगथीए सम हवेज्ज आनकायसंनमेण उदगवाहगे पयाओ जहा य करवागा जंजणं कोसंबीरपवेसो जहा एग उम्मयं थझं पव्ययं मोंग्गरं वा तत्य चिटुंताणं चलनंगसंजरकुमारागमो जहा य जरकुमारण भीलणा हओ मओ य जव वा खेत्ताओ खेत्तं संकमज्जा इत्थ वि चननंगसंभवो । एवं नल्लिघरुप्पत्ति सम्बा कहिया ताहे सो भागवतो यदुट्टी एगतर वसहाए वा खेत्तान खेत्तं कमिज्जति । एवं चउभंग चितति । जहएयं न भविस्सतितो एस समणो घातेयव्यो सो संभवो हवेज्जा एवं वा तो वि चननंगसंनयो तेणगभएण गडिओ दिट्टो यणेण पादे जानिए विको ताहे आगंतणतं साई वा गुत्ते चउभंगसंनवेण णिझुक्का अच्छति । भोश्स्स भोतियखामेति नणति य मए एवं चितियमासी तं खमेज्जसि एनमा स्स बिरोहा एवं गामस्स यरटुस्सय परिसंभमे चचभंगसंन्नदी णिदुरा एवमादिपुरिसाणं वित्ताणं जुज्जेति कहिओ किमु वो तेणगभए वा गुत्ते हवेज्जा । बोहियमच्छभएण पलाया या एगित्थियाणं ॥ णं चनजंगसंजवेण विहारसमायं असणादिया मुश्चारादिया अवि मायरं पि सदि, कथा तु एगागियस पमिसिका। वा एकत्थ णिमुक्कारसंभवो हवेज्जा गुत्ती वा रक्खणं करेत्ताकिं पुण प्राणारयादी, तरुणत्यीहिं सहगतस्स || ॥ णं संभवेज्जा॥ माश्नगिणीमादीहिं अगम्मिस्थिहि सहिं एगाणियस्स ध पुचपविढेगतरे. वासजएणं विसेज अपतरा । म्मकहाविण वद्दति किं पुण अमाह तरुणिस्थिहि सम्॥ि तत्य रहिते परमुहो, णयसुं णेसुं जतीट्ठति ।। अगावि अप्पसत्यीसु, कधा किमु अगारिय असा ।। वासासु वासावासे पते संजतो संजती वा किंचि णिरोचंकमा गसज्झायनोयण-उच्चारेसुं तु सविसेसा ॥५॥ वणरि संगणपविटुं हवेज्ज पच्ग श्यरंपरिसिज्जा विच्छऊण अणा वि धम्मकहा अवि सद्दामो सवेरग्गं सावित्थी एसु विरहिय दोवि परोप्परं मुहा अच्छति। सऊकायहाय सुद्ववि एगा गियासु विरुका किंपुण अणारिया जोग्गा अणारिया सा वास पते संजती सुम्पदाणे णो पविसंति। निचू० न०। य कामकहा असम्भा जोम्गा असज्का । अहवा असता जत्थ जे जिवू नजाणंसि वा नजाणगिहंस वा। नज्जा मल्लविजंति चंकमये सति विज्ऊम प्रतितागारं ददं मोहब्भवो णसासंसि वा णिज्जासिणंसिवा णिजाणगिहंसि वा भवति सज्काए मणहरसद्देण भोयगदाणगहणातो विसंभे सिज्जाणसामंसि वा एको एगित्याए सकिं विहारं नच्चारे ऊण गादित्यणंगदरिसणं ॥ वा करेइ समायं वा करेइ असणं वा ४ आहारे जयपदा चनएह, अठातरजुते तु संजते संते। उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ आग्रयरं वा अणारियं जे निव विहरेज्जा, अहवा विकरेज सज्कायं ।।६॥ मेहुणं अस्सवणपोगकहं कहेश कहतं वा साइजाइ । जयणपदा चनत्थगो पुवुत्तो ॥ उज्जाणं जत्य लोगो उज्जाणियाए वञ्चति जं वाइसिणगाअमणादी बौहारे, उच्चारादि व आतरेज्जा । रस्स उवर्क धियं तं नज्जाणं । राया दियाण णिग्गमणगाणं हिटरमसाधुजुत्तं, अप्पनरकधं व जो कथए ॥ ७॥ णिज्जाणिया नगरागमे वा जंपियं वियं तं णिज्जाणं पतेसुचव सो आणा अणवत्यं, मिच्नुनविगाहाणं मुविधं । गिहा किरिया उज्जाणज्जिाणगिहणगरेपागारो तस्सेव देसे पाविति जम्हा ताणं, एतं तु पद विवजेजा ॥ ॥ अट्टालगं पागाररस अहो अट्रोहत्यो रहमम्मो वरिया बाणगं दार दाबयाणगा पागारपमिनियका तण अंसरं गोपुर दि संजोगापिजम्दा एते दोमातम्हाण कापनि विदागदि अण जाणो नगरम पति सा वगपदो गवाहो दगमग्गी का कारणे पुण करेज्जा ॥6॥ दकाम दगतीर मुण्ण गिर्द सुष्मागारं देसे पहिय सढियं वितिय पदमणप्पजे, गेनामुनमग्गरागट्ठाणे । जिन्नागारं अधोविसासं च उवरि संवाट्ट नं कूमागारं धन Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी इत्थी अभिधानराजेन्द्रः। गारं कोट्ठागारं दमादितणटाणं अवोपगासं तणसलो जससासंसि वा एगो एगित्थीए सकिं विहारं वा करेइ सालिमादि तुसडाणं तुससालो मुग्गादियाणं तुसा गोकरिसो गोमयं गोणादि जत्थ चिटुंति सा गोसासो गिई च सज्कायं वा करे असणं वा,आहारेइ उच्चारंवा पासवणं जुगादिजाणण अकुहासाला सकुई गिहं अस्सादिन वाहणा वा परिवेइ अमायरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओ ताणं सालगिरं वा विकेयं नंमंजत्थ बूटुंति सा सामागिहें वा गकहं कहेश कहतं वा साइज्जइ ॥ ७ ॥ जे निय पासंमिणो परियागा तेसिं आवासथो सामागिहं या चूहा पणियसाझांस वा पणियगिहंसि वा कुवियसालास वा दिया जत्थ कमविज्जति सा कम्मं तंसामागिह वा महंतं पाहुने बहुते वा महंतं गिहं महागिहं बहूसु वा नचारएसु महा कुवियागहास वा एगो एगित्थीए सकिं विहार वा गिह महाकुलपिज्ककुयादी पाहुये बहुजणो अगाइ बहुत्ते करेइ सज्मायं वा करेइ असणं वा ४, अहारे नचारं श्मा संगहगाहा ॥ वा पासवणं वा परिवेइ अप्लयरं वा अणारियं मेहुणं उजाणहाण दगे, मुएणाकूमावतुसतुसे गोमे । अस्सवणपोगकह कहेइ कहतं वा साइज्जइ।। ७ ॥जे गोमग्गाणापाणिगा, परियागमहाकुन्ने सेव ॥ ५॥ जिक्खू गोणसामंसि वा गोणगिहंसि वा महाकुवंसि वा पवंति जहा परितमसुत्ते एवं एतेसुउस्सग्गाववातेण चवन्नं महागिहंसिवा एगो एगित्थीए सधिविहारं करेइ सज्कागसं नवो वत्तव्यो श्मं उज्जाणंवक्खाणं । संजमज्जाणगिहा-णिग्गमण गिहा विणियमाईणं । । यंवा करे असणं वा , आहारे जच्चारं वा पासवणं वा इतरे णगरादिणिग्गमे, सुयसनादिणिजाणगेहा उ॥६॥ परिहवे अमायरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकई उजाण संजमादिया गाहाश्यवेत्ति णिज्जाणे वणियमादिया कहेश कहंतं वासाइज॥णाजे निक्खू राश्रो वा वियाले णिग्गमगहियं कय णिज्जाणगिह अहया पच्चरणं वित्तियं ध- वा इत्थीमज्जगए इत्थीसंसत्ते शत्थिपरिखमे अपरिमाणाए क्खाणं सालगिहाण श्मो विसेसो।।। कहं कहे कहंतं वा साइजः ॥ १० ॥ सामातुअरे पविट्ठा, गेहं कुडसहितं तु णेगविध । संकाराती जणिता, संझाएतु विगमो वियानोउ। वणिनंम्सालपरिनि-बुगादिमहबहुगवाहो ॥७॥ केसिवीवोवत्यं, एगएणतरे सुविधकाले ॥10॥ जे निकावू अटुंसि वा अट्टालियांसि वा चरियांस वा रातीति रातिसंकातीए विगमो वियालो अथवा जेसिं काले पागारांस वा दारंसि वा गोपुरंसि वा एको एगित्थीए चोरादिया रंजति सारातीसंझावगमेत्यर्थः । तेब्धियम्मिकाने साधि विहारं वा करेइ सज्मायं वा करेइ असणं वा, वि गच्छति सो वियानो संजेत्यर्थः ।। आहारे नच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ अस्पयरं वा इत्यीणं मजकम्मि, इत्थी संसत्तपरिवुमे ताहि।। अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहे कहंत वा चतुपरिमाणं तेण, परं कहं तस्स आणादि ॥ नए ॥ साइज्जइ ॥ ३ ॥ जे निक्खू दगंसि वा दगमग्गसि वा श्त्यासु भयो वियासु मज्कं भवति नरूकोप्परमादीहिं संघ स॒तो संसत्तो नवति दिहीए वा परोप्परं संसत्तो संकत्तो समंदगपहंसि वा दगतिरंसि वा एगो एगित्याए सकिं वि ता परिवेष्टिो परिवुढोनमति परिमाणं जाब तिमि चचरो हारं वा करेइ असणं वा ४, आहारेइ जच्चारं वा पास- पंच वा वागरणाणि परतो उद्रादि अपरिमाणकहं कहें तस्स वर्ग वा परिहवे अमायरं वा अणारियं मेहणं अस्स- चठगुरुगं आणादिया पक्के सा पसासुत्तत्था मा णिज्जती॥ वणपयोगकहं कहेइ कहंत वा साज॥धा जे शिकवू मऊं दोएहंतगतो, संसत्ते ऊसगादिवडेतो । सुहागिहंसि वा सुम्पसालंसि वा जिम्मगिहास वा जि चतुदिसि विताहिं तुबमो, पासगताहि व अप्फुसंतोए० मसामंसि वा निमगिहंसिवा निमसाझसि वाकूमागा अहवा एगदिसिवियाहिं वि अप्फुसंतीहिं परिखुमो भम्पति सिवा कोषागारंसि. वा एगो एगित्थीए सिछि विहा. दुविधं च होति मऊ, संसत्ता दिहिदिहिअंतो वा । रंवा करेइ समायं वा करेइ असणं वा , आहारे उच्चारं नावोव तासु णिहितो, एमेवित्थी पुरिसेसु ॥१॥ वापासवणं वा परिवेइ अस्मयरं वा अणारियं मेहुणं अ चसहाम्रो संसतंपि विधमुरुगादिघट्टेतो संसतो दिट्ठीए वाश्थीण वा मज्जे अथया संसत्तस्स श्म ववखाणं तेण तासु सवपयोगकहं कहेश कहतं वा साइज्ज ॥५॥जे जावो णिहितो णिवीसतो परस्परगृकानीत्यर्थः मे दोसा ॥ निक्वतणगिहंसिवा तणसानंसिवा तुसागहंसिवा तुस इत्यीणातिमुहीणं, अवियत्तं असि यावणा दो । सालंसि वा नुसगिहंसि वा नुससालंसि वा एक्को एगि आतपरतदुजए वा, दोसा संकादिगा चेव ॥२॥ थीए सकिं विहारं वा करेइ समायं वा करे असणं वा इत्थी जेण ततो भाया पिया पुत्तभवयमादी ताथवा जेप, श्राहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ अप्पयरंवा सुही मित्ता एतेसिं अवियत्तं हवेज अवियत्ते वा चप्पो प्रणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेश कहतं वा दिया असिया वेतिक रातो व तेसि अप्लोसि वा वसहिमा दियाणं घोच्छेदं करेज्जा आयपरा जयसमुत्थाण पकतो साइना ॥६॥ जे निक्खू जाणगिहंसि वा जाणसाझं. मिसिया ण दोसा होज्ज अहवा संकतिए ते रातो मिमिता सि वा जुम्गगिहंसि वा जुम्गसासंसि वा तुसगिहंसि वा । किं पुण अणायारं करेज्ज संकिते चनगुरु णिरसंकिते मूर्ख Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४५ ) अभिधानराजेन्द्रः | इत्थी रहणादिया दोसा तम्हा णो रातो इत्थीणं धम्मो कहेयब्वो नवे कारणे ॥ वितिय पदमप्पज्जे, पाती वग्गो य संसेिज्जासु ॥ पाती वा रुवसग्गे, रम्रो अंतेपुरादीसु ॥ ए३ ॥ अणवजो वा शातियम्गं वा सो विरस्स गतो ताहे भणेज्जा रतिधम्मं कहे ताड़े सो कहेज्ज वरं कोइ धम्मपब्वजं वा पार्क वजेज्ज सावगसेज्जातरकुलेसु वा श्रसंकणिज्जेसु श्रसी से वा णाणायारेसु उवसग्गा वा जहा अंतेपुरे अभिजुत्तो अहवा राया नणेज अंतेपुरस्स धम्मं कह तादे कहेज्जा तत्यिम विधाणं ॥ ९३ ॥ विदिह मियसंवतो इसेसि विकिटी सु । वेर पुरिसविमिस्स, तासु किटिगा जुताणं वा !! ए४ ॥ णो सो वितो जणश् य दूरे टायर मा याम संघट्टेह तासु दिर्द्वि असंवतो सासु दिट्टिबंधे तो बेरग्गकहं कति पुरु सविमिस्साणं वा कहेति अहवा सव्वा इत्यीओ ताहे घेरविमिस्साणं कति । जे क्खूि सगणित्रियाए वा णिग्गंथिए सद्धं गामायुगामं दुज्जमाणे पुरओ गच्छ्रमाणे पिट्टरियमाणी ये हमण संकष्पे चिंतासोगसागरं संविविट्ठे करतलपहत्यमुहे जाणो गए विहारं वा करेइ जाव कहते वा साइज्जइ ॥। ११ । सगणेचियाससिस्सिणि, अथवा वि सगच्छवासिणी भणितो परसिस्तिणि परगच्छे, णातव्या परिगणिचाओ || || सगणेच्या ससिसिणी वा सगच्छवासिणी वा परगणेच्श्चिगा। पुरतो वग्गमतो वा, सपव्वत्राते य पितो । वचंताणं तेसिं, चक्कनयणा अ वोच्चत्यं ॥ ए६ ॥ तो अग्गतो २ वितो साहू वच्चति अथवा पिट्टितो साधुवच्चति पत्य चडनंगो ॥ पुरतो वचत साधू, अथवा पिट्टेल एत्थ चउजंगो । अथवा पुरतो वा पिट्टे वा एत्थ वा चनरो ॥ ए७॥ पुरतो साधू वचति णो मग्गतो पुरतो मग्गओ वच्चति बसु पुरतो वि मम्गतो जो पुरतो जो मग्गतो पक्खापक्खीसु णो प्रवाश्मो गो । पुरतो सा वायणो पिट्टतो णो पुरतो पिओ सावायं पुरतो वि सावातं पिट्टतो वि, सावात पो पुरतो जो पिट्टतो, सावातं णिज्जप भवोचत्थं गंतव्वं पुरओ साधू पितोस तीतो ॥ जयदोण चतुहं णंतरा तेण संजती सहिते । प्रहतमणसंकप्पे, जे कुज्जविहारमादीणि ॥ ए संजतिसहिश्र जर श्रयमणसंकल्पो विहरति ॥ सो आणा प्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणा तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, एते तु पदे विवजेज्जा || || सो पु किं ओह मणसंकप्पो विहरति भष्ठति ॥ प्रतित्ति करणे पुच्छा, किं कहितेणं अणिग्गह समत्थे । दुक्खमणाए किरिया, सिट्टे सत्तिं ण हावेस्स || १०० ॥ ताओ ओहयमणसंकल्पं दट्टु पुच्छति जेट्टतो किं अधि करेहता हे संजतो भणेजा जो णिग्गहमसत्थो ण भवति तस्स इत्थी किं कढिएणं ताहे संजती ओ प्रणति डुक्खे आणा ते किरिया ए कजति णाए पु क्खापरियारो सो अप्पणो स िण हावेस्स एवं भणिते तदवि गारवेण श्रकहंते संजती ताई प्रणंति ॥ म्हं करेति अरती, सुइतद्दुक्खं इमं अमीसंतं । इति अणुरतं जावं, णातु जावं पदंसेंति ॥ १०१ ॥ असीसंतं श्रकदिजंतं ताओ अगतभावाओ नाथं भज्छुटुधम्मो अपणो नावं इंसेति आकारविकारा य करेज एवं स पराजयसमुत्था दोसा नवंति किं चान्यत् ॥ पंथे तिण वरिणेम्मं, उवस्सगादीसु एस चैव गमो । णिसंकिता हु पंथे, इत्थमणिच्छे य वा ताहे ।। १०३ ॥ णिज्यमे तं मंता ण पुरतो उघस्सप वि ओहियमणसंकप्पेण प्रत्थियन्वं संजती जर इच्छेति ताहे चरितविराणा अह णो इच्छति ताहे संजयस्स प्रायविराट्णाति ताए बेहाल संकरेज। कारणे वितियपदमणप्पज्जे, गेन्नम्मुनिसग्ग दुविधमडाण । उबधासरी रतेणग-संजमतयखेत्तसंकमणे ॥ १०३ ॥ अपज्जो ओह मणसंकप्पो भवे गेलो इमं । पाउग्गस्स अनंने, एगा गिगिलाणख त्तिआदिसु वा । मंभिगमादि उसग्गा, मुच्चेज्ज कथं व इति चिंत्ता ॥ १०४ ॥ गिलाण पाचगण लब्भति ताहे अट्ठिति करेज्ज खत्तियादि सुवा गिनाणिसु अट्ठिति करेज्ज उवसग्गे इमं मंमिपण उवसग्गज्जतो नवस्सग्गिजंतिसु वा चिंतं करेज नवसमो मंपिणं अप्पणो संजतीणं वा उवसग्गे करिति कई मुंचेजामो तिर्चितं करेज उवहीसरीरतेणएत्ति-अस्य व्याख्याउवधिसरीरचरित्ता, जात्रमुच्चे ज्ज किएहु आवाय । वसाय सहायस्स वि, सीतति चित्तं धितिमतो वि १०५।। उवधि तेण सरीरतेणगा य संजती वा चारि सगेण वा कडि पति अबिग्घेण पित्थरेज एरिसे कजे समत्यस्सषि चित्तं सीदति । अट्ठाणेति परिसंतो अडाणे, दगग्गिनयसंनमे वरोतहा । वोहियमेत्य नए वा, तिविताए होति एगस्स १०६ ॥ द्वाणपरिसंतो तरहा खुतो वा श्राणं कई णित्थरेज दुगवाह संनमे श्रग्गिसंभमे भयादिसंभमे वा चिंता नवे वो हियमेत्थ प्रयेण वा चिंताए परो प्रवेज । नि० चू० ८ ४०| (१०) स्त्रीणां निर्ध्यानादिनिषेधो यथा एवइयं वइयरं सोचा, दुक्खस्संतग वे सिणा इत्थी परिग्ग हारंजो, बच्चाघोरं तवं चरे । १ । वियासत्या सायया परंमुही, असं किया वा नलं किया वा, निरिक्खमाणोपमया हिंदुब्बनं मस्समाझेहगयावि किस्सा |२| चित्तनित्तिं न निज्जाए, नारिं वा सुत्र्प्रलंकियं । नक्खरं पिव दहूणं, दिपि समाहरे | ३| हत्थपायपनिच्छिन्नं, कष्ठानासोड कत्तियं । यप्पयं सममालीय, कुडवाहोदरोरुयं । ४ । तमवित्थियं पुरयणं, बंजयारी विवज्जए । थेरजज्जए जा इत्थी, पव्बंगुब्जमजोव्वणा । ए । जुनकुमारी पत्थ - वश्वासविहवं तवय | अंतेजरवासिणी चेव, For Private Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । इत्थी परपासंगसंसियं । ६ । दिक्खियं साहुणी वा वि, वेसं तहय नपुंसगं । कहिं गोणिं खरं चैव, वरुविं प्रविल अवि तहा । ७ । सप्पिथि पनिं वा वि, जमरोगम हिलं तहा । विरिसं समचेलिक्खं, एवमादी य वित्थओ | 1 | गर्मति जत्थ रयणीए, ग्रह परिक्खे दिणस्स वा । तं वसहि समिवेसंवा, सव्वोवाएहि सव्वहा । ए । दूरसुदूरदूरेणं, बंजयारी विवज्जए । एएसिं सद्धिं संसावं, अद्वाणं वा वि गोयमा ! । १० । अन्नासु वा वि इत्थीसु, खणद्धं पि विवज्जए । से जयवं ! किमत्थीयं, गोणं णिज्जारज्जा गोयमा ! णो णंपिज्जारज्जा | से जयत्रं ! किंसुणियच्चवत्याअंकस्थिविहूसियं इत्थीयं नो णं निज्जाए जयादु णं विलियंसंणं ? गोयमा ! उत्ने पहाविणं णो णं पिज्जाए । से जयवं ! किमित्थियं नो प्रझावेज्जा गोयमा ! नो णं आसवेज्जा | से जयवं ! किमित्थीसु सकिं खणकमवि नो वसेज्जा, गोयमा ! णो णं संवसेज्जा । से जयवं ! किमित्यी सकि नो अड्डाणं परिवज्जेज्जा । गोयमा ! एगो बंजारी एगत्थीए सद्धिं नो परिवज्जेज्जा । से जयवं ! केण्डेण एवं च जहा णं नो इत्थीण निज्जाएज्जा मो ण मालवेज्जा नोणं तिए सार्द्धं परिबसेज्जा नो एवं प्राणं परिवज्जेज्जा गोयमा ! सब्वपयारोह णं सव्वित्यित्र्य अव्वत्थमप्रोकमत्ताए ओगेणं संबंध किज्जमा कामग्गीए संपक्षित्ता सहावओ चैव विसएहि वा हिज्जमाणी असमयं बद्दिसिं विदिसासु णं सव्वत्थ विसए पछिज्जा जाव णं सव्वत्थ विसए पबिज्जा तावणं सव्वत्थ पयारेहिणं सव्वत्य सव्वहापुरि से संकष्पेज्जा । तावर्ण सोइंदिप्रोवोगत्ताए चक्खुइंदि प्रोवोगतार रसिंदिप्रोवोगत्ताए घाणिदिओवओगताए फासिंदि प्रोव प्रोगचाए जत्थ णं केश्पुरिसे कंत रूवेइ वा त्र्यकंतरूवेइ वा पशुप्पनज्जोन्वणेइ वा अपपन्नजोब्बर वा गयजोव्वणे वा दिनुपुन्वे वा शङ्कुमंते वा आणि मितेश वा इविपचे वा अधिपिलेइ वा विसया रेइ वा निविभकामजोगेइ वा उच्छयाबदिएइ वा अणुपर्वोदिइ वा । महासत्तेइ वा हीएसत्तेइ वा माहापुरिसेइ वा कापुरि सेइ वा समणेइ वा माहणेइ वा श्रभयरेश वा निंदियाहि महीणं जाइएहिं वा तत्थर्ण ईहापोहवीमंसं परंजित्ताणं जाव णं संयोगसंपातं परिकप्पे ताव णं से चिते संख नवेंज्जा । जाव णं से चित्ते संखुके जवेज्जा लावणं से चित्ते विसंवएज्जा जावण से चिले विसंवएज्जा ताव से देहेमए णं श्रासेज्जा । जाव णं से देहेमए असे ताव णं सदर विदरे इहपरलोगावार पम्हसे For Private इत्थी ज्जा | जाव णं से दर विदरे इहपरलोगावाए पम्ह सेज्जाताव णं वेचा लज्जं जयं असं कित्तिमरं उच्चगणाओ नियठगज्जा । जाव णं उच्चट्ठा पाओ नियद्वाणं ठाएज्जा ara [ चणेज्जा ] वच्चेज्जा असंखेया ओ समयावलिया जाव णं नीयंति प्रसंखेज्जाओ समयावलिओ [ताव णं जं पढमसमयाड] ताव एणं जं पढमसमयाओ कम्मडिइयं तं वीयसमयं पचावइया दिशाएं समयाणं संखेज्जं असंखेज्जं - vij वा कमसो कम्मट्टिई संचणिज्जा जाव एां अणुकसो प्रणतं कम्मडिई संचिणइ तात्र णं असंखेज्जाई अत्रसप्पी को मिलक्खाई जाव णं काले णं परिवत्तंति तावइ यं कालं दो चैव नरयतिरिच्छासु गतीसु नकोसद्विश्यं कम्मं संकलेज्जा जाव णं उक्कोसद्वितीयं कम्ममासं कलेज्जा ताव णं सेविपत्तिं विवपकंतिं विवलियलावण्यसरी निभट्टदित्तेया बोंदी जवेज्जा । जाव चुयकंति लावष्णासरियं दित्तेया वोंदी जवेज्जा जावां से सि इज्जा फरिर्सिदिए ताव णं सव्वहा वित्रट्टेज्जा सव्वत्य arraरागे जावणं सव्वत्य विज्जा चक्खुरागे ताव णं गारुले नयणजुयले ज जा जावणं रागारुणे यजुयले य जवेज्जा ताव रागंधत्ताए व गणेज्जा सुमहंत गुरुदासे वयजंगे नगरे जा सुमहंत गुरुदासे नियम जंगे न गणेज्जा | सुमहंतघोरपात्र कम्म समायरणं सील मन गरोज्जा सुमहंतसव्वगुरुपात्रकम्मं समायरणं संजमं विराहं न गज्जा घोरंधयारं परयोगदुक्खनयं न गज्जा । इयं न गणेज्जा | सकम्मगुए द्वाणगं न मज्जा | ससुरासुरस्त विणं जगस्स अलं गणिज्ज श्राणं न गणेज्जा प्रणततो चुलसीइजोणिक्षक्खपरिवत्तगन्जयरं परं प्रणिमिसिसोक्खं चनगइसंसारदुक्खं पासिज्जा जं पासिणिज्जं पासेज्जाणं छापासणिज्जणं सव्वजणसमूहमज्ऊसभिविडियाणि वभवक्कमियनिरक्खि मार्ण वा दिप्पंतकिरणजानं दसदिसी पयासयत्तवंततेय यस सूरिए वि तहावि ए पासेज्जा । सुनंधयारे सव्वे दिसानाएजाव णं एगधत्ताए ए गणेज्जा। सुमहागुरु दोसे वयजंगे नियमनंगे सीलखंभणे संजमविराहणे परलोगन ए प्राणाजगाइकमो प्रणतसंसार नए पासेज्जा । अपासणिजे सजणपय मदियरे वि ण मभेज्जा सुगंधयारे सव्वदिसानाए जाव न गणेज्जा सुमहल गुरुदोसे वयनंगे नियमजंगे सीलखमणीया अचंतनिब्ज सोहग्गारसाए विथ एरागारुणपंकुए साणिब्जे अणिरिक्खणिज्जे वयणकमले नवेज्जा । जाव णं प्रचेत निन्नड आज जबेज्जा सावणं फुरफुरेज्जा सयिं सवियं पौरुफुमिनियंव बत्योरुद्दत्थ बाहुनइयजरकंत्रपरसे जाब नं फुरफुरेति पौरु Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४७ ) अभिधानराजेन्द्रः । इत्यी नियंत्रवत्यो हत्या हुनइयउरु कंत्र प्पर से तावणं । मोढाणी अंगाकियाहिं निरुलक्खे वा सोवलक्खे वा जेज्जा सव्यंगो वंगे जाव णं मोढायमाणी अंगपानियाहिं जेज्जा सव्वंगोषंगे तात्र णं मयणसरसन्निवारणं जज्जरियसंजिनं सव्वरोमकूवे तणू जवेज्जा । जात्र णं मय सरसन्निवारणं विसिए वोंदी जवेज्जा ताव तहा परिणमेज्जा । तणू जहा णं मणगं पयसंति धातूवो जाव णं मणगं पयनंति धातूओ ताव णं अच्च त्थं वाहिति पोग्गल नियं बोरुबाहुलइयाओ जाव अत्यं बाहुं बाहिज्जर नियंवं ताव णं दुक्खेहि घरेज्जा गत्तयडिं जाव णं दुक्खेणं धरेज्जा गत्तयड तावणं से णो लक्खेज्जा तिसरीरावत्थं जाव णं णोवलक्खेज्जा । प्रतीयं सारीरवत्यं ताव णं दुबाअसेहि समएहिं दर्शन नवे बोंदी जावां दरनिव्बई जो वोंदी ताव पनि क्खज्जा से ऊतासे नीसासे ताव णं मंदं मंदं ऊसा सेज्जा मंद मंद नीसासेज्जा जाव णं एयाई इतियाइ जावंतर तराई विहारेज्जा ताव णं जहा गहवत्ये केह पुरीसेइ वा इथिए वा विसंबुझाए पिसायाए नार तिए असंबद्धं संक्षियं विखुतं तं अच्चत्यं उल्लविज्जा एवं रिया णं इत्थीयं विसमात्रत्रमोहमम्म लावणं पुरिसे देवे वा यदिट्टपुत्रे वा कंतरूवई वा अ ias वा गइजोन्वणेइ वा पशुपन्नजोव्वणेइ वा महा सत्ते वा हसते वा सप्पुरिसेइ वा कापुरिसेइ वा इमं वा मते वा विसउछेइ वा निव्विन्न कामजोगे वा समणे वा माहणेइ वा जात्र अन्न रे बाई निंदिया महीण जावइए वा अन्त्येणं सज्ज से ममणि उल्लवेज्जा जाव णं संखेज्ज दजिणं सरांगणं सरेणं दिट्ठिएइ वा पुरिसो वावेज्जा निज्जारज्ज वा ताव णं जं न असंखे ई पिएसपिएकोमिअक्खाई दोसुं नरयतिरिच्छासु गतिसु उकोसद्वितीयं कम्मं संकलि सिनं तं निबंधिज्जा नो एां वरूफुडं करेज्जा । सेवि णं जं समयं पुरिसस्स णं सरीरावयवफरिसिणानिमुहं जपिज्जा गोणं परिसज्जातं समयं चैव तं कम्मट्टि बक पुढं करेज्जा ? नो णं वपुहनिकार्यतिए यात्र सरिहि गोयम ! संजोगेणं संजुज्जेज्जा से विणं संजोए पुरिसाय ते पुरिसों विणं जेणं ण संजुज्जे से धो जेणं संयुज्जे से अम । से जयवं ! केण्डेणं एवं वृच्चइ जहा पुरिसेवि णं ण संजुज्जे से धने ज णं संजुज्जे से णं धने गोयम ! जेणं सत्तीए इत्थीए पावए वरूपुकम्मई चि सेणं पुरिससंगेणं निकाइज्जइ । तेणं For Private इत्थी तु निकाइए कमेणं सा वराईतं तारिमं सायं पकुच्चा एगिंदियत्ताए पुढवादिसु गया समाणा कालपरियण विणं णोणं पावेज्जा बेईदियत्तणं एवं कहा बहुके से अनंतकाला एगिंदियत्ताणं खविय वेदियत्तं तेईदियत्तणं चनरिंदियत्तमविसेय एां वेइयत्ता पंचिदियत्तेणं आगया समाणि दुब्ज गित्थिस परिच्छा वेयमाणी हाहान्यकडसरणासिविशेवि दिसोक्खा निचं संताच्चेसिया सुहिसयणबंधवविज्जि या । आजम्मं कुच्छणिज्जं गेहणिज्जं निंदाणिज्जं खंस णिज्जं बहुकम्पं तेहिं अगवादुमहिं बोदरचरण सव्वजोग परिया च उगइए संसारेज्जा अन्नं च एवं गोयम ! जाव इयतीए पायइत्थीए । बद्धपुधुनिकाइककम्महिई समज्जियं इत्यियं जिल्लासिउकामे पुरिसा उक्किट्ठ २ परं कम्मा पुनिकाइयं समज्जिणेज्जा ( समुच्चि ज्जा ) णं णं गोयम ! एवं वृच्चइ जहा णं पुरिसेवि यां जेणं नो संजुज्जे सेणं धने जेणं संजुज्जे सेणं प्रधने । जयवं! पुरिसेणं पुच्छा जाव णं च णं वयासि, गोयम ! विहे पुरिसे नेयं तंजहा अहमाहने १ ग्रहमे २ वि मज्जिमे ३ उत्तमे ४ उत्तमुत्तमे । सव्युत्तमुत्तमे ६ तत्थ णं जे सत्तमुत्तमे पुरिसे सेणं पुब्वंगुब्जमयोव्वणं सन्बुतमरूवलावन्नकंतिकलियाए वि इत्यए नियं वा रूढो वा स सयं पिचिट्टिज्जा णो णं मणसा वि तं इत्यियं अनिलसेज्जा । जेणं से उत्तमुत्तमे से णं जइ कह वितुमितिहाएणं मणसा सममेकं अनिझसेज्जा तहवि वीयसमए मणसं निरं जिय अत्ताएं अन्नाएं निंदेज्जा गरहेज्जा न पुणो वीएवं नत्य मे इथियं मणसा विज अनिलसेज्जा । जेणं से उत्तमे से जड़ कहवि खणमुहुत्तं वा इत्थियं कामेज्जमाणे पक्खेज्जा तओ मणसा अनिलसेज्जा जाव णं जामजामं वा णो णं इत्थीए संकष्पं विकप्पं समायरेज्जा । जइ एणं बंजयारिकियपच्चक्खाणाग्गहे पहाणं तो बंजयारी नो कयपच्चक्खाणानिग्गहे तो णं नियकत्ते जयणाण उण तिब्वे कामेसु अभिलासे जविज्जा तस्स एयस्स णं गोयम ! अस्थि बंधे किंतु प्रांतसंसारइत्तणं नो निबंधेज्जा । जेणं सेज्जा जेां से वि मज्जि मे से निकलतेणं सद्धिं नियमं समायरिज्जा पो णं परकलणं एसे य णं जइ पच्छा उग्गबंजयारी नो नवेज्जानो णं अज्जवसायविसेसं तं तारिसमंगीकाऊण अणतसंसारयत्तणे जया जओ णं जे के‍ अभिगयजीवापयत्यो सन्व्त्रसत्ते आगमाणुसारेणं सुसा. मोहंजदाणादाणसीबत वनावणापई स चन वि सं समज्जा | सेणं जइ कहइ निय Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४८ ) अभिधानराजेन्द्रः | इत्यी मनयजंग न करेज्जा तओ णं सायपरंपरएणं सुमाणु सतंसुदेवत्ताए । जाव णं अपरिवमियसम्मत्ते निसग्गेण निगमले वा जाव अट्ठारससीअंगसहस्सधारी जावताणं निरुद्धा सव्वदारे वियरयमले पात्रकम्मं खवेताणं सिज्जेज्जा । जे यहां से अहमे सेणं सपरिदारासतमाला से समयं क्रूरज्जवसायज्जवसियचित्तेहिं सा रंगपरिग्गदाइसु अजिर जवेज्जा तहा णं जे य से अह मादमे सेणं महापावं कम्मं सव्वाओ इत्थी वाया मणसाय कम्मुणा तिविहं तिविहेणं । अणुसमयाजिन्झसेज्जा तहा अचंतकूरवज्जवसाय प्रज्जवसिएहिं सारंजपरिस कालगमेज्जा एसिं दोऐहंपि णं गोयम ! अयंत संसा रयत्तणं शेयं । जवयं ! जेां से हमे जे विणं से हमा माहमे पुरिसे तेसिं च दोएहं पि यं अनंतसंसारियत्तणं समवायं तो य णं एगे हमे एगे हमाहमे एतेसिं दोएपि पुरिसावत्था णं को पर विसेसो गोयम ! जेां से अहम पुरिसे से जइवि उ सपरदारासतमाणसे क्रूरज्जवसायप्रज्जवसिएहिं सारं परिग्गहासत्तवित्ते तहवि णं दिक्वियाहिं सादुणीहिं अन्नयरासुं च सीलसंरक्खणपोसहोत्रवासनियराहिं दुक्खयाहिं गारत्यीहिं वा सद्धिं आath पिलियामंतिए विसमाणे लो वियमं समायरेज्ज | जे यणं से हमाहमे पुरिसे सेणं नियजपाणिपनाई जाव दिक्खियाइहिंसागीहिंपि समं वियमं समारिज्जा ते चैव से महापावकम्मे सव्यहमाहमे समक्खा एसेणं गोयमा ! पविसेसे तहा य जेणं से ग्रहमपुरिसे से तें कालेणं बोहिणं पावेज्जा । जो एां से ग्रहमाहमे महापावकारी दिक्खियाहिं पि साहुबीहिं पि समं वियमं समायरिज्जा सेणं अनंतद्रुतोवि प्रांतसंसार माहिंमिऊपि बोहिं नो पावेज्जा । एसे य णं गोयम ! वितिए पइविसेसे तत्य एां जे से सब्बुत्तमे सेणं मत्थ वीयरागेण य जेणं तु मे उत्तमुत्तमे मेणं अशिहिपनिनीए जाव णं जवसमायरेज्जा ताव णं निउणीए जेणं च से उत्तमे सेणं अप्पमत्त संजए णो एवमेएसिं निरूवणाकुज्जा जे उणं मिच्छदिट्ठी जविताएं उग्गदंजयारी जवेज्जा हिंसारंजपरिग्गहाइर्ण वरिए सेणं मिच्छदिडी चेव ऐप लोणं सम्मदिट्ठी तेसिं च णं प्रविश्यजीवाइपयत्थ सब्जावाणं गोयम ! नो णं उत्तमुत्तमे अभिनंदणिज्जे वा संसणिज्जेवा जवइ जे उत्तमेां से प्रणंतरजविए दिव्बोएलए विसएपच्छेज्जा अच्छंवकयादिइ ते दिग्वित्यियादओ संविक्खियत्तणं बंज व्वयाओ परिहरिज्जा शियाण करे बाहवेज्जा जे य एां से वे मज्जिमे सेणं तं तारिसमज्जबसायमंगीकिचा ण विहारज्जा विरयाविरए दहन्त्रे तदा For Private इत्थी जे से हमे जे यणं से अहमाहमे तेसिं तु णं एतेणं जहा इत्यी तहां ने जोवणं कमेइ नई समज्जेज्जा एवरं पुरिसस्स एणं संचिक्खणंगे संबेत्थरुहोवरतल पक्खएस लिंगे यहिययरंरागमुप्पज्जे एवं एते चैव छ पुरिसविना कासिं च इत्थीणं गोयमा ! जव्वसत्तं सम्मतदत्तं च अंगीकाऊ जावणं सव्वत्तमे पुरिसविजागे ताव णं चिंतणिज्जे नोणं सव्वेसि मित्थीणं । एवं तु गोयमा ! जीए इत्यीए तिकानं पुरिससंजोगसंपत्तीण संजया ग्रहाणं पुरिससंजोगसंपत्तीए विसागुणीए जाव णं तेरसमे चोदसमे पनरसमे णं च समयेणं पुरिसेण स िए संजुत्ता णो वि यं संसमायरियं सेणं नहा घणकट्टतणदारुसमि के गामेइ वा नगरेइ वा रसोइ वा संपचिंगानिलसंधुकिए य पलित्ताणं णिमज्जिय 2, चिरेणं नवसमेज्जा एवं तु णं गोयमा ! से इत्थी कामसंपत्ति समाशिणिमज्जिय २, समयचउक्केणं उबसमेज्जा एवं इगवीसइमे वावीसश्मे जाव णं सत्ततीसइमे समए जहाणं पदीवसिहा वावन्ना पुणरवि उसयं वा ताविणं त्रयोगेणं वा पयलेज्जा एवं सा इत्थी पुरिसदंसणेण वा पुरिसालावगदंसणेण वा मंदेणं कंदप्पेणं कामी पुरविन पयलेज्जा एत्यं च गोयमा ! जत्थिये जण वा लज्जाए वा कुसंकुसेण वा जाव णं धम्मसधारणं वा तवे य णं अहियासेज्जा नोां वियमं समायरिज्जा, से धन्ना से पुष्ण पुष्पा, से य एणं बंदा, से पां पुज्जा, से एां दट्ठव्वा, सेणं सव्वलक्खणा, से णं सव्वकल्याणं कारया, से एां सव्युत्तममंगल निही, से एां सुथदेवया, सेणं सरस्वती, से एां अंबहुंमी, से एां अच्चुया, सेणं इंदाणि, से णं परम वित्तुतमसिद्धी मुत्तीसासयासिवगइति । जे इत्थियं ते चेवणं नो अहियासेज्जा त्रियमं वा समायरेज्जा से णं अधन्ना, से णं अवंदा, से ए पुज्जा, सेणं दडवा, से एां अलक्खणा, से एणं जग्गअक्खणा सेणं सव्वमंगल कलाणनायणा से णं हसीना, सेणं जट्ठायारा, सेणं परिजचारित्ता, से ए निंदलिया, से णं गरहिणिया, से एां खिस पिज्जा, सेणं कुच्छिपिज्जा, से णं पावा, सेणं पावपावा, से णं महापात्रा, से एां उपवित्तत्ति एवं तु गोयमा ! वपुल एत्ताए, रुत्तर, कायरत्ताए, सोझत्ताए, उम्मायत्र्ग्रो वादप्पयो वा कंदप वा प्रणष्पवसो वा । आउट्टियए वा जमिस्थियं संजमा परिन स्सिय दूरडाणे वा गामे वा नगरे बारायाणी वा वेसग्गहणं अच्छमिय पुरिसे णं सकि वियमं समायरेज्जा ओ 2 पुरिसं कामेज्ज वा रामेज्ज वा अहां तमेवा दोयत्थियं कज्जमई परिकप्पेताणं तमा Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४९) अभिधानराजेन्द्रः। इत्थी इवेज्जा त चेव भाई व माणीय सिया उम्मायो वा स्सणं गोयम!सब्बप्पगारेसु पिदुस्साहियं विजंपि वादो दप्पओ वा कंदप्पो वा अणवस्सयो वा आनटियाए सुप्पायणं सरंजसंजगं विवा अपुडधर्म अलियचारित्तं पा कइया परिए वा सामर्ष संजप्पा वा रायसंसिए वा पि व अणालोश्यं अणिदियं अगरहियं अकयपायच्चवामयनफिजुत्ते वा तवोसफिजुत्तेइ वा जोगचुगल तज्झवसायं पमुख अपंतसंसारपरियट्टणमुक्खसंदोहं चिजुत्तेइ चा विनाणलकिजुत्तेइ वा जुगुप्पहाणे या प- कयपायचित्तं विसोहिं पिव पुणो असंजमायरणं महंत बयणप्पनावगेइ वा समिस्थियं अन वा रामेज वा कामे पावकम्मसंचयहिंसं पि व सयलतेलोकनिदियं आदि ज्ज वा अजिससेज्ज वा नुजेज्ज वा परितुंजेज्ज वा परमोगपञ्चवायघोरंधयारणरयवासो श्च णिरंतराणेग जाव णं वियमं वा समापरेज्जा । से णं दुरंतपंतसक्खणे, मुक्खनिहिंति अंगपञ्चंगसंगणं चारुवियपहियं अच्छी अहो, अवंदे, अदहब्वे अपवित्ने, अपसत्थे, अकवाणे, एं तं न णिज्काए कामरागविवकृणं तहा य इत्यीयो अमंगो, निंदाणिज्जे, गरहणिज्जे, खिसणिज्जे, कुच्चि नाम गोयम ! पनयकारयणीमिव सम्बकालं तणो हिज्जे, से गं पावे, सेणं पावपावे, सेणं महापाचे, सेणं वमित्ताओ नवंति विज्जु श्व खणदिनहुपेमाओ जमहापावपावे, सेणं जसीले से णं जायारे, सेणं नि- वंति सरणागयवायगा इव एक्वजमियाअो तक्खणपसूयनच्चारित्ते महापावकम्मकारिजयणं पायणिं पायनि जीवंतमुकनियसिसुजक्खओ व महापावकम्माश्रो तमन्नाहिजा तओणं मंदतुरगेणं, वरेणं सरीरेणं, उत्त जवंति । खरपवण्हच्चालियनवणोदहिवेला इव बहुमेणं संघयणेणं, उत्तमेणं पोरुसेणं, उत्तमेणं सत्तेणं उत्त विहविकप्पकबोलमालाहि ण खपि एगत्य असंमेणं तत्तपरिमाणेणं, उत्तमेणं वीरियसामत्येणं, उत्त ठियमाणसाओ नवंति सयंजुरमणोवहीमिव दुक्खगामेणं संवेगेणं, उत्तमाए धम्मसदाए, नत्तमेणं आउक्खएणं हकश्तवाओ जर्वति पवणो इव चटुमसहावाओ नवंति तपायच्छे तमाणुचरेज्जा । तेणं तु गोयमा ! साहूणं महा अग्गी इव सन्मनक्खाओ । वाओ व सब्बफरिसायो णुनागाणं अट्ठारसपरिहारहाणाई पवनचेरगुसिउ तक्करोश्व परत्वलोमाओ साणो इच दाणमेत्तमतिश्री वागरिज्जत्ति । से जयवं ! किं पच्छितेणं मुजफज्जा मच्छो श्व हत्यपारचत्तनेहाओ एव माई अणेगदोसन्मगोयम! अत्येगे जेणं सुजफेजाअत्येगे जेणं नो मुज्केजा।से क्खपमिपुत्रसम्बंगोवंगसब्जितरबाहिराणं महापावकम्माजयवं ! केणडेणं एवं बुचई जहाणं गोयम ! अत्थेगे जेणं णं अविणयविसमजरीणं तत्युप्पन्न अपत्य गत्य पसूईणं मुज्जा अत्थेगे जेणं नो सुकेज्जा। गोयम ! अत्थेगे-- इत्थी य णं अशावरयनिग्नरंतदुग्गंधा सुइविल्लीण कुच्च जेणं नियमिप्पहाणे सक्सीले वंकसमायरे से णं अस णिज निंदाणिज्ज खिंसणिज्जसवंगोवं गाणं सम्नितरवा झेया मोइत्ताणं ससझे चेव पायच्चित्तमणुचरेज्जा सेणं हिएणं परमत्थो महासत्ताणं निविनकामनोगाणं अविमुखसकसुसंसेणं णो मुज्ज्जा अत्थेगे जेणं नज्जु गोयम! सब्बुत्तमुत्तमपुरिसाणं के नाम सुश्त्तेमु विनाया पकरसरमसहावे जहावत्तं पीसनं पीसंकं सुपरिफुलं धम्माहम्मेखणमवि अनिलासं गच्चिजा जासिं च णं श्रामोइत्ताणं जहोवइडं चेव पायच्छित्तमणुचेटिज्जा अनिलसिळणं कामे पुरिसे तज्जेणिसमुचिमपंचिदियाणं सेणं निम्ममनिकसुसविमुकासए विसज्जेज्जा । एतेणं एकपसंगणं चेव णवएहं सयसहस्सेणं णियमाओ उद्द एवं बुचइ जहाणं गोयम ! अत्थेगे जेणं मुज्ज्जा अत्थेगे वगे जवेज्जा ते य अञ्चंतमुहमुत्ताओ मंसचक्खुणो ण पा जेणं नो सुज्केज्जा तहा णं गोयम ! इत्यीय णामं पुरि सिया एएणं अटेणं एवं वुचई जहा णं गोयमाणो ईत्थी साणं महमाणं सव्वपावकम्माणं वसुहारातमरय पंक- | णं पानवेज्जा नो असंवेज्जा नो उबवेज्जा नो इत्थी खाणी सोग्गईमग्गसणं अम्गला नारयावयारस्स अं णं अंगावंगाई संणिरिखेज्जा जावणं नो इत्थीए साई समोयरनवेत्रणी अजूमयं विसकंदनि अणम्गिणियं राग बनयारि अघाणं पमिवज्जेज्जा। महान् ॥ चटुझिं अजीयणं विसूइयं प्रणामियं चाहिं अवे (२०) स्त्रीस्थानदूषणमाह। पणं मुच्चं प्रणोवसगं मारिं अणियसं गुत्ति अरु जहा विरामावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्या। मए पासे आहश्रो मच्चूतहायणं गोयम! इत्यो संजोगे एमेव इत्थी निलयस्स मज्के, न बम्नयारस्स खमो नि पुरिसाणं मणसावेणं अचिंतिणिज्जे अवमकवस वासो ॥१३॥ हिज्जे अप्पसत्यणिज्जे अपसत्याणिज्जे अहीणिज्जे यथा विकासावसथस्य सूबे विमानस्य आषसथं गृह विमा सावस तस्य समे समीपे मूषकाणां सन्युराणां वसतिः अवियप्पणिज्जे असंकप्पणिज्जे अणजिल्लसणिजे अ. स्थितिःन प्रशस्ता न समीचीना प्रवति विमानगृहसमीप संजरणिके तिविहं तिविहेणंति जोणं इत्यीणं नाम पुरि- मूषकस्थितिमरणायैव एषममुना दृष्टान्तेन स्त्रीनिलयस्य लिया Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी (६५०) निधानराजेन्डः। सहितो निलयो गृहं स्त्रीनिलयस्तस्य स्त्रीनिन्नयस्य मध्ये ब्रह्म- नामेकान्त र श्रये स्थितिः श्रेयसीति चारिणो निवासः कमो युक्तो नास्ति । तत्र वसमानस्य ब्रह्म- नावः ॥१६॥ चारिणो ब्रह्मचर्यस्य नाश एव स्यादिति नावः ॥१३॥ स्त्रीप्रसङ्गत्य गं एतराप ६. ।। त्यादिरहिते स्थाने वसमाननापि स्त्रीसम्पाते किं कर्तव्यं मोक्खाजिकखिस्स विमाणवस्स, संसारनीरुस्स छियस्स तदाह । धम्मे। नतारिमं दुत्तरमत्यि स्रोए, जहित्थिो वालमणोन रूपलावप्मविनासहावं, न जंपियं इंगियपहियं वा। हराओ ॥१७॥ इत्यीणचित्तं सिनिवेसत्ता, द8 ववस्से समणे मोकानिकाङ्कस्य मोकानिलाषुकस्य मानवस्य संभारभीरोतवस्सी ॥१४॥ राप तथा धर्मे स्थितस्य श्रुतधर्मे स्थितस्य अत्र संसारे तादृशं तपस्वी श्रमणः स्त्रीणामेतत्सर्वमेतञ्चेष्टितं चित्ते स्वकीये | दुस्तरमन्यत् किमापनास्ति यथा झोके संसारे स्त्री पुस्तरा मनसि सन्निवश्य सम्यगवधार्य इष्टुं न व्यवस्थेत दर्शनाय. स्ति। कीदृशीस्त्री बाममनोहरा बाबानामविवेकिनां मनांसोद्यमो न नवेत् । कोर्थः साधुः स्त्रीणामेतच्चेष्टितं स्वह सि हरतीति बालमनोहरा । तुशब्दः पादपूरणे विशेषार्थे च । दि धृत्वा एतम्चेष्टितं अधु व्यवसायं न कुर्यात् । यतो हि । स्त्रीसङ्गातिक्रमे गुणमाह॥ पूर्व मनसः इच्छायाः प्रवृत्तिस्ततश्चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां एएयसंगे समइकमित्ता, सुहत्तरा चेव नवंति सेसा। प्रवृत्तिरिति । तत्स्त्रीणां किंकिञ्चेष्टितं तदाह रूपं स्त्रीणां गौरा जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई नवे अविगंगा समाणा १७ दिवों लावण्यं नयनालादकःकश्चिद्गुणविशेषः, विलासो मनुष्याणामेतान् स्त्रीसंबन्धिसङ्गन समतिक्रम्य शेषाः धनविशिष्टनयनचेष्टाविशेषः, अथवा मन्धरगतिकरणादिको, धान्यादिसंबन्धाः सुखोत्तराश्चैव भवन्ति । सुखनोत्तीर्यन्ते हास्यं स्मितमीषदन्तानां जल्पितं मन्मनोद्वापादिकम् इङ्गि इति सुखोत्तराः यथा महासागरं स्वयंजूरमणसदृशं समुद्रमुतमङ्गोपाङ्गादिमोटनं स्वचित्तविकारसूचकं, धीवितं धक्रा बजय गङ्गा नदी अपिसुखोत्तरा सुखोल्लवयाएव तथा येन स्त्रीवोकनम् रूपश्च झावण्यं च विज्ञासश्च हास्यं च रूपना सङ्गस्त्यक्तस्तस्य अन्यसङ्गो धनधान्यादिसंयोगः सुत्यज एव वण्यविझासहास्यानि तेषां समाहारो रूपमावण्यविलास (अत्र गाथायां चतुर्थपादे उन्दोनुराधात् “गंगा जवजा विहास्यमेतत्सर्व स्त्रीणां साधुना रागेण न द्रष्टव्यमिति भावः णई समाणा" शत पागे युक्तः)१७ ॥ उत्त० ३२ । अ०। अदंसणं चेव अपत्यणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । स्त्रीस्थानदर्शनादिपरिहारस्य ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानत्वे श्लोकाः इत्यीजणस्सारियमाणजुग्गं, हियं सयावम्नवए रयाणं१५ प्रतिपादिताः। ब्रह्मवत ब्रह्मचर्ये रतानां सावधानानां साधूनामेतदायध्यानं जंवि वित्तमणाइन्न, रहियं इत्थिजणेणय । योग्यं हितं वर्तते । आर्यच तब्धानं च आर्यध्यानं सम्यग्भ्यानं बंजचेरस्स रक्खडा, आलयं तुनिसेवए ॥१॥ धर्मशुकादिकं तस्य योग्यं हितं पथ्यं धर्मध्यानस्य स्थैर्यकारको साधुब्रह्मचारी तमाश्रयं तमुपाश्रयं निषेवते । तुः पादपूरणे भवति कोथः यदा हि ब्रह्मचर्यधारिणः एतत् कुर्वन्ति तदा तेषां तं क य आयो विविक्त एकान्ततः तत्रत्यवास्तव्यस्त्रीधर्मध्यान स्यिरं स्यादित्यर्थः। तत्कि किमार्यध्यानयोग्यं तदाह । जनेन चशब्दात् पशुपएमकैरपि रहितः पएकदाब्दैन नखीणामदर्शनं रागेण अनवलोकनं च पाद प्ररणे व निश्चये। पुंसक नच्यते कालाकालविभागागतसाध्वीजन श्राफीजनं चा पुनः किं स्त्रीणामप्रार्थनमन्निवापस्याकरणं पुनः स्त्रीणामचिन्तनं चित्य विविक्तत्वं डेयं यदुक्तम्-"अटुमी पक्खिये मोत्तुं वयणा यत् कदाचित् रूपादिकं दृष्टं तस्य चेतसि न स्मरणमपरि- कालमेव य। सेसकालम्मि इंतीम्रो, नेया उ अकालचारी" भावनमित्यर्थः । पुनः स्त्रीणामकीर्तनं यत्कदाचिद्रपेण नाम्ना ॥१॥ तस्मात् य ाजयस्यादिन्निरसेवितस्तमालयं ब्रह्मचागुपेन वान कीर्तनमकीर्तनं नाम गुणोच्चारणस्य अकरणम् री साधुश्च निषेवते श्त्यर्थः। पुनर्यश्चात्रयः अनाकीणों गृहस्थायदि ब्रह्मचारी स्त्रीणां दर्शनं प्रार्थनं चिन्तनं कीर्तनं करोति नां गृहाद्दूरवर्ती किमर्थ ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ यो हि स्व ब्रह्मचर्य तदा तस्य आर्यध्यानस्य उत्तमध्यानस्य स्थैर्य न स्यात् एत- रवितुमिच्छति स पतादृशमुपाश्रयं निषेवते अत्र विङ्गव्यत्ययः कर्मभ्यानस्य योन्यं हितं नास्ति । ननु कश्चिद्वक्ष्यति "विकारहे- प्राकृतत्वात् ॥१॥ ती सति विक्रियन्ते येषांन चेतांसि त एव धीराः" तत् किं वि मपएहाय जणणी, कामरागविवकृण। विक्तायनासनसेवनेन ति चेत्तत्राई । बंजचेररोनिक्व, थोकहं तु विवज्जए॥१॥ कामं तु देवेहिं विजूसियाहिं, न चाझ्या खोलनं तिउत्ता। अथ हितीयं ब्रह्मचर्यरतो भिकुः स्त्रीकथां विवर्जयेत् स्त्रीणां तहा वि एग तहियंति नच्चा, विवित्तवासो मणिणं पस- कथा स्त्रीकथा तां त्यजेत् कीदृशीं कथां मनःप्रह्लादजननी मन्तःकरणस्य हर्षोत्पादिकां पुनः कीदृशीं कामरागविव त्यो ॥ १६ ॥ ऊनी विषयरागस्य अतिशयेन वृझिकीम् ॥ १२॥ हे शिष्य! तथापि मुनीनां विविक्तभाव एकान्तस्थाननिवासः प्रशस्तः । किं कृत्वा विविक्तभावमेकान्तहितं मत्वा तथा इति समंच संथवं थीहिं, संकहं च अजिक्खणं । कयं यद्यपि त्रिगुप्तास्तिसृनिर्गुप्ताः मुनयः काममत्यर्य देवी- बम्नचररओ जिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ॥३॥ निःको नयितुं ध्यानाश्चाझयितुं न 'चाश्या' शत न शङ्किताः ब्रह्मचर्यरतो भिर्नित्यशो निरन्तरं सर्वदा स्त्रीनिः समं सं कीरशाभिर्देवीभिः आनूषणयुक्ताभिः । यदि देवाङ्गनानिरा- स्तवं अर्थात् एकाशने स्थित्वा परिचयं च पुनः अजीक्षण भरणासकृताभिरपि साधवो ध्यानान्न चालितास्तदा मानुषी- वारं ५ संकथां स्त्रीजातिभिः सह स्थित्वा बल्ली वाती परि निस्तु कोभं प्रापयितुमशक्या एव तयापि स्त्रीप्रसङ्गत्यागमुनी- | वर्जयेत् सर्वथा त्यजेत् ॥३॥ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । इत्थी अंगपमगाणं चारुलनिय हिये । बंजर त्थी, चक्खू गिज्जं विवज्जए ॥ ४ ॥ ब्रह्मचर्यरतः साधुः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं चकुग्राह्यं विवजयेत् । ङ्गं मुखं प्रत्यङ्गं स्तनजघननाभिक ज्ञादिकं सं स्थानकं कटिविषये हस्तं दत्वा ऊर्ध्वस्थायित्वं पुनः स्त्रीणां चापि प्रतिग्राह्यं विशेषेध वर्जयेत् । चारु मनोहरं पितं मानंद जल्पनं प्रकृष्टमी हितं वायोफनमेतत्स्व. ये परित्यजेको चारी दिश्रीधामयत्य संस्थानं नव कारयनमेतत्सबै दृष्टिविषयमागतमपि ततः स्वद्रवारयेदित्यर्थः ॥ ४ ॥ कृत्यं रुदयं गीयं इसि पणियकंदियं । वंजररत्थी, सोयगिॐ विवज्जए । ५ ॥ ब्रह्मचर्येरतः स्त्रीणां कूजितं रुदितं गीतं हसितं स्तनितं क्रन्दितं धोत्रा कर्णाज्यांत योग्य विशेषण वर्जयेत् न यादित्यर्थः ५ । हार्स की श्यं दव्यं सह जुत्तामाथिय । वंजचेर रओ थीएं, नाणुचिंते कयाइ वि ॥ ७ ॥ वारी स्त्रीयां दास्यं पुनः तथा तं मैनप्रति दुखीणां मानमर्दनात्पन्नं गर्व पुनः सहसा अपत्रासितानि सहसा कारण आगत्य पश्चात्पराङ्मुख स्थितानां खीणां नेत्रे हस्ताभ्यां नित्य प्रयोत्पादनास्प नानि सहसा वित्रासितानि उच्यन्ते एतानि पूर्वानुभूतानि कदापि न अनुचिन्तयेत् न स्मरेत् (अत्र सहसाद वित्तासगा विय" इति कचित्पाठस्तदनुसारेण व्यायाम ) अच सह यखनानि न अनुचिन्तयेत् सह शर्त खिया साई जतमेकासने उपवन पर्व प्रजनन कृतान्यपि न स्मरेत् सहासननुकानि इति वक्तव्ये सद् नुकासनानि इति ग्राफतत्वात् ॥ ७ ॥ उत्त० १६ अ० । (स्त्रीप्रसङ्गे दोषस्तत्र दोषा दो विचार मेण शब्दे ) | सांप्रतं मतान्तरं दूषणाय पूर्वपयितुमाह । एवमेगे न पासल्या, पनवंति णारिया । इत्यी वरूंगा वाला, जिएसासरा परम्मुहा ॥ ७ ॥ जहा गं पिल्लागं वा, परि पीलेज्ज मुदत्तगं । एवं विनवणी, दोसो तत्य कओ सिया ॥ १० ॥ तु शब्दः पूर्वस्माद्विशेषणार्थः । एवमिति वक्ष्यमाणया नीत्या यदि वा प्राकन एव श्लोकोत्रापि संबन्धनीयः ( एवमिति) प्राणातिपातादिषु वर्तमाना एक इत्या दि बौद्ध विशेषा पानायचादिक या विशेषा पतित पावस्याः स्वपृच्यापापास्वापस. कुशीलादयः स्त्रीपरीषह पराजितास्त एव प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्ति अनार्याः अनार्यकर्मकारित्वात् तथादि ते वदन्ति "प्रिया वास्तु किमन्येान्तरे प्राप्ते येन निर्वाण सरा गेापि चेतसा " । किमित्येवं ते ऽभिदधतीत्याह । स्त्रीशंगताः यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते वाला यज्ञा रागदेषपहतचेतस इति रागद्वेवजितो जिनास्तेवां शासनमाझा. कायनोपराम हेतुता तत्पराङ्मुखाः संमानयो जैनमार्गविद्वेषिण एतद्वश्यमाणमूचुरिति ॥ ए ॥ यदृचुस्तदाह (जहा गंममित्यादि ) ययेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । यया इत्थी येन प्रकारेण कश्चित् गएकी पुरुषो गएकं समुत्थितं पिटकं वा तज्जातीयकमेव तदाकृतोपशमनार्थे परिपीमध पूयरधिरादिकं निर्माल्य मुहूर्तमात्रं सुखितो भवति न च दोषेणानुपत्यते । एवमपि विज्ञापनायां पतिप्रार्थनायां र मणीसंबन्धे गए परिपीमनकल्पे दोषस्तत्र कुतः स्यात् । नायतादागममात्रेण दोषो जयेदिति । स्यात्र दोष यदि काचित्पीमा प्रवेत् ॥ १० ॥ दृष्टान्तेन दर्शयतिमहापाद नाम, विमिश्रं झुंजतीदगं एवं दोस्रो सत्य को सिआ ॥ ११ ॥ जहा विहंगमा पिंगा, थिमि जनतीदगं एवं विभवणित्सु, दोसो तत्थ को सिया ॥ १२ ॥ एवमेगे उपासत्या, मिच्छदिट्ठी अणारेिआ । कामेहिं यो व्यस्था ॥ १३ ॥ ययेत्थमुदाहरणोपन्यासार्थः । मन्धादन इति मेष नामशब्दः संभावनायाम् यथा मे स्तिमितमनानो यन्तु पित्या त्मानं प्रीणयति न च तथान्येषां किंचनोपघातं विधत्ते । एवमत्रापि स्त्रीसंबन्धेन काचिदन्यस्य पीका आत्मनश्च प्रीणनमतः कुतस्तत्र दोषः स्यादिति ॥ ११ ॥ अस्मानुपचा तार्थे दृष्टान्तत्र हुत्वख्यापनार्थे ऽष्टान्तान्तरमाह । ( जहाविह गमा इत्यादि ) यया येन प्रकारेण विहायसा गच्छतीति विहं गमा पक्षिणी (पिंगेति ) कपिञ्जला साकाश एव वर्त्तमाना स्तिमितं नितमुदकमपिवत्येवमत्रापि गर्नप्रधानपूर्विकया क्रिपया भरा फिस्पा कुतोषिकपि लाया श्व न तस्य दोष इति । सांप्रतमेतेषां गएमपीमनतुख्यं स्त्रीपरिभोगं परिभोग मन्यमानानां तथैोदकपास परम Sनुत्पादकत्वेन परात्मनोश्च सुखोत्पादकत्वेन किल मैथुनं जायत इत्यभ्यवसायिनां तथा कपिज्जयोदकपानं यथा तमागोदकासंस्पर्शन फिस नयायेवमरद्विपादर्भात रणात स्त्रीगात्रस्पर्शेन पुत्रार्थं न कामार्थं ऋतुकालानिगा मितया शास्त्रोपिन मैथुनपि दोषानुपस्तयो चस्ते " धर्मार्थं पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन दोषस्तत्र न विद्यते" इति मुदासीनत्वेन व्यवस्थितानां रटान्तेनैव नियुक्तिकारी मायायेणोत्तरानायाद [जह शामममन, सीसंविण कस्सइ महसो ॥ चिंल परादु किं नाम ततो न पेप्पेग्ना ॥ ५१ ॥ जहास कोतपेण नाम तुहिको । अदीसंतो, किं नाम ततो नवमरेज्जा।। ५४ ॥ जह नाम सिरिघराउ, कोइरयल सामघेत्तणं । प्रत्येन पराहतो, किं णाम तो नपेपेजा || ५ए ] ॥ यया नाम कश्चिन्मएवाग्रेण कविविरवित्वा पराङ्मु अस्ति । किमेतायतवासी मनावायस्यनेन न गृहोत नापराधी जवेत् । तया यया कश्चिद्विषगएषं गृहीत्वा पीत्वा नाम सूची नावं भजेदयेन वाप्यदृश्यमानोसी कि नाम तो सायन्यादर्शनात् न नियेत तथा यथा कचिदाका गाराद्रत्नानि महायणि गृहीत्वा पराङ्मुखस्तिष्ठेत् किमेतावता सौ न गृह्येति । अत्र च यथा कश्चित् शतया भतया वा Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी भनिधानराजेन्द्रः। शिरजेदे विषगएकूषरत्नापहाराख्ये सत्यपि दोषत्रये मान्य- जहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमता । स्थ्यमवलम्बेत न च तस्य तदवसम्मनेपि निदोषतेति । एव एवं लोगांस नारीओ, दुत्तरा अमईमया ॥ १६ ॥ महान्यवश्य भाविरागकार्यमैपुने सर्वदोषास्पदे संसारखके कुतो निदोषतेति। तथाचोक्तम् "प्राणिनां वाधकं चैतच्ग जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिट्ठतो कता ॥ बैगोतं महर्षिनिः। नलिकातप्तकणक प्रवेशज्ञानतस्तथा ॥१॥ सवमयं निराकिच्चा, ते हिया सुसमाहिए ।। १७॥ मनं चैतदधर्मस्य नवभावप्रर्धनम् ॥ तस्माद्विषान्नवत्याज्यमिदं य घेत्युदाहरणोपन्यासार्थः यथा चैतरणी नदीनां माये पापमनिच्छतेति ” नियुक्तिगायात्रयतात्पर्यार्थः ॥ १५ ॥ ऽश्यन्तवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच्च स्तरा झझ्या एव साप्रतं सूत्रकार उपहारव्याजेन गएमपीमनादिष्ठान्तवादि- मस्मिन्नपि लोके नार्यो ऽमतिमता निर्विवकेन होनसत्वेम 5: नां दोषोतिभावयिषयाह । ( पवमेगे इत्यादि ) पवमिति ग- सोनोसीयन्ते । तथाहि । ता डावजावैः कृतविद्यानपि स्वीकुर्वएकपमिनादियान्तवनेन निर्दोष मैयुनमिात मन्यमाना एके न्ति । तथाचोक्तं "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावश्रीपरीषहपराजिताः सदनुष्ठानात्पावें तिष्ठन्तीति पावस्था देवन्ष्यिाणां, बजां तावद्विधस्ते विनयमपि समालम्बते ता. नायवादिकमएमचारिणः तुशब्दात् स्वपूथ्या था तथा वदेव ॥ चापाकेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपदमाण पंत विपरीता तत्त्वाग्राहिणी रर्दिर्शनं येषां ते । तथा पारादरे यावलीलावतीनां न दृदि धृतिमुषो रष्टियाणाः पतन्ति,, तदे याता गता सर्वहेयधर्मेन्य इत्यार्या न आर्या अनार्याः । धर्म चंवैतरणी नदीवत् दुस्तरा नार्यों जवन्तीति ।। १६ ॥ अपिच विरुद्धानुष्ठामात्त पषंविधा अभ्युपपन्ना गृध्नष श्यामदन- (जहीत्यादि) यैरुत्तमसत्त्वैः स्त्रीसङ्गविपाकवेदिभिः पर्यन्तरूपेषु कामेषु कामैर्वा करणनूतैः सावद्यानुष्ठानेष्विति । अत्र कटयो नारीसंयोगाः परित्यक्तास्तथा तत्सङ्गार्थमेव वखावं सौकिक दृष्टान्तमाह । यथा वा पूतनामाकिनी तरुणके स्तन- कारमाल्यादिगिरात्मनः पूजनाकामविभूषा पृष्ठतः कृता न्धये ऽभ्युपपन्ना एवं तेप्यनार्याः कामष्विति । यदिवा (पूय- परित्यक्तेत्यर्थः । सर्वमेतत्स्त्रीप्रसङ्गादिकं क्षुत्पिपासादि प्रतिपत्ति) गरिका आत्माये ऽपत्येभ्युपपन्ना एवं ते ऽपीति कुलोपसर्गकदम्बकं च निराकृत्य ये महापुरुषसेवितपथं प्रति कयानक चात्र । यथा किन सर्वपशनामपत्यानि निरुदके प्रवृत्तास्तेसुसमाधिना स्वस्थचित्तवृत्तिरुपण व्यवस्थिता नाप कूपे ऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ किप्तानि तत्र चापरा मातरः स्वकी- सगैरनुकाप्रतिकूबरूपैः प्रकोन्यन्ते। अन्ये तु विषयानिष्ययस्तनंधयशम्दाकर्णनपि कृपतटस्था रुदन्त्यस्तिष्ठन्ति । नर ङ्गिणः ख्यादिपरीषहपराजिता अङ्गारोपरिपतितमीनबद्घाग प्रीत्वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं विप्त म्निना दह्यमाना असमाधिना तिष्ठन्तीति ॥ १७॥ बतीत्यतो ऽपरपगुन्यः स्वापत्ये ऽध्युपपन्नेति । च्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दयितुमाह एवं ते पि कामाजिष्वङ्गिणां दोषमाविष्कुर्वन्नाह । एते ओधं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो ॥ अणागयमपस्संता, पच्चुप्पन्नगवेसगा ।। जत्यपाणा विसन्नासि, किच्चंती सयकम्मणा ।। १७ । ते पच्चापरितप्पति, खीणे आउम्मि जोवणे ॥ १४॥ तं च निकावू परिमाय, सुचते समिते चरे॥ जेहिं काले परिकंत, न पच्छा परितप्पए । मुसावायं च वज्जिज्जा-दिन्नादाणं च वोसिरे ॥१५॥ ते धीरा बंधाम्मुक्का, नावखंति जीविअं ॥ १५॥ य पते अनन्तरोक्तानुकूल प्रतिकृयोपसर्गजेतार पते सर्वे अनागतमेष्यत् कालमनिवृत्ता नरकादियातनास्थानेषु महा ओधं संसारं दुस्तरमपि तरिष्यन्ति । व्याघदृष्टान्तमाह । दुःखमपश्यन्तो ऽपर्याबोचयन्तस्तया प्रत्युत्पन्नं वर्तमानमे- समुझं बवणसागरमिव व्यवहारिणः सांयात्रिका यानपाव वैषयिकं सुखानासमन्वेषयन्तो मृगयमाणा नानाविधैरु त्रेण तरन्त्येवं नवाघमपि संसारसंयमयानपात्रेण यतयस्तपायैौगान प्रार्थयन्तस्ते पश्चात् कीणे स्वायुषि जातसंवेगा रिष्यन्ति । तथा तीर्णास्तरन्ति चेति । नवौघमव विशियौवने वा अपगते परितप्यन्ते शोचयन्ते पश्चात्तापं विद- नष्टि । नवौघे संसारसागरे प्राणाः प्राणिनः स्त्रीविषयसङ्गाधति । उक्तंच । “हतं मुष्टिभिराकाशं तुषाणां कएमनं कृतम् । द्विषामाः सन्तः कृत्यन्ते पीमचन्ते स्वकृतेनानुष्टितेन पापेन कयन्मया प्राप्य मानुष्यं सदर्थे नादरः कृतः॥१॥तथा । " विह मंणा असद्वंदनीयोदयरूपेणेति ॥ १७ ॥ सांप्रतमुपसंहारच्या वा वसेवननिहिं जाई कीरति जोवणमपण ॥ वयपरिणा- जेनोपदेशान्तरविधित्सयाह । ( तंचभिक्वइत्यादि ) तद मे सरियाई ताहिं अपक्खुरुक्कति ॥१॥॥ १४ ॥ ये तूत्तम- तद्यथा प्रागुतं यथा वैतरणीनदीवत दुस्तरा नार्यों यः परिसत्वतया अनागतमेव तपश्चरणादावुधमं विदधति न ते पश्चा- स्यक्तास्ते समाधिस्थाः संसारं तरन्ति स्त्रीसङ्गिनश्च संसारामोचन्तीति तदर्शयितुमाह । (जेहिंकालेश्त्यादि) येरात्म- न्तर्गताः स्वकृतकर्मणा कृत्यन्त इति तदेतत्सर्व निक्वणशीली हितकतनः काले धर्मार्जनावसरे पराक्रान्तमिन्द्रियकषा- निकः परिज्ञाय हेयोपादेयतया बुध्वा शोभनानि व्रतान्यस्य यपराजयाद्यमो विहितो न ते पश्चान्मरणकाले वृक्षावस्था- सुव्रतः पञ्चभिः समितिनिः समित इत्यनेनोत्तरगुणवेदनं यां वा परितप्यन्ते न शोकाकुला जवन्ति । एकवचनानिर्देश- कृतमित्येवम्तृतश्चरेत्संयमानुष्ठानं विदध्वात् । तथा मृषावास्तु सौत्रगन्दसत्वादिति । धर्मार्जनकाबस्तु विषेफिनां प्राय दमस नूतार्थनाषणं विशेषेण घर्जयेत्तथा अदत्तादानाच शः सर्व एव । तस्मात्स एव प्रधानपुरुषार्थः प्रधान एव च व्युत्सृजेहन्तशोधनमात्रमयदत्तं न गृह्णीयात् । श्रादिग्रहणात् प्रायशः क्रियमाणो घटा प्राञ्चति । ततश्चाय बासात्प्रभृत्यकृत- मैयुनादः परिग्रह ति। तच्च मैथुनादिकं याधज्जीवमात्माहिन विषयासतया कृततपश्चरणास्ते धीराः कर्मविदारणस मन्यमानः परिहरेत् । सूत्र०१ १०३ अ०॥ हिष्णयो बन्धनेन स्नेहात्मकेन कर्मणा चोत्प्राबल्येन मुक्ता (स्त्रियां जातमपत्यं पुरुषस्यैवेति-अप-दाभे । स्त्रीपुरुषयोभावकारकन्ति असंयमजीवितम् । यदिवा जीविते मरणे वा रन्तरं' अणंतर' शब्द । वीगनवक्तव्यता 'गम्न 'हाम्दे । निस्पृहाः संयमोघममतयो जयन्ताति ॥ १५ ॥ अन्यच्च-- | स्त्रीज्यो दृष्टिवादो न दीयत ति - विञ्चिाय शब्द । स्त्रीणां Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। मोहसिकः 'इथिलिंगसिक 'शब्दे । स्त्रीवसङ्गतस्य निन्दा पवादः पके सोपि । 'कगचजतदपयवां प्रायो लुक' । 'त्यिवस' शब्दे । स्त्रीशब्दयुक्त स्थाने न स्थातव्यमिति ति प्राकृतसूत्रेण वा चस्य मुक् । सक्कणे, प्रा० व्या० । 'वसही 'शब्दे । श्रीसंसक्तस्थानादिनिषेधो 'बंभचेरसमा इन्ज-इज्य-पु-श्नो हस्ती तत्प्रमाणं व्यमहतीति न्यः । हिट्ठाण' शब्द 'बंजचेर गुत्ति' शब्दे च । स्त्रीणां स्वातन्त्र्यनिषेधः 'शत्थिरज शब्द') अनु०।दएमादित्वादू यत् । वाचा हस्तिप्रमाणविणरा सिपती, । श्रीप० । यदूषज्यस्तूपान्तरित उतिकदसिका इदं-इदम्-त्रि दि कमि नबोपश्च । पुरोवर्तिनि, । सूत्र०व० दएको हस्तीन रश्यते तेशच्या ति जनश्रुतिरिति । स्था०६ ३ म०। प्रत्यके, । नि० चू०१०। प्रत्यक्कासन्ने च । आ० ग०। । महाधनपतौ, भ० श. ३३ २० । प्रा० म०। चू०४ ० । श्यमेव खणं विजाणिया" । दमः प्रत्यक्का अधिकतरव्यो वा अन्य इति । अनु। “असाइना धणिसन्नवाचित्वादिति । सूत्र १ श्रु०२०।" प्रारंभं जं दुक्ख यो । इति । प्रा० को० । नृपे, हस्तिपके च । पु-वाच। मिणंति पचा" श्दमिति प्रत्यक्वगोचरापन्नामिति । आचा० १ स्वनामख्याते वसन्तपुरस्थे श्रेष्ठिनि च । “ वसन्तपुरनाधु०३ अ०१०। सूत्र०। प्रश्न । “दुद्दावेदं सुयक्खायं" । मास्ति, वसन्तर्नु समं पुरम् । श्रेष्ठी तत्रज्यनामाऽनु-प्रे प्रत्यक्कासन्नवाचित्वादिदम इतिसूत्र १०० अ०। अस्य यसी तस्य धारिणीति-" । प्रा० क०। वणिजि, दे० ना। च सर्वस्याम् विभक्ती ॥'श्वम श्मः।३ । ७५ प्रति इब्जग (य)इज्यक-त्रि-स्वार्थे कन् ज्यशब्दार्थे, । आ० प्राकृतसूत्रेण श्मादेशः श्मो-मे-श्म। श्मेण-स्त्रीयामपि-श्मा | म०प्र० । खियां तु टापि वा अत श्त्वम् ।श्त्यका शज्यकासौ"पुंखियोर्नवाऽयमिमित्रा सौ"G1३।७३ ति प्राकृत इनान्यायां खियाम् ! वाच। सूत्रेण अयमिति (लिङ्गे मि इति स्त्रीलिङ्गे वैकल्पिक भादेशः । अहवा अंक अकजो-मिश्रा बाणिअधूत्रा । पक्के | इन्नगमिन-इन्यकरिम्न-पुं-न्यवासके, इन्भन्जिाणि श्मो श्मा-" षष्ठीसप्तम्योः स्सिस्सयोरत्" । ३। ७४। नाणाविहभक्त्रहत्यगयाणि स गिहेहिंतो निम्गयाणि । प्रा० इति प्राकृतसूत्रणेदमः स्सि स्स श्त्येतयोः परयोर्वा अद्भवति म०प्र०। अस्सि अस्स । पक्के इमादेशोपि । श्मस्सिं श्मस्स-बहुबा नजाइ-इन्यजाति-स्त्री. आर्यजाती, धिकारादन्यत्रापि अद् भवति । एहि-पसु-आहि एभिः एषु गविहा जाइ आरिया मणुस्सा पमत्ता तंजहा अंवट्ठा प्रानिरित्यर्थः 'डर्मेन हः, ।।३। ७५ । इति प्राकृतसूत्रेण य कलंदा य, वेदेहा वेदिगाश्या । हरिया चुंचुणा चेव, कृतेमादेशात्परस्य के स्थाने मेन सह वैकल्पिके हादेशे. उब्जेया इन्जजाइओ॥१॥ शह पके श्मस्सि इमम्मि। नन्थः ।। ३ । ७६ । इति प्राकृतसूत्रण दमः परस्य ः स्सिम्मित्था तिप्राप्तस्थो निषिध्यते जातिर्मातृका पक्कस्तया आर्या अपाया निदोषा जात्यार्या वि। इह श्मस्सि श्मम्मि । णोऽम् शस्टाभिसि ।।३। ७७। गुरुमातृका इत्यर्थः । अम्बष्ठेत्याद्यनुपुष्प्रतिकृतिः पमप्येता इति प्राकृतसूत्रेणामशस्टाभिस्सु इदमो वा ण इत्यादेशो न्यजातय इति । इनमहन्तीतीच्या यदलव्यस्तूपान्तरित जबतिणं पेच्छ ।ण पेच्छाणण-हिं क। पके श्मं श्मे श्मे उच्छ्रितकदलिका दएको हस्ती न दृश्यते ते ज्या इति श्रुति ण श्मेहि । द्वितीयैकवचनेऽमि । अमेणम् ।।३।७। ति स्तेषां जातय न्यजातयस्ता पता इति । स्था०६ ग०।। प्राकृतसूत्रेणामा सहितस्येदम स्थाने इणम् इत्यादशो वा भव- इब्जदास-इज्यदास-पुं० स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, । ती०। ति ण पेच्छ पके श्मं सौ-अमि च नपुंसके । “क्लीव स्य- इन-इन-पुं०३ण-भ- किश्च । हस्तिनि, जं० २२० । अनु०। मेदमिणमौ च" ।३ । ७ए। शत प्राकृतसूत्रेण स्यम्यां इमही-इमही-स्त्री० : कामस्तस्य मह्यः कामिन्यः स्त्रियाम,गा. सहितस्थ दम णमो णम् च नित्यमादेशो भवति । इदं इ (मा) (मि ) मी-श्यम् स्त्री० प्रत्यवायाम् " पुंस्त्री. श्णमो इणं । धणं चिट्ट पेच्च वा । प्रा० व्या०। इदा (या)णि-श्यएिंह-इदानीम्-अव्य इदमीदानीम् सम्प्र योनवायमिमिआ सौ-७४-७३ ति प्राकृतसूत्रेण स्त्रीलिड्ने त्यर्थे,-वाच० आणि कोणो कं धत्तव्वयं श्च्च- । अनु। इमि आदेशः ।आजातेः पुंसः ।। ३।३५ति जाति वाचिनः पुलिकाद्वा आत्वम् । शमिए, श्माए, इमिणं श्माण। प्रा० व्या । 'श्यहिए गच्छ' ॥दानी गच्छामीति ।स्था० ३ ० । 'कामं स्वमु पाउसो श्वाणि ति-आचा०२१०१ अ०१० ३०। इय-इक-देशी० क्वापि प्रवेशार्थ,-कमिति देशीपदं कापि प्र. "मांसादेर्वा । तिप्राकृतसूत्रेणानुस्वारस्य विकल्पेन सोपे वेशार्थ वर्तत इति आ०म०शि० एतस्य निकेपो यथा श्कमपि श्याणि श्याणि । दाणि दाणि प्रा० व्या। चतुर्का तद्यथा नामकं स्थापनेकं ब्रव्येकं भावेकं च । तत्र इपुर-इदुर-न० कोष्टिकामुखगन्च्या उपरि दीयमाने सुंवा- नामस्थापने प्रतीते । अन्येकं "दोहारस्मविगइमेया तु दिव्यूते ढंचनकादिके, अनु । महति पिटके, येन समस्तापि दब्वाइं" दोरे इति सूत्रे दवरके मौक्तिकान्याधिकृत्य भाषि पर्यायापेकया हारस्य मुक्ताफसकलापस्य विनिषेशनं प्रवेरसवतीस्थम्यते-राज। पानम् “ए आ अंतुदब्वम्मि" पतान्युदाहरणानि व्ये भव्यइई-इद्दएम-पुंजमरे, देना ॥ विषयाणि "नाणातियं तस्साया पोयणं भावसामाई" तस्येइक- इन-इन्ध भावे क्त-पातपे, दीप्ती, आश्चर्ये च । कर्तरि ति सामादि सम्बन्धे । तस्य सामादरात्मनि प्रोतनमात्मनि क्तादीप्ते, गन्धे च । त्रिवाच । प्रवेशन भावेकमिति । प्रा०म०वि०। प्रा० ०।इध-इह-अव्य इहहचोर्हस्य' इति प्राकृतसूत्रेण शौरसन्यां इत-त्रि० गते, समियं उदाहु सम्यक् श्तं गतमिति । सूत्र धः। प्रा० व्या० । इदं हश्शादेशः। अस्मिन्काले देशे दिशि वा १श्रु०६०। प्राचा। स्थानकाते,परिच्छिने, प्राचा श्त्यर्थे, वाच॥ १७००० ७० प्राप्ते, विशे०।तो इतः स्थित श्त्यनाइंध-(चिएह) चिह्न-नचिहेन्धो वा'। शत वा न्वादेशः। एहा | न्तरम् ।नं। विशे० नावे क्तः । गती, काने च । वाच। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयर शति प्राकृतसूत्रेण वाक्यादी त 6 'श्तो तो वाक्यादी' । शब्देकारस्याकारः । इभ जं पित्रा वसाणे ' इअविअ सिअ कुसुमसरो इति । प्रा० व्या० । इति एवमर्थे, “श्य सिखाणं सोक्ख" इति एवं सिकानां सौख्यमिति । औप० । “श्य सम्यगुणादाचं " एवमुकेन प्रकारेण सर्वगुणाधानम् इति । श्रावण | नि० ० ॥ इवर इतर त्र० मा कामेन सीते तु म्रप्तरात पा वा । नीचे, पामरे, । वाच० । इरिए अय असिपुण विसिडे जाइकुका बसाइ गुणोव एवं पाएं समुक्कस्से || इना पचाद्यच्. इतरोयं जघन्यो हीनजातिकः कुलबलरूपादिभिर्दूरमपचष्टः सर्वजनायगी तोयमिति । च पुनर्विशिषजातिकुलतादिगुणोपेत एवमात्मानं समुत्कर्षयेदिति । सूत्र० २ ० २ ० ॥ " श्राश्रदि कुळे " श्वरे सामान्य साधुन्यो विशिष्ठतः साधव इति । श्राचा० १ ० ६ ० २ ० ॥ इयरकुल इतरकुल १० अन्तान्तकुले, प्राचा० १ ० ६ ( ६५४ ) अभिधानराजेन्द्रः । अ० २ ० ॥ इयरेयर इतरेतर १०] इतर समाजाच अन्योन्य शब्दार्थे । उत्त० १ अ० ॥ इयरेयर संजोग - इतेरतरसंयोग- पुं० इतरेतरस्य परस्परस्य सं योगो घटना । परस्परघटनायाम्, तदात्मसंयोगभेदे च उत्त० १ ० । ( तद्वक्तव्यतासंजोगशब्दे ) इयरेयरसाक्क्ख-इतरेतरसापेक्ष्य वि० परस्पराविरोध रेतरसापेकात्वेषां पुनराप्तवचनपरिणत्या इतरेतरसापेक्षा परस्पराविरोधिनीति पो० । 1 - इरिआई श्री कुपा००। इरिण- इरिण- देशी-कनके, दे० ना० । इयरेयरस्सय-इतरेतराश्रय-पुं० इतरेतर आश्रयति श्राश्रि- इरिया-ई-स्त्री-ईरणमीय ईरगतिप्रेरणयोरस्माद्भावे एयत् । अन्योन्याश्रये तर्कदोषभेदे, वाच० । इयरेयराजाब- इनरेतराजाव-पु- इतरेतरस्मिन्नन्नावः । भन्नावविशेषे, इतेरतराजावं वर्णयन्ति स्वरूपान्तरात्स्वरूपव्यावृत्ति रितरेतरानाव इति । स्वनावान्तरान पुनः स्वस्वरूपादेव या स्वरूपतिः स्वस्यभावपच्छे इतरे तरानाको प्रयापोहनमानिगते उदाहरणमा दुवैधास्तमनस्वनावात्कुम्नस्यभाव्यावृत्तिरिति ना० राम कराद्वादित्यादयक भति वाच० । 'कियेरे रहर किल्लायें वा' ८।२।०६। इति सूत्रेण किबार्थे तस्य प्रयोगबोधनात्। तस्स घर किलार्थे, प्रा० व्या०| पाद पूरणे च । अव्य. व्य० । ईजे इराः पादपूरणे | ८ |२| १७ इति सूत्रात " गेएइवर कलमागोवि ' । इति । प्रा० । इरमंदिर - इरमन्दिर - पु०करने, दे० ना० डराव- इरानदेशी गजे दे० ना० । पवन १० आचाराङ्गवस्कन्धस्य प्रथम चूलिकान्तर्गते तृतीयेऽध्ययने, तच्चाचाराङ्गपञ्चमाध्ययनावन्स्था ख्यस्य चतुर्थोद्देश कसूत्रम् । गामाणुगामं जमाएस्स हुज्जा यं दुपरक्खामित्यादिनेर्यासंक्षेपेण व्यावर्णितेत्यत र्याध्ययनं निमिति । इरिया त्रय उद्देशा उद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह नियुक्तिकारः सव्वे वि यदवि इरिय विसोहि कारगा तहवि प्रत्थिपर्विसेसो । उसे उदेसे, वोच्छामि समासओ किंपि ॥ २८ ॥ पढमे य उवागमणि -ग्गमोय अज्जीण च जयगा । चितिए आरूड, जंघा संतारपुच्छाया ॥ २७ ॥ तयम्मि असणया अप्परबंधो य होइ उपास्मि । वयवं च सया, संसारियरायमिगमणं ॥ ३० ॥ सव्येत्यादि) सर्वेपि त्रयपि यद्यपीयविकारफारतयापि प्रत्युद्देशकमस्ति विशेषस्तं च यथाक्रमं किि मि इति यथाप्रतिज्ञातमार (पगार) प्रथमोदेश के वर्षाकालादावुपागमनं स्थानं तथा निर्गमश्च शरत्कालादौ यथा जवति तदत्र प्रतिपाद्यमध्वान यतना चोते द्वितीयोदेश केन घा दावारूढस्य बसनं प्रकेपणं व्यवर्ण्यते जंघा संतारे च पानीये यतना तथा नानाप्रकारे च प्रश्ने साधुनां यद्विधेयमेतच्च प्रतिपाद्यामिति ( सत्यमि गाड़ा) तृतीयांशके यदि कधिउदकादीनि पृच्छति तस्य जानवाप्यदर्शनता विधेयेश्यमधिकारः तथोपधाथप्रतिबन्धो विधेयस्तदपहरणे च स्वजनराजगृहगमनञ्च वर्जनीयं न च तेषामाख्येयमिति । आचा० २ ० ३ ० १ ० ॥ इरियड-ईय्र्यार्थ - त्रि० ईथ्याविरुद्यर्षे, तदर्थमाहरकरणी मातिकमा 'रियट्टाए व ईयगमनं तस्या विकर्युगमात्रनिहितप्रित्यर्मयांविदमी विम च विकिशब्दलोपादीय्र्यार्थमित्युक्तम् वुभुकितो ही शुकावशक्तः स्यादिति । स्था० ६ ठा० ( तदर्थमाह करणे नातिक्रम इति आहार' शब्द ) गमने, आचा० १ ० १ ० १ ० । आचू० । स्था० । आवश् उत्तर । सूत्र० । ईर्ष्यानिकेपणार्थं नियुक्तिकृदाह । मं वाइरिया, दव्वे खेत्ते य कालजावे य । एसो खलु इरियाए, णिक्वेवोव्विहो होइ ॥ २३ ॥ दव्वइरिया न तिविहा, सचित्ताचित्तमीसमा चैव । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जोए ॥ २४ ॥ इयां सात्ताचित्त मिश्रमेदात्रिविधारणमी गमनमित्यर्थः । तत्र सचित्तस्य वापुरुषादेऽव्यस्य यङ्गमनं सा सचित्तद्रव्येर्या एवं परमाण्वादिद्रव्यस्य गमनमचित्तव्येय तथा मिश्रषये रयादिगमनमिति। क्षेत्रेय यस्मिन् क्षेत्रे गमनं क्रियते र्या या वयते एवं कार्य्यापियो । आचा० । नावेयप्रतिपादनायाह । जारिया विदा, चरणगई संजयगई थ समणस्स करूं गम, दोर्स होइ परिसुद्धं ॥ २५ ॥ भावविषयेर्या द्विविधा चरणेय्या संयमेय च । तत्र संयमेर्या सप्तदशावधसयमानुष्ठानं यदि वा असंख्येयेषु संयमस्थानेष्वेकस्मात्संयमस्थानादपरं संयमस्थानं गच्छतः संयमे जयति पर अमर र मुद्रणं ती घरी चरणं गतिः गमनमित्यथेः तच श्रमणस्य कथं केन प्रकारेण भावरूपगमनं निर्दोष नवतीत्याह 1 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५५) अभिधानराजेन्द्रः | इरियापच्चय वय काले, मग्गे जयणा य चैव परिसुद्धं । जंगेहिं सोवियं उपरिमुपसत्यं तु ।। २६ ।। तं प्रवचनसंगाचार्यादिप्रयोजनं कालः साधूनां विहरयोम्योवसरे मार्गो जनैः पद्द्भ्यां कुष्णः पन्था यतना उपयुकस्य युगमा सोचमालम्बनको मार्गयतना प रेकैकपदव्यतिचाराचे नङ्गास्तेः पारशवे गमन नयति तस्य च यत्परिमुरूम तच प्रशस्तं भवतीति दर्शयि तुमाह चकारण परिसुकं, अहना वि होल कारणा आए । जया काझे मम्मे जयब्वं ॥ २७ ॥ चतुर्भिः कारणैः साधोगमनं परिशुद्धं नवति तद्यथा आसम्बनंन दिवा मार्गे यतनया गच्छत इति अथवा कालेऽपि ग्लानाद्यालम्बनेन यतनया गच्छतः शुरुमेव गमनं नवत्येवं जूते च मार्गे साधुना यतितव्यमिति । आचा० २४० ३ ० १० ( गमनं यया कर्तव्यन्तयेयध्ययने आचाराने प्रति पादितं विहार- शब्दे इष्टव्यम् ) "इरियं च पश्चवखायेज्ञा " रणमां सूक्ष्मां काययामातां मनोगतां या प्रशस्तां प्रत्याचक्कीत इति । श्रचा० १ ० ० ७ ० । ईरणमी गमनम् । तत्कार्य्यं कर्मणि च । एगेगस्स पसंतस्ल, न होति इरियादयो गुणा " ईरणमीय्र्यागमनमित्यर्थः इह इकार्य कर्म ईन्देन हते कारणे कार्योपचारादिति । अ०म० द्वि० समिती, "धपरक्रमं किया ज धरियं सया, जीव प्रत्यञ्चाञ्चय्यमीयसमितिमिति । उत्तः रणमर्थ्या तत्सूत्राच्चरणपुरस्सरकायात्सेगात्मक सामाचारिनेदे च । ग० २ अधि । इरियापचय इत्यय-१० गमनं तेन जनितमी प्रत्ययम् । कर्मभेदे, सूत्र १ श्रु० १ अ० ( पतक्तता हरियादिय शब्दे ) हरिया - इय्याय- पु० ईरगतिप्रेरणयोरस्माद् नावे एयत् । रणमीय तस्याः (तयावा ) पन्था 'ईर्ष्यापथः । सूत्र० 12 ॐ० २०|| स्था० । ईरणमीर्थ्या गमनं तद्विशिष्टः पन्था - पथः । प्रव०३द्वार। ईर्ष्या गमनं तद्विषयः पन्था इर्थ्यापथः । प्र० ११० १० उ० । आव० । गमनमार्गे, न० ३ ० ३ ० । कश्याः पन्था भवति यदाश्रिता सा भवतीति । आचा० २ ० १ ० । ईरणमीय तत्सम्बरुः पन्था पथस्तप्रत्ययं कर्मपथम् । सूत्र० १ ० १ अ० । ईर्थ्यापथप्रत्य यमर्थ्यापथम् । प्रति । कर्मभेदे, सूत्र० १० १ अ० । एतदुक्तं भवति पार्थ च्छतो यथा कथंचिदनभिसन्धर्यत्प्राणिव्यापादनं जयतीति । सूत्र० १० २ अ० । (अस्य बन्धनकारणत्वविचारः कर्म्मबंध शब्दे ) । इरियावह किरिया ईर्ष्यापचाक्रिया स्त्री० क्रियाभेदे, साथडुपशान्तमोहादेरेकविधकर्मबन्धनमिति । स्था० ५ ० । पथक्रिया तृपशान्तमदादाज्ययोगिके पापदिति । सूत्र० २ श्रु० २ ० ( एतस्या विस्तरेण वक्तव्यता रियादिया शब्दे )। इरियाबडिय पिथिक न०तिप्रेरणयोरस्माद्भावेश्यत रणमयी तस्याः पन्या स्योपधस्तत्र भयमपथिकम्। आचा० १ ० १ ० १ ० । ईरणामीय तस्यास्तया वा पन्या इर्थ्यापथः स विद्यते यस्य तदीयपथिकम् । एतच इरियावहियबंध शब्दव्युत्पत्तिमात्रम् प्रवृत्तिनिमित्तं तु इदम् सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीतिमनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया तया यत्कर्म तदोपथिकम् । सुत्र० २ ० २ ० । ऐपाधिकरणमयी गमनन्ताप्रधानः पन्था मार्ग - व्यापस्तत्र प्रथमेयोपथिकम् प्रयोगमा कर्म प्र० श० ० | कचर्यायाः पन्या भवति यदाश्रिता सा नयत्येतच्च व्युत्पत्तिनिमित्तं यतस्तिष्ठतोपि तपति प्रवृत्तिनिमित्तं तु स्थित्यापस्तथोपशान्ती एमोसोनियां भवत । सयोगिकेवलनोऽपि हि तिष्ठतोपि सूक्ष्मगात्र सञ्चारो "केवलीण नंते! अस्ति समयंसि जेसु भवत्युक्तञ्च आगासपणे इत्यं वा पार्थ पाद्योगादित परिसर पय मंत! केवी देवागासपदेसेसु पनि खादरियो खमड़े कई फेर्यास्वयं बनाई सरीचरण भयति चोदगरपाई जयंति रजसा वलियो संचापत्ति तो वागासपदेसेसु इत्यं वा पायं वा परिसाह रित्तर " तंद सूक्ष्मेतरगानुसाचाररूपेण योगेन यत्कम् बसीपंचकर्म यदेतमित्यर्थः । तथ हिसमयस्थितिकमेकस्मिन् समये वेदितं तृतीयसमये तदपेक्षया चाकम्तति कथ मित्युच्यते यतस्तत्प्रकृतितः सातावेदनीयमक स्वभावेन यज्यमानमेवं परिशरति अशुभाचतांतरांपा तिकसुखातिशायिप्रदेशतः समादिशमिति उक्तच पं वायरमन्यं, बहुं च लुक्खं च सुक्किनं चैव । मंद महव्वतिय साताबहुयं च तं कम्मं ॥ अल्पं स्थितितः स्थितेरेवाजावात् बादरं परिणामतोनुभाचता सृष्नुना चहू प्रदेशे स्पर्शतो कन पतः स्युश्मुकं कुयापति पयत् महाव्ययमेसमय सर्वापगमात्सत हुनु रोपपातिक सुखा तिशा (श) या यान्ति उक्तमीयोपथिकम्। आचा० १५० २० १ ० ( पतस्य बन्धविचारः कम्मबंध शब्दे ) त्रयोदशे स्थाने च । आवश्। ऐय्यपथिकः केवलयोगप्रत्ययः कर्मबन्ध उपशान्तमोहादीनां सातवेदनीयबन्ध इति । सम० १३ स० (विस्तरेतस्य वक्ता हरियाचरिया शब्दे हरियाबिंऐपीपथिकन्ध-पुं० ईस्य गमनम पा नः पन्था मार्ग पयस्तत्र भवमेीपथिकम् | केवल योग प्रत्ययं कर्म तस्य यो बन्धस्स तथा । ऐर्य्यापथिककर्मणो बन्धे, । तद्वक्तव्यता यथा । 19 इरियावडिया जंते! कम्पं किं शेर ओ भंध, तिरिक्स जोणिओ बंध, तिरिक्खजोगिणी बंधइ, मनुस्सो बंध, मस्सी बंध, देवो बंधइ देवी बंधइ ? । गो० ! णो णेरयो बंध णो तिरिक्नोणिओ बंध, णो तिरिक्खजोगिणी बंध, णो देवो बंध, णो देवी बंश, पुत्रपरिमाप मस्सा व सीओ य वति । परिमाण परुच मस्सो वा बंद मस्सी पा बंध माया तिमी यात अहवा समस्सी बंध अडवा मस्सो वमसीओ व वंति अवा ममाय मगुस्सीय बंध Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५६) अभिधानराजेन्: इरियावहियबंध अहना मस्सा य मधुस्सीओ य बंधेति । तं जंक इत्थी बंध, पुरिसो बंध णपुंसो बंध इत्यीओ बंधति पुरिसा बंधंति पुंसगा बंधंति । गो इत्थी णो पुरिसोथो सगो बंध ? गोयमा ! णो इस्वी बंध जो पुरिसो बंध जान को नपुंसगा बंर्धति पुग्यपकि are पकुच अवगयवेदा बंधंति, परिवज्जमाणए पकुच्च वगयवेदो वा बंध अवयवदा वा बंधति । जड़ते ! वयवेदो वा बंध अवयवेदा वा बंधंति तं नंते ! किं इत्थी पच्छाकको बंध ? पुरिसपच्छाकको बंध 2 पुंसगपच्छाकको बंध ३ इत्थी पच्छाकमा वैधति पुरिसपच्छाकमा बंधंति ए णपुंसगपच्छाकमा बंधति ६ । दादु इत्थीपच्छाकको य पुरिसपच्छाकको बंध १ उदाहु इत्थी पच्छाकको यपुरिसपच्छाकको य बंधेति २ उदाहु इत्यी पच्छाकमा व पुरिसपच्छाकमी व बंध ३ दाइत्वी पच्छाकमा पच्छाकमा यत्रधति ४ उदाहु इत्थीपच्छाकको य णपुंसगपछाको बंध उदाहु पुरिसपच्छाकको व पुंसगप छाको बंध ४ उदाहु इत्यी पच्छाकको य पुरिप च्छाकको व पुंसगपच्छाकको व बंध 6 एवं ए त्रीसं जंगा । जाव उदाहु इत्यी पच्छाकमा य पुरिसपच्छा कमा य णपुंसगपच्छाकमा य बंधंति ! गोयमा ! इत्थी पच्छाकको पि पुरिसपच्छाकको विबंध, पु सगपच्छाकको विबंध । इत्थी पच्छाकमा विपति पुरिसपच्छाकमा वि बंधंति, णपुंसगपच्छाकमा वि ७ ति । ६ । अवा इत्वीपच्छाकको य पुरिसपच्छा कोय बंध १२ एवं एए बच्चीसं जंगा जाणिपव्वा जान अड़वा इत्थी पच्छाकमा व पुरिसपच्छाकमा य सगपत्रमा बंधंति । तं जंते किं बंधी, after १ बंधी बंध न बंधिस्सइ २ बंधी न बंधइ मंसिर ३ बंधी न बंध न पिस ४ न बंधी बंध सनी न बंधिस्स ६ न बंधी न बधइ बंधिस्स 9 न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ८ गोयमा ! जवाग रिसं पय प्रत्येगइए बंधी बंध बंधिस्स प्रत्येगइए बंधी बंधन बंधिस्स एवं सं चैव सव्यं जाय अत्यगइए नवीन बंधिस्त गणागरसं पच प्रत्ये ate बंधी बंध बंधिस्स एवं जाव प्रत्येगइए न बंधी बंध बंधिस्स णो वन बंधी बंध न बं फिस्स । अवेगइएन बंधी नबंध बंधिस्सर प्रत्येगश्ए न बंधी न बंध न बंधिस्स । तं जंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बंध, साइयं अपज्जवसियं बंध अगाइयं सपज्जवसियं बंध प्रणादयं अपनयसि बंध ? गोपमा ! इरियावहियबंध सायं सपज्जयसि बंध, णो सायं पयसियं बंध, णो प्रणायं सपनयसियं बंध को अणादयं प्रपन्न वासयं बंध | ( नो नेरइओ इत्यादि ) मनुष्यस्यैव तद्बन्धो यस्माद्वन्धापशान्तमोहक्की मोहसयोगिकेवलिनामेव तद्बन्धनमिति (परिचय इत्यादि) पूर्व भाकाले प्रतिपक्षमै पथिक बन्धकत्वं यैस्ते पूर्वप्रतिपनकास्तान् तद्बन्धकत्व द्वितीयादिसमयवर्तिन इत्यर्थः । ते च सदैव बहवः पुरुषा स्त्रियश्च सन्ति सभयेषां केवलिनां सदैव प्रावादत उक्तम् " मणुस्साय मणुसीओ य बंधतित्ति" (परिवमाणयेति) प्रतिपद्यमानकातैयप चिककर्मबन्धनप्रथमसमयपनि इत्यर्थः । एष च विरहसम्जयादेवा मनुष्यस्य शिवाय एकयांगे एक स्वायांचया विकल्पाः द्विकयोगे तयार प मेते सर्वऽप्यष्टावेतदेवाह ( मस्सो वा इत्यादि ) एषां 1 स्वादिततलिया न तु वेदापेक्षया कोपपतवेदत्वात् । अथ वेद पेस्त्रीत्वाद्यधिकृत्याह "तं नंते । किमित्यादि नो इत्यी इत्यादिना" च पदत्रय निषेघेनावेदकः प्रश्नितः उत्तरे तु षमां पदानां निषेधः सप्तमपदोक्तस्तु व्यपगतवेदस्तत्र व पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपाद्यमानकाच प्रयन्ति त पूर्वमतिपत्रकानां विगतवेदानां सदावत्यभावा दाद (पुण्यादि) प्रतिपद्यमानकानान्तु सामयिकस्वाद रिजावेनैकादिसम्भवाद्विकल्पयमत पवाद (परियजमाणेत्यादि) अपगतवेदमेवैयांपधिकबन्धमाधित्य श्रीस्वादिभूत नावापेक्या विकल्पयन्नाह । “जर इत्यादि तं नंते ! ! तदा भदन्त तज्ञ कर्मपथपाकमेति भावप्रधान शस्य स्त्रीत्वं पश्चात्कृतं ततां नीतं येनावेद केनासौ स्त्रीपश्चा कृत एवमन्यायापि कैकयोगे एकत्वत्वाय पक ल्या, फियोंगे तु कियोगेषु तथैव योग पुनस्तथैवाटावे च सर्वे शतिः मङ्गष्टमीनां प्रथमं विगताः सर्वान्तिममेति अयोपथिककर्मबन्धनमेव कामत्रयेण विकल्पयसा ( ते ते इत्यादि) पथिककर्मबन्धी रुवान् पनाति ननस्पति को विकल्पः । एवमन्ये ऽपि सप्त भङ्गा एषां च स्थापना उत्तरन्तु ( भवेत्यादि) भवे अनेकोपशमादिभिप्राया भाकर्ष र्याप किकमनुपदर्श नवाकर प्रतीत्य अस्त्यको प्रय त्येकः कः प्रथमवैकल्पिकः । तयादि पूर्वभवे उपशान्तमोहसत्वे सत्वैयपथिकं कर्म बरुवान् वर्तमाननवे चोपशान्तमोहत्वे बध्नाति अनागतं च उपशान्तमोहावस्थायां भति । यस्तु यः पूर्वस्मिन् नये उपान्तमोहत्वं लब्धवान् वर्तमाने च कीणमोडत्व प्राप्तः स पूर्व बकयाद वर्तमाने च पनातिस्थायां पुनमस्यति । २ । तृतीयः पूर्वजन्मनि उपशान्तमोहबतपतितो नाति अनागतेच मोहावस्थायां भरस्त ३ स्तु शैलेशी पूर्वकाले बरुवान् शैलेश्यां च न बध्नाति न च पुनर्भवति पञ्चमस्तु पूर्वजन्मनि नोपशान्तमोहत्व लब्धवानिति न बरूवान् अधुना लब्धमिति बध्नाति पुनरप्येष्यकाले उपशान्तमोदाद्यवस्थायां नमस्यतीति । ५। षष्ठःपुनः की णमो इत्वादि न लब्धवान् न पूर्व बडवान् । अधुना तु हीणमोहत्वं सन्धमिति बनाति लिइयवस्थायां पुनन मन्त्स्यतीति | ६ | सप्तमः पुनर्नव्यस्य, स हि अनादी कामे न रुवान् Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रियावहियबंध अन्निधानराजेन्नः। इरियावहिया अधुनापि कश्चिन्न बध्नाति कालान्तरे तु भन्स्यतीति । ७। बन्धः सा पथिकी। प्रव०११द्वा० । क्रियाभेदे-, अष्टमस्त्वभव्यस्य स तु प्रतीत एव । (गहणागरिसमि- अजीवकिरिया दुविहा पमत्ता तंजहा इरिश्राव हिश्रा त्यादि) एकस्मिन्नेव नवे र्यापथिककर्मपुजनानां ग्रहणरूपो चेव संपराइया चेव । य आकर्षो ऽसौ प्रहणाकर्षस्तं प्रतीत्यास्येकः कश्चिजीयः प्रथमवैकल्पिकः । तथादि-उपशान्तमोहादिर्यदर्यापथिक यत्कवनयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्म बनति तदातीतसमयोपेकया बच्वान् वर्तमान कर्मतया जीवस्य पुनराशेर्भवनं सा ऐर्यापार्थिकी क्रिया। समयापेक्रया च बनाति अनागतसमयापेक्या तुज वह जीवव्यापारेप्यजीवप्रधानत्वविवक्तया जीवक्रियेयमुक्ता नस्यतीति।१। द्वितीयस्तु केवली स ह्यतीतकासे बरुवान् कर्मविशेषावेर्यापथिक क्रियोच्यते यतोनिहितम् “रियाववर्तमाने च बनाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्स्यतीति ।। हिया किरियाऽविहावज्ऊमाणा वेश्जामाणाय जा पढ़मसतृतीयस्तु उपशान्तमोहत्वे बरूवांस्तत्प्रतिपतितस्तु नबनाति मय बझा, वीयसमये वेश्या सा बझा पुडा वेश्या णिजिता से य काले अकम्मं वा वि भवत्ति । स्था०२ग०। पुनस्तत्रैव नवे उपशमश्रेणिप्रतिपन्नो भन्स्यतीति एक तत्स्वरूपं यथाभवे चोपशमश्रेणी हिःप्राप्यत एवेति । ३। चतुर्थः पुनः स. योगित्वे बरुवान् शैलेश्यवस्थायां नबध्नाति न च ननस्यतीति एसान लोजवत्ती, शरिआवहिनं अओ पचक्खामि । । ४ । पञ्चमः पुनरायुषः पूर्वभागे उपशान्तमोहत्वादि न इह खत्रु अणगारस्स, समिई गुत्तीस गुत्तस्स ॥६॥ सन्धमिति न बरूवान् अधुना तु बन्धमिति बनाति । तदकाया सययं तु अप्पमत्तस्स, जावो जाव चक्खुपम्हंपि । पव चैष्यत्समये तु पूर्व पुनर्जन्स्यतीति ।। षष्ठस्तु नास्त्येव निवयता सुटुमा हु, शरावहिाकिरिअएसा॥६॥ तब न बरूवान् बनातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेपि न भरस्य वह खल्वनगारस्य साधोः समितिषुर्यासमित्यादिषु मनोतीत्यस्यानुपपद्यमानत्वात्, तथाटायुषः पूर्वजागे उपशा गुप्यादिषु गुप्तस्य संवृतस्य सततमेवाप्रमासस्य उपशान्तबोह समाहत्त्वादिन बन्धमिति न बरूवांस्तद्वानसमये च बना कीणमोहसयोगिकेवविलकणस्थामकत्रयवर्तिनः। अन्येषां तु ति ततोऽनन्तरसमयेषुच भन्स्यत्येवन तुन जन्त्स्यति समय अप्रमत्तानामपि कषायप्रत्ययकर्मबन्धसद्भावेन केवायोगनिमात्रस्य बन्धस्येहानावात, यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य समया मित्तकर्मबन्धोदयसंभवानाप्रमत्तशब्देनात्रग्रहणं नगवतः पृनन्तरमरणेनैर्यापथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ ज्यस्य यावश्चतः पदमापिनिपतति स्यन्दते इदं च योगस्योपष्ठविकल्पहेतुस्तदनन्तरमैर्यापथिककर्मबन्धाभावस्य जवान्त पलकणं ततोऽयमों यावश्चकुर्निमेषोन्मेषमाशोपि योगः संजरवर्तित्वात् ग्रहणाकर्षणस्य चेह प्रक्रान्तत्वात्। यदि पुनःसयो पति तावत्सूदमा पकसामयिकबन्धत्वेनास्यल्पासातबन्धसकगिचरमसमये व नाति ततोऽनन्तरं न भन्स्यतीति विवदयेत णा क्रिया भवति । एषा हु स्फुटमैर्यापथिकी क्रिया त्रयोदतदा यत्सयोगिचरमसमये बनातीति तद्वन्धपूर्वकमेव स्या- शीति । प्रव० १२१ द्वाराआव० चाबन्धपूर्वकं तत्पूर्वसमयेषु तस्य बन्धकत्वात् । एवं च द्वि विस्तरेण तस्याः स्वरूपं सा कस्य भवति किंचूता था तीय एव जङ्गः स्यान्न पुनः षष्ठ शति । ६। सप्तमः पुनर्नव्यवि विष्टकर्मफला वा इत्येतद्दर्शयितुमाहशेषस्य, अष्टमस्त्वजव्यस्यति । श्ह च नवाकर्षापेकेषु अष्टासु जनकषु “बंधी बंध बंधिस्स" इत्यत्र प्रथमे भने उपशान्त अहावरे तेरसमे किरियाहाणे इरियावहिएति प्रामोहः । 'बंधी बंधन बंधिस्सई' इत्यत्र द्वितीये कीणमोहः। हिज्जइ इह खबु अतत्ताए संवुमस्स अणगारस्स इरि'बंधीन बंध बंधिस्सई' इत्यत्र तृतीये उपशान्तमाहः। पंधी यासमियस्स जासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणन बंधन बंधिस्स' इत्यत्र चतुर्ये शैलेशीगतः । 'न बंधी नंम्मत्तणिक्खेवणासमियस्स उच्चारपासवणखेमसिंबंध बंधिस्सई' इत्यत्र पञ्चमे उपशान्तमोहः। न बंधी बंध न बंधिस्त' इत्यत्र षष्ठे कीपमोहः । न बंधीनबंध बंधिस्स घाणजह्मपारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स क्यसमिइत्यत्र सप्तमे जन्यः । 'न बंधी न बंधश्न बंधिस्सा' इत्यत्रा यस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स बयगुत्तस्स कायगुएमे ऽभव्यः । ग्रहणापेकेषु पुनरतंषु पव प्रथमे उपशान्तमोहः कीणमोहावा, द्वितीय तु कवली, तृतीये उपशान्तमाहः,चतुर्थ त्तस्स गुतिदियस्स गुत्तबंजयारिस्स पाउत्तं गच्छमाणशैवशीगतः, पञ्चमे उपशान्तमोहः कोणमोहोचा, षष्ठ शून्यः, स्स आनत्तं चिट्ठमाणस्स आनत्तं णिसियमाणस्स श्रासप्तम भव्या भाविमोहोपशमो नाविमोहक्कयो वा, अष्टमे उत्तं तुयहमाणस्स आउत्तं जुज्जमाणस्स आउत्तं जासत्वनव्य इति अथैर्यापथिकबन्धमेव निरूपयन्नाह"तमित्यादि" माणस आनत्तं वत्यं पमिग्गहं कंबलंपायपुंगणं गिएहमा. तदापयिकं कर्म साश्यं सपज्जवसियमित्यादिचतुनङ्गी,तत्र चैर्यापथिककर्मणः प्रथम एव नङ्ग बन्धोन्येषु तदसम्भवा णस्त वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणि या दिति, भ० शब। यमवि अत्यिविमाया सुहुमा किरिया शरियावहिया नाम इरियारहिया-ईर्ष्यापथिका-स्त्री०-ईरणमी-गमनमित्यर्थःपथि कज्जइ सा पढमसमए बच्छा पुट्टा वितीयसमए वेश्या जाता पाथका ईर्ष्या चासौ पथिका च र्यापथिकति । गम तइय समए णिज्जित्ता सा बच्छा पुट्ठा उदीरिया वेइया नप्रधानमार्गोत्पन्ने, आ००४०।। णिज्जित्ता सेयंकाझे अकम्मयाविनवंति एवं खलु तस्स ऐोपथिकी-स्त्री ईरणमा गमनं तद्विशिएस्तत्प्रधानो वा पन्या ईर्ष्यापथस्तत्र नवा ऐUपथिकी । स्था०२ ग०। तप्पतियं सा वज्जति आहिज्जा तेरसमे किरियाहाणे शरिआव. ४० । व्युत्पत्तिमात्रमिदं प्रवृत्तिनिमित्तं मु यः यावहिएति पाहिज्ज ।। से वेमि जे य अतीताजे य पक्रेवनयोगप्रत्यय उपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्म- पना जे य अगिमिस्सा अरिहंना जगवंता सच्चे ते एयाइ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५८ ) अभिधानराजेन्द्रः । इरियावहिया चेव तेरस किरियाद्वाणाई जासिसु वा जासेंति वा जासिस्सं ति वा पद्मसु वा पति वा पत्रविस्संति वा एवं चैव तेरसमं किरियाठाणं सेवितु वा सेविंति वा सविस्संति वा २३॥ म जगति प्रवचने संयमे या वर्तमानस्य । य शब्दो ऽवधारणे अंकारे या आत्मनो नायः आत्म तदर्थमात्मत्वार्य संतस्य मनोवाकायैः परमार्थत पर्वतस्यैषा मनायोश्वरस्य त्वत्तस्यात्मतत्यमेव नास्ति सदृतात्म कार्यकारणात् । तदेयमात्मार्थ संकृतस्यानमारस्यापयिकादिनः पञ्चनिः समितिभिर्मनाचाकायैः समितस्य तथा तिसृभिगुप पुनमदणमेतानिरेष तिन पतीत्यस्यार्थस्याविनयनायात्यादख्यापनाचे वेति । तथा गु न्द्रियस्य याचताचारिणश्च सतस्तयोपयुक्त गच्छतस्तिष्ठतो निषीदतो मुनेस्त्वग्वर्त्तनां कुर्वाणस्य तथोपयु मेवापादनकं या तो पता वा पावच्च पापामच्युपयुक्तं कुर्वतः सोऽत्य न्तमुपयुक्तस्याप्यस्ति विद्यते । विविधामात्राविमात्रा तदेयंविघा समापियसंचलनरूपादि के र्यापथिका नाम किया केवलिनापि क्रियते । तथाहि । सयोगिजीवो न शक्नोति aणमप्येकं निश्चलः स्यातुमग्निना ताप्यमानोदकवत्कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयवास्ते । तथाचां "केवळीणं ते समय जे भागासपणसेसु' इत्यादि तदेयं केव बिनोषि गात्रसंचारा जयन्ती च कारणे कार्योपचारातया क्रियया यद्वभ्यते कर्म तस्य कर्मणो या अवस्थास्ताः किया दर्शयितुमाह । (सापदमसमये इत्यादि) या सावकाषायणः क्रिया तया यद्वध्यते कर्म तत्प्रथमसमय स्पृषति कृत्वा येषा तथा द्वितीयमयेत्यनुता तृतीयसमयेऽतिजीर्णा पतकं म वति । कर्मयोगनिमित्तं बध्यते तत्स्थितिश्च कषायायत्ता तदभावाथ न तस्य सपराधिकस्य स्थितिः किंतु योगसद्भावाइयमानमेव स्पृष्ां याति । द्वितीयसमयेत्यनुभूयते तच प्रकृतितः सातावेदनीय स्थितितो द्विसमयस्थितिकमभावतः भानुनावमनुष्तरोपपातिकदेवसुखातिशाथि देशो बहुप्रदेशमस्थिरबन्धं बहुव्ययं च । तदेवं सेर्यापथिका क्रिया । प्रथमसमये स्पृष्ट] द्वितीयसमये उदिता वेदिताऽतिज भवति ( सयंकाले ति ) आगामिनि तृतीयसमये तत्कर्माक्या कर्मतापि च भवति । एवं तावद्वीतरागस्येर्याप्रत्ययिक कर्माधीयते संबध्यते । तदेतत्रयोदशं क्रियास्थानं व्याख्यातम् । ये पुनस्तेभ्योऽन्ये प्राणिनस्तेषां सांपरायिको बन्धस्ते तु यानि प्रागुकानी यांचचपनि दशक्रियास्थानानि तेषु वर्त्तन्ते नामसुमतां मिथ्यात्याविरतिप्रमाद काययोगनि मित्तः सांपरायको बन्धो भवति । तत्र च प्रमादस्तत्र कषायायोगाश्च नियमाद्भवन्ति । कषायिणश्च योगा योगिनस्त्वेते भाज्याः । तत्र प्रमादकषायप्रत्ययिको बन्धोऽनेकप्रकारा स्थितिः । तदितस्तु केवयोगप्रत्यधिको हिसमयस्थितिरेवर्यायिक इति स्थितम् ॥ सूत्र० २ श्रु० २ अ० । भ० । आव० । ० ० । ( चतुर्विंशतिद एककेऽस्या वक्तव्यता किरविक्या प्रतिक्रमणावश्यकता पायांच प्रतिक्रमणं कृत्या न किंचिदन्यत् कुरुताप गिति । दश० चूलि० २ । तया च महानिशीथे गोयमाणं अमिता इरियाचडियाए न कप्पड़ चेव । इरियाबहिया काउं किंचि चिश्वंदणा जायाइयं फल्झासायमनिकंखुगाणं एएणं णं गोयमा ! एवं बुच्चइ जहाणं गोयमा ! समुचत्यो जयपंचमंगला चिरपरिचर्य काळणं तत्र हरियावहियं अब्जीए से जयवं कय एए विहिए तमिरिया वहीए महीप गोयमा ! जहा णं पंचमंगलमहसूर्य संथे से जय व मिरियाव हियम हिज्जित्ताणं । महा० १ ० । एतस्याः प्रतिक्रमणं स्वरूपश्च यथा-. इच्छामि पकिमि इरियावहियाए । विराहणाए गमणागमणे | पाणकमणे बीयकमणे हरियकमणे । ओसाउसिंगपणगदगमट्टीमकमासंताणासंकमणे जेमे जीवा विराहिया एगिंदिया बेई दिया तेइंदिया चनरिंदिया पंचंदिया अहिया बचिया लेसिया संपाश्या संपट्टिया परिया दिया किलामिया उदनिया छापओ वाणं संका मिया जी बियाओ क्रोबिया तस्स मिच्छामि क म्यामि प्रतिक्रमितुं निवर्त्तयितुमी पधिकार्या विराधनायां योऽतिचार इति गम्यते । तस्येति योगः अनेन क्रियाकासमाह 'मिच्छामि इक्कमंति' अनेन : तु निष्ठाकायमिति तत्रेरणमीय गमनमित्यर्थः तत्प्रधानः पन्या ईर्यापथः तत्र नवा ईर्यापथिका तथा किंविशिष्टायामित्यत श्राह । विराभ्यन्ते स्याप्यन्ते प्राणिनोति विराधना किया तस्यां विराधनाय तथा योऽतिचार इति वाक्यशेषस्तस्येति योग विषयमुपदर्शयन्नाह गमनं चागमनं चेत्येकवङ्गावस्तस्मिंस्तत्र गमनं स्वाध्यायादिनिमित्तं वसतिरिति आगमनं प्रयोजनपरिसमाझी पुनर्थस्थतिमेति तत्रापि या कथं जातोतियार पत्थ मह 'पाणकम, प्राणिनां इन्द्रियादयो गृह रोषामाक्रमणं पादेन की मनं प्राण्याक्रमणं तस्मिन्निति तथा वीजाक्रमणे श्रनेन बीजानां जीवत्वमाह - हरिताक्रमणे अनेन तु सकलवनस्पतिरेष तथा यथायोतिङ्गपन कद गतिकामटतान क्रमणे सति तत्रावश्यायोजन विशेषः इह चावश्यायग्रहणमिति स यतः शेषजलसंभोगपरिहरणार्थमित्येवमन्यत्रापि भावनीयम् सिंगा गईनाकृतयो ये जीवाः की टिका नगराणि या पनक लि दगमृत्तिका विखलः अथवा दगग्रहणादण्कायः मृत्तिकाग्रहणात्पूचिव काय मर्कटसंतानं कोशिकाजामु श्याययतित्यादिन्यनिककामटतानास्तेषां संगममा तस्मिकिबहुना क यन्तो नान्यास्यन्ते सर्वे ये मया जीवा विराधिताःन स्थापिताः एकेन्द्रियाः पृथिव्यादया इन्द्रियाः म्यादयः श्रीया पिकायचतुरिन्द्रिया उमराक पचेन्द्रिया सपिकादक अनिता अनि मुख्येन इताखरणेन घट्टिताः सत्य विहिता वा पतिताः पुजाःल्या या स्थिता इति पिता शिक्ष जूरियादिषु थागिताः संघा तिताः अन्योन्यं गारेका अगिताः संग्रहितः मना परितापिताः समन्ततः पीमिताः क्रामिताः समुद्वातं नीताः स्वानिमापादिता इत्यर्थः । अपाविताः उत्रासिताः स्थानात्स्यानं संक्रामिताः स्वस्थानात्परस्थानं नीताः जीविताइपपरोपिता मारिता इत्यर्थः एवं यो जातोशियार तस्येत्येतावता क्रियाकालमाह । तस्स मिच्छामि डुक्करमनेन निष्ठाकामा मिध्यादुष्कृतं पूर्ववदेवं तस्येत्युनयत्र : Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियासमिश योजना सर्वत्र कार्य्या । आव० ४ अ० । इच्छामि परिकर्मितु तिपुज्यनशितं एस संवत्यो हरियावहियाए" विस्तरस्तु ग मणेत्यादि । श्रा० प्यू० ४ श्र० । ( ६५९ ) अभिधानराजेन्द्रः । ननु यो श्रादयोः प्रतिकमणकरणसमयेऽपवा सामायिके कृते सति एकस्य हस्तादपरेण चरवल के पातिते उभयोर्मध्ये कस्र्यापथिकी समायाति किमुभावपि प्रतिक्रामतः एको वेति । ( उत्तरम् ) अत्र द्वयोः श्रारूयोः प्रतिक्रमणकरणादौ सावधानतरीकेन चरोहितो भवति अथ यदि द्वितीयनेन हेतुना पतति तदा तस्येपथिकी समायाति यदि च गृहीतो व्यसावधानतयेव तदो नयोरप पथिकी समीति । १। तयाय शुरूकियां कुर्यार्थः शुकाचारं च पातयन पथिकी मागतां न जानाति सकिनस्तां प्रतिक्रामतितरम अत्र शुरू कियायां क्रियमाणायां सोपयोगतया प्रमार्जनादिविधिगोपवेशनादि पाचही नायाति यतस्तामात्यान मानमुकं ज्ञानं नास्ति तथापि क्रियान्तरे क्रियमाये श्वापथि की प्रतिकाम्यते यतो मस्या मनोवचः कार्याोपयोगीनां सम्यगवबोधो न भवतीति ॥२॥ ईर्ष्या गमनं तस्याः पन्या मार्ग ईय्यापयस्तत्र नया या समितिः ईर्ष्यासमितिलकणा सा " पथिक । समितिनेदे, स्या० ६ वा० । (तक्तव्यता रि यासमिः शब्दे । ऐसी पथिक्यापरिमन्युः कप्प शब्दे उच्चा रादीन्या इति परिक्रमण) इरियासमिह ईर्ष्यासामिति स्त्री० सम्यगतिः प्रवृतिः समितिः ईयां गमने समिति कुपारपूर्वतयेती यांसमितिः। समितिभेदे । स्था:०० वा० । आव० । पा० सम० । प्रवण । तत्स्वरूपं धर्मसंग्रहे यया सस्थावरजन्तुजाताभयदानदीक्षितस्य मुनेराश्यके प्रयोजने गच्छतो जन्तुरकानिमि स्वशरीररका निमित्तं च पादाप्रादारज्य युगमात्र क्षेत्रं यावन्त्रिरीय र यो गतिस्तस्यां समितिरीय समितिदाः पु रओ जुगमाया, पेमाणां मदिं बरे । बचतो वीमहरिसा पाणे अद्गमट्टिश्रं ॥ १ ॥ चवायं विसमं खाणु, विज्जलं परित्र ज्जय । संकमेण न गच्छेजा, विज्जमाणे परक्कमे" १ एवंविधोपयोगेन गच्छतो यतेः कथंचित्प्राणिवधोऽपि प्राणिवधपापं न नवति यदाह "उच्चामिम्मि पाए, इरिआसमिअस्स संकमडाए । वा वज्जिजकुलिंगी मारेज्ज तज्जेागपासज्ज ॥ १ ॥ नयतस्स राम सुमो विदेसिओ सम सन्दनायेण सोजम्दा २ तथा "जिमयजीयो - दारस्स निच्छश्रो हिंसा। पयदस्स णत्थिबंधो, हिंसा मिप्तेण समिदस्स,, । ध० ३ अधि० प्रव० जीवसंरक्खण जुगमेत्तंतरदिस्स अप्पमादिणो संजमो व करतुप्पायणाणिमित्तं जाग मण किरिया सा रियासमिती । नि०० १ ० । ईर्ष्यासमितिनीम कटयानं वादनात सूर्यरश्मितापितेषु प्रासुकवियिषु पचिषुयुगमात्य गमनागमनं कर्त्तव्यमिति । आव० ४ श्र० । ईण्यासमितेर्विस्तरेण स्वरूपमाद | श्रज श्रावणेण काले, मग्गेण जयणाए य । चटकारणपरिक मंजर इरियं रिए । आलम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया चतुः कारणैरेभिरव जम्नादिभिः परिवृद्धाचा पत्रकारपरि संयतो यत्तिरीयगति (रिपत्ति ) येतानुष्ठानविषयतया प्राप्नुयात् यज्ञान्यायाच्चतु कारण परिय गच्छेत् श्रालम्बनादीन्येव व्याख्यातुमाह इरियासमिइ तत्यालवणं पाण- दंसणं चरणं तहा । काले य दिवसे वृत्ते, मग्गाप्पहविवज्जए || वज्जप तत्र तेष्वालम्बनादिषु मध्ये श्रालम्बनं यदालम्ब्य गमनमनुज्ञायते निरालम्बनस्य हि नानुज्ञातमेव गमनं ततः किमि - स्यादकानं सुषायनयात्मकागमरूपं दर्शनं दर्शनप्रयोजनं चरणं चारित्र तथा शब्दोऽनुकसमुच्चयार्थत्वेन जित्वादिन सूचकस्ततोयमर्थः प्रत्येकं ज्ञानादीन्याश्रित्य धिकादिसंयोगेन वा गमनमनुज्ञातमालम्बनेति व्याचष्टे कालश्ध प्रस्तावादीगंगा दिवस ततस्तदादिभिरिति ते रात्रीकुर्विषयत्वेन पुश्तरालम्बनं बिना मानानं मार्गेति धार व्याख्यातुमाह मार्ग इह सामान्येन पन्थाः स उत्पथेनोन्मार्गेण वर्जितो रहितः उत्पथवर्जितः उक्तसबन्धः उत्पथेदि व्रजत आत्मसंयमविराधनादयो दोषाः । यतनेति घारं वृवूर्षुराह । दव्वओ खेत्तो चेत्र, कालओ जावओो तहा । जया चव्विा वृत्ता, तं मेचि तयो सुण ।' (दव्यओ इत्यादि) सुगममेव नवरं तामिति चतुर्विधयतनां मे कीर्तयतः सम्यक प्ररूपानिधानधारण संशयः श्वा कर्णय शिष्येति गम्यते । यथा प्रतिज्ञातमेवाहदम्पओचा पेहे, जगमेचं च खेचओ । कालो जाव रीएज्जा, उवउत्ते व जावो ॥ अव्यत इति जीवादिकद्रव्यमाश्रित्येयं यतना यश्चकुषा दृष्ट्या लोकमात् जीवादिकं यमवलोक्यं च संय मात्मविराधना परिहारेण गच्छेदिति नापो युगमा च चतु ईस्तप्रमाणं प्रस्तावात्तेत्रं प्रेक्षेत इयं त्रतो यतना कालतो यतना यावत् (रीएज्जत्ति ) रीयते यावन्तं कालं पर्यटति तावत् कालमिति गम्यते उपउता भावतो दत्तावधानो यही यते एवं भाषमत्य यतना उपयुक्तत्यमेव स्पष्टयितुमाद। इंदियत्ये विवज्जत्ता, सज्जायं च पंचहा । तस्मृती प्रकारे, उवत्तोरिवं रए । इन्द्रियार्थान् शब्दादीन् विवर्ज्य तदनाभ्यवसानतः परिहस्य स्वाध्यायं चैव वा समुच्चये एवकारोऽपि शब्दार्थस्ता यमर्थात् केवलमिन्द्रियार्थानकिंतु स्वाध्यायं चापि पञ्चधेति वाचनादिभेदतः पञ्चप्रकारं गत्युपयोगापघातित्वासतय तस्यामेव यायमूर्ति व्याप्रियमाणा यस्यासी सम्मूर्त्तिस्तथा तामेव पुरष्करोति तथैवोपयुकता प्राधान्येनाङ्गीकुरुते इति तत्पुरस्कारोऽनेन कायमनसोस्तत्परतोक्ता वचसो हि तत्र व्यापार एव न समस्ति एवमुपयुक्तः सन्नीर्यो रीयेत यतिरिति शेषः । सर्वत्र च संयमात्मविराधनैव विपक्के दोष इति सूत्रपञ्चकार्थः । उत्त० ४ ० । समिती उदाहरणं यथा-एको साहू समणगुणनावियो इरियासमिश्ए जुत्तो विहर। पत्थंतरे सकआसणं चत्रियं । पत्ताची साई दई परमनसाय बंद पसंसद व देवसनाम भनिदिएगो देव असतो समागभी साहुस्स वियारभूमिं पट्टियस्स पुरश्र मच्छियणमालाओ मंडुकलियाओ विजय । पच्छय मप्त हत्थितहा वि गई न मिव। तभी दक्षिणायणभूमि पारियो न य सोभयं न य सरीर गणेश । किं तु सत्ता मे मारियन्ति । जी वापरणओ अत्थ । स देवावि अचलियं तं साहुं पेहत युक्त तं नियता देता "अवार Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियासमिइजोग हाम्रो समितो असमितो देवताए पादो बिटो अपण संधितो शत्यधिकम् " श्रा० चू० ४ अ० । ( अस्याः प्रवचनमात्रत्वम् शब्दे (यसमिती अनाजोगप्रतिषेवर्ण जयती(समितेः परिमन्धकः काय शब्दे ) इरियासमिजोग-ईर्ष्यासमितियोग- पु० ईष्यांस मितिव्यापारे "जे एवं इरियासमिश्जोगेण नाविओ भवति अंतरप्पाइति” प्रश्न० १६० । (६६०) अभिधानराजेन्द्रः । इरियासमिष - ईर्ष्यासमित पुरणं गमनमीच्य तस्यां समित ( सम्यक्प्रवृत्तः ज० २ ० १ ० ) ( उपयुक्तः । प्रध०७२ द्वि०) दत्तावधान ईर्ष्यासमितः । पुरतो युगमात्रभूजागन्यस्तदृष्टिगामिनि, आचा० २ ० ६ ० । आव० " इरियासमिए या जये" ईरणमर्थ्या गमनं तस्यां समितः सम्यक्प्राप्तः ईय समितः ईर्ष्यासमितता प्रथमभावना यतोऽसमितः प्राणिनोहिंस्यात् सदाउतो यतः सर्वकारमुपयुक्त शर्त आय०४ २० प्रव० । ( इस मितस्य विस्तरेण वक्तव्यता इरियासमिश शब्दे ) (समितस्य प्राणातिपातविरमणव्रतस्य प्रथम भावना भवतीति प्रायाश्वायवेरमण शब्देनाचना च इष्टव्यम् ) सखी० - मी या जपान्तर्गतवर्ष दे, आ० क० । श्लावर्धनगरस्थायां स्वनामख्यातायां देवतायाम् । श्र०म० द्वि० आ० चू० (तत्कथा इआपुत शब्दे ) पधिमवास्येदिति । इसाकूर इलाकूट १० दिपपरपर्वतस्ये सादेष्यधिष्ठित कूटनेदे । स्था० ४ ० । इसादेवी- देवी० पश्चिमस्यकवास्तध्ये दिककुमारी भेदे, आ० क० । जं० ॥ भा० म० प्र० । स्था० । इलादेवीकूम - इलादेवीकूट- न० कुषहिमवद्वर्षधरपर्वतस्थे इलादेव्यधिष्ठिते कृटभेदे, जं० २ वक० इसापुर झापु पु० खानपुर खादेवी स्वनामख्याते श्रेष्ठिते, तत्कथा यथा । एकस्मिन कुत्रचिद्वामेा धर्मगुरोः पुरा । द्विज एकः सपत्नीकः परिवज्यामुपाददे । १ । तप्यते स्म तपस्तीनं प्रीतिर्नागात्परं मिथः । राजेति स्त्री शूङ्गाविचिकित्सा पुनः २ । मृत्वा तौ जग्मतुः स्वर्गं तत्र सौख्येन तिष्ठतः । इतश्च भरतेऽमुष्मिनाम एकलमएमनम् । ३ । शार्धमनाम्नास्ति पुरं प्रति परः । सत्योपयान्त्रिता तस्मिशिलानाम्यस्ति देवता | ४ | एकाच श्रेष्टिनी तत्र सिषेवे तां सुतार्थिनी । स च द्विजाः स्वगत्वा तस्याः सुतोऽजयत् ॥ ५॥ तस्येनापुत्र इत्याख्या चक्रेत्युत्सवपूर्वकम् । स्त्रीजीवो विचिकित्सातः संजज्ञे मंखपुत्रिका । ६ । प्राप्तौ स्मरकरिकीमा वनं घावपि यौवनम् । नृत्यन्तीपुत्री तामझाम्पदेकत। 3। अनवत्प्राग्भवे प्रेम्णानुरागस्तस्य तां प्रति । नैव तस्य दो सुनापतिम् । अक्कयां निधिरस्माकमियं नेमां ददामहे । यदि नः सहचारी स्यादस्माद्वद्या व शिक्षते ॥ ए ॥ नभने यमापि धमेन च । इलियागइ मुक्त्वा कुटुम्बं तत्कामस्तेषां साथानुगोऽभवत् । १० । शिक्षितः सोथ तद्विद्यां विवाहायाजितुं धनम् । नातटपुरे गत्वा ययाचेऽवसरं नृपः ॥ ११ ॥ जापुत्रस्य नाट्यस्था ऽवसरोऽदायि चूजा । स्वयं शान्तःपुरः सोथ पौराः सर्वेपि चाविशन् ॥ १२ ॥ न्यस्तस्तत्र महान् वंशः फलकं तस्य चोपरि । म्यस्तौ द्वौ द्वौ तथा लोहकीलकौ फलकान्तयोः ॥ १३ ॥ तस्योपरि ननतच्चैरित्रापुत्रो धनाशया । धनिनां द्वारि सौवर्ण--यष्टघां की मां मयूरवत् ॥ १४॥ अधस्तान्पुष्या च गायकीवृन्दा गीतं गीतं रसस्फीतं प्रीतं सामानिकैर्यतः ॥ १५ ॥ पादः कपातासिका । उत्पत्यात्पत्य गगने ददानः किरणानि सः ॥ १६ ॥ अप्रमत्तः सप्तसप्तपुरः पश्चान्मुखानि च । फल कप्रान्तकीलेषु प्रवेशयति पाडुके ॥ १७ ॥ पर्वते सर्वस्वानी। राज्ञा दत्ते परं त्यागे प्राक् पञ्चाददते परे ॥ १८ ॥ नयां को पतानि भूयो त्योऽध्यापयत्। तन्मृत्युमीहते राजा स पुनर्धनम | हते ॥ १७ ॥ ज्ञातं तेनाप्यथ यथा नट्यां राजापि रागवान् । स च तत्र स्थितो दृष्ट्वा निकटे श्रेष्टिनो गृहे ॥ २० ॥ युवती : सादरं साधु प्रति जनतत्पराः । नीतासांनी २१ ॥ दीना होते कि विपरागणम् । तदेवं भावयन् प्राप ज्ञानं तत्रैव केवलम् ॥ २५ ॥ राधितियानासने मपुज्यपि । पहराइयपि तत्तद्भावयन्ती समासदत् ॥ २३ ॥ श्रुत्वा परागं स्वं लोकाद् ध्यात्वा दुश्चिन्तितं च तत् । विरक्तो भावनासक्तः प्राप तूपोऽपि केवलम् ॥ २४ ॥ चणी तंत्रज्यन्तरामराः । साधु दस्तेषां यः ॥ २५ ॥ आश्यक मित्रापुः प्राययुध्यततो जयः । सम्पतानिप्रदानां कोपि प्रियान् ॥ २६ ॥ आ० क० । ० चू० आ० म० द्वि० । विशे० । साझापतिपु०पत्यगोत्रस्य प्रकाशके आर मं० इलवा-इसापल्या श्री० स्वनामध्यायांत्री इलावण - इलावर्धन - न० इलापुत्रस्य निवासस्थाने पुरनेदे, इतका भरतेमधला एक मनम्। छानामास्ति पुरं प्रस्पर्कितम्परैः । इति । आ० क० । भ० म० । आ० यू० । इलिया इसिका खी० [तृणपत्र मिले हीन्द्रियजयविशेषे । आचा० हीािधीराने परिका दिरायपिंगणिकृतप्रश्न कथं भवति उत्तरम् इसकाफो] यरमध्ये काजीपापोत्पद्यत इवि डी० । इसियागः- इसिकागति-०काया च गतिरिति कागतिः परलोकगमनाथै गतिविशेषे, तस्याः स्वरूपं यथा-"लिका पु देशमपरित्यज्य स्वमुखेनाप्रेतनं स्थानं शरीरप्रसारणेन संस्पृश्य ततः तथा पुच्छे संहरति एवं जीद्यपि कश्विरस्वनषान्तकाले स्वप्रदेशैरुत्पत्तिस्थानं संस्पृश्य परजवायुः प्रथमसमये शरीरं परित्यजति । पं० सं० २८० । Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल्ल अभिधानराजेन्द्रः । इसिभहपुत्त इन-इस-मतुवर्थके प्रत्यये, “मतुवत्थं च मुणेजह मासे श्वचणं | इसिणिया-इसिनिका-स्त्री०सिनामकानार्यदेशोद्भवायो नाचमतुवं च इति" पं० सं०३ द्वारा भाव। र्याम्, प्रका०१पद। इवी-देशी० शार्दूखे, सिंदे, वर्षत्राणे च । देना। इसितमाग-ऋषितमाग -पुं० तोसिदेशस्थे शैलपुरनगरस्थे वीर-देशी०वृष्टणम, वृष्टिधारणे गृहद्वारे च, दे० ना। स्वनामख्याते सरसि, “ सेअपुरेशसि तमागम्मि होति अठाइयो-देशीदरि, कोमले, प्रतीहारे, अवित्रे, कृष्णवणेच देना हिया । महिमा तोससिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितमागे सरसि श्व-व- अव्य० साहश्ये, उत्प्रेक्षायाम, तं० । ईचदर्थे वाक्या- प्रतिवर्षे महता विचनाष्टाहिका महती महिमा भवतीति । संकारद्योतकता चास्य तत्र उपमायामिवेन नित्यसमासो वृ०१०।तोशस्निनगरस्थ स्वनामख्याते सरसिच। "तोसविभक्त्योपश्चेति वार्तिकेन नित्वसमासः । विभक्तोपा- लीनगरम्मि सिवानो,, तोशलिनगरवास्तव्येन वणिजा ऋषि भावश्च । वागर्याविव संपृक्ती वागर्थप्रतिपत्तये । रघुः अस्य पायो नाम वाणमन्तर उज्जयनी कुत्रिकापणास्त्रीत्वान्ते बुद्धिच " मिवपिव विव व्व व विअ श्वार्थे वा छ ।२।०२। माहात्म्येन सम्यगाराधितस्ततस्तेन ऋषितभागनाम सरः इति प्राकृतसूत्रेणेवार्थ एतेषामेव प्रायः प्रयोगो नवति । कुम- कृतमिति वृ०३३०। अंमिव-चंदण पिव हंसो विव.साअरोग्य खारोओ.सेसस्सव | इसिदास-ऋषिदास-पुं० राजगृहस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, निम्मायो (फुवनी पनवणं वातं.)कमबंचित्रपके निलुष्प- | भणु० ३ ० ३ ०। (तद्वक्तव्यता धनश्रेष्टिवत् अणुत्तरो बमान श्वेति । प्रा० व्या०i ववाश्य शन्दे) इस-दुष-गती,सर्पणे च । दिवा० पर० सक सेदश्च्यात ऐ | मिटामायण-पिता व । दिवा० पर० सक० सदश्प्यात | सिदासज्जयण-ऋषिदासाध्ययन-न । ऋषिदासषक्तव्यता ध्यत्-पेषीत-इषित एषित्वा । अनु-अन्वेषणे,गवेषणे वाच। प्रतिबकेऽनुत्तरोपपातिकदशायास्तृतीयवर्गस्य तृतीयेऽध्ययने, (रि)सि ऋषि-पुं०पश्यन्तीति ऋषयः। औपण। उपा० ऋण- अणु वाचनान्तरापेक्या प्रथमेऽध्ययने च स्था०१०म०। ज्वृषभत्र्वृषौ वा ।१।४१ ति सूत्रेण वैकल्पिको 'रि' शसिदिप्स (दत्त) ऋषिदत्त- पुं० भरतवर्षवासिसुमतिजिन इत्यादेशः। रिसी पक्के । इत् कृपादौ । ७।१ ।२७ । इति समानकालिके ऐरावतवर्षवासिनि जिनन्नेदे,-"सुमई य नरहसूत्रेणेकारादेशः। इसी । अतिशयज्ञानिनि साधी, औछ । चासे सिदिमजिणो य एरवणयवासेय" तिः समः ।सुअवध्यादिज्ञानवति, उपा० । शानिनि।भ० एश० ३५००। स्थितसुप्रतिबुकानां कौटिककाकन्दकानां शिष्ये, काश्यपगोप्रत्येकबुरूसाधौ, । पा०॥ ऋषीणामुत्तमं होतनिर्दिष्टं पर त्रोत्पन्ने स्वनामख्याते स्थविरे च ॥ कल्प। मर्षिभिः । हिंसादोषनिवृत्तानां वृतशीलविवर्धनम् ॥७॥ पश्य | शसिदत्तय-ऋषिदत्तक-पुं० स्थविरात् रािसगुप्तान्मानवगणस्य न्ति यथा वस्त्विति ऋषयो मुनय इति । हा० । मूनोत्तर- द्वितीये कुबे, कल्प० । गुणयुते साधौ, ध० ३० अधि० मुनी, उत्त०१२ अ०। इसपरिसा-ऋषिपरिषत-स्त्री० पश्यन्तीति ऋषयोऽवभ्यादि गणधरव्यतिरिक्ताः शेषाः जिनशिच्या ऋषयः इति । सम। ज्ञानवन्तः (उपा०२०) तपध परिषत्परिवारः ऋषिपरिषत् २४ स०। पं०चूजे णामिवं " ता सिणास एसो, । स अतिशयज्ञानिसाधूनाम्परिवारे, औः ॥महश्महालियाए परिएष ऋषिर्वर्तते येन ऋषिणाई वान्ता त्यक्तेति। उत्त०१२१०। साए " । पश्यन्तीति ऋषियो शानिनस्तद्रपा पर्वत्परिवारः ऋषेत्रक्षणं यथा ॥ अनिए अवासो समुआणचरिआ, अप्लाय उंचं पय ऋषिपर्षत्तस्यै । भ० ए श० ३३ ० । इसिवान-ऋषिपाल-पुं० स्वनामख्याते ऋषिवादिव्यन्तरनिरिक्कया य । अप्पोवहीकाहविवजणा य, विहार काये इन्भेदे, स्था०२ वा० । स्वनामख्याते वाणव्यन्तरेच। चरिआ सिणं पसत्था ॥ ५॥ सच तोशक्षिनगरवास्तव्येन वणिजा ऋषिपासोनाम वायव्यअनियतवासो मासकम्पादिना अनिकेतवासो वा प्रगृहे तर उज्जयनीकुत्रिकापणात क्रीत्वा तेन बुझिमहात्म्येन सम्यसद्यानादी वासः तथा समुदानचर्या अनेकत्र याचितभिक्का- गाराधित इति । वृ०३१०। चरणम् अज्ञातोच्चं विशुझोपकरणग्रहणविषय ( परि- इसिवालिय-ऋषिपालित-पुं० ऋषिवादिव्यन्तरनिकायेन्द्रदे, कया य) विजनैकान्तसेविता च अल्पोपधित्वमनुल्वणयुक्त इसिवालियमयमदिया शति-इसिवानियस्स पदसुरघरकारस्ताकोपधिसवि त्वे काहविवजनाच तथा तासिना भएम यस्सवीरस्स जेहिंसया पुवंतासब्वे इंदापवरकित्तिया शदे० नवियजना विवर्जनं विवर्जना श्रवणकथादिना परिवर्जनमित्य ७प० । आर्यशान्तिसैनिकस्य माउरसगोत्रस्य शिध्ये, स्वनाथः । विहारचर्या विहरणस्थितिर्विहरणमर्यादा श्यमेवंभूता मख्यातेस्थविरेच । तन्निर्गतायां स्वनामस्यातायां शाखायाम् ऋषीणांसाधनांप्रशस्ताव्याकेपानावात् । प्राङ्गापासनेन नाव स्त्री० टापण "थेरेदितो अज्जुशसिवालिपाई तो इत्थणं अज्जुचरणसाधनात्पवित्रति सूत्रार्थः। दश०२चूमि० । कपिला इसिवालिया साहा णिमाया ति” कल्प। दीनामृषीणामिति। हा०२३ द्वा० । स्वनामख्याते ऋषिवादीनेदे च । स्था०ग०। शसिजद्दपुत्त-ऋषिजपुत्र-पुं०स्वनामख्याते श्रावके, ऋषिनइसिगुत्त-ऋपिगुप्त- पुं० वशिष्ठसगोत्रस्यारर्यसुहास्तिनः शि. रुपुत्रवत्संविनगीतार्थगुरुसमीपश्रवणसमुत्पन्नप्रवचनार्थकोशपये,वशिष्ठसगांत्र स्वनामख्याते स्थविरे, । तस्मान् माणव सेन नावश्रावण माव्यमिति । ध०र०॥ गणो निर्गतः तथाच "धेहि तो णं इसिगुप्तहिती घासिट्ट ऋषिन्नपुत्र कथावंसगोत्तेहिं तो पत्य णं माणयगण णामं गणे णिग्गए इति । ताणं कालेणं तणं समएणं आलंजियाणाम एयरी होत्था स्वनामख्याते माणवगणस्य प्रथम कुछ च ॥ करप० । वाणो संखचाणे चइए वमो तत्थणं आनंजियाए इसिण-इसिन-पु-अनार्यदेशनंद, का००। पायरीए बह ये इसिजद्दपुत्तप्पमोक्खा समणोवासगा परि Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६२ ) अभिधानराजेन्द्रः । भद्दत वसंत के जाव अपरिनृए अभिगयजीवा जीवा जाव विहरति तरणं तेसिं समणोवासयाणं सदा कयाविएगयो समुवागयाणं सहियाणं समुविद्वाणं सरिए साणं यमेयारूवे मिहोकहा समुल्लावे अन्न थिए समुपज्जत्था देवलो णं अज्जो देवाणं केवइयं कालं पिता ? तरणं से इसिनद्दपुत्ते समणोवासए देवडिगहि ते समणोवासए एवं क्यासि देव लोपसु णं जो देवाणं जहणणं दसवाससहस्साई विई पणता तेण परं समाहिया दुसमयाहिया जाव दससमयाहिया सं खेज्जसमयाहिया संखेज्जसमयाहिया नक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमट्टिई पता तेण परं बोच्चिएणा देवा य देवलोगा य तरणं ते समागोवासगा इसिनद्दपुत्तस्स समोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाएस्स ए यम णो सद्दति णो पत्तियंति णो रोयति एयमहं स दहमाणा पत्तियमाणा अरोपमाणा जामेव दिसिं पाउन्नूया तामवदिसं परिगया । तेणं कालेणं तेणं स मरणं समणे जगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसापज्जुवास तरणं ते समणोवासगा इमी से कहाए कट्ठा समाणा हट्ठट्ठा एवं जहा तुंगियोद्देसए जाव मंसंति । तएवं समणे जगवं महावीरे तेसिं समणो गाणं तीसे मह धम्मकहा जाव आणाए आराहुए जवई । तरणं ते समणोवासगा समणस्स जगवओ महावीरस्स प्रति धम्मं सोचा एिसम्म हट्ठतुडा उट्ठाए उट्ठेति उट्ठेश्त्ता समणं जगवं महावीरं वंदांत णमंसंति वदित्ता एमंसित्ता एवं व्यासि एवं खलु जंते ! इसिहपुत्ते समणोवासए अम्हं एवमाक्खर जाव एवं परूवे देवो णं अज्जो ! देवाणं जहोणं दसवाससहस्साई विई पत्ता तेण परं समयाहिया जाते परं वो देवाय देवल्लोगा य । से कहमेयं जंते ! एवं अज्जो ! ति समणं जगवं महावीरे ते समणोवास एवं वयासी जेणं अज्जो ! इसिनदपुचे समणोवासए तु एवमाइक्खई जाव परूबेड़ देवलोगेसुज्जो देवाणं जहोणं दसवाससहस्साई विई पातं चेत्र समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिष्टा देवाय देवल्लोगा य सचेणं एसमडे अहं पुण अज्जो ! एवमाक्खामि जान परूवेमि देवलोगेणं अज्जो ! देवाणं जहणं दमवाससहस्साई तं चैव जाव तेणपरं वोच्छा देवाय देवओोग्गा य सच्चेणं एसमट्ठे । नणं ते समणोवासगा समणस्स जगवओ महावीरस्स प्रतियाओ एयम सोच्चा णिसम्म समणं जगवं महाबीरं वंदंति समंसंति वदेत्ता नमसित्ता जेणेव इसि - For Private इस पुत दत्ते समणोवास तेणेव उवागच्छंति नवागच्छत्ता इसिनदपुत्तं समणोवासगं बंदंति णमंसंति एयमहं सम्मं विणएणं भुज्जो नुज्जो खायेंति । तएणं ते समणोवासमा पसिनाई पुच्छंति ३ त्ता अट्ठाई परियादियंतितासमणं जगवं महावीरं बंदंति णमंसंति बंद - ताणमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्नूया तामेव दिसिं पामगया जंतेति ? जगवं गोयमे समणं जगवं महावीरं बंद‍ मंस 2 एवं वयासी पनूणं जंते ! इसिनद्दपुत्ते समणोवास देवाप्पियाणं अंतिए मुंने वित्ता गारा गारियं पव्वइत्तए ? गोयमा ! णो णडे समs गोयमा ! इसि जद्दपुत्तेणं समणोवासए बहुहिं सीलव्य गुणन्त्रय वेरमण पञ्चकखाए पोसहोक्वासेहिं महापरिगएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं जावेमाणे बहूहिं वासाई समणोवासगपरियागं पाउ णिहिति २ ता मासियाए संबेहणाए अत्ताणं ज्यूसेहिति २ ता सहित्ता असणार बेदेश छेदेत्ता आलोय परिकते समाहिपत्ते कासमासे कालं कि : सोहम्मे कप्पे अरुणाने विमाणे देवत्ताए नववनििति । तत्थां प्रत्ये गइयाणं देवाणं चत्तारि पविमाई विई पत्तातत्यं इसिजपुत्तस्स देवस्स चत्तारि पलिप्रोमाई विई नविस्सई | सणं जंते ! इसिनद्दपुत्ते देवत्ताओ देवलगाओ उक्खणं जाव कहिँ उवज्जिदिइ ? गोयमा महाविदेहे वासं सिज्जिहि‍ जाव तं काहिति सेवंते जंतोत्ते । जगवं गोयमे जाव अप्पाएं जावेमाणे विहरs तरणं समणे जगवं महावीरे अम या कयावि जिया गयओ संखवणाओ चेइयाओ पा णिक्खम परिणिक्खमइत्ता बाहिरिया जणवयविहारं विहर । तेणं काणं तेणं समएणं आलंनिया एामं णयरी होत्या । वाओ संखवणे चेश्ए वा तत्यणं संखवणस्स चेइयस्स दूरसामंते पोग्गले णामं परिव्वाए परिवस । रिउव्वेय जउव्वेय जाव नए सुपरिनिट्ठि ब ब आणि क्खिणं तवोकम्में उ वाहाओ जाव आयावेमाणे विहरइ । तएणं तस्स पोग्गलस्स ब ब जाव आयावेमाणस्स पगइनद्दयाए जहा सिवस्स जाव विनंगे णामं प्राणे समुप्पो सेणं तेणं विनंगे णामं अष्पाणां समुप्ययेणं बंजलोए कप्पे देवा लिई आइ पास । तरणं तस्स पोग्गलस्स परिव्वा यस अयमेयारूवे न्नत्थिए जाव समुप्पज्जित्था । प्रत्थि मम अतिसेसे पाणदंसणे समुप्पसे देवलो - एस ए देवाणं जहणं दसवाससहस्साई विई पष्ठत्ता तेण परं समयाहिआ घुसमयाहिया जाव असंखज्ज Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिभासिय अभिधानराजन्मः। सिवाश्य समयाहिया नकोसेणं दससागरविमाइं लिई पसत्ता स्वयाणि गहियाणि सो जक्खो सुविणए महिसे मग्गइ तेण वितेण परं वोच्चिष्णा देवा य देवमोगा य एवं संपेहेइ संपे सेहिणापिटुमया दिन्नति।सामिणो निसीसाधम्मघोसोधम्म जसो य एगस्स असोगवरपायवस्सहेका परियटुंति। ते पुव्वहेइत्ता आयावणनूमीओ पञ्चोरुना पचोरुनश्त्ता तिदं मेडिया अबरबहाव गयान परियत्तश्तओ पक्को जण तुन्ने मकुंमिश्रा जाव धाउरत्तवत्थाओयगेएहांतश्त्ता जेणे व एसा सहावीरोभणश्तुन्नंति। तजएको काश्यनूमि गउ जाव आलंजिया एयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव गया तहेव अत्थश् त विश्व विगतत्यवितहेष अत्थश्तेहिं उवागए नंगणिक्खेवं करे करेइत्ता आलंजियाए ण- नायं जहान पक्कस्स विलकी तल समीपुच्चिओनयवया मणियरीए सिंगामग जाव पहेसु अप्पमयस्स एवमाइ यं जहाश्हेव सोरियपुरेसमुदविज राया आसिजनदत्तो ताव सो।सामजसा तावसीताण पुत्तोनार ताणिचं गवित्तीणि एक क्खइ जाव परूवेइ अत्यिणं देवाणप्पिया ! मम अति दिवसं जिमंति एकदिवसं उववासं करोति। अन्नया ताणि तं नार सेसे णाणदसणे समुप्पम्मे देवलोएस एं देवाणं यं पुव्वापदे असोगपायवस्स हेद्राग्वेऊणं गच्छति श्ल यध्वे यजहमेणं दसवाससहस्से तहेव जाव वोच्छिष्णा देवा वाल बेसमणकाश्या तिरियं जं भगादेवा तेणं तेणं वीश्वयंता य देवमोगा य तएणं प्रासंनियाए एयरीए एवं एएणं पेच्चंतितं दारयंलहिणा मानोरतिसो ताज चेव देवनिकायाउ तजते तस्साणुकंपाए तंगयंथनंतित्ति । एवं सो उस्सुक्कबाल अनिलावणं जहा सिवस्स तं चेव जाव से कहमेय नावो अनया तेहिं जं जगदेवेहिं पन्नत्ति पाझ्याउ विजाउ पामम्मेण एवं ? सामी समोसले जाव परिसापमिगया जगवं ढि त कंचणकुमियाए मणियारो याहिं श्रागास हिंग गोयमे तहेव निक्खापरियाए तहेव बहुजणसई निसा- अन्नया वारवरंगओ वासुदेवेण पुच्चिओ किं सोयंति सोनममे तहेव सव्वं नाणियव्वं जाव अहं पुण गोयमा ! रति कहे तो अनकहा एवं खेवं काऊण अहिट्टिो गओ एवमाइक्खामि एवं जासामि जाव परूवेमि देवोएसु पुव्वविदेहं तत्थ य सीमंधरं तित्थयर जुगबाहुवासुदेवो पुच्च। किं सोयति तित्थगरेण नणियं सव्वं सोयति जुगएं देवाणं जहम्मेणं दसवाससहस्साई लिई पम्मत्ता बाहुणा पक्कवयषणं विसव्वं उवयकं नारो वितं निसुणित्ता तेण परं समयाहिया उसमयाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं सप्पश्कणं अवरविदेहं गतो तत्थ वि जगंधरं तित्थयरं महासागरोवमाई लिई पप्मत्ता तेण परं वोच्छिम्मा देवा य बाहु वासुदेवा तं चवपुच्छानगवया वितं चेव वारियं महादेवलोगा य । अत्यि णं नंते ! सोहम्मे कप्पे दवाई बाहुस्स वि तं सव्वमुवगय नारओ वि तं सुणित्ता बारवर गयो वासुदेवं भणः किं ते तदा पुच्चिय वासुदेवो भणइ किं सव्वम्माइंपि अवमाइपि तहेव जाव हंता अस्थि । सोयांत नारो जण सव्वं सोयंति । वासुदेवो भणशकि एवं ईसाणे वि एवं जाव अश्चए वि एवं गेविजविमा- सव्वंति तो नारो खुभित्रोन किंचि उत्तर देशाती काह णेसु अणुत्तरविमाणेसु वि ईसिप्पनाराए वि जाव हंता वासुदेवेण भणियं । जत्थ ते तं पच्चियं तत्थ पयपिपुज्यिव्वं अत्थि । तएणं सा महई महालिया जाव पमिगया । | जुत्तं तिखिसिप्रोताहे नारोनण सव्वं भट्टारओन पुनिवत्ति चितेनमारको जा ईसरिया संबुको पढममज्झयणं सोय तएणं आलंजियाए णयरीए सिंगागतिगअवसेस व्वमेव श्चाश्यं वदात एवं सोणिवि दवाणित्ति ॥ पा० । जहा सिवस्स जान सव्वमुक्खप्पहीणे णवरं तिदमकुंमि- उत्तराभ्यनादिके (देवेन्षस्तवादिके) श्रुतविशेषे, प्रा० म०प्र०। यंजाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवमियविनंगे आलं- ___ 'इसिनासिए य जहा' ऋषिभाषितेषूतराध्ययनादिषु । सूत्र० । नियं जयरं मऊ मज्केणं णिगच्चाइजाव उत्तरपजिम इसिजासियज्यण-ऋषिजाषिताध्ययन-न० प्रश्नव्याकरणदिसीनागं अवकम, अवकमत्ता तिदमकुंमियं च | दशायास्तृतायभ्य दशायास्तृतीयेऽध्ययने, । स्था० १० ग॥ जहो खंदो जाव पवइओ सेसं जहा सिवस्स जाव | शसिया-इपिका-स्त्री मुजागर्ननूतायां शलाकायाम, से जहाअव्वाबाई सोक्खमणुनवांत सासयं सिखा सेवं नंते | णामए के पुरिसे मुंजाओ इसियं अभिणिवाट्टित्ता णं सव दसज्जा इसियंति' तमनभूतां शलाका प्रथकृत्य दर्शयेदिति । नंतेत्ति । न० ११ श० १२ न। सूत्र०२१०२०। शसिनासिय-ऋषिजाषित-न० ऋषयः प्रत्येकबुरूसाधवस्ते-इसिस-ऋषिवंश-पु० । गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिप्या चात्र नेमिनाथतीर्थवर्तिनो नारदादयो विंशतिः । पार्श्वनाथ- | ऋषयस्तेषां वंशे, तवंशप्रतिपादके समवायाङ्गादिश्रुते च। तीर्थवर्तिनः पञ्चदश वर्षमानस्वामितीर्थवर्तिनो दश प्राह्या- 'सिक्से श्य' गणधरवंश इति च गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा स्तैर्भाषितानि पञ्चचत्वारिंशात्संख्यान्यध्ययनानि श्रवणाच- जिनशिष्या ऋषयस्तवंशप्रतिपादकत्वारषिवंश इति च । भिकारपति ऋषिभाषितानि अङ्गबाह्येषु सत्कालिकातवि- तत्प्रतिपादनं चात्र पर्दूषणाकस्पस्य समस्तस्य ऋषिवंशप र्यवसानस्य समवसरणप्रतिक्रमेण नथितत्वातासमश्स प्रत्रपुरूसंप्रदाया“सौरियपुरेनयरे सुरंपरोनाम जक्सो धर्ण- | सिवाइ (न्) ऋषिवादिन-पुं० पिशाचादिव्यन्तरमिकायाजो सट्ठी सुनदा प्रजा तेहिं अन्नया सुरंधरो विनातो जहा ॥ अश्मम्हाणं पुत्तो होहिश्तोतुम्मे महिससयंदोमात्तिापवं ताण . । मामुपरिवर्तिनि म्यम्तरनिकायविशेषे, भी। संजाओपुत्तो पत्यंतरेनगर्ष बरूमाणसामी ताणि संबुकिहि- इसिवाइय-ऋषिवादिक-पुं पिशाचादिव्यन्तरनिकायानामुपतित्ति सोरियपुरमागप्रोतमोसेट्टीसज्जानिम्गभो संयुको भणु- रिवर्तिनि व्यस्तरजातिविशेष, प्रम०४ा । प्रव०। शेषषु, Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६४ ) अभिधानराजेन्द्रः | इसिसत्त ऋषिवादित - पुं० पिशाचादिव्यन्तरनिकायानामुपरि वर्तिनि व्यन्तरनिकायभेदे, प्रव० १२ द्वा० । इसिसत्त - ऋषिसप्त- पुं० ऋषिणा सप्त ऋषिसप्तः मदीयतपःप्र नपुंसकमेदे, ararajesो न त्वमिति पापा ग० १ अधि० (अस्य प्रत्याया युक्तायुक्तत्वविचारो सग शब्दे ) इसिसेड - विधेपुं० मुनि जोहेसु गाए जह बीससेणे, पुष्फे वा जह अरविंदमाहु। खीणसे जह दंतवक्के, इसीए सेट्टे तह बद्धमाणे ॥ योधेषु मध्ये ज्ञातो विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा हस्त्यश्वरथपदातिचतत्त्वतसमेता सेना यस्य स विश्वसेनवर्ती यथाऽसौ प्रधानपुष्पेषु च मध्ये यथाऽरविंद प्रधानमाडुः तथा कतात्त्रायम्त शत कृत्रियास्तैषां मध्ये दान्ता उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्यश्चक्रवर्ती । यथा ऽसौ श्रेष्ठः तदेवं बहून् दृष्टान्तान् प्रशस्तान् प्रदर्श्याऽधुना जगवन्तं दान्तिकं स्वनामग्रादमाह । तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान् वर्द्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति ॥ २२ ॥ सूत्र० । १ ० ६ अ० । -- ० शरे, सूचकत्वात् उपमया निज्ञा प्रदणविन्य के द्रुमपुष्पिकाध्ययने, “जह रहितो अवउत्तो श्सुणा - क्खं न विश् तव । साधू गोयरपतो संजमलक्खपिणायव्वो " दश० १ ० । । इस्स (ईस) - ईश्वर-श-परम्-ईश्वार्येण युक्त ईश्वरः । नि० ० ९ श्र० । ईश्वरश्च अणिमाद्यष्टविधैश्वयुके क्रेशकर्मविपाकाशयेरपराठे सर्वजगत्कारके विशेषे अणिमाद्यष्टविपेश्वर्ययुक्त ईश्वर इत्येके जीवा० ३ प्रति० । स्था० आचा० । अनु० ।" तथा च पतञ्जलिः । क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर इति । सम्म० । ६० ईश्वरवादिना सर्व जगदीश्वरकृतं मन्यन्तेश्वरं स सद सिर्फ ज्ञानवैराग्यधम्मैश्वरूपं मनुष्यं प्राणिनां च स्वर्गा पवर्गयोः प्रेरकमिति तदुक्तं " ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं व जगत्पतेः। श्वचैव धर्म स दि सिर्फ चतुष्य" ।। sो जन्तुरनी शोयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग या इवमेव वा ॥ २ ॥ तदसमीचीनम् । ईश्वरप्राहकप्रमाणानावात् । अथास्ति तदूग्राहकप्रमाण मनुमानम् । तथादि यत् स्थित्वाऽभिमतफनसंपादनाय प्रपत मत्कारणाधिष्ठितं यथा वास्या वैधीकरणादौ प्रवर्तते च स्थित्या सकलमपि विश्वं स्वफलसाधनायेति न खलु वास्यादयः स्वत एव प्रवर्तन्ते तेषामचेतनत्वान् स्वनावत एव चेत् प्रवर्तन्ते तर्हि सदैव तेषां प्रवर्तनं भवेत् न च भवति तस्य स्थित्वा स्थित्वा प्रवर्तनं केनचित्प्रेक्कावता प्रवर्तकेन भवितव्य सकस्यापि च जगतः स्थित्वा स्थित्वा स्वफलं साधयतः प्रवर्तक ईश्वर एवोपपद्यते नान्यः इतश्विर सिद्धिः । तथा अपरमनुमानं यत्यारिमाएर ल्या दिनक्रमसनिवेशविशेषताक तच्चेतनावता कृतं यथा घटादिपारिमाएकल्यादिसन्निवेशसिपमा भूधरादिकमपि सिसाधनेन पक्वस्य प्रसिद्धसंबन्धत्वात् तथाहि सकलमपीदं विश्ववैवयं कर्मनिबन्धनमिच्छामोयतो मी वैतादिमयदादयः पर्वता भरतरात्रत विदेहान्तरङ्गी पादीनि च क्षेत्राणि इस्सर तथा तथा प्राणिनां सुखदुःखादिहेतुतया यत्परिणमन्ते तत्र तथा तथा परिणामने तत्तनिवासिनामेव तेषां जन्तूनां कर्मकारणमवसेयं नान्यत्तथाच दृश्यते एव पुण्यवति राज्यमनु शासति हूपतौ तत्कर्मप्रभावतः सुभिक्कादयः प्रवर्तमाना कर्म [च] जीवति जीवधनायवा रणाधिष्ठितत्वे चेतनावत्कृतत्वे च साभ्यमाने सिद्धसाधनम् । अथ बुद्धिमान वेतनावान् वा विशिष्ट पवेश्वरः साध्यते तेन न सिकसाधनं तर्हि दृष्टान्तस्य साध्यविकलता वास्यादौ घटादी बेश्वरस्थाधिनायकत्वेन कारणत्वेन वा व्यायमा स्यानुपवज्यमानत्वात् वर्फकिकुम्नकारादीनामेवं तत्र तत्रान्वयव्यतिरेकता व्याप्रियमाणानां निश्चीयमानत्वात् । अथ वार्ड क्यादयोपीश्वरप्रेरिता एव तत्र तत्र कर्मणि प्रवर्तन्ते न स्वतस्ततो न दृष्टान्तस्य साध्यविकलता । नन्वेवं तर्हि ईश्वरोप्यन्येनेश्वरेश प्रेरितः स्वकर्मणि प्रवर्तते न स्वतो विशेषाभावात् सोऽप्यन्येनेश्वरेण प्रेरित इति विकास संध्यायां तमःसंततिरिवारपर्यन्ताभ्याम्भ्यमापादयन्ती प्रसरत्यनवरचा । अथमन्येथा वर्डक्यादिको जन्तुः सर्वोपि स्वरूपेणास्ततः सप्रेरित एव स्वकर्मणि प्रवर्तते भगवांस्त्वीश्वरः सकलपदार्थहाता ततो नासी स्वकर्म एयन्यं स्वप्रेरकम, सदस्यसम्] इतरेतरापदोषप्रसङ्गात् तथाहि पदार्थ यथावस्थितस्वरूपज्ञातृत्वे सिद्धे सत्यन्या प्रेरितत्व सिकिः श्रन्याप्रेरितत्वसिकौ च सकलजगत्कारणतः सर्वज्ञत्वसिद्धि रित्येका सिकायन्यतरस्याप्यसिद्धिः असि वीतरागश्च तत्किमर्थमन्यं जनमसद्वापहारे प्रवर्तयति मध्यस्था हि विवेकिनः सद्व्यवहार एव प्रवर्तयन्ति नासयबहारे, स तु विपर्ययमपि करोति ततः कथमसी सर्वो वीतरागो वा अयोध्यते सवहारविषयमेव भगवानुपदे ददाति तेन सर्वको वीतरागध पथाधर्मकारिजनसमुदः तं फलमनाचयति येन समाधयते तत उचि तफलदायित्वाद्वियेकयानेच भगवानिति न कचिद्दषः तदध्य समीहिताभिधानं यतः पापपि प्रथमं स एव वर्तयति नान्यो न स्वयं प्रवर्त्तते तस्यात्वेन पाये धर्मे वा स्वयं प्रवृत्तेरयोगा ततः पूर्व पापे प्रवर्तयते तत्फलमनुज्ञाव्य पञ्चाकम्मै प्रवर्तयतीति केवमीश्वरस्य प्रेापूर्वकारिता । अथ पाये ऽपि प्रथमं प्रवर्तयति तत्कर्माधिष्ठित एव तथाहि तदेवं तेन जन्तुना कृतं कर्म यद्वशात्पाप एव प्रवर्त्यत ईश्वरोपि च भगवान् सर्वज्ञः तथा रूपं तत्कर्म साक्षात् ज्ञात्वा तं पाप एव प्रवर्त यति तत उचितफलदायित्वाचा कापूर्व कार ति । ननु तदपि कर्म तेनैव कारितं ततस्तदपि कस्मात्प्रथमं कारयतीति स पापकारिता अथाधर्ममसी न कारयति किंतु स्वत एव सोऽधर्ममाचरति अधर्मकारिण तु तत्फलमसदनापयति तदन्येश्वरपत्पादित वरराजादयो नाम धर्मे जर्म प्रवर्तयन्ति धर्म मेहादिकमनुज्ञाययन्ति तद्भगवानवरोपितमन्ये ही श्वराः पापप्रतिषेधं कारयितुमीशाः नदि नाम राजाकेपि प्रशासनाः पापे मनोवाक्कायनिमित्ते सर्वथा प्रतिषेधचितुं प्रविष्यवः स तु भगवान् धर्माधर्मविधिप्रतिषेधविधापनसमर्थ इष्यते तत्कथं पापे प्रवृत्तं न प्रतिषेधयति भप्रतिषेधश्च परमार्थतः स एव कारयति तत्फलस्य पश्चादनुनावनादिति तदवस्थ एव दोषः । अथ पापे प्रवर्तमानं प्रातबेधितुमशक्त इयते तर्हि नैषो के रिदमभिधातव्यं सर्व Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । इस्सर मीश्वरेण कृतमिति । अपिच यद्यसौ स्वयमधर्मे करोति तथा धर्ममपि करिष्यति फलं च स्वयमेव नोक्ष्यन्ते ततः किमीश्वर कल्पनया विधेयमिति । उकंच " अशक्तत्वाऽन्येश्वराः पाप-प्रतिषेधं कुर्वते स त्वत्यन्तमज्यो व्यावृत्तमतिरिष्यते १ भयाप्यशक्त एवासौ तथा सति परिस्फुटम् । नेश्वरेण कृतं सर्वमिति वक्तव्यमुषः ॥ २ ॥ पापयत्स्वार्थकारित्वात् धमपि किं ततशत अथवा स्वयमस धर्माधर्मौ करोति तत्फलं त्वीश्वर एव नोजयति तस्य धर्माधर्मप्रभोगे स्वयमगरवादिति तदप्यसत् यतो यो नाम स्वयं धर्माधम विधातुम स कथं तत्फलं स्वयमेव न नो मीशो नदि पमोदनं समय नदि प्रोमिति को प्रतीतम । अथवा यत्तदपि तथापि धर्मकमुन्मत्तमाङ्गनासंस्पर्शी दिरूपमनुनापयतु तस्येत्याधर्मफलं तु नरकप्रयातादिरूपं कस्मादनुनावयति नहि मध्यस्थभावमवलम्बमानाः परमकरणापतचेतसः प्रेावन्तो निरर्थके परपीमाती कम णि प्रवर्तते श्री जगतः तथा प्रवृत्तिरिति चेत् य सर्दियी काया तस्य दिने कामामेव प ते पुनः प्राणिनः स्थाने स्थाने प्रापवियुज्यन्ते च "श्री कार्यातस्यापूर्यक्रिया कुला । एकस्य चिका तृप्तिः अन्यः प्राणैर्वियुज्यते ॥ १ ॥ अपिच क्रीमा लोके सरागस्योपलभ्यते नगवांश्च वीतरागस्ततः कथं तस्य क्रीमा सङ्गतिमङ्गति । अथ सोपि सराग इष्यते तर्हि शेषजन्तुरिवावीतरागत्वान्न सर्वज्ञो नापि सर्वस्य कर्तेत्यापतितम् । भय रागादि पिस सर्वा सर्वस्य कर्ता च भवति तथा स्वभावत्वात् ततो न कश्चिदोषो नहि स्वनावे पर्यनुयोगो घटनामुपपद्यते । उक्तंच । “ इदमेवं नवेत्येतत् कस्य पर्यनुयोज्यताम् । श्रग्निर्दहति नाकाशं, कोऽत्र पर्यनुयोज्यताम् " ॥ तदेतत्सम्यक् यतः प्रत्यतः तथारूपे स्वनावे च गते यदि पर्यनुयोगो विधीयते तत्रेदमुत्तरं विजृम्भते । यथा स्वभावे पर्यनुयोगो भवतीति यथा प्रत्यक्षेणोपलभ्यमाने दहती दारूपे स्वजाये, तथादि यदि तम कोषि प नुयोगमाधते यथा कथमेष वहिर्दीह कस्वप्नावो जातो यदि वस्तुत्वेन तर्हि व्योमादिकं न दाइकस्वनावे जयति तुषा दादिति तदत्तरं विधीयते दादकत्वरूपो हि स्वनावो वह्नः प्रत्यकृत एवोपलभ्यते ततः कथमेष पर्यनुयोगमर्हति नदि रनुपपन्नता नाम तथाचोक्तम् । रचनाच अभ्यकृतः सिद्धे यदि पर्यनुयुज्यते। मुतरं वाच्यं न धेनुपा १ रस्तु सर्वजगत्स्येन सर्वत्वेन च नोपयस्ततस्तत्र तथास्वभावत्वकल्पनादश्यं पर्यनुयोगमाश्रयते । यदि पुनरपि तथा स्वनावत्वकल्पनापर्यनुयोगानाश्रयोज्युपगम्यते तर्हि सर्वोपि वादी तं तं पकमाश्रयन् परेण विक्कोजितस्तत्र तत्र तथा २ स्वभावताकल्पनेन परं निरुत्तरीकृत्य लब्धजयपताक एव प्रवेत् ॥ उक्तंच ॥ अन्यथा “यत्किंचिदात्माभिमतं विधाय, तिरस्कृतः परेव ॥ यस्तुस्वनावरिति वायमित्यं तदु तरः स्याद्विजय। समस्तः ॥ किंच ॥ सर्वे यदि जगदीश्वरकृतं मन्यते तर्हि सर्वाण्यपि शास्त्राणि सकलदर्शनगतानि तेन प्रव तितानीति प्राप्तं तानि च शास्त्राणि परस्परं विरुकार्थानि ततो वश्यं कानिचित्सत्यानि कानिचिदसत्यानि ततः सत्यासत्योपदेशदानात्कथमसौ प्रमाणम् । उक्तंच | " शास्त्रान्तराणि सर्वाणि यदीश्वरविकल्पतः ॥ सत्यासत्योपदेशस्य प्रमाण 66 इस्सर दानतः कथम् ||१|| अथ सकलानि शास्त्राणि ईश्वरकारितानि किंतु सत्यान्ये सतोम कश्चिदोषावकाशस्तर्हि शान्तयदेव नरेश्वरेणान्यपि व्यपायीति रता तब पसिकिरिति । अन्यच पारम्भूतं संख्यामादि किमत्कारणपूर्वक मो मेवान्यत्रापिनुमापयति यथा जीर्णदेवकुल कूपादिगतं न शेषं नहि सन्ध्याघ्ररागवल्मीका दिगतं संस्थानाद्यात्मनो बुमन्तं कर्तारमनुमापयति तथा प्रतीतेरभावात् ततस्य संस्थानामत्कारणत्येन निकाया भावात् तथा धरादिगतमपि संस्थानादिकं न बुकमार पूर्वकत्वेन निश्चितमिति कथं तद्वशाद्भुकिमतः कर्तुरनुमानम् । अपमन्येास्तदपि संस्थानादिमेव संस्थानादिशब्द यावत् नचैतत्कर्तुमितोमाने काम्यपि बाधा मुलनाम ततः सर्वे सुस्थितमिति तदयुक्तं शब्दादिरूढवशाज्जात्यन्तरेपि प्रवर्तन्ते ततः शब्दसाम्यात् । यदि तथारूपवस्त्वनुमानं तर्हि गोत्वाच्यागादीनामपि विषाणितामनुमीयतां विशेषाभावात् । अथ तत्र प्रत्यक्षेण बाधोपलभ्यते ईश्वरानुमानेन ततो न कचिदोष इति तदेतसीय प्रमाणमार्गानभिइतासूचकं यतो यत एवं तत्र प्रत्यक्षेण बाधोपलम्भोत एव नान्यत्रापि शब्दसाम्यात्तथारूपवस्त्वनुमानं कर्तव्यं प्रत्यकृत एव शब्दसाम्यस्य वस्तुतथारूप्येण सहाविनानावित्वस्याभावावगमात् । न च बाधकमत्र नोपलभ्यते इत्येवामानेच किंतु वस्तुसंबन्धवान् तथाचोकम" ननु बाध्यत इत्येवमनुमानं प्रवर्तते ॥ संबन्धदर्शनात् तस्य प्रवर्तन मिहेष्यते " - इति स च संबन्धोऽत्र न विद्यते तद्ग्राहक प्रमाणानावात् ततोऽनैकान्तिकता देतोरित्थं चैतदङ्गी कर्तव्यमन्यथा यो यो मुद्विकारः स स कुम्नकृतो यथा घटादिर्मृधिकारश्चायं वल्मीकस्तस्मात्कुम्न कारकृत इत्यप्यनुमानं समीचीनतामाचनीस्कद्येत बाधकमात्रादर्शनात् । तथाहि यदि तत्र कुम्भकारा कर्ता नये कदापि न योषज्यते तस्मा देव समिति समेत रानुमानपि समानम् ॥ यदि दि सर्वस्यापि वस्तुजातस्यभ्यः कर्ता कदापि येन तस्मादयी कमिति मं० ॥ अथ तदभिमतमीश्वरस्य जगत्कर्तृत्वाऽयुपगममिथ्याभिनिवेशरूपं निरूपा । कर्तास्ति भिज्नगतः सचैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमाः कुदेवा कविदम्बनाःस्युस्तेषां न येषामनुशा सकस्त्वम् ।। ६ ।। जगतः प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलक्ष्यमाणचराचररूपस्य विश्वत्रयस्य कश्चिदनिर्वचनीयस्वरूपः पुरुषविशेष : फर्ता विद्यते । तेही प्रमाणयन्ति पर्वत दि सर्व कार्यत्वाद्यद्यत्कार्य तत्तत्सर्वं बुमित्कर्तृकं यथा घटस्तथाचेदं तस्मात्तथा । व्यतिरेके व्योमादि । यश्च मांस्तत्कर्ता स जगवानीश्वर एवेति । नचायमसिको हेतुर्यतो भूनूधरादेः स्वस्वकारणकलापजन्यतया श्रवयवितया वा कार्यत्वं सर्ववादिनां प्रतीतमेव । नाप्यनैकान्तिको वि रुको वा विपकादत्यन्तव्यावृत्तत्वात् । नापि कालात्ययापदिए प्रत्यक्षानुमानागमाबाधितधर्मधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वात् नापि प्रकरणसमः सत्यतिपन्धिधर्मोपपादन प्रत्यनुमाना भावात् । न च वाच्यमीश्वरः पृथ्वी पृथ्वी धरादेषिकता न भवति अशरीरित्या तन्मयदिति प्रत्यनुमानात । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६६) इरसर अनिधानराजेन्द्रः। इस्सर यतोऽश्वररूपो धर्मी प्रतीतोऽप्रतीतो वा प्ररूपितः । न ताव- विह तामसेषु सूर्यांशवो मधुकरीचरणायदाताः ॥ १॥ दप्रतीतो हेतोराश्रयासिफिप्रसङ्गात् । प्रतीतश्चेद्यन प्रमाणेन स अथ कयमिव तत्कुहवाकानां विझम्बनारूपत्वमिति नमः प्रतीतस्तेनेष किं स्वयमुत्पादित स्वतनुर्न प्रतीयते इत्यतः यत्तावदुक्तंपरैः “वित्यादयो बुकिमकर्तृकाः कार्यत्वात् घटथकथमशरीरत्वं तस्मानिरवद्य एवार्य हेतुरिति सचैक इतिचः दिति तदयुक्तं व्याप्तेरग्रहणात् । साधानं हि सर्वत्र व्याप्ती पुनरर्थे म पुनः पुरुषविशेष एकोऽहितीयः बहूनां हि विश्व- प्रमाणेन सिकायां साध्यं गमयेदिति सर्वबादिसंवादः । स विधातृत्वस्वीकारे परस्परविमतसंभावनाया अनिवार्यत्वा- चायं जगन्ति सृजन सशरीरोग्शरीरो वा स्यात् सशरीरोपि देकैकस्य वस्तुनाऽन्यान्यरूपतया निर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्ये किमस्मदादिवश्यशरीरविशिष्ट उत पिशाचादिवददृश्यतेति । तथा ( स सर्वग इति) सर्वत्र गच्छतीति सर्वगः सर्व- शरीरविशिष्टः । प्रथमपक्के प्रत्यक्षबाधस्तमन्तरेणापि च व्यापी तस्य हि प्रतिनियतदेशवर्तित्वेऽनियतदेशवृत्तीनां वि- जायमाने तणतरुपुरन्दरपुरधादी कार्यत्वस्य दर्शनात् । श्यत्रयान्तर्वर्तिपदार्थसार्यानां यथावनिर्माणानुपपत्तिः कुम्न- प्रमेयत्वादिवत्साधारणनिकान्तिको हेतुः । द्वितीर्याचकल्पे कारादिषु तथा दर्शनात् । अथवा सर्व गच्छति जानातीति पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणमाहोसर्वगः सर्वका सर्वे गत्यर्या ज्ञानार्या इति वचनात् सर्वशत्या- स्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम् । प्रथमप्रकारः कोशपानप्रत्यानावे हि यथोचितोपादानकारणाचनभिज्ञत्वादनुरूपकार्योत्प यनीयः तत्सिकौ प्रमाणाभावात् । इतरेतराश्रयदोषात्तिर्न स्यात् । तथा स स्ववशः स्वतन्त्रः सकलप्राणिनां पत्तेश्च । सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येस्वेच्या सुखदुःखयोरनुन्नावनसमर्थत्वात्तथा चोक्तम् “ईश्वर तव्यं तत्सिकी च माहात्म्यविशेषसिकिराित । द्वतीयीप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वनमेववा,अझो जन्तुरनीशायमात्मनः कस्तु प्रकारोन संघरत्येष विचारगोचरे संशयाऽनिवृत्तेः । सुखदुः खयोरिति” पारतन्त्र्ये तु तस्य परमुखप्रेक्तिया मुख्य किं तस्यासत्वाददृश्यशरीरत्वं बानध्येयादियत् किंवाऽस्मकर्तृत्वन्याघातादनीश्वरत्वापत्तिः। तथा (स नित्य इति) दाद्यदृष्ट्वैगुण्यात्पिशाचा दिवादिति निश्चयानावात् । अशरीअप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकरूपस्तस्य ह्यनित्यत्वे परोत्पाद्यतया कृ रश्चेत्तदा रयान्तदान्तिकोषम्याहिरुको हेतुः ।घटादयो तकत्वप्राप्तिः । अपेक्तिपरच्यापारो हि भावः स्वनावनिष्पत्ती हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टा अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्ती कुतः सामर्थ्यमाकाशादिवत् । तस्मात्सशरीराकृतक इत्युच्यते यश्चापरस्तरकर्ता कल्प्यते स नित्योऽनित्यो पा स्थानित्यश्चदधिकृतेश्वरेण किमपराकम् । अनित्यश्चेत्तस्या शरीरलकणे पकद्वयेपि कार्यत्वहे तोाप्त्यसिकिः । किंच त्व न्मतेन कामात्ययापदिनोग्ययं हेतुः धर्येकदेशस्य तरुविद्युदप्युत्पादकान्तरेण जाव्यं तस्यापि नित्यानित्यत्वधिकल्पकरूप जादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधातुरनुपच्यमानत्वेन प्रत्यनायामनवस्थादौस्थ्यमिति तदेवमकत्वादिविशेषणविशिष्ट कबाधितधर्म्यनन्तरतुभएनात्तदेवं न कश्चिजगतःकर्ता। एकभगवानीश्वरस्त्रिजगत्कर्तेति पराभ्युपगममुपदश्योत्तरान त्वादीनि तु जगत्कर्तृत्वव्यवस्थापनायानीयमानानि तद्विशेषतस्य दुष्टत्वमाचष्टे ।श्मा पता अनन्तरोक्ताः कुहे वाकविसम्बनाः णानि षण्ढं प्रति कामिन्या रूपसंपत्रिरूपणप्रायाण्येव तथापि कुत्सिताः हेवाका आग्रह विशेषाः कुहेचाकाः कदाग्रहाश्त्यर्थः तेषां विचारासहत्वख्यापनार्य किंचिदच्य तेत्रकत्वचर्चस्तायत त एव विसम्बना विचारचातुरीबाह्यत्वेन तिरस्काररूपत्वाकि बहूनामेककार्यकरण कैमत्यसंभावनोत नायमेकान्तः । अनेकगोपकप्रकारा स्युनवेयुस्तषां प्रामाणिकापसदानां येषां हे- कौटिकाशतनिष्पाद्यत्वेपि शक्रमोंऽनेकशिल्पिकल्पितत्वेपि स्वामिन् ! त्वं नानुशासको न शिक्कादाता तदभिनिवेशानां प्रासादादीनां नेकसरघानिवर्तितत्वपि मधुच्चत्रादीनां चकरू विसम्बनारूपत्वज्ञापनार्थमेव पराभिप्रेतपुरुषविशेषणेषु प्रत्येक पताया अविगानेनोपनम्भात्। अथैतेप्वप्येक एवेश्वरः कत्तति तत्तचन्दप्रयोगमसूयागर्भमावि वयांचकार स्ततिकारः। यूषे पर्व चेद्भवतो जवानीपति प्रति निष्पतिमा वासना तर्हि तथाचैवमेव निन्दनीयं प्रति वक्तारो वदन्ति “स मूर्खः स कुविन्दकुम्भकारादितिरस्कारण पटघटादीनामपि कर्ता स पापीयान् स दरिजः इत्यादि" त्वमित्येकवचनसंयुक्त युष्म एव किं न कल्यते । अथ तेषां प्रत्यकसिर्फ कर्तृत्वं कथमपचन्दप्रयोगेण परेशितुः परमकारुणिकतयाऽनपेक्वितस्वपर होतुं शक्यताह कीटिकादिभिः किं तव विराद्धं यत्तषामसदृशपविभागमितरशास्त्रिणामसाधारणमहितीयं हितोपदेश तादृशप्रयाससाध्यं कर्तृत्वमेकहेबयैवापक्षप्यते तस्माईमत्यभकत्वं ध्वन्यते । अतोऽत्रायमाशयो यद्यपि नगवान् विशेषण यान्महशितुरेकत्वकल्पनानोजनादिव्ययनयात्कृपणस्यात्यन्तसकसजगजन्तुजाते हितावहां सर्वेय एव देशनावाचमाचष्टे वल्लभपुत्रकझत्रादिपरित्यजनेन धान्यारण्यानीसेवनमिय। तथा तथापि सैव केषांचिन्निचितनिकाचितपापकर्मकझुषितात्मनां सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नं तरि शरीरात्मना ज्ञानात्मना वा रुचिरूपतया न परिणमते अपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तवनायो- स्यात् । प्रथमपक्के तदीयनव देहेन जगन्नयस्य व्याप्तत्वादिज्यत्वात्तथा च कादम्बर्या बाणोपि बनाण " अपमतमन्ने हि तरनिर्मेयपदार्थानामाश्रयानवकाशः ।हितीयपके तु सिद्धसामनसि स्फटिकमणाविव रजनिकरगन्जस्तयो विशन्ति सुख- ध्यताऽस्माभिरपि निरतिशयज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्रयमुपदेशगणा गुरुवचनममलमपिस लिमिव महफुफ्जनयति। कोमीकरणान्युपगमात् । यदि परमेवं नवत्प्रमाणीकृतेन श्रवणस्थितं शूझमभव्यस्येति" यतो वस्तुवृत्त्या न तेषां प्रग- वेदन विरोधः। तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम्।"विश्वपाननुशासक इति । नचैतावता जगदगुरोरसामर्थ्यसंभावना, तश्चकुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पादिति महि कामदष्टमनुजीवयम् समुज्जीविततरदष्टको विषभिष- श्रुतः" यथोक्तम् । तस्य प्रतिनियतदेशवर्तित्वत्रिनुवनगतप. गुपालम्भनीयोऽतिप्रसङ्गात् । स हि तेषामेव दोषः । न खा दार्थानामनियतदेशवृत्तीनां ययावनिर्माणानुपपत्तिरिति । निखिप्नुवनानोगमघभासयन्तापिनानवीया भानवः कौशि- तत्रेदं पृच्च्यते स जगत्रयं निर्मिमाणस्तकादिवासाकाईहव्यापाकसोकस्यालोकहेतुतामनजमाना उपासम्भसंजायनास्पदम् रेण निर्मिमीते यदि वा संकल्पमात्रेण । आटो पके एकस्यैयतथा च श्रीसिहसेनः “ सर्मबोजवपनानघकौशसस्य, जूजूधरादेर्विधानेकोदीयसः काझकेपस्य संजयाद्वायसा यलोकवान्धव ! नवापि विज्ञाम्यनन । तन्नादलुप्तं म्बगकुन्ने- प्यनेहसान परिसमाप्तिः । द्वितीयपके तु सकल्पमात्रेणव Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। इस्सर उचितकार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेपि न किंचिहषण- अन्यकृतश्चेत्सोऽन्यः सर्वज्ञोऽसर्वज्ञो वा। सर्वइत्ये तस्य द्वैतामुत्पश्यामः नियतदेशस्थायिनां सामान्यदेवानामपि संक- पत्त्या प्रागुक्ततदेकत्वान्युपगमबाधः । तत्साधकप्रमाणचर्चास्पमात्रेणव तत्तत्कार्यसंपादनप्रतिपत्तेः॥ यामनवस्थापातश्च । असर्वशश्वेत् कस्तस्य वचसि विश्वासः फिंच तस्य सर्वगतत्वेङ्गीक्रियमाणेऽशचिषु निरन्तरसन्तमसेषु अपरं च भवदभीष आगमः प्रत्युत तत्प्रणेतुरसर्वइत्यमेव मरकादिस्थानेवपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते तथाचानिष्ठापत्तिः। साधयति पूर्वाऽपरविरुकाऽर्थवचनोपेतत्वात् । तथाहि अथ युष्मत्पक्केपि यदाज्ञानात्मना सर्वजगत्रयं व्यामोतीत्यु- "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तत्रैव पतिच्यते तदा गुचिरसास्वादादीनामप्युपरम्भसंभावनाबार- तम् “पद्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमे ऽहनि । अश्वमेधकादिषुःखस्वरूपसंवदनात्मकतया सुखानुभवप्रसङ्गाश्चानि- स्य वचनान्यूनानि पशुनिखिन्निः।" तथा "अग्नीषोमीयं शपत्तिस्तुल्यैवेति चत्तदेतदुपपत्तिनिः प्रतिकर्तुमशक्तस्य धू- परमानभेत" " सप्तदश प्राजापत्यान् पशनामजेत" इत्याविभिरेवावकरणं यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थनस्थमेव विषयं दिवचनानि कथमिव न पूर्यापरविरोधमनुरुध्यन्ते । तथा परिच्छिनत्ति न पुनस्तत्र गत्वा तत्कुतो भवपासम्नः समी- " नानृतं यूयात् ” इत्यादिनाऽनृतनाषणं प्रथम निषिध्य चीनः। तहि भवतोप्य विज्ञानमात्रेण तासास्वादानुसूतिस्त- पश्चादू " ब्राह्मणार्थनूतं अयादित्यादि " तथा " न नर्मयुक्तं द्भावे हि सचन्दनाङ्गमारसयत्यादिचिन्तनमात्रेणव तृप्ति- वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वसिकौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यमसक्तिरिति। यनुज्ञानात्मनासर्व धनापहारे पञ्चाऽनृतान्याहुरपातकानि ॥१॥ तथा " परगतत्वे सिरसाधनं प्रागुक्तं तच्चक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यं तथा- द्रव्याणि झोष्ठवत " इत्यादिना दत्तादानमनेकधा निरस्य च वक्तारो जवन्ति । “अस्य मतिःसर्वशास्त्रेषु प्रसरति हार्ति"। पश्चायुक्तं " यद्यपि ब्राह्मणो हठन परकीयमादत्ते उसेन वा, न च ज्ञानं प्राप्यकारि तस्यात्मधर्मत्वेन यहिनिर्गमाभावाद- तथापि तस्य ना ऽदत्तादानम् । यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेज्यो हिर्निर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्त्याजीवत्वप्रसङ्गानाई धर्मों ध- दत्तम् । ब्राह्मणानां तु दौर्बल्यावृषलाः परिजुञ्जते तस्मादपमिणमतिरिच्य कचन केवलो विलोकितः । यच परे स्पान्त हरन् ब्राह्मणः स्वमादत्ते स्वमव ब्राह्मणो टुङ्क्ते वस्ते स्वं ददा यन्ति " यया सूर्यस्य किरणा गुणरूपा आप सूर्यानिष्कम्य तीति । तथा “ अपुत्रस्य गति स्ति" इति लपित्वाऽनेकानि जुवनं भासयन्त्येवं ज्ञानमयात्मनः सकाशाद्वहिनिर्गत्य प्रमेयं सहस्राणि कुमारा ब्रह्मचारिणां दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुल परिधिनत्तीति" तत्रेदमुत्तरं किरणानां गुणत्वमसिकं तेषां संतति, मित्यादि कियन्तो वा दधिमाषभोजनात्कृपणा विवेतैजसपुझसमयत्वेन व्यत्वात् । यम तेषां प्रकाशात्मा गुणः ध्यन्ते। तदेवमागमोपि न तस्य सर्वज्ञतां वक्ति। किंच सर्वका स तेच्यो न जातु पृथग्जवतीति । तथाच धर्मसंग्रहएयां श्री सन्नसौ चराचरं चेधिरचयति तदा जगपप्लवकरणस्वैहरिजनाचार्यपादाः “किरणा गुणा न दवं, तेसि पयासो रिणः पश्चादाप कर्तव्यनिग्रहान् सुरवैरिण पतदाधिकेपकागुणो न वा दव्यं । जं नाणं आयगुणो, कहमदब्वोस अन्नत्य १" रिणश्चास्मदादीन् किमर्थ सृजतीति तन्नायं सर्वकः । तथा गंपूण न परिजिंदर, नाणं नेयं तयम्मि देसम्मि । आयत्यम्मि स्ववशत्वं स्वातन्त्र्यं तदपि तस्य न कोवतमम् । स हि यदि य नवरं, अचिंतसत्ती विनेयं । २। सोहोवबस्स सत्ती, नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते परमकारुणिकश्च त्वया आयत्या चेव निन्नदेसम्मि । सोहं श्रागरिसंती दीसह इह वर्यते तत्कयं मुखितखिताद्यवस्थाभेदश्रन्दस्यपुटितं घट यति धनमेकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते। अथ कचपकाक्खा ॥ ३॥ पवमिह नाणसत्ती, आयत्या चेव हदि जन्मान्तरोपार्जिततत्तदीयशुभाशुनकर्मप्रेरितः संस्तथा करोमोगतं । ज परिचिंदरसञ्च,कोणु विरोहो नवे तत्थ '॥४॥ इत्यादि अथ सर्वगः सर्वज्ञः इति व्याख्यानं तत्रापि प्रतिवि तीति दत्तस्तर्हि स्ववशवाय जबाअग्निः । कर्मजन्ये च त्रिनुधियते। ननु तस्य सार्वयं केन प्रमाणेन गृहीतं प्रत्यक्षेण परो वनवैचित्र्ये विशिष्टहेतुकविष्टपष्टिकल्पनायाः कष्टकफसत्या दस्मन्मतमेवाङ्गीकृतं प्रेकावता। तथा चायातोऽयं “ घटकुट्यां केण वा । न तावत्प्रत्यक्षेण तस्येन्धियार्थसन्निकर्षोत्पन्न प्रजातामति" न्यायः । किंच प्राणिनां धर्माधर्मावपेकमाणश्चेतयाऽ तीनिध्यग्रहणासामर्थ्यात् । नापि परोक्केण तकि अनु दयं सृजति प्राप्तं तर्हि यदयमपेक्वते तन्न करोति इति । नहि मानं शादं वा स्यात् । न तावदनुमानं तस्य निङ्गग्रहण कुवाबो दण्मादि करोति एवं कर्मापेकश्चेदीश्वरो जगत्कारणं लिङ्गिलिङ्गसंबन्धस्मरणपुर्वकत्वान्न च तस्य सर्वश्त्वेऽनुमेयं स्यानहि कर्मणीश्वरोऽनीश्वरः स्यादिति । तथा नित्यत्वमपि किंचिद्व्यभिचारिलिङ्गं पश्यामस्तस्याऽत्यन्ताविप्रकृष्टत्वेन तस्य स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यम् । स खलु नित्यत्वेनकतत्प्रतिवरूलिजन्सबन्धग्रहणाभावात् । अथ तस्य सर्वज्ञत्वं रूपः सन् त्रिवनसर्गस्वनायोऽतत्स्वनाबी वा प्रथमविधायां विना जगढचिध्यमनुपपद्यमानं सर्वज्ञात्वमर्थादापादयतीति जगनिर्माणात् कदाचिदपि नापरमेत । तदुपरमे तत्स्वानावचना अधिनाभावा नावात् । न हि जगढचित्री तत्सार्वइयं वहानिः । एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानादेकस्यापिकाविनाऽन्यया नोपपना । विविधं हि जगत् स्थावरजङ्गमभेदात् र्यस्य नसृष्टिः घटो हि स्वारम्भवणादारज्यापरिसमाप्तेरुपातत्र जङ्गमानां वैचित्र्यं स्वोपात्तनाऽशुभकर्मपरिपाकवशे म्त्य कणं यावनिश्चयनयानप्रायेण न घटव्यपदेशमासादयात नैव । स्थावराणां तु सचेतनानामियमेध गतिः प्रचेतनानां जाहरणाद्यर्थक्रियायामसाधकतमत्वात् । अतस्वजावपके तु तपनांगयोग्यतासाधनत्येनामादिकामसिकमेव वैचित्र्य तुन जातु जगन्ति सृजेत्तत्स्वभावायोगामनवत् । अपिच मिति । नाप्यागमस्तत्साधकः । सहि तत्कृतोऽन्यकृतो घा तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिरिय संहारोपिन घटते नाना स्यात् । तत्कृत एव चत्तस्य सर्वकतां साधयति । सदा तस्य रूपकार्यकारणे नित्यत्यापत्तेः। स हि नव स्वनायेन जगन्ति महत्त्ववतिः स्वयमेव स्वगुणोत्कीर्तनस्य महतामनधिकृत- सुजेसनव तानि संहरेत्स्यनावान्तरण वा तेनैव चेत् सृष्टिसंत्वात् । अन्यच तस्य शास्त्रकर्तृत्यमेव न युज्यते । शालं हि हारयागिपद्यप्रसङ्ग स्थनायाभेदात्। एकस्वभाषात्कारणावर्णात्मकम् । तेच ताबादिव्यापारजन्याः । स च शरीर पथ दनेकस्थभावकार्योत्पत्तिविरोधात । स्वभावान्तरेण चेनिसम्नवी शरीरा न्युपगमे च तस्य पूर्वोक्ता एष दोषाः।। स्यत्यहानिः । स्वभायभेद पथ हि लवणमनित्यतायाः । यथा Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर निधानराजेन्डः। पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहकृतस्य प्रत्यहमपूर्वापूर्वोत्पा- "ईश्वरकर्तृके सुखदुःखे अपि न नवतः यथासावीश्वरो मूर्तीदेन स्वनावदादनित्यत्वम् । इष्टश्च नावानां सृष्टिसंहारयोः ऽमूत्तों वा । यदि मूर्तस्ततःप्राकृतपुरूषस्येव सर्वकर्तृत्वाभावः। शम्नौ स्वनावभेदः । रजोगुणात्मकतया सृष्टी,तमोगुणात्मक- अथाऽमूर्तस्तथा सत्याकाशस्येव सुतरां निष्क्रियत्वम् । अपिच तया संहरणे, सात्विकतया च स्थिती, तस्य व्यापारस्वी- यद्यसौ रागादिमात्रस्ततोऽस्मदाद्यव्यतिरेकाद्विश्वस्याकतैव। कारात् एवं चावस्थाभेदस्तद्भदे चावस्थावतोऽपि भेदानित्य- यथासी विगतरागस्ततस्तत्कृतं सुभगर्भगेश्वरदरिमादिजगत्वकृतिः । अथास्तु नित्यस्तथापि स कथं सततमेव सृष्टौ न द्वैचित्र्यम् न घटां प्राञ्चति ततो नेश्वरः कर्तेति । सूत्र०॥ चेष्टते । इच्छावशाच्चन्ननु ता अपीछाः स्वसत्तामात्रनिबन्ध- यथा कथंचिदीश्वरस्य कर्तृत्वं सूत्रकृताले प्रतिपादितम् । नात्मनाभाः सदैव किं न प्रवर्तयतीति स पवोपालम्नः। तथा तथेश्वरोपि कर्ता आत्मैवहि तंत्र तत्रोत्पत्तिद्वारेण सकलशम्भोरणगुणाधिकरणत्वे कार्यभेदाऽनुमेयानांतदिच्चानामपि जगद्व्यापनादीश्वरः । तस्य सुखदुःखात्पत्तिकर्तृत्वं सर्ववाविषमरूपत्वानित्यवहानिः केन निवार्यते इति । किंच प्रेका दिनामविगानेन सिम्मेव । यच्चात्र मूर्तादिदूषणमुपन्यस्तं तवता प्रवृत्तिः स्वार्थकारुण्याज्यां व्याप्ता ततश्चायं जगत्सर्गे देवभूतेश्वरसमाश्रयेण दूरोच्छोदितमेवेति ॥ सूत्र० १ श्रु०व्याप्रियते स्वार्थात्कारुण्याद्वा न तावत्स्वार्थात्तस्य कृतकृत्य १ अ०२०। ऐश्वर्येण ज्ञानातिशयनवणेन युक्त ईश्वरः त्वात् । न च कारुण्यात्परषुःखप्रहाणेच्ग हि कारुण्यं ततः परमब्रह्मवादीनां मुक्ते-चौकानाम्बुके अर्हतां जिने च । घा०१६ प्राक् सर्गाजीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्ती उखाभावेन द्वा० - यो० वि०। कस्य प्रहाणेचनाकारुण्यम् । सगात्तरकाले तु:खिनोऽवलोक्य कारुण्यान्युपगमे पुरुत्तरमितरेतराश्रयम्। कारुण्येनसृष्टिः तेषामीश्वरत्वं यथासृष्टया च कारुण्यमिति। नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिध्यति महेशानुग्रहात्कचि-द्योगसिछि प्रचक्षते । तदेवमेवंविधदोषकलुषिते पुरुषविशषे यस्तेषां सेवाहेवाका क्लेशाद्यैरपरामष्टा, पुंविशेषः स चेष्यते ।। स खा केवलं बलवन्मोह विमम्बनापरिपाक इति । अत्रच केचित्पातञ्जला महेशानुग्रहात योगस्योक्तकणस्य सिद्धियद्यपि मध्यवर्तिनी नकारस्य घण्टासोवान्यायेन योजनादा मयोगमलकणां प्रचढ़ते प्रकथयन्ति स च महेशः विशेषः स्तरमपि स्फुरति यथा 'श्माः कुहेवाकविसम्बनास्तेषां न पुरुषविशेषः इष्यते । कीदृश इत्याह वेशाद्यैः केशकर्म स्युर्येषां त्वमनुशासक इति' तथापि सोऽर्थः सहदयन हदये विपाकाशयरपरामृष्टोऽस्पृष्टस्त्रियपि कालेषु तथाच सूत्र"क्लेशधारणीयोऽन्ययोगम्यवच्छेदस्याधिकृतत्वादिति काव्यार्थः । कर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष प्यते । कीदृश इत्याहस्था०६ श्लोक। ईश्वर शति पत्र क्वेशा अविद्यास्मितारागद्वेषानिनिवेशा वक्ष्यईश्वरस्य जगदकर्तृत्वं यथा । माणवकणाः केशमूत्राः कर्माशयो दृष्टादृष्णजन्मवेदनीयः अस्मिनवगरणानावाज मिचट्ठामुसयाई न वावि । व जन्मन्यनुन्नवनीयो दृष्टजन्मवेदनीयो जन्मान्तरानुन्जवनीईसरदेहारने वितुबया वा एकत्था वा ॥ योऽदृष्टजन्मवेदनीयस्तीसंवेगेन हि कृतानि पुण्यानि देव नायमीश्वरः जीवादिकांशरीरादिकार्थाण्यारनते उपक- ताराधनादीनि कर्माणि इहैव जन्मनि फलं जात्यायु गमवणं रणानावाइएमाधुपकरणरहितकुबाबवतानचकर्म विना शरी प्रयच्छन्ति । यथा नन्दीश्वरस्य जगवन्महेश्वराराधनबहादिहैराधारम्निजीवादीनामन्यापकरणं घटते । गर्भाद्यवस्था घ जन्मनि जात्यादयो विशिष्टाःप्रादु¥ता न चैतदनुपपत्तिः सस्वन्योपकरणासनकाच्चक्रशोणितादिग्रहणस्थाप्यकर्मणोऽनु दनुष्टानेन प्रतिबन्धकापनयने केदारान्तरे जलापूरणवत्पाश्चात्यपपत्तेः। अथवा अन्यथा प्रयोगः क्रियते निश्चेहेत्यादिना कर्म प्रकृत्यापूरणेनैव सिफिविशेषोपपत्तेस्तऽत्तम । “जन्मौषधिशरीराणरजते निश्चेष्टत्वादाकाशवत्तथा ऽमूर्तत्वादादिशब्दा मन्त्रतपः समाधिजाः सिरुयः सिकिश्चोत्कर्षविशेषः कायकादशरीरत्वानिष्क्रियत्वात्सर्यगतरवादाकाशवदेव तथा एकत्वा रणस्य जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्या पूरानिमित्तमप्रयोजक प्रकदेकपरमाणुवदित्यादि । अत्रोच्यते शरीरवानीश्वरः सर्वाएय तीनां चरणभेदस्तु ततः केत्रिकवदिति । सति मूझे तछिपाको पि देहादिकार्याएयारभते । नन्वीश्वरदेहारम्भोपि तर्हि तुल्य जात्यायुर्नोगः सति मूले क्वेशरूपबीजे तेषां कुशलाकुशलं कर्म ता पर्यनुयोगस्य तथाहकर्मा नारजते निजशरीरमीश्वरो णां विपाकः फलं जात्यायुनोंगा नवन्ति जातिर्मनुष्यादिरायुश्चिनिरुपकरणत्वाहएमादिरहितकुमारवादति । अथान्यः कोपी रकारे शरीरसंबन्धो नोगा विषयाः इन्छियाणि सुखःखसंवि श्वकर्मकरणनाबसाधनव्युत्पत्त्या नोगशब्दस्य, इदमत्र तात्पश्वरस्तचरीरारम्नाय प्रवर्तते ततः सोपि शरीरवानशरीरो वा यद्यशरीरस्तर्हि नारनते निरुपकरणत्वादित्यादि सैव र्यम् । चित्तंहि द्विविधं साशयमनाशयं च । तत्र योगिनामनावक्तव्यता अयारीरवान् तर्हि तरीरारम्नेपि तुल्यता सोप्य शयं तदाह ध्यानजननाशयम् अत एव तेषामयकाकृष्णं कर्म का निजशरीरं नारभते निरुपकरणत्वादित्यादि । अथ त सदाह कर्माशुकाकृष्णं योगिननिधिधमितरेषां शुनफलदं कर्म रीरमन्यः शरीरवांस्तर्हि तच्चरीरारम्नेपि तुस्यता नार- यागादिशुकम् अशुभफलदं ब्रह्महत्यादिकृष्णम् उन्नयसंकीर्ण भते ऽतस्तस्याप्यन्य इत्येवमनवस्था । अनिष्टं च सर्वमेतत्त- युवकृष्णम् । तत्र शुक्कं दानतपःस्वाध्यायादिमतां पुरुषाणां स्मानश्वरो देहादीनां कता किंतु कर्म सद्वितीयो जीव पव कृष्णं नारकिणां, शुक्लकृष्णं मनुष्याणां योगिनां तु विनवणनिष्प्रयोजनश्चेश्वरो देहादीन् कुर्वन्नुन्मत्तकल्प एव स्यात् । मिति साशयचित्तमयोगिनाम् तत्र फसत्यागानुसंधानानासप्रयोजनकर्तृत्ये पुनरनीश्वरप्रसङ्गः । न चानादिगुरूस्य दे पारफलजनक कर्माशयस्ततस्तछिपाकानुगणानामेघाभिव्यक्तिहादिकारणेच्या युज्यते तस्यारागविकल्परूपत्वात्। विशे०॥ र्वासनानां विविधा हि कर्मवासनाः स्मृतिमात्रफलाजा नथाच 'ज्ञणमनं तु अन्नाणं, हमेगेसिपाहियोईसरेण कमेस्रोए' स्यायुभौगफनाश्च तत्राद्या येन कर्मणा यादृक् शरीरमारब्धं न्युपक्रम्य ' असेात्तत्तमकासीयं प्रयाणंतामुसंवहे 'इत्युपसं- देवमानुपतिर्यगादिनेदेन जात्यन्तरशतव्यवधानेन पुनस्तथाजहार । मध०११०१. अध्। विधस्यैव हारीरस्यारम्ने तदनुरूपामेव स्मृति जनयन्ति, Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर (६३९) अभिधानराजेन्द्रः । अन्यान्यन्नावयन्ति देवादिमये नारकादि शरीरोपभोगस्मृतिवत्नचातिव्यवदितयोः स्मृतिसंस्कारयोर्जन्यजनकनाधानुपपर्त्तिरानुनृतस्याप्यविचतिथि वासनात्मना स्थितस्योद्बोधविशेषसहकारेण स्मृतिविशेषपरिणामे व्यवधानाजावात्तदुकम जातिदेशका सय्यवहितानामप्यनन्त स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात् ताश्च सुखसाधना वियोगाभ्यवसायसस्य मोहनस्य बीजस्यानादित्यादादिरहितास्तदुक्तं तासामनादित्यमाशिषोत्तीपाया अपित मावानादिकाल संचिता यया यथा पाकमुपयान्ति तथा तथा गुणप्रधाननावेन स्थिता जात्यायुर्भोगिलक्षणं कार्यमारजन्त इति । तदेतत्कर्माशयफलं जात्यादिविपाक इति । यद्यपि स यामात्मनां केशादिस्पर्शो नास्ति तथापि ते विगतास्तेषां व्यपदिश्यन्ते यथा योधगतौ जयपराजयौ स्वामिनः अस्य बिपि काग्रेषु तथाविधोषिकेशादिपरामश मास्तीति चित्रोयमन्येन्यः ॥ १ ॥ ज्ञानममति यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मथ, सहसिकं चतुष्टयम् ॥ २ ॥ सात्विकः परिणामोत्र, काष्ठा प्राप्ततयेष्यते । नानाकामास इति सर्वज्ञता स्थितिः ॥ ३ ॥ ऋषीणां कापिनादीनामप्ययं परमो गुरुः । तदिच्छा जगत्सर्वं यथाकर्म विवर्त्तते ॥ ४ ॥ नादयात्रा प्रतिपकाः सहजाश्च शुद्धसत्वस्यानादि संबन्धात् यया हीतरेषां सुखदुःखमांहतया विपरिणतं चित्तं निर्मले साविके धर्मात्मपके प्रतिषेधान्तविद्यायान्तं संवेधं भवति वीरस्य किन्तु तस्य वसत्यिक परिणामो ग्य तया व्यवस्थित इति । किंच प्रकृतिपुरुषसंयोग वियोगयोरीश्वरेव्यतिरेकेणानुपपत्तेरनादिज्ञानादिमत्त्वमस्य सिद्धम् | २ | अरे सात्यिक परिणामः कामत च्यते तारतम्यवतां सातिशयानां धर्माणां परमाणावल्पत्वस्येचाकाशे परममहस्वस्य काष्ठा प्राप्नात्। नादीनामपि चित्तधर्माणां तारतम्येन परिदृश्यमानानां कविभिरतिषाये सिमेन पुनरप्रमाणा किन्द्रियद्वाराप्रास्मुपनीतमिति देतोः सर्वविपयत्वादेतचित्तस्य संहतया स्थिति प्रसि स्तक 'रा निरतिशयं सर्वजम् |२| अयमव कपित्रादीनामपि ऋषीणां परम उत्कृष्टो गुरुस्तटुक्तं 'स पूर्वेपामपि गुरुः कालेनानवच्छेदादिति तस्येश्वरस्वेच्छया सर्वजगत् यथाकर्म कर्मानतिक्रम्य विवर्त्तते उच्चावचफलाग्नघति न च कर्मणैवान्यथा सिकिरेककारकेण कारकान्तरानुपक्यादिति भावः ॥ तदूषयतिनैतयुक्तमनुप्राद्य-वत्स्वजात्यन्तरा । नाः कदाचिदात्मा स्या- देवतानुग्रहादपि ॥ ५ ॥ जयोस्तत्स्वजात्यजेदे च परिणामिनि । अत्युत्कर्षश्च धर्माणामन्यत्रातिप्रसञ्जकः ।। ६ ।। तन्वरानुपपत्यं योगस्य न युक्त तत्स्यभावव मनुग्राह्यस्वभावत्वमन्तरा विना यतः देवतायाअनुप्रहादपि अ तरात्मा भवति स्वनावापरावृत्तेः ॥ ५॥ उजयारीवरान्मनस्य व्यक्तिकालफलादिजेवेन विधिनुभावभावना इस्सर नाचे व परिणामिता स्यात् स्वनावदस्यैव परिणामदार्थत्वात्तथाचार्य सिद्धान्तः। ज्ञानादिधर्माणामप्युत्कर्षेणेश्वर सिकि रित्यपि च नास्ति यतो धर्माणामप्युत्कर्षः साध्यमानो ज्ञानादाविवान्पश्राज्ञानादावतिप्रसङ्गकोऽनिए सिकिकृत मा दिमतयेश्वरस्येव ताराज्ञानादिमत्तया सत्यतिपक्षस्थापि सियापरित्वं च ज्ञानायमुत्कर्षापकर्षा 15 र्षापकर्षाश्रयवृत्तित्वान्महस्ववदित्यत्र झज्ञानत्वं न तथा चित्तधमैमात्रवृत्तित्वादज्ञानत्वचदिति प्रतिरोधोऽय्यः । ति पुरुषसंयोगवियोगी च यदि तात्विकी तदात्मनोऽपरिणा मित्वं न स्यात् तयोर्द्विष्टत्वेन तस्य जन्यधर्मानाश्रयत्वकतेः । नो चेत्कयोः कारणमीश्वरेच्छा । किंच प्रयोजनानावादपि नेश्वरो जगत् कुरुते । न च परमकारुणिकत्वाद्भूतानुग्रह एवास्यप्रयोजनमिति भोजस्य वचनं साम्प्रतम् । इत्थं हि सर्वस्यायमिष्टमेव पादयेदित्यधिकं शाखावार्तासमुच्चयविवरणः । आर्य व्यापारमाश्रित्य तदाज्ञापालनात्मकम् । युज्यते परमीशस्यानुग्रहस्तत्र नीतितः ॥ ७ ॥ एवं च प्रणवेनैत- ज्ञपात्मत्गृह संशयः । प्रत्यक् मत्थक चैतन्यज्ञान युक्तं पतञ्जलेः ॥ ८ ॥ प्रत्यूहा व्याधयः स्वानं ममादालस्यविभ्रमाः । संदेड़ा पिरती नृप सानवाप्यनवस्थितिः ॥ ए ॥ धातुवैषम्यत्रो व्याधि-स्थानं चाकर्मनिष्ठता । प्रमादो यत्न आलस्य मौदासीन्यं च हेतुषु ||१०|| ततः सामथ्र्यप्राप्तं न तु प्रसह्य तेने व कृतं तदाज्ञापालनात्मकं व्यापारमाश्रित्य परं केवलं तत्र नीतितोऽस्मत्सिकान्तनीत्या ईशस्यानुग्रहो युज्यते तदुक्तम् । आर्थ व्यापारमाश्रित्य तत्र दोषेोपि विद्यत इति ॥ ७ ॥ एवं चार्थव्यापारेणेानुद्वारेच प्रणयेनका रेतस्येश्वरस्य प विघ्नानां संकयः विषयप्रातिकूल्येनान्तः करणाभिमुखमञ्चति यत्तत्प्रत्य चैतन्यं ज्ञानं तस्य ज्ञानश्चेति पतञ्जले रुक्तं युक्त तस्य वाचकः प्रणवस्तजपस्तदर्थभावनं ततः प्रत्यक् चैतन्याधिगमोन्तरायानायाधेति सूत्रप्रतिमेर्गुणविशेषतः पुरुषस्य प्रणिधानस्य महाफलत्वात् ॥ ८ ॥ व्याधिस्थानसंशयप्रमा वानस्याविरतिचान्तिदर्शनामिकावानवस्थितायामिथि विक्षेपास्तेन्तरायाशते ॥ ॥ धातुभ्यो धातुकादिज नितो व्यधिर्ज्वरातीसारादिः स्थानं चाकर्मनिष्ठतादित एव कर्मप्रारम्भः प्रमादो यत्नः आरब्धेऽप्यनुत्थानशीलता आलस्य हेतु समाधिसाधनेष्वी दासी म्यं माध्यस्थ्यं न तु पक्षपातः १०३ विमा व्यत्ययानं संदेहः स्याभवेत्ययम् । अखेदो विषयावेशा-वेदविरतिः किन ।। ११॥ म्यमाजः समाधीनां वाशाभिः कथंचन । आपित चिचस्याविनय स्थितिः ॥ १२ ॥ रजस्तमोमयारोपापाचेतसोधी । सोपक्रमाजपाभानं, पान्ति शक्ति हर्ति परे ।। १३ ।। प्रत्यक चैतन्यमप्यस्मादन्तज्येतिः प्रयामयम् । बहिर्व्यापाररोधेन जायमानं मतं हि नः ॥ १४ ॥ योगातिशयता, स्तोत्रकोटिगुणः स्मृतम् । गायनविश्रमभूमिका ॥ १५ ॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७० ) अभिधानराजेन्द्रः । इस्सर विज्रमो व्यत्ययज्ञानं रजते रङ्गबुविदिष्टसाधनेपि योगः इष्टसाधनत्वं निश्चयः संदेहोयं योगः स्याद्वा नवेत्याकारविपावशान्द्रियार्थन्याने पलकणाद वेदोनुपरमण कि अविरतिर्भवेत् ११ नाम) कुतोष देतोः समा धीनां कः स्थानस्यामायामः सामेपि समाधिन्या सावपि तत्र समाधिषि वित्तस्याप्रतिष्ठानिवंशस्वनयस्थितिः ॥ १२ ॥ अभी दि रजस्तमांमयाद्दोषाचेोषि एकाग्रताविरोधिनः परिणामा सोपक्रमा अपवर्तनीय कर्मजान ताः सन्तो जागवत्प्रणिधानाभाशं यान्ति परिनिरुपमा शक्तिदति दोषानुबन्धमुपापि योगप्रतिबन्धसाम मेवापगच्छन्तीति ज्ञान ॥ १३ ॥ अस्माद्भवज्जपाद्वहियापाररोधेन शब्दादिवदिर प्रत्यागेनान्तज्योतिः प्रधाना दिविशुद्धि विस्तारस्तन्मयं प्रत्यचैतन्यमपि दि जायमानं म नोस्माकं तथैव प्रतिश्रयाद्यतिशयोपपत्तेः ॥ १४ ॥ योगातिशयतश्चाभ्यन्तरपरिणामोत्कर्षाश्चायं जपः स्तोत्रकोदिगुणः स्मृतचिरंतनाचा वायोगाचे कृपा मनोयोगस्याधिक त्वादत एव मौनावशेषेणैव जपः प्रशस्यते तथा बुधैर्विशारदैयोगायोगमातिनज्ञानेन ज्यानस्य विश्राम [मिका पुनरा रोहस्थानं दृष्टः ॥ १५ ॥ ननु यदि यादृश ईश्वरोज्युपगतस्तादृशस्य भवद्भिरनभ्युपगमात्कथमार्थ व्यापारेणापि तदनुग्रह सिद्धिरित्याशङ्कायां वि. पयविशेषपकपातेनैव समाधानाभिप्रायवानाद ॥ माध्ययमम्यैव देवतातिशयस्य च । सेवा सर्वैर्बुधैरिष्टा, कालातीतोऽपि यज्जगौ ।। १६ । माध्यस्थ्यम निर्णीत विशेषकाभिनिवेशाभावलक्षणम मध्य देवतातिशयस्य च विशिष्टदेवताख्यस्य च सेवा स्तवध्यानपूजनादिरुपा सर्वरितनिमित्तकफलार्थत्वेनाभिमता स्तनादिविधाः स्वकर्तृकायाः फलदानसमर्थत्वेपि वनयापन ततस्तस्यास्तादेः स्तो तव्यादिनिमित्त कत्यव्यवहाराद्यद्यस्मात्कालातोपि शास्त्रविशेषो जगी । १६ । अन्येषामप्ययं मार्गो, मुक्ताविद्या दिवादिनाम् । अभिधानादिनंदन, तस्वनीत्या व्यवस्थितः ॥१७॥ मुक्तो को वापि दैर्वेण समन्वितः । नदीवर एस्पा-संज्ञाजेदो केवलम् ||१८|| अन्येषामपि तीर्थान्तरीयाणां किं पुनरस्माकमयमस्मक्तो मार्गो देवनादिगो मुक्तादिवादिनामविद्यादिवादिनां मनानिधानादीनां नामविशेषानतिरवनीत्या परमार्थत एकविषयतया व्यवस्थितः प्रतिष्ठितः॥१७॥ मुक्तः परमब्रह्मवादिनां बुद्धा बोकानाम श्रईन् जैनानां वापीति समये पयस्मादेव नागसमन्वित युको वर्तते तस्मादपरोऽस्मा स एवमुच्यादिः स्यात् संज्ञादो नामनानात्वमत्र मुक्तादिप्रज्ञापनायां केवलम् ॥ १८ ॥ अनादिशुरू इत्यादिपद यस्य कल्प्यते । नानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ।। १५ ।। विशेषस्पापरिज्ञानाद्युक्तानां जातिपातः । प्रायो विराधतश्चैव फलानेदाच जावतः ॥ २० ॥ अविद्या क्रेशकर्मादि यता जवकारणम् । तः प्रधान ज्ञाजेदमुपागतम् ॥ २१ ॥ इस्सर अनादि शुद्ध त्येचं रूप आर्यस्य स तथा तत्रांनादिसर्व गतवानां सोच सर्व जिनानां स पचप्रतिकृणम सौगतानां यः पुनर्जेदो विशेषो यस्यैश्वरस्थ कल्प्यते तस्य तस्य तस्य दर्शनस्यानुसारेणानुमन्ये प्रतिधिशेषः किंपुनः प्रागभिहितः संहानंद इत्यपिशब्दार्थको निय योजनः ||१५|| विशेषस्य मुक्तादेर्देवताविशेषगतस्यापरिज्ञानादवग्दर्शित प्रत्यक्षेण तथा युक्तानामनुमानरूपाणां जातिवादोसियाददेोपपातेनानुमानानासत्यात्यो बाहु स्पेन विरोधचैव वेदान्तिकादियुक्तीनामेकेषां द वात्मत्वादपरेषां चार्यत्रियाकारित्वस्य स्वभा वभेद नियतत्वेना नित्य एवेति फलस्य कलशक्यलक्षणस्य गुण प्रकर्षविशेषत्पुराराधनसाध्यस्य कचिदि विशेषे आराध्यगते सत्यमेवविशेषाच प्राप्तः परमार्थतः गुणप्रकर्षविषयस्य बहुमानस्यैव फलदायक त्यासस्य सर्वमु क्तादावविशेषादिति ॥ २० ॥ अविद्या वेदान्तिनां, क्लेशः सांख्यानां, कर्म जैनानाम्, श्रादिशब्दाद्वासना सौगतानां पाशः दीवानां यतो यस्माकारोव्यान्तरसुचनार्थः प्रथकारण संसारहेतुस्ततस्तस्मादविद्यानां जयकारणत्या देतो: प्रधान मेवैतदस्मदज्युपगतं भवकारणं सत्संहाने नाममानात्यमु पागतम् ॥ २१ ॥ अत्रापि परपरितिविशेषनिराकरणाया । अस्यापि योsपरो भेद - श्वित्रोपाधिस्तथा तथा । ज्यो, धीमतां सोप्पपार्थकः ॥ २२ ॥ अस्यापि प्रधानस्यापि योग्य से जयकारणत्वात्सर्वापा दन्यो विशेष चित्रोपाधिपत्यादिकृत थातथा दर्शनभेदेन गीयते पश्येत यो मन्सर मेव विशेषस्यापरिनादित्यादिनको यो धीमता बुकि मतापितागत इत्यपिशब्दार्थः पार्थको तपरमार्थप्रयोजनः सर्वैरपि भवकारथाबेन यांगापनयस्थास्यापगमादन्यस्य विशेषस्य सतोऽप्याकिंचित्करत्वात् ॥ २२ ॥ ततोsस्थानप्रयासोयं यत्तदनिरूपणम् । सामान्यमनुमानस्य यत विषयो मतः ॥ २३ ॥ यत एवं ततः सतो विशेषस्यापार्थका वासरस्यानप्रया सायं तत्पतिकानां तदस्य देवादिविशेषस्य निरुपणं चपणं परायानुमानस्य देवताविशेषादिमार करनाभिमतस्य सामान्य विषयो मतोऽतोपि सर्वविशेषानुगतस्य तस्याप्रतीतेरस्थानप्रायासोऽयम् इत्थं च नवकारणमात्रज्ञानात्तदपनयनाये पुरुषविशेषाराधनं कर्तव्यं विशेषविमर्शस्तु नि योजन इति कालातीतमतं व्यवस्थितम् । एतस्माच्चास्माकमपि विशेषमशक्रमस्य स्वाग्रहदा सामान्ययोगप्रवृत्यर्थममतम् अन्यस्य निरभिनिवेश्य शाखानुसारेण विशेषविमर्शोपि भगवद्विशिष्टोपासनारूपतया श्रकामतकालगेन तत्वहान गर्नपैराम्यजीवानुत्पा द्विशिष्टनिर्जरा न सवधा तद्वैफल्यमित्यभिप्रायः ॥ २३ ॥ स्थितं चैतदाचार्यस्याज्ये कुचितिकाग्रहे । शाखानुसारिणस्तर्का - भागने दानुपग्रहात ॥ २४ ॥ तथ्य कालातीतमतमाचार्यैः श्री हरिभाऊ सूरिभिरास्थितमङ्गी कृतिका कोरिया स्याज्यं परिहासकारा गार्थमित्यर्थः । शाखानुसारिस्त सिद्धी सत्यमिति Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७१) इस्सर अभिधानराजेन्द्रः। इस्सर गम्यं नानेदस्य संझाविशेषस्यानुपग्रहादनाभवेशात्तत्वार्थ- ___ सिकादिहेतुदोषोपघातेनानुमानानासत्वात् । प्रायो बाहुल्येन सिको नाममात्रकलेशी हि पोगप्रतिपन्थी नतु धर्मवादेन चैवति पूर्ववत् । तथाहि सालयः शैवश्च सर्ववणिकवादिनविशेषविमर्शोपीति नावस्तदिवमुक्तम् । “ साधुचैतद्यतो सौगतं प्रत्याह । तु यथा नवदाराध्यो युझोऽर्थक्रियां देशनानीत्या, शास्त्रमन्त्रप्रवर्तकम् । तथाभिधानभेदानु-नेदःकुचिति- दिकां स्वकणे पर्व पश्चाधा कुर्यादिति त्रयी गतिः। तत्र न काग्रहः ॥ विपश्चितां न युक्तोय-मैदंपर्यप्रियाहिते। यथोक्तास्त तावदाद्यः पक्का कक्कीकरणीयः समकामनाविनि व्यापारात्पुनश्वारु, हन्तात्रापि निरूप्यताम् ॥ उभयोः परिणामित्वं, भावात् । इतरथैककणवर्तिनां समर्थक्वणानामितरेतरकार्यतथान्युपगमाद्धधम् । अनुग्रहात्प्रवृत्तेश्च, तथाकाजेदतः स्थि करणभावः प्रसज्येत । न चैतदृष्टमिष्टं वा अथ स्वक्वणात तम् ॥ आत्मनां तत्स्वभावत्वे, प्रधानस्यापि संस्थिते । ईश्व- ऊर्ध्वकायं विधत्त इति मन्येथा एतदप्यसाधीयो विनष्टस्य रस्यापि सन्याया-विशेषाधिकृतो भवेत् ॥४॥ इति॥ कार्यकरणाकमत्वात् अन्यथा मृतस्य शिखिनः केकायितं अथ विशेषविमर्श शास्त्रतर्कयौईयोरुपयोगप्रस्थानमाह । स्यात् । एवं च कणिकादयावर्तमानाऽर्थक्रियावीरादअस्थानं रूपमन्धस्य, यथा सनिश्चयं प्रति । शशकुनिन्यायेन नित्यानेष नावनाश्रयतया प्रतिपद्यते इति तथैवातीन्धियं वस्तु, छमस्थस्यापि तत्वतः ॥२५॥ नित्यरूपोऽत पवानादिशुरू ईश्वरनामा प्राप्तविशेषोऽज्युप प्रस्थानमविषयो रूपं नीअकृष्णादिवकणमन्धस्य सोचन- गन्तुं मुधोपचित इति । बीरः पुनः प्राह । ईश्वरोऽप्रच्युतानुव्यापारविकास्य यथा सन्निश्चयं विशदासोचनं प्रत्याश्रित्य त्पन्न स्थिरैकस्वन्नावो भवद्भिरज्युपगम्यते । नच नित्यस्य तथैवोक्तन्यायमेवातीन्द्रियं वस्त्वात्मादिविशेषरूपं जास्यस्या कथंचिदप्यर्थक्रिया युज्यते । नित्यो ह्यर्थक्रमेण योगपद्येन म्हशः परमार्थतत्वतः परमार्थनीत्या ॥२५॥ वार्थक्रियां कुर्वीत । न तावक्रमेण सन्निहितसर्वशक्तेः सहहस्तस्पर्शसमं शास्त्रं, तत एव कथञ्चन ।। कारिभिश्चानाधेयातिशयस्य युगपदेव त्रैकालिकसर्वकार्यकरअत्र तनिश्चयोपि स्या-त्तथा गन्धोपरागवत् । ३६ ॥ णप्रसङ्गात् । नापि योगपद्येन यतस्तत्र युगपदेव सर्वकार्यहस्तस्पर्शसमंतवस्तूपलब्धिहेतुहस्तस्पर्शसदृशं शास्त्रमती करणेन कृतस्य पुनः करणानावेन च हितायक्वणेऽर्थक्रियाछियार्थगोचरं तत एव शाम्बादेव कथश्चन केमापि प्रकारे विरहसकर्ण बहादसत्वमाढीकमानं न केनापि निरो पार्यते मात्र ग्यस्थे प्रमातरि तनिश्चयोऽप्यतीन्छियवस्तुनिर्णयो प्रति प्रतिकणं परिवर्तमानाऽपरापररूपः सर्वार्थक्रियाऽवमोऽ ऽपि स्यात्तथा धर्कमानत्वादिविशेषेण चन्द्रोपरागवञ्चनजराहु ज्युपगन्तुं युक्तोऽसाविति । फलानेदाश्च फलस्य नेदकेशकस्पर्शषत् । यथा शास्त्रात्सर्वविशेषानिश्चयेऽपि चन्द्रोपरागः णस्य गुणप्रकर्षरुपपुरुषाराधनासाभ्यस्य कचिन्नित्यानित्य स्वादौ विशेष प्राराध्यगते सत्यप्यनेदादविशेषात् । भावतः केनापि विशेषेण निश्चीयते एव तथान्यदपि अतीन्द्रियं वस्तु परमार्यतः गुणप्रकर्षविषयस्य बहुमानस्यैव फलदायकत्वात तत्समस्थेन निश्चीयत इति नावः ॥२६॥ तस्य सर्वत्र मुक्तादावविशेषादिति । यो वि०। इत्थं ह्यस्पष्टता शाब्दे, मोक्ता तत्र विचारणम् । परतीर्यिकानिमतेश्वरस्य निराकरणम् । माध्यस्थ्यनीतितो युक्तं, व्यासोपि यददो जगौ ॥२७॥ नन्वियं त्रिनुवननवनान्तर्वर्तमानान्तरितानन्तरितपदार्थइत्यमुक्तदृष्टान्तेन हि शायदे ज्ञानस्पष्टता प्रोक्ता तत्र स्पष्टे शा प्रया त्वत्तीर्थनाथवृत्तिर्न नवति यतो नूभूधरप्रनृतिपदार्थ ब्दज्ञाने माध्यस्थ्यनीतितो विचारणं युक्तं तर्कस्य प्रमाणानु- प्रबन्धविधानद्वारा प्रमथपतेरेवेयमुपपद्यते यदेतदनुमानमत्र ग्राहकत्यात्तनैवेदपर्यशुरूस्तस्याश्च स्पष्टताप्रायत्वात यद्यस्मा- प्ररूप्यते न्यायतात्पर्यावबोधप्रधानमनोवृत्तिविहन्देन बिददो वक्ष्यमाणं व्यासोऽपि जगौ ॥२७॥ वादपदभूतं नूभूधरादिबुझिमद्विधेयं यतो निमित्ताधीनात्मआर्षधर्मोपदेशं च, वेदशास्त्रविरोधिना । सानं यनिमित्ताधीनात्मनाभं तदुरिमधेियं यथा मन्दिर यस्तर्केणानुसंधत्ते, स धर्म वेद नेतरः ॥२०॥ तथा पुनरेतत्तन तथा न तावन्निमित्ताधीनात्मलानत्वं वादिनः प्रतिवादिनो वा प्रतीतं यतो नूनूधरादेरात्मीयात्मीयनिमिशास्त्रादौ चरणं सम्यक्, स्याछादन्यायसंगतम् । त्तवातनिर्वर्तनीयता नुवनभाविनवभृत्प्रतीतैव । नापि दोलाशिस्यानुग्रहस्तस्मा-दृष्टेष्टायाविरोधिनः ॥२५॥ यमानवेदननिमित्तं मतिमनिवर्तनीयेतराम्बरादिपदार्थतोत्ययद्दातव्यं जिनैः सबै-दत्तमेव तदेकदा । न्तव्यावृत्तत्वेन । नापि विरुकतावरोधऽर्धरमम्बरादितोऽत्य दर्शनकानचारित्र-पयो मोक्षपयः सताम् ॥ ३०॥ म्तव्यावृत्तत्वेनैव नापि तुरीयन्याप्यामता प्रतिबझमिन्छियये दनेनानुमाननाना राकान्तानिधानेन वा मानेनाबाधिताभि जिनेन्यो याचमानेच्यो, लब्धं धर्ममनासयं । प्रेतधर्मधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वेन । नापि प्रत्यनुमानापमानता तं विसं विना जाग्य, केन मूख्येन लप्स्यते ॥ ३१॥ निबन्धनमेतत्परिपन्थिधर्मोपपादनप्रत्यक्षानुमानानावेन । ननु अनुष्टानं ततः स्वामि-गुणरागपुरःसरम्। जवतीदं तावदनुमानं परिपन्थिधर्मोपपादनप्रत्यक्षम् । यथा परमानन्दतः कार्य, मन्यमानैरनुग्रहम् । ३। भूताधिनतधरादिविधाता न भवति वपुर्वन्ध्यत्वेन निवृत्याआर्षमित्यारज्य स्पष्टम् । द्वा० १६ घा० । यो वि०। स्मवत्तदनषदातं यतोऽत्र त्रिनेत्ररूपोधर्मी धर्मधनेन प्रतिपन्नोऽ. विशेषस्यापरिझानात्, युक्तीनां जातिवादनः । प्रतिपनो पा प्ररूपितः । न तावदप्रतिपन्नो यदेवमाधारधारा प्रतीतत्वोपज्यो धपुर्षनयताव्याप्योपनिपाती भवननिरोझ न पायो विरोधतश्चैव, फलानेदाच भावतः ॥ पार्यतायनि पुनः प्रतिपनीयं धर्मी तदायेन मानेन प्रतिपत्तिर्मविशेषस्य मुक्तादिदेवता विशेषगनस्याऽपारकानादसंवेदना- | ग्मयप्रार्थनोऽनिधीयते तन तस्यादिविधानव्युत्पन्नमतेरेवेयदर्वा मर्शि प्रत्यक्षेण तथा युक्तीनामनुमानरूपाणां जातिवादको मिति तत्रीपादीयमानायपुर्वण्यताबाधितवमैवेतिन नाम प्रध Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर अभिधानराजेन्डः । इस्सर तितु पर्याप्नोति। तदेवं निमित्ताधीनात्मनाभताव्याप्यमत्यन्तपू- वेद्यते । तदमनोरमं यतोऽत्रानुमातुर्व्यवधिर्विद्यते व्यवधिमान् तरूपंपर्वतादे(मकेतुताप्रतिपादनावदातमेवेति तत्रानिधीयते पुनः पदार्थोनेछियासम्बनीभवतीति तदनासम्बनीतूतः पर्वयदिदं तावनिमित्ताधीनात्मक्षाजत्वं व्याप्यमारपितं तहव्य- ततनूनपान तेन बाधितुं पार्यते । यदा पुनः प्रमाता तत्र प्रवृत्तो द्वारा पर्यायद्वारा वेति नेदोनयी । यद्याद्यः पन्थाः प्रथ्यते त- प्रवति तदानीमव्यवधानवानयं तनुनपात्तेनोपसच्यते । तरूधिदानीमप्रतीतिर्नाम व्याप्योपतापः। यतो व्यरूपतया पृथ्वीप- पुखताचादिबुझिमनिमितं तु तत्र प्रवर्तमानेनापि नितरामव तादेर्नित्यत्वमेव प्रतिवादिनाऽन्युपेयते । ननु नूनूधरायमु- धानवतापि नोपनज्यते ततो भवति तन्छियोद्भवबोधवाधेति स्पादवदवयवित्वेन यदेवं तदेवं ययेन्दीवरमषयविरूप पुन- ततोपि तथाविधधर्म्यनन्तरनिमित्ताधीनात्ममाभत्वरूपव्यारिद तमुत्पाद बेत्यनुमानेन तन्नित्यता निर्मूलोन्मूलितैवेति प्यप्रतिपादनेन त्वन्मतेन तुरीयन्याप्त्यामत्योपनिपातः मन्मतेन मैतकीमवृत्तिविधानप्रधानं यतो मूलधरादेरवयषित्वमषय- त्वन्ताप्तेरजावेनानियतप्रतिपत्तिनिमित्तताऽत्र व्याप्यपरापारज्यत्वेन । यहावयववातवर्तमानतया मन्यते न प्रथमविधा जूतिः तथेदं निमित्ताधीनात्ममानत्यम् । यदि तन्मात्रमेव विबुधावधानधाम यतो न नामतत्पृथ्वीपृथ्वीधरप्रवृतिरुव्य व्याप्यत्वेन प्रतिपाद्यते तननिप्रेतपदार्थप्रतीतिनिर्धर्तनपमनूतपूर्वमवयववृन्देन निर्वर्तितमिति प्रतिवादिनः प्रतीतिर्वि प्तिमनुपलब्धपूर्वोत्पत्तिव्यापारेन्जमों मर्त्यपूर्घत्वप्रतीत्यद्यते । यदि पुनरवयववृत्तिनेदोभिधीयते तदानीमवयवत्वेन थोपात्तमृन्मयत्ववत् । न नाम निपन्जमून्मियत्वमपि दोलायमानमतेः यतोऽवयवोयमवयवोयमितीत्यं बुद्धिवेद्य विद्यते । ननु यद्यपि मृन्मयत्वं तुल्यमेवोभयत्रापि तथापि मवयवत्वमवयवितानवृत्ति भवति न पुनरुत्पादपराधीनं नि नेन्मूर्खान्यो मानवपूर्वत्वेन प्रतीतो विद्यते । ततो विवाद पदापनोप्ययं तत्तुल्यत्वेन न मर्त्यनिर्वयो भवति तन्नावदातं त्यत्वेन । ननु नार्योनेन उभेदप्रतिपादनेन प्रतीतोयमवयवी यतोत्रापि न तूनूधरतुधनादि प्रायः पदार्थोऽन्यो बुझिमन्नितावादिषिततेरविवादेन पनपत्रपात्रदात्रादिरितिन नाम न मित्तोपेतः परिनावितो धर्तते। ततो विवादपरुतिप्रतिषसोप्ययं प्रतीतोऽपि त्वात्मापि तथा नियमन प्रतीतो वर्तते न पुनरुत्पा न तया भवितुंबनते । ननु निपादिर्विद्यते बुझिमन्निमित्तोपेतः दवानित्यनुमेयतत्तुल्यतद्विरुष्वृत्तितोपत्रवः । यदि तु पर्या परिनावितोऽतो विवादापन्नोपि तथाऽनमातुमनुरूपः । तदयद्वारा निमित्ताधीनात्मज्ञानत्वं तूभूधरादेरभिधीयते तदा नरामरादिपर्यायद्वारोत्पद्यमानात्मनोपि बुझिमपुत्पाद्यत्धमा घद्यं यतोऽन्यत्रापिनिपादिरेवमानवनिर्वयों विभावि वोविद्यते। पद्यते । ननु नरामराद्युत्पादनप्रत्यसधर्मधर्मोत्पाद्यानुन्नवायतन ततः पुरंदरमूर्धापितन्निर्व]न नितरांनवितव्यम्। ननु नरनिनूता तथाविधा तनुरेवोत्पद्यते न पुनरात्मा अवमात्रतोप्यना' मितनिपादितः पुरंदरमूर्धी वैरूप्यमुपसत्यते ततो न तत्र मदिनिधनत्वेन यदि पुनरात्माप्युत्पत्ति विपत्तिधर्मो नवति तदा य॑निर्वर्त्यतानुमानमुपपन्नं यद्येदं तदानीमेतबैरूप्यं निपादितो नीं भूतमात्रतत्त्ववादिमत्तापत्तिरात्मनः पूर्वोत्तरभवानुयायिनो तूनूधरतुवनादेरपि परिजाव्यते यतो निपादिनाऽनुपलब्धबुनेदिनोऽनन्युपेतत्वेनेति, तन्न वन्धुरं यतो यद्यात्मनोऽनिन्नरूप किमयापारात्मनाप्युपलब्धेन नियमतोनिवर्तितोयं मतिमतेति तैवावेद्यते तदान्यतरनरामरादिनववर्येवायमपरिमेयानुनवनी बुकिरुत्पाद्यते, न पुन वनादिना । ततो न निमित्ताधीनात्मयतत्तद्भवपर्यायं प्रबन्धानुन्नवनेन द्वितीयादिनवानुनवधान्नन मानवमात्र बुझिमकेतुत्यप्रतीतिविधानबन्धुरं यदा तु धरित्री धरित्रीधर त्रिनुवनादिविधानं न प्रतीतं तदानीं त्रिनयनो नुवनवितुमुपपद्यते, वेद्यते त्वनेनेयं नवपर्यायपरंपरेति । तंबूपतया नवनान्तर्नावि भाववातप्रद्योतनप्रबसवेदनप्रदीपवानिति नियमुत्पत्तिमानिति नियम्यते । नाप्येवंनूतमात्रतस्ववादितापत्ति धनदानममोरथप्रथैवेयमितीत्यादिवचनद्वयेन स्यादिकवचनरात्मनो व्यरूपतया नित्यतान्युपायेन पूर्वोत्तरभवप्रतीतितः। प्रयेण वर्णैस्तुत्रिनिरधिकैर्दशजिरयं व्यधायि शिवसिकिवितन्मतेन तु न नाम अन्यतया नित्यं वेदनं वर्तते यतो भूतध ध्वंस: ति+ते, लि, टा, ङस् ,श्यत्या पव विजक्तयः तथदधन, र्मतयानेन प्रतिपादितमेतत् । तयैतदनुमानधर्मीन्जियोद्भूतखो पयनम यरलव. एते एवात्रवर्णाः । १ रत्ना०। (जिनानामीधेनार्कतो बाध्यते रूपं ध्वनिरपि नयनोत्यप्रथाप्रत्येयमित्यादिवत्। श्वरत्वं जिनमहत्वद्वात्रिशिकायामपिसाच जिण' शब्द) यतोत्र दोलायमानविधानतत्परनरव्यापारः पृथ्वीपृथ्वीधरा प्रात्ये, वाच । प्रनौ, । दशा ए अ० । सम० । दर्श। भ्रतरुपुरंदरधनुरादिर्भाववातो धर्मीप्ररूपितः। तत्र त्वन्त्रतरु प्रामनगरादिनायके, तं० । ईश ऐश्वर्ये ऐश्वर्येण युक्तः ईश्वरः विद्युन्दादेरिदानीमप्युत्पद्यमानतया वेद्यमानतनोर्विधातानोप प्रामभोगिकादिके, अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त च । जी०३ प्रति. बन्यते । ननु जवत्येव बाधेयं यद्येतविधानावधानप्रधानः पु. नि००।"ईसर भोश्य माई" ईश्वरो भोगिकादिग्रामस्वामानिन्छियप्रभवप्रभासम्बनीतूतोन्युपेतो भवति यावताऽती मिप्रतिक उच्यते, ०६०। पंचा० । नियुक्ते, पाचा०। छियायमिति नायमुपद्रवः प्रनवति तदनभिधानीयम् । यतो युवराजादिके, न० ए श० ३३ ० ॥राज० । माएमसिके, व्याप्तिप्रतिपादनप्रत्यक्षं मानमत्रेन्द्रियहारोदुतूतं वेदनं तवा अमात्ये च । इश्वरो युवराजो माएमसिकोऽमात्यो पति । अनु०। भिमतम् । धूमानुमानवत् धूमानुमितेरपि न पारावारोझचौ स्था। ईश्वरो युधराजस्तदन्ये च महर्डिका इति । भ०२ दर्यतनूनपात्तदितरतनूनपात्तुल्यत्वेन व्याप्तिप्रतीतेतीनियोगपवेदनषेचनावासम्बनेनैवानेनानुमानेन भवितव्यमन्यथा तु श० १० । ऐश्वर्यान्वित स्त्रियां टाए । प्रभवाविमध्ये तेन व्याप्तिप्रतीतिर्षरुपपादेव । ततोऽपि तत्र व्याप्त्यनासम्ब एकादो घत्सरेच॥ तत्फलम् । सुनिक केममारोग्य, कार्पासमीनतेन तेन बुकिमन्निमित्तेनानुमेयतापि नायिते । तयात्वेन स्य महर्घता । सवर्ण मधुगव्यं च, ईश्वरे दुझेनम्प्रिये । वाच। प्रतिपादितत्वे तत्तदतीन्द्रियबोधावबोध्यतया नियमेनान्युपे स्वमामण्याते नृतवादिष्यन्तरविशेषनिकायेन्छे, स्था०२ ग. तव्यम् यदि तुतयाज्युपेयते तदा नैतनिमित्तं तकविद्युदादेरु- जम्यूछीपस्य बाह्यवेदिकाया उत्तरदिशि स्थिते स्वनामण्यात पत्रज्यते । ततोऽनेन वेदनेनात्र पाधो नवत्येव । ननु धूमान महापातासन्नेदे। स्थान्ग०(तक्तश्यता'महापातासावे) प्रत्याग्य तननपातोप्येवमनेन वेदनेन माधो पति यतोम मेरोरुत्तरस्यां विशिषर्तमाने स्वनामयाते महापासाप्तकसतत्रापि विधीयमानानुमानेन प्रमात्रा तनूनपादिम्झियवेदनेन । शेखाजी०३ प्रति०(तनाव्यता 'महापातामकमस' शब्द) Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर (६७३) इस्सर अभिधानराजेन्द्रः। ( राजपुरीनगरस्थे स्वनामख्याते नृपे, तत्कथा कुकुमेस्सर- अञ्चंतकमयमं एवं, वक्खाणं तस्स वीफुम ।। शब्द ) स्वनामख्याते मुनिवरे च, स चागीतार्थदोषेण पुःख कंठ सोसोयरं लाने, एरिसं कोणुचिट्ठए । मवाप्य गोशालको जातस्तथा च महानिशीथे। ता एवं विप्पएत्तूणं, सामग्गं किंचिमजिक्रमं ।। से जयवं णो वि याणाहिं, ईसरो कोवि मुणिवरो। जं वा तं वा कहे धम्म, ताझोनन्हाण जट्ट । किंवा अगियत्य दोसेणं, पत्तं तेणं कहाहि ॥ अह वा हाहा अहं मूढो, पावकम्मा एराहमो ॥ चउवीसिगाए अमेवि, एत्थ नरहम्मि गोयमा । णवरं जाणाणूचिट्ठामि, अन्नोन चिट्ठती जये। पढमे तित्यंकरे जइया, विहीपुव्वेण निव्वुमे ॥ जेणायमणंतनाणीहिं, सव्वन्नूहिं पवेदियं ।। तझ्या निव्वाणमहिमा ए-गतरूवे सुरासुरे । जो एहिं अभहा वाए, तस्स आहो ण वज्जई । निवयंते उप्पयंते, दट्ठय एवं तवासिओ ॥ ताहमेयस्स पच्चित्तं, घोरमश्चक्करं चिरं । अहो अच्छेरयं अज्ज-मसोयम्मि य पच्चिमो। बहुँ सिग्धमुसिग्धयरं, जाव मत्यूण मे जवे । ण इंदजालसुमिणं वा, विदितु कत्थइ पुणो॥ आसायणाकयं पावं, आसंजेण विहुव्वती॥ एवं विविहापोहाए, पुचीं जाई सरित्तुमो । दिव्वं वाससयं पुन्न, अह सो पच्छित्तमणुचरे । मोहं गंतूण खणमेक, मारुयासासिओ पुणो ।। तं तारिसं महाघोरं, पायच्चित्तं सयं मई ॥ थरथरस्स य कपतो निंदिन गरहिउँ चिरं। कानं पच्चियबुधस्स, सया मे पुण वीगो । अत्तारं गोयमा ! धणियं, सामनं गहिय मुजाओ। सत्याविजा मुगवक्खा, ता वहिगारामिमागयं ॥ अह पंचमुट्टियं सोय,जा वा ढवइ महायसो ।। पुढवादीणं समारं, साहू तिविहेण वज्जए । से विणयं देवया तस्स. रयहरणं ताव ढोयई । दढमूढो हुओ जोई, ताईसरो मुक्कमूलओ। नगं कं तवचरणं, तस्स दहण ईसरो ॥ विंबं तेवं जहिच्चजए, को ण ताईसमारने । स्रोमो पृयकरेमाणा, जाव न गंतूण पुच्छइ । पुढवीए नावए सेव, समासीणो विचिई।। केणं तं दिक्खिो कत्य, उप्पन्ने को कुले तव ।। अग्गीए रखयक्खाइ, असणखाश्मसाश्म । सुत्तत्यं कस्स वा मूझे, साइसयं हेसमजिकय । अन्न व विणा पाणेणं, खणमेकं जीवए कहं ।। सो पञ्चरागवुढे जान, सव्वं तस्स विवागरे । ता किं पितं पत्यवक्खेज्ज, संपवुयमच्छतियं । जाकुन्नं दिक्खा सुत्तं, अत्यं जह य समन्कियं । इमस्सेव समागच्चे, ए न णायं कोई सहहे । तं मोकण अहलो सो, इमं चिंतेइ गोयमा ।। ता चिट्ठतु ताव एसेत्यं, वरं सो चेव गणहरो। अग्निया अणारिओ एस, लोगटे तेण परिसुसे । अहवा एसो उणमऊ, एकोवि नणियंकरे । ता जारिसमे सनासे, तारिसं सो वि जिणवरो।। अलिया एवंविहं धम्म, किंचुद्देसे य तं पिओ ॥ णाचेत्य बियारेणं, मुम्हिकई वरं विए। साहिज्जइ जो स वि किंचि, ण तु सामचंतकम्यम् ॥ अहवा णाहिहि मो जयवं, देवदाणवपणमिओ। अहवा चिलुतु तावेव, अहयं सयमेव वागरं ।। मणासायं पि जं मऊ, तं पि गिनिज्ज संसयं । मुहं सुहेण जं धम्म, सबोवि अणुढए जणो । तावे स जो हो उ सो होउ, किं वियारेण एत्य मे ॥ न कालं कायमस्सज्ज, धम्मस्सिति जा विचित ।। अनिणंदामीह पव्यज्ज, सव्वदोस विमोक्खणिं । घम् मितो सगीताक, निवमिउ तस्सोवरि । ता पमिगो जिगंदस्त, सया से जातणक्खई॥ गोयम ! निहणं गो ताहे, उववन्ना सत्तमा एसो नुवागमं जिगवरं, तो वि गणहरमासियं । सासण सुयनाणसंसग्ग, पीमणीयत्ता ईसरो । लिओ पगिनियम्मि, जगवंते धम्मतित्ययरे ॥ तत्यं तं दारुणं सुक्खं, नरए अणुजविउ चिरं ।। जिणानिदियं मुत्तत्यं, गणहरो जाय रूबई । इहा गओ समुद्दम्मि, महामच्छो नवे उण । तापमानावगं पयं, वग्वाणम्मि ममागयं ।। पुणोवि सत्तमाएय, तित्तीसं सागरोवमे ।। पुढवीकाऽगम पगा, वावा पमो अमंजओ। सुन्निमहं दारुणं दुक्खं, अणुचिहिमण पहागओ। ता ईसरो वि चिंतः, मुहमे पुढाविकाइए । तिरियपक्खीस नववन्नो. कागत्ताए स ईसरो।। सव्वत्यउद्दविननि, को नाई गम्वनं नमो। तो वि पदमियं गंत. नवट्टित्ता इहागा। हुई करेइ अत्ताणं, एत्यं पम महायगः ॥ दुट्ठमाणो जवनाण. पुगिरवि पटमियं गो।। असलेयंजणे मयने, किमयपव्ययम्बद्ध । नाहना नो इह खरो होहं पुणो मनो। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७४) इस्सरकड अभिधानराजेन्षः। इहत्थ उववमा रासहत्ताए, उन्नवगहणे निरंतरं ।। ( विस्तरेणैतन्मतनिराकरणमिस्सरशब्द ) ताहे माणुस्स जाईए, एसिमुप्पनो मनो। | इस्स (ईस) विलूइ-ईश्वरविजूति-श्री० ६ तत्पुरुष०ईश्वउपवनो वयणरत्ताए, माणुसत्तसमागओ। ___रस्य विनूतौ, नृपे च । वाचा तो विमरिउ समुप्पनो, मज्जारत्ता स ईसरो। इस्स (ईस) रसरिस-ईश्वरसहश-त्रि ईश्वरस्थानीये, (ई पुणो विनरयं गंतु (ह, सीहत्तेण पुणोमो॥ सरसरिसो गुरु) ईश्वरसदृश ईश्वरस्थानीय इति । व्य० १ उवाच॥ उववजियं चनत्थीए, सीहत्तेण पुणोविहं । इस्स (ईस) रिय ( या )मय-ऐश्वर्यमद-पुं० ऐश्वर्येण मदः मरिऊणं चनत्थीए, गंतुं श्ह समागो॥ ऐश्वर्यमदः । मदस्थाननेदे, स्था०० ग०। सम प्रश्न । तो वि नरयं गंतुं, चक्कियत्तेण ईसरो। इस्स (ईस) रिय (1) सिक-ऐश्वर्यसिधि-स्त्री० ईश्वरतो वि कुष्टिहोऊणं, बहुक्खदिओ मो॥ स्वसिकौ,-साचाष्टगुणा तद्यथा-"अणिमा अधिमा गरिमा प्राकिमिएहिं खज्जमाणस्स, पन्नासं सहिवच्छरे । काम्यमीशित्वं वशित्वं प्रतिघातित्वं यत्र कामावसायित्वम् जा काम निज्जरा जाया, तीए देवेसु वन्जिो ॥ इति-। सूत्र० १ श्रु०१ अ० ३००। इस्स (ईस ) रीकय-ईश्वरकृित-त्रि० अनीश्वरे-ईश्वरीकृते, तो इहईनरिस्सत्तं, लणं सत्तमि गओ। (ईसरेण अवा गामणं अणिस्सरे ईसरीकए ) ईश्वरेण एवं नरगतिरिच्छेसु, कुच्चिय मा एसु ईसरो॥ प्रतुणा अथवा ग्रामेण जनसमूहेनानीश्वर ईश्वरीकृत इति । गोयम सुपरिन्जमिन, घोरदुक्खसुदुक्खिो । सम०२९ स० । दशा। संपा गोसालओ जाओ, एससउ वीसरज्जिो ॥ इस्सास-इष्वास-पुं०६षवोऽस्यन्तेऽनेन । असु केपे करण घषष्ठीतम्हा एहि वियाणित्ता, अचिरागीयत्येमुणी ! तत्पु । धनुषि, शरकेपके, त्रि० (तीरन्दाज) मेदि० । वाच। जवेजा विदियपरमत्ये, सारासारपरत्तुए। शति ॥ शह-श्ह-अव्य. "श्दम श्मः । ३ । ७२ । इति प्राकृतसूत्रणेमहा०६ अ० ॥ स्वनामख्यातेऽभिनन्दनजिनस्य यके च । तथा दम इमादेशः। उमें न हः ।३। ७५ । ति प्राकृतसूत्रण च प्रवचनसारे श्रीअनिनन्दनस्येश्वरो यकः श्यामकान्तिर्गज- श्दमः कृतेमादेशात्परस्य स्थाने मेन सह ह आदेशो वा । वाहनश्चतुर्नुजो मातुनिङ्गाकःसूत्रयुक्तदक्किएकरकमलद्वयो न- प्रा०। स्सिम्मित्था ।३।५ए। ति प्राकृतसूत्रेण स्थादेशः कुलाङ्कुशान्वितो वामपाणिद्वयश्चेति । प्रव०२७वा। प्राप्तः 'नत्यः'।३।७६ । इति प्राकृतसूत्रेण निषिकः। श्ड इस्स (ईस) रकम-ईश्वरकृत-त्रि० ईश्वरविरचिते, "ईस- इमस्सि श्मम्मि । प्रा० अस्मिन्काले देशे दिशि वा इत्यर्थे, तद रेण कमेसोप" । सूत्र०१श्रु० १ ०३०। (जगत ईश्वर खितमिहभूतं नूतगत्या जगत्या।नैष । अनुनूयमाने लोके च । कृतत्वनिराकरणम् 'इस्सर' शब्द-) वाच। (इह सावसेसकम्मा) श्ड तिर्यग्लोके किंनूताः इस्स (ईस) रकम्बाइ [न् ] -ईश्वरकृतवादिन-पुं० जग सावशेषकर्माणः । “जं वि य इह माणुसत्तणं आगया" येऽपि चेह मर्त्यलोके मनुष्यत्वमागता इति । “अबुहा ह दीश्वरकृतत्ववादिनि वादिविशेषे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३० हिंसंति तसे पाणे" इह जीवझोके हिंसन्ति प्रन्ति प्रसान् प्राणा(तन्मतनिराकरणमिस्सरशब्दे) न् । प्रश्न १ घा० । इह खमु जीवणिकायाणामऊयणं" इस्स (ईस ) रकारय-ईश्वरकारक-पुं० जगदीश्वरकृतत्ववा इति लोके प्रवचने वेति। दश०४०। "हं था नये अन्नसु दिनि वादिविशेषे,- सूत्र०१ श्रु०१०२०। (तन्मत था भवग्गहणेसु" ( हं वित्ति) बिन्सुलोपात् इह वास्मिन् निराकरण 'मिस्सर'शब्दे)॥ वाऽनुनयमाने भवे मनुष्यजन्मनीति । पा० । श्ह खलु इस्स (इसर) रवाई (न्) ईश्वरवादिन-पुं० । ईश्वरस्य अणादिजीवे इहलोक इति-पं० सू०। जेणेह णिव्वहे भिक्खू जगत्कारणतद्वादिनि प्रवादिविशेष; सूत्र० १ श्रु० १ ० १ शहास्मिन् लोके शति-सूत्र०१ श्रु०९०। 'हेव माणुस्सए जातन्मतमावाराने दर्शितम्-तद्यथा वैशेषिकास्तनुजषन- भवे' इहैव प्रत्यके मानुष्यके नवे इति । स्था० ग०। 'के करणादिकमीश्वरकर्तृकमिति प्रतिपन्नास्तमुक्तम् "अन्यो जन्तु- वा ओ चुयो हपश्चा नविस्सामि' कोवादेवादिरितो मनुष्यारनीशः स्या-दात्मनः सुखपुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छे-स्वर्ग देर्जन्मनश्च्युतो विनष्ट ह संसारे प्रेत्य जन्मान्तरे नविप्याम्युवा स्वनमेववे" त्यादिकंप्रवादमात्मीयप्रवाहेन पर्यासोचयेत्त- त्पत्स्यामीति- वाफ्योपन्यासे, " इह खबु पाईण वा पमीणं द्यथा इन्धनुरादीनां विश्रसापरिणामसन्धात्मनानानां तदति- वा दाहिणं वा उदाणं वा" श्हेति याक्योपन्यासे प्रज्ञापकरिक्तेश्वरादिकारणपरिकल्पनायामतिप्रसङ्ग स्यात्तथा घटपटा. के वेति । श्रा० चा०१ श्रु०१०। दीनां दएमचक्रचीवरसनिलकुवालतुरीवमलझाकाकुविन्दा इहगय-पहगत- त्रि० इह व्यवस्थिते, “से भंते कि इह गए दिव्यापारानन्तरावाप्तात्मनानानां तदनुपलब्धव्यापारेश्वरस्य पोग्गले परियाश्त्ता विकुव्व" इह पृच्छको गौतमस्तदपेक्या करणपरिकल्पनायां रासनादेरपि किं न स्यानतु करणादीना इहराब्दवाच्यो मनुष्यझोकस्ततश्च इह गतान् नरकलोकव्यवमायबन्ध्यं स्वकृतकर्मापादितं वैचित्र्यं कर्मणोनुपलब्धेः कुत स्थितानिति । न०७०।०। एतदिह चेत्समानः पर्यनुयोगोऽपि च तुल्ये मातापित्रादिके कारण अपत्यवैचित्र्यदर्शनात्तदधिकेन निमित्तेन नान्यं तच्चे हत्य-इहार्य-त्रि० इहैव जन्मन्यर्थप्रयोजनम्नोगसुखादिर्यस्य श्वगन्युपगमेप्यदृष्टमयति दृष्टव्यं नान्यथा सुखदुःखसुन्नगदु सः। जोगपुरुष, । स्था० ४ ग०। भगादि जगचित्र्यं स्यादिति । आचा० १श्रु० । भ०। इहस्थ-त्रि० श्व जन्मन्यास्था वा श्वमेवसाधिति बुद्धि Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहपरलो. अनिधानराजेन्द्रः। इहभव यस्य सहास्थानोगपुरुष, इह लोकपरिबके च।स्था०४ ग० पताः पुनरुत्तरत्र संकेपेण वक्ष्यामः । विपाकः पुनः " किरि, स्हस्थ-इहैव विवक्तिते ग्रामादौ तिष्ठतीति इहस्यस्तत्प्रति- यासु वट्टमाण,काश्गमासुक्खिया जीवा। इहचेवयपरसोगे बन्धात् । विवक्किते प्रामादौ प्रतियो-स्था०४ ग०। संसारपवट्टगा भणिया"ततश्चैवं रागादिक्रियासु वर्तमानानामइहपरलोयविरुक-इहपरलोकविरुक-त्रि० इह लोकविरुद्ध पायान्यायत् । किं विशिष्टः सन्नित्याह । धर्त्यपरिषर्जी तत्र निन्दादिके, परलोकविरुके खर कर्मादिके, इहलोकपरलोकवि- वर्जनीयं वयंमकृत्यं परिगृह्यते तत्परिवर्जी अप्रमत्त शति रुके गर्दभादिके च । ध०र० । इह लोके विरुरूकारिणो वध- गायार्थः । आव०४ अ०। बन्धादयो दोषाः परलोके च नरकगमनादय इति । तथाचाह- | हलव-इहजव-पुं० अत्र नवे, दशा०१० । इह परसोयविरुषं, न सेवए दाणविणयसीसलो ।। शहनवएगेजवे तस्स विप्पनासासि सम्बनासोत्ति एवंजप्पसोयप्पिओ जणाणं, जणे धम्मम्मि बहुमाणं । ति मुसावायी। इह लोकविरुकं परनिन्दादि यमुक्तं । “सव्वस्स चेव निंदा इह भवे एष प्रत्यक्तजन्मैव एको जव एकंजन्म नान्यः परस्रोविससओ तहय गुणसमिळाणं । उजुधम्म करण हसणं रीढा कोऽस्तिप्रमाणाविषयत्वात् तस्य शरीरस्य विविधैः प्रकारैः जण पूणिजाणं"।१। बहुजण विरुरूसंगो, देसादावार प्रकृष्टो नाशः प्रणाशस्तस्मिन् सति सर्वनाश इति नात्मा चानासंघणं तह या उचण नोगोय तहादाणारवियर मन्नेसि ।।। शुभरूपं वा कर्माधिनष्टमवशिष्यते।एतमेवोक्तप्रकारेण (जंपति) साहु वसपम्मि तो सो सश्सामत्यम्मि अपमियारो य ।पमाइ जस्पन्ति मृषावादिनः मृषावादिना चषां जातिस्मरणादिना याई इत्थं लोगविरुद्धा नेयाणित्ति"|३ । परलोकविरुद्धं जीवपरसोकसिकेरिति । प्रश्न द्वा० । (परसोकसि बहुखरकर्मादि तद्यथा । "बहुधा खरकर्मित्वं सीरपतित्वं च वक्तव्यता परसोगशब्दे) यो यादृगिह नवे परत्र नवे स तारराक्क्रपालत्वम् । विरतिं विनापि सुकृती करोति नैवंप्रकारा शोऽन्यादृशो वेति निणीतं यथा. अणंते निश्प सोए । द्यम्"। उभयझोकविरुऊं द्यूतादि । तद्यथा। “द्यूतं च १मांसंच नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः न निरन्वयनाशेन नश्यति इत्युक्तं सुराच ३वश्या पाप५ि चौर्य ६ परदारसेवा । एतानिस- भवतीति । तयाहि यो यादगिहभवे सतारगेव परजवेप्युपपप्त व्यसनानि बोके-पापाधिके पुंसि सदा जवन्ति ॥ इहैव निन्द्य द्यत पुरुषः पुरुष एवाङ्गनाङ्गनवेत्यादि-सूत्र० १७०१०। ते शि?-उर्यसनासक्तमानसः । मृतस्तु मुर्गतिं याति, गतत्राणे विस्तरेणैतक्तता सुधर्मगणधरसंवादे यथानराधम" इति । ध०२०।। किंमने जारिसो प्रह, जवाम्म सो परनवे वि। इहपरलोयावाय-हपरलोकापाय-पु. ऐहिकामुमिकविरो चेयपयाण य अत्यं, न याणसी तेसि मो अत्थो॥ धिनि-तथाचावश्यके त्वमेवं मन्यसे यो मनुष्यादिर्यादृश इहानवे स तादृशः पररागद्दोसकसाया, सवाइ किरियासु वट्टमाणाएं । नवेपि नन्वयमनुचितस्ते संशयो यतो धर्मो विरुरुवेदपदश्रुतिशहपरसोगावाए, जाज्जा वजपरिवजी॥ निबन्धनो वर्तते । तानि चामूनि “पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते, रागद्वेषकषायाश्रवादिक्रियासु वर्तमानानामिह परमोकापा- पशवः पशुत्वमित्यादि । तथा “शृगालो वै एष जायते यः याध्यायेत् । यथारागादिक्रियहि कामुमिकविरोधिनी। उक्तंच सुपुरीषो दह्यते इत्यादि-एषां च वेदपदानाममुमेवार्थ मन्यसे "रागसंपद्यमानोपि, पुःखदो पुष्टगोचरः। महाब्याभ्यभिचूत- त्वं पुरुषो मृतः सन् परजवे पुरुषत्वमेवाश्नुते प्राम्येति । यथा स्य, अपथ्यानाभिलाषवत् । १ । द्वेषः संपद्यमानोऽपि, तापय- पशधो गवादयःपशुत्वमेवेत्यादि । अमुनि किस भवान्तर त्येव देहिनम् । कोटरस्याञ्चलनाश, दावानल इव कुमम् ।। गतजन्तुसारश्यप्रतिपादकानि तथा शृगालो वैत्यादीनिश. दृष्ट्वा तन्द्रेदभिन्नस्य, रागस्यामुष्मिकं फलम् । दीर्घः संसार दृशाख्यापकानीत्यतस्तव संशयः। अयं चायुक्त एव यतो अमीएवोक्तः, सर्वहः सर्वदर्शिनि रित्यादि ।३। दोसाऽनलसंतत्तो, षां वेदपदानां नायमर्थः किन्तु वक्ष्यमाणबकण इति । अत्र इहलोगे वेब पुक्खिओ जीवो। परसोगम्मि य पावो, पावप भाष्यम्। नियानलं तत्तो ॥४॥ इत्यादि-तथा-कषायप्रायाः क्रोधाद कारणसरिसं कजं, वीयस्सेवकुरोत्ति ममतो । यस्तदपायाः पुनः । “कोहो पाई विणास माणो विषय- शहनवसरिसं सव्वं, जमवेसि परेसि तमज्जुत्तं ॥ नासो । माया मित्ताणि नासे, सोभो सब्वविणासणो ५ सुधर्मा प्रति भगवानुवाच। श्ह कारणानुरूपमेव कार्य भवति कोहा यमाणो य अणिमहीया, माया य लोभो य पवट्टमाणा। यया यवबीजानुरूपा ययाङ्करः इह नवकारणं चान्यजन्म चत्तारि पए कसिणो कसाया, सिंचंति मूसा पुणम्भवस्स" ततस्तेनापि श्भवसदृशेन भवितव्यमित्येवं मन्यमानस्वं ।६। तथा प्राश्रवाः कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वादयस्तदपायाः यदिह नवसदृशंसर्व पुरुषादिकं परनावष्यवषि तदयुक्तमेवेति पुनः । मिच्चत्तमोहियमती, जीवो इह रोग एव दुःखाई । कुत इत्याह। निस्सोधमाश्यादो, पावति य समाश्गुणहीणे । ७। "अज्ञानं जाइ सरोसिंगाउ, नृतणो सासवाणमित्ताउ। खबु कष्ट क्रोधादिज्योपि सर्वदाषेज्यः । अर्थ हितमहितं वा संजायइ गोसोया-विझोमसंजोगउ दुब्बाइ ।। न वेत्ति येनावृतो लोकः । ७ । जीवा पावंतिदहं पाणवधादविरतियपाए । नियसु य घायणमादी, बोसे जणगर रुकवायुवेदेजोणि-विहाणेयविसरसेहिंसो। पावे । ए। परसोगम्मिधि एवं, आसव किरियाहि अजिए दीसह जम्हा जम्म, मुहम्मतो नायमेगत्तो । कम्मे । जीयाणचिरगवायणि-रयादिगतिगमंताणं १०इत्यादि- ततः कारणानुरूपं कार्यमिति । सुधर्मनायमेकान्ततो यतः आविशम्यः स्वगतानेकनेदज्ञापकः प्रकृतिस्थित्यनुनाथप्रदे- शृङ्गादपि शरो जायते तस्मादेव च सर्षपानुलिप्तातूनूतृणकः शबन्धः नेदप्राहक इत्यन्ये । क्रियासु कायिक्याविनेदाःपञ्च- । शष्पसंघातो जायते । तथा गोमोमाविमोमाज्या पूर्वा प्रनषति Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्निधानराजेन्धः। इहभव इत्येवं वृक्कायुर्वेदे विनवणानेकाव्यसंयोगजन्मानो वनस्पतयो भावयति ( किंभणियमित्यादि ) किमेताधता प्रतिपादित दृश्यन्ते। तथा योनिविधानेच योनिप्राभृते विसरशानेकजय नवति इह तावन्मनुष्याः नानागतिहेतुभूतविचित्रक्रियानुष्ठासंयोगयोनयः सर्वहिंसादिप्राणिनो मणयो हेमादयश्च पदार्था यिनः सन्तीति प्रत्यक्त एय बज्यन्ते ततो यदि ते परहो के नानारूपाः समुपज्यन्ते अतः केयं कार्यस्य कारणानुरूपते तक्रियाफलनाज घ्यन्ते ततो यथैहत्यक्रियाणां स सरशता ति । अथवा यत एव कारणानुरूपं कार्यमत एवं नवान्तरे तया परझोकगतजन्तूनामपि सैव युक्ता । ननु योत्र यारशः स विचित्ररूपता जन्तूनामिति दर्शयति । परत्रापि तादृश पवेति अत्र परानिप्रायमाशझ्ध परिहरनाह । अहव जउब्धियविया-गुरूविजम्मं मयं तो चेव । अह रहसफनं कम्म, न परेत्तो सचहा न सरिसत्तं । जीवं गिएणनवाओ, नवंतरे चित्तपरिणामं ।। अकयागमकयनासा, कम्माजावो ह वा पत्तो । जेण जवंतरवीयं, कम्म विचित्तं तपोनिहियं । कम्मानावेह कओ, जवंतरं सरिसया व तदनावे । हेउविचित्तत्तणउ, नवंकुरविचित्तया तेणं ॥ निकारणनम्वन्ना, जइ तो नासो वि तह चेव । जइ पमिवनं कम्म, हेउ विचित्तत्तन विचित्तं च । प्रथैवं चूषे वह सफलं कर्मेति इह भव संबन्धे तत्कृप्यादि क्रिनो तप्फलं विचित्तं, पज्जवसंसारिणो सोम्म ॥ यारूपं कर्म सफझं नतु परनधिकदानादिक्रियारूपं कर्म । ततश्च अयवा यत एव बीजानुरूपं कारणानुगुणं कार्याणां जन्म मतं तत्फलं जवानपरोके जन्तुवैसदृश्यम् | अनोत्तरमाह । (तोतत पवेह नवाज़वान्तरे जीवं गृहाण प्रतिपद्यस्व । कथंनूतं सब्वहेत्ति ) तत एवं सति यत्तवानिप्रेतं तत्सर्वथा परनवे जातिकुवयबैश्वर्यरूपादि विचित्रपरिणामम् । यदि नाम बीजा जीवानां सहशत्वं न स्यात्तछि कर्मणा जन्यते ॥ तश्च नास्ति नुरूपं जन्म तथापि कथं नवान्तरे विचित्रता जीवाना मित्याह । पारभविकक्रियाणां त्वया निष्फलत्वान्युपगमत्वान्निष्फलत्धेच जेण भर्वकुरेत्यादि येन यस्मानारकतिर्यगादिरूपेण भवनं कर्मानावादय कर्माभावेपि नवेत्सादृश्यं तद्यकृतस्यैव तस्यप्रवः स पवाङ्करस्तस्य बीजमिह कर्मेवावसेयं तच्च मिथ्यात्वा निर्हेतुकस्यागमः प्राप्नोति कृतस्य च दानहिंसादिक्रियाफल रूपस्य कर्मणो नाशः प्रसञ्जति । अथवा मूलत एवं कर्मणा विरत्यादिहेतुवैचिच्याद्विचित्रं तस्मान्मयानिहितं तस्मात्त मभावःप्राप्तः दानहिंसादिक्रियाणां निष्पक्षत्वान्युपगमान्मूजन्यस्य नवाङ्करस्यापि जात्यादिभेदेन विचित्रता । ततो यदि हात एव कर्मणो बन्धोपिन स्यादिति भावः। ततः किमित्याह। त्वया कर्म प्रतिपनं हेतुवैचित्र्याश्च यदिच तद्वैचित्र्यमन्युपगतं कोभावेच कारणभावात्कुतो भवान्तरं तदनावे च दरोत्साततः ससारिणो जीवस्य तत्फलमपि नारकतिर्यङ्मनुष्यामर रितमेव सादृश्यम् । अथ कर्मानावेपि नव इष्यते ती निष्कारूपेण नवनरूपं सौम्य ! विचित्ररूपं प्रतिपद्यस्वेति । रण एवासौ स्याद्यदि चवमयभिष्यते ततो नाशोपि तस्य नव_ अत्र प्रमाणमुपचरयन्नाह । स्य निष्कारण एव स्यादतो व्यर्थस्तपोनियमाद्यनुष्टानप्रयासः। चित्तं संसारित्तं, विचित्तकम्मफलनावो हेऊ । निष्कारणे च भवे ऽन्युपगम्यमाने वैसादृश्यमपि जीवानां इहचित्तं चित्ताणं, कम्माणफलं च लोगम्मि । निष्कारणं किं नेप्यते विशेषानावादिति । चित्र संसारिजीवानां नारकादिरूपेण संसारित्वमिति प्रतिज्ञा अथ प्रेरकमाशय परिहरन्नाह । विचित्रस्य कर्मणः फरूपत्वादिति हेतुः । इह यद्विचित्रहेतुकं कम्माजावे विमई को दोसो होज्ज जइ सनायोयं । तद्विचित्रमुपज्यते यथेहविचित्राणां कृषिवाणिज्यादिकर्मणां जह कारणाणुरूवं, घमाइकजं सहावेणं ।। लोक शति । तदेवं कर्मवैचित्र्ये प्रमाणमाह । चित्ता कम्मपरिणई, पोग्गलपरिणामउ जहा बज्मा। अथ परस्यैवंजूता मतिः स्याद्यदुत कर्माभावेऽपि यदि सद्भा वरूपःस्वन्नाव एवायं सचेत्तर्हि को दोषः स्याद्विनापि कर्म यदि कम्माए चित्तया पुण, तलेज विचित्तनाबाउ । स्वभावादेव नवः स्यात्तर्हि किं क्षणं भवेन्न किचिदित्यर्थः । इह चित्रा कर्मपरिणतिः पुम्बपरिणामात्मकत्वादिह यत्पु दृष्टान्तमाह । यया कर्म विनापि मृत्पिएमादिकारणानुरूपंफलपरिणामात्मकं तद्विचित्रपरिणतिरूपं दृश्यते । यथा बा घटादिकार्य स्वभावेनैवोत्पद्यमानं दृश्यते तथा सद्दशप्राह्यो त्रादिविकारो वा पृथिव्यादिविकारो वा यनु विचित्रपरि णिजन्मपरंपरारूपो नयोपि स्वन्नावादेव भविष्यति । अत्रोणतिरूपं न भवति तत्पुद गलपरिणामात्मकमपि न नवति च्यते । ननु घटोऽपि स्वभावत एव जायते कर्तृकरणापेक्तियया आकाशम् । यः पुनः पुमतपरिणामसाम्येपि कर्मणामा त्वात्तस्य, ततहापि कर्तुरात्मनः पारभविकस्य च शरीरावर्णादिनेदेन विशेषतो विचित्रता सा तद्धतुवैचित्र्यादवगन्तव्या दिकार्यस्य करणं संभाव्यते । तश्च कर्तृकार्याज्यां निनं लोकपि विचित्राश्च मिथ्यात्वादयः प्रवेष मनिलवादयश्च कर्महेतव इति। दृश्यते ।कुलालघटायां चक्राविवाहात्मनः शरीरादिकार्य अथ पराज्युपगमेनैव परनवे जीवानां वैसहश्यं साधयन्नाह । कुर्वतः करणं तत्कम्मेंति प्रतिपद्यस्थेति । स्यादेतहटादेःप्रत्यक्तअहवा हलवसरिसा, परलोगो वि जइ सम्मो तेणं । सिकत्वाद्भवन्तु कुआझादयः कर्तारः, शरीरादिकार्य स्वन्त्रादिकम्मफलं मिशहनव-सरिसं पमिवज्ज परलोए। विकारवत्स्वजापतोपि भविष्यति सतो न कर्मसिकिस्तदयुकिंजणियमिहं माया, नाणागइकम्म कारिणो संति। तम् । यतो न स्वान्नाविक शरीरादि श्राधिमत्प्रतिनियता कारत्वावटवादिति । किंच कारणानुरूपमेष कार्यमित्येवं परभषे जर ते तप्फझनाजो, परे वि तो सरिसया जुत्ता ।। सारश्यं त्वया ज्युपगम्यते तदपि स्वनायवादिनस्तवाचाभयषा यदि यह नवसहशः परझोकसंमतो नवतः ततः कर्म- दिविकारहष्टान्ते परिहीयते । अनादिविकारस्य स्थकारणचूतफसमापि परोके ह नवसदृशं हित्य विचित्रशुनाशुन्नक्रि पुनमच्यादतिविनवणत्वादिति । अपिच । यानुरूप विचित्र प्रतिपदास्वेति । एवं मुकुरित प्रतिपरीतदेव । होज सहावो वस्यं, निकारणया च वत्युधम्मो वा। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहनव अनिधानराजेन्द्रः। इहनव जइ वत्थु नत्यि तो, एवमधीओखपुप्फंच ॥ रस्य सदैव सहशता न घटत इत्याह । (नप्पायेत्यादि) अञ्चतमणुवनप्छो, विअ अहतउ अस्थि नत्थि तो कम्मं । यद्यस्मादुत्पादस्थितिहङ्गादयश्चित्रा वस्तुपर्याया न च ते सदै वावस्थितसादृश्याः नीलादीनां वस्तुधर्माणां प्रत्यक्वत पवाहेज वि तदत्थित्तो, जो नणुकम्मस्स विसयव्य ।। न्यान्यरूपतया परिणतिदर्शनात् । किंच वस्तुधर्मोसौ नवत्स्वकम्मस्स वानिहाणं, होज सनावोत्ति होउ को दोसो। भाव आत्मधर्मो वासौ स्यात्पुझवधर्मो वा । यद्यात्मधर्मस्तर्दि निच्चं च सो सजावो, सरिसो पत्थं च को हेक॥ नासौ शरीरादीनां कारणम् अमूर्तत्वादाकाशादिवदय पुसपतमाथात्रयमपि प्रायः पावेनैव व्याख्यातार्थ नवरं निश्चमि- धर्मस्तर्हि कम्मैवासौ कर्मणोपि हि पुसमास्तिकायधर्मत्वेनास्मात्याह तृतीयगाथोत्तरार्धम् । श्वमत्र हृदयं स स्वभावो नित्यं निरन्युपगतत्वादिति । किंच॥ सरश पव त्वयान्युपगन्तव्यो जवान्तरे सदृशस्यैव मनुष्या कम्मस्स वि परिणामो, मुह धम्मधम्मो सपोग्गझमयस्स। दिलवस्य जननात्तस्य च स्वनावस्य नित्यसदृशत्वे को हेतु हेक चित्तो जगओ, होइ सहायोत्ति को दोसो॥ ने कश्चिदित्यभिप्रायः । स्वभावतः यद्ययं स्वभावः सदृश इति चेन्ननु नवविसदृशतायामप्येतद्वक्तुं शक्यत पवेति । किंच सुधर्मनसौ वस्तुधर्मो नवत्स्वभावो धर्मो नवति को दोषोन मुत्तो वा मुत्तो वा, जइ मुत्तो तो न सव्वदा सरिसो । कभित् युक्तियुक्तत्वात्किविशिष्टो धर्म इत्याह । परिणामकस्य कर्मणः कथंनूतस्य पुनझमयस्य कथनूतो यः कर्मपरिणाम परिणामो पयं पिव, न देहहेज जइ अमुत्तो।। इत्याह । हेतुः कस्य जगतो जगद्वैचित्र्यस्य तदेवं कर्मसक्वणस्य नवगरणाजावाओ, न य हवइ सुहम्म सो अमुत्तो वि । वस्तुनःपरिणामरूपो धर्मो जवति स्वभावो नात्र काचिदोषापत्ति कन्जेसु मुत्तिमत्ता, सुहसंवित्ताहिओ चेव । रस्माकमपि सम्मतोऽयमर्थः केवलं सर्वदा सदृशोसौ न भवति सस्वनावो मूर्तोऽमूतों वा यदि मूर्तस्तहि कर्मणा सह तस्य किन्तु चित्रो मिथ्यात्वादिहेतुः वैचित्र्याविचित्रो विविधस्वन्नाको विशेषः, संज्ञान्तरमात्रविशिष्टकम्मैवेत्थमुक्तं स्यादिति।न वः । अतो न तस्मात्परभवे सादृश्यमेव किन्तु विचित्ररूपतेति चासौ सर्वदैव सर्वथा सहशो युज्यते परिणामित्वाग्धादि- यदिवा किमनेनाव्यापकेन मिथ्यारूपेण चैकान्तवादेन, सर्वव्याबदथवा मूर्तत्वादेवाभ्रादिविकारवदिति। अमूर्तोऽसौ स्वना- पकमवितथरूपं चानेकान्तवादमेव दर्शयन्नाह । वस्तहिं नैष देहादीनामारम्जको ऽनुपकरणत्वाइएमादिवि- अहवा सव्वं वत्यु, पइक्खणं चिय सुहम्म धम्मेहिं । काकुत्राअवदमूर्तत्वादाकाशवत् (नय हवश्सुहम्मसो प्रमुत्तो संजव चेइ केहि वि, केहि वि तदवत्थमच्चतं ।। वित्ति) किंच सुधर्मन्नितोऽपि स स्वनाबो ऽमूतों न युक्तः तं अप्पणो विसरिसं, न पुव्वधम्महिं पच्छिमियाणं । शरीरादेस्तत्कार्यस्य मूर्तिमत्त्वानह्यमूर्तस्य नभस श्व मूर्त कार्यमुपपद्यते । तया सुखसंविल्यादेश्व नायं मूर्तः । श्दमुक्त सयन्सस्स तिहुयणस्स व, सरिसं सामस्म धम्महि । नवति । कर्म तावद्भवता नेष्यते स्वभाववादित्वात्ततश्च श अथवा सुधर्मन्किमेक एव परभवः सर्वमेव हि घटपटादिक रीरादीनि सुखपुःखसंवित्यादीनि च स्वनावस्यैव कार्या हवनान्तर्गतं वस्तु कैश्चित्पूर्वपर्यायैः समानासमानपर्यायैः एयष्टव्यानि न तस्य वा मूर्त्तत्वेनैतान्युपपद्यन्ते । ततो यथा प्रतिक्कणमुपपद्यते । कैश्चित्पुनरुत्तरपर्यायैः समानासमानपर्याद्वितीयगणधरवादे कार्यस्य मूर्तत्वात्सुखसंवित्यादेश्च कर्मणो- यैव्यति व्युपरमति । कैश्चित्तदवस्थमेवास्ते। ततश्चैवं सतितरमूर्तत्वं साधितं तयह स्वनावस्यापि साधनीयम् । तथाच प्रा- त्यात्मनो पूर्व धम्मैरुत्तरोत्तरधर्माणां न सरशं कि पुनरन्यगुक्तम् आह । “नणु मोत्तमेयमुत्तं,चिय कज्जमुत्ति मत्ताज। इह वस्तूनाम् । सामान्यधर्मस्तु सर्वस्यापि त्रिवनस्य समानं जह मुत्तित्तण ओ, घमस्स परमाणवो मुत्ता । तहसुह संवि किंपुनरेकस्यैव निजपूर्वजन्मन इति । सीच, संविधिवेयगुब्जवाओ य । वस्जवलाहाणीन, परिणामा ___ ततः किं स्थितमित्याह । माग्यविएणेयमिति" को सबहेव सरिसो, सरिसो वा इहलवे परनवे वा । अथनिष्कारणता स्वभावमिति हितीयविकल्पमधिकृत्याह सरिसासरिसं सव्वं, निच्चानिच्चाइरूवं च ॥ अहवा कारण चिय, सनावउत्तो वि सरिसया कत्तो। को ह्यथोऽर्थान्तरात्मना वा स इहभवेपि सर्वथा सदृशोऽ. किमकारणान न नवे, विसरिसया किंन विच्छित्ती॥ सहशो वा किंपुनः परजवे । तस्मात्सर्वमपि वस्तु स्वधर्मेअथ स्वनावत एष प्रवीत्पत्तिरित्या अकारणत एवेत्यय- णापि सह समानासमानरूपमेवेहनवपीति कुतः परजवे मयोभिप्रेतः (तावित्ति ) तथापि हन्त ! परनवे सरशता सादृश्यमेव प्रतिज्ञायते । इति भवत इति भावः। तया सर्वमपि कुतः कोऽभिप्राय इत्याह । यथा कारणतःसहशता जबति तथा नित्यानित्याद्यनन्तधात्मकमिति । किमित्यकारणत पव विसरशता न स्यादकस्मायाकारणतो ___ अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन प्रतिपादयितुमाह । जवविच्छित्तिःकस्मात्र स्यादकस्माच प्रवेत्खरविषाणादिरपि जह नियएहिं विसरिसो, न जुवा नुवि बासबुधम्महिं। प्रवेच्चरीरादीनां च कारणत्वात्तेन चानादीनामिव प्रतिनियता जगमो विसमो सत्ताइ, एहिं तह परनवे जीवो ॥ कारणत्वादिरूपता न स्यात्तस्मानाकारणता स्वभावत इति । यह युवा निजैरप्यतीतानागासवृरुत्वादिपर्यायैरात्मअथ यस्तुधम्मामाथिति तृतीयविकल्पमाश्रित्याह। नोपि सर्वथा न समानः सत्तादिभिस्तु समान्यपर्यायैर्जगति अहव सहावोधम्मो, वत्पुस्म न सोविसरिसोनिच्छ । न केनचिन्न समानस्तयायमपि जीवः परलोकं गतः सर्वेणापि नप्पायटिइनंगा, चित्ता जंवत्युपज्जाया ॥ सह समानासमानरूप एपेति । कुतः सर्वथा सादृश्यमिति । अथ वस्तुनो धर्मस्वनावः सापि सर्यदेव सरशी न घटत _ पतष रतन भावयति ॥ इति । किं कथं सर्वदेव शरीरादीनां सरशतां जनयत्कथं पुन- मणो देवीनूओ, सरिसो सत्ताइएहि जगमो वि। Jain Education Interational Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवि देवी व सरसो, निचानियो वि एमेव ॥ मनुष्यो मृत्वा देवत्वमापन्नो जगत्त्रयस्यापि सप्तादिभिः पर्याबैः सह देवत्वादिनिस्तु विसदृशः इति नैकान्तेन कापि सदृशता । तथा द्रव्यतयासौ नित्यः पर्यायतया त्वनित्य इत्या द्यपि वक्तव्यमित्याद । नन्यस्मातिरपि नैकान्तेन परनवे सायमन्युपगम्यते किंतु मामेवेयले पुरु पादित पुरुषादिरेव भवतीति । तदप्ययुक्तं कर्मजनित परभव इति साधितम् तच मिध्यात्वादि विचिन्य त्यादिवत्रमेवेत्यतस्तान्यः परनयो विचित्र पत्र पुज्यते नतु समानजात्यन्वयः सिभ्यतीति । किंच ॥ (६७८ ) अभिधानराजेन्द्रः | करिसा बकरिसा, न समायाए वि जेण जाईए । सरसम्मा जम्हा, दाणा फलं चिड़ी तम्हा | सघ्र समानजातीयादे सति येन यस्मादीश्वररूकुञ्जनाकुलीनादिरूपेणोत्कर्षापकर्षो न घटां प्राञ्चतः । यो हि यादृशः महभवे स यदि परभवेोपि तादृश एव तर्हि य इदभवे ईश्वरः स परनवेपि तादृश एव एवं दरिद्वेष्वपि वाच्यं ततबेद नषात्परभये सर्वप्रकारैराकर्षापकर्षीन स्पात क कान्तसराच प्रवेत् तदति तस्मान्मास्यप्रति प्रक्रमाद्रष्टव्यम्। श्रयेत्यमा यही था मा भूतामुत्कर्षापकच का मो हानिशियार ( जम्दा दायाम फर्म विदिति ) चकारस्य गम्यमानत्वाद्यमाचेरथं परत्रोत्कर्षापकर्षयोरभावे दानादिफलं वृथा संपद्यते लोको दि परत्र देवादिसमृद्धिप्राप्त्या आत्मन उत्कर्षार्थ दानादि प्रवृत्तिं विदधाति यदिचोक्तं सुख्या उत्कर्षायभावादरिद्रो दानतपस्ती चांवगाहनाद्यपि कृत्या मुत्र दरि एव स्यात्साई क तद्दानादिफलमित्यपार्थिका दानादी प्रवृत्तिस्तस्मा विधेयः सादृश्यग्रह प्रति स्मिन् सादृश्यग्र वेदपदानामप्य प्रमाण्य मापद्यत इति दर्शयन्नाह । I जंच सिलोगो वएस जायए बेयविहिय मिचाइ । सग्गीयं जंच फर्म, तमसंघ मरिमयाय ॥ यश्च शृगालो वै एव जायते यः स पुरीषो दह्यत इत्यादि वेद चितिं तदपि परनवसदृशतामदे संवय एव स्यात्पुरुषादेरमुत्र शृगा प्रसाधनुपपत्तेः तथा यद्यप्यग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्ग कामः स त्वन्यथाऽग्निष्टोमेन यमराज्यमभिजायत इत्यादिकं स्वर्गीय फरक वात्स्यगय फलं तदप्यवमनुयस्य त्यभिप्रायेण देवत्वानुपपत्तेरिति पुरुषो वै पुरुषत्यम ते पहाः पत्यमित्यादीनां च वेदनामयमर्थः । कापि पुरुषः स्खल्विह जन्मनि प्रकृत्या नद्रको विनीतः सानुक्रोशोऽमत्सरच मनुष्यनामगोत्रे कर्मणि च मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते नतु नियमेन सर्व एव अन्यस्यान्यकर्मवशगस्यान्यथाप्युत्पत्तेः । एवं पायोपि केचिन्मायाविदोषवशात्पशूनामगोत्रे कर्म बा परभये पशवो जायन्ते नतु सर्वेपि नियमेन कर्मापहित्यायें जीवगतेरिति । विशे० ( स्युतिसमये भवः परभयांति करणशब्दे चिन्तयिष्यामि ) इहजविपाउय रहजविका २० वर्तमाननयायुषि । म० ५ श० ३ ४० । 31 क० स्वायें या २६॥ इति प्राकृत सूत्रेण स्वार्थे कः । प्रा० । अस्मिन्नित्यर्थे - वाच० । इहरा इतरथा अव्य० "हरा इतरथा" पा० २।२२ इति प्राकृत सूत्रेण शहरा इति इतरथार्थे वा प्रयोक्तव्यं । पक्के यथा प्राप्तम् 66 इहलोइय• अन्यथार्थे,“शहरा नीसासन्नेहिं" पक्के इअरहा। प्रा० नि० 66 66 66 चू० । शहरा सपरूवघाओ " इतरथा अन्यथेति । दर्श० । दरा समूहसिको " इतरयोप्रकारादन्यथा समूहो रत्नानां सिको निष्पन्न इति-सम्म० हा विय वीयमेयस्स” इतरथान्यथा भावव्यतिरेकेणेत्यर्थः इति । पंचा० २ विव० । शहरा अणत्थतं " पंचा० ६ विष० । इहलोइय ऐहलौकिक ० हो भयः उपि वाच० । ऐहिके,-'अन्नस्स पाणस्लिह सोश्यस्स' अन्नस्य पानस्य वा कृते ऽन्यस्य वैदिकार्यस्य वस्त्रादेः कृते इति । सूत्र० १ ०म० सोम योजने, 'होश्या थि किं पुण हीि की लोकप्रयोजनापि कृप्यादिकापीत्यर्थः । पंचा० ४ विव० लोकगते, "सोइया बिहाणिति " पेक् लोकगतान के परलोकगता हानिरिति। पंचा३विष इहलोककृते, इड्जन्मभवे च " श्यलोश्याएं परलोश्याएं जीमाई अगरूवाएं अविसुष्निदुब्भिगंधाएं सहाई अणेगरुवाई” श्लोके भवा ऐहलौकिका मनुष्यकृताः के ते स्पर्शा दुःखषिशेषाः । यदिवा श्दैव जन्मनि ये दुःखयन्ति दएकप्रहारादयः प्रतिकूलोपसर्गास्त इहलौकिका इति । आचा० १श्रु० ए श्र० ३ ७० लोके पेसीफिक व्यवसायमेव ये वर्तमानस्य निश्चयोऽनुज्ञानं वा स पेट्लीकिको व्यवसाय इति स्था० ३ वा० । इहसोय- इहलोक - पु०श्म प्रथमार्थे । कर्मपदक समा लोकको यथा मनुजां मनुष्यस्य तियं तिरका इति दर्श० । अस्मिन् लोके, आचा० १०५ श्र० ४ ० " इहलो गहाबविऊ" इहास्मिन्नेव लोके हिरण्यस्वजनादिकं 5:खमावतीति । सू० १ श्रु० २ अ०२ उ० । मनुष्यलोके, स्था० ३ ग० । आव० | " इलोगपरिणीय " इहलोकस्य प्रत्यक्षस्य मानुषत्व लवणपर्य्यायस्य प्रत्यनंकि इति । प्र० श०८० लोगो मस्सस्स लोगो इति । आ० चू० । श्रस्मिन् जन्मनि, आचा०१ श्रु. ५ अ०४ उ० । मनुष्यजन्मनि, स्था० ४ ० लोगगवेग- इहलोकगवेषक- जि० अन्योन्यत्र कपानापभोगेन केवलस्ये लोकस्यैवान्वेषके, वृ० १ ० ॥ इलोग मणीय - इहलोकमत्यनीको प्रत्य कमानुषत्वलचणपर्यायस्य प्रत्यनीकः इन्द्रियार्थप्रतिकूल का रिस्वात्पञ्चाग्नितपस्वियदिप्रत्यनीका इन्द्रियार्थप्रतिकलकारिणि गतिम्यतीत्य मनुष्यलोकप्रत्यनीकरुपे प्रत्य नीकभेदे - इह लोकोपकारिणां जोगः साधनादीनामुपवकारिथि, सोको मनुष्यलोकस्तस्य प्रत्यमी का प्रिरूपमेति लोकप्रत्यनीका मनुष्यलोकस्य विप्ररूपणा रिव । स्था० ३ ग० । " इसोकपश्चिक- इहलोकमविक०ि निर्वाहादिमात्रार्थनियामे खाए लोकप्रतिका निर्वादादिमात्राथिंना मिति स्या० ४ ० ( विशेषार्थस्तु पवजा शब्दे ) लोहपरसोइय ऐहलौकिकपारलौकिक पर मय पहलौकिकपारलौकिकः । इह परत्र च नवे तदात्मके व्यवसायभेदे च परिषद पर सकार किक इति । स्था० ३ ग० । इश्यपारसोइयकज्ज - ऐहली किकपारलौकिक कार्य - १० "र्तमान पपरप्रयमयोजनाये Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगय इहओइयपारलोय - कज्जाणं पारसोइयं अहिगं । सं पिहुजापहाणं, सो विष इवकज्जगम्योति || पेहली ककपारलौकिक कार्ययोर्यर्तमा नभयपरनयप्रयोजनयोः साध्ययोर्मध्ये पारलौकिकं पारजविकं प्रधानतरं विशेषतस्तस्य साधनीयत्वात साधने बहु तमाम संजवात्पारोफिककृत्यं च जिनपूजयत नान्यदुपयोगस्यानं तयरसाधनानामिति । तत्र च यत्प्रधानं तद्दर्शयितुमाह । ( तंपि हुत्ति ) तत्पुनः पारलौकिककार्य नाव आत्मपरिणामः प्रधानः साधकतयोत्तमो यस्मिंस्तद्भावप्रधानं शुननाघवाभ्यमतोसी भावविशेषो विशिष्पारमीकिक कार्यार्थिनां समाश्रयणीय इति हृदयम् । यदि नावप्रधानं ततः किमिस्याह ( सोवियन्ति ) स पुनः पारलौकिक कार्यहेतुतो भाव इति कार्यगम्य इत्येवंविधमनन्तरोक्तं यत्कार्ये भावस्य कृत्यं पूजार्थप्रवरपुष्पाद्युपादानरूपं तेन यो गम्यो निश्चेतव्यः स इति कार्यगम्यः । इति शब्दः समाप्ताविदमुक्तं नवति । परओकसाधन शुभ नाव कार्यत्वात्यचरसाधनोपादानस्य शुप्रभावं सफलयद्भिस्तद्विधेयं भवतीति गाथार्थः । पंचा० ४ विव० । (६७९ ) अभिधानराजेन्द्रः । इहलो गजय-इहलोकजय- न० इहलोकः समानलोकः सदृशोको यथा मनुजो मनुष्यस्य तिर्व्यङ् तिराधस्तस्माद्भयमिदलोकनम् । दौ० मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्य स्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्रयं प्रयति तोक प्राधिकृत मितो जाता मोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तिः । स्थाog aro | श्राष० । सम० । भयभेदे तच्च यथा राजामात्रकारकार्यकरणं प्रति प्रजानां सिंहादेव मृगादीना मिति । इहलोगवेयण - इहलोकवेदन - न० इहास्मिन् लोके जन्मि वेदनमनुजवनमिह लोकवेदनम् । इहलोकानुजवने,- श्राचा० १ श्रु० ५ ० ४ ० । इहयोगवेषणवे-इहलोकवेदनवेच श्री० स्वास्मि सोके वेदनमनुनयनमिद ओदनं तेन मनुभवनीयमिदमोक वेदवेद्यम् । दोकानुभवेनानुप्रचनीये, आचा० २०५ अ० ४ ० । इगवेषणवेज्जावकिय इहलोकवेदनवेद्यापतित- वि० दिनकम्मं तं परिक्षा विवेगमेति" इदास्मिन ओके जन्मनिबेदन लोकवेदनं तेन वेद्यमनुभवनीय मह लोकवेदन सभापतिमि लोक वेदयेद्यापतितम् । द मुक्तं भवति प्रमत्तयतिनां ऽपि यदकामतः कृतं कर्म कायसंघट्टादिना संदेदिकमवानुवन्ध तेनैव नवेन कृप्यमाणत्वा दिति । आचा० १ ० ५ ० । इहयोग संवेगिणी - इहलोकसंवेगिनी - स्त्री० इहलोको म दुष्यजन्मतास्परूपकथनेन संगिनी लोकसंवेग सर्प मिदं मानुषत्यमसारमभुवं दस्तम्न समानमित्यादिरूपे संवेगिन्याः कथायाः प्रथमे भेदे, स्था० ४ aro | होगा इहलोकापेक्षा ० - विहिपाणमिति एवमेयं सपाकरेताय । होइ चरणस्स देऊ, णो वह लोगादवेक्खाए । ४ । ईर विहितमाप्तागमे विधेयतयानुमतं यदनुष्ठानं क्रिया तकिहिसानुष्ठानमिदं जिननयनादिकरणलक्षणमिति । अनेनोन एवमनेन भावस्तवानुरागलक्षणेन सूत्रविधिलक्षणेन वा प्रकारेण पतजिन नवनादिविधानं सदा सर्वकालं कुर्वतां विदधतां नवति जायते । चरणस्य सर्वविरतिरूपचारित्रस्य हेतुनिमित्तम्। तदेव जिननधनादि । उक्तविपर्यये यद्भवति तदाह मो नैव श् लोकाद्यपेक्षया मेहनचिकीत्यादि पारन विकदेव स्वराज्यादिपदार्थासम्बनेन चरणस्य हेतुर्भवति एतञ्जिनमवनादिविधानं निदानहृषितत्वादिति गाथार्थः । पंचा०६ विव० । इहलोगासंसप्प ओग - इहलोकाशंसाप्रयोग- ५० लोको नरलोकस्तत्राशंसा राजा स्यामित्याद्यभिलाषस्तस्याः प्रयोगो व्यापार इह लोकाशंसाप्रयोगः । धर्म० २ श्रधि० । अपश्चिममारणान्तिक लेखनाजोपणाराधनाया अतिचारविशेषेउपा० । स च श्रेष्ठी स्यां जन्मान्तरे ऽमात्यो वेत्येवं रूपा प्रार्थनेति । उपा० १ अ० श्राव० आध० ॥ (ईकार ) " ई-ई-कि-विषादे दुःखभावनायाम्, क्रोधे अनुक पायां प्रत्यके सनिधी, सम्बोधने वाप पापेपि निषेधे, नयनभ्रमे । ६। एका० । पादपूरणे च । "ई जेरा पादपूरणे” ८ । २ । १७ । इति । प्रा० मेदिन्यामयं सान्तत - या परितः । पृषोदरादित्वात्साधुः । वाच० । ई- स्त्री० म्याम्, वायरमा मदिरा मोटे, महानन्दे शिरोमे यमुपाद्यन्तो नासोस्माोपनं सुषः । ७ ई ययोत्रजसो रूपं, स्यादमारूपमीः शसि । ई शब्दो अव्यपश्रये व्ययं वृद्धैः प्रदर्शितम् । । एका० । ईति ईति ० ते १२ उत्पादिते ि 1 ३ प्रवासे ।" अतिवृष्टिनावृष्टिराशनाः सूषिकाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः समेता ईतयः स्मृताः 'इत्युक्ते ४ कृषेरुपबनेदे च । स्त्री० निरातङ्का निरीतयः' रघुः । वाच० ईतिर्धान्याद्युपद्रवकार प्रचुरमूषिकादिप्राणिगण इति । सम० ३४ स० । जं० । प्रचुरशलनकमु षिकाद्या धान्यादिविनाशका इति प्र० ४० द्वा० प्रायो चर्षासु शस्योपरुपकारिणो मूचिकादय इति दर्श० ॥ ईरा ईरण १० -माये युद प्रेरणे, आय००।- “६न्द्रियाणि समीरए' इन्द्रियाणानिष्टविषयेज्यः सकाशाद्रा गद्वेषाकरणतया सम्यगीरयेदिति । श्राचा० १ ० ० ० उ० गती, आ०म० द्वि० । स्था० । श्राचा० । कथने, 'घोरे धम्मे उदीरयन ईरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरादिभिरिति । आचा० १ ० ० 9 ० । युच् Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८०) ईरिय अभिधानराजेन्डः। ईसाणिंद ईरणा तत्रैव स्त्री० । नन्द्या-ल्यु प्रेरके, त्रि० समीरणः प्रेरयिता शेषोपत्नक्विते स्वनामख्याते कर्बलोकविशेषे,- अनु० । नवेति-कुमा० । वाच। कल्पभेदे, स्था०१०ग विशे० । श्रा० चू०। देवलोकईरिय-ईरित-त्रिप्रेरिते,-आव ४ अादर्श० । चोदिते- नेदे, तशोकवासिनि कल्पोपपत्रके वैमानिकदेवभेदे, प्रव० "समीरिया कोवलिं करिति" समीरिताः पापेन कर्मणा द्वा०। विशे० ईशानकल्पस्थे ईशानदेवेन्च । स्था०१० ग० चोदितास्तानारकान कुट्टयित्वा खएमशः कृत्वा नगरवनिव विशेासमा ईशानस्थानशब्दे वक्तव्यता- (श्शानेन्छवक्त न्दितश्चेतश्चाविपन्तीत्यर्थः इति । सूत्र० १७० ५ ०२ न. व्यता गणशब्द ईसाणिदशब्दे ऽपि-)। प्रभौ, । "उतामृतकथिते, प्रतिपादिते, आचा०११०६०४०।"संके- त्वस्येशानः" अमृतत्वस्यामरणन्नावस्य मोक्कस्येशानः प्रतुपानिरपेक्वाणां यतीनां धर्म ईरित." रितः प्रोक्त ति-धर्म० रिति । विशे०। आ०म० द्विज ईश-ताच्छील्ये चान-ऐश्वर्य अधि० । जनिते, कृते च । “ ससद्दफासाफरसा उदी रिया" | शीसे, रुद्रमूर्तिनेदे, पुं० । “अहोरात्रभवेषु त्रिंशन्मुहूर्तेषु उत्प्राबल्यनेरिता जनिता कृता इत्यर्थ शति । प्राचा०। स्वनामख्याते एकादशे मुहूर्ते,-जं०७ वक्त। दश०५०। कल्प। ईसो-देशी, रोमाख्ये मृगे, देना। ज्यो । समवायांगे तु षोमशो मुहूर्त शति । सम० ३ स०। ईसक्ख-ईशाख्य- त्रि० ईश ईश्वर श्त्याख्या प्रसिभिर्येषां ते ईसाणकप्प-ईशानकल्प-पुं० मेरोरुत्तरवर्तिनि परिपूर्णचन्द्रईशाख्याप्रसिके ईश्वरे, ईशनमीशो भावे घञ् प्रत्ययः । मामलसंस्थानसंस्थिते कल्पविशेषे, राज । सद्वक्तव्यता ऐश्वर्यमित्यर्थः । ईश ऐश्वर्ये ति वचनात् । तत ईशमैश्व- .रिश्शब्दे-) य॑मात्मनः ख्यान्ति अन्तर्भूतएयर्थतयाऽऽ रव्यापयन्ति प्रथय- ईसाणवमिंसय-ईशानावतंसक- पुं० ईशानकल्पस्थसकसन्तीति ईशाख्याः । आत्मन ऐश्वर्यस्य प्रसिफिकारके,-जी- विमानप्रधाने स्वनामख्याते विमाने,-अनु० । तथाच-प्रका३ प्रति० । प्रज्ञा। पनायाम्पञ्चविमानावतंसकान्प्रतिपाद्योक्तम "मज्जश्त्ये ईसाण ईसत्त-ईशत्व-नसर्वत्र प्रभविष्णुतारूपे सिकिविशेषे, घा- | वहिंसप" मध्ये ईशानावतंसक शति-प्रा०२ पद० ॥ १६ छा। ईसाणिंद-ईशानन्ध-। ईशानकल्पस्थवैमानिकदेवानामिन्छे, ईसत्थ-इषुशास्त्र- न० । चतुष्षष्ठिकमान्तर्गते काभेदे, झा तद्वर्णको यथा१०। सच धनुर्वेदः-प्रश्न० ५ द्वा। ईसत्थंति प्राकृतशै- तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूल ल्या इषु शास्त्रं नागवाणादिदिव्यास्त्रादिसूचकं शास्त्रम् रति- पाणी वसहवाहणे उत्तरप्लोगाहिवई अट्ठावीसविमाण जं०२ वक० । सम. तथाचावश्यके भगवत ऋषभदेवस्य वर्णनमुपक्रम्योक्तम् "ईसत्थंधणुवयो" इषु शास्त्रं नाम धनु वाससयसहस्साहिवई अरयंवर वत्थधरे अन्नइयमालमउर्वेदः स च तदैव राजधर्म सति प्रावर्ततेति- प्रा० म०प्र० । में नवहेमचारुचित्तचनचंचकुंमलविनिहिजमाणगंमे ईस-ईश- पुं०ईश-- क- ईश्वरे, प्रज्ञा०२ पद । जी० । परमे- जान दसदिसाओ उज्जोवेमाणे उज्जोवेमाणे ईसाणकप्पे श्वरेषु, महादेवे, रुरुसङ्ख्यातुल्यसङ्ख्याकत्वात् एकादश- ईसाणवम्सिए विमाणे जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव संख्यायाम, आर्जनकत्रे च । वाच । ईशानमीशो भावे दिव्यं देविति॥ घ ऐश्वर्ये, ईश ऐश्वर्ये इति वचनात् प्रका० ५ पद । (जहेव रायप्पसेणजेत्ति) यथैव राजप्रश्नीयाख्ये अध्यईस-देशी० कीसके, दे० ना० । यने सूरिकानदेवस्य वक्तव्यता तथैवचेहेशानेन्द्रस्य किमन्ते ईसमित्त-ईशमित्र-न०कुबेरे, - प्रा० को। त्याह (जावदिब्वे देवकृिमिति )सा चेयमर्थसंपतः सन्नायां ईसर-देशी० मन्मथे, दे० ना। सुधर्मायामीशाने सिंहासने प्रशीत्या सामानिकसहस्रैश्चतुर्भिईस सह-शिसख-पुं०षष्ठीतत्पुष्टच-समा० कुबेरे-बहु०न टच् लोकपालैरष्टाभिः सपरिवाराभिरममहिषीभिः सप्तन्निरनीकैः ईशसखा श्त्येव शमित्रादयोप्यत्र- वाच । सप्तभिरनीकाधिपतिनिश्चतसृनिश्चाशीतिभिरात्मरक्तकदेवस हस्राणामन्यैश्च बहुनिर्देवैर्देवीनिश्च परिवृतो महता नृत्तनाईसा-ईया-स्त्री० परगुणासहने, उत्त०३४ ०। ट्यादिवेण दिव्यान् भोगजोगान् शुआनो विहरति स्म । ईर्ष्यान्सीj जावे खीत्वात् टाप् । अकमायामपरवृश्यसहि जाव जामेव दिसिं पानब्लूए तामेव दिसिं पमिगए नंते! हातायाम, । वाच०। प्रतिपक्काज्युदयोपनम्नजनितो मत्सर त्ति नगवं ! गोयमे समणं लगवं महावीरं वंदई नमसइ विशेष ईयेति । प्राप०४० सम । आ०म०द्वि०। पै ५त्ता एवं बयासी अहो णं नंते ! ईसाणे देविंदे देव शुन्य साहसं बोहमीप्या सूयाऽथ दूषणम् । वाग्वएमजश्चपारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः । मनुः। एतेषाश्च। क्रोधप्रव- राया महिक्लिए ईमाणस्स णं नंते ! सा दिव्या देविठ्ठी तकत्वात् क्रोधजत्वम्- । अत एव । "क्रुधनुहेासूयार्थानां यं कहिं गते कहिं पविहे ? गोयमा ! सरीरं गए से प्रति कोपः-पा० दुहादयोऽपि-कोपप्रतावा एवं गृह्यन्तेऽतो केणणं नंते ! एवं वुच्चई सरीरं गए ? गोयमा ! से विशेषणं सामान्येन यंप्रति कोप शति सि० कौ०।धरणेन्जभव जहा नामए कूमागार सामासिया दुहोलित्ता गुत्तागुत्त नपतीनामप्रमहिषीनां प्रथमपर्षदि-स्था० ३०। दुवारा णिवाया णिवायगंजीरा तीसेणं कूमागारं जाव ईषा स्त्री० ईश्-क-शकटस्य दोषकाष्ठे, हलयुगयोर्मध्यस्थकाष्ठे, सागसदएमे च । पाच। कूमागारसामादिळूतो नाणियव्वा इसाणेणं नंते ! देईसाण-ईशान- पुं० सकनविमानप्रधानेशानावतंसकविमान- विंदे देवरनो सा दिव्वा देविठ्ठी दिव्वा देवजुत्ती दिव्वे विशेषे, अनु० । सकसविमानप्रधानशानावतंसकविमानवि- । देवाणुजावे किनालके किनापत्ते किया अजीसमप्मागए Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८१ ) अभिधानराजेन्द्रः । इसालु के एस भासी पुत्र अये किमामए वा किंगोलेवाकपरेस नामसिना नपरोस वा जाब सन्निवेसि वा किं था दया कि वा जोबा किंवा किया किंवा समयारिता कस वा तहारूवस्स समास्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमा परियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म जेष्ठां देविदेणं देवर सा दिव्वा देवि ना प्र जिसमणागया एवं खलु गोपमा ! | ईसा ईसिन्भाग समञ्जसं तु दृष्ट्वा तथापि परिखिद्यते चेतः" इति । अव्य० । नपुंसकभेदे, । सच यस्य प्रतिसेव्यमानां वनितां विलोक्य प्रकाममर्थ्याभिलाषो जायते स ईर्ष्यालुरिति । ग० १ अधि० । ० प्र० । ईर्ष्यालुर्नाम यस्य प्रतिसेव्यमानं दृष्ट्वा ईर्ष्या मैउत्पते सोऽपि निवेदः कालान्तरेण प्रेराशिको भवतीति वृ० ४ ० । ईसाबु - ईर्ष्यावत्- त्रि० " आविल्लोल्लासवन्तमन्तेन्तेरमणामतोः” । २ २ ५० । इति प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थानेभानुरादेशः । ईर्ष्यायुते, प्रा० । 66 इंसि- (ईसि) (ईसी) ईषत् अन्य० पतिः स्वयदी ८|२| इतिप्राकृतसूत्रेणेत्वम् । वा स्वरेमश्च- । १ । २४ । इतिप्राकृतसूत्रेण बाहुलकाधिकारान्मकारादन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः अन्त्यव्य जनस्य । २ । ११ इति प्राकृतसूत्रेण वा लुकप्रा० । अल्पे, - सम० ३४ स० । स्तोके, प्रका० ३६ पद० अल्पनावे, नि० ० १० । मनागित्यर्थे प्रज्ञा० १७ पद जी० । औप० । आ० म० प्र० । जं० "ईर्सि असोगवरयायवे " ईषत् मनागिति- राज । " ईसि पाई" मनागनगारं तम्यां पातयति इति - भ०१६ श० ३ ० । इसिं बंध समतीये कन्यमित्युच्यते तस्याशोकपरपादपस्य ईन्मनाकू लम्यग्नीनस्तदासन्न इत्यर्थः । राज० । किञ्चिदर्थं च 646 I मार्थे गये लोकाग्रस्ये पृथिवी विशेषे च स्वा०पा० औ० (तन्यता रेसिपम्भारा शब्दे ) ईसि - दशी० शवरशिरः पत्रपुटे वशायिते च । दे०ना० । ईसि - (ईसे) (ईसी) खट्टापनंवि (न)- पदाष्टायाविन् वि० ईषत् मनाक् ततः परमास्वादतया ऊटित्येवाग्रतो गच्छति मोठे असते गतीत्येवं शत्री मनागीष्ठावलम्बिनि । "ईसि उठावलम्बिणी". प्रज्ञा० १७ प० । ईसि (ईसि) (इसी) पछिकरणी-ईपतान्नादिकरणी जम्बूदीपमधिनाऽलोकयन् भगवन्तं महावीरं राजगृहे ददर्श दृष्ट्वा च ससम्भ्रममासनादुत्तस्थौ उत्थाय च सप्ताष्टानि पदानि तीर्थंकराजिमुखमाजगाम । ततो लबाटतटघटितकरको वन्दे त्या चाभियोग शब्दयाचकार । एवं च तानवादीत् गच्छत भो राजगृहं नगरं महावीर भगवन्तं वन्दध्यं योजनपरिमएमसञ्च क्षेत्रं शोधयत कृत्वा चैवं मम निवेदयत । ते पि तथैव चक्रुः । ततोसौ पदास्थनी काधिपति देवमेवमवादीत् नो २ देवानुप्रिय ! ईशानाaiसके विमाने घण्टामास्फालयन् घोषणां कुरु यकृत गच्छति भो ईशानेन्द्रो महावीरस्य वन्दनाय ततो यूयं शीघ्रं महद्धया तस्यान्तिकमागच्छत । कृतायां च तेन तस्यां बढ़वा देवाः कुतूहलादिभिस्तत्समीपमुपागतास्तैश्च परिवृतो सौ योजन प्रमाण यानविमानाकडो लेकदेवगणपति नन्दीवरद्वीपे कृतविमानसंदेपो राजग्रनगरमाजगाम । ततो भगवन्सं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य चतुर्भिरङ्गलैर्जुषमप्राप्तं विमानं चिमुच्य भगवत्समीपमागत्य भगवन्तं पन्दित्वा पर्युपास्ते स्मा ततो धर्म श्राचमयादीत भदन्त ! यूयं सर्वे जानीथ पश्य केवल गीतमादीनां महणां दिव्यं नाट्य विधिमुपद शयितुमिच्छामीत्यभिपाय दिव्य मएमपं विकुवितवान ये मणिपति सिहासनं ततश्च भगवन्तं प्रणम्य तत्रोपविवेश । ततञ्च तस्य दक्षिणानुजादष्टोत्तरं शतं देवकुमाराणां वामाश्च देवकुमारीणां निर्गच्छतिस्म । ततश्च विधिधातोरवगीतभ्य निरखितजनमानस द्वात्रिंशनिरविधि स्त्री० माता बहिणी कियेते भगया इति ईषतांनाकिकरणी । मदियाम्-मद्यस्य प्रायः सर्वस्यापि तथा स्वभावत्वादिति - प्रज्ञा० १७ पद० । ईसि ( ईसिइसी) लुंग पलुङ्ग थि० मनाचे ०६० इषत्तुङ्ग - ईसिदंत - ईषदन्त- पुं० मनाम्दन्ते, औप० । पंचा० १० विब० । पदर्शयामासेति (सर से दिखा देखि २ दे a) बी) यावत्करणादिदमपरं वाच्यं यत "दिव्वं देव दिव्वं देवाणुभावं पकिस्साहरण पकिसाहरश्ता खणेण जाए एगनूप तरणं साणो ३ समणं भगवं महावीरं वंदिता नमईषदान्त - त्रि० मनागाहितशिक्ष्ये गजादी, जं० ३ ० । सिता निगपरियासंपरि" (परिवाति) परि- त्रि० । चारः । ( कूमागार खाउादिद्युतोखि कूटाकारेण शिवराईसि (ईसि-ईसी) पधावणिज पापनीय ) त्यापaकिता शात्रा या सा तया तया दृष्टान्तो यः स तथा । मनाप्रज्ञापयितुं शक्ये, पंचा० १२ विव० । सचैव जगवन्तं गौतम एवमवादीत् ईशानेन्द्रस्य सा दिव्या ईसि (इसि इसी ) पन्नार ईपत्याग्नार ० देवर्किः क गता । गौतम ! शरीरकमनुप्रविष्द्य । अथ केनाथनेवमुच्यत ? गौतम ! यथा नाम कूटाकारशाला स्यात् तस्या- ईसि (ईसिं, ईसी) पन्नारगय - ईषत्प्राग्नारगत - त्रि० ईषयारे मा जनसमुदस्ति स महाजादिकमागच्छन्तं नद्याविस्टीरिपते । पश्यति तटाकारशालामनुप्रविशति एवमीशाने ( ईसी पन्नारगम्रो ) ईषत्प्राग्भारगत ईषत्कुब्जो नद्यादिन्द्रस्य सा दिव्या देवर्षिः शरीरकमनुप्रविष्टेति । ज० ३ ० १ स्तीस्थितो वासी स्यादिति । पचा० १० विव० । ईसि (इविं-ईसी) पजारा-ईपत्याग्नारा श्री० पदल्यारत्नप्रादिथिया महाम् प्राग्‌जारो महत्त्व यस्याः सा ईषत्प्राग्नारा । औप० । ईबदल्यो रत्नप्रभाद्यपया प्रान्नारवष्यामि कृणां यस्याः सा ईषत्प्राग्भारा। ऊर्ध्वलोकाप्रस्थे सिकानां निवासभूते पिन्ना) पारनाग ऊर्ध्वलोकं जयतीति । स्था० ४ ० । (ईसीप ० (शानाविवायदा) शस्येशानसमीपे प्रायः प्रमाशब्दे ) (प्रशानेन्द्रस्य पूर्वनयकथा नामलि शब्दे वयामि यायन्तस्य तत्र स्थितिः ) ईसा ईर्ष्या-०६ आना वा मुष्यायुनं वाच० । Ferrari हि अन्तरुपतापपरा एव जयन्ति निष्कारणमंथेति । यतः " यद्यपि का नो हानिः परकीयां चरति गसनो प्राकाम् । " Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८२) ईसिपब्न्नारा निधानराजेन्मः। ईसिपब्न्नारा ब्जाराणामा य) (सित्ति) अल्पनावे प्र इति प्रायो वृत्या भार स्स परिरो हो । इति परिधिगणितेन परिधिपरिमाणमेका इति जारकंतस्स पुरिसस्स पायं पायसो ईसेणयं भवति जाए योजनानां कोटी द्वाचत्वारिंशल्लकाणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे शते वष्टुित्तासा पुढवी ईसीपब्जारा णाम इति एतमनिहर्णतस्स एकोनपञ्चाशदधिके १४१३०२४ए शेषं त्वधिकमल्पत्वान्न सायदबटुसिकविमाणाओ उरि वा रसहिं जोयणेहिं भव- विवक्तितं प्रज्ञापनातो वाऽवसेयमिति । ति तेण सा अवलोगचूला भवतीति । नि०० १२० । __ सम्प्रति तस्या एव बाहुल्य प्रतिपादयाति । अस्था अयं स्वरूपो ह्यौपपातिके यथा । बहु मज्क देशजागे, अछे व य जायणाणि बाहवं । बहुसमरमणिजओ जूमिजागाओ उर्फ चंदम्मि सूरिय चरिमंते सुय ताई, अंगुल संखेज्जई जागं ।। ग्गहगणणक्खत्तताराख्वाणं बहुइं जोयणसहस्साई बदुई मध्यदेशभाग एव बहुमध्यदेशनागो बदुशब्दस्य स्तोकपजोयणसयसहस्साई बहई जायणकोमीओ बहुजोयण- रिहारार्थमात्रत्वात् । स च बहुमध्यदेशनाग आयामविष्ककोमाकोमीओ जबँतरं उप्पश्त्ता सोहम्मीसाणं कुमारमा- मनाच्यामटयोजनप्रमाणस्तत्र बाहुल्यमुश्चस्त्वमष्टवायोजनानि हिंदवंजलंतगमहामुक्कसहस्सारआणतपाणतारणच्चु- ततो यथोक्तप्रमाणान् बहुमध्यदेशभागान् चरमेषु सर्वायतित्रिय अहारे गेविजविमाणवासते विती वइत्ता सु दिकु विदिनुच योजनं गत्वा अङ्गबपृथक्त्वं तथाङ्गलप्रमाणं (परिहात्ति) परिहीयते एवमनेन प्रकारेण हानिभावे विजयवेजयंतजयंतअपराजियसव्वट्ठसिकस्स य हाविमा सति तस्यास्तावत्प्रमाणमहत्याः पृथिव्याः। अपि शब्दो निनणस्स सव्वउपरिक्षातो थूनियग्गनो वालसजोयणाई क्रमो मक्किापत्रादपि तनुतराः किमुक्तं नवति । घृतपूर्णअवाहाए एत्थ णं इसीपन्जाराणाम पुढवी पापत्ते पण- तथाविधकरोटिकाकारेति भावस्थापना । आ०म० द्वि०। यालीस जोयणसयसहस्साई अायामविक्खंजेणं एगा अस्याः स्वरूपमापपातिके यथाजोयणकोमी बयालीसंसयसहस्साई तीसं च सहस्साई ईसीपब्जाराणं पुढवीसेया संखतमविमल साझियमुणादोलि य अनणापथ्ये जोयाणसए किंचि विसेसाहिए सदगरयतुसार गोक्खीरहारवमा उत्ताणयत्तसंठाणपरिरएणं इसियपब्जाएणं पुढवीए बहमज्देसनाए संठिया सन्यज्जुण सुवममई अच्छासएहालएहा घट्ठाअट्ठजोयणणक्खत्ते अट्ठजोयणाई बाहुबेणं तयाणंतरं च मट्ठा णीरया जिम्ममा णिप्पंका णिकंकमच्छायासमरीणं माताए २ पमिहायमाणी २ सव्वेसु चरिमपेरंतेसु म चियामुप्पना पासादिया दरिसणिज्जा अनिरूवा पमिच्चियपत्तातो तणुयतरा अंगुलस्स असंखेजश्नागवा रूवा इसीपन्जारा । औप० । बुझेणं पाप्मत्ता। सा च ईषत्प्रागजारा पृथिवी श्वेता श्वेतत्वमेवोपमया प्रकट(बहुसमेत्यादि ) बहुसत्वेन रमणीयो यः स तथा स्यात् यति ( संखदनविमझेत्यादि ) शङ्खदस्य शङ्खद सचूर्णस्य( अवाहेत्ति) अबाधयान्तरेण । औप० । ईषत्पागनारायाः विमझो निर्मलः स्वस्तिकः शङ्खदनविमनस्वस्तिकः स च मृ. पृथिव्या बहुमध्यदेशनागे अष्टयोजनिकमायाम-विष्कम्भाज्या णासंचधकरजश्व तुषारंच हिमंच गोकीरच हारश्च तेषामिव मएयोजनप्रमाणं केत्रं चाष्टौ योजनानि बाहुल्येन चोच्चत्वनोचै घणो यस्याःसा तथा उत्तानकमुत्तानीकृतं यच्चतस्य यत्सं स्थानं येन संस्थिता उत्तानच्छत्रसंस्थानसंस्थितत्वं च प्रागुस्त्वेनेति भावः प्रज्ञप्ता तदनन्तरं सर्वासुदिक्षु विविकच मात्रया स्तोकया २ प्रदेशप्रहाण्या परिहीयमाना सर्वेषु चरमान्तेषु पदर्शितस्थापनातो जावनीयम् । (सव्वज्जुणसुवमामयी) मक्षिकापत्रतोऽप्यतितन्वीअगुवासंख्येयनागं बाहुल्येन प्राप्ता सर्वात्मना श्वेतसुवर्णमयी । प्रज्ञा०५पद । आ०म० कि० । स्थापना । प्रशा०२ पद। सम्वविमाणाउ, सब्यु परिसानथुन्निय । ईसीपनाराए, सायाए जोयणस्स सोगंतो । बारसहिं जोयणेहिं, ईसिपब्जार पुढवीन ।। १६ ।। वारसहिं जोयणेहिं, सिबीसव्वहसिखातो॥ निम्मदगरयवना, तुसार गोक्खीरहारसरिखना । ईषत्प्राग्जारा सिस्नूमिस्तस्या सीताया ति द्वितीयं नाम नत्ताणगउत्त संगणा, जणिया जिणवरिंदेहिं ॥१७॥ ऊर्ध्व योजने इति कान्ते लोकान्तः सापि च ईषत्प्राजाराख्या ईसी पन्जाराए, सायाए जोयणम्मि सोगते । सिद्धिःसर्वार्थसिकाद्वारविमानादृर्व द्वादशभिर्योजनैनवति । अन्ये तु व्याचक्कते सर्वार्थसिकाद्विमानाद् द्वादशभियोजन वारसहिं जोयणेहिं, सिधा सव्वट्ठसिचाओ ॥१८॥ बोकान्तक्केत्ररकणेपि तत्त्वं पुनः कवलिनो विदन्ति तस्मिन् पणयालीसं आयाम, वित्थमा होइ सत्तसहस्साई । लोकान्ते ईषत्प्राग्नारोपनक्विते मनुष्यकेत्रपरिमाणे सिकाः तं पितिगुणं विसेसं, परिरओ होइ बोधब्बो ॥१॥ प्रतिस्थिताः । उक्तंच 'अत्थीसीपब्भारोवलक्खियं मयसोय एगा जोयणकोकी, वायालीसं च सयसहस्साई । परिमाणं । लोगग्गनभोनागो सिक्खेत्तं जिणक्खाय, सम्प्रति तीसं च सहस्साई, दो य सया अउणवीसान ॥२०॥ परिधिप्रतिपादनेस्या एवोपायतः प्रमाणमभिधित्सुराह । एगा जोयणकोकी, बायानीसं च सहस्साई । खेत्तसमयविधिना अ-हेवजोयणाई बाहा । नीम चेव सहस्सा, दो चेव सया अनन्वन्ना ।। परिहायचरिमंते, मच्चियपत्ता तणुययरा ॥२१॥ इह ईषत्प्राग्जारो य आयामविष्कम्भान्यां पञ्चचत्वारिंशयो गंतृण जोयणं जोय, गंतु परिदाइ अंगुलपहतं । अनन्नवाणि प्रमाणम् । अतो विक्खनवम्गह, गुणकरण। यह । खतनासंनिगासा, पेरंता होंति पनासा ॥२॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८३ ) अभिधानराजेन्द्रः । ईसिप भारा अरुण सुनगमया, नामेण सुदंसणा पचासा य । संतसंनिगाला, बचागारा य सा पुर्वी शती ०६०प. उत्तराध्ययनेऽपि यत्संस्थाना यत्प्रमाणा यद्वर्णा च तदान धानायाह । " वारसहिं जोयणेहिं सव्वस्सुवरिंजवे । सफरनामा, पुष उत्तसंदिया || कादश नियोजनः प्रत्यादित्या सर्वार्थस्य सवर्थ नाम्नो विमानस्योपर्ध्व नवेत्तस्मादपत्प्राग्भारेतिनाम यसा नारनामा नो बहुदे रिति निषेधात नियति तदनेकनामयानि धेयत्वात्तस्या उक्तंहि "ईसीती वा ईसीपन्नारा वा ततपुसीति वा सिखीति वा सिकलपति वा सुत्ती वा सुत्ताल या गोर वा सोयगार वा सोपवणार पा सव्वपाणनूयजीवसत्तमुदावहाश्वेत्यादि " पृथिवी भूमिः मतपत्रं तत्संस्थितमिव संस्थितं संतानमस्या इति संस्थिता । इह च विशेषाननिधानेपि उत्तानमेव गृह्यते यत श्राह । नगवान् भद्रबाहुः । उत्ताणयवत्तय संधिया नया जिनपरदितिपणयालीस सय सहस्सा, जोयणाणं तु प्रयया । ताबइयं विच्छिन्ना, तिगुणा तस्सेव साहिय परिरया || नोषण बाढा सामज्जम्मि आदिया। परिहायमाणपरं तामच्छीय पत्ता तयरी ॥ पञ्चचत्वारिंशादखाणि योजनानां तु पूरणे भायतता दीर्घता ( तावश्यं चेवन्ति ) तावतश्चैव प्रमाणात्सहस्रा द्विस्तरतोषि च पञ्च पारिंशच्छतसत्रमाणेति भावत्रिगुणा: ( तस्संवत्ति ) प्राग्वत् । तस्माडुक्तरूपादयो याः परिधयः परिधिरिह च त्रिगुण इत्यभिधानेऽपि विशेषाधिकं 5व्यं सत्यंयति गुणं सविसेसमिति " वचनाभ्यपादि पञ्चाधिकया जम कोटिरेखेतत् परिमाणं स्यात्तथा व सूत्रान्तरविरोधो यत्सूत्रोक्तं "एगा जोयणकोमी बायाली संभवे शय सहस्सा । तीसं चेव सहस्सा दो वेव सया प्रणवअन्ति” । पठन्ति च "तिम्रोणसाहियपरिस्यत्ति" श्रष्टौ अष्टसंस्यामि योजनानि याज्यं स्पील्यमस्या इत्ययोजनाया (से) तस्येषत्प्राग्भारा किं सर्वत्राप्येवमाद । आदिमध्ये मध्यप्रदेशा व्याख्याता किमित्येवमत आह। परिसमन्ता माना ( परिहियमानी चरिमंतेति ) चरिमान्तेषु सकलदिग्नागवर्तिषु पर्यन्तप्रदेशेषु महिकायाः पत्रं पको महिकापत्रमपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् तस्मादपि तनुतरी आतेपरितानिविशेषानविधानेपि प्रतियोजनम एकलपृषुत्वं रुष्टव्या तथाचान्यत्रावाचि " गंतूण जोयणं तु परिदो अंगुलपुरसति" यत्र केचित्पतन्ति ॥ अणसुवागम सा पुढची निम्मला सजावेण । उत्ताणगगडिया व जलिया जिबरेहिं ॥ कुंदकासा पंरा निमला मुजा ।। तत्र च अर्जुनं गृक्वं तश्च तत्स्सुवर्णकं तेन निर्वृताऽर्जुन सुवर्ण कमयी सतीपत् प्राम्नारा (निम्मला) स्वच्छा । किमुपाधिवशत पेण उत्तानकसूर्यमुखं यच्छमेव कं तत्संस्थिताच भणितोता जिनवरैः प्राक् सामान्यतः ईसिरहस त्रसंस्थितेव गणितक्ता जिनवरैः । प्रागित्युक्तमिह तत्तानत्वं तहिशेष उच्यत इति न पौनरुत्तधम् । संखा ककुंदानि प्रतीतानि तत्संकाशा वर्णतस्तत्सदृशी अत एव ( पंकुरति ) पाकुरा श्वेता निर्मत्रा निष्कलङ्का शुभा अत्यन्तकल्याणवहा सुखाचा सुख देतुन इति सार्थ ४० ३६ अ० । षत्याग्नाशया अटी नामधेयानि यथा । इमप्यनाराणं पुढबीए अनामज्जा पाता जहा ईसी वा ईसिप्पनाराई या वयात वा सिकिइ वा सिकाइ वा मुत्ती वा मुत्तालएर वा स्था० ० ० । प्रज्ञापनायां द्वादश नामधेयानि यथाईसीपनाराएं पुढवीए दुवाल नामभेज्जा पत्ता संजा-ईसीति वा ईसी नारा वा ाति वा पुतरीति वा सिद्धित्ति वा सिकासत्ति वा मुतिइवा, मुत्तालए वा, सोयग्गेति वा बोयग्गथुनियाति वा, सोया वा सम्वपाणनूपजी बस समुहाचहाइ वा प्रज्ञा० 2 पद । ईसीसि परेकदेशे पदसमुदायोपचारात् ( शिवा) तन्वाशेषचियाऽतितनुयात्। तनुज्योऽपि जग सिमेन्यस्तन्वी कापत्रतोऽपि पर्यन्तप्रदेशेऽतितनुत्वात्तनुतन्वी । सिकिरिति वा सिद्धिक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नत्वात् । सिद्धि क्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतयोपचारात्सिका नामालयः सिषालयः एवं मुक्तिरिति या मुालय इतिषेत्यपि परिभावनीयम तथा लोकावर्त्तमानकाप्रमिति धोकाग्रस्य स्तूपकेय ओोकाअस्तृषिका तथा लोकाग्रेण प्रत्युद्यते इति कामप्रतिवादिनी (लोयगपति) लोकाग्रमिति प्रतियुज्यते य या लोकानं वा प्रतिबुध्यते यया सा तथेति ( सव्वपाणे न्ति ) भाषा फिजिचतुरिन्द्रिया इति भूतास्तरचो जीवापा शेषाः प्राणिनः सत्वा ततञ्च - "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता भूताश्वतरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया या श्शेषा सत्त्वा नदीरिताः " सर्वेषां प्राणभूतजीवसत्त्वानां सुखावहा उपद्रवका रित्वाभावात्सर्वप्राण नूतजी वसत्व सुखावहाः । प्रज्ञा० २ पद ॥ एतेषाञ्च पृथिव्यादितया तत्रोत्पन्नानां सा सुखावहा शीतादिदे तूनामनाचादिति। आप ईषदिति वा नामरत्नप्रजाद्यपेक्षया -हस्वत्वात्तस्य एवं प्राग्भारस्यन्ह स्वत्वात्तस्या तया तीत्यर्थः अति स्वाति वा सिन्ति तस्यामिति सिकिरितिया । सिकानामापत्वात्सियाय इति वा मुख्यन्ते सकलकर्मनिस्तस्यामिति मुक्तिरिति वा मुतानामाश्रयत्वान्मुकाश्य इति वेति । स्था० वा० । ईसीतिया ईषदस्पा पृथिव्यन्तरापेक्षया इति-शब्द उपदर्शने वा शब्दो विकल्पने । औप० । ईस (ईस) (ईसी) पुरेनाय-ईपरपुरोगात सस्नेह वाते, न० श० १ ० । / मनाइ ईसि ( ईसिं ) ( ईसी) मत्त - ईषन्मत्त - त्रि० यौवनारम्भवर्तित्वान्मनारमते गजादौ, जं० ३ बक्क० । श्रप० । ईसि (ई) (इसी रस्म-ई-० "ईसि रहस्स पंचक्खर उच्चारणकाप" (ईसिति ) ईषत्स्पृष्टानि Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसिविच्छेय • पदस्वानि च यानि पञ्चाकराणि तेषां यश्चारण तस्य योऽका कालस्तस्य तथेति । औप० । ईसि (ईसि) (ईसी) विधेयकडुआ - ईषद्विच्छेदकका श्री० ईषद्मनाक व्यवच्छेदे सति त ऊ कटुका पाद सम्पर्कत उपलक्ष्यमाणत्यक्तवीर्य्येति । मनाख्यवच्छेदे सति उपलक्ष्यमाणत्यवीर्य्यायाम्मदिरायाम् । प्रज्ञा० १७ पद । ईसि (ईसि ) (ईसी) सिलिंद (घ) पुष्पष्पमास - ईचशिल्ली (सिसी) पुष्पमकाष्पिका शानि शिनीन्द्रपुष्पसद्र पुष्पसरव जे जी०३ प्रति सिधिपुष्पासा इति मना सिमीकुसुमानि त्सितानि इत्यर्थः । सिलीन् भूमिस्फोटकं उत्रकम् । श्रीप० । ईसि ईशित्वन्तर्गत विशेषे शित्यक्ष - ( ६८४ ) अभिधानराजेन्द्रः । 66 वशित्वञ्च तथा कामावसायिता सूत्र० २ ० १ ४० । ई - ईक्षण - न० क भावे ल्युट् दर्शने, करणे ल्युट् २ नेत्रे, तत्र दर्शने० । वाय० । हाशियाकरणं दस्तरेखा मेन लाइभ दर्शन सिल्पमस्य उ शुभाशुभफलकथनेनोपजीविनामु डिके, स्त्रियां टापू मङ्गना देशवृत्ताश्च नाश्वेक णिकैः सह । मनु० । वाच० । ईडाईडा० शयाम उद्यमे वाढायाभ्य बाच वितर्फे मनेायाम् ईनामी हा (आभिनियोधिज्ञान) मातज्ञानविशेषे, विशे० । श्र० धू० । आ० म० प्र० । घोघ० । प्रव० । प्रज्ञा० । सा च सतामन्वयिनां व्यतिरेकिणां चार्थानां परोचना। विशे० तथाच नाप्यम्। " ईहासेसास" पानिपानानि चीहा चिमणमार्गा मणानि सर्वाण्यपि दातांचीनियानीति विशे० । प्रज्ञा० । वियालणंति वा मम्गणंति वा ईहांति वा एग ंति | १० अन्ययव्यतिरेकधर्मपहोचनरूपादेति विशे० ईटा पोचनमिति ०" तहविचारणेईदा" तयेत्यानन्तर विचारणं पर्यालोचनमर्थानामिति वर्तते ईनमीहा तां ब्रुवत इति योगः । श्र० प्र० प्र० । नं० । ईहा स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येवं सदर्थालोचनाभिमुखा मतिश्चेष्टेति [झा० ३ अ० | दश० नं० । “थामनुसा गया, जह ईडादेवदतरस"ईटा सदयोचनात्मिका स्थातु मनुष्यानु ता किमका रुषा यथेा देवदत्तस्य जीवतो धर्म इति ग०-२ अ० पूर्वपरपच्योमोचनमा देति दर्श० ""पूर्वापराविरोधनं पाहोचयति - शब्दः चाप्युत्प्रेक्ष्यत इति सूचनार्थः नं० आ० म० प्र० । सदर्थाजिमुखो वितर्क शति० ॥ ज्ञा० १ ० । वस्त्वन्वेषणरूपाचेष्टा ईहेत्युच्यत इति । ओघ० । अवगृहीविषयाकामदेति सम्म० ततद्भूतविशेषनीति राज ईडा किमिदमित्यमुनान्यथेत्येयं सदाय सोचनानिमुखा मतिचेा इति । अप०। दायाः स्वरूपं यथा । दमदमी सतार्यपथलोचनरूपा से प किमुकं भवति । प्रमदासरामायात्सतार्थ पिपादानाभिमुख असद्धतार्थविशेषपरित्यागानिमुखाः प्रायो मधुरत्वादयः शङ्कादिशब्दधर्मान्तेन कर्कश ईहा निरादयः शार्ङ्गदि शब्दधर्मा इत्येवंरूपों मतिविशेषईहा आदचात् "यात्यविशेषा दायक यानी" प्रका० १५ पद | नं० ॥ श्र० प्र० प्र० । अव गृहीतार्थविशेषाकामीति अगृहीतो विपयीकृत योन्तर मनुष्यत्वादिजातिविशेषस्तस्य विशेषः । कर्णाटरा दिवेदस्तस्याकार्ण भवितव्यता प्रत्ययरूपतया प्रणानि मुख्यमी त्यभिधीयते । रत्ना० १ परि० । तथाच - ईहां व्याचिख्यासुराह । श्य सामग्गहना, वरमीदा सदस्यमीमंसा । किमिदं सदो सदो, को होज्जव संखसंगाणं ॥ इति शब्द उपदर्शने इत्येवं प्रागुकेन प्रकारेण नैश्वविकार्था घग्रहे यत्सामान्यग्रहणं रूपाद्यव्यावृत्त्या व्यक्तष स्तुमात्र ग्रहणमुक्त तथा व्यवहाराधयमदेपि यतरविशेषापेक्षा श ब्दादिसामान्यस्य प्रहणमभिहितं तस्मादनन्तरमी हा प्रयर्तत कथंभूतेयमित्याह सतस्तत्र विद्यमानस्य गृहीतार्थस्य विशेषमिद्वारे मीमांसा विचारणा केनांझेोत्या । किमिदं वस्तु मया गृहीतं शब्दोऽशब्दो वा रूपरसस्पर्शरूपः मयं च निश्चयौपान्नाविन्य ईटायाः स्वरूपमुक्तम् । भय व्यवहारार्थावग्रहानन्तरजाविन्याः स्वरूपमाह । (को होत्यादि) या इत्यथवा व्यवहाराप्रदेशशब्दे दीमा प्रवर्तयेोध्यं भवेदः शाखः शाङ्ग देति । नतु किं शब्दशब्दोपादा इनमेव कथमीदा नवितुमर्हति किन्तु दिमा ह दर्शितं परमार्थतस्तु व्यतिरेकधर्मनिराकरणपरोऽन्वयधर्मघटनप्रवृत्तश्चापायानिमुख एव बोध ईहा दृष्टव्या । तद्यथा - रएयमतत्सवितास्त मागतो, न चाऽधुना संभवतीह मानवः । प्रायस्तदेतसखगादिजाजा, नाप्यं रतिप्रियतमारिमामाति एतच प्रागुक्तमपि मन्दमतिस्मरणार्थं पुनरप्युक्तमिति गाथार्थः । विशे० । प्रव० । ईदा पञ्चविधा यथा- 1 कवि बिहारी जंते! ईटा पाता ? गोयमा पंचबिहा पयसा तंजड़ा सोइंदिपडा जाब फासिंदियईहा एवं जाव वैमाणियाणं नवरं जस्स जह इंदिया ॥ प्रज्ञा० १५ पद । इहापि मनः सहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात् पोदैव- प्रव० २१ द्वा० । तथाचाह || सेकं तं हा हा हा पत्ता तंजहा सोइंदिय ईहा चक्खिदियईढा घाणिं दियईहा जिन्निंदियईहा फासिंदिया नो इंदिया तीसेणं इमे एगडिया नालाघोसा नाणारंजणा पंच नामपिज्जा जवंति संना प्राजोगण्या माणा गवेसणया चिंता वीसा से ईटा । श्रथ केयमीहा । ईहा पद्विधा प्रकृप्ता तद्यथा । श्रोत्रेन्द्रियेा इत्यादि । तत्रेन्द्रियेणे हा ओषेन्द्रियेा दमधिकृत्य या प्रसाईदा सा धोत्रेन्द्रियेहा त्यर्थः । एवं शेषा अपि भावनीयाः ( ती मेणमित्यादि ) सुगमं नवरं सामान्यत एकाfर्थकानि विशेषचिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि तत्र ( श्राजोगणयति ) नोम्यतेऽनेनेति श्रभोगनम् अर्थावग्रहसमयमनन्तमेव सद्द्भूतार्थविशेषाभिमुखानं तस्य नाच आभोगता । तथा मान्यते भवेति मार्ग सद्भूतार्थ विशेषानिमुखमेव तदूर्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणं तद्भाषो Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८५ ) अनिधानराजेन्धः | ईहा ईडिय । मार्गपत्ता तथा गवेष्यतेऽनेनेति गचेपणं तत्सतार्थ- ईहामई ईहामति- स्त्री० [देव मतिः । तदर्यविशेषायनरूपं विषेशानिमुखमेष व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोयधर्माज्यासालोचनं तद्भावो गता। ततो मुहुर्मुहुः कोपरामविशेषतः स्वधर्मानुगतसदृतार्थविशेषचिन्तन चिन्ता परामविशेषात्स्पर सद्नृतार्थविशेषानिमुखमेव व्यतिरे कधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्म्मापरित्यागतो ऽन्वयधर्म्मविमर्शनं विमर्शः । सेत्तमीदेति निगमनम् । नं०टी० । अत्र केचिदी दां संशयमानं मन्यन्ते तदयुक्त संशयो दि नामाज्ञानमिति ज्ञानांशरूपा बेड़ा ततस्सा कथमज्ञानरूपा नवितुमर्हर्त । तिनं० । उक्तंच । ईहा संसयमेतं केश् मत्तयं जत्रो तमन्नाणं । मश्नाणं सो चेहा कदमन्नाणतई जुतं । आ० म० । नवी हापि किमयं शाङ्खः किंवा शार्ङ्ग इति एवंरूपतया प्रवर्तते संशयोपि चैवमेव ततः कोऽनयोः प्रतिविशेषः । उच्यते श्ह यद् ज्ञानं शाखाङ्गदिविशेषाननेका अम्बनेन पास विशे पपासितुं शक्नोति किन्तु सर्वात्मसंहायानमिव वर्तते कु वीतं तिष्ठतीत्यर्थः । सदसद्द्भूत विशेषापर्युदासपरिकुfrai संशयज्ञानमुच्यते, यत्पुनः सद्भूतार्थविशेषविषये हेतूपपतिव्यापारपरतया सद्द्भूतार्थविशेषोपादानानिमुखमसदूद्भूतविशेषत्यागाभिमुखं च तदीदा । श्राहच भाष्यकृत् " अमजगत्थासंवण-मपज्जुदासपरिकुंडियं मिर्च | सश्च सम्ब पण, तं संसयरूवमन्नाणं ॥ १ ॥ जं पुण सयत्य देऊ, वयति वावारतप्परममोई । जुयानूयविसेसो, पादाणा भिमुहमीहा " ० बुद्धिजे अबुद्धि पाचधारणे मति रिति - नं० । बुद्धिगुणनेदे, पंचा० ७ विव० । मतिसम्पद्भेदे, स्था० ० । सा च तदर्थ विशेषालोचन मिति - दशा० ४ श्र० । अवगृदी तस्यार्थस्यासदृतविशेषपरित्यागेन सदृतविशेषादानानिमुखो बोधविशेष ईदेति ध्य० वि० १० ० ॥ मतिभेदे, म्हणमिदेहो' स्था० ५ गण-तस्याश्च पट्टि धत्वं । तथा-"व्विढ़ा ईहामई पाता तंजड़ा खिप्पमीदवज्जुमीह ज़मीदर जाय आसिदिष्मीदर "स्था० ६ ० ( टीका श्रवग्गहमर शब्दे - ) ईहामिय-ईहामृग - पुं० हां मृगयते अण् ईहाप्रधानो मृगः । पशुभेदे वृके, - औप० । राज० । ० भ० म० प्र० । जी० कल्प० । शहामृगा वृका वरगका जीवा इति लोके । कल्प० । दामिय उसन तुरग मकर विहग वालग किंनर रूरू सरन कुंजर वलय पत्रमय भत्तिचित्तं तत्र ईहामृगा वृका - भ० ११०११४० | कल्प० । दिव्ये नाट्यविधिविशेषे, तथाच राजप्रश्नीये सूर्यास्याया श्रमणस्य नगवतो महावीरस्यान्तिके समागतैर्देवकुमारैर्देवकुमारीभिश्च दर्शितं द्वात्रिंशद्भेदं नाटय विधिमुपक्रम्योत्तम्-ततेणं तं बढ़चे देवकुमाराय देवकुमारीय ताय समस्स नगवश्रो महावीरस्स ईहामिय वसन तुरगपरमगर विडग बालग किार रुरु सरन वर कुंजर वणलय पठमय भतिथितं णाम दिव्यं णट्टविदं या समिया ईहासाच्या मृगः कृषिममृगे, अकार मारकभेदे, राज । ईडिय-ईक्षित- ज० ते “अस्सिमात्र सम्बन्ध सुपरिलेटि हाम्रो नयन्ति सुराङ्गादिन्युदासेन प्रत्युपेक्षिताः प्रति उपसा मीन किता ज्ञाता भवन्तीति । आचा० । ईहित - ० ई क चेष्टिते, निष्पादिते । “सङ्घीमा गंतुमीदियं" धावतान्येन नमिताऽपरानागन्तुकादिश्येदिन चेष्टितं निष्पादितमिति सूत्र० १ ० १ ० ३ ० । “नाई नाणीहियं नचानी हितमविचारितं ज्ञायतेऽपायविषयं तायातीति । विशे० ॥ इति श्री सौधर्मतपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञ श्री मनहारक- जैन श्वेताम्बराचार्य श्री १००८ श्री विजयराजेन्द्रसूरि - विरचिते अत्रिभानराजेन्द्रे इकारेकारादि शब्द सङ्कलनं समाप्तम् । Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः । ( नकार ) उल-किन सम्बोधने, कोपयच अनुकम्पा याम, मियोंगे, अफ्रीकारे प्रश्मे देमचन्द्रः अवधारणे, आ० म० ०ि । चकारार्थे, न० । अन्तिके, विशे० भृशार्थे, (श शब्दस्यार्थे ) आ० म० द्वि० । ( उपयोगकरणे ) - त्ति उवओगकरणी च इत्येतदकर मुपयोग करणे, “उ तिय उकस्मे" इति कर्मणि वर्तते। अति सातत्येन तिष्ठति व्रत - शिवे, वाच० । ब्रह्मणि, गा० तोये, तायी, घरघरे, अवसाने जितकें बनायाम, व्यसने, अव्य० रमी दरी तपसि मा प्रायां गिरौ, भूमौ विलोकने, एका० । उपाध्याये, तस्या ऽऽद्याकरेण ग्रहणात् । गा० । चशब्दात् स्वरूपार्थे कारः उकारः पञ्चमस्वरे, स च उदात्तानुदान्तस्वरितभेदात् प्रथमं त्रिधा । पुनः अनुनासिकाननुनासिकवेन प्रत्येकं द्विधतिकारसकारानुत्तरस्तु स्वंदीन पत्येक विधीऽपत्ये प्रागुदपदकात् भादवि चन्द्रमा पत्र मकारान्तस्यैय तथामतेति भद्रयः। इत्येतदरस्य निपाल त्वात् प्रगृह्यसंज्ञेति । धच्परत्वेन सन्धिः व उमेशः । सच चादिगणीयः । वाच० । अनंत उद्वर्तमान ०ि वर्तमाने उसंतमि बो पाणाण तेण पुव्व वसितं । असंतम्मि इति प्राकृतत्वात्युंस्त्वनिर्देशः । वृ० १ ० । उवि उद्वपित त्रि० । उच्छिष्टे, “छहरा भेणिसिनन्तं प्रवि गुरुमादी" ० १ ४० ॥ उइ (दि) ओइ (दि) अ-उदितोदित- त्रि० उदितश्चासावृश्चतउ (दि) ओइ (दि) प्र-उदितोदित दि० वदितासात कुप्रबल समृद्धिनिरयाकर्मनिरत्युद्ययात्। उदितका परमसुखसंदोहोदयेनेत्युदितोदितः । सर्वथोद यवति पुरुषे, यथा नरतः । उदितादितत्वं चास्य सुप्रसिकम् । स्था० ४ ० । पुरिमता अधिपती राजमेरे, उदितः श्रीकान्तपतेः पुरिमतानपुरे राज्यमनुशासत श्रीकन्पतेर्निमित बाणारसी वास्तव्येन धर्मरुचिना राज्ञा सर्वयमेन समागतम् । नं० आ० चू० । 1 इ (दि) - उदीर्ण- त्रि० उदयप्राप्ते, सूत्र० १० ५ अ० १ २ | प्रश्न० । उत्त० । प्रज्ञा । उदिते. स्था० ५ ० उत्त प्र० । विपाकोद यमागते । प्रज्ञा० १७ पद् । आचा० | उदीरणाकर नोदिते, भ० १ ० ७ ० । चत्कटे, स्था० ॥ वा० । उदीच्य - त्रि० उत्तरे, उत्तरदिग्नवे, आ० म० ६ि० । छ (दि) साकम्प उदीर्णकर्मन् मुद्रा क दुविपाकं कर्म येषां ते तथा मिध्यात्वदास्परत्वादीनामुदये वर्तमानेषु - " नदीएएकम्माण चदिएए कम्मा पुणे पुणां ते सरदं उदेति सूत्र० १० ५ ० १ ० । तर [द] बलवाण उदीर्णमलवाहन- ०बी० दीर्णमुदयप्राप्तं वनं येषां तानि उदीर्णगलानि । उदीर्णवला नि वाहनानि यस्य स उपचारः उदयप्रासयुग्वादने, चतुरङ्गजाम्बरचसुनटरूपं वादनं शिक्षिका सरप्रमु खम्, यनं च वाहनं च बलवाहने, सदीर्णे उदयप्राप्ते बलबाट ने यस्य स उदीर्णबलवाहनः । उ०१० प्र० । उदीर्णमुदयप्राप्तं वनं चतुरङ्गं वाहनं च गिलिथिल्ल्यादिरूपं यस्य साचमुदीर्णबलवाहनः । यत्रं शारीरं सामर्थ्य वाहनं गजाश्वादि, पदात्युप चैतत् पादनविशिष्टे " कंपिले परे राया दिपादणे णामेण संजयो णामणिपचि माए" उत्त० १ भ० । ल‍ [ दि ] मोहनीय मोह - उदीर्णमोह - श्रि० ६ ० । चत्कट (वेद) सरोचबाश्याण मंत! देखा कि दामोदर वसंतमोहा खीणमोहा" प्र० ५ ० ४ ० [ दि] धावेय-उदीर्णवेद-त्रि दीयों विपाकापनो वेदो यस्य स तथा बेदानां विपाकममा दोह मान् प्रियं कामयते वाऽपीसर, नपुंसकस्नयमिति । आचा १ ० १ ० ० | , उ [ दि ] य-उदित- त्रि० वद-क० संप्र० गदिते, निप्पन्न स्थैर्य जिनबिम्बस्यांदिता प्रतिष्ठा पो० ते ० १ भ० " उमापति वा पतिया मिति ० ० २०४० (दि) पत्यमिष-उदितास्तमित० उदासी देव अस्तमितध भास्कर इव सर्वसम्मत्वादतिगतत्वाचेति उदितास्तमितः । पूर्वमुपादस्तमिते यथा चक्रवर्ती । स हि पूर्वमुदित उन्नतकुलोत्पन्नत्वादिना स्वतजोपार्जित साम्राज्यत्वेन च पश्चादस्तमितः । प्रतथाविधकारणकुपितामाह्मणप्रयुक्त पशुपाल धनु गाँसि काम पर्छ । पास्फोटि ताकिगोलकतया मरणानन्तराप्रतिष्ठानमहानरकवेदनाप्राप्ततथा बेति, स्था० ४ ० । उर्दू ( दी ) ए - उदीचीन - त्रि० उतरे,—स्था० ५ ना० । उई (दी) शा-उदीचीना-श्री० [उत्तरस्यां दिशि, "दो हि साल कप्पर पाईणं चेव उद्दीपं चेव " स्था० २ ० | नई (डी) पदाहिण पित्थियो दसाणसंतिय द शिवचन्द्र संस्थानसंस्थितः । पश उई (दी) णपाईण उदीचीनप्राचीन श्री प्रागेव च प्राचीनमुदीचीनं च तडुदीच्या आसनत्वात् प्राचीनं च तत्प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वादुदी चीनप्राचीनं दिगन्तरम् । क्षेत्रदिगपेया पूर्वोत्तरदिशि (जम्बूदी में वे सूरिया उद पाई मुगच्छ भ० ५ ० १ ० । उई (दी)णवाय - उदीचीनवात- पुं० उद्दी चीन उत्तरः वातः यदीचीनः उदीच्या दिशः समागच्छति बादरचाटुकादिकभेदे, प्रज्ञा० १ पद० | स्था० । उई ( दी ) ता - उदीरयित्वा श्रव्य० उत्प्राबल्येन रयित्वा कथयित्वेत्यर्थे, “अणुत्तरं धम्मभुईरः ता" । सूत्र ०१ ० ६अ. उई (दी) रण - उदीरण-न० उद-ईर ल्युट् उधारण चाच० Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८०) अभिधानराजेन्द्रः । नईरणा अनुदप्रातस्थ ( दलिकस्य ) करणेनाकृप्योदये स्था० ४ ० । बरे (दी) रणा- उदीरणा श्री० अनुया कर्म दकि मुदीर्यत उदयावनिकायां प्रवेश्यते यया सा उदीरणा । उदयाकिर्तीनां सिर्फ पाये सहितेन वायोगनिवार्यविशेषेण समाप्योदये प्रवेशनक करणभेदे, पं० सं० । तेषामेव कर्मपुल्ला नामकाल प्राप्तानां जीवसामर्थ्य विशेषाद्वनिकायां प्रदेशनमुदीरणा तेषामेव कर्मपुत्रानां बन्धसंक्रमाज्यां लब्ध्वाऽऽत्मवानानां निर्जरणसंक्रमवलस्यरूपप्रच्युत्वनावे सद्भाव सत्ता कर्म आन्तरशक्तिविशेषे । द्वा० । “जीवाणं होहिं वाणेहिं पावकम्म उदीरेई तंजड़ा। अज्जोवगमिया चैव वेयणाय नवक्कमियाप चैव वेदणाए एवं वेदेति एवं णिज्जरेंति अज्जो० ० ० वेय' ” ( व्याख्या स्व स्व शब्दे ) स्था० २ are | सूत्र० । स्था निश्शेषा वक्तव्यता यथा तत्र चैते अर्थाधिकारास्तद्यथा अभेदानादिरूपता, स्वामितिस्यानानि, तत्स्वामित्वं चेति ॥ तत्र पुरतो लक्षणभेदयोः प्ररूपणार्थमाह ॥ जं करणे णो कहिय, उदर दिन उदीरणा एसा ।। पगडि नाग-पएसमूयुत्तर विभागा ।। १२५ ।। अत्र पूर्वार्थेन लक्षणं ततस्तत्प्ररूपणार्थमाह । यत्र यत्परमा एवात्मकं दह्निकं करणेन योगसंझिकेन वीर्यविशेषेण कषाय सहितेन सहितेन कार्ति ज्योsप्याकृष्य चदये दीयते उदयावलिकायां प्रतिप्यते एषा उदीरणा व वक्तया "उदद्यावलिया बाहिरलाई ईहिंता कसायसहियण या जोगसणं करणं दजियमाकट्टिय यायत्रियाण पयसया "उदयति सा किंभूतयत आह प्रकृति स्थित्यनुभागप्रदे शमूलोत विभागा। प्रकृतिस्थित्यनुभा प्रदेश प्रकृतिभिरुप्त रप्रकृतिनिश्च कृत्वा विभागो भेदो यस्याः सा तथा । इदमुक्तं नवति । सा उदीरणा चतुर्विधा स्त्रिया अनागोदरण प्रदेशा दोरणा च । एकैकापि द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिवि पाच विषयाचा उत्तरप्रकृतिविषया पशदधिकमेदादेव प्रणवेदी सम्पति साधनादिरूप] कर्तव्या । सा च द्विधा मूलप्रकृतिवित्र्या उत्तरप्रकृतिविषया च ॥ तत्र प्रथम कृतिविषयामा ॥ मूल पंच तिहा दोहं चरा हो । " उस साइ धुवा, दसुत्तरसयउत्तरासि पि ॥ २२६ ॥ कृतिषु मध्ये पचान प्रकृतीनां नायरदर्शना धरणाला याचन्मोस्यानं यस्य समयावधिकाशेषा न भवति तावास बंजी दानामुदीरणाश्वश्यं नाचिनी नामगोत्रयोस्तु यावत्सयोगिचरमसमयस्तावत् । ततः एषामनादिरुदीरणा वा अनव्यानां भव्यानां तु अधुवा धयोर्व दन मोहन या चतुविध तथा सादिरनादिया Sक्ष॒त्रा च । तत्र वेदनीयस्य प्रमत्तगुणस्थानकं यावत् उदीरणा न परतः । मोहनीयस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्यानकं यावत् न परतः । ततोऽप्रमता दिगण स्थानके ज्यः प्रतिप यस्य उपशान्तमगुणस्थानक न्यः श्व प्रतिपतितमोहनीयस्योदोरणा सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । ध्रुवा उईरणा पूर्ववत् । प्रायुषः पुनरुदारणा सादिरभ्र्वा च तया यु पर्याय काय नियमादुदीरणान नयन्ति । ततो वा पुनरपि परमवोत्पलिमये प्रर्तते ततः सादिरिति देखायनादिरूपता समत्युतप्रकृतिषु तां चिकीर्षुराह (दसुत्तरेत्यादि ) सादिरभ्र्वा चेत्यनुवर्त्यते । उत्तरासामपि उत्तरप्रकृतीनामपि । दशोत्तरशतसंख्यानां पञ्चविधज्ञानावरण दर्शनावरणचतुष्टय मिध्यात्वतैजस सहकवर्णादिविंशतिस्थिरा स्थिरचना भगुरु निर्माणान्तराय । पञ्चकरूपाष्टाचत्वारिंशेत्यर्थः दीरणा द्विधा तद्यथा । सादिरध्रुवा चासाच साद्यध्रुवता श्रधुवोदयत्वादेव सिका । मिच्छतस्स पटका, तिहा य आवरण विग्ध चउदस विरमुन शेयर उपस्था, यवज्जब बंधिनामेय ||22७ ॥ मियात्वस्योदीरणा चतुर्धा तथा सादिरनाद ध्रुवा च तत्र सम्यक्त्वं गतस्य पुनरनादिर्भवति । ततो ऽसौ सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य त्वनादिः । श्रव्यानां ध्रुवा, नव्यानामध्रुवा । तथा ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तराय पञ्चरूपाणां चतुराकृतीनामाता अनादिधुंवा ध्रुवा । तथा होतासां प्रकृतीनां ध्रुवोदयस्नानादिरुदीरणा अनव्यानां वा मध्यानां तु कणमोदगुणस्थानके आकाशेषे व्यवच्छेदे भवा ध्रुवा । तथा स्थि खेतरे अस्थिरासुनसहितयोस्तयोरुपचा वर्जयि स्वशेषाणामधवन्धिनीनां व तैजससप्तकागुरुलघुवर्णादिविंशतिनिर्माणलक्षणानां सर्वसंख्यया त्रयस्त्रिंशत्संख्यानामुद्दीरणा त्रिधा । तद्यथा अनादिर्धवा अधवा च । तत्रानादित्वं ध्रुवोदयत्वात् ध्रुवा श्रभध्यानाम् । श्रध्रुवा भव्यानां सयोगकेवलचरमसमये व्यवच्छेदाभावात् । शेषाणां चाधुवोद्यानां दशोत्तरशतसख्यानामभयोययात्रा साहि च प्रागेवोक्ता । तदेवं कृता साधनादिप्ररूपणा । सम्प्रति प्रत्युदीरणास्वामिनमा । घाई मत्था रगा रागिणी व मोहस्स । तझ्या उण प्पमत्ता, जोगंता उत्ति दोएहं च ॥ २२८ ॥ घामाचरणान्तरायदर्शनावरणीयान्तराय पाणां सर्वेपि स्था की णमोर पर्यवसानारकाः मोहनीयस्य तु रागिणः सरागास्सूर मसंपरायपर्यवसाना नदीरकाः तृतीयवेदनीयस्य आयुषश्च प्रमत्ताः प्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्ताः साः पर्याय दीरका भवन्ति तथा योरप्यनामगोता सोगिपर्यवसानाः सर्वेप्युद्दीरकाः । इतिशब्द निमो गाथापर्यन्ते योजनीयः सवरणापरिसमाि द्योतको वेदितव्यस्तदेवं मूत्रप्रवृत्यु । रणास्याभ्युक्तः । साम्यमुतप्रकृत्युदरस्थामिनमा विग्धा वरण धुवाणं, बच्मत्यो जोगिणी धुवा । वायस तत्या, तलुकिट्टीणं तालुयरागा ॥ २२ ॥ विघ्न इति अन्तरायं ततोऽन्तरायपञ्चकं ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणयनुरूपाणां चतुर्दशानां कृत सार्थच्या उदीरकाः। तथा (धुवाणंति) नाम ध्रुवोदयानां ⚫ ت Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८८) नईरणा अभिधानराजन्तः। नईरणा प्रयस्त्रिंशत्संख्यानां तैजसससकवर्णादिविंशतिस्थिरास्थिर- नदीयते । मान्यदा चेति षष्टव्यम् । तथा उत्तमसंहमनो शुभाशुभगुरुमघुनिर्माणरूपाणां योगिनः सयोगिकवलिपर्य- बज्रर्षभनाराचसंहननः श्रेणी कपकश्रेणीभवति न शेषसंहन्ता नदीरकाः। उपघातिनाम्नस्तु तनुस्थाः शरीरस्थाः शरी- ननः । तेन कपकणि प्रतिपन्ना बज्रर्षभनाराचसंहननमेवोरपर्याप्यपर्याप्युदीरकाः तनुकिट्टीकृतां सूक्ष्म किट्टीकृताम् दीरयन्ति न शेषसंहननानि उदयानावादित्यवसेयम्। भर्थात् मोजसत्कानां तनुकरागाःसुक्ष्मसंपराया यावश्चरम- चतुरंसस्स तणुत्था, उत्तरता सगलजोगनूमिगया। समयावसिका न भवति तावदारकाः। देवा इयरे हुंमा, तस तिरिय नरा य सेवट्टा ॥२३५॥ तसवायरपज्जत्ते, सेयरगइजाइ दिट्टिवेयाणं । चतुरस्रस्य समचतुरस्त्रसंस्थानस्य तनुस्थाः शरीरस्थाः प्राकणं तमामा, पत्तेयसरी रस्स उ तात्या ॥२३०॥ उत्तरतनव आहारकोत्तरवैक्रियशरीरिणो मनुष्वास्तियञ्चः प्रसवादरपर्याप्तानां सेतराणां संप्रति झापना स्थावरसूक्म- सकनाः सकलेन्द्रियाः पञ्चेन्छिया इत्यर्थः। तथा भोगनूमिपर्याप्तसहितानामित्यर्थः । तथा चतसृणांगतीनां, पञ्चानां च गता देवाश्च दीरका जयन्ति (श्यरहुंमत्ति) इतरे उक्तशेषाः जातीनां, तिसृणां धीमा दर्शनानां मिथ्यादर्शनादीनां, प्रया- एकन्छियधिकलेजियनैरयिका अपर्याप्तकाश्च पञ्चेम्ब्यिगां बेदानां नपुंसकवेदादीनां, चतुर्णी चायुषां सर्वसंख्यया तिर्यङ्मनुण्या एते सर्वेऽपि शरीरस्थाः दुरसंस्थानस्योदीपञ्चविंशतिप्रकृतीनां यथास्वं सन्नामास्तमामप्रकृातनामान रका नवन्ति (तस तिरियनरा यसवहित्ति) अत्र इतरे इत्यनु नदीरणास्तद्यथा असनाम्नासास्ते च शरीरे अपान्तरा- वर्तते उक्तशेषास्त्रसा दीन्द्रियादयः । पञ्चेन्धियतिर्यङ्मनुमे गती व वर्तमाना उदीरकाः। एवं सर्वेषामपि प्रावनीयम प्याश्च सेवार्ताः सेवार्तसंहननोपेताः सेवार्तसंहननस्योदीरकाः तथा प्रत्येकनामानः शरीरस्य तनुस्था देहस्थाः तुरेवार्थे देह संघयणाणि न उत्तरे, तणुसु तन्नामगा नवंतरगे । स्था एव जवन्तीति गाथायः॥१३०॥ अणुपुब्बीणं परघा-इस्स न देहीण पज्जता ॥२३६।। आहरयओ णिचा, सरीर मुगवेयप्पमोत्तणं । उत्तरतनुषु वैक्रियाहारकशरीरेषुसंहनना न भवन्तीतिषमा अोरालाए एवं, तवंगाए तसज्जियाओ व्ब ॥२३॥ संहननानामकतरमपि संहननं न भवति तेन एकस्यापि संहनन ये नरा मनुष्यास्तिर्यञ्च माहारका ओजोनोमप्रवेपाहार स्थोदीरका न भवन्ति । तथा प्रानुपूर्वीणां नारकानुपूादीनां काणामन्यतममाहारं गृहन्ति तत औदारिक उपलक्कणमेतत् चतसृणां तन्नामिका तत्तदानुप्रापि नारकादिनामानां औदारिकबन्धनचतुष्टयस्यौदारिकसंघातस्य । औदारिकाः जवापान्तराजगतौ वर्तमाना उदीरका वदितव्याः । तद्यथाकिं सर्वेपि नित्याः शरीरहिकवेदकान् प्रमुच्य शरीराईक नारकानुपा नारको भवापान्तरालगतौ वर्तमान उदीरकभाहारकक्रियसवणामां तत्स्थानात्परित्यज्यन्ते होनीदा- स्तिर्यगानुपूास्तिर्यक इत्यादि । तथा पराघातनानः शरीरिकसरतस्य औदारिकाः किं सर्वेपि नेत्याह । शरीरहिक- रपर्याप्तापर्याप्ताः सर्वेप्युदीरकाः। वेदकान् प्रमुच्य शारीरद्विकमाहारकवैक्रियलकणं तत्स्था- बायर पुढवी आयव, णामवज्जियत्तु सुहमतसा । वरा एवमुक्तेन प्रकारेण (तदुषंगापत्ति) तङ्गोपाङ्गनाम्नः उज्जोयणामतिरिए, उत्तरदेहे य देवजई ॥३७॥ औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्न उदीरका वेदितव्याः। केवसं ते त्रसकायिका एव न स्याषरास्तेषां तदयाजावात्। आतपनामा बादरप्रथ्वीकायिक दीरका चशब्दस्यानुक्तार्थवेडब्बिगाय सुरने-श्या पाहारगा नरो तिरिओ। समुच्चायकत्वात् बादरपृथ्वीकायिको पर्याप्तो द्रष्टव्यः। तथा सूक्मान् सूदमैकन्ड्रियान् सूदमत्रसांश्च तेजोवायुकाथिकान् सभी वायरपवणो, मकिपजत्तगो होजा॥२३॥ वर्जयित्वा शेषास्तिर्यञ्चः पृथिव्यम्बुवनस्पतयो विकलेन्डियाः वैक्रियशरीरनाम्नः उपनक्कणमेतत् वैक्रियसंघातस्य सुरा पञ्चेन्द्रियाः लब्धिपर्याप्ता उद्योतनामानो यथासंजयमुदीरकाः नैरयिका वा गृहन्तो यश्च नरस्तिर्यक वा सझी वैक्रियत्नन्धि. नवन्ति । तया उत्तरदेहे उत्तरशरीरे यथासंनवं पक्रिवान् यश्च वादरपवनो नगनामोदयी सन्धिपर्याप्तको वैक्रि- ये आहारके च वर्तमानो देवोयतिश्च नद्योतनामा दीरको यशरीरकणवन्ध्या पर्याप्तस्ते सर्वप्युदीरकाः। भवति । १३७। वेनधियंग जवंगतणु-तुरा पवणबायरं हिच्चा।। सगलो पागई, उत्तरतणुदेवनोगनूमिगया । पाहारगा य विरओ, विउव्वंतो पमत्तेय ॥२३॥ इसराय तसो वि य, इतरासिं सनेरइया ॥२३॥ वैक्रियानपाङ्गनाम्न उदीरकास्तनुतुल्या वैक्रियशरीर- सकनः पञ्चेन्जियतिर्यमनुष्यो वा शरीरपर्याप्तापर्याप्तः प्रनाम्न नदीरकाः प्रागुपदिष्टास्त पव वैभियानोपानाम्ना- शस्तविहायोगतिः उदये वर्तमानस्तया उत्तरस्यां तनी बैक्रिय ऽपि वेदितव्या इत्यर्थः। किं सर्वेऽपि नेत्याह। बादरपवन शारीररूपायां वर्तमानाः सर्वे तिर्यञ्चो मनुष्याश्च तथा सर्वे देव पादरवायुकायिक हित्वा परित्यज्य शेषा द्रष्टव्याः। श्राहारक मोगनूमिकागता काव्याः । श्ष्टगते प्रशस्तविहायोपगतेरुशरीरनाम्नोपिविरतसंयतस्तत् आहारकशरीरं कुर्वन् प्रमत्तः दीरकः । तथा श्ष्टस्वराः सुस्वरनामाननसा द्वीन्छियादयोप्रमादमुपगतस्सन् उदीरको जवति । ऽपि शम्मात्प्रागुक्ताश्च पञ्चेन्द्रियतिर्यगादयो भाषापर्याप्यापउम्मं गणं संघय-पाणं सगळा तिरिय नरा। याप्ता ययासनवमुदीरकाः । तया इतरस्यामप्रशस्तविड़ादेहत्या पन्जत्ता, उत्तमसंघयणाणो सेढी ॥ ३४॥ योगतिपुस्वरनामानलसा विकोन्छियाःसनैरयिका नैरयि कसहितास्तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुप्याः केचन यथासभा मकमाः पश्चेन्द्रियास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च देहस्थाः शरीरनामो दय वर्तमाना सध्या पर्याप्ताः षमा संहननानामुदीरका भव. वमुदीरका वेदितव्याः । त्रि। हादयप्राप्तानामेवादारणा प्रवर्तते नान्येषां ततो नस्सासस्स सराण य, पज्जत्ता प्राणपाणजामासु । यत्स्थानं यन्संस्थानं संहननं वा उदयप्राप्तं वा जयात तत्तदा । सम्वाणुस्सासो, जामा वि य जानुरुज्जति ॥२३ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८९) उईरणा अनिधानराजेन्द्रः । नईरणा सच्यासस्वरशब्दयोः एतत्प्राणभाषाशब्दाच्यां सह यथासं- वेदयते तानेव बध्नाति । "जेवेयर संबंधे" इतिषचनात् । उदये ख्येन योजना । सा चैवं चच्च्वासनानः प्रायः पानपर्याप्ता- च सत्युदीरणा ततो युक्तमुक्तं "ते ते बंधंतगा कसायाणमिति" पर्याप्ताः सर्वेप्युदीरकाः (सराणयत्ति) द्वित्वेपि बहुवचनं तत्र मिथ्यादृष्टिसास्वादना अनन्तानुबन्धिनामुदीरकास्तेषां प्राकृतत्वात् । ततः स्वरयोः सुस्वरदुःस्वरयोः प्रागुक्ता नदी- तवेदकत्वात् । अप्रत्याख्यानापरणानां देशविरतिपर्यन्ताः रकाः सपि भाषापर्याप्तापर्याप्ता अष्टव्याः। यद्यपि स्वरयोः संज्वलनक्रोधमानमायालोभानां स्वस्वबन्धव्यवच्छेदादक प्रागवोदीरका लक्तास्तयापि ते भाषापर्याप्तापर्याप्ता एषोदी- उदीरकाः हास्यादिषट्कस्यापूर्वगुणस्थानका सदीरकाः। रका वेदितव्या शति विशेषोपदर्शनार्थ पुनरुपादानमा तथा स- जावूण खणो पढमो, संहरइ हासाणमेव मियरासि । झानां केवधिनामुच्वासभाषे यावन्नाद्यापि निरोधमुपगच्चत- देवा नेरइया जव-हिई केइ नेरझ्या ।। ४५॥ स्तावदुदीरितेऽत्र निरोधानन्तरमुदयानावानोदीरणा भवति । यावत् प्रथमः कणः किञ्चिवूनो भवति प्रथममन्तर्मुहर्स देवोसुनगाएय, णामगन्जवकंति उदयकितीए । यावदित्यर्थःतावनियमाहेवाः सुस्वररतिहास्यानामुदीरका - पज्जत्तो वज्जियास, सुहमे नेरइया मुहमतेसु तसे २४०। दितव्याः । परस्त्वनियम एवं किंचिदूनं प्रथमकर्ण यावरदेवो इत्यादी जीतावेकवचन केचिदेवाः केचित्तिर्यमनुष्या यिका इतरासामसातावेदनीयारतिशोकप्रस्तुतीनां नियमागर्भव्युत्कान्ताः सुजगादेयनामान उदीरकोपेतास्तदये ब- दीरकाः। परस्तु तीर्थकरकेवलज्ञानाभादौ विनिर्यासोपि न्ति । तथा सूक्मैकेन्ष्यिसहितान् नैयिकान् सूदमत्रसांश्च भवति । केचित्पुननरयिकाः सकझामपि भवस्थिति यावद वर्जयित्वा शेषाः पर्याप्तकनामोदये धर्तमाना यश-कीर्तेरु- असातवेदनीयारतिशोकानामुदीरका नवन्ति । पचमेकैकप्रदीरकाः। वृत्युदीरणास्वामित्वमुक्तम् । संप्रति प्रकृत्युदीरणास्थानमाह। गोउत्तमस्स देवा, नराय वयणो चनएहमियरा। पंचएहं च चनएहं च एकाईजा दसएहं तु ।। तन्नारित्ता तित्य-गरस्स सन्चसायापनवे ॥२१॥ लिगहीणाए मोहे, मिच्छे सत्ताए जाव दमए॥४६॥ सर्वे देवा मनुष्या अपि केचिदुचःकुलसमुत्पन्नास्तथा प्रकृ द्वितीयकर्मणि दर्शनावरणीयबक्कणे पञ्चानां चतसृणां प्रकृतिनोनीचाविशेऽपि पञ्चमहावतसमझङ्कृतगात्रयष्टयः- तीनां युगपदुदीरणा भवति । तत्र चतसृणां चक्षुरचक्षुरवधिचर्गोत्रस्योदीरकास्तया इतरासां चतसृणां प्रकृतीनां धनंगा दर्शनावरणरूपाणां ध्रवा ग्यस्थानामुदीरणा । पतासां मध्ये नादेयायश-कीर्तिनीचैर्गोत्राणां तयतिरिक्तानामुक्तव्यतिरिक्ता निषापञ्चकमध्यादन्यतमप्रकृतिप्रक्केपे पञ्चानामुदीरणा । नांवेदितव्यास्तत्र पुर्भगानादेययोरेकेन्द्रियविकोन्द्रियसंमू- तथा मोहे मोहनीये एकादित्रिकहीना तावद्ष्टच्या यावद्दशाछिमतियङ्मनुप्यनेरयिकाः। अयशः कीर्तेःसर्वे सूक्ष्माःसर्वे च नामतदुक्तं भवति मोहनीये कर्मणि दीरणामधिकृत्य एकानैरयिकाःसर्वे सूक्ष्मास्त्रसाःसर्वेप्यपर्याप्तकनामोदये वर्तमानाः दीनित्रिकहीनानिदशपर्यन्तानि नव प्रकृत्या स्थानानि नवन्ति। नीचैर्गोत्रस्य पुनः सर्वे नैरयिकाः सर्वे तिर्यञ्चो मनुष्या अपि तद्यया२२४५६|3| |१संप्रत्येषामदीविशिष्टकुलोत्पन्नान् वतिनश्व मुक्त्वा शेषाःसर्वेप्युदीरका रूट- रणास्थानानां स्वामिनमाह ।। 'मिच्छे सत्सा जाव' दश मिथ्याव्याः । तया तीर्थकरनाम्नः सर्वज्ञतायां सत्यां नवदीरणा रष्टेःसप्तादीनि दशपर्यन्तानि चत्वारि नदीरणास्थानानि नवनान्यदा उदयानावात् । न्ति । तद्यया सप्त अष्टौ नव दश । तत्र मिथ्यात्वमप्रत्याख्यान इंदिअपज्जत्तीए, दुसमयपज्जत्तगाय पानग्गा । प्रत्याख्यानावरणसंज्वानक्रोधादीनामन्यमे त्रयःक्रोधादिकाः। यत एकस्मिन् कोधे उदीयमाने सर्वे क्रोधा उदीयन्ते । एवं निदा पयवाणखी-पराग खवगेय परिवन्जिय ॥२४॥ मानमायालोनेषु षष्टव्याः । न च युगपदुदीरणेत्यन्यतमे प्रयो इन्ज्यिपर्याप्तापर्याप्तास्ततो द्वितीयसमयादारज्य इन्छियप गृह्यन्ते तथा त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः। तथा हास्यरत्यर्याप्यनन्तरसमयादारज्य इत्यर्थः। निषाप्रचलप्रायोग्या भव- रतियुगो रतिशोकयुगक्षयोरन्यतरयुगमम् । एतासांसप्तस्ति । किं सर्व नेत्याह । कोणरागान् कपकांश्च परित्यज्य प्रकृतीनां मिथ्यारष्टौ उदीरणा वा । अत्र च नाश्चतुर्विनदीरणाहि अदय सति नान्यथा नचक्कीणकपकयोर्निडाप्रचा शतिस्तद्यथा हास्यरत्यरतियुगने अरतिशोकयुगले चप्रत्ययोरुदयः संभवति" निहापुगस्स उदओखीणखबगे परिव कमेकैको नङ्गःप्राप्यत इति द्वौ भड्न तौ च प्रत्येकं त्रिष्वपि अति" प्रामाण्यात् ततस्तान् बजेयित्वा शेषा निकाप्रचलयो देवेषु प्राप्यते इति । द्वौ त्रिभिर्गुणिती जाताः षट् । तेच प्रत्येक म्दीरका वेदितव्याः ॥ क्रोधादिषु चतुएं प्राप्यन्ते इति षट् चतुर्भिर्गुणिताश्चतुर्विंशनिहानिदाइण चि, असंखवामा य मायतिरिया य॥ तिरिति । एतस्मिन्नेव सप्तके नये वा जुगुप्सायामनन्तानुबबाबियाहारताण, वज्जित्ता अप्पमत्ते य ।। २४३ ॥ धिना वा विप्ते अष्टानामुदीप्रणानां नयादी प्रत्येकमेकैका यमण्येयवर्षायुग मनुष्यनियञ्ची वैक्रियशरीरिणो प्रमत्तसं- भङ्गकानां चतुर्वितिः प्राप्यते ति तिम्रश्चताशतयोत्र यनांध मुम्या संपामपि निहानिद्राप्रचन्झस्त्यानींनामु- रुष्टव्याः । ननु च मिथ्यादृष्टरवश्यमनन्तानुबान्धनामुदयः दीरका दिनव्याः। सनवति उदये च सत्यवश्यमदीरणा तत्कथं मिथ्याप्टिरवयागीयगप्पयना, नन बंधगा कमायाणं । नन्तानुबन्युदयरहितः प्राप्यते सप्तानामष्टानां वा अनन्ता नुय-धार्गदतानामुदाणा संगयेत् । उच्यते २६ सम्यदृष्टीनां हामाई कमग, अपुच्चकरणम्म नग्मन ॥ २४॥ सनांकनाचन प्रथमतोऽन-तानुषाध्यदयरहितःप्रयोजिता तत्रैव वेदनीययोः सातामातम्पयाः प्रमत्नाप्रमत्तगुणस्थानकपर्य- च सविधा-ना न मिथ्यात्यादिकाय उक्तस्तथाविधसाताः सर्वेऽप्युदीरकाः।तथाय जीया यगं करायाणांय-धकाम्न मध्यावान् । ततः कालान्तरे मिथ्यात्वं गतः सन् मिवंगं कपायाणामुदीरका वदितव्याः। यतो यानेच कपायान् ।। प्यास्यप्रमयो न्योप्यनन्तानुसन्धिना यानाति । ततो बन्धा Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नईरणा उरणा अभिधानराजेन्द्रः । पत्रिकाया यावन्नाद्याप्यतिकामति तावत्तेषामुदयो न नवति तस्मिन्नेव चतुष्के भयजुगुप्सावेदकसम्यक्त्वानामन्यतमस्मिन् जदया जावाच्च नदीरणाया अप्यभावः । बन्धावहिकायां पुनर- प्रक्किप्ते पञ्चानामुदीरणा । अपनङ्गकानां न्यजुगुप्सावेद कसतीतायामुदयसंभवाङ्गवत्येवोदीरणा । ननु कथं संबन्धसम- म्यक्षु युगपत् प्रक्किप्तेषु सप्तानामुदीरणा अत्रैका चतुर्विंशतियादारज्य आवलिकायामतीतायामदयोपि संनवति ततो नङ्गकानां जयजुगुप्सानाम् । संप्रत्यपूर्वकरणस्योदीरणास्थाऽबाधाकाकये सति जदयः । अबाधाकामभानन्तानुबन्धि- नान्याह (उच्चोवरिसिम्मित्ति)वरिता उपरितेन अपूर्वकरणेन नां जघन्यतोन्तर्मुहूत्र्तमुत्कर्षतः चत्वारि वर्षसहस्राणि इति । चतुरादीनि षट्पर्यन्तानि त्रीएयुदीरणास्थानानि आह । तद्यथा नैष दोषः यतो बन्धसमयादारज्य तेषां तावत्सत्ता भवति । चतस्रः पञ्च षट् । तत्र चतुर्ण संज्वलनक्रोधादीनामेकतमः । सत्तायां च सत्यां पतग्रहता तस्यांच सत्यां शषप्रकृतिदनिक क्रोधादित्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः । द्वयोर्युगक्षयोरन्यतरसंक्रामति सक्रम्य तस्य च स संक्रमावलिकायाममतीताया. घुगनमित्येतासां चतसृणां प्रकृतीनां विरतस्य कायिकसम्यमुदयः उदये च सत्यूदीरणा । ततो बन्धसमयादनन्तरमाव- म्दृष्टिा उदीरणाऽत्र द्वे चतुर्विंशती ननकानामेताश्चापूर्वबिकायामतीतायामुदारणाभिधीयमाना न विरुध्यते । तथा त- करणसत्का भयजुगुप्सयोस्तु युगपत्प्रतिप्तयोः षषणामुस्मिन्नेव सप्तके भयजुगुप्सानन्तानुबन्धिनां बन्धिषु प्रक्षिप्तेषु दीरणा । अत्र चैका चतुर्विंशतिर्नङ्गकानाम् पताश्चापूर्वकरदशानामुदारणा । अत्रत्यैव भङ्गकानां चतुर्विंशतिस्तदेवं णसत्काश्चतुर्विंशतयः । अस्मिन्नेव चतप्के जयजुगुप्सायां था मिथ्यादृष्टेमाहनीयस्योदीरणास्थानान्युक्तानि । क्किप्तानां पञ्चानामुदीरणा । अत्र द्वे चतुर्विशती भडकानां भयसाम्प्रतं सासादनसम्यग्दृष्टयादीनामाह । जुगुप्सयोस्तु युगपत्प्रक्तिप्तयोः षएणामुदीरणा । अत्रैका चसासायणम्मि सत्ताइ, नव अविरए गइ परम्म पंचा। तुर्विंशतिः । चतुर्विशतयः परमार्थतः प्रमत्ताप्रमत्तचतुर्विअट्ठविरए चउराइ, सत्त उच्चोवारिधिम्मि ॥२५७॥ शतिका भिन्नस्वरूपा इति न प्रथक् गणयिप्यन्ते । सम्प्रत्यनिवृत्तिबादरस्योदीरणास्थानान्याह । सासादने सम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यादृष्टौ च सप्तादीनि नव पर्यन्तानि त्रीणि त्रीएयुदीरणास्थानानि भवन्ति तद्यथा सप्त अनियम्मि उंगगं, लोनो ताएगजोग्गचवीसा। अष्टी नव । तत्र सासादनसम्यगदृष्टा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्या एकग उक्ककार-दससत्तचनक्क एकाउ ॥२४॥ ख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वल नक्रोधादीनामन्यतमे चत्वारः (अनियत्ति) अनिवृत्तिबादरे द्वे उदीरणास्याने । तद्यथा क्रोधादिकाः । त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः । प्योर्युगलयो- दे प्रकृती एका च तत्र चतुर्णा संज्वलनक्रोधादीनामेकतम रभ्यतरयुगामिति । सप्तमिति सप्तनामुदीरणा ध्रया । क्रोधादित्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः । अत्र त्रिनिदेश्वअत्र प्रागुक्तक्रमण भङ्गकानामेका चतुर्विंशतिः। सम्यग्दृष्टि- तुर्तिः संज्वलन दश जङ्गाः वेदेषु कोणेखूपशान्तषु वा संज्व मिथ्याष्टित्वानन्तानुबन्धिवर्जास्त्रयोऽन्यतम क्रोधादयः त्रयाणां सनक्रोधादीनामेकतमं क्रोधादित्रयाणां वेदानामन्यतममुदीवदानामन्यतमो वेदः । द्वयोयुगयोरन्यतरदयगनं सम्यर रयन्ति । तत्र चत्वारो नङ्गाः (बोनातणुपजोम्पत्ति ) तनुमिथ्यात्वं चति सप्तानामुदीरणा । अत्र च द्वे चतुविशतीन- रागयोग्यस्य सूदमसंपरायस्य सदमनोनकिट्टीवेंदयमानस्य कानां जयजुगुप्सयोस्तु युगपत्प्रक्किप्तयोः सप्तानामदीरणा । सोन एवैको मोहनीयमध्ये उदीरणायोग्यो भवति । संप्रति अत्रापि तिस्रश्चतुर्विंशतयोऽत्र चैका चतुर्विंशतिः । अस्मिन्नेच चतुरादिषु दशपर्यन्तेषु नदीरणास्थानेषु विरतायां यावत्यपटक जयजुगुप्सावेदकसम्यक्त्वानामन्यतरछिप्ते सप्तानामु- चतुर्विंशतयो नवन्ति तावतीनिरूपयति- (चवीसेत्ति) दीरणास्थानानि जवन्ति । तद्यथा षट् सप्त अष्टी नव । तत्री दशादीरणायामेका चतुर्विंशतिः, नवोदीरणायां षट्, अष्टापशमिकसम्यग्डोः कायिकसम्यग्दृष्टेर्वा अविरतस्य अन दीरणायामेकादश सप्तोदीरणायां दश षसुदीरणायां सप्त न्तानुबन्धिवस्त्रियोन्यतमक्रोधादिकाः । त्रयाणां वेदानाम पञ्चकादीरणायां चतस्रः, चतुरुदीरणायामेकेति । एताश्चन्यतमो वेदःक्ष्योयुगलयोरन्यतरयुगामिति षष्मामुदीरणा। तुर्विशतयः प्रागेव जवन्ति । कवलं संझिनाममात्रमिदक अत्र चैका चतुर्विशतिर्भङ्गकानां " परम्मि पंचाक्ष अत्ति" स्वधिया परिभावनीयम् । तदेवमुक्तानि मोहनीयस्योदीरणाविरतसम्यग्दृष्टिपरस्मिन् देशविरते पश्चादीनि अष्टपर्यन्तानि स्थानानि दश । तद्यथा एकचत्वारिंशद् द्विचत्वारिंशत्पञ्चाशत् चत्वारि उदीरणास्थानानि । तद्यथा पञ्च षट् सप्त अष्टौ तत्र पकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाप्रत्याख्यानाधरणसंज्वबनसो क्रोधादीनामन्यतमौ छौ को शत् षट्पञ्चाशच्चेति । तत्र तैजससप्तकं वर्णादिविंशतिरगुरुदधादिको । त्रयाणां वदानामन्यतमो वेदः । द्वयोयुगक्षयोर घुस्थिरास्थिर शुभाशुन्ने निर्माणमित्येतासांत्रयस्त्रिंशत् प्रकृतीभ्यतरदू युगलम् । पतासां पञ्चानां प्रकृतीनां देशविरतस्यो नामदीरण। धुवा । तत्र मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसवादरपदीरणा धवा । एपा चौपशमिकसम्यग्दृष्टेः कायिकसम्यग र्याप्तसुभगादेययश कीर्तिरूपे अष्टके प्रक्षिप्ते सति एकचत्वादृर्वा अवगन्तव्या । अत्रच प्रामुक्तक्रमेण चतुर्विशतिर्नङ्गका रिंशद्भवति एतासां चैकचत्वारिंशत्प्रकृतीनां कवलिसमनाम् । संप्रति प्रमत्ताप्रमत्तजेदयो वात् युगपत् नदीरणा दातागतः कार्मणकाययोगे वर्तमानः केवबी नदीरको भवति। स्थानान्याह "विरए चउरा सत्तत्ति" विरते प्रमत्त अप्रमत्त पषैव चैकचत्वारिंशत्तीर्थकरनामसहिता विचत्वारिंशद्भच चतुरादीनि सातपर्यन्तानि चत्वारि उदीरणास्थानानि वति । तस्याश्च तीर्थकरकेवली समुद्धातगतः कार्मणकायजवन्ति । तद्यथा चत्वारि पञ्च षट् सप्त । तत्र संज्वलन योग वर्तमान उदीरकः । तस्यामवैकचत्वारिंशति औदाक्रोधादीनामन्यतम एकः क्रोधादिः । त्रयाणां वेदानामन्य रिकसप्तकं षस्यां संस्थानानामेकैकमेतत्संस्थानं बज्रऋषनतमो वेदः । द्वयोरन्यतरागममित्यतासां चतसृणां नाराचसंहननम् । उपघातप्रत्येकमित्येकादशके प्रतिप्त सति प्रकृतीनां विरतस्य कायिकसम्यग्दृष्टरौपशामिकसम्यो द्विपञ्चाशद्भवति । अत्र परुनिः संस्थानःषम्भङ्गास्ते च घ. उदारणा धवा अत्रैका भङ्गकानां तिम्रश्चतुर्विशतयः । तया क्ष्यमाणाः सामान्यमनुष्यनङ्गग्रहणेन गृहीता एव्याः । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९१ ) अभिधानराजेन्ः | नईरणा पयनुत्तरत्रापि एतस्यास यशासयोगिकेच सिमा गतीदारिक मिश्रकाययोगे वर्तमाने उदीरकः एषैव च द्विपञ्चा शतीर्थकरनामसहिता त्रिपञ्चाशत्केवल मिह संस्थानं समचतुरस्रमेव वक्तव्यम् । अस्या अयुदीरकाः सयोगकेवल तीर्थफरीदारिक मिश्रकाययोगे वर्तमाना दिया तथा सेव द्विप पघातः मुच्वः सनामप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिरन्यतरा विहायोगतिः सुस्वरः स्वरयोरन्यतरनामेति प्रकेपात्रिपञ्चाशत् षट्पञ्चाशङ्गवति । एवं च सयोगिकेवल्यौ. दारिककाययोगे वर्तमान उद्दारकः सप्तम्याशदेव वाग्योगनिरोधे षट्पञ्चाशत् उच्छ्वासेपि च निरुके चतुःपञ्चाशत् अत्र द्विपञ्चाशचतुःपञ्चाशषु शेषेषु तु पञ्चसु कृतम् । तदेवमुक्तानि केनारस्यानानि संकेन्द्रिया यामभिधीयन्ते । एकेन्द्रियाणामुदीरणास्थानानि पञ्च । तद्यथा विचचारिंशत्पञ्चाशत् एकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत् त्रिपाशधेति तत्र तिष्यंयतितिष्यंगानुपू । स्थावरनाम - केन्द्रियज्ञातिः बादरसूक्ष्मयोरेकतरयौः पर्याप्तापर्याप्तयोरेकतरं दुर्भगमनादेयं यशः कीर्त्ययशः कीत्योरेकतरमित्येता नवप्रकृतयः । प्रागुच्ाभिर्धवादीरणाभिपत्रिशत्संख्याकानि सह सम्मिश्रा विचत्वारिंशद् भवन्ति । अत्र चङ्गाः पञ्च तद्यथा बादरसूरमान्यां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तायामयशः कीरयो सद् चत्वारि बादपर्याप्तयश कीर्तिभिः पर्याप्तान्यन जयति तदभावाच नोदीरणेति कृत्वा तदाश्रिता विकल्पा न भवन्ति । एषा द्विचत्वारिशदपान्तरागती वर्तमानस्य वेदितव्या । ततः शरीरस्वदरिक शरीरीदारिकसंघातीदारिक बन्धनचतु स्यानोपाधारकान्यामयशःकीत्या सद श्री सु हमस्य पर्याप्तापर्याप्त प्रत्येक साधारणीयशः कोयी सद चत्वारि इति दश बादरवायुकायिकस्य वैक्रियं कुर्वतः श्रदारिकपट्रकस्याने वैदिकमवगन्तव्यम् । ततश्च तस्यापिपचादेरणा योग्या भवन्ति केषप्रसिद्ध बादरपर्या " प्रायः कीर्तिः तेजसकायिक वायुकापिको साधान भ वाच्च नाप्युदीरणा ततस्तदाश्रिता भङ्गा न प्राप्यन्ते । तदेव सर्वसंख्या पञ्चाशदेकादश मङ्गास्ततः शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य परघात उच्छ्वासकिप्ते एकपञ्चाशद्भवति । अत्र जङ्गाः षट्। तद्यथा-वादरस्य प्रत्येकसाधारण्यशः कीर्त्ययशःकीर्तिपदैश्चत्वारः । सूक्ष्म प्रत्यैकसाधारणायामयशः कीर्त्या सह द्वौ बादरवायुकायिकस्य व वैक्रियं कुर्वतः शरीरपर्याप्तापर्याप्तपराघाते किप्ते एका प्रागुक्ता पञ्चाशत् नवति पञ्चाशदत्र च प्रागवदेक एव नङ्गः । सर्वसैख्यया चैकपञ्चाशदतः सप्त नङ्गाः । ततः प्राणापानपर्याप्त पर्याप्तस्य उच्छवास किप् पञ्चाशद्भवति । अत्रापि जङ्गाः षट् । तथया बादरस्योद्योतेन सहितस्य प्रत्येक साधारण्यशः कीर्त्ययशः कीर्तिपवार | तपसहितस्य प्रत्येकशः कीर्त्ययशः कीर्तिपदे न वादश्वायुकायिकस्य दैक्रियं कुर्वतः प्राणापानपर्याप्त पर्याप्तस्य उच्छ्वासे किप्ते प्रागुक्ता एकपञ्चा शत् द्विपञ्चाशत् भवति । तत्र च प्रावदेक एव नङ्गः । तेजसायिक कायिकःदयानावात् उदीरणा न भवति । ततस्त्राश्रिता जङ्गाः अत्र न प्राप्यन्ते सर्वसंख्या द्विपञ्चाङ्गता ईरा प्राणापानपर्याप्तपर्याप्तस्य वाससहितायां द्विपयाशत् । श्रातपोद्योतयोरन्यतरस्मिन् किप्ते त्रिपञ्चाशद्भवति अत्र नङ्गाः पट् । अत्र जङ्गाः ये प्रागातपोद्योतत्वान्यतरसहितायां द्विपञ्चाशदभिहिताः सर्वसंख्यया चैकेन्द्रियाणां मङ्गा द्विचत्वारिंशत् द्वीन्द्रियाणामुदीरणास्थानानि पद् । तद्यथा द्विचत्वारिंशदपान्तरालगतौ वर्तमानस्यावसेयाः । अत्र च नङ्गात् तद्यथा अपर्याप्तकामोदये वर्तमानस्यायशः कीस्यां सह पका भङ्गः पर्याप्तनामादये वर्तमानस्य यशः की कीर्तियां द्वाविंशतिः । ततः शरीरस्थस्पीदारिक सप्तके संस्थान वार्त संहननमुपपानामा त्येकादशकं प्रविष्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते । ततो जाता द्विपञ्चाशत् । अत्र च भङ्गास्त्रयस्ते च प्रागिव प्रष्टव्याः । ततः शरीर पर्याप्त पर्याप्तस्य विहायोगतिपराघातयोः प्रक्षिप्तयोः चतुःपञ्चाशत् भवति । अत्र यशः कीर्त्ययशः कीर्तित्र्यां न ततः प्राणापानपर्याप्तस्य उसे पिचासु स्वरःस्वरयोरेकतरस्मिन् पञ्चाशद्भवति । अत्रापि प्राणिबीजङ्ग अथवा शरी नाम्नि तूदिते पञ्चपञ्चाशद्भवति । अत्र दुःस्वरसुस्वरयशः कीर्त्य यशः कीर्ति ज्यां द्वौ भङ्गौ सर्वेऽपि षट्पञ्चाशति पटू नङ्गाः ततो भाषाप्तस्य स्परसंहितायां चातिद्योतनाम्नि प्रतिप्ते सप्तपञ्चाशद् भवति अत्र सुस्वरदुःस्वरयोर्यशः कीर्त्ययशः कीर्तिपदैश्चत्वारो भङ्गाः सर्वे द्वीन्द्रियाणां भट्टा द्वाविंशतिः। एवं ति द्विजातिरभिधानाशि तिरचसेचा सर्व संपाद्रयाणां नङ्गाः पटुषष्ठिः। तिर्यरुप वैरिणा स्थानानि पद् रिंशत् द्विपञ्चाशत् पञ्चाशत् सप्तपञ्चाशश्चेति । तत्र तिर्थभातिर्विगानुपूर्वी पञ्चेन्द्रिय जातिनामषानामपर्यासा पर्यातयोरेकतरं सुभगादे पयुग जुगानादेययुगयारेकतरं यु गवं यशः कीर्त्ययशः कीर्त्योरेकतरोऽन्ये तावन्नव प्रकृतयः प्रागुकाव्यकारिणाभिः सदावारिंश अपान्तरागतौ वर्तमानस्य वेदितव्याः । अत्रच भङ्गाः पञ्च । तत्र पर्याप्तकनामोदये वर्तमानस्य सुनगादेययुगडुगानादेययुगायकीर्तिनिश्वत्वारो नङ्गाः अपर्याप्तफनामोदये वर्तमानस्य दुर्भगानादेयायश कीर्तिभिः एक एव भङ्गः । सुनगादेये गानादये वा युगपदयमायातस्तत उहीयुगपदे पञ्चैव प्रङ्गाः । अपरे पुनराङ्गः सुगादे गाईयो नैरयिका वा तेन युगपदेका उन यादर्शनात् । ततः पर्याप्त वर्त मनरुपायानादेशः कपयश कीर्तिम भङ्गाः । अपर्याप्त कनामोदये वर्तमानस्य तु दुर्भगानादेयायशःकीर्तिनिरेक शर्त | सर्वसंख्यया द्विचत्वारिंशत् नव ततः शरीरस्वस्वदारिकसप्तकं पक्ष संस्थानानामेकलमसंहननमुपघातं प्रत्येक मित्येकादश प्रतिमा पूर्वी चापनीयते ततो विचारापति अत भङ्गानां पञ्चचत्वारिंशत् तद्यया पर्याप्तकस्य पभिः संस्थानैः पतिः सुनाया कीर्तिरिक इति तप संस्थागदुर्जगण्यामदियानोदयान्यां यशः कीर्त्ययशःकीर्तिज्यां द्वे शते अष्टाशीत्यधिक । अपर्याप्तकस्य तु प्रागुक्तस्वरूप एक पवेति । तस्यामंच द्विपम्बारात शरीरपर्याप्तपर्याप्त Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९२) नईरणा अन्निधानराजेन्षः। नईगणा स्ताप्रशस्तान्यतरविहायोगतौ च प्रक्किप्तायां चतुःपञ्चाश- मम्शायदा ११५ क्रियद्भवति । अत्र पर्याप्तानां प्राक् चतुश्चत्वारिंशतं नङ्गकानामु- मपिकुर्वतां मनुष्याणामुदीरणास्थानानि पञ्च भवन्ति । तद्यतम् । तेदवमुक्तविहायोगतिद्विगुणितमवगन्तव्यम् तथाच था एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतु-पञ्चाशतू षट्पञ्चाशश्चति । सत्यत्र भङ्गानां वशते अष्टाशीत्यधिके नवतः मतान्तरेण तत्र एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशच्च यथा प्राग्वैरियं मुक्त्वा पुनः पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि ततःप्राणापानपर्याप्ता- तथात्रापि पृष्ठव्या चतुःपञ्चाशत् उच्वाससहितायां पर्याप्तस्य उच्वासक्तिप्ते पञ्चपञ्चाशद्भवति । अत्रापि प्रागिव स्वमतेन चत्वारो प्रङ्गाः मतान्तरेणाधी । उत्तरप्रागिव नानां के शते अप्टाशीत्यधिक मतान्तरेण पञ्चश- धैक्रियं कुर्वतां संयनानामुद्योतनामोदयं गच्छति नान्येषां तततानि षट्सप्तत्यधिकानि ततः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य स्तेन सह चतुःपञ्चाशपुच्छ्वासप्रशस्त एवैको भलो उच्छवासक्षिप्ते पञ्चपञ्चाशद्भवति अत्रापि प्रागय सर्व- भवति संयतानां धर्भगानादेयायशःकीयुदयानावात् । संख्यया पञ्चाशति स्वमतेन ननकानां पञ्च शतानि षट्- सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् । स्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो मतासप्तत्याधिकानि । मतान्तरेण तु द्विपञ्चाशदधिकानि पका- न्तरेणारी । अथवा संयतानां स्वरे अनुदिते चोतनानि दश शतानि । ततो नाषापर्याप्तापर्याप्तस्य सुस्वरपुःस्वरयो- तुर्दित पञ्चपञ्चाशद्भवति । अत्रापि प्रागिष एक एवं भङ्गः रन्यतरस्मिन् विप्ते षट्पञ्चाशद्भवति । तत्र स्वमतचिन्तायां सर्वसंख्यया पन्चपञ्चाशति स्वमतेन पञ्च नङ्गाः मतान्तउच्वासन दे शते अष्टाशीत्यधिके भङ्गकानां प्राक सम्धे ते रेण नव पञ्चपञ्चाशति सुस्वरसहितायामुणेते विप्ते इह स्वरद्विके तु गण्यते ततो सन्धानि पञ्च शतानि घट्सप्तत्य- षट्पञ्चाशद प्रवति तस्याञ्चक एव प्रशस्तो प्रः । धिकानि। मतान्तरेण पुनरिह धिपञ्चाशयति। अत्र स्वमत- सर्वसंख्यया वैक्रियमनुष्याणामन्यमतेनैकोनविंशतिभा मताचिन्तायां प्रावि द्वशते अष्टाशीत्यधिक ननकानां मतान्तरण न्तरेण पञ्चत्रिंशत् । पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि सर्वसंख्यया स्वमतेन षट् संप्रत्याहारकं कुर्वतामुदीरणास्थानान्युच्यन्ते आहारकसंयपञ्चाशतिनङ्गा अष्टशतानि चतुःषष्टयधिकानि । मतान्तरण तानामुदीरणास्थानानि पश्च। तद्यथा एकपश्चाशत त्रिपञ्चासप्तदश शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि ततः स्वरसहितायां षट् शचतुः पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशश्चेति । तत्राहापञ्चाशतशतानि षट्सप्तत्यधिकानि।मतान्तरेण हिपञ्चाशद रकसप्तकं समचतुरस्रसंस्थानमुपधातं प्रत्येकमिति प्रकृतिद्धिकानि एकादश शताति त एवात्राऽपि एव्याः। तथा तेषा. शकं प्रागुक्तायां मनुष्यगतिप्रायोग्यायो द्विचत्वारिंशति प्रक्ति मेव तिर्यक्पञ्चेम्ब्यिाणां वैरियं कुर्वतामुदीरयस्थानानि प्यते मनुष्यानुपूर्वी चापनीयते । ततः एकपञ्चाशद्भवति पञ्च जयन्ति तद्यथा एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चा केवामिह साएयपि प्रदानि प्रसत्ताति एवेति कृत्या एक शत् षट्पञ्चाशचेति । तत्र वैक्रियसप्तकं समचतुरस्रसंस्थान. पव नमः । शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य प्रशस्तविहायोगतिपरामुपघातं प्रत्येकीमति प्रकृतिदशकं प्रागुक्तायां तियक्पञ्चे घातयोः प्रक्षिप्तयोसिपञ्चाशद्भवति। अत्राप्येक पब भङ्गः न्द्रियाणां प्रायोम्या द्विचत्वारिंशत्प्रक्तिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चाप शरीरपर्याप्तः। ततः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य सच्चासेनीयते तत एकपञ्चाशयति । अत्र सुन्नगादेययुगमनंगा क्किप्ते चतुःपञ्चाशवति । अत्राप्यक एव नङ्गः । सर्वसंख्यया नादेययुगमयशः कीर्त्ययश कीर्सिपर्याप्तिपदैश्चत्वारोजनाः । चतुःपञ्चाशति नको ततो नाषापर्याप्तापर्याप्त नध्यवासमतान्तरण पुनः सुभगभंगाच्यामादेयानादेयाश्यां यशः सहितायां चतुःपञ्चाशति सुस्वरे विप्ते पञ्चपञ्चाशद्भवति । कीर्त्ययश-कीर्तियां च पर्याप्तकेन सहाप्टौ भङ्गाः ततःारी अत्रापि प्राग्वदेक पवन अथवा प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य रपर्याप्तापर्याप्तस्य पराघाते प्रशस्तविहायोगतौ च प्रक्किप्तायां स्वरे अनुदिते उद्योतनाम्नि उदिते पञ्चपञ्चाशद् भवति अत्रापञ्चाशद्भवति । अत्रापि प्रागिव चत्वारोनङ्गाः । मतान्तरेण. प्येक एव जङ्गः सर्वसंख्यया पञ्चपश्चाशतिद्वी नगी । ततो पुनरष्टौततःप्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छवासनानि प्रक्षिप्त भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य स्वरसहितायां पञ्चपञ्चाशति - चतुःपञ्चाशद्भवति । अत्रापि प्रागिव स्वमतेन नङ्गाश्चत्वारो द्योते क्विप्ते षट्पञ्चाशद्भवति । अत्राप्येक पवनङ्गः पाहारिकमन्तान्तरेणारी सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् । स्वमतेनाष्टौ नगाः। शरीरिणाःसर्वसंख्यया सप्त भङ्गाःतिदेवं मनुष्याणां सामामतान्तरेण पोमश । ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य उच्च- न्यवै क्रियशरीराहारकशरीरकेवहिनां भङ्गाः सर्वसंख्यया वाससहितायां पञ्चपञ्चाशति उधोते क्किप्ते षट्पञ्चाशद्भ- त्रयोदश शतानि चतुविशत्यधिकानि जवन्ति। परमतेन पट्टि यति अत्रापि जनाः स्वमतेन चत्वारोमतान्तरेणारी सर्वस्वसं शतिशतानि पश्चाशदधिकानि । स्यया कियं कुर्वतां तिर्यक्यञ्चेन्द्रियाणां भङ्गाऽष्टाविंशतिः देवानामुदीरणास्थानानि षट् । तद्यथा द्विचत्वारिंशत् एकमतान्तरेण षट्पञ्चाशत् । सामान्येन तिर्यकपञ्चान्द्रयाण पञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षदस्वमतेन भकाचीवशतिशतानि द्वादशाधिकाान, मतान्त- पञ्चाशच्चेति । तत्र देषगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिः । रेण एकोनपञ्चाशच्चतानि द्विषपचाधिकानि । असनामयादरनामपर्याप्तनामशुजगादेययुगलपुर्जगानादेययुसम्प्रतिमनुष्याणामुदीरणास्थानानि प्रतिपाद्यन्ते। तत्र केवलिना गनयोरेकतर युगलं यशःकीय॑यशःकीयोरेकतरेयो नवप्रकप्रागेवोक्तानि अन्येषां तुपञ्च। तद्यया द्विचत्वारिंशतिपञ्चाश- तयो नवोदीरणाभिरायविंशत्संख्याकानिः सह संमिश्राचतुःपञ्चाशत्पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशच्चोति । एतानि सर्वा- द्विचत्वारिंशावति । अत्र गुजगदियदुनगानादययुगजपयपि यथाप्राकृतिर्यपञ्चेन्ट्रियाणामुक्तानितर्थयात्रापि वक्त यशःकीर्तिच्या चारी प्रङ्गाः ततश्शरीरस्थस्य वैकियसप्तक व्यानि नयर तिर्यग्गतितिर्यगानुयॊःस्थामे मनुष्यगतिमनुष्या समचतुरनसंस्थानमुपघातं प्रत्येकमित्येतावश प्रकृतयः प्रकि नयी वक्तव्ये पञ्चपश्चाशत् षट्पश्चाशच धोतरहिता वक्तव्या प्यन्ते देवानुपूर्वी चापनीयते । ततः एकपञ्चाशत् प्रयति । क्रियाहारकर्मयतान्मुक्या स्वमतेन द्विचत्वारिंशति पञ्चद्वि- अत्रापि प्रागिव स्वमतेन सत्याग नः मतान्तरणाये। पञ्चाशति पय शनानि पदमातत्याधिकानि परमतेनतुययाक ततः शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य पराघातप्रशस्यदायोगत्योः Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९३) नईरणा अभिधानराजेन्द्रः । नईरणा प्रक्षिप्तयोः त्रिपञ्चाशद्भवति । अत्रापि प्रागिव स्वमतेन यिकाणां पर्याप्तानां सासादनसम्यक्त्वे वर्तमानानां पञ्चपचत्वारोजगामतान्तरणाथै। देवानां प्रशस्तविहायोगतरुदया चाशत् । तिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानां पर्याप्तानां षट्पञ्चाभावात् तदाश्रिता भनान प्राप्यन्ते । ततः प्राणापानपर्याप्ता- शत् । तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामुद्योतवेदकानां पर्याप्तानां सप्तपपर्याप्तस्य उध्वासे क्षिप्ते चतुःपञ्चाशद्भवति । अत्रापि स्व- चाशत् । सम्यग्मिथ्याष्टस्त्रीएयुदीरणास्थानानि । तद्यथा मतेन चत्वारो भङ्गाः मतान्तरेणाौ । अथवा शरीरपर्याप्ता- पञ्चपञ्चाशत्सतपञ्चाशश्चेति। तत्र देवनैरयिकाणामेव पञ्चपर्याप्तस्य उध्वासे अनुदिते उद्योतनाम्नि तूदिते चतुःपञ्चा- पञ्चाशदविरतसम्यम्रष्टरष्टावुदीरणास्थानानि तद्यथा द्विशद्भवति अत्रापि प्रागिव स्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो, मतान्तरे- चत्वारिंशदेकपञ्चाशचेति । तत्र नैरयिकदेवत्रिर्यकाचेन्जियणारी । अथवा शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य उध्वासे अनुदिते- मनुष्याणां चित्वारिंशद् देवनैरयिकाणामेकपञ्चाशत् तिर्यउद्योतनाम्नि तूदिते च सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् स्वमते- पञ्चेन्द्रियमनुयाणां छिपञ्चाशत, देवनैरयिकतिर्यङ्मनाटौ जना मतान्तरेण पोकशा ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य न- नुष्याणां त्रिपञ्चाशत् देवनैरयिकाणामेकपञ्चाशत् सप्तभवाससहितायां चतुःपञ्चाशति सुस्वरे किप्ते पञ्चपञ्चा- पञ्चाशश्चेति । तिर्यक्पञ्चन्धियवैक्रियतिर्यमनुष्याणां त्रिशद्भवति अत्रापि स्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो मतान्तरणाष्टौ सर्व पञ्चाशचतुःपञ्चाशदेतेषामेव पञ्चपञ्चाशदपि तदेव तिर्यसंख्यया पञ्चपञ्चाशत् । स्वमतेनाष्टौ भङ्गा मतान्तरेणापि पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां षट्पञ्चाशत् तिर्यक्पञ्चेन्धियाणामुतुषोमशनाषापर्याप्तापर्याप्तस्य सुस्वरसहितायां पञ्चपञ्चा द्योतदिकायां सप्तपञ्चाशत, देशविरतस्यादीरणास्थाशति नद्योते किप्ते षट्पञ्चाशद्भवति । अत्रापि स्वमतेनैव नानि षट् । तद्यथा एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतुःपञ्चाशत्चत्वारो भङ्गा मतान्तरेणारी सर्वसंख्यया देवानां स्वमतेन पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशत् सप्तपञ्चाशश्चेति । तत्र एकद्वात्रिंशङ्गाः मतान्तरेण चतुःषष्टिः । नैरयिकाणामुदीरणा पञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशच्चेति । स्थानानि पञ्च । तद्यथा-चित्वारिंशदेकपश्चाशत् त्रि तिर्यग्मनुष्याणां वैक्रियशरीरे वर्तमानानामवगन्तव्या । तिर्यपञ्चाशचतुःपञ्चाशत्पश्चपञ्चाशति । तत्र नरकगतिनर ग्मनुष्याणामेव स्वजावस्थानां वैक्रियशरीरिणां षट्पञ्चाशत् कानुपूर्योः पञ्चेन्जियजातित्रसबादरपर्याप्तभंगानादेया- तेषामेव तिर्यपञ्चेन्डियाणामुद्योतसहितानां सप्तपञ्चाशत् यशःकीर्तिशय इत्येता नव प्रकृतयो ध्रुवोदीरणाभित्रयनि प्रमत्तसंयतानामुदीरणास्थानानि पञ्च तद्यथा एकपञ्चाशद् शत्सख्यकाभिः सह सम्मिश्रा द्विचत्वारिंशद्भवति । अत्र हिपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् च सर्वात्यपि पदानि अप्रशस्तान्येवेति कृत्वा एक एव षट् पञ्चाशच्चेति । तत्र पञ्चाप्येतानि वैक्रियशरीरिणामानः। ततश्शरीरस्थस्य वैक्रियसप्तक हुंकसंस्थानमुपधा हारकशरीरिणां वा अष्टव्यानि षद पञ्चाशत् पुनरौदारिकतप्रत्येकमिति दश प्रकृतयः प्रकिप्यन्ते । नरकानुपूर्वी चापनी स्थानमवगन्तव्यम्। अप्रमत्तसंयतानां वे धीरणास्थानेतद्यथा यते । तत एकपञ्चाशद् भवति । अत्राप्येक पवनः । ततः पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशच्चेति । तत्र षट्पञ्चाशदीदाशरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य पराघातप्रशस्तविहायोगत्योः प्रक्कि रिके स्थाने श्द केषांचित् वैक्रियशरीरस्थानामाहारकशरीर. सयोः त्रिपञ्चाशद्भवति । अत्राप्येक पवनङ्गः । ततःप्राणा- स्थानां वा संयतानां वा सर्वपर्याप्तापर्याप्तानां कियत्कालप्रपानपप्तिापर्याप्तस्य उच्वासे किप्ते चतुःपञ्चाद्भवति । मत्तभावो पिसज्यते इति तेषां वे अप्युक्तरूपे उदीरणास्थाने । अत्राप्यक एव भङ्गः । ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य पुस्वरे पकः पञ्च मुहर्ताः पञ्चसु गुणस्यानिकेषु अपूर्वकरणानि क्षिप्त पञ्चपञ्चाशद्भवति । अत्राप्येक पव प्रजः। सर्वसंख्यया वृत्तवादरसूक्ष्म संपरायोपशान्तमोहवीणमोहरूपेषु एकमुदीमैरयिकाणां पञ्च भङ्गतः । तदेवमुक्तानि नामकर्मणोरुदीरणा रणास्थानं भवति । षट् पञ्चाशत् सा च श्रीदारिकशरीरस्थानानि । स्थानमिति ( पक्कम्मिटुक्ति) एकस्मिन् सयोगिकेवसगुण___संप्रत्येतान्येव गुणस्थानकेषु दर्शयति । स्थानिक प्रयाबुदीरणास्थानानि तद्यथा एकचत्वारिंशत गुणिस्मु नामस्मता, सत्त तिमि अटुं च गप्पं च। छिचत्वारिंशत् द्विपश्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् अप्पमत्ते दो एक, पंचमु एक्काम्म अट्ट ॥श्वए॥ | पञ्चपश्चाशत् पट्पश्चाशत् सप्तपश्चाशच्चेति । पतानि च प्रागेव सप्रपञ्च भाषितानि शति नेह नूयो नाब्यन्ते । तदेवं नाम्नोनामकर्मणोर्गुणिषु गुणस्यानेषु मिथ्यारणिप्रभृतिषु स चिन्तितानि गुणस्यानकेषु नदीरणा स्थानानि । योगिकेवलिपर्यन्तेषु यथासंख्यया नवादिषु सक्या युदीरण संप्रति कस्मिन्नुदीरणास्थाने कति भङ्गाः प्राप्यन्ते इति स्थानानि भवन्ति । तत्र मिथ्याहाधिषु नवोदीरणास्थानानि । चिन्तायां तन्निरूपणार्थमाह। तद्यथा द्विचत्वारिंशत् पञ्चाशद् हिपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशदेकपश्चाशद विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् षट्पम्चाश गणकमेण जंगा, वि एकतीसेकारस । पति । प्रमूनि च सर्वाण्यपि मिश्यारष्टीम्येकेम्झियादीन्याध- गवीस वा वारस-सए यशवीसच्चसया ॥२५॥ कृत्य स्वयं परिजावनीयानि । सास्वादनसम्पम्हटेरुवारणा. ग्ह अहिया नव सया य; एगहिया य अऊत्तारि। स्थानानि सप्त । तद्यथा श्चित्वारिंशत् पञ्चाशत् एकपञ्चाशत् द्विपम्नाश पाराशत् पदपक्षाशासप्तपश्चाशति । पात्रो चनदस सयाणि, गुण नउपसया पंच ॥२५॥ तत्र हिचत्वारिंशत् बादरैकेनिकपीकियत्रीमियचतुरिन्छिय स्थानक्रमेण एकमत्वारिंशत्येको प्रहः। स च तीर्थकरफेवतिर्यकपम्वेन्द्रियमनुष्यवानां सास्वादनसम्पन्ष्टीनामपा- सिनः विचत्वारिंशति शिजसः । तत्र मैरयिकामधिकृत्य न्तरालगतौ वर्तमानानामवसेवा तथा एकेम्बियाणां शरीर- एका पकन्दियामधिकस्य पच हीछियत्रीन्छियचतुरिन्छिस्थानां पश्चाशत् देवानां शरीरस्थानामेकपाशस्किन्किय- यानविकरय प्रत्येक त्रिकवि प्राप्यते शति नष। तिर्यक्पञ्चेतिर्वक्पम्बेन्द्रियमनुष्याणां शरीरस्थानां द्विपम्चाशत् एवं नैर-। जियानधिकल्प पञ्च,मनुष्यामप्याधिकस्य पश,तीर्थकरमधि. Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९४) उरणा भनिधानराजेन्द्रः। नईरगा कृत्य एकः । देवानधिकृत्य चत्वारः। ये पुनः सुभगादेययोः- यचतुरिन्छियानधिकृत्य प्रत्येक षट्प्राप्यन्ते इति अष्टादशातिभगानादेययोश्च केवलकेवलयोरप्युदयमिच्छन्ति तन्मतेन द्वि- र्यपञ्चेन्द्रियान स्वन्नावस्थानधिकृत्यायौ शतानि चतुर्दशशचत्वारिंशति त्रिचत्वारिंशद्भङ्गाः । यतस्तन्मतेन तिर्यक्प- तानि चतुःषष्टयधिकानि क्रियशरीरिणोऽधिकृत्य चत्वारःमनुचेन्द्रियानधिकृत्य नव, मनुष्यानधिकृत्य नव,देवामधित्याष्टी- प्यानधिकृत्य पञ्चशताति षट्सप्तत्यधिकानि, वैक्रियशरीरिणः प्रमाः प्राप्यन्ते शेषं तथैव । पञ्चाशत्येकादश प्रणास्ते चैक- संयतानधिकृत्योद्योतेन सहैकः । आहारकशरीरिणः संहताजियान्देवानधिकृत्य प्राप्यन्ते । भन्यत्र पञ्चाशतः प्राप्यमाण- नधिकृत्यैका तीर्थकरमाश्रित्यकः देवानधिकृत्य चत्वारः । अत्र त्वात् । एकपञ्चाशत्येकविंशति प्रगाः। तत्र नैरयिकानधिकृत्य मतान्तरेण तिर्यकपञ्चेन्द्रियानधिकृत्य सप्तदश शतानि नाचत्वारो वैक्रियमनुष्यानधिकृत्य चत्वारः आहारकशरीरिणः नां भवन्ति सप्तपञ्चाशदभङ्गानां पञ्चाशात एकोनमवत्यधिका संयतानधिकृत्य नव देवानाश्रित्य चत्वार इत्येकर्षिशातिः । नि प्रत्येकं चत्वारःप्राप्यन्ते इति द्वादश।तियकपञ्चेन्द्रियामतान्तरण पुनःक्रियतिर्यमनुष्यदेवानाधिकृत्य प्रत्येकमष्टावधी न धकृत्य पञ्च शतानि एकादश शतानि नानां प्राप्यन्ते षट्मङ्गाः प्राप्यन्ते इत्येकपञ्चाशति तदपकया तयस्त्रिंशद्भङ्गाः। सप्तत्यधिकानि तीर्थंकरमाश्रित्येक इति । अत्रापि मतान्तरण (सवारसतिसययत्ति) त्रिंशद्वादशाधिकात्रिंशति भङ्गानां तिर्थपञ्चेन्धियानधिकृत्य द्विपञ्चाशदधिकानि एकादश श हिपञ्चाशतिरवगन्तव्याः । तत्र एकेम्बियामाश्रित्य प्रयोदश तानि नानां प्राप्यन्ते शेष तथैवेति । तदपेक्या सप्तपञ्चाबीजियत्रीन्छियचतुरिन्जियामधिकृत्य प्रत्येक त्रिकं प्राप्यते शत् पञ्चषष्ट्याधिकान्येकादश शतानि नानां नवन्ति । ति नवा तिर्यक्पञ्चेन्ज्यिानधिकृत्य पञ्चचत्वारिंशतं मनुष्या- (अनयोाख्या पुस्तकान्तरे एवं दृश्यते । तद्यथा) नप्यधिकृत्य पञ्चचत्वारिंशतम् । अत्रापि मतान्तरेण तियक्प- “स्थानक्रमेण एकचत्वारिंशत्येको भनः । स च तीर्थकरउचन्द्रियान मनुष्यांश्वाधिकृत्य प्रत्येक के शते नहानामेको- केवलिनः रिचत्वारिंशति त्रिशङ्गाः तत्र नैरयिकानधिनवत्यधिक प्राप्यते इति तदपेकया द्विपञ्चाशद्भङ्गाना कृत्य एका एकेन्द्रियामधिकृत्य पञ्च हीन्छियत्रीन्छियचतुरिशतानि षट् प्राप्यन्ते । त्रिपञ्चाशात भङ्गानामेकविंशति: छियानधिकृत्य प्रत्येकं त्रिकं त्रिकं प्राप्यते इति नव । तिर्यतद्यथा मनुष्यांनाधिकृत्य प्रत्येक के द्वे शते नाना- पञ्चेन्ज्यिानधिकृत्य पञ्च, मनुष्यानप्यधिकृत्य पञ्च, तीर्थमेकोननवत्याधिके प्राप्यते तदपेक्यामनुष्यदेवानधिकृत्य प्रत्ये- करमधिकृत्य एकः देवानधिकृत्य चत्वारः। ये पुनः सुन्नगाकमष्टाश्चै भनाः प्राप्यन्ते शत तदपेक्कया त्रिपञ्चाशति त्रयलिं- देययोऽनंगानादेययोश्च केवस केवलयोरप्युदयमिच्छन्ति तन्मगन्नाः चतुःपश्चाशति भङ्गानां षट् शतानि पत्तराणि तेन द्विचत्वारिंशति द्विचत्वारिंशाः यतस्तन्मतेन तिर्यपतद्यया नैरयिकाणां प्रत्येकमष्टावष्टो नङ्गाः प्राप्यन्ते इति तद- चेन्द्रियाण्यधिकृत्य नव, मनुष्यानधिकृत्य नव, देवानधिपकया त्रिपञ्चाशति प्रशिद्भङ्गाः चतुःपञ्चाशति भङ्गानां कृत्यारी भजनः प्राप्यन्ते शेषं तथैव । पञ्चाशत्येकादश नापतियक्पञ्चेन्द्रियान् स्वनावस्थानधिकृत्य वे शते अष्टाशी- स्तंचैकेन्द्रियानवाधिकृत्य प्राप्यन्ते भन्यत्र पञ्चाशतो ऽप्राप्ययधिके वैक्रियतिर्यकपञ्चेन्द्रियानधिकृत्याप्टी स्वनावस्था- माणत्वात् एकपञ्चाशत्येकविंशतिनजनः तत्र नैरथिकानमनुष्यानधिकृत्य द्वे शते अष्टाशीत्यधिके चैक्रियमनुष्यानधि- घिकृत्य चत्वारो वैक्रियमनुष्यानप्यधिकृत्य चत्वारः आहाकृत्य हे शते अष्टाशीत्याधिके वैक्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियानधि- रिकशरीरिणः संयतानधिकृत्य एकः देवानाश्रित्य चत्वारः कृत्याष्टौ स्वनावस्थान् मनुष्यानधिकृत्य के शते अष्टाशोत्य- प्रत्येकविंशतिः । मतान्तरेण पुनक्रियतिर्यमनुष्यदेवाधिके वैफियमनुष्यानधिकृत्य चत्वारः संहतान् वैक्रियशरी- मधिकृत्य प्रत्येकमटावौ अङ्गाः प्राप्यन्ते इत्येकपध्याशति रिणः संयतानधिकृत्य द्वौ देवानधिकृत्योद्योतेन सहकः । श्रा- तदपेक्कया त्रयस्त्रिंशद्भाः (सवारसतिसपयत्ति) स द्वादहारिक शरीरिणः संयतानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्य- शाधिका त्रिंशतिभङ्गानां छिप बाशत्यवगन्तव्या। तत्र एकधिकानि वैक्रियतिर्यक्पञ्चेन्छियानधिकृत्य बोमश मनुष्यान- छियानाश्रित्य त्रयोदशहीन्छियत्रीन्छियचतुरिन्डियानधिधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि वैक्रियमनुष्यानधि- कृस्य प्रत्येकं त्रिकं प्राप्यते इति नव, तियपञ्चेझियानाधिकृत्य नव देवानधिकृत्य पोमश नङ्गाः प्राप्यन्ते शेष तथैवेति तद कृत्य पञ्चचत्वारिंशतं मनुष्यान्नप्यधिकृत्य पञ्चचत्वारिंशपेक्रया चतुःपञ्चाशदधिकानि द्वादश शतानि पञ्चशतानि तमिति । अत्रापि मतान्तरेण तिर्यकपञ्चेन्द्रियान् मनुप्यांचानानां नव शतानि एकाधिकानि । तद्यया नैरयिकानधिकृत्यै- धिकृत्य प्रत्येकं वे हे शते अङ्गानामेकोननयत्यधिक प्राप्येते का द्वीन्धियत्रीन्छियचतुरिन्छियानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः २ इति तदपेकया द्विपञ्चाशति भङ्गानां शतानि षट् प्राप्यन्ते । प्राप्यन्ते ति द्वादश । तिर्यक्पञ्चेन्डियान स्वनावस्थानधिक- त्रिपञ्चाशति भङ्गानामेकविंशतिः । तद्यथा नैरयिकानधिकृत्य स्य प्रत्यक चत्वारःप्राप्यन्ते इति हादश तिर्यक्पञ्चेद्रियान् स्व- एकः एकेन्द्रियानाधिकृत्य षट्र वैक्रियतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियानाध. नावस्थानधिकृत्य द्वे शते अष्टयाशीत्यधिके वैक्रियशरीरिणो- कृत्य चत्वारः बैंक्रियमनुष्यानप्यधिकृत्य चत्वारः आहारिकशधिकृत्य चत्वारः वैक्रियसयतानधिकृत्योोतेन सहकः प्राहा- रीरिणोधिकृत्य पुनरेकस्तीर्थकरमप्याश्रित्यैकः देवानप्याधिकिशरीरिणोऽधिकृत्य चत्वारः तीर्थकरमधिकृत्यकः देवानधि- कृत्य चत्वारः अत्रापिमतान्तरेण वैक्रियतिर्यकपञ्चेन्छियमनकृत्याष्टाविति । मतान्तरेण तिर्यकपञ्चेन्द्रियानधिकृत्य द्विप- ध्यदेवानधिकृत्य प्रत्येकमष्टावष्टा भङ्गाः प्राप्यन्ते इति चाशदधिकान्येकादश शतानि । वैक्रियतिर्यपञ्चेन्जिया- तदपेकया त्रिपञ्चाशति प्रयशिङ्गाः चतुःपञ्चाशति नधिकृत्य षोमश मनुष्यान स्वनावस्थानधिकृत्य पञ्च शतानि भङ्गानां पद शतानि पत्तराणि । तद्यथा नैरयिकानधिकपद सप्तत्यधिकानि क्रियमनुष्यानधिकृत्य नव देवानधिकृ- त्यकाद्वीन्जियांग्त्रीन्डियांश्चतुरिन्डियानधिकृत्य प्रत्येक हादी न्य घामश नङ्गाः प्राप्यन्ते शेषं तथैवति । तदपेकया पञ्चपञ्चा- प्राप्यते इति षट् । तिर्यक्पश्चेन्डियान पभावस्थानधिकृत्य गति पञ्चाशीन्यधिकसप्तदश शतानिषट्पञ्चाशति भङ्गाना- द्वे शते अष्टाशीत्यधिके वैक्रियतिर्यकपऽधियानाधकृत्यारी मेकानमनत्यधिकानि चतुर्दश शतानि तद्यथा द्वीन्धियत्रीन्द्रि- स्वजावस्यान्मनुष्यानधिकृत्य शत अधाशीत्यधिके वैक्रिय Jain Education Interational Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा अभिधानराजन्नः। ईरणा मनुष्यानधिकृत्य चत्वारः संयतान् वैक्रियशरीरिणोधिकृत्य स्थानानि मनुष्यगतिसयोगिकंवत्री तद्यथा हिचत्वारिंशदेकचत्वारः । संयतानधिकृय छौ, देचाधिकृत्योद्योतेन सहे का, पञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुः पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् पटमाहारिकशरीरिणः सेयतानधिकृत्य हो, देवानधिकृत्य षोडश, पञ्चाशच्चेति । एतानि च सर्वा एयपि प्राकू सप्रपञ्च जाविमनुष्यानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि चाप्टा- तानीति नेह नूयो नान्यन्ते । तदवमुक्तानि नामकर्मणः सप्रविति । अप्रापि मतान्तरेण प्रकृतिकतियपञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्चमुदीरणास्थानानि । संप्रति शेषकर्मणामदीरणास्थानपञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि वैक्रियतिर्यकपञ्चेम्ब्रियान- प्रतिपादनार्थमाह (सेसकम्माणत्ति) शेषकर्मणां ज्ञानावरण. धिकस्य पोश मनुप्यानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधि- वेदनीयायुर्गोत्रान्तरायसवणानामुदीरणास्थानमकैकमवगन्तकानि वैक्रियमनुष्यानधिकृत्य नव, देवानधिकृत्य षोमश भङ्गाः व्यं तद्यया ज्ञानावरणान्तरायोः पञ्चप्रकृत्यात्मकमेकैकमुदीप्राप्यन्ते शेषं तथैवेति । तदपेकया चतुःपञ्चाशति यधिकानि रणास्थानं वदनीयायुर्गोत्राणान्तु वेद्यमानेकप्रकृत्यात्मकं नाछादश शतानि पञ्च शतानिजङ्गानांनव शतानि एकाधिकानि मीषां हिव्यादिकाः प्रकृतयो युगपदीयन्ते युगपदुदयानातयया नैरथिकानधिकृत्यैकः हनियत्रीन्छियचतुरिन्छिया- वात् पतच ज्ञानावरणीयवेदनीयानामेकैकमुदीरणास्थानं प्रागुनधिकृत्य प्रत्येक वस्वारः प्राप्यते इति द्वादश । तिर्यकपञ्चे. तैकैकप्रकृत्युदीरणायां स्वामित्वं साधयित्वा निश्चित्य गुणक्रियान स्वभावस्थानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः प्राप्यन्ते इति स्थानेषु नारकादिषु गतिषु स्वयमेव केयं ज्ञातव्यम् । तदेवमुक्ताः द्वादश । तिर्यकपञ्चेन्ज्यिानधिकृत्य पञ्च शतानि पट्सप्तत्य- प्रकृत्युदीरणाः । सम्प्रति स्थित्युदीरणाभिधानावसरस्तत्र धिकानि वैक्रिय शरीरिणोधिकृत्याप्टौ, मनुष्यान् स्वन्नावस्थान- चेति अर्याधिकारास्तद्यथा अक्कणं भेदः साधनादिप्ररूपणा विकृत्य द्वे शते अधाशीत्यधिक, वैक्रियशरीरिणोधिकृत्य असाच्छेदः स्वामित्वं नेति । चत्वारः क्रियसयतानधिकृत्योर्गतेन सहकः, आहारिकश- ___तत्र सक्कणभेदयोः प्रतिपादनार्थमाह । गोरिणाधिकृत्य द्वा, तीर्थकरमधिकृत्यैकः, देवानधिकृत्याष्टा- संपत्तिए य नदये, पोगो दिस्सए नईरणा सा। विति । मतान्तरेण तिर्यपत्रवेन्द्रियानधिकृत्य द्विपञ्चाशद- संचिकाविहिं जाही, विहा मूलोत्तगाए य ॥२५॥ धिकान्येकादश शतानि वैक्रिप्रतिर्यक्रपञ्चेन्जियानधिकृत्य घो शह द्विविध उदयः संप्राप्युदयोऽसप्राप्त्युनदयश्च । तन्न यमश मनुष्यान स्त्रनावस्यानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्य कर्म दविक काबप्राप्तं सदनुभूयते स संप्राप्त्युदयः । तथाहि विकानि, बैक्रियमनुष्यानधिकृत्य नव, देवानधिकृत्य बोमश कायक्रमणे कर्मदनिकस्योदये हेतुषव्यक्केगादिसामग्रीसंप्राप्ती जगाः प्राप्यन्ते । शेपं तथैवेति तदपेकया पश्वपश्चाशति सत्यामुदयः संप्राप्त्युदयः । यत्पुनरकानप्राप्तं कर्म तहसिकपञ्चाशत्यधिकानि सप्तदश शतानि षट्पञ्चाशति नङ्गाना मुदिरणा । तयाचाह या स्थितिरकानप्राप्तापि सती प्रयोगणमकोनसातत्यधिकानि चतुर्दश शतानि तद्यया द्वानियत्रीन्द्रिय उदीरणाप्रयोगेण संप्राप्युदये पूधोक्ते स्वरूपे प्रक्किप्ता सती चतुरिजियानधिकृत्य प्रत्येकं षट् प्राप्यन्ते शत अष्टादश, ति रश्यते कवनच कुषा सा स्थित्युदीरणा । एष बकणनिर्देशः । यंकपञ्चेन्न्यिान् स्वनावस्थानधिकृत्याौ शतानि चतुःषष्ट्य अधुना नंद उच्यते (संचिकेत्यादि) श्ह यासां स्थितीनां भेदः धिकानि, वैक्रियशरीरिणोधिकृत्य चत्वारः मनुष्यानधिकृत्य परिकल्पना सनवतिताःपुरुषपरिभाषया संचिका इत्युच्यन्त पञ्चशतानि पदसप्तत्यधिकानि वैक्रियशरीरिणः संयतानाध ताश्च द्विधा उदारणायाःप्रायोग्या:अप्रायोग्याश्च काश्चाप्रायोग्या कृत्य द्योतेन सह एकः, आहारकशरीरिणः संयतानधिक शतचे दुच्यतेबन्धावनिका गताःसंक्रमावलिकागताश्च उदयावत्येकः तीर्यकरमाश्रित्त्यैकः, देवानाश्रित्य चत्वारः। अत्र मतान्त विकागताश्व प्रायांग्याः "सकम्मबंध नदयवट्टणाक्षिणाकररेण तिर्यकपञ्चम्झियानधिकृत्य सप्तदश शतान्यष्टाविंशत्यधि णा' इति वचनप्रामाण्यात शेषाश्च सर्या आपप्रायःप्रायोम्या: कानि, वैक्रियतिर्यकपञ्चेन्डियानधिकृत्यायौ, मनुष्यानधिकृत्य तत्रोदये सति यासां प्रकृतीनामुत्कृप्तयन्धः संभवति तासाद्विपञ्चाशदधिकानि भङ्गानां भवन्ति । सप्तपश्चाशति अङ्गानां मुत्कर्षत आवधिका द्विकहीना सर्वाप्यत्कृष्टा स्थितिरुदीरणापश्चशती एकोननवत्यधिका । तद्यथाद्वीनिय त्रीन्जिय चतुरि प्रायोग्या तथाहि उदयोत्कृष्टयन्धानां तु ययासनवमुदीरणा निध्यानधिकृत्य प्रत्यकं चत्वारः२प्राप्यन्ते इति द्वादश, तिर्यक प्रायोग्याः । श्रावलिकाद्विकहीनायाश्चोत्कृष्टा स्थितेर्यावन्तः पञ्चजियानधिकृत्य पञ्चाश (तानि ) ति एकादश शतानि समयास्तावन्त नदीरणयाःप्रजेदाः तयाहि उदयावसिकाया नङ्गानां प्राप्यन्ते पट्सत्तत्यधिकानि । तीर्थकरमाश्रित्यक इति। उपरिवर्तिनी समयमात्रा स्थितिः कस्याप्युदीरणाप्रायोग्यअत्रापि मतान्तरेण तिर्यकपश्चेन्जियानधिकृत्य द्विपञ्चाशद स्य तावत्यवशेषी लता तिष्ठति पवं कस्यापि द्विसमयमात्रा धिकानि एकादश शतानि नङ्गानां प्राप्यन्ते। शेषं तयवेति । कस्यापि त्रिसमयमात्रा एव । तावद्वाच्यम् आवक्षिका द्विकहीना तदपक्रया सप्तपञ्चाशति पञ्चषष्ट्यधिकान्येकादश शतानि कस्यापि सर्वाप्युत्कृष्टा स्थितिरिति । अक्करयोजना वियम भङ्गानां भवन्ति"॥ सचिकास्थितिज्य उदीरणाप्रायोग्याज्यो यकान्यो यावसंप्रति गतिमाश्रित्य स्थानप्ररूपाणां करोति । तीच्य आवधिकाधिकहीनोत्कृष्टस्थितिसमयप्रमाणाज्य इत्यपणनवगउक्काणि, गश्सुठाणि सेमकम्माणं । र्थः नदीरणाप्रयोगेग समाकृप्य स्थितिःसंप्राप्युदय दीयते एगेगमेव मेने य, माहित्तिगे य पगईओ ॥२५॥ तावती तावद्भदप्रमाणा सा एपा नदीरणा । तदेयं कृता भेदनरकगताबुदीरणास्थानानि पञ्च तद्यथा द्विचत्वारिंशत् एक प्ररूपणा । संप्रति साधनादिप्ररूपणा संकतंब्या। सा च द्विधा पचाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशच्चेति । मुत्रप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च । नियंगतावकचत्वारिंदात् बानि शेषाणि नवोदिरणास्था तत्र मूलप्रकृतिविषयां साद्यनादिनरूपणार्थमाह। नानि मनुष्यगतावपि सयोगिकेवल्यादीनधिकृत्य पञ्चाशत् मुत्रीहइ अजहन्ना, मोहस्म चनबिहा तिहा सिया। वानि शंपाणि नवादारणास्थानानि देवगतो षमुदीरणा- वेउणिया नण दुहासे, सविगप्पा उ उजासि ॥२५धा। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९६) उरणा अभिधानराजेन्द्रः । नईराला मूत्रस्थितिशब्दात्याकृतत्वात प्रत्येक षष्ठीविभक्तिलोपः ततो त्रिंशत्संख्याकानां नाम च प्रकृतीनां जघन्या स्थित्युदीरणा ऽयमर्थः मूलप्रकृतीनां मध्ये मोहस्य मोहनीयस्थितेरुदीरणा सयोगिकेवखिचरमसमये साच सादिरप्रवा च ततान्या सर्वा अजधन्या चतुर्विधा चतुःप्रकारा तद्यथा सादिरनादिर्धवाभ प्यजघन्या सा चानादिः । ध्वाधषे पूर्ववत् । एतासामेव पाचातयामोहनीयस्य जघन्या स्थिायुदीरणा सूक्ष्मपराय मिथ्यात्वादिप्रकृतीनामष्टचत्वारिंशसंख्याकानां शेषविकल्पा केपकस्य स्वगुणस्थानकसमयादिकावलिका शेषे वर्तमानस्य उत्कृष्टानुत्कएजघन्यसवणाद्विप्रकारास्तपथा सादयो धवाश्च। प्रवति शेषकासं त्वजघन्या नामाशेषे वर्तमानस्य भवति। ततो तया छतासामुत्कष्टा स्थित्युदीरणा मिथ्यारऐरुकृष्ट सकेशे ऽन्यत्र सर्वत्राप्यजघन्या सा चोपशान्तमोहगुणस्थानकेषु न वर्तमानस्य किवत्कासं मन्यते ततः समयान्तरे तस्याप्यनुभवति ततः प्रतिपाते व प्रवति ततोसौ सादिः तत्स्थानम स्कृष्टा ततो अपि साधनवे जघन्या व प्रागेव नाविता प्राप्तस्य पुनरनादिः । वा अभव्यानाम, अध्वा भव्यामां, शेपा कानावरणदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायाणांस्थित्युदोरणा। (सम्वविकल्या य सेणाणं ति) शेषाणां शेषप्रकृतीनां दशोअजघन्या त्रिधा त्रिप्रकारा तद्यथा अनादिर्धवा प्रभवा च तरशतसख्यानां सर्वे विकल्पा उत्कष्यानुत्कृष्टजधन्यरूपा वितथाहि ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां जघन्या स्थित्यु कल्पास्तद्यथा सादयो ध्रवाश्च सायधवत्वं चा भ्रवोदययो सावनीयम् कृता साधनादिप्ररूपणा ॥ दीरणा कोणकषायस्य स्वगुणस्थानसमयाधिकावधिका शेषे वर्तमानस्य भवति शेषकाझं स्वजघन्या सा चानादि: संप्रत्यकोजेदस्य स्वामित्वस्य च प्रतिपादनार्थमाह ।। सदैव भावात् धुवावे पूर्ववत् । नामगोत्रयोस्तु जघन्या स्थि अकाओ सामित्तं, पिवइ संकमे जहा नवरि ।। त्युदीरणा सयोगिकेवनचरमसमये सा चानादिरध्रवा च । तञ्चइसु निरक्ष्यगई, एवाविनिमुहिहिम्मखीईस ।२५६। सतोऽन्या सोप्यजघन्या सा चानादिः प्रवाधव पूर्ववत् । प्रहाच्छेदः स्वामित्वं च यथा स्थितिसंक्रमेऽभिहितं तथैवाघेदनीयायुरजघन्या स्थित्युदीरणा किंधा तद्यथा सादिरच. प्राप्यवगन्तव्यं नवरमयं विशेषसंक्रमकरणे तदावेदेष्वपि पाच तया सर्वा हि वेदनीयस्य जघन्या स्थित्युदीरणो पके स्थितिसंक्रम उक्तः । उदयाभावेऽपि संक्रमस्य नावात् । छियस्य सर्वस्तोकस्थितिसत्कर्मणो सत्यते ततस्तस्थव उदारणा पुनरियं तदयेप्येव वेदितव्या । दयाभावे सदीसमयान्तरे प्रवर्कमानसत्कर्मणो जघन्या ततः पुनरपि जध. रणाया अन्नावात् । श्दमपि संक्षिप्तमुक्तमिति किंचिद्विशेषतो जाज्यते। तत्र येषां कर्मणामुदये सति बन्धोत्कृष्टा स्थितिस्तेषां न्येति जयभ्या। अजधन्या च सादिरभ्रवा च श्रायुषः पर्यन्ता कानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयतैजससबलिकायांन नवति परभवोत्पत्तिसमये च भवतिसाच सादि सकवर्णादिविंशतिनिर्माणस्थिराशुभागुरु लघुमिथ्यात्वषोमरवा च । तया सर्वासांप्रकृतीनां शेषविकल्पा नत्कृष्णानुत्कृष्ट शकवायत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येक स्वरभंगानादेयायशः कीर्तिजघन्यत्रकणा किंधा द्विप्रकारा यथा सादयो भ्रवाश्च तथाहि वैक्रियसप्तकपञ्चेन्द्रियजातिहुंमोपघातपराघातोच्यासतपोसर्वेषामपि कर्मणामायुर्वर्जानामुत्कृप्टा स्थित्युदोरणा मिथ्या योता नविहायोगतिनीचैर्गोत्ररूपाणांपाशीतिसंख्यानां बन्धा स्टेरुत्कृष्टेः संक्शे वर्तमानस्य कियत्कालं प्राप्यते । ततः स वनिकायामतीतायामुदयावनिकात उपरितनी सर्वापिस्थिमयान्तरे तस्याप्यनुत्कृष्टया ततः पुनरपि समयान्तरे उत्कृष्टा तिः उदीरणाप्रायोम्या केवलं तानि कर्माणिवेदयसंतशे विशुका प्रायः प्रतिसमयमन्यथाभावात् ततो द्वे अपि मानानां वेदितव्या । नदयसत्तेवोदीरणाया अन्नावात् । साद्यधुवे । जघन्या च द्विधा प्रागेव नाविता अयुषां तु विक बन्धावलिकारहिता च सर्वास्थितिः । इह भावलिकाल्पत्रये युक्तिः प्राक्तन्येव प्रायोऽवसेया। तदेवं कृता सूमप्रकृ- द्विकरूपोऽकाच्जेदतजयवतस्तूदीरणा स्वामिनः येषां तु तिविषया साधनादिप्ररूपणा। कर्मणां मनुजगतिसातवेदनीयस्थिरादिषट्रकहास्यादिषट्संप्रत्युत्तरविषयां तां चिकीर्षुराह । कवेदत्रयशुजविहायोगतिप्रथमसंस्थानपञ्चकप्रथमसंहनन पमिच्छत्तस्सचनका, अजहस्या ध्रवं उदीरणाण तिहा। ञ्चकोश्चर्गोत्ररूपाणामेकोनविंशत्संख्याकानामुदये सति संक्रसेमविगप्पा दुविहा, सव्वविगप्पाय सेसाणं ॥२५॥ मेणोत्कृष्टा स्थितिः । तेषामावलिका त्रिकहीना सर्षा मिथ्यात्वस्य अजघन्या स्थित्युदीरणा चतुर्विधा तद्यथा सा- स्थितिरुदीरणा प्रायोग्या केवलं तानि कर्माणि वेदयमाना दिरनादिधुंवाध्रुवा च। तत्र मिथ्यादृष्टेः प्रयमसम्यक्त्यमुत्पाद वदितव्या अत्र बन्धावसिका संक्रमावनिरहिता च सी यतो मिथ्यात्वस्य प्रयमस्थितौ समयाधिकावलिका शेषायां स्थितियस्थितिरिह आवधिकात्रिकरूपोकाच्छेदस्तदयवन्तजघन्या स्थित्युदीरणा सादिरधुवा च सम्यक्त्वाच्च प्रतिपति स्तदीरणास्वामिनः । एवमुत्तरत्रापि यावत् यावानुदीरणाया तो जघन्या सा च सादिस्तत्स्यानमप्राप्तस्य पुनरनादिः ध्रवा अयोग्यः कालस्तावानाच्छेदस्तदयवन्तस्तूदीरणास्वामिनी भ्रवे अनन्यानव्यापेकया। तथाध्रवादारणानां पञ्चविधज्ञानाव बेदितव्याः । तया सप्ततिसागरोपमकोटीप्रमाणामिथ्यात्व स्य स्थितिर्मिथ्याष्टिना सताद्धा च ततो ऽन्तर्भुहूर्तकासं रणचक्कुरचारबधिकवनदर्शनावरणपञ्चविधान्तरायतैजस यावन्मिथ्यात्वमनुसूय सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ततः सम्यक्त्वे सप्तकवर्णादिशितिक्यिरास्थिरानाशुभगुरुनघुनिर्माणाण्या सम्यमिथ्यात्वे चान्तमुहूताना मिथ्यात्वस्थितिः सकलानामजघन्या स्थित्युदीरणा विधा । तत्र प्रथमानादिर्धवाधवा मपि संक्रमयात संक्रमावसिकायां चातीतायामुदीरणा तथादिकानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकचक्षुरचङ्घरवधिके योग्या तत्र संक्रमावनिकातिक्रमेपि सान्तर्मुहूर्तो नैव ततः वसदर्शनावरणरूपाणां चतुर्दशप्रकृतीनांक्षीणकषायस्य स्वगु सम्यक्त्वमनुभवतः सम्यक्त्वस्यान्तर्मुहताना सप्ततिसागणस्थानकसमयाधिकापत्रिका शेषे वर्तमानस्यास्थित्युदीरणा। रोपमकोटाकोटिप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिरुहीरणा योग्या मा च मादिरश्रवा च । शेषा सर्वाप्यजघन्या सा चानादिः ततः कश्चित् सम्यक्त्वेप्यन्तर्मुदूर्न स्पिस्था सम्यगामिथ्यात्वं सदेव प्रामात् प्रवाभवे पूर्ववत् । तैजससप्तकादीनां च प्रय- प्रतिपाद्यते ततः सम्यग्मिथ्यात्वमनुप्रयतः सम्पमण्यात्व Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः । उरणा स्यान्तर्मुहूर्त द्विकोना सप्ततिसागरोपमकोटाकोटिप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति । तथा श्राहारकसप्तममतेन सता तद्योग्योत्कृष्ट ब तत्कालोत्कृष्टस्थितिकं मूलप्रकृत्य निन्नप्रकृत्यन्तरदक्षिकं च तत्र संक्रमितमतस्तत्सर्वोत्कृष्ट सागरोपमकोटाको स्थ निजाचान्तर्मुहूर्तमतिक्रम्य बादारकशरीर मारभते । तचारजमाणा धुपजीवनेनौत्सुक्यनावतः प्रमाद नाग्भवति ततस्तस्य प्रमत्तस्य सत आहारक शरीरमुत्पादयतः आहारकसप्तस्यान्तर्मुहुत्तोंना उत्कष्टा स्थितिरुद |रणायोग्या । श्रत्र प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरारम्भत्वात् उत्कृरणास्वामिसंयत व तिच्या शेष प्रकृती सुत्रकृद्देवविशेषमा (निरयगादिति तरक गतेरचिरादात् भरका नुपूज्यों तियक्पण्येन्द्रिय मनुष्यो वा उत्कृष्ट स्थिति बया उत्कृष्टस्थितिबन्धानन्तरं चान्तर्मु यति सति तिसृषु अधस्तनपुची मध्ये अन्यतरस्यां समुत्पग्रस्तस्य प्रथमसमयै भरकमतरत सर्वास्थितिविशतिसागरोपमफोडाफोडीप्रमाणा उदीना योग्य भवति नरकापूर्वी थापासमयश्रयं यावदुत्कृष्टास्थितिरुदीरणायोग्या भवति । अधस्तनपृथिवीत्रयग्रहणे किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते । इह नरकगस्वास्थिति बान् अवश्यं कृष्णश्यापरिणामोपेतो भवति कृष्ण वेश्यापरिणामः पञ्चमपृथिव्यामुत्पद्यते । मध्यमकृष्णश्य परिणामः पृथिव्यामकृष्ण पर नामः सप्तमपृथिव्यामित्यधस्तनपृथिर्व । त्रयग्रहणं कृतम् ॥ देवगतिदेवम आशुवुब्वियामिति । तोच नागा तात्र ए गृहांतकस्य ॥ २५७ ॥ देवगतिदेवानुपूर्वमनुष्यानुपूर्वीणामातपस्य विकल्पकस्य द्वी यित्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिरूपस्य सूक्ष्मत्रिकस्य सूक्ष्मसाधारणापर्यातक प्रणस्य स्वस्वोदये वर्त्तमाना अन्तर्मुहूर्त्त - जाना उत्कृष्ट स्थितियवसायामुपाद परिभ्रष्टाः सन्तस्तावदूनामन्तर्मुनां तदेव गत्यादिना उत्कृष्ट स्थितिमुदीरयन्ति । इयमत्र भावना। यह कश्चित् तथाविपक्षिमा शेषभावतो नरक टां स्थिति दशसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणां कुमारमते ततस्तस्यां देवगतिस्थिती बज्यमानायामावलिका उपप इतनेति काहीना आवलिकामात्रहीना जाता देवगति च बनन् जघन्यैवाप्यन्तर्मुहूर्त्त का यावत् बध्नाति बन्धानन्तर च काकृत्वा भनन्तरसम देवो जातस्ततस्तस्य देवत्वमनुभ यतो देवगतिरन्तर्मुसाँना विंशतिसागरे पमफोटाकोटी माया उत्कृष्टा स्थिर योग्या भवति न भारेणाधिकान्ता प्राप्नोति कयमुच्यन्त षः यतामेव के गृहान्तरमवगन्तव्यमित्येवं देवानुपूर्व्या अपि वाध्यम् । तया कपिरानुपूय उत्कृष्ट स्थिति विशतिसागरोपम कोटाकोटीप्रमाणं बध्वा ततः शुनपरिणामविशेषतो मनुष्यानष्ट स्थिति गरोषमकोटाको प्रमाणं मारभते ततस्तस्यां मनुष्यानृपृथ्वी स्थिती बध्यमानायामाकायामुपरि बालिका नामापत्रिकामुपरि सक सामपि नारानुपूर्वी स्थिति पनि ततो मनुष्यान अपि विशतिसागरोपमकोटाकोटी प्रमाणा स्थितिरावविकामाना जाता मनुष्यानुपूर्वीच बन जायेनाप्यन्त उरणा का वापयति तथान्तर्मुद्र समाधि कोनविंशतिसागरोपम फोटोमा उदीरणा धाग्यान मनुष्यगतेरपि पञ्च गोदाम स्थितिः प्राप्यते तथा मनुष्यानुपूण्य अपि कस्था अपि विशतिस्तत मोरपि 66 मोठे संमत्वात् विशेष कथं मनुष्यगतेरिय मनुष्यानुपुग्यो अपि अधिकाधिक हीनोत्कृष्टा स्थितिरुदि रणयोग्य ननवति युकं मनुष्यानुपु अनुदयसमो कृत "माध्यमीसग आहारण देषचिगाणि सुमा तिर्गतिज्य संक्रमणेोसा.. अनुदानां च जन्यतोयाकृरणयोग्यत्वात मनुष्यगतिस्तृदयसंमोथाई खाई सम्म पिरदा सत्य य सुन । स्वगई रिसभ व उरंगपश्च उदसंकमुकोसा " ततस्तस्पा आवधिकाधिक होने बोत्कृष्ण स्थितिरुदीरणायोग्य नद ति एवमापादीनामप्यन्तमुना कृष्ट स्थितिरुदीरणा योग्या भवतु चातपानामनुबन्धोत्कृएं ततस्तस्य स्थितीयां प्रकृतीना उत्कृष्ट स्थितिरुदीरणायोम्पा नयतु आतपानामष्टा ततस्तस्व बन्धोदयाय का किरद चाकूटस्थितिरुदीरणा प्राभोग्या भावनीया । ननु अनुदयस मोटा स्थितीनां प्रकृतानामन्तर्मुखौना उत्कृष्ट स्थित रक्षा योग्या प्रचतु कथमुच्यते भन्तर्मुयोति य देव से वर्तमान केन्द्रियाणामेकेन्द्रियायो ग्यानामात पस्थापकेन्द्रित स्थिति बनाना ऽन्यः स च तां बध्वा तत्रैव देवनवे अन्तर्मुहूर्त कालं यावत् अवति ततः काकृबाद पृथ्वी कायिकेषु मध्ये समुत्पते समु त्पन्नस्सन् शरीरपत्या पर्याप्तः प्रतपनामध्ये वर्तमानस्त पुदीरयति तवं सति तस्यान्तर स्थितिरदीरणा योग्या न भवति श्रातपग्रहणं चोपलक्षणं तेनान्यासामपि स्वाज्ञातिनरक कि सिराकीदार कसकात्यसंहनननिकायश्चक रूपाणाम कोनविंशतिसंख्याकानामनुद बन्धनामन्तर्मुहूतांना उत्कृष्ट स्थितिरुदीरणायोग्या वेदितव्या । तत्र स्थावरै केन्द्रियजातिनरक द्विकानां जावना कृता शेषात मारकश्तियेखिकीदारिकायहननानामुत्कृष्टां स्थितिं बध्वा ततो मध्यमपरिणामस्तत्र सत्र चान्तर्मुहूर्त्ते गते सति निद्रोदये उत्कृष्टोदीरणां करोति । तिरश्यरस्य पञ्चानं खितमे जहगे इसो । यावर जनसंते, पण समं अहिगं व बंधतो ॥२५८॥ गंणावमिचं, कमाय वारसगजय दुर्गाणं । निदा व पंचगस्स य, आया उज्जो व नामस्स ||२५|| पूर्व करनाः स्थितिरभ्यवसायैरपयवा पत्योपमासंपेपभागमाया शेषीकृत ततोऽनन्तरसमये उपप्रानः स तामुदीरयति उदीरयता प्रथमसमये - सर्वदेव यमाय स्थितिकृष्ट तीर्थकर नामतः उदीरणायोग्य प्राप्यते ना स्युदीरणास्वामित्वमुरुम सारी जयरा स्वामित्वमाह । (जनगतोसि ) इतक जघन्ये जघन्यस्रिणः स्वामित्वमधियते प्रमेय निर्वा ति । (जावसजनेत्यादि) स्थावरस्य सतो ऽसज्जघन्य स्थित्युदीरणा सर्वस्तोकं स्मितेन समधिकं वा मनमा Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९८ ) अभिधानराजेन्ऊः | नईरणा णाजिनवकर्मा स एव जघन्यस्थितिकर्मा स्थावर एकेन्द्रियो यन् बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थः । श्रद्य द्वादशकपाबभयजुगुप्सानिकापञ्चकातपोद्योतनाम्नामेकविंशति जघन्यां स्वायुरण करोति हातपोद्योतयनामेकोनविंशतिप्रकृतीनां धवन्धिन्यादातपोद्योतयोस्तु प्रतिपक्षानावात् अन्यत्र जघन्यतरा स्थितिर्न प्राप्यते ततः एकेन्द्रिय एव यथोक्तस्वरूपम् । आसां प्रकृतीनां जघन्य स्थित्युदीरणास्वामी । 1 एगिंदिय जोग्गाणं, इयरा बंधत आलिगं गंतु । एगंदियागएत - डिजाईणमवि एव्वं ॥ २६० ॥ एकेन्द्रियाणामेव उदीरणा संप्रति या योग्याः प्रकृतयस्ता एकेन्द्रिययोग्याः । एकेन्द्रिया जातिस्थावराः सूक्ष्मसाधारणनाम/नस्तासामेकेन्द्रियजन्यस्मिन् स्थितिः सत्सत्कर्मा इतरा एकेन्द्रियजात्यादिप्रतिपकता हीन्द्रियजात्यादिकाः प्रकृतीध्नाति तद्यया एकेन्द्रियजातिीन्द्रियजातित्रीन्द्रिय जातिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरसूरमसाधारणानां प्रसवादप्रत्येकनामानि ततः पकेन्द्रियजात्यादीने बन्नाति ततो बन्धावलिकां गत्वा अतिक्रम्य बन्धावलिकायाश्चरमसमये एकेन्द्रियजात्यादीनां जघन्यां स्थित्युद्दीरणां करोति । श्यमत्र जावना एकेन्द्रियः सर्वजघन्य स्थितिसत्कर्मा चीन्द्रियजातीः सर्वा अपि परिपाठ्या बनाति ततस्तावद्वन्धानन्तरमेकेन्द्रियजातिबंधुमारभते ततो बन्धावलिकायाश्वरम समये पूर्ववद्धायास्तस्पा केन्द्रियजातयन्यां स्थित्पुरणां करोति । इह बन्धावसिकाया अनन्तरसमये बन्धावलिका प्रयमसमयबद्धा । अपि च ता उदीरणामायान्ति ततो जघन्या स्यित्युदीरणा न प्राप्यते इति कृत्वा बन्धावलिकायाश्चरमसमये इत्युक्तं यावता कालेन प्रतिपक्कताः प्रकृतीनाति तायता कानान्यना केन्द्रिय स्थितिपति ततस्त कतरा प्राप्यते शत प्रतिकृतिपदान एवं स्थावर सूक्ष्मसाधारणानामपि जावना कर्त्तव्या केवलप्रतिपता हतयः सयाद प्रत्येकनामानो दि तपाः । ( दियागपति) जातीनामपि द्वीन्द्रियादिजातीनामपि एवं पूर्वकप्रकारेण केन्द्रियादागतस्ततक एकेविजययोग्यतया जघन्यस्थितिका जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति । अत्रापीयं जावना । एकेन्द्रियो जघन्यस्थितिः सकर्मा एकेन्द्रियावृत्य द्वीन्ड्रीयेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततः पूर्व द्वीन्द्रियजातिमनुभवितुमारभते । अनुजवप्रथम समवादारज्य एकजातिका अम्नस्ततस्तयैव जितियद्भुमारजते ततो बन्धाहिकायाचरमसमये तस्या द्वीन्द्रियजातिरेकेन्द्रियजातिभवोपार्जितस्थितिसत्कमा अन्तर्मुह चतुष्टयात्रिकाचरमसमये ग्रहणे च कारणं प्रावक एवं रिन्द्रियजयोरपि भावना कार्या । यानी कसाया मम्मत्तस्संपपणपंचनी पाण । तिरिय गमगणा, पुजानं च संतिगए। २६२ ।। मातासानीपास्वरत्वरतिशोकपपपमदनननं गतिर्यगा तितिर्यगानुपूज्यः कीर्तिमाना देवानामाद रामकृपया स्वियु दीरणा । जायना स्वियम् । एकेन्द्रिया जयन्यस्थितिसत्कर्मा नईरणा एकेन्द्रियमानृत्य पर्याप्त द्रयेषु मध्ये समुयः उत्पत्तिप्रथम समयादारज्य च सातावेदनीयमनुभवन् असातवेदनीयं वृहत्तर मन्तर्मुहूर्त्त कालं यावत् बध्नाति ततः पुनरपि साधुमाते तो बाहिरसमये पूर्वस्थ सातावेदनीयस्य जयन्यां स्थित्युदीरणां करोति एवमसातवेदनीयस्यापि यं केवलं सतिवेदनीयस्थाने असातबेदमीयमुच्चारणीयम्। सातवेदमयस्य सातवेदमीयमिति हास्यरस्यरस सातवद्भावना कार्या भासमाप्तम् । अपर्याप्तकम नाम एकेन्द्रियो जघन्यस्थिति सत्कर्मा एकेन्द्रियभवादवृत्य पर्याप्त पिञ्चन्यमभ्ये समुत्पन्न उत्पत्तिप्रथमसमयादारज्य व पर्याप्तकनाम वृहत्तरमन्तर्मुहुर्तं कालं यावद बनाति ततः पुनरपि अपर्याप्तकनाम बधुमारनते बन्धावनिकायाधरम समयं पूर्वस्यापर्याप्त काग्नी जयां स्थि त्युदीरणां करोति संहननस्य तु मध्ये वेद्यमानं संदत्या प्रत्येकबन्धाऽतिदीयाँ - व्यः । ततो वेद्यमान संहननस्य बन्धे बन्धावलिका चरमसमये दिमागम सातयदिययम् । तथा तै यिको वायुकादिको बादरसर्वजधन्यस्थितिसत्कर्मापर्याससंहितिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततो बृहतरमन्तर्मुइस कार्य यावन्मनुजगति तिबन्धात घुमारभते तत आधार काया परम समये तस्यायं गतिर्जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति एवं तिर्यगानुपूर्व्या अपि बल्यं नरमपरागत तृतीयसमये अधन्यास् रात याच्या अवशी सिंगामाई यानां सातव नायना कार्या केवहां की नि गादेयानां बन्धो वाच्यः । मागयस्स विरइअंत, सुरनरय गइज बंगाणं । वीति समझो, नरायण एगेंदिआ गयेगे ।। २६२।। अमनस्काद संझिपञ्चेन्द्रियावृत्य देवेषु वा मध्ये समागतस्य सुरगतिनरकगतिक्रियाङ्गापाङ्गनाम्ना स्वस्वायुस्यित्यन्तरे जघन्या स्थित्युदीरणा । एतदुक्तं नवति असंहिपञ्चेन्द्रियः सर्वजघन्यां सुरगतिस्थितिं बध्वा बन्धानन्तरं दीर्घकाय स्थित्था देवेषु नारकेषु या मध्ये पत्थोपमायेयभागमाषायुःस्थितिकः समुत्पततस्तस्य देवस्य नारकस्य वा स्वश्वायुपरिस्थियन्ते चरमसमये वर्त्तमानस्य यथायोगं देवगतिनरकगतिवैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नां अपत्याधित्रणा स एवायकस्य वा भवस्यापान्तरालगती वर्त्तमानो यथासंख्यं देवानु पूर्वीनाकानुपूयश्च तृतीयसमये जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति (मराज पदिभागवत) एकेन्द्रियः सर्वजन्यमनुष्यानुपूर्वी स्थिति सत्कर्मा केन्द्रियमात्य मनुष्येषु मध्ये उत्पद्यमानो ध्यान्तरागती वर्तमान मनुष्यानुपुष्यस्तृतीयसमये जघन्यस्थित्युदीरणास्वामी नवति । समया हिग्गलगाए, पढमहिओ सेसवेला । मिच्छते वेरासु य, संजलनासु विय सम्मत्ते ॥ २६३ ॥ छह अन्तरकरणे कृते अधस्तनी स्थितिः प्रथमा स्थितिरित्युच्यते । उपरितनी तु द्वितीयेति । तत्र प्रथम स्थितः शेषवेलायां समयाधिकालिकाप्रमाणायां मिथ्यात्ववेद त्रिकं संज्य समचतु यं सम्यक्त्वानां जघन्य स्थित्युदीरणा भवति नवरं सम्यक्त्वसंज्वलनानयोः कये उपशमं वा जघन्या स्थित्युदीरणा अव्या । Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९९ ) अभिधानराजेन्द्रः | उईरणा पचासं पिजागद, एगिंदिआगए मिस्से । सत्तागवेन विप्राए पत्रेणस्स तस्स ।। २६४|| पढ्योपमा संख्येय भागानभ्युदये एकं सागरोपमं तावन्मात्रं सम्यग्मिथ्यात्यस्थितिसाकम केन्द्रियमानृत्य संप वेन्द्रियमध्ये समयतस्तस्य यतः समयादारज्य अन्तर्मुहूसानन्तरं सम्यदमिध्यात्वस्योदीरणापगमिष्यति तस्मिन्स म्यं मिथ्यात्वप्रतिपन्नस्य चरमसमये सम्यङ् मिथ्यात्वस्य रण एकेन्द्रियस्तत्कर्मणो जघन्यस्थितिखत्क सकाशादावर्त्तमानं सम्यमियाचमुदीरणायो न भवति तावन्मात्रस्थितिके तस्मिन्नवश्यं मिथ्यात्वादयसम्भवस्तद्वञ्जनसंभवात् । तथा यैः सप्तभिर्नागैस्सागरोपम - " ती नागी यस्य देविपचस्य क्रियाक्रियसंघात क्रियबन्धनचतुष्टयरूपस्य तद् द्विसप्तन्नागैर्वैत्रियं ततो विशेषणसमासः प्रत्यनिर्देशारदापि "पायिभागेण इत्यनुवर्त्तते ततःथ द्विसप्तनागट्रिकस्य पयोपमासंस्थेयभागी नस्य पयमस्य वार मायुकाधिकस्य तस्य वैकियपर्यन्तसमये या दीरणा । एतदुक्तं भवति बादरवायुकायिकः पल्योपमासंख्येयभागहीनसागरोपमद्विसप्तनागप्रमाणैर्वै क्रियषट्कस्य जघन्यस्थितिसत्कर्म बहुशो वैक्रियमारज्य चरमसमये वैक्रियारम्भे चरमये वर्तमानो जघन्यस्त्रिणां करोति अमन्तरसमये सत्कर्म जघन्यष्ट्रकर्मापेक्षया स्तोक तरमिति कृत्या उद्दीरणायोग्यं न प्रयति । किंतुलनायोग्यम् । वसमतपें पच्चामिच्छं खवेत्तु तेतीसा । उको मुका, अंगा ||२६|| संसारपरिभ्रमणेन चतुरो वारान् प्रेम मोदनीयमुपगमध्य ततो मिय्यात्वमुपसम्यक्त्वं सम्यमिध्यात्वं कपितं रूपयित्वा श्रयस्त्रिंशत्सागरोपम स्थितिको देवो जातः । ततो देववात्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नस्ततो वर्षाका नन्तरं तत्समयसंयमप्रतिपन्नेऽप्रमत्तभावे चाहारकसप्तकं यस्तो देशानां पर्वकोर्ट पायासंयमं परिपा देशोनपूर्वको पर्यबहारकशरीरं कृत्याबदार कशरीरम (गति) आहाराचनादाहारकवन्धनचतुष्टयाहारकारिते रण करोति मं कुर्वन् शेषनामकर्मप्रक घातादिभिः प्रभूतं स्थितिसत्कर्म घातयति । देवनवे चापवनाकरणेनापवर्तयति ततः आहार सप्तकं बन्धकाले स्वोकमेव स्थितिसत्कर्म संक्रमयति ततो देशोनपूर्वकोटपादानम् । उद्यमन्य स्वीणरागे चदसमवाहि गारिगहिए । सादीरणं निन्नमुतो विईकालो || २६६ || उपस्थीणरागस्य पञ्चविधज्ञानावरणचवधिवद ईनावर पम्यविधान्तराणानां चतुर्दशप्रकृतीनां समचाधिकालिका शेषायां स्थिती जघन्या स्थित्पुदीरणा शे पाणां च प्रकृतीनां मनुजगतिपञ्चेन्द्रियजातिप्रथम संद्ननौदारिकसप्तक संस्थानष्ट्कोपघातप्रशस्ताप्रशस्त विहायोग ति सबादपर्याप्तप्रत्येक शुभगसुखदेव की गणानां नाम यो शत्प्रकृतीनां पूर्वोकानां नईरणा दीश्वायां यत्यकृतीनां सर्वसंख्यया पचपरिसंस्था कानां सयोगिकेवलचरमसमये जघन्या स्थित्युदीरणा तस्याच जघन्यायाः का निष्ततर्मुहुर्त्तमित्यर्थः । श्रायुपामपुदीरणान् जघन्या स्थित्युद्दीरणा संप्रति भागोदीरणाबसरस्तत्र च श्मे अर्थाधिकारास्तद्यथा संज्ञा शुभाशुभ विपाकसुचनार्थमाद। प्रागुदीरणाए, सन्ना य शुभाशुभ विभागो य । जागरण, ताणचं पचया चेमे ॥२६७ ।। अनुभागोदारणार्या संाशुभाशुनविपाकश्च यथा शतकाये प्रथे अनुनागा बन्धाश्चानिधानावसरे प्रणितास्तथा त्रापि इष्टव्याः । तत्र संज्ञासंज्ञिद्विनेदात् स्थानसंज्ञा घाति संज्ञा च संज्ञा चतुर्विधा एकस्थानको द्विस्यानकस्यानकश्चतुःस्थानकश्च । घातिसंज्ञा त्रिप्रकारा तथथा सर्वघाती देशघाती अघाती च तथा इनकर्मणामनुनाग कोपमः । भनफर्मणां त्वशुभघातिघोषातकीनिस्वरसोपमः । एषा च स्थानसंज्ञा घातिसंज्ञा शुभाशुभप्ररूपणा व प्रागनुनागसंयामिधानावसरे सत्रच इति न चूयोविज्ञायते विधिविपाकः विपाको य विपाको जीवविपाकश्च । तत्र पुल्वानधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः स पुत्रविपाकः । स व संस्थानपट्कसंहमनषद्का तपशरीरपञ्चकाङ्गोपाङ्ग पयोद्योग निर्माणस्थिरास्थिवर्थादिचतुगुरुजानपरापातोपघातप्रत्येक साधारणनाम्ना पत्रिंशत्प्रकृतीनामवगन्तव्यः । तथाहि संस्थाने नामादीने श्रदारिकादिपुलानेवाधिकृत्य स्वविपाकमुपदर्शयन्ति तत आसां रसः : पुलविपाक एव । नन्वनया युक्त्या -रत्योरत्योरपि रसः पुत्रविपाक एव प्राप्नोति । तथाहि कण्टकादिसंस्पर्शीदतिविपाकोदय नवति सचन्द नादिसंस्पर्शान्तु रतेः तत्कथं स नोक्तः । उच्यते रत्यरतिविपाकस्य पुण्य निवारात् तथादि कटकादिसंस्पर्शव्यतिरेकेऽपि प्रियस्मरणादिना कदाचिदुपरत्यर्थिपाकर यो यन्ते ततोऽनयोरनुभागीयविपाक एवं पुलविपाक एवं गोपादिविपाको नायनीयः । उच अर र उदयो किन नवे पोग्गन्नानि संपप्पा । अणुदि विको एवं कोहाश्याणं पि ॥ अस्याधाकरमिनिका | भरतित्योदयो विपाकोदयः पुरुतान् प्राप्य किन्न जवति जवत्यवेति भावः । ततः कथं तो रविपाको नोच्यन्ते प्राचार्य का प्रायुतरमाह (अवि कन्नो ) अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया ततो ऽयमर्थः । अस्पृष्टेष्वपि पुत्रेषु किं न तयोत्पत् विपाकोदो नयति भवत्येवेति भावः । ततः सम्यभिया रात तयो रससविपाको न भवति किं जीव विपाक एच एवं क्रोधादीनामपि वाच्यम् । तथा क्षेत्रमधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः सरसः क्षेत्रविपाकः । स च चतसृणामानुपूर्वीणामवगन्तव्यः । तथा भवमधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः सरसो भयविपाकः स च चतुमायुषामयसेयः । अथोच्यते ततः कथं तासां रसो नवविपाको नानिधीयते तदयुक्तं व्यभिचारात् । तथाहि श्रायुषां स्वनवमन्तरेण परनवे संक्रमेणाप्युदयो भवति ततः सर्वथा स्वनवाव्यनिदातानि भवविपाकान्युच्यन्ते गतीनां पुनः परभयेऽपि संक्रमेोदयो भवति ततः स्वनवव्यभिचारात् न ता प्रघ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Painti (७००) अनिधानराजेन्द्रः । चरणा 19 विपाकशुन्याः । उक्तं च " आउव्वभव विवागाई गईत आउ स परजवे जम्दा । नो सञ्चहा वि उदओ गई। पुण संकमेडि सुगवा शेषाणां त्वष्टसप्तसंख्यानां प्रकृतीनां जीवविपाको रसः जीवमधिकृत्य विपाको यस्थासौ जीवविपाकः ( नाणत्तं पश्चयामेति) नानात्वं विशेषो यत्तत्र शतकाव्ये प्रत्ये अनुज्ञागबन्धेन तदि पर वि शेषमित्यर्यस्तथा तत्र मन्धमाश्रित्य अन्ये एवं मिथ्यात्वादयः प्रत्ययाः उक्ताः । इह उदीरणामाश्रित्य अन्ये एवं वक्ष्यमाणा ज्ञातव्याः तत्र नानात्वप्ररूपणार्थमाह । मीसुद्धा सपा बुडाण एगहाणे व सम्पतराय च, देसपाई अचक्नू ।। २६८ ।। सम्यदमिच्या स्थानामधिकृत्य हिस्यानकं द्विस्थान करसापेतं घातिसंज्ञामधिकृत्य सर्वघातिसम्यक्त्वं पुनरुत्कृष्टEtrurमधिकृत्य स्थानकरसोपेतं जघन्योदी रणां त्वधिकृत्य एकस्थानकं घातिसंज्ञामधिकृत्य च देशघाति वेदितव्यम् । पतश्च तत्र सर्वथा नोक्तं किंत्विदैव यत्र तत्राऽनुसारेण भागबन्धमाश्रित्य शुजाशुभप्ररूपणा कृता । नत्र सम्यक्त्वसम्यमिध्यात्वयोः संजयति तत एतद्वज एवं ताशुभप्रकृतयो निर्दित्येतयोरभयति त विशेषतयो रुपादानम् । तथान्तरीयपञ्चकप्रकार म् । उत्कृष्टमनुभागोंदीरणामधिकृत्य स्थानके एकस्थानके व घातिसंज्ञामधिकृत्य देशपति तिबन्धं प्रतीत्य पुनःप्रकारेऽपि रसस्त द्यथा चतुःस्थानके त्रिस्थानके द्विस्थानके एकस्थानके च । अचदर्शन घातिसंज्ञामधिकृत्य देशघाति । ठाणेच अपुणे कक्सरुचगुरुकंच | अपुच्ची ओलीसं नरतिरियर्गत जोगः य ।। २६ ।। नपुंसक बन्प्रतीत्य भिमकारे रसे तद्यथा चतुःस्थानके त्रिस्थान के द्विस्थानके व कामनागोद रणामधिकृत्य चतुःस्थानके अत्यधिकृत्य स्थानके विस्था नके एकस्थानके च । ननु बन्धाभावे कथमुदीरणायामेकस्यानको रसो नपुंसक वेदस्य प्राप्यते उच्यते केपणाकाले रसघातं कुर्वतः तस्य एकस्थानकस्यापि रससंभवात् । तथा कर्कशनाम गुरुनाम च बन्धं प्रतीत्य चतुःस्थानके त्रिस्थानके विस्थानके सदस्वनागीणामधिकृत्य हिस्पानके तथा पूज्य याच परतिरक्षा प्रतियोग्य शत् प्रकृतयस्तथा मनुष्यायुतायुगतिमनुष्यगतिरके न्द्रियजातीन्द्रियजातीन्द्रियजातयतुरिन्द्रियजातीदारिकसप्तकम् । श्राद्यन्तपर्वसंस्थानचतुश्यपमातपस्थावरसुद्धा पर्याप्तसाधारणं येति ता अपि प्रतीत्य चतुःस्थानके स्थान के हिस्थानके ह त्वनुनागरमुत्कृष्ठ बाधिकृत्य द्विस्थानके रसे वेदितव्याः । या एगडाले, घुट्टा वा चक्खचक्खू अवेदा | जस्मत्थि एगमवि, अक्वरं तु तस्सेगवाणाणि ॥ २७० ॥ भागोदामधिकृत्य द्विस्यान] अनुत्यधिकृत्य किस्थानके एकस्थानके या व न्तव्यीकुधनावरणे प्रतीत्य पुनः स्थानके त्रिस्थान के डिस्थानके या पुरुषो airt Education International उरणा दर्शनापरणे चर्शनावरणे च चतुःप्रकार उपि तथया चतुःस्थानके त्रिस्थान के द्विस्थानके एकस्थानके त्र । ननु "देखाईति "प्रायां तत्किमर्थ महा चक्रुदर्शनावर कोपादानमुच्यते स्थाननियमार्थम् । पूर्वे हि देशघातित्यमेवाच दर्शनावरणस्वरूत्र तु स्थानियमः । ( जस्सत्थिति ) यस्य जीवस्य एकमप्यकरं सर्व पर्यायैः परिज्ञातं वर्त्तते तस्य तनि मतिक्षतावधिदर्शनायर प्रकृतीनामनुनागरथायामेकस्थानको रसः प्राप्य मे संवनानां तुबन्ध अनुभागोरायां चतुःप्रकारेऽपि रसः । तद्यथा । चतुःस्थानकः त्रिस्थानको द्विस्थानक एकस्थानकश्च । मणना सेससमं, ग्रीस गसम्मसमयि पाये | उाणपणा, उकसानामुदीरणा कुइ । २७१। मनः पर्यायानशयैः कर्मभिः समं वेदितव्यम् । श्यमत्र भावना यथा शेषकर्मणामनुनागोदर चतुःस्थानकस्य त्रिस्थानकस्य द्विस्थानकस्य चरमस्य भवति तथा मनः पवनावरण कर्मणामनुभागोदारा परणस्यापि एवं पुनर्मन पर्याषानावरणस्य चतुकारोऽपि रो नवति शेषकर्मणां तु बन्धे त्रिप्रकारस्तद्यथा चतुःस्थानकविस्थानका स्थानकाच तानि च शेषकर्माण्यमनि । तद्यपा के ज्ञानाय निषाध्यकं केवलदर्शनावरणं च सातासातावेदनीये, मिथ्यात्वं द्वादश कषायाः षट् नोकषायाः नरकायुवायु नरकगतिर्देवगतिः पचेन्द्रियजातिस्तैजसस प्तकं वैयिसप्तकमादारकसप्तक समचतुरस्रसंस्थानं हुरुकसंस्थानं वरण पञ्चकं गन्धादिकं रसपञ्चकं स्निग्धरुकमृदुलघुशीतो णरूपं पदकम् गुरुधूपघातं पराघात यासोत प्रशस्ता प्रशस्त विहायोगतिप्रसाद पर्याप्तप्र स्पेस्थिरा स्थिर शुभगःश्वरसुदरानादेयाः कीनिर्मात्राणि च तेषां कोतरशतं संख्यानां शेष काममनुभा गोदामधिकृत्य चतुःस्थानको रसः स्थानकस्था नको द्विस्यानामतितामिनी पहनावरण र रचिदर्शनावरणानामनुनागाणामधिकृत्य रसः । सच घाती अनुत्कृष्टां त्वधिकृत्य सर्वघाती देशघाती वा । केवलज्ञानावरण निद्रापञ्चक मिध्यात्वद्वादशकपायाणामुत्कृष्टशमनु पा अनुनादीरामधिकृत्य रसपाती पाती सातावेदनीया धनुष कामप्रकृतिगोकाना मारास सर्वात वत्सर्वधा या प्रतिपत्तव्यः । इदानीमभप्रकृतिथि पर्यावशेषमाह (मीसगसम्मत्तेत्ति ) अपि च सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं चानुभागोद रणामधिकृत्य पापेषु पापकर्मसु मध्येs वगन्तव्यम् । घातिस्वभावतया तयो रसस्य अशुभत्वात् शेषप्रकृतयस्तु पातक अनुगन्धेभायोकास्त यात्राप्यवगन्तव्याः । कीदृशे अनुभागसत्कर्मणि वर्त्तमान उत्कृष्टामनुजागरण करोति उच्यते (उडाणयविि अनुभागः कर्मणि षट्स्थापनाः पतितहीनादपि उत्कृष्टामनागाणां करोति उच्यते प्रतिय afragमनागं सत्कर्म तस्मिन् अनन्तभागहीने वा संख्यातनागडीने या असंख्येयगुणहीने या अनन्तगुणहीने या कृष्ट मनुजागरण प्रततोऽनन्तानन्तपकानामागे Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०१) अभिधानराजेन्द्रः । नईरणा कपते अनन्तानि स्पर्ककानि उत्कृष्टर सान्यद्यापि तिष्ठन्ति । ततो अनन्तभागेऽपि शेषे सानुभागसत्कर्मायानन्तगुरादीना उत्कृष्टानुजागोदोरणा सज्यते किं पुनरसंख्येयगुणदीनादावनु संप्रति विपाके विशेषमाह । विरियंतराय केवल - दंसणमोहणीयाणवरणाणं | असमत्यपत्त, सम्वदनि विवागो ॥ २७२ ॥ वीर्यान्तराय केवल दर्शनावरणाष्टाविंशतिविधमोदनीयपञ्चविधज्ञानावरणानां पञ्चत्रिंशत्प्रकृतीनां समस्तपर्यायेषु सर्वव्येषु सर्वजीवषयेषु विपाकः तथाहि इमा पर्यान्तरायाः पश्चात् प्रयतः समपि जीवयन्ति पर्यायतस्तु न सर्वानपि यथा मेघैरातानिचिततरैरपि सर्वात्मनान्तरितयोरपि सूर्यचन्द्रमसभा सर्वया अपने श पते उत्कंच "सवि मेदसमुदिप शेष पदा बंदसुराणंपि तथा अत्रापि भावनीयम् । गुरुलघुगातपर, सिए चक्स वदन्ये । ओहिस्स गणधारण, जो गइससंतरापणं ॥ २७३॥ पश्यदर्शनाचरणगरुप्रकाः अनन्तप्रादेशाः स्कन्धातेषु विपाकः अवधिदर्शनाचरमश्रुद्रियेषान्तरायाणां दामोपभोगान्तरायाणां प्रयधारणयेोग्येषु येषु विपाको नशेषेषु यात्येव हि विषये चतुर्दर्शनादीनि प्रियन्ते तावत्येव विषये चतुदर्शनावरणादीन्यपि तत उत पो विषयनियमो न विरुद्ध्यते । शेषप्रकृतीनां तु यथा प्राग्विपाकोऽभिहितः पुत्रविपाकादिस्तथैवात्रावगन्तव्यः । संप्रति प्रत्ययप्ररूपण कर्त्तव्या प्रत्ययोऽपि द्विधा परिणामप्रत्ययो नवप्रत्ययश्च । तत्र परिणामप्रत्ययमधिकृत्याह ॥ वेब्बीय तेयग, कम्मवन्नरस गंधनिध दुक्खान ॥ सीएड चिरनेर, अगुरुलगा य नर तिरिय ॥२७४ | वैति तेज कार्मणग्रहणा से उस सप्तकं गृहीतम परसपर्क स्ि स्थिरशुनागुरुलघूनि चानुभागोदीरणामधिकृत्य तिर्यम्मनुष्याणां परिणामप्रत्ययानि वैक्रिय सप्तकं तिर्यङ्मनुष्य गतिमनुम्याणां गुणविशेषसमुत्यधिप्रत्ययं ततस्तरणापि ते पां गुणपरिणामप्रत्यया तेजससप्तकादयस्तु निर्यमनुष्यैरन्यथाऽन्यथा विपरिणमध्य उदीर्यन्ते ततस्तासामपि प्रकृती नामनुभागोदीरणा तिर्यग्मनुष्याणां परिणामप्रत्यया । चतुरंसमय सहुगा, परघाटज्जुपहखगइसरा ॥ पगत उत्तरतणू सो दोसोविय ततईया || २७५|| समचतुरस्यसंस्थानमुपघाताविहायोगतिसुस्वरप्रत्येकनामानां प्रकृतयः । उत्तरतन्वर्थे या द्वारकागदीरणामधिकृत्यपरिणाममधिकृत्य परिणामप्रत्यया वेदितव्या यत उत्तरवैकिये आहारके वा शरीरे सति समचतुरस्रसंखानामनुनागोरण प्रवर्तमाना उत्तरक्रियादिशरीरपरिणामापेक्षा ततः पापि परिणा त्या दिव्य तथा तृतीया तनुराहारकशरीरमादारकशरीरग्रहणाच्चाहारकसप्तकं गृहीतं द्रष्टव्यम्। तत अनुभागदीरणामधिकृत्य परिणामप्रत्ययं वेदितव्यम् । आहारकसप्तकं हि मनुष्याणां गुणपरिणामप्रत्ययं भवति । ततस्त नईरणा दागदारणामधिकृत्यपरिणामप्रायवेदय रसप्तकं हि मनुष्याणां गुणपरिणामप्राचयं नयति ततस्त बागांदीरणापि गुण परिणामप्रत्यययेति ॥ देसविरयविरयाणं सुचगाएजस किचिन्वाणं ॥ पुत्रापुगाए असंखनागोत्थियाईनं ॥ २७६ ।। देशविरतानां विरतानां च सुभगादेश गाणामनुनागोदीरणा परिणामकता तयादि सुभगादित्यदुर्भ गादिप्रकृत्युदये युतेऽपि यो देशे विरति वा प्रतिपद्यते तस्यापदेशवित्यादिनावतः सुनगादीनामेामुद कोटपूर्वक योग्या गुणपरिणामे च प्रत् व्यादमुकं भवति खीवेदादीनामतिजन्यानुभागस्पर्टकादारण्यकमेण संख्येयो भागो देशविस्ताई। नाम रणायांग्यां प्रत्ययो भवति परस्त्वनुभागोद्दीरणामिति । तिल्यंकरपाईण य, परिणामप्यथयाणि सेसाओ । जयपश्या पुता, वियतमेसा ॥ २७७ ॥ तीर्थकरघातिकर्माणि च पञ्चविधज्ञानावरण ना नावरण नवनोकषायवर्ज्या मोहनीयपञ्चविधान्तरायरूपाणि ससंख्या पांचारामोदय तिर्यमनुष्याणां परिणामप्रत्ययाः पततं भवति । आसां प्रकृतीनामनुभागोदीरणा तिर्यङ्मनुष्याणां परिणामप्रत्यया जयति परिणामी ह्यन्यथाभावेन नयनम् । तत्र तिर्यञ्चो मनुष्या वा गुणप्रत्ययेन अन्यथा बद्धानामन्यथा परिणामप्य एतामुदीरणां कुर्वन्ति । (सेसाओनवपञ्चयात्ति) शेषाः प्रकृतयः सातासातावेदनीयआयुश्चतुष्टयं पञ्चकौदारिकसप्तकं संहनन कंप्रथमवत्यै स्वस्थानपञ्चककर्कशगुरुरूपीच योपघात तपोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतिप्रसस्थावरबादरसूक्ष्मपर्याता पर्याप्त साधारण दुर्भगः स्वरानादेयायशःकी लिनिरु पचाश संख्या अनुभागोदरणामधिकृत्य नवप्रत्यया वेदितव्याः । तासामनुन्नागांदी रचा भवप्रत्ययतो जवतीत्यर्थः । ( पुव्वत्तावित्ति ) पूर्वोक्ता अपि प्रत्ययाः पूर्वोकशेषाणां प्रागुकतिर्थमनुष्यप्यतिरिन नवप्रत्यया अगोदरशा वैदितया । तथादि देवनार व्रतरहितैश्च तिर्यङ्मनुप्यैर्नवानां नोकप्रायाणां पश्चानुपूर्व्या उत्कृष्टानागपादार्थः अनुमागा प्रत्ययादेवी तथा तेजरावर्णपा कगन्धद्विकरसपञ्चक स्निग्धरुकशीतोष्ण स्पर्शस्थिरास्थिर-शुभाशुभ गुरु घुप्रकृतीनां देवा नैयिकाश्च भवप्रत्ययतोऽनुभागो कति तथा समचतुर संस्थानस्य व धारणीये शरीरे वर्त्तमानानाययाद नागोदरिणां देवाः कुर्वन्ति । मृदुलघुस्पर्शापराधातोद्योतप्रशस्त विहायोगतिसुस्वरप्रत्येकनाम्नामुत्तरवैक्रियशरीरिणा मुक्ताः शेषाणां जवप्रत्ययतोऽनुनागोदीरणा प्रसुनगादेशः कीत्युगौत्रापामनुभागोंदीरणा गुणहीनास्य भवप्राययतोऽव सेवा गुणवतां तु गुणप्रत्यया । तथा सर्वेषां पराघातिकर्मणामनुनागांदीरणा भवप्रत्यया देवनारकानां तदेव प्रत्ययप्ररूपणा । संप्रति सायनादिरूपणा कर्तव्य विधा प्रकृतिविषया प्रकृतिविषया च । तत्र प्रथमतो मूलप्रकृतिविषयां तां कुर्यघाट । चाणं अजपा दोहमयकोसिया तिरिहा भी । , अनुजहना मोहणीये ॥ २७८ ॥ कोसो, Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०२) उरणा अभिधानराजेन्द्रः । नईरणा सादिअणाव, अधुवा य तस्से सिगाय दुविगप्पा । सम्यक्त्वात्प्रतिपतितसादिः तत्स्यानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । आजस्स साइअधुवा, सचविगप्पान विनया। ७॥ ध्रुवावे पूर्ववत् । कर्कशगुरुस्पर्शयोजघन्यानुभागोदारणा मोहनीयवानां त्रयाणां घातिकर्मणामजघन्या अनुभागो आहारकशरीरसंयतस्य केवलिसमुद्धातान्निवर्तमानस्य षष्ठदीरणा त्रिधा त्रिप्रकारा तद्यथा अनादिर्धवा अध्रवा च तथा समये भवति सा च सादिर,वा च । समयमात्रत्वात्सतोऽन्या येषांकीणकषायस्य समयाधिकावसिकायां शेषायां स्थिती ज सर्वाप्यजघन्या सापि केवत्रिसमुद्धातानिवर्तमानस्य सप्तम धन्या अनुनागोदारणा च सादिराभवाचा शेषकावं त्वजघन्या | समये भवतीत्यादि सादिः । भ्रवा-वे पूर्ववत् । तथा तैजससा चानादिर्धवोदीरणात्वात् । ध्रवावे अनन्यजव्यापेकया सप्तकमृलघुवदान्नवर्णाद्यकादशगुरुवघस्थिरशुभनिर्माणतथा द्वयोर्नामगोत्रयोरनुत्कृष्टानुभागोदीरणा त्रिधा तद्यथा नानां विंशतिप्रकृतीनामनुत्कृष्टाऽनुन्जागोदारणा विधा तद्यथा अनादिर्धवा अध्रुवा च । तथा हतासामुत्कृष्टानुनागोदीरणा अनादिर्धवा अध्रवा च तथा ह्यनयोरनुत्कृष्टानुभागोदीरणा सयोगिकेवसिचरमसमये ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्ट साचानासयोगिकवलिनि सा च सादिरभवा च । शेषकादं त्वत्कृष्टा दिर्धधोदीरणत्वात् । ध्रुवावे पूर्ववत् । तथा पञ्चविधज्ञानासा चानादिर्धवोदोरणात्वात् । भ्रवाध्ये पूर्ववत् । तथा वेद वरणचक्कुरचक्रवधिकेवदर्शनावरणकृष्णनीहादुरभिसुरनिनीये अनुत्कृष्ट मोहनीये वा जघन्यानुभागोदीरणा चतुःप्र- गन्धतिक्तकटुरुक्कशीतास्थिराशुभपञ्चषिधान्तरायरूपाणां - कारा तद्यथा सादिरनादिर्धवाध्रवा च । तथाहि उपशान्तश्रे- योविंशतिप्रकृतीनामजघन्या अनुनागोदीरणा त्रिधा तद्यथा एयां सासंपरायगुणस्थाने यद्वन्धसातवेदनीयं तस्य सर्वा- अनादिर्धवानवा च । तया घेतासां स्वस्थोदीरणापर्यवसाने थसिकिसंप्राप्तौ प्रथमसमये या उदीरणा प्रवर्तते सा उ- जघन्यानुभागोदीरणा सा च सादिरध्रवा च । ततोऽन्या त्कृष्टा । सा च सादिरध्वा च ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्ट साचा- सर्वाप्यजघन्या सा चानादिनवोदीरणत्वात् ध्रवाध्रवे पूर्ववत् प्रमत्तगुणस्थानकादौ न भवति ततः प्रतिपाते च भवति ततो (पयाणसेसविगप्पत्ति ) एतासां पूर्वोक्तानां शेषप्रकृतीनां ऽसौ सादिः तत्र स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः ध्रुवावे पूर्ववत् । शेषविकल्पा मुनघुविंशतीनां जघन्या जघन्योत्कृष्टा मिथ्यातथा मोहनीयस्य जघन्यानुभागोदारणा सक्षमसंपरायस्य त्वगुरुकर्कशत्रयोविंशतीनां चोत्कृष्टजघन्याः सादयोऽनवाश्च कपकस्य समयाधिकावल्लिका शेषायां स्थिती भवति साच जवन्ति । तयाहि मृलघुविंशतीनां जघन्या अजघन्या चानुसादिस्तदनन्तरसमये वा नावावा शेषकालं त्वजघन्या सा भागादीरणामिथ्यादृष्टौ पर्यायेण बज्यते ततो वे आप साधनचोपशान्तमोहगुणस्थानके न भवति। ततः प्रतिपाते च भवति वे उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता । तथा कर्कशगुरुमिथ्यात्वत्रयाततोऽसौ सादिः । तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । ध्रुवावे विशतीनां चोत्कृष्टजघन्या सादयो ध्रवाश्च जवन्ति । तथाहि मृनधुर्विशतीनामुत्कृष्टा अनुत्कृष्टा चानुनागादीरणा मिपूर्ववत् । (तस्सेसियविगप्पत्ति ) तच्छेषा रीतिः उक्त ध्यादृष्टी पर्यायेण लज्यते अशुनप्रकृतित्वात् ततो वे अपि सारीतिव्यतिरिक्ता विकरपा द्विप्रकारा ज्ञातव्या तद्यथा सा द्यधव जघन्या च प्रागेव जाविता । शेषाणामुक्तव्यतिरिक्तानां दयो अवाश्च । तयाहि चतुर्णा घातिकर्मणामुत्कृष्टा अनुत्कृष्टा च प्रकृतीनां दशोत्तरशतसख्यानां सर्वे विकल्पा उत्कृष्टानुत्कृअनुभागोदीरणा मिथ्यादृष्टौ पर्यायेण बज्यते । ततो द्वे अपि प्टजघन्याजधन्यरूपाः सादयोऽध्रवाश्चावगन्तव्याः। सा च साद्यध्रवे उत्कृष्टा च प्रागेव नाक्तिा । तथा नामगोत्रवेदनीया साद्यध्वता अध्रवादीरणत्वादवसेया। कृता साद्यनादिप्ररूपजघन्या अजघन्यावानुभागोदारणा मिथ्यादृटी पर्यायेण सत्यते णा । संप्रति स्वामित्वमनिधातव्यं तच ब्धिा उत्कृष्टोदीरणाततो द्वे अपि साद्यध्वे सत्कृष्टा च प्रागेव नाविता । आयुषां तु विषयं जघन्योदोरणाविषयं च तत्र प्रथमत उत्कृष्टोदीरणाविसर्वे विकल्पाः साद्यधवाः सा च सावता अधवोदीरणा- षयं स्वामित्वमाह ।। त्वाववसेया। तदेवं कृता मूलप्रकृतिविषया साद्यनादिप्ररूपणा। दाणाइ अचावणं, जेट्ठा प्रायविहीण लफिस्स । संप्रत्युत्तरप्रकृतिविषयां तां चिकीर्षुराह । मुहमस्स चक्षुणो पुण, तेईदियसबपज्जत्ते ।। २०शा मजनगाणुकोसा, चजबिहा तिएहमवि य जहमा । सूक्ष्मस्य सूझकेन्द्रियस्य हीनसब्धिकस्य सर्वस्तोकदानाद्यइगधुवा य अथवा, वीसाए होय णुकोसा ॥२॥ चक्षुदर्शनविज्ञानलब्धियुक्तस्यादौ प्रथमसमये वर्तमानस्य तेवीसाए अजहमा, ठिया पयालिसेसविगप्पा । पञ्चविधान्तराया चकुर्दर्शनावरणरूपाणां षणां प्रकृतीनामु. सम्बगिप्पा सेसा, एवावि अधुवा य साई य ॥२०१॥ स्कृष्टानुजागादीरजा भवति । तथा त्रीन्द्रियस्य सर्वाभिः पर्या तस्य पर्याप्तिचरमसमये चकुर्दर्शनावरणस्योत्कृप्टा अनुमुलघस्पर्शयोरनुत्कृष्ट अनुभागोदीरणा चतुर्विधा तद्यथा नागोदीरा। सादिरनादिर्धवा अधावा च तथा ह्यनयोयत्कृष्टानुनागोदीरणा निज्जयपंचगस्स य, मजिकमपरिणामसंकिनिस्स । आहारकशरीरस्य संयतस्य भवति । सा च सादिरवा च अपुमादि असायाणं, निरये जेछिई सम्मत्तो ॥२०॥ ततोऽन्यासर्वाप्यनुत्कृष्ट सापि चाहारकशरीरमुपसंहरतःसादि स्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । ध्रवा-वे पूर्ववत्। तया त्रयाणां मध्यमपरिणामस्य तत्प्रायोग्यसंशयुक्तस्य सर्वान्निः पयर्या विनिः पर्याप्तस्य निझापञ्चकस्यात्कृप्टानुभागादीरणा अत्यमिथ्यात्वगुरुकर्कशानामजघन्यानुभागोदारणा चतुर्विधा तद्य न्तविगुरुस्य अत्यन्तसक्किष्टस्य चा निकापञ्चकस्योदये था सादिरनादिर्धवाऽध्वा च । तत्र सम्यक्त्वं संयमं च युग एव भवतीति कृत्वा मध्यमपरिणामग्रहणम् । तथा अगुमापन्प्रतिपत्तुकामस्य जन्तामिथ्यात्वस्य जघन्यानुनागोदीरणा दीनां नपुंसकवेदादीनां रतिशोकभयजगुप्सानामसातस्थ सा चानादिर,वा च । ततोऽन्या सर्वाप्यजघन्या सा च चोरकृष्टानुन्जागोदीरणास्वामी नैरयिका ज्यष्ठस्थितिक उत्कृष्ट Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०३) उरणा अभिधानराजेन्जः। नईरणा स्थितिका समाप्तःसर्वपर्याप्तिन्निः पर्याप्तःसर्वसंकिष्टो घेदितव्यः न्यस्थितौ वर्तमानो धादरैकेन्द्रियः सर्वपर्याप्तितिः पर्याप्तः पंचेदियासवायर-पज्जतगसायसुसुरगईण । सर्वसंक्विष्टः स्थावरनाम्नः स्थावरसाधारणनाम्नः साधारण घेउब्वियसासाणं, देवो जहईि सम्मत्तो ॥२४॥ एकेन्ष्यिजातेावपि उत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामिनी नवतः । बादरस्य महान् सर्वसंकेशो भवतीति कृत्वा तमुपादानम् । देवो ज्येष्ठस्थितिका उत्कृष्टस्थितिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिका समाप्तः सर्वानि पर्याप्ताभिः पर्याप्तः सर्वविशुद्धः पञ्चे आहारतणपज्जत्त, गोउचरं समयओ य बहुगाणं । न्द्रियजातित्रसवादरपर्याप्तसातवेदनीयसुस्वरदेवगतिवक्रियस पत्तयखगइपराधा-याहारतणण य विमुच्छो॥२०॥ प्सकोच्वासरूपाणां दशप्रकृतीनामुत्कृष्टानुन्नागादीरणास्वामी। समचतुरस्रसंस्थानमृऽनघुस्पर्शप्रत्येकप्रशस्तविहायोगतिसम्मत्तमीसगाणं, से काले महिहि तित्यमिच्छत् । पराघाताहारकसप्तकरूपाणां त्रयोदशप्रकृतीनामाहारकश रीरी संयतस्य सर्वपर्याप्तिनि पर्याप्तः सर्वविशुरु उत्कृष्टाहस्सरईणसहस्ता-गस्सपज्जतदेवस्त ॥ २५ ॥ गुन्नागोदीरणास्वामी। योऽनन्तरे समये मिथ्यात्वं प्रहीप्यते तस्य सर्वसंक्किएस्य उत्तरवेनचिनज्जो-यणामघाइखरपुढवी। सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्ययासंख्यं संजवमुदये सत्युक निरयगईणं जाणा , तइए समयाणपुव्वीण ॥२॥१॥ शानुभागोदीरणा । तथा सहस्रारकदेवस्य सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तस्य हास्यरत्योरुत्कृष्टानु नागोदीरणा। उत्तरवैक्रिये वर्तमानो घातिः सर्वान्निः पर्याप्तानिः पर्याप्तः गइहुंमघायाणि-दुखगइवीयाण मुहचउक्कस्स । सर्वविशुरु द्योतनाम्न उत्कृष्टान नागोदीरणास्वामी तथा निरउक्कस्सम्पत्ते, असमत्ता पन्नरसंते ॥२६॥ सरपृथ्वीकायिक उत्कृष्टायां स्थितौ वर्तमानः सर्वपर्याप्तिप प्तिः सर्वविशुरुआतपनाम्नः उत्कृष्टानुभागोदारणास्वामी नैरयिक उत्कृष्टस्थितौ वर्तमानः सर्वानिः पर्याप्तिभिः पर्या तया मनुव्यदेवतानुपूयॉर्विगुका नरकतिर्यगानुपर्योः संविष्य तः सत्कृिष्टसंक्लेशयुक्तो नरकगति हुंमसंस्थानोपघातोऽप्रस निजकगतीनां तृतीयेसमये वर्तमाना उत्कृष्टानुनागोदीरस्तविहायोगतिनीचैर्गोत्राणां ( दुहचउक्कस्सत्ति) भग: काश्च भवन्ति । स्वरानादेयायशःकीर्तिरूपस्य सर्वसंख्यया नवानां प्रकृतीनां लोगते सेसाणं, सुनाणमियरासि चनस वि गईसु । हुंगसंस्थानमुत्कृष्टानुन्नागोदारणास्वामी । तथा अपर्याप्तकनानो मनुष्योऽपर्याप्तश्चरमसमये वर्तमानः सर्वसंकिष्ट उत्कृ पज्जत्तकममिच्छस्सो हीणमणोकिलट्ठस्प्त ॥शा टानुन्नागोदीरणास्वामी । संझितिर्यक्पञ्चेन्डियादपर्याप्तान्म- योगिनः सयोगिकेवलिनस्ते सर्वापवर्तमानस्य शेषाणामुक्तनुष्योऽपर्याप्तसंक्विष्टतर इति तिर्यग्मनुष्यग्रहणम् । व्यतिरिक्तानां शुभप्रकृतीनां तैजससप्तकमृदुलघुवय॑शुनवर्णाकक्खमगुरुसंघयणा, पुच्ची पुमसंगणतिरियनामाणं । चेकादशकागुरुवघुस्विरशुनसुभगादेययशःकीर्तिनिर्माणोचै गोत्रतीर्थकरनाम्नां पञ्चविंशतिसंख्यानामुत्कृष्टानुनागोंदीरपंचिदियतिरिक्खो, अहमवासहवासाज ॥२७॥ णा भवात इतरासां च शुभप्रकृतीनां मतिश्रुतमनःपर्यायकेकर्कशगुरुस्पर्शयोरादिवानाञ्च पञ्चानां संहननानां स्त्री- पसकानावरणकेवदर्शनावरणमिथ्यात्वषोमशकषायकर्कशवेदपुरुषर्षदयोःआद्यन्तवानां चतुर्णा संस्थानानां तिर्यम्गतेश्व गुरुवय॑शेषकुवर्णादिसप्तकास्यिराशुभरूपाणामेकत्रिंशत्प्रकृ-- सर्वसंख्यया चतुर्दशप्रकृतीनां तिर्यक्संझिपञ्चेन्छियोष्टब तीनां चतसृष्वपि गातिषु मिश्यादृष्टेः सर्वपर्याप्तिपर्याप्तस्य उत्कृर्षायुरटमे वर्तमाने सर्वसहिष्ट उत्कृष्टानुभागोदारणास्वामी। प्टे संक्लेशे वर्तमानस्योत्कृष्टानुनागोदीरणा जवति तथा अवमणुओदानियसत्तग-वजरिसहनारायसंघयण । धिज्ञानावरणदर्शनावरणयोस्तस्यैव चतुर्गतिकस्य मिथ्यादृष्टमाअोतिपरपज्ज-तो आनग्गं पि संकिट्ठो॥श्न॥ रनवधिकस्य वधिलब्धिरहितस्योत्कृष्टानुभागोदारणा नवमनुष्यः पक्ष्योपमायुःस्थितिकः सर्वानिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः ति अवधिलब्धियुक्तस्य हि प्रनूतोऽनुन्नागः कर्य याति तत सर्ववियुको मनुष्यगतौदारिकसप्तकवज्रर्षभनाराचसंहनन उत्कृष्टोन बज्यते इति न लब्धिकस्येत्युक्तम् । तदेवमुक्तमुत्करूपाणां नवानां प्रकृतीनामुत्कृष्टानुन्नागोदीरणास्वामी । तथा- प्टा उभागोदीरणास्वामित्वम् । सर्वोत्कृष्टस्वस्वस्थिती वर्तमानःसर्वाभिः पर्यप्तिनिः पर्या- सम्प्रति जघन्यानुनागोदीरणास्वामित्वं प्रतिपादयन्नाह ॥ तश्च स्वकीयानामायुषां सर्वविशुखी नारकायुषस्तु सर्वसंक्ति- सुयकेवनिणो मइमुय-अचवुचक्खुणुदीरणा मंदा । ट उत्कृष्टानुनागोदारको नवति । विपुझपरमोहिणाणं, मणणाणेहि दुगसावि॥२॥३॥ हस्सहिइपज्जत्ता, तन्नामविगाजाश्सहमाणं । मतिश्रुतज्ञानावरणचारचकुर्दर्शनावरणानां श्रुतकेयसिनश्च थावर निगोयएगि-दियाणमवि बायरो नवरि ॥ए।। तुर्दशपूर्वधरस्य वीणकषायस्य समयाधिकावक्षिका शंषायां -हस्वस्थितिकाः पर्याप्तकास्तन्नामानो द्वीन्छिया जातिसूक्ष्म स्थिती वर्तमानस्य मन्दा जवन्यानुन्नागोदारणा वर्तते । तथा क्वीणकषायस्य विपुत्रमतिमनःपर्यायज्ञानस्य समयाधिकावकानुसारिनाम्नो विकनेन्द्रियजातीनां सूक्ष्म नाम्नश्चोत्कृष्टा विका शेषायां स्थिती वर्तमानस्यावधिज्ञानाचरणावधिदर्शनावनुभागोंदीरणास्वामिनः । एतदुक्तं भवति द्वित्रिचतुरिन्छियाः रणयोजघन्यानुन्नागोदारणा। सूहमाश्च सर्वजघन्यस्थिती वर्तमानाः सर्वानिः पर्याप्तिभिः खवणाएविग्यकेवल, संजनणाए य नो कसायाणं ।। पर्याप्ताः सर्वसंक्विष्टया ययासंख्य द्वीन्धियन्छियचतुरिजियजातिनाम्नां सूक्मनाम्नाश्चोत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामिनः सयक्षयउदीरणंते, निदापयन्नाणमुवस्संते ।। ४ ।। -हस्वस्थिती वर्तमानाः सर्वसंक्विष्टा भवन्ति इति कृत्वा कपणायोस्थितस्य पञ्चविधान्तरायकेवाज्ञानावरणकवयतनुपादानम् । तथा स्थावरसाधारणकप्रियजातिनाम्नां जघ- | दर्शनावरणसम्माननतुष्टयनवनोकरायरूपानां विंशतिप्रक Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०४ ) अभिधानराजेन्ः | उईरणा तीनां स्वस्वारणापर्ययाने जघन्यानुगोदरच तथा विद्याप्रवद्वयोरुपशान्तमोदे जघन्यानुभागोंदीरणा सज्यते तस्य सर्वविशुरूत्वात् ॥ निदानिदाईर्ण पत्तारये विमुज्माणम्मि || वेगसम्मत्तस्स, सगखवणोदरिणा चरमे ।। ९०५ ॥ निखानिषादीनां निद्रा २ प्रचला २ सत्याननां प्रमत्तस्य संयतस्य विशुध्यमानस्य अयमानायानिमुख पन्यानुभागो दीरणा प्रवर्तते तथा कायिकसम्ययमुत्पादयतो मिथ्यात्यसम्यदमिध्यात्वयोः पतितयोर्वेदक सत्यपत्यस्य योपशमिकस्य कृपणकाले चरमोदीरणायां समयाधिकाथलिका शेषायां स्थितौ सत्यां प्रवर्तमानायां जघन्यानुना गोदीरणा प्रवति सा च चतुर्गतिकानामन्यतरस्य तया ॥ से काले सम्म संजमगिएओ य वेरसगं ॥ सम्पतमेव पीसे, आता नभई || २०६ || अनन्तरे काले द्वितीयसमये यः सम्यक्त्वं संयमसहितं ग्रहीयति तस्य त्रयोदशानां मिथ्यायानन्तानुबन्धिचतुयामायापानावरणरूपाणां प्रकृतीनां जघन्यानुनागोदरचा प्रयमिह संप्रदायः । योऽनन्तरसमये सम्यक्त्वं संयमसहितं प्रहीध्यति तस्य मिथ्यादृष्टेर्मिथ्यात्वेनानन्तानुबन्धिनाम्, तथा यो विरतिसयये संयमं ग्रहीष्यति तस्याप्रत्याख्यानावरणकषाया जघन्याना गोदीरणा मिध्यादृष्टयपेक्क्या हि अविरतिसम्यम्टष्टिरनन्तगुण विशुद्धस्ततोऽपि देशविरतन्वगुरू स्युक्तमेव जघन्यानुनादीरणासंभवः तथा सम्यक्वमवसीयते इति यः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरनन्तरसमये सम्यपत्वं प्रतिपत्स्यते तस्य सम्यमिध्यात्वस्य उपन्यासुनागोदीरणा सम्यमिध्यादृष्टिर्युगपत् सम्यक्त्वं सयमं च न प्रतिपा यते तथा बिना किन्तु सम्यत्वमेवेति तदेव केवलमुक्तम्। तथा चतुर्णामायुषामात्मीयामात्मीयजयन्यस्थिती वर्तमामा जघन्यमनुभागमुदीरयन्ति । तत्र प्रयाणामायुशादेव जघन्यस्थितियो भवतीति कृत्या अ न्यानुभागोऽपि च अयते तथा मरका विका ज्जघन्यः स्थितिबन्धः ततो जघन्यानुभागोऽपि नरकायुष अपयते तथाच सति भयाणामायुषामति किष्ट घ म्यानागोदरः नरायुषस्त्वतिविद्धक इति ॥ पोग्गल विवागिया, नवासमये विसेसमवि चासि । आनंदोई, मुमो पाटपाट । २०७ । पुल विपाकिन्यः प्रकृतयः तासां सर्वासामपि नवादपि समये भवप्रथमसमये जघन्यानुभागोंदीरणा पतथ्य सामा. येन ततः अमुकस्यामुक उदीरक इत्येवंरूपं विशेषमपि त्रासां प्रकृतीनां वक्ष्यामि । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति । (चार इत्यादि) आद्योपान्यशरीरादारिकवैक्रिय रूपयेोर्यथासंख्यं सूक्ष्मो वायुकायिकश्चाल्पायुर्जघन्यानुनागो.. दीरकः । श्ड शरीरग्रहणेन बन्धन संघाता अपि गृहीता व्यास एतदुक्तं भवति दारिकशरीरीदारिकसंघातौदारिकवन्धनचतुष्टय रूपस्यीदारिकपद्स्याप्यपर्याप्त केन्द्रिय वायुकायिकवैकियपदकस्य च पर्याप्त बादर वायुकाधिकोऽल्पायुधन्यानुनागोरको प्रयति । दिपाग, तिरय चिरडिई सम्मिणो वावि । गोवंगा हारग, ज णो अप्पकालम्पि । २५८ । नईरणा योरङ्गोपाङ्गयोरीदारिकाङ्गोपाङ्ग वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नार्यया संस्यमल्पायुद्धन्द्रियस्तथा असंही सन् जातो वारकर स्थितिकः स च जघन्यानुनागोदीरको प्रवति श्यमत्र भावना कीन्द्रियपारीहारिकाङ्गोपाङ्गनाम्न उदयप्रयमसमये ज म्यमनुभागमुदीरयति तथा संझिपश्चेन्द्रियः पूर्वोद्वस्ति वैषि कोपास्तोकका बच्चा स्वभूमिकानुसारेण चिरस्थितिको fasो जातस्तस्य वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्न उदयप्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यानुभागोंदीरणा । तथाऽऽ हारकस्य प्राकृतत्वात् अत्र स्त्रीत्वनिर्देशः शरीरग्रहणेन च बन्धन संघाता अपि गृह्यन्ते तत आहारक सप्तकस्य यतेरा हारकशरीरमुत्पाद यतः संधिस्य अल्प काले प्रथमसमये इत्यर्थः जघन्यानु भागोदीरणा । श्रमणो समपरंतु, रिसनए ओसमाचरट्टिई ऐसे । संघयणाणयमाणु, ओहु कुवगघायाणमवि सुदुमो | २७ए। पिचेन्द्रियोऽल्पायुरिति संविष्टप्रथमसमये तद्भवस्थ प्राहारकः समचतुरस्त्र संस्थान वज्रर्षभनाराच संहनन योजघन्यमनुनागमुदीरति रुषायु संशाधम् तथापि न्द्रियात्मीयायामुत्कृष्ट स्थिती वर्तमान आहारको मध्यमसमये शेष शति । तथा शेषाणां संहननानां वार्तवजर्षभनारावजीनां पूर्व कोटद्यायुर्मनुष्या आहारकस्वज वप्रथम प्रसमये वर्तमाना जघन्यानुभागोंदीरकाः इह दीर्घायु विकसि पन्द्रियाय च प्रायोग्या मनुष्या अल्पवला इति मनुष्योपादानम् । तथा सूक्ष्मकेन्द्रियः सुदीर्घायु स्थितिः आदारकप्रयमसमये कोपघातिनाम्नो पन्यानुनागोरिक मेस बेईदिय, बारसवासस्स मउयन्नदुगाणं । सचिव-हारगस्स बीसा अक्सिडे | ३०० श्रीन्द्रियसंपन्चेन्द्रियस्य स्वभूमिषानुसारेणातिविशु स्यानाहारकस्य जघन्यानुभागोदीरणा । तथा तैजससप्तकलघुवर्जसुवर्णयेकादशक गुरुपुरियरन निर्माणरूपणां विंशतिप्रकृतीनां संक्लिष्टोऽपान्तराल गतौ वर्तमानोऽनाहारको मिध्यादृष्टिर्जघन्यानुनागोदीरणास्वामी वेदितव्यः । पगपुरा, इयर हुमेण तस्स परघाओ । अप्पालस्स य आया, उज्जोयाणमदि वोगो ।। ३०१ || प्रत्येकनाम श्रीदारिकेच समं वक्तव्यम् मदारिकस्थ प्रत्येक नामो केन्द्रियसमये वर्तमानो अधन्या भाग दीरको वेदितव्य इत्यर्थः । तथा हुमेन समानमेतत् साधारणनाम्नो वक्तव्यम् । तथा सूक्ष्मैकेन्द्रियस्याहारकस्य प्रथमसमये हुमनाम्नो जघन्यानुभागोदीरणा प्रागनिहिता तथा साधारणवक्तव्येत्यर्थः । तथा सूक्ष्मैकेन्द्रिय सूद मपर्याप्तस्याल्यायुष इति संविष्टस्यापर्याप्तचरमसमये वर्तमानस्य पराघातनान् जघन्यानुभागोदर तथा आत पोद्योगाग्नोस् यांगः प्रथिवीकाधिक शरीरपर्याप्तापर्याप्तः प्रथमसमये वर्त मानः संक्लिष्टो जघन्यानुनागोदीरकः । जाना करणं, सत्यगरस्स नवगस्स जोगते । करकरुगुरुणमंते, नियतमाणस्स केवाढीणो ॥ ३०२ ॥ आयोजिकाकरण नाम केवहि समुद्रातादयक प्रयत श्राङ्मर्यादायाम् आमर्यादया केवल दृष्ट्या योजनव्यापारणमा योजन तथा तिन यांगाना मय से थमायोजनमायोजिका त स्याः करणमायोजिकाकरणं केचिदाचार्या वर्जितकरणमित्याहुस्तत्रायं शब्दार्थः श्रावर्जितनामानिमुखी कृतस्तथा व Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०५ ) अभिधानराजेन्धः | उरणा सांवतारः श्रवर्जितोऽयं मया संमुखी कृत इत्यर्थः । ततख तथा नवत्येनावर्जितस्य मोकगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं शुनयगव्यापाराणामावर्जितकरणम् अपरे " जानारिय करमिति पतित शब्दसंस्कारयकरण तथाहि मुकुन्ति केचिन्ति इदं त्याकरणं सर्वेपन्तीति तचायोजिकाकरणमयाकरणम् साहि समुद्धा के वित्कुर्वन्ति च । करणमसंज्ञेय समयात्मकमन्तर्मुहर्तप्रमाणम् । यत उक्तम् । प्रज्ञापनायाम्-" कर समए त! जियाकरणे पगामा ! असंसिद्ध समर्पय तोमुहन्तर पनले । इति तज्जा" तत्राचा प्रारभ्यते । तावतीर्थंकर कंजिनः तीर्थकर नाम्नां जघन्यानुभागोंदीरणा श्रायोजिकाकरणो हि प्रभृतानुनागरणा प्रवर्तते यम् तथा नोड कृष्णपुर नगपति कटुतकरियडप्ररूपस्य प्रकृतिनवकस्य सयोगिकेवल चरमसमये जघन्यानुभागादीरणा तस्य सर्वकर्कशगुरुस्पर्शपोस्तु समुद्धातिनि पर्तमानस्य केवलमा प्रथम संहारसमये जघन्थानुप्रागोदीरण्य | सालय गश्वेश्म-ममपरिणामपरिणयउ होज्जा । पचयाशुनविय पिए नल बिहागे ॥२०३॥ पण सावेदनीय गतिचतुष्टयातिपकापर्याच तुष्टयाच्या सावहायो गतिद्विकत्र सस्थावरबादरसू मपर्या पर्याप्तसुस्वरः खयनादेया यश की गगन सर्वेपि जीवा मध्यमपरिणामपरिणता उघ न्यानुभागोदीरणामपरिसाता जघन्यानुभागोंदीरास्वामिनो नयन्ति साचसस प्रकृतीनां सामान्य मोदीरणा स्वामित्वरिनामपायपदेशमाद (पथत्यादि) प्रत्ययपरिणामप्रत्ययो भवत्यप्रत्ययश्च प्रकृतीनां शुभत्वमशुनत्वं च विपाकादि एतान् सम्यक् चिन्तयित्वा परिभाग्य जपन्यप्यनुज्ञागदीरणास्वामी बा गन्तव्यः । तथाहि । परिणामप्रत्ययानुनागोदीरणा प्राय त्कृष्टा भवति भवप्रत्यया तु जघन्या शुभानाञ्च संप्रेशनयोजन जघन्यानुजागोदीरणा अशुभानां च विशुद्ध विपर्यासे हा इत्यादिपरिज्ञाय तत्कृतां जघन्योत्कृष्ट जागोदीरणास्वामित्वमवगन्तव्यम् । इति तदेवमुक्ता अनुनागोंदीरणा । संप्रति प्रदेशांदीरणानिधानावसरस्तत्र व द्रावर्याधिकारी । तद्यथा साद्यनादि प्ररूपणार्थमाह साच द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च तत्र मूत्र प्रकृतिविषयां साधनादिप्ररूपणां चिकीर्षुराह । पंच हमकोमा, तिहा परसे चनिहा दोएहं । विगया दुविडा, सम्यगिप्पा य आउ । २०४ ज्ञानावरणदर्शनावरण नामगोत्रान्तरायरूपाणां पञ्चानां मृत्रप्रकृतीनामनुका प्रदेशविश्या उदीरणा जियात्रिका यथा अनादिवावा व तयातासामु प्रदेशोदर पातिकर्मा स्वस्वोरणापर्ययसाने अज्यते सा बसा दिया । ततोऽन्या सर्वासा यानादिर गत्वात् वाधवे श्रनध्य नव्यापेऊया तया द्वयोर्वेदनीयमोहनीययोरनुत्कृष्ट प्रदेशादारणा चतुर्थधावच्या दिनादितथादि वेदनीयस्त्कृष्ट प्रदेश प्रम सर्वधिक मोहमयस्य पुनः स्वोदरा नईरणा पर्यवसाने मपरायस्य ततो द्वयोरपि यथा साथमादकध्रुवा ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सापि चाप्रमत्तगुणस्थानकाप्रतिपतित वेदनीयस्यापशान्तमोगुण स्थानकाच प्रतिपतितो मोहनीयस्य सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य द्वयोरप्यनादिः अथाधव पूर्वपद (सेसचिगव्यति ) पतासां सप्तानामा प्रकृतीनां गायतिरिका विकल्या जघन्योत्कृष्टा द्विधा द्विप्रकारास्तद्यथा स्वदयोऽध्याथ तथातासां सप्तानामता मियारी जयन्या प्रदेोदीरणा सा सादिरधुवाच । संशपरिणामाच्च च्युतस्वमिथ्यादृष्टिरष्यजघन्यतः सापि सादिरधुवा च । उत्कृष्टा च प्रागेव नाविता आयुषः सर्वेपिविकल्पा पोष्ट द्विविधास्तया सादा सा च साधता योदत्वादवसेया सत्यप्रकृतीनां साधनाप्रिरूपणामाह । पित्तरस चटका, सगयाझाडे विडा आएकोसा। सेसविगप्पा हुरिहा, सव्व विगप्पा व सेसाणं ॥ २०५ ।। मिध्यात्वस्यानुत्कृष्टा प्रदेशोदर चतुविधा । तयासादिरनादिचाया च तथाहि योऽनन्तरसमये सम्ययं संयमसहित प्रतिपत्स्यते तस्य मिथ्यादृष्टेर्मिथ्यात्वस्योत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा सा च सादिरधवा च समयमः श्रत्वात् ततोऽन्या सर्वाप्यसायि सम्पतिपतिता भवति सा तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । ध्रुवःध्ये पूर्ववत् । तथा सप्तचनात्कृष्ट प्रदेश शिया तथा नात्यात् । तयादिपञ्चविधानावर धान्तर चतुर्विदर्शनावरणरूपान पायस्थ चितकमीशस्य स्वस्वोराप प्रदेशी साथ सादिरवा ततोऽन्या सर्वाप्यनुकृष्ट साच अनादिः भवदीरणाद भयाभये पूर्ववत्। तथा तेजस सप्तकवदित्रिंशांत स्थिरा स्थिर शुभाशुभगुरुलघुनिर्मा नाम्नां त्रयत्रिशःसंख्याकानां प्रकृतीनां गुणित कर्मा शोstr सयोगिकेवनिश्वरमसमये उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा । सा चखादाच सोऽन्या सर्वाप्यनकृष्ट सा चानादिबोदरदासां भवाद पारिसि शेषा विकल्पा जम्पोष्टरूपाद्विविधास्त यासादयो वा तथाहि सर्वासामप्युतप्रकृतीनामतिपरिणामेत मिथ्यार से अन्य प्रदेशो मष्टस्य परिणामप्रध्ययने या अन्य तो अि साध्रुव उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता शेषाणां वोक्तव्यतिरिकानां प्रकृतीनां दशोत्तरशतसंख्यानां सर्वेऽपि विकल्पा जघव्याजघन्योत्कृष्टा द्विविधास्तद्यथा साद‌यो भवाश्च साद्यभवता चोदया कृता साधनादिकपणान त्यति द्वियान्याप्रदेशांदीरणास्वामित्वात् । तत्र प्रथमत उत्कृष्टोदीरणास्वामिदमाह । प्रागुदीरणाए जहवासामी एस जेए । नयरी, ही वि पोहिलने || ३०६ ॥ पातिकर्मणां सर्वेषामपि अनुभागेोदरिणायां थे। बी जपन्या जागरणास्यामी प्रतिपादिसपट रणायाः स्वामी गुणितकमशां वेदितव्यः नवरमन्यत इति श्रुतकेवली इतरो वा अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोरनोत्कृष्ट प्रदेश दरक (सीति ) वेदम मितता भानावरणपुरणानां चतु रचः केव दर्शनावरणानां Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नईरणा अभिधानराजेन्द्रः। नईरणा कोणकषायश्रुतिकेवलिन श्तरस्य वा गुणितकौशस्य सम- योग्यन्तदीरणायोगी सयोगी केवली अन्ते चरमसमय याधिकावनिका शेषायां स्थितौ उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा अव- नदीरको यासांता गोग्यन्तोदारकास्तासां मनुजगतिपश्चेन्धिधिकानावरणयोः पुनरवधिसन्धिरहितस्य कोणकषायस्थ यजात्यौदारिकसप्तकतैजससप्तकसंस्थानषट्कप्रथमसंहननवसमयाधिकावलिका शेषायां स्थिती उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा दिविंशत्यगुरुलघूपघातपराघातविहायोगतिद्विकरसबादरनिभाप्रचलयोरुपशान्तकषायस्य प्रमत्तसंयते अप्रमत्तन्नावा- पर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरशुभाशुनगादेययशः किर्तिनिर्माणतीभिमुख स्त्यानम्िित्रकस्य मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायाणाम- र्थकरोचैर्गोत्राणां विषष्टिसङ्खधानां प्रकृतीनां संयोगिकेवली नन्तरसमये सम्यक्यं सयमसहितं प्रतिपत्तुकामस्य मिथ्याह चरमसमये उत्कृष्टप्रदेशोदारकः । तथा केवसिनः स्वरहिकऐश्चरमसमये सम्यगमिथ्यात्वस्य सम्यक्त्वप्रतिपत्त्युपान्त्य प्राणापानयोनिजकान्ते स्वस्वनिरोधकाले उत्कृष्टा प्रदेशोसमये अप्रत्याख्यानावरणकषायाणां प्रदेशविरतस्यानन्तरस दीरणा तथाहि स्वरनिरोधकाने सुस्वरपुःस्वरयोःप्राणापानमयाधिकाबलिका शषायां चरमसमये कपकस्य हानिः हाना निरोधकाले च प्राणापाननाम्न उत्कृष्टा प्रदेशादीरणा श्ह दिषट्कस्यापूर्वकरणगुणस्थानकचरमसमये सर्वत्र गुणितक सर्वकर्मणामुत्कृष्टप्रदशोदीरणायामेषा परिनाषा “ यो यः कशिस्योत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा वेदितव्या। स्वस्वोदीरणाधिका स स तस्य कर्मणः स्वामी वेदितव्यः” । वेयाणियाणांगहिहि, सेकालिअप्पमाईमिय विरो। आयुर्व्यतिरेकण चान्यत्र सर्वत्रापि गुणितकौशत्वेन दानासंघयणपगताकुग, उज्जो वा अप्पमत्तस्म । ३०७ । न्तरायादीनामपि पश्चानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशोदीरणास्वायः प्रमत्तो द्वितीये समये अप्रमादं ग्रहीष्यति सोप्रमत्तोजवि | मित्वं चेति ॥ प्यति प्रमत्तो न पञ्चकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकोद्योतनाम्ना संप्रति जघन्यप्रदेशोदारणास्वामित्वमाह । मुत्कृष्टा प्रदेशोदारणा। तप्पगइ नदीरगात्ति, सांकेबिहनावे असम्बपगईण । देवनिरयान गाणं, जहनजेहिई गुरुश्र साए । एयो जहमासामी, अणुजागो य तित्थयरे ।।३१।। इयरानण वि अहम वासे, गयो अहवासान॥३०॥ यस्तासां प्रकृतीनामुदीरकः सोतिसंक्विष्टनावोऽति संकिष्टदेवनारकायुयोर्यथाक्रमं देवनारको जघन्योत्कृष्टस्थितिको परिणामः क्वपितकर्माशः सर्वप्रकृतीनां स्वस्वयोग्यानां त्रयाणां गुरुपुःखयोरुदये वर्तमानी उत्कृष्टप्रदेशोदीरको वेदितव्यो। दर्शनावरणीयानां सातासातवेदनीययोमिथ्यात्वस्य धोमपतकं भवति । देवो दशवर्षसहस्रायुस्थितिको गुरु शानां फषायाणां नोकषायाणां सर्वसंख्यया पश्चत्रिशदुःखोदये वर्तमानो देवायुष उत्कृष्टप्रदेशोदीरकस्तथा नैर- संख्यानां प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टिः सर्वपर्याप्तिपर्याप्तः सर्वयिकनयखिशरसागरोपमायुःस्थितिको गुरुदुःखोदये वर्त- संक्लिष्टो निद्रापञ्चकतत्प्रायोग्यसक्लेशयुक्तो जंघन्यप्रदेशीमानो नारकायुष उत्कृष्टप्रदेशोदारकः प्रस्तं हि दुःखमनुन- दीरणास्वामी । तया योऽनन्तरसमये मिथ्यात्वं यास्यति सो पन् प्रततान् पुसान परिसाटयति इति तदुपादानम् । श्तरा ऽतिसंविष्टः सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वयोर्जघन्यप्रदशोदारणायुपोस्तियन्मनुष्यायुषोर्यथासंख्यं तिर्यग्मनुष्योष्णुवर्षायुषोऽ- स्वामी नवति । तथा गातिचतुष्टयपञ्चेन्कियजात्यौदारिकसएमे वर्षे वर्तमानो गुरुदुःखोदये युक्त सस्कृष्टप्रदेशोदीरको भवति सकवैक्रियसप्तकतैजससप्तकसंस्थानषट्कवर्णादिवितीपएगंततिरिगजोग्गा, नियग विसिट्टे तमु तह अपज्जत्तो। राघातीपघातागुरुक्षघूच्ब्वासोणतविहायोगातद्धिकसबाद रपर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरशुनाशुभपुर्नगसुस्वरफुःस्वराद - संमुच्छिममाअंते, तिरिय गई देसविरयस्स । ३०ए। यानादेययश-कीर्तिनिर्माणोचैत्रिपञ्चविधान्तरायरूपाणां पपातेन तिरचामेवोदयं प्रति प्रायोग्याः प्रकृतयस्तासामे कोननवतिसंख्यानां प्रकृतीनां संझिपर्याप्तसवोत्कृष्टसक्तकेन्द्रियजातिकाम्ब्यि जातित्रीयिजातिचतुरिन्ष्यिजात्या- शयुक्तो जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी श्राहारकस्य वाऽऽहातपस्थावरसूक्मासाधारणनाम्नामष्टानां निजकविशिष्टेषु निज रशरीरी तत्प्रयोग्यसंकेशयुक्त आनुपूर्वीणामपि श्रातपनिज प्रकृतिविशिष्टेषु यथा एकेन्द्रियजातिस्यावरनाम्नो बादर स्य खरवादरथिवीकायिकः सर्वसाकष्ट एकेन्द्रिजातिप्रयिषोकायिकेसर्वविशुके प्रातपनाम्नः खरयादरपृथ्वी कायि- स्थावरसाधारणनाम्नामेकेन्धियः सर्वोत्कृष्टसंकेशयुक्तः सूदम कसूत्मस्य पर्याप्तसाधारण विकन्छियनाम्नां तनामसुपर्या नाम्नः सूक्मैकेन्छियसर्वसंक्लिष्टो जघन्यप्रदेशोदारणांस्वामी मेषु सर्वविशुरुषु उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा देशविरतस्य तस्य अपर्याप्तकनाम्नः पुनरपर्याप्तमनुष्यसर्वसंक्लिएश्वरमसमये वसर्वविशुद्धत्वात् । र्तमानो जघन्यप्रदेशोदीरको भवति । तया द्विधिचतुरिन्छियपुन्नीगगाणं, सम्मदिट्ठीन दुजगईणं । जातीनां यथाक्रम द्वित्रिचतुरिन्डियाः सर्वाः संक्लिया जघन्यनीयस्स य से काने, गहियविरयत्ति सो चेव ।३१० प्रदेशोदारणास्वामिनः (अनागोयतिस्थयरत्ति) तीर्थसतसणामानुपूर्षीणां तस्यां तस्यां गती वर्तमानः तृतीये सम- करनाम्न एव जघन्यानुन्नागोदारणास्वामी प्राक प्रतिपादितः ये सर्वविशुरूसम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टप्रदेशादीरकः के.वन नरकति- स एव जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी अपि चेदितव्यः तीर्थकर्यगानुपूर्योः कायिकसम्यग्दर्विक्तव्या देवनारकगत्योरपि रकोवनी यावदद्यापि योजिकाकरणमारजत ताबसीर्थकरमास एव कायिकसम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टप्रदेशोदीरका तथा योऽनन्तर-| म्नो जघन्यप्रदेशोदीरको वेदितव्य इत्यर्थः ।। समये संयम प्रतिपत्स्यते स एवाविरतसम्यराष्टिदुर्भगादीनां ओहि ओहिजए अइ-मुहवेयानगाणं तु ॥ दुर्नगदुःस्वरानादेयायशः कीत्तीनां नीचैगोत्रस्योत्कृष्टप्रदेशो पढमस्स जहन्नहिड, सेसाणकोसगाईन ।। ३१३॥ दीरकः। जाग उदीरगाणं, जोगते सरगाणपाणूणं । अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोरवधिलब्धियुक्तः सर्व संक्लिष्टो जघन्यप्रदेशोदारणास्वामी । अवधिद्विक क्षेत्रादितो नियगंते केवमिणो, सम्बविशुद्धीए सव्यासिं॥३१॥ । बहवः पुझनाः परिक्कीणा इत्यवधिसम्धिनदणम् । तथा चतु Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिज्जमागा मायुषमानुसारेणातीय सुखमनुभवन् जयप्रदेशोदी को भवति । तत्र प्रथमस्य नरक प्रमाणं जघन्यस्थितौ वर्तमानो नैरयिकः स हि शेषनारकापक्क्या अतिशयेन सुखी शेषाणां च तिर्यग्मनुष्यदेवायुषामु स्पती वर्तमान किस हिरोपनारक: स्वस्पयोग्यतानुसारेण परमसुखिनो ययासंख्यतिक्रमनुष्यदेवा जय न्यप्रदेशोदीरणास्वामिनो वेदितव्याः । इति उदयोदी रणयोः स्वामित्वेन भेदो नास्ति ॥ बई (दी) रिजमा उदीयमाण ० --- शानच् । उदीरणानामनुप्राप्तं विरेशगामिना का दि तव्यं कर्म दत्रिकं तस्य विशिष्टा ऽध्यवसायलक्षणेन करणेनाकृप्योदयेषणं सा वाऽसंख्येयसमय तथा पुनरुदीरणया उदीरणाप्रथमसमय एव । भ० १ ० १४० । उदयमुपमाने महा० २३ पद "रिमाणो बड़ीभ० १ ० १ ० । ( ७०७ ) अभिधानराजेन्द्र - रए 45 (दी) रिव-उदीरित भि० उत्प्राज्येने रितो जनितः। कृते, " ससदफासाफसाउदी रिया" मते, आया। महागुरूणिस्स यराब्दी रिता " उत्प्राबल्येनेरितः कथितः । प्रतिपादिते, 'धीरे धम्मे उदीरिए ' श्राचा० ७ ० ३ चू० । उत्प्राबल्येन प्रेरिते, राश्याणं वेश्याणं चालियाणं घट्टियाण खोभियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे भवति । राज२ । जी० । उदयमुपनीते मा० २३ पद भी रितास्तु वा यतोऽनुदितान् पुरुशा समाप्ते कर्म कर प्रविष्य यान् वेदयते इति तत्त्वम् । भ० १ ० १ ० । उई (दी) - उदीरपत्- वित्यन्तरं प्रेरयति, स्पा००। उ०ऋतुचिचादी १३ "ऋतु इत्यादिषुरादेतद्भवस्थानविक श्रीणां रात्रयः षोमश स्मृताः इति मनूक्ते स्त्रीणां शोणितदशनयोग्यगर्भ धारण समर्थे काले । वाच० । नि० चू० । कळ्या पथहोरात्र्यमाणद्विमासामके विशेष व्य० १ च० | जी० । स्था० भ० जी० ।" दो मासा खऊ " । प्र० ६ श० ७ ० | अनु० । स्था० । ज्ञा० औ० । जं० ॥ ते चषद्- "तत्य खमु इमे व उऊ पाप्ता तंजा पाठ से १ वरिसारते २ सर ३ हेमन्ते ४ वसन्ते ५ गिम्हे ६ तास वि ये दुबे मासानि च उप्पर्ण माहापूर्ण गणि माणसातिरेगा एसट्ठि २ रातिंदिनाएं रातिदियगेणं हितेत्ति” । तत्राऽस्मिन् मनुष्यलोके प्रतिसूर्यायनं प्रतिचन्द्रायनं च खल्विमे षट् ऋतषः प्रज्ञप्तास्तद्यथा प्रावृद, वर्षा रात्रः शरदो, हेमन्तो, वसन्तो, ग्रीष्मः । इह लोके अन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिकास्तद्यथा प्रावृद शरद्, हेमन्तः शिशिरो, वसन्तो ग्रीष्मश्चेति । जिनमते तु यथोक्ताभिधाना एव ऋतवः । तयाचोक्तम् "पाउस वासारतो, सरओ हेमंत वसंत गिम्दोय । पप खमपि उऊ, जिणवरदिट्ठा मए सिड्डा " चं० प्र० १२ पाहू । सू० प्र० । स्था० । अं० । ऋतुपरिमाणविचारः । एतो उउपरिमाणं, वोच्छामि ग्रहाणुपुत्रीए । तो मएलेषु न सूर्यशशिनां प्रतिमुहूर्त गतिपरिमाणप्रतिपादितानामनन्तरमतपरिमाण सूर्यपरिमाणं माणं च यथानुपू क्रमेण दद्यामि प्रतिज्ञातमेव निर्या यितुकामः प्रथमतः सूर्यर्तुपरिमाणं प्रतिपादयति । उउ व वाइचा मासा, एकसहिते जयंतद्वोरता । एयं उपरिमाणं, अवगयमाणो जिणा विंति ॥ हावादित्यो मासी सूर्यमाला यावद होरात्रिपरिगणनया एक परिहोरात्रा भवन्ति । तथादि सूर्यमासविशदहोरात्र एकस्य चाहोरात्रस्य या ततो द्वी सूर्यमासादेकपष्टिरहोराशा भवन्ति । एतत् एतावत् क्रमतः सूर्यतः परिमाणमपगतमानाः । मानग्रहणमुपरुणमपगत सकल क्रोधमानादिच जिनालीकृतो ब्रुवते । सांप्रतम प्तिसूर्य त्यांनय करणमभिधित्सुरा । सूरउउस्साणयो, पञ्चपंचरसगुणं नियमा । तिहि संक्खित्तं संतं, वावहिनागपरिहीणं ॥ गुणे गडीए जुयं बावीससरण जाइए नियमा । सं तस्स पुणो, हिड़िय सेस उक्त होइ ॥ सायं साणं, बेहि उ जागा हि तेसि जं । दिवसा नायाति सचचस्स अहस्स । सूर्यस्य सूर्यसंबन्धेतोरानयने पर्वपर्यसंस्थानं नियमत्पञ्चदशगुणं कर्त्तव्यम् । पर्वणां पञ्चदशतिथ्यात्मकत्वात् । श्यमत्र भावना । इह ऋतव आषाढादिप्रभवाः युगं च प्रवते श्रावण के प्रतिपद धारज्यते । ता युगादितः प्रष्टतानि यानि पर्वाणि तत्संख्या पञ्चदशगुणा क्रियते कृत्वा च पर्वणामुपरि या विवचितदिनमनिव्याप्य विषयस्तास्वत्रसंकियन्ते इत्यर्थः । ततो " वावड्डी नागपरिहीणंति " प्रत्यदोरात्रमेकेन द्वाषष्टिभागेन परिहीयमाने ये निष्पक्षा भयमरास्तेयुपचारात् द्वापदिनागास्ते परिपा कर्तव्यं ततो ( डुगुणत्ति ) ज्यां गृहयते गुणयित्वा एकाकियते। ततो विशेन तेन जाज यष्यं तस्य परुनिनांग ते पच्छे ऋतुरनन्तरातीतो नवति । येऽपि अंशा शेषा उरिताः तेषां द्वायां भागे तेय ते दिवसाः प्रवर्तमानस्य ततः । er करणगाथारार्थः । संप्रति करणभावना क्रियते । तत्र युगे प्रथमे दीपोत्सवे केनापि पृष्टः कः सूर्यमसरीतः को वा संप्रति वर्तते तत्र युगादितः सप्तपर्व त्यतिकान्तानीति संप्रधियन्ते । तानि पञ्चदशभिर्गुष्यन्ते । जातं पञ्चोतरशतम् । एतावति विकाले द्वाववमरात्रावभूतामिति द्वौ ततः पात्येते स्थितं पश्चात् ज्युत्तरं शतं ( १०३ ) ततो द्वाभ्यां गुएयते जाते द्वे परे (२०६) तक प्रतिष्यते द्वे शते सप्तपद्यधिके (२६७) तयोर्द्वाविंशतेन जागो हियते लब्धौ द्वी ती पनि न सहतेन तयोः पशुभिगहारः । शेषाख्यंशा उद्वरन्ति त्रयोविंशतिः । तथा समर्किजाता एकादश सूर्यव्यापादादित भाग 'छावृत् श्रतिक्रान्तौ तृतीयश्च ऋतुः संप्रति प्रवर्तते । तस्य च प्रवर्तमानस्यैकारा दिवसा प्रतिकान्ता दादशो वर्तते इति । तथा युगे प्रयमायामपतृतीयायां केनापि पूर्व के पूर्वमति कान्ताः को वा संप्रति वर्तते तत्राकयतृतीयायां प्रथमायाः माइग्रगस्यादितः पश्यतिकान्तान्येकोनविंशतिततः को विंशतिजा (२०५) तृतीयायां किं पृष्टमिति पारित स्तिथयः प्रविष्यन्ते जाते द्वे शेते अष्टाशीत्यधिके ( २०० ) तावति काले अयमरात्राः पञ्च भवन्ति । पञ्च ततः पात्यन्ते Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरणा अभिधानराजेन्द्रः। नईरणा जाते द्वे शते त्र्यशीत्यधिक (२०३) ते द्वाज्यां गुण्यंत जाता- युगादितः पद पर्षापयतिक्रम्य तृतीयायां तिथौ द्वितीय तुः नि पञ्च शतानि पपश्याधिकानि ( ५६६) तान्यकाटिस- समाप्तिमुपागमत् । तथा तृतीये ऋतौ कातुमिच्छति त्रयों हितानि क्रियन्ते जातानि पद शतानि सप्तविंशत्यधिकानि भियन्ते । द्वाज्यां गुण्यन्त जाताः षट् ते रूपानाः कृताः सन्तो (६२७) तेषांद्वाविंशन शतेनन्नागो दियते लब्धाः पञ्च पश्चाद जाताः पञ्च ते नृयो र्गुिणयन्त जाता दश ते प्रतिराशीशाउदरन्ति सप्तदश तेषाम सन्धाः साझा अष्टौ । आगतं नांचा सन्धाः पञ्च । श्रागतं युगादित प्रारज्य दश पर्वापञ्च ऋतवोऽतिकान्ताः षष्ठस्य च ऋतोः प्रवर्तमानस्याची एयतिक्रम्य पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमियाय । दिवसा गताः नवमा वर्तते । तया युगे द्वितीये दीवास्तव तथा षष्ठ ऋतौ ज्ञातुमिच्चति षट् स्थाप्यन्ते । ते द्वाभ्यां केनापि पृष्टं किगन्त ऋतवोऽतिक्रान्ताः को पा संप्रति व गुपयन्ते जाता द्वादश रूपोनाः सन्तो जाता एकादश से संते । तत्रतावति काले पापयतिकान्तानि एकत्रिंशत्पञ्च द्विर्गुणयन्ते । जाता द्वाविंशतिः । सा प्रतिराशि तयोश्चाई दशभिर्गुण्यते जातानि चत्वारि शतानि पञ्चपटपधिकानि क्रियते । जाता एकादश । प्रागतं युगादितो द्वाविंशतिपर्धा(४६५) अधमरात्रातावति काने व्यतिक्रामत्यप्टी तताए पपतिक्रम्य एकादश्यां तियौ षष्ठ ऋतुः समानोति । तथा प्टी पात्यानि शेषाणि चत्वारि शतानि सप्तपश्चाशताधिकानि युग नवमे ऋतौ कातुमिच्छता नव स्थाप्यन्ते ते पायां (४५७) तानि द्विगुणोक्रियन्ते जातानि नवशतानि चतुद- गुण्यन्ते जाता अष्टादश ते रूपोनाः क्रियन्ते । जाताः शोत्तराणि (१४)तथैकपष्टिप्रोपे जातानि नव शतानि सप्तदश ते नूया विर्गुपयन्ते जाताश्चतुर्विंशत् । संप्रतिराश्यते पञ्चसप्तत्यधिकानि (ए७५)एतेषांद्वाविंशत्यधिकशतेन भाग तस्या अर्क क्रियते जाताः सप्तदश भागतं युगादितश्चतर्विहरणं, सम्धाः सप्त उपरिष्टादशादुघरन्ति एकविंशतितं शत्पण्यतिक्रम्य द्वितीये संवत्सर पौषमासे शुक्लपक्के द्विती( १११ ) तस्य द्वाज्यां भाग त सम्धाः षष्टिलार्मः यस्यां तियौ नवम ऋतुः परिसमाप्ति गच्चति तथा त्रिंशत्तम सप्तानां च ऋतूनां षभिर्नागे हते अब्ध एककः : एक उप- ऋतो जिज्ञासति त्रिंशद् धियते सार्गुिण्यते जाता पहिसा रिष्टान्न तिष्ठन्ति आगतमकसंवत्सरोऽतिक्रान्तः । एकस्य रूपाना क्रियतं जाता एकोनषष्टिः सा नूयो द्वाज्यां गुण्यते च संवत्सरस्योपरि प्रथम ऋतुः प्रा.नाम निर्गतो किती जातमष्टादशोत्तरं शतं तत् प्रतिराश्यते तस्यार्द्ध क्रियत जाता यस्य च षष्टिदिनान्यतिक्रान्तान्येकषष्टितम वर्तते इति एव पकान राष्टिः । आगतं युगादितोऽष्टादशात्तरपण्यतिक्रम्य मन्यत्रापि भावना कार्या । एकोनषष्टितमायां तियौ । किमुक्तं जवति । पञ्चमे संवत्सरे सांप्रतममूनामृतूनां नामान्याह ।। प्रथमे आषाढमासे शुक्लपके चतुर्दश्यां त्रिंशत्तम ऋतुः समापानस वासारत्ता, सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य । प्तिमुपायासीत् व्यवहारतः प्रथमाषाढ परयन्त इत्यर्थःमप्रति एए खानपिनन, जिणवरदिहा मए सिहा ।। घर्षाकाले शीतकाले प्रीष्मका झेषु चतुर्मासप्रमाणेषु यस्मिन् प्रथम ऋतुःप्रावृहनामा द्वितीया वर्षारात्रा तृतीया शरच. पर्वणि कर्ममासापेक्याधिकोहोरात्रः सूर्यतपरिसमाप्ती भवति तुर्थों हेमन्ना, पञ्चमो वसन्तः, षष्ठो ग्रीष्मः । पते पमपि तत्प्रतिपादयन्नाह ॥ ऋतवः एवं नामतो जिनवररष्टाः सर्पहाटा मया शिष्टाः वत्यम्मि ज कायत्त, अतिर सत्तम पञ्चम्मि। कथिताः । साम्प्रतमेतेषामृतूनां मध्ये क ऋतुः कस्यां तिथों वासहिमागम्हकाने, चाउम्मासे विहीयते ।। समाप्तिमुपयातीति परस्य प्रश्नमाशक्य तत्परिकानाय वर्षाहिमन्त्रीष्मकामेषु प्रत्येकं चतुर्मासेषु चतुर्मासप्रमाणेषु करसमाह। पृथक प्रतिरात्रा अधिका अहोरात्रा विधीयन्ते तद्यथा पकाइच्छाउ गणितो, रूबोणगणिोउ पवाणि। तृतीयपण्यपरा सहिमपर्वणि । श्यमत्र नावना । सूर्यचितस्सर्फ होइ तिही, जत्तसमत्ता उक तीस ।। न्तायां कर्ममासापेकया वर्षाकाले भाषणादौ तृतीये पवणि यस्मिन् ऋतौ ज्ञातुमिच्या स ऋतः प्रियते तत्संख्याधियते गते कोऽधिकोहोरात्रोडितीयः सप्तम पर्वाण हेमन्तकासेपि इत्ययः ततः स द्विगुणितः सन् रूपोनः क्रियते । ततः पकस्तृतीये पर्वणि द्वितीयः सप्तमे प्रीष्मकापि पकस्तृतीये पुनरपि स हाज्यां गण्यते गुणयित्वा च प्रतिराश्य पर्वणि द्वितीयः सप्तमे । अत्राह पूर्वपूर्वावमरानसहितमुक्तम् । तद्विगुणितश्च सन् जषान्त तावन्ति पर्याणि कष्टव्यानि तस्य दानी त्वधिकरामोपेतमिति किमत्र पर्वकरणमत आहे ॥ च प्रतिराशि तस्याक्रियते । ततश्चार्धे यावत् भवति ताव- उनसहियं अतिरतं, जुगसहियं होइ अउमरत्तं तु । त्यस्तिथयःप्रतिपत्तव्याः । यासु युगभाविनीस्त्रिशदपि ऋ- रविसहियं अश्रतं, सहितहियं अमरत्तं तु ।। सवः समाप्ताः समाप्तिमैयरित करणगाथा करायः । स इद पर्वतुसहितं विवकते तदा विवक्तितं तृतीयादिकंम्पति करण जावना विधीयते । कित प्रथम ऋतु तु- वर्षकासादिसम्बन्धि तिरात्रमधिकरात्रम् । सूर्यर्तुपरिसमामिष्टो यया युगे कस्यां तियो प्रयमतः प्रास्त्रकण ऋतुः तिचिन्तायां तस्मिन् विवक्ति तृतीयादौ पर्वणि कर्ममासासमातिमुपयातीति । तत्र एकका प्रियते स द्वाज्यां गुण्यत पक्ष्याधिकोऽहोरात्रो भवति । तथाहि कर्ममासरित्रंशता दिनैः जाते द्वे स्वरूपानः क्रियते । जात एकक एवं स नूयोप 6ि सूर्यमासविंशता मासयात्मकश्च ऋतुः। ततः सूर्यपरिसगुण्यते के रूप प्रतिराश्यते तयोर जातमक रूपमागतं । माप्तौ कर्ममासापेक्कयैकोधिकोहोरात्री जयतीति । तथा युमं युगादौ द्वे पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथा प्रतिपाद प्रथमः चन्द्राभिवतिरूपं संवत्सरपञ्चकान्ते व पञ्चापि संवत्सराप्रावृानामा अतुः समापत् । तथा स्तिये ऋतौ ज्ञातुाम मासापकया ततो यदि पर्वयुगसहितं चन्मासोपेतं जाति द्वौ स्थापितौ तथा धान्यां गुणने जाताश्चत्वारस्ते रूपो. विवक्ष्यत तदा विवकिन पर्वतृतीयादिकं वर्षाकामाईसनाः क्रियन्ते । जातात्रयस्ते नूयो द्विर्गुण्यन्त जाताः षट् ते म्बन्धे अधमरात्रोपेतं जयति कर्ममासापेकया तस्मिततीयादा प्रतिराश्यन्ते प्रतिराशीनां चार्कः क्रियते जातामय आगतं । पर्वणि नियमादेकोऽहोरात्रः पततीति भावः । एतदेवाद Jain Education Interational Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उउ अन्निधानराजन्धः। ( रविसहियमित्यादि ) रविसहितमिति रात्रं किमुक्त पञ्चोत्तराएयंशोनामिति अयं ध्रुवराशिबाकव्यः । एष च जवति । रविमासनिपाद्यमानतुंचिन्तायां तस्मिन् तृतीयादौ धुवराशिरेकादिद्युसरगुण ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशवर्षाकासादिसंबन्धिनि पर्वणि तत्र सूर्यर्तुपरिसमाप्ती कर्म- त्पर्यन्तेनाधुत्तरेण एकस्मादारज्य तत ऊर्ध्वमुत्तरवृझेन गुमासापेक्कया एकैकोधिकोहोरात्रःप्राप्यते इति शशिसहित- एयतेति गुणो गुणितः कर्तव्यस्ततोऽस्मात् शोधकानि शोधमषमराचं चमनिपादितास्तिथीरधिकृत्य कर्ममासापेकया | यितव्यानीति प्रतिपादनार्थमाह। विवक्तितं तृतीयादि पर्वहीनरात्रं जवतीत्यर्थः । सम्प्रति येषु सत्तट्टि अकृखेत्ते, पुगतिगगुणियासमेदिवखित्ते । मासेषु सूर्यर्तुपरिसमाप्तिचिन्तायां पूर्वपूर्वसूर्यर्तुगततिथ्य अट्ठासीई पुस्से-सोज्का अनिइम्मि बायाला ।। पेक्कयाधिकोहोरात्रः परिवते तान् प्रतिपादयति । प्रासाद श्ह यत्र अर्क केत्र तत्र सप्तपष्टिं शोभ्यानि च सप्तषष्टिः बहुसपके तथा जाबपदमासे बहुसपके एवं कार्तिके पौषे समे समक्षेत्रे विगुणिता सती शोध्या एकोसरे शते तत्र फाल्गुने वैशाखे चातिरात्रं बोरव्यम् । पूर्वपूर्वसूर्य गति शोध्ये इति भावः । इह सूर्यस्य पुच्यादीनि नक्षत्राणि शोभ्यानि तिथ्यपेक्षया एतेषु षट्सु मासेषु अधिकोऽहोरात्रो कातन्यो चन्छस्याभिजिदादीनि तत्रसूर्यनक्कत्रयोगचिन्तायां पुष्ये पुण्यन शेषेषु मासेषु । एतदेव सविशेषमाह । विषया अष्टाशीतिः शोभ्यानि चन्धनकत्रयोगचिन्तायामभिएकंतरिया मासा, निही य जासु ता उऊ समप्पंति । जिति चिचत्वारिंशत् ।। असाढाई मासा, जहवयाइ तिहि सव्वा ॥ एयाणि सोहइत्ता, जं संतं तु होइ नक्खत्तं । इह सूर्य चिन्तायां मासा आपाढादयो इष्टव्याः आषाढ- रविसोमाणं नियमा, तीसाए उउसमत्तीसु ॥ मासादारज्य ऋतूनां प्रथमतः प्रवर्तमानत्वातू तिथयः सर्वा एतानि अनन्तरोदितानि अर्धकेत्रद्वयर्धकेत्रविषयाणि शोधअपि भारुपदादिषु मासेषु प्रथमादीनामृतूनां परिसमाप्तत्वात् । तत्र येषु मासेषु यासु वा तिथिषु ऋतवः प्रावृमादयः कानि शोधयित्वा यदुक्तप्रकारेण नक्षत्रं शेषं भवति सर्वापरिसमाप्नुवन्ति ते आषाढादयो मासास्ताश्च तिथयो नाप त्मना शुझिमश्नुते तत्र केत्र रविसोमयोः सूर्यस्य चन्मसश्च दादिमासानुगताः सर्वा अपि एकान्तरिता वेदितव्याः। तथा नियमाद् ज्ञातन्यम् । क इत्याह त्रिंशत्यपि ऋतुसमाप्तिषु एवं करणगाथात्रयाकरार्थः । संप्रति करणनावना क्रियते तत्र हि प्रयम ऋतुः भाषपदे मासि समाप्तिमुपैति तत एको मास प्रथम ऋतुः कस्मिश्चन्द्रनको समाप्तिमुपैतीति जिज्ञासायामश्व युगलकणमपान्तराले उक्तः । कार्तिक मासे द्वितीय ऋतुः नन्तरोदितः पश्चोत्तरत्रिंशत्प्रमाणो धुवराशिधियते स एकोपरिसमाप्तिमिति । एवं तृतीयः पौषमासे, चतुर्थः फाल्गुने, नगुणितस्तदेव भवतीति ततोऽनेनधुवराशिर्जातस्तत्राभिजितो पञ्चमो वैशाख, षष्ठः आषाढे, एवं शेषा अपि ऋतवः षट्सु द्वाचत्वारिंशत् शुका स्थिते पश्चाद् द्वेशते त्रिषष्ट्यधिक(२६३) मासेष्वेकान्तरेषु परिसमाप्तिमाप्नुवन्ति नाशेषेषु मासेषु । ततश्चतुस्विंशेन शतेन श्रवणः शुरुःशेषजातमेकोनत्रिंशच्चतं तया प्रथम ऋतुः प्रतिपदि समाप्तिमेति कितीय तृतीयस्यां, (१२५) तेन च धनिष्ठा शुद्ध्यति तत आगतमेकोनत्रिंशं शतं तृतीयः पञ्चम्यां,चतुर्यःसप्तम्यां पञ्चमो नवम्यां, षष्ठः एकादश्यां, चतुस्त्रिंशदधिकशतं नागानाम् धनिष्ठासक्तमषगाह्य चन्द्रःप्रथमे सप्तमस्त्रयोदश्यामष्टमः पञ्चदश्याम पते सर्वेऽयि ऋतवो सुर्यर्तुं समापयति । यदि द्वितीयसूर्य जिज्ञासा तदा सभ्रवबहुलपके ततो नवम ऋतुः शुक्लपक्के द्वितीयायां, दशमवतुर्थ्या राशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाण स्त्रिनिर्गुण्यते जातानि नव मेकादशः षष्ठयां, द्वादशोऽष्टम्यां, प्रयोदशो दशम्यां, चतुर्द शतानि पञ्चदशोत्तराणि (ए१५) तत्राभिजितो वाचत्वारिंशत् शोद्वादश्यां पञ्चदशश्चतुर्दश्याम पते सप्त ऋतवः शुक्लपक्के । शुका स्थितानि शेषाएयष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि (७३) एते ऋतवः शुक्लपकेनाविनः। पञ्चदशापि ऋतवो युगस्या ततश्चतुर्विंशेन शतेन श्रवणझुम्मुिपगत स्थितानि शेषाणि जवन्ति । तत सक्तक्रमेणैव शेवा अपि पञ्चदश ऋतवो द्विती सप्त शतानि पकानचत्वारिंशदधिकानि (७३९) ततोपि ये युगस्या जवन्ति । तद्यया-षोमशः ऋतुर्बहुअपके प्रतिप चतुर्विंशेन शतेन धनिष्ठा शुरूा जातानि षट् शतानि पञ्योदि, सप्तदशः तृतीयाया-मष्टादशः पञ्चम्यामेकोनविंशति तराणि (६०५) ततोपि सप्तषष्ट्या शतभिषक् शुका स्थितमः सप्तम्यां. विंशतितमो, नवम्या, मेकविंशतितम एका तानि पश्चात्पश्च शतानि अष्टत्रिंशदधिकानि (५३०) तेदश्यां, द्वाविंशतितमः त्रयोदश्यां त्रयोविंशतितमः पञ्चदश्या ज्यापि चतुर्विंशेन शतेन पूर्वन्नपदा शुकास्थितानि चत्वारि मतेषोमशादयत्रयोविंशतिपर्यन्ताः । अष्टौ बहुअपके ऋतवः शतानि चतुरधिकानि (४०४) ततो घान्यां शतान्यामेकोशुक्लपके द्वितीयायां चतुर्विशतितमः पञ्चविंशतितमश्चतुर्थी, पट्त्रिंशत्तमः षष्ठया, सप्तविंशतितमोऽष्टम्याम अधाविंशति सराज्यामुत्तरजापदा शुशास्थिते शेषे त्रिकोनसप्ततिचतुस्थि शदधिकं शतं भागानामवगाह्य द्वितीयं सूर्यत्चन्छः परिसमातमो दशम्या, मेकोनत्रिंशत्तमो द्वादश्यां त्रिंशत्तमश्चतुर्दश्या पयति । एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीयम्। संप्रति सूर्यनकषमेवमेते सर्वेऽपि ऋतवो मासेष्वेकान्तरितेषु तिथिष्वाप चैका योगनावना क्रियते स एव पदोसरशतप्रमाणो ध्रुवराशिः न्तरितासु नवन्ति । सांप्रतमेतेषु ऋतुषु चन्द्रनकत्रयोगं च प्रथमसूर्यर्तुजिज्ञासायामकेन गुएयते एकेन च गुणने तावानेप्रतिपादयिषुस्तद्विषयं करणमाह । तित्तिसया पंचहिगा, अंसाडेपी सयं च चोत्तीसं । व जातस्तत्र पुष्यसरकावष्टासीती गुका स्थिते शेषे द्वे शते सप्तदशोत्तरे (२१७ ) सतः सप्तषप्ट्या अश्लेषा शुझा स्थितं एगा वि उत्तरगुणा, धुवरासीए स बोपन्या ।। शेषं सार्कशतं ( १५० ) ततोऽपि चतुर्विंशच्छतेन मघा श्रीणि शतानि पश्चात्तराणि अंशा विनागाः किंरूपच्छेदकृता शुका स्थिताः षोमश श्रागतं पूर्वाफाल्गुनीनकत्रस्थ पोमश एते इत्याह च्छेदशतं चतुस्त्रिंशं किमुक्तं भवति चतुस्त्रिंश चस्त्रिंशदधिकानि शतभागानवगाह्य सूर्यः प्रथमर्नु समापयदधिकशतच्छेदेन चिन्नं यदहोरात्रतस्य सतानि त्रीणि शतानि ति। तथा द्वितीयसूर्यर्तुजिज्ञासायांध्रयराशिः पञ्चोत्तरशत Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उउ ( ७१० ) अभिधानराजेन्द्रः | दशोरा भयमाशस्त्रिभिर्गुश्यते जातानि नय शतानि वि (१५) तताऽच्यीत्या पुष्पः किमगमत् स्थितानि पश्चाष्टौ शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ( 29 ) ज्यः स प्पष्टचा प्रश्लेषा का स्थितानि शेषाणि षट् शतानि षड्ि शत्यधिकानि (१२६) तेभ्यस्तुशिद चिकेन तेन पूर्वफाल्गुनी स्थितानि पथाचत्वारि शतानि हिनवत्यधि कानि (४०१२) ततो राय शतायामेोत्तराज्यामु फास्थिते शोध (२०० पितुशेन शतन हस्तः शुकं स्थितं पञ्चात्सप्तपञ्चाशदधि १५० तोचि शेन शतेन विधा का स्थितापत्रातिः चागतं स्यातेखियोविंशति शदधिकशतं भागानामा सूर्यो द्वितीय शतुं परिसमापयति एवं तृषु भाषनीयम तदेवमुक्ताः सूर्यतं वः॥ प्रति चन्द्रप्रतिपादनार्थमाद चचारि सपाई पि उतराई जुगम्मि चंदस्स । , सेसिपि य करण विहिं. वोच्छामि अहाणुपुन्नीए ॥ इह एकस्मिन् नत्रपर्याये षट् शतषो नवन्ति यथा सूर्यस्य स्वापि च पर्याया युगसप्तषष्टिसंख्यास्ततः सप्तजातानि चायादिताने पितावन्तो युग चन्द्रस्य ऋतवा भावन्ति तेषामपि चन्द्र नां परिज्ञानाय करणविधिं यथानुपूर्व्या क्रमेण वयामि । तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुकामः प्रयमतश्चन्द्रर्तुपरिमाणमाह स उ परिमाणं चचारि व केवलं अहोरता । सत्तत्तीस अंसा, सत्तसडिकर एजेएए ॥ चन्द्रस्य चन्द्रसंबन्धिन ऋतोः परिमाणं चत्वारः केवलाः परिपूर्णा महोरात्राः सप्तष्कृतेन च च्छेदेन सप्तारादेशाः किमुकं भवति सप्तविंशत्सप्तषष्टिनादिनस्य तथा कस्मिन् नत्रपर्याये षट् ऋतव इति प्रागेव ज्ञावितम् । नत्रपर्याय चन्द्र विषयस्य परिमाण सप्तविंशतिर होरात्र एकस्य बाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः तत्राहोरात्राणां पर्भािगे दृते अन्धानि चत्वारि दिनानि, श्रीणि शेषाबि तिन्ति तानि सप्तषष्टिनागकर पायें सप्तषष्टधा गुण्यन्ते जाते ते कोरे (२०१) तत उपरितनापकर्षति सप्तषष्टिनागाः प्रक्षिष्यन्ते जाते दे शते धाविंशे (२२२ ) निःसप्तत्सिप्तषष्टिभाषा इति ॥ संप्रति चन्द्रऋतोरानयनार्थ करणमाह ॥ चंदंड आणायचे, पारस संगुर्ण नियमा । तिहि संखितं संत, बावट्ठी जागपरिहीणं ॥ पोचीयानिहिवं, पंचुत्तर निसर्व संजयं वि जए । उदसूतारहि, सपादे सफा उक्त होति ।। विहितस्य न्द्ररायने कर्तव्ये युगादितो ऽयनपर्यसंख्या नमतिक्रान्तं तत्पञ्चदशगुणं नियम कर्तव्ये ततस्तसिंक्षिप्तमिति बास्तिययः पर्वणामुपरि विवाहितान् दिमान् प्रागनिष्कान्तास्तास्तयन्ते ततो मागे पा प्रागनिष्योऽवमराचे परिहीन विधेयं तत पर्वतं स न शतमानिहित कर्तव्यं तदनन्तरं च पञ्चचखिनः शतैः संसद देशांत विमले च सति ये सभा भङ्गास्ते ऋतवो प्रवन्ति ज्ञातव्याः । एष करणगा च्स - यात्रा करार्थः । संप्रति करणभावना क्रियते । कोपि पृच्छति युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कञ्चर्तुर्वर्तते तत्रैकमपि पर्व परिपूर्णमत्र नाथाप्यदितादितो दिवसापा भियन्ते ते चात्र चत्वारस्ते चतुखिंशेन शतेन गुरायन्ते जातानि पञ्च शतानि षत्रिंशदधिकानि ( ५३६ ) तत्र नूयत्रीणि शतानि पम्बोत्तराणि प्रत्यष्टी शतान्येकचवारिंशदधिकानि ( ४१ ) तेषां पर्तिर्दशांग हियते लब्धः प्रथम शतुः अंशा उद्धरन्ति के शते एकत्रिंशदधिके (२३१) ते तुहिन शतेन जागरणं सम्ध पक अंशानां चतु शतेन मागे ते हन्यते ते दिवसा ज्ञातव्याः शेषावंशा उद्धरन्ति सप्तनवतिस्तेषां विकेनापथतेनायां सन्धाःसा अष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा नागसंयुगादितः पञ्चम्यां प्रथमः प्राण ऋतुरतिक्रान्तो द्वितीयस्य एको दिवसो गतो द्वितीयस्य च सा श्रष्टच त्वारिंशत् सप्तषष्टिनागाः । तथा कीपि पृच्छति युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां कर्तुरिति तत्रैकं पर्यातिक्रान्तमिति को भियते स पञ्चदसमय जाता प एकादश्यां किन पृष्टमिति तस्थाः पाश्चात्या दश ये दिवसा यि जाता पञ्चविंशति सा स्तुति शतेन गुपवते जातानि प्रयत्रिंशत् शतानि पञ्चाधिकानि ( ३३५०) तेषु श्रीणि शतानि पश्चोतराणि प्रयन्ते जातानि षत्रिंशत् शतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि ( ३६५५ ) तेषां निः शतैर्दशोतरैर्नागो व्हियते लब्धाः पञ्च अंशा प्रतिष्प शतानि पराणि (६०) से शेन शतेन जागे इते सन्धाश्चत्वारो दिवसाः ( ४ ) दोषास्त्वं शा उद्धरन्ति एकोनसप्ततिः ( ६ ) तस्या द्विकोनापवर्तनाय सधा साध शाखप्तष्टिभागाः भाग पच ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य व ऋतोश्वत्वारो दिवसाः पञ्चमस्य दिवसस्य सानुत्वारिशम्सपष्टिभागाः । एवमन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्रतुरवगन्तव्यः । संमति परिसमाप्ति दिवसानयनाय करणमाह । रविवरासीपुच, गुणिय जयएस बेण । अ सो दिवसो, सोमस्स छऊ समीप । यः पूर्वप्रतिपादने पराशरभिदतः पच्योत्तराणि श्रीणि शतानि चतुस्त्रिंशद्नागाः तस्मिन् पूर्वगुणिते ईप्सि तेन एकादिना धुतरचतुः शततमपर्यन्तं न द्वघुत्तरवृकेन एकस्मादारज्य तत ऊर्ध्वं स्वन्तरवृद्धया प्रथर्कमानेन गुणितस्वकेनात्मीयेन च्छेदेन चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपेण प्रक्ते सति यल्लब्धं सोमस्य शतुसमाप्तौ दिवसो ज्ञातव्यः । यथा केनापि पृष्टं चन्द्रस्य शतुः प्रथमः कस्यां तिथौ परिसमाप्ति गत इति तत्र राशिः पचोरयमाणो भियते (२०५) स फेन यायावरा शिस्तीन म शिदधिकशतप्रमाणेन भागो हितेष स्तिष्ठति सहिकेनापपर्तना क्रियते जाताः सा महादश भागतं युगादितो ही दिवसाय विक्रम्य तृतीये दिवसे पागेषु प्रथमः परिसमा छति द्वितीयचन्द्रपरिसमाप्तिजिज्ञासार्या स पन्चोत्तरशतत्रयमायरिनिर्गुण्यते जातानि परा णि नव शतानि (०१५ ) तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन नागो हियते लब्धाः षट् शेषमुद्धरति एकादशोत्तरशतं तस्य द्विके राशि Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन अभिधानराजन्द्रः । नापवानायां झब्धाः सार्धाः पञ्चपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः सके चतुश्च वारिंशत्सहस्राणि.नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि आगतं युगादितः षषु दिवसध्यतिक्रान्तेषु सतमस्य च दिव- (२०४५१५) तत्राकेत्रेषु षट्सु नक्षत्रेषु प्रत्यकं सप्तपष्टिसस्य मार्वेषु पञ्चपञ्चाशत्संख्येषु भागेषु द्वितीयश्चनकर्तुः रंशायकेत्रषु षट्सु नक्कत्रेषु प्रत्येक देशते एकोत्तरे अंशानां परिसमाप्ति गति व्युत्तरचतुःशततमजिज्ञायां स धुबरा- पञ्चदशसु नकत्रेषु प्रत्येकं चतुर्विंशच्चतमिति षट्सप्तपश्चा शिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणोऽनिः शतैस्युत्तरैर्गुण्यते इषु गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि वत्तराणि (४०२)तथा तरवृद्ध्या हि पुत्तरचतुः शततमस्य व्युत्तराष्टशतप्रमाण एव षट् पश्चोत्तरेण शतम्येन गुण्यन्ते जातानि कादश शतानि राशिर्भवति । तथाहि यस्य एकस्मादूर्घट्यत्तरवृया राशि- दशात्तराणि । ( ११० । पते च प्रयोपि राशय एकत्र संज्यते तस्य स विगुणो रूपोनो जवति तथा द्विकस्य त्रीणि मीव्यन्ते मीलयित्वाऽवतिष्ठन्तेऽग्निजितोवाचत्वारिंशत् प्रकित्रिकस्य पञ्च चतुष्कस्य सप्त अत्रापि च पुत्तरचतुः शत- प्यन्ते जातानि पत्रिंशतानि षष्टपधिकानि ( ३६६०) तमप्रमाणस्य राशेवर्युत्तरवृख्या राशिश्चिन्त्यते ततोऽौ एतापानको नवलपर्यायस्तत एतत्पूर्वस्य राशेर्भागो व्हियते शतानि धुत्तराणि जवन्ति एवं सूतेन च राशिना गुणने सन्धाः षष्टिनवलाणि पर्यायाः पश्चादवतिष्ठन्ते पञ्चपञ्चाशजाते वेलके चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि पञ्चदशो- दधिकानि प्रयस्त्रिंशजतानि ( ३३५५ ) तत्राभिजितो द्वासराणि (२४५१५) तेषां चतुरिशच्छतेन भागो चियते चत्वारिंशच्नुकाःस्थितानि शेषाणि जयस्त्रिंशच्छतानि अयोसन्धान अष्टादश शतानि सप्तविंशत्यधिकानि (१८२७) दशाधिकानि ( ३३१३) तेषां त्रिभिः सहनशीस्यधिकैरअंशाचोदरन्ति सप्तनवतिस्तस्या द्विकेनापर्वर्तना सम्धाः नुराधान्तानि नकत्राणि शुफानि शेषं ते वे शते एकत्रिंशदसा| अष्टाचत्वारिंशत्सप्तवष्टिनागाः आगतं युगादितोऽष्टाद- धिक (२३१) ततः सप्तषष्ट्या ज्येष्ठा शुरूा स्थित चतुःषष्यधिकं शसु दिवसशतेषु सप्तविंशत्यधिकष्वतिकान्तेषु ततः पर- षोमशशतं ( १६६४) ततोऽपि चतुर्विंशेन शतेन मूसं शुरू स्परसावष्टाचत्वारिंशत्संख्यासु सप्तषष्टिभागेषु दूपत्तर- स्थिता पश्चात् विशत् (३०) आगतं पूर्वफाल्गुनीनवत्रस्य चतुःशततमस्य चन्छौः परिसमाप्तिरिति । त्रिशतं चतुर्विंशदधिकशतं भागानामवगायोत्सरचतुःशततसप्रति चन्र्तुषु नकत्रयोगपरिकानाय करणमाद ॥ मं स्वऋतुं चयः परिसमापयति । ज्यो०१४ पाहु०॥०प्र०। सो चेव धुवो रासी, गुणरासी वि य हवंति चेव । जउंबर [ उंबर ] [3] दुंबर-पु. शम्लु घृणोति सानक्खत्तं सौहणणिय, परिजाण पुब्बनणियाणि ॥ उम्बरः पृषोदस्य वा मत्वम् । वाच० धुर्गादेव्युडम्बरपाद पतनपादपीऽन्तर्दः । २७०।७।। इति उकुम्बरशब्दमयुगे चन्द्रौनकत्रयोगपरिझानार्थ स एष पश्चोत्तरशतत्रयप्र- ध्यवर्तिनः वा मुक । प्रा०। (गूबर) इति प्रसिके बहुचीजके माणो भ्रवराशिर्वेदितव्यः गुणराशयोऽपि गुणकारराशयोऽपि वृतविशेषे, जी०१ प्रति० । आचा० । देहल्याम, श्रा० म० एकाद्युत्तरघृद्धया त एव जवन्ति ज्ञातव्या ये पूर्वमुद्दिष्टाः नत्र- द्वि० ।गृहेबुके, गृहावयवविशेषे, प्राचा० । ताने, नपुंसके, शाधनान्यपि च परिजानीहि । तान्येव यानि पूर्व भणितानि कुष्टभेदे च । वाच० । प्रशा० । द्विचत्वारिंशत्प्रभृतीनि ततः पूर्वकरणे विवक्तिते चन्ता नव-जच ( उंब) रदत्त-उदुम्बरदत्त-पुं० पाटसीखएमनगरप्रयोग इति जिज्ञासायां स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो भ्रष वास्तव्ये सागरदत्तसार्थवाहसुते, तद्वक्तव्यता यथा-पाटलीराशिः ध्रियते ( ३०५) स एकेन गुण्यते एकेन गुणितः स- सहमे नगरे सागरदत्तसार्थवाहसुत चुम्बरदत्तानानाऽभूत न स तावनेव भवति ततो जातो काचत्वारिंशत् शुका होणे सच पोशभी रोगैरेकदाऽभिनूतो महाकष्टमनुभूय मृतः । तिष्ठतो द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके (२६३) ततश्चतुर्विंशेन शतेन | सच जन्मान्तरे विजयपुरराजस्य कनकरथनाम्नो धन्वन्तरिनाश्रवणः शुरुः स्थित पश्चादेकोनत्रिशच्चतं (१२५) तस्य हि- मा वैय आसीत् मांसप्रियो मांसोपदेष्टा चेति कृत्वा नरकाकनापवर्तना क्रियते जाताः साश्चतुःषष्टिभागाः प्रागतं तवानिति । स्था०१००। धनिष्ठायाः सार्कमेकेन चतुःषष्टिभागानधगाह्य चकः प्रथ जाणं ते उक्वेवो सत्तमस्स एवं खल जंबू तेणं कामं स्वतुं परिसमापयति हितीयश्चन्द्रर्तुजिज्ञासायां स एष लेणं तेणं समएणं पालिसमें णयरे वसंमें उज्जाणे ध्रवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्त्रिर्गण्यते जातानि नय शतानि पञ्चदशोत्तराणि (१५) तत्रानिजितो द्वाचवा जंबरदत्ते यक्वे तत्थ णं पालिसमें णयरे सिकत्य रिंशत् गुफा स्थितानि शेषाएयौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि राया तत्य णं पामलिसके पयरे सागरदत्तसरथवाहे (०७३) ततश्चतुनिशैन शतेन प्रवणः शुभमुपगतः स्थितानि होत्या । अवे गंगदत्ता नारिया तस्स णं सागरदत्तस्स शेषाणि सप्तशतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि (७३५)ततो पि चतुनिशेन शतेन धनिष्ठा शुकाजातानि षट्शतानि पञ्चो पुत्ते गंगदत्ताए जारियाए अत्तए उंबरदत्ते णामंदारए तराणि (६०५) ततोपि सप्तषष्टया शतभिषक् शुका स्थितानि होत्था । अहीणं तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परि पश्चात्पञ्च शतानि अष्टत्रिंशदधिकानि ( ५३७ ) पतेज्योऽपि सागया तेणं कालेणं तेणं समएणं जगवं गोयम तहेवर चतुर्विंशेन शतेन पूर्वनरूपदा सुद्धा स्यितानिचत्वारिशतानि जेणेव पामविसमें णयरे तेणेव उवागच्च उवाचतुरधिकानि (४०४) तेन्योपि धान्यां शताच्यामेकोत्तराज्यामुत्तरभरूपदा गुका स्थिते शेषे द्वे शते ऽयुतरे (२०३) गच्छपत्ता पालिस गयरे पुरच्छिमेण दुवारेणं अणुताज्यामपि भागानवगाह्य हितीयं स्वं ऋतुं चन्छः परिष्ठा पविसत्ति तत्थ एणं पासइ एगं पुरिसं कच्वं कोडियं पयति । तथा युत्तरचतुःशततमवर्तुजिज्ञासायर्या धुवराशिः दो उपरियं जगदमियं श्रीरसिवं कासिवं सासिवं सय पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणोऽधुभिः शतैस्त्युत्तोर्गुण्यते जाते है। मुहं सूयहत्थं सूयपायं समयहत्थंगुलियं सक्रियपाय Jain Education Interational Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानिधानराजेन्कः। गुझियं सम्यिकपणासियं रसियए य पूरण य थिवि अप्पेगइयाणं मच्छमंसाइं उवदिसाइ अप्पेकपनमंसाईथिवि वणमुहं किमिजस्पुयतपगसंतपूयीहरं लामा- अप्पेगाहर्मसाई अप्पेमगरमंसाई अप्पमुसमारमंसाई श्रपगलंतकमणासं अनिक्खणं ३ पूयकवले य रुहिरकव यमंसाई एवं एलारोज्क सूयरमिगससयगोमंसा महिसमं से य किमियकवले य वममाइ कट्ठा कक्षुणाई वीसराई सा अप्पेतित्तिरमंसा अप्पेवटकलावककवातकुकुममयरम कूवमाणं मच्छिया चमगरपहगरेण अणिजमाणमग्गं सा अमोसि च बहूणं जलयरथलयरखहयरामाईणं फुटहमाहमसीसं दम खंगवसणं खममखमहत्थगयं मंसा अप्पाणं वीयसंसे धनतरियवेज्जे तेहिं मच्छमंसेमिहेश देहं बलियाए वितिं कप्पेमाणे पासइश्त्ता तदा हिय जाव मयूरमंसेहिय अमोहिम बहूहिं जलयरथमजगवं गोयमे उच्चणियजाव अमइ अहापज्जतं गिरह- यरखहयरमंसेहि य जाव मयूरसएहि य सोरहिय तिइश्त्ता पाम्लीसंमाओ एयरात्रो पमिणिक्खमइश्त्ता लिएहिय भनिएहि य सुरं च ए आसाएमाणे ४ विहरइ जेणेव समणे जगवं तेणेव नवागच्च उवागच्छदत्ता सएणं से धणंतरी वेज्जे एए कम्मे ४ सुबहु पावं समजिजत्तपाणं पमिदंसेइ समणेणं अन्जमुमाए जाब विलमिव णित्ता वसीससयाई परमानं पालता कासमासे कानं पमागनए अप्पाणेणं पाहारमाहारेइ संजमेणं तवसा | किच्चा उडीए पुढवीए नकोसं वावीसं सागरोवमाइं नवअप्पाणं जावेमाणे विहर तएणं से जगवं गोयमे वले तएणणरगा उपट्टित्ता इहेव पामलिसं णयरे सामदोपि नहखमणपारणगंमि पढमाए पोरसीए सफाई रदत्ते सत्यवाहे गंगदत्ताजारिया जाणिया विहोत्या। जाव पाझलिसंझ णयरं दाहिणिवेणं वारेणं अणुप्प जाजा जाया दारगा विणिधायमावज्जति तएणं तीसं गंगविस्सइ । तं चेव पुरिसं पासइश्त्ता कच्चूज़ तहेव जाव दत्ताए सत्यवाहिए अप्पया कयावि पुन्चरत्तावरत्तकाल संजमेणं विहरइ तपणं से गोयमे तच्चं उडं तहेव जाव समयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणे २ अयं अज्कस्थि पञ्चच्चिमिद्वेणं दुवारेणं अणुप्यविसमाणे सं चेव पुरिसं ए ४ समुप्पो एवं खबु अहं सागरदत्ते णं सत्थवाहे कच्चूचं पासइयत्ता चउत्थं गहुँ उत्तरेणं इमे अज्क णं सछि बहुहिं वासाइ नरालाइ माणुस्सगाई जोगनोत्यिए समुप्पो । अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं गाई लुजमाणे बिहरइ णो चेव णं अहं दारगं वा हारिजाव एवं बयासी एवं खलु अहं नंते ! गट्ठस्स जाव यं वा या यानिहितं धणालणं ताो अम्मायो संपुष्पा रियंते जेणेव पाडलिसं णयरे तेणेव जवागच्छइश्त्ता | श्रो कयत्थाओ कयपुष्णाओ कयलक्खणाओ सुलोणं पामनिपुरे पुरच्छिमिश्रेणं दुवारेणं अणुप्पविढे तत्थ णं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफझे जासिं मस्सो एगं पुरिसं पासइ कच्वं जाव कप्पेमागे । तंजहा अ णियगकुच्चि संजयगाइं यणदुकबुकगाई मम ण पर्यपि हं दोचं नहपारणए दाहाणझे दारए तदेव तच्च बटुं याति भणमूलक्खदेसनागं अतिसरमाणगई मुछगाई पञ्चच्चिमेणं तहेव ते अहं चनत्यं उपारणए पानि पुणो य कोमलकमसोवमेहिं हत्थेहिं गिरिहऊण उच्च उत्तरदारे अणुप्पविढे तं चैव पुरिसं पासामि कच्चूस्वं गणिवेसियाई दिति समुद्घाबए सुमहुरे पुणो मंजुलप्पन जान चिन्ति कप्पमाणे विहर चिंता मम पुवनवे पुच्ग . णिए अहमा अधण्या अपुष्मा अकयपुमा एत्तो एकतरम बागरे । एवं खलु गोयमा तेणं कालेणं तेणं समएणं विणपत्ता त सेयं खलु ममं कथं जाच जलंते सागरदत्तं इहेव जंबूदीचे जारह वासे विजयपुरे हामं णयरे सत्यवाहं आपुच्चित्ता सुबहु पुष्फवत्यगंधमवालंकारे होत्था रिका तत्थ णं विजयपुरे पयरे कणगरहे णामं गहाय बहुहिं मित्तणाश् णियगसयणसंबंधि परिजणरराया होत्या । तस्स एं कणगरहस्स रहो धणंतरि हियाई सकिंपामलिसमाओणयराओ पडिणिक्खमइर णामे वेजे होत्था अटुंगानवेदे पाढए संजहा कोमार त्ता बहिया जेनेव जबरदत्तस्स जक्खस्स जक्वायतणेनिच्चं १ सामागे २ सबकहते ३ कायतिगिच्छा। तेणेव नवागच्छाश्त्ता तत्थ एं जंघरदत्तस्स जक्खस्स मह जंगोले लयवेजे ६ रसायणे ७ जाजीकरणे सिव रिहं पुप्फच्चणं करेइश् त्ता जाणुपायवडियाए उवाएत्तए हत्ये । मुहत्ये १० बहुहत्ये ११ तएणं धणंतरीवेज्जे जाणं अहं देवाणुप्पिया दारगंवा दारियं वापयामि तो विजयपुरे णयरे कणगरहस्स रप्ठो अंतेउरे अमेसिं च णं अहं जावं च दायं च जायं च अक्खयणिहिं च बदणं राईसर जाव सत्यवाहण आनसिं च बहणं दुन्च अणुषे सा समित्तिकदृनववाय उवाइणित्तए एवं संपहलाण य गिलाणाण य बाहियाण य रोगियाण य सणा इत्ता २ का जाव जयंते जेणेव सागरदने सत्यवाहे हाण य अणाहाण य समणाण य माहणाण य निक्खु तेणेव उवागच्छइ ५ त्ता सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वपाण य करोमियाण य कप्पमियाण य ानराण य यासी एवं खा अहं देवाणप्पिया तुम्नेहि मत्थि जाव Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१३ ) अभिधानराजेन्द्रः । उंबरदत्त पता तं इच्छामि णं तं देवाणाप्पिया तुम्नेहिं अन्नपाया जाब उबाइणित्तर तरणं से सागरदचे सत्थवाहे गंगद जारियं एवं वयासी ममंपि णं देवाणुप्पियार सच्चेव मणोरहे कहणं तुमं दारगं वा दारियं वा पयाज्जामि गंगदचं नारियं एवमहं प्रणुजाणीइ । तर णं सा गंगदसा जारिया एय महं अन्नणुमाया समानी सुबहु जाब मित्तलाई सकिं ताओ गिहाओ मणिक्खम २ सा पाडलिसंड एयरं मज्जं मज्जेणं लिगच्छ २ चा जेणेव पुक्खरिणी तेणेव जवागच्छ २चा पुक्खरिणीए तीरे सुबहुपुप्फगंधमलाउकारं वे ६२ चा पुक्खरिणीओ गाइ २ सा जलमज्जलं करेइ जलकी करेइ २ चा एहाया कयको जयमंगला उपाडेसाडिया पुक्खरिणी पच्चुत्तर २ ता तं पुप्फु गिएह‍ २ ता जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव चवागच्छ त्ता उंबरदत्तस्स जक्खस्स आलोए पलामं करे ता लोमहत्यं परामुस २ ता उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्वपूर्ण पमज्जा २ त्ता दगधाराए अनुक्रेवर १त्ता म्हनगाली हेइ सेयाई वत्थाई परिहे महरिदं पुप्फारुहाणं क्त्यारुहाणं मला गंधा चुम्मारुहाणं करेइ २ चा धूर्व महश् ता जाणुपायपडिया एवं वयासी जणं अहं देवाणुप्पिया दारगं दारियं पयामि तोणं जाव उवाइणइ २ ता जामेव दिसिं पाउन्नूया तामेव दिसिं पडिगया तरणं से धणंतरी वेज्जे ताम्रो रगा अंतरं उवट्टित्ता इडेव जंबूदीवे २ जारहे वा से पालीसंडे एयरे गंगदत्ताए कुच्छिसि पुत्तत्ताए नवतरणं तीसे गंगदताए जारिया तिरहं मासाणं बहु पाणं श्रयमेवारूवे दोहले पाउन्नूए धमानणं ताओ अम्मयाओ जाव फलं जाणं विपुलं असणं ४ उवक्खडावे २ ता बहुहिं जाव मित्तपरिबुमा तं विपुलं असणं ४ सुरं च ६ पुप्फ भाव गहाइ पाडलि संयं यरं म मज्जेणं पनि क्खिमइ २ ता जेणेव पुक्स्खरिणी तेणेव उवागच्छर २ सा पुक्खरिणीन गाहे ता एहाया जाव पायच्छित्ताओं तं विपुलं - सणं ४ बहुर्हि मित्तहाई जाव सकि आसाएइ ४ दोदलं विणे एवं संपेइ कलं जात्र जलते जेणेव सागरदतसत्थवाहे गंगदत्ता जारिया एयम अणुजाण‍ तणं सा गंगदत्तेणं सत्यवाहेणं अन्नणुमाया समाण विपुलं असणं ४ नक्खडावेश तं विजयं असणं ४ सुरं च सुबहु पुप्फं परिगिएहावेइ २ सा बहुहिं जाव एहाया कयवलिकम्मा जेणेव जंबरदत्तजक्खस्स जक्खायतणे उकुंबरवश्च जाव थूवं ढहे 2 ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव जवागमच्छर २ चा तरणं ताओ मिरा जान महिलाओ गंगदत्ता सत्यवाहिं सव्वालंकारविनूसियं करेइ तं सा गंगदचाहिं मिहिं बहुहिं णयरमहिलाहिं सकिं तं विपुलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणी ४ दोहसं विणे २ ता जामेव दिसिं पाउन्नूया तामेव दिसिं पगिया से एवं सा गंगदत्ता जारिया पसत्य दोहला तं गन्नं सुहं सुहेणं परिवसइ तरणं सा गंगदत्ता एवडं मासा जाव दारयं पयाया ठिया जाव णामे जम्हाणं अहं इमे दार जंबरदत्तस्स जक्रखस्स उवाइय सत्ते तं होऊणं दार उंबरदते यामेणं तरणं से उंबरदसे दारए पंचधाई परिगाहिए परिवढइ तरणं तस्स उंबरदतस्स दारगस्स छाया कयावि सरीरगंसि जमगसम - गमेव सोनसरोगायका पाउन्नूया तंजहा सासे १ खासे २ जाव कोढे तरणं से उंबरदत्ते दारए सोलसरोगाई कहिं अपि समाले सकियहत्थं जाव विहार एवं खल गोयमा जंबरदत्ते दारए पोरा पुराणाणं जाव विहरइ तरणं जंबरदत्ते दारए कालमासे का किया कहि गच्छदिति कर्हि ववज्जिहिंति गोयमा उंबरदत्ते दारए वावतारं वासाई परमानसं पालइ २ चा कालमासे कालं किच्चा इमी से रयणाए ऐरइयत्ताए नववज्जिहित्ति संसारो तदेव पुडवीए तओ हरियणाउरे जयरे कुकुकुत्ता पचायार्हिति जायामित्ते चैव गोडिनवर्हिति तत्थेव इत्थिणारे एयरे सेडी कुअंसि बोहा सोहम्मे महा विदेहे सिंहिहिति निक्खेवो सत्तगं अभय सम्मत्तं । वि० g भ० । पाटखिएकस्य नगरस्य नवखएमे उद्याने पूज्यमाने यके च । वि० भ० । उळंब (उंच ) रपणग उदुम्बरपञ्चकन० उडुम्बरकेणोपलक्षितं चकमुडुम्बरपञ्चकम् । वट १ पिप्पल्लो २ पुम्बर ३ प्लक ४ काकोडुम्बरी ५ फल लक्षणे फल विशेषपञ्चके, मशकाकारसू बहुजीवनिचितत्वाद्वर्जनीयं ततो योगशास्त्रे उडुम्बरबटलक्षकाको ठुम्बरशाखिनाम् । पिप्पलस्य च नाभीवात्फलं कृमिकुलाकुलम् । १ । लोकेपि "कोपि क्वापि कुतोपि कस्यचिदो वेतस्य कस्माज्जनः । केनापि प्रविशत्युडुम्बर फलप्राणिक्रमेण कृणात् । येनास्मिन्नपि पाटिते विघटिते विस्फोटिते श्रोटिते निष्पिष्टे परिगालिते विदबिते निर्यान्त्यसौ वा न वा । ध० २० द्वाविंशत्यभये, पञ्चा भयाणीति प्र०ए०३३४०| जलंब (उंब ) रपुप्फु ( प्फ ) - उदुम्बरपुष्प - न० ( गूलरफूल ) उडुम्बरषृकुकुसुमे, “नंबरपुण्फु पिव दुलहे" उडुम्बरपु सज्यंजवति अतस्तनोपमानम्। भ० ए० ३३ ४० । उब ( डंब) रवच्च - उदुम्बरवर्चस् - १० उडुम्बरफससमा - कीर्णे, "संबरस्स फक्षा अत्थ किरिवमे सचाविज्जति तं नंबरवनात" । नि० ० ३ ४० ॥ For Private Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१४ ) उऊंबरीय - अभिधानराजेन्द्रः। ਰੰਗ उलंब (ब) रीय-नदुम्बरीय-पुं० प्रत्युउम्बरंरूपको दात- उज[3] संधि--ऋतुसन्धि-पुत्रातोः पर्यवसाने, आचा०५ व्य श्त्यवं सकणे करे, “जोयंत उबरीयस्स" ० ३ १०॥ श्रु०१०१०। उउ (3) परियह-ऋतुपरिवर्त-पुं० ऋत्वन्तरे, प्राचा०३ नजसंवच्चर--ऋतुसंवत्सर-- पुं० शतखो लोकप्रसिका सन्ताध्रु०१०१० दयस्तत्प्रधानः संवत्सरः शतुसंवत्सरः । चन्ड०१पा। उजदेवी-ऋतुदेवी-स्त्री० वसन्तग्रीष्मवर्षाशरकेमन्तशिशिरो त्रिंशदहोरात्रप्रमाणादशभिर्ऋतुमासैः श्रावणमासकर्ममासभिधानदेवतासु, पंचा०२ विव०।। पर्यायैर्निष्पन्चेषष्टयहोरात्रशतत्रयमाने, स्था० ५ ग। सावन उउबक-ऋतुवक-पुं० शीतकाने, उष्णकालेच । औका अष्टौ संवत्सरपर्याये संवत्सरनेदे, तत्त्वं च यथा । विसमं पवामिणो परि-णमंति अणपुसदेति पुष्फफनं । मासा ऋतुबदसंज्ञका आचा०श्श्रु०१ अना०म०। उउमास-ऋतुमास-पुं० ऋतुः किल लोकरूख्या षश्यहोरात्रप्र- वासं ण सम्मवास, तमाहु संबच्चरं कम्मं ॥ 'माधो द्विमासात्मकस्तस्यामपि मासोऽवयवः समुदायोप- विषमेण वैषम्येण प्रवालं पल्लवाङ्करस्तविद्यते येषां ते प्रथाचारात ऋतुरेवार्धात्परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणो मासत्रातु- लिनो वृक्का ति गम्यते । परिणमन्ति प्रवासवत्तासवणया मासः । कर्ममासापरपर्याये मासनेदे, एष एव ऋतुमासः । अवस्थया जायन्ते । अथवा प्रवासिनो वृताः परिणमन्ति कर्ममास इति वा व्यवन्दियते । नक्तंच "एसो चेव उसमासो अकुरो दावस्था यान्ति । तथा अनृतुषु अस्वकाले ददति कम्ममासो सावणमासो भम" इति । व्य०१खं०१०। प्रयच्चम्ति पुष्पफलं यथा चैत्रादिषु कुसुमादिदायिनोपि स्वरू"मासो तीसदिणो, पाश्चो तीस हो। अर्द्धच" ५ व्य० पेण चूताः मांघादिषु पुष्पादिप्रयच्छन्तीति यथा वर्षे वृष्टिं मघोन प्र०१०। नि०चूत। सम्यग्वर्षति यति गम्यते तमाहुर्सवणतः संवत्सरं कार्मणं पंच संवरियस्स एं जुगुस्स रिजमासेणं मिज्जमाणस्स यस्य स ऋतुसंवत्सरः सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायौ । स्था० ५ गाजो॥ गसहि उऊमासा पमत्ता ॥ ता एएसिणं पंचएहं संबच्छराणं तय उनसंवच्चरस्स अयैकषष्टिस्थानकं तत्र पञ्चत्यादि पञ्चन्निः संवत्सरैर्निर्वृत जसमासेति स तिमुटुत्तेणं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवमिति पञ्चसांवत्सरिकम् । तस्य णमिति वाक्याबकारे युगस्य तिए रातिदियग्गेणं आहिताति वदेज्जा । ता तीसेणं राई- . कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन चन्द्रादिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः ऋतुमासाः प्राप्ताः । श्ह चायं भावार्थः युग हि दियग्गेणं आहितेति वदेज्जा । ता से णं केवतिए मुडुत्तग्गेपञ्चसंवत्सरानिष्पादयति तद्यथा चन्पश्चन्डोभिवतिश्चे- पुच्छा ता णवमुहुत्तसताई णवमुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेति। तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि हाशिच हिषष्टिनागा ज्जा। ता एस णं अछावालसखुत्तकमा उउसंवच्चरे ना अहोरात्रस्येत्येवं प्रमाणेन श्ए। ३२।६३ कृष्णप्रतिपदामारज्य पौर्णमासीनिष्ठितेन चन्द्रमासेन द्वादशमासपरिमाणश्च सेणं केवतिते राइंदियम्गेणं आहितति । ता तिमि सढे. मसंवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदम् । त्रीणि शतान्यहां चतुः रातिंदियसते राइंदियम्गेणं आहिताति वदेजा । ता से पश्चाशत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिनागा दिवस्य ३५४।१२ णं केवतिते मुहुत्तग्गेणं आहिते ता दसमुहत्तसहस्सातिं ६२ । तथा एकत्रिंशदहामेकविंशत्युत्तरं च शतं चतुा अ य मुहुत्तसताई मुहुत्तग्गेणं आहिता ॥ शत्युत्तरशतं जागानां दिवसस्येत्येवंप्रमाणोऽभिवर्शितमास तृतीयं ऋतुसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् । नगवानाह। इति । एतेन ३१ । ११ । १२४ाच मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽनिर्मितसंवत्सरो नवति स च प्रमाणेन त्रीणि शता (तातीसणमित्यादि)ता इति पूर्ववत् त्रिंशमात्रिदिनानि (३०) नि अह्रां ध्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागा दिव रात्रिंदिवाण ऋतुमास पाण्यात इति वदेत । तथाहि ऋसस्य ३०३।१४। ६५ । तदेवं त्रयाणां चन्छसंवत्सराणं तुमासयुगे एकषष्टिस्ततो युगसत्कानां त्रिंशदधिकानामहोराद्वयोवाजिवतिसंवत्सरयोरेकीकरणे जातानि दिनानां त्राणामेकषष्टया भागो न्हियते बन्धाः त्रिंशदहोरात्राः (३०) त्रिंशत्रुत्तराणि अष्टादश शतानि अहोरात्राणाम् १८३० रुतु (तासेणमित्यादि) मुहूर्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् भगवानाह मासच त्रिंशताहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता नागहारे बन्धा एक "ता नव मुहत्तसयाई" इत्यादि । नव मुहर्त्तशतानि मुहषष्टिःऋतुमासा इति । स०६१ स०। ग्रेिणाख्यात इति वदेत् । तथाहि त्रिंशकात्रिंदिनानि ऋतु मासपरिमाणमेकैकस्मिश्च रात्रिंदिवे त्रिंशन्मुहर्तास्ततः त्रिंशउनय-ऋतुज-त्रि०कालोचिते,"नयपिममनिहारिसगंधिपसु" त्रिशता गुण्यते नव शतानि भवन्तीति । ( ता एएसिणामप्रश्न ५ द्वा। त्यादि) प्राम्वद्भावनीयम् । चं०१२ पा०॥ ननमच्चि-ऋतुझदमी-स्त्री-ऋतुसंपदि, ज्ञा० ए अ०। नउमुह-ऋतुसुख-त्रि ऋतौ कालविशेषे सुखः सुखहेतुःउनमच्छिसमत्थजायसोह-शतसदमीसमस्तजातशोज- ऋतुसुखः। कालोचितसुखप्रदे, "उनसुहसिवायसमणुवत्रिशतुबदम्येव सर्व ककुसुमसंपदा समस्ता सर्वा सम- केण"झतौ काविशेषे सुखा सुखहेतुः ऋतुसुखा शिवा निस्तस्य वा जाता शोभा यस्य स तथा । सर्वर्तुषु कुसुमस- रुपया गया आतपवारणबकणा तया समनुबकमनवच्छिन्नं म्पदा सामस्त्येन शोभमाने, "उनसच्चिसमत्थजाय सोहोप ___ यत्तत्तथा । तेन बत्रेण । औ०। इट्टगंधधूयाभिरामो' का० ९०। ऋतुशुन-पुं० कालोचित्ते, प्रश्न हा॥ उजवास-ऋतुवर्ष-पुं-६० स० । ऋतुबहकालवर्षाकालयोः, ऊंच-च-न० उच्यते अल्पाल्पतया गृह्यते श्त्युचःगजक्त"उनवासे पणगचउमासे” प्रव० ७० द्वा। - पानादौ, स्याग। जुगुप्सनीये भैक्ये, सूत्र० श्रु० ३अ०। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंजीविया अभिधानराजेन्डः। उक्काप तनिकेपो तथा "अम्मा बंचं विहं, दव्ये भावे य होश ना- मित्यन्ये । का० १० अ० "उकं च णं बजातिणा" वसतेन्धिायव्वं । दव्वुरणेगविहं योगरिसीणं मुणेयव्वं" व्या द्वि०१० दिना कचवरनिष्काशनमिति संभाव्यते । निचू०५०। १०। (एतव्याख्या श्रमायउंग्अनिग्गह शब्द) गमवा-उरण-उत्कन्छन-न० दएमकोपरिकम्बीनां बन्धनरूपे वसभम् । अल्पाल्पगृहीते भैदये, प्र०१द्वा० । अज्ञातपिएमोञ्चसू- | तिपरिकर्मणि, ग.१ अधिक। धकत्वादेतत्पदस्य" समिति छुमपुष्पिकाऽध्ययने,द०१अनकंग-उत्कएग-स्त्री."अणनो व्यञ्जनो"।१।२५। जंछजीविया-नजीविका-स्त्री० एषणायाम्, स्था० ग. | इत्यनेन णकारस्यानुस्वारोवा । प्रा। वर्गेऽन्त्यो वा ॥१॥३०॥ जंछजीवियासंपन-नन्छजीविकासम्पन्न-त्रि० एषणानिरते, | इत्यनेनानुस्वारस्य णकारो वा।प्रा० । श्ष्टनानाय कामासहनस्था०४ग। रूपे औत्सुक्ये, २ वाच। जंछवित्त-जवत्ति-त्रि०कणश आदानरूपण बछेन जी उक्रांपिय-उत्कम्पित-त्रि० चञ्चत्रीकृते, कल्प। विकावति, तत्पुत्रो नारदस्तेषामुञ्चवृत्त्या च भोजनम् । तद-उकंबण-उत्कम्बन-न० दएमकोपरि कम्बीनां बन्धनरूपे यसप्येकान्तरं ते चाऽशोकाधो नारदं सुतम् । आ० ० । आव० । तिपरिकर्मशि, वृ०१ 101 ग । नि००। जंजण-नजन-न० उत्सेचने, “ण जिजा ण घाट्टज्जा, णो उकंबिय-उत्कम्बित-त्रिवंशादिकम्बानिरवबके,आचा०१श्रुग णं णिवावए मुणी" द०००। नकच्छिया-औपकच्छिकी-स्त्री०कक्कायाः समपिमुपकतं तत्र जंजायण-नञ्जायन-पुं० वाशिष्ठगोत्रे ऋषिनेदे, तत्प्रवर्तिते- भवा औपकक्विकी। अध्यात्मादित्वादिका प्रत्ययः । साल्युगोत्रजे च । स्था० ७ ग०। पकरणभेदे, वृ०३ स. । साप्येवंविधा स्यूता समचतुजंडिया-नकिका-स्त्री० अनिनषनगरादेर्निवेश्यमानस्य योग- रना सार्कहस्तमाना चतुरानागं दक्विणपाच पृष्टं चाच्याबभूमियोग्यनार्थायामकरसहितमुखायाम, वृ० १००। यति । वामस्कन्धे बामपावं च वीटकप्रतिबका परिधीयते । चंडी-उएकी-स्त्री० पिएड्याम, झा० ३ अ० । वृ० । यमुक्तम् "गए ३ अणुकुश्य उरोरूहे कंचुओ असीवियो । पमेव य नक्कच्छिा सा नवरं वाहिणे पासे त्तिाध०३अधि। जंडेरिय-नएमेरिक-न तिकुट्टिकया अर्चनीये स्वादिमभेदे, वेगक्रिया उपज्जे कंबुकमुत्कट्टियं च गदोत।संघाममोउचउरो यदीप्सितं लप्स्यामहे तदा तोमेरकादि दास्यामः । स्था०४ तत्थ दुहत्थान वसधीयत्ति । वृ०३ १०। ग० प्रा०म०६०। नक्कट्ठि-नत्कृष्टतम-अध्य० उत्कर्षवशेनेत्यर्थे, सू०प्र०१९ पा० जंपुर-(रू) उन्दर (रू) पुं०-स्त्री अन्द उरु मूषके, नक्कड-उत्कट-त्रि० प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनि, प्रश्न १ वाण । तीये, प्रा०म०प्र० । संपुरो वा लालं सुत्तमुक्कं वा मुंबज्जो । आचा० । उहते, कल्प० । प्रचुरे, आव० ५ प्राकमुषत्वे, नि० चू० ११ १०। व्य०२ खं०५०।उक्कमफुमकुमिन जमुखकक्खमवियम्फमा संपुरक-उन्दुरक-म० देवतादि पुरतो वृषभगर्जितादिकरणे, मोयकरणदच्छ । उत्कटो बनवतान्येनाध्वंसनीयत्वात् स्फुटो ग०२ अधि। व्यक्तप्रयत्नविहितत्वात् कुटिलो वस्तत्स्वरूपत्वाजटिलः स्कबंदर (रू) माला-नन्दुर (रू) माला-स्त्री० मूषकनजि, म्धदेशे केसरिणामिवाहीनां केसरसद्भावात् कर्कशो मिष्तुरोउपा०१०। बनवत्वात् विकटो विस्तीर्णो यः स्फटाटोपः फणासंरम्भ: जंदुरमालापारणकमुकयचिएह-जन्दरमालापरिणछसुकृतचि तत्करणे दको यः स तथा तम् । न०१५ २०१०।रक्तेको, है-त्रि० नन्पुरमालया मूषकस्रजा परिणकं परिणतं सुकृतं सुष्टु शरे च । पुं० विषमे, त्रि० सेंहीतायां च स्त्री० । वाच । रचितं चिह्न स्वकीयमानं येन तत्तथा तास्मन् ।चपा०१अण नकडगंधविवित्त-उत्कटगन्धविज्ञप्त-त्रि तीवपुर्गन्धव्याप्ते, नं० उंचर-लम्बर-पुं० उमित्यव्यक्तशब्दं वृणाति वृ० अन्न-वारो- नकत्त नत्कृत्त-ति० शरीराहरी कृतचर्मणि, "कप्पिो फाखि चंकाष्ठे, वाच० । देहल्याम, २ आ० म० द्वि । आव० ।। ____ओ निमो उक्त्तो य अगसो" उत्त० १६०। गन्धर्वभद च वाच।। नक्कडुग-नुत्कर्तक-पुं० चौरजेदे, ये गेहाद ग्रहणं निष्काशयन्ति नंज-नम्न-धा-स्वा-प. पूरणे, प्रा० महि।विशे०। । प्रश्न ३द्वा०। मकुक्कर-नत् स्था-धा० ( उठना ) स्थित्थाधारादूर्ध्वपतने सद | | जकत्ति-मुत्कर्तित--त्रि० धूतादित्वात् र्तनागस्य नमः। एकुकरी जवा१७ इति उत्पूर्वस्य स्थाधातोः कुक्कर इत्यादेशः।। उच्चिन्ने, प्रा० । नकुकर नत्तिष्ठति । प्रा०। नक्कप्प-नुत्कल्प-पुं० ऊर्व कल्प उत्कल्पः समैषणोत्पादनाउक्क-नत्क-त्रि० उद्गतं मनोऽस्य उद् नि कण्वाच० उत्क- शुद्धसमाचारे, । पं. भा। "उक्कप्पो उ दाणे, नकं कप्पादि गिरते," अपक्कसाई अप्पिच्छे अमाएसी अलोलुए" उत्त। होति प्रोकप्पो । अहवा विधिमकप्पो, उक्कप्पो प्रहनकंचण-उत्कश्चन-न० शूखाद्यारोपणार्थमूलकुञ्चने, सूत्र०५ वण अवेत्तो ॥ उग्गमनप्पायणए-सणेसुणिक्खो कंदमुनफले श्रु०५अकाउत्कोचायां च ।दशा०अ० ।तच हीनगुणस्य गिहिये पावमियासु य,प्रोकप्पं तं वियाणाहि॥णामणिथंभणि गुणोत्कर्षप्रतिपादनम् । हा०२० । दीनानूर्व दण्डयतः लेसणि, वेताली चेव अस्वेताली । आदाणपाउणेसु य, अ भ०११ २०११ ०। मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविद- एडेसु य एवमादीसुतसागिदियमुण-संसझमच्छणाम ग्धरकणाकणकणमव्यापारतयाऽवस्थानम् । उपा०१०। भियोगेारोदार थन्वण तहवंत, दमयन य अगिणस्स । णाऔ० । मूर्ख प्रति तत्प्रतिरूपदानादिकमसद्व्यवहारं कर्तु माणिरुक्षफलाएं, परिमाणं देउमाणथूभादि । थंभणिपदम प्रवृत्तस्य पार्श्ववर्तिविचकणमयात कणे पत्तदकरणमुत्कुश्चन मिण चमति, सणि सेचि अंगाएं । विहिट्ठाण य आणणि Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१६). नक्कम अभिधानराजेन्द्रः । उकारियानेय अहव णिमुक्कावणम्मि बेताली । उट्ठाऊण णिवातो, तक्ख-| बिका तत्समवायविशेषः । स्था० ३ मा० उत्कएगयाम, का णए सुरुवेताली । गम्भाणं आदाणं, करोत तह सामणं च मादिजातायां स्मृती, कोरके, हेसायां च । हेम। गन्नाणं । भनियोगवसीकरणे, विज्जा जोगादिहिं कुणति । नवनियावाय-नत्कानकावात-पुं० वायुकायावशेष, स्थित्वा विजिगमगिभमरे, मंजुक्के मच्छप तहा पक्खी । सम्मुच्ग ___ स्थित्वोत्कलिकानियों चाति स तत्कालिकावातः । आचा०१ वेमादी, जो जोणी पाहुमेणं च । पसुउद्दवियं जागं, पाहव्व शु०१०७० उत्कलिकाभिः प्रचुरतरानिः सम्मिश्रीणं संतरोद्दकम्मेयं । कोहादिवंनदमो, यंभणिअगाणिस्समंतेणं पमादि अकराणज्ज, निकारणे जे करीत तू जिक्खू। सव्वो सो यो वातः स सत्कलिकावातः। जोवा०९प्रतिसत्त०॥ उक्कापो,, दारं पं० ना०। पं० चू०॥ उकस-उत्कर्ष-पुं० उत्कृष्यते भात्मा दर्पामातो विधीयतेऽनेउक्कम-उत्क्रम-पुं० नत-कम-घञ्-प्रवृतिः। पश्चादानुपूर्वी नेत्युत्कर्षः। माने, "कसं जनणं मान मज्जन्यच विगिचए" जवने, वि०७०। विशे। उत्क्रान्तौ ऊर्ध्वगती चा वाचा सूत्र०१ श्रु०३ अानावे घञ् । प्राशस्त्ये, अतिशये, उत्कर्षा विते, उत्पाटयकर्षणे, उकरणे, वाच । नक्कमंत-नक्रममाण-त्रि कच कामात,"उक्कमंतेसु पाणसु" जकसण-उत्कर्षण-नम्नत्क्रमणे, निवर्तने, सदगतेण प्रेरणमुक श्रा० म०प्र०। सणम् । नि० चू०१० उ०। गर्वकरणे, सूत्र १ श्रु०१३१०। नक्कमबोधिज्जमाणबंधोदया-उत्क्रमव्युच्छिद्यमानबन्धोदया | उकस्स-उत्कर्षवत-त्रि० भष्टमदस्थानानामन्यतमेनोत्सकं कुर्वस्त्री० उत्क्रमेण पूर्वमुदयः पश्चाद्वन्ध श्त्येवं वकणेन व्यवच्चि ति, सूत्र.१७०१०। द्यमानी बन्धोदयौ यासां ता उत्क्रमब्यवच्चिद्यमानधन्धोदयाः। उकस्समाण-अपक()सत्-त्रि-हसति, स्था०५ ठा०। बन्धव्यवच्छित्तिपूर्वकोदबव्यवच्छित्तिमतीषु प्रकृतिषु,पं० सं० उक्कस्समाणी-अपक( सन्ती-स्त्री०पकपनको परिम्हसत्याम, नकमसेली-नत्क्रमशैली- स्त्री० विपरीतपरिभाषायाम, ७० शिमगथे शिगंथी सेसंसिवा पंकसि वा पणगंसि वा उदगंसि उकमित्त-उपक्रान्त-त्रि० उपक्रमकारणैरुपान्ते की, "अ-| वा उकस्समाधि वा । स्था० ५ ग०। वृ०। हवा उक्कमित्तेभवंतिए" सूत्र० १ श्रु० अ० । नक्कसावंत-उत्कर्षयत्-त्रि० उत्क्रामयति, स्थानान्तरं नयति उकर-उत्कर-पुं० समूहे, कटप० । संघाते, आव०४०। णावं कसाव सावंतं वा साइज कसावेश स्थल उन्मुक्तकरे, करस्तु गवादीन् प्रतिवर्ष राजदेयं व्यम् । भ० स्थाअले कारयात जलस्थानस्थले कारयति । नि०५०१०१० ११ श०११ २०। झा०। । नक्का-उल्का-स्त्री० उष् दादे, क नि षस्य सः । सर्वत्र सघराउक्करम-उत्करट- पुं० करटस्य सहाऽभ्यायिनि, आ. म. मचन्छे एति लुक । प्रा०। "अनादौ शेषादद्वि०। (तत्कथा वरकरण शद्धे)। शयोर्फित्वम् । ०२८ए। इत्यनेन ककारस्य द्वित्वम् । प्रा०। उकरिजमाण-उत्कीर्यमाण-त्रि० रिकादिनिरुत्करिकया- चुकुख्याम, जी०१ प्रति।सा च सरेखा प्रकाशयुक्ता चल्का निद्यमाने, आ० म०प्र०। व्य०वि०८०प्रव० । आव०। प्रशा० । नं० । उपरि नक्कयानेय-उत्करिकानेद-पुं० एरएमवीजानामिव वीजनेदे प्रकाशमधस्तादन्धकार ईक शिमलो दिग्दाह सहका भ०५ श०४३०। श्रा० चू०नि००। “नक्कामइसरारेहा पगासकारिणी य अहवा रेडा । विरहितो विष्फुलिंगो, पहासकरो" प्रा०० जकरिस-उत्कर्ष-पुं० उत्कर्षणे, उत्सेके, "अतसमुक्करिसत्य" पानिपततो ज्योतिः पिएमस्य रेस्त्रायुक्तस्योस्केत्याख्या। सूत्र०१६०२०१०। प्रो०।ये मुखाग्नितो वित्रुट्य वित्रुट्याग्निकणा: प्रसर्पन्ति ते उक्कल-उत्कट-त्रि० प्रकृष्टे, स्था०५ग उल्का नच्यन्ते । जी०३प्रति । उल्का गगनाम्निः । दश० उत्कल-त्रि० वृष्मिति,। अ०।उस्का अग्निपिएमः । स्था०००ा उद्योतो जमापंच उकसा पहात्ता तंजहा दमुक्कले रज्जुक्कले तणुकने वप्रतिष्ठितो गगनतलवी दिग्दाह इति प्रसिक उस्का स्था० देसुक्कले सत्तुकले। आव० उत्त० । शुष्कतृणवस्त्रादिवेष्टिते (मशाल इति प्रसिके) दीपभेदे, ज्यातिषाक्ते नाकत्रिकदशाभेदे च । वाच। उत्कटा उत्कला वा तत्र दाम आज्ञापराधिदएमनं था उकामह-उस्कामुख-पुं० अश्वकर्णनाम्नो ऽन्तीपस्य पूर्वोसैन्यं वा उत्कटः । प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो यः स दएमो त्तरस्यां विदिशि अष्टौ योजनशतानि अतिक्रम्याष्टयोजनशस्कटो दएमेन वोत्कति वृकिं याति यः स दएमोत्कल तायामविष्कम्भे एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतश्त्येवं सर्वत्र । नवरं राज्यं प्रनुता स्तेनाश्चौरा देशो मएमबं परिक्केपे पावरवेदिकावनखएममएिमतपरिसरे जम्बूद्वीपसर्वमेतत्समुदयति । स्था०५ गा वेदिकातोऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरे अन्तरद्वीपे, तास्तव्ये औत्कल-उत्कनाऽनिजनोऽस्य अण् श्रौत्करः । तद्देशानां मनुष्ये च । स्था०२ ग० । ( अंतरदीप शब्द वर्णक उक्तः) राजनि, वाच० फाल्गुमत्या भ्रातरि कसिङ्गस्य सहोदरे पल्ली उल्केच मुखमस्य । प्रेतभेदे, जन्तुभेदे, स्त्री०डी वाच । वास्तव्ये, आचा०२ श्व०२१०११३० (सञ्जानिकेपेकथा) | उकारियाजेय-उत्कारिकाजेद-पु० एरएमबीजानामिव पुत्रनक्कासिम-लत्कालिकाएम-न० लूतापुटाए अएमसी,कल्प. नेदे, स्वरूपं च॥ नकन्निा -नत्कालिका-स्त्री० लघुतरे समुदाये, औलाज। सेकिंत उकारियानेदे जाणमसयाण वा तिन्झसिंगाण श्रीन्जियजीवनेदे, (लूतेति संभाव्यते) प्रज्ञा० १ पद । जी। वा मंडूसाण वा मुग्गसिंगाण गा माणसिंगाण वा एरंका० । बहरी, देवोत्कलिकादेव बहरिः ति बहरिपरत्वेन स्वीयाण वा फुमिया उक्करियाए जवति सेत्तं जकारितरकनिकाशब्दस्थ व्याख्यानात स्था०४ग। अन्यत्र देवोत्क। यानदे। प्रज्ञा० ११ पद । स्था० । यानमाण वा फुमियासिंगाण ना माण वा तिमसिंगाण Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१७ ) अनिधानराजेन्द्रः । उकालिय उकालिय- उत्कालिक - ० कालात्पयत इत्युत्कालिकम् । दशयेका सिकादीनि स्था० कालवेला (पञ्चविवस्वान्यायिक) मात्रवर्ण्यशेषकाला नियमेन पठ्यमाने श्रुतविशेषे, अनु० पा० । " जं पुण कालवेलावजं पढिज्जर तं उकालियंति नं० ।” सेर्कितं कामिकामियं अणेगविंद पहाचा जहा दसवेयाक्षियं कप्पिया कप्पियं चुलकप्पसूयं महाकप्पसूर्य उक्वाइयं रायपसेणियं जीवाजिगमो पठारणा महाप-तांतर बधा पमायप्पमार्थ नंदी योगदाराई देविंदत्यमो तंदुअवेयामियं चंदाविज्जयं सूरपछाति पोरिसिमंम naraसो विज्जाचरण विनिच्छिओ गणिविज्जा का विवत्ती मरणविवती आवविसोही विवरागसूर्य संसेहशायं विहारकप्पो चरण विदी आहरपचवखाणं महापचक्खाणं एवमाइ सेतं उकालियं । नं० । पा० । अनु० आ० म० द्वि० । 1 ठक्कावाय - उल्कापात-पुं० ६ त० । स्का आकाशजातस्यापात चल्कापातः । स्था० । व्योम्नि सम्मूर्च्छितज्वलनपतनरूपे लोकप्रसिके सादिपारिणामिकेऽर्थे, अनु० जी० । सरेने सोद्योते या तारकस्यैव पाते, २०३०६४०ापातादिदोषा वायव्यादिषु प्रयन्त शखानि पानिधायिनो भवन्ति । सूत्र० २ ० २ ० । उक्कास - उत्कास - पुं० अभिमानात्स्वकी यसमृद्ध्यादेः प्रकाशनरूपे मोहनीय कर्मभेदे, न० १२ श० ५ ० । उक्कासहस्स - उल्कासहस्र - न० अग्निपिएम सह से, स्पाण्णा । कि ( क ) ट्ठ उत्कृष्ट--- त्रि० कृषि विलेखने इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूपम् । उत्-कृष-तदश १ ० । इत्कृपादी १२० इति त्वम प्रा० आयें तु"दासं । ऋत । । श्रार्षे घरमुति " प्राकृतरीच्या उत्कृष्ट १०० प्रधाने “धम्मो मखा संजमो तयो" दा० १० भ० । प्रशस्ते, जी ० ३ प्रति० । प्रव० । कर्षणयुक्त क्षेत्रादौ च । घाच० | सन्मुक्तकृष्टे, कृष्टं कर्षणं सज्यग्रहणायाः कर्षणम् जं० ३ चक्क० | उत्कर्षवति, वि० ३ श्र० । हर्षवशाज्जायमाने उत्कर्षे, आ० म० प्र० । कल्प० । गेरुयवसिय से ढिय, सोरट्टि fugeese r । मसंस, संसठे वेव बोधव्वे " दशब्देनापपादन] क्ष्णखानि भष्यन्ते । दश० १ अ० । - उडिनाग - उत्कृष्टवर्णक-पुं० प्रधानचन्दनके, चकिया गोपरि, समयसरणविरूपरस "पंचा० २ विष० । उकिडसं किलेस - उत्कृष्टसंक्लेश-पुं० इह सर्वोत्कृष्टस्थितिजनकानि चरमपनि दशितानि यानि स्थिति बन्धाध्यबसावस्थानानि तेषां मध्ये यश्चरममभ्यवसाय स्थानं तदुत्कृष्टसवेश उच्यते । अथवा चरम स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानमुत्कृष्टसं उयते इति परिभाषिते, कर्म० । फिसरी र उत्कृष्टशरीर त्रिपरी "कि afgसरीरे नविस्सर " वि० ७ भ० आ० म० । किडाडत्कृष्ट श्री० प्रशस्तायां गतः जी० ३ प्रति मनो रायां गतौ, कल्प० ।" उक्किठाए तुरियाए चंकाए चवलाप, जयfre der दिव्वाण देवगण " राय० । लकुडुग अकिट्टि उत्कृष्ट स्त्री० हर्षविशेषप्रेरिते ध्वनिविशेषे भा० - म० द्वि० । श्रानन्दमहाध्वनौ, औ० । वि० । धकारपूर्वके कलकले, अत्र प्रायश्चित्तेन शुद्धि जीत उक्किठा - उत्कीर्ण - त्रि० चत् कृ क- नष्टे, श्रा० चू० १ अ० । श्र तीच व्यके, प्रज्ञा० शिलादिषु सत्ककृते नामकादिरूपे पदभेदे, दश० २ अ० । उद-कृ- कर्तरिश उम्लिखिते, कृतयेथे सर्ध्वक्विप्ते लिखिते च । वाच० । श्रतीव उत्कीर्णन्तर- वि०६० अतीच व्यान्तरे, प्रज्ञा० । जी० to | वक्किणंतर विश्वलगंभीरखायफलिदा ( भसुरकुमारावासाः) की मनमुत्की पानी रूपं कृतमन्तरा ययो उत्तरेत गम्भीरे बापरिखे येषां तानीर्णान्तर विपुल गम्भीर खातमध उपरि च समम्परिखा उपरि विशाला अधः संकुचिता तयोरन्तरेषु पाली अस्तीति भावः । स० । उत्तण- उत्कीर्तन- - न० उत्कृत् ल्युट् संशब्दने, विशे० । भा व० । आ० म० द्वि० । व्य० । अनु० । नत्त्वा जिनं प्रवक्ष्यामि पोत्कीर्त्तनं मुदा०रू०| देवनामादेरुचैः कीर्तने च । वाच० उत्तणाची उत्कीर्चनानुपूर्वी० उत्कीर्तन सं मनिघानोच्चारणं तस्यानुपूर्वी अनुपरिपाटिः । मानुपूर्वीभेदे अनु० ॥ उजिय-उत्कीर्तितत्रि० कथिते ०२ पाहु । किरिमाण उत्कीर्यमाण ० रिकादिनित्कारिकया भिद्यमाने ० १ ० फोटुपुमाण वा करिज्माणा ण व विक्करिज्जमाषाण वा । आ० म० प्र० । जी० ॥ उकीरमाण- उत्कीरत्-वि० बेचनकेन विकिरति, बेखम्यादिना मृष्टं कुर्वाणे, तं च केश नक्कीरमाणं पासिता वपज्जा कि जब नक्कीरसि, अनु० | कर्म० ॥ - कूज् क उजिय-उत्कृजित १०० नावे परि मिति करणे, वरित्ति करणं कुज्जियं । नि० ० | कर्तरि कः कृताव्यक्तमहाभ्वनौ, प्रश्न० १ द्वा० ॥ उत्कुब्ज्य - श्रव्य० ऊर्ध्वं कायमुन्नम्य ततः कुन्जीनूयेत्यर्थे, "असंजय भिक्खू परियाए कुजिया श्रावतकुजिया" घाचा० २ ० १ ० ७ ० 1 उक्कुट्ट - उत्कुष्ट - न० पीलुपर्णिकादेरुदूखल्ल चूर्णिते आईपर्ण . आचा० २ ० १ अ० ६४० । सचित्तवणस्स ३ बुझा ठक्कुठो भए‍ । नि० चू० ४ उ०। ठकुट्टो णाम सचित्तवणस्स पतला या सेति नि० पू० १० । । उक्कुलग उत्कुटुक १० ययास्थानमनवस्थिते, जे०२०। यथास्थानमनिविटे, प्र० ७ ० ६ ० । आसने, पुतालगने झा० १ ० । भूमावन्यस्तपततयोपविष्टे, प्रव० ६७ द्वा० पंचा० । “आगम्मुकुक्कुरुओ संतो पुच्डेजा यंजलिको " गुरोः समीपमागत्य उत्कुटकोन्मुक्तासनः कारणतः पादपुचनादिस्थः सन् शान्तो वा । उत्त० १ अ० । ० म० । यथा कुकु किया पादं पसारी तु बहुं चैव । ऊटिति एवं साहु जाहे परिततो ताहे भूमि अच्छितो पसारेति बहुं वा उट्ठेतं संथारपहर ग्वेति । श्र० चू० ४ ० । “ठक्कमे वा जाव पलाले वा तस्स लाभे संवसेज्जा तस्स श्रमाने उक्कुरुप वाणे सज्जिए व विहरेज्जा बड्डा उग्गहपरिमा" आचा० २३० २ ० १ ० जन प्रतिपचः पुनर्नियमानुकः । पृ० १४० । Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) उकुडया अभिधानराजेन्डः । नक्खा नक्कुसुया-नत्कुटुका-स्त्री०आसनासम्नपुतः पादाज्यामवस्थितः र्षक:"उत्कृष्ट, तताणं च उत्तमकरूपत्ते उसए अट्ठारसमुउत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटुका । निषद्यानेदे, स्था० ५ ग० हस्ते दिवस भव'चंड १ पाहु। सु०प्र० । आव०। प्रा० म०वि०। नक्कोसहिश्य-उत्कर्षस्थितिक-पुं० उत्कर्षा उत्कर्षवत्संख्याउक्कुमुयासण-नत्कुटुकासन-न०पीगदौपुतानगनेनोपवेशने, समयापेकया स्थितियेषां त तथा । तेषामसंख्यातसमयस्या० ५ ग० वृ०। स्थितिकानामित्यर्थः । तेषु, स्था० ११ गा नक्कुसुयासणिय-उत्कुटुकासनिक-पुं० उत्कुटुकासनं पीगदौ उक्कोसपएसिय-उत्कर्षपदेशिक-पुं० उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः उत्कपुतालगनेनोपवेशनरूपमाभग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटुका पवन्तः उत्कृष्टसंख्याः परमाताः प्रदेशा अणवस्ते सन्ति सनिक मत्कुटुकासनेनैवोपविशामीत्यभिग्रहधारिणि साधी येषान्त उत्कर्षप्रदेशिकाः । तेषु, स्था०१ ग०। सत्कुटुकासनिकत्वमन्यनुज्ञातं तीर्थकृता कायतशाख्यतपो- उकासपद-स्कृष्टपद-नसत्कृष्टत्वे, "कासपदे अट्ट अरिभेदे एषः । स्था५ ग०। हंता" उत्कृष्टतोऽष्टावर्हन्तो भवन्ति स्था०ग। जक्कुरुम-उत्कुरुट-पुं० श्षकाकाष्ठादिराशिम्पेर्थे कचवरपुजे | उक्कोसमयपत्त-उत्कर्षमदमास-त्रि० उत्कर्षेण मदं प्राप्त नत्क"जिमी पखवाया तणपुंजपलानगुम्मनक्कुरमे " वृ० १ जवान बमदप्राप्तः । उत्कर्षतो मत्ते, जी. ३ प्रतिः। नामा० म० द्वि०। उक्कोसिय-नत्कौशिक-पुं० गोत्रविशेषप्रवर्तके ऋषिभेदे, जक्कुस-गम-धा० गती, न्वादि." गमेर अच्छाणु वजाव ___“थेरस्स एं अजमश्रसेणस्स बकोसियगोतस्स" कल्प। सज्जोक्कसे०७।४।६१ इति सूत्रेण गमधातोरुक्सादेशः नकोसिया-उत्कर्षिका-स्त्री० उकर्षवत्याम्, पञ्चा०० क्वि०। उकसर गच्छति । प्रा। उत्कृष्टायाम, सू० प्र० १ पाहु । नकर-उत्केर-पुं० उप्पको उप्पीलो सकेरो पहयरोगणो पयरो जक्ख-उद-पुं० सम्बन्धे, नं0 । प्रा० म०प्र० । परिधानवस्त्र प्रा० को। उत्पीमने, उत्कारिकानेदेन लिने, “दुवंभिसमा स्यैकदेशे, आह चनिशीथचूर्णिकृत् । परिधानवत्यस्स अम्भिरोहे भेप उक्कारिया य उकेरे" सूत्र०१०१००० तरचुसाए उपरिकोणाभिहेका सक्खो भणइ एस संयतीनां उक्कोमलंग-नरकोटलङ्ग-पुं० खोटभङ्गशब्दाये,"खोमभंगो त्ति जवति वृ०१० । नि० चू। अवसेक्तरि, सिक्ते,वाच । घा एग" व्य. प्र.१०। नक्ख ( खा) अ-उत्खात-न. उत्-खन् क्त. आत्वम् । वा उक्कोमा-नत्कोटा-स्त्री० उत्कोचायां सञ्चायाम, औप० झा। यज्योत्खातादावातः ८।१।६७ इत्यनेनादेरफारस्यात्ववि"उकोमाहि य पराजयहि य दिजोह य' वि०१०। कस्पः । ऊर्ध्वमवदीर्णे, प्रा०! उकोमानंचणपसमग्गणपरायण-उत्कोटामचनपामार्ग- उखन-उत्तम्न-पु० मत-स्तम्न-घ उत्प्रावल्पेन स्तम्भने.संथा.। णपरायण-त्रिनुत्कोटाअञ्चयोद्रव्यबहुत्वतरत्वादिभिर्लोक उक्खंनिय-उत्तम्निक-त्रि उत् प्रावल्येन स्तम्भनमुत्तम्लः प्रतीतनदयोः पाश्र्वात् गुप्तिगतनरसमीपादुन्मार्गणं याचनं उत्तम्न एव मुत्तम्निकः स्वार्थे इकण प्रत्ययः। अवष्टम्भनके; तत्परायगस्तनिष्ठाः । चौर्यविशेषतत्परेषु, (" उक्कोमाझंचण- प्रतिस्तम्नवहकादी, उत्सम्यते स्थिरीक्रियते जीयो मुक्तिपास मग्गणपरायणेह मोम्मिगन हिं" प्रभ०३ छा० । कारणेषु यनोत पर्यन्ताराधने, “भणकरिसस्सनपिओसंधारो उकोमिय-उत्कोटिक-त्रि० उत्कोटा उत्कोचा सञ्चेत्यर्थः। तया केरिसे वो गासे” संथा। य व्यवहारन्ति श्रौत्कोटिकाः । सञ्चया ऽसव्यवहारिषु, उक्खममा-दशी-पुनः पुनः शब्दार्थे, उक्तं "चलखम्मत्ति औ०। झा। वा तुज्जो नुज्जोत्तिवा पुणो पुणोत्ति वा एगटुं" व्य० दि०१० नक्कोया-नुत्कोचा-स्त्री० मचायाम, मूर्ख प्रति तत्प्रतिरूप उक्रवणण-उत्खनन-न उत्पाटने, प्रश्न० १ द्वा० । दानादिकमसव्यवहारं कर्तुं प्रवृत्तस्य पाइर्ववर्तिविचकण उक्खणिकण-जतलाय-अन्य० उत्खन-व्यप् उत्पाट्येत्यर्थे, जयात् विचरण यसदकरणम् । शा० १० अ० । __ अप्पणो अच्छी जलीय उपखपिकण सिवगस्स लापति" उस्कोस-उत्कर्ष-पुं० उत्कृप्यत इत्युत्कर्षः । उत्कृष्टे, "एसा खमु | नि० चू० १००। गुरुजत्ती उक्कोसो एस वा ण धम्मो उ" पञ्चा विव० । चं० नक्खनंपिय-उत्खय॑-अव्य० कएलयनं कृत्वेत्त्यर्थे, प्राचा. प्रव० । गुणाभिमाने, स्था०४०। सूत्र आत्मनः परस्य २श्रु० १ ० ६००। वा मानास्क्रियोत्कृष्टताकरणे, ज०१२ श०५० तत्स्वरूपे मोहनीयकमर्णि, । स. ५२ साप्रकर्षे, तद्योगात्कर्पतीति उक्खाग-नदुखा-न० (ओखनी) इति प्रसिके कएमनोवा व्युत्पत्तः । उत्कृष्टे, " तो वियमदत्सीओ पझिगाहित्तए पकारिणि गृहोपकरणे," को संयमो चमेहाए सुथ्युक्स मंग तंजड़ा उभोसा मन्किमा जहमा" स्था० ३ ठग च स्वारं गावणं च" सुत्र०११० ४ अ० । उत्कृष्ट-त्रिक नातू कष् क्त क्तेमाप्फुसादयः । ४ । ५६ | उक्खनिया-उत्वान्नका-स्त्रा० स्यात्याम, उषखालया थाना जा रति उत्पूर्वस्य कृष् धातोःक्तसहितस्य सकोसादेशः। उत्कर्ष- | साधुणिमित्तं सा अहाकस्मिया" नि००१०। बति, प्रा। नक्सवितु-उदिप्य-अव्य-उत किए ल्यप् उक्षिप्त्वेत्यर्थे, तं उत्क्रोश-पुं० कुररे, प्रभा द्वारा उचैःऋन्दिनि, त्रिशतत | लक्खवित्तु न णिवखवे आसम्मउन्डए" दश० ५ ० । चतुराम् उत्करा उत्क्रोशीयः तत्सन्निहिते देशादौ, वाच. नक्खा-खा-स्त्री० स्वाट्याम, पिम० एगाओ क्वातो पनक्कोसंत-नक्रोशत्-त्रि० क्रन्दात, प्रश्न १ द्वा।। रिए सिजमाणे पहाए एकस्मात्पिनरकातू गृहीत्वा कुरादिउकोमग-उत्कर्षक-पुंग उत्कर्षतीत्युत्कर्षः । उत्कर्ष एवोत्क- । कम् आचा.२६०१ अ०१न। Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खित अभिधानराजेन्द्रः । नग्गगंध नवित-उकित-त्रि सिक्ते, "चंदणोषिखत्तगाय सरीरे" सूत्र. पमाणेहि ) प्रकीर्षिकैरुरिकप्पमाणरित्यर्थः । प्रश्न ७४ द्वा०। २७० २ अ उक्खिवंत-उत्क्षिपत-त्रि० सत् किम्-शत- । विपर्गुलु उत्क्षिप्त त्रित क्लिप-क्त कर्धमाकाशे किले, झा० १० भ०।। गुञ्चात्यंधावत्यं, ।४।४३ इत्यादिसूत्रस्य वेकल्पिकत्वाद जनाद्धृते, झा०१७ अकाउत्पाटिते, आव०१ अप्रथमतः गुझुगुञ्यादयः प्रेरणे, प्रा०। समारज्यमाणे गेयन्नेदे, रा० । जं० । नचाटिते च धुस्तूरे नक्खिवणा-जन्केपणा-स्त्री० उद्घाटनायां साधूनां संघादादः पुं० वाच । करणे, " अस्जिदो य उक्खवणा" वृ०१०। नश्वित्तकपणास-उक्किमकर्णनास-त्रि० ब० उत्पाटितकर्ण। नवम-तुम्-धा० भेदे, तुदा० कुटा०पर. सक. सेट. (तुमेस्तो नासिक, वि० १ अ०। टतुवखुमोक्खुमाल्लुक्कणिझुक्कलुयकोच्छूराः ८।४।१६। इति रक्खित्तचरग-उक्लिप्तचरक-पुं० स्वप्रयोजनाय पाकभाजना- तुमेरुमखुमादेशः नक्खुमस्तुमति प्रा। दुष्प्रतं तदर्थमभिग्रहविशेषाच्चरतितद्गवेषणाय गच्छत्युि- नक्खेव-नक्षेप पुं० उत्-विप-घ उत्पाटने, ओ० कर्तरि अच स्किप्तचरकः । स्था०५गदायकेन पूर्वमेव भाजनाद्धृत । बपकारके, त्रि. चाच. प्रारम्भ वाक्ये, निर । स्य गवेषक, प्रतिग्रहविशेषधारिणि, ध०३ अधि० । जिहा. उपक्रेप-.पोद्घातेः “उक्खेवो तश्यस्स" जपा०९भ. हस्ता चरकनेदे, औप० । पं० व.। मुत्पाटने, ( उक्खेवणं देतिणिवावि उयणाति ) व्य. ३ ल उक्खित्तणाय-उदितकात-न० मेघकुमारजीवेन हस्तिभवे! उक्खेवग--उत्ोपक--त्रि० उद्. जिप एवु ऊर्ध्वप्रकेपे, उरिकवर्तमानेन यः पाद उरिकप्तस्तेनोपबक्तितं मेघकुमारचरितमु. प्याहारके चौरे च । वाचन वंशदादिमये मुष्टिग्राहदामरिकप्तमेवाच्यते । उरिकप्तमेव झातमुदाहरणं विवक्वितार्थसाधनमुक्किप्तहातम् । मेघकुमारचरितरूपे ज्ञाताधर्मकयाया: मध्यभागे, वायूदीरणके वस्तुनि, भए श० ३३ मु०। झार। प्रयमाऽध्ययनोक्ते मेघकुमारचरिते, ज्ञातनावोऽस्येवं नाव प्रश्न नीयोदयादिगुणवन्तः सहन्त एव देहकप्टमुरिकप्तकपादो | उक्खवण-उत्कपण--न० उत्-विप ल्युत् उत्स्वनने, समुहमेघकुमारजीवो हस्ती वेति । एतदर्थाभिधायके ज्ञाताधर्म रणे, सूत्र. २ श्रु०१ अन्यायवैशेषिकप्रसिद्ध पञ्चानां कथायाः प्रयमे ऽध्ययने च । ज्ञा० १ अ० स० प्राव प्रश्न कर्मणामन्यतमस्मिन्, तश्च यदृर्वाधः प्रदेशाज्यां संयोगविउक्वित्तणिक्वित्तचरय-उत्क्षिप्तनिक्तिप्तचरक-पुं० पाकभा. नागकारणं कर्मोत्पद्यते । यथा शरीरावयवे तत्सम्बन्धे वा जनादुरिकप्य निक्किप्तं तत्रवान्यत्र च स्थाने यत्तन्किप्तान-1 मूर्तिमति मुसबादी द्रव्ये ऊर्ध्वभाजिराकाशप्रदेशाद्यैः संयोप्तिम् । अथवा नस्किप्त च निक्किप्तं च यश्चराति स तथोच्यते गकरणमधोदिग्भागावच्छिन्नैश्च तैर्विनागकारणं प्रयत्नवशाअनिग्रह विशेषधारणि निकाचरके, औ० । सूत्र० । द्यत्कर्म तत्केपणमुच्यते । सम्म।। उक्खित्तपसिणवागरण-उक्षिप्तप्रश्नव्याकरण-त्रि विप्ता- | उग्गफणग-उग्गाझफलक-न आर्यकप्रनृतीनांवच्या समानीवारिकप्तानि अविस्तारिरूपाणि प्रच्छनीयत्वात्पदनाच्या- गते चम्पकपट्टादिफाके, व्य.४०। क्रियमाणत्वाच्च व्याकरणानि यानि तानि तथा। संक्तिप्तप्रश्नो-नगाहया-नऊहिता-त्रि० पश्चम्यामनेषणायाम, भाचा०२० सरपु । ज०१६ श०५०। १ अ. १०.उ.। नक्विवत्तपुधवसहि-नदिप्तपूर्ववसति-पुं०क०स० अस्यां जग्ग-उद्-घट-धा. उद् घट चेष्टायाम, णि. उद् घरेहम्गः ॥ वसत यूय मिति साधूनामादौ दर्शितायां वसती, आचा०२ ४ । ३३ । उत्पूर्वस्त्र घटेपर्यन्तस्य उम्ग इत्यादेशः । अगर धु० २ ० ३१०। उद्घटयति । प्रा। नविखत्त जत्त- कितनक्त न० पूज्य नक्ते, पूज्यभक्तमुक्तिप्त नग्र-पुं० उन्. रक् गश्चान्तादेशः । कृत्रियादृढायां शूफायाभक्तं पट्टकभक्तमतान्येकार्थिकानि । वृ०५न । मुत्पन्ने संकीर्णवणे, मान० सदएका रिवादुनः कस्प नविखवत्तविग-नक्किमविवेक-पु० विमस्य गुष्कौदनादि भा०म०प्र० । आदिदेवावस्थापिते आरक्वंशज क्वत्रियभेदे. भक्त निकितपूर्वस्याचामाम्बप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्याव- झा० १ आ० । स्था। अचा। वृ० । कटप० । अनु० । श्रीर विकृत्यादिब्यस्य विवेको निःशेषतया पृथकरण मुकरण न । अष्टे, अतिजमा दमणिमम्मे आयरिया जग्गा उत्ति मुस्किप्तविवकः । आचामाम्बादिप्रत्याचशाणानां भोक्तव्य- घुसं जवति निश्च० । स्वभावत उदात्ते, न.१०४०। व्यस्याऽ कल्पनीयव्येण संस्पश तमुहरणरूप प्रत्याण्या प्रज्ञा तांबे, तं । अप्रधृध्ये,झार १ अ । रा। चं० । संस्था । नाकार, । "प्रायवित्रं पञ्चक्खाइ अपत्थणा भोगे णं सहसा- उत्करे, उत०२० अ०। गारं बेवावणं नक्खिस्तविवेगेणं" पंचा०५ विवाध०। उग्गकुन-उग्रकुन-न०६ स. आरशिकाणां कुठे, याचार आ० चू। २ श्रु०१०२०। नक्वित्ताय-उकिप्तक-न. उत विप-क्त-ककारात्पूर्व दीर्घत्वं नग्गच्च-नत्य-अन्य क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वेत्यर्थ, न. प्राकृतत्वात- । प्रयमतः समारज्यमाणे गेबादी, ज० १ वक श०१०। जी०। रासस्था० । उग्गगंध-नग्रगन्ध-पुं० उग्रः गन्धः पुष्पादावस्य चम्पके, कटउक्खिप्प-विष्ण-अव्य० उत् किए ल्यप् "ऊय वित्येत्यर्थे । फो, अर्जकर बनने, च । हिङ्गनि, न । नत्कटगन्धाको उक्स्विप्पपादं रीपज्जा" आचा २२२ अ ३ उ । त्रिः । यवान्याम, बनायाम, राजमोदायां, च । स्त्री० टापू जक्विपमाण-उत्क्षिप्यमाण-त्रि० उर्व विष्यमाण, (क्वि- मदिमी। lain Education International Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२०) नग्गतव अभिधानराजेन्द्रः । नग्गम उग्गतव-उग्रतपस्-त्रि० ग्रमप्रधृष्यं तपोऽनशनादि यस्य स पुनरवश्य ज्ञानदर्शनाविनाभाविस्वरूपेणापि वानिनथकोतथा । रा० । वि०।०। तीव्रतपसि, संथा। यदन्येन पादाननिषेधपूर्वोपार्जितकापगमकरणस्वरूपम् ततस्तत्वप्राकृतम पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा (तेन)वि- धानंमोकस्याङ्ग तत्प्रधानानुयायिन्यश्च प्रेवावतां प्रवृत्तयः । विधेन तपसा युक्ते, रा० उत्त० । स्था० । ज्ञा० । नि०।। ततोत्र चारित्रोमेन प्रयोजनम् । सरकादेरित्यत्रादिशब्देन उग्गतेय-नग्रतेजस-त्रि० ६ ब० । तीव्रप्रभावे, तीव्रविषे, बब्धं ज्योतिरुमादिरूपं व्योमं विवरीतुमाह ॥ "प्रासीविस लम्गतेयकप्पा" प्रश्न० १ ० ० | जोइसतणोसहीणं,मेहरिणकराणमुग्गमो दवे । जग्गपव्वश्य-जग्रमवाजत-पुं० उग्राः सन्तः प्रवजिताः । दीका सो पुण जत्तो य जया, जहा य दब्वग्गमो दन्शे ॥७॥ माश्रितेषु, आदिदेवनारककत्वेन नियुक्तानां वंशजेषु, औ०। ज्योतिषां चन्प्रसूर्यादीनां तृणानां दर्भाणामौषधीमंशाव्यानग्गपुत्त-उग्रपुत्र-पुं०६ त. सग्राणां पुत्राः । अन्नाणां कुमारेषु, दीनां जीमूतानां ऋणस्य उत्तममी यदा तव्यस्य कराणां कत्रियजातिविशेषषु, सूत्र०२६० १३ अ० भ० ॥ राजदेयभागानाम् । उपनक्कणमेतत् । अन्येषामाप व्याणां जग्गपुरिस-जयपुरुष-पुं० उग्रपुरुषविशेष, स्था० । (व्याख्या य अझमः स व्यसंबन्धी वेदितव्यः । स पुनव्योमो यतो पुरिसशब्दे-) यस्मात्सकाशात्स यदा यस्मिन् कासे यथा च येन प्रकारेण प्रवति तथा वाच्यः । तत्र ज्योतिषां मेघानां च आकाशदेशात् जग्गम-उसम-० उद्गमनमुभमः पिएकादेः प्रभवे, तृणानामौषधीनां च भूमेळणस्य व्यवहारादेः कराणां नृपतितत्युग्गमोपसूई, पनओ एमादि होति एगट्ठा । नियुक्तपुरुषादेः तथा यदि ज्योतिषां मध्ये सूर्यस्थ प्रभाते शेसो पिंकस्सिह पगओ, तस्स य दोसा इमे होंति ॥ षाणां तु कस्यापि कस्यांचिद्वेलायां तृणादीनां प्रायः श्रावणातत्रेत्युममोत्पादनैषणासु मध्ये उम्मनमुझमः । प्रसवनं दौतथा यथेति ज्योतिषां मेघानांचाकोशे प्रसरणेन तृणानामौप्रसूतिः । प्रभवनं प्रजवः (पमात्ति) पवमादयः आदिश-| षधीनां च नूमी स्फोटयित्वा ऊवं निस्सरणेन रणस्य पञ्चमाझ्यादिपरिग्रहः नवन्ति स्युरेकार्थाः । अनन्याभिधेयाः कशतादिवर्द्धनरूपेण कराणां प्रतिवर्ष गृहस्य उम्मघ्यादिग्राशव्दा ति गम्यम् (सोत्ति) स चोजमा सचेतनाचेतनमि- ह्यमित्येवंरूपेण । एवं शेषाणामपिल्याणां यतो यदा यथा च भक्षिपदादिजव्यविषयत्वेन बहुविषयोपिसन् पिएमस्य नैय- यथासंजवमुझमो भावनीयः । इह प्राक “दचम्मिमगार" स्थाधिकृतः प्रस्तुतः । इह पिएमाधिकारे दोषा दूषणानि तस्य श्त्युक्तं तेन च सकप्रियकुमारकथानकं सूचितमतस्तदेवेपिएमोक्रमस्य श्मे वदयमाणा जयन्ति वर्तन्ते । ये हिसाध्व- दानी गाथात्रयेणोपदर्शयति । थे पाकस्थापनप्रकाशनादयो भक्तादिवस्तुनो भक्तस्थापित वासहरा अणुजत्ता, अत्थाणी जोग्गकिमुकाले य । स्वप्रकटत्वादिरूपेण भवनलकणमुझमे दूषयान्त ते उमदोषा इति गाथार्थः । पंचा०१३ विव० । तत्र प्रथमत उमस्य घडगसरावेसु कया उ, मोयगा अगपियस्स ॥४॥ पकार्थिकानि नामानि नामादिकांश्च भेदान प्रतिपादयति ॥ जोग्गा अजिप्ममारुय, निसमुन्नवो सुइसमुत्थो । उग्गम उग्गोवण मग्गणाय एगट्ठियाणि एयाणि। आहारुग्गामचिंता, असुइ ति उहा मनप्पनवो ॥५॥ नाम ग्वणा दविए नायम्मि य उग्गमो होइ॥ . तस्सेवं वेरुग्ग-ग्गमेण सम्पत्तनाणचरणाणं । उझम फोपना मार्गणा च एकाथिकान्येतानि नामानिस च जुगवंकमुग्गमो वा, केवलनाणुग्गमो जाउ ॥६॥ उसमश्चतुर्दा भवति तद्यया (नामंति ) नामोधमः यत् उफ वासगृहात् वासन्नवनात् अनुयात्रानिर्गमः । तत श्रास्थान्य म ति नाम अथवा जीवस्य अजीवस्य वा यदुभम ति योग्या क्रीमा सा व्यधीयत । ततः काझे भोजनवेसायां तस्य नाम स नामनामवतारभेदोपचारात् । यद्वा नाम्ना उमा सड़कप्रियस्य मोदकप्रियस्य कुमारस्य योग्या घटेषु सरानामझिम इति व्युत्पत्तीमोमः स्थापनोम उमः स्थाय वेषु च कृत्वा मोदका जनन्या प्रेषिताः । ते च परिजनेन सह मानो व्ये न्यविषयोनावेनाव विषयः। तत्रव्योमो द्विधा खेच्चं तेन नुक्तास्ततो नूयोपि योग्यक्रीमानिरीक्षणासक्तचिप्रागमतो नो आगमतश्च । नो आगमतोपि विधा । इशरीर ततया तस्य रात्री जागरणनावतस्ते मोदका न जीतास्ततोऽ नव्यशरीरतद्व्यतिरित्तभेदात् । तत्रागमतो नो अागमतश्च जीर्णदोषप्रभावतोऽतीय पूतिगन्धिमारुतनिसर्गोऽभवत् । तत शरीरजज्यशरीररूपी व्यगवेषणावत् नावनीयौ। इशरी आहारोझमचिन्ता जाता। यात्रिसमुस्था घृतगुमकणिक्कारभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु व्योमम् ॥ समुद्भवा पते मोदकास्ततः शुचिसमुत्थाः। सूत्रे च जातातथा नो आगमतो भावोजवं च प्रतिपादयति ।। वेकवचनम् । केवलं द्विधा मनप्रभवोऽयं देहस्ततस्तदवम्मिलागाई, नावे तिविहोग्गमो मुणेययो॥ संपर्कतोऽशुचयो जाता इत्येवं तस्य धैराभ्योऽमेन कानदर्शन दसणनाणचरित्ते, चरितुग्गर्मणेत्थ अहिगारो॥ ३॥ चारित्राणां युगपक्रमेण वा उमो जातस्ततः केवमहानोम जय जव्यविषये उनमो बड़कादौ बकादिविषयो बडूका- इति गाथाकरार्थः । भावार्थस्तुकथानकादवसयस्तश्चेदम । देः संबन्धी वेदितव्यः । अत्रादिशब्दाज्योतिरादिपरिग्रहः। श्रीस्थलकं नाम नगरं तत्र राजा जानुस्तस्य भार्या रुषिमणी तथा जावे नायविषये त्रिविधात्रप्रकारो ज्ञातव्यः । तद्यथ, तयोः सरूपनामा तनयः स च यथासुखं पञ्चभिर्धात्रीनिः दर्शने दर्शनविषयो झाने ज्ञानविषयभारित्रे चारित्रविषयः। परिपाट्यमानः प्रथमसुरकुमार श्वानेकसुजनहरयानिनन्दिन अत्र तु चारित्रोझमेनाधिकारप्रयोजनम् चारित्रस्य प्रधानमो- कमारनावमधिरुरोह । ततः शुक्लपक्कचयिम्बमिव प्रतिदिक्वाङ्गत्यात् । तथाहि ज्ञानदर्शने सती अपि न चारित्रमन्तरण घसं कसानिरनियमानः क्रमेण कमनीयकामिनीजनमनः कर्ममतापगमाय प्रभवतः श्रेणिकादौ तथापनम्नात् चारित्र प्रसादकारिणी यौवनिकामधिजगाम । तस्मै च स्थानायत एष Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । उग्गम रोयन्ते मोदकास्ततो मोके तस्य मोदकप्रिय इति नाम प्रसि किमगमत् । स च कुमारोऽन्यदा वसन्तसमये वासनवना. त्प्रातरुत्थाय आस्थानम एक पिकायामाजगाम । तत्र च निजश. वणिमापकृतसुरसुन्दरी रूपा हं कारमनोहरविलासिनीजमगीतनृत्यादिकं परिभावयितुं प्रावर्त्तत । तत्र च स्थितस्य जोजनायामागतायां भोजन निमिष्ठं जननी प्रधानसराव पुरेषु शेषपरिजननिमित्तं घटे हत्या मोदकादी ततस्तेन परिजनेन सह मोदका यथेच्छं बुभुजिरे । ते च राप्रायपि गीतनृत्यादिव्याक्तिचितथा जागरणाचतो न स्तोम नावतो याचातोशीय प्रतिगन्धिर्मि गाम । तन्धपुलाच सर्वतः परिभ्रमन्तस्तन्नासिकां प्रविधिशुः । ततस्तथारूपं पूतिगन्धमाघ्राय चिन्तयामास । यथामी मोदका घृतगुरुकणिकादिनिष्पधास्ततः समुत्या म यो देहो जननी शोषितजनकरूपी विधा महमनवायादविरुपतापयतविरूपा इन्कर्पूरादयोऽपि पार्थः स्वरूपतः सुरभिगन्धयोऽपि देदसंपर्कतः क्षणमात्रेण दुरभिगन्धयो जायमानाः कृणान्तरे शरीरगन्धीय प्रत्यात्मकस्योपासत इत्यमशुचिरूपस्यानेकपावशतसंकुद्धस्य शरीरस्यापि हते ये गृहमासाद्य नरकारितिथिनिपालकारीणि पापकर्माणि ते अपि मोमयनिपतविवेक तनावादचेतना एव परमार्थतोताः पपि च तेषां शास्त्रादिपरिज्ञानं तदपि पर मार्थतः शरीरायासफलम् । यहा तदपि पापानुबन्धिकर्मादयतस्तथाविधक्का योपशम निबन्धनत्वादशुभकर्मकायैवेति तत्वचेदिमामुपेहास्पदम् । विद्वता हि सा तत्यवेदिन प्रशंसादो या यथावस्थितयस्तुविविधदेयोपादेयानोपादानचिफलायां तु सकलजन्माभ्यासप्रवृत्त्या कथमपि परिपाकमागतापि सती संदैव तथाविधपापकर्मोदयवशत एका किष्यप युवतिजनपद नजघन कोद्रादिशरीरावयदेषु रामणियकव्यावर्णनफला सा इह लोकेपि शरीरायासफला परलोके च कुगति विनिपातहेतुरित्युपक्की या ये पुनः परमर्षयः सर्वदैव सर्वज्ञमतानुसारितकगमशास्त्रायात विदितथा स्थित यो वास्तव - स्याविरुपतां परिज्ञान्य युवतिकतेवरेषु नाभिरज्यन्ते नापि कर्मादि स्वशरीरकृते पापानि समाचरन्ति किंतु शरी रादिनिस्पतया निरन्तरं सम्यकशाखान्यासतो - निमासममिषयः परीषादिभी रक्षा सकलकर्मनिनाय यतन्त धन्यास्ते तत्ववेदिनस्तान नमस्करोमि । तदनुष्ठितं च सर्वमिदानीमनुतिष्ठामि इत्येवं तस्य मोदकप्रियस्य कुमारस्य वैराम्योमेन सम्यर्शनज्ञानचारिषाणामुमो रूपतः केवलज्ञानोप्रति तदेयसुकं मोकप्रियकुमारकथानक संप्रति पचरित्र प्रमेनाधिकार इति तत्र चारित्रोमेनाधिकारः शुकस्य अष्टयो माशुकस्य अनुस्य मोह कृण कार्य संपादकत्वायोगाव न खलु वीजमुपहतमङ्करं जनयति । सर्वत्राप्यनुपहतस्यैव कारणस्य कार्यजनकत्वात् चारित्रस्य च शुरू कारणं द्विधा तद्यथा । भ्रन्तरं बाह्य च । ते द्वे अपि प्रतिपादयति । दंसणनाणप्पजवं, चरणं सुसु तेसु तस्सुद्धी । चरण कम्मसुखी, उग्गमसुफी चरणसुद्धी य ॥ इह यतो ज्ञानदर्शनप्रभवं चारित्रं ततस्तयाः सुरूयोस्तस्य चारिस्वति नान्यथा तस्मादवश्यं चारिषशुद्धिनिमि उग्गम चारित्राणां सम्यग्ज्ञानसम्यग्दर्शने च यतितव्यम् । यतश्चनिरन्तर सद्गुरुचरणकम पर्युपासनापुरस्सरं सर्वमतानु सारितर्कागमशास्त्राज्यासकरणम् । एतेन चारित्रशुकेरान्तरं कारणमुक्तम् । अथ चारित्रशुद्ध्यापि किं प्रयोजनं येनेत्यं तच्छु किरन्वेष्यते । अत भइ । "चरणेकम्मसुद्धी" चरणेन विशुद्धेन कर्मणा ज्ञानावरणीयादिकस्य झुकिरपगमो भ यति । तदपगमे चात्मनो यथास्थित मो स्ततो मोक्काfर्थना चरणशुरिपेक्ष्यते तथा न केवलयोरेव शानदर्शनी चारिषक कम्मरशुद्धिरेतेन वाह्यं कारणमुक्तम् । ततश्चरणगुद्धिनिमित्तं सम्यदर्शनज्ञानवतापि नियमत उम्मदोषपरिक भाहारो महा मदोषाः पोका सानेव नामतो निर्दिशति । आहाकम्मुद्देसिय, पृकम्मे य मीसजाए य । उशा पाहुरियार, पाऊपरकीयपामि || परिवट्टिए अनिमे अनि माओहमेई । अच्छिज्जे अणि सिडे, कोयरए य सोलसमे ॥ (पतन्याख्या अाकम्म शब्दे दर्श००यू०प० haroseदश मन्यन्ते ते चैवं व्याख्यानयन्ति नतु चामी पोश रायन्ते "रोमी सजादोपको " चाकर्मादीनां व्याख्या अन्यत्र महाकम्मादिदेषु विशोधि कोट्यविशोधिकोटिविनागः । संगत्येतेषामेव विभागमा ॥ एसोसोलस ओ छुड़ा कीर लग्गमो । एगा विसोहिकोमी, अविसेही न वावर ॥ बोमशभेद उमः सामान्येन द्विधा तद्यथा एकाविशोधि कोटिः एको नेदोविशोधिकोटिरूपः । श्रपरा चाविशोधिकोटिरविशोधिकोटिरूपः । द्वितीयो फ्रेद इत्यर्थः । तत्र या दोष5 बजे तामात्रे अपनी सति दोष कल्प्यते स दोषो विशोधिकोटिः शेषस्त्वविशोधिकोटिः । तत्र प्रथमतोऽविशो धिकोटिमाह । आहाकम्मुदेसिय चरमतिगं मी सजाए य । वायरपामिया विय, अज्जोय र परिम॥ प्रधामंत्री शिकस्य विभागौदेशिकस्यान्यनेयं तथा पूर्तिभक्तं पानरूपं मिश्रजातं पाषशिक गृहमिश्ररूपं साधु दमिधरूपम्। चानृतिका मध्ययपुरकस्य च चरमद्विकं स्वगृहपाच एक मिश्रस्वगृहसाधुरूपम् । पते चमदोषा अविशोधिकोटिरूपाः अनया चाविशोधिकोट्या स्पृष्टं शुद्धं प्रतम । यद्दोषपुष्टं भवति तद्दोषमाद उमकोमी अवयव - लेवालेवे य कयए कप्पेकंजिय यामगवाउ, लोय संस मकोय मदोषरूपया अविशोधन शुष्क सिक्तादिना तथा लेपेन तक्रादिना अलेपेन घलचनका दिना संसृष्ट तद्भक्तं तस्मिन्नुज्जितेपि कृते अकृते कल्प्ये । अकृतकत्रयेत् पात्रे यत्पश्चात्परिपूरितम गन्तव्यम् । श्ह कश्चित् मतिदौर्बल्यादित्थं विकल्पते । यथा तदेव साधनाधाय निर्वर्तितं तदेवैकमोहनमाधाकर्म भवान न शेषमवश्रावणका ज्जिकादि तत्संसृष्टं पूति न भवतीति ततस्तदभिप्राय निराकरणार्थमाद ( कंजिएत्यादि ) ह Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गम साच्यर्थमोदन निर्ययमाने यतासकाशिकादि तदप्याचा कर्मादि तदवयवरूपत्वात्। ततः काञ्जिकेन आयामेन अव रणे मानव तदपि तियति । एत देव रूपकत्रयेण जाण्यकृत् व्याख्यानयति ॥ सुकेण चिजं किंतु प्रमुणा चावए जहा बोए । इह के विर्क, धोइ कम्मेण नाणं तु । सेवानिवृतं परं । तं पितॄण कप्पंति, तकाकिमक्षेत्रमं । ( ७२२ ) अनिधानराजेन्द्रः । आहार जंकीरह तंतु कम्मं, वज्जेहि उप्पष्ठमममग्गणं व । सौवीर विस्सामतं झोया, कम्मंति तो तग्गहणं करेति । सुगमं नवरम् । अथरूपकेणावयव इति पदं व्याख्यातं विरूपण पायति तत्रार्थ भावार्थः विचलन कादि तदपि प्रथममनाभोगादिकरणतः पात्रेही पचाम परिहाले परित्यज्य पात्रं कल्पयति । कपश्येण प्रज्ञातयति किं पुनस्तकादिकप हीत्वा तत्र सुतरां कल्पश्येव प्रज्ञानं कर्त्तव्यमिति परिज्ञापनार्थ । लेपाक्षेष इत्युक्तम् । तथा यदेव मुख्यवृत्त्या धाकर्मनान्यादिति या शिष्या पर्ज यिष्यन्ति ओदनमेकैकं केवलं न शेषं तन्डुलादकादिकं ततो गुरवो बाहुस्वामिनः सोचीरां विश्राम तन्डुलोदकान्यव्याधाकर्मेति परिज्ञापनार्थ सद्ग्रहणं सीपीरादिग्रहणं विशे पतः कुर्वन्ति । तदेवं शोधिकोटिरुक्ता । 1 संप्रति विशोधिकोटिमाह । मेसा विसोहिकोमी, जयं पाणं निर्मिच जमतं । अणनविय मीसद, सम्बविवेगे य वा सुकी ॥ दोवा] [भीदेशिक नवविधमपि य विभागीदेशिकमुपकरणं पूतिस्थापना प्राकृतिक प्रकरणं कृतं प्रामित्वकं परिवर्तितमन्यात माज्ञापइतमाय मनिसृपमध्ययपूरक स्यायो नेदरूपाणि विशोधिको विशुध्यति शेषं शुद्धं नक्तम् यस्मिस्तद्वृत्ते यद्वा विख्यति पात्रमकृतकल्पमा पस्मिन्नुते सा विशेष सा बासी कोटि मे विशेोधको उद्देसियम नवगं, नवगरणं जं च पूश्यं होइ । जावंति य म सगयं त्र, अज्जोयर पढमपयं । परियट्टिए अनिमे, चन्निने मालीमेरे अति पाउ परकीयपामध्ये सुमा पा यगो व जो भवेदविदो सियसी. विसाहिकोही मुणेो विधिमाद (विवि ज सत्ति ) नया विशोधिकोट्या यत्संसृष्टमन्नं पानं वा तद्यथाशक्ति विर्गिच परित्यज । इयमत्र भावना भिकामटता पूर्व पशु मिश्रेय तंत्रामागादिवि शोधक गृहीतं पाच कथमपि दिया 66 तिं विधिकोष मया तमिति यदि विनापि निर्वहति तर्हि सकलमपि तद्विधिना परिस्थापयति । अयन निर्वदति ताई देव विशोधिकाि तावन्मात्रं सम्यक् परिज्ञाय त्यजति । पुनरनहितेन सदृशपगन्धादितया पृथक परिहमिश्रितं भवति । यद्वा ण भक्तादिना अन्यत् प्रक्तादि तदा सर्वस्यापि तस्याविवेकः कृते च सर्वात्मना विवेके यद्यपि के त्रि सूक्ष्मा भवयत्रा उमिता जवन्ति ययापि तत्र पात्रे उग्गम share sयत्परिगृह्णन् शुको यतिस्त्यक्तभक्तादे विंशोधि कोटित्वात् । विवेकश्चतुर्द्धा भवति । तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कावतो नावतश्च । तथाचार ॥ दवा का वेग दवे नहिं खिते । कालहीणं, प्रसढो जं पस्सई जावो | अन्यादिको अव्यक्षेत्रकाल भावविषयो विवेकः तत्र यद्व्यं परित्यजति स इव्यविवेकः । तथा परित्याज्यं यत्र परित्ययस क्षेत्र विवेक के वेविकः अविका प्रतिदुत्पतेः । तया यशोधिको परित्यजति कावतो विवेकः श्यदेव दोषादिपरिक्ष तत्कालविनावेन परित्यध्यम परित्यागा वा पृथक मि स्थाने कर्तव्यमन्यथा नायतस्तत्परिहार यमहानिप्रसक्तेः । तत उक्तमकावहीनमिति तथा यः सगे रक्तद्विष्टः सन् दोषदुष्टं पश्यति दृष्ट्वा वा कालहीनं शीघ्रं परित्यजति स भावे भावतो विवेकः । ६६ निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोषसम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तम् | अनिर्वाहे तु तावमात्रविधिमुपदर्शवितुकामः प्रथमतश्चतु कामाद कोसरसपाए, अमरिसाए य एत्थ चटजंगो । तुझे निवाए तत्यवे दुअतुद्वाज ॥ अत्र शुकस्य आईस्य च सदृशे समाने ऽन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये पाते सति तया ऽसदृशे असमाने ऽन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये पाते सति चतुर्भ। यति सूत्रे पुंनिस आर्यत्वात् । चत्वारो भङ्गा नवन्तीत्यर्थः ते नामी । शुष्के शुष्कं पतितं शुष्के आम, आडे शुष्कम्, आई, आईमिति । तत्र येन २ पदेन यो यी भट्टी धोती ती तथा दर्शयति तथ (स) तत्र तुल्ये समाने सति अन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये तुल्यनिपाते सति चतुङ्गी सदृशस्य वस्तुनः प्रक्षेपे द्वौ प्रथम-चतुर्थरूप भङ्ग लब्धौ तौ च " सुकालसरिसपाए" इत्यनेन पदन सकिती तथा द्वितीयतृतीयरूपी + विसदृशत्वात् प्रक्षिप्यमाणौ लब्धौ । तौ च "अस रिसपाए य इत्यनेन पदेनोक्तौ तदेवं चतुर्भङ्किकामनिधाय प्रत्यनेनैवोकरणविधिमाह । 19 केप विचित होतं पदमे। वीमि दव्वं बोढुं गाअंति दव्वं करं दानं ॥ तइयमिकरं बोढुं चि उयणाइ जं तरह | परिमेयमेतं विचिति । शुष्के वचनादौ मध्ये यत् शुष्कं वचनकादि पतितं तत्सुखं जबादिकमनन्तरेण "विगिन्धिनं हो" । परित्यक्तुं भवति । परित्याज्यं भवतीत्यर्थः । एष प्रयमो नङ्गः । तथा द्वितीया भङ्ग तथा द्वितीये चनादीमध्ये आई सीमनादिविशेोधिकोटिदोषः पतितमित्येवं काञ्जिकादि तत्र मध्ये ऽपसृतं प्रविष्य पश्चात्पात्रमवनस्य पात्र कदेशे च शुरूभक्तपानरकणार्थ करं च दत्वा सर्व वं गायन्ति । तथा तृतीये शुरुम् । आहे तीमनादौ मध्ये पतितं शुष्कतरं वचनकादिरूपमोदनमित्येवंरूपे तत्र तीमनादी मध्ये करं हस्तं प्रविष्य ओदनादि यद् यावन्मात्रं शक्नोति तावन्मात्रमशः सन् उञ्चिति आकर्षति ततः शेषं ती मनादिकलभते । तथा चरमे आई आई पतितमित्येवंरूपे यदि तद्द्रव्यं इर्तमन्त्रायते तत्र उद्देशतस्तावन्मात्र परियति तथामाह । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्गम अभिधानराजेन्डः। नग्गम संथरे सचमुज्झति, चननंगो असंथरे । प्रनूतशेषशास्त्रावगाहनार्थ चारित्रार्थ च सेव्यते सा सामाअसाढा सुज्झई जेसु, मायावी जेसु बज्कई ।। न्यतश्चारित्रनिमित्तायामन्त व्यते ततोतस्तत्रोक्त नेदसंख्यासंस्तरे निर्वाहे सति सर्वमपि पात्रे स्थितं विशोधिकोटिस नियमब्याघातः। संप्रत्युमद्वारदोषाणां वद्दयमाणोत्पादना. चारदोषाणां च यतः संभवस्तपुत्थितान् वैवक्त येनाह । सपमुमति । असंस्तरे अनिर्वा हे पुनश्चतुर्भङ्गी चत्वारोऽन्तरो क्ता भङ्गाः । सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आपत्वात् । कथंभूतास्तेभ सोक्षस नग्गमदोसे, गिहिणेउ समुटिए वियाणाहि । ङ्गा इत्याह । येषु भङ्गेषु असगेऽरक्तद्विष्टः सन् वर्तमानः शु- उप्पायणा यदासे साहू न समुहिओ जाण ।। यति शुरुमापद्यते । मायावी च येषु बध्यते तदेवं विशोधि- एतान् अनन्तरोक्तान षोमशसंख्यान समदोषान् गृहिणः रूपं कोटिद्वयं सप्रपञ्चमुकमिदानीं तदेवोपसंहारव्याजेन सकाशापुत्थितान् विजानीहि । तथा ह्याधाकर्मादिदोषऽष्ट संपत आह। भक्तादिगृहस्थरेव क्रियते ये तु उत्पादनाया दोषा वेदयमाकोमीकरणं सुविहं, नग्गमकोमी विसोहि कोडी य । णास्तान साधुतः साधोः सकाशाऽस्थितान् जानीहि । धात्रीजग्गमकोडीनिक, विसोहिकोडी अणेगविहा॥ त्वादीनां साधुनिरेव क्रियमाणत्वात् । तदेवमुक्तमुम हारम् । पिं० पश्चा०हाधाकर्म औहेसिकचरमनेदत्रयम्। कोमीकरणं विहं द्विप्रकारं द्विधा कोटिरित्यर्थः तद्यथा श्राहारादतिमिश्रजातान्त्यभेदद्वयं वादरप्रभृतिका अध्यवपूर्विनमकोटिर्विशोधिकोटिश्च । तत्रोमकोटिषट्कमाधाकर्मिम कान्त्यजेबद्वयं चाविशाध्यन्ते कोटिं पुरीषलवेनेव तदषयवेकोद्देशिकान्त्यतो दातृकादिषभेदा । विशोधिकादिः पुनरनेक नापि स्पृष्टं सर्चमाहरतोप्यबिशुरुकोटयः। तत्संपृक्तं चान्नादिविधा । औद्देशिकादिरूपा । संप्रत्यन्यथाकोटी प्रतिपादयति संस्तरे साधवः सर्व त्यजन्ति । असंस्तरे तु विविच्य तदेव नव चेव अट्ठारसगं, सत्तावीसा तहेव चटपन्ना ।। त्यजन्ति घृतादिकमपि तावन्मात्रमेव त्यजन्ति शेषं यद्यपि तदनउइ दो चेव सयाउ, सत्तरा होश कोभीणं ।। वयवयोगस्तथापि शुरुत्वमिति । जीतः । प्रव० । स्था। प्रयमतः कोटयो नव भवन्ति । तद्यथा स्वयं हननमन्येन नग्गमं से य पुच्चज्जा, कस्सघा केण वा कर्म। घातनमपरेण हन्यमानस्यानुमोदनम् । तथा स्वयं पचनमन्येन सोचा निस्संकियं मुकं, पमिगाहिज्ज संजए । पाचनं तत्परण पच्यमानस्थानुमोदनं तथा स्वयं करणम् अन्ये नझमं तत्प्रसूतिरूपं (से) तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृच्छेतू न कारणं करणपरेण क्रियमाणस्यानुमोदनम् । इहाद्याः पद तत्स्वामिनं कर्मकरं बा यया कस्यार्थमेतत्केन वा कृतमिति विशोधिकोटयोऽनियमास्तु तिस्रो विशोधिकोटयः। एता अपि श्रुत्वा तद्वचनं न भवदर्थ किंत्वन्यार्थमित्येवंभूतं निःशहितं नवकोटीः कोपि रागेण सेवते कोपि हेषेण ततो द्विकेन गुणिता अष्टादश भवन्ति । अथवा एवं ताः कोऽपि मि शुद्धं सत् ऋजुत्वादिभावगत्या प्रतिगृह्णीयात्संयतः विपर्यय ग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः। तथा" असणं पाणंगं वावि खाश्म थ्यादृधिः कुशास्त्रसंपर्कसमुत्यवासनावसतो निःशङ्क सेवते । कोपि सम्यग्दृष्टिः सन् विरतोऽप्यनानोगादिकार सामं तहा । पुप्फेसु होजकमीसं बीपसु हरिएसुवा" दश०५ अ० ध०।। तोऽपरिझानतः कोपि पुनः सम्यग्दृरिपि सन् अविरतत्वेन गार्हस्थ्यमवलम्बमानः ततो मिथ्यात्वादिरूपेण त्रिकेण नव पोमशानामुममदोषाणां प्रायश्चित्तमभिधिसुराह । गणितां शप्तविंशतिर्नति रागद्वेषी स्वत्र पृथग्विवदयेते यदा गुरुगा आह य चरमतिग, मीसवायरसपव्यवायहडे । पृथग्विक्यते तदा ताज्यां सप्तविंशतिगुणिता चतुः पञ्चाशद्भ कम्पइए य गुरुगो, अज्मायरए य चरमदुगे । वति । तथा तथैव नव कोटयः कदाचित् पुएमालम्बनमधि- आधाकर्म गृह्णतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः (चरमंतियत्ति) कृत्य दधिधकान्त्यादिधर्मपरिपाबनार्थ सेव्यन्ते । यथा - ओद्देशिकं द्विविधोधन विभागेन च । तत्र विभागतो द्वादश निके । यदा तु पृथक विवक्ष्येते तदा ताज्यां सप्तविंशति- विधं तद्यथा उद्दिष्ट कृतं कर्म च । उद्दिष्टं चतुर्विधमौद्देशिक गगिता कान्तारे वान्येन फलादिना ज्यवढ़ते नाहं देहं धृत्वा समुद्देशिकमादेशिकं समादेशिकम् । कृतमाप चतुर्विधं तद्यथा कान्तिमार्दवार्जवं यश्च वाह्य पातयिष्यामीति (हंतीति)एवम- उद्देशकृतं समुद्देशकृतमादेवाकृतं समादेशकृतं च । कर्मापि न्यन घातनाद्यपि नावनीयम् । ततो नव दशभिर्गुणिता जाता चतुःप्रकारं तद्यथा नद्देशकर्म समुद्देशकर्म आदेशकर्म समाभवतिः । श्यं च सामावृत्तेः चारित्रनिमित्ता केचित्पुनश्चारि- देशाकर्म च । त्रयचतुष्कका द्वादश इह यावन्तः केचन भिकानिमित्ता विशिष्टज्ञानताजसंनवनिमित्ताच ययास्मिन् कान्ता चराः समागच्चन्ति तावतः सर्वान् उद्दिश्य यत् क्रियते तदीरादावनेन फलादिना ज्यवहृतेन देहमहं धृत्वा क्वान्त्यादिकं । उद्देशिकमुच्यते । पापएिकन उद्दिश्य क्रियमाणं समुद्देशं श्रमपाझयिष्यामि प्रभूतानि च शास्त्राएयधिप्ये इति (हंतीत्यादि) णानुद्दिश्यादेशं निर्ग्रन्थानधिकृत्य समादेशम् । उक्तंच"जाएषा च ज्ञानस्य प्रधान्यविवक्वणात् ज्ञाननिमित्ता जएयते । वंति य उद्देसो, पासमीणं भवे समुद्देसी । समणाणं आदेसो, केचित् पुनश्चारित्रनिमित्ता दर्शनस्थिरीकरणहेतुशास्त्रपरिझाननिमित्तांच ययाऽस्मिन् कान्तारादावनेन फत्रादिनाज्यव निगंथाणं समादसो" एतस्मिन् द्वादशविधे विन्नागोद्देशके यश्वरमं त्रिकं समुद्देशकर्म आदेशकर्म समादेशकर्म च तत्र हृतेन देहं परिपाल्य कान्त्यादिकं पाझयिष्यामि दर्शनं च निर्म गृह्यमाणे प्रत्येकं चत्वारो गुरुकास्तपःकाअविशषिताः (मीलं विधास्ये इति ( हतोत्यादि ) एषा च दर्शनस्य प्राधान्य- संति) मिश्रजातं त्रिविधं यावन्तिकमिधे पापएिमकमि, विवकणादर्शननिमित्ताभिधीयते । तत एवंप्रकारा नवतिरिति स्वगृहमिथं च । तत्र पापगमकमिथ स्वगृहमिश्रे च त्रिजिनवतिर्गुण्यते तता द्वे शते सप्तन्यधिक कोटीनां भवति । प्रत्यकं चन्यागे गुरुकास्तपः काजगुरवः (वायरति) हिविधा नक्तंच "रागारमिछाइरागाई समणधम्म नाणाशनव नवस- प्राभृतिका सदमा वादगच तत्र धादरायां गृह्यमाणायां चत्वारो त्तावीसा, नवन उईए न गुणकारा"यानुदर्शनस्थिरीकरणार्य गुरुकाः ( मपचवायाहमैत्ति) यत्र यत्र ग्रामात्र। मप्रत्यापाय Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२४) जग्गम भनिधानराजेन्द्रः। नग्गम मन्याहृतं तत्र तत्र चत्वारो गुरुकाः । तदेव येषूझम भेदेषु आधाकर्माख्यपाषएकामधेषु गृहामिश्रे च सुष्ट्वतिशयेन गृहाः गुरुकास्ते उक्ताः । संप्रति येषु मासगुरु तान् प्रतिपादयत्ति सुगृहा अनगारास्तैःसह मिश्रजाते श्त्यर्थः पादरप्रातिका (कम्यश्पय इत्यादि ) कृते औद्देशिके चतुःप्रकारोप प्रत्येक सप्रत्यपाये परग्रामात् हते लोन्नपिएक अदूरतिरोव्यवधाने मासगुरुकं तपः काबविशेषितम् । तद्यथा यांवन्तिके मासगुरु नितरां तिरोब्यवहितमनन्तरितमित्यर्थः तच्चानन्तरितमनन्सर समुद्देशकृते तपोगुरुकं मासगुरु, आदेशकृते कालगुरुकं मास- काये निक्किप्तम् । तथा संहृतमनन्तरकायेन पिहितम् तथा गुरु. समा देश कृते मासगुरु धान्यां गुरुकं तपोगरुकं मिश्रितम् आदिग्रहणादनन्तरकायापरिणतमनन्तरकायगर्दिकाअगुरुकं च (पूतिपत्ति) जावपूतिकं द्विविधं सूक्ष्मं बादरं तंच । तेषु अन्तरेन्तरनिक्किप्तसंहृतपिहितमिश्रितादिषु संयोच । तत्र सूक्मे नास्ति प्रायश्चित्तं बादरं द्विविधम् उपकरणे गसागरयोः सर्वप्रकारयोः संयोगसागारान्वितानाजने च द्विभक्तपाने च । अत्र नक्तपानपूतिकं मासगुरु ( अमोयरपय विधनिमित्ते च वर्तमाननिमित्तं नविष्यति । निमित्तकथने चरम गत्ति ) अध्यवपूरकं त्रिविध तद्यथा यावन्तिकमध्यव- कपणं तु वह सूत्रे धिक् पदमधिकमकरंकाधिकार्य संसपूरकं पाषएमाध्यवपूरफ स्वगृहाध्यवपूरकंच। तत्र पाषएमाध्व चकं भवति । अत्र च तुःशब्दोऽधिकस्तेन गुचिसापिहते वपूरके स्वगृहाभ्यवपूरके व प्रत्येक मासगुरु जक्तानि गुरुक- गुरुसंहते गुरुणि शिलापुत्रकादिके दर्वाकरोटिकादेरुपरि प्रायश्चित्तान्यधुना अघुकप्रायश्चित्तान्यन्निधिसुराह । भोगासंहृते उत्केपोत्सारिते गलत्कुटपापुकारूढयोश्चेति सू. ओहविनागुद्देसे, चिरविए पागमे य उवगरणे । च्यते एतेषु सर्वेषु कृपणं प्रायश्चित्तमित्यर्थः। अध्ययपूरकाबोनत्तरपामिचे, परियट्टियकाय पर जावे ॥ दिदोषप्रायश्चित्त माह । सग्गामनिहमिग विजहन्न, जावंति आयरे बहुओ। अज्जोयरकमपूश्य, मायाणं ते परंपरगए। इत्तरठविए मुहुमा, पणगं बहुगा य सेसेसु ॥ मीसाणं ताणंतर गयाई एगमासणयं ।। ओघौद्देशिके मासलघु, विभागौद्देशिके उसे मासाघु, सूचकत्वात् सूत्रस्य (अज्कायरत्ति ) अध्यवपुरकान्त्यभेदक समुद्देशे मासलघु तपो गुरु आदेशे मासाघु कालगुरु, समा ये ( कात्ति) कृतोद्देशकृतसमुद्देसकृतदेशाख्ये विनागोदशिदेश मासलघु । द्वाज्यां गुरु । स्थापितं द्विविधं चिरस्थापित कद्वितीय नेदचतुष्टये (पूश्यसि)नक्तपानपूतिकर्मणि मायामित्वरस्थापितं च । तत्र चिरस्थापिते मासाघु, प्रामुष्करणं यां मायापिएमे ( अणतेत्ति) एकारो झाकणिका ( परंपगय प्रकाशकरणम् । तत्र प्रगटकरणे मासनघु, उपकरणपूतिके ति) गतशब्दो निक्षिप्तवाची चकारापिहितादिग्रहः । ततश्च मासलघु, प्रामित्यं द्विविधं, लौकिकं लोकोत्तरिकं चालोको सचित्तोनन्तकायपरंपरनिक्षिप्तपिहितसंहतगर्दितं चेत्यर्थः । तरिके माससघु । परिवर्तितमपि द्विधा लौकिकं झोकोत्तर तथा मिश्रानन्तानतन्तरगतादिके च अत्रापिगतशब्यो निक्तिमाकं च । तत्र लोकोतरिके परिवर्तिते मासलघु । क्रीतं द्विधि- र्थः आदिशम्दापिहितादिग्रहस्तेन सचित्ताचित्तरूपानन्तकाधम् । द्रव्यकीतं नाधकीतं च। तत्र व्यकीतं द्विविधम् यादिविहितनिक्किप्तीपहितसहतोन्मिभापरिणताईिते इत्यप्रात्मद्रव्यकीतं परऽव्यक्रीतं च । नावक्रीतमपि द्विधा आत्म- र्थः ( एगमासणयति ) एण्वेकाशनं प्रायश्चित्तम् । इदानीं येषु भावक्रीतं परजावक्रीतं च तत्र परजावक्रीतेमासाघु स्वग्रामा पुरिमाप्रायश्चित्तं तान् गाथात्रयेणाह ॥ ज्याहते माससघु (गंवित्ति) ग्रन्थिपिहितमुच्यते। यत्र गुरु- अोहविनागुद्देसो-बगरणपूश्य बियपागमिए॥ घृतादिभाजनमुख पोतेन चमर्णा वा स्थगयित्वा दधरकेणोप। लोगुत्तरपरियट्ठिय, पमेय परनाक्कीए व ॥ रिग्रन्धिीयते ग्रन्थिसहिता मुखावातउपचाराद प्रन्पिरित्यर्थ सग्गामाहमदहर-जहन्नमारोहकरेपढमे ॥ तस्मिन्नुद्भिद्यमाने मासन्नघुमानापहृतं छिविधं जघन्यमुत्कृष्टं च सुहामितिगिच्छासंथव, तिगम विवयदायमोबहए । तत्र मायापहते मासलघु तथा यावन्तिक ऽध्यवपके मासलघु तदेवं यत्र मासलघुत्वात्स्थानमुक्तमिदानी ययोः पञ्चराविदि पत्तय परंपरगविय-पिहियं मीसे अतराईमु ।। पानि ते उच्यते (इत्तरर्गवयश्त्यादि) इत्वरस्थापिते पञ्चरा पुरिमंद संकाए, जं संकइ त समावजे ॥ त्रिदिवानि सूक्ष्मप्रान्तृतिकायामपि पञ्चरात्रिदिवानि (लघुकाय सामान्यौदेशिक विभागोहेशोदिष्टोद्देशसमुद्देशोसहिएससेससुत्ति) येन्ये उमदोषास्तेषु सर्वेष्वपि प्रत्येक चत्वारो मादेशाख्यं विनागोद्देशिकप्रथमभेदचतुष्टयम् । उपकरणं पूलघुकास्तद्यथा । औद्देशिके कर्मणि यावान्तिके १ मिश्रात तिकाचिरस्थापनाकपटकरणम् । एषां द्वन्द्वस्तस्मिन् सोकोप्रकाशकरण ३ आत्मव्यक्रीते ४ परषव्यक्रीते आत्मभावक्रीते लौकिक प्रामित्य ७ लौकिक परिवर्तिते परगामा. त्तरपरिवर्तते प्रामित्ययोः परजावक्रीते अत्रापि द्वन्दः ॥४१॥ न्याहृतनिःप्रत्यपाये ए पिहितोडिने १० कपाटोद्भिन्ने ११ स्वप्रामाहृते दर्दरोद्भिने जघन्यमामापहते ( हज्जरे पढमउत्कृष्टमालापहते १२ भच्चेथे १३ अनिसृष्टे १४ एतेषु चतु त्ति ) चकारोत्रलाक्कणिकवाद यावदर्थिकः मिधाख्य ईशसु स्थानेषु चत्वारो सधुकाः वृ०१७० । जीतकरपे तु ऽध्यवपूरकप्रथम नेदे हापि द्वन्द्वःसुक्ष्मचिकित्सापचनसंप्रायथायथमाचाम्वं पुरिमा निर्विकृतिकं वा प्रायश्चित्तम् । तिका पूर्वपश्चात्संस्तवमुदकार्डम्रक्षितमिश्रकईममूक्तिरूपं प्र उद्देसियचरिमतिगे, कम्मेपासंडमुघरमीसे य । थ्वीमुक्तिमुदकार्डमक्वितंमिश्रमविताकृष्यास्यत्रिविधप्रत्येक प्रक्षितचेति त्रिकं मूक्तितं पिजन लोचयन्तीकर्तयन्तीदायका वायरपाडियाए. सपञ्चवयाह सोने ॥ य एसे तसद्दायको पहतम् । एषामपि द्वन्द्वः तस्मिन् यथोक्तअपरं अणंत निविणतं, पिहिय साहय मीसियाईसु । म् । "वाले खुले मत्ते सम्मतवएयजरिए यापपति से वसवजा संयोग सयंगाले, दुविहनिमिचे य खमणं तु ॥ एसि दायगावहय ॥२॥" तदत्र पुरिमाऽप्रस्तावनानंयम । औदेशिकचग्मत्रिके कर्माद्देशकर्मसमादशलकणे कर्मणि | पतेज्योदायकेच्या ग्राहकाणामाचामामृप्रायश्चित्तस्योक्तस्यात् । Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्गमउप्पायणे. अभिधानराजेन्द्रः । नग्गह ( पत्तेयपरंपररवियपिदियत्ति ) सुब्झोपः प्राकृतत्वादेक- | उग्गवई-उग्रवती-स्त्री० बोकात्तरीत्या नन्दानाम्न्यां प्रथमतिशब्दस्य चोपनक्कणत्वात् सचित्तवृधिव्यादिषट्कायपरस्थापित | थिरात्रौ, जं.७ वक्त । सू०प्र०।०प्र०॥ ततः पिहितविति झेयम् । स्थापित निक्तिप्तमुच्यते । बहुवचना- जग्गाविस-नाविष-पुं० उग्रं पुर्जरत्वाद्विषं यस्य स प्रविषः। त्संहतगतियोश्च (मीसयतराईसुत्ति) सूचकत्वात्सूत्रस्य मिश्रपृथिव्यादिषट्कायानन्तरनिक्षिप्तसंहृतोन्मिधापरिणतच्च दुर्जरविषे सर्प, ज्ञा० अाजी । उपा० प्रज्ञा०॥ हितचित्यर्थः । उन्मिश्रापरिणतयोश्वानन्तरे विशोधने योज्यम्।। नग्गविहार-उग्रविहार-पुं० क० स० उत्कृष्टे विहरणे, "अत्युकिं तहि मिश्रषट्कायोन्मिभं मिश्रषटकायापरिणतं चेत्येव __ अकर्मदहनो दहनोग्रविहारतः" ध०४ अधिक। योज्यम् एषु सर्वेषु मासाऊंप्रायश्चित्तशङ्कायां दोषमाशङ्कते | नग्गावहारि-विहारिन्-त्रि० सदनुष्ठानल्यानुदात्ताचारे, तस्यामप्येकान्तदोषश्च प्रायश्चित्तमापद्यते । जीतः । नि। ज०१० श०४००। चू०। पाषा (नावादिविषय उद्गमदोषो णावादिशब्द) जग्गसेण-नग्रसेन-पुं० । उग्रा सेना यस्य । धृतराष्ट्रपुत्रनेदे, नग्गमनप्पायणसणासुपरिसुख-उझमोत्पादनैषणासुपरिशुक कुरुवंश्ये नृपभेद, यजुवंश्ये नृपभेदे,वाच०। “वसुदेवहिएमया त्रिनगमश्च श्राधाकर्मादिः पोमशविधः उत्पादना चधा मस्य वक्तव्यता तत पवाऽवसेया । सग्गसेणपायोक्खाणं श्रीवृत्यादिका पोमशविधैव उदगमोत्पादने एतद्विषया या सोमएह राश्सहस्सा"आ०म०द्वि० अन्त।"अहं चभोएषणा पिएमविकिस्तया सुष्ठपरिशुको यःस उम्मोत्पादनैष गरायस्स तं च सिअंधगवाएहणो" दश०२०।ग णासुपरिशुरूः। वाचत्वारिंशपिएमदोषरहिते, न.७श१०। उग्गमेणगढ-उग्रसेनगढ-न० । जीर्णगढे, "उम्गसेणगढ़ ति वा उग्गमदोस-उऊमदोप-पुं० उमनमुमः पिएकादेः प्रभव खंगारगढं ति वा, जुम्लगढं तिवा, जुम्पगढस्स णामाई"ती। इत्यर्थः । तस्य दोषः । स्था० ३ ० । उद्गमविषयो दोषः । जग्गह-अवग्रह-पुं० अवग्रहः अनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थनआधाकर्मादिषु पिएमप्रनषदोषेषु, आचात्ता (तेच उ हणरूपे श्रतनिश्रितमतिझानजेदे, तं आह च चूर्णिकृत् “सागमशदेदर्शिताः) मम्मस्स रूवादि विससणरहियस्स अणिद्दसस्स अबम्गहेणम नम्गमभाण-उच्चत-वि० प्रलिंगति,"सप्वो विकिसी घग्गह-इति" ।नं। विशे० रूपरसादिनदैरनिर्देश्यस्याप्युखानु, उम्गममाणे अर्थतनो नणिनो" । प्रा०१ पद । तस्वरूपस्य सामान्यार्थस्थावग्रहणं परिच्छेदनमधग्रहः । नग्गमविसोहि-नकमविशोधि-त्रा० जक्तनिरवतारूप - "प्रत्याणे उमगहणं अवग्ग इति" नियुक्तिगाथा व्याण्यामोपाधिके, विशोधिभेदे च । स्था० १० ग। नयन् भाष्यकृदाह "सामग्रस्थावग्गहए मुग्गहो" विशे० । (व्याख्या आनिणिवोहिय शब्दे) सम्माआ०म०प्र० तत्र उग्गामेत-उदगमित-त्रि० उपार्जिते, “वत्यपादातिनजन विषयविषायसन्निपातानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहो विषयस्य दूय गामया। निचू०२००। व्यपयात्मनोऽर्थस्य विषयिणश्च निवृत्त्युपकरणसवणस्य नगमोवधाय-नुमोपघात-पुं० मनमुझमः पिएकादेः प्रभव सव्येन्द्रियस्येत्युपत्रस्युपयोगस्वभावन्छियस्य विशिष्टपुमनइत्यर्थः । इह चान्नेदविवक्या उसमदोष एवोकमोऽतस्तेन परिणतिरूपस्यार्थग्रहणयाम्यतास्वभावस्य च यथाक्रमेण स(स्था०३०) श्राधाकर्मादिना पोमशविधेनोपहननं विरानधं त्रिपातो योग्यदेशावस्थानं तदनन्तरोतं सत्तामात्रदर्शमस्वचारित्रस्याकल्यता भक्तादेःसन.मोपघातः। स्था.१०००। भावदर्शनमनुत्तरपरिणामस्वविषयव्यवस्थापनविकाररूपप्रपिएमादेरकल्पनीयताकरण अपघातन्नेदे, । स्था० ३ ग०॥ तिपाद्यमवग्रहः । व्य. द्वि०१०००। उम्पय-उत-त्रि० । सद-गम्-त-1 अग्रिमभागे,। मनागु (१) अयग्रहनदाः। मते, राया ऊर्ध्वगते, व्यवस्थिते च । का० १० संनूते, (२) प्रयग्रहे दएककः। भाय. ३०। उदिते, । अम्गय इति षा उत्ति वा (३) अवग्रहनिक्केपः। एगठमिति। नि०यू०१०१०। भावे क्तः। उस्तौ, । 'कंतुग्ग (४) व्यादितश्चातुर्विध्य देवेन्डादितः पञ्चविधत्वं तत्र एणगंधारं'।कएगद्वा यदुतमुमतिः स्वरोजमसका क्रिया चमीवस्त्वे तारताम्यनिरूपणम् । तेन । स्था०७ग। (५) अदत्तादानदोषनिवृत्त्यर्थमवग्रहानुज्ञापनम् । उग्रक-त्रि उत्कटे, स्था० ७ ०। (६) विधवाप्यनुज्ञापनीया। जग्गयमुत्ति-उफतमूर्ति-पुं० बी० मूर्तिः शरीरमुमते रवौ प्रति- (७) मार्मिकावग्रहे उपनिमन्त्रणम् । श्रयादबहिःप्रवादवती मूर्तिरस्यत्युझममूर्तिको मध्यमपदलोपी (0) अवग्रहयोग्यं केत्रमवग्रहप्रतिषेधश्च । समासः । सूरामतावेव आहारग्राहके, वृ०२०। निचूण (ए) ब्राह्मणाद्यवगृहीते अवग्रहः। (१०) पथ्यवग्रहः। जग्गयविति--तत्ति--पुं० स्त्री० मते आदित्ये वृत्ति (११) प्राभेक्षुधनादावनडे आम्रफलादिनोजनं सशुनवनाजीवनोपायो यस्य स नसतवृत्तिकः । सूर्योमने सति निकाय दावधग्रहश्च । स्या नोक्तरि,"जग्गयवित्तीमुत्ती मणसंकप्पे यहोति आएता' (१२) स्वामिना त्यक्ते प्रत्यक्के वाषप्रहः। उते रवौ वृत्तिर्वर्तनं यस्य स उम्तवृत्तिः पाचगन्तरेणोत (१३) राजाधग्रहो देवन्डायग्ररश्च । मूर्तिरितिषा । सहते सूर्ये वृत्तिः शरीर वृत्तिनिमित्त बहिः (१४) राजपरिवते ऽयग्रहः । प्रचाये वस्य स गतवृत्तिः। वृ०२०। निचू०१० (२५) अवग्रहवेत्रमाना। "जिक्खू य जग्गयवित्तिए प्राणथमिथ संकप्पे संघमिए" पृ० (१६)केत्रत्यागसमभागले सपरप्ययग्रहपाध्यतिः । ३.००। (व्याख्या राहतोयणशके) (१७) अवहे सप्त प्रतिमा। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्गह अनिधानराजेन्द्रः । जगह (१) अवग्रहदानाह त्थोग्गहे पाते। एग फासिंदिय अत्थोग्गहे पप्पत्ते एवं से किं तं जग्गहे२ सुबिहे पम्पत्ते तंजहा अत्याग्गहे य जाव वणस्सइकाइयाणं एवं वेदियाणवि । नवरं बईवंजणग्गहे य । से किं तं वंजणुग्गहे ? वंजणुग्गहे दियाणं बंजणोग्गहे दुविहे पप्पत्ते एवं तेइंदिय चरिंचनबिहे पाते तंजहा साईदियवंजणुग्गहे घाणिदिय दियाण वि नवरं इंदियपरिबुढी कायव्वा । चउरिंदिवंजणुग्गहे जिग्निदियवंजणुग्गहे फासिदियवंजणुग्गहे. याणं वंजणोग्गहे तिविहे पप्पत्ते अत्यावग्गहे चउबिहे सेत्तं वंजणुग्गहे। से किं तं अत्युग्गहे २ छव्विहे पप्पत्ते पम्मत्ते सेसाणं जहा नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । तंजहा सोऽदिय प्रत्युग्गहे चक्खिदियअत्युग्गहे घाणिदि- टीका सुगमत्वान्न गृहीता अवधारणमवग्रहः । सुन्दरा पत यअत्युग्गहे जिग्निदियअत्युग्गहे फासिंदियअत्युग्गहे श्त्यवधारणम् । उत्त० । लम्ने,०। प्रा००। अयं गृहाती त्यवग्रहः । उपधी,-आघ०। पतइहे, “खरमुमो लोएणं अग्ग नोदियअत्युग्गडे । तस्स णं श्मे एगघ्यिा नाणायोसा हं च घेतणं-" पंचा०३विव०। “भगघारे अवग्रह इति योनाणावंजणा पंचनामधिजा नवति । तंजहा उगिएहणया निद्वारस्य सामायिकी संझा" वृ०३ १०। प्रव० । अवगृह्यते नगिहनो अवधारणया सवणया अवलंबण्या मेहा स्वामिना स्वीक्रियते यः सोऽवग्रहः। राजावग्रहादी, प्रति। सेत्तं जगहे॥ अवग्रहीये वस्तुनि,-प्रइन० ३६० आश्रये, “मगहे च अथकोऽयमवग्रहः मरिराह । अवग्रहो द्विविधस्तद्यया अजाश्त्ता, अविदिन्ने उ उम्गदे" ध०३ अधिक। अर्थावग्रहश्च व्यञ्जनावग्रहश्च ॥ नं० । (तस्समि (३) अवग्रहनिक्केपो यथा। त्यादि )तस्य सामान्येनावग्रहस्य णमिात वाक्याऽसंकार नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव नावे य । अमान वत्यमाणानि एकार्थिकानि (नाना घोसाणित्ति) एसो अवग्गहस्स, निक्खेवो अबही होइ ।। घोषा उदात्तादयः स्वरविशेषाः । श्राह कृित् "घोसाउ सचित्तादिव्यग्रहणं द्रव्यावग्रहः केत्रावग्रहो यो यं वेत्रनदत्तादओसरविसेसा"नाना घोषायेषांतानि नानाघोषाण। मयगृह्णाति तत्र वसामः। ततः सक्रोशं योजनं कालावग्रहो यो तथा नाना व्यञ्जनानि कादीनि येषां तानि नानाव्यञ्जनानि । यं कालमबगृहाति वर्षासु चतुरो मासान् ऋतबके मासनापञ्चनामान्येव नामधेयानि जवन्ति तद्यथति तेषामेवोपदर्शने वावग्रहः । प्रशस्तेतरभेदः । प्रशस्तो ज्ञानाद्यवग्रह इतरस्तु (लगिएहणया इत्यादि) यदा पुनरवग्रहावशेषाननपेक्ष्यामृनि क्रोधाद्यवग्रह शत । अथवावग्रहः पञ्चधा । पञ्चापि नामधेयानि चिन्त्यन्ते तदा परस्परं भिन्नार्थानि येदित न्यादितश्चातर्विध्यमाह । व्यानि । तयाहि श्हावग्रहस्त्रिधा तद्यथा व्यजनावग्रहः सा- (४) द्रव्यादितश्चातुर्विध्यं देवेन्जादितः पञ्चविधत्वं तद्धमान्यार्थावग्रहः विशेषसामान्यार्थावग्रहश्च। तत्र विशेषसामा- बीयस्त्वे तारतम्यनिरूपणं च । तत्र । न्यार्थावग्रहः औपचारिकः स चानन्तरमेवाने दयिष्यते । दब्वे खेत्ते काले, जावे विय जग्गहो चनकाउ । नं० । कर्म। विशे० । तत्युग्गहो पुरूवो, गहणं जहोजवंजणत्थाणं । देविंदराय उग्गहो, गिहवश्सागरियमाहम्मी॥३४॥ बंजणो य जमत्थो, तेणाई एतयं वोच्छं। दबुग्गहोउ तिविहो, सचित्ताचित्तमीसिओ चेव । तत्रावग्रहणमवग्रहो विरूपो यथा जवाति तथा प्रोच्यते । खेत्तरगहो वि तिविहो, बिहे का,ग्गहो होइ ।।३।। कयमित्याह यद्यस्माहहणं व्यञ्जनार्थयोरेव भवेदन्यस्य ग्राह्य- जव्यावग्रहः केत्रावग्रहः कानावग्रहो नावावग्रहश्चेति । एवं स्यानावात्ततश्च विषयद्वैविध्यादवग्रहो द्विविध शतिनावः । चतुर्विधोऽवग्रहः। यदिवा सामान्येन पञ्चविधोऽवग्रहस्तद्यथा अपरं यद्यस्मात्कारणाद्वक्ष्यमाणन्यायन प्राध्यकारािप्वान्द्रय. देवस्य लोकमध्यवर्ती रुचकदक्षिणाईमयग्रहः शश्वपु व्यज्जनावग्रहादनन्तरमेवार्थो ऽधिग्रहो प्रवति तेनादी- वादेर्भरतादिकत्रं गृहपतेनाममहत्तरादेमपासकादिकप्रथमतस्तकं व्यञ्जनावग्रहमेव वक्ष्ये इति गाथार्थाः। विशेष मवग्रहः । तथा सागारिकस्य शय्यातरस्य पारशालादिकनं० । आ००। प्रवाभ.(व्यज्जनावग्रहादीनां व्या- साधम्मिकाः साधवो ये मासकल्पन तत्रावस्थितास्तेषां वण्याऽन्यत्र व्यजनावग्रहे महकप्रतियोधकदृष्टान्तश्च आ सत्यादिरवग्रहः। सपादयोजनमिति तदेवं पञ्चविधोऽवग्रहः । भिणिबोहिय शब्द)। वसत्यादिपरिग्रहं च कुर्वता सर्वार्थतेति यथावसरमनुझाया (२) अवग्रहे दएमकः ।। शति । श्रा०म०प्र० । आचा। प्रवाना। नेरइयाणं भंते ! कतिविहे नम्गहे परपत्ते? गोयमा! सुवि तेणं काझेणं तेणं समयेणं सके देविंदे देवराया वज्जयाणी हे उग्गहे पाहते तंजहा अत्योवग्गहे वंजणोवग्गहे एवं पुरंदरे जाव नुजमाणे विहरइ इमं च णं केवलकप्पं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं पुढविक्राश्याएं जते! जंबुद्दीवे ३ विउले ओहिणणे आजोएमाणे २ पास कतिविहे नग्गहे पठात्ते? गोयमा ! विहे उम्गहे पप्पत्ते समणं जगवं महावीरं जंबूदीवे दीवे जहा ईसाणे तईतंजहा अत्याग्गहेय वंजणोग्गहे य पुढविकाइयाएं जंते! यसए तहेव सक्केण वि णवरं आजिओगणं सद्दावेश वंजणोग्गहे कविहे परमत्ते? गोयमा! एगे फासिंदियवंज पायत्ताणियाहिबई हरीसुघोसघंटापालओ विमाणकारी। गोगहे पाते । पुढविकाध्याणं जंते ! कइविहे अ- पालगं विमाणं नत्तरिझे णिजाणगग्गे दाहिमापुरच्चि Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२७) अभिधानराजेन्द्रः | उग्गह मिले रचिकरपन्चर से तंत्र णामगं सावेचा पज्जुबास धम्मका जान पडियया तर्ण से सके देविंदे देवराया समस्त जगवओो महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हतुसमणं जगवं महावीरं बंद एसइ बंदर तामसत्ता एवं वयासी करणं जंते? उग्गहेपमात्ते सक! पंचविहे उग पाने संगहा देविंदोग्गहे रायोग्गहे गढ़वलग्ग सागा रियलम्हे साहम्मिषम्म जे इमे अजताए समणा निम्या विहति एसिणं उम्म जाणामी तिकडु समर्ण जगवं महावीरं बंदर मंस वंदता णर्मसत्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूह रूहा जामेव दिसि पाउजू तामेव दिसिं परिगए जंतति । जगवं गोयम ! समर्थ जगवं महावीर वंद‍ एसइ वेद २ चा एवं क्यासी जंणं ते! सके देविंदे देवराया तुजे एवं वन्दति सचेणं एसमडे हंता सणं ज० १६ श० २ उ० । अप कतिविधोऽयम उच्यते देविंदरायगड, उम्गो सागारिए अ साहम्मि | पंचम्म परूविए, नायव्वा जो जहिं कमइ ॥ देवेन्द्रः शक्र ईशानो वा स यावतः क्षेत्रस्य प्रनवति तावान् देवेन्द्रावग्रहः राजा चक्रवर्तिप्रकृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः स यावतः षट्ख एकभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति तावान् राजावग्रहः । गृहपतिः सामान्यम एफलाधिपतिस्तस्याऽप्य ऽधिपत्यविषयभूतं यदूनू मिखए स गृहपत्यवग्रहः । सागारिकः शय्यातरस्तस्य सत्तायां यगृहपाटकादिकं स सागा. रिकrवग्रहः । साधर्मिकाः समानधर्माणः साधवस्तेषां संबसिकोश योजनादिकं यदा स साधा पञ्च तस्मिन् पचिपे या भेदे प्ररूपिते सति ज्ञातव्यो विधिरित्युपस्कारो यो यत्र देवेन्द्र क्रमवतरति स तत्रावतारणीय इति संग्रह गाथासमासार्थः । सांप्रतमेनामेव विवरीषुरमीषां पञ्चानां मध्ये कः कस्माद्वलीयानिति जिज्ञासायां तावदिदमाह । या उपरिझेहि वाहिया नट लहंति पाहणं । पुण्वाम्नाभिनवं चमुनयपश्चिमेजिनवा || अश्वस्तना देवेन्द्रादाय उपरितने राजामहादिनिर्यथाक्रमं बाधिता प्रष्टव्याः । श्रत एव नतु नैवलन्नन्ते प्राधान्यमुत्तमत्वम् । किमुक्तं भवति । राजावग्रहे राजैव प्रभवति न देवेप्रस्ततो देवानुप्यच यदि राजा नानुजानी से तदा न कल्प्यते तदवग्रहे स्थातुम् । अथानुज्ञातो राज्ञा स्वविषयावग्रहः परं न गृहपतिना ततस्तदवग्रहे पि न युज्यतेऽवस्थातुम् । अयानुमतं गृहपतिना स्व भूमि मेऽवस्थानं परं न सागारिकंण स्वावग्रहे ततोऽपि न कल्प्यते वस्तुम् । अथानुज्ञातः सागरिकेण स्वावग्रहः परं न साधर्मिकैस्तथापि न कल्प्यते इत्येवमुपरितनैरधस्तमा वाध्यते तथानुपूर्वामनुकाम निय जन विकल्प के पूर्वापरे निवेति जना कायेत्यर्थः । श्रय केयं पूर्वानुज्ञा कानिनत्रानु उगाह हेत्युच्यते। दाया अवग्रहः पुरातनसाधुभिरनुज्ञापितः सयपाश्चात्यैरेवमेव परिज्यते न छूयोऽनुज्ञाप्यते सा पूर्वानुज्ञा यथा चिरंतनकालवर्तिनः साधुनिन्द्र मनुपितः सैव पूर्वानुज्ञा । सांप्रतकालीनसाधूनामप्यनुवर्तते न पुनर्भूयोप्यनुज्ञाप्यते अभिनवानुज्ञानामभावाद । यदा किलान्यो देवेन्द्रः समुत्पद्यते तदानि साधुनिर्यदसाव निवोत्पताऽदोऽनुप्यते सा तेषामनिवा सदपरेषां पूर्वानुङ्गा एवं शेषपतिपतीनामपि पूर्वानिनानुज्ञावनीये | सागारिकापि प्रथमत उपागतः साधुभिर्यपाश्रयमनुप्यते सा तेषाममिवानुहातेषु साधुषु तत्र स्थितेषु यदन्ये साधवः समागत्य तदनुज्ञापितावग्रहं प रिस पूर्वा तदेवं चतुष्पदेषु पूर्वाभिनयानुयो जना नाविता । तथा पश्चिमे साधर्मिकावग्रहे जिनवानुव नवति न तपादि यो यावदायें साधर्मिकमुपतदानीमायाति नान्यथे संपद्यते स स स्वनिधाना। यामीषां पञ्चानामपि भवानाह । दवाई एक्के, चहा खित्तं तु तत्थ पाहने । तत्येव य जे दव्वा, कालो जावो असामित्ते ॥ एकोऽवतु ततः काही भावत तत्र प्रथमतः त्रावग्रहः प्ररूप्यते कुतो हे तोरिति चेडुच्यते क्षेत्र पुनः स्वतन्त्रेषु व्यादिषु मध्ये प्राधान्येन वर्तते इहावग्रहस्य प्ररूप्यमाणत्वात्तस्य व तत्वतः शक्रादिक्षेत्ररूपतयानिधी यमानत्वादिति भावः । यतश्च तत्रैव क्षेत्रे यानि इव्याणि यक्ष कालो नायकापमध्ये तत्स्यामित्यं वर्तते क्षेत्रस्यैव संबन्धित्वादन्येषां तस्मिंश्च प्रथमं प्ररूपिते ऽव्यादयस्तदन्तगताः प्ररूपिता एव भवन्तीति प्रथमतः क्षेत्रावग्रहं प्ररूपयति. पुब्वावरायचा व सेडीओोगस्स पारस्मि । जो कुणइ दुहा लोगं, दाहिण तह उत्तरद्धं च ॥ सर्वस्यापि लोकस्य मध्यकारे मध्यन्नागे मन्दरस्य पर्वतस्योपरि श्रेणिराकाशप्रदेशपहिरेकप्रादेशिकी पूर्वापरयो हिंशरायता प्रदीप समस्ति या अधिकर्मकरूपमपि द्विधा करोति । तद्यथा दक्षिणो कार्यमुत्तरकार्ये च तत्र aaraararर्डस्य शक्रः प्रचत्वमनुभवति उत्तरलोकार्यस्य पुनरी शान कल्पनायकस्तथादोिकायान्यायहि कामवि हामि पुष्पाकीणीनिया विमानानि शवस्यैव निपानि पुनरुत्तरा तानि सर्वाण्यपि द्वितीय कल्पाधिपतेः । अथ यानि मध्यमश्रेण्यां तानि कस्याजवन्तीत्याह । साधारण आलिया, मज्जम्मि अवकचंदप्पाणं । अद्धं च परिक्खेत्ते, तेसिं अद्धं च सक्खिते ॥ अपार्थ चन्द्रकल्पयोर्क बन्दाकारो सीधमें शामकरूपयोः पूर्वापरायतायां मध्यम या विमाननामावलिकासा साधाराशन किमुकं नयति । तस्यां मध्यमत्यां पूर्वस्यामपरस्यां दिति यदपि प्रस्तटेषु यानिमि नानि तानि कानिचित् शक्रस्य कानिचिदीशानस्यानाव्यानि । तत्र यानि प्राकाराणि तानि सत्यपि शक्रस्य वानि पुनरूयस्त्राणि चतुरस्राणि चान्ये रामस्य एकम योरपि साधारणानि तयायोक्तम् "जे दि वाणि आज सि जे युग उत्तर उत्तर Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह ( ७२८.) अभिधानराजेन्द्रः | सि। पुवेण पक्रिमेण य जे बट्टा ते विदाहिणस्स । सचचरंसगा पुए, सामन्ना हुंति एपि" तेषां च मध्यमविगतानां विमानानामर्थं स्वस्वक्षेत्रे कल्पसमान प्रतिष्ठितं तदपरमर्थ परक्षेत्रे परनीति | मय शक्रमुद्देिश्य क्षेत्रापद्मप्रमाणमाह । ढी दाहिणें, जो लोगा उढमासकविमाणा । डेडानि अ लोगते, विणं सोहम्मरायस्स || सौधर्मराजस्य साधम्र्मकस्याधिपतेरेतात्माधिपत्यविषयभूतं तिर्यग्दिशमधिकृत्य श्रेण्याः पूर्वोकाया दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशिवाय इतिपर्यन्त दिश माथि पादपूरणे यानि स्वामिनि विमानानि पध्वजकसितानि अधोदिशमुद्दिश्य यावद्धस्ततो लोकान्त इति नावितो देवेन्द्रः। सम्पति क्षेत्रमाह । सरगोयरी तिरियं बावत रिजोषणाई उतु । अह सोगगामगत्तार, हेडओ च को खितं । पावरस्य वाणस्य गोमरो विषय स्वायत श्रममुक्त नयति वदिग्विजययात्रां कुत् मागधादिषु तीर्थेषु यत्रामा जति स पूर्वदक्षिणापर समुषेषु द्वादशयोजनान्तापितायवन्तम्यक्रिणस्ति गवग्रहः । स एव बाणः क्षुल्लहिमवत्कुमारदेव साधनायें निस्सृष्ट मातियोजनानि यायच्छति तायासूमयः । अथपुनरधोलोकग्रामास्तथा गर्ता मादि दादाद्वापीकूपन मिगृहादिपरिग्रहः । श्यमत्र प्रावना । जम्बूद्वीपावरविवर्तिन नियतीनिधान विजययुग समुद्र या योजनसदा समय ये अधोलोकमा मास्तेषु ये चक्रवर्तिनः समुत्पद्यन्ते तेषां त एवाथः श्रावमादपरेषां तुगर्ता कृपमहादिकमिति प्रति राह क्षेत्रासदः। अथगृहपतिसागारिकयोस्तमाह । गढ़वो आहारो, चउदिसि सागारियस्स घरबगका । डा अयागमाई, गिरिगधयस्कला || गृहपतेश्वरस्य यावानाधारो विषयः प्रनुत्वविषयतश्चतखषु दिक्षु तावानस्योत्कृष्टतिर्यगवग्रहः । सागारिकस्य शय्यातरस्य गृहयगमागृद वृतिपरिष ग्रहः द्वयोरपि चाधस्तादपागतागमादयः प्रपात दो वा गमः कूपः आदिशब्दाद वाप्यादय ऊर्ध्वं गिरगेढ ध्वजवृक्काः गिरयः पर्वता गृहध्वजा गृहोपरिवर्तिन्यः पताका वृक्षाः सहकारादयः साधर्मिकाणां तु शेषाः कुतोपिरो परं बृद्धा थमनिटित हो सफोर्स जोषण मम्मियाण बोधव्यं । बहिसिजा एगदिसि उज्जाणं वामम " बाद उपाधत्कृष्टः क्षेत्राः ग्रहः शेषं सुगमम् । अथ जघन्य क्षेत्रावप्रमनिधातुकाम आहे । अजमाकोमो, पदम जो आपकवणं । मानव रोगा, सुभोगणं च ॥ प्रथमो देवेन्द्राहोऽजघन्योत्कृष्टो न जघन्यो नचोत्कृष्टः किन्तूयविवशारहितः सर्वदेवैकरूपत्वात् यश्चाप्यवग्रहः चसाऽप्यन्योत्कृष्टः सामा नृपती उग्गह ग्रहपतीनां च रोधकादिषु जघन्यः क्षेत्रावग्रहो यः । रोधनं रोधकः परचक्रेण नगरादेन आदिशब्दादन्यस्याप्ये धस्य परिग्रहः । इयमत्र नाचना । कोऽपि बलवान राजा ममलेश्वरो वा कस्याप्यल्पचलस्य नरपतेर्यह पतेानिर्वृतमात्मसात्कृत्य यदा तदीयं नगरादि निरुध्यावर्तिष्टतं तदा तस्य तावानगरादिमात्रको जघन्यः । नगराइ निरु घरे, रायाणुभाउ 5चरिमजहां । उसे अनि अचकिमाई चापि ॥ शै चरम सागारिकाधार्मिकी तयोदयं हो नगरानी केनचि निस्के स्तिय सरसरता प्रविशद्भिः शय्यातर साधम्मिको पाथयो वा दान तदा या काचिषामनुज्ञा यथैतावति प्रदेशे युष्माभिः स्थाराज्यमेतावत्यस्मानिरिति स जघन्यज्ञेशायद पुनरवप्रदोनियतः कस्याप्यल्पीयान् कस्यापि न्यानिति नायः॥ चामित्याह यचादीनां चतुमपि शक्रासन जयति किं तु सामान्यपार्थिवः स नमः पर्युदासप्रतिषेधाः सदशाहकत्वादची प्रत्यते । आदिशब्दादयो गृह्यन्ते । श्रथ सागारिकावग्रहस्य विशेषत उपयोगित्वाद्विधिमाह । विसम्म उग्गह परसामिठा | तहावि नसीमंत साहू पिकारिणो ॥ गृहस्वामिना शय्यातरेण जाजनधावन कायिक्यादिव्युत्सर्जनस्वाध्यायादिकं यत्र यत्र भावनां रोचते तत्र तत्र कुरुते तेच यद्यप्यसावप्यवग्रहेऽनुज्ञातस्तथापि साधयस्तस्य सागारिकस्य प्रियकारिणः समाधिविधित्सवः सीमां मोनन्दिन्ति निर्धायति व्यवस्थां पाशयन्तीत्यर्थः । तामेव सीमामनिधसे । जाणडया प्रायण पावणाई मोटा अस्या देि अभिगचैव हियंते, मासो व करेज्जतुं ॥ ध्यानार्थे नाजनधावनधनाद्य द्वयोरुययोरीय (अत्यासि ) उपविश्यावस्था सिं मिचकं मिताग्रहमेव परिमितमेवावप्रमधितिष्ठन्ति । किमु तं भवति । साधवो व्यवस्थां स्थाययन्तः शय्यातरमामन्त्रय ब्रुवते श्रावक ! वयमियति प्रदेशेऽध्याशिष्यामहे नेतः परम् । अत्र भाजनानि धाविष्यामो नान्यत्र यदि नाम खानदेशश्वारसंजषो नवेत्तताऽत्र परिष्द्वापयिष्यते । अत्र पुनः कायिकी व्युत्सृज्यते इह पुनः साधवो भाजनरञ्जनादिकं कुर्वन्तः कियतीमपि वेनामासिध्यन्ते एवं व्यवस्थाप्य मितमेषाव ग्रह माध तिष्ठन्ति । कुत इत्याह अमात्यो वा सागरिकोऽन्यो वा तदीयो यस्यस्वजनादि कुन गतिप्रादेश कायिकयादिना या विनाशितमन्युमनीतिक कुर्यात्। अपि च तथा साधुभिरप्रमत्तैस्तत्र स्थातव्यं तथा शय्यातर चिन्तयेत् अहो निभृतस्वनावा श्रमी मुनयो यदे तावन्तोऽपि सन्तः स्वसमयोदितमाचारमाचरन्तोऽपि परस्परं विक्रयादिकमकुर्वन्तो निपारा स्व लक्ष्यन्ते तत्सर्वया कृतार्थोस्म्यदममीषां जगवतां शय्यायाः प्रदानेन तीर्णप्राय मयायमपाशेऽपि संखारपारावार इति प्रापितः केायः ॥ संप्रति अन्यायग्रहमाह ॥ गणपचितमीसग दब्या हुए। जो जेण परिगाओ, सो दुब्वे उग्गहो होइ ॥ प Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२९) अनिधानराजेन्धः। जग्गह तानि घरपात्रादीनि मिश्राणि सभाएमोपकरणस्त्रीपुरुषा अथ भावावग्रहमाह। दीनि यानि व्याणि सव्ये व्यविषयध्वग्रहः । कथनूत चत्वारो दइअम्मि, खोबसमियम्मि पच्चिमो हो । इत्याह । यो येन शकादिना परिगृहीतः स तस्य संबन्धी मणसीकरणमण च, जाण जं जत्थ कम्मइ ॥ कव्यावग्रहः। किमुक्तं भवति । देवेन्कापनहेऽत्र यानि स चत्वारो देवेन्द्रराजगृहसागारिकाणामवग्रहा औदायकोभाघे चित्तासचित्तमिश्राणि व्याणि तानि सर्वाण्याप देवेन्द्र वर्तन्ते ममदं केत्रमित्यादि मूर्गयास्तेषु सद्भावात्तस्याश्च ग्यावग्रहः । एवं राजावग्रहादिवापि भावना कार्या ॥ कशायमोहनीयोदयजन्यत्वात् । पश्चिमः साधर्मिकावग्रहः अथ कामावग्रहमाद सकायोपशमिके भावे वर्तते कषायमोहनीयवायोपशमयुक्त दोसागराज पढमो, चकी सत्तसय पुवचुलसीई। तया ममेदं वेत्रं ममायमुपाश्रय इत्यादिमूर्गयाः साधूनामसेमनिवंसि मुहर, जहन्नमुक्कोसए जयणा ॥ जावात् । एष जावावग्रहः। तदेवं प्ररूपितः पश्चविधोऽप्यवग्रहः। प्रथमो देवेन्द्रावग्रहः स व सागरोपमे यावद्भवति शक्रस्य अथ यदुक्तं धारगाथायां " पंचघिदम्मि परूधियनायव्यो जो जहिं कमति" तदिदानी जाव्यते "मणसीकरणमपुत्रं द्विसागरोपमस्थितिकत्वात् चक्री चक्रवर्त्यषग्रहे जघन्यतः चेत्या दि" मनसि करणमनुज्ञांच जानीहि । यद्यत्र देवेन्द्रासप्तवर्षशतानि ब्रह्मदत्तवत् । उत्कर्षतः पुनश्चतुरशीतिपूर्व वग्रहादी कामति अवतरति तत्र मनसि चेतसि करणमनुजाशतसहस्राणि परतचक्रवार्तवत् । तथा च चर्षिः "चकवति नीताम् । यस्यावप्रह इति मनस्येवानुज्ञापनमिति हृदयं यत्पुजगहो जहनेणं सत्तवाससया यंभदत्तस्स नकोसणं चुरा नर्वचसानुकाप्यते साऽनुका ऽन्तर्भूतण्यर्थत्वादनुज्ञापनोत जावः सी पुच्चसय सहस्साई भरहस्स" अत्र परः प्राह । तत्र तत्र देवेन्के राजावग्रहयोर्मनसैवानुज्ञापनं करोति गृहपत्यषब्राह्मदत्तः कुमारतायामष्टाविंशतिमापमलिकन्ये षट्पञ्चाशतं दिग्विजये षोडशवर्षाएयतिक्रम्य षट्वर्षशतान्येव चक्रवर्ति ग्रहस्य मनसा वा वचसा वा सागारिकसाधर्मिकावग्रहयो नियमाद्वचसाऽनुज्ञापना । ययानुकापना यथानुजानीतारमा पदधीमनुबनूब । भरतोऽपि ससप्ततिपूर्वलक्षाणि कुमारजा शम्यां वरूपात्रशैक्षादिकं चेत्यादि । वमनुनूय वर्षसहनं माण्डलिकत्वमनुपाल्य षष्टिवर्षसह अथ नावावग्रहं प्रकारान्तरेणाद ।। स्राणि विजययात्राय व्यतीत्य ततः किंचिन्यूनानि षट्पूर्वसकाणि सर्व मिश्रियं बुतुजे ततः कथमनयोः सप्तवर्षशता जावावग्गहो अहव उहा, मइगहण अत्थ वंजणे उमई। नि चतुरशतिपूर्व प्रकाणि च यथाक्रम चक्रवयंवग्रहः प्रति- गहणे जत्थ उ गिएह, मणसीकरणअकरणतिविहं ।। पाचमानी नविरुध्यत । नैष दाषः यतो योग्यतामङ्गीकृत्य भरता. अथवा नावावग्रहो द्विधा मतिनावावग्रहो गृहणनावायन दयो जन्मन पब चक्रवर्तिनो मन्तव्याः । यत उत्पन्नमात्र पर हश्वातत्र मतिर्मतिझानरूपो जावावग्रहोनूयोपि द्विधा व्यञ्जना चक्रवत्तिनि तदीयतथाविधाद्भुतभाग्यसंभारसमावर्जितास्स- वगृहोऽर्थावग्रहश्व गाथायां बन्धानुलोम्येन पूर्वमर्थशब्दस्य दानाव्यक्केत्रनिवासिदेवता उत्पन्नोऽयं सकलमहीवनयस्वा निर्देशःगृहणे गृहणविषये जावावग्रहः । यत्र तु यस्मिन् पुनमाति प्रमादभाजस्तदानुकूल्यवृत्तयस्तथाविधाभित्राषिणस्त देवन्द्रावगृहादौ यदा साधुः किं चिद्वस्तुजातं गृह्णाति सचिस्प्रत्यनीकयुक्तप्रत्यूहापहाराय प्रवर्तन्त इति समीचीनमय समचित्तं मिधं या तस्य तदागृहणं भावायगृहः (मलिकयथोक्तमवग्रहकालमानम् । अन्यथा वा बहुश्रुतैरुपयुज्य निर्व रणत्ति) मनसि करणस्योपलकणत्वादनुक्कापनायाश्चाकरणे चनीयमिति ( सेसनिवंसिमुहत्तंति ) चक्रवर्तिनं मुक्त्वा त्रिविधं प्रायश्चित्तम् । पतदेव सविशेषमाह। पः शेषो नृपस्तस्य जघन्यतो मुहूर्त कानावग्रहः । कृतराज्याभिषेकस्यान्तमुहूर्तादूच मरणाडाज्यपदपरिनशाद्वा शेषनृ पंचविह परूविए स, जग्गहो जाणएण घेतब्बो । पतीनामुत्कृष्ट कालावनदे भजना कार्या। किमुक्तं भवति । अनाएउग्गहिए, पायच्चिचं नवे तिविहं॥ अन्तर्मुहूर्तादारज्य समयवृद्धया वर्षमानानि चतुरशीतिपूर्व- पञ्चविधेऽवग्रहे प्ररूपितसतीदं तात्पर्यमभिधीयते स एवं सवाणि यावद्यान्यायुःस्थानानि तेषां मध्ये यद्येषां नृपतीना विधावगृहो ज्ञापनपञ्चप्रकारोवगृहःस्वरूपवेदितो गृहीतव्यो मायुस्थान निर्वर्तितं यो वा यावन्तं कायं राज्यश्वर्यमनुवति नाझपकन कुत इत्याह अज्ञातेऽनधिगमे सति ययवगृहमवरतस्य स उत्कृष्टः कानावग्रहः॥ हाति ततस्तास्मन्नवगृहीते त्रिविधं प्रायश्चित्तं जवति तदंघाह। एवं गहवइसागा-रिए विचरिमे जहनओ मासा। इक्कमकविणे मासो, चालम्मासो अपीमफलएम् । उकोसो चउमासा, दोमुवि जयणा न कज्जाम्म ।। कटुकलिंचे पणगं, गरे तह मसगाईसु॥ एवं गृहपतिसागारिकयोरपि शेषनृपतिवज्जघन्योत्कृष्टश्च शकमाढणी कनिमः शरस्तम्बस्तयोः संस्तारके मासलघुकालावग्रहो कष्टव्यः । इह च यद्यपि शेषनृपतिगृहपतिसा काष्ठमयेषु पीयेषु फलकेषु च प्रत्यकं चत्वारो मासलघवः गारिकाणामायूंषि पूर्वकोदिपर्यवसितान्यपि संनाव्यन्ते तथा काष्ठं च काष्ठशकलं कलिञ्चच वंशदसं काष्टकनिश्चंतत्र तथा पि चूर्भिकता किमपि बाहुल्यादिकारणमुद्दिश्य चतुरशीति कारे जस्मनि मडकादिषु मल्लकं शरायमादिशब्दातृणमपूर्वप्रकपर्यन्तान्येवानिहितानीत्यत्रापि तदनुरोधेन तथैव गलादिपरिगृहः । एतेषु सर्वेष्वपि पञ्चकं पश्चरात्रिदिवानि व्याख्यातानि । तथा चरम सार्मिकावग्रहे ऋतुबके मासक ति त्रिविधं प्रायश्चित्तमझातावगृहरूपस्यायग्रहणे मध्यम । ल्पविहारिणां जघन्यो मासमेकमुत्कृष्टो वर्षासु चतुरो मासान् अक्तोऽवग्रहकहिपकः । व्य०१० । कालावगृढः (दोसु वि भयणा कज्जम्मित्ति ) द्वयोराप जभन्योत्कटयोः कार्ये समापतिते भजना। किमुक्तं भवति साम्प्रतं ज्याद्ययगृहप्रतिपादनायाह । ग्यानादिनिः कारणैः कदाचितुषको मासौ वर्षासु चत्वारो दबुग्गहो उ तिविहो, सञ्चित्ताचित्तमीसिनो चेन । मासान प्रतिपूर्यरातिरिक्ता वा भवेयुः । गतः कासावग्रहः। खनुग्गहो विनिनिहो, दुनिहे कामगहो होइ ।। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः । उगाह व्यावग्रह विविधः शिष्यादः सचित्तो रजोदरणादेरचित्तः अागासकुच्चिपूरी, नग्गहपमिसे हियम्मि कामम्मि । शिप्यरजौहरणादेर्मिश्रः । केत्रावग्रहोऽपि सचित्तादिविविध न हु होति जग्गहो सो, काले पुगे वा असतो ।। पच । यदिवा ग्रामनगरारएयजेदादिति । कामावगृहस्तु ऋतु यथा कोऽपि पुरुषो वुनुक्कया पीमितःसन् चिन्तयति पूरयाम्युघवर्याकाबनेदादिधति । नावाऽवग्रहप्रतिपादनार्थमाह ॥ दरमाकाशेन मे वुनुक्तापगच्छति । स यथा आकाशस्य एवमइनग्गहो य गहणो-गहोय जावग्गहो पुहा होइ। मेवावग्रहे प्रतिषेधितो यः कालो वर्तते तस्मिन्नुत्पादितः सोऽवइंदियणोइंदिअत्थ-वंजणोग्गहोहोइ दसहा य।। ग्रहो ऽवग्रहोन जवति प्रतिषिकासाचीर्णत्वात् । अथवा भावावग्रहों द्वेधा तद्यथा मत्यवग्रहो गृहणावग्रहश्च। तत्र मत्य- प्रकारान्तरेण काद्विकेनानुझातोऽवगृहः कथमिति चेदाह । वगहों द्विधा अर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्वतत्रार्थावगृहन्छिय- गिएडाणं चरिमासो, जहि कत्तो तत्थ जति पुणो वासं । ना इन्द्रियभन्दात्योढा व्यजनावग्रहस्तु चलरियिमनोवर्ज वायति अभखेतो, संती दोमुं पितो मानो।। चतुर्का स एप सर्वोऽपि मतिजावाबग्रहो दशधेति । यत्र ग्रीप्माणामुणकालस्य चरमः पश्चादापाढनामा मास: ग्रहणावग्रहार्थमाह॥ कृतस्तत्र यदि पुनरन्यकत्रेऽसति तथाविधान्यकेत्रान्नावतो गहणोग्गहम्मि अपरि-गहस्स गहएस्सगहणपरिणामो। वर्षेच वर्षाकालं तिष्ठति ततो प्योरपि काअयोनीमचरममा कह पमिहरियापामिहा-रियं व होइ जड्यन्यं ॥ सयोवर्षा चेत्यर्थतो लाओ भवति । एवं करणवतो तूयोरपि अपरिगहस्य साधार्यदा पिण्डवसति वरपाश्रग्रहणपरिणा काबयोः सचित्तादिवाभो ऽनुशात इत्यर्थः । मो भवति तदा स ग्रहणनावावग्रहो भवति तस्मिश्च सति एमेव य समते, वासे तिमि दसगा उ नक्कोसो। कय केन प्रकारण ममेदं वसत्यादिकं प्रतिद्वारिकमप्रतिहारक वासनिमित्त वियाणं, जग्गहो मासकोसे ।। वा जवन्यचं यतितव्यमिति । प्रागुक्ताश्च देवेन्झायवग्रहः पञ्च- एवमेव अनेनैव प्रकारेण वर्षे वर्षाकाले समतीते यदि मेधा विधोऽप्यस्ति स ग्रहणायगृहे अष्टव्य इति । आचा०७०। वर्षति ततो ऽन्यद्दिवसदशकं स्थीयते तस्मिन्नपि समाप्तिएमेव बणपि, पि नवरोग्गहस्स न विनागो। मुपगत यदि पुनवर्षति नतो द्वितीयं दिवसदशकं स्थातव्यं तकिं कतिविहो कस्म कम्भिव, केवइयं वा नवे काझे ।। स्मिप्यतीते पुनर्वृष्टी तृतीयमपि दशकं तिष्ठति । एवमुत्कर्षतप्रश्र प्रथमपदव्याख्याऽनुपयुक्तत्वान गृहीता अत्रावग्रहस्य स्त्रीति दिवसदशकानि वर्षानिमित्तस्थितानामुत्कृष्टो ऽवग्रहः विभागो वक्तव्यस्तमेवाह । किं कतिविधः कस्य वा कस्मिन्या पामासप्रमाणो नवति। तद्यथा एकोनीमचरममासश्चत्याकियन्तं का जवन्यवग्रहः तत्र किमित्याद्यद्वारव्याख्यानार्थमाह रो वर्षाकालमासाः षष्टो मार्गशीष दिवसदशकत्रयलकण किं उम्गहोत्ति नणिए, तिविहो न होति.चित्ताद।। इति । व्य०४ उ०। नि० चू०५॥ अदत्तादानदोषनिवृत्यर्यमवग्रहोऽनुज्ञापनीयः॥ एकेको पंचविहो, देविंदादी मुणयव्वा ।। किमवग्रह शत नणिते पृष्टे सूरिराह । त्रिविधो नवत्यवगृहश्चि समणेजविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसुपत्तादिः सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च । पुनरकैकः कतिविधः इति रदत्तनोगी पावं कम्म णो करिस्सामीति समझाए सप्रश्नमुपजाब्याह एकैकः । पञ्चविधः पञ्चप्रकारो ज्ञातव्यः कोऽ व्यं नंते ! अदिप्यादाणं पञ्चक्रवामि से अपविमावित्याह देवेन्डादि देवन्द्रावग्रहो राजावग्रहो माएकलि- मिता गामं वा जाव रायहाकिं वा वा सयं अदिन्नं कावग्रहः शय्यातरावग्रहः साधम्मिकावसहश्च । गतं कतिविधभारमिदानी कस्य ननवतीति प्रतिपादयति । गिए हे जाणेवणेणं अदिनं गिराहावेज्जा णेवाए कस्स पुण उग्गहोति, परपामंमीण उग्गहो नत्थि । । अदिश गिएहंतं पि समाजाणेजा। जेहिं वि सकि निगह सेते संयनि, अगीते गीतगक वा ॥ पपइए तेसि पियाई जिव उत्तयं वा मत्तयं वा डंग कस्य पुनरवग्रहो जयतीति शिष्यप्रश्नमाशय प्रोच्यते वा जाव चम्मच्छेदाणगं का तेसिं पुवामेव उग्गहं अणपरपापछिमनामवग्रहों नास्ति ये च निहवा ये च सनायाश्च पविया अपमिनेहिया अपमज्जिया एगिए हेज्जवाप संयत्या गीतार्थरपरिग्रहीता ये चागीतार्या गीतार्थनिश्रामनु गिहेज्ज वा तेसिं पुवामेव उम्गहं अणुप्मविय पब्लेिहिय पपन्ना यश्च निकासा मेकाकी गीतार्थ एतेषां संवैषामप्यवग्रहो नास्ति (अस्य बहुवक्तव्यता उघसंपयाशब्द) पमज्जिय तो संजयमेव उगिएहेज्ज वा पागए हेज्ज बुखावासातीते, कासातीनेन जग्गहो तिविहो । वा से आगंतारेमु वा ४ अणुवीइन्ग्गहं जाएज्जा । आनंबणे विशुक्छो, जग्गहो उ कजबुच्छेओ !! जे तत्थ ईसरे जे तत्य समाहिटाए ते उम्गहं आमावृक्षावामातीते मरणेन प्रतिलग्नतया वा आरोगीनतेन वेज्जा काम खल आउसो हालंदं अहापरिणाातं. वा ऋणेन वा वृक्षावासे वा अतीते का अतीते ऋतुपके वसामो जाव आउसो जाव आउसनेस्स उग्गहे जाव काले मासाधिके अवगृहस्त्रिविधोऽपि न भवति । सचिनस्याचित्तस्य मिश्रस्य च गरणं न कल्यते इति भावः । माहम्मियाए जाव उग्गहं नगिएिहस्सामो तेण परं कुत इत्याह । आलम्बने वृद्धावासबकणे विके परिसमाप्त विहरिस्मामो॥ यस्त कार्यनूतो ऽधग्रहस्तस्यापि व्यवच्छेदो भवति कारण- थाम्यतीति श्रमणस्तपस्वी यतोऽहमत पयंनूतो नथियानाव कार्यम्यानाचात् वस्तु मन्यते । कावातीते विनावग्रहस्य मीति दर्शयति । अनगारोऽगा वृतास्तनिप्पन्नमगारं तन्न व्यवच्छंदप्रति दृष्टान्तमाह। विद्यत इति अनगारल्यनगृहपाश इत्यर्थस्तथा अकिंचना न Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३१) जग्गह अभिधानराजेन्धः । नग्गह विद्यते किमप्यस्येत्यकिंचनः निप्परिग्रह इत्यर्थः । तया अपुत्रः विधवा वा गुणविज्जइ, कि पुण पिय माइनायपुत्तादी। स्वजनबन्धुरहितो निर्मम इत्यर्थः । एवमपशुः द्विपदचतुष्प सो पुण पनुवाऽपजुवा, अपनू पुण तत्थिमो होइ ।। दादिरहितः यत एवमतः परदत्तन्नोजी सन् पापं कर्म न करिष्यामीत्येवं समुत्यायैतत्प्रतिशोजवामीति दर्शयति । यथा विधवाऽप्यनुज्ञाप्यते किं पुनः पिता माता नाता पुत्रादिर्वा सर्व जदन्तादत्तादानं प्रत्याख्यामि दन्तशोधनमात्रमपि पर- स सुतरामनुज्ञाप्यः केवलं पुनः पुत्रचातृप्रनृतिको द्विधा । कीयमदत्तं न गृहामीत्यर्थः तदनेन विशेषणकदम्बकेनापरेषां प्रोजवेदप्रतुर्वा । तत्र पुनरप्रनव श्मे वक्ष्यमाणा जवान्ति शाक्यसरजस्कादीनां सम्यक् श्रवणत्वं निराकृतं नवति । तानेव नियुक्तिकृदाह। सचैवं नूतोऽकिंचनः श्रमणोऽनुप्रविश्य ग्रामं वा यावत्राजधानी आदेसदासजइए, विरिकजामाइए न दिया य । वा नैव स्वयमदत्तं गृढीयान्नवापरेण गाहयेन्नाप्यपरं गृह्णन्तं __ अस्सामिमासो बहुतो, सेसपनुणुग्गहेणं वा । समनुजानीयाद्यैर्वा साधुनिः सह सम्यकप्रब्रजितस्तिष्ठति या आदेशः प्राघूर्णको दासोऽकिंचनो नृतकः कर्मकरो विरितेषामपि संबन्ध्युपकरणमननुज्ञाप्य न गृह्णीयादिति दर्शयति ।। तो गृहीतरिक्तादिनागः पुत्रो नाता अन्यो वा तयाऽन्यत्र तद्यथा छत्रकमिति छदूअपवारणे छादयतीति नत्रं वर्षाक पृथग्गृहे जामातरि एतेऽस्वामिनोऽप्रभव एतान् यदि अनुल्पादि। यदि वा कारणिकः क्वचित् कुकणदेशादावतिवृष्टिसं झापयति तदा प्रायश्चित्तं मासलघु शेषाः प्रभवः स्वामिननवाचत्रकमपि गृह्णीयाद्यावच्चर्मच्छेदनकमप्यननुज्ञाप्य प्रत्यु स्तान् अनुज्ञापयेत ( अणुगणवति) अप्रचूणामपि येषां प्रेक्ष्य च नावगृह्णीयात् सकृत्प्रगृह्णीयादनेकशः तेषां च संबन्धि प्रणानुग्रहः कृतो यथा त्वया कृतं दत्तं वा तत्प्रमाणमिति तेन यथा गृहीयात्तथा दर्शयति । पूर्वमेव ताननुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य वा अनुग्रहेणाप्रभूनाप अनुज्ञापयेत नान्यथा। चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणादिना सकृदनेकशो वा गृह्णीयादिति अप्रणामनुज्ञापने दोषमाह । किश्च (संश्त्यादि ) सनिचरागन्तागाराद। प्रविश्यावविचि दियरातो निच्चहणा, अप्पडदोसा आदिन्नदाणं च । न्त्य च पर्यालोचयात विहारयोग्य क्षेत्र ततोऽवगृहं बसत्यादिक याचेता यश्च याच्यस्तं दर्शयति । यस्तत्रेश्वरो गृहस्वामी तम्हा न अणुमबए, पहुं च पशुणा च संदिह ॥ तथा यस्तत्राधिष्ठाता गृहपतिना निक्किप्तभरः कृतस्तानव गहपतिगहवतिणिं वा, अविनत्तसुतो अदिष्पकमा वा ।। प्रद क्वेत्रावग्रहमनुज्ञापयद्याचेत कथमिति दर्शयात (काम अप्रणामनुज्ञापने दोषा दिवा रात्रौ वा निष्काशनं तत्र मिति) तवेच्छया खल्विति वाक्यालंकारे। आयुष्मन् ! गृहपते जनगोविनाशादयो दोषा न केवलं निष्काशनमदत्तादानं ( प्रहावंदमिति ) यावन्मात्रं कावं जवाननुजानीते (अ च । यस्मादप्रणामनुज्ञापने एते दोषास्तस्मात्प्रतुं प्रतुसं. हापरिमायंति) यावन्मानं केत्रमनुजानीषे तावन्मानं कालं दिवाऽनुज्ञापयेत् । तमेवदर्शयति (गहपतित्ति) वाशब्दादवि तावन्मात्रं च केत्रमाश्रित्य वयं वसाम इति यावदिहायुष्मन् भक्तज़ातृपितृव्यादिर्वा प्रभवति । अथवा या दुहिता विधवा यावन्मात्रं कालमिहायुष्मतोऽवगृहो यावन्तश्च साधमिकाः निसृष्टा गृहे प्रमाणीकृता सापि प्रज्जवति । यदि वा यः स्वय साधवः समागमिष्यन्ति तावन्मात्रमवग्रहं गृही घ्यामस्तत दातुं प्रतुणा आदिष्टः सोऽपि प्रनवति । एताननुज्ञापयेत् । का विहरिप्याम शति । आचा०५श्रु०७०१०॥ व्य०७०। (७) अवगृहीते चावग्रहे उत्तरकालविधिः साधर्मिकागम___(६] विधवाप्यनुज्ञापनीया। ने उपनिमन्त्रणाम् । सागारियअहिगारे, अणुवत्तं तम्मि को विसो होति ।। से किं पुण तत्थोग्गहंसि पवाग्गहियंसि जे तत्थ संदिवो वपन वा, विहवा सूत्तस्स संबंधो॥ साहम्मिया संनोतिय समणुमा उवागछिज्जा जे तेण इह पूर्वसूत्रात्सागारिकाधिकारः शय्यातराधिकारोऽनुवर्तते तस्मिन् अनुवर्तमाने सूत्रे कोऽपि स सागारिकः कोऽपि सयमे सियाए असणो वा ४ तेए ते साहम्मिया संनो. प्रतुरिति प्रतिपाद्यमित्येषविधचा सूत्रस्य संबन्धः। अस्य व्या झ्या समणुष्मा उवणिमंतेज्जा को चेव एं परवमियाए ख्या । न विद्यते धयो नर्ता यस्याः सा विधवा ततो पुहिता उगिजिकय नगिएिहय जवधिमज्जा से आगंतारेसु वा। जातिकुलवासिनी पितृगृहवासिनी वा इत्यादि । अथवा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि पोग्गहियांस जे तत्थ साह समासकरणादिदं षष्टव्यम् या दुहिता विधवा याच झातिकुत्रवासिनीहिता। ज्ञातिकुलवासिनी नाम या गृहजामातुर्दत्ता म्मिया अम्मसंनोइया समणुष्णा नवागच्छेज्जा । जे तेणं साप्यवगृहमनुझापयितच्या किमङ्ग! पुनः पिता वा नाता वा संयमसियए पीढे वा फलए वा सेज्जासंथारए वा तेण ते पुत्रा वा स सुतरामनझापायतव्यः । तथाचाह (से यावती साहम्मिए अम्मसंजोइए समणुम्मे उवणिमंतेज्जा एो चेव त्यादि) तताहावयवगृहमवगृहीतव्याविति सूत्राकरार्थः॥ णं परिवमियाए उगिकिय गिएिहय वाणिमंतेज्जा संप्रति भाष्यकारो व्याख्यानमाह। से आगंतारेसु वा ४ जाव । विगयधवा खलु विधवा, धवं तु जतारमन नेरुत्ता । (से इत्यादि) तदेवमवगृहीतेऽवगहे स साधुः किं पुनः कुर्याधारयति धीयते वा, दधाति वा तेण उधवोत्ति दिति दर्शयति । ये तत्र केचन प्राघूर्णकाः साधमिकाः साधवः विगतधवा स्वसु विधवा । विगतो धवाऽस्या इति व्यु- सभोगिका एकसामाचारीप्रविष्टाः समनोज्ञा नझुक्तधिहारिण त्पत्तेःधवं तु भरिमार्नेरुक्ता निरुक्तिशास्त्रविदः । कया व्यु जपागकोयुरतिवयसो भवेयुस्त वंतता ये तेमवसाधुना परत्पत्येत्याह ।धारयात तां स्त्रियं धीयते वा तेन पुसा सास्त्रीद सोकार्थिना स्वयमेषितव्यास्ते च स्वयमेवागता भयेस्तांश्चाशधाति सर्वात्मना पुष्णाति तेन कारणेन निरुक्तिवशात् धव नादिना स्वयमाहृतेन स साधुरुपनिमन्त्रयेद्यथा गृहीत यश्त्युच्यते ॥ मेतन्मयानीतमशमादिकं क्रियतां ममानुग्रह इत्येवमुपनिमन्त्र Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३२) उग्गह अभिधानराजेन्द्रः । जग्गह येन्नचैवं (परवडियाएत्ति) परानीतं यदशनादि तत् ताम- विविधे कव्ये उपयोग प्रयच्छन्ति । रिविधं व्यं नाम पाहा. वगृह्माश्रित्य नोपनिमन्त्रयेत् । किं तर्हि स्वयमेवानीतेन निमन्त्र- र उपधिश्च । तत्प्राघूमकादयो गृहिणो विस्मृत्य परित्यज्य येदिति । तथा ( सश्त्यादि) पूर्षसूत्रवत्सर्व नवरमसांभो- वा गता जपेयुः। तेषु गतेषु यावदपराडो नवति तावदादार गिकान् पीफसकादिनोपनिमन्त्रयद्यस्तेषां तदेव पीउकादि नगृहन्ति परंतस्तु गृहन्ति उपधेस्तु तृतीये दिवसेगते ग्रहण सनांग्यं नाशनादीति। कुर्वन्ति इतरनाम अर्थजातं तत्कदाचिदगारिणां विस्मृतं भये(सूत्रम्) अस्थि या इत्था के उदस्स य परियावनए त् तदेकान्तं निकेपणीयम (गहियंतित्ति) यदि धानकादियअचित्ते परिहरणे रिह सच्चे व नग्गहस्स पुव्वाणुष्य भिगृहीतं तथा प्रतिवासिकैनष्टो प्रवेत्तथा तत्रापि यत्तेषां विवणा चिट्ठ प्रहालंदमवि नमगहो । स्मृतं तद्यथोक्तविधिना गृहन्ति । एष नियुक्किगाथासमासार्थः। सांप्रतमेनामेव विवृणोति ॥ भस्य संबन्धमाह। अमहीणेसु वि साहम्मि, तेसृइतिएसु उग्गहो वुत्तो। पायं सायं मऊं-बे यनसना उवस्सयसमंता । अयमपरो पारंनो, गिहीवि जदे जग्गहे हो। एहिंति अपिहाए, लहुगो वेसाइमे तत्थ ॥ अत्राधीनेष्वपि केत्रान्तरं गतेषु साधर्मिकेषु इत्येषोऽवग्रहः प्रातः प्रभाते सायं संध्यायां मध्याहेच कालत्रये वृषनापाप्रोक्तः । अयं पुनरपरः प्रकृतसूत्रस्यारम्नो गृहिभिर्विजदः परि- अयं समन्तात् प्रत्युपेक्वन्ते अप्रत्युपेकमाणानां लघुको मासम् । त्यक्तो यः प्रतिश्रयस्तद्विषयेऽवग्रहो नवति । अनेन संबन्धेमा- दोषाधेमे । तत्राप्रत्युपेकणे नवन्ति ॥ यातस्यास्य व्याख्या। अस्ति वात्रानन्तरस्तत्र प्रस्तुते प्रतिश्रये साहाम्मयामधाम्मय, गारचिणि खिवणबोसिरणज्जु । किंचिदाहारार्थ जक्तादिकं गृहस्थसत्कमुपाये पर्यापनं विम्मृतं परित्यक्तमुपाश्रयपर्यापन्नम् अचित्तं प्राकं परिहर गिएहणकट्टणववहार, पच्चकडछाहणि ब्बिसए । णार्य साधूनां परिभोक्तुं योग्यं तत्र सैवावग्रहस्य पूर्वानुका सधर्मिणी संयमी अन्यधामणी परतीर्थिका अगारस्थी पना तिष्ठति तत्रोपाधये तिष्ठद्भिः पूर्वमेवानुजानीत प्रायोग्यमि अविरतिका एता प्रविष्टाः सत्यः साधुप्रतिश्रयसमीपे अर्थन्येव यदवग्रहोऽनुशापितः सैयानुकापना पश्चादुपाश्रयं पर्या जातस्य निकेपणं कुर्युः । यद्वा बाझकं व्युत्सृज्य गच्छेयुः।परि पन्नग्रहणेऽप्यवतिष्ठते न पुनरनिनवममुक्कापने कर्तव्यमिति षदपराजितो वा कोऽपि संयतो रज्जुबन्धनेन घ्रियेत। तत्रराजभावः। कियन्तं कानमित्याह । यथासन्दमपि मध्यमसन्दमा पुरुषर्जाते सति ग्रहणाकर्ष व्यवहारः पश्चात्कृतोडाहनिर्विष प्रमापि कालं यावदवग्रह इति सूत्रार्थः । याज्ञापनादयो दोषा भवन्ति । श्वमेव भावयति ॥ अथामुमेव सूत्रार्थ भाज्यकृत्प्रतिपादयति । नोदण कुविय साहम्मिणि, परतित्यिणिगीनदिद्विरागण आहारो उवही वा, आहारो हुंजणारिहे कज्जा । अणुकंपनहिच्चदा-रिजवावं अगारी वा ।।। दुविहपरिहारारहो, उवही विय कोयिणाव कोयि ।। सधर्मिणी काचिच स्खण्डितशीसा गर्भवती उहाहोऽयामभह सूत्र किचिहहणे न आहार उपधिर्वा गृहीतः परिहर-1 ति मन्यमानैः साधुनिर्गाद नितरां रजोहरणादिगि यहिः जाग्रहणेन तु संप्रवरपरिभोगार्हाः। तत्राहारः कश्चिद्भोज- कृत्वा भवेत् ततः सामदायलिङ्गमपहतमिति मन्यमाना तयानोनाहों भवति कश्चित्तु न प्रवतीति । उपधिरपि कश्चिद्विविध- दनया कुपिता सती स्वयमपत्यजातं तदाश्रयसमीपे परिपरिहारसाधारणाई परिभीगरूपस्यार्दो भवति कश्चियन त्यंजत् परतीर्थिनी तु हाराष्टरागेण अस्माकमपरश प्रवाही भवति । तयादि। भविष्यतीति कृत्वा संयतानामुपाश्रयसंनिधौ पालक युत्सृजेत संसत्तासपिसियं, श्राहारो अणुवनोज्ज इच्चादि । पर लोकश्चिन्तयिष्यति एतैरेवेतजनितमिति । प्रथया अगा। मुसिरतिणवकाइयो, परिहारे अणरिहो उवही॥ काचिदनुकम्पया यरच्या बायकं तत्र प्रतिपत तानुकम्पसंसक्त हीछियादिजन्तुमिश्रं भक्तपानम् । श्रासबो मद्यम् या नाम पुकानादी काचिद्दुस्था योषिज्जीवनाय स्थापत्यं पिशितं पुझसम इत्यादिक आहारो अनुपभोज्यः। साधूनामुए तदाश्रयान्तिके त्यजति वरमेते अनुकम्पापरायणा अमुं बालभोक्तुनयोग्यः शुषिरतृणवकमादिक उपधिरपि परिहारस्या कं शल्यातरस्यापरस्य वा ईश्वरस्य गुडे निशेषस्यन्तीति नहीं मन्तव्या । अर्थादापन्न प्रोदनादिक आहारो वस्त्रादि यहच्या अनिसंधिमन्तरणवमेव व्युत्सृजति ॥ कश्चांपाधः परिजोगाई इति। हा व तरेउं ना, अचयता तेणगा जिवत्थादी । वायते आणुभवणा, पायोगे होइ तप्पटमयाए । एएहिं वि य जणियं, तहिं व दोसा उजणदिहा।। मो चेव नग्गहा खबु, चिट्ठ कायो उबंदक्खा ॥ स्तनकादयो वस्त्रादिक हर्तुं वा तरीतुं वा ( अचयता ) साधुभिः प्रतिश्रये तिष्ठद्भिस्तत्प्रयमतया या प्रायोम्यस्थानु अशक्नुवन्तःसाधूनांप्रतिश्रयसन्निधौ परित्यजेयुः । उपलक्षणकापना कृता जवतिसा पवापाश्रयपर्यापन्नस्यापि ग्रहणे अव. मिद तेनान्यतीर्थिकादयः प्रत्यनीकतया हिरण्यसुवर्णादिकमग्रहस्तिति । न पुन त्या ऽनुशाप्यते । या तु सूत्रे नन्दाख्या पहृत्य तत्र निक्तिपेयुः ततो यदि वृषनाः त्रिसंध्यं च सात लन्द इत्यनिधान स कात्रा प्रतिपत्तव्यः इति कृता सुत्रव्या- प्रत्युपेकन्ते तदा लोको घूयात् पतैरेवैतदपत्यनाएर जनित ख्या जायकृता। सुवर्णार्यमत्र प्रकिप्तमिति । यस्तु देहे बोहोऽव्यार्थवैदिकसंप्रति नियुक्तिविस्तर। रणव्यपरोपितस्य पुरुषादेः शरीरमित्यर्थस्तत्र प्रातचरणा पुष्वंसहा दुविहे, दवे आहार जाव अवरबहे । कर्तव्या । सम्यक् प्रतिचर्य यदि कोऽपि न पश्यति तदा पारउहिम्स ततियदिवसे, इतरे गाहियम्मि जयणाए । ठापनीयमिति हृदयम् । तच परावग्राहपरकीयनियेशनादौ पूर्व प्रयमं नि पव वृषनाः समन्तादपाश्रयमेवावलोकयन्तो (नियोति) परित्यजन्ति । किंतु परगप गृहीत तप नाग इनि Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह ( ७३३ ) अभिधानराजेषः । चिरपरिचराणं, दोसा य गुणाय वमिया एए । एतेण सुत्तं न कतं, सुत्तनिवातो इमो तत्थ || प्रतिचरणप्रतिचरणयोः प्रतिश्रयस्याप्रत्युपे कुणाप्रत्युपेक - णयोर्यथाक्रममेते दोषा गुणाश्च वर्णिताः । परमेतेन पर्यन्तसूत्रं न कृतं न विहितं किंतु सामाचारीप्रकाशनार्थ सर्वमेतव्याख्यातमिति । सूत्रनिपातः पुनरयं तत्रेति सूत्रनिपातस्यैचोपदर्शनार्थः ॥ गंगागारडिया, कले आदेसमादिणा कोइ । सि ं विस्सम वा, बड्डित्तुगया अणाजोगा ॥ इह यत्रागारिण आगत्यागत्य तिष्ठन्ति तदागन्तुकागारम् । तत्र कार्ये कारणविशेषतः स्थितानां प्रकृतसूत्रमवतरति क मित्या आदेशापर्णकास्तत्र केचित्यधिका आगन्तुकामारे रजन्यां वासमुपगता दिवा वा भोजनार्थे विश्रामं कृतवन्तसतत उपत्वा विश्रम्य वा किचित् व्यज्ञातमनानोगमानच्छन्तो गताः । किंतु स त्यजेदित्याह । समिससागरस- सिह गुलसोमादि प्रहारो | ओहे अहम् प होलवही जात वा ॥ शहादार उपधिवेति द्विविधं इव्यं भवति । तत्राहारः स. मितिसकुशाकरसस्नेहगुडलवणादिकः । समितिः कणिक्का शेतीत तु द्विधा जयति भोष उपाधिः उपप्रदे या । श्रोपोपधिपत्यर्थः अजाय परित्यक्तुं भवेत् तत्राहारोपधिविषयं तावद्विधिमाह । काऊ स सागरिए परिवरथा हारजात अपरण्डे । एमे उपस्सिप मुझे दोसा य गहणार || आहारसागारिके प्रदेशे कृत्वा ताक्प्रतिचरणं कुर्वन्ति यावदपराह्नः संजायते । एवमेवोपधेरपि शून्ये भागे स स्थापनीयः अन्तिकं वा अपहृतमेव तत्र जनदष्टे मतिदोषा वादन] ॥ अहवाल कोष उग्गामगवेरियं चतुणं । देहाण महत्व था, परिसपराजितो या वि ।। भयवा कश्चिद्मामकं पारदारिकं वैरियं वा स्या प्रत्य नीता तत्र पेित् स्त्री या काचिदत्यन्तदुःखिता - हायसमरयमुपाश्रय समीपे कुर्यात् परीषदपराजितो या संयत एव कोऽपि रज्जुबन्धनेन म्रियेत् " वरं प्रदग्धुं ज्वक्षितं हुताशनं नवापि नग्नं चिरसंचितं व्रत " मिति कृत्वा । दपि खमेवा, पुरिसत्या मेहूणो विसेो पि । एमेय समागम्य, चित्तं का गिरहणादीणि ॥ कोऽपि कंचित्पुरुषव्याये जातनिमित्तं या संक लहो वैरमित्यर्थः तेन वा कंचिदू व्यपरोप्य संयतोपाश्रयसमी परित्यजेत् एवं त्रियमपि कांचिद्विनाश्य प्रक्षिपेत् । नयर मैने विशेषः किमुतं नवति सपनी चतुर्थवताप्रकारिणी मत्वा अपरोऽप्यत्र तत्र व्युत्सृजेन् अनायास प्रयासा धादिति कृत्याचमेव भ्रमणे गन्तव्यम् । तमपि कचिदु करव्यार्थ वैरेण वा मारयेदित्यर्थः । तत्र साधून शङ्केरन् ततो दणकर्मणादीनि पदानि प्राप्नुवन्ति यतएवमतः । कालम्म पहुप्ते, वचरमादी ठवित परियरणं । रक्खति साथमादी, ब्रह्मजादिङमोहिं ॥ त्रिसंध्य वृषभैः समं ततो वस्रुतिः प्रत्युपेक्षणीया । प्रत्युपेकिनायां च यदि किञ्चित् कल्पस्थकादिकं पश्यति कालश्व उग्गह पूर्वत्वरादिषु स्यापयित्वा प्रतिचरणं कुर्वाणः प्रच्छास्थिताः श्वानमार्जारादिना बिनाश्यमामा रक्षकृति यावत्पस्कादिकमन्यैर्हमिति । बोपमापकाले करिति णासमा । पण पुण देहे परग्गदेव उन्नति ।। , यत्तत्र हिरवीदि केनचिपरित्यकं नयति तत्प्रज्ञात काल एव प्रत्युपमाणाः सम्प्रनिरीक्ष्य वृपना जनज्ञापनार्थ वोलं कुर्वन्ति । यथा केनचित्पापिनद्रं हिरण्यादिकमस्मदपयशोऽर्थनिहितम् पूर्वाशैकादयश्च द्विविधस्यापि अभ्यस्य द्वारकर्तव्याः। किं कारणमीयते। बोई ममतं परेण तेसि च तेन जति कर्ज | गिरहंता विविमुका, जतिवि ण वोच्छिज्जती जावो ॥ अपराह्नात्परतस्तेषां पथिकानामाहारममन्यते। तेषां साधूनां यदि नारेण कार्य जयति तो विशुकाः यद्यपि च नावस्तेषां पान तथाप्यपसमयावृष्यगृहांन कचिद दोषः । उपाधि दि वसे पूर्णे गृह्णन्ति एतावता तद्विषथममत्वस्य व्यवच्छेदात् । जाने विरागाणं पितं पर्यसिति । पावणमणिच्छंते, कप्पं तु करेंति परितुत्ते ।। अथ तेषामद्यापि नावो न व्यवचिद्यते ततोऽव्यवच्छि जावे तेषां स्ववस्त्राणि गवेषयतां चिरादायातानामपि तमुपधि तु दर्शयन्ति । एवं च तेषां प्रज्ञापनां कुर्वन्ति । अस्माभिरेतानि वस्त्राणि स्वीकृतानि ततोऽनुग्रहं मन्यमानाः साधूनामनुजानीथ एवमुक्ते बमुज्ञाते ततः सुन्दरमा तानि परमाणि परितत मरणार्थ कल्पं कुन्ति । अथार्थजातविषयविधिमाह । पसो नियन्तपुडा, करीदि दापनि पत्यां एथे । दरिसिंति अपिच्छंतो को पुच्छति केण वियं च ॥ होपाश्रये यद्यर्यजातं पतितमुपलभ्यते तदा तदप्यल्पसागारिके स्थाप्यते । शकतादयश्ध दरे कर्त्तव्याः प्रत्यवनियु यस्तत्रैव समायातैदिति पृष्टाः कुप्रास्माकं तदजातमिति ततः करादिना हस्तादिसंज्ञया दर्शयति । अत्र प्रदेशे पनं प्रेध्वम् । अथ ते न पश्यन्ति ततः स्वयमेव तदर्थजातं दर्शयन्ति । यदि ते पृच्छेयुः केनेदमंत्र स्थापितं ततो वक्तव्य के पृच्छन्ति केन स्थापितं चेति । एवं तावडुपाश्रयपर्यापहारादी विविक्तः । अथय्यारादिविधिमाह । जम्माण गहियाग हिप्स सिक्कादी | गेति असंच संचइये वा असंथरणे ॥ जटा राजपुरुषास्तदादिनयात् नष्टे शय्यातरादौ अथवा शख्यिकाः प्रातिवेस्मिकास्तैर्गृहीतृनिर्धनिकरागृहा दापयितुमारब्धास्ततस्तेषु शय्यिकादिषु नष्टेषु तत्र य आहारोऽ संचयिको दधिघृतादिस्त गृहन्ति च संस्तरणे तंत्र संचयिकमप्युपभ्यादिति । सोवितरण, एमेव य होइ उवहिगणं पि । पुण्यागरम कटुणं, जुनंति दो व महेवि ॥ प्रातिये श्मिकादिसापेो वा नो प्रवेत् इतरो वा निष्कः । सापेको नाम तयस्तथागास्तद्विपरीतो निरपेस्त श्रीपन एवमेवाहायपरपि गृहणं कुर्वन्ति । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३४ ) अभिधानराजेन्द्रः 1 उग्गह सापेच प्रत्यागतेषु कथयन्ति कथितं च दत्तमनुज्ञातं सत्परिज्ञन्ति । ये तु निरपेक्षनष्टास्तेषु निर्विवादमेव परिअते । एवं (विति ) अर्धआतेऽपि ग्रहणं मन्तव्यम् । परिहारावाद । पाउग्गमावियं, जति मासि एवमतिपसंगो त्ति । वारजे सज्जवमा, तह संजमसाहगं जं तु ।। यद्येवं मन्यसे प्रायोम्यं साधूनामुचितं यतदेव साधुनामनुज्ञापितं नेतरत्यायोग्यमर्थजातादि तत एवमननुका पितमप्यर्थजातं गृहतामतिप्रसने नवति तत्राप्यभिधीयते नेकान्तेनार्थजातमप्रायान्यं यत धातुरो रोगी तस्य भेषजोपमा कर्त्तव्या । यया पुनरस्थानिवोदीचे ज्वरादौ यदौषधं प्रतिषिध्यते तदेधान्यस्यामवस्यायां तस्यैवानुज्ञाप्यते एनमर्थजातमपि पुष्टकारणानावे प्रतिषिरुम् । यतु इर्मिकादौ संयमस्य साधकं तदनुज्ञातमेव । वृ० ३ ० । किंच से किं पुरा तत्थोग्गंहासे पवोग्गदियंसि जे तत्थ गाहावईल बा गाहावसाय वा सूती वा पिप्पलए बा कसोहण वा णहच्छेदए वा तं प्रप्पणो एगस्स द्वार परिहारियं जाइसा णो मम्यस्स देज्ज वा अणुपदेज्ज वा सयं कर णिज्जं तिकट्टु सेत्तमादाए तत्य गच्छेजार पुत्रामेव उत्ताणए हत्थे कट्टु चूमीए वा इमं खलु इमं खलु इमं खलु ति लोएज्जा णो चिव णं सयं पाणिणा परपाणिसि पचप्पिणेज्जा ।। (८) स सागारिकानुदकरस्त्रीकमुपाश्रयमवगृहं नानुज्ञापयेत यत्र कर्मकरा भाक्रोशन्ति यावत्स्नान्ति तत्रापि नावग्रहः । से जिक्खू वा जिक्खुणी वा सेज्जं पुण लग्गहं जाज्जा अनंतरहियाए पुढवीए ससणिकार पुढवीए जाव संताणाए तहप्पगारं उग्गहं णो उग्गिएहेज्जा २ से जिक्खू वा क्खुिणी वा सेज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा सिवा ४ तहृपगारे त्र्यंतसिक्खजाए दुब्ब मात्र गिज्जा २ से निक्खू वा २ सेज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा कुलियंसि वा आव णो उगिएहेज्ञ वा सेक्खूि वा २ खंसि वा अम्मयरे वा तहपगारे जान णो उगिरहेज्ज वा २ सेज्जं पुण उग्गहं जाणेज्जा ससागारियं सगणियं सउदयं सइरिथ सवयुद्धं सपसु समत्तपाणं णो मस्स क्खिमणपवेस जाव धम्माण जोगचिताए सेवं वा तदप्पगारे जबस्सए ससागारिए जाव सक्खुड्डपमुत्तपाणे णो जग्गहं उगिएहेज्ज बा‍ सेक्खू वा २ सेज्जं पुल जग्गहं जालेज्जा गाहावड़ कुंस्सम मज्जेण गंतुं पंथे परित्र वा णो का स जाव से एवं एचा तहप्पगारे उबस्सए शो उग्गहं गिज्जा २ सेनिक्खू वा ३ सेज्जं पुल उग्गहं जाणेज्जा । इह खलु गाहावई वा जान कम्मकरीयो वा अकोसं वा तदेव तेनादिसिणाणदिसीओदगत्रियमादि ए गिरहवि य जहा सेज्जाए आज्ञावगा ! उग्गह वरं उग्गहनता से निक्बू वा सेन्नं पुष उग्गहं जाऐम्मा प्राइमं संकेक्खाको श्रमस्स जाब fore तपगारे उपस्सए जो उग्गहं उगिएहे जात्र एयं खलु तस्स निक्खुस वा २ ससग्गियं उग्गहपकिमाए । पढमो उद्देस सम्मत्तो ॥ (v) ब्राह्मणाद्यवगृ । तेऽवग्रहः । से तारेसु वा ३ अणुवीयि उग्गहं जाएज्जा जे तत्थ ईसरे समाहिडाए से उग्गहं अष्टवित्ता काम खलु ासो अहानंदं ग्रहापरिष्ायं वसामो जात्र आउसो जा उसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मियाए ताव उम्मé उगिएहेस्सामो तेल परं विहरिस्सामो । से किं पुण तत्थ उपसि पवोम्नहियंसि जे तत्थ समणाण वा महणा वा दंए वा उत्तर वा जाब चम्मच्छेदre वा नष्टो अंतोहिंतो वाहिणीणज्जा बाहिया बाणो तोपवेसेज्जा को सुभं वाणं परिवोहेज्जा जो सिं किंचि विप्पतियं परिर्णीयं करेज्जा ॥ सनिकरागन्तागारादाय परब्राह्मणाद्युपनोगसामान्ये कारकिः सन्नीश्वरादिकं पूर्वक्रमेणावग्रदं याखेत । तस्मियायगृहीते अवगूहे यतत्र भ्रमण ब्राह्मणादीनां उत्राद्युपकरणजातं भवेत्तत्रैवाभ्यन्तरतो बहिर्निष्कामयेनापि ततोऽभ्यन्तरं प्रवेशये ब्राह्मणादिकं सुप्तं प्रतिबोधयन्नच तेषां ( अप्पतियंति) मनसः पीकां कुर्यात्तथा प्रत्यनीकतां प्रतिकूलतां न विदुद्भ्यादिति । भाचा० २ ० १ ० २ ० । (१०) पथ्यग्र होनुज्ञापयितव्यः । तो अस्य संबन्धमाह । उग्गहदुम्पिदिट्ठे, कहियं पुए सो प्रवेयन्त्रो । प्राणादीवि, संजावणसुत्तसंबंधो ॥ गृहस्थ प्रभोईटेक पुनः सोऽवग्रदोऽनुज्ञापयितव्यः इति चिन्तायामधिकृत सूत्रेणोच्यते पथ्यप्ययग्रहो ऽनुज्ञापयितव्यः । अपि शब्दः संभावनायामास्तां ग्रामे नगरे वा किंतु संभावनायामभ्यन्यपि । तथाचाद अध्यादिकेष्वप्यनुज्ञापयितव्यः । एष संभावनासूत्रस्य संबंधः । संप्रति जाप्यविस्तरः । अद्वाण पुग्वजयिं, सामारियमग्गणा इदं सुते । मग परिग्गहिए सा, गारियसेसनयणा य ॥ ध्वनि यत तत्सर्वे कल्पाध्ययने भणितमितह पुनःस भ्यानं वजतां सागारिकमार्गणा शय्यातरमार्गेणा क्रिय तथा केनचित्परिगृहीते वृक्कादौ सति शेषसागारिके नजना विस्तारन्ति तर्हि यावद्भिस्तद्गृहीतंवृक्कादि तावतः शय्यातरान् करोति असंस्तरणे एकमा शय्यारामिति भावार्थः । संप्रति पूवार्द्धव्याख्यानमाह । दिले दिले जस्म जवीयंती, जंगी हवंते व पायं वा । सायारिये होंति स एमए करीडागए सुन्नु अहिं बसंति ॥ दिने दिने यस्य भंगी - वहन्तीमुत्रीयते श्राश्रयन्ति साधवो यदि वा पालिका नाम यत्र मध्याह्ने साधार्मिकास्तिष्ठन्ति यत्र का वसन्ति तत्र वख्यविभयं कुवलयनं कुर्वन्ति तां वा यस्य दिने उपजीयन्ते तदा स बैकः स्वागारिक' Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । उग्गह शय्यातरो नवति । रीढागतेषु तु अवज्ञया यत्र तत्र गतेषु साधु यत्र रात्रौ वसन्ति सद्दिवसं स शय्यातरः । इयमंत्र नावना । यस्य न नियमन भी था पमानिकां वा प्रतिदिनमुले किंतु यया कस्मिन् दिने कस्यापि तदा यां यां रात्रिं यस्य प्रणयादिकमुपनीयन्ते तस्मिन् २ दिने स शय्यातरः समता व बायाए, जे सहि पढमंतिया । पुच्छ तेवि चिट्ठेय, पंतिए किंमु जाई वसो || विश्राम्यन्तोऽपि वायायां चे तत्र पथिकाः प्रथमं स्थितास्तिष्ठम्ति तानपि दृष्ट्वा तत्र तिष्ठेत नान्यथा किं पुनर्यत्र च साधुस्तत्र सुतरां ते अनुज्ञापयितव्यास्ततो जयन्ति ते शय्यातराः संप्रतिप गए परिगदिए सागारिय सेसर भयणा" इति व्याख्यानयाद वसतिं वा जा रचि, एगेमपरिग्गहे । तत्तिए उत्तरे कुज्जा, वा वेते गमसंथरे ॥ यत्र वृकस्याधस्तादन्यत्र वा एकस्य वा परिप्रहे अनेकस्य या परिग्रहे अनेकस्य वा पथिकस्य संघस्तस्य परिग्रहे साधवो रात्र वसन्ति तर्हि सर्वानपि तान् शब्यातरान् कुर्युः । अथ न संस्तरन्ति तदात्ममध्ये एकं शय्यातरं स्थापयति । शेषान् निविशन्ति । एषा शेषे सागारिके प्रजना । व्य ० ०७० । आम्रवनादाववग्रं आम्रफतादिभोजनं लघुनवनादाववग्रहश्च । तत्र भ्राम्रवनादौ श्रवप्र म्रकसनोजनम् । से जिक्ल वा जिक्खुणीवा निकखेज्जा अंचवणं उदागच्छित्तर जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिडाए ते उम्म अणुजाणावेज्जा कामं खलु जाव विहरिस्सामो से किं पुण तत्योग्गहंसि वा पवोग्ग हियंसिवा जिक्खू वा निक्खुणीवा इच्छेज्जा बंजोत्तर वा सेज्जं पुए प्रबं जाणेज्जा सम जाब ससंताणं तहप्पगारं वं फासूयं जान को पार्कगाजा से जिक्खू वा 2 सेज्जं पुण अंब जाणेज्जा अप्पमं ज्ञान संतान अतिरिघ्वच्छ अवोच्छिष्णं अफासुगं जाव णो परिगाहेज्जा | सो जिक्खु बा २ सेज्जं पुण वं जाणेज्जा पंजाब सताएगं तिरिच्छच्च वोच्छिष्णं फासूयं जाब परिगाज्जा | से जिक्खू वा जिक्खुणी वा अनिकंबेज्जा अंवतिगं वा, अंबपेसियं वा, बचोयमेवा, बसावा, त्र्यंबदाक्षगं वा, जोत्तर वा पायए वा सेज्जं पुण जाणेज्जा अंबचित्तगं जान बदालगं वा सजा संता अफासुपं जाव णो पनिगाहेज्जा | से जिक्खू वा निक्खुणी वा सज्जं पुण जाणेज्जा त्र्यंबनितगं वा कं वा जान संताणगं अतिरिच्छच्छिष्णं वा फायं जाव णो परिगाहेज्जा से जिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण्; जायेज्जा अंबजित्तिगं वा प जात्र संताणगं तिरिच्छ वोच्छिाएं फासूयं जाब परिणाहेज्जा | समिक्षुः कदाचिदानयनेऽहमीश्वरादिकं याचेत तत्रस्थसात कारणे श्रानं भोक्तुमिच्छेशथानं सायं ससन्तानकमप्राकमिति च मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति । किंच For Private उग्गह ( सेत्यादि ) स निकुर्यत्पुनराम्रमल्याएरुमल्यसम्तानकं वा आमी यात्कित्वतिरखी मच्चित्रं तिरखीनमपाटितम् । तथा व्यवसायिकतं यावदप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयादिति । तथा (सत्यादि) स भिक्षुरल्पाएडमस्प संतानहं तिराधीननं तथा व्यवस्तिनं यावत्प्रासुकं कारणं सति गृहीयादिति । एवमामावयव पत्र संबन्धिभवपि मयमिति । नवरम (अंनिस) आमार्कमा पोसी माफी (चो यति ) आम्रच्छली साल रस ( कालगति) भाषाएकानीति ॥ कुषनादाववग्रहः से जिक्खू वा जिक्खुणी वा अभिकखेज्जा उच्छुवणं जागतिर जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहंसि ग्रह चिक्ख इज्जा उच्छुजोर वा पायए वा सेज्जं उच्धुं जाणेज्जा से अंजान यो पहिगाहेज्जा अतिरिच्छच्छिष्ठांतच तिरिच्छ तहेब से जिक्खू वा जिक्खुणी वा से पुल अनि कंक्वेज्जा अंतरुच्यं वा उच्चुगंमियं वा उच्चोयगं वा उच्चुसालणं वा उच्छुकान्नगं वा । नोत्तर वा पायए वा सेज्जं पुण जाणेज्जा । अंतरुच्यं बा जाब का वास जाव णो पनिगाहेज्जा वा से जिक्खू वा निक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा अंतरुच्यं वा जाब मार्ग वा अप्पमं जान पनिगाहेज्जा अतिरिच्छा तिरिच्छच्छिवं तहेव पनिगाहेज्जा नवनादावग्रदः से जिक्खू वा निक्खुणी वा प्रतिकंक्खेज्जा ल्हसएव उवागच्छितएतदेव तिमिवि आलावगा णवरं ल्ह सुगं से चिक्खू वा जिक्खुणी वा अतिकंक्खेज्जा हसणं वा म्हसुणकंदं वा म्हसुणचोयगं वा म्हसुएमार्ग वा जोनए वा पायए वा संज्जं पुण जाणेज्जा लसुणं वा जाव म्हसुलवीयं वा स मं जाव णो पनिगाहेज्जा । एवं अतिरिध्वच्छिवि तिरिच्छच्चि से पनिगाहेज्जा ॥ श्राचा० २ ० १ ० १ ० । सागरिकेण नाटक प्रदानेन स्वीकृते ऽवग्रहः (सागारियशब्दे ) (१२) स्वामिना त्यक्ते चत्यते वाऽवगूढः । (सूत्रम् ) से वत्सु अव्त्राव मेसु अयोगमेस अपरपरिग्गहेसु अमरपरिग्गहिएस सब्बे व उग्गहस्स पुव्वावणा चिर | महानंदमनि जग्गड़े || अस्य संबन्धमाह गिरिजग्गढ़ सामिजढे, इति एसो उग्गहो समक्खातो। सामिजढे अजढे वा, यो होइ आरंजो ॥ स्वामिना ढः परिस्थको यो गृहिणां संबन्धी अवग्रहस्तद्विषय इत्येष वोऽवगृह विधिः समास्यातः । अयं पुनरन्यः प्रस्तुतसूत्रस्यारम्भः स्यामिना त्यक्ते प्रत्यक्ते वा अवग्रहो नवति अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या (से) तस्य निर्गन्धस्य वास्तुषु गृहेषु कथंभूतेषु श्रभ्यापृतेषु शटितपतिततया व्यापारविरहितेषु अव्याकृतषु दायादिनिरविक्तेषु । Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३६ ) अभिधानराजेन्द्रः । उगाह अथवा पुनीताले केनाप्यनुज्ञातमिति नातेदा तेषु । तथा अपरपरिगृहितेषु परैरन्यैरधिष्टितेषु अमरपरिगृहीसेषु देवैः स्वीकृतेषु सेवाग्रामातिष्ठते यया संमप्यवग्रहे किमुक्तं भवति यावन्तं कालं तानि वस्तूनि तेषां पूर्वस्वामिनामवग्रहे वर्तन्ते तावन्तं कालं सैव पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति न पुनयोऽप्यवोऽनुज्ञापनीय इति सूत्रार्थः । संप्रतिनियुक्तिविस्तरः ॥ वित्तं वत्युं सेतुं, केतुं साहारणं च पत्तेयं । व्योम- अपरममरपरिग्गदं चेव || वह वास्तु सामान्यतो द्विधा क्षेत्रं वास्तु गृहं वास्तु च । के द्विधा सेतु केतुगृदं च तत्र अरघट्टजवेन यत्सिच्यते तत्सेतु । वृजिलेन तुष्यते सत्केतु गृहं पुनः खाती स्थिती भयदा त्रिधा वक्ष्यते । क्षेत्रं गृहं चोन्नयमपि द्विधा । साधारणं प्रत्ये कं च । साधारणे बहूनाम्, सामान्यं प्रत्येकम् एकस्वामिनस्त पदानि पचान मायाकृतमपरपरि गृहीतममर परिगृहीतं चेति । अथ साधारणपद विवृणोति । होय गणगोडी, सेणिसाधारणं च दुगमाई | वत्युम्मि एत्थ यपयं, उत्थितखाते तदुम्मि || गोष्टीनां वा (दुगमाइल) चित्रप्रभृतिसंगय जननायक वास्तु या सामान्य तत्साधारणमुच्यते । अत्र तु वास्तुना अधिकारी न तश्च वास्तु त्रिधा । उत्थितं खांतं तदुजयं च उत्थितं प्रासादः । खातं भूमिदं तदुपम मियुक्तः प्रासादः । अव्यावृतादिपदानि व्या समययमयं न कीरइ, जहिगं अव्वावमं तयं वत्थू | योगवित्तं, अणहिडियमपणं । यत् शटितं पतितं यत्र व्यापारः केनापि न क्रियते यत्तद्वास्तु अपावृतमुच्यते । अन्याकृतं नाम बहायारविभकम अपर परिगृहीतं नाम यदन्यपणा यदीयनेनाधिष्ठित नास्य परिगृहीतं स्वयमेव तस्य शय्यातर इति भावः । इदानीमेव जावयति । वरो सुवियसामी, जेण विदिष्टं तु तप्पढमताए । अमरपरिग्ाहियं पु लाया रुक्मादी य ॥ " अपरो नाम तत्प्रथमतया साधूमां यद्दत्तं स पच तस्य स्वामी नान्यः कश्चित् । न परोऽपर इति समासाश्रयणात्। श्रमरपरिगृहीतं पुनर्देवकृतिका था कादिकं वा पागमन्तरात मन्तव्यम् । अथाष्याकृतादिषु दृष्टान्तानुपदर्शयति । अव्यय कुरूंची काणियोग य रायगिरे । अपरपरोसादेवउ, अमरसवखे पि सायपरे ।। कुटुम्बका णिक्कति) पाषाणमधः पक्केप्टका वा वत्रिकामहत्यश्व काणिक्का वयन्ते सन्मध्ये गृहकारांपको वणिग् दृष्टान्तः । परपरिगृही अपेस एस शन्त अपरपरिगृहीते पा निदर्शनं प्रतीति नितिगाथासमासार्थः । नवकुमार नम्मवर्ण पासाए, संजिव मिणावकंदी व । अयं वावरणं, कुणांत वावमं तेणं ॥ कुकुणि सुंदरं परं कारियं समत्तं नमि संम्वका कले उगह पविमामित्ति चिन्ते नवरं वाणमंतरेण रति भक्ति । ज‍ पविसिहिसि तो ते कुलं उत्यामि तेण कंटियाहि फलिदिउण मुक्कं वावारं वासे न करे। अक्षय साहुहिं आगहि सो कुटुंब ना दिवयाय परिमाहियं सत वाम्रो नवि | साहिं भणितो अणुजाण तुमं भिसामो वयं देवया तम्रो तेण अणुन्नाए तेहि कारण जक्खो कंपिओ भाइ । उवरिमियं मोनुं वासत्था अत्य दहिया ते गते सति सत्र्श्रेय उग्गहस्स पुन्त्रा मवणा । अथ गाथाकरार्थः । कुटुबिना प्रासादस्य निर्मापणं कृतं ततः संखमिः कर्तुमारब्धो यज्ञेण च स्वप्ने निवेदितं यदि प्रासादं प्रवेन्द्र यसि ततः सकुउम्यं भवन्तं व्यपरोपविष्यामीति तेन कपिः परिि तद्गृहम् अन्यमपि च व्यापारं तत्र न करोति तेनाव्यापृतमुच्यते । अव्याकृते दृष्टान्तावाद । दत्त असीम, कोणतं स्त्रीणं च जायं । ते उंबरीयस्स जयान कुट्ठी, दानं य मोलवघरं जईणं ॥ सगणं किमंतेण वाणिएण रायगिट्टे नयरे स जालमाला वाघागार्द गिर्द कारियं सोयं सम्म निम्माचिय पंच तीहुओ पुती सोपी जाओ। की विजय इत्यर्थः । तत्ययं करो धिप्प से पासे कुट्टिय काउं विया तं च तेहि संजयाण दितं । अथाकरगमनिका । ऋ माया कस्यापि वणिजो महाजनकुत्रमासितं कालेन तत् कीणधनं च शब्दादल्पमानुषं च संजातं ते च तदीयाः पुत्रा नंबरीयस्य प्रत्युडुम्बरं रूपको दातव्य इत्येवंस्य करस्य भयादेकस्मिन् पार्श्वे कुटीं कृत्वा मोच गृहपतीनां दत्वा कुटीरके स्वयं स्थिताः । एतदव्यामुच्यते। अथ पूनां व्यापाि पुत्रियविय - हायं तपेवि तत्थ ते य गता । एसोचैव य उग्गहे होई ॥ पूर्व साधवोऽनुज्ञाप्य स्थिताः मासकल्पे वर्षावासे वा पूर्ण शून्यभूते तत्र प्रतिश्रये अपूर्ण वा कल्ये शून्यपादोपाध्ये अन्ये साधस्तितः पूर्वसा कल्पं समाप्यान्यत्र गताः परं शून्ये अशून्ये वा तत्र तिष्ठतां तेषां सायद नवति न पुनर्रोपयन्ति । अपरपरिगृहीतं व्याचष्टे । अपरपरिम्गहितं पुण, अपरे जभी जल चिति । व्योमं पितं चिय, दोषि विच्छी अ परसहो । पुनःशब्दो विशेषणार्थः स तद्विनिनाम येन साधूनां तद्दत्तं स एव स्वामी नान्य इति तावदपरिगृहीतस्यैकार्थः प्रयुक्तः । यद्वा न परे अपरा यतयस्तत्रोपयन्ति तेनतदपरपरि तमप्यमपि तदेव मन्तव्यम् सर्वेषामपि सानां साधारणमिति कृत्वा तदेव द्वाययपरशब्दे जयतः । एको न परोऽपरस्तेन परिगृहीतमपरपरिगृहीतम् द्वितीयोऽ परैः साधुनिः परिगृहीतमपरपरिगृहीतमिति । अमरपरिगृहीतं तु वृत्रे वृकस्यास्ताचा गृहं मन्तव्यम् । तत्र गृहे यदि पूर्व सानुप्यस्थितास्तदा शेषायां स एषामो भवति । अब विषयं विधिमार । जुवारहिते, दुर्गामिना । Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३७ ) अभिधानराजेन्द्रः | उग्गह एवेण प्रमविए सो चैव य उग्गहो होइ ।। घृतादिना यन्तरेण परिगृहीतो यो कमस्तत्र स्वाध्याया कदाचिन्तव्यं भवति । तं च व्यन्तरमनुज्ञाप्य स्वाध्यायं करोति । यमेकेनापि तत्कापि शेषाय साधूनां सादा प्रदेश प्रवृति प्रवासी वृकः परपरि तो यस्ति ततः सामी अणुविज्जइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व प्रसहीए । कूरसुरपरिग्गहिते, दुमम्मि कणिट्टगाण गमो ॥ पस्तस्य द्रुमस्य स्वामी सोऽनुज्ञाप्यते । श्रथासौ न स्वाधीनस्त सोयाम स्यामः सोऽनुजानीतामिति वक ब्यम् । अथासौ द्रुमः क्रूरसुरपरिगृहीतस्ततो येषामगारिणां सत्करतेयमागन्तुमसी न ददाति तत्र कणेरका गमो मन्तव्यः । तं सुरं कायोत्सर्गेणानुकम्प्य स्वाध्यायादि कुर्वन्तीति भावः । तत्र चायं विधिः । निच्ते व अणे, ईसासुसुरे जं प्रणुष्णाय । सत्यपि सो चैव गमो सागारपिंकम्पि मग्गता ॥ ईर्ष्यालुसुरेण अन्येन गृहिणा श्रागच्छता वृकमूलादिकं साधूनामनुज्ञातं तत्रापि स एव गमः पूर्वानुज्ञापनावस्थानलकणे विशेयो नवरं तत्र स्थितानां सागारिक पिएकस्य मार्गणा कर्तव्या । तामेवाड़ | क्लोपि होइ सरो, बनियादी गिएइशा जवे दोसा । सुविणा वरं एवा, संखमिकारोवणण जिक्खं ॥ येन यज्ञेण स द्रुमः परिगृहीतः स एत्र तत्र स्थितीनां तरुणां शय्यात नवति । ततो यस्तस्य बल्लिकादि निवेद्यते स शय्यातरपिएम इति कृत्वा परिन्दियते । वृ० ३ ० । राजापग्रहो देवेन्द्राश्वमथ। (सूत्रम् ) से एक वा अणुनिशिनु वा कुणरिया वा अणुकारिया वा अणुपयेसु वा अणुमग्गे वा संवगहरावणा थिइ अहालंदमपिग्गड़े। अस्य संबन्धमाह । जे चैव दोष्ठि य गता, सामारियरायउग्गहो होति । तो इह परिमाणं णियोग्हम्पी रिसेसेणं ॥ यादेवी सागारिका पूर्वयोः प्रतीतपोरे हसत्रे परिमाणमुच्यते तथापि नृपावग्रहपरिमाणं विशेषेणानिधीयते अनेन संबन्धेनाथातस्यास्य व्याख्या ( से ) तस्य नियस्य अनुकुचेषु या कुडवसमीपवर्तिषु प्रदशेषु वमवृतिषु वा अनुपरिखासु वा चनुपदेषु वा अनुमर्यादासु वा यह परिखानगरमाकारयोरपान्तरा दस्ता मार्गः। परिया जातिका मर्यादा सीमा शेषं प्रतीतम् । पतेषु सेवापगृहस्य पूर्वानुकापना तिष्ठति यथामन्दमपि कालमवद प्रति सूत्रार्थः । अथ निर्युक्तिविस्तरः । अनी परियारा गारपंचफरिहासु । अणुम सीमाए, णायने में नहिं कमाते । अनुशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते अनुकुरुधामुनियो काप्राकारपरिखासु च (अणुमा सीमाए ) मर्यादा सीमा ततोऽमर्यादायामनुखी मायामित्ये कोऽर्थः पष्पनुकायम या सागारिकराजाद्यगृह तुापनम् । उग्गह " एनां नितिगायां व्याख्यानयति । कु कु कुसमी व होइ एगई। मेवापि तेसिपमाणं इयं होइ ॥ अनुशब्दस्य समीपार्थवादपमिति कार्य यमेव शेषेयस्यादिषु पदेषु मन्त पचादीनामविषयमिदं प्रार्थयति । पियेपगगहो रयणी । अणुवरिवार अन चउरो रपर्णी परिहार | वृत्तौ बर्तुनादिपरिक्षेपरूपायां भित्ताविष्टकादिनिर्मितायां कटके पथि धर्ममर्यादायां (वरंपदिति) एकहस्तायो यति भनुपरिकायाम हस्ता परि खायां चत्वारो रत्नयः । इदमेव जावयति । वतिसामिवतीतो, हत्यो सोत्रग्गदो ए खंतिस्स । यदि ममकारो जति विय, पाणिममी || गृहपतिविषहिताया वृत्तेः स्वामी तस्य वृत्ते परतो दस्तमात्र भवति शेषस्तु सर्वोप नरपतेरगृहो मन्तायः । अकिकारणं वृत्तिस्वामिनोवृतेापरतोयवाही प्रपति इत्या तस्य गृहपतेः परतो दस्तप्रमाने मागे ममकारो भयति । तो यद्यपि (निम्मामिति) मुपादान्ते च तावद्विपि गृहखत्का मिस्तथापि वृत्तेः परतो दस्तमेकं तस्याव एवं भितिचादिष्वपि नापनीयम् । हत्यं इत्थं मोतुं, कुड्डादीणं तु मज्जिमो रयो । जस्य न पूरक हस्थो, मज्जे विभागो नही रखो ॥ तेषामेव कुरुधादिनां हस्तं हस्तमुनयोरपि गृहपा मध्यमः सर्वोऽपि राशेोऽवग्रहः । यत्र तु गृहस्यापान्तरालस्यातिस्तोकतया हस्तो न पूर्यते तत्र मध्यमत्रिनागो राज्ञः शेषौ ही गृहस्वामियो। एतदचग्रहपरिमाणमुक्तम् अत्र चोरान स्थाननिषदनादीनि वा कुर्वन् यदि कुरुचादीनां हस्ताभ्यन्तरे करोति ततो गृहपत्य मनस क्रियते इस्ताइदिकारि कामाकारपरिचादिषु च राजा भरण्या मपि यद्यसौ राजा प्रभवति तदा तस्यैवावग्रहः स्मर्यते । अयासात न प्रनयति तता देवेन्द्रायो मनसि कियते । धृ० ३ ० । (१४) राजपरिवर्तेऽवग्रहः "सेज परिषहेतु" इत्यादिसूत्रयस्थ संबन्धप्रतिपादनार्थमाद सागरियाम्पिय-उग्गहगहुण उनमाणम्मि । सुतमअंतिम उवंति राहे बेरा ।। पूर्वसूत्रे ज्यः सागारिकावग्रहग्रहणमनुवर्तते ततोऽपि परतरेयः साधम्मिकावग्रहणं तस्मिन् अनुवर्तमाने अवग्रहप्रणप्रस्तावात् सप्तमोद्देशकस्यान्तिमं सूत्रम् । सूत्रद्वयं राजावग्रहे स्थ विराः कर्त्तारः स्थापयन्ति एषोऽधिकृतसुत्रद्वय संबन्धोऽनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याच्या (से) तस्य निहो राजपरावर्तपुरा जपरावर्तो नामाप्रेतनो राजा कालगतो नवोऽभिषिक्तस्तेषु ! पुनः कथंभूतेषु त्या संस्तृतेषु न कोऽपि साम्यं विपति are: या अव्याकृतेषु येषां दायादानां सामान्यं तम्राज्यं तैरनिषु। तमिव दो अनुवर्तमानेषु वापरपरिगृहीतेषु सवाग्रहस्य पूर्ण चनुापना लिया तस्य वंशस्यादावनुज्ञापना कृता कियन्तं काल पुनः सैव पूर्वानुज्ञा तिष्ठति तत श्राह यथालन्दमप्यवग्रहः । किमुक्तं नदतिया शोषतान्तमपि काम Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३८) उग्गह भनिधानराजन्यः। उग्गह राजावग्रहे सब पूर्वानुज्ञापमा वर्तते न पुनरन्यस्मिन् राशि दोसो गयपरदोसो, अणण्णवणेथिरे गुरुगा ॥ उपविरेस नूयोऽवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः। एष प्रथमसूत्रस्यार्थः। द्वितीयस्योच्यते ( से) तस्य निको राजपरावर्तेषु अन्येषु ध्रुवमन्यस्मिन्नन्यवंशजे अस्थिरे तस्य वा पूर्यगजस्य संराज्य प्रतिपनेषु असंस्तुतेषु त्रुटितपूर्वराज्यसंस्थितिषु व्याकृ बन्धिनां दायिनामेकस्मिन् अस्थिरेसीतरनुशापितःमन चि तेषु अन्यवंशीय यादी विभज्य समीकृतेषु व्यवस्थितेषु म्तयति स तथा विचिन्तनास्ति । तया मावस्यान्यथानाव पूर्ववशेषु अत पय परपरिगृहीतेषु निकुनावस्यार्थाय निकु इति स एको मुक्तसन्नाहो वर्तते। तं च विश्वस्तं ज्ञात्वाऽन्यभावो माम ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेषामेव निकुशब्दप्रवृत्ति दा सोऽन्येन दायादिना मारितो राज्यमधिष्ठितम् ततः मिमित्तत्वादेसदेव प्रथमोद्देशके सप्रपञ्च भावितं तस्याय स राजा चिन्तयति। संयतममामित्रपरिगृहीतर्येन कारणेनासनिकुनावः परिपूर्णो जयादित्येवमर्थमित्यर्थः। अन्यथासचि साववप्रहमनुशापितस्ततः स प्रसिको ध्योरेकतरस्य प्रदेषं तादीनामनुकापनेऽवतावानं स्यात् । द्वितीयेऽपि धारमवग्रहो कुर्यात् । किमुक्त जवात निर्विषयत्वादि कुर्यात् । जीपचारित्रऽनुकापयितव्यः एप द्वितीयस्यापि सूत्रार्थः । योर्वा भेदं कुर्याप्तस्मात् यः स्थिरः सोऽनुज्ञापयितव्योऽननुसांप्रतमेनामेष व्याख्यां नायकूदप्याह । कापने प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । संथममो अविमुत्तं, पमिवक्खो वा न विज्जनी जस्स । अणणाविए दोसा, पच्चा वा अप्पितो अवस्ने वा । अणहिटियमत्तेण व, अध्योगमदासामधे ।। पत्तेपुव्बममंगन, निच्चुजणे य दोसपत्थारो ॥ संस्तृतं नाम राज्यं यदविसुतं मो इति पाद पूरणे यस्य था यदि स्थिरो नानुकाप्यते तदाएतस्मिन्नननुज्ञापिते दोषाः सर्वे प्रतिपक्को न विद्यते नाप्यन्येन केनाप्यधिनितम् । अव्याकृतं सामान्यपाखएमाः समीपमागता निर्गन्यानां पुनरवहां कृत्वा नाम दायिनां सामान्य न पुनस्तैर्विरक्तम् ।। स्थितास्ततःप्रवेषितो निष्काशनादि कुर्यात् तस्माद्व्यवच्छिन्न वंशे सोऽवश्यमवप्रहमनुज्ञापयितव्यः । किं पूर्व पश्चात मध्ये अब्बोगर्म अविगडं, संदिड वा विजं हवेज्जाहि। या सत्र याद सर्वेरन्यैः पावएमरनुशापिते स पश्चादनुकाअव्यो चित्रपरंपर-मागयतस्सेव वंसस्स ।। प्यते ततः स चिन्तकति अहमेतेषामप्रियोऽवज्ञा यतो ममैतैः अव्याकृतं माम यदविकृतंन केनापिविकारमापादितम् यदि । कियते तेन पश्चादागताः। अथ प्राप्ते राज्ये पूर्वमनुकाप्यते तदा वा यद्भवेत् पूर्वराजेन संदिष्ठ यथा पतस्मै राज्यं देयमिति कदाचिदमङ्गलं मन्येत ततो (निन्छभणंति ). निष्काशनं तत अव्याकृतम्। अभ्यन्निं नाम यत्तस्यैव वंशस्य परंपर- कुर्यात्प्रद्वेषतः प्रस्तारो जीवनात् व्यपरोपणं क्रियेत तस्माया समागतमिति । न्मध्येऽनुशापयितव्यः । याद पुनर्नक इति ज्ञातो जवति पुवामा जा पुन्च-एहिं राहि इह अणुमाया। चानुकाप्यमाना मसामिति मन्यते तदा पूर्वमप्यनुज्ञापनीयः। अंदंतु होइ कालो, चिजा जग्गहो तेसि ।। अय कथमस्थिरा ज्ञातव्यः कथं वा भड़कः कथं था पूर्वकमपूर्वानुका नाम या पूर्वकै राजनिरनुक्काता,"अदासंदमवी नुज्ञाप्यमानो मङ्गलं मन्यते इति तत माह । त्यत्र संदो नामः नवति कामस्ततोऽयमों यावन्तं कासं तेषा ओहादी आजोगण, निमित्तविसरण वा विनाऊण । मवग्रहस्तवन्तमापिकासं वावग्रहे पूर्वानुका । तदेवं प्रथम- जगपुन्नमणुपमा, वपतममाय मम्मि ॥ सूत्रग्याच्या रुता। संप्रति द्वितीयसुत्रव्याख्यानार्थमाद ।। मवस्यादीनामतिशयेनादिशब्दान्मनः पर्यवहानक्षतातिशयजं पुण असंथ वा, समझ तह वोग व वोच्चि।। विशेषपरिग्रहोऽथवा निमित्तविशेषेण । अथात्मनोऽवभ्याद्यनंदमुरियाण व जहा, वोच्छिमो जत्य वंसो ॥ तिशयो निमित्तविशेषो वा न विद्यते तदा अन्यानवध्याययत्पुनरसंस्तृतं शकटमिध शरारुतया संवरीतुमशक्नुवत्- तिकायिनो निमित्तविशेषं ज्ञात्वा दृष्ट्वा भकमनुकापयेत । तथा व्याकर्तदायादैरन्यवंजैर्वा विभज्य अङ्गीकृतम्।व्यवभिन्नं प्रान्तमनुज्ञातं वा मध्ये। यत्र नन्दमौर्याणामिव वंशो व्यवचिन्नः। एएणं विहिणाउ, सो णुमवितो जहेव रज्जेहिं । तत्य न अनविजय, निक्खुजावट्टमम्गहो निययं । राया किं देमित्ति य, जं दिमं अरादीहिं ।। दिक्खा भिकावृत्तावो, अहवा नड्यन्वयादीन । एतेनानन्तरोदितेन विधिना सोऽनुशापितो राजा यदा वदेत तत्र नियतमवश्यंभावेन निर्णभायार्थी ययावस्थितनिकु किं ददामीति तदा वक्तव्यं यहसमन्यै राजनिस्तदेहीति । नावः तत्रैव निकुभाय इत्याह । दीवादिरादिशब्दात्सम्यम् जाएंतो अणुजाणइ, अजाणओपति तेहिं किं दिमं । कामादिपरिग्रहः । भिकुनायो ऽथवा तृतीयवतादिकं निकजावः । तत्रैव भिकुशब्दस्य परमार्थत्वात्तदेवं कृता सूत्र पायोग्गतिय जाणिए, किं पानग्गं इमं सुणसु॥ व्याख्या । संप्रति नियुक्तिविस्तरः। एवमुक्ते जानानः सर्वमनुजानाति प्रज्ञायकोरते तैरन्यै रारमा कालगयम्मि, अथिरगुरुगा अणुमके तम्मि। । जादिभिः किं दत्तं तत्र प्रायोग्यमिति भणितव्यम् । तस्मिन् भणितेषु न बूते किं प्रायोग्यमिति ततो धक्तव्यं वृणुत. दं प्राणादिणो य दोसा, विराहणा इमेसु गणासु ॥ प्रायोग्यं तदेवाह । गति का लगते ये छौ वा प्रयो वा दायिनस्तेषां मध्ये यः आहर जवाहिसेन्जा, गणानिसीयणतुयट्टगमणादी। स्थिरः सोऽनुकापयितव्यः। यदि पुनरस्थिरमनुज्ञापयन्तितदामेषां प्रायश्चितं चत्वारो गुरुकाः आझादयश्च देयास्तथावि- थीपुरिसाण य दिक्वा, दिम्ला णो पुव्वराऽहिं॥ राधना भारविराधमा संयमविराधना था । एषु षड्यमाणेषु नोऽस्माकं पूर्वराजैराहार उपधिः शय्या स्थानमूर्चस्थावं स्थानेषु तान्यवाह। निषदनं त्वग्वत्तों गमनमादिशब्दादागमनपरिग्रहस्तथा स्त्रीधुवमा तस्स मजके, वसपेरेथेरमक मंनाहे । पुरुषाणां दीका अनुहा कारेण दत्ता। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३९) नगगह अभिधानराजेन्द्रः । नदो एवं विरइ-पंते पुण दिक्खवजमियराणि ॥ ते विति समाजाणसु, असती पुरिसेव जे बहुगा॥ इम सिट्ठा श्म काउं, निग्गं ते गुरुगा य आणादी। अवध्यादिनादिशब्दात् श्रुतातिशयधिशेषेण निमित्तविशेएवं कथिते सति यो जसकः स सर्वविरतिप्रान्तः पुनदीका- बेण वा ज्ञात्वा या बहुतरकाः अनुज्ञासाः सन्ति अषभ्यादेवर्जमितराणि सर्वाएयप्याहारादीनि अनुजानाति प्रवज्यां पुन निमित्त विशेषस्य घा प्रभाये ये बंडयः पुरुषास्तानेवानुक्कापनोकापयति तत्र यदि तस्य राज्ञोऽनुशिष्टमकृत्वा प्रादिशब्दात यति न शेषान् स्तोकानष्टप्रतृतीनिति ॥ विधादिया प्रनुकरणं धा अकृत्वा यदि तहिषयात मिर्गच- एयाण वि धरति तहिं, कम्मघणो पुण नणेज तत्य । स्ति तदा तेषां प्रायश्चितं चत्वारो गुरुका पाहादयश्च दोषाः। इम दिहा उ अमंगल, मा वा दिक्खेज अत्यत्ता॥ चेइय सावगपञ्चइन-काम अंतरंतबालबुडा य । पतानि अनन्सरोदितानि प्रान्तोऽपिमनागजकः सन् तत्राजत्ता अजंगमा विय, अजत्ति तित्थस्स परिहाणी॥ स्मीये राज्य वितरति । यः पुनः कर्मघनो निवर्मपापकर्मा अन्यथ चैत्यानि तेन परित्यक्तानि श्रावका ये च प्रवजितु तत्रानुझापनायां क्रियमाणायामिदं ब्रूयात् हा अपि सन्तो यूयममङ्गलास्तस्मादप्रतियन्तो मा कंचन दीवयेयुरिति । वा कामास्तथा। अतरन्तो ग्याना बाना का अजमाते सर्व शब्दी व्यपेकया विकल्पने। परित्यक्ता मनक्तितस्तीर्थकराकाखएमनात् । तीर्थस्य च परिहाणिरापादिता । तथा हिये तत्र विषये प्रवजितुकामास्ते मावादच्यामि पुणो, अजिक्खणं बैंति कुणति निश्चिसए न प्रवजिप्यन्ति श्रावका श्रपि सम्यक्त्वमानतानि गृहन्तोन पनवंतो जणति ततो, जरहाहिवतिसति तुमंति ।। ग्रहीष्यन्ति ततो जयति तीर्थस्थ व्यवच्छेदः। यद्येचं सर्दि यदि वा मा पुनर्रयो दयाम्येतान् । अभीक्ष्णं वा धन्ति तत्रैव तिष्ठन्तु । तत्राप्याह ॥ स्वयमन्यैर्वा पुनः पुनर्विकपन्तीति कृत्वा निर्विषयान्करोति अत्यंताण विगुरुगा, अनत्ति तित्थस्स हाणि जावुत्ता । ततो यः प्रजवन् वदयमाणगुणोपेतो ब्रूते नासि त्वं सकलस्य जाणमाण जाण चेता, अत्यंति अणेत्थ वच्चंति ॥ भरतस्यापि पतिर्येन निर्विषयत्वाज्ञापनेऽस्माकं जयं स्यातत्र स्थातु न दास्यसि ततो ऽन्यत्र यास्यामः । तया श्वमपिते। सत्र तिष्टतामपि प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासाः देशान्तरे केवइयं वा एयं, गोपयमेत्तं इमं तुहं रज्ज । भन्यपोएमरीकस्याप्रतिबोधेन सोनतो दृष्टत्वात् । तथा तीर्थकराणामभक्ति तिष्ठद्भिः कृत्वा तदाकाख एमनातीर्थस्य जं पेसिउ नासिपगं, मंतिय मुहुत्तमित्तेण ॥ हानिरापादितातया स्वयमेष तेन राकोक्ते स्त्रीपुरुषा नदीक्कि कियवा पतझोपदमात्रमिदं च राज्यं यत् प्रेयं मुहुर्तमात्रेण तव्या इति । यो तर्हि किं कर्तव्यमत माह । स्वयं प्रणतः तं रष्ट्वा गम्यते । एवमुक्ते स राजा प्राह। प्रज्ञापयन्तोऽन्यैर्नाणयन्तस्तिष्ठन्ति । तथापि चेत्स मेत्सर्दि जं होउ तं होन, पनवामि अहं तु अप्पणो रज्जे । ततो देशात् ब्रजन्ति। सोजणनीहमिज्ज, रज्जा तो किंबई णानं ॥ अह पुण हवेज दोनी, रज्जाई तस्स नरवरिंदस्स । स राजा मते यत् यावन्मात्र तावन्मात्रं वा प्रयतु आत्मनो राज्ये तावदह मनवामि । तस्मास्किमत्र बहुना मम राज्यातहियं अणुजाणंतो, दोमुवि रज्जसे अप्पवढं ।। घूयं निर्गजतेति । एवमुक्त यत्कर्तव्यं तदाह । अथ पुनस्तस्य नरवरेन्द्रस्य स्वयमन्या प्रज्ञाप्यमाणस्य आमट्टी धम्मकहा, वजनिमित्तादिएहिं प्राउट्टो । कदाचि राज्ये जवतस्तत्र तयोध्योराज्ययोर्मध्ये एकत्र कायनुजानाति । यथा मम द्वे राज्ये तत्र तयोध्योर्मध्ये यत्रैकत्र आहिए य सुपकरणं, जहा कथं विएदुणा पुन्धि ।। नवदूत्यो रोचते तत्र प्रवाजयत द्वितीये नानुजानामि । एव. अनुशिक्कया अनुशासनेन धर्मकथया विद्यया निमित्तेन मुक्ते अस्पबहु परिभाब्य यत्र नूयान् तीर्थप्रव्रज्यादिसाजस्तन आदिशम्दान्मन्त्रेण चूर्णयोगैर्वा तं राजानमावर्तयेत् अनुकूल येत् । अत्रवमपिन तिष्ठति तर्हि तस्मिन् अस्थिते प्रनोरन्यस्य स्थातव्यमंतदव स्पष्टतरमाद ॥ करण कर्तव्यम् । यया कृतं विष्णुना विष्णुकुमारेण । अथ एकाहि विदिनं रज्जे, रज्जे एगस्थ हो। अवि.दां । कीरशस्तं राजानमन्यप्रतुकारणे प्रेरयन्तीत्यत आह । एगस्थ शत्थियत्तो, पुरिसवायाय एगत्थ ॥ बेनव्वियनकीवा, ईसत्ये विजतो रसवनी वा। एकत्र एकस्मिन् राज्ये वितीर्णमनुज्ञातं भवति । एकस्मिन् तवनफिपुलातो वा, पेवेति तमेतरे गुरुगा ॥ राज्ये पितीणे यत्रानुज्ञातं तत्र त्रियाः पुरुषा या अनुज्ञाताः। यो वैक्रियाधिमान् यो या इषुशास्त्रे निर्मातोऽनेकैरपि पुरुअथवा एकत्र राज्ये लियोऽनुजानीत एकत्र पुरुषाननु षमहाखिर्दुर्जयः । अथवा विद्यावावान् यदि पौरसवल्ली जानीते। साधर्मिको ऽयवा तपोलब्धिपुनाकः स तमन्यप्रनुकरणेन प्रेरथेरा तरुणा य तहा, दुग्गया अद्दया य कुलपुत्ता । यति । यस्तु सत्यामपि शक्ती प्रनुमन्यं न करोति तस्मिन्निजाणवयानागुरुया, अनंतरयो कुमारा य । तरस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । कथमन्यं प्रर्नु करो तीत्यत आह । अथवा एकत्र राज्ये स्थविराननुजानात्येकत्र तरुणान् । अथवा तं घेत्तुं बंधिऊण, पुखरज्जं वेंति न समत्थो । एकत्र दुर्मतकान् परत्र प्राधान् । यदि वैकत्र कुमपुत्रा असती अषममंते, निग्गंतव्वं ततो ताहे ।। नपरत्राभीरान् एवमेकत्र जानपदानन्यत्र नागरकान् । एकत्रा तं राजानं गृहीत्वा बन्धनेम न बध्वा समर्थस्तस्य पुत्र राज्ये ज्यन्तरकान् अत्यन्तरका नाम ये राजानमतिप्रत्यासन्नीनूयाबलान्ति कुमाराराको दायादाः। एवमनुकातेकिंकर्तव्यमित्याह। स्थापयति। असति सामध्ये अनुशिष्यादिनिरुपशमयति ।स व तथोपशम्यमानोऽपि नोपशाम्यति तर्हि ततो देशाभिर्गन्तओहीमादीउ जत्थ, बहुतरया न पचति नहिं । व्यम् । तपाध्वनि यतनामाद । Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४०) नग्गह अभिधानराजेन्द्रः । जग्गह जतादिफासुएणं, अक्षम्नमाणे य पणगहाणीए । यत्रावग्रहो विचारयितुमुपान्तस्तत् कंत्र चलमचलं था प्रयत्।यसं वाजिकादिः प्रचलं प्रामादिः । पुनरकैकं विधा अट्ठाणे कायव्वा, जयणा जग्गा जहिं जणिया ।। कमिन्धकीलादियुक्तमानिन्झ वा तहिपरीतम् । तत्र यदचअवनि मागें प्रागुके मक्कादावलन्यमाने पञ्चकहान्या यतना कर्तव्या । यत्र ग्रामे नगरे अरण्ये वा पूर्व कल्पाध्ययने समनिकं वा तस्मात्सक्रोशमक्रोशं वा पश्चानुपा। 5थ ता नेव दान् व्याचिख्यासुरिदमाह । (वाघायम्मीत्यादि) यत्र प्रणिता । व्या द्वि०७०। यस्यां दिशि व्याघातस्तत्रस्थमक्रोशं भवति। कः पुनाघात (१५) श्रवप्रहकेत्रमान। इति चदत आहा बटवीतस्यां दिशि वर्तते (जोत्ति)समुको (सूत्रम् ) सगामंसि वा जाव संनिवसं वा कप्पड़ नदी चा ये श्वापदा वा सिंहव्याघ्रादयस्तत्र सन्ति । स्तना निग्गथाण वा निग्गंथीण वासचनसमंता सकोसं जाणणं वा उपधिशरीरहरा विद्यन्ते पतैः कारणः प्रामादिकनिरुका उग्महं तु गिरिहत्ताणं चिहित्तए ।। प्रामा गोकुल्लाघभावादवग्रहीतव्यं किमपि तत्र मास्ति। अस्य संबन्धमाद । प्रथ सक्रोशमाह। गामाइयाण वेसिं, उग्गहपरिमाणजाणणामुत्तं । सेसे सकोसमंमल, मूलनिबंधणभणुमयंताणं । पुनहिताण उग्गहो, सममंतरपटिगा दोएहं ।। कालस्स वा परिमाणं, वृत्तं इह तु खत्तस्स ॥ शेष नाम यदनन्तरोक्तव्याघातरहितं तत्र मूत्रनिबन्धनं मएमतेषामनन्तरसूत्रोक्तानां प्रामादीनां कियानवग्रहो प्रवतीति समसुमतां सर्वतः सक्रोशं योजनमवग्रहो नवति । कथमिति शङ्कायामवप्रहपरिमाणझापनार्थमिदं सूत्रमारज्यते । यद्वा चंदुच्यते । मूलप्रामादकैकस्यां दिशि योजनाउँमईकोशेन पूर्वसूत्रेषु "अहाखिदमवि उम्गहे इत्यादि"जणता अवग्रह समधिकं तावदवग्रहो भवति । स च पूर्वापराच्या दक्षिणोविषयकालस्य परिमाणमुक्तमिह तु केत्रस्य तदेवोच्यते । तराज्यां वा कृत्वा सक्रोशं योजनं भवति । यद्वा गतिप्रत्यागपतेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या अथ प्रामे वा नगरे वा तिज्यामेकस्यामाप दिशियोजनं मन्तव्यं तत्र सक्रोशे अकोशे यावत्सं निवेशे घा कहप्यते निर्ग्रन्थानां चावग्रहः सर्वः सर्वासु था ये पूर्वस्थितास्तेषामवग्रहोभवति । यत्र समकमनुक्कापितं दिक समन्तात् चतसृष्वपिविदिक्षुसक्रोश योजनमवग्रहमव तत केत्रं साधारणम् । अथ संचट्टेष केत्रेषु समकमेवाप्रकापितं गृह्य स्थातुमिति सूत्रार्थः । भथ भाध्यविस्तरः। ततो यदि द्वे अन्तरपब्लिके ततएकेषामेका अपरेषामप्येका। अथैउन्महे तिरियं पि य, सक्कोसं होइ सव्वतो खितं । । कैवान्तरपलिका ततो द्वयोरपि साधारणः । अथ बहवस्तइंदपदमाइएमुं, विदिसि सेसेसु चउ पंच ॥ त्रान्तरपछिकास्ततः को विधिरित्याह । कर्वदिगधो दिए (तिरियपियंति) तिर्यकपर्वदविणापरो- खेत्तरसंतो दूरे, पासप्स वा विताण समगत ।। तरालवणाश्चतस्रो दिशः पतामुपदिक गिरिमार्गस्थितानां अमकं वा मुगाई, गच्छाण साहारणा होई ।। सर्वतः सक्रोशयोजन केत्र नवतितश्च इन्डपदादिषु संनयति विधिप्रभृतिषु संबन्धेषु होत्रेषु समकमनुज्ञाप्य स्थितानां इन्छपदो नाम गजानपद गिरिस्तत छुपरिष्टात् प्रामो विद्यते । काश्चिदन्तरपद्विकाः केत्रान्तः केत्रस्याज्यन्तरे नवन्ति (दूरेअधोऽपि प्रामो मध्यमश्रेण्यामाप ग्रामस्तस्य चतस्प्वपि दिक्षु ति) काश्चित्तु दूरे याच्यः समुदानमूलनामानीयमानं प्रामाः सन्ति ततो मध्यमश्रेणिग्रामे स्थितानां षट्सु दिनु केत्र केत्रातिकान्तं नवतीति कृत्वा प्रथममासिकायां तनिषायते भवति । प्रादिशब्दादन्योऽपि य ईटशःपर्वतस्तस्य परिग्रहः (आसनेत्ति) काश्चित्पुनरासन्ने याच्यः समुदानं मूसग्रामशेषेषु पर्वतेषु चतसषु पञ्चसु वा केत्रं सक्रोश योजनकेशं मानीयमानं केत्रातिक्रान्तं न जवति ततो यावत्यस्ता अन्तर भवति समनूमिकायां व्याघाताभावे दिक्चतुथ्यकेनं व्याघातं पल्लिकास्तासां सर्वासामपि अर्क वा अर्का वा चतुर्जाग प्रतीत्य पुनरित्थम । इत्यर्थः। वा शब्दाविभागादिकं चाद्विकादीनां द्वित्रिप्रभृतीनां एग व दो व तिमि व, दिसा अकामंतु सब्बतो वा वि । गच्गनांसाधारणं नवति । अथात्रैव जायनोभाव्यविधिमाह। सम्वत्तो तं अकोसे, अगुज्जणोन जा खेत्तं ।। तणमगझच्चारमग, संथारगनतपाणमादीणं । एकदिग्भाविना पर्वतादिव्याघातेन किंचिद् प्रामादिकमेक- सनिलं ते अस्सामी, खत्तिय ते मोत्तु गुमवणा । स्यां दिशि अक्रोश भवति सक्रोशयोजनावप्रहरहितमित्यर्थः । एवं विश्वयनाविना व्याघातेन द्वयोर्दिशोरक्रोश त्रिदिन्ना तृणमगरकारमवकसंस्थारकभक्तपानादीनां सति विद्यविना तिसृषु विकदिकचतुष्टयनाविना तु सर्वतोऽप्यक्रोशं प्र. माने प्राघूणे लाने केत्रिका अस्वामिनः अक्वेत्रिकाणामप्ये. तान्याजवन्तीत्यर्थः ( ते मोत्तु णुमधणत्ति ) येषां तृणादीनां पति । तत्र च सर्वतोमोशे प्रामादौ बाह्यान् यावत्केत्र ततः केत्रिकैरनुज्ञापना कृता तानि मुक्त्वा तान्यकेत्रिकाणांनो प्रव. परमकेत्रमिति । किं च।। न्तीति नावः । किं पुनः केत्रिकाणां जवतीत्युच्यते । संजमायविराहण, जत्थ नवे देहलवाधितेणावि। ओहो उबग्गहो विय, सचित्तं वा वि खेत्तियस्सेते । तं खयु ण होइ खेत्तं, उग्घेयन्वं च किं तत्थ ॥ मोत्तूणं पडिहारिय, संथरंतवणुणवणा ॥ या प्रामादौ प्राप्तानां संयमात्मविराधना प्रवति यत्र च भोघोपधिरुपग्रहोपधिश्च । सचित्तं वा शैक्कादिकम् । एतानि दहोपधिस्तेना नवन्ति तत् समुकेशं न जबति । किंवा तत्रावप्रहीतव्यं येन केत्रमुच्यते । भय किं पुनः केत्रमित्याह । केत्रिकस्याजवन्ति।यद्यवेत्रिकाएतेषमिकतर गृखन्ति तदा प्राय श्चित्तं पर मुक्त्वा प्रातिहारिक विविधमप्युपधि तं गृहस्थखतं चसमचनं वा, इंदमणिदं सकोसमकोसं । ज्यो मार्गयन्तो न प्रायश्चित्तनाज ति हृदयम् । यः पुनर पापतम्मि अकोस, अमविजले सावए तेणे ।। प्रातिहारिकस्तं न बनन्ते । अथ शीतादिना परिताप्यन्ते तत Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४१) नग्गह अभिधानराजेन्नः। जग्गह एवमसंस्तरद्भिर्वस्त्रादेरनुकापना कर्तव्या केत्रिकैरपि संस्त- पर्यटनीयमस्माभिः प्रतिवृषनग्रामे प्रतिवृषभो नाम म्बप्रामाद रमितेषामनुज्ञाकर्तव्या। कंयोजने महान्यामः । अथवा अन्तरपस्व्याः प्रतिवृषाजस्थ षा जइ पुण संथरमाणा, ए दिति इतरे व तसिं गएहति । अर्क युष्माकममस्माकमेवं सीमायां मनग्रामस्य प्रतिवृषभतिविधं प्रादेसो वा, तेण विण जाय परिहणी॥ प्रामस्य चान्तरा यो प्रामस्तस्याप्यर्क युष्माकमर्कमस्माकमेत चलमनिकं च केत्र मन्तव्यम् । यदि पुनः संस्तरन्तः केत्रिकाः असंस्तरन्तः सकेत्रिकाणां अथायमसैन्प्रवेत्रमाह ॥ वस्त्रादिकं न प्रयच्छन्ति इतरे था अकेशिका असंस्तरन्तोऽपि तेषां तंत्रिकाणामनापृच्छ वस्त्रमोटिका वा गृहन्ति इंदरकीझमणोग्गहो, जत्थ यराया जहिं च पंच इमा । ततस्त्रिविधं अघन्यमभ्यमोत्कृष्टनिप्पन्नं पश्चकमासाघुचतु- सत्यसन्तपुरोहिया, सेणावतिसत्यवाहे य ।। बघुलकर्ण प्रायश्चित्तम् । सूत्रस्यादेशाचा मवमं तेन व इम्कीसको नाम इम्बस्थूणा सा यत्रोत्तिष्ठति इदं मातृकाखादिना जायते परिहाणिस्तनिप्पन्नमपि तेषां प्रायश्चित्तम् । यास्तत्रायमवग्रहो न भवति । अनिन्द्रकीकोऽपि यत्र राजा इदमेव व्यक्तीकरोति ॥ मूळभिषिक्तः परिवसति (रायाहिपंचत्ति) यत्र पश्चघसजे खतिया मोत्तिण देंति थागं, लंजेवि आगंतु वयं तहाणं। न्ति । श्रेष्ठी अमात्यः पुरोहितः सेनापतिःसार्थवाहति ॥ पेबंति वा गंतु असंथरम्मि, चिरं वदोएहपि विराहणाओ।। अहण सीए व समो-सरे वा विराहणा आण्याणे । ये केत्रिका चयमिति कृत्वा नक्तपानादेःप्राचुर्येण सानेऽपि एतेमु एस्थि जग्गहो, वसहीए य मग्गणं अखेले । अन्येषां(थागं)अवकाशं न प्रयच्छन्ति तत आगन्तुकानां बजतां अथ शीर्षक नाम यतः परं समुदायेन गन्तव्यं सम्यग्मार्गया परिहाणिर्भवति ततस्तेषां प्रायश्चित्तम् । अथ केत्रिणा- घहनात्तत्र मिलितानाम् समवसरणं नाम कुलसमवायो गणमसंस्तरणेऽप्यागन्तुकाः प्रेरयन्ति प्रेष्यं विना तिष्ठन्ति ते चाग- समवायः संघसमवायो घा एतेषु क्सता तदवप्रहस्य मार्गणा न्तुकाः आदेशिकाः प्राघूर्णकाम ततश्चिरं वा प्रनूतं कालं या- कर्तव्या । अथ किमर्थमेतेष्ववप्रहो न जवतीत्युच्यते । शब्दादल्यं वा कालं न संस्तरणं तेषां भवेत् ततो द्वयेषाम- बहुजणसमागते तेसु, होति बहुगच्छमाणिवातो य । प्यागन्तुकानां वास्तव्यानां च या विराधना तमिप्पन्नं प्राय मो पुव्वं तु तदहा-पेढे व अकोविया खेत्तं ॥ श्चित्तम् । यत एवमतः । अस्थि तु वसनग्गामा, कुदेसणगरोवमासुहविहारा । तेविन्धकीयकादिषु बहु प्रनूतस्य जनस्य समागमो भवति अध्वशीर्षकादिषु च बहूनां गच्यानां सन्निपातो मीसको बहुवत्युवग्गहकरी, सामच्छेदेण वसियव्वं । भवति । अतः केचिदकोविदस्तदर्थ केअमिदमस्माकमेवाभाव्यं सन्ति विद्यन्ते वृषनग्रामा शहाचार्य आत्मद्वितीयो गणाव. जवत्विति कृत्वा पूर्वमन्ये इह प्रथम समागत्य मा केत्रं प्रेरयेयुशेदकश्वात्मतृतीय पष पञ्चको गच्छो नवति । ईशाखयो रित्यतेषु नावावग्रहो ऽधिक्रियते । श्दमेष जावयति । गच्छगः पश्चदश जनाः एते यत्र ऋतुबद्धे निर्वहन्ति वर्षासुपुनः सछाददं त्वनवाहिम्मि सिका, सप्तको गस्तद्यथा आचार्य प्रात्मतृतीयो गणावच्छेदक सिके रहस्सम्मि करेज गंतुं । आत्मचतुर्थः । ईदृशास्त्रयो गच्छाः पञ्चविंशतिजना जयन्ति । एते यत्र वर्षावासे जघन्येन निर्वहन्ति ते वृषभप्रामा नुच्यन्ते एमावर्यते यणमच्छरेणं, ते च कीदृशा इत्याह । कुदेशस्य यनगरं तेनोपमा येषां ते तित्थस्स सकी हतो वि हाणी ॥ कुदेशनगरोपमास्ते च सुखविहाराः सुलभन्नक्तपाना निरुपद्र- तथेन्जकीसादौ श्राका केषांचिदाचार्याणामुपधि बखाद्युपवाश्च । अत एव बहूनामन्यतरोक्तप्रमाणानां त्रिप्रभृतीनां गच्ग- करणं दातुं सम्नास्ते च च वर्तन्ते अस्माकमिदं गृहीतुमिति नामुपग्रहकरस्ततस्तेषु सीमाभेदेन बदुभिरपि गच्चैर्वस्त प्रणित्वा ते निषिकाः ततः श्राधाः पृच्नेयुः प्रेषणीयान्यप्यव्यम् । न कैरपि परस्परं मत्सरो विधेय इति भावः । सीमा आनि वस्त्राणि किमिति न करप्यन्ते ततो दूरत्यानास्माकममूनि छेदो नाम साहिका ग्रामावाटकादिविनजनम् । यथा अस्यां भाभवन्तीति बनणं तेषां पुरतः कथयितव्यम् । तदेष विशिसाहिकायां भवद्भिः पर्यटनीयम् अस्यां पुनरस्माभिरित्यादि । नष्टि कथिते सति ते श्राकाः मन्युमप्रीति वा कुर्षीरन् ।येच यद्वा ये नत्र के समकं प्राप्तास्तैः समवेदेन अस्तव्यं यथा सलम्धयो धर्मकथादिसन्धिसंपन्नास्ते मत्सरिणः वयं किमपि युष्माकं सचित्तमस्माकमचित्तम् । अथवा युष्माकमन्तः श्र- तावन्न लप्स्यामहे प्रतः किमर्थमेवं प्रयासं कुर्म इत्यनुशयन स्माकं बहिः युष्माकं खियो ऽस्माकं पुरुषाः युष्माकं श्राकाः तीर्थ धर्मकथादिना न प्रजावयन्ति । ततो ( उहतो विहाअस्माकमश्राहा। अयवा यो यल्लप्स्यते तत्तस्यैव नदातव्यम्। णित्ति) द्वयोरपि सचिचाचित्तमानयोः परिहाणिनति । दमेव व्याख्यानयति । तत्र सचित्तदानिः कोऽपि देशविरतिषान प्रतिपद्यते। प्रचित्तएकवीस जहमेणं, पुष्वहिते उग्गहो इतरे । हानिराहार वस्यादि तथाविधं न प्राप्यते अत एव तेषु नाथपसीपमिवसने वा, सीमाए अंतरागासे || प्रदो जयति । वसतिं प्रतीत्य पुनरेतेप्वपित्रवति कथमित्याह । पूर्वोक्तनीत्या वर्षासु एकविंशतिजना उपनक्कणवाहतुबके एगालयडियाणं, तुमग्गणा दूरिमग्गणा नात्थ । पञ्चदश जना पत्र जघन्येन संस्तरन्ति स वृषभनाम उच्यते । आसमे तुधियाणं, तत्थ इमा मग्गण होई॥ उत्कर्षतस्तु द्वयोरपि कानयोत्रिंशत्सहस्रसंख्याको गच्छो कामय एकस्यां पसतौ स्थितानामवग्रहस्य मार्गणा यत्र सस्तरति स वृषनग्रामः । यत्र ये पूर्वस्थितास्तेपामवग्रहः भवति तत्र यः पूर्य तस्या बसती स्थितस्तस्य सचित्तमइतरे जक्तपानमात्रसंतुष्टास्तिष्ठन्ति तत्र च सीमाच्छेदो विधा- चित्तं वा आनयति असमकं कौ बहवः स्थितास्तदा साधातत्र्यः । कथमित्याह (पल्लीइत्यादि) युप्माभिरन्तरपल्ल्यां रया मा वसतिः । ये तु तस्या वसतेरे स्थितास्तेषामयग्रह Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।७४२) उग्गह अभिधानराजेन्डः। उग्गह स्य मार्गणा मास्ति । ये पुनरास स्थितास्तेषामियमवग्रहस्य तत्राम्ये साधवो ऽन्यया जिकया सहिताः पश्चादागतास्तभार्गमा प्रवति। प्रचजिकायां स्थितास्तदाते पश्चादागता श्रप्रभवः पृस्थिा सकायकालकाश्य-निवेवण प्रत्यणा असति भंतो । ता एव स्वामिन इति। वसहिगमो पेवंते, वसहा पुण असेस पुण ॥ अन्नोन णीसार,विवाण साधारण तु दोएहं पि। अन्तः प्रतिश्रयस्यान्यन्तरे पाद स्वाध्यायतमेः कायिकनूमेः णीसहिताए अपने, तत्थ वत्थधात्थववसंता । पाथमिळेपनामेरासनं ज्यामादिनिमित्तमुपवेशनं तद्नूमे अथ पूर्वस्थिताः पश्चादागता अन्योन्य परस्परं निश्रया स्थिवाभावस्ततो या बहिः स्थास्यायनूमिप्रभृतयस्ताः समकम तास्तेषां येषामपि साधारणं केत्रम्। अथ पूर्वस्या बजिकाया नुशापिताः साधारणाः अथैके पूर्वस्थिसा अपरे च पश्चात्त निश्रया स्थितायाः आगन्तुकबालिकायां ये साधषो धर्तन्ते तापूर्वस्थितानामवप्रहः पश्चादागतास्तु पूर्वस्थिताननुज्ञापय ते ऽत्र तव अन्यत्र ये घसम्तो ऽवप्रास्याप्रनयोन स्थामिनः स्ति यदि ते प्रेर्यमाणा अवकाशेन जानन्ति श्तरे च से तमप्रे किमर्थमन्यस्या अजिफाया निश्रां सावजिका प्रतिपद्यते। उच्यते। र्यमाणं प्रेषयन्ति ततो वसतिविषयेऽपि स पर प्रायश्चित्तादिगमो नवति। यः पूर्व के प्रेरयतामुपसवणत्वादननुकापयितुं दुग्गढिावीरअहिटिए वा, करेण वाणेव पिएहिं पुच्वं । चोक्ता वसतिः पुनरिह या समापूर्णा श्रमणराजकुज्ञातस्याः जएण तेयस्सव कारणेणं, वपंतगाणं खलु होइ णिस्सा ।। प्रेरणाय दोषाः मन्तव्याः । उक्तमच मक्केत्रम् ॥ दुर्गे स्तेनपरचक्रावगम्यस्थाने स्थिता साऽन्या बजिका। यहा अथ चनमाह । चीरण स्वामिना अधिष्ठिता अथवा तैः प्रथमवजिकासंबवइगामत्थो सेणा, संवढे चनविहं चलं खेत्तं । धिभिर्गोकुझिकैस्तत्र निपानं जापानस्थानं कुतस्त्यमस्तिततो एतेसिं गाणतं, वोच्छामि अहाणुपुब्बीए । यस्य घा कारणेन तस्यां प्रजिकायां तिष्ठतामपरेषां मोकुवजिकार्यसेनासंवर्त शति चतुर्विधं चमकेत्रम् । एतेषांच लिकानां निश्रा नपति एवमादिका प्रजिका येन कारणेन पूनुर्णामाप नानात्वं वक्ष्यामि यथानुपुर्व्या प्रतिकातमेय करोति। स्या निश्रा प्रतिपद्यते तदनिहितम् । अथ गन्तुकायाः निभा यथा पूर्व प्रतिपद्यते तथा दर्शयति । जेणोग्गहिता वगा, मागंतह दूहनंमिपरिजोगा। नयेण जत्येन मणा, वइगा अमाय तत्थ नइ पज्जा । समवइगपुबनग्गह साहारण जंव णीसाए । पच्छापत्ते निस्सा, जे पुनडियाण ते पचणे ॥ बेन साधुना सा जिका पूर्वनषगृहीता स प्रजिकावग्रहस्य स्वामी प्रवति। तस्य जिकावग्रहस्य किं प्रमाणमिति चिन्ता काचिद् वजिका प्रयेनोत्यातुमना प्रचलितुकामा अभ्या च यां नैगमपकाश्रिता श्मे मादेशाः। तत्रैक भाचार्यदेशीयो न नवा बजिका यदि तत्रागच्छेस्सा च बसवता परिग्रहाता णति यावत्प्रमाणं नूलार्ग गावचत्वारश्चरितुं ब्रजन्ति तावान् ततः पश्चात्प्राप्ताया अपि तस्या निभा पूर्व प्रतिपद्यते ततो ये पूर्वस्थिताः साधवस्ते अवग्रहस्य न प्रभवः किंतु पश्चाप्रजिकाया अवग्रहः । मपरो ब्रवीति । ( तहत्ति) तीर्थ जनपानस्थानमित्येकोर्यस्तत्र जापानार्थ गावो यावष्यन्ति प्र प्राप्ता इति । अथ जिकाया एव प्रकारान्तरमाह । न्यः प्राह (दुहति) यत्रोपस्थाने गावो दुह्यन्ति। प्राचार्यःप्रार वश्याए जट्टियाए, अत्यंते अहव होज गेद्वषं। अयोऽप्यते अनादेशाःअयन्तुसमीचीन आदेशः (नंमिपरिभोगे- अछे तत्थ पविट्ठा, सम्मिव अम्मम्मि वा होतु ॥ सि)यायतिनूभागेनएिककागन्ध्यस्तिष्ठन्तियावचनजिकायाः यस्यां जिकायां साधयःस्थिताः । अम्या च तत्रागन्तुकासमीपे गोनिःपरितुक्तं पतापजिकावग्रहस्य प्रमाण मन्तव्य मा तैः क्षुता तत उत्थितायामपि प्रजिकायां तिष्ठताम् । अथवा म् । तत्र चयदि समकंचौ साधुवर्गावेकस्यांवजिकायां स्थि- सानत्वं कस्यापि साघोर्नपत ससस्तंत्रय स्थितानामन्ये गोतौ सदा साधारणा सा बजिका । अथैका पूर्व स्थितो द्विती- कुमिकाः साधुनिः सहितास्तत्र प्राजिकास्थाने प्रविष्टास्त च यस्तुवजिकान्तरेण समं पश्चादायातस्ततः पूर्वस्यायप्रदो भव- तत्र अन्यत्र तीर्थे गाः पानीयं पातुं ययुरन्यत्र वा ततो नाति। अथ परस्परनिश्रया स्थितस्ततःसाधारणं तत केत्रमा यस्या- षग्रहमार्गणा क्रियते। भवजिकाया निश्रया द्वितीया नजिका स्थिता तस्यां ये साधष- जइ वा कुडीपमालिम, पुध्वियकतासु ते पिता संता। स्तेषामवग्रहभाभवतीति संग्रहगाथासमासाथैः । प्राणम्मिवि पज्जेचा, तुहे अस्सामिणो हति॥ अथैनामेष षिवरीपुरमादेशप्रय मिरस्पाचार्यों मतं साथ वा शब्दः प्रकारान्तरोतकः यदि ते भागन्तुकाः पूर्वगोकुमिविभावयति । ककृतासु कुटीपमालिकासु स्थितास्ततो ऽन्यस्मिन्नापि तीर्थे णिगोयरे पोषणगोणियाणं, णोषखदुम्नेति व जत्थ गावे । गाः पाययम्तोऽस्वामिनो भवन्ति ततो यदि ते पूर्वस्थिताः अन्नत्थगणोदिसुजत्थ खुम्म,सजग्गहो सेसमाग्नहोतु ॥ साधवो निष्करणिकास्तदा न प्रभवः । भय ग्नानादिकारणे नगोचरो गवां चारिस्थानं नैव च गायत्र पानं नैव यत्रो- स्थितास्तदा ते स्वामिनो नागन्तुकास्तत्रावगृहस्य प्रभवः पस्थामे गावो दुखम्ते किंतु वजिकाया अटव्यामेव गवादिनि अन्नत्थ वावि काउं, पाइंति कइय पज्जइ निव्वाणो। विस्कुलम्।आदि शब्दामन्त्रीभिश्चयावदाक्रान्तं तावानवमहः ते खा न हुँति पहुणो, स नवे तहे पह हुति ॥ शेष तु गोचरादिस्थानं सर्वमप्यनवग्रहः। यद्वा पूर्वकृताः कुटीपमालिका वर्जयित्वा अन्यत्र स्थान जइ समगं दो वक्ष्गा-हितानुसाधारणं ततो खतं । । स्थिता प्रागान्तुका गोकुलिका यदि पूर्वैः कृते निपाते गा.पाप्रणवश्गापसहिता, सत्येवमेट्टित्ता अप्पत्ता॥ ययन्ति तदा ते आगन्तुका साधवो न प्रनयो जवन्ति । यदि यदि समकमेकस्यां जिकायां द्वौ गौ स्थिती ततः सा- तु स्वभवे तीर्थे स्थानाविक निपाते पाययन्ति तदा आगन्तुकाः धारणं तरकत्रम् । अथ काचियनिका पूर्व साधुभिरवगृहीता- साधवःप्रनव इति । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४३ ) अभिधानंराजेन्द्रः । उम्माह एमेव मासकप्पे, प्रतीरिए उट्टिया य पश्चियरा । पुम्बिक्षा ति प पु हटिए न अर्हति ॥ एवमेव अतिरि] संपूर्ण मासकल्प उत्थिता या पूर्वज का त प्राप्ता ततः पूर्व्वसाघव एव प्रशवः । अथ मासकल्पः पूर्णस्ते च चहाना अपि तत्रैव स्थितास्ततो नावप्रदं बनसे पश्चात्प्राप्ता एव सत्र प्रभव इति । फागगांपरमी, उच्चारे चैव पावसीए । व, सदाने पच्छ में पता ॥ अथ तच प्रासुका गोचर भूमि उचारविि रक्षा प्राप्यते । अभ्यश्च तत्र तथाविधमानि ततो दृष्टा मयैवममन्तरायुच्या मनन्ते सा तच कारणानाये ये पञ्चात्प्राप्तास्त एव सनन्ते । शतं ब्रजिकाद्वारम् । अथ सार्थद्वारमा | मेण महिष्यो मत्यो, मेष व सत्य होइ समदोषति | भाषा परिसत्या पुथ्यसाहारणं मं च ॥ येन साधुना सार्थः पूर्व गृहीतो येन वा सार्थवाहः पूर्वमनुज्ञापितस्तस्याष भामयति । अथ समकमनुज्ञापितस्ततो अयोध्याचन् प्रति साथी मीनार्थमर्यातस्तत्र समागत्य मिलन्ति तेषु य साघवस्ते पूर्वस्थितानामुपसंपन्ना नवन्ति । यत्र परस्परंमिश्रया हो सार्थी तिष्ठतस्ततः साधारणं मन्तव्यमिति । एतदेव स्पष्टयति । सत्ये मटुप्पाणा, एकेणकेण सत्यवाहेष्ट | छियावदिष्म, द्रोहवि मिलिया व एगका ॥ साथै ये केsपि अथवा प्रधानाः पुरुषास्ते एकेनानुका पिता एकेमाधुना सार्थवाद आदिस्तान्यां योजयोरपि पितमनु ज्ञापितं ततो येन कृतं नातिक्रम्यते तेन यस्मै प्रदन्तं तस्यावनहः ॥ अथ कायप्यनतिक्रमणीयौ ततो द्वयोरपि साधारणं क्षेत्रम् अथाप्येकच मिकिती मनुकापिती ततो येन पूर्वमनुज्ञापितस्तस्यावग्रह इति । महासत्यं महरा गोपाच्छण तो पनुयो । तुरियं वा आधावति, मरण एमेव अस्सामी ॥ मह बृहत्तरं कमपि सार्थमागच्छन्तं डहरको लघुतरः । साप्रतिकृते ततो ये घुतरसार्थवासिनः साधवस्ते नावगूहस्य प्रभवः । यो वा सार्यो नयेन त्वरितं बृहत्तरसार्थ मिसमाय ध्यायति तथापि ये साधयस्ते पथमेव खामिनः । बृहत्तरवासि न एवावग्रहस्य स्वामिन इति प्राषः । हवीमॐ गिवादी, दुग्गं वा एत्य दोवि वसिऊणं । बाले हामो पाए, हिस्सा साधारणं कुणइ ॥ द्वौ सार्थमेकत्र मिलितौ परस्परमित्थं निभ्रां कुरुते यथा यदिदमीमध्ये नदी दुर्गे वा विद्यते अत्र द्वयेऽपि जना राजा दुषित्वा प्रज्ञाते मयिष्यामः । पुरतो गमिष्यामः इति परस्पर साधारणां निधां यत्र कुरुतस्तत्र सचितादिकं सर्वमपि साधारणम् । गतं सार्थद्वारम् । अथ सेनाद्वारमाह । माए जत्थ राया, अरणे हो जत्थ परिहो । सो सेसम्म उग्गहो, जो न बगा य सो इदई ॥ यत्र यस्यां सेनायां राजा भवति तत्रावग्रहो न भवति यत्र या प्राभादौ क्षेत्रे स राजा प्रविष्टस्तत्र यद्यप्यन्ये साधवः पूर्व स्थिताः सन्ति तथापि यावन्तं कालं स तत्रास्ते तायन्नावग्रहः ॥ शेष नाम यत्र ग्रामादी राजा न प्रविष्टो यो वा शून्यसेनो उमाह राजक इत्यर्थस्तत्रावग्रहो जवति परं तत्र यो प्रजिकायां गम चक्तः स इहापि मन्तव्यः। गतं समाधारम् । अय संवर्तद्वारमाह । नागर गो संबो, अगोग्गहो जत्थ वा य विहो सो । सेसम्म हम्रो भो, गामार सत्यम्मि सो इटई ॥ मागरको नगरसयन्धी संवतो न भ ति । यत्र वा प्रामादौ स नागरकः संवर्तः प्रविष्टस्तत्रापि नावग्रहः । शेषो प्रामेयकसंवर्त्तस्तत्रावग्रहो नवति परं य एव साथै ग्राम उक्तः स एवेह रुष्टव्यः ॥ वृ० ३ ० । (१६) क्षेत्रत्यागसमय एवागता अपरे तर्हि स एवाषग्रहः । (सूत्रम् ) जद्दिवसं समणे निग्गंथा सिज्जासंथारयं रिप्पनति तहिवसे परे समणा निग्र्माचा हवमाग सिव उग्गहस्सा चिहा दमचिग्गहो । अस्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह । उग्गहु व उबगतो, सागारिया साथी । रहित होइ खर्च केवतिकाले ससंबंधो ॥ , पूर्वसूत्रे तावदवग्रह एव प्रकृतः प्रस्तुतो वर्त्तते । “दोबंधि अप्ापिता" इति वचनात् । इदमपि चि षयम्। यद्वा पूर्वसूत्रद्वये सागारिकावग्रह उक्तः इह तु सागारिकामादनन्तरं सानिका प्रतिपाद्यते । अथवा पूर्वसूत्रेषु संस्तारकं प्रत्ययेविहारः कर्तव्य इत्युक्तमहारे साधुनिर्विरित कियन्तं का तैः प्रयुक्तं भवतीति निरूप्यते एष संबन्धः । अनेनायातस्यास्य पापाविति द्वितीया तो परिम दिवसे श्रमणा निर्ग्रन्थाः इय्या च वसतिः संस्तारक । तृणफत्रकात्मकं शय्यासंस्तारकम् अत्र शय्याग्रहणेन ऋतुकालः सूचितः संस्तारकग्रहणेन तु वर्षाकालः । अथ कारणजाते को यः संस्तारको कृ संस्तारकग्रहणेन द्वावपि गृहीतौ ततः मासकस्ये वर्षावासे वा पूछें हाथ्या संस्तारकं वा यस्मिन् दिवसे पूर्वस्थिताः साधवो विप्रजइति परित्यजन्ति तद्दिवस पवापरे श्रमणा निर्भग्यास्त क्षेत्रे इयं शीघ्रमागधेयुः ततः गृहस्य पूर्वानु झापना तिश्रुति । किमुक्तं भवति । य एव ततः क्षेत्रान्निर्गतास्तेषामेवावग्रहेण तत्त्रं यतु तद्दिवसमन्ये आगतास्ते क्षेत्रोपपना इति कृत्या पतत्र सचितादिकं तत्पूर्वस्थित नामानाव्यं कियन्तं कालं यावदित्याह ( अहानंदमत्रिग्गदे ) वह यस्यां वेलायां ते साधवो निर्गतास्तावतीं वेसां यावद् द्वितीय पामेवाग्रदो जयतीति महतो सम्वमिहापौरूषीप्रमाणं मध्यमं गृह्यते एतावन्तमपि का तदीय एवावगृहे तत्त्रम् अतो यद्यागन्तुकास्तत्र सचितादिग्रहणं कुर्वन्ति तदा साधकाः स्तेन्यामा पद्यते । अत्र तु चिन्तनेर्धिकार इति सूत्रार्थः । अथ नियुक्तिविस्तरः । तत्र सचित्तायगूह विषय शर्त कृत्या प्रथमतस्तदर्शयति। मुत्यतनयां मार व धम्मकालाई । कामिव स ॥ काधर्मे ऋतुवरूवर्षावासक्कणे कनिक्षेत्रे वसतां स्वग्रामनकोश योजनाभ्यन्तरवत्यं न्यग्रामजनम्धोपशान्तप्रतिकः Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४४ ) अभिधानराजेन्द्रः | लगाड कथमित्याह । सूत्रमर्थस्तव जयविशारद आचार्यः सातिशयं प्रवचनधायाम करोति । रुपको मात्ररूपणादितपस्तप्यतो धर्मकथा कीराश्रवादिलग्धिसंपन्नतया वैराग्यजननीं धर्मकथां विधाता परवादिनं निहतरी करोति । एवमादिनि प्रायः स्वग्रामीणोऽन्यग्राम सूयान् जाराज्या परिणतः कृतः ॥ नीरोगेगा सिवेश य, वासो वासामु निम्नया साहू विय विहता, तं चैवय आगता खित्तं ॥ नीरोगेण ग्वान्यभावेन श ेन च राजादी स्थाय्युपलवाभावेन धर्षावासं कृत्वा ते साधवो निगर्ताः । इह वर्षावासे न्यान् काल एकत्र स्थीयते ततः प्रनृतलोकस्योपशमो भवतीत्यनिप्रायेण वर्षाचा अन्याऽपि मासकल्पा नन्तरमेव विहारः संभवति एवं ते ततः क्षेत्रान्निर्गताः श्रन्ये च साधयो विहरन्तस्तदेव क्षेत्रमा गतास्तत्रापति चिकीर्षुराह । लिनोग्गहुप्यमाणं रिवर्स कोते के तहोरचं । जं वेला णिग्गयाणं, तं वेनं मदिवसम्म || त्राय छह केचिदाचार्याः केप्रायग्रहस्य कालप्रमाणं ध्रुवते यस्मि दिवसे ते निर्गतास्तमेषेक समयगृहस्त धो के प्रणन्ति होतीयेऽदिव्य इति भावः । सुरिद द्वाप्येतावादेशी अयं पुनरादेशो यस्यां वेलायां निर्गतास्त. स्यामेव पेनायां पापन्यस्मिन् दिवसे अवग्रहो भवति ततः परं व्यवच्द्यते इत्थं कालतः प्रमाणमुक्तम् । क्षेत्रतस्तु सर्वतः कोशयोजनमत कार्यमग्र इति । वित्तम्पस, गहो नहिं समग्गणा होइ। ते वय पुरिसा पुविहा, रूवं जाएं जाएं व ॥ छहावग्रहः केत्रे या भावे वा वसतौ वा यदिन्द्रकीलादिवर्जितं ग्रामनगरादि तदिह क्षेत्रं मन्तव्यं तत्रावग्रहं प्रतीत्य - कमार्गणा कर्त्तव्या । कस्य नवति कस्य वा नेति विचारयिवयमित्यर्थः । यत्पुनरिन्द्र कादियुकं तदवग्रहयो न भवतीत्य क्षेत्रमभिधीयते तत्र वसतिविषया क्रमार्गणा नवति । सा चोपरिप्रात्करिष्यते । क्षेत्रविषयां तावत्करोति (पिइत्यादि) ये पुरुषास्त्र माया तास्ते द्विविधाः एके रूपं जानन्तो पर अजानन्तः । इदमेव व्यकीकरोति । जाता जाता, चनिहा तर होति जानना । उन्मयं रूपं सत्य होइ जसकिची ॥ जानन्तोऽजानन्तखेति शैक्का द्विविधाः । तत्र जानन्तस्तावएकतस्याचार्यादि 1 रुजयं रूपं शब्द जानाति । धर्मकथाश्रवणार्थ शिष्यः समा रूपं जानाति न शब्दम् तृतीयः शब्दं न तपं चतुर्थश्च पुनर्यशः कीर्ति जानाति यशः सर्व प्रसिद्धिः संवैदिमा मिनी फीलिं यश उपलकिता कीर्तिर्यशः कीर्तििित समासः । यस्तु रूपशब्दयशः कीर्तीनामेकमपि न जानाति जान उच्यते अय द्वितीयजङ्गमादौ कृत्वा यथाक्रमम मूनेव भङ्गान् व्याचष्टे । उचारनेनिमानिसु पापनि रूपं विस्सागो । रति तो कामगमादी मुनि मध्यं ॥ उग्गह चालल्यो जसकिति, क्षण समेव सामवासी वा । यस किसि व ण जाणते परिमो ॥ " उच्चारभूमि चैत्यवन्दनादिषु कार्येषु विनिर्गतस्याचार्याद रूपं पश्यति चैको द्वितीयः शक्तः पश्यति न पुनः स्वरेण जानीते उपाश्रये तस्यानागमनात् । तृतीयस्तु शक्तः कर्षणादिकर्षकः कृषस्तत्प्रतिकः सकलमपि दिवसं क्षेत्रादौ स्थित्वा रात्री प्रोपागान् मनाते जयोऽपि नि धर्मकार्यावर्तते नतु रूपयते चतुर्थस्तु कः स्वग्राम वासी वा दूरस्थः सन् तद्रूपं पश्यति न च धर्मकथादिशब्दं गृणोति किन्तु लोकमुखेन तेषामाचार्यादीनां यशः कीर्तिं गृणोति । यस्तु चरमोऽजानानः शक्तः स रूपशब्दात्मकमुभयं कीर्ति च न जानाति परं गृहवासनिर्विषतया नुमायातः वास्तव्यः पतितः । वायाप्रति एवं पंचविहो प्राणुपुन्नीए । एएसिं संदाणं, पत्तेयं मग्गला इणमो ॥ वाचादृतो नाम आगन्तुकः शकः सोऽप्येवमेव तस्य वत्पवविध श्रनुपूर्व्या यथोक्तपरिपाटया वक्तव्यः । अथैतेषां द शानामपि शाणां प्रत्येकं पृथक या मार्गद वारणा भवति तान्येव द्वाराययनिधिः लोकपमा व्यापार पुणो हो, जावज्जीवपराजिए । वाघा संप वावि, उडियो विहरति ॥ पढमे विय दिवसे तु, कहकप्पो उ जाणते । जागाविए कहं कप्पो, पच्छच्च तहमेविया ॥ उनका व ऊप्पो निधार । एगगामे अनिच्छंते, कहं कप्पो विहिज्जते ।। दुविहा मग्गणा सीसे, एगपिहा य परिच्छए । पहियते कई कप्पो छ । न विद्यते व्याघातः प्रव्रज्याविनो यस्यासा श्रव्याघातः पूर्वसा केागिय मन्यसुद्धाति न पुनः कामhi करो | ति जावः ( पुणे होइ ति ) पुनभूयोऽपि यदा किलते साधवः समायास्यन्ति तदा प्रवजिष्यामीति कश्चित् को ब्रूयात् ( जावज्जीवपरा जिपत्ति ) यदा यदा श्रद्धं प्रत्रजितुमभिलवामि तदा १ नवैर्विप्रैरुत्तिष्ठमानैर्यावज्जीवमहं पराजितः अत एव मे सांप्रतमपि व्याघात उत्थितो यदेवं साधवो विदारं कृतवन्त इति कश्चिद् ब्रूयात् । एषां शकाणामेकतरे प्रथमद्वितीयदिवसोः प्रब्रजितुमुपस्थिते ज्ञायके कथचन प्रकारेण कल्पः पूर्व प्रेपणादिको विधि तथा वास्तव्ये वाचनाहृते वा त्वमस्माकं न प्रवसीति ज्ञापित कथं कल्पनयेत् य आयार्यादितान का पूर्वसा प्रसमीपे प्रणिति द्विपरीतो अनुः पतयखिता कर्त्तव्या । श्रनिधारणमेकमनेकान् वा साधून् सम्यगाधाय शकस्य गमनं तत्र कथमाभाव्यानाभाव्यता कियते ( एगगामेसि ) यत्र प्रामे रिका स्थितास्तव केनापि धर्मकविना कांडपि मिध्यामितः स कस्या) कमप्याचार्यमनिधायतिक्रामतिविषति शेषमत्यां गच्छति शके कथं कल्पां विधीयते । तथा शिष्ये शिष्यविषया शिया के के द्विमकारा मार्गमा जयति प्रती एकविया महातक पिया मार्गणा (पडिदियय Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नग्गह अभिधानराजेन्द्रः। उग्गह अंतत्ति ) भगवता प्रतिषिरधानप्रतिचारणाव्याप्रतैः शक्को एमेवय मुंमिस्स वि, चनरो नवगा हवंति कायव्वा । न प्रवाजनीया ये तु तं प्रवाज्यान्यत्र प्रेषयन्ति तैः प्रेषिते तस्मिन् गच्चगन्तरं प्रव्रजति कथं कल्पो विधीयते । इत्येत एमेव य इत्थीए वि, णवगाण चउक्कगा सुमि॥ सर्व निरूपणीयम्।तत्र संगारः संकेतः स दत्तो यस्य शैकस्य पवमेव वा मुएिकतस्यापि प्रेष्यमाणस्य चत्वारो नवकाः स संगारदत्तः । आहिताम्यादेराकृतिगणत्वातूक्तान्तस्य कर्तव्या भवन्ति एवमेते हे नवकचतुष्टये पुरुषाणामुक्ते स्त्रीणापरनिपातः । तस्मिन्नपि कथं कल्पी विधीयते । इत्येतत्सर्व मप्येवमेव द्वौ नवकानां चतुष्को संघाटकात्महितीयादिभिः निरूपणीयमिति द्वारश्लोकचतुष्टयसमासार्थः । अथ विस्तरा प्रकारैः कर्त्तव्यौ । अथ केत्रिकाणामन्तिके न प्रेषयन्ति किंतु स्वयमेव स्वीकुर्वन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः । थै विनाणषुः प्रथमतो ये पूर्वमुभयज्ञादयः पुरुषा उक्तास्तद्विपयवक्ष्यमाणःप्रेषणनेदसंग्रहायाह । अय किमर्थममुएितं प्रेषयन्तीत्युच्यते । चत्तारि गवगजाणं-तगम्मि जाणादिए वि चत्तारि। सागारियसंकाए, णिच्छति घिच्छति वा सयं मासे । अनिधारणम्मि एए, खित्तम्मि विपरिणया वा वि॥ तत्थ अमु पुणरवि, पच्छिह मसुमितो एवं ।। यः पूर्वमुन्जयारूपज्ञादिजेदाचतुर्का ज्ञापक उक्तस्तत्र प्रत्येक सागारिकाः संज्ञातकास्तेषां शङ्कया माममी उपवाजयेयु रिति बुद्ध्या स्वग्रामे नेच्छति स शैक्तःप्रवजितुम् । यद्वा श्रमी चत्वारो नवकाःप्रेषणनवप्रकाररूपा जवन्ति तथा यो ऽजानानः सन् साधुनिस्त्वमस्माकंन जवसि किंतु पूर्वसाधूनामि साधवः प्रवाजितं न मां ग्रहीष्यन्ति यदि च तान् साधून न स्येवं ज्ञापितः तत्रापि चत्वारो नवकाः। अभिधारणं नाम उदयामि ततः पुनराप अत्रैव प्रत्येष्यामि प्रत्यागमनं करिष्य मनसि करणं ततः कैत्रिक मनसिकृत्य ययेते अव्याघातादय इति बुरूया नागन्तुकैरात्मानं मुकापयति एवममुएिकतं प्रेष यन्ति एतं तावदुभयझविषयो विधिरक्तः । आगताः तदा विपरिणता अपि केास्यामिन एव जोग्या अथ रूपकादिविषयं तमेवातिदिशन्नाह ।। इति संग्रहगायासमासार्थः । अथैनामेव विवरीषुरव्याघातद्वारमङ्गीकृत्य तावदाह ।। एमेव य एवगकमो, सई रूवं च होइ जाणंतो। पियमप्पियसनाचे, दर्दू पुच्छति जावसाहेति । जो पुण कित्तिं जाणति, ण ते वयं सिस्सते तस्स ।। एष एव नवकक्रमः शब्दं रूपं च जानाति शैक्के वक्तव्यः शब्दकुत्यगता ते जगवं, पुट्ठव्वे जणति किं तेहिं । मेव रूपक्केत्र इत्यर्थः । यः पुनः शैकः कीर्तिमेव जानाति 'न कधिकषु निर्गतेषु यः साधुरुनयः शक्तः सन् प्रवजामी रूपं न वा शब्दं तस्य शिष्यत्वे निवेद्यते ते वयं न जवामो स्यनिमायणागतो यावदागन्तुकान् साधन पश्यति ततस्ते येषां सकाशे भवान् प्रत्रजितुमायात इति ततो ध्यात् । साधवस्तस्य प्रियमप्रियं वा भावं प्रहसितमुखतया दीन किं न व कप्पा तुम्ने, दिक्खेतसि तो न अम्हाणं। मुखतया वा दृष्ट्वा पृच्छन्ति किमेवं प्रहृष्टवदनश्चिन्तापरो वा पश्यसि एवं दृष्ट्वा तेन स्वरूपे कथिते सति (साहति) तत्य वि सो चेव गमो, णवगाणं जो पुरा नणितो।। सद्भावं कथयन्ति ययागतास्ते अन्यविहारेणेति समास्यस्य किंवा युष्माकंदीवयितुंन कल्यते ततःसाधुनिर्वक्तव्यं तेषायानेवं पृच्छेत् कुत्र गतास्ते भगवन्तः एवं पृष्टाः सन्तो जणन्ति मेव त्वमानवसि नास्माकमेवमुक्ते यद्यस जणति ययेवं किं तैवतः प्रयाजनम् स प्राह तर्हि मां प्रव्राज्य तत्र प्रेषयत अमुएिमतं वा विसर्जयत ततपवइहिति गणिते, अनुगच्छगया वयंति दिक्खेओ। स्तत्रापि स एव गमः प्रकारो यं संघाटकात्महितीयादिभितेसि समीवं णमो, णयवाहण ते नयं सोयं ।। भैदैनिष्पन्नानां नवकानां पुरा जणितः ॥ अथ “ अनिधारणप्रवाजिष्याम्यहमिति तेन जणिते साधवो वदन्ति ते केत्रिका मिएए, खित्तमि वि परिणया वावि" इति पश्चाई व्याचले। अमुकत्र ग्रामादी गताः वयं भवन्तं दीवयित्वा प्रव्राज्य तेषां विपरिणया निज्जतिते, अम्हे तुन्न भणंत संतहिं । समीप नयामः । सच तकमनन्तरोक्तं वचनं तव नैव व्याहन्ति तह वि य ग वि ते तेसिं, अव्याहयमादिया होति ।। न विकुट्टयति तथेति प्रतिपद्यतेश्ययः पषोऽव्याघात उच्यते । ये अव्याघातादयो वाताः शैका अत्र प्रस्तुतास्ते कैत्रिकमसंघामंग एगेणं, पंसवपसेव मुंगिए तिमि । निधार्य प्रथममागता अपि कुतोऽपि हेतोस्तं प्रति विपरिणतातरुणेमकेयेरे, एकेके तिमि नव एते ।। स्ततो यद्यागन्तुकान् नणन्ति वयं युष्माकं सकाशे प्रत्रजिष्याततः साधवस्तं प्रवाज्य संघाटकेन सह केत्रिकाणामन्तिक मोऽयं प्रर्याप्तं तैः पूर्वसाधुनिरिति तथा ऽप्येवं बुवाणे अपि ते प्रेषयन्ति । अथ संघाटको न पूर्यते तत एकं साधुं सहायं दत्त्वा अव्याघातादयस्ते चागन्तुकानां न भवन्ति किंतु केत्रिकस्यैव चासयन्ति तस्याप्यभावे एकाकिनमपि विसर्जयन्ति पर जवन्ति । गतमव्याघातद्वारम् । अथ पुणो दा ति द्वारमाह ॥ पन्थानमुपदिशेयुः । यतः तरुणस्य त्रयः प्रकाराः मध्यम- एहिंति पुणो दाई, पुढे सिम्मिई य मणसाणा । स्थविरयारण्यवमव प्रत्यकं त्रयः पते नव नवन्ति एष बहुदोसे माणुस्से, अणुसासणणवग तह चव ॥ प्रयमो नवकः। आगन्तुकत्साधूनां समीपे कुत्र गता इति पृऐ ततस्तैः शिष्टाः पढमदिणसग्गामे, एकोणवगो वितिज्जए वितियो। अमुकत्र गता इति कथिते स शैको ब्रूयात् ( पहिंतिपुणो एमेव परग्गामे, पढमे वितिए य जे णवगा ॥ हाति ) यदा ते पुनरप्यत्रागमिष्यन्ति तदा प्रत्रजिष्यामि य एष एकः प्रथमो नवकः प्रथमदिने स्वग्रामे प्रवाज्य प्रेषयतां एवं नणति स वक्तव्यः। सौम्य ! बहुदोषे बह्वन्तराये मानुष्ये मन्तव्यः । द्वितीये दिवसे एवमेव द्वितीयो नवकः एवं ग्राम मा प्रमादं कुरु एवमनुशासनं कृत्वा तथैव नवकगमन कौ नवको उक्तौ परग्रामेऽप्येवमेव प्रथमद्वितीयदिवसयो । प्रेषणं कर्त्तव्यम् । अनुशासनमेव विशेषत उपदर्शयति । नवकी एवमेते चत्वारो नवकाः मुशिकतं प्रेषयतां नवन्ति । | जं को कायव्वं, परेण आजेव तं वरं काउं । Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह अनिधानराजन्छः। उम्गह मच्चू अकबुणहियो, न ह दीसति आवयंतो वि ॥ यदा दीवाग्रहणादिकार्य कल्ये द्वितीयादने नरेण कर्त्तव्यं तदद्यैष कर्नु बरं प्रशस्यं यतो मृत्युरकरुणहृदयः स्वनाबादेय कगेराशयस्तथा कयमप्यापतति । यथा आपतन्नपि न दृश्यते उक्त "स्वकार्यमथ कुर्वीत पूर्वायत्परासिकम् । को हित-। त्ति कस्याध, मृत्युसेना पतिष्यति ।” तथा । तुरहा धम्म काउं, मा हु पमायं खणं पि कुव्वीथ ।। बहुविग्यो दुतो मा, अवरम पमिच्छावि ।। जव्यास्त्वरध्वं धर्म कर्ते मा कणमपि प्रमादं कुरुभ्यं कुत इत्याह । बहवश्वनविषविश्वविकाशमुपघाताग्निदाहादिनेदादनेके बिना जीवितान्तरायाः । यस्मादसौ बहुविघ्नो हुशब्दो यस्मादर्थे अपिशब्दस्य पानुक्तस्यापि गम्यमानत्वात् । यस्मान्मुहत्तोऽपि बहुयिनः आस्तां प्रहरदिवसादिरतो महाभाग मा प्रवज्याग्रहणे अपराकमपि प्रतीक्विष्ठाः। एवमेव कृत्वा चतुनिनयकैस्तथैव प्रेषणीयम् । गतं पुणो दाईति द्वारम् । अथ यावज्जीवपराजितद्वारमाह। बहुसो उवहिपस्सा, निम्या उहिति जज्जियति जोमि । सासणपञ्चवणा, एगा य जावसमुमुयरे ॥ केत्रिकाणां गमनवृत्तान्त झात्या कोऽपि शैको यादहुशोऽमेकशः प्रवज्याग्रहणोपायस्थितोऽहं परं वारं वारं विना नवनवा उत्तिष्ठन्ति अतो यदयं जायजीवमहं तैर्विर्जितोऽस्मि यदेते साधवो विहसवन्तः अतः परं तेषु समागतेषु प्रव्रजिप्यामि। पर्व मुवावस्यानुशासनं कर्तव्यम् । भए ! साप्रतं तव चारित्रावारकाणामनुदयो वर्त्तते अतो मा प्रमादीः को जानाति नूयोऽपि तेषामुदयो भवेत् । आवश्यकादिनिहितधर्मवमरधान्तस्तत्पुरतःप्ररूपाणीयः। एवमनुशिष्य प्रस्थापनं कर्तव्य तत्र च तथैव मुहिमतेन तयोः प्रत्येकं चत्वारो नवका जयन्ति । एवं प्रथमद्वितीयदिवसयोरव्याहतादीनां कल्पो विधीयते । अथ झापिते कथं कल्पो वास्तव्ये वाताहतेऽपि वेठि द्वारमाह। वाताहते वि णवगा, ताहव जाणाविए अइयरे य । एमेक्य वत्थवे, णवगाण गमो अजाणते ॥ वाताहतो विधा ज्ञापित इतरश्च । यः केत्रिकाणां यश-कीतिमपि न जानाति स आगन्तुकसाधुनिस्त्वमस्माकंन भवसि ये गतास्तेषामेवाभवसीति सद्भावावगम कारितो हापित उच्यते । इतरो नाम यश-कीर्तिइस्तत्र ज्ञापिते इतरस्मिन् वाताले प्रत्रजितमाबाते तथैव चत्वारो नवका भवन्ति । वास्तव्योऽपि शक्कोऽयं केत्रिकाणां यशःकीर्तिमापि न जानाति तत्रापि नवकानां गम एवमेव मन्तव्यः । अथ वास्तव्यो वाता हतो वा यः कीर्तिमपि न जानाति स कीशो नवेदुच्यते । वत्यब्बे वायाहम, सेवगपरतिस्थिवणियएए य । सले ते उज्जुगाअ-पिणाश्मेनाइ वा जत्य ॥ वास्तव्यो वा याताहतो वा यो राजकुलसेवको यो वा परतीर्थको यश्च वणिक् पते असन्निहितत्वेन यशाकीर्तिमपि गुरूणां न जानीयुः परं प्रथमद्वितीयदिवसयोःप्रवजितुमायःतास्तेऽपि केत्रिकाणामानाव्याः । अथ ऋजुअनृजुद्वारचिन्ता क्रियते । य आचार्य ऋजुर्नवतिस सर्वानप्येतान् केत्रिकाणाभर्पयति। यत्र वा केनिका नवन्ति तत्र संघाटकादिभिः प्रकारैः प्रेषयित्वा वी सह मीबयति । माइझे वारसगं, जाणगजाणं वि एय चत्तारि । पच्चव्वे वायहमे, ण बनत चउरो अणुग्घाया ।। यस्तु मायावी अनृजुः सन् प्रेषयति तत्रच प्रकाराणां द्वादशकं जवति । तानेवाग्रे वक्ष्यति । तथा झापके ज्ञापिते च समुदिताश्चत्वारः प्रकारा जवन्ति । तद्यथा ज्ञापकं प्रथमदियघसे न प्रेषयति । १हितीये तमेव न प्रेषयति । एवं ज्ञापितस्यापि द्वौ प्रकारौ एतैवदयमाणैश्व प्रकारास्तन्यं वाताहतं वा अप्रेषयतश्चत्वारोऽनुराता मासाः नच तान् शिक्वान् बनते कुप्रस्थविरादिनिवेत्रावेत्रिकाणां दाप्यते इत्यर्थः ।। श्रथात्रैव प्रायश्चित्तवृतिमाह सत्तरत्तं तवो होति, ततो च्छेदो पहाई । देण निहापरियाए, ततो मूलं ततो दुगं ।। प्रागिव पटव्यम् प्रकारकादशकमाह । तरुणे मज्मियेरे, तद्दिणवितिए य नक्कगं इक। एमेव परग्गामे, उकं एमेव इत्थीम् ।। पुरिसित्ति गाण एते, दो वारसगा उ मुंगिए होति । एमेव व ससिहम्मि य, जाणगजाणविए जयणे ।। तरुणमध्यमस्थविरान्प्रत्येक तहिवसे द्वितीयादिने वा प्रेषयत एक प्रकारषटकंजवात पतच स्वग्रामविषय परग्राम पवमेव प्रकारषदकं सर्वेऽप्येते द्वादश प्रकाराः पुरुषेषु जणिता एवमेव च स्त्रीस्वपि प्रकारवादशकं जपति । पते द्वे हादशके पुरुषत्रीणां मुषिमतविषये भवतः। पवमेव च शतकेऽपि शौकवादशद्वयं तदेवं ज्ञापिते च प्रत्येकं (भयणत्ति) भक विकल्पास्तेषां चत्वारि द्वादशकानि जवन्ति । अथया । अव्याहायपुणोघात, जावजीवपराजिया । तदिणेपेसणीया- सग्गामे पकारवारसहा।। अव्याघातपुनरागतप्रवाजितयावज्जीवपराजिताधेति प्रयः शैक्काः । एतान् तद्दिने वा प्रेषयन प्रकारषट्कम् । पतश्च स्वग्राम श्तरस्मिन् वा परप्रामे जवतीति कृत्वा द्वाज्यां गुणितं द्वादशधा नवति । अथ ऋजु अनृजलकणमाह । जाणंतमजाणते, णाइवायसेवाअमाइयो। सो चेव उजुओ वसु, अणुजुओ जाण अप्पति ।। जानतोऽजानतो वा शैकान योमायावी सकेत्रिकाणां ममीपे स्वयंयाति परहस्तेन वा प्रेषयति स एष ऋजुक च्यते । अनजस्वसौ अभिधीयते यो न समर्पयति न वा प्रेषयति । अथते वास्तव्यवाताहता जानन्तोऽजानन्तो वा अनजनिःप्रवाजितास्ते स्वयं पश्चात्पारसायन्ते । चस्यते ततोऽनुयानादिषु यत्र मिलितास्तत्र केत्रिकैः कश्चिदनृजः प्रवजितो वातावृतः पृष्ठः कथं नवान्प्रवजितः सनणति । तुज्के वि य नीमाए, अहमागतो विश्विनो बसेहि। अम्हे किं न पवइया, पुट्ठावणते परिकहेसुं ॥ युष्माकमेव निश्रया अहमागतः । अमीनिः स्ववलादीक्वितः मया नृशममी पृष्टास्तत एभिराख्यातं यये किं प्रपंर्जिता न भवामो यदेव तान्मार्गयासि।यद्वान पृथाःसन्तः किमाप व्याख्यातवन्तः । एवं रूपशदे यशःकीर्तिको वक्ति । यस्तुकीर्तिमापि न जानाति स ब्रूयात् । वायादमो तु पुट्ठो, जणाइ अमुगदिण अमुगकाझम्मि । Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गढ़ ( ७४७ ) अभिधान राजेन्द्रः । एतदिति है तुम्हे व गुणासि सत्यासी ॥ तुशब्दस्य विशेषणार्यतया यो वाताहृतो यशःकी त्योरपि अ शायकः स पृणे प्रगति अमुकदिने प्रतिपदादी अमुमिका मार्गशीर्वाद मासे दीोिऽहमेतेः दी कानन्तरं च गृणोमि । यथा स्वयमपि तत्रासीन्निति । I मेन य जसकी जाते जदा तदा जाणाति । सवित पुच्छा, पाचयणिश्रो वा जहा जातो ॥ एवमेव वास्तव्यो ऽपि यो यशः कीर्ति जानाति तस्यापि तथैव स्नानादी यदा पृच्छा कृता भवति तदा जायते । यदा वा असौ प्राचनिको बहुतो जातस्तदा स्वयमेव जानाति नाइममीषामाभाव्यः । एवं तावत् सचित्तविषयो विधिरुक्तः । अथाचित्तादिविषयं तमेव निर्दिशन्नाह । अनियम्मि ममते देव । मे " पुच्छा अपुण्यमुहं दट्टू अन्जु पूयाणं । एवमेते अचि विविधे ओघोपग्रहोपधिभेदादू द्विप्रकारे उप श्री मिश्रकेोधविधिः कथं पुनरसायाभाव्यो वा ज्ञायते इत्याह । अपूर्व सारतरमुपधिं दृष्ट्वा अनृजुभूसानां पामन्ति पृच्छा भवति विकेर कदा पुत्र पा गृहीतमेवं ते प्रष्टव्या इति भावः । एवं वामावासे व पंथे अत्यया जाति सव्वत्थ वा होति उग्गहो, कोर्स वि पदीवदितो ॥ वर्षायामासह दिवसपञ्चकं पूर्वावग्रह इति । पयि वा व्रजतो यत्र क्वापि आचार्यस्तिष्ठति तत्र स. तमो योजनवग्रहो भवति तत्राप्येवमेताना मानाव्यानानाव्यधिधिरव सातव्यः । केषांचिदाचार्याणामयमऽभिप्रायः मार्गे गच्छतां पृष्ठतो नास्त्यवग्रहः ॥ अयं वा नादेशः कुत इत्याह प्रदीपरान्तोऽत्र भवति । यथाहि प्रदीपः सर्पतः प्रकास्यात नैकामपि दिशं प्रकाशशून्यां करोति पवग्रहो सर्वतो भवति न कुत्रचिन्न जचत्यपीति । एवं तावत् क्षेत्रे सचित्तादिविषयो विधिरुक्तः । अवाक्षेत्रे तय निर्दिशति । क्विनची जाणरिए वि एमेव । उज्जुग था, सो चैव गमो हव तस्य ॥ अादि नगरादी रुकोश योजनमप्रदो भवति किं तु तत्र यस्यां वसतौ यः पूर्वस्थितस्तस्यां सचिसादितस्थाजयतन पश्चादागतानां य एव क्षेत्रे गम उक्तः स एव सर्वोऽपि ज्ञापके ज्ञापिते च ऋजुके अनुजुके च वक्तव्य इति । अथ कथं कल्पोऽनिधार. णीय इति निर्वचन्नाह । प्रणिदिधि गहिनागढ़िए सच्छंदो । लिगिसहितो, सभी तस्सेव एस्सस्स ॥ अनिधारणं प्रव्रज्यार्थमाचार्यादे मनसा संकल्पनम् तश्च द्विधा अनिर्दिष्टं निर्दिष्टं च अनिर्दिष्टं नाम धारयन् कमप्याचार्य विशेषता नसिव अनिधारको द्विधा पुनको द्विधा पुगृही सर्वो बोधतः सामान्येाचार्थविशेषमनिर्देश्य प्रयजन स्वच्छन्द आभाव्यो नवति यस्यानि प्रति तस्यैवासी शिष्य इत्यर्थः । निर्दिएं पुनरभिचारणं तमुच्यते यत्रामुकस्याचार्यस्य समीपे प्रप्रजियामीति निर्देशं करोति एषोऽपि द्विधा उग्गह ही की च य पर्कको द्विधा विदितो बिद तश्च । तत्र ब्रिङ्गसहितः संज्ञी यमाचार्यमभिधार्य गच्छति । विपरिणतोऽपि तस्यैवासौ भवति नान्यस्य । निविसी, गढ़ियागहिए य अगहिए सम्पी | तमेव अपरिणतो, परिणतेजस इच्छाया ॥ असंही नाम गृहीतलिङ्गोऽगृहीतलिङ्गी वा जवतु । यस्तु संदीपक सोऽपि प्रयोऽप्यपरिणते भाव निर्दिष्टमाचार्यमनिधार्य गच्छन्ति तस्यैव भवन्ति । अथ तं प्रति प्राचो विपरिणतस्ततो यस्य सकाशे प मिच्छा तस्यैव ते शिष्याः ॥ अथ किंकारणं लिङ्गसहितो व्रजतीत्याह ॥ वारसमुदाणा, तेण व गिनन्ति धम्ममा वा । एएहि लिंगसहितो, सम्पी व सिया असटी व ॥ यारको दरिकस्तद्विपाशा मा हिति युद्ध गृहित्वा प्रजति तथा समुदान किं तद ि निकामात स्वायायान्तराने गृहि त्या तिष्ठन्ति पते कारण ही या अ संज्ञी सत्धुसमाचारीनिपुण सहित स्थादिति यो निर्दिशन् प्रव्रजति एकमनेकान् वा निर्दिशेत् तत्र योऽनेकान् निर्दिशति स एवं संकल्पयति यो मे प्रतिज्ञाषिध्यते तस्य सकाशे प्रजयामि तद्विषयं विधिमाह । गेगा उदिस्स गतो, झिंगेणं फायितो तु एकेां । द व चक्रस, रिट्टिणं गतो तस्स ।। ' अनेकाना यार्याद्दिश्य नि सहितानां बहूनां निर्दिष्टानामन्तिके गतस्तत्र चैकेना स्फालितः सादरमाभाषितो यदि तमयुपगतस्तदा तस्यैवासौ शिष्यः । श्रथानापितोऽपि तमचकुप्यमनिर्दिष्टं दृष्ट्वा निर्दिष्टमेव कमप्यन्यमुपगतस्तदा तस्यानवति । इदमेव सविशेषमाह । निमिनिदिनुसंगिनोस अथो । लिंगी व लिंगी वा सच्देव आणि दिहो । निर्दिष्म निर्दिष्टं वा याचार्थमाङ्गसदितः यमाचार्यमन्युपगतस्तस्यैवान पति नेवान्यस्तं लजते । यस्त्वनिर्दिष्टो नाद्यापि कमप्यज्युपगतः स लिही वा जवतु लिङ्गी वा स्वच्छन्देन यमनिलपति तस्यानवति । एमेव सिह सम्मी, णिदिट्ठस्वगतो ए अम्मस्स । अनुवगतो विससिहो जस्सच्छति दो सी सहितः सह निर्दिष्टानां बहूनां मध्ये यमेवागतस्तस्यैवाभवति एवमेव शिक्षाको सही बसून निहिंश्यागतो वा यस्यैव निर्दिष्टस्यान्तिके उपगतः प्रब्रजितुं परिणतस्तस्यैवासी शिष्यो नवति नान्यस्य यस्तु सशिखाकः संज्ञी स कमप्यन्युपगतोऽपि यदि पश्चाद्विपरितस्तदा यस्यान्ति के प्रजितुमिच्छति तस्यानयति दोहसम्मति) ही वाशिकी पूर्व कंचना गतौ पचाद्विपरिणतौ स्वच्छन्देन यदुपकने प्रव्रजतस्तस्याभाग्यो। अस्यार्थस्य सुखावबोधाय भङ्गकानाह । निस्सिमात्र, नेतरा जिंगो जंगा । एमसि विमसि वि, असली | कमव्याचार्य निर्दिश्य गत निर्दिष्टः संज्ञी नायकः अन्य Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४८) जग्गह निधानराजेन्द्रः । नग्गह पगतः प्रवजितुं परिणतः । एतैत्रिभिः परः (श्यरत्ति) प्रतिप- संवी लज्यते ततस्तं पूर्वसंझिनं सम्यक्वादिग्राहितं स चपक्षपदसहितैरष्टी भङ्गा लिङ्गिनो लिङ्गसहितस्य गच्चतो भव- शमच्चन्देन बनते। किमुक्तं भवति । उपशमिक केत्रिकं वा यन्ति । तथाहि निर्दिष्टः संझी अन्युपगतः १ निर्दिष्टः संझी अन मनिरोचयति तस्याजवति । एवं त्रयाणां वर्षाणामागतो मन्तन्युपगतः।निर्दिष्टो ऽसंझी अन्यपगतः ३ निर्दिष्टो ऽसंझी व्यः । त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु स पूर्वसंझी केत्रिकस्यैवाभाव्यो नोपअनन्युपगतः ४ अनिर्दिष्टपदेनाप्येवं चत्वारो भङ्गा बज्यन्त शमयतः॥ प्राइच चूर्णिकृत् "तिसुवरिसेसु पुम्मेसु खेत्तियस्स पते अष्टौ जना निङ्गिन नक्ताः । अशिखाके चैवमेव प्रत्येक वा नवति । तोग्यसामितस्सत्ति" गतमेकग्रामद्वारम् ।। मटीना नवन्ति सर्वेऽप्येते मीलिताश्चतुर्विशतिना जा अयातिक्रामन् द्वारमाह। यन्ते एतेषु विधिमाह । मगंतो अमाखित्ते, अनिधारितो उजावतो तस्स । पढम विति ततिय पंच, सत्तम नवम तेरसेसु नंगेसु । खित्तिम्मि खित्तियस्स, वाहिं वा परिणतो तस्स ॥ विपरिणतो वि तस्सव, होइ सेसेसु सच्चंदो ।। शैकः कंचिदाचार्य मार्गयन् व्रजति तस्य चान्यकत्रे परप्रयमद्वितीयतृतीयपञ्चमसप्तमनवमत्रयोदशेषु विपरिणतोऽ कीयकेत्राज्यन्तरे पथि गच्छतः कश्चिकर्मकथी मिमितः स पियं निर्दिश्यागतोयं वा अन्युपगतस्तस्यैवाभवति शेषेषु चतु यद्याकर्षण हेतोस्तस्य धर्म कथयति तदा यमाचार्यगनिधारयन् र्थषष्टाष्टमदशमैकादशद्वादशचतुर्दशादिषु चतुर्विंशतिषु स व्रजति तस्यानवति । अथ जावतः स्वजावादेव कययति प्तदशसु भङ्गेषु स्वच्चन्दः स्वेच्छः यः प्रतिनावी तस्यैवाम ततस्तस्य धर्मकथिकस्थानवति। तुशब्दो विशेषणे संचतद्विवतीत्यर्थः । इदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह। शिनष्टि यदि केवाज्यन्तरे स्वनावतः कथयति ततः केत्रिपरिमव्यो जिंगी असिहो य, जावतो जस्स अब्लुवगतो सो। •णतः प्रवज्यानिमुखीनूतः केत्रिकस्य जबति बदिस्तुपरिणतपिद्दिट्ठमानिंगी, तस्मेवाणन्नवगतोत्ति ॥ स्तस्य कथयत आभाव्य इति । श्दमेव ध्याचष्टे ॥ सर्वो लिङ्गी अशिखाकश्च श्रावको यस्यान्तिके उज्युपगतः अनिधारित्तो वञ्चति, पुछित्तो साहुवचतो तस्स । स एव तं बनते। किमुक्तं भवति यो विङ्गसहितो ज्युपगतः परिसगतो व कहर, कट्टण हेउं न झनति ।। स निर्दिष्टोऽनिर्दिष्टो वा संझी असंही वा नवतु यश्वाशिखाकः कंचिदाचार्यमभिधारयन् शैको व्रजति तस्य कोऽपि साधुः श्रावको ऽन्यपगतःसोऽपि निर्दिष्टो वा भवतु एष सर्वोऽपि यमे पथि गच्छन् मिनितस्तेन च प्रोऽमुक आचार्यः कुत्रास्ते चाज्युपगतो विपरिणतोऽपितस्यैवानवतिपतेन प्रथमतृतीयप- साधुराह किं तेन जवतः प्रयोजनम् । स प्राह । तस्यान्तिके चमसप्तमनवमत्रयोदशभङ्गास्सूचिताः । तथा यो लिङ्गी नि- प्रवजितुकामोऽहं परं दृष्ट्वा तस्य व्रजत एवाकर्षणहेतोः( सादिएः संझी च स यद्यप्यमज्युपगतस्तथापि यमेव निर्दिश्या- हत्ति) धर्म कथयति या ग्रामे कापि पर्षदन्तर्गतस्य धर्म गतस्तस्यैवाभवति न पुनर्चिपरिणतोऽप्यन्यस्यानेन द्वितीयो न- कययत उपस्थितस्ततो बन्दित्वा तथैव स्वाभिप्राये कथिको गृहीतः । शेषेषु तुसप्तदशस्वपि गतेषु यत्रान्युपगतस्तत्रा- ते स आकर्षण हेतार्विशेषतो धर्म कथयति कथिते च यद्यविपरिणतस्तस्यैव विपरिणतस्तु स्वेच्छायां यत्र तु नान्युपगत- सौ प्रव्रजितुमभिवपति ततो न तं शैकं लभते । अनिधारितास्तत्र विपरिणतोऽविपरिणतो वा यथा स्वच्चन्दमानाव्य इति चार्यस्यैव स आभवति ॥ गतं कथं कल्पो ऽनिधारण शति द्वारम् । उज्जकहर परिणतं, अंतोखित्तस्स खित्तिोलन। अथैकग्रामे ति द्वारमाह । अमन्त्री नवसमितो अ-प्पणो इच्चीइ अत्यहिं तस्स । । खित्तबहिं तु परिणय, खनन जुकहीण खलु माई।। दहणं च परिणए, नवसमिने जस्स वा खेत्तं ॥ - अथासौ कथको धर्मकथी ऋजुकः सद्भावतः कथयति केनचिधर्मकथिना कश्चिदसंझी मिथ्यादृष्टिरुपशमितः प्र नाकर्षणहेतोः स च प्रव्रज्यायां परिणतः केत्रान्तः परिणतेबज्याजिमुखीकृतः स यावाद्यापि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ताव केत्रिको बन्नते केत्राद्वाहः परिणतं तु ऋजुको धर्मकथी बनते न खलु मायी मायावान् । प्रव्रजन केत्रिकस्यानयति । अथसम्यक्त्वं प्रतिपन्नस्तस्य केत्रमन्यस्याचार्यस्य सत्कं ततो ऽसावात्मन इच्छया प्रान्नवति परिणम अंतरा अं-तरा य नावोणियत्ति तत्तो से । यदि केत्रिकस्योपविष्टतस्ततस्तस्यैव अथोपशामयत उपस्थित- खित्तम्मि खित्तियस्स, वहिं तु परिणतो तस्स ॥ स्तत्रोपशम यत् एव पती को मुक्त्वा अन्यस्य नाभवति (अन्न- अथ अन्तरान्तरा तस्य नावः प्रवज्यायां परिणमते निवर्त्तते हित्ति ) अयान्य केत्रावहिरुपशमितस्तदा तस्योपशमकस्या- वा ततः केत्र परिणतः क्वोत्रिकस्याभवति बहिस्तु परिणतभवति । अथ केनापि नो कथितः परमन्यं कमप्याचार्या- स्तस्य धर्मकथिकस्याभवतीति । गतमतिमन हारम् ॥ दिक हा स्वयमेव प्रवज्यायां परिणतस्ततोऽसौ केत्राद्ध अथ द्विधा मार्गणा शिष्य एकविधा च प्रतिच्छके ति यदुनं हिरुपशान्त उपशामत आभवति । मूर्तिदर्शनकारेणोपशम. तत्र प्रतीच्छकविषयां तावदेकविधां केवलसझातीयविपयां नकारिण इत्यर्थः। अथ देत्रान्तरुपशान्तस्ततो यस्य सत्के मार्गणामाह॥ केनं तस्थानव्यः । अमुमेवार्य सविशेषमाह। . माया पिया य जाया, नागिणी पुत्तो तहेव धुत्ताय । परखिते वसमाणो, अश्कमंतो वण बनति असमात्थि। बप्पेते नालवच्चा, सेसेए जति पायरिया ।। दट्टण पुच्चसप्पी, गाहितसस्माति सा बनति ।। माता पिता नाता नगिनी पुत्रस्तथैव ऽहिता वा पमप्यते अपर कंत्र मासकल्पे वर्षावासे वा वसन् अतिक्रामन् या पर केप्रमगतो गन्तमनास्तत्रावस्थितो ऽसीझनमप्रतिपत्रसम्यक्त्वं नन्तरवसीमधिकृत्य नासबका मन्तव्याः। एते च अनिधारस्वयमुपदशमितमपि न लभते । अय कंचिन्मिथ्याष्टि सम्य यन्तः प्रतीकस्याभवन्ति । उपसवणमिदं तेन परावल्लीपत्वमादिशब्दादधतानि वा गाहयित्वा कंत्रान्तरे गतः नू- बद्धा अपि वक्ष्यमाणाः षोडश जना अग्निधारयन्तस्तस्ययोऽयन्यदा तदेव केत्रमायातः सच प्रागपशामत दानी पूर्व । वाजवन्ति । शेपास्तु ये नामबघा भवन्ति तेषु प्राचार्याः Jain Education Interational Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्गह प्रभवन्ति न प्रतीच्छकः इदमेव व्यक्तीकुर्वन् परंपरावतीं प्रतिपादयति । मा माया पिया जाया, गिली य एव पिउणा वि । जाया दिषुतधूता, सोलसगं उच्च वावी । rain सति एए, परिच्छओ जति य तमनिधारति । अनिधारमणनिधार, शायमा तरे सने ॥ मातुः संबन्धिनो माता पिता जाता जगिनी चेति चत्वारो जनाः पितुः संबन्धिनोऽप्येवमेव चत्वारो जनाः (जायादिपुत्तधूयति ) भ्रातुः संबन्धिनः पुत्रो दुहिता चेति जनद्वयम् आदिशब्दात भगिन्या श्रप्यपत्यं भागिनेयः भागिनेयी चेति प्रयम् । पुत्रस्यापत्यं पीत्र पौत्री पति प्रथम दुहितुरपत्यं दीदियो दौहित्री चेति । सर्वसंख्यया पोमशकं भवति । षट् वाऽनन्तर वीजना अत्र प्रक्षिप्यन्ते ततो द्वाविंशतिर्भयति द्वाविंशतिमप्येतान् जनान् प्रतीच्छको बजते । यदि च तं प्रतीच्छकमनिधा रयन्तस्ततस्तेऽप्याचार्यस्यैवाभाव्या इति नव इतरे उक्ताः ये व्य तिरिक्तास्तानभिधारयतो वा ज्ञातकान् वा अज्ञातकान् वा प्रती को लभते । अथ शिष्याविषयां द्विविधां मार्गणामाह । नायगमनायमा पुरा, मीसे अभिधारणा निपारे य दो क्रदिहंता सवे विजयति आयरिए || द्विविधा मार्गणा तत्र ये शिष्यस्य ज्ञातकाः स्वजना ये चाज्ञातका श्रखजनास्ते तमभिधारयन्तो वा अननिधारयन्तो वा सasयाचार्यस्याभवन्ति न शिष्यस्य कुत इत्याह व्यक्करस्वरष्टष्टान्तात् " दासेयसेस्वरो कियो दासो वि सेस्वरोविमे इति " निदर्शनात् । अथ पकिसेदय कई कप्पो विज्जर इति द्वार निरुपा दुव्वुप्पन गिलाणे, असंथरं ते य चनगुरुच्छेदं । वयमाणइमे संपा-पच्छप्पे लर्जति ॥ ( ७४९ ) अभिधानराजेन्द्रः । एकत्र प्रामे गच्छः स्थितस्तेषां च ग्वान उत्पन्नस्तत्प्रतिचरणे साधवो व्यापृताः सन्तः सर्वेऽपि भिकामटितुं न प्रभवन्ति ततश्च संस्तरणं संज्ञानमेव ग्लानोऽपूर्वोत्पत्तेरसंस्तरणं शक उपस्थितस्ते च ग्लानकार्यनृत्यतया शकं दापयितुं नं पारयन्ति । अतो भगवङ्गिः प्रतिषिद्धं न तैः शैको दीक्षणीयः । यदिदीवन्ति ततब्धतुरो गुरुकाः । अथालोमादी मी प्रकाराणां कृत्वा प्रेषयन्ति ( वयमाण इत्यादि) तं शकं मुएकयित्वा व्रज त्वमेकाक्येवामुकाचार्य सन्निधाविति वदन्तो विसर्जयन्ति । यद्वा तस्यैकं कमपि सहायं संघाटकं वा समर्पयन्ति एते श्रयः प्रकारा मुण्डितस्य भवन्ति । अमुमितस्याप्येते त्रयः एते षमपि तं शकं न लभन्ते । षभिः प्रकारैः प्रे मयन्त इत्यर्थः । येषां समीपे प्रेपयन्ति तेषामेवा सौ शिष्यः अथात्मसमीपे स्थापयन्ति तत श्मे दोषाः । आयरिय गिलाण गुरुगा, सहस्सा अकरणम्मि । चलदुगा परितावण, शिष्णदुहतो जंगेय मूलं तु ॥ शकं प्रवाज्य तया वृत्त्यव्याकुलाः सन्तो यद्याचार्याणां वा. नस्य वा वैयानि कुर्वन्ति ततरुकः । अथ शैकस्पन कुर्वन्ति ततश्चतुर्लघुकः । अथ म्लानादीनामनागाढमागाढं वा परितापना नवति तत आम्जनिष्यम् ( तो गयन्ति ) शकस्य यन्निष्क्रमणं ग्वानस्य च यन्मरणमेष द्विधा प्रङ्ग उच्यते तत्र मूलं प्रपात । श्रथ द्वितीयपदमाह । संथरमाने पच्छा, जायं गहिते व पच्छगेलनं । उग्गह अपव्वते पव्वए, संघारगे व वयमाणे ॥ यह गच्छे ग्लानो विद्यते परं नागाढं ग्यानत्वं ततः संस्तरति ते शक्कमपि घर्तापयितुमाचार्याणामपि कर्तुमेवं प्रब्राजिताः । शकः पश्चात्वग्लानत्वमागाढं समजनि ततो वर्तनपरिवर्त नादिव्यापृताय चेलाषद्भिक्कां न दिपकते येऽपि हिपमन्ति ते प न शक्नुवन्ति सर्वेषामपि पर्याप्तमानेतुमेवमसंस्तरणं जातम् यद्वा मूलत एव ग्लानत्वं पूर्व नासीत् किंतु पाश्चात् शके ही प्रवृजिये सति मानवमुत्पततोऽसीति प्रकरि प्रेषणीय तथा अजितो मुतिः प्रजितां मुण्डितः एष द्विविधोऽपि त्रिधा संघाटकेन एकसाधुना ( वयमाणन्ति ) एकाकी बृजते बृजमानैरेकाकित्वेनेत्यर्थः। संघमा प च्छा जायति पदं विशेषतो व्याचष्टे । नागाढं पडणिस्सर, अचिरेणं तं च जायमागाढं । सेहं वडा वेओ, ण जवति मिलाए कित्तं वा ॥ पूर्वमनागात्ततः उपस्थित चिन्तितम् । श्रचिरेणैवायं ग्वानः प्रगुणीभविष्यति । ततः शक्के प्रवजिते तद्ग्लानत्वमागाढं जातं ततस्ते शक्कं वर्तापयितुं ग्ज्ञानकृत्यं च कर्तुं समकमेव न चरन्ति न शक्नुवन्ति । भतो ऽन्येषां समीपे प्रेषयन्तः शुकाः । अपरिच्छान तरेसि जं, सेहविया बकाल पावेंति । तं चैव पुव्वजयिं परितावणसेहजंगाई | इतरे नाम येषां समीपे प्रेष्यते । यदि ते न प्रतीच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकः । यच ते कन्यावृताः प्राप्नुवन्ति तक्षिप्पन्नं तेषामी प्रायश्चित्तम। किन प्राप्नुवन्तीत्या देव पूर्वभणितं परितापनशनङ्गादिकमत्र दोषजातं मन्तव्यम् । किमुक्तवति प्रतिवर्यमाणः परिताप्येत को ये पानीयमाने प्रतिनज्येत। आदिशब्दाद खानस्य मरम वा नचेत् । संखकिए या अड्डा, अयं वा यपेती। वयमाणे गेण व संघाचरण ण सर्जति ॥ संखमिकरणं तस्या वा अर्थाय मनोज्ञाहारत्नम्पटशैक्कममुमितं वा प्रेषयन्ति तत्रापि ( वयमाणित्ति ) एकाकितया प्रेषणेन एकसाधुना संघाटकेन च षट् प्रकारा जवन्ति । एतैः पद्भिरपि प्रेचयन्तो न सजन्ते । इदमेव व्याख्यानयति । डोहिंति ए मग्गा आवाद विवाहपञ्चयमहादी । सेहस्स पसागारिथं विद्याचिस्सबिनसिति ।। शापस्थितस्तत्र चाषाविचारपर्वतमा दीनि प्रकाराणि नवाग्राणि प्रत्यासन्नाणि प्रविष्यन्ति । श्रावाहो बादरगृहानयनं विवाहः पाणिग्रहणं पर्वतमहः प्रतीतः । श्रादिशब्दात् तडागनदीदृदादिपरिग्रहः । सैकस्य च तत्र सागारिकस्तत्प्रवाजन भयम् । यद्वा यद्येष शैक्कोऽत्र स्थास्यति सदा संजिनगृहमा विद्वास्पति स विनश्यति । यदि व वयमनेनैव सह गच्छामस्ततः संखडेः स्फिटामः श्रत एवमन्यत्र प्रेषयाम इति विचिन्त्य षद्भिः प्रकारैस्तं प्रेषयन्ति । ते च लभन्ते येषामन्तिके प्रेषयन्ति तेषामेव स यानवतीति । गतं प्रतिषिद्धे व्रजति कथं कल्पो विधीयत इति द्वारम् । संप्रति संगारदन्ते कथं कल्पो विधीयते इति द्वारमाद । गिट्टियाएं संगारो, संगारं संगिते करेमायो । पञ्चावितो जेण तस्सेव ॥ मोति मोहिं Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्गह अभिधानराजेन्दः । उग्गह गृहिणां संबन्धी यः संगारो युष्मदन्तिके अस्मानिरसंयतः तत्र संयतस्य व्याघाते विधिमाह। कामादूर्व प्रव्रज्या ग्रहीतव्येति संकेतस्तं प्रतीच्चन संयत: मंदहिगा ते तहियं विपत्ते, जे तिमणा ते य सढाण होति । स्वयं च तैः सार्क संगारममुष्मिन् दिनेऽमुभान् प्रमाजयि- सलन्नतीअागतो तहेव, दप्पट्टिया जेण उ ते अनंति।। प्यामीति लक्षणं कुर्वन् हिंसां यावदसौ न प्रव्रजति तावन्तं यत्र प्रामादौ संकेतः कृत आसीत् तत्र सशैकः प्राप्तः साधकासं घटकायविराधनाबवणामनुमोदयति स च शकस्तं वस्तु न प्राप्तास्ततो यद्येवं मन्यतेमन्दार्थिनस्ते सद्विषये मन्दप्रति विपरिणतो येन प्राब्रजितस्तस्यैवानवति न संकेतदायिन प्रयोजना अत एव नायाता इति बुद्ध्या विपरिणतः । ते च इति किंवा साधवो यदि शवप्रवाजिकादिप्रतिबन्धयुक्ता न प्रवन्ति ग्लानाविप्परिणमा सव्वं व, परो असमातित्थीव ।। दिकार्यव्यापृता यतो याता इति भावः ततः स शक्कोऽयगतोमोत्तुं वासावासं, ण होश संगारतो पहरा ऽप्यन्यमाचार्यमत्युपगतोऽपि तैः साधुनिसज्यते । ये तु संकेतकरणानन्तरं शकः स्वयं वा विपरिणमति परतो वा दर्णतः स्थितास्ते नैव तं लनन्ते येन प्रवाजितस्तस्यैवासी परेण स्वजनादिना स विपरिणम्यत आसन्नधिहारिषु वा शिष्य इति । प्रव्रजेत् भन्यत्तीथिको नवेत् । अतो वर्षावासं मुक्त्वा इतरथा पंथेधम्मक हिस्सा, नवसंतो अंतरान अपस्स । पुष्टासम्बनं बिना संगारो न प्रतीच्चनीयो न वा कर्त्तव्यः अनिधारितोन तस्स न, इयरे पुण जो न पचावे ॥ किमर्थ पुनः संगारमसौ करोतीत्याह। संखमसम्पायावी, खित्तं मोचव्वयं व मा होजा। यद्यसा येन साधुना संकेतो दत्तस्तदनिमुखं प्रस्थितः पथि गच्छन् अन्तरा अन्यस्य धर्मकथिनः समीपे धर्ममाकोपएएहिं कारणेहिं, संगारकरंति चमगुरुगा ॥ शान्तः सचस्वयमनिधारयन् गति तदातस्यैवानिधारितसंखमिस्तत्र ग्रामे उपस्थितानां परिवर्तुं न शक्नोति संझा- स्याजवति । इतरः पुनरननिधारयिता ततो धर्मकथी प्रवाजसका वा तस्य तत्र नूयांसस्तेषामाग्रहात् शक्नोति गन्तुं यति । श्दमेव व्याचष्टे ।। केनं वा तदतीव सस्निग्धमधुराहारादिलानापनं शैक्कस्य च पुहिं पि दिणेडिं, उसंत अंतराउ अयस्त । तत्र सागारिकं ततस्तन्मोक्तव्यं मानूत् । पतरेवमादिनिः कारणैः । शकस्य संगारं यः करोति तस्य चतुर्गुरु । अजिधारित्तो तस्स उ, इयरं पुण जो न पच्चगवे ।। ___ अथ गृहस्थाः किमर्थ संगारं कुर्वन्तीत्याह । पूर्णपिशब्दादपूर्णरपि दिवसैरन्तरा पथि वर्तमानो ऽन्यरिणवाहिं मोक्खेनं, कुसुंबवित्तिं वतित्थि ते गिरहे। स्थ सकाशै नपशान्तःसन् अनिधारयति प्रवजामि तावदहम मीषां समीपे पर पूर्वेषामेवाई शिव्यः पवमनिधारयन् तस्यैव एमादि अणानत्ते, करिति गिहिणो न संगारं ।। प्राचार्यस्याभवति इतरो नाम यः पूर्वेषां विपरिणतस्तं ऋणं वा व्याधि वा मोकयितुं अपनेतुं कुटुम्बस्य वा पश्चा- प्रवाजयति तस्यैव स शिष्यः । नियमप्रदर्शनार्थमिदमाह निर्वहणायोग्यां वृत्ति संपादयितुं यद्वा ग्रीपस्तदानीमति- पणादिसमोसरणे, दट्टण वित्तं तु परिणतो अप्य । कान्ता वर्षावास आयातः एवमादिनिः कारणैः शकस्याना तस्सेब से ण पुरिसे, एमेव पहम्मि दव्वं ते ॥ युक्त श्रवणिकतायां गृहिणः संगारं कुर्वन्ति । अथ द्वितीयपदेन संगारे प्रतीक्ष्यमाणे आनाव्यविधिमाह। न्यूनादौ समवसरणे तं पूर्वाचार्य दृष्ट्वाऽपि यद्यन्यमेव परि णतः प्रतिपन्नस्तदा तस्यैवासी शिष्यो न पूर्वस्य एवमेव अगविट्ठोमित्ति अहं, लजति असहिं विपरिणतो वि।। पथि व्रजतामप्यनाघातानानाव्यविधिरवगन्तव्यः। अथ कासंवोयं तप्पाहिति व, ते वियणं अंतरा गंतु ॥ यतस्य गृहस्थस्य वा व्याघातो न नवतीत्याह। संगारे कृते यश्च शवैानादिकार्याव्यापृतैः सशको न गेलप्मतेणग नदी, सावयपइणीयवासपहिया वा। गवेपितस्तदाऽसावगवेषितो नैकमपि वारमहममीभिर्गवेषित इइ समण वाघातो, महिगा वजा उसेहस्स ।। शति बुद्ध्या विपरिणतोऽपि सत्यते तेषामेवानवतीत्यर्थः। परं तेऽपि साधवस्तमन्तरा गन्तुं वानोदयेयुरिति संकेतस्मारणपुर सानत्वं तस्य साधोरुत्पन्ना स्तेनका वा अन्तराले द्विविधा स्सरं शिक्कयन्ते अथ स्वयं गन्तुं न प्रनवन्ति ततः (तप्पाहिति) नदी वा पूर्ण स्वापदा वा व्याघ्रादयः । पथि तिष्ठन्ति प्रत्यसंदेशं तस्य प्रेषयन्ति । नीको वा तं प्रतिचरन्नास्ते व्यासाः सास्ते वा पथि गच्चएवं खबु अचिन्ने, वेना नहेव दिवसेहि। तं दशन्ति महिका वा पतितुमारब्धा य एवं श्रमणे व्याघातः संजवति शैक्कस्यापि महिकावर्जः सर्वोऽप्येष एवं व्याघातो वेना पुलमपुरी, वाघाए होइ चननंगो। यक्तयः। पूर्व स्वयं विपरिणतमाश्रित्य विधिरुतः । अथान्येन एवं तावदचिन्ने अनियते संगारे विधिरुक्तः यस्तु निन्नः | विपरिणामितस्य विधिमाह। संगारस्तत्र विधिरभिधीयते बिन्नो नाम केत्रतः कालतश्च प्रति विप्परिणामियनावो, ण सन्जते तं च णो वियागामो। नियतः । केत्रतो ग्रामवनखएमादौ प्रवज्यादानार्थ भवद्भिः विप्परिणामियकहणा, तम्हाखल होति कायव्वा ।। समागन्तव्यं कालतो वेलया दिवसासैश्च प्रतिनियतस्तत्रच विपरिणामितो विवक्विताचार्यादत्तारितो नावो यस्य स वाया उपत्रकणवाहिवसैश्च (पुममपुष्पत्ति) पूो अपूर्ण धा विपरिणामितभावः एवंविधः शक्को बयते विपरिणामकस्यसंगारे काले व्याघातो नवेत् । तत्र चेयं चतुर्भङ्गी । कालपूर्यो नयतीति भावः । शिष्यः प्राह तमेव विपरिणमनं तावद्वयं न निर्धातं प्राप्तः, १ कामः पूर्णः संघातः, २ संजातकासोऽध्या विजानीमः । सूरिराह । यत पवं भवती जिज्ञासा तस्माद्विघातपूर्मपरं नियाघातं तत्र प्राप्तः, ३ कालोऽप्यपूर्णो व्याधातो परिणामनं विपरिणामितं तस्य कथना प्ररूपणा कर्त्तव्या ऽपि जात, इति । अथवा अन्यथा चतुर्भङ्गीसंयतस्य व्याघातो भवति । तामेवाह। न गृहस्थस्य, गृहस्थस्य व्याघातो न संयतस्य । ध्योरपि व्याघातः । व्यारयच्याघातः । विट्ठमादिविदेसत्य, वि गिलाणे मंद धम्म अपमुने। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह (७५१ ) अभिधानराजेन्धः । पित्थि तस्स, तिविहं गरहं व सा वजति ॥ शक्तः कमप्याचार्यमनिधार्य गच्छन् मार्गे कमपि साधुं दृष्ट्वा पृच्छति अमुक आचार्यो भवद्भिः कदाचित् दृष्ट उताहो न एवं साधुर्विपरिणामनं बुद्धा भणति । किं तैः करिष्यसि शैकः प्राह । प्रवजितुकामोऽहं तेषां समीपे एवं श्रुत्वा साधुर्दृष्टानपि तान् न मया दृष्टा इति अथवा स्वदेशस्थानपि नगति विदेशस्यास्ते पवमानानपि खानास्ते व्रज त्वमपि तस्य द्वितीयः । अथवा ब्रवीति यस्तस्य पार्श्वे प्रतिखानी खान यास्ये या न स्यात नवति । अथवा मन्दधर्मिणस्ते ततः किं तव मन्दधर्मता रोचते । यद्वाऽसौ अल्पश्रुतस्त्वं च ग्रह एधारणसमर्थस्तस्य पार्श्व गतः किं करिष्यसि त्वमेव वा तं पायिष्यसीति । अथवा तस्य शिष्याणां निष्पत्तिरेव नास्ति यं प्रव्राजयति स सर्वोऽपित्रतीनज्यते म्रियते वेति भावः । त्रिविधां वा नामवाक्कायनेदात् नदीनचारचोराहा पत्रकारों ही पक्ष्य दाsसौ करोति सा विपरिणामता मन्तव्या । एनां कुर्वन्तश्चतुगुरुकम् न च तं शकं लभते अतो नैवं कथनीयम् । किंतु इष्टादिदषु सद्भावः कथनीयः । कथमित्याह । जर पुराण दिट्ठा, व सुया पुच्छितो जणति । आ गया विदेसं, तो साहइ जत्य ते विसए ॥ योऽसी के प्रष्टस्ततो यदि से सुरयो न स्ततः पृष्टः सन् भणति श्रहं न जानामि । अन्यान अपरान् साधूपृच्छ| अथ जानाति ततो यथा वस्थितं कलनीयं यदि विदेशगतास्ततो यत्र विषये देशे ते वर्त्तन्ते तं कथयति । अथ नाख्याति हीनाधिकं वा आख्याति ततोऽपरिणामेनाभवति सेसेस असम्भावं णातिकखमंदधम्मवन्मे । गृहयते सब्जा, विष्परिणति हीएकहणे वा || शेषेषु ग्वानादिषु पदेषु मन्दधर्मवर्जेषु सद्भावं व्याख्याति यद्यप्यसौ जाना seपश्रुतो वा शिष्यनिप्पत्तिर्वा तस्य नास्ति तथापि तत्र कथनीयम् । यस्तु मन्दधर्मपार्श्वस्थादिस्तत्र सद्भावः कथनीयो मा संसारं पारं गन्तुकामः सुतरां संसारे पतिष्यतीति कृत्वा यस्तु ज्ञानदर्शनचारित्रतपः संपन्नी दादी धर्मकी संग्रदोषकारी तद्विषयं सद्भावं यदि गृहयति पति दीनकयने या करोति अधिकमप्यन्याचायों टीम कृत्वा कययतीत्यर्थः । एषा विपरिणामता मन्तव्या । अथ त्रिविधां गर्दा व्याचिख्यासुस्तत्स्वरूपं तावदाह । सीसो कंपणगरिहा, हत्यविवि य अहो य हक्कारो । darकरणाय दिसा, चिष्ठतिणामं ण घेत्तव्वं ॥ गर्दा नाम शैकेण पृष्टस्सन् शीर्षाकम्पनं करोति हस्तौ वा भुनीतानि वाकरोति स्वायत त्यर्थः । या ब्रवीति । अहो प्रवज्यां हाकारं वा करोति हाहा कथं यदेवं नष्टो लोकः ( वेत्ति ) नामापि न वर्त्तते । अस्यां वेलायां गृहीतुमिति कर्ती वा तदीयनामग्रहणं स्वगयति यस्यां वा दिशि स तिष्ठति तस्यां न स्थातव्यमिति ब्रवीति । उपलकणत्वादकिणी वा निमीलयति यद्वा तामपि तस्यातिरात्रेनं ग्रहीतव्यमतः आस्तामेतद्विषयं पृच्छादिकमिति । नाणे दंसणचरणे, सुत्ते अत्य अह होति तिहा गरहा, कायो वाया मणो वादि ॥ ज्ञाने दर्शने चारित्रे वेति त्रिविधा गर्दा भवनि । तत्र ज्ञान उग्गह वही नाम न उपस्थितेने किंतु नानेन दर्शनगर्दा तु मिध्यादृष्टिर्नास्तिकप्रायोऽसौ । चारित्रगर्दा सातिचारं चारित्रो ऽचारित्र वासौ । अथवा सूत्रे अर्थे तदुजये चेति त्रिविधा गर्दा । तत्र सूत्रं तस्य शङ्कितं स्वलितमर्थं पुनरवनुभ्यते १ यहा अर्थ नावबुध्यते सूत्रं पुनर्जानाति २ उजयमपि वा तस्या विशुद्धं जानाति वा किमपीति ३ अथवा कायवाग्मनोज्ञेदात् त्रिधा नहीं तब काही तेपामाचार्याणां शरीरं एकादिसंस्थानं विरूपं वा । वामा मन्मनं कालं वा ते जल्पन्ति । मने । गी न तेषां तथाविधो हापोहपाटवं भवाग्रहणसामर्थ्यमिति । अथैषा त्रिविधा गर्दा भवति । प्रकारान्तरेण गमेवाद । पयसि ओम कर सकामे अमृगस्स निरिो । आपराधिगसंसी, उवहणति परं इमेोहं तु || कोप शैकः केनापि साधुना पृष्टः प्रव्रजसि त्वं स प्राह ओम् कस्य सकाशे इति पृष्टः सन् भूयोऽप्याह मुकस्य समीपे । एवं निर्दिष्ट केस साधुः श्रात्मानं परस्मादयितुं शीश्रमस्येत्यात्मपराधिशंस परममीनि वसनैरुपदम्मि । तद्यथा ॥ अस्तो वि एव्वं, जहच्छंदा तेसु वा संसग्गी । ओममा संसग्गी व तेनु एक्केकए इनि ॥ अतः सोऽवतः विकास पुनि रूपानी बहा यथाच्छन्दास्ते आचायत यथाच्छन्द सह ते गाढतरं संसर्गिणः । गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी । श्रवभावाः सा संसर्गिणां वा एवं पार्श्वस्यादायप्येकेक स्मिन् दी ही ही दोषामेव । अथ कायवाङ्मनीममेव प्रकारान्तरेणाह । सीसोकंपणहत्ये, दिसा अयि काइगी गरहा। वेला अहो व हानिय, णामति काइगी गरहा ॥ शीर्षकम्पनं हस्तविलम्बनं कर्णस्य अन्यस्यां दिशि स्थापनम् । निमीलनमनिमिषलोचनस्य वा कणमवस्थानम् । एषा सर्वाऽपि कायिकी गर्दा यन्तु यस्यां वेलायां नाम न गृहीतव्य अहो कटं हाहाकारकरणं नाम च तस्य कदापि न ग्रहीतव्यमित्यादिज्ञासा कागि यह मासी गरहा, निजाति चिवरागेहिं । धीरता एवं पुण, अनिणंद य तं वयणं ॥ अयानन्तरं मानसिकी गर्दा मनसि तमाचार्य जुगुप्सते कथमेतत् ज्ञायते इत्याह नेत्रवक्रयोः संबन्धिनोये रागा मुकुलनविच्या विकाराः सव्यते मानसिकी गति भणिता सात्विदं कृत्यमेतद्रथानामित्यादि तदी वचनमनिन्दति धीरतया वा तूष्णीमास्तेयमन्यतरस्मिन् गहप्रकारे कृते तस्य शङ्का जवति अवश्यमकार्यकारी स आचार्यादिः संभाव्यते । नचामी साधवोऽलीक जापन्ते । अहमपि तत्र गत श्रात्मानं नाशयिष्यामीति । नामिणिय परिपदा सेस्स । उहियियाणी कुब्वति अणनया के एतानि चानन्तरोक्तानि अन्यानि च द्रव्यक्षेत्रकालभावाः शैकस्य विपरिणमनपदानि नवन्ति । तत्र यतो मनोज्ञाहरादि मनुने प्रदेतं स्थाप Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५२) उग्गह अनिधानराजेन्डः। उग्गहणंतग. यति । काबतो वेलायामेव नोजयति । जावतस्तस्याकर्षणार्थ लाने नक्कए वा णेसजिउवा विहरेचा सत्तमा पमिमा हितयुतमुपदेशं ददाति। एवं केचिदनृजुकाःशा उपधिः पर इच्चेतासिं सत्तएहं परिमाणं अमयरं जहा पिसणाए वचनानिप्रायो निकृतिः कैतवार्थ प्रयुक्तवचनाकाराच्छादनं ते प्रधाने येषां ते तथाविधविपरिणामनपदानि कुर्वन्ति । मुयं मे आउसंतेणं जगवया एक्मक्खायं । इह खयु थेरेहि उपसंहरन्नाह । जगवतेहिं पंचविहे उग्गहे पामते तंजहा देविंदोग्गहे रायोएए सामायर, कप्पं जो अतिचरअसोजेण । म्गहे गाहावइउग्गहे सागारियडग्गहे. साहम्मियउयेरे कुलगणसंधे, चानम्मासा नवे गुरुगा ॥ ग्गहे एवं खयु तस्स निववृ वानिक्खुणीवा सामग्गियं पतेपामन्याहतादिद्वारकलापप्रतिपादितानां कस्पानामन्यतर- नग्गहपडिमा समत्ता ॥ कस्पं विधाय भाचार्यादिलोभदोषतोऽतिचरेत् प्रतिकामेत् स भिक्षुरागन्तागारादाषवग्रहे गृहीते ये तत्र हपत्यातं सम्यक ज्ञात्वा कुजगणस्थविरं कुलादिसमवायेन वा तस्य दयस्तेषां संबन्धीन्यायतनानि पूर्व प्रतिपादितान्यतिकपावात शैकमाकृष्य चत्वारो मासा गुरुकास्तस्य प्रायशिप्स म्येत्येतानि च वक्ष्यमाणानि कर्मोपादानानि परिहत्यावग्रह प्रदातव्यम् । अथ स्थविरैः समवायेन वा भणितोऽपि तं शैकं हीतुं जानीया। अथ निकुःसप्तभिः प्रतिमानिरभिमहषिशेषैरन समर्पवति ततः कुलगणसंघबाह्यः क्रियते ॥ वृ०३०॥ वग्रह गृहीयात्तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा। तद्यथास भिकुरागन्तागा(साधारणावग्रहस्थितानां कस्य केत्रमिति खेत्तशब्दे) वर्षा रादौ पूर्वमेष विचिन्त्यैवंततः प्रतिश्रयो मया प्रायः नान्यथास्ववप्रहः पज्जुसणा शब्दे ) (अवग्रहस्य ऊर्वतोमानं सागा जूत इति प्रथमा । तथास्य च निकोरेचंततोऽभिप्रहो भषति रिय शब्द)। तद्यथा अहं च खल्वन्येषां साधूनां कृते ऽवग्रह प्रदीप्यामि या(१७) अवग्रहे सप्त प्रतिमाः । चिष्ये अन्येषां चावग्रहे गृहीतेतरितुं पासयिष्ये वत्स्यामीति साम्प्रतमवग्रह विशेषानधिकृत्याह। द्वितीया प्रतिमा । सामान्येन श्यं तु गच्चान्तर्गतानां संजोगिसे निक्खू वा भिक्खुणी वा प्रागंतारेसु वा जावो कानामसंनोगिकानां चोयुक्तविहारिणां यतस्तेऽन्योन्यार्थ गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा याचन्त इति । तृतीया त्वियं भन्यार्थमवनई याचिप्ये न्या. श्वेयाई आयतणाई उपातिकम्म अह भिक्खू जाणे वगृहीते तु न स्थास्यामीति एषा स्वाहासंदिकानां यतस्ते सूत्रार्थविशेषमाचार्यादभिकान्ते प्राचार्या याचन्ते । चतुर्थी ज्जा इमाहिं सत्तहिं पमिमाहि जग्गहं उगिएिहत्तए पुनरदमन्येषां कते ऽवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते च बतत्थ खलु श्मा पढमा पमिमा।से प्रागंतारेसु वाणवी स्थामीतीयं तु गच्च पवाज्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थ पतिनग्गहं जाएज्जा आव विहरिस्सामो पदमा पमिमा । रिकर्म कुर्वताम् । अथापरापञ्चमी अहमात्मकृतेऽवग्रहमबअहावरा दोच्चा पमिमा जस्स णं निक्खुस्स एवं जवति ग्रहीष्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुःपञ्चानामिति । श्यं तु अहं च खल्लु अमेसि निक्खूणं अष्ठाए जग्गहं गिएिह जिनकस्पिकस्य । अथापरा षष्ठी यदीयमवग्रहं ग्रहीम्यामि स्सामि असि जिवाणं उग्गहिए उग्गहे उपधिस्मा सदीयमवकमादिसंस्तारकं प्रहीप्यामतिरथोत्कुटुको घा नि पम्प उपषिष्टो वा रजनी गमयिष्यामीत्येषापि जिनकल्पिकामि दोच्चा पमिमा। अहावरा तच्चा पमिमा जस्स णं नि- देरिति । अथापरा सप्तमी पषैव पूर्वोक्ता नवरं यथा संस्कृतक्खुस्स एवं जवति अहं चखसु अमेसि निक्खूणं अट्ठाए मेष शिक्षादिकं ग्रहीयामि नेतरदिति शेषमात्मोत्कर्षवर्जनाजग्गहं गिएिहस्सामि अपोसिंच उग्गहिए उग्गहे को उव दिपिएषणायनेयमिति । किञ्च (सुयमित्यादि) भुतं मया श्रायुप्मता भगवतवमाख्यातम् । श्ह बलु स्थविरेनेगवद्भिः विस्सामि तच्चा पडिमा। अहावरा चउत्था पमिमा ज- पाच विधो ऽवग्रहो व्याख्यातस्तद्यथा देवेन्द्रावग्रह इत्यादि स्स एं निक्खुस्स एवं नवति अहं च खलु अमेमिं नि- सुगम यावदुदेशकसमाप्तेरिति । प्राचा०२ भ्र०७०१०। क्खूणं अघाए जग्गहं णो गिएिहस्सामि अहोसिं चन- तिहिंउत्तराहिं तिहिं रोहिणी कुज्जा सगहवसडिट्ठाणं द० गहे उग्गहिए उवनिस्सामि चनत्था पमिमा । श्रहावरा प० । वानवनव्यापार, व्य6ि०४०अवष्टम्भे, मो0नगृह स्थएिमझे, उपाश्रयान्तर्वर्तिनि अचगाो घस्तुनि च । प्रश्न । पंचमा पमिमा जस्स णं निक्खुस्स एवं जवति अहं च वृष्टिजनप्रतिबन्धे, अनावृष्टौ, च निग्रह, गज़समूहे । अवप्राहखबु अप्पणो अढाए उग्गहं नगिएिहस्सामि णो दोएहं स्तु शापे, वाच। णो तिएणं णो चउएहंणो पंचएहं पंचमा पमिमा। अहा। उद्ग्रह-पुं०विधिग्रहणे द्वा०। वरा छटा पमिमा से जिकाव वा से जिक्खणी वा जस्सेव जग्गहजायण-अवग्रहयाचन-न.भनुशापितपानान्नाशने, आजग्गहे उवधिएज्जा जे तत्थ अहासमणागते तंजहा । न- सोच्याऽवग्रहयाश्चाऽभीक्षणाऽवग्रहयाचनम् । ध० ३भधि। को वा जाव पलासे वा तस्स लाने संवसेज्ना तस्स - जग्गहएंग-अवग्रहानन्तक-न० अवग्रह शति योनिद्वारस्य साने नकुए वा सज्जिए वा विहरेज्जा बट्ठा पमिमा । सामयिकी संज्ञा तस्याऽनन्तकं वहमवनहानन्तकम् । पु स्त्वं प्राकृते । नौनिने मध्यभागविशाले पर्यन्तभागयोस्तु तअहावरा सत्तमा पमिमा से निक्व वा से निक्खुणी वा नुके गृह्यरक्वार्थ क्रियमाणे उपकरणभेद, वृ०३० । तच्च अहासंघममेव उग्गहं जाएज्जा तंजहा पुढविसिलं वाक निर्ग्रन्थैर्न ग्राह्य निर्ग्रन्थीभिस्तु ग्राह्यम् ॥ दृसित वा अहासंथरूमेव तस्स लाने संवस्सेज्जा तस्स अ- (सूत्रम् ) नो कप्पइ निग्गंयाणं उग्गहणंतगंवा लग्गह Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नग्गहणंतग अभिधानराजेन्द्रः । जग्गहणतग पट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा । अवगाहनं प्रसरणमन्येषु दिवसेषु अवग्रहानन्तकपट्टायां अथास्य सूत्रस्य का संबन्ध इत्याह । निवारितमासीत् परं तद्दिवसमग्रहीतयोरुधिरमवगाढं ततो उनयम्मि विय विसिटुं, वत्थग्गहणं तु वठिायं एयं । लोकस्तद् दृष्ट्वा उपहसनं कुर्यात् । कथमिति चेदुच्यते ॥ जं जस्स होति जोग्गं, इदाणि तं तं परिकह ॥ खाइगयाए निग्गयं, रुहिरं दट्टमसंजता वदे । उन्नयं निन्नाभिन्ने सूत्रद्वयमेतस्मिन्नविशिष्टमिदं साधूनां क विगहेवत केणयं जणो दोसमिणं असमिक्खदिक्खियो।। ल्पते न कल्पते वा इत्यादि । विशेषरहितमिदमनन्तरोक्तं व. भिकायां गतायास्तस्या रुधिरं निर्गतं दृष्ट्वा असंयता वदेयुः खग्रहणं वर्णितमिदानीं तु यद्यस्य संयत्या वा योग्यं तत्त बत इत्यामन्त्रणे भो नो लोका धिगहो केनायं स्त्रीसक्कणो सूत्रेणैव साक्वात्परिकथयतीत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्या जनोऽमुं दोषमसमीदय दीक्तिः । अपिच ।। ख्या। नो कल्पते निर्ग्रन्थानामवग्रहानन्तकं वागुह्यदेशविधान- बकायाण विराहणा, पमिगमणादीणि जाणि गणाणि। वखें तस्यैवाच्छादक पट्ट धारयितुं वा परिहर्नु वा इति सूत्र तब्नाव पिचिकणं, वितियं असती अहव जुम्मा । संकेपार्थः । अथ नियुक्तिविस्तरः। शोणिते परिगलिते षट्कायानां विराधना नवतिसाच षष्टनिग्गंपोग्गहधरणे, चउरो बहुगा य दोस आणादी। व्यमिति कृत्वा प्रतिगमनान्यन्यतीर्थिकगमनादीनि यानि स्थाअतिरेगओवहिता, लिंगजेदवितियं अरिसमादी ।। नानि कुर्यात् तनिष्पन्नं प्रवर्किन्याःप्रायश्चित्तम्। सचासौ शोनिर्ग्रन्थानामवग्रहानन्तकपट्टयोर्धारणे चत्वारो लघुमासाः। जितपरिगलनसक्वणोनावश्चतजाचस्तं प्रेक्ष्य विझोक्य तरुणा आझादयश्च दोषाः । अतिरिक्तोपधित्वादधिकरणं नवेत् । उपसर्गययुरिति वाक्यशेषः । द्वितीयपदमत्रानिधीयते (असतथा लिङ्गनेदः कृतो ज्वति । साधूनां सिङ्गनिश्चितं न नव- इत्ति) नास्त्यवग्रहानन्तकमथवा जीर्णा स्थविरा सा संयती तीत्यर्थः । द्वितीयपदविषयमझे रोगादिकं तत्रावग्रहानन्तकं अतो विद्यमानमपि न गृह्णीयादपि । पट्टकं वा धारयेत् । द्वितीयपदमेव नावयति । अथेदमेव नावयति । जगंदलं जस्सरिसाव णिचं, गाळंति पूयं विससोणियं वा। दिटुं तदिट्ठव्वमहं जणेण, जडाह सन्कायदयाणिमित्तं, सो नग्गहं बंधति पट्टगं च ।। सज्जाए कुज्जा गमणाइगाई। नगंदरः गुह्यसंधी व्रणविशेषो ऽशीसि वा यस्य नित्यं पृयं सज्जाइजंगो वहविज्जती से, वा रसिकां वा शोणितं वा गलति स नडाहः स्वाध्यायदया सज्जाविणासे य स किं न कुज्जा ।। निमित्तम् अहो अमी ईदृश एव धाव्यन्ते यो नगन्दरादिरो यत्पुनर्जष्टन्य तत् दृष्टं तावज्जनेन अतो नाहमत्र स्थातुं गवान् बहिर्गन्तुमसहिष्णुस्तस्य पट्टो रुधिरंचोपाश्रये क्वचि शक्कामीति कृत्वा खजया गमनादीनि गृहवासे यानादीनि कुमात्रके धाब्यते ततस्तझावनं हस्तशताबहिः । थासौ ब र्यात् । यद्वा तस्याः संयत्या अज्जाया नो भवेत् सज्जा विनाहिर्गन्तुमसहिष्णुस्ततो विचारलूमौ गतः स्वयमेवावग्रह शे च सा किं नामाकृत्यं न कुर्यात् । तथा। पट्टकं रुधिरं च धावति । पट्टबन्धने विधिमाह। तं पासिनं जावमुदिमकम्मा, ते पुण होति मुगादी, दिवसंतरिएहिं बज्जए तेहिं । अरुगं इहरा कुत्थइ, तवि य कुव्वंति णिच्चोला ।। दबेज्ज वा सा वि य तत्थ नज्जे । ते पुनरवग्रहानन्तकपट्टा द्विकादयो चित्रिप्रभृतिसंख्याकाः तं लोहियं वा विसरक्खमादी, कर्तव्याः । तैर्दिवसान्तरितैर्वणो बध्यते । किमुक्तं भवति येना विजा समालम्नति जोययंति ॥ वग्रहानन्तकेन पट्टकन यो ऽद्य ब्रयो बरूः हितीयदिवसे स तं रुधिरपरिगलनरूपं नावं दृष्ट्वा केचित्तरुणा उदीर्णकर्माणउन्मोच्य प्रकाल्य वा परिभोग्यो विधेयः । यः पुनराद्यदिनेन श्चतुर्थप्रतिसेवनार्थ प्रेरयेयुः। साऽपि च संयती तत्र मजेत् परिनुक्तः तेन तस्मिन् दिने व्रणो बन्धनीयः । इतरथा प्रति- सङ्गं कुर्यात् यद्वा तब्बोहितं सरजस्कादयः कापालिकप्रभृतयः दिनं तेनैव पट्टेन बन्धे दीयमाने अरुक वणः कुथ्यति प्रति- समासज्य गृहीत्वा विद्याप्रयोगेणाभियोजयन्ति वशीकुर्वन्ति भावमुपगच्छति । तेऽपि च पट्टाः प्रतिदिनं वध्यमानतया यत एवमतः। नित्यं संदेवाळः सन्तः कुथ्यन्ति । अतो व्यादयः पट्टाः अंतो धरसि वयतं करोति, जहा एमी रंगमुवेनकामा । कर्तव्याः ॥ सज्जापढ़ीणा अहसाजणोघं,संपप्पते ते य करोति हावे ।। [सूत्रम् ] कप्पइ निग्गंथा उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा यथा नटी नर्तकीरङ्गं नाटचस्यानमुपेतुकामा गृहस्यवान्तर्मध्ये धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ जय बज्जाया अभिभव करोति । अथानन्तरं सा सज्जापहीणा अस्य व्याख्या प्राम्बत् । अथ नाष्यविस्तरः ।। सती जनौघं जनसमुदायं संप्राप्य तान् भावानङ्गविकेपादीन निग्गयीण अगिएहे,चनरो गुरुगा य आयरियमाद।। करोति। एवं संयत्यपि भिकां गन्तुमनाः प्रतिश्रयमध्य एवावतच्चतिणिय ओगाहण, णिवारणे निनहसमं ॥ ग्रहानन्तकादिभिरुपकरणैरात्मानं प्रावृतं करोति ततो भिक्कां निर्ग्रन्थीनामवग्रहानन्तकस्य पदकस्य वा अग्रहणे चतुर्गु पर्यटन्ती त्वरणादिष्वनवलोकमानेष्वपि सुखेनैव सज्जां रुका। इदं सूत्रमाचार्यः प्रवर्तिनीं न कथयति चत्वारोगुरवः। पराजयते । अथ द्वितीयपदमाह । प्रवर्तिनी संयती न कथयति चत्वारो गुरवः । आर्यिका न असईया अंतगस्स न, पणतिणिगा वापओ गेएहे। प्रतिशएवन्तिमासलघु निक्कादौ गच्छन्ती यद्यवग्रहानन्तकं वा निग्गमणं पुण दुविह, विधि अपही तत्थिमा अविहो। न गृह्णाति तत पते दोषाः । तच त्रिकस्य निकां गच्छन्त्या नवग्रहानन्सकस्याभावे पञ्चपञ्चाशद्वर्षेय उत्तीर्णा वासंयती Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५४ ) निधानराजेन्द्रः | उग्गहणंगत ग्वानयोनिकतया न गृह्णीयादपि । इह च भिकाया निर्गमनं द्विविधं विधिना विधिना च । तत्र तावदयमविधिः । उग्गहमादीहि त्रिणा, दुम्विसिया वा विनक्खुलवत्था । एका दुष्य विहा, चनगुरु आणा य अणवत्था || भवग्रहानन्तकादिजिर्विना निक निर्गच्छति। दुर्नियसिता वा निक्कां पर्यटति । एका वा द्वे वा निकायां गच्छतः एष सवोsयविधिरुच्यते । अत्र चतुर्गुरुकाः । आज्ञा च भगवतां विराधिता स्यात् । अनवस्था व एकामविधिना निर्गच्छन्तीं दृष्ट्वा अन्यापि निर्गच्छतीत्येवंलकणा भवार्त । तथा । मिच्छत्तपवायाए, वायण चव्वयम्मियानवरो । गोयरगयावगाहिया, धरिसणदासे इमे महति || अवदानन्तकादिनिर्विना निशां गता सहसा मुच्छदिना ततः प्रपतितादा वालेन या प्रावरणे समुते - वृतत्वं वा सोको मिथ्यात्वं गच्छेत् । यया नास्त्यमीषाममुष्य दोषस्य प्रतिषेधः कथमन्यथेयमित्यं निर्गच्छेत् । गोचरगता वा काचिदविचिन्निर्गता केनचिद्विडेन गृहीता दोपानमून वक्ष्यमाणान् बजते । ते चोपरि दर्शयिष्यन्ति । अय विधिनिगमे गुणमाद अडोरुगादीहमिया सणादी, साराक्खया होति पदेवि जाव तिरपि चेण योजनानो, एकं वाष्पमुचेति शास या रुकदीर्घनिवसनादिभिः सुप्रावृता निर्गता सा केनचि कर्षितुमारब्धाऽपि पटादावपि यावत् संरक्षिता जवति तिसृणां संत बोलेनाभिजातः शिष्टये जो मिलती ति शेषः। या पुनरेक निर्गच्छति सा हि शीघ्रं विनाशं संयमपरिच॑सम्पति । उपक्षिए गुज्कम परसतो सा, डाइ कितस्सेच महान येणं । धिधित्ति वच्छुकितता लियस्म, पत्तो समं रमादवो व वेदो || विधिनितीन उत्साऽिपि बा खोपकरणे यादवसी हां न पश्यति तान्महाजनेन हाहाकृतो विधिगिति पूर्व चकितो गतिस्ताकितयासी ततस्तस्यैवंवियां विरुस्वनां प्रापितस्य वेदो माटो दयोsरण्यदव श्व सद्यः शमं प्राप्तः । अथ विधिनिमने दोषाना। तत्येव य परिबंधो, परिगमहादणि गणाणि । हिंदी य वंजचेरे, विधिणिग्गमणे पुणो वोच्छं ॥ पेन सा अधिनिर्गता पर्पिता देव प्रतिबन्ध जवेत् तदनुरक्ता वसतिप्रतिगमनादीनि स्थानानि करोति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं प्रवर्तिन्या ऋतुसमयगृहीतायाश्च कस्याश्चित् हिडिमबन्धो भवेत् ततश्च महती प्रवचनापचाजना ब्रह्मचर्य विराधना च परिस्फुटैव तस्याः संजायते । विधिनिगमने पूनर्भूयोऽपि गुणान् वक्ष्ये । एतच्च सांन्यासिकीकृत्य प्रथमं विधिनिर्गमने दोषशेषमाह । न केवलं जा विहम्मिश्रा सती, सरचतामेति मधुमुद्दे जणा । वेति अन्ना विउ वच्चपत्ततं, पाडता जा अणियस्सिया य ॥ न केवजमेव सती साथी विमिता धर्माद्भाविता सैव मधुसरे च जने दुर्जनलोके सवाच्यतां सकलङ्कतामुपग उग्गहणंतग व्यति। अन्यायेतयतिरिका वाध्या मुपैति । याऽप्रावृता श्रपक्षि का परितनोपकरणरहिता अनि वसिता च । अथावग्रहानन्तकाद्यधस्तनोपकरणवर्जिता जयति । किं यते सरीरं पणशरीर पयति किंतु शीलं ब्रह्मन्त्रये हीच बना एतदेव द्वयं स्त्रिया विज्ञषणम् । अम्मेवार्थ प्रतिवस्तूपमा यति गोणी संस्कारयु संसदि सनायां यद्यसाधुवादिनी जकारमकराद्य सत्यप्रतलापिता सदा प्रपेशला शिजननीयतया न शोजना जयति एवमयमपि श्री विपिताऽपि यदि विशाललज्जाविकला तदा शिघ्रजनस्य जुगुप्सनीया नवति । अतः स्त्रियाः शीलं बजा च विषणम् । एतश्च शीलह जाद्वयं संयत्या विधारणे प्रति अतस्तदेवाभिधित्सुराह पट्टढोरग चलणी, तोवहरादिराणियंसणिया । संजामिखुज्जकरणी, अणेगतो वसतिकाले ॥ पट्टकोsधोरुकश्च चासनिका अन्तर्निवसति बहिर्निवसति संघट्टिका कुब्जकरणी उपलक्षाणत्वादवग्रहानन्तकं कम्बुक श्रपक्की यानागत एव वसतिकाले निक्कासमये दृढतरायुपकरवासाच्या प्राचीन मे " गत विहिं अव्याओ अतुरिया विरस जोहोब्वलंखिया वा अगि गुरुग आणादी ॥ जयाप्रदानन्तकादिनिरुपकर ता आत्मानं जावयन्ति क श्वेत्याह । योध व लेखिकेच वा यथा योधः संग्रामशिरसि प्रवेष्टमानः सन्नाहं पिनह्यति यथा च लेखिका रङ्गवं प्रविशन्ती पूर्व चलनकादिना गूढाप नष्टमि वात्मानं करोति एवमार्याऽव्यवधानन्तकादिषु प्राकृता नि च्छति । अथैतान्युपकरणानि न गृह्णाति ततश्चतुर्गुरुकाः श्राज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः अथ विशेषज्ञापनार्थमिदमाद। जोहोमरंजढो, णाइली खिया व यखिनो । अज्जानिक्सग्गड़ा, आहरणा होति शायच्या आर्याचा निकाह पपकरणप्रावरणं तथैतानि उदाहर णानि ज्ञातव्यानि । तद्यथा योधः प्रतीतः महाएर जडो मरुएकस्य रजोस्ती २ नाटकिनी नर्तकी ३ लडिका वंशाग्रतेकी ४ कदली स्तम्नः प्रतीतः । तत्र योधदृशन्तमाह । वि पराजितो मारिओ य से अमितो मोहो । सावरणो परिपक्खो, जयं च कुरुते विवक्खस्स | योधः संख्ये संग्रामे अवमितः प्रविशन् व्रणितः पराजितो मारितो वा जायते । वणितो नाम परैः प्रहारजर्जरीकृतः पराजितः परानग्नः मारितः पञ्चत्वं प्रापितः । यस्तु साचरणस्तस्य प्रतिपक्को वक्तव्यः । किमुक्तं भवति यः सन्नाहं पिना रणशिशि प्रविशति स न प्रहारैर्जर्जरीजवति न वा पराजयते न वा मरणमासादयति । प्रत्युत विपचनयं कुरुते । एव माऽपि यथोक्तोपकरणप्रावरणमन्तरेण निक्कां प्रविष्टा तरुसुप्रावृता सर्वच तेषामगम्या नवति । उका योधान्तः । संप्रति मरारामजन्तं माथावतुध्येनाह । विवसता मुरुमं, आपुच्छति पव्वया महं कत्थ । पासं य परिक्खति, वेसग्गढ़ण सो राया ॥ मोवेर्हि व धरिसणा, मानुग्गामस्म होड़ कुसुमपुरे । उज्जवल पययणे, शिवारणे पात्रकम्माणं || लज्जसुधीरे सा या विणिवय यांने ने जड़ा चार्य Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग्गहणंतग अभिधानराजेन्द्रः । जग्गांतग जच्चरिया णमा विव, दीमति कुप्पस्समादीहिं ।। वाहमिता जहि तथा, सज्जातरादी मयं वावि ।। घिधिकतो वहेक्का, तो य लोएण तज्जितो मिंगे। एका काचिद्विधिनिर्गताऽपि मुक्ता एका परधर्षिता तता उझोहिते णयाणि वा-रितो ततो रायसीहेण ॥ १४ ॥ यतनया यथा शेषसंयतसंयतीजनो न जानाति तथा गुरूणां निवेदना कर्तव्या । अथ सा वाहाडिता ततो न परित्यक्तव्या कुसुमपुर नगरे मुरुंमा राया तस्स नगिणी विहवा सा अनया रायं पुच्च अहं पव्वश्कामा तो प्राइसह कत्थ पब्व किंतु शय्यातरादिना स्वयं वा तस्य वार्तापन विधेयमिति यामित्ति । तत्रो राया पासमीणं वेसग्गहणेण परिवखं करे। नियुक्तिगाधासमासार्थः । अथैनामेव विवृणोति । हस्थिमिंग संदिघा जहा पासंमिगाओ गामेसु हत्थि सन्नि- विहिणिग्गतान एक्का, मायरियाए गहिता गिहत्थेहिं । ज्जाह अणिजाह या पोतं मुयाहि अन्नहा मिणे नवचेस्सा- संवरिए नावण य, फिमिया अविराहियचारित्ता ।। मित्ति । एकम्मि य मुक्के मा वादिह तो वगहा देह जीवस- पका काचिद्विधिनिगर्ता गोचरचार्यायां पर्यटन्ती गृहस्थैर्मूत्थे सुक्का तो पगेण मिण चाए रायपहे तहाकयं जाघ । होता परं संवतप्रभावेण सुप्रावरणमाहात्म्येनसा अधिराधितनगीनूया रना सव्वं दिलं नवरं अजा विहीए पविट्ठा रायप- चारित्रा स्फिटिता ॥ होत्ति णाए हथिसनिओ सुयसुपुन्नंति तए पढमं मुहपोत्ति सोएण वारितो वा, दट्टण मयं च तं सुणवत्थं । या मुक्का ततो निसिज्जा एवं जाणि वाहरिद्वाणि त्रीवराणि सुद्दिढ तु वसंतो, सविण्ह उरमामयतीय ॥ ताणि पढमं मुय जाव बहूंहिं वि मुहि नमी वि व कंबुकादीहिं सुप्पाच्या दीस ताहे झोगेण अकंदो कओ हा पाव येन सा धर्षितुमारब्धा स बोकन धिक्कारपुरस्सरं वारितः । किमेवं महासई तवस्सिणं अभिहवेसित्ति रन्नावि ओसोयण स्वयं वा तां संयती सुनेपथ्यां सुप्रावृतां दृष्ट्वा सुदृष्टममीषां वारिओ वितिय व एस धम्मो सम्वन्नदिको अनेण यबहज धर्मरहस्यमिति कृत्वा उपशान्तः सम् सविस्मयः पश्चात्तां णय कया सासणस्स पसंसा ।। संयती कामयति । अयाकरार्थो विधा स्वसा मुरुए; राजानमापृच्चति कुत्राई अणाजोगपमादेण व, असती पट्टस्सणि अवग्गहणे । प्रव्रजामीति । ततः स राजा वेषग्रहणेन पावधिमनः परीक- विहिणिग्गतमाहब, वाहामितधामणे गुरुगा ॥ ते परीवार्थमेवं चके हस्तिमिवैः कुसुमपुरे मातृग्रामस्य पाख- सा कदाचिदनाभोगेनात्यन्तस्मृत्या प्रमादेन वा विकथानिएिमस्त्रीजनस्य धर्षणा भवति वर्तमाननिर्देशस्तरकालापेक्या कादिप्रमत्ततया अवग्रहपट्टस्य वा अन्नाव एवमेव निवार्थ तदानी प्रवचनस्याद्भावना प्रजावना समजनि।येच पापकर्मा निर्गता एवमविधिनिर्गता वा (आहब्च ) कदाचित्प्रवन्ने अवगणः संयतीरभिजवितुमिच्छन्ति ते निवारणाय न शक्यन्त । काशे गृहीता ततो गुरूणां यतनया निवेदनीयम् । अथ सा अतस्तदेवंविधेन एषा धनचलयितुमिति कृत्वा कथं पुनरेतत् कदाचिद्वाहामिता ततो यस्तां वाहमयति निष्काशयतीत्यर्थः संकृतमित्याह ( उज्जचीवरेश्त्यादि)विधिनिर्गता संयती अनि तस्य चतुर्गुरुकाः ॥ कुत इत्याह । हिता उज् परित्यज चीवराणि साम्येवमभिहितधतीनृपपंथ राजमार्गे यानि यथा बहिरुपकरणानि तानि तथा मुञ्चति एवं निवृढपट्ठा सा, नणेइ तेहिं व कत्तमेत्तं च । बहुषु वस्त्रेषु मुक्तप्वपि यदा सा नीवत् कार्यासिकादिभिः राएगिहीहि सयं वा, तंच सासंतिमा वितियं । कञ्चुकादिभिर्वस्वैरुच्चुरिता सुप्रावृता दृश्यते तदा लोकन स सा नियूढा निष्काशिता सती साधूनामुपरि प्रषं यायात् मिगे धिग्धिक्कृतोहा हा कृतश्च तथा तर्जितो गाढं निर्मितः प्रद्विष्य च जणति । एतैरव श्रमणैरित्थं ममैतत् कृतमिति ततश्चावलोकन स्थितेन गवाकोपविष्टेन राजसिंहेनासौ निवा ततो न परित्यक्तव्या येन च धर्षिता समनवस्थाप्रसङ्गवाररितः सर्वशष्टश्चायं धर्म इति कृत्वा साधूनां समीपेनगिनी णार्य राज्ञा प्रशासयन्ति गृहिनिर्वा शिक्कयन्ति यदि प्रनवप्रवज्याग्रहणार्थ विसर्जितति नक्तो मुरुएमजमदृष्टान्तः। स्ततः स्वयमपि शासन्ते मा द्वितीयं वारमित्थं प्रवर्तयेयमिति अय नर्तकी बखिकादृष्टान्तद्वयमाह । कृत्या, । अथ तस्याः सारणविधिमाह ॥ पाए वि क्खिवंती, न लज्जती पट्टिया सुणेवत्था । विहा णायमणाया, अगीयअनायसमिमादी तु । उरिया वा रंगाम्म, वंखिया नप्पयंतीति ।। सन्नावसि कहिते, सारिता जाव णं पि यती॥ या वाहामितासा द्विधा झाता अज्ञाता चहातगर्भा अझातगर्ना यया नर्तकी सुनेपथ्या सती पादावप्यक्तिपन्ती न लज्जते । संखिका वा रङ्गचत्वरे उत्पतन्तो परिकरणशतान्यपि कुर्वती चैत्यर्थः। तत्र या अझाता सा अगीतार्था यथान जानन्ति तथा यथा उच्चरिता सुप्रावृता सती न लज्जते । एवं संयत्याप सु संज्ञी श्रावकस्तदादिकुलेषु स्थाप्यते । तेषां संझिमनृतीनां सद्भावः प्रथममेव कथनीयः कथिते च सद्भाव ते मातापितप्रावृतान बज्जत इति नपनयः। अथ कदवीस्तम्भदृष्टान्तमाह। समानतया तां तावत् सारयन्ति प्राशुकन प्रत्यवतारेण पाबकयनीखंनो व जहा, उबविलेउ सुटक्कर होति । यन्ति यावत्सदीयस्तनयः स्वनामस्तन्यं पिबति स्तन्यपानास्य अज्जा उवसग्गे, सीनस्स विराहणा दुक्खं ।। न निवर्तत इत्यर्थः॥ कदबीस्तम्भो यथा पटलबहनत्वापुछल्लयितुमुयितुंसुदु- जत्य उ जणेण णातं, ज्वस्मया तत्थ णय निक्खं । स्करभवति एवमार्यिकापि बहुपकरणप्रावृता नोद्विपयितुं किं मक्का उद्देउ, बेंति अगीते असति सद्दे ।। शक्या इत्येवं योधादिनिदृष्टान्तैर्विधिनिर्गताया आर्यायाः यत्र तु जनेन ज्ञातव्यं यैषा वाहामिता तत्रोपाश्रय एव स्पाकेननिमुपसर्गे क्रियमाणेऽपि शीवस्य विराधना उस्करा प्यते न श्रावकादिकुलेषु । नच सा निकायां हिंमापयितव्या मन्तव्या। किंच। किंतु शपसाध्वीभिः साधुनिर्वा तस्याः प्रायोग्यं जक्तपानमाएका मुक्का य धरिसिया,णिवेदणजतणाय होति कायव्वा। नीय दातव्यम् । यद्यगीतार्था जणन्ति किमेवं कीदृश्याः सं Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहतग अभिधानराजेन्द्रः। जग्गहणतग ग्रहः क्रियते ततःसूरयो बुवते यदि नाम न संगृह्यते ततः कथयत एएसिं असतीए, सम्मायगणानबच्चकिढफासुं। किं सांप्रतमेषा शक्या परित्यक्तुम् । अथैवं प्रज्ञापिता अपन अमो विजो परिणतो, स सिटवेसइतरागारीए । प्रतिषेधन्ते ततः श्राकान् प्रज्ञापयन्ति । यथा । तेषां संझिप्रनृतीनामनाये ये तस्याः संवत्याः संज्ञातकास्तेदुरतिकम विधियं, अवि य अकामा तवस्सिणी गहिता। षां गृहेषु स्थाप्यन्ते अन्नावे यः संयतो नालबरूः सोऽपि यदि को जाणति अस्स वि, वित्तंतं सारवो तेणं ।। किढो वृक्षस्तदाऽसौश्रेष्ठिवेषं कार्यते ततस्ते पत्रकाद्वारेण यापखरवधारणे पुरतिक्रममेव प्रतिकर्तुमशक्यमेव केनाप्यकार्य. यन्ता तिष्ठतः । नाबरूस्यानावे अन्योऽपि यो वयसा परिणकारिणेदमकार्य विहितं ततः किं क्रियते । अपि च अकामा तः स श्रेष्ठिपुत्रवेषं कार्यते श्तरा अगारीवर्ष करोति इतराअनिच्चन्ती बलादेव तेन पापात्मना तपस्विनी गृहीता। ततः ऽपि गृहिसिकं करोति । अत्रेयं प्रायश्चित्तमार्गला ।। को जानाति अन्यस्या अप्येवंविधो वृत्ता-तः परवशतया भवे- मूलं वा जाव सणो, दो गुरुगं जं जहा बहुअं। त् । तदेनां संप्रति सारयामः परिपालयाम इत्यर्थः । वितियपदे असतीए, जवस्सए व अहव जुम्मा ।। मा य अवकाहिह, किं ण सुतं केसि सच्चईणं ते ।। यदि तया प्रतिसेव्यमानया स्वादितं ततो मूलम् । वाशब्द जमणे णय वयनंगो, संजातो तेसि अज्जाणं ॥ उत्तरापेकया विकल्पार्थः ( जाव यणत्ति) पश्चाद्व्याख्यास्यते। ढुं हुं विश्वस्तशीबेयमित्येवमस्यास्त्ववर्णमयका वा मा गर्नमाहृतं दृष्ट्वा खादयति दः । अपत्यं जातं दृष्ट्वा सहायक कार्षः। किं न श्रुतं नवतिः कसिसत्यकिनोर्जन्म। यथा तावार्यि- मे भविष्यातीति स्वदयन्त्याः षरुगुरवः । यया पुनरस्वादितं काच्यां पुरुषसंवासमन्तरेणापि कथंचिदुपात्तवीर्यपुमलाइयां तस्याः परप्रत्ययनिमित्तं यत्किमपि यथा लघु प्रायश्चित्तं दातुं प्रमुखवातेन च तयोरायकयोने वतनङ्गः संजायते विगुरु- युज्यते तदातव्यं (जावत्ति ) यावत्तस्या अपत्यं स्तन्यपानोपरिणामत्वात् । अनयोः कथाक्रमः पञ्चकळपावश्यकटीकाच्या- पजीवि नवति तावत्तपोई प्रायश्चित्तं न दातव्यम् । द्वितीयमवसातव्यः। पदे अवग्रहानन्तकस्यानावे उपाश्रये वा तिष्ठन्ति । अथवा अवि य दु इमेहिं पंचर्हि, गणेहि स्थीअ संवसंतीवि । जीर्णाः स्थविराः शासयन्ति अतो ऽवग्रहानन्तकं न गृहात्यपि। पुरिसेण सजति गब्नं, सोएण वि गोश्यं एयं ॥ अस्या एव पूर्वाई व्याख्याति ॥ अपिचेत्यज्युचये हु निश्चितं तदेतैः पञ्चन्निः स्थानः स्त्री सेविजंते अमए, मूलं ओ मिमिम दिस्स । पुरुषेण सममवसन्त्यपि गर्ने लभते न केवलमस्मानिरेतदु होहिति सहागतं मे, जातं ददृण बग्गुरुगा ॥ च्यते । किंतु लोकेनापि गीतं संशाब्दितमेतत् । तान्येवोपदर्श- सेव्यमानया यद्यनुमतं ततो मूलम् । अथ मिएिममं गर्ने रष्ट्वा यति । हर्षमुहहति ततश्चेदः। पुत्रभाएमं दृष्ट्रासहायकं मे नविप्यतीसुब्बियडदुषिसम्पा, र.यं परोवासि पोग्गले उनति । त्यत्रानुमन्यते षद् गुरवः । तेण परं चनगुरुगा, बम्मासा जा ण ताव पूरिति । वत्थे वा संस, दगआयमणेण वा पविसे ॥ विवृता अनावृता सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुःशब्देन जातु तवारिहसोही, अणवत्थणिए तमातं देती। विशेष्यते । दुष्ठ विवृता पुर्विवृता परिधानवर्जितेत्यर्थः । ततः परं जन्मान्तरं यावत्षण्मासा न पूर्यन्ते तावद्यत्र यत्र एवं दुर्विवृता सती दुर्निषमा दुष्ठ विरूपतयोपविष्टा सा चासौ स्वादयति तत्र चतुर्गुरवः । यावत्तस्या अर्दा सोधिरुक्ता तामनपगतस्तन्ये स्तन्यपानादनपगते अपत्यभाएमेन ददाति दुर्विवृता दुर्विवृतदुर्निषया सा शुक्रपुऊलान् कथंचित्पुरुषनिः सृतान् संगृह्णीयात स्वयं वा पुत्रार्थितया शीरशिकतया च मा शून्यं नविष्यतीति कृत्वा । शुक्रपुमलान योनावनुप्रवेशयेत् । परो वा श्वश्रूप्रतिकः पु मेहलो गन्ना -हिते य सानिजियं जति णतीए । त्रार्थमेव (से) तस्याः योनौ प्रक्तिपेत् वस्त्रं वा शुक्रपुमक्षसं- परपच्चया बहसगं, तहावि सेन दिति पच्चित्तं ।। सृष्टमुपलकणत्वात्तथाविधमन्यदपि केशवककएगूयनार्थ रक्त मैने प्रतिसव्यमाने गर्भे च आहृते यद्यपि तया न स्वादित निरोधार्थ वा तया प्रयुक्तं तदनु प्रविशेत् । अनाभोगन तथापि परप्रत्ययार्थ मा भृशीतार्थानामप्रत्यय इत्यर्थः यथा वा तथाविधं वस्त्रं परिहितं सोनिमनुप्रविशेत् । के जानते लघुकं प्रायश्चित्तं तस्याः सूरयः प्रयच्छन्ति । अथ यस्तस्याः न वा तस्या आचम्यन्त्याः पूर्वपतिता उदकमध्यवर्तिनश्श खिसां करोति तस्य प्रायश्चित्तमाद । शुक्रपुशलाः अनुप्रविशेयुः । एवं पुरुषसंवासमन्तरेणापि गर्ज- खिसाए होति गुरुगा, लज्जाणिचक्कतो य गमणादी। संभवे जवन्तो नास्या अवज्ञा कर्तुमईन्ति । एवं प्रज्ञाप्य तेषां दप्पकते वानद्दे, जति खिसति तत्थ वि तहेव ॥ श्राद्धानां गृहे तां स्थापयन्ति । गता कातविषया यतना । यस्तस्याः खिसां विध्वस्तशीलत्वान्मबिनयमित्येवं करोति अथाज्ञातविषयां तामाह ॥ तस्य संयतस्य संयत्या वा चतुर्गरुकाः प्रायश्चित्तम् । सा च अविदियजाणगन्मम्मिय, सप्लिगादीसु तत्थ वप्तात्था । खिसिता सती बज्जया प्रतिगमनादीनि कुर्यात् निच्चका वा लाडेति फासुएणं, किंगविगो य जा पिवति ।। निर्मज्जा भवेत् तत एव सर्वजनप्रकटमात्मानं प्रतिसवयेत् । अथ दर्पतस्तया मैथुनं प्रतिसेवितं परं पश्चादावृत्ता पालोच जनेनाविदितो यो गर्भस्तत्र ये माप्तापितृसमानाः संझिन नाप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना प्रतिनिवृत्ता तामपि यः खिसति श्रादिशब्दाद्यथानका वा तेषां गृहेषु तत्र वा अन्यत्र वा तस्यापि तथैव चतुर्गुरु । किं कारणमिति चेदत आह । ग्रामे स्थापयन्ति ते च संझिप्रभृतयस्ता प्राशुभ प्रत्यवतारेण साढयन्ति यापयन्तीत्यर्थः । यावच्चापत्य भाएमस्तन्यं पिवति । उम्मग्गेण वि गंतुं, ण होति किं सा तवाहिणीसलिमा । तावत्तया निङ्गविवेकः कर्तव्यः ॥ कास्रण फुफुगा वि य, विनयं वह सहे सेऊणं ॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहणंतग अभिधानराजेन्द्रः। जग्गहिय सन्मार्गेणापि गत्वा सविना नदी पश्चारिक श्रोतोवाहिनी हीतमुक्तमनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। त्रिविधमवमागगामिनी न जवति नवत्येवेति जावः। फुफुकारीषाग्निः गृहीतं प्राप्तं यदवगृह्णाति यच्चसंहरतियश्च आस्य के प्रक्विपति। सोऽपि (बहसहेसेकणंति )जाज्वसित्या नृशमुद्दीप्तो भूत्वेन्य- एके पवमाहुर्द्धिविधमवगृहीतं प्रज्ञप्तं यदवगृह्णाति यश्च संहर्थः कासेन गच्चति विल्बीयते विलयं याति सपनययोजना सुग तम । एष सूत्राकरसंस्कारः। सम्प्रति भाष्यविस्तरः। मा। वृ०३१०।१०। प्रव०। उग्गहपट्ट-अवग्रहपट्ट-पुं० अवग्रहस्य योनिद्वारस्य पट्टः । गु पग्गहियं साहरियं, पक्खियंतं च आसए तह य । ह्यदेशपिधानवस्त्रे, सच बीर्यपातसंरकणार्थं च धनं घनवस्त्रे तिविहं सुविहं पुण, पग्गहियं चेव साहरियं ।। ण पुरुषसमानकर्कशस्पर्शपरिहरणार्थं च मसणं मसणवस्त्रे यत्प्रगृहीतं यश्च संहृतं यश्चास्ये प्रतिप्यमाणमेतत्रिविधमवण क्रियते प्रमाणेन च देहंस्त्रीशरीरमासाद्य तद्विधीयते। देहो गृहीतम् । द्विविधं पुनरवगृहीतमादेशानन्तरेणेदं प्रगृहीतं दि कस्याश्चित्तनुः कस्याश्चित्तु स्यूतः ततस्तदनुसारेण विधे. संहृतं च । अथादेशस्य किं बक्षणमत आह । यमित्यर्थः॥ बहुसुतमाश्मंतु, नयाहयोहिं जुगपहाणेहिं । पट्टो वि होइ एको, देहपमाणेण सो ज जइयव्यो । आदेसो सो न नवे, अहवा विनयंतरविगप्पो । गदंतोगहणतं, कम्बिको मदकच्छो वा ।। यद्वहुश्रुतैराचीम नचान्यैर्युगप्रधानाधितं स नवति नाम पट्टोऽपि गणनयको नवति स च पर्यन्तभागवर्तिवाटकबन्ध- आदेशः । अथवा नयान्तर विकल्प प्रादेशः तशात्सूत्रमेवबकः प्रयुत्वेन चतुरङ्गलप्रमाणःसमतिरिक्तोवा दीघेण तु स्त्री- मुपन्यस्तमिति ॥ कटीप्रमाणः स च देहप्रमाणेन जक्तव्यः। पृघुनघुकटीनागयो सांप्रतमवगृहीतादिपव्याख्यानार्थमाह । दीर्घः । संकीर्णकटीभागयोस्तु हस्व इत्यर्थः । वृ० ३१०। साहीरमाण गहियं, दिज्जंतं जं च होइ पानग्गं । (सच निर्ग्रन्थीजिरेव ग्राह्यो न निर्ग्रन्थैरिति उम्गहणंतग शब्द) पक्खेवए मुगुंग, आदेसो कुममहादीसु ।। उग्गहपमिमा-अवग्रहप्रतिमा-स्त्री० अवगृह्यत इत्यवग्रहो - इह अनानुपूा ग्रहणं बन्धानुबोमतस्तत एवं अष्टव्यम् । सतिस्तत्प्रतिमा अभिग्रहः अवग्रहप्रतिमा । वसतिविषयका- गृहीतं नाम यहीयमानं यश्च प्रवति प्रायोग्यं संहृतं नाम निग्रहेषु, ( ताः सप्त नग्गह शब्दे दर्शिताः) तत्प्रतिपादके आ संव्हियमाणम् । आस्ये प्रतिप्यमाणं प्रतीतम् । अत्राह ननु “जं चाराङ्गस्य षोमशे अध्ययने च।आचा०२ श्रु०१०१० च आसगम्मि पक्खिवश्" इत्यस्यायमर्थः यत् प्रास्ये मुखे प्रश्न । स० । आव० । स्था० । प्रतिपति तयोच्चिएमिति लोके जुगुप्सा ततः कथं तद् गृह्यते नग्गहमइसंपया-अवग्रहमतिसम्पद्- स्त्री० सामान्यार्थस्य सरिराह (श्रादेसो कुममहादीसु) कुटो घटस्तस्य यन्मुखं अशेषविशेषनिरपेक्वानिर्देश्यरूपादेरवग्रहणमवग्रहः स चासो तदादिष्वादिशब्दात् पिचरमुखादिपरिग्रहस्तत्र आदेशव्यामतिसंपञ्चावग्रहमतिसम्यद् । मतिसंपनदे, दशा०४०। ख्यानम् । किमुक्तं भवति पिउरमुखादीन्यधिकृत्य “जं च (मश्संपया शम्देऽस्या जेदाः) आसगम्मि पक्खियति" इति सूत्रं व्याख्यातमतो न कश्चिडग्गहसमिइजोग-अवग्रहसमितियोग- पुं० अवग्रहणीयतृणा दोषः । अथापहृतसूत्रस्यावगृहीतसूत्रस्य च परस्परं कःप्रतिदिविषयसम्यक्प्रवृत्तिसम्बन्धिनि, प्रश्न० ३ द्वा० ॥ विशेषस्तमाह । उग्गहियम्मि विसेसो, पंचमपिमेसणाउ उट्ठीए। न (ओ) ग्गहाइकहणा-अवग्रहादिकथना-स्त्री० अवग्रहस्य " देविंदरायगहवासागारसाहम्मिचमाही चेवेत्येवंवि तं पि हु अझेवकम, नियमा पुबह चेव ।। ध्रस्यादिशब्दाजाजरक्वितास्तपस्विनो नवन्तीत्यादेश्च यदाह उपहतसूत्रे पश्चमी पिएमपणा उक्ता अवगृहीतसूत्रे पुनरस्मिन् "शुतोकाकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते । कान्तदान्तार्य श्रयं विशेपो यत्पञ्चपिएमषणातः परा या षष्ठी पिएमषणा हन्तार, स्तांश्वेशाजा नरवतीति" कथनाप्ररूपणा अयग्रहादि तस्या अनिधानमिति । तदपि च हु निश्चितं यल्लेपकृतं नियकयना । देवेन्डाद्यवग्रहस्य राजवर्णनस्यप्ररूपणायाम,“विस- माश्च पूर्वोद्धृतमिति । यपवेस रमो, उदंसणं उम्गहाइ कहणा य" पंचा०विव। संप्रति दिजतं जं च होति पानुग्गमित्यस्य व्याख्या । नग्गहिय-अवग्रहीत-न० परिवेपणार्थमुत्पाटिते, स्था०१० तुंजमाणस्स क्खित्तं, पमिसिर्फ च तेण न । अवग्रहिक-न० अवग्रहोऽस्याऽस्तीति । वसतिपी-फल जहनोवह तं तु, हत्थस्स परियतणे ॥ कादी औपग्रहिकदएमकादिके व्यधिजाते, स्था० १० ग०। परिवेषकः पट्टिकायां करं गृहीत्वादविणहस्तेन तसं प्रायोतद्भदाः॥ ग्यस्य दातुकामस्तस्य नाजने क्पिामीति व्यवसितं तश्च तथा ( सूत्रम् ) तिविहे उग्गहिए पप्पत्ते जं च साहर जं च | तुञ्जानस्याक्तिप्तं न नुआनेन प्रतिषिद्धं पर्याप्त मा मह्यं देहि । आसगम्मि पक्खिवति ॥ अस्मिन् देशकाले साधुना तत्र प्राप्तेन धर्मलानितं ततः परिअस्य सम्बन्धमाह ॥ वेषको ते साधो ! धारय पात्रमेतद्गृहाण ततः साधुना पात्रं धारितं तत्रानेन प्रक्किममिदं हस्तस्य हस्तमात्रस्य परिवर्तनात, पगया अनिग्गहा खसु, मुछपरा ते य जोगबुछीए। गाथायांसप्तमीपञ्चम्यर्थे जघन्यमुपहृतंजवतिापतेन दीयमानइति उवहमसुत्तत्तो, तिविहं च अवग्महिय एए । मपिव्याख्यातम् । यच्च नवति प्रायोग्यमित्यनेन शुरूसंसृष्टयोः प्रकृताः खल्वनन्तरसूत्रे शुशोपहृतादिष्वनिग्रहास्तेचानिग्रहाः प्रागुक्तयोरन्यतरद् गृहीतम् । तदेवं “जं च लगिएडा इति शुरुतरा नवन्ति । योगवृद्ध्या उत्तरोत्तरयोगवृहिकरणेन इति व्याख्यातम् । संप्रति जं च साहरियमिति व्याख्यानाय तत्साअस्मातू कारणातू अपहृतस्तत्रानन्तरं त्रिविधं द्विविध वा प्रगृ-| हरिपति गाथाशकामुक्तं तद्भावयति । Jain Education Interational Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५८) जग्गहिय अभिधानराजेन्धः । सचिअत्यापायण अहसाहरिमाणं तु, बलेउं जो न दावए । आतानि सप्तविंशतिदिनानि साानीत्येवं कृत्वा यहीयते गणादचलितो तत्तो, बट्ठा एसा वि एसणा ।। तल्लघुमासदानमेवमन्यान्यपि । स्था० ३ ग०। अथ वर्षापयितुं संव्हियमाणं यो दापयेत् तस्य वचनतः स | नग्याम-उद्घाट-पुं० उद् घट्. घञ्. । वाच० । अदत्तागले, परिवेषकस्तस्मात्स्थानतो मनागप्यचलितो दद्यात् एतत्संहि ईषत्स्थगिते च । आव०४ अ०। यमाणमुच्यते । पषाऽपि षष्ठी एषणा इष्टव्या । व्य द्वि०।। उग्घामकवाम-उद्घाटकपाट-त्रि० निरर्गलितकपाटे, ओ०। त० । श्राचा०। जग्घाडकवामनग्धामणा-उद्घाटकपाटोद्घाटना-स्त्री. उद्नग्गहिया-अवगृहीता-स्त्री० नोजनकाले नोक्तुकामस्य श- घाटमदत्तार्गअमीषस्थगितं वा किंतत्कपाट तस्योत्पाटनं सुतरां रावादिषूपहृतमेव नोजनजातं यत्नतो गृह्णतः पञ्चम्यां पिएम प्रेरणमुद्घाटकपाटोद्घाटनमिदमेयोद्घाटकपाटोद्घाटना । षणायाम, स्था० ७० । पंचा०1०। सूत्र०। (पिस कपाटमुद्घाटच भिवणरूपे जिकातिचारे, “पमिकमामि गोणाशब्देऽस्याः स्वरूपम्) यरचरियाए उग्घामकवामनग्धामणाए" आव० अ०। जग्गाह-नकाढ-न० उद् गाह क्ता अतिशये, अत्यन्ते, अति- नग्घाडण-उद्घाटन-न. कपाटस्य सुतरां प्रेरणे, आव०४० शययुक्ते, त्रि० वाचः । प्रगुणीभृते च । “श्याणिं किं भणि उग्वामिय-नुयाटित-त्रि० उद् घट् णिन्. । किञ्चित्स्थगिते, हामो जं तुज्क ह पजुत्तं तं नम्गादम्मि काहामो” वृ०१ उ० । आ० चू०४ अ० । अनावृते, "तस्स उ अणंतनागो, णिच्छउग्गाल-उकार-पुं० उद्-गृ ऋदोरपंवाधित्वा“उन्न्योHःइति ग्याभोयसब्वजीवाणं" विशेष "ते वि तेण उग्धामिया" आ० घञ् । उखमने, वाच । आचीले, प्रव० ३० द्वारा उसारश्चा म०वि०।आच्छादनरहिते प्रकाशित, आवरणरहिते प्रकाशिते, जीर्णरोगसितनागवायुकार्यम्" वाचक (रात्रावुझारे श्रागते प्रावरणरहिते कृतोद्घाटने, वाच । तस्य प्रत्युकिरणे दोषस्तं च राश्नोयण शब्द दर्शयिष्यामि) उग्यामियास्प-उद्घाटित-त्रि० उद्घाटितं प्रकाशितं यथा [सूत्रं] जे जिक्खू राओ वा वियाने वा सपाणे सनोयणे तथा जानाति । विझे, वाच० । कथितमात्र विनेये, नं० । उग्गाले आगच्छेज सं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा उग्याय-नद्घात-पुं० उद् हन् घञ् । (गेकर लगना )प्रति घाते, आरम्ने, उत्तुले, मुझरे, शास्त्रे, ग्रन्थपरिच्छेदे, वाच. णाकमइ त उगिसेत्ता पचोगिक्षमाणे राइभोयणपमि बघूकरणसवणे, प्रायश्चित्तदानायानागपाते, स्या० ३ग०। सेवणपत्ते जो तं पचागिळतं वा साइज्ज ॥ ३४१॥ आचारप्रकल्पाऽध्ययने च । आव०४०। रातिवियालाण पुव्वकतवक्खाण सह पाणेण सपाणं सह- नग्यायग-उग्यायतन-न. प्रवाहत एव पूज्यस्थाने, तमागजभोयणेण सनोयर्ण नमिरणं रखयोरेकत्वात्स एव उग्गालो प्रवेशाय मार्ग च। “अग्घायणेसु वा सेयपवहसि वा अम्मभाति । सित्थ विरहियं केवलं उद्दोएण सह गच्छतीत्यर्थः यरंसि वा तहप्पगारंसि"१प्राचा०२१०३०। भत्तं वा नहोपण सह आगच्छति उभयं वा तं जो नग्गिभत्ता | नग्घुस-मृज-धा० शुकी, रूपाणे च । “मुजेरुस" 011५ पञ्चोगिमति असं वा सातिज्जति कहं पुण सातिज्जति करस| ति मजरुग्घसादेशः । उम्पस मार्जयति । प्रा०। वि जग्गाझो आगतो तेण अपस्स सट्टि लम्गालो मे पागतीसोशिय -त्रि. संमार्जिते "जग्घोसिय सुणिम्मरंच". पच्चुग्गिलि नत्तए तेण भणियं सुंदरं कयं एसा सातिज्जणा | तस्स पायच्चित्तं चमगुरु आणादिया य दोसानो सुत्तत्यो। प्रश्न ५० नि० चू० १० ज०। उम्पोसेमाण-उदघोषयत-त्रि० उद्घोषणां कुर्वति, "सदेणं - उग्गिा -नद्गीर्ण-त्रि वान्ते, ज्ञा०१०। __ ग्घोसेमाणे" रा॥ नग्गोवणा-उझोपना-स्त्री०विवक्तितस्य पदार्थस्य जनप्रकाश उचिअ-नचित-त्रि.शस्ते,परिचिते, युक्ते,वाचक योग्ये, झा० चिकीर्षारूपायामेषणायाम्, पिं० । १ अ । सङ्गते, पंचा०१ विव० । अनुरूपे, आव० ३ ०। उम्गोवेमाण-नदगोपयत-त्रि० विमोहयति, उम्गोवेमाणे - उचिअ(य) करण-नुचितकरण-न० पाझाराधनायाम, पंचा म्गावे । न. १६ श० ६००। | ६विव० । नग्धव-पूरि-धा पूर पूत्तौ, णिच् “पूरेरग्यामोग्घवोकुमांगुमां | नीचअ-(य) करणिज्ज-उचितकणीय-त्रि० विहितकर्तगुमाहिरे "।। ६७ । इति पूरेरुग्धवादेशः । नग्यवश् । व्ये, पंचा० १ विव० । पूरयति । प्रा०। मीच अ- ( य ) किच-नुचितकृत्य-त्रि० यथाईदानादी उचाइम-उद्घातिम-न० उद्घातो नागपातस्तेन निर्वृतमुन्धा- ध.२ अधि। तिमम् । लघुनि, स्था० ३ ०। नचिअ (य) जोग-नचितयोग-पु. उचितः स्वनूमिकाजग्याइय-नद्घातित-त्रि० उद्घातो भागपातो यत्रास्ति तपु. योग्यो योगो व्यापारः। स्वाध्यायाध्ययनादि के संगतव्यापारे, पंचा०५ विव० । दधातिकम । लघुनि प्रायश्चित्ते, स्था०५वा० । (अणुग्घाश्य शब्देऽस्य निक्केपः) विनाशिते, स्था०१०मा०। जाचिअ- ( य ) द्वि-उचितस्थिति-स्त्री० अनुरूपप्रतिपत्ती, यत उक्तम " अकेण चिन्नसेसं पुवकेणं तु संजुयं कालं ।। ध०१ आध० पचा दिज्जार सहुयदाण गुरुदाणं तत्तियं चवत्ति ॥१॥जावना | नचिअ(य)त्त-उचितत्व-न० योग्यतायाम, पंचा० १० विवः । मासान चिन्न जातानि पञ्चदश दिनानि ततो मासापेकया नचिअ (य) स्थापायण-उचिताथापादन-न० अनुरूपवपूर्वतपःपञ्चविशतितमं तद साद्धद्वादशकं तेन संयुतं मासा- स्तुसंपादने, पंचा०९ विव० । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नचिअपवि० अभिधानराजेन्द्रः। नचिनाचरण नचित्र[य] पवित्तिप्पहाण-उचितपत्तिप्रधान-न० सा- (सविससंति) जनकान्मातुः पुज्यत्वादपि यदाह मनुः उपाटासारे,पंचा० ११ विव०। ध्यायाहशाचार्या प्राचार्येभ्यः शतं पिता । सहस्रं तु पितुर्मा उचिपा या] चरण-उचिताचरण-न० ६ त० चितका- ता गौरवणातिरिच्यते ।” यस्याचरणे, तच्च पित्रादिविषयं नवविधमिहापि स्नेहवृद्धि नचिअं एपिसहो-अराम्मिजं निइ अप्पसममेधे । कीयादिहेतुर्दितोपदेशमात्रागाथाभिः प्रदश्यते।। जिउंच कणिटुं वि हु, बहु मन्नइ सबकज्जेसु ।। ७ ॥ सामन्ने माअत्ते, जं केई पानणंति इह कित्ति ।। दंस न पुढो जावं, सब्जावं कहा पुच्च अ तस्स । तं मुबह निप्पिअप्पं, उचिआचरणस्स माइप्पं ॥१॥ ववहारम्मि पयर, न निग्रहा येवमाविहविणं ॥ तं पुण पिइ १ माइ सहो अविणीअं अाअत्तर, मित्तहिं तो रहो उवाझजइ । अरमु ३ पणयिणी । अवच ५ सयणेसु ६। सयणजणाओ सिक्खं, दावा अन्नावए सेणं ॥१०॥ गुरुजग ७ नायर न परति हिअए ससिणेहो वि हु, पयमइ कुवि व तस्स अप्पाणं । थिएसु ए पुरिसेण कायव्वं ॥२॥ पमिवनविण्यमगं, पालवइ अधम्मपिम्मपरो॥११॥ तत्र पितृविषयं कायवाग्मनांसि प्रतीत्य त्रिविधीचित्य सप्पणइणिपुत्ताइसु, समदिही होइ दाणसम्माणे । क्रमणाह। सावकाम्म उ इत्तो, सविससं कुण सव्वं पि॥ १२ ॥ पिनणो ता सुस्ससं, विणएणं किं करुव्य कुणइ सयं । ( पयत्ति ) व्यवहारे प्रवर्तते नत्वव्यवहारे इति ॥ वयणं पि से पामच्छ, वयणाअो अपमिश्र चेव ॥३॥ (समादिष्टुित्ति) स्वपल्यपत्यादिष्विव समदृष्टिः ( सावतनुशुश्रूषां चरणकाअनसंवाहनोत्थापननिवेशनादिरूपांदे कमिति) सापल्येऽपरमातक वातरि तत्र हि स्तोकेऽप्यन्तरे व्यक्तीकृते तस्य वैचित्यं जनापवादश्च स्यात् । एवं पितमातृशकासात्म्यौचित्येन नोजनशयनीयवसनाङ्गरागादिसंपाद वाततुल्येष्वपि यथाहेमीचित्यं चिन्त्यम् । यतः "जनकचोपनरूपां च विनयेन नपरोधावादिभिः स्वयं करोति नतु पकर्ता च यस्तु विद्याप्रयच्छकः । अन्नदः प्राणदश्चैव पञ्चैते नृत्यादिन्यः कारयति। यतः “गुरोः पुरो निषमास्य,या शोभा पितरः स्मृताः १ राज्ञः पत्नी गुरोः पत्नी पत्नीमाता तथैव च। जायते सुत । उच्चैः सिंहासनस्थस्य शतांशेनापिसाकुतः१ स्थमाता चोपमाता च पञ्चैता मातरः स्मृताः ५ सहोदरः ( अपमित्ति ) बदनादपतितमुच्चार्यमाणमेवादेशं प्रमाणा सहाध्यायी, मित्रं वा रोगपात्रकः । मार्गे वाक्यसखा यस्तु मेष फरोमीति सादरं प्रतीति न पुनरनाकर्णितशिरोधूननकालकेपार्कविधानादिनिरवजानाति । पञ्चैते भ्रातरः स्मृताः ३" दातृन्निश्च मिथो धर्मकाविषये स्मरणादि सम्थक्कार्यम् । यतः " भवगिहमज्जाम्मिपमाय-जचिसं पितु अणुअत्तइ, सव्वपयत्तेण सव्वकज्जेसु । सण जलिअम्मि मोहनिहाए । उढ़वश् जोसुखतं, सो तरस उपजीव बुछिगुणे, निप्रसन्ना पयासेइ ।। ३४॥ जो परमबंधू १" नातृवन्मित्रेप्येवमनुसतव्यम् । स्वबुरुिविचारितमवश्यविधेयमपि कार्य तदेवारनते यात्प- इअजाइगयं नचिअं, पण इणिविसयंपि कि पि जं पेमो । तुर्मनोऽनुकूलमिति नावः। बुकिगुणान् भ्रषादीन् सकलव्य- सप्पणयवयणसम्माण, पेण तं अनिमुहं कुणइ ।। १३ ।। वहारगोचरांचोपजीवति । अज्यस्यति बहुरश्वानो हि पितृ सुस्मूसाइपयट्टइ, वत्याजरणाइसमुचिअं दे । प्रनतयः सम्यगाराधिताः प्रकाशयन्त्येवकार्यरहस्यानि निज नामयपित्थणयाइसु, जसंमद्देसु वारेइ ।। १४॥ सद्भावं चित्ताभिप्राय प्रकाशयन्ति । आपुच्चिन पयइ, करीणज्जेसु निसेडिओ गाइ । रुंना रयणिपयारं, कुसीलपासंमिसंगमवणेइ । खलिए खपिनाणिओ, विणीअयं न हु विलंघेइ ।।५।। गिहकज्जेसु निग्रोअइन विप्रोअइ अप्पणा सकि।१५॥ सविस परिपूरइ, धम्माणुगए मणोरहे तस्स । रजन्यांप्रचारं राजमार्गवेइमगमनादिकं निरुणकि धर्मावश्य कादिप्रवृत्तिनिमित्तं च जननीनगिन्यादिसुशीलललितावृन्दएमाइउचिअकरणं, पिउणो जगणीइ वि तहेव ॥६॥ मध्यगतामनुमन्यत एव ( नवित्ति ) न वियोजति यतो तस्य पितुरितरानपि मनोरथान् पूरयति श्रेणिकचिवणादे दिनसाराणि प्रायः प्रमाणि यथोक्तम् । " अवलोअणेण आरभयकुमारवत् । धर्मानुगतांस्तु देवपूजागुरुपर्युपास्तिधर्मश्र क्षा-वणे गुणकित्तणण दाणणं । देण वट्टमास्स, निन्तरं घणविरतिप्रतिपत्त्यावश्यकप्रवृत्तिसप्तक्षेत्री वित्तव्यगतीर्थया जायए पिम्म १ अइंसणेण अश्दं-सणेण दिएं अणवंतेणं । त्रादीननाथोकरणादीन्मनोरथान् सविशेष बहादरेणेत्यर्थः माणे पचासेण य, पंचविहं जिजए पिम्म २। कर्तव्यमेव चैतत् सदपत्यमिह लोकगुरुषु पितृषु नचाईक- अवमाणं न पयास, खनिए सिक्खे कुविअमाणे । मसंयोजनमन्तरणात्यन्तं दुष्प्रतिकारेषु तेषु अन्योऽस्ति धणहाणिवमिधा, न बइअरं पयमान तीसे ॥ १६ ॥ प्रत्युपकारप्रकारः। तथाच स्थानाङ्गसूत्रम् " तिराहे दुप्पाम- अपमानं निहें तुकं नास्यै प्रदर्शयति स्खलिते किंचिद पराधे आरं समणानुसो । तंजहा अम्मापिणो १ जट्टिस्स निनृतं शिकयति । कुपितां चानुनयति । अन्यथा सहसाकाधम्मायरिअस्ल ३ इत्यादि " समग्रोप्यालापको वाच्यः।। रितया कूपपाताद्ययनर्थ कुर्यात् ( पयत्ति ) धनहानि___अय मातृविययौचित्य विशेषमाह ॥ व्यतिकरं न प्रकटयति प्रकटिते तु धनहानिव्यतिकरे तृच्चनवरं सेसविसेस, पयमइजावाणवित्तिमप्यमिमं । तया सर्वत्र तवृत्तान्तं व्यञ्जयति । धनवृतिव्यतिकरे च व्य क्तीकृते निरर्गवव्यये प्रवर्तते तत एव गृहे स्त्रियाः प्राधान्य इत्थीमहावसुलह, परानवं वहइ न टु जेणं ।। ७॥ ॥ न कार्यम् । Jain Education Interational Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६०) उचिप्राचारण अनिधानराजेन्छः। उच्चट्ठाण सुकुझुग्गयाहिं परिणय-वयाहिं निधम्म धम्मनिरयाहिं जत्थ सयं निवासिज्जइ, नयरे तत्येव जे किर वसति । सयणे रमणीहिं पि, पानण समाधम्माहिं।। १७॥ सममाणवित्तिणो ते, नायरया नाम बुञ्चति ॥ ३५।। रोगासु नो विक्खिर, सुमहाओ होइ धम्मकन्जेसु ॥ समुचियमिणमो तेसिं, जमेगचित्तेहिं समसुहदुहेहिं । एमाइपणइणिगायं, उचिअंपारण पुरिसस्त ।। १० ।। वसणुसवतुबंगमा-गमेहिं निचं पिहोव्वं ॥३६॥ पुत्तं यइ पुण उचिअं, पिउणो बोले बामनावम्मि । कायव्वं कज्जे विह, नइक्कमिक्केण दंसणं पहुणो । उम्मीनिअबुछिगुणं, कमासुकुसझं कुणड कमसो॥१॥ कज्जो न मंतनेओ, पेमुन्नं परिहरेअव्वं ।। ३७ ॥ गुरुदेवधम्मसहिसयण, परिचयं कारवइ निचाप । समुवक्लिए विवाए, जन्मासमाणेहिं चेव गयव्वं । उत्तमोएहिं समं, मित्तीनावं रयावेइ ॥३०॥ कारणसाविक्खोहि, विहुणे अव्वो न नयमग्गो ॥३॥ गिन्हावेश अ पाणिं, समाणकुलजम्मरूवकन्नाणं । बझिएहिं दुबलजणो, सुंककराईहि नाजिनविअन्यो। गिहजारम्मिान जप, पहुत्तणं वि अरक्कमेण ॥२१॥ थोपावरोहदोसे, विदंगनूमि न नेअब्बो ।।३।। पच्चक्खं न पसंसइ, वसणोवहयाण कहइ पुरवत्यं । कारणिएहिं समं, कायव्यो जो न अत्थसंबंधो। आयं वयमवसेसं च, सोहए सयमिमेहिं जो ॥ २॥ किं पुण पहुणा सकिं, अप्पहिअं अहिलसंतेहिं।।४॥ प्रत्यके गुरवः स्तुत्याः परोके मित्रबान्धवाः। कर्मान्ते दास एअं परुप्परं ना-यराण पाएण समुचित्राचरणं । नृत्याश्च पुत्रा नैव मृताः स्त्रियः १ इति वचनात्पुत्रप्रशंसा नैव युक्ता। अन्यानिर्वाहादर्शनादिहेतुना चरकुर्यात् तदाऽपि न प्र परतित्थियाण समुचित्र,मह कि पिजणामि लेसेण।।१। त्यकं गुणवृष्चनावाभिमानादिदोषापत्तेः । द्यूतादिव्यसनिनां एएसिं तिथिआणं, निक्खट्टमष्टिआण निगेहे। निर्द्धनत्वन्यक्कारतर्जनतामनादिपुरवस्थाश्रवणे तेऽपि नैव व्य- कायब्वमुचिअकिच्चं, विसेसनो रायमहिआणं ।।। सने प्रवर्तन्ते अाय व्ययं व्ययामुत्कत्रितशेषं च पूत्रेभ्यः शोध- जइ विमणम्मिन नति, न पक्खवाओ अजग्गयगुणेसु। यति । एवं च पत्न्याःप्रजुत्वं पुत्राणां स्वच्चन्दत्वमपास्तम् । उचिअं गिहागएम, तहवि हु धम्मो गिहीए श्मो ।१३। दमे नरिंदसनं, देसंतरभावपयमणं कुणइ । गेहागयाणमुचिअं, बसणावडिआण सह समुकरणं । इच्चाइअवच्चगयं, उचिअंपिउणो मुणेअव्वं ।। २३॥ सयणेसु समुचिअमिणं, जं तेनिगेहबुकिज्जेम् । दुहिआण दया एसो, सव्वेसिं सम्मो धम्मो ॥४॥ मम्माणिज्ज सया विहु, करिज्जहाणीस वि समीवेश्या मुंचंति न मज्जायं, जमानिहिणो नाचनाविहु चनति । सयमवि तेसिं बसाणू, सव्वे सुहो अव्वयंति अम्मिसया । न कयावि नत्तमनरा, उचिआचरणं विघति ॥४॥ खीणविहवाणरोगा, उराणकायवमुकरणं ॥ २५॥ तेणं चि जगगुरुणो, तित्ययरा वि हु मिहत्थवासम्मि। खाइज पिढिमंसं, न तेसि कुज्जा न भुक्ककाहं च । अम्मापिऊणमुचिअं, अन्नुट्टाणा कुव्वांत । ४६ । नदमित्तेहि मित्तिं. न करिज करिज मित्तेहिं ॥ २६॥ । इत्थं नवचित्यम् । इत्थं च व्यवहार झ्यादिनिरथोपार्जन तयनावे तग्गेहे, न वइज्ज वइज्ज अत्य संबंध । विशेषतो गृहिधर्म इति निष्कर्षः ॥टीका सुगमत्वान्न गृहीता धम्म २ अधि। गुरुदेवधम्मकज्जेमु, एगचित्तेहिं होअव्यं ।। २७॥ नचित्रा (या) हाण-उचितानुष्ठान-म. आप्तोपदिष्टत्वेन एमाश्सयाणोचिअ, मह धम्मायरिश्र समुचिअंजणिमो। विहितक्रियारूपत्वे, “चियागुणो विचित्त जइ जोगतुजत्तिबहुमाणपुव्वं, तेसितिसं जं पि पणिवाओ ॥२० ।।। समोएसं" पंचा०६ विव०। तमिअनीईए, श्रावस्सयपमुहकिच्चकरणं च । उच्च-उच्च-त्रि अस्तिप्य वाहू चीयते उपर्युपरि निविष्टैधम्मोवएससवणं, तदंतिए सुघसघाए । ए | रवयवैश्वीयतेऽसौ वा उचि . ड. वाच । समुच्चिते, आएसं बहुमन्नइ, इमेसि मणसा वि कुणइ नावनं । उपा०२ थानच्चं भव्यन्नावनेदाद् द्विधा । व्योच्चं धवल गृहवासि, नावोच्चं जात्यादियुक्तम् । द०५ अ० । उत्कृष्ट, रुज अवनवायं, युवायं पयमा सया वि ॥ ३०॥ सूत्र० १श्रु१० अ०। उच्चस्थानस्यितत्वेन ऊर्वीकृतकन्धरतया न हव बिद्दप्पेही, सुहिव्व अणुअत्तए मुहहेमु । वा व्यतो, नावतस्त्वहो अहं बधिमानिति मदामातपनि गीअपचवायं, सयपत्तेण वारेइ ।। ३१ ।। मानसः उत्त०१०। “नच्च अगोत्तं च गति नवेति" जच्चा खनिअम्मि चोइओ गुरु-जणेण मन्नइ तहत्ति सव्वं पि।। मोक्काख्या सर्वोत्तमा वा गतिं व्रजन्ति सूत्र०१ श्रु० १३० । चोए गुरुजाणं पि हु, पमायखलिएसु एगते ॥३॥ जच्च [अ] नच्चैस्-अव्यउद्.चिसि.।"च्चैनीचैरायः अ.१ । ५४ | इति नच्चैः शब्दघटकस्यैतोऽवम्. प्रा० । कुणइ विणओवयारं, जत्तीए समयसमुचिअं सव्वं । सच्चशब्दात् सिहमिति केचित् उचः शब्दस्य रूपान्तरनिगाई गुणानुरायं, निम्मायं वहइ आयम्मि ॥३३॥ वृत्यर्थवचनम्। प्रा०ातुङ्गत्वे, महति, उच्चदेशजाते, वाच०॥ नावोक्यारमेसि, देसंतरिग्रो वि सुमिरई सया वि। नच्चंतय-नचन्तग-पुं० दन्तरोग,जी०३ प्रति० । जरा। अपवमाइगुरुजण,समुचिअमुचिरं मुणेअव्वं ॥३वा उच्चट्ठाण-नचस्यान- न० ग्रहाणामादित्यादीनां मेषादिषु Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः। जच्चारपास. अनीचस्थानषु, तानि च दशादिषु ज्यशांशकेष्वेवमवसेया- कुरूपो बुद्ध्यादिपरिहीणोऽपि पुरुषः सुकुलजन्ममात्रादेव लोनि । अजवृषभमृगाङ्गनाकर्कमीनवाणजांशकविनायुच्चाः । कात्पूजां बनते तदुच्चैर्गोत्रम् । यउदयाउत्समजातिकुलप्राप्तिदश १० शिख्य ३ष्टाविंशति शम तिथी १५ यि ५ त्रिधन सत्कारान्युत्थानाञ्जलिप्रग्रहादिरूपपूजालानश्च तश्चों२७ विशषु। झा "उचढाणाटुपसुगहेसु" अर्काथुश्चान्यज १ वृष त्रम् । कर्म०। श्क्ष्वाकुवंशादिके, उच्चैर्गोत्रमेषामित्युच्चैर्गोत्रा। ५मृग ३ कन्या ४ कर्क ५मीन वणिजोऽशैः । दिग्दहना- चच्चैर्गोत्रोदूनवेषु श्वाकुहरिवंशादिकुलोदूनवेषु, उच्चागोया ष्टाविंशति २८ तिथी १५ षु५ नत्र २७ विंशतिभिः। २० । वेगे णीयागोयावेगे । सूत्र०२ श्रु०१०। अयं नावः मेषादिराशिस्थाः सूर्यादय नश्चास्तत्राऽपि दशा- उच्चणागरी-उच्चनागरी-स्त्री. सुस्थितसुप्रतिबुरूस्थविरादीनंशान् यावत्परमोच्चाः । एषां फलं तु । सुखी१ भोगी २ निर्गतस्य कौटिकगणस्य प्रथमशाखायाम्, कल्प०॥ धनी ३ नेता ४ जायते मएमलाधिपः।नपतिश्चक्रवर्ती च । जच्चागोयणिबंध-उच्चैर्गोत्रनिबन्ध-पु. लोकपूज्यतानिवन्धनोक्रमादुच्चग्रहे फलम् ॥ १॥ “तिहिं उच्चेहिं नरिंदो, पंचहिं तह होइ अझचक्की । हिं होर चक्कवट्टी सत्तहिं तित्यंकरो च्चैर्गोत्रान्निधानकर्मबन्धने, “ उच्चागोयणिबंधो सासणवमो य स्रोगम्मि" पंचा १२ विव० । होश" कल्प। उच्चत्त-उच्चत्व-न० उच्च-स्व. । उच्छ्ये, स्था०२ गावस्तु उच्चारण-उच्चाटन-न० उद्. चट् णिच् ल्युट् । उत्पाटने, स्वनोह्यनेकधोश्चत्वमूर्ध्वस्थितस्यैकमपरं तिर्यक स्थितस्याऽ स्थानादू विश्लेषणे, "उच्चाटनं स्वदेशादेभ्रंशनं परिकीर्तितम्" न्यत् गुणोन्नतिरूपम् । स्था० १ ० (ज्योतिषिकाणामुच्चत्वं इत्युक्ते षट्कर्मान्तर्गतेऽनिचारजेदे च । वाच०। जोसिय शन्दे) जच्चायप्यमाण-उच्चात्मप्रमाण-त्रि० उश्चमात्मप्रमाणं येषां ते जच्चत्तजयग-नच्चत्वत्तृतक-पुं० नृतकजेदे, मूल्यकामनियम तथा । स्वप्रमाणत उच्चे, कल्प। कृत्वा यो नियतं यथावसरं कर्म कार्यते स उद्यत्वनृतकः।। नचार-नच्चार-पुं० उदू चर्-णिच् घज्.। उच्चारणे, उबक्ता स्था०४० चारो गतिः । गृहादीनां राशिनकत्रान्तरसञ्चारे, वाच । जच्चत्तरिया-नच्चत्तारिका-स्त्री० बाह्यविपर्नेदे, स०। शरीरादुत्प्राबल्येन च्यवतेऽपयाति मञ्चरतीतिचोचारः। विष्टा उचंपिय-उच्चम्पित- वि० प्रावट्येनाक्रमिते, "सीसं उच्चं पियं याम्, प्राचा०श्च ० ३ अ०१३ उ०स०। आव० । ज्ञा०। कबंधम्मि य"तं। कल्प० । तं । दशा। स्था (अस्य परिष्ठापनं पारिट्टावजच्चफन्न-जच्चफन्न-त्रि० उच्चं चिरकालजावि फलं यस्मात्स णिया शब्दे वक्यते)वृहच्चरीरचिन्तायाम्, दर्श० । विद्धिसउच्चफबः। चिरकालेनोपकारिणि, "उच्चफलो अह खुडो, स जने, ध०२अधि ।जं० (पुरीषोत्सर्गप्रक्रिया-थं मिल शब्द) (प्राचार्य्यस्य वसतावेव विट्विसर्जनमतिसय शब्दे) उणित्यों" व्य० प्र०३०॥ उच्चारणिरोह-उच्चारनिरोध-पुं० । विसिसकायां सत्यामपि उच्चक्खित्त-नच्चक्षिप्त-त्रि० यदृष्टरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तु बझात्पुरीषरोधे, एष च रोगकारणम् । स्थाएग०। गृहणाय पात्रं ध्रियते तत्र व्याप्रियमाणे, पिं०। उच्चारपडिक्कमण-उच्चारप्रतिक्रमण-न० उचारोत्सर्ग विधाय नच्चय-नच्चय-पुं० उद् चि० अच्छ । कवचयने, न श० पथिकप्रतिक्रमणरूपे प्रतिक्रमणनेदे, स्था०६ ग०। एन। पुष्पादेरुत्तोत्रने, नारीकट्यं शुकग्रन्थौ, “नीविः उच्चारपासवण-नचारप्रस्रवण-न । उच्चारः प्रस्रवणं च द्वन्द्वः स्याऽश्चयोऽथ यम्०" उत्कृष्टाश्रये । वृहत्समुदाय, च। कर्मणि अच् हस्ताज्यामुद्धृत्यावचिते, निवारे, वाच॥ पुरीषमूत्रयो तसिगप्रतिपादके आचाराङ्गस्य धितीयश्रुत स्कन्धस्य तृतीये ऽध्ययने च । आचा०२ श्रु०३ अ०१०। उच्चयबंध-उच्चयबन्ध-पुं० उश्चय ऊवं चयनं राशीकरणं तद्र नचारपासवणकिरिया-उच्चारप्रस्रवणक्रिया-स्त्री० चारप्रन्न पो बन्ध उच्चयबन्धः । अल्लियाबणबन्धभेदे, प्रशए नुol वणकर्त्तव्यतायाम, "उच्चारपासवणकिरियापनब्वाहिज्जमाणे उच्चवेन-नच्चयित्वा-अव्य उचैः कृत्येत्यर्थे, वृ०१०।। प्राचा०२ श्रु०३ अ०१०। उच्चसह-उच्चशब्द-पु० वृहति शब्दे, व्य०६०७०। नचारपासवणखेलसिंघाणजबपारिद्वावणियासमइ-उच्चारप्र-- उच्चाकुझ्य-उच्चाकुचिक-पुंछ अनीचाऽपरिष्यन् शय्याके, "आ स्रवणखेननणजपारिष्ठापनिकसमितिः-स्त्री० उच्चारा. णापाणमेयंअभिग्गहियसिजासपियस्स चाकुश्यस्स" दीनां पारिष्ठापनिकारूपा समितिः । समितिनेदे, “इत्थ मं चाऽकचशय्यावत्वं सप्रयोजन पक्कमध्ये सकृश्च शय्याबन्धक आहारणं एगेणं खुडगेण वि वसंते किहब्व विनयहि य त्वम् । कल्प। थंमिल काश्य लोयतो राया थंमिसं नापेयंती न बासिरो नच्चाकुया-जच्चाकचा-खी० उच्चा हस्तादि यावत् येन पि देवयाए श्लेप्मा जद्धो मनः सामनजोओ अणुकंपाए य कल पीलिकादेर्बधोन स्यात् सादेवा दंशो न स्यात् अकुचा कुच दिदा भूमिति वासरियति"। पा०।सूत्र०। स्था० । चारपापरिस्पन्द इति वचनात् परिस्पन्दरहिता निश्चलेति यावत् ततः सवणखनसिंघाणगपारिद्वावणियासमितीए । पत्थ वि सत्त कर्मधारये नचाकुचा । अनीचाऽपरिस्पन्दायां कम्बादिमय्यां नंगा । तत्य उदाहरणं धम्मरुई पारिछावणिया समितोसमाशय्यायाम्, कल्प०॥ दिपरिछावणे अभिग्गहम्गहणं सक्कासणचन्नणं मिच्छदिा जच्चागय-उच्चागज-त्रि उच्चो योऽगः पर्वतो हिमवान तत्र आगमणं किं विखिया विनवणं काश्या ससंजता । वाहाजातमुचागजम् । हिमाचत्रोद्भवे, उच्चागयघाणसं मिल पमत्त निग्गतो पेच्छति । ताहे सरंतो साइजंकिझामि हिअं । कल्प०॥ ज्जति त्ति । एवंणातो देवेण चारितो वंदित्ता गतो। वितियं जच्चागोय-उञ्चेौत्र- न० गोत्रकर्मभेदे, यदुदयात्पुनर्निधनः । दिहिवागए चेल्लो तेण यंमिलं न पमिलेडिता चियाले सा. Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चारपास. अनिधानराजेन्डः। उच्छादण्या रत्ति काश्यामो । जातो न पेहितंति न वोसिरंति । देवताए शेषव्रतापेक्वया महानतेषु, उत्त०१ अ०। उज्जोतो कतो अणुकंपाए दिहा मित्ति वोसिरियं । एस | जच्चासण-उच्चासन-न० सन्नतासने, जी०३ प्रति० । गुरोसमित्तो । वितिओ असमितो चउव्वीसं उच्चारपासवणनू- रासनापुच्चरासने, ध०२०। अलावे संनावे उच्चसेणा मीसु । तिमि कालनूमीओ न पमिलेहेति जति । किमेत्थ समासणे अंतरभासाए उवरिनासाए जं किंचि मऊ ममचट्टो नवविसेज्ज देवता उरुवेण तत्थ गिता वितियाए- विणयपरिहाणं सेहे राणियस्स उच्चासणम्मि संचिट्टित्ता गतो तत्य वि एवं ततियाए ताहे तेण उठवितो तत्थ देवताए णिसीइत्ता वा तुयट्टित्ता नवति आसायणासहस्स । पमिचोदितो कीस सत्तवीसं न पमिलेहेसि समं पमिवाम्मो। श्राव०४०। एस पारिठावणियासमिती ।। प्रा० चू०। जच्चिय-नचित-न० उच्चताकरणे, उत्पाटने च । औ० । उच्चारपासवणनूमि-उच्चारमनवणनमि-स्त्री० पुरीषमूघोत्सर्गस्थपिडसे, पंचा अ० । सच्चारपासवणक्षुर्मि पमि- | जच्चुप-चट-धा० भेदे. ज्वा. पर.सक. सेट्-धातवोऽर्थान्तरेऽपि बहर,न २० १०। (अत्रोत्सर्गोऽस्याः प्रत्युपेकणं Ulaixण श्त्यनन चटतरुच्चुप् । उच्चपश् चरति प्रा०। च थंमिल शब्द) उच्चूर-जच्चूर-त्रि० नानाविधे, व्य० प्र० ३००। उच्चारपासवणविहिसत्तिकय-उच्चारप्रस्रवणविधिसप्तकक- | जच्चे-उच्चैस- अव्य० नद् चि० मैसि० । तुङ्गन्त्वे, उन्नते, पुं० पुरीषमूत्रोत्सर्गप्रतिपादके प्राचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्क- महति, ऊर्ध्वदेशजाते, वाच० "नाश्च्चे व नीए वा णास न्धस्य द्वितीयचूमायाश्चतुर्थेऽध्ययने, स्था०७३ााआचा० ॥ नाश्दूरओ" उच्चैः स्थाने मालादौ, उत्त०१ अ० । “ तत्राउच्चारनुमिसंपाम-नच्चारनूमिसंपन्न-त्रि० उच्चारप्रस्रवणा. ऽस्य विषयतृष्णा प्रनवत्युच्चैन रष्टिसम्मोहः" सचरत्यर्थे, दिमियुक्त, उच्चारतमिसंपठा-श्त्थीपसुविवाज्जियं" दश। न०। पो० । प्रति० । उच्चरिशानिष्टेषु वस्तुषु । सच्चरतीव उच्चारिय-उच्चारित-त्रि.नचार-तारका-इतन् । कृतविष्ठी- कल्पितेषु श्यानिष्टेषु, द्वा० १७ द्वा०। त्सर्गे, उद्चर् णिच् कर्मणिक्तायस्योच्चारणं कृतं ताशवर्णा- नच्छ (काण) नदन्-पुं० उक् कनिन् । गेक्कादौ।।२।१७। दौ, उद्- अन्तर्तृतएयर्थे, चर क्त । उच्चारितोऽप्युक्तार्थे, इति संयुक्तस्य छः। प्रा० " पुंस्यन आणो राजवच्च ।३ याच०॥ ".उच्चारिय सरिसाई-सेसाई वि कोवणट्टाए । ५६ । ति अनः स्थाने आण इत्यादेशः। वृषभे, प्रा०। वृ०।दश। उच्छंग-उत्सङ्ग-पुं० सङ्ग् आधारे घम् । मध्यभागे, वाच । उच्चाइय-उच्चाल्य- अन्य. उद्.चन. ल्यप् । ऊर्ध्वमुस्किप्ये __ "उच्चंगे णिवसेत्ता" आ० म० द्वि०। वि० । उत्सङ्ग श्व त्यर्थे, उच्चानिय बिहाणीसु" । आचा. १७०५०१ उ०। उत्सः । पृष्ठदेशे, औलाहारकान्तः सङ्गम् अत्या० उच्चलिय-उच्चालयित-त्रि. अपनेतरि, "सच्चाला यं तं स०। सन्यासिनि, सङ्गरहिते तत्त्वके, प्रा० स० । ऊर्ध्वतः जाणेज्जा दुरानश्यं"। आचा० १श्रु०३ अ०। - संसर्गे च । वाच० । जच्चालित-त्रि० उद,चन,णिज्,क्ता उत्पाटिते, "उच्चानि-नच्छंध-जन्नामि-उद्नम् णिच् धा० । “उन्नमेरुच्छधोखानयम्मि पाए रियासमियस्स संकमट्ठाए" ओ० निचू०। गुमुगुच्छोप्पेला" ४.३६ इति उत्पूर्वस्य नमेपर्यन्तस्य उच्चजच्चावइत्ता-उच्चैःकृत्वा-अव्य उत्पाट्येत्यर्थे, " दो वि पाप, ध आदेशः। तच्चंघ अन्नमयति । प्रा०॥ उच्चावश्त्ता सव्वओ समंता समनिलोएज,घावपि पादौ उच्चत्त-अपच्चत्र-न० अपशदं विरूपं त्रं वदोषाणां परगुअच्चकृत्वा द्वावपि पाणी, उत्पाट्येत्यर्थे, प्रज्ञा १७ पद। णानां चावरणमपत्रम् चतुर्दशे गौणालीके,प्रश्न०१द्वा। उच्चावय-उच्चावच-त्रिक वच्चं च प्रवचं च सुच्चावचम् । उच्चत्र-न० उच्चत्रं वा न्यूनत्वम् । चतुर्दशे गौणालीके, उत्त० । अनुकूलप्रतिकूले, भ०१० ए ०। अधमोत्तमेषु प्रश्न०१द्वा० । नानाप्रकारे, सूत्र १५०१० "हसंतो नानिगच्छेज्जा जा उच्चरंत-आस्तृएवत्-त्रि० आच्छादयात, “ अणिपहिं उच्चकुलं उच्चावए सया" उचं व्यन्नावभेदाद् द्विधा व्योचं रंता अभिनय हरंति परणाई" प्रश्न ३ घा०। धवलगृहवासि भावो जात्यादियुक्तमेवमपि व्यतः कुटीरकवासी जावतो जात्यादिहीनमिति, दश० ५ ० "न नच्छल्लणा-उच्चाना-स्त्री. अपवर्तनायाम, अपप्रेरणायाम, उचावयाहि सज्जाहिं तवस्सी भिखू थामवं ऊर्ध्वचित्ता" प्रश्न. ३ द्वा० । सच्चा उपलिप्ततमाधुपलकणमेतत् यद्वा शीतातपनिवारक नच्छसिग-उच्छलित- त्रिकझंगते, प्रश्न०३ वा। त्वादिगुणः शय्यान्तरोपरिस्थितत्वेनोच्चास्ताद्विपरीतास्त्व- उच्च-नचल-धा० सद्-शब-ज्वा० अर्वपतने, "उच्चन - बचा अनयोईन्द्वे सच्चावचाः । नानाप्रकारा वोच्चावचा- चलः1८७३।चच्छलतेरुच्चादेशः मचल उच्चसतिप्रा. स्ताभिः शय्यानिर्वसतिभिः । उत्त०० अ०। सूत्र० । “प्रह नच्चम-उच्चतत-पु० ग्रहण, " तज्जणगलुच्छह बच्चनिक्ख उच्चावयं मर्ण पियच्चेज्जा" उच्चावचं शोन जाहिं" गलुच्चलंति गवग्रहणम् । प्रश्न०३द्वा० । नादी मनः कुर्यादिति । तत्रोच्चं नाम मैवं कुर्वन्तु अवचं नाम जच्चद्धिय-उच्चत्य-अव्य० एकपाद्वेन स्थित्वेत्यर्थे, "पत्तगबंधे, पर्व कुर्वन्विति । श्राचा० २१०२ अ०१० । उत्कृष्टतरे. श्री०। असमअसे, "सच्चावयाहिं आलसणाहिं"ज० १५ पारितुल्लिय पुणे पहे उरणिया" नि०० १० । श०१०। स्था। उच्छव-नत्सव-पु. उद् सू० अप्० “ सामथ्र्योत्सुकोत्सवे उच्चव्रत-न उच्चानिमहान्ति व्रतानि येषां तानि उच्चव्रतानि | चा" श२२ एषु संयुक्तस्य गे वा भवति । प्रा०।आनन्दआकारः प्राकृतत्वात् । महाव्रतधरेषु, “उच्चावयाई मुणिणो जनकव्यापारे, विवाहादी, वाच०। इन्डोत्सवादी, झा०१० चरेति, ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई" उत्त०१५ अाकास० उच्छादणया-नच्छादनता-स्त्री० सचित्ताऽचित्तततवस्तू Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६३ ) उच्छादण्या अभिधानराजेन्द्रः। नज्जममाण च्छेदने, अंगाणं संनुत्तराणं घाताए वाहाए सच्चादणयाए" कल्पे ताशे मुनौ, हा०१अौ । भ. नि. "धोरतवभ०१५ श०१००। स्सी घोरबंजयारी उच्चूढसरीरे संवित्तविनसतेयसेस्से" उच्छायणा-उच्छादना-स्त्रीजातेरपिव्यषष्ठेदने,का०१००। वि० १० । जच्चाय-नच्याय-पुं० नद-धि करणे अन् घ वा । नत्संधे, जच्चूढसरीरगि (घ] र-उच्चूदशरीरगृह-त्रि० सच्चूदं त्यक्त स्था०७ग० । शरीरगृहं यैस्ते उच्चूढशरीरगृहाः । शरीरगृहयोनिःस्पृहउच्चार-श्रा-क्रम धान्या०मात्म० आक्रमणे, "भाक्रमेरोहाबो- त्वात्यक्तपरिकर्मसु, संस्था। च्छारच्चन्दाः" ।४।५७ आक्रमेरते आदेशा भवन्ति ।। उच्चूर-तुर-धा-जद तुदा०कुटा०पर० सेट् । तुमेस्तोड तुट्ट खुद्द उच्चार आक्रामति (ते) (केवलस्तु परस्मैपदी) प्रा। खुमोक्खमोल्मुक्कणिल्मुकरमुकोच्यूराः।४।१६ । श्त्यनेन जच्चाह-उत्साह-पुं० उद्-सह-घ।" बोत्साहे यो इश्वरः"| सूत्रेण तुमेरुच्यूरादेशः। उच्चूरक तुटति । प्रा० । ।२।४७ । उत्साहशदे संयुक्तस्य थो वा भवति - जच्चा -[ए] उच्नेदिन-त्रिक नाशके, बा. २१वा। त्सन्नियोगे च हस्य रः। उत्थारो उच्चाहो " थाऽनावे । उच्छेद [य] उच्छेद-पु. उद-ग्दि-भावे-घम् । सत्प्राबल्येन "न्दस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले ॥२॥ २१॥ इति त्सनागस्य दो विनाशः। एकान्तोच्छवे, निरन्धये नाशे, रश०१५। छः।" अनुत्साहोत्सने सच्चे"।११३। इत्यत्र उत्सा | प्रा०म०द्विा "उच्छेमो सुत्चत्या ववच्छेत्ति खुत्त प्रवति" हपर्युदासात् परस्यादेरुत ऊत्वं न प्रा० । पराक्रमे. जो-। नि००१२०। गोत्ति वा विरियं ति वा सामत्थे ति वा परकमंति बा उच्ग-जच्चेव-नकप-पुं० यत्र पतितुमारब्धं तत्राऽन्यस्येष्टकादेः संहोति वा एगट्टा ॥ प्रा०चू०१०पं० सं०। आ०म०।। स्थापने. व्य.दि.४१०। वीर्ये,समः । श्रवणादिविषये उत्कभिकाविशेष, चं०२०पा० नद्यमे, सू० प्र० २० पा० । अध्यवसाये, कर्तव्यकृत्ये, नच्छोज-उदोज-० उत्प्राबल्येन गता शोना सौनाम्यं सर्वस्थिरतरे प्रयत्ने, कल्याण, श० रत्ना० । सूत्रे, मेदिका जनवल्सन्नता यस्मात्तपुच्चोनम् ॥ पैान्येकर्णजपत्वे, "हरा रम्नेषु संरम्नः स्थयानुत्साह अच्यते सा० द० उक्तसवणे सयरुवघामो उच्गेमाहिं अंतणो महुया" दर्श०॥ वीररसस्य स्थायित्नावे च । वाच०।। उच्छोझंत-उच्छोलत-त्रि० सन्मूसयति, रा०सकृत्पादादेः प्रउच्छाहिय-नत्साहित-त्रि० त्वमेवाऽस्य कार्य्यस्य करणे समर्थ कासनं कुर्वति च । "सच्चोसंतं षा पधात वा साजर" इत्येवमुत्कर्षिते, पिं०॥ नि० चू०१७ १०। उचिपग-अवचिम्पक-पु० चौरविशेषे, प्रश्नः । ३ दा | उच्गेलण-उच्छगेलन-न० सकतुदकेन कालने' प्राचा० "एकउचिपण-उत्केपण-न० जनमध्यान्मत्स्यादीनामाकर्षणे, प्रश्न सिं उगेलणा" नि००२०।मुखनयनककाहस्तपादानां प्रक्वालने, व्य०वि०७०। अयतनया शीतोदकादीनां हस्त२द्वा०। उच्चिएण-उच्छिन्न-त्रि उद्-बिद् निर्नष्टसत्ताके, स्था०५०। पादादिप्रकासने, “उच्छोणं च ककं च तं विज्जपरियाणिया" सूत्र १७० ए ०। (उच्ोलनाऽप्यत्र) उचिएणसामिय-उच्छिन्नस्वामिक-त्रि० निःसत्तीभूतप्रतुषु, उच्छोलणापहोय-उच्छोलनाप्रधौत-त्रि० उच्छोसनेन प्रनूतजलउच्छिमासामियाई वा उच्छिम्पसेउपाई वा उचिमगोत्तागाराई वा धनानि । न.३ श०७०।। कालनक्रियया धौता धौतगात्रा ये ते तथा। प्रचुरजलेन धौतउच्चिय-उच्छित-त्रि०उद् श्रि कर्तरि क्त । उन्नते, संजाते, स-| शरीरेषु, औ० । मुन्नक, प्रवृकं । मेदि० वाच० वीकृते, औ०।। उच्छोलनापहोइ-नुच्छोलनाप्रधाविन्-त्रि० उच्चोलनयोदकाइच्छु-पक-पुं० इष्यते ऽसी माधुर्यात् श् कसु । प्रवासीको ।। यतनया प्रकर्षण धावति पादादिशुद्धि करोति यः स तथा । १५ । शत प्रादेरित उत्वम् वा । प्रा०। मधुररसयुक्ते अयतनया प्रजूतजलेन पादादिप्रक्वालके, दश०४०। असिपत्रे, वाच०(कुशब्दस्य व्याख्या श्क्खु प्रकरणे उक्ता) उच्छगेझावंत-उच्चगेलयत्-त्रि अन्येन सकृमलेन वामन कारउच्चुअ-नत्सुक-त्रि० उत्सुकवति, प्रेरणे, " मितद्वादित्वात्- यितरि “ उच्चगेसावंतं वा पधोवावंतं वा साज" नि. सुकन् सामोत्सुकोत्सवे वा ०।२।२२ । इति संयुक्तस्य चू०१६ उ०। सन्नागस्य वा । मुच्यो ऊसुत्रो प्रा०। इटावाप्तये काम उज्जम-उद्यम-पुं० उद्-यम्-घ । न वृद्धिः । प्रयासे, प्रयत्नकेपासहिष्णी, श्यार्योद्युक्ते च । वाच । नेदे, उद्योगे, उत्तोलने च । वाच. अनालस्ये, ग०१ अधि० इच्छुजस्ता-अवक्षिप्य-श्रव्य अपसदं किञ्चित् क्विवेत्यर्थे, ज्ञानतपो ऽनुष्ठानादिषूत्साहे, सूत्र०११०० अ०। औ०। उच्चुनश्त्ता सावत्थीए णयरीए"ज०१५ २०१०। उज्जमंत-उद्यच्छत-त्रि० उद्यम कुर्वति, प्रति० । प्रत्यर्थमपि जच्चूढ-नुच्छूढ़-त्रि० मुषिते, “उच्ढवि तदुनये सपक्खपर- प्रयतमाने, अप्पच्चंतकायसुदावि उज्जमंता तद्दिवसुज्जुत्तकम्म पक्खतदुनयं होइ" पृ०१० । त्यक्ते, संस्था स्वस्थाना कयदुक्खसंगवियसित्यर्पिसंचयपरा" प्रश्न० ३ द्वा०॥त्रिविदवक्किप्ते, निष्काशिते, "आयाणफलियनच्छूढदीडवाहू"। धायामाप सामाचा- यथाशक्ति नद्यम कुर्वति, व्य. प्र०१४०। तं० । प्रौ। उज्जमन-नद्यमन-न० उद्यमकरणे, । व्य० प्र०१० । बक्केनच्चूहसरीर-उच्चूढशरीर-पुं० उच्चूढमुज्तिमुग्ऊितमिव उ-| पणे, उत्तोलने, वाच॥ ज्झितं संस्कारपरित्यागाचरीरं येन स उच्चूद्धशरीरः ।चं०प्र० उज्जममाण-उद्यच्छत-त्रि० उद्यम कुति, "ण करोति दुक्खमो. १पाहु०स०प्र०ा शरीरसंस्कारं प्रति निस्पृहत्वात्स्यक्तशरीर- क्खं बज्जममाणाधि संजमतवसु " सूत्र.१श्रु०१३ अर। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६४ ) अभिधानराजेन्द्रः | उज्जममाण उज्जममाणस्त गुणा, जह हुंति ससत्तिय तवसु । एमेव जहासत्ती, संजममाणे कहूं न गुणा २ " उद्यच्छत उद्यमं कुर्वतः तपः तयोरिति योग गुणास्तपो नान्यासनिर्जरादयो यथा नयति स्वशक्तितः स्वत्यु मयत एवमेव यथाशक्ति सत्यनुरूपमित्यर्थः (संजयमाणे दं ण गुति ) संयममाने संयमं पृथिव्यादिसंरकृणादिaaणं कुर्व्वति सति साधौ कथं न गुणाः गुणा एवेत्यर्थः । अथ या गुणा येनाविक संयमानुधानरहितोधिकप्रति पाद्यत इत्यत्रोच्यते ॥ भाव० ३ ० । उज्जय-उद्यत - वि० उद् यम् कर्तरि क. । उद्यमयुक्ते, कृतोद्यमे, भावे कः उद्यमेन यमेनियमनार्थत्वे कर्मणि कः । उत्तोलिते, वाच० । उद्यतविहारिणि, व्य० प्र० १ ॥ जयंत पुं० [रेयतकगिरी, देम० । वाच० यत्राधरष्टनेमिः लिकः । श्रा. म. प्र. । तदूवक्तव्यता वथा ॥ नामनिः श्रीरैवतको, जयन्ताद्यैः प्रथामि तम् । श्रीनेमिपालितं स्तीमि, गिरनारीश्वर ॥ १ ॥ स्थाने देशः राम्रा विभर्ति यसौ । यद्मकामना, विरिशेष विशेषकः ॥ २ ॥ शृङ्गारयन्ति खङ्गाराः दुर्ग श्री ऋषजादयः । श्री पार्श्वस्तेज पुरंतू चिंतेतदुपत्यकम् ॥ ३ ॥ योजन घ्यतुङ्गेऽस्य शृङ्गे जिमगृहावसिः । पुण्यराशिरिवाभाति ४ ॥ समसारकशोभितम् । चारु चैत्यं चकास्त्यस्योपरि श्रीनेमिनः प्रनोः ॥ ५ ॥ श्री शिवासुदेवस्य पाकात्र निहिता । स्पृयिताऽवशिष्टानां पापव्यूढं व्यपोहति ॥ ६ ॥ प्राज्यं राज्यं परित्यज्य, जरनृणामिव प्रभुः । बन्धून् विधूय व स्निग्धान् प्रपेदे महाव्रतम् ॥ ७॥ केवलं देवः, स एव प्रतिलब्धवान् । जगज्जन हितैषीस, पर्यणैषीच्च निर्वृतिम् ॥ ८ ॥ अत एवात्र कल्याण, त्रयमन्दिरमादधे । श्रीवस्तुपालो मन्त्रीश-चमत्कारितभव्यकृत् ॥ ए ॥ जिनेन्द्रपूर्णेन्दु-ममस्था जनार श्री नेमिमंजन कर्ज-मिन्द्राश्च चकासति ॥ १० ॥ गजेन्द्रपदनामास्य, कुष्मं मएमयते शिरः । सुधाविधैर्जलैः पूर्ण, स्नानाई तत्स्वनकमैः ॥ ११ ॥ पाचतारे च वस्तुपालेन कारिते। १३ ॥ ऋषनः पुण्करीकोटा-पदानन्दीश्वरास्तथा ॥ १२ ॥ सिंहयाना हेमवर्णाः, सिबुरुसितान्वयाः । त्यानि रत्नं या संघा श्रीमत्पचोकननामकम् । विलोकयन्तः शिखरं, यान्ति भव्याः कृतार्थताम् ॥ १४ ॥ शाम्बोजाम्बवती ज्ञातस्तु कृष्णशः । प्रद्युम्नश्च महाद्युम्न स्तेपाते पुस्तपं तपः ॥ १५ ॥ नानाविधौषधिगणा, जाज्वल्यन्त्यत्र रात्रिषु । . किंच घण्टाक्षरच्छत्र शिलाशानन्त उच्चकैः ॥ १६ ॥ सहस्राम्रवणं बका- - रामोन्येऽपि वनम्रजाः । मयूरकोकिलाभृङ्गी संगीत नगा ह ॥ १७ ॥ न स वृक्कोन सा वल्ली, न तत्पुष्पं न तत्फलम् | नश्यतेऽनियुक्तैर्य-दित्यैतिह्यविदो विदुः । १८ । राजीमती गृहागर्ने, कैर्न नामात्र वन्द्यते : उज्जयत रथनेमिर्ययोन्मार्गा-त्सन्मार्गमवतारितः । १९ । पूजापदानादि पनि संपद्यन्ते मोकसौख्य-हेतवो भव्यजन्मनाम् । २० । दोषी काप्यमार्गेऽपि संचरेत् सोऽपि पश्यति चैत्यस्था, जिनाचीस्तपितार्चिता: । २१ । काश्मीरगतरत्न कृष्णाडसरशेन च । प्यारे यस्ता धीन तिराइमनी । २२। नही निर्जरानां वापि विदांकरोच्या संख्यां संख्यावानपि कः । २३ । आसेवनकरूपाय, महातीर्थाय तायिने । कृती नमः २४ । ततो मयेति सुरीन्द्र वर्णितो नि गिरिनारस्तु रेम विरुद्धमस्तु वः ॥ २५ ॥ -:: । 9 त्यसुरविमाणं उज्जितो नाम पो रम्मो तस्लिहरे आरुहिओ, प्रतीए नमह नेमिजिणं ॥ १ ॥ चाददेवि एचणचण गंधभूवदीयेदि । पूश्यकयप्पणामा, ता जोअह जेण अत्थात्थि ॥ २ ॥ गिरिसिदरदरकंदर निकरणकथाकथिअम जोएह खप्तवार्य, अह भणियं पुव्वसुरी । ३ । कंदष्पकप्पराग, कुगवियणनामिनादस्स । निव्वाणसिमानामेण अत्थि जुषणम्मि विषेया । ४ । तस्य उत्तरपासे, इसदि महो मुहविषरं । दारम्मि तस्स लिंगं, अवयाणे धणुह चत्तारि ॥ ५ । तस्स पसुमुत्तगंधो, अत्थि रसो पलसपण सय संब । विधेवि कुण तारं ससिकुंदसमुज्जलं सहसा | ६ | पुण्यदसाध-तरेस तस्सेव अस्थि जागव । पाहणमाया दाहिण, दिसागए वारस धमूर्हि । ७ । दिस्सर तस्स पदरसो बिंधे सव्वलोहे, फरिसेणं अग्गिसंगेयं । ८ । अथ नई निमेण परिमं दावे अंगुलीए, फरिसरसो पवई दारं । ए सक्कावयार ऊज्जित, गिरिवरे तस्स उत्तरे पासे । सोवाएं पंतिआए, पारेवय वसिआ पुढवी । १० । पंचगव बा, पिंकी धमिया करे वरतार | फेद दारिद्दवाई, उत्तराक्खकंतारं । ११ । सिहरे बिसाउसिंगे, विसंत पाय कुट्टिमा जत्थ तस्सासने सिहरे, कञ्चरुरूपाम होतारं । १२ । चज्जतरे बयवाण, तत्यं य सुदारवानरो अत्थि । सोयामको, उग्घा‍ विवरवरदारं । २३ । इत्थसपण पविठो, दिक्खर सावयवशिआ सक्खो । नीयता, सदसये दीर से सूर्य १४ । तग्गणि निउप्तो, दवंतं विश् वामपारण । सो ढकर वारदार, जेण न जाणइ जया को वि ॥ १५ ॥ सर्जितसिहर उafi, कोहि महरं खु नाम विक्खायं । अवरेण तस्स य सिना, तदुभयपासे मुझो संतु ॥ १६ ॥ तं प्रयसि तिमीसं, थंभर परिवायबंगिमं वंगं । दोगच्च वाहिहरणं, परितुट्टा अंबित्रा जस्स ॥ १७ ॥ वेगवई नामवई, मणसिजवण्पाइ तत्थ पाहाणा । तो पिंधम श्रसंते, समसुद्धा होइ वरतारं ॥ १८ ॥ ते माणसिता, तरस अोक या पुढी यमुत्तपिंकी, खरंगारे भव हेमं ॥ १९ ॥ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६५ ) उज्जयंत अभिधानराजेन्डः। नज्जाण नाणसिला कयपुढधी, पिमिषका य पञ्चगव्वेण । निर्मले, औराजी0। प्रशस्ते, तं० । नास्वरे, रा०। वढपाए बस रसो, सहस्सवेही हवर हेमं ॥ २०॥ . साबे, रा०विपकलेशेनाप्यकलङ्किते, प्रम०१वाभ। गिरिवरमासभरित्रं, अमायं तित्तषिसारणं माम । स्था ।का. | "जनचलंतकिससुकुमानपखालसीहिपयसिसबकगाढपीके, खेसा का तत्थ धम्माणं ॥२१॥ रकुरग्गसिहए" मौ०"तेणं तत्थ उज्जलं विरामं घिठसंपगाढं सम्मा नामेण नई, सुषमातित्थम्मि सद्ध अपहाणा। बेयणं पचनषमाणा विहरति" तामुज्ज्वलांतीवानुनावनोत्कपमिवारण य सुच्चं, करेति हेमं न संदेहो ॥२२॥ टामित्यादि । सूत्र २६०२ म० । उज्ज्वलां सुखरूपतया चिसक्खयम्मि नयरे, मउप्रहरं अत्थि सेमगं दिग्छ । जाज्वल्यमानां सुखलेशेनाप्यकसङ्कितामिति भावः । जी. तस्स य मज्झिम्मि विमो, गणवश्रसकुंग सरिव ।। २३॥ प्रतिः । शृङ्गारे रसे, पुं० स्वर्णे, न० वाच । उववासी कयपूरओ, गणवश्यो बखिकण पवरक्ला । मा खेबी अस्थि अत्यं, भश्वं गंतव्य संदेहो ॥२४॥ उज्जलंत-नज्ज्वलत-त्रि० प्रासमाने, नं०। सहसा सवंति तित्थं-करं च रुक्षेण मणहरं सम्म । उज्जलणेवत्य-उज्ज्वलनेपथ्य-न० निर्मवेषे, ज०७।०५। तत्य य तु रयावारा, पाहाणा तेसि दो नाया ॥ २५ ॥ उनसणेवत्यहन्वपरिवच्चिय-उज्ज्वननेपथ्यशीघ्र (हव्य) श्क्को पारयन्नाओ, पिट्ठो सुत्तेण अंधमूसाए । परिक्रिप्त-त्रिक उन्धानेपथ्येन निर्मझवेषेण(हव्वंति) शीघ्रंपरिधमियो करे तारं, उत्तार उक्खफंतारं ॥२६॥ किप्तः परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा । कृतसत्वरसुवेषे, अवरोधणसिहरसिझा, अवरेणं तत्थ वररसो सवसु । भ०७श०००। अपरो केसरिवझो, करेफ सुच्चं वरं हेमं ॥२७॥ उज्जसिय-नऊज्वलित-त्रि० उद्गता स्यामा यस्य स तथा गिरिपज्जुभवयारे, अंबिन भारत्तमए पंच। नामेण तत्थ विया, पुढवी हिमपाय होश घरहेमं॥ २० ॥ कर्वगतज्वालायुकेऽग्नी, जी०३प्रतिकार ज्वस क.सहीते, नाणसिसा मजंते, तस्स य मूसम्मि महिना पीया। भौ । उदीपने, का०१०। साहामि अलोवेणं, गयामुकं कुण हेमं ॥ २५ ॥ उज्जा-उज्जन-त्रि० उद्गतो जल्लः शुष्कप्रस्वेदो यस्य सः। सज्जंतपढमसिहरे, आउदिओ दाहिणेण अषयरियो । उम्ताकप्रस्बेदयति, "मुंमा कविणटुंगा उनमा असमातिमि धणूसयमित्ते, पृश्करजंविसं नाम ।। ३०॥ हिता" सूत्र १४०३०। सग्यामि विसं दि-क्खिकण निसणेण तत्य गंतव्वं । उज्जवण-उद्यापन-न० उदू. या. णिस्. पुक. म्युट् । बतसमादंतराणि वारस, दिखुरसो जंबुफससरिसो ॥ ३१॥ प्तिकृत्ये, तस्य कर्तव्यता । तथा नमस्कारावश्यकसूत्रोपदेशजन घोसिम्मि नंमे, सहस्सनापण पिंधए तारं। मानाविकानदर्शनधिविधतपःसंबन्धिषद्यापने जघन्यतोऽप्येहेम कर अवस्सं, हडतं सुंदरं सहसा ॥ ३२॥ कैकं तत्प्रतिवर्षे विधिवत्कार्य नमस्कारस्योपधानोद्वहनादि को हंमिभवण पुब्वेण, उत्तरे जाव ताध सा नूमी। विधिपूर्वकमासारोपणेनावश्यकादिसुत्राणामेवं गाथासंख्यदीस अ तत्थ पमिमा, सेलमया वासुदेवस्स ॥ ३३ ॥ चतुश्चत्वारिंशदधिकपश्चाशत्यादिमोदकनासिकेरादिढौकना - तस्सुत्तरेण दीस, हत्येसु भदससुपवई पमिमा ।। दिना उपदेशमासादीनां सौवर्षादिगर्भदर्शनमोदकसम्ननाअपराह मुहर अंगुद्धि, आइसा दावए विधरं ॥ ३४॥ दिना दर्शनादिना शुक्सपञ्चम्यादिविविधतपसामपितत्तदुपनवधपहाश्पविछो, दिक्ख तुमाई दाहिएत्तरप्रो । पासादिसंख्यनाणकच सिकानालिकेरमोदकादिनानाविधहरियावलक्खवप्पो, सहस्सवेहीरसो नृणं ॥ ३५ ॥ वस्तुढीकनादिनोद्यापनानि कर्याणि ॥ाध०२अधि। नजिते नासिनो, विक्खाया तत्य प्रत्थि पाहाणं । नज्जाण-नद्यान-10 घनाभरणादिसमअंकृतविग्रहाः सन्निताणं उत्तरपासे, दाहिए य अहोमुहो विवरो ॥ ३६ ॥ हितासनाचाहारा मदनोत्सवादिषु क्रीमार्थ लोका मुद्यन्ति तस्स य दाहिणनाए, देसधातुमी हिंगुसुयवमो। यत्र तचम्पकादितहखएममएिमतमुद्यानम् । अनु। कच याअस्थि रसो सयवेही, विंध सुच्चे न संदेहो ॥ ३७॥ नमस्मिनित्युद्यानम् । आव०४ प्र०। कवं बिलम्बितानि प्रससहरिसहाश्कूमे, पाहाणा गणसंगमो अस्यि। योजनाभावाद्यानानि यज्ञ तदुधानम् । नगरात्प्रत्यासन्नवार्तनि गयवरात्रिमा किम्मा, मन्फिमफरिसेण ते घडी॥३०॥ जिननवणदाहिणेणं, नई धणुहहिं नूमिजनु अयरी। यानवाहनकीमागृहाद्याश्रये, रा०। पुष्फफलोपेतवृतशोतिरिमणुअरत्तविका, परिवाए बंवर हेमं ॥ ३५ ॥ भिते बहुजनभोग्ये उद्यानिकास्थाने, कल्पाना पुष्पादिमवेगवई नामनई, मणसिसवमा य तत्य पाहाणा । वृक्षसंकुल्ने उत्सवादी, बहुजननोम्ये कानने, प्रइन०५ द्वा० सब्वस्स पंचवेहं, सवंति धमिासयं सिग्धं ॥ ४०॥ राकाजी। दादशा।जा अनु।का।स्था०।०। श्य उज्जयंतकप्प, अविभप्पं जो करे जिणभत्तो। " उजाणाचा वणा वा वणसंडाइ वा वावी वा पुक्खकोहंझिकयपणामो, सो पाव त्थियं सुखि ॥४१॥ती। रणी वा" उद्यानानि पत्रपुष्पफबच्चायोपशोनितानि बहुजनउज्जयग-उद्यतक-न० प्रामित्याऽपरनामके उदगमदोषके.॥ स्य विविधषस्योन्नतमानसस्यन्नोजनार्थ यानं येष्विति । स्था. २ गास। सामान्यवृकवृन्दयुक्ते नगरासने, ज्ञा० १ अ० प्राचा०१०२०५१०। जनक्रीमास्थाने, दश०५ मा "जाणं जत्थ भोगो सज्जाउज्जयमइ-उद्यतमति-त्रि०६ व० । प्रवृत्तचित्ते, " संजममिट णियाए वञ्चति जं था सिंणगरस्स उवकं वियतं उज्जाणं नज्जयमश्स्स " दश० ५ अ०। निचू०८०प्रतियोमगामिनि,त्रि.नि००१ सर्व यानउजयमरण-उद्यतमरण-नशङ्गिनीमरणादिके पएिमतमरणे, मस्मिन्नित्युद्यानम् । अर्व यानमुद्यानम् । मार्गस्योभते नागे, आचा०११०० अ०७०। (वर्णनमिगिनीमरणशन्दे उक्तम्) बदके, तत्थ मंदा विसीयंति, उजाणंसिव पुन्यमा" सूत्र० उज्जन-उज्ज्वन्न-त्रि उद् ज्वन अन् । दीप्ते, विशदे, याचा १श्रु०३ अ.। आवर। Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६६ ) उज्जायजत्ता अनिधानराजेन्द्रः। उज्जुगा जज्जाणजत्ता-उद्यानयात्रा-स्त्री० उद्यानगमने, ज्ञा०१०। प्रकाशे, “भज्जापर सीउएहंतसुउज्जुच्गयातवेचव । जज्जाणसंधिय-उद्यानसंस्थित-त्रि० उद्यानाकृती, ता उजा- उत्त० १० । संसंगिताणं ताव क्खेत्ते" चन्छ०२ पाहु। उज्जुआयया-ऋज्वायता-स्त्रीशज्वी सरसा सा चासावायता उज्जाणसिर-उद्यानशिरस-न० उट्टकमस्तके," तत्थ मंदा च दीर्घा ऋज्वायता । श्रेणि ( प्रदेशपंक्ति ) दे, स्था० ७ विसीयंति उज्जाणसि जरगवा" सूत्र०१श्रु०२०। मा०। यया जीवादय कर्वलोकादेरघोसोकादी ऋजुतया उज्जाणियोण-औद्यानिकन्नयन-न० उद्यानगतजनानामुप यान्तीति । ज०२५ श०३०। कारकगृहे, नगरप्रवेशगृहे च । भ०१४ श०१०। उज्जुकर-ऋजुकृत-त्रि० ऋजु मायाविरहितं कृतमनुष्ठितमस्यउज्जाणिया-उद्यानिका-स्त्री० वस्त्राभरणादिसमलंकृतविग्र निर्मायितपोधर्मयुक्ते, “अकिंचणा उज्जुकमा निरामिसा हाणां सन्निहितासनाद्याहारमदनोत्सवादिषु कोडार्थमुद्याने 'परिम्गहारंजनियतदोसा" उत्त० १४ प्रा . गमने, अनु० "उज्जाणे उजाणियाए गया" आ० म०वि०। ऋजुकृत्-त्रिशजुरकुटिमसंयमदुष्पणिहितमनोधाक्कायनिरोधः उज्जाबन-ऊर्जावा- प्रवृततरभाषणे ऽपि प्रवर्धमानब सर्वसत्वसंरक्षणप्रवृत्तत्वाद्यैकरूपः सर्वत्राकुटिलगतिरिति । बे, १ व्य। यावत् । यदि वा मोकस्थानगमनर्जुश्रेणिप्रतिपत्तिः सर्वस चारसंयमात्कारणे कार्योपचारं कृत्वा संयम एव सप्तदनज्जालण-उज्ज्वालन-न० उद् ज्वन ल्युट् । 'अविष्मातस्थाम्नेः सकृदिन्धनप्रक्षेपण ज्वालने, दश०५०। शप्रकार जुस्तकरोतीति ऋजुकृत ऋजुकारिणि, अशेषसं यमानुष्ठायिनि संपूर्णानगारे,“जहा अणगारे उज्जकडे णिपायनजालिय-नज्ज्वाल्य- अव्य० अर्धे विमातं सकृदिन्धनप्रोपे पमिवले" आचा० १० १० उ०।। ण ज्वानयित्वेत्यर्थे, दश०५०। उज्जुग ( य ) ऋजुक-न० दृष्टिवादस्य अष्टाशीतिसूत्रेषु प्रउज्जालेत्ता-उज्ज्वाल्य-श्रव्य उज्ज्वालनं कृत्वेत्यर्थे, " उजा थमसूत्रे, सम। खेत्ता पज्जालेत्ता कायं पायावेजा" प्राचा०१U०७०३० ऋजुग-त्रि० ऋजु यथा तथा गच्चगति गम् २० । सरसन्यजित-उज्जयन्त--पुं० गिरिनारनामके पर्वतविशेषे, पंचा० वहारिणि, वाणे, पुं० वाचामायारहिते, पिं० सरले, उपा०१ २० विव। "उजिंतए चेव पवंदिया उ सुरटुं" श्राव०४ अ० अ० । सूत्र० । का। प्राचा० । अबक्रे, तं०। "उज्जयनूयस्स यत्र " उजितसेनसिहरे पंचदि उत्तीसाई प्रणगारस- धम्मो सुरुस्स चिट्ठर " आचा०१ श्रु०१० "से हु समणे पहिं सम् िअरिष्टनेमिः सिकः "कल्प० । आ० म०प्र०। सुयधारप उज्जप संजए" प्रश्न०५ द्वा|संस्फटे, तिविहे ते (तष्र्णनं उजयंत शब्दे उक्तम्) गच्चम्मि उज्जयवाउनणसाहणा चव० ' ऋजुसंस्फुटमेव उजिन-उज्जृम्न-पु० उद्-भि-घञ् । विकाशे, स्फुटने, उ व्यावृतसाधना व्यावृतक्रिया कथनं कर्तव्यम् १ व्य० प्र०१ दूगता जृम्भा यस्मात् प्रा० व० मुखविकाशननेदे, कर्तरि उ०। जी." उज्जयसमसंहियजच्चतणुकसिणनिरूआए अ सडहरोमराई" ऋजका न वक्रा समानान काप्युहन्तुरा संअच् । प्रकाशान्विते उज्जृम्नावति, वात्र। हिता संतता नत्वपान्तराले व्यवच्छिन्ना सुजाता सजन्मा न तु उज्जु-ऋजु-त्रि० अर्जयति गुणान् अर्ज कु नि० ऋजादेशः। कालादिवैगुण्यतो दुर्जन्मा अत एव जात्या प्रधाना तन्वी न "उदृत्वादौ" ७।१।६। अनेनादेत उत्वम् प्रा० । प्रगुणे, तु स्यूरा कृष्णा न तु मर्कटवर्णा कृष्णमपि किंचित् निर्दीसत्र०२ श्रु० । अवक्रे, औ० । सूत्रम् । स्था० । “तं मग उ- प्तिकं भवति तत आह स्निग्धा श्रादेया दर्शनपथमुपगता ज्जुपावित्ता ओहं तरति दुत्तरं" ऋजु प्रगुणं यथाऽवस्थितप- सती उपादेया सुन्नगा इति नावः । एतदेव विशेषणद्वारेण दार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावक्रम् सूत्र०१ श्रु० ११ १०।रा- समर्थयते। सटहासनवणिमा अत प्रादेया तथा सुकुमारा अगद्वेषवक्रत्ववर्जिते, स्था० ४ ग०। अविपरीतस्वभावे,स्था कठिना। तत्राकग्निमपि किञ्चित् कर्कशस्पर्श नवति तत माह २ ग० कौटिल्यरहिते, आचा०१श्रु०१०प्रका० ।सरले, मृही अत एव रमणीया रम्या रोमराजिस्तनूरुहपतिर्येषां ते जं०२वक्ता औ०। अव्युत्पन्नबुझौ, पंचा संयमे,सूत्र०२श्रु० ऋजुकसमसंहितजात्यतनुकृष्णा सुगन्धादयलटहसुकुमारमृद्१ अामायारहिते संयमवति, दश०५ अ०। अमायाविनि, रमणीयरोमराजयः ।। जी ३ प्रति। । नि० चू० १ उ० । “धम्मविऽति उजु आवट्टे" ऋजोझा नज्जुग-(य) नूय-ऋजुकनूत-त्रि० सरशीभूते, सो हि. नदर्शनचारित्राख्यस्य मोकमार्गस्यानुष्ठानादकुटिलः यथा उज्जयनूयस्स धम्मो सुरुस्स चिट्ठर,, ॥ उत्त. विक्षरूपे सवस्थितपदार्थस्वरूपपरिच्छेदाद्वा ऋजुः सर्वोपाधिशुकोऽयक यनसदमनेदे, ॥ कल्प ॥ शति प्राचा०१ श्रु०२ ० । “उवेहमाणो सहरूवेसु उ उज्जुग [य]या-ऋजकता-स्त्री० ऋजुकनावे, कर्मणि-वाज्जुमारानिसंकी" शब्दरूपादिषु यौ रागद्वेषौ ताघुपेक्कमापणः अकुर्वन् शजर्जवति यतिवति यतिरेव परमार्थत ऋजः तन. । अमायिनो जावे कर्मणि च । स्था० ३ग०।। परस्त्वन्ययातूतरूयादिपदार्थान्यथाग्रहणाद्वकः । आचा०१ | उज्जुगा [या ] ऋज्वी-स्त्री. ऋजु स्त्रियां वा ङी । आर्जवश्रु० २ ० "पियधम्मो दधम्मो संबिम्गो जिइंदिओ उज्ज" पत्यां स्त्रियाम्, वाच॥माया भागणी धूया मेहावी उज्जयाय आ० म० द्वि० । मार्गदे, ऋजुरादावन्तेऽपि ऋजुः प्रतिनाति श्राणती य, ऋजुकामकुटिनामाइप्ताम् । व्य. द्वि०७ उ० । तत्वतोऽपि शजरवति तत्कल्पे पुरुषनेदे यः पूर्वापरकामापे- अष्टसु गोचरतमिषु प्रथमगोचरलूमौ, उज्झुम्गादिप्रो.चेवकया अन्तस्तत्वबहिस्तत्वापेकया वेति । स्था०३ ग० वसु बहिरंतो उज्जगं जातितो राउ स णिक्ष, ॥ १० १० । ऋज्व) देवपुत्रभेदे, पुं० वाच । स्ववसतेजुमार्गेण समश्रेणिव्यवस्थितगृहपढौ भिक्काग्रहणेन उद्योत-घुउद्योतयतीत्युद्योतः पचादित्वादच्। आर्यत्वादुज्जति पनिसमापने तता द्वितीयपङ्को पर्याप्तपि निवाग्रहणेन - Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुगा अभिधानराजेन्डः। उज्जुबबहार जगत्यैव निवर्तने च भवन्ति । ध० २ अधिः ॥ यस्यामेकां म्गाहिणी मती जस्स सो उज्जमती जन्नति। आ० चू०१ अ०। दिशमनिगृहचोपाश्रयान्निर्गतः प्राञ्जबिनैव यथासमणिज्य- ऋजुमतयस्तु सर्वतः साऊंद्यङ्गसाधिके मनुष्यक्तत्रे स्थितानां वस्थितः गृहपती निकां परिन्नुमन् तावद्याति यावत्पती च सद्धिपश्चन्द्रियाणां मनोगतं जानन्ति । कल्प० । प्रव० । रमगृहं ततो भिकामगृहन्नव अपर्याप्तेप प्राजानिर्यवगत्या | (अस्य शेयविषयमानं मणपज्जव शब्द)मार्गप्रवृत्तबुझौ च । प्रतिनिवर्तते सा ऋज्वी । ग०१ अधिः । "तवोगुणपहाणस्स उज्जमखंति संजमारस्स" दश०४० उज्जुनहु-ऋजुजम-पुं० ऋजवोऽशगस्ते च तेजमाश्च विशिष्टो- उज्जुमनयपावरपुट्ठसंहयंगुलि ऋजुमृदुकपीवरपुष्टसंहताङ्गुलि हावैकल्यनोक्तमात्रग्राहिण ऋजुजमानपंचा०१६ अ०। शिक्का- | त्रि. ऋजवोऽवका मृदवाऽकचिनाः पीवराः अकृशाः पुष्टा मांग्रहएतत्परतया ऋजुचुदुप्रतिपाद्यतया मूर्खषुप्रथमतीर्थकृत्सा सलाः संहताः सुश्लिष्टाः अङ्गुबयो यस्य स तथा। धुषु "पुरिमा उज्जजमाओ यक जड़ा य पच्छिमा" उत्त०२६ | युक्ताङ्गझिके, जी० ३ प्रतिः । अा(एषां स्वरूपं नटदृष्टान्तेन कप्प शब्दे दर्शयिष्यते) नज्जुया-ऋजुता-स्त्री० निकृतिपरेऽपि मायापरित्यागे; द्वा० । उज्जुत्त-नयुक्त-त्रि० उद् युज्ञ क्त । उद्यमवति, संस्था० । उ-| उज्जुयार-ऋजुचार-त्रि० अकौटिल्येन प्रवर्तमाने यथोपदेशं चते, आव० ३ अ० । सावधाने, “ तम्हा चंदगविज्ज सका- ___ यः प्रवर्तते न तु पुनर्वक्रतयाऽऽचार्यादिवचनं विलोमयात प्र रणं उज्जुपण पुरिसेण" आतु.। उद्यमपरे, विशे० । अप्रमा- __ तिकूलयति "जञ्चम्मिए चेव सुउजुयारे" सूत्र० १ श्रु०५०। दिनि,नं० । ग०। सूत्रार्यतदुनयग्रहणे अपरितान्ते, पं० उ. उज्जुवालिया-ऋजुपालिका-स्त्री० स्वनामख्याते नदीविशेष, पयुक्ते, व्य० प्र०१ उ० । सा जृम्भिकप्रामनगरस्य बहिर्वहति यस्यास्तीरे जगवतो उज्जुदास (ण) ऋजुदर्शिन-पुं० ऋजुर्माकं प्रति ऋजुत्वात वीरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । कल्प०॥ संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुदर्शिनः । संयमप्रतिबुके. | उज्जुववहार-ऋजुन्यवहार- पुं० ऋजु प्रगुणं व्यवहरणमुजु “णिग्गथा उज्जुदसिणो" दश० ३० व्यवहारः। एकविंशतिनावश्रावकगुणानां चतुर्थे गुणे,। अधुना उज्जुधम्मकरणहसण-ऋजुधर्मकरणहसन-न०ऋजनामव्युत्पन्न ऋजुव्यवहारीति चतुर्थनावश्रावकलकणे यथा । बुद्धीनां धर्मकरणे स्वबुभ्यनुसारंण कुशलानुष्ठानासेबने हसनमुपहासः ऋजुधर्मकरणहसनम् । अव्युत्पन्नमतीनां धर्मानु नज्जुववहारोचनहा, जहत्थजणणं अवंचगा किरिया। छानप्रवृत्तानाम् धूर्तविझम्बिनः खल्वेतश्त्यादिरूपे उपहासे, । हुंतावायपगासण, मित्तीनावो असनावो॥ पतल्लोकविरुकत्वात्याज्यम् । बहवो ह्यव्युत्पन्ना एव लोकास्ते ऋजु प्रगुणं व्यवहरणं ऋजुव्यवहारः। सचतुर्का यथार्थनचतकर्माचारहसने सति विरुष्का एवजवन्ति।पंचा० २विव०। णनमविसंवादिवचनम् १ अवञ्चका पराव्यसनहेतुक्रियामनाउज्जुपा-ऋजुप्राइ-पु०-ऋजवश्च प्राज्ञाश्च ऋजुप्राज्ञाः वाक्कायव्यापाररूपा २(हूंतावायपगासमत्ति) हुंतत्ति प्राक शिकाग्रहणतत्परेषु, प्रकृष्टबुद्धिषु च । मध्यमतीर्थकृत्साधुषु, तशैल्या नाविनोऽगुरुव्यवहारकृतो येऽपायास्तेषां प्रकाशनं “मज्किमा उज्जपण्याओ, तेण धम्मे उहाकए" उत्त०२६ १० प्रकटनं करोति जद्रमा कृथाः पापानि चौर्यादीनि श्ह परत्र चा(नटप्रेक्कादर्शने तेषां स्वरूपविवेकःकप्प शब्दे ) छाकुटिलमती, नर्थकारिणीत्याश्रितं शिकयति ३ मैत्रीनावः सद्भावो निष्कपतिका"उज्जुपो मणुब्बिमो,अवक्मित्तेचेयसा, दश०५० टतायाः ध०२ अधि। इत्युक्त ऋजुव्यवहारे यथार्थनणउज्जुनाव-ऋजुलाव-पु० सरसत्वे,“ ते उज्जुनाव पमिवज्ज- नस्वरूप : प्रथमो नेदः । संप्रति हितीयं दमाह । (अवंचि संजए, णिव्वाणमग्गं विरए उवे" ॥ उत्त० २१ अ०॥ गाकिरियत्ति) अवञ्चिका पराव्यसनहेतुः क्रिया मनोवाकायउज्जुजावासेवण-ऋजुनावासेवन-न०६ त० । कौटिल्पत्या- व्यापाररुपा तत्र द्वितीयमृजुव्यवहारलकणम्' उक्तंच तप्पमिरुव गरूपस्य ऋजुनावस्यानुष्ठाने, तथ ऋजुन्नावासेवनमिति । गविहिणा, उबापलाई हिऊण मजहियं । दितो खितो वि परं, ऋजुभावस्य कौटिल्यत्यागरूपस्यासेवनमनुष्ठानं देशकैनैव नववर सुरूधम्मत्थी॥१॥" बंच किरिया हं पि केव कार्यमेवं हि तस्मिन् । प्रविप्रतारणकारिणि, संनाविते,।स दि लं पावमेव पिच्छतो। तत्तो हरिनन्दी श्व, नियत्तए सब्वहास शिष्यस्तपदेशान्न कुतोऽपि दूरवार्तः स्यादिति।ध०१अधिक मई २" इति क: पुनरयं हरिनन्दी तत्कथोच्यते । उज्जु (रिउ) मइ-ऋजुमति-स्त्री. “रिजुसामनं तम्मत- उपेणिपुरवरीए, वहिया वणवीहिया ववहर। हरिनंदि वणी दारिह-रुद्ददंदोलि दुमविहगो ॥१॥ गाहिणी रिज्जुमक्ष मणोनाणं । पायं विसेसविमुई घममित्तं आसन्नसंनिवेसा उ, भन्मया आगया वणे तस्स । चितियं सुण" पा० । आ०चू० । मननं मतिः संवेदन आहारी ववहरिवं, एगा घयमा चित्तण ॥२॥ मित्यर्थः ऋज्व सामान्यग्राहिणी मतिर्ऋजुमतिः । ज०। विकिपिउं किणि वा, सोणतिल्झाइसापयं पेश । श्रा०म०प्र० । सामान्यग्राहिण्यां मती, नं। साच घटोऽनेन सिकिविसिंह रुवग, दुग्गस्स कप्पासमप्पसु ॥ ३॥ चिन्तित श्त्यध्यसायनिबन्धना मनोव्यपरिच्छित्तिरितिाना सो य समग्यो समय, तम्मि य तो तोबिलं दुवे वारे । कर्म० । अतृतीयोच्याङ्गलन्यूनमनुष्यकेत्रवर्तिसंझिपञ्चे गरूवगस्स अप्पर, सा मुका बंधए र्गीि ॥४॥ नियमनोव्यप्रत्यकीकरणहेतुमनः पर्यायज्ञानदे,। ग०१ तं तह दटुं सिट्टी, विचिंतए परपवंचणानिञ्णो । अधिः । सामान्यघटादिवस्तुमात्रचिन्तनप्रवृत्तं मनः परिणाम अज्जमए अज्जिणि ओ, अकिलेसं रूवगो एगो ॥ ५॥ प्राहि किश्चिदविशुरुतरमर्द्धतृतीयाङ्गबहीनमनुष्यकेत्रविषयं श्य चितिउं विसज्ज, श्मो अणुयुत्तमुज्जयं सम्बो । कानमृनुमतिः अधिनेदः । प्रव० ॥ श्त्तो नवणिनिमित्तं, पत्तो सगेहिणी तत्थ ॥ ६॥ ऋजुमति-त्रि ऋज्वी मतिर्यस्यासावृजुमतिःऋजुमतिलब्धि सा चवणिं उवणे, जणिया घयखमसामिय मणि । प्राप्ते न० । उज्जुमती नाम मणोगतं नावं पमुश्च सामथतेम-| पयाई गिएह सिग्छ, करसु तं घेरे पनरे ॥ ७॥ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६८ ) अभिधानराजेन्द्रः । उज्जुववहार सातारं गहिय सगिदे, गंतुं तुट्ठा कर घयपुन्ने । सिया न्हाचं पत्तो न इन्तो ।। करतोय आगभो त ग्गिदम्मि जामाचओ वयस्सजुओ । असते ते धन्य तुरियं । । अहन्दाय गिहे पत्तो, सिट्ठी साहावियं चिय कुनतं । परि सुटु, रुटुओ प्रणश् श्य भज्जे ! ॥ १० ॥ किं असे घयपुन्ना, न कया सा प्रणश् ते कया किंतु । तावतावियमणो, श्य अप्पं निंदर सिट्ठी ॥ १२ ॥ डा वंचिया मुहाए, धण तव लुकेण सा मप सुद्धी । अन्नेतियं तं पावं मह चैव संजायं ॥ १३ ॥ दही विरका परचंचणपचमाणसे म सहदुहनरयदाम - घणं कह कभी अप्पा ॥ १४ ॥ इय कूरंतो जाजर, किं पि भूभागमात्र ताव । मम्मी बहु मियण ॥ १५ ॥ जयवं ! पक्खिसुखणं, भण इमो गच्छिमो सकज्जेण । सिट्टी विश्राह किं को वि, नाद परिजम परकज्जे ॥ १६॥ भइसयनाणी साहू, नणेश तं चिय नमेसि परकज्जे । सामं मे श्व पुट्टो, बुको तेणेव वयणेण ॥ १७ ॥ हरिनंदी माणंद-यदि मणि भणक कथ चिद तुमने भयवं ! भवर मुणी इत्य उज्जाणे ॥ १० ॥ तो मुणिकादियं धम्मं, सोनं विभवश्पहु तुह समीवे । सिम नवरं पुछियससपणां ॥ १९ ॥ पणमस्तु मणि गेहे पत्तो मेलिन्तु जं पर सयणे । इह तारिसो न मानो, ता दिसि जन्ताइ गच्छामि ॥ २० ॥ छत्य दुवे सत्यादा, एगो नियरयणपणगमप्पे | तह ने हच्किय पुरं, पुव्य वि ढप्तं न मग्गेश् ॥ २१ ॥ बीओ न देश किं चिवि, इच्छिय नयरं च नहु पराणे । पुज्जियं पि गिहरु, वयमित्तो भएइ केए समं ॥ २२ ॥ तेविति पदमवणं, सिट्टी बज्जरनिय आगंतु तो ते पमोकलिया, चत्रिया सह तेण मम्मि ॥ २३ ॥ हयवसाई अदडुं जणंति ते कत्थ सत्यवाहो सो । नियनिस मोगरि संसय सिट्टी २४ ॥ तो तिविम्श्यमणा, सयणा नमिउं मुर्णि समासीणा । पण मय पुच्छर सिठी, को इत्थ पसत्थ सत्याहो ॥२५॥ साहू साह इह सव्वभावभेया दुहा उ सत्थाहो । तस्य पढमोनियो गुज्य सययति ॥२६॥ सो हिस्स वि जीवरस, देश् न य कहाव किंपि सुकयधणं । परजव पट्टस्स, तस्स न पयं पि सह चल ॥ २७ ॥ कलहाश्यपि सुंदर प पुण सत्यादो, सुगुरू गुण रयणगणक लिओ ॥ २८ ॥ जिण सासणकागर, संजूए निम्मले य सत्थाए । सोदे, पंचमस्ययमहारयणे ॥ २७ ॥ पिंचर दिय नय त कयावि गिरदर, कमेण पावे सियनयरं ॥ ३० ॥ यस संविगो, दरिने गिद समणधम्मं । सयणा विससत्ती, धम्मं गहिलं गया सगिहे ॥ ३१ ॥ हरिनंदी परयंत्रण - किरिया सक्किरियाई सो सकिरवि । safairs अकिरिया गएम्मि कमेण संपतो ॥ ३२ ॥ इत्यवेत्य हरिनन्दवरजनाः पापसंतमत दर्शयामिनीम् । तां परवचिकियां किया इति दरिनन्दिकथा || उज्जुववहार युजन्यपहारेध्यातिद्वितीयः । • संप्रति भाव्यपाय प्रकाशनस्वरूपं तृतीयं नेदमाह । ( तावापगाराति) प्राकृतरीत्या नाविगो व्यवहारकृतो ये पायास्तेषां प्रकाशनं प्रकटनं करोति मरू ! मा कृथाः पापानि चौर्यादीनि इह परत्र चानर्थकारीणी त्याशिश्रेय निजपुत्रं धनं न पुनरन्यायप्रवृत मन्युपेक्षत इति प्रायः । कथा चैवम् ॥ हरिदेपि वलि पुरमत्थि सुखप्रसंगयं सुगयं । तत्थ सुपसत्यनयकुंज-फेसरी केसरी राया ॥ १ ॥ सिट्ठी प्रहो जद्दो, दंतीव दाणपसरफुल्ललिओ । तस् य वचणपवणो, धणलुरूमो घणो तणओ ॥ २ ॥ मुणिचितं च सकरुणं, समज्जुणं पंमवाण सिनं च । ते कीलिकया वि हु, डुवे वि उज्जाणमपुपत्ता ॥ ३ ॥ उच्छूढसभा नारं, निवूढदयं परूढगुरुवंसं । अपि सुपर सुपर्ण नियंति तईि ॥ ४ ॥ ते तं समसम्म-मुत्तमंगसुनिविटुकरयता नमिश्र । निसियंति उवियठाणे, तो धम्मं कहश् श्य सुमुखी ॥ ५ ॥ कमलसरं पिव मरुमं- कलम्मि तमसम्मि रयणदीवं च । नरमधामद डुलई बडिय, कुणड़ सत्तीइ जिणधम्मं ॥ ६ ॥ सुमित पियता, परिचिता गर्दितु ि मुणिचरणे जयसरणे, नमियो पत्तानिए सरणे ॥ ७ ॥ प्राविबहुभद्द सोह, सुंदरो भहमाणसो नहो । चवदारमिरिओ गिहिधम्मं पासवर विसुषं ॥८॥ इम्मितिम्रो निष्यं णो पुठो रु पये पणियं । कुरुकमणो माईदिन ववरथं ॥ एए ॥ अणविक्वि अपाए, तेपाणीथं पि ले पच्चनं । 3 तं ना सोस पिउवा, मिउणा वयषेण श्य प्रणियो ॥ १०॥ वच्छ भवत्य पच्छा-अपत्यनन्तं व दोसपमिइत्थं । अन्नापण दविस्स, ए भज्जणं सज्जणा विति । ११ । अन्नापण वि सं दव्वमसुकं असुरूदब्वेण । आहारो विसुको, ते अशुद्धं सरीरपि । १२ । देदेव असुषेण, जं जं कियावि सुदकियं । तं तं न होइ सफलं, बीयं पिव चठसरानहतं । १३ । किंचि नविअवाय अन्ना - नयपड़पहिया नराण चिंतेसु । निज्जियकज्जलपसरो, अजसनरो फुर जव एम्म । १४ । ह य पिवि हुंति कारा, प्रवासवबंध हत्यळेयाई । परलोप पुए दारुण, नरगाईसु क्खरिं बोली । १५ । संपा संपायवलं, जलजलण नरिंद्र मासाहीणं । विचित्र नाव अनाय, उज्जुओ कोइ विज्ज इदं । १६ । ana वियाण नाय, अज्जियं पि विवन्नरं । पज्जते विरसं, सुजय नवथूलजावं च । १७ । अलोने अथायपश्यनाविणा इमिणा । , नियवय नरजंजण खं-जण कोमश्लप अप्पं । १८ । श्य जं पिओ विपिउणा, सो गुरुणा लोह कम्मणा मलिणो । न किंपि तं पवज्जर, चिटुर पुब्वं व अनयपरो । १६ । श्र चोरे शिक्के, वरकुंडलजयस संजयं दारं । उवणीयं जत्ति धणे, धणेण थोवेश गिदे‍ । २० । चोरकराओ कश्या, वि जाव रयणावलिं स गिरहे । निवसिरिहरिओ विमलो, तो पत्तो तस्स हदम्मि | २१ | तेण य भणि वरसि य, संचए दंसप धणो जाव । Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुबवहार अभिधानराजेन्द्रः। उज्जववहार ताब घणउहियाए, पमियारयणावहीत्ति । २२। पुछा गामीणजणा, पाषा उ जल त्ति जंपति ॥ ११ ॥ संगहि अचवावय, विमलो पुछे सिधि कि एयं । जे परवंचणपउणा, विगलियकरुणा सया असच्चधणा। जा कि पिन सो जंप, खुहिमओ ता जंपए विमझो । २३ । तप्पच्चक्खं पिच्छह, अतुच्चनच्गेश्संपन्ना ॥१२॥ अनं पिश्मीद समं, नवरहारकुंकनाश्यं । अन्यैरप्युक्तम् ।नातीव सरी व्यं,गत्वा पश्य बनस्थलीम् । तुपास तं पि अहं, मन्ने ता नहु महप्पसु । २४। सरखास्तत्र गिद्यन्ते कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ॥ १३ ॥ भन्नड निवेण नाणे, धणेण देहेण वा न हिहिसि । गुणानामेव दारात्म्याद् धुरि धूर्यो निकल्पते । अह हण हणित्ति नणिओ, संपत्तो तन्नयरो तत्थ । २५। असंजातकिपस्कन्धः सुखं जीवति गौर्गमिः॥१४॥ बको तेण धणो विम-अपुच्छिो सो भण जहा अज्ज । उत्सरदाणअसत्तो, तस्स सुमित्तो मुरुक्खसत्यस्स । सो को चोरो, से हिग्जंतेण तेण श्मो । २६ । वसुमित्तेणं सत्था, उघामिओ गहियसवस्सं ॥ १५ ॥ कहिमो मो सहाण, नरवरमाहरणमाश्सव्याणं । सो पगागी अवी-शनिवडियो आहिदक्षतता वि । तो रवणावलिसहिओ, स तेण मीओ निवसमीचे । २७ । पगईशमित्तभावेण, परिगउ चिंतए एवं ॥ १६ ॥ तो भिमिनासुरेण, निवेश से हावित्रो घणो अहिय । जुज्जतो रेजियपुव, जम्म कमुकम्मरुक्सफरमेयं । रयणामिकुंमसहा-रमाश्सवं समापे । २७ । कार्य संतोस, वसुमित्ते वजिसुपरोसं ॥ १७ ॥ श्य सोऊण अखुद्दो, भद्दो गंतण निवपासम्मि । श्य चिति सुमित्तो, निसासावयगणाण वीहंतो । दाउँ पस्यविहवं, कह कहमवि मोयए पुत्तं । २६ । कस्ल निमुक्को गरु-यविम्वविझविस्स कुहरम्मि ॥१८॥ तो माउ बहुअवायं, चश्मण पुहावि उज्जणं वधएं। श्त्तो निसुण दीवं-तरो नवत्ताण हक्खासिहरम्मि । दिक्खं गिएिहय जाओ, नहो जहाण आभागी । ३०। सो पक्खीणुस्ववियं, महल्लविहगेण पुट्ठाणं ॥१९॥ मुख्यवहारसुकी, सुमहंतसमुखसंतधणगकी। जो विहगा कहह मह, कचो को इत्थ आगओ रिह । परिचत्तविमलनावो, नरए पत्तो धणो पावो । ३१।। श्त्येवमाकर्य सकर्णलोका, नस्य जकरणं चरित्रम् । दीवंतरामिक्खेणं, किंकिरद व निसुयं वा ॥२०॥ तेहि विजह दिटुं, सुयं व दीवंतरेस वा सव्वं । तद्भाव्यपायापसरेण मुक्तां,श्रयन्तु नित्यं व्यवहारशुकिम्।३२॥ तह चव तस्स कड़ियं, एगो पाए भण तत्य श्मं ॥२१॥ इति भषश्रेष्ठिकया । ताय अह पज्जपत्तो, सिंहलदीवा उ तत्थ नरवश्णो। इत्युक्तऋजव्यवहारे जाव्यपायप्रकाशनमिति तृतीयो नेदः। अस्थि जियमयणघरिणी, धूया ध्यामयरणेहा ॥१२॥ संप्रति सद्भावतो मैत्रीनाव इति चतुथै प्रेदमाह ॥ तीसे य अत्यि वियण-पीमियाए तज्जो मासो। (मित्तीजावो य सम्जवत्ति) मित्रस्य भावः कर्म वा मैत्री विजेहि विपडिसिका, तो पिजण दाविमो पमहो ॥ २३ ॥ तस्या भावो भवनं सत्ता सद्भावानिष्कपटतया सुमित्रवधि जो मह धूयं पनणेश, तस्स वियरेमिरज्ज अरुमहं। कपटमैत्री करोतीत्यर्थः । मत्रीकपटभावयोश्शायातपयोरिव सीसम विय नय को वि,पमहंपछिवा पुण तथा । २४ । विरोधात् । उक्तंच "शाब्धेन मैत्री कलुषेण धर्म, परोपतापेन अज्ज दिणं उट्ठीपढ-हयस्स तातीनयणरोगस्स । समृमिजावम् । सुखेन विद्यां पुरुषेण नारी बान्ति ये किनस्थि ओसहमिह, किंवा अत्यत्ति मह कहनु । २५ । व्यक्तमपएिकतास्ते । इति चतुर्थ ऋजुब्यवहारजेदः। अह भण बुखपक्खी, जाणताह विजह तहा एयं । सुमित्रकथा चैवं ।। दिवसम्मि वि न कहिज्जश, किं पुण रयणी हेपुत्तो । २६ । सुपुरिस पुरश्वसुकरे, घरवत्ये सिरिपुरम्मि भयरम्मि । तेणुतं महगरुयं, कुंटुं न य को सुण इह ताय । सिट्ठी आसिनदीयो, समुद्ददत्तोसमुदश्च ॥१॥ ता कहसु आह सो वि हु, सुयपुव्वं वत्थमह एयं । २७ । सम्जावसारमिती, महंतदिप्पंतकंतिकयोहो। अकाणं पवभमेहि. इह निसि वसिपदि जश्णसाइईि । पुत्तो तस्स सुमित्तो, मितुब्ध परं असत्तासो ॥२॥ निकम्मो चत्त पुणो, लोहमओ मम्गणुव्व पीशहरो। संसक्स्थ पुत्ति कहिओ, एस तरु नयणरोगहरो॥ २८ ॥ परमम्मवेहणपरो, मित्तो तस्स त्थि वसुमित्तो॥३॥ जश को एइ तरुणो, पत्तरसेती अस्थि सुधिषिज्जा । पुत्रविय कहसि पिठणो, ववहरणथं सुमित्त वसुभित्तो। तो सा पाणिज्ज सह, श्य सा उचिंता सुमित्तो॥२७॥ संगहिय पउरपणिया, वणिया देसंतरे चलिया ॥४॥ उज्जीवहियामित्तीश, मंदिरं दुश्य दहणजलवाहा। सन्नाणरयजनही, न अन्नहा बिति जश्णमुणी ॥ ३०॥ मित्तपओसी दो सु-करिसपरो कोसि वय वसुमित्तो । तरुमणो मित्तधणे, कुण विवायं श्य पहम्मि ॥५॥ श्य नत्यि य तरुणं सर-जदयाई गहित सो अप्पं । बंध सिंहलदीवा, गयनारंगस्स चरणम्मि ॥ ३१ ॥ जीवाण जओ धम्माओ, किं व पावान कहसु मह मित्त । नीओ तेए तहि सो, विविउं पमहं गओ निषा पासे। नण समित्तो धम्मत्रो, नाणुजओ न सण पावा ॥६॥ विहिप्रो वि य पनिवत्ती, रन्ना पुट्टो कुसमवत्तं ॥ ३२॥ (यतः)दविणमनं कुत्रममलं, प्राणस्तरिय अनंपुरं विरियं। वाहरिय मयबरेहं, यलिममसमाश्काउनिव पासे। सुरपयं सिवपयं, धम्मा उच्चियजियाण धुवं ॥ ७॥ खोयण्वेयणरहिय, करे। तेणं दसरसेण ॥३३॥ जब पुण पावण बुकि, रिकिसंसिकि.माश्यो हुज्जा। तो हुजन को वि , जमो दरिदो असिको य॥८॥ परिणाविय निवकन्नं, दिन रन्न य तस्स रज्जरूं । रक्खियमिगे वि मयब-गणो ससी हयमिगो वि मिगनाहो। सो तत्थध्यक्ष सुत्थिय, हियओ सम्वेसि हियनिरश्रो ।३।। सीहो तर पावा ज-इति श्य भण वसुमित्तो ॥॥ वसुमित्तो वहणेणं, कया वि तत्थागयो विणिज्जेण । श्य वियता दुन्नि वि, सव्वस्स पण म्मि निम्मयपश्ना। निवदंसरणापत्तो, गहि कोसद्वियं बहुयं ॥ ३५ ॥ अनायधम्मनामे, कमेण कमिवि गया गामे ॥ १० ॥ तत्य सुमित्तं सुमहं-तराय बच्छी दट्ट दिपंतं । तत्य य वसुमित्तेणं, मच्छरभरपूरिपण नियपक्वं । सो चत्तमित्तनावो, धसक्किो चिंतए एवं ॥ ३६॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७०) उज्जुववहार भनिधानराजेन्द्रः। उज्जसुत्त एसो पयउपउंसो, जरकहमावि मऊ बयरं रो। सद्भावमैत्रीपरिग्रहस्तेषु सत्सु श्रावकस्यति भावः । अबोधेधर्मापायमझतभा प्रणा, हिय सब्वस्सा विणस्सामि ॥३७॥ प्राप्तेजि मूसकारणं परस्य मिथ्यादृष्टर्नियमेन मिश्चयेन नवतीति केणावि उ वापणे, ताएयं मारिमुत्तचितेउ । शेषः । तथाहि श्रावकमेतेषु वर्तमानमालोक्य वक्तारः संजयन्ति पाहुम्मपितुनिवश्-रायपासम्मि पासीणो ।। ३० ॥ धिगस्तु जैन शासनं यत् श्रावकस्य शिष्टजननिन्दितेऽलीकविजणं जाणिन्तु श्मो, सुमित्तभवणम्मि जाइ मायाए । भाषणादौ कुकर्मणि निवृत्तिर्नापि श्यते इति निन्दाकरणादमी पुत्रियकुससोदता, परुप्परं जाव अच्छति ॥ ३६॥ प्राणिनो जन्म कोटिष्यपि बोधि न प्राप्नुवन्तीत्यबोधिवीजमिदमुताव सुमित्तत्त, सुमित्तवरमित्त कश्वयदिणाणि । च्यते । ततश्चाबोधिवीजाद्भवपरिवृफिर्जवति तन्निन्दाकारिणस्तमा म जाणा विज्जसु, रन्नो तेपाधि पडियन्नं ॥ ४०॥ निमित्तनूतस्य धावकस्यापि यदवाचि । शासनस्योपघातो योऽ अम्मदिणे वसुमित्तो, रदम्मि विन्नवश्नरवयं एवं । माभांगेनापि वर्तते । स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वाद-न्येषां प्राणिनामिति परदोसम्गहणं जक, वि देवकुत्ततसुपुरिसाणं ॥४१॥ रावनात्यपि तदेवासं,पर संसारकारणम् विपाक दारुणं मेरं, तहवि हु गुरुअषवाओ, पहुणो मा होड श्य पयंपेमि । सर्वानर्थविवर्फनमिति । ततस्तस्मात्कारणादुदयाद्भावे प्रजु एसो यह जामाक, अम्ह पुरे विजउँबसुत्रो॥४२॥ व्यवहारी प्रगुणव्यवहारवान् प्रकृतो भावश्रावक शति । उक्तमजुतं सांऊण बिसन्नो, करामकुमिसाइओ व्व नरनाहो। व्यवहार शत चतुर्थे जावभावकसकणम् । ध०२०॥ तं वुत्ततं सम्ब, सुबुषिसचिवस्स साहेश् ॥४३॥ उज्जुसधिसंखेमय-ऋजसन्धिसंखेटक-पुं० सरले गन्तब्यदिग्धिसो परिभगेश जादेव, एवमेयं तमो गुरुभबसो। भागे, "मग्गाउ उज्जुसंधि,संबेमयं पवेदेश । जुसंधिसंखेम्या ववहारयारहाणं, जमिमादिवेसु तुह नवरी॥४४॥ वा सगममा पवेदेरे" नि. चू. १३ उ० । सहसा निवो वि अंप, जा पमहवन हुश्मं आए। नज्जुसुत्त (व )-ऋजुसूत्र. -पुं० अतीतानागताज्युपगमकुष्टितो पचन्न एयं, वा बायसुमति तम्हत्ति ॥ ४५ ॥ प्रतापरिहारेण ऋज्वकुटिलं वर्तमानकामनावि वस्तु सत्रयति आमंति मंतिणुते, रहम्मि पुछा निषेण नियध्या । गमयति अन्युपगच्चतीति ऋजुसूत्रः । अतीतानागतयोर्विनाकिं अकुत्रीणवियारो, सम्ववियो को विते पश्णा ॥४६॥ शानुत्पत्तिच्यामन्युपगमश्च कुटिल इति भावः । ऋज्ववकं श्रुतसाजणअविकझको,ससिणोकिर अत्थिन उण मह पश्णो। मस्येति ऋजुश्रुतः । शेषकानैर्मुख्यतया तथाविधपरोपकारसाकेवमगुणमयसुत्ती, पफुच्चपरगुरक्खट्टा ॥ ७॥ धनश्रुतज्ञानमेवैकमित्यर्थः । उक्तंच "सुयनाणे अणिउत्त, केवले नियपच्च नरोहिं, तो पिछणय पिच्छणमिसेण । वयणंतरं ॥अप्पणो य परेसिंच, जम्हा तं परिजावग" मिति स्वसचिवेण सहु सुमित्तो, संकासमयम्मि बाहिरओ ॥ ४ ॥ नामख्याते सप्तानां मूसनयानां चतुर्थे नये, अनु०। प्र० । ६० । पुन्नभरपेरिएणं, तेण वि नियवेसमप्पलं तश्या। ग० । स्था। सूत्र० । अष्ट० ॥ अयं हि व्यं सदपि गुणीजावापछविओ वसुमित्तो, सुबुद्धिपुरिसेहि सो निहिओ ॥४६॥ मार्पयति पर्यायास्तु क्वणध्वंसिनः प्रधानतया दर्शयतीति । उतं ना ति निवो कह, मह दुहिया होहि जाच रे। दाहरन्ति-यथा सुखविवर्तः संप्रत्यस्तीत्यादिशित। अनेन हि सा ताव तत्थ प्रार्ग-तु पुछिए किं श्म ताय ॥५०॥ वाक्येन कणस्थाथि सुखाख्यं पर्यायमा प्राधान्येनापि दर्यते । तुर वेहबकरोह, बच्चे पावृत्ति जंपिए रन्ना । तदधिकरणतूतं पुनरात्मजव्य गौणतया नार्पयति । प्रादिशब्दाद सा भण तुज्ज जामा-गो गिहे चिहए ताय ।। ५१ ।। पुःखपर्यायोऽधुनास्तीत्यादिकं प्रकृतनयनिदर्शनमज्यूहनीयम् तं आयनियरन्ना, रहाम्म पुछो पयंपा सुमित्ता। मन्जस्यमणो सब्वं, तं वसुमित्तस्स पुत्संतं ।। ५२॥ अस्यनिरुक्तिगर्भमतम् । सावितई नरिंदो, मित्त भावत्तणं श्मस्स अहो । पच्चुप्पन्नग्गाही, उज्जुसुनो णयविही मुणेअव्यो। गम्मधरनीरुत्त, महो अहो धम्मसुधिरतं ।। ५३॥ अयं च नयो वर्तमानमपीच्छन् स्वकीयमेवेच्यति परकीयश्य चिंतिमो चमकिय-मणो नियो कहर मंतिपचराण । स्य स्वाभिमतकार्यासाधकत्वेन वस्तुतोऽसत्वादिति । अपरं च सजावारमित्ति, जुत्तं वित्तं सुमित्तस्स ॥५४॥ जिन्नलिङ्गैत्रिवचनैश्वशब्दैरेकमाप वस्त्वनिधीयत इति प्रतितयणु सुमित्तेणं तदि, पियरो आणाविया पहि?ण । जानीते यथा तटः तटी तटमित्यादि । यथा गुरुर्गुरव इत्यादि नयरिपवेसो रन्ना, कराविओ गुरु विईए ॥ ५५ ॥ तथा बादर्नामस्थापनादिनेदात्प्रतिपद्यते वक्ष्यमाणनयस्त्वजायायवं ससुकी, स परेसि सुहाणकारको जानो। तिविशुरुत्वाशिङ्गवचनन्दाद्वस्तुभेदं प्रतिपत्स्यते । नामस्थापना परिवज्जियपव्वजो, कमासुमित्तो गो सुगई ।। ५६ ॥ जव्याणि च नान्युपगमिष्यतीति भावः। इत्युक्त ऋजुसूत्रः अनु। मित्तीभावविरहियो, अहिओ सपरसि सययवसुमित्तो । पतदेव विस्तरेणाह। मरिऊण गम्रो गरए, प्रमिही संसारमश्वोरं ।। ५७ ।। नज्जुसुयं नाणमुज्जु-सुयमस्स सो यमुज्जुसुओ । पर्व सुमित्रस्य समस्तसर्व-संदेहमित्रस्य निशम्य वृत्तम्। सूचय वा जमुज्जु, वत्युं तेणु ति मुत्तोत्ति । जव्या जना दुस्कममासवित्र्यासझावमव्यांनृशमाधियध्वम् । ऋजुश्रुतं ज्ञानं बोधरूपं ततश्च ऋज्वषकं श्रुतमस्य सोऽयमजुइति सुमित्र कथा ॥ श्रुतः । वा अथवा ऋज्ववक्रं वस्तु सूचयतीति ऋजुसूत्र शति । इस्युक्त ऋजुव्यवहारे सद्भावमैत्री सकणचतुर्थो दस्तयुक्तो कथं पुनरेतदन्युपगतस्य वस्तुनोऽवत्वामित्याह मिरुदितं चतुर्विधमप्यूजुव्यवहारस्वरूपम् । पच्चुप्पन्नं संयम-मुप्पानं जं च जस्स पत्तेयं । सांप्रतमस्यैव विपर्यये दोषदर्शनपूर्वकं विधेयतामाह तं ऋजुतदेव तस्स, स्थि न बक्कमन्न निजमसंतं ।। अनह जणणाईस, अमोहिवीयं परस्स नियमेण ।। यत्सांप्रतमुत्पन्न वर्तमानकालीनं वस्तु यश्च यस्य प्रत्येकमातत्तो जवपरिवती, ब होज्जा उज्जववहारं ॥ ४॥ त्मीयं तदेतउन्नयस्वरूपं वस्तु प्रत्युत्पन्नमुच्यते तदेवासौ नयः अन्यथा जणनमययार्थजल्पनमाविशम्दावञ्चकक्रियादोषापया | प्रतिपद्यते तदेव वर्तमानमात्मीयं च वस्तु तस्य ऋजुसूत्रनय Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुसुत्त अभिधानराजेन्द्रः। उजुसुत्त स्याऽस्ति अन्यत्तु शेषमतीतानागतं परकीयं च यद्यस्मादसद- सत्वमस्ति तद्योग्यता प्रकृते स्यादसत्ताबोधोऽपि चात्र तत्र खरविद्यमानं ततोऽसत्वादेव तक्तमिच्छत्यसाविति अत एवोक्तं शृङ्गादाविव सत्ताप्रतिक्केपी । विकल्पसिकेऽपि धर्मिणि निषध नियुक्तिकता “पच्चुप्पन्नग्गाही, उज्जमुनयविही मुणेयवेत्ति” | प्रवृत्तेस्तत्र तत्र व्यवस्थापितत्वादिति दिग् ॥ २६ ।। पतन्मतमेव प्रमाणतः समर्थयन्नाह । अन्यमप्यत्र विशेषमाह। न वि गयमणागयं वा, जावो णुवलंनो खपुष्पं च । । इष्यतेऽनेन नैकत्रा-वस्थान्तरसमागमः। न य निप्पओयणान, परकीयं परधणमिवस्थि ।। क्रियानिष्टाजिदाधार-व्यनावाद यथोच्यते ।। ३०॥ विगतं विनष्टमतीतमनागतं त्वनुत्पन्नम् । एतभयरूपमपि न | अनेनर्जुसूत्रनयनकधार्मिणि अवस्थान्तरसमागमः भिन्नावस्थावाभाव न वस्वनुपनम्जात्स्त्रपुष्पवदिति। न च परकीय वस्त्वति नि- चकपदार्थान्वयो नेष्यते न स्वीक्रियते कुतःक्रिया साभ्यावस्थानिअयाजनत्वात्प्रयोजनाकर्तृत्वात्परधनवदिति । ठा च सिकावस्था तयोर्या भिदा भिन्नकाससंबन्धस्तदाऽऽधारअथ व्यवहारनयं युक्तितः स्वपकं ग्राहयनाइ । स्यैकाव्यस्यानावादत्रार्थेऽनियुक्तसंमतिमाह ययोच्यतेऽभियुक्तैः जइ न मयं सामन, संववहारोवलकिरहियंति । पलानं न दहत्यग्नि-भिद्यते न घटः कचित् । नाणुगयमस्स व तहा, परकमवि निष्फलतणो ।। नासंयतः प्रत्रजति, जव्यासियोन सिध्यति ।। ३१ ॥ हेव्यवहारनयवादिन ! यदि तव व्यवहारानुपयोगादनुपह- अत्र दहनादिक्रियाकास एव तन्निष्ठाकाल इति, दह्यमानादेर्दग्धमनाच सामान्यं न मत संग्रहस्य सम्मतमपि नेएमित्यर्थः । ननु त्वाद्यन्यभिचारासदबस्थाविसकर पल्लाबाद् व्यवस्थावचिन्नेन तथा तेनैव प्रकारेणैव व्यवहारानुपयोगादनुपलम्भाश गत- समंदहनादिक्रियान्वयस्यायोग्यत्वात्पमाझं न दहत्यानिरित्यादयो मतिकान्तमेष्यच्चानागतं वस्तु नान्युपगतस्त्वं युक्तःसमानत्वात व्यवहारा निषेधमुखा उपपद्यन्ते। विधिमुखस्तु व्यवहारोत्रापमातथा परकमपि परकीयमपि वस्तु मैषीः स्वप्रयोजनासाधकत्वेन बंदखतेऽधटो निद्यते संयतः प्रव्रजति सिरःसिभ्यतीत्येवमाकार निष्फलत्वात्परधनवदिति । अथ यदसौ नयोऽज्युपगच्छति त एव राज्यः । अत एव"सोसमणे पञ्वश्नोई"चेति नये कृतकरणत्सर्वमुपसंहृत्य दर्शयति। परिसमाप्तिः सिरूस्याऽपि साधने करणब्यापारानुपरमादितितम्हा नियय संपय-काबीणं लिंगवयणजिनं वि। ॥ नयो ०॥ नामाइभेयविहियं, पडिवज्ज वत्युमुज्जुसुओ ।। अथ ऋजुसूत्रनयस्य भेदमाह ॥ तस्माजसूत्रनयः प्रतिपादितयुक्तितो वस्तु प्रतिपद्यते । कथं स्वानुकूलं वर्तमान-मृजुसूत्रो हि जापते । नूतं निजकमात्मीयं न परकीयं तदपि सांप्रतकालीनं वर्तमान न त्वतीतानागतरूपम् तच्च निजं वर्तमानं च वस्तु सिङ्गवचन तत्र क्षणिकपर्यायं, सूक्ष्मः स्यूलो नरादिकम् १३ ॥ जिन्नमपि प्रतिपद्यते । तत्रैकमपि त्रिवि यथा तटस्तटी तरमि- हि निश्चितं ऋजुसूत्रो नयः । वर्तमानं केवलमतीतानागतकात्यादि । तथैकमप्येकवचन बहुवचनवाच्यं यथा गुरुर्गुरवः आपो लरहितं जाषते मनुते । तदपि कीदृशं स्वानुकूलं स्वस्यात्मनोऽजलं दाराः कात्रमित्यादि । तथा नामादिभेदविहितमप्यसौ व- नुकूनं कार्यप्रत्ययं मनुते परंतु परप्रत्ययं न मनुते। सोऽपिऋजुस्तु अत्युपगच्चति । नामस्थापनानन्यभावरूपाश्चतुरोऽपि निक्के- सुत्रो द्विनेदो द्विप्रकार: । एकः सूक्ष्म ऋजुसत्रः ।। अपरः स्यूल पान् सामान्यत इत्यर्यः तदिह सिंगवयणेत्यादिना अज्युपग ऋजुसूत्रः शतत्रसूक्षस्तु कणिकपर्यायं मनुते कधिकाः पर्यायाः मध्योपन्यासन वक्ष्यमाणशब्दनयेन सहास्यान्युपगमभेदो द- परतोऽवस्थान्तरभेदात् पर्यायाणां स्ववर्तमानतायां कणावस्थायिर्शितः शन्दनयो हि सिजनेदाचनभेदाच्च वस्तुनो नेदमेव प्र- त्वमेवाचितमिति । स्थूलस्तुमनुष्यादिपर्यायं वर्तमानं मनुते अतीतिपत्स्यते न पुनरेकत्वम् । तथा नामादिनिकेपेऽप्येकमेव भाव- तानागतादिनारकादिपर्यायं न मनुते यो हि व्यवहारनयः कालनिक्केप मस्यते न तु शेषनिक्केपत्रयमिति तदेवमुक्तः ऋजुमूत्रनयः अयवर्तिपर्यायग्राहकस्तस्मात् स्थूल ऋजुसूत्रव्यवहारनयेन शंविशे०। (एतन्मतषणं सहनय शब्द)। करत्वं न बनते । अथ च ऋजुवर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रजावत्वे वर्तमानत्व-व्याप्तिधीरविशेषिता । प्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रनय ति प्रतीतानागतकामऋजुसूत्रश्रुतः सूत्रे, शब्दार्थस्तु विशेषितः ॥२५॥ सवणकौटिल्यवैकल्यात्प्राजनमिति ॥ १०६ अ० । पर्यायनयभावत्वे वर्तमानत्वव्याप्तिधीरतीतानागतसंबन्धानावब्याप्यत्वो भेदाः। ऋजुसूत्रादयः । “तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्या-नुरूपर्यायसंपगन्तृता अविशेषिता शब्दाद्यनिमतविशेषा पक्कपातिनी सूत्रे - श्रिता। नश्वरस्यैव भावस्य, जावास्थितिवियोगतः॥देशकालाजुसूत्रनयः श्रुतः सूत्रं च"पच्चुप्पाम्गाही, उज्जुसूओ य ण विहि न्तरसंबन्धस्वन्नावरहितं वस्तुतत्वं सांप्रतिकमेकस्वाभावमकुटिमुणयन्वोत्ति" अत्र प्रत्युत्पन्नमेव गृहातीत्येवं शीलः इत्यत्रार्थे समृजसूत्रयतीति । ऋजुसूत्रः न होकस्वभावस्य नानादिकामसं तात्पर्याक्तार्थलाभः । अविशेषितपदकृत्यमाह शब्दार्थस्तु विशे बन्धित्वस्वनावमनेकत्वं युक्तमेकस्यानेकत्वविरोधात् । न हि स्वषित इति । तथाच विशेषितार्थवाहिणि शब्दादिनये नातिव्या रूपानेदादन्यो बस्तुभेदः स्वरूपस्यैव वस्तुत्यापत्तेः । तथाहि प्तिरिति भावः । सतां सांप्रतनामाद्यर्थानामनिधानपरिझानमृजु विद्यमानेऽपि स्वरूपे किमपरमजिन्नं वस्तु यद्पनानात्वेऽप्येकं सूत्र इति तत्वार्थभाष्यम् । व्यवहारातिशायित्वलकणमनिप्रे- स्यादिति । यवस्तुरूपं येन स्वन्नावेनोपलज्यते तत्तेन सर्वात्मत्य तदतिशयप्रतिपादनीयमेतदुक्तं व्यवहारो हि सामान्य व्यव- ना विनश्यति न पुनः क्वणान्तरसंस्पर्शीति कणिकं कणकान्तरसहारानङ्गत्वान्न सहते कथं तह्यर्थमपि परकीयमतीतमनागतं चा- म्बन्धे तत् कणकान्तरस्य कणान्तराकार विशेषाप्रसङ्गात् अतो निधानमपि तयाविधार्थवाचकं ज्ञानमपि तथाविधार्थविषयमवि. जातस्य यदि द्वितीयकणसंवन्धः प्रथमकणस्वनावं नापनचार्य सहतेत्यस्याभिमानो न चायं वृथानिमानः स्वदेशकाइयो- यति तदा कल्पान्तरावस्थानसंबन्धोऽपि तत्रापनयन् स्वभारेव सत्ताविश्रामात् । यथा कथंचित्संबन्धस्य सत्ताव्यवहाराङ्ग- | बनेदे वा कथं न वस्तुन्नेदः अन्यथा सर्वत्र सर्वदा वात्वे प्रतिप्रसङ्गात् । नच देशकानयोः सत्त्वं विहायान्यदतिरिक्तं नावप्रसक्तिः । अक्कदिकस्य क्रमयोगपणज्यामकिपाश्म Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७२) उज्जुसुत्त अनिधानराजेन्द्रः। उज्जोय सेरसत्त्वं सह कार्युपढौकितातिशयमनङ्गीकुर्वतस्तदपेक्वायो सांप्रतमुद्योत उच्यते तत्राहगादक्केपेण कार्यकारिणस्सर्वर्कायमेकदैव विदध्यादिति न क्रम- दुबिहो खलु उज्जोओ, नायव्यो दबनावसंजुत्तो । कर्तृत्वम् नवा कदाचनापि स्वं कार्यमुत्पादयेत् निरपेकस्य निर अम्गी दवुज्जोओ, चंदो सूरो मणी विज्जू ॥ तिशयत्वान हि निरपेकस्य कदाचित्करणमकरणं वा विरोधात द्विविधो हिप्रकारः खमुशब्दो मुझन्नेदापेक्तया न वक्त्रपेकयेति तत्कृतानुकारं स्वन्नावभूतमङ्गीकुर्वतः कणिकत्वमेव । व्यतिरिक्त विशेषणार्थः । उद्योत्यते प्रकाश्यते अनेनेति उद्योतो ज्ञातव्यो बित्थे वा संबन्धासिकिरपरोपकारकल्पनेऽमवस्थाप्रसक्तिः । युग केयो अध्यन्नावसंयुक्तः । अव्योद्योतो भावोद्योतश्चेति भावः । तत्र पदपि न नित्यस्य कार्यकारित्वं द्वितीयेऽपि कणे तत्स्वनावात् । द्रव्योद्योतोऽग्निश्चन्छः सूर्यो मणिश्चन्द्रकान्तादिनकणो विद्युत् ततस्तदुत्पत्तितः तत्क्रमप्रसक्तेः । क्रमाक्रमव्यतिरिक्तप्रकारान्तर- प्रतीता। पते द्रव्योोताः । एतैर्घटादीनामुद्योतनेफि तम्तायाः प्रावाचन नित्यस्यसत्वमक्रियाकारित्वसवणत्वात्तस्य प्रध्वंस- सम्यकप्रतीतेरभावात सकसवस्तुधानुद्योतना धन म्यास्पच नितुकत्वेन स्वन्नावतो नावात स्वरसाजरा एव सर्षे दिग्निः सदसन्नित्याचमन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः सर्व एष धर्माभावाः इति पर्यायाभितर्जुसूत्रान्निप्रायस्तमुक्तम् । अतीतानाग- | धर्मास्तिकायादयोवा घोत्यन्ते तस्मादम्यादयोन्योद्योता शति ता देव, कालसंस्पर्शिवजितम् । वर्तमानतया सर्व-मृजुसत्रण अधुना नाघोद्योतमाह। मज्यते ॥ सम्म । स्या० ( अयं च नयो सूसनयत्वेनानुयोगद्वा- नाणं जावुज्जोओ, जह जणियं सव्वन्नावदसीहिं। सदिक्तः संमतिकृता पुनः पर्यायनयन्जेदत्वेनान्युपगतः प- जस्स उवयोगकरणे, जावुज्जोयं वियाणाहि ।। ब्जायणय शब्दे ऽस्य विस्तरतो वर्णनं कारप्यते) (कणिकवादः ज्ञायते यथावस्थितं वस्त्वनेनेति ज्ञानम् । सतो भावोद्योतः मणियवायदे ) एकत्वानेकत्वसमस्तधर्मकलापविकलताया तेन घटादीनामद्योतने तबतायाः सम्यकप्रतिपःस्वभावात्तस्य स्तदाप विज्ञानवादिपरिकल्पितम् विज्ञानशून्यरूपेण शत्रु तदात्मकत्वात् । पतावता वा विशेषेणैव ज्ञानं जावोद्योत इति सूत्रयतीति शजुसूत्रः । माध्यमिकदर्शनाऽवसम्बिनि सर्वभावानां प्राप्तमत अाह यथा भणितं यथावस्थितं सर्वभावदार्शनिस्तथा नैरात्म्यं प्रतिपादयतिपर्यायास्तिकनयभेदे,(तन्मतं सुप्मवायशब्द) यद् ज्ञान सम्यग्ज्ञानमिति नावः । तत्रापि विशेषणोद्योतः किंतु उज्जुसुत्त (य)वयण विच्छेद-ऋजसत्रवचनविच्छेद-पुं० अज तस्य ज्ञानस्योपयोगकरणे सति जावोद्योतं विजानीहि नान्यदा धर्तमानसमय बस्तुस्वरूपावधियन्नत्वात्तदेव सूत्रयति परिच्छि- तदेवतस्य वस्तुनोऽतत्वसिश्त्यमुतस्वरूपमभिधाय साप्रतं नसि नातीतानागतं तस्यासत्तेन कुटियत्वात् तस्य वचनं पदं येनोद्योतेन लोकस्योद्योतकरा जिना जवन्ति किंतु तीर्थकरवाक्यं वा तस्य विच्छेदोऽन्तःसीमेति यावत् ऋजुसूत्रवचन- नामकर्मोदयतोऽनु सत्वार्थसंपादनेन नावोद्योतकराः पुनर्भवन्ति स्येति कर्मणि षष्ठी । जुसूत्रस्यैवायमर्थो नान्यस्येति प्ररूपयतो जिनवराश्चतुर्विंशतिरिति । अत्र पुनःशब्दो विशेषणार्थः । स विविद्यमाने पचने, “मूलणिमेणं पज्जव-णयस्स अज्जुसुय- चैतत् विशिनष्टि । आत्मानमधिकृत्य केवलकानेनोद्योतकरा लोकघयणविच्छेदो, तस्स उसहा आसाहपसाहासुहमभेआ" सम. प्रकाशकवचनप्रदीपोपक्कया तु शषकतिपयभव्यविशेषावधिउज्जुसत्ता(या) नास-ऋजुसूत्रानास-पुं० ऋजुसूत्रवदाना- कृत्योद्योतकरा अत एवोकं भवन्ति कोर्थन जयन्ति न तु नषसते ऋजुसूत्राभासः । सर्वथा व्यापलापिनि, ऋजुसूत्रवदाना न्येवं कांचन प्राणिनोऽधिकृत्योद्योतकरत्वस्यासन्नवात् । चतुसमाने नयाजासे, र०॥ विशतिग्रहणमधिकृतावसपिणीगततीर्थकरसंख्याप्रतिपादनार्थनज्जुसेदि-ऋजुश्रेणि-स्त्री० ऋजुः सरक्षा चासौ श्रेणीच । सर- | मुद्योतनाधिकारे एव व्योगतः। ब्योद्योतोद्योतजावोद्योतायोसाकाशप्रदेशपी, । ( उज्जुसेविपत्ते अफुलमाणगई अहुं एग तयोर्विशेषप्रतिपादनार्थमाह। समश्पणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवडत्ते सिफर ) दज्जोओजोश्रो, पन्नासई परमियम्मि खित्तम्मि। उत्त०२५ अ०। जाधुज्जोओजोओ, लोगालोगं पगासे ।। उज्जेणी-उज्जायनी-स्त्री. अवन्तीजनपदराजधान्याम, "उज्जे जव्योद्योतोद्योतो अन्योद्योतप्रकाशः पुजलात्मकत्वात्तथाविधजीप नयरीए अवंति नामेण य विस्सुओ "संस्था० ( उज्जोण परिणामयुक्तत्वाच प्रकाशयति । पागन्तरं प्रभासते परिमित अहणे समु०) आव०४०॥ को अत्र यदा प्रकाशयति तदा प्रकाइयं वस्तु अध्याब्दियते यदा उज्जेणग-उज्जयनक-पुं० स्वनामख्याते श्रावकभेदे, उज्जेणगस्स तु प्रभासते तदा स एव दीप्यते इति गृह्यते नावोद्योतोद्योतो साधगस्स तथ णियरिंगणं कालगयस्स मिचत्तं जायं, मोकं प्रकाशयति प्रकटार्थम् । उक्त सद्योतः । श्रा०म०वि०॥ आव०४०॥ पाच सद्यातोयद्यपि लोके नेदन प्रसिको यथा सूर्यगत प्रातपः उज्जोश्य-उद्योतित-त्रि० उत् त्. क्त. रत्नप्रदीपादिभिः प्रकाशि चम्गतःप्रकाश शत तयाप्यातपशब्दश्चममनायामाप वर्तते इति । सत्रदाह " उजावेति तवंति पगासेति माहितेति ते, ग०१ अधिः । ध०।०। भौ०॥ पदेज्जा" चं०३ पाहु० । दिवा उद्योतो रात्राबन्धकार इति मज्जोएमाण-नुद्योतयत-त्रि० प्रकाशयति, "दस दिसान उज्जो दएककश्च अंधयार शब्दे उक्तः। पमाणा पभासेमाणा" जीवा० ३ प्रतिः । स्थूलवस्तूपदर्शनतः कर्वलोके तिर्यग्रोके च उद्योतः॥ प्रकाशयति, स्था०८ ठगा सूत्र। औ०। पा०॥ नकलोगेणं चत्तारि उज्जायं करेंति तंजहा देवा देवीप्रीनज्जोय-उद्योत-पुं० उद्. धुत्-अच. । वर्तितृणधुमाकाष्ठादिनिः विमाण आचरणा तिरिक्खनोगेणं चत्तारि उज्जोयं करेंति अम्निप्रकाशने, प्राचा०५१०२० ५ उ० । वस्तुप्रन्नासने, स्था०४ ग० । वस्तुविषये प्रकाशे, नं। प्रा० म०प्र०।१०। चंदा सूरा मणी जोती। स्था० ४ ग०॥ "देषुज्जोयं करोति" रा०1"उज्जोत्रो तह य अंधकारो परसो | उज्जोयकरण-उद्योतकरण-न० प्रकाशकरणे, प्राचा०१६०१ समता परिणामो" सूत्र०१०।अस्य निकेपः। । अ०४०॥ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जोयग अभिधानराजेन्दः। उज्छाग्र उज्जोयग-उद्योतक-त्रि उद्योतयात प्रकाशयति केवलज्ञानदर्श- बर्द्धमानसूरिगुरौ वटगच्चस्य प्रथमाचार्ये, 'तस्मा विमनभाज्यामिति । अवयवतः स्फुटप्रकाशके, “ सम्बजगुज्जो चन्का, सहेमसिकिर्वनूव सूरिवरः। उद्योतनश्च सूरिः, शोषितपुरि यगस्स" नं०॥ ताड्करन्यूहः । अथ युगनवनन्द (एए) मिते, वर्षे विक्रमनज्जोयगर-नुद्योतकर-त्रि० उद्योतकरणशीला उद्योतकरास्तान नृपादतिक्रान्ते । पूर्वावनितो विहरन्, सोऽर्बुदसुगिरेः सविधमालोकस्य केवलालोकन तत्पूर्वकवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाश गात् । तत्र वटेबीखटेक-सीमावनिसंस्थवरवटाधः । सुमुहूर्ते करणशीमानित्यर्थः । उद्योतकरणशीले तीर्थकृदादौ, श्रा०म० सूपदेशान् सूरीन संस्थापयामास । ख्यातस्ततोगणोऽयं बटगच्गद्वि०। प्रकाशकारिणि, प्रश्न.२ सं० द्वाण होऽपि वृरुगच्छ इति । ग०। ५०प० । अयं च विक्रमसंवत्लोगस्स लज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे ।। (ए) मालवदेशाच्छशुञ्जय गच्छन् मार्ग एव देवलोकं गतः। जै०३०॥ अरिहंते कित्तइस्सं, चनवीसं पि केवली ॥१॥ उज्जोयणाम-उद्योतनामन्-न उद्योतनिबन्धनं नाम नामकर्मदे, जसजमजिअंच वंदे, संनवमनिणंदणं च सुमई च । अणुसिणपयासरूवं, जियंगमुज्जोयएइ हुज्जोया । पउमप्पहं सुपासं, जिणंच चंदप्पहं वंदे ॥३॥ जइ देवुत्तरविक्यि, जोइसखज्जोयमाइच ।। ४५॥ सुविहिं च पुप्फदंत, सीअलसिज्जंस वासुपुजं च । होद्योतादुद्योतनामोदयेन जीवाझं जन्तुशरीरमुधोतत्वे उद्योतं विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च बंदामि ॥ ३ ॥ करोति कथमित्याह ! अनुष्णप्रकाशरूपमुष्णप्रकशरूप हि वन्दिकुंथु अरं च मट्विं, वंदे मुणिमुच्चयं नमि जिणं च । रप्युद्योततइति तद्यवच्छेदार्थमनुष्णप्रकाशरूपमित्युक्तम् । प्रारक वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वच्छमाणं च ॥४॥ श्योद्योतोदयाज्जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतं कुर्वन्तीत्याएवं मए अनिथुआ, रयमलापहीणजरमरणा। ह । यतिदेवोत्तरवैक्रियज्योतिष्कखद्योतादय श्व । तत्र यतयश्च चनवीस पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५ ॥ साधवो देवाश्च शूरा यतिदेवाः यतिदेवैद्वशरीरापेक्कयोत्तरकालं क्रियमाणं वैक्रिय यतिदेवोत्तरवैक्रियं ज्योतिष्काश्चन्द्रग्रहनक्वत्रताकित्तियवंदियमहिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिका। राः खद्योताः प्रतीताः ततो यतिदेवोत्तरवैक्रियं च ज्योतिष्काश्च आरुग्गबोहियानं, समाहिवरमुत्तमं दितु ॥ ६ ॥ खद्योताच ते आदिर्येषां रत्नौषधीप्रभृतीनां ते यत्तिदेवोत्तरवैकिचंदे सुनिम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । यज्योतिष्कखद्योतादयस्त श्व । अत्र मकारो साकाणकः । अयसागरवरगंजीरा, सिका सिकिं मम दिसंतु ॥ ७॥ मर्थः यया यतिदेवोत्तरवैक्रियं चन्द्रग्रहादिज्योतिष्काः पव खद्योतअस्य व्याख्या तल्लकणं चेदम् । “संहिता च पदं चैव पदार्थः रत्नौषधीप्रभृतयश्चानुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतं विदधीत तथा यदुदपदविग्रहः। चामना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य षम्विधाः याज्जन्तुशरीराएयनुष्णप्रकाशरूपमातपमातम्वन्ति तदुद्योतनातत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता सा च प्रतीता अधुना पदानि लो मेत्यर्थः। कर्म। पं० सं०। प्रव। श्रा०॥ कस्योद्योतकरात धर्मतीर्थकरान् जिनान् अर्हतः कीर्तयिष्यामि चतु उज्जोयद्ग-उद्योतद्विक-न० उद्योतातपलकणे नामकर्मप्रकृतिविशतिमपि केवलिन इति। अधुना पदार्थः खोक्यते प्रणिना दृश्यते युग्मे, कर्म०॥ इति लोकः । अयं चेह तावत्पश्चास्तिकायात्मको गृह्यते । तस्य उज्जोयफुम-उद्योतस्पष्ट-त्रि० प्रकाशसंयुते, उज्जोयफुमाम्म सोकस्य द्योतकरणशीला द्योतकरास्तान केवलालोकन तत्पू. | तु दप्पणम्मि संजुज्जत जया देहो हेति ततो पमिबिखं गयावए कवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलानित्यर्थः । तस्मादू जाससंजोगा,, । नि० चू० १३ उ० ॥ पुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । उक्तंच । “धर्गतिप्र- उज्जोवित-उद्योतित-त्रि० उद्- द्युत्- णिच् । क्त-। रत्नप्रदीसृतान् जन्तूनस्माधारयते ततः । धत्ते वै तान् शुभस्थाने, तस्मा पादिभिर्दीप्ते, नि० चू०५ १०॥ कर्म इति स्मृतः॥" तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ धर्म पव धर्मप्रधानं वा तीर्थ धर्मतीर्थ तत्करणशीला धर्मतीर्थकरास्ता नज्म-उजकक-त्रि० साद्ववंकशून्ये, “ वित्ता तिब्वानितावणं न् । तथा रागद्वेषकषायोदयपरीषदोपसर्गाऽष्टप्रकारकर्मजेतृ सका असमाहिआ" सद्विवेकशून्या भिका पात्रादित्यागात्पस्वाजिनाम्तान तथा अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामहन्ती रगृहनोजितयोद्देशकादिनीजित्वात् । सूत्र०१४०३ अ०। त्यईन्तस्तान् अर्हतः कीर्तयिष्यामि स्वनामभि स्तोष्ये चतुर्विंश उकण-उज्कन-न० उज्ज-ल्युट्- । बहिर्नयने, विशे० । परि तिरितिसंख्या । अपिशब्दो जावतस्तदन्यसमश्चयार्थः केवलका- त्यागे, ओ०। नमेषां विद्यते इति केन्निनः तान् केवलिन इति पदार्थः । पद उज्कण विहि-नफनविधि-पुं० परिष्ठापनविधी, व्य०६०७ उ० धिग्रहोऽपि यानि समासनाञ्जि पदानि तेषु दर्शित पत्र । संप्रति चालनावसरस्तत्र तिष्ठतु तावत्सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिरेवोच्यते । स्व उकणा-उजफना-खी० उज्क. णि. युन् । उत्सर्गे, अवकिरणे, आव०४ अ०॥ स्थानत्वात् । उक्तं च “अक्खलियसंहियाइ-चक्खाणचउक्कए ५ दरिसियम्मि। मुत्तप्फासियनिज्जुत्ति, वित्थरस्थो इमो होई" आ० उज्कर-अवकर-पुं० पर्वततटामुदकस्याऽधःपतने, न. मद्विधा ईश्वरसिद्धिविषये कृतबहुश्रमे विद्वद्भदे, उद्योतकर- श, ७ जानि:रविशेषे, झा० ५ अप्रवाहेच, । नं० । जं०। स्तु प्रमाणयति । नुवनहेतवः प्रधानपरमाणवोऽदृशः स्वकार्यो- उज्कररव-अवकररव-पुं० निर्धारशब्दे, ज्ञा० अ०॥ स्पत्तावतिशयवदुझिमन्तमधिष्ठातारमपेक्वन्ते स्थित्वा प्रवृत्तस्तन्तु- नफरवली-अवकरपणी-स्त्री० उदकपाते, दगवातो सीततुर्यादिवदिति ॥ सम्म०॥ भारा साय उरवसी नम्मति, नि० चू०। ज्जोयणसरि-उद्योतनसुरि-पुं० देवसूरिशिष्यामचन्द्रशिध्ये उज्काअ-नपाध्याय-पुं० उप,अधि.इ. अण. | "कचोपे"८1१1३७ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७४) जज्काय अभिधानराजेन्द्रः । जज्जियय उपशब्दे श्रादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सद ऊत् ओच्चादे- नोयणजाए बहु उज्जियधम्मए " प्राचा०१ श्रु० १ अ०६००। शौ वा नवतः । इति कत्वे संयोगादित्वाइस्वः । पाउके, प्रा०॥ नजिकयधम्मा-नजिकतधम्मा-स्त्री० यत्परित्यागाई भोजनजातउजिक-अजित्वा-प्रव्य० परित्यज्येत्यर्थे, "ज्जिलं वाले वर- मन्ये च द्विपदादयो नावकान्ति तदर्कत्यक्तं वा गृढतः सप्तस्स आभागी भवन्ति ." सूत्र० २ श्रु०२०। म्यां पिएषणायाम, पंचा०१०विवस्था०ाधा सूत्राआ०चू. नजिककण-उजिफत्वा-अव्य०उज्जत्वा ट्रीपरित्यज्येत्यर्थे, अप-] उकियधम्मिय-नजिकतधर्मिक-त्रि० सज्जितं परित्यागः स एवं सत्यं पणिहाणं लफिकण समणेणं । द०० प्र०। धर्मः पर्यायो यस्यास्ति तदुमितधर्मिकम् । सप्तमपिण्डषणानमित्तए-उज्तिम्-अव्य. सर्वस्यादेशविरतेस्त्यागतः परि- परिवाके, अणु०॥ अह उज्जियधम्मियापुथ्वदेशे किरपुब्वण्ह रज त्यक्तमित्यर्थे, नपा० २ ० ॥ “सीलवयगुणधेरमणपश्चक्याण जं तं अवरएहे परिविज्जति साधुपागमणं च तंपि जायणगतं पोसहोववासाई चालित्तए वा खजित्तए खंमित्तए भंजित्तए वा वा देजा हत्थर्ग वा देजा कप्पति जिणकप्पितरस पंचविहिम्गनमित्तप" झा०८ अ०। हर्ष थेराणं सत्तविहिं एतासिं सत्तएहं पिसणाणं के पढंति नज्जिय-कित-न परित्यागे, अनु०॥ उ. कर्मणि. क्त.।। सत्तएहं पाणेसाणं एवं पणेए वि चउत्थी अप्पसेवा तिलोदरहिते, अष्ट । जिन्न, भिणति वा उज्जियंति वा एगठमिति । गादी । आ०.०४०। आव०४०। नज्जियय-उज्कितक-पुं० विजयमित्रसार्थवाहस्थ सुन्नबायां चतुर्थी वस्त्रपात्रादि प्रतिमायाम्॥ जा-यामुत्पन्ने सुते, तक्तव्यता दुःखविपाकानां द्वितीये श्य यने दर्शिता तद्यथादब्बाश्दबहीणा-हियं तु प्रमुगं च मे न घेत्तव्यं । जणं नंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स दोहि विजावनिसिटुं, तमुजिकउलट्ठणो नई॥ अज्जयणस्स अयमढे पम्मत्ते दोच्चस्मणं ते! अज्जयणस्स नामितं चतुळ । व्यक्केत्रकाबनायोजितभेदात्तत्र व्योफितं यथा केनचिदगारिणा प्रतिज्ञातमियत्प्रमाणात हीनाधिकं दुहविवागाणं समजेणं जाव संपत्तेणं के अटे पहाते तएणं पात्रममुकं वा कमकप्रतिग्रहादिक पात्रं मया न गृहीतव्यं तदेव मुहम्मे अणगारे जंव अणगारं एवं बयासी । एवं खा केनचिपनीतं ततःप्रागुक्तयुक्त्या द्वाज्यामपि भावतो निसृष्ट जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णाम एयरे तदेव जाषितमनवजाषितं वा दीयमानं योज्जितम् । होत्या रिछ ३ तस्स णं वाणियगामस्स उत्तरपुरच्छिमे केत्रोज्जितमाह। अमुगुब्भवं पधारे, नवणीयं तं च केणई तस्स । दिसीमाए दुईप्पमासे णाणं उज्जाणे होत्था । तत्थ एं जं तुज्केतरहाई, सदेस बहुपत्तदेसे वा ॥ दुईपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था । वपओ अमुकदशाङ्गवं पात्रं न धारयामि तदेव च केनाचिदुपनीतं तदु- तत्य णं वाणियगामे मित्ते णामं राया होत्था। तत्थ णं भाज्यामपि पूर्वोक्तहेतोः परित्यक्त केत्रोज्जितम् या पात्रमुफेयु- मित्तस्स रमो सिरीणाम देवी होत्था । वमो तत्थ णं भरतादयो भरतो नटः आदिशब्दाच्चारणादिपरिग्रहः स्वदेश वाणियगामे कामज्या णामं गणिया होत्था । अहीण जाव गताः सन्तो बहुपात्रदेशे वा तदपि केत्रोज्जितम् । कालोज्जितमाह। सुरूवा वावत्तरिकलामिया चउसहिगणियागुणोववेया एकदगदोफिगाइ पुग्वे-काले जुग्गं तदनहिं उज्के। । णतीसे विससे रममाणी एकतीसरइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिहोहिश् वएस्स काले, अजोग्गयमणागयं उज्के । । सोवयारकुसला णवंगसुत्तपमिबोहिया अट्ठारसदेसीजासादोग्धिकं तुम्बकं दकस्य जनस्य यचियते तुम्बकं तदादिश- विसारया सिंगारागारचारुवेसाइगीयरगंधव्वणकुसला ब्दात्तत्र तुम्बकादिकं च यत्पूर्वस्मिन् प्रीष्मादौ काले योग्यं तदन्य- संगयगयजणियविहियविनामझझियसबावनिनणजुत्तोवयारस्मिन् वर्षाकालादावुज्केत नविष्यति वा एष्यति काले ऽयोग्यमतोऽनागतमेव यदुज्जेत तदेतदुनयथापि काझोज्छितं ज्ञातव्यम् । कुसला सुंदरथणजहणवयणकरचरणलावामविलासकलिनावोज्जितमाह । या नासियधयासहस्सखंना विदिपबत्तचामरवालवेयणिकया सण अप्तामो, पत्ते दो देइ अन्नस्स। कणीरहप्पयाया होत्था । बढणं गाणयासहस्साणं आहेसो वि अनिच्च ताई, जावुजिकय एवाईयं ॥ बच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भहितं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं सब्वा अन्यान्यभिनवानि पात्राणि पुराणानि स गृही अन्यस्य | करेमापी पालेमापी विकरातत्थ वाणियग्गामे विजकस्यचिददाति अपि च तानि दीयमानानि अपि यदा नेच्छति तदा एघमादिकं भावोज्जितं जटव्यम॥वृ०११०। नि..स्था. यमित्ते णाम सत्यवाहे परिवस । अक्ले तस्स णं विजयस्स नकियकप्प-नजिफतकल्प-पुं० फितरूपे कल्पनीयऽर्थे, अं मित्तसुनहाणाम जारिया होत्था । अहीण तस्स एं विजमगमुज्यिकप्पे, नयनूमि खणंति श्हरहातिमि असज्जाश्यप्प- यमित्तस्स पुत्ते सुनदाए भारियाए अत्तए उकिए णाम माणं अंमय निमंति वा लज्जियंति वा एगट्टं तं च कप्पे वा - दारए होत्था । अहीण जाव सुरूवा तेणं कामेणं तेणं सकिय जमीए जइ कप्पे ता कप्पं ॥ आव०४०। मएणं समणे भगवं जाव समोसवे परिसा निग्गया राया वि. उक्रिययोवमाहार-नजिकतस्तोकाहार-पुं० उजितधर्मा स्तोकः स्वल्पाहारो यस्य स उज्जितस्तोकाहारः । सप्तमपिएमषणा निग्गया जहा कूणिओ निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा राया विषयकानिग्रहधारके, ।। आव. ३ अ०। पमिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स नगवओ नजिकयधम्मग-नजिकतधर्मक-त्रिपरित्यक्तजनधर्मके, अप्पसिया महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदन जाव तेयझेसे उर्ल्ड टेणं Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७५) अभिधानराजेन्द्रः । उज्जियय जहा पत्तीए पढमं जाव जेणेव वाणियगामे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता वाणियउच्चनीयकुलाई अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता तत्यणं बहवे हत्थी पासई सणवम्मियगुडिए उप्पीलियकयत्थे उदामियघंटे पाणामणिरयणविविहगेवेज्जे उत्तरंकचुइज्जे पडिकप्पिएजयपभागवर पंचामेला आरूढे हत्यारोहे गहिया उहपहरऐए अप्ठये य तत्थ बहवे आसे पासई समबत्रम्मियगुfre विगु उसारियपक्खरे उत्तरकंचुइय प्रचूल मुहचंमाधरचामरथासकपरिमंडियकमिए आरूढस्सारोहे महियाओ हृपहरणे सिंच णं पुरिसाणं मज्जगयं एवं पुरिसं पासइ वन बंधणं नक्कतकष्मणासं पोहतुप्पियगयं वज्जकरकमिं जयणियत्थं कंप् गुणरत्तमादामं चुष्पगुमियगायं चुायं पाणीपीयं तिलं २ चैव विज्जमाणं काकणिमसाई खावितं वीक्खरसएहिं हम्ममाणं अणेगणरणारिसंपरिबुडे चचरे चच्चरे खंडपडहरणं जग्धोसिज्जमाणं इमं चां पयारूवं घोसणं सुणेइ हो खलु देवाप्पिया उज्जियगस्स दारगस्स केई राया रायपुत्ती वा अवरज्जइ । अप्प - यो से सयाई कम्माई अवरज्जइ तरणं से जगवं गोयमस्स तं पुरिसं पासिता इमे अज्जत्थिए ४ ग्रहोणं इमे पुरिसे जावरपाडरूवयं वेयणं वेएसित्ति कट्टु वाणियगामे एयरे उच्चणीयकुले २ जाव अममाणे अहापज्जतं समुदाणं गेएह वायगामं यरं मज्जं मज्जेणं जाव पमिदंसेइ स मणं जगवं महावीरं वंदइ एसइ एवं वयासी एवं खलु अहं ते तुम्भेहि अजमाए समाणे वाणियगामं जाव तत्र निवेएइ सेणं जंते पुरिसे पुव्त्रभवे के यासि जात्र पचणुब्भवमाणे विहरइ । एवं खलु गोयमा !रुणं कालेणं तेणं समए क्षेत्र जंबूद्दीवे दीवे जारहे वासे हत्थिणाउरे एामं यरे होत्या । रिट तत्थ णं हत्यिाउरे णयरे सुदे णामं या होत्या । महियाहिमवंत मलय मंदरतत्य णं हतिणारे णयरे बहुमज्जदे सजाए तत्थ णं महं एगे गोमंमहोत्था । अणेगखंनसयसाििवडे पासाईए ४ तत्य बहवे णयरे गोरुवासणाहा य असाहाय एयरगावीओ य एयरवलीवद्दा य एयरपडियाय णयरमहिसओ यायरवसना य पउरतणपाणी य पिन्जया णिरुव्विया सुहं सुहेणं परिवस । तत्थ एवं हत्यिणाउरे जीमणामे कडग्गा हे होत्या । अहम्मिए जाव दुष्पमियाणंदे वस्स णं जीमस्स कृरुरगाहस्स उप्पला एामं जारिया होत्था । प्रहीण तरणं साउत्पन्ना रुग्गाहिणी अक्षया कयाइ आवसत्ता जाया विहोत्था । तरणं ती उप्पलाए कूरुग्णाहिणीए तिएहं मासाणं बहुपरिष्ाणं प्रयमेया रूवे दोहले पाउन्नूए ताओ अम्मयाओ ४ जाव सुलछे जाऊ For Private नज्जियय बहु बहुएं यरगोरूवाणं सम्हाण य जाव वसताण य कहि यथोदि य वसोहि य छिप्पाहि य कुकुहेहि य ह य क य क्खिहि य णासाहि य जिन्नाहि यहि कंवलेहि य सोलेहि य तसंतेहि य नज्जिएहि य परिसुकेहि य बामणेहि य सुरं च मनुं च मेगरं च जाईच सिधुं च पसणं च आसाए माणीओ विसाएमाणी परिजामाणी परिश्रुंजमाणी ओ दोहलं विण्ज्ञ्जति तं जईणं मवि बहुणं एयरं जाव विणिज्जामि तिकट्टु तांसि दोह विज्जि माणंस सुक्का नुक्खा निम्मंसा उल्लग्गाउलरगतरीय नित्तेयादीणं च मणवयला पंमुल्युश्यमुही इमं च एनीमे कुरुग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाहणीए तेणेव उवागच्छइउवागच्छत्ता उदय जात्र पास पासइत्ता एवं बयासी । hi तुमं देवाओ जिया हिंसि तरणं सा उप्पला जारिया मडग्गाहं एवं बयासी । एवं खलु देवा ममं तिएहं मासाणं बहुपुष्प दोहलं पाउन्नूए धष्याणं ४ जाउं बहुणं गोरुवाणं कहेहि य जाव लावणएहि य सुरं च ६ साएमा ४ दोहसंवििित तए णं अहं देवाएप्पिया तंसि दोहसि विज्जिमाएंसि जाव ज्जियामि । तए से जीमकूरुग्गाहे उत्पन्नं जारियं एवं बया० माणं तुमं देवापिया उहज्जियासि ग्रहणं तं तहा करिस्मामि जहा णं तत्र दोहलस्स संपत्ती नविस्स ताहिं हा कंताहिं जाव समासासेइ तएवं से जीमे कूडग्गाहे अरत्तका समयंसि एगे अबीए समाजावपहरणे साओ गेहाओ uिrat fuगच्छश्ता दत्थिणारं मज्जं मज्जेणं जेणेव गोमंत्रे तेणेव उवागच्छ नवागच्छत्ता बहुएं एयरगोरुवाणं जाय वमनाए य अप्पेश्याएं कच्चिद अप्पेगया कंबल जिंद अप्पेगइयाणं प्रणमणाणं गोवगाइ विगेश विगेइत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागछत्ता उप्पलाए करुग्गाहणीए व तरणं सा उप्पला जारिया तेहिं बहुहिं गोमंसेहिं सोनेहिं सुरंच आसाएमाणीए ४ तं दो वितणं सा उप्पन्ना कूरुग्गाहणी संपुष्ादोहा समादो हल्ला विच्छिदोहला संपादहला तंग सुहं सुहेां परिवस । तए णं सा उप्पला कृरुग्णाही अ या कयाई नवहं मासाणं बहुपरिपुष्णणं दारगं पयाया । तए णं वेगं दारएणं जायमित्तेणं चैत्र महया २ सण ags विसरे आरसिए तरणं तस्स दारगस्स आरोयस सोच्चा सिम्म हत्थिानरे एयरे बढ़ने एयर गोस्वा जाव वसा य जीया ४ विग्गा सव्वओ संमंता विप्पलाइता तरणं तस्स दारगस्म अम्मापियरो यमेयास्वे मज्जं करेइ जम्हा णं अम्हं इमेणं दारपणं जायामते चैत्र महासंद विधु विस्तरे आरस्सिए तरणं Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७६ ) जझियय अनिधानराजेन्द्रः। उझियय एयस्स दारगस्स आरसियसद्दे सोचा णिसम्म हथिणा- डगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेणं नवगए। तएणं से विजउरे वहवे पयरे गोरूवा जाव जीया ४ सव्वनो समंता यमित्त तत्य लवणसमुद्दे पोत्ते विवत्तए णिबुझ मस्सारे विप्पनाश्त्ता तह्माणं होऊं ब्रह्मे दारए गोत्तासे णामे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते तएणं तं विजयसत्थ णामेणं तए णं से गोत्तासे दारए उम्मुक्कवासनावे जाव जाए वाहं जे जहा बहवे ईसरतावरकोबियम्भसिटिसत्थवाहा यावि होत्था । तए णं से नीमे मग्गाहे अप्पया कयाई लवणसमुद्दो पोयविवत्तियं निव्वुमनंमसारं कालधम्मुणा कालधम्मणा संजुत्ते तएणं से गोत्तासे दारए बहुर्ण मिन संजुत्तं सुणे ते तहा हत्थाणिक्खेवं च बाहिरजमसारं च णाई णियगसयणसबंधिपरिजणेणं सकि संपरिवुड रोयमा गहाइ एगं तं प्रवक्कमइ । तए णं सा सुनदा सत्यवाही विणे कंदमाणे वियवमाणे नीमस्स कृमग्गाहस्स गीहणं करेइ जयामित्तं सत्यवाहंबवणसमुद्दे पोएविवित्तिं णियुमं कालकरेइत्ता नहुश्लोऽयमयकिचाइ करेइ करेऽत्ता तएणं से सुणंदे धम्मुणा संजुत्तं मुणेइ सुणेत्ता महया पइसोएणं आपमा राया गोत्तास दारयं अप्पयाकयावि सयमेव कूमग्गाहेत्ताए ममाणीपरसुनियत्ता विव चंपंगत्रया धसइ धरणीतलंसि उवे । तए णं से गोत्तासे दारए कुमग्गाहे जाएयावि सव्वं गहिं समिपडिया तएणं सा सुनद्दामहत्तरेणं श्रासहोत्था । अहम्मिए जाव दुप्पमियाणंदे तए णं से गोत्ता स्था समाणी बहुहिं मित्त जाव परिवुमा रोयमाणी कंदसे दारए कृमग्गाहे कझाकविं अचरत्तकालसमयंसि एगे माणी विलवमाणी विजयमित्तं सत्यवाहं लोइयाई मयं अबीए सम्मकबककवए जाच गहिया उहपहरणे साओ- किच्चाई करेइ करेइत्ता तएणं सा सुनद्दा अप्पया कयाविनवगिहाओ णिज्जइ जेणेव गोमंगवे तेणेव नवागच्छद नवाग- एसमुद्दोतरं च लच्छिविणासं च पोतविणासं च पतिमरणं उता बहु णं एयरमोरूवाणं सणाहा य जाब वियंगत्तेइ च चिंतेमाणी २ कालधम्मुणा संजुत्ता । तएणं णायवियगश्त्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्च नवागच्चइत्ता रगुत्तिया सुभदं सत्यवाहिं काझगयं जाणित्ता उज्यिगं तएणं से गोत्तासे कृमग्गाहे तेसिं बहुहिं गोमंसेहिं सोबेहिं दारगं सो गिहाओ णिचुनंति उच्नतिता तं गिहंअसुरं च ६ आसाएमाणे ४ विहरइ तए णं से गोत्तासे हास्स दनयंति । तएणं से मियदारए सयाओ गिहाओ कुडग्गाहे एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे एयसगमायारे सु निच्छुढे समाणे वाणियग्गामे यरे सिंघामगजावपहेसुबहुपावं कम्मं समन्जिणित्ता पंचवाससयाई परमाउं पालश्त्ता जूयखनएस वेसियाघरएसु पाणागारेमु य सुहं सुहेणं परि अट्टहट्टोवगए कालमासे काझं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उ- वइ । तएणं से उवकिए दारए अपोहट्टए अणिवारए कोर्स तिसागरोणरक्ष्यत्साए नववाहो । तएणं साविजयमित्त- सच्चदमइसयरप्पयारे मज्जप्पसंगी चोरजूयवेसदारप्पसंगी स्म सत्यवाहस्स सुनद्दा नारिया जाइ जिंदुया वि होत्था। जाएयावि होत्था । तए णं से उज्जिए अस्मया कामक्रियाजाया दारगाविणी हायमावज्जति तएणं से गोत्तासे कूम ए गणियाए साई संपलिग्गे जाएयावि होत्या काम ग्गाहे दोचाओ पुढवीओ अणंतरं नव्याहत्ता इहेव वाणिय- ज्जियाए गणियाए सचिउराबाई माणुस्सगाई जोगनोगाई ग्गामे पयरे विजयामत्तस्स सत्यवाहस्स सुनदा नारिया मुंजमाणे विहरइ तएणं तस्स मित्तस्स रएणो अप्ठाया कयावि कुचिसि पुत्तत्ताए उववणे | तए एं सा सुभद्दा सत्थवाही सिरीए देवीए जोगीसूक्षपाउब्लूए या वि होत्या । णो अम्मया कयाविणवएहं मासाणं बहुपमिपुमाणं दारयं पया- संनाएइ मित्ते राया सिरी ए देवीए सकिं उरालाई माणुसया। तए णं सा सुनद्दा सत्यवाही तं दारगं जायमेवयं चेव गाई जोगनोगाई नुंजमाणे विहरु विहरित्तए तए एं से एगते उकुरुमियाए उमावेश नज्मावइत्तादोच्चं पि गिबहावेश मित्ते राया अापया कयावि न कियए दारए कामक्रियाए गिएहावेत्ता आणुपुब्बाएं सा रक्खमाणी गोवेमाणी संबकेश गाणयाए गिहाओ णिच्छुत्नावेइ णिचुनावइत्ता कामजिकनओणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे णिवत्ते यं गणियं अजितरयं वेइ । काम कियाए गणियाए सर्कि संपत्ते बारसाहे अयमेवारूवे गोणं गुणणिप्पमं णामधेनं जरालाई जाव विहर तएणं से उफियदारए कामकियाकरे जह्मा एं अह्म इमं दारए जायमेत्ताए चेव एगते उक्क- ए गणियाए गिहाओ णिचुनविसमाणे कामज्जियाए रुमियाए जन्मिए तह्माणं होउं अह्म दारए नक्रियाणामेणं गणियाए मुछिए गिछे गढिए अज्कोववाले अम्मत्थ कत्थ तए णं से उजिए दारए पंचाई परिग्गहिए तंजहाखीर- इ सुयं च रतिं च धितं च अविंदमाणे तच्चित्ते तम्ममे तवेधाई १ मज्जणधाई २ मंडणधाई कीलामणाई ४ अंकधाई | से तदवसाणे तदट्ठोवउत्ते तयपियकरणे तन्नावणानाएजहा दकृपइसे जाव णिवाय णिवाघायगिरिकंदरमसी एव विए कामक्रियाए गणियाए बदणि अतराणि य निदाणि चंपगपायवे सुई सुहेणं विहरइ । तएणं से विजयमित्ते सत्यवाह | य विवराणि य पमिजागरमाणे २ विहर । तए णं प्रणया गणिमंच धरिमं च मेज च पारिच्छेजं च चउब्बिई- से उकिए य दारए अप्पया कामकियं गणियं अंतरं Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । उजियय लने कामज्जियं गलियं गेहि रहस्सइगं प्रणुप्पत्रिसर अप्पविसता कामज्जियाए गणियाए सार्द्धं जरालाई जाव विहर। इमं च णं मित्ते रायाए हाए जाव कयवकम्मा कयकोजयमंगलपायच्छिते सव्वालंकारविजूसियमाणस्स वागुराए परिखित्ते जेणेव कामगणियाए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइभा तत्थ एां उज्जियए दारए कामज्जया गणियार सिं जरालाई जान विहरयाणं पासइ पासता प्रासुरुते ४ तित्रनिं निउमिं लिलामे साहहु | जयं दारयं पुरिसेहिं गिएहावेइ गिएहा वेत्ता डिमुट्ठिजाको परप्पहाणं संजग्गमहियमत्तं करेइ करेइत्ता अवनaria करेइ करता एएणं विहारेणं बज्ऊं आणावे | एवं खघु गोयमा ! उज्जियए दारए पुरा पोराणाणं जाव पचप्प विहरइ | उज्ऊएणं अंते दारए पणवीसं वासाई परमाउं पालता अज्जेव जागावसेसे दिवसे सूल निष्ठो कए समाने कामासे कालं किया कहिं गमिहिंति कहिं उवज्जिर्हिति ? गोयमा ! उज्जियए दारए पणवीसं वासाई पर अज्जेव नागावसेसे दिवसे सूझजिये कए समाले काम का किया इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए रश्यare उववज्जिर्हति सेणं तो अनंतरं वज्जित्ता इहेव जंबुद्दी दी जारहे वासे वेयढागरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उबवज्जिर्हिति सेणं तत्य उम्मुकत्राञ्जनात्रे तिरियजोए सुमुच्छिए गिळे गढिए ज्योववम्प्रे जाए वाणरपers | एय कम्मे ४ कालमासे कालं किंवा देव जंबूदीवे जारहे वासे इंदपुरे एयरे गणियाकुसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिंति तरणं तं दारगं अस्मापियरो जायमेत्ते कं बहिंति । तरणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो वित्तवारसाहे दिवसे इमं एारूवं सामघेज्जं करेहिंति । होनणं पिथसेणे पुंसए तएं से पियसेो णपुंसए उम्मुकत्राननावे | जोन्गममुपत्ते त्रिणयपरिणयमित्ते रूवेण य जोवणेण य लावण य किट्ठे किट्टासरीरा नविस्स । ताएं से पियसेणे पुंसए इंदपुरे एायरे बहवे राईसर जाव पत्नियत्रो बहुहिय विज्जाओगे हिय मंतचुरणेहि य उड्डाणेहि य न्हवणेहि य पहवणेहि य वसीकरणेहि य अश्रिगेहि य आजियोगित्ता उरालाइ माणुस्सए जोगजोगाई तुंजमाणे विहरिस्त । तए ां से पियसेो णपुंसए एयकम्मे ४ सुत्रदुपावकम्पं समज्जिणित्ता इकवीसं वाससयं परमाउं पाहता कालमासे कालं किच्चा इसी से रयप्पनाए पुढवीए णेरझ्यत्ताए उववज्जिर्हिति । तओ सिरिसिवे सुसंसारो तहेब जाव पढमो जाव पुढविसेणं तम्रो अांतरं नवभित्ता sa jatia भार वासे चंपाए एयरीए महिसत्ताए पच्चायादि ति सेणं तत्थ अछाया कयावि गोहेनएहिंजी - विया विरोविसमाणे तत्येव चंपाए एयरीए सेहिकुलं उत पुतताए पश्चायाहिंति सेणं तत्थ उम्मुकबाझनावे तहा aarti थेराणं तिए केवलं बोहियणगारे सोहम्मे कप्पे जहाम जातं करोहिंति णिक्खेवोविश्यं प्रकयणं सम्पत्तं । वि० ० ॥ (टीका शब्दार्थमात्रदर्शिनी त्युपे किता ) उज्जिया - बज्जिका - स्त्री धनसार्थवादसुतस्य धनपालस्य भार्यायाम का० उभ । उज्जे- यूयम् - युष्मान् भे तुम्भे लज्जे तुम्ह तुम्हे रहे जा ८ | ३ | ११ | वो तुम्ने उज्के तुम्हे उन्हे नै शसा । ३ । ९३ । शते च युष्मच्छब्दस्य जसा सह शसा सह व बज्के इत्यादेशः । यूयं पदस्य युष्मान् पदस्य चार्थे, प्रा० ॥ उट्ट - उष्ट्र- पुं० स्त्री० उच्० ट्रन् कि० ट्रस्यानुष्ट्रे ष्टा संदष्टे । ८ १ २ । ३४ । इति उष्ट्रपर्युदासात् ष्ट्र प्रागस्य नः ठः । प्रा० । ( ऊंट ) इति प्रसिके करनपर्य्याये चतुष्पदर्भेद, अप० । प्र० । 'अह नंते उट्टे गोणे खरे घोरुप' प्रज्ञा०११पद स्त्रियां जातित्वान् ङीष् वाच० । कर्म० । जलचरविशेषे च० । मग्गु बट्टा दगरक्खसो सूत्र० १ ० ७ श्र० । उट्टपाय - उष्ट्रपाद - पुं० ६ त० । करजचरणे, । धास्त कमिय हस्स इमेयारूवे वे जमणामए उट्टपापति वा” राष्ट्रपाद इति षा करनचरणो हि प्रागद्वयरूपोन्नतश्चाधस्तात् नवतीति तेन युक्तप्रदेशस्य साम्यम् । अतु० ॥ उट्ट लिंड- उष्ट्र लिएड - न०क्रमेलकपुरी पपिएमे, दश० || उष्ट्रलिएकसंसूचितकथा जावग शब्दे ) उट्टिय-औष्ट्रिक - त्रि० उष्ट्राणामिदमौष्ट्रिकम् । ( उष्ट्रसम्बन्धिनि, ) उष्ट्रलोममये सूत्रभेदे, अनु० । स्था । वप्रियं कंवलं वट्टियं कंवलं जा पायपुरणं नवति, नि० चू० १६ उ० ॥ " उचितप्रमाणे, णस्मत्थ' श्रहिं वट्टपहिं उदगस्स There " भ्रष्ट्रिका वृहन्मृणमय जाए तत्पूरणप्रयोजना ये घटास्ते राष्ट्रिका उचितप्रमाणा नातिलघवो महान्तो वेत्यर्थः । उपा० १ भ० । उट्टिया - उष्ट्रिका स्त्री० उष्ट्रस्याकारः पृष्ठावयव श्व श्राकारोऽस्याः उन् । मृणमये मद्यभाएकभेदे, सुरातेयादिनाजनविशेषे, उपा० ७ to 'orea सं गणसंघियं राष्ट्रिका भाजन विवेषस्तस्याकनकपालं तत्संस्थानं तत्संस्थितम् । उपा० २ भ० । उट्टियासमणा - उष्ट्रिका श्रमण-पुं० राष्ट्रिका महामृन्मयोनाजविशेषers प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति तपस्यन्तीत्युष्ट्रिकाश्रमणाः । आजीवकश्रमणनेदेषु, औ० ॥ उट्टी - उष्ट्री-स्त्री० उष्ट्रजातिस्त्रियाम्, “उट्टीणं ताणि णो हुति” ट्रीणां तानि दध्यादीनिन जयन्तिमाहुटजावादितिपिं० व०धि० उठ - उद्स्था०धा० उदः परस्य तिष्ठतेः कुकुरइत्यादेशौ घा भवतः । उत्थाने, उट्ठश् उक्कुकुर | प्रा० ॥ उट्ठ - ओष्ठ - पुं० उष्यते उच्धाहारेण उष् कर्मणि घम् । दशनच्छ, निरुपपदोष्ठशब्दश्च प्रायेण उत्तरोष्ठ एव कविभिः प्रयुज्यते ताम्रौष्ठपर्यस्त रुचः स्मितस्य कुमा० उपपदे तूभयतः उमामुखे विम्बफलाधरोष्ठे । वाच० । उपचियसि अप्पवास विफलसमिहाहरोठा । प्रज्ञा० २ पद० । उन उत्तिष्ठत्-त्रिवत्थानं कुर्वति । प्रा० ॥ For Private Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७८ ) अभिधानराजेन्द्रः । ग लडुवइ तिपद्येत्यर्थे "अदास्यं बंदिस्वामि जदा से समने नगवं उ डायसंखाए" श्राचा० १० ८ अ० १३० । उच्च-प्रष्ठच्छिन्नक - शि० ६ ० खरितोष्ठे श्र० । उट्ठा उडा उत्थाखी० नृत्यानमुत्या वर्तने, “बट्टार उद्वेद" मि० । रा०वि० ॥ उत्थानमुत्थानाभि ति । इह उडे इत्युक्ते क्रियारम्नमात्रमपि प्रतीयेत तथा वक्तुमुसिठत इति ततस्तद्यवच्छेदार्यमुक्तमुत्यायेति उपागच्छती तरक्रियापेक्षया उत्थानक्रियायाः पूर्वकालाभिधानायोत्यायो त्यायेति क्त्वाप्रत्ययेन निर्दिशति । यद्यपि द्वयोः क्रिययोः । पूर्वोत रनिर्देशाच्या पूर्वकाल आपसज्य एव तथापि शुब्जानो वजत स्वादीयोः क्रिययोगपद्यदर्शनादानन्तर्थस्वनार्थमित्यमुपन्या सः उत्थानक्रियासव्यपे कवाडुपागमनकियाया इति जं०१ व ० उडाण - उत्थान- न० उद्०स्था०ल्युट् । ऊर्ध्वोजवने, प्र० । ७०७४० भ्रयणाय गुरुं प्रत्यभिमुखगमने ००२०पा० 1 सू० प्र० । गुरुमागच्छन्तं दृष्ड्डा ऊर्ध्वजवने, वृ० ३ ० । सस्थान उडि (प) उत्थित० उ० स्था० ० उदयप्राध रा० । "पि रे" युक्ते आदित्ये अनु० सोड द्वितो चिंते" आ० म० द्वि० । समुपजाते, प्रश्न०२द्वा० । औ० नायोत्थानेन संचमानुष्ठानरूपेण उत्चत्ये स्थितवत्तः। आचा० १ ० ६ अ० ५ ० । धर्मचरणायोद्यतेषु ज्ञानदर्शनसारित्रोद्योगवत्सु, आचा० १ ० ४ ०१० । “अह पास विवेगमुडिए अवि तिन्ने श्ड भास धुवं" सूत्र० १० २ अ० । मि० चू० । सिते ०३४० ओ० वृद्धि, उत्थानके, अनुपविषे त्पन्ने च । वाच० ॥ "एओ वि उट्टिभ संता दारगं च संववंति धाई वा " सूत्र ०१श्रु० ४ ० ॥ उडिसा हत्या उत्थानं कृत्य "संका भीओ न गच्छेज्जा उडित्ता असमास " ॥ उत० २० अ० । (य) मस्तिद ० ६ ० , कौ, उट्टियको साहू अचिरेण उवेति सासयं णं । पच्छि पार्थ जयति तदा विसुरुचरणो मुख पा यति० नि०यू० २० उ० ॥ सन् जयति पा० ६० औ०देश विशेषे, प्रज्ञा० २३ पद । स्था० । उत्पत्ती, ज्ञा० १४ अ० । इसने नं० 1 प्रथममुमने, उत्त० ११ अ० । चित्तदोषे, उरयाने निदान करणमकरोदयं सवास्याः ० १ विच० । करणे उत्सादे पद अधिकरणे ह राज्यचिन्तनरूपे तन्त्रे, प्राङ्गणे वैत्ये प्रबोधे च । वाच० । उठा कम्बलवी रियपुरिसक्कारपरक्कम - उत्थानकमेव प्रवीर्यपुरुकारपराक्रम - उत्थानं चेष्टाविशेषः कर्म च भ्रमणादिक्रिया वधुं च शरीरसामर्थ्यं वीर्ये च जीवभवं पुरुषकारश्चानिमानविशेषः जत्ति - उत्याय- अव्य० उद्- स्था० ल्यप्० । उत्थानं कृत्वेत्यथे, उति सपरिवारो " पं० ब० । लडुनहता अष्ठीय निष्पत्त्य उडुता सावत्थीए जयरीप सिंघारग जाव पसु श्राकटुवि कार्ड करेमाणे० ० १५ श० ७ ० । पराक्रम पुरुषकार एव नित्यादिस्वविषय इति विम-१० आयोवचैन्य शिष्य वेदनामय मुनेः शिष्यभेदे कबभावः । पीयन्तराय कृषयोपशमसमुत्यजीयपरिणामविशेषाणामुत्यानां समु० तेषु प्रत्येकशब्दो योजनीयो वर्षान्तरायोपशमः प्रत्येक जघन्यादिभेरैरनेक स्वेषामेकजीवका कृषयोपशममात्राया एकविधत्वादेक एव जघन्यादिरेतद्विशेषो भवति कारणमात्राधीनत्वात्कार्यमात्राया इति सूत्रज्ञावार्थः । शेषं प्राग्वदिति । स्था० १ ० ॥ उट्ठालपारियावणिय उत्थानपारियापनिक - न० परियानं विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियापनिरितमुख्यमन भार ज्य पारियापनिकमुत्थानपारियापनिकम् । न० १५० १७० । उत्यानं चोत्पत्तिः पारियापनिका च कालान्तरं यावत्स्थतिरिति उत्पानपारिया पनि जरिये जीवनचरित्रे, "सज्यं च से उडापारियात्रयिं परिकरेह" झा० १७ अ० । गोसानस्ल मंत्रलिपुत्तस्स उठाणपारियाबणियं परिकहियं' । भ० १५० १४० । उद्वाणसुय - उत्थानश्रुत- न० उत्थानमुहसनं तकेतुः श्रुतमुत्थानश्रुतम कालिकत भेदे नं० "परिवस्तिर दियं वाणसुर्य तु तत्थ उद्देश्” ॥ यत्र प्रणिधाय उत्थानश्रुतं परावर्त्यते तत्र कुलग्रामदेशादिति उब जयतीत्यर्थः तच दशवर्षपर्यायस्य दीयते व्य० ६० १ ० । तच्च शृङ्गनादिते कार्ये उपयुज्यते चूर्णिकारकृता भावना सज्जेस्सेगस्स कुलस्स वा गामस्स वा नगरस्स वा रायहाणीए वा समये कय संकप्पे आसुरुते चमकिए अप्पासन्ते अप्पसत्तमे से वि समा सुहाणत्थे तव उत्ते समाडायमणं परिषद तं च प दो यातिथि या वारे ताहे से कुल्ले वा गामे वा जाव रायहाथी वा ओह यमएसकप्पे वित्रयं यं यं पहावेंति । ते उकेश चव्यत्ति नणियं होति । नं० । पा० । उट्ठाय - उत्थाय - अव्य०७० स्था० ल्यप्० । उद्यतविहारं प्र -- भार्गवे गौतमस्य शिष्यभेदे च वाच० । “इंदे वरंकारसिपतीरुववती दिडाए समं अधिगमं गतो सो तत्र णिग्गंडतो - केण दि. नि०० १२ ४० । रुपजायते जन क पत्रादिनिर्मितशालायाम्, वाच० ॥ तापसाश्रमे, नि० जी० । स्था० । “जेणेव सर उमए तेणेव उवागच्छति किदिएसंकाश्यं वेति" नि० "जम दिया राय हृणामि महखप्पिस ते मे दडो, जायं सरणओ जयं” नि० चू० १३० । उ-उ-स्त्री. न. सम्-वा०कु० । नकुत्रे, उत्त० ११ अ० । जने च । स्त्रीत्वे वा ऊङ् । कौ० । वाच० । ऋतु-पुं० प्रादादी०प्र० (उ प्रकरणे सर्वेभ्यो दर्शिताः) उज्माण - पोह्यमान- त्रि० नियमने, पंर्कसि या पण स् वा चक्कसमार्णि वा उरुज्जमाणि वा अपोह्यमानां वा पङ्केन उदकेन वा नीयमानाम् । वृ० ६ ० । वा (म्) पति-पुं०] उरुन नाणां पतिः प्र रुपतिः चन्द्रे, उत्त० ११ अ० प्रश्न० । जं०] । तं० श्री० । “चन्द्रः शशी निशाको रजनिकर उपतिरित्येवमादयचन्द्रः अ० म० द्वि० । जहा से मुबई चंदे, नक्खत्तयपरिवारिए । परिपु पुप्रमासीए, एवं हवइ बहुस्सुए || २५ ॥ यथा स चकूनां नत्राणां पतिः प्रभुरुरुपतिः । कइत्याह चन्द्रः शशी नक्कत्रैरश्विन्यादिनिरुपलक्षणत्वाद् प्रहस्तारानिश्च परिवारः परिकरः संजातोऽस्येति परिवारितो नक्कत्रपरिवारितः प्रतिपूर्णसमस्तकाशोपेतः । स चेटक कदा भवत्यत Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७९) अभिधानराजेन्द्रः | उडुवइ आह । पौर्णमास्यामि च चन्द्र इत्युक्ते मा भूतू रामचन्द्रादायपि संप्रत्ययत्युरुपतिग्रहणम्। उपतिरपि च कश्चिदेकाकव नवति मृगपतिपत उर्फ नत्रपरिवारितः सोयपरि पूर्णोऽपि द्वितीयादिषु संभवतीति परिपूर्णः पौर्णमास्यामित्युत येवं नयति बहुतोऽसावपि निषाणामियाने कानाम धिपतिस्तथा तत्परिकरितः सकलकलोपेतत्वेन प्रतिपूर्णश्च प्रतीति सूत्रार्थः । उत्त० ११ प्र० । चन्द्रमएमले, ज्यो० जलैशे, वरुणे च० । वाच० ॥ लङ्घत्तासामण यद् भवति ” सूत्र० १४० २ ० । उत्पाटिते, हेम० । अनुपविष्टे, दएमायमाने, उक्तिप्ते, वाच० । गुजे च । अनु० । चमने, न० । वृ० १ ० । उ-उ-१० मार्गस्यो भूना, सू० १०२० । ( जाए (क) मानु० जा यस्यासापूर्णजानुः । गुरूपूथिन्यासनवर्जनादीपमदिक निषद्याया नावात्कुटुकासने, “उनुं जाणू अहो सिरे झाणकोडोभ० १ ० १ ० | जं० सू० प्र० । औ० । वि० । चन्द्र० । ज्ञा० । सो उकुंजाणू अहो सिरो चिंतंतो चि‍ आव० अ० " चगए लमुत्रर - नकुबर - पुं०सूर्ये, “तिथि सहस्से सगले कुच सप उरुघरो हरइ," तं० । उवा मियगण - कुपाटितगल-निर्गते गणे, चरेकिंग-क-० तापसनेषु ये माप कएकूयन्ति नाधः । न० ११ श० ९० । तो महजसेहितो नारदायसगोहितो पत्य णं वाषिणाम गये गिमाए" कल्प० । उपकाय-काय पु०न० क कायस्य एकदे० ३० देदस्योर्ध्वजागे, काके च । " ते ऊडुकापा पखजमाणा अवरेहिं । खंजंति सएफपर्हि " होयैः काकैः वैक्रियैः प्रखाद्यमानाः । सूत्र० १ . ५ अ. ७ ० । उडगावपरिणाम-ऊर्ध्वगौरवपरिणाम- पुं० श्रायुःपरिणाममेरे, येनायुः स्वभावेन जीयस्यादिशि गमनशकिणपरिणामो भवति गौरवगमन शक्तिलक्षणपरिणाम नयति स गौरवपरिणाम रुद गौरवशम् गमनपत्ययः। स्पा०१० वा. । उचर- ऊर्ध्वचर- त्रि० उपरिचरे गृरूादौ, आखा ०१०८ ०८. उच्चशिरोह ऊर्ध्वनिरोध-पुं० यमननिरोधे “कु ऊर्ध्वं वमनं तनिरोधे कुष्ठं भवति । वृ. ३ उ० । उत्ता-उर्ध्व (ई ) ता - स्त्री०मुख्यतायाम्, श्रसार नो कुसाप दुक्ख सानोसुहन्ताप ज्जो परिणमंति, भ० ६ श ३४० । उत्तासामण - ऊर्ध्व (ई) तासामान्य - न० ऊर्ध्वमुखे खिताऽनुगताकारव्यत्ययेन परिविद्यमान तासामान्यम् । सामान्यरूपं पूर्वापरपरिणामसाधाररूयतासामान्यं कटककङ्कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं तितस्तान् पर्यायान् गच्छतीति त्याचा विकाशान याची या वस्त्वं यता सामान्यमित्यभिधीयते नि ममेव ॥२०॥ कयादिवीपूर्वक उत्तरं अथ सामान्यं द्विप्रकारं दर्शयन्नाह । ऊर्ध्वतादिसामान्यं पूर्वापरगुणोदयम् । पिल्लाभितादिसंस्थाना - नुगेका मृद्यथा स्थिता ॥ ४ ॥ पूर्वः प्रथमो ऽपरोऽतनो यो गुणो विशेषस्तयोरुदयकरणं पूर्वापरगुणोदयं पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं अन्य निकायो शस्त्रपूतासामान्यमित्यभिधीयते । निदर्शनानमेव वच पिएको मृत्पिएमः आश्रितः कुसूल इत्यादयोऽनेके संस्थाना आतयस्तासु अनुगता पूर्वपरसाधारणपरिणामरूव्यरूपा मृत्तिका तथाकारा स्थित पततासामान्यं कव्यते यदि प आदिपर्यायेषु अनुगमकं मृद्यं कथ्यते तर्हि घटादिपर्यायेषु अनुगतं घटादिऽन्यमपि न कथ्यते तदा च सर्वे विशेषरूपं जवतः ऋणिकवादिबौरूमतमायाति अथवा सर्वद्रव्येषु एकमेव इव्याणां गच्छतीति ततः घटादिभासदतिसामान्यमृदादिकव्ये वानुभवानुसारेण परोर्ध्वता सामान्यमवश्यमङ्गी कर्त्तव्यम् । पटादिज्यानि स्तोकपर्यायस्यापीनि पुनर्मृदादिया बहु पर्यायव्यापी नि सन्ति इत्यं नरनारकादिषन्याणां विशेषो ज्ञातव्यः । कु विमान - उरु विमाण - न० सौधर्मेशानयोः प्रथम प्रस्तवर्तिनि चतसृणां विमानानां मध्यभागवर्तिनि वृत्ते पाया विमानकेन्द्र "उठविमा बिमागे पणवाडीसंजोयमहस्वारं श्रायामनिक्यांभेणं वं०सं०] सौधर्मको प्रथमे विमाने स्था० ४ वा० 1 लड्डू (ओ) पुं० प्राच्यदेशने समिथिलापुferi दिशीति प्रतीयते । वाच० ॥ तद्देशजे मनुष्ये च । सच देशोनाकेत्रम् । तदूवासी जनश्व म्लेच्जातीयः । प्रय० २७ अधि० । सूत्र० । प्रश्न० । वाच० । सर्वत्र उरुशब्दश्रवणात् उकारादित्वम् । रघुनन्दनेन तु ओमश “ देशव्यवस्थितमिस्युक्तत्वात् " धोकारादित्वमपि अस्य देश तस्य राजा तदस्यानिजन इत्यर्थे च । अण् ओम । ताजे, तद्वासिनि च । बहुषु तस्य मुक् । बरु ताजेषु तन्निवासिषु च । वाच० । उचक० व्याकुरी, उचगावाडी ००१०० " उहुंचका उदूघटकास्तान् कुर्वन्ति " वृ० १ उ० ॥ उड्ड (ई) मग उदएकक पुं० वानप्रस्थतापसभेदेषु, ऊर्ध्वोकृतदएमा ये सञ्चरन्ति । श्रो० ॥ ज० ॥ खट्टय- उारित न० (प्रकार) इति प्रसि पण उडुपणं वायणिसमोणं " आव० ॥ अ० 1 स० । " I उड्डाण उड्डापन-नाकर्षणे " का कायदे हृदयो ड्रापनं चित्ताकर्षण हेतुः । ज्ञा० १४ अ० । उड्डाह - उड्डाह-पुं० उपघाते, "नेत्रां दिड उड्डाहो, खड्डाह उपघातः प्रवचनस्य जवति । श्र० । प्रवचनलाघवे, उड्डाहो नाम अहो अमीषामनुकम्पा ये विविक्तानामपि अस्माकं चीराणि न प्रयच्छन्ति । वृ० १ ० । उड़ाहो नाम पते मायावन्तः पापा वा परोपघातकारिणश्च । वृ० ३ उ० । मात्रिन्ये, व्य० प्र०१० ॥ खिंसायां च । “वोच्ज्ञेय पत्रोलाई उड्डाहमनाणि वाओ य” प्रवचनस्य उड्डाहः खिंसा । पिं० । नि० १० चू० ॥ उपमान० प्रत्यासक्रमाकाशे परिभ्रमति, रा० । उपदेश ०० (कार) इति प्रसि उभरे वात सिग्गे वा करेमाणे आचा० २ श्रु० । उ०- हाइम-पू० करादेशः । उचे उपरि उपरितने व । वाच० । उटुं दूरं वीश्वता । स० । ऊर्ध्वमुपरि, अनु० । ऊर्ध्वलोके, प्रश्न० अध० ३ द्वा० । स्था० । सर्वोपरिस्थिते मोके, " बहिया उघुमाया य णावकंखे कया वि" ऊर्ध्वलोकाप्रस्थानं मोदम् । उत० ६ ० तम्हा उटुंति पासहा अद्दषखु कामाइ रोगवं" ऊर्ध्वं मोकं योषित्परित्यागादूर्ध्वं 66 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८०) नतासामम अभिधानराजेन्द्रः। नहोववलग तत्सर्वमपि नैगमनयमतम् । तथा शुझसंग्रहनयमते तु सदनवा- | अधिस्तिर्यक्चवनधर्मोपनत्ये रेणी, तद्रूपेष्टलक्षणलावणीदेन एकमेव अव्यमापद्यते शत शेयम् । ७०॥ कालकणे प्रमाणभेदे, १०६श ७ उ० । ज्यो॥ दिसाइक्कम--ऊर्ध्वदिगतिक्रम--- पु० दिग्वतस्यातिचारभेदे | उन्लोम-ऊर्वरोमन्-पुं० कानि रामाण्यस्य । ऊर्जमुखतयाउपा०१०। विकटरोणि यमदूतादौ, कुशद्वीपसीमापर्वते च । ऊर्फमुखरोमजनादिसिप्पमाणाकम-ऊर्ध्व (1) दिकपमाणातिक्रम-पुं० युक्ते, त्रि. वाच । “घोमयपु व तस्स कविनफरुसाउ दिग्यतग्रहणे, कर्वदिशि यावत्प्रमाणं परिगृहीतं तस्याति लोमाओ, परुषे कर्कशस्पर्श कर्करोमिकन तिर्यगवनंतनत्यर्थः बबनरूपे, दिखतातिचारे, आव० ६ अ० ॥ उपा० । दंष्ट्रिके उत्तरोष्ठरोमणि, उपा।१०॥ उदिसिब्बय-ऊर्ध्वदिखत-न० कर्स दिक् तत्सम्बन्धि तस्या नसोग (य) ऊर्वरोक-पुं० अर्ध्वमुपरि व्यवस्थितो लोक व्रतम् । एतावती दिगपर्वताधारोहणादवगाहनीया न परत कललोकः अथवा कर्कशब्दः शुजप-यस्तत्र च कंत्रस्य शुनइत्येवंचूते दिग्वतन्नेदे, आव०६०। त्वात्तदनुभावाद् द्रव्याणां प्रायः शुभा एव परिणामा भवन्त्यतः शुनपरिणामव्यायोगादूर्फ मुन्नो बोक ऊलोकः। उक्तंच "नएंउदेह-ऊर्ध्वदेह- पुं०-० अर्व देहस्य शरीरस्योर्डदेहे ति वरि जंचिय, सुभखेत्तं खेत्तो य दब्वगुणा । अप्पाजंति "खाणु ब्व उदेहो, कालस्सगं तु गजा" स्थाणुरिवार्ध्वदेहो सुभावा, तेण तो उलोगोत्ति" रुचकमतरष्यस्य मध्य एकनिष्प्रकम्पः। प्राव०।६ अ०॥ स्माऽपरितनप्रतरादारज्योः नवयोजनशतानि परिहत्य परतः उम्पाअ-कपाद-त्रि०६ त० अर्वचरणे, "कंदतो कंकुंभीसु किश्चिन्यूनसप्तरज्ज्वायते केत्रलोकनेदे, अनु। आ०म०वि० । उपाओ अहोसिरो" उत्त० १९ अ० ॥ "उखुपाया सुव तहा नमोगचूला-ऊर्ध्वमोकचूला- स्त्री० " उस्लोगस्य चूना तुम मरणं करदोहित्सि" आ० म०प्र०॥ सिहा" ऊर्ध्वोकस्य चूमा शिखा । ऊर्यलोकचूडा । ईषत्प्रान्नाउब-कबछ-त्रि वृक्तशाखादी बके " रसंतो कंदुक रारूपे केत्रचूमाभेदे, निचू०१०। “ईसीपन्जारा णामा य ईजीसु, उसबको अबंधवो" ॥ उत्त. १० अ०। सित्ति" अप्पाजावे य इति प्रायोवृत्या ।जारत्तिभारकंतस्स पुनकृनागि (ण) नवनागिन्-त्रि० गगनतमजागिनि, उवापसु रिसस्स गयं पायसी ईसेणयं नवति जाव एवं विता सा पुढवी नसभागीजवति कर्च गतेषु वाते भागी नवत्यष्कायो गगनगत. ईसीपभारा णाम इति पतमाभिहाणंतस्स सायदब्वहसकिवातषशादिवि सम्मूर्चते जनम् । सूत्र०२७० ३ अ०। विणात नवीर वारसेहिं जोयहिं भवति तेण सा उलोगचूला उकृमुइंग-ऊर्वमृदङ्ग-पुं०कर्कमुखे मृदङ्गभेदे, भ० ११श०१०००। नवति । नि०० १०॥ नसमध्गाकारसांग्य-ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसस्थित-त्रि० अर्वमूर्व- नहमोगवत्यब-कर्मलोकवास्तव्य-त्रि० लोकवासिनि, मुखो यो मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितो यःस तथा। सरावसम्पुटा- “ उन्लोगवत्थन्याओ अट्ट दिसाकुमारीओ" कझोकवास्तव्या कारे, भ०११ श० १०००। नन्दनकूटनिवासिन्य इत्यर्थः । ज्ञा० अ०। नवमह-कम्म ख-त्रि. कई मुखमस्य । ऊर्द्धगतप्रथमप्रसरे, उडलोग (य) विनत्ति-ऊर्ध्वलोकविनक्ति-स्त्री० स्थानाश्रकर्कस्थिताग्रजागे, उन्नमितवदने च । स्वाङ्गत्वात् स्त्रियां यणारक्षेत्रविनक्तिनेदे, । सा च कवनोकविनक्तिः सौधर्माद्या - की । कर्क मुखस्य एकदेशी. तत्पुरुषः । मुखस्योनागे, न. पर्युपरि व्यवस्थिता द्वादश देवनोकाः नवग्रेवयकानि पश्चमहावाच० ।" उसमुहबोमजालसुकुमारणिकमनश्रावत्तपसत्य विमानानि तत्रापि विमानकेन्जकावलिप्रविष्टपुप्पावकीर्णकवृत्तनाभविरई असरिवरमविचलवत्थे" ॥ कर्व मुखं नमे इयत्रचतुरस्त्रविमानस्वरूपनिरूपणमिति ॥ सूत्र० १६०५ अ०। रुच्यतामराणामिव यषां तानि ऊर्ध्वमुखानि यानि सोमानि तेषां जालं समुहो यत्रस तया । अनेन च श्रीवत्साकारव्यक्तिर्द- नवाइयगण-ऊध्र्ववातिकगण-पुण्श्रमणस्य नगवतो महावीरर्शिता । अन्यथाऽ धोमुखस्तैः श्रीवन्साकारानुद्भवः स्यात् । सु स्थ नवगणानां पञ्चमे गणे, स्था० एम० । “थेरेहितो नहजकुमालस्निग्धानि नवनीतपिएमादिव्याणि तानीव ममुकानि सेहितो भारहायसगोत्तेहिंतो एत्थ णं उपवामिय णामं गणेणिआवर्तश्चिकुरसंस्थानविशेषैः प्रशस्तानि माङ्गल्यानि दकिणावता म्गए" कल्प०॥ नीत्ययः । यानि बोमानि तैर्विरचितो यः श्रीवत्सा महापुरुषाणां चाय-ऊर्ध्ववात पुं० अर्ध्वमुमच्चन् यो वाति वातः स अर्ध्वपक्वान्तर्वी अन्युन्नतोऽवयवस्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयम्तेन - वातः । वादरवायुकायन्नेदे, जीवा० १ प्रति० । स्था० । प्रका। न्नमाच्छादितं विपुलबको यस्य स तया ॥ जं० ३ वक०॥ कर्कगतो यातः सुक्षतोक्ते स्वानाविकगतिरोधेन ऊर्फगते पायौ,नरहिय-ौधरथिक-पुं० रुमके, औरयिकशब्दोऽस्ति | सच मनादिवेगधारणाट भवति । स च मूत्रादिवेगधारणादू भवति । वाच०॥ 'कनेविशिष्यार्थी महापुरीमिव मनुजगतिमनुप्रविशन्ति जन्त- | उप-कर्मम्-अव्य० दिरानेदे, स्था०६ ग०। घोउनुप्रविश्यापिचास्यामाचरथिका श्वाकृतसुकृतसंजारा निरी नुक्कडकम-ऊर्ध्वादिक्रम-पुं० अर्वादिषुक धस्तिरश्चीषु दिक्षुक्रमः कितुमपि मैनं कमन्ते । उत्त० १ ० । उत्तराध्ययनबृहपृत्ति क्रमणं विवक्तितकेत्रात्परत ति गम्यते अध अर्कादिक्रमः । ॐप्रथमपत्रे स कस्य बाचकः इति हीरविजयसूरि प्रति कल्याण कदिकप्रमाणातिक्रमाधोदिकप्रमाणातिक्रमतिर्यान्दकप्रमातिकम-- विजयगणिकृतप्रश्नो यथा अस्योत्सरं हारविजयसरिकृतम् ॥ तथा च करथिकशब्दमाश्रित्य सिद्धान्तविषमपदपार्यायान्तर्गतो सकणे दिनतातिचारत्रये, पंचा० १ विव।। तराध्ययनविषमपर्याये जमकवाचकत्वमुक्तमस्ति ॥ ३॥ ही० । उसोववमग-ऊोपपन्नक--पुं० सौधमदियो द्वादशेन्यः उसरे-ऊर्ध्वरेणु-स्त्री० पु० जामप्रभाभिव्यङ्ग्यः स्वतः परतो | कल्पेन्यः अर्व ग्रैवेयकानुत्तरविमानेषुपपन्ना उत्पन्नाः । कल्पावा धिस्तिय॑चलनधर्मा रेणुरूर्ध्वरेणुः । प्रव०२५४द्वा०॥ तीतेषु देवेषु, जं०७वक्ता जीणोकेपूपपन्नेषु, स्था० २वान Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८१ ) निधानराजेन्द्रः । टोलग जे देवा ववन्नगा ते दुत्रिहा पन्नसा । कप्पोववन्नगा वि मावन्नगा । कोकशेषका उत्पन्ना पपकारद्वा धम्मदिदेवलोकात्पन्नकास्तया विमानोपनका कारण विमानोत्पन्नाः कायातीता त्यर्थः । स्था० २ वा० । उ.- पृषो. पुनरम्य परतुनी या अरि पो. प्राकृते स्वराद संयुक्तस्याना इत्यनुवृतिसहितस्य । कां प्रायमिति सू स्य क्वचिदादेरपि सुविधानात्पकारस्य वा बुक्स उण स पुनः । प्रा० । द्वितीयवारे, प्रथमे नेदे च । श्रमरः ( पुणशब्दे सर्वेऽर्थाः प्रदर्शयिष्यन्ते ) (हरण) कर्ण - विणी अस्वस्थ कारणत्वेन [अ०] अच् । मेषलोमरचिते वस्त्रादी, मेषनोनि, स्त्री० ललाटस्या चिन्हदे, वाच० ॥ शब्दे, स च वर्णात्मकोऽर्थः स्थानोर्णार्यालम्बनं तदन्ययोगपरिभवनम् पो० । ३ विव० । उनमाणमीयमान शिकयमाणे सति प्राप्य माणे श्र० ॥ उपास- कणकापीश- कर्म०० मेि माणगट्टए जवंति तस्स रोमा कव्वणिजा कप्पासो भष्मत्ति हवा उप कप्पासो । जे भिक्खू साणकप्पासा उ वा उपकपासाव वा । नि० चू० १ ४० । उपपान- ऊर्णनान - पुं० कर्णेव सूत्रं नाभौ गर्नेऽस्य अच् समा० । वृतादिरयमिति केचित् वाचनानश्वान्या चन्द्रकान्त श्वाम्नसाम्" उर्णनानोऽत्र कर्मठ को व्याख्यातः समः । उपम) - उन्नमनी-स्त्री० नामिय जसियं वि, उपमण इति मिराले द्वितीयगणानुहायाम् पं०भ० नं०॥ उतामिपम्पयन "उदि सिय २ उमिय २ णिज्जारजा" आचा० २ ० १ ०५३० । उपय- उन्नत (य)- त्रि० उ० नम्० क० । उच्थे, रा० । अज्युन्नते, जं० २ चक्क० तुङ्गे, तं० । प्रश्न० । गुणवति श्र० "नजंलय चरि यदारगोपुरतोरणउपयसुविभत्तरायमम्गा " । उन्नतानि गुणवन्ति उच्चानि च । ज्ञा० १ ० | स्था० | उन्नतः इव्यतः शरीरेपांच्छ्रितः जावतस्त्वभिमानग्रहग्रस्तः । सूत्र० १ ० १६ श्र० । स्था० ( पुरिसजाय शब्द विवरणम् ) उच्छिन्नं नतं पूर्वप्रवृत्तं नमनमनमानात या नयो नीतिरभिमानादेव उन्नयो मयाजाव इत्यर्थः । मानविशेषे, पुं० तत्परिणामजनके कर्मणि च नपुं० ॥ भ० १२ श० ५ ० । मोहनीये, स० । उष्ायरश्यतबिक्रितमाचिस्निग्धउन्नता ऊर्ध्वं नता रतिदा रमणीया स्तलिनाः प्रतवास्ताम्रा ईक्ताः शुचयः पवित्राः स्निग्धाः स्निग्धच्छाया नस्खा यस्य । सुलकणयुक्पादाङ्गबीके, त्रि० जी०३ प्रति० । स्निग्धता निम्नास्तनवः प्रतक्षास्ताम्रा श्ररुणाः स्निग्धाः कान्ताः नखाः पादाख्यवयवा यस्य स तथा । सुलक्षणयुक्तपादाङ्गुली के, औ० जी० । ० । ० महत्या प्राय दिला जयमण - उन्नतमनस् स्थाo daro | उयमा उन्नतंमन्य- त्रि० उन्नतमात्मानं मन्यते यः स तथा लहपरिसह आत्मानमुन्नतिमन्तं मन्यमाने, आचा० १ ० ५० ४ ० । उपमाण उन्नतमान त्रि० उतो मानोऽस्येत्युतमाम गर्दाध्याते, "उष्यमाणे य णरे महंतमोहेण मुज्जलि" उन्नतो मानो ऽस्येति उन्नतमानः । उन्नतं चात्मानं मन्यते स चैवंभूतो नरो मनुष्यो मा मोहन प्रमोदमी योदयेनाङ्गामोदयेन वा मु ह्यति कार्याकार्यविको नवति । आचा० १० ५ ० ४ ० उच्चयावह उन्नतावर्त - ० उन्नतिः सयासावावर्तत उन्नतावर्तः । श्रावर्तभेदे, स च पर्वतशिखरारोहणमार्गस्यवातोत्कलिकाया वा । स्था० ४ ग० । उष्पयासाण्- उन्नतासन न० उच्चासने, रा० । जं० जी० ॥ उष्ण-ठ (क) र्णा श्री पारस अमायलोमसमूहात्मके चिने बाच दीर्घादिरयमिति बहवः वाच०। स्था० भा० म० प्र० । उपाग-उन्नाक-पुं०स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र महावीरस्वामिना वितम्। "तो सामी उनाग पन्चति तत्यं परं सपरि हुपरी दावि विरुवाणि दंतुराणि यताथ गोसाको भाई मो मो संजोये" ००। साम-उम्र-प्रणतस्य महानुप्रवेशाश्रममुनामः मानविशेषे, तत्परिणामजनके मोहनीयकर्मणि च । नं० प्र० १२ श० ५ उ० । स० ॥ उनि उता मिश्रा मुद्दा यस्य विकसिते, निद्राशब्दस्य मुद्रामुप्रीनायरूपने निर्मार्थकत्वेन तथात्यम निफारहिते व चाच उनि विजृम्भितं हसितं उरूमिस्यादि पर्यायाः विशे० । उमिय-औणिक - त्रि०कया निमित्तं संयोग उपपातो वा उ । निमित्तादी स्त्रियां शीप या ऊर्जामये वादी प्रा० म० प्र० । कर्णरोमनिष्यन्ने वस्त्रे, वृ० २ उ० । नि० ० ॥ उष्ट्रलोममये रजोहरणे, स्था०५ ग० । जीत० ॥ भीत-म० उ-नी कमी, वितर्किते याच पृथव्यवस्थापिते, "द्वाभ्यां नयान्यामुशीतमपि शाखंकाशिना" । नयो० । उत - (न्नु ) इतो- उन्नुइतो- देशी पदमेतत् । गर्वे वर्तते इत्यस्मि तो तसो कदे सम्यं तु ००१०४० उएह-उष्ण-पुं० । उपति दहति जन्तूनित्युष्णः उष् नकू उत्त०१ ० सूर्यादिपरितापे, पिं० आहारपाकादिकारणे, ज्याच गते स्पर्शने कर्म० श्रीमत पाएकी तद्वति, आवस्यरहिते, दके च । वाच० | सीपण उल्हे सिकेण लुक्खेण काऊण रुहे संगण" आचा० १ ०५ श्र० ६ ० (शनि) एह (उसिए) परि (1) सह - उष्णपरि (1) षह-पुं० उप दाहे इत्यस्यौणादिकनक्प्रत्ययान्तस्य उष्णं निदाघादितापात्मकम्-तदेव परीषद उष्णपरीषदः । उप्त ०१ अ० । प्र० स च' उष्णेन तप्तो नैवोष्णं निन्देच्छायां च न स्मरेत् । वोजनं व्यजनं गात्राजिपेकादि च वर्जयेत्' । ध०३ अधि० ॥ पाठान्तरेण । "उष्तप्तो न तं निन्देच्छायामपि न संस्मरेत् । स्नानगात्राभिषेकादि - वर्जन वाऽपि वर्जयेत्" । आ० म० द्वि० । पुढे गिम्हाहि तावेणं, चिमणेसुप्पिवामिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥ ५ ॥ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८२ ) जएहपरीसह अभिधानराजेन्द्रः । नाहीस ग्रीष्मे ज्येष्ठापाढाख्ये अनितापस्तेन स्पृष्टश्चुप्तो व्याप्तः सन् । हिं मग्गियो नो दिवो अप्पसागारिश्र पविद्रोपग से माया उन्मविमना विमनस्कः सुप्चु वा अतिशयेन पातुमिच्छा पिपासा तां तिया जाया पुत्तसोगण जयरं परिनमंती अरहनयं विनयंती प्राप्तो नितरां तृमभिजूतो बाहुल्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति । जं जहिं पासति तं तहिं सव्वं भणति अस्थि ते कोवि अरहरको तत्र तस्मिन्नुष्णपरीषहोदये मन्दा जमा अशक्ता विषीदन्ति । दिहो एवं विज्ञवमाणाप्रमति जाव अम्पया तेण पुत्तेण प्रोलोजगपरानमुपयान्ति । दृष्टान्तमाह । यथा मत्स्या अल्पोदके विषी- पण दिट्ठा पञ्चनिन्नाया तहेव उत्तरिता पाएसु पमिओत पेच्चिकण दन्ति । गमनाभावान्मरणमुपयान्त्येवं सत्वानावात्संयमात भ्र- तहेव सत्यचित्ता जाया ताए भम्पत्ति पुत्त पन्वयाहि मा दोमाइयन्त इति । श्दमुक्तं नवति । यथा मत्स्या अल्पत्वादुदकस्य ईजाहि । सिस्सो जम्मति न तरामि का संजमं यदि पर एग्रीष्मानितापेन तप्ता अवसीदन्त्येवमल्पसत्त्वाश्चारित्रप्रतिपत्ता- सणं करेमि पयं करेहि मा असंयतो जवाहि मा संसारं नमिधपि जलमलक्वेद क्लिन्नगात्रा बहिष्णाभितप्ताः शीतवान् ज- हिसि । पच्छा सो तहेव तत्ताए सिलाए पाओवगमणं करेति लाश्रयान् जनाधारगृहचन्दनादीनुष्णप्रतीकारहेतूननुस्मरन्त आ- मुहुत्तेण सुकुमालसरीरो उएहेण विनावा पुब्बि तेण णाहियाकुड़ितचेतसः संयमानुष्ठानं प्रति विषीदन्तिाए।सूत्र० श्रु.३०। सिओपगतेण अहियासितो एवं अहियासियव्वं उपदे 'उत्तपा. उसिणपरियावणं, परिदाहेण तजिए । तगरानगर्यामईन्मित्राचार्यपाश्र्वे दत्तनामा वणिक ना जार्या ईनकपुत्रेण समं प्रवजितः । पित्रा सर्ववैयावृत्त्यकरणेन इतस्तपिंसु वा परियाकाणं, सायं नो परिदेवए ॥८॥ तः परितम्य जव्यनिवानोजनसम्पादनेन स बासोऽत्यन्तं सुखीउष्णमुष्णस्पर्शवद्भशिलादि तेन परितापः तेन तथा परिदाहेन कृतः उपविष्ट एव सुते कदापि निकायै नमति । तद्भिकार्य बहिःस्वेदमबाज्यां वहिना वान्तश्च तृष्णया जनितनिदाघस्वरूपेण स्वनिकायश्च पितुरेव चमणात् । अन्यदा पितरि मृत साधुभिः तर्जितो भतितोऽत्यन्तपीमित शति यावत् । तथा ग्रीष्मे वाशब्दात प्रेरितः स पालो ग्रीष्मे मासे निकार्यङ्गतः । तापाभिनूतः प्रोत्तुशरदि वा परितापैन रविकिरणादिजानतेन ताऊत इतिसंबन्धः। किमित्याह । सातं सुखं प्रतीति शेषं न परिदेवेत किमुक्तं जवति । गृहच्ययायामुपविशति पुनस्तत उत्तिष्टति शनैः शनैर्याति एवं नारीकुचोरुकरपलवोपगूढैः क्वचित्सुखं प्राप्ताः क्वचिदङ्गारैववि कुर्वन्तमतिसुकुमारं तमईनककुमारं रूपेण कन्दर्पावतारं दृष्ट्वा का तैस्तीक्ष्णः पकाःस्म नरकेवित्यादि परिनावयन् हा कथं मम चित्प्रोषितवणिजार्या आकार्य गृहे स्थापितवती तया सह मन्दनाग्यस्य सुखं स्यादिति न प्रसपेत । यहासातमिति सातहेतुं स विषयासक्तोऽनृत् । अथ तन्माता साध्वी पुत्रमा हेम प्रति यया हा कथं कदा वा शीतकालः शतांशुकरकझापादयो गृथिबीतता अरे अन्नक ! अर्हन्नक! इति निघोषयन्ती.चतुष्पवा मम सुखोत्पादकाः संपश्यन्त इति न परिदेवेत इति सूत्रार्थः॥ थादिषु चमति । एकदा गवावस्थेन अनिकेन तादृशावस्या उपदेशान्तरमाह । माता दृष्टा संजातात्यन्तसंवेगः स गवाक्वाकुतीर्य पादयोः पतिउन्हाहितत्तो मेहावी, सिणाणं नो वि पत्यए । त्वा मातरमेवमाह । हेमातः सोऽहमहनक इति तच श्रवणात स्वस्थचित्ता माता तमेवमाह । वत्स जव्यकुमजातस्य तब केयगायं नो परिसिंचिज्जा, न वीएज्जा य अप्पयं ।। मवस्था । स प्राह । मातश्चारित्रं पालयितुमहं न शक्नोमि। सा मेधावी मर्यादानतिवर्ती स्नान शौचं देशसर्वभेदजिन्नं नाभिप्रा प्राह तर्हि अनशनं कुरु मातृवचसा स तप्तशिल्लायां सुप्वा पादोर्थयेत नैवाभिनषेत् पतन्ति च ( नो वि पत्थत्ति) अपिर्जिन- पगमनञ्चकार सम्यगुणपरीपद विषह्य समाधिभार देवत्वं प्राप्त क्रमत्वात्प्रार्थयेदपि न किन्नु पुनः कुर्यात्तथागानं शरीरं नो परि- वान् । एवं अन्यैरपि साधुभिरुष्णपरीषहः सोढव्यः । अत्तश्या सिञ्चन्न सूरमादेकविन्दुनिरार्दीकुर्यात्न वीजयश्च तालवृन्तादिना (परीसहशब्देऽन्यत्) (अप्पयंति)आत्मानमथवाऽपमेवाल्पकं किं पुनर्बीह्नति सूत्रार्थः। साम्प्रतं शिलाद्वारमनुस्मरन् उवरितावेणत्यादिसूत्रावयवसूचि- | उएह ( उसिण) परियाव-उष्णपरिताप-पुं० उपमुष्णस्पर्शतमुदाहरणं नियुक्तिकृदाह वशिलादि तेन परितापः । उत्त०५ अ० । अातापनादौ, नूतगराए अरिहामित्तो, आरिहठ तोयनदा य। शिआद्यौषण्यहेतुके दाहे, उत्त. १०। वलियमहिलं चइत्ता, तत्तम्मि सिनायने विहरे ॥ उएहफासणाम-उष्णस्पर्शनामन्-न० नामकर्मनेदे, यषुदयाजतगरायामईन्मित्रोदत्तोहन्नकश्च भाचावहिम्महिलां त्यक्त्वा शि-| स्तुशरीर हुतनुजादिवद् नवति तमुष्णस्पर्शनाम । कर्म। सातले विहरेत्तिव्यहादिति गाथाकरार्थो भावार्थस्तु वृहसंप्रदा| नएहयर-नुष्णतर-न० कषायः शोकवेदोदययोश्च दाहकत्वायादवसेयः। सचायं तगरा नयरी तत्य अरहमित्तो नाम आयरि-1 दुष्णः सर्व वा मोहनीयमष्ठप्रकारं वा कोष्णं ततोऽपि तद्दाहओ तस्स समीवे दत्तो नाम वाणियओ भदाए नारियाए पुत्ते- कन्वाष्णतरम् । तपसि, "मकर तिव्वकसाओ, सोगनिनुश्रो ण य अरहत्तएणं सम् िपब्वश्त्तो।सो तं खुडगं कयाई जिक्खा- उपवओ य । उहयरो हो तवो, कसायमाई विज महा" एनहिंमावेश पढमानियाईहिं कि मिचिपहिं पोसेत्ति सो सुकु- आचा०नि०२ अ०। (सीउएह शब्द विवृतिः) मासो साइण अप्पत्तियणतरति किं चि जणिचं| अन्नया सो खं- उएहवण-नुषणापन-न० अप्लीकरथे, पिं०॥ तो कागतो साहूर्हि दो तिन्निवा दिवसे दा भिक्खस्स उपरि उपहाजि (हि) तत्त-नुष्णाजितल-त्रिनपणेनात्यन्तपीमिते, तो लो सुकुमानसरीरो गिम्हे नवरिहेछाए मज्झितो पस्सयतण्डाजिभूतो गयाए बीसमंतो पोसियवश्याए चणियमहिलाए __ "उपहाहितत्ता मेहावी सिणाणं नो विपत्थर" उत्त० अ०। दिवो नरामसुकुमाञ्जसरीरोत्ति का तीस तहिं अज्कोववानो नाहानिय-नुष्णाजिहत-त्रिसूर्यखरप्रतापानिजूते " बण्डा जायो । चेमीप सहावितो किं मग्गसि । निक्वं दिना से मोयगा जिहए ताहाजिहए दरम्गिजामानिहए" जी. ३ प्रति। पुत्रियो कीस तुम धम्मं करोस । नणति सुहनिमित्तं । सा भणति उएहीस-नपणीप-पुंना नुष्णमीपते हि नास्ति उष्णम् ईष शक० तो मप चेव समाणं नोगे मुंजाहि । सो य उण्हेण तजिओ | पररूपम् । "सूक्मइनष्णस्नन्हएहणां एडः।।२७५। सूत्रेण ष्ण जवसम्मज्जितो य पमिन्नम्गो नोगे तुंजति । सो साहहिं सम्ब- नागस्य णकाराक्रान्तो हकारः। प्रा० । शिरोवेष्टनवस्त्रे, (पागमी) Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८३ ) अभिधानराजेन्द्रः । उडीस 66 किटे च । “पवित्रं श्यमुष्णीषं वातातपरजोऽपहम् । वर्षानिरोध-दिमादीनां निवारण "वाच ॥ उदादेग-उष्णोदक-०. मनपादशेषावशेषपादादिहीनके जसे, अष्टमेनांशशेषेण, चतुर्थेनार्धन या प्रवाकयनेय, सिमुदकं वदेदिति पुण्फोदहिय गंधोदहिय उएहोदपदि य सुभोदपहिय कल्प० । होना- उष्णोपला स्त्री०तैलपायिकानामके कीटनेदे, सङ्गमकः सौधर्मकल्पवासी देवः वीरमुपसर्गयन् " उएडोबा विव्वर उ होला पाम तेलपाश्या तो तातो तिक्खोई तुहि श्रतीव दसति " आ० म० द्वि० । उत्त-उक्त६- त्रि० वच. दुडा. गौणे कर्मणि क्त. । यस्य ज्ञानाय कथ्यतं ताशे, अनुक्तेनापि वक्तव्यं, सुहृदा हितमिच्छता । गौणकर्मसमनिज्याहारे तु मुख्ये कर्मणि कः । वाचः । अभिहिते, "तत्युक्तो तं जिवणा पंचा० ६ विव० । भणिते, आशुरुक्के, नि० । वुत्तं वकं गणितमिति वृत्तशब्दस्योक्तेत्यनुवादः । आच० ॥ अ० ॥ उत्तराध्ययने तु व्युक्तेत्यनुवादः । उत्त० १ अ० ॥ उन दिने वा तस्य न ि नि, वाच० | स्वनामख्याते वनस्पतिनेदे पुं० । अनु० 1 उन वि० वपू-क निशिते ०१ अपि तवाये धान्यादौ क्षेत्रे, बाच । कर्षक व बीजवपनं कृत्वा निष्पादिते, " देव उत्ते अपलो जउत्तेत्तियावरे " सूत्र ०१ ४०१ अ०३ उ० । उतरा उण० तृणमुत्सृणमणे खित खिलभूमिबल्लराई उत्तणघण संकमाई मज्जंतु " उसृणे स्तृणैर्घनमत्यर्थे संकटानि सङ्कीर्णानि यानि तानि तथा । प्रश्न १० 66 तानि तृणानि यत्र तृणके, "उत्तगाणप स वा मेण " उद्गतानि तृणानि येषु वनेषु तानि तथा । अनु० उत्तत्थ - उत्त्रस्त- त्रि० उतत्राशे, प्रश्न० अ० ३द्वा० । नयाजातोत्कम्पादिपनाये, उसाचा तसिया विमा संजायना "उत्तत्था उब्विग्गा " न०३ श०१ ४० । “उत्तत्यसुमनयसंतत्या" प्रश्न० अघ०३द्वा० ॥ उतप्पसरीर-उलप्तशरीर त्रि० देदीप्यमानशरी रा० उत्तम - उत्तम - त्रि० उद्-तमस्० । स्वरूपतः सुन्दरे, कल्प० भ० । प्रशंसास्पदीभूते, जं० २ ० औ० : सर्वोत्कृष्ट, श्राव० २ अ० । महति सूत्र० १० १३ अ० प्रधाने, पंचा० ए विव० प्रण संस्था से उत्तम धम्मे पुज्यद्वारा स्पमा "चा०१ अ० अ०] "बंभचेरं उत्तमतवनियमनाणदंसणचरित्तविषयमूल” प्रश्न० ३ द्वा० । प्रज्ञा० । संयमे, पुं० दशा०५अ० । गिरीणामुत्तमत्वात्तमः । मेरौ, “ता उत्तमांस फवयंसि" चं० प्र० १पाहु० । ०प्र० समये उनकायां प०पा०४मत्यर्थः उत्तानपादस्य पुत्र, ध्रुवस्य भ्रातरि पुं० वाच० ॥ उत्तमस्- त्रि० कई तमसोऽज्ञानाद्यत्तत्तथा श्रज्ञानराईते, झा० १० कित्तियदियमहिया, जे लोगस्सुत्तमा सिद्धा ॥ कीर्तिमानीका नियोगेन सभ्य स्तु ता महिताः पुष्पादिनिः पूजिताः । क एते इत्यत आह ये एते बोकस्प प्रार्थनोकस्यमित्यादिकर्मानसमा प्रधानाः ऊर्ध्वं वा तमसः इत्युत्तमसः । उत्प्रावल्येनोर्ध्वगमनोछेदनेविति वचनात् । प्राकृतशैल्या पुनरुत्तमा उच्यन्ते । ( सिका इति ) सितं ध्यातं बन्धमेामिति सिद्धाः कृतकृत्या इत्यर्थः ॥ ० ॥ अन्यायां निि मिष्ठतमोहणिजा, नाथावरणाचरितमेोहार । तिविहतमा उम्मुका तम्हा ते उत्तमा हुति ।। ५५ ।। उत्तमद्रुपत मिथ्यात्वमोहनीयास्तथा ज्ञानावरणास्तथा चारित्रमोहादित्यत्र मिथ्यात्वमोहनीयग्रहणेन दर्शन सप्तकं गृह्यते। तत्रानन्तानुबन्धिनचत्वारः कषायास्तथा मिथ्यात्वादित्रयं च ज्ञानावरणं मतिज्ञानाधायरणनेदात्पञ्चविधं चारित्रमोदनीयं पुनरेकविंशतिने तथा नन्तानुबन्धिरहिताः घादशकपायास्तथा नव नोकषाया इति अस्मादेव यतस्त्रिविधतमसः किमुन्मुक्ताः प्राबल्येन मुक्ताः पृथ ग्नूता इत्यर्थः । तस्मात्ते जगवन्तः किमुत्तमा नवन्ति ऊई तमोवृत्तरिति गायार्थः ॥ श्रव० २ अ० आ० चू० । उत्तमंग- उत्तमाङ्गउमंग-उत्तमाङ्ग १०. स. सर्वान प्रधानाययेये, स०| क. सर्वावयवानां शिरसि च। सूत्र० १ श्रु० अ० २ ० । उत्त नं० | मस्तकस्य क्तत्वं चकुरादीन्द्रियाधारत्वात् वाच० । तात्स्थ्याकेशेमिंग" उमङ्गदेन उत्तमाङ्गस्याः केशा उच्यन्ते । पिं० ॥ उत्तमकट्टपत्त- उत्तमकष्टप्राप्तपत्रि० परमकष्टावाप्ते, प्र०७ श०६७० उत्तमकाष्ठा प्राप्तत्रि० उमावस्यां गते परमकाष्ठाप्राप्ते, "इसम दुसमा समाए उत्तमक पत्ताए भरहस्स केरिसए श्रागार नावपडोयारे पत्ते भ० ७० ६ ० । परमप्रकर्षप्राप्ते, प्रकृष्टावस्थां गते, सू० प्र० १ पाहु० । उत्तमकट्ठा - उत्तमकाष्ठा-स्त्री० प्रकृष्टावस्थायाम्, जं० २ चक्क० । उत्तमकुल- उत्तमकुल- न० उग्रभोगादिके चान्द्रादिके वा कुले, "उत्तमकुआ कि सर्पग ग०२ अधि० उमगुण- उत्तमा-पु० प्रधानगुणे, पंचा० ॥ विष० । उत्तमगुणबहुमाण- उत्तमगुणबहुमान - पुं० उत्तमगुणेषु प्रधानगुथेषु जनेषु वीतरागत्यादिषु वा जिनगुणेषु बहुमान पात उत्तम उत्तमगुणकृपा उत्तमगुण बहुमा पयमुत्तमसत्तमज्जयारम्मि " पंचा० ४ विव० । उत्तमगुणोप-उत्तमगुणौष १० प्रकारक कारं परिस उत्तमगुणो य" बै० ना० ॥ 66 अहं मनसेविय-उत्तमजनसे वित- त्रिगणधर से विंत, गणधराणामुतत्वात्। ममियं परं जिण पोर्टोगुपच उत्तमप्रसंजणयं मनसेविता "पंच उत्तमजत्ता- उत्तमयात्रा - स्त्री० प्रधानयात्रायाम, पंचा०० जिव. जनमनोगत- समयोगित्व न० अयोगित्य संपा - स्था० ५ ० ॥ उत्तम - उत्तमार्थ- पुं० उत्तमश्चासावर्थश्च उत्तमार्थः । प्रकृष्टपदार्थे, " श्श्चेयं मव्वय उच्चारणा उवत्तया जुत्तपायनाणे परमहे उत्तमट्टे ” उत्तमश्चासावर्थश्चोत्तमार्थः । प्रकृष्टपदार्थ, मोकफसाधकान महावतानां सर्ववस्तुप्रदानादिति पा उत्तमः प्रधानोऽर्थो मोको यस्मात्स उत्तमार्थः । पर्यन्तसमयाजनाराधने, "निरापरास उत्तमं विवज्जा समे" उत्त०२० अनशने, “इच्छामि भंते उत्तम परि कमामि" (अणसणशब्दे विवरणमुक्तम्) कालधर्मे, आव. ४५० । उत्तमट्टगवेसय-उत्तमार्थगवेषक - त्रि० मोक्काभिलाविणि, "ण वि रूठो ण वि तुठो, उत्तमहगवेसओ " उत्त० २५ अ० ॥ |पपप-उपार्थमा “मास माए उत्तम ठपत्ताए नरइस्स केरिसए आयारजावपमोयारे पक्षसेनाका उत्तमार्य प्राप्ताः । भ० ६ श० ७ ० ॥ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८४ ) अभिधानराजेन्द्रः । उत्तमाण उत्तमट्ठाण - उत्तमस्थान- न० मोहस्थाने, "धीरो अमूढससीसो गच्छ सत्तमठाएं " ॥ श्रतुः ॥ 9 - उत्तम (रिकि) उत्तमकिं स्त्री० प्रधानविभवे "सेवा व उत्तमा खनु, उत्तमरिकीए कायव्वा " पंचा० ६ विव० ॥ उतम हिदंसण- उत्तमनिदर्शनादिषु प्रधानत्वज्ञानेषु, पंचा० १६ विव० ॥ उत्तमणिदंसणप-उत्तम निदर्शनयुत श्र० अहीमांदादरणवति उत्तमपि विचितनगर बेव "पंच उत्तमथम्यपसिद्धि-उत्तमधर्ममासिकि श्रीधानधर्मस्थ पूजाकाले महत्पुण्यकर्मबन्धरूपस्य कर्मकयरूपस्य का न्तरक्रमेण यथाख्यातचारित्ररूपस्य निष्पत्ती, जिनशासनप्रकाशे च। उत्तमधम्मसिद्धि-पृपाच जिरिंदाण" पचासचिव। उत्तमपसत्यज्जाए - उत्तमप्रशस्तध्यान- न० प्रवृरूयुजयोगे, "उत्तमपचसत्याणो हिप म विधि" पं० ॥ उत्तमपुरिस- उत्तमपुरुष पुं० तीर्थश्वविदेवासुदेवमणेषु प्रधानपुरुषेषु "अरकट्टी, बलदेवा देव वासुदेवा य। पर उत्तमरिसा न तु जयंति ०म० द्वि० "पाव दसराहोत्या तंजा उत्तमपुरिया मज्जिमपुरिया. उत्तमपुरुषास्तीर्थकरादीनां चतुःपञ्चाशदुत्तम पुरुषाणा मध्यवर्तित्वात् । स०| कुम्मुष्ट्या जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं" स्था०३ ग० उत्तमपोग्गल उनमपुल-पुं० श्रात्मनि प्रधानवाची या पुरु शब्दस्तथायमर्थः उत्तमोत्तमे मतोऽपि महीयांस, "से परिय समपोगने "सूत्र० १ ० १३ अ० ॥ उत्तमफल संजय-उत्तमफलजनक- त्रि० मोइजनके पं०० उत्तमच विरियम-मलत्वयुक्त० उत मैस समय लययोः सत्वेन (सतया ) युक्ते च । भ०‍ श० ३३ ८० । सत्तममग्ग- उत्तममार्ग-पुं०ज्ञानस्य प्राधान्यं व्यवहारस्य च गौणतायत्र तस्मिन् ८० ॥ उत्तमावि (ए) - उत्तम विकुर्विन् त्रि० उत्तमं विकुर्वन्तीत्येवंशीलाः । उत्तमावकुर्वणशीलेषु जी० ४ प्रति० । उत्तममुत- समसूत्र--न० कर्म० स. वेदविच । किंपु से उत्तम उससे "यसुरामुरामयं वादिया ओ जाई । बेयसुर्य कम्हा, उत्तमसुत्तं जणति जम्हा । तत्य स पायवित्त विधी भगत जम्दा तेन चरण करेति तम्दा उत्तमसुतं दिठिवाओ घा" नि० चू० १७ ३० । उत्तमयवधिय-- उत्तमर्णित प्रधानागमानिहिले पं चाo tu विव० । उत्तमा- उत्तमा- स्त्री० पूर्णमद्रस्य यक्वेन्द्रस्य तृतीयायामप्रमादयाम, स्था० ४ ० ज० ] ( अम्गमही सी शब्द सा उक्ता ) बोकोक्तरीत्या प्रतिपात्रौ चं० १ पाहु० कल्प० । जं० ॥ ज्यो० ॥ उत्तमागार- उत्तमाकार पुं० उत्तरादिरूप उपकारेषु तेसिणं दाराएं उत्तमागारा सोलसविहरियो उवसोजिया, रा० !! उत्तमोत्तम - उत्तमोत्तम त्रि० महतो महीयसि, सू०१ श्रु० १३० उत्तर- उत्तर--न० उत्तीर्यते प्रकृताभियोगो ऽनेन उदू. तृ०अच्, उद् तरप् वा । राजसमीपे वादिकृतानियोगापनांद के उत्तराख्ये व्य उत्तर वहाराङ्गे, द्वितीयपादे, प्रश्नश्चोद्यधिया प्रश्नस्तस्य खएऊनमुत्तरम्. इत्युक्ते दोनजनवाक्ये जिज्ञासिताविषयादके वाक्ये अन न्तर वाच० ॥ अस्य निकेपः ॥ पामं ववणा दविए, खेत्तदिसा ताव खेत्तपवए । परकालं संचयपहा को जाने । जहमरुत्तरं खलु नकोसं वा अणुत्तरं होई । सेसाई अणुत्तराई, अणुतराई च छायाई ॥ इह च सुपो यथादर्शनं तत्र सूत्रत्वेन तयोरन पप्रस्तावात्सूचकत्वात्सूत्रस्य 'कमन त्तरेण य गय 'मित्युत्तरत्र श्रवशाय (नामति नामांतर (पति) स्थापना कार्यस्तत्र नामोत्तरमिति नामेव यस्य वा जीवादेरुत्तरमिति नाम क्रियते।स्थापनोत्तरमकरादि उत्तर मिति वर्णविन्यासो वा द्रव्योत्त मागतो नानुपयुक्तो मी बागमती इरारीरमन्यशरीरे यतिरिक्तं चातयतिरिक्तं त्रिधा सचित्ताचित्त मिश्रनंदन तत्र च सचित्तं पितुः पुत्रः अचित्तं कीराद्दधि, मिश्र जननी शरीरतो रोमादिमदपत्यम् । श्च द्रव्यार्यायोजयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो इव्यप्राधाम्यविक्रया पित्रादीनां अध्योत्तरत्वं भावनीयम् । क्षेत्रोत्तरं मेवापेक्षा यदुत्तरं यथोत्तराः कुरया या पूर्व रात्रिक्षेत्रं तदेव पश्चादिक्षुक्षेत्रं दिगुत्तरमुत्तरा दिग्दकिणदिगपेत्यादस्य । तापकीर यादग यथा सर्वेषामुत्तरो मन्दरादिः प्रज्ञापकस्य धर्मयुत्तरमेकदिगवस्थितयोर्देवदत्तयज्ञदत्तयोर्देवदत्तात्परो यज्ञदत्तः उत्तसमपादावलिका आयात सुमादि। सो पस्योपरिया धान्यराशेः काष्ठम् प्रधानं सर त्रिविधं सचिताचित्तमिश्रभेदात्। सचित्तप्रधानोत्तरमपि त्रिविधमेव तद्यथा विपदं चतुष्पदमपदं च । तत्र द्विपदमनुत्तरपुण्यप्रकृतितीर्थकरनामाद्यनुभवनती कर अनुपदमनयसाधारणशीर्थधैर्यादियोगतः सिद्धः अपरम्पादिनित्यजाम्बून दादिम जम्बूद्वीपमध्यस्थता सुदर्शन जम्मू: अचिसमयमहात्म्यचिन्तामणि मिश्र तीर्थकर वचस्यास्यायां सर्वाबारात हादोत्तर सावित्रीकरणत्येन समस्तवस्तुस्वनाववासित । यद्वा श्रुतज्ञानं तस्य स्वपरप्रकाशकत्वेन केवलादपि महर्द्धिकत्वात् । उक्तं च 'सुयनाणं महिष्ठीयं, केवलं तयणंतरं । अपणो य परेसिं च जन्दा व परिनातितरं ममाश्रित्य ति विधं द्रव्यतः क्षेत्रतः कानतो जावतश्च । तत्र इव्यतः परमाणोद्विप्रदेशिकस्ततोऽपि त्रिप्रदेशिक एवं यावदन्त्योऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढः ततोऽपि त्रिप्रदेशावगाढ एवं यावद व सानवर्त्य संख्येयप्रदेशावगाढः । कालतः एकसमयस्थितेर्द्विसमस्थितिस्ततोऽपित्रिसमपस्थितिरेवं याच संख्येयसमयस्थितिः । जावत एकगुणकृष्णाद्विगुण कृष्णस्ततोऽपि त्रिगुणकृष्ण एवं यावदतां वा कामका जावादनन्तरं यः कायिकादिर्भवति ( गणनुत्तरति ) गणना उत्तरमेकका द्विकस्ततोऽपि त्रिक एवं यावच्छ पिप्रहेलिका । जावोत्तरं कायिको जावस्तस्य केवलज्ञानदर्शनाद्यात्मकत्वेन सकप्रधानत्यादयिमस्य प्रसाद वक्तं भेदेनाभिधानम् । ययमन्योन्यमिदमध्य पहिनामा चतुश्य सर्वनिपाणामन्तनीयासदेवानिधेयं तत यक्षामादिधनुष्याधिकनिपानिधानं तविष्यमतिव्युत्पादना Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर (७८५ ) अभिधानराजेन्द्रः । सामान्यविशेषजयात्मकत्वस्यापनार्थे च सर्ववस्तूनामिति भावमीयमिति गाथार्थः ॥ इहानेकधोत्तराभिधानेऽपि क्रमोत्तरमेवाधिकरिष्यते विषयज्ञाने च विषथी सुज्ञातो भवतीति मन्वा नो यत्रास्य संजवो यत्र चासंभवो यत्र चोजयं तदाह । (जहासि) जय सोसर धार सोत्तरमेव (उकोसंति) उत्कृरं वाशब्दस्यैवधरार्धस्य नियमत्यादनुत्तरमेव प्रयति शेषाथि मध्यमान्तराणीति। अशे आदित्वेनान्तत्वान्मत्रपाई सरचन्यनुत्तराणि च यानि यमतरादीनि दि जघन्यान्येकमदेशिकाम्युपरि द्विमदेशिकादियस्त्वन्तरजायात्सोसरायेव तदपेकयैव तेषां जघन्यत्वात् । उत्कृष्टानि स्वन्त्यान्यनन्तप्रदेशिकादीन्यनुत्तराण्येव तदुपरि वस्त्वन्तराभावादन्यथोत्कृष्टत्वायोगात् । मध्यमानि तु द्विप्रदेशिकादीनि त्रिप्रदेशिकाद्यया सोराएकप्रदेशिका हा त्वरायुपरितनयस्यपेशवेव सोरत्यादिति गाथा उत्त० १ ० (शेषन्य उत्तरायणशब्दे ) अधिके, सूत्र० १ श्रु० २ ० । उत्कृष्टे, उस० ३ ० । प्रधाने, सूत्र० १ ० ६ अ० स्था० | तं० । अनु० "उत्तरा मद्दुरुलाव पुत्ता ते ताव खुड्या" उत्तराः प्रधानाः उत्तरोसरजाता वा सूत्र० १ ० ३ ० । वृद्धी, "कश्पणसुत्तर " कति प्रदेशा उतरे वृद्धौ यस्था सा तथा प्र० १३ श० ४ उ० । उपरि बर्तिनि अनुत्तरविमानात्पेषु देवेषु सर्वोपरिवर्तित्वा तेषाम् । उत्त०२ अ० ऐरावते भविष्यति द्वाविंशे तीर्थकरे, स० ति० प्रव० पक्कुद्धावनया ना कर्ज पि न मेसया दीरेति । हो तोन्निव, उत्तरि सोवाढणेणं ति ॥ पान सोपानहा आदत इत्युक्तरसरशोसरकार मत्र भावना । केनापि कश्चित्सोपानहा पदेनोपहतः तेन च गत्वा राजकुले निवेदिते कारणिकैश्च स आकारितः । किंत्वयैष आहतन मया किं तु सोपानहा पादेन एवं सोऽपि दुर्व्यवहारं कुर्वन् गीतायन सूत्रोपदेशतः उपालन्धः सनेतारचनेत ददाति । ततः कटूत्तरकरणात्स उत्तर इत्युक्तलक्षणे प्रशंसनये व्यवहारिणि, व्य० ० १ ४० स्थविरस्थायैमहागिरे। प्रथमशिष्ये, व्य० द्वि० १ ० । " तणविणणसंजय हा मूलगुणा उतरा पज्जणया " उत्तराः उत्तरगुणरूपाः " वृ० १३० ॥ उत्तरंग-उत्तराङ्ग-म०डारस्योपरि तीर्थमयवस्थितमुत्तरा पाए द्वारस्योपरि तीर्यग्व्यवस्थिते काष्ठे, जं० १ वक्व० " जोई सामए उत्तरंगे " जी० २ प्रति० । उत्तरकंचुय-उत्तरकञ्चुक पुं० तनुत्राणविशेषे, विपा० २ श्र० । उत्तरकट्ठोबगय-उत्तरकाष्ठोपगत-त्रि० उत्तरां दिशमुपगते, स० । उत्तरकरण- उत्तरकरण - न०उत्तरत्र करणमुत्तरकरणम् । अव्यकरनेदे, तच " उत्तरकरणं वंजणं अत्यो न वक्खरो सव्वे " उतरत्र करणमुत्तरकरणम् कर्णवेधादि । याद वा तन्मूलकरणं घटादि येनोपस्कारेण दहमदिना श्रनित्यते स्वरूपतः प्रकाश्यते तदुत्तरकरणं कर्तुरुपकारकः सर्वोऽप्युपकारार्थ त्य र्थः ( प्रपञ्चतः करणशब्दे ) नावकरणनेदे, उत्तरकमसु य जो वादी भोगणादीसु " सूत्र० १० १ अ० । ( उत्तरकरणं क्रमश्रुतयैवनवर्णादिचतुरूपम् करणशब्दे दर्शयिष्यते ) सूतः स्वदेत उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं विशेषाधानात्मके कर णे, " उत्तरकरणेण कथं, जं किंचि संखयं तु णायव्वं नि० । जे भिक्खू सूचीप उत्तरकरणं श्रउत्थियण वा गारस्थिएण वा कारेति कारेतं वा साइज्जर नि० ० १ ३० । ( सूच्या उत्तरकरण सूई शब्दे ) 64 " उत्त० उत्तरकुरा (सूत्रम्) तस्स उतरि (री ) करणं पायच्छिनकरो अत्रस्योत्तरकरणेति सूत्रापविवृत्याह । खंडिजविराहिणं मूलगुणाएं स उत्तरगुणाएं । उचरकरणं कीरह, जह सगमरदंगमेहाणं ॥ एए ! तिविधिनां वा सर्वधानमा विराधिता देशती गुणानां प्राणानां प्राणातिपातादिनिरूपणांस - तरगुणैः पिएकविश्रुद्ध्यादिनिवर्त्तन्त इति सोत्तरगुणास्तेषामुत्तरकरणं क्रियते आलोचनादीनां पुनः संस्करणमित्यर्थः । दृष्टान्तमाह यथा शकटरथाङ्गगेदानां बहिश्वकगृहाणामित्यर्थः । तथाच शकटादीनां तविराधिताना मकराद्विकादिनांतरकरणं यत इति गाथार्थः । आव० ५ श्र० । उत्तर किरिय-उत्तर क्रिय-न० उत्तरा उत्तरवीयशरीरागतिज्ञना किया यत्र गमने तदुत्तरक्रियम् । उत्तरीयशरीरा श्रयगत्या गमने, “जयाणं वा उ याए, उत्तरकिरियं रीयश्” अनु० ॥ उत्तरकुरा (रु) -उत्तरकुरु- पुं० [स्त्री० प्राकृते वैकवचनमाकारान्तता च । जी० ३ प्रति० ॥ जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्व्वतस्य उतरेण गन्धमादनमास्यवद् ज्यामावृतेऽर्द्धचन्द्राकारे उत्तरतो विस्तृते स्वनामस्याने स्था० २ ० ॥ पते चाकर्मभूमिदाः । स्था० ६ ० | प्रव० । तेषां प्रमाणादिव्यवस्था चेत्थम् । कहिणं जंते महाविदेहे वासे उत्तरकुराणामंकुरा पपता गोपमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं शीलवंत वा सहरपव्ययस्स दविखणेणं गंधमायणस्स वक्रवारपव्ययस्स पुरछिमे मालवस्त्र बक्सारपव्ययस्स पचमेिणं एत्य णमुत्तरकुरा णामं कुरा पत्ता । पाईएपी जा य या नदीदाहिणविच्छिमा अरू चंद संगणसंविआ इकारसजोयणसह स्साई अपमायाले जोभणसए दोसि का एगुणवीसइजाए जोयणस्स विक्खंनेणं तीसे जीवा उत्तरेणं पाईपमीणा य या हुडा क्वारपव्ययं पुडा जहा पुरच्छिमिलाए कोटिए पुरच्छिमि वक्वारपनयं पुट्ठा एवं पचच्छिमिलाए जाय पञ्चच्छिमि बक्खारपव्त्रयं पुट्ठा ते व णं जोयण सदस्साई आयामेणं सीसेां धाएँ दारिणं संजोयणसहस्सा चत्तारि प्रहारसे जोणसए दुवालसए एगूणवीसइजाए जोयशस्त्र परिषदेवेणं ॥ क नदन्त! महाविदेदे वर्षे उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रप्ताः गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणतो गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वतो वक्ष्यमाणस्वरूपस्य माल्यवतः पश्चिमतः । अत्रान्तरे उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रज्ञप्ताः प्राक् पश्चिमाया उतरदक्षिणविस्तीर्णी अर्थबन्द जनसखायी शतानियारिंशदधिकानि ही कानविंश तिनागी योजनस्य किम्भेनोपपत्तिर्यया महाविदेहविक स्नात् ( ३३६०४ ) कला ( ४ ) इत्येवं रूपान्मेरु विष्कम्नेऽपनीते शेषस्याएँ कृते राशिः स्यात् नतु वर्षवरामव्यवस्था प्रज्ञापकापेक्क्या अस्ति । यथा प्ररूपकासनं भरतं ततो चिदेकनामन्तरं देवकुरुमुख्य कंपमुत्तरकुरूणां निरूपणमुच्यते विप्रायः सबै प्रादक्किएयेन व्यवस्थाप्यमानं समये श्रूयते तत प्रथमत उत्तरकु Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८६ ) अभिधानराजेन्द्रः ॥ उत्तरकुरा रुकथनं ततः पार्श्वस्थी विद्युत्प्रभसीमनसी विहाय गन्धमादनमा व्यवद्वस्कारप्ररूपणं जरतासन्नविजयान् विहाय कच्छमहाकदिजयकथनं चेति तासां जीवानात्पादि ) तासामुत्तरकुरूणां सुषे एकवचनं प्राकृतवार वर्षधरासन्ना कुरुचरमप्रदेशश्रेणिः पूर्वापरायता द्विधा पूर्वपत्रि मागायां यज्ञस्कारपर्वतं स्पृश पतदेव विवृणोति तयधा पौरस्त्यया कोट्या पौरस्त्वं वक्षस्कारपर्वतं माल्यवन्तं स्पृष्टा पा श्चात्यया पाश्चात्यं गन्धमादननामानं वक्त्रस्कारपर्वतं स्पृष्टात्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि आयामेन तत्कथमित्युच्यते । मेरोः पूर्वस्यां दिशि नशालवनमायामतो द्वाविंशतियोजनसहस्राणि पश्चिमायामपि उभयमाने जाते चतुव्यत्वारिंशत्साि मेरुविष्कस्ने दशसहस्रयोजनात्मके प्रति जा तूयोजनसहस्राणि एकैकस्य वक्क्स्कार गिरेः वर्षधरसमीपे पृयुत्वं पनयोजनशतानि ततो भयो कस्कामियों: पृत्वपरिमाणं योजनस ततः पूर्वसिरपनीयते जातः पूर्वराशित्रिपन्नाशयोजनसहस्त्राणीति । अथैतासां धनुः पृष्ठमाह (तीसेणं ध दाहिणमित्यादि) तासां धनुः पृष्ठे दक्षितो मेरोपांसन्न इत्थयेः। परियोजन सहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि अष्टादशानि अष्टादशाधिकानि द्वादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण । तयादि कवस्कार गरेरायामत्रियोजनसहसाणि द्वे च नवन्तरे पदं च कलाः । ततो द्वयोर्व कस्कारयोरायाममी बने यथोक्तं मानमिति ॥ जं० ४ ० । अथैतासां स्वरूपप्ररूपणायाह ॥ उत्तरकुरापणं ते! कुराए केरिसए आगार जावपाकोयारे पछाचे गोयमा बहुसमरमज्जितू मिला पहले से महागाम लिंगपुखरेति वा जाब एवं एगोरुगादीव वतन्त्रया जाव देवलेोगपरिग्गहाणं ते मायगणा पपत्ता समणानसो !! ( उत्तरकुरापणं नंते इत्यादि) उत्तरकुरूणां सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात् कीदृश आकारभावस्य स्वरूपस्य प्रत्यवतारसंभवः प्रइतः ! जगवानाह गौतम ! बहुसमरमणी यो नृमिभाग उत्तरकुरूपं प्रज्ञप्तः (सेजढानामए इत्यादि) जगत्युपरि वनत्र एकच कवत तावद्वक्तव्यं यावन्तृणानां मणीनां च वर्णे गन्धः स्पर्शः शब्दकः परिपूर्ण उच्छे प्रवति ॥ पर्यन्त वेद दिव्वं नसतं गेयं पगीयाणं नवे पयारूवे सिया हंता सिया इति" जी० ३ प्रति ॥ अत्रेदमवधेयम् ॥ ( सूत्रपाठे जाव एवं एगोरुगदीवक्तव्या इति । एकोरुकद्वीपवर्णक एव स्मारितः वृत्तिकृता तु एतादृशं पाठममन्यमानेन एकोरुकवक्तव्यतायामकिञ्चि इव व्याख्यातमित्यस्मानिरपि अन्तरद्वीपशब्दे एकोरुकवकम्यता व प्रति इह तु तादृशानि सूत्राणि परिक ल्प्य टीका संयोजिता) उत्तरकुरुषु आकारप्रत्यवतारस्य वर्णकः सुषमसुषमानरतवर्षस्येव भावनया सा श्रसप्पिणीशब्दे व्यास्यास्यते नवरम् ॥ उत्तरकुराणं कुराए उव्विधा मगुस्सा अणुसज्जंति । तंजहा पगंधा १ मियगंधा २ अममा ३ सहा ४तेयली इस विचारी६ ( उत्तरकुरायणं नये इत्यादि) उत्तरकुरु कुरुषु नदन्त कति विधा जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्या अनुसञ्जति सन्तानेनानुषर्त्तन्ते ? भगवानाह - गौतम ! षड्विधा मनुजा अनुसञ्जन्ति तद्यथा पद्मगन्धा इत्यादि जातिवाचका इमे शब्दाः अत्र विनेयजनानुग्रहाय उत्तरकुरुविषयसूत्र संकलनार्थ संग्रहणी गाथात्रयमाद उत्तरकुरा जीवा मी गुम्मा उद्दा aaraणराई, लुक्खामप्रया य आहारे ॥ गेहा गामाय असी, हिरारायाय दासमाया य । आरवरण मत्तवि, वामनदुसगमा य ॥ सागाव सीहा, साझागसाही । गजुरोग, उच्चट्टणा य अणुवट्टणा चैव ॥ अस्य व्याख्या प्रथममुत्तरकुरुषयमा धनुष्यतपाद नकं सूत्रं तदनन्तरं (भूमिरित्ति ) भूमिविषयं सूत्रं ततो ( गुम्मा इति ) गुल्मविषयं सूत्रं तदनन्तरं हेरुतालवनविषयं सूत्रं ततः । ( उद्दात्रा इति ) उद्दानाविषयं तदनन्तरं (तिलगइति ) तिलकपदोपहतं ततो बताविषयं तदनन्तरं वनराजिविषयं ततो ( रुवाइति ) दशविधकल्पपादपविषया दश सूत्रदएम का ( मनुया य इति ) त्रयो मनुष्यविषयाः सूत्रदएककास्तया आद्यः पुरुषविषयो द्वितीयः स्त्रीविषयस्तृतीयः सामान्यतः उन्नयविषयः । तत ( आहारे इति ) आहारविषयस्तदनन्तरं (गेड़ा प्रतिदिएको आदाकारवृकानिधाय परो गेदाद्यनाव विषय इति ततो ( गामा इति ) ग्रामाद्यनावस्तदनन्तरम् ( असीति ) अस्याद्यनाव विषयस्ततो हिरण्याद्यभावविषयस्तदनन्तरं राजाद्यभावविषयस्ततो दासाद्यभावविषयस्ततो मात्रादिविषयस्तदनन्तरमरिवैरिप्रभृतिविषयस्तदनन्तरं मित्रायाविषयस्तदनन्तरं विवादपदोस्ताप्रतिषे विषयः तदनन्तरं महप्रतिषेधविषयः ततो नृत्तपदोपलकितकाप्रतिषेधः तदनन्तरं शकटादिप्रतिषेधविषयः ततोऽश्वादिपरिभोगमतिविषयतद्नन्तरं स्त्रीत्यादि परिभोगप्रतिषेधविषयः । ततः सिंहादिविषयः तदनन्तरंशाख्यप यस्ततः स्यापवादप्रतिषेधविषयस्तनतरं तदतिषेधविषय स्ततो दंशाधनावविषयस्ततोऽह्यादिविषयस्तदनन्तरं ग्रह इति अहदकादिविषयस्ततम्बाद प्रतिषेधविषयः सुतस्ततो रोगइति रोगोपतिर्भूतादितिषविषयस्तदनन्तरं स्थितिसूत्रं ततोऽनमिति । संप्रति उत्तरकुरुनावियमक पर्वतवक्तव्यतामादकहिणं ते! उत्तरकुराए जमगा नाम दुबे पत्रता पत्ता ? गोयमानीतस्स वासरपन्चयस्स दाहिणं अडोनी जोसचे बजारि सतनागे जोवमस्म आवाधार सीता महाणती उजओ फूले एत्य उत्तरकुराए कुराए जमगा शाम दुवे पव्वता पत्ता एगमगेल जोपसहरु उचणं अजीतपाई पेदेस एकमेकं जो आयामत्रिणं म माई जोय सताई आयाम विक्खनेणं उवरिं पंचओएसवाई आयाममित जोपास स्पाई एकं वा वह जो सयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेबेणं दो जोयणसहस्वाई तिमि य वावतरे जोपासते किंचि विसे परिषखेवेणं उपरि पसारस एका जोयते किंचि विमाहिया परिणं पाहाचा पूलविच्मिा मज्छे संखित्ता उपिं तया गोपुच्छ संवाणसंठिता सव्वकणगामया अच्छा सराहा जाव परिस्वा पत्तेयं २ पट मवरवेतिया परिक्खित्ता पत्तेयं २ वणसमपरिक्खित्ता एओ दोषं वि सिणं जमगपत्र्त्रयाणं उपिं बहुस Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८७) उत्तरका अभिधानराजेन्द्रः। उत्तरकुरा मरमाणिज्जतामित्नागे पमचे वपो जाव प्रासयति । सम्प्रति नामनिबन्धनं पिपृच्चिषुरिदमाह ॥ वनदन्त ! उस्सरकुरुषु कुरुषु यमको नाम द्वीपर्वतौ प्राप्ती ? जग से केपट्टे णं ते एवं वुच्चंति जमगा पन्चया २ गोयमा! वानाह गीतम! नीअवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याचरमान्ता जमगेसु णं पब्बतेसु तत्य २ देसे २ सहिं २ बहून खुड्डियाज शरमरूपात पर्यन्तादष्टौ योजनशतानि चतुस्त्रिंशानि चतुरिंश- वावीउ जाब विनवंतियान तासुणं खुड्डा खुडिया जाव दधिकानि चतुरश्च योजनस्य सप्त भागान् अबाधया कृत्वा अपा विलवंतियासु वहूई उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई जमगन्तराले मुक्त्वेति भावः। अत्रान्तरे शीताया महानद्याः पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरुजयोः कुबयोरत्र एतस्मिन् प्रदेशे यमको नाम छौ प्पनाई जमगवमाई जमगा एत्थ एं दो देवा महिया जापर्वप्ती प्राप्तौ । तद्यथा एकः पूर्वकृले एकः पश्चिमकूले प्रत्यक व पलिओवमष्टितिया परिवसंति तेणं तत्थ पत्तेयं २ चउएहं योजनसहस्रमुश्चस्त्वेन अतृतीयानि योजनशतानि कांधेन सामाणियसाहस्साएं जाव जमगाणं पबयाणं जमिअवगाहन मेरुव्यतिरेकेण शेषशाश्वतपर्वतानां सर्वेषामपि दोषेणोचस्त्वापेकया चतुर्भागस्यावगाहनावात् मृले एकं योजनस गाण य रायहाणीणं अएणेसिं च बहाणं वाणमंतराणं हस्त्रं विष्कम्नः (१०००) मध्ये अर्कशतोनाष्ट योजनशतानि देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव पालेमाणा विहरति । (७५०) उपरि पञ्चयोजनशतानि (५००) मूसे त्रीणि योजन- से तेणणं गोयमा एवं वुच्चइ जमगपन्चया २ अनुत्तरं चणं शतानि एकं च द्वाषष्टं द्वाषष्टयधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिक गोयमाजाव णिचा। परिकेपेण प्राप्ती (३१६२)मध्ये द्वे योजनसहस्रे त्रीणि योजनशतानि द्वासप्तत्यधिकानि ( ५३७२ ) किञ्चिहिशेषाधिकानि अथ केनार्थेन केन कारणेन एवमुच्यते यमकपर्वतो यमकपरिकेपेण प्राप्ती । परि एकं योजनसहस्रं पश्चशतानि पका पर्वताविति भगवानाह गौतम ! यमकपर्वतयोणमिति वाशीतीनि एकाशीत्याधिकानि योजनशतानि किश्चिहिशेषाधिकानि क्यालंकारे कुलिकासुवापीषु पुष्करिणीषु यावद्विलपतिषु बहुनि (१५८१) परिकेपेण एवं च ती मृो विस्तीमाँ मध्ये संक्षिप्ती उत्पलानियावत्सहस्रपत्राणियमकप्रनाणि यमका नाम शकुनिवि. सपरि तनुकावत एव गापुच्छसंस्थानत्तस्थिती (सवकणगम शेषास्तत्प्रजाणि तदाकाराणि एतदेव व्याचष्टे यमकवर्मन्नानि य. मकसदशवर्मानीत्यर्यः यमौ च यमकनामानौ च तत्र तयोर्यमकया इति) सर्वात्मना कनकमयो (अच्छा जाव पमिरुवा शति) प्राग्वत् तौ च प्रत्येकं २ पद्मवरवेदिकया परिक्तिप्तौ प्रत्येकं २ पर्वतयोःस्वामित्वेन द्वौ देवा मार्क की यावन्महानागो पल्योप मस्थितिको परिवसतस्तौ च तत्र प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्मा सामानिकवनखएमपरिक्तिप्तौ पद्मवरवेदिकावर्गको वनखएमवर्मकश्च सहस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिहणमन्यजगत्युपरि पावरवेदिकावनखएडवर्षकवत् वक्तव्यः (जमकपञ्चयाणमित्यादि) यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येकं बहुसमरमबीयो न्तरमध्यबाह्यरुपाणां यथासंख्यमप्यादश द्वादश देवसहस्रसंख्यानमिभागः प्राप्तः मित्रागवर्मनं च "से जहा नामए आलिंगपु कानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोमशानामात्मरक्तकदेवसहस्राक्खर वा" इत्यादि प्राग्वत् तावद्वक्तव्यं यावद्वाणमंतरा देवा णां (जमगपब्वयाणां जमगाण य रायहाणीयमिति) स्वस्य स्वदेवीउ य आसयंति सयंति जाव पश्चपुम्भवमाणा विहरति । स्य यमकपर्वतस्य स्वस्याः यमिकाभिधाया राजधान्या अन्येषां तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं तुमिनागाणं बहुमज्कदे च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वस्वयामिकानिधसभाए पत्तयं २ पासायबसका पसत्ता तेणं पासायवमें राजधानीवास्तव्यानामाधिपत्यं यावद्विहरतः यावत्करणात् "पारेसका वावहि जोयणाई अघजोयणं च नहूं उच्चत्तेणं एक वश्वं सामित्तं जट्टित्तमित्यादि" परिग्रहस्ततो यमकाकारयमकवतीस जोयणाईकोमंच विक्खंभेणं अन्नग्गतनसित वमाओ गोत्पलादियोगात् यमकानिधदेवस्वामिकत्वाच तो यमकपर्वता वित्युच्यते । यथा चाह (सपणतुणमित्यादि।) लमिजगाओ उमोत्ता दो जोयणाई माणपेढियाओ उवरि संप्रति यमकाजिधराजधानीस्थानम् । सीहासणा सपरिवारा जाव जमगा चिट्ठति । कहिणं ते जमगाणं देवाणं जमगाओ नाम रायहाणीयो (तसिणमित्यादि ) तयोबहसमरमणीययो मिजागयोबहु पएणताओ? गोयमा !जमगाणं पबयाणं उत्तारणंति तिरि मध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः । ती च यमसंखेजदीवसमुद्दे वितिकमित्ता अाणम्मि जंबूद्दीवेश्वारप्रासादावतंसकी द्वापष्टिोजनानि अर्कयोजनं चोर्डमुच्चस्त्वेन एकत्रिंशद्योजनानि कोशं चकं विष्कम्नेन " अनुभायं मुसिय | सजोयणसहस्साई उगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिपहसियाश्वे" त्यादि यावत् पनिरूवा इति प्रासादावतंसक- गाओ णाम रायहाणीओपएणताअोवारसजोयणसहस्साई वर्मनमुल्लोचवर्मन नूमिनागवर्मन मणिपीठिकावर्मन सिंहा- ___ जहा विजयस्स जाव महिया ॥ सनवानं विजयदृष्यवर्सनमङ्कशवपनं दामवसनं च निरवशेष जमगा देवाः क भदन्त यमकयोदेवयोः संबन्धिन्यौ यमिके नामप्रारबक्तव्यम् नवरमत्र मणिपछिकाया:प्रमाणमायामविष्कम्भा राजधान्यौप्राप्तेभगवानाद गौतमयमकपर्वतयोरुत्तरतोऽन्यस्मि ज्यां द्वे योजने बाहल्येन एक योजनं शेषं तथैव (तेसिणं सिंहा- न असंख्ययतमे जम्बूद्वीप २ हादशयोजनसहस्राएयवगाह्य प्रसणाणामत्यादि) तयोः सिंहासनयोः प्रत्येकम् (अवरुत्तरणति) त्रान्तरे यमकदेवयोः संबन्धिन्यौ यमकराजधान्यौ प्रज्ञप्ते ते चाविअपरोत्तरस्यां वायव्यामित्यर्थः उत्तरपूर्वस्यां च दिशि अत्र एता शेषेण विजयराजधानीसदृश्यौ वक्तव्ये जी०३ प्रति०॥ सु तिसषु दिक यमकयोर्यमकनाम्नोर्यमकपर्वतस्वामिनोदैवयोः संप्रति हदवक्तव्यतामभिधिन्सुराह ॥ प्रत्येकं प्रत्येकं चतुमा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि जंबूमंदरउत्तरेणं उत्तरकुराए कुराए पंचमहद्दहा पएणत्ता भासनसहस्राणि प्राप्तानि । एवमेतेन क्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यो यथा प्राक् विजयदेवस्य (तसिमित्यादि) तयोः प्रासा तंजहा नीलवंतदहे एरावणदहे उत्तरकुरुदहे चंददहे माल दावतंसकयोः प्रत्येकमुपरि अष्टावष्टौ मङ्गप्रकानि प्राप्तानि- वंतदहे। इत्याद्यपिप्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावत् सयसहस्सपत्तगा इतिपदम्।। नीलवन्तमहान्हदो बिचित्रचित्रकूटपर्वतसमवक्तव्यतान्यां यम Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८८) उत्तरकुरा अन्निधानराजेन्डः। उत्तरकुरा काभिधानान्यां स्वसामाननामदेवावासाच्या पर्वताच्यामनन्तरं | सर्विसेसं परिक्खेवेणं अजोयणं बाहवेणं दसजायणाई उसष्टव्यस्ततो दक्विणतः शेषाश्चत्वार शत एते च सर्वेऽपि प्रत्येक ब्बहेणं दो कोसे सितेजलंतीतो सातिरेगाई दसजोयाई दशनिदेशभिःकाञ्चनकान्निधानर्योजनशतोच्छूितैर्योजनशतमूत्रविष्कम्मैः पञ्चाशद्योजनमानमस्तकविस्तारैःस्वसमाननामदेवा सब्बग्गेणं पाते तस्सणं पउमस्स अयमेतारूपे वष्मावासे पम्पत्ते धिवासः प्रत्येकं दशयोजनान्तरैः पूर्वापरव्यवस्थितर्गिरिभिरुपेता तंजहा वइरामता मृझारिद्वामते कंदे वेरुनिया मरणाझेएतेषां च विचित्रकूटादिपर्वतदनिवासिदेवानामसंख्येयतमज वेरुलियामता बाहिरपत्ता जंबूणयमया अभंतरपत्ता तव म्यूद्वीपेद्वादशयोजनसहसूप्रमाणास्तन्नामिका नगर्यो जवन्तीति ॥ णिज्जमया केसरा कणगामई कमिया नाणामणिमया पुक्खनीलवहदादीनां विशेषवर्णकः। काहां भंते ! नत्तरकुराएश्नीलवंतदहे नाम दहे पहात्ते ? अस्थिरया साणं कमिया अकजोयणं आयामविक्खंजेणं गोयमा ! जमगाणं पन्चयाणं दाहिणेणं अडचोत्तीसे जो तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवणं कोसं बाहोणं सव्वकणगामई यणसये चत्तारि सत्तनागे जोयणस्स अबाधाए सीताए महा अच्छा सएहा जाव पामरूवा तीसेणं कमियाए उवरि बहुणतीये बहुमज्देसजाए एत्थणं उत्तरकुराए २ नीलवंतद्दहे समरमणिज्जदेसजाए पामते जाव मणीहिं तस्सणं बहसमरनाम दहे पसत्ते उत्तरदक्खिाणाए पाईपमीणविस्थिमे एगं मणिजस्स लूमिनागस्स बहुमज्देसजाए एत्थएं एगेमहं जोयणसहस्सं आयामणं पंचजोयणसयाति विक्खनेणं दस जवणे पम्पत्ते कोसं च आयामेणं अफकोसं च विक्खंभेणं जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रयत्तामत्तकूले चनक्कोणे देसूर्ण कोम नन्द नच्चत्तेणं अहोगक्खंजमतससिविट्ठ ससमतीरे जाव पमिरूवे उनोपासिं दोहि य पउमवरवेति जावमयो । तस्स जवएस्स तिदिसि ततो दारा पत्ता याहिं दोहिं वसंमेहिं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते दोएह तंजहा पुरच्छिमेणं दाहिणणं उत्तरेणं तेणं दारा पंचधाविष्णो नीलवंतहहस्स णं तत्थ जाव बहवेत्ति सोमा- सयाई जम्दं नञ्चत्तेणं अम्दाइजाई धरासयाई विक्खंभणं पापभिरूवका पमत्ता वमाओ जाणियब्बो तोरणेत्ति ॥ । तावतियं चेव पवेसेणं से ताव कणगथूनियागा जाव क भदन्स! उत्तरकुरुषु कुरुषु नीलवन्तहदो नाम हदःप्रज्ञप्तः? | वणमासागत तस्सणं जवणस्स अंतो बहुसमरमाणिज्जभगवानाह गौतम ! यमकपर्वतयोकिणत्याचरमान्तादक मिनाग पसत्ते से जहानामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव दक्विणाभिमुखमष्टौ चतुर्विंशानि चतुर्विंशदधिकानि योजनशता मणीणं वसाओ तस्स णं बहुसमरमाणिज्जस्स नूमिनागस्स नि चतुरश्च सप्त नागान् योजनस्य अबाधया कृत्वेति गीयते - पान्तराले मुक्त्वेतिनावः। अत्रान्तरेशीतायामहानद्या बहुमध्यदे- बहुमज्देसनाए एत्थणं माणपोढया पसत्ता पंचधासयाई शजागे (पत्थति) पतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुष कुरुषु नीलवत् आयामविक्खंजेणं अम्हाइजाइंधणुसताई बाहोणं सव्वमम्हदो नाम हदः प्राप्तः स चकिं विशिष्ट श्त्याह उत्तरदक्विणाय णामणिमती। तः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः उत्तरदक्षिणाज्यामवयवान्यामायतः उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनापाचीनाज्यामवयवाच्या विस्ती (तस्सणमित्यादि ) तस्य नीलवन्नाम्नो हदस्य बहुमध्यदेशया प्राचीनापाचीनविस्तीर्मः । एक योजनसहनमायामेन प- मागे अत्रमहदेकं पनं प्रज्ञप्तम्योजनमायामतो विष्कम्नतश्च अश्चयोजनशतानि विष्कम्नतः दशयोजनान्यु धन उएमत्वेन अ * योजनं बाहुव्येन दशयोजनानि उवधेन उएमत्वेन जलपर्यचस्फाटिकवहिनिर्मलप्रदेशः श्लदणः श्लदणपुननिर्मापितब न्तात् द्वौ क्रोशावुच्छ्रितं सर्वाग्रेण सातिरेकाणि दशयोजनानि प्रकदिप्रदेशः । तथा रजतमयं रूष्यमयं कूलं यस्यासौ रजतमयकूल सानि।तस्य पद्मस्य अयं वदयमाण एतापोऽनन्तरमेव वदयमाण श्त्यादि विशेषणकदम्बकं जगत्युपरि वाप्यादिवत् तावद्वक्तव्यं स्वरूपो वर्मावासो वर्मकनिवेशः प्राप्तस्तद्यथा वज्रमयं मूलं रिष्टयावदिदं पर्यन्तपदं "परिहत्यनमंतमच्चकच्छपणेगसउणमि रत्नमयः कन्दो वैर्यरत्नमयो नालः वैसूर्यरत्नमयानि बाहपत्राणि हुणपरिपरिए इति” (उन्नयेपासेत्यादि) स च नीलवन्नामहदः जाम्बूनदमयानि अन्यन्तरपत्राणि तपनीयमयानि केसराणि कशीताया महानद्या उन्नयोः पार्श्वयोः बहिर्विनिर्गतः स तथा नूतः नकमयो पुष्करकर्मिका नानामणिमयी पुष्करस्थिबुका (साणंसन् उन्नयोः पार्श्वयोज्यिां पनवरवेदिकाच्यां द्वितीये पावें कमिका अकमित्यादि) सा कर्मिका अईयोजनमायामविष्कम्भाफितीयया पावरवेदिकया इत्यर्थः । एवं द्वाज्यां वनस्खएमाज्यां ज्यां क्रोशमेकं बाहुल्यतः सर्वात्मना कनकमयी अच्ग यावत्प्र. सर्वतः सर्वासु दिकु समन्ततःसामस्स्येन संपरिक्तिप्तः पावरवे- तिरूपा यावत्करणात् "सएहा घडामघा नीरया इत्यादि परिग्रहः" दिकावनखएमवर्मकश्च प्राग्वत् । (नीसवंत दहस्स णं तत्थ (तीसणं कनियाए इत्यादि ) तस्याः कर्मिकाया उपरि बदुसमतत्येत्यादि) नीलघदूहस्य णमिति वाक्यालङ्कारे तत्र देशे तस्य रमणीयो तूमिभागः प्रज्ञातस्तवर्मनं च "सेजहानामएकालिंगदेशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रतिशिष्ठ- पुक्खरेश्वा'इत्यादिना ग्रन्थेन विजयराजधान्या उपकारिकालयनरुपकाणि त्रिसोपानानि प्रशतानि धर्मकस्तेषां प्राग्वक्तव्यः । स्येव तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यता परिसमाप्तिः (त(तेसिणमित्यादि) तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्ये- स्सणामित्यादि)तस्य बहुसमरमणीयस्य नमिभागस्य बहुमध्यके २ तोरणं प्राप्त (तेणंतोरणाश्त्यादि ) तोरणवर्णनं पूर्ववत्ता- देशभागे अत्र महदेकं जवनं प्राप्त क्रोशमायामतोऽईक्रोशं विष्कबद्वक्तव्यम् यादहयो “सयसहस्सपत्तगा" इति पदम् ॥ म्भतो देशानं क्रोशमूहमुश्चस्त्वेन अनेकस्तम्नशतसन्निविष्टमित्या दि तवर्णनं विजयराजधानीगतसुधर्मासनाया श्व तावठक्तव्य तस्सणं नीलवंतद्दहस्सणं दहस्स बहुमजिकदेसभाए एत्थ यावदिदंसूत्र (दिव्वतुमियसहसंपादितति) तदनन्तरं सूत्रमाणमई पउमे पत्ते जोयणं आयामविखंभेणं ते तिगुणं ह। (सब्वरयणामए इत्यादि) सर्धात्मना रत्नमयं अच्छं यावत् Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८९) उत्तरकुरा अनिधानराजेन्द्रः। उत्तरकुरा प्रतिरूपं यावत करणात् 'सएहे जएहे घटेमटे इत्यादि'परिग्रहः॥ न्येन अष्टशतेन पन्नानां तदोच्चत्वप्रमाणमात्राणां तस्य मूलपा( तस्सणमित्यादि ) तस्य भवनस्य त्रिदिशि त्रिसृषु दिक प्रमाणस्याई तदऊँ तच्च तच्चत्वप्रमाणं च तदर्बोच्चत्वप्रमाण पकैकस्यां दिशिएकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रामानि तद्यथा तदोश्चत्वप्रमाणं मात्रा येषांतानि तथा तेषां सर्वासु दिनु समपूर्वस्यामुत्तरस्यां दक्विणस्यां (तेणं दारा इत्यादि) तानि द्वाराणि न्ततः सामस्त्येन संपरिक्तिप्तं तदोच्चत्वप्रमाणमेव तेषां पञ्चधनुःशतानि कर्डमुश्चस्त्वेन अर्कतृतीयानि धनुःशतानि वि- भावयति ( पचमा इति) तानि पद्मान प्रत्येकमळंयोजनमायाकम्नेन तावदेव अतृतीयानि धनुशतानीति भावः प्रदेशेन माविष्कम्भान्यां क्रोशमेकं बाहुल्येन दशयोजनानि उधेन क्रोश(सेयावरकणगयूनियागाश्त्यादि)द्वारवनं विजयद्वारस्येव ताव- मेकं जलपर्यन्ताऽच्छ्रितं सातिरेकाणि दशयोजनानि सर्वाग्रेण दविशेषेणावसातव्यं यावत् 'वसमात्राओ' इति वनमालावक्तव्य- (तेसिणमित्यादि तेषां पद्मानामयमेतपो वावासः प्राप्तः तापरिसमाप्तिः (तस्सणमित्यादि ) तस्य जवनस्थ उल्होत्रान्त- घजमयानि मूत्रानि रिष्टरत्नमयाः कन्दा वैर्यरत्नमया नालाः बंदुसमरमणीये नामिभागेमणानां वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णनं प्राम्बत् तपनीयमयानि बाह्यपत्राणि जाम्बूनदमयानि बाह्यपत्राणि तपनी(तस्सेत्यादि ) तस्य बहुसमरमपीयस्य भूमिनागस्य बहुमभ्य. यमयानि केसराणि कनकमय्यः कार्डिका नानामाशिमयाः पुष्कदेशभागे मणिपीठिका प्रज्ञप्ता पञ्चधनुशतानि आयामविष्कम्ना- रास्थिभागाः (ताउणं कन्नियाउ इत्यादि) ताः कार्मिकाः क्रोशमाज्यामतृतीयानि धनुःशतानि बाहुल्येन सर्वात्मना मणिमयी यामाविष्कम्भाज्याम: क्रोशं बाहुल्येन सर्वात्मना कनकमय्यः अच्छा यावतू प्रतिरूपा ति प्राम्वत् ॥ अच्छान जाव पझिरुव शति प्राग्वत। (तेसिणं कान्नियाणमित्यादि) तीसेणं मणिपेढियाए उवरिं एत्थणं एगे महं देवसयणिजे तासां कर्णिकानामुपरि बहुसमरणीयो शुमिन्नागः प्राप्तः तस्य पहात्ते देवसयणिज्जस्स वमओ से गंपउमे अमेणं अट्ठस वार्मका पूर्ववत्तावद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शः (तस्सणमित्यादि) तस्य मूनूतस्य पनस्य अपरोत्तरेण अपरोत्तरस्यामेवमुत्तरतेणं तदछुच्चत्सप्पमाणमत्तेणं पजमाणं सव्वतो समंता संप- स्यामुत्तरपूर्वस्यां सर्वसंकलनया तिसृषु दिनु अत्र नीसवतो रिक्खित्ते तेणं पउमा अजोयणं आयामविक्खनेणं तं नागकुमारेन्डस्य नागकुमारराजस्य चतुर्णी सामानिकसहस्राण तिगुणं सविसेसं परिक्खेवणं कोसं बाहबेणं दसजोयणाई योन्यानि चत्वारि पद्मसहस्राणि प्राप्तानि (पतेणमित्यादि) पतनानन्तरोदितनानिमापेन यथा विजयस्य सिंहासनपरिवानवेहेणं कोस ऊसिया । जलं ताओ सातिरेगातिं दसजाय रोऽभिहितस्तथा इहापि पद्मपरिवारो वक्तव्यस्तद्यथा पूर्वस्यां णाति सव्वग्गेणं पसत्ताई तेसिणं पउमाणं अयमेतारूवे व- दिशि चतसृणामग्रमहिषीणां योग्यानि चत्वारि महापानि सोवासे पामते तंजहा वतिरामयामूझा जाव हाणामणिमया दक्षिणपूर्वस्थामन्यन्तरपवेदोऽष्टानां देवसहस्राणां योभ्यान्यष्टी पुक्खलस्थिगया ता उणं करिया उकोसं आयामविक्वं पद्मसहस्राणि दक्विणस्यां मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां यो भ्यानि दशपद्मसहस्राणि दक्षिणापरस्यां बाह्यपर्षदो द्वादशानां नेणं तं तिगुणसपरिक्खेवेणं अचकोसं बाहोणं सन्चकण देवसहस्राणां द्वादश पन्मसहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकागामईउ अच्छउ जाव पमिरूवाउ तासि णं कएिणया प्पि धिपतीनां योग्यानि सप्तमहापद्मानि प्राप्तानि तदनन्तरं तस्य टिबहुसमरमणिज्जा अभिभागा जाव मणीयं वयो गंधो फासो तीयस्य पद्मपरिवेषस्य पृष्ठतश्चतसृषु दिक्क षोमशानामात्मरतस्मणं पनमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थणं नी ककदेवसहस्राणां योग्यानि घोगशपासहस्राणि प्रतानि । तचया चत्वारि पन्नासहस्राणि पूर्वस्यां दिशि चत्वारि पासहलवंतदहकमारस्त देवस्स चनएहं सामाणियसाहस्सीएं खाणि पश्चिमायां चत्वारि पद्मसहस्राणि उत्तरस्यामिात । तदेवं चनारि पनमसाहस्सीउ पमत्तान एवं सम्बो परिवारो नवरि मनपत्रस्य त्रयः पद्मपरिवेषा अनुवन् अन्येऽपि च यो विद्यन्ते पनमाणं जाणियब्बो । सणं पउमे अमेहिं तेहिं पउमप- इति तत्प्रतिपादनार्थमाह । ( सेपउमे इत्यादि ) तत्पनमन्यैरिक्खवणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते तंजहा अजितरएणं रनन्तरोक्तपरितपत्रिकव्यतिरिक्तैत्रिभिः पनपरिवषैः सर्वतः सर्वासु दिकुसमन्ततःसामस्त्येन संपरिक्तिम् । तद्यथा अत्यन्तमज्झिमएणं बाहिरएणं अन्जितरएणं पउमपरिक्खेव बत्तीस रेण मध्यमेन बाहान च। तत्राज्यन्तरपनपरिकेपे सर्वसंख्यया द्वापकमलयसाहस्सीउ पमत्ताउ मजिकमएणं पनमपरिक्वेवो | त्रिंशत् पद्मशतसहस्राणि प्रसानि (३१०००००) मध्यमे परिक्षेपे चतालीसं नपउमसयसाहस्सीओपपत्ताअोबाहिरएणं पउम- चत्वारिंशत् पद्मशतसहस्राणि (४००००००)बाह्यपद्मपरिकेपे अष्टापरिक्खेवे अमयालीसंपउमसयप्ताहस्सीउपमत्तानो एवामेव चत्वारिंशत् पद्मशतसहस्राणि प्राप्तानि (४७०००००)एवमेव अननव प्रकारेण ( सब्वावरणंति ) सह पूर्व यश्च येन वा सस पुब्बावरेणं एगा पउमकोमोन वीसं च पउमसतसहस्सा पूर्व तत् अपरं च सपूर्वापरं तेन सपूर्वापरेण पूर्वापरसमुदानवंतीतिमक्खाया। सेकेण्डेणं नंते एवं बुच्चति नीलवंतदहे ? येनत्यर्थः एका पाकोटी विंशतिश्च पद्मशतसहस्राणि अवतीगोयमा ! पीलवंतद्दहणं तत्थ २ जावनप्पसति जाव सय त्याख्यातं मया शषैश्च दीर्थकृद्भिरेतन सर्वतीर्थकृतामविसं वादिवचनतामाह । कोट्यादिकाच संख्या स्वमीलितायां सहस्सपत्ताई नीलवंतप्पनाति नीलवंतवमानाति नीलवंत द्वात्रिंशदादिशतसहस्राणामेकत्र मीलने यथोक्तसंख्याया अवश्य दहकमारेय एत्थ सो चेव गमो जाव गीलवंतबहे ॥ नावात् संप्रात नामान्वर्थ पिच्चिषुराह । अथ केनार्थेन तीसणमित्यादि ) तस्या मणि पीविकाया उपरि अत्र महदेकं । एवमुच्यते नीबव दो नीलबध्रद ति भगवानाह । गीतम! देवशयनीयं प्राप्तम् । शयनीयवर्णकः प्राग्वत् । ( तस्सण नीलवदूधदे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे मित्यादि ) तस्य भवनस्योपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गन बहूनि उत्पानि पद्मानि यावत् सहसपत्राणिनीनय दप्रजाणि कानि इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यम् यावत् बहवःसहस्रपत्रहस्तका नीप्रवन्नाम हुदाकाराणि नीलवर्णानि नीलवन्नाम वर्षधरपर्वति मूलत श्दमधिकं दृश्यते" (सेणमित्यादि) तत् पम- तस्तस्मनीति नावः । नीलवन्नामा च नागकुमारेन्डो नागकुमार Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९०) उत्तरकुरा अंभिधानराजेन्डः । उत्तरकुरा राजो महार्दिक श्त्यादि यमकदेववन्निरवशेष बक्तव्यं यावद्वि- तत्काञ्चनप्रभोत्पलादियोगात् काञ्चनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच हरति । ततो यस्मात्तमतानि पद्मानिनीअवनि नीलवन्नामा ते काञ्चनका इति तयाचाह । सेएणणमित्यादि काचनिकाश्च च तदधिपतिर्देवस्ततस्तद्योगादसौ नीलवनामा हृदः। तथाचाह राजधान्योयामिका राजधानीवक्तव्या ॥ (से पएण?णमित्यादि) कहिणं भंते ! नीवंतदहस्सेत्यादि उत्तरकुरुहदाः ॥ राजधानीविषयं सूत्रं समस्तमपि प्राग्बत् ॥ काह णं ते उत्तरकुराए उनरकुरुद्दहे नाम दहे पम्मत्ते? नीलबदुन्हदे काञ्चनपर्वताः। गोयमा! नीलवंतहहस्स दाहिणणं अहचोत्तीसे जोयणनीलवतेहां पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं दस दस जोयणाति अबा सए एवं चेव गमोणेयचो जो णीजवंतद्दहस्स सव्वेसि सरिहाए एवणं दस दस कंचणगपन्यता पम्पत्ता तेणं कंचणग सके दहसरिसनामा य देवा सधोसिं पुरच्छिमपञ्चच्छिमे पन्चता एगमगं जोयणसतं उठं उच्चत्तेणं पणवीसं २ जोयणाति उहणं मूले एगमेगं जोयणसतं विखंनेणं कंचारूपवता दसपकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणी अम्मम्मि जंबुद्दीवे चंददहे एरावण हे मालवंतहहे एवं एककोणेयव्यो ।। मज्के पत्तरि जोयणाई आयामविक्खनेणं उरि पसासं क नदन्त ! जम्बूद्वीपे उत्तरकुरुषु कुरुषु उत्तरकुरुहदो नाम हदः जोयणाई विक्खंनेणं मूझे तिमि सोने जोयणसते किंचि प्राप्तः । भगवानाह । गौतम! नीलवतो हृदस्य दाक्षिणात्याचविसेसाहिता । परिक्खेवेणं मज्के दोसि सत्ततीसे जोयणसते रमपर्यन्तादौ चतुस्विंशानि चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि किंचि विसेसाहिता परिक्खेवेणं नवरि एगं अट्ठावन्नं जायण- चतुरश्च योजनस्य सप्त नागा अबाधया कृत्वति गम्यते शीतासतं किंचि विसेसाहिया । परिक्खिवेणं मुझे विच्छिम्मा मज्के या महानद्या बहुदेशजागे अत्र उत्तरकुरुर्नाम हुदः प्राप्तः यथैसंखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंगण संठिया सव्वकंचणमया व प्राक नीलवतो हृदस्य आयामविष्कम्नोवेधपवरवेदिका बनखएमत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमहामूबनूतपमाष्टशतपनपरि अच्छा पत्तेयंश पनमवउतिई पत्तेयं शवणखंडपरिक्खित्ता वारपद्मशेषपरिधिपरिपत्रयवक्तव्यतोक्ता तथाअन्यूनानतिरिक्ता तेसिणं कंचणगपवताणं उप्पि बहसमरमणिज्जे मिजागे वक्तव्या । (मबटीकयोः पाउनेदः) नामकारणं पिपृच्छिषुरिदमाहजाव प्रासयत्ति पत्तेयं २ पासायवमेंसगा सदा भावट्टि जोय- "से केण?णं भंते इत्यादि प्राग्वत्" नवरमुत्पलादीनि यस्मात् पिया नई एकतीसं जायणाई कोसं च विक्खंजेणं मणि उत्तरकुरु-हदप्रजाणि उत्तरकुरु-हदाकाराणि तेन तानि तदाकारपेढिया दो जायणिया सिंहासणा सपरिवारा। से केटणे णं योगात् उत्तरकुरुनामाऽत्र तत्र देवः परिवसति तेन तद्योगात् जंते एवं बुच्च कंचणगपन्चया गोयमा !कंचणगेसृणं पचतेसु -हदोऽप्युत्तरकुरुः नचैवमितरेतराश्रयदोषप्रसङ्ग उन्नयेषामपि नाम्नामनादिकालं तथाप्रवृत्तः । एवमन्यत्रापि निर्दोषता भावतत्थश्वाविन उप्पनाई जाव कंचणवप्मा नाति कंचणगा नीया । उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति तद्वक्तव्यता च जाव देवा महिकिया जाव विहरति उत्तरेणं कंचणगाणं कंच- | नीलवनागकुमारवद्वक्तव्या ततोऽप्यसावुत्तरकुरुरिति । राजधानीमित्तान रायहाणीओ एहम्मि जंबू तहेव सव्वं जाणियव्वं वक्तव्यता काञ्चनकपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना (नीलवंतवहस्सणमिति)नीलवतो हदस्य(पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं) प्राम्यत् । चन्हहवक्तव्यतामाह । (कहिणं नंते इत्यादि) पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि प्रत्येकं दशयोजनाम्यबाधया कृत्वोतग- प्रश्नसूत्र सुगम भगवानाह-गौतम ! उत्तरकुरुन्हदस्य दाकियाम्यतेऽपान्तराने मुक्वेतिनावादश दशकाञ्चनपर्वता दक्षिणोत्तर- त्याश्चरमान्तादर्वाक दकिणस्यां दिशि अष्टौ चतुग्विशानि योजश्रेण्योःप्राप्ताःते काञ्चनपर्वताःप्रत्येकमेकं योजनशतमूर्ध्वमुचस्त्वेन नशतानि चतुरश्च सप्तभागान योजनस्य अबाधया कृत्वेति शेषः। पञ्चविंशतिर्योजनान्युद्वेधेन मूळे एकं योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये शीताया महानद्या बहुमभ्यदेशभागे अत्र अस्मिन्नवकाशे उत्तर. पञ्चसप्ततिर्योजनानि विष्कम्नेन उपरि पञ्चाशद्योजनानि विप्क कुरुषुचजन्हदो नाम हदः प्राप्तः। अस्यापि नीअवद्धदस्येव म्नेन मुले त्रीणि बोमशोत्तराणि योजनशतानि (३१६) किश्चि आयामविष्कम्जोधपद्मवरवेदिकावनखएमत्रिसोपानप्रतिरूपकविशेषाधिकानि परिकेपेण मध्य द्वे सप्तविंशे योजनशते (१२७) | तोरणाममनूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपनशेषपद्मपरिपत्रयवकिचिद्विशेषाने परिकेपेण उपरिएकमापश्चाशद्योजनशतं (१५७) क्तव्यता वक्तव्या । नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव नवरं यस्मात् किश्चिद्विशेषानं परिपेण अत एव मुग्ने विस्तीर्मा मध्ये संक्षिप्ता उत्पमादीनि चाहदप्रनाणि चन्छन्ददाकाराणि चवमानि सपरि तनुका अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वात्मना कन चन्नामा च देवस्तत्र परिवसति तस्माच्चन्छहदाम्नोत्पकमयाः ( अच्छा जावपमिरूवाति) प्राग्वत् । तथा प्रत्येकं प्रत्ये- बादियोगात् चन्द्रदेवस्वामिकत्वाच्चन्छ हद शत । चन्द्राकं पद्मवरवैदिकया परिक्तिप्ताः । प्रत्येक वनखण्डपरिक्किप्ताश्च | राजधानीवक्तव्यता काञ्चनकपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यपद्मवरवेदिका वनखएकवर्मनं प्राग्वत् । (तेसिणमित्यादि)तेषां चसाना प्राग्वत् । सांप्रतमैरावतहदवक्तव्यतामाह । कहिण नंते काञ्चनपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्राप्ताः तेषां इत्यादि प्रश्नसूत्रं पासि निर्वचनमाह । गीतम ! चन्ऽहदच वर्मनं प्राग्वत् तावक्तव्यं यावत्सृणानां मणीनां च शब्दवर्म- स्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तादर्वाक दक्षिणस्यां दिशि अष्टी चतुनमिति (तेसिणमित्यादि) तेषां च बहसमरमणीयानां नूमिजा- त्रिशादियोजनशतानि चतुरश्च सप्त जागान योजनस्याबाधया गानां बहुमध्यदेशजागे प्रत्येक प्रत्येक प्रासादावतंसकः प्राप्तः कृत्वेति शेषः । शीताया महानद्या बहुमध्यदेशजागे अत्र पतस्मिन्नप्रासादवक्तव्यता सर्वा यमकपर्वतोपरि प्रासादावतंसकोरिव घकाशे ऐरावत-हदो नाम हदःप्राप्तः। अस्यापि नीलबन्नाम्ना निरवशेषा वक्तव्या यावत्परिवारसिंहासनवक्तव्यतापरिसमाप्तिः हदस्येवायामविष्कम्भादिवक्तव्यता पर्यवसाना वक्तव्या । अन्वसंप्रति नामान्वर्य पिच्चिषुराह-सेकेणणमित्यादि प्राग्वन्न- र्थसूत्रमपि तथैव नवरं यस्मादुत्पत्रादीनि पेरावणहदप्रभाणि वर यस्मापुत्पत्रादीनि काश्चननामानश्च देवास्तत्र परिवसन्ति ऐरावतो नाम इस्ती तस्र्यानि च ऐरावतश्च नामा तत्र देव Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा परिवसति तेन ऐरावत मदद इति ऐरावतगजधानीवत् काञ्चनकपर्वतवक्तव्यताऽपि राजधानी वक्तव्यता पर्यवसाना तथैव अधुना माल्यवन्नाम-हदवक्तव्यतामाह ( कहिणं नंते इत्यादि ) सुगमं भगवानाह गौतम ! ऐरावत हदस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तादक दक्षिणस्यां दिशिखिनि योजनशतानि चतुरश्च सप्तनागान् योजनस्य अबाधया कृत्वेति शेषः । शीताया महानद्या बहुमध्यदेशजागे अत्र एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुषु कुरुषु माल्यवन्नामा हदः प्रज्ञप्तः स च नीलवदूधदवत् प्रायाभविष्कम्जादिना तावद्वक्तव्यो यावत् पद्मवक्तव्यतापरिसमाप्तिः । नामान्वर्यसूत्रमपि तथैव यस्मात्पलादीनि माल्यवृद्धदप्रभाणि मायाकाराणि माध्यन्नामा यहस्कारपर्वतस्तयनि तद्वर्णानानि माल्यवन्नामा च तत्र देवः परिवसति तेन माल्यवदूधद इति । माल्यवती राजधानी विजयाराजधानी वद्वकन्या काञ्चनकपर्वतव कन्यतापर्यवसाना प्राभवत् । जी० ३ प्रति० । (उरकुनम्पूरमवर्णकोऽन्यच स रकुर्वती देवे. पुं० अयोस कुनामा पिमाद (७९१) अभिधानराजेन्द्रः | -- उत्तरचूलिया संकटं प्रकटं स्युर्नवेयुरिति संवधस्तादिशब्दग्रता दासियमे "पिकविसो समि भाषणपरिमा यदियनिरो हो । पडिलेहगुतीओ, अभिमादा चैव करणंतु " धर्म० ३अधि० ( पाठान्तरेण ) " पिंकस्स जा विसोही, समिईओ भावणा तवा विहा । परिमा अभिगहा वि य, उत्तरगुण मो घिया - शाहि " १ सूत्र०० १४० ( एतदूव्याख्या पायच्छित्तशब्दे ) पिएम बियादयः सार्या स्वस्वस्याने) महाबतावतेषु सूत्र० । ज्य० नि प्यूर पंचा० जीत चाच (मूत्रगुणानामिवोतानामनित्यताराब्दे उम उत्तरगुणकप्पिय- उत्तरगुणकल्पिक-पुं० सेकेणणं भंते! एवं वृच्चइ उत्तरकुरा २ गोवमा उत्तरकुराए उत्तरकुरुणामं देवे परिवस माह किए जाय पालिश्रमहिर से तेणं गोयमा ! एवं बुचड़ उत्तरा २ उत्तरकुराए उत्तरकुरुणामं देवे परिवमइ महिडिए जाव पलिप्रोमई से तेलट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ उत्तरकराए अरं जाव सामए । से केल्यादिप्रतीतं गवरम् उत्तरकुरामा देवः परिष सति तेनेमा उत्तरकुरव इत्यर्थः । ज०२वक० । घाविंशतीर्थकृतो निष्क्रमणशिविकायाम्, स्त्री० । स० । तृउत्तरकुरूकूम-8 तरकुरु१० मायस्कारपर्वतस्यतीये कुटे, स्था० वा० । मेरोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि, माल्यवद्वर्षधरपर्वतस्य तृतीयं कूटं हिमवत्कूटप्रमार्थ कूटसहामकथा । देयः जं०४ प०। महाविदेदे, गन्धमादनस्य वहस्कारपर्यंत स्य चतुर्थे कूटे, स्था० १० ग० । जं० । उत्तरकुरूदह-परकुरुद ० उत्तरकुरु तृतीये बने स्पा० ६ ठा० । (तन्मान दिउत्तरकुरुशब्दे उक्तम् ) ॥ उत्तरकुरुमा मच्छरा उत्तरकुरूमानुषाप्रम् श्री० उत्तरकुरुषु मानुषरूपासु अप्सरस्सु, प्रश्न० अध० ४ द्वा० । उत्तरलग-सरकूल पुं० वानप्रस्थापभेदेषु गापामु सरकून एव वस्तव्यम् । नि० भ० ॥ उत्तरगुणलदि-उत्तरगुणलब्धि-श्री० उत्तरगुणाः पिि यादयस्तेषु प्रक्रमतपणे गृह्यते तस्य 1 "उत्तरगुणनखिममाणस्स विजाचारणरूणाम बुद्धि समुपज" । न० २० श० ६ ० ॥ उत्तरको कि - उत्तरको टि-स्त्री० गान्धारग्रामस्य सप्तम्यां मूईना- उत्तरगुणसम्ढा- उत्तरगुणश्रवा - स्त्री०प्रधानतरगुणाभिलाषे, पंचा याम्, स्था० ७ ० । उत्तरगंधारा- उत्तरगान्धारा- स्त्री० गान्धारग्रामस्य पञ्चम्यां मूनायाम्, ॥ स्था० ७ ० ॥ उत्तरगुण- उत्तरगुण- पुं० मूलगुणापेकया उत्तरभूता गुणा वृकखा श्योत्तरगुणाः । प्र० ७ ० २३० । सर्वतः पिएम विशुद्ध्यादि. देशो दिव्यतादिषु पंचा०५ विष० । शेषाः पिएम विवाचाः स्युरुतरगुणाः स्फुटम् । एषां चानविचाराणां पानं ते स्वमी मताः ॥ ४७ ॥ आहारवसेना, उन्मादसणासुका । जो परिगिएहति लिययं, उत्तरगुणकप्पियो स खलु ॥ य आहारोपधिशय्या उगमोत्पादनैषणा । शुका नियतं निश्चितं परिगृह्नाति स खलु उत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः । इत्युक्तरूपे उ तरगुण युक्तसामाचारीने ०६०। उत्तरगुणपथक्साए-उत्तरगुणप्रत्याख्यानन० गुणापेक्षा उतरनृता गुणा वृक्षशाखा प्रयोत्तरगुणास्तेषु प्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानम् । प्रत्याख्यानजेदे ॥ तदूनेदा यया उत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं कइविहे पत्ता ? गोयमा ! दुि हे पाता संजा सभ्यु सरगुणपचक्खाणे व देसुचरगुपचक्खाणे य । सब्वुत्तर गुण पच्चक्खाणे णं नंते ! इविहे पण ते ? गोयमा ! दसविहे पण ते तंजहा अणागयमकतं, कोडिसहीयं नियंतियं चैव । सागारमयागारं परिमाणक निरवसेसं ॥ 23 अनागतादीनां च व्याख्याऽन्यत्र || प्र०७ श० २३० । “मूलगुउत्तरगुणा, जे मे णाराहिया पमापणं । तमहं सव्वं शिंदे, पमिक्कमे आगामिस्साणं" इति रूपम् । श्रतु। पंचा० आ० क० । उत्तरगुणपरिसेपणा उत्तरगुणमतिसेवना श्री० उत्तरगुि उत्तरगुणावणासियम-उत्तरगुणा सेवनाशिककर गुणविषये सम्यक् पिएम विशुद्ध्यादिकान् गुणान् श्रासेवमाने, सूत्र० १४० १५ अ० । उत्तरचावाला - उत्तरचावाला स्त्री० नगरभिदे, ताहे सामी उतरचावानं उच्चती तत्थ अंतरा कणखलं नाम उत्तमपदम् । " ० चू० २ ० । ततः स्वामी उत्तरचावायां गतः तत्र पपपारणे नागसेन रोग प्रतिभागान आ० क० ग्रा० म० द्वि० ॥ शेषागुणेोऽवशिष्टास्ते के इत्यादचिराविज्याया इतिहारादिनिदोषता सा आये पिएम विशुद्ध्याद्याः सप्ततिभेदा इत्यर्थः । उत्तरगुणा उत्तरगुण | उत्तरचूलिया - उत्तचूलिका - स्त्री० "बाऊणं वंदणगं मत्थर वंदामि उत्तरचूल उत्तरदाशब्देन मनवन्दे इत्यनिधानरुपे एकोनविंशस मे बन्दनकदोषे, ध.२ अधि० श्रावण ये प्रतिसेवनायाम्, “इदाणि उत्तरगुणपरि सेवा नष्पति ते उत्तरगुणा पिंड विसोहारविहाता पिता दष्वियं क पियं परिभवन्ति ॥ ००१० (सर्व परिसेव णाशब्दे चयते) ध Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९२) उत्तरचूलिया अभिधानराजेन्द्रः। उत्तरकच्च चूनियाए सा” यद्वन्दनकं दत्वा पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन | मूनि तत्कथं जिनदशितत्वादि न विरुध्यते । उच्यते तथा स्थिचन्दे शति यत्र यते तदुसरचूलिका मन्तव्या । वृ०३ उ०॥श्रावञ्चू । तानामेव जिनादिवचसामिह दृष्टत्वेन तहशितत्वाशुक्तमिति न उत्तरज्जयण-नतराध्ययन- न० बहुव० उत्तराणि प्रधानानि विरोधः । बन्धः आत्मकर्मणोरत्यन्तं संश्लेषस्तस्मिन् मोक्वस्तयोअध्ययमानि रूढिवशाद्विनयश्रुतादीनि षट्त्रिंशत्तराध्ययनानि रेवात्यान्तिकः पृथग्भावस्तस्मिन कृतानि कोनिप्रायो यथा बन्धो सर्वापयपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथापि अमून्येव रूख्या जवति यथा च मोक्षस्तथा प्रदर्शकानि। तत्र बन्धे यथा “आणासत्तराभ्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिकानि । नं० । अङ्गबाह्य- अणिद्देसकरत्ति" मोके यथा “ आणानिसकरोत्ति " आज्यां कालिकक्षुतनेदे, पा०। यथाक्रमवाविनयो मिथ्यात्वाद्यविनानूतत्वेन बन्धस्य विनयश्चासत्तराध्ययनशब्दनिरुक्तिं निर्म्युक्तिकृविस्तरेणाह । न्तरतपोरूपत्वेन मोकस्य कारणमिति तत्वतस्तौ यथा नक्तस्तणामं उवणा दविए, खेत्तदिसा ताव खेत्तपमवए। देवोक्तं जवति मोकप्राधान्येऽपि बन्धस्य प्रागुपादानमनादित्वो पदर्शनार्थम् । यद्वा " बंधे मोक्खयत्ति" च शब्द एवकारार्थो पइकालं संचयपहा-पाणयकमगणणतो जावे ।। भिन्नक्रमश्च । ततो बन्ध एव सति यो मोकस्तस्मिन् कृतान्यजहां उत्तरं खल, उक्कोसं वा अणुत्तरं हो। नेनानादिमुक्तमन्तव्यवच्छेदश्च कृतस्तत्र हि मोक्तशब्दार्थानुपपसेसाई अणुत्तराई, अणुत्तराई च णामाई ॥ त्तिः सकलानुष्ठानवैकल्यापत्तिश्च किमेवं कतिचिदेव नेत्याह। षट्(नामोत्तरव्याण्या लचरशन्दे दर्शिता) उत्तरस्थानकविध- त्रिंशत्संख्यानि कोऽर्थः सर्वाएयतउत्तरध्ययनानीतिगाथार्थः उत्त त्वेन यदत्र प्रकृतं तदाह । १०। कम उत्तरेण पगय, आयारस्से व उपरिमाई तु । ।तानि च षट्त्रिंशदसूनि ॥ तम्हाज उत्तरा खयु, अज्झयणा होति णायब्बा ॥ बत्तीसनत्तरज्मयणा पसत्ता तंजहा । विणयमुयं १ प. क्रमापेकमुत्तरं क्रमोत्तरं शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपीस- रीसहा चाउरंगीज्जं ३ असंखयं अकामसकाममरणीमासस्तन प्रकृतमधिकृतमिह च क्रमोत्सरेणत भावःक्रमोत्तरण- जं पुरिसविज्जा ६ उरजिज्नं ७ काविलियं नमिप तानि हिचतात्मकत्वेन कायोपभिकनावरूपाणि तरूपस्यैवाचारास्योपरिपाठयमानत्वेनोत्तराणीत्युच्यन्ते अत प्राह (आ व्वजा ए दुमपत्तयं १० बहुसुयपुज्जा ११ हरिपासिज्ज १५ यारस्सेवनचरिमाईतु)एवकारो जिन्नकमस्ततश्चाचारस्योपर्येवो चित्तसंजूयं १३ नसुयारिज्जं१४ सनिकगं १५ समाहितरकासमेवेमानीति हदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्काणि परित- हाणाई १६ पायसमणिज्जं१७ संजइज्ज १० मियाचारिया चन्त ति गम्यते । तुर्विशेषणे विशेषश्चायं यथा शय्यंभवं या ५५ अणाहपवजा २० समुद्दपानिजं १ रहनेमिज्ज धदेष क्रमस्तदाचारतस्तु दशवकालिकोत्तरकास पठ्यन्त इति (त म्हानत्ति ) तुः पूरणे यसदोश्च नित्यमभिसंबन्धस्ततो यस्मादा २२ गोयमकेसीज्जं २३ समितीओ २४ जन्नतिज्ज २५ चारस्योपर्यवेमानि पठितवन्तस्तस्मादुत्तराण्युत्तरशब्दवाच्या सामायारी २६ खल्लकेज्ज ३७मोक्खमग्गगई ३० अप्पमाओ नि खलुक्यालङ्कारेऽवधारणे वा तत उत्तरापयवाध्ययनानि २४ तवोमग्गी ३० चरणविही ३१ पमायट्ठाणाई ३२ कविनयक्षुतादीनि भवन्ति झातव्यानि अन्यच्च बोकव्यानि प्राकृत- म्मपयडी ३३ लेसज्कयणं ३४ अणगारमग्गे ३५ जीवास्वाश्च विङ्गव्यत्यय इति गाथार्थः । आह यद्याचारस्योपरि पठ्य जीवविजत्ती य ३६ ।। बत्तीस नत्तरायणा ॥ मानत्वेनोत्तराण्यमुनि तत्कियन्त एवाचारस्य प्रसूतिरेषामपि तत स। व्य। आव०४ अ०। एवानिधेयमपि यदेव तस्य तदेवान्यथतिसंशयापनोदायाह । अंगप्पजवा जिजा-सिया य पत्तेयबुधसंवाया। उत्तरकाय-उत्तराध्याय-पुं० उत्तरा प्रधाना अध्याया अध्य यनानि । उत्तराश्च ते अध्यायाश्च उत्तराध्यायाः। विनयादिष षबंधे मोक्खे य कथा, छत्तीसं उत्तरज्जयणा ॥ त्रिंशत्युत्तराध्ययनेषु, "पत्तासं उत्तरकाए नचसिकिए सम्मअङ्गा रष्टिचादादेः प्रजव उत्पत्तिरेषामित्यङ्गप्रजवानि यथा सत्तिवेत्ति" उत्त०३६१०॥ परीषहाध्ययनम्। वक्ष्यति हि“कम्मापवायपुव्वे, सत्तरसे पाहम- नत्तरकच्च-नुत्तराईकच्च-पुं० कच्चविजयस्य वैतात्यपर्वतेन म्मि जं सुत्तं । सायं सोदाहरणं, ते चव हपि नायव्वं" जिन- विनक्तस्य उत्तरा, नाषितानि यथा द्रुमपत्रकाध्ययनं तकि समुत्पन्नकवलेन नग- कहि णं ते जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरकृकच्चे पता महावीरेण प्रणीतं यद्वक्ष्याति " तन्निस्साए भगवं, सी एणामं विजए परमत्ते ? गोयमा! वेअरहस्स पव्ययस्म उत्तरोण साणं देश अणुहि ति" चः समुच्चये प्रत्येकबुकाश्च संवादश्च | णीवंतस्सवासहरपव्ययस्स दाहिणेण मानवंतस्म वक्वारप्रत्येकबुकसंवादस्तस्मादुत्पन्नानीति शेषः । तत्र प्रत्येकबुझाः कपिलादयस्तेज्य उत्पन्नानीति । यथा कापिलायाध्ययनम् वक्ष्य पवयस्स पुरच्चिमेणं चित्तकूमस्स वक्खारपत्रयस्स पञ्चच्चिति हि "धम्म ट्यागी" तत्र कपिनेति क्रमः संवादसंगतः मेणं एत्थ णं जंबूद्दीवे दीवे जाव सिकंति तहेव अव्वं इनोत्तरवचनरूपस्तत उत्पन्नानि यथा कैशीगौतमीये वक्ष्यति जं०४ वक्षः । टीकासुगमत्वान्न गृहीता ॥(सिन्धुकूटाच "गौतमकेसीओ या, संवाय समुठियं तु जम्हेयमित्यादि " धन्यत्र) कच्चविजयविनाजकस्य वैताड्यपर्वतस्याष्टानां कूटाननु स्थविरविरचितान्यवैतानि यत आह चूर्णिकृत् । “ सुत्तं थे- नामष्टमे कुटे, जं.४ वक्व०। राण अत्तागमात्ति" नन्द्यभ्ययनेऽप्युक्तम् "जस्स जे तिया सिस्सा उत्तरमृजरह-उत्तराकेजरत-न० वैताइयपर्वतेन द्विधा विभसप्पतिया एवेणश्याए कम्मयाए पारिणामिया चलम्विहाए बुझीए _क्तस्य भरतवर्षस्य उत्तरा॥ उपया तस्स तत्तियाई पन्नगसहस्साई" प्रकीर्णकानि चा अथोत्तराईभरतवर्ष वास्तीति प्रश्नसूत्रमाह ॥ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ योजन १७६६ योजन | भागः १२।१६ भागः१। १६ (७९३) उत्तरकृभरह अभिधानराजेन्द्रः। उत्तरकुभरह कहि णं जंबुद्दीवे उत्तरकृजरहे णाम कासे पसत्ते? गोयमा! | वर्गः [१] शून्यं [0] स च षगुणः [६] शून्यं ( 6 ] सोचूद्वहिमवंतस्स वासहरपन्चयस्स दाहिणेणं वेअकृस्स पव्वय ऽप्युत्तराईभरतजीवावर्गेण [७५६०००००००० ] इत्येवंरूपेण मिश्रितो जातः (७६२) शून्यम् (७) एष उत्तराईभरतस्य जीवास्त नत्तरे णं पुरछिमझवणसमुहस्स पञ्चछिमेणं पञ्चच्छिम वर्गः । अस्य सूझे लब्धाः कयाः ( २७६०६३ ] शेषकांशाः सवणसमुदस्स पुरच्छिमेणं । एत्थ णं जंबुद्दीने दीवे उत्तर (२६२१५१) नेदराशिः ( ५५२०५६ ) कलानामेकोनविंशत्या कूजरहे णाम वासे पम्पत्ते पाईसपडीवायए नदीपदाहिणा- भागे (१४५१२८) [१३] अत्र शेषांशानामविवक्तितत्वान्नकादिविधि पत्रिअंकसंहिए उहा लवणसमुद्दपुढे पुरच्चि- दशकयानां साधिकत्वसूचा । अत्र दक्किणाभरतादिक्केत्रसंबन्धिमिद्वाए कोमीए पुरच्चिमिळू लवणसमदं पु पञ्चच्छिमिवाए शरादिचतुष्कस्य सुखेन परिझानाय यन्त्रस्थापना, । . जाव पुढे गंगासिंधुहिं महाणहिं तिनागपविजते दोषि अहतीसे जोयणसए तिमि अ एगुणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंनेणं तस्स वाहापुरच्छिमपञ्चच्चिमेणं अट्ठारसवाणउए जोयणसए सत्तए एगुणवीसइलागे जोयणस्स अट्ठभागं च आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेणं पाईएपमीणायया हा नवणसमुदं पुट्ठा तहेव जाव चोदमजोयणसहस्साई चत्तारि अ एकहत्तरे जोयणसए उच्च एगुणवीसझनाए जोयणस्स किंचिविसेसूणे अयामेणं परमत्ता। तीसे धापिट्टे दाहिणेणं चोदसजोयणसहस्साई पंचअट्ठावीसजोयणसए एक्कारसयएगुणवीसइनाए जोयणस्स परिक्खेवणं ॥ दक्षिणा:भरतसमगमकत्वेन व्यक्तं नवरं ( पलिकत्ति) पर्यवत्संस्थित संस्थानं यस्य तत्तथा द्वे शते अष्टात्रंशदधिके त्रीश्चैकोनविंशतिनागान् योजनस्य विष्कम्नेनेनि अस्य शरस्तु प्राच्यशरसहितस्वकेत्रविस्तारो योजनतः [५२६ ] कसावतस्तु[१००००] अथास्य वाहे आह इत्यादि तस्योत्तरार्द्ध भरतश्च वाहा पूर्वोक्तरूपा पूर्वापरयोर्दिशोरैकैकाष्टादशयोजनशतानि द्विनवतियोजनाधिकानि सप्त चैकोनविंशतिनागान् [१] योजनस्य अजागं चैकोनविंशतितमन्नागस्य योजनस्याष्टत्रिंशत्तमनागमित्यर्थः । अत्र करणं यथा गुरुधनुःपृष्टं कनारूपं [२७६०४३ ] त्र स्मात्[२०४१३२] कत्रारूपं अघुधनुः पृष्टं शोध्यते जातं [७१।११] अ. कृते जातं कar [३५९५५] कलाई च तासां योजनानि यथा एषां च शरादीनां करण विधिप्रसङ्गतो ऽत्र दर्शितः प्रतः [१७६२ ] कला [७]कना चेति एतश्चकैकस्मिन् पार्वे वाहाया परमुत्तरत्र कुहिमवदादिसूत्रेषु स न दर्शयिष्यते विस्तरजयात् तजिज्ञासुना तु केत्रविचारवृत्तितोऽवसेय इति ।। आयाममानम् । अथास्यजीवामाह (तस्सजीवाउत्तरेणमित्यादि) अथोत्तराजरतस्वरूपं पृच्चति ॥ तस्य जीवा प्रागुक्तस्वरूपा उत्तरेण हिमवभिरिदिशिप्राचीनायता किंधा लवणसमस्पातयैव दक्विणाईभरतजीवासूत्रादे उत्तरजरहस्स णं ते वासस्स के रिसए आयरत्नावपमोव"जावत्ति पञ्चच्चिामललवाणसमुहं पट्टेति" पर्यन्तं सूत्रं झेयमिति यारे पामत्त गोयमा ! बहुसमरमाणिज्जे लूमिनागे पप्पत्ते मे भावः (चउद्दसत्ति) चतुर्दशयोजनसहस्राणि चत्वारि चैकसप्त जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव कित्तिमेहिं चेव । त्यधिकानि योजनशतानि षट् चैकोनविंशतिनागान् योजनस्य आकत्तिमेहि चेव । उत्तरजरहे णं नंते ! वासे मणुाणं किञ्चिहिशेषानाःप्रज्ञप्ताः । अत्र करणं यथा कत्रीकृतो जम्बूद्वीप. केरिसए आयारनावपमोयारे पत्ते ? गोयमा! तेणं मण्या व्यास:[१५] शन्यं [५] इनितः [१५] शून्यं [U] श्षुगुणः [१ ] शुन्यं [८] चतुर्गुणः [७५६] शून्यं, [७] एष बहुसंघयाणा जाव अप्पेगइ सिकंति जाव सम्बदुक्खाउत्तरजरताउँजीवावर्गः। अस्य वर्गमूसेलब्धाः कसाः [२७४।५४] णमंत करेंति ॥ शेषकलांशाः [२९७०७४ ] बेदः [५४६६०G ] अन्धकलानां उत्तरजरहस्सणमित्यादि व्यक्तम् । अत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्चति [१६] भागे योजन ( १४४७१ ) [१] उद्वरितैः शेष "उत्तरकुलरहे" इत्यादि इदमपि प्राम्बत् यावदेके केचन सर्वदुः कमांशमध्ये प्रतिप्तः पष्टिकलाः किञ्चिद्विशेषोना विवक्विता शति । । खानामन्तं कुर्वतीन्ति नन्वत्रत्यमनुष्याणामईदाद्यभावेन मुक्त्यङ्गअथास्य धनुःपृष्ठमाह-[ तीस इत्यादि ] तस्या उत्तराजरतजी- नूतधर्मश्रवहाद्यभावात् कथं मुक्त्यवाप्तिः सूत्रस्यौचित्यमश्चति वाया दक्षिणपार्श्वे धनुःपृष्टम् । अर्थादुत्तरानरतस्य चतुर्दशयो- शति चेदुच्यते चक्रवर्तिकाले अप्रावृतगृहाध्यावस्थानेन गन्छजनसहस्राणि पश्चशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि एकादश चैकोनार्व- दागच्चदक्विणार्फजरतवासिसाध्यादिन्यो वाऽन्यदापि विद्याधरशतिनागान योजनपरिकेपेण परिधिना प्राप्तमिति शेषः । अत्र श्रमणादिज्यो वा जातिस्मरणादिना वा मुक्तयङ्गावाप्तेर्मुक्त यवाकरणम् । यया उत्तरार्धजरतस्य कत्रीकृत श्षुः[१००००] अस्य | प्तिसूत्रमुचितमवति ॥ (ऋपभकृटवक्तव्यताऽन्यत्र) वैताच्य |शर प्रमाणम | वाहाप्रमाणम् | जीवाप्रमाणम् धनु-पृष्टम् २८८ योजन|४८८ योजन |१०७२० योजन १०४४३ योजन जागः १३ ए नागः१६।१० भागः १२ । १६ भागः १५ ॥१९॥ २५६ योजन|१८० योजन |१४४७१ योजन|१४५२८ योजन भागः ६।१० नागः२।१५ भागः ६॥ १९ भागः११११६ २३० योजन जागः १९६१९ केत्रनाम दक्षिणतरता वैताढ्यपर्वतः उत्तरजरता Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरम्भ० पर्वतस्याष्टमकूटस्योत्तराईभरतकूटस्य स्वामिदेवे च । जं०१०। पर्वत (७९४ ) अभिधानराजेन्धः | उत्तरनरहरूड- उत्तरारतकूटन० 66 स्याएं कूठे, उत्तराजरतनाम्नो देवस्य बास कृटमुत्तरा भरतकूटम् मध्यमपदलोपी समासः । तदधिषे च । जं० १ वक्क० । ( श्रस्य मानादिवैताढ्यपर्वत वक्तव्यतायां वक्ष्यते ) उत्तरधजरा- उत्तरार्क जरता - स्वी० राजरतकूटस्य स्वा मिन उत्तराईभरतकृटनाम्नो राजधान्याम् ॥ जं० १ वक्क० । उत्तरकुमाणुसकखेत्त- उत्तरार्द्धमानुष्यक्षेत्र- न० मनुष्यत्रस्यार्द्धमईमनुष्य क्षेत्रमुत्तरं च तदर्द्धमनुष्यक्क्षेत्रम् | मनुष्यक्क्षेत्रस्योस्तरेऽ, तत्रभवोऽप्युत्तरार्द्धमानुष्य क्षेत्रः उत्तरार्द्धमनुष्य क्षेत्र नवे "उत्तरकुमाणु स्वक्लाणं हा चंदा व भासि तु स० उचरण-उत्तर- नव्या दृङ्गादिना स या नद्या पारागमने स्था०पा० नावादिना संघट्टादिनिः प्रकारः पारगमने ५० ६ व० । ( संयतैर्यथा नदी उत्तीर्य्यते तथा नई शब्दे वक्ष्यते ) अवतरणे च ॥ उत्तरणं चंदसूराणं " जगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवतरमाकाशात्समवसरणनुभ्यां चन्द्रसूर्ययोः शाश्वतचिमानोपेतयोर्ववेदमप्याश्वर्यमेवेति स्पा० १० वा० ॥ उत्तरदारियणक्खत्त- उत्तरदारिकनक्षत्र - न० उत्तरं द्वारं येषामस्ति तानि उत्तरद्वारिकाणि तानि च नक्कत्राणि । उत्तरस्यां दिशि गम्यते येषु तादृशेषु नक्कत्रेषु, " साश्याएं सत्तक्खत्ता उत्तरदारिया पत्ता तजड़ा साई विसाहा असुराहा जिट्टामुलो पुण्यासाढा अत्तराश्रासाढा स्था० g aro | उत्तरदाहिणायय - उत्तरदक्षिणायत त्रि० उत्तरदक्षिणस्यामा - यंत उत्तरदाहिणार पण विधि ० ४ ० उत्तरपयोगकरण-उत्तरप्रयोगकरण-१० रिम्। निष्पा दनरूपे जीवप्रयोगकरणभेदे. आ० चू० २ ० ( तस्य स्वरूपं करणशब्दे प्रपञ्चतां वक्ष्यते ) उत्तरपगइ - उत्तरपकृति-०दारणानां पाय नवाद्यासु अवान्तरप्रकृतिपुजेदेषु, उत्त० ३३ श्र० । यथा ज्ञानावरामतिताधिमन पययकारणमेत्त 66 11 केनाधारक सर्वघाताय दर्शनावर र्णीयं नवधा निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयभेदात् । तत्र नि पञ्चकं प्राप्तदशेनपयां गोपघातकारि दर्शनचतुदर्श प्राप्तरात्रापि वा सर्वातिशेषः। विनय द्विधा सत्तादात्मन द्विघा दर्शनथा त्रिभेदात् तदर्शनमोहनी त्रिधा मिध्यात्वादिमेवात अन्तरकविध चारित्रमोद पांडपायनयनोपाय भेदात् पञ्चविंशतिविधम् । अत्रापि मिथ्यात्वं संवहनवयं द्वादशकपायाश्च सर्वघातिन्य शवास्तु देशघातिन्य इति । आयुष्कं चतुर्धा नारकादिभेदात् । नाम छिचत्वारित्यादिभेदात् नियति बोसरोरकृतिभ दात गति जातिरेकेन्द्रियादिनेात्पखया रीस्पीदारिकादिभेदात्या औदारिक क्रियाद्वारा पा ङ्गं त्रिधा । निर्माणनाम सर्व्वजीवशरीरावयवनिष्पादकमेकधा पवननामारिका पञ्चाना मौदारिकादिकर्म्मबर्गणारचना विशेष संस्थापकं पञ्चधा । संस्थाना नितुखादिहननेपारायादि पोडे स्प था । रसः पञ्चधा । गन्धो द्विधा । वर्णः पञ्चधा । आनुपूर्वी नारकादिचतुर्द्धा । विहायोगतिः प्रशस्ताप्रशस्तनेदात् द्विधा । अगु 1 उत्तरमहुरा पचापराधातातपोतोसत्येकसाधारणसारसुजानगडुगसुखर स्वरसुक्ष्मवादरपर्यातकापर्यातक स्थिरा स्थिरत्वानादेयायशः कीर्त्य यशःकीर्तितीर्थकरनामानि प्रत्येकमेकविधानीति । गोत्रमुञ्च्चनीचनेदात् द्विधा । अन्तरायं दानलाजभो गोपजोगवीर्यदात्पञ्चधा । आचा० १० २ ० १ ० ॥ उत्तरपच्छिम-उत्तरपश्चिम पुं० वायव्यकोण ०१ पाहु ० ॥ उतरपुर/च्चिम-उत्तरपरस्य पुं० ईशानकोणे, जी० १ प्रति० ॥ न० । रा० । क० । औ० । “ तीसे णं मिहिलाए बढ़िया उत्तरपुरस्मे दिसांना पत्यणं माहिनदे णामं था" सू० प्र० १ पाहु० | चं०प्र० ॥ उत्तरपुरच्चिमा उत्तरपरस्या- श्री पेशायां दिशि स्वा०१०२० उत्तरपोडवपा-उत्तरोष्ठपदा श्री उत्तरपदान समासे “उत्तरा प्रोडुवया उत्तरा प्रोष्ठपदा " सूर्य० ४पाहु० ॥ उत्तरफग्गुणं । - उत्तरफाल्गुनी - स्त्री० फलति - फलनिष्पत्ती फबेर्गुकूच उणा० उनन् गुकूच गौरा० ङीष् कर्म० । अनिजिदादिषु एकोनविंशे नकुत्रे, जं० ७ वक० वा० । “उत्तर फग्गुक्खत्ते दुतारे पत्ते" स्या० २ ० । उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्य " अर्यमा देवता" ज्यो० ॥ उत्तरफग्गुणीस णिच्छूरसंवच्चर-उतरफाल्गुनीशनैश्वरसंवत्सर पुं-नम्बरवत्लरने यत्र उत्तर नस श्वरौ योगमुपयाति । जं ० ७ वऋ० । उत्तरवक्षिस्सह- उत्तरवलिकसह- पुं० - स्थविरमहागिरेः प्रथमे शिष्ये, ततो निर्गते स्वनामख्याते गये च । " थेरेहिताणे उत्तरवस्सिदेदितो तत्थ णं उत्तरवसिस्सहे नाम गणं निग्गए" कल्प० || महावीरस्य नवानां गणानां द्वितीये गणे, "उत्तरवद्वियस्स य गयो उत्तरबनिस्स गऐत्ति वा " द्विधा रूपोपलब्धिः अनुवादानुपलम्भान्न तत्त्वनिश्चयः ।। स्था० ए aro उत्तरजदवया-उत्तरनपदा-स्त्री० अनिजिदादीनां नक्त्राणां पष्ट नक्कत्र, ज्यां० । उत्तरभवयाणक्खत्तं दुतारे पत्ता स्या० वा० ! जं०] । ( उत्तराभाद्रपदन त्राणामनिवृद्धिदेवता विषयः सर्वो णक्खत्तशब्दे वक्ष्यते ) उत्तरमद्दवयास णिच्छरसेवच्चर - उत्तरनपदाशनैश्वरसंवत्सरपु० शनिश्चरसंवत्सरभेद, यत्र संवत्सरे उत्तरभाद्रपदानकुत्रेण सह शनैश्वरो योगमुपादत्ते ॥ जं०१ उत्तरमंदा-उत्तरमन्दात्री० मध्यमग्रामस्य प्रथममायाम, स्था०७० गन्धारस्वरान्तर्गतायां सप्तम्यां नाम जी० उत्तरदामुच्छिया-उत्तरमन्दार्च्छिता ० ॥ सा संजाता अस्या इति मूर्च्छिता उत्तरमन्दया मूर्च्छिता उत्तरमन्दा मूर्त्तिता । उत्तमन्दानिधया गन्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूनया किंतायां वाणयाम, “से जहा णामऐ वर्यादियाएवीप उत्तर मंदामुच्छियाए अंके सुपडियाए" इह गन्धारस्वरान्तर्गतानां वनमध्ये उत्तरमन्दाकि प्रिततस्तपादानं तथाच मुख्यत्वादयिता जयति परमं मूर्च्छि १ चक्र० । जी० ॥ उत्तरमहुरा - उत्तरमथुरा- स्त्री० नगरीनंदे, "ते काले तेणं समपर्ण उत्तरमहुरा णामं णयरी होत्या । तत्यय धधन्ना णामणिकनगर तपन्न जणाम परिस"। (मज्ञान्तर्गता मथुरा नगर ति संभाव्यते Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९५) अभिधानराजेन्द्रः । उत्तरवाय उत्तरवाय-उत्तरवाद - पुं० उत्तरवादे, "आणाए मामगंधम्मं एस उत्तरवादे इह माणवाण, वियाहिते" आचा० १०६ ०१ ० उत्तरवेपि-उत्तरवेक्रिय वि० भवधारणाय स्मिन्, “उत्तरवेउब्वियं रूवं वितन्व” रा० । कल्प० । उत्तरवि () कुकि-शि०० रमुत्तरकाल नाचिन स्थाना विकमित्यर्थः विकुर्विकं विकुर्वणं विकुन निर्विक वि शिष्टयप्रविशिष्टानरणतत्परिधान समागमायुपले नजनितमतिमनोहारि रामणीयकं यस्य स तथा । व्य० १५०२८० | उत्तरकाना विवस्त्राभरणादिविचित्राकृतिभविभूषाजाविते, "दण णर्म काई उत्तरवे उब्वियं मयणखिन्ना " वृ०६ उ० । उत्तरवेब्विया-उत्तरवैकुर्षिकी श्री० प्रपरभवान्तरवैरिमारक उत्तरासादासणिच्छरसंवचन-उत्तरापादानैरसंवत्सर १० प्रतिघातार्थमुत्तरकालं या विचित्ररूपा वैकविकी प्रवगादना सा उत्तरवैकुर्विकी । शरीरावगाहनानेदे ॥ जी० १ प्रति० । उत्तर (रा) समा-उत्तरसमा-श्री० मध्यमग्रामस्य चतुर्थमू चर्तुनायाम, स्था० ७ ० ॥ उत्तरमाला उत्तरशाला श्रीविशेषे 1 या कीपुज्य गच्छेति ण वसति ते उत्तरसाला गिड़ा वतव्वा । जे वा पच्छा कीरति ते उत्तरसाला गिड़ा अच्छा तिगादिमंरुवी उत्तरसाला, इय गयाचा साला उत्तरसाला, गिहाण इमं वक्खाणं गाहा "मूल गिमसंबा" गिहार्य उत्तरा होति । जत्य व ए वसत्ति राया, पच्छा कीरांत जावसे" नि० चू०८ उ० । उत्तरा-उत्तराखीने तिस्र उत्तराः। उत्तरे फाल्गुन्डी उत्तराऽऽपाढा । उत्तरा नाऊपद् “आषाढा उत्तरा चेव" स्था२० ॥ वासाढा तहा उत्तरा चेव" अनु०॥ (एक्खन्तशब्देवक्तव्यता ) मध्यमग्रामस्य तृतीयमूर्च्छमायाम, स्था० ७ ० । स्वनामख्याते दिग्दे, स्था० १० वा० ॥ रुत्रकपर्वतेानां दि कुमारी दिकुमारयां, स्पा०० ०॥ पयिापी रूपे तीर्थजेदे,“ समिकरणम्म सलिल परिपुरणा उत्तराजिहाया वावि तत्थ मज्ज कर तवढे मट्टिश्राले वेण कुडीणं कुङ्कुरोगोवसमो हव' ती० ॥ दिगम्बरमतप्रवर्तकस्य शिवनृते गिन्याम, विशे० ॥ श्र०म० ६० । तस्य वक्तव्यता वोडियशब्दे वक्ष्यते । उत्तरात्-अव्य० उत्तरादिग्देशकालविषये । उत्तरमुत्तर - स्मान्तरमित्यर्थे वाच उत्तरागंदा-उत्तरानन्दा-श्री कपास्यानां दिकुमा दरम् आ०क० । उत्तरापह- उत्तरापथ - पुं० उत्तरा उत्तरस्यां पन्या अच् समा० उत्तरस्यां दिशि स्थिते पथि, देशनेदे च । उत्तरपथजन्मानः कीर्तयिष्यामि तानपि । कौलकाम्बोजगान्धारा- किरातान्वबरैः सह । वाच | "पूर्वदिसातो उत्तरापहं गतो " श्र० म० द्वि० । 'जहा उत्तरापह पच्छा दडे तरुणं तणं उद्वेश् " आव० ६ अ० । " उत्तरापहे टंकणा णाम मेच्छा । आ० चू० २ श्र० । श्र०म०प्र० उत्तरायण-उत्तरायन - न० उत्तरा उत्तरस्यामयनं सूर्य्यादेः 44 ( पूर्वपदात्सायाम्) पा० सूत्रेण त्यम् । वाच सूद रुत्तर दिग्गमने, स्था० ३ वा० । उत्तरं च तदयनम् । षण्मासान्मके सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमएमलप्रवेशसमये, ( तस्य सकरणवक्तव्यता अयणशब्दे उक्ता ) । उत्तरायणगय उत्तरायणगत पुं० सर्वज्यन्तरमहरु प्रविष्टे कर्क संक्रान्ति दिने, स० ॥ उत्तरायणयिट्ट - उत्तरायननिवृत्त-पुं० उत्तरायणाडुत्तरदिग्ग उत्ताण मनान्निवृत्तः प्रारयवाियने, “उत्तरायण जिय" स्था० ३ गा० । स० ॥ उत्तरासंग-उत्तरास-उत्तरीयस्य देदे न्यासविषेशे ० २ श० ॥ च० " एगसामियं उत्तरासंगं करे " आ० म० प्र० । उत्तरासंगकरण- उत्तरामकरण उत्तस्य न्यासविशे षे, "पगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं एकीकरणं" ज्ञा०९ श्र० उत्तरासादा उत्तरापाडा-श्री क० स० विन्यानित्रे एकविशेन वा अनिदिदिष्टाविंशेन जे० वक्ऋ० । उत्तरासादाणक्खत्ते च तारे " पं० सं० । स्था० । उत्तराषाढा नक्षत्रस्य विष्वक देवता । ज्योः (णक्खत्तशब्देऽन्यत्) 66 शनैश्वरसंवत्सरभेदे यत्न उत्तराषाढानकत्रेण सह शनैश्वरो योगमुपादत्ते जं० ७ वक० ॥ 3 उत्तरादुत्त उत्तराहूत भि० उत्तराभिमुखे यांचायसेसिया सज्जार गइ उत्तराहुतो" आव० ४ ० । उत्तरित (रि) उत्तरीय-सरस्मिन् देवनागे भवः । महादित्वात् बः "वोत्तरिया नीय तीय कृद्येजः " ८ । १ । ४८ । इत्युत्तरीय शब्दे ईयनागस्य द्विरुक्तो जो वा । उत्तरिज्जं उत्तअं । प्रा० ॥ उपरिकायाच्छादनवस्त्रे, ज्ञा० १ अ० । प्रश्न० । उत्तरासङ्गे, कल्प० । झा० । “उत्तरिज्जयं विकद्रुमाण ।” उपा०| " उत्तरिज्जं णामए अ० शय्याया उपर्थ्याच्छादके प्रच्छदे, पाचरणं अहवा सेज्जाए उवरित प्रच्चदादि " नि० चू०१५३०। उत्तरिगए उत्तरीतुम् अव्य० उ० ० तुमुर बाजा दिनादिव | तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तर वा संतरितप वा" वृ०४ उ० । उत्तरिय - प्रौत्तरिक- त्रि० उत्तरः प्रधानः स एवान्तारिकः । प्रधा ने, स्था० १० वा० । उत्तरिन - औत्तराह - त्रि० उत्तरस्मिन् काल्नादौ नवः उत्तरादाइञ्. पा० उत्तर आहञ् । उत्तरकालादौ भवे, वाच० । " उज्जुवालियाए नए तीरे उनरिले कुले " आ०म० द्वि० ॥ "उत्त रिक्षाणं असुरकुमाराणं उत्तरद्वाणं एागकुमाराणं प्रा० २०६ । उत्तरीकरण-उत्तरीकरण - न० अनुत्तरस्योत्तरस्य पुनः संस्कारद्वारेणोपरि करमुतीकरणम् ०२ अधि । अनुत्तरमुत्तरं क्रियते इति उत्तरीकरणम् कृतिः कारणमिति, श्राव०५ श्र० । यस्यातिचारस्य पूर्वमालोचनादिकृतं तस्यैव पुनः सिकये का योग्य करने" इच्छामि काउग्गं जो मे देखियो तस्सुत्तरीकरणं पायच्छित्तर देणं ध०२ अधि० ( उत्तरकरणशब्दे प्रपञ्चतां व्याख्यातम् ) उत(रु) रूड- उत्तरो (रौ ) - पुं० उत्तर उपरितन श्रोष्ठो वा वृद्धिः । श्मश्रुणि, भमुहा अहरूठा, उत्तरूठा अड पुण एवं जाणिज्जा कल्प० उत्ताम (ल) ण- उत्तामनन० उद् तम् विच० ल्युट् आमलानां बाद, रा०| उत्तामि (सि) अंत उत्ताड्यमान त्रि०बाद्यमाने प्रतिकुस्तुम्बगोमुख मई से उताडिता दरिया कुमवास कालिसियाणं मारयाएं उत्ताविजताएं आलिंगण कुतुंवीणं गोमुहीणं महलाएं | रा० । - 66 उत्ताण- उत्तान - त्रि० उद्गतस्तानो विस्तारो यस्य श्रनिग्रह विशेषादूर्ध्वमुखशयिते, पंचा० १८ विव० ६० । ऊर्डमुखे च Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्ताण अभिधानराजेन्द्रः। उदलल्लाहड वाच । तादृशे उदके, पुरुषजातेच । स्था०४ग० (पुरुसजायश] पीलिकासंतानके, दशा० ३ ०। आचा० । कीटिकानगरे, वृ० ब्दे उत्तानसूत्रे प्रकटीभविष्यति) ४ उ० । तृणाने उदकविन्दौ, प्राचा०२ श्रु०१ अ०१० । उत्ताणग-उत्तानक-पुं०उत्तान एव उत्तानकः । पृष्ठतोऽविनता- सर्पच्चत्रादौ, च "गहणे सुम्मचिहिजा वीपसु हरिपसु वा । उद दौ, प्रा०म० द्वि० । नञ्चयवृक्के, वाचा"जीवेणं नंते गब्लगहस गम्मि तहा निश्चं उतिंगपणगेसु वा" दश अगावि,न० न माणे उत्ताणा वा पासबए वा" न० १२०७०॥ नि० चू० १० उ०। “णवाए उत्तिंग हत्येण वा पापण सणवा, उत्ताणणयणपेच्चणिज्ज-उत्ताननयनप्रेक्षणीय-त्रि० उत्तान- | उत्तिङ्गं रन्ध्रम्, आचा०२ श्रु० अ० उ०॥ नयनः प्रेक्षणीयम् । सौनाग्यातिशयादनिमिषैर्बोचनैः प्रेक्षणीये, | नत्तिंगलेण-नत्तिजनयन-न उत्तिङ्गानां लयनं चूमौ उत्कीर्ण झा०१०। नि। उत्ताणायणपेच्चणिज्जा पासादीया दर-| गृहमुत्तङ्गनयनम् । मयनसदमनद, । कल्प० ॥ सणिज्जा अनिरूवा पमिरुवा, औ०॥ उत्तिा -उत्तीर्ण-त्रि० उद् तृ-कर्तरिक्त-निवृत्ते, अष्ट । पारंगते उत्ताणत्य-नत्तानार्थ-त्रि० ६ ब० प्रगटार्थे, सूत्रादर्शेषु टी- कर्मणि क्तः कृतोत्तरणे नद्यादौ, वाच । कायां तु दृष्ट इति कृत्वा लिखित उत्तानार्थश्च । सूत्र०१श्रु०ए० जत्तिम-उत्तम-त्रि० उद् तमप् ": स्वप्नादौ"८1१४६। श्त्याउत्ताणहत्थ-उत्तानहस्त-त्रि० प्रतिगृहीतुमूर्ध्वमुखहस्ते, "कि | देरस्य इत्वम् । उत्कृष्टे, प्रा० । वाच। आर्षे उत्तम इत्येव वणो विव उत्ताणहत्याओ" स्त्रियः कृपणवत्सर्वेन्यो मातापितृब बाहुल्येनोपयज्यते इति तथैव उत्तप्रकरणे दर्शितम् । न्धुकुटुम्बादिज्यो विवाहादावादानहेतुत्वात, तं०॥ उत्तिमट्ठ-नत्तमार्थ-पुं० अनशने, नि० चू०१०। उत्ताणिय-नुत्तानिक-पुंअभिग्रहविशेषात् उत्तानशायिनि,दशा. | नत्तिमट्टपडिवण-उत्तमार्यमतिपत्र-पुं० स्त्री० अनशनप्रतिपन्ने, उत्तार-उत्तार-पुं० उद्-तृ-णिच्- अच्- " उत्तरणे, अणुसो नि० चू०१०। श्रो संसारो, पमिसोमो तस्स उत्तारो" दश०२०। चन्मने, उत्तेश्य-नुत्तेजित-त्रि० उद्. तेज-णिच्. क्त.। अधिकं दीपिते, लवडने, पारगमने च । श्चस्तारःप्रा० स० अत्यन्तीचशदादी, दश०३०। उत्कृष्टतो जनानीते "संयमानं विवेकेन शास्त्रणोत्ते त्रि० । वाच०॥ जितं मुनेः" । अष्टप्रेरिते, भावे. क. प्रेरणायाम, उद्दीपने च । नत्तारिय-नत्तार्य-त्रि० उद्.तृ.णिच्. कर्मणि यत् नमनीये, ल्यप् न० अश्वगतिनेदे, न वाच । उद्वमनं कृत्वेत्यर्थे, अव्य दू-तृ-कर्मणिण्यत् उद्घमनीये,त्रि-वाच. उत्तेम-उत्तेम-पुं० विन्दौ, "उत्तमा वत्थुयायनं समत्ति" || पिं० उत्तारित-त्रि० अवरोहिते, "देवाहिदेवस्स पमिमा कायब्वा. उत्य-कथ-न० वच्. थक्. । अप्रगीतमन्वसाध्ये स्तोत्रे चतुर्विवीयभए नत्तारिया" आ० म० द्वि०॥ शस्तोत्रन्नेदे, उपचारात् तत्साध्ये उक्थयागे चावाचा विशे०।। उत्तारेमाण-उत्तारयत- त्रि० अवरोहिते, स्था०५ ग०॥ उत्थंध-रुधु-धा० आवरणे, रु० अन्न द्वि० अनिट् । रुधेरुत्थंध इत्यादेशो वा नवति। उत्यंध रुंध। प्रा०। रुणकि रुन्धे शरित उत्तान-उत्ताल-त्रि० उद् चूरा० तब प्रतिष्ठायाम्, अच्-प्रतिष्ठिते, | अरुधत अरोत्सीत वाच॥ महति, । वाच । ताबस्तु कंसिकादिवान्दविशेषः उत्प्राबल्येन अतीतमस्थानतालं वा उत्तासम् । गेयदोषनेदे, " गायतो मा उद-विप्- धातु० अर्बक्केपे, उत्थंध उक्खिव नविपति। प्रा०॥ पगाहि उत्तालं" स्था०७० अनु। जी । जं०॥ नत्यरमाण-उत्तरत-त्रि० अभिनवति, "उत्थरमाणे सव्वं महाउत्तासइत्ता-(तृ) उत्त्रासयिता-(त)-त्रि० लोष्ठप्रतपादि. | सो पुवमेहणिग्योसो" श्राव० ४ अ०। निः उत्त्रासकारके, “से हंता नेता नेत्ता लुपित्ता ऊत्तासश्त्ता नत्यन-उत्स्था -न० उत उन्नतानि स्थलानि धूल्युच्छ्यरूपाणि अकर्म करिस्सामि" प्राचा०२ श्रु०२ अ० १७०। उत्स्थलानि धूलिपुलेषु, न. ७ श०६०। उत्तासणय-उत्त्रासनक-त्रि०सी उद्वेगे तिवचनात् । उत्त्रा- उत्थिय-अवस्तृत-त्रि० आच्छादिते, "सुहपुरम चत्तचनतं तु गोस्यतेऽनेनेति नत्रासनः उत्वासन एव उत्त्रासनकः । स्मरणे- | स्थिया होसिसु" पचा। | स्थिया होमिसेसु" पंचा०० विव। नाप्युद्धगजनक, न.३०२० नयंकरे, का० अ०। उत्थानण-अवस्तोभन-न० अनिष्टापशान्तय, निष्टावनन घुघु प्रश्न उत्त्रासकारिणि, झा०५०। "जीमा जुत्तासणा परम करणे, एतच्च कौतुकलेदत्वेन साधुभिवय॑म् वृ०१०। पं०व०। कणहावएणेणं पम्पत्ता" । प्रा०पद। नत्तासणिज-नत्वासनीय- त्रि० महानयंकरे, । नर छोविव उदउन-उदकाई-त्रि० ३ त। गदुदकबिन्दुयुक्त, दश०५ उत्तासणि जाओ" स्त्रियः नरकवत् उत्वासनीयाः पुटकर्मकारि अ० । “उदावं वीयसंससं" दश० ६ ०। "उदनलं अप्पणो कायं नेव पुच्छेण संबिहे" दश०० अ०।"उदवं वा कार्य उत्वात् महाजयकराः अक्षणा साध्वी जीववेश्यादासीघातिका दउल्लं वा वत्यं ससणिकं वा कार्य ससणिकं वा वत्थं न मुसज्जा कुलपुत्रनार्यावत् । तं०॥ न संफुसज्जा" । दश०।४ अ. (अह पुण एवं जाणेजा को उत्तासिय-नत्रासित-त्रि० अपजाविते, आव०४ अ॥ पुरेकम्मकरणं इथेण वा असणं वा ४ अफासुयं अणेसणिज्ज उत्ति-नक्ति-स्त्री० वच-क्तिन्- संप्र० शब्दशक्ती, एकयोक्या जाव णो पमिगाहिजा इत्यादि पुर कम्मशब्दे वदयते) प्राचा पुष्पदन्तौ दिवाकरनिशाकरौ.वाचावाचि,अनु० विशे०। भणि- ५६० अ०५ उ । उदका पुनर्यबिन्दुसहितं नाजनादि गहतौ," गौराहरणेह उत्तीहि य नावसाराहि" पंचा० एविव०॥ द्विन्दुरित्यर्थः । ओ०। निच नदगनल्लेन्यापि रूपं क्वचिदू हनतिंग-नत्तिङ्ग-पुं० नूम्यां वृत्तविवरकारिणि गईभाकारे जीवे, श्यते ॥ कल्प०॥ ध०२ अधि० । “त्तिगो परुगद्दनो" निर चू. १३ नः ॥ नदनबाहड-उदका_हन-त्रि० उदका हस्तेन पुरःकर्म " उत्तिगा चूका गर्दनाकृतयो जीवाः" कल्प। आव । पि- संस्पर्शनानीते पिरामे, " सागारिय पिमुद्दे सिय उद उद्वाह Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९७ ) अभिधानराजेन्डः । नदग चासम्मासियं सागारिय पिंकुइसिय उदअल्लाहमें निचू०२०७०। मच्चाय कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उहादगरकरवसाय। नदोदर-नुदकोदर-न० जोदररोगे, जं०२ वक। अटाणमेयं कुसला वयंति, नदगेण जे सिकिमुदाहरंति।१५॥ नदक-उद-पुं०उदको ये नोदकमुदच्यते तस्मिन्, जं०२वकाजी. किञ्च यदि जनसंपर्कात्सिहिनस्यात्ततो ये सततमुदकावगाहिनो नदंच-उदञ्च-वि० उद् अनच विच-उदकशब्दार्थे, प्रथमान्ता मत्स्याश्च कर्माश्च सरीसपाश्च तथा मझवस्तथोष्ट्रा जलचराविशेउथें, दिवेशादी, पाच। षास्तथोदकराक्षसाजसमानुषाकृतयो जनचरविशेषापते प्रथम उदंचा-उदञ्चन-न० उद् अनच् णिच् करणे ख्युट । विधानार्थे सियुन चैतष्टमिष्टम ततश्च ये सदकेन सिद्धिमुदाहरम्त्येत. पात्रे, (ढकन) नावे प्युर । करकेपणे, कर्तरि ल्युट । उत्केपके, दस्थानमयुक्तमसांप्रत कुशमनिपुणामोकमार्गाभिका वदन्ति।१५। त्रि०वाच। अनु। किञ्चान्यत् । नदंत-उदन्त-पुं० सातोऽन्तो निर्णयो यस्मात् । वार्तायाम, झा० उदयं जा कम्मम हरेज्जा, एवं सुहं इच्गमित्तमेवं ।। 4. "गोसे मे बहेजह नदंत" व्यकि०४०। प्रा० म० | अंधवणे यारमणुस्सरित्ता,पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा।१६। प्र० । साधी, स्वार्थे कन् । तत्रैव सन्तोऽन्तो ऽस्य पाकवशात प्रा० व गतझोपः । पाकवशात प्राप्तान्ते, वाच ॥ यधुदकं कर्ममममपहरेदेवं डाभमपि पुण्यमपहरेत् । अथ पुण्य नापहरेदेष कर्ममलमपि नापहरेत् । अत इच्छामात्रमेवैतद्या. उदंतवाहय-नदन्तवाहक-त्रिक वार्ताहरे, वाच । च्यते जन्न कर्मापरिहारीति । एवमाप व्यवस्थिते ये स्नानादिकाः उदक-उदर्क-पुं० उद् अर्क-अन् वा घ उत्तरकाटे, भाविफल क्रियाः स्मातमार्गमनुसरन्तः कुर्वन्ति ते यथा जात्यन्धा अपरं के बजाभकर्मणि, वाचः । उदये, “केषांचिद्विषयज्वरातुर जात्यन्धमेव मेतारमनुसृत्य गच्चन्तः कुपथश्तयो भवन्ति नामहो चित्तं परषां विषा-वेगोदर्ककुतर्कमूर्चितमयान्येषां तु निप्रेतं स्यानमवामुवन्ति । एवं स्मातमार्गानुसारिणो जमशौचवैराग्यतः" अष्ट। परायणा मन्दा प्रहाः कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलाः प्राणिन एव उदग (य)नदक-नं० चन्द एवुब्. नि. नझोपश्च । जले, (चत्तारि तन्मयान् तदाश्रितांश्च पुत्तरकादीन् विनिम्नन्ति व्यापादयन्ति सदगा पाप्मत्ता उत्साणे णाममेगे अत्ताणोदए इत्यादि पुरिसजाय- अवश्यं जनक्रियया प्राणव्यपरोपणस्य संजवादिति ॥१६॥ शवं उत्तानसूत्रावसरे व्याख्यास्यते)(चत्तारि अदगा पामत्सा तं अपिच जहा कदमोदए खंजणोदए यामुओदए सेझोदए इति सान्तो पाबाई कम्माई पकुव्वतोहिं, सिनोदगं तू जात हरिज्जा । भावशब्दे) सदगं च दुविह वासुदगं च। नि०यू०१०७०।०। सिरापानीये, दश०४०। “जेणं उदएण मट्टियाए । य" औ०। सिकंसु एगे दगसत्तघाति, मुसं वयंते जलसिछिमातु।१७ "तिहि उदगेर्हि मज्जावेत्ता"त्रिनिरुदकैर्गन्धोदकोषणोदकशीतोद पापानि पापोपादानलूतानि कर्माणि प्राण्युपमर्दकारीणि कुर्वकैर्मार्जयित्वा ( स्था० ३ ग०) उदकात्सिकिरिति वादिनः । तोऽसुमतो यत्कर्मापचीयते तत्कर्म यादकमपहरेत् । यद्येवं स्यात् एगे य सीओदगसेवणेण, हुएण एके पनयंति मोक्खं ।। तर्हि यस्मादर्थे यस्मात्प्राण्युपमर्दकर्मोपादीयते जनावगाहनाच्या तथके वारिजकादयो जागवतविशेषाः शीतोदकसेवनेन स ऽपगगति तस्मादकसत्त्वघातिनः पापत्तयिष्ठा अप्येवं सिद्ध्येयुः। चित्ताप्कायपरिनोगेन मोक्कं प्रवदन्ति । उपपत्तिच ते अभिदधति न चैतराष्टमिष्टं वा । जनावगाहनान्सिकिमाहुस्ते मृषा वदन्ति । ययोदकं वाह्यमसमपनयति एवमान्तरमपि वस्त्रादेश्च यथोदकान्छ किंचाऽन्यत् ।। बिरुपजायते एवं बाह्यशुछिसामर्थ्यदर्शनादान्तरापि शुझिरुद आहंमु महापुरिसा, पुदि तत्ततवोधणा। कादेवेति मन्यन्ते। उदयेण सिधिमावना, तत्थ मंदो वसीयति ॥१॥ एतेषामुत्तरं यथा ।। केचन अधिदितपरमार्था आजुरुक्तवन्तः । किं तदित्याह । यया उदगेण ये सिछिमुदाहरंति, सायं च पावं उदगं फुसंता । | महापुरुषाः प्रधानपुरुषा वल्काचीरितारागणर्षिप्रभृतयः। पूर्व उदगस्स फासेणसिया य सिकि,सिज्जंस पाणा बहवे दगंसि पूर्वस्मिन् काले तप्तमनुष्ठितं तप पव धनं येषां ते तप्ततपोधना: पञ्चान्यादितपोविशेषेण निष्एप्तदेहास्त एवंनृताः शीतोदकपरितथा ये केचन मूढा उदकेन शीतवारिणा सिकि परसोकमुदा जोगेन उपनवणार्थत्वात् कन्दमूलफनाथुपभोगेन च सिकिहरन्ति प्रतिपादयन्ति सायमपराहे घिकाले वा प्रातश्च प्रत्युपसि मापनाः लिहिं गतास्तत्रैवंचूतार्थसमाकर्णने तदर्थसद्भावावेशात चायन्तग्रहणात् मध्याहे च तदेवं संध्यात्रयेऽप्युदकं स्पृ मन्दोऽज्ञः स्नानादित्याजितः प्राशुकादेकपरिभोगजग्नः संयमाशन्तः स्नानादिकाः क्रिया जोन कुर्वन्तः प्राणिनो विशिष्ट नुष्ठाने प्रविषादति । यदि वा तत्रैव शीतोदकपरिभोगे विपीदात गतिमानुषन्तीति केचनोदाहरन्ति । एतश्चासम्यक् । यतो प्रगति निमजतीति यावत् । नचासौ बराक एवमवधारयात यादकस्पर्शमात्रेण सिकिः स्यात् तत उदकसमाश्रिता यथा तेषांतापसादिवतानुष्ठायिनां कुतश्चिजातिस्मरणादिप्रत्ययामत्स्यबन्धादयः क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः दाविर्तृतसम्यग्दर्शनानां मौनीन्छनावसयमप्रतिपस्या अपगतसिरपयरिति । यदपि तैरवोच्यते । याहामलापनयनसामर्थ्य मुद- ज्ञानावरणादिकर्मणां भरतादीनामिव मोक्कावाप्तिन तु शीतोदककस्य रष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते । यतो यथोदकम परिजोगादिति ॥ १॥ किंचान्यत् ॥ निष्टमलमपनयत्येवमन्निमतमप्यङ्गराग कुडूमादिकमपनयति । ततश्च पुण्यस्याऽपनयनादिष्टविघातद्विरुकः स्यात् । किंच अनुंजिया नमि विदेही, रामगुत्ते य तुंजिया ॥ पतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोपायैव । तथाचोक्तम् । “स्नानं बाहए जदगं नोच्चा, तहा तारा गणे रिमी ॥२॥ मददर्पकरं, कामा प्रथम स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य,न ते केचन कुतीर्थिकाः साधुप्रतारणार्थमेवमूचुः । याद वा स्ववाः स्नान्ति दमरताः ॥ अपि च । नोदकक्सिन्नगात्रीहि, स्नात इत्य- शीतलविहारिण एतद्वक्ष्यमाणमुक्तवन्तस्तद्यथा नमी राजा विदेनिधीयते। स स्नातो यो व्रतस्नातः, सबाह्याच्यन्तरः शुचिः॥१४- हो नाम जनपदस्तत्रनवा वैदेहास्तन्निवासिनो झोकास्तेऽस्य Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदग सन्तति वैदेही । स एवंभूतो नमी राजा अशनादिकमनुक्त्वा सिकिमुपगतस्तथा राम राजर्षिराहारादिक कविय आन एव सिर्फ प्राप्त इति ॥ तथा बाहुकः शीतोदकादिपरि भोगं कृत्वा तथा नारायणो नाम महर्षिः परितोदकादिपरिम गात्सिक इति ॥ २ ॥ प्रपत्र (७९८). अभिधानराजेन्द्रः | असि देवले व दीपपणमहारिसी । पारासरे दगजोचा, बीयाणि हरियाणि प॥ ३ ॥ एते पुत्रं महापुरिसा, आहिता इह संमता । जोचा बीओदगं सिद्धा, इति मेयमस्त्रं ॥ ४॥ असिलो नाम महर्षिर्देवो द्वैपायनश्च तथा पराशराख्य इत्येवमादयः शीतोदकी जहरितादिपरिजोगादेव सिकाइति यते ॥ ३ ॥ एतदेव दर्शवितुमादपते इत्यादी ) एते पु नम्यादयो महर्षयः पूर्वमिति) पूर्वमा पुरुषा इति प्रधानपुरुषा श्रासमन्तात् ख्याताः पित्वेन प्रतिमुपगताः इहाप्यायिता के वन संमता अनिता इत्येवं कुतीर्थिकाः स्वयूथ्या वा प्रोचुस्तया एते सर्वेऽपि बीजोदकादिकं नुक्त्वा सिका इत्येतन्मया भार तादौ पुराणे श्रुतम् ॥ ४ ॥ महा प्रख्याता राज नाना पसंहारद्वारेण परिहरन्नाह ॥ तस्य मंदा विमीयंति, वाहनाच गहना । पितो परिसप्पति, पिसप्पी च संनमे ॥ ५ ॥ हमेंगे जाति, सार्वसावेश विती । जे तस्य आरिअं मगं परमं च समाहिए || ६ || (त्यादि) मन कुयुपसर्गेइये मन्दा विधोपाध्यां सिगमनमत्रधार्य विषीदन्ति संयमानुष्ठानेन पुनरेत तया येषां गिनतेनिमित्तात् जातजातिस्मरणादिप्रत्ययानामवाप्तसम्यग्ज्ञानचारिणामे यतीनामिव सिद्धिगमनमा पुनः कदाचिदपि सर्वविरतिपरिणामभाव लिङ्गमन्तरेण शीतोदकवीजाद्युपभोगेन जीवोपमदेप्रायेण कर्मकयोऽवाप्यते । विषीदने दृष्टान्तमाह । वहनं वाहो जारोद्वहनं तेनच्छिन्नाः कर्षितास्त्रुटिता रासना व विषीदन्ति । यथा रासभा गमनपथ एव प्रोज्जितद्वारा निपतन्ति एवं ते प्रोज्झ्य संयमनारं शीतलविहारिणो जवन्ति । दृष्टान्तान्तरमाह । यया पृष्टसर्पिणो जन्नगतयोऽन्यादि संमे सत्युद्धान्तनयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य पृष्टतः पश्चापरिसर्पन्ति नाशगामिनी भवस्यपि तु तत्रैवास्यादिमे विनश्यन्त्येवं तेऽपि शीतल विहारिणो मोकं प्रति प्रवृत्ता अपितु न मोकगतयो नवन्त्यपि तु तस्मिन्नेव ससारे अनन्तमपि का यावदासत इति ॥ ५ ॥ मतान्तरं निराकर्तुं पूर्वपक्कयितुमाह (इह मेगे इत्यादि) इहेति मोक्षगमनप्रस्तावे पके शाक्यादयः स्वय्थ्या वा बोचादिनोपतताः । तुशब्दः पूर्वस्मात् शीतोदकापरिनोगाशेपमानामन्यतयाः किं दि त्या सात सुखं सातेन सुखेनैव विद्यते भवतीति । तथाच वक्तारो भवन्ति । "सर्वाणि सत्वानि सुखे रतानि सर्वाणि दुःखाच्च समुद्विजन्ति तस्मात्सुखासुखं दद्यात् खानि ॥ १ ॥ युक्तिरप्येवमेव स्थिता । यतः कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते। पाशादित्य जायते न यार इत्येमुखमुपजायते नतु चादिरुपात खा दिति । तथा ह्यागमेऽप्येवमेव व्यवस्थितम् ॥ मयुतं भोयणं जोच्चा, सणसणं मांति भगारसि माय गुण ।। १३ 2 उद्गगन्भ तथा मृद्धी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मुक्त मध्ये पानकं चापरा । कामं शर्करा चारा शाक्यपुत्रेण ॥१॥ इत्तो मनोज्ञादारविहारादेवितस्वास्थ्यं ततः समाधिपते समावेश मुक्यवाप्तिरतः स्थितमेतदुखेनैव सुखावाप्तिर्न पुनः कदाचनापि लोचादिना कायक्लेशेन सुखावाप्तिरिति स्थितम् इत्येवं व्यामूढमतयो मे केवन शाक्यादयस्तत्र तस्मिन्ममार्गप्रस्तावे समुपस्थिते आराज्जातः सर्वदेयधर्मेत्र्य इत्यार्थी मार्गों जैनेन्द्रशासनमतिपादितो ममा परिरन्ति । तथाच परमं च समाधिज्ञानदर्शनकारात्मक से सारान्तर्वर्तिनः सदा जयन्ति । तथाहि । यतरनिहित कारणानुरूपं कार्यमिति तयमेकान्तो यतः ङ्गाच्च जायते गोमयाधिको गोसोमाविमादिभ्यो दुवैति । यदपि मनोहाहारादिकमुपन्यस्तं सुखकारणत्वेन तदपि विसृचिकादिसम्भवाद्वयभिचारीति । अपिवेदं वैषयिकं सुखं दुःखप्रकारहेतुत्वात् सुखाभासतया सु खमेव न भवति । तदुक्तम् । दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । उत्क र्णवर्णवद पंक्तिरिचान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ १ ॥ इति कुतस्तत्परमानन्दरूपमस्यास्यन्ति के कान्तिकस्योपकार नयति यदपि नृपननिहाटनपरपरिया मशकादिकं दुःखकारयत्येन नवतोपन्यस्तं तदप्यल्प सत्वानामपरमार्थदशां महापुरुषानां स्वानपरमार्थचिन्तकानां महात्वतया सर्वमेवैतत्सुखायैवेति । तथा चोक्तम् । तयसंयारनिविष्टो वि, मुनिवरो भट्टरागमयमोहो ॥ जं पावर मृत्तिसुई, कत्तो तं चक्कवट्टी वि ॥ १॥ तथा । सख्यं दुष्कृत संख्यया च महतां कान्तं पदं वैरिणः, कायस्याशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुरा | सर्वत्यागमहोत्सवाय मरणं जातिः स संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपतेः कृत इति ॥ १ ॥ अ पिवेकान्तेन सुययुपगम्यमाने विचित्रसंसाराभावः स्यात्तथा स्वर्गस्यानां नित्यसुखिनां पुनरपि सुखानुभूतैस्तत्रैवा त्पत्तिः स्यात्तया नारकाणां च पुनर्दुःखानुभवातत्रैवात्पतेर्न नानागत्या विचित्रता संसारस्य स्यान्नचैतत् दृष्टमिष्टं चेति ॥६॥ सूत्र०१ goo० (उदकस्य विषयान्तराणि आठक्काय शब्दे उक्तानि) भावयति सप्तमे तीर्थकरे, स० । वनस्पतिविशेष, यथोक्तम्" उदप अ ar पण इत्यादि " दश ० अ० प्रा० । जलाशयमात्रे, न० १०८०, स्वनामस्या पैदा निर्म हे सदर दालने जग पासावनिले यि मेजे गोते, पासावगिच्च पुच्छिया अज्ज गोयमं उदगो सावगपुच्छा धम्मं सोन कहियम्मि उत्रसंता । सूत्र० २ श्रु० ७ ० । ( उदकस्य गौतमस्वामिनं प्रति प्रश्नः पञ्चाशदेवक्यते) तद्विषयकत्वेन श्योपयसिप्यासे त्स्यति ॥ सूत्रस्कन्धं नान्दनत स्तद्यथा- उदकनामानगारः पेढानपुत्रः पाश्र्व जिनशिष्यां योऽसी राजगृहनगरबाहिरिकायामन्नानायतर दिश हस्तिपवन पवस्थितस्तदेशस्यं गौतमं संशयधि पमा विधिसंशयः सन् चामं धर्म विहाय पञ्चाम धर्मप्रतिपेदे इति उत्सवमस्तक भषिप्यांत स० कामोदाविमनुतिष्यकादशस्त्रभ्यधिकेषु चतु म० ७ ० १० ० । उदग ( दग) गब्ज - उदकगर्ज - पुं० ( उदकस्य ) दकस्यो Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९९) जदगगम्भ अभिधानराजेन्द्रः । नदगणाय दस्य वा गर्ने श्व गर्नः । स्या०४० | कायान्तरेण जसप्रब- अदोणसत्तू णाम कुमारे जुवराया वि होत्था। सुबुकी अर्षणहती पुजा परिणामे, भ०२०५०॥ मच्चे जाब रज्जधूरा चिंतए समणोवासए अजिगयजीवाचत्तारि नदगगन्ना परमत्ता तंजहा हेमगा अन्नसंघमा जीवे तीसेणं चंपाए एयरीए बहिया नत्तरपुरछिमेणं सीओसिणा पंचरूविया ॥ दकस्योदकस्य गर्भाश्व गर्ना दकगर्जाःकालान्तरे जलवर्षणस्य एगे फरिहोदए यावि होत्या । मेयवसामसरुहिरपूयपमलहेतवः तत्संसूचका इति तत्त्वमिति । अवश्यायः कपाजलं महिका पोचडे मयगकलेवरसंबसे अमी वमे णं जाव फासेणं धूमिका शीतान्यात्यन्तिकानि एवमुष्णो धर्म पते हि यत्र दिने जे जहाणामए अहिममेति वा गोमडेति वा जाव मयकुहिचत्पन्नास्तस्मामुत्कर्षेबाच्याहताः सन्तः षनिर्मासैरुदकं प्रसुवते यविपिट्ठकिमिणवा वरजिगंधकिमिजालाउले संसते अ. अन्यैः पुनरेवमुक्तम् । " पवनानुवृधिविद्यु-भर्जितशीतोष्णरस्मि परिवेषाः । जलमत्स्येन सहोक्तो, दशधा चाम्बुप्रजनहेतुः॥१॥" सुविगयवीनच्छदरसणिज्ने नवेयारूवे सिया । णो णतया-शीतवाताश्च बिन्दुश्च, गर्जितं परिवेषणम् । सर्वगर्भेषु शंस हे समढे एत्तो अणिद्वतराए चेव जाव गंधेणं पामत्ते । तए न्ति, निर्ग्रन्थाः साधुदर्शनाः ॥२॥ तथा-सप्तमे सप्तमे मासे, एं से जियसत्तू राया अमया कयाई एहाए कयवनिकम्मे सप्तमे सप्तमेऽहनि । गर्भाः पाकं नियच्छन्ति, यादृशास्तारशं जाव अप्पमहग्यालरणालांकयसरीरे बहुहिं राईसर जाव सफाम् ॥१॥" हिमं तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमकाः हिमपा स्थवाहपनिईहिं सकिं भोयणमंसि जोयणवेनाए सुहातरूपा इत्यर्थः ॥ (अम्भसंघनत्ति) अन्नसंसृतानि मधेराकाशाच्छादनानीत्यर्थः आत्यन्तिके शीतोष्णे पश्चानां रूपाणां गर्जित सणणिसो विपुलं असणं ४ नुंजेमाणा जाव विहर । विद्युजलवाताभ्रबक्तणानां समाहारः पश्चरूपं तदस्ति येषां ते जिमिवयनुत्तुत्तरागए जाव सुइनए तसि विपुलंसि असणं पञ्चरूपिका उदकगर्ना श्ह मतान्तरमेवम् । “पोषे समार्गशीर्ष, ४ जाव विम्हए ते बहवे ईसर जाव पनिई एवं बयासी संध्यारागाम्बुदासपरिवेषाः। नात्यर्थ मार्गशिरे, शीतं पौषेऽतिदिमपातः॥१॥ माघे प्रवलो वायु-स्तुषारकलुषद्युती रविशशा अहो णं देवाणुप्पिया इमे मणुप्मे असणं ४ वाणं नवहो । अतिशीतं सघनस्य च, जानोरस्तोदयौ धन्यौ ॥ २ ॥ फा- वेए जाव फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विस्तायणिज्जे ल्गुनमासे रूक-श्वएमः पवनोऽसंप्लवाः स्निग्धाः। परिवेषाश्च पीणणिज्जे दीवणिज्जे सबिदियगायपम्हायणिज्जे तए एं सकमाः, कपिलस्ताम्रो रविश्च गुजः॥३॥ पवनघनवृटियुक्ताक्षेत्रे गर्भाः शुन्नाः सपरिवेषाः । घनपवनसविलविद्युतस्तनितैश्च ते बहवे राईसर जावप्पनिईओ जियसत्तरायं एवं बयासी हिताय वैशाख इति ॥४॥" तानेव मासनेदेन दर्शयति "माहे । तहेव णं सामी जणं तुब्ने वयह अहोणं इमे मणुलो असणं न हेमगा गम्भा, फग्गुणे अग्नसंघमा । सीओसिणाओ य चित्ते, पाण खाइम साइम बमण उववए जावपहायाणज्जतएण वश्साहे पंचरूविया ॥१॥" स्या०४०। तस्य कालस्थिति जियसत्तू राया सुबुच्छीअमचं एवं वयासी अहोणं सुबुकि कायहिश्शब्द) मचे इमे मणले असणं पाणं खाइमं सामं जाव पल्हाणिज्जे नदगजीव-उदकजीव-पु० उदकमेव जीवः । उदकरूपे जीवे, स. तएणं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तू रायस्स य एयमढ णो पाढाई चित्ताप्काये, आचा० १ श्रु० १ अ० १०० (आउक्कायशब्द विषय उक्तः) णो परियाणाइं जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं जियसत्तू उदगजोषिय-उदकयोनिक-पुं० उदकं योनिरुत्पत्तिस्यानं राया सुबुधी अमच्चं दोच्चंपि तचंपि एवं बयासी अहो एं येषां ते, 'जलसंभवेषु जीवेषु, "श्हेगतिया सत्ता उद्गजोणिया सुबुद्धी अमच्चे इमं मणुम्से तं चेव जाव पल्हायणिजे तए उदगसंभवा" सूत्र०२१०३ अ०। णं सुबुझ्छी अमचे जियसत्तुणा दोचपि तच्चपि एवं वृत्त सदकस्य योनयः परिणामकारणभृता उदकयोनयस्त एवोदकयोनिकाः । नदकजननस्वनावेषु, " णो बहवे उदगजोणिया समाणे जियसत्तू रायं एवं वयासी । णो खस सामी अहं जीवा य पोमाना य उदगत्ता य वक्कमंति" स्या०३०३उ०। एयंसि मामंसि असणं पाणं खाश्मंसामंसि के विम्हए उदगणाय-नुदकड़ात-न० उदकं नगरपरिखाजझं तदेव ज्ञात- एवं खा सामि सुन्निसदा वि पोग्गला इन्जिसताए मुदाहरणमुदकझातम् । झाताधर्मकथायाःप्रयमश्रृतस्य द्वादशाऽ परिणमंति, सुन्जिसदा विपोग्गन्ना सुब्जिसत्ताए परिणमंति ध्ययनोक्ते नदाहरणे, तत्प्रतिपादकेऽध्ययने च।झा०१ श्रु०१०। सुरूवा वि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमति । पुरुवा वि आ चू०। आव० तच्चैवं । जणं ते समणे एं जगवया महावीरेणं जाव . संपत्ते पोग्गना सुरूवत्ताए परिणमंति । मुग्जिगंधा वि पोग्गमा णं एक्कारसमस्स णायज्जयणस्स अयमढे पप्पत्ते । बारसम- दुन्जिगंधत्ताए परिणमंति। दुब्जिगंधा विपोग्गना सुब्जिगंधसणं ते समणे णं जगवया महावीरेणं जाव संपत्ते एं ताए परिणमंति, सुरसा वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, के अढे पामुत्ते । एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं दुरसा विपोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति। सुहफासा वि चंपाणामं एयरी होत्या । पुपनद्दे चेइए तीसेणं चंपाए पोगला दुहफासत्ताए परिणमंति, दुहफासा. वि पोग्गला एयरीए जियसत्तु णामं राया होत्था । तस्स णं जियसत्तस्स मुहफासाए परिणमंति । पोगवीससा परिणया वि य णं रमो धारिणी णाम देवी होत्या । अहीणमुफुमान्न जाव सामी पोग्गमा परमत्ता तए णं से जियसत्तू राया सुबुफिस्स सुरुवा तस्स एं जियसत्तुस्स रमो पुत्ते धारिणीए अत्तए । अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमझु णो अवाइ णो Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८००) उदगणाय अनिधानराजेन्द्रः। उदगणाय परियाणइ तुसिणीए संचिहइ तए पं से जियसत्तू राया रापक्खिवावमाणे अंसरा अवसावमाणे ५ सत्तसत्तए राअप्पया कयाइएहाए जाव विजूसिए प्रासखधवरगए महया इंदिई परिवसायेइ ५ त्ता तएणं से फरिहोदए सत्सयंसि ५ जरूचडगरवासवाहणिया णिज्जायमाणे तस्स फरिहोदयस्स परिणममाणसि उदगरयणे जाए यावि होत्था। अच्छे पत्थे अदूरसामंते ए बीइय तए णं जियसनू राया तस्स फरिहो- जच्चे तणुए फालियवमाने बाप्पणं उववेए ४ श्रासायदगस्स अजिनूए समाणे सरणं उत्तरिजे णं प्रासगं णिज्जं जाव सबिदियगायपल्हाणिज्जं तएणं सुबुकी पिहेइ एगं तं अवकमइ अवक्कमइत्ता ते बहवे राईसरजाव- अमचे नेणेव से उदगरयणे तेणेव नवागच्चश्ता करयमंसि पनिओ एवं बयासी। अहो णं देवाणप्पिया इमे फरिहो- प्रासादे तं नदगरयणं वमेणं गंधणं रसेणं फासणं जबदए प्रमाणुले बझणं गंधेणं रसेणं फासणं से जहाणामए वेयं प्रासायणिज्ज जाव सबिदियगायपरहायणिज्ज जाणिअहिममे वा जाव प्रणामत्तराए चेव तएणं ते त्ता हहतुढे बहुहिं उदगसंजारणिज्जेहिं दब्बोहिं संजारे राईसरप्पनिइए जाव एवं बयासी। तहेब णं सामी जणं २ त्ता जियसत्तुस्स रमो पाणियधारियं पुरिसं सदावेश तुम्ने एवं वयह अहो णं इमे फरिहोदए अमणुप्से वो- त्ता एवं वयासी तुणं देवाणप्पिया इमं नदगरयणं गिएहाणं गधेणं रसणं फासेणं से जहा णामए अहिममेवा हिं२ जियसत्तुस्स रस्मो जोयण वेझाए उवट्ठवेश सएणं से जाव अमणामतराए तरणं से जियसत्तू राया सुबुकि जियसत्तू राया पाणियधरए पुरिसे सुबाधिस्स अमञ्चस्स एयअमचं एवं बयासी अहोणं सुबुकि इमे फरिहोदए अम मटुं पणिमुणेइ २ ता तं उदगरयणं गिएहता जियएमे वोणं गंधेणं रसेणं फासेणं से जहा णामए अहि सत्तुस्स रमो भोयणवेझाए उबट्ठवइ तएणं से जियसत्तू राया गति वा जाव अमणा मतराए तएणं सबुधि अमच्चे जाव तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसा एमाणा जाव विहर जिमियनुत्तुत्तरागए वियणं जाव परम तुसिणीए संचिट्ठ तएणं से जियसत्तू राया सुबुफि अमच्चं सुनूए तसि उदगरयणंसि जाव विम्हए ते बहवे राईसरदोश्चं पितचं पि एवं वयासी अहाणं तं चेष तएणं से सुबुकी अमचे मियमत्तुणा रमा दोच्चंपि तच्चपि एवं वृत्ते जांच एवं वयासी । अहो णं देवाणुप्पिया इमे उदगरयणे अच्छे जाव सबिदियगायपम्हायणिजे तए एं ते बहवे समायो एवं बयासी णो खलु सामी अम्हं एयंसि फरिहोद राईसर जाव एवं वयासी तहेणं सामीजमं तुम्ने वयह जाव गसि के विम्हए एवं खलु सामी सुन्भिसदावि पोग्गमा तं चेव पाहायणिजे तए णं जियसत्तू राया पाणियधरयं दुन्निसहत्ताए परिणमंति तं चेच पोगवीससा परिणया बियणं सामी पोग्गमा पासा तएणं जियसत्तू राया सुबुधि पुरिमं सद्दावेश ३ त्ता एवं वयासी एस णं देवाणुप्पिया उदगरयणे को प्रासादिए तए णं से पाणिधरए जियसत्त अमचं एवं वयासीमाणं तुमं देवाणप्पिया अप्पाणं च परं राय एवं क्यासी एस एं सामी मए उदगरयणे सुबुकिस्स च तदुजयं च बहुहि य असम्भावुनावणाहि मिच्चित्तानि अंतियाो आसाइए तएणं जियसत्तू राया सुबुकि अमर पिवेतेण य बुम्गाहेमाणे बुप्पायमाणे विहराही । तएणं सु सद्दावेइ ३ त्ता एवं क्यासी । अहो णं सुबुकी अहं तव मुफिस्स अमञ्चस्स इमेयारूवे अथिए समुप्पज्जित्था अहो णं जियससू राया संते तच्चे तहिए अवितहे संनूए अणिढे ५ जेणं तुम ममं कझाकल्लिं नोयण वझाए म उदजिए पत्ते नावे णो नुवन्ननंते त सेयं खलु ममजियसत्तु गरयणं ण नवघ्वेसि तएणं तुमे देवाणुप्पिया नदगरयणे को उपलके तए णं सुबकी अमच्चे जियसत्त रायं एवं स्स रहो सत्ताणं तच्चाणं तहियाणं अस्तिहाणं संन्याणं वयामी एस णं सामी सफरिहोदए तए णं से जियसत्तू राया जिण पणत्ताणं नावाणं अनिगमणहयाए एयमढे उवायणा सुबुछी अमचं एवं वयामी केणं कारणेणं । मृबुच्ची श्रमच्चे घेत्तए एवं संपेहे संपेहइत्ता विपत्तिएहिं परिमेहिं मफि एस फरिहोदए तएणं सुबुखी अमञ्चे जियसत्तू रायं एवं अंतरावणाओवधमए गिएहइरत्तासंमाकान्नसमयसि पत्रि बयासी एवं खलु सामी तुम्हे तझ्या मम एवमाइक्खमाणस्स रलमणससि णिसंत पमिणिमत्तासि जणेव फरिहोदए तोगव ४ एयमई को सहह तए णं मम इमेयारूवे अज्काथिए चिंत्तिउवागच्च उवागच्चदत्ता तं फरिहोदगं गिएहावेइ णवएसु एपस्थिए मणोगए संकप्पे समुपन्जित्था । अहोणं जियसत्त पडएमु पक्खिवावे. त्ता सज्जक्खारं पक्खिवावे लंदिया। राया संते जाव जावे णो मदहा णो पत्तिय णो रोयत्ति मुदिए कारावे सत्तरत्तं परिवसावेइ दोच्चाप एवएसु | तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्म रमो संताणं जाव संज्याणं पमएस गामावेइ २ ता एवएस धमएस पक्क्यिावेइ श्त्ता जिणपरमत्ताणं जावाणं अनिगमणट्टयाए एयमहूं उबायणासज्जक्खारं पाक्खिवावश्त्ता लंजिय मुद्दिय कारावे सत्तरत्तं वेत्तर एवं संपेहेश ३ त्ता एवं चेव जाव पाणियधरियं पुरिसं परिनामावेइ २ ता तवंपि णवएसु घमएसु जाव संवसावे । सहावेश ३त्ता एवं वयासी तुमं णं देवाणुप्पिया उदगरयणं इत्ता एवं खसु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंत- | जियसत्तस्स रमोजोयगवेलाए नवहितं एएणं कारणेणं Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदगणाय अन्निधानराजेन्द्रः। उदगमाल सामी एस से फरिहोदए तएणं जियसत्तू राया सुबुधिस्स एवं जं णवर देवाणप्पिया सुबुद्धिं अमचं आमंतमि जेअमञ्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमढे णो सदहइश्ता पुत्तं रज्जे ग्वेमि तएणं तुम्ने णं जाव पव्वयामि अहाअसहहमायो ३ अम्भितरहाणिजे पुरिसे सहावे ५ त्ता मुहं देवाणुप्पिया मा पम्बिंध करेह । तए णं जियसत्तू एवं बयासी गच्छह णं तुम्ने देवाणुप्पिया अंतरावरणाओ राया जेणेव सए गिहे सुबुकिं अमचं सहावा एवं वयासी णवघकए गिएहह जावजदगसंजारणिज्जेहिं दब्वेहिं संभारे एवं खलु मए थेराणं जाव पव्वयामि तुमं णं किं करेसि ह। ते वितहेव संजारेइ जियसत्तुस्स रएणो नवणेश्तएणं तए णं सुबुद्धी अमञ्चे जियसत्तृ रायं एवं बयासी जाव केजियसत्तू राया तं उदगरयणं करयांसि आसाएइ अासाय अहो आहारे वा जाव पञ्चयामि तं जइ णं देवाणप्पिया णिज्जं जाव सबिदियगायपम्हायाणिज्ज जाणिचा मुबुकिं जाव पवाहि गच्च एं देवाणाप्पया जेट्टपुत्तं कुठंचे गवर्हि अमचं सदावेइश्चा एवं बयासी सुबुकिं एएणं तुमे संता सहस्सपुरिसवाहिणी सीयं दुरुहिताणं मप अंतिए सीयातत्थ जाव संजूया जावा को उबमका तएणं मुबुक्की श्रो जाव पाउन्नवह तएणं से सुबुद्धी अमचे सीया जाव पाउअमचं जियसत्त राय एवं बयासी एएणं सामी मए संता गजव । तए णं जियसत्तू राया कोमुबियपुरिसे सहावेश ५ जाव जावा जिणवयणाश्रो उपलका तएण जियसत्तू राया त्ता एवं बयासी गच्छहणं तुब्ने देवाणुप्पिया प्रदिप्मसत्तुस्स सुबुकिं अमचं एवं क्यासी इच्छामिणं देवाणप्पियाणं कुमारस्स रायालिसेयं उवट्ठवेह । तहेव कोसुंबियपुरिसा तव अंतिए जिणवयर्ण णिमामित्तए । तएणं सुबुकी अमचे अनिसिंच जाव जियसत्तू राया पन्चए । तए एं जियजियसत्तस्स रमो विचित्तं केवसिपएणचं चउज्जामं धर्म सत्त रायरिसी एकारमअंगाई अहिज्जित्ता बहणि वासापरिकहेइ तमाइक्खेति जहा जीवा बुऊति जाव पंच अणु णि परियाय पाउणित्ता मासियाए संलहणाए सिके । तएबयाणि । तएण जियसतू राया सुबुफिस्स अमच्चस्स अं णं सुबुकी एक्कारसअंगाई अहिन्जित्ता बहाण वासाणि तिए धम्मं सोचा णिसम्म हड्तुढे सुबुकिं अमच एवं वयासी जाव सिके एवं खलु जंबू समणेणं जगवया महावीरेणं सबहामिणं देवाणुपिया णिग्गंथं पावयणं ३ जाव से जडे जाव संपत्तेणं बारसमस्स णायज्जयणस्स अयमढे पापत्ते यं तुम्जे वयह तं इच्छामिणं तव अंतियं पंचागुम्बइयं सत्त त्तिवेमि । "मिच्चत्तमोहिमणा-पावपसत्ता वि पाणिणो विसिक्खावइयं जाव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए अहासुहं गुणा । फरिहोदगं च गुणणो, हति बरगुरुपसायाओ?" देवाणप्पिया मा पमिबंध करेह । तएणं जियसत्तू राया सुबु वारसमं पायज्झयणं सम्मत्तं १२॥ ज्ञा। किस्स श्रमच्चस्स अंतिए पंचाणब्वइयं जाव दुवालसविहं नदगता-नुदकता-स्त्री० अकायरूपतायाम, “णो बहवे उदगगिहिधम्म पडिवज्जइ । तएणं जियसत्तू राया समणोबासए जोखिया जीवा य पोम्गमा य उदगता य बक्कमंति" स्था०३गा जाए अनिगयजीवाजीचे जाव पमिलालेमाणे विहरातेणं उदगदोणि-नदकोणि-स्त्री० जनभाजने, यत्र तप्तमोहं शीतकामेणं तेणं समएणं थेरा जेणेव चंपाणयरी जेणेव-पुष्पजद्दे बीकरणायाक्तिप्यते, “उदगदोणी पिब्वतिए" न० १६ ।। चेइए तेणेव समवस जियसत्तू राया मुबुधियणिग्गए मु- १००।दश “फसिहगासणा वाणमझं गदगदोणिणं" उदक बोण्योऽरहरजमधारिका इति । दश०७ अ०॥ बुकी धम्मं सोचा जं एवरं देवाप्पिया जियसत्तू रायं आपुच्चामि जाव पव्ययामि अहासुहं देवाणप्पिा मा उदगपरिणय-नदकपरिणत-वि० उदकदायकावस्थां प्राप्ते,स्था० ३ग० ३०॥ पटिबंध करेह तए णं से सुबुद्धी अमचे जेणेब जियसत्तू उदगपस्य-नुदकमसूत-त्रि० जझोत्पन्ने कन्दादौ, “उदगपसूयाराया तेणेव नवागच्छता एवं वयासी एवं खलु सामी णि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा" आचा०२ ६०१०॥ मए थेराणं अंतिए धम्मे णिसम्मे सेवियधम्मे इच्छिए पाम- उदगपोग्गन-उदकपोऊन-न० उदकप्रधानं पौरलं पुससमूहे चिए तए एं अहं सामी संसारलओबिग्गे जीए जाव मेघे, “तत्थ समुद्वियं उदगपोग्गलं परिणयं वा सिउकामं अन्न इच्छामि णं तुन्नहिं अन्जणुमाए समाणे जाव पञ्चश्त्तए । देसं साहति" स्था०३ ग०३१०॥ तएणं जियसत्तू राया सुबुकिं अमचं एवं बयासी इच्छामि उदगमच्च-नदकमत्स्य-पुं० इन्द्रधनुःखएमे, 'एष चाशुभसूचक ताव देवाणुप्पिया कई वयाई बासाई उरामाई जाव मुंजमा- उत्पातविशेषः, भ० ३ श०६ १०॥ अनु०॥ णा तो पच्चाए गयाओ थेराणं अंतिए मुझे जवित्ता नदगमाल-पुं० उदकमामा-स्त्री०६त. उदकशिखायाम, वेता याम, स्था० १० ग०॥ जाव पव्वइस्सामो । तए णं सुबुछीणाम अमच्चे जियसत्तु- | लवणस्सणं समुदस्स केमहाझए उदगमान्ने पत्ते ? गोयस्स रमो एयमढे पडिसुणेइ तएणं तस्स जियसत्तुस्स रप्लो मा! दसजोयणसहस्साई उदगमाले पामते ॥ सुबुधिणा सफि विपुझाई माणुस्सगाई जोगभागाई जाव जदन्त ! लवणस्य समुहस्य किंप्रमाणा महत्या उदक्रमाला पञ्चम्भवमाणस्स दुवालसवासाइ वीपकंताई । तेणं का समपानीयोपरिजूता बोमशयोजनसहस्रोच्या प्रकप्ता ? भगवालेणं तेणं समएणं थेरागमणं जियसत्तू राया धम्मं सोचा। नाडगौतम!दशयोजनसहस्राणि उदकमामा प्रकप्ता ।जी०३ प्रति Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०२) उदगरयाण अभिधानराजेन्धः। उदय उदगरयण-उदकरत्न-म० उदकमेव रवमुदकरकम । उदक- ६० उत्पत्ती,-विशे। ज्योतिषोक्त राशेरुखयरूपे समे। प्राजाती, उत्कृष्टे, "अम्मेहिं श्मस्स वम्मियस्स पढमाए यम्मापभि- धारे अन् । “यैर्यत्र दृश्यते नाखान् स तेषामुदयःस्मृतः" इत्युक्तमाए नवे उदगरयणे अस्सादिए" ज०१५ श० १०॥ सवणे वेदृष्टियोग्यस्थाने, उदयाचले, पूर्वपर्वते, पाच । कउदगरस-उदकरस-पुं० जसरसे, तओ समुदापगईए उदगरसे मपुतलानां यथास्थितिबकानामबाधाकालवयेणापवर्तनविशेषतो पां पश्यत्ता तंजहाकारोदे, पुक्खरांदे,सर्यनूरमणे, स्था०३०१ था उदयप्रास्वनामनुजवने, विपाकवेदन, क. प्र० । कर्म० । "अप्पेगश्याउ उदगरसे णं पसत्ता" ०१ वक॥ दश प्रव० । दयावलिकाप्रविष्टानां कर्मपुद्रमामामुद्भूतसउदग (दग) लेव-उदकोप-पुं० नावि प्रमाणजलाधगाहने, मर्थतायाम, मा० म०प्र०विपाके,-दश०१। "अंतो मासस्स तओ वयमेवे करेमाणे सवलो" स० । दशा। (१) प्रकृत्युदयः तत्र मानात्वं च। जससेपे, “बहु परियाव पाणीसु उदगोवे तहप्पगारे असणं (२) जघन्योत्कृष्ठस्थित्युदयः। जाव पमिगाडेजा" आचा०२९०१ अ० ११०। (३) अनुनागोदयः। (४) प्रदेशोदयनिरूपणावसरे साधनादिप्ररूपणास्वामित्वं । उदगवात्य-उदकास्ति-स्त्री जलभृदूरतो, जलाधारचर्ममयभाज (५) कस्मिन्गुणस्थाने कियस्या प्रकृतयो जगवतः वीणाः। ने, “उदगवत्थि परामुसा ज्ञा० १८ । (६) उदयहेतुः। उदगवद्दालय--उदकवादलक-न० भाविरेणुसंतापोपशान्तये ज (१) सतम्यता वैवं तत्र प्रकृत्युदयो यथासवर्षके वादेनके, प्रा०म० द्वि। जदओ उदीरणाए, तुरो मोत्तूण एकचत्तासं। उदगविंदु-उदकविन्दु-पुं० जनसवे, पंचा०४ विव०।। उदगवेग-उदकवेग-पुं० उदकरये “तिक्खम्मि उदगवेगे विसमम्मि प्रावरणविग्घमंजलण-सोनवेए य दिहिगं ॥३०॥ विज्जमम्मि वच्चंतो" व्य०प्र०१०। आलिगमहिगं वेएति, आजग्गणं :अप्पमत्तावि ॥ नदगसंजाराणिज्ज-उदकसंजारणीय-न० बालकमुस्तादी, सद वेयणियाणि मुयसमय-तणुपज्जत्ता दावनिदाउ ।३नए। कवासादो, “हतुझे बहुर्हि उदगसंन्नारणिज्जेहिं, का० १३० मणुयगइजाइतसबा-परं च पज्जत्तसुभगमापज्जं ॥ गदगसत्य-उदकशस्त्र-न० उदकं शत्रमुदकमेव शस्त्रम । अका जसकित्तिमुच्चगोतं-पंचाजोगिकेइ तित्थयरं ॥३०॥ यारकके स्वकायपरकायशस्ने, आचा०१ श्रु० १ ० ३ ०। चदय उदीरणायाः तुल्यः किमुक्तं जवति उदारणायाः प्रकृत्याउदगसिहा-उदकशिखा-स्त्री वेलायाम, स्या० १० ग०। दयः प्रागुक्ता या च साद्यनादिप्ररूपणा यश्च स्वामित्वमेतत् सर्वउदग (दग) सीमय-उदक (दक) सीम-पुं० उदक (दक) मन्यूनातिरिक्तमुदयेऽपि कष्टव्यम् । उदयोदीरणयोः सहनावि त्वात् । तथाहि यत्र सदयंस्तत्रोदीरणा यत्र उदीरणा तत्रोदयः स्य शीताशीतोदपानीयस्य सीमा यत्रासौ उदक (दक) सीमः किं सर्वत्राप्येवमिति चेत् उच्यते । अत आह ।मुक्त्वा एकचत्वामनशिबाकस्य बेबन्धरनागराजस्यावासपर्वते, जी०३ प्रति. रिंशत् प्रकृतीनामासामुदीरणामन्तरेणापि कियत् कासमुदयस्य (तक्तव्यता वेझन्धरशन्देवदयते) प्राप्यमाणत्वात् । तथाहि ज्ञानावरणपञ्चकं दर्शनावरचतुष्टयान्तरउदग(दग)हारा-उदकधारा-स्त्री उदकविन्प्रवाहे,का०६अ। पञ्चकसंज्वलनलोभवेदत्रयसम्यक्त्वसमग्रमिथ्यात्वरूपा विउदगुप्पीना-उदकोत्पीला-स्त्री० तमागादिषु जनसमूहे,॥भ०॥ शतिः प्रकृतीः स्वस्वोदयपर्यवसाने आवलिकामा कालमधिक३ श०६०॥ त्य वेदयन्ति । उदीरणामन्तरेणापि केवोनोदयमाघलिकामानं उदग्ग-मदन-त्रि० उतमग्रं यस्य । उन्मत्त, स्था०४ ग. ॥ कासमनुन्नवन्तीत्यर्थः॥ तचावलिकामानं त्रयाणां वेदानां मिथ्या त्वस्य चान्तरकरणस्य प्रथमस्थिती प्रावनिकाशेषायाम् शेषाणां उन्नतपर्यवसाने, न. २०१०। उत्त । उत्कटे, उत्त०१४ स्वस्वसत्तापर्यवसाने । तथा चतुर्णामप्यायुषां स्वस्थपर्यवसाने अ० । प्रधाने, “जहा से तिक्ख दामे, उदम्गे दुप्प हंसप" सीहे. आवत्रिकामा कासमुदय एव नवतीति नोदीरणा मनुष्यायुर्वेदमियाण पवरे एवं हवा बहुस्सुए" उत्त०१३ अ. नीययोर्वा प्रमत्ताप्रमत्तसंयतप्रभृतय उदीरणामन्तरेणापि केवलेउदग्गचारित्ततव नदग्रचारित्रतपस पु०स्त्री० उदग्रं प्रधानं सा नैवोदयेन बेदयन्ते न तथा तनुपर्याप्ताः शरीरपर्याप्या पर्याप्ताः ध्वाचार सर्वविरतिकणं दविधरूपं चारित्रतपो द्वादशविधं सन्तो द्वितीयस्य समयादारज्य शरीरपर्याप्त्यनन्तरसमयादारयस्य स उदग्रचारित्रतपाः । प्रधानचारित्रतपस्के, “चित्तो वि ज्य इन्डियपर्याप्तिचरमसमयं यावत् उदीरणामन्तरेणापि केवकाहिं विरत्तकामो, उदम्गचारित्ततवो महेसी, उत्त०१३अ०॥ लेनेवोदयेन निकाः पञ्चापिवेदयन्ते । तथा मनुष्यगतिपश्चोन्यउदत्त-उदात्त-पुं० उद्- प्रा. दा० क्त. वर्मोत्पत्तिस्थानेषु उच- जातित्रसबादरपर्याप्तसुजगादेययशःकीयुबैर्गोत्ररूपा नवप्रकृतिरुचारिते स्वर, तद्युक्ते, त्रिका "अविकत्यनकमावा-नतिगम्भीरो योगिकेवलिन उदीरणामन्तरेण स्वकालं यावत् केवलिनिनवादमहाबलः । स्येयान् निगृढमानो, धीरोदात्तो दृढव्रतः कथितः" येन वेदयन्ते । तथा तनुपर्याप्ताः शरीरपर्याप्तापर्याप्ताः सन्तो द्विसा.द. उक्त(पूर्वपदसोपेन)नायकभेदे, वाचकतरिक्तः । उदारे तीयस्य समयादारज्य शरीरपर्याप्त्यनन्तरसमयादारज्य शन्छिअयं निजः परो वेति, गणना बघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु यपर्याप्तिचरमसमयं यावत् उदीरणामन्तरेणापि । क० प्र०। वसुधैव कुटुम्बकम् ' ॥ षो० १४ विवृ । महति, समर्थे, दातरि, होइ अणाश्तो , अणिसंतो धुवोदयाणुदओ । चत्रिकानावे क्त, दाने, वाद्यन्नेदे, असगरजेदे च । वाच । साइसपज्जवसाणो, अधुवाणं तदयमिच्चस्स ॥ जदत्तान-उदात्तान-पुं० गौतमगोत्रविशेषनृते पुरुष, तत्प्रव- श्वक प्रकृतयो विधा तद्यथा ध्रुवोदया अध्रुवोदयाश्च। तत्र कर्मप्रतिते गोत्र, तत्र जाते च । “ ते उदात्ताना" स्था० ७ ग०। कृतिका उदयचिन्तायामप्यष्टपञ्चायशादधिकं प्रकृतीनां शतं मउदय-उदय-पुं० उदू.. अच्. प्रादुनोवे, आचा०१०१० । न्यते मत कार्य वा करणाष्टकपरिसमाप्तेः कम्मेप्रकृतितिः प्रायोव Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०३ ) अभिधानराजेन्धः । उदय श्यते। ततो दयाः प्रकृतयोऽष्टचत्वारिंशत्संख्या स्तद्यथा ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं दर्शनावरणचतुष्टयं मिथ्यात्वं वर्णादिविंशतिस्तजसका एसमकस्थिरा स्थिरेषु गुनाशुभे गुरुलघुनिर्माणमिति । एतासामष्टचत्वारिंशत्संख्याकानां प्रकृतीनामुदयो विधा । तद्यथा अनाद्यनन्तः अनादिसपर्यवसा नस्तत्र अभव्याश्रितानां च ततः कदाचिदपि व्यवच्छेदासंजवात् नव्यानधिकृत्यानादिखपर्यवसानः तेषां मोकं प्रतिस्थितानामयश्यमुयव्यवच्छेदसंजवात् प्रभुवाणामधुवोदयानां प्रकृतीनामु व्यतिरिकन विशोत्तरशतसंख्यानामुद यसादिपर्यवसान अ २ तासामुदयावाद न केवलमवोदयमामुदयः खादिपर्यवसानः किन्तु मिध्यात्वस्य च । तथादिसम्यक्त्वात्प्रतिपतितमधिकृत्य मिध्यात्वस्यादयः सादिः पुनरपि सम्यकत्वकल्पान्यवच्छेदादयः । तदेवं मिध्यात्वस्यादयि विदितस्तद्यथा-अनाद्यनन्तानादिसानः पती च 1 विभङ्गीत्यायेन गृहीती व वस्तुसाद पर्यवसान कृष्णस्तद्यमिच्छ सेस्स्यननावययन इति पकविमाइया जेया, पुव्युत्ता इहावि क्मेिया । उदीरणदयार्ण, जह नावाचं त पोच्छे | -किस पूर्वविधौ प्रकृतिस्थित्यादयो भेदा उक्तास्तद्यथा प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धोऽनुनागबन्धः प्रदेशबन्ध । तथा इहाप्युदयाधिकारे क्रेयास्तद्यथा प्रकृत्युदयः स्थित्युदयोऽनुभागोदयः प्रदेशोदयध । तमाचार्यः स्वयमेवात्रे समपम्चमुदीर याकरणं वयति उदयोदीरणयोश्च प्रायः स्वामित्वं प्रत्यविशेषः सद्भावात् तथादि यत्रोदयस्तत्रोरणा पत्रोदीरणा तयः। ततो यथा महत्वादयो मेदाधिकारे पहले स्वामित्वं प्ररूपणादिकं तदेतत्सर्वमन्यमानविकम त्रापि भावनीयम् । यत्पुनर्नानात्वं तदनिधित्सुराह (उदीरणेत्यादि) त्यादिमेव विषये यतो न तमुदीरणाषयमिति भावः । तत्र प्रकृतिभेद विषये नानात्वं दिदर्शयिषुर्गाधाद्वितयमाह । चरिमोदयपुव्वाणं, जो गिकालं उदीरणा विरहे । देसूर्ण पुत्रको मनुयागचेपणीवाणं ॥ तयश्चिय पज्जती, जाता निदाणहोइ य च एदं । उदओ प्रतेि, तेवीसाए उसे साणं ॥ परमोदानां चरमे अयोगिकेयरिमसमये उदयो वासां नामप्रकृतीनां ताधरमोदयास्तामा न राचया मनुष्यगतिपश्येन्द्रिय जनित्रनामवादनामपर्याप्तनामसु भगनामादेययशः कीर्तिनामतीकृतां च भगवतामयोगिकेवलिनां तीर्थनाम च । एतासां नवानां प्रकृतीनामुचैर्गोत्रस्य च अयोगिकालस्तावत् कालः यावत् उदीरणाचिरहेऽपि सदीरणाया भङ्गा नेज्युदय एव केचलते तथा मनुष्यायुः सात वेदनीयमसातवेदनीयं चेत्येवंरूपाणां तिसृणां प्रकृतीनां प्रमत्तसंयतगुणस्थानकात्परतः शेषेषु गुणस्थानकेषु वर्तमानानामुत्को देशानां पूर्वकोठी पावत् उदीरणामन्तरेण केवल उदयो जवति । स चोत्कर्षत इयान् कालः सयोगिकेपनि गुणस्थानके द्रव्य शेषस्य गुणस्थानस्य सर्वस्याप्य न्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् । अथ कस्मात्सातासातावेदनीयमनुष्यायुषां प्रमत्त संयत गुणस्थानकात्परत उदीरणा न प्रवर्तते । उच्यते अमीषां हादरणा संक्शियवसायवतः प्रवर्तत तथा स्वायत् शिवराज्यवसायवर्तिनस्याप्रमत्तसंयतादयस्ततस्तेषां वेदनीयषिमनुष्यायुषी राया अनाथः तथा शरीरपर्याया उदय पान सतां शरीरपर्याप्त पर्याप्यनन्तरसमयादारज्य यायतृतीया पर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः परिसमाप्तिमुपैति तावत्पञ्चानाम पि निषाणां तथा स्वानाव्यात् नोदीरणा प्रवर्तते किन्तुदय एव केवस्तथा शेषाणां ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपञ्चक संज्यालो वेदश्य सम्यक्त्वमिथ्यात्वनारकायुषस्तिर्य गायुदेवायुरूपाणां प्रयोविंशतिप्रकृतनामाचारीका ततोऽम्ला मात्रिकायामुदय एव केचोदीरणा तपादि पञ्चानां ज्ञानावरणप्रकृतीनां चकुरधिदहनाचरणरूपस्य दर्शनावरणच एयस्य काययपर्याप्तायायां वर्तमान प्र विनोदय एव केवलः । यथा ज्यानस्य सुद्धा संपद्ययपर्यन्तायत्रिकायां मिध्यात्यानामन्तरकरणे कृते प्रथमास्थायामालिका त्यांनारकास्तिर्यगाय वायुषां स्वनपर्यन्तायत्रिकायामुदय पय केवलो मोदी रण आवलिकान्तर्गतस्य कर्म्मणः सर्वस्याप्युदीरणा तदत्वयात् इहमनुष्यायुष उदीरणा विरदेयुदकाः प्रागेव देशोमपूर्व कोडीप्रमाणमुक्तस्ततो मनुष्यायुषो मध्यापर्यन्तकाया मुदीरणाविरहेऽपि य उदयकाल आवलिकामात्रः स तदन्तर्गत तिम् इति पृथग्नोका पूर्वको व्यभिधाने याचिकामा तदेकदेशतया सामर्थ्यात उकमवशेष प्रकृतीनां 'तु यादवस्तावरणा यावदुदीरणा तावदय इति तदेव दर्शितः उदीरणात विशेष संभावय मायादिप्ररूप या कर्तव्या साप दिया विषया विषया तां शिवधाम चिकीर्षुराद. मोहे चहा तिरिदे, योसस चाएरमूपगईन । मिच्छत्त उदयऊहा, अधुवधुवाणं दुविहतिविहो । मोटो मोहनीयस्य कर्मण उद्यतु चतुःप्रकारस्तद्यासा दिनापि तयादि-उपशान्तगुण स्थानका प्रतिपातिनां प्रवेत्खादिस्ततस्तत्स्थानमप्राप्तस्यानादिः । धृषाभुवायनप्यनध्यापेया यशेषाणां सप्तानां प्रकृतीनामुदयास्त्रविधकारस्त नारिभुवोऽभुवा । तथाहि कानावरचदर्शनावरणारायाणामुदया की मोहान्तसमयं यावत् नीयनामगोत्रायुषा सयोगान्त समयम् । न चक्की नूयः प्रदुर्भवति ततः एतासां स नाम दियानामधुषः कृपण्यामा पोकाले तथा उद्यम्यपच्छेदनावाद भन्यानां भुवः काचिदि संभवात् । कृताकृतिषु साधादिप्ररूपणा सांप्रतमुत वितां करोति (मित्यादि) मिध्यात्वस्वपश्यतु चतुष्पकारस्यासादिरनादिव । तत्र सम्प पतितस्य भवेत् सादिस्ततस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिधुंवाधुवा भव्यभव्यापकया । तथा प्रभुवाणामधुवादयानां प्रकृतीनामुदयो द्विविधो द्विप्रकारस्तद्यथा । सादिरभ्रुवश्च । सा च सावता अपोदद्भावनीया तथा चाणं धुवोदयानां ग्रीनां प्रा कस्वरूपाणां मिथ्यात्यवायशेषसम कत्वारिंशत्यकृतीनामुत्र प्रकारस्तद्यथा श्रनादितादि धादि क्षीणमस्थानकचरमसमयः यायपुर पानाम प्रचोदयानामयोम्यं न समयस्ततस्तत्स्यानमप्राप्तानां सर्वेषामपि संसारजीवाना मुदयो ध्रुवोदयो नाम नादिध्रुवाभुवैौ प्राग्वत् । उक्तः प्रकृत्युदयः ( २ ) सम्प्रति स्थित्युदयम्बह उप्र ठिक्खणं, संपत्तीए सजावतो पढमो । Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०४ ) उदय अभिधानराजेन्द्रः । उदय सति तम्मिजाववीओ, पोगनदारणा नदो॥ (४) संम्प्रति प्रदेशोदयानिधानावसरस्तत्र चेमी अर्थाधिकारीवह सदयो विधा तद्यथा स्थितिक्कयेण प्रयोगेण वा। तत्र स्थि तद्यवा साधनादिप्ररूपणास्वामित्वं । साधनादिप्ररूपणाधिविधा। तिरबाध्यकामरूपा तस्याः कयेण श्त्यकेत्राकानभवनावरूपाणा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च । तत्र मूलप्रकृतिविषय मुदयहेतूनामप्राप्ती सत्यां यः स्वभावत उदयः स स्थितिक्कयेणे साद्यनादिप्ररूपणार्थमाह । दय उच्यते । यो पुनस्तस्मिन्नुदये प्रवर्तमाने सति प्रयोगत अजहप्माणुकोसा, चउचिहा सिएहचनधिहा मोहे । नदीरणाकरणरूपेण प्रयोगेण दलिकमाकृप्यानुभवति स द्वितीय पानस्स साइअधुवा, सेसविगप्पा य सञ्बेवि । ३३ | छदीरणोदयाभिधान उच्यते । स च नदयसामान्यतो द्विधा । मोहनीयायुर्वनां परमां कर्मणामजघन्यः प्रदेशोऽयं चतुर्विधताया- जघन्य उत्कृष्टश्च । तत्रोत्कृष्टस्थित्युदीरणउत्कृष्टस्थित्यु स्तद्यथा सादिरनादिधुवोधुवश्च । सथाहि कश्चित् कपितकर्मादयस्थित्यान्यधिकस्तथा चाह शो देवलोके देवो जातः स च तत्र संक्लिष्टो जूत्वा उत्कृष्ठां स्थिनदीरणाजोग्गाणं, अदिहिभए य जोग्गो न। ति बनन् वत्कृष्टप्रदेशाग्रमुर्तयति ततो धन्धावसाने कासं कृत्वा हस्सुदएगहिणं, निहमा सगिलाणए । एकेन्द्रियेषु उत्पन्नस्तस्य प्रथमसमये प्रागुक्तानां षामा कर्मणां उदारणायोग्यानामुत्कृष्टस्थितीनां प्रकृतीनामुदीरणायोग्येत्यः जघन्यप्रदेशोदयः । स चैकसामायिक इति कृत्वा सादिरनादिस्थितियः सदययोग्याः स्थितय एकया नदययोम्यया स्थित्या धुवश्च । ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः सोऽपि तस्य द्वितीयसमये अन्यधिका वेदितव्याः । तथा द्युत्कृष्टायां स्थितौ बध्यमानाया- जवन् सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनाविधुवावौ पूर्ववत् । मषधिकालेऽपियावहासिक प्ररूपयति तथा बन्धावलिकायामती- तथा तेषामेध घमां कर्मणामनुत्कृष्टः प्रदेशोदयविधा त्रिप्रकारसायामनन्तरस्थितौ विपाकोदयेन वर्तमान उदयावसिकान्त उप स्तद्यथा अनादि बोधवश्व । तथाहि अमीषां षमा कर्मणामनुरिवर्तिनीः सर्वा अपि स्थितीरुदीरयति सदीर्य च वेदयते ततो स्कृष्टः प्रदेशोदयःप्रागुक्तस्वरूपस्य गुणितकौशस्य स्वस्वोदयाबन्धावक्षिकाहीनयोः शेषयोः सर्वस्या अपि स्थितेरुदयोदीरणे न्तगुणश्रेणिविवर्तमानस्य प्राप्यते सचकं सामायिक शति कृत्वा तुव्ये वेद्यमानायां च स्थिती नदीरणा न प्रवर्तते किन्तूदय पव सादिर,वश्च । ततोऽन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः स चानादिः सदैव केवलस्ततो वेद्यमानायां समयमात्रस्थितिज्योऽधिका उत्कृष्टस्थित्युदीरणा । तत उत्कृष्टस्थित्युदयावन्धावाझिकोदयावलिकादीना भावात् । भुवावौ पूर्ववत्। तथा मोहे मोहनीये अजघन्योत्कृष्टश्च श्वानुत्कृष्टस्थित्युदय बदयोत्कृष्टप्रधानप्रकृतीःघेदितव्याः। शेषा- प्रदेशोदयश्चतुर्विधस्तद्यथा सादिरनादिधुवोधवश्च । तथाहिणां तु यथायोगं तत्राप्युक्तनीत्या उदयस्थित्याऽज्यधिकोऽवग- क्वपितकोशस्यान्तरकरणे कृते अन्तरकरणे पर्यंन्तनाविगोपुच्चाम्तव्यः । संप्रति जघन्यस्थित्युदये विशेषमाह । (हस्सुदपश्त्यादि) कारसंस्थितावनिकामात्रदायकान्तसमये मोहनीयस्य जघन्यप्रागुक्तानां मनुष्यगतिपञ्चेन्जियजातित्रसपादरपर्याप्तसुनगादेय- प्रदेशोदयः । स चैकसामायिक इति कृत्वा सादिरधुवश्च । ततोयशःकीर्तितीर्थकरनामोच्चात्रायुश्चतुष्टयसातासातवेदनीयनि ऽन्यः सर्वोऽयजघन्यः सोऽपि ततो द्वितीयसमये नवन् सादिः कापश्वकज्ञानावरणपश्चकान्तरायपश्चकदर्शनावरणचतुष्टयसंज्वमनसोनवेदत्रयसम्यक्त्वमिथ्यात्वरूपाणामेकचत्वारिंशत्संख्याका तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादि ध्रुवावा पूर्ववत् । तया गुणितनां प्रकृतीनां निघापञ्चकोनानां सतीनां पत्रिंशत्संख्यानां हस्खो कर्माशस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकान्तसमये उत्कृष्टप्रदेशोदयः। स जघन्यः स्थित्युदय एकस्थितिरवसेया। निकायां पुनरेकैकस्थिती. चैकसामायिक ति कृत्वा सादिरभुवश्चततोऽन्यःसर्वोऽप्यनुत्कृष्टः नां समये वेदितव्यः। किमुक्तं भवति । उक्तरूपाणां षट्त्रिंशत्प्रक- स चोपशमश्रेणीतः प्रतिपतितो भवन् सादिस्तत्स्यानमप्राप्तस्य तीनां जघन्यः स्थित्युदयः समयमात्रैकस्थित्युदयप्रमाणे वेदित पुनरनावि वाधुवी पूर्ववत् । आयुषि चत्वारोप नेदा उत्कृणा म्य इति । समयमात्रा चैका स्थितिश्चरमा स्थितिरवसेया। निद्रा जघन्यरूपाः साधुवाः। चतुर्मामपि भेदानां यथायोगं नियतकापश्चकस्य हघुदीरणाया अभावेऽपि शरीरपर्याप्यनन्तरं विपाकोदयकाले अपवर्तनाऽपि प्रवर्तते । तत एका स्थितिर्न प्राप्यते शति । सं भावात् । तथा सर्वेषां कर्मणां प्रागुक्तानां षामां मोहनीयस्य तर्जनशेषं तु सर्वमपि साधादिप्ररूपणादिकं स्थित्युदीरणाया. उक्तशषौ विकल्पी उत्कृष्टजघन्यरूपी साद्यधुवौ तौ च प्रागव मेव निरवशेषमवगन्तव्यम् । उक्तः स्थित्युदयः॥ नावितौ कृता मूबप्रकृतीनां साधनादिप्ररूपणा । (३) सम्प्रत्यनुभागोदयमाह । संप्रत्युत्तरप्रकृतीनां चिकीर्षुराह । प्राणुजागुदओ वि उदीरणा-ए तुझो जहम्मए नवरं । अजहमाणुकोसो, सगयाझा एगचउतिहा चउहा। श्रावलिगतेन सम्म-तं वेयखीणंतझोनाणं ।। मिच्छत्ते सेसाणं, सुविहा सव्वे य सेसाणं । ३ए। अनुनागादयोऽप्युदीराणायास्तुल्यो यथानुजागोदारणा सप्रप- तेजससप्तकवर्णादिविंशतिस्थिरास्थिरनिर्माणागुरुघुशुनागु-- श्वमत्र वदयते तथाऽनुन्नागीदयोऽपि वक्तव्य इति भावः । किं भकानावरणपश्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयरूपाणां सप्तसर्वथा साम्यमिति चेदत आह । नघरमयं विशेषोऽजघन्यमनु चत्वारिंशत्प्रकृतीनामजघन्यप्रदेशोदयश्चतुर्विधस्तद्यथा सादिरनानागोवयं सम्यक्त्ववेदानां कीणन्तानां वीणमोहगुणस्थानक दिभ्रवोऽध्रवश्च । तथाहि-कपितकाशी देव उत्कृष्ट संके.शे वर्तमान पर्यवसामानां ज्ञानावरणपश्चकान्तरायदर्शनावरणचतुष्टयरूपाणां उत्कृष्ट स्थिति बन्नन् उत्कृष्टप्रदेशमुर्तयति । ततो बन्धावसाने चतुर्दशानां प्रकृतीनां संज्वलनलोभस्य च श्रावनिकान्ते जानी कासं कृत्वा एकेन्द्रियेषत्पद्यते तस्य प्रथमसभये प्रागुक्तानां सप्तयात्।श्यमंत्र भावना ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरण चत्वारिंशत्प्रकृतीनां जघन्यप्रदेशोदयः। नवरमाधिकृत्य ज्ञानावरचतुएयवेदत्रयसंज्वलनसोजसम्यक्त्वरूपाणामेकोनविंशतिप्रकृतीनां स्वस्थपर्यवसानसमये उदीरणाया व्यवच्छेदे सति परत आ णावधिदर्शनावरणयोर्षन्धावविकाचरमसमये देवस्य जघन्यप्रपग्निकां गत्वा आवत्रिकाचरमसमये जघन्यानुनागोदयस्य प्राप्य देशोदये बेदितव्यः । संचकसामायिक प्रति कृत्वा सादिरभवश्व माणत्वादिति । तदेवमुक्तोऽनुनागोदयः । पं० सं०। । ततोऽन्य : सर्वोऽप्यजघन्यः । सच द्वितीयसमये नवन् सादिः। Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०५) उदय अभिधानराजेन्दः । उदय तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । प्रवाध्वी पूर्ववत । तया अमूषा- संख्येयगुणदनिका गुणश्रेणिः विशुरुत्वात् ततोऽपि सर्वविरतस्य मेव सप्तचत्वारिंशत् प्रकृतीनामुत्कृष्टः प्रदेशोदयः। स चैकसामा- गुणश्रेणिरसंख्येयगुणदक्षिका तस्यातिविशुरुत्वात् । एवमुत्सरोयिकइति कृत्वासादिरश्रयश्चततोऽन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः साना तरविशुरूप्रकर्षवशात् यथोक्तमसंख्येयगुणदसिका भावनीया ॥ दिःसदैव नावाता-वाध्रवी पूर्ववत् । तथा मिथ्यात्वे मिथ्यात्वस्य संप्रति का गुणश्रेणिः कस्यां गतौप्राप्यते इत्येतन्निरूपणार्थमाह। जघन्योऽनुत्कृष्टश्च प्रदेशोदयश्चतुर्विधःतद्यथा सादिरनादिर्धवोऽध्रु तिनविमपढममनिओ, मिच्चत्तगए वि होज अननवे ।। वश्व तयाहि-कपितकोशस्य प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयतः कृतान्त- पगयं तु गुणियकम्मे, गुण सेढी सीसगाणुदये ॥३७॥ रकरणस्य प्रौपशमिकस्य सम्यक्त्वात्प्रच्युतस्य मिथ्यात्वं गतस्या- आणस्तिस्रो गुणश्रेणयः सम्यक्त्वोत्पाददेशाविरतिसर्वविरातिन्तरकरणपर्यन्तभाविगोपुच्चाकारसंस्थितावसिकामात्रशिकान्त निमित्ता कटित्येव मिथ्यात्वं गतस्य अप्रशस्तेन चरममरण समये वर्तमानस्य जघन्यतः प्रदेशोदयः स चैकसामायिक इति फटिन्येव मृतस्य अन्यभवे नारकादिरूपपराभवे किश्चित्कालमुदकृत्या सादिर,वश्व ततोन्यः सर्वोप्यजघन्यः सोवि द्वितीयसम- यमाश्रित्य प्राप्यन्ते शेषास्तु गुणश्रेणयः परभवनारकादिरूपे न ये नयन सादिः वेदकसम्यक्त्वाता प्रतिपतितः सादिः तत्स्थान- प्राप्यन्ते नारकादिभवो हि अप्रशस्ते मरणे न प्राप्यतेन व शेषासु मप्राप्तस्य पुनरनादिःध्रवाधवौ पूर्ववत् । तथा कश्चिद्गुणितकर्मीशो गुणश्रेणिषु सतीग्यप्रशस्तमरणसंनवः किन्तु कोणास्वेव । तथा यदा देशविरतिगुणगया वर्तमानःसर्वविर्ति प्रतिपद्यते ततस्त- चोक्तम् । "ऊत्तिगुणाम्रो पहिए, मिच्छत्तगयाम्म आश्मा तिन्नि । निमित्त गुणश्रेणिं करोतीति कृत्वा च तावतो यावत् द्वयो- बन्नति न संसा सामो, होणासु असुनमरणं" तथा प्रकृतमत्र गंगभेण्योर्मस्तके तदानी च कश्चिन्मिथ्यात्वं गच्छति । ततस्त- उत्कृष्टप्रदेशोदयस्वामित्वे गुणितकाशेन गुणश्रेणिशिरसामुस्य मिथ्यात्वस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयासचैकसामायिक इति कृत्वासा दये वर्तमानेन । दिराभवश्चततोऽन्यःसर्वोऽप्यनुत्कृष्टः सोऽपिततोद्वितीयसमये नव आवरणविग्यमोहाणं, जिणोदश्याण वा वि नियगंते । सादिः वेदकसम्यक्त्वाद्वा प्रतिपतति सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः धवाध्रुवी पूर्ववत् । एतासांच सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनां लदुखवणाए ओहीण-णो हि सकिस्स उक्कस्म ।३। मिथ्यात्वस्य च उक्तशेषौ विकल्पी जघन्योत्कृष्टरूपी द्विधा द्विप्र-- आवरणं पञ्चप्रकारं ज्ञानावरणं चतुःप्रकारं दर्शनावरण कारौ तद्यया सादी अधूवातौ चमवितावव शेषाणामध्रवोदयानां (विग्घत्ति) पश्चप्रकारमन्तरायमेतासां चतुर्दशप्रकृतीनां लघुप्रकृतीनां दशोत्तरशतसख्यानां सर्वेऽपि विकल्पा जघन्याजघन्यो कपणायां शीघ्रकपणायामर्थमन्युद्यतस्य । विविधा हि कपणा स्कृषानुत्कृष्टरूपा विधा ज्ञातव्याः तद्यथा सादयोऽधवाश्च सा च लघुकपणा चिरकपनाचतत्र योऽष्टवार्षिक पव सप्तमासान्यसायनवता च अभ्रवोदयत्वादवसेया कृता साधनादिप्ररूपणा । धिकं संयम प्रतिपन्नस्तत्प्रतिपत्त्यनन्तरं चान्तर्मुहूर्तेन वपकणिसम्प्रति स्वामित्वमप्यजिधानीयं तच द्विधा उत्कृष्टप्रदेशोदय मारजते तस्य या कपणा सा सघुकपणा । यत्तु प्रजूतेन कान संयम प्रतिपद्यते संयमप्रतिपत्तिरप्यूर्व प्रभूतेन कासेन पकस्वामित्वं जघन्यप्रदेशोदयस्वामित्वं च । तत्रोत्कृएप्रदेशोदयस्वा गुणधेणिमारजते तस्य या कपणा सा चिरकपणा तया च प्रनूमित्वप्रतिपादनार्थ संनवतीति गुणश्रेणिः सर्वा अपि प्ररूपयति ॥ ताः पुमलाः परिसटान्त स्तोका एव च शेषीजवन्ति ततोन तया सम्पत्तप्पासावि य, विरए संजोयणाविणास य । उत्कृष्टः प्रदेशोदयो सन्यते । उक्तं लघुकपणया अन्युस्थितस्येति दसणमोहक्खवगे, कसायो सामगुवसंते ।। ३५ ॥ तस्या गणितकौशस्य क्वीणमोहगणस्थानकं चरमसमये गणखबगेय खीणमोहे, जिणे य सुविहे असंखुगुणसेढी । श्रेनिशिरसि वर्तमानस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयो भवति नवरम् । (प्रो. हीणणाहिलफिस्सति) अयभ्यो ऽवधिज्ञानमुत्पादयतो बहवः तदो तबिवरीओ, कालो संखेजगुणसेढी ॥३५६ ॥ पुशलाः परिकीयन्त ततो नावधियुक्तस्योत्कृष्टप्रदेशोदयव्यमान इह एकादशगुणश्रेणयः तद्यथा सम्यक्त्वोत्पादे प्रथमा,हितीया इत्यनवधिसब्धियुक्तस्येत्युक्तम् । तथा मोहानां मोहनीयानां प्रकृश्रावके देशविरततृतीया विरते सर्वविरते,प्रमत्ते चतुर्थी,संयोजना तीनां सम्यक्त्यसंज्वलनचतुष्टयवेदनयाख्यातमष्टानां गुणितकमीनामनन्तानुबन्धना विसंयोजने पञ्चमी, दर्शनमोहनीयतृतीयकप शस्य कपकस्य स्वस्वोदयचरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशोदयः। तथा षष्ठी, चारित्रमोहनीयोपशमके सप्तमी, उपशान्तमोहनीये अg जिने केवनिनि उदयो यासां ता जिनोदयकास्तासां मध्ये औदा. मी, मोहनीयकपके नवमी, कोणमोहे दशमी, सयोगिकेवलि रिकसप्तकतैजससप्तकसंस्थानषट्कप्रयमसंहननवर्णादिविंशतिनि अयोगिकेवत्रिनित्वेकादशीति (असंखगुणसढी उदयोत्ति) सर्वस्तोकसम्यक्त्वोत्पादगणघेण्यां दक्षिकं ततोऽपि देशविरतिगु पराघातोपघातादिगुरुअघुविहायोगतिद्विकपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थि पश्रेषयामसंख्येयगुणं ततोऽपिसर्वविरतिगुणश्रेण्यामसंख्ययगुण रशुभाशुभनिर्माणरूपाणां द्विपञ्चाशत्प्रकृतीनां गुणितकौशस्या योगिकवनिगुणस्थानकचरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशोदयः सुस्वरमेव तावद्वाच्यं यावदयोगिकेवनि गुणश्रेण्यां दबिकमसंण्येयगुणं पुःस्वरनिरोधकासोच्छ्वासनाम्नः पुनरुच्च्वासनिरोधकाने तथा तस्मात् प्रदशोदयमप्याश्रित पता गुणश्रेणयो ययाक्रममसंख्येय अन्यतरवेदनीयमनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याराणा वक्तव्याः (तश्चिवरीओक्ति) सर्वास्वपि पतासुगुणश्रेणिषु तमुलगादेययश-कीर्तितीर्थकरोचैर्गोत्राणां द्वादशप्रकृतीनां गुणिकामस्तद्विपरीत उदयविपरीतः संख्ययगणश्रेण्या तद्यथा अयो तकौशस्यायोगकवभिनश्चरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशोदयः। गिकेवनिगुणश्रेणिकामसंख्येयगण एवं तावद्वाच्यं यावत् सम्यक्स्योत्पादगणश्रेणिकाझः संख्येयः । गुणस्थापना पषा सम्यक्त्वो नवसंतपढमगुणसेढीए, निदाउगस्स तस्सेव । त्पादगुणश्रेणिः । पुनर्यथोत्तरमसंख्येयगणदक्षिकाकासतश्च सं. यावइ सीसगमवयंति, जाव देवस्स सुरनवगे । ण्येयगुणाः उपरिष्टाश्च पृथक्त्वेन यथोत्तरंविशाझा विशालतरा। उपशान्तकषायस्यात्मीयप्रथमगुणश्रण शिरसि वर्तमानस्य सुरअधोच्यते कथं दलिकं ययोत्तरमसंख्येयगुणं प्राप्यते उच्यते । नवकस्य क्रियसप्तकदेवद्विकरूपस्योत्कृष्ट प्रदेशोदयः। तथास्यै सम्यक्त्वंहघुत्पादयन् मिथ्या दृष्टिनवति ततस्तस्य स्तोकं गुणश्रे- योपशान्तकषायस्यात्मीयप्रथमगुणश्रेणीशीर्षकोदयानन्तरसमयेणिदलिकं सम्यक्त्वोत्पत्ती सत्यां पुनः प्रागुतगुणश्रेण्यपेक्या प्राप्यतीति तखिनू पाश्चात्यसमये जाते देवस्य ततः स्वप्रथमगु Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०६) उदय अभिधानराजेन्द्रः । उदय णश्रेणीशिरास वर्तमानस्य वैक्रियसप्तकदेवद्विकरूपस्योत्कृष्टः सूत्वा पुनरप्यविरतो जातः तस्य तिसृणामपि गुणश्रेणीनां शिरसि प्रदेशोदयः। वर्तमानस्य तस्मिन्नव नवे स्थितस्य दुर्जगानादयायशाकीर्तिनीमिच्चत्ती मीसाणं-ताणुबंधअसमत्थीण गिट्ठीण ।। चाँत्राणामुत्कृष्टप्रदेशोदयः । अय तिर्यकु उत्पन्नस्तर्हि तस्य पूर्वो तानां तिर्यदिकसहितानामुत्कृष्टप्रदेशोदयः मनुष्यो जातस्तर्हि तिरिउदए गंताण य, विइया तइया य गुणसेढी॥४०॥ मनुष्यानुपूर्वीसंहितानामिति । शह केनचित् देशविरतेन सता दशविरतिप्रत्यया गुणश्रेणिः संघयणापंचगस्स य, वियादीतिन्नि होति गुणसेढी। कृता ततः संयम प्रतिपन्नस्ततः संयमप्रत्यया गुणश्रेणिः कृता ततो यस्मिन्काने द्वयोरपि गुणश्रेण्योः शिरसि एकत्र मित्रतः त. आहारगउज्जो वा-गुत्तरतणु अप्पमत्तस्स ॥ ४०४ ।। स्मिन् काले वर्तमानो गुणितकर्माशः कश्चिन्मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते इह कश्चिन्मनुष्यो देशविरतिप्रतिपन्नस्ततः सदेशविरतिप्रत्ययां तस्य तदा मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनामुत्कृष्टः प्रदेशोदयः।यदि पुनः गुणश्रेणिं करोति । यतः स एव विशुद्धिप्रकर्षवहातः सर्वविरातिसम्याग्मिथ्यात्वं प्रतिपन्नस्ताई ३ सम्यइमिथ्यात्वस्य स्त्याना:- प्रतिपन्नस्ततः सर्वविरतिप्रत्ययां गुणश्रेणिं करोति । ततःस पव त्रिकस्य पुनर्मिथ्यात्वं गतस्यांगतस्य वा उत्कृष्टःप्रदेशोदयो वाच्यः। तथाविधशुरुयशसोऽन्तानुबन्धिनां विसयोजनायोस्थितस्ततस्तयदि स्त्यानत्रिकस्य प्रमत्तस्य संयतेऽप्युदयः प्राप्यते तथा निमित्तां गुणधाणं करोति । एवं हितीयादयस्तिस्रो गुणश्रेणयो तिर्यक्षु श्व उदय एकान्तेन यासां तास्तिर्यगुदयकान्ता एकद्धि- भवन्ति ताश्च कृत्वा तासां शिरसि सुवर्तमानस्य प्रथमसंहननवत्रिचतुरिन्जियस्यावरसुक्ष्मसाधारणनामानस्तयोः पर्याप्तनाम्नश्च र्जानां पञ्चानां संहननानां यथायोग्यमुदयप्राप्तानामुत्कएप्रदशोदयः तिर्यग्भवप्राप्ती सत्यां देशविरतिसर्वविरतिगुणश्रेणिशिरसोरेकत्र तया उत्तरतनी शरीरे आहारके वतमानस्याप्रमत्तभावं गतस्य योगे वर्तमानस्य मिथ्यादृष्टेः स्वस्वोदये वर्तमानस्योत्कृष्टः प्रथमगुणश्रेणिशिरसि वर्तमानस्याहारकसप्तकाट्योस्तयोरुत्कृष्टः प्रदेशोदयः। प्रदेशोदयः! वेदियमावएणो, कम्मं काऊण तस्सिम खिप्पं । अंतरकरणे करणं, होहित्ति जयदेवस्स तं मुहुत्तं तो। यावस्स न तच्चे, पढमसमयम्मि व बटुंतो॥ ४०५।। अट्टाहकसायाणं, बाहं पि य नो कसायाणं ॥४०१॥ गुणितकमीशः पञ्चन्जियसम्यग्दृष्टिर्जातः सम्यक्त्वनिमित्तां इह कश्चितपशमणि प्रतिपन्नोऽनन्तरसमय अन्तरकरणं नवि गगणि कृतवान् । ततस्तस्यां गुणश्रेणितः प्रतिपतितो मिथ्यात्वं ध्यतीति तस्मिन् पाश्चात्यसमये कालं कृत्वा देवो जातः तस्य गत्वा नियमध्ये समुत्पन्नः तत्र च द्वान्छियप्रायोग्यां स्थिति देवस्य उत्पत्त्यन्तMदर्तात परतो गुणश्रेणिशिरसोरेकत्र योगे मुक्त्वा शेषं सर्वमप्यपवर्त्तयति । ततोऽपि मृत्वा एकेन्धियो जातः। वर्तमानस्य मिथ्यादृष्टेः स्वस्वोदये वर्तमानस्यात्कृष्टः प्रदेशोदयः। तत्र पकम्झियसमां स्थितिं करोति शीघ्रमेव च शरीरपर्याप्तस्तइह कश्चित् नपशमश्रेणि प्रतिपन्नोऽनन्तरसमये अन्तरकरणं न स्य तदिन आतपवेदिनः खरबादरपृथिवीकायिकस्य शरीरपविष्यतीति एतस्मिन् पाश्चात्यसमय कासं कृत्वा देवो जातः तस्य र्याप्स्यनन्तरप्रथमसमये आतपनाम्नः उत्कृष्टप्रदेशादयः एकेन्धिदेवस्य उत्पत्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तात्परतो गुणश्रेणिशिरसि वर्तमान यो द्विन्जियस्थिात कटित्येव स्खयोग्यां करोति न त्रीन्छियादिस्यप्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानावरणकषायाएके वेदत्रिकवर्जानां ष स्थितिमिति कीजियग्रहणम् तदेवमुक्त उत्कृष्टप्रदेशोदयस्वामी । मां नोकषायाणामुत्कृष्टः प्रदेशोदयः । संप्रति जघन्यप्रदेशोदयस्वाम्यत्वमनिधीयते । हस्सलिई बंधित्ता, अट्ठा जोगाइविशनिसम्गेणं । पयगं तु खवियकम्मे, जहन्नदेवाट्टि जिन्नमुहूत्ते ॥ नक्कस्सपएपढमो-देयम्मि सुरनारगाळणं । ४०३ । ससे मिच्छत्तगतो,अतिकिट्ठो कालयं तु खविगए!४०६। असा बन्धकानयोगमनोवाक्कायनिमित्तं वीर्यम्। श्रादिस्थितिः प्र एगेंदियगो पढमे, समये वमईसु पावराणे ॥ थमा स्थितिः तस्यां दयिकनिक्केपः आदिस्थितिकनिकेपः । एतेषामुत्कृष्टपदे सति किमुक्तं भवति उत्कृष्टेन बन्धेन कान केवलदुगमणपज्जव-चक्खुअचकावूण आवरणा ||४०७।। उत्कृष्टे योगे वर्तमानो-हस्वां जघन्यां स्यिात बध्वा प्रथमस्थिती जघन्यस्वामीतिनावप्रधानोऽयं निर्देश प्राकृतत्वाच्च ततः परस्याः च दलिके निकेपस्तमुत्कृष्टं कृत्वा मृतः सन् देवो नारको जातः सप्तम्या बुक ततोऽयमर्थः । जघन्यप्रदेशोदयस्वामित्वे प्रकृतमधितस्य प्रथमोदये प्रयमस्थित्युदय वर्तमानस्य देवायुषो नारक कारः कपितकर्माशेन सूत्रे चार सप्तमी तृतीयाधे वदितव्या ।तत्र स्य नारकायुपनत्कृष्टः प्रदेशोदयः। (अट्ठाजोगुत्ति) भोगनू कश्चित्वपितकर्माशो देवो जघन्यस्थितिर्दशवर्षसहस्नायुरुत्पत्त्यनमिषु तार्या मनुष्येषु वा विषये कश्चित् तीर्यगायुःकश्चित् मनु. न्तरं मुहत गते सति सम्यक्त्व प्रतिपद्यते तच्च सम्यक्त्वं दशवप्यायुरुत्कृष्टं पल्यापमस्थितिकं बध्वा बघु शीघ्रं च मृत्वा त्रिप र्षसहस्राणि देशोनानि यावत्परिपाल्य अन्तर्मुद्र विशेष जीवित मिथ्यात्वं गतः स चातिसक्लिष्टपरिणामो वक्ष्यमाणकर्मणामुकल्पोपमायुष्के तीर्यक्षु परो मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नस्तत्र च सर्वा एस्थितिबन्धमारभते प्रकृतं दहिकं तदानीमुद्वर्तयति तावद्याबदल्पजीवितमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे वर्जयित्वा अन्तर्महूर्तमेकमपवृत्त्येत्यर्थः न्तर्मुहर्तम् । ततः संविष्टपरिणाम एव कालं कृत्वा एकेन्डिया शमशेषमपि स्वस्वापवर्तनाकरणेनापवर्तयतस्ततोऽपवर्तमा जातस्तस्य प्रथमसमये मतिज्ञानावरणवत्रदर्शनावरणमनःपर्यनानन्तरप्रयमसमयस्तयास्तिर्यङ्मनुथ्ययोर्यथासंख्य तिर्यगापि वज्ञानावरणचक्कुझनावरणाचक्षुर्दर्शनावरणानां जघन्या प्रदेशामनुष्यायुषारुकृष्टः प्रदेशोदयः । दीरणा स्ताका नवति यतस्तस्यानुभागोदारणा बढी प्रवर्तत । दूजगणाए जनसर्गई, दुग अणुपुन्वित्यिसगनीयाणं ।। यत्र चानुनागोदीरणा बह्वी तत्र स्तोका प्रदेशोदीरणा ततो दमणमोहे खवणे, देसविरइए व गुणसेढी ।। ४.३॥ "मिच्छत्तगतो अतिकिट्ठो"श्त्याद्युक्तम् ॥ महाविरतसम्यग्दृष्टिदर्शनमोहनीयत्रितयं कपयितुमन्युद्यतो गुण ओहीण संजमाउ, देवत्तगए यस्स मिच्चत्तं ॥ श्राण करोति । ततः स एव देशविरतिप्रतिपन्नस्ततः सर्वविरति उकोसं बंधधिई बंधे, विकट्टणा आलिगं गंतु ।। ४०॥ निमित्तां गुणश्रेणी करोति । तत्करणपरिसमाप्तौ सत्यां संकिष्टो | कपितकर्माशः संयमं प्रतिपन्नः समुत्पन्नावधिज्ञानदर्शनाप्रति Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०७) उदय अभिधानराजेन्द्रः। उदय पतितावधिकानदर्शन एव देवो जातस्तत्रचान्तर्मुहर्त गते मिथ्या- योऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति तस्या आवबिकाया बन्धानवाबत्वं प्रतिपत्रस्ततो मिथ्यात्वप्रत्ययनोत्कृष्टां स्थितिं चकमारजते प्र- कायाश्चरमसमये पूर्वबकानामनन्तानुवन्धिन्यः जघन्यः प्रदेोदय नृतं दक्षिकं विकर्षयति उर्तयति इत्यर्थः । तत आवलिका प्रावलिकायाश्चरमसमये इत्युक्तं संसारे चैकजीवस्य चतुष्कृत्वपव गत्या प्रतिक्रम्य बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थःअवध्योरवधि- मोहनीयस्योपशमनोजवतिन पञ्चकृत्वा इति चतुःकृत्वो ग्रहणम् । नावरणावधिदर्शनावरणावधिर्जघन्यः प्रदेशोदयः॥ मोहोपशमनेन किं प्रयोजनमितिचेपुच्यते । इह मोहोपशमं वेणियंतरसोगा, चउहिव्व निदपलायस्स ॥ कुर्वन् अप्रत्याख्यानादिकषायेण दक्षिकमन्यत्र गुणसंक्रमेण प्रत्तै नकस्म निई बंधो, पमिजागा पवेश्या नवरं ।। ४०ए॥ संक्रमयति ततःकीणमीहे शेषाणां तेषामनन्तानुबन्धिषु बन्धकासे योर्वेदनीययोः सातासातयोः पञ्चानामन्तरायाणां शोकारत्यु स्तोकमेव संक्रमयति ततो मोहोपशमग्रहणम् । गोत्राणां च जघन्यः प्रदेशोदयोऽवधिकानावरणस्येव वेदितव्यो इत्यीए संजमभवे, सव्यनिरुकम्मिगंतु मिच्छत्तं । निडाप्रचलयोरपि तथैव केवलमुस्कृष्टस्थिति बन्धात् प्रतिननस्य देवीए लहुमिच्छी, जेद्वविई प्रालिगं गंतु ॥४१३ ॥ प्रतिपतितस्य निकाप्रचअयोरनुनवितुं समस्यचति द्रष्टव्यम्। उत्कृ- संयमेनोपयक्तितो जवः संयमत्रवस्तस्मिन् सर्वनिरुके अन्तर्मुप्रस्थिति बन्धो दि अतिशयेन संक्लिष्टस्य प्रवति नचातिसंवेशे दूविशेष स्त्रिया मिथ्यात्वं गतायास्ततीनन्तरभवे देवीतायाः वर्तमानस्य निनोदयसंभवस्तत उक्तमुत्कृष्टस्थितिबन्धात्प्रतिभन्न- शीघ्रमेव पर्याप्ताया उत्कृष्ट स्थितिबन्धानन्तरमावलिकां गत्वा स्थति अपव्यम् ॥ आवत्रिकायाश्चरमसमये स्त्रीवेदस्य जघन्यःप्रदेशोदयः । श्यमत्र बरिसवरतिरियथावर, नीयपि मश्सम नवरं। जावना । कपितकर्माशा काचित् स्त्री वेशोनां पूर्वकोटिं यावत्संयतिथि निहानिदा, इंदिय पज्जुत्तिपढमसमयम्मि ॥४१॥ ममनुपाल्य अन्तर्मुहूर्ते आयुषोऽवशेषेमिथ्यात्वं गत्वा अन्तरनवे देवर्षवरो नपुंसकवेदस्ततो नपुंसकवेदतिर्यम्गतिस्थावरनीचो- वी समुत्पन्ना शीघ्रमेव पर्याप्ता ततःउत्कृप्रेसंक्रेशे वर्तमाना स्त्रीवे. प्राणां जघन्यः प्रदेशोदयो मतिज्ञानावरणस्येपास्य निजानिबाद दस्योत्कृष्टां स्थिति बध्नाति । पूर्व वहांच उर्सयात तत उत्कृष्टयोऽपि तिनः प्रकृतयो जघन्यप्रदेशोदयविषये मतिज्ञानाधरणवत बन्धारम्ने परतः आवत्रिकायाश्चरमसमये तस्याः स्त्रीवेदस्य भावनीयाःनवरमिन्द्रियपर्याप्यापर्याप्यप्रदेशप्रथमसमये इति जघन्यः प्रदेशोदयो जवति । अष्टव्यम्। ततोऽनन्तरसमये उदीरणायाःसंजयने जघन्यप्रदेशो- अप्पच्छा जोगचियाणं, चउणुक्कस्सगसिणं ते। दयानवात् ॥ . उवरित्योपनिसेगे, चिरंति वासाइ वेईणं ॥ ४१४॥ दमणमोहे तिविहे, उदीरणुदए य ालिगं गंतुं ॥ अल्पया बन्धाच्या अल्पेन च योगेन चितानां बकानां चतुर्णासत्तएह एवमेवं, उवासमित्तागए देवे ॥११॥ मप्यायुषांज्येष्ठस्थितीनामुत्कृष्टस्थितीनामन्तेवासी अन्तिमे उपरि कपितकर्माशे तस्य औपशमिकस्य सम्यग्दष्टेरौपशमिकसम्य- सपिरितने समये सर्वस्तोकदविकनिक्केपे चिरकालं तीबासाक्वात्प्रच्यवमानस्य अन्तरकरणेन स्थितेन हितीयस्थितेन सका- तवेदनया ह्यभिरतानां कपितकर्माशानां तत्तदायंवदानां जघन्यशात्सम्यक्त्वादीनां दनिकानि समाकृष्ययान्यन्तराणि चरमसमये प्रदेशोदयः तीत्रासातवेदनया ह्यनिनूतानां बहवः पुशलाः परिसटआवत्रिकामात्रजागे गोपुच्गकारसंस्थाने रचितानि । तद्यथा- न्तीति कृत्वा तीवसातवेदग्रहणम् । प्रथमसमये प्रतूतं दक्षिकं द्वितीयसमये विशेषहीनं तेषामुदयो- संजोयणा वियोजिय, देवनवे जहागे अनिरुके। दीरणोदय अच्यते तस्मिन् उदीरणोदये प्रावमिकामात्रं गत्वा बंधिय उक्कस्स विई, गंतूणो गेंदिया सनी॥ ४१५॥ आवत्रिका यावश्चरमसमये विशेषहीनं तेषामुदयोदारणा नदय सवल हुनरयगए, निरयगई तम्मिसव्वपज्जते । उच्यते तस्मिन् उदीरणोदये आवडिकामात्रं गत्वा आवत्रिकामा यावश्चरमसमये विशेषहीनं समय सम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वानां पुण तेश्रण पुग्विउ यगई, तुझा नेया जवाइम्मि ।।१६।। स्वस्वोदययुक्तस्य जघन्यप्रदेशोदयः । तथानन्तानुबन्धिवर्जद्वा संयोजनात् अनन्तानुबन्धिनो विसंयोगतः विसंयोजने हि शेदशकषायवेदपुरुषवदहास्यरतिभयजुगुप्सारूपाः सप्तदश प्रकृ षाणामपि कर्मणांनूयांसो पुत्राः परिसटान्ति शत तदुपादानं ततो तीरुपशमग्य देवलोकं गत्वा एवमेवेति उदीरणोदयचरमसमये जघन्यदेवत्वं प्राप्तः। तत्र चाभिनिरुके पश्चिमे अन्तमहत्तै प्रतितासां सप्तदशप्रकृतीनां जघन्यः प्रदेशोदयः। श्रासां हि सप्तद पन्नमिथ्यात्व एकेन्द्रियप्रायोम्यां प्रकृतीनामुत्कृष्टां स्थिति बच्चा शोपशमय्य देवलोकं गतस्य एवमेवेति उदीरणानामपि प्रकृती सर्वसंकिष्ट एकेन्छियेषु उत्पन्नस्तत्र चान्तर्मुहर्त स्थित्वा असंनामन्तरकरणं कृत्वा देवसोकं गतः सन् प्रयमसमये एव द्विती- | शिषु मध्ये समायातः । देवो हि मृत्वा नाऽसंशिषुमध्ये समायातः यस्थितः सकाशात् दनिकमाकृष्योदयसमयादारज्य गोपुच्ग-| गच्चतीति कृत्वा एकेन्द्रियग्रहणम् । ततो संझिनवात् बघु शीघं कारं विरचयात । तद्यथा उदयसमये प्रजूतं, द्वितीयसमये मृत्वा नारको जातः सर्वपर्याप्तिभिश्च शीध्र पर्याप्तस्तस्मिन् सर्वविशेषहीनं तृतीयसमये जघन्यप्रदेशादयो उज्यते ॥ पयाँप्ति पर्याप्ने नारके नरकगतेजघन्यः प्रदेशोदयः।पर्याप्तस्य हि प्रचनरुवसम्मिसपच्छा, संजोई य दोहकालसम्मत्ता ॥ । नूताः प्रकृतयो विपाकोदयमायान्ति उदयमागताश्च स्तियुकसंक्रमिच्चत्तगए श्रावलि-गाए संयोजयणाणं तु ॥४१॥ मेण न संक्रामन्ति तेन प्रकृत्यन्तरदविकसंक्रमानावाजघन्यप्रदेशोचतुरो वारान् मोहनीयमुपशमय्य पश्चादन्तर्मुहूर्ते गते सति दयः प्राप्यते इति “सवपज्जत्त" इत्युक्तम् । अानुपूर्व्यश्चतस्रोऽपि मिथ्यात्वं गतः ततोऽपि मिथ्यात्वप्रत्ययेनासंयोजनात अनन्तानु गतितुल्याजवन्ति स्वस्वगतितुल्या झेया ज्ञातव्याः केवलं नवादी बन्धिनो बध्नाति ततः सम्यक्त्वं गतस्तश्च दीर्घकासं द्वात्रिंशत्सा जवप्रथमसमये वेदितव्याग तृतीयसमये अन्या अपिबन्धावत्रिका तीताः कर्मवता उदयमागच्कृन्ति ततो नवप्रथमसमयग्रहणम् । गरोपमाणां शतं यावदनुपालयन् समयसम्यक्त्यप्रजावतः प्रनूतान् पुगलान् अनन्तानुबन्धिनां संबन्धिनः प्रदेशसंक्रमतः परि-1 देवगई ओहि समा, नवरि उज्जो य वयगो नाहे। सादयति । तनः पुनरपि मिथ्यात्वं गतः मिथ्यात्वाप्रत्ययेन च नू- प्राहारजाप्रचिर, संजममणुपालिऊणं ते ॥१७॥ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय देवगती अवधिमा ज्ञानावरणसमा अवधिज्ञानावरणस्येति देवगतेरपि जघन्यप्रदेशोदयो इष्टव्यः । किं कारणमिति चेदुच्यते यावद्योतस्योदयो न भवति तावद्देवगतौ स्तिबुकमन जयति तत उद्योतकग्रहणम् सत्यं पर्या स्वति नानावस्थायां देवगतिधन्यदेशयः। तथा विरं का देशोनपूर्वकोटिरूपं यावरसंयममनुपास्य अन्तिमे काले आहारकशरीरी जात उद्योतं च वेदयते तस्याहारकसप्तकस्यापत्यमाया रिकामसंयमपरिपालने हि भूयांसः कर्मपुलाः परिसटिता भवन्तीति कृत्वा चिरकालं संयमग्रहणम् | उद्योतकरणं प्रातमेवानुसर्त्तध्यम ॥ ४१७ ।। सेसा चक्स, तमिव अन्नमिवा जवे अचिरा | (606) निधानराजेन्द्रः । तज्जोगा बहुगीउ, पदेययं तस्स ता ता ॥ ४१० ॥ उशेषाणां प्रकृतीनां चतुःसमं चतुर्दर्शनावरणसमं पचम्यं तावत् यावदेकेन्द्रियो जातस्ततो येषां कर्मणां तस्मिन्नवैकेतेषां तत्रैव जघन्यदेशादयो वाच्यः । येषां तु कर्मणामनुगतिद्वन्द्रियादिजातिचतुष्टयाद्यसंस्थानपचकोदारिकाद्वापानपट्क बिहायो गति किस नगसुस्वरस्वरादिरूपाणां न तपोयतंत्रवस्तमेकेन्द्रियवायत दयायोग्येषु भवेषु उत्पन्नस्य तास्तास्तद्भवयोग्या यही प्रकृ तीर्वेदीयमानस्य तद्भव योग्यय हुप्रकृतिर्वेदनं च पर्याप्तस्योपप ततः सर्वाः पर्याप्तिनि पर्याप्तस्य जघन्यदेशोदया पर्याप्तस्याप्रनृताः बकाः प्रकृतयः उदयमागच्छन्ति उदयप्राप्तानां च प्रकृतीनां स्तिबुकसंक्रमो न भवति तथा च सति विवक्तिमकृतीनां जघन्य प्रदेशोदयो ज्ञेयः परतो गुणश्रेणी दलिकं प्रभूतमचाप्यते इति स न भवति । क० प्र० । पं० सं० ॥ (५) साम्प्रतमुदयस्य प्रायस्तत्समानत्वाद्दीरणायाश्च लक्षणकथनपूर्वकं कस्मिन् गुणस्थाने कियन्त्यः प्रकृतयस्तस्य भगवतः काणा इत्येतन्निर्दिदि कुराह ॥ उदओ विवागको प्रण- मुदीरणा अपत्ति इह 5वीसस । सत्तरसमिच्छे, मीसम्म आहार जिमुवा ॥ १३ ॥ इह कर्मफलानां यथा स्वस्थितिबद्धानामुद यसमयप्राप्तानां यद्विपाकेनानुजयन पेन स उदय उच्यते (उदीरणा पतिति) कमलानां यथा स्वस्थितिकानां पदा णा जायते (ति) उरणार्या यंत द्विशितं ज्यामधिकाशं शतं द्विशितं मयूरव्यंसका दित्वात्समासस्तत्सामान्यतोऽधिक्रियते इति शेषः । सप्तदशशतमिच्छन्ति मिध्यास्थाने उदये प्रति कथमित्याह । (मीसम्म बाहारजिनयन्ति मिश्र व सम्मिति ) स स्यत्वं च (आहारति इटाटारकशब्देन सर्वत्रादारकीर आहारकाङ्गोपाङ्गत्रणमाहारकद्विकं गृह्यते ततः आहारकं च (ज) जिननाम मिसम्यक्त्वादारजिनास्तेषामनुदयातू । इदमत्र हृदयं मिश्रोद्यस्तावत्सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान एव भवति सम्यक्योदयस्यविरतिसम्यन्दयादी आहार दयः प्रमत्तादी, जिननामोदयः सद्योगिवव्यादी भवति त प्रकृतिपञ्चकंद्वाविंशतिशतादपनीयते ततो मिध्यादृष्टिगुणस्थाने सप्तदशशतं जयतीति ॥ १३ ॥ सहमतिगायवमिच्छं, मिच्छं तमामणे गारसयं ॥ निरयापुविपुदया था पावरगिल तो ॥ १४ ॥ , ममापर्याप्तसाधारणरूपम् आतपे मिध्यात्वं च समासमिध्यात्वं मिध्यात्वे मध्यान्यस्य तन्मिथ्या उदय स्वान्त एतत्प्रकृतिपञ्चकस्य मिथ्यात्वेऽतो नवतीत्यर्थः । श्रयमत्राशः सुक्ष्मनाम्नः उदयसूक्ष्मैकेन्द्रियेषु अपर्यान्तमानः सर्वे पि अपर्याप्तकेषु साधारणानन्तयनस्पतिषु तपनामा दयेषु, बादरपृथिवी कायिकेषु एव नचैतेषु स्थितो जीवः सास्वानादियतेनापि पूर्वप्रतिपन्नस्तेपुरते सास्वादनस्तु पद्य पि वादयेत्पद्यते तथापि न तस्यातपनाम यस्त त्रोत्पन्नमात्रस्यासमाप्तशरीरस्यैव सासादनत्य गमनात् समाप्ते । शरीरे तपनामोदयो भयति मिष्यास्वोदयः पुनर्निध्या प्यावे तेनासां पञ्चप्रकृतीनां मिथ्यारष्टादयस्यान्तस्तदिदं प्रकृतिपत्चपूर्वी सप्तदशतादपनीद्वा सास्वादने उदप्रतीत्य भयति नरकानुपुष्यनयनेच एका दशशतं भवतीत्येतदेवाह । " सासणे इगारसयं नरयापुवि दयन्ति सास्वादति एकादशशतमुये नयति नरकानपु दयात् नरकानुपु उदयो दि नरके वमेण गच्छतो जीवस्य भवति न सास्वादन तर गच्छति यत् प्राच्ये "नवार, सासण समस्मि होइन नरयम्मि जं न गच्छ, श्रवणिज तेण सा तस्स ॥ " ततो नरकानुपूर्वी मिध्यादृष्टिव्यमित्रिकातपमिध्यात्वलक्षणं प्र कृतिपञ्चकं व सप्तदशशतादपनीयते शेषं सास्वादने एकादशशतं भवतीति [२] अवधारयिगणित) अनन्तान्धिः कोपमानमा पासोनाः स्थापरनामा - (त) एकेन्द्रियजा तिर्विकलाः पञ्चेन्द्रियजात्यपेक्षया असंपूर्णद्वीन्द्रियजातित्रन्द्रियजातयद्रियजातयर्थः तासां मवानां प्रकृतां सास्वादनेऽन्त उद्यमाधित्य प्रवति। श्यम नावना | अनन्ताऽनुबन्धिनामुदये हि सम्यक्त्ववान एवन जवति । यदाहुः श्रीवास्वामिपादाः "पढमिषाण उद नियमा संजोयणा कसाया। सम्मदंसण बंनं, भवसिद्धीया विन लहति " नापि सम्यग्मिथ्यात्वं कोऽप्यनन्तानुबन्ध्युदये गच्छति योऽपि पूर्वप्रतिपन्नम्यक्त्योऽनन्तानुबन्धिनः मुदयं करोति सौ सास्वादन एव भवतीत्युत्तरेष्वासामुदयाभावः । स्थावर एकेन्ड - यजातिविकलेन्द्रियजातयस्तु यथास्वमेकेन्द्रिय विकलेन्द्रियवेद्या " उत्तरस्थानानि पूर्व पोऽपि पञ्चेन्द्रियेचेच यासामुयाना इति ," मी सयमपुत्री- दयामी सोदर मोतो । चसयमजए समा-णु पुव्विखेवावि कसाया ।। १५ । मिसम्यति कथमित्या · दानुपूण्यशब्दन मरानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्व्यंदिया पुण आनुपूर्वीत्रयं गृह्यते तस्या अनुदयान्मिश्रोदयेन च । श्रयमत्र जावः । नरकानुपूर्वी तावडुदयमाश्रित्य सास्वादने व्यकिना । इह सा न गृह्यते शेषमानुपुर्वत्रिक मिश्रदृष्टेनोदेनि तस्य मरणाजावात् । न सम्ममीसो कुण कालमिति " यत्रनातू मिश्रप्रकृतिः पुनरत्रोदये प्राप्यते । ततः सास्वादनय्यवच्छिन प्रकृतिनवकर्मानुपूर्वीत्रिकं च पूर्वोक्तैकादशशतादपनीयते शेषासितिकुतीनां नवनवतिः तंत्र मिति जात शत मिति संतुति) स्थाने प्रकृतेरन्तो भवति । एतदये हि मिश्रप्टिव जवति नान्य इति [ ३ ] (सयम समा) चतुरधिकं शत चतुःशतमुदये भवति इत्याह । अयते अविरतिसस्य कथमित्याह । ( सम्मति ) सम्ययम (अति) आपुत्रःसां पापामुक्तं भवति पूर्वी शतामिअगुणस्थान Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय (८०९) अभिधानराजेन्द्रः | कामिश्रमतिरपनी पते शेषा नवनवतिस्तत्र सम्यक्स्यानुपूर्वीक प्रति हप्ते जातं चतुःशतं चतः सम्यक्त्वमत्र गुण उदयत एव तथा विरतसम्यग्दृशां यथास्वं चतस्रोऽप्यानुपूर्य इति ( वितियकसायत्ति ) द्वितीयकषाया अप्र त्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायाबोभाः । म पुतिरिपुच्विविव्वक, दुहगणाइज्जदुगसत्तरस बेओ सत्तासी इदे सितिरिगई, आउनिउज्जोय तिकसाया । १६ । ( मणुतिरिपुवित्ति ) आनुपूर्वीशब्दस्य प्रत्येकं योजनामनुजानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी चितव्यत्ति ) क्रियाष्टकं वैक्रियशरीरये क्रियापादेवानुपूर्वदिवायुर्नरकगतिर्नरकानुपूर्वीनरकायुर्लक्षणं दुर्भगमनादेयद्विकम् । श्रनादेयायशोकीर्तिरूपमित्येतासां सदप्रकृतीनामचिरतसम्य दयं प्रतीत्य छेदो भवति ततः इमाः सप्तदश प्रकृतयः पूर्वोक्तःचतुःशतपनीयन्ते शेषा ( सगसीरदेसिति ) (५) सप्ताशी. निर्देशावर उदये भवति । इदमत्र तात्पर्यम्। द्वितीयकपायोवधेहि देशविरतेलोंभ आगमे निषिद्धः । बदागमः "बीचकसाया दये, अपचक्खाणावरण । नामधिज्जाणं । सम्म सगलंभं, रियाधरयं न ति" नापि पूर्वप्रपप्रदेशाविरत्वादेवस्य तदुदयसंभवस्तेनोत्तरेषु तदुपाभावः मनुजानुपूर्वीतिगा तुपुष्यस्तु परभवादिसमयेषु भियान्तायमवः । स च यथायोगं मनुजतिरश्चां वर्षाष्टकादुपरिष्टात्संभविषु देशवित्यादिषु गुणस्थानेषु न संभवति । देवत्रिकं नारकत्रिक देवनारकवेद्यमेव न च तेषु देशविरत्यादेः संभयः कियशरीरवै क्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नोस्तु देवनारकेषूदयः । तिर्यग्मनुष्येषु तु प्राचुर्येणाविरतसम्यग्दृष्टयन्तेषु । यस्तूत्तरगुणस्थामेष्यधिकेषांचिदागमे विष्णुकुमारस्थूलभद्रादीनां वैकियकरवक्ष्यते स प्रविरलतरत्वादिना केनापि कारणेन विक्षित इत्यस्माभिरपि नेह विवक्षित इति दुर्भगमनादेयद्विकमित्येतास्तु तिस्रः प्रकृतयो देशविरत्यादिषु गुणप्रत्ययानोदयन्तइत्येता अविरतियया इति (ति आउ ) तिर्यकदस्य प्रत्येक योगात् विगारीतिर्यगायुः ( निउज्जयति ) नीचे गौत्रमुद्योतं वा ( तिकसायति तृतीयः कषायः भिकषायः मयूरव्यंसकादित्वात्पूरप्रत्ययलोपी समासः । प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः (६) अच्छे मसी, पम चिआहार जुगलपलेना । श्री गिहारडुग, बेओबसयरिमत्ते || १७ || पूर्वोाष्ट्रप्रकृतीनां देशभिरतेः उदयमाश्रित्य देवो भवति ततः प्रमत्त एकाशीतिर्भवति श्राहारकयुगल प्रक्षेपात् । इदमंत्र हृदयम्। तिर्यगातितिगामीति देशरतान्तान्येव गुणस्यानानि पढन्ते रात्रेषु सद याभाषी तु तिर्यग्गतिस्याभान्यात् यिन परावर्त्तते ततश्च देश विरतस्यापि तिरवो नीचेोदयत्येव मनुजेषु पुनः सर्वस्य देशविरतादेर्गुणिनो गुणप्रत्ययादुश्चैर्गोत्रः मेोतीत्युरत्र नीचेर्गोत्रोदयाभावः। उद्योतना मस्वभावतस्तिर्यग्येयं तेषु च देशविरतान्तान्येव गुरुस्थानानि नोत्तराश्रीरेषु तदयाभावः । यद्यपि यतियैक्रियेप्युद्योतनामो देति "उत्तर देहि च देवजई इति वचनात्" तथापि स्वल्पत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वाचार्य विवक्षितं तृतीयकपायोदये हि चारित्रजात एव न भवति । उक्कं च पूज्यैः “ तहयकसामातृदय, पचपचाणावरनामधिजाएं देखिकविर 99 उदय चरितं न सति न च पूर्वप्रतिपचरित्रस्य तदुदयसंभव इत्युत्तरेषु तद्दृदयाभावः । इत्येता अष्टौ प्रकृतयः पूर्वोक्ताशीतेरपनीयन्ते शेषा एकोनाशीतिः। तत आहारकयुगलं क्षिप्यते यतः प्रमत्तयतिराहारकयुगलस्योदयो भव तीत्येकाशीतिः । ( धीरातिगत्ति ) स्यानकिनिद्रा २ प्रचला २ त्यानरूिपमाहारकद्विकमाहारकशरीराहारकापालक्षणमिति (७) प्रकृतिपञ्चकस्य प्रमत्ते देदो भवति । ततः पूर्वोक्तैकाशीतेरिदं प्रकृतिपञ्चकमपनीयते । शेषाः प सतिरप्रमत्ते उदये भवति । अत्रायमाशयः । स्त्यानर्द्धित्रिकोदयः प्रमादरूपत्वादप्रमत्तेन संभवति श्राहारकचि चिकु र्वाणो यतिरौत्सुक्यादवश्यं प्रमादवशगो भवत्यत इदमप्यप्रमते उदयमाधित्य न जाघहीति । यत्पुनरिमन्यत्र यते प्रमत्तयतिराहारकं विहत्य पश्वाद्विशुद्धिवशात्तत्रस्थ एवात्रमतां यातीति तत्केनापि स्वल्पत्यादिना कारणेन पूर्वाचार्य त्रिशितमित्यस्माभिरपि न विवक्षितमिति ॥ १७ ॥ समचं तिमसंघपण-तियगच्छेयो बिसतरि अपुष्ये । हासाइकतो, विसडि अनियट्टि बेयतिगं ॥१८॥ सम्यक्त्वमन्तिम संहननत्रिकमर्द्धनाराच संहनन कीलिकासंहननसेवार्त्तसंहननरूपमित्येतत्प्रकृतिचतुष्टयस्याप्रमत्ते छेदो भवति । तत इदं प्रकृतिचतुष्कं पृथ्वपट्सप्ततेरपनीयते शेषा द्वासप्ततिः ( अपुव्वित्ति ) अपूर्वकरणे उदये भवतीति । श्रयमत्राशयः सम्यक्त्वे क्षपिते उपशमिते वा श्रेणिद्वयमारुह्यते इत्यपूर्वकरणादौ तदुदयाभावः । श्रन्तिमसंहननत्रयोदयेतु श्रेणिरारोढुमेव न शक्यते तथाविधशुद्धेरभावादित्युत्तरेषु तयानाचा (९) (हासारकतुति) हास्यमादी यस्य षट्कस्य तत् हास्यादिषट्कं हास्य रत्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यं तस्यान्तोऽपूर्वकरणे भवति संक्रिटतरपरिणामत्वादेतस्य उत्त रेषां च विशुद्धतरपरिणामत्वात्तेषां तदुदयाभाव इति उत्तरेव्याप्ययमुदयव्यवच्छेदहेतुरनुसरणीयः । तत इदं प्रकृतिषट्कं पूर्वोक्तद्विसप्ततेरपनीयते शेषाः । (१०) (इसट्टिश्रनियाट्टत्ति) पपष्टिरानिवृत्तिबादरे भवति । उदयमाधित्येति शेषः । ( वैयतिगं ) वेदात्रिकं स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदाख्यम् । तिगो, सहिसहमम्मि तुरियनोनं तो । वसंतगुणे गुणस, रिसनारायनुगतो || १ | संज्वलनत्रिकं संज्चलनफोधमानमायारूपमित्येतासां प प्रकृतीनामनिवृतिवाद दो भवति तत्र खियाः श्रेणिमारोहन्त्याः स्त्रीवेदस्य प्रथममुदयच्छेदः ततः क्रमेण पुंवेदस्य नपुंसकवेदस्य संज्वलमत्रयस्य च पुंसस्तु बेसिमारोहतः प्रथमं वेदस्योदच्छेदस्ततः क्रमेण श्रीवेदस्य पदस्य सत्यलनत्रयस्य । पराढस्य तु श्रेणिमारोहतः प्रथमं पराढवेदस्योदयच्छेदः ततः स्त्रीषेदस्य वेदस्य संज्यसनत्रयस्य चैततिषट्कं पूर्वोक्तषट्षष्टेरपनीयते शेषाः (सट्ठिसुहमम्मित्ति ) षष्टिः सूक्ष्मा संपराये उदये भवति ( ११ ) अत्र च तुर्यलोभा-' चतुर्थीलोभान्तः संयतोभयवच्छेत्यर्थः । तत इयमेका प्रकृतिः परिपनीयते शेषा उपशान्तगुले उपशान्तमोहगुणस्थाने एकोनषष्टिरुदये भवति । (रिसहनारायदुग अंतुति) ऋषभारावद्विकं ऋषभनाराचसंहनननाराचसंहममायं तस्यामुपशान्तगुणे भवति प्रथमसंहननीय क्षपकश्रेयारोहणात् इति श्रीरामोहादी तदुदयाभावः । उपशमणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणारुह्यते तत इदं प्रकृतिद्वयं पूर्वोकोपनीयते शेषा (१२) Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१०) उदय अभिधानराजेन्डः । उदयण सत्तावन्नवीणदुचरिमि, निद्ददुगंतोअचरमिपणपन्ना। हि योगेन पुलग्रहणपरिणामालम्बनानि ततस्तेषु गृहीतेष्वे तेषां कर्मा खस्वविपाकेनोदयो भवति । तेनायोगिकेवलिनि नाणंतरायदसण, चनने ओ सजोगिवायाना ॥ २० ॥ तद्योगाभावात्तदुदयाभावः इत्यस्त्रिंशत्प्रकृतयः पूर्वोक्तद्विचसप्तपञ्चाशत् ( खीणत्ति) कीणमोहस्य (चरिमित्तिा द्विच त्वारिंशतोऽपनीयन्ते ततः शेषा द्वादश प्रकृतयोऽयोगिकेबालरमसमये चरमसमयादा हितीये समये निनाद्विकस्य निषा न्युदयमाश्रित्य भवन्तीत्येतदेवाह ( वारस अजोगीत्यादि) प्रचनाख्यस्य कीणद्विचरमसमयेऽन्त श्त्येतत्प्रकृतिव्यं पूर्वोक्तस द्वादश प्रकृतयो ऽयोगिकेवलिनि चरमसमयान्ताश्चरमसमये तपञ्चाशतोऽपनीयते ततः (चरीमत्ति) चरमसमये कोणमोह योगिकेवलिगुणस्थानस्यान्तो व्यवच्छेदो यासां ताश्चरमसस्थति शेषः (पणपन्नत्ति) पञ्चपञ्चाशदये भवति । श्दमुक्त मयान्तास्ता एवाह सुभगमादयम् (जसत्ति) यश-कीर्तिभवति । निजाप्रचलयोः वीणमोहस्य छिचरमसमये उदयच्छेदः नाम अन्यतरवेदनीयं सयोगिकेवलिचरमसमयव्यवच्छिन्नोअपर पुनराहुः उपशान्तमोहे निघामचनयोरुदयच्छेदः । पञ्चाना द्वरितं वेदनीयमित्यर्थः। मपि निशाणां घोलनापरिणामे भवत्युदयः। कपका त्वतिथि तसतिगपणिं दिमणुया-नगइजिणुच्नति चरमसमयंता ।। शुरुत्वान्न निद्रोदयसंभवः । उपशमकानां पुनरनतिविशुरुत्वास्यादपीति (नाएंतरायदसणचउत्ति) ज्ञानावरणपश्चकं मति (तसतिगति) त्रसत्रिकं त्रसबादरपर्याप्ताख्यं ( पणिदित्ति ) श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानावरणरूपमन्तरायपञ्चक दानवान पञ्चेन्द्रियजातिः (मणुआ उगवत्ति) मनुजशब्दस्य प्रत्येकं योगाभौगोपनोगवीर्यान्तरायाख्यं दर्शनचतुष्कं चकरचकरवधिकेवर न्मनुजायुः मनुजगतिः ( जिणत्ति ) जिननाम (उच्चंति ) दर्शनावरणकणमित्येतासां कीणमोहचरमसमये बेदो भवति। उच्चैगोत्रमिति शब्दो द्वाददाप्रकृतिपरिसमाप्तिद्योतक इति । (१३) तदनन्तरं कोणमोहत्वादित्येतत्प्रकृतिचतुर्दशकं पूर्वो कर्म०२ का पं०सं०। एकस्मिन् गुणस्थानेषु, (उदयसत्तास्थातपञ्चपञ्चाशतोऽपनीयते शेषैकचत्वारिंशतीर्थकरनामोदयाच्च नयोजनागुणट्ठाणशब्दे । बन्धोदयसत्तास्थानचिन्ता तत्संबंधश्व तत्केपे द्वाचत्वारिंशत्सयोगिकेवलिनि भवतीत्येतदेवाह । (स- | कम्मशब्दे । ये परिषहा यत्कर्मोदयनिमित्ताः इत्यादि परिसह जोगिवायाझत्ति) स्पष्टम् ।। शब्द । मारणान्तिक उदयसोढव्य इति वेयणा शब्द) तित्युदयानरमा थिर-खगइदुगपरिनतिगतसंगणा ॥ (६) उदयहेतुं प्रदर्शयति अगुरुलघुवाचउनिमिण-तेअ कम्पाइसंघयण ॥ २१ ।। | दव्वं खेत्तं कालो, जवो य भावो य हेयवो पंच । ननु पञ्चपञ्चाशतो ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं दर्शनच- हेउसमासेणुदओ, जायश् सव्वाणपमईणं ॥ तुम्काकणप्रकृतिचतुर्दशकापनयत एकचत्वारिंशदेव नवति ततः ईक सर्वासां प्रकृतीनां सामान्यतः पञ्च नदयहेतवस्तद्यथा.प्रन्यं कथमुक्तं सयोगिनि चित्वारिंशदित्याशङ्कचाह (तित्युदयत्ति) कंत्र कालो भयो जावश्च । तत्र व्यं कर्मपुमनरूपं यदि तीर्थोदयात्तीर्थकरनामोदयादित्यर्थः । यतः सयोग्यादौ तीर्थक चाबाह्यं किमपि तथाविधमुदयप्रादुर्भावनिमित्तं भूयमाणं रनामोदयो जवति यमुक्तम् “ उदए जस्स सुरासुर-नरवनि दुर्भाषितभावापुफलषव्यक्रोधोदयस्य केत्रमाकाशं समयाबहहिं पुश्त्रो हो । तं तित्थयरं नामं, तमुविवागो हु केवलि दिरूपो नयो मनुष्यादिभवः ।जावो जीवस्य परितमधिशोषः। णो"॥ ततः पूर्वोक्तैकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम विष्यते । जाता पते च नैकैकश उदयहेसवः किन्तु समुदितास्तयावा हेतुसमासेन द्विचत्वारिंशत्सा च सयोगिनि जवतीति। (नरवा थिरखगदुग उक्तस्वरूपाणां व्यादीनां हेतुना समासेन समुदायेन जायते सत्ति) द्विकशब्दस्य प्रत्यकं योगात् औदारिकद्विकमौदारिकारी र्षासांप्रकृतीनामुदयः केवलं कापि इत्यादिसामग्री कस्याश्चित्प्रर औदारिकाङ्गोपाङ्गलकाम् । अस्थिरद्विकमस्थिराशुभाख्य कृतेरुदयहेतुरितिनहेतुत्वव्यभिचारः। उक्ता उदयहेतवः। पं०संग म् । खगतिद्धिकं शुनविहायांगत्यशुभविहायोगतिरूपं ( परित्त- । जदयगा।मण।-जदयगाामना- स्त्र उदयगामिणी- उदयगामिनी- स्त्री० उदयं सूर्योदयं गच्छति तिगत्ति) प्रत्येकत्रिकं प्रत्येकस्थिर भाख्यम् । (बसंगणत्ति) मुहूर्तादिना व्यानोति गम्-णिनि-डीप-सूर्योदयावधिमुहूर्तादिषट्संस्थानानि समचतुरनन्यग्रोधपरिमएमससादिवामनकुब्ज | काझव्यापिन्यां तिथी,कर्माऽनुष्ठाने नदयकाले, कियन्मानस्य ग्राह्य हुण्डस्वरूपाणि संस्थानशब्दस्य च पुंस्त्वं प्राकृताक्षणत्वात् यदा ता। तन्निर्णयो वैष्णवानां कासमाधवे ग्रन्थे । वाच । है । पाणिनिः स्वप्राकुतकणे हिङ्गं व्यभिचार्यपि (अगुरुजघुव-| उदय जिण-नुदयजिन-पुं० भविष्यति सप्तमे तीर्थकरे, स च नवचत्ति) चतुःशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धातू अगुरुत्रघुचतुष्कमगुरु- पूर्वभवे शङ्खनामा श्रावकः । सप्तममुदयजिनं वन्दे जीवं च लघूपघातपराघातोच्छ्वासाख्यं वर्णचतुष्कं वर्णगन्धरसस्पर्शरूपं शङ्खनाम्नः श्रावकस्य । प्रव०४६ द्वा०। (निमिणत्ति) निर्माणम् । (तैयत्ति) तेजसशरीरम् । (कम्मत्ति) उदयट्ठाण-नदयस्थान-न० उदयप्रकारे, । पं०सं० । (बन्धोकार्मणशरीरम् । (आइसंहननं ति) प्रथमसंहनन वज्रऋषज दयसत्ता प्राश्रित्य उदयस्थानेषु भङ्गाः कम्मशब्दे) नाराचसंहननमित्यर्थः ॥ नदयति (ण ) नदयार्थिन्-त्रि० लाभार्थिनि, " पमं जहा दूसरससरमाया, साएगयरं च तीसबुच्चेओ। वणिए उदयट्ठि, श्रायस्स हेउं पगरेति संग"सूत्र०२७०६म०। बारस अजोगिसुजगा-इज्ज जसनयरवेयणि ॥२१॥ जदयण-नदयन-न० उद्-द-भावे-ल्युद-उदये, समाप्तौ च । दुःस्वर सुखरं सातं च सुखमसातं च दुःखं सातासाते अगस्त्यमुनी, कुसुमाञ्जलिप्रभृतिग्रन्थकारके स्वनामख्याते श्रा तयोरेकतरमन्यतरत्सातं वा असातं वेत्यर्थः । ततः पतासां चार्य च । वाचा उदनोऽप्याह ।नापि प्रतिपक्षसाधनमनिवर्त्य त्रिंशतः प्रकृतीनां सयोगिकेवलिन्युदयव्यवच्छेदः । तत्रैकतर- प्रथमस्य साधनत्वावस्थितिशङ्कितप्रतिपक्षत्वादिति । र० । मुवेदनीयं यदयोगिकेवलिनि वेदयितव्यं तत्सयोगिकेवलिचरम- मुक्षुकर्मव्यापारतन्त्रं तत्वज्ञानवृत्ति नवेति विप्रतिपत्तिविधिखमये व्युच्छिन्नोदयं भवति (१४) पुनरुत्तरत्रोदयाभावात् दुःस्व कोटिरुदयनाचार्याणाम् । न०। वीणावत्सराजे, उत्त०३ श्रा रसुस्वरनाम्नोस्तु भाषापुद्गलावपाकित्वाद्वाग्योगिनामेवोदयः (तत्कथा चैवम् ।) शेषाणां पुनः शरीरपुलविपाकित्वात् काययोगिनामेव तेन जइ णं भंते पंचमस्स अज्मयणस्स उक्खेवओ एवं खनु Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८११) अभिधानराजेन्द्रः । उदयण जं ते काणं वेणं समर्थ कोसंबीशाने भरी होत्या । रिहा चंदातर उजा सेवन जक्रखे तत्य णं कोसंबीय लयरीए स्यालिए णामं राया होत्या महयादित तस्स सपाटीवरस रम्रो मियावती देवी अचर उदयणे एामं कुमारे होत्या । अही एजुवराया तस्स हो उदयशस्त कुमारस्य पमाव णामं देवी होत्या बिया ५ प्र० । ० ( उदयनस्य सोमदत्त पुरोहित सुतबृहस्पतिदत्तं पद्मावत्यां स्वमाययामास वा तद्विघातनं तच्च वह फरदत्त शब्दे ) विद्यागुणे पण्डयोतभूः पुत्र्या वासवदत्तायाः शिक्षके, प्र०क० । श्राव० । श्रा०यू० (सेगियशब्दे तत्कथानकम् | यौगन्धरायण सेशियसन्दे तद्विवृति) सिन्धुसीबीराधिपतौ च । तद्वृत्तलेशोऽयम् । सिन्धु सैौबीरदेशाधिपतिर्दशमुकुपद भूपसेव्यउदयनराजो विद्युग्मालिसमर्पितप्रति मार्चनागत नीरोगीभूत पारश्राद्धातिरिकाभन्त एतो जाता ऊतरूपायाः सुवर्णगुलिकाया देवाधिदेवता प तीरं मालवदेश भूपसेव्यं चण्डप्रद्योतराजं देवाधिदेवप्रतिमाप्रत्यानयनोत्पन्नसंग्रामे बंद्धा पश्चादागच्छन् दशपुरे वर्षासु तस्थौ । वार्षिकपर्वणि च स्वयमुपवासं चक्रे । भूपादिष्टसूपका. रेण भोजनार्थ पृष्ठेन चण्डप्रद्योतेन विषांभया श्राद्धस्य ममायोपवासइति प्रोक्रे धूर्तसाधर्मिकेऽप्यस्मिन्नमिते मम प्रतिक्रमणं न शुव्यतीति तत्सर्वस्वप्रदाननस्तद्भाले ममदासी पतिरित्यज्ञानाय स्वमुकुटपट्टदानतः श्रीउदयनराजेन श्रीचण्डप्रद्योतः क्षमितोऽत्र श्रीउदयनराजस्यैवाराधकत्वम् । कल्प० उदयगामिनि त्रि० । स्था० ५ ठा० । नसत्व- पुं० उदयनमुदयगामि प्रवर्त्तमानं सत्वं यस्य स तथा । तथाविधे पुरुषजातभेदे, स्था०५ठा० । उदयत्यमण-उदयास्तमनन० उदयवेलायामस्त वेलायांचा उद् यत्थमणे सुमुहुत्त सुहदंसणं " कल्प० । हृदयधम्म- सदयधर्मन् पुं०धर्मकल्पन कारके आगमगच्छीयेश्राचायें जै००। उदयसंविज्ञ बुधश्रदिताः पञ्चेन्द्रियजातयेकिटिक संस्थान घातोच्छवासोद्योतविहायोगतयो गुरुलघुतै जसकार्म निर्माणोपपाकिस नीयं नीचैर्गोत्रं षोमशकषायमिथ्यात्वं ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरापञ्चकं दर्शनावरणचतुष्टयमित्येताः षष्टिः प्रकृतयः उदयबन्धोत्कृ थः । एतासामुदयप्राप्तानां स्वबन्धनत उत्कृष्श स्थितिरवाप्यते तत पता उदयबन्धोत्कृष्टानिधेयाः । पं० सं० ॥ उदयवई - उदद्यावती स्त्री० कर्मप्रकृतिभेदे, तत्स्वरूपं च "चरसमग्रम्म दक्षियं, जासि अत्रत्थसंक्रमे ताउ । अनुदयवश्य ओ, उदय होति पगईओ " इति अनुदयत्रतिकृप्रतियः इतराः प्रकृतय उदयवत्यो भवन्ति । पं० सं ॥ यासांचा वे दयवतीः प्रकृतीरनिधातुकाम त्राह । नातराय ग्राउसराच हवेपणीयमपु मिच्छा । चरिमुदय उच्चयगउदेयवई चरिमलोजो य ।। ज्ञानावरणपञ्चकमन्तराय पञ्चकमायुश्चतुष्टयं दर्शनचतुष्टयं सतास तरी नपुंसकयेदी वरमयान्यमनवकरूपास्तामनुष्यगतिः पानामा नाम पर्यातकनाम शृजनामसुस्वरनामादेयनाम तीर्थकरनाम तथा उच्चैत्र वेदम्य चरमप्रभः संयमहीना येतातुर्खिश उदयत्यस्तपादिनाचरणान्तराद नावरणयनुष्टरूपाणां कृतकामये चरमा नाम कमान सातासांतवेदनयोगरूप च सयाद्वारा नामयोग के मनस्य सूक्ष्म परायान्यसमये पेश्कसस्यत्वस्य स्वरूपणपर्यवसानसमये नपुंसकयोः कृप कामनिवृत्तिवादः संयेागेतेषु समभायु व स्वस्वचसमये स्ववेदन मस्ति । तत एता उदयवत्योऽनिधायन्ते । यद्यपि सातसातवेदनोवानुययमभि प्रधानमेव गुणमवसय सत्पुरूषा व्यपदेशं प्रयच्छन्तीति उदयव त्यः पूर्वपुरुपैरुपदिशः । पं० सं० ३ द्वा० । उदयन- पुं० विक्रमयत्यात्मविधि(१४२० वर्षे जात श्रीपादान/मग्रन्थतो लब्धिसागरस्य गुरौ । जै०ई० । उपरणगणि-उपरत्नगणिन् १० नामके सुनहरे शिष्य, अनेन विक्रमराज्यात अष्टाविंशत्यधिकचतुर्दशशते (१४२)रकृतीस्थ " उदयपत्त - उदयप्राप्त - त्रि० उदिते, प्रश्न० सं०५ द्वा० । उदयप्पनसूरि- उदयप्रनसूरि- पुं० नागेन्द्रगच्छीये स्वनाम - पाते क्रिभेदे “प्रमाणसिद्धान्तविरुद्धमंत्र, पत्किचि मतिमान्यदोषात् । मात्सर्वमुत्सार्य तदार्यचित्ताः प्रसादमाधाय विशोधयन्तु ४ उपमेय सुधारित लो क्यविस्तारणो यत्रेयं प्रतिभासरानुमितिर्निदम्भमुज्जृम्भते । किचामी विबुधाः सुचेति वचनो यहां मुद्दा शंसन्ति प्रथयन्ति तामतितमां संवादमेदस्विनीम् । ५ नागेन्द्रगोविन्द बलद्वारकौस्तुभावानास्तुकका उत्कीर्मास यप्रभसूरयः ॥ श्रयमाचार्यः विक्रमसंवत् १२२० वर्षात् १२७७ पर्यन्तं विद्यमान आसीत्। विजयखेनसुरेरयं शिष्यः पौरबलमहाराजाऽमात्यवस्तुपालस्य मान्य श्रासीत् श्ररम्भासfreegaraन्थो व्यरीरचत् । द्वितीयोऽप्येतन्नामा रविप्रभसूरेः शिष्यः । नेमिचन्द्रसूरिकृतप्रमोद्धारस्योपरिविषमपदव्याख्यानाम्नीं टीकां कृतवानिति । जै० इ० । उदयबंधु किडा - उदयबन्धोत्कृष्टा- स्त्री० कर्मप्रकृतिभेदे, यासां प्रकृतिविपाको सन्धिस्थिति कर्मचाउ मधोत्कृसंज्ञाः । पं० [सं० ।" उदउकोसापपणाऊ” अनायुष श्रा दिपाको प्रमाने सति कम उत्कृ नबन्धस्ता उदयक्रमोत्कृष्टशः । पं० सं०३ द्वा , उदयसंवि-उदयसंस्थिति-० सूर्यादेरुदयावेधा, चं० प्र पाहु०सू०प्र० (सूर्यस्य उदयवी विप्रतिपचिप्रदर्शनचक सिद्धान्तो यथा ताकते उती आहितेति बजा तस्य ख माओ तिमि पडिवत्तिओ पात्ताओ तत्थेगे एवमाहंसु ता जदा जंबूदी २ दाहिण अहारसमुड़ते दिवसे जयति ता तः । जै० २० । उदयवीरगति उपवीरगणिनागये संघनोऽन्तेवासिनि । जै० ३० । - Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१२) उदयसंगिइ अन्निधानराजेन्द्रः। नदयाठि णं उत्तरले वि अट्ठारसमुदत्ते दिवसे नवति । जता णं न द्वादशमुहर्त्तदिवसप्रतिपादकसूत्र साक्कादाह (ता जयाणमितरले अट्ठारसमुहत्ते दिवसे नवति तता णं दाहिणले वि अ त्यादि) ता इति तत्र यदा जम्बूद्वीपे दक्विणा द्वाददामुहर्तों दिवसो जवति तदा उत्तराऽपि द्वादशमुहूर्तों दिवसः यदा द्वारसमुहत्ते दिवसे भवति । जदा एं जबुद्दीवे २दाहिणले उत्तराः द्वादशमुहूर्तो दिवसस्तदा दक्किणाऽपि द्वादशमुहसत्तरसमुहत्ते दिवसे नवति तया एं नत्तर वि सत्तरस मुहत्ते प्रमाण दिवसः । तदा अष्टादशमुहर्तादिदिवसकाले जम्बूदिवसे नवति । जया णं उत्तरले सत्तरस मुहृत्ते दिवसे द्वीपशमन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि सदा सर्व जवति तदा णं दाहिए? वि सत्तरस मुहत्ते दिवसे नवति । कावं पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति सदैव पञ्चदशमुदती रात्रिः। कुत इत्याह । अवस्थितानि सकल कालमेकप्रमाणनि एवं परिहावेतवं सोलसमुहुत्ते दिवसे पप्परसमुहत्ते दिवसे णमिति वाक्यालंकारे तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां चोद्दस मुहुत्ते दिवसे जवति तेरसमुहुत्ते दिवसे जाव ता जता दिशि रात्रि दिवानि प्राप्तानि हेश्रमण! हेआयुष्मन् पतश्च प्रथणं जंबदीवर दाहिण के बारसमुहत्ते दिवसे तया णं उत्तरहेवि मानां परतार्थिकानां मूत्रनृतं स्वशिष्यं प्रत्यामन्त्रणं वाक्यम् । बारसुहत्ते दिवसे नवति । जता णं उत्तरवे वारसमुदुत्ते अत्रैवोपसंहारमाह । (एगे एवमाइंसु) के पुनरेवमाहुः यदा जम्बूद्वीपे दक्षिणस्मिन्न अप्पादशमुहतानन्तरोऽशादशज्यो दिवसेजवति तताणं दाहिणले विवारसमदत्ते दिवसे जवति । मुहत्तै ज्योऽनन्तरो मनाक हीनो हीनतरी वा यावरसप्तदशज्यो तता णं जंबुद्दीवेश मंदरस्स पब्वयस्स पुरस्थिमं पञ्चच्छिमेणं मुहूर्तेन्यः किंचित्समधिक एव प्रमाणो दिवसोनवति तदा उत्तसत्तपत्मरसमुहुत्ते दिवसे जबति सदा पठारस मुहुत्ता राई राऽप्यष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति यदा चोत्तरा भवति अवट्ठिताणं तत्य राईदिया पमत्ता समणानसो एगे ए. अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो जवति तदा दक्विणाऽपि अष्टावमासु । एगे पुण एवमाहंसु जताएं जंबूदीवे दाहिणले दशमुहर्त्तानन्तरो दिवसः । यदा जम्बूद्वीप दक्विणा सप्तदशम दुनिन्तरो दिवसोनवति तदा उत्तरापिसप्तदशमुहूर्तानन्तरो अाहारस महत्ताणतरे दिवसे जवति तया णं उत्तरले वि दिवसः यदा उत्तराः सप्तदशानन्तरो दिवसस्तदा दक्विाऽपि आहारममुहुत्ताणंतरे दिवसे जवइ । जया एं उत्तरले अट्ठा- सप्तदशमुनिन्तरो दिवसः (एवमित्यादि ) पवमुक्तेन प्ररसमुदत्ताणंतरे दिवस जवति तता एणं दाहिण के वि अट्ठारसमु कारण एकैकमुहूर्त्तहान्या परिहातव्यं परिहानिप्रकार मेवाह (सोलसेत्यादि ) प्रथमतः षोमशमुहूर्तानन्तरो दिवसो वक्तव्यः। दुत्तागतरे दिवसे नवति । जया णं नत्तरके अट्ठारसमु ततःपञ्चदशमुहूर्तानन्तरस्तदनन्तरं चतुर्दश मुहूर्तानन्तरस्ततरूहत्ताणंतरे दिवसे जवति तता णं दाहिए के वि अट्ठारसमुहु- योदशमुहूर्तान-तरः पतेषां हि मतेन न कदाचनापि परिपूर्णम्ताणंतरेदिवसे जबति । एवं परिहावंतव्वं सत्तरस मुहत्ताणंतरे दूर्तप्रमाण दिवसो जवति ततः सर्वत्रानन्तरशब्दप्रयोगः । वाद दिवसे नवति सोझसमत्ताण्तरे परपरसमहत्ताणंतरे दिवसे शमुहूर्तानन्तरं सूत्रं तु साकाद्दर्शयति ॥ जबति एवं परिहावेतव्वं चोद्दसमुदुत्ताणतरे जाव ॥ । ता जयाणं जंबुद्दीवेश्दाहिए वे बारसमुत्ताएंतरे दिवसे जब ( ता कधत इत्यादि ) ता इति पूर्ववत् कथं केन प्रकारेण सूर्य- ति तदा णं नतर वि बारसमुहत्ताणतरेदिवसे नवति जता स्य उदयसंस्थितिस्ते त्वया भगवन्नाख्याता इति वदेत् एवमुक्ते | णं उत्तरके बारसमुहत्ताण्तरे दिवसे जवति तया एं दाहिणसति भगवानेतषिया यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति। केवि बारसमुहुत्ताएं तरे दिवसे नवति तदा एं जंबुद्दीवे २ (तत्थेत्यादि) तत्र तस्यामुदयसंस्थिती विषये तिस्रः प्रतिपत्तयः परतीर्थिकाज्युपगमरूपा प्राप्तास्तद्यथा तत्र तेषां त्रयाणां परती मंदरस्स पव्वतस्स पुरस्थिमपच्चच्छिमेणं णो सदा पसारसमुदुत्ते थिकानां मध्ये एक प्रथमाः परतीथिका एवमाहः (ता जयाण- दिवसे जवति णो सदा पसरसमुहुत्ता राई नवति अणवमित्यादि) तत्र यदा एमिति वाक्याझंकारे अस्मिन् जम्बूद्वीप हिताणं तत्य राइंदिया पसत्ता समणानसोएगे एक्माहंसु एगे द्वीप दकि प्रधादशमुहत्तॊ दिवसो नवति तदा उत्तरापि पुण एवमाहंसु २ ता जदा एं जबुद्दीवे दाहिण हे अट्ठाअष्टादशमुहृत्तादिवसः । तदेवं दविहार्डनियमेनोत्तराई नियम उक्तः । संप्रति उत्तरार्डनियमेन दविणार्डनियमनमाड (ताज रसमुहुत्ते दिवसे जवत्ति तदाणं उत्तरले दुवानसमुहत्ता राई याणमिदि) तच्च यदा उत्तरार्क अादशमुहत्तौ दिवसो नवति जवति । जया णं उत्तरहे अफारममुहत्ते दिवसे जवति तदा तदा दक्षिणापि अादशमुहतों दिवसः (ताजयाणमित्यादि) णं दाहिण बारसमुदुत्ता राई जवति ता जया ए जंबुद्दीवे यदा जम्बूद्वीप द्वीप दक्विणा सप्तदशमहत्तों दिवसो नवति २ दाहिण से अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे जवति तदा पे तदा सप्तराऽपि सप्तदशमुहुती दिवसा नवति यदा चोत्तरामें सप्तदशमुहत्तॊ दिवसो नवति तदा दकिणाऽपि सप्तदश उत्तर बारसमुद्त्ता राई जवइ । जता णं नसरले अट्ठामहत्तों दिवसः (एवं इत्यादि) पयमुक्तेन प्रकारेण एककमुहर्त रसमुहत्ताणं तरे दिवसे जवति तदा णं दाहिण बारसमुहान्या परिदातव्यम् परिहानिमेव ऋमा दर्शयति । प्रथमत उक्त दुत्ता राई जवति । एवं णितव्वं सगलेहि य अणंतरेहि प्रकारेण पोमशमुत्तों दिवसो वक्तव्यः तदनन्तरं पञ्चदशमुहर्त- य एकेके दो दो पालावका सम्वेहि सुवालसमहत्ता राई स्ततश्चतुर्दशमुहर्तस्ततखयोदशमुहर्तः सूत्रपाऽपि प्रागुक्तसूत्रा जबति जाव ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिए वारसमुहुनुसारेण स्वयं परिभावनीयः । सचैवं " जया णं जंबुहीवे दीवे दाहिणले सोलसमुहत्ते दिवसे भव तया णं उत्तर सोह समु. ताणंतरे दिवसे जयति उत्तरहे दुवान्नसमुहुत्ताराई नवात हुत्ते दिवसे भव जयाणं उत्तरले वि सोडसमहत्ते दिवसे जया एं उत्तरले वाल समुहत्ताएंतरे दिवसे नवति जवर तया णं दाहिणले वि सेलिसमुहत्ते दिवसे भव" इत्यादि । तदा णं दाहिण वालसमुहुत्ता राई जयति । तता एवं Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१३) अभिधानराजेन्द्रः । उदयसंदि जंबुद्दी दी मंदर पन्चयस्स पुरच्छिमपचमेणं मुटु दिवसे भवति । एवस्थिपरममुत्ता राई जति बाणं तत्य राईदिया पत्ता समानमो मायंपुर्ण एवं मोना युरिया दीपाच्छंन पाईदाहिणमागच्छेति पाईए दाहि नुपगच्छति दाहिणवणिमागच्छंति दाहीलपकी मुग्गतिमुदीमागच्छंति पडीण उदीमुपगच्छंत उड़ीपाईणमागच्छति । ता जता णं जंवृद्दी वंश्वा हिडे दिवसे जयतिउत्तर दियमे जवन मंदरस्त पन्त्रयस्तपुर चित्रमपचच्मिणं गई जवति ता जड़ा ए जंबूदरी मेहरम पव्यस्य परमेणं दिवमे जयति ना मेहरम व्ययस्म उतराई राई जति न जाणं वृदि हारसमुह दिवस जवति तदाणं उत्तरदेवि नकोस अहार दिवसे जयति जगाणं हथर होस दिवसे जवति तदा एां जंबुईवि २ दरम पच्चयस्य पुरच्त्रिमेणं जहसिया दुवाममुत्ता राई जब ना जा उको अारट व पचमण chine अारने दिवसे जवति तता णं जंबूदीचे २ मंदरम पव्वयम् उत्तरदाणिं अहमिया वासनु चाराई जवान एवं पूर्ण अट्टारसमुटुदिवसे सारंगवासना राई जवति सत्तरते दिवने तरसत्ता राई समरममुत्ताणंतर दिव जति मानिरेतरमा गई दिवस जवति चांदमहत्ता राई जवति । मोलसमुहत्तानंतर दि जति सारंगा राई प्रतिर दिवसे परमुत्ता राई पसरतात दिवसे मार तराई जमिनमुटुला राई चोदसमुत्तांतरे दिवसे मातिरेगमालमत्ता राईतरम मुहते दिवसे सत्तरमुत्ता राई तेरममुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगमत्तरसमुत्ता राई । जहमए दुवाल ममुटु दिवसे जवा कोनिया अहारपुरा राई एवं जनिता दावेदार वासाणं परं मम पडि जति उत्तरं सपा समि जना एवं उत्तर1⁄2 वासाणं पढमे समए पडिवज्जति नता जं 2 मंदरस्यपव्ययस्स पुरमपमनिरप कवडे कायमममि बागाणं परं ममए पनि जया णं जंबई | वे 2 मंदरम्स पव्वयस्स पुरच्मेिवासा २ परमे मम पनि तना पण विवा पदम समय परिवज गया पथमा मदमे समय परिवत तता णं मंईवे 2 मंदरस पर उदयसंठिह यम् उतरदाहियां तच्छायकालमसिवासा समये जयति । जहा समय एवं आवलियाए प्राणापाने होरसे पासे उ इस आवाका जया वासाणं एवं हेमंताणं गिम्हाणं च जा पिया ॥ ( ता जया णमित्यादि ) तत्र यदा जम्बूद्वीपे दक्षिणा द्वादश मुटु दिवस्दा उपामुद सः। यदा चोत्तरा द्वादशमुनिन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणादिल दिवसातद जयी मन्द पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां दिशि नासा पम्चदसमुह दिवसो भवति नप सदा पञ्चदशमुर्ता रात्रिः कुत इत्याह ( अणवाध्याणामित्यादि ) अनवस्थितानि अनियतप्रमाणानि णमिति खलु तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां दिशि रामिन्दि भ्रमण ! हे आयुष्मन् ! अत्रोपसंहारमाढ । ( एगे एवमाहंसुर ) पुनः इति पूर्ववत म्याद यमो यति तदा द्वादशभिः दिवो भवति तदा दक्षिणा दतिया पदा दक्षिणा भारता तर) दो माह होनो टीम नायक प्रमाण दिवस तिता उत्तरा द्वादशमुहूर्ता रात्रिः । यहा राशन दिनमा दि पा द्वादशमुड़ती रात्रिः ( एवमित्यादि) एवमुतेन प्रका रेणापपादनद तया कधि समदशाविक विध किचिदून द्वावात्राको वक्तव्य सर्वत्र च द्वादशमुर्ती रात्रिः तद्यथा ।" जयाणं जीवेदी दाहिण सत्तरसमुह दिवसे जव तयाणं उत्तर वाममुहुत्ता राई जयति जय उत्तरने सत्तग्ममुत्ते दिवस जव तया णं दाणि वात्रसमुदृत्ता राई व जया णं जंबुद्दिवि दीव दाहिण सत्तरम महानंतर दिवसे व तया णं उत्तर दुबावसमुत्ता राई जब जयाणं उत्तर मत्तरममुत्ताणंतरे दिवसे जव तथा णं दाणि वासना गरे जय" एवं पाशमुहर्त्तः । पोशानन्तरं पञ्चदशः पञ्चदशर्नानन्तरं चतुर्द समुन्दर नाकातल्या द्वाद रगतमात्रापकं साकादाह (जयाणमित्यादि ) यदा जम्बूहीपे निदा रात्रिति यदा चात्तरा द्वादशमृदुतानन्तग जयति तदा दर्ता रासाय दशममन्तरादिदिया जी मन्द्रस्य पचन(पति) पूर्व पश्चिमायां दिशि नेपाल पञ्चाशदिवम् जयति यथा पञ्चदशमुहुर्ता त्रिवर्तीति कुत इत्याह (बनिमित्यादि) व्यवच्छिन्नानि समिति खतु तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य दिशानि नि! हेडापरमार (गेमा ३) नाति प्रति व्यापानगतो या संवादमा पि विरोधः । प्रत्यक्तोऽत्र दानाधिकरूपा रात्रेरूपन्नज्यमानत्वात् ॥ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसंठि अन्निधानराजेन्डः। नदयसंठिड संग्रति स्वमत नगवानुपदर्शयति । (वयंपुणश्त्यादि ) वयं पुनरे- पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽटादशमुहूतों दिवसोनवति तदा चं बक्यमाणेन प्रकारण वदामस्तमेव प्रकारमाह (ता जंबुद्दीवे. जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (उत्तरदाहिणणंति) उत्तरदीवे इत्यादि ) ता इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यों ययायोग- तो दकिणतश्च जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः । अत्रापि कारणं पूर्वमगमनपरिनम्या नमन्तौ मेरोरुदप्राच्यामुत्तरपूर्वस्यां दिशि पश्चिमार्के रात्रिगतं प्रागुक्तमनुसरणीयम् । (एवमित्यादि) उधतः तत्र चोमत्य प्राग् दक्षिणपूर्वस्यामागच्चतः ततो भर एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेन गमेनासापकगमेन बल्यनादिकेत्रापेकया प्राग दक्षिणपूर्वस्यामात्य दक्विणापरस्यामाग- माणमपि नेतव्यम् । किं तक्यमाणमित्याह । ( अहारसमुहचतस्तत्रापि च दविणापरस्यामपरविदेह केत्रापेकया उफत्या- त्ताणतरश्त्यादि ) यदा मन्दरस्य पर्वतस्य दकिणोत्तराईयोः पाच्युदीच्यामपरोत्तरस्यामागच्चतस्तत्रापि चापरोत्तरस्यामराव पूर्वपश्चिमयोर्वा अष्टादशमुहूर्तानन्तरः सप्तदशज्या मुहूर्तज्य तादिकतापक्वया उत्य उदकशाच्यामुत्तरपूर्वस्यामागतः कर्ड किंचिन्यूनाष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसस्तदा पूर्वपश्चिमएवं तावत्सामान्यतो द्वयोरपि सूर्ययोरुदयविधिरुपदर्शितो विशे योदक्षिणोत्तराईयोर्वा सातिरका द्वादशमहर्ता रात्रिर्भवषतः पुनरयं यदकः सूर्यः पूर्वदक्षिणस्यामुद्गच्छति तदा अपर तीति एवं शेषाएयपि पदानि नावनीयानि सूत्रपागेऽपि उत्तरस्यां दिशि समुच्चति दक्षिणपूर्वोततश्च सूर्यो नरतादीनि प्रागुक्तासापकगमानुसारेण स्वयं परिनावनीयः । स चैवं केत्राणि मेरुदक्विणदिग्वनि मएमझ परिचम्या परिनन् प्रकाश " ता जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणले अधारसमुदत्ताणतरे यति अपरोत्तरस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्ध्वमएमसपरितम्या परि दिवसे हव तया णं उत्तरवि अघारसमुदत्ताणंतरे दिवसे भ्रमन् ऐरावतादीनि केत्राणि मेरोरुत्तरदिग्नावानि प्रकाशयात जब जया " उत्तरले अट्ठारसमुत्ताणंतरे दिवसे हवा तया भारतश्च सूर्यो दकिणापरस्यामागतः सन्नपरविदेहकेत्रापेक णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पत्रयस्स पुरधिमपश्चछिमेणं साया नदयमासादयति ऐरावतः सूर्यः पुनरुत्तरपूर्वस्यामागतः पूर्व- तिरंगवाससमुहुत्ता राई नवरता जया णं जंबुद्दीवे दीये मंदविदेहापेक्या समुच्चति ततो दक्षिणापरस्यामुमतः सत् तत रस्स पव्वयस्स पुरछिमेणं अघारसमुहत्ताण्तरे दिवसे हवर ऊं माननम्या परिनुमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति । उत्तर- तयाणं पञ्चभिमेण वि अद्वारसमहत्ताणंतरे दिवसे हवा । जया पूर्वस्यामतः सन् तत ऊ: मामागत्या चरन् पूर्वविदेहानधभा. णं पञ्चम्मेिण वि अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवर तयाणं जंबु सयति । तत एष पूर्वविदेहप्रकाशकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां भर इं।वेदीवे मदरस्स पबयस्स उत्तरदाहिणणं सारेगऽवाझसमु तादिकेत्रापेक्कयोदयमासादयति अपरविदेहप्रकाशकस्त्वपरोत्तर हुत्ता राई नवएवं सप्तदशमहर्तदिवसादिप्रतिपाद का अति स्यामिति। तदेवं जम्बूद्वीप सूर्ययोरुदयविधिरुक्तः संप्रतिकेत्रविना. सूत्रामाएका भावनीयाः (ता जयाणमित्यादि) तत्र यदा जम्बूद्ध पे गेन दिवसरात्रिविभागमाह ( ता जयाणमित्यादि) तत्र यदा- तण वर्षाणां व कालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते भवति णमिति वाक्यालंकारे जम्बृद्धीपे २दक्षिणा दिवसोभवति तदा तदा उत्तरार्द्धऽपि वर्षाणां प्रयमसमयो जवति समकाले नय. उत्तराऽपि दिवसो जवात पकस्य सूर्यस्य दकिणदिारी परि धन दक्षिणा उत्तराच मर्ययोश्चारनावात् यदा चोत्तराके नमणसंजवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमुत्तरदिशि मणसंभवात् घोकानस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीप द्रीपे मन्दरस्य यदा चात्तरा दिवसस्तदा जम्वृद्धापद्वापे मन्दरस्य पर्वतस्य | पर्वतस्य ( पुरछिमपञ्चधिमणंति) पूर्वस्यामपरस्यां च दिदिश (पुरच्छिमपञ्चच्छिमणंति) पूर्वस्यामपरस्यांच दिशि रात्रिर्भयति (अणंतरपुरमखमत्ति) अनन्तरमव्यवधानेन परकृतोऽग्र कृतो तदानीमेकस्यापि सूर्यस्य तत्रानावान ।( ता जया णमित्यादि)। यः सोऽनन्तरपुरस्कृतोऽनन्तरक्तिीय इत्यर्थः । तस्मिन् काले तत्र यदा जम्बूदीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि दिवसा भवति पकस्य सूर्यस्य पूर्वदिग्भागसंनवे अपरस्य सूर्यस्याव (समवंसित्ति ) समयः संकेतादिरपि नवति ततस्तव्यवच्छेश्यमपरस्यां दिशि जावात् । एतच्च प्रागव भावितम् । यदा च दार्थ कानग्रहणं काबश्वासी समयश्च कानसमयस्तत्र वर्णकापश्चिमायामाप दिशि दिवसो जवति तदा जम्बूद्धापे मन्दरस्य बप्रयमसमयः प्रतिपद्यते भवति किम जयति यस्मिन् समय दक्षिणाऊत्तराईयोर्वकालस्य प्रयमः समय भवति तस्मापर्वतस्य ( उत्तरदाहिणेणंति ) उत्तरतो दरिणतश्च रात्रिर्जवति दूर्यमनन्तरे द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वकारस्य प्रथमस(ताजया णमित्यादि) तत्र यदा णमिति प्राग्वत् जम्बूदीपे दकि- मयो भवति ( ताजयाणमित्यादि) तत्र यदा एमिति प्राम्यत् । णा उत्कर्षत उत्कृष्टोऽष्टादशमुहत्तप्रमाणा दिवसा भवति तदा जम्बूद्धापे २ मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि वर्षाका त्रस्य प्रयमः उत्तरापि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणो दिवसः समयो नवति तदा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टो ह्यष्टादशमुहूत्तंप्रमाणा दिवसः सर्वांच्यन्तरमहमचा- वर्षाकामप्रयमसमयो नवति समकानयत्येन पूर्वपश्चिमयोरपि रित्वे तत्र च यदेकः सूर्यः सर्वान्यन्तरमामबचारी जवति तदा सूर्ययोश्चारचरणात् । यदा च पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य अपरोऽध्यपश्यं तत्समायातश्रेण्या सर्वान्यन्तरमामनचारी भव- प्रथमः समयः भवति तदा जनयूद्वीपे हापे मदरस्य पर्वतस्थ तीति दक्किणा उत्कृष्टदिवससंभव नुत्तराऽप्युत्कृष्टदियससं- (नुत्तरदाहिणणंति ) उत्तरतो दकिपतश्च अनन्तरमव्यवधनिन जवः । यदा उत्तरा नत्कृष्टोऽष्टादशमुहर्तप्रमाण। दिवसी पश्चात्कृतोऽनन्तरपश्चात्कृतस्तस्मिन् कानसमये वर्ष कात्रस्य भवति तदा जम्बूहीपेश्मन्दरस्य पर्वतस्य (पुरच्छिमपञ्चच्चि- प्रथमः समयः प्रतिपन्नो जयति नूत इत्यर्थः। श्ह यस्मिन् समय मणति) पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि जघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रि- दक्षिणा नुत्तरा च वर्षाकास्य प्रथमः समया जवति तद. भवति सयान्यन्तर मामले चारं चरतो. सूर्ययोः सर्वत्रापि रात्रे- नन्तरतने द्वितीये समय पूर्वपश्चिमयोर्याणां प्रथमसमयो दशमुहूर्तप्रमाणाया एव भावात् तया (ताजयाणमित्यादि) जवतीति । एतावन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोर्वतत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्थ पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि उत्क. कास्य प्रथमःसमयोनवति ततोऽनन्तरे पश्चाङ्गाधिनि समये पंत उत्कृष्टोऽष्टादशमुना दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पर्व- दक्षिणोत्तरार्द्धयोर्वकारस्य प्रथमः समयो जवतीति गम्यते तस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहतो दिवस कारणं तन्किमयमस्यापादानम उच्यत इह क्रमान्यामानाहता दकिणोत्तरारूंगतं प्रागुतमनुसरणीयम् । यदाच मन्दरपर्वतस्य पञ्चितझानां शिष्यायामतिसुनिश्चिता नवति ततस्तेषामनुग्रहाय Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदयसंठिश अभिधानराजेन्द्रः। जदयसंठिश तदुक्तमित्यदोषः ॥ (जहासमयश्यादि ) यथा समय नक्तस्तथा एवं जहा बवणे समुद्दे तधेव कासोदे तअन्जितरं पुक्रवरप्रावलिकाद्याणापाणी स्तोकको अवो मुहत्तोऽहोरात्रः पक्को मा- कंणं सरिया उदीणपाईणमुग्गच्छंतधेव ता जता णं अग्नितस ऋतुश्चप्रावृमादिरूपो वक्तव्यः एवं च समयागतमापकमादि रपुक्खरखणं दाहिणले दिवसे नवति तदा णं उत्तरके वि कृस्वादश आनापका एतेजवन्ति तेच समयगतासापकरीत्या स्वर्ष परिभावनीयास्तद्यया" जयाणं जंबदीवेदीव वासाणं पढमा आव. दिवसे नवति जता " नत्तरके वि दिवसे भवति तताण लिया पविज तया णं उत्तरवि वासाणं पढमा आवनिया प अजितरपुक्खरके मंदराणं पव्वताणं पुरच्छिमे पछि मिवञ्ज जयाणं उत्तरलेवासाणं पढमा प्रावत्रिया पमिवज्ज तया मेणं राई नवति सेस जहा एणं जंबुद्दीवे तधेव जाव णं जंबुद्दीवेदीव मंदरस्स पब्वयस्स पुरनिमपश्चच्छिमेणं अणंतर- उस्सप्पिणीअो सप्पिणी। परक्ख के कानसमयंसिवासाणं पढमा आवलिया परिवज्जता ता जताणमित्यादि सुगमम् । (जहाश्रयणेइत्यादि) यथा जयावं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरछिमेणं वासाणं श्रयने पालापको भणितस्तथा संवत्सरे युगे वदयमाणस्वरूपे पढमा आवबिया पडिवज्जर तयाणं पञ्चधिमेणं च पढमा प्रा चन्द्रादिसंवत्सरपञ्चकात्मके वर्षसहस्र वर्षशतसहस्रे पूर्वाङ्गे वझिया पमिवज्जर जया णं पञ्चमिणं वासाणं पढमा श्रावनि पूर्व एवं (जाव सोसपहेलियत्ति) अत्र एवं यावत्करणादमूया पविज तया जबदीये दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तर न्यपान्तराले पदानि द्रष्टव्यानि “तुडियंगे तुडिए अडडंगे दाहियेणं अतरपच्छाकाकासमयसि वासार्थ पढमा आवधिया पम्यिनाभव" इदं च प्रागुक्तव्याख्यानुसारेण व्याख्येयं नवरम् अडडे अयवंगे अववे हरयंगे हरये उप्पलंगे उप्पले पउमंगे (आवधिया पमिवाजत्ति) आवत्रिका परिपूर्णा भवति शेषं तथैव पउमे नलिणंगे नलिणे अत्थनिउरंगे अत्थनिउरे अउयंगे अउए एवं प्राणापानादिका अप्याआपका भणनीयाः ( एपश्त्यादि) यया नउयंगे नउए चूलियंगे चूलिए सीसपहेलियंगे सीसपहेलिए वर्षाणां वकारस्य एते अनन्तरोदिताः समयादिगता अत्र आजा इति" अत्र चतुरशीतिवर्षलक्षाएयेकं पूर्वाङ्ग चतुरशीतिपूर्वाङ्ग लक्षाणि एकं पूर्वमेव पूर्वः पूर्वो राशिश्चतुरशीतिर्लक्षैर्गुणिन पका नणिता एवं ( हेमंताणंति) शीतकात्रस्य (गिम्हाणति) उत्तरो राशिर्भवति यावश्चतुरशीतिशीर्षप्रहेलिकाङ्गलक्षाणि ग्रीष्मकालस्योष्णाकालस्येत्यर्थः । प्रत्येक समयादिगता दश आ एका शीर्षप्रहेलिका एतावान् राशिर्गणितविषयोऽत ऊर्च बापका नणितव्याः । अयनगतं त्वासापकं साकापति॥ गणनातीतः स च पल्योपमादि "पलिउवमे सागरोवमे" ताजताणं जबुद्दीवेशवाहिणले पढपे अयणे पमिवज्जति तदा अनयोः स्वरूपं संग्रहणीटीकायामुक्तम् । आलापकास्तु स्वयं णं उत्तरवि पढमे अपणे पमिवज्जः जता णं उत्तररूपढ. वक्तव्याः । अवसपिण्युत्सर्पिणीविषयमालापकं साक्षादाह मे अयणे पमिवज्जति तता एवं जंबुद्दीवे मंदरस्म पव्ययस्स | (ताजयाणमित्यादि ) ता. यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पुरच्छिमपञ्चच्चिमेणं अतरपुरक्खडकालसमयसि पढमे पर्वतस्य दक्षिणाः अवसर्पिणी प्रतिपद्यते परिपूर्णा भवति तदा उत्तराद्धेऽपि अवसरपणी प्रतिपद्यते यदा उत्तरार्दै श्रवअयणे पमिवजति ता जताएं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स सर्पिणी प्रतिपद्यते तदा जम्बूद्वीपे२ मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वपुरच्छिमेणं पढमे अयणे पमिवज्जति जया णं पञ्चच्छिमेणं प- स्यामपरस्यां च दिशि नैवास्त्यबसपिणी नाप्पस्त्युत्सर्पिणी ढमे अयणे पमिवज्जति तता ण जंबुद्दीवे मंदरस्स पव्वयस्स कुत इत्याह अविस्थितो गमिति खलु तत्र पूर्वस्यामपरस्यां उत्तरदाहिणेणं अतरपच्छाकमकानसमयसि पढमे अयणे च दिशि कालः प्रसतो मया शेवैश्च तीर्थकरैः श्रमायुष्मन् ! ततस्तावसपिरयुत्तपिण्यभावः (एवमुस्सप्पिणीवित्ति ) परिवन्ने नवति जहा अयणे तधा संवच्चरे जुगे वाससते एवमुक्तेन प्रकारेणोत्सर्पिण्यपि उत्सपिण्यालापकोऽपि वएवं वाससहस्से वाससयसहस्से पुवंगे पुव्वे एवं जाव सी- तम्यः। स चैवं "ताजयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिम पढमा सपहेलिया पलितोवमे सागरोवमे ता जदा णं जंबुद्दीवे २ उस्सप्पिणी पडिवज्जह तया णं उत्तरवि पढमा उस्सप्पिणी दाहिणछे उस्मप्पिणी पमिवज्जति तता एंण उतरवि नस्स पडिवज्जा जयाणं उत्तरवि पढमा उस्सपिणी पडियज्जद तया णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्धयस्स पुरच्छिमपश्चच्छिमेणं प्पिणी पमिवज्जति जता णं उत्तरछे नस्सप्पिणी पमिवज्ज नेव अस्थि उस्सपिणी अवस्सपिणी अवट्टिएणं तत्थ काले ति तताणं जंबुद्दीवेश्मंदरस्स पन्धयस्स पुरच्चिमपञ्चच्चिमणं पनत्ते समणाउसो " तदेवं जम्बूद्वीपवक्तव्यतोका संप्रति णेवत्थि ओस पिणी व अत्यि नस्सप्पिणी अवटि- लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह । ( लवणेणं समुद्दे इत्यादि ) तेणं तत्य काझे पागते समणाउमो एवं नस्सप्पिणी वि ता (तहेवत्ति) यथा जम्बूद्वीपे उद्गमविषये पालापक उक्तस्तथा लवणं ममुद्दे दाहिण दिवसे नवति तता णं उत्तरके दिवसे लवणसमुऽपि वक्तव्यः । सचैवं "लवणेणं सूरिया उईणपाई नवति जता उत्तर दिवमे भवति तता णं अवणसमुद्दे पुर गमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति पाईणदाहिणमुग्गच्छदाहि. णपाईणमागच्छेति दाहिणपाईणमुग्गच्छ पाईपउईएमागछिमपचाञ्चिमणं राई नवति जहा जंबुद्दीवे २ तहेव जाव च्छंलि पाईणउईणमुग्गच्छ उईणपाईणमागच्छति" इदं च उस्मप्पिणी तहा धायमणं दीचे सूरिया उदीण तधेवता | सूत्रं जम्बूद्वीपगतोद्गमसूत्रवत्स्वयं परिभावनीयं नवग्मत्र जताएंधायइसमें दीवे दाहिणदिवमे जवति तताएं नत्तर- | सूर्याश्चवारो वेदितव्याः " चत्तारि य सागरे लवणे इति के वि दिवसे नवति जता णं नत्सरले दिवसे नवति तताएं वचनान्" ते च जम्बूहीपगतसूर्याभ्यां सह समधेण्या प्रति बद्धास्तद्यथा द्वी सूर्याकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य घेण्या धायइसंग दीवे मंदराणं पव्वताण पुरच्छिमपञ्चसिमेण राई ज प्रतिबद्धी द्वितीयस्य जम्बुद्धीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या अपरी वति एवं जंबुद्दीचे ३ तहा तधेच जाव उस्सप्पिणी कालो' तत्र यदेकः सूर्यो जम्बूद्वीपे दक्षिणापूर्वस्यामुद्गच्छति तदा Jain Education Intemational Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१६) उदयसंठिय अभिधानराजेन्डः । उदाहमेहला तत्समधेण्या प्रतिबकौ सूर्यों लवणसमुके तस्यामेव दक्षिणपू. स्थाग० प्रका० । उत्ताप्रा०च० तास्स्थयात्त-दव्यपवस्थामुदयमागच्छतस्तदेव जम्बूद्वीपगतेन सर्येण सह तस्स- देशः मदररोगे, । बाचा उदराण्यटौ.। "प्रथक समस्तरपि चामश्रेण्या प्रतिबद्धी वावपरी लवणसमुझे अपरोत्तरस्यां दिशि | निलाचः (४) ल्फीहोदरं (५) बरुगुदं तथैव (६) प्रागुन्तुकं उदयमासादयतः।तत उदयविधिरपि योयोर्जम्बूद्वीपसूर्य | (७) सप्तममष्टमं च जलोदरं चेति जयन्ति तानि" । प्रश्न योरिव भावनीयः । तेन दिवसरात्रिविभागोऽपि क्षेत्रविभागेन सं०५ द्वा। विपा० । तं० । उपा०। तथैव द्रष्टव्यः । तथा चाह । ताजयाणमित्यादि सुगमं नवरं नदरंजरि-उदरम्नरि-त्रि० सदर विनाति-नृ-खि-मुम् च । (जहाजंबुद्दीषेइत्यादि) यथा जंबुद्दीवे पुरच्छिमपश्चच्छिमेणं | पञ्चयज्ञाचकरणेनात्मोदरमात्रपोषके, । वाच। राई भवर इत्यादिकं सूत्रमुक्तं यावदुत्सर्पिण्यवसर्पिण्याला-नद (य) गंठि-नदरग्रन्यि-पुं० चदरे प्रन्यिारव गुल्मरोगे हेम। पकस्तथा लवणसमुद्रेऽप्यन्यूनातिरिक्तं समस्तं भणितव्यं उद (य) रत्ताण-उदरत्राण-10 उदरं त्रायतेऽनेन त्रैल्युट नवरं जम्बूद्वीपेद्वीप इत्यस्य खाने लवणसमुदेइति वक्तव्यमिति (कमरबन्ध) उदरबन्धवले । हेम। शेषः तदेवं खवणसमुद्रगतापि वक्तव्यतोक्ता । संप्रति धातकीखएडविषयां तामाह"धायसंडेणंसूरियार इत्यादि"श्रत्रा उदराणगिक-उदरानुगृक-त्रि० उदरेऽनुगृह बदरानुगृहः। प्युश्मविधिः प्राग्वद्भावनीया नवरमत्र सूर्या द्वादश " धायह सदरभरणब्यग्रेतुन्दपरिमृजे, “कुझाई जे धावति सा उगाई, श्रासंडे दीवे वारसचंदा य सूरा य" इतिवचनात् । ततः षट् घातिधम्म सदराणुगिद्ध" । सूत्र.१७०८ अ०। सूर्या दक्षिणदिक्चारिभिर्जम्बूद्वीपगतलवणसमुद्रगतैः सूर्यैः उदरिय-उदरिक-न० जझोदरिके, विपा० १६०७ अ०। सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट् उत्तरदिक्चारिभिः । संप्रत्य- | नि० चू। त्रापि क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह (ताजयाणमि- उदवाह-नुदवाह-पुं० उदकं वहति । वह अण उप० स० जनत्यादि) यदा धातकीखण्डे द्वीपे दक्षिणाढे दिवसो भवति तदा वाहके मेघे, उदकवाहकमात्रे, त्रिवाचा अपकृष्टऽल्पे उदकउत्तराउँऽपि दिवसो भवति यदा उतराद्धेऽपि दिवसस्तदा वाहने, “उदवाहा वा पवाहा वा " अपकृष्टानि अल्पान्युदकधातकीखएडे मन्दरयोः पर्वतयोः पूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धगतयोः प्र-| वाहनानि तान्येव प्रकर्षवन्ति प्रवाहाः। न. ३ २०६३० । त्येकं पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिर्भवति [एवमित्यादि ] नदहि-नदधि-पुं० उदकानि घीयन्तेऽत्र धा-आधारे कि-दाएषमुक्तेन प्रकारेण यथा जम्बूद्वीपे उक्तं तथैवाचापि बक्तव्यं देशः समुझे, । “जहा से सयंजुउदहीणसेतु णागेसु धरणिंदतत्र तावद्यावदुत्सपिण्यालापकः । [ कालोएइत्यादि ] माहुसेट्टे" । सूत्र०१ ध्रु०७०।जहा से सयंजुरमणे, उदही कालोदे समुद्रे यथा लवणेऽभिहितं तथैवाभिधातव्यं नवरं अक्खोदए"-उत्त० १ ०। (उद्धीनां सर्वा वक्तव्यता दीव कालोदे सूर्या द्विचत्वारिंशत् तत्रैकविंशतिर्दक्षिणदिकचारि सागरशब्द)। ( "चत्तारि उदही पम्मत्ता तंजड़ा उताणे भिर्जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डगतैः सह समश्रेण्या संबद्धा एकविंशतिरुत्तरदिकचारिभिः तत उदयविधिर्दिवस णाममेग" इत्यादि पुरुषजातशब्दे उदधि सूत्रे वयते) (ध योऽका समयेन स्पुण नवेति फरिसणा शब्द ) घनोदधौ, स्थान रात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन तथैव वेदितव्यः॥ सांप्रतमभ्य ३ ग०२१० " पुढवी वा उदही वा" प्रथिवी रत्नप्रनादिका न्तरपुष्करबराईवक्तव्यतामाह [ता अम्भितरपुक्खरद्धे इत्या उदधिस्तदधीनोधनोदधिः। स्था०२ ठा०४१० । "वायुपहिया दि] दमांप सूत्रं सुगम [तहेवत्ति] तथैव जम्बूद्वीप इव धक्तम्यं भवरमत्र सूर्या द्वासप्ततिः तत्र षट्त्रिंशदक्षिणदिक्चा उदही, उदहिपट्ठिया पुढवी"। स्था०४ ग.२००। आर्यरिभिर्जम्बूद्वीपादिगतैः सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट्त्रिंशदु समुनामके प्राचार्ये, । आचा०१७०६ अ०१०। नामकदेश नामग्रहणात् । उदधिकुमारे सप्तमभवनवासिनि, । भ०१ श० सरविकचारिभिस्तत उदयविधिर्दिवसरात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन प्राग्वदवसेयस्तथाचाह [ ताजयाणमित्यादि ] सु १३० । “दीवदिसा उदहीणं जुवनपाणं वावत्तरिमो य सयसहस्सा" सा प्रश्न । जलचये, स्था० ३ ग०४०। गमम् । सू० प्र०८ पाहु । उदहिकुमार-नदधिकुमार-पुं० सप्तमे नवनवासिनि, प्रका० १ उदयसाय (ग) र-उदयसागर-पुं० अश्वगच्छीये विद्यासागरसरिशिष्ये, येन विक्रम सं०(१८०४ ) वर्षे पालिताणय नगरे पद । स्था० । “ उदहिकुमारा गं सम्वे समाहारा सेवं नं नं स्नात्रपश्चाशिका नामग्रन्यो व्यरचि । ०६०। तेत्ति।न. १६ श० १३०। (उदधिकुमारोद्देशवकन्यता वर्णादि व्यवस्था जवणवासिशब्दे । (अन्तक्रियादिदएमकास्तु अंतकिरि उदयसिंहमणि-उदयसिंहमुनि-पुं० तपागच्चीये उदयवीरग यादिशब्दषु) शिनः शिष्ये, अनेन-वि० सं० (१६४६) वर्षे रत्नशेखरसूरिकृतश्राद्धप्रतिक्रमणवृत्तिः प्रथमादर्श लिखिता । जै०३०। उदहिकुमारावास-उदाधिकुमारावास-पुं० उदधिकुमाराणां जवनानदयसेण-उदयसेन- पु. वीरसेनसूरसेनयोरनयोः पितरि, बासे," गवत्तरि उदाहिकुमारा वाससयसहस्सा परमत्ता" स०। आचा०१U०४ अ०१०। ( सम्मशब्दे कथा-) उदहिपडिय-उदधिप्रतिष्ठित-त्रिघनोदभ्याश्रिते, "उदहिपउदयावलिया-उदयावालिका-स्त्री० षष्ठीतत्पु. उदयवतीनाम- | डिया पुढवी" भ० १०७०० ।। नुदयवतीनां च प्रकृतीनामुदयसमयारज्यावत्रिकामात्रायां स्थि उदहिपुहत्त-उदधिपथक्त्व-न० नदधिप्रथक्यप्रमाणे प्रजनतो, " आवलियतिगं पमोतूर्ण " इह नदयवतीनामनुदयवतीमां सागरोपमशतप्रमाणे, "उदहिपुत्तु कस्स श्यरं पत्तस्मसंखतमव प्रकृतीनामुदयसमयादारज्यावमिकामात्रास्थितिरुदयावालिका नागो" | क.प्र.। वदितव्या तथैव चिरन्तनप्रन्थेषु व्यवहारात् । पं० सं०। उदहिमंगल उदधिमङ्गल-नसमुद्रज्वलनमगले, पञ्चा०वि०॥ रद (य) र-उदर- न० उद्-ऋ-अन् जरे, । प्रश्न ३नदाहिमहला-उदधिमेखना-स्त्रीनदधिमेखलाश्च यस्याः। मद्वा० । अङ्गान्युपाङ्गानि चेति धिा शरीरावयवास्तत्रेदमङ्गम ध्यस्थाने, समुप्रवेष्टितायां पृथिव्याम, बाव०॥ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाइ अभिधानराजेन्डः। उदायण उदाइ-उदायिन्- पुं० स्वनामख्याते कुणिकराजसत्कह स्तिनि, - बर मयाणं महमणप्पमोक्खाणं दसरा गईणं बछमउज्माणं उदायिहस्तिनः पूर्वापरजवौ यथा । विदिमाउत्तचामरबालवियणाणं अमेसिं च बहूणं राईमरतल रायगिहे जाव एवं वयामी जदाईणं नंते ! हस्थिराया काहिंतो अणंतरं उव हित्ता उदाई हस्थिरायत्ताए उच जाव सत्यवाहपनिईणं आहेबच्चं पोरेवच जाव कारेमाणे पाने माणे समणोवासए अनिगयजीवाजीवे जाव विहर । तए वमे । गोयमा ! असुरकुमारोहिंतो एंतरं उवहिता उदाई एं से उदायाणे राया अमया कयाईजणेव पोसहसाला तेऐव हस्थिरायत्ताए उपवयो । उदाईणं नंते ! हस्थिराया का नवागच्च नवागच्चइता जहा संखे जाव विहरइ तए णं तस्स लमासे कानं किच्चा कहिं गच्छहित्ति कहिं नववज्जिहिति? गोयमा! इमीमे रयणप्पनाए पुढवीए नकोसं सागरो नदायणस्म राम्रो पुव्वरत्तावरत्तकाससमयंसि धम्मं जागरि यं जागरमाणस्स अयमयारूवे अथिए जाव समुप्पन्जिवमट्टितीयंसिणिरयावामंमि परश्यत्ताए उववाज्निहित्ति सेणं त्या धमाणं ते गामागरनगरखेडकव्वमममंबदोणमहपट्टणास नंते ! तोहिंनो अणंतरं उवहिता कहिं गच्छिहित्ति मसंवाहसमिवेमा जत्थ णं समणे जगवं महावीरे विहरइ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिकिहि जाव अंतं काहिंति । | न०१६ श. १ उ०। धणाणं ते राईसरतबवर जाव सत्यवाहप्पनिईओ जेणं समणं जगवं महावीरं वदति मंसति जाव पज्जुवासंति । (टीका सुगमत्वान्न गृहीता)कोएिमकायनीय गोशानेन षष्ठप्रवृत्तसं हारे गृहीतकोवरविशिष्टजीवे,"अहामं उदाईणामं कुंमियायणिए जईणं समणे जगवं महावीरे पुव्याणपुचि चरमाणे गामाअज्जुम्मस्त गायमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि" इति वीरप्रति णु जाव विहरमाणे प्रहमागच्चज्जा । इह ममोमरेज्जा इमल्लमिपुत्रा गोशालः। भ०१५ श०१उन कणिकपुत्रे, तद्वक्तव्यता चै | हेव वीतीजयस्मणयरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापघम् नदायि कोणिकपुत्रो यः कोणिके अपकान्ते पामारीपुत्रं नगर मिरुवं नग्गहं नगिहित्ता संजमणं जाब विहरेज्जा तत्रो न्यवीविशात् । यश्च स्वजवनस्य विविके दशे पर्वदिनेबाहय संविग्नगीतार्थसहरूं तत्पर्युपासनापरायणः परमसंवेगरसप्रकर्षम पण अहं समणं जगवं महावीरं वंदेज्जा णमंसज्जा जाव पनुस्मरन सामायिकपौषधादिकं सुश्रमणोपासकमायाग्यमनुप्यान- ज्जुवासेज्जा। तए एं समणे जगवं महावीरेनदायणस्म रमो मन्यतिउतू । एकदाच निशि देशांनधाांटतरिपुराजपुत्रेण द्वाद- अयमेयारूवं अत्थियं जाव समुप्पत विजाणित्ता । शवार्षिकव्यसाधना कृतपापधोपचासः सुखप्रसुप्तः कङ्काय कर्तिकाकारकतेनेन विनाशित इति । स्था०६ ग० । आ० क० चंपाओ एयरीओ पुमजदाओ चेश्याओ पमिणिकम्वमइ (विस्तरतोऽयमवार्यः संणियशब्द) अयं च निर्वर्तिततीर्थकुन्नाम- पमिाणक्खमइत्ता पुव्वाण पुचि चरमाणे गामाणगामं जाव कर्मा उत्सर्पिया तृतीयः सुपार्श्वनामा तीर्थकरो नविष्यति । विहरमाणे जेणेव सिंधुसोवीरे जणवए जेणेव वीईजये - " ती उदायिजीयो सुपासो" ती० । आ००। दाईत-नदयमान-त्रि शोभमाने, । झा० १०॥ यरे जेणेव मियवणे जाणे तेणेव उवागच्छद नवागत्ता दाण-नुदान-पुं० अन्-घन । कर्व मानोऽस्य कृकाटिकादेशा- | जाव विहर । तए णं बीईलए णयरे सिंघाग जाव परिदाशिरोवृत्ती वायौ, । द्वा०२६ द्वा० । वाच । सा पज्जुवासइ । तए णं से नदायणे राया इमीसे कहाए उदायण-नुदायन-पु सिन्धुसौवीरेषु वीतिजयनगराधिपती लछडे ममाणे दृढतट्ठकोवियपुरिमे सहावे महावडत्ता म्वनामख्याते राजद, । तद्वक्तव्यता चैवम् । एवं वयाम।। खिप्पामेव नो देवाणुप्पिया वीतिन्जय रायरं तेणं कालेणं तेणं ममएणं सिंधुसोवीरसु जाणवएम वीत- सब्जितरवाहिरियं जहा कणिो नववत्तिए जाच पज्जुवाजयणाम यरे हाथा । वो तस्स एणं वीतिनय- सइ परमावइपामोक्खाओ देवीओ तहेव पज्जुवामंतिधम्मइस एयरस्म पहिया उत्तरपुरच्चिमे दिसि जाए एत्थ णं कहा तए ए मे नदायण राया ममएस्स जगवओ महावीरमियवणे णाम न जाणे होत्था । सव्वोउयवाओ । एत्थ स्स प्रतियं धम्म मांचा जिमम्म हट्टउटाए उट्टे उंटणं वीतिजए णयर नदायणे णामं राया होत्या । महया | इत्ता ममणं जगवं महावीर तिकावुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वाओ, तम्म णं नदायणस्म रमो पउमावई णामं देवी वयासी एवमेवं ते ! तहमेयं नंने : जाव से जहयं तुन्भे वहोन्या । सुकुमानवाओ तस्स एं नदायणस्स रमो पना- दह त्तिकद्दनं वरं देवाण प्पिया अभिकुमारं रज्जे गवेमि वती गणाम देव) होत्था । वाओ जाव विहरति । तस्म तए णं अहं देवाणप्पियाणं अंतिए मंडे नवित्ता जाव पञ्चएवं उदायाणम रम्मो पुत्ते पनावतीए देवीए अत्तए अनी- यामिअहामुहं देवाणप्पिया मा पनिबंधं । तएणं से नदायणे राइणाम कुमारे होत्या । मुकुमान जहा मिवजदे जाव पच्चु- या ममणणं जगवया महावीरणं एवं वृत्ते समाणे हस्तृ8 मवावमाएं विहर । तस्म एं उदायाणस्स रमो णियए मणं जगवं महावीरं बंदणमंमा वदित्ता एमंमित्ता तमेव अजायणिजे कमी णाम कुमारी होत्या मुकुमाल जाव सुरूचे निसकहास्थि दुम्हद दुरुहऽत्ताममा स्म जगवो महावीरस्स में नदायणे राया सिंधुमोवीरप्पयाक्वाणं मोलमएहं अंतियाओमियवणाश्री उजाणाओ पमिणिकवमा पमिाणजावयाएं बीजयप्पमोकवाणं तिएहं तेसट्ठीणं णगरागर- कखपइत्ताजेगव वीइजए एयर नवमहान्य गमणाए नएणं Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदायण अभिधानराजेन्द्रः । उदायण तस्म उदायणस्स रम्मो अयमेयारूवे अब्जस्थिए जाव समु.] सं जहा जमाझिस्म जाव सम्मिममं तहेव अम्मधाई णवर पज्जित्था । एवं खनु अत्नीइकुमारे मम एगे पुत्ते इट्टे पउमावई सनक्खणं पममामगं गहाय सेमं तं चेव जाव कने जाव किमंग पुण पासणया एतं जइ णं अहं अत्नीइकु- मिविआओ पचोरुह पच्चो रुहइत्ता जणेव समणे नगवं मारं रजेवावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिअं महावीरे तणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता समर्ण जगवं मह मुंडे वित्ता जाव पव्वयामि तो एं अनिश्कुमारे रज्जे य वीरं तिकवुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव बंद मंसइ वंदिरट्टे य जाच जणवए य माणुस्सएमु य कामनोगेसु मुच्छिए ता मंसित्ता नत्तरपुरच्छिम दिसीनागं अवक्कमइ अवकगिके गढिए अज्कोववर अणादीय प्रणवदग्गं दीहमकं मइत्ता सयमेव आजरणमल्लालंकारं तं चेव जाव पउमावई चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियटिस्पत्ति तं णो खन्नु मे सेयं पडिच्छइ जाव घमियवं सामी जाव णो पमादीयन्वं तिकट्ट अनोइकुमारं रजे हावेत्ता समणस्म जगवओ महावीरस्म । केसीराया पनमावई य समणं भगवं महावीरं बंदंति णमंसंजाव पव्वइत्तए सेयं खलु मेणियगं नाइणिज्जकेमीकुमारं । ति का ति वंदित्ता एमंसित्ता जाव पमिगया तएणं से नदायणे रारज्जे गवत्ता समणस्म जगवओ महावीरस्स जाव पव्व या सयमेव पंचमुट्ठियं सोयं संसं जहा उसनदत्तस्स जाव त्तए एवं संपेहेश संपेहेत्ता जेणेव वीइनए पयरे तेणेव | सव्वदुक्खप्पहीणे । भ०३ श०६ उ०। श्यमेव वक्तव्यता कथान्तरसंबनिताश्त्यम् । जरतकंत्र सांबीवागच्च नवागवत्ता वीभयं एयरं मऊ मऊोएं रदेश वीतभयनामनगरे जुदायनो नाम राजा तस्य प्रभावती रा. जणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवा झी तयाज्यष्टपुत्रोनीचिनामाऽनवत् तस्य भागिनेयः कंसीनामा गच्चई नवागच्छपत्ता अनिसेकं हत्यि गवेइ अनिसेका- भूत् । सउदायनसजा सिन्धुसौबीरप्रमुखपोषजनपदानांवीतत्रय ओ हत्थीओ पचोरुन पचोरुनश्त्ता जेणेव सिंहासणे- प्रमुखत्रिंशतत्रिपटिनगराणांमहासेनप्रमुखाणां दशराजानां बहमुतेणेव जबागच्च नवागच्चत्ता सिंहासाणवरंमि पुरच्छाजि कुटानां त्राणांचामराणां च ऐश्वर्य पालयनस्ति ।तश्चम्पायां नग मुहे विमीयइ णसीयइत्ता कोवियपुरिसे सदावे सद्दा या कुमारनन्दी नाम सुवर्णकारोस्ति । स च स्त्रीअम्पटो यत्र २ स्व रूपां दारिकां पश्यति जानाति वा तत्र तत्र पञ्चशत् सुवर्णानि वेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव जो देवाणप्पिया ! वीइलयं दत्वा तां परिणयति । एवञ्च तेन पञ्चशतकन्याः परिणीताः । णयरं सम्नितरवाहिरियं जाव पञ्चप्पिणंति तएणं से उदा- एकस्तम्नं प्रासादं कारयित्वा ताभिस्समं क्रीमति । तस्य च यणे राया दोचपि कोवियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं 'मित्र नागियो.नाम श्रावकास्ति। अन्यदा पञ्चलिहीपवारतक्ष्यवयासी खिप्पामेव नो देवाणुप्पिया : केमिस्स कुमारस्म हासाग्रहासाव्यन्तौँ स्तः तियाधर्ता विद्यन्मार्सी नामदेवोषित सोऽन्यदा च्युतः ताभिश्चिन्तितं कमपि व्युग्राहयावः सोऽस्माक महत्थं एवं रायाजिसेयो जहा मिवनदस्म तहेव नाणि भी जवति स्वयोग्यपुरुषगवेषणाय इतस्ततो व्रजन्तीज्यां तायची जाव परमाउं पानयाहिं घटजणसंपरिखमे सिंधुसो- ज्यां चम्पानगया कुमारनन्दी सुवर्णकारः पञ्चशतस्त्रीपरिवृतो वीरप्पामोक्रवाणं सोलसाहं जणवयाणं वीइनयप्पामो दृष्टः। ताज्यां चिन्तितम् । पप स्त्रीत्रम्पटःसुखन व्यग्राहयिष्यते। कुमारनन्दी भणति । के जवाया। कुतः समायात ते आहतुः । क्वाणं तिलि तेसट्ठीणे गरागरसयाणं महमेणप्पामा आवां हासाप्रहासादेव्या तपमोहितः कुमारसुवर्णकारस्ते दक्खाणं दमएहं राईणं अप्लोसि च बहणं राईमर जाव कारे व्यौ भोगार्थ प्रार्थितवान् । ताज्यां नणितं यद्यस्मद्भागकार्यः माणे पालेमाणे विहराहित्तिकट्ट जयजयसदं पउजति तदा पञ्चशत्रद्वीपं समागोः । एवं नणिते दव्या उत्पतित गत तएणं केसीकुमारे राया जाए महया जाव विहर स्वस्थानम् । राज्ञः सुवर्ण दत्वा पट वादयति स्म । कुमारनतए एं से नदायणे राया केसिं गयाणं आपुच्च तए एं न्दीसुवर्णकारं यः पञ्चशैलीपं नयति तस्य स धनकोटि ददाते कसीराया कोमुंबियपुरिसं सदावेद एवं जहा जमालिस्स ति । एकन स्थविरेण तत्पटहः पृष्टः कुमारनन्दिना तस्य कोटि धनं दत्तं स्थविरोऽपि तहनं पुत्राणां दत्वा कुमारनन्दिना सह यातहेव सब्जितरवाहिरियं नहेब जाव मिक्खमाणानिमेयं उत्र नपात्रमारूढः समुजमध्ये प्रविष्टः । यावर गतस्तावदंक घट हावेत्ति तएणं से केसीराया अणेगगणनायग जाव मंपरिख- दृश्वान् । स्थविर उवाच । तस्य वटस्याधः इदं वाहनं निमिडे उदायणरायं मीहासणवरंसि पुरच्चानिमुहे निमियावे प्यति तत्र जलावर्तोऽस्तीति वाहनं भवति । न्वं नु एतहटशानिसियावेत्ता अट्ठमएणं सोपभियाणं एवं जहाजमालिस्स खामाश्रयः। वटेऽत्र पञ्चशद्वीपात् नारण्डपक्तिणस्समायास्यन्त सन्ध्यायां तरचरणेषु स्वंवपुः स्ववस्त्रेण दृढं बन्नीयाः। ते च प्रजात एवं वयामी जण सामि किं देमो किं पयन्छामो किएणावाते श्त नहीनाः पञ्चशेनं यास्यन्ति । स्वमपि तैः ममं पञ्चशैलं अह तएणं से उदायणे राया केसि रायं एवं वयामी इच्छामि गच्छे। स्यावरण एवमुच्यमाने तद्वाहनं वटाधो गतं कुमाग्नन्दिना एं देवाणाप्पया कुत्तियावणाओ एवं जहा जमानिस्स ए- वटशाखावलम्वनं कृतं भग्नञ्च तद्वाहनम् । कुमारनन्दी तु वरं पनमाव अग्गकेसे पडिन्छ पियविप्पओगो दृस- भारण्डपक्षिचरणावलम्बन पञ्चशैले गतः । हासाग्रहासाभ्यां हा तए णं मे केमीगया दोचपि उत्तरावक्कमणं महिासणं रएः उक्तञ्च । तब एतन शरीरेण नावाभ्यां भोगी विधीयते । स्वनगरे गत्वाइष्टत श्रारभ्य मस्तकं यावज्ज्वलनेन स्वशस्यावेइ स्यावेइत्ता उदायगं रायं मीयापीतएहिं कसहिं से- रीरं दह यथा पञ्चशैलाधीशो भूत्वाऽस्मद्भोगेहां पूर्णाकुरु । Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१९) नदायण अन्निधानराजन्तः। उदायण तेनोक्तं तत्राहं कथं यामि । ताभ्यां करतले समुत्पाट्य स मञ्जूषायाः पूजां कृत्वा एवं भणितं "गयरागदासगोहो, नगरोद्याने मुक्तः । ततो लोकस्तं पृच्छति । कि त्वया तत्राच- सब्वन्नू अट्ठपाडहरसंजुत्तो । देवाहिदेवगुरुओ, अदरामे न्य दृएम् । स भणति । दृएं श्रुतमनुभूतं पञ्चशैलद्वीपं मया दसणं देउ ॥१॥" एवमुक्त्वा तया मजूषायां हस्तेन परशुयत्र प्रशस्ते हासाप्रहासाभिधे देव्यौ स्तः । अत्र कुमारनन्दिना प्रहारो दत्तः उद्घाटिता सा मञ्जूषा तस्यां दृाऽतीव सुन्दनन स्वाइटेऽग्निमारचयित्वा मस्तकं यावत्स्यशरीरं ज्वाल- राम्लानपुष्पमालालङ्कता श्रीवर्द्धमानस्वामिप्रतिमा जातजिनयितुमारब्धः । तदा मित्रगत ऽयं वारितःभो मित्र नवेद कापु- शासनोन्नतिः अतीवानन्दिता प्रभावती एवं बभाण। “सबन्नु रुपजनोचित चेष्टितं न युक्तम् । महानुभाव ! दुर्लभं मनुष्य- सधदसण, अपुणभवभवियजिनमणाणंद । जय चिंतामाणि जन्म मा हारय तुच्छमिदं भोगसुखमस्ति । किं च यद्यपि त्वं जय गुरु, जय जय जिणवीर अकलंको ॥१॥ " नत्र भोगार्थी तथापि स्वधर्मानुष्ठानमेव कुरु यत उक्तं । "धमाओ प्रभावत्या अन्तःपुरमध्ये चैत्यगृहं कारितं तवयं प्रतिमा धणन्छियाणं, कामधीणं च सत्थकामकरो । सग्गापवग्गसंग स्थापिता । तां च त्रिकालं सा पवित्रा पूजयति । अन्यम-हेऊ जिणदेसिनो धम्मो" || इत्यादि शिक्षावादिमित्रेण स दा प्रभापती राशी तत्प्रतिमायाः युसे नृत्यति. राजा च चार्यमाणोऽपि इङ्गिनीमरणेन स मृतः । पञ्चशैलाधिपति वीणां वादयति तदानीं स राजा तस्यां मस्तकं न पश्यति । जर्जातः तन्मित्रस्य श्रावकस्य महान् खेदो जातः। अहो ! भोग राझोऽधतिजीता हस्ताहीणा पतिता राइया पृष्टं कि मया दृष्ट कामाथें जना इत्थं क्लिश्यन्ति जानन्तोऽपि वयं किमत्र गा नर्तितं राजा मानमानम्न्य स्थितः । राजा अतिनिबन्ध उक्तवान् ईस्थ्य स्थिताः स्म इति स श्रावकः प्रव्रजितः । क्रमेण कालं यस्तव मस्तकमपश्यन्नहं व्याकुलीनृतो हस्ताहीणां पातितवान् कृत्वा अच्युतदेवलोके समुत्पन्नः । अवधिना स खवृत्तान्त सा जणति मया सुचिरं श्रावकधर्मःन काचिन्मममरणाद्भीतिरआनाति स्म । अन्यदा नन्दीश्वरयात्रार्थ सर्वदेवेन्द्राश्चलिताः स्ति । अन्यदा तत्प्रतिमापूजनार्थ स्नाता साराशी स्वचेटी प्रति स श्रावकदेवोऽपि अच्युतेन्द्रेण समं चलितः । तदा पञ्चशे चखाण्यानयेत्युवाच । तया च रक्तानि वस्त्राण्यानीतानि राशी लाधिपतस्तस्य विन्मालिनाम्ना देवस्य गले पटहो लग्नः ऋका प्राह । जिमगृढे प्रविशन्त्या मम रक्तानि वस्त्राणि ददासीउत्तारितो नोत्तरति । हासाग्रहासाभ्यां उत्तम् । इयं पञ्चशल त्युक्त्या चेटीमादर्शन हतवती मर्मशि प्रत्याहारसम्नात्सा मृता । द्वीपवासिनो स्थितिः यन्त्रम्दीश्वरद्वीपयात्रार्थ चलितानां देवे प्रभावत्या चिन्तितं हा! मया निरपराधत्रसजीवबंधकरणाइतं न्द्राणां पुरः पटहं वादयन् विद्युन्मालिदेवस्तत्र याति ततस्त्वं जग्नमतः परं किं मजीवितव्यन ततस्तया राइया राई उक्तम् । ख दंमा कुरु गललनमिमें पटहं वादयन् गीतानि गायन्तीभ्यां अहं नक्तं प्रत्याख्यामि राहा नैवेति प्रतिपादितं तया पुनस्तथैआवाभ्यां सह नन्दीश्वरजीपे याहि । ततः स तथा कुर्वन् घोच्यते । तदा राझा उक्तं च यदि त्वं देवी नूत्वा मां प्रतिबोधनन्दीश्वरद्वीपोद्देशेन चलितः । श्रावकदेवस्तं सखेद पटहं यसि तदा वं जक्तं प्रत्याख्याहि । राझ्या तद्वचाङ्गीकृतं भक्तंचादयन्तं दृष्ट्वा उपयोगेनोपलक्षितवान् । भणति च भोः त्वं मां प्रत्याख्याय समाधिना मृता देवझांकं गता दाउन्नत | तां जानासि स भणति । कः शक्रादिदेवान् न जानाति । ततस्तं च प्रतिमा कुब्जा देवदत्ता दासी त्रिकानं पूजयति । प्रजावती श्रायकदेवः तस्य स्वप्राग्भवस्वरूपं दर्शयति स्म। सर्व पूर्व-। देवस्तु उदायनं राजानं प्रतिबोधयति । न च स तं बुध्यते राजातु तृत्तान्तमाख्याति । ततः संवेगमापन्नः स देवो भणति । तदि तापसभक्तोऽतःस देवस्तापसस्वरूपं कृत्वाऽमृतफयानि गृहीत्वा दानीमहं किं करोमि। श्रावकदेवोभणति श्रीवर्धमानस्वामिनः गतो राझे दत्तवान् । राझा तानि आस्वादितानि पृथ्श्व तापसः प्रतिमां कुरु यथा तब सम्यक्त्वं सुस्थिरं भवति । यत उक्तम् ।। क पतानि फलानि तापसो भणति । एतन्नगराऽज्यणेऽस्मदाश्र" जो कुब्वइ जिणपडिमं, जिणाण जियरागदोसमोहाणं । माऽस्ति तत्रतानि फलानि सन्ति । राजा तेन सममेकाक्येव सो पावा अन्नभवे, सुहजणणं धम्मवररयणं" ॥१॥ अन्यच्च ॥ तत्र गतः। तापसैस्समाचारः स हन्तुमारब्धः राजा तता नष्टः। " दारिदं दोहग्गं, कुजाइकुसरीरकुगइकुमईश्रो । अवमाणरोयसोपा, न हुंति जिविवकारीणं ॥२॥” ततः स विद्युन्माली तस्मिन्नेव वन जैनसाधून ददर्श तेषामसी शरणमाश्रितः । भयं महाहिमवच्छिखरामोशीर्षचन्दनदारु छेदयित्वा श्रीवर्धमा मा कुब्धिति राजाआश्वासितःतापसा निवृत्ताःसाधुनिश्च तस्येवं धर्म नुक्तः । “धम्मा चवेत्यसत्ताणं, सरणं नव सायरे । देवं नस्वामिप्रतिमा निर्वर्तितवान् । ताञ्च मञ्जूषायां क्षिप्तवान् । तस्मिन्नवसरे पगमासान् यावदितस्ततो भ्रमन् वाहनं वायुभि धम्मं गुरुं चेव, धम्महत्थी परिक्खए ॥१॥ दस अटुदासरास्फाल्यमानं विलोकितवान् । तत्र गत्वा चासौ तमुत्पात रहिनो, देवो धम्मा वि निणदयसहिओ । सुगुरू य बंभयारी, मुपशामितवान् । सांयात्रिकाणां च तां मजूषां दत्तवान, आरजपरिग्गहा विरो॥२॥” इत्यादिकोपदेशेन स राजा प्रभणितांश्च । देवाधिदेवप्रनिमा चावास्ति यत्न चेयं विशेष तिवाधितः । प्रतिपन्ना जिनधर्म प्रनावती देव आत्मानं दर्शयित्वा पूजामाप्नोति तत्रेयं देया देवाधिदेवनाम्नैवेयमुरारयिष्यते राजानं च स्थिरीकृत्या स्वस्थाने गतः । एवमुदायनगजा थायभवद्वाहनेऽस्यां स्थितायां न कोऽप्युपढ्यो भविष्यति । ततस्तां को जातः । इतश्च गन्धारदशवास्तव्यः सत्यनामा श्रावकः सर्वत्र लात्वा सांयात्रिका यीनजयगत्तनं प्रामाः । तत्रोदायनराजा जिनजामतम्यादितीर्थानि वन्दमाना वैतात्यं यावद्गतः तत्र शातापसभक्तस्तस्य सा मजूपा दत्ता । कथितञ्च सुग्वचनं भ्वतप्रतिमावन्दनार्थमुपवासत्रयं कृतवान् तपस्तुष्टया तदमिलितश्च तत्र ब्राह्मणादिको भूरिलोकः भणति च गोविन्दाय धिष्ठातृदव्यास्तस्य शाश्वत जनप्रतिमा दर्शिता तेन च वन्दिनमः इत्युक्ते मजृपा नोवाटिता । तत्र केचित् भवन्ति । अत्र ना ! अथ तया देव्या तस्मै श्रावकाय कामितमुटिका दत्ता। ततः देवाधिदेवश्चतुर्मुखो ब्रह्मास्ति अन्ये केचिद्वदन्ति अत्र चतु स निवृत्ती पीतजयपत्तन जीवितस्वामिप्रतिमां चन्दितुमायानः भुजो विष्णुरेवास्ति । केचिद्भणन्ति अत्र महेश्वरी देवाधिदे- गोशीपचन्दनमयी तां ववन्द। देवात्तस्याऽतिसारी रांग नम्पयाऽस्ति । अस्मिन्नवसरे नत्रोदयनराजपट्टगती चेटकराजपुदी नः कुजया दास्या प्रतिचरितः स नीरुप जातः तुऐन तेन तस्यै प्रभावती नाम्नी श्रमणोपासिका तत्रायाता । तया तस्या कामाविका गुटिका दत्ता कयितश्च तासां चिन्तितार्थसाधकप्र Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२०) उदायण अभिधानराजेन्म:। उदायण नावः । अन्यदा सा दासी अहं सुवर्णवर्णा सरूपा जवामीति चि- दिनं सपकारैः चामप्रद्योतस्य नक्तमुदायनराजाय नेनापि चिन्तितं स्तयित्वा एकांगुटिकां नकितवती सवर्णवर्णा सरूपा जाता। तत- जानाम्यहं यथायं धूर्तसाधर्मिकोऽस्ति तथाप्यस्मिन् बद्ध मम स्तस्याःसुवर्णगुनिकेति नाम जातम्। अन्यदा सा चिन्तयति भोग- पर्यषणा न झुध्यति चएमप्रद्योतो मुक्तः क्वामितश्च तदकरानादमुखमनुनवामि एप नदायनराजा मम पिता अपर मत्तुल्याकंऽपि ननिमित्तं रत्नपट्टस्तस्य मूर्ति बकः । स्वविषयश्च तस्य दत्तः । राजानो न सन्तीति चएमपद्यातमव मनसि कृत्वा द्वितीयां गुटिका ततः प्रभृति पट्टबझा गजानो जाताः । मुकुटबहाश्च पूर्वमप्यासन नकितवती तदानीं तस्य चएमप्रद्योतस्य स्वामे देवतया कयितं वारा व्यतिकान्ते उदायनराजस्ततः प्रस्थितः व्यापारार्थ यो वीतजयपत्तन उदायनराझोदासी मुवर्णगुत्रिकानाम्नी सुवर्णव- वणिम्बर्गस्तत्रायातः स तत्रैव स्थितः दशनीराजभिर्वासितत्याणाऽतीव रूपवती विद्योग्यास्ति । चाम्प्रद्योतेन सुवर्णगुनिकायाः इंदापुरं नाम नगरं प्रसिहं जातम् । अन्यदा स नदायनराजः समीप दतः प्रेषितः । दृतेन एकान्ते तस्या पवं कथितं चामप्र- पौषधशालायां पौषधिकः पौषधं प्रतिपालयन् विहरति । पूर्वराधोतस्त्वामीहते । तया नणितमत्र चामप्रद्योतः प्रथममायातु तं त्रिसमये च तस्यैतादशोऽनिप्रायः समपन्नः धन्यानि तानि ग्रापश्यामि पश्चाद्यधारुच्या तन सह यास्यामि तेन गत्वा तस्या माकरनगराणि यत्र श्रमणो नगवान् श्रीमहावीरो विरहति । वचनं चाम्प्रद्योतस्योक्तं सोऽपि अनिवगिरि हस्तिनमधिरुह्य रात्री धन्यास्ते राजश्वरप्रभृतयो ये श्रमणजगवतः श्रीमहावीरस्यातत्रायातः । पृटस्तया रुचितश्च। सा भणति यदीमा प्रतिमा सार्क न्तिके कवविप्राप्तं धर्म शृण्वन्ति । पञ्चावनिक सप्तशिवावतिनयास तदाहमायामि नान्यथेति । ततस्तेन तत्स्थानस्थापनयो- कं द्वादशाविधं धावकधर्मश्च प्रतिपद्यन्ते तया भूएमीनूत्वा आगागम्यान्या प्रतिमा तदानीं नास्तीति तस्यां रात्री तत्र उर्षित्वा स्वनगरे दनगारितां वजन्ति । ततो यदि श्रमणनगवान् श्रीमहावीरः पश्चातः। तत्र तादृशी जिनप्रतिमां कारयित्वा पुनरत्रायातस्तां पूर्वानुपा चरन् यदीहागच्छेत्ततोऽहमपि नगवतोऽन्तिके प्रधप्रतिमा तत्र स्थापयित्वा मत्रप्रतिमांदासी च गृहीत्वा नुज्जायनी । जामि । उदायनस्यायमध्यवसायो गवता हातः प्रातश्चम्पातः गतः । तत्रानलगिरिणा मूत्रपुरीष कृते तद्गन्धनं वीतनयपत्तनस प्रतिनिष्कम्य वीतभयपत्तनस्य मृगवनोद्याने जगवान्समवसृतः। का इस्तिनो निर्मदाजाताः। नदायनराजन तत्कारणं गवषितम् । अनलगिरिहस्तिनः पदं दृष्टम् । नदायनेन चिन्तितं स किमयम तत्र पर्षन्मिबिता नदायनोऽपि तत्रायातो जगवदन्तिके अहं प्रत्रप्रायातःगृहमानुपैरुक्तं सुवर्णगुलिकान दृश्यते राझा उक्तं चेटीच जिप्यामि परं राज्य कस्मेश्चिद्ददामीत्युक्वा जगवन्तं वन्दित्वा एकप्रद्योतेन गृहीता प्रतिमा वियोकयन्तु तैरुक्तं प्रतिमा दृश्यते स्वगृहाभिमुखं चलितः । जगवतापि प्रतिबन्ध मा कार्षीरित्युक्तपर पुष्पाणि म्ञानानि दृश्यन्तेरझागत्वा स्वयं प्रतिमा विलोकिता म्। ततो हस्तिरत्नमारा उदायनराजः स्वगृहे समायातः । तत पुप्पम्मानदर्शनेन राज्ञा झातं नयं सा प्रतिमा किं त्वन्येति विष उदानस्यैतादृशोऽध्यवसायः समुत्पन्नः यद्यहं स्वपुत्रमनीचिकुसान राझा दतश्चामप्रद्यातान्तिक प्रेषितः। मम दास्या नास्ति । मारं राज्य स्थापयित्वा प्रव्रजामि तदायं राज्ये जनपद मानुप्यकेकार्य प्रतिमा स्वरितं प्रेषयति इतन चाम्प्रद्योतस्योक्तं चएउप्र पु कामनोगेषु मूर्धितोऽनाद्यनन्तं संसारकान्तारं मियति ततः द्योतः प्रतिमां नार्पयति तदा सैन्येन समं ज्येष्ठमास एवोदयनश्च श्रेयः खलु मम निजकं कसिकुमारं राज्य स्थापयितप । एवं बितः । यावन्मरुदेश तत्सैन्यमायातं नावजनाप्राध्या तत्सैन्यः संप्रेक्ष्य शोनने तिथिकरणमुहते कादम्बिकपुरुषानाकार्य एक्सतषाकान्तं व्याकुलीबतूव । तदानी राझा प्रजायतीदेवश्चिन्तितः यादीत् । किप्रमेव कशिकुमारस्य राज्याभिषेक सामग्रंमुपस्थापतेन समागत्य त्रीणि गुष्कराणि कृतानि तेषु जत्रज्ञानात्सर्वसैन्यं । यत तैः कृतायां सर्वसामठ्यां केशिकुमागे राज्येऽनिविक्तः । सुस्थं जातं क्रमेण उदायनराजा नजयिनी गतः । कथितवांश्च ततस्तत्र कशिकुमारो राजा जातः । मदायनराजश्व केशिकुमारंजो चएमप्रद्योत तव मम च सावाद्यक भवतु साकेन मारितेन | राजानं पृष्ठा तत्कृतनिष्क्रमणानिकः श्रीमहावीगन्तिक प्रजिअश्वस्थेन रथस्थन वा त्वया मया च युहमङ्गीकुरु चएमप्रद्योते- तः बहुनि पष्ठाटमद शमद्वादशमासा:मासकपणादीनि तपः कनोक रथस्थेनैव त्वया मया च याहव्यम् । प्रनाते चएम्प्रद्योतः आणि पुर्वाण विहरति । अन्यदा तस्य उदानयराजपरन्तप्राकपटं कृतवान् स्वयं अनगिरिहस्तिनमारुह्य सामाङ्गणे समा- न्ताहारकरणेन महान व्याधिरुत्पन्नः वैद्यरुक्तं दध्यापधं कुरु । स यातः नदायनस्तु स्वप्रतिझानिर्वाही रथारूढः संग्रामाङ्गणे समा- च उदायनराजर्षि भगवदाझ्या एकाक्येव विहरति । अन्यदा यातः । तदानीमुदायनेन चामप्रद्योतस्य उक्तं त्वमसत्यप्रतिझो विहरन वीतजयगतः । तत्र तस्य भागिनेयः केशिकुमारगजोजातः कपटं च कृतवानसि तथापि तव मत्तो मोको नास्तीति मात्यनणितः स्वामिन्नष उदायनराजर्पिःपरीषदादिपरानूतः प्रमजणता दायनन रथा मएमव्यां लिप्तः । चामप्रद्योतन तत्प्रष्ठा ज्यां मोक्तकामः एकाक्यव इहायातः । तव राज्य मार्गयिष्यति । उनलगिरिहस्ती वगेन किप्तः । स च हस्ती यं यं पादमुन्तिपति स प्राह दास्यामि तैरुक्तं नप गजधमः । पुनः स प्राह तर्हि कि तं तमदायनः हारैविध्यते यावत् हस्तीदूमौ निपतितः । तत्स्क करिष्यति । ते प्रादविपमिश्रमस्य दीयत गोन. ततस्तरकस्याः धाऽत्तरन् प्रद्यांतो वः तस्य लबाट मम दासीपतिरित्यकराणि पशुपाख्या गृह विपमिश्रितं दधिकारितं तेषां शिक्या तया तस्य विखितानि । तत उदायनराजेन चामप्रद्योतदशे स्वाधिकारिणः तहत्तमदायन नक्तं यावदेवतयाऽपहनम् । नंच तस्य देवतया स्थापिताः स्वयं तु चामप्रद्योतं काष्ठपञ्जरे जिप्या साऊंच नीत्वा महतव विषं दत्तं दध्यान्तस्तन दध्योगधं परिहर तद्वाफ्याहस्वदेश प्रति चलितः । सा प्रतिमा तु ततो न उत्तिष्ठतीति तत्रैव धि परिहृतं रागो वस्तुिमारब्धः। पुनस्तन दयावधं कर्तुमारब्धं सा मक्ता । अव्यवछिन्नप्रयाणैश्चशितस्य अन्तरा वर्षाका:समा पुनरपि तदन्तर्विषं देवतयाऽपहतम् । एवं वारत्रय जागम । यातस्तेन रुको दानीराजनितीप्राकारं कृत्वा मध्ये सरक्षितः। अन्यदा देवता प्रमत्ता जाता तैश्च विपं दत्तम् । नन दायनराजमुखेन तत्र तिष्ठति यत्स्वयं सुते तश्चएम प्रद्योतस्यापि नोजयति। बिहनि वाणि श्रामण्यपर्यायं पात्रयिया मालिक्या संबखनया पकदा पर्यपणादिनमायातं तदा दायनेन अपवासः कृतः सूप- कवलज्ञानमुत्पादा सिहस्तस्य शय्यानरः कुम्नकारस्तदानीककारैः चएकप्रद्योतः पृथग जोजनार्थ पृच्च्यते तैरुकमद्य पर्युप- चिहामान्तर कार्यार्थ गाऽभूत कुपिनया च दवनया बीननयस्याणादिन नदायनराजा न पोपितोऽस्तीति यद्भवतो रोचते तत्पच्यते। परि पांशुवृष्टिमुक्ता मकमपि परमातादिनम् । अद्यापि नथवाचएकप्रद्योतेनोक्तं ममाप्य द्यांपचासोऽस्ति न झातं मयाद्य पपणा | स्ति शय्यातरः कुम्नकारस्तु शनिपल्टयां मक्तः । उत्त०१न्य० । Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२१) अभिधानराजेन्द्रः । उदायण १० अ० । आ० क० । प्रा० म० ॥ ( अभीचिकुमारस्य वक्तव्यता स्वावसरे प्रांता अस्या एव महत्या उदायनव सभ्यतायाः केचि दशा धनराखियनिरासादिदेषु उदानस्थ पितृष्वसुर्जयन्त्याः श्रमणोपासिकायाः कथा जयंतीशब्दे ) छदार (राम) उदार वि० उद्-आ-रा-- दातरि महति सरसे, दक्षिणे, गम्भीरे साधारणे, वाय नित्यतिरेका दौदार्यवति । न० २ ० १ ४० । उदा-उदारत्व-२० अनियेपार्थस्यानुरूपे, स० प्रतिि गुल्फगुण युक्तास्वरूपे धन्यस्वार्थप्रतिपादकता या शा शतितमे सत्यवचनातिशये, स० । उदासी उदासीन शि० उद्-ग्रास-शान रागपरहि मध्यस्थे, "उदासीने फरसं वयंति" उदासीना रागद्वेपर दिला म यस्यात् सत्युपशान्तास्तान् मदिनांचतान् कुर्वन्ति । श्राचा० १ ० ६ अ० ४ उ० ॥ “समणपि दद्धदासी णं, तत्थ वि ताव पगे कुप्पति" सूत्र० १ ० ४ अ० २३० । विवदमानयेोरेकतरानासम्यके जिमी शत्रुम मितां व्यवहिते परतरे मश्कजाद्वारेतस्मादुदासीनो दशाधिकः इत्युक्तaaणे राजनेदे, वाच० । उपेक्रमाणे च । स्या० ६ ० त्रि० उद्-- आहत दृष्टान्ततयोपन्यस्ते उदाहड- उदाहृतकथिते । वाच० । उपन्यस्ते, उदाहृतं तु "समं मईए अहाउ सो विपरिया समेव" सूत्र० १ ० ६ अ० । उदाहरंत - उदाहरत्। - त्रिप्रतिपादयति, 'सभ्यं असचं इति' चिंतयं ता, "असाहु साहुत्ति उदाहरता" । सूत्र०१० १३ अ० । उदाहरण - उदाहरण न० उदाह्रियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दार्द्धान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणम् । दश० १ अ० । उत्पत्तिधर्मकवात्सायासान्ते यथा घट इति वैषम्योंदाहरणं यद नित्यं न भवति तदुत्पत्तिमदपि न भवति यथाकाशमिति । सूत्र० १ ० १२ श्र० । विशे० । विनि उदाहरणं 1 तत्थोदाहरणं विहं, चव्विहं होइ एकमेकं तु देऊ चव्विदो खलु, तेरा उ साहिज्जए प्रत्य ॥ तब शब्दो वाक्योपन्यासाच निर्धारणाय या पूर्ववत्तश्च मूलदतो विविधं द्विप्रकार चरितकल्पित मेदासरदतस्तु चतु भवति तोके मुदाहरणमाहारतद्देशतद्दोषपन्यास मेदान्तच्च वक्ष्यामः । नायं हरणं ति दितोत्रम निदरिसणं चैव । एग तं विद्धिं चैव नायव्वं ॥ ५२ ॥ हातऽस्मिन्सति राष्ट्रोऽर्थ इति कालम अधिकरणे निष्ठाप्रत्ययः । तत्रोदा हियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणमिति राष्ट्रमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः । अतीन्द्रियप्रमाएं संवेदननियां नयतीत्यर्थः । उपनीयतेऽनेन दान्तिको र्थः इत्युपमानम् । तथा च निदर्शनं निश्चयेन दर्श्यते अनेन दाटन्तिपवार्य इति निदर्शनम् ( एगइति ) दमेकार्य कार्थिकजातम् इह च तत्प्रागुपन्यस्तं द्विविधमुदाहरणं चतु विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि सामान्य विशेषयोः कथंचिदेकत्वादत एव सामान्यस्यापि प्राधान्यख्यापनार्थमैकवचनाभिधानमेकार्यमित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते प्रन्दविस्तरनयाक्रम निकामाश्रमेतदिति गाथार्थः । उदाहरण साम्प्रतं यदुक्तं तत्रोदाहरणं द्विविधमित्यादि तद्द्वै विध्यादिप्रदशनाया। चरियं च कप्पियं वा, दुविहं तत्तो चव्विदेकं । हरणे तसे, तदोसे चेनुपन्नासे ।। ५३ ।। चरितं कल्पितं चेति द्विविधमुदाहरणम् । तत्र चरितमभिधीपतान्तेन कस्यचिद्राष्टांतिकार्यप्रतिपतिर्जयत तया दुःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य । तथा कल्पितं स्वबुरुकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते तेन कस्यचिदातिकार्यप्रतिपत्तिजन्यते यथा पिप्पलपत्रैरनित्यतायामित्युकं जप्त विय होहि य जड़ा श्रम्हे । अप्पादेश पतं, पंकुयपन्तं किसलयाणं ॥ नवि श्रत्थि नवि य होही, उल्लाको किसलपरुपत्ताणं । सवमा खलु एस कता भवियजणविवोहणट्टाए" इत्यादि आहेदमुदाहरणं दृष्टान्त उच्यते तस्य च साध्यानुगमादिलक्षणमित्युकं "साध्ये नानुगमो देतोः साध्याभावे च नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्ते, स साधर्म्येतद्विधा" अस्य पुनस्तलक्षणाभावात्कथमुदाहरणत्यमित्यत्रोच्यते तदपि कचित्साध्यानुगमादिना दान्तिकार्य प्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरण इहापि च सोऽस्त्येवेति कृत्वा किं नोदाहरणति साच्यानुगमादि अरुणमपि सामान्यविशेषणेभयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथंचिद्भेदवादिन एव युज्यते नान्यस्यैकान्तनेदाभेदयोस्तद्भावादिति । तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञातार्थमेवादिनोऽनुगमः खलु घटादी कृतकत्वादे 66 रनित्यत्वादिप्रतिबन्धनमनुपयोषन्नवस्तुधर्मा सामान्यस्य च परिकल्पित्वादसत्वादित्यमपि इन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायामतिप्रसङ्गादित्यच बटुवो च्यते ग्रन्थविस्तरजयादिति । एवं सर्वथा अभेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदजावो भावनीय इति । अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि कर्मसामर्थ्यात्तत्तद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य तस्य वस्तुनो गमकं भवत्यन्यया तस्मिन् तत्प्रतिपत्यसंभव इति कृतं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः । चरितं च कल्पितं चेत्यनेन विधिपुनर्विचार उदाहरणं देशस्तदोषवमुपन्यास इति । सोदाहरणदार्थ उक्त एव । तस्य देशस्तद्देशः । एवं तद्दोषः । उपन्यासनमुपन्यासः स च तद्वस्त्वादिकणो वयमाण इति गाथार्थः । साम्प्रतमुदाहरणमभिधातुकाम आइ । " पाख प्रहरणं होत अराम्रो उपायवणा य । तह य पकुप्पन्न विणा - समेव मढमं चउविगप्पं ॥ २४ ॥ हरणं जयति भयच बादरणे विद्या र्यमाण मेदा नवन्ति । तद्यथा अपायः उपायः स्थापना छ । तथा प्रत्युत्पाविनाशमेवेति स्वरुप प्रपचे दोनतिकार एव वक्ष्यति । दश० नि०१ अ० धाव० । (अपायादिशब्देषु अपायाहरणादि) एकदेशसिकथा सकसि कयने, कम्माण- ज्यु - सियर्थमुच्यमाने ते निदर्शनरूपे उपकृते करणे न्याय प्रतिवादिना प्रयुक्तप्रतिहादिपञ्चकान्तर्गत व्याधम्र्मतादर्श कथनमात्रे, लकणसम्बद्धतया प्रामाणिकवाक्योपन्यासे, कथा प्रसंग बनाये-युवाच कामपनिकमप्युदाहरणं नवति । न चैतदनुपपन्नमाचैरपि काल्पनिक प्रान्तस्याभ्यनुज्ञानाचाड भगवान् जयाहुस्वामी " चरियं च कप्पियं वा, आहरणं दुवि हमे पाचं भट्टस्य मादणारे धणमिष तु पणद्वारा " नं० Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहिय अनिधानराजेन्द्रः। उद्दाम उदाहिय-नदाहृत-त्रि व्याख्यात, “जा मा तिमि उदाहिया" निचू०१०। दुविहाओ होति उदरा, पेटे तह धनभाणिया" आचा. १ श्रु०७०१०। ते जदरा द्विविधास्तद्यथा पोट्टदरा धान्यभाजनदराश्च । पोट्टमुदरं उदाहु-उताहो-अव्य विकल्पे, “किं नवं मुणी मुणीए उदाहो तद्भयाद्दरा पोट्टदराः । धान्यन्नाजनानि कटपल्यादयस्तान्यव जुया सज्जायरए” उताही इति विकल्पार्थो निपातः।भ० १५ श० दरा धान्यन्नाजनदरा । ऊर्फ यत्र पूर्यन्ते तदूर्ध्वमुदरमुच्यते । १ उ० । “किं जाणया दिसं उदाहु अजाणया" आचा०२ श्रु। वृ०१०। निचर। कदाचिच्चदार्थे, आचा० ११०७ अ०२०॥ उद्दरिय-नदृप्त-वि० उद्-उप-क्त-उच्छते, गर्वान्विते, वाच । उदाहतवत-त्रि०व्याकृतवति, "व्याहु ते प्राय काफुसन्ति ति | प्राबल्येन कर्मशत्रजय प्रतिदर्पित.।। उदाहु धीरे" । आचा० १ ० ७ अ०२३०ाकथितवति, "एमओ उद्दवत्ता-अपधावयित-त्रि० प्राणव्यवरोपणात् जीवितविनावर्म तत्थ उदाहु धीरे। सूत्र०१० १५ अ । “एवं से उदाहु शके, "चवश्त्ता आहारं आहारशति सेमहया पावेहि कम्मेहि अणुत्तरनाणी अणुत्तरदसी"। उत्त० ६ ० । अत्ताण उवक्खाश्त्ता जव" सूत्र०२ श्र०५ अ०। उदि-नदि-पुं० उत-उत्कृष्ट : कामो यस्य नदिः ॥ उत्कृष्ट उद्दवण-अपजावण-न० जीविताद् व्यपरोपणे, । प्राचा०२१०। कामयुक्त 'नर्गो देवस्य धीमहि' गा ! अतिपालनविवर्जितपीमायाम्, “उहवणं पुण जाणासु, अश्उदुब्जेय-नुदकोनेद-पुं० गिरितटादियो जलोद्भव, । न०३ वायविवजियं पी" पिं० । सर्वथा जीवविनाशने च । तच्च श०६ उ० ॥ पृथिव्यम्योरन्यन्तरसंमईनाद्यैः अप्कायस्य तु वह्नितापनदएमानवृढ-उद-त्रि० दू० -बह-क्त । जढे, स्थूले, घृते, च। द्यनिघातनपानपादादिकालनैः वनस्पतेः पत्रपुष्पाडूरादित्रोटनाविवाहितस्त्रियाम् ,स्त्री०। बाच.। दिनिः । अत्र प्रायश्चित्तमाम्न इति । जीत।"उद्दवणं मारणं" उदृढ-देशीवचनम्-मुषिते च "उदूढ संसवाहिं अंतोवि पंचगि तत्र प्रायश्चित्तं पागञ्चितम् । नि० नू०१० । एहनपुटुम्" वृ० १ उ० ॥ नि० चू। उद्दवाण -अपजवण-गौणहिंसायाम, प्रश्न-अध० १०। उबूहल-नदूखल-न० लर्क खं खाति सा० क० पृष्ो नि।। विद्ययाऽन्यत्र नयने, वृ०१०।। तामुलादिखाएमनार्थ काष्ठादिरचिते अव्ये, गुग्गुतौ च । वाच। नदवणकर-अपशावणकर-पुं० मारणान्तिकनेदकारिणि, ग. " पीढं वा फर्ग वा णिस्सेणि वा उदूहलं वा अवहट्टउस्स वि १ अधिः । य दुहहेजा" आचा० २७० । उपघवणकर-पुण्धनहरणाद्युपश्वकारिणि,पषोऽप्रशस्तमनोविनद-नु-पुं० उनत्ति स्किद्यति उन्द-रक । जनविकावे, वाच । नयन्नेदः, ग०१ अधि० । औप० । सिन्धुविषये मत्स्ये, तत्सूकमचर्म निष्पन्ने वस्त्रे च भाचा० २१०। उद्दवणकरी-अपघावणकरी-स्त्री० जीवानामपडावणकारिउदंडग-उइंडक-पुं० वानप्रस्थतापसभेदे, ऊर्ककृतदएमा ये सच-| एयाम्, “परितावणकरि उद्दवणकरि नूतोवघाश्यं अनिकखण रन्ति, नि.चु०१०ीप० भ०। जासेज्जा" प्राचा०२ श्रु० । उमविहार-नदण्डविहार-पुं० महानगर्यामादिनाथालये, महा नविन्जमाण-अपजाव्यमाण-त्रि० मार्यमाण,“किलाविजामानगर्यामुद्दएमविहारे श्री आदिनाथः ॥ती। णस्स वा उद्दबिजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणं मायमविर्हि उदंस-उदंश-पुं०उद्दशति-उद्-वंश-अच्-मस्तकदशके, वाच । सासारगं दुक्खं जय पमिसंवेदेति । सूत्र०२१०१०। मधुमक्तिकायाम, का। उदविय-अपघावित-त्रि० उत्रासिते, "परिताविया किनामिया नईसंग-उदंशाएम-न० षष्ठीतत्पु० मधुमक्विकाणामएडरूपे अ लहविया गणाओ गणं संकामिया" । ध०२ अधि० । मारिते, एमसूदानेदे, का। ज०५श०१०। नइंसग-उदंशक-पुं० त्रीन्द्रियजीवन्नेदे, प्रा०१पद । जी०।। उद्दवेयव्य-अपघावयितव्य-त्रि० जीविताापरोपयितव्ये "अई उद्द-उद्दग्ध-पुं० रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वावलिको सीमन्तक ण उद्दवेयचा असे उद्दवयवा एवमेव ते इथिकाहिं मुच्चिप्रभानरकाविंशतितमेऽपक्रान्तमहानिरये, स्था०६ ग०। या"। सूत्र०२ श्रु०३ अ०। जहमजिकम-नग्धमध्यम-पुं० रत्नप्रजायाः पृथिव्याः उत्तरा- | नवेहिंत-उपधाविष्यत्-त्रि० उपवान् करिष्यति,-ज. १५ यलिकासु सीमन्तकमध्यमान्तरकाशितितमेऽपक्रान्तमहानि श०१०॥ रये, स्था०६ ग.! नावत्त-उद्दग्धावर्त-पुं० रत्नप्रनायाः प्रथिव्याः पश्चिमायां नदह-नुपथ-पुं० उद्गतो रथो यस्मात् १ रथकीले, तरथ तुल्यः पक्को यस्य । ताम्रचूडविहगे, । मेदिनी. नरकावल्यां सामन्तकावर्तस्यापरेण विशतितमेऽपक्रान्तमहानरके, स्था०६ ० उद्दाश्त्ता-अपद्रय-अव्य० मृत्वेत्यर्थे, “ जम जीवा उहाश्त्ता उदयवसिट्ठ-उदग्धावशिष्ट-पुं० रत्नप्रनायाः पृथिव्याः पश्चि- इत्येव वृज्जो २ पञ्चायति" स्था० १०गा। मायां नरकावव्यां सीमन्तकावर्तस्यापरेण विंशतितमेऽपक्रान्तम नदाणभत्तारा-उद्दाननतका-स्त्री० ज; परिष्ठापितायां त्रिहानरके, स्था०६ ग०। याम, "उहाणन्नत्तारा जत्तारेण परिकाविता " नि००१० उदाहर-नुकंदर-न० उर्वदरः पूर्यते यत्र काने तदुर्सदरम्।प्राकृ नद्दाम-नद्दाम-त्रि० उतं दाम्नः अच्-समा० । बन्धनरहिते, तशैल्या "उद्ददरं"। ते च दरा द्विविधा धान्यदरा उदरदराश्च । "ताहे उद्दामं गच्छंतस्स कलिंगे ईसिंपाणिए तमाए पक्खा जग्गा"। धान्यानामाधारजूता दरा धान्यदगः कटपल्यादयः । उदराण्येव आमद्वि० । अप्रतिनियमे, स्वतन्त्र, अत्युग्रे च । वाचा "एवं दरा उदरदरास्ते उन्नयेऽपि यत्र पूरयन्ते, वृ०१०। मुनिके। च कुसबजोगे उद्दामे तिब्वकम्मपरिणामा" पं० चूछ। नत्-उत्कृ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दाम टं श्रेष्ठं दाम पाशाख्यमस्त्रं यस्य । वरुणे, पुंगगम्जीरे, त्रि० वाच० उदान-ग्रा विद्या० हस्तादाकत आश्रम ८ । ४ । २५ । उद्दात्रश्- आच्छिन्दर आच्छिन्दति प्रा० । अदाल० पादादिन्यासेऽद्योगमने, “गंगावायउद्दाबसालिसप । झा० १ ० । चं० | क० ज० ॥रा० यति भूमिमुनिति उद्-द-चित्र-धारक य नकोsवे, याच० । अवसर्पिण्या: प्रथमारके, भरतक्षेत्रे स्वनामक्या हमनेदे, । जं० २ ० । नूकेदारभेदे च । वाच० । उद्दाबित्ता - उद्दालयितुम् अव्य० । चर्माणि मुम्पयितुमित्यर्थे, दशा० १ अ । जोद्वेणवा वेतेण वा णेतेण वा तया वा क सेण वा बियाप वा लयाए वा पासाई उद्दावित्ता नव" ॥ सूत्र० २ ० २ अ० । -- उद्दात्र- उद्राव- पुं० उद्-दु- घञ -- पलायने, । अमरः । वाच० । उदावणया अपघावणता स्त्री० उत्त्रासने, न० ३ श० ६ उ० । उद्दाह--नद्दाह - पुं० प्रकृष्ट दादे, । स्था० १० वा० । 3 उद्दिष्ट० दिनक० सामान्यतोऽमितेि स्था वा० । प्रति । प्रतिपादिते । सूत्र० १ ० [ श्र० । तद्विवहिर्तायप्रणीते, सूत्र० २ ० ९ अ० । वृ० । निर्दिष्टे । दश० 1 नि० चू० । दानाय परिकल्पिते भक्तपानादिके । "तस्स अक सिलो इसिणा णायपुत्ता उद्दिष्भत्तं परिवज्जयन्ति " सूत्र० २ श्र० ६ अनिर्षिते च । वाचः । सडक टिकटस्तेन कृतं विहितत (साथ) संस्कृत, कनवती किमुपसेसमारने " | पंचा० १० वि० । साध्वक्रया कृते आधा कम दौ, । पंचा० १४ वि० । श्रद्देशिके, "उद्दिकमं मुंज, ब कायपमद्दणो घणं कुणः । पचक्वं च जलगए, जो पियका सो भिक्खु" । दश० १० अ० । उद्दिष्टं च कृतं च उद्दिष्टकृतम् आधाकर्मणि । दर्श० । उपमा-मितिमा ० दशमासानामर्थनिष्यन्नमाहा रेन प्रत्येवंरूपाय दशम्यामुपावकप्रतिमायाम, १०२७० उनि परिरिष्टपरिज्ञात-पु० दिष्टं तच आ वकमुद्दिस्य कृतं प्रक्तमोदनादि चद्दिष्टनक्तं तत्परिज्ञातं येनासाबुद्दिष्टपरितः समीमुपासकप्रतिमां प्रतिपावके, स० हरितवज्जएपमा उर्दिष्ट वर्जनमतिमा श्री० दशम्या श्रावकप्रतिमायाम्, तत्स्वरूपं चैवम् । उद्दिष्टनक्तवर्जनप्रतिमांसा चैव उद्दिष्करं गतं पिबकिय सेसमारंभं । सो दोर सिंह वधारते को तुझे जाणे, जागेश वय नो वेति । पुग्वोदियगुणत्तो, दसमासा कान्त्रमाणें । पा० १ श्र० । तथा श्रमयेति निर्गन्यसद्वेद्यस्तदनुष्ठानकरणात्स भ्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः । चकारः समुच्चये अपिः संनावने भवति । श्रावक इति प्रकृतं श्रमण ! आयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्बुस्वामिनमामन्त्रयतोक्तमित्येकादशति । ह जुङ्क्ते जायनः । पूर्वोक्तसमयगुणांपतस्य तुरमुरस्य कृतस्य वातसानेपथ्यस्य समित्यादिकं साधुधर्ममनुपानयता निक्कार्थे गृहिकलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिपन्नाय निक्कोदेयेति जापमायस्य कस्वमिति कस्मिंश्चित्पृच्छति प्रतिपुनभ्रमणोपासकाऽहमिति ब्रुवाणस्यास्यैकादश मासान् यावदेकादशी प्रतिमा नवतीति । पुस्तकान्तरे त्वेवं "वाचनादंसणसावर प्रथमा कयवयकं द्वितीया । कयसामाश्य तृतीया । पोल होववासनिरए चतुर्थी । राइभत्तपरिन्नाप पञ्चमी । सचित्तपरमा पष्ठी । दिया - (०२३) अभिधानराजेन्द्रः । 66 - - उद्देस बंभयारी राम्रो परिमाणकमे सप्तमी । दिआ वि राम्रो वि बंभयारी सिणाणपयावि नवति वोसठकेसरोमन हे श्रमी । आरंभपरिझाए नवमी । उद्दिष्टनत्तवजय दशमी । समणभूपया विप्रवइति समणाउसो एकादशीति । क्वचिन्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमी । प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी । उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणनूतकादशीति ॥ स० ॥ प्रश्न० ॥ - उदिन ही ० प्रकाशान्विते पाया पिण्डा | पुढवी दगवारगो य उद्दिन्तो ( उदित्तत्ति ) अग्निकायः शीतकाले उदवितो जवति । वृ० १ ० उ०- अतिशत अधिके स्फुटे पाच विदेनुगुरुवा व्यवस्थापथितुमित्यर्थे । वृ० १ ० । - उद्दिमिक - उद्दिश्य - अव्य० अनुज्ञाप्येत्यर्थे । व्य० ७ ० । उद्दिसिजंता-नद्दिश्यमान- त्रि० वाच्यमाने । आ० म० द्वि० । दिसत्तए-उपदेष्य स्वयं धारवितुमित्य "दिसंवा अदिसं वा उद्दिसित्तर जड़ा तस्स गणस्स अप्पतियं सिया" । व्य० ६ि०२ उ० । योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधी वेदमित्येवमुद्देनुमित्यर्थे, “स जं कार्य उद्दिसित्तए" स्था० २ ० । उदिसिय नदिय-यदि या २ सियार सिय उद्दिसिय” उद्दिश्य अद्भुत्रीं प्रसार्य । आचा० २४० १ ० । उटा संकल्पित "उद्दियियत्यं सा श्रचा०२ श्रु० ॥ उद्दिस्स- उद्दिश्य - अव्य० उद्--दिग् ल्यप् आश्रित्येत्यर्थे, “जता मसदी हिस्स जिस कीर जो " पंचाविव ॥ 1 "साथ भये आसंका उहिस्स जरे विकीरण योगो । दश० १ ० ॥ उडीविष-उद्दीपित- "संधुकिय मुद्दनिय मुख बिययं पदवियं जाण" | को० । उदे-उद्देश पुं० उदिश्यते नरकादिव्यपदेशेनेति । उद्देशः । लोके, । आचा० १ ० १ अ० । वद्दिश्यते इत्युद्देशः । उपदेशे सदसत्कर्तयतादेरो गारकादिव्यपदेशे, “उपासमस्सत्य" यत् उपदेश सदसकदेशः स पश्यति इति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य स विद्यते स्वत एव विदितवेद्यत्वात्तस्य अथवा पश्यतीति पश्यकः सर्वज्ञस्तदुपदेशवर्ती या तस्य उद्दिश्य देशो नरकादिव्यपदेश त्रादिव्यपदेशो वा स तस्य न विद्यते तस्य प्रागेव मोकगमनादिति जायः । आचा० १ ० २ श्र० ३ ० | गुरुवचने, उत्त०१ अ० । अध्ययन, तदन्तर्गताधिकारे च । “नणिभो विय पुच्छोलिय छइसे विसेसेणं” नं० | समस्तार्थिनां कृते कल्पिते, घ०३ अधि अस्यनिषः । तदेशः पांडा नामदेशः स्थापनासो शः त्रोद्देशः कानोदेशो नावोद्देशश्चेति । नामोद्दशो यस्योद्देश इति नाम क्रियते । स्थापनोद्देश उद्देशवतः पुरुषादेः । स्थापना। रूव्योद्देशं तत्र्यशरीव्यतिरिक्तं स्वयमेव भाष्यकृदाह ॥ दब्वेणं उद्देमा, उदिति जाव जेण दच्वे दव्यं वा उदिसते, दव्वओ तदन्यो । येणादिना यदुद्देशः यो वा नस येणादिश्यते तत्र सचिन यथा गोभिगमा रंगप तिः गजैर्गजपतिरिति । अचिन्तन यथा दमेन च दएकी बत्रेण । Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२४) अभिधानराजेन्द्रः | उद्देस कपालेन कपालीत्यादि । मिश्रेण यथा शकटेन शाकटिको रथेन रथिक इत्यादि । इव्यं वा व्याधिप्रशमनं यदुद्दिशति । मौषधं व्यं जवता गृहीतव्यमिति । व्यतो वा ज्ञानानुपयुक्तः पदं । न श्रुतस्कन्धादिकमुद्दिशति व्यार्थी वा व्य निमित्तं धनुर्वेदादिकं यमुद्दिसति एष सर्वोऽपि प्रभ्योद्देशः ॥ वित्तम्मि जम्मि खित्ते, उद्दिमती जाव जेण खेत्तेण । एवमेव कालस्य वि भाषेत पसत्यापमत्यो || त्रोद्देशे चिन्त्यमाने यस्मिन् क्षेत्रे अङ्गश्रुतस्कन्धादेरुद्देशः क्रिय ते व्यावर्ण्यते वा यो वा येन केत्रेणोद्दिश्यते यथा जरते भवो भारतः। सुराष्ट्रायां नयः सौराष्ट्र मग माग इत्यादि । मेवामस्यते येन वा काग्रेगद्दिश्यते यथा सुषमायां भवः सौपमः शरदि जातः शारद इत्यादि एष कालोद्देशः । भावाद्देशां द्विधा । प्रसस्तोऽप्रशस्तश्च । उभयमपि दर्शयति ॥ कोहाइ अपत्यो, हाणामादीप होइ उ पसत्या | दो विख पत्यो, तित्थकराहार उदयादा | कांधमानादिदधिकदेिश: ज्ञानदर्शनादिकयोपशमिक औपशमिकः कायिकोपशमिको वा जावः प्रशस्तो भावोद्देशेो नवति यदयको भावोऽपि तीर्थका क स्वत्कर्मोदयरूपप्रशस्तो जवति । आदिशब्दस्य गाथायां व्यत्ययेन निर्देशो बन्धानुलोम्यात् । वृ० ३ उ० | उद्देशनमुद्देशः । सामान्यानिधाने, ययाऽध्ययनमिति । श्र० म० प्र० । विशे० | अनु०॥ उद्देशनिर्देशयोः स्वरूपं नाप्यकृदाह ॥ अपर्ण उदेमो, अनिहिये सामाव्यति निदसां । मामा निहाणं सत्यनामा | शास्त्रं च नाम च शास्त्रनामनी तयोः सामान्यविशिष्टयोः सामान्यविशेषज्ञतानि नामनिध्यदिनिधानमनिहितं तद्देशनिर्देशौ यथा संख्येन चे योजना । तद्यथासामान्यस्य शास्त्रीय पध्ययनानिधानमनि हिनंल उद्देश इत्युच्यते । नाम निष्पन्ने निक्षेप विशिष्टस्य नाम्नी यत्सामाधिकमित्यभिधानमिति निर्देश इत्यभिधीयतइति ॥ अस्यनिदा नाम उपणा दाखिले काले समाउने । सम्मिय जावे, एमाई हो म || नामादिदानामादेशः स्थापन स्यादेशः देश का उद्देशादेशः समासांसा देशो जवत्यमक इति नियुक्तिगाथासंकेपार्थः ॥ तत्र नामादेशं व्याख्यातुमाह भाष्यकारः ॥ नाम जमुमो, नाव जो जेण । उद्देसो नामस्स व नामुद्देसो जिहाति ॥ यस्यं जीवांदवेस्तन इति नाम नामादेशः । नामरूप उद्देशो नामोद्देशः यथा गोपालदारकादिरुदेश इति नाम (नाति) यो वा घटपटस्तम्नादिपदार्थो वन प स्तन्नादिनाम्ना वरिय प्रतियोऽपि पादपा नाम उच्यते हिश्यतेऽभिधीयते प्रतिपाद्यनिर्जन नाना इति कृत्वा उद्देशः (नामस्सवत्ति ) नाम्नो वा वस्तु सामान्यनिधानस्याद्देशन मुच्चारणं नामोद्देशः । किमुक्तवतीत्याह (अभि हाणंति) वस्तुनः सामान्यं यदनिधानं तन्नामादेश इत्यर्थः यथा आम्रादेः वृक्क दिनाम | वा शब्दः सर्वत्र प्रकारान्तरसूचक : उद्देस परोऽमुद्राया एवं नए सन्चो चिय, नामोदेसी जओ जिहाति । या हिवते व विकीरगस्स ॥ ननु यदि वस्तुनः सामान्यानिधानमात्र मुदेशोऽ सिवाय स्थापनाका प्राप्नोति । यतो व्यादीनामपि हेमरजतादीनां हेमादिकं स्वामायानिधानमिति तैर्वा सुम्भरिदिन रक्तपतिमित्यादिसामान्याभिधानं प्रवर्तते । तेषु वा दएक कुएककाव्येषु सत्सु दएकी कुएकली किर। दीत्यादिकं सामान्याभिधानं प्रवर्तमानं दृश्यते । एवं स्थापना केत्रादिष्वपि वाच्यम् । ततो य एव व्यायुद्देशोऽनिमतः स एव सर्वोऽपि नामोदेशः प्राभातीति उद्देशस्यैकविधत्वादविधत्वं विशीर्यत इति । अत्र परामिदितमन्युपगम्य परिहारमाह । सर्व सवाभ, नामुदेशो जिहाामिनं । नाग तह विमयं महकरियावत्यजेहिं ॥ सत्यमुक्तं जयता यतो यत्सामान्यानिधानमात्रं नामादेशः स खलु सर्वानुगत एव तथापि नामस्थापनाच्याद्यदेशानां नानात्वं नंदरूपं मतं सम्मतमैव परमार्थवेदिना कैरित्याह । मतिक्रियावस्तुमादिपादन] मतिस्तास्थापने किंतु चयन किया तामेव स्थापनाद्रव्येन्द्रादयः किंचित्सदृशीमेव अत एव नामेयादवस्तनां परस्परभेदादित पर पटादिवदिति करोति तामय स्थापन दिति । एवं प्रस्तुतनामस्थापना त्या देशानामपि मारिने दाद्भेदो योजनीय इति ॥ अथ स्थापनामुद्देशानाह । उद्देो, देसति तस्स वा उवणा । तं तदामुमो ! ogदेसो दव्वं, दव्व्वसोत्ति । एवं खेत्तं खेती, खत्तपई खेत्तजायत्ति || स्थापनाचा उद्देशनसुधारणं सामान्येनानिधानं स्थापनादे तस्य वा शस्य अकरादिषु स्थापना स्थापनादेशः । अथ 5व्यादेशमादयादीनामुद्देशीयोदेश दिय यदादिपरि कया यादवाच्या भक्तीत्या समित्यादि देव यमुद्दिश्यते उचा सामान्यनानिदेशः किम् रयसमासः । अत्र च पक्के व्यमेवादेशशब्दवाच्यम् । अन एव द्वितीयगाथायामाह ( दव्वमिति ) अथवा तेन व्येण हेतु नयतेनिशा यया त्यादि । यदिवा ततस्तस्माद्रव्यादुद्देशोऽभिधानप्रवृत्तिप्यादेशां यथा स्यानित्यादि । अथवा तस्मिन् इत्युद्देशोऽनिया. नप्रवृत्तिध्यादेशो यथा स प्रव्य इत्यादि सिंहासन राजा काका पर हत्यादि या। था दत्तमत्यादिकः सर्वोऽपि देशप्रति कालो कलाईये, काओ यंति कायति । मंत्रो ति समासो, अंगांत तिएहं || सुखंणाएँ, नियनियपत्यसंगहो । Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदम (८२५) अभिधानराजन्द्रः। उदेस होऽ समासुद्देमो, जहंममंगी तदब्लेजा। सचित्तद्रव्यविशेषस्य निर्देशो यथा गौरित्यादि अचित्तस्य एमेव मुयक्खंधो, जह तस्म तयहविष्माया। तु दण्ड इत्यादि मिश्रस्य तु रथ इत्यादि रथस्य चाश्वादि. युक्तस्यह मिश्रता भावनीयेति । तेन वा सचिसादिद्रव्यविअकयाणं अज्जयणी, तस्स नेया तयत्थानो॥ शेषणनिर्देशो यथा गोमानित्यादि दराडी रथीत्यादि ॥ काल एवोद्दिश्यमानत्वादुद्देशकालः कालोद्देशः । तेन वा अथ क्षेत्रकालनिर्देशाबाह ॥ कालेनोद्देशः कालोद्देशो यथा कालातीतं कालातिक्रान्तमिदं खेत्ते भरहं तत्थ व, नवोत्ति मगहत्ति मागहीवत्ति । चस्त्विति । ततो वा कालादुद्देशः कालोद्दशो यथा कालो सरनात्ति सारनत्ति य, संवच्चरिउत्ति कामम्मि ।। पतं कालप्राममिति । तस्मिन्या काले जातं कालजातमित्यादिकः कालोद्देशः । अथ समासोईसं विवक्षुराह (संखेवे क्षेत्र क्षेत्रीत्यादिकः क्षेत्रोद्देश उक्तः । इह तु तदेव विशिष्ट त्यादि ) संक्षेपणाविस्तरेण संकोचनं समास उच्यते तत्कोऽ क्षेत्र क्षेत्रनिर्देशों यथा भरतमित्यादि । अथवा (मगहत्ति) यं चेह अङ्गादीनां त्रयाणां विवक्षितः एतदेव दर्शयति (अंगे मगधजनपद इत्यादि तस्मिन्वा क्षेत्रविशेषे भवः क्षेत्रमित्युच्यत्यादि) अङ्गथुतस्कन्धोऽध्ययनमित्येष समासो भवति ॥ ते यथा भारत इत्यादि एतच्च स्वयमेव दृष्टव्यम् । मगधेसु कुत इत्याह । निजनिजप्रमेदसंग्रहादिति । अस्याङ्गादिसमा भवो मागध इत्यादि एतत्तु गाथायामप्यस्तीति काली कासस्योहशनमभिधानं समासोद्देशक इति दर्शयति । यथा अङ्ग. लोऽयमित्यादिकः कालोद्देश उक्तः । इह तु तस्यैव कालस्य मिति तदेवोद्दिश्यमानत्वादुद्देश इत्यर्थः । तेन वाङ्गरूपसमा विशिष्टस्य यो निर्देशो विशिष्टमभिधानं स कालनिर्देशो यथा सेनोद्देशो यथाङ्गीति ( तस्मतयटेत्ति ) अङ्गात्मकसमानो शर इत्यादि । तत्र वा कालविशेषे भवः कालनिर्देशोऽभिधी यते यथा शरदि भवः शारदः । संवच्छरे भवः सांवच्छरिक देशो यथा तदध्येता अङ्गाध्येता इत्यादि । एवं श्रुतस्कन्धा इत्यादि ॥ मकसमास एवोद्दिश्यमानत्वाद्देशो यथा तदर्थविशाता अथ समासनिर्देशमुद्देशं निर्देशं चाह ॥ ध्रुनस्कन्धार्थज्ञ इत्यादि । एवमध्ययनात्मकसमास एवोद्दिश्यते इन्युद्देशो यथाऽध्ययनमिति तेन वा उद्देशो यथाऽध्यय आयारो आयारेव, आयारधरे त्ति वा समामम्मि । नीति । तस्माहा उद्देशो यथा तस्याध्ययनयस्याध्येता ।त- आवस्मय मावासयि, तु तत्य धरोह वायत्ति ।। म्मिन्या अध्ययने सति उद्देशो यथा तदर्थशोऽध्ययनार्थविदि- सत्थए परिणाइ यव, अब्नेया यं समासनिद्देसा । भ्यादि विवक्षया सर्वे भावनीयमिति ॥ अथोद्देशोद्देशं भावोद्देशं चाह । नद्देसयनिदेसो, म पएसो पोग्गबुद्देसो ॥ नमो नमिनई-मणो तयत्यवत्ता वा । विस्तरवतो वस्तुनः संकपः समासस्तस्य सामान्याभिधानं समासोद्देशः नुक्तः । इह तु तस्यैव समासस्य विशेषानिधानः उद्देसुद्देसो यं, जावो भाविति नावाम्म ।। समासनिर्दशस्तत्र चाङ्गश्रुतस्कन्धाध्ययननेदान्त्रिविधः ममामाउद्देशः पुलाकादेशकादिः स एवोदिश्यमानत्वादुद्देशोदेशः । देशः पूर्वमुक्त इह तु तैपामेव त्रयाणामलादीनां विशेषाभिधाम चायं विज्ञेयः क इत्याह । पुलाकोद्देशकादिक उद्देशोऽप्यु- नरूपस्त्रिविध एव समासनिदशस्तया चाह (आयारेत्यादि) आचाविश्यमानत्वेनोद्देशोद्देश उच्यते । तेन वा उद्देशोऽभिधानं रप्ररूपणाङ्गविशपानिधाननिदेश्यमानत्वादाचार प्रति ममानियथा उद्दशीति । तस्माद्वा उद्देशो यथा उद्देशज्ञः । तस्मिन्बा देशस्तेन वा आचारसमासन निर्दशा यथा प्राचारवानिशदि । उहशो यथा नम्योद्देशकस्यार्थवेत्ता इत्यादि (भावम्मित्ति) तस्मादा आचारसमासानिदेशो यथा प्राचारधर श्त्यादि । भुतभावविषय उद्देशो भावोद्देशः । क इत्याह (भावोत्ति ) श्रीद स्कन्धसभासनिदशो यथा आवश्यकमिति । तेन वा आवश्यकदिको भाव उदिश्यतेऽभिधीयते इन्युहेशो भावश्चासावुहेश- समासेन निदशो यथा आवश्यकीति । अथवा तस्मादावश्यकभावोद्देश इत्यर्थः । तेन वा भावेनोद्देशो भावोद्दशो यथा समासानिदेशी यया आवश्यकसूत्रार्थधरोऽयमिति । अध्ययनभावीन्यादि पूर्वोक्तानुसारेण वाच्यमिति गाथानवकार्थः ॥ माश्रित्य समासनिर्देशः कश्त्याह ॥ आचाराङ्गे प्रथममध्ययन शअथोद्देशव्याख्यानेन निर्देशमप्यतिदिशन्नाह । त्रपरिका इत्यादि तेन वा शास्त्रपरिझासमासविशेषेण निदेशी य. एवमेव मणिदेमो, अट्ठविहां सो वि होइ नायव्वा । था (अज्यायंनि) शत्रपरिझाध्येता अयमित्यर्थ इत्यादि समाअविनमियममो. विमसियो होइणि इंसी । सनिंददाः । शनिदेशस्तूच्यते क इत्याह । (पएसो ति) अएवमेव यथा उहेश उक्तस्तथा निर्देशोऽन्यविध एव भवति ध्ययनस्य प्रदेऽदा इत्यर्थः । यथा जगवत्यां एलांदशकस्तभ्य ज्ञातव्यः । सर्वथा माम्यप्रतिषेधार्थमाह । किन्धविशेपितसा- निर्देशोऽभिधानमुदेशनिदेश इत्यादीनि । विशे०॥ आ०म०प्र०। मान्यनामस्थापनादिरूप उद्देशो विशेषितनामादिरूपस्तु स | ।पाचून वाचयामीति गुरुप्रतिझारूपे. विशे०॥दमध्ययनाएव निर्देशो भवतीति विशष इति नियुक्निगाथार्थः ॥४६॥ । दि त्वया पम्तिव्यमिति गुरुवचनविशेष, ॥ भावार्थं तु भाप्यकारः प्राह ॥ तष्ििधश्चैवम् ।। नाम जिणदव्वाई, उवमाविमिट्टवत्थुनिक्खेवो । तत्राचाराद्यङ्गस्य उत्तराध्ययनादिकालिकश्चतस्कन्धस्य औपपादबो गोमं दंगी, रहीति तिविहो सचित्ताइ । तिकाद्युत्काविकोपागाध्ययनस्य चायमुद्देदाविधिः । इहानागङ्गावस्तुनः पुरुषादेयत्पुरुषादिक सामान्य नाम स नामोइंश द्यन्तरश्रुतमत्येतुमिच्छनि यो विनेयः स स्वाध्यायं प्रस्याप्य गुरू उको यत्त तम्यव विशेषनामसंग्रह नाम निर्देश उच्यते यथा विज्ञपयांत जगवनमुकं मम श्रुतमुदिहात । गुरूपिणतीचाम जिनदत्तादिसामान्यस्य चेन्डादेवस्तुनः । स्थापना स्थापनादेश इति । ततो विनयो वन्दनकं ददाति ननो गुरुभन्याय कन्यवउक्तः इह तु विशिष्टस्य मौधादिपन्यादिवस्तुनो यः स्थाप- न्दन कगति तत अवस्थितो वामपायीकृतशिया यांगारपनाम्पा निक्षेपः म म्धापनानिर्देशः। इव्यस्यापि त्रिविधस्य निमित्तं पञ्चविंशत्युच्चासमान कार्यान्मग कगति "चंदेल निसचित्तादेर्विशिष्टस्य यो विशिष्टाभिधानरूपो निशः तत्र म्म प्रयरत्ति"यावच्चविंशतिस्तयं चिन्तयतीत्यर्थः । ततः पारित. Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदेस कायोत्सर्ग संपूर्णचतुर्वणिया तथास्थित एव पञ्च परमेष्ठिनमस्कारं वारयमुचार्य "जाणं पंचपिरामित्यादि" उदेशनंदीं जणति । तदन्ते चैवं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य साधोरिदमङ्गममं धृतस्कन्धं इदमध्ययनं या उद्दिसाम कमाश्रमणान हस्तेन सूत्रमर्थं तदुभयं च उद्दिष्टमित्येवं वदति । कमाश्रमणानामित्यादिन्यात्मनो कारवर्जनार्थमभिधत्ते ततो विनेयमा मीति प्रणित्वा वन्दनकं ददाति २ तत उस्थितो ग्रवीति संदिशत किं भणामीति । ततो गुरुर्वदति वन्दित्वा प्रवेदयत ततो विनेय इच्छामीति नदित्वा वन्दनकं ददाति ३ रातः पुनरुत्थितः प्रतिपादयति मा म्यनुशास्तिम् । ततो गुरुः प्रत्युत्तरयति योगं कुर्विति एवं संदिष्टो त्रिय इच्छामीति भणित्वा वन्दनकं ददाति ४ ततोऽत्रान्तरे न[मस्कारमुचारयन्नसी गुरुं प्रणयति तदन्ते च गुरो: पुरतः ( ८२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । पुनर्वदति भवद्भिर्ममामुकं श्रुतमुद्दिष्टमिच्छाम्यनुशास्ति ततो गुरुराह योगं कुर्व्विति । एवं संदिष्ट इच्छामीति - पित्वा वन्दित्वा च पुनस्तथैव गुरुं प्रदकणयति । तदन्ते च पुनस्तथैव गुरुशिष्ययार्ययतिषय तथैव च तृतीयां विदधाति विनेयः । एतानि च चतुर्थवन्दनकादीनि त्रीण्यपि बन्दनकान्येकमेव तु गएयते एकार्थप्रतित्यादिति २ स तृतीय प्रदक्षिणान्ते गुरुनिषीदति निषादस्य च गुरो: पुरतो विनय पतिप्रद संदिश साधूनां प्रये दयामि । ततो गुरुराह प्रवेदयेति । तत इच्छामीति प्रणित्वाविशेष चन्दन दाति प्रतिघांच्चारितपञ्च परमेष्ठिनमस्कारः पुनर्वन्दनं ददाति । ६ । पुनरुत्थितो वदति युष्माकं प्रवेदितं साधूनां च तं प्रवेदितं सन्दिशत करोमि कायोत्सर्गम् । सतगुरुजी कुदिति ततः पुनरपि बन्दनकं ददाति |3| पतानि सप्तच्छोज वन्दनकानि श्रुनप्रत्ययानि भवन्ति ततः प्रत्युस्थितोऽभिधत्ते अमुकस्योद्देशनिमित्तं करोमि कायोत्सर्गमन्यसितादित्यादियामीति ततः कार स्थि तः सप्तविंशतिमुच्छ्वासांचिन्तयति सागरवर गम्भीरेति " यायचतुर्विंशतिस्तयं चिन्तयति इत्यर्थः। "उद्देशसमु सत्ताचीसं अणुवणियाए " इति वचनात् ततः पारितकायोत्सर्गः: संपूर्ण चतुर्विंशतिस्तवं भणित्या परिसमाप्तदशक्रियत्वाद्गु ददाति तच न किं तदातृत्वा दिना गुरुः परमोपकारं । तद्विनयप्रतिनिमित्तमिति ॥ अनु० । आ० म० द्वि० (तस्कन्धस्योदेश इति म वाया०० १४० स्कन्धाङ्गपरावर्तन तरकार्य सप्तविशत्युदासकाला कायोत्सर्गः " उस समये सत्तावीस " ॥ ० १ प्रति उदेशे त्यो अनि अस्मिणी य तदेव य । चत्तारि खिप्पकारीणि, विजारंजे सुसोहणा ||२७|| विजाणं धीरणं कुज्जा" इति । यस्य किं तं यमित्याह । यो कम्पनि निर्माण वा निर्यणा वा वा खुड्डियाए वा व्यंजणजायस्स आयारकप्पे णामनयणे मापति निषाण वा नियण पाखुडागस्स वा खुड्डियाए वा वजायस्प आयार कष्पेणामं असे उदिसिनए पि २ व्य० ० १० ४० 66 न कल्पते निर्ग्रन्यानां या कुलकस्य वा कुलिकाया वा अन्य जनजातस्य व्यञ्जनान्युपस्थरोमाणि जातानि यस्य स तथा तस्य प्रचारको नामाध्ययनं निशीथावरम्। अत्र कारणं नाप्यकृदाह । उद्देस अस्स आयारे, अपनि उपति । प्रणजातस्य जाण परुवा ।। जहा चरितं धारेन, ऊणो उ अपचली । तावा, वायस्स नो सहू || अधिकाष्टवर्षस्याप्यपठितेऽप्याचारे श्रव्यञ्जनजातस्य । श्रत्र व्यञ्जनानां प्ररूपणा कर्तव्या सा च सूत्रव्याख्यायां कृता न तु नैव सूरयः प्रकल्पमाचारप्रकल्पनामाध्ययनं ददति कुत इत्याह । ( जहेत्यादि) यथा ऊनाए ऊनाश्वर्षश्चारित्रं धारयितुमम त्यलोऽसमर्थः तथा श्रजातत्र्यञ्जनतया अपक्कबुद्धिरपवादमाधारणेन वदति तथा कल्पते निर्गन्धानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकस्य वा तुल्लिकायावा व्यञ्जनञ्जातस्य श्राचारप्रकल्पो नामाध्ययनमुद्देष्टुम् । अथ स्तोककालदीक्षितस्यापि ज्ञातव्यअनस्य दीयते किंवा नेत्यत श्राह । ( श्रतिवासपरियागस्सेत्यादि ) शातव्यञ्जनस्यापि त्रिवर्षपर्यायस्य भ्रमणस्य निर्मन्धस्य कल्पते याचारप्रकल्प नामाध्यनमुद्देपुम् । यदि पुनस्त्रयाणां वर्षाणां श्रभ्यन्तरत उद्दिशति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः त्रिवर्षपवयस्याप्यपरिणाम कस्यातिपरिणामकस्य चोदितस्य चतुर्गुरुकम् ॥ (सूत्रम्) चनवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्प सूपगमे नाम अंगे उस पंचवासपरियागस्स समस् निग्गंथस कप्पति दसा कप्पववहारा उद्दिसित्तए विवास परियागस्स निग्गंथरस कप्पति वाणसमाएर उद्दिमित्तर दमवासपरियागस्स समास्स निर्मायस्य नामं अंगे उद्दित्तिए || तुर्वर्षपर्यायस्य श्रमसनिर्धन्धस्य कल्पते सूत्रमुद्देष्टुम् । पञ्चवर्षपर्यायस्य दशकल्पव्यवहाराविह नाम परभ्य आरभ्य नव वर्षाणि यावत् तत्पर्यायस्य स्थानं समवायस्य दशवर्षपर्यायस्य व्याख्या प्रज्ञप्तिः पञ्चममङ्गमेतदेव सहतुकं वक्तुकामो भाष्यकृदाह । चरवासेन कप्पवहारस्स पंचनामस्म । गडास, समय रिस विवाह ॥ चतुर्थी पर्यायस्य सूत्रकृतः पञ्चवर्षस्य कल्पव्यवहारात्रुपलक्षणमेतत् दशाथुतस्कन्धाविह एपर्यायस्य स्थानं समचाश्च दशवर्षपर्यायस्य व्याख्या प्रज्ञप्तिरुद्दिश्यते किंकारणमेतावत्कालातिक्रमेण तत श्राह ॥ मोगामती, न कुसमहिं तु हीनपनाओ। पंचवरिमओ जोग्गो, अववायस्सत्ति तो दिति ॥ पंचविगो, सुधरा जण ते उपगो ठाणे महिनियंतिय, ते इसवरिपरियाए || सुत्रकृताई या त्रिपधाधिकानां पापकशतानी दृयः प्ररूप्यन्ते । ततो हीनपर्यायो मतिभेदेन मिथ्यात्वं यायात् । चतुर्वर्षपर्यायस्तु धर्मे श्रवगाढमतिर्भवति ततः कुसमनन्दितेन मनुर्षपर्यायस्य तदुदेष्टुमनुज्ञातम् । तथा पञ्चमोवर्षो ऽपवादस्य योग्य इति कृत्वा पञ्चवर्षस्य दशकल्पव्यवहारान् दति । तथा पञ्चानां वर्षाणामुपरि पर्यायो विकृष्ट उच्यते । येन कारणेन स्थाने समवाये न चाधीतन थुरा भवन्ति ते फार तदुद्देशनं प्रति टिप गृहीतस्तथा स्थानं समवायश्च महर्द्धिकं प्रायेण द्वादशाना Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२७) अभिधानराजेन्द्रः | ਰਵੇਸ਼ मध्यङ्गानां तेन सूचनादिति ॥ तेन तत्परिकमितमतौ दशवर्ष पर्याये व्याख्या प्रज्ञभिरुद्दिश्यते ॥ सूत्रम् एकारसवासपरियागस्स समणस्म निचरस क खुट्टियावाचिनी । महािविमागतं मह लिया विमा पविजत्ती अंगलिया विवाहचूलिया नाम अज्यमुद्दिसित्तए । श्रस्य व्याख्या ॥ एसवाससा खुमी विमाणपविनथी । कप्पड़ यां विवाह चैव चूसीयां ॥ गामंगल, महकम्पमुपस्म पग्मी छ । विवाहचूलिया पुण, पम्पत्तीए मुणेयव्त्रा ।। एकादशवर्षस्य शिफाविमानमविभक्लियंत्र कल्पेषु विमानानि वयन्ते महती विमानप्रविभक्तिर्यत्र विमानान्येव विमा नविस्तरेणाभिधीयन्ते। श्रङ्गानामुपा सदाप्रभृतीनां पञ्चानां चूलिका निरावलिका अङ्गचूलिका महाकल्पयुतस्य चूलिकावर्ग भूमिका व्यापालिका पुनः प्रशख्या प्रशतचूलिका मन्तव्या ॥ (सूत्रम् ) वारसवासपरियागस्स समणस्स कप्पड़ अरुणो पाए गरुझोपवावरुणोववाद बेममणोववार घरो वाए | वेधरोववाट नाम अजय उद्दित्तिए । अत्र भाष्यव्याख्य ॥ वारसवासे अरुणो-वत्रायवरुणो य गरुझवेलंधरो । समय हाय ते कपनि उसि । द्वादशपर्यायस्य | अरुणोपया परिय-तिए तिदेवान | अंजलिम लियहत्या, उज्जीवेत्ता दमदिसो उ ॥ नागावरुणोवास, अरुणा गरुन्ना य वीयगं देति । आगंतॄण पवंती, मंदि महा किं करेमित्ति || नेयामरणोपपातादीनामध्ययनानां ये दशनामान देवास्ते यदि तान् प्रतिधायाध्ययनानि परावर्तन्ते तदा ते ज कुरुदय समागच्छन्ति स मागत्य च किंकरताः पर्युपासत तथा नागा धरणनामानो वरुपा गन्धोदकादि वर्षन्ति । अरुणा गरुमाश्च वीजकं सुवर्ण ददतः प्रत्यासन्नमागत्य ब्रुवते संदिशत किं कुम वयमिति । (सूत्रम् ) तेरमवामपरियागस्य ममणस्स निर्णयस्स कप्पर उडाणमुपममुट्टामुपदेविंदो देववाए मागए परियावणियाए । अस्य व्याख्या । तेरवा कपड़ उडाए वहा समुहासे । परियालिया नागाणा तब परिव॥ कल्पतेत्तसमुत्यानं समुत्यान देवेन्द्रपरिपनि नागानां तथैव परियापनिका नागरि पनिका इत्यर्थः । (स) परियागस्य ममार निवस क ध्वनि सुनावणानाम अयणमुद्दिसित्तए | चतुर्दशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्मन्थस्य कल्पते महास्वप्नना उस वना नामान्ययनमुद्देष्टुम " चोइसवासुसिए " इत्यादि भा प्यारा सुप्रीम इत्थं तीमं सुमिणा बापाला व हंति महमियां । बारिसमा चिफलं ते । अत्र महास्वननावनाध्ययने त्रिंशत् सामान्यस्वनाः द्वाचत्वारिं शन्महास्वमा वर्ण्यन्ते फलं चैषां स्वप्नानां चर्यते ।। (सूत्रम्)] पत्रमपामपारागस सस्स निर्गत्यरस कप्पर । चारणभावणानाममपदिति ॥ अत्र भाष्यम् ॥ पन्नरसे चारणा-वणं नि उद्दिमिए उग्रायणं । चारणलक हियं उपजे अपिम्मि ।। उ पञ्चदशे पञ्चदशवर्षपर्यायस्य चारणजावनेत्यध्ययनमुद्दिश्यते तस्य कांऽतिशय इत्याह चारराधिस्तस्मिन्नधीते उत्पद्यते येन पापसात रुजायते तप (सूत्रम्) सोन्झसवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पड़ ते अनिमित्तमत्तरसवामपरियागस्म ममणस्स विस्वकष्पनिमा नाम अ मुद्दित्तिए । अट्ठारस वासपरियागस्स समणस्स निग्गंचस्न कप्पति दिडीविसावणानामऊपण दिमितए । एबीसवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्न कप्पड़ दि faraमंगे दित्तिए वीसतिवामपरियाए समणे निग्गंध जयति ॥ अस्य व्याख्या अनिसज्जा सोनस, आमीविमजावणं च सत्तरसे । मिमहारस, एगुणवीसदिङवाओ उ ।। नामयमुदिश्यते आशीविषनायनानामोद्दिश्यते दृष्टिविप्रभावनानामादर्श वर्षे एकोनविंशतितमे वर्षे दृष्टिवादो नाम द्वादशमङ्गमुद्दिश्यते । सांप्रत मध्ययनानामतिशयानाद वेवरस निसरणं खलु आसीन दिवसे । अतो मुमुपज्जे, समहीएमु तु एए ॥ एतेषु तेजांनिसर्गप्रभृतिष्वध्ययनषु यथाक्रमं तेजसो निस्सरणमाशीविषत्वं दृष्टिवियमित्येवं यः समुत्पद्यन्ते । श्यमत्र जावना । तेजांनिस ऽध्ययनेऽधीते तेजोनिस्सरणधिरुत्पद्यते येन वा तपसान्या तेजोबधवात तत एवपयते आशीविषभावनायां परितापाधिरशीलया कर्म ययात्। एवं वनावनायामपि ज्ञावनीयम् ॥ दित्रिए पुण होई, मन्त्रजावाण स्वयं नियमा । मध्यमुवाचावीमा बो दृष्टिवादे पुनर्भवति सर्वभावानां रूपणं प्ररूपणं नियमात् विंशवि नः सानुपाती भवति सर्वमपि यातन योगेन तस्य पवनीयं जयति । अय कस्य तीर्यकरस्य काने कियन्ति प्रकीर्णकान्याभवत्यत आह उ - चमसाई तुवमाणस्स | संमाण जया सीमा पंचया ॥ जगतो पमानस्यामिन-सी प्रकीर्णकाण्यन वन शेषाणां च तीर्यकृतां यस्य यावन्तः शिष्यास्तस्य तावन्ति प्रकीर्णकानि प्रत्येकका अपि तस्य तावन्तः । Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२८) उद्देस अभिधानराजेन्धः। उद्देस पत्तस्स पत्तकाझेय, वयाणि जो उ उदिसे तस्स । शेषाश्च या लब्धय आवार्याणामुपाध्ययादीनां योग्या याभिः समन्विताः आचार्यतया उपाध्यायादितया वा उद्दिश्यन्ते । निज्जरमानो विपुलो, किहमाणं पुण तं निसामेह ।। ता अपि प्रतिपाद्यन्ते तत्र श्रुतपरिमाणं "जहनेणं आवारम्पकपात्रस्य योग्यस्य परिणामकस्येत्यर्थः । एतेनापत्रिपरिणामके प्पधरे" इत्यादिनाचारित्रपरिमाणं" तिवासपरियार" इत्याविपरिणामके वा ददाना महती भुतासातनामेतीति प्रतिपादित. दिना शेषपदैर्यथायोगं लब्धयः । अनेन संबन्धेनायातस्याम् । प्राप्त काले यथादित एतानि प्रकीर्णकानि च दिशाति तस्य स्य व्याख्या । त्रीणि वर्षाणि पर्यायः प्रवृज्यापर्यायो यस्य स सुविपुत्रा निर्जरानाभः । कथं पुनः स विपुलो निर्जरावानः । सू- त्रिवर्षपर्यायः । श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः । स च शाक्यारिराह तं विपुत्रनिर्जराक्षानं कथ्यमानं निशमयतो मते कथयति। | दिरपि भवति । ततस्तद्यवच्छदार्थमाह । निर्गन्धः निर्गताकम्मममखेजनवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। ग्रन्धात् व्यतः सुवर्णादिरूपाद् भावतो मिध्यान्वादिलक्षणाअन्नयरगम्मि जोगे, मन्नायम्मी विससे ग ।। दिति निर्ग्रन्थः । आचारकुशलः ज्ञानादिपञ्चविधाचाकझानावरणीयादिकमसंख्ययभायोपार्जितमन्यतरकेप यो शलः तत्र कुशल इति द्विधा द्रव्यतो भावतश्च । तत्र यः कुशं गप्रतिलेखनादावुक्तोऽनुसमयमेव कपयति विशेषतः स्वाध्याये दर्भ दात्रेण तथा लुनाति न कचिदपि दात्रेण च्छिद्यते स आयुक्तः। द्रव्यकुशलः । यः पुनः पञ्चविधेनाचारेण दात्रकल्पेन कर्म आयारंगादियाणं, अंगाणं जाव दिहियातो उ । कुशं लुनाति स भावकुशलः तत्रैवं समासः प्राचारेण शाना द्याचारेण कर्मकुशलः कर्मच्छेदकः श्राचारकुशलः श्राचारएम विही विमओ, सव्वेसि आणुपुबीए । विषये सम्यक परिशानवान् इति तात्पर्यार्थः । अन्यथा लेन श्राचारादिकानामङ्गानां यावत् दृष्टिवादो दृष्टिवादपर्यन्तानां कर्भकुशच्छेदकत्वानुपपत्तेः । एवं सर्वत्र भावनीयम् । संयम सर्वपामानुपूर्ध्या एषोऽनन्तरोदितो विधिर्विज्ञेयः । पात्रस्यो- सप्तदशविध यो जानात्येव स संयमकुशलः समासभावना चिते काले यदुचितमङ्गंतदातव्यं न शेषमित्यर्थः॥ व्य०१० उ०। सर्वत्र तथैव । अथवा यः कुशं लुनन्न क्वचिहात्रेणापिछयते स त्रिवर्षपर्यायो निर्ग्रन्थ प्राचारादिकुशल प्राचार्यादितया लोके तत्वतः कुशलो नास्तितेन कुशलशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं कल्पते उद्देशयितुम् ॥ दक्षत्वं तश्च यत्रास्ति तत्र कुशलशब्दोऽपि प्रवर्नते इति दक्षतिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुमले वाची कुरालशदस्तत एवं समासः। आचारे ज्ञातव्ये प्रयोपवयणकुसले पर्मत्तिकुसले संगहकुसने उवग्गहकुमझे क्तव्ये बा कुशलो दक्ष प्राचारकुशलः ॥ एवं संयमकुशल: अक्खयायारे असवमायारे अभियायारे असं किन्नहायार प्रवचने ज्ञातव्ये कुशलः प्रवचनकुशलः। प्रशमि म स्वसमय परसमयप्ररूपणा तत्र कुशलः । संग्रहणं संग्रहः । स विधा चरित्ते बहुस्सुए पागमे जहरमणं आयारकप्पा भवज्काय द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यत श्राहारोपध्यादीनाम् । भावतः ताए उदिमित्तए मवे वर्णसे तिवासपरियाए समणे सूत्रार्थी तयोढिविधेऽपि संग्रहे कुशलः। उप सामीप्यम ग्रह निग्गंध नो आयारकुशले जाव संकिनिहायारचरिते अप्प | सोऽपि द्विधा द्रव्यतो भावतश्च । तत्र येपामाचार्य उपाध्यायी स्मृए अवागमे नो कप्पा नवायत्ताए नदिमित्तए । एवं वा न विद्यते तान् श्रात्मसमीपे समानीय नेपामियर दिश बुद्ध्या तावद्वारयति यावन्निष्पाद्यन्ते एप द्रव्यतः उपसंग्रह: पंचवासपरियाए सम निग्गंथे आयारकसझे जाव असं- ग्रहउपादाने इति वचनात् यः पुनरविशेषगा सर्वेषामुपकारे किनिहायारचरित बहुस्सुए वजमागमे जहोणं दमाकप्प- वर्तते स भावतः उपग्रहः । अझताचारता परिपूर्णाचारताच ववहारे दारे कप्पड़ पायरियउवझायत्ताए उद्देमित्तएएसच्चे चारित्रे सति भवति । चारित्रवता नियमतः पाश्चत्वारोऽ वणं मे पंचवासपरियाए निग्गंथे जाव अप्पसुए अप्पागमे नो प्याचाराः सेव्याः चारित्रवतः चारित्रस्यादानति वचनात् । ततश्चारित्रवानिन्युक्तं जपत्यम् नन्वेषोऽप्यर्थथाचार कु.शल हत्य कप्पा पायरियनवायत्ताए नदिसित्तए ६ अहवामप- नेनोपात्त इति किमर्थमस्योप्यादानमुच्यते चाग्धि खनु प्रधान रियाए समणे निग्गये आयारकुमले जाव असंकिमिट्ठा- मोक्षाहं तदपि कराठतो नोक्तमिति तदाशवान्युदामार्थमित्ययारचरित्ते बहुस्सुए बागमे जहमेणं वणसमवकरे | दोषः । तथा अशबलो यस्य सितासितवरण पंतपलीव इव न कप्पड़ में आसे आयरियत्ताए पविनिताए थेरत्ताए गणिताए कचुर आचारो विनेयशिप्यभाषागोचरादिको यम्यासावशव लाचारः । तथा अभिन्न केनचिदप्यनीचारविशेषण खण्डित गणाबच्चइयत्ताए उद्देसित्तए ७ मध्ये वणं अट्ठबामपरियाए| श्राचारो शानाचारादिको यस्यासावभिन्नाचारः। नया अमं. ममण निग्गं ये ए आयग्कुमन्त्री जाव संकिनिहाणायार- क्रिष्ट इह परलोकाशंसारूपसंक्लेशविप्रमुक्त, प्राचाग यस्य चरित्ते अप्पमए अप्पागमे कप्पर प्रायग्यित्ताए जाव सोऽसंक्लिष्टाचारः । तथा बहुश्रुतं मत्रं एभ्यासी बहुश्रुतः । गणावश्यत्ताए उद्दिमित्तए । व्य० स० ।। तथा बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बहागमः । जघन्यनाचार प्रकल्पधरी निशीथाध्ययनसूगार्थधर इत्यर्थः जघन्यत आचार सूत्रपदकम । अथास्य पूर्वस्प्रेण सह का सम्बन्धस्तत माह ।। प्रकल्पग्रहणादुत्कर्षतो द्वादशाङ्गविदिति पयम । स कल्पन जावपबिच्छेयम्य उपनि, एामट्ठाए हो इमं मुत्तं । यो भवन्युपायनयोदेष्टुमिनि प्रथमसूत्रार्थः । ( मध्यवर्णसे नि मुयवराणे नपमाणं. ससा उ हवंनि जा सकी। वासेत्यादि । सेशब्दाऽथशब्दार्थः । अथ म पव त्रिवर्षपर्यायः द्रव्यभावपरिच्छेदावनः स्थविग्रनुशानो गरी धारयति । भ्रमण निधो नो श्राचारकुशल इत्यादि पृर्वव्याख्याननतद्विपरीता न धारयतीति उत्तम । तत्रेद मृत्तपटकं भावपरि- | सुप्रतीतम । एवं तु मत्रे पञ्चवर्षपर्यन्वम्याचार्योपाध्यायत्वोः छदस्य परिणामाचे परिणाम प्रतिपादनार्थ भवति वर्तते । देशविषय भावनीये नवरं नाजधन्दन दशाकल्पव्यवहारघर यथा चानन मत्रपदकेन धृतेन घर च प्रमाणमभिधीयते । इति वक्तव्यम् । ४। एवमेवाटवर्पपयायस्यान्याचार्योपाध्याय Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस (८२९) अभिधानराजेन्द्रः । गगावच्छेदित्वोदेशविषये द्वे सूत्रे व्याख्येये केवलं तत्र जघम्येन स्थान सामाचार्या गण इति वाच्यं शेषं तथैव । एष सूत्रषट्क रूप संक्षेपार्थः । अधुना निर्युतिविस्तरः तन तावत्सर्वेषामेव सूत्रपदानां सामान्येनाविकरिदमाह । भाष्यकृत् ॥ एकारसंग सुत्तच्य धारया नवमपुव्वकरुजांगी । आग मिया, सुचत्यविसारया धीरा ॥ गुणवत्रेपासुपनिया शायगामहाणस्स । आयरियनवज्जाय-पवत्तिथेरा अन्नाया || एकादशानामङ्गानां सूत्रार्थमवधारयन्तीत्येकादशाङ्गसूत्रधा. रकाः ( नवमपुव्वत्ति ) श्रवापि सूत्रधारका इति संबध्यते नयमपूर्वग्रहणं च शेषपूर्वाणामुपलचणं ततोऽयमर्थः समस्तपूर्वसूत्रधारकाः तथा स्वोपदेशेन मोक्षाविरोधीकृता यस्तो योगो मनोवाक्कायव्यापारात्मकः सकृतयोगः स येषामस्ति ते 66 योगिनः बहुश्रुताः प्रकीर्णकानामपि पार्थधारणात् इह पूर्व अपि तुल्येऽपि च सूत्रे मतिविग्यतोऽगमय पदस्थानपतितास्ततः प्रभूतावगमप्रतिपादनार्थमाह बहागमाः बहु प्रभूतः आगमी येषां ते तथा एतदेवाह । सुषार्थाविशारदाः नकालांपेक्षया सूत्रे च विशारदाः तथा पिया त्पत्तिक्यादिरूपया या राजन्ते इति धीरा "एतद्गुणोपेतात्यादि " येऽनन्तरगाथायामुक्ता गुणा एतैर्गुणैरुपेता एतगुणोपेताः। तं निचयन्तीति श्रुतनिधर्षः किमुकं भवति यथा सुवर्णकारस्तानिकर्षादै सुरी परीक्षते कि सुन्दर मथवाऽसुन्दरमिति । एवं स्वसमयपरसमयान्परीक्षन्ते ते श्रुतनिघर्षा इति यथा नायकाः स्वामिनो महाजनस्य स्वगच्छवर्त्तिनां साधूनामिति भावः । अथवा नायका ज्ञानादीनां प्रापकास्तदुपदेशलाभात् महाजतस्य समस्तस्य संघस्य इत्यंभूता श्राचार्या उपाध्यायाः प्रवर्तितस्थावरा उपलक्षणमेतसावच्छेदिनानुज्ञाताः तदेवं सामान्यतः सर्वस्वपदानामर्यो व्याख्यातः । संप्रत्येकैकस्य सूत्रपदस्यार्थो वक्तव्यस्तत्र येषां पदानां पतयः तान्युपक्षिपनाह ॥ आयारकुसल संजम - पवयणपति संगहोमहे । अक्य असल जिन्न - मंकिन्झिट्टायारसं किये ॥ अब कुशलशन्द: पूर्वा प्रत्येकं सम्बध्यते ततोऽयमर्थः श्राचारकुशलशब्दस्य प्रवचनकुशलशब्दस्य प्रज्ञप्तिकुशलशब्दस्य संग्रहकुशलशब्दस्य उपग्रहशब्द कुशलस्य च (अक्खुएत्यादि ) श्रत्राचारशब्दसंपन्नः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः । अक्षताचारसंपन्नस्य अक्षताचारशब्दसंपन्नस्य श्रक्षताचारस्येत्यर्थः । एवमशबलाचारसंप व श्रभिन्नाचारसंपन्नस्य संक्लिट(चारसंपन्नस्य च व्याख्या कर्त्तव्या ॥ व्य० ॥ ( कुशलशग्दव्याख्या स्वस्थाने ) सांप्रतमक्षताचारादिपदानां सामान्येन व्याख्यानमाह । आहाकम्प सिय, उयिर की कारिणं । उजियाराले मगाजीवण निकाए । परिहरति भ्रमणं पाणं, मेग्नीपिति संकियं मीमं । अक्खुयमभिन्नमसं-किल्लिक वासए जुत्तो । सात दि विभेदनिन्नं स्यापितं यत्संयतायै स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितं, रचितं नाम संगतनिमित्तं कांस्यपाव्यादौ मध्ये नक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यते तथा श्री कारि उद्देस तमुत्पादितं क्रीतकारितम् आच्छेद्यं यत् भृतकादिलज्यमाच्छिद्य दीयते । उनिं यत्कुतपादिमुखं स्थगितमभ्युच्छ्रिद्य ददाति । स्वमायातादि ( मासि माझापहृतं वीपीय पिएम उत्पाद्यते स पिएकोऽपि वनीपकः आजीवनं यदाहारशय्यादिकं जात्याद्याजीवनेनोत्पादितं ( निकापत्ति ) मम एतावद्दातव्यमिति निकाचितम् एतानि योऽशनपानादिशव्यापी परिदरा तथा पृतिकं शर्त मिश्र ध्यवपूरकादिकं च यत्रावश्यके युक्तः सोऽकृताचार अभिन्नाचारः संचारः । तत्र स्थापितादिपरिहारी अकृताचारः । अन्याहृतादिपरिहारी शब नाचारः जात्योपजीवनादि परिहरन् अभिन्नाचारः । सकलदोषपरिहारी असंनिष्टः । संप्रति लाघवाय द्वितीयसूयतानि अकृताचारादीनि पदानि व्याख्यानयति समवायारो सचलावारो य होइ पासत्यो । चिन्नायारकुसीलो, संसत्तो किलिडो न । अवखन्न आवश्यकादिष्वनुण्यः कृताचारः । तथा पार्थस्थ न्योमादिभोजी शवताचारः । कुशील जात्याजीवनादिपरो मित्राबारः संसका संसर्गवशात्स्थापितादिनोजी | संक्ष्टिः संकिणचारः । संप्रत्याचारप्रकल्पधर इति पदं व्याख्यानयति । होय पकष्पधरो, मुत्तं अत्यतये चेत्र । सुत्तधरवज्जियाणं, तिगडुगपरिवढा गच्छे || त्रिविधः खलु प्रकल्पधरस्तथा सुत्रे सूत्रतः अर्धतः तदुभयता । इयमत्र जावना । आचारप्रकल्पधारिणां चत्वारो नङ्गास्तद्यथा सूत्रधरोऽर्थधर अर्थधरो न सूत्रधरः सूत्रधरो नार्थधरः सूत्रधरो नाप्यर्थधरः ४ अत्र चतुर्थो भङ्गः शून्यः । उन्नयविकलतया - चारप्रकल्पधारित्वविशेषणासंभवात्। श्राद्यानां त्रयाणां मङ्गानां मध्ये तृतीय भङ्गवर्ती सगणे उद्दिश्यते । यतः स सूत्रधारितया गच् गच्छस्य परिवर्षको भवति तदभावे द्वितीयनङ्गवर्त्यपि तस्याप्यर्थचारितया सम्यक्परिवर्ध करवा पानवर्ती तथा वाद सूत्रधरवर्जितानामाचारकल्पितानां मध्ये सम्यकपरि वनात्रिके तृतीयभङ्गे च ततस्त एवोपाध्यायाः स्थाप्या न प्रथमनङ्गवर्तिनः । एवं दशाकल्पव्यवहारधरादिपदानामपि व्याख्या कर्तव्या ॥ अत्र पर आइ ॥ पुत्रं वो ऊणं, दीहं परियायसंघयासकं । दसपुच्चिए य धीरे, मज्जार परियपरूवणया || ननु पूर्वमाचार्यपद योग्यस्य दीर्घ पर्यायो वर्णितः संहननं चातिविशिष्टं का च प्रवचनविषयाऽत्युक्तमा श्रागमतश्चाचार्यप दम्या जयन्तोऽपिस्ता घरा बुटियन विराज माना ततः एवं पूर्व वर्णयित्वा यदेवमिदानीं प्ररूप्यते यथा शिवपर्याय आचारप्रकल्पधरः उपाध्यायः स्थाप्यते, पञ्चवर्षपर्यायदशाकल्पव्यवहारधर इत्यादि । सैथा प्ररूपणा मार्जारादि न कल्पा । यथाहि माजोर: पूर्व महता शब्देनाति पचादेवं शनैः शनैरारति । यथा स्वयमपि श्रोतुं न शक्नोत्येवं त्वमपि पूर्वमुचैः शब्दितवान् । पश्चाच्नैरिति सूरिराह । सत्यमेतत् केवलं यत्पूर्वमुक्त न्यायमनृत्य संप्रति पुनः कालानुरूप प्राप्यते इत्य दोषस्तथाचात्र पुष्करिण्यादो यी ती तायवाद ॥ पुखरिf आवारे, आणायला नेणगाव गीयत्ये । आयाम्म उ एए, आहरणा होंति नायव्वा ॥ पुष्करिणी वापी आचार श्राचारप्रकल्पस्य आनयनं स्तेनका चौ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३० ) अभिधानराजेन्द्रः : 1 उद्देस रा गीताच एतानि सत्यायानि रान्याचार्येण तव्यानि श्मानि च ॥ सत्यपरिणाउकाप-अहिगमपिं उत्तरायणं । रुक्षवसनगावो गांड़ा सोही व पुक्खरिणी । शस्त्रपरिषदकायाधिगमः पजीवनिका दमेकमुदाहरणं पिएकः उत्तराध्ययनं उत्तराध्ययनानि वृक्काः कल्पमादयः वृषना बलीवर्दाः गावः गोधाः शोधिः अत्र दृष्टान्तः पुष्करिणी च सर्वसंख्यया त्रयोदश आहरणानि ॥ एतानि व्याचिख्यासुः प्रथमतः पुष्करिण्याहरणं भावयति ॥ पुक्खरिणीतो पुत्रं, जारिसया उएह तारिसा एहिं । तहुवि यता क्खरिणी, ता हवंति कजड़ कीरति ॥ पूर्व सुमसुमाका पारशः पुष्करिण्यो जम्मूएक स्थानी नाश्यस्तथापि स न वा परिभ वन्ति कार्याणि च तानिः क्रियन्ते । आचारप्रकल्पानयनाहरणमाह । यारपकप्पो उ, नवमे पुत्रम्मि ग्रासि सोधी य । ततो निमूट हाणि यतो किं न कि जये ।। श्राचारप्रकल्पः पूर्व नवमे पूर्वे आसीत् । शोधिश्च ततोऽभवत् । इदानीं पुनरिहाचाराङ्गे तत एव नवमान्निह्यानीतः ततः किमेष आचारप्रकल्पो न भवति किं वा तत शोधिर्नोपजायते । एषोऽप्याचारप्रकल्पः । शोधिश्चास्मादवशिष्टा भवतीति नावः । अधुनास्तेनकदृष्टान्तन्नावनार्थमाह ॥ तालुग्धामि मो - वणादिविज्जाहिं तेणगा यसि । इतेि उन सैनी, तहा वि किं तेगा न खलु ॥ * पूर्व स्काभीरा विजयप्रवादयस्तावदान्यवस्थापन्या दिनिरुपेता आसीरनू ताश्च विद्या इदानीं न सन्ति । तथापि किं खलु ते न जवन्ति नवन्त्येव तैरपि परव्यापहरणादिति भावः । अधुना गीतार्थदृष्टान्तं नावयति । पुचउदसी हि जो पकप्पधारो मज्जिमगपकण्णधारी, जह सो छ न होड़ गीयत्यो ॥ पूर्वगीतादेशपूर्वी अभवत्। रानी स किं गीता जय प्रकल्पधारी न जवति भवत्येवेति भावः । शस्त्रपरिज्ञादृष्टान्तमाह o सत्यपरिया, अधीयपढिया य होउ उडवणा । इहिं उज्जीवशिया, किसान होणा ॥ पर्वामाचारान्तर्गतायामची तायामर्थता ज्ञातायां पठितायां सूत्रत उपस्थापना दिदानीं पुनः सा उपस्थापना पजीवनिकायां दशकाविकान्तर्गतायामतायां पतियां न भवति । भवत्येवेत्यर्थः । पिएकान्तभावनामाह । वितितमि बंजरे, पंचम देस आमम्मि । मुत्तम्म पिंकपि, इह पुए पिंकेसणाएओ | पर्चमा करावया ययः पञ्चम उद्देशकस्तस्मिन् यदामगन्धिसूत्रम् । "सध्यामगंधं परिक्षाय निराममंच परिव्यय इति तस्मिन् आसीत् स्टश्दानी पुनर्ग ताणायामपि सुत्रोऽसावीतायां पिकल्पिक क्रियते सोऽपि च भवति तादृश इति उत्तराध्ययने दृष्टान्तं भावयति । आयारस्स उ उवरिं, उत्तरज्जया व आसि पुत्रं तु । दसवेपिपरियाणि किं तेन हॉनी छ । उद्देस । पूर्वमुत्तराध्ययनानि आचारस्याचाराङ्गस्योपर्यासीरन् । इत्रा नीं दशवेकालिकस्योपरि पठितव्यानि किं तानि तथा रूपाणि न नवन्ति नवन्त्येवेति भावः । वृकदृष्टान्तनायनामाह । मसंगादी तरुवर न संति इह न होंति किं महजुहाहि दयिय, पुचि पसारा पु इहि ॥ पूर्व सुमसुमादिकाले मतङ्गादयां दशविधास्तव कल्प मा आसीरन् इदानीं ते न सन्ति किं त्वन्ये चूतादयस्ततः किं ते वृक्का न भवन्ति तेऽपि वृका भवन्तीति ज्ञावः। वृषभष्टान्तमाह । (महदादि) पूर्व वृषभा महाव्याधिया दकि सुजाताः सुविनक्तश्टङ्गा आसीरन् इदानीं ते तथानृता न सन्ति किंतु पञ्चदशादि गोसंख्यातास्ततः किं ते यूथा न भवन्ति नवन्त्य येति नावः अधुना गोपनार्थमाह 1 पुकोबा, जुहाओ नंदगोपमाईथं । इहि न संति ताई, किं जूहाई न हुंती न ॥ नन्दगोपादन गथाः कोटा कोटी संख्याका आसीरन् इदानीं ते तयानृता न सन्ति किं तु पञ्चदशशाद गोसंख्याकास्तरिकं ते युथा न भवन्ति किंतु नवन्त्येवेति । अधुना योधदृष्टान्तभावनामाह ॥ साहस्सी मला खलु, महपाणा पुवं आसि जोहा उ । सेतु नस्य एहि किं ते जोहा न होती तो ॥ पूर्व योधा महाप्राणाः सहस्रमल्ला आसीरन् इदानीं तेषां तुख्या न सम्ति कित्वमी ततो हीनास्ततः किं ते योधा न भवन्ति जयमधेच कात्येन तेषामपि यचकार्यकरणादिति नायः धि दृष्टान्तमाह ॥ पुगि उम्मासेहिं स होउ परिहारेण सोही उ । इडि निव्वरिपार्टि, पंचागाई ॥ पूर्व निर्मासैः परिहारेण वा परिहारतपसा वा शोधिसी तू हामी निर्विकृतादिनिरपि शोधिः पा व्याणकादिमात्रप्रायश्चित्तदानव्यवहारात् शोधिविषय एव ! पुष्करिणीदान्तमाह । किंव पुण एव सोही, जह पुव्विला सुपच्चिमा सुं च । पुक्खरिणीसुं वत्था, झ्याणि सुज्छंति तह सोही ॥ कि केन प्रकारेण पुनराना एवं निर्विकृतिकादिमणजैवति । सूरिराह । यथा पूर्वासु च पूर्वकालनाविनी (पुत्रखति) प्रनृतजपरिपूर्ण वस्त्राणि कृध्यन्ति एवं पश्चिमास्वप्यधुना तनकाननानि यन्ति तथा शांधिरपिमिद भवति ताननिधाय दाजिनामा आयरियादिचोदम, पुत्रादि प्रामि पुवि तु । एवं वाणरूपा, आयरिया ईसि नान्या ॥ चमतदिकारण यद्यपि पूर्वमा चतुर्दश पूर्वादयश्चतुर्दशपूर्वरादय आसीरन् तथापीदानीमाचार्य उपन्त्रणमेतत् उपाध्यायाश्च युगानुरूपा दशाकल्पयवहारधरादपस्तयोनियमस्वाध्यायादियुक्ता भा वितयतनापरायण भवन्ति ज्ञातव्याः । संप्रति यावत्पर्यायस्य यान्ति स्थानानि सूत्रेणानुहातानि तस्य तावत्वमार्यमुप दर्श तिमिरगहाणं, दोतियद्वाणा उ पंचवरिसस्स । सव्वाणि विवि पुण, बोढुं वा एति वाणाई | - Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३१) उहेस अनिधानराजेन्द्रः। उद्देस त्रिवर्ष त्रिवर्षपर्यायस्य एकमेवोपाध्यायलक्षणं स्थानमनुशातं नीति किमुक्तं भवति । नैकं द्वौ वा वारी प्रीतिकरणाने न द्वितीयमाचार्यत्वलक्षणमपि तस्याल्पपर्यायतया प्रभूतखेद कृतानि कित्वनेकश इति (वेसासियाणित्ति) आत्मनामसाहिएणुत्वाभावेनाचार्यपदयोग्यताया अभावात् । पञ्चवर्ष- न्येषां गच्छवासिनां मायारहितीकृततया विश्वासस्थानानि स्य पञ्चवर्षपर्यायस्य द्वे स्थाने अनुशाते तद्यथा उपाध्याय- कृतानि विश्वास नवानि योग्यानि वैश्वासिकानति व्युत्वमाचार्यत्वबहुवर्षवर्षपर्यायतया खेदसहतरत्वाविष्ठोष्टवर्ष त्पत्तः अत एव सम्मतानि तेषु तेषु प्रयोजनेविधान संमुदिपर्यायः पुनः सर्वाण्यपि स्थानानि वोढुं सक्नोति बहुतम- कराणि अविषमत्वेन प्रयोजनकारीणि सोपि च बहशो विग्रहवर्षपर्यायत्वात् ततस्तस्य सूत्रेणोपाध्यायत्वमाचार्यत्वं गणित्वं षु समुत्पन्नेषु गणस्य संमुदितमकार्षीत् । संमृदिकृततया श्ष्टेषुप्रवर्तित्वं स्थविरत्वं गणावच्छेदित्वं वाऽनुज्ञातम् । अथ कथं च प्रयोजनम्वनुकल्पन मतान्यतुमतानि । तया बहूनां विखर्वसर्वाणि यथोक्तानि स्थानानि वोढुं शक्नोति तत श्राह । जमवर्जानां सर्वेषामित्यर्थः। मतानि बहुमतानि भवन्ति तिष्ठन्ति नो इंदियाण य कालेण, जायाणि तस्स दोहेण । शुन तस्य स्यादिदं रूपं ततो यद्यस्मात्तेषु कुशेषु तथारूपेषु कृतेषु कायब्वेमु बहूसु य, अप्पा खलु जावितो तेण ॥ प्रीतिकरेषु एवं तेषु स्थेयेषु तेषु वैश्वासिंकषु तेषु समुदिकरब्धि त्यपि भावनीयम् स श्रमणो निर्ग्रन्यो निरुद्धपर्यायाऽजवत तेन तस्य अष्टवर्षपर्यायस्य दीर्घेणाष्टवर्षप्रमाणेन इन्द्रियनोइन्द्रि याणि जातानि भवन्ति कर्तव्येषु च बहवात्मा खलु तेन भावि कारणे न संकल्पते प्राचार्यतया उपाध्यायतया या उद्देषु ततो भवति ततो योग्यत्वात्सर्वाण्यपि स्थानानि तस्यानुज्ञातानि। दिवसमिति । एष सूत्रसकेपार्थः । व्यासायं तु नायकद्विवाः निरुद्धप-यस्तद्दिवसमुद्देष्टुं कल्पते ॥ प्रथमतः ( सकिमाहुभंतेश्त्यांदि ) एतस्यद व्याख्यानयति । चोरएयतिवासादी, पूव्वं वने दीहपरियागं। (मूत्रम् ) निरुछपरियाए समणे निग्गये कप्पा तदिवसस्स तादिवसमेव शहि, आयरियादीणि किं देह ॥ आयरियत्ताए नदिसित्तए से किमाहुते ? अस्थि णं थेराणं चोदयति प्रश्नपति परो यथापूर्व त्रिवर्षादिकं दीर्घ पर्याय - तहारूवाई कुलाई कमाई पत्तियाई विजाइं सामियाई पयित्वा किमिदानीं तद्दिवसमेव । प्राचार्यादीनि नावप्रधानोऽयं ममयाई ममइकराई अणुमयाई बहुमयाई जवति । तेहिं निर्देशः आचार्यत्वादीनि दस्थ । अत्र सरिराह । कडेहिं तेहिं पत्तिएहिं विजेहिं तेहिं विसासीएहिं समुश्कर- जएणति तेहिं कायाम, वेहियाणं तु उवहि भत्ताई । हिं जैसे निरुपपरियाए समणे निग्गंथे कप्पा आयरिय गुरुवावासहुमादी, अणेगकारेहु बज्जिया ।। नवज्कायसाए नहिसित्तए तदिवसं ॥ व्य० ३ ०० भण्यते अत्रोत्तरं दीयते तैराचार्यादिपदयोग्यनयिकानां बिअथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध उच्यते । नयमहन्तीति वैनयिका प्राचार्यादयः तेषां कृतासुत्पादितानि । उपधिवक्तानि । किमुक्तं भवति । तथारूपाणि स्थविराणां तैउस्सग्गरस ववादो, होति विवस्वो न तेणिम मुत्तं । बँनयिकानि कुलानि कृतानि येन तेज्यो यथाकालमुपधिर्भक्तं नियमण विगिट्ठो पूण, तस्सासी पुव्वपरियाता॥ चोपजायते इति। एतेन "अस्थिणं थेराणं तयारूपाणि कडाणीति" इहोत्सर्गस्य विपक्षप्रतिपक्षो भवत्यपवादस्तेन कारणेन | व्याख्यातम् । न केवलं तैस्तयारूपाणि कझानि कृतानि किंतु "तिवरिसपरियाए समण निग्गंथे इत्यादि" रूपस्योत्सर्ग- | गुरुबाउसहोदरादयादिशब्दात् वृहखानादिपरिग्रहः । अनेक. स्येदमपवादभूतं सूत्रमुच्यते । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य प्रकाररुपगृहीताः संग्रहोपग्रहाच्यामुपप्टम्ने नीताः "पत्तियाणीव्याख्या । निरुद्धो विनाशितः पर्यायोऽस्य स निरुद्धपर्यायः। त्ति" सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातम् तश्चेत्यत्र द्वितीयं व्याख्यानमाह श्रमणो निर्ग्रन्यः कल्पते युज्यते तद्दिवसं यस्मिन् दिवसे प्रत्र. ताई पीतिकराई, असई दुवन्ति होसि थेज्जानि । ज्यार्थ प्रतिपन्नवान् तस्मिन्नेव दिवसे पूर्वपर्यायः पुनस्तस्य संकियअणवेक्खाए, जिम्हजढा ईति विस्संजो। प्रभूततर पासीत् । तयाचाह । (नियमेणत्यादि) नियमेन तस्य पूर्वपर्यायो विकृष्टो विशति वर्षाण्यासीत् ततस्तहिवसं अथ वति प्रतीतं प्रथमव्याख्यानापेक्षया व्याख्यानान्तरोपदर्शने कल्पते । प्राचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् । अत्र शिष्यः प्राह। स्थेयानीति कित्यसदिति । तया वैश्वासिकानीति कोऽर्थः अन(से किमाहु? भंते!)स शवोऽथ शदार्थः। अथ किं कस्मात् पेकवा स्वपरविशेषाकरणेन प्रनूततराणां संचिताङ्गेनेत्यर्थः । कारणात् भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! भगवन्त एवमाहु वेष्याणि विशेषत एषणीयान्यनिषनीयानि कृतानि यतस्तानि यथा तद्दियसमेव कल्पते प्राचार्योपाध्याययोरुहेष्टुं न खलु प्र जिह्मजढानिजिा मावयारहितानि कृतानीति तेषु विश्रानो विश्रंभवजितमात्रस्याचार्यत्वादीन्यारोप्यमाणानियुक्नान्वगीतार्थत्वा- स्थानत्वास्वाद्यव्यपक्याणीति समुश्कराणीति व्याख्यानार्थमाह । त् अत्र सूरिराह । (अस्थि णमित्यादि) अस्तीति निपातो मधत्य अविसमत्ते, ण कारगो होइ संमुदी नियमा। निपातत्वाश्च बहुवचने ऽप्यविरुद्धस्ततोऽयमर्थः सन्ति विद्यन्ते बहुमो य विग्गहेसुं, अकासि गणसम्मुदि सो उ॥ णमिति वाफ्यालंकारे स्थविराणामाचार्याणां तथा रूपाणि सर्वत्र सर्वेषु प्रयोजनेषु यो नियमादविषमत्वनाकुटियतया काप्राचार्यादिप्रायोग्यानि कुलानि तेन कृतानि गच्छप्रायोग्यत रको नवति ( सम्मुदित्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् या निर्वतितानीत्यर्थः । येन यथा कालं तेभ्य प्राचार्यादिप्रायोग्यं भक्तमुपधिश्चोपजायते । उपलक्षणमेतत् तेन केवलं तथा संमुदिकरः तान्याप कुमानि तेन तथारूपाणि कृतानि न केवलं रूपाणि कुलानि कृतानि कित्वार्चायवालवृद्धग्लानादयोऽपि तेन कुवानि समुदिकराणि कृतानि । किंतु सोऽपि तु शब्दोऽपिअनेकधा संग्रहोपग्रहविषयी कृता इति द्रष्टव्य न केवलं कुला शब्दार्यः । बहुशा बदुनिः प्रकारैर्वग्रहेषु समुत्पनेबदुपश्मनि तथारूपमात्राणि कृतानि किं तु (पत्तियाणित्ति)प्रीति मतो गणस्य गच्चस्य सम्मुदिमकार्षीत् शपाणि तु पदानि कराणि वैनयिकानि कृतानि (थेजाणत्ति) स्थेयानि प्री सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातानि ॥ तिकरतया गच्छचिन्तायां प्रमाणभूतानि । अथवा स्थिया- । चिरपरिचियपुनसुतो, सरीरयामावहारविजढो उ । Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस पुवि विणीयकरणो, करेइ सुत्तं सफलमेयं ॥ स्थिरो नाम भवपन्नः । परिचितं पूर्वस्मिन्पूर्वपर्याये श्रुतं यस्य स परिचित पूर्वश्रुतः । यदि वा प्रत्यागतस्यापि स्वाभिधानमिव परिचितं पूर्वपवितं यस्य स तथा । ततः पूर्वपदेन विशेषणस मासः | तथा शरीरस्य स्थानप्राणस्तस्यापहारोऽपनयनं तेन विजढो रहितः शरीरस्थानपहाररहितः । किमुक्तं भवति । पूर्वतेन सारं वतं वैयावृत्यं वाचनादिषु परिहारयितमिति तथा पूर्व विशेषतः संयमयोगेषु नातानि करणानि मनोवाक्काय लक्षणानि येन स विनीतकरणः संयमयोगादिकं सर्व सेन पूर्वमरिनं कृतमिति भावः । य ईशः पूर्वमासीत् । स सफ करोति । वैश्शस्य तदिवसमात्याच्या त्या उद्दिश्यते न शेषस्य तता न कश्चित्पूर्वापरविरोध इति भावः । कह पुण वस्त्र निरुको, परियातो होज सवितो छ । पुत्रा रुसावेखो, साईहिं बन्नानीतो ॥ कथं केन प्रकारेण तस्य पूर्वः पर्यायो निरुषः कथं तावद्देवसिकस्तदिवसाची पर्यायोऽभवत्। श्रोत्तरमाद ( पुण्यकर्मस्यादि) स्वात्रिःसन् बातः सतः सबै मत तदेव । पन्चज्जण्यपंचम, काररुमादिउवहिते एयणं । निज्जं तस्स निकायण, पव्वतिते तद्दिवसपुच्छा ॥ राजा कोयमान्यतिनापतिभेसियो राज्यमनुशास्ति वामेकैकः पुत्रस्तत्र राजपुत्रो राज्ञा राजा भविष्यतीति संभावितः अमात्यपुत्र अमात्येनामात्यत्वपुरोहितपुषः पुरोहितेन पुरोहिताने सेनापतिपुत्रः संगापसिना सेनापति क्ष पि सह क्रीमति । श्रन्यदा कुमारी राजपुत्र आत्मपञ्चमोऽमात्यपु रोहित सेनापतिश्रेष्ठिपुत्रैः सहेत्यर्थ प्रव्रज्यामगृहीत् । सर्वे च तेभतीयता जाता प्रणशिकामापनाशिव न्तः कुलानि च प्रीतिकरादिरूपाणि कृतानि । आचार्येण च तेगुर्वादयः संनाविताः । तद्यया राजपुत्र अचार्यपदे अमात्यपुत्रउपाध्यायाचे पुरोहितपुत्रः स्यविरत्वे सेनापतिपुत्रगण पुत्रो गणावच्छेदित्वे संभावितः राजादीनां चान्ये पुत्रान विद्यन्तेततस्ते सुरसमीपमागत्य विज्ञापयन्ति यथा नयाम पतान् स्वस्थानं पञ्चादेतैरेव सह समागत्य वयं प्रवजिप्यामः एवमुपधिना मास्यानेन विहाय करणं कुर्वन्ति । तस्य प राजकुमारस्यात्मपञ्चमस्य नीयमानस्याचार्ये निकाचनं करोति यया सम्यक्त्वे नियमतोऽप्रमत्तेन भाव्यं अत्र शिष्यस्य पृच्छा नूयः । प्रव्रजिते सति राजकुमारादी किमिति तद्दिवसं यस्मिन् दिवसे प्रतिपक्षा तस्मिन्नेव दिन आचार्यादिपदस्थापनाम सोत्तरं वक्तव्यमिति जावार्थः । इति उपधिना तेषां नयनमुक्तं संप्रति प्रकारान्तरेणापहरणमाह । पिरो वतावसादी पाउने कुरादिति । विषापासुं ते महा कममो ॥ पितरो वा तेषां । तापसादयः तापसादिरूपतया प्रव्रजितुम मसः । तान् राजपुत्रादीन ( फुराबिति त्ति ) देसी पदमेतत् अपहारयन्ति । इत्थं च नीताः सन्तस्तं स्वपितृनिर्यथाक्रमं राजादिषु स्थानेषु स्थापिताः । (८३२) अभिधान राजेन्द्रः । , निया व फामुभोजी, पोसहमालायपारिसी करणं । लोयं च करेंता, लक्खणपादेय पुच्छंती ॥ उद्देस जो तत्थ प्रमूढ अक्खा, रिनुकाले तीए एकमेकं तु । उप्पादकता सूर्य द्वाविव ताहे पुणो होति ॥ नीता अपि ते राजकुमारादयः प्रासुकनोजिनः पौधशालायां प्रतिदिवस सुरुप्पा अरुप्या करणं भुवमवश्यं प्रचं व ते कुर्वन्ति । ब्रह्मचर्ये च परिपालयन्ति । नवरं पावकान् दिने पृथ्द्धन्ति करुया महिला का गीत एवं हा यास महान ऋणपानका प्रवन्ति तयेतासामृतुकाले नियमनातू गर्भो लागिष्यतीति ततो या ऋतुकाले अमूढका ऋतुकालस्य स्वस्य शात्री तस्यामात्मीयायामेकैकं वारं गत्वा बीजं निक्षिपन्ति । एवं चाम। श्रमात्मीयं पुत्रमुत्पाद्य यदा यदाया यो स समयों जायते । तदा तदा तं तं स्वस्वस्थाने स्थापयीत्वा पुनरागच्छन्तीति । अजयमेगपरं परिवतिकामयेरसति अभे । तदिवसमागनें छापेस उपतसंस्थेव ।। यस्मिन् दिवसे ते प्रत्यागतास्तस्मिन्नेव दिवसे स्थविरा श्राचाअमेकतर बिहार जिनकल्पिकं यथादपवार वा प्रतिपशुकामाः स्वविरत्वात् । अन्यगणधारणेऽसमर्थ स्तारशो न विद्यन्ते ततस्तदिवसमागतान् राजकुमारादीन् तेष्या चार्यत्वादिषु स्थानेषु स्थापयन्ति “ पुच्चयते दिवसपुध्वे " यदुक्तं तत्र तामेव पृच्छां जावयति । कह दिज्ज तस्स गणो, तदिवसं चैव पव्त्रइगस्स । एसम्म ए होति गुमे ॥ " कथं तस्य राजकुमारस्य प्रवजितस्य तद्दिवसमेव यस्मिन् दिने प्रव्रज्या प्रतिपन्ना तस्मिन्नेव दिने गणो दीयते । अत्र सूरिराह जायते तस्मिन् स्थापने सुष्टु अतिशयने बहवो गुणा इमे वक्ष्यमाणा भवन्ति तानवाद । साहु विसीयमाणो अग्रगेा जिक्रखङरगरणा । यवहारथिया वाण्य प्रकिंचाकरे य ॥ एते गुण हवंती, तज्जायाणं कुटुंबपरिवढी । ओहाणं पिय सिं, सोमुत्रसम्गनं तू ॥ साधुदिता ताता रहा स्थिरो जयति आर्थिक अपि तेषु स्वयंतास स्थिरा उपाय सानामभवति / प्रजावतीक लां क्रियां करोति । यथा एते राजादिपुत्राः तेषां चामी शिष्या इति तथा मिहा उपगरणमपि सामसुम पा रो इत्थिया ) एते स्त्रिया अपड़तायास्तषां जयतां व्यवहारो ब भते श्यमत्र जावना । काचित् रूपवती कुमारभ्रमण केनापि राज्ञा गृहीता स्यात् ततस्तेषां गतानां जयेन सा मुच्यते इति बांदे च तारयात्सोऽपरता भवन्ति चिरकःरयचि ) योऽपि कश्चित्साधूनां प्रत्यनीकः सोऽपि तां राजादिकुमार जितानां जयतन फिकरोति अथवा किचानां साधूनां यदि कथमपि केनाऽप्यर्थ जाते प्रयोजनमुपजायते तर्हि तरस लोकः प्रायो ऽर्थ एकरोति । तदेवमेते अनन्तरोदिता गुणास्तजातानां राजादिजातीयानां यतोऽतस्ते निरुद्धपर्यायाः प्रत्यागताः प्रव्राजितास्तदिवस वायार्यादिपदेषु व्याप्यन्ते अवगुणः कुडुम् रिवृद्धिस्तथाहि यदि मामने तथाभूतं राज्यादिकमपहाय धर्मे समाचरन्ति ततः किं तेषु तुच्छेषु भोगोपभोगेषु एवमन्येपि संयमे निष्क्रमन्ति ततो भवति गच्छस्य महती वृद्धिः। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३३ ) अन्निधानराजेन्ऊः | उद्देस एतेषामवधानमुत्प्रयाजनं तदप्यनुलोमोपसर्गतुल्यम् । किमुक्तं भवति । यथा कस्याऽपि साधोः कश्चिदनुलोमान् उपसर्गान् प्रकृतवान् सचैवं चिन्तयति । यदि परमनेनोपायेनाहं मुध्ये नान्यथा ततः एवं विचिन्त्याशठभावः सपरिसेवते स च तथाकृतपरिसेवनोऽप्यशठभाव इत्यखण्डचारित इति व्यबद्रियते । एवमेतेऽप्यखण्डचारिया एवं तत्त्वतो मन्तव्याः एतदेव लेशतो व्याख्यानयन्नाह । साहूणं अजाण य, विमीयमाणा व होति चिरकरणं । जइ एरिमा विधम्मं, करेति म्हं किमंग पुण ॥ साधूनामार्थिकाणां च चिपीतां स्थिरकरणं भवति । तथा हि केचित्साधवो भोगेषु विषीदन्तस्तान् दृष्ट्वा एवं चिन्तयति । यदि तावदीरा अपि विपुखराज्यादिकाअमी देवमारिकाः प्रख्याभिरपि निजमहिलाभिरुपायैमाणा ध कुर्वन्तेन पुनर्निमा शितयन्तोऽतरच ते सविस वाचादिपदेषु स्थापिताः किमङ्गनाभिः सुतरांच समाचरणीयम्। विभवादिपरिभ्रत्वादिति । आर्यिका अपि चिन्तयति । यदि तावदीदृशाः खल्यस्माकं बान्धवाः संपन्ना: कथममन्दपुण्या एतेषां सुखमपि निरीक्ष्यन्ते न सीदन्ति खल्वेतादृशधीरपुरुषपरिगृहीता श्रार्थिका केवलमपरिभूताः सदा वर्त्तन्ते ॥ किं तत्यषिलोगो जयं गौरवं करेति । गेलसोमहिमाईलनं उपकरण अनादी । किं च तत्र तेषु राजकुमारादिष्वा चार्यादिपदेषु स्थापितेषु लोको भयं गौरवं बहुमानं कुर्वते । ग्लानाचे भवत्योपचा दिकं सुलभमुपकरणभकादि य संजतिमादी गहणे, बवहारे होइ दुप्पधंसो न । तगारचा वाद, हर्षति अपराजिया मेन । संजत्यादीनामादिशब्दान् तथाविधकादिपरिग्रहः ग्रहणे अपहारे भवत्यसौ राजकुमारादिदुष्प्रधृस्यः । तथा तदगीरवान् यादे भवन्ति साधवोऽपराजिता एच। पणीयाकिंचिकरा, होंति अत्रत्तन्वो जाए य । तज्जायदिक्खिणं, होइ विवी विय गणस्स ।। प्रत्यनीकाः श्रकिञ्चित्करा भवन्ति श्रर्थजाते च समुत्पन्न कश्चि दपि न भवति किंतु सर्वोऽयमर्थित एचपी करोति । तथा तेन तज्जातेन राजादिजातेन तद्दिवस एवाचा पदस्थापितेन गवस्य गतस्य वदेर्भवति । शेष सुप्र ततित्वान्न व्याख्यातम् । (सूत्रम् ) निरुवासपरियाए समणे निग्गंथे आयरियउबळायचाए हदिसित समुत्थे य कप्पति, तस्स कप्पस देसे अजिज्जेए जवंति से अहिज्जि सामिति अहिजिना एवं से कप्पर आयरियापार हरिसित्तए से य आहिज्जे सामित्ति यो हिज्जा श्र एवं से जो कप्पर परियारायचार उदिमिप १० । निरुरूवासपरियार समणे निम्गंधे इत्यादि अस्य सम्बन्धमाह अपदि तु निरुक, आयरियमं तु पुष्यपरियाए । मतो पुण अवतो असमतवस्त्र तरुण | निरु | विनाशितं पूर्वपर्याये सत्याचार्यत्वमपयदितुं प्रवज्यादिवस एवाचार्यत्वमनुज्ञातुमनन्तरसूत्रेऽयमनेन सूत्रेणानिधा ਰਵੇਸ਼ स्यमानः पुनरपवादो ऽसमाप्तश्रुतस्य तरुणस्य । किमुक्तं नवत्यल्पविषयपर्यायस्वासमासधतस्यापि चापचा गणरत्यमनुज्ञायते ततोऽनेनाप्यपोऽनित नयति पूर्वप्रेणास्य सम्बन्धः । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या निरुको विनाशिता वर्षपर्यायेा यस्य स निरुरुवर्षपर्यायः । एतडुकं नवति । त्रिषु परिपर्णेषु यस्य पर्याय यदि वा प समाप्तश्रुतस्य निरुरुवर्षपर्याय इति । श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पतेआचार्योपाध्यायतया । आचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्दे केत्याह समुच्छेदकल्पे आचार्ये कालगते अन्यस्मिंश्च बहुश्रुते aaण संपूर्णेऽसति तस्य च आचार्यतया उपाध्यायतया उद्देष्टुमपितस्य श्राचारप्रकल्पस्य निशीथाध्ययनस्य देशोऽधीतो भवति सूत्रमधीतमर्थोऽद्यापि नाधीयते यदि वार्थो न परिपूर्णोद्याप्य धीत इत्यर्थः । ( सेयइत्यादि ) स चेदमधीतवान् पाश्चात्यं स्थितं देशमध्येऽधीयते तत पर्व सति कल्पते आचार्योपाच्या यतया उद्देष्टुम् यदि पुनः सोऽध्येष्ये इति चिन्तयन्नपि नाधीयते इति संजायत । तत एवं सति न कल्पते । श्राचार्योपाध्याया संदेष्टुम् प संक्षेपार्थ सापच पर्यायस्यासमाप्त भूतस्यापवादो गणधर नुहानार्थमिदं सूत्रमित्युकमतोऽध्य साष्यकृद्भावयति । , तिमी जस्स अावासापुणेहि या तिहि तु । बासे निरुकेर्टि अक्ख पति ॥ यस्य चीणि वर्षाणि व्रतपर्यायतपाद्याप्यपरिपूर्णानि पत स्यामवस्थायां यदि वा त्रिषु परिपूर्णेषु तस्य तन्निरुक वर्षपर्यायत्वमनवत् । स त्रिषु पूर्णेषु अपूर्णषु वा वर्षेषु निरुकेषु आचार्य काल - गते अन्य बहुतोऽपि सकूण संपूर्णो न विद्यते सचासमाप्तश्रुतोऽ पण णधारणासमर्थयेति स्थाप्यते नस्याप्यते किं तु सोऽसमाप्तश्रुतोऽपि लक्षणयुक्तः । किं कारणमत आह । बणेत्यादि । लोके वेदे समये च विशारदा नायकत्वपदाध्यारोप प्रशंसन्ति नेतर बहुतमपि ततः स एव स्थाप्यते । अत्र पर आइ । किं ग्रह अक्खणेहिं तत्रसंजमसुडियाणसमणाएं । गच्छवित्रनिमित्तं इच्छिज्ज सी जह कुमारो ॥ किमस्माकं भ्रमणानां तपसंयमस्थितानां प पवनोऽचिः स्यातां येनास्माकं स्वाध्याययति | आचार्य श्राह । सोऽल्पश्रुतोऽपि लक्षणयुक्ततया गणधर पदस्थापनायामिष्यते गन्धकिनिमित्त वा राज्यनिमि तं राज्ये कुमारः । एतदेव भावयति ॥ बहुपुतो नरवई, सामु जातिकं वेमि निवं । दोसगुणगणे, सोविय तेसिं परिकहेइ ॥ कोको नरपतिः सामुद्रिक सामणयेारं प्रणति । तथा कमहं कुमारं नृपं स्थापयामि एवमुक्तः सोऽपि यां कुमाराठां यस्य दोषा गुणा वा एकेऽनेके च विद्यन्ते तत्सर्वं परिकथयति तत्र दोषा मे ॥ निष्म पदम मारीजखचोरपठराई । कोसहानी, बलवति पचंतरायाणो ॥ निर्धूमकं नाम प्रणं यत्र नाचता राज्यमनुशासति धनीयमेव न भवति रुमरं यद्वशाद्राज्यं समरबहुलं भवति । प्रनृतजायन्तं इत्यर्थः मारियामारिद प्रचुर मात सन्ति । धनहानिर्यतः सर्वत्र धनकयः संभवति । धान्यहानिर्य यो Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३४ ) अभिधानराजेन्द्रः । देस रमजावा पृष्टेऽपि मेघे लस्यनिष्पत्तिस्तादृशी नोपजायते । कोशहानिर्यतः कोशकयः बनवत्प्रत्यन्तराजकं यतो बलवन्तः प्रत्यन्तराजाः सर्वे भवन्ति पते कस्याप्येकः कस्याप्यनेके दोषाः अधुना गुणमाह ॥ स्वमं सिवं सुक्लिं, निरुवसमां गुणेहिं उपमेयं । अभिसिंति कुमारं गच्छेदि तयागुरुतु ॥ मनामात्सर्वत्र राज्ये नीरोगता शिवं यतः सर्वत्र कल्याणं सुभिक्षसंभवः । निरुपसर्गा यतः सकलेऽपि देशे मारिमरायुपसर्गासंभवः । यतेऽपि गुणाः कस्याप्येकः कस्यायंग कस्यापि सबै तत्र बचा सर्वचा दोषोपेतमधिगुणैः सर्वैरप्युपेतं कुमारं राजामात्यादयो राज्येऽभिषिञ्चन्ति तया राजकुमारानुरूपं सर्वथा दोषविनिर्मुकमेकान्तसो गुणैरुपेतमाचादिपदे सिन्ति तदेव स्पष्टयति जह से रायकुमारा, सुलक्खणा जे सुहा जणवयाणं । संतम विसुयसमि, नच वेति गुणे गुणाविहूणं ॥ यथा ते राजकुमाराः सलक्षणा ये स्थापिताः सन्तो जनपदानां शुभाः । कल्याणकारिणः त एव स्थाप्यन्ते न शेषास्तथा सूयोऽपि वृद्धिमपेक्षमाणाः सन्तमपि श्रुतसमृद्धं गुणविहीनं न गये स्थापयन्ति ॥ लक्खणतो जइ वि हु, न समिकमुतेण तह वि तं ववए । तस्स पु होति देसी, असमतो पकप्पनामस्स | लक्षणयुक्तो यद्यपि हु निश्चितं स्थापयेत् । तस्य पुनर्देशो भवत्यसमाप्तः ॥ प्रकल्पनाम्नो निशीथाध्ययनस्य कथं पुनर्देशोऽसमाप्त इत्याह ॥ देसो सुत्तमधीतं, न तु प्रत्या प्रत्थतो व समत्ती । सगणे अरिगीता, सतीपगिडे अमेति || प्रकल्पं द्विधा शरीरं सुमर्थ तदेशः सूत्रमतं नत्य र्थः । अथवा अर्थोऽपि कियानधिगतः केवलमर्थतः समाप्ति भूत। ततो वे लगले आचार्यलयविहीनतया गीतार्था अपि सन्तोनही प्राचार्यपदावोव्यास्तेभ्यः आचार्यपशेप समये गृह्णीयात् । अथ स्वगणे गीतार्था न विद्यन्ते । त हिं तेषामसत्यभाषे एभ्यो वषयमाणेभ्यो रडीयासानेवाह । संविग्गमविणे, सारुवियसिकपुत्रापछि मे । पति अन्तरिए संती असत्य तत्येव ॥ स्वगणे गीतार्थानामभावे अन्येषां सांभोगिकानां समसुख दुःखानां गीतार्थानामन्तिके गत्वाऽधीते तेषामप्यभावेऽन्यसांभोगकान गच्छ प्रविश्य पठति । तेषामप्यभावे पा स्थादीनां संनिपाक्षिकाणामन्तिके च तत्संयमयोगेष्यभ्युत्थाप्य एतावता संविग्नेति व्याख्यातम् । अधुना श्रसंधिमोत्यादि व्याख्यायते । संविद्वान् खाकपिका संपा रिणः सिद्धपुत्रान् सितपुत्रान् पचात्कृतांश्रयेत् । कथंभूतानित्याह प्रतिक्रान्ताभ्युत्थितान् असंयमव्यापारान प्र निकान्तान् संयमं प्रत्यभ्युत्थितान् तेषामप्यसति भावे अ न्यत्र यत्र ते न ज्ञायन्ते तत्र गत्वा तेषामन्तिके अधीते नायत्र तेषामगमने तच पठेत् यच ते खयापारेण स्थिता व स्ते । इयमत्र भावना पार्श्वस्थादीनां संविग्नपाक्षिकाणामभावे ये पूर्व संचिता गीतार्था आसीरन तेषां पचात्कृतानां पुनः प्रतिकान्ताभ्युत्थितानामन्तिके गृहीयातेषामप्यभावे संयम यो प्रत्यभ्युत्थितानां सिद्धपुजासामन्ति तेषामप्यभावे अन्य उद्देस त्र तान् संयतरूपकान् कृत्वा तेषामन्तिके अन्यत्रागमने तत्रैव तान् तथारूपान् कृत्वा सागारिकाणामभावे तेषामन्ति के उधीते तदेवाह । सगणे परगणे वा, मध्य वा वसती। त्रिपक्खिए, सवि सिद्धे सु पढमं तु ॥ स्वगण गणधरपदान गीतार्थानामन्तिक परगणे वा मनो वा साम्नोगिके तदभावे अन्येषां वा असाम्भोगिकानामन्तिके तेघामप्यसत्यनाव संनिपाकिकेषु पार्श्वस्यादिषु प्रथममेव प्रतिकान्तान्युत्थितेषु तेषामप्यनाये सरुषिषु संयतरूपिषु प्रतिकान्ताज्युत्थितेषु पश्चात्कृतेषु तेषामप्यभावे प्रथममेव स्वरूपिषु सिकेसिरुपुत्रेषु तत्प्रतिक्रान्तात्पितानधिसभा न्यत्र विधिमाह । मुंडं च धरेमाणे, सिहं च फेमं च णिच्छससिहे वि । लिंगेण मसागारिए, बंदणगादीण हाति ॥ ते पाहता दिन प्रतिभान्ता मन्युरिता किंतु स तो गृहस्था वर्तन्ते । अन्यत्र गत्वा तान् मुएरं च धरमाणान् धारयतः कारयति । यदि पुनः सशिरवाकाः सन्ति ततः शिखां स्फेटयति । अथ शिखास्फेटनं ते नेच्छन्ति ततः सशिखानपि स्थापयित्वा त्वरं श्रमणलिङ्ग तेषां समर्पयन्ति । व्याख्यानपतिप्रादयन्ति तेषामपि तथा चूतानां पापता यथा प्रतिरूपतविनयः प्रयोक्तव्यः । तेषु न वारणीयः । अथ ते अन्यत्र गमनं नेच्छन्ति तर्हि तत्रैवासागा रिके सागारिकसंपातरहिते प्रदेशविशेष निरजोहरणमुखपोशिकादिना श्रमणरूपधारिणः कारयित्वा पठनीयम् । ते च तत्रापि तथा पन्तो न पन्दनादीनि हापयन्ति ॥ आहार बहिसेजाए, समयामादी होइ जयव्वं । मोणकारावण- सिक्खत्तिपदम्मि तो सुद्धो । तेन ते समीपे पठनादायेपधिशख्यानामेपणादिषु भवति यतितव्यम् । तदाऽनुमोदन कारापणे च न च कारणकारापणा नुमोदनदोषैः स परिगृह्यते । यतः शिक्षा मयाऽस्य समीपे गृह्यते इति द्वितीये पदे वर्तते । ततः स शुरू इति । श्यमत्र भावना । यदि स पार्श्वस्थः पश्चात्कृतादिः पाठ्यन्नात्मनः आहारोपध्यादिकमात्मनैवोत्पादयति । ततः सुन्दरम् । आत्मना नोत्पा दयति । तत आइ । चोय से परिवार, अकारमा जति वा सके । सब्वोच्छित्तिकरस्म . सुपभी कुह पूर्व ॥ से तस्य परिवारं विनयमकुर्वन्तं चोदयति प्रज्ञापयति । यथा महदिदं ज्ञानपात्रमतः क्रियतामस्योत्कृष्टाहार संपादनेन विनय इति परिवारस्याभावे श्राद्धाश्वासिरुपुत्रपुराणेतररूपान् प्रणति यथा अव्यवच्वितिकरस्यास्य तनक्त्या कुरुत पूजामिति । पतनानुमोदनारायण व्याख्यातं संप्रति स्वयमुत्पादनमा द्वारा भावयति ॥ इतिहासती एवं आहारादी करने से सभं । पहाणीए जयंती, अत्ताए वि एमेव ।। शिवस्य प्रतिपरिवारकस्य सिकपत्रात्वर्यः सत्यम् तेषां पार्श्वस्यपश्चात्कृतादीनामाहारादिकं स सर्वमात्मना करोति । तत्रापि स प्रथमतः शुकमुत्पादलाने पञ्चकपरिदान्या यतमानोऽशुरूमपि पञ्चकपरिहानियतनानामशुकालाने पञ्चकप्राय वित्तस्थानप्रति सेवनात् उत्पादयति तदसंभवे दशकप्रायश्चित्त Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३५) उद्देस अभिधानराजेन्डः। उद्देस स्थानप्रतिसंवनात् एवं तावत यावश्चतुर्गुरकमसंप्राप्तः। तथापि से तथा यः प्रवज्यापर्यायण त्रीणि वर्षाणि नावाप्यत्तीर्णः सनवकतस्योत्पादयति । एवमेवात्मार्थ पञ्चकपरिहान्या यतते । किमुक्तं स्तस्मिन्नवके तरुणे मध्यम स्थविरे च शब्दाइहरं च । एवं पूर्वोभवति । उसमादिदोषत्रयशुरुमलभमानः पश्चकादियतनया तेनैव प्रकारेण संग्रहं ब्रुवते । किमुक्तं नवति । नवकस्य म्हरस्य त्रिभिरपि दोषरशुरूं गृहाति स तथा कुर्वन्नपि ज्ञाननिमित्तं प्रवृ वा तरुणस्य वा मध्यमस्य वा स्थविरस्य वा नवकत्वादेव नियतत्वात् कृतयतनाविषयपुरुषकारत्वात् रागद्वेषविरहितत्वाश्च शुरू माचार्योपाध्यायसंग्रहो वेदितव्य इति । इति ( आचार्योपाध्यायादिषु मृतेषु नवमहरस्य तत्पद स्थापना) वा खलु मज्झिमयेर-गीयमगीए य होइ नायव्यं । ( सूत्रम् ) निग्गयस्स णं णवहरतरुणगस्स आयरियनव- उद्दिसिणा उ गीए, पुवायरिए उ गीयत्थे ॥ काए विसंज्जाणो से कप्पा अणायरियउबकायस्स हो वा शब्दो विनाषायां खलु निश्चितं त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्णत्वेनानधके तए कप्पइ से पुवायरियं उडिसाविता ततो पच्चा नव मध्यम स्थविरेच प्रत्येक गीत अगीते वर्षाणांनानात्वं ज्ञातव्यम्। तदेवाह ॥ (हिसणाउ अगीते) अगीतार्थे उद्देशना श्यमत्र कार्य से किमाहु नंते दुसंगहिए समणे निग्गंथे तंजहा नावना । ये मध्यमाः स्थविरा वा त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्णा अप्यगीताआयरिएणं उबकारण य ।। स्तेि नियमात् यः स्यापितो गणधरः तस्य शिष्या धयक्ष्यन्ते । निगयस्सत्यादि अयास्य सूत्रस्य कासंबधश्त्याह ॥ इति गीतार्थेषु न स्यविरे मध्यमे च पूर्वाचार्यः पूर्वाचार्यसंग्रहः। पायरियाणं सीसो, परियातो वावि अह कितो एस । ये मध्यमा स्थविराः गीतार्याः पूर्वाचार्यदिशं धारयन्तीति । सीसाणकेरिसाण व, गविज्जः सो उ आयरिओ ॥ नवडहरतरुणगस्सा, विहीए विमुंजियम्मि आयरिए । पूर्वसूत्रे प्राचार्यस्थापनीय उक्तः । आचार्याणां च शिष्या पच्चन्ने अजिसे तो, नियमा पुण संगहे ठाइ ॥ जवन्तीति तद्वक्तव्यतार्थमिदं सूत्रम् अथवा पूर्वसूत्रेषु पर्यायोऽधि- नवश्च महरकश्च तरुणश्च समाहारो द्वन्द्वः । तस्य पुनः संग्रहाकृतोऽस्मिन्नपि च सूत्रे एव पर्यायस्तथा च "नवमहरतरुणग्रहणं" र्थमाचार्ये विष्कम्निते विधिना नियमनान्यस्य गणधरस्याभिषेकः यदि वाऽनन्तरसूत्रे य आचार्यः स्थापनीयः उक्तः स कीरशानां कर्त्तव्यः । प्रविधिना अभिषेककरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका शिष्याणां स्थाप्यते । श्तीदमनेन सूत्रणोच्यते । अनेन संबन्धे मासाः। कोत्र विधिरिति चेपुच्यते । प्राचार्यः कालगतो न प्रनायातस्यास्य व्याख्या। निर्ग्रन्थस्य णमिति वाक्यालङ्कारे नवा काश्यते यावदन्यो गणधरोन स्थापितः तथाचाह ( पच्चन्नेत्ति) हरतरुणस्य नवस्य महरस्य तरुणस्य वा आचार्यसहित उपा मात्रायें कागते प्रच्छन्ने देशे अनिषकः करणीयः । एतदेवाह । भ्याय आचार्योपाध्यायः । आचार्य उपाध्यायश्चेत्यर्थः । विष्कम्नो आयरिए काझगए, न पगासेज अट्टविहे गणहरस्मि । यावन्नियते ततः से तस्य नवडहरतरुणस्यानाचार्योपाध्याय- रामेव अणनिसित्ते, रज्जक्खोलो तहा गच्छे । स्य सतो भवितुं वर्तितुं न कल्पते किं तु पूर्वमाचार्यमुद्देशाः प्रस्थापिते अन्यस्मिन् गणधर प्राचार्यःकागतो न प्रकाश्यते। स्यापयित्वा ततः पश्चाउपाध्यायमुद्देशा अप्येवमाचार्योपाध्याय अत्र दृष्टान्तो राजा कान गतस्तावन्न प्रकाश्यते यावदन्यो नाभिस्य सतो नवितुं कल्पते । से किमाहुः। सेशब्दोऽयशब्दार्थः । अथ षिच्यते । अन्यथा अनभिषिक्तं राझि यथा राज्यकोभो भवति । भदन्त ! किं कस्मात् कारणात् नगवन्त एवमाहुः सरिराह । दायादेः परस्परविरोधतः सर्व राज्यं विलुप्यत इत्यर्थः तथा गद्वान्यामाचार्योपाध्यायान्यां संगृहीतो हिसंगृहितः श्रमणो निम्र मेऽप्यन्यस्मिन्नस्थापिते गणधरे यद्याचार्यः काबगतः प्रकाश्यते न्यः सदा जवति । तद्यथा प्राचार्यणोपाध्यायेन च एष सूत्रसंके तदा गच्चकोना नवति तमेवाह ॥ पार्यः व्यासार्य तु भाष्यकृद्विवकुर्नवादिशब्दार्यानामर्थमाह अणाहोवहाणसच्चंद, स्वित्ततेणा सपक्रवपरपक्खे । तिवरिमो होइ नवो, आसोझसगं तु महरगं वेंति । लयकपणा य तरुणे-सारणमाणोचमाणे य ॥ नाणे चत्तासत्तरुण, मन्किमो थेरतो सीसो।। केषांचिदनाथा वयं जाता इत्यवधानं नवत् कषांचित ( सच्चप्रव्रज्यापर्यायेण यस्य त्रीणि वर्षाणि नाधिकमित्येष त्रियों | दत्ति) स्वच्चन्दचरिता अपर केचित किप्ताः विप्तचित्ता भवेयुः। जयति नवः तन्नव पर्यायेण चत्वारि वर्षाएयारज्य यावदापोक- तथा स्तेनाः स्वपके परपके चोसिष्टन्ति सताया श्च साधनांकशकं वर्षम् अत्राइमर्यादायां यथा आपाटलिपुत्रावृष्टो देवः। किमुक्तं म्पनं तथा तरुणानामाचार्यपिपासयाऽन्यत्र गमनम् । तथाऽसारप्रयति । पाटलिपुत्रं मर्यादीकृत्यारतो वृणे देवः । इत्यत्र ततोऽय. णा संयमयोगेषु सोदतां पुनः संयमाध्वन्यप्रवर्तना । तथा मानामर्यः । यावत्परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि पोशावर्षादाक पमानं च सांप्रतमतानेव दोषान् व्याचिख्यासुः प्रथमतोऽनाथावतारकं प्रवन्त समयविदः । तता जन्मपर्यायेण पोमशवर्षा- धानस्वान्दचारित विप्तचित्तत्वानि व्याख्यानयति । एयारज्य यावश्चत्वारिंशद्वर्षाणि तावत्तरुणः । ततः परं यावत्स- जायामो अणाहो त्ति, अम्बाह गच्चंति केइ ओहायो । तिरेकेन वर्षेणोना तावन्मध्यमः । ततः परं सप्ततेरारज्य सच्चंदा व जमंति, केइ खेत्तान होज्जाहि। स्थविरः शिष्यः । बाबा वृक्षास्तरुणा वा कचिदगीतार्या आचार्याणां विप्रयोग प्रणवकस्म विमहरग-तरुणगस्स नियमेण संगहं विति। जाताषयमनाया ति विचित्य कचिदन्यत्र गच्छन्ति । केचिदवएमत्र तरुाएमके, थेरम्मि य संगहो नियमे ॥ धावयुः तथा केचिमन्दधर्मश्रकाका गणादपक्रम्य स्वच्चन्दा नुयः प्रवल्यापर्यायेण त्रिवर्षोत्तीर्णः सोऽनवक उच्यत । तस्यापि मन्ति । अपर केनिदाचार्यविप्रयोगतः किमा विप्पमित्ता अपगतप्रास्तां नवकस्यत्यपि शब्दार्थः डहरकः सन् तरुणकस्तस्य द्वाद चित्ता भवेयुः । स्वपकपरपकस्तनानुसताकम्पनं चाह । शवण्यारतो यावत्पश्चदशवर्षाणि तावदित्यर्थः नियमन संग्रह- पासत्थगिहत्यादी, ननिक्खावेज्ज खड्डगादीओ। मभिस्थापिताः आचार्योपाध्यायानां संग्रहणं अवते अन्निनवस्था- प्रया वा कंपमाणा उ, कई तरुणा उ अचंति ।। पिताचार्योपाध्यायाःसंग्रहीतन तनावश्यं वत्तितव्यमिति भावः। स्वपक्तपार्श्वस्थादयः परपके गृहस्थादयः। अत्रापि शब्दात्परती. Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उद्देस अभिधानराजेन्धः। उदेस र्थिकग्रहण शुलकादीन् ननिष्कामययुः । किमुक्तं प्रवति पार्श्व- कोऽपि संयतीनामपन्यायं न करोति । किं नु स्वपके परपके च स्थादयः श्रुखकादीन् विपरिणमय्य पार्श्वस्थादीन कुर्यः । अन्य- सुबहमानो जायते । तया संयती प्रवर्तिन्याचन्द अवर्तमाना तार्थिकाः स्वज्ञातया गृहस्थानिति । अतंव वातेनेय कम्पमानाः चोदयितुं जे इति पादपूरणे इति वचनात्सुखं जबति । किमुक्त संयम परीपः कचित्तरुणास्तिष्ठन्ति । श्यमत्रनावना । यथा भवति प्राचार्योपाध्यायभयतो न काचिदपि संयती आचारक्तिपद्मप्रताऽज्यस्मिन्ननवटाधासतो वातन कम्पमाना तिष्ठति । एवं तिमाचरति । याऽपि काचिदाचरति । सापि प्रवर्तिन्या सायएकचित्तरुणा गच्चऽपि वर्तमानाः संयमानाः संयम परापहः॥ म्भं शिष्यत । अथ शिप्यमाणापि न प्रतिपद्यत ततः प्रवर्तिनी कम्पमानास्तिएन्तीति । तरुणदोषमस्मारणादोषं चाह ॥ ते । प्राचार्यस्योपाध्यायस्य चाहं कथयिष्यामि । ततः सानीआयरियपिवासाए, काझगयं तु सोन ते विगच्छेजा। ता प्रवर्तिन्या नपपाते तिष्ठति । एते प्राचार्योपाध्यायसंग्रहे गुणाः ।। गच्चज धम्मसका, वि सारयिंतगच्चस्म असती ।। संप्रति प्रवर्तिनीसंग्रहे गुणानाह। केचित्तरुणा आचार्यपिपासयाऽनाचार्यमन्तरण ज्ञानदर्शनचा मिहो कहानहरविट्टरहिं, कंदप्पकिड्डावनसत्तणेहिं। रित्रवानाऽनुत्तरी प्रवति तस्मादवश्यमाचार्यसमीप वर्तितव्य पुव्यावरे तेसुयनिद्दकालं, गिएहाइतिणं गणिणीसहीणा। मित्याचार्यवाञ्चया कागतं श्रुत्वा तेऽप्यन्यत्र गच्छेयुः । तथा मिथः कथापरस्परं जक्तादिविकथाकरणं नटुरविट्टर नाम तेषु धर्मश्रका अपि कचित् सारयितुरनावे गच्यान्तरंगच्छेयुः।माना गृहस्यप्रयोजनेषु कामलविएटवादिषु वा प्रवर्तनम् । एतात्यां पमानदोषमाह। कन्दर्पक्रीमा कन्दर्पोकजननीकायबाक्चेष्टावत्कुसत्वं शरीरोमाणिया वा गुरुणं तु. थेरादीत्यकेचिो नत्थि । पकरणविजुषाकरणम् । एताज्यां च तथा पूर्वरात्रे अपररात्रे च माणं तु तो अनो, अवमाणजयानवगच्छेज्जा ।। गणिन्या प्रवर्तिन्यास्वधीना सती संगृह्यते । तथा तत्प्रवर्तिसत्र केचित्स्थविरादय एवं चिन्तयेयुः यथा सर्वकाझं मानिता | नीसंग्रहोऽपि साध्याः श्रेयान् । एतदेवयिभावयिषुर्लोकप्वपि वयं गुरुनिः । अत्र गाथायाम् । स्त्रियास्त्रिविधं संग्रहमाह। पगामिज्जा कालगयं, एएयदोसरक्खट्टा। जायं पित्तिवसा नारी, दत्ता नारी पतिव्बसा। अम्मम्मि ववत्थविए, ताहे पगासेज्ज कागयं ।। विहवा पुत्तवमा नारी, नत्थि नारी सयंवसा ।। जाता सती नारी पितृवशा पितुरायत्ता नवति । दत्ता परि. यस्मादेते दोषास्तस्मादेतदोपरत्वार्थमाचार्य कागतं न प्र-- काशयेत् यदा पुनरन्या गणधरो व्यवस्थापितो जवात तदाऽन्य ण।ता सती नारी पतिवशा भर्तुरायत्ता विधवा मृतपतिका नास्मिन् व्यवस्थापिते काबगतं प्रकाशयत् प्राचार्योपाध्यायादिषु री पुत्रवशा । नास्ति एवं च सति नारी कदाचनापि स्वयंवशा। मृतेषु निग्रन्थ्या आचार्यादिपदोद्देशः।। भमुमवार्थ प्रकारान्तरेणाह ।। (सूत्रम्) निग्गंथीएणं णवमहरतरूणियाए आयरियनबजाए जायपि य रक्खंती, मातापित्तिसासुदेवरादि । पवित्तिणियं विसंज्जा णो से कप्पा अणायारिय पति नायपुत्तविहवं, गुरुगणिगणिणी य अज्जपि ॥ जातामपि नारी रकती मातापितरौ । दत्तां परिणीतां रक्कम्ति अवज्काइयत्ताए अपवत्तिणिए य होत्तए कप्पइ से वधुदेवरभादयः । देवरग्रहणं स्वसुरज देरुपसवणम् । वि. पुवं आयरियं उद्दिमावित्ता तो पच्छा उबकायं धवां पुनः पिता नाता पुत्रो वा यदि जीवन्ति पित्त्रादयस्तहि सततो पच्छा पवितिणियं से किमाहु नंतेति संगहिया स- वेऽपि रक्कन्ति । एवमार्यिकामपि गुरुराचार्यों गणी उपाध्यायः मणी निग्गंयी तं तह आयरियाणं नवज्काएणं पविति- | गणिनी प्रवर्तिनी रक्वति ॥ हिएय || १॥ एगागिणि अपुरिसा, सकवाडघरपरं तु नोपविसे । निर्ग्रन्या णमिति पूर्ववत् नवमहरतरुणाया नवाया महराया सगणे व परगणे वा, पव्वतिया पीयमंगहिया ।। स्तरुण्या वा इत्यर्थः । प्राचार्योपाध्यायः समासोऽत्र पर्ववत् यथा जाद्यधीना नारी एकाकिनी अपुरुषा भादिपुरुषरडिआचायांपाध्यायमेतत् । प्रवर्तिनी च विष्कंन्नुयात् म्रियते ततः ता सकपाटं परगृहं न प्रविशति एवं प्रवाजिता पित्रिसंगृहीता (से) तस्या अनाचार्योपाध्यायाया उपवणमेतत् प्रवर्तिनीर- प्राचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीसंगृहीता स्वगणे परगणे वा एकाकिहितायाश्च नो कल्पत नवितुं किंनु पर्वमाचार्यमुद्दिश्याप ततः नी न गच्चति। पश्चापान्यायं ततः पश्चाप्रवर्तिनीकया नवितुं कल्पते से कि आयरियनबकाया, सययं साहुस्स मंगहो दविहो। माहरित्यादि । अथ भदन्त! किं कस्मारकारणाद् जगवत एव- आयरियउबकाया, अज्जाणपवत्तिणी तड्यो ।। माहुः। मृरिराह त्रिनिः संगृहीताः श्रमणो निर्ग्रन्थी सदा नव संगृहातीति संग्रहः । संग्राहक इत्यर्थः साध्वाः सततं सर्वति। तद्यथा आचार्येणोपाध्यायेन प्रवर्तिन्या च एष सत्रसके कावं संग्रहः संग्राहको द्विविध आचार्योपाध्यायौ । अधिकाणां पार्थः । अत्रायमाकेपः । किं कारण ननु यत्रिनिः संगृहीता नि त्रिविधस्तद्यथा द्वावाचार्योपाध्याय तृतीयः प्रवत्तिन।। अत्रैवाप्रन्या नथति । तत्राचार्योपाध्यायसंग्रहे गणानुपदर्शयति । पवादपदमाह दृरत्थम्मि विकीरइ, पुरिले गारवनयं मबहुमाणं । वितियपदे मा थेरी,जुमा गीया य ज खल्नु जवज्जा। गंदेय अवती, चोएउंज मुहं होई॥ पायरियाद। तिएहवि, अमतीए न उ दिसा विज्जति।। दरस्पऽपि पुरुष स्वपरपक्केण च क्रियते गौरवं जयं सबहुमानं द्वितीयपदे अपवादपदे सा प्रव्रजिता स्थविरा वयसा वृका जीचनर्थः । यमत्र भावना यद्यपि नाम आचार्य उपाध्याय वा संय- र्णा चिरकाल प्रचाजितागीता उत्सर्गापवादसामाचारी कुशलतया तीनां दूरे वर्तते तयापि दृरस्थस्यापि पौरुषस्य गौरवण भयेन वा | गीतार्था यदि खलु नवेत् ततः आचार्यादीनामाचार्योपाध्यायप्र Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३७ ) अभिधानराजेन्ऊ: उद्देस वर्तनीनां तिसृणामप्यनायेन संग्रामाचार्यमुपाध्यायं प्रर्तिमीच उद्देशापयेत्र दोषासंजयात् आयार्थ्यादिष्यातिदेशः (सूत्रम्) जिक्खू गणात्र अवकम्म मेहुणधम्मं परिसेविज्जा तिथि तप्यति हो कप्प आप रिपचं ना उन पंजाब गावच्छेदनं वा उद्दिमित वा धारित वा तिहि संत्रच्चरेहिं वीतिकंतेहिं च उत्थगं सि संचच्चरंसि पडियंसि सिसि वसंतस्स पछि यस निम्विगारस्स एवं से कप्पायरयत्तं वा गणावच्छ्रेयत्तं उद्दिसित्तए वा धारित्तए या १३ गणावच्छेयचं या प्रणिखिवेिता मेहुणा धम्म पि सेवेज्जा जान तस्स सप्पतियं नो से कप्प प्रायश्यितं वा जाव गावच्छेश्यतं वा उद्दिसित्तए वा धारितए वा | १४| गणाचच्छेयए गणावच्छेश्यत्तं शिक्खिवित्ता मेहुणधम्मं परिसेविजानिति संवच्यं तस्म तप्पतियं शो कप्पड़ आयरिय वा नाव उरिसियर या धारितए वा निर्हि संबि वितिकतेहिं चलत्थयंसि संवच्चरंसि पवियंसि पट्टियंसि उडिसि विस्म उपसंतस्स उवरयस्स परिविश्यस्य निव्विगारस्स पूर्व से कप्पा आयरियतं वा गणावश्य वा नासित्तए वा धारितए वा ॥१५॥ एवं प्रायरियउवज्जायगाव दो आलावा । १६ । १७ । अयास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धस्तत आह । नवतरुणे मेनुएई, कोई सेवेज्ज एस संबंध अचंतनवखणादि-न्संगहो एत्य विसए वा ॥ परियार बि गणो, दिज्जइ वृत्तति मा प्रतिपसंगा । सेरियमपुसापज, दाहिति गणं अतो मु । पूर्व साधुकस्तत्र को नवतरुण मोदोदात्यते कृतमवाकस्य च दाया त्वादिकमुद्देष्टव्यं तथाऽनेन सुत्रेण प्रतिपाद्यते इत्येष सृसम्बन्धः । अब्रह्मणादे है तो रग्रहार कृणादिनिमित्तं संग्रहः । आचार्यदिकानन्तरसूत्रेऽनिदित अथापि स ए संग्रहोंऽभिधीयते इति । अथवा पूर्वतरेषु सूत्रेषु श्रपर्यायेऽपि गणो दातेत्युक्तं तहियसायार्यादिपदानुज्ञानात्त मा अतिप्रसङ्गानं सेविया अपूर्ण पर्याय गणं दास्यन्ति तत एतन्निवारणार्थमिदं सूत्रम् । अनेन सम्बन्धेनायातस्था स्य व्याख्या । निक्षुर्गणादपक्रम्य मैथुनं प्रतिसेवते तस्य त्रीणि संवत्सराणि याय सत्प्रत्ययं मैथुनसेवाप्रत्ययं न कल्पसे आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं यावत्करणात्प्रवर्तित्वं स्थविरत्वमिति परिग्रहः । गावच्छेदित्वं या उद्देष्टुमहातुमतोऽवि तस्य कल्पते स्वयं धारयितुं किन्तु त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रातेषु चतु संवत्सरे प्रस्थित प्रारम्भयति प्रति स्वमनिमुखी भवनमात्रेऽपि जयति तत आह । अस्थिते अववर्तमाने स्थितस्य वर्तमानस्य किं विशिष्टस्य सत इत्याह । उपशान्तस्य उपशान्तवेदोदयस्य तचोपशान्तत्वं प्रवृत्तिनिषेधादयसीयते तत आ उपरतस्य प्रवृत्तेः प्रतिनिवृत्तत्वं दायि वशादिमात्रतोऽपि भवति । तत आड़ मैयुप्रातिकूल्येन विरतः तस्य तदपि च प्रतिविरतत्वं विकारादर्शन - मालिककाररहितस्तस्य कल्पते प्राचार्यत्वं वाचत् गण उद्देस वच्छेदित्वं या उद्देष्णुं या धारयितुं वा एप सूत्रसंक्षेपार्थः । व्यासार्थे तु नावतो जाष्यकृदाह । दुबोमाविवखयरो, निरवेक्खो दिन जाइजयलाए। जोगं च अकाऊणं, जाव स वेस्सादि सेवेज्जा ॥ द्विविधो द्विप्रकारः खलु मैथुनप्रति सेवकस्तद्यथा सापेकू इतरा तरो निरपेक्षः तत्र निरपेको यो वा यासियो गं यतनया योगमकृत्वा यदि वा स वेश्यादिकां सेवेत । एष त्रिविधोऽपि निरपेक्षः गुरुतीर्थकरापेक्षारहितत्वात् ॥ साक्खो जनदिने, आपुच्छे गुरुं तु सो जति बेक्खे | ता चउगुरुगा जगात सीसो न प्रणापुच्छ गच्छे ॥ fe पुरुप्राप्ते मोहे उदिते वेदे इत्यर्थः । गुरुमापृच्चति समापेः सह अपेक्षा यस्यास्ति स समापक इति व्युत्पत्तेः । तत्रापृच्छायां यदि स गुरुरुपेक्कां कुरुते ततस्तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुका नवन्ति । स च साधुरनापृच्च गुरुं याति तर्हि तस्थापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः । सा च पृच्छा त्रीन्वारान्कर्तव्या । तथा चाह । हवा सड़ दो वावी, आयरिए पुच्छ मकडजोगी वा । गुरुगा तिथिवारे, तम्हा पुच्छेज्ज आयरिए । श्रथवा । सकृदेकं वारं यथाचार्यान् पृच्छति तथापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरका थी पारी पृच्छति न तृतीयमपि वारं पिच स्काः । अथवा वारस्यायामपि तायां यदि महतयोगी यतनायोगमकृत्वा गच्छति तदानीमपि चतुर्गुरुकाः । यत पनमेकं द्वौ वा घारौ पृच्छायां प्रायश्चित्तं तस्मात्रीन् वारान् आचार्यान् पृच्छेत लोकेऽपि तथा दर्शनान्तथा चाह । बंधे पाय मारणेय, दंडे अन्नेस व दारुणे । पमत्तमते पुण चित्त, लोए विति उति बारे || राज्ञा बंधे आदिष्टे यदि वा घाते प्रहारे अथवा प्रमारे कुमरणमारणे प्रत्येषु यदयमेषु हस्तपादच्छेदादिषु दारुणेय्वादिष्टेषु लोके श्रीन् वारान् राजा पृच्छयते । किमर्थमित्यत आह प्रमसेनव्याक्तिसेन यदि वा मद्यपानेन मत्तेनादिष्टं प्रवेत् प्रशान्तस्य पुनचितमुपजायते । यथा मा मार्यतामिति पारश्रयमनापृष्ठायां स रुष्यते किमिति स मारित इति । एवं यथा राजा केनापि श्रीनू वारान् पृच्छयते तथाऽचार्योऽपि ॥ आलोय गुरु चिकिच्छा विहीए कायव्या । निगितिमयादीया, नायव्वा कर्मणिमेां तु ॥ भानोविचारमापृष्ठायां कृतायां गुरुणा भायार्येण तस्व दितवेदस्य साधोर्विधिना चिकित्सा कर्तव्या सा चिकित्सा निर्चिकृतिकादिका क्रमेणानेन वक्ष्यमाणेन ज्ञातव्या तमेव क्रममाह । निव्वायय मोदरिय, वेयावचे तहेव ठाणे य । वाहिणेय मंडलि-चोयगत्रयां व कप्पट्ठी ॥ प्रथमतो निर्विकृतिकं कारयितव्यः तत्र यदि निर्विकृतिकं तपः कुर्वति नितिनामीदारव्यं तथाप्यनुपश्याम्यति ततञ्चतुर्थादिकं कार्यन्ते तथाप्यतिष्ठति वैयावृत्यं कारकीयं वैयावृत्येनाव्यकृतिस्थानेन स्यानेन तिष्ठति तथाप्यनुसाम्यति पार्टि कार्यते । देशकादिकानां सहायो दीयते इत्यर्थः । तत्र यदि एष परिश्रमणोपशान्तो नवति वेदस्ततः सुन्दरमय नोपशाम्यति ततो यदि स बहुश्रुस्त्री चायते अत्रायें चोदय यथा किमर्थं स एकल दाप्यते । सूरिराह । दृशन्तोऽत्र कप्पट्टीति I Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३८) उद्देस अन्निधानराजेन्डः। उद्देस कुलवधूः । “एगो सट्टी तस्स पुसो धोवजणनिमित्तं वसंतरं अथवेति पर्ववत् । दीपकमेतत्सप्तसूत्रकं पूर्वसूत्रेवधिकारार्थोहीगतो । नारिया सहिसमीवे मुक्का । सा य सुहभायणतंबोलवि- पनार्थमिदं सूत्रसप्तकमधिकमेवार्थमुपदर्शयति । यथानेन सूत्रसप्तक लेषणममणपसाहणरया घरवावारमकुणंती अन्नया सम्मत्तिया न अनीदणं मायी बहुशोमायावी यावजीवमाचार्यत्वादिषु पदेषु जाया । दास िनण । पुरिस मग्गेह तीए सहिणो कहियं प्रतिषितस्तथा मैथुनसूत्रपञ्चकमध्ये यो भिकुसूत्रे नि केपणसूत्रतेण चितियं । जावज्ज विन विणस्सति तात्र चितमि उवायं द्वये च सागारिकसवी मै पुनप्रतिसवी संवत्सरत्रयातिक्रमे योग्य सहिणी भणिया कलह काऊण तुमंगच्च जेण सा घरवावारे वु- सक्तः सोऽप्येवमभीक्ष्णं सागारिकसेवी सन् यावज्जीवं प्रतिषिकुत्ति अपहा विणिस्सिहिति । एवं सामत्येऊण अन्नया सेट्टी द्धो द्रष्टव्यः । तस्यापि यावजीवमाचार्यत्वादीनि न कल्पन्ते इति घरमागओ पामोक्वं ममा सा न दे तो सेठिणा महतो कन- नावस्तया अवधावनसूत्रकेऽपि यो निकुसूत्रे निकपणसूत्रद्वये हो कतो सा पेटिकण निस्सारिया । सा य बढ्य काहसई वर्षत्रयातिक्रमेण योग्य उक्तः सोऽपि यदि अनीणमवधावनसोऊण तत्यागया सेट्टिणा प्रणिया । भत्ति बहूए तुमे अज्जप्प- कारी जवति ततस्तस्यापि यावजीवमाचार्यत्वादिपदप्रतिषेधः। भिति सब्वो वावारो कायब्वो सा तहेव करितुमारका । तो अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। भिकुर्षहु श्रुतं सत्रं यस्यातीप वावारवाउनाए जोयशमवि वियानवताए कुतो मणप- सौ बहुश्रुतः । बहुरागमोऽर्यपरिझानं यस्य स बह्वागमः । तथा साहणं । दासचेमीए प्रणियं मम्गितो चिटुति पुरिसो कया मेलि कुलप्राप्तं गणप्राप्तं यत्सचित्तादिकं व्यवहारेण नेत्तव्यं कार्य वा जातीए जणियं मरणस्स वि में अवसरो नत्यि कता पुरिसस्स" अागाढगाढं कारणं तेषु अागाढागाढेषु बहुप्रजूतेषु बहुशोऽनकएवं । यथा तस्या गृहव्यापारव्यापृततया वेदोपशान्तिरजूत्तया प्रकारं मायी मायावान् मृषावादी अशुदिराहाद्यर्थमव्यवहारी ऽस्यापि सूत्रमएमल्यापि व्यापारव्यापृततया कदाचिद्वेदोपशा पापजीवी कोटसाधाजीवी तस्य यावज्जीवं तत्प्रत्ययं मायित्वन्तिःसंजाव्यते। ततः सूत्रमएमसीमर्यमएमीच दाप्यत शत व्या मघावादित्वादिप्रत्ययं न कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणाबच्चे. (अत्राचार्यसाधूनामवधावनविषये बहुवक्तव्यं तच्च व्यवहार- दित्वं वा उद्देष्टुं वाऽनुज्ञातुं स्वयं वा धारयितुम् । एष प्रथमसूत्रनाध्यतोऽवसेयं शत एव किञ्चिदत्रोक्तम् ) बहुश्रुतोऽपि पापो संकेपार्थः । एवं गणावळेकसूत्रमाबायोपाध्यायसूत्रं च भावनीन कल्पते प्राचार्यादितथा उदेष्टुम् । यं पागेऽपि सुप्रतीतः। यथा च त्रीणि सूत्राएयेकत्वेनोक्तानि इत्येवं त्रीणि सूत्राणि बहुत्वे वक्तव्यानि । सप्तमं बहुनिकुबडुग(सूत्रम् ) बहवे जिक्खुणो बहुस्सु तवज्जागमाबहुसो बहुसु णावच्गदबहाचार्यविषयं तदपि तथैव । अत्रभाष्यकदाद ॥ आगाढगाढेसु कारणेसु माइमुसावाइअसुइपापजीवी जाव एगत्तबहुत्ताणं, सव्वेसिं तेसिमेगजातीणं । जीवाए तसिं तप्पतियं नो कप्पइ जाव नहिसित्तए वा धारि सुत्ताणं पिणं, वोच्च अत्थं समासेणं ।। सए वा एवं गणावच्छेइएया वि एवं आयरियउवज्काएया एकत्वबहुत्वादिसंबन्धिनां सर्वेषामेतेषां सूत्राणामेकजातीयानाविबहवे निक्खुणो बहवे गणावच्छेझ्या बहवे आयरियनव- मेकप्रकाराणां पिपमेनाप्युक्तो वैविक्त्येन प्रतीतः । तत्र प्रयमज्माया बहुसुआ बन्नागमबहुसो बहुसु आगाढागाढेसु माइ- मेकत्वबहुत्वविषयावाकेपपरिहारावाह॥ मुसाबाअसुइपावजीवी जाव जीवाए तेसिं तप्पति णो एगत्तियमुत्तेसुं, जणिएसुं किं बहु पुणोग्गहणं । कप्पइ आयरियत्तं वा नवायत्तं वा पवत्तिं वा थेरत्तं चोयगसुणसू इणमो, जं कारणं मो बहुग्गहणं ।। एकत्वनैकवचनन निवृत्तान्यकरिखकान तेवैकत्विकेषु किं पुनवा गणधरत्तं वा गणावच्छेझ्यत्तं वा नदिसित्तए वा धारि बहुग्रहणं बहुत्वविशिष्टसूत्रचतुष्टयोपादानं सूरिराह । यत्कारणं त्तए वा । इति ववहारस्स तइओ उद्देशो ॥ ३ ॥ येन कारणेन मो इति पादपूरणे बहुग्रहणं बहुष्वविशिष्टसूत्री सूत्रसप्तकम् अथास्य पूर्वसूत्रैः सह सम्बन्धमाह ॥ पादानं तत्कारणमिदं हेचोदक ! शृणु तदेवाह । वयअतियारे पगते, अयमविअन्नोउस्स अश्यारो।। लोगम्मि सयमवज्ऊं, होइ अदम सहस्स मा एवं । इत्तिरियपमत्तं वा, वृत्तं पदमावकहियं तु ॥ होहिति उत्तरियम्मि वि, उत्तर उकया बहुकए वि ॥ पूर्वसूत्रेषु व्रतस्य मैपुनविरत्यादेरतीचारः प्रकृतोऽधिकृतोऽयमपि झोके बहनिरकृत्ये सेवितेऽयं न्यायः शतमवयं सहस्रमदएज्यं चान्यस्तस्य प्रतस्यातिचार इति तत्प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रसप्तक- | तत एवमैत्तिरिकेपि लोकोत्तरिकेऽपि व्यवहारे प्रसङ्गो मालूम् । अथवा पूर्वसूत्रेषु त्रीणि संवत्सराणि यावदाचार्यत्वादीनि न | दिति तत्प्रतिषेधार्थ चत्वारिसूत्राणि बहुकेऽपि बदुवचने कृतानि। - कल्पते इति वचनादित्वरमपात्रमुक्तमिदं पुनः सुत्रसप्तकेनानिधी- सांप्रतमागाढागाढकारणादीनि पदानि ब्याचिख्यासुराइ ।। यमानम्पानं यावत्कयिकं बहुशो यावज्जीयमाचार्यत्वादीनि क कुन्नगणसंधप्पत्तं, सञ्चित्तादी उ कारणागाई । ल्पन्त इति वक्यमाणात् ॥ उिद्दााण निरीहित्ता, माय। तेणेव असुतीउ ।। अहवा एगहिगारे, नद्देसो तइयो उ ववहारे। सचित्तनिमित्ताऽचित्तनिमित्तो वा यो व्यवहारः कुक्तिो ययेवं करिमितो पायरिओ, विज्जइ केरिसो नेत्ति ॥ सचित्तादिकं विवादास्पदीनूतं कुलेन उत्तव्यमिति तत्कुत्रप्राप्तअयवेति संबन्धस्य प्रकारान्तरोपदर्शने व्यवहार तृतीयोदेश मेवं गणप्राप्तं सहप्राप्तं जावनीयम । यत्र यत्सचित्तादिक विवाकाधिकारे यथा कादशः प्राचार्यः स्थाप्यते कीरशो न । तत्र दास्पदालतं व्यवहारण यतया कुमप्राप्त वा तत्कारणागाढं यारशःस्थाप्यो यारशश्च न स्याप्यस्ताइ उक्तोऽयमन्योन स्थाष्य- कारणम् । तया कयमहमेनं व्यवहारमाहाराशुपनहे वर्तमानं नोत इति प्रतिपादनार्थमष सूत्रसप्तकारम्भः ॥ ज्जितं विद्यामिति बुद्ध्या परषां छिद्राणि निरीक्ष्यमाणो माय) अहवा दीवगमेयं, जह पमिसिको अनिक्खमाइयो । तेनैव मायित्येनैव सोऽशुचिः तमेवाशुचि भव्यभावनेदतःप्ररूपयति सागारियमे वि एवं, अनिक्खओहावणकरी य । दव्वे जावे असती, जावे आहारवंदणादीहिं। Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३९ ) अभिधानराजेन्द्रः | उद्देस कर्ण कुल प्रकरणं, विविधेहि य रागदीमहि ॥ अशुचिर्द्विधाव्यता भावतश्च । तत्र योऽचिना सिगात्रो यो वा पुरीषमुत्सृज्य पुत्रैौ न निर्लेपयति स व्यतोऽशुचिः । जांचे भाषतः पुनरखिराडारबन्धनादिभिर्विधिक यमप्यकल्प्यं करोति । किमुक्तं भवति । आहारोपधिशय्यादिनिमित्तं बन्दनन चैर्वृत्त्यादिना वा तोषितो यदि वा एष मम स्वगन्धकुसंबन्धीति रामतोग्यवान मान्द विरुवा भाषितानित्यादिद्वेषतोऽयं सोऽयं नानाव्यमनाभाव्यं करोति । भनानाव्यमप्याजाव्यं सोव्यवहारी नावतोऽशुचिः । एतदेक सुव्यक्तमाह । दवे भाव सुती, दिव्वम्मी चिट्ठमादिद्वित्तो न । पायतिचायादीहि नावाम्म छ हो असईओ ॥ अशा नांवे च तत्र विष्ठादिना आदिश दाम्यादिपरिग्रह नावे प्राणातिपातादिनित्यशुचिः ॥ तप्पत्तियमेतसि आयरियादी न देखि जा नीवं । के पुणक्खिमे य, बहुस्सुयमादिणो हुंति || तत्प्रत्ययं मायावित्वादिप्रत्ययं येषां भिक्षुप्रभृतीनां यावज्जीवमाचार्या नावानोऽय निर्देश प्राचार्यत्वादीनि न दा ति के पुनस्ते आए निकुक उपलक्षणमेतत् गणावच्छेदका चार्योपाध्यायाश्च सूत्रोक्ता न केवलमेते किंत्विमे च बहुश्रुतादयो जवन्याचार्यादिपदानामनहीस्तानेव निर्युक्तिकृदाह ॥ । स्य ओमे, परिसेवओ यतो अप्पचिते य । निरवेकखपमतमा रहे जुंगिए चेव ।। अतोऽयमः प्रतिसेयो यतः आत्मनि माथी अनसूत्यादिपदानामनः। सांप्रतमेतानेच यापासुरा । अस्ती पकप्पो, अशी ओमा निवरिसर ओो । निकारणे व जिक्वू, कारणपवते जो उ अन्तज्जयत्र्यपचितो, निरवेक्खो वालमादीसु । अन्नयश्पमायजुत्तो, अमन्त्ररुची होइ माईयो । aण रिहा, उज्जावाहादि अ जो जुवत्ता।। चरो व जुंगिया खलु, अचंति य जिक्खुणा एते ॥ अबधुत नाम गाथाको निधाध्ययननामका सूत्रतो येतच नाधीतः श्रवमो नाम आत्रिवर्षरतो यस्य प्रव्रज्यापर्यायेण श्रीणि वर्षाणि नाद्यापि परित्यर्थः प्रतिसेवको नाम यो निकुः निष्कारणेsपि कारणानावेऽपि पञ्चकादीनि प्रायश्वितस्थानानि प्रतिसेयते । आत्मचिन्तयेोऽयुतमा प्रतिपतिनिधितवान् गिरयादिषु वित्तारहितः प्रमत्तः पन्चानां प्रमादानामन्यतरण प्रमादेन युक्तः भवाय मृणभाषणे असंयमे वा रुचिर्यस्यासावसत्य रुचिर्भवति । मायी किमुक्तं नवत्यजीणं मायाप्रतिसेवनशीचां मायीति अपनणं येषामाचार्यलक्कणानि न विद्यन्ते ये च पूर्वमुक्ता अत्यवधावनादय एते सर्वेनहीः । जुङ्गिका जातिकर्म्मशील शरीरजेदतश्चतुर्द्धा । एतेऽपि प्रागुक्ता पंत सर्वेऽपि भिक्वो ऽत्यन्तमाचार्यत्वादिपदानामनाः । वाई तो वे भयमपि पर्यायी प्रतिसंव कोप्रति सेवकोऽतोऽन्ययतनातः प्रतिविरतां निरकेषः सोपेकानूतः प्रमत्तोऽप्यप्रमत्ततामुपगतस्तदा जवन्त्येते ऽप्याचार्यत्यादिपदानां योग्याः । उद्देस संप्रति सप्तानामपि सूत्राणां संभवविषयमाह । हवा जो आगार्ड, बंद आहारमादि संगहितो । पं कुइ अकष्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं || माई कुल कर्ज को माई जो जो मुसावाई | कोण मोमाई, सुई पावसुयजीवी ॥ अथवति सूत्रव्याख्या प्रकारान्तरोपदर्शने यो वन्दनादिभिः वदवेानृत्यादिना आदारादिभिराद्वारोपदि संसद् विविध रागद्वेषः प्रगुरु मध्याभाव्य मध्य कल्प्यमनाभाग्यं करोति । सप्तानामपि सूत्राणां विषयः ( माई कुरा इत्यादि) कः पुनरेवमकार्य कल्प्यमप्यनाभाग्यमकण्यमप्याजाव्यमित्यर्थः करोति एवं शिष्यस्य प्रश्नमाशङ्क्य सूत्रदाह । मायी मायावान् को माय तत आह यो वेद पुनः पायादीतत बाद कोचिः सूत्रदाह पापजीवी एतस्य व्याख्यानं पापश्रुतोपजीवी कोटवापजीवीत्यर्थः । किह पूछ कलमकर्ज, करेज आहारमादिसंग हितो । जह कम्मिवि नगरम्मा उप संप तु । कथं पुनराहारादिसंगृहीतः सन् कार्यमुपरुणमेतत् आचार्यमपि कार्य करोति । अत्र सूरिर्निदर्शनमाह । यथा कस्मिन्निगरे किमपि सहकार्यमुत्पन्नं सचितादिनिमित्तं वास्तव्यसदृस्य व्यवहारो जात इत्यर्थः ॥ स च वास्तव्यसन बेत्तुं न शक्यते ॥ (अन्यदत्यं वचदारशब्दे ) पण विप्रमु पुनषदरति सुमहती आशातना व्रतलोपश्च तथा चाहप्रगाढ सावादी, वितिय तए न झोवति माई य पापजीवी, असुई किन्ने कणगदंडे ।। । आगाढे कुलका संघकार्ये वा आभाव्यस्य वाऽनाभाव्यस्य वा ज्ञानतया रागद्वेषाज्यां वा जणनात् । मृषा वदतीत्येवं शीलः आगादे नृपावादी द्वितीयतृतीये मृषायादासादानविरतिरूपे व्रते लोपयति । तत्र द्वितीयत्रतत्रोपो मृषावादभणनात् तृतीयनाना प्रादयोऽनुमतिदोषनाया शब्दात शं पाण्यपि व्रतानि लोपयति । एकव्रतझोपे सर्वव्रतलोप इति वत्रनात् । माय समुल्लङ्घ्य शो न्तरैर्व्यवहारकरणात् । पापजीयी दुर्व्यवहारादिकरणात् । परदशापद्वाराश्युपजीवनात् भत याविषयादित्यादि शुकन कदमः संज्ञालितः स्प्रष्टुं न कल्पते एवमेषोऽपि न कल्पते याची यमाचार्यश्वादिपदे स्पापमिति ॥ ०३३० । गणान्तरे उद्देशना दाशब्दे नतिकृष्टविशमुद्दिशे ॥ ( सूत्रम् ) णो कप्पति एिग्गंथणं वितिकिष्यं दिसं वा उद्दिमित्त वा धारितए वा कप्पति णिग्गंथाएं वितिगिट्टियं दिवा दिसं वा उद्दित्तिए वा धारितए वा । ए। न कल्पते निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृशमतिशयेन त्रतो भावतश्च वि कृतां दिशमनुदिशं वा उद्देष्टुमनुज्ञातुं नापि स्वयं धारयितुं वा इत्येष सूत्रद्वारार्थः । संप्रति नाप्यम् । पिय वितिहिं गिगयी पुद्दिसंति चउगुरुगा । इणय दोसा, दितो होइ कोसलए || विधाविष्टां विभावर्थिनिर्म Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४०) उद्देस अभिधानराजेन्डः । नद्देस ीनां दिशमुद्दिशति । अस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारा गुरुकाः माझा गमनोत्सुकेन चित्ते शिक्षा अपि नानाप्रकारा ग्रहणशिक्षा दयश्च दोषास्तत्र विकष्टां दिशमुद्दिशतो ये दोषास्तत्र को भवति आसेवनाशिक्षाश्च न गृह्णाति । तथा वार्यमाणाऽपि तस्य एष्टान्तस्तमेव जावयति। क्षेत्रविकृष्टस्यान्यस्याचार्यस्य समीपं गच्छेत् तत्र च पथि दोउवसामिया जघोण, कोसलेणं गते य माताम्म । पानिमान् वक्ष्यमाणान् लभते । अत्र यदुक्तं प्राक एतैतंचव दिसंती य, निक्खंता अनगच्चम्मि । वक्ष्यमाणैर्दोषैस्तानपि नोदिशेदिति तद्याख्यानावसरस्तानेव दोषानाह ॥ वारिज्जती विगया, पमिवामा सा य तेण पावणं । मिच्छत्तसोहिमागा-रियादिपासंमतणसच्चंदा । जिणवयणबाहिरेणं, कोसतएणं अकुलएणं ॥ खेत्तविगिट्टे दोसा, अमंगलं नवविगिट्टम्मि ।। पकः कोशलकः कोशरदेशोत्पन्न इत्यर्थः । तेनान्यदेशं गतेन | मिथ्यात्वं मिथ्यात्वगमनं शोधेरभावस्तथासागारके अगा. यतमानेन सदनुष्ठानपरायणेन कापि श्राविका उपशामिता सच रसहिते आदिशब्दादनागारे एकाकिन्या उपाश्रये दोषाः । कोशबकस्तं देशं गतः तस्मिश्च गते सा श्राविका अभ्यस्मिन् तथा पाषण्डैर्विपरिणामनं स्तेनैरपहारस्तथा स्वच्छन्दा स्यात्। गच्छे तत्रागते तस्य समीपे निष्कमितुमुपस्थिता यथा मां नि न गच्छाधीना तथा च सति भूयांसो दोषाः। पते क्षेत्रविकृष्टे कामयत परं मम स एव कोशक्षकः आचार्यः पवं सा तमव उद्दिश्यमाने दोषाः । भावविकृष्टे उद्दिश्यमाने अमङ्गलं तेन व्यपदिशन्ती तैर्दीक्विता । सा चदीकाप्रतिपत्त्यनन्तरं वार्यमाणा संयमजीविताद्भवजीविताद्वा भ्रश्येत्तस्माद्भावविकृष्टाऽपि नोऽपि कोशमसमीपे गता । सा च पापेन जिनवचनबाहनाक देष्टव्यः । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। सांप्रतमेनामेव विवरीषुः मजेन कोशलेन प्रतिपन्ना । एष दोषः केत्रविकृष्ट दिशमुद्दिशतः। प्रथमतो मिथ्यात्वद्वारं शोधिद्वारं चाह ॥ अत्र पर आह॥ उवदेसो तसिं अस्थि, जेणेगागी न हिंमए । कोसलएहि कारण, गहणं बहुदोसझाउ कोसलगो। इति मिच्चं जणो गच्छे, कत्थमाहिं च कुज्जउ ॥ तम्हा दोसुक्कमया, गहणंह कोसले कारणमओ ।। उपदेशः तासामेकाकिनीनां नास्ति येन स तारशः स्त्रीजन कोशलकस्य ग्रहणं कृतम् । सूरिराह यस्माकोशलको देशः एकाकी हिंडते । तत इति अस्मात्कारणादुपदेशाभावलक्षणास्वनावात बहून् दोषान् माति आदत्ते अतिबहुदोषलो बहुदोष जनः स्त्रीजनो मिथ्यात्वं गच्छेत् । गतं मिथ्यात्वद्वारम् ॥ वान् तस्मात् दोषोत्कटतपात्र कोशनस्य ग्रहणम् अपि च । शोधिद्वारमाह क्षेत्रप्रायश्चित्तमापन्ना सती कुत्र शोधि कुर्यात् । अंधं अकूरमययं, अवियमरहयं अवोगिवं । नैव कुत्रापीति भावः एकाकिनीत्वान्न च प्रायश्चित्तस्थानमप्राकोसलयं च अपावं, सएसु एकं न पेच्छामो ।। यश्चित्तस्थानं वा सा जानाति तत इतोऽपि शोध्यभावः । सा. अन्ध्रमधदेशोत्पन्नमरमतकमकराभिप्रायमपि च महाराष्ट्रक- गारिकादिद्वारं पापण्डद्वारमाह । मवोगिखमवाचालं काशक चापाशतेषु मध्ये एक न प्रेक्का- सागारमसागारे. एकाए वस्सुए नवे दोसा। महे इति प्रसिकिरतः कोशलग्रहणम् । पुनरपि प्राह चरिगादिविपरिणामण-सपक्वपरपक्वनिएहादी॥ कोसलए जे दोसा, उदिस्संतुम्मि किन्न सेसाणं । सागारे त्रागारसहिते असागारे आगाररहिते उपाश्रये एकते तेसि होज व न वा, इमेहि पुण नोदिले तेवि ॥ स्या एकाकिन्या दोषा भवन्ति । तत्र सागारे दीपस्पर्शनादये दोषा कोशसके दिशमुद्दिशन्ति ते किन शेषाणां दिशमुद्दिशन्ति यो दोषाः । अनागारे कुलटाजारादिप्रवेशनम् । गतं सागारिकिं न नवन्तिभवन्त्येवति भावः । सूरिराह । ते दोषास्तषां नवे- कादिद्वारम् । पापण्डद्वारमाह (चरगादित्यादि ) स्वपक्ष युर्घा न वा कोशनके पुनर्नियमाजवन्ति देशविशेषजन्मनोऽपि परपक्षे च विपरिणमनं तत्र स्वपक्षे निवादिभिरादिशब्दागुणदोषहेतुत्वात्ततः कोशोपादानम् । एते पुनर्वक्ष्यमाणास्ता पार्श्वस्थादिपरिग्रहः । परपले चरकादिभिः । स्तेनद्वारं स्वनपि शेषदेशोत्पन्नान् केत्रविकृष्टान्नोद्दिशेत् । अन्यश्च । च्छन्दद्वारं चाह। अचं उद्दिसिकणं, निक्खंता वा सरागधम्मम्मि । तेणेहि वा विहिज्जइ, सच्चंमुट्ठाणगमणमादीया । अयोमम्मि मतं न तु, अग्गाणं पि संजवति ॥ दोसा जवंति एए, किंचन पावज्ज सच्चंदा ।। वा शब्दा दूषणान्तरसमुच्चये अद्यकाबजाविनि सरागधर्मे अन्य- स्तनैर्वा द्रव्यापहारिभिर्वा सार्धं गच्छन्ती व्हियते तथा माचार्यमुद्दिश्य निष्कान्ता परमन्योन्यस्मिन् परस्परस्मिन् यन्म स्वच्छन्दमुत्थानं स्वच्छन्दगमनमित्यादयश्चैते दोषा एकाकिमत्व तत् व्यप्राणामपि व्यग्रचित्तानामपि न तु नैव जवति कित्व न्या भवन्ति । किं वा स्वच्छन्दा सती सा किं न प्राप्नुयाकचित्तानामुपजायते सा चैकचित्तता अत्र नास्ति तया चाह । सर्वदुःखस्थानमाप्नुयादित्यर्थः।संप्रति भावविकष्ट दोषानाह। मुचिरं वि सारिया ग-आइत्ति ममयाइ गरछस्स । गोरवनयसमीकरा, अविदूरत्ये वि होइ जीवत्ते । सायंतचायणासु य, परिजूयामित्ति मन्नेज्जा ।। को दाणिसमुग्यातस्स, कुणइ न य तेण जं किचं ॥ सुचिरमपि कासं सारिता शिक्विता सती गमिष्यतीति मन्यमा- अपि दूरस्थेऽपि जीवति सति तद्विषया गौरवमयसमीकरा नस्य गच्चस्य न तस्या विषये ममता ममत्वं मायातिसीदन्त्याः भवन्ति भूयस्तन्मिलनादिप्रत्याशासंभवात् । इदानीं पुनस्तस्य संयमयोगेषु शियिलीजवन्त्या याश्चोदनाः शिक्कास्तासु दीयमा- समुद्धातस्य को गौरवं भयं समीकारं वा करोति नैष कश्चित् नाससाऽन्यत्र गन्तुमनाः परिताऽस्मीति मन्यते ततस्तस्या अपि यत् यस्मात् न च नैव तेन सर्वप्रयोजनातीतत्वात् ॥ न गच्चस्योपरि ममता । किंच कोसलवज्जा नस्थि य, दोसा सविससनवविगिट्टम्मि । गमणुस्मुरण चित्तण, सिक्खातोविन गेएहइ । सुविहं पी विनिगिहुं, तम्हा उन नहिस्सेज्जाहि ।। वारिज्जती विगचिज्जा, पंथदोसे मे लभे । एवं दोषा ये मिथ्यात्वगमनादयः क्षेत्रविकष्टेभिहितास्त एष Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४१) उदेस भनिधानराजन्धः। उद्देस सविशेषा भावविकृष्टेऽपि सातव्याः केवल कोशखवर्जाः कोश- | हेतोस्तस्य दूरगतेऽपि क्षेत्रविकष्टेऽपि गुराषुद्देशनं भवति । लदोषा हि भावविकृष्टे न भवन्ति मृतत्वेनासंभवात्तस्मात् गीयपुराणोपटु, धारतो सततमुद्दिसंतं तु । द्विविधमपि व्यतिकृष्ट क्षेत्रविकृष्टं भावविकृष्ट च नोदिशेत् । अोसन नहिसद, पुचदिसंवा सयं धरए । अत्रैवापवादपदमाह । वितियं तिवणुरागा, संबंधी वा न ते य सीयति । चोजतो जो पुण, उज्जमिहिति तं पि नाम बंधति । सो सततं नदिसणा, शति जयणा खत्तवितिगिहो ।। इत्तरदिसाउ नयणं, अब्बाहाए य दूरम्मि ।। गीतो नाम सूत्रार्थनिष्पन्नः। पुराणः पश्चात्कृतश्चमणभावः स द्वितीयपदमपवादमधिकृत्य केत्रविकृष्टमपि नदिशेत् । यदि सा निष्कमितुकामोऽन्येषामाचार्याणामुपस्थितस्तस्य च पूर्वाचाधर्मग्राहिण्याचार्येतीवानुरागा नवत्स चाचार्यस्तस्याःसंबन्धि योऽवसनो विदेशस्यश्च स तं सततमेषाभिधारयति येषां च सस्वजनो न च ते प्राचार्याः संयमयोगेषु सीदन्ति उद्यतविहारि मीपे निष्कामितुमुपस्थितस्तान्प्रति उद्दिशति भणतीत्यर्थः । ण श्त्यर्थः केवसं तस्याश्त्वरा दिशोऽनुबन्धनीयाःयावसे स्वक मम स एषाचार्य इति तं गीतं पुराणमुपस्थितपूर्वमाचार्यप्राचार्यों न मिलति तावद्वयमाचार्या पते उपाध्याया श्यं प्रवर्ति मवसन्नमभिधारयन्तं वचसा तमेवोदिशन्तं च प्रति यस्य नीति ततः स्वाचार्यसमीपे विधिना नयनमन्याघातं च दूर ते आ समीपे निमितुमुपस्थितः स पूर्वाचार्यों विदेशस्थः योऽन्यचार्यास्ततः संदेशं कथयन्ति यथा युष्मदीयधर्मशिष्याऽस्माकं स्तस्य संबन्धी संविनस्तमुद्दिशति यथा स तवाचार्य इतिपाचे प्रतिपादीविका वर्तते सा प्रतिप्राया। अथवा स्वयं तेनात्मीयावसमा दिक् धारयितव्या न पुनः स तेजावविगिट्टे वि एमेव, समुज्जातोत्ति वा न वा । न तलोद्देशयितव्यः तस्याषसन्नत्वाचदि था तमप्यवसनतत्थ आसंकिए बंधो, निस्संके उन बज्छति ।। मुद्दिशति । केवलमनेन प्रकारेण । केनेत्यत आह (चोइज्जतो नावविकृष्टेऽप्येवमेव द्वितीयपदमवगन्तव्यमितिनावः कथमित्या- इत्यादि) यः पुनर्जायते चोद्यमानः शिष्यमाण उद्यस्यति संड। किं समुद्धातकामागतः किंवा मेत्येवं तस्मिन् भावविकृष्ट- विनो भविष्यति तमपि नाम ते प्राचार्या बनन्ति यथा ते ततस्या बन्धः क्रियते निःशक्तेि तु नावविरुष्ट सा न वध्यते ।। वाचार्य इति ॥ ये पुनर्शायन्ते न चोद्यमानाः संविना भविष्यभत्रैव प्रकारान्तरमाह। न्ति तेषु शेषेषु नोद्देशनमिति भजना । गतं क्षेत्रविकृष्टम् ।। अहवा तस्स सीसं तु, जति सा उसमुहिसे । संप्रति भावविकृष्टमाह । विकप्पटे तहिं खत्ते, जयणा जा न सा नवे ॥ एमेव य कालगते, आसन्ने तं च उदिसा गीयत्थो । अथवा यदि सा तस्य शिष्यं समुदिशति कथयति मम ते ए- पुनदिसधारणं वा, अगीयमुत्तूण कालगयं ॥ एवमेव अनेनैव प्रकारेण कालगते सस्य मलाचार्यों यदि वाचार्या अहं तु तविष्यसमीपे स्थास्यामीति तदा भावविक स्वयं गीतार्थों भवति तदा तस्ययेऽन्ये श्रासने प्राचार्यास्ते वा हेऽपि तस्या बन्धः क्रियते तत्र या विकृष्ट के यतनोक्ता सानापिन उद्दिशन्ति पूर्वदिशं वा धावति । अथ स स्वयमगीतार्थस्तपति कातव्या तदेवं निर्ग्रन्थीसूत्र व्याख्यातमधुना कप्पत्ति द्वारम् दा तस्य कालगतं मुक्त्वा शेषोऽन्य उद्दिश्यते इति । व्यद्वि. निग्गंयाण विविगिहो, दोसा ते चेव मात्तुकोसलयं । ७ उ०(व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायो नोद्देष्टव्य इति सज्झायमुत्तनिवातो निगए, संविग्गे य सेसश्त्तरिए । शब्दे) उद्देशफलमाह परः किमत्र पुनः कारणं यदुद्देशः क्रिनिर्ग्रन्थानामाप विकृष्ट बदिश्यमाने य एव निर्ग्रन्थीनां दोषा-| यते । अनुद्दिष्टं कस्मान्न पठ्यते तनाह । मिथ्यात्वादय सक्तास्त एव. कोशलकमेकंदो मुक्त्वा शेषाः बहुमाणविणयाउ-तताय नसतो गुणा हुति। सर्वे निरवशेषा अष्टव्याः । यद्येवं तर्हि सूत्रमनर्यकमविषयत्वा पढमाए सो ज सम्बो, एत्तो वुच्छ करणकालं ॥ दत माह "सूत्रनिपाताभिगते संविग्ने च शेष श्त्वरिका"श्यम उद्देशे हि क्रियमाणे श्रुतस्य श्रुताधारस्य बाध्यापकस्योपरि भावना । अनिगतो काततत्वः श्रारुः पुराणो वा सविनः स्व बहुमानमान्सरःप्रीतिविशेषो भवति विनयश्च प्रयुक्तः स्यादायुयं योऽपि तस्यधर्मदेशक आचार्यः सोऽपि संविम्नस्तस्मिन्सूत्र क्तता च महती प्रवति एते उद्देशतो गुणा भवन्ति एष सर्वोप्यनिपातो यस्तु शेषः स्वयंन सम्यक्झाततत्वस्तस्य पथि प्रजतो- लादिविषय उद्देशः प्रथमाद्देशः॥ व्य०७०॥ मिथ्यात्वादयो दोषास्तस्य दीकामाधाय इत्वरिको दिग्बन्धः क्रि (भाचाययेऽवसन्ने उद्देशविधिरवधावनं च मोहाषण शब्द यते पुनः प्रेप्यते एतदेव ब्याविख्यासुराद।। घदयते ) उद्---दिग-- अनुसंधाने, अन्वेषणे, सक्को पुराणो वा जइ, सिंगं घेत्तूण वयति अनत्थ । अन्निसाषे, उपदेशे धामाधारे घासपदेशे, ययोदेशसंहापरि. तस्स वि विगिट्ठबंधो, जा इच्छ ताव इत्तरिको ।। नाषम् । वाच। भाकर श्रावकः पुराणः पश्चात्कृतो बाशब्दो विकल्पने अधिगत उद्देसण-उद्देशन- न० अङ्गादौ पग्ने अधिकारित्वे, स्था०४ तत्वः स्वयं संविम्नो योअप तस्य धर्मग्राहक प्राचार्यः सोऽपि ग.३०। संघिग्नः स श्त्यजूतो यदि लिङ्गं गृहीत्वाऽन्यत्र केत्रविकपमूबा- उद्देसणकप्प-नद्देशनकस्प-पुं० वाचनासामाचार्याम् । चार्यसमीपे व्रजति तस्य विकृष्टये दिग्बन्धः कर्तव्यो यावश्च तत्र एसुवसंपदकप्पो, वोच्छं उद्देसकप्प महुणाओ। तिष्ठति तावत्तस्यात्मीय इत्वरिको दिग्बन्धः ।। उदिसणवायणनि य, पावणता चेव एगह ।। मिच्चत्तादीदोसा, जे वृत्ता ते उ गच्छतो तस्स। एगागिस्स वि न जबे, इति वृरगते वि गदसणा।। सुत्तत्थ तमुजयाई, पवायते ताव जाव संधाणं ।। य एव पूर्व मिथ्यात्वादयो दोषा उक्तास्तेऽपि तस्यैकाकि- बहुपञ्चवायपाए, वजह जाजयतु सधाण ॥ नोऽपि गच्छतो न भवन्ति शाततत्वत्वात्संविग्नत्वाच इति | संधाणमंतगमणं, असिवादी पचवादणेगविहा। Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस अभिधानराजेन्डः। उद्देस विजदे तोणिक्वित्ते, जोगे रुश्श्रो पणखेवा ॥ गया ते खिसिऊण पडिगया एरिसा पायरिया भिक्वं पि जदि कारणोण केण वि, णिक्वित्तो तो समक्खिव पुणो वि। से न कोई आणइ । अह अत्यंतो तेसिं धर्म कहतो ते पञ्च अहदप्पाणिक्खित्तो, तो णं उक्खिप्पती नुनो ॥ यंता वा सावगा वा हुंता अहा भड्या वा दाणसट्टा वा इंता पवयणउवग्गहकरा वाहुंता तेसिं चंदगवेज्झसरिसो भागमो उद्दिवम्मि य अंगे, सुयखंधाम्म य तहेव अज्जयणे । "जहा एगेण रमा अमञ्चेण य धम्मो सुओ ते य अक्खित्ता आसजपुरिसकरणं, तिहाणे होति पमिसेहा ॥ तोहिं गंतूण अंतेउरं कहियं जहा परिसा तारिसा य आयअंगादि उ दिडो पुरि-सं दखूण अपरिणामादी । रिया पच्छा विययदिवसे महादेवी अमचा य समागया अत्थति वसट्टरादिहि, अवर्णीया दीवणाऊणं ।। धम्मं निसामेति जाव भिक्खं गया पच्छा खिसिउं पडिगया ताप्रो वि य पब्वयंताओ चि सावियाओ वा हुंताओ एए ताहे णिक्खिप्पत्तीमु, तिठाणे जंतु जणितपडिसहो। दोसा । वाई वा आगो पुच्छर किं पायरिया केणइ सिटुं तं सुत्तमत्थतानए, एतसिं तिएह पमिसेहो ।। पं० जा। भिक्खाए गया पच्छा वाई भणइ किह सो अत्था ण जाणिश्याणि वाहणाकप्पो गाहा । हिइ जो दिवसं भिक्खं हिंडंतो अत्था अहवा परिस्संतो ति मुत्तमत्थतदुजयं, पुण मुत्तत्य तदुभयं वा । काऊण नीसडावेइ सो वि उव्याओ न तरह उत्तरं दाउं पच्छा ताव वाए जाव, संधाणं नाम जपथकं ॥ पवयोम्भावणया अह अच्छंदो पच्छा सत्थाणि चितंतो न किनिमित्तं न समाणे जण अर्क होज्जा । उच्यते बहुपश्चवा परवाइहेउणा वा निमित्तेण वा पराइणं तो पच्छा पवयणउबताए बिजट जोगे निक्खित्त भणियं हो जश्या य संवणा य म्भावणया कया हुँता गाहा “गणहारिस्सा हारों" गाहा "सिद्ध संवणा नाम पुरवि जो न सक्खेवो समाणणति वृत्तं हो जश उहिट्टम्मि ” उयंगसुयंगअज्झयेण उद्दिढे आसज्जणाम असिवाइ कारणेहिं निक्वित्तो जोगो तो से पुणो वि सारिज्जा। प्राप्य पुरिसं उद्दिसावेउं ताहे अत्थर अदरवदृरेहिं अहवा श्रअह दप्पण सकृयाए वा निक्खव ताहे नक्खिप्पड पुणो जो विणीश्रो वि गइपडिबद्धो वा अविश्रो स वि य पाहुडोत्ति गो अहाचार्यो किमर्थ भैकं न पर्यटति वैयावृत्त्यं वा न करोति एवमादि दोसा पच्छा नाया ताहे निक्खिप्पड जोगो तिट्ठाण उच्यते वाएपि ते पायरिओ जो हिंसर उएहकालं सीयकावं गागसुत्तत्थतदुभपसु पडिसेहो कारणो वा असिवाइमतिबासासु हिंमंतो वाण घेप्प सो वापसु चतो कवामाई - वाएज्जा एस वायणाकप्पो । पं० चू०॥ ग्घातो सुत्तत्यतदुभयाणं परिहाणी गच्छस्स सीसपमिच्छगाणं उद्देसणकाल-उद्देशनकाल-पुं० उद्देशसमुद्देशानुशानार्थ परगिन्माणा रोवणा य नएहकाझे वा पित्ताश्रोश्रो अश्यहुयं वा वन्दनकदानकायोत्सर्गत्रयसमयप्रसिद्ध क्रियाविशेषे, ध०३ पाणयं पीत उच्चाउन तर समुद्दिसिओ उवगरणं च पमिले- अधि० ॥ उद्देशनकाला यत्र श्रुतस्कन्धेऽध्ययने च यावन्त्यरतो वापण घेप्पेजा तत्थ वि सुत्तत्याश्परिहाणी गणालोए जहा ध्ययनानि उद्देशका वा तत्र तावन्त एव उद्देशनकाला उद्देशागोवानो गावीओ तिएिह वेनाओ पसोप पुग्वएहगम्भण्हा- वसराः श्रुतोपचाररूपाः इति । "छन्वीसं दसाकप्पववहाराणं वरणेसु तहा आयरिओ वि पुचएहे ताव आवासयसुत्तत्थमंत्री उद्देसणकाला पम्मत्ता"। सम। ते चैव दशाश्रुतस्कन्धस्य प गणामोयं करे । मज्कएहे समुहेसबलाए प्रवरएहे वि पुणो दशस्वध्ययनेषु दशसु च कल्पस्य षट्सु च व्यवहारस्योहशसज्कायवेझाए आवासप वा को आगयो प्राणागओ वा परीसहपराओ वा पिव मुगए वा पमित्रो तत्य नाहिंडर अत्यंतो केविति तैरविधिना गृहीतैः ध०३ अधि० । पविशतिसञ्चाणि जाक्कायकिलेसो य हिंमंतस्स पच्छा किलेसाभिन्नूओ रुद्देशनकाला दशाकल्पव्यवहाराणं तत्र गाथा "दस उद्देससुत्तस्थाणि चिंतिकणदेशन य नासे मढीपमाएं आधार श्त्यर्थः। णकाला, दसाण छञ्चेव हुंति कप्पस्स । दस चेव ववहारस्स, दब्यमढीए वश्च्ा परिम्गहिया सुहं जमंति जावमेढीए दसाकप्पस्स हुँति छब्बीसं"॥ प्रश्न० सं०५ द्वा। पायरिया मेढीभूया तम्मि य सवे सनियटुंति जाणंति य खुड्डियाएणं विमाणपविजत्तीए तइए वग्गे चत्तासीसं उद्देअत्यंता कांस्य हिमश गिहिनिसेज वा जो बाहेर तं जाणंति सणकाझा पम्मत्ता महालियाएणं विमाणपविजत्तीए तपए अत्यंता प्रकारए आयरिआणं हिंडताणं जं सरीरस्स अकारयं अंवक्ख समाश्नीणियं जा गएह समुहिसा य सरीरा वग्गे तेयात्रीस उदेसणकामा परमत्ता महालियाएणं विमापच्च गिलाणा दोसा अपमिसेहेश अकारिकमिति ताहे लोश्रो पपविजत्तीए चनत्थे वग्गे चोयाबीसं उद्देसणकाक्षा पप्पत्ता सहर । आयरिओ चेव अजिइंदिओ अंपिति निच्च किं पब्व- महानियाएणं विमाणपविजत्तीए पंचमे वग्गे पणयानीस श्यत्थ बालेण सुपण वा खज्जज्जा गिहाणारोवणासुत्ताश्परिहा उद्देसणकाला पहात्ता नवएहं बंजराणं एकाव उद्देसणणी गच्छविणासो य मणचिंता गणं न चितेइ हिंडंता वालवक्के गिलाणसेहपाहुण्याइवालवुका यन तरति दीहभिक्खा काझा पम्पत्ता ॥ यरियं हिंडिओ गिलाणस्स न कोइवावारि तो गेएहंतश्रो (बंभचेराणंति) आचाराः प्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां शवा अहवा वारेति गिलाणस्स गेरहह पाउग्गं ते य न गेरह- नपरिक्षादीनाम् । तत्र प्रथमे सप्तोद्देशका इति सप्तवोहेशनकाला ति अहवा जं वा तं वा आणेति ताहे जद भणति किं परिसं एवं द्वितीयादिषुक्रमेण षट् चत्वारः षट्सप्तैवमेकपञ्चाशदिति। गिलाणस्स नाणीय ताहे तेहि भण्हह केरिसाएहिं तुम्भे सयमे- अयारस्म णं सचूलियागस्स पंचासीय नद्देसणकाला पम्मत्ता। व हिंडंता किं लभह दीसंता तुम्भे पडिरूवा लाभीण एवं तत्राचारस्य प्रथमाङ्गस्य नवाध्ययनात्मकप्रथमधुतस्कन्धरूसेहपाहुणाणं पिन कोइ गेराहतो संदिसंतो वा जइ पुण पस्य (सचूलियागस्स इति) द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे अच्छंतो वालबुखादयो सब्वे चिंतंते गिलाणस्स पाहुण्याणं पञ्चचूलिकास्तासु च पश्चमी निशीथाख्येहन गृह्यते भिन्नप्रवा पाउग गेराहावेतो इकृित्ति इहिए य रायमत्तं दंडभडभो स्थानरूपत्वात्तस्यास्तदन्याश्चतस्रस्तासु च प्रथमद्वितीये सप्तइया वा आगया धम्म सुणेमो त्ति जाव आयरियं भिक्खं | सप्त्यध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थ्यां चैकैकाध्ययनात्मिके तदेवं Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४३) नद्देस श्राभिधानराजन्दः । जहेस सह चूलिकाभिर्वर्तत इति सचूलिकाकस्तस्य पञ्चाशीतिरु- पुनरुद्देशन पूर्व प्रागुक्त एव गमो नवति । अथवा तत्रते आदेशा देशनकाला भवन्तीति प्रत्यध्ययनमुद्देशनकालानामेतावत्सं- प्रकारा भवन्ति । ख्यत्वात्तथाहि प्रथमश्रुतस्कन्धे नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सन प- आयरिओवज्झाए, ओसम्मोहाविते विकारगते । दचत्वारश्चत्वारः षट् पञ्च अष्ट चत्वारः सप्त चेति द्वितीयधुत- ओसमे छबिहे खन, वत्तमवत्तस्स मग्गणया ॥ स्कन्धे तु प्रथमचूलिकायां सप्तस्वध्ययनेषु क्रमेण एकादश आचार्य उपाध्यायो वा अवसन्नः संजातः अवधावितो वा गृहअयस्त्रयः चतुर्यु द्वौ द्वौ द्वितीयायां सप्तकसराणि अध्ययना स्थीनूतः कालं गतो वा यद्यवसन्नस्ततः परुविधो भवेत न्येवं तृतीयैकाध्ययनामिका एवं चतुर्थ्यपोति सर्वमीलने पार्श्वस्थाऽवमग्नः कुशीयः संसक्तो नित्यवासी यथाच्छन्दश्चेति । पञ्चाशीतिरिति । सम०॥ यश्च तस्य शिष्य प्राचार्यपदयोग्यः स व्यक्तोऽव्यक्तो वा नवेत उद्देसणा-उद्देसना-स्त्री० वाचनायाम्, पाठने, पं० भा० । अ तत्रेयं मार्गणा। न्याचार्योपाध्यायोद्देशना ॥ वत्ते खल्ल गीयत्ये, अव्बत्ते वयण अहव अगीयत्थे । ( सूत्रम् ) निववृ य इच्छिज्जा अनं आयरियउबकायं वत्तिच्चसारपेच्छण, अहवा सो सयं गमणं ॥ विहरित्तए नो से कप्पद अणापुच्चित्ता आयरियं वा जाव अत्र चत्वारो नङ्गाः । तत्र पयसा व्यक्तः षोझशवार्षिकः श्रुतेन च गणावच्छेइयं वा आयरियउवज्कायं उदिसावित्तए कप्पड़ व्यक्तो गीतार्थः । एष प्रयमो नङ्गः। वयसा व्यक्तःश्रुतेनाव्यक्त एषोऽ से आपुच्चित्ता आयरिया जाव गणावच्छेश्यं वा अन्नं र्थतो द्वितीयः । श्रुतेन व्यक्तः वयसा अव्यक्तः । अयमर्थतस्तृतीयः अव्यत्त वयण अहव अगीयत्यत्ति चतयों नडो गृहीतः सचार्य आयरियनवज्कायं उदिसावित्तएते से विपरिजा एवं से कप्पड़ वयसाऽप्यव्यक्तः श्रुतेन चाव्यक्त इति । तत्र प्रथमभङ्गे द्विधाऽपि अन्नं आयरियनबज्मायं उद्दिसावित्तए नो से कप्पइ तेसिं व्यक्तस्य इच्छा अन्यमाचार्यमुद्दिशति तावत् तमासन्नीनूतमाचाकारणं अदावित्ता अन्नं आयरियउबकायं उदिसावित्तए र्य सारयितु साधुःसंघाटकं प्रेषयति । अथासन्नः स प्राचार्यस्ततः कप्पइ से तेसिं कारणं दीवितं अन्नं पायरियनवज्कायं स्वयमेव गत्वा नादयति नोदनायां चैवं कानपरिमाणम् ॥ उदिसावित्तए । एगाहपणगपक्रवे, चानम्मासोवरिस जत्य वा मिलइ । अस्य व्याख्या प्राग्वत् । नवरमन्यदाचार्योपाध्यायमुद्देशयितु- चोयइ चायवेइ वा, णेच्छते सयं तु वाओ ।। माचार्यश्रोपाध्यायश्चाचार्योपाध्यायं समाहारद्वन्द्वः । यद्वा आचा- एकाहं नाम दिने गच्छो नोदयति एकान्तरितं वा तथा पययुक्त उपाध्याय आचार्योपाध्यायःशाकपार्थिवत्वान्मध्यमपदसोपी चाहं पञ्चानां दिवसानामन्ते एवं पक्षे चातुर्मासे वर्षान्ते वा समासः आचार्योपाध्यायावित्यर्थः तावन्यानुदेशयितुमात्मन यत्र वा समवसरणादौ मिलति तत्र स्वयमेव नोदयति अपइच्छेत् ततो नो कल्पते अनापृच्छ्याचार्य वा यावरुणावच्छेदक रैर्वा स्वगच्छीयैनोंदनं कारयति यदि सर्वथापि नेच्छति ततः वा इत्यादि प्राग्वत् अष्टव्यम् तथात्वकल्पने तेषामाचार्यादीनां स्वयमेव तं गणं वापयति । कारणमदापयित्वा अनिवश्य अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्देशयितुमा- नदिस व अन्नदिन्नं, पयावहान संगहहाए । त्मना गुरुतया व्यवस्थापयितुमेष सूत्रार्थः ।। जइ णाम गारवेण वि. सुपजाणिच्छे सयं वा ।। अथ जाप्यम्। अथवा स उभयव्यक्तोऽन्यां दिशमपरमाचार्यमुद्दिशति । मुत्तम्मि कट्टियम्मि, आयरियनवज्काय उदिसा विति तश्च तस्यावसन्नाचार्यस्य प्रतापनार्थं न पुनर्गणस्य संग्रहोपतिएहच उहिसिका, णाणे खत देसाणचरित्ते । । ग्रहनिमित्तं स च तत्र गत्वा भणति । अहमन्यमाचार्यमुहिसूत्र सूत्रार्थे आकृष्टे उक्तम् । नियुक्तिविस्तर उच्यते । आचार्यो- शामि यदि यूयमितस्थानान्नोपरमध्ये ततः स चिन्तयेत् - पाध्यायमभिनवमुद्देशयन् त्रयाणामर्यायो दिशेत् । झानार्थ दर्श हो अमी मयि जीवत्यप्यपरमाचार्य प्रतिपद्यन्ते मुञ्चामि पानार्य चारित्रार्थ चेति ॥ वस्थतां यदि नामैवं गौरवेणापि पार्श्वस्थत्वं मुश्चेत्ततः सुन्दर नाणे महकप्पसुतं, मिस्सित्ते को पि उवगए । अथ सर्वथा नेच्छत्युपरन्तुं ततः स्वयमेव गच्छाधिपत्ये तितस्सदृ उद्दिसिज्जा, सा खत्रु सेच्छा ण जिणाणा ॥ प्ठति गतः प्रयमो भङ्गः । अथ द्वितीयपदमाह ॥ सुअवत्तो वयावत्तो, जणइ गणं तेन सारितुं सत्ता। झाने तावदभिधीयते । केषांचिदाचार्याणां कुले गणे बा महाकल्पश्रुतमस्ति तैश्च गणसंस्थितिः कृता योऽस्माकं शिष्यतया सारोहिं सगणमेवं, अम्मं च वयाम आयरिअं ॥ गन्नति तस्यैव महाकल्पश्रुतं देयं नान्यस्य तत्रोत्सर्गतो नो गन्त- यः श्रुतेन व्यक्तो वयसा पुनरव्यक्तः स स्वयं गच्छं वर्त्तापव्यम् यद्यन्यत्र नास्ति तदा तस्य महाकल्पश्रुतस्यार्याय तमाया यितुमसमर्थः ॥ ततः प्राचार्य भणति । अहमप्राप्तवयास्तेनचार्यमुद्दिशेत् । उद्दिश्य वाऽधीते तस्मिन् पूर्वाचार्याणामेवान्तिके त्वदीय गणं सारयितुं न शक्तः । अतः सारय स्वगणमेमं अहे गन्न तत्र तिष्ठत् । कुत इत्याह । सा खग्मु तेषामाचार्याणां पुनरम्यस्य शिष्यो भविष्यामि अथवा अहमेते चान्यमाचार्य स्वच्छा न जिनाझा नहि जिनरिदं नणितं शिप्यतयांपगतस्य वजामः उद्दिशामीत्यर्थः॥ श्रुतं दातव्यमिति ॥ आयरियउवज्जायं, निच्छंने अप्पणा य असमत्थे । ___ अय दर्शनार्थमाह विज्जामंतनिमित्ते, हेऊ सत्तट्ठमणट्ठाए । तिगसंवच्चरपळू, कुलगणमंधे दिसाबंधो । एवं भणित प्राचार्य उपाध्यायो वा यदि नेच्छति संयमे स्थातुं चरितह पुन्चगमा, अहव इमे हुंति आएमा ।। सचात्मना गणं वर्तापयितुमसमर्थः । ततः कुले सत्कमाचाविद्यामन्त्रनिमित्तार्य हेतुशास्त्राणां च गोविन्दनियुक्तिप्रनृतीना- र्यमुपाध्यायं वा उद्दिशति । तत्र त्रीणि वर्षाणि तिष्ठति तमा- मथाय यद्यन्य आचार्य उद्दिश्यते तद्दर्शनार्य गन्तव्यं चारित्रार्थ । चार्य सारयति ततः त्रयाणां परमः स चिन्तादिकं कुलाचार्यो Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४४ ) अभिधान राजेन्ऊः । उद्देस हरतीति कृत्वा महाचार्यमुद्दिशति तत्र संवत्सरं स्थित्वा सं घाचार्यस्य दिग्बन्धं प्रतिपद्य वर्षार्द्ध परमासान् तत्र तिष्ठति । कुलगणाच्च संघ संक्रामन्नाचार्यमिदं भणति । सच्चित्तादिहरंता, कुलपिच्छाम जं कुलं तुज्छ । चामो गणं, संघं च तुमं जड़ न वयसि ।। यत् त्वदीयं कुलं त्वदीया श्राचार्या श्रस्माकं वर्षत्रयादूर्ध्वं सचित्तादिकं हरन्ति श्रतः कुलमपि नेच्छामो यदि विदानीमपि न तिष्ठति ततो वयमन्यगणं संघ वा व्रजामः ॥ एवं पि श्रीयंते, नाच अपंचमे वरि से। संजमे व धारणं, अनुलोमेणं च सारे || पञ्चमे वर्षे पूर्वाचार्यो नोदनाभिः प्रतापितोऽपि यदि न तिष्ठति तत एतावता कालेन स श्रुतव्यक्तो वयमपि व्यक्ता जाता इति कृत्वा स्वयमेव गं धारयति । यत्र च पूचाचार्य पश्यति तत्रानुलोमचचनेस्तथैव सारयति । अब जइ अत्यि येरा, सत्तापरिकट्टिण तं गच्छं । हा वत्तसरिसस, तस्स उ गमो मुणेयव्वो । अथवा यदि तस्य श्रुतव्यक्तस्य स्थविरस्तं गच्छं परिवर्तयितुं शक्तस्ततः कुंगण से नोपतिष्ठत किन्तु स स्वयं सुत्रार्थी शिष्याणां ददाति । स्यविरास्तु गच्छं परिवर्तयन्ति एवं द्विधा व्यक्तसादृश्यस्यास्य गमो ज्ञातःशे भवति गतो द्वितीयनङ्गः । अथ तृतीयं जङ्गमाह । चओ जड़ थेरा तस्य केइ गीयत्था । ते मंतिए पढतो, चोए‍ अस अपत्य ॥ यो वयसा व्यक्तः परमगीतार्यस्तस्य गच्छे च यदि केsपि स्थविरा गीतार्याः सन्ति ततस्तेषां स्थविराणामन्तिके पठन गच्छ मपि परिवर्तयति श्रवसन्नाचार्य चान्तरतो नोदयति तेषां गीतार्थस्पविराणामनाये गणं गृहीत्या अम्योपसम्पद्यते गतस्तृतीयो नङ्गः । अथ चतुर्थभङ्गमाद । जो पुण उभय वत्तो, बचाव असइ मो उद्दिलाई । सच्चे वि उद्दिसंता, मोत्तृणं उद्दिसंांति इमे ॥ यः पुनरुभयथा श्रुतेन वयसा वा व्यक्तस्तस्य यदि स्थविरा: पारयितारो विद्यन्ते । अपरे च गच्छवर्त्तापकास्ततोऽसावपि ना. न्यमुद्दिशति । स्थविरानामनाचे स नियमादन्यमुसि उप मचतुष्टयवर्तिनोऽन्यमाचार्यमुद्दिशतोऽमूद या डाई शन्ति तद्यथा । त्वं यग्गिं खघु तब गीयत्वं । अग्गमपत्यं दिसमास्स चतुगुरुगा ॥ संविग्नम | तार्यमसंविग्न गीतार्थमसंविग्नमगीताये चेति श्रप्याचार्यदिशा पतंग वाक कालेन तपसा जयेन कर्तव्याः । अथैयं प्रायश्विन्तरुिमाद सतर तो हो ओ ओ पहा । तेरी आए, तो मूलं तो गं ॥ एतानयोग्यानुद्दिशतो वर्तमानस्य प्रथमं सप्तरात्रं चतुर्गुरु, द्वितीयं सप्तरात्रं षट्लघु तृतीयं षरुगुरु, चतुर्थे चतुर्गुरुकच्छेदः । पञ्चमं पलघुकः षष्ठं पगुरुकस्तत एकदिवसे मूत्रं द्वितीये अनवस्थाप्यं तृतीये पाराञ्चिकम् । अथवा पट्गुरुक तपोऽनन्तरं प्रथमत एव सप्तरात्रं परुकच्छेदस्ततो मानवस्याप्यपाराचि कानि प्राग्वत् । या तपोऽनन्तरं पञ्चकादिच्छेदः सप्तसप्तदिना उस नि भवन्ति तेषां प्रायश्चित्तं विज्ञान संविना गीतार्थः उदेश्यः । तत्रापि विशेषमाह । विरहियं वा संचिग्गं वा वि वयइ गीयत्वं । चउरो य घाया, तत्य वि आणाइणो दोसा ॥ षभिः स्थानैर्वक्ष्यमाणैर्विरहितमपि संविग्नं गीतार्थे यदि स दोषकाधिकादिसहितं न यदति भाचार्ययेन दिशति तदा च स्वारोऽनुयातास्तत्राप्याहादयो दोषाः श्वमेव व्याय ॥ डाणानोशियां तस्य रहिपकाइया ता चहरो । उदिमाणी ब्राणगपान ने दोसा ।। " स्थानानि नाम पार्श्वस्थः श्रवसन्नः कुशीलः संसक्तो यथाछन्दो निवासी चेति एतैः पतिर्विहितो ये कचिकादयः कविकप्राधिकनामाक सप्रसार काण्याचे वारस्तानदिशतस्त एव दोषा ये षट्स्थानेषु पार्श्वस्यादिषु गतानां प्रविष्टानां नवन्ति । एष सर्वोऽप्यवसन्ने आचार्ये विधिरुक्तः । अथाबधावितकालगतयोर्विधिमाह ॥ प्रहारियालगते, जो अन्यतो स उरिसावो । असे तिमि या शियमा पुरा संगहडाए | अवधात्रि कालगते वा गुरौ त्रिविधेऽपि प्रथमनङ्गवर्जे भङ्गयेsपि योऽव्यक्तः स यदा इत्थं नवति तदा श्रन्यमाचार्यमुद्देशयति अथवा त्रिविधेऽपि कुत्रसत्के गणसत्के संघसत्केवाचा योपाध्याये आत्मना उद्देशं कारयति स चाव्यक्तत्वानियमात् संग्रहोपग्रहादिति आचार्य गुरीतमय वायदा परंप तदेत्थं प्रणति । ओहाविय ओमने, जड़ प्रणाहो वयं विणा तुज्छे । कमसासमसागरिए, दुष्परिगततो लिएहं ॥ श्रवधावितस्यावसन्नस्य वा गुरोः क्रमयोः शीर्षे सागारिके प्रदे शे कृत्वा भणति नगवन् श्रनाथा वयं युष्मान् विना अतः प्रसी द नूयः संयमे स्थित्वा समाधीकुरु निम्नकल्पान्नस्मान् । शिष्यः पृच्छति तस्य गृहीतस्याचारित्रस्य वा चरणयोः कथं शिरोविधीयते गुरुराह - दुष्प्रतिकरं दुःखेन प्रतिकर्तुं शक्यं यतस्त्रयाणां तथा मातापित्रोः स्वामिनो धर्माचार्यस्य च यदुक्तं " तिएढं दुष्पआिरं समासो अम्मापस्स भहिस्स धम्मायग्यिरस य इत्याद । तत एवमवसन्नेऽवधाविते वा गुरौ विनयो विधीयते । किञ्च । " जो जेण जम्मि वाणम्मि, ठावित्र्यो दंसणे व चरणे वा । सोतं तओ वृत्तंत-म्मिवि, काउं जवे निरणो ॥ यो येनाचार्यादिना यस्मिन् स्थापितस्तद्यथा दर्शने वा परो या शिष्यस्तं गर्ह ततो दर्शनाद्वाच्यते तदचरमेवा स शिष्यस्तं गुरुं कृत्वा स्थापयित्वा अनृण ऋणमुक्तो भवति । कृतप्रत्युपकार इत्यर्थः । अथ "कप्पर तेसि कारणं दीविता इत्यादि " सत्रावयवं व्याचष्टे । निस्सु विदीवियकज्जा, विमज्जिता जइ अ तत्थ तं एत्थ । णिक्विव वर्षति दुवे, निक्खुकिंदाणि निक्विवत ॥ त्रिप्यपि दनवारियां दीपिका पूर्वोक्तविधिना निवेदितः प्रयोजनेन गुरुणा विसर्जिता गच्छन्ति । यदि च तत्र गच्छे तदवसन्नादिकं कारणं नास्ति तत पायति । (सूत्रम्) गावच्छेदपछि अपरिपकार्य Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (284) अभिधानराजेन्द्रः । देणा उदिसात्तिए नो से कप्पर गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अनं आयरियनबज्जायं उद्दिसावित्तए कप्पड़ से गणावच्छेइय शिविश्ववित्ता अां आयरियायं हिसाविच नो से कप्पइ अापुच्छिता आयरियं वा जाव गणात्रच्छेद वा २ उदिसाविच कप्प से आपुच्छिता जाव उदिसाविनए नो से कपास कारणं भविता अनं आवरायं उदिसावित्तए कप्पड़ से तेसिं कारणं दीवित्तानं जाव उदिसाविचर कप्पर आपरियउपाए व इच्छेशा प्रां आपरिवार्य हरिसावेजय । नो से कप आय रियजयज्काए तं अनिविस्वचिचा अर्थ परियार्थ उदिसावर कप्पर आपरियडवाइस निविखवित्ता प्र रिया उरिसाविचर शो से कप्पति अणापुच्छिता परियं वा जाव गणावच्छेदना आयरियवज्जायं उदिमात्रेनए कप्पति से पुच्छित्ता आयरिये वाजा गावच्छेदयं वा आपरियडकायं उद्दिसावेत्त यतं से वितरंति एवं से कप्पति एवं नो से कप्पा विहरिए तेसिं कारणं दीयेाभायरियलबज्जायं उद्दिसावित्तए कप्पर तेसिं कारणं दीचित्ता जाव उदिसात्तिएँ || सूत्रद्वयव्याख्या प्राम्वत् अथ भाष्यम् “निक्खिवयवयांत जुने इत्यादिपा ही गणाच्छेद की आचार्य उपाध्याय धागणाबच्छेदित्वमाचार्थत्वमुपान्यायत्वं निशिष्य जन्तु वस्तु भिक्षुः स किमिदानीं निपितु गणानावान्न किमपि तस्य निक्केपण। यमस्ति तस्य निशेषणं नोमिति प्रायः अथ नवाको निकेपणविधिमाह ॥ एहडाए एहवि, णिक्खिवणं होइ उज्जमंतेसु ! सीने व सगाणा व मां ते पिशामना ॥ द्वयोनिदर्शनयोरर्याय गतयोर्द्वयोरपि गावच्छेदकाचार्ययोः स्वगणस्य निक्षेपणं ये उद्यच्छन्तः संविग्ना आचार्यास्तेषु नवति अय सीदन्तस्त ततस्तं स्वगणं त्या मशन्ति न पुनस्तेषा मन्तिकं नितिपन्ति । कुत इत्याह मा ते शिष्यास्तत्र मुक्ताः सन्तो विनश्येयुः मेय नावयति ॥ वचम्मि जो गमो खलु, गणबच्चे सो गयो उ प्रायरिया | निचिता जमुनि सम्म ते पच्छा ॥ यो गम उपाय निकायुक्तः स एव गणावच्छेदकं प्रायायें वमन्तव्यः । नवरं गणनिक्षेपं कृत्वा तावात्मद्वितीयावात्मतृतीयो वा वर्त्तते ततः स्वगच्छे एव यः संविग्नो गीतार्थः भाचायादिस्तत्रा रमीयसाधुनिक्किपति। श्रथासंविग्नस्य पार्श्वे निक्किपति ततस्ते साध वः परित्यक्ता मन्तव्याः तस्मान्न निक्केपणीयाः किन्तु येन केन प्रकारेणात्मना सह नेतव्यास्ततोऽयमाचार्यः सगावच्छेदक श्राचार्यो पधिमुद्दिशति तस्मिन् सान् आत्मसाधन पश्चान्निपिति । यथा युष्माकं शिष्यस्तथा मे युष्मदीयाः शिष्या ति भावः । इदमेवाढ | जह अप्पगं तहा ते, ते ण य हृप्यंत तेण येतव्या । अपने गिल्डर संघाई मुनु सब्बे वा । उदेसिय यथा आत्मानं तथा तानपि साधून्निवेदयति तेनाप्याचार्येण प्रमा शेषु साधु से प्रतीकाचार्थसाधयो न प्रीत तस्यैव तान् प्रत्यर्पयति । श्रथ वास्तव्याचार्यस्य साधवो न पूर्यन्ते ततः एकसंघाटकं तस्य प्रयच्छति तं युक्त्वा शेषानात्मना गृह्णाति । श्रथ वास्तव्याचार्यः सर्ववासदायस्ततः सर्वानपि गृहाति ॥ सुह असुहस्स वि तेण वि, बेयावच्चाइसव्त्रकायव्वं । तेनेसि प्रणाए सा, वावारेजं न कप्पंति । सेनापि प्रतीकावादिना तस्याचार्यस्य सहिष्णोरसहिष्ण र्या वैयावृत्यादिकं सर्वमपि कर्त्तव्यं तेऽपि साधयस्तेषामाचार्या णामादेशानन्तरेण व्यापारयितुं न कल्पन्ते । वृ०४ य ॥ सोसिप (उ) प्रदेशिक- १० उद्देशानमुद्देशः यावदर्शिकादिर्माणिधानमित्युस्मदोषस्तेनोमेन नियोजनबदेशि कम द्वितीयमदोषष्ठे मादी, दोपचारात द्वितीयो म दोषे च । पंचा० १३ विव० । पिं० प्र० । ६० । स्था० । अस्य निकिया उदेसि साहुमाई, प्रोमच तिक्खुविप्ररणं जं च । उमरियं पीसेहत उद्देसि तं तु ॥ ४४ ॥ उदय वाचा साध्यादी सिगंन्यशास्याद। नयमात्यये दुर्भि छापगमे निशांति नृतादीनां पत उद्विदेशिकम मिश्रयित्वा व्यजनादिना वितरणं तत्देशिकं यश्च तप्त्वागुमादिना मोदकचूरीबन्धवितरणं तत्कर्मोंदेशिकमित्येवं चेतसि निधाय सामान्येनापसंरादेशिक संदे तत् तुशब्दः स्वगतनेदविशेषणार्थ इति गाथार्थः । पं० ० साधुपागे सति यद्दिश्य कृत्वा दयते तदीदेशिकम २४ अ० । आधाकर्मिके, कल्प० । यत्पूर्वमेव सरमूचूर्णकादि वाद्दिश्य पुनरपि संततगुरुरादिना संस्क्रियते। श्राचा० २ ० २ अ० । " उद्देसियं तु कम्मं एत्थं हिस्स की रण जंति " पंचा० १७ विव० । श्रर्थिनः पाखण्मिनः श्रमरान्वोद्दिश्यात्यादी यज्ञ के चिती येते तीदेशिकमिति स्था०रा. तापा तथा समासतो द्विधा भवति । विध्यमाह ॥ आहे विजांगे उडवणं तु वासपविजागे । उद्द्रुिकमेकम्मे, एकेके पकओ नेओ ।। विधमौदेशिकं तद्यथा श्रोधेन विज्ञागेन च । तत्र भोघः सामाम्यं विभागः पृथक् करणम् । श्यं चात्र भावना नादत्तमिह किमपि लभ्यते ततः कतिपयां भिकां दद्म इति बुद्ध्या कतिपयाधिकतन्डुलादिप्रकेपेण यनिर्वर्तमशनादि तदोघोदेशिकम् श्रघेन सामान्येन स्वपपृथगविनागकरणाभावरूपेोमेोदेशकमिति व्युत्पत्तंस्तथा विवाह प्रकरणादिषु यदुरितं तत् पृथक कृत्वा दानाय कल्पितं सद्विनागौदेशिकं विभागेन स्वसत्ताया उ पृथककरणेशिक विभागदेशिकमिति व्युत्पत घविषयमाद्देशिकं तत्स्याप्यं नात्र व्याख्येयं किं त्वग्रे व्याख्यास्य इति भावः । यत्तु विभागविषयं तद् ( वासति ) सूचनात्सूत्रमिति न्यायादू द्वादशप्रकारम्। द्वादशप्रकारतामेव सामान्यतः कथयति (द) प्रथम विदेशिकम्। तद्यथा उदि कृतं कर्म च तत्र स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं निशाचराणादानाय पृथक कल्पितं तरिएम् यत् पुनररितं स्यादनादि निक्कादानाय करम्यादिरूपतया जातं तत्कृतमित्युच्यते । यत्पुनदोऽपि गुरुतादिदादिद Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८४६) उद्देसिय अभिधानराजेन्द्रः। उद्देसिय ते । एकैकस्मिश्च उद्दिष्यादिकनेदे चतुष्कको वक्ष्यमाणश्चतुःसंख्या रह साधुर्गोचरी गतो भिकार्य प्रविष्टः सन् शम्दादिषु शब्दरू दो भवति । त्रयश्चतुर्निर्गुणिता द्वादश ततो विभागोहेशिकं | परसादिषु मच्छी न कुर्यात् कित्येषणायुक्त उमादिदोषगवेषणाद्वादशधा । संप्रत्योघोडशिकस्य पूर्वस्थापिततया मुक्तस्य प्रथम- भियुक्तो भवेत् यथा गोवत्सो (गवत्ति) गोजक्त श्व । गावतः संभवमाह॥ सदृष्टान्तमेव गाथायेन जावयति । जीवाम कहवि उमे, निययं निक्वाविता कदमोहे। । ऊसवमंगणवग्गा, न पाणियं वच्चए न वा वारो । दिन नस्थि अदिनं नु-जा अकयं न य फले ॥ वणियागमअवरहे, वच्छगरमणं खरंटणया ॥ इह निक्कानन्तरं कचिद् गृहस्या एवं चिन्तयन्ति । कयमपि पंचविह विसयसोक्खे, खणी बहू समाहियं गिहं तं तु। महता कष्टेन जीविता अवमर्भिकं ततो नियतं प्रतिदिवसं निकां न गणेश गोणिवचा, मुच्चियगढिोगवत्तम्मि ॥ दयो यतो हु निश्चितं हन्दीति स्वसंबोधने नास्त्येतत्यपुत जवा गुणामयं नाम नगरं तत्र सागरदत्तो नाम श्रेष्ठी तस्य भार्या स्तर अदत्तमिह जन्मनि तुज्यते नापीह जब अकृतं शुनं कर्म श्रीमती नाम भेष्ठिना च पूर्वतरं जीर्णमन्दिरं जत्वा प्रधानतरं परत्नाके फलात । तस्मात्परलोकाय कतिपयभिक्काप्रदानेन गुन्नं मन्दिर कारयामासे । तस्य चत्वारस्तनयास्तद्यथा गुणचन्झो गुकोपार्जनीयमित्यहिशिकसंजयः ।। णसेनो गुणधमो गुणशेखरन । एतेषां च तनयानां क्रमेण चतर संप्रत्योघोद्दशिकस्वरूपं कथयति ॥ श्मा ववस्तया प्रियङ्ग-नतिका प्रियंगुरुचिका प्रियंगुसुन्दरी प्रिसा उ अविसेसियम्मेव, जत्तम्मि तंमुझे बुह। यंगुसारिकाच। कालेन च गच्छता श्रेष्टिनो भार्या मरणमुपजगाम । ततः श्रष्टिना प्रिय गलतिकैव सर्वगृहसंजारे समारोपिता गृहे च पासंमीण गिहीण व, जो एहि इयस्स लिक्खट्ठा । सवत्सा गौर्विद्यते तत्र गौर्दिवस बहिर्गत्वा चरति वत्सस्तु गृह सा तु गृहनायिका योषित्प्रतिदिवसं यावत्प्रमाणं भक्तं पच्यते पव बद्धोऽचतिष्ठते । तस्मै चारि पानीयं च चतस्रोऽपि वश्वा तावत्प्रमाण एव जक्ते पक्तुमारज्यमाणे पाखएिमनां गृहिणां वा यथायोगं प्रयच्छन्ति । अन्यदाच गुणचन्द्रप्रियंगुवतिकापुत्रस्य मध्य यः कोऽपि समागमिष्यति तस्य निकाय निक्कादानार्थम गुणसागरस्य विवाह दिवस उपतस्थे । ततस्ताः सर्वा अपि वविशषितमेव । स्वार्थमेतावदतावश्च निक्कादानार्थमित्येवं विना ध्वस्तस्मिन् दिने सविशेषमाजरणविजृषिताः स्वपरमएमनादिगरहितमेव तन्मानधिकतरान् प्रतिपति पतदप्यौदेशिकम् । अत्र परस्य पूर्वपक्वमाशयोत्तरमाह । करणव्यापृता अनुवन् । ततो वत्सस्तासां विस्मृतिं गतो न का चिदपि तस्मै पानीयादि दौकितवती । ततो मध्याह्न श्रेष्ठी यत्र उनमत्थो उद्देस, कहं वियाणा चोइए य जणइ । प्रदेश वत्सा वर्तते तत्र कथमपि समायातःवत्सोऽपि च श्रेष्टिननवउत्तो गुरु एवं, गिहत्थसद्दाइ नेट्टाए । मायान्तं पश्यन्नारटितुमारब्धवान् ततो जरे श्रेष्टिना यथापि ग्यस्था केवली कथमोघौहशिकं पाक्तस्वरूपं विजानाति । वत्सो बुझुक्कितस्तिपतीति । ततः कुपितेन तेन ताः सर्वा श्राप नावं आस्थेन कातुं शक्यते यया स्वार्थमारज्यमाणे पाक नि- पुत्रवध्वो निर्भत्सयामासिर ततस्त्वरितं प्रियंगुलतिका अन्या च कादानाय कतिपयतन्दुलपक्केप आसीदिति । एवं नादिते प्रेरणे यथायोगं चारि पानीयं च गृहीत्वा वत्साभिमुख चचाल वत्सश्च कृते गुरुर्जणति । एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण गृहस्यशब्दादिचेष्टाया- ताभिः सुरसुन्दरीभिरिव समलंकृतमापि तादृशं गृहं नावलांकते मुपयुक्तो दत्तावधानो जानानीति । एतदेव जावयति । नापि ताः सरागरण्या परिजावयाति । किंततामय चारि पानीयं देना न ताउ पंच वि, रेहा न करेइ देव गणंती। वा समानीयमानं सम्यक्परिभावयति । सूत्रं सुगमं नवरं ( पंच देह उ मा यइओ, अवणेहय एत्तिया निक्खा ॥ विहेत्यादि) पञ्चविधविषयसौख्यस्य खनय श्व खनयो या वध्वयदि नाम भिक्कादानसंकल्पतः प्रथमत एवाधिकतन्दुबप्रक्केपः स्ताभिः समधिकमतिशयेन रमणीयतया अधिकतरं तद्गृहं न कृती नवेत्तर्हि प्राय एवं गृहस्थानां चशाविशेषा नवेयुः यथा गणयति न दृष्ट्वा परिभावयति नापि तावधरवं साधुरपि निक्कार्यदत्तास्ताः पश्चापि निकाः । श्यमत्र नावना । कोऽपि गृहे भिक्का- मटन रमणी नावलोकयेत् नापि गीतादिषु चित्तं बनीयात्थं प्रविष्टाय साधव तत्स्वामी निजन्नार्यया निकांदापयति सा किंतु निकामात्रानयनादानाद्युपयुक्तो नवेत् । तथा च सति च साधौ शृण्वति एवेत्यं प्रत्युत्तरं ददाति । यथा ताः प्रतिदि-- जानाति गुरुमशुरू वा जक्तादिकम् तयाचाह । वसं संकल्पिताः पश्चापि निका अन्यनिक्काचरेत्यो दत्ता इति । गमणागमणुक्खेवे, जासियसोयाइदियानत्तो। यद्वा निकां ददन्ती दत्तनिक्कापरिगणनाय निस्यादिष रेखां करो- एसणमणेसणे वा, तह जाण तम्मणो समाणो । ति । अथवा प्रथमेयं भिक्का हितीययं निवत्येवं गणनाय ददाति गमनं साधोर्भिक्षादानार्थ भिक्षानयनाय दाच्या वजनम् श्रा. यदि वा काचित कस्या अपि सन्मुखमेवं भणति यथा अस्मा गमनं भिक्षा गृहीत्वा साधोरभिमुखं चलनम् । उत्क्षेपो भाजदिएनक्त.सकपिटकादेमच्या डि मा इत ति । अथवा प्रथमतः नादीनामूर्द्धमुत्पाटनमुपलक्षणमेतत्तेन निक्षेपपरिग्रहस्ततो गसाधीवियक्तिगृहे निक्वार्थ प्रविष्काचित् कस्याः संमुखमयमाह मनादिपदानां समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् । तथा भाषितषु जअपनय पृथक् कुरु विवक्वितास्थानादेतायती भिक्कां भिक्काचर ल्पितेषु देहि भिक्षामस्मै साधव इत्यादिरूपेषु श्रोत्रादिभिरिज्यो दानायेति । तत एवमुज्ञापश्रवणरेखाकर्षणादिदर्शननैव न्द्रियरुपयुक्तस्तथा वत्स इव तन्मनाःस्वयोग्यभक्तपानाय परिस्थेनाप्यौदेशिकं ज्ञातुं शक्यते ज्ञात्वा च परिह्रियते । तता न भावनमनाः सन् श्रमण एषणामनेषणां वा सम्यग्जानाति तकश्चिहोषः अत्र चायं वृक्षसंप्रदायः । संकल्पितासु दत्तासु पृथ. तो न कश्चिद्दोषः । उनमोघौद्देशिकम् । सर्पति विभागादेशिक गुरुतासु वा शेषमशनादिकंकल्प्यमवसेयमिति इहपयुक्तः सन् विभाणिषुः प्रथमतस्तावत्तस्य संभवमाह ॥ गुऊमरू वा आहारं ज्ञातुं शक्नोति । तानुपयुक्तस्ततो गोचर्रावव्यां समान्यत उपयुक्ततां प्रतिपादयति ॥ महईए मखमाए, नबरियं कूरवंजणाईयं । सहाइएसु माहू मच्छ न कारज गोयरगा य । पउरं दद्रुण गिही, जाइ इमं देहपुन्नट्ठा ॥ एसजुत्तो होजा, गोणीवच्छो गवत्तव्य ।। इह संखडि नाम विवाहादिकप्रकरणं संखएड्यन्ते व्यापा Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४७) उहेसिय अभिधानराजेन्षः। उद्देसिय (साहणाति ) कथनं करोति वाशब्दो यदि साधवो बहुप्रमाणा- चेहदाति तर्हि तन्त्र कल्पते कमौद्देशिकत्वात् । श्रारात् भूयः स्तत एकस्यावस्थानमिति सूचनार्थ स सर्वेच्या निवेदयति य- पाकारम्भादर्धाक् पुनः कल्प्यं दोषाभावात् । तथा क्षेत्रेऽन्तर्वयात्राास्मिन् गृहेऽवाजिषुरनेषणा वर्तत इति । एवमपि यैः संघा- हिर्वा काले स्वस्तनं परतरदिनभवं वा अकल्ल्यमारतः कल्प्यम् । टकैः कथमपि न कातं नवति तेषां परिहानायायमाह। इयमत्र भावना । यदू गृहस्यान्तर्बहिर्वा मोदकचूर्णादिकं मोद मा एयं देह इम, पुढे सिहम्मि तं परिहरति । कादितया उपस्करिष्यामि कालविवक्षायां यदद्य स्वः परतरे जं दिवं तं दिवं, संपइ देहि गिएहति ॥ वा दिने भूयोऽपि पक्ष्यामि ततुभ्यं दास्यामीत्युक्ते तथैव चेत् कृत्वा ददाति ततो न कल्पते भूयोऽपि पाकादारतस्त्वसंसक्तं साधुनिमित्तं कुतोऽपि स्थानाद् निकामाददती कयाचिन्निषि कल्पते । तथा चाह॥ भ्यते मा एतद्देहि किंचिदविवक्तिनाजनस्थं देहि तत एवं कृते निषेधिते साधुः पृच्छति किमेतनिधिभ्यते किं वा इदं दाप्यते जं जह व कयं दाहं, तं कप्पा पारो तहा अकयं । शति ततःसा प्राह । इदमेय दानाय कल्पितम् नेदमिति तत कय पाकमाणहत्त-ट्ठियं विजावत्ति यं मोतं ॥ एवं शिष्टे कथिते साधवस्तत्परिहरन्ति । यदि पुनर्यहत्तं तद्दन यत्सामान्यतो द्रव्यं यद्वा यथा क्षेत्रनिरिपेन वा भूयोऽपि मा शेष संप्रति दद्यादिति निषिध्यात्मार्थीकृतमौद्देशिकं भवति कृतं दास्यामीत्युक्त तथैव कृत चेद्ददाति तदा न कल्पते तथा तदा तत्कल्पते इति कृत्वा गृहन्ति तदेवमुक्तमुदियौदेशिकम् । प्रकृतं तु भूयोऽपि पाकादारतः कल्पते । यत्तु निर्धारितक्षेत्रसंप्रति कृतौदेशिकस्य संनवहेतून स्वरूपं च प्रतिपादयति । कालव्यतिकरण पच्यते तन्न दातुं संकल्पितमिति कल्पते यनु क्षेने कालनिर्धारणमविवक्षिते च सामान्यतो भूयोऽपि परसन्नायणहे वा, मा कुच्छीहिं इमा सुहं च दाहोमि । क्त्वा दास्यामीति संकल्पितं तदन्तर्वहिर्वा स्वस्तने परतरदिने दहिमाई प्रायत्तं, करे कृम कम एयं ॥ वा न कल्पते । अथ कर्मीहे शिकं कृतपाकमात्मा कृतमपि मा कोहिति अवन्न, परिकट्टम्मि यं व दिज सुहं तु।। यावदर्थिकं मुक्त्वा शेषमनिष्टं नानुनातं तीर्थकरगणधरैर्यायवियमेण फालिएण व, मिटेण समं तु वटुंति ॥ दर्थिकं त्वात्मार्थीकृतं कल्पते । अथ श्राधाकर्मकादेशिकयोः रसेन दध्यादिना रुकमिदं नाजनं तस्मादेतेन दध्यादिना यदु परस्परं प्रतिविशेष उच्यते । यत्प्रथमत एव साध्वर्थ निष्पाद्वरितं शाल्योदनादि तत् करम्बी कृत्य इदं नाजनं करोमि येना-- दितं तदाधाकर्म यत् पुनाराद्धं सद् भूयोऽपि पाककरणेन न्यत्प्रयोजनमनेन क्रियते इति । रसनाजनहेतोर्या दं व्या- संस्क्रियतेतत् कर्मीहशिकमिति । उक्तमौद्देशिकद्वारम् ॥पि दिना अमिश्रितं कथिष्यते । न च क्वचितं पाप एड्यादिन्यो दातुं दर्श । नि०चू० । प्रव०। पंचा० । ग०ध०। जीत०। व्यः । शक्यते। यद्वादभ्यादि सन्मिश्रम केनैव प्रयासेन सुखं दीयत इत्या- असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। दिना कारणजातेन च्याद्यायत्तं दध्यादिसन्मिभं करोति कर जं जाणिज्न मुणिज्जा वा, दाणट्ठा पगर्म इमं ।। ४७॥ म्बौदनम् । एतत् कृतं ज्ञातव्यम् । तथा यदि भिन्न भिन्न मोदका अशनं पानकं वापि खायं स्वाद्यमशनमोदनादि पानकं वारनाशोकवादिचूर्ण दास्यामि तता में पाषण्ज्यादयोऽवर्णमालाघां लादि खाद्यं बडकादि स्वाद्यं हरीतक्यादि यजानीयादामन्त्रणाकरिष्यन्ति यद्वा परिकनितमेकत्र पिएकीकृतं सुखन दीयते । दिना शृणुयाद्वा अन्यतः यया दानार्थ प्रकृतमिदं दानार्थ प्रस्तं अन्यथा क्रमेण मोदकाशोकवादिचूर्णः स्वस्वस्थानादानयिा नाम साधुवादनिमित्तं यो ददात्यव्यापारपाषधिमज्यो देशान्तनीय दाने नयान गमनागमनप्रयासो भवति । अपान्तराले सा रादेरागतो वणिक्प्रभृतिरिति सूत्रार्थः। चूर्णिईस्तात् करित्वा पतति ततो विकटेन मधेन देशविशेषापे तारिमं जत्तपाणं तु, संजयाणं अकपियं । कमेतद्या फाणितेन कक्वादिना यद्वा स्निग्धेन घृतादिना मोदकांदिसमं धर्तयति पिएमतया बन्धन्ति.। अत्र प्योर्गा दितियं पमिश्राइकरवे, न मे कप्पा तारसं ॥ ४० ॥ थयोः पूर्वार्काच्यां संनबहेतव नुक्ता उत्तरा ज्यां तु स्वरूपम् । ताशं भक्तपानं दानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकल्पिकं यत. संमति कर्मेदिशिकस्य संजवतन् स्वरूपं चातिदेशेनाह। श्चैवमतः वदती प्रत्याचकीत न मम कल्पत तादृशमिति स्त्रार्थः। एमेव य कम्मम्मि वि, नएहवणे तत्थ नवरि नाणतं । असणं पाणगं वावि, खामं साइमं तहा । तावियविक्षीणएणं, मोयगचुन्नी पुणकरणं ॥ जं जाणिज्ज मुणिज्जा वा, पुन्नट्ठा पग इमं ॥ ४॥ यथा कृतस्य संभवस्वरूपं चोक्तमेवं कर्मण्यपि द्रष्टव्यं नवरं तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं । तत्र कर्मणि उष्णापने उष्णीकरणे नानात्वं विशेषस्तथा हि दितियं पमिाइक्खे, न मे कप्पइ तारिमं ॥२०॥ तापितविलानेन तापितेन विलीनेन च गुडादिना मोदक असणं पाणगं वाधि, खाश्मं साइमं तहा। चूाः पुनर्मोदकत्वेन करणं नान्यथा तथा तु बर्यादि भक्तमपि राज्युषितं द्वितीयदिने भूयःसंस्कारापादनेन कर्मतया निष्पा जंजाणिज्ज सृणिज्जा वा, वणिमचा पगडं इमं ।। ५१ ।। द्यमानं नाग्निमन्तरेण निष्पाद्यते ततोऽवश्यं कर्मण्युपणापने तंजवे जत्तपाणं तु,संजयाण अकप्पियं । नानात्वम् । संप्रत्यत्रैव कल्प्याकल्प्यविधिमाह ॥ दितियं पमित्राइखे , न मे कप्प तारिमं ।। ५२|| असुगंति पुणो रकं, दाहमकप्पं तमारो कप्पं । असणं पाणगं वावि, खामं माइमं तहा । खत्त अंतो बाहिं, कानेसु इत्थं परेचं वा ।। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, ममाएट्ठा पग इमं ।। ५३ ।। भिक्षार्थ प्रविष्टं साधु प्रति यदि गृहस्थो भणनि यथान्य तं भवे जत्तपाणं तु, मंजयाण अकप्पियं । स्मिन् गृहे विहत्य व्यावर्तमानेन त्वया भूयोऽपि मद्गृहे स दितियं पमिश्राइवखे, न मे कप्पइ तारिमं ।। ५४ ॥ मागन्तव्यं यतोऽहममुकं मोदकर्मादि भूयोऽपि रागुडपाकादिदानेन मोदकादि कृत्वा दास्यामि एवमुक्ते तथा कृत्वा | नदेसियं कीयगढ़, पटकम्मं च आह । Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४८ ) अभिधानराजेन्द्रः । उद्देसिय यन्ते प्राणिनो ऽस्यामिति संबदिरिति व्युत्पतस्यां संदुरितं करण्यधनादिकं शाल्योदनदध्यादिकं प्रयुरं तद्वा गृही भगति स्वकुटुम्बतिकारकमेतत् यथाह दे हि पुण्यार्थे भिक्षाचरेभ्यः । तत्र यदा तथैव ददाति तदा तदुदिष्टं यदा तु तदेयं करम्बादिकं करोति तदा तत्कृतं यदा तु मापि गुडपाकदानादिना मोदकादि करोति तदा तत्कर्म एवं विभागदेशिकस्य संभवस्तथा चाह । भाष्यकृत् "तसियम्मेवं संभवर पुग्वमुद्धिं संभवति" । संप्रति तदेव विभागदेशिकं विना तरिते रे करम्यदावेयं पूर्वोक्न प्रकारे विभागौदेशिकं पूर्वमुद्दिष्टं संभवति । संप्रति तदेव विभागौदेशिकं विभागतो भेदेन शिष्यगणहितार्थ ग्रन्थकारो प्रणति । उद्देमियं समुद्दे - सियं च आएसियं समाएसं । एवं कमे य कम्मे, एकके चत्रिहो जेओ ।। विभागदेशिक श्रीदेशिक समुदेशिकमा समादेशं च । एवं कृतं च कर्माणि एकैकस्मिन् चतुष्कश्चतुः संख्यो भेदो दृष्टः सर्वसंख्यया द्वादशधा विनागौदेशिकम् । संप्रस्योदेशिकारिक व्याख्यासुराह जातिय मुद्देसं, पासंडीणं नवे समुदेसं । समणाएं आएसं, निरगंवाएं समाएसं ॥ २५० ॥ इह यदुद्दिष्टं कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिकाचराः समागमिप्यन्ति पारिनो गृहस्था या ज्या ज्यादातयमिति संकल्पित जयति तदा तदौदेशिकमुच्यते ॥ पाि म कति समुद्देश भ्रमणानामदशनिन्यानां समादेशम् । संप्रत्यमीषामेव द्वादशानां भेदानामवान्तरजेदशनाह । निम दुबे ने य कालजावे य ॥ निष्पायनियर्थ नाव जं जहिं कम ।। उद्दिष्टमाद्देशादिकं प्रत्येकं द्विधा तद्यथा विन्नमच्छिन्नं च । - नं नियमितमधमनियामतम पुनराप श्रिमि तद्यथा मध्ये क्षेत्रे काढले जावे व । एवं यथा उद्दिष्टमौदेशिकं प्रत्येकमा तथा निष्यादित नाति निष्पादितेना स्वार्थ प्रोन निर्णयाकादि मोदकादि वा तनिष्पादित निष्पन्नामित्युच्यते । ततो यन्निष्पादितं निष्पन्नं यत्र कृते कर्म्मणि वाक्रामति घटते यया यदि करम्यादि तर्हि कृते, अथ मोदकादि तर्हि कर्मणि प्रत्येक देशका विभिन् त्यादिनाप्रकाराचा व्यत्यमेव गाथायें याचि ख्यासुः प्रथमतो द्रव्याद्यच्छिन्नं व्याख्याति ॥ तुन्वरितं खखदिए, मिन्नवसेवा तोचि सम्वाद दे तिचं ॥ यत्संखढ्या भक्तमुरितं तदिह प्रायः संखड्या नक्तमुद्वरितं प्राप्यते इति संखनिग्रहणमन्यथा त्वन्यत्रापि ययासंभवं द्रव्यम् । ( तद्दिव समिति ) व्यत्ययं। ऽव्यासामिति प्राकृत कृणवशात्सप्तम्यर्थे प्रयमा ततोऽयमर्थः यस्मिन् दिवसे संखडिस्तस्मिन्नेव दिवसे यास्मिन् दिवसेनाको नायाति यथा दन्तस्य च परिनेन केन तर समस्यम नेन सदन सकमपि दिन मततेन कर्मरूपं मोदकादि प्रभूतान्यपि दिनानि यावदिति दृष्टव्यम् । अनेन कावाच्छिन्नमुक्तं अच्छिन्नमनवरतं तदेहि । जावातु स्वयमज्यूहां तचैवं यदि तब रोचते यदि वा न रोचते Jatt Education International उद्देसिय तयाऽप्यवश्य दातव्यमिति ॥ संप्रति द्रव्यादिभिन्नमा | देह धर्म मा सेसे तो बाग व एगरं । जाव अगति बेला अमुर्ग वेलं व आरत ।। दं शाल्योदनादिकमुद्वरितं देहि मा शेषं कोद्रवकूरादि अनेन अव्यानमुक्तं तदपि च शाब्योदनादिकमन्तर्व्यवस्थितं वा एकतरं न शेषम् । अनेन क्षेत्र च्चिन्नमुक्तम्। तथा अमुकस्या वेलाया आर ज्य यावदमुका वेला यथा प्रहारादाराज्य यावत्प्रहरधयं तावडेहि । अनेन कामुकम्। नावचिनं तु स्वयमज्यूह्यम् । तथैचैवं या रांगते तावदेहमा स्वयम संप्रत्युदिमध कृत्य कल्पयाकल्प्यविधिमाह ॥ दाच्छिनं पितु, जइ जाइ कोवि मा देह | नो कप चि पिक परिहरति ।। दयादितिः पृथ निर्धारितं तदतिरिच्य शेषं समस्तमपि कल्पते । तस्य दानार्थ संकल्य स्थापितत्वाभावात् । केवमादिभिः पृि निश्चितं यदि गृहस्वामी आरत एव देवस्य वस्तुनो नियतादरयोगपि भणति । यथा मा त ऊई कस्मायपि देहीति । यया महरद्वयं या परिणामा जावादवगेव निषेधति । मा त ऊ दद्यादिति तन्त्रिन्नमपि कल्पते । तस्य संप्रत्यात्मसत्तापि कृतत्वाद्यत्पुनरच्छिन्नकृतमच्छि मनिकर कृतं वर्तते सत्परिहरन्ति अस्यादित्यमेव जगदाशविजृम्भणात्याश्रमपदानामा नावादयगेव आत्माकृतं प्रवति तदा तत्कल्पते संप्रति संप्रदान विनागमधिकृत्य कल्पविधिमा गाणं तित्रिदि, अनुकाएं न एत्य उ विज्ञासा । जत्य नईविसिडो, निंदेसो तं परिहरति ॥ मुकेभ्यो दद्यान्मा अमुकेज्य इत्येवं संप्रदानविषये संकल्पे कृते विनाषा या कदाचित कल्पते कदाचिन्न । तत्र यदा कल्पत तदादेयं तदाह (जत्येत्यादि ) यत्र देयवस्तुनि यतीनामप्यविशेषेण निर्देशो नवति यथा ये केचन गृहस्था गृहस्था वा निशाचरा यदि वा ये केा ये केचन मण ज्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्ति । यत्र तु यतीनामेव विशेषेण नापतिज्योतयमिति तत्परिहरन्त्वनाधि त्संदेह इति तत्र पृथग्विशेषेण नोक्तम् । यदि पुनर्गृहस्यज्य एव दीयतां यदि वा चरकादिज्य एव पापरिरुभ्यो न शेषेभ्यस्तदा कल्पते । अपिच ॥ संदिस्ते जो सुइ, कप्पए तस्म सेस वत्रणा । सिवा करेति प्रए मा थेरा || यन्नाद्याप्यौदेशिकं जातं वर्तते केवनं तदानीमिवोद्दिश्यमानं वर्तते यया श्वं देहि मा शेषमित्यादिश्यमानमर्थिज्यो दानाय वचनेन संकल्पमानं यः साधुः कृणोति तस्य तत्कल्पते तदेव दोपाजावात्तदपि च उद्दिष्टौदेशिकादि षष्टव्यं न कृतं कर्म च । यत उक्तं मूझटीकायाम् अत्र चायं विधिः "संदिस्त जो सुण, साहुद्देसुद्देयं । परुष्य न य कर्म, कम्मा तं कप्पए" तदैव दोषानावादिति यस्तु संदिश्यमानं न शृणोति तस्य न कल्पते कुत इत्याह ( वणति) स्थापनादोषात् । स च निर्गतः सन्नन्येभ्यः माधुयी नियति तथा चा संदि शेषात पूर्वपुरुषाची मर्यादा शिया एका कथयति ऽप्यन्यस्मै त्येवंरूपवा Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४९) अभिधानराजेन्द्रः । उदेसिय कोपरपामिर्च, मीमजावं विजए || ५५ ।। एवं पुचार्य प्रकृतं नाम साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थ कृतमिति एवं वनीपकार्थ वनीपकाः कृपणाः पवं श्रमणार्थमिति श्रमणा निर्मन्थाः शाक्यादयः अस्य प्रतिषेधः पूर्ववत् । अत्राह पुण्याकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो मिकाया प्रग्रहणमेव शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः । तथाहि न पितृकर्मादिव्यपोडेनात्मार्थमेव क्षुषसत्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा शर्त नैतदेवमनिप्राबापरिज्ञानात स्नोम्यातिरिकस्य यस्यैव पुस् धात् । स्वभृत्यनोम्पस्य पुनराचितप्रमाणपत्रादेवस्थ कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति एतेनादेयदानाभावः इत्यु देवयानोपपत्तेः काच बाईन वच्छादन पप तथा व्यवहारदर्शनात व प्रतिषेधात् तदा दोषेण योगात् परस्वादाने तु तदभावेनसौ तदर्थ इत्यारम्भदोषायोगात् दृश्यते च कदाचित दाविव सर्वोच्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिमतानामपि पाकप्रवृतिरिति विहितानुष्ठानत्वाच तथाविधग्रहणान दोष इत्य प्रसङ्गेना करगमनिका मात्र फलत्वात्प्रयासस्य ॥ दश० ॥ अ० । आट्टु देखियं तं चेतियं सियातणो सयं मुंज‍ " सूत्र० १ ० १ अ० । प्रायश्चित्तम् । "उद्देसिय जावंति य उद्देसिए मासबहु दोहिं वि बहु पासंग समुद्दे सिए मासल हुं कानगुरु समणाप सप मासबहुयं तवगुरु निमांयसमापसिए मासबहुं दोहिम्मि गुरु जावन्ति कमे मास दोहि वि पासंगक मासगुरुं कालगुरुं समयकदे मासगुरुं तय नियमासमे माखदोदि वि गुरुं जावंति कम्मे चञ्चलदु दोर्दि लहु पासंमसमुद्देसकम्मे चढगुरुसमणादेवकम्मे गुरु गुरुनिधसमासकामे गु कोटि गुरु पं० ० उद्देशिके चरमत्रिके कर्मकर्मस मादकर्मणि कृपणं प्रावधित जीत | कर्मदेशिके विभागदेशिक आयामाम् उदेशिकमाथाकर्मिकमित्यर्थः । साधुनिमित्त मानपानादि म पात्रसतिप्रमुख तथ प्रथमचरमजिती एकं साधु सासमुदायमेकमुपाश्र या आश्रित्य कृतं तत्सर्वेषां साध्वादीनां न कल्पते द्वाविंशतिजितीर्थे तु यं साध्वादिकमाश्रित्य कृतं तत्तस्यैव अकल्यमन्येषां तु कल्पते इति द्वितीयः । कल्प० ॥ " I आहा आधयकम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । संपुआहाकम्मै, कप्प विण व कम्पनी तस्स || आधाकर्म अकर्म आत्मनात्मक चैत्यदेशिकस्य साधनदिश्य कृतस्य प्रादेत्यादि नामानि यत्पुनराधकर्म तत्स्य कल्पने कस्य वा न कल्पते एवं शिष्येण पृष्ठे सूरिराह ॥ संघसोहविजाए, समणाममणीया कुमगणे संघे । कमिडिया कप्पति, किप्पे जमुद्दिस्स || अस्य व्याख्या सविस्तरं तृतीयोदेशके कृता । ( सा कपट्टिय शब्दे उक्ता अतोऽकरार्थमात्रमुच्यते ) ओघतो वा विभागतो घा सङ्घस्य श्रमणानां श्रमणीनां कुलस्य गणस्य वा संघस्य वा संकल्पेन यत् जक्तपानादिकं कृतं तत्स्यितकल्पितानां प्रथमपश्चि मानक ये पुनरास्थितकल्पे स्थितास्तेषां यद्दिश्य कृत तस्यैवैकस्य न कल्पते श्रन्येषां तु कल्पते द्वितीयपदे तु स्थितकल्पिकानामपि कल्पते यत आह ॥ उदेसियचरिमतिग परियं अजिए, निक्खुम्मि गिन्नाणगम्पि जया उ । तिक्खुत्तमविपवेसे, चउपरियट्टे ततो गहणं || आचार्य अभिषेक किया जाते सति आधाकर्मणो नजना सेवनाऽपि क्रियते । तया अटवी विप्रकृष्टोऽध्वा तस्यां प्रवेशेते यदि शुकं कृत्वा रूममध यदि न लब्धं ततञ्चतुर्थे परिवर्ते आधाकर्म्मणो ग्रहण कार्य गतमदेशिका ० ६४० 1 " साली घतगुल गोरस - वेसु बीफले जातेसु । दाणकरणसड़ा, आहाकम्पेण मतणना | आहाआहेयकम्मे, आयाहम्मे कम्मे य । तं पुण ग्रहाकम्मे, णायव्वं कप्पती कस्स || संघस्स पुरिमपच्छिम - समणाणं तह य चेत्र समणीं । चउरो लवगमगाणं पच्छा सएहायगा समर्थ ॥ संपस मजिमेपछि यसमा वह य समग्रीणं । चतुरो पनि पुच्छा सहायगा गणं ॥ उज्ज व जहा सबे, पुरिमा चरिमा य वजट्टा तु । तम्हा ते संरक्खण सबै परिक अवगतजड्डा परिक्रम-साहु तह चैव ते परिणयति ॥ कृष्णाकणं देसिय, तेपि परिक परिसा डुब्बिसोनो चरिमो पुपाल कप्पो । मज्जो विसुरूचरणो, एवं कप्पो एगंतव्वो || परिए जिसे विपक्षिणमम्मि नया तु । तिक्त अमविषये सम्म परिषद गहणं ॥ असि मोदरिए, रायपुडे विवादट्ठे वा । काणे गेलहे, आहाकम्मं तु जयणा य । जदि सब्बे गीतत्था, ताहे आलोयणा गहे नणिता ॥ अह होत मी मगजो पायच्छितं तयोकम्पं । चउरो चत्यनत्ते, आयामेगासणे य पुरिमने || य पतितं दातव्यं तं वपुग्नोग्गदं कुज्जा | संपले विजांगे, समा समय कुलगणस्सेव ॥ कममिह ठितेण कप्पति, अतिकप्पे जमादस्य । आरिए जिसेगो, निक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयशा तु ॥ अम विपवेसे असते, तिय परियट्टे तोगहां पं० ना० । इयाणि उद्देखियं अदा कम्मतं पुरा उसियं पुरिम पच्छियाण संघस्स ओघेण य समणारां वा समणीयं वा कुलगरास्स वा जइ श्रहेणे व करैति वियकप्पे विश्रयिकप्पे वि न कप्पइ । जया पुण् रिसभसामिसंतयाणं श्राणं श्रजियां वा उद्दिस्स करेइ तं रिसभसामिसंतयां दोरहवि न कप्पद अजयसामिसंतणया हंति अजयसामित अजया कयं श्रजियारां कप्पर अजियाणं वा कयं श्रजयागं कप्पर डिस्सए वि जइ एक्कम्मि गामे गणे तु करेइ एगं दो वाजं तत्थ ण गणेइ पडिस्सयं तेसिं कप्पर गणिएसु विपडिस्वपसु जे पाहुया पच्छासघातके जहा कायेसु प०यू०| उदेनियपरिमलिंग औदेशिकचरमधिक० कम्मरशिकस्य Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदेसियचरिमतिग पाचराडभ्रमसनिर्ब्रन्यविषये भेदभये, “कम्मुदेखियचरमतिग पूर्व मीसचरिमपाडिया दश०५० देहगल उद्देहगला - पुं०वीरस्य गलानां तृतीयगणे, खा० ठा 66 गं गं " घेरेहित] अञ्जरोहसे हितो कासवगुहितो तत्थ उद्देहगणे नामं गणे निग्गए तस्सिमात्र बसारि साहाओ निमाया चकुला पथमादिज्जति । जहा से कि से साहाओ एवमाहिज्जति तं जहा । उदुंबरिज्जिया १ मासपूरिया २ मइपत्तिया ३ पद्मपत्तिया ४ सेतं साहाओ से किं तं कुलाई २ एवमाहिति तं जहा “पढमं च नागभूअं १ वी पुरु सोमभूयं होइ २ अहलं गच्छत चतुस्वयं इत्थलिनं तु ॥ पंचम मेदि, पूरा पारिहासवं हो उद्देहगणस्सेप, छच्च कुला हुंति नायब्वा 35 ॥ कल्प० । उद्देहलिया उद्देहलिका-श्री कुणाचा० १०५४० उद्देहिगा - उद्देहिका - स्त्री० उद्गतो दोहोऽस्य क० ५ अत इत्यम् त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० १ पद । जी० । “काष्ठनिश्रिता पुणेोद्देहिका आचा० १ ० ४ उ० । तेइंदियाण उद्देहिकाइ जं वा. वए वे जो उद्देहिकया सक्तया मृत्तिकया, । श्रो० । “तश्रोउद्देहिगं तत्र वि वणफई " महा० ॥ " । उदेही - देशी - उपदेहिकायाम् । दे० ना० । उसवाकर्षण न० उद् घृष् ल्युट् बधे, ओ० दुष्कुलीनेव्यादिभिः कुलाद्यभिमानपातनार्थे वचने श्री० ० १६ श्र० । “ उत्तावयाहिं उद्धंसगाहिं उद्धंसे " ॥ भ० १५ २०१ ॐ० | उन्मूलनायामाफी, प्रो० ॥ सियर्पित वि० पट " उसिया य ते - त्रि० ' ( ८५०) अनिधानराजेन्द्रः । " रूपे शरीरदण्डे, प्रश्न० श्र० ३ द्वा० । उच्चरित्र - देशी-निषिद्धे ३० ना० । 9 66 घाण ऊर्ध्वस्थान- न० कायोत्सर्गे ऽवस्थाने, ध०४ अधि० । उकडु-उकृत्य-* - श्रष० ऊर्द्धांकृत्येत्यर्थे, “पलिभिंदियाणं तो पच्छा पाडुमडुमुपहाणंति" नितंबाचरणमुत्योप्य मूर्ध्नि शिरसि प्रान्ति “बाहू उच्क्वमबजे " बाहुमुल्य कक्षामादनुकूलं साध्यभिमुखं भजन्ति ०१०० "उद्धपादं रीपज्जा" पादं संहृत्यातलेन पादं पातप्रदेशं वा तत्रातिक्रम्य गच्छेत् ॥ श्राचा० २ श्रु० । श्रवकृष्येत्यर्थे च । व्य० प्र०२ उ० । उकडा ता० तृतीयाडेपणायाम सा च खया पारेण मूलभाजनाद् भाजनान्तरे भक्तमुरुतं स्थाल्यादौ स्वयोगेन भोजनजातमुर्त तथा उता भिज्ञा भ वति । धर्म० ३ श्रथि ं । स्था० । ० ० । (तां च सूत्रतः पिंडेसरा शब्दे वक्ष्यामि ) उत - (य) उकत त्रि. उद् हन्त । वाक्यादिचञ्चले, अविनीते, प्रगल्भे, उद्गते, वाच० ॥ उत्पादिते च । शा०१ श्र० । कतमेचकारकततमोप्रधकार पुं० न० प्रतिशत मिश्र, प्रश्न० श्रध० ३ द्वा० । - कत्य-देशी- विप्रलब्धे दे० ना० । उतर- त्रि० यासपूरितोकाये ऊर्जस्विते धूल्या पूरिते, शरीरदण्डदण्डिते ॥ प्रश्न० ३ द्वा० । मंत-उध्यायमान- वि० तोध्मानेषु खादिषु " मंताणं संखाणं सिंगाणं संखियारी खरमुहीणं पिरिपिरियाणं " रा० । उरूमाण - उद्ध्मान - न० शङ्खशृङ्गशङ्खिकाखरमुख पेया पिरिपि रिकाणां वादने, रा० । उच्चारपलिप्रोत्रम रूप-उकय-भि० उद्यपानकर्त्तरि वाच० उमरे, शा० १५० पाता श्री दर्पातिशयेन गती, "तुरिया काय सीहाय उरुयाप बेयाए दिव्वाप गईए" न०११०१०३० । सदयां देवगतौ च । भ० ५ ० ४ उ० । न्मूलने, । उत्तारणे, उत्थापने, उद्धृत्य हरणे परिवेषणे, बहिर्निष्काशउकरण- उकरण-न०उद्-ह. भावे- ल्युट् मुक्तौ, वमने, ऋणशुरू, व ने, उत्पादने, वाच० । विकर्तने, सूत्र० १ ० ४ ० श्रपनयने च । सूत्र० १० ए ० । उच्छिष्टे, दे० ना० । उरित उष्कृत्य अन्य आकृत्येत्यर्थे करित अस ण मल्लिज्जर णेच " पंचा० १६ विब० । उकरिता उत्कृत्य अन्य उत्पाटयेत्यर्थे “तं लयं सव्वलो - करिता समूला य उत्त० २३ प्र० । उकरितु-हत्य-अय० निष्कृष्येत्यर्थे "अमाउरि मिति सोणियचचत्ये " पंचा० १६ विव० । करिय-उत-वि-उ-त उत्पादिते, "फले वि वि जाणाविया अप्पाणं " । वृ० ३ उ० । ० म० । अवभाषिते, उद्धसयम लोगंसि भागहारी व होदितीमोस, नि० चू० ४ उ० । रूपण पननयनन० उच्चाविरलगेहेषु ॥ ५० ॥ ए श० ३३ उ० । ठचलणबंधणऊचरणान्धनन० चरणस्य बन्धन करियसम्यकृतसर्वशस्त्रकृताने पंचा० ११ - - , विष० । कवि-देशी- दे० ना० साओ बकरिया कह" । उत्त०२३ अ०] पृथगवस्थापिते " उरूरियं रुंद सुयसमुद्दाउ" पं०व० "जेएकरिया विज्जा, आगासगमा महापरिपाठ " आ० म० द्वि० । गा - कान - देशी० विषमाश्नतप्रदेशश्रांते, संघाते च । दे० ना० । कायमाणगाव तिष्ठति "बसाययस भाइयउकायमाणागरपूरघोरविहंस णत्थबहुलं 'प्रश्न०अ०२द्वा० उकार उकार - पुं० उड्रियते उद्-ह-भावे घञ् मुक्तौ, ऋणशुक, बकारणे, वाच भयकरणे, अपहरणे, अनु अपवादे व्य०८ कर्म सर्वधनात्यज्य देवेशदे वाच० । . उधारणा उधारणा-स्त्री० "पावल्लेण नवेच्च चन्यपयधारणाव कारो" उत्प्राबल्येन उपेत्य वा उक्तानामर्यप्रदाना धारणा उकारणा । धारणा व्यवहारे, व्य० १० उ० । उदारपओिम उकार पस्योपमन. वयमाणस्वरूपवालाग्राणां सन्मानां वा तद्द्वारेच द्वीपसमुद्राणी या प्रतिसमयमूकारण पोकरणमरणमकारस्तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपकार1 पोषभेदे ॥ तत्स्वरूपं यथा से किं तं उकारपल ओपमे २ दुहे पण ते तं जहा सु Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५१ ) नहारपलिग्रोवम भाभिधानराजेन्द्रः । जडारपालोवम हुमे अववहारिए अ। तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे तत्य | शेष परिकेपेण मिातमङ्गीकृत्येति सर्वस्यापि वृत्तपरिधेः किंएणं जे से ववहारिए से जहानामए पझेसिया जोयणं आ चिन्यूनपरुनागाधिकत्रिगुणत्वादस्यापि पल्यस्य किञ्चिन्यनष भागाधिकानि त्रीणि योजनानि परिधिर्भवतीत्यर्थः। स पत्य: यामविक्खंनेणं जोअणं नहुं उच्चत्तेणं तं तिगुणं सविसेस ( एगाहिय वेयाहियत्ते आहियत्ति ) षष्ठीवचनलोपादेकाहिकपरिक्खेवेणं सेणं पझे एगाहिअ वेाहिअतेाहिअ उक्को याहिकव्याहिकमुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां तृतो वालाग्रकोटीसणं सत्तरत्तपरूढाणं संसट्टे संनिचिते जरिते वालाग्गको- नामिति संबन्धः । तत्र मुहिकते शिरस्यकेनाहायावत्प्रमाणा वामीणं तेणं बामग्गा नो अग्गी महेज्जा नो वाऊ हरेज्जा सानकोटय उत्तिष्ठन्ति ता एकाहिक्यः धान्यां तु या उत्तिष्ठन्ति ता घाहिक्यः । कथमत श्त्याहसंसृष्टम् आकर्णपूरितःसंनिचित नो कुहेज्जा नो विद्धंसिज्जा को पुत्ताए हबमागच्चज्जा प्रचयविशेषानिविकीकृतः किंबहुना एवंनूतोऽसौ नृतो येन तानि तोणं समएएगमेगं वालग्गं अवहाय जावश्एणं काले- वालाग्राणि नामिहेन्न वायुरपहरेदतीव निचितचादग्निपवनावणं से पो क्खीणे नीरए निवेवे णिट्टिए जव सेतं ववहा- पिन तत्र कामत इत्यर्थः ( णो कुत्थेजत्ति) नो कुथ्येथुः प्रचयवि रिए । उद्धारपमित्रोवमे एएसिं पसवाणं कोमाकोमोह शेषादेव सुषिराभावात् वायोरसंभवाचनासारता गच्छेयुः अत एव च (नो परिविर्क सेजत्ति) कतिपयपरिसादनमप्यङ्गीकृत्य वेज्ज दसगुणिया तं ववहारिअस्स नद्धारसागरोवमस्स न परिविध्वंसेयरित्यर्थः अत एव च (नो पूश्ताए हव्वमाग एगस्स जवे परिमाणं २ एएहिं ववहारिअ नद्धारपमिओ- जति ) न पूतित्वेन कदाचिदप्यागच्छेयुर्न कदाचिहर्गन्धिता वमसागरोवहिं किं पओश्रणं एएहिं ववहारिअपमित्रो प्राप्तेयुरित्यर्थः ( तोणति) तेन्यो बालानन्यासमये समये एवमसागरोवमेहिं णत्थि किंचिप्पोअणं केवलं पाणवणा कैक बाआग्रमपहत्य काझो मीयते इति विशेषः । ततश्च (जावई पष्मविज्जा सेतं ववहारिए उद्धारपनिोवमे । से कि तं एणमित्यादि ) यावता काबेन स पल्यः वीणो बालाप्रकर्षणात मुटुमे नकारपालोवमे २ से जहाणामए पढ्ने सिधा जो क्यमुपागतः अपकृष्टधान्यकोष्ठागारवत्तथा (नीरयत्ति) निर्गतो रजः सूक्ष्मवालानोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत्तथा ( निवि अणं आयामविक्खंजेणं जोअएं नच्चेहेणं तं तिगुणं स- त्ति ) अत्यन्तसंग्लषात्तन्मयतां गतवानाग्रोपापहारानिलेपः अप विसेसं परिक्खेवेणं सेणं पवे एगाहिअवाहिअ ते पाहि नीतमित्यादि गतधान्यनेपकोष्ठागारवदेभित्रिभिः प्रकारैर्निष्ठितो विशुरू इत्यर्थः । एकार्थिका वा एते शब्दाः अत्यन्तविशुद्धिप्रतिउक्कोसेणं सत्तरत्तपढाणं संसढे संनिचिते नारिते वालग्ग पादनपराः । वाचनान्तरदृश्यमानम् अन्यदपि पदमुक्तानुसारेण कोडीणं तत्थ णं एगमेगे वासग्गे असंखिज्जाइ खंगाइ व्याख्येयम् एतावत्कालस्वरूपं बादरमुकारपल्योपमं नवति कज्जइ ते वालग्गदिहीणं ओगाहणान असंखेज्जइ ना. पतच पस्यान्तर्गतबालाग्राणां संख्येयत्वात्संख्येयैः समयगमेत्ता सुटुमस्स पहागजीवस्स सरीरोगाहणाउ असंखेज्ज स्तदपहारसंभवात्संख्येयसमयमानं द्रष्टव्यम् । सेत्तमित्यादि निगमनं व्यावहारिकं पल्योमपं निरूप्याथ सागरोपममाह । गुणा तेणं वालग्गा णो अग्गी महेज्जा नो वाऊ हरेज्जा (एएसिं पल्लाणगाहा) एतेषामनन्तरोक्तपल्योपमानां दशभिः णो कुहेज्जा णो विद्धंसिज्जा नो पुइताए हव्वमागच्छेज्जा कोटाकोटिभिरेकं सागरोपमं भवतीति तात्पर्यम् । शिष्यः तो पं समए २ एगमेगं वानग्गं अवहाय जावइएणं पृच्छति पतैावाहारिकपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनं कालणं से पन्ने खीणे नीरए निलेवे णिहिए नवइ से तं कोऽर्थः साध्यते तत्रोत्तरं नास्ति किंचित्प्रयोजनं निरर्थक स्तर्हि तदुपन्यास इत्याशङ्कयाह केवलं प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते मुहमे नद्धारपन्निनोवमे एएसिं पक्षवाणं कोमाकोमी ह प्ररूपणामात्रं क्रियत इत्यर्थः । ननु निरर्थकस्य प्ररूपणयाऽपि वेज्ज दसगुणिया तं सुहुमस्स नद्धारसागरोवमस्स एगस्स किं कर्त्तव्यमतो यत्किचिदुन्मत्तवाक्यवदेवमभिप्रायापरिक्षाना जवे परिमाणं एएहिं सुहुमउद्धारसागरोवमेहिं किं पओ- देवं हि मन्यते बादरे प्ररूपिते सूक्ष्मं सुखावसेयं स्यादतो बा. अणं एएहिं सुहुमउद्धारपन्निोपमसागरोवमेहिं दीवसमु- दरप्ररूपणा सूचमोपयोगित्वाकान्ततो नैरर्थक्यमनुभवति । दाणं उद्धाराणघेप्पर केवईआणं नंते दानसमुद्दा उद्धारेणं तर्हि नास्ति किंचित्प्रयोजनमित्युक्तमसत्यं प्रामोतीति चेन्नैव मेतावत्प्रयोजनस्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादेव बादराद्धापल्योंपप्पत्ता गोयमा ! जावश्ाणं अश्लाज्जाणं उद्धारसा पमा द्वावपि वाच्यम् । (सोकिंतं सुहुमे इत्यादि) गतार्थमेव नद्धारसमयाए वाणं दीवसमुद्दा नद्धारेणं पाहात्ता सेत्तं "जाव तरथ णं एगमेगे वालाम्गे असंखेज्जाइमित्यादि" पूर्व सहमे उद्धारपलिओवमे से उद्धारपत्रिोवमे ।। वालाग्राणि सह जात्यैव गृहीतान्यत्रत्वकैकमसंख्येयखण्डी (सेकिंतं जकारपमित्रोवमे इत्यादि) कारपल्योपमं फिविधं कृतं गृह्यत इति भावः । एवं सत्येकैकखण्डस्य यन्मानं भवप्राप्तं तद्यथा वासाप्राणां सूक्तमखएमकरणात् सूहमं च तेषामेव ति तनिरूपयितुमाह (तेणं वालग्गदिट्ठीश्रोग्गहणाश्रो इसांव्यवहारिकप्रत्यकव्यवहारिभिर्गृह्यमाणानामखएमानां यथाव त्यादि) तानि खण्डीकृतवालाग्राणि प्रत्येकं दृष्टयवगाहनात् स्थितानां ग्रहणान्प्ररूपणामात्रस्यवहारोपयोगित्वाद्यावहारिक किमसंख्येयभागमात्राणि दृष्टिश्चक्षुद्वारोत्पन्नदर्शनरूपा सावचेति । तत्र यत्सदा तत्स्थाप्यम् । तिष्ठतु | ताबड्यावहारिकप्ररूप- गाहते परिच्छेदबारेण प्रवर्तते तत्र वस्तुनि तदेव वस्तु हएचणापूर्वकत्वादेतत्प्ररूपणा पश्चात्परूपायप्यते इति भावस्तत्र यत्त- वगाहना प्रोच्यते ततोऽसंख्येयभागवर्तीनि प्रत्येकं वालाग्रखयावहारिकमुकारपस्योपमं तदिदमिति शेषस्तदैव विवसराह एडानि मन्तव्यानीदमुक्तं भवति यत् पुद्गलद्रव्यं विशुद्धचक्षु(से जहानामप इत्यादि) तद्यथा नाम धान्यपव्य श्व पठ्यः स्यात्स दर्शनः छमस्थः पश्यति तदसंख्येयभागमात्राएयेकैकशम्ना च वृत्तवादायामयिष्कम्नाच्यां दैर्घ्य विस्ताराज्यां प्रत्येकमुत्से न्यव भावतो द्रव्यतो निरूप्याथ क्षेत्रतस्तन्मानमाह (सुहुमधाडसकमगिप्पन्नं योजनमूर्ध्वमुश्चत्वेनापि तद्योजनं त्रिगुणं सवि- । स्सेत्यादि) अयमत्र भावार्थः सूक्ष्मपनकजीवशरीरं यावत्क्षेत्र Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५२) उधारपलिग्रोवम अभिधानराजन्छः। उप्पत्ति मवगाहते ततोऽसंख्ययगुणानि प्रत्येकं तानि भवन्ति बादर- जप्पश्य-उत्पतित-न० उदू पत्.क्त. उत्पतने, “सधश्यनप्पश्यपृथिवीकायिकपर्याप्तशरीरतुल्यानीति वृद्धवादः । एषां च वा तुरियचबलजश्णसिम्घवेगाहिं." औ० । “अरहासं काऊण - लाप्रखण्डानामसंख्येयत्वात् प्रतिसमयमुखारे किल संख्येया प्पश्यं" श्रा० म०प्र०ान्द्रते, "णचा उप्पश्यं ऽक्खं चेयवर्षकोव्योऽतिक्रामन्त्यतःसंख्येयवर्षकोटिमानमिदमवसेयं शे णाए दुहडिए" उत्त०१०। “उप्पश्य पमिवयमाणे वसघ" तूक्तार्थप्राय यावत् जावश्या अाइज्जाणमित्यादि । याव श्राचा० ।१७० ६५०४ उकलगते च । त्रि. वाच । म्तोऽर्द्धतृतीयसागरोपमेषूद्धारसमया वालाद्धारोपलक्षिताः नप्पश्यपमिवयमाण-उत्पतितप्रतिपतत-त्रि. पूर्व संयमारोहणासमया उद्धारसमयाः एतावन्तो द्विगुण २ विष्कम्भादद्वीपसमुद्रयथोक्तेनोद्वारेण प्राप्ताः असंख्येया इत्यर्थः । उक्त दुत्पतिते पश्चात्पाकोदयात्प्रतिपतति, प्राचा०१श्रु. ६१०।४३० मुद्धारपल्योपमम् । अनु०। कर्म। जप्पंक-देशी० उच्चूये, समूहे, पङ्के, बल्ले च । देण्ना० । उकारसमय-उच्चारसमय-पुं० वालाग्रोकारोपलाक्षितेषु समये- उप्पर-नत्पट-पुं० उत्पटति, सद्पद गती-अच् । वृक्तादीनां त्वचषु, अनु०॥ मुद्भिद्य नद्गते निर्यासे,वाचकात्रीन्द्रियजीवविशेष, प्रशा०१ पद। उद्धारसागरोवम-मुछारसागरोपम-न उद्धारविषयं तत्प्रधानं | उप्प-उत्पन्न-त्रि० उद. पत्.क्त.प्रानते. ग० प्रश्नसं. वा सागरोपममुद्धारसागरोपममादशभिरकोटाकोटीभिर्गुणिते जाते, दर्श । “उप्परमम्मि अणतेण, गम्मिच्चाउमथिए जाणे । सागरोपममेदे, स्था०१ ठा। (तश्च सूक्ष्मव्यवहारिकभेदेन | उत्पतितस्वन्नावे च । " ठप्पमेश वा विगमेश वा धुवेशवा" द्विधा उद्धारपल्योपमभेदे दर्शितम्) सत्ताबकणम् प्रा०म० द्वि०विशे०। उकावणा-नुकावना-स्त्री० शीघ्रं तस्य कार्यस्य निष्पादने, व्य० नप्पलकोउहब्ब-उत्पन्नकुतूहल-त्रि० उत्पन्नं प्रागनूतं कुतूहलं १०० उत्प्रावल्येन धावना । गच्छोपग्रहार्थ दूरकेत्रादौ गमने, यस्य उत्पनौत्सुक्ये, सू० प्र १ पाहु । ध०३ अधिक। नप्पामगारव-उत्पन्नगौरव-त्रि० उत्पन्नमनिसषणीयतया जात उछिय-उद्धृत-त्रि० उPढे, कृतनिर्वाहे, "नामनिमित्तं तत्वं यथा गौरवं यस्यस तथा । कम यतया जातगौरवे, “उप्पमगारवे एवं तथा चोकृतं पुरा यदिह" ॥ षो० ॥ गणित्ति परिकंखिक । व्य० ४ न०॥ अघियकंटक-उद्धृतकण्टक-त्रि० उकता स्वदेशत्याजनेन जीवी नप्पलणाणदंसणधर-उत्पन्नशानदर्शनधर-पुं० सादिकेवातत्याजनेन वा कण्टका यत्र तदुक्तकण्टकम् । प्रतिस्पम्गिोत्रज शानददोनोपयुक्ते, "समणे जगवं महावीरे उपमणाणसणधरे रहिते, रा । औ०॥ अरहा जिणे केवली" उत्पन्नशानदर्शनधरो न तु सदा संसिकः नद्धियदंड-जड़तदएम-पुं० उकत उत्पाटितो गृहीतो दएको येन स भ० १ २०७०। उकृतदएमगृहीतप्रायश्चित्ते, व्य० १ उ० (बहियदमो गिहत्थो नप्पप्तामुक्ख-उत्पन्नदुःख-त्रि० संजातदुःखे, "इह खसुनोगपन्नदंगशब्दे वदयते) इएणं उप्पादुक्खेणं संजमे अरसमावस्म चित्तेणं" दश०१लिका उद्धियसत्तु-उड़तशत्रु-त्रि. उकताः शत्रवो यत्र तदुरुतशत्रुः देश उप्पलासंसय-उत्पनसंशय- त्रि० उत्पन्नानवधारितार्थज्ञाने, निर्वासितागोत्रजवैरिणि, औ ।रा। रा०। सू०प्र०। उद्धीमुह-जर्वमुख-त्रि० कर्कीकृतमुखे, “उहीमुहकवुतापुप्फग उप्पमसल-उत्पन्नश्रक-त्रि० उत्पन्ना प्रागनूता सती नूता संगणसंग्या आहित्ति वदे जा" | चंड०४पाहु । श्रद्धा यस्यासौ उत्पन्नश्रकः । जातश्रद्धे,"उप्पमसक्के संजायसनडुमय-ऊर्ध्वमात-त्रि. आपूर्णे, उसमायशब्द आपूर्णपर्यायः यत- हे समुप्पट सके उठाए उडे" जं०१वकारा। सू०प्र०ाका० । उक्तम "अभिमानचिन्हेन पमिहत्यमुहमायं आहिरेश्यं च जाण-जप्परमाणुप्पाम-उत्पन्नानुत्पन्न-त्रि० उत्पन्नश्चानुत्पन्नश्च उत्पआठहो" ॥ नं। न्नानुत्पन्नः । मयूरव्यंसकादय इति समासः । यथा कृताकृतं तु. बहुम्माण-उकुममान-त्रि० उत्पाट्यमाने," उसम्ममाण दगर क्तातुक्तमित्यादि । एवं प्रकारश्च समासः स्यावादिन पव युक्तियरयंधारचरकेण" ॥ औ० प्र०॥ मियर्ति न शेषस्य एकान्तवादिन एकत्रकदा परस्पपरविरुरूधउच्य-नफत-त्रि. उद्. धू. क्त. उद्नूते उक्किप्ते, उझते, झा०१ मानन्युपगमात् । कस्यचिन्नयस्य मतेनोत्पन्ने कस्यचिदनुत्पन्ने, "अप्परमाणुप्पो, पत्थ णया णेगमस्सगुप्पो । सेसाणं चप्पमो. अ०। इतस्ततो विप्रसते, “कानागरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूनमघ- जश कत्तो तिविडसामित्ता" आ० म० द्वि० । (नमुकारशब्द मघंतगंधुयाभिरामे" चं०५पाहु० । सूर्य । स. । बारा उत्पत्तिघारे स्पष्टीभविष्यति) प्रकटीकृते, क०। सत्कम्पिते, “वाउकुयविजयवेजयंती" श्री०। नप्पत्ति-उत्पत्ति- स्त्री० उत्पादनमुत्पत्तिः । प्रसूतौ, विशे० "वानहुयविजयवेजयंती उत्तातिसकलिया" जी० ३ प्रति० उत्पादने उदूनूता, आ० चू०। (उत्पत्ती नयानां मतानि नमुक्काचं० । उत्कटे च ।स। रशब्दे उत्पत्तिरद्वारे स्पष्टीनविष्यन्ति) सा च चतुर्मा । उत्पत्तिश्चउफुया-उछुता-स्त्री० वातोद्धृतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस श्व तुर्का जीवाजीवस्योत्पत्तिर्यया मातापितृज्यां पुत्रस्यरंजीवादजीगतो, रा० । जीवा। वस्योत्पत्तिर्यथा सजीवदेहान्नखकेशादः। अजीवाजीवस्योत्पत्तिउकुर-नफर-त्रि० उद्गताधरस्मात् प्रा. व. अच्. स.। निरके, र्यथा काष्ठादुघुणकस्य । अजीवादजीवस्य मुग्धाद्दनः । ग० । जारशून्ये, रढे, उच्च, वाच । उस्ते,प्रा. म. प्र निदानकारणे, " उप्पत्ती रोगाणं तस्स मएनओसहयविनंगी" नकुस्मिय-कोच्चित-त्रि. ऊर्ध्वमुच्छ्रिते, “से जोयणे णवणव नि०० २०.० । उपमाने, प्रघ० । कर्फ पतन, ऊर्फगतौ च । उत्पद्यते प्रथमतो कायतेऽनेन उद् पद् करण क्तिन् । प्राथमिक'ति सहस्से उछुस्सितो हेट्टसहस्समेगं" सूत्र०१ श्रु०७०। प्रतीतिविषयप्रवृत्तिसाधनेष्टसाधनताबोधके कर्मस्वरूपझापके उन्नावंत-नुनमयत-त्रि. ऊर्फ नमयति, प्रा। विधिवाक्ये, वाच॥ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५३) उप्पत्तिया भन्निधानराजेन्डः। उप्पत्तिया उप्पत्तिया-श्रौत्पत्तिकी-स्त्री० उत्पत्तिरेव न शास्त्राभ्यासकर्म- बासनावं प्रगटयन निजच्यायामङ्गल्यप्रेण दर्शयन् पितरमेवमाद परिशीलनादिकं प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी तदस्य भो पितरेष गोहों याति गोडो यातीति । तत एवमुक्त स पिता प्रयोजनमिति इकण ॥ नं ॥ अरष्टाचताननुभूतविषयादकस्मादू परपुरुषप्रवेशानिमानतो निष्प्रत्याकारं कृपाणमुझीर्य प्राधावत रे भवनशीलायां बुद्धौ, रा०। ननु सर्वस्याः बुद्धेः कारणं क्षयो- कथय कुत्र यातीति ततःस बासको बाबक्रीमां प्रकटयनङ्गपशमः तत्कथमुच्यते उत्पत्तिरेव प्रयोजनमस्या इति उच्यते स्यप्रेण निजच्चायां दर्शयति पितरेष गोहो यातीति ततः स सायोपशमः सर्वबुद्धिसाधारणः ततो नासी भेदेन प्रतिप- वीडित्वा प्रत्यावृत्तश्चिन्तयतिस्म च स्वचेतसि प्राक्तनोऽपि पुरुषो, त्तिनिबन्धनं भवति । अथ च बुद्ध्यन्तरभेदेन प्रतिपत्त्यर्थ नूनमेवंविध एवासीदिति धिम्मया बायकवचनादत्रीक संजाव्य व्यपदेशान्तरं कर्तुमारण्धं तत्र व्यपदेशान्तरनिमित्तमत्र न विप्रियमेतावन्तं कासं कृतमस्यांनार्यायामिति पश्चात्तापावाढतकिमपि विनयादिकं विद्यते केवलमेवमेव तथोत्पत्तिरिति सैव रमस्यामनुरक्तो बनूव । सोऽपि रोहको मया विप्रियं कृतमास्तेसाक्षानिर्दिष्टा । नं०॥ ऽस्या शति कदाचिदेषा मां विषादिना मारयिष्यतीति विचिन्त्य औत्पत्तिक्या लक्षणम् । सदैव पित्रा सह तुलेन कदाचिदपि केवलः । अन्यदा च पित्रा सहोजयिनी पुरीमगमत रष्टा च तेन त्रिदशपुरीवोज्जयिनी सपुचमदिट्ठमसुयम-बेइयतक्खणविसुद्धगहिअत्था । विस्मयचेतसा च सकताऽपि यथावत्परिभाषिता । ततः पित्रैव अव्याहयफलजोगा, बुद्धी भोप्पत्तिया नाम ॥शा सह नगऱ्या निर्यातुमारेभे पिता च तत्र किमपि विस्मृतमिति पूर्व बुद्धघुत्पादात्याक स्वयं चक्षुषा न दृष्टो नाप्यन्यतः श्रुतोम- रोहकं सिप्रातटेऽवस्थाप्य तदानयनाय भूयोऽपि नगरी प्राविनसाऽप्यविदितोऽपर्यालोचितस्तस्मिन् क्षणेषु खुरुपुत्पादकाले क्वत् । रोहकोऽपि च तत्र सिमाभिधसिसैकते बालचापलवविशुद्धो यथावस्थितो गृहीतोऽवधारितोऽर्थो यस्याःसा तथा। शात् सप्राकारां परिपूर्णमाप पुरं सिकतानिराश्रिखत् । श्तव पुव्वमदिद्वैत्यादौ मकारोऽलाक्षणिकः।तथा अव्याहतेन अवा राजा अश्ववाहनिकायामश्वं वाहयन् कथंचिदेकाकीतूतस्तेन पथा धितेन फलेन परिच्छेचेनार्थेन योगो यस्याः सा अव्याहतफ समागन्तुं प्रावर्तत तं च स्वलिखितनगरीमध्येन समागच्चन्तं लयोगा बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम | संप्रति विनेयजनानुग्रहाया रोहका अवादीत् भो राजपुत्र माऽनेन पथा समागमः । तेनोक्तं स्याः स्वरूपप्रतिपादनार्थमुदाहरणान्याह । किमिति । रोहक आह किं त्वं राजकुत्रमिदं न पश्यति। ततःस नरहसिलपणियरुक्खे, खुड्डगपडसरमकायउच्चारे ।। राजा कौतुकवशात्सकलामपि नगरी तदानिखितामवैक्कत पप्रच्छ गयपायणगोलखंभे, खुड्गमग्गिस्थिप पुत्ते ॥३॥ च तं बालकं रे अन्यदाऽपि त्वया नगरी दृष्टाऽऽसीत् न वा। : जरहसितं मिढ कुक्कुम, तिनवालयहत्थिअगमवणसंमे ।। रोहकः प्राह नैव कदाचित्केवलमहमद्यैव प्रामादिहागतः। ततश्चिन्तयामास राजा अहो बालकस्य प्रशातिशयः । ततः पायसअश्या पत्ते, खामहिनापंचपियरो य॥४॥ पृष्टो रोहका वत्स किं ते नाम क वा ग्राम इति। तेनोक्तं रोहक महुसित्यमुदिअंकेइ, नाणए जिक्वचेगनिहाणे। । इति मन्नाम प्रत्यासन्ने च पुरोग्रामे वसामीति । अत्रान्तरे मिक्खा य अत्थसत्थे, इच्छायमह सयसहस्से ॥५॥ समागतो रोहकस्य पिता चलितौ च स्वग्राम प्रति द्वावपि आसामर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः । तानि च कथानकानि राजा च स्वस्थानमगमत् चिन्तयति स्म च ममैकोनानि मविस्तरतोऽभिधीयमानानि प्रन्यगौरवमापादयन्ति ततः संक्षे. न्त्रिणां पञ्चशतानि विद्यन्ते तद्यदि सकलमन्त्रिमण्डलमूर्धापेणोच्यन्ते । उज्जयिनी नाम पुरी तस्याः समीपवर्ती कश्चिन्न- भिषिक्लो महाप्रशातिशायी परमो मन्त्री संपद्यते ततो मे राज्यं टानामेको ग्रामः तत्र च भरतो नाम नटः तस्य भार्या परासु. सुखेनैवैधते बुद्धिबलोपेतो हि राजा प्रायः शेषबलैरल्पबलोड रभूत् तनयश्चास्य रोहकाभिधोऽद्याप्यल्पवयास्ततस्तेन पिन पराजयस्थानं भवति परांश्च राज्ञो लीलया विजयते।एवं स्वस्य तनयस्य च शुश्रूषाकरणायान्या समानिन्ये वधूः । चिन्तयित्वा कतिपयदिनानन्तरं रोहकबुद्धिपरीक्षानिमित्तं सा च रोहकस्य सम्यग्न वर्तते ततो रोहकेण सा प्रत्यापादि सामान्यतो ग्रामप्रधानपुरुषानुदिश्यैवमादिष्टवान् यथा युष्ममातन मे त्वं सम्यक् वर्तसे ततो हास्यसीति ततः सा से- ग्रामस्य बहिरतीव महती शिला वर्तते तामनुत्पाट्य राजयोयॆमाह रे रोहक! किं करिष्यास? रोहकोऽप्याह । तत्क- ग्यमण्डपाच्छादनं कुरुत। तत एवमादिष्टे सकलोऽपि प्रामलोरिष्यामि येन त्वं मम पादयोरागत्य संगिष्यसीति ततः सातम- को राजादेशं कर्तुमशक्यं परिभाषयन्नाकुलीभूतमानसो बहिः वहाय तूष्णीमतिष्ठत रोहकोऽपि तत्कालादारज्य गाढसंजाता- सभायामेकत्र मिलितवान् पृच्छति स्म परस्पर किमिदानीं भिनिवेशोऽन्यदा निशि सहसा पितरमेवमन्नाणीत नो नो पितरेष | कर्तव्यं दुष्टो राजादेशोऽस्माकमापतितो राजादेशाकरणे च पत्रायमानो गोहो याति तत एवं वासकवचः श्रुत्वा पितुराशङ्का महाननर्थोपनिपातः । एवंच चिन्तया व्याकुलीभूतानां तेषां समुदपादिनूनं विनष्टा मे महेसेति तत पवमाशङ्कावशात्तस्याम मध्यदिनमागतं रोहकश्च पितरमन्तरेण न मुझे पिता च ग्रामनुरागःशिथिलीबलय । ततो न तां सम्यक् संभाषते नापि विशेष- मेलापके मिलितो वर्तते। ततः स जुधापीडितः पितुः समीपे तस्तस्यै पुष्पताम्बूलादिकं प्रयच्छति दूरतः पुनरपास्तं शयनादि समागत्य रोदितुंपावर्तत पीडितोहमतीव सुधयाततःसमागततः सा चिन्तयामास नुनमिदं बालकविचेष्टितम् अन्यथा कथ- च्छ गृहे भोजनायेति । भरतः प्राह वत्स ! सुखितोऽसि मकाएक एवैष दोषानावे पराङ्मुखो जातः ततो बालकमेवम त्वं न किमपि प्रामकष्टं जानासि । स प्राह पितःकिं तदिति । वादीत वत्स रोहक! किमिदं त्वया चेष्टितं तव पिता में संपति. ततो भरतो राजादेशं सविस्तरमचकथत्। ततो निजबुद्धिप्रागदूरं पराङ्मुखीनूतारोहक आह किमिति तर्हि त्वं सम्यग्न वर्तसे ल्भ्यवशात् झटिति कार्यस्य साध्यतां परिभाव्य तेनोक्तं मा तयोक्तमित ऊसम्यग् वर्तिष्ये । ततो बालक आह भव्य तर्हि आकुलीभवत यूयं खनत शिलाया राजोचितमण्डपनिष्पादमा खेदमाकार्षीस्तथा करिष्ये यथा मे पिता तथैव त्वयि वर्तते | नायाधस्तात् स्तम्भाश्च यथास्थानं निवेशयत भित्तीश्चोपलेइति ततः सा तत्कालादारज्य सम्यग् घर्तितुं प्रवृत्ता । रोहको- पादिना प्रकारेणातीव रमणीयाः प्रगुणीकुरुत । तत एवमुक्ते ऽप्यन्यदा निशि निशाकरप्रकाशितायां प्राक्तनकदाशङ्कापनोदाय | सर्वैरपि ग्रामप्रधानपुरुषैर्भव्यमिति प्रतिपन्नम् । गतःसर्वोऽपि Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५४) नप्पत्तिया अभिधानराजेन्डः । उपपत्तिया मामलोकः । स्वगृहे भोजनाय भुक्त्वा च समागतः शिलाप्र- | ततो राज्ञा जणितं किं रे मृतो हस्ती ततो प्रामनोक आह देव ! देशे प्रारब्धं तत्र कर्म कतिपयदिनैश्च निष्पादितः परिपूर्णो देवपादा एवं युवते न वयमिति । तत एवमुक्ते राजा मौनमामण्डपः । कृता च शिला तस्य आच्छादनं निवेदितं राक्षे | धाय स्थितः । आगतो ग्रामसोकः स्वग्रामे । ततो जयोऽपि राजनियुक्तैः पुरुषैर्देवनिष्पादितो ग्रामेण देवादेशः। राजा प्राह कतिपयदिनातिक्रमे राजा समादिष्टवानस्ति यौमाकीर्ण ग्राकथमिति ततस्ते सर्वमपि मण्डपनिष्पादनप्रकारं कथया- मे सुस्वादुजनसंपूर्णः कृपः स इह सत्वरं प्रेषणीयः । तत मासुः । राजा पप्रच्छ कस्येयं बुद्धिस्ते ऽवादिषुर्देव ! भरत- एबमादिष्टो ग्रामो पेहकं पृष्टवान् । रोहक प्राह। एष ग्रामेयकः पुत्रस्य एषा रोहकस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः । एवं सर्वेष्वपि कूपो, प्रामेयकश्च स्वभावाद्भीरुर्जवति न च सजातीयमन्तरण संविधानकेषु योजनीयं ततो भूयोऽपि राजा रोहकबुद्धिपरी. विश्वासमुपगच्छति ततो नागरिकः कश्चिदेका कृपः प्रेष्यतां येक्षार्थ मेढकमेकं प्रेषितवान् । एष यावत्पलप्रमाणः संप्रति वर्तते न तत्रैष विश्वस्य तेन सह समागमिष्यति इत्येवं निरुत्तरीकृत्य पक्षातिक्रमेऽपि तावत्पलप्रमाण एव समर्पणीयो नन्यूनो ना मुत्कलिताः राजनियुक्ताः पुरुषाः तैश्च राको निवेदितं राजा च प्यधिक इतितत एवं राजादेशे समागते सतिसर्वोऽपि प्रामोव्या स्वचेतसि रोदकस्य बुध्यतिशयं परिभाब्य मौनमवनम्म्य स्थिकुलीनूतचेता बहिःसनायामेकत्र मिलितवान् सगौरवमाकारितो तस्ततो तूयोऽपि कतिपयदिवसातिक्रमेऽनिहितवान् । वनरोहकः आनाषितश्च ग्रामप्रधानैः पुरुषैः वत्स ! प्राचीनमपि पुष्ट खएको ग्रामस्य पूर्वस्यां दिशि वर्तमानः पश्चिमायां दिशि कर्तराजादेशसिन्धुं त्वयैव निजबुझिसेतुबन्धेन समुत्तारितः सर्वो व्य इति अस्मिन्नपि राजादेशे समागते ग्रामोरोहकबुद्धिमुपजीऽपि ग्रामः । ततः संप्रत्यपि प्रगुणीकुरु निजबुझिसेतुबन्धेना व्य वनखण्डस्य पूर्वस्यां दिशि व्यवतिष्ठते ततो जातो प्रामस्य स्यापि कुष्टराजादेशसिन्धोः पारमधिगच्छाम इति । तत उवाच पश्चिमायां दिशि वनखएमा निवेदितंचराझो राजनियुक्तैः पुरुषैः । रोहको वृकं प्रत्यासन्नं धृत्वा मेएढकमेनं यवसदानेन पुष्टीकुरुत ततःपुनरपि कालान्तरे राजा समादिष्टवान् वह्निसंपर्कमन्तरेण यवसं हि भकयन्नेष न पुर्बलो अविष्यति वृकं च दृष्ट्वा न वृद्धि पायसं पक्तव्यमिति तत्रापि सो ग्राम एकत्र मिशितो रोहकमाप्स्यते ततस्तै तथैव कृतवन्तः पनातिक्रमे च तं राज्ञः सम मपृच्छत् रोहकश्चोक्तवान् तन्त्रानतीव जलेन भिन्नान् कृत्वा दि नकरकरनिकरसन्तप्तकरीषपसाबादीनामुष्मणि तन्दुलपयोभृता र्पयामासुः तोलने च तावत्पलप्रमाण एव जातः । ततो नूयोऽपि स्याही निवेश्यतां येन परमान्नं संपद्यते तथैव कृतं परमानं कतिपयदिनानन्तरं राज्ञा कुर्कुटः प्रेषितः एष द्वितयं कुर्कुट विना निवेदितं राझो विस्मितं तस्य चेतः । ततो राज्ञा रोहयोधयितव्य इति एवं संप्राप्ते राजादेशे मिश्रितः सर्वोऽपि ग्रामो कस्य बुद्ध्यतिशयमवगम्य तदाकारणाय समादिष्टं येन बहिः सभायामाकारितो रोहकः कथितश्च राजादेशः । ततो वालकेन मदादेशाः सर्वेऽपि प्रायः स्वबहिवशात्संपादितारोहकणावर्शको महाप्रमाण आनायितो निर्गुष्टश्च नूत्या सम्यक स्तेन चावश्यमागन्तव्यम् परं न शुक्यपके न कृष्णपके न सतो घृतः पुरो राजकुक्कुटस्तस्य ततः स राजकुक्कटः प्रतिवि- रात्री न दिवा न जायया नाप्यातपेन नाकाशेन नापि म्बमात्मीयमादर्श दृष्ट्वा मत्प्रतिपकोऽयमपरः कुक्कट इति मत्वा पादान्यां न पथा नाप्युत्पथेन न स्नातेन नास्नातेन तत एवमादिसाहंकारं योर्क प्रवृत्तो जमचेतसो हि प्रायस्तिर्यञ्चो नवन्ति । ऐस रोहका कास्नानं कृत्वा गन्त्रीचक्रस्य मध्यनूमिभागेन एवं च परकुक्कटमन्तरेण योधिते राजकुक्कटे विस्मितः सर्वोऽपि करणमारूढो धृतचाबनीरूपातपत्रः संध्यासमयेऽमावश्याप्रतिप संगमे नरेन्द्रपार्श्वमगमत् । स च रिक्तहस्तो न पश्येच राजानं प्रामसोका संपादितो राजादेशः निवेदितं च राझो निजपुरुषैः । देवतां गुरुमिति लोकश्रुति परिजाव्य पृथिवीपिएममेकमादाय ततो नूयोजन कतिपयदिवसातिक्रमे राजा निजादेशं प्रेषित गतः प्रणतो राजा मुक्तश्च तत्पुरतः पृथिवीपिएमस्ततः पृष्टो राज्ञा घान् युष्मद्रामस्य सर्वतः समीप रमणीया धाझुका विद्यते ततः रोहकः। रे रोहक! किमेतत्? रोहकःप्राह देव! देवपादाः पृथिवीस्थूला वालुकामया कतिपया दवरकाः कृत्वा शीध्र प्रेषणीया इति एवं राजादेशे समागते मिलितः सर्वोऽपि बहिः सन्नायां प्रामः पतयः ततो मया पृथिवी समानीता । श्रुत्वा चेदं प्रयमदर्शने मङ्गपृष्टव रोहकस्ततो रोहकेण प्रत्युत्तरमदायि नटा वयं ततो नृत्य अवचः तुतोष राजा मुत्कशितः शेषग्रामसोकः रोहकः पुनरात्मपार्वे मेव वयं कर्नु जानीमो न दवरकादि । ततो राजादेशचावश्यं शायितः गते च यामिन्याः प्रथमे यामे रोहकः शब्दितो कर्तव्यः ततो वृहबाजकुअमिति चिरन्तना अपि कतिचिद्वासु राज्ञा, रेरोहक! जागर्षि किं वा स्वपिर्षि । देव! जागर्मि रे तर्हि कामया दवरका नविष्यन्तीति तन्मध्यादेकः कश्चित्प्रच्चन्दभृतः किं चिन्तयसि स प्राह देव अश्वत्यपत्राणां किं दएको महान् प्रेषणीयो येन तदनुसारेण वयमपि वायुकामयान् दवरकान् जत शिखेति तत एवमुक्ते राजा संशयमापन्नो वदति साधु चिन्तितं कोऽत्र निर्भयः । ततो राजा तमेव पृथ्वान् कुर्म इति । ततो निवेदितमेवं राज्ञो नियुक्तपुरुषैः । राजा च रेकथय कोऽत्र निर्णय इति तेनोक्तं यावदद्यापि शिखाग्रजागोन निरुत्तरीकृतः तूष्णीमास्त । ततः पुनरपि कतिचिदिनानन्तरं शोषमुपयाति तावद्धे अपि समे ततो राझा पार्श्ववी लोकः पृष्टः जीर्णहस्ती रोगग्रस्तो मुमूर्षामे राझा प्रेषितः यथाऽयं हस्ती तेनच सर्वेणाप्यविज्ञानतःप्रतिपन्नं ततो नूयोऽपिरोहकासुप्तवानपुमृत शति म निवेदनीयोऽय च प्रतिदिवसमस्य वार्ता कथ नरपि च द्वितीययामेऽपगते राज्ञा शन्दितःपश्च रे किं जागर्षि कि नीया अकथने ग्रामस्य महान् दएमः । एवं च राजादेशे वा स्वपिषि समाह-देव!जागर्मि किंरेचिन्तयसि देव! गगिकोदरे समागते सथैव मिलितः सर्वोऽपि प्रामो बहिः सनायाम् । कथं चम्युत्तीर्णा श्व वर्तुबगुखिका जायन्ते तत एवमुक्ते राजा संशपृष्टश्च रोहकस्ततो रोहकेणोक्तं दीयतामस्मै यवसः पश्चाद्यद्भ यापन्नस्तमेव पृष्टवान् कथय रेरोहककथमिति सप्राह देव संवविष्यति तत्करिष्यामः । ततो रोहकादेशने दत्तो यबसस्तस्मै तकानिधानवातविशेषात् । ततः पुनरपि रोहका सुष्वाप तृतीये रात्रौ च स हस्ती पञ्चत्वमुपगतः । ततो रोहकवचनतो ग्रामण यामेऽपगते नूयोऽपि राज्ञा शब्दितः रे किं जागर्षि किं वा स्थगत्वा राझे निवेदितम् । देवाऽद्य हस्ती न निषीदति नोत्तिष्ठति । पिषि सोऽवादीत देव! जागर्मि किं रे चिन्तयन्वर्तसे देव खाममकवनं गृह्णाति न नीहार कराति नाप्युवासनिःश्वासौ विद- | हिलाजीवस्य यावन्मानं शरीरं तावन्मानं पुच्छमुत हीनाधिकधाति किं बहुना देव! कामपि सचेतनचेष्ट्यं न करोति ।। मिति तत एवमुक्त राजा निर्णयं कर्तुमशक्तः तमवापृच्छत रेकोत्र Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया अभिधानराजेन्द्रः। उप्पत्तिया निर्मायः देव सममिति ततो रोहकः सुप्तः प्रानातिके च मङ्गलप- प्रेर्यते ततो धूर्त एष नागरिको वचनेन मां वनितवान् नापरनागटहनिस्वने सर्वत्र प्रसरमधिरोहति राजा प्रबोधमुपजगाम श- रिकमन्तरेण पश्चात्कर्तुं शक्यते इत्यनेन सह कतिपयदिनानि दितवांश्च रोहकः स च निघाजरमुपारूढो न प्रतिवाचं दत्त- व्यवस्थां कृत्वा नागरिकधूर्तानवरगामि तथैव कृतं दत्ता चैकेन वान् । ततो राजा बीमाकङ्कतिकया मनाक तं स्पृष्टवान्ततः सेोऽप- नागरिकधूर्तेन तस्म बुझिस्ततः तद्वबिसेन पूपिकापण मोदकगतनिनो जातः स्पृष्टश्व रे कि स्वपिषि स प्राह देव मेकमादाय प्रतिद्वन्धिनं धूर्तमाकारितवान् साक्विणश्च सर्वेऽप्याजागर्मि किरे तर्हि कुर्वस्तिष्टसि देव चिन्तयन् । किं चिन्त- कारिताः ततस्तेन सर्वसाकिसमकमिन्धकीयके मोदकोऽस्थायसि देव पतश्चिन्तयामि कतिभिर्जातो देव इति । तत एवमुक्ते प्यते जणितश्च मोदकः याहि रेयाहि मोदक! सन याति ततराजा सबी मनाक तृणीमतिष्ठत् तत्कणानन्तरं पृष्टवान् क- स्तेन साक्तिणोऽधिकृत्योक्तं मयैवं यःमत्समकं प्रतिज्ञातं यद्यहं थय रे कतिभिरहं जात इति । स प्राह देव पश्चनिः राजा नूयो जितो भविष्यामि तर्हि स मया मोदको यः प्रतोत्रीबारेण न ऽपि पृष्टवान् केन केनेति रोहक आह एकेन तावद्वैश्रमणेन वैश्र निर्गति एषोऽपि न याति तस्मादई मुत्का ति एतश्च साक्किमणस्येव जवतो दानशक्तेर्दर्शनात् । द्वितीयेन चाएमाझेन वैरिस निरन्यैश्च पार्श्वचर्तिभिनागरिकैः प्रतिपन्नमिात प्रतिजितः प्रतिमूहं प्रति चएमावस्येव कोपदर्शनात् । तृतीयेन रजकेन यतो इन्धी धूर्तः। द्यूतकारनागरिकधूर्तस्योत्पतिकी बुकिः ॥२॥ रजक श्व वस्त्रं परिनिपील्य तस्य सर्वस्वमपहरन् दृश्यते।चतुर्थेन वृश्चिकेन यन्मामपि बालकं निलाजरसुप्तं लीनाकङ्कतिकाग्रेण ( रुक्खेत्ति) वृकोदाहरणं तनावना क्वचित्पथि पथिकानां सहवृश्चिक श्व निर्दयं तुदसि । पञ्चमेन निजपित्रा येन यथावस्थितं कारफलान्यादातुं प्रवृत्तानामन्तरायं मर्कटका विदधते ततः पथि. न्यायं सम्यक्परिपालयसि । एवमुक्त राजा तूष्णीमास्थाय प्रा- काः स्वबुझिवशाद्वस्तुतत्वं पर्याोच्य मर्कटानां संमुख लोएकान् जातिककृत्यमकार्षीत् जननी च नमस्कृत्यैकान्ते पृष्टवान् । कथ- प्रेषयामासुः ततो रोषाबरूचेतसो मर्कटाः पथिकानां संमुखं सहय मातः! कतिनिरहं जात इति सा प्राह वत्स किमेतत् प्रष्टव्यं कारफलानि प्रचिक्केपुः पथिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः३ तथा (खुडुकनिजपित्रा त्वं जातः । ततो रोहकोक्तं राजा कथितवान् वदति त्ति ) अङ्गनीयकाजरणं तदाहरणनावना राजगृहं नगरं तत्र च मातः स रोहका प्रायोऽलीकबुछिन नवतीति । ततः कथय प्रसेनजितः प्रसेनरियुसमूहविजेता राजा नूयांसस्तस्य तनयाः सम्यक तत्वमिति तत एवमतिनिर्बन्धीकृते सति सा कथया तेषां च सर्वेषामपि मध्ये श्रेणिको राजा नृपत्रकणसंपन्नः स्वचेतमास । यदा त्वदूगर्भाधानमासीत् तदाऽह बहिरुद्याने वैश्रवणपू. सि परिनावितोऽत एव च तस्मै न किश्चिदपि ददाति नापि जनाय गतवती वैश्रवणं च यकमतिशयरूपं दृष्ट्वा हस्तसंस्पर्शन | वचसापि संस्पृशति मा शेषैरेष परासुर्विधीयतेति बुद्ध्या सच च संजातमन्मदोन्मादा जोगाय तं स्मृहितवती । अपान्तराझे च समागच्छन्ती चएमाझयुवानमेकमतिरूपमपश्यं सतस्तमापनो • किञ्चिदप्यतनमानो मन्युभरवशात्प्रस्थिती देशान्तरं जगाम । गाय स्पृहयामि स्म। ततोऽक्तिने जागेसमागच्छन्ती तथैव रज क्रमेण वेन्नातटं नगरम् तत्र च वीणविनवस्य श्रेष्ठिनो विपणाकं दृष्ट्वाऽनिअषितवती । ततो गृहमागता सती तथा विधोत्सव- समुपविष्टः तेन च श्रेष्ठिना तस्यामेव रात्री स्व रलाकरो निजवशात् वृश्चिकं कणिकामयं नकणाय इस्ले न्यस्तवती । ततस्त- पुहितरं परिणयन् दृए प्रासीत् तस्य च श्रेणिकपुण्यप्रभावतः संस्पर्शतो जातकामो का तमपि जोगायाशंसितवती तत एवं तस्मिन् दिने चिरसंचितप्रभूतक्रयाण कविक्रयेण महान् लाभः यदि स्पृहामात्रेणापि पितरः संजवन्ति तर्हि सन्तु परमार्थतः समुत्पादि म्लेच्छहस्ताश्चाऽना णि महारत्नानि स्वल्पमाल्यन पुनरेक पव ते पिता सकसजगत्प्रसिद्ध इति । तत एवमुक्त समपद्यन्त ततः सोऽचिन्तयत् अस्य महात्मनो मम समीपमुपविष्टराजा जननीं प्रणम्य रोहकबुझिविस्मितचेताः स्वावास स्य पायप्रताव एषः यन्मया महती नूतिः एतावती समासादिप्रासादमगमत् । रोहकं च सर्वेषां मन्त्रिणां मूर्द्धानिषिक्त मन्त्रिणमकार्षीत् तदेवं भरहसिलेति व्याख्यातम् ॥ १॥ ता आकृतिं च तस्यातिमनोहरामवझोक्य स्वचेतसि कस्पयामासंप्रति पणयति व्याख्यायते।द्वौ पुरुवा एको ग्रामेयकः अप स स एष रत्नाकरो यः स्वप्ने मया रात्री दृष्टः ततस्तन कृतकरारो नागरिकः । ततो ग्रामेयकः स्वग्रामाच्चिभिटिका पानयन् जग्निसंपुटेन विनयपुरःसरमा नाषितः श्रेणिकः। कस्य यूयं प्राचू. प्रतोलीद्वारे वर्तते तं प्रति नागरिकाः प्राह यद्येताः सर्वा अपि र्णिकाः । श्रेणिक उवाच नवतामिति । ततः स एवं नूतवचनश्रतव विजिटिका नवयामि ततः किं में प्रयच्छसोति प्रामेयकः वणतो धाराहतकदम्बपुष्पमिव पुत्रकितसमस्ततनुयधिः सबहुआह योऽनेन प्रतोत्रीद्वारेण मोदको न याति तं प्रयच्छामि ततो मानं स्वगृहं नीतवान् श्रेणिक नोजनादिकं च सकसमप्यात्मनाहाच्यामपि बकं पणितं कृताः साक्विणो जनाः ततो नागरिकेण ऽधिकतरं संपादयामास पुण्यप्रभावं च तस्य प्रतिदिवसमात्मनो ताः सर्वा अपि चिर्नटिकाः मनाक २जकित्वा मुक्ताः नक्तं च धनबाजवृष्टिसंभवेनासाधारणमनिसमीक्ष्यमाणः कतिपयदिनाग्रामेयकं प्रति नकिताः सर्वा अपि त्वदीयाः चिमिटिकास्ततो तिक्रमे तस्मै स्वहितरं नन्दानामानं दत्तवान् श्रेणिकोऽपि तया मे प्रयच यया प्रतिझातं मोदकमिति । ग्रामेयकः प्राह न मे चि- सह पुरंदर श्व पौझोम्या मन्मथमनोरथनापूरयत्पञ्चविधभोगनिटिका भक्विताः ततः कथं ते प्रयच्छामि मोदकमिति नागरिक: बालसा बनूव । कतिपयवासरातिकमे च नन्दाया गर्भाधानमप्राह । भक्किता मया सर्वा अपि चिनिटिका यदि न प्रत्येषितर्हि लत् श्तश्च प्रसेनजित्स्वान्तसमयं विभाव्य श्रेणिकस्थ परंपरया प्रत्ययमुत्पादयामीति । तेनोक्तमुत्पादय प्रत्ययम् ततो द्वाभ्यामपि वार्तामधिगम्य तदाकारणाय सत्वरमुष्ट्रवाहनान् पुरुषान् प्रेषयाविपणिवीय विस्तारिता विक्रयाय चिनिटिकाः समागतो जनः मास ते च समागत्य श्रेणिकं विज्ञप्तवन्तो देव ! शीघ्रमागम्यतां क्रयाय ताश्च चिमिटिका निरीक्ष्य बोको वक्ति ननु भकिताः देवः सत्वरमाकारयति ततो नन्दा समापन्नसत्वामापच्छ “अम्हे सर्वा अपि त्वदीयाचिभिटिकाःतत्कथं वयं गृहीमः एवं लोकेनोक्त रायगिहे पंसुरखुडू गोपाला । जइ अम्हेहिं कजं तो एजहंत्ति" साक्तिणां ग्रामयकस्य च प्रतीतिरुदपादि कृनितो ग्रामयका हा एतद्वाक्यं क्वचित् निखित्वा श्रेणिको राजगृहं प्रति चलितवान् कथं नु नाम मया तावत्प्रमाणो मोदको दातव्यः। ततः स जयेन नन्दायाश्च देवसोकच्युतमहानुनावगर्भसत्वप्रभावतः एवं दौहकम्पमानो विनयनमो रूपकमेकं प्रयच्छति नागरिको नेच्छति दमुदपादि यदहं यदि प्रवरकुजरमधिरूढा निखिमजनेच्या धनततो के रूपके दातुं प्रवृत्तः तथापि नेच्छति । एवं यावच्छतमपि दानपुरस्सरमभयप्रदानं करोमीति पिता च तदित्थंनृतदोहृदरूपकाणां नेच्छति ततस्तेन ग्रामेयकेण चिन्तितं हस्ती हस्तिना । मुत्पन्नं ज्ञात्वा राजानं विज्ञप्य पूरितवान् कासक्रमेण च प्रवृत्त Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५६) अभिधानराजेन्द्रः । उपपत्तिया प्रसवसमये प्रातरादित्यविम्बमिव दश दिशः प्रकाशयन्नजायत परमसूनुस्तस्य च दौहृदानुसारेण अभय इति नाम चक्रे सोsपि चाजयकुमारो नन्दनवनान्तर्गतकल्पपादप ष तत्र सुखेन परिवर्द्धते शास्त्रग्रहणादिकमपि यथाकालं कृतवान् । अन्यदा च स्वमातरं पप्रच्न मातः ! कथं मे पिताऽभूदिति ततः सा कथयामास मूलत आरज्य सर्व्वं यथावस्थितं शान्तं दर्शयामास च खितान्यहराणि । ततो मातृवचनतापर्यायगमारायचगमता ज्ञातमभयकुमारेण यथा मे पिता राजगृहे राजा वर्तते इति एवं च ज्ञात्वा मातरमभाणीत् व्रजामो राजगृहे सार्थेन सह वयमिति । सा प्रत्यवादीत् वत्स ! यद्भणसि तत्करोमीति ततोऽभयकुमारः स्वमात्रा सह सार्थेन समं चलितः प्राप्तो राजगृहस्थ बहिः प्रदेश ततोऽनयकुमारस्तत्र मातरं विमुच्य किं प्रवर्तते संप्रति पुरे कथं वा राज्ञा दर्शनीय इति विचिन्त्य राजगृहं प्रविष्टः । तत्र पुरःप्रवेशे एव निर्जलकूपतटे समन्ततो लोकः समुदायेनावपूर्ण चाकुमारेण कि मित्येष लोकnaareeः ततो लोकेनोक्तम् । अस्य मध्ये राज्ञो त्याजरणमास्ते तयो नाम त स्थितः स्वहस्तेन गृह्णाति तस्मै राजा महती वृद्धिं प्रयच्छतीति तत एवं श्रुते पृशः प्रत्यासयो राजनियुक्ताः पुरुषाः तैरप्येवमेव कथितं ततोऽजयकु मारणोक्तमहं तटे स्थिती गृहीष्यामि राजनियुक्तः पुरुषैरुक्तं गृहाण त्वं यत्प्रतिज्ञातं राज्ञा तदवश्यं करिष्यते ततोऽजयकुम्प रंग परिचितमल्याभरणं । सम्य तत आगोमा संलग्नं तत्तत्र ततस्तस्मिन् शुष्के मुक्तं कूपान्तरात्पानीयं भृतो जोग परिपूर्णः स कूपः तरति योपरि खोल्यारणः शुष्कगो मवस्ततस्तदस्थेन सता गृहीतमङ्गल्याभरणमजकुमारेण कृत " नन्दकोमल होकेन निवेदितं राहो राजनियुक्तेः पुरुराकारितोऽजयकुमारो राज्ञा, गतो राज्ञः समीपं मुमोच पुरतो. व्याभरणं पृष्टश्च राज्ञा वत्स ! कोऽसि त्वम् । अभयकुमारेणोक्तम् । हेदेव ! युष्मदपत्यं राजा प्राह कथम् । ततः प्राक्तनवृत्तान्तं कथि तवान् ततो जगाम महाप्रमोदं राजा चकारोत्सङ्गे अभयकुमार चुम्बितपासने शिरसि पृथ्ध श्रेणिकेनाभयकुमारो सकते माता वर्तते देव ! बहिः प्रदेशे ततो राजा सपरिच्छदः तस्याः सन्मुखमुपागमत् । अभयकुमारश्चाग्रे समागत्य कथयामास सवे नन्दायाः ततः सात्मानं मएकयितुं प्रवृत्ता निषिका व अनकुमारेण मातर्न कम्पते खीणां निजपादितानां नि पतिदीनमन्तरेण भूषणं कर्तुमिति समागती राजापपात राह पादयन् सन्मानित पणादिदानेनातीय राज्ञा सस्ने प्रवेशिता महाविनृत्या नगरं सपुत्रा स्थापितश्चाभयकुमारोऽमा. त्यपदे पति अजयकुमारस्योत्पत्ति की बुद्धिः ॥ ४॥ था (पत्ति ) पटोदाहरणसद्भावना द्वौ पुरुषौ एकस्य श्राच्छादनपटः सौत्रिको ऽपरस्योसमयः तौ च सह गत्वा युगपत्स्नातुं प्रवृत्तौ तत्रोपमयपटस्वामी स्वपदं विमुच्य द्वितीसकसीपित्वा गन्तु प्रस्थितो द्वितीयो वाचते स्वपन प्रयच्छति ततो राजकुले च व्यवहारो जातः ततः कारणयोरपि सिरसी कंकतिकावलेखिते ततो चलेने कृते सति ऊमयपटस्वामिनः शिरसः ऊर्णावयचा विनिर्जग्मुः ततो ज्ञातं नूनमेन सीषिकपटस्य स्वामीति निगृहीतोऽपरस्य समर्पितः सौचिकपटः कारणिकानामीत्य०. त्तिकी बुद्धि (सरइति ) सरोदाहरणंतद्भावना कस्यचि त्पुरुषस्य पुरोषमृत्सृजतः सररो गुदस्याधस्ताद्विलं प्रविशन् पुच्छेन गुदं स्पृष्टवान् ततस्तस्यैवमजायत शङ्का नूनमुदरे मे उप्पत्तिया सरदः प्रविष्टः ततो गृहं गतो महतीमधृतिं कुर्व्वन्नऽतीव दुर्बलो बभूव वैद्यं च पप्रच्छ वैद्यश्च ज्ञातवानसंभवमेतत् केवलमस्य कथंचिदाशङ्का समुदयादि ततः सोमादीन् यदि मे शतं रूपकाणां प्रयच्छसि ततोऽहं त्वां निराकुलफिरोमि तेन प्रतिपन्नं ततो वैद्यो विरेचकौषधं प्रदाय तस्य लाक्षारससरितं कृत्वा सर घटे प्रक्षिप्य तस्मिन् परे पुरीषोत्स कारितवान् ततो वैद्येन दर्शितः तस्य पुरीपखति घंटे सरटो व्यपगता तस्य सर्वा शङ्का जातो बलिष्ठशरीरो वैद्यस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ ६ ॥ 66 33 (कायास) काफीदाहरणं तावना बेचारे नगरे केनापि सौगतेन कोऽपि खेतपरक पृष्ठ भो ! सर्वा किल तचान्तापुत्रकाका सूर्य तत्कथय कियन्तो अन पुरे बसन्ति वायसाः ततः क्षुल्लकश्चिन्तयामास शठोऽयं प्रतिशटाचरणेन निलडनीयः ततः स्वबुद्धियशात्वं पठितवादसट्ठि कागसहस्सा, इह यं छिन्नायडे परिवसति । जह ऊणगयं वसिया, अभदिया पाहुणा श्राया ततः स भिक्षुः प्रत्युत्तरं दातुमशक्नुवन लकुडाहतशिरस्क इस शिक यमानो मीनमाधाय गत इति बुझफस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ श्रथवा श्रपरो वायसदृष्टान्तः कोऽपि क्षुल्लकः केनापि भागवतेन दुष्टबुद्ध्या पृष्टो भोः क्षुल्लक ! किमेष काको विष्ठामितस्ततो विक्षिपति क्षुलकोऽपि तस्य दुष्टबुद्धितामवगम्य तन्मर्म्मवित् प्रत्युतरं दत्तवान् युष्मत्वा च जले ले च सर्वज व्यापी विष्णुरभ्युपगम्यते ततो यौष्माकीणं सिद्धान्तमुपश्रुत्य पोऽपि पायसोऽचिन्तयत् किमस्मिन पुरीचे समस्ति विष्णुः किं वा नेति ततः स एवमुक्तो वाणाहतमर्मप्रदेश व घूर्णितचे तनो मौनमचलम्य रूपा धूमायमानो गतः इति शुनकस्यीत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ ७ ॥ (उधारेति) उच्चारोदाहरणं तद्भावना कचित्पुरेकोऽपि रजातीयः तस्य भार्या अभिनवयौवनोद रमणीया लोचनयुगलच क्रिमावलोकनमहाभल्लीनिपातनताडितसकलकामिकुरङ्गहृदया प्रवलकामोन्मत्तमना आखीत सोध्दा विजातीयतया भार्यया सह देशान्तरे गन्तुं प्रवृत्तोऽपान्तरात्रे च धूर्तः कोऽपि पथिको मिलितः । सा च धिग्जातीया जाय तस्मिन् रति बरुवती ततो धूर्तः प्राह मदीया एषा नार्या धिरजातीय प्राद महति ततो राज व्यवहारो जातः । ततः कारणिकैर्द्वयोरपि पृथक कृत्य ह्यस्तनदिननुक्त आ हारः पृष्टो विजातीयेनोकं मया ह्यस्तनदिने तिला प्रतितास्तकार्यया च । धूर्तेनान्यत्किमपि उक्तं ततो दत्तं तस्याः कारणिकैर्विरेकोषधं जाता विरेको दृष्टाः पुरीषान्तर्गतास्तिला दत्ता सा धिरजाती यस्य निर्धाटितो धूर्तश्च। कारणिकानामौत्पति की बुद्धिः गपति) गजोदाहरणं तद्भावना वसन्तपुरे नगरे कोडवि राजा युद्धातिशयस मन्त्रिषमाणः चतुष्पथे तिनमा ज्ञानस्त बन्धयत्या घोषणामी करत योऽमुं दस्तिनं सोय ति तस्मै राजा महतीं वृत्तिं प्रयच्छतीति इमां घोषणां श्रुत्वा कचिदेकः पुमान्तं हस्तिनं महासरसि नावमारोपयामास तस्मिंश्रारूढे यावत्प्रमाणा नौर्जले निमग्ना तावति प्रमाणे रेखामदात् ततः समुत्तारित हस्ती त प्रति कल्पना जस्ते च तावत्प्रविप्ताः यावत् रेखां मर्यादी कृत्य जले निमग्ना नौस्ततस्तालिताः सर्वे ते पाषाणाः कृतमेकत्र पत्रपरिमाणं निवेदितं राज्ञे देव तावत्पन्नपरिमाणो हस्ती वर्तते ततस्तुतोष राजा तो मन्त्रनिधिकः परमो मतप १० (पाय नमस्तऽदाहरणं विडो नाम कोपि पुरुषो राहत Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५७) उत्पत्तिया अनिधानराजेन्त्रः। नप्पत्तिया प्रत्यासन्नवर्ती तं प्रति राजा निजदेवी प्रशंसति अहो निरामया ततः स पुरुषः तथैव कृतवान् । सा चारटन्ती पश्चावन्ना मे देवी या न कदाचिदपि वातनिसर्ग विदधाति । विटः प्राह समागच्चति पुरुषोऽपि तामारटन्तीं दृष्ट्वा मूढचेता मन्दं ५ देव!म भवतीदं जातुचित । राजा अवादीतू कथं विट आह खेटयामास ततःप्रावर्तत तयो स्तद्भार्याव्यन्तयॉर्निष्ठरभाषणादिका देव धूर्ता देवी ततो यदा सुगन्धिपुष्पाणि चूर्मावासा स्वां सम- परस्परं काहः ग्रामे च प्राप्ते जातः तयो राजकुने व्यवहारः पुरुप्पयति नासिकाने तदा झातव्यं वातं मुश्चतीति ततोऽन्यदा राझा षश्च निर्मयमकुर्वन्नुदासीनो वर्तते । ततः कारणिकैः पुरुषो दूरे तथव परिभावितं सम्यगवगते च हसितं ततो देवी हसननिमि व्यवस्थापितो भणिते च द्वे अपि स्त्रियौ युवयोर्मध्ये या काचितकयनाय निर्बन्धं कृतवती ततो राजाप्रतिनिर्बन्धे कृते पूर्ववृत्ता दमुं प्रथम हस्तेन संस्पृश्यति तस्याः पतिरेष न शेषायाः । ततो न्तमचकयत् । ततश्चुकोप तस्मै विटाय देवी आइप्तो देशत्या व्यन्तरी दूरतः हस्तं प्रसार्य प्रथम स्पृष्टवती ततो ज्ञातं कारणिगेन । तेनापि जझे नूनमकथयत् पूर्ववृत्तान्तं देवो देव्यास्तेन मे चु' कैरेषा व्यन्तरीति। ततो निर्धाटिता द्वितीया च समर्पिता स्वपतेः। कोप देवी । ततो महान्तमुपानहां जरमादाय गतो देवीसकाशं कारणिकानामौत्पत्तिकी बुकिः१५ (इत्थित्ति) ज्युदाहरणं तद्भाविज्ञापयामास देवीम् । देवि! यामो देशान्तराणि देवी नपानहीं वना मूत्रदेवकारीको सह पन्थानं गन्तः श्तश्च कोऽपि सजरं पायें स्थितं दृष्ट्वा पृथ्वती रे किमेष उपानहांजरः । सोऽवा नार्याकः पुरुषः तेनैव पथा गन्तुं प्रावर्तत कएमरीकश्च दूरस्थितः दीतू देवि यावन्ति देशान्तराण्येतावतीनि रुपानद्भिर्गन्तुं शक्ष्या तद्भार्यागतमतिशायि रूपं दृष्ट्वा सानियापो जातः कथितं च तेन मि तावत्सु देव्याः कीर्तिविस्तारणीया ततएवमुक्ते मा मे सर्वत्रा मूबदेवस्य यदीमा मे संपादयसि तदाहं जीवामि नान्यथेति ततो प्यपकीर्तिर्जायतेति परिनाव्य देवी बलात् तं धारयामास । चिट मूत्रदेवोऽवादीत मात्वरीनूरहं ते नियमतःसंपादयिष्यामि । ततस्यौत्पत्तिकी बुकिः ॥ ११ ॥ स्तौ द्वावप्यनक्तिी सत्वरं दूरतो गती ततो सत्रदेवःकएमरीक(गोलोत्ति) गोलकोदाहरणं तद्भावना लाक्षागोलकः क- मेकस्मिन्धननिकुब्जे संस्थाप्य पथि कलस्थितोवर्तते ततः पश्चास्यापि बालकस्य कथमपि नासिकामध्ये प्रविष्टः तम्मातापि- दायातः सनार्याकः स पुरुषो भणितो मूत्रदेवेन । भो महापुरुष! तरावतीव आर्ती बभूवतुः दर्शितो बालकः सुवर्णकारस्य तेन महिलाया मेऽस्मिन्वननिकुञ्ज प्रसवो वर्तते ततः कणमात्र च सुवर्णकारेण प्रतप्ताग्रभागया लोहशलाकया शनैः २ यत्न- निजमहिलां विसर्जय, विसर्जिता तेन आगता कएमरीकपार्श्व तो लाक्षागोलको मनाक प्रताप्य सवापि समाकृष्टः सुवर्ण- ततः क्वणमात्रं स्थित्वा समागता । "आगंतण य तत्तो, पायं कारस्योत्पत्तिकी बुद्धिः।१श (खंभत्ति)स्तम्भोदाहरणं तद्भा- घेतण मूलदेवस्स । धुत्ती जण हसंती, पियं खुणे दारो वना । राजा मन्त्रिणमेकं गवेषयन् महाविस्तीर्णतटाकमध्ये जायो" द्वयोरपि तयारीत्पत्तिकी बुद्धिः ॥१६॥ स्तम्नमेकं निक्षेपयामास तत एवं घोषणां कारितवान् यो ना (पत्ति)पतित्यान्तः तद्भावना द्वयोात्रोरेका भार्या लोके म तटस्थितोऽमुं स्तम्भं दवरकेण बध्नाति तस्मै राजा शतस च महाकौतुकमहो द्वयोरप्येषा समानुरागेति पतच श्रुतिपरंपरहनं प्रयच्छति तत एवं घोषणांधुत्वा कोऽपि पुमान् एकस्मि या राज्ञाऽपि थुतं परं विस्मयमुपागतो राजा । मन्त्री ब्रूते देव! न न तटप्रदेशे कोलके भूमौ प्रक्षिप्य दवरकेण बध्वा तेन दवर- भवति कदाचिदप्येतदवश्यं विशेषः कोऽपि भविध्यति राज्ञोक्तं केण सह सर्वतस्तटे परिभ्राम्यन् मध्यस्थितं तं स्तम्भं बद्ध- कथमेतदवसेयम् । मन्त्रीव्रते देवाचिरादेव यथा ज्ञास्यते तथा वान् लोकेन च बुद्धयतिशयसंपन्नतया प्रशंसितो निवेदितश्च यतिप्यते। ततो मान्त्रिणा तस्याः खिया लेखःप्रेषितो यथा द्वायपि राशो राजनियुक्तः पुरुषैः तुतोष राजा ततस्तं राजा मन्त्रिण- निजपती ग्रामद्वये प्रेषण यावेकः पूर्वस्यां दिशि विवक्तिते प्रामेऽ मकार्षीत् तस्य पुरुषस्योत्पत्तिकी वुद्धिः१३ (खुल्लत्ति) क्षुल्लको परोऽपरस्यां दिशि । तस्मिन्नेव च दिने द्वाज्यामपि गृहे समादाहरणं तद्भावना कस्मिंश्चित्पुरे काचित्परिव्राजिका सा यो गन्तव्यम् । ततस्तया यो मन्दवल्लभः स पूर्वस्यां दिशि प्रेषितोड यत्करोति तदहं कुशलकर्मा सर्व करोमीति राशः समक्षं परोऽपरस्यां दिशि । पूर्वस्यां दिशि यो गतः तस्य गच्चतः प्रतिज्ञां कृतवती राजा च तत्प्रतिज्ञासूचकं पटहमुद्घोषया आगच्छतश्च संमुखः सूर्यः । यः पुनरपरस्यां दिशि गतः तस्य मास । तत्र च कोपि क्षुल्लको भिक्षार्थमटन् पटहशब्दं धृतवान् गच्चतः आगच्चतश्च पृएतः । एवं च कृते मन्त्रिणा झातमयं मन्दश्रुतश्च प्रतिशार्थः ततो धृतवान् पटह प्रतिपन्नो राजसमक्ष बनभोऽपरोऽत्यन्तबल्लभः । ततो निवेदितं राझो राम चन व्यवहारो गतो राजकुले क्षुल्लकस्ततस्तं लघु दृष्ट्वा सा परिवा प्रतिपन्नं यतोऽवश्यमेकः पूर्वस्यां दिशि प्रेषणीयोऽपरोऽपरस्यां जिकात्मीयं मुखं विकृत्यावशयाभिधत्त कथय कुतो गिलामि तत एवमुक्ते जुल्लकः खं मेदं दर्शितवान् ततो हसितं स दिशि । ततः कथमेष विशेषोऽवगम्यते ततः पुनरपि मन्त्रिणा वैरपि जनैरुधुएं च जिता परिव्राजिका तस्या एवं कर्तुमश लेखप्रदानेन सा महे सोक्ता छावपि निजपती तयोरेव ग्रामयोः तत्वात् ततः शुल्लकः कायिक्या पद्ममालिखितवान् सा कर्तुं समकं प्रेषणीयौ तया च ती तथैव प्रेषितौ मन्त्रिणाच ही पुरुषों न शक्नेति ततो जिता परिवाजिका ।कुलकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः।१४। तस्याः समीपे समकं तयोः शरीरापाटवनिवेदको प्रेषितौ (मग्गति) मार्गोदाहरण तद्भावना कोऽपि पुरुषो निजनार्या द्वान्यामपि च सा समकमाकारिता ततो यो मन्दबद्धभशरीरगृहीत्वा वाहनेन ग्रामान्तरं गच्छति अपान्तराले च कचित्प्रदेशे पाटवनिवेदकः पुरुषस्तं प्रत्याह स देवो मन्दशरीरी द्वितीयोऽ शरीरचिन्तानिमित्त तद्भार्या वाहनापुतीर्णवती तस्यां च शरीर त्यातुरश्च वर्तते ततस्तं प्रत्यहं गमिष्यामि । तथैव कृतं ततो चिन्तानिमित्तं कियद्भभागं गतायां तत्प्रदेशवर्तिनी काचित् निवदितं राको मन्त्रिणा प्रतिपन्नं राज्ञा तथेति । मन्त्रिण औत्पत्ति की बुद्धिः ॥२७॥ व्यन्तरी पुरुषस्य रूपसौजाग्यादिकमवलोक्य कामातुरा तद्रूपे (पुत्तत्ति) पुत्रदृष्टान्तः तद्भावना कोऽपि वणिक तस्य द्वे पल्यौ णागत्य वाहनं विलग्ना सा च तद्भार्या शरीरचिन्तां विधाय एकस्य पुत्रोऽपरा वन्ध्या परं सापि तं पुत्रं सम्यक्पाअयति ततः यावद्वाहनसमीपमागमति तावदन्यां स्त्रियमात्मसमानरूपां वाहः । स पुत्रो विशेष न जानीते यथेयं में जननी श्ये नेति सोऽपि चणिनरूढां पश्यति सा च व्यन्तरी पुरुषं प्रत्याह एषा काचित् व्यन्त-। क सनार्यापुत्रो देशान्तरं गतो गतमात्र एव परासुरभूत् ततेारीमदीयं रूपमाचर्य तव सकाशमागच्चति ततः खेटय सत्वरं द्वयोरपि तयोः कनहोजायत। एका जति मर्मष पुत्रस्ततोऽई Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५८) नप्पत्तिया अभिधानराजेन्डः। उप्पत्तिया गृहस्वामिनी द्वितीया तु वक्ति का त्वं ममैष पुत्रः ततोऽहमेव. लकः प्रक्षिप्तः । आकारितो द्रमकः पार्श्व चोपवेशितः पुरोधा गृहस्वामिनीति । एवं तयोः परस्परं कहे जाते राजकने व्यव- द्रमकोऽपि तथात्मीयं नवलकं रष्ट्वा प्रमुदितहदयो विकसितहारो जातः । ततोमात्यः प्रतिपादयामास निजपुरुषान् भो पूर्व- लोचनोऽपगतचित्तसून्यताभावः सहर्षे राजानं विज्ञापयितुं अन्य समस्त बिन्नज्य ततो दारकं सौ नागौ करपत्रेण कुरुत प्रवृत्तो देव! देवपदानां पुरत एवमाकारो मदीयो नवलकस्तकृत्वा बैंक खण्डमेकस्यै समर्पयत द्वितीयं द्वितीयस्यै । तत एत- तो राजा तस्मै समर्पयामास । पुरोधसो जिह्वाच्छेदमचीकर दमात्यवाक्यं शिरसि महाज्वमासहस्रावलीढवनोपनिपात- त् । रामः औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥१०॥ कल्पं पुत्रमाता श्रुत्वा सोत्कम्पहदयान्तः प्रविष्ठतिर्यशिलेषदुः- (अंकत्ति) अङ्कर शान्तभावना कोऽपि पावें रूपकसहस्रनवखं वक्तुं प्रवृत्ता हेस्वामिन्! महामात्यन ममेष पुत्रोन मे किश्चिदर्थे- | सकं निक्तिप्तवान् तेन च निक्केपग्राहिणा तं नषलकमधः प्रदेशे नप्रयोजनमतस्या एव पुत्रो भवत्वियं गृहस्वामिनी व अहं पुनरमुं| चित्या कूटरूपकाणां संतृतः तथैव च सीवितः । ततः कानापुत्र दूरस्थितापि परगृहेषु दारिरुधमाप कुर्वती जीवन्तं क्या- न्तरे तस्य पायोनिनक्केपस्वामिना स्वनिक्केपो गृहीतः परिनावितः मि तावता च कृतकृत्यमात्मानं प्रपत्स्ये।पुत्रेण विना पुनरधुनापि | सर्वतः तथैव दृश्यत्ते मुहादिकं तत उद्घाटिता मुका यावत् रूपसमस्तोऽपि मे जीवनोकोऽस्तमुपयाति इतरा च न किमपि वक्ति कान् परिजावयति तावत्सर्वानपि कटान्पश्यति ततो जातो राततोऽमात्येन तांसुःखां परिभाव्य उक्तमेतस्याः पुत्रो नास्याति। जकुखेन तयोर्व्यवहारः । पृष्टः कारणिकैनिकंपस्वामी जोः कतिसैवच सर्वस्य स्वामिनी कृता द्वितीया तु निर्धाटिता अमात्यस्यी संख्यास्तव नवस के रूपका आसीरन सप्राह सहस्त्रं ततो गणत्पत्तिकी बुकिः १० नरहसिसंमेढत्यादिकाच गाथा रोहक संविधा यित्वा रूपकाणां सहस्र तेन नृतः स नवसका स च परिपूर्ण नसूचिका सा च प्रागुक्तकथानकानुसारेण स्वयमेव व्याख्यया । तृतः केवनं यावन्मानमधस्ताच्छिन्नस्तावन्यून ति परिसी(मधुसिकेत्यादि) मधुयुक्तं सिक्थं तदृष्टान्तावना कश्चित्कौलि- वितुं न शक्यन्त ततो ज्ञातं कारणिकैः नूनमस्याऽपहृता रूपकाः कातस्य नार्या स्वैरिणीसाचान्यदा केनापि पुरुषेण सह कचित्प्र- ततो दापितो रूपकसहस्रमितरो नवबकस्वामिनः । कारणिकादेशे जामिकामध्ये मैथुनं सेवितवती मैयुनस्थितया च तया परि नामीत्पत्तिकी बुकिः॥२१॥ भ्रामरमुत्पन्नं दृष्ट कणमात्रानन्तरं च गृहे समागता। द्वितीयेच दि (नाणत्ति) कोऽपि कस्यापि पार्श्वे सुवर्णपणनृतं नवलकं किवसे स्वभर्ता मदन कीणस्तया निवारितो मा क्रीणीहि मदनं म प्तवान् ततो गतो देशान्तरं प्रजूते च कालातिक्रान्ते निक्केपनाही हत चामरमुत्पन्नं दर्शयामि । ततः स क्रयणाद्विनिवृत्तो गती चतौ तस्मान्नवलकाज्जात्यसुवर्णमयान पणान् गृहीत्वा हीनवर्णकसुद्वावपि तां जाहिं न पश्यति सा कथमपि कौलिकी वामन दृष्ट वर्णपणान् तावत्संख्याकान् तत्र प्रक्तिप्तवान् तथैव च स नवलकः वती ततो येन संस्थानेन मैथुनं सेवितवती तेन संस्थानेन स्थिता तेन सीवितः ततः कतिपयदिनानन्तरं स नवलकस्वामी देशाततो भ्रामरं रष्टवती दर्शयामास च कौलिकाय कौलिकोऽपि न्तरादागतः स्वं च नवलकं तस्य पार्श्वे याचितवान् सोऽपि सच तथारूपं संस्थानमवलोक्य ज्ञातवान्नूनमेषा दुराचारिणी मर्पयामास परिजावितं तेन मुजादिकं तथैव दृष्टम् । ततो मुखां ति । कौलिकस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः।। १९॥ स्फोटयित्वा यावत्पणान्परिनावयति तावकीनवर्णसुवर्णकमयान् (मुद्दियति) मुद्रिकोदाहरणं तद्भावना कचित्पुरे कोऽपि पश्यति ततो बजूव राजकुले व्यवहारः पृष्टं च कारणिकैः कः पुरोधाः सर्वत्र ख्यातसत्यवृत्तिर्यथा परकीयानिक्षेपानादाय कानः आसीत् यत्र त्वया नवनको मुक्त इति । नवलकस्वामी प्रभूतकालातिक्रमेऽपि तथास्थितानेव समर्पयतीति पतञ्च प्राह । अमुक,शति ततः कारणिकैरुक्तं स चिरन्तनकालोऽधुना हात्वा कोऽपि द्रमकः तस्मै स्वनिक्षेपं समर्प्य देशान्तरं प्रभू- तनकामकृताश्च रश्यन्तेऽमी पणास्ततो मिथ्यानापी नूनमेष निततरमगमत् प्रभूतकालातिक्रमे च भूयोऽपि तत्रागतो याच- केपग्राहीति दधिमतो दापिताश्च तस्य तावत्पणास्तमिति । कारते स्वं निक्षेपं पुरोधाश्च मूलत एवापलवति कस्त्वं कीरशो णिकानामौत्पत्तिकीबुद्धिः ॥२२॥ वा तव निक्षेप इति । ततःस रङ्को वराकः स्वनिक्षेपमलभमा- (जिकडेत्ति) भिकदाहरणं तद्भावना कोपि कस्यापि निको नःशून्यचित्तो बभूव । अन्यदा च तेनामात्यो गच्छन् दृष्टो या- पार्श्वे सुवर्णसहनं निक्किप्तवान् कालान्तरे याचतेसच निकुर्न प्रयचितश्च देहि मे पुरोहित ! सुवर्णसहस्रप्रमाणं निक्षेपमिति । यतिकेवलमद्यकल्ये वा ददामीति विप्रतारयति ततस्तेनातत एतदाकर्य अमात्यः तद्विषयकृपापरीतचेताः बभूव । तकारा अवनगितास्ततस्तैःप्रतिपन्नं निश्चितं दापयिष्यामः। ततो ततो गत्वा निवेदितं राशः कारितश्च दर्शनं द्रमकोऽपि राज्ञा घूतकारा रक्तपटवेषेण सुवर्णखोटिकां गृहीत्वा समागता वदन्ति भणितः पुरोधा देहि तस्मै द्रमकाय स्वं निक्षेपमिति । पुरोहितोऽवादीत् देव! तस्याहं न किमपि गृहामि । ततो राजा च वयं चैत्यवन्दनाय देशान्तरं यियासवो यूयं परमसत्यतापात्रमौनमधात् । पुरोधसि च स्वगृहं गते राजा विजने तं द्रमकं मत पताः सुवर्णखोटिका युष्मत्पावें स्थास्यन्ति एतावति चावपृष्टवान् रे कथय! सत्यमिति ततस्तेन दिवसमहर्तस्थानपा सरे पूर्व संकेतितः स पुरुषः आगत्य याचते स्म निको! समववर्तिमानुषादिकं कथितम् ततोऽन्यदा राजा पुरोधसासमं पय स्थापनिकामिति ततो निकुणानिनवमुच्यमानसुवर्णस्रोटिरन्तुं प्रावर्तत परस्परं नाममुद्रा संचारिता ततो राजा यथा का सम्पटतया समर्पिता तस्य स्थापनिका तस्मै। मा पतासामहपुरोधा न वेत्ति तथा कस्यापि मानुषहस्ते नाममुद्रां समर्प्य माजागी जायेयेति बुद्ध्यातेऽपिच द्यूतकाराः किमपि मिषान्तरं कृत्वा तं प्रति बमाण रे पुरोधसो गृहे गत्वा तद्भार्यामेवं हि यथा स्वसुवर्णखोटिकां गृहीत्वागतान द्यूतकाराणामौत्पत्तिकी बुकिः२३ हं पुरोधसा प्रेषितः इयं च नाममुद्राभिशानं तस्मिन् दिने (चेगानिहाणत्ति) चेटका बालका निधानं प्रतोतं दृष्टान्तभावना तस्यां वेलायां यः सुवर्णसहस्रं नवलको द्रमकसत्कः त्वत्स- द्वौ पुरुषौ परस्पर प्रतिपन्नसखिजावावन्यदा कचित्प्रदेशे तामक्षममुकप्रदेशे मुक्तोऽस्ति तं झटिति समर्पय तेन पुरुषेण ज्यां निधानमुपलेने तत एको मायावी ते स्वस्तनदिने शुभे न तथैव कृतं सापि च पुरोधसो भार्या नाममुद्रां दृष्ट्वाऽभिज्ञान क्वत्र प्रहीष्यामो द्वितीयेन च सरबमनस्कतया तथैव प्रतिपन्नम् । मिलनतश्च सत्यमेष पुरोधसा प्रेषित इति प्रतिपत्रावती । ततस्तेन मायाविना तास्मन् प्रदेशे रात्रावागत्य निधानं गृहीत्वा ततः समर्पयामास तंद्रमकनिक्षेपं तेन पुरुषेणानीय राक्षःस तपाङ्गारकाः प्रक्किप्ततः ततो दितीयदिने तौ द्वावपि नूत्वा गती मपितो राक्षा चान्येषां यहूनां नवलकानां मध्ये सद्रमकनव- दृष्टवन्ती तत्राङ्गारकान् । ततो मायावी मायया स्वोरस्ताम्मान Jain Education Interational Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५९) निधानराजेन्द्रः | उपपक्षिया न्दितुं प्रावर्तत वदति च हा हीनपुण्या वयं देवेन कुर्दत्वा ऽस्माकं समुपाडिते पनिधानमुपदिश्याद्वारका दर्शिताः पुनः पुनम द्वितीयमुखमवलोकते तीन जहे नूनमनेन इस धनमिति ततस्तेनाप्याकारसंचरणं कृत्वा तस्यानुशासनार्थमुचे माययस्याः नबलु बेद पुनर्विधानप्रत्यागमनदे तु । ततो गतौ द्वावपि स्वं गृहं ततो द्वितीयेन तस्य मायाविनो लेप्यमय सजीवेष प्रतिमा कारिता होती प्रतिमा हस्ते शिरसि स्कन्धेयान्यत्र च यथायोग्य तो यो मुक्तवान् ती व मर्केटी कुधापी किती तत्रागत्य प्रतिमाया उत्साहं नहितवन्ती एवं प्रतिदिनं करणे तयोस्तारव शैली समजनि । ततोन्यदा किमपि पर्वाधिकृत्य मायाविनो द्वायपि पुत्री भोजनाय निमन्धितो समागती नोजवायां तद्दे भोजिती च तेन महारण नोजवा च ती महत्ता सुखेनायत्र संगोषित। ततस्ताकदिनावसाने मायाधिकरण तद्गृहमागतः ततो द्वितीयस्तं प्रति ब्रूते मित्र ! तौ तव पुत्रौ म कैटतः स विस्तारमन्यं प्राविशत व्यमणि प्रतिमामुत्साये तत्स्याने समुपावेशितो सुतौ स्वस्था नातू मर्कटी किकप्रायमानी तस्योत्सङ्गे शिरसि स्कन्धे वागत्य विलग्नौ । ततो मित्रमवादीत् जो वयस्य ! तावेतौ तव पुत्रौ तथाच पश्य तव स्नेहमात्मीयं दर्शयतः । ततः स मायावी प्राह वयस्य ! किं मानुषावकस्मान्मर्कटकौ जातौ वयस्य आह जवतः प्रतिकृवशात् तथादि कि सुषमारी प्रवति परमावयोः कर्मप्रातिकूल्यादेतदपि जातं तथा तव पुत्रावपि मर्कटावतामिति। ततो मायार्थी विन्तयामास नूनम सोऽनेन ततो यः शब्दं करिष्ये ततोऽहं राजमा भविष्यामि पुत्री चान्यथा मे न जवतः ततस्तेन सर्वे यथावस्थितं निवेदितं दत्तश्च नागः इतरेण च समर्पित पुत्री तस्योत्पाकी बुद्धिः ॥ २४ ॥ (सिफ्यति) शिक्षा धनुर्वेदे तदुदाहरसभावना कोऽपि पुमानतीव धनुर्वेदकुशलः स परिभ्रमनैकत्रेश्वरपुत्रान् शिक्षवितुं मायतं तेभ्यश्वेश्वरपुत्रेभ्यः प्रभूतं द्रव्यं प्रापितवान् ततः विवादयस्तेषां चिन्तयामासुः प्रभूतमेतस्मै दतवन्तः। ततो य दासौ यास्यति तदैनं मारयित्वा सर्व ग्रहीष्यामः एतच्च कथ मपि तेन ज्ञातं ततः स्वबन्धूनां ग्रामान्तरवासिनां कथमपि ज्ञापितं यथाहममुकस्यां रात्री नयां गोमयपिण्डान् प्र स्वामि भवद्भिस्ते माह्मा इति । ततस्तैस्तथैव प्रतिपद्मं ततो इत्येन संपलिता गोमयपिण्डास्तेन कृता: आतपेन शोषिता स्तत ईश्वरपुत्रान् प्रत्युवाच यथैषोऽस्माकं विधिर्विवक्षितपर्व्वणि स्नानमन्त्रपुरस्सरं ते सर्वेऽपि गोमयपिण्डा मद्यां प्रतिप्यास्ततः समागतो गृहं तेऽपि गोमयपिण्डा नीता वन्धुभिः स्वनामे । ततः कतिपयदिनातिक्रमे तानीश्वरपुवान् तेषां च पित्रादीन् प्रत्येक मुलाप्यात्मानं च वसुमात्रपरिग्रहोपेतं दर्शयन् सर्वजनसमचं स्वप्रामं जगाम विषादिपरिक्षाचितो नास्य पार्श्वे किमप्यस्तीति न मारितः। तस्योत्पत्तिकी द्धिः २५ (अत्थसत्थेति) अर्थशास्त्रमर्थविषयं नीतिशास्त्रं तद्टान्तभावना । कोऽपि वणिक् तस्य द्वे पत्न्यौ एकस्याः पुत्रोऽपरा वन्ध्या परं साऽपि पुत्रं सम्यक् परिपालयति ततः पुत्रो विशेपं न बुध्यते यथेयं मे जननी नेयमिति सोऽपि वणिक सभार्यापुत्रो देशान्तरमगमत् । यत्र सुमतिस्वामिनस्तीर्थकृतो जन्मभूमिः तत्र गतमात्र एव च दिवं गतः सपत्न्योश्च परस्परं कलहोऽभूत् एका ब्रूते ममैष पुत्रः ततोऽहं गृहस्वामिनी द्वितीया तेऽहमिति ततो राजकुले व्यवहारो जातः तथापि उपपरिवाडीकरण न निर्बलति एतच्च भगवति सुमतिस्वामिनि तीर्थकरे गर्भस्थिते जनन्या मङ्गलादेव्या जशे तत आकारिते द्वे अपि ते सपत्न्यी ततो देव्या प्रत्ययादि कतिपयदिनानन्तरं मे पुत्रो भविष्यति स च वृद्धिमधिरूढोऽस्याशोकपादपस्याधस्तादुष विष्टो युष्माकं व्यवहारं छेत्स्यति । तत एतावन्तं कालं यावदविशेषेण खादतां पिबतामिति ततो न यस्याः पुत्रः साऽचिन्तयत् लब्धस्तावदेतावान् कालः पञ्चाद्यद्भविष्यति तन्न जानीमः । ततो दृष्टवदनयाऽनया प्रतिपन्नं ततो देव्या जज्ञे नैषा पुत्रस्य 'मातेति निर्भत्सिता द्वितीया च गृहस्वामिनी कृता । देया श्रौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २६ ॥ ( इत्यी समहत्ति ) काऽपि स्त्री तस्या भर्ता पञ्चत्वमुपागतः सा च वृद्धिप्रयुक्तं लोकेभ्यो न बनते ततः पतिमिश्रं प्रणितवन्ती मम दापय लोकेन्यो धनमिति । ततस्तेनोक्तं यदि मम नाग प्रयच्छसि । तयोक्तं यदिच्छसि तन्मह्यं दद्या इति ततस्तेन लोकेयः सबै व्याहितं तस्यै स्तोकं प्रयच्छति सा नेच्छति ततो जातो राज व्यवहारः ततः कारणादि तत्सर्वमानात ती ही नागी को महान द्वितीयो शत ततः पृष्टः कारणकैः पुरुषः कं भागं त्वमिच्छसि स प्राह महान्तमिति । ततः कारणिकेरकराय विचारितो यदिच्छसि तन्मह्यं दद्या इति त्वं चेच्छसि महान्तं भागं ततो महान् जाग पतस्याद्वितीयस्तु तथेति कारणकानामीत्पत्ति बुद्धिः॥२७ (सपसहस्वति) कोऽपि परिवाजका तस्य रौप्यमयं महाप्र मार्च भाजनं खोयहं स च यदेकवारं गृणोति तत्स राधेयाऽवधारयति ततः स निजमहागर्वमुदद सर्वत्र प्रतिक इतवाद यो नाम ममापूर्ण व्याययति तस्मै ददामदं निजनाजनमिति । न च कोऽप्यपूर्व श्रावयितुं शक्नोति स हि यत्किमपि शृणोति तत्सर्वमस्तं तथैवानुवदति । पतियाऽपीदं मया श्रुतं कथमन्यथाहमस्खलितं जणामीति एतत्सर्व्वं ख्यातिमगमत् ततः केनापि सिकेण प्रति तं प्रत्युकमपूर्व श्रावयिष्यामि । ततो मिलितो न्यान् लोको राजसमकं व्यवहा बनूय ततः सपुत्रोऽपानीत्। "तु पिया मारे अगं सयसहस्सं । जश् सुयपुब्वं दिजन, अह न सुयं खोरदेसु" जितः परिमाजका सिरुपुत्रेण सिरुपुत्रस्योत्पत्तिकीबुद्धिः ॥ २८ ॥ नं० ॥ श्र० म० द्वि० | आ० चू० । आ० क० । - त्रि० कई उपयंतउत्प पतति "उच्चतानि पतंता भता कम्मादयोपगा" प्र०१० उप्पया उत्पतन- न० उत्-पत् ब्युट् ऊर्ध्वगमने, स्था०१० ० उप्पयणिवय-उत्पातनिपात - पुं० उत्पात आकाशे उल्लङ्घनं नि. पातस्तस्मादपतनम् (००) उत्पातपूर्वो निपातो व सिन्स उत्पातनिपातः । नाट्यविधिभेदे, "उपपपपपसतं संकुचियं पसारियरयारइयं भंतं सभं गामं दिव्वं कविहिं उवदंसेत्ति " रा० । जी० । उप्पणी - उत्पतनी-स्त्री० विद्याभेदे, यां जपन् स्वत एव पतत्यन्यं चोत्पातयति ॥ सूत्र० २ ० २ श्र० । उप्पयमाण- उत्पतत्- त्रि० ऊर्द्ध पतति, स्त्रियाम् । “उप्पयमाली विष घरशितलाद" उत्पतन्ती ऊई वान्ती ०६४०॥ " उप्परिवाडी उप्परिवामी - उत्परिपाटी - स्त्री० विपर्यासे, गहणे, चाउम्मासा भवे लडुगा " ग० १ अधि० ॥ उप्परिवामीकरण - उत्परिपाटीकरण - न० विपर्ययकरणे, “उप्प रिवामी करणे, दोसा सम्मं तदा करणे " पं० व० । Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६०) उप्पल अन्निधानराजेन्द्रः। उप्पाय नप्पल-नत्पन्न-न उद्-पत्र-अच् प्राकृते " कगटडतदयशषस उप्पवय-नुत्पत्रजित-त्रि उत्प्रव्रज्य निर्गते, उत्प्रवजितस्तु द्विधा कपा मूर्ध्व झुक" - १२॥ ७७ इति संयोगादे क । प्रा०। पद्म | सारूपी गृहस्थश्च । ध०५ अधि। विशे०।"फुस्झुप्पलकमलकोमझुम्मिलियं” ज्ञा०१०। वि उप्पह-उत्पथ-पु. जन्मार्ग, “आवजे उप्पई जंतु" सूत्र. १ कल्प० । औलागर्दभक, श्वेतकुमदे, प्रा०म०प्र०।"पक्खंत- | श्रु.१ अ.1 ओ। " पंथा उ उप्पहं नेति" नि००३ ३० । रेसु बह पाउमाई जाव सयसहस्सावत्ताई" जी०३प्रतिकाराग | कदर्थे पथि, वाच । ईषन्नीले जबरहे,जं.१ वकानीबोत्पले, जी०३ प्रति । ज०।। उपहजा-उत्पथयायिन-पुं० न० जन्मार्गगामिनि युग्य, तत्तुतं०।साचा रक्तकमले, कल्प० उत्पझं त्रिविधं नीसं रक्तं ख्य निगावशेष, परसमयगते वा पुरुषे च । स्था०३ ग। श्वेतञ्च । वाच । अत एव तत्पशब्दस्य, नीलोत्पलं रक्तकमझं उप्पहेम-देशी। महाराष्ट्रादि देशविशेषप्रसिऽर्थे, प्रा० । गर्दनकनीलोत्पादीत्येवं विभिन्ना अर्था सुपत्रज्यन्ते ( उत्पन्नस्य उपपातः परिमाणमवहार उश्चत्वं यावत्समुद्रात उद्वर्तनाः द्वा नप्पा-नुत्पाद-पुं० प्राकृते स्त्रीत्वं तयारूपत्वं च “एगा उप्पा " त्रिंशता द्वारर्वणप्फर शब्दे वक्ष्यते)कुष्ठे गन्धयविशेष, । "प- प्राकृतत्वापुत्पादः स चैकलमये एकपर्यायापेकया नहि तस्य लमप्पलगंधिए" स । तश्च उत्पनं कुष्ठमिति प्रसिकम् ॥ जं०३| युगपउत्पादद्वयादिरस्ति अनपतिततांद्वशषकपदायेतर वक्क० । जी० । तं० । चतुरशीतावुत्पन्नाङ्गशतसहस्रेषु, जी. ऽसाविति । स्था०१०। ३ प्रति। अनु । स्था० दशमे कल्पे चतुर्थविमाने च ! सः। उप्पाइता-नुत्पादयित-त्रि० उत्पादनशीले, स्था० ७ ग० । - स्वनामख्याते पाश्र्वापत्यीये परिव्राजके, पुं० । अस्थिकग्रामे त्पादके, स्था०४ ग०।। वीरभगवति रामपाणियक्केणोपसृष्टे, “तत्य जप्पलो नाम पुराणो नत्पादयितुम्-अन्य संपादयितुमित्यर्थे, "उप्पाश्त्ता एगे य सपासावचिजतो परिब्वायगो अटुंगमहाणिमित्तजाणगो जणपा प्पए पुवुप्पन्नाणं" स्था०४०। सातो सोऊण मा तित्यगरी होज्जा अट्रिई पकरे। आमाद्वः। उप्पाश्य-औत्पातिक-त्रि० उत्पादने निर्वृत्तमोत्पातिकम्। पांशुआ. क० । “तत्य उप्पनो नाम पच्छाकमो परिवाओ पासावञ्चिजो मित्तिओ भोमनप्यातसुमिणअंतलिक्वअंगसरलक्ख पातादी, तन्निमित्तके अस्वाध्याय च । आव०४ अ० । रुधिरत टचादीनामनिष्टसूचकानां हेतुष्वनर्थेषु, "उप्पाश्यावाही" उत्पातोएवंजण अटुंगमहाणिमित्तजाण यो । प्रा०चू०प० । उत्क्रान्तं पत्रं मांसम् । अत्या० स० । मांसशून्ये, त्रि० । वाच० स्वनामण्यात ऽनिष्टसूचकरुधिरवृष्टचादयस्ततुका येऽनास्तथीत्पातिकाःसा बीपसमुझे च । प्रज्ञा १५ पद। उप्पाश्यपवण-औत्पातिकपवन-पुण्उत्पातजनितवायौ,प्रश्न०३द्वा. नप्पलंग-उत्पमाङ्ग-न० चतुरशीती हुहुकशतसहस्रेषु, जी. उप्पाश्यपव्यय-ौत्पातिकपर्वत-पुं० अस्थानाविके, “ उप्पाइ३ प्रति० । जं० । स्था। यपव्वयं व चंकमंतं सक्खं मत्तं गुझुगुटुंतं" स्वाभाविकपर्वतो हिनचकमते अत उच्यते औत्पातिकपर्वतमिव चक्रम्यमाणम् नप्पलकंद-नत्पाकन्द-पुं० मूषबीजे कन्दनेदे, स्था० ५ ग०।। पागन्तरेण तु औत्पातिकपर्वतमिव । औ० । झा०॥ नप्पनगुम्मा-उत्पनगुल्मा-स्त्री० जम्बूसुदर्शनाया दक्विणपूर्वस्यां नप्पाझ्याविच्चिम्मकोनहात्त-नुत्पादिताविच्छिन्नकौतुहलत्वपूर्वदिशि नन्दापुष्करिण्याम, जी०३ प्रति। ज० श्रोतृणां स्वविषये उत्पादित जनितमविच्छिन्नं कौतृहवं उप्पन्नाणाम-नुत्पझनाम-न.नीलोत्पलादेराधारे,आचा०३श्रु०१० कौतुकं येन तत्तथा । तद्भावस्तत्त्वम् । श्रोतृषु स्वविषयाद्भुतविस्मनप्पनवेंटग-उत्पावन्तक-पुं० उत्पवृन्तानि नियमविशेषाद् गृ-1 यकारितारूपे परुर्विशे सत्यवचनातिशये, रा॥ ह्यतया नैकत्वेन येषां सन्ति ते उत्पत्रवृन्तिकाः । आजीविकश्रम उप्पाडण-उत्पाटन-ननद-पद-णिच-ट्युट-जमेरुक्केपे, प्रश्न णजेदेषु, औ०॥ १द्वा० । नत्खनने, “समुत्पाटनतः, शानिरपि फलावदः पुंसः" उप्पाहत्थग-नतालहस्थक-पुं० उत्पत्राण्यजनजकुसुमविशेषे, । पो० १५ धिवा निवृ०॥ आ० मा द्वि०।जीवारा। उप्पामिय-उत्पाटित- त्रि० उन्मूत्रिते, "उप्पामियनयणदसणवउप्पना-उत्पन्ना-स्त्री० शङ्खभा-याम, स्थाएगा "तस्स सणासणस्स" प्रा० कः॥ णं संखस्स समोवासगस्त उप्पना णामं नारिया होत्या सु. उप्पाय-उत्पात-पुं० न० उत्पतनमुत्पातः। उद्-पत्-ध-कर्ककुमाल जाव सुरुवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव गमने, स्था०१०। प्रकृतिविकार, तद्रूपे सहजरुधिरवृष्टवादी, विहर" ज०१२ श०१०। ( संखशब्देऽन्यत् ) काबस्य तत्प्रतिपादनपरे शास्त्रे च । यथा रागृत्पातादि स्था०९ वा०। पिशाचेन्जस्य तृतीयाग्रमहिण्याम्, न०१००५ १०। (तस्या प्रश्न। स० । अनु० । सूत्र: । आव.।" साहिए वरिसाद जवत्रयवक्तव्यता अग्गमहिसी शब्दे नुक्ता)नीमानिधानकूटग्रा जम्मि जाय भन्न तमुप्पायं" सहजरुधिरवृपयादि यस्मिन् हिणो भार्यायाम, यस्याः पुत्रो गोत्रासो मृत्वा भरकं गत्वा ततो जायते तदुत्पातानिधं निमित्तम् । श्रादिशब्दादस्थिवृश्यादिपरि. विजयसार्थवाहस्य भायामुजितको नामदारकोऽनवत्। विपा० ग्रहः । यया “मजानि रुधिरास्थीनि, धान्यागारान् वशास्तथा २०(वक्तव्यता नझिययशब्दे उक्ता)जम्वाः सुदर्शनाया दक्कि । मघवा वर्षते यत्र, भयं विद्याश्चतुर्विधमित्यादि । प्रव० । अन्नाणपूर्वस्यां पश्चिमायां दिशि नन्दापुष्करिण्याम, जी०३ प्रति०।। दिविकारवत् विस्तरतः परिणामत उत्पातः " पंसुयमंसरुहिरे, उप्पनिणीकंद-नुत्पलिनीकन्द-पुं० जनजवनस्पतिविशेषे, “प. | केससिमाबुहितहरनग्याए । मंसंसिलारुहिरे, अहोरत्तं अवससे उमप्पझिणीकदे, अंतरकंदे तहेव झिल्ली य । एते अणंतजीवा | जचिरं सुत्तं" इत्येवं रूपे उत्पाते ऽस्वाध्यायिक क्रियत इति एगो जीवोजिसमुणावे"। प्रशा० १ पद। . प्रा०चू। आव०॥ (विस्तरतोवर्णनमसज्माश्य शब्दे )चत्पातविनप्पलज्जला-उत्पलोज्वमा-खी० जम्ब्याः सुदर्शनाया दकिण- चारोऽङ्गविद्यासुदर्शितोवृहत्संहितासु च । शुभाशुजसूचकोत्पातश्च पूर्वस्यामुत्तरस्यां नन्दापुष्करिण्याम, जी०३ प्रतिः । । दिव्यान्तरीकनीमनेदात् त्रिविधः । स च वृहत्संहितायां यया Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६१ ) अभिधानराजेन्द्रः | उपाय यानत्रेरुत्पातान्, गर्गः प्रोवाच तानहं वक्ष्ये । तेषां सोऽयं, रम्यमुत्पातः ॥ अपचारेण नराणामुपसर्गः पापस याद्भवति । संवन्ति दिव्या तरी माता ॥ मनुजानामपचार(दपरक्ता देवताः सृजन्त्येतान् । तत्प्रतिघाताय नृपः शान्तिं राष्ट्रे प्रयुञ्जीत । दिव्यं ग्रहकेवैकृत-मुल्कानिर्घातपचपरिवेषाः । गन्धर्वपुरपुरन्दर चापादि पदान्तरित नीम चरस्थिरभयं तामिमुपैति । भारतको शवादनपुरदारपुरोहितेषु केषु पाकमुपयाति देवं परिनृपतेः । देवताका युगकेतुनप तनानि ॥ संपर्यासनसादन-सङ्गाश्च नृदेशपशुभेदाः । ऋषिधम्र्मपितृ द्विजातीनाम् ॥ षोकपाल पशूनामनिष्टं तत् । गुरुसितशनैश्चरोत्थं पुरोधसां विष्णुजं लोकानाम् ॥ स्कन्दविशखसमुत्यं मामकान नरे न्द्राणाम् । वेदव्यासे मन्त्रणि विनायके वैकृते चमूनाये ॥ घातरि विश्वकर्मणि लोकानावाय निर्दिश्म । देवकुमारकुमारीवनितायेषु वैकृतं यत्स्यात् ॥ तन्नरपतेः कुमारककुमा •रिकारीपरिजनानाम | र पिशासानानामेतदेव निर्दे श्यम् । मासैश्वाप्यष्टानिः सर्वेषामेव फलपाकः ॥ राष्ट्रे यस्यानग्निः प्रदीप्यते दीयते च नेन्धनवान् । मनुजेश्वरस्य पीमा तस्य राष्ट्रस्य विज्ञेया ॥ जमांसाज्यलने नृपतिः प्रहरणे रणो रौद्रः । सैन्यग्रामपुरुषे च नाशो वह्नेर्भयं कुरुते ॥ प्रासादनवनतेोरण- केत्यादिष्वन लेदग्धेषु । तमितो वा परमासात् परच कस्यागमो नियमात् ॥ प्रमोनिसमुत्यो रजस्तमथाहि महाभयदम् । व्यभ्रे निश्रुनाशो दर्शनमपि वाह्निदोषकरम् ॥ नगर. यक वनमा धूमाग्निचिएक शय्याम्बरमृत्युः ॥ आयुश्यलमसर्पणस्वनाः कोशनिर्गमनानि वा वैतानि यदि वायुधेऽपरावया संकुलं वदेत् । इत्यग्नि वैकृतम् । शाखामा निर्दिशे इसने देश - की रुदिते व्याधियम् । राष्ट्रविदस्व तीव कुसुमिते वाते। वृक्कात् कीरस्रावे सर्वऽव्ययो भवति ॥ मये चाननाशः संत्रासः शोणिते मधूनि रोगः । स्नेहे किनयं मयं ते सखिले ॥ मुष्कविरोदे वीर्याः शोष थे च विरुधानाम् । पतितानामुत्याने स्वयं भयं दैवजनितं च ॥ पूजितवृकेानृतौ कुसुमफलं नृपबधाय निर्दिष्टम् । धूमस्तस्मिन् ज्वाला यथा जवे नृपवधायैव ॥ सर्पत्सु तरुषु वापि जनसङ्ख्यो विनि ठिकाण वैदर्शनमः विपाकः ॥ इतिवृतम् नालेऽजयवादीनामेकस्मिन् द्वित्रिसम्भवो मरणम् । कथयतितदधिपतीनां यमलं जातं च कुसुमफलम् । श्रतिवृद्धिः शस्यानां नानाकुसुमनवो वृके। भवति हि यद्येकस्मिन् परचक्रस्यागमां नियमात् ॥ अर्धेन यदा तैलं भवति विज्ञानामतैलता वा स्यात् अन्नस्य च वैरस्यं तदा च विन्द्याद्भयं सुमहत् ॥ विकृतं कुसुमफलं वा ग्रामादयवा पुराद्वहिः कार्य्याम् । इति शस्यवैकृतम् । दुर्भिकमनावृष्टयामतिवृष्टयां कुमुद्भयं सपरचक्रम् । रोगो धनुतुननृपबधान जातायाम् ॥ शीतोष्णविपर्य्यासे नो सम्यगृतुषुपरमासानयं रोगभयं दैवजनितं च ॥ अन्य सप्ताई प्रबन्ध प्रधाननृपमरणम् । रक्ते शस्त्रोद्योगो मांसा स्थिवसादिनिरकः ॥ श्राम्यहिरण्यत्य फल वायां विद्यात् । अङ्गारपांशुवर्षे विनाशमायाति तन्नगरम् ॥ उपला विना जलधरैर्विकृता वा प्राणिनो यदा वृष्टाः । छिद्रं वाप्यतिवृष्टौ शस्यानामीति सज्जननम् || क्षीरनृतक्षैौद्राणां द उष्पाय चाप नो रुधिरोणवारियां वर्षे देशाविनाशो नृपयुषम् || यद्यमलेऽर्के छाया न दृश्यते दृश्यते प्रतीपा वा । देशस्य तदा सुमहद्भयमायातं चिनिर्देश्यम् ॥ व्यम्ने नभसीन्द्रधनुर्दिवा यदा दृश्यते ऽथवा रात्रौ । प्राच्यामपरस्यां वा तदा भवेत् क्षुद्भयं सुमहत् ॥ सूर्येन्दुपर्जन्यसमीरणानां योगः स्मृतो दृष्टिविकारका ॥ इति वृषिकृतम् । अपसर्पणा नदीनां न गरादचिरेण शुन्यतां कुरुते । शोषश्वाशोष्याणामन्येषां वा हृदादीनाम् ॥ स्नेहा सृग्मासवहाः सङ्कलकलुषा प्रतीपगाश्चापि । परचक्रस्यागमनं नद्यः कथयन्ति षण्मासात् ॥ ज्वाला धूमकाथानादितोत्कानि चैव कृपानाम् । गीतप्रजल्पितानि च जनमरकाय प्रदिष्टानि ॥ तोयोत्पत्तिरखाते गन्धरसविपर्य ये च तोयानाम् । सलिलाशयविकृती या महद्भयं तत्र शुभकृत्यम् ॥ इति कृतम् । प्रसवधिकारे स्त्रीयां द्वित्रिचतुः प्रभूतिसम्प्रसूती या हीनातिरिक्तकाले च देशकुल भवति ॥ षडयोप्रमाहिषोहस्तिनीषु धमलोद्भवे मरणमेषाम् ॥ इति प्रसववैकृतम् ॥ परयोनायनिगमनं भवति तिरधामसाधु धेनूनाम् । उक्षाणां वान्योऽन्यं पिबति श्वा वा सुरभिपुत्त्रम् ॥ मासवण विद्यात् तस्मिन्निःसंशयं परागमनम् ॥ इति चतुष्पादवैकृतम् ॥ यानं वाहवियुक्तं यदि गच्छेन्न व्रजेश्व न वायुतम् । राष्ट्रभयं भवति तदा चक्राणां सादभङ्गे च ॥ श्रनभिहि तूर्यनादः शब्दो वा ताडितेषु यदि नायात् । व्युत्पत्ती धा परागमो नृपतिमरणं वा ॥ गीतरचतूर्यनादा नमखि यदा वा चरस्थिरान्यत्वम् || मृत्युस्तदागदा वा विस्वरतू पराभिभवः । गोलाहलवां दीपस्करविकारे । कोटुकनादे च तथा शस्त्रमयं मुनिवदम् इति निर्भया वायव्यवैकृतम् ॥ पुरपक्षिणो वनचरा वन्या वा विशन्ति । पुरं नक्तं वा दिवसचरा कपाचरा वा चरन्त्यहनि । सन्ध्या मिमान्तो मृगा विहङ्गा था। दीप्तायां दिश्यथवा क्रोशन्तः संहता जयदाः || श्वानः प्ररुदन्त श्व द्वारे वा सन्ति जम्बुका दीप्ताः । प्रविशेन्नरेन्द्रनवने कपोतकः कौशिको यदि वा ॥ कुकुरुतं प्रदोषे हेमन्तादौ च कोकिलालाप: । प्रतिलोममएमअचराः श्येनायम्बरेनपदाः ॥ गृहकैयतोरयेषु हारे पि सङ्घसंपाताः । मधुवम] काम्मो समुङ्गभायापि नाशाय ॥ श्यनिरस्थिशवावयव - प्रवेशनं मन्दिरेषु मरकाय । पशुशस्त्रव्याहारे पर्मुनिधे ॥ इति मृगपचादिवैकृतम् ॥ की स्तनद्वाभपातनातूनां नरपतेर णम् ॥ सन्ध्याद्वयस्य दीप्तिर्धूमोत्पत्तिश्च काननेऽनग्नौ । बिखानावे भूमेर्दणं कम्पश्च भयकारी ॥ पाषएकानां नास्तिकानां च शक्तः सभ्याचारोतिः कोशीयः ईयु विग्रहाकता यस्मिन् राजा तस्य देशस्य नाशः ॥ प्रहर हर बिन्धि जिंन्धीत्यायु काष्ठामपाणयो बालाः । निद्गन्तः प्रहरन्ते तत्रापि जयं भवस्या | अङ्गारीरिक विकृताभिलेखन यस्मिद् गायकचि त्रितमथवा कये कयं याति न चिरेण ॥ बूतापटाङ्गशवलं न सन्ध्ययोः पूजितं युक्तम् नित्पच्छिखीकं च तत्क याति ॥ यातुधानेषु निर्दिशेन्नरकमा संप्राप्तम् ॥ इति शक्रम्यओदितम् ॥ नरपतिदेशविनाशे के तोरुदयेऽथवा गृहेऽकैन्दोः । उत्पातानां प्रायः स्वर्तुयत्राप्यदोषाय । ये च न दोषान् जनयन्युत्पातां स्तानृतुस्वभावान् समास के। प्रजाशनिमहीकम्पसस्यानिर्घातनिःस्वनाः परियेवरोधमरता स्वमनोदयाः ॥ मेन्योरसस्ने बहुपुष्पफलमा । गोपक्किमदवृद्धिश्च शिवाय मधुमाधवे ॥ तारोल्कापातकनुषं कपिदमकम् । अनग्निज्वलनस्कोटम एनियातम् ॥ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६२) नप्पाय अभिधानराजन्नः। उपाय रक्तपभारुणं साभ्यं नन्नः कुन्धार्णवोपमम् । सरितां चाम्बुस- वीभ्याम् । इष्टः सौम्यैरशुनैर्विप्रयुक्तो लोकानन्दनं कुरुतेऽतीव शोषं दृष्ट्वा ग्रीमे शुनं वदेत् ॥ शक्रायुधपरीवेषविद्युच्नुष्कविरो- चन्छः ।। पित्र्यमैत्रपुरुहूतविशास्त्रात्वाष्ट्रमेत्य च युनक्ति शशाङ्कः । हणम् । कम्पोद्वर्तनवैकृत्यं रसनं दरणं कितः॥ सरोनादपानानां दक्विणन न शुजोहितकृत्स्यात् यधुदक चरति मध्यगतो वा ॥ वृरूपूर्वतरणप्लवाः । सरणं चार्जिगेहाणां वर्षासु न भयावहम् ॥ परिघ शति मेघरेखा या तिर्यग्नास्करांदयेऽस्ते वा । परिधिस्तु दिव्यस्त्रीनूतगन्धर्व विमानादत्तदर्शनम् । नक्कत्राणां ग्रहाणां व प्रतिसूर्यो दणमस्त्वृजुरिन्द्रचापनिभः ॥ उदयेऽस्ते वा भानोयें दर्शनं च दिवाम्बरे ॥ गीतवादित्रनिर्घोषा वनपर्वतसानुषु । स दीर्घा रश्मयस्तमोघास्ते । सुरचापखएममृजयद्, रोहितमैरास्यवृकिरपां हानिरपापा शरदि स्मृताः ॥ शीतानीलतुषारत्वं न वतं दीर्घम।। अस्तिमयात्सन्ध्या व्यक्तीलता न तारका यावत्। तेजःपरिहानिमुखाद्भानारकोंदर्य यावत् । तस्मिन् सभ्यार्दनं मृगपकिणाम् । रकोयवादिसत्वानां दर्शनं वागमानुषी ॥ काले चिरेतैःशुभाशुभं वाच्यम् । सर्वैरतैः स्निग्धैः सद्यो वर्षदिशो धूमान्धकाराश्च सनभोवनपर्वताः । उचैः सूर्योदयास्तौच भय रुकैः॥ अच्चिन्नः परिघो वियश्च विमलं श्यामामयखा रवेः, हेमन्ते शोभनाः स्मृतानमाहिमपातानिलोत्पाता विरूपाचुतदर्शनम्। स्निग्धा दीधितयः सितं सुरधनुर्विाञ्च पूर्वोत्तराः । स्निग्धो मेघकृष्णाअनाभमाकाशं तारोल्कापातपिञ्जरम।। चित्रग!जवाःस्त्रीखुगोजाश्च मृगपक्किषु। पत्राङ्करन्नतानां च विकाराः शिशिरे तरुर्दिवाकरकरैरालिङ्गितो वा यदा, वृष्टिः स्याद्याद वार्कमस्त समय मेघो महाश्वादयेत् ॥ स्खएको वक्रः कृत्स्नो हस्वः काकाशुभाः ॥ ऋतुस्वभावजा होते दृष्टाः स्वतौ शुभप्रदाः । ऋतोरन्यत्र चोत्पाता धास्ते नृशदारुणाः॥ उन्मत्तानां च या गाथाः शिशूनां चैा चिट्ठविकः। यस्मिन् देशे रुकवार्कस्तत्र बनावःप्रायोराज्ञः। भाषितं च यतू । स्त्रियो यश्च प्रनाषन्ते तस्य नास्ति व्यतिक्रमः॥ वाहिनी समुपयाति पृष्ठतो मांस खगगणो युयुत्सुतः । यस्य पूर्व चरति देवेषु पश्चागत मानुषान् । नाचोदिता वाग्वदति तस्य बसविरुवो महान्, अग्रगैस्तु विजयो विहङ्गमैः । भानोरुसत्या ोषा सरस्वती ॥ उत्पातान् गणितविवर्जितोअप बुवा दये यदि वास्तमये, गन्धर्वपुरप्रतिमाध्वजिनी । बिम्बं निरुणकि विण्यातो भवति नरेन्द्रवहभश्च । एतन्मुनिवचनं रहस्यमुक्तं य- तदा नृपतेः, प्राप्तं समर सजयं प्रवदेत् ॥ शस्ताशान्तधिजमृगज्ञात्वा जवति नरस्त्रिकालदी (४६०) दिव्यान्तरिकाश्रय- घुष्टा, सन्ध्या स्निग्धा मदुपवना च । पांशुध्वस्ता जनपदनाशं. मुकमादी मया फलं शस्तमशोजनं च । प्रायेण चारषु समागमे धत्ते रुकारुधिरनिना वा ॥ यद्विस्तरेण कथितं मुनिनिस्तदषु युकेषु मार्गादिषु विस्तरेण ॥ भूयो वराहमिहिरस्य न युक्तमे- स्मिन् सर्वे मया निगदितं पुनरुक्तवर्जम् । श्रुत्वापि कोकिलरुतं तत् कर्तु समासकृदसाविति तस्य दोषः । तज्जैन धाच्यमिदमेव वनिचुग्विति यत्तत्स्वभावकृतमस्य पिकं न जेतुम् । ४७ अ०। फबानुगीतिर्य हर्दिचित्रकमिति प्रथितं वराङ्गम् ॥ स्वरूपमेव पवमन्येऽप्युत्पाताः सन्ति विस्तरजयान्नोक्ता उत्पातविशेषे मङ्गसस्य तत्प्रकीर्तितानुकीर्तनम् । अवीम्यहं नदिदं तथापि मेऽत्र सकर्मवर्जनव्यवस्थादेशनेदेनाचारजेदेन चावगन्तव्या पीयूषधावाच्यता । उत्तरवीथिगता द्युतिमन्तः, केमसुनिवशिवाय सम- रायाम् अत्यावश्यककार्ये परिहारस्तत्रोक्तः ज्योतिर्निबन्धे । स्ताः । दकिणमार्गगता द्युतिहीनाः, क्षुद्भयतस्करमृत्युकरास्ते॥ दिनानि पञ्चवसिष्ठ-स्त्रिदिन गर्गस्तु कौशिकस्त्वेकम् । यवनाचाकोष्ठागारगते नृगुपुत्रे पुष्यस्थे च गिराम्प्रनविष्णौ । निवैराः र्य्यस्य मते पञ्चमुहूर्ताश्च दूषयति ॥ उत्पातेन ज्ञापिते च । कितिपाः सुखभाजःसंहृष्टाश्च जना गतरोगाः॥पीडयन्ति यदि- ज्यो। वाच। कृत्तिका मघां रोहिणी श्रवणमैन्द्रमेव वा । प्रोज्जयसूर्यमपरे ग्रहा. नत्पाद-पुं०-उत् पद्-घश्-उत्पादनमुत्पादः । कार्यस्योत्पत्तिहेतुस्तदा, पश्चिमादिगयनेन पीड्यते ॥ प्राच्यां चेवजवदवस्थिता जूते कार्यविशेष, विशे। प्रादुर्भावे, सूत्र० १ श्रु०१ अ०। दिनान्ते, प्राच्यानां भवति हि विग्रहो नृपाणाम् । मध्ये चेद्भवति अयोत्पादस्य नेदान्कथयन्नाह । हि मध्यदेशपीमा, रुकैस्तैर्न तु रुचिरैर्मयुखवद्भिः ।। दकिणां क- प्रयोगविश्रसाच्यां स्या-दुत्पादो द्विविधस्तयोः । दुरजमाश्रितैस्तुतै-दविणापयपयोमुचां क्यः । हीनरूकतनुनिश्च आद्योऽधिशको नियमात्समदायविवादजः । १५॥ विग्रहः स्यूलदेवकिरणान्वितैः शुजम् ।। उत्तरमार्गेस्पटमयुखाः सत्पादो द्विविधो द्विप्रकारोऽस्ति । काज्यां द्विविधः प्रयोगविश्रशान्तिकरास्ते सन्नृपतीनाम् । ह्रस्वशरीराजस्मसवर्णा, दोषकराः साज्याम् । एकः प्रयोगजनित उत्पादः । १ । अपरो विश्रसा जस्युर्देशनृपाणाम् ॥ नत्राणां तारकाः सग्रहाणां, धूमज्वाला नित उत्पादः।श पुनस्तयोर्द्वयोर्मध्ये आद्योऽविशुको व्यवहारोविस्फुलिङ्गान्विताश्चेत् । आलोकं वा निर्निमित्तं न यान्ति. त्पन्नत्वात् । स च निर्धारणनियमात्समुदायवादजनितो यत्नेन कृत्वा याति ध्वंसं सर्वबोकः स नूयः ॥ दिवि भाति यदा तु अयवयसंयोगेन सिकः कथितः । तथा च सम्मतितकें । हिनांशुयुग, द्विजवृफिरतीव तदाशु गुना । तदनन्तरवर्ण उप्पाओ दुवियप्पो, पोगजणिो य विस्ससा चेव । रणोऽर्कयुगे जगतः प्रनयत्रिचतुःप्रभृति ॥ मुनीननिजितं धुर्व मघवतश्व नंसं स्पृशन् । शिखी धनबिनाशकृत् कुशन तत्य उ पोगजणिओ, समुदयवाओ अपरिसच्चा ॥२॥ कर्महा शोकदः । शुजङ्गनमय स्पृशेद्भवति वृष्टिनाशो ध्रुवं भेद उत्पादः पुरुषतरकारकव्यापारजन्यतया अध्यक्वानुमानावयं ब्रजति विद्रुतो जनपदश्च वालाकुलः || प्रागबारेषु चरन् ज्यां तथा तस्य प्रतीतेः पुरुषव्यापारोऽन्वयव्यतिरेकानुव्यवधारविपुत्रो, नकत्रेषु करोति च वक्रम् । उर्मिकं कुरुते भयमुन मि यित्वेऽपि शब्दविशेषस्य तदस्य तदजन्यत्वे घटादरपि तदजन्यत्राणां च विरोधमवृष्टिम् ।। रोहिणी शकटमर्कनन्दनो, यदि भि ताप्रशक्तेर्विशेषाभावात् । प्रत्यभिज्ञानादेश्च विशेषस्य प्रागेव निनत्ति रुधिरोऽयवा शिखी। किं वदामि यदनिष्टसागरे, जगदशे रस्तत्वात् । तत्र प्रयोगेण यो जनित उत्पादो मूर्तिमद्न्याषमुपयाति संवयम् ।। उदयति सततं यदा शिखी, चरति भच रब्धावयवकृतत्वातत्स समुदयवादः। तथा जूतारब्धस्य समुदाया त्मकत्वात्तत पवासावपरिशुरूः सावयवात्मकस्य तत्स्थस्य क्रमशेषमेव वा । अनुजवति पुराकृतं तदा, फरमानं सचरा वाच्यत्वेनाभिप्रेतत्वात् । चरं जगत् ॥ धनुःस्थायी रूको रुधिरसदृशः क्षुद्भयकरो, वझोद्योग चन्छुः कथयति जयं ज्यास्य च यतः । अवाक् गृङ्गो गोनो, विरसा जनितोऽप्युत्पादो द्विविध इत्याह । निधनमपि शस्यस्य कुरुते, ज्वसन्धमायन् वा नृपतिमरणायैव सानाविओ वि समुदाय कोवएगति जबहोजाहि । भवति ।। स्निग्धः स्यूलः समगृङ्गो विशामस्तुश्चोदग्विचरनाग-1 आगासाईयाणं, तिएहं परपच्चो णियमा ॥३०॥ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय भनिधानराजेन्डः। उप्पायच्नेयण स्वानाविकश्च द्विविध उत्पादः । एकः समुदयकृतः प्राक् प्रति दयः कथयन्ति । तेषां मत एकतन्वादिविभागेन खण्डपटोपादितावयवारग्धो घटादिवत् । अपरश्चैकत्विकोऽनुत्पादितामू त्पत्तिः कथं जाघटीति प्रतिबन्धककालभावस्यावस्थितावयवतिमद्न्यावयवारब्ध आकाशादिवत् । आकाशादीनां च प्रया संयोगस्य हेतुताकल्पने महागौरवात् । तस्मात् कुत्रचित्संयोणामवगाहो घटादिषव्यनिमित्तोवगाहनादिक्रियोत्पादो नियमा- गात् कुत्रचिब्भिागाइयोत्पादकता मन्तव्या । तदा विभागदनेकान्ततो प्रवेत् । अवगाहकगन्तुस्थातव्यसन्निधानतोऽस्थिर जपरमाणूत्पादोऽप्यर्थतः सिकः स्यात् संमतिशास्र इत्थं धर्माधर्मायवगाहनगतिस्थितिक्रियोत्पत्ति निमित्तभावोत्पत्तिरि सूचितमस्ति। तदुक्तम् । “दव्वंतरसंजोआहि,केवि दविपस्स त्यभिप्रायः ॥ सम्म ॥(आगासशब्द तत्प्रादेशिकिता दर्शिता) बिति उप्पायं । उप्पायं वा कुसला, विभागजाशं न इच्छंति ॥१॥ अणुप्रत्तपहिं प्राररू-दब्वे तिअणुप्रति निदेसो। ततो अथोत्पादस्य द्वितीयनेदं कथयन्नाह ॥ अ पुण विभत्ते , अणुत्ति जाउ आओ अणू होर ॥२॥ विश्रमा हि विना यत्नं, जायते विविधः स च । प्राभ्यां गाथाभ्यां भावार्थोऽवधार्यः । यथा परमाणोरुत्पादः तत्राघचेतनस्कन्ध-जन्यः समुदयोऽग्रिमः ।। २० ॥ एकत्वजन्यस्तथा येन संयोगेन स्कन्धो न निष्पचते एतारशो सचित्तमिश्रजश्चान्यः, स्यादेकत्वप्रकारकः । धर्मास्तिकायादीनां जीवपुऊलयोस्संयोगस्तद्वारा यश्च संयुक्तशरीराणां च वर्णादि, सुनिर्धारो नवत्यतः॥१॥ व्योत्पादोऽसंयुकावस्थविनाशपूर्वका तथा जुसूबनयाभि मतो यश्च क्षणिकपर्यायःप्रथमद्वितीयसमयादिब्यवहारहेतुमिश्रसाख्यो द्वितीय उत्पादः । विश्रसाशब्दस्य कोऽर्थः सहज स्तदूद्वारा यश्चोत्पादश्च तत्सर्वमेकत्वं झेयम् ॥ २२ ॥ अत्र न विना यलमुत्पद्यते यः स विश्रसोत्पादः । सोऽपि पुनर्विविधो किंचिद्विवादस्तत्र श्लोकमाह । स्कन्धहेतुं विना यः संयोगपरविप्रकारः । एकस्तत्र समुदयजनितः द्वितीय एकत्विकः । उक्तंच योगेन धर्मास्तिकायादीनां यश्चोत्पादः तथाच क्षणिकपर्याये "साहाविमो वि समुदय कमवणुमत्ति प्रोत्य होजाहि" तत्रा प्रथमद्वितीयादिष्व्यव्यवहारहेतवस्तद्वारा य उत्पादः तत्सपि तयोर्द्वयोर्मध्य प्रायः समुदयजनितो विश्रसोत्पादः अचेतन र्वमेकत्वं कथ्यते तत्र न कोऽपि विसंवाद इति ॥२३॥ पुनर्भेदं स्कन्धजन्यः समुदयः कथितः । अनादीनां समुदयपुन मानां कथयन्नाह (उत्पादेति) ननु धर्मादेरुत्पादः परप्रत्ययो भवेत् यथोत्पादः ॥२०॥ तथा पुनर्वितीयः सचित्तमिश्रजः शरीरवी अपि पुनर्निजप्रत्ययाद्भवेदन्तर्नययोजनां ज्ञात्वा इति । भावादिकानां निर्धारो शेयः। सचित्ताः पुद्रला वर्णादीनां तया तयाकारवादिपुद्रवानां परिणत्या परिणतानामेकत्वप्रकारकपकता र्थस्त्वयम् धर्मास्तिकायादीनामुत्पादो नियमेन परप्रत्ययः स्वोरूपेण परिगतः। अनेकेषां वर्णादीनां संगतानां परस्परमुत्पाद. पष्टभ्य गत्यादिपरिणतजीवपुलादिनिमित्त उक्तः । य उभयधारया पिएमीनूतानामवयवानामवयविधर्मत्वेन देहदृश्याकारजू जनितस्स चैकजनितोऽपि भवेत् । ततस्तस्य निजप्रत्ययतानामणूनां शरीरादि सुनिर्धारो भवति । देहादिपिएमानां (सु) तापि कथयितुं युक्ता निश्चयव्यवहारावधारणात् । अयमर्थः । अतिशयेन निर्धारो वपुरूपावस्थत्वं संपद्यते । तथाच प्रज्ञापनायां "पागासाहयाणं, तिराहं परपचओ नियमा" इति सम्मतिस्यानाङ्गेच “तिविहा पुग्णता पन्नत्ता तंजहा पओगपरिणता १. गाथायामकारप्रश्लेषतया वचनान्तरेण कृतोऽस्ति वृत्तिकामीससा परिणता २, वीससा परिणता ३," तत्र च प्रयम रेण तमर्थमनुस्मृत्यहापि लिखितोऽस्ति तस्माद्धर्मास्तिकायाप्रयोगपरिणताःपुनाये जवन्ति ते जीवप्रयोगेण संयुक्ताः शरी दीनामुत्पादो नियमात्परप्रत्यय एव । सोऽपि स्वोपष्टभ्य ग" रादयः सचित्ताः१तया मिश्रपरिणताश्च ते ये जीवेन पदमा । त्यादिपरिणतजीवपुफलादिनिमित्तः उभयजनितोऽप्येकजनिमुक्ताः कलेवरादयः पुनश्च. विश्रसा परिणताः स्वनावेन परि- तोऽपि स्यात् । तस्य च निजप्रत्ययताप्यन्तनयवादेनोक्तास्ति णताः यथाऽन्द्रधनुरादयः ३ एवं च सत्यत्र विश्रसास्यस्य नेद भावना चेत्थ शेया ॥50 ए अध्या०॥"उप्पादलक्खणं अस्य स्वनावजनितस्य दैविध्य प्रदर्शितम् । अचेतनस्कन्धजन्यस-1 पि तवषवहारितं अणप्पियववहारियंति वा विसिसा दिटुंति मुदायाख्याप्रथमस्तत्रसचित्तमिश्रजन्यैकत्वप्रकारकारीरादिवर्णा वा एगट्ठा तविवरीतमितरं । तत्थ अपि तंजहा पढमसमयदिसुनिर्धारसंझो द्वितीयः। अत्रायं विशेषः स्वानाविके परिणमनेऽ सिको सित्तणेण उप्पन्नो अणपितो जोजणभोवणउपपत्ता चित्तपुरवायत्नसाध्यव्यवहार उपदिष्टः । इह तु द्वयमपि ॥२१॥ आ००१ अविशेक त्रीयिजीवभेदे च । प्रज्ञा०प० । पुनर्जेदं दर्शयन्नाह ॥ औत्पात-न० उत्पाते जवमौत्पातम्। पांशुवृष्ट्यादौ, आक। यत्संयोग विनैकत्वं, तद्रव्यांशेन सिकता ।। कपिहसितादौ, सूत्र.२१०२०। यथास्कन्धविनागाणोः, सिमस्यावरणतये ॥ १२॥ नप्पायग-नुत्पातक-त्रि उत्पातयति उत्पातं जनयति-उद्-पत्स्कन्धहेतुं विना योगः, परयोगेण चोङ्गवः ।। णिच-एबुब् उत्पातजनके, कर्कपतनशीले च । वाचः। कणे क्षणे च पर्याया-धस्तदेकत्वमुच्यते ॥ २३ ॥ उत्पादक-त्रि नद्-पत्-एबुब् उत्पादनकर्तरि, स्त्रियां टापि अत इत्वम् । उत्पादिका उत्पादकस्त्रियाम् हिलमोचिकायां शब्दा नत्पादो ननु धर्मादेः, परप्रत्ययतो जवेत् ।। त्रि. पुत्तिकायाम, देहिकानामकीटे च स्त्री० । पितरि, पुं० निजप्रत्ययतो वापि, ज्ञात्वान्तनय योजनाम् ॥ २४ ॥ कर्क स्थिताः पादा अस्य कप् । अष्टापदे शरभाये गजाराती नाशोऽपि द्विविधो शेयो रूपान्तरविगोचरः॥ पाभेदे, तस्य पृष्ठस्थचतुश्चरणत्वाईपादत्वम् ।घाच०श्रीन्छिसंयोयं विना विश्रसोत्पादो यद्भवेत्तदेकत्वं शेयम् । तदेवै यजीषनेदे च । ये मि नित्वा समुत्तिष्ठन्ति दीर्घाः "पाणासीयाकत्वं व्यांशेन द्रव्यविभागेन सिद्धता नाम उत्पन्नत्वं क्षेयम् । कुंथूउप्पायगदीद गोम्मि सिसुणागो" व्य० प्र० ० । नि. यथा द्विप्रदेशादिस्कन्धविभागेनाणोः परमाणोर्द्रव्यस्योत्पादः। चू० । प्रज्ञान तथा आवरणक्षये कर्मविभागे जाते सति सिद्धस्य सिद्धप-जप्पायच्यण-उत्पादच्छेदन-न० उत्पादो देवत्वादिपर्यायायोयस्योत्पाद इति । अवयवयोगेनैव व्यस्योत्पत्तिर्भवति। न्तरस्य तेन वेदो जीवादिषव्यविनागः उत्पादच्छेदनम् । ग्दनपरन्तु विभागेन व्यस्योपतिर्न भवति इत्थमेके नैयायिका- दे, स्था०५ गई। Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६४) उप्पायण अभिधानराजेन्द्रः। नप्पायपडिवाय उप्पायण-उत्पादन-नबद-पद्-णिच्-ल्युद-जनने,उत्पत्तिकरणे- शस्ता। तत्र या क्रोधादीनां क्रोधादियुतधात्रीत्वादीनां च उत्पावाच।" भवाणुवारण परिग्गडेण, उप्पायणे रक्खणसन्नि- दना साऽप्रशस्ता या तु ज्ञानादेशानदर्शनचारित्राणामुत्पादना ओगे" उत्पादने एते विषयादिपदार्थाः कथं मिनिष्यन्तीति चि- सा प्रशस्ता । इह वा प्रशस्तया भाचोत्पादनयाधिकारः पिएमदो न्तने, उत्त० ३४ ० . षाणां वक्तुमुपक्रान्तत्वात् । सा च षोझशन्नेदा॥4॥ नप्पायणतिरिय-नुत्पादनान्तर्य-न० उत्पादनस्याविरहे, यथा जप्पायण संपायण-णिवत्तण मो य हॉति एगट्ठा। निरयगती जीवानामुत्कर्षतोऽसंख्येयाः समयाः स्था० ५ ग०। आहारस्सिहपगया, तीए दोसा इमे होति ।।१०।। उप्पायणा-उत्पादना-स्त्री० उत्पादनमुत्पादना । मूत्रतः शुरू उत्पादनमुत्पादना एवं संपादना निर्यर्तना च । इह च पदत्रयेऽ स्वपिएफस्य धात्रीत्वादिनिः प्रकारैरुपार्जने, प्रव०६७ द्वा।। पि-हस्वतामोकारश्च निपातःप्राकृतत्वाश्च शब्दः समुचये नवति पिं०। आप० तस्या निक्केपो यथा स्युरेकार्था अनन्याभिधेयाः सर्वेषामेव एषामुत्पादनायोधकत्वादेनाम रणा दविए, भावे नप्पायणा मणेयव्वा । ते शब्दा इति गम्यम् । साच सचेतना चेतनाचेतनच्यादिविषयदवम्मि होइ तिविहा, जावम्मि उ सोलसपया ॥ त्वेनानेकविधेत्यत उच्यते आहारस्याशनादिरूपलकणत्वादस्य वखपात्रादिपरिग्रहः । इह पिएमाधिकारे प्रकृताः प्रस्तुताः तदोषा उत्पादना चतुर्की तद्यथा (नामंति ) नामोत्पादना स्थापनोत्पादना व्ये व्यस्योत्पादना नावे भावस्योत्पादना च । तत्र धिकारात (ता एत्ति ) पतस्थाः पुनरुत्पादनाया गृहस्थात्सकाशा साधुना स्वार्थ भक्ताद्युपार्जनरूपा ये दोषा दृषणानि श्मे इति नामस्थापने क्षुले न्योत्पादना च यावन्नो आगमतो भव्यशरी वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्कनूता जवन्ति स्युरिति गाथार्थः । तानेवरव्योत्पावना प्रागुक्तगवेषणादिरिव नावनीया । शरीरभव्य नामतो दर्शयन्नाह "धातीदूतिणिमित्ते, आजीववणीमगे तिगिच्या शरीरव्यतिरिक्ता तु द्रव्योत्पादना त्रिधा सचित्तज्योत्पादना य । कोहे माणे माया, बोने इवति दस पते ॥ पुब्धिपच्गअचित्तव्योत्पादना मिश्रव्योत्पादना च । जावोत्पादना द्विधा संथव-विज्जामते य चुम्लजोगे य । उप्पायणाय दोसा, सोमसमेतद्यथा आगमतो नोआगमतश्च । तत्र आगत उत्पादना शब्दा- मनकम्मे य" | पंचा०१३ विव० । धाच्यादिव्याख्यान्यत्र । पतेऽ र्थतस्तवोपयुक्तः नोभागमतो भावोत्पादना तु ध्धिा तद्यया प्र- नन्तरोक्ता उत्पादनाया दोषाः षोश । सलकर्म वशीकरशस्ता अप्रास्ता चतत्र प्रशस्ता झानाद्युत्पादना अप्रशस्ता णम् । श्ह धात्र्याः पिरमो धात्रीपिएमः किमुक्तंजवति धात्रीत्वस्य षोमशपदा वक्ष्यमाणधात्रीदूत्यादिषोमशजेदा। करणेन कारणेन च य उत्पाद्यते पिएमः । यस्तु दूतीत्वस्य करतत्र प्रथमतः सचित्तद्रव्योत्पादनां विभावयिषुराह ॥ नोत्पाद्यते स दूतीपिण्डः । एवं निमित्तादिष्वपि भावनीयम्आसूयमाइएहिं वालवयितुरंगवीयमाईहिं । विध०। उत्त। स्था० । ग० । आचा० । जीत० । सुय असामाईणं, नप्पायणया न सञ्चित्ता ।। उत्पादनादोषेषु प्रायश्चित्तमभिधित्सुराद सुताश्चन्द्रमादीनां द्विपदचतुष्पदापदरूपाणामत्रादिशब्दः प्र. दुबिहनिमित्ते लोने, गुरुगा माया य मासियं गुरुयं । त्येकमभिसंबध्यते सुतादीनामश्वादीनां द्रमादीनां च यथा सुहमे वयणे बहुओ, सेसे बहुगा य मूलं च ॥ संख्यमासूचादिमिरासूर्यमुपायादित्रिकमादिशब्दाद्भाटकज- निमित्तं त्रिविधमतीतविषयं प्रत्युत्पन्नविषयमनागतविषयं च । लादि परिग्रहःतथा बालचित्ततुरङ्गबीजादिभिश्च तत्र बालै के तत्र द्विविधे निमित्त प्रत्युत्पन्नविषये च तथा लोने च प्रत्येकं चशरोमादिभेदभिश्चितो व्याप्तो बालचितपुरुषो लोमशः पुरु- स्वारोगुरुकाः । मायायां मासगुरु । सूदमे चैकित्स्ये वचनसंस्तप इति वचनात् । तुरङ्गवीजेच सुप्रसिके। श्रादिशब्दात्तदन्य- वे च प्रत्येकं अघुको मासः शेषेषु तु समस्तषत्पादनादोषेषु हेतुपरिग्रहः । या उत्पादना तथाहि केनचिनिजभार्याः कथ- प्रत्येकं चत्वारो सघवो नवरं मूल कर्मणि मूलम् । वृ०१०। मपिपुत्रासंभवे देवताया उपयादिति केनाप्यतुकालोकेन स्व- सप्पायणाए अश्ए निमित्ते चलहुं । पप्पन्ने अणागए सोनए संप्रयोगेण च सुतः पुत्रिका वा उत्पाद्यते । तथा निजघोटि- चमगुरुं । कोहे माणे चन बहुं । मायाए मासगुरुं सुहमतेशस्थि कायाः परस्य भाटकप्रदानेन परघाटकमारोप्य तुरङ्ग उत्पा- पंचराईदिया । बादरतेश्त्ये चउन्नहुं । संथवे मासाहुं । धाईहिं द्यते । एवं यथायोगं वलीवर्दादिरपि तथा जलसेकेन बी- चनहुं । जोश्यमेहुणिय.संथवे चउगुरुं मृतं वा । वयणसंथवे जारोपणेन च द्रुमवल्ल्यादिः । तत इत्थं या द्रुमादीनामुत्पाद- मासबहूं। मूढकम्मे मूत्रं । सेसेसु च ननदं उप्पाणा पं० चूछ । ना सा सचित्तद्रव्योत्पादना । संप्रत्यचित्तद्रव्योत्पादनां मिश्र- ( जीतकल्पानुसारेणाचामाम्झं आयविवशब्दे चैतत्स्पष्टीकृतम) द्रव्योत्पादनां च प्रतिपादयति । उपायणाविसोहि-उत्पादनाविशच्छि-स्त्री० उत्पादनादोषे पिकणगरययाइयाणं, जहिधानविहिया । एमचरणादीनां निर्दोषतारूपे उत्पादनाया वा निर्दोषतासकणे सचित्तमोसाउभंडाणं, सुपयाकया न जुप्पत्ती॥ | विशुक्रिभेदे, स्या० ३ ग०। कनकरजतादीनां सुवर्णरुप्यताम्रादीनां यथेष्टधातुविहिता उप्पायणोवघाय-उत्पादनोपघात-पुं. उत्पादनयोपघातः पिपमायथा या यस्यष्टोऽनुक्कापिलाहादिधातुस्तस्मात् विहिता कृ- | देरकल्पनीयताकरणं चरणस्य वा शवनीकरणमुत्पादनोपघातः । ता या उत्पत्तिः सा अचित्ता अचित्तद्रव्योत्पादना । तथा च उद्गमस्य वा पिण्डादिप्रसृतरुपघातो धात्रीत्यादिनिपुएतोत्पाद्विपदादीनां दासादीनां सभामयानां सालंकारादीनां चेतन- दनोपघातः।धाञ्यादिदोषलक्षणया उत्पादनया चारित्रस्य विराप्रदानेन या कृता श्रात्मीयत्वेनोत्पत्तिः सा मिश्रा मिश्रद्रव्यो धनरूपे धाच्यादिनिः पोमानिरुत्पादनादोषैर्नक्तपानोपकरणोत्पादना । तदेवमुक्ता द्रव्योत्पादना । संप्रति भावोत्पादनामाह पानामरुतासरणे वा अपघातभेदे, स्था०१० ।। जावे पसत्य इयरा, कोहा उप्पायणा न अपमत्था । । उप्पायपभिवाय-उत्पादप्रतिपात-पुं-विभागतो देशतो वा ककोहाइ जहा धायई-णंच नाणाइ न पसस्था । स्यचिद्वस्तुनो दृष्हिान्युभये, विपा० अ० । यथा अवधिज्ञानजावे नावविषया उत्पादना द्विधा तद्यया प्रशस्ता इतरा अप्र- स्य। "बाहिरलंभो भजा," दव्वे खत्त य कालनावे य । - Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पायपडिवाय अभिधानराजेन्जः। नप्पायपुव प्पायपरिवाओ चिय, तनयं चेगसमपणं" अप्पायपभिवादो| वेव जोयणसए, वावीस वित्थको हेट्टा ॥१॥ चत्तारिजोयणणामं जसि दब्बखेत्तकालजावाणं काणि वि एगसमपण चेष | सप, चवीस वित्थडो उ मम्मि । सत्तेव य तेवीसे, सिहपुबुद्दिद्वाणि तं पासति काणि पुण अदिट्टपुषाणि पासति एस | रतले वित्यमो होशत्ति"॥२॥ स च रत्नमयः पद्मवरवेदिकया उपायपरिवातो भमति । प्रा००५०। (पतद्विषयावधि वनखामेन च परिक्तिप्तस्तस्य च मध्येऽशोकावतंसको देवप्रावक्तव्यता प्रोहि शब्दे स्पष्टी प्रविष्यति) साद इति ॥ (चमरस्सेत्यादि महारमोत्ति) लोकपालस्य सोअप्पायपचय-नुत्पातपर्वत-पुं० उत्पतनमूङगमनमुत्पातस्तेनोप- मप्रभ उत्पातपर्वतोऽरुणोदसमुक एव नवति । एवं यमवरुणसवितः पर्वत उत्पातपर्वतः । स्था०१०म० । स्वनामख्यातेषु श्रमणसूत्राणि नेयानीति ( बनिस्सेत्यादि) रुचकेन्द्र उत्पातपपर्वतेषु, तिर्यग्लोकगमनाय यत्रागत्योत्पततिस उत्पातपर्वत इति र्वतोऽरुणोदसमुष पव यथोक्तं भवति" अरुणस्स उत्तरेणं, बातिभ०२०८ उ० उत्पातपर्वता यत्रागत्य बहवो ध्यन्तर याबीसं नवे सहस्सा ओगादिकण उदहि, मिमणिधयो रादेवा देव्यश्च विचित्रकामानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति । जी। यहाणि प्रोत्ति" ॥१॥ (बनिस्सेत्यादि)। सूत्रसूची एवं च र इयम् ॥वरोयर्णिदस्त वश्रोयणरमो सोमस्स महारमो एवं३ प्रति॥ चेवत्ति ॥ अतिदेश एतद्भावना । (जहेत्यादि ) यथा यत्प्रकार सर्वेषां लोकपा सानामुत्पातपर्वतमानादि यथा ॥ चमरस्य लोकपालानामुत्पातपर्वतप्रमाणं प्रत्येक चतुर्भिः सूत्रचमरस्स णं असुरिंदस्त असुरकुमाररमो तिगिचिकूमे रुक्तं (सं चेवत्ति)तत्प्रकारमेव चतुर्भिः सूत्रैर्व बिनोऽपि वैरोचनेउप्पायपव्वए मूले दसवावीसे जोयणसए विक्खंजेणं पस- न्छस्यापि वक्तव्यं समानत्वादिति ( वरुणस्सेत्यादि )वरुणस्योता। चमरस्म णं अमरिंदस्स अमुरकुमाररन्नो सोमस्स महा स्पातपर्वतोऽरुणोद एव समुद्रे भवति ( वरुणस्सेत्यादि) प्रयमं लोकपालसत्रे। "एवं चेवत्ति"करणातू "उच्चत्तणं दसगाउयसयाई रमो सोमप्पले उप्पायपव्वए दसजायणसयाई उई उच्चत्तेयं नव्वदेणमित्यादि" सूत्रमतिदिष्ट एवं जाव "संखवालस्सत्ति"। दसगानयसयाई नब्बेहेणं मूझे दमजोयणसयाई विक्खंजेणं करणाच्षाणां त्रयाणां लोकपात्रानां कोरवालसेमवालसंखवापम्मत्ता । चमरस्सणं असुरिंदस्स जमस्स महारप्लो जमप्पने बाभिधानानामुत्पातपर्वतानिधायीनि त्रीएयन्यानि सूत्राणि दर्शनप्पायपधए एवं चेव । एवं वरुणस्स वि । एवं बेसमणस्स यति । ( एवं नूयाणंदस्तवित्ति) नूतानन्दस्यापि औदीच्यवि । बलिस्स एं वश्रोयणिंदस्स वश्रोयणरन्नो रुयगिंदे - नागराजस्यापि उत्पातपर्वतस्तस्य नाम प्रमाणं च वाच्यं यथा धरणस्येत्यर्थः नूतानन्दप्रजश्चोत्पातपर्वतोरुणोद पव जवति केपायपव्वए मूझे दसवावीसे जोयणसए विक्खंनेणं पन्नत्ते । चलमुत्तरतः एवं (बोगपाबाण वि से त्ति)(से) तस्य नूतानबमिस्स णं वइरोयणरनो सोमस्स एवं चेव जहा चमरस्स ब्दस्य लोकपालानामपि एवमुत्पातपर्वतप्रमाणं यथा धरणलोकलोगपालाणं तं चेव बनिस्स वि । धरणस्स णं नागकुमारि पानानामिति भावः । नवरं तत्रेमानि चतुःस्थानकानुसारेण हात व्यानीति । (जहा धरणस्सत्ति) यथा धरणस्य एवमिति तथा दस्स नागकुमाररनो धरणप्पने नप्पायपव्वए दसजोयण- सुपर्म विद्युत्कुमारादीनां ये इन्छास्तेषामुत्पातपर्वतप्रमाणं नणिसयाइं नई नच्चत्तेणं दसगानपसयाई नव्हेणं मूले दसजोय तव्यं कियत्पर्यन्तानां तेषामित्यत आह (जाव थपियकुमाराणं ति ) प्रकट किमिन्त्राणामेव नेत्याह (सनोगपाखाणंति ) एसयाई विक्खनेणं । धरणस्स णं जाव नागकुमाररन्नो काम तल्लोकपाबानपीत्यर्थः । ( सम्वेसिमित्यादि ) सर्वेषामित्राणां बानस्स महारबो कामप्पने उप्पायपव्वए दसजोयणसयाई तल्लोकपाझानां चोत्पातपर्वताः सदृग्नामानो नणितम्या यया धरनळू उच्चत्तणं एवं चेवएवं जाव संक्खवालस्स एवं तयाणं- णस्य धरणप्रनः प्रयमतल्लोकपात्रस्य कावासस्य कामवासप्रभ दस्त वि एवं रोगपालाणं पि । से जहा धरणस्स एवं जाव श्त्येवं सर्वत्र ते च पर्वताः स्थानमङ्गीकृत्यैवम्भवन्ति "असुराणं नागाणं, उदहिकुमाराण दोति आवासा । अरुणोदए समुद्दे, थणियकुमाराणं समोगपालाणं जाणियव्वं । सम्बेसि उप्पा तत्येव य तेसि उपाया॥१॥दीवदिसा अम्गीणं थणियकुमायपव्वया नाणियव्वा सरिसनामगा । सक्कस्स णं देविंदस्स राण होति आवासा । अरुणवरे दीवम्मि उ, तत्थेव य तेसि - देवरको सक्कप्पने उप्पायपव्वए दसजोयणसहस्साई उर्छ प्पायत्ति" ॥२॥ सक्कस्सेत्याहि ॥ कुएमनवरे द्वीपे कुएमसपर्व तस्यान्यन्तरे दक्षिणतः षोमश राजधान्यः सन्ति तासां चतउच्चत्तेणं दसगानयसहस्साई नव्हेणं मूझे दसजोयणस सृणां मध्ये सोमप्रनयमप्रभवरुणप्रनवैश्रमणप्रजाख्या उत्पातपहस्ताई विखंजेणं पाते । सक्कस्स एं देविंदस्स देवरम्मो वताः सोमादीनां शक्रलोकपालानां सन्ति उत्तरपार्श्वे तु एवमेवेजहा सक्कस्स तहा सव्वेसि लोगपालाणं सम्बेसि च इंदाणं शानलोकपालानामिति यथा शक्रस्य तयाच्युतान्तानामिन्डाणां जाव अच्चुयत्ति । लोकपालानां चोत्पातपर्वता वाच्या यतः सर्वेषामकं प्रमाणं नवरं चमरस्सेत्यादि सुगम नवरं (निगिच्छिकूमेत्ति) तिगिच्चि: स्थानविशेषो विशेषसूत्रादवगन्तव्यः॥स्था०१० मा किअल्कस्तत्प्रधानकूटत्वात्तिगिच्छिकूटस्तत्प्रधानत्वं च कमरबहु- प्पायपुन-उत्पात (द) पूर्व-न० उत्पादप्रतिपादकं पूर्वमुसत्वात् संझा चेयम् । (अप्पायपश्वरत्ति) उत्पतनमूझगमनमु- त्पादपूर्वम् । प्रथमपूर्वे, तत्र सर्वव्याणां सर्वपर्यायाणां चोत्पात्पातस्तनोपल कितः पर्वत उत्पातपर्वतः सच रुचकवरानिधा- दमधिकृत्य प्ररूपणा क्रियते आह च चूर्णिकृत् "पढमं उप्पयपुवं, नात् त्रयोदशात्समुपात दक्षिणतोऽसंख्येयान् द्वीपसमुखानति- तत्थ सम्बदब्याणं पज्जवाण य नप्पाय मंगीकाळ परमवणा कप्पाबध यावदरुणवरहीपारुणवरसमुधी तयोररुणवरं समुई इति" ॥ नं०॥ तस्य पदपरिमाणमेका कोटी। सानन्दीसमवादक्षिणतो द्विचत्वारिंदातं योजनसहस्राण्यवगाह्य जवति तत्प्रमाणे याङ्गवृत्योरेका पदकोटीत्युपत्रज्यतेऽन्यत्रकादश । यत्रोत्पादमङ्गीच “सत्तरसएकवीसाई, जोयणसयाई सो समुन्विद्धो । दस । कृत्य सर्वजन्यपर्यायाणां प्ररूपणा कृता तत्पादपूर्व प्रथम तच Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय पुत्र पदप्रमाणेन पदसंख्यामाश्रित्य एकादशकोटी प्रमाणम् । प्रथमपूर्वे कादरुपदान को यत्राचपलब्धिस्तत्पदमित्यादि पदलक्षणसद्भावेऽपि तथाविधसंप्रदायाभावातस्य प्रामाण्यं न स म्यगवगम्यत इति प्र०६२ द्वा०] 'उपाय पुव्यसणं तारिम. या वत्थू पक्षता” उत्पाद पूर्व पूर्वाणां तस्य चूसा श्राचारस्याप्रा. पाणि वस्तूनि परिच्छेद विशेषा अध्ययनयत् जावस्त्रनि । स्था०वा० । “उप्पाय पुव्वस्स णं दसवत्थू पत्ता" चरपातपूर्वे प्रथमं तस्य दश वस्तून्यध्यायविशेषाः । स्था० १० वा० । निगम-उत्पादविगमन० उत्पादविगमयो स्वरूपपरिचायके, विशे० ( लवरा शब्देवं पश्यामि) उप्पावेत - उत्प्लावयत् - त्रि० उत्प्लवणिच् शतृ । उत्लुतिप्रयोजके, प्रा० ॥ ( ८६६ ) अभिधान राजेन्द्रः । | 66 उप-उपरि ० करि उपादेशका प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्तार्थवृत्तेर्द्धशब्दस्यायें, वाय० " तेर्सि भोमाणं उप्पि “ उज्जोया ” जी० ३ प्रति॰ । स्था० । “ उप्पि पणवीसं जोयसाई विषमेणं" ( उपरि ) मस्तके, रा० ॥ उनि रिजन वि० उ-पिजिकल लस्य । अत्यधीकुले, याच० । “उप्पिजलए कहकहर दिग्वे देवरम पवते याच होत्या "जलभूतेशकुलके भूते किमुकं भवति महर्द्धिकदेवानामप्यतिशायितया परसोमोत्या दकत्वेन सकलदेवासुरमनुजसमूहविसाक्षेपकारी रा० पित्य-न (वि) विश्य न० आफुले रोपभूते आकुलता च वासेन मया । तथा पूर्वरिभिर्व्याख्यानात् उच 'उपत्थं' श्वाससंयुक्तमिति । जी० ३ प्रति० । तृतीय एष गेयदोषः । जं० १ वक्ष० । स्था० । रा० । अनु० 1 हप्पियंत हस्पि वि० श्रस्यादयति प्र० ३ ० मुंडः श्वसति “उप्पियंत गणिदिस्सा अगीतो भासेर हर्म व्य० द्वि०४ उ० । छप्पिया उत्पात १०० वि०४० । उप्पियमाण- उत्पन्नान्यमान- वि० जलोपरि प्लाव्यमाने, "बुडुमाणे शिवुडुमाणे उप्पियमाणे, उपा० ७ श्र० । उपिलावंतावत् कर्ज द्वाचयति "जे सायं णाचं उपिलावे उप्पलाचंतं या साइबर " नि०० १० उ० । आचा० ॥ "C उप्पी क्षित उत्पीति त्रि० गाडीहते, " उप्पीलियचच्छुक च्छगेषेज्जब गलगवरभूसणविराइयं " उत्पीडिता वक्षसि - कृता हृदयरज्जुर्यस्य स तथा भ०७२०६३० | शा० औ० वि० | 'उप्पीलियचिंधपट्टगहिया उहपहरणा " उत्पीडितो गाढब - पट्टो नेत्रादिचीवरात्मको यैस्ते तथा । प्रश्न० ३ द्वा० । "उप्पीलियचितपपरिपरसफेरागायतरयसंगलवत्थं तमिल "उत्पीडितोऽत्यन्तवद्ध त्रिपट्टो विचित्रव पट्टरूपः परिकरो यैस्ते तथा । रा० " उप्पीलियसरासरापडिए " उत्पीडिता गुणसारणेन कृतावपीडा शरासनपट्टिका धनुर्दण्डो येन स तथा । उत्पीडिता वा बाहौ बद्धा शरासनपट्टिका बाहुपट्टिका येन स तथा । भ० ७ श० ६ उ० । उत्पीडिता प्रत्यारोपणेन शराशनपट्टिका धनुयैि तथा। अथवा उत्पीडिता बाहौ बद्धा शराशनपट्टिका धनुर्धरप्रतीता यैस्ते तथा । भ० ३ श०७ उ० । रा० । वि० । उप-प्रि० उद्-पु-क पवित्रादिना कृतोत्पचनसंस्कारे पात्रादौ द पक्षे उत्पवितोऽप्यत्र । वाच० ॥ उ० ० १६ ० ॥ 3 उप्पूर- उत्पूर- पुं० प्रकृष्ट प्रवाहे, "पवणाहयचचलललियतरंगहत्वनश्यंती पसरियसीरोद कपवरसागरपूरचंचलाि श्री० प्राचुर्वे, " उपरसमरसंगामडमरकलिकलहवेह। करणं" उत्परेण प्रायुर्वेस समरो जनमरको संभा मो रणः स उत्पूरसमरसंग्रामः । प्रश्न० ३ द्वा० । उपेय-देशी-अभ्य" पुत्रं च मंगलडा, उप्पेर्य जह करेह गिहियाएं" पूर्व च यदि मङ्गलार्थ साधु उप्पेर्य देशीपदमेतत् अभ्यङ्गं पश्चाद् ग्रहिकाणां गृहस्थानां करोति । व्य०६ उ० । उप्पेस उद्यमि-पा० उद् नम् शिय्- ऊर्जनमनकारणे, उमे च्छङोलालगुलुगुञ्छोप्पेला ८ । ४ । ३६ । इति उन्नमेरुप्पेलादेशः । उप्पेलर उन्नमयति । प्रा० ॥ उप्पेरू-देशी-उ०मा० उष्फुठा - देशी-आपू. दे० ना० । - उप्फुल- उत्फल- पुं० स्त्री० उच्छत्फणे, उत्फणत्वे, कुण्डलिकादिपययसमन्धितद्रव्यवत् आ०म० शि० । उप्फाल देखीने दे००। उप्फालंत उत्फालय त्रि० प्रोपति, प्रा० उष्फल-उत्फुल त्रि० उद्-कुछ नि. विकसिते, १०० दलानामन्योन्यविश्लेषेण प्रकाशिते, उत्फुल्लनीलनलिनोदरतुल्यभासः माघः । उत्ताने, त्रि० स्त्रीणां गुप्तेन्द्रिये, न० वाच० ॥ उप्फुसिका हस्पृश्य श्र० उदकेन अन्युरां इत्येत्यर्थे "उप्फुस देते असद्वियसेविए गए" ० १४० उप्फे उफे - उत्फेनोफेलिन० फेनोमनहते, “उफेस उफेशियासह रायं एवं पयासी उप्फेस उफेरियति" सको पोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थः । विपा० ६ अ० । उफेसीदे, श्री० प्रा० शिरोने, शेखरके, "पंचरायककुहा पत्ता तंजड़ा खमां बसं उप्फेलं वाहणा उवालवियाणी” स्था०५ ना० । “उप्फेलं वा कुजा " शिरोवेष्टनं वा कुर्य्यात्, श्राचा० २ ० । श्रासे, अपवादार्थे, दे० ना० । उफोस उत्स्पृश-० ने उन्ह०१४० उप्फोध-वंशी-उ०० उद्बन्धूयुद-लम्बते प्रा० ० कर्कवृक्कशाखादौ बन्धने, तेन मरणे च । “उब्बंधणार बेहासमि त्यादि" प्रव० १५ ८० । । लम्पक हकक० विद्यादायादिप्रतिजागरके स्था०३ वा० । स च प्रव्राजयितुं न कल्पते । इति तत्प्ररूपणामित्थम् “ अश्याणि उब्वको "। - उब्यकय कम्मे मिप्पे विज्जा, मंते जोगेय होंति उववरया । उन्को एसो न कप्पर तारिसे दिखा ||४२०|| एस पंचविहो उपचरणगनावेण बको उपचारकः प्रतिजागरक इत्यर्थः । कम्मे सिप्पे विला, मंतेय पणा उएडं पि गोवामाद कम होति च ||४२१ ।। कम्मसिप्पारणं दो एदं नये परूवणा कज्जति तेणं चउगहरणं अपसव्वगं गोपालादी कम्मं आयरितोवरसपुच्वंगं रेहगादी सिप्पं बेहादिया सउणरूपंपज्जवसाणा वावृत्तरिकाती 59 Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उब्बष्य अनिधानराजन्नः। उभिम विज्जादेवयसमयनिबको मंतो अहवा इत्थिपुरिसा निहाण विजा- प्रवरे, अन्धवहिर्भूतैर्लोकप्रसिद्धेऽज्ञातवक्तके श्लोके, वाच । मंता अहवा स साहणा विज्जा पढणसिको मतो दुगमादि असंवृतपरिधान्मदौ “छिक्कावणा उम्भेडो णीया सा दारुणदम्वनियरा विहेसणवसीकरण चाडणारोगावणायकरावजोगा सभावा" वृ०६ उ०। विकराले, "उभडघडमुहा कच्छुकइत्थं गोपालादीकम्मे जिन्नगा कालतो मुझे गहिते अगहिते वा सराभिभूया" उद्भट विकरालं घटकमुखमिव मुखं तुच्छकाले असंपुग्ने ण कप्पति दिक्खिउं पुने कप्पति । अविनकालतो दशनच्छदत्वाद्येषां ते तथा । स्पष्टे च । “उभडघाडामुहा ककए कम्मे गिहिते वा अराहिते वा मुल्ले कप्पति । च्छुकसराभिभूया" उद्भटे स्पष्टे घाटामुखे शिरोदेशविशेषी सिप्पाई सिक्खतो, सिक्खाचेतस्स दत्त जा सिक्खा। । येषां ते तथा । भ०७ श०६ उ००।ज्ञातं०। गहियम्मि वि सिक्खम्मि, चिरकालंतु जब्बछो॥२२॥ नब्जमवेस-उन्नटवेष-पुं० निषिद्धजनोचितनेपथ्ये, ध० २० । एमेव य विज्जाए, मंते जोगे य जाव उब्बको। दर्श। (तदकरणीयता अणुब्जड शब्दे उक्ला). तावति कामे ण कप्पति, सेस कानं अणुमात्तो ॥३॥ जनव-उनव-पुं० उदू-भू-अन् । उत्पत्ती, विशे० । सम्भप्रतिगाहणातो पिज्जा मंते जोगा सिक्खतो सिक्खावतस्स वे, शा०२०। कर्तरि-अच्-1 उत्पत्तिमति, उद्भूतत्वे, विकवमादिदव्यं देति सो य जति तेण एवं उब्बको जाव सिक्ख शेषगुणगते जातिभेदे, वाच०॥ सि ताय तुम ममायतो तमि असिक्खिते न कप्पति सिक्सिए नब्जाम-नाम- पुं० उद्-भ्रम-घञ्-भिक्षाचमणे, स्था. कप्पति।अध एवं उम्बद्धो सिक्खिए वि सवरिप तियं कामं ममा ४ ठा०॥ उत्पाबल्यन भ्रमत्युश्माः । भिक्षाचरेषु, "तीरिय उयतणे नवियवं तम्मि काले अपुनेण कप्पति अंतरापवावेतस्स भामणितो य दरिसणं " व्य०१ उ० नि००। इमे दोसा॥ जब्जामश्या-नुदामिझा-स्त्री० स्वैरिएयाम्, “जस्स महिलाबंधबहो रोहा वा, हवेज्ज परितावसंकिलेसो वा । यति उम्भामला य तस्स" व्य०४३०दुःशीलायां च ।वृ०६उ । नब्बछगम्मि दोसो, उवासु ते य परिहाणा ॥२all उब्जामग-उनामक-पुं० उद्-भ्रम्-एवुल् । पारदारिके, बाह्यजवनकगनवगाणं, एस विसेसो मुणेयव्यो । ग्रामे भिक्षाटनं विधायापर्याप्ते तत्रैव भिक्षामदति, "श्रद्धाणकंग वितियपदं सुक्कोवगाहा । कंगगतो जब्बरूगो नम्बरूम णिग्गयाई उम्भामगखमग अक्खरे रिक्खा" वृ०१ उ०॥ यगाण श्मो वि से सोकण वसंपदं उब्बको भय पुण ज वायुनेदे च । प्रज्ञा सीए धेप्पंति । नि०चू०११ उ०। जन्नामगणितो(यो)य-उज्ज्ञामकनियोग-पुं० उभ्रामका भिउब्बनण-उदलन-न० अभ्यङ्गने, वियपयकारणम्मि चम्मु क्षाचरास्तेषां नियोगो व्यापारो यस उद्घामकनियोगः। भि- . ब्बलणं तु होति एगट्ठा" वृ० ३ उ० (अणायारशब्दे तनिषेध | क्षाचरव्यापारवति प्रामे, “तीरिय उम्भामणितोयदारिसणं सा उक्तः ) प्रोदलने च । क०प्र० । करणे, ल्युत् । देहोपलेपनविशे हुसणिवप्पाहे।" व्य०१ उ०। घेषु, यानि देहावस्तामर्शनेनापनीयमानानि मालादिकमादाय | जा नब्जामिगा-उनामिका-स्त्री० कुलटायाम्, व्य० ६ उ० । उद्वलन्तीति । शा०१३ १०॥ " उन्भामिगावलिया बलिया बलवलिया" महा० ३ अ० । उब्बलणसंकम-उद्मनासंक्रम-पुं० प्रदेशे, सङ्कमभेदे, पं० सं० उन्नालण-देशी-शूर्पादिनोत्पवने, अपूर्वे च । देना। (तल्लक्षणादिसंकमशब्दे प्रदेशसंक्रमप्रस्तावे दर्शयिष्यते) उन्नाव-रम-धा. क्रीडायाम, रमेः संखुखेडोम्भावकिलिकि उम्बिक-नदिक-त्रि० ऊर्द्ध गते, औ०। "सुगंधवरकुसुमचुम्म चकोडममोहायणीसरवेला ८।४।६७ । इति रमेरुभाषादेवासरेणुमइलं" भ०६श०३३ उ०। रा०। उच्छ्रिते, । "तालद्ध- शः । उम्भावइ । रमते । प्रा० । उम्बिद्धगहलकेउ" स० । प्रश्न० । रा०।। जन्नावणा-उजावना-स्त्री० उत्प्रेक्षणे, "श्रमम्भाषुब्भावणाहिं" उपविछ-त्रिक उण्डे, “उम्बिद्धविपुलगंभीरखायफलिहा" मा०१३ अा०प्रकाशने, नं। प्रभावनायाम, " पबशा० १०रा०। यण उम्भावण्या" स्था०१० ठा। वृ०। उबेह-उद्वेध-पुं०उण्डत्वे, जी०३प्रतिका"उम्बेधं ओडतणंति जनावि-देशी-सुरते, दे० ना। भणियं होई" स्था०१०ठा। भूमिप्रविष्टत्वे, जं०७ वक्ष भुवि | उन्निदमाण-उजिंदत-त्रि उद्भेदं कुर्वति, "मट्टिउपलित असप्रवेशे, स्था० २ ठा० । भूमाववगाहे, मध्यविष्कम्भे च। णं४वाउम्भिदमाणे पुढवीकार्य समारंभेजा" प्राचा०२श्रु.प्र. स्था०१० ठा। नजिदिउं (य) ननिय-श्रव्य० उद्घाट्येत्यर्थे “छगणाजब्बोमित्ता-अवयोमयित-त्रि० अधोबोलयितरि,"सीमोद- इणोवलितं उम्भिदिय जंतमुभिमं" पंचा०१३ विवाद०॥ गवियडांस वा कायं उम्दोलित्ता भवति" सूत्र०२ श्रु०३१० | उब्जिज्जमाण-उदनिद्यमान-त्रि० उद्घाट्यमाने, जं०१वक्षन उन्ज-ऊर्व-त्रि०उद्-हाङ्-म-पृषो ऊरादेशः। “वोर्वे" ८२ रा०। जीवा० । प्रावल्येनोई वा दार्यमाणे, केतहपुडाण वा ५८। इति संयुक्तस्य वा भः । उम्भं उद्धं। प्रा० उच्थे, उपरिउप- अणुवायंसि उभिजमाणाण वा" भ०१६ श०६ उ०॥ रितने च । वाच०। नन्जिल-उन्नि -न० उद्भेदनमुदभिन्नम् । साधुग्यो घृता. जम्नजि-देशी-कोद्रवजालके, वृ०१ उ०। दिदाननिमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितोद्धाटने द्वा. उब्जह-अवजाषित-त्रि० याचिते, “ उम्भटुं अणोभटुं वा गे दशे उद्गमदोषे, तद्योगाहेये घृतादी च । पिं०। "छगणारहंतस्स दव्युझियं भवति । नि० चू० १५ उ० । इणोवउत्तं उभिदिय जं तमुभिमं" । उद्भिद्य उदूघाट्य यद् नब्जड-उन्नट-त्रि० उद् भट् करणे-अप् । तण्डुलादेः प्रस्फो-| भक्तादि ददातीति वर्तते तद्भक्ताद्युद्भिन्नमित्युच्यते । कोष्ठटनहेतौ शू, तदाकारत्वात्कच्छपे, श्रेष्ठाशये, महाशये, / काद्युद्भिनं भाजनसम्बन्धादिति । पंचा० १३ विव० । Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६८) ननिम अभिधानराजेन्द्रः । नबिनम तनेदा यथा नवनिप्पंते काया, मुझंगाई नवरि बढे॥ विहिउब्जिनकवास, फामुयअफासुए य बोधध्वे । । यथा चैव पूर्वनिप्त कायाः पृथिवीकायादयो विराभ्यन्ते तथा अफासुय पुढविमाई, फासुय गणा ददरए । साधुज्यस्तैलादिकं दत्वा नूयोऽपि कुतुपादेर्मुखे उपलिप्यमाने उद्भिनं द्विधा तथा पिहितोद्भिग्नं कपाटोद्भिनं च । तत्र यत् काया विराध्यन्ते । नवरं षष्ठे काये उसकायरूपे विराध्यमाना कुतुपादेः स्थगितं मुखं साधूनां तैलघृतादि दीयते जन्तवः पृथिव्याश्रिताःमुरंगादयः पिपीलिकाः कुन्थ्वादयो द्रष्टव्याः सद्दीयमानं तैलादि पिहितोद्भिनं पिहितमुद्भिनं यत्र तत् संप्रति “दाणे कयविक्कय" इत्यवयवं व्याचिख्यासुराद । पिहितोद्भिनमिति व्युत्पत्तेः । तथा यत् पिहितं कपाटमुद्भि परस्स तं दे स एव गेहे, तेन व लोणं व घयं गुनं वा । व उद्घाट्य साधुभ्यो दीयते तत् कपाटोद्भिनम् । व्युत्पत्तिः नग्धाभियं तम्मि करे अवस्सं,मविक्कयं तेण किणा अन्नं ।। प्रागिव । तत्र पिहितोद्भिन्नं द्विधा तद्यथा प्रासुकमप्रासुकं च सचेतनमचेतनं चेत्यर्थः । तत्राप्राशुकं सचित्तपृथिव्यादिमयं तस्मिन् कुतुपादिमुखे साध्वर्थमुद्घाटिते सति प्रवर्तते इति प्राशुकं छगणादिदरके तत्र छगणा गोमया आदिशब्दोद्भ- साधी प्रवृत्तिदोषः । तथा च ' एते एव अहिंगरण' मित्यवयवं स्मादिपरिग्रहः दर्दरको मुखबन्धनवस्त्रखएडम् ॥ वाचिख्यासुराह॥ अन पिहितोद्भिन्ने दोषानभिधित्सुराह ॥ दाणकयविक्कए चेव, होइ अहिगरणमजयत्नावस्स । नन्भिन्ने बकाया, दाणे कयविक्कए य अहिगरणे । निवयंति जेय तहिं ये, जीवा मुइंगमूसाई ॥ ते चेव कवामम्मि वि, सविसेसा जंतमाईसु ॥ दानक्रये विक्रये चानन्तरोक्तस्वरूपं वर्तमाने साधोरयतभावस्य उभिने विहितोद्भिन्ने च दोषस्तमुद्भेदकाने षट्पृथिवीका अयतोऽशुकाहारापरिहारकत्वेन जीवरकणरहितो जावोऽध्यवसा यादयो विराभ्यन्ते तथा प्रथमतःसाधुनिमित्तं कुतुपादिमुखे उद्भि यो यस्य स तया तस्याधिकरणं पापप्रवृत्तिहरजायते । तथा न्ने सति पुतादित्यस्तैलादिप्रदाने तथा क्रये विक्रये चाधिक तस्मिन् कुतुपादिमुखे उद्घाटिते ये जीवा मुइंगमूषकादयो निपरणप्रवृत्तिरुपजायते । तया त एव षट्कायविराधनादयो दोषा तन्ति निपत्य च विनाशमाविशन्ति तदप्यधिकरणं साधारेव संप्रति ते चेव कवाडम्मी ' त्यवयवं व्याचिख्यासुराह ॥ कपाटेऽपि कपाटोद्भिन्नेऽपिसविशेषास्तु यन्त्ररूपकपाटादिषुषष्टव्याः। तत्र यान्यतीव संपुटमागतानि कुञ्चिकाया रोधाद्यान्ति यानि जहेव कुंजाइम पुव्वमित्ते, नन्जिजमाणे य भवंति काया। च दर्दरिकोपरि पिट्टणिकाया एकदेशवर्तीनि मानप्रवेशरूपद्वारे नविष्पमाणे वि तहा तहेव,काया कवामम्मि विनाणियब्वा। तानि यन्त्ररूपकपाटानि । आदिशब्दात्परिघादिग्रहः । संप्रत्येना- तथैव कुम्नादी घटादौ प्रादिशब्दात् कुतुपादिपरिग्रहः । पूर्वमेव गायां व्याचिख्यासुः प्रथमतः " उब्जिन्ने पक्काया" इत्यवय- लिप्त उद्भिद्यमाने तथा उपनिप्यमाने कपाटे तद्विराधना भवति । वं व्याख्यानयन् गाथाध्यमाह। जनभृते करकादौ झुप्यमाने भिद्यमाने वा पानीये प्रसर्पतः प्रत्या सचित्तपुढविनितं, लेबसितं वा वि दाउमोमित्तं । सन्नचुलादावपि प्रविशेत् । तथा च सत्यग्निविराधना यत्र सचित्तपुढविद्येवो, चिरम्मि उदगं अचिरलित्ते ॥ चाग्निस्तत्र वायुरिति वायुविराधना च। मुकादिविवरप्रविष्टकी टिकागृहगोधिकादिसर्वविनाशे त्रसकायविराधना चेति । दान एवं तु पुननित्ते, जे नविपाणे य ते चेत्र । क्रयविक्रयाधिकरणप्रवृत्तिभावनाच पूर्ववत्कर्तव्या। संप्रति "सवि ते मेजें उपसिंपइ, जनमुदं वा वितावे ।। सेसण" इत्यवयवं व्याचिख्यासुराह ॥ इह कुतुपादिमुखदर्दरकोपरि कदाचित मेलु लोष्टम् । शिलां घरकोश्नमंचारा, आवत्तणयजुगाइहेहवरि । पाषाणखा प्रविष्य जत्राीकृतसचित्तकायबितं भवति । तत्र नितिहिए य अंतो, मिनाई पेलणे दोसा ।। सचित्तः पृयिवीवेपः सचित्तः सन् चिरकामप्यवतिष्ठते । उदकं त्वचिरलिप्त अचिरकाबलिप्ते संनवति किमुक्तं भवति यदि चिर कपाटस्य सञ्चारात् संचलनात् गृहगोधिका उपलकणमेतत्कीकाबसचित्तपृथिवीकायनिप्तमुद्भिद्यते तर्हि सचित्तपृथिवी टिकापुरादयश्च विराध्यन्ते । तथा प्रासादस्याधो नूमिरूपा पीरिकेकायविनाशोऽचिरबिते तद्यमाने अप्कायस्यापि विनाशः। व पीतिका भूमिका तत्र अध उपरितनेच कपाटकदेशस्याधो व. अचिरलिप्तमप्यत्रान्तर्मूहुर्तकासमध्यवर्ति अष्टव्यमन्तर्मुहूर्तानन्तरं तते तदाश्रिताः कुन्युपिपीलिकादयो विनाशमश्नुवते । तथा तु पृथिवीकायशस्त्रसंपर्कत उदकमचित्तीनवति । ततो न तद्वि- उद्घाटिते कपाटे पश्चान्मुखं नीयमाने अन्तःस्थितस्य हिम्नादे। राधनादोषः । उपनक्कणमेतत् तेन त्रसादेरापि तदाश्रितस्य विना- | प्रेरणदोषाः शिरःस्फोटनादयो जवन्ति ॥ शसं नवो अष्टव्यः एवमनेन प्रकारेण पूर्वक्षिप्ते साध्वर्थमुद्भिद्यमाने संप्रत्यपवादमाई ॥ दोषा उक्ताः । पते एव पृथिवीकायादिविराधना दोषा उपलिप्य- घेप्पइ अकिंचियागम्मि, कवामे पदिणं परिवहति । मानेऽपि कुतुपादिमुखात्तैत्रघृतादिकं साधवे दत्वा शेषस्य रक्क- अज्जउमुद्दिय गंगी, परित्तुजा दद्दरो जाव ॥ णार्थ नूयोऽपि कुतुपादिमुखे स्थग्यमाने एव्याः । तथाहि अकुञ्चिकारहिते कुञ्चिकादिविरहिते इत्यर्थः । तत्र हि किल नूयोऽपि कुतुपादिमुखं सचित्तपृथिवीकायेन जलार्कीकृतेनोपनि पृष्ठभागे उल्लाबको न भवति । तेन न घर्षणकारण सत्वविराधना। प्यते ततः पृथिवीकायविराधना । अप्कायविराधना च पृयिवी यद्वा "अन्तुस्थागत्ति" पाठः । तत्र अकृजिकाके कृजिकाररित कायमध्ये च मुज्ञादयः कीटिकादयश्च संभवन्ति । ततस्तेषाम अक्कारारये किमुक्तं भवति । यत् उद्घाट्यमानं कपाटं केकारपि विराधना। तथा कोऽप्यभिज्ञानार्थ कुतुपादिमुखस्योपरि जतु- रावं करोति तहि क्रियमाणमूहमधास्तर्यक् च घर्षन् प्रनृतसन्वमुद्रां ददाति । तथा तेजस्कायविराधनापि । यत्राम्निस्तत्र वायु- व्यापादनं करोति । तेन तर्जनम् । तस्मिन्नपि किं विशिष्टे :रिति वायुकायविराधना च। ततः पिहितोद्भिनषदकायविराधना । त्याह । प्रतिदिनं प्रतिदिवसं निरन्तरं प्रतिवहति । नद्धाट्यमाने अमुमेवार्थ स्पष्टं भावयति । दीयमाने चेत्यर्थः तस्मिन् प्रायो न गृहगोधिकादिसत्वाश्रयसं. जह चेत्र पुवशित्ते कायादओ पुणो वि तह चेव । नवश्विरकासमवस्यानाजावात् । इत्थं भूते कपाटे साध्वर्यमप्यु Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उब्भिन्न अनिधानराजेन्डः। उभयारिह द्घाटिते यत् ददाति गृहस्थः तत् गृह्यते स्थविरकल्पानामाची- कर्मणोरपितदियिकादिभावविषयकसंयोगवणस्योभयार्पितसझमेतत् । तथा यश्च दईरकः कुतुपादीनां मुखबन्धरूपः प्रति- म्बन्धनसंयोगस्य व्याख्या संजोग शब्दे वदयते ) दिवसं परिजुज्यते बध्यते गद्यते च इत्यर्थः तत्र यदि जतुमुनाव्यतिरेकेण केवसं वस्त्रमात्रप्रन्थिीयते । नापि च सचित्तपृथि नजयममन्त्री-उत्जयमएमली-स्त्री.समुद्देशनमएमल्याम, स्वावीकायादिलेपस्तहि तस्मिन् साध्वर्यमुशिन्नेऽपि यहीयते त ध्यायमएमल्यां च । वृ०१०। साधुभिर्गृह्यते इति । उक्तमुद्भिनद्वारम् । पिं० । प्रव० । ध० । उन्नयनोगहिय-उत्तयझोकहित-त्रि० सोकरयेऽप्युपकारके, "क पंचा० । व्य० । उत्त। दर्शाग० । स्था०। (तग्रहणनिषेध खाण नायणत्तेण उन्नयोगहिय" पंचा० ११ विव० । प्राचाराने प्रतिपादितः स च मा सोहम शब्दे व्याख्यास्यते)वृ०। नजयसंबंधणसंजोग-उन्नयसम्बन्धनसंयोग-पुं० उन्नयनात्मवा(जोतकल्पानुसारेण पिहितोनिमकपाटोभिने आचामाम्ब- बन्नकणेन तदुनयस्मिन्या संयोगे, यथा क्रोधी देवदतः क्रोधी म) जीत० । उत्पन्ने, कर्मणि-क्त द्विधाकृते, दझिते च। वाच॥ कोन्तिको मानो साराष्ट्र कौन्तिको मानी सौराष्ट्र: क्रोधी वा सन्ति । अत्र क्रोधादिजिरीजन्नुअंत-नजवत-त्रि उद्-नू-शतृ-नुवेहोंडवहवाः ८।४६०।। दयिकादिभावान्तर्गतत्वेनात्मरूपैर्नामादिनिस्त्वात्मनोऽनन्यत्वेनइत्यत्र कचिदन्यदपीत्युक्तेरुब्नुअ आदेशः । उत्पद्यमाने, प्रा०॥ बाह्यरूपः संयोग इत्युन्जयसम्बन्धनसंयोग उच्यते । उत्त०१ जन्नुझ्या-औकृतिकी-स्त्री० सदनूते, आगन्तुके, कस्मिंश्चित्प्र- । अ०। (एतद्याख्या संजोग शब्दे) योजने सामन्तामात्यादिलोकस्य ज्ञापनार्थ वाघमानायामाशीर्ष उन्नयसमय-उत्जयसमय-पुं० उन्नय (स्वपर) मतानुगतशास्त्रचन्दनमय्यां देवतापरिगृहीतायां कृष्णवासुदेवनाम, विशे०॥ स्वन्नावे, उत्त० १ अ। उन्नुत्त-उतिप्-धा-करकेपे, उरिक्तपेगसंगमोत्यंघासो उन्नयारिह-नजयाहे-न० मिश्रापरपय्याये, दशविधप्रायश्चित्तत्तोस्सिकहक्खुप्पाः ८।४। ४३ । इत्युक्तिपे रुजुत्तादेशः। मध्ये तृतीय, यस्मिन्प्रतिसबिते प्रायश्चित्ते यदि गुरुसमकमालोउन्नुत्त । उक्खिव । प्रा०॥ चयति वासोच्य च गुरुसन्दिष्टः प्रतिक्रामति पश्चाश्च मिथ्याद्जब्नेइम-उनेदिम-न० उद्भधे सामुडादौ, अप्रासुके वा अवणे, स्कृतमिति बूते तदा शुध्यति तत आझोचनाप्रतिक्रमण सकणोजयाद६अ।“विनं वा लोणं जम्नेश्म वा लोणं आहारे आहा. ईत्वान्मिश्रम । व्य० प्र०१०। यच्च प्रतिसेव्य गुरोरासोचयरंतं वा साज उन्नेतिमं पुण सय रुई जहा सामुहं" नि० ति गुरुपदेशेनच विशुध्यर्थं मिथ्यादुष्कृतं क्रियतेतनयाहम ।जी० चू० ११ १०॥ येषु प्रतिसेवितेषु जनयाई प्रायश्चित्तं तान्याह । उजओ-जयतस्- अभ्य० उभाज्यां प्रकाराज्यामित्यर्थे, "उन्न- संजमजयानरावइ, सहसाणाजोगणप्पवसओ वा। ओ जोगविशुका आयावणट्ठाणमाईया" उभाच्या प्रकाराच्या सव्ववयाईयारे, तमुजयमासंकिए चेव ।। क्रियया नावतश्चेत्यर्थः। (जोगविसुरुत्ति) विगुरुयोगा निरव- संभ्रमः संकोभः करिसरित्पूरसाबदावानादेः त्रयः चौरवद्यव्यापाराः । पञ्चा० १८ विव०। “उभो विबोयणे सुहओ न्दिकम्प्रेच्चादेः (आचरत्ति) भावप्रधानत्वानिर्देशस्य आतुरत्वं उमए” उनयतः शिरोन्तपादान्तावाश्रित्य (विव्वोयणेत्ति) पीमितत्वं कुत्पिपासाद्यैः । श्रापश्चतुर्का ब्यकेत्रकाबनावैः । तत्र उपधानके यत्र तत्तथा । भ०११ श०११०॥ व्यापकल्पनीयासनादिव्यमुलभता १ केत्रापत्प्रत्यासन्नग्राउजय-उत्जय-त्रि० सन्-अयच्-घवयवे हित्वविशिष्टे, अस्य द्वि मनगरादिरहितमल्पं च केत्रम् २ कालापदुष्कामादि ३ जावास्खे बोधकत्वेऽपि पकवचनबहुवचनान्ततयैव प्रयोगःनहिवचन- पदग्यानत्वादि ४ ततः सैतमन्नयातुरापद्भिः कारणैः सहसाकाप्रयोगः। "सिज्जादिएसु जनयं करेज्जंसे धोवधि वममतं । उभयं रानानोगी प्राग् व्याख्याती तान्यां चानात्मवशका परवशः वा णाम एगदोसा" निचू०१०।। शब्दाद लताद्याविष्टश्च तस्य सर्ववतातिचारे सति । नन्वेवमउन्नयनाग-नत्नयनाग-न० चन्जस्य उभयत उन्नयनागान्यां तीचाराः हस्तिसंचमाद्यैः पलायमानः पृथिवीजलाननरहितधिपूर्वतः पश्चाच्चेत्यर्थो भज्यन्ते तुज्यन्ते यानि तानि उन्नयनागानि त्रिचतुःपञ्चेन्ड्रियांश्चरणकरणघातादिना ताम्यन् पादपाधारोचन्द्रस्य पूर्वतः पृष्टतश्च जोगमुपगच्छतिनकत्रे, | "चंदस्स ओइ हणेन प्राणातिपातविरतिं विराधयेत् । मृषाविरति कूटसाक्ष्यासिंदस्स जोश्सरनोवणक्वत्ता उभयभागा उत्तरा तिमि विसा. दिना अदत्तविरतिं प्रनीः स्तैन्येनासनादिददतो ग्रहणेन मैथुन विरतिं स्यादिना परिग्रहविराति मध्यममूर्गदिना रात्रिनोजनहा पुणवसू रोहिणी उभयजोगत्ति" । स्था०६०। विरति दिवागृहितानि जङ्गकैः अध्वकल्पो दूरतममानें बजतां उजयकान-जयकाल-पुं० उभयसन्ध्ये, ग०२ अधिक। घृतमिश्रकणिक्काद्यादानरूपः तं विदध्यात् । अपकृतं कीरानादि उजयगाण-उत्जयगणिन्-पुं० उत्नयः साधुसाध्वीद्वयरूपो गणो. तदुत्सर्गतो न ग्राह्यत्वचिदनुजीतेत्यादि मूत्रविषया एवमुत्तरेऽस्यास्तीति नभयगणी। साधुसाध्वीगणघ्याऽऽचार्य, वृ०१ उ०। ऽरुणेष्वपि केयाः । इत्यमतीचारजाते सति तथा आशङ्किते उजयजणणसनाव-उन्नयजननस्वनाव-त्रि० श्ष्टानिष्टार्थोत्पाद चैव यदतिचारस्थानं कृतमकृतं चेति निश्चेतुं न शक्नोति तनबीजकल्पे, "जमुभयजणणसजावा एसाविहिणेयरेहि अप्पमा" स्मिश्च दर्शनशानचारित्रतपःप्रतिसर्वपदविषये तऽभयाई पंचा०३ विव० प्रायश्चित्तम् ।एकं गुरोरालोचना द्वितीयं गुरुसंदिऐन मिथ्यापुष्कउज्जयाणिसिरण-उत्जयनिसर्जन-म० कायिकसकोभयव्युत्सर्जने, सदानं प्रतिक्रमणामुख्यमित्येतनयं गुड़िकरम् । किश्च । "उभयं णाम काश्यसम्माणिसिरणं धोसिरण" नि० चू०१०। मुचिंतिय मुन्नासिय, सुचिहिय एवमाश्यं बहुसो। नजयदढ-उजयदृढ-त्रि० धृत्या संहननेन च वसवति, वृ० १०. उवउत्तो विन याणइ, जं देवसिया अश्यारा॥ दुश्चिन्तितं कोणार्यकशब्दवदातचिन्तनात् । पुर्जाषित त्यउजयप्पियसंबंधणसंजोग-उन्नयापितसम्बन्धनसंयोग-पुं० मि सद्भूतोशायनं पुश्चेष्टितं च धावनादि । इश्चिन्तितं दु पितं धार्पितसम्बन्धनसंयोगरूपे संयोगानेदे, उत्त०१०। (आत्म-| पुश्चेष्टितम् । एवमादिकमन्यदप्येवं प्रकार प्रतिलखितं दुष्प्र Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयारह अभिधानराजेन्द्रः । उभयारिह मार्जिता बहुशोऽनेको उपयुक्तोऽपि उपयोगवानपि यईवसिका- ह्यं नाभ्यन्तरमिति षमां स्थानानां बाह्यत इति वचनादेव प्रचतिवारादित्यादिशब्दावा त्रिकपातिकचातुर्मादिकसांवत्सरि- तिपत्तव्यम् । तच्च तदुभयं तच्चैवं भावनीयम् । शङ्कितादिकादि च पूर्वकासकृतमालोचनाकाले म स्मरति तस्याप्यति- षु यथोक्तस्वरूपेषु सत्सु प्रथमं गुरूणां पुरत आलोचनां तदचार जातस्याशोधकः । अस्यां गाथायामनुक्तमपि प्रस्तावात्त- नन्तरं गुरुसमादेशेन मिथ्यादुष्कृतदानमिति । शंकिए इत्येतजयाईमेव केयम्। द्विवृण्वन्नाह ॥ सव्वेस वि वीइयपए, दंसणनाणचरणावरोहेसु । हित्थो व णहित्यो मे, सत्तो नणियं च न जणियं मिसा। अाउत्तस्स तदुभयं, सहसाकाराणा चेव ॥ उग्गहणूामणुना, तइए फासे चनत्थाम्म । प्रयमपदमुत्सर्गस्तदपेक्कया द्वितीयपदमपवादस्तस्मिन्नुपस्थि इंदियरागहोसाउ, पंचमे किं गतोमि न गताति। ते सत्ययुक्तस्य कारणेन यतनया गीतार्थस्यापराधपदान्यासेवमानसहसाकारादिना चैवमादिशब्दादाभोगानानोगान्यां च बढे लेवामादी, धोयमधोयं न वावेत्ति ॥ सर्वेष्वपि दर्शनझानचरणापराधेषु तनयं प्रायश्चित्तम् । अत्राह सत्वः प्राणी (हित्थोत्ति ) देशीपदमेतत् । हिंशितो मे मया शिष्यः। 'स्वत्रियस्स य सञ्चत्य वी' त्यत्र दर्शनझानचरणादिपदेषु नवा हिसित इति । तथा मृषा नणितं न वा। तथा तृतीये अदत्तासर्वेषु सस्खवितस्य प्रतिक्रमणाईमानिधाय तेष्ववेह कथं तन- दानविरतिबकणे अवग्रहोऽनुका मया कारिता यदि वा अनुका यामभिधीयते । तत्र हि सममापद्यमानस्यस्युक्तम् । इह तु न कारिता । तथा चतुर्थे मैथुनविरतिलकणे जिनन्नवनादिषु हिंसाव्यापन्नसाम्ययुक्तस्य तदुनयाहेण शुकिरिति न विरोधः । स्नानादिदर्शनप्रयोजनतो मतः सन् (फासेशत्ति) खीस्पर्शे इदानीं तदुभयाईमभिधातुकाम आह ॥ रागं गतो न वा। तथा पञ्चमे परिप्रहविरमणबवणे इन्द्रियेषु संकिए सहसागारे, उन्नयाउरे प्रावती य॥ विषयिणा विषयोपयोगरवणादिजियेषु श्यनिष्टषु रागद्वेषौ महन्धयातियारे य, उपहंगणाण वज्कतो ।। , गतोऽस्मि किं वा न गत इति । तथा षष्ठे रात्रिनोजनविरमणे शङ्कितः प्राणातिपातादौ यथा मया प्राणातिपातः कृतः किं सेपकृदादि तकाद्यवयवरूपं कथमपि पात्रादिगतं पर्युषितं निवा न कृतः । तथा मृषा भणितं न वा अवग्रहोनुशापितो न वाटनार्थमुत्पद्यते तमौतमथवा न धौतं मयेति । यद्येवं ततः वा, नानादिदर्शननिमित्तं जिनभवनादिगतस्य स्त्रीस्पर्श रा- | किमित्याह। गगमनमभूत्र वा इष्टानिष्टेषु रागद्वषौ गतौ न वा, तक्रादिले- इंदियअव्वागमिया जे, अत्था अणुवधारिया। पकृदवयवाः कथमपि पात्रगताः पर्युषिता:भिक्षार्थमटितुकामेन धौताः किं वा न धौता इत्यादि । तत्र षमां बाह्यं तदुभय तदुजयपायच्चित्तं, पमिवज्जनावतो ॥ लक्षणं प्रायश्चित्तमिति योगः। तथा उपयोगवतोऽपि सहसा उक्तेन प्रकारेण येऽर्थाः प्राणातिपातादय इन्द्रियश्चकुरादिनिरव्याकारे सहसा प्राणातिपातादिकरणे । तथा भये दुष्टम्लेच्छा कृताःप्रकटीकृता अपि येऽनुपधारितानसम्यग्धारणाविषयीकृतादिसमुत्थे यदि वा हस्त्यागमने मेघोदकनिपातस्पर्शने दीपा स्तेषु प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते । जावतः सम्यगपुनरापतनेन तदुनयदिस्पर्शने वा आकुलतया प्राणातिपातादिकरणे तथा आतु मिति । तच्च तदुभयं च पूर्व गुरूणां पुरत आलोचना । तदनर शुधा पिपासया वा पीडितः। भावप्रधानश्चायं निर्देशस्त न्तरं तदादेशतो मिथ्यामुष्कृतदानमित्येवंरूपं तदुजयम् । एतदेव सविस्तरमानिधित्सुराह । तोऽयमर्थः पातुरतायाम् । तथा आपश्चतुर्दा तद्यथा। द्रव्यापत् क्षेत्रापत् कालापत् भावापत् । तत्र व्यापत् दुर्लभ सदा सुया बहुविहा, तत्थ य केसु विगतोमि रागति । प्रायोग्यं द्रव्यम् । क्षेत्रापत् छिन्नमण्डपादि । कालापत् दुर्भि- अमुगत्थ मे वितत्का, पमिवज्जइ तदुनयं तत्थ ॥ तादि । भावापत् गाढम्लानत्वादि । पतासु स हिंसादि- शब्दा भया बहुविधा बहुप्रकाराःश्रवणविषयीकृतास्तत्र तेषु दोषमापवमानस्यापि अनात्मवशगस्य तथाहि ईर्यासमिता- बहुविधेषु शब्देषु भूतेषु मध्ये (वितक्कत्ति) एवं मे वितर्कः संदेहो खुपयुक्तोऽप्युचालिते पादे सहसा समापतितं कुलिङ्गिनमपि यथा केषुचिदपि (अमुगत्थत्ति) अमुकेषु रागमुपलकणमेतत् व्यापादयेत् मृषापि कदाचित्सहसा भाषते । अवग्रहमपि द्वेषं वा गतोऽस्मि । तत्र तस्मिन् शङ्काविषये तनयमुक्तलक्षणं कदाचिद्राभसिकतया अननुज्ञातमपि परिभोगयति । अत्यु प्रायश्चित्तं भावतः प्रतिपद्यते । यदिहि निश्चितं जवति यथा ल्वणमबलारूपमवलोक्य कदाचनापि सहसा रागमुपैति इ- अमुकेषु शब्देषु राग द्वेषं वा गतः इति तत्र तपोऽहे प्रायश्चित्यादि । तथा भयात्प्रपलायमानोभूदकज्वलनवनस्पतिद्वित्रि- तम् । तथैव निश्चयो न गतो राग द्वेषं वा तत्र स शुद्ध एव न चतुःपञ्चेन्द्रियानपि व्यापादयेत् । मृषापि भयात् भाषते परि प्रायश्चित्तविषयः। ततो वितर्क यथोक्तसकणे तदुभयमेव प्रायप्रहमपि धर्मोपकरणबाह्यस्य करोति । आतुरतायामपि स- श्चित्तमिति । म्यगीर्यापथाशोधने संभवति प्राणातिपातः । अत्यातुरतायां एमेव सेसए वि, विसए आसेविऊण जे पच्छा। कदाचिन्मृषा भाषणमपि अदत्तादानमपि च एवमापत्स्वपि भावनीयम् तथा महावतानां प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनां सह काऊण एगपक्खे, न तरइ ताहि यं तदुनयं तु ॥ साकारतः स्फुटबुख्या कारणतो वा अतीचारे च शब्दादति पवमेव उक्तेनैव प्रकारेण यान् रूपादीविषयान् प्रासेव्योपनुज्य क्रमव्यतिक्रमयोश्च । तथातिकमादीनां महावतविषयाणामन्य उपनक्कणमेतत् प्राणातिपातादीनप्यासेन्य पश्चात एकतरस्मिन्पतमस्याशङ्कायां वा किमित्याह ( छण्हं ठाणाणवज्झतो इति) के अपराधलक्षणे निर्दोषतालकणे वान कर्तुं शक्नोति यथा रूपाकेषांचिदनवस्थितफाराञ्चिते प्रायश्चित्ते द्वे अपि एकं प्राय दिषु विषयेषु राग द्वेषं बा गतः। प्राणातिपातादयो वा कृता इति । श्चित्तमिति प्रतिपत्तिः तन्मते नवधा प्रायश्चित्तं तत्र बाह्ये यदि वा न गतो रागद्वेषी नापि कृताः प्राणातिपातादय इति वे प्रायश्चित्ते मुक्त्वा शेषाणि सप्त प्रायश्चित्तानि तेषां च स- तत्र तदुभयं तु तदुभयमेव तु शब्दस्यैवकारार्थत्वात् यथोक्तलक्षणं तानां प्रायश्चित्तानां यदाद्यं प्रायश्चित्तं तदुपरितनानां षमा बा- प्रायश्चित्तं शङ्कास्पदत्वात् तदेवं शङ्कित इति व्याख्यातम् । Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७१), निधानराजेन्द्रः | भार संप्रति सहसाकारेत्यादिसुराद उगवतो सहसा प्रयेण वा पश्चिम कुलिंगादी। चारातीय, अणेसिया दीहगणजोगा | उपयोगवतो पि ईर्यासमितौ सम्यगुपयुक्तस्यापि उच्चालिते पादे कथमपि सहसा योगतः समापतितः सन् कुलिङ्गी व्यापाद्यते भये नया सदानां पायमाने नम्रपणं रोग पत दपिव्यं परेण वा (पेल्लिए इति) परेण प्रेरिते वा तद्व्यापारमासाद्य कुलिङ्गी उपलक्षणमेतत् । पृथिव्या दिजीवनिकायो वा व्यापतिमाप्नुयात्। तथा भयातुरे कुधा पिपासया वा अत्यन्तं पीमित तथा आपत्सु अन्यापदादिषु यदि अनेषितादिमणभो गौ प्रवतः अनेषितमनेषण । यमादिशब्दादकल्पनीयस्य परिग्रहः नमनेचितादिणनोगी किंतु गमनागमनादौ पृथिव्या दिजन्तुविराधनापि प्रवति तथापि तत्र प्रायधिसं पोकल भयमिति वर्त्तते सदाकारादिविषयत्वात् । संप्रति महन्वयाश्यारे का इत्येतद्व्याख्यानयन्नाइ ॥ सहसाकारे अइम- पश्कमे चैव तह य अइयारे । होइ व सहग्गहणा, पच्चित्तं तदुभयं तिसु वि ।। इतिमानुवयोगे वा, एगयरे तत्थ होइ आसंका । नवा जस्स बिसोहि तस्सुवरिं एह पच्छतु ॥ ससाकारतोऽतिक्रमेव्यतिक्रमे अतीबारे प्राय्यावर्णितस्वरूपे महाव्रतविषये इति सामर्थ्याद्गम्यते महव्वयाश्यारे य इति पदस्य व्याख्यायमानत्वात् एतेषु त्रिष्वपि दोषेषु तडुजयमुक्तस्वरूपं प्रायश्चित्तम् । अथ मुञ्जगायायां महाव्रतातीचारे देत्येवोक्तं ततः कथमत्र विधृतम् अतिक्रमे चेति अत आह । चशब्दग्रहणात्किमुक्तं भवति चशब्दग्रहणात् मूलगायायामतिक्रमव्यतिक्रमयोरपि समुश्चयः कृत इत्यदोषः । अथवा अतो चारस्य पर्यन्तग्रहणादतिक्रमव्यतिक्रमयोरपि उपयोगे स्फुटबुद्ध्या करणे तदुभयप्रायश्चित्तमि ति योगः । वा शब्दो निक्रमत्वाद् एगयरे इत्यत्र योजनीयः । ततो ऽयमर्थः । एकतरस्मिन्वा तत्र अतिक्रमे अतीचारे वा यदि नवत्याशङ्का यथा मयातिक्रमः कृतो न वा व्यतिक्रमः कृतो न वा अतीचारः कृतो नवेति । तत्रापि तदुभयं प्रायश्चित्तम् । " ह सहसाकारास संकिय सहसाकारे" ग महावतानामतिक्रमादिष्वन्याशङ्कायां सदसाकारे तदेव प्रायश्चित्तं नान्यपरिकल्पनीयमिति । नाप्यकृता सहसाकारासंके अपि योजिते । नाहं गणाण वज्झतो इति व्याख्यानयन्नाह ( नवदेत्यादि ) यस्याचार्यस्य मतेन धनवस्थितपारातिरै क्यविवणान्नवधा नवप्रकारा विशोधिः प्रायश्चित्तं तस्य आद्यप्रायश्चित्तस्योपरि यद्वर्तते प्रायश्चित्तं तत्वामुपरितनानांबाह्य मंच तुराब्दस्यैवकाराचैश्यात्। ततः उष्टं गणाच इति दुभयं प्रायश्चित्तं प्रतिपत्तव्यमिति । उक्तं तनयाई प्रायश्चित्तम् उपच्छा० उपालम्भे यचे चेवजुयोमाः । १ । ३ । इति कचेरुमच्छादेशः । उमच्छर वञ्चश् वञ्चति । प्रा हमामा श्री शिवपत्या को अवसपियां द्वितीयबलदेववासुदेवमातरि, स० । आव० । उज्जयिन्यां प्रयोतस्य राहोऽन्तःपुरे गणिकायाम्, आव० ४ अ० । आ० चू० । ( तया मदेश्वरनामा खेचरो वृत इति सिक्खा शब्दे विकाशमेष्यति ) उमान (लय) निर्मास्य-१० निरम-उत्प मध्यस्थीची |१| ३० । इतिमिर इत्येष शोमा परेवा रुपमा देवादिदते तसिर्जनातरमुपे 'उमा निम्मानं उमालयं वह 'प्रा० । उम्मग्गजला उमासाइ उमास्वाति ५० तत्वार्थ सूत्राकारके स्वनामरूपात याच कप्रवरे, अस्य च माता उमा नाम्नी पिता च स्वातिनामेति तयोजतत्वादयमुमास्वातिनामा प्रसिकिमगमत् । कौषीतकिगोत्रो यं वाह्मण आसीत् प्रवाचकान्यानुसारेणाऽयं घोषनन्दि कुमा श्रमणशिष्य शिवश्रीनाम्न आचार्यस्य शिष्य आसीत् । वाचनाचायययानुमुन्यादशिष्यमूतवाचकस्य शिष्य आसीत् । अयमाचार्योऽस्मदीय इति श्वेताम्बरा दिगम्बराम्रा विवदन्ते । तत्र दिगम्बरमतेन वीरमोकाय (१०२) वर्षेऽयं विद्यमान आसीत् न्यनेोधिकानाम्नि ग्रामेध्यं जन्म लेने सरस्वती गच्छेयं पठा कुन्दकुन्दाचार्यमोहाचार्ययोर्मध्यगो जातः चत्वार्थपा टलिपुत्र नगरे विरचितम् । तदुपरि टीकानाप्ये च स्वेनैव कृते अन्यायेका टीका विक्रमसमकालिकेन सिद्धसेनार्केण तत्र कृता जै० ६० । तथाचार भगवानुमास्वातिवाचकः सम्यग्दर्शनचारित्राणि मोकमार्ग इति । नं० । षस्थानयुक्तश्च श्रावको भवतीत्युमास्वातिवाचकवचनात् । ० १६ श्र० । उक्तं चोमास्वातिवायकेंग" दिखानृतस्तयविषयसंज्यो रोङ्गमिति " प्राय० ४ प्र० । वाचकः पूर्वपरोनीयते स च श्रीमानमास्यातिनामा महातार्किकः प्रकरणपञ्चशती कर्ताचार्यः सुप्रसिकोऽभवत् पञ्चा० ६ विव० । उम्मग्ग- उन्मग्न- त्रि० उद्- मस्ज् क। ऊर्ध्वं जल गमनं कुर्वाणे, प्रश्न० ३ द्वा० । उन्मज्जन- न० उन्मज्यते ऽनेनेति उन्मज्जनस् । रन्धे, “उम्मगं सि मोलमति" भाषा० १६००३००गमने, “म छह मासेहि, णो पाणिणं पाणिसमारनेजा" इद मिथ्यात्वादिशैबासाच्छादितसंसारदे जयसिंयमवीरूप मुन्मज्जनमासाद्य लग्या संपूर्णमोहमार्गसंप्रवान्मानुषेवि त्युक्तम् । श्रचा० । १ श्रु० ३ ० २ उ० । उन्मार्ग - पुं० मार्गः क्कायोपशमिको नावस्तमतिक्रान्त उन्मागेः । कायोपशमिकभावत्यागेनी विका" जो मे देव सिओ अध्यारो कओ काश्ओ वाइओ माणसियो उस्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिजो " ध० २ अधि० । आव० । आ० चू० । निर्वृतिपुरीं प्रति अपथि वस्तुतत्वापेक्क्या विपरीतकानज्ञानानुष्ठाने, "मग्गे उम्मग्गसष्ठा” स्था० १० वाण असन्मार्गे, ग० १ अधि० । परसमय अट्ठे हे असम्भावे अकिरिए उस्मो उन्मार्ग परस्परविरोधानवस्थासयाकुत्यातपादि "न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । श्रात्मवत्सर्वछूतानि यः पश्यति स धार्मिकः " इत्याद्यनिधाय पुनरपि - " षट् सहस्राणि युज्यन्ते, पशूनां मन्यमेऽहनि । अभ्यमेघस्य वचनान्यूनानि पशुनिस्त्रिनि " रित्यादि प्रतिपादयन्तीति । अनु० । संसारावतरणे, सूत्र० १ ० १२ अ० । आचा० । कई मार्ग उन्मार्गः । रन्ध्रे, “तम्मांसि पो लभति" आचा०१०६ अ०१०० बहुतो मागमार्थः अकार्यकरणे, भा०१००० उम्मम्गगप-उन्मार्गगत वि० उन्मार्गे संसारावतरणरूपेण गतः प्रवृतः उन्मार्गगतः। संसारे एच प्रवृत्ते मोक्षमार्गे - स्ते, "सुद्धं मग्गं विराहिता, इहमेगे उ दुम्मती । उम्मग्गगता दुक्खं, धायमे संति तं तहा " सूत्र० १ ० १२ श्र० । उपग्गनला उत्पन्नजला-श्री० उन्मज्जति शिलादिकमा दिति उन्मग्नं कृद्बहुलमिति वचनात् श्रपादाने कप्रत्ययः । उन्मने जलं यस्यां सा तथा तमिस्रगुहायां बहुमध्यदेशभा गे वहन्त्यां स्वनामख्यातायां नद्याम् ॥ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मग्गजला (८७२ ) निधानराजेन्द्रः । तत्स्वरूपं यथा ॥ सीसे णं तिमिसगुहार बसना एत्य उम्मग्गशिमगजला पार्म दुबे महाण पतासाओ जान तिमिसगुहार पुरच्छिमिलाओ करूगाउ पवृट्टायो समा पचमेणं सिंधु महाादी सिमप्येति । तस्यास्तमिस्रागुहायाः बहुमध्यदेशभागे दक्षिणद्वारतस्तो कसमेतैकविंशति योजनेभ्यः परतः उत्तरद्वारतस्तोकसमेतैकविंशतियोजनेभ्यो ऽयक उन्मग्नजलानिमग्नजलामामयी नयी मते । वे तमिखागुहायाः पौरस्त्यकटकानिविदेशात् प्रयू निर्गते सत्य पायासेन फटकेन विजिन सिन्धुमहानदीं समाप्तः प्रविशत इत्यर्थः । नित्यप्रवृत्या इर्तमाननिर्देशः । अथानपोरग्वर्ग पृष् सेकेट्टे णं जंते ! एवं वच्चइ उम्मग्गशिमग्मजलाओ महान? गोमाज उमग्गनसार गहाणईतवा पतं वा कई या सकरें या आसे वा हत्यी वा रहे वा जो हो वा मस्से वा पक्खिपड़ ताम्र णं उम्मग्गजझा महाई तिक्खुत्तो प्राणि २ एगंते यले पक्खिवइ जां मिग्गजलाए महाईए तां वा जाव मस्से वा पक्खिपराठां निम्मा महाई तिखुतो आणि २ तो जहां णिमा से लेणणं गोयमा एवं उम्मग्गणिम्मग्गजलाओ । महाई ॥ अथ केनार्थेन दन्त ! एवमुच्यते उन्मग्ननिमग्नजले महानद्यौ गोतम ! यत् णमिति प्राग्वत् उन्मग्नजल्लायां महानद्यां तृणं वा पत्र वा काष्ठं वा शर्करा वा दृषत्खएकः अत्र प्राकृतत्वालिङ्गव्यत्ययः । अश्वो वा हस्ती वा रथो वा योधो वा सुनटः सेनायाः प्रकरणाश्चतुर्णा सेनाङ्गानां कथनं मनुष्यो वा प्रक्विप्यते तत्तृणादिके उन्मग्नजना महानदी कृतांस्त्रीन् वारान् आधूय २ मयित्वा २ जलेन सहाज्याहत्येत्यर्थः एकान्ते जनप्रदेशादवयसि स्थान निर्जल प्रदेशे (पति) उदयति तीरे प्रतिपतीत्यर्थः । तुम्बी फल मित्र शिक्षा उन्मग्नजले उन्मज्जति अत एवोन्मज्जति शिलादिकमस्मादिति उन्ममिति वचनात् अपादानेक्तप्रत्ययः । उम्मम्नं जलं यस्यां सा तथा । अथ द्वितीयानामार्था । तत्पूर्वोक्तं वस्तुजातं निमग्नजला महानदी त्रिःकृत्व आधूयाधूय अन्तर्जलं निमज्जयति शित्रेव तुम्बीफलं निमग्नाजले निमज्जतीत्यर्थः । अतएव निमज्जयत्यस्मिन् तृष्णादिकमखिलम् वस्तुजातमिति निमग्नं बहुलवचनादधिकरणे कप्रत्ययः । निमग्नं जलं यस्यां सा तथा । अथैतनिगमयति सेतेणठेणमित्यादि सुगमम् । अनयोश्च यथाक्रममुन्मज्जनिमज्जकृत्ये वस्तुस्वनाव एव शरणं तस्य वातर्कणीयत्वात् । इमे च द्वे अपि त्रियोजन विस्तारगुहा विस्तारायामे अन्योन्यं द्वियोजनान्तरे अनागामध्यदेश - वर्तित्वं तथा सुखावबोध्या स्थापना देश्यते । जं० ३ वक० । उमग्गडियउन्मार्गस्थित त्रिसूत्रादिरूपयापरे, "अट्टाधारो सूरी, मट्ठायारा विग्गओ सुरी । उम्मम्गाईओ सूरी, तिष्टि वि मग्गं पणासेति” ग० १९ अधि० । (आयरिशब्दे विवृतिरुक्ता ) उम्मम्गण्यण - उन्मार्गनयन-न० उम्मार्गप्रापणे, “यद्भाषितं मुनी पाखदेशगारस्थाने सम्माननमेतत्०वि० उम्मग्गदेसण उम्मग्गदेणा-उन्मार्गदेशना श्री० उन्मार्गस्य नव देवेन देशना कपनमा कर्म सम्पन्नादिरूपभावमार्गातिक्रान्तधर्मकथने, एष दर्शनमोहनीयकर्मणो हेतुः । स्था० ४ वा० । ध० ॥ नाणार प्रदर्सितो, तब्विवरीतु उपदिसद मणं । उम्मदेसओ एस आय अहित परेसिं च ॥ ज्ञानादीनि पारमार्थिकमार्गरूपाणि प्ररूपयन् तद्विपरीतं ज्ञानादिविपरीतमेवोपदिशतीति मार्गे धूमसंबन्धिनमेष सन्मार्गदेशकः अयं चात्मनः परेषां बोधिची जोपघातादिना अहित प्रतिकृ त्या उन्मादेना। वृ० १७० । च पुच्छे से पि न परिविवह समत्याह । आहरमेतका ने उम्मगं वासंति ॥ सुगई इति तेसिं, धम्मियजण निंदणं करेमाणा | आहारपसया निति निदोराई ॥ गुरु निस्तायः एव धर्मतत्वप्रकाशनशी भाज्या यत्पृच्छतामित्यत्रापि शब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात्ततः पृच्छतामपि प्रच्छनशीलानामपि को धर्मः स्वर्गापवर्गसाधनमपि पर कि तुमसमर्थानां मुग्धनामित्यर्थः दिवि भवन्ति ते विशेषतो न्य ये कुर्वन्ति अतोऽतिक्लिष्टताख्यापनार्थ परीक्षमाणमयुक्तम् येक जूता भादारमात्राः शिवखानिमुखाः I मागि महामेते विवेकिनः सन्तः प्रायामदिदोषदूषितमाहारयपात्रयायादन] दास्यन्त्य उन्मार्गदिशन्ति शास्त्रीस्वरमार्गाचार्य तथा विप्रतारयन्ति या जमान्तरमपि दासादिकविकारिणो भवन्ति ते कि पा कारिणो भवन्ति नेत्याह । नन्ति नाशयन्ति कां सुगतिं स्वर्गापवगदिकां केषां सम्यगजानानानां परमगुरुरिव धर्मबुद्धयाराधयतां तेषामपि सुगलिनाशी जयति तथादि यया काकेषांचिदिकपरलोकविरुद्धकारिणां मन्त्रयोगचूर्णादिना वशीकृतः स तस्य परमबन्धुरबुद्ध्यापि सर्वस्वं समापयन् प्राग्भवति एवमत्रापीति भावार्थः । पुनरपि कथं नूता गुरुकर्म्मतया धामिकजनं संविग्नं गीता वाक्यानुष्ठानपरायणमपि निन्दयन्तो यन्तः न केवनं तेषां स्वरुचिविरचिताचारान् विधाय देशनावशीकृतानां सुगतिप्रति अपि दुर्गतिं नयन्ति प्रापयन्ति 'आहारपसा सुति तृतीयार्थे सप्ताहारप्रशंसादिनिराहारादिदानप्र हांसनेः यदुत यदि प्रवदयेिष्वपि गृहेषु सक साधार समस्तसंपतेषु कलिकाल कवलितशक्तियतयो न प्राप्स्यन्ति आदारादिक यास्यन्ति अन्वेषीविज्ञानापण का लकम् । ये तुच्का वराका अल्पशक्तयो भवन्ति तेऽल्पेन व्याजेनात्मानं मुनयो मोचयन्ति इत्येवमादियोस्त्ास्यमुखमालिका [च] सकाविरुधादि द्याहारादिदाने प्रवर्तयन्ते बहुकं जनं लोकं श्रावकं यया नरूक च । श्यमत्र जावना । तेहि दुर्गतिगर्तप्रपतनानिमुखीभूताः सन्तो यथा कथंचिदेवा हारार्थपरान् विप्रतार्य दुर्गतौ पातयन्तीति गाथाद्वयार्थः । ये तावदिहलोकस्यैवैककस्य वाञ्चावन्तः परप्रतारणयणास्तेषामियं गतिः । ये तु सर्वशक्तिविकव्रतया सम्यगनुष्ठानं कर्तुमशकास्तथापि मनागुरुविया परप्रोकमपि पाि तैः किं कर्तव्यमित्याह ॥ होवसायापतो सरीरदे वलया व असमत्या | चरणकरणे सुके, सुरूं मग्गं परूवेज्जा | Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७३) उम्मग्गदेसणा भभिधानराजेन्डः। उम्मग्गदेसणा नवयसनप्राप्तः शन्जियपरायत्तताकोमीकृतत्वेनोन्मादवान् त- भगवया अज्जकालगसूरिणो विचिंतियं नूण एस पउट्ठो बकप्राप्तो व्यसनप्राप्तः। शरीरं वपुस्तस्य दौर्बल्यं पुर्बलता शरी- बुद्धी जंभे सुत्ताण कमेपण विरोहिपण चिग्गाप्पिऊण भणिरदौर्बल्यं तयाऽसमर्थोऽशक्तः यथावस्थितचरणकरणं कर्तुमि- यं तुमं महाराय! धम्ममूलाई पुच्छसि “करुणा सब्वजीवे त्यध्याहारः । अतोऽशुकेऽपि चरणकरणे परलोकार्थी शुरू एवं सु, सव्वं वायाए भासणं । परस्स दारगं चाउ, परिम्महविमार्ग प्ररूपयेदिति । स हि सन्मार्गप्रकाशनात पुनर्मार्ग प्राप्नो- वजणा॥ एमाइ चम्ममूलाई, कोहाईण य वजणं । सव्वपासंतीति गाथार्थः। यस्तु मनाक्संधिग्नः सोऽपि नीत्या परान्वादिनो डियाणं पि, एयं सम्मं पयंसया” ततो पुणो वि पुच्छियं वेययथावस्थितं न कथयति तस्य दोष दर्शयन्नाह । विहियविहाणेण विहियजन्माण किं फलं ? सूरीहिं भणियं परिवारपूय हेक-पासत्याणं च णाणवत्तीए । किं महाराय! विहिविहिसुहाणुबधि पुग्नफलं साहेमि जहाजो न कहेश विसुकं, तं दुहबोहियं जाण ॥ "विहिजीवदयाहजुया, जीवा स सुवज्जिऊण सुहयाम्मि । पुनंपरिवार प्रात्मन्यतिरिक्तस्ततः परिवारेण पूजा परिवार पूजा पावत्तयरा, नरसुरविसोक्वविउलाई" पुणो वि पुच्छियं जअथवा परिवारस्य पूजा परिचारपूजा हस्वत्वं प्राकृतप्रनवंत प्राण किं फलं सूरिणा भणिय पावविवायं पुच्छसि नरयपहो स्या हेतुनिर्मितिःपार्श्वःसम्यक्त्वं तस्मिन् कानादिपाश्र्वे तिष्ठन्तीति पावविवागो "परवई देह दुहं, नरयतिरियजोणीसु हीणासु। पार्श्वस्थास्तेषामनुवृत्तिरनुवर्तनं तया योन कथयति न प्रकाश हीणसुरनरगईसुविता तहेव इह दुहाण ॥ मरयाण पुणो यति विगुरूं सर्वविशुकं सर्वविपदिष्टं यथावस्थितं मुक्तिमार्ग मग्गो, सहरम्भपरिगहो यजियघात्रो। कुणिमाहारो अविरा, तिव्वकसाया पमाश्रो य" ततो दत्तण कुद्धेण भणियं । भो माचार्य साधुं वा दुर्बेजबोधिकं जानीहि । अयमत्र जावार्थः । यो हि मनागसंविग्नोऽपि परिवारापेकया सम्यक् साध्वाचारं न भो समणा कि तुम सम्मं न सुगसि कन्नेसु । किं वा अकम कथयति नायमन्यथा प्रवृत्तः सम्यक्त्वकयनेन प्रकटो भविष्यति सुयं करोस किं वा न याणसि जन्नाण फलं । जं फुडं न साततोऽसमञ्जसरोषो भविष्यति ततः शरीरादिस्थितिं न करि हेसि ततो सूरीहिं भणियं जइ फुडं ता नरयगमणमेव फलं ध्यति पूजा वा न अविष्यतीति हेतोः पार्श्वस्थानुवृत्त्या वा यत तो रोसारुणलोयणेण पञ्चयं किमहं नरगं गमिस्सामि अ णेगजनकरणा वि भयवया भणियं कया हो य सत्तमे दिणे नामते सम्यक् कथयतः प्रकोपं यास्यन्त्यतः वरमात्मसाकिसु कुम्नियाए पइज्जतो सुणगाह खज्जतो मरिहिसि । पुणो वि कृतं कृतमिति । एते चानवर्तिता भवन्विति स्वबुद्ध्या सुन्दर पुच्छियं पत्थ वि को पञ्चओ भयवया परंपियंतो तम्मि दिणे मपि विदधानाः संसारसागरे पव नवन्ति यत उक्तम् “जिणा विट्ठा मुहं पविसिहि पुणो वि दत्तण भणिय तुमं के चिरं अणाए कुणंताणं, नृणं निव्वाणकारणं । सुंदरं पि य बुद्धीप, सव्वं इओ दिणाश्रो जीविहिसि? सूराहिं साहियं श्रणेगा बरि नवनिबंधनं ॥ जे मय प्रारंजरया, ते जीवा होति अप्पदोसयरा । साई दिवं च गमिस्सामि । ततो दत्तेण चिंतियं प्राइकोहमुते च महापावयरा, जे आरंनं पसंसंति" य एवमधः परमाराध्य वागराण किं पटुवेमि संपयं च जम्ममन्दिरं देसेमि दुव्वकालिकसूरिनिरिव प्राणप्रहाणेऽपि परानुवृत्त्या नैषानुवृत्त्यापि यणस्स फलं पइविछामि ताव कालावहि जाव पच्चाअलिनैवान्यथा भाषणीयमिति गाथार्थः ।जगवत्कालिकसूरिकथानकं यवाइणं भणिऊण विहिहजाणा पुवं विणिवाइस्सं ततो चैवम् । “ अस्थि हेव खेत्ते तुरिमिणीए नयरीए जियसन नाम मा एस समणगो कहिं पि गच्छहि ति ततो मोत्तण नियपुरि राया तीए वि नयरीए अन्नो रुद्दामाहणीए सुमो दत्तो माह से रक्खा । अप्पणा समागो सए गिहे तो चिंतियं चेणसु उपरि वसा सो यम या एसु सत्तसु महाबसणेसु प ट्ठामि ताव अंतेउरे सत्तदिणाणि तो कहं मे विट्ठा मुहं पविसुत्तो । किं बहुणा सब्वहा विरुकायारसमायरणसीयो अहंतया सह तओ पविट्ठो अंतेउरे सोयाविया सब्वेवि रायमग्गा तभधियब्वयावसेण जाम्रो रायाणो संजाओ सब्बहार पचासमतणण जात्रो अनसि पि सामंतमंडलीयप सुहबहुमश्रो ततो श्रो सत्तमे दिणे भवियव्वया वसेण रायपहं पवन्नस्स जाओ दाणसंमाणाणा उवनोनोकण को सव्वो वि राणो परिय धेगो न सके तो गंतु ततो तत्थ काऊण वेगभंग ढक्किउ णोबासे । ततो गहिऊण जियसत्तुमत्ररायाणं बंधित्ता कटुध्यि पुष्फहिं अप्पणावि भयदुनो लहुं लहुँ विणीहरिओ रायपचारगागिहे जाओ सयं चेव सयं फ्होराया एवं रज्जधरारुढस्स हाओ । इओ य सो दत्तो दुम्मई विमूढमणो गया सत्तदिवनवियग्वयावसेण तत्थ सभागयकर्मण विहरमाणा साश्सया सत्ति कलिऊण तम्मि चेव सो नीहारिओ महया तुरयचडबहुसोससमनिया जुगप्पहाणो अज्जकागानामय सूरिणो नाया यरेण जाव रायपहमागो ताव सो चेव विघा तुरयखुराहय दत्तमायाए जहाए । जहाधच्च संपए पत्थ मे जाया तुजविय या पविघा मुहे तो नायं जहा निच्छपण मरिज इतो निमाउलो अजवि कामगसूरी समागओ तातं वंदादि तेण वितह गिन्हामि तं चेव पडिसनूं जियस अउनिकंट मे रजं होहि त्ति पमिसुयं गतो बहुपरिवारोसूरिसयासे दिकाय सूरिणो कारण एयं चिंतिऊण जाव नियतो तो ततो गहिरो सेससामंतेहिं उचिम्रोवयार उयविट्टो जहारिहासणे प्रयवया नाळण बकायरं मा भिन्नरहसत्ति काऊण रायाणं विणिवाइऊण अम्हे वि सायारो सूरीहिं सामंतेणं पकविणो उसिट्ठजणसमायारो। जहा विणिवाइस्सह ततो नीहारिऊण मूलरायाणं कछागिहाओ अह सिंचिऊण रायपए समाप्पिनी दत्तो बंधिऊण तेण वि होयव्वं करणापहाणमणसा सब्वेण धम्मात्थिणा भासेयव्व सिवाविऊण सहसुणएहिं कुम्भियाए पज्जालिश्रो भासणो मणिदियं हियकरं सर्व ववायं सया कायं सचजियाण सोक्ख जलणो खजंतो य सुणपहिं महायणाभिभूत्रोरुहज्झवसायजणगहाणेसु दायब्वयं सवेणावि जिएण रायसययं वेयं हि परिगो मरिऊण जात्रो नारो । सूरी वि सायसउत्ति कापंचप्पणोदीलाईणमणिदियं पइदिणं गेहाणुसारेण उदेयं दा ऊण पूरो नरवाणा जहा एएण भयवया पाणपरिव्वायसंगतहेह बेयमणहं जीवाण सव्वेसिण अञ्चतं हियमेव सव्व- भवे विन अन्नहा भासियं एवं अन्नेणावि सिवसुहत्थिणा वयणं भासंति जं जंतुणोतं जाणाहि नरीससव्धमणहं धम्मस्स जहहियं जिणवयणं भणियव्वं कालगायरियं कहाणयं सम्मसंसाहगं एमाइसब्वसाहारणदेसणासवणपज्जंते भवियव्यया तं"। ननु यद्येवमन्यथा कथने दण्डो भवति तर्हि किमित्यन्यवसवत्तिणा दत्तण पुच्छियं कहेहि किंजमाण फलं । तो | था कथ्यते इत्याह । Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७४) उम्मग्गदेसगा भनिधानराजेन्डः। उम्मग्गदेसणा मुहमडुरं परिणश्म-गुझं च गिएहति दिति उवएसं।। सानुगामिमाम् । गतं गच्छन्तीत्येवं शीला गतानुगामिनस्तेषाम् । महुकम्यं परिण सुं-दरं च विरलब्विय भणंति ।। अयमभिप्रायः। ये हि सुविहितसंपर्कात्सम्यगाप्तमोकमार्गा भव न्ति तान् मुक्त्वा मिथ्यात्वमोहमोहितमतिगतानुगतप्रवर्तितमामुख मधुरं मुखमधुरं यथा धार्मिकस्त्वमसि सबपुरुष इति वा में गडरिकाप्रवाहकृत्यं नाङ्गीकुर्वन्त्याप तु सन्मार्ग एव वजन्तीतिएवंविधं वचनं न हि तद्गुणविकसस्यापि मनः प्रहादयति प वृत्तार्थः ॥ नन्वित्थं नूता केचन एवावदातबुख्यः स्वल्पा श्यन्ते रिणती मङ्गलमसुन्दरं परिणतिमङ्गलं चशब्दस्यापि शब्दार्थत्वा प्रभूततराःपुनःप्रवाहानुयायिन इति किमत्र तत्वमित्याह "नेगंततोऽसुन्दरमपि भवान्तरे कर्मसुखदत्वात् गृहन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः। तेणं चिय" अथवा बढ़तरतमाशाखगनाथवेदिनोऽप्येवंविधप्रखददति च परचेतोवृत्तिरजनप्रवणपुरुषाणां प्रायः प्रनूतत्वात् त्तिमन्त एव रश्यन्ते झोकेऽप्येवंविधमेवश्रूयते यथा “महाजनो येन मुखकटुकं परिणतिसुन्दरम् । चशब्दस्य पुनः शब्दार्थत्वात्ततो गतः स पन्थाः" इत्याशयवतः शिष्यस्य शिक्वार्थमाहविरमा पव पुनर्जणन्ति प्रतिपादयन्ति । अयमत्र भावार्थः । को हि नेगंतेणं चिय लो-गनायसारेण एत्य होयव्वं । नामात्मनः कटुकभाषित्वमप्यङ्गीकृत्य यथावस्थितोजयझोकहितोपदेशदाने प्रवर्तते । प्रायेण हि प्रतूततराः स्वार्थानिमता बहुमुमाश्वयणाज, आणाइत्तो इह पमाणं ।। ३३ ॥ एवं सश्यन्त एवेति गाथार्थः । नैकान्तेनैव लोकशातसारेण नान्यम् । अत्र धर्मविचारे तस्य यद्येवं कर्मकटुकमुनयलोकहितमपि विरमा पव गृह्णन्ति तत हि विचित्राश्रयेणानेकरूपत्वात् तदप्रवृत्ती हेतुमाह बहुमुएमादिवकिं तदुपदेशेनेत्याह चनात् यदिह बहुवचनप्रवृत्तिरेव गरीयसी तदा नेदमागमवचन मन्नविष्यत्तद्यथा “कबहकरा ममरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुर नवगिहमम्मि पमाय-जझणजनियम्मि मोहनिदाए। करा या होहिंति भरहवामे, बहुमुझे अप्पसमणा य" इतपतस्मानद्दवइ जो सुयंत, सो तस्स जणो परमबंधू ॥ ३० ॥ केतोराईवेह प्रमाणं शास्त्रमेव प्रमाणमिति गाथार्यः। यदि पुनः जवः संसारः स एव गृहं नवगृई तस्य मध्यं भवगृहमध्यं त- प्रमाणं व्यपूजया मिथ्यानिमाना झानितया या लोकप्रवृत्तिरेवास्मिन् प्रमादो मद्यादिरनेकधा स एव ज्वानो वैश्वानरः तेन ङ्गीक्रियते ततोऽन्यदर्थान्तरमापद्यत इत्याहज्वलितो दीप्तस्स प्रमादज्वअनज्वलितस्तस्मिन् । मोहनीयमेव बहुजएपवित्तिसितं, इत्थं तेहिं श्ह सोश्रो चेव । निका हिताहितविवेकवैकल्यकारकत्वात् तथा स्वपन्तं स्वापं कु- धम्मोन नज्यिब्बो, जेण तहिं बहुजणपवित्तीश्विा वन्तं यःकश्चिदनुपकृतः परहितरतः उत्थापयति सदुपदेशदानन बहवश्च बहुजनास्तेषां प्रवृत्तिरेकान्तेनागमनिरपेक्वितया स्वरुच्चिप्रमादब्यवहितानुष्ठाने च प्रवर्तयात स तस्य प्रमावस्यापवर्ती विरचितानुष्ठानस्यैव बहुजनप्रवृत्तिमात्रं तदिच्छद्भिरिह धमविजनो मोकः पररबन्धुरात्यन्तिकैकान्तिकबन्धुरिति गाथार्यः॥ चारे बौकिक एव धर्मो नैव परित्याज्यः स्यात् येन कारणेन बत पव सदुपदेशदानतः परमबान्धवा जवन्ति अत पवजावत तत्र तस्मिन् लौकिके धर्मे बहुजनप्रवृत्तिप्रभृतीनां प्रवृारीदर्शनास्ते पूजनीया श्त्याह दिति गाथार्थः। यत एवाझाप्रमाणमत एवाह ॥ जइ विहु सकम्मदोसा, जणयं सीयंति चरणकरणेसु । ता श्राणाणुगया जं, तं चेव बुहेण सेवियव्वं तु । मुरूपरूवगा तेण, जावो पूणिजंति ॥ ३१ ॥ किमिह बहुणा जणणं, हंदिणेस अस्थि णो बहुया।३५॥ यद्यपि स्वकर्मदोषाचारित्रावरणोदयान्मनाक सीदन्ति मनाग- यस्मात्कारणात् बहुजनप्रवर्त्तमानं सेवनीयं ता तस्मात्कारणाकानुष्ठाना नवन्ति चरणकरणयोर्वक्ष्यमाणस्वन्नावयोःशुरूप्ररू- दाशानुगतं यत्तदेव बुधेन जिनाझापरिपालनफसवेदिना सेवनीपकाः सम्यग्मार्गावभाषकास्तेन ते जावतोऽपि मोवानिमित्त- यमाव्यमित्यर्थः। तुशब्दश्चैवकारार्थों योजित एव किमिति न मपि पूजनीया इति । अयमत्र नावार्थः । ये मिथ्यात्वावष्टब्ध- किञ्चिदित्यर्थः । इहैव धर्मविचारे परलोकचिन्तायां वा बहुना चेतसो मुग्धधीबन्धदपरायणा लोकरूढ्या बहुश्रुता अपि सम्यक् जनेन बहुजनोन्मार्गप्रवर्तकेनेत्यर्थः । हन्दीत्युपदर्शने ततः प्रसिक्रियावादिनोऽपि परशास्त्रानिप्रायपराङ्मुखास्ते विषान्नाहिसिं कमेततेनैव बहवः श्रेयार्थिनो मोक्षार्थिनः । संप्रति काले बढ्यो हादिवत्परित्याज्याः मार्गोच्छेदकत्वेन संसारकारणत्वात् । ये तु मुएमाः अल्पाश्च श्रमणा इति वचनादिति गाथार्थः । इत्यनेकधा स्वयं कर्मपरतन्त्रतयापि मोक्कसुखाजिनाषितया मनाक सी विधिमार्गसमर्थनमाकर्ण्य मिथ्यात्वारतसहसोद्वोधसोचना यन्म दन्तोऽपि चरणकरणयोर्जपत्रमणभीरुतया यथावस्थितशिवमा न्यन्ते तदाह । अथवा स्वयं ये सन्मार्गगमनाप्रवणाः इत्थं च सर्गप्रकाशकाः स्वानुष्ठानापक्कपातिनस्ते तृतीयमार्गानुयायित्वा मार्गप्ररूपणामाकर्य मुग्धबुरिबन्धनार्थ यदन्ति तदाहभावतः परमार्थतः पूज्या इति गाथार्थः । यत एवं क्रियाविकलो दूसमकाले दुलहो, विहिमग्गो धम्मि चेव कीरते। ऽपि श्रमणमार्गप्ररूपको नावतोऽपि पूज्यते कुग्राहग्रस्ततयोन्मार्ग- ता जाय तित्थडेओ, केसि चिय कुग्गहो एसो ।। ३६।। प्ररूपका क्रियावानपि सर्पादिवत्परित्यज्यते ततो विवेकवता दुषमारूपः कालो पुषमाकालस्तस्मिन् तद्वाने पुरापः स्वककिमुचितमित्याह। र्मपरिणतेरुन्मार्गप्रवृत्तसोकाद्वा विधिमार्गः शास्त्रोक्तानुष्ठानप्रवृएवं जिया आगमदिहिदिट्ठ-सुन्नायमग्गा सुहमग्गन्नग्गा।। त्तिरूपः तस्मिश्च क्रियमाणे विधीयमाने जायते संपद्यते तीर्थो च्छेदः शास्त्रोक्तानुष्ठानवतामत्यल्पत्वादितरेषां चातिबहुत्वादित्यगयाणुगामीण जणाण मग्गे, सम्गति नो गडरिकापवाहे। थः । तादृम्विधानं च क्वापि कथंचिदेव सद्भावादिति केषांचित्कुपवमिति पूर्वकथितप्रकारेण अत एव शुन्नमार्गलग्ना जीवाः प्रह एष इति कुग्रहता चैवैषामतोऽवसीयते यतः सदनुष्टानसाध्यप्राणिनः सदा सदागमावदातवुरूयः किं न सग्नन्ति न सीयन्ते । मपि मोक्कमसदनुष्ठानेन प्रकल्पयन्ति । नहि नाम सुवर्णरत्नसाकगरिकाप्रवाहे कथंभूता आगम आप्तवचनं स एव इशिईि- ध्यमलङ्कारादिकं मृत्तिकया सिध्यतीति गाथार्थः । एतदपि कुतोऽ ताहितपदार्थप्रकासकत्वादागमदृष्टिः । तया रष्टमबलोकितमा- वसीयत इत्याह ॥ गमलष्टिदृष्टं तेन शोभनप्रकारेण ज्ञातो मार्गों ज्ञानादिको यैस्ते जम्हा न मोक्खमग्गं, मोत्तूणं आगमंश्ह पमाणं। भागमदृष्टिदृष्टसुझातमार्गाः । क मार्ग केषां जनानां कर्थततानां ग- विजइ उनमत्थाणं, तम्हा तत्थेव जइयव्वं ।। ३७॥ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मग्गदेणा यस्मान्न नैव मोकमार्गे मोके साध्ये मोकागमं शास्त्रं परित्यज्येत्यर्यः । इहेति धर्म्मविचारे प्रमाणमालम्बनमित्यर्थः । विद्यते - स्थानामतिशयचांदिचा कचत्वातिशयवर्तमानानामपि निर्जरा चाचरीयंत त ईडितैः पुनः सर्वशास्त्रमेय प्रमाणकर्त्तव्यम् । तस्मात्तत्रैव यतितव्यमुद्यमः कार्यइति याचा थेः । शाखाभिप्रायेनैव संसारमा कुमार्गप्ररूपणा ॥ गिहिसिंग कुलिंग पदव्य लिंगियो तिमि ति वा । सुजसुमावगसं विग्ग-पक्खिणो तिनि मोक्खपहा |३८| तमेव राजामात्यप्रकृतिप्रभृतयः (८७५) अभिधानराजेन्ऊः । शिवसुखसाधयिषि नः स्वरुचिविरचिताकाराद्वारा दिदिबास प्रधानं लिङ्गं द्विद्यते येषां ते अव्यमिङ्गिनः गृह लिङ्गिनश्चेत्यादि aar गृहिबिङ्गिकुलिङ्गद्रव्यलिङ्गिनः । पते त्रयोऽपि भवन्ति भवमार्गाः ससारपथाः सुयतयः साधुसमाचारचरणप्रवणाः सुश्रावकः सम्यक्त्वा पुत्रतादिसकलकलापोपेताः संविग्नाः सुसाध यस्तेषां पण चरन्ति ये ते संविग्नपाक्षिकाः सम्यक् संयमपरिपानमासमर्या अपि सुपतिपक्षपातमात्मनिस्तारका इत्यर्थः । पूर्वपदे ते त्रयोऽपि मोकमार्ग इति गाथार्थः । कथमेते श्रय एव मोकमार्गी नान्ये शेषाः किमपरात्यिाद | सम्मलनाथ परणामग्गो मोवस्त्र जिावरुद्दिको । विपरीओ उम्मग्गो छायो बुद्धिमते ॥ ३५ ॥ सम्पनहाना चरणानि मोहमार्ग मोकध जिनवोदितीथे कृदुपदिष्ट इत्यर्थः । स च सर्वथा सम्यक्त्वादित्रिक एव यतोऽ तः शेषः सर्वोऽपि तद्यतिरिक्त उन्मार्गः शिवसुखासाधन इति ज्ञातव्योऽवबोद्धव्यः बुद्धिमद्भिर्विवेकविद्भिरिति गाथार्थः । दर्श० ॥ उम्मग्गदेसय - उन्मार्गदेशक- पुं० ज्ञानादीनि पारमार्थिकमार्गरूपाण्यरूपयति । असन्मार्गप्ररूपके, वृ० १ ० । “उम्मदेसो मग, नासो मग्गविप्पडिवन्ती । मोहेण य मोहित्ता, संमो हिं भावणं कुणइ " । ग० २ अधि० ॥ ० असन्मानयिते "न उम्मग्गपाय - उन्मार्गममिति कहि लिंगेहि सम्ममापद्वियं वियाणिज्जा ग० १ अधि ०। (आयरिशब्दे उक्तम् ) उन्मार्गगामिनि, " प्रत्थेगे गोयमा पाणी, जे उम्मग्गपरपि । गच्छम्मि संवसिनाणं, भमर नवपरंपरं " ग० १ अधि० । उम्मग्गपविष्ट - उन्मार्गप्रतिपन्न त्रि० श्राश्रितकुदृष्टिशासने, "अम्मापरिसर निणडे मिष्ठत्तषाभिष उपा०७०। सम्परनग-उन्मार्जक- ५० वानप्रस्थतापस सम्मान 1 मात्रेण ये स्मान्ति । न० ११ श० उ० नि० ओ० । कण्ठ" दध्ने जले स्थित्वा तपः कुर्वन् प्रवर्तते । उन्मज्जकः स विज्ञेय. स्तापसो लोकपूजितः 'इत्युक्तलक्षणे तापसनेदे, जलादेरुपर्यु पाय शि० वाच० । उम्मज्जमिनिया-ग्ननिमाग्नका उत्पननिपतना 39 याम, उत्पतन निपतनकरणे, " अहे उम्मणिमयं करेउम्मज्जणिमज्जियं माणे देस पुढषीप लेज्जा" स्था० ३ ० ॥ -करणे-त । धुस्तरे, मुचुकु उम्मत्त-उन्मत्त- त्रि० उद्-मदून्दवृक्के च कर्त्तरि-त वाच० ॥ धूर्मिते, अष्ट० । मन्मथोन्मायुके वि० १० यानि मोहोदयेन वा परवशे, ध० ३ अधि० । इसे, ग्रहगृहीते, पिं० । अस्य दीक्काया अयोपत्वमुच्यते ॥ उस्माण उम्माहो खघु विहा, जक्लावेसो व मोड़ णिज्जो य । गणीप्रवणता, यातव्य विराहण्ड्डाहो । ३७८ ॥ जक्खण आविडो मोह णिज्जकम्मोदपण वा से उड्डाहो जातो पते दोषिय पण्याच्या श्मे दोसा अनण पाणादिकरे ज्ज पजावणं करेज्ज अप्पाणं वयाणि वा विराहेज्ज । खरियादिमाहणेण वा उड़ाई करेज्जा ॥ उकार न सहति सजायाण जोगकरणं वा । पदि पण एम्बले कप्पती दिखा । २०० । पका सत्कायाणं नकरेति अप्पस माहिजोगे. करेति परिने संजमादिकारणजोगे ण करेति । अन्नं पि विविधं चक्कवाससामायारीए उवदिहं ण करेति । एवमादिपि दोसेहिं उम्मत्ते न कप्पति दिक्खा || नि० चू० ११४० पं० प्राण उत्प्राबल्येन मत उन्मत्तो दरमतो वा उन्मत्तः । प्रबलमत्ते, ईषन्मते च । नि० चू० १० ० । उरुते, वाच० । भरत क्षेत्रे वैसांख्यगिरिदक्षिणश्रेणिमने शिवमन्दिरे नगरे शिवस्प राज्ञोऽङ्गजे, उत्त० १३ श्र० । उम्मत्तगजूय- उन्मत्तकभूत-पुं० उन्मन्तको मदिरादिना त्रि तचित्तः स उम्मतकनृतो भूतशयस्योपमानार्थत्वात्। उन्मत्तककल्पे उन्मतक एव वा उन्मत्तकभूतो नूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात् । उन्मत्तके, स्था० ४ ठा० ॥ उम्मचनला सम्पनला श्री० जी मन्दरस्य पूर्वेण शीतोदाया महानया दक्षिने महन्त्यामन्तर्नाम स्था० ३ रम्मर विजय उम्मत्तजला महाराई " रम्यो विजयः पद्मावती राजपूः उन्मन्तजला महानदी । जं० ४ वक्ष० । " दो उम्मत्तजलाओ " स्था० २ ठा० । उम्मत्य-अनि-आगम-धा० अनिमुखगमने, अज्याकोमत्यः" ठा० । 66 → । ४ । ६४ । श्रभ्याङ्भ्यां युक्तस्य गमेरुम्मत्थ इत्यादेशो वा भवति । उम्मूत्थर अन्भागच्छइ । श्रभ्यागच्छति । श्रभिमुखमागच्छतीत्यर्थः । प्रा० । उम्माण - उन्मान - न० उन्मीयते तदित्युन्मानम् । कर्षादिकेतुलामाने, शा० १ ० । स्था० । कल्प० । भ० । तद्विषयं यन्तदपि उम्मानम् । खण्डगुडादिपरिमे स्था० १० ० अथोन्मानमभिधित्सु राह । से किं से उम्मा २ ज उम्मिशिन्ज जहा क रिसो करियो पापलं अतुला तुला अभारो नारो। दो रिसो करिसो दोकरिसो पदो पाइप पंचसय तुला दसतुलाओ अका शे वीसं तुझाओ नारो । एएणं उम्माणपमाणेणं किं पद्मयां एएणं उम्मापमाणेणं पत्ता अगरतगरची आकुंकुमखं मंगुमच्छरणं दव्वाणं उम्माणपमाणनिव्वितिलपवणं अव से सम्माणपमाणं ॥ यदुन्मीयते प्रतिनियतस्वरूपतया व्यवस्थाप्यते तदुन्मानं तद्यथा । अर्दकर्म इत्यादि । पलस्याष्टमांशोऽर्द्धकर्षः तस्यैव चतुर्भागः कर्षः । पलस्यार्द्धमर्द्धपलमित्यादि सर्व मागधदेशप्रसिद्धं सूत्रमेव नवरं पलाशपत्रकर्मारीपात्रदिकं पत्रं चोय उपलविशेषः मडिका शराविशेषः। अनु नाराचाही अश्वादीनां येगादिपरीक्षायाम् माचा० २ ० उन्मीयते ऽनेनेत्युन्मानम् । श्रर्द्धनारपरिमाणतायाम्, 'जलदोषमद्ध 66 Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७६) अभिधानराजेन्द्रः। नम्मादपत्त भारं समुहाई समूसिनो उ जो नबनो । माणुम्माणपमाणं, मन्त्रमात्रेणापि तस्य निग्रहीतुं शक्यत्वादिति । भाहब" सर्वतिविहं खलु लक्खणं नेयं" उन्मानं तुलारोपितस्या“भार- कमन्यवाचपि, यस्य न सर्वस्य निगृहे शक्तः । मिथ्यामोहोप्रमाणता । सा च सारपुद्रलोपचितत्वात् तुलायामारोपितः मादः, स केन किन्न कथ्यता तुख्यः" श्वञ्च वयमपि चतुर्विशसबर्सभार यः पुरुषस्तुलयति स उन्मानयुक्तो भवति । प्र तिदएमके योजयबाह॥ घ०२५६ द्वारा स्था०नि०५० । कल्प० । नेरइया णं ते ! कइविहे उम्मादे पामते ? गोयमा ! उम्माथिय-उन्माथित-त्रि० सजातोन्माथे, सुतरामुन्माथितो पभूव तमुन्माथितं विहाय । प्रा० म०प्र० । दुबिहे जम्मादे पाते तजहा जक्खावेसे 4 माहणीजस्स जम्माद (य) उन्माद-पुं० सवू-मन-ध-उन्मत्ततायाम, वि. कम्मस्स उदएणं । सेकेण्डेणं नंते ! एवं वुच्चइ रक्ष्याविक्तचेतनाचशे प्रदे बुकिषिप्स, ०२४२०२०। बिस ए दुविहे जम्मादे पाते ? जखावेसे य मोहणीजजस्स विभ्रमे, स्था०३० किप्तादिके, आव०४ अ० । मा०यू०। कम्मस्स उदएणं गोयमा ! देवे वासे असुने पोग्गमे पनष्ठचित्ततायाम, आमजालजल्पने, प्रव०१६९वा कामेन पार क्खिवेज्जा । सेणं तेसिं प्रमुनाणं पोग्गमाणं पक्खिवण्यापश्ये,उत्त०१६ मा अत्यन्तकामोद्रेकादालिङ्गन्ने च। विशे०॥ ए जक्खावेमे एं जम्मादे पाउणेज्जा मोहाणिज्जस्स बा तस्य भेदा यथाकविहे पं ते जम्मादे पप्पत्ते ? गोयमा! बिहे - कम्मस्स उदएणं मोहाणिजं नम्मायं पानणेज्जा से तेणष्टेणं म्मादे पामत्ते, तंजहा-जक्खावेसे य मोहणिज्जस्स कम्म- जाव उदएणं । असुरकुमाराणं ते! कइविहे जम्मादे पाते? स्स उदए णं तत्थ णं जे से जक्खाएसे से एं मुहवेदण एवं जहेव रक्ष्याणं एवर देवे वासे महि क्लियतराए चेव तराए चव, सुहाविमोयणतराए चेव । तत्थ णं जे से मो असुने पोग्गझे पक्खिवेज्जा सेणं तेसिं असुनाणं पोग्गला हणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं सेणं मुहवेदणतराए चेव एं पक्खिवणयाए जक्खाएसं जम्मादं पाउणेज्जा । मोदुहविमोयणतराए चेव । हणिज्जस्स वा सेसं तं चेव से तेणढेणं जाव उदएणं एवं सन्माद जन्मत्तता विविक्तचेतनानंश इत्यर्थः। " तथा सन्मादो जाव थणियकुमाराणं पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साएं एएग्रहो बुकिविप्लव इत्यर्थः" (जक्खापसेयत्ति) यक्को देषस्तेना सिं जहा रइयाणं वाणमंतरजोइसियवमाणियाणं जहा वेशःप्राणिनोऽधिष्ठानं यकायेशः इत्येकः ( मोहणिज्जस्सेत्यादि) मोहनीयस्य दर्शनमोहनीयादः कर्मण सदये नव्यः सोऽभ्य इति। असुरकुमाराणं। तत्र मोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयात्रुन्मादो जवति यत (रश्याणमित्यादि) पुढविकाश्याणमित्यादौ यदुक्तं जहानेरस्तदयवर्ती जन्तुरतत्त्वं तत्त्वं मन्यते तत्वमपि चातत्त्वं चारित्र याति तेन देवे वासे असुने पोम्मले पक्खिवेजा इत्येतद्यकावेशे मोहनीयं वा, यतस्तदये जाननपि विषयादीनां स्वरूपमजान पृथिव्यादिसूत्रेश्वभ्यापितं वाणमन्तरेत्यादौ तु यदुक्तं "जहानसुरा निव वर्तते । अथवा चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाण्यो मोह अंति" तेन यकावेश एष व्यन्तरादिसत्रेषु देवेवासे महियितराए मीयं यतस्तदुयविशेष अत्युन्मत्त एव प्रवति यदाह" चिंतेश १ इत्येतदध्यापितं मोहोन्मादालापकस्तु सर्वसूत्रेषु समान इति ॥ टु मिच्छर,२दीहं नीसस ३ तह जरे ४ दाहे५ । नत्तत्र- ज०१४ २०२० । षभिः प्रकारात्मन उन्मादस्तधा । रोयग ६ मुच्या ७ सम्माए नयाणई ए मरणंति" १०॥१॥ हिंगणेहिं आया उम्मायं पानणेज्जा तंजहा अरहता पतयोमोन्मादत्वे समानेऽपि विशेषं दर्शयन्नाह (तत्थणमि- एमवयं बदमाणे अरहंतपनत्तस्स धम्मस्स अवनं बदमात्यादि) तत्र तयोर्मध्ये “ योऽसौ यक्काविष्टो जवति" ( सुजवे- णे आयरियनवजमायाणमव बदमाणे चानवमस्त संघस्स यणतराप खेवत्ति) अतिशयतः सुखेन मोहजन्योन्मादापेक्कया य अवमं बदमाणे जक्खावेसेण चेव मोहणिज्जस्स कम्मअक्लेशेन वेदनमनुभवनं यस्यासौ सुखवेदनतरः स एव सुखवेदनतरका मोहजनितगृहापेक्या भकृष्वानुन्नवनीयतर एव नका स्स उदएणं। न्तिकान त्यन्तिकनूमरूपत्वावस्येति । चैव शब्दः स्वरूपावधा भनन्तर श्रमणस्याहारग्रहणकारणान्यनिहितानीति भ्रमणादे जीवस्यानुन्चितकारिण सम्मादस्थानाम्याह (व्हीत्यादि) इदं व रणे (सुहविमोयणतराए यत्ति) अतिशयेन सुखेन विमोचन वियोजन यस्मादसौ सुखविमोचनतरः । कप्रत्ययस्तथैष । प्रथया सूर्यपस्थानक पव व्याख्यातप्राय नवर षभिः स्थानरात्मा अत्यन्तं सुखापेयः सुखापेयतरः तथा अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्च. जीव सम्मावमुन्मत्ततां प्राप्नुयाइन्मादश्च महामिथ्यास्वन्नकण स्तीर्थकरादीनामवर्णवादतो भवत्येवं तीर्यकरायवर्णवदनकुपिति यो देहिनं ससुखविमोचनतरक इति मोहस्तु तद्विपरीतः एका तप्रवचनदेवतातो वाऽसौ ग्रहणरूपो प्रवेदिति पागन्तरेण । न्तिकात्यान्तकनूमस्वन्नावतयात्यन्तानुचितप्रवृत्तिहेतुत्वेनानन्त-. (उम्मायपमायंति) उन्मादः सहत्वं स एव प्रमादः प्रमत्तत्वजावकारणत्वात् तथान्तरकारणजनितत्वेन मन्त्राद्यसाध्यत्वात मानोगशून्यतोन्मादप्रमादः । अथवोन्मादश्च प्रमादचाहितप्रवृकर्मक्कयोपशमादिनवै साभ्यत्वादित्यत एवोक्तम् (हवेयतराए लिहिताप्रवृत्ती सम्मावप्रमादं प्राप्नुयादिति । (अवांति) प्रधचेव तुडविमोयतराप वेवत्ति) अतिशयेन दुख वेद्य एव इस र्णमश्लाघामकां षा बदन प्रजन् वा कुर्यनित्यर्थः (धम्मस्सत्ति) विमोच्य एष चासाविति॥ (तत्यण मित्यादि) मोहजन्यान्माद तरापेक्कया दुस्सवेदनतरो भवति अनन्तसंसारकारण श्रुतस्य चारित्रस्य वा प्राचार्योपाध्यायानाच चतुर्वर्णस्य श्रमणात्वात । संसारस्य च मुखवेदनस्वभावत्वादितरस्तु सुखवेद. दिनेदेन चतुःप्रकारस्य यकावेशेन वैवं निमित्तान्तरकुपितदेवामतर पष एकभविकत्वादिति । तथा मोहजोन्माद तरापेक्कया धिष्ठितत्वे मोहनीयस्य मिथ्यात्ववेदशोकोदयेनेति । स्था०६ वा०॥ दुःखविमोचनतरो भवति विद्यामन्त्रतन्त्रदेवानुग्रहयतामाप वा-उम्माद (य) पत्त-उन्मादमाप्त-त्रि अन्मादमुन्मत्ततां प्राप्तः। र्तिकानां तस्यासन्यत्वादितरस्तु सुखविमोचनतर एव जवात । उन्मादप्राप्तः । स्था०५ ग० । मोहनीयकर्मोदयेन चित्तशून्यता Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७७) उम्मादपत्त अभिधानराजेन्धः । उम्मिसिय मुपागते, ०३० । पातादिदोषादुन्मत्ततामुपागते, स्था०॥ परवा तस्या आर्यिकाया विरागो भवेत् । ततः प्रगुणीभषबा० । उन्मादप्राप्ताया निम्रन्थ्याः प्रतिचा यथा ति। वृ०६ उ०। (सूत्रम्) उम्मावपत्ति निग्गथि निग्गथे गिएहमाणेश्नातिकमा - उन्मावप्राप्तस्य भिक्षोः प्रतिचा यथा ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत प्रयोन्मादप्ररूपणाथै भाष्यकारः प्राह॥ उम्मायपत्तं लिक गिलायमाणं नो कप्पए सस्स गणाउम्मतो खयु सुविधो, जक्खावेसो य मोहणिज्जोय।। बच्नेयस्स निव्वृहित्तए गिलाए करणिय बेयावमियं जाव जक्रवाएसो बुत्ती, मोहेण इमं तु बोच्यामि ॥ लतो रोगातकातो चिप्पमुक्को ततो पच्या महुस्सगे नाम ववउन्मादः खमुनिश्चितंधिविधो प्रिकारस्तण्या यशावेशहेतुको हारे पवियव्वे सिया इति । यकावेशः कार्ये कारणोपचारात् । एवं मोहनीयकर्मोदयहेतुको मो अस्य व्याख्या पूर्ववत् । उन्मादप्ररूपणा तु निन्थ्या इव हनीयवशादू वीचकारौ परस्परसमुच्चयार्थी स्वगतानेकनेदसंसूच नपर पुरुषाभिलापः कार्यः॥ पुलकस्य वातेन पित्तेन चोम्माकौवा तित्रयो यक्षावेशो यकावेशहेतुकः सोऽनन्तरसूत्रोक्तो यस्तु दयतनामाह। मोहेन मोहनीयोदयेन मोहनीयं नाम येनारमा मुखति तथा काना- वाते अगसिह, पज्जणादी तहा निवाए य । धरणीय मोहनीयं वा अपव्यं धान्यामप्यात्मनो विपर्यासापाद- सकरखीरादिहि य, पित्तचिगिच्छा न कायब्बा ॥ नात् । तेनोत्तरत्र अहमपि तमुत्थाय इाधुच्यमानं मविरुभ्यते पाते वातनिमिते उन्मादे तैलादिना शरीरस्याभ्यः क्रिय(श्मंतुति ) अयमन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यकीनूत श्व तेहपायनं घृतपायनमादिशब्दात्तथाविधान्यचिकित्सापरितमेवेदानीं वक्ष्यामि । प्रतिज्ञातं निवाईयति ॥ प्रहः तत्कार्यते तथा निवाते स्थाप्यते । पित्तवशादुन्मत्तीभूरूवगं दद्दूण, उम्मातो अहव पित्तमुच्चाए । तस्य शर्कराक्षीरादिभिस्तस्य चिकित्सा कर्तव्या ॥ व्य०२३० नहायणाणि वा ते, पित्तम्मि य सकरादीणि ।। जम्माद (य) पमाय-उन्मादप्रमाद-पुं० क० स०। उन्मादः रूपं विटादेराकृतिरङ्ग च गुह्या रूपाङ्गं तदू दृष्ट्वा कस्या अप्यु समहत्वं स एव प्रमादः प्रमत्तत्वमाभोगशून्यतोन्मादप्रमादः । न्मादो प्रवेत् । अथवा पित्तमूर्वया पित्तोडेकेणोपलकत्वाद्वातो गृहावेशादुपयोगशून्यतायाम्, उन्मादश्च प्रमादध समाहारकवशतो वा स्यादुन्मादः । तत्र रूपा दृष्टा यस्या जन्मादः। न्दः । अहितप्रवृत्तिहिताप्रवृत्योः, न० । स्था०६ ठा। संजातस्तस्यास्तस्य रूपाङ्गस्य विरुपावस्था प्राप्तस्य दर्शना जम्मि-ऊर्मि-पुं० स्त्री० -मि-अर्तेरुष । महाकल्लोले, हा० कर्तव्या । या तु घातेनोन्मादं प्राप्ता सा निवाते स्थापनीया उप १० भ० । स्था० । सम्बाधे, कल्लोलाकारेजनसमुदाये, सवणमिदं तेन तेलादिना शरीरस्याभ्यङ्गो घृतपायनं च तस्याः भ०२ श०१३० ।शा० । प्रकाशे, धेगे, वनसंकोचरेखायाम्, क्रियते । पित्तवशान्मत्तीनूतायाः शर्कराकीरादीनि दातव्यानि पीडायाम्, उत्कण्ठायाम, बुभुक्षादिषु षट्षु देहमनः प्राणानां कथं पुनरसी रूपाङ्गदर्शनेनोन्माद गच्छेदित्याह ॥ यथायथं धर्मेषु अश्वगती, स्त्री०। वाच॥ दहण न काई, उत्तरविनवितं मयण खित्ता। उम्मिमानिणी-ऊर्मिमालिनी-स्त्री० जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्षततेण विय रूवेण उ-म्मिकायम्मि निविप्मा ।। स्य पश्चिमतः शीतोदाया महानद्या उत्तरेण वहन्त्यामन्तर्नयाम्, स्था० ३ गा"सुवप्पे बिजए जयंतीरायहाणी सम्मिमालिकाचिदल्पसत्वा नटं दृष्ट्वा किंविशिष्टमित्याह । उत्सरबैकुर्विकमुः। णी गई " "सुवप्रो विजयो वैजयन्ती राजधानी उर्मिमालिनी सरकालनाविषत्रान्तरणादिविचित्रकृत्रिमविनूषाशोनितं ततःका नदी "जं०४ पक्काप्रश्ना"दो सम्मिमामिणीओ" स्था०। चिन्मदनक्किप्ता नम्मादप्राप्ता भवेत् तत्रेयं यतना। उत्तरबैकुर्विकाप्रसारणेन तेनैव स्वान्नाविकेन रूपेण तस्मिन्नूकंकृते सति काचि उम्मिक्षण-उन्मीमन-न० प्रादेमीलेः ।।४।३१ । इति उदः दल्पकर्मा निर्षिया जवति तद्विषयं विरागं गच्चतीत्यर्थः ॥ परस्य मोलेरन्त्यस्य द्वित्वम् वा । प्रा० । विकाशे, चकुराः परमवितो उ दुरूपो, उम्मं दिजति अतीए पुरतो उ । पुटविनेदे, भावे घश् । जन्मीलोऽप्यत्र । वाच॥ उम्मिझिय-उन्मीलित-न०-उद-मीम-जाधे-क्तः। सन्मीसने,अनु. रूबवतो पुण जत्तं तं दिजति जेण उड्डेति ।। विकसिते, अमुद्रितेच। णिच-कर्मणि क्तः । प्रकाशिते, भेदितअन्यथ यदि नटः स्वरूपो दुरूपतो भवति । ततः स पूर्व प्र मुझणे नेत्रादौ " ततो सम्मिद्वियाणि तस्स नयणाणि " झाप्यते प्रज्ञापितश्च सन् तस्या उन्मादप्राप्तायाः पुरत उन्म- मा०म०वि० । “पंजरुम्मिनियमणिकणगयूनियागे" पन्जा एमय यत्तस्य मण्डनं तत्सर्वमपनीयते । ततो विरूपरूपदर्शन- रादू जन्मीसितमिव बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितमिव । यतो पिरागो भवति । अथासौ नटः स्वभावत एव रूपवान् चाहि किम किमपि वस्तु पारात वंशादिमयप्रच्छादनविशेषात अतिशायिनोद्भटरूपेण युक्तः ततस्तस्य भक्तं मदनफलमिश्रा- बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्यायत्वात शोभते । तथा तदपि विमानविकं तदीयते येन भुक्तेन तस्याः पुरतः छईयति उद्वमति मिति भावः । जी०४ प्रतिः । स०॥ उबमनं च कुर्वन् किलासौ जुगुप्सनीयो भवति ततः सा तं उम्मि (म्मी) वीइ-ऊर्मिवीचि-स्त्री० कर्मयश्च वीचयश्च मया विरज्यते इति । गुजफंगम्मि न वियर्ड, पज्जावेऊण खरगमादीणं । हाकल्लोलेषु, हस्वकद्वासेषु च ६ ताकर्मीणां विविक्तत्वे,ज. तहरिसणे विरागो, तीसे तु हवेज दणं ॥ १६ श.६१० स्था " मम्मीबाई सहस्सकलिय ति"॥ यदि पुनः कस्या अपि गुह्याने उन्मादो भवति रूपलावण्या कर्मयः कलोझास्तवकणा या वीचयस्ता कर्मिवीचयो धीचि चपेक्षस्ततः खरकादीनां यक्षरकप्रभृतीनां विकट मयं पाययि | शब्दो हिलोकेऽन्तरार्थोऽपि रूढोऽथवोर्मिषीच्योर्विशेषो गुरुत्यनस्वा प्रसुप्तीकतानां पथि मद्योगालखरएिटतसर्वशरीराणामत | घुत्वसवणः का घुत्वसवणः कचिद्वीचिशब्दो न पठ्यते एवेति ऊर्मिवीचीनां एव मक्षिकाभिणिभिणायमानानां (तहायणेत्ति) तस्य गु सहःकलितो युक्तो यः स तथा । स्था०१०म०। वाङ्गस्य मद्योज्ञालनादिना धीभत्सीभूतस्य दर्शना क्रियते।त-जम्मिसिय-जन्मिषित-त्रि० उवू-मिष्-क्त-प्रफुल्छ, किश्चित्मका. Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७८) श्रनिधानराजेन्द्रः । उम्भिसिय शिते, बाघ० । उन्मीलिते, न० १४ श० १३० । भावे क्तः । खत्मेषे, " उम्मिलियणि मिसियंतरेण ” उन्मिषितनिमिषितान्तरेण यावता अन्तरेण व्यवधानेन उन्मेष निमेषौ क्रियेते तावदन्तरप्रमाणेन । जी० ३ प्रति० । उम्पिस्सवन्मिश्र - १० सचितसम्म तदजेोपचारात्वसपणाचे २०६७ ० "बीपादि उम्मी" बीजा द्युन्मिश्रं बीजकङ्घ्रितादिभिर्यडुन्मिश्रमुच्यते । पंचा० १३ विव० यदा अमानोगेन विवादादा सम्मान्पाददाति तदा सप्तम उन्मिश्चितदोषः । उत्त० २४ श्र० । देवद्रव्यं खएमा दि सचित्तेन धान्यकयादिना मिश्रं ददत उन्मिश्रम् । ध० ३ अधि । अण पाचवा खाइमं साइमं तहा पुण्फेस होश्न सम्पीसं बीसु हरीएम वा ।। ५७ ।। तं जवे पाएं तु, संजयाए अकधियं । दितियं परिआइक्के, न मे कष्पइ तारिसं ॥ ५८ ॥ पापापा स्वयं तथा पुष्पैजतिपारादिनिर्भये बिजेता भक्तपानं तु संयतानामपि यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्कीत न मम कल्पते तादृशमिति ॥ दश० [अ०] (स्थादिनिषेध पारा 33 यते) अत्रायश्चितम् “उम्मी से अनंते चगुरुपछि चल मम्मी अणते मासगुरु परि मास जिसे चतु गणेसु जे तिष्ठितेसु सहाणपच्चितं " पं० चू० । “प्राबल्येन मिश्र वस्तुमात्रे वि० “कम्मुम्मी सगा सरीरा कार्मणेन शर रेणोन्मिश्राणि । स्था० ४ ग० । उम्मीक्षणा- उन्मीलना-स्त्री० प्रजवे, विशे० । उम्मीलिय- उम्मीलित मि० उद्-भीनमाल ८४ ३१ । इति वदः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वानावे रूपम् । प्रा० । उन्मेषे, विपा० १ ० ७ ० । “पंजरुम्मिलियव्वमणिकरण गथूभिषागा" पञ्जन्त्रीति श्य यदिष्टता इव परोक्षः। ० उन्मीक्षितमुनिमषितं स्मितमुनिमयादिपययाः । विशे०॥ उम्मुक हम्मुक्त-त्र-उद्-मुद्र-कर्क, श्री । परित्यते बिशे० ॥ " उमुक्कम पुम्मुक्के, उम्मुच्चते य केसलंकारे" आ० म० द्वि० । प्राबल्येन मुक्ते, “ते वीरा बंधणुम्मुक्का नावकखंति जीवि " सूत्र० १० ए अ० । सम्मुखकम्मकवय- उम्मुक्तकर्मकरच पुं० [सतकर्मवियुक्तत्वा तिसके, औ० 1 उदासभावाला- पुंखी त्या जाता बें, “सेवियणं दारप उम्मुकबालजावे विश्यपरिणायमेते” कर्म० उम्मुला -ठम्मोचना स्त्री० परिशासनायाम, आ०५० उम्मुलणा-उन्मूलनाश्री० [उत्पाटने, “उम्झणा सरीराभो” वृकस्योन्मूलनबोन्यूनना निष्काशनं जीवस्य शरीराद्देहादिति” द्वितिया गोणी हिंसा । प्रश्न० १६० । उम्मेस-उन्मेष– पुं० उद्-मित्र-पत्र महिव्यापार विशेषे, "आगमणगमनासुखमण जोगायोगा जेवाच पगाराच असावा सब्वे ते" न० १३ ० ४ ० । उम्ह (प) - (क) प्० आधारे मनिद्र-वादस्वः । पक्करमष्मस्नह्नांम्दः ८|२|७४ | इति ष्मभागस्य मकाराक्रान्तो हः । प्रा० गीत रिति शपसवर्णेषु चाच ॥ "अनुमोदणउम्दमादिणे दोसा" उच्मा नाम तेनान्येन इध्ये उरपरिसप्प .. तस्य रामियो हस्ताद परिताप शायद इव्यमसीत प्रतिपति । वृ० २ ० । जम्हा तिस-युष्मादृश- त्रि० युष्मद्--दृश्-कम् - आत्वं पैशाच्याम् । याशोदेई स्तिः । ४ । १६ । इति ( ) इति दृश इत्यस्य स्थाने तिरादेशः । प्रवादृशे, प्रा० ॥ हम्हासेस-मावशेष मनागपि उम्मे, “सम्हासो विसिही होतं हाई” आव० ५ अ । " उप-उल-अ० शब्दार्थे विशे० “उतामृतस्येशानो यदना तिरोद ति० म० द्वि० सुतरामिति शब्दस्यायें, "कियकुम वामिस्स" आव० अ० विकल्पे, समुच्चये, वितकें, प्रश्ने, अत्यर्थे च । वाच० ॥ उपमाणपत्र० तिरखी कुर्बति "उतारेमाणे वा यमाणे वा जीवेहिं " श्राचा० २ ० ॥ जयत्तिय - अपनृत्य- अव्य० अपवर्त्तनं कृत्वेत्यर्थे, “ जयन्तियाणं गिएहाहि, तहप्पगारं पाणगजातं " श्राचा० २ ० ॥ या उपया उपगते, "महासिद्धाकट जयाय त्रि० संगामं उपाय पुरओ य से सके” प्र० ७ ० ९ ० ॥ उडे पूयम्- युष्मद्- जम्पूपवयी जसि ङे प्रथमयोरम् इति जसोऽमादेशः । पा० ज्ये तुम्हे तुम्हे उन्हे जसा छ । ३ । स्य युष्मदस्य उम् आदेशः प्रा० युष्मान् - युष्मद् शस् । यो तुम्मे उज्जे तुम्हे ०३ । ३ । इति शसा सहितस्य युष्मच्छन्दस्य रहे आदेश 'उपेछामि' प्रा० ॥ - १ इति यूषादेशः । व्या० । भे तुम्ने उ । इति जसा सहितउच्छे चिट्टद" मन० रहे ने शसा 23 उर-पुं०डरस १० असुन पातो- रपरः । स्तमदामशिरो ननः । १ । ३२ । इति उरः पुंलिङ्गत्वम् । प्रा० । वक्कसि,, स्था०१० arol हृदये, प्रश्न०२ द्वा० । अष्टानामङ्गानां द्वितीयेऽङ्गे, । “सीसमुरोयर पिट्ठि " आ० ० २ श्र० । उत्त० । नि० चू० । प्रज्ञा० । "बरे वित्थमाए मागध्या नाषया उरसि, विस्तृततया रविन भी० र दावे रत विपा० । “नरेण रिसनं सरं” । स्था० ७ वा० । शोभने, स्था ४ ग० उरंडर - नरउरस् - न० साकच्छन्दार्थे“ चाउरंगिणं पितरंउरे गि रिहन्त " वि० ३ श्र० । उरकरग - नरःकटक - न० सरो न्हृदयं तदेव कटकमुरः कटकम् । उरोरूपे कटके, अनु० ॥ उरग-रग-पुं०बी० उरसा गच्छति उरस्-गम्-रु | सलोपश्च सर्पे, अष्ट० । “उरगगिरिजलएसागर-नहतन त रुगण समो जोहोश | जमरमियधरणिजलरुह र विपवणसमो अ सो समणो' अनु० उरगवर - उरगवर - पुं० नागवरे, झा० १६ अ० । उरगवी हि उरगवीथी - स्त्री० उरगसंज्ञका वीथी उरगवीथी मागे, स्वा०१०० (पीटीशब्दे स्पष्टम) उरच्छंद उरइन्द० रुपये, म० । उरत्यहृदयस्थिते "उदारमार णं" कल्प० । - उरतव-नरस्तपस्-न - न०क०स० इइ बोकाद्याशशारहितत्वेन सो नने आजीवकतपाभेदे, स्था० ४ ० । उरपरिसप्पयज्ञपरपंचिदियतिरिक्खमोजिय- उर परिसर्पस्थन Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७९ ) अभिधानराजेन्द्रः । उरपरिसप्प० चरपचेतिर्यग्योनिक- ० रा सा परिसर्पतिर परिसर्पास्तं च ते स्परपद्रवियोगका इस उपरसस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योगिकाः। उरपरिसर्प स्थ प्रचरन्द्रियतियनिकदा यथा । से किं तं उरपरिमप्पलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया चढविहा पहाता संजा अही अपगरा यासानिया महोरगा । अथ केते उपरिसर्पस्थल पर पन्द्र यतिर्यग्योनिका ि राह उरः परिसर्पस्थलचरपंश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञतास्तद्यथा । श्रयोऽजगरा आसालिंगा महोरगाः । प्रज्ञा० १पद । अनु० | स्था० जी० एतेषामेव भेदानामवगमाय प्रश्ननिर्वचनसुत्राणि तानि च अयादिशब्देषु प्रष्टव्यानितिविहा उरपरिसप्पा ताजपुरिसा सगा "उत्परिवर्णमात्रेणापि बोधः । सं० । उरपरिमपि उर: परिमखी० स परिसर्पखियाम तंदा पथा " से किसे परिसओ २ तिथिधाओ तंजड़ा अहीओ अयगरी ओ महोरगीओ सेत्तं नरपरिसप्पिणी" जी० २ प्रति । उरब्न- उरज-पुं० स्त्री० । उरु उत्कटं भ्रमति भ्रम्० ड० पृषो० लोपः । मेष, प्रश्न० १ द्वा० । सूत्र० करणे, रा० 1 उपा० । अस्य निकेपः । क्रिने, पठन्विो दुहिहोदयम्य । आगमणोगमतो, यो आगमतो य सो तिविहो । निक्षेप न्यासस्तुः पूरये तर उरविषये चतुर्विधश्च प्रकारो नामस्थापनाइन्यनापनेदात् । तत्र नामस्थापने रुपये पवेति । द्रव्योरमाह-द्विविधो भवति सव्य इति प्रव्यविषये आगमतो नो आगमतश्च तत्रागमत उरशब्दार्थहस्तत्र चानुपयुक्तो नो आागमतः पुनश्वस्य पुनरर्थत्वात् स इति ज्योर स्त्रिविधस्त्रिभेदः । तत्त्रैविध्यमाहजाएगसरीरजविए, सम्वरले यसो पुणो तिचिहो । एगजवियाय, अजितो शामगोचे य ।। शरीररसदार्थस्य सिद्धातं शरीरमध्य व्यशरीरस्तु यस्तावदुरशब्दार्थ न जानाति कालान्तरे व शस्यति तस्य पच्छरीरं तद्व्यतिरिकरच साज्यां इशरीरव्य व्यतिरिको निस्तद्वातिरिका या समुच्चये सतयतिरिका पत्रिविधविभेदवित्यमेवाद एक भये तस्मिन्नेवातिक्रान्ते जावी एकनविको योऽनन्तर एव भवे उरतयोत्पत्स्यते तथा स एवोरभ्रायुबन्धानन्तरं बरूमायुरनेनेति बाक उच्यते । तृतीयमाद - (अभिमुदओ नामगोतयति आपत्यादनमुखनामगोत्रश्च तत्रानिमुखे समुखेऽन्तर नादिया नाम यस्य स तथान्तरन रमेोजनापति गाथार्थ भारभ्रमध्ययननाम निबन्धः उरण मेगोवं बेतो जानतो रम्जोउ । ततो समयमे, उरजिति यणं ।। रजेय कागणी, पयवहारसागरे चैव । पंचेवेते दिट्ठे-ता उरनिज्जम्मि अज्जणे || उरभ्रः ऊरणकस्तस्यायुश्व नाम च गोत्रं च उरभ्रायुर्नामगोत्रं यदुदयादुरओ भवति अनुभव भावतो भावमाथि रन्दः पर्यायास्तिक मतमेतदिति विशेषणास्ततो भा चोरभ्रष्टान्ततयेद्दानिषेधात्समुत्थितमुत्पन्नमिदमिति प्रस्तुतं उरदभ यस्मादिति गम्यते (उरभिवंति ) उरनीयं महादित्वाषिकप्रत्यये इति तस्मादध्ययनं प्रागुक्तमुच्यते इति शेष इति गाथार्थः ॥ उरभ्रस्यैव चेह प्रथममुच्यमानत्वात् बहुवक्तव्यत्याचेत्थमुक्तमन्यथा हि योऽपि दाता इहाऽभिधीयन्त एव तथा चाह नियुक्तिकृत् ( उरब्भे गाहा ) उरभ्र उक्तरूपः काकणिविंशतिः कपर्दिका (उरब्भेयत्ति) चशब्दस्य भिन्नमत्यात्काकविश्व (वयति ) आकमानफलं व्यवहारश्च क्रयविक्रयरूपो वणिग्धर्मश्चस्य गम्यमानत्वात् सागरश्व समुद्रः । चः सर्वत्र समुचये एवावधारणे भिन्नमश्चैवं योज्यते पञ्चैवैते न तु न्यूनाधिका दृष्टान्ता उदाहरणानि उरभ्रीये उरभ्रनाम्न्यध्ययने इति गाथार्थः ॥ संप्रति यदर्थसाधर्म्यारभ्रस्य दृष्टान्तता तदुपदर्शनायाह ॥ रंजोरसंगई, दुग्गमरणं च तो य उवमा कया उब्जे, उरनिज्जस्स पिज्जुती ॥ उरविणाई एवाई, जाई वाइदितो । सुज्जताहिं बादा, एयदी हाउ लक्खणं ॥ श्रारम्भणमारम्भः पृथिव्याद्युपमर्दो रसेषु मधुरादिषु गृद्धिरभिकाङ्क्षादितिगमनं च नरकतिर्यगादिषु पर्यटन प्रत्यपायको हैव शिर छेदादि वचयति हि 'शिर इति शिरश्छेदाचार्तरौद्रोपगतस्य दुर्गतिपाते दुःखानुभवनादिरुपमा सा।। दर्शनरूपा प्रक्रमादेभिरेवारम्भादिभिरर्थः कृता विहिता उर उरविषया । इदमुक्तं भवति। सांप्रशि हि विषयामिषगृध्नवः तांस्तानारम्भानारम्भन्ते श्रारभ्य चोपचितकर्मभिः काल सौकरिकादिवदिहैव दुःखमुपलभ्य नरकादिकां कुगतिमाप्नुयन्तीत्युरखोदाहरणत इहोपदश्यते। का करायादिसाधर्म्यन्तोपलक्षणं चैतदुरभ्रीयस्य नियुक्तिरिति निगमनमेतदिति गाथार्थः ॥ २० ॥ उरभ्रान्तीम् ॥ इत्यचखितो नामनिष्यनिः । संप्रति सूत्रालापकनिक्षेपस्पायसरः स च सूत्रे सति भवतीत्यतः सूजानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् ॥ जहा एसं समुद्दिस्सं, कोई पोसेज्ज एलयं । जयदिना पोसेज्जावि सर्प गणे ॥ यथेत्युदाहरणोपन्यासे आदिश्यते अशाप्यते विविधापा रेषु परिजनोऽसावात इत्यादेशो ऽभ्यर्हितः प्राकलं समुद्दिश्याधित्य पधासी समेप्यति समागतश्चैनं भीषयन इति कचित्परलोकापायनिरपेक्षः पोषयेत्पुष्टं कुर्यादलमूर एकं कथमित्याह भक्तं तज्जोयशेषानोपलक्षणमेतत् पचसमुद्रमाचादि दद्यादमतोडीकवेसन व पोष वचनमादरख्यापनाय श्रपिः संभावने संभाव्यत एव एवं वि यः कोऽपि गुरुकम्मैति स्वका स्वकीयमा अन्यत्र नियुकिः कदाचिद्यदनादि दास्यतीति स्वकाय इत्युक्तः । यदि वा ( पोसिजायसगीत) विशन्त्यस्मिन्निति विप यो गृहं तस्यां विषयाण स्मिथवा विषयं रसलायं पचनव्यत्वाद्विविषयान्या गणयन् संप्रधारयन् धर्मनिर पेक्ष इति भावः । इहोदाहरणं संप्रदायादवसेय "जगी करणगोपालयनिमित्तं पोसिज्जति सो पीशियसरी सु. रहातो हालिहादिकथंगरामो कपाल कुमारमा गाणाविहिं कीडाविसेसेहिं कीडार्वेति तं व वच्छगो एवं लालिज्जमाएं 'दट्ठू माऊए रोहेण गोचियं दोहरण य तयपुकंपre मुक्कमवि खीरं न पिवति । रोसेण ताप पुच्छिश्रो भइ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८०) निधानराजेन्द्रः । उरब्भ अम्मो एस दिषी साहिं पहिं अन् सामिसाल हिं जवजोगासणेहिं तदुषश्रोगेहिं अलंकारविसेसेहिं श्रलं - कारितो पुत इव परिपालिन्जर अहं तु मंदो सुकाण तणाणि कोहे वि लभामि ताणि वि न पज्जतिगाणि एवं पाशिप की विभालेति तार भयति सरचि थाई" गाहा। जहा भ्रातुरो मरिदं कामो जमातिच्या अपच्छं वा तं दिज्जतिते स एवं नंदिओ मारिज्जिहिन्ति ज हा तदा पेच्छेहिसि इति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ ततः कीदृशो जातः किश्च कुरुते इत्याह ॥ सोस पुढे परिवृढे जायमेण महोदरे । पाणिए बिले देहे, प्राएसं परिकंखए || तत इत्योदनादिदानाद्धेती पश्चमी स इत्युरभ्रः पुष्ट उपचितमांसया पुष्टिमा परि प्रभू समर्थ इति यावत् । जातमेव उपचितचतुर्थधातुरत एवं महोद बृहज्जरः प्रा हितस्तपितो यथासमयमुपडीकिताहारत्यादेभिरेव हेतुमविपुले विशाले देहे शरीरे सति यस्य च भाषेन भावलक्षणमिति सप्तमी किमित्याह आदेश प्रतिकाति पाठान्तरता परिकाङ्गति बेच्छति नचास्य तत्वतः प्रतिपालनामिच्छा च संभवत्यतः प्रतिकाय प्रतिकातीत्युपमार्थोऽवगन्तव्यः एवं परिकातीत्यत्रापीति सुत्रार्थः ॥ ३२ ॥ स किमेव चिरस्थायी स्यादित्याह ॥ जाव न एइ एसे, ताव जीवन से ही । हपत्तम्मि आपसे, सीसं बित्तू मुंजइ ॥ यावदिति कालावधारणं नैति नायाति कोऽसावादेशस्तावन्नोतरकालं जीवति प्राणान् धारयति (सेदुहिति ) प्राकारप्र पात्रो दुःख सभा यमनस्विनदानानीति ततःखितैवास्येति दुःखी ( मटपसम्म मापसे) श्रथानन्तरं प्राप्ते आगते आदेशे श्रिता अस्मिन् प्राणा इति शि रस्ता द्विधा विधाय दयते तेनैव स्वामिना पाहणकस दितेनेति शेषः। संप्रति संप्रदायशेषमनुधियते ततोऽसी "वच्छ गो ततो मंदिरं पाहुणगे भागच दिखमाणं ददतिसितो वि भरण माऊर थणं णानिवसति । ताप जयति किं पुत्त भयजीतोसि है परहुयं पि मे ण पिवसि तेण भाति अम्म क से थणाभिवास सोयराओ मंदि केहि विपा पछि भगपदि मम विगो विनयपि स्सरं रसतो श्रतणो असरणो मारिओ तम्भयाओ मे कओ पामाओ ताप भणति पुत्त ! णए तदा चैव कहियं जहा आउ रचिणाई पयाई एस संविवागो अपतो एस दिहंतो " इति सूत्रार्थः इत्थं दान्तमभिधाय तमेवानुपद दान्तिकमाह । जहा वल से उरकले आपसाए समीहिए। एवं बसे अहम् ईनरवाउ ॥ aar येन प्रकारेण खलु निश्वये स इति प्रागुक्तरूप उरभ्र आदेशाय आदेशार्थ समीदितः कल्पितः सन् यया यस्मै भविष्य देश परिवर्तते यचमनुनैव पायेगात्रोऽथम्मों धर्मपि पापमिति यावत् निचितयेत्य हितादेराकृतिगत्यादिशब्दस्य परनिपातः । गुणयागादधम्मतिशयेनाधम्र्माधर्मिष्ठ इह ईहते वातीव तदनुआचारतया कि नरकायुकं मरकजीवितमिति सुषार्थः । उत्तमेवार्थ प्रपश्यथितुमाद हिंसेपासे मुसाबाई. प्रकम्पिविज्ञो । अवदत्तहरे तेथे माई कन्तु हरे सडे ।। य, यी इत्थवियगिय, महारंजपरिग्गहे । जमाणे सुई से परिपूढे परंदमे || करजईप दिले चिय मोडिए । आउ नरए केले, जहाएसं च एमए ॥ हिमस्तीत्येवंशीको दिनः खनायतः प्रायम्यपरोपणकः पानान्तर यति हेतुमन्तरेणापि कुप्पतीत्येवं धर्म्मा धी मृषानीकं वदति प्रतिपादयतीत्येवं शीलो मृषावादी अध्य मि मार्गे विलुम्पति मुष्णातीति विद्योपका या पतिमान्] [सर्वस्य यतो तिति मन्येयो द राजादीनां विस्तीर्ण हरल्यावान्तराज पचादिनस्यभ्यस्तहरः । अन्यैर्वा अदत्तमनिसृष्टं हरत्यादले अन्यादत्तहरो ग्रामनगरादिषु वीर्य भए बालोऽहो विस्मरणमा स्मारयार्थमेतदिति न पौनरुत्यं सर्वावस्थासु वा बान्तत्वस्यापनार्थ पाठान्तरतश्च ससैन्येनेोपकल्पितात्मपूतिः । यज्ञा [अन्य] दत्त दयादसं प्र अपहरति नदिने विशेष मा कविः कस्यायै हरिष्यामीत्येवमययसायी शो वकाचारः तथा स्त्रियश्च विषयाच स्त्रीविषयास्तेषु एकोऽभिकामान् श्रीविषय प्राग्यन्मानपरिमितः आरम्नोकपपातापा परिग्रहथ धान्यादिसंयो यस्य स रायोको जानोऽन्यवर सुरां मां पिशितं परि बूढोति ) परिवृद्धः प्ररुपचितमांसशोणिततया ततक्रियासमर्थ इति यावत् । अत एव परानन्यान् दमयति न्यत्कृत्यानिमतकृत्येषु प्रवर्तयतीति परंदमः । किञ्च अजश्वागस्तस्य कर्करं यच्चपाकचयमाणं करायचे प्रस्तावान्मेो वन्तुरमतिप या मांजावरचय प्राप्तं लोहितं शोणितमस्येति चितलोहितः । शेषधातूपलक्षणमेतत्पूर्वीचितं नरके सीमन्तकादी का काति तद्योगकमीरम्भितया कमिव क श्वेत्याद ( जड़ापसं च एकपति आदेशमिव वरक उत्तरूप द य हिंसेत्यादिना सार्कको मारन उको जमाणे सुरमित्यादिना येनरस आयुमित्यादिनाचा छैन दुर्गतिगमनं तत्प्रतिपाद नामार्थतः प्रत्युपायाभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ इदानीं नरकेातीति तदनन्तरमसी के कुरते इत्याह । पा साझादेहिकापाय दर्शनाबाद || > श्रम सप जागा वि कामे य जिया । साह हिच्या संघिया रवं । कम्मरुपचुप्यपरायणे । यव्वआगयाएसे, मरणं तम्मि सीयए ।। आसनं शयनं यानमिति प्राग्यपरं मुफ्त्वेति संवन्धनीय वित्तं द्रव्यं कामान्मनोशशब्दादीन् भुक्तवोपभुज्य ( दुस्साहडंति ) दुःखेनात्मनः परेषां च दुःखकरणेन सुष्ठुादरातिशये नाहृतमुपार्जितं दुःस्वाहृतम् । यदि वा प्राकृतत्वात् दुःखेन संन्हियते मील्यतेस्मेति दुस्संहृतं धनं द्रव्यं हित्वा श्रासनाद्युपभोगेन द्यूताद्यसद्व्ययेन च त्यक्त्वा तथा च मिथ्यात्वादिक बन्धहेतुसंभवाद्बहु प्रभूतं संचित्योपार्ज्ड रजोऽप्रकार कर्म । ततः किमित्याह । ( ततोति ) ततो रजःसंचयात् को या संचिताः कर्म्मा गुरुरिय गुरुरो नरकगामितथा कर्म्मगुरुर्जन्तुः प्राणी प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानं तस्मिन्परायणस्तन्निष्ठः 'एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचर " इति नास्तिकमतानुसारितया परलोकनिरपेक्ष इति यायत् । ( श्रापवत्ति ) 61 उरब्भ - Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८१) नरब्भ अभिधानराजेन्द्रः। उरब्भ अजः पशुः स चेह प्रक्रमादुरभ्रस्तद्वत् (भागयाएसत्ति) सदेसे सम्बे अंबाउ उत्थाषिया । अप्ठया प्रस्स चाहणिए प्राकृतत्वादागते प्राप्ते आदेशे पाहुणके पतेन प्रपञ्चिताविने- निग्गतो सह अम्मश्रण अस्सेण अवहरियो प्रस्सो दूरं गंतूण यानुप्रहायोक्तमेवोरम्ररष्टान्तं स्मारयति । किमित्याह । मर- परिस्संतो रितो एगम्मि वणसं घूयच्गयाए अमशेण बारिणान्ते प्राणपरित्यागात्मन्यवसाने शोचति । किमुक्तं भवति जमाणो वि णिविहो । तस्स य हे अंबाणि पमियाणि सो यथादेश आगत उरभ्र उक्त नीत्या शोचति तथाऽयमपि धिग्मां ताणि परामस्सति । पच्चा अग्घाति पच्चा चक्खिळ निभति । विषयव्यामोहत उपार्जितगुरुकाणं हा केदानी मया गन्त- अमच्चो पारेति पच्ग नक्खेउं मतो" इति सूत्रार्थः । इत्थरष्टाव्यमित्यादिप्रलापतः विद्यतेऽत्यन्तनास्तिकस्यापि प्रायस्तदा न्तमन्निधाय दार्शन्तिकयोजनामाह । ( एवं गाहा) एवमिति शोकसंभवादिति सूत्रद्वयार्थः । अनेनैहिकोपाय उक्तः । काकिन्याम्रकसरशानां मनुष्याणाममी मानुष्यका गोत्रप्रत्ययान्तसंप्रतिपारभविकमाह ॥ स्वात् । गोत्रचरणाविति खुश कामा विषया देवकामानां देवसंबतो पानपरिक्खीणे, चुया देहविहिंसगा। न्धिनां विषयाणामन्तिके समीपे अन्तिकोपादानं च दूरे अनवधाआसुरीयं दिसं वान्ना, गच्छति अवसातमं ।। रणमपि स्यादिति । किमित्येवमत प्राह । सहस्राणिताः सहततः शोचनानन्तरं को चा उपार्जितगुरुकर्मा आयुषि तद्भ स्रेस्तामिताः नूयोऽतिशयेन बहु बहन्वारानित्यर्थः मनुष्यायुः वसंभविनि जीवित परिक्षीणे सर्वथा क्षयं गते कथंचिदायुः कामापेक्वयेति प्रक्रमोऽनेनेषामतिभूयस्त्वं सूचयन्कार्षापणसक्षयस्यावीचीमरणेन प्रागपि संभवादेवमुच्यते । च्युतो भ्रष्टो हनराज्यतुल्यतामाह । श्रायुजर्जीवितं कामाश्च शब्दादयो (दिग्विदेहाच्छरीरापाठान्तरस्तु च्युतदेहोपगते हन्त्यशरीरो विहि यत्ति) दिवि जवा दिव्याः धुपागुदक्प्रतीचो यदिति यत्त एव सको विविधप्रकारैः प्राणिघातकः (प्रासुरीयंति) अविद्य- दिव्यकाः श्हचाद। [देवकामाणअंतिपत्ति ] काममात्रोपादामानसूर्यामुपलक्षणत्वात् ग्रहनक्षत्रादिविरहितां च दिश्यते नेऽपि अयुष्कामाय [ दिञ्चियत्ति ] आयुषोऽप्युपादानम् । नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक्कामर्थाद्भावदिवामथवा तत्र प्रनावयितुमाह (अणेगसूत्रं ) अनेकानि बहुनि तानि चेहारौद्रकर्मकारी सोप्यसुर उच्यते । ततश्चासुराणामियमा- संख्येयानि वर्षाणि वत्सराणि तेषां न युतानि संख्याविशेषा सुरीया तामासुरीयां दिशं नरकगतिमित्यर्थो बालोऽझो ग- वर्षनयुतान्यऽनेकानि च तानि वर्षनयुतानि स्वरोऽन्योन्यस्येति च्छति यात्यवशः कर्मपरवशो वचनव्यत्ययाच सर्वत्र बहुवच- प्राकृतनकणात् सकाराकारदीर्घत्वमेघमन्यत्रापि स्वरान्यत्वं भावननिर्देशो व्याप्तिख्यापनार्थों वा यथा नैक एवैवंविधः किंतु नीयम् । यदिवा अनेकानि वर्षनयुतानि येषु तान्यनेकवर्षनयुताबहव इति (तमंति) तमोयुक्तत्वात्तमो देवगतेरप्यसूर्यत्वसं. न्युनयत्रार्थात्पन्योपमसागराणीति यावत् । नयुतानयनोपायस्त्व भवात्तद्यवच्छेदाय दिशो विशेषणम् । ततेोऽर्थान्नरकगतिम् । यं चतुरशीतिवर्षबकाः पूर्वाङ्ग तश्च पर्चानेन गुणितं पूर्व उक्तंहि" निच्चंधयारतमसा, ववगयगहचंवसुरनक्षत्ता" चतुरशीतिसक्काहतं नयुताङ्गं नयुताङ्गमपि चतुरशीतिबकानिइत्यादिस्वरूपख्यापकं वा द्वितीयं व्याख्यानमिति सूत्रार्थः । ताडितं नयुतादेवमुच्यत इत्याह । या सेति प्रज्ञापकः शिष्यान् संप्रति काकण्याम्रदृष्टान्तद्वयमाह प्रत्येवमाह । या सा नवतामस्माकं च प्रतीता। प्रकर्षण ज्ञायते जहा कागणीए हेलं, सहस्सं हारए नरो । वस्तुतत्वमनयेति प्रज्ञा हेयोपादेयविवेचिका बुद्धिः सा विद्यते यस्यासी प्रज्ञावानतिशायने मतप । अतिशयश्चास्या हेयोपादेययोअपच्छ अंबगं तुच्चा, राया रज्जं तु हारए ॥ ११॥ हानोपादाननिबन्धनत्वमिहाभिमतं ततश्च क्रियाया अप्याक्तिप्तएवं माणुस्सगा कामा, देवकामा य अंतिए । त्वात् । यदि चा निश्चयनयमतेन क्रिवारहिता प्रज्ञाप्यप्र.वेति सहस्सगुणिया नुज्जो, आउँ कामाय दिबिया ॥१२॥ प्रत्ययेनैव क्रिया क्तिप्यते ततःप्रज्ञावान् ज्ञानक्रियावानित्युक्तं भवति अणेगवासाणनया, जा सा पएणहउरई॥ तस्य प्रज्ञावतः । स्थीयते अनया अर्थादेवनवे प्रति स्थितिर्देवायु रधिकृतत्वात् ।दिव्यकामाश्च । तानि च कीदृशानीत्याह । यान्यजाणि जीयंति उम्मेहा, कणे वाससयाउए ॥१३॥ नेकवर्षनयुतानि दिव्यस्थितेर्दिव्यकामानां च विषयजूतानि जीय(जहासूत्रम् ) यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। काकन्या उक्तीं- न्ते हार्यन्ते तकेतुभूतानुष्ठानानासेवनेनेति भावः। पागन्तरतो हार. पायाः (हेउंति) हेतोः कारणात्सहनं दशशतात्मकं कार्षापणा- यन्ति वा के ते दुष्टा विषयादिदोषमुष्टत्वेन मेधा वस्तुरूपावधारनामिति गम्यते हारयेन्नाशयेन्नरः पुरुषोऽत्रोदाहरणं संप्रदायाद- णशक्तिरेषां ते फुर्मेधसो विषयैर्जिता जन्तव इति गम्यते । कदाबसेयः " एगो दसगो तेण वित्ति करितेण सहस्सं काहावणाण पुनस्तानि दुर्मेधसो विषयै यन्त इत्याह ऊने वर्षशतायुष्यनेनाअज्जियं सो तं गहाय सत्येण समंसगिर्हि पत्थितो। तेण अत्तनि. युषोऽल्पत्वान्मनुष्यकामानामप्यल्पतामाह । यदि वा प्रतूते ह्यामित्तं रुवगो कागिणीहिं निन्तं ततो दिणे दिणे कागणिए जति युषि प्रमादेनैकदा हारितान्यपि पुनर्जीयेरन्नस्मिस्तु संक्किप्तायुतस्स य अवसेसा एका कागिणी सा विस्सारिया सत्ये पहाविप ष्येकदा हारितानि हारितान्येव जगवतश्च वीरस्य तीर्थे प्रायोऽ सो चितेश मा मे रूवगो भिदिजव्यो होहेतित्ति नशनगं अन्नत्यं न्यूनवर्षशतायुष एव जन्तव श्त्ययमुपन्यासः । अयं चात्र नावार्थो गोवेवं कागिणीनिमित्तं नियतो सावि कागिणी अमेण हमा सो ऽल्प मनुष्याणामायुर्विषयाश्चेति काकण्याम्रफलोपमा देवायुर्देवविनउन्नो अन्नण विट्ठो विजंतो सो तं घेत्तूण नट्टो पच्ग कामाश्चातिप्रसूततया कार्षापणसहस्रराज्यतुल्याः । ततो यथा सो दारं गतो सोय एस दिलुतो" तथाऽपथ्यमहितमानकमान जमको राजा चकाकण्याघ्रफलकृते कार्षापणसहस्रराज्यं च फलं नुफ्त्वावहृत्य राजेति नृपती राज्यं पृथिवीपतित्वं तुरवधारणे हारितवानेवमेतेऽपि दुर्मेधसोऽल्पतरमनुष्यायुःकर्मार्थ प्रस्तूताभिन्नक्रमश्च तेन हारयेदेव संभवत्येव । अस्यापथ्यभोजिनो हार न्देवायुः कामान् हारयन्तीति सूत्रार्थः॥ णमित्यवरार्थः । भावार्थस्तु वृहसंप्रदायादवसेयः। स चायम् । संप्रति व्यवहारोदाहरणमाह ॥ "जहा कस्सइ रम्मो अंबाजिम्मेण विसुश्गा जाया सा तस्स वेजेहि महाजनेण चिगिच्चिया प्रणितो जदि पुणो अंबाणि जहा य तिएिण वणिया, मूलं चित्तूण निग्गया ।। खास तो विणस्ससि । तस्स य अतीव पियाणि अंबाणि तेण | एगो तत्थ अहइ सानं, एगो मूोण आगो।। १४॥ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८२) उरन्न अनिधानराजेन्द्रः। उरन्न एगो मूलं पि हारित्ता, आगो तत्थ वाणिओ।। देवत्तं माणसत्तंच, जं जिए लोलया सढे ॥१७॥ बवहारे नवमा एमा, एवं धम्मे वियाणह ।। १५ ।। तओ जिएसई होइ, दुविहं दुग्गई गए। माणुस्सत्तं नये मूलं, मानो देवगई जवे ।। दुबहा तस्स उम्मग्गा, अफारसु चिरादवि ॥१०॥ मूलएण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥ १६ ॥ एवं जीयं स पेहाए, तुलिया वानं च पंझियं । यति प्रागवत् । चः प्रतिपादितदृष्टान्तापेक्कया समुच्चये । त्रयो मूनिय ते पवेसंति, माणुस्सं जोणिमंति जे ॥१॥ बणिजः प्रतीता सूझराशि नीविमिति यावत् गृहीत्वा निर्गताः द्विधा द्विप्रकारा गम्यत इति गतिः सा चेह प्रक्रमानरकगस्वस्थानात स्थानान्तरं प्रति प्रस्थिताः प्राप्ताश्च समीहितस्था तिस्तिर्यग्गतिश्च । कस्येत्याह बालस्य द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यामाकनम् । तत्र च गतानामेको वणिक्कलाकुशलोऽत्रैतेषु मध्ये अभते लितस्य(आगइत्ति) आगच्छत्यापतति बिधः उपलक्षणत्वान्मप्राप्नोति सानं विशिष्टद्रव्योपचयझवणम् । एकस्तेष्वेवान्यतरो हारम्भमहापरिग्रहानृतभाषणमायादयश्च मूलं करणं यस्याः वस्तथा नातिनिपुणो नाप्यत्यन्तानिपुणः स (मूोणत्ति) मूत्र सावधमूलिका। यदि वा द्विधा गतिलस्य भवतीति गम्यते। धनेन यावद्गृहान्नीतं तावतैवोपत्नक्वित आगतः स्वस्थानं तत्र च तस्य (आवशत्ति ) आपत्सा च कीदृशीत्याह । बधो प्राप्त इति सूत्रार्थः । तथा ( एगो सूत्रम् ) एकोऽन्यतर; विनाशस्तामनं वा मूत्रमादिर्यस्याः सा बधमूलिका । मूखनप्रमादपरो तमयादिष्वत्यन्तमासक्तचेता मूलमप्युक्तरूपं हार हणाच्छेदनेदातिभारारोपणादिपरिग्रहः । लभन्ते हि प्राणिनो यित्वा नाशयित्वा गतः प्राप्तः स्वस्थानमित्युपस्कारः एवं नरकतिर्यकु विविधा बधाद्यापदः। किमित्येवमत प्राह देवत्वं देवसर्वत्रोदाहरणसूचायां सोपस्कारता द्रष्टव्या । तत्र तेषु भवं मानुषत्वं च मनुजनवं यद्यस्माजितो हारितो (लोन. मध्ये वणिगेय वाणिजः अत्र च संप्रदायः “जहा एगस्स यासत्येत्ति ) बोलता पिशितादिनाम्पट्यं तद्योगाजन्तुरपि पाणियगस्स तिथि पुत्ता तेण तेसिं सहस्सं दिसं काहा तन्मयत्वख्यापनार्थ लोलतेत्युक्तः। शाठ्ययोगाच्या विस्वस्तानां वमाणं भणिया य । एएण ववहरिऊण पत्तिएण कालेप एजह ते तं मूलं घेतूणं निग्गया सनयराउ विविधविधेसु पञ्चकस्ततो लोलता चासौ शरश्च बोलताशनः । पञ्चेन्द्रिय परणेसु ठिया तत्थेगो भोयणछायणवजं जूयमज्जमंसवेसा बधाद्युपसतणतया च नरकहेत्वनिधानमेतत् यदुक्तं " महारतबसणविरहितो विहीए ववहरमाणो विपुललाभसंपुमो जातो। याए परिग्गड्याए कुणिमाहारणं पंचिदियवहेणं जीवा निवितितो पुण मूलमवि वितो लाभगं भोयणछायणमल्लालंका रयाउयं नियच्छति “श इत्यनेन तु शाठयमुक्तं तच्च तिर्यरादिसु ववभुजति णय अच्चादरेण ववहरति । तो न ग्गतिहेतुरुक्तं च "माया तैर्यग्योनस्येति" अतश्चायमाशयो यतोऽयं किंचि पवहरा केवलं जूयमंसवेसगंधमल्लतंबोलसरीरकिरि बाझो बोलताशवस्ततो नरकतिर्यम्मतिनियन्धनान्यां बोलताशयासु अप्पेणेव कालेण तं दव्वं निवियं ते य जहावहिका- गच्या देवत्वमनुजत्वे हारितस्यास्योक्तरूपाविधैव गतिः संजलस्स सपुरमागया तत्थ जो छिम्ममूलो सो सधस्स असामी वत्येवं मूलच्छेदेनजीवानां नरकतिर्यक्त्वमुच्यते । मूलं हि मनुष्यजातो पेसए व उवचरिजति । वितिो घरवावारे निउत्तो त्वं लाजश्च देवत्वमुत्रयोरपि तयारिणादिति सूत्रार्थः । पूनर्मूलभत्तपत्तिसंतुट्टो ण दातव्वभोत्तव्बे सुच सायति । ततिश्रो च्छेदमेव समर्थयितुमाह । (ततोजिपत्ति) ततो देवत्वमानुषत्वघरवित्थरस्स सामी जातो के वि पुण कहिंति तिमि वि वा- जयात् को वा बालः (जिपत्ति )व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्य जित णियगा पत्तेयं २ ववहरंति । तत्थेगो छिममूलो पसत्तणमुव- एव सततं सदा नवति द्विविधा नरकातर्यग्नेदासां द्विभेदां दुनिगतो केण वा संववहारं करेउ अच्छिम्ममूलो पुणरवि वाणि- न्दायां दुष्टा निन्दिता गतिईगतिस्तां गतः प्राप्तः सदाजितत्वमेवा ज्जाए भवति । इयरो बंधुसहितो मोदते एस दिटुंतो" निव्यनक्ति दुर्वना दुष्प्रापा तस्येति देवमनुजत्वे हारितवतो बालसंप्रति सूत्रमनुश्रियते व्यवहारे व्यवहारविषया उपमा दृष्टा- स्य (उम्मुमात्ति)सूत्रत्वात् उन्मजनमुन्मजा नरकगतितिर्यम्पति न्तः । एषाऽनन्तरोक्ता वक्ष्यमाणन्यायेन धर्मे धर्मविषयामे- निर्गमनात्मिकास्यादेतश्चिरतरकासेनोन्मज्जास्य नविष्यत्यताह नामेघोपमा विजानीत अवबुध्यत यूयमिति सूत्रार्थः। कथमि- अकायां काले अर्थादागामिन्यां किंस्वल्पायावत्याह । सुचिरात्याह ॥ (माशुसत्तं सूत्रम् ) मानुषत्वं मनुजत्वं भवेत्स्यात् दपीत्यका शब्देनैव कालाभिधानात् सुचिराच्छब्दःप्रभूतत्वमाह । मूलमिव मूलं स्वर्गापवर्गास्मकतदुत्तरोत्तरलाभहेतुतया त ततोऽयमर्थोऽनागतासायां प्रनूतायामपि बाहुल्याच्चेत्थमुक्तमलाभ इव लाभो मनुजगत्यपेक्षया विषयसुखादिभिर्विशिष्ट न्यथा हि केचिदेकभवनैव तत उकृत्य मुक्तिमप्याप्नुवन्त्येवेति वाहेवगतिर्देवत्वावाप्तिर्भवेत् एवं च स्थिते किमित्याह । मूलच्छेदेन मानुषत्वगतिहान्यात्मकेन जीवानां प्राणिनां नरकति सूत्रार्थः॥ इत्यं पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्याङ्गमिति पश्चादुक्तेऽपि मूत्रर्यक्त्वं नरकत्वं तिर्यक्त्वं च तद्गत्यात्मकं धुवं निश्चितम् इहापि हारिण्युपनयमुपदर्य मूत्रप्रवेशिन्यभिधातुमाह । यद्वा विपक्का संप्रदायः । “तिमि संसारिणो सत्तमाणुसे आयाता तत्थेगे पायात्तज्ञानत एवोपादेयप्रवृत्तिरिति पश्चादुक्तमपि मूलहारिणमद्दवजवादिगुणसंपन्नो मज्झिमारंभपरिग्गहजुत्तो कालं का मादावुपदईयदमाह (पवंसूत्रम् ) एवमुक्तनीत्या ( जियेत्ति) ऊण काहावणस्स मूलत्थाणीयं तमेव माणुसत्तं पडिलभति । सुब्ब्यत्ययाज्जितं झोलतया शाठ्येन च देवमनुजत्वे हारित थावितिश्रो पुण सम्मईसणचरिसगुणेसु ठितो सरागसंजमेण समिति प्रथमतः (सपहाणात ) संप्रेक्ष्य सम्यगास्रोच्य तथा लखलाभवाणिय इव देवेसु उववम्यो । ततितो पुण हिंसे वाले तोसयित्वा गुणदोषवत्तया परिनाव्य यदि चैवं जितं सम्यगविमुसाबाती इच्चेतेहिं पुष्वभाणिपहिं सावज्जजोगेहिं वलिश्रो रीता प्रेका बुद्धिः संप्रेक्यतया तो झवित्वा कं बालं चस्य जिन्नछिमामूलवणिय इव नरगेसु तिरिएसु वा उववज्जति क्रमत्वात्परिमतं तद्विपरीतमर्यान्मनुष्यदेवगतिगामिनमिह च द्विइति सूत्रार्थः॥ तीयायां व्याख्यायामेवं जितमिति बासस्य विशेषणम् नतु पयथा मूलच्छेदेन नारकतिर्यक्त्वप्राप्तिस्तथा स्वयं सूत्रकृदाह। एिमतस्यासनवात । तथा च सति मूवं नवं मौलिकं मूलधनं ते दुहान गई बालस्स, आवई वहमूलिआ । प्रवंशयन्ति मूलप्रवेशकवणिक्सशास्त इत्यभिप्रायो ये किमि Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८३) अभिधानराजेन्डः। उरब्भ उरब्भ त्याह (माणुस्सत्ति) मनुष्याणामियं मानुषीतां योनिमुत्पत्तिस्था- | मिति सूत्रार्थः ॥ प्रस्तुतमेवार्थ निगमयन्नुपदेशमाह । ( एवंनमायान्त्यागच्छन्ति बासरथपरिहारेण पएिमतत्वमासेवमानाये ते सूत्रम् ) एवममुना न्यायन लाभान्वितम् ( अदाणवत्ति) दीडः इति सूत्रार्थः ॥ क्तवता दीनवन्तं न तथा दीनवन्तमदीनं दैन्यरहितमित्यर्थों यथा च मानुषीं योनिमायान्ति तथाह ।। निकं यतिमगारिणं च गृहस्थं विज्ञाय विशेषेण तथाविधशिवेमायाहिं सिक्वाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया ।। कावशाद्देवमनुजगति गामित्वबवणेन ज्ञात्वाऽवगम्य यतमान जति माणसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ २० ॥ इति शेषः । कथं कन प्रकारेण न कथंचिदत्यर्थो नु वितर्के जेसिं तु विउला सिक्खा, मूबियं ते अस्थिया ।। (जिञ्चति । सूत्रत्वाज्जीयेत हार्येत विवेकी तत्प्रतिकूलैः कषायो दयादिभिरिति गम्यते । ईवमनन्तरोक्तं देवगत्यात्मकं लाभ सीलवंता स विसेसा, अदीणा जंति देवयं ॥ २१ ॥ (जिश्चमाणोत्ति) वा शब्दस्य गम्यमानत्वाज्जीयमानो धा हार्यमाएवं अदीणयं जिक, अगारिं च वियाणिया ! माणस्तैरेव कषायादिनिर्म संवित्ते सुत्रत्वान संवेत्ति न जानीकहाण जिच्च मेलिक्वं, जिच्चमाणा न संविदे ॥२२॥ ते यथाहमेभिजीय इति । कथं न्वितीहापि योज्यते ततोऽयमर्थः विविधा मात्रा परिमाणमासां विमात्रा विचित्रपरिमाणास्तानिः कथं नु संवित्त एव जानीते एव झपरिझया प्रत्याख्यानपरिक्रया परिमाणविशेषमाश्रित्य विसरशीनिः शिक्काभिः प्रकृतिनक च तन्निरोधं प्रति प्रवर्तते एवेत्येवं च बदन् काकोपदिशति यत स्वाद्यन्यासरूपाभिरुक्तंदि “चर्हि गहि जीवा मायालय एवं ततो यूयमप्येवं जानाना यथा न देवगांतकणं लाभं जोयबंधति तंजहा पगतिनदयाए पगतिविणिययाए साणुकोसयाप व काषायादिनिस्तथा यतध्वं कथंचिज्जीयमानाश्च सम्यश्विअमचरियापत्ति" ये श्त्यविवक्तिविशेषा नराः पुरुषा गृहिणश्च काय तत्प्रतीकारायव प्रवर्तध्वमिति । यद्वा एवमदीनवन्तं निक्षुगृहस्था सुव्रताश्च धृतसत्पुरुषवतास्ते हि प्रकृतिभद्रकत्वाधज्या मगारिणं च लब्धानं विज्ञाय यतमानो कथं नु जीयन्ति आर्षसानुलावत एव न विपद्यपि विषीदन्ति सदाचारं वा अवधीर- स्वात् जीयते हार्यते अतिरौद्धैरिन्छियादिनिरात्मातदिति जेयं यन्तीत्यादिगुणान्विता श्दमेव च सतां व्रतं लौकिका अप्याहुः। तह प्रक्रमान्मानुष्यदेवगतिकणं (पविक्खांत) सुब्ब्यत्ययाविपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं हि महता,प्रिया न्याय्यावृत्तिर्म- दोरक्कोऽनिहितार्थानिज्ञः कथं नु जीयमानो न संवित्तेऽपि तुसंझिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम्। असन्तोनाज्याःसुहृदपिन वाच्यस्त वित्त एव संविदानश्च यथा न जीयते तथा यतेतेत्यन्निप्रायोऽथ नुधना, सतां कने हिष्ट विषममसिधाराव्रतमिदम्॥इति आगमवि चैवमदीनवन्तं निमगारिणं च लब्धमानं विज्ञाय यतमान हितव्रतधारणं त्वमीषामसंजविदेवगतिहेतुतयैव तदभिधानात्त कथं नु (जिचंति) पार्षत्वाज्जीयते हार्यते विषयादिनिरिति ईदृशाः किमित्याह (वितित्ति) उपयन्ति (माणुसंति ) मा गम्यते । रक्कं देवगतिवणं बाभमिति शेषः। अयमाशयो यदि नुषीं मानुषसंबन्धिनी योनिमुक्तरूपां कर्मणा मनोवाक्कायक्रिया सनमाना न विज्ञाताः स्युर्मानो वा न तथाविधस्तदा जयनमपि सवणेन सत्या अविसंवादिनः कर्मसत्या। हुरवधारणे ततः क स्याद्यदा तु सनमानौ जिक्वगारिणी दृश्येते माजश्च देवत्वाकण मसत्या पव सन्तस्तदसत्यतया तिर्यग्योनिहेतुत्वेनोक्तत्वात् । स्तदा कथमयं जानानोऽपि जन्तुर्जीयते यत आह जीयमानो न तथा च वाचकः “धर्ता नैकृत्तिकाः स्तब्धा, लुब्धाः कार्परिकाः संवित्ते । किमुक्तं नवति । यदासौ जीयमानो जानीयात्तदा तपुशगः । विविधां ते प्रपद्यन्ते, तिर्यग्योनि पुरुत्तरा" मित्यादि पा पायपरतया न जीयेत यदा स्वसी विषयव्यामोहतो न जानीते गन्तरतश्च कर्मस्वर्थान्मनुष्यगतियोग्यक्रियारूपेषु शक्ता अनि तदा जोयत एवेति किमत्र चित्रमिति सूत्रार्थः । ध्वङ्गवन्तः कर्मशक्ताः प्राणिना जीवा इह च नरग्रहणे सति समुशान्तमाह । प्राणिग्रहणं देवादिपरिग्रहार्थमिति न पुनरुक्तम् यदि वा विमा जहा कुसग्गे नदयं, समुद्देण समं मिणे । बानिः शिवाभिये नरा गृहिणः सुव्रता यत्तदोर्निस्याभिसंबन्धात्ते एवं मणुस्सया कामा, देवकामाण अंतिए ॥ २३ ॥ मानुषी योनिमुपयान्ति किमित्येवमत आह ( कम्मसचाहुपाणि- कुसग्गमत्ता श्मे कामा, संनिरुकम्मि आनए । गोत्ति) हु शब्दो यस्मादर्थे यस्मात्सत्यान्यवन्ध्यफलानि कआणि ज्ञानावरणादीनि येषां ते सत्यकर्माणः प्राणिनो निरु कस्स हे पुरा काउं, जोगक्खेमं न संविदे ॥ २४ पक्रमकर्मापेकं चतदिति सूत्रार्थः । संप्रति लब्धाझानोपनयमाह यह कामा नियट्टस्स, अत्तट्टे अवरज्म । (जेसिसूत्रं ) येषां तु पुनर्विपुलानि शङ्कितत्वादिसम्यक्त्वाचा सोचा नेयानयं मग्गं, जं जुजो परिजस्सई ॥२६॥ राणुव्रतमहावतादि विषयत्वेन विस्तर्णाि शिक्षा ग्रहणासेवनात्मि यथेति दृष्टान्तोपन्यास कशो दर्भविशेषस्तस्यानं कोटिः। कुशाकास्तीति गम्यते। मूले नवं मौलिकंमूअधनमिव मानुषत्वं ते य एवं ग्रं तस्मिन्नुदकं जसं तत् किमित्याहसमुखणेति तात्स्थ्यात्तद्यपविधाः(तिमडियात्त अतिट्टियात्ति-अतिच्चियत्ति)पात्रयेऽपि प्रति देश इति न्यायात्समुज्जलेन सम तुल्यं मिनुयात्परिच्छिन्द्यात् । क्रान्ता उल्लखितवन्त इत्यर्थः । यद्वा अतिक्रम्याद्वय कीदृशाःसन्तः तथा किमित्याह-एवमुक्तनीत्या मानुष्यका मनुष्यसंबन्धिनः काशीलं सदाचारोऽविरतसम्यग्दृशांविरतिमतां तु देशसर्वाविरम- मा विषया मनुष्यविशेषणं तु तेषामेवोपदशाईत्वाद्विशिष्टनोगसंणात्मकं चारित्रं तध्द्यिते येषां ते शीबवन्तः। तथा सह विशेषेण उ जवाच । देवकामानां दिव्यभोगानामन्तिके समीपे कृता शति शेतरोसरगुणप्रतिपत्तिवकणेन वर्तन्त शति सविशेषाः अत एवादी- षः। दरस्थितानां हितं सम्यगवधारणमित्येवमाह । किमुक्तं नवति। नाः कथं वयममुत्र नविष्याम इति वैक्यब्यहिताः परीषहोप यथाऽझः कश्चित्कुशाग्रस्थितं जलविन्दमासोक्य समुष्वन्मन्यते सर्गादिसंभवे वा न दैन्यजाज इति अदीना यान्ति प्राप्नुवन्ति एवं मूढाश्चक्रवादिमनुष्यकामान् दिव्य जोगापमानध्यवस्यन्ति ते। देवजाबो देवता सैव दैवतं न तु तत्वतो मुक्तिगतिरेव लाज तत्वतस्तु कुशाग्रज नविन्दोरिव समुजान्मनुष्यकामानां दिव्यभो. स्तत्किमिह तत्परिहारतो देवगतिरुक्त्युच्यते । सूत्रस्य त्रिकाल गेज्यो महदेवान्तरमिति सूत्रार्थः।उक्तमेवार्थनिगमयन्नुपदेशमाह । विषयत्वान्मुक्तेश्चेदानीं विशिएसंहननानावतोऽ जावाहेवगतेश्च (कुसमेत्तत्ति) कुशाग्रशब्दन कुशाग्रस्थितो जलविन्दुरुपत्रदयते"वडेण न गम्मत्ति चत्तारिउ जाव आदिमा कप्पा"इति व- तन्मात्रस्तत्परिमाण श्मे इति प्रत्यक्काः कामाःप्रकृतत्वात् मनुष्यवनाच्छेदपरिवर्तिसंहननिमामिदानींतनानामाप संनवादेव मुक्त- । विषयाः कदा ये श्त्याह । सन्निरुकेऽत्यन्तसंक्षिप्त या सममेकीना Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८४) अभिधानराजेन्द्रः । मुरब्भ न निरुपवानादिभिरुपक्रमणकारणैरवधे आयुषि जीवितंग मनुष्यायुषो अपतया सोपकमतया या कामानामप्यन्यायमु सातोस्त्वयें उत्ते दिव्यकामास्तुजसा यर्थाद्गम्यते ( कस्सदेति सूत्रात कं हेतुं कारणं ( पुराका ति ) तत एव पुरस्कृत्याश्रित्य अन्धस्य लाभो योगो लब्धस्य च परिपालनं केमोऽनयोः समाहारे योगकेम् । कोऽर्थोऽप्राप्तविशिष्टधर्म्मप्राप्तिं प्राप्तस्य च परिपालने न संविसे न जानीत जन इति शेषरचिती हि मनुष्यविपयानिष्यङ्ग देतुस्ते व धम्मं प्राप्य दिव्य भोगापेक्षयेवंप्रायास्तव त त्यागतो विषयाभिलाषिणोऽपि धर्म एव यतितव्यमित्यनिप्रायः । यद्वा यतः कुशाप्रमात्रा दर्भप्रान्तवदत्यल्पा श्मे कामास्तेऽपि न पल्योपमादिपरिमितौ प्राघा यस्यायुषि किंतु सन्निरुके संकिते आयुषि ततः कस्सदेति) कस्मादेतो. पुरस्कृत्येव पुरस्कृत्य मुख्यतयाङ्गीकृत्य असंयममिति शेष योगरूपं वि भावार्थत्वनिहित पति सूत्रार्थः इत्थं स्यान्तपञ्चकमुक्तम तत्र प्रथममुरादृष्टान्तेन नोगानामायतावपायबहुलत्वमभिहिसमायती चापायच यन्तु तत्पर शक्यत इति । काकया फष्टान्ततस्तुच्चत्वं तुच्छमपि च बानच्छेदात्मकव्यचाचितथाऽऽयमतोमा वहातुं शक्तति जिगृज्य व दारोदाहरणमाययतोक्षणापि कयं कर्त्तव्येति समुद्रान्तस्तत्र हि दिल्यकामानां समुद्रजलोपमत्वमुक्तं तथा च तपार्जनं महानायोऽनुपार्जनं तु महान्त्र्यय इति तत्वतो दर्शितमेव नवति । इह च योगकेमासंवेदने कामो निवृत्त एव नवतीति तस्य दोषमाह ( इति सूत्रम्) इति मनुष्यत्ये जिनशासने या प्राप्त इति षः कामेन्योऽनिवृत्तोऽनुपरतः कामा निवृत्तः तस्य आत्मनोऽर्थः आत्मार्थोऽर्थ्यमानतया स्वर्गादिः अप राज्यत्यनेकार्थत्यातूनां नश्यति । यद्वा श्रमैार्य आत्मार्थः स वापराध्यति नान्यः कचिदात्मन्यतिरिकोऽर्थापयति वजयत्र दुर्गतिगमनेनेति भावः । श्रह विषयवायाविरोधिनि जिनागमे सति कथं कामानिवृतिसंवा यिकं न्यायोपपन्न मार्गे सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिपथं यद्यस्माद् यः पुनः परिभ्रस्यति कामान्निवर्तित इति शेषः । कोऽनिप्रायो जिनागमश्रवणात् कामनिकृतिप्रतिपोऽपि गुरुप्रति पतति ये तु श्रुत्वाऽपि न प्रतिपन्नाः श्रवणं येषां नास्ति ते कामनिवृत्ता एवेति भावः । यद्वा यदसौ कामानिवृत्तः सन् श्रुत्वा नैयायिकं मार्ग भूयः परिवस्यति मिथ्यात्वं गच्छति तदस्यात्मार्थ एव गुरुकर्मापराध्यति अनेन मा कचित् मूद्रस्य सिकान्तमधीत्याप्युत्पथप्रस्थितान् विलोक्य सिद्धान्त एवं द्वेष इति तदनपुराधित्वमुक्तं पश्यते " पत्तो नेयायेति स्पष्टमिति सूपार्थः ॥ यस्तु कामेभ्यो नित्तस्तस्य गुणमाह ॥ इह काम नियणस्स अहे नाव ।। देहनिरोडे, नये देव शि मे सूर्य ।। २६ ।। " कामेभ्योऽपि निवृत्तस्यात्मार्थः स्वर्णदिनापराध्यति न प्रस्यति ग्रात्मलक्षणो वा न सापराध नवति किं पुनरेवं पता पूतिः कुथितो देहोऽर्थादौदा रिकशरीरं तस्य निरोधोऽनावः प्रतिदेहनिरोधस्तेन भवेत् स्यात् तत्यात् कामनिवृत्ती देवः सौधर्मादिनिवासी सुरु उपत्वात्सिको चाहत्या तमाकर्णितं परमगुरुज्य इति गम्यते अनेन स्वर्गापवा त्मार्थानपराधे निमित्तमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ 1 ततश्च यदसावाप्नोति तदाह ॥ सोमो गृहमन्तरं ।। उररी जो जत्य मस्से भय से उबल ।। २७ ।। कनकादिसमुदयो, सुतिः सरीरकान्ति पराक्रम ता प्रसिद्ध गाम्भीर्वाद समीरादियातम् सुखं पवित मस्मादित्यनुत्तरमिदं च सयंत्र योज्यते सूयः पुनर्वेदभवापेमेाप्यनुतरायेव तान्यस्य संभवति । पत्र येषु मनुष्येषुमनुजेषु तत्र तेषु (सेति ) सः श्रथशब्दार्थो वा ततोऽनन्तरमुत्पद्यते जायत इति गाथायें एवं कामानिवृत्या स्यात्मार्थोऽपरा यस वा इतरस्तु परिमत इत्यक्तम्। संमति पुनरन योरेव सङ्गात् स्वरूपं फलं चोपश्योपदेशमाद ॥ वालरस परस बालसं अहम्मे परिरणो ॥ चयाचम् अहम् नरप उपज ॥ २० ॥ धीरस्स पस्स धीरतं सव्वधम्माच ॥ aar अहम्मं धम्मिट्ठे, देवेसु नववज्ज‍ || २ | तुझियाएबालावं, अंबा चेत्र पंकिए || चरण बालजावं, वा सेवर मुणे ।। ३० । बालस्याज्ञस्य पश्यावधारय बालत्वमङ्गत्वं किं तदित्याह अधधम्मपि विषयासक्तिरूपं प्रतिपद्याभ्युपगम्य पठ्यते च ( परिवजिणोति ) प्रतिपादिनोऽवश्यं प्रतिपद्यमानस्य त्यक्त्वा उपाय धर्म विषयनिवृत्तिरूपं सदाचारम् । ( अहम्मिति ) प्राग्वन्नरके सीमन्तादावुपलक्षणत्वादन्यत्र वा दुर्गतावुत्पद्यते । तथा धीर्बुस्तिया राजत इति धीरो बुद्धिमान् परीबहाद्यकोच्यो वा धीरस्तस्य पश्य प्रेकस्व धीरत्वं धीरभावं सर्व्वे धर्मे कान्त्या दिरूपमनुवर्त्तते तदनुकूजाकरता स्वीकुरतवंशी यस्तस्य सर्व्वधर्मानुवर्त्तिनो धीरत्वमेवाह त्यक्त्वा हित्वा अध विषयाभिरतिरूपमसदाचारं ( धम्मिििन्त ) धम्म यदि वाऽ तिशयेन धम्र्मयानिति मनुष्य चर्मिष्ठ इति देवैपूत्पद्यते । यतश्चैवमतो यद्विधेयं तदाह तोत्रयित्वेति प्रावत् । बालजावं बासत्वम् । (अवासन्ति) भावप्रधानत्वान्निशस्याचा समुपयेोति प्रकृतत्वादनुस्वारोप पचमनन्तरोकप्रकारेण परितो बुद्धिमान् यम (अवासंति) असेच अनुतिष्ठति मुमितिरिति सूत्रत्रयर्थः । उत्त०८०१ (थूलं सरनं इह मारियाणं, उद्दिदुभतं च पगप्पपत्ता । तं लोण तेलेण नवक्खमेता सपिप्पलीयं पगरंति मंसं" इति शाक्यमतम् । श्रगकुमार शब्दे व्याख्याम्) ग ल्याम् आ० म० द्वि । जरन्न पुसभिन्ना - नरपुटमन्निना- स्त्री० उरभ्रकरणस्तस्य 66 पुढं नासापुटं तत्सन्निभा तत्सदृशी ( मेषस्येव नासायां ) 'उरम्भपुडसंक्षिभा से नासा " । उपा० १ ० ॥ रनरुहिर उरजरुरि न० उम्र करतस्य रथिरम् । मेरके, तद्धि अतिशोधितं भवतीति रोहितबस्तु तेनोपमीयते । जी० ३ प्रति० ॥ - उरब्जिय - नरज़िय - न० उरभ्रादिपञ्चदृष्टान्तमये सप्तमे उत्तरा ध्ययने । उत्त० । ( उरख्न शब्दे व्याख्यातम् ) । और कि० रा ऊरणकास्तरति यः स रक्षिका उरभ्रस्य ऊर्णया तन्मांसादिना वात्मानं वर्त्तयति, "उरब्भं वा श्रतरं तसं पाणं हंता जाव । सूत्र० २ ० २ श्र० । परदे प्रा० २ पद । उररी-देशी-पशी, दे० ना० । Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरलदुग अन्निधानराजेन्द्रः। उल्लंघण उरलग-औदारिकदिक-न० औदारिकशरीरोवारिकालो- सिरेकमाए" गलविषरस्य धर्तुलत्वात् । उपा.१०। पाङ्गनाम्नोः द्विकम् । औदारिकौदारिकमिश्रकापयोगयुगो, | उरोविसुफ नरोविशफ-न० गेयशुद्धिभेवे, यदि उरसि स्वरः "उरलगकमपढमति मम एपाधलदुगम्मि" कर्मः॥ स्वभूमिकानुसारेण विशुद्धं भवति तत् उरोपिशुद्धम, रा०। परनवि-भीदारिकविना-अन्य (मारुते समाल इति प्रती- उमिअ-देशी-निकूणिताते, दे० ना० । पते) श्रीदारिकशरीरमौदारिकामपाचविनेत्यर्थे, "सर-दलित-देशी-उच्चस्थिते कूपे, दे०मा० । दुगपणिदिसु खगइतसनबउरलविणुतणुवंगा"कर्म०॥ नसहि-देशी-प्रझुग्तेि, दे० ना० । उरसिरमुहबलकंठतोण-तुरःशिरोमखवधकएतोण- त्रि० नसुकमिन-देशी-पुलकिताथें, देना। उरसा वक्षसा सह शिरोमुखा ऊर्जमुखा बद्धा यन्त्रिता कराठे उसुख-देशी-उल्मुके, देना। गले सोणास्तोणीराः शरधयो यैस्ते उशिरोमुखबद्धतोणाः।। | नयु-(सू) ग-उसक-पुं० बलसमवाये उक् संप्रसारणम् बचतुणीरे, प्रश्न प्र०३द्वा०॥ कर्डकर्णः उलूकः। अनुसूत्र कौशिके, प्रा०म० । जातित्वाउरसी-उरसी-स्त्री० गुच्छभेदे, प्रशा०१ पद ॥ त्रियां डीए वाच०। पैशेषिकशास्त्रप्रणेतरि कणादमुनाच । नरमुत्तिया-नुरःसूत्रिका-स्त्री०७०। मुक्ताहारे, अमरः। जंग। दोहिं विणएहिं पिणीयं, सत्थमुसरण वहविमिच्छतं । नरस्स-उरस्य-पुं० उरसैकादि०क्यत्। वक्षसैकदेशगते, पुत्रे जं सबसिअप्पहाण-तणेण अणोरयणिक्खेक्खा ।। च। उरसि नवम् । आन्तरे, रा। द्वाज्यामपि च्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाज्यां प्रणीतं शास्त्रमुलूनरस्सवन-नरस्यवन-न० उरसि भवमुरस्यं तच तदलं च उरस्थ केन वैशेषिकशास्त्रप्रमाणेत्रा व्यगुणादेः पदार्थषट्कस्य नियबलम् । आन्तरोत्साह, अनु शारीरबले च । सूत्र.१७०८अ. कान्तरूपस्य तत्र प्रतिपादनात् । तदेवोक्तं जगषता परमषिणोउरस्मवझसमठागय-नरस्यवझसमन्वागत-त्रि उरस्यबलं स- झुक्येन गुणो जावाद्गुणत्वमुक्तम् । सम्म प्रा. म. विशे। मन्वागतः समनुप्राप्तः । प्रान्तरोत्साहवीर्ययुक्त, । रा०।। प्राचा०॥ (घिसेसियशब्दे समग्रं मतम्) अनु० प्रा०म०प्र० ॥ उखु (सु) गच्चि-नझुकाक-पुं० उबूको घूकस्तस्येवाकिणी न (ओ) राम-नुदार-त्रि उत् प्राबल्येन प्रारोयेषां ते उदाराः यस्य स उबुकाकः। कोशिकसदृशलोचने, वृ०४ ३०नि०यू० ऊई गमनस्वभावेषु, प्रबलशक्तिषु च ।जी०५प्रतिकाराजा (उझुकाकरष्टान्तो दुटुशब्द) श्रा० म०प्र० दशा। प्रधाने, भ०५ श०१०। शा। उसु (यू) गपतनहय-नकपत्रलघुक-त्रि० उयूकपत्रवल्लघनि०। शोभने, सूत्र० १७०६ मा अत्यद्भुते, चं०२० पाहु व कौशिकपिछवल्लघीयसि । “युगपत्तमहुया पायगुरुया ते “तेणं उरालणं घिउलेणं पयत्तेण" उरालेन प्राशसारहित प्रायरिया" । सूत्र.२ श्रु०१०॥ तया प्रधानेन प्रधानं चाल्पमपि स्यादित्याह विपुलेन "भ. उसु (स) गी-नस्की-स्त्री० पोताकी प्रतिपक्कभूतायामूलाध २ २०१०॥"उग्गतवे दिसतवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे तपस्सी घोरबंभचेरवासी" उदारः प्रधानोऽथवा उरा काप्रधानायाम परिव्राजकमथिन्यां विद्यायाम, विशे० प्रा०म० लो भीष्मः उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणतः पार्श्वस्था उयफुटीअ-देशी विनिपाते, प्रशान्ते, दे० ना०॥ नामल्पसत्यानां भयानक इत्यर्थः । सू०प्र०१ पाहु० जं० ०। उबुहंत-देशी०काके, देना। चं० । रा०वि० । “उरलाहि बग्गुहि" उदाराभिः शब्दतोऽ उहलिय-देशी-तृप्तिरहिते, देना। यंतचा भ०१२०१ उ०। उदाराभिः सुन्दरध्वनिवर्णसंयुता उद्यमुक-देशी निकरे, वस्त्र, देना०॥ भिः । कल्प० । उदाराभिरुदारनादवर्णोच्चारादिमुक्ताभिः । मा०१०। जं। विस्तराले विशाले, च । स्था०५ ग०। नन्द-आर्ड-त्रि० अर्द-रक्-दीर्घश्चप्राकृते 'उदोद्वा"पार्डशब्दे शरीरभेदेन । उदारं प्रधानं प्राधान्यं च तीर्थकरगणधर- | प्रादेरात् उदोच्च वा जवतः । उल्लं । ओखं। पक्के अवं अई। प्रा० शरीरापेक्षया ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगु जन्ममिश्रिते,पि० अशुष्के, द०५०१ उ०। बारसनीलपबहेण उद्वेषं। ८।२।८ प्रा०। प्रचुरव्यअने, । "उद्धं वा जश् वा सुक्कं"। णहीनत्वात् । यद्वा उदारं सातिरेकयोजनसहनमानत्वात्तेषां द० अ०२०।वर्षणे, जीत । नि० चूछ। उत्त। शरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं वृहता चास्य वैक्रिय प्रतिभवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या इति व्युत्पत्तेः। कर्म अनु उक-नवडु-पुं० काष्ठमये “वारके, उबुंकोकटमो वारो" नरालचरिय-नुदारचरित-त्रि० सकप्राणिषु समभावतया उदा न चू० १५१०। राशये,"उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्"। पो०१४ विध.। ननंगच्च-आईगच्च-स्थविरादार्यरोहणात्कश्यपगोत्रानि गतस्य उद्देहगणस्य तृतीये गणे, । कल्पः । उरु-नुरु-त्रि० उ-नुलोपोन्हस्वश्च । विशाले, बृहति, वाच० उबंघण-उवहन-न० सबने, ज०२२ श०४ उ०। सहजात्या विस्तीर्णे,“भमरोए" भ्रमरोमावर्ता उरवो विस्तीर्णा यत्रस तथा शा०१० । बहुले, निरु० । उरोर्भावः पृथ्व्या० श्मनिच दिविक्षेपान्मनागधिकतरे, पादविक्केपे, प्रशा० ३६ पद । धाराउरिमन् तदभाष पक्ष त्व उरुत्व न० तल् उरुता, स्त्री० । अण, गमावरंगकादेक लाने, न० २५ २०७उ० । देहव्यादेश्रौरवम्० न० तन्द्राये, वाच०। रूप्लवन, स्था० १० ग० । कर्दमादीनामतिक्रमणे, नल्लामन्यति नरुपुश-देशी-अपूर्वे, धान्यमिश्रे च । दे० ना० । अज्ञानिनामय वा बालानां हास्याद्यावनयकतणां'नापयस्वकीउरुमिस-देशी-प्रेरितार्थे, दे० ना। यमाचारमतिकामयतीति उचलनः उत्त०१७ अाग। कतरि उरुसोसा-देशी-प्रेरितार्थे, दे० ना० । ख्युद बाादीनामुचितप्रतिपत्त्यर्थ करणतोऽधः कर्तरि, वत्स झिम्भकादीनामुखमनकर्तरि, " उबवणे य चमेय, पावसमणेत्ति बरोवित्थमा-उरोविस्तता-स्त्री० वक्षप्रदेश, " उरोवित्थडाए वुश्च" उत्त० ८ अ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लंधित्तए अभिधानराजेन्डः। उल्लोयतल नवंचित्तए-उसइपितम् - अव्य० बाहुजवादिना सकृवचनेन संलापो भाषणं मिथः । भ० ६ श० ३३ न० । श्री० । शा० वा पार गन्तुमित्यर्थे, प्रति । न ८ श० ३३ उ० (वीश्व- | स्था० । "कंदप्पो अणिहिया य उल्ला वा पाता । सूत्र०१ यणशब्दे देवस्य तिर्यगुल्लवनम्) श्रु० १ अ० शोकरोगादिना विकृतस्वरयुक्तवाक्ये, दृष्टवाक्ये, नवम-विरोचि-धा चुरा विरेचेरोजुरामोवपापहत्या ।।४। सूचने च, ततोऽस्त्यर्थे ठन् सूचके, त्रि० वाच० ॥ १२६इति विरचेरुद्वएमादेशः । उखएमा-विर विरेचयति । प्रा० उनि-उनि-पुं० पनके, प्रा०४ अ० । स्था। प्राचा। उझंग-उल्लएमक-पुं० मृदङ्गिकायाम, उल्लएमका मुगोलकाः। द्विहिय-नशिखित- उद् निख-क्त । घृऐ, 'कुंभ विहियगं:वृ० ४ नम्। नयमित-नबइयत्-त्रि सन्चन कुर्वति, झा० ३ ० ॥ बेहा' ज्ञा० १ अ० । औ० । रा० । नि । उसी-देशी०-तथेत्यर्थे, दे० ना० ॥ उद्भवण-नसम्बन-न.वृक्तशाखादावुद्धन्धने,तपेशारीरदामे,स.। नवगण-आईचगण-० अशुष्कगोमये, वृ० ( आऊंगण नल्डंटिअ-देशी संचूर्णिते, दे० ना०॥ दृष्टान्तो जिणकपियशब्दे निष्पत्तिद्वारे, स्पष्टीनविष्यति) उहयुक-तुड-धा. तोमने, तुमेस्तोम तुट्ट खुट्ट खुमो कवुमो उहण-नव ग-त्रि उव् वणति-अच्- उत्कटे, प्रकाशान्विते, क्खमोल्पुक्कणिझुक्क मुक्को चराःसाधा१६। शतितमेरुल्खुकादेशः। नतोन्नते, व्यक्ते, स्पष्ट, । वाच । तीक्ष्णे, । अष्ट० । अवेद्यसंवे. उल्लुक्क तुम तुमति । प्रा० ॥ त्रुटिते, दे० ना० ॥ द्यपदं यस्मादासु तथोल्वणम् । पाक्विच्छाया जनबर-प्रवृत्ताम्र उत्बुगा-उल्युका- स्त्री० स्वनामख्यातायां नद्याम्, तपनक्किते मतःपरम् । द्वा० । आव० । जनपदे च। उल्लुका नाम नदी तपसक्कितो जनपदो प्युल्लक। उसणग-उल्वणक-न० स्मानजवार्डशरीरस्य जूषणवस्त्रे, उपाण विशे० । आ० म० द्वि० । आ० क० । आ० चू० । स्था० । नवणनोग-नुस्वणनोग-पुं० क० स० । खिङ्गजनाचरिते वन जल्यातीर-नब्बुकातीर- न० उल्लुकानदीतीर वर्तिनि नगरे, पुष्पादिनिर्देहसत्कारे, पंचा० २विव०॥ यतः प्रस्थितस्योल्नुकानदीमुत्तरतो गङ्गाचार्यस्य युगपच्चीतोमणियाविहि-आर्यनयनिकाविधि- पुं० जनार्डशरीरस्य वेदनाद्वयमनुनवतो द्वैक्रियबुद्धिर्जाता तता द्वैक्रियनिहवा उत्प नाः । उत्त० ३० । स्था। प्रा०म० द्वि० । विशे० । जबनूषणविधी,“तयाणंतरं चणं माणे उल्लाणिया विहिपरिमाणं करे णणस्थ रागेणं गंधकासाईए अवसेसं सव्यं नलणियावि तएणं समणे जगवं महावीरे अप्पया कयावि रायगिहाहिं पाक्खामि" । उपा० १ ० ( आणंदशब्दे सूत्रम्) ओणयराओ गणसिमाओ चेइयाओ पमिणिक्खम पमिउनपमसामिया-आईपटसाटिका-स्त्री० आर्द्रप्रावरणनिव- | णिक्खमइत्ता बहिया जणश्यविहारं विहरइ तेणं कालेणं तेणं सनयोः "उल्लपडसाडिया पुक्खरिणी पच्चुत्तर"उपा०२०। समएणं नल्नुयातीरे णाम णयरे होत्था । वो तस्स एवं उद्यमि-आर्डलूमि-स्त्री अशुष्यन्त्यांभूमौ, "उल्लभूमीए असु उल्लयातीरस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्चिमे दिसीनाए क्खमाणीए" नि० चू० १ २० । एत्यणं एगबुएणामं चेइए होत्था । वो तस्स णं सहयट्ठीमहुय-पाध्यष्टिमधुक-न० श्राद्रं मधुररसवनस्पति तएणं समणे जगवं महावीरे अप्पया कयावि पुव्वाणपुचि विशेषे, ॥ उपा०१०। नवरय-देशी-कपर्दाभरणे, देना। चरमाणे जाव एगजंबुए समोसले जाव परिसापमिगया उहानिय-उचालत-त्रि० "नाविंसणणिज्जिहिति उल्ललियं| तेत्ति । ज०१६ श० ३ न. । गवाए" नि० चू०१०॥ उड्यरुह-देशी लघुडाले, देना। नवविय-उदापित-नमन्मथादिजल्पने, "अंगपच्चंगसंहाणं,चारु उब्युह-निर-सृ. धा. बहिर्गमने, धातवोऽर्थान्तरेऽपि ८1811 लवियपहियं। वंभचेररो थीणं,चक्खुगिझं विवज्जए"उत्त | शति निः सरतेरुल्लुहादेशः । उन्नुहइ, निःसरति । प्रा० । उझस-नाम-धा० उल्लासे, हर्षजनकव्यापारे “ उल्लसे रूसलो उल्लूढो-देशी० अङ्कुरिते, दे ना० ॥ सुम्नणिलस पुलाअंगुज्जोलारो श्राः ८।४।१ । उल्लसेरेते नवेव-देशी० हासे, दे० ना०॥ षडादेशा वा भवन्ति । ऊसलइ-ऊसुम्भइ पिल्लसह पुलाइ गुज्जोल्लइ । न्हस्वत्वेतु गुज्जुल्बइ उल्लसति, प्रा० । उद्देवण-देशी० घृते, दे० ना०॥ रहसिय-उल्लासित-त्रि० उद्-लम्-क-स्फुरिते, उद्धते, हृष्टे | उब्रहम-देशी बम्पटे, दे० ना० ॥ च । वाच. सुधुल्लसिते भीते पच्चक्खाणे पडिच्छगच्छथे- | नद्याश्य-उलोचित-न० कुड्यानामात्रस्य च सेटिकादिभिः रविद उहसिएतेण विताव मिसेण इत्थि पावामो हरिसितो | समष्टीकरणे, धवलन 'या नहोश्य महियं'ज्ञा०१०।। नि चू.१० । पुलकिताथै, दे० ना॥ जं। सानि। जी। क०। प्रज्ञा०॥ उद्वाय-उद्वात-पुं० प्रबलपादप्रहारे, ॥ तं०॥ उझोय-उदोक-पुं० उपरितननागे, जी०३ प्रति० । रा००। नद्वात्रिय-उद्घालित-त्रि० ताडिते, प्रा० म०प्र० । रा०। कल्प। चं० । मनागालोके च । जं० १ वक्व०। उशास्रमाण-नुदासयत-त्रि. ताडयति, “तिक्खुत्तो उल्लाले उसोच-पुं० ऊर्फ लोच्यते उद् बोच् कर्मणि घम् । निष्ठाया से माणे" । रा दकत्वात् न कुत्वम् । उपरितले च । भ०१४ २० ६ उ०। उझाव-उबाप-पुं० उद्-लए घन । काकुवर्णने यदाह । अनु- कल्प० । विताने, दे० ना० ॥ लापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः । काकावर्णनमुल्लापः, उमायतन-नोकतन-न उपरितनभागे, । का० १ अ०। Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उल्लोयमेताग अनिधानराजेन्द्रः। नुवयोग नयोयमेताग-उन्झोकमात्र-न० यावता भवतो मनाक् कालविभा- | उवएसग-उपदेशक-त्रि० उप-दिग्-ए-उपदेशकर्तरि, "हि गरूप प्रायोको भवति तावन्मात्रके, । जो०१ पाहु०॥ चाणं पुव्वसंजोग सिया किञ्चोवएसगा" सूत्र० १५० १०॥ उहायवमग-उधोकवर्णक-पुं० प्रासादस्योपरिभागवर्णके,॥ स उवए (दे) सण-उपदेशन-न० उपदिश्यत इत्युपदेशनम् । चैवम् "तस्स णं पासायसिगस्स इमेयारूवे नल्लोए परमत्ते उपदेशनक्रियाया व्याप्ये, उपलक्षणत्वादस्याः क्रियायाः व्याप्ये पनमनप्यभित्तिचित्ते जाव सम्वतवणिज्जमए अच्छे जाव पडि- कर्मणि, "विइया उवएसणे" उपदेशने कर्मणि द्वितीया यथा रूवे" ॥ ज०२२०८ न०॥ भण इमं श्लोकं कुरु वा तं ददाति तं य ति ग्रामम् । स्था०७०॥ उलोत्र-देशी-शत्रौ, देना। उपए (दे) सणा-नपदेशना-स्त्री० कथनायाम, "पंचविधपयनझोत-तमोमयत-त्रि० शरीरापवर्तनं कुर्वाणे, "उन्होछतं वा थोबडेमणया" विशे॥ साज्ज" | नि: चू०१७ न. । आचा० । उबएसमाझा-उपदेशमाला-स्त्री० स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे,ग०१ उव-नप-अव्य० वा क० सामीप्ये, “उवदसिया जगवया पम्म- 1 अधिकतथा कश्चित्परपक्षी प्रार्थनां करोति तदर्थमुपदेशमालावणा सबभावाणं " उपसामीप्येन यया श्रोतृणां काटति यथा गाथावलोकने दृषणं अगति नवेति प्रश्नः यदि स निष्कपटतया वस्थितवस्तुतत्वावबोधो नवति तथा स्फुटवचरित्यर्थः- प्रार्थनां करोति तदर्थमुपदेशमालागाथावलोकने सर्वथा दर्शिता श्रवणगोवरं नीता उपदिष्टा इत्यर्थः । प्रज्ञा० १ पद दूषणं नातं नास्ति इति । शेन०४ उल्ला० १३५ प्र०॥ उत्तम् । प्राचा०प्रव० सूत्र | आ० म०प्र०ाजासामस्त्ये,॥ उवएसरयएकोप-उपदेशरत्नकोश-पुं० उपदेशा हेयोपादेयोपेसासाहश्य, उपशब्द उपमेति वत् सादृश्येऽपि दृश्यते, उत्त०३ क्षणीयार्थेषु हानोपादानोपेक्षणीयभणनानि त एव रत्नानि अगसकृदये, अन्तरर्थे, आव०४ अ अधिकार्थेहीने, आसन्ने,प्र तेषां कोश एव भण्डारवदुपदेशरत्नकोशः। दर्शनशुद्धिनामके तिपन्ने, सतो गुणान्तराधाने, व्याप्ती, प्रजायाम, शक्ती, आरम्भे, ग्रन्थे, दर्श०॥ दाने, दोषाख्याने, प्राचार्यकरणे, अत्यये निदर्शन, वाच॥ नवय-नपचित-त्रि उप० चिक्त० । उन्नते, औ०॥ लेपनादिना | नयएसरयणागर-उपदेशरत्नाकर-पुं० स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, यत उपदेशरत्नाकरेसम्यक्त्वाणुव्रतादि श्राद्धधर्मरहितानमवष्णिी , निदिग्धे, अमरः।समाहिते, हेमासञ्चिते, चावाच०॥ स्कारगुणाजिनार्चनचन्दनाभिग्रहमृते । ध०२ अधिका नवइया-नपचिता-स्त्री० कुड्यादा संचरणशीले श्रीन्जियजीव कवएसरुइ-उपदेशरुचि-पुं० क. स० साधूपदेशात्तत्वश्रकाने, भेदे । वृ० एल० जी०॥ ग०१अधिगपरोपदेशप्रयुक्तेजीवाजीवादिंपदार्यविषयिकश्रमाने, उवनज्ज-नुपयुज्य-श्रव्य उपयोगं कृत्वायर्थे, दीहादिदारा उवठ सम्यकत्वभेदे चाध०२ अधि । नपदेशो गुर्वादिना वस्तुतत्वकथन ज जं जुज्जति जाएयव्वं । नि०० १०॥ तेन रुचिर्जिनप्रणीततत्वाभिलाषरूपा यस्य स उपदेशरुचिः। स्था.२ नवउत्त-उपयुक्त-त्रि० उप-युज-क्त.।दत्तावधाने, जीता। पंचा। गाया हि जिनोक्तानव जीवादीनर्यान् तीर्यकरतच्चियादिनोपदि सावधान, पंचा०५ विव० उद्यते, आतु। अप्रमत्ते, निचू०१०। टान् श्रत्तेतस्मिन् । दर्शनार्यभेदे, स्था०१०म० । उत्त। अपागवति, विपा०२अग"दंसणनाणोव उत्ता" औ०। झेयप्रत्या तस्य स्वरूपं यथा । ध्येयविषयकानप्रत्याख्यानपरिणामे, आ० म०द्वि० । विशे०। एए चेव उ जावे, उबइट्टे जो परेण न सद्दहइ । न्याय्य, रचिते, नुक्ते च । वाच॥ उनमत्येण जिणेण च, उवएसरुत्ति नायव्वा ॥६॥ उपएब-उपदेस-पुं० उप-दिश-घञ् । उपदेशनमुपदेशः कथने,। नं। भणने, प्ररूपणे, । विशे० प्रा०म०प्र० । प्रज्ञापनाया पतांश्चैवानन्तरोतांस्तु पूरणे जावान् जीवादीनुपदिष्टान् कथिम, वृ०१० सूत्रानुसारेण कथने, आव०४ अ० हेयोपादे. तान् परेणान्येन न श्रद्दधाति न तथेति प्रतिपद्यते । कीदृशा योपेक्षणीयार्थेषु हानोपादानोपेक्षणीयभणने, । दर्श० ।वर्तने, परेण गदयतीति उद्म घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठति उद्मस्थोऽ पंचा०२ विव०। अन्यतरक्रियायांप्रवर्तनेच्छाकरणे, अनु०॥ नुत्पन्नमस्तेन जयति रागादीनि जिनस्तेन वात्पन्नकेवलज्ञान च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः तथा चार्षम् । रूस नन तीर्थकदादिना ग्नस्यस्य प्रागुपन्यासस्तत्पूर्वकत्वाज़िनस्य श्रीवा परोमा वा,विसंवा परियत्तश्रो। भासियब्वाहिया भासा, प्राचुर्येण वा तथाविधोपदेष्टणां सईदृक्किमित्याह सपदंशरुचिसपक्खगुणकारिया ॥१॥स्या०। उवाच वाचकमुख्यः। न भवति रिति ज्ञातव्यः । प्रव० १७० द्वा०॥ धर्मः श्रोतुःसर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। युवतोऽनुग्रहबुध्या | नवएसनक-नपदेशलब्ध-त्रि अब्धाप्तोपदेश, “श्य उवएसंबका वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥ उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न | श्यविमाणं पत्ता" नपा० ३ ० । शान्तये । पयःपानं भुजङ्गानां, केवलं विषवर्द्धनमिति । पंचा०१२ | नवपमिय-उपदेशिन-त्रि-नुपदिष्टे 'सामाश्यणिज्जात्त,वाच्छनविव(धम्मकहा शब्दे विस्तरतः उपदेशप्रकारो वक्ष्यते उचिय | वासियगरुजणेण । आयरियपरंपरपणं प्रागयं आणुपुच्चीप विशे० पवित्ति शब्दे वर्जयदेनेकोपघातकारकम् इत्यायुक्तम् ) श्राद्धका नवओग-नपयोग-पुं० उपयोजनमुपयोगः नावे घन। उपयुज्यते दिकुलाख्याने, श्राव ५ अ०। उपदिश्यत इत्युपदेशः उपदेष्टुमिष्ट वस्तुविशेषे, ॥ भूयो भूय उपदेश इति भूयो भूयः पुनः पुनरुप वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः।पुन्नाम्नि करण दिश्यत इत्युपदेश उपदेष्टुमिष्टवस्तुविषयः कथंचिदनवगमे घन प्रत्ययः । उपयुज्यते वस्तु परिच्छेदं प्रति व्यापार्यत इत्युपयोसति कार्यः किं न क्रियते दृढसन्निपातरोगिणां पुनः पुनः गः कर्मणि घन । बाधरूप जीवस्य तत्वतृते व्यापारे, प्रज्ञा०२० क्रियातिक्तादिक्वाथपानोपचार इति । ध०१ अधि० । गुरूणां पद । कल्प० । प्रवाआव। दर्शा स्था० । उपयोगो झानं सं. शिक्षावाक्ये, "तहियाणंतु भासणं सम्भावे उचएसणं" उत्त० वेदनं प्रत्ययः इति पर्यायाः । विशे० । अनु० । २८ अ०। प्रत्युपेक्षणाप्रस्फोटनाक्रियायाम्, नि०चू०१०। उपयोगनेदाः। दर्शने, शास्त्रे, प्राचा०१ श्रु०३ अ०४ १० ॥ कतिविहेणं नंते उवओगे पप्पत्ते ? गोयमा ! दुबिहे नवओ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८८) नवभोग अभिधानराजेन्जः । जवयोग गे पसात्ते तंजहा सागारोवोगे य प्रणागारोवओगे य ।। वी। अथवा मनःपर्यायति पावान्तर तंत्र मनांसि पयति सर्वा. कति वेधः कतिप्रकारः सूत्रे पकारो मागधनाषामकणवशात ग्मना पारभिनति मनःपर्याय कर्मण्यण् । मनःपर्याय सतत णमिति वाक्याझंकृती भवन्त परमकस्याणयोगिन् उपयोग अप शाम मनःपर्यायज्ञानं यादवा मनसः पर्याया मनःपर्याया। योजनमुपयोगो नावे घ यद्वा उपयुज्यते वस्तुपरिच्छे प्रति पर्याया धर्मा बाह्यत्रस्त्यासोचनप्रकारा इत्यनान्तरं तेषु तेषां या व्यापार्यत जीवोऽनेनेत्युपयोगः पुन्नाम्नि करणे घञ् प्रत्ययो बोध संबन्धिकानं मनःपर्यायज्ञानमिदं चाहतृतीयद्वीपसमुशान्तवर्तिरूपो जीवस्य तत्वभूतो व्यापार प्राप्तः प्रतिपादितः भगवा. संक्रिमनोगतजव्यासम्बनम् । तया केवलमेक मत्यादिज्ञाननिरनाह गोयमेत्यादि । श्राकारप्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः "श्रा- पकत्वात "महम्मिच गरमस्थिए नाणे" इति वचनात् शुरूया गारोअविसेसो" इति वचनात् सह आकारेण धर्तत इति केवलं तदावरण मनकमविगमात । सकसंवा केवल प्रथमत साकारसचासावुपयोगश्च साकारोपयोगः। किमुक्तं भवति । पवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः । असाधारणं बा सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुआन प्रात्मा यदा सपर्या- केवमामनन्यतः सहशत्वात् । अनन्तं वा केवलं कयानन्तत्वात् । यमेव वस्तु परिच्छनत्ति तदा स उपयोगः साकार उच्यते केवलं च तत् ज्ञान तथा मतिभुतावधय एव यदा मिथ्यात्वकलुइति । स च कालतः छमस्थानामन्तर्मुहर्त कालं केवलिनामेक पिता जवन्ति तदा यथाक्रमं मत्यज्ञानभूताज्ञानविजनकानज्यपदेसामायिकः । तथा न विद्यते यथोक्तरूप प्राकारो यत्र सोड शॉलनन्ते । नक्तंच । प्राचं त्रयमज्ञानमपि जयति मिथ्यात्वसंयुनाकारः स चासावुपयोगश्चानाकारोपयोगः । यतु वस्तुनः क्तामति । विनङ्गति विपरीतो भङ्गः परिचित्तिप्रकारो यस्य सामान्यरूपतया परिच्छेदः सोऽनाकारोपयोगः स्कन्धावारो- तद्विभङ्ग तश्च तत ज्ञानं च विभज्ञानं सर्वत्रापि च साकारोपपयोगवदित्यर्थः । असावपि छद्मस्थानामान्तौहुर्तिका परम- योगशब्देन विशेषगसमासः॥ नाकारोपयोगकालात्साकारोपयोगकालः संख्येयगुणः प्रति ॥अनाकारोपयोगभेदाननिधिसुराह॥ पत्तव्यः पर्यायपरिच्छेदकतया चिरकाललगनात् छन्मस्थानां अणागारोवोगेणं जंते ! कविहे पप्पत्ते ? गोयगा! तथास्वाभाव्यात् । केवलिनां त्वनाकारोपयोग एकसामायिकः चशब्दो स्वगतानेकनेदसूचकौ।। चउबिहे पापत्ते,तंजहा चकवुद्धसणणागारोवओगे, अचतत्र साकारोपयोगभेदानभिधित्सुरिदमाह ॥ खुदंसपअणागारोवोगे, ओहिदमणप्रणागारोवओगे सागारोवागणं नंते ! कतिविहे पामते ? गोयमा! - केवनदमणअणागारोवोगे। दृबिहे पप्पत्ते, तंजहा आनिनिवाहियनाणसागरोवोगे तत्र चषा चकुरिन्छियेण दर्शनं रूपसामान्यग्रहणं चचक्षुर्दमुयनाणसागरोवोगे, ओहिनाणमणपज्जवसागरोवोगे र्शनं तश्च तत् अनाकारोपयोगः । प्रचक्षुषा चक्षुर्वेजशेषेन्डियमनो केवलनाणसागारोवोगे या मतिअन्नाणसागारोव अओगे भिर्दशनं स्वस्वविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् । ततोऽनाकामुय प्रमाणसागारोवोगे विनंगनाणसागारोवोगे य॥ रोपयोगशब्देन विशेषणसमासः । एवमुत्तरत्रापि अवधिरेव रूप. दर्शनं सामान्यग्रहणमवधिदर्शनं केवलमिव सकलजगद्भाविसअर्थाभिमुखो नियतः प्रतिस्वरूपको बोधो बोधविशेषोऽभि भस्तवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपं दर्शनं केवदर्शनम् । अथ मन: निबोधः । अभिनिबोध एव श्राभिनियोधिकम्।अभिनियोधशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् विनेयादिभ्य इत्यनेन स्वार्थे - पयार्यदर्शनमपि कस्मान्न नवति येन पञ्चमोऽनाकारोपयोगी म कणू प्रत्ययः । अनिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवच- भवतीति चेदुच्यते मनःपर्यायविषयं हि ज्ञानं मनसा पर्यानानीति वचनात्तत्र नपुंसकता यथा विनय एव वैनयिकमित्त्यत्र। यानेव विविक्तान् गृहन् कचिपजायते पर्यायाश्च विशेषा अथवा अभिनिबुध्यते अस्मादस्मिन् बेति अभिनियोधस्तदाच. विशेषासम्बनं च ज्ञानं ज्ञानमेव न दर्शनमिति मनःपर्यायदरणकर्मक्षयोपशमस्तेन निवृत्तमाभिनिबोधिकं तव तज्ज्ञानं चा. शनाभावस्तदनावाच्च पञ्चमानाकारोपयोगासम्नध शत (पवं भिनियोधिज्ञानम्। शन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यप्रदेशावस्थित वस्तु. जीवाणमित्यादि ) एवं निर्यिशेषेणोपयोगवत् जीवानामविषयः स्फुटप्रतिमानो बोधविशेष इत्यर्थः । सचासौ साकारोप. नुपयोगो किविधः प्राप्तो जणितव्यस्तत्रापि साकारोपयोगी योगश्च आनिनियोधिकझानसाकारोपयोगः । एवं सर्वश्रापि स- अष्टयिधोऽनाकारोपयोगश्चतुर्विधः । एतदुक्तं नवति । यथा प्राक मासः कर्तव्यः । तथा श्रवणं तं वाच्यत्वाचकभावपुरस्सरीकर- जीवपदरहितमुपयोगसूत्रं सामान्यत उक्तं तया जीवपदसहितम शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहण हेतुरुपत्रब्धिविशेष एवमाकारं वस्तु घट- विनणितन्यं तद्यथा "जीवाणं नंत! कतिविहे अयोग पामते? हादवाच्यं जनधारणाद्यर्यक्रियासमयमित्यादिरूपतया प्रधानी- गांयमा ! दुविहे उबनोगे पसत्ते तंजहा सागारावोगे य अणाकृतः समानपरिणामशब्दार्थपर्यालाचनानुसारी इन्छियमनो- गारोबओगे य जीवाणं भंते ! कतिविहे नवोगे पम्मत्त गोयमा! निमित्तागमविशेष इत्ययः । श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतझानं ततो सुविहे नवओगे अहविहे पत्ते तंजहा इत्यादि"तदेवं सामन्यभूयः साकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः तथाऽवशब्दोऽधः तो जीवानामुपयोगश्चिन्तितः । प्रज्ञा २० पद । न० । प्रवर ॥ हाब्दार्थः । अव अधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्चियतेऽनेनेत्यय उपयोगः साकारानाकारद्वयात्मकः प्रमाणमितरथाअप्रमाणम् ॥ धिः । यद्वा अवधिः मर्यादारूपियव प्रव्येषु परिचंद कतया प्र उपयोगः परस्परसव्यपेकसामान्यविशेषग्रहणप्रवृत्तदर्शज्ञानस्व. तिरुपा तपतितं ज्ञानमण्यवधिः । अवधिश्चासौ झानं चा रूपध्यात्मकः प्रमाणं दर्दानाझनिकान्तरूपस्वप्रमाणमिति दायिपधिज्ञानम् । तथा परि सवेतोजावे अवनं अवः तुदादिन्याऽन् तुं प्रकरणमारभमाणो व्यार्थिकपर्यायार्थिभिमतं प्रत्येकदर्शनकबिदित्यधिकारे अकिता चेत्यकारप्रत्ययः अवनं गमनमिति प. ज्ञानस्वरूपप्रतिपादकगाथामाहाचार्यः । यायः । परि अवः पर्यवः मनसि मनसो वा पर्यबो मनःपर्यवः सर्वतस्त परिच्छेद इत्यर्थः । पागन्तरं पर्यय इति तत्र पर्ययणं जं सामम्मग्गहणं, दमणमयं विसेमियं गाणं । पर्ययः मनमि मनसो वा पर्ययः मनःपर्ययः । सर्वतस्तत्परि- दाएहं वि एयाण एसो, पामेकं अत्थपज्जाओ ।। कोद प्रत्यर्थः । स चासी ज्ञानं मनापर्ययज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं | प्रव्यास्तिकस्य सामान्यमेव वस्तु तदव गृह्यते अनेनेति प्रदणं Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८५) नवभोग अभिधानराजेन्डः । नवमोग दर्शनमेतपुच्यते पर्यायास्तिकस्य तु विशेष एव वस्तु स पव तथा हि चक्षुरचकुरवधिज्ञानानि चारचक्रवधिदर्शनेच्यः पृथक गृह्यते येन तानमधीयते प्रहणं विशेषितमिति विशेषग्रहण- कामानि ग्यस्थोपयोगात्मकहानत्वात् श्रुतमनःपर्यायज्ञानवत मित्यभिप्राययोरप्यनयोर्नययोरेकं प्रत्येकमर्थपर्यायोऽर्थविषय | वाक्यार्थविशेषविषयं श्रुतकानं मनोजच्यविशेषासम्बनं च मपर्येत्यवगच्चति यः सोऽर्थपर्याय ईग्नूतार्थप्राहकत्वमित्यर्थः । नःपर्यायकानमेतद्ष्यमप्यदर्शनस्वभावं मत्यवधिज्ञानदर्शनोपउपयोगस्य चानाकारसाकास्ते सामान्यविशेषग्राहके पते चत्वा योगात् निन्नकाझं सिकं केवलज्ञान पुनः केवमाण्यो बोधो रस्तत्राभिधीयतेनविद्यमान आकारो नेदो ग्राह्यस्यास्येत्यनाकारो- दर्शनमिति चाज्ञानमिति वाऽन्यत्केवळ तत्समानका - दर्शनमुच्यते सहाकारप्रायजेदैर्वर्त्तते यहाहकं तत्साकारं ज्ञान- यमपि युगपदेवेति भावः ।। सम्म०। (अत्र बहु धक्तव्यं तथ मित्युच्यते । अनाकारसाकारोपयोगी तूपसजनीकृततदितरा- ग्रन्थविस्तरजयान्नोच्यते किंतु विशेषजिकासुना सम्मतितर्कत कारी स्वविनासकत्वेन प्रवर्तमानी प्रमाणं नतु निरस्तेतराकारी एव समवलोकनीयम् ) सिकः साकारोपयोग एव सिध्यतयानूतवस्तुविषयानायेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेरित. तीति केवमस्य साकारत्वात् योगपद्यम् । कथं पुनरसौ सारांशविकल्पैकांशरूपोपयोगसत्तानुपपत्तेश्च तेनैकान्तवाद्यज्युपग. कारोपयोग एव सिध्यतीत्याह । मो बोधमात्रं प्रमाणं साकारो बोधोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वविशि सव्वाश्रो लघीओ, जं सागारोक्नोगतो जाओ। टः स एव ज्ञातृम्यापारोऽर्थरष्टताण्यफलानुमेयोऽसंवेदनाख्यफसानुमेयो वाऽनधिगतार्थो विगत इन्छियादिसंपाद्यो व्यभिचारा तेणेह सिचमकी, उप्पज्जइ तवनत्तस्स ।। दिविशेषणविशिष्मायापाब्धिजनिका सामग्री तदेकदेशो वा प्रतीताथैव । एतच साकारोपयोगवर्तमानः सिध्यतीति विशेबोधरूपो वा साधकत्वात्प्रमाणमित्यादिरूपोऽयुक्तः। निराकारस्य शेणं प्रज्ञापनायां विहितम् । अनेन चात्र केवल साकारोपयोगे ये केवनबोधरूपस्य ज्ञानस्यैव प्रामाएयमिति विज्ञानवादिनोऽन्ये विप्रतिपद्यन्ते साकारानाकारोपयोगयोः सिकस्य युगपदज्युपच स्वस्वस्थान स्वस्वमतमुद्भाव्य परास्ता नविप्यन्ति । सम्मा गमात्ते निरस्ताः भत पवाह । (तदेतत्संमतितर्कत एव विझेयमिहापि ययावसरंकिञ्चिद्वक्ष्ये) एवं च गम्म ध्रुवं, तरतमजोगावोगया तस्स | सामान्यविशेषात्मके च प्रमाणप्रमेयरूपे वस्तुतत्वे व्यव जुगवावओगनावे, साकारविसेसणमुहत्तं ।। स्थिते व्यास्तिकस्यालोचनमा विशेषाकारत्यागिदर्शनं य एवं च साकारोपयोगविशेषणादम्यते किमत माह। ध्रुवं नित्तत्सत्यमितरस्य तु विशेषाकारसामान्याकाररहितं यज्ञानं श्चितं तरतमयोगोपयोगता सिकस्य अन्यस्मिन्काले तस्य सातदिव पारमार्थिकमभिप्रेतं प्रत्येकमेषोऽर्थपर्याय इति वचनात् कारोपयोगोऽन्यत्र चानाकारोपयोग इति । अन्यथा बाधामाह । प्रमाणं तु अव्यपर्यायौ दर्शनशानस्वरूपावन्योऽन्यायनिर्भागवतिनाविति दर्शयन्नाह । युगपचुपयोगनावे साकारविशेषणं प्रज्ञापनोक्तमयुक्तमेव स्या दिति । अत्र परमतमाशक्यपरिहरनाह। दवडिओ वि होऊण, दंसणे पज्जवडिओ हो । अहव मई सव्वं विय, सागारं से तो अदोसो त्ति । नवसमिआई जावं, पमुच्च णाणे न विवरीय ॥ नाणंति दसणंति य, न विसेसो तं च नो जम्हा ॥ अस्यास्तात्पर्यार्थः दर्शनेऽपि विशेषांशो न निवृत्तो नापि हाने सामान्यांश इति च्यास्तिकोऽपीति आत्मा व्यार्थरूपः स सागारमणागारं, मक्खणमेयंति नणियमिह चव । जूत्वा दर्शने सामान्यात्मके स ह्यात्मा चेतनायोकमात्रस्व- तह नाणदंसणाई, समए बीसुं पसिचाई ।। नाबो नूत्वा तदैव पर्यायास्तिको विशेषकरोऽपि भवति अथ मतिः परस्य सर्वमेव (से) तस्य सिम्स्य ज्ञानं दर्शनं वा यदा हि विशेषरूपतयाऽऽत्मा संपद्यते तदा सामान्यस्वनावं साकारं ततः साकारोपयोगविशेषणे प्रदोष एव स्वरूपविशेपरित्यजन्नेव विशेषाकारश्च विशेषाधगमस्थन्नावं ज्ञानं दर्शने षणत्वात्तस्य । यदपि केवनज्ञानं केवनदर्शनं च तस्योच्यते तसामान्यपर्याझोचने प्रवृत्तोऽप्युपात्तहानाकारो न हि विशि- स्यापि तयोनिर्विशेष इत्यभिप्रायवता प्रोक्तं स्तुतिकारेण एवं ट्रेन रूपेण विना सामान्यं संभवति एतदेवाह औपशमि- कल्पितभेदमप्रतिहतं सर्वज्ञतालानं सर्वेषां तमसां निहन्तृ. काविजावं प्रतीत्येति औपशमिकक्कायिककायोपशमिकादीन् ना- जगतामालोकनं शाश्वतं नित्यं पश्यति बुभ्यते च युगपन्नानायिवान् अपेक्ष्य विशेषरूपत्वेन ज्ञानस्वभावात् धैपरीत्यं सा- धानि प्रभास्थित्युत्पत्तिधिनाशवन्ति विमसन्याणि तत्केवसं तच्च मान्यरुपता प्रतिपद्यते विशेषरूपः सन् स एव सामान्यरू- न युक्तं यस्मात्साकारमनाकारं च लक्षणं सिमानामितीहैपोऽपि भवति नास्ति सामान्य विशेषविकलं वस्तुत्वात् व पुरतो प्रणितं वर्तते यद्वक्ष्यति “असरीरा जीवघणा, उबउत्ता शिवकादिविकामृत्ववत् विशेषा वा सामान्यविकसान सन्ति दंसणेय नाणे य । सागारमणागारं, सक्षणमेयं त सिकाणं " असामान्यत्वात् मृत्यरहितशिवकादिवदत्र च सामान्यविशेषा- इति। तदनयोःसाकारनाकारलकणयोनंदनोक्तत्यात्कथमुन्यतेसत्मके प्रमेयवस्तुनि तदग्राहि प्रमाणमपि दर्शनज्ञानरूपं तथाऽपि मेव तस्य साकारमिति भावः। तथा समये सिलान्ते विश्वकपानमत्थोपयोगस्वानाव्यात् कदाचिज्ज्ञानापसर्जनो दर्शनोप- र्थक्येन ज्ञानदर्शने सिकानां तेषु तेषु स्थानेषु प्रसिके भतः कथं योगः कदाचितु दर्शनोपसर्जनो ज्ञानोपयोग इति क्रमेण द- तयोरविशेषः उच्यत इति हृदयम् । शनकानोपयोगी । कायिके तु ज्ञानदर्शने युगपतिदीपमिति द. तदविशेषे हि बहवो दोषाः के इत्याह । शयन्नाह सूरिः। पत्तेयावरणत्तं, हिरा बारमविहोवोगो य । मणपजवणाणस्स यं, दरिसणस्स य विसेसो य । नाणं पंचवियप्पं, चनविहं दसणं कत्तो ।। केवलणाणं पुण दं-सणंति नाणंति य समाएं ।। इतरथा केवलज्ञानदर्शनयोरेकत्वे प्रत्येकावरणत्यं केवप्रज्ञानामनःपर्यायझानं मनःपर्यवसानं यस्या विश्लेषस्य स त- वरणकेवनदर्शनावरणं चेति प्रत्येकमावरणं तयोः कुसो घटते थोक्तः झनस्य च दर्शनस्य च विश्लेषः पृथग्नावः म. नाकस्य हे आवरणे युज्यते तप्तःप्रत्येकावरणनिर्देशात्केव बहानस्यादिषु च कानदर्शनोपयोगी क्रमणे भवत इति यावत् ।। दर्शनयोर्जेद एवेति भावः। तथा साकारोऽधा अनाकारस्तु च. Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९०) उवयोग अनिधानराजेन्द्रः । नवयोग तुत्येवं यो हादशविधोपयोगः श्रुतेऽनिहितो यश्च झानं पञ्चविधं | दंसणे यत्ति ) दर्शने शाने च युगपदुपयुक्ता इह किल भणिता दर्शनं चतुर्विधं प्रोक्तं तदेतत्सर्वमपि केवलज्ञानदर्शनयोरेकत्वे इति परस्याभिप्रायः । अयं च मिथ्याभिमानोपहतसद्बोधकुत उपपद्यते न कुनश्चिदिति । अपिच त्वात्कदभिप्राय एवेति दर्शयति ( समुदायवयणमेयत्ति ) जणियमिहेव य केवल-नाणुवउत्ता मुणंत सव्वंति । समुदायविषयमेवेदं नतु युगपदुपयोगप्रतिपादनपरमित्यर्थः। अनन्तास्तहि सिद्धास्तत्समुदायेऽत्र केऽपि झाने उपयुक्ताः केपासंति सव्वोत्तय, केवल दिट्ठीहिणंताहि॥ चिद्दर्शने इत्ययमर्थः। प्रत्येकविवक्षायां पुनः "पत्तेत्रावरणत्ता" इहैव पुरतो भणितं केवलज्ञानोपयुक्ताः सिद्धा सर्वे (मुणं मित्याचभिहितयुक्तेर्युगपभयोपयोगनिषेध एव मन्तव्य इति ति) जानन्ति तथा पश्यन्ति च सर्वतः केवलदर्शनदृष्टिभि पुनरपि प्रेर्यपरिहारौ प्राहरनन्ताभिर्यद्वक्ष्यति "केवलनाणुवउत्ता,जाणती सव्वभावगु: णभावे । पासंति सब्बो खलु, केवलदिट्ठीहिणताहि मिति" जम्हाअपज्जताई, केवल तेणोजोवओगो त्ति । तस्मान्तयोरेकत्वमितिभावः । नम नायं नियमो, संतं तेणोवोगोत्ति ॥ पुनरपि परः प्राह ।। साद्यपर्यवसितत्वाद्यस्मादपर्यन्ते अविनाशिनी सदावस्थिआह परोजावम्मि, नवनुत्ता सणे य नाणे य । तकेवलदर्शने तेन तस्माद्युगपदुपयोग इष्यते अस्माभिः । इदं हि यद्वोधस्वभावसदावस्थितं च तस्योपयोगेनापि सदा भविजणियंतो जुगवंतो, ना जणियमिणं पितं सुणसु ॥ तब्यमेव अन्यथोपलशकलकल्पत्वेन बोधस्वभावत्वानुपपत्तेः। आह परो नन्वपृथग्भावेऽपि केवलज्ञानदर्शनयोर्न दोषा यतः सदोपयोगे च द्वयोर्युगपटुपयोगः सिद्ध एवेति परस्याभि"सरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य नाणे य" इत्यत्र दर्श- प्रायः । प्राचार्य प्राह । भण्यते अत्रोत्तरम् । नायं नियमः ने च शाने च युगपदुपयुक्ता इति भणितं ततो युगपदेव के- सर्वदा यल्लब्धिमाश्रित्य स विद्यमानकेवलशानं केवलदर्शनं च वलशानदर्शनोपयोगः सिद्धः । सूरिराह । ननु यदि भणिते- तेन तयोरुपयोगेनापि सर्वदा भवितव्यमिति कुतः पुनर्नार्य नार्थसिविस्तव तहीदमपि भाणतं वर्तत्ते तच्घृणु किपुनस्त- नियम इत्याहदित्याह ॥ लिइकालं जह से दं-सणनाणाणमणुवोगे वि । नाणम्मि देसणम्मि य, वत्तेगयरम्मि नवउत्ता। दिहमवत्थाणं तह, न होइ कि केवलाणं पि॥ सम्बस्स केवलिस्स, जुगवदो नत्थि नवोगा । यथा केवलज्ञानदर्शनात्यां शेषाणि यानि दर्शनझानानि तेषां एतदिहैव व्यक्तं पुरस्ताद्वक्ष्यति ततोऽस्यां गाथायां भद्रबा निज चित्तिकालं यावदनुपयोगानावेऽपि सत्वस्यावस्थान हुस्वामिजिय॑क्नेऽपि युगपदुपयोगे निषिद्धे किमिति तद्योगप दृष्टुं तया केवलज्ञानदर्शनयोरपि निजस्थितिकानं यावदनुपयोगेधाभिमानोऽद्यापि न त्यज्यत इति भावः। अत्र परस्य व्याख्या- पि सर्वस्यावस्थानं किमिति न जवति नवति चेत्तर्हि सतो ज्ञानन्तरकल्पनामाशय परिहरन्नाह ॥ स्य दर्शनस्योपयोगेन नवितव्यमिति अनेकान्तिकमेव । श्यमत्र अह सबस्सेव न के-चलिस्प दो किं तु कस्सइ हवेज । भावना । शेषशानदर्शनानां प्रज्ञापनायां कायस्थिती दीर्घस्थिति काल उक्तस्तद्यथा । “मश्नाणीणं भंते ! मश्नाणित्ति कालो सो य जिणो सिको वा, तं च न सिचाहिगाराउ ।। केचिरं हो? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुरतं उकसेणं गवहिंसाअथैवं व्याख्यायते परेण सर्वस्यैव केवलिनो न युगपद्वा- गारोवमाई सारेगा एवं सुयनाणीवि प्रोदिनाणीवि एवं चेव बुपयोगी किंतु कस्यापि द्वौ भवेतां कस्यचिदेकः स च केव- नवरं जानेणं एकं समयं मणपज्जवनाणी जहन्नेणं रकं समयं । लिजिनसिद्धो वा भवेद्भवस्थकेवली वा भवेदित्यर्थः । ततश्च उक्कोसेणं देसूर्ण पुब्यकोमि" यदा विजङ्गज्ञानसम्यक्त्वनामे सभवस्थकेवलिनोऽद्यापि सकर्मकत्वादेकदा एक एवोपयो- मयमेकमवधिज्ञानं नृत्या प्रतिपतति तदा अवधिझानस्य जघन्यगः। सिद्ध केवलिनस्तु सर्वथा कर्ममलकलङ्कविप्रमुक्तत्वात तः समयस्थितिकालो मन्तव्यः । मनःपर्यायज्ञानस्य तूत्पत्त्यनन्तरं युगपद् द्वावुपयोगी भवत इति परस्याकूतं तच्च न युक्तमिह तद्वतो मरणादिति " चक्बुदसणी जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेसिद्धाधिकारादिदमुक्तं भवति “सव्वस्स केवलिस्स" इत्या- णं सागरोवमसहस्सं सारेगं अचक्खुदंसणी प्रणाप वा अपदिना सिद्धाधिकारे सिद्धस्यैव भज्याहुस्वामिभिर्युगपवावु ज्जवसिए अणाइए वा पन्जवसिए ओहिदसणी जहा ओहिनाणि पयोगौ निषिद्धावतो न किंचित्त्वत्कृता व्याख्यान्तरकल्पनेह त्ति” तदेवमेतेषां निजनिजस्थितिकालं यावत्सत्वमुक्तम् । उपभवतीति भावः । सूरि-समाधानान्तरमाह योगस्वान्तमौहूर्तिकत्वान्नैतावन्तं कालं भवत्यतः मतोऽवश्यमुअह पुवकेणेच, सिचमेकोत्ति किं च विइएणं । पयोगेन नवितव्यमिति कथं नानकान्तिकम् । अथ सब्धित एचएत्तो वि य पच्छे, निगमइ सबपमिसेहो ॥ सान्येतावन्तं कालं भवन्ति नतु बोधात्मनेति चेत्तदिदं हन्त केवअथवा " नाणम्मि दंसम्मि य वत्तेगयरम्मि उवउत्ता" | लझानदर्शनयोरपि समानं तयोरपि लब्धित एवापर्यन्तत्वादुपयांइत्यनेन पूर्वार्द्धनैवैकदा एक उपयोगः सिद्धस्ततः किं द्विती गतस्तु सामानिकत्वादिति पुनरप्यतिस्वाग्रहप्रस्तत्वात्परः प्राहयेन पश्चाद्धेनोक्तेन उक्तं चेदत (एत्तोवियत्त) इत एव "स- ना सनिधणता समयं, मिच्छावरणक्खनत्ति व जिणस्स। व्वस्स केवलिस्स" इत्यादि पश्चाोपन्यासात्सर्वप्रतिषेधो इयरेयरावरण्या, अहवा निकारणावरणं ॥ गम्यते । यथा सर्वस्य केवलिनोऽपि युगपद् द्वावुपयोगी न स्तः किंपृच्छा केवलिन इति ॥ पुनः परवचनमाशङ्क्य परिहारमाह एगयराणुवउत्ते, तदसव्वप्मुद रिसत्तणमेव । तो कहमिहेव भणिय, उवउत्ता दसणे य नाणे य । - ना उनमत्यस्स वि, समाणमेगंतरे सव्वं ॥ समुदायविसयमेयं, उजयनिसहो यपत्तेयं ।।। ननु यदि एकस्मिन्समये केवबज्ञानोपयोगाऽन्यस्मिस्तु समये यदिन युगपदपयोग इष्यते तत प्राचार्यः कथमिव भणि- केवनदर्शनोपयोग इष्यते तवं क्रमोपयोगित्व कवनोपर ध्यति तथापीहव भणिष्यतीत्यर्थः । किं तदित्याह ( उवउत्ता। केवलज्ञानदर्शनयोः सनिधनत्वं प्रतिसमय सान्तत्वं प्रामोति । Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९१) उवयोग अभिधानराजेन्द्रः। उवभोग तथाच सति तयोः सम्योक्रमपर्यवसितत्वं हीयते । अथवा यः | षष्टिसागरोपमादिको दीर्घस्थितिकालः समये प्रोक्तस्तस्य विसंकएतानि कृत्वा ज्ञानावरेणादिक्कयो विहितः स मिथ्या निरर्थको | वादो विघटनं प्राप्नोति यश्च चतानी केवमदर्शनवर्जदर्शनत्रयजिनस्य भगवतः प्राप्नोति समयात्समयादव केवाज्ञानदर्शनोप- युक्तत्वात्रिदर्शनीच उन्मस्थो गौतमादिःप्रसिहासोऽपि त्वदनियोगयोः पुनरप्यन्नावानापनीतावरणी द्वा प्रदीपो क्रमेण प्रकाशं प्रायेणैतद्रपः सर्वदा न भवति एकदा एकोपयोगस्यैव संजवाद प्रकाशयतः। अथवा केवलज्ञानदर्शनयोरितरतरावरणता नेष्यते नुपयोगवतश्चासत्वादिति।अथ सिझान्तावएम्नेन पुनरपि पर माह तीन्यतरोपयोगकाले अन्यतरस्य निष्कारणमेवावरणं स्यात्तथा च सति सत्वमसत्वं चेत्यादि प्रसज्यत इति। तथा एकतरस्मिन् आह जणिय नणु सुए, केवमिणो केवलोवोगेण । झाने दर्शने बाऽनुपयुक्तस्तस्मिन्नेकतरानुपयुक्ते केवलिनीप्यमाणे पढमत्ति तेण गम्मत्ति, सोवोगोभयं तेसि ॥ झानानुपयोगकालेतस्य केवनिनोऽसर्वज्ञत्वं प्रामोति दर्शनानुपयो- आह ननु भणितं भगवत्यामष्टादशशतप्रथमोद्देशकमवणे श्रुते गकाले त्वसर्वदर्शित्वं प्रसजति अनुस्वारश्चेह सुप्तो दृष्यः। तथा- "केवलीणं नंत केवलोपोगणं किं पढमा अपढमा ? गोयमा पढमा सर्वज्ञत्वमसर्वदर्शित्वं च नेष्टं जैनानां सर्वदेव केवलिनि सर्वत्व- नोअपढमत्ति" श्हच यो येन भावेन पूर्व नासीदिदानी च जातः सर्वदर्शित्वान्युपगमादिति । सूरिराह । नएयते अत्रोत्तरम् । ननु स तेन नावेन प्रथम उच्यते ततश्च केवझिनः केवलोपयोगेन प्र मस्थस्यापि दर्शनशानयोरेकतरे उपयोगे सर्वमिदं दोषजालं थमः अयमर्थः केवबयोः केवत्रज्ञानकेवनदर्शनयोरुपयोगः केवसमानमेव अत्रापि हि शक्यते एवं वक्तुं ज्ञानानुपयोगे तस्याशा- लोपयोगस्तेन कवशिनःप्रथमा नत्वप्रथमास्तस्याप्राप्तपूर्वत्वात्प्रानित्वं दर्शनानुपयोगे पुनरदर्शनत्वम् तथा मिथ्यावरणक्यः इत- तस्य च पुनसानावात्तेन तस्माद्गम्यते ज्ञायते सदैवोपयोगोभरेतरावरणता वा निष्कारणावरणत्वं चेत्यादि पुमरप्यनिर्विहास्य यं तेषां प्रवर्तते । यदि पुनः क्रमेणोपयोगः स्यासंदा नृस्वा परस्याशङ्कामाह विनाशात्पुनः पुनरपि चोत्पादात्केवोपयोगेनाप्रथमत्वमपि तेषां सव्वक्खीणावरणो, अह मन्नसि केवल्झीन उउमत्थो। भवेदिति । सूरिराहजभोवोगविग्ध-उनमत्थस्स व जिएस्स ॥ नवोगग्गहणान, यह केवलनाणदंसणं । श्रथैवं मन्यसे सर्वक्कीणावरणः क्षपितनिःशेषावरणः केवली न जइ तदणत्यंतरया, हवेज सुत्तम्मि को दोसो।। तु ग्मस्थस्ततो युगपज्ज्ञानदर्शनोनयोपयोगविघ्नं प्रस्थस्यैव यदि केवलोवोगणंतीत्यत्रोपयोगग्रहणात्केवलयोरुपयोगः जबति सावरणत्वान्न तु जिनस्य केवद्धिनः सर्वथा निराधरण केवलोपयोग इति समासाक्षिप्तयोः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोत्वादिति । ग्रहणमिष्यते तर्हि तदनर्थान्तरता तयोः केवलज्ञानकेवलददसक्खए अजुत्तं, जुगवं कसिणोजोवोगित्तं । शेनयोरेकस्माऽपयोगाव्यतिरिक्तत्वात्परस्परमनन्तरता एतावंत मठो, पुण पडिसिज्मए किं से ।। झानं च दर्शनं चैकमेव वस्त्वेवंरूपं भवेदिति परः प्राह (सुइह यद्यपि उनस्थः कीणनिःशेषावरणो न जवति तथापि देश त्तम्मि को दोसोत्ति) भवतु तयोरनर्थान्तरता को ह्येवं सति केवलोवोगेणं सूत्रे दोषः स्यान्न कश्चिदस्माकं सिद्धिसाधनातस्तस्याप्यावरणकयो बच्यते ततस्तस्यावरणकये सति युग-1 दिति । श्राचार्यः प्राह । यदि दोषपरिक्षाने तब कुतूहलं तर्हि पत्कृत्स्नोभयोपगित्वं युगपत्सर्ववस्तुविषयज्ञानदर्शनोभयोपयोगभवनमयुक्तमित्येतावन्मात्रं मन्यामहे वयं वस्तुदेशतो सर्व शृणु किमित्याहवस्तुविषयकानदर्शनोजयोपयोगः स हन्त (से) तस्य नास्थस्य तग्गहणे किमिह फलं, नण तदणत्यंतरोवएसत्थं । किं प्रतिषिध्यते नतु युक्तस्तत्प्रतिषेध इत्यर्थः । नचास्य युगपडु तह वत्युविसेसणत्यं, एयमयसमयम्मि सुत्ताणि ॥ जयोपयोगो नवति ततोऽसौ केवभिनोऽपि न युक्तः इतीह ना तद्ग्रहणे सति किं फलं सिध्यति अनन्तरत्वे सति वार्थः ॥ पुनराप पराशङ्कां परिहारं चाह किमर्थमुभयग्रहणं पुनरुक्तदोषप्रसङ्गादितिभावः । पर माह अह जम्मि नोवनत्तो, तं नत्थि तओन दसणाइ तिगे। ननु तयोः केवलशानदर्शनयाः परस्परमनन्तरतोपदेशार्थअस्थि कुगोवओगो-त्तिहोइ साहू कहं विगलो ॥ मेवेदं तथा वस्तुनः केवलज्ञानकेवलदर्शनपर्यायध्वनिभ्यां अथैवं मन्यसे क्रमोपयोगित्वमन्युपगम्यमाने केवल्ली यस्मिन् विशेषणार्थमेवेदम् एकमेव हि केवलं वस्तु केवलज्ञानकेबलद र्शनपर्यायध्वनिभ्यां विशेषणार्थ चेदम् । एवमेवहि केवलयझाने दर्शने वानुपयुक्तस्तदस्ति यस्मिस्तु नोपयुक्तस्तत्तदा ना- | स्तनोऽनेकपर्यायध्वनिभिर्विशेषणार्थ समये सिद्धान्ते सूत्राणि स्त्येवानुपज्यमानत्वात्खरविषाणवत्ततस्तर्हि दर्शनादेशिकदर्श- | शतशोऽनेकशः सन्तीति । एतदेव पर उपदर्शयति ॥ नझानचारित्रत्रये उमस्थस्य साधोयुगपडुपयोगी नास्ति छद्म सिछा काइ य नो सं-जयाइपज्जाय उसएवेगो । स्थस्य युगपफुपयोगाभावस्य त्वयाच्युपगतत्वात्ततो दर्शनादित्रिकेष्वत्राप्यनुपयुक्तस्तदपि त्वदभिप्रायेण नास्त्यतस्तद्विका सुत्तेसु विसेसिजद, जहेह तह सव्ववत्यूणि ॥ एकेनापि दर्शनादिना रहितः कथं साधुर्भयतु न प्राप्नोत्रोत (विसेसिजइजहत्ति ) यथा तेषु२ सिद्धान्तसूत्रेषु स पवैको मुक्तात्मा सिजः कायिकानांसंयतादिपर्यायैर्विशेष्यते प्रतिपासाधुन्वं तस्य त्वदभिप्रायेणेति भावः । भण्यते चासो समय बोके सर्वदैव सास्ततो नेइमपि क्रमोपयोगे दूषणमिति यत्रानु द्यते श्रादिशब्दानोभव्यनोबादरनोपर्याप्तनोपरित्तानां संक्षिप्त परिनिवृत्तादिपर्यायैरपि विशेष्यःक्वचित्प्रतिपाद्यते(रहतहत्ति) पयुक्तस्तदसदित्यत्र दूषणान्तराण्यप्याह तशहापि क्षायिकाज्ञानवस्त्वेकमेव केवलज्ञानकेवलदर्शनपविकासविसंवाओ, नाणाणं न विय ते चनन्नाणी। र्यायध्यनिभ्यां विशेष्यते पवमन्यान्यपि सर्वाणि पुरंदरघटवृएवं सइ उमत्थो, अत्थि न तिदसणी समए । क्षादिवस्तूनि निजनिजपर्यायशब्दैः समये लोके च विशेष्यइह ज्ञानानां दर्शनानां चोपयोग आन्तरिर्तिक पव समये प्रो- न्त एवेति क इह प्रवेष इति । अथैवं सूरिः परं पुरभिनिवेशक्तस्तस्माच्च परतस्तदभिप्रायेण कित्र ज्ञानं दर्शनं वा नास्ति । ममश्चन्तमवलोक्य युगपदुपयोगय पदं मूलत एसोन्मूलएवं च सलि ज्ञानानामुपत्रमणत्वाद्दर्शनानां च यः सातिरेका यितुं ऋमोपयोगकं व्यक्तमेव सिद्धान्तोक्तमादर्शयन्नाह Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९२) अनि वानराजेन्थः । उद्योग शिपिय पद्म पद्माई जह जिणो समयं । जाइन विपास से अपणपनाई ॥ ननु प्रशत्यां भगवत्यां प्रज्ञापनायां स्फुटं भणितमेवोक्तमेव । यथा जिनः केचली परमासुरत्नप्रभादीनि बस्तुनि ( समर्थ जे जाणयति ) यस्मिन्समये जानाति (नवि पासइति) तस्मिन् समये नैव पश्यति किंत्वन्यस्मिन्समये जानाति - न्यस्मिंस्तु पश्यति । इयमत्र भावना । इह भगवत्यां तावदटादशशतस्याष्टमोदेशके स्फुटमेवोक्तम् ॥ तद्यथा ॥ " छउमत्थे भंते! मस्से परमाणुपोग्गलं जाणइ न पासह उदाहु न जाणइ न पासर । गोयमा ! अत्थेगइए जागर न पासर । अत्येगश्ए न जाणइ न पास । एवं जाव असंखेजपपलिए खंधे " स्थो निरतिशयो गृह्यते । तत्र श्रुतज्ञानी उपयुक्तः श्रुतज्ञानेन परमाणुं जानाति न तु पश्यति दर्शनाजावादपरस्तु न जानाति न पश्यति " एवं श्रीपति परमा श्रोहीपणं भंते मस्से पर मापोम्गलं जं समयं जाणइ तं समयं पास जं समयं पास तं समयं जाण णो णडे समड़े से केणठेणं नंते ! एवं बुवर ? गोयमा ! सागारे से नाणे नवइ अणागारे से दंसणे भवर सेकेण पास एवं बुचरस्त्यादिकेची म परमाणु पोग्गलं जं समयं जाणइ तं समयं पास जं समयं पास तं समयं जाणद नो इणडे समहे । से केणटुणं नंते ! एवं वुश्चद गोयमा ! सागारे से नाणे भव‍ । अणागारे से दंसणे नव से एवंत्यादि एवं महापनांमध " तदेवं सिद्धान्ते स्फुटाकरैर्युगपदुपयोगे निधिकेऽपि किमिति सर्वा नर्थमूलं तदभिमानमृत्सृज्य क्रमोपयोगोननिष्पद्यत इति । तदेवं बुकिता जरा जनप्रतिनिधि धर्मियार्यमाणा अपि परस्य दुराग्रहयुकिर्न निय निमील्य धृष्टतया पुनरप्याह इन समनुप्यव्यय, ओवा के विंति उमस्यो । पुणपरतित्थि, पवत्तव्यमिति जंपंति ।। यस्य भगवत्यां युगपदुपयोग निि स्थोऽसाविति ब्रुवते कथं पुनः केवली वृद्मस्थो भएयत इत्याह । केवलीत वाक्ये व शब्दोपादथवा केवल शासिताऽस्येति केवनिमान् इति वाक्ये मनुध्यत्ययस्य प्रोपाथोऽसीकेपी तस्य च युगपदुपयोगनिषेध मयात पवेति परस्याभिप्राय पर पवाद अन्ये तु केचित्तु परतीर्थिकवक्तव्यता विषयमिदं केव विनो युगपदुपयोगनिषेधायां केनातमिति ज्ञापयतो न केोपयोगनिषेधमिति । श्रथ परस्य विभ्रमापहरसा समस्तप्रमानुग्रहशी पुनरपि सुरिराह त्यो होहि प परतावा विसेसिउं रूमसो । निtिes केवलं ते, तस्स उमत्यया नत्थि | यस्माद्भगवत्यपादशशताष्टमोदेशके उपस्थोऽधिकं परमावधिकं चेत्येतांस्त्रीनपि क्रमशः प्रथमं विशेष्य विशेषतो निर्दिश्य ततः पर्यन्ते केबिनं निर्दिशति । तेन तस्मात्तस्य केवलिनः स्वमिष्यामे युक्तिविकासामर्थ्यादिव मतुप्प्रत्यय जोपास्वयोपनीयमाना उद्यस्थता नास्ति किंतु निरुपविवासी यदि नरपतिः कि मनेन व्याज निर्देटोन यत्किमपि ब्रद्मस्थस्य जणनीयं तत्प्रथमं ब्रझ स्वयम्पाका सर्वस्यादिति किंच उपयोग नय पास अमन्नो छनुमत्यो केवली कोसा। जो पास परमार, गढ़पा मिर्ण भस्म होला । "केली णं नंते! परमाणुपमा समस्यादि" भगव त्यामुय परमामवधिज्ञानिनं मुक्त्वा अन्याय नप इयति तत्रापि सर्वेऽप्यवधिज्ञानिनस्तं पश्यन्ति किं तु यः परमाधिकानी तस्माच परमाययेयेः किञ्चिन्यनावधिरधावधिक स एव तं पश्यति तौ चाधावधिकपरमावधिज्ञानिनौ द्वावपि केवलिनः प्रथममेव निर्दिष्टौ ततस्तयोर्द्वयोरपि विशेषतो निर्मार्य निर्दिष्टत्वात्कोऽन्यो हन्त उद्मस्य केवली योऽसौ परमाणुपुलं पश्यति यस्य स्केवलिन ६दं स्वत्कल्पनया जगवत्यां ग्रहणं भवेदिति । अपिचागमे स्थानान्तरेऽपि स्थादिज्य उपरिक्षातीत एव केवली निर्दिष्टो नत्वियादिलो पकल्पनया उद्मस्थ इतिदर्शयन्नाद सिमित्या या मग्गज नहिं सुने । केसरगंज- माईपविनिवाणं । तिम्निविपमिसेदेठं तीसूचि काले केवल सत्य | सिकुड़ सिजिसि सिस्सिवादि विनिधिको । तेषामेवस्थानामादिशब्दादयधिक परम निनां यत्र यत्र जगवतिप्रथमशतक चतुर्योद्देश कसूत्रे केवलसंवर संयमाचदिनिर्याण मोको सम्यते चियापसूत्रे श्रीमपि उपस्पावधिकपरमानिनः प्रतिषेध्य तदुपरि केवली नूतनवद्भविष्यलकणेषु त्रिष्वपि कालेषु सिध्यति असेधीत् सेत्स्यतीति निर्दिष्टो याद पुनरयमपि त्वत्कल्पनया बस्यो यदि तदा अस्यापि प्रथमनिर्दिश्वस्यस्यैव केवलसंयादिनिः सिद्धिर्न भवेदिति किं मानते।"माणं त माणूसे तीयमणंतं सासयं समयं केवलेणं संवरणं । केवलेणं संजमेणं केवलादि पवयणमायाहि सिज्जिसु बुजिसु जाव - खाणमंतं करि गोयमा ! नोहण समड़े से केस नसे ! पुस जाय अंतं करितु गोधमा ! ज केवि अंतरा या अंतिमसरीरिया वा सत्यमाणं तं करें या करेति वा करेस्संति वा सब्वे ते उप्पन्ना नाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली जवित्ता तम्रो पच्छा सिमंति बुज्छंति मुच्चंति परिनिव्वायति सव्वदुक्खाण अंतं करिंसु वा करेति वा करेस्संति वा से तेलट्टेणं गोयमा ! जाव Hoasक्खाण अंतं करिंसु एप्पनेवि एव वेव नवरं सिज्यंति भाणियां । श्रणागपचि एवं चैव । नवरं सिज्जिस्संति जाशिवं । जहा मत्थो तहा अहोदिन परमाहोनिवि ति नि २ आलावा भाणियच्चा । केवक्षीण भंते! मणूले तीतमतं सासयं समयं जाव अंतं करिंसु ढंता सिसुि वा जाव अंतं करें । एए तिन्नि आबावगा प्राणियन्वा बनमत्ये जदा नयर सिक्सिसित " तस्मादियमेव रीतिः । सिकान्ते छद्मस्थादिज्य उपरि यः केवली जायते सपियर एव नरापिपास अन्य अनन्तरमुत्रोक्त सिगमनानुपपतेरिति । अय " अने पुण परतिस्थिय वप्तव्व "मित्यादि तेनासमञ्जस नापितेनोद्वेजितः परानुकम्पया सवेद सरिराह एवं विसेसियम परमयमेगंतरी चहगेति । न पुणरुन भोगो, परवतयंति का बुकी ॥ उपभोग गरी पचीसमे समा । Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९३ ) जवयोग अभिधानराजेन्मः । नवोग जणिओ वियमत्थो वि य, बहुद्देसे विसेसे उ॥ का सिघग्गहणं, बहुवत्तव्ययपदसु सम्बेसु । एवं फुमवियमम्मि वि, सुत्ते सव्वन्नुनासिए सिके। इह केवलमग्गहणं, जइ तो तं कारणं वञ्च ॥ कह तीरइ परतित्थिय-वत्तवमिणति वोत्तुं ते ॥ यदि सर्वजीवाधिकारोऽयं न जवति तर्हि "ग इंदियवेप काए पवमुक्तप्रकारेण विशेषितेऽपि व्यक्तेऽपि क्रमोपयोगसाधके जोए कसायलेसास्वित्यादिष्वन्येषु अल्पबहुत्ववक्तव्यताविचारसिद्धान्ते सूत्रे सति योऽयमेकान्तरोपयोगः स परमतं युग विषयजूतेषु पदेषु सिकिगतिकानीनियकाययोग्यकषायलेश्या पदुभयोपयोगसूत्रं तु यदसापि भवता किमपि कल्पते तत्र नोसंयतनोपरीत्तादिपदैः पृथक् सिग्रहणं कृत्वा केवझमिहै वोपपरतीर्थिकवक्तव्यतेति स्वर से पक्षपातं परित्यज्य चिन्त्यतां योगपदे पृथक्त्वग्रहणं करोति । ततस्तत्र कारणं वाच्यं यदि दि केयं विपर्यासबुद्धिरिति । किंच भगवत्यां पञ्चविंशतितमे ग्यस्था धिकारत्त्वादिह तदग्रहण मित्युच्यते तर्हि शेषपदेषु सिशते षष्ठोद्देशके “सिणापणं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा ककेवनिग्रहणमयुक्तं स्यात्तस्मात्सर्वजीवाधिकार पवाय केवनअणगारोवउत्ते होज्जा ......मा ! सागारोवउत्तेवि होज्जा माहारकानाहारकनाषकादिपदच्येनैवानेन साकारानाकारोपयोअणगारोवउत्तेवि होज्जा"॥ इत्यनेन सूत्रेण विशेष्य नाम- गपदध्येन सिरकेवझिनां गृहीतत्वादिह पृथक्त्वादग्रहणमिति । ग्राहं स्नातकस्य केवलिनो विकटार्थः प्रकटार्थ एव भणितः आगमान्तरतोऽप्यत्र ग्झस्थाधिकारशङ्कां निवर्तयन्नाह ॥ प्रतिपादितः । एकस्मिन्समये एकतरः साकारो नाकारो वा अहवा विसेसियं चिय, जीवाभिगमम्मि एयमप्पबहुं । उपयोग इति ॥ एवं स्फुटे सूत्रतो विकटे प्रकटे वाऽर्थतः सुविहत्ति सबजीवा, सिपासिकाश्या जत्थ ॥ सर्वशभाषिते सूत्रे सिद्ध कथं सकर्मविज्ञानैः परतीर्थिकवक्त अथवा ग्नस्थाधिकारशङ्कानिवर्तकत्वाद्विशेषितमिवतत्साकाव्यतेयमिति तीर्थते शक्यते वक्तुम् । (जे) इति वाक्या रानाकारोपयोगयोः पदद्वयस्याल्पब हुत्वं जीवाभिगमे प्रोक्तमिति लंकारार्थ इति ॥ अपिच शेषः॥क सूत्र इत्याह । सिकासिकादिभेदेन द्विविधा पव सर्व सव्वत्यमुत्तमत्थि य-फुगएगपरोवओगजुत्ताएं। जीवा यत्र सूत्रे प्रतिपाद्यन्त इति तदेव सूत्रं गाथयोपनियध्य दननोवनत्तसत्ता, सुतिवृत्ता न कत्था वि ॥ शयन्नाह ॥ कस्सइ वि नाम कत्थइ, काले जइ होज दोवि उवोगा। सिकसइंदियकाए, जोए वेए कसायलेसा य । ननोव उत्तसत्ता, ण सुत्तमेग पि तो होज्जा। नाणुवोगाहारय, नासयसरीरचरमेय ॥ एकतरोपयोगोपयुक्तानां सत्वानां प्रतिपादकं सूत्रं सर्वत्र सिका असिफाश्च सेन्डिया अनिन्छियाश्च सकाया अकायाश्चेसिद्धान्ते स्फुटमस्ति । तच्च किश्चिदर्शितं दर्शयिष्यते च युग- त्यादि नेदेन सर्वे जीवाः संगृह्यात्रसूत्रे जीवाभिगमे प्रतिपाद्यन्ते पदुभयोपयोगो युक्तसत्वास्तु सूत्रे क्वचिदप्युक्ताः प्रतिपादिता तत्र सूत्रविशेषितमेवेदमल्पबहुत्वप्रतिपादितमिति युगपशुपयोगदृश्यन्त इति । यदि नाम कस्यापि भवस्थकेवलिनः सिद्धकघ द्वयपक्कं निराचिकीर्षुराह॥ लिनो वा क्वचिदपि कालं युगपद् द्वावुपयोगौ भवेतां तत- अंतोमुहुत्तमेवे य, कालो नणिो न होवोगस्स । स्तहि युगपदुभयोपयोगोपयुक्तसत्वानां प्रतिपादकमेकमपि साइअपज्जवसिओत्ति, नस्थि कत्था वि निद्दिट्ठो। सूत्र कचिदपि भवेन्नतु कापि तत्पश्याम इत्यतो निरालम्बनाना- तथा ज्ञानाशानदर्शनानामुपयोगस्यागमे सर्वत्र अन्तर्मुहर्तमेव हमात्रभ्रमित एव भ्राम्यति भवानिति ॥ अपिच कालो नणितः साद्यपर्यवसितस्तु उपयोगकासः क्वापि नास्ति सुविहाणं पि य जीवा- नणियमप्पाबडं च समयम्मि। विनिर्दिष्टः । यदिह साकारानाकारोपयोगरूपो मिश्रः सिकानामुसागारणगाराण य, न नणियमुनओवनत्ताणं । पयोगः स्यात्तदा तेषामिव तस्यापि साद्यपर्यवसितत्वं स्यानचैत सिमान्ते क्वापि भणितं दृश्यते तस्मानास्ति युगपदुपयोगद्वयमिजइ केवमीण जुगवं, उवोगो होज्ज तो एवं । ति ॥ एतदेवाहसागारणगाराण य, मीसाण य तिहमप्पबई ॥ जह सिछाईयाणं, नापियं साईअपज्जवसियत्तं । साकारोपयोगवतामनाकारोपयोगवतां च द्विविधानामेव तह जइ उवोगाणं, जणियं हवेज तो जुगवं ।। जीवानामल्पबहुत्वं समये सिकान्ते प्रज्ञापनाल्पब हुत्वपदे प्रणि यघा सिकादीनामादिशब्दादनिन्द्रियकादीनां साद्यपर्यवसिसत्वं तम् । तद्यथा “एपसिणं भंते ! जीवाणं सागारोवत्ताणं जणितं तथा यधुपयोगानामपि तद्भणितं भवेत्सतस्ती साकाराअणगारोवत्ताण य कयरे कयरोहिंतो अप्पा वा बहुया वातु नाकारोपयोगौ युगपद्भवेतांनचैवं तस्मान्न युगपडुपयोगद्वयमिति ल्ला विसेसाहिया वा ॥ गोयमा सम्वत्थो वा जीवा अणगारोव. | तदेवं सरिः परस्याभिनिवेशं निराकृत्यात्मनि तदाशङ्कां निराउत्ता सागारोव उत्ता संखेजगुणा" युगपञ्जयोपयोगीपयुक्ता कर्तुमाहनां तु मिश्राणां तृतीयानामिहाल्पबहुत्वं न जणितं यदि पुनः के कस्स व नाणुमयमिणं, जिएस्स जइ होज दोविनवओगा। वशिनां युगपदुपयोगवयं नवेत्तदेवं सति साकारानाकारमिश्रीपयोगवतां त्रयाणामेव पदानामल्पव हुत्वं जवेन द्वयोरिति । अत्र नृणं न होत्ति जुगवं, जो निसिखा सुए बहुसो । परशङ्कां परिहार चाह नवि अनिनिवेमबुछी, अम्हं एगंतरोवओगम्मि । अह व मई उउमत्थे, पमुच्च मुत्तमिणमो न केवलिणो । तदवि जणिमो न तारइ, जं जिणमयमन्नहा काउं॥ पिन जुज्जर जंस-ब सत्तसंखाहिगारो यं ॥ पानसिके एव । अथ परपृच्छामुत्तरं चाह ॥ "ज तनोन्नावणसुगमा नवरं व्याप्त्या सर्वजीवसंख्याधिकारे निर्दिष्टत्वान्ने। तमेव मित्यादि" गाथायां यन्मया “श्यरेयरावरणया अहवा सूत्र उमस्थविषय प्रवक्तुं युज्यत इति ॥ अथ सर्वजीवाधिकारो-| निकारणाचरणमित्यादि "दूषणमुक्तं तद्यदि प्रागुक्तेनैव प्रकारेण ऽयं न भवतीत्यत्राह त्वया नेष्यते तहि कथ जिनस्य केवशिन एकान्तरोपयोगेऽज्युपग Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९४ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवयोग म्यमाने तस्य युगपदुपयोगवृत्तेरावरणं तदावरणमिति कथ्यतां सूरिराह । जयतेऽत्रोत्तरम् । " तंति तदावरण" मिह स्वनावो द्रष्टव्यः ईदृश एव जीवखनावो येन क्रमेणैवोपयोगः प्रवर्त्तते न युगपत् न च स्वभावः पर्यनुपयोगमईति । अग्निर्दहति नाकाशनित्यादिष्वपि तत्प्रसङ्गादिति । एतदेव समर्थयति - परिणामिय जावाओ, जीवत्तं पि य सजावए वायं । एगंतरोगो, जीवाणमणन्नहेउत्ति || यथा जीवस्य जीवत्वमनन्यहेतुकं पारिणामिकनावत्वादेवमेकान्तरोपयोगोऽपि परिणामिकत्वात्तस्य स्वनाव एव ततो नास्यान्या हेतुरन्वेषणीय इति ॥ विशे० । स्था० नं० 1 संप्रति चतुर्विंशतिदरुकक्रमेण नैरयिकादीन् चिन्तयन्नाह - रयाणं भंते! कवि उवओगे पाते ? गोयमा ! दुविहे उवोगे पत्ते । तंजहां सागारोवओगे य अणगारोवओगे य । ऐरइयाणं नंते ! सागारोवोगे कविढे पत्ते गोयमा ! पत्ते तंजहा - मतिनाए० सुयनाण० ओहि नागमतिअन्ना सुयान्नाण विजंगनाणसागारोवओगे। ऐरयाणं जंते! अणाग्रारोव योगे कई विहे पणते ? गोयमा ! तिविहे पण ते तं जहा चक्खुद सत्राचक्खुदंसण ० हिदस णागारोवोगे । एवं जाव यणियकुमाराणं ॥ नैरयिका द्विविधा नवन्ति सम्यग् दृष्टयो मिथ्यादृष्यश्च । अवधिरपि तेषां भवप्रत्ययोऽवश्यमुपजायते नवप्रत्ययो नारकदेवानामिति वचनात् । तत्र सम्यग्दृष्टीनां मतिज्ञानश्रुतज्ञानाव विज्ञानानि मिथ्यादृष्टीनां मत्यज्ञानश्रुताङ्गानविनङ्गज्ञानानीति सामान्यतो नैरयिकाणां पविधः साकारोपयोगः । अनाकारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा चतुर्दर्शनाचकर्दर्शनमवधिदर्शनं च । एप त्रिविधोऽप्यनाकारोपयोगः सम्यग्दृशां मिथ्यादृशां वा विशेषेण प्रतिपत्तव्यः उभयेषामप्यवधिदर्शनस्य सत्र प्रतिपादितत्वात् । एवमसुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां भवनपतीनामध्यवस्यम् । पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! दुविहे उनओगे पत्ते, तंदर सागावोगे य अणागारांवओगे य । पुढ विकाश्या जंते ! अणागारोवओोंगे कतिविहे पणते ? गोमा ! 5वि माते, तंजहा मतिमन्ना सुयान्नापुढविकाइयाणं ते! अणगारोवओगे कविहे पत्ते ? गोयमा ! एंगे अचक्खुदंसण अणागावोगे पत्ते एवं जाव वणस्सइकाइयाएं । वेईदियाणं पुच्छा, गोयमा ! विहे पत्ते तंजहा सागारो गारो | वेडंदियाणं सागशेवयोगे कविहे पपत्ते ? गोयमा ! चविहे पत्ते तंजहा आनिनिवोहियना सुनाए० मतिअन्नाण • सुयान्नाण० । इंद्रियाणं जंते ! अणागारोवोगे कड़विहे पत्ते ? गोमा ! एगे खुदंसणगारोवओगे एवं तेई दियाणं चरिदियाणं वि एवं चैत्र नवरं अणगारोव योगे विपत्ते चक्खुण० चक्खुदंसणप्रणागारोवआगे य । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं जहा रश्याएं For Private उद्योग मस्साएं जहा ओहिए जवओगे जाणियं तदेव जालियi | वाण मंतर जोइ सियवेमाणियाणं जहा ऐरइयाणं । पृथिवी कायिकानां साकारोपयागो द्विविधस्तद्यथा मत्यज्ञानं ताज्ञानं चाsनाकारोपयोग एकोऽचक्षुर्दर्शनरूपः शेषोपयोगानां तेषामसंजवात् सम्यग्दर्शनादिधिचिकत्वात् । ए तेजोवा वनस्पतीनामपि वेदितव्यम् । द्वीन्द्रियाणां साकारोपयोगश्चतुर्विधस्तद्यथा मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानम् । तत्रापर्याप्तावस्थायां केषांचित्सास्वादननावमासादयितां मतिज्ञानश्रुतज्ञाने शेषाणां तु मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने । अनाकारोपयोगस्त्वेकोऽचतुर्दर्शनरूपः शेषोपयोगानाम् । एवं श्रीन्द्रियाणामपि चतुरिन्द्रियाणामध्येवम् । नवरमनाकारोपयोगो द्विविधः चकुर्दर्शनमच कुर्दर्शन च । पञ्चेन्द्रियतिरिश्वां साकारोपयोगः पवििधस्तद्यथा मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानम् । अनाकारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा चतुर्दर्शनमचतुर्दर्शनमवधिद्विकस्यापि के चित्तेषु सम्भवात् । मनुष्याणां ययासम्नवमष्टावपि साकारोपयोगाश्चत्वारोऽयनाकारोपयोगा मनुष्येषु सर्वज्ञानदर्शनब्धिसम्नवात् व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरायकास्तदेवं सामान्यतश्चतुर्विंशतिद एक कक्रमेण जीवानामुपयोगचिन्तितः ॥ संप्रति मन्दमतिस्पष्टावबोधाय जीवा एव तत्तदुपयोगोपयुक्ताः सामान्यतश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्त्यन्तेजीवा णं जंते ! किं सागारोवनत्ता अणगारोवउत्ता ? गोमा ! सागरोत्ता वि अणागारोवउत्ता वि । सेकेण जंते ! एवं बुच्च जीवा सागारोवउत्ता वि अणागारो वत्ता ? गोयमा ! जेणं जीवो आजिनिवोहियना सुयनाणओहिनामा पज्जवकेवलनाथ, मतिप्रणााण सुमा विनंगनागोबा तेलं जीवा सागारोवनत्ता जेणं जीवा चखुर्दचक्खुदंसण हिदंसण केवल दंसणोवउत्ता तेणं जीवा अणगारोवत्ता से तेलट्टेणं गोयमा ! एवं बच्च‍ जीवा सागारोवउत्ता वि अणगारोवत्ता वि । नेरइया ए ते ! किं सागाव उत्ता अणागारोवजत्ता ? गोयमा ! नेरश्या सागरोत्तावि अणागारोवउत्तावि । सेकेण्डेणं नंते ! एवं बच्चइ ? गोयमा ! जेणं नेरइयाणं आभिनिवोहियनाए सुनाए श्रहिना मान्नाण सुयान्नाण विनंगनाणो वत्ता तेणं नेरइया सागारोवउत्ता जेणं नेरझ्या चक्खुदंसण खुद हिदंसणोवउत्ता तेणं नेरइया अणागारोवउना | से तेण्ट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जात्र अणागारो वत्ता एवं जाव यणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा. गोमा ! तव जाव जेणं पुढ विकाश्या मतित्र्यन्नाण सुयअनाणोवंडता ते पुढविकाइयाएं सागारोवनत्ता जेणं पुढवि अचक्खुणावत्ता ते पुढवि० अणगारोवत्ता । से ते द्वेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ जाव वणस्सइकाइया वेइंदिया सहिया तव पुच्छा जाव जेणं वेइंडिया आि निवोहियना सुनाए मतिअन्नाण सुयअन्नाणीवत्ता तेणं Personal Use Only Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९५) लायोग अभिधानराजन्नः । उवभोग वे दिया सागारोवउत्ता जेणं वेइंदिया अचक्खुदंसाणोवउत्ता तज्ञानमित्यादिरूपमनिधानमुद्वहति । ततो यथा सकलधन पटलकटकुड्याद्यावरणापगमे स तथाविधप्रकाशसहस्रधातेणं वेइंदिया अणागारोवनत्ता से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्च! कारास्पष्टरूपो न भवति किं तु सर्वात्मना स्फुटरूपोऽन्य एवं जाव चनरिंदिया एवरं चक्खुदंसणं अब्भहियं चउ पव तथेहापि सकलकेवलज्ञानावरणमातिशानाद्यावरणविलरिदियाणंति पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा परश्या मणूसा येन तथाविधोऽस्पष्टरूपो मतिज्ञानादिसंझिनः केवलज्ञानस्य जहा जीवा वाणमंतरजोसियवेमाणिया जहाणेरड्या इति । प्रकाशो भवति सर्वात्मना यथावस्थितं वस्तु परिच्छिन्दन जीवाणंभन्ते इत्यादि सुगमम् । प्रशा०२९ पद० भ० जी० परिस्फुटरूपोऽन्य एवेत्यदोषः । उक्तं च । कडविवरागव्यकि(जीवेषूपयोगाः जीवट्ठाणशब्द) रणा, मेहंतरियस्स जह दिणेसस्स । उक्कडमेहावरणे, न हो गतीन्द्रियादिषु मार्गणास्थानेषु उपयोगाः ति जह तह इमाइंपि"। अन्ये पुनराहा। सत्येव सयोगिकेमणुयगए वारस, मणकेवलवज्जियाउ नव मीसे । वल्यादावपि मतिज्ञानादीनि केवलमफलत्वात्सन्त्यपि तदा मींतनानि न विकसन्ति सूर्योदये नक्षत्रानीनि । उक्तं च। शगिथावरेसुतिविप्रो, चउविगले वारसे सगले।। "अत्ते आभिणियोहिय-जाणाईणि विजिणस्स विज्जंति । श्र'मनुजगतौ द्वादशाप्युपयोगाः अन्यासुच नारकामरतिर्यग्गतिषु प्रत्येकं मनःपर्यायकेवाद्विकवर्यचक्षुरचकरवधिदर्शना फलाणि य सूरुदए, जहेव नक्खत्तमाईणि " तथा (संतेवश्र चक्खुचक्बुस्सुत्ति) सन्त्येव भवन्त्येव प्रचक्षुर्दर्शनचक्षुर्दर्शख्यालय उपयोगाः भवन्ति । तुशब्दस्याधिकार्थसंसूचनान्मति नाभ्यां बहुवचनात् अवधिदर्शनेन च सह सम्यक्त्वनिमित्ता श्रुतावधिज्ञानचक्कुरचक्षुरवाधिदर्शनरूपाः षट् उपयोगा दृश्यन्ते मिथ्यात्वनिमित्ताश्चोपयोगास्तेन मतिश्रुतापधिशानमनः पर्याअज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकरूपाः षट् । मिश्रे श्राद्यज्ञानत्रिकाशानत्रि यज्ञानसामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराकदर्शनत्रिकरूपा नव प्ररूप्यन्ते । तथा चत्वारो विकलेवन्ये- यक्षायोपशमिकौपशामिकसम्यक्त्वेषु केवलद्विकाज्ञानत्रिकहीपामसंभवाश्चतुरिन्द्रियेषूपयोगास्तत्र त्रयः पूर्वोक्ता एव । चतु नाः शेषाः सप्तोपयोगाः । अज्ञानत्रिकावरणसास्वादनमिथ्यार्थस्तु चचुर्दर्शनम् । उपलक्षणं चैतत्तेनैत एव चत्वारोऽसंशिनि त्वेषु केवलधिकमतिज्ञानादिचतुष्टयरहिताः शेषाः षट् केववेदितव्याः । तथा त्रसेषु (सगलित्ति) पञ्चेन्द्रियेषु द्वादश । लद्विके केवलज्ञानकेवलदर्शने चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेषु केवजोए वेए सप्ली, आहारगजव्वसुकलेसासु । लद्विकहीनाः शेषा दश । मनःपर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनरहितावारस संजमसम्मे, नव दस लेसा कसाए। श्व शेषा दशानाहारके सूत्रे च ( अचक्खुचखुस्सुत्ति ) योगे मनोवाक्कायरूपे वेदे स्त्रीनपुंसकबक्कणे,संझिनि आहा सप्तमी तृतीयार्थे वेदितव्या भवति ॥ यदाह पाणिनिः रकनव्येषु बाक्लोइयायां च द्वादशाप्युपयोगाः । वेदश्चेह प्राकृतलक्षणे तृतीयाथै सप्तमी यथा तिसु तेसु अलंकियापुहग्यरूपः आकारभावो गृह्यते तेन तत्र केवलज्ञानाविरोधः। तथा ई इति" तदेवं कृता मार्गणास्थानेषु योगोपयोगमार्गणा ॥ पं० संयमे यथाख्यातरूपे सम्यक्त्वे । कायिकसवणे नवोपयोगास्त सं० १ द्वा०। त्राझामत्रिकालापात् । तथा लेझ्यासु कृष्णनीयकापोततेजःप गुणस्थानेषूपयोगाः । पाण्यासु कषायेषु च चतुषु केवाज्ञानकेवप्रदर्शनहीनाः शेषाद अधुनतेप्येवोपयोगाननिधातुकाम आह ॥ शोपयोगा कृष्णादिश्याभावे केवलद्विकानुत्पादात् । ह ये तिअनाणदंसाश्म-दुगे अतियदेसिनाणदंसतिगं । सपयोगा यैरुपयोगैः सह न जवान्त यैश्च सह नवन्ति तान् त' ते मीसेमीससमणा, जयाइकेवबिध्यंतगे ॥४॥ थोपदर्शयन्नाह । आदिमधिक मिथ्याष्टिसास्वादनलकणे प्रथमद्वितीयगुणस्थासम्मत्तकारणेहिं, मिच्छत्तनिमित्ता न होति उवओगा। नकद्वये इत्यर्थः (तियनाणदुदंसत्ति) त्रयाणामझानानां समाहाकेवलद्गेण सेसा, संतेव अचक्खुचक्खुस्सु ।। रख्यझानं मत्यज्ञानधुताझानविनङ्गझानरूपं दर्शनं दर्शः। योर्दसम्यक्त्वं कारणं येषान्तसम्यक्त्वकारणास्तैर्मतिज्ञानादिभि योः समाहारो विदर्शम् । चक्षुर्दर्शनाचकर्दर्शनरूपमित्येते पश्चारुपयोगैः सह मिथ्यात्वनिमित्ता मिथ्यात्वनिबन्धना मत्यशा पयोगा मिथ्याष्टिसास्वादनयोनवन्ति न शेषाः सम्यऋत्यविरनादयः उपयोगा न भवन्ति । तथा केवलद्विकेन केवलज्ञान त्यनावात् । तथा अयतेऽविरतसम्यग् दृष्टौ देशे देशविरते पापकेवलदर्शनरूपेण सह शेषाञ्छानस्थिका मतिज्ञानादय उप योगा भवन्ति तथा हि (नाणदंसतिगंति) त्रिकशब्दस्य प्रत्येक. योगा न भवन्ति देशशानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलज्ञानदर्शन मन्निसंबन्धात् ज्ञानत्रिकं मतिकानश्रुतझानावधिज्ञानरूपं दर्शत्रिक प्राप्तुर्भावात् । “उप्पत्तसि अणते नमियच्छाउमथिए नाणे" चक्करचकर्दर्शनावधिदर्शनलकणमिति न शेषाः सर्वविरत्यनावाइति वचनप्रामाण्यात् । आह ननु यदि मतिज्ञानादीनि स्वस्वा- त् । ते पूर्वोक्ता कानत्रिकदर्शनविकरूपाः पशुपयोगा मिश्रे सम्यवरणक्षयोपशमेऽपि प्रादुष्यन्ति तर्हि सकलस्वखावरणक्षये मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके मिश्रा अझानसहिता दृष्टव्याः तस्यो. सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् तत्कथं केवलशानदर्शनभावे नयष्टिपातित्वात् केवलं कदाचित्सम्यक्त्वबाहुव्यं कदाचिश्चमिमतिमानाद्यभाव आदरः " आवरणदेसविगमे, जाईविज्जति थ्यात्वबाहुल्यम् । ततोऽझानबाहुल्यसमककतायां तूजयांशसममई सुयाईणि । श्रावरणसव्वविगमे, कह ताइ न होति जीव- तेति। आस्मिंश्च गुणस्थानके यदवधिदर्शनमुक्तं तत्सैकान्तिकमतास्स" उच्यते इह यथा सहस्रभानोरुपचितघनपटलान्तरि- पेक्वया दृष्टव्यमित्युक्तं प्राक। ( समणाजयाइत्ति ) यमस्तपरमे तस्यापान्तरालावखितकटकुड्याद्यावरणविवरप्रविष्टः प्रका- | यमनं यतम् । यतं विद्यते यस्य स यतः अनायज्य इत्यप्रत्यशो ऽस्पष्टरूपो घटपटादीन् प्रकाशयति तथा केवलशानावर- यः प्रमत्तगुणस्थानकवी साधुर्यत आदिर्येषां गुणस्थानकानां णावृतस्य केवलज्ञानस्यापान्तरालमतिज्ञानाचावरणक्षयोप- तानि यतादीनि प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिवादरसूदमसंपशमरूपविवरविनिर्गतःप्रकाशो जीवादीन् पदार्थान् प्रकाशय- रायोपशान्तमोहकीणमोहबक्षणानि सप्तगुणस्थानकानि तेषु ति । स च तथा प्रकाशयंस्तक्तत्दयोपशमानुस मतिशानं श्रु- पूर्वोक्तज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकाख्याः यदुपयोगाः (समणत्ति) मनः Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९६) उवयोग अभिधानराजेन्द्रः। नवप्रोगकरावणिया पर्यायज्ञानसहिताः सप्त जवन्तीति न शेषा मिथ्यात्वधांतिकर्मक-| उवोगकरावणिया-उपयोगकाराणिका-स्त्री. उपयोगकरणयानावात् । केवलद्धिकं केवबज्ञानकेवलदर्शनलकणोपयोगद्वय- विधौ, सा चैवम् ॥ रूपम् । अतएव द्विके सयोगिकेवविलकणचरमगुणस्थानकद्वयेन पडिलेहिअ सुपमज्जिअ, तत्तो पत्ताणि पडलजुत्ताणि । वतिन शेषा ज्ञानदर्शनलकणास्तदुच्छेदेनैव केवलज्ञानकेवदर्शनोत्पत्तेः "नम्मिन गनमस्थिए नाणे " इति वचनात् तदव-1 उग्गहियगुरुपुरओ, जवओगं कुणइ जवउत्तो ॥२॥ मभिहितां गुणस्थानकेंषपयोगाः ॥ कर्म.. संप सामायारी, दीसइ एसा य भागसमयम्मि। अचक्खुचक्खुदसण-सन्नाणतिगं च मिच्चसासाणो। जं किज्जइ उवोगो, वालाइअणुग्गहटाए ३ ॥ - विरयाविरएसम्मे, नाणतिगं देसणतिगं च । पञ्चवस्तुकेपि “काश्अमाइअजोग, काउं घेत्तूण पत्तए ताहे। अचकुदर्शनचकुर्दर्शनम् अनिावकं चमत्यज्ञानभुताझानविनङ्ग दं च संजयंतो, गुरुपुरओ गवितु उवउत्तो॥१॥ उपयोगकर एविधिस्त्वेवं तत्रैवम् । सवणम् । चः समुच्चये मिथ्यादृष्टौ सास्वादनेचोपयोगा नवन्ति । यत्त अवधिदर्शनं तत्कुतश्चिदनिप्रायाद्विशिष्टाः श्रुतविदो नेच्छन्ति संदिसह नणंति गुरुं, उपयोगं करसु ते माया । तन्न सम्यगवगच्छामः । अथ च सूत्रे मिथ्यदृष्ट्यादीनामवधिदर्शने नवोगकरावणियं, करेसु उस्सग्गमिच्चाइ ॥१॥ प्रतिपाद्यते यतउक्त प्राप्तौ श्रोहिदसणणगारोवउत्ताणं भवश्ते संदिशतति गुरुं नणंति किमित्याह (नवोगं करोमित्ति) - किं नाणी अन्नाणी गोयमा नाणी वि अन्नाणी वि । जश् नाणत्तो अ- च्याकारेण संदिसह भगवन् ! उपयोगकरूँ"इति नणतीत्यर्थः । त्येगश्या तिनाणी अत्थेगश्या चलनाणी जे तिनाणी ते प्रानि- तत उपयोगकारावणियंकरेमिकाउस्सगं अन्नत्य इत्यादि भणति। णियोहियनाणीसुयनाणी ओहिनाणी जे चननाणी ते अनिनि अह कट्टिकण मुत्तं, अक्खलिपाइगुणसंजुश्रं गच्छा। बोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणीमणपज्जवनाणी। जे अन्नाणी ते नियमा मश्अन्नाणी सुयअन्नाणी विनंगनाणी इति"। अत्र चिट्ठिति कानसग्गे, चिंतिति अत्थमंगलयं ॥३॥ हि ये अशानिनस्ते मिथ्यादृष्टीनामप्यवधिदर्शनं साकादत्र सूत्रे प्र. सुगमा । पर ( मंगझंति ) पञ्चमङ्गलनमस्कार कायोत्सर्ग चितिपादितम् यदा त्ववधिज्ञानी सास्वादननावं मिश्रनावं वा गच्च न्तयन्ति अपाध्यमाह । ति तदा तत्राप्यवधिदर्शने प्राप्यते इति । तथाविरताविरते देश- तप्पुव्ययं जयत्यं, अनेन नएंति धम्मजोगगिणं । विरते ( सम्मेति ) अविरतसम्यग्दृष्टौ मतिश्रुतावधिवकणज्ञान- गुरुवान्ममृसिक्खग, रेसिम्मिण अप्पणो चेव ॥३॥ त्रिकं चारचकुरवधिदर्शनत्रिकमिति षट् उपयोगा भवन्ति । तत्पूर्वकं नमस्कारपूर्वक पदार्थ तच्च चिन्तयन्ति सम्यगनामिस्सम्मि य वा मिस्सं, मणनाणजयं पमत्तपुवाणं ।। लोचितस्य ग्रहणप्रतिषेधात् तस्माद्यावन्नालोचितं हृदि तावकेवलियनाणदेसण, नवोगअजोगिजोमासु ॥ न किचिंद्राह्यम् । अन्ये श्राचार्या इत्थं भणन्ति धर्मयोगमेनं मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टौ तदेव ज्ञानत्रिक दर्शनत्रिक चानन्तरोक्त-1 चिन्तयन्तीति । किंविशिष्टं गुरुबालवृद्धशैक्षरेष एतदर्थ ना स्मार्थम् । ३। ततः किमित्याहमज्ञानव्यामिश्रं अटव्यम् ।तिज्ञानं मत्यज्ञानमिश्रमित्यादि केवलं कदाचित्सम्यक्त्वबाहुल्यतो ज्ञानबाहुल्यं कदचिच्च मिथ्यात्व चिंतेत तो पच्छा, मंगलपुव्वं जति विणयणया। बाहुल्यतोऽझानन्याहुल्य समतायांतु सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोरुभयो- संदिसहत्ति गुरू वि अ, बालोत्ति नणेति उवउत्तो । रपि समन्लेति तथा तदेव पूर्वोक्तमुपयोगपरकं मनःपर्यायज्ञानयु- चिन्तयित्वा पश्चात् (मंगलब्धिति) “नमो अरिहंताणं तम् । प्रमत्तः पूर्वो येषां ते प्रमत्तपूर्वास्तेषां प्रमत्तपूर्वकरणानिवृत्ति- ति" भणनपूर्व विनयनता भणन्ति किमित्याह ( संदिसहेवादरसूदमसंपरायोपशान्तमोरक्कोणमोहानामवसेयम् । तथा के. त्ति) सूरिरनुजानातीत्यर्थः । गुरुरपि भणति ( लाभोत्ति ) वनज्ञानकेवनदर्शनलकणौ द्वावुपयोगौ सयोग्ययोगिकेवनिषुद्रष्ट कालोचितानुकूलानपायित्वात् उपयुक्तो निमित्ते ऽन्यसंभ्रान्तः व्यौन शेषाः "केवलगे नसेसा" इति वचनात् ॥ पं०सं०१। द्वा०। ॥४॥ ततः किमित्याह (अवशिष्टवक्तव्यतोपयोगस्य मार्गास्थानाल्पबहुत्वं संजत- कहपेच्चमोत्ति पच्छा, सविसेसणया जणंति ते सम्म । निग्गंथादि शब्देषु ।) अवधाने, आव० ६ अ० । यत्सन्नि- आह गुरूवि तहत्ति, जह गहिहं पुव्वसाहूहिं ॥५॥ धानादात्मा अन्येन्द्रियनिवृति प्रति व्याप्रियते तन्निमित्तमा ततः कथं गृहीष्याम एवं पश्चात् सविशेषनतास्ते साधवः त्मनो मनः साचिव्यादर्थग्रहणं प्रति व्यापाररूपे, आचा० १ श्रु० सम्यग भणन्ति ततो गुरुरप्याह यथा गृहीतं पूर्वसाधुभिरि२ अ० १ ०।स्वस्वविषये बन्ध्यनुसारेणात्मनः परिच्छेदव्यापा त्यनेन गुरोरसाधुप्रायोग्येन भणनप्रतिषेधमाहरस्वरूपे वा भावन्छियानेदे, । जी०१ प्रति०। आ०म० कि० । " जो सविसयवावारो उपभोगो" । यः श्रोत्रादीन्द्रियस्य आवस्मियाए जस्स य, जोगुत्ति जणितु ते न णिग्गति । स्वविषये शब्दादी परिच्छेद्य व्यापारः स उपयोगः उपयोजनमुपयो णिकारणेण कप्पइ, साहूणं वसहिणिग्गमणं ।। गः। विवक्कितकर्मणि मनसोऽनिनिवेशे, विशे० । “उवोगदिट्ठ श्रावशिक्या साधुक्रियाभिधायिन्या हेतुभूतया ( जस्ससाए कम्मप्पसंगपरिघोलणविसाझा" नं० आ० चू०। प्रा०म० यजोगुत्ति) भणित्वा निर्गच्छन्ति वसतेः तस्यार्थस्त्येवं यस्य द्वि० । कायोत्सर्गे, महा०७ अउपयोगाकरणे प्रायश्चित्तम्। "चे वस्तुनो वस्त्रपात्रशैक्षादेयोगः संयमोपकारकः संबन्धो भवि प्यति तं ग्रहीष्यामीत्यर्थः किमेतदित्याह निष्कारणे न कल्पहि अवंदिणा, नवश्रोगं करज्जा पुरिवटुं गुरुणो अंतिए णोच ते साधूनां वसतिनिर्गमनं तत्र दोषसंभवादिति । यस्य योगओगं करज्जा । चउत्थं अकएणं उवओगेणं जं किंचि पमिगाहे इत्यस्याऽकरणे च दोषो यदुक्तमोधनियुक्तौ ।। जा चनत्थं अविहीए उवोगं करेजा । व्याप्रियमाणतायाम, आ० म०प्र०॥ लिने, चिह्न, विश०॥ आचरणे, नोजने, इष्टसि जस्स य जोगमकाऊण, निग्गो न लज्ज सच्चित्तं । हिसाधने, व्यापारे, आनुकूल्ये च । वाच०॥ नयवत्यपायमाई, तेणं गहणे कुणमु तम्हा ॥ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्रोगकरावाणिया अन्निधानराजेन्द्रः। उवकप्प यस्य योगमित्येवमकृत्वाऽभणित्वा निर्गतेः सन्न लभते नाभा- गमः ॥ ३ ॥ समवायाङ्गस्य प्रझापना ॥ ४ ॥ भगवत्याः व्यतया प्राप्नोति सचित्तं प्रवज्यार्थमुपस्थितं गृहस्थं नाप्यधि- सूर्यप्राप्तिः ॥५॥ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः ॥ ६॥ तं वस्त्रपात्रादि । अथ यदि गृह्णाति ततःस्तैन्यं भवति । तस्मा- उपासकदशाङ्गस्य चन्नप्राप्तिः ॥ ७॥ अन्तकृद्दशाङ्गादोनां कुरु अस्य योगमिति । एवं चोपयोगकरणे चत्वारि स्थाना. दृष्टिवादपर्यन्तानां पञ्चानामध्यङ्गानां निरयायनिका । श्रुतस्कनि तदुक्कम “आपुच्छणात्ति पढमा, विइया पडिपुच्छणा य न्धगतकल्पिकादि पञ्चवर्गाः पञ्चोपाङ्गानि तथाहि अकायब्बा । श्रावस्सिश्रा य तइश्रा, जस्सय जोगो चउत्थो उ" न्तकृद्दशाङ्गस्य कल्पिका ॥ ६ ॥ अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गस्य ध० ३ अधिक। कल्पावतंसिका ६ प्रइनव्याकरणस्य पुष्पिता ॥१०॥ विपानव-भोगगुण-नुपयोगगुण-पुं० उपयोगः साकारानाकारभेदं कश्रुतस्य पुष्पचूलिका ॥ ११ ॥ दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा ॥१॥ चैतन्यं गुणो धर्मो यस्य स तथा। चैतन्यधर्मके जीवे, “जी. इति । जं० १ वक० ॥ नपाङ्गानि केन कृतानीत्यत्र प्रदनाचे सासर गुणश्रो उवओगगुणे" स्था०५ ठा० । भ० । तरे तत्रोपाङ्गानि किं गणधररचितानि अन्यथा वा तथाउपओगजुय-उपयोगयुत-त्रि अवहितमनसि, "तं पुण संविगणं गप्रणयनकालेऽन्यदा वा तन्निर्माणमिति । सूत्रोपाङ्गानि स्थअवोगजुएण तिब्वसहाय" पंचा० ४ विवः। विरराः कुर्वन्ति तीर्थकरे विद्यमानेऽविद्यमाने यान्यकुणयन काने पवं तेषां निर्माणमिति नैकान्त इति नन्दीमत्रवृत्ती नयओगट्टया-उपयोगार्थता-स्त्री. विविधविषयानुपयोगाश्रयणे, व्यक्तोक्तमस्ति तेन विशेषतस्ततोऽवसेयमिति ही० । (अ" नवयोगट्टयाए अणेगयन्नावनविए विप्रह" विविधविषया झाप्पविटुशब्दे तथा दार्शतम् ) उपाङ्गेषु केन किं वि. गुपयोगानाश्रित्यानेकतनावनविकोऽप्यहमप्यतीतानागतयोहि वृतम् उपाङ्गानां च मध्ये प्रथममुपाङ्गं श्रीअजयदेवसूरिजिर्विकालयोरनेकविषयबोधनात्मनः कथंचिदनिन्नानां भूतत्वाचे वृतम् । राजप्रश्नीयादीनि पद श्रीमजयगिरि पादर्विवृतानि त्यनित्यपक्कोऽपि न दोषायेति । भ० १८ श० १००। पञ्चोपाङ्गमयी निर्यावनिका च श्रीचन्दसूरिभिर्विवृता तत्र प्रजबोगदिह्रसारा-नुपयोगदृष्टसारा-स्त्री० उपयोजनमुपयो- स्तुतोपाङ्गस्य वृत्तिः श्रीमजयगिरिकृताऽपि संप्रति कासदागो विवक्रितकमणि मनसोऽजिनिवेशः सारस्तस्येव विव- षेण व्यवच्छिन्ना इदं च गम्भीरार्थतया अतिगहनं तेनातुवितकर्मणः परमार्थः उपयोगेन दृष्टः सारो यया सा उप- योगरहितं मुद्रितराजकीयकमनीयकोशगृह मिव न तदर्थायोगद्दष्टसारा । अभिनिवेशोपमन्धकर्मपरमार्थायां बुछो, “उ | र्थिनां हस्तानुयोगार्पितसिफिक संजायत इति कल्पितार्थकवोगदिट्टसारा, कम्मपसगपरिघोलणविसाला " नं०॥ ल्पनकल्पद्रुमाणां युगप्रधानसमानम् । संप्रति विजयमानगउबमोगपरिणाम-उपयोगपरिणाम-पुं० उपयोग एवं परि च्छनायकपरमगुरुश्रीहरिविजयसूरीश्वर निर्देशन कोशाध्यताणाम उपयोगपरिणामः जीवपरिणामन्नेदे, प्रशा० १५ पद ।। झ्या प्रत्येणेवोन्मुष्णमिव मया तदनुयोगः प्रारम्यते ॥ जं. स च साकारानाकारभेदाद् द्विधा, स्था० १० म०। १ वक० रा० । तिनक, पुं० वाच । नवप्रोगवक-उपयोगवाक्य-न० आनन्दस्य भगवन्तं प्रतिवाक्य । उगतिग-जपाङ्गत्रिक-न० औदारिकवैक्रियाहारकाङ्गोपाङभेदे, । दर्श। रूपे त्रये, कर्म॥ उपभोगवीरिय-उपयोगवीर्य-आध्यात्मिकवीर्योदे, उपयोग- नवजए-उपाजन-न० उप अञ्ज ल्युट, अपने, गोमयादिनान- . आपने, संमार्जनोपार्जनेन सेकेनोबेखने, च । वाच ॥ अन्यङ्गे, वीर्य साकारानाकारदात द्विविधम् । तत्र साकारोपयोगो "अक्खोवंजण बमाणसेवाणनयं" सूत्र०२०१०। आराधा अनाकारश्चतुर्धा तेन चोपयुक्तः स्वविषयस्य व्य धारे ल्युट् । अज्जनाधारे, हस्तादौ च । वाच ॥ क्षेत्रकासन्नावरूपस्य परिच्छेदं विधत्ते इति । सूत्र. १ श्रु०६ अ०। नवंसुजव-उपांशजप-पुं० परैरथूयमाणे ऽन्तःसंजल्पनरूपे जपउपभोगाता-स्त्री० उपयोगात्मन्-पुं० उपयोगः साकारानाका भेद, ध०४अधि०॥ रभेदस्तत्प्रधानः श्रारमा उपयोगात्मा । सर्वजीवानां सिक उपकप्प-उपकल्प-पुं० उपगतः कल्पम् । अत्या० स० कल्पोपगसंसारिस्वरूपे विवक्तिवस्तूपयोगविशिष्टे वा आत्मभेदे, ज०॥ १३ श०१०१०॥ ते, जक्ते पान, न० । उप सामीप्ये उपन्य कल्पते प्रति उपकल्पः । जवंग-नपाङ्ग-न० उपमितमङ्गेन । अङ्गावयवते ऽङ्गल्यादी, आहारादिषु उपत्योपकारे वर्तते इत्युपकल्पः । आहागदिना साधोरुपग्रह करणे, पुं०० । प्रज्ञा०५३ पद ॥ कर्म० । प्रा०म०वि०विशे० । कर्णादि प, च । उपाङ्गानि कर्णी नासे अक्विणी जो हस्ती पादौ | एत्तो पुच्छा महंतु, उपकप्पं उवगहे। नवकप्पती करति, उवणाइव होति एकट्ठा ।। जत्तेण व पाणेण व, उवग्गई च । उत्त० ३ अ० । प्राचा० ॥ " होति नचंगा कम्माजासच्ची जंघा इत्था पाया य कामा पासिगा अच्चि जंघ तो कुणति। उवकप्पति गुणधारी, उवकंपंतं वियाणाहि ।। पादा य एवमाद। सम्बे उचंगा जवति ॥ नि० चू० १ उ० ॥ खुहिओ पिवामियो वा, सीतनिनूतो व ण तरति । पार्टकर्म । अङ्गाविस्ताररूपे, ॥ कल्प० ॥ शिक्काद्यङ्गोक्तप्रपञ्च- तं तस्स करेति, उवग्गहपमंतं कुमुस्म वाथणे ।। जो उपाए नपरे प्रबन्धे, झा० ५ अ० । नि० । संगोवंगाणं सरह- समाहि, चउब्धि पाणदंसागचरित्ते । तत्तो य तवममाहि, साणं चनए वेयाणं" औ० ॥ लोकोत्तरिकाचागङ्ग-- तस्स खमाणिज्जए होइ।। जत्ता व पापण व. नवगरमाग व कदैशनपञ्चरुपे श्रुते, तानि च द्वादश तथाहि तत्राङ्गानि द्वा. देश नपाङ्गान्यपि अङ्गैकदेशरूपाणि प्रायः प्रत्यङ्गमेकैकभावा नवगहिनदेहो । जं कुणति सो समाहि, नरसावरणं हवति जवस्येव । तत्राङ्गानि अाचारागादीनि प्रतीतानि । तेषा दाता ॥ जत्तस्स व पाएस्स व, नागास्म व नबग्गाकमुपाङ्गानि क्रमेणामूनि आचारस्यापपातिकम् ॥१॥ रस्त । जा कुणति अंतवायं, तस्सावमा पट्टो त्ति। एसवसूत्रं तदङ्गस्य राजप्रश्नीयम् ॥ २॥ स्थानाङ्गस्य जीवाभि- कप्पा जणितो ।। पं० जा० ॥ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्रकप्प 23 श्याणि जवको तत्थ गाड़ा " भन्तेण व पाणेण व उब सामीप्ये उपत्यकल्पतेत्युपकारादि उप कारे वर्तते इत्युपकल्पः । साहुस्स जवग्ग करे आहाराहणापढंतस्स उदुस्सेव मूला मूत्रगुण उत्तरगुणधारी उवकप्पतं वि-. याणाहि गाहा "जतेण य सो पुछ जन्ताश साहुस्स उबग्गहं कुलम्माणो समाहि समुप्पायर चढव्विहं पि नारादरिणतवत्ररित्तसमाहि सो पुरा समाहिमुप्पायतो तासि चैव नादरिण वरिततवसमाही आवरणं हणश्कर्म गाहा "भक्तस्त य पामस्सय” जो पुण अंतरायं करे आहाराइणं साहुस्स दिज्जताएं से तासि चैव पादरिणतवसमाहीणं अंतराए पव सो माणाश्अंतराश्यं बंध उवकप्पो | पं० ० ॥ उवकप्पंत-उपकरूपयत्त्रि० निष्पादयति, "जेसिं तेहि उवकप्यंति अन्नं पाणं तह वि” उपकल्पयन्ति निष्यादयन्ति सूत्र ० १ श्रु० १२ अ० ॥ त्रिe उप-कृ-क० । कृतोपकारे, यस्योपकारः उनकय-उपकृतकृतस्तस्मिन् बाच परवर्तिते "अपपरापरायणा भाव० ४ ० ॥ ( ८९८ ) निधानराजेन्द्रः | जनकसंत - उपकषत् - त्रि० ब्रजति, “पमासमपितावेगे । नारीणं समुवकसंति " सूत्र० १ ० ४ ० ॥ पूर्व नत्र कुल-उपकुल- नकुलानां समीपमुपकुलम् । तत्र वर्त्तयात्राणि तान्युपचारादुपानीति व्युत्पतेः कु atri नत्राणामस्तनेषु नक्कत्रेषु तानि झदश । श्रवणः झापा रेवती मरण] रोहिणी पुनस् भनेषा पूर्व हस्तः स्वाती ज्येष्ठापूर्वाषाढाचेति । जं० ७ वक्ऋ० | चं० ॥ सू० प्र० (एक्स शब्दे सूत्रतः स्पष्टीप्रविष्यति ) उरफेसपुर-उपकेशपुर यत्र वीर भगवत्प्रतिमा ॥ ती० ॥ छनकोसा उपकोशा स्त्री० पारसन्या कोशागणि कायाः कनिष्ठनगिन्याय, "पानिपु नपरे दो गणियातो कोखा सवको सातो । आ० म० द्वि० । कोसाए महरिकामगिणी नवकोसातीय समं वररुची वसति । आ० ० ४ श्र० । ( यूजदशमे कथानकम् ) लवकम-उपक्रम - पुं० उपक्रमणमुपक्रमः उप-कम् घञ् वृद्ध्यनावः । उपाये, ग्रावा० १५० ७ ० ८ ० । “सोच्या मंगवासास सच्चे तत्थ करेज्जवक्रमं " तडुपक्रमं तत्प्राद्युपायं कुर्यात् सूत्र १ ० ३ ० | उपाय पूर्वके श्रारम्भे तद्भश्च यथातिविहे नवकमे पत्ते तं जहा धम्मिए उनक्कमे अहम्मिए कमे धम्मियाधम्मिए नवकमे || उपक्रमणमुपक्रम उपायपूर्वक आरम्नो धर्म्मश्रुतचारित्रात्मके भवः स वा प्रयोजनमस्येतिपातिवारियार्थ प्रारम्नत्यर्थ स्तथा न धामिकार्मिक माथा धार्मिकासी देगः संयमरूपत्वादधामिकश्च तथैवासंयमरूपत्वाद्वा धार्मिकाधामि कौ देशविरत्यारम्भ इत्यर्थः । अथवा नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्र कालभावनेदात् षविध उपक्रमस्तत्र नामस्थापने सुझाते व्योपक्रमस्तु हशरीरजपशरीरस्तसािविसमय - सवित्तको द्विपचनुष्यदाद मेरे को विविधः परिकर्म्मणि वस्तुविनाशे च । तत्र परिकर्म्मsव्यस्य गुणविशेषकरणं तस्मिन्सति तथा योगेन वर्णादिकरणं एवं शुकसारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणम तथा चतुष्पदानां स्यादीनाम् अपदानान उवकम वृायुर्वेदोपदेशात्रवानमिति तथा वस्तु विनाशे च पुरुषादीनां खगादिनिविनाश एवोपक्रम इति मचित्तद्रव्योपक्रमः पद्मरागादिमणेाराकादिनायैमव्यापादनं विनाशश्चेति । मिश्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिव्यस्यैवेति । तथा क्षेत्रस्य शाकेादेः परिकर्म्मविनाशो वा क्षेत्रापुक्रमस्तथा कालस्य चन्द्रोपरागादिलक्षणस्योपक्रम उपायेन परिज्ञानं का लोपक्रमः। तथा भावस्य प्रशस्ता प्रशस्त रूपस्योपायतः परिज्ञानमेव जावोपक्रमः । स चाप्रशस्तो डोमिनीमणिकामात्यन्तादसेवा प्रशस्तस्तु श्रुतादिनिमित्तमाचार्यादिनावोपक्रम एवं धार्मिकस्य संयतस्य यश्चारित्राद्यर्थं 5व्यक्षेत्र कालजावानामुपक्रम उक्तस्वरूपः स धार्मिक एवोपक्रमः । तथा अधार्मिकस्यासंयतस्यासंयमार्थं यः सोऽधामिक एव । तथा धामिकाधार्मिकस्य देशविरतस्य यः स धामिकाधाम्मिक इति ॥ अथ स्वाम्यन्तरगोपक्रममेव विधा हातिविहे उपक्रमे जहां आयोचकमे परोकमे तदुयोवक एवं वेयावचे अणुग्गहे असिडी उपासने एवमिकिके तिभिरावा जब उचकमे ॥ 'तत्रात्मनोऽनुकूलोपसर्गादौ शीलरक्षणनिमित्तमुपक्रमो वैहानसादिना विनाशः परिकर्म वा श्रात्मार्थे वा उपक्रमोऽम्यस्य वस्तु न आत्मोपक्रम इति । तथा परस्य परार्थ चोपक्रमः परोपक्रम इति तदुभयस्य आत्मपरलकणस्य तदुभयार्थ चोपक्रमस्तदुप्रयोपक्रम इति । एवमिति । उपक्रमसूत्रवत् आत्मपरोजयनेदेन वैयावृत्त्यादयो वाच्याः । स्था० ३ ठार | प्रथमतः सर्वकृत्यविधौ, आतु० । उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः कम्मैवेदनोपाये ० १ ० ४ ० उपक्रमणमुपक्रमः । कर्मणामनुदयप्राप्तानामुदयप्रापणे, सूत्र० १० ३ अ० । उपक्रम्यते क्रियतेऽनेनेति उपक्रमः । कर्मणो बरुत्वादीरित्यादिना परिणमनदेवी जीवस्य शक्तिविशेष योग्य कर णमिति रूढः । तद्भेदा यथा वकमे पाते तंजहा बंधणोवकमे उदरिणो मे सो विष्परिणामनोकमे || उपक्रम चोपक्रमो बन्धनादीनामारम्भः स्यादारम्भः उपक्रम इति वचनादिति तत्र धर्मपुलानां जीवप्रदेशानाच परस्पर संबन्धनमिद जमाद लोहशलाकासंव न्धोपममवगन्तव्यं तस्योपक्रम उक्तार्थो बन्धनोपक्रमः । श्रासकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरणं संबन्धनं तदेवोपक्रमो वस्तुपरिकर्मरूपो बन्धनोपक्रमो वस्तुपरिकर्मवस्तुविनाशरूपस्याप्युपक्रमस्याभिहितत्वादिति । एवमन्यत्रापि । स्था० ४ ठा० २० । (बन्धनोपक्रमादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) मरणे, वृ० ४ उ० | व्यापादे, दूरस्यस्य स तो वस्तुजस्तैः समानयने "उपक्रमणमुपकान्तिर्दृरस्यनि कट किया " उत्त० अ० । व्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपानयनलक्षणे चतृणां मनुयेोगद्वाराचा प्रथम द्वार आचा० १०१ ४० थोपक्रमस्य निरुक्तिमाह सत्यस्सोवक्रमण, उक्कमो तेरा तम्मिय तम्रो वा । सस्यसमीकरणं, आशय नासदेसम्मि || उप सामीप्ये पादविशेषे उपक्रम दूरस्थस्य शास्त्रादिवस्तु नस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपीकरणं न्यासदेशानयनं निषयोग्यताकरण मरणमः उपान्तविचारित निचिप्यते नान्यथेति नायः । उपक्रम्यते वा निक्केपयोग्यं क्रियतेऽ नेन गुरुक्रमः अथवा उपक्रम्यतेऽस्मिन् शिष्यम Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९९ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवक्कम जावे सतीति अथवा उपक्रम्यतेऽतियवाद पक्रमः विनेयेनाराधितो हि गुरुरुपक्रम्य निक्केपयोभ्यं शास्त्रं करोतीत्यभिप्रायः । तदेवं करणाधिकरणापादानकारकैर्गुरुवाभ्योगाविज्ञानंदती भेदेना। यदि सर्वेतु कैफकरणादिकारण्याच्यानाच्यन्ते । तथापि शेषः । ( सत्थसमीकरणमिति ) शास्त्रस्य समीपीकरणं शास्त्रस्य न्यासदेशानयर्न निक्षेप योग्यता करमुपक्रम इति संचेच संबध्य त इति ॥ विशे० ६ द्वा० । अनु० । उपक्रमणमुपक्रम इति भायसाधनः । शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलकणः उपक्रम्यते वाम्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः । उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रवणनावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरण साधनः । उपक्रम्यते अस्मादिति वा विनेयविनयादित्युपक्रम इत्यपादानसाधन इति । स्था० १ वा० । व्य० आ० म० प्र० । सूत्र० 1 जं० । उपक्रमों द्विधा । शास्त्रीय इतरश्च । शास्त्रानुगतः शास्त्रीयः ( आचा० ) इतर लोकप्रसिद्धः । तत्रेतरजिज्ञासयाहसे किं तं लवक पहाते से जहा शामोवकमे कमेव्ववकमे वत्तावकमे कालोवकमे जावोवक्कमेनामा गयाओ || अत्र देते यादिव पाठः आधुनिको युथ आइ वा उबकमे बच्चि इत्या दि वक्ष्यमाणग्रन्योपन्यास स्वाघटमानताप्रसङ्गात् । यदि शास्त्रीयोपको प्रतिज्ञातः स्यानात यक्ष्यमाणस्यात् "से किं तं सत्थोकमे २ बन्धिदे पाते इत्यादि " नचैवं तस्मान्नेह विप्रतितिरोपण वेतसि विकल्य यथा निर्दिष्टमेव सूत्रमित्य विस्तारेण । प्रकृतं प्रस्तुतं सूत्रम् । नामस्थापनेोपक्रमव्याख्या नामस्थापनावश्यक व्याख्यानुसारेण कतव्या । अनु० । विशे० ॥ षण्योपक्रमः । अ से किं ते मे 2 दुविढे पछाचे तं जहा आगमतो नोआगमतो अ जाएयसरीरमविकास व रिले दबोचकमे २ तिचि पाने से जहा सचिते अभिपीसए से किं सविदोषकमे २ तिबिहे पछाने से जहा दुपए चप्पए अपए एकिके पुण दुविहे पाते तं जहा परिकम्मे विणा । पोपमव्ययापि इयावश्यकदेव वाचकस्या दि। त इभ्यस्य नादेरुपक्रममं कामान्तरभविनाऽपि पर्यायेण सदानीमेवोपायविशेषतः सयोजन इन्योपमः । अथवा घृतादिना नुमादी प्रयतः घृतादेवोपमो इम्पोपमम इत्यादि । कारकयोजना विवृक्कया कर्त्तव्येति । स च त्रिविधः प्राप्तस्तथा सचित्तव्यविषयः सञ्चितः । अचितव्य विषयोऽ चित्तः । मिश्रव्यविषयस्तु मिश्रः । द्रव्योपक्रमस्त्रिविधः प्रकृतस्तद्यथा द्विपदानां नटनर्त्तकादीनां चतुष्पदानामश्वहस्त्यादीनामपदानामादीनाम का पुनरपि द्विधा परिकर्मणि वस्तु नाशे च । तत्रावस्थितस्यैव वस्तुनो गुणविशेषाधा परिक र्म । तत्र परिकर्म्मणि परिकर्मविषयो द्रव्योपक्रमः । यदा तु वस्तुनो विनाश पषोपायविशेवैरपणम्यते तदा वस्तुनाश यो म्याक्रमः। द्विपादीनां घृताद्युपयोगम बलवर्णादिकरणं वर्णनादिक्रिया या परिकर्मणि सवि पक्रमः ॥ उवक्कम धमदुपक्रमं विभणिषुराह से किं से छुपए वकमे नमाणं नद्वाणं जाणं महासं मुठियाणं वेलंवगाणं कहगाणं पवगाणं वासगाणं प्राक्खगाणं संखाणं मंखाणं तूणइलाणं तुंववीणियाणं कायाएवं मागहाणं तं दुपए उवकमे ॥ अत्र निर्वचनं (दुपयां नडाणमित्यादि ) तत्र नाटकानां नादयितारो नटास्तेषां ( नट्टारांति ) नृत्यविधायिनो नर्तकास्तेषां (जल्लारांति) जल्ला वरत्राः खेल्लकास्तेषां राजस्तोत्रपाठ - कानामित्यन्ये ( मल्लारांति ) मल्लाः प्रतीतास्तेषां (मुट्ठियारांति) मोटिका ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति मज्ञविशेषा एव तेषां ( वेडंवगाति) चिम्पका विदूषका नानावेपादिकारिण इत्यर्थः । तेषां (कहाति ) कथकानां प्रतीतानाम (पथगाति ) प्लवका उत्प्लवन्ति गतादिकं रूपाभिलक्ष्यन्ति नयादिकं वा तरान्त तेषां ( लासगारांति) लासका ये रासकान गायन्ति तेषां जय शब्दप्रयोतॄणां वा भरडानामित्यर्थः ( गाति) वे शुभाशुनमायावन्ति ते आल्यायकास्तेषां ( संखारांति ) ये महावंशाप्रमारोहन्ति ते लखास्तेषाम (मे. खाति ) ये चित्रपटादिहस्ता भिक्षां चरन्ति ते मंखास्तेपाम् (सरासंति ) तूणाभिधानवाद्यविशेषवनाथ (मुंब वीणाांति) बलावादकानां (कायाति) कावडियाहकानाम् (मागहाणंति ) मङ्गलपाठकानामेषां सर्वेषामपि यदूताद्युपयोगेन बलवर्णादिकरणं वर्णस्पर्द्धनादिक्रिया या स परिकम्मैणि सचितद्रव्योपक्रमः । यस्तु खङ्गादिमिरेयां नाश एवोपक्रम्यते सम्पाद्यते स वस्तुना सचितरूपो पक्रम इति वाक्यशेषः । श्रन्ये तु शास्त्रं गन्धर्वनृत्यादिकलासम्पादनमपि परिकर्म्मणि व्योपक्रम इति व्याचक्षते एतचा. युक्तं विज्ञानविशेषात्मकत्वाच्छास्त्रादिपरिज्ञानस्य च नावत्वादिति । अथवा यद्यात्मकद्रव्यसंस्कारमात्रापेक्षया शरीरवर्णादिकरणवादित्थमुच्यते ततदप्यदुष्टमेवेति । सेत्तमित्यादि - निगमनम् । अथ चतुष्पादानां द्विविधमप्युपक्रमं विभणिपुराहूसे किं तं चप्पए उवकमे, चटप्पयाणं आसाणं हत्थी । इच्चादि से उपपउनमे से किं तं अप्पर उनमे ॥ अप्पया अंबाणं अंबानगाणं इवाइ से अप्पयवकमे । तं सचिने दमे ।। से किं तमित्यादि । अत्र निर्वचनं बडच्या साथीसमित्यादि अस्वादयः प्रतीता एव एतेषां शिक्षा गुणविशेष करणं परकम्मणि खङ्गादित्वेषां नाशोपक्रमणं वस्तुनाशे सचित्तद्रव्योपक्रम इतीहापि वाक्यशेषः तमित्यादिनिगमनम्। अथापदानां द्विविधमप्युपक्रमं विमारीपुराह अत्र निर्व नम्। "अपवणं अंधाएं नाराणमित्यादि" हाम्रो देश प्रतीता एव नवरं (चाराणंति) येषु चारकुलिका उत्पद्यन्ते ते चारवृक्षाः श्रनादिशब्दाच वृक्षास्तत्फलानि यान्तवृ या वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वाक्यादिगुणानां तु गतप्र पकोद्रवपलाल स्थगनादिनाश्राश्वेव पाकादिकरणं परिकर्म्मणि शस्त्रादिभिस्तु मूलत एव विनाशनं वस्तुनाशे सचित्तव्यो पक्रम इत्यत्रापि वाक्यशेषः तमित्यादि निगमनम् ॥ अथाचितद्रव्योपक्रमं विषराह से किं तं प्रथिने दयोजकमे खंडाई गुदाई छे सेतं अचित्ते दव्वोकमे ॥ " Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (800) अभिधानराजेन्थः । उवकम aunादयः प्रतीता एव नवरं मच्छराडी खण्डशर्करा एतेषां डायचित्तद्रव्याणामुपायविशेषतो माधुर्यादिविशेषकरणं परिकर्म्मणि सर्वथाविनाशकरणं वस्तुनारो चित्त स्योपक्रम इत्यचापि वाक्यशेषः । शमित्यादिनिगमनम्। अथ मिश्रस्योपक्रम माह से किं तं मीस दोकमे सा पेन यासगर्म दिए आसाइ से मीस दयोदकमे सेन्तं जाणपसरीरभविसरीर ततिर दव्वोकमे सेतं नो आगमतो दव्वावकमे । दोचकमे || (सतिमित्यादि) स्थास को ऽश्वा नारण विशेष: आदर्शस्तु वृपनादिग्रीवाभरणम् आदिशब्दात् कुङ्कुमादिपरिग्रहः ततश्च तेषा मयादीनां कुडुमादिनिम्नस्यासकादिनिस्तु वित् पितानां गुणविशेषकरणं बद्रादिनिशिया स मिश्रस्योपक्रम इति शेषः अश्वादीनां साहसईनाम मानवीय सं तरा अपि वाचनाविशेषा दृश्यन्ते तेऽप्युक्तानुसारेण भावनीयाः । सेतमित्यादिनिगमनचतुष्टयम् । उको व्योक्रमः । क्षेत्रोपक्रममभिधित्सुराढ़ से किं तं खेोकमे हलवुलिचाहिं । खत्ताई उनकमितिचं स्वतोपमे । क्षेत्रस्योपक्रमः परिकर्म विनाशकरणं क्षेत्रोपक्रमः स क इत्याह ( खेत्तावकमेति ) तत्र एवं प्रतीतम् अघोनित्र तिर्यक्तीणपट्टिकं कुलिकं लघुतरं काष्ठं तृणादिच्छेदार्थे यत् केत्रावस्थितं तन्मरुम एमल्लादि प्रसिद्धं कुलिकमुच्यते ततश्च यदत्र हलकुलिकादिनान्ते वजनादियोग्यतामानस परि कर्मणि] क्षेत्रोपक्रमः | आदिशन्दाजेन्द्रन्धनादिनि केशव पस्यन्ते विनाश्यन्ते स वस्तुना क्षेत्रोपक्रमः । गजेन्द्रसूत्रपुरीषादिवदेतेषु क्षेत्रेषु बीजानामप्ररोहणानिष्टानि केशाणि इति व्यपदिश्यन्ते बाद यद्येवं षगत वृधिन्यादिन्यासामेत परिकर्मविनाशौ इत्थं च अव्योपक्रम एवाथं कथं क्षेत्रोप क्रम इति सत्यं किंतु क्षेत्रमाकाशं तस्य चामूर्त्तत्वात् मुख्यतयामः संभवति किं तु तदाधेषाणां पृथिव्यादीनां यः उपक्रमः स शेषेऽपि उपदृश्यते प्रद्येयधोपचारात आधारः । उक्तंच । " खेत्तमरूवं निश्यं, तस्स परिकम्माणं नयविणासो | आदेयगयवसेणउ, करणविणासो वयारोत्थ" इत्यादि सेत्तमित्यादिनिगमनम् ॥ सम्पति क्षेत्रोपक्रममाद " नोवा कम, हनकुलियाहिं वा विखित्तस्स । सम्पजविकम्मं पज्जवलगा तु परिकम् ॥ यन्नावा आदिशब्दाडुरुपादिनिश्च नदीं तरति । अथवा हलकुलिकादिनिर्यस्येापक्रमणम् यदि वा यत् क्रियते गृहन] मार्जनं मिकर्म या देवकुलानां यथा यथो मार्गशोधनं तरुागः व्याख्यात इन आदिग्रहणे वा तटादिषु यत्परिकर्म खननादिलक्षणमेवं समस्तोऽपि क्षेत्रोपक्रमः ॥ प से किं तं का जनाइटिकासोकमार्ण कोरड से का काली चित्रकार्मणतरूपान्चित इति द्रव्योपक्रमानिधाने कालोपक्रम उक एव जय उवक्कम ति । अथवा समयावलियमुदृतेत्यादि रूपस्य कालस्य स्वतन्त्रमेवोपममनिधि सूत्रकारः ( सेकितमित्यादि) का स्योपक्रमः कालोपक्रमः स क इत्याह ( जां नासिआईडि ) इत्यादि णमिति वाक्यालंकारे यदि नाक्षिकादिनिरादिशब्दात तृणच्ायानक चारादिपरिग्रहस्तैः काल उपक्रम इति शेषः । तत्र नाशिक ताम्रादिम घटिका तृण संकुच्छायादिना वा एतावत्योप्यादिकालोऽतिकान्त इति पपरा भवति परिकर्मणि araraमः यथा तत्परिज्ञानमेव हि तस्येह परिकर्म यत्तु ना प्रादिचार: कास्य विनाशनं स वस्तुनाशे का ओपक्रमस्तपा हान दिवारेण विनाशितः कामो न भविष्यत्य धान्यादिसंपत्तय इति वक्तारो भवति अनु०॥ किञ्च छायाए नालियाएव परिकम् से महत्यविभ्राणं । रिक्वाइय चारेहि यतासो ॥ (से) तस्य समयका घटिका मुहतणिस्य कामस्ये दमेव परिका परिकारान कयेत्याह शङ्कादिप्रतिच्छाया रूपच्छाया या घटिकारूपया च नामिकया विनाशस्तर्हि तस्य क इत्याह विपर्यासो वैपरीत्यभवनमनिष्टफलदायिकतया परिणमनमित्यर्थः । कैरित्याह ऋटकगुहादिचरितथाच पण या इत्थमित्थं गच्छता विनाशितः काल इति । उक्तः कालोपक्रमः । वि० [पहा "साविषयमाणं "डुमाणां शर्म चिि निकाप्रभृतीनां स्वापे विद्यधेच हायते पचागतोऽस्तमादित्य उदितो वेति । एष कालोपक्रमः । वृ० १ ० ॥ अथ भावोपक्रममादर से किं तं जावोश्वये 2 पिने से आगतो अनागमतो | जाणए उबवत्ते नो आगमतो दुवि पाते तं जहा पसल्ये पसरवे || भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तस्तथा श्रागमतो तो आगमतश्च । तत्रोपक्रमन्दार्थस्तत्रोपयुक्तचागमतो भावोपक्रम (सेकि तं नो आगमओ इत्यादि ) अत्रोत्तरम् ( नो आगमत्रो जावोचक्रमे विहेत्यादि) रहा निधायाथ्यो जीवव्यपर्यायां भा वशब्देनाभिप्रेतः । उक्तं च "नावाजिख्या पञ्चस्वभावसत्तात्मयोन्यायस्ततश्च भावस्य परकीयानिप्रायस्योपक्रमणं यथा तत्परिज्ञानं जावोपक्रमः । स च द्विविधः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति । तत्राप्रशस्तानिधित्सया आह तत्थ अपत्ये मोमिली गणि मचाई। ( तस्य अप्पसत्पत्ति ) इह तात्पर्य ब्राह्मण्या वैश्यया श्रमात्येन च यत्परकीयभावस्य यथा तत्परिज्ञान कणमुपक्रमणं कृतं सोऽप्रशस्त नावोपक्रमः संसारत्यात् । अनु० | अनुभस्य तस्य भावोपक्रमस्य ब्राह्मणीवेश्याऽमात्यादया दृष्टान्ताः प्रतिपादितास्तद्यथा एकस्या ब्राह्मण्यास्तिस्रः पुत्रिकाः तासां च परिणयनानन्तरं तथा करोमि यथैताः सुखिता भवन्स्यिति विचिन्त्य माता तर प्रत्ययो वा वासजनमा न किचिदमुपाददारेण तपोध यदनुतिष्ठति तन्ममाख्येयं कृतं च तया तथैव सोऽयतिस्नेहतर लितमना अपि प्रियतमे पीडितस्ते सुकुमारचरणो भविष्यतीत्य निधानपूर्वकं तस्याश्चरणोपमर्द्दनं चकार । व्यतिकरं सा मात्रे निवेदितवती साप्युपक्रान्तज:मातृका दृष्टा दुहितरं प्रत्यवादीत् । पुत्रिके यद्रोचते Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९०१ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवक्कम तदीयगृहे कुरु त्वं न तवावचनकरो नर्ता भविष्यतीति । द्वितीयापि तथैव शिक्षित तथापि च तथैव स्पनसी शिरसि प्रदतः केवलमसौ नैतत्कुलप्रसृतानां सृज्यत इत्यादि चिचित्या न्युपरतस्तस्थि व्यतिकरे तथा मा तुर्निवेदिते प्रोक्तं मात्रा वत्से ! त्वमपि यथेष्टं तद्गृहे विजृम्भस्व केवलं त्वद्भर्ता पित्यापास्यति। एवं तृ शिकितया पुtित्रा तथैव प्रढ़तः स्वनर्ता केवलमेतेनोच्छलकोपेन नकुलीना त्वं देवं शिष्टये से इत्याद्यभिधाय गाढं कुट्टयित्वा निष्काशिता गृहात् । तया च गत्वा सर्व मात्रे निवेदितम् । ततस्तया विज्ञातजामातृप्रावतया तत्समीपं गत्वा वत्स ! स्वकुलस्थितिरियमस्माकं य दुत प्रथमसमागमे वभ्वा वरस्येत्थं विधातव्यमित्यादि किंविनिधाय कथमप्यऽनुनीतोऽसौ दुहिता च प्रोक्ता वत्से ! दुराराधस्ते भर्ता भविष्यति परमदेवतावदप्रमत्ततया समाराधनीय इति माह्मणीष्टान्तः । अव गधिकारष्टान्त उच्यते ॥ एकस्मिन्नगरे तुष्टवि नसरिता देवदत्ताभिधानारूपादिगुणतया परिव वि तथा च जङ्गजनाभिप्रायरानाचे पारं कुर्या सर्वा अपि राजपुत्रादिजातयो रतिनयनभित्तिषु चित्रकर्मथि लेखितास्तत्र च यः कचिकाजपुत्रादिरागच्छति स पत्र २ कृतान्यासस्तत्तदेव नित्य प्रशंसति । ततोउसी विज्ञासिनी राजपुत्रादीनामन्यतरत्वेन निपचित्येगोपचरति । धनुकृत्येनोपरिताश्च राजपुत्रादयस्तस्यै मथुर मर्थजातं प्रयच्छन्तीति गणिकादृष्टान्तः । अथाऽमात्यदृष्टान्तोऽभिधीयते ॥ एकस्मिन्नगरे कश्विद्राजा श्रमात्येन सहाश्ववाद निकायां निर्गतस्तत्र च पथि गच्छता राजतुरङ्गमेण कणिकारि देशपृथिव्याः स्थिरत्वेन स्थिरत्वं विरेणाप्यमुष्कं व्यावर्त मानो राजा तथैव व्यवस्थितमप्राकीश्चिरावस्थायिजलः शोभनोऽय प्रदेशे तमागो जविष्यतीति चिन्तितं विरमवलोकितवांस्तदिति । ततश्चेङ्गिताकारकुशलतया विहितं तदभिप्रायेणामात्येन राजादेशमन्तरेणापि खानितं तत्प्रदेशे महासरः तपाल्यां चरोषिताः सर्वकष्फल समुरूयो नानाजातीयतरुनिवाः । अन्यदा च तेनैव प्रदेशेन गच्छता नूपालेन दृष्टं पृष्टं यादो मानससरोवरमणीयं केनेदं खामितं सरः । श्रमात्यो जगाद देव ! नवद्भिरेव । राजा सविस्मयं प्राह कथं कध कदा मयैतत्कारणाय निरुपित इत्यतः सचिवो यथावृत्तं सर्वमपि कथितवानदो परवित्तोपत्र कायमस्येति विचि न्त्य परितुष्टो राजा तस्य वृत्तिवर्द्धनादिना प्रसादं चकार तदेवमादिकः संसारफलीपरोप्यमस्तनापोपक्रम मा इति ॥ विशे० ॥ अथ प्रशस्तन्नावोपक्रममाह । " पसत्थे गुरु माईणं " तत्र श्रुतादिनिमित्तं गुर्वादीनां यद् भावोपक्रमणं स प्रशस्त भावोपक्रमः ॥ अनु० ॥ सीसो गुरुणो जाये, जमुवकमा सुई पमस्थपणो । सहियत्यं ससत्थो, इह प्रायोजकमो हि गओ ॥ ve forयः स्वहितार्थ श्रुतार्थे श्रुताध्ययनादिहेतोः प्रशस्मादेवानामङ्गताकारादिना जानाति महास्नायोपक्रमस्तेनैव बेहाधिकारी मोकार्थत्वादेव सर्वस्यास्य प्रारम्भस्येति । विशे० । वृ० ( गुविक्रम गुरु शब्द) साम्यतं तमेव शास्त्रकणेन प्रकारान्तरणाभिधित्सुराद्व अवा उपक्रमे उप पकते जहा अणुपुबी १ उवक्कमकाल नाम २ पमाण ३ बचन्यया ४ प्रत्यादिगारे ५ समोआरे ६ ।। अथवा अनन्तरं यः प्रशस्त नावोपक्रमः उक्तः लोके पूर्वादिविभागः स हि द्विविधो रुष्टव्यो गुरुमावोपक्रमः शास्त्रaratusमश्च । शास्त्रलक्षणो भावस्तस्योपक्रमः शास्त्रभावोपक्रमस्तकेन गुरुभावोपक्रमणेन प्रकारेणोकोऽय द्विती येन शास्त्रावोपक्रमलक्षणेन प्रकारान्तरेण तमनिधित्सुराह ( अहवा वकमे इत्यादि ) अथवेति पचान्तरसूचकः उपक्रमः प्रथमपातनापके शास्त्रीयोपक्रमो द्वितीयपातनापक्के तु शास्त्र नावोपक्रमः षविधः पद्मकारः प्रज्ञप्तस्तद्यथा धनुपूर्वी १ नाम २ प्रमाण ३ वक्तव्यता ४ अर्थाधिकारः ५ समवतारः ६ अनु तेषा शब्दस्युत्पत्यादिस्वरूप यथासरं स्वस्वस्थाने ) ( उपोद्घातादस्य नेदः स्वस्थाने ) उपम्यते युपक्रमः । ज्वरातिसारादी स्था० ४ ० शास्त्रे "महारथेष उपक्रमेणं च परिक्षा " तब विधा स्वकायपरकायतदुभयरूपम् । तत्र स्वकायशस्त्रं यथा लयणोदकं मधुरोदकस्य कृष्णभूमं वा पाराकुभूमस्य । परकाय यथाऽग्निकस्य उदर्क यानेरिति तजयशखं यथा उदकाः शुकोदकस्येत्यादि । ध० २ अधि० । उपक्रमोपसंहायेदेतुतात्पर्यनिर्णये, वेदान्तिमते तात्पर्यनिर्णायके हेतु मैदे, तत्रोपक्रमोपसंहाराज्यां काज्यामेव तात्पर्य निश्चीयते मत्येकेनति बोध्यम् । करणे घछ । सामादुपाये, कर्मणि घञ् आरभ्यमाणे, पुं० वाच० । जनकमकाल- उपक्रमकाल - पुं० क० स० । अभिप्रेतार्थ सामीध्यानयनत्रणे सामाचारीयायुष्कभेदभिन्ने वा कालदे आ० म० ६ि० ॥ अयोषकालं विजणिपुर्वाष्यकारस्तास्वरुपमादजेणोवकामिज्जर, समवमाणिज्जए जो जंतु । स किलो कमाओ, किरियापरिणामनूडो || कमु पादविशेषविवहितस्य दूरस्थितस्य वस्तुनस्तैस्तैरुपाय भूतैः क्रियाविशेवैरुपक्रमणं सामीप्यानयनमुपक्रमः । अथ येन क्रियाविशेषेणोपक्रम्यते दूरस्थं समीपमानीयते स उपक्रमः । यतो वा क्रियाविशेषाडुपक्रम्यते । यद्वा सामाचारीप्रभृतं वस्तु उपक्रम्यते स उपक्रमस्तस्य कालोऽप्युपचारादुपक्रम एव कालः उपक्रमकालः | फिलशब्द आप्तवचनोपदर्शनार्थः । श्रयं व बहुभिः क्रियापरिणामैर्भूयिष्ठः प्रचुरो नवति प्रभूताः क्रियापरिणामा भवन्ति । वायुष्कायुपक्रमाः क्रियाभयन्तीति यावत् । तयाच वक्ष्यति "अज्जवसानिमित्ते, आहारे वेयणापराधार | फासे आणापाणू, सत्तविहं भिजप श्रक" इत्यादीति गाथार्थः । २३ ॥ श्रच द्विविधो भवति कथमित्याह निर्युक्तिकारःपोषककालो, सामापारी अहा नेत्र सामायारी तिविहा, ओहे दसहा य पविचागे ॥ यथोपक्रमको द्विविधस्तदेव विभ्यं दर्शयति सामा चाकमका यथायुकोपक्रमका अय सामाचार्या उपमालत्वं समर्थयन्नाह जाष्यकारः ॥ जेणोरियसुयान, सामायारिमुयमाणियं देवा । ओडाइविवि एसो उनको समया ॥ पूर्वनिर्दिष्टान्नवमपूर्वादेरुपरिश्रमश्रुतादुकृत्य येन साधुसा माचारीप्रतिपादकं श्रुतमधस्तादिदानीतनकालेऽपि समा Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०२) उवकमकाल अन्निधानराजेन्धः।। उवकमकाल नीतमस्मदादीनां समीपीकृतं स एष समस्तसाधुवर्गः प्रत्य- नहि दोहकालियस्स वि, नासो तस्माइलो खिप्पं । तः (ओहाइत्ति ) श्रोधनियुक्तिस्तथा " इच्छामिच्छातहक्का बहुकामाहारस्स व, दुयमग्गिय रोगिणो नांगे ॥ रो इत्यादि" दशधा सामाचारीप्रतिपादको ग्रन्थश्छेदसूत्राणि चेति त्रिविधः समयचर्यया समयपरिभाषया उपक्रमः सामा न कृतनाशादयो दोषा शति प्रकरणाम्यते कुत इत्याह न चार्युपक्रमकालो भएयत इत्यर्थः। इदमुक्तं भवति लोके नसमा. यस्मात्तस्यायुष्कादेः कर्मणो दीर्घकालिकस्यापि दीर्घस्थिचार्युपक्रमकालतया कश्चित्कालो रूढः समस्ति । श्रागमे पुन त्यादिरूपतया बरूस्याप्युपक्रमेण नाशः क्रियते । कुत इत्याह रसौभण्यते कथमिति चेदुच्यते येन प्रभूतेन कालेन नव तिप्रं शीघ्रमेव सर्वस्यापि तस्याध्यवसायवशादनुततेदनाद् मपूर्वादिगतं सामाचारीश्रुतं शिष्योऽध्येतुमलप्स्यत स कालः यदि हि तद्वहुकाले वेद्यं कर्म अवेदितमेव मश्येद्यश्चासामाचारीश्रुतोपक्रमणद्वारेण स्थविरैरुपक्रम्य किलार्वागण्या ल्पस्थित्यादिविशिष्टं वेद्यते तत्ततोऽन्यदेव जयेत्तदा कृतनीतस्तत्काललभ्यस्य सामाचारीधुतस्य स्थविरैरिदानीमपि नाशाकृताच्यागमी नवेताम् यदा तु तदेव दीर्घकालवधमपिनेयेभ्यः प्रदानात्ततश्च सामाचार्युपक्रमद्वारेणोपचारतः का ध्यवसायविशेषादपक्रम्य स्वल्पेनैव कालेन वेद्यते तदा लस्यापि तस्योपक्रमान्तत्वात्सामाचार्यपक्रमकालोऽसी भ कथं कृतनाशादिदोषः यथाहि बहुकालन्नोगयोग्यस्याऽऽदारएयत इति । आयुष्कोपक्रमस्यापि ययायुष्कोपक्रमकालता स्य धान्यमूषकदस्युकादेरग्निरोगिणो जस्मकवातव्याधिमतो दर्शयन्नाह हृतं स्वल्पकालेनैव भोगो भवति न च तत्र कृतनाशो नाजं जीवियसंवट्टण-मजावसाणाइ हेनसंजणियं । प्यकृताच्यागम इत्येवमिहापि भावनीयमिति । अत्राह ननु सोवकमानयाणं, स जीवओवक्कमणकालो ।। यदकं तद्यदि स्वल्पकालेन सर्वमाप वेद्यते तर्हि प्रसन्न स जीवितोपक्रमणकावः यथाऽऽयुप्कोपक्रमकालोऽनिधीयत चन्द्रादिनिः सप्तमनरकपृथिवीयोग्यमसातवेदनीयादि कि इत्यर्थः । तत्किमित्याह यजीवितस्य यद्वा बकस्य दीर्घकालवे कर्मबद्धं श्रूयते तद्यदि सर्वमपि तैवेदितं तर्हि सप्तमनरकद्यस्यायुकस्य संवर्तनं स्वल्पस्थितिकत्वापादनम् । केपी पृथ्वीसंभविदुःखोदयप्रसङ्गः । अथ न सर्वमपि वेदितं तर्हि संपक्रमायुषां जीवानां निरुपक्रमायुषां निकाचितावस्थस्यैकब कथं न कृतनाशादिदोषः । सत्यमुक्तं किंतु प्रदेशापेक्षयैव तकत्यादपवर्तनायोगात् किं नितुकमेव जीवितसंवर्तनं नेत्याह स्य सर्वस्यापि शीघ्रमनुभवनमुच्यते अनुभागवेदनं तुन भव त्यपीत्येतदेवाहअध्यवसाननिमित्तादिहेतुसंजनितम् । अत्रायमभिप्रायो यश्विरेण सव्वं च पएसतया, नुजइ कम्ममाजागो भइयं । मरणकालोऽभविष्यदसौ आयुष्कर्मस्थित्यपवर्तनद्वारणोपचारतः किलोपक्रम्या,गानीत श्त्यसौ यथायुष्कापक्रमका नुच्यत तणावस्सानवे, के कयनासादो तस्स ।। इति । नन्वेवमुपक्रमः किमायुष एव जयत्याहोश्विदन्यासामपि सर्वमष्टप्रकारमपि कर्म सोत्तरभेदं प्रदेशतया प्रेदशानुभवद्वारे झानावरणादिप्रकृतीनामिति विनयप्रश्नमाशझ्याह॥ ण भुज्यते वेद्यत एवेत्येष तावन्नियमोऽनुभागस्तु सानुभवसव्वपगईणमेवं, परिणामवसादुवकम्मे होजा। माश्रित्येत्यर्थः। भजनीयं विकल्पनीयम अनुभागः कोऽपि वेद्यपायमनिकाझ्याणं, यवसा उ निकाझ्याणं पि॥ ते कोऽपि पुनरध्यवसायविशेषेण हेतुत्वान्न वेद्यत इत्यर्थः । न केवलमायुषः किं तु सर्वासामपि झानावरणादिप्रकृतीनां तदुक्तमागमे “ तत्त्थ णं जं तं अणुभागकम्मं तं अस्थगइए शुभाशुजपरिणामयशादपवर्तनाकरणेन यथायोगं स्थित्यादिख यं चेयइ अत्थेगइयं नो वेयइ तत्थ णं जंतं पएसकम्मं तं निगमनकारेणापवर्त्यमानानामुपक्रमो भवति स च प्रायो नि यम विपत्ति" अतः प्रसन्नचन्द्रादिभिस्तस्य नरकयोग्य काकाचनाकरणेनानिकाचितानां स्पृष्टवरूतावस्थानामेव भवति र्मणः प्रदेशा एव नीरसा इह वेदितानत्वनुभागस्य शुभाध्य वसायेन हतत्वादत एव न तेषां नरकसंविदुःखोदयःकप्रायो ग्रहणस्य फसमाह । तीवेण तपसा पुनर्निकाचिता मणां विपाकानुभव एव सुखदुःखयोर्वेदनायेनैवं तेन बद्धन्यपि कर्माण्युपक्रम्यन्त पव यदि पुनर्यथा बद्ध तथैवानुपका स्य कर्मणः सर्वेषामपि प्रदेशानामवश्यं वेदनात् के किल तस्य तं सर्वमपि कर्म वेद्यत तदा मुक्तिगमनं कस्यापि न स्या कर्मोपक्रमं कर्नु कृतनाशादयो दोषा न केचिदित्यर्थः । श्राह तद्भवसिद्धिकानामपि नियमेन सत्तायामतः सागरोपमको नन्वेवमप्यनुभागो यथा बद्धस्तथैव प्रसन्नचन्द्रादिभिर्न वेदिटीकाटीस्थितिकस्य कर्मणः सनावादेतच्च स्वत एव वक्ष्यति त इति कथं न कृतनाशः अस्त्वेव कृतनाशः । ननु काचिद्विधा नां युपि एव किमित्यत्रोपक्रमकाल जुक्तो न शेषकर्मणामि यदि ह्यध्यवसायविशेषेणोपहतत्वान्न श्यति रसस्वदा किमनितिचडुच्यते बोके आयुष्कोपक्रमस्यैव प्रसिझत्वात्तउपक्रम एं सर्वस्यापि ह्यष्टप्रकारकर्मणो मूलोच्छेदाय यतन्त एककास पवेद प्रोक्तः उपत्रवणव्याख्यानाच्वेषकम्मोपक्रमकालो साधव इत्यभीष्ट एवेत्थं तेषां कृतनाशः।यदा बहुरसं बहुस्थिऽपि प्रष्टव्य शति ॥ अथ प्रेरकः प्राह तिकं च सत्कर्म अल्परसमल्पस्थितिकं च कृत्वा येदयति कम्मोवकामिज्जइ, अपत्तकालं पि जातओ पत्ता । तदा तस्याल्पस्थितिकस्य च कर्मणः पूर्वमकृतस्यागमतस्ततअकयागमकयनासा, मोकवाणासासया दोसा ।। श्व मोक्षेप्यनाश्वासः सिद्धानामप्यकृतकानुगमेन पुनरावृ. ननु यद्यप्राप्तकालमपि बहकाक्षवेद्य कम्मैत्थमुपक्रम्यते श्दा. त्तिप्रसङ्गादिति चेत्तदयुक्तं यदि ह्यल्परसत्वमल्पस्थितिकत्वं नीमपि किप्रमेव वेद्यते ततस्ताकृतागमकृतनाशौ मोक्कोना- च कर्मणोऽत्र निर्हेतुकं स्यात् एवं च नास्ति अल्परसत्वम् श्वासादयश्चत्येते दोषाः प्राप्ताः । तथाहि यदीदानीमेवो- अध्यवसायविशेषकृतत्वेनाभ्यागमन्चायोगादल्पस्थितिकत्वपक्रमातालपस्थितादिरूपं कर्म वद्यते तत्पूर्वमकृतमेवोपगतमि- मप्यायुष्कादीनां निर्हेतुकमेव जायते अध्यवसाननिमित्सादिहेत्यतात्यागमः। यत्त पूर्व दीघंस्थितादिरूपतया कृतं बर्फत तूनां दर्शितत्वादतस्तत्रापि कथमकृतागमत्वम् । अत एव न म्यापवर्तनाकरणोपक्रमेण नाशितवाकृतनाशः ततो मोक्कोऽप्येव सिद्धानां कर्मसमागमस्तदागमहेतृनां तेष्वभावादित्यलं प्रमनाश्वासः सिकानामप्येवं कृतकम्मात्यागमेन प्रतिपातप्रस-| सङ्गेन । भाष्यकारेणाप्यस्यार्थस्य प्रपञ्चयिष्यमाणत्वादिति झादिति । अत्रोत्तरमाह शुक्तियुक्तश्चोपक्रमः कर्मणां कुस इत्याह Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमकाल अनिधानराजेन्फः ।। नवक्कमकाल उदयखयख अोवसमो-वसमा जं च कम्मणो भाषियं । यामसंख्येयभवार्जितकर्मणः सद्भावात्तस्य च नानाध्यवसादवाइपंचयं पइ-जुत्तमवक्कामणमओ वि ॥ यबद्धत्वेन नरकादिनानागातिकारणत्वात्ततस्तस्य विपाकत एवानुभवने एकस्मिन्नपि तत्र चरमभवे नानाभावानामनुभवयच यस्मादुदयश्च क्षयश्च क्षयोपशमश्च उपशमश्च उदयक्षयक्ष नं प्रामोति तश्चायुक्त कुत इत्याह । ( नाणाभवाणुत्ति) तत्र योपशमोपशमास्ते कर्मणो व्यक्षेत्रकालभवभाषपञ्चक प्रति भणिता द्रव्यादीनाधियोक्ता अतोऽपि कारणाच्छत्रादिद्रव्या चैकस्मिन्मनुष्यगतिवर्तिनि चरमभवे नारकतिर्यगादिनाना णि प्राध्यायुष्कादीनां युक्तमुपक्रमणं क्षय इति । तथासात भवानां परस्परविरुद्धत्वेनानुभवनाभावात्तर्हि तन्नानाग तिकारणं कर्म पर्यायेणापि क्रमेण नानाभवेष्वनुभूय सिध्यतु वेदनीयस्य कर्मणो द्रव्यमाहविषकराटकादिप्राप्योदयो भवति किमेतावता विनश्यति तदयुक्तं कुत इत्याह । (पजएणवा क्षेत्रं तु नरकवासादिकं कासं तीब्रनिदाघसमयादिकं नवं नारक इति) इदमुक्तं भवति पर्यायेण वा क्रमेण तानानाभवान्विपाभवादिकंभावं तु वृद्धजावादिकम् कयोऽप्यस्य व्यं सारुचरणा कतोऽनुभवतः पुनरपि नानागतिकारणस्य कर्मणो बन्धः रविन्दादिकं प्राप्य नवति केत्रं तु पुण्यतीर्थादिकं कालं सुषमदुः पुनरपि च क्रमेण नानाभवभ्रमणं पुनर्नानागतिकारणं कर्म षमादिकं भवं सुमनुजकुवजन्मकणं भावं तु सम्यग्ज्ञानावर बन्ध इत्येवं मोक्षाभावः । एतच्चानिष्ट तस्मादेष्टव्यः कर्मणा णादिकम् कयोपशमोपशमौ तु वेदनीयस्य न जवतः। एवं मोह- मुपक्रम इति । अथ प्रकारान्तरेणोत्तरदित्सया पूर्वविहितमेव नीयेऽपि । मिथ्यात्वमाहनीयस्य व्यं कुतीर्थादिकं प्राप्योदयो प्रेर्य पुनः कारयन्नाह । भवति केत्रं तु कुरु केत्रादिकं साध्वादिरहितदेशाधिकं वा कालं ना तन्न जहोवचियं, तदानवो कया गमाईय । दुःपमादिकं भवं तेजोवाय्वेकेन्धियादिकम् अनार्यमनुजकु तप्पाओग्गत्तं चिय, तेण वि य सब्जरोगोच ॥ लजन्मरूपं वा भावं कुसमदेशनादिकमिति । क्षयक्षायोपशमास्त्वस्य द्रव्यं तीर्थकरादिकं प्राप्य भवति । क्षेत्रं तु महावि ननु यदुपक्रमाल्लघुस्थितिकं कृत्वा जीवो वेदयति तदायुष्कदेहादिकं, कालं सुषमदुःषमादिकं भवं सुमनुजकुलजन्म भावं म न भवति । कथभूतमित्याह येन प्रकारेण वर्षशतभोग्यत्वतु सम्यग्ज्ञानावरणादिकमिति एवं शेषेऽपि शानदर्शनावरणा लक्षणेन पूर्वमुपचितं तेन जीवेन बद्ध यथोपचितमिति । या. दिके कर्मणि निद्रावेदनीयकर्मणो माहिषदधिघृतादिकं - दृशं पूर्वजन्मनि बद्धम् तादृशमेव तन्न भवतीत्यर्थः। वर्षशत. व्यमासाद्योदयो नवति क्षेत्रं तु अनूपादिकं कालं प्रीष्मादिकं भोग्यत्वं हि दीर्घकालस्थितिक पूर्वभवे बद्ध उपक्रमानन्तरं तु यदन्तर्मुहूर्तादिलघुस्थितिकमनुभवत्यायुस्तदन्यदव अन्यजयमेकेन्द्रियादिकं भावं तु वृद्धत्वादिकमिति । क्षयोप्यस्यो था अनुभवांदिति भावः । ततः को दोष इत्याह (तहाणुभवक्तानुसारेण वाच्यः । क्षयोपशमोपशमी स्वस्यापि न प्रवतः। श्रो इत्यादि) यथा तेन प्रकारेण पूर्वबद्धविलक्षणमायुरनुभवतो एवमन्येषामपि कर्मणामुदयादयो यथायोगं द्रव्यादीन् प्राप्य जीवस्य पूर्वोक्ता अकृतागमादयो दोषा प्रसञ्जन्ति । अत्रोत्तरस्वधिया नावनीया इति । श्रथ दृष्टान्तद्वारेण कर्मणां द्रव्य माह । ( तप्पापोग्गमित्यादि ) तस्योपक्रमस्य प्रायोग्य क्षेत्रादि सहकारिकारणापेक्षा साधयन्नाह उपक्रमाहमेव तदायुष्कर्म तेन सोपक्रमायुषा जीवेन चित्त पुमापुस्म कयं पिह, सायमसायं जहोदयाई ए। पूर्वजन्मनि बद्धं साध्यरोगवदिति । ततश्च यथोपक्रमसाध्ये वज्ख लाहाणा न, देश तह पुस्मपावं वि॥ रोगो व्याधिः केनापि प्रागुपार्जित इत्युपक्रम्य तं स्फोटयति यथा सातं सुखमसातं तु पुःखं पुण्यापुण्यस्वरूपकर्मजनि- न च तस्य तथा कुर्वतोऽकृतागमादयः एवमायुरप्युपक्रमसातमपि सकचन्दनाङ्गनादिविषकण्टकादिना बाह्येन सहका- ध्यतया बद्धत्वात् । यद्यपक्रमस्यैव वेदयति तदा केन स्यारिणा यदलस्य सामर्थ्यस्याधानं विधानं तस्माद्देवोदयादीन् द- कृतागम इति । दाति नत्वेवमेव पुण्यपापोदयमात्रात् ततश्च यथतत्सकललो- ननु साध्योऽसाध्यो वा रोग इति कथं शायत इत्याह । कस्यानुनवसिद्धं सुखदुःखाख्यं कार्य बाद्यान् द्रव्यक्षेत्रादीनपे- अणुवक्कमओ नासम, कालेणोवक्कमेण खिपति । क्ष्यैवोदेति कोयते वा न पुनरेवमेव तथा तत्कारणं पुण्यपापात्मकं कामेण चेत्र सका-सका सझं तहा कम्मं ।। कर्मापि अध्यक्षेत्रादीनपेक्ष्यैवोदेति कीयते वेति सिम्मेव नहि साध्यो रोग इति स चानुपक्रमतः उपक्रमाभावात्कालेन निकार्य अव्यादीनपेक्वते तत्कारणं तु तन्निरपेक्ष्यमिति शक्यते वक्तु जभुक्तिच्छेदेन नश्यति । उपक्रमेण तु विहितेन क्षिप्रमागपि म् । न खलु कार्यतू तो घदश्चक्रचीवरादीनपेढ्यैव जायते तत्का शीघ्रं नश्यति साध्यत्वादेव । यस्त्वसाध्यो रोगः स कालो रणजतस्तू कुत्रासश्चक्राचनपेक एव घट जनयतीत्युच्यमानं मरणं तेनैव नश्यति नतूपक्रमशतैरपि । तथा कर्मापि यशोनां विनति तस्मादयादीन् प्रति व्यादिसव्यपेकाणां कर्म साध्यं बन्धकालेऽप्युपक्रमसव्यपेक्षमेव बद्धं तपक्रमसामणां युक्तस्तन्निधानादुपक्रम इति । यदि पुनर्यथा बळं तथैव वेद्यते घ्यभावे कालेन संपूर्णवर्षशतादिलक्षणेन निजभुक्तिच्छेदेन सर्व कर्म न पुनरुपक्रम्यते तदा किं दूषणामित्याह नश्यति उपक्रमसामग्रीसन्निधाने तु शीघ्रमन्तर्मुहूर्तादिनैव जताओव्विय, खविज्जए कम्म मन्नहा न मयं । कालेन नश्यति साध्यत्वादेव यत्पुनरसाध्यं बन्धकाले निकातेणासंखजवज्जिय, नाणागकारण तणउ ।। चितावस्थमनुपक्रमे च बद्धं तदनेकोपक्रमसद्भावेऽपि निजपरि, नाणाजवाभवणा, नावादेकम्मि पज्जएणं वा । पूतिकालमन्तरेण न नश्यति । अजव ओ बंधा उ, मोक्खा जावो सचाणिहो । अस्यैवार्थस्य साधनार्थमाह। यदि तावयथाबद्ध तथैव प्रतिसमयानुभूतितः प्रतिसमयं समास कम्मे, किरियाए दोसओ जहा रोगो । विपाकानुभवेनैव कर्म क्षप्यत इति तवानुमतं नान्यथा सामवक्कामिज, एत्तो चिय सज्करोगा व्य ।। नोपक्रमद्वारेण तदेतत्कृपणमभिप्रेतं हन्त तेन तर्हि सर्धस्या- (किरियाए त्ति ) क्रियाया उपक्रमलक्षणायाःसाध्यमसाध्य पि जन्तोर्मोक्षाभावस्त्वदभिप्रायेण प्रामोति स चानिष्ट एव क- च कर्म भवतीति प्रतिज्ञा ( दोसश्रोत्ति) दोषत्वादिति हे. स्मात्पुनर्मोक्षाभावप्राप्तिरित्याह । तद्भवसिद्धिकस्यापि सत्ता- | तुर्यो यो दोषः स स नपक्रम क्रियायाः साध्योऽसाध्यश्च नवति Jain Education Interational For Private & Personal use only... Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०४) उवक्कमकाल अभिधानराजेन्द्रः। उवक्कमकाल यथा ज्यरादिरोगः यच साध्यं तापक्रम्यते (पत्तोचियत्ति)। निमो जहेह कालो, तुने वि पहम्मि गइविसेसा न । साध्यत्वादेव साध्यरोगवदिति । अथवा प्रकारान्तरेण प्रमा सत्येव गहणकालो, गश्मेहो यो जिनो ॥ गयाह॥ सकामयहेको, सानियाणामोहवा सऊं । तह तुझम्मि वि कम्मे य, परिणामाइकिरिया विससाउ । सोवकमणमयं पि व, देहो देहानाबान ॥ जिम्मणुजवणकालो, जेट्ठो मको जहन्नो य । अथवासह उपक्रमेण वर्त्तते सोपक्रमणं वेदनीयादिकम् । सा. जह वा दीहा रज्जू, मज्द कालेण पुंजिए खिप्पं । ध्यमुपक्रमाक्रयाविषयभूतं कर्मेति प्रतिज्ञा । उपक्रमश्च सा- वियओ पडो व्व सुस्मइ, पिंकीतूओ य कालेण । ध्यवासी प्रामयश्च साध्यामयस्तद्धेतुत्वादिति हेतुः । यथा जागा य निरोबट्टो, हीरइ कमसो जहा णदी खिप्पं । अयमेव प्रत्यक्षो देहः मण्डच्छेदादिद्वारेण देहोऽपि साध्यः किरिया बिसेसो वा, समे विरोगे चिगिच्छाए । उपक्रमाक्रियाविषयः सोपक्रमश्चेति साध्यधिकलत्वाभावो । यथा किंचिदानराजादनादिफनं यावता काझेन वृक्तस्थ क्रमेण शान्तस्तस्य साध्यामयस्य च गण्डादिकारणत्वाइहस्य साध. पच्यते तदपेक्वया अर्वाकूकासेऽपि गर्तप्रक्षेपपनसस्थगनाद्युपायेनविकलत्वस्याप्यभावः। अथवा हेतुत्वन्तरभाबादन्यथा प्र. नपाच्यते अन्यत्र वृक्तस्थमेवोपायाभावतः क्रमशः स्वपाककालेमाणं सोपक्रमणं साध्य कर्मेति सैव प्रतिज्ञा साध्यनिदाना न पध्यते तथा कम्माप्यायुष्कादिकं किमप्यध्यवसानादिहेतुश्रयत्वादिति । अत्र निदानं कारणं साध्वकर्मजनकं च नि निर्बन्धकालनिर्वतिंतवर्षशतादिरूपस्थितिकासापेक्कया कानादानमपि साध्यमुच्यते साध्यं च तनिदानं च साध्यनिदान तस्याश्रयः साध्यनिदानाश्रयस्तद्भावः साध्यनिदानाश्रयत्वंत प्यन्तमहत्तादिना पाच्यते वेद्यतेऽनुनूय पर्यन्तं नीयत इति सात्साध्यनिदानाश्रयत्वात्साध्यनिदानजन्यत्वादिति भावः।नि तात्पर्यम् अन्यान्मकालनिर्वर्तितवर्षशतादिसक्वणस्थितिकाझेदानस्य साध्यत्वं कथं शायत इति चेदुच्यते साध्यक नैव संपूर्णेन विपाच्यते अनुनूयत इति । अथवा यथेह तुल्येऽपि मर्मजनकत्वात्कर्मणोऽपि साध्यत्वं कथमवसीयत इति ॥ त्रियोजनादिके पथि त्रयाणां पुरुषाणां गतां प्रहरो हिउयादिनचेदुच्यते उपक्रमान्यथानुपपत्तेरिति । आह ननूपक्रम एव कणो गतिविशेषाद्भिनो गतिकाझो विशिष्यते दृश्यते एवं कर्मछत्र साध्यस्ततस्तदसिही कर्मणः साध्यत्वं न सिध्यति तदसि णः तुल्यस्थितिकस्यापि तीवमन्दमध्यमाभ्यवसायविशेषाजयकौतु कर्मजनकस्यापि साध्यत्वासिकिरिति साध्यनिदानजन्य- न्यमध्यमोत्कृष्टलक्कणस्त्रिविधोऽनुन्नवनकालो नयति । यदिवा यथा स्वादिति साध्यत्वविशेषणासिघ्याऽसिको हेतुरिति । सत्यं तुल्येऽपि शास्त्रेऽध्येतृणां मतिर्ग्रहणयुभिर्मेधा पुनरिहावधारणकित्येवं मन्यते "जश्नाणु नृश्चियखविजयकम्मेत्यादि" प्रन्यो- स्वरूपा गृह्यते तद्भदात्रिविधी ग्रहणस्य पठनस्य कालो निन्नो क्तयुक्तिन्यः सिद्धमेव कर्मणः सोपक्रमत्वं ततस्तत्सिकौ क- ऽनेकरूपो विलोक्यते एवमायुषोऽपि परिणामविशेषातुल्यस्थिर्माणः साध्यत्वं सिध्यति तत्सिकौ च साभ्यकर्मजनकतया तिकस्याप्यनेकरूपोऽनुभवनकाल इति । पथि शास्त्राधान्तयोः प्रक तजनकनिदानस्यापि साध्यसिकिरिति । यद्येवं पूर्वक्तियुक्तिन्य तयोजनामाह । ( तहतुबम्मिवीत्यादि ) गताधैव नवरं (परिएव सिकं कर्मणः सोपक्रमत्व मिह पुनरपि तत्साधनमपार्थ णामा किरियाविसेसाओत्ति) परिणामोऽध्यवसानमादिशब्दा. क्यमिति चेत्सत्यं किंतु प्रपञ्चप्रियविनेयानुग्रहार्थत्वाददोषः । दबाह्यदएमकशस्त्रादयो गृह्यन्ते क्रियाच परिणामादिमकणापरियदि वा कर्मणो निदानमध्यवसायस्थानान्येव तानि च विचि- णामादयश्च क्रिया च परिणामादिक्रियास्तद्विशेषास्तद्भेदा बहुप्रत्वेनासंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणान्यतस्तेषु मध्ये यथा निस्तुल्यस्थितिके बकेऽपि कर्मणि भिन्न एषानुन्नयनकाल इति निरुपक्रमजनकानि तथास्योपकमजनकाम्यध्यवसायस्थाना- यथा दीर्घा प्रसारिता रज्जुरेकस्मात्पकात्क्रमेण ज्वसन्ती प्रनूतेनि विद्यन्ते पवेति तद्वैचित्र्यान्यथानुपपत्तेरित्यादि युक्तितः सा- नैव काझेन दह्यते पुजीकृता तु पिहिमता तु ज्वमन्ती कि शीघ्रभ्यकर्म जनकनिदानस्य साध्यत्वं साधनीय तत्सिकौ च तत्का- मेव जस्मीभवति । एवं कर्माप्यायुष्कादिकं दीर्घकासस्थितिक र्यस्य कर्मणोऽपि साध्यत्वं सोपक्रमणत्वं सिभ्यतीत्यनं प्रपञ्चे- प्रतिसमय क्रमेण वेद्यमानं चिरकालेन वेद्यते अपवर्त्य पुनर्वेधन । यथा अयं देह शति स एव दृष्टान्तः अस्य च गएमच्छेदा- मानमल्पनैव कालेन वेद्यत इति । यथा वा जलाधः पिएमीतूतः। दिद्वारेण ग्द्यिमानत्वात्सोपक्रमत्वमत एव साध्यनिदानजन्यता पटश्चिरका सेन शुष्यति विततः प्रसारितः पुनरल्पेनैव काोन अतः साध्यसाधनधर्माज्यासस्याविकंबतेति । अथवा इत्वम्यथा- शुप्यत्येवं कापीत्युपनयस्व (यथैवेति ) यथा वा नकादिकस्चनान्यथाप्रमाणं (देहादिनावानात्त) सोपक्रमणं साध्यमुप- स्य महतो राशेर्निरपवर्तनोऽपवर्तनोपवर्तनारहितो नागःक्रमश. क्रम क्रियाविषयनूतं कर्मेति प्रतिझा सैव देहादी जावादादि. श्चिरेण व्हियते अन्यथा पुनरपवर्तनायां विहितायां तिनं शीघ्रमेशब्दाजीवे च भावादिति हेतुः देहे जीवे च किन्न वर्तते कर्म पापव्हियते । तयाहि किन्न सकप्रमाणस्य राशेर्दशनिर्भागो दर. कवलं जीवे बययःपिएमन्यायेन तस्य वृत्तिः देहे स्वाधाराधे णीयः स च यद्यपवर्तनामन्तरेण व्हियते तदा महती वेशा अगति यजावेन जीवो वर्तते तद्वारेण च कर्मापीति यथायमेव प्रत्य- यदि तु गुणस्य सदस्य गुणकारकस्य च दशलकस्य पञ्चनिको देह इति स एव दृष्टान्तः । नन्वाधाराधेयभावेन देहस्यापि रपवर्तना विधीयते पञ्चनिर्भागो हियत इत्यर्थः तदा शीघ्रमेव जीवे वृत्तियुक्ता देहस्य च देहे वृत्तिरिति पतत्कथम् । सत्यं सर्वे हियते भागो अकस्य हि पञ्चनिनांगे हते लब्धानि विशतिजाबाः स्वात्मनि वर्तन्ते वस्त्वन्तरे चाधारे इति न्यायादेहस्यापि सहस्राणि दशानां तु पञ्चभिर्नागे हते अब्धौ द्वौ एतान्यां विंशदेहे वृत्तियुज्यत एव । अथवास्यौदारिकादिदेहस्य जीववत्का- तिसाहनिकस्य अघुराशेजागे हुते ऊटित्येव दशसहस्राएयागच्चमणलक्षणेऽपि देहे वृत्तिः प्रतीतैवोत न देहादौ नावादिति न्ति अनपवर्तितेस्तु दशभिरनपवर्तितस्यैव सक्स्यपदीघों नागासाधनधर्मविकताहणान्तस्येति । अथ कर्मणः सोपक्रमत्वसि- पहारकालो जवति एवमायुषोऽप्यनपवर्तितस्य तु अघुरसाविति द्वावुपपत्त्यन्तराण्यप्याह । यथा वा समेऽपि कुष्ठादिके रोगे क्रियाविशेषाश्चिकित्साया रोगकिंचिदकाने वि फलो, पाइज्ज पच्चएण कालेण । निप्रहाकणायाः कासनेदो भवत्येवमायुषोऽपीति । तदेयं सप्रतह कम्म पाइज्जद, पारण विपच्चए वमं ॥ सङ्गो द्विविधोऽप्युक्त उपक्रमकाः ॥ विशे०॥ Jain Education Interational | Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०५) उवक्कमण अन्निधानराजेन्द्रः। उवगरणनप्पादपाया नवकमण-उपक्रमा-न० उप-क्रम-ब्युट । विक्केपणे, विशे०७ | उवग-नुपग-त्रि० उप-गम--उपगन्तरि, वाच॥ ठा। प्रारम्भे, करणे घ्युट तत्साधने, सुश्रुतोक्ते दीर्घायुष्यादिझानपूर्वकचिकित्सायाम, नूमिकायाम, स्त्री० । वाच॥ नवक-पुतिरश्चि, “तदणुचए वावि उवगो" उपको नाम अन्यः नवकमिया-औपक्रमिकी-स्त्री. उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमो ज्व कोऽपितियंगापतितो मिलितः।वृ०६३० गतायां च । नि०चू०३३० रातिसारादिस्तत्र नवा या सा औपऋभिकी। स्था० । उप उवगंतुकाम-नुपगन्तुकाम-त्रि अन्युत्थातुकामे, " जो संविक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः कर्मवेदनोपायस्तत्र जया औपक्रमिकी (न० ग्गविहारं वगंतुकामो अशुटिउकाम इत्यर्थः"। नि० चू०१एउग १ श०४०)कर्मोदीरणकारणेन निवृत्तायां तत्र भवायां ज्व- नवगथ-उपगत-त्रि० उप-गम्-क्त. स्वीकृते, उपस्थिते, झाते. गतिसारादिजन्यायां वा वेदनायाम, स्था०२०।" अहं जब वाच । दौकिते, सूत्र० १ श्रु.३ अ० । अधिगते, “णिजणकमियं वेयणं णो सम्मं सहामि"॥ स्था० ४ ग० ॥ सिप्पोवगएटिं" औ० । प्रश्न युक्त, “सिरिए हिरिए उबगए उवक्कमियुवसग्ग-औपक्रमिकोपसर्ग-पुं० इएमकशस्त्रादिनाऽ उत्तप्पसरीरे" रा“सम्माणणाणोवगए महेसी" उत्त०१२ सातवेदनीयोदयापादके, सूत्र. १ धु० ३ अ०। ( स्वसग्गशब्दे अ०।ौ० । उप सामीप्येन गतः। प्राप्ते, सूत्र०२ श्रु०१०। विवृतिः)। १०। पंचा। अनुरा०। “णिहवढ्यसरसजोवणककसतनवकेस-नुपवेश-पुं० उपक्किइनाति अनेन उप लिकय करणे घञ् रुणवयभावमुबग्गयाओ" औ० । उत्त। "काणकोडोवगए, मदादिषु, बाचा भावे घञ् । शोकादिवाधायाम, स्था०७ ग. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर" ध्यानं धयं शक्लं उपक्ख (क्खा) इत्ता-उपख्यापयित-त्रिशोके ण्यापयात, "पाहि वा तदेव कोष्ठः कसूमो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतस्तत्र प्रविष्ठो ध्यान कोष्ठोपगतः ना१श०१०। "सोयग्गमुवगयाणं" सोकाग्रमकम्मेहि अत्ताणं वक्खाश्त्ता भवति" । पापैः कर्मनिरास्मानमुपण्यापयिता जवति । अयं महापापकारीत्यवं लोके ख्यापय पगतेच्या लोकाग्रमीपत्प्रास्ताराख्यं तप सामीप्येन निरधि शेषकर्मविद्युत्पातपराजिन्नप्रदेशतया गताः उपगताः । । तीति । सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ जपति काअसामीप्यन गतानां प्राप्तानाम् । यद्वा नपेत्युपसर्गः नवक्खम-उपस्कृत-त्रि० उप-कृ-क्त-भूषणादा सुट् । नूषि प्रकर्षेऽप्युपनत्यते यथा पोढारागेण तेन स्थानमनुपमसुखं प्रकते, संहते, विकृते, अध्याहृते, वाच । घूतहिङ्गाधान्यकमिरच- | पण गतानामिति सम्म०॥ लवणजारकादिनिः कृतोपस्कारे शोकादिके, । "यक्ख जोय नवगयाहत्त-नपगतश्लाघत्व- न० उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाणमाहणाणं अत्तट्रियं सिझमिहेगपक्वं" पा०1"उवक्खडाख। - घतारूप चतुर्विशे सत्यवचनातिशये, स० । रा०॥ रदहिमादी" नि.चू. ८ उ । नपस्करणमुपस्कृतम् । पाक,। स्था०४०। उवगरण-उपकरण-न० उपक्रियतेऽनेन उप-कृ-ल्युट-प्रधाननानवखडसंपशु-उपस्कृतसंपन्न-पुं०उपस्कृतेन पाकेन संपन्नः। श्रो धके अङ्गे, हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादी, आचा० ११०५अण अहे,"केवत्रिस्सणं वीरियस्स संयोगसहव्वयाए चत्तारि वग दनमण्डकादी आहारभेदे । स्था०४०।। रणाई भवंति । भ०५ श०४०। कामभोगाङ्गे, धनधान्यनवखमाम-उपस्कृताम-न० ककगादि उवक्ख इत्युक्तेराम हिरण्यादिके, सूत्र०२ २०१अनुपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् । नेदे, "उवक्खमामं णाम जहा वणयादीणं उबक्खमियाणं जेण चुल्यादिके दादिके च। तन्निरुक्तिश्चैवम् । सिकंति ते कंककुयाम वक्खमियाम भम्मति' निच०१५१०। उपकरणशब्दं व्याख्यानयति ॥ उवक्खडिब्जमा-उपस्क्रियमाण-त्रिनपसंस्क्रियमाणे, "जय- मित्तस्मुवयारं, दिज्जंतस्स व कारइ य जं दव्वं । क्वमिज्जमाणे पेहाए पुरा अप्पजहिए" आचा.२श्रु०२०नि०यू० तं नवकरणचट्टी, उवरकादबीए डोयाइ ।। वक्रवडिय-उपस्कृत-त्रि०संस्कृते,"विरूवरूवे नोयणजाए उब. यत् चुायादिकं सिद्ध्यतेऽन्नस्य यद्वा यहादिकं दीयमानस्य कवमिए सिया" "उधक्खभियपेढाए" उवक्वमिय पहाए तहा भक्तस्योपकारं करोति तच्चुल्यादिकं दादिकं च उपकरणबिते णो एवं यदेज्जा" आचा०२श्रु०४०।" सवस्थपरमण मित्युच्यते । वपक्रियते अनेनेत्युपकरणमिति व्युत्पत्तेः ॥ पिं०॥ उवक्वमियं । आमद्वि०॥ प्राचा० । स्था० । उपकरणं त्वनेकविधम् कटपिटकशूपीउवखमेत्ता-नपस्कृत्य-अव्य०संस्कृत्येत्यर्थ, "असणं या ४ उव. दिके, अनु० ज०।" लौह कटाहकाचुकादी, भ०५शकरेता वक्खमेत्ता। प्राचा०१ श्रु०३१०२ उ०। ७ उ० । उपक्रियते व्रती अनेनेत्युपकरणम् धर्मशरीरोपष्टम्भनववर-उपस्कर- पुं० उप-कृ-भावे अप् । हिंसने सुद् । हेती नदधी, मुत्स० १२ अ० । दएमकरजोहरणवखपात्रादी, प्रश्न०१द्वा० । प्रव०। स्था० । यज्ज्ञानादीनामुपकारकं तदुपहिंसने, उपस्करोति उप-क्र-अन् । भूषणे, समवाये,प्रतियत्ने, वि. करणमुच्यते । तथा चाह । “चं जुज्ज वयारे नवगरणं तंसि कारे, मूषके,कटकमामलादी,समुदिते,संहते, व्यञ्जनसंस्कारक होइ उवगरणं । अहिगरणं अजओ श्र, जयं परिहरंतो परिहारपिप्रधान्यकादिव्ये, गृहसंस्कारके संमार्जन्यादौ, वाच । तो" ध.३ अधिः । यत्किय साधूनामुपकारेन व्याप्रियते तनोसूर्यादिके, निवृ० १० १० ॥ उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करः । पकरणं किन्तु अधिकरणम् । ०१ उ० । उपकारिवस्तुनि, प्रहिड्नबादौ । स्था०४०॥ ०१ द्वा० । खड्गस्थानीयाया बाक्रनिर्वृत्तेर्या खडधारास्थानीया नववरणमाना-उपस्करणशाझा-स्त्री० महानसे,निचू०एच०। स्वच्छतरपुशनसमूहात्मिका अत्यन्तरानिवृत्तिः सा । शक्तिविजवखरसंपरा-उपस्करसंपन्न-पुं० उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करो शेषे, जी०१ प्रति० । प्राचा०। डिग्वादिस्तेन संपन्नः । हिग्वादिनिः संस्कृते ओदनमएकादौ, उवगरण उप्पादण्या-उपकरणोत्पादनता-स्त्री० उपकुर्वन्तीति आहारजेदे, स्था०४०। शीतातपादिषु सीदन्तं स्थिरीकुर्वन्तीति नपकरणानि तेषाम. जवक्रवाइया-नपारख्यायिका-स्त्री० कथानेदे, झाताधर्मकथासु- त्पादनता अपकरणोत्पादनता वक्ष्यमाणप्रकारेण उत्पादनरूपे पश्चपाख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि । नं॥ विनयनेदे, अर्थीपकरणोत्पादनतां पृच्छति । Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९०६) यानिधानराजेन्द्रः । लवगरणा उप्पादया से किं तं उपगरणउपायणया २ चलविरा परणता तं जहा अप्पमा उनगरलाई उप्पाइत्ता जवति पोरालाई उवगरणाई संरक्खिता भवति । संगवित्ता जवति परित्तं जाणिला पकरिया जयति जयविधि संविता जयति सेत्तं नवगरण उपायणया । प्रश्नस कल्यम् । गुरुराह । चतुर्विधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा (अणुअनुयानि पूर्वमा अपेक्षाणानि उपकरणानि सम्येगपणादिशुद्ध्या उत्पादयिता संपादनशीलो नवाते यतः स्वयमाचार्यस्योपकर धर्मायन्तरायो भवति अतः शिष्येणैवांचकरी पोरामा पुराना न्युपकरणानि संरक्षयिता उपायेन चोरादिज्यः अथवा जीर्णनि सम्पति का प्रावृणोति मग पयिता च अल्पसागारिककरणेन मलिनतारकणेन वेति २ " परित्तं " नाम अल्पोपधिकं देशान्तरादागतं साधर्मिकं समीपस्यं वा अन्यगणसत्कं वा सीदन्तं दृष्ट्वा उपकरणैरुरुर्ता भवति ३ यथाविधि संविनक्ता नवति यथाविधि नाम ययाशास्त्रिकतया दाता जवति लानादिकारणे वा तथाविधवस्त्रसंग्राहको भवति सेत्तमित्यादि निगमनवचनं व्यक्तम् । दशा० ४ ० ॥ नवगरणदाण- उपकरणदान- न० उपकरणं दण्डकादि तस्य दानम् वितरणम् । ममैकान्तनिर्जरा भवत्विति बुद्ध्या दण्डकादिवितरणे, "यहमादायनिवेदसा पाला जातवरमेय "दशे० ॥ उजगरणच्तित-उपकरण पृतिक न० राज्यमानस्य दीयमानस्य या उपकारकारके पूतिभेदे "स्पा दितस्स वा उवकारं करोति तं उवकरणपूतितं तं च इमं चुलक्खलिये मासवं पूर्ति डोलोगे कामफोडसंधूमे " नि०यू० २ उ० । उनगरणलाघव-उपकरण झाघवन० अल्पोपधित्वरूपे द्रव्यतो लाघवे, आचा० १ ०६ श्र० ३ उ० । उबगरणव किया- उपकरणप्रतिज्ञा स्त्री० उपकरण लाभप्रतिशायाम, "आमोगा उपरवार संपिडिया" श्रमाचौरा उपकरणप्रतिज्ञया उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः । श्राचा० २ श्रु० । हवगरण संजम उपकरणसंयम- पुं० महामृत्ययस्यादिपरिहाररूपे पुस्तकयमत्यर्मपचपरिहारलशले वा संयममेदे स्था० ४ ठा० । टागरणसंजोयणा-उपकरण संयोजनाखी० उपकरणविषये संयोजनादोवे, साच बागऽभ्यन्तरा च । तत्र बहिरुपकरणसंयोजना उपकरणं देण्यत एव साधोश्धोल पट्टकप्राप्तौ विभूषाप्रत्ययमन्तरा कल्प्यं याचयित्वा परिभृञ्जनस्य भवति । अन्तरूपकरणसंयोजना बसवावागत्य तथैव परिभुञ्जानस्य । पञ्चा० १३ विव० | पं० ० ॥ उवगरणसंवर-उपकरणसंवर-० अप्रतिनियताकल्पनीयव खाद्यग्रहणरूपे विकस्यापकरणस्य संवरण या संवरभेदे, स्था० १० ठा० । उबगसित्ता- उपसंष्यसमीपमागत्यर्थे “बंध मादिवितीयमुवगखित्ताग गालमा उपगीयमान- वि० कियमोपागं हिंसा पतिविमाने उबगाइजमा उपला लिज्झमाणे "रा०| गृहण उनगार- उपकार-पुं० उप-कृ-भाषेप प्रधानस्यानुगुरुय सम्पादने, उपकृती वाच० ॥ उपकारचक्रव्यादाय | चैत्यमुनियन्दनप्रभृति भाग्यविधानं किंचित्। संघस्याचारविधि, वदये स्वपरोपकाराय |२| इहहि दुरन्तानन्तचतुरन्तासारविचारसंसारापारावारे निमजता भव्यजन्तुना जिनप्रवचनप्रतीतोलकादिदेश निदर्शन दुष्यार्थकथमपि स्वमनुजजन्मादिसामग्रीमाचभव जलधिसमुत्तरयहस धम्मंविधाने प्रयत्न विधेयः यदद्यादि "कोटी दु पापामवाप्य नृभवादिसकल सामग्रीम् । भवजलधियानपात्रे, धर्मे यत्नः सदा कार्यः । १। तत्रापि विशेषतः परोपकारकरणे प्रवर्तितव्यम् । तस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्यामपि पुण्यबन्धनिबन्धनत्वात् उक्तं च "संक्षेपात्कथ्यते धर्मो जनाः किं विस्तरेणवः । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । १ । स चोपकारो द्वेचा द्रव्यतो भावतब्ध तब द्रस्योपकारो भोजनश यनाच्छादनप्रदानादिः स वापीयाननात्यन्तिक अहिकार्थस्यापि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति । भावोपकारस्वध्यापनश्रावणादिस्वरूपो गरीयानित्यात्यन्तिक उभयलो सुखावहत्यतो भायोपकार एव यतितव्यम् । स च परमार्थतः पारमेश्वरप्रवचनोपदेश एव । तस्यैव भवशतोपचितदुःखलक्षक्षय क्षमत्वात् ॥ श्रहच ॥ नोपकारो जगत्यस्मि स्तादशविद्यते कचित् पारशी दुःखविच्छेदादेहिनां धर्म देशना || ३ || संघा० | नं० । सुखानुभवे, पो० ॥ विव० । उवगा (या) - उपकारण- न० श्रात्मनोऽन्यस्य वा ग्लानाद्यवस्थायामन्येनोपकार करणे, “उवयार पारणासु विश्र पडजियव्वो " प्रश्न० ३ द्वा० । उपगाराजाव-उपकारानाव-पुं० कृतकृत्यत्वेनानन्दकार स्यासंग, "दगारानायमपि चागं पूजगस्स उबगारो " पंचा० ४ विवः । उपगार (ए) - उपकारिन् प्रि० उपकारके, आ० म० प्र० । विशे० । उपकारवति, प्रो० १० विव० । लवगारिया- उपकारिकाखा० विमानाधिपतिसत्कप्रसादायसंसकादीन् उपकरोत्यपनातीत्युपकारिका विमानाधिपतिसत्कप्रसादावतंसकादीनां पीठिकायाम, अन्यमुपका योपकारिकेति प्रसिद्धा । उक्तं च " गृहस्थानां स्मृतं राज्ञामुपकायोंपकारिका" इति रा० उगारि (व) याला उपकारिकायन-न० उपकारिका लयनमिव उपकारिकायनम् । उपकायोंपकारिका लय "पत्थर महेंगे उवयारियलयणे पत्ते एगं जोयणस्यसहस्सं श्रयामविक्खंभेणं " रा० । जी० ॥ नवगिज्जमाण - उपगीयमान-त्रि “तगुणगानात् क्रियमाणोपगाने, मुगमाचा पतीसदेहिं उचनचित्रमा उप गिजमाणे भ० ६ ० ३३ उ० । तथाविधवालोचितगीत विशेषैर्गीयमाने गाय्यमाने च । श्र० ॥ सवर्ग-उप निखी० द्वितीया यद् गदितं लतत् स्यात् भयोरपि दलयोरुपति सामुन वृ० र० । उक्ते मात्रावृत्तभेदे, ग० । नवगढ़ - उपगृढ़- न० उप-गुह. भावे. त.। आलिङ्गने, कर्मणि क्र श्रालिङ्गिते, त्रिसूत्र० १ श्रु०४ श्र० । वेष्टिते, ज्ञा०८०। युक्ते, "गुंजावक्ककुहरोबगूढं ""गुजंतं वंसकुहरोबगूढं" रा० । वगृह उपगूहन उप लिने (6 , Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवगूहणा वाच० । प्रच्छन्नरक्षणे, रचनायां च । "हरि चालयचगृहमेहिं च" सं० ॥ अवहिलमा-उपगृद्यमान माने, उपि जमाणे उपगाहअमारो उपलालिमा उवहिज्जमा झा० १ अ० ॥ 1 गृहिय-उपगृहित ( उपगूढ ) न० गाढतरपरिष्वङ्गरूपे संप्राप्तकामभेदे, प्रव०१७० द्वा० । ६० । श्रालिङ्गिते, त्रि० "एस सो वह तुहिं उवहिश्रो " श्रा०म० द्वि० । उवग्ग - उपाग्र- न० अग्रस्य मुखस्य वर्षाकालसंबन्धिनः समीपमुपाग्रम् ॥ श्राषाढमासे, "एसो शिवकालो पुणरेव गणं उवग्गम्मि " व्य० १५० । लगढ़-उपग्रह ० उपगृहानीत्युपग्रह उपाधी, ओ० नि० ० उपग्रह शिष्याणां भच्तादिदानेनोपभने ० अवि श्रो० ०० भा० (तद्भेदाः परिहा रशब्दे पदयात्मनः समीपे संयमोपमायस्तु मह संयमोपष्टम्भार्थवस्तुनो प्रव०६० द्वा० । उपकारे, विशे० । काराबन्धने वन्दीकरणे, उपयोगे आनुकूल्ये, पाच परस्मैपदात्मने पदये यथा तिष्ठति प्रतिष्ठते रमते उपरमतीत्यादि । सूत्र० २ श्र० ७ ० | कर्मणि घञ् । कारारुद्धे, वन्द्याम्, वाच० ॥ जवग्गहकर - उपग्रहकर - त्रि० उपकारके, “जोगंपि वत्यमा माह करंति स " पं० ० २ द्वा० ॥ उग्गकुल-उपग्रहकुशल ५० उपग्रहविषयके कुशले सप सामीप्येन ग्रहः सोऽपि द्विधा अव्यतो जायतश्च । तत्र येषामावार्य उपाध्यायो वा न विद्यते तान् । श्रात्मसमीपे समानीय उच मित्रां दिशं बध्वा तावद्वारयति यावनिष्पाद्यन्ते एष द्रव्यत उपग्रहः । ग्रह उपादाने इति वचनात् । यः पुनरविशेषेण सर्वेषामुपकारे वर्त्तते सा उप उपग्रहकुशसमाह ॥ यात्रा सहबुदे तय किया। सेनिज्जहिया समणभेज्जवगहिए । दादाकारा बने व तहाकयमाए । उतिमी जाहाति उपमहं एवं ॥ बालाः सहवृकेषु तथाप्रभृतिमार्गगमनतः । पवनो वा श्रान्तेषु तपःक्लान्तेषु तथा वेदनायां सामान्यतः शरीरपीमायां जाता थामातच सो जाते सति रोगे समुत्पन्ने शब्दा वसतिर्निषद्या पीकादिरूपा उपधिः कल्पादिः पानं वम् अशनमोदनादि जमधमपदिकं दएकं प्रोज्जनाद्युपकरणम् । एतेषां समाहारो इन्स्तस्मिन् समीप ततोऽयमर्थः तेषां स्वयं द ऽन्यैर्दापने तथा वैयावृत्यादेः कारापणे च तथा " कथमन्नाए" इति परेः कृतायां यतं तथा य उपादितविधिया पहितविधिर्नाम यत् श्राचाय्यैर्वित णं तदाचार्यमनुज्ञाप्यान्येषां साधूनां तदन्तरेण विस्तरतां ददाति अनुपसिविधिर्यदप मुत्यादातिव्यवस्य गुरुर्वतस्यो पनयन व उपनिधिः । यत्पुनस्तस्य गुरुनि तत्सोऽन्य स्य गुप्तोऽनुपनिविधिः । वयं सर्वमुपदे जानाति । एतदेव लेशतो व्याख्यानयति ॥ वादी सिमेजनमेोषप्पियाहिं | जननपाने सज्ज - मादी हिं नवग्गहिं कुणइ || द फरय कारावर जाणे । उपस्ति गुरूहिंदितं तस्स उत्रणेति ॥ ( ९०७) अभिधानराजेन्द्रः । 16 उबग्घाय णिज्जत्ति । - जिंतस्थ व दितं देश सो उ मस्स | खमासमणेहिं द्विनं, तुज्ऊं ति उवग्गहो एसो || एतेषामनन्तरगाथाभिटियानां बलादीनां यावासमर्थ मार्गगमनादिश्रान्ततपः क्लान्तवेदनात जातातङ्कानां शय्यानिषद्योपधि प्रदनिस्तथा भक्तं मोदकाशोककार्थादि अनमोदनादि पानमेषज्ये प्रागुरुस्वरूपे आदिशब्दादीपग्रहिकोपकरणादिपरिग्रहः मुम्भं करोति कथमित्याह । स्वयं शय्यादिकं ददाति । अन्यैर्वा दापयति तथा स्वयं वैयावृत्यादि करोति । श्रन्यैः कारयति । कुर्वन्तं वा श्रन्यमनुजानीते । ( उवहियक्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादुपहितविधिरिति द्रष्टव्यम्। ययस्य गुरुनिर्दशं तत्तस्यापनयतीत्येष उपहितविधिर्यत्पुनस्तस्व दत्तं सोऽन्यस्मै गुरु अनुज्ञाप्य ददाति । क्षमाश्रमस्तुयमिदं दमित्येषोऽनुपहितविधिः । एष सर्वोऽप्युमहः । उक्त उपग्रहकुशलः ॥ व्य० ३ उ० ॥ उवगडवा-उपग्रहार्थताखी० भरूपानवस्त्राद्युत्पादनसम र्थतयोपष्टम्भयिता भवत्विति प्रयोजने, स्था० ५ ठा० ३७० ॥ उपदिय उपग्रहीत १० भावे क० पुरुषस्यालिङ्गनैकान्तनयनलिङ्गग्रहणकरग्रहणादौ, " उवहसिहि उवगहिएहिं उबसदेह "सं० कर्मणि - ज्ञानादिभिर्यादिनोप भिते ॥ प० ॥ उपाय-उपोद्वा० समीपवर्तिनः प्रकृतस्य उदृघात उद्धननम् ज्ञानं चिन्तनं यत्र । उप- हन्- गतौ- गत्यर्थत्वात् ज्ञानार्थता आधारे घन प्रकृतसिद्ध्यर्थमालोचनात्मके स तिप्रभेदे "चिन्तां प्रकृतसमुपद्धात विदुर्बुधाः" तदर्थ वर्णने आरम्भो शास्त्रोत्पत्तौ विशे० ॥ उपक्रमादस्य भेदः । श्रपरस्त्वाह । ननूपक्रमः प्रायः शास्त्रसमुत्थापनार्थ उक्त उपोद्वातोऽप्येष शास्त्रसमुद्धातप्रयोजन एवेति कोऽनयोर्भेदः । उच्य ते उपक्रमो ह्युद्देशमात्रनियतव्यापार उपोद्घातस्तु प्रायेण तदुदिष्ट वस्तुयोधनोऽथानुगमत्यादित्यलं विस्तरेण ग्रा०म० प्र० ॥ उपोद्धननमुपोद्घातः । व्याख्येयस्य सूत्रस्य व्याख्यानविधिसमीकरणे ॥ विशे०॥ उपोद्घातफलम् ॥ अनेन चापोद्धा नामिहितेन सुषादयोग्य व्यक्ताः भवन्ति यथा दीपेनापचरकेत मसि उक्तं च "वत्तो भवन्ति अत्था, दीवेगं अप्पगास उव्वरम् । वत्ती भवति श्रत्था, उबघापणं तहा सत्थे” उपोद्घाताभिधानम न्तरेण पुनः शास्त्रं स्वतोऽतिविशिष्टमपि न तथाविधमुपादेयतया विराजते यथा नभसि मेघच्छन्नश्चन्द्रमाः । उक्तं च " मेघच्छन्नो यथा चन्द्रो, न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्रं । न राजति तथा विधं " तत्र सूत्रभणितं नो कप्पति निवानी वा आमेनालपसंदेहत्यादि सूपस्पर्शिक नितिभवितमिदम्। ० १४० ॥ उवण्यायणिचे उपोद्घातनियुक्ति पानाख्येयस्य सूत्रस्य व्याख्या विधिसमीपीकरणमुपोद्घातनिर्युतिस्त रूपस्तस्या वा अनुगम उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः । निर्युतय"से उपाय निगमे २ इमाद हि मुलगाहाजा उसे १ निसे २ मि. गमे ३ खिसे ४ काले । पुरिसे य ६ । कारण ७ पश्च्चय८ - क्खण, एनए १० सगोरणांमए ११ ॥ किं १२ क विहं १३ कस्स, १४ का १५ केसु १६ क १७ किश्चिरं हवर का १८ । कर १०] संतर २० मविरहियं, २१ भवा २२ गरिस २३ फा 66 - Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०८) अभिधानराजेन्रूः । उपाय शिज्जति सण २४ निरुत्ता २५ ॥ संत्तं उवग्धाय निज्जुति अनुगमो" । अनु० आ० म० प्र० । विशे० ॥ श्र० म० द्वि० ( समाश्य शब्दे स्पष्ट भविष्यति ) उवघाय - उपघात - पुं० उपहननमुपघातः । पिएमशय्यादेरकल्पनायाम् । स्था० ३ ठा० । श्रशबलीकरणे, श्रो० । परम्पराघाते, प्रश्न० २ द्वा० । उपघातभेदः " उवघाओ” उपेत्य घातो उपघातः स च द्विविधः द्रव्योपघातो नावोपघातश्च तत्र इव्योपधातो विनोदम्यते नातोद्विस्त श्व । तत्र प्रशस्तोपघातः मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायोपघातः सम्पदादिषु प्रशस्त अप्रशस्तीपघातस्तुम पघातः मिथ्यात्वादिषु प्रशस्तः विशेोधी नानार्थातिशयेषु सुप्रशास्ताः शोधनं विविधमनेकप्रकारा या ि 1 मिरियं द्विविधा इव्यविशुर्विस्त्वादि जावविशुः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविगृषिः । स च विशुद्ध्युपघातो वा जीवव्याणां न जवतीत्येष सिद्धान्तः कस्माद्यस्मादजी वरुव्याणां क्रोधादयः परिणामविशेषा न भवन्ति तेनोपघातो विशुता वा अजीवा नो न भवन्तीत्येष भावनानिश्चय इत्यर्थः । श्रह कस्योपघात इति संज्ञा । यद्यजीवानां न भवति शुद्धिरुपघातो वा उच्यते नृपघातो विकिवी परिणामप्रत्यया जीवानां भवति न वजीवानामिति सिद्धान्तः । परिणतिः परिणामः अध्यवसायो नाव इत्येकार्थाः । पं० चू० ॥ त्रिविध उपघातः तिविढे नवधाए पष्पत्ते तंजहा उग्गमोवधाएं उप्पायोबार एसोपाए। एवं विसी ॥ उपहननमुपघातः पिण्डशय्यादेर कल्पतेत्यर्थः । तत्र उम नमुनमः पिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः तस्य चाधाकर्म्मादयः षोडश दोषाः । उक्तंच " तत्थुग्गमोपसूई पभश्रो एमादि होति पगा । सो पिण्डसिह पगश्रो, तस्स य दोसा इमे होति " |१| श्राहाकम् मुद्देसिय २ पूर्वकम्मे य ३ मीसजाए य । ४ । उवणा ५ पाडिया, ६ पाओयर की पामिचे २॥ परिय १० अ ११ भिमालोहई य १३ १४ श्रणिसिट्ठे, १५ श्रजोयरए य १६ सोलसमेति ॥२॥ इह चाभेडा उमदोष एव मोनोमेोपचाः पिण्डा देवकल्पनीयता करणं खरस्य या शबलीकरणमुपपात उमस्य वा पिडादिप्रसूतेरुपघात आधाकर्मत्वादिभिर्दुष्टतोमोपघातः । ७ पञ्चविध उपघातो यथा-पंचविवपापा जहा उगमापाए उपायणीaure are परकम्पोवपाए परिहरणोत्राए । उपघातोऽशुरूता उद्गमोपघात उमदोरैराधाकर्मादिनिः पो शकरकनांपकरणले पानामा सयंत्र म उत्पादनया उत्पादनादोषैः पोमहानिर्घाध्यादिभिरेषणया निरिति परिक वनादि तेन तस्योपघातोऽकल्पता तत्र वस्त्रस्य परिकम्मोपघात यथा “तिहपरिफाबियाणं, बन्थं जो फालियं तु संसी। पंचहं पगतरं, सो पात्र श्रणमाईणि ॥ १ ॥ तथा पात्रस्य 'अवलकवणेगबंधे, पुग्गतिग रेगवंधणं वावि । जो पायं परियट्ट ( परिजुते ) परं दिवा उ मासा उ ॥ २ ॥ ( स आज्ञादीनामाभातीति तथा वसतेः ) " दृमिय धृमिय वासिय, उज्जोश्य वह्निकमा अवत्ताय । सित्ता संमडा विय. विसोहि कोहिं गया 66 उवघायणाम वलिता कुरादिना वसहित्ति " ॥ ३ ॥ दमिता श्रवलिता अव्यक्ता । गणादिना लिप्ता संमृष्टा समार्जितेत्यर्थः तथा परि हरणा सेवा तयोपध्यादेर कल्पता तत्रोपधेर्यथा एकाकिना हिएका सेवितमुपकरणं तदुपहतं प्रयतत समयव्यवस्था " जग्गड़णअपरिवजण, ज‍ विचिरेण न बहम्मेति " वचनात् । अस्य चायमर्थ एकाकी गच्छभ्रष्ट यदि जागर्ति दुग्धादिषु च न प्रतिबध्यते तदा यद्यप्यसौ गच्छे चिरेणागनति तथाऽप्युपधिन हन्यते अन्यथा तूपहन्यत इति । वसतेरपि मानुसोर कातात तया मासद्वयं माया पुनस्य वसतामुपस्थानेऽपि च तद्दोषाभिधानात् । उक्तञ्च चउ वासा समतीता, कालातीता साजवे सेजा। से चेव उवहाण- डुगुणा डुगणं च वजित्त त्ति " ॥ १ ॥ तथा भक्तस्यापरिष्ठापनिकाकारं प्रत्यकल्पता तडु क्तं " हिवरे तपासयं विि गहिए विडित्ते, इत्थ य चरो नवे नंगा ॥ १ ॥ अहवा वि अ विडिगहिये, विहित्तं तं गुरुहि णायं । सेाणासाया, गहने पति स्था०श्या० (व्यायसादे दशविध उपघातः ॥ दशव उपपत्ते तंजहां उग्गमोवधाएं उप्पायोघाए जहा पंचद्वाणे जाव परिहरणोवधाए पालोक्याए दंसणोच्याए चरितोवघाए अवियत्तावधाए सारक्खणविधाए यदु मेनाधाकर्मादिना षोमशविधेनोपहननं विराधनं चारित्रस्याल्यता वा भक्तादेः स प्रोपघातः एवमुत्पादनायाधाव्यादिदोषप्रकणाया यः स उत्पादनोपघातः । "जडा पंचट्टाणेति' भणामिद कियादित पोवा पण दिवस पर कम्मा) परिकर्मसमारोपः स्था ध्यायस्य श्रमादिना शरीरस्य संयमस्य वोपघातः परिकर्मोपघातः । ( परिहरणो वघार ) परिहरणा अन्त्राणिकस्याकल्प्यस्य वोपकरणस्य सेवा तया यः स परिहरणोपघातस्तथा ज्ञानोपधातः प्रमादारिषष घातः समितिनादिनि थियो अन्तिमतिकं तेनोपघाते विनयादेः ( सारक्खणांवघापत्ति ) संरक्षणेन परिवर मू त इति । स्था० १० वा० । “ उवघायं च दशविहं, असंवरं तह य संकिलेसं च । परिवज्र्ज्जतो गुत्तो, रक्खामि महत्व पंच प० । घ० । मूलतो बिनाड़ो, कर्म० नि० चू० । उपवे, तं । कर्मा योग्यता सम्पादने, उपकारे, वाच० ॥ 1 कम्प-उपपातकर्मन् १० पपधानक्रियायाम, "आसू निमक्खिरागं च विघाय कम्मगं । उच्छोलणं च कक्कं च तं विजं परिजाणिया " सूत्र० १० ८ ० । उवघायजणय-उपघानजनक न० उपघातः सत्वघातादिस्तजनकम, अनु० ॥ सत्वोपघातादिप्रवर्तके सूत्रदोषे, यथा वेदवि हिता हिंसा धम्मयेत्यादि ॥ विशे० ॥ यथा वा "न मांसभक णे दोष इत्यादि " वृ० १६० । उवत्रायण - उपहनन - न० हन्यतेऽनेनेति इननन् उप सामीप्येन हननमुपननम् । करे, “भूयोवघायणमणजं " आव० ४ अ० । उवघायणाम - उपघातनामन्न० उपघातनिबन्धनं नाम नामकर्मदेवरायः स्वपरिव मांना प्रतिवाद निरुपहन्यते । य Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (0%) अभिधानराजेन्ऊः । उवघायमाण स्वयं कृतो इन्धन भैरवप्रपातादिभिस्तपातनाम पं० सं० कर्म० । स० । श्रा० । प्रव० ॥ उपपायशस्विनःउप श्रितमाश्रितम् । दशमे मृषाभेदे, स्था० १० ० । पुं० उपवेदोपकरणे एक - दे, नि० च० एन० । अथोपघातपएककमाहपुचि कम्मा-अनफलविभागेण । नो वटुम्ब वेयो, जीवाणं पावकम्माणं ॥ पूर्व पृथ्वीनां दुराचारसमाचरणेनार्जितानां कर्मणामफलो विपाक उदयो यद्भवति ततो जीवानां पापकर्मणां वेद उपहन्यते । तत्र चायं दृष्टान्तः जह हेमोउ कुमारो दम यानिमित्ताणं । मुच्छ्रिय गोयम, वेो वि य उवहओ तस्स ॥ यथा हेमो नाम कुमार इन्द्रमहे समागता यास्तुशिका वालिकास्तासां निमित्तेन मूर्हितो गृद्धोऽत्यन्तमासक्तः सन् मृतः पश्यत्यमुपगतो ऽपि च तस्योपहतः संज्ञात परार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः तचैवं हेमपुरे नगरे हेमकको राया हेमसंज्ञावा जारिया तस्स पुत्तो वरतवियहेमसंनिजो हेमा नाम कुमारो सो य पतजोव्वणो अन्नया इंदमहे इन्दट्टाएग पेय तत्थ नगरायणं प पूर्वपदस्य ताम्रद सेयर भइ फिमेया था रायान किंवा अभिल्लसति । नेहिबहिंदियं इदं मम्ांति वरंनितिनाणिया रोग सेवापुरा अमेि दे वरो दत्तो नेपयान अंतउरस्मि । तेहि ताओ घेत्तुं सवाओ अंतेवरे स्थूढाओ तादे नागरजणे रायाणं उवडिओ मोपवेत्ति तत्र रन्ना जणियं किं मज्ऊ पुतो न रोयति तु जामाओउतओ नागरा तुहि कढिया एयं रन्नो सम्मतंति अंविसप्पगया नागरा कुमारेण नायव्वा परिणीया सो एसु अतीव पत्तो पत्तरस य तस्स सञ्चवीयनगालो जाओ तम्रो तस्स वेओवया व जाओ य अन्ने भणति ताहि चेव अप्पमसे रोगोन्ति रुवियादि अदादि मारिओ यावदपघातक ०४ छत्रचय-उपचय- पुं०उपचीयते उपय य उपचयः । प्रायोग्यपुत्र संग्रहणसम्पतिइन्द्रियपर्याप्तौ प्रज्ञा०१५ पद । इन्द्रियशब्दे तदुपचय उक्तः ।। शरीरे, आव०५ श्र० पिएमे, निकाये, समूह, पिं० । ० । वृद्धौ, भ० । अत्र दारुकःकिंवा मानया सोचा निर वचया निरवच्या गोयमा ! जीवा नो सोवचया नो साव चयानो सोवचयमावचया निस्वचया निरवचया । एगिंदिया तयपदे सेसा जीवा चहहिं परहिं जागच्या जंते पुच्छा गोयमा मिका सोचचचयानी सापचयानो सोचयसायचया निरुवचय निरचया जीवाणं ते! ये का लं निरुचयनिरवचया ? गोयमा सबके नैरख्याणं नंते इयं का सोपचया गोषमा जहां एवं समयं को सेवनिया खेलना केप का सारचया एवं वासोवचयसावचया एवं का निरवचनरचया ? गोयमा ! जहां एकं समयं उको उवचय संबारसमुदुत्ता एगिंदिया सव्वे सोवच्या सावच्या सव्वधं । सेसा सच्चे सोवचया वि सोवचयसावच्या वि । जहएणं एक समयं उपसिया असे जागे अडिएहिं वर्कति य कालो जाणियच्वो सिकाएं जंते का सोवचपा गोपमा ! जहणं एवं समयं कोर्स समया केन्यं निरुवचयनिरवच्या अहम् एकं नकोसे उम्मासा मे जंते जंतेत्ति । सोपच्याः समृयः प्राक्तनेष्यन्येषामुपादात सापययाः प्रा तनेयः केषाञ्चिदुद्धर्त्तनात्सहानयोः सोपचयसापचया उत्पादो नाभ्यां वृद्धियोगपायात विरुयचयनिरपचया उत्पा दोनो भवत्। ननुपत्रयां किरपनय स्तु हानिर्युगपद्वयमद्वयं चावस्थिततत्वमेवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोsनयोः सूत्रयोर्भेदः ? उच्यते पूर्वत्र परिमाणमनिप्रेतमिह तु तदनमुनामात्रं ततोह तृतीयनङ्गकेयादिविकल्पानां त्रयमपि स्यात्तथादि पता यहानिः । समेोत्पादन खायस्थितत्यमित्येवं ज्ञे इि तत्पत्ति सोपचयापचया इत्यर्थः युगपदु त्पादन वृद्धिदानिभावात शेपनङ्ग नसत प्रत्येकमुत्पादोद्वर्तनयोस्तद्विरहस्य चाभावादिति । ( अवट्टिएहिंति ) निरुपचयनिरपचयेषु । ( वक्कति कालो प्राणियव्वोति ) विरहकालो वाच्यः ॥ वयस्यओएच जीवानां कर्मापचयः । I त्यसणं जंते ! पोरगलोवचये किं पयोगसा वीससा ? गोपमा ! योगसा विमा जहा तक्त्यस्स णं पोलो पयोगमा वि दीसमा वि तहाणं जीवाण कम्मोच किं पयोगसा वीससा ? गोयमा ! पयोगसा नो वीससा । सेकेणं ? गोयमा ! जीवाणं तिविहे पओगे पण तं जहा मागे कापण्यओगे इसे तेणं तिवियोगेणं जीवा कम्मोवचये पयोगसा नो वीससा एवं सव्वेसि पंचिंदियाणं तिविद्धे पयोगे जायिव्वे । पुचिकाया एगविपओगे एवं जान वणस्मइकाइया । नादियागे जहा योगे य कायपगेय । इयेतेषां विणं प्रयोगेणं कम्मोवचये पयोगसा नो बीससा से एवं द्वेणं जाव नो वीससा एवं जस्म जो पभोगो नाव वाणिया । त्यस्ते ! पोरगaaee किं सादीए सपज्जवमिए सादीए अपज्जवसिए अादीए सपज्जवसिए आाणादीए अपज्जवसिए ? गोयमा ! त्यस्स पोलोपचए सादीए सपज्जबसिए नो सादीए प्रज्जवसिए नो प्रणादीए सपज्जबसिए नो अणादीए पज्जवसिए । जहां जंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीप सपज्जवसिए नो सादीए अपज्जवसिए नो अणादीए सपज्जवसिए नो अणादीए अपज्जनसिए तहाणं जीवाणं कम्पोच्छागोमा अत्याएं जीणं कम्मोचचए सादीए सपज्जबसिए अत्येगइए प्रणादीए Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१०) उवचय अनिधानराजेन्द्रः । नवउभाय सपज्जवसिए अत्यंगइए अणादीए अपज्जवासए नो चेव णं अख्यघटा गृहान्तश्चतुष्केषु यत्र तत्तथा । कल्प० । १० । रा। जीवाणं कम्मोवनए सादीए अपज्जवसिए । से केणवणं ? नते, “बहुउप्पलकुमुयफुडकेसरोवचिया"। जं०१ वकाउन्नते गोयमा ! रियावहिया बंधयस्स कम्मोवचए सादीए औ०॥हा॥ बहुशः प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिते, ॥ भ०१ श०१०। जीवप्रदेशाप्त, अनु० ॥ प्रायके वा कर्मणि, सपज्जवसिए जवसिफियस्स कम्मोवचए अणादीए सपज्ज उत्त०१ अ०। दिग्धे,मोदि । अपनाादना वर्हिष्णौ, । निदिग्धे, वसिए अभवसिघियस्स कम्मोवचए अणादीए अपज्जव- अमरः वाच॥ "उपचियखोमियदुगुल्लपट्टपमिध्वने" पारकसिए से तेण्डेणं ॥ मितं (खोमित्ति) कौमं यद् दुकूलं वस्त्रंतस्य यः पट्टो युगमापेक्कया वनेत्यादिद्वारे ॥ ( पयोगसाधीससायत्ति ) गन्दसत्वात् । एकपट्टः तेन आच्छादिते, । स०॥ परिकर्मिते, औ०। कल्प। प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण विनसया. स्वजावेनेति । (जीवाणं | समाहिते, हेम० । सुसञ्चिते च । वाच० । कम्मोवचए पओगसा णो वीससत्ति) प्रयोगेणैव अन्यथा योग-नवचितकाय-नपचितकाय-त्रि० मांसशरीरे, “परिवढकायं धप्रसङ्गः । सादिद्वार । ( रियावहियबंधस्सैत्यादि) | पेड़ाए एवं वदेजा परिवूढकापत्ति वा उवचितकाएत्ति वा" ॥ र्या पथो गमनमार्गस्तत्र भवमैर्यापथिकं केवलयोगप्रत्ययं क- आचा०२ श्रु०॥ म्त्यर्थः । तद्वन्धकस्योपशान्तमोहस्य कीणमोहस्य सयोगिके | जबचियमंससोणिय-नपचितमांसशोणित-पुं० परिवृरुमांसशोवबिनश्चेत्यर्थः । प्याथिककर्मणो हि अबन्धपूर्वस्य बन्धनात्सा णिते, आचा०२ श्रु.॥ दित्वमयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपाते वा अबन्धनात्सपर्यवसितत्वम् नवजोइ-उपज्योति-पुं० अव्य सामीप्ये अन्ययी०स०अनेस(गए गई परुश्चत्ति)नरकादिगती गमनमाश्रित्य सादयः श्रागमनमाश्रित्य च सपर्यवसिता इत्यर्थः। (सिद्धगई पमुश्च सा मीपे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२०। उपज्योतेरग्नेः समीपेव्यवश्या अपज्जवसियत्ति) श्हाकेपपरिहाराव "सार अपज्जव स्थित उपज्योतिः । वर्तिनि, “जतुकुम्भे जहा नवजाई संवासे सिया, सिकानयनामश्य काबम्मि । आसिकयाइविसुन्ना, सि विदुविसीएज्जा" सूत्र० १ श्रु०४०।। द्वा सिके वहि सिकंते । सव्वं साइसरीरं, नयनामादिमयदेह नवजोइय-नपज्योतिष्क-पुं० ज्योतिषसमीपे, उपज्योतिषस्त सजावो । कालाणाश्त्तणयो,जहा वए इंदिया पवोपज्योतिष्कार अग्निसमीपवर्तिषु माहानसिकेषु, ऋत्विक्षु, सिद्धो, नयादिमो विज्जई तहा ते च । सिको सिकाय सया, च। उत्त०॥ कश्त्थगता उवजोश्या वा प्रज्कावया वा सहनिहिडा रोहपुच्चा पत्ति। (तं चात) तच्च सिमानादित्वमि | खमिरहिं" उत्त० १२ अ०॥ प्यते यतः सिषा सिकायेत्यादि [भवसिहियाकिमित्या- नवकाय-नपाध्याय-पुं० उप समीपमागत्य अधीयते श्ङ् दि ] भवसिकिकानां जव्यत्वसब्धिः सिम्त्वेऽपैतीति कृत्वाऽना. ध्ययने तिवचनात् पठ्यते, पण गताविति वचनाद् वा अधि दिसपर्यवसिता चेति । न०६०३० । नन्नती, षष्ठत्रिदश- आधिक्येन गम्यते, श्क स्मरेण इतिवचनाद्वा स्मय॑ते सूत्रतो बाभाच,लग्नापचयाः स्मृताः इति ज्योतिषोक्त सनातषष्टादि- जिनप्रवचनं येन्यस्त नपाध्यायाः । यदाह "वारसंगो जिणस्थानषु च । वाच०। क्खाओ, सिकाओ कहिनो बुड़े। तं उवश्स्संति जम्हा, जवझाया उवचयण-उपचयन-नचितस्याबाधाकासं मुक्या ज्ञानावरणी तेण चंति" अथवा उपाध्यानमुपाधिः सन्निधिस्तेनोपाधिना - यादितया निषेके, सचैव प्रथमस्थितौ बहतरकर्मदसिक निषि पाधी वा आयो लाजः धुतस्य येषामुपाधीनां वा विशेषणानां प्रवति ततो द्वितीयायां विशेषहीनमेवं यावत्कृष्टायां विशेषहीनं क्रमागेभमानानामायो लाभो येज्योऽथवा उपाधिरेव संन्निनिषिञ्चति । उक्तं च "मोत्तण सगमवाहं, पढमाए विश्ए बहु- धिरेव प्राय श्ष्टफलदैवजनितत्वेन आयानामिष्टफलानां समृहतरं दबं । सेसं विसेसहीणं, जानुक्कोसंति सम्वेसिंति" "चाहिं स्तदेको हेतुत्वाद्येषामथवा आधीनां मनःपीमानामायो सान्नः गणेहिं अटु कम्मपगमीओ नवचिणिसु नवचिएंति जवाचिणि- आध्यायः अधियां वा नयः कुत्सार्थत्वात् कबुद्धीनामायो ध्यायः स्संति" स्था०४ ग० । परिपोषणे च । स्था० ठा० । ध्यैचिन्तायामित्यस्य धातोःप्रयोगान्नः कुत्सार्थत्वादेव पुर्ध्याउवचर-उपचर-उप-चर-धा- भ्वा० पर० । सामीप्ये, नाशने, नं वा अध्याय उपहतोऽध्यायः आध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः॥ उपसर्गणे, " अउवा पक्खिणो उवचरंति” अजुवा कुचरा उब- ज०१श०१०।दशा० । ध० प्रा० म०वि० । आ००। चरंति" । उपचरांत उप सामीप्येन मांसादिकमश्नन्ति । अथ- प्रव०। साध्वसध्यह्यां का।।२।२६ । इति ध्येति संयुक्तवा श्मशानादौ पतिणो गृध्रादयः उपचरन्ति । अथवा कुत्सितं एय कः । प्रा० । ययाशक्तिद्वादशाङ्गस्वयमध्ययनपराध्यापननिचरन्तीति कुचराश्चोरपारदारिकादयस्ते च क्वचिच्न्यगृहा- षममा नसेषु, । चं०१पाहु । सूत्राध्यापकेषु, कल्प० । आचा। दात्रुपचरन्ति उपसर्गयन्ति । आचा० १ श्रु० ए ०२०॥ स्था० । श्रावनस्वाध्यायपाउकेषु, द्वारा विशे० वृ०। नवचरय-नपचरक-पुं० स्तेनभेदे, "अयंतणे अयं उवचरते अयं अस्य निक्केपो यथा । तो आगो एतिकट्ट" आचा०३श्रु० । सूत्र०॥ नाम उवणा दविए, नावे चनदिहो उवकाओ। उपचरिय-नपचरित-त्रि० उप-वर-क्त-। उपासिते, बोधिते, दव्वलोइवसिप्पा, धम्मा तह अन्नतित्थीया ॥ च । वाच । उप-चर-भावे-उपचारे, पंचा० ६ विव० । नामस्थापनोपाध्यायौ सुबोधौ ऽन्योपाध्यायस्तु नव्यशरीरनवचिण-उपचयन-नगृहीतानां कर्मपुझलानां ज्ञानावरणादि- व्यतिरिक्तानाह ( दवेत्यादि)ऽव्ये विचायें तद्यतिरिक्त सपाभावेन निषेचने, स्या० १० वा०। ( व्याख्या पायकम्मशब्दे) ध्यायः शिल्पाद्युपदेशा । तथा (धम्मत्ति) निज २ धर्मोपदेशउचित (य)-उपचित-त्रि० पुष्टे, कल्प० । समृके, झा० अ०। रोज्यतीर्थिकाश्च संसारनिवन्धनत्वेनाप्रधाननूतत्वात्तद्वयतिरिमांसले, “कणयसिनायझुज्जलपसत्यसमतोवचियविच्छिन्नपि क्ता न्योपाध्याया मन्तव्या इति । भावोपाध्यायानाहाहजबच्" । जी०३ प्रतिशनिवेशिते, प्रशा०२ पद । उपनिहिते, वारसंगो जिणक्खाओ, सब्जाओ कहिउँ बुहे। "नवचियचंदणकत्रसं" नपचिता उपनिहिताः चन्द नकाशामा तं उवासंति जम्हाओ-बज्माया तेण युञ्चति ॥ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवज्झाय यो द्वादशाङ्गः स्वाध्यायः प्रथमतो जिनैरारतस्ततो ( बुद्धेप्ति ) प्राकृतत्वाद्बुधैगंणधरादिनिः कथितः पारंपर्येणोपदिष्टः तं स्वध्याय सूत्रतः शिष्याणामुपदिशन्ति यस्मात्तेनोपाध्याया उच्यन्ते अत एव श्ङ् अध्ययने उपेत्य सूत्रमधीयते येन्यः शिष्यास्ते उपाध्याया जणन्ते इति ॥ ( ९११ ) अभिधानराजेन्द्रः । समागम या बरार्थमधिकृत्योपाध्यायशब्दार्थमाह । छति उपकरणवेति, बेषाणस्स होइ निदेसे | एरण होइ उक्का, एसो अयो पिजाओ || (च) इत्येतदक्षरमुपयोगकरणे वर्त्तते (व) इति वेदभ्यानस्य निर्देशे प्राकृतशैल्या पतेन कारणेन भवन्ति उज्छा उपयोगपुर- खरं ध्यानकतीर इत्यर्थः सोनन्तरोक उपाध्यायशब्दापेयान्यो ऽपि पर्याय इति । अथेोपाध्यायशब्दार्थ भाष्यकारः प्राह । उवगम्म जओ ही गं चोवगयमम्गयाति । जं वो वायज्जाया, हियस्स तो ते उपकाया || गम्योपेत्य यतो ज्योऽधीयते पठन्ति शिष्यास्ते उपाध्यायः यश्च यस्मादुप समीपे गतं प्राप्तं शिष्यमध्यापयन्ति तत उपाध्यायाः । यस्माच्च स्वपरहितस्योपाध्यायका उपायका उपायचिन्तकास्ततस्ते उपाध्याया इति । विशे० । आ० चू० । आ० म० द्वि० । इदानीमुपाध्यायस्वरुपमाद नाणसाचरिते । सुत्यतनय निष्पायर से साणं, एरिसया होंति जवज्जाया । ये सुत्रार्थतवदिहानदर्शनचारित्रेणुका उपयुक्तास्तथा शिष्याणां सुषवाचनानिष्पादका पतारशा भवन्त्युपाध्यायाः । [[कं च । समयास उत्तो मुतयतदुभयविधिना। श्रायरियप्पाजुग्गो, सुत्त वापर उवज्झातो" अथ कस्मात्सूत्रमुपाध्यायो वाचयति । उप्यते अनेक गुणसंप्रयानवाह सुत्तत्थेसु थिरत्तं, ऋणमुक्खो आयती पधि । पाभिच्छे मोहजयो, तम्हा वाए उवज्जातो ॥ उपाध्यायः शिष्येभ्यः सुत्रवाचनां प्रयच्छन् स्वयमर्थमपि परिभावयति । सूत्रेऽर्थे च तस्य स्थिरत्वमुपजायते । तथाsन्यस्य सूत्रवाचनाप्रदानेन सूत्रलक्षणस्य ऋणस्य मोहः कृतो भवति । तथा आयत्यामागामिनि कालेापाध्या सेऽप्रतिबन्धोऽत्यन्ताभ्यस्ततया यथावस्थतया स्वरूपस्य सुस्यानुवर्तन नवति । तथा ( पारिच्छे)ि ऽन्यतो ग वान्तरादागत्य साधयस्सूत्रोपसंपदं शुद्धतेत यन्ते च सूत्रयाचनाप्रदानेनागृहीता चन्तीति वाक्य शेषः । तथा मोहजयः कृतो भवति । सुत्रवाचनादानव्यग्रस्य सतः प्रायश्चित्तविश्रोतसिकाया अन्नावात् अत एवंगुणस्तस्मादुपाध्यायः सूत्रं वाचयेत् । पाठान्तरं ( तहा अ उण वापत्ति ) अत्रापि स एवार्थे नवरं गणी उपाध्यायः उक्तमुपाध्यायस्वरूपम् । व्य० १ ४० | प्रब० । स्था० "मेवामणादीहि अगा पवित वासवदारे मणोवश्कायजोगुत्तउवलन्ते विहिणा सरविंजणमता विषयवारविरुवासंगे सुयमाणमुपण जाणं परमप्पणोयमोक्खोवायं भायंतित्ति उवज्झाए थिरपरिचियमगमप बुवासंग सुयमाणं वितत अस रंति एगग्गमणसा झायंतित्ति वा नवज्जाए" महा० । ( उपा ध्यायस्य अतिशयादयः स्वस्थाने ( नमस्कारार्हत्वं नमो जब लवडवणा 6 कायाणंती सुत्रार्थी नमुकार 'शब्दे ) ( उपाध्यायदेश 'उद्देस' शब्दे उक्तः) ( उपाध्यायस्थापना ' दिसा' शब्द ) नवज्जिय-उपाहूत - त्रि आकारिते, व्य० १ उ० । उप (ब) हण-उर्तनन० उमेन उद्-त्-शि-करसे ल्युट् शरीर निर्मलीकरव्यादी नावे युद्यभेदः स्नेहाचपहारार्थे व्यापारे, विलेपने, घर्षणे च वाच० पङ्कापनयने, “ गायस्तुपट्टणाणि य" दश० ३ ० सर्जने । सकृद्वर्त्तने, नि० चू० ३ उ० । प० । व (ब) दृणविहि- उद्वर्तनविधि- पुं० उद्वर्त्तनप्रकारे, “तयांतरं च णं वट्टणविहिपरिमाणं करेइ रामत्थ एगेणं सुरभि. या गंधरुणं । अब उपपचक्लामि" उचा० १ श्र० । त्रि० समीपस्थिते, वाच० । उब- उपस्थ - एकस्यां वसती सततमवस्थिते, व्य० ४ उ० । नवडुंज - उपष्ट(स्त) म्न- पुं० उप-स्तम्भ - घञ्। पतनप्रतिरोधने, अ वलम्बने, आलम्बने स्थिती, सहकारे, बाच० । अनुकम्पायाम्, स्था० २ ठा० । मोहनीयेन कर्मणाऽवस्थाने, भ० १ ० ४ उ० । उपकाल उपस्थकाल पुण्अभ्यागमवेलायाम्, व्य०४४०। जवड (ट्ठा) वणा-उपस्थापना- -स्त्री० उपस्थापनमुपस्थापना । अनुकूलशक्त्यभावे प्रति० उपस्थाप्यन्ते तान्धारोप्यन्ते यस्यां सा उपस्थापना । चारित्रविशेषे, ध० २ अधि० । व्रतेषु स्थापनायाम, पं०० । 'वयट्ठवण मुवटुवरणा' पं०भा० | पंचा० । नवदीक्षितस्य साधेोः श्रीपाददीताभवनानन्तर 'मनितरजोहडावणिश्र' कायोत्सर्गे विस्मृते पुनर्दीकां दत्वाऽऽ वयकादियोगानुष्ठानमुपस्थापना च शुद्ध्यति नवेति ७४ प्रश्नः गच्छनायकदीक्षाभवनानन्तर 'मसिरजहारीका योत्सम विस्मृते पुनर्गच्छनायक सामन्तरेणाश्य कादियो गानुष्ठानमुपस्थापना च न शुद्ध्यतीति । शेन० २ उल्ला० ॥ उपस्थापनाविधिधैवम् पडियार यास २ चित्र ३षयति, अ तिवेला समग्ररासस४ दिसि बंधो दुहि तिहा देस मंडली सत्त६ ॥ पढिए अकहिश्रश्रहि गहि" इत्यादि गाथाद्वयं एवं "सुपरिक्खियगुणसीसो तिहिनक्खतमुहुत्तरतिजोगापसत्यदिवसे विपासपाइपहाराविले गुरुं बंदित्ता भणइ, इच्छुकारि भगवन् ! तुझे श्रह्मं पञ्चमहावतरात्रिभोजनविरम पर आरोपावर मंदिरावणिश्रं दालनिक्लेवं करेहति ताओ देवे बंदिषचंद दार्ड महत्वयाई श्रावणत्थं सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं दोवि करेति । तो सूरश्रो वदंति तुम्न्नएहिं पिट्टोवरिकुप्परसंठिएहिं करेहिं रयहरणं ढाक्षित्ता मकरानामि आए मुहपुष्टि संबंति धरिसम्मं वोगपरोसीसं श्रद्धावण्यकार्य इक्किक्कवयं नमुक्कारपुव्वं तिठि वारे उच्चरावेइ । तत्थ पढमे भंते महवर पाणा इवाया वेरमणं सव्वं भंते पाणाइवायं पचखामि से सुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे श्रवाइज्जा नेवनेहिं पाणे श्रश्वायाविजा पाणे श्रश्वायंते वि अनं न समगुजाराम जावातिविहं तिथिमये पायाए कारणं न करेमि न कारवेम करतं पि श्रन्नं न समजाखामि तस्स भंते पंडिकमाथि निद्रामि गरिहामि अप्पा बो सिरामि । पढमे भंते महम्यप उवडियोमि सव्याध पासाह प्रायाओ विरमणं । अहावरे दुवे भंते महम्य मसायायाश्री वेरमणं इत्याद्यालापकपदकं वाच्यम् । तत्रोपत्ताए लग्गवेलाए “इच्चेइयाई पंचमहन्वयाई रामोरावेरमणलाई अन्तहिय - Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (58) अभिधानराजेन्द्रः । उवडवणा याए उवसंपज्जिन्ताणं विहरामि एवं तिन्नि वारे भरणावेइ तश्रो वंदिता सीसो भइ इच्छकारि भगवन् ! तुझे श्रां पंचमहामनरात्रिभोजनविरमगआरोप इत्यादि क्षमाश्रमणानि प्रदक्षिणाश्च प्राग्वत् । तत्र सीसस्स आयरियउयज्भायरूवो दुविहो दिसाबंधो कीरह । यथा कोटिको गणः बहरी शाखा चान् कुलम् । श्रमुका गुरवः उपाध्यायाश्च साध्वी श्रमुकी प्रवर्तिनी चेति तृतीयः आचाम्लनिर्विकृतिकादितः कार्यते । देशनायां च वधूचतुष्ककथावाच्या ॥ सीसोसत्यं । सत्ताविसाशि-कारे मतं जहा ॥ सुने थे जो अण ३४ वस्त्र अधमकाए ६ । संथारपविद्वे तहा, सत्ते मंगली हुति ॥ सूत्रे सूत्रविषये १ एवम् श्रर्थे २भोजने ३कालग्रहे ४त्रावश्यके प्रतिक्रमणे स्वाध्याये तत्र च प्रस्थापने ६संस्तारके चैव७ सतामयो भवन्ति । एतासु येकैकेनाचा लेन प्रवेष्टुं कल्पते नान्यथेति । तत्र च “मुहपोत्ति पेहि बंद दुगं दाई मुत्तमंडली दिसावरं समाए सुत्तमंडलीवासिओ सामुत्ति" माइत्थे तस्स मिच्छामि डुकडं तिविहे इति प्रतिपादितः सप्रपञ्चमुपस्थापनाविधिः । अपने अकहिता, अहिगयपरिणये चगुरुगा। दोहिं गुरु त गुरुगा कालगुरुं दोडि वि सड़गा। सूत्रेऽसमा उपस्थाप्यमाने उपस्यापवितुःप्राधिकारो गुरुकाः । कथम्नृता इत्याह । द्वाभ्यां गुरवस्तद्यथा तपसापिगुरुकाः कालेनापि गुरुकाः । श्रथ सूत्रप्राप्तस्तथापि तस्यार्थमकथयित्वा यदि तमुपस्थापयति तदा तस्य चत्वारो लघुकाः । नवरं कालेनैकेन लघवः । अथ कथितोऽर्यः परं नाद्याप्यधिगतः अथवा अधिगतः परमद्यापि न सम्यक् तं श्रद्दधाति तमनधितार्थमश्रद्धानं वा उपस्थापयतश्चत्वारो लघुकाः । नवर मेकेन तपसा लघवः । अथाधिगतार्थमध्यपरीयोपस्थापयति तदा चत्वारो लघुकास्तपसापि कालेनापि च लघवः न केवयं तत्प्रायश्चित्तं किं त्वाज्ञादयश्च दोषाः तथा सर्वत्र पप्पां जीवनिकायानां यधिधास्यति तत्सर्वमुपस्थापयन् प्राप्नोति तस्मात् यत एवं प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषास्तस्मान्नापठिते पर्जीनिकायसूत्रे नाप्यनधिगतेऽर्थे नापि तस्मिन्नपरीक्षिते उपस्थाप. ना कर्तव्या । अथ कियन्तः पञ्जीवनिकायामर्थाधिकारास्तत आह । जीवनमा परि तब जयगाय । उसो फर्स, छज्जीवशिवार अहिगारा | जीवनिकायामिमे पञ्चाधिकारस्तमजीवा निगम द्वितीय महायनवादारज्य चारिधर्मस्तृतीयोजयं परे जयं चिट्टे' इत्यादिना यत्नादनन्तरमुपदेशस्ततो धर्मफलमेते च विस्तरतो दर्शकाविकटीकातः परिजावनीयाः । तत्रास्तामुपस्थापना कथं स प्रव्राजयितव्य इति तदेवोच्यते । तत्र षड्विधोव्यकल्पो वक्तव्य इति तमनिधित्सुराह ॥ पव्त्रावण मारण, सिक्खावण उवहसंजुंजाण य संवसा । एमो न दवियकप्पो, व्हितो होति नायव्वो । प्रवाजना नाम यो धर्मे कथितेऽकथित वा प्रव्रजामीत्यन्युस्थितः प्रथमत: पृच्यते कस्त्वं कुतो वा समागतः किं निमित्तं वा प्रवजिष्यति । तत्र यदा पृच्छा परिशुको भवति तदा प्रयाज उठवणा यितुमभ्युपगम्यते अभ्युपगम्य च प्रशस्तेषु इत्र्यादिष्याचार्यः स्वयंमवाष्टा ( स्तोककेश ) ग्रहणं करोति एतावता प्रयाजनाघारम् । तदनन्तरं स्थिरहस्तेन लोचे कृते रजोहरणमर्पयित्वा तस्य सामायिकसूत्रं दीयते । ततः सामायिकं मे दत्तमिच्छामो शिष्टिमिति । सुयोवते निरस्तारपारगो जयमाश्रम एषामुपमापना ( सिक्खावणत्ति ) तदनन्तरं द्विविधामपि शिकां ग्राह्यते तद्यथा ग्रहणशिक्कामासेवनशिक्कां च । ग्रहएशिका नाम पाठः । श्रासेवनशिक्का सामाचारी शिक्षणम् । यदा विविधामपि शिक्षां ग्राहितो जवति तदा स उपस्थाप्यते प्रशस्तेषु धयक्षेत्रादिषु यतः शालिकरणे करणे येत्यवृक्षे वा । क्षेत्रतः पद्मसरसि सानुनादे चैत्यगृहे वा काल तश्चतुष्टयादिवर्जितासु तिथिषु जावतोऽनुकूले नक यदि तस्य जन्मनक्षत्रं जायते तदा आचार्यस्यानुकूलन कत्रे सुन्दरे मुहूर्त्ते यथाजातेन लिङ्गेन । तद्यथा रजोहरणेन निपिछाइयोपतमुखपोतिकया चोलपट्टेन च वामपार्श्वे स्थाप यित्वा एकैकं महाव्रतं त्रीन् वारान् उच्चार्यते यावत रात्रिनोजनम् । अथ ते द्वौ त्रयो बहवो वा भवेयुस्ततो यथावयोवृरूम अथ ते कत्रिया राजपुत्रास्तत्र यः स्वतं एवासन्नतर आचार्यस्य स रत्नाधिकः क्रियते इतरो बन्धे अथ द्वावप्युभयतः पार्श्वयोः स मौ व्यवस्थितौ तदा तौ द्वावपि समरत्नाधिको व्रतच्चारितेषु प्रदक्षिणां कारयित्वा पादयोः पात्येते भएयते च महाव्रतानि ममारोपितानि इच्छामोऽनुशिष्टिं शेषाणामपि साधनां निवेदयामि गुरुशति निवेदयदं च प्रगति निस्तारगपारगां जय कुमाश्रमणानां चयएवमुपस्थापिते द्विविध साधर्यथा अहं तव आचार्योऽमुकस्ते उपाध्यायः । साध्या स्त्रिविधसंग्रहस्तत्र तृतीया श्रमुका ते प्रवर्त्तिनी एवमुपस्थाप्य के षांचित्पञ्चकल्याणक केषांचिदभक्तार्थ केपांचिदाचाम् केपांचिन्निर्विकृतिकमपरेषां न किंचित् । किं बहुना यत् यस्य तपः कर्म कागतं तस्य तद्दत्वा तेन सहैकत्र मएमस्यां संजुते संवसनं च करोति । शक्तकमध्ये परिपालना चेयं यथा यावन्नोपस्थाप्यते तावन्न भिक्का दिएकापयितव्यः । कथं पुनरुपस्थापनीय इत्यत आह ॥ पढिएवं कहिय अहिग, परिहर उडावणा यमो कष्पो कंती व परिहरनवगेण ण || 1 सूत्रं प्रथमतः पाठयित्वा तदनन्तरमर्थं कथयित्वा ततोऽधिगतोsaनार्थः सम्यक् श्रानविषयीकृतश्चेति परीक्ष्य यदा षङ्कं प जीवनिकायान् विनिर्माभावो न परावृत्या परिहरतीत्यत आह नवकभेदेन न षट्कं मनसा स्वयंपरिहरति अन्यैः परिद्वारयति परिहरन्तमन्यं समनुजानाति । पर्व याचा कायेन प्रत्येकं त्रयस्त्रयो नेदा इव्याः । एष उपस्थापनायाः कल्पः वृ० १० ॥ नि० चू० ॥ उपस्थापनाविधिः । (सूत्रम् ) आयरिय नवज्याय समिरमाणे परं चउराप्रपंचराओ कप्पा जिक्लो उनहाय कप्पाई अस्थियाई से कंड माणाणि कप्पागे स्थि बाई से के ए वा परिहारे वा नस्थि याई मे केमा णिज्ने कप्पड़ मेतरा ए पा परिहारे वा ॥ आचार्य उपाध्यायो वा स्मरन् अयमुपस्थापनाई इति जनानः परं चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा कल्पाकी सूत्रतोऽर्थतश्च प्राप्तं भिकुर्नोपस्थापयति । तत्र यदि तस्मिन्कल्प के सत्यस्ति Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ९१३) अन्निधानराजेन्द्रः। नवट्ठवणा उवट्ठणा (से) तस्य कल्पाकस्य कश्चित् माननीयः पिता माता 'ना- | बग्गादिं च तुरंतं, अनुकूले दिक्खिए उ अह जायं । ता वा ज्येष्ठः स्वामी वा कल्पाको भावी पञ्चरत्रेण दशरात्रेण | सयमेव तु थिरहत्यो, गुरू जहप्मेण तिमहा ॥ पञ्चदशरात्रेण वा ततो नास्ति (से) तस्य कश्चिच्छेदः परि इहोत्सर्गतो लोचे कृते यथा जाते च रजोहरणादिके समहारा बा अनादेशव्यमेके प्राश्वतरात्रात् परं यद्यन्यानि चत्वा र्पिते पश्चात्रिः कृत्वः सामायिकमुच्चार्यते श्त्येष विधिः । यदि रि दिनानि नोपस्थापयति तत आचार्यस्योपाध्यायस्य च प्रत्ये पुनर्लग्नादिकं त्वरमाण स्यात्ततोऽनुकले लग्नादावादिशब्दाकं प्रत्यकं प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् । अथ ततोऽप्यन्यानि चत्वारि न्मुहादिपरिग्रहस्त्वरमाणः शीघ्रं समापतति यथा शातं दिनानि अजयति ततः पम्बघुकम् । ततोऽन्यन्यानि चत्वारि दि सनिपद्यं रजोहरणमुखवस्त्रिकाग्रपूररूपं दीयते । उक्तं च । नानि ततः परुगुरुकम् । ततोऽप्यन्यानि यदि चत्वारि दिनानि "अह जायं नाम सनिसज्ज रयहरणमुहपोत्तिया वालपजे य ततश्चतुर्गुरुकदः । ततः परमन्यानि चत्वारि दिनानि यदि त इति" ततो यदि गुरुः स्थिरहस्तो न कम्पते अहं गृह्णानस्य हिं परुबघुकः परबघुकश्वेदः। ततोऽपि चेदन्यादि चत्वारि ततः हस्तः तर्हि स्वयमेव जघन्येन तिस्रोऽष्ट अव्यवच्छित्वा पगुरुका परगुरुक छेदः । ततः परमेकैकदिवसातिक्रमे मूलान गृह्णाति । समर्थः सर्व चालोचं करोति ॥ वस्थाप्यपाराश्चितानि । द्वितीयादेशवादिनः प्राहुः पञ्चरात्रात्परं अामो वा थिरहत्यो, सामाश्यतिगुणमट्ठगहणं च । यदि नापस्यापयति तत्तश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तं ततोऽपि परं यदि पञ्चदिनानि लङ्घयाति ततः षट्वघुकं पट्लघुकम् । ततः परमपि तिगुणं पादक्खिामं, नित्थारगगुरुगण विवक ।। पञ्चरात्रातिक्रमे षगुरुकं पागुरुकम् । ततोऽपि परं यदि पञ्च प्राचार्यस्य स्थिरहस्तत्वाभावे अन्यो वा स्थिरहस्तः प्रवादिनानि वाहयति ततश्चतुर्गुरुकश्चतुर्गुरुकश्दः । ततः परमन्या- जयति समस्तं लोचं करोतीति भावः। तदनन्तरं गुरुःशोभने नि चेद्दिनानि पञ्च ततः पात्रघुका पालघुकश्वेदः । ततोऽपि लग्नादी प्राप्ते त्रिगुणं त्रीन्वारान् सामायिकमुचारयति ।। इयपञ्चरात्रातिवाहने परगुरुकः षट्रकश्मेदस्ततःपरमेकैकदिवसा- मत्र भावना । प्रथमतः । प्रवाजनीयमात्मनो वामपार्श्वे स्थापतिवाइन मुबानवस्थाप्यपाराश्चितानि ॥ एष सूत्रसकेपार्थः । यित्वा चैत्यानि तेन सह वन्दते ततः परिहितचोलपट्टस्य अधुना भाष्यनियुक्तिविस्तरः। रजोहरणं मुखवखिकां च ददाति । तदनन्तरमर्थग्रहणं लोचं वा कृत्वा सामायिकारोपणनिमित्तं कायोत्सर्ग करोति । तत्र संमुमरण उवट्ठवण, तिप्णि उवणगा हवंति उक्कोसा । चतुर्विंशतिस्तवं चिन्तयित्वा नमस्कारेण पारयित्वा चतुर्विमाणणिजे पिताद। तु, ते समतीछेदपरिहारो ।। शतिस्तवमाकृष्य त्रिकृत्वः सामायिकमुच्चारयति। तदनन्तरसंस्मरणमुपस्थापनाविषये यया एष उपस्थापयितव्योवर्त्ततश्- मर्थग्रहणं स कारयितव्यः । सामायिकार्थस्तस्य व्याख्यायते ति तत्र माननीय पित्रादी सति कल्पाकस्यातिवाहने त्रयः पञ्च इति भावः । ततः सूत्रतोऽर्थतश्च गृहीतं सामायिकमिति तदबा भवन्त्यत्कर्षतः । किमक्तं जवति । विवक्तिते निक्की कट्पाके नुज्ञानिमित्तं विधिना त्रिगुण प्रादक्षिण्यं कार्यते तत्र तृतीयस्यां जाते सति यदि तस्य माननीयपित्रादिरूपस्थाप्योऽस्ति परमद्या प्रदक्षिणायामनुज्ञा क्रियते यथा निस्तारको भव गुरुगुणैर्विवृपि कल्पाको नोपजायते तर्हि स जघन्यतः पञ्चरात्रं प्रतीका- द्धिर्भवतु वर्द्धस्वेत्यर्थः । एवं प्रवाजनायां कृतायां यत्कप्यत मध्यमतो दशरात्रमुत्कर्षतः पञ्चदशरात्रं तथापि चन्मान- र्तव्यं तदाह ॥ नीयः कल्पाको नापजायते तहि सचाकल्पाको निकरुपस्थाप- फासुय आहारो से, अणहिंमतो य गाहए सिक्खं । नायो नोचेदपस्थापयति तहि बेदः परिहारो चा प्रायश्चित्तम् । ताहे न नबढावणा, बज्जीवणियं तु पत्तस्स ।। अय तस्य माननीयाः पित्रादयो न सन्ति ततस्तेषामसत्वभावे प्रव्रज्याप्रदानानन्तरं (से) तस्य प्रासुक आहारो दीयते स यदि तं चतूरात्रमध्ये वा नोपस्यापयति तथापि तस्य प्रायश्चित्तं च भिक्षां न हिएमाप्यते किं त्वहिण्डमान एव भिक्षा ग्रहणदः परिहारो वा छेदपरिहारग्रहणं सूचामात्रं तेनोद्देशद्वयन भिक्षामासेवनाशितां च ग्राह्यते ततः परजीवनिकां प्राप्तस्याप्रागुक्तः प्रायश्चित्तविधिटिव्यः । धिगृह्यत पजीवनिकाध्ययनस्य उपस्थापना क्रियते ॥ चिट्ठउ ता उट्ठवणा, पुव्वं पव्वावणादि वत्तवा। विक्षेपप्रायश्चित्तविधिमाह ।। अडयालपुच्चसके, जन्नति दुक्खं खु सामन्नं ।। अप्पत्ते अकहत्ता,अणहिगए(अ)परिच्चए(अ)निकम्मे से । तिष्ठतु तावदुपस्थापना पूर्व प्रव्राजनादिर्वक्तव्या। तत्र यथा एकेके चगुरुगा, वोयगमुत्तं तु कारणियं ।। पञ्चकल्पे निशीथे वाष्टचत्वारिंशत्पृच्छाशुद्धोऽभिहितस्तथा अमाते परजीवनिकां पर्यायं वा जघन्यतः पामासानत्कर्षतो श्रष्टचत्वारिंशत्पृच्छाशुद्धे कृते तत्संमुखमिदं भरायते । “दु- द्वादश संवत्सराणि तथा अकययित्वा जीवादीन् तथा अनधि. क्खं खु श्रामण्यं परिपालयितुं" तथाहि गते जीवाजीवादी तथा अपरीक्षायां परीक्काया अनावे तथा गोयर अचित्त-जायण समायमण्हाणचूमिसेज्जाती। (से) तस्य उपस्थापयिनोऽतिक्रमे एकैकस्य व्रतस्य वारत्रयअनुवगम्मि दिक्खा, दव्वादीसुं पसत्येसु ॥ मनुच्चारणे एतेषु सर्वेषु प्रत्येकमेकैकस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारो गु. यावज्जीवं गोचरचर्यया भिक्षामटित्वा अचित्तस्यैषणादिशु रुकाः । अथ सूत्रे पर्यायादिकं नोपात्तमिति तत्कथने कयं नमू त्रविरोधस्तत्राह हेचोदक! सूत्रमिदं कारणिकं पुरुषविशेषपात्राद्वस्य भोजनं कर्त्तव्यं तदपि वालवृद्धशैक्षकादिसंविभागेन पकमतः पयार्याधनभिधानेऽपि न दोषः । एनामेव गायां ना. तथा चतुष्कालं स्वाध्यायो विधातव्यः। यावज्जीवं देशतः प्यकृद्विवृणोति। सर्वतश्चास्नानं ऋतुबद्धे काले भूमी शय्या श्रादिशब्दाद्वारात्रेः फलकादिषु शयनं दिवसे न स्वप्नव्यं रात्री तृतीये यामे अप्पत्ते मुएणं परि-यागमुवट्ठावणे य चगरुगा। निद्रामोक्ष एवमुक्ते यद्यभ्युपगच्छति तत एतस्मिन्नभ्युपगते आणादिणो य दोसा, विराहणा एहकायाणं ।। तस्य दीक्षा प्रशस्तेषु द्रव्ये शाल्यादिसंचयादौ प्रशस्तक्षेत्रे गम्भी श्रतेन परजीवनिकापयन्तेनाप्राप्ते पर्यायं वा जघन्यादिभेदनिरसानुनादादी प्रशस्त भाव प्रवद्धमानपरिणामादी दातव्या । समप्राप्त नपस्थाप्यमाने उपस्थापयितुः प्रायश्चित्तं चत्वारो Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१४) अभिधानराजेन्थः । उबडवणा गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः । न केवलमेतत् किं त्वाज्ञादयो नवस्यामिथ्यात्वविराधनादोषास्तथा उपस्थापितो निका किन कल्पिको नवति । ततस्तस्य भिकादिप्रेषणे षण्णां कायानां विराधना अपरिज्ञानात् । तथा । सुत्तत्थमकहता, जीवाजीवे य बंधमुक्खं च । वाण चउगुरुगा, विराहणा जा जयिपुब्वं ॥ सूत्राये पहजीवन पर्यन्तमकला तथा जीवाजीव बचाकथयित्वा एवमेवोपस्थापने क्रियमाणे उपस्थापवितुश्चत्वारो गुरुकास्तपोगुरुकं प्रायश्चित्तम् । तथा या विराधना पूर्व जीवनिकायानामुक्ता साऋषिया । ततस्तस्मिन्निव समितस्य प्रायश्चित्तमुपढौंकते । अहिगयपुष्पाचे लवद्वतस्स चढगुरू होंति । आणादिणो य दोसा, मालाए होइ दितो ॥ अनधिगतपुण्यपापं सूत्रार्थकथने ऽप्यविज्ञातपुण्यपापमुपस्थापयतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरवः । कालगुरुका मासा जवन्ति । आज्ञादयश्चानन्तराभिहिता दोषाः । अत्र मालया दृष्टान्तो यथा स्वामी गुलावरीसुगचपुष्पमालामारोतीयतादयोदोष एवमत्राप्यमधिगतपुण्यपापे प्रताम्यारोपयत प्राशादय इति । उदउलादिपरिच्छा, अहिगयनाऊण तो व वंदितो । एक्केकं तिक्खत्तो, जो न कुणइ तस्स चउगुरुगा ॥ गोचरादिगते न उदकार्डादिना परीका कर्त्तव्या वृषभेण तत्परीकानिमित्तं तेन गोवरगतेन उदकारण हस्तेन मात्रकेण या भिका ग्राह्मा तत्र यदि स वारयति निषिद्धमेतत्कथं यूयमेवं निकामनिगृहीथ ततो ज्ञायते पप परिणतसूत्रार्थोऽधिगत पुण्यपापः । एवं शेषपरी कास्वपि भावनीयम् । तत उदकार्डादिपरीकाभिरधिगतपापं त्वा ततोऽनन्तरं व्रतानि गुरवो दति । कयमित्याह । एकैकं व्रतं त्रिः कृत्वस्त्रीन् वारान् एवं यो न करोति तस्य चत्वारो गुरुका द्वाभ्यां अघवस्तपसा कालेन च प्रायश्चित्तम् । अपामेना #1 उच्चारादि कि, वोसिवालाइ वावि पुढवीए । नदिमादिदगसमी, सागणिनिक्खित्ततेउम्मि || विनिधारणवाए, हरिए जह पुढविए तसेसुं च । एमेव गायर गए, हो परिच्छा का । उच्चारादिरादिशब्दश्रवणादि परिषद् अस्वस पृथिवी कायात्मके व्युत्सर्जनम् । यदि वा स्थानादिस्थानमूर्कस्थानमादिशब्दात्पदनादिपरिप्रपूधियां पृथिवीकायस्थो परि ते या कायदा कम पेयादिशब्दातमा गादिपरिग्रहः । तथा तेजसि तेजस्कायविषये स निकितानौ प्रदेशे गाथायां तु निकितशब्दस्यान्यथा पाठः प्राकृतत्वात् उच्चारादेयत्वर्जनमिति सर्वत्र संबध्यते तथा दाते वातविषये व्यञ्जनस्य तालवृन्तस्याजिधारणं वातोदीरणायानिमुख्येन धारणं करोति । हरिते यथा पृथिव्यां तथा वक्तव्यम् । हरितकायस्योपरि स्थानादि करोति । यदियोच्चारादिध्युत्सर्जनमिति । प्रष्वपि च पृथि व्यामिव वक्तव्यं कीटिकानगराद्यतिप्रत्यासन्नमुच्चारादिस्थानादि वाकरोतीति भावः । तत्र यदि वारयति तदा ज्ञायते सम्यक् परिणतोऽस्य धर्म्म इति योग्य उपस्थापनायाः । एवमेव गोचरगतेऽपि तस्मिन्कायैः पृथिव्यादिभिर्भवति परीक्षा कर्तव्या । तद्यथा सरजस्केनोदका वा हस्तेन मात्रकेण वा भिक्का ग्राह्यते इत्यादिपतस्य व्रतारोपणं कर्तव्यम् । तथा चाह उवठवणा दव्यादिपसत्यवया, एक्केकतिगंति उवरिमं हेडा | दुविहातिविहा यदि सा, त्र्यायंविलनिव्विगगावो || यादौ प्रशस्ते व्रतान्यारोपणीयानि एकैकं व्रतं त्रिकं त्रिःकृ त्वा उच्चारयेत् कथमित्याह "उवरिमं डेट्ठा" अधस्तान्मूलादार वपरित पर्यन्तवर्तिसूत्रम् इदमेकमुच्चारणमेवं श्रीस्वारानू दिक् निबध्यते । द्विविधां वा त्रिविधांचा तंत्र साधोर्द्विविधा स्त द्यथा । आचार्यस्योपाध्यायस्य च प्रवृर्तिन्याश्च । तथा उत्थापनानन्तरं तपः कार्यते । भनकार्यमाचा निकृतिकमित्यादि । उक्तं च । “जद्दिवसं उवहावितो तद्दिवसं किंचि अभितुको नव| केर्सि विश्रयंविले केसि वि निविगश्यमित्यादि " ॥ संप्रति माननीयादिविषये विशेषमादपियपुत्तखुड्डथेरे, खड्गयेरे पावमा म्मि । सिक्खापना, दिहंतो दंडिमाहिं || दीपितापुत्री प्रजिती ( दिद्वावधि) युगपत्प्राप्ती युगपपस्थाप्येते अथ (झ) पुत्रः सूत्रादिभिर प्राप्तः ( थेरन्ति ) स्थविरः सूत्रादिभिः प्राप्तस्तर्हि स्थविरस्योपस्थापना विधेया (खडुत्ति ) यदि पुनः कुलकः सूत्रादिभिः प्राप्तः स्थविरो नाद्यापि प्राप्तो भवति तर्हि तस्मिन् स्थविरे वादित यावदुपस्थानादिवसः शुरुः समाग ति तावत्स्थविरस्य प्रयत्नेन शिक्कापना क्रियते । आदरेण शिष्यत इत्यर्थः । तत्र यदि उपस्थापनादिवससमय एव प्राप्तो जवति ततो द्वापि युगपदुपस्थाप्येते अथादरेण शिमो न प्राप्तस्तदा स्थविरेणानुज्ञाते कुलक उपस्थाप्यते । अथ स्थविरो न मन्यते तदा प्रज्ञापना कर्त्तव्या तस्यां च प्रज्ञापनायां क्रियमाणायां दृष्टान्तो दरिकाद्य भिधातव्यः । दरिएको राजा आदिशब्दादमात्यादिपरिग्रहः स चैवम् "एगो पारपरिको स पुरतो अनरायाणमो लग्गनमाढतो । सो राया पुत्तस्स तुडोतं से पुतं रज्जे गवउमिच्छर । किं सो पिया नागुजाण एवं तब जह पुत्रो महव्वयरज्जं पावित्ति किं न मनसि । एतदेवसविशेषमाद थेरेश अाए, उनिच्छे व ठंति पंचाई । ति पण मणिच्छे वरं वत्सहावे जाही स्थविरेणानुज्ञाते उपस्थापना कुलकस्य कर्त्तव्या । अथ स दरिकादिभिमानति तदा पञ्चाहं पञ्च दिवसान् यावत्तिष्ठति ततः पुनरपि प्रज्ञाप्यते तथाप्यनिच्छायां पुनरपि पञ्चाहं तिष्ठति पुनः प्राप्यते तथाप्यनिटो भूयः पञ्चाहमवतिष्ठते । एवं दिन स्थि भवति तदा युगपदुपस्थापनातः परं स्थविरेऽनित्यपि कुलक उपस्थाप्यते पुसावेण जा ीयमिति ) वस्तुनः स्वनायो वस्तुस्वभावः । अहंकारी सन् । अहं पुत्रस्यावमतरः करिष्येऽ हमिति विधित्यका विभिष्कामे गुरोः कस्य चोपरि गच्छेत् । एवं स्वरूपे वस्तुस्वभावे ज्ञाते त्रयाणां पञ्चाहानामुपर्यपिस कुलकः प्रताप्यते यावत्तेनाधीतमिति ॥ द्वे पितापुत्रयुगले तदाऽयं विधिःदो थेरे खड्डथेरे, खुड्डवेश्वत्थमग्गणा होइ । रस्मो मचाई, संजइमज्जे महादेवी ॥ दो स्थविरी सपत्री समजत विरौ प्राप्तौ न क्षुल्लकौ ततः स्थविरावुपस्थाप्येते ( खुट्टति ) अथ द्वावपि कुलको प्राप्तौ नस्यविरौ तदा पूर्ववत् प्रज्ञापनोत्क तः पदादिसायचा तयाप्यनि - Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१५) अभिधानराजेन्द्रः | उबवगणा स्वावं ज्ञात्वा प्रतीकापणम् । ( थेरे खुइत्ति ) द्वौ स्थ विरावेकश्च क्षुल्लकः सुत्रादिभिः प्राप्तोऽत्रोपस्थापना ( वोश्वस्बे इत्यादि) स्थविरस्यस्य विपर्ययस्तो प्रति मा गंणा कर्तव्या सा चैवं द्वौ लौ प्राप्तावेकश्च स्थविरः प्राप्त को न प्राप्तस्तत्र यो न प्राप्तः स श्राचार्येण वृनैर्वा प्रज्ञाप्यते प्रज्ञापितः सन् यद्यनुजानाति तदा तत् कुछक उपस्थाप्यते । तथाप्यविच्ायां राजरान्तेन तयैय प्रज्ञापना । अयं चात्र विशेषः । सोऽप्राप्तस्थविरो भएयते । एष तव पुत्रः परममेधावी सूत्रादिनिः प्राप्त इत्युपस्थाप्यताम्र यदि पुनस्त्वं न शुल्कप्रयसि तदेती पिपि तापुत्री किन भविष्यतस्तस्माद्विसर्जय एनमात्मीयं पुत्रमेषोऽपि तावद्भवतु रत्नाधिक इति मतोऽपि परमनिच्छायामुपेक्का वस्तुस्वभावं वा ज्ञात्वा तत्क्षुल्लकस्य प्रतीकापणमिति । ( रनो यं श्रमवाईत्यादि ) पश्चाई राजा अमात्य समजती सममेव सुदिनिः प्राप्ती ततो युगपती बप्यपस्याप्येते अथ राजा सुत्रादिनिमात्यस्ततो राइ उपस्थापना । अथामात्यः सूत्रादिनिः प्राप्तो न राजा ततो यावदुपस्थापनादिनमागच्छति तायदाद रेग राजा शिक्ष्यते ततो यदि प्राप्तो भवति ततो युगपदुपस्थापना । अथ तत्रापि राजा न प्राप्तस्तदा तेनानुज्ञाते अमात्य उपस्थाप्यते । अय नेच्छति तदा पूर्ववदकिकदृष्टान्तेन राज्ञः प्रज्ञापना । तथापि चेन्नेच्छति ततः पञ्चदिवसान्यावदमात्यस्य प्रतीकापणं तथापि चेन्न प्राप्तो नूयः प्र झापना तत्राप्यनिच्छायां पुनः पञ्चदशाहमपि । तथाप्यनिच्छायामुपेक्षा वस्तुनावं वा ज्ञात्वामात्यस्य प्रतीकापणम् । यदि वा वक्ष्यमाणोऽत्र विशेषो यया चामात्यस्य राज्ञा सहोक्तमेवमादिग्रस चितयोः श्रेष्ठिसार्थवादयोरपि वनव्यमिति । (सं जमके महादेवीति ) इयमादिमी गयोर्महादेव्यमात्योश्च सर्वमेव निरवशेषं वक्तव्यम् । संप्रति यडुक्तं वोच्चत्यमम्गणा होइन्ति तद्वयाख्यानार्थमाह । दो पत्ता पियपुत्ता, एगस्त पुत्तं न न थेरा । गहितोयं वियर, राइणितो होन एस विय ॥ ही पितापुत्रप्राप्तास्य तु पिता प्राप्खेन पुत्रः युगलस्य पुत्रः प्राप्ता न स्यविरः स आचार्येण वृषभेण वा प्रज्ञापनां प्राहितः स्वयं वितरत्यनुजानाति तदा स क्षुल्लक उपस्याप्यते । श्रय नेच्छति तदा पूर्ववद्राजष्टान्तेन प्रज्ञापना अन्यश्च तौ पितापुत्रौ रत्नाधिकौ भविष्यत एषोऽपि च तव पुत्रो यदि रात्निको रत्नाधिको भवति । भवतु नाम तव लाभ इति तथाप्यनिच्यां पूर्ववदुपेकादि । या राया वा, दोषि वि समपत्त दोसु पामेसु । ईसर सेमिच्चे, नियममा कुलकुए खुड्डे ॥ एको राजा द्वितीयराजस्तौ समकं प्रव्रजितौ श्रत्रापि यथा पितापुत्रयो राजामात्ययोवां प्रागुकं तथा निरवशेषं व केवलममात्यादिके सुत्रादिभिः प्राप्ने उपस्थाप्यमाने यदि राजादिरप्रीति करोति दारुणस्वभावतया ब्रूते वा किमपि पुरुनदासोऽप्राप्तोऽपीतरेरमात्यादिभिः सममुपस्थाप्यते । अथवा (रायत्ति ) यत्र एको राजा तत्र सोऽमात्यादीनां सर्वेषां नाधिकारावासांसि यत्र पुनर्द्विप्रभृतयोराजानः समकं प्रव्रजिताः समकं च सूत्रादिभिः प्राप्तास्ते स. मनाधिकाः कर्त्तव्या इत्युपस्थाप्यमाना द्वयोः पार्श्वयोः स्थाप्यन्ते अवायें विशेषमाह । उचट्ठवणा समगं तु असुं पचेनुं प्रणनिभोगमावलिया । ཞུ गतो दुहतो विया, समएयलिया जहासनं ॥ पूर्व पितापुत्रादिखकन्धेनासंबन्धेप्यनेकेषु राजसु समकं सुत्रादिभिः प्राप्तेष्वत एवैककालमुपस्थाप्यमानेषु ( श्रणभिजोगति) गुरुणा अन्येन वाभियोगो न कर्त्तव्यो यथा इतस्तिएथ इतस्तिष्ठति फिल्वेकतः पार्श्वे द्विधा या द्वयोः पार्श्वयोयचैव स्थिताः स्वस्वभावेन तेषामावलिका तथैव तिष्ठनि तत्र यो यथा गुरोः प्रत्यासन्नः स तथा ज्येष्ठो ये तूभयोः समधेया स्थितास्ते समरत्नाधिकाः। इदानीं पूर्वगाथापश्चाईव्याख्या ( ईसरेत्यादि ) यथा द्विप्रभृतयो राजान उक्का एवं प्रभृतयः निमिभूतोऽमात्याद्विभूतयोनिगमावणिजः (घडात ) गोष्टी द्विप्रभृतयो गोष्ठयो यदि वा द्विप्रभृतयो गोष्ठिका यदि वा विप्रभृतयो महाकुला विक हणमुपलक्षणं तेन द्विप्रभृतय इति द्रष्टव्यम् । तथैव च व्याख्यातं च (इति) शकाः समयं प्रवजिता इत्यर्थः । सूप्रादिभिः प्राप्ताः समकं रत्नाधिकाः कर्त्तव्याः । एतेषामेव मध्ये यः पूर्व प्राप्तः सपूर्वमुपस्थाप्यते इति वृद्धसंप्रदायः । इस आगो पचा वामपासम्म हो आवलिया । निसरणम्मियी, ओसरणे सो व मो वा ॥ तेषामुपस्थाप्यमानानामावलिका गुरुयांमपार्श्वे जगदन्तयन् ईपदयनतस्य अवनतीभूय स्थिता तब यदि ते गुरुसमीपमप्रतोऽभिसरन्ति तदा वृद्धिशीतया यथाऽन्येऽपि बहवः प्रव्रजिष्यन्तीति श्रथ पश्चाद्वहिरपसरन्ति तदास उपस्थाप्यमानोऽन्यो वा उनिष्कमिष्यति श्रपद्रविष्यति वेति ज्ञातव्यमेव निमित्तकथनम् । व्य० द्वि० ४ उ० ॥ (सूत्रम्) जे निक्खू गर्व वा अणामयं वा सगं वा जे आपलं उडा ठडा वा साइन | २७२ ॥ सूत्रार्थः पूर्ववत् अव्यालं उपडावेतस्स आहादी दोसा पडगुरुगं च चिउ ताव उवद्वावणाविहि पव्वावणाविहिं तावहातुमिच्छामि || नायगमनायगं वा, सावगमस्सावगं तु जे चिक्खू अमुवावेई, सो पावति अप्रमादी ||४५४|| पच्छा के अट्टा पेसा च तिक्तो सयमेव उ काय, सिक्खा य तहिं पयातेणं ||४५५|| जो च उवद्वाति पव्वज्जा एसो पुच्छिज्जति कोसि तुमं किं व्यवसि किं च ते एवं पुतो जति अणलो भवति ता सुद्धो वजार कप्पसिजो ताहे से इमा साई चरिया कहिज्जति ॥ गोरम चित्तोयण, सज्जायमरहाणनू मिसेज्जादी । अनुवगय थिरहोत्था, गुरुजहमेष तिवडा ||४५६ ॥ गोयरेति दिणे देणे भिक्खं हिंडियव्वं जत्थ जं लग्भइ तं चितं तवं पिसादिदं निपिता से हादिया सह संविभागेण मोज्यं नियं सरकावाणपुरे होयव्वं सदा अरहाणगं तु उडुबद्धे सया भूमिसयण वासासु फलगादिसु सोतव्यं भ्रारस सोलंगसहस्सा धारयव्या लोयादिया य किलेसा श्ररोगे कायव्वा एयं सव्वं जति श्रसुवगच्छति तो पव्वावेयव्वा एसा पव्त्रावणिज्जपरिक्खा पव्यावणा भन्नति ॥ नि०यू० ११ उ० ॥ (सूत्रम् ) आयरियनवज्जायत्र्यसमरमाशे परं चउरातातो Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०.१६) अभिधानराजेन्ः | उवठवणा पंचरातातो कप्पागं भिक्खु णो उवद्वावेति कप्पाए अस्थियाई से माणणिजे कप्पागे नर वाई से केइ बेदे वा परिहारे वा नत्थि याइ से के माए शिज्जे कप्पड़ से संतराजेदे वा परिहारे वा ।। अस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं तं चैव भाणियव्व मिति वचनादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः । कम्पाए अस्थि याई से केइ माणणिज्जे कप्पागे नत्थि याइं से केइ छेदेवा परिहरे वा नत्थि याई से मजे प्यागे से सतरा दे या परिहारे वा" अस्यापि व्याख्या प्राग्वत् तत्र यैः कारणैर्न स्मरति तान्युपदर्शयन्नाह दप्येण पमाण व क्षति बावि । एहिं समरमाणे, चव्विहं होइ पच्चित्तं ॥ दप्यों निष्कारयोम्नादरस्तेनं प्रथममादी विधादीनां प वानां प्रथमादीनामन्यस्तेन व्याक्षेपणसीवनादिना ग्लायते पतैः कारणैररति प्रायश्चित्तमस्मरनिमित्तं चतुर्विधमस्म रणकारणस्य दयदेवतुष्यकारत्वात् । तदेवानिधिःप्रथ मतो दर्पतः प्रमादेन चाह ॥ वायामसिनादि दप्पे अडवेंति चरगुरुगा । निकादिपमाण व पलहगा होति पोचवा ॥ व्यायामग्लानादिषु व्यापृततया निष्कारणोऽनादर उपस्थापनायाः स द उच्यते तेन दाखापयति प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः विकथादिना अन्यतमेन प्रमादेनानुपस्थापयति चत्वारो लघुका भवन्ति बोद्धव्याः ॥ सिन्वणतुणणसज्काय, जाणलेवादिदाएकज्जेसु | विक्खेवे होइ गुरुगो, गेोणं तु मासलहू ॥ सीवन मीनास्वाध्यायन्यानपात्रलेपादिदानकार्यगीयायां सप्तमी तृतीयायें यो व्याक्षेपेणानुपस्थापयति प्रायश्चित्तं प्रयति गुरुको मासोन्त्यनुपस्थापयति मास संप्रति यैः कारणः स्मरतोऽस्मरतयानुपस्थापयतः प्रायश्चित्तं न भवति । तान्यनिधित्सुराद धम्महामत्तो, वादो अच्चुकमे व गेलएणे | विइयं चरमपए, दोस्रु पुरिमेसु तं नत्थि । ऋमितो राज्ञो युवराजस्यामात्यादेर्वा प्रतिदिवसमागच्छतो धर्मकथा कथ्यते परप्रवादी का काधनाप्युपस्थितः स देन गृहीतव्यः । इति तन्निग्रहणाय विशेषतः शास्त्राज्यासे तेन सद वादे वा दीयमाने यदि वा श्राचार्यस्यान्यस्य वा साधेोर्यो वा उपस्थाप्यस्तस्य वा अत्युत्कटे ग्लानत्वे जाते व्याकुलीजवनतः स्मरन्नस्मरन्वा यद्यपि नोपस्थापयति तथापि न तस्य प्रायश्चितं कारणतो व्याकुलीजवनात् । एतच्च प्रायश्चित्तानावत्रक द्वितीयपदमपवादपदं चरमपदयोर्द्वयोपरत्ययो वगन्तव्यम् । तथा हि धर्म्मकथावादाच्यां व्याप उक्तो ज्ञानत्वपदेन च ग्लानत्वमिति पुर्वयोस्तु द्वयोः पदयोस्तत् अपवादपदं नास्ति । एतच्च चतुर्विधं प्रायश्चित्तमस्मरणनिमित्तमुकं स्मरतस्तु चतूरापरात्राद्यतिक्रमे यत्प्रायश्वितत्पूवसूत्रे इवात्रापि निरवशेषं द्रष्टव्यम् । आयरिया व समरमाणे वा असमरमाणे वा परं दमराय कप्पातो कप्यागनिक्खू णो उपहावेति कप्पा त्थि आई से केद माणबिज्जे कप्पागे नत्यि याई से केह - उबवणा छेदे वा परिहारे वा जाव कप्पाए संवच्छतरं तस्स तप्पतियं यो कप्पर व्यापरियचं वा जाव गावच्छेयं वा उद्दिचिएका आचार्य उपाध्यायो वा स्मरन् अस्मरन्वा यदा स्मरति तदा न साधकं नक्कत्रादिकं यदा तु साधकं नक्क्त्रादिकं तदा बहुव्याकेपतो न स्मरत्वापरं दशरात्रकल्पान् दशरात्रकल्पार्क भिकुं नोपस्थापयति तत्र यदि तस्मिन्कल्पाके अस्ति (से) तस्य कल्पाकस्य कश्चिन्माननीयः पित्रादिनिर्जीव) कल्पाकस्ततो नो पस्यापयति तर्हि नास्ति (से) सस्यानुपस्थापयति कचिच्छेदः परिहारो वा । अथ नास्ति (से) तस्य कल्पकस्य कश्चिन्माननीयः दिव्यास्तस्थितः परिदारो या प्रथमादेश इति वाक्यशेषो द्वितीयाईन पुनम्टदैन परिहारसा वा दम्यमानस्य तत्प्रथममनुपस्थापनाप्रयतस्य संवत्सरं याय कल्पताचा संसा यते इति भावः । एष सुत्रपार्थः । व्यासार्थन्तु प्राप्यदनि प्रियमतो दशरात्रनिबन्धनमाद च 66 समरमाणेवि पंचदिय, समरमाणे वि तेत्तिया चेव । कालोचि समति व अकाकपओति व एगई ॥ स्मरत्यपि रायपंचायातो यनेन पञ्चदिनायुधनिमत्यपि तावन्ति देव पच दिनानि वधानि स्मरणस्मरण मिथकसूत्रतोदयात्कन्यादित्युक्तमत्रेय क रूपशब्दस्तदूव्याख्यानमाह I काल इति वा समय इति वा अका इति वा कल्प शति " एकार्य ततो दशरात्रकपादिति दशरात्रकालादिति ष्टव्यम् । संप्रति स्मरणास्मरणं भावयति ॥ जाहे सुमर ताहे, असाह रिवखलग्गदिणमादी । बहुविम्मियगणे, सरियं पिपुणो वि विस्सरति ।। यदा स्मरति तदा असाधकप्रयोजककादि आदि महागणे स्मृतमपि पुनरापे विस्मरति तत एवं स्मरणास्मरणसंनवः । अत्रैव प्रायश्चित्तविधि सविशेषमाद दसदिवसे चउगुरुगा, दसेव बहुग गुरू चेव । तत्तो छेदो मूलं वप्पो व पारंची ॥ तस्मिन्न कल्पाचे जाते सात यदि स्मरणास्मरणतो दसदिवसानतिक्रमति ततस्तस्यानुपस्थापयतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः ततः परमप्यन्यानि दशैव चेत् दिनान्यतिवा हयति ततः षलघुकम् । ततः परतोऽपि दिनदशकातिक्रमे षगुरकं ( ततोबेदोत्ति ) ततः परमेवं वेदस्त्रिधा वक्तस्यः । संवं ततोऽपि परतो यद्यन्यानि दशदिनानिि तर्हि चतुर्गुरुकश्वेदस्ततोऽपि परतो दिनदशकातिक्रमे लघुकश्वेदः ततोऽन्यदशदिवसस्यातिवाहने पाराश्चिको जायते ॥ एसो देसो पढमो, वितिए तवसा दम्ममाणम्मि । उनलेवा, संपच्छरमोदिसाहरणं ॥ पोऽनन्तरोहित आदेशः प्रथमो द्वितीय आदेशे पुनस्तपसा उपलक्षणमेतच्छेदेन वा अदम्यमाने यदिवा उभयबलेन कायले उपमेतदम्यतरेकयमेन या तपसम्वेदस्य या दातुमशक्यतया संवत्सरं यावत् दिश आचार्यत्वस्य हरणम् ॥ एते दो आदेसा, मीसगमुचे हवंति नायव्वा । पदम पुर्ण सत्तेस इमं तु माणसं ॥ पायरोहिती द्वाययादेशी मिश्रकसूत्रे नयतो Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा अभिधानराजेन्द्रः। नवट्ठवणा प्रथमाहितीययोः पुनः सूत्रयोरिदमादेशविषयं प्रत्येक नानात्वं आसरणम्मि य वट्टी, सरणे सो व अप्पो वा ॥ तदेवाह ॥ उववियस्स एवं, संनुंजणता तहेव संवासो । चउरो य पंचदिवसा, चनगुरू एव होति दो वि ।। वितियपदे संबंधी, ओमादीसु माह पडिलावं ।। ततो मूलं नवम, चरम पिय एगसरगं तु ॥ प्रथम द्वितीये च सूत्रे प्रत्येकमिमावादेशौ प्रथम आदेशस्त मुंजोसु मए महिं, झ्याणिं णेचति जोतु पहिनावं । स्मिन् विवक्तिते कल्पांके जाते सति यदि चतुरो दिवसा अहिखायंति व जने, पच्छन्ने जे ण मुंजति । नतिवाहयति तदा चतुर्गुरु एवं पञ्चपश्चातिकमे पालघु षम्- एमादिणा तु जावं, ताहे अप्पत्तअहवपत् वा ॥ गुरुके। एवं दो ऽपि त्रिधा वक्तव्यः तदनन्तरं मूलं नवममन- नवट्ठावेंति हुंजंति, अपरिणते चित्तरक्वट्ठा ।।पं०ना०॥ घस्याप्यं चरमं पाराञ्चितमेकसरकमेकैकदिनातिक्रमे वक्तव्यम् । उबढ़ावणा कप्पो अप्पते अंकवेत्ता । गाहा जइ आवासगमा द्वितीय आदेशः पञ्चदिवसातिक्रमे चतुर्गुरु एवं पञ्चपञ्चा जाय उज्जीवाणयातो सुत्ते अपमिए जवट्ठावे चगुरू दोहिं वि तिक्रमे पलनुषगुरुके एवं बेदोऽपि पञ्चपश्चदिनातिक्रमेण गुरू तवेण कालेण तवगुरू अंतो अटुमदसमदुवाससमकालगुरु विधा वक्तव्यस्ततो मूखं नवमं चरमं च एकसरक मेककदिना गिएहकाले अहासुत्ते पढिए अच्छे अकहिए बढ़ावेश्चनगुरु तिक्रमेणेति भावार्थः। व्य०४० दशा० ॥ तवगुरू काबलहुं कामबह सीतकाझे वासासु वा अह पढिए फासुय आहारा से, अणहिंगणं च गाहए सिक्खं । सुत्ते य अपरिचिो ता मनसद्दहरु पुढविमार्शणि चउगुरू तव ताहे उ नबढवणं, छज्जीवणियं तु पत्तस्स ।। लहू तवचउगुरु तवचनबहुगं च नन्न अणुग्घाश्य पमुच्च अप्पते अकहित्ता, अणजिगतपरिच्छअतिकमेया से । गुरुयं अणुग्घाश्यं नाम उट्टे चनत्थे आयंबिले व कए पारणए एकेके चनगुरुगा, विसेसिया आदिमा चतुरो ॥ पुरिमनिव्वीश्यगासणा करे। तेण गुरुयं नवश्अह पढियसु यप्रनिगयं अपरिच्चिकण नबहावे किं परिहरश्न नुदप्रोल्लादि अप्पत्तं मुत्तेणं, परियाग उवट्ठवेत च उगुरुगा । चउगुरु दोहिं वि बहुतवसा कात्रेण अणु ग्याश्य पुण एवं वारमआणादिया य दोसा, विराहणा छएह कायाणं ।। विहं वि कप्पिए। पं०चू । “उवग्गस्स वा उक्ट्ठावेज्ज वा सुत्तं सुत्तत्यं कहत्ता, जीवाजीवे य बंधमोक्खं च । वा अत्थं वा नन्नयं वा परवेज्जा एतेसु कुलगणसंघवज्को"महा० नवट्ठवण चउगुरुगा, विराहणा जा नणियपुब्धि ।। ७ अ०। एतदेव भावयन्नाहअणभिगतपुनपावं, नवट्ठवेतस्स चउगुरू होति । णो उट्ठावणए चिअ, निमा चराति दव्यओ जेण । प्राणादिणो य दोसा, मालाए होंति दिटुंते ॥ मा जव्वाण विजणिश्रा, उउमत्थगुरूण सफमा य॥ समरक्वदनवगणी, पतिहित हरितबीजमादीसु। नोपस्थापनायामेव कृतायां सत्यां नियमाचरणमिति कुत होति परिक्खागोयरे, किं परिहरतीण वा वित्ति ॥ इत्याह । व्यतो येन प्रकारेण सा अभव्यानामपि भणितोप स्थापना अङ्गारमर्दकादीनांबद्मस्थगुरूणांविधिकारकाणांसफा जच्चारादि अमित, वोमिरगणादि वावि पुढवीए। चाहाराधनादिति गाथार्थः । नपस्थापना विधिफलवत्तामाह । णदि मादिदगसमीवे, खारादिदाह अगणिम्मि वि ॥ पायं च तेण विहिणा, होइ इमंति निअमो को मुत्तो। जण अहिधारण वा ते, हरिए अहव पुढवि ते तसेसुं च ।। इयरा सामाइअम्धि-त्तो वि सिधि गयाणं ता ॥१०॥ एमादि परिक्खित्ता, वनदाणमिमेण विहिणा सो ।। प्रायश्चित्तेन विधिना उपस्थापनागतेन नवत्येतदोपस्थाप्यं दव्वादिपसत्थे श, एक्ककं तिगुणणोवरिं हेट्ठा । चारित्रमिति नियमः कृतः सूत्रदशवकालिकादिपागद्यनन्तरमुदुविहा तिविहा य दिसा, अंविलनिच्चिगतिओ वा । पस्थापनायाः इतरथान्यथा सामायिकमात्रतोऽप्यबहिः प्राप्त्या पियपुचाणं जुया, दोएिह तु निक्खंत तत्थ एगस्त । सिक्रि गताः अनन्ता प्राणिन शति गाथार्थः । अनियममेव दर्शयति ।। पत्तो यदि ताण पुत्तो, एगस्त पुत्तो ण तु थेरो ।। पुब्धि असंगतं पि अ, विहिणा गुरुगच्चमेवाए। नाहे तु पनविज्जति, दंडियणायं तु का तु जन्नइ तु मा ।। जावमणेगेसि इमं, पच्चा गोविंदमाईणं ॥११॥ गएहं अस्सग्गहीए, तिमि उ होति एसविता ।। पूर्वमुपस्थापना काले असदपि चतच्चरणं विधिना गुरुगएवं मो पएहवि तो, जदि इच्छे तो न उहवेंति तु ।। जगदिसेवया हेतुनूतया जातमन्निव्यक्तमनेकेषामिदं पश्चानोपेनेते यं चाह-वेति दो तिशिह वायणगा । जादीनां गोपन्ध्याचककरोटकगणिप्रभृतीनामिति गाथार्थः ॥ वच्चमजावासज्ज व, जा धीत ताव तं परिच्छति । प्रक्रान्तसमर्थनार्यवाह ।। एवं रायअगवसुं-जति मजके महादेव।।। एअंच उत्तमं खल्ल, निव्याणपसाहणं जिणा विति । राया रायाणो वा, दोएिह वि समपत्तदोसु पासेसु । जं नाणदसणाण वि, फनमे अंबं व निद्दिढ ॥१॥ ईपरमेट्ठि अमञ्चे, गियमघमाकुन्नदुवे खुढे ।। पतच्चारित्रं उत्तम खत्तममेव निर्वाण प्रसाधनं मोक्कसाधन जिना वते । अत एतपाये यत्नः कार्य इत्यदंपर्यमुत्तमत्व युसमपत्त अणेगेसुं, पत्तेसुं अणजिओगमावलिया। क्तिमाह । यद्यस्माज्ञानदर्शनयोरपि तत्वदृष्टया फसमेतदेव एगतो मुहतो गविता, समराणिया जहा सन्नं ।। चारित्रं निर्दिष्ट तत्साधकत्वादिति गाथार्थः । पं०व० । बाबस्योनि अन्नो पत्ता, वामे पसाम्मि होति आवलिया। पस्थापना न कल्पते ।। Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१८) अभिधानराजेन्डः। उवट्ठवणा उवठ्ठवणा ( सूत्रम् ) णो कप्पत्ति णिग्गंयाण वा णिग्गंधीण वा | जे अणलं नहावेइ नट्ठावंतं वा साइज्जइ ॥ २० ॥ खुड्यं वा खुडियं वा कणवासजाय उवट्ठवित्तए संजजि- __ सूत्रार्थः पूर्ववत् । अणलं उवट्ठावेतस्स आणादी दोसा चउत्तए वा कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंधीण वा खुड्डयं वा ३ | गुरुगं च । नि०चू० ११ उ० । सातिरेगट्ठवासजायाई नवट्ठा वित्तए वा संतुज्जित्तए वा। ___ अनवस्थाप्यभिक्षादेः पुनरुपस्थापनासूत्रस्याक्करगमनिका न कस्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अणवट्ठप्पं जिक् अगिहिलूयं नो कप्पा तस्स गणावकुन्तकं वा क्षुल्लिकांचा ऊनाष्टवर्षजातानामुपस्थापयितुं वा संजोक्तुं च्छेयस्स नवट्ठवित्तए प्रणवढप्पं जिक् गिहिनूयं तस्स वा मण्डल्यां तथा कल्पते निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थीनां वा कलकं वा | गणावच्छेदियस्स नवट्ठावित्तए इति ॥ सातिरेकाष्टवर्षजातानामुपस्थापयितुं वा उपस्थाप्य मएमल्यां यथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध उच्यते । संभोक्तुं वा । अथ कस्मादूनाष्टवर्षजातस्योपस्थापनादि न कल्पते तत आह।। अहस्स कारणेणं, साहम्मि य तेणमादि जइ कुज्जा। ऊणहए चरितं, न चिट्ठए चाक्षणी य उदगं वा । । इह आएवढे जोगो, नियमातो यावि दसमस्स ।। वासस्स य जे दोसा, जणिया आरोवणा दोसा ।। साधम्मिकैः कारणेन प्रागुक्तेनोत्पादितो योऽर्थस्तस्य स्तैन्यऊनाएके ऊनाष्टवर्षजाते काले चाहिन्यामुदकमिव चारित्रं न मादिशब्दादन्यपरिग्रहः । यदि कुर्यात्ततः सोऽनवस्थाप्यो तिष्ठति । तथा ये बासस्य दोषा भणिता स्ते च बालस्योपस्थापने | भवति एतदर्थख्यापनार्थमर्थजातसूत्रानन्तरमनवस्थाप्यसूत्रम् आरोपणायामाप्रसजति । बासस्य दोषानाह । इत्येषोऽनवस्थाप्यसूत्रस्य योगःसंबन्धः। पाराश्चितसूत्रस्यापि कायवयमणोजोगो, हवंति तम्हा एवटिया जम्हा । संबन्धमाह । नवमात्प्रायश्चित्तादनवस्थाप्यादनन्तरं किल दशमं पराञ्चितनामकं प्रायश्चित्तं भवति ततो नवमानवमप्र:संबंधिमणानोगे, ओमे सहसाववादे य ।। यश्चित्तसूत्रस्यारम्भमाह । अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या तस्य बालस्य कायवाङ्मनोयोगादस्मादनवस्थिता भवन्ति ।। ।अनवस्थाप्यं भिनुमगृहीभूतमगृहस्थीकृतं नो कल्पते यस्य तस्मानोपस्थापयेत तत्रैवापवादमाह | संबन्धिनमनाभोगे समीपेऽवतिष्ठते तस्य गणावच्छेदिनो गणस्वामिन उपस्थापअवमे दुर्भिक्षे सहसाकारेण वा संभोजने अपवादे नोपस्था-1 यितुम् । संप्रति पाराञ्चितसूत्रमाह । पयेदूनाष्टवर्षजातमपि । तत्र संबन्धिव्याख्यानार्थमाह ॥ ( सूत्रम् ) पारांचियं पि भिक्खं अगिहिजतं नो कप्पते मुंजिस्से स मए चेवं, वितीया निच्छद संपइ । तस्स गणावच्छेदियस्स नवट्ठावेत्तए पारंचियं निक्वं गिहिसो आनाहणसंबंधो, कह चिटेज तं विणा । नूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेदियस्स उपहावित्तए पारा एष बालको मयासह भोक्ष्यते इत्येवं भणित्या नातो म- चियं जिक गिहिनूयं कप्पा तस्स गणावच्छेदियस्स एडल्यां स च संप्रति तमाचार्य विना भोक्तुं नेच्छति स चाचार्यस्य स्नेहन संबन्धस्ततःकथं प्रव्रज्यायां गृहीतायां सह भोजनं उचट्टावित्तए॥ विना तिष्ठेत् । नैवतिष्टेदिति भावः ॥ अत्र सूत्रद्वयस्याक्षरगमनिका प्राग्वत्संप्रति भाष्यविस्तरः। अणुवट्ठविओ एसो, जझ्यादेवेज्ज अपरिणया । अणवट्ठो पारंचिय, पुव्वं नणिया इमं तु नाणत्तं । तो होउ व वारिजइ, तो एं संनुज्जए ताहो ॥ गिहिल्यस्स य करणं, अकरणे गुरुगा य आणादी॥ तत्र हु निश्चितमपरिणता आयुरेवं यद्येषोऽनुपस्थापितो अनवस्थाप्यपाराञ्चितौ एतौ द्वावपि पूर्व भणिती इदं चात्र मराडल्या संभुक्तो ततः स तदा उपस्थाप्यते तदनन्तरं नानात्वं गृहीभूतस्य गृहस्थरूपसदृशस्य करणं यदि पुनहीसंभोजनं मण्डल्यामिति ॥ भूतमकृत्वा तमुपस्थापयतितदा गृहीभूतस्याकारणे प्रायश्चित्तं अहव अणाजोगणं, सहसाकारेण वा वि होज संजुत्तो। गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः । तथा आशादयः पाशानवस्था ओमम्मि विसहु तत्तो, विप्परिणामं तु गच्छेज्जा।।। मिथ्यात्वविराधना दोषाः । अन्यश्च प्रमत्तं सन्तं देवता छलअथवा अनाभोगेण सहसाकारेण वा मण्डल्यां संयुक्तो येत् । गृहीभूतस्य तु छलना न भवति । तस्माद् गृहीभूत भूयात् । ततो मा नूदनवस्थाप्रसङ्ग इति तमूनवर्षजातमप्यु- कृत्वा तमुपस्थापयेत् । गृहस्थरूपताकरणमेव भावयति । पस्थाप्य मण्डल्यां संभोजयेत् । अयमे दुर्भिक्षे जातेमा- वरनेवच्छं एगे, एहाणादिविवज्जमवरिजुगनमित्तं । विपरिणामं गच्छेदत उपस्थाप्य मण्डल्यां संभोज्यते ए परिसामज्के धर्म, सुणेज तो कहण दिक्खा ।। तदेव भावयति ॥ अदिक्खियंति एवं मां, इमे पच्छन्ननोजिणो । एके प्राचार्या एवं बुवते स्नानविवर्ज वरं नेपथ्यं तस्य क्रियते । अपरे दाक्विणात्याः पुनरेवमाहवस्त्रयुगलमात्रं परि परोहमिति जावेज्जा, तेणावि सह नुज्जते । धाप्यते तद्वर्षमध्ये प्राचार्यसमीपमुपगम्य ध्रुवते भगवन् ! इमे प्रच्छन्नभोजिनो मामेवमेव दुर्भिक्षे दीक्षयन्ति । अदीक्षां धर्म श्रोतुमिच्छामि । ततः ( कहणत्ति ) आचार्यः धम्मै कर्तुमिच्छन्ति । तेन कारणनाहं परः कृत इति स भावयेतून्त कथयति । कथिते च सति सकलजनसमकं वते श्रहधामि नतस्तेनापि सहसंभुङ्क्ते।व्य०१० उ० ("तो नो कप्पह उवट्ठा सभ्यग्धर्ममेनमिति मां प्रवाजयत एवमुक्ते तस्यदक्का लिङ्गसवित्तए तंजहा पंडए वाइए कीवे" व्याख्या पब्वायणा शब्द) मर्पणानन्तरं च तरक्कणमेवोपस्थाप्यते तत्र शिष्यः प्राह । " दोसा उबट्ठाविउ सियती सेसद्गस्स । अणायरण जोग्गा कस्मादप गृहस्थावस्थां प्राप्यते । सूरिराह। .. अहया समायारं ते पुरिनयद निवारिया दोसा" वृ०४ उ०॥ ओहावितो न कुबइ, पुणो विसो तारिसं अतीया। (सूत्रम् ) जे जिव णायगं वा अणायगं वा वासगंवा | होइ जयं सेसाणं, गिहिरवे धम्मिया चेव । Jain Education Interational Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१९) नवट्ठवणा अभिधानराजन्छः । उवट्ठवणा किं वा तस्स न दिज्जद, गिहिलिंगं तेण नावतो लिंगं । प्राचार्य न किमपि कारयति किं तु सर्व स्वयमेव कुरुते । अजढे वि दवलिंगे, सलिंगपमिसेवणावि जदं ।। अधुना यदुक्तमालोयणं गवेसणंति तयाख्यानार्थमाहअपत्राजितो ग्लानिमापादितः सन् पुनरपि स तादृशमती जनयंपि दाऊण सपड्डिपुच्चं, वोढुं सरीरस्स पवट्टमार्ण । चारं न करोति । शेषाणामपि च साधूनां जयमुत्पादितं भवति। आसासश्त्ताण तवो किझंत, तमेव खेत्तं समुति थेरा।। येन तेऽप्येयं न कुर्वते । तस्मादुगृहिरूपे गृहस्थता रूपस्य स्थविराः प्राचार्याः शिष्याणां प्रतीच्छकानां च उभयमपि धर्मता धर्मादनपेतान्याच्येत तस्यापि थाच्यमानागृहस्थरूप- सूत्रमर्थ चेत्यर्थः। किं विशिष्टमित्याह । स प्रतिपृच्छं पृच्छा तेति जावः (किंवत्यादि) किं वा केन वा कारणेन तस्य न दीयते प्रश्नः तस्याः प्रतिवचनं प्रतिपृच्छा प्रत्युक्तौ प्रतिशब्दः सह गृहिलिङ्ग दातव्यमेव तस्य गृहिलिङ्गमित्यर्थः । येन कारणेनाप- प्रतिपृच्छा यस्य तत् सप्रतिपृच्छ सूत्रविषये च यद्येन पृष्टं रित्यक्तोऽपि व्यलिङ्गे स्वलिङ्गे प्रतिसेवनात् भावतो विङ्गं तत्र प्रतिवचनं चेत्यर्थः दत्वा तत्सकाशमुपगम्य तस्य शरीरविजढं परित्यक्तमिति । स्य वर्तमानमुदन्तं वहति अल्पक्लामतां पृच्छतीति भावः । संप्रति सूत्रकृदेवापवादमाह । सोऽपि चाचार्य समागतं मस्तकेन वन्दे इति फेटावन्दनके(सूत्रम्) अणवठ्ठप्पं निकवू पारंचियं निक्र्यु गिहिनूयं वा न वन्दते शरीरस्य वोदन्तं मूर्धा यदि तपसा क्लाम्यति तत आश्वासयति आश्वास्य च तदेव क्षेत्रं यत्र गच्छोऽवतिष्ठते अगिहिनूतं वा कप्पइ, तस्स गणावच्छेदितस्स जवट्टा तत्समुपगच्छन्ति। कदाचिन्न गच्छेयुरपि तत्रेमानि कारणानि॥ वेत्तए जहा तस्स गणस्स पतियं सिया शति ॥ गेमाणेण वि पुट्ठो, अभिणवमको ततो व रोगत्तो । अनवस्थाप्यं निक्कु पाराश्चितं वा भूतं भिकुं गृहीनूतमगृहीतूतं कामम्मि मुबले वा, कजे अप्मेववाघातो ॥ वा कल्पते । तस्य गणावच्छेदिनः उपस्थापयितुं कथमित्याह यथा तस्य प्रतीकं प्रतिकारमुपस्थापनं स्यात्तथा कल्पते नान्यथा इहैकस्यापि कदाचिदेकवचनं सर्वस्यापि वस्तुन एकानेक रूपताख्यापनार्थमित्यदुष्टम् । अथवा काले दुर्वले न विद्यते घइह यो गृहस्थीनूतः स तावत्रुपस्थाप्यते एवमस्यापवाद लं गमने यस्मिन् गाढतपः संभवादिना दुर्वलो ज्येष्ठाषाढाविषयं वा यस्त्वगृहीत्तः सोऽपवादविषयस्तस्योत्सर्गतःप्रति- दिको दुःशब्दो भाववाची तस्मिन्न गच्छेत् शरीरक्लेशसंषिकत्वात् । तत्र यैः कारणैरगृहीनूतोऽप्युपस्थाप्यते तत्र यथा भवात् "कजे अमेव वा घातो इति" अत्रसप्तमी तृतीयाथै प्रानुवृत्त्यास्थोऽगृहस्थीनूतोऽप्युपस्थाप्यो नयति । तया भाव्यते कृतत्वात्ततोऽयमर्थः । अन्येन वा कार्येण राज्ञा प्रद्वेषतो निर्वि शहानवस्थाप्यं पराञ्चितं वा कोऽपि प्रतिपन्नस्तस्य चायं कल्पो षयत्वाशापनादिना व्याघातो भवेत्ततो न गच्छेदिति । श्रागयावदनवस्थाप्यं पाराश्चितं वा वहति तावद्वाहः केत्राद- मने चोपाध्यायः प्रेषणीयो योऽन्यो वा तथा चाह ॥ वतिष्ठते । स च बहिर्यावत्तिष्ठति तावन्न गृहस्थः क्रियते कि- पेसेइ उवज्कायं, अंगं नीयं च जो तहिं जोग्गो । स्वागतः करिध्यते । बहिश्चावतिष्ठमानः स जिनकल्पिक श्व पुट्ठो व अपुट्ठो वा, तहा विदीवेति तं कजं ।। निकाचर्यामलेपकृगता दिग्रहणात्मिकां करोति तस्य च तथा पूर्वोक्तकारणवशतः स्वयमाचार्यस्य गमनाभावे उपाध्याय बहिस्तिष्ठते । यथाचार्यः करोति तथा प्रतिपादयति ।। तदनावे ऽन्यो वा गीतार्थस्तत्र योग्यस्तं प्रेषयति । सच आलोयणं गवसण, आयरिओ कुणइ सव्वकाझं पि तत्र गतः सन् तेन पाराञ्चितेन किमित्यद्य कमाश्रमणा नाउप्पमे कारणाम्म, सयपयत्तेण कायव्वं ।। याता इति पृटो वा अथवा न पृष्टस्तथापि तत्कारणं कार्ययस्थाचायस्य समीपेऽनवस्थाप्यं पायश्चितं वा प्रतिपन्नः स कारणं दीपयेत् । तया अमुकेन कारणेन कमाश्रमणानामप्राचार्यः सर्वकालमपि यावन्तं कालं तत्प्रायश्चित्तं वहति तावन्तं नागमनं पृष्ठेनापृष्टेन वा दीपितं तदा न किमप्यन्यत्तन वा सकसमाप का यावत्प्रतिदिवसमवलोकनं करोति तत्समीपं पाराञ्चितादि तावक्तव्यं कि गुर्वादेश एवोनान्यां यथोदितः गत्वा तदर्शनं करोतीत्यर्थः । तदनन्तरं गवेषणं गतोऽल्पनाम संपादनीयः । अथ राझा प्रद्वेषतो निर्विषयत्वाज्ञापनादिना व्यातया तत्र दिवसे रात्री वेति पृच्छां करोति । उत्पन्ने पुनः कारणे घातो दीपितस्तत्र याद ते उपाध्याया अन्ये वा गीतार्थामानवनवणे सर्वप्रयत्नेन स्वयमाचार्येण कर्तव्यं भक्तपा स्तस्य शक्ति स्वयमवबुध्यन्ते ततो जानन्तः स्वयमेव तस्य नहरणादि ॥ महत्वं ब्रवते । यथा अस्मिन्प्रयोजने त्वं योग्य प्रति क्रियजो न उवेहं कुज्जा, आयरिओ केण प्पमारण । तामुद्यमः । श्रथ न जानते तस्य शक्तिं ततः स एव तान् अजानानान् ब्रूते । यथा अस्ति ममात्र विषय इति । एतच्च आरोवणा न तस्स, कायव्या पुव्यनिदिहा ।। स्वयमुपाध्यायादिभिर्वा भणितो वक्ति । यः पुनराचार्यः केनापि प्रमादेन जनब्याक्षेपादिना उपेक्षा कुरुतेन तत्समीपंगत्वा तत्सरीरस्योदन्तं वहति तस्य भारो. अत्य उ महाणुनागो, जहासुहं गुणसयागरो संघो । पणा प्रायश्चित्त प्रदानं पूर्वनिर्दिष्टा कर्तव्या । चत्वारो गुरुका. गुरुग पि इमं कज्ज, मं पप्प जविस्सए बहुयं ।। स्तस्य प्रायश्चित्तमारोपायतव्यामिति भावः। यदुक्तमुत्पन्ने का- तिष्ठत यथासुखं महान् अनुभागोऽधि कृतप्रयोजनानुकूला रणे सर्वप्रयत्नेन कर्तव्यं तद्भावयति ॥ अचिन्त्या शक्तिर्यस्य स तथा गुणशतानामनेकेषां गुणानामा आहरति जत्तपाणं, हत्तमादियंति सो कुणति । करो निधानं गुणशताकरःसङ्घः यतः इदं गुरुकमपि कार्य मां मयमेव गणाहिवती, अहं गिलाणो सयं कुण.।। प्राप्य लघुकं भविष्यति । समधीऽहमस्य प्रयोजनस्य लील याऽपि साधने इति भावः । एवमुक्त सोऽनुज्ञातः सन् यत्कअथ सोऽनवस्थाप्यापाराश्चितो वा ग्लानोऽभवत्। ततस्तस्य रोति तदाह ॥ गणाधिपतिराचार्यः स्वयमेव भक्तं पानं वा हरति श्रानयति अजिहाणहेनकुसस्रो, बहसु नीराजितो वि उसनासु । उद्धनादिकमप्यादिशब्दात्परावर्तनोद्धरणोपदेशनादिपरिग्रहः। स तस्य स्वयं करोति । अथ जातो ग्लानो निरोगस्ततः स । गंतॄण रायनवणा, जणाति तं रायदारिद ॥ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवठ्ठवणा (९२०) अनिधानराजेन्द्रः | श्रभिधानहेतुकुशल इति अभिधानेषु शब्देषु हेतुसाध्यगम केषु कुशलो दोनिधानहेतुकुशलः शब्दमार्गे सातीय चुन इत्यर्थः । अत एव बहुषु विद्वत्सभासु नीराजितो निर्वर्तितः इत्थंभूतः सन् राजभवनं गत्वा तं राजद्वारस्थं प्रतीहारं भणति किं भणतीत्यत श्राह ॥ परिहारवीण राय, तह संजयविद निवेदता यस पश्चिम प्रोविए जन्य तयं पवेसे ॥ हे प्रतीहाररूपिन मध्ये गत्वा राजरूपिणं राजानुकारिणं भण ब्रूहि यथा त्वां संयतरूपी द्रष्टुमिच्छति । एवमुक्तः सन् प्रतीहारस्तथैवास्य निवेदयति । निवेद्य च राजानुमत्या यत्र नृपोऽवतिष्ठते तत्र तकं साधुं प्रवेशयति ॥ तं पृचाण सुहासा, पुएिगागय को दो । हे जरा सुकाइ, सवा विआरुक्खड़ पत्थिवस्स ।। तं साधुं प्रतिष्ठमानं राजा पूजयित्वा शुभासनस्थं शुभे आसने मागतकुतूहलः समुत्पचकुतूहलात् कानित्याह । प्रश्नान् उदारान् गम्भीरार्थान् कदाचिदप्यश्रुतान्। प्रतीहाररू पिन् तथा त्वमपि यादृशश्चक्री चक्रवर्ती तादृशो न भवसि रत्नाद्यभावाद (अवान्तरे चरायाच्या किं तु प्रतापशीयायानुपालनादिना तत्प्रतिरूपोऽस्ति तत उ राजरूपिणं सहि चक्रपतिंप्रतिरूपमित्यर्थः । एवमुके राजा प्राह त्वं कथं श्रमणानां प्रतिरूपी तत श्राह ॥ समणाणं पडिवी, जं पुच्छसि वा य तं कहमहंति । निरईयाए समणा, न वहा है तेण परि ।। यत्त्वं राजन्पृच्छसि । अथ कथं त्वं श्रमणानां प्रतीरूपी तदहं कथयामि यथा श्रमणा भगवन्तो निरतिचारा न तथार्ह ततः श्रमणानां प्रतिरूपी नतु साक्षाच्मण इति । प्रतिरूपस्वमेव भावयति । निव्वूढोमि नरेसर, खेत्ते वि जईण अस्थियो न बने । अतिपरस्त विसोही पकरेमि पमायमूलस्स ॥ नरेश्वर | पृथिवीपते। प्रमादमूलस्यातिचारस्य संप्रति वि शोधिं करोमि । तां च कुर्वन् निर्यूढोस्मि निष्काशितोऽस्मि ततः श्रस्तामन्यक्षेत्रेऽपि यतीनामहं स्थातुं न लभे ततः श्रमप्रतिरूप्यहमिति । राजा प्राह । कस्त्वया कृतोऽतीचारः । का च तस्य विशोधिरेवं पृष्ठे यत्कर्त्तव्यं तदाह । कहाउट्टण आगमण - पुच्छर्ण दीवणा य कज्जस्स । वीसज्जियंतिय मया हास्ति न राया ॥ कथनं राज्ञा पृष्टस्य सर्वस्याप्यर्थस्य प्रवचनप्रभावना भवति । तत श्रावर्त्तनमाकम्पनं राज्ञो भक्तीभवनमिति भावः । नदनन्तरमागमनप्रच्छनमागमनकारणस्य प्रश्नः केन प्रयोजनेन यूयमत्रागताः स्थ । अत्रान्तरे येन कार्येण समागतस्तस्यदीपना प्रकाशना ततो राजा हासोत्कलितोऽतिहासेन उत्सृतो हृद्भासः स्मितो हसितमुखः प्रहृष्टश्च सन्नित्यर्थः । भणति यथा मया विसर्जितं मुत्कलितमिति । श्रथ किं तत्कार्य यस्य राज्ञो मुत्कलनं कृतमित्यत श्राह । वायपरायण कुवितो, चेइयतदव्त्रसंजतीगढ़णे | एन, काण हवे अभयरं || वादे पराजयेन कुपितः स्यात् । श्रथवा चैत्यं जिनायतनं किमपि तेनावष्टब्धं स्यात् । ततस्तस्मान्मोचनात्क्रुद्धो भवति यदि वा तद्रव्यस्य चैत्यद्रव्यस्य ग्रहणेऽथवा संयत्या ग्रहणे 1 लवहवणा ततः पूर्वोक्तानां कल्पाध्ययनोकानां चतु निर्विषयत्वाज्ञापनादीनाम कार्याणामन्यतरत्कार्य भवेत् ॥ संपो न लहति कर्ज, लं कर्ज महाराजागेण । तुम्नं तु बिसी, सोविय संयोति पूर ॥ frfavorararararaलनादिलक्षणं कार्य संघो न लभते किं तेनावस्थाप्येन पाराधितेन या महानुभावेन सम्यं न च स एवं कार्यलाभेऽपि गर्वमुदति यत आह तुम्भंयादि । राजा प्राह । युष्माकं तु निश्चितं प्रभावेनाहं पूर्वग्राहं विसृजामि नान्यथा । सोऽपि च ब्रूते । राजन् कोऽहं कियन्मात्रो वा गरीयान् संघो भट्टारकस्तत्प्रभावादहं किंचिद्यस्मात्संघमा - इय रामयित्वा च यूयमेध मुस्कलितं मया युष्माकमिति संघ पूजयति ततः किमित्याह ॥ अन्नस्थितो व राणा, सर्वच संघो विजयति । आवास या विदेसो हो । अभ्यर्थितो वा राज्ञा संघो यदि वा संतुष्टः संघो विसर्जयति । किमुक्तं भवति । यद्वढं शेषं सर्वे प्रसादेन मुक्तः सोऽग्रहस्थीभूत एवोपस्थाप्यते इति एतदेवाह चापि दोषी प्रकास्थितः प्रसादेन स्फेटित इत्यर्थः आदीमध्ये अने या भवति राजानुतिद्वारं गतम् । इदानीं प्रद्विस्मारमाह ॥ सगो व पडोसे, आपणो नं च कारणं नत्थि । एएहिं कारणेहि य, गिहिनृते वडवणा || (से) तस्याचार्थस्य स्वगप्रसिद्धः सन् यथाकेन कारय पाराचितप्रतिपत्या ग्रीभूतत्वमापनि तच्च कारणं तस्याचार्यस्य नास्ति । एताभ्यां स्वगणप्रद्वेषकारणाभावलक्षणाभ्यामगृहीभूते श्रगृहस्थीभूतस्य उपस्थापना क्रियते एष गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वयम् । एगा तरुणी बहुसुयणं घेतुं पव्वइया अन्नया ताए संजतीए श्रयरितो उ भासिश्रो । श्रयरिएणं नेच्छ्रिया । ताहे सा पदोसमापन्ना आयरियस्स तो संजय पव्वयाणं कहे इमं एस श्रयरिश्रो उवसग्गेइ । ताहे ते संजतीए नियल्लग पव्वइया श्रायरियस्स पड़ा भांति एस शायरी पारंचिए गिरिभूतो आम बनतो आयरिओ अनंग गर्नु सच्यं जयं परिक इतं बावनं सत्थं कुराह गिहियंति तवेति । ते नाऊस पडडे माहोदिति । ते मिगस्स तरउत्ति मिच्छिच्छा मा सफला होहिसितोसित अभिभूतो " काचित् तिनी बहुजना नू भासते या वान प्रतिसिद्धा सती ( छोभगमिति ) श्रभ्याख्यानं दद्यात्कालत्रयेऽपि सप्तमीति दत्तवती तथाभ्याख्यानसंपादितं प्रावधित्तमन्यत्र गणेस आचार्यो पहति वेन् - यतीनाः प्रखिते। कुर्तनमाचार्य किं गृही भूतमिति । ते वरणान्तरस्थविरास्तान्प्रद्विष्टान् ज्ञात्वा मा तेषां गम्यतरः खादिति तेऽपि कैतवेन देवाद्वहस्तत्समीपे स्थितां तथा मा तेषां मिथ्यारूपा इच्छा सफला भवेदिति सोऽगृहीभूत एवोपस्थाप्यते । गतं स्वगणप्रद्विष्टद्वारम् । अधुना परमोपापनद्वारमाह ॥ सोचा सिंगकरणं असणं जणंति अगिवत्यो । मा गीयं कुह गुरुं, ग्रह कुह इमं निमामेह || विसामो अम्हे, एवं ओहावणं जइ गुरूणं । कारणेदि, अगिहिते उपरणा । Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा अन्निधानराजेन्डः। उवठ्ठपणा "पगो बहसिस्सो आयरिओ परिसेवणाए गिहिनूतसमावष्णो रूपा अनवस्थाप्याः ६ येन च दर्शनं सम्यक्त्वं केवलं संपूर्ममपि सो अश्वं गणं गंतुंआझोप । तेहिं गिहिनूतो कजिउमाढतो । ततो चान्तं ७ येन चारित्रं केवलं संपूर्ण मूलगुणविराधनया यान्तं तस्स सीसा भणंति मा अम्हं गुरुं गिहिनूयं कुणह । ज पुण प्रयवा यस्त्य ककृपः परित्यत्तसकासंयमव्यापार प्राकृढिकया अम्हं गुरुणमेवं उहावणा कीर ततो अम्हे सब्वे नियमि- कर्षण चाजी विकावान् पृथिवीकायादीन समारभेत ए यश्च श. स्सामो । ततो तेसि अप्पत्तियं माहोतीति । अगिहिनतो चेच कोऽनिनवदीक्कितः स दशमः१० उक्तः । एतद्दशकं मन्तव्यं यस्य सो उपहाविज" अक्षरगमनिका आचार्यस्य गृहितिङ्गकरणं उपस्थापना प्रथमचरमार्थकरैः नणिता। द्वितीयादेशमाह ॥ श्रुत्वा तस्य शिष्या अगीतार्थी अनुरागेण भणन्ति । मागडिफम- जे य पारंचिया वृत्ता, अण्वट्ठप्पा य जे विनु । स्मदीयं गुरु कुरुत । अथ करिष्यथ तत इदं निशामयत आक- दंसबम्मि य तम्मि, चरित्तम्मिय केवले ॥१॥ मयत एवमपनाजना यदि गुरूणां ततो यय (विसामोत्ति) उनिष्क्रमिष्यामः पतेन स्वल्वनन्तगदितेन कारणेन अगृहीतूत अदुवा वि य तकिच्चे, जीवकाए समारने । स्य तस्योपस्थापना । गतं परमोचापनद्वारम् सेहे हे मे बुत्ते, जस्स उपहावणा नणिया ॥ २॥ इदानी मिथ्या गणद्वय विवादे इति द्वारमाह ॥ येच दर्शनं पाराचिकाः सामान्यत उक्ताः ३ येच विद्वांसोऽ अप्लोमेसु गणेसुं, वहंति तेसिं गुरू अगीया । नवस्याप्याः येन च दर्शन केवनं वान्तं ५ येन चारित्रं केवलं ते विति अप्पमान, किह काहिह अम्ह थेरत्ति ॥ घान्तम् अथवा यस्त्यक्तकन्यो जीयकायान् समारभते यश्च शैक्काद्वौ गणौ तयोश्च द्वयोरपि गणयोः साधवो गीतार्थास्तेषां च षष्ठः ६ गते षटकं प्रतिपत्तव्यम् । यस्थ उपस्थापना द्वितीयादेशे भणिता । तनीयादेशमाह। गुरू स्थापनाई प्रायश्चित्तस्थानमापन्नौ । मकरमेकोऽहीनूतोपस्थापनाईस्तो च परस्परं गणयोः प्रतिपद्यते । तद्यथा एकोप दंसम्मि य तम्मि, चरित्तम्मि य केवल्ने। रस्मिन् एवमन्योऽन्यस्य गणयोस्तेषामगीतार्थानां गुरुप्रायश्चित्तं विधन किच्चे मेहे य, नवप्पा य आहिया ॥ बहतस्ते गणाः परस्परं ध्रुवते कथमस्माकं स्थविरान फरिष्यथ दर्शने केवलं शेपे वान्ते यो वर्तते । यो वा चरित्रे केवसं वाकिंगृहीभृतानगृढीलताद्वा तत्र यो गृहीनूतोपस्थापनाईमाप्तस्ता- ते पाराधिकानवस्थाप्ययोरत्रैवान्तर्भावो विवक्तितो यश्च त्यक्तणान प्रतीते वते । गृहीतूतं करिष्यामः ॥ हत्यः षट्कायविराधकः यश्च शैकपते चत्वार चपस्थाप्या उपस्था मिहिनृतत्ति य वित्ते, अम्हेवि करोत तुज गिहिनूतं । पनायोम्या आख्याताः। अथ तेषां मध्ये उपस्थापनीयो नवतीति अगिहिदोनिवि मए, जणं ति थेरा इमं दो वि॥ चिन्तायामिदमाह ।। नवि तुब्नेगो अम्हे, अगिहितया महविणिच्चेसु । केवलगहणकसिणं, जति वसती दंसणं चरित्तं वा । तो तस्स नबढवणा, दोसे वंतम्मि भयणा तु ।। इच्या संपूरिज्जइ, गणपत्तियकारगहिं तु ॥ गृहीनतान् करिष्याम इत्युक्ते इतरे वदन्ति वयमपि तवाचार्य दर्शनचारित्रपदयोयत्केवलं प्रहणं कृतं ततः श्दै झाप्यते यदि कृत्स्नं निःशेषमपि दर्शनं चारित्रं वा वमति ततस्तस्योपस्थागृही तूतं करिष्यामः तत्रैवं परस्परं विवादे तान् द्वयानपिमृगान् पना भवति देशे देशतः पुनर्दर्शनचारित्रे वा वान्ते भजना उपअगीतार्थान् जणन्ति । द्वावप्यगृहीनूतौ वयमुपस्थापयिष्यामः । स्थापना भवेद्वा न वा । भजनामेव भावयति ॥ इतरी चहावयाचार्या विदं ब्रूतः न वयमगृहीतूता शुद्ध्यामः एमेव य किंचि पदं, सुयं व अमुयं व अप्पदोसेणं । तस्माद्गृहीजूताः क्रियामहे इति एवं यद्यप्यगृहीनूतोपस्थापनां अविकोवितो कहितो, चोदिय आउलमुके तु ॥ ते नेचन्ति तथापि तेषु तथा अनिच्छत्स्वपि गणप्रीतिकारकैर्मदद्भिः स्थविरैः सद्भिस्तेषां द्वयानामपि गणसाधूनामिच्छा पूर्य एवमेवाविमृश्य किञ्चिज्जीवादिकं सूत्रार्थविषयं वा पदं श्रुतं ते द्वावप्यप्रीतिपरिहारार्थ गृहस्थीनताबुपस्थाप्येतेइत्यर्थः । वा अश्रुतं वा अल्पदोषेण कदाग्रहाभिनिवेशादिदोषाभावे व्य० प्र०२०० । येषु स्थानेष्वपराधपदेषु पूर्वचरमाणां साधू अकोविदोऽगीतार्थः कस्यापि पुरतो अन्यद्वा कथयन् श्रानामुपस्थापना जवति तानि निरूपयितुमाह ॥ चार्यादिनामवं वितथप्ररूपणां कार्षीरिति चोदितः सन् यदि सम्यगावर्तते तदा स मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेणैव शुद्ध इति । सा जेसि नबवणा, जेहिहाणेहिं पुरिमचरिमाणं । तञ्च दर्शनमनाभोगेनाभोगेन वा वान्तं स्यात् ।। पंचाया धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु ॥ तत्रानाभोगेन वान्ते विधिमाहसा उपस्थापना येषां नवति ते वक्तव्या येषु वा स्थानेष्वपरा- अणानोएण मिच्चत्तं, सम्मत्तं पुणरागते । धपदेषु पूर्वन्चरमाणां साधूनांपश्च यामे धर्मे स्थितानामुपस्थापना तमेव तस्प पच्चित्तं, जे सम्म पमिवजई ।। जबति तान्यपिवक्तव्यानि तत्र येषामुपस्थापना ते तावदनिधीय एकः श्राद्धो निह्रवान् साधुवेषधारिणो दृष्ट्वा यथोक्तकारिणः न्ते तत्रादेशत्रयं दश या पट् वा चत्वारो वा उपस्थापनायामही साधवः पते इति वुख्या तेषां सकाशे प्रव्रजितः स चापरैः भवन्ति । तथा प्रादेशत्रिक मे इति मया ययाक्रमवत्यमाणं शृणु। साधुभिर्भणितः किमेवं निलवानां सकाशे प्रवजितः स प्राह तो पारंचिया उत्ता, अणवट्ठा य तिमि उ। नाहमागमविशेषशानवान् ततः स मिध्यादुष्कृतं कृत्वा शुद्धदसणम्मि य मंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले ॥१॥ दर्शनिनां समीप उपसंपन्न एवमनाभोगेन दर्शनं वमित्वा मिअवा वि य नकिये, जीवकाए समारने । थ्यात्वं गत्वा सम्यक्त्वं पुनरागतस्य तदेव प्रायश्चित्तं यदसौ सम्यक मागे प्रतिपद्यते स एव च तस्य व्रतपर्यायो न भूय' सेहे दसमे वुत्ते, जस्स बहावणा नणिया ॥२॥ उपस्थापना कर्तव्या ॥ य चतुर्यादेशके त्रयो दुष्टप्रमतान्योऽन्यकुर्वाणाख्याः पाराचि श्राभागेन वान्ते पुनरयं विधिःका उकाः ३ ये च त्रयः साधर्मिकाव्यधार्मिकान्यकारिहस्ततान- आजोगाय मिच्उत्तं, सम्मत्तं पुणरागते । Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२२) नवट्ठवणा अनिधानराजेन्द्रः। उवहाणा जिणथेराण आणाए, मूलच्छेज्जं तु कारए।" जवट्ठ (हा) वणागहण-उपस्थापनाग्रहण-म० उपस्थापनायः पुनराभोगेन निहवा पते इति जाननपि मिथ्यात्वं __ यां, हस्तिदम्तोन्नताकारहस्तादिनी रजोहरणादिग्रहणे,वृ०३००। सक्रान्त इति शेषः निहवानामन्तिके प्रवजित इत्यर्थः स च नवट्ठ (हा) वणायरिय-उपस्थापनाचार्य- पुं० उपस्थापसम्यक् अन्येन प्रज्ञापितः सन् पुनर्भूयोऽपि यद्यागतस्थानं तं नया आचार्यः । आचार्यभेदे, स्था०४० ३ उ०॥ जिनस्थविराणां तीर्थकरगणभृतामाक्षया मृतश्छेद्यं प्रायश्चित्तं उबट्ठ (हा) वणारिह-उपस्थापनाई-पुं०वतार्थपरिहानादिकारयेत् । मूलत एवोपस्थापनां तपः कुर्यादिति । एवं दर्शने देशतो वान्ते उपस्थापना भजना भाजिता। संप्रति चारित्रे गुणयुक्ते वातारोपणयोग्ये, 'पदिएय कहिय अहिंगय परिहरउदेश तो वान्ते तामेव भावयति ॥ वट्ठावणा जोगोत्ति । कंतीहिं विसुकं, परिहरणवएण नेदेण॥ बएई जीवणिकायाणं, अणप्पको विराहो। पम्पासाउरमाद, दिटुंता होति वयसामा।हणे जह मसिणा सु, दोसा सुद्धा सुणेव मिह पीत्यादि, पतासिं सुहेसेण आमोश्य पमिकते, सुको हवति संजओ ।। सीसहियटुयाए अत्थो नन्नइ पढियाए सत्थपरिवाए दस षमा जीवनिकायानां (अणप्पज्झोत्ति) अनात्मवशः क्षिप्त | कालिए उज्जीवणिकाए या कहियाए अत्थो अनिगयाए सम्म चित्तादिर्यदि विराधको भवति तत आलोचितप्रतिक्रान्तो परिक्खिकण परिहर उज्जीवनियाए मणवयणकापहि कयकागुरूणामालोच्य प्रदान मिथ्यादुस्कृतः स यतः सुद्धो भवति ॥ एवियाणुमतिभेदेण तो टाविजण अन्नहा श्मे य इत्यपमाद। एहं जीवनिकायाणं, अप्पको अविगहतो । दिटुंता मश्योपमोण रंगिज सोहि उ रंगिन असोहिए मूत्रआलोश्य पमिकतो, मूलज्ज तु कारए॥ पासाओ ण किजा सोहिए किवमणाहिं असोहिए आउरे पामां जीवनिकायानां (अप्पज्झोत्ति) स्ववशो यदि दर्पणाकु उसह न दिज्जा सोहिए दिज्ज असंवविए रयणे पमिबंधो न ट्टिकया वा बिराधको भवति तत आलोचितप्रतिक्रान्तं तं कजा संपए किज्जति एवं पढिय कहियाईहिं असोहिए सीसोमूलश्छेचं प्रायश्चित्तं कारयेत् वा शब्दोपादानाधदि तपोऽर्ह ण वयारोवणं कज्जर सोहिए कज असोहिए य करणे गुरुणी प्रायश्चितमापनस्तत तपोऽहमेव दद्यात् तत्रापि यन्मासलघु- | दोसो साया पासणे सीसस्स दोसोति"।द०४०॥ कादिमापनस्तदेव दद्यात् । श्रथ हीनादिकं ददाति ततो दोषा- | नवड (हा) वणीय-उपस्यापनीय-निमारोपणीये, स्था०३चा० । भवन्तीति दर्शयति॥ उवछ ( द्वा) वि (वे ) चए-नुपस्यापयितुम्- अव्य० महाजं जोउ समावत्तो, जं पाउग्गं व जस्स बन्झुस्स । बतेषु व्यवस्थापयितुमित्यर्थ, वृ०४ उ०। स्था०॥ तं तस्स उ दायव्वं, असस्सिदाणे इमे दोसा ॥ उवट्ठाण-उपस्थान-न० उप-स्था-स्युट-उपेत्य स्थिती, परलोकयसपा छेदाई वा प्रायश्चितं यः समापनो यस्य वा वस्तुन क्रियास्वभ्युपगमे, भ०१श.३० । प्रत्यासत्तिगमने, नि० । आचार्यादेरसहिष्णुप्र नृतेर्वा यत्प्रायश्चित्तं प्रायोग्यमुचितं त-| व्रतस्थापने, “ वीयाप यं तझ्याए वहाणं अविहीए चेहतस्य दातव्यं यद्यसदृशमनुचितं ददाति ततः इमे दोषाः ॥ याई वदेत्ता" महा०७ अ०॥ अप्पच्छित्ते पच्चित्तं, पच्चित्ते अति त्तया। नवट्ठाणकिरिया-उपस्थानक्रिया-स्त्रीवसतिदोषनेदे,ये जगवधम्मस्सासायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराहणा ॥ न्तः आगन्तारादिषु च ऋतुबळं वर्षा वा अतिबाद्यान्यन मासमेक अप्रायश्चित्ते अनापद्यमानेऽपि प्रायश्चित्ते यः प्रायश्चित्तं ददाति स्थित्वा द्वित्रैर्मासैन्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति । अयमेवंभूतः प्राप्ते च प्रायश्चित्ते योऽतिमात्रमतिरिक्तप्रमाणं प्रायश्चित्तं द- प्रतिश्रय उपस्थानक्रियादोषपुष्टो नवत्यतस्तत्राऽवस्थातुं न कदाति स धर्मस्य तीवामाशातनां करोति मार्गस्य मुक्तिपथस्य ल्पते प्राचा०२७०३अ.(वस शब्दे सूत्रतःचैतत्स्पष्टीनविष्यति) सम्यग्दर्शनादेविराधनां करोति । किंच। उस्मतं ववहरंतो, कम्म बंधति चिकणं । नवट्ठाणगिह-नपस्यानगृह-न० पुं० भास्थानमपमपे, स्था०५ ग० भ० । आस्यानसभायाम, कल्प। संसारं च पहुंति, मोहणिज्जं च कुव्वती ।। नवटाणदोस-नुपस्थानदाप-पुं० नित्यवासदोषे, व्य०४ उ०। उत्सूत्रसूत्रोत्तीर्ण रागद्वेषादिना व्यवहरन् प्रायश्चित्तं प्रयच्छन् चिक्कणं गाढतरं कर्म बनाति । संसारं च प्रवर्द्धयति । प्रकर्षण उवाणाला-नरस्थानशाला-स्त्री. पवेशनमएकपे, नि । वृद्धिमन्तं करोति । मोहनीयं च मिथ्यात्वमोहादिरूपं करोति पास्यानमएम्पे, ज्ञा०१० उपस्थानमएमपे, दशा०१०१०। "वाहिरियाए वहाणसालाए पाझिपकपाझिपकार जत्तानिइदमेव सविशेषमाह। मुहाई जुत्ताई जाणा वध्वेह" औ०। उम्मग्गदेसणाए, मग्गविप्पमिवातए । उबढाणा-उपस्याना-बी० उप सामीप्येन सर्वदावस्थानलकणेपरं मोहेण रंजतो, महामोहं पकुवः ॥ नतिष्ठन्त्यस्यामिति उपस्थाना प्रजादिपागदाप्प्रत्ययः । उप उन्मार्गदेशनया च सूत्रोत्तोर्णप्रायश्चित्तादिमार्गप्ररूपणया स्थानक्रियादोषपुष्टायां शय्यायाम, व्य०४०। यस्यां वसती. मार्ग सम्यग्दर्शनादिरूपं विविधैः प्रकारैः प्रतिपातयति व्यव ऋतुबके मासं वर्षाकाले चतुर्मासं च स्थिता यदि तस्यामृतुकछेदं प्रापयति तत एवं परमपि मोहेन रञ्जयन्महामोह प्रक- बमवर्षाकाले संबन्धिकालमर्यादां द्विगुणामवर्जयित्वा भूयः राति तथा व विंशतिमहामोहस्थानेषु पत्यते " नेया जयस्स समागत्य तिष्ठन्ति तदा सैव वसतिरुपस्थाना । किमुक्तं भग्गस्स, अवगारम्मि बट्टइ” यत एवमतो न हीनाधिकप्राय- भवति । ऋतुबके कालं द्वौ मासौ वर्षास्वष्टमासान् अपहृत्य यदि चित्तं दातव्यमिति ।। वृ०६ उ०॥ पुनरागन्ति तस्यां वसतो ततः सा उपस्थाना नवति । अन्ये नवट्ठ (ट्ठा) वणाकप्पिय-उपस्थापनाकस्थिक-पुं० उपस्थाप- पुनरिदमाचकते । यस्यां वसतौ वर्षारात्रं स्थिता तस्यां दी। नाविषय, कल्पिके वृ० १ उ० (यथा स तथा दर्शितमनन्तर | यारात्री अन्यत्र कृत्वा याद समागगन्त ततः सा उपस मेव 'उबवणा' शब्दे) न जवति अर्वा तिष्ठतां पुनरुपस्थाना ॥ ग १ अधि०॥ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२३ ) उवट्ठाण अनिधानराजन्छः। उवणय जनमासं समई आ, कालाई आन सा नवे सिज्जा । नया न्यायानुसारण, न बचोपनयास्त्रयः । साचे व उवट्ठाणा, गुणगुणं पवज्जित्ता ।। निश्चयव्यवहारौ हि, तदध्यात्ममतानुगौ ॥ ७॥ ऋतुब मासं समतीतानि यानि वासेन उपलक्षणाद्वर्षाकाले ये च केचन कल्पकाः सरलं सममेतमुक्तकणं मार्ग नयनिवाचतुष्कालातीतासु कामातीतैव सा नवेच्चय्या वसतिः अन्ये तु गमपन्यानं त्यक्त्वा विमुच्य अपचारादिग्रहीतुमिच्चयोपन - पाठान्तरतः श्यं व्याचकते । ऋतुवर्षयोः समतीता निजं कालं यान् नयानां समीपे उपनयास्तान् कल्पयन्ति दिगम्बरशाले ऋतुबके मासं वर्षाकाले चतुर इति शेषं मूलधत् । सैवोपस्या- हि व्यार्थिकः १ पर्यायार्थिकः ५ नैगमः ३ संग्रहः ४ व्यना सैय मासादिकल्पोपयुक्ता उपस्यानवती नवति । कथ- | वहारः ५ ऋजुसूत्रं ६ शब्दः ७ समनिरूढः पवंतृतः । मित्याह । तद्विगुणद्विगुणमित्युभयकालसंपरिग्रहार्थ वीप्सा शति नव नयाः स्मृताः । उपनयाश्च कथ्यन्ते नयानां समीवर्जयित्वा प्रत्य मासकल्पे मासवर्जनीया वर्षावस्थाने पमुपनयाः सतम्यवहारः असनूतव्यवहार उपचरितसद्चतुर्मासिकतयमिति । भावार्थः । ॥१३॥ पं०व० (अधिकं बस जूतव्यवहारश्चेति उपनयात्रेधा इति । तत्प्रपञ्चस्तद्विस्तारः शाम्ब वक्ष्यते) शिव्यबुझिन्नमात्रमेवास्ति तथापि विबोधाय समानतन्त्रउवटिय- उपस्थित-त्रि उप-स्था-क्ल० । उप सामीप्येन स्थि- त्वेन परिझानाय तेषां नयानां जल्प उद्यापः प्रतायते स्वन्न तः उपस्थितः । समाश्रिते,। सूत्र० १ श्रु० २ ० । प्राश्रिते, क्रियया उच्यते इत्यर्थः ७ (नयेति) न्यानुसारेण तन्मतीयग्रन्थ" निम्ममत्तमुवढिओ" आतु। सूत्रालग्ने, " भवछिया मे गताभिप्रायेण नया नव सन्ति पूर्वोक्ताः झेयास्तथा उपनयाआयरिया विज्जामंत तिगिच्या" उत्त० २० अ० । प्राप्ते, लय एवं सन्ति तेऽप्युफ्नयाः सनूतव्यवहारादयस्त्रय इति । " जमवादमुवाहो" उत्त०१२ अ० । “आभियोगमुवठिया" तथा चाध्यात्माख्योऽपि मतभेदः कश्चिदस्ति तत्र च तदध्याद०४ अ० । सम्यगनुष्ठानं कृतवति, सूत्र० २ श्रु० १ ०। स्ममतानुगौ तच्चैलीपरिशीलितो नया निश्चयेन द्वावेव कप्रत्यासन्नीनूते, सासामीप्यन स्थिते, आव०१०प्र०प्रव थितौ तत्रैको निश्चयनयः १ अपरो व्यवहारनयश्चेति २ द्वावेव ज्यायां प्रविवजिषी, स०। प्रहीतुते, अच्युद्यते, पा०। "अहमवि नाधिकौ । अभेदोपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः तं जवाहोतं महन्वयकच्चारणं "ध० ३ अधि० । प्राप्तकरणा यया" जीवः शिवः शिवो जीवो, नान्तरं शिवजीवयो"रिति । नेदोपचारतया वस्तु व्यवव्हियत इति व्यवहारः । यथा “ कर्मवसरे, पंचा० १३ विव०। बन्धी भवेन्जीवः, कर्ममुक्तस्तदा शिवः" इति ॥ ७०५ अध्या०॥ उवमहत्ता-उपदाहयित- त्रि० उपदाहके “ अगणिकायेणं अथोपनयानां प्रकारमाह । कायमुवझहित्ता नबति" अग्निकायेन तप्तायसा घा काय त्रयश्चोपनयास्तत्र, प्रथमो धर्मधमिणोः । मुपदाहयिता भवति । सूत्र० २ श्रु० अ० । नवणंद-उपनन्द-पुं० ब्राह्मणग्रामवासिनि नन्दभ्रातरि, नन्दपा. नेदाच्चस्तथाऽशुधः, सद्जूतव्यवहारवान् ॥१॥ उके, श्रीवारे प्रविऐ नन्देन प्रतिवाभिते च । उपनन्दगृहे झानं ययात्मनो विश्वे, केवलं गुण इष्यते । गोशामः पर्यु पितान्नदानेन रुष्टस्तद्गृहदाहाय शशाप (वीर- मतिझानादयोऽप्येते, तयैवात्मगुणा नुवि ॥२॥ शब्द चैतत् ) स्थविरस्यार्यसंनूतविजयस्य द्वादश शिष्याणां गुणो गुण। च पयोयः, पर्यायी च स्वनावकः । द्वितीये शिष्ये । कल्प०॥ जवाागर-नपनगर-अव्यः सामीप्ये, अव्यय भावः समासः स्वजावी कारकस्तद्वा-नेकडव्यानुगाविधा ॥ ३ ॥ तत्रेत्यधिकारसूचकविषयसप्तमीयम् । नयानां समीपमुपनया नगरस्य समीपे, औ०॥ स्त्रयस्त्रिसंख्याकाः । तेषु त्रिषु प्रथम आद्यो धर्मश्च धर्मों च तयो नवगरग्गाम-उपनगरग्राम-पुं० नगरस्य समीपमुपनगरं तत्र दस्तस्मात् । धर्मधर्मिणोरसाधारणं कारणं धर्मः स च धर्मो ग्राम उपनगरग्रामः । पुरोपकर ग्रामे, " चंपाए णयरीए ऽस्यास्तीति धर्मी तयोरिति द्वन्द्वसमासेन भेदात् द्विधा द्विप्रउवणगरम्गार्म उवागए " औ० । प्रा०चू० ॥ कारः । एतावता यः प्रथमभेदो धर्मधर्मिभेदाज्जातः सोऽपि द्विउवणञ्चिज्जमाण-उपनत्येमान-त्रि० नर्तनं कार्यमाणे, औ०॥ विधो शेयः । एकः शझोऽपरो हितीयोऽशुकः । कथं नूतः- शरूनवणमंत-उपनमत-त्रि० प्राप्नुवति, प्रश्न अ०४ द्वा०। ढोक स्तयाशुरुश्च सहनूतव्यवहारवान् सद् जूयते ऽनेनेति सद्न्तः माने, सूत्र० १ श्रु० ५ १०॥ व्यवव्हियत इति व्यवहारः सद् ततश्च व्यवहारश्च सद् नतव्यवउवणय-उपनत-न० नृत्यप्रकारे, तं०॥ हारौ शुभाशुकौ तौ विद्यतेअस्येति सद्लुतव्यवहारवान् शुकउपनय-पुं० गुणोक्ती, स्तुती, प्रव० १४१द्वा० । उपसंहारे दृष्टा- योधर्मर्मिणोर्नेदाच्बुरूसदूनूतव्यवहारः ॥ १॥ अशुद्धधर्मधम्तहष्टस्यार्थस्य प्रकृते योजने, ॥ प्रव०६६द्वा० । तथा न तथेति मिणोळंदादशुरूसद लतव्यवहारः ॥२॥ सद्तूतस्त्वकं व्यमेवा पक्कधमापसंहार, तियथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद घट. वास्ति जिन्न व्यसंयोगापेक्का नास्ति । व्यवहारस्तु नेदापवत्तथा चायम् अनित्यत्वाभाव कृतकत्वमपिन नवत्याकाशवत् कयत्येवं निरुक्तिः ॥ १ ॥(ज्ञानेति ( यथा बिश्ये जतयाऽयमिति । सूत्र०१७०१३। उपनयं वर्ण यन्ति हेतोःसाध्य गति यात्मनः केयनं ज्ञानं गुण इति षष्ठीप्रयोगः । इदधर्मिण्युपसहरणमुपनय इति यथा धुमश्चात्र प्रदेश इति । २० मात्मजव्यस्य छानमिति तथा मतिझानादयोऽपि आत्मनयानां समीपे उपनयाः । सदूतब्यवहाराऽसद्भूतव्यवहा रुध्यस्य गुणाः इति व्यवन्हियन्ते केवलज्ञानं यद्वर्तते रोपचरितसद्भूतव्यवहाराऽख्यनयत्रिके । स एव शुकः प्रात्मास्ति १ मत्यादयो कानानि केवला-- तद्भेदवक्तव्यता यथा वरण विशेषिता व्यवहारा अशुद्धा लक्ष्यन्ते इति ॥ २ ॥ ( गुणेति ) गुणों रूपादिः गुणी घटः १ पर्यायः मुये मार्ग सरनं त्यक्त्वो-पनयात्करूपयन्ति वै । काकुएममादिः पर्यायी कनकं २ स्वजायो ज्ञानं स्वजावी तत्मपञ्चविवोधाय, तेषां जरूपः प्रतायते ।। ७॥ जीवः ३ कारकश्चक्रदएमादिः कारकी कुलानः ४ अथवा Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२४) उवगाय अभिधानराजेन्दः । नवाय गुणगुणिनी १ क्रियाक्रियावन्तौ २ जातिव्यक्ती ३ नित्यद्रव्यवि. णस्य पुरसगुणस्योपचारो ज्ञातव्यः ॥ ५॥ पर्याये पर्यायविषये शेषी चेति ४ पवं एकद्रव्यानुगतनेदा उच्यन्ते ते सर्वे. नरत्वादिके पर्यायस्य तदादिकस्यैषोपचारः यथा भारमा व्यऽपि उपनयस्यार्था ज्ञातव्याः । अवयवावयविनौ इति अव- पर्यायस्य तदादिकस्यैवोपचारः यथा गजवा अिमुखाः पर्यायपवादयो हि यथाक्रममबयव्याद्याश्रिता पर तिष्ठन्तेऽविनश्य स्कन्धा उपचारादात्मण्यस्व समानजातीयद्रव्यपर्यायास्तषां तो विनश्यवस्थास्वनाश्रिता पक्ष तिष्ठन्ते इत्यादि । स्कन्धाः कथ्यन्ते तेच आत्मपर्यायस्योपरि पुद्रलपर्यायव्य उपच___ अथासनूतव्यवहारं निरूपयति । रणात्स्कन्धा व्यपदिश्यन्ते व्यवहारात ।। अथ अन्ये गुणोपचारः। असदलत व्यवहारो, अध्यादेरुपचारतः। जव्ये गुणोपचारश्च, गौरोऽहमिति व्यके। परपरिणतिश्लेष-जन्यो लेदो नवात्मकः ॥४॥ पर्यायस्योपचारश्च, बहं देहीति निर्णयः।।७।। असतव्यवहारः स कथ्यते यः परज्यस्य परिणत्या मि यथाहं गौर इति ध्रुवतामहमित्यात्मव्यम् तत्र गौर इति पुगश्रितः अर्थात् व्यादेर्माधर्मादेरुपचारतः उपचारणात् पर बस्योज्यन्नताख्यो गुण उपचरितः । ४ । अथवा व्ये पर्यायोपपरिणतिश्लेषजन्यः परस्य वस्तुनः परिणतिः परिणमनं तस्य चारः। अथ वा "अहं देहीति निर्णयः" इत्यत्र अहमिति प्रा. श्लेषः संसर्गस्तेन जन्यः परपरिणतिश्लेषजन्यः । असद्भतव्यव स्मद्रव्यं तत्रात्मद्रव्यविषये देहीति देहमस्यास्तीति देही देवहारः कथ्यते । अत्र हि शुरूस्फटिकसंकाशजीवनावस्य परश मिति पुलाव्यस्य समानजातीयद्रव्यपर्याय उपचरितः ।। ५॥ ब्देन कर्म कथ्यते तस्य परिणतिः पञ्चवर्णादिरौधात्मिका तस्याःश्ले. गुणे व्योपचारश्च, पर्यायेऽपि तथैव च । पोजीवप्रदेशैः कर्मप्रदेशसंसर्गस्तेन जन्य उत्पन्नः परपरिणतिश्लो षजन्यः असद्भतव्यवहाराख्यो द्वितीयो नेदः कथ्यते । स नवधा गौर अात्मा देहमात्मा, दृष्टान्तौ हि क्रमात्तयोः ।। ७ ।। नवप्रकारो भवति । तयाहि अव्ये व्योपचारः १ गुणे गुणोप गुणे अव्योपचारश्च तथा पर्याये गुणोपचारश्च । एवं छौ उपन यासतव्यवहारस्य नेदौ । अथ तयोरेवानुक्रमेण दृशान्ती यथा धारः५ पर्याये पर्यायोपचारः ३ अव्ये गुणोपचारः४व्ये पया "अयंगरोहश्यतेस चात्मा" अत्र गौरमुद्दिश्यात्मनो विधानं कियोपचारः५ गुणे द्रव्योपचारः ६ गुणे पर्यायोपचारः ७पर्या यतेयत्तदिह गौरतारूपपुरलगुणोपरि आत्मव्यस्योपचारपठनये अव्योपचारः पर्याये गुणोपचारः ए इति । सर्वोऽपि अस मिति६पर्याये व्योपचारो यथा "देहमिति श्रात्मा" अत्राहि देहद्भतव्यवहारस्यार्थो अष्टव्यः अत एवोपचारः पृथक् नयो न भव मिति देहाकारपरिणतानांपुरझानां पर्यायेषु विषयजूतेषुच आत्मति मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते सो- व्यस्योपचारः कृतः देहमेवात्मा देहरूपपुद्अपर्यायविषय आत्मऽपि संबन्धाविनाभावःश्लेषः संबन्धः परिणामपरिणामिसंबन्ध- ऽव्यस्यापीदक्षिकस्योपचारः कृत इतिसप्तमो नेदः। ७। “अतति श्रमाश्रयसबन्धः ज्ञानझेयसंबन्धश्चेति । भेदोपचारतया ब- सातत्येन गच्छतितांस्तान्पर्यायानित्यात्मा" अश्र पर्यायाणां व्यस्तु व्यवद्रियते इति व्यवहारः गुणगुणिनोव्यपर्याययोः सं भावनेदितानां गमनप्रयोगो यद्यपीष्टस्तथापि असतव्यवहारविझासंझिनोः स्वभावतद्वतोः कारकतद्वताः क्रियातहतोलेदाद चाबोन उपचारधर्मस्यैव प्रधान्यातू बहिः पर्यायावताम्बनेन नेदकः सद्भतव्यवहारः । शुरुगुणगुणिनोः शुरुषव्यपर्याययो कर्मज शुभाशुनपुनपरिणतगौराख्यवर्णोपत्रक्षित आत्मा नासते तदा गौर आत्मेति प्रतीतिर्जायते अन्यथा प्रात्मनः शुरूस्याकर्मणः नंदकयनं शुरूसद्भूतव्यवहारः २ तत्र उपचरितसातव्यवहारः कुतो गौरत्यध्वनिः । अत एव नपचारधर्मो वेदमात्मेत्यत्र तु औ. सोपाधिकगुणगुणिनोर्भेदविषयः। उपचरितसद्भतव्यवहारो यथा दारिकाविषयप्रणीतं देहमौदयिकेनाश्रित प्रात्मा अपलज्यते जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधिकगुणगुणिनोर्मेदको तदा देहमात्मेति उपचारध्वनिः ॥ ७॥ ऽनुपचारिसद्भतम्यवहारो यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाह । ४ शुरुगुणगुणिनोरशुरुद्रव्यपर्याययोर्भर्दकथनमशुरूसद्भतव्य गुणे पर्यायचारश्च, मतिज्ञानं यया तनुः । वहार ५ इत्यादिप्रयोगवशाझेयमिति ॥ पर्याये गुणचारोऽपि, शरीरं मतिरिष्यते ॥ ७॥ अय नवभेदानसद्भतव्यवहारजन्यान् विवृणोति । गुणे पर्यायोपचारः पर्यायचार इति सपचारो बायो भीमो छन्ये ऽव्योपचारो हि,यथा पुनजीवयोः। भीमसेन इतिवत् । यथा मतिज्ञानम् तदेव शरीरशरीरं शरीरजन्य वर्तत ततः कारणात् अत्र मतिज्ञानरूपात्मकगुणविषये शरीरगुणे गुणोपचारश्च, जावव्याख्यनश्ययोः॥५॥ रूपपुनसपर्यायस्योपचारः कृतः।।श्रय नवमभेदोरकीर्तनमाह। पर्याये किन्न पर्यायो-पचारश्च यथा नवेत् । पर्याये गुणोपचारः यथा हि पूर्वप्रयोगजमन्यथा क्रियते यतः स्कन्धा ययात्मव्यस्य,गजवाजिमुखाः समे ॥ ६॥ शारीरे तदेष मतिज्ञानरूपो गुणोऽस्ति पत्र हि शरीररूपपर्यायहि निश्चितं भव्य गुणपर्यायवति वस्तुनि द्रव्योपचारः व्यस्य विषये मतिज्ञानरूपाख्यस्य गुणस्योपचारः क्रियते शरीरमिति प्रस्तुतस्योपचार नपचरणमात्रधर्मः यथेति द्रष्टान्त श्रीजिनस्या पर्यायः तस्मिन् विषये मतिज्ञानाख्यो गुणस्तस्य योपचारः कृतः गमे पुसजीवयोरैक्यं जीवः पुद्रवरूपःपुजनात्मकः अत्र जीबो अत्रच अष्टमनवमधिकल्पयोः समविषमकरणेमोपचारोविहितपि व्यं पुद्रबोऽपि द्रव्यम् उपचारेण जीव: पुद्गलमय एवासद्भ. स्तत्रापि सहनाविनो गुणाः क्रमनाविनः पर्यायाः सहभावित्वं तव्यवहारेण मन्यते नतु परमार्थतः यथाचीरनीरयोायातू च द्रव्येण क्रमभावित्वमपि येणैव ज्ञेयमतो व्यस्यैव गुणाः कोरं हि नारमिश्रितं कीरमेयोच्यते व्यवहारात । एवमत्र जीवे पर्याया अपि व्यस्यैव गुणपर्याययोः पर्यायगुणयोश्च परस्परजीवद्रव्य पदलद्रव्यस्योपचारः १ पुनर्गणे गुणापचारो गुणे रूपा- मुपचारोब्यवहारः कृतः। यत्रोपचारस्तत्र निदर्शनमात्रमेव विसदिके गणस्योपचारसयथानावबेश्याद्रव्योइयायारूपचारःभावझे- शर्मित्वेन धर्मारोपवत् । किं च मतिज्ञानमात्मनः कश्चिदुलटिश्या हि आत्मनोऽरूपी गुणस्तस्य हि यत्कृष्णनीलादिकथमं वर्तते- तो गुणः । शारीरं च पुनद्रव्यस्य समवायिकारण यथा भत्यितक कृष्णादिपुदसमव्यजगुणस्योपचारोऽस्ति अयं हि आत्मगु-। एमो घटस्य समवायिकारणमितियत् । पर्व सति उपचारोमा Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२५) उवणय अनिधानराजे-मः। उवणयावणयचक्क यते परेण परस्योपचारात् स्वस्य स्वेनोपचारासंनधः यथा मृ- - अथविजात्या असतव्यवहारः। पिएमरय घटेन, तन्तूनां पटेनेत्येवमसद्भतव्यवहारो नवधा उप- विजात्या किस तं वित्त, योऽहं वस्त्रादिरद्भुतः । दिष्टः । उपचारबखेन नवधोपचाराः कृताः।।। वस्त्रादीनि ममैतानि, वप्रदेशादयो विधा । अथ तस्यैवासद्भतव्यवहारस्य नेदत्रयं कथ्यते । विजात्युपचरितासातव्यवहारं प्रकटयति किल इति सत्ये तं समूतव्यवहार, एवमेव त्रिधा नवेत् । असतव्यवहारं विजात्या उपचरितं विजानीत यश्च अहं वस्त्रादि तत्राद्यो निजया जात्या-ऽप्यनुनरिप्रदेशयुक् ॥१०॥ अहमिति संबन्धिवचनं वस्त्रादिरिति संबन्धवचनमहं वस्त्रादिरिति असद्भुतब्यवहार एवं पूर्वोक्तरीत्यैव त्रिधा त्रिप्रकारो भवेत्तत्र उपचरितं सर्वोऽपि व्यतिकरःअसद्भतव्यवहारः संबन्धसंबन्धित्रिषु भेदेषु प्राद्यो नेदो यथा परमाणुबहुप्रदेशी कथ्यते कथ- कल्पनत्वात् अथ च तानि वखादीनि मम सन्ति अत्र हि वस्त्रामेतत् परमाणुस्तु निरवयवोऽतो निरवश्वस्यप्रसदेशत्वं नास्ति दिकानि पुद्रसपर्यायाणि ममेति संबन्धयोजनया भोज्यनोजक-- तयापि बहुप्रदेशानां सांसर्गिकी जातिः परमाणुरस्ति यथाहि जोगभोगिकोपचारकल्पनमात्रपराणि नवन्तीति निष्कर्षः । अब्ध एकज्यणुकादिस्कन्धादयः ॥ अथद्वितीयो नेदश्च । न्यथा वल्कलादीनां वा नेयानां पुकसानां शरीराच्छादनसमर्थाविजात्यापि स एवान्यो, यथा मूर्तिमती मतिः । नामपि मम वस्त्राणीति उपचारसंबन्धकल्पनं कथं न कथ्यते व. मूर्तिमनिरपि व्य-निष्पन्ना चोपचारतः ॥११॥ खादीनि हि विजातिषु स्वसंबन्धोपचरितानि सन्तीति जावः । या स एव असद्भूतः विजात्या वर्तते यथा था मूर्तिमती पुनः वप्रदेशादयोऽपि विधेति धप्रादिरहं वप्रदेशादयो ममेति मतिः मतिझानं मूर्त कथितं तत्तु मूर्तविषयलोकमनस्कारादिके कथयता स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो भवेत् कथं ज्य वत्पन्नं तस्मान्मूर्तम् । वस्तुतस्तु मतिज्ञानमात्मगुणः तस्य यप्रदेशादयो हि जीवाजीवात्मकोन्जयसमुदायरूपाः सन्ति । चापीद्गतिकस्य मूर्तिपुशवगुणोपचारः कृतः सतु विजात्या भस अथ संकेपमाह।। द्भूतव्यवहारः। इत्थं समे चोपनयाः प्रदिष्टाः, स्याद्वादमुघोपनिषत्स्वरूपाः। अथ तृतीयमाह। स्वजात्या च विजात्याऽपि, असतस्तृतीयकः। विज्ञाय तान् शुरुधियः श्रयन्तां,जिनक्रमाम्नोजयुगं महीयः। इत्थमनया दिशा समेनयाः च पुनः उपनयाः प्रदिष्टः कथिताः। जीवाजीवमयं ज्ञान, व्यवहाराद्यथोदितम् ।। १२॥ कीदृशास्ते स्यावादस्य श्रीजिनागमस्य या मुजा शैली तस्या स एव पुनरसद्भूतव्यवहारः स्वजात्या विजात्या च संबन्धितः उपनिषत्स्वरूपा रहस्यरूपाः सन्ति । तान् सर्वानपि विज्ञाय कथितः यथा जीवाजीवविषयं मतिज्ञानम् अत्र हि जीवो मति- ज्ञात्वा गुरुधियः निर्मबबुरूयः श्रयन्तामङ्गीकुर्वतां किं जिनक्रमाज्ञानस्य स्वजातिरस्त्यात्मनो ज्ञानमयत्वात् । अजीवो मतिकान- मनोजयुगं वीतरागचरणकमलं श्रयन्तामित्यर्थः।०७ अध्याय स्य विजातिरस्ति । यद्यपि मतिज्ञानादिविषयीनूतघटोऽयमिति | नवणयण-उपनयन-न०ढीकने, सूत्र२श्रु०२०ा कसानाहणे, झानं तथापि विजातिजमचेतनसंबन्धात् अनयोर्जीवाजीवयो । न.११ श० ११०। उपनयार्थे समीपप्रापणे च ॥ विषयविषयिभावनामा उपचरितसंबन्धोऽस्तिसहि स्वजातिवि एवम्लुतमुपनयनं कदा प्रवृत्तमित्याह । जात्यसद्भतव्यवहारोऽस्ति तद्भावनमेव झेयं स्वजात्यंशे किं नायं उपणयणं तु कलाणं, गुरुमूले साधुणो तवो कम्म । सङ्गत इति चेद्विजात्यंशे विषयतासंबन्धस्योपचरितस्यैवानुन. बादिति गृहाणति व्यवहारायथोदितं तथा विचारयेति पद्यार्थः ॥ घेत्तुं हवंति सका, केई दिक्खं पवज्जति ॥ उपनयनं नाम तेषामेव बाबानां कनानां ग्रहणाय गुरोः कमाअथोपचरितासद्भूतस्य बकणमाह । चार्यस्य मूझे समीपे नयनम्। यदि वाधर्मश्रवणनिमित्त साधोः यचैकनोपचारेणो-पचारो हिं विधीयते । सकाशे नयनमुपनयनं तस्माच्च सम्धोर्द्धर्म गृहीत्वा केचित् श्रास स्यादुपचरिताद्य-सद्भूतव्यवहारकः ॥ १३ ॥ द्धा नवन्त्यपरे लधुकाणो दीकां प्रपद्यन्तेपतच्चोभयमपि तदा यच पुनरेकेन उपचारेण कृत्वा द्वितीय उपचारो विधीयते | प्रवृत्तम । आ०म०प्र०। आ०चूारा। स हि उपचरितोपचरितो जात उपचरितासातव्यवहार इति उवणयानास-उपनयानास-पुं० हेतोः साध्यधर्मिण्युपसंहरणनाम बनत इत्यर्थः॥ मुपनयस्य बकणोलबन्नेनोपनयवदाभासमाने, परिणामी शब्द अथोदाहरणमाह। कृतकत्वात् यः कृतकः सपरिणामी यथा कुम्भ इत्यत्र परिणामी स्वजात्या तं विजानीत, योऽहं पुत्रादिरस्मि वै । च शब्द प्रति कृतकश्च कुम्भ इति। श्ह साध्यधर्म साध्यधर्मिणिपुत्रमित्रकलत्राद्या, मदीया निखिझा इमे ।। १४॥ साधनधर्म वा दृष्टान्तधर्मिण्युपसंहरत उपनयाभासः। रत्ना० । तमुपचरितासद्भतं स्वजात्या निजशक्त्या उपचरितसंबन्धन उवणयावणयच नक-उपनयापनयचतुष्क-न० बोगशवचनानां अप्सद्भुत व्यवहार जानीत संबन्धकल्पनं यथा अहं पुत्रादिः । वचनचतुष्के, तथोपनयापनयवचनं चतुर्दा भवति। तद्यथा उपअहमित्यात्मपर्यायः पुत्रादिरिति परपर्यायः अहं पुत्रादिरिति संब नयापनयवचनं तथा उपनयोपनयवचनं तथा अपनयोपनयवच. न्धकल्पनम् ।पुनः पुत्रमित्रकनत्राद्या निखिला श्मे मदीयाः संब- | नंतथा अपनयापनयवचनमिति। तत्रोपनयो गुणोक्तिरपनयो दोषधिनः । अत्र अहं मम चेत्यादिकथनं पुत्रादिषु तछि उपचरितेन भाषणम्।तत्रस्वरूपेयंरामा परंदुःशास्त्रास्त्युपनयापनयवचनम्। उपचरितं तत्कथ पुत्रादयो हि आत्मनो नेदाः स्ववीर्यपरिणाम- तथा सुरूपेयं स्त्री सुशीनेत्युपनयोपनयवचनम् । तथा कुरूपेयं स्वात् अनेदसंबन्धः परम्पराहेतुतयोपचारितः पुत्रादयस्तु शरी- स्त्री परं सुशीला इत्यपनयोपनयवचनम् । तथा कुरूपेयं कुशीत्रा रात्मकपर्यायरूपेण स्वजातिः परं तु कल्पनमात्रं न चेदेवं तर्हि चेत्यपनयापनयवचनमिति ॥ यहा उपनयः स्तुतिरपनयो निन्दा स्वशरीरसंबन्धयोजनया संबन्धः कथितः पुत्रादीनां तथैव मत्कु-| तयोर्वचनचतुष्कम् । यया रूपवती स्त्रीत्युपनयवचनं करूपा णादीनामपि पुत्रव्यवहारः कथं न कथित इति ॥ स्त्रीत्युपनयवचनं रूपवती किंतु कुशी नेत्युपनयापनयवचनं कुरू Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवण्यावण्यचटक्क उवासोवण्य पास्त्री किंतु सुशीलेत्यपनयोपनयववनमिति । प्रव० १४० द्वा० । लवणीय उपनीत त्रि० उप-नी-त- उपढौ किते, उत्त०४ अ० ॥ वणिक्खन- उप निमित्रि व्यवस्थापिते, "अंति यंसि उवणिक्वित्ते सिया” । श्राचा० २ श्रु० ॥ वणिक्वउपनिप-पुं० उप-नि-पि कर्मणि पर रूप संख्यादर्शनेन रसार्थ परस्य दस्ते निहिते इस चोपनिपोलोकोसारिक रेडियमपनिक्केपः परोपनिकेपश्च । तत्र लौकिक आत्मनिकेपो ये प्रगलनास्ते श्रात्मनैवात्मानं राइ उपनिक्विपन्ति तिष्ठन्ति च चरणापपातकारकाः प्रपन्नशरणा ये पुनरप्रगल्भास्ते ये राज्ञो वल्लनास्तैरात्मानमुपनि केपयन्ति । एष परोपनिक्षेपः । लोकोत्तरिक आत्मनिक्षेपो गच्छवर्तिनां साधूनां तथा हि ये गच्छे एव वर्तन्ते साधवस्ते आत्मानमात्मानैया मिनचा चार्यस्योपनिक्षिपन्ति परपिशीय प्रवणीयवयण - उपनीतापनीतवचन- २० कचिणः 66 फगतानां ते हि समागताः स्पर्द्धकयतिना निक्षिप्यन्ते यथा पते अहं च युष्माकमिति । रह मिथियाई अस्से करउवसंपज्जखारिंदे" इत्यायुक्त यद्यपि संगीतार्थस्तरुणः समर्थश्रेद्रिय नोन्द्रयाणां निग्रहं कर्त्तुं तथापि सेनान्यो गो ज्यो निधयस्य च परप्रत्ययनिमित्तं तत्रापि निशेयः कर्त्तव्यः व्य० द्वि० ४ उ० । उनाणिग्गय उपनिर्गत वि० प सामीप्येन निर्गतो निष्कान्त । “उदिमालवाहणे । उपनिर्गतः । सामीप्येन निष्कान्ते "हरियाणे नामेणं संजय नाम, मिगवं तवणिग्गए"। उत्त० १४० । “नवणिमायणवतरुपत्तपल्लवको उज्जत किसलयसुकुमानपवासादिभल्लउज्जल बदरंगकुरासित" उपनिर्गतैर्नयनपत्र पहल त्यानगय पत्रगुच्चैस्तथा कोमलोज्वलैश्चञ्जद्भिः किशलयैः पत्रविशेषैः तथा सुकुमारप्रवाहैः शोभितानि वराङ्कुराणि अग्रशिखराणि येषान्ते तथा ( वनखएकः ) श्री० उवणिमंतण - उपनिमन्त्रण - न० भिक्षो ! गृहाणेदं पिएमद्वयमित्यनिधाने भ० श० ६ उ० ॥ 1 - उपशय उपनीत वि० उप-नी क. पानीयादिवित् । १ १०१ । इति ईत इत् । ढौकिते, प्रा० ॥ लवणिविद्र- उपनिविष्ट-वि०सामीप्येन स्थिते "तेणं तोरणा - णामणिमासु बने उपनिविधिविध विष मिता" उपनिविष्टानि सामीप्येन स्थितानि तानि च कदाचि लानि अथवा अपदपतितानी तिशङ्केरनु सतह सम्परा नि नतया श्रपदपरिहारेण च निविष्टानि ततो विशेषणसमासः उपनिविष्टसन्निविष्टानि । रा० ॥ जं० ॥ पणिया-उपनिषद श्री वेदान्तदर्शनप्रवृत्ती, तथाप्युपनि दृष्टिविदारिमका परा ॥ २० ॥ उपणिहा उपनिधा श्री० उप निधानमुपनिया धातूनामनेकार्थत्वात् । मार्गणायाम् । क० प्र० । पं० सं० । वशिद्धि-उपनिधि पुं० उपनिपत पनिधिः प्रत्याख यथाकयचिदानीते । स्था० ५ ठा० । उप सामीप्येन निधिरुपविधिः । एकस्मिन्यतायें पूर्व व्यवस्थापिते तत्समीप या परापरस्य श्रानुपूर्वीशब्द के पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण निक्केपणे, निक्षेपे, विरचने, अनु० ॥ , नवहिणिय - उपनिहित त्रि० यथा कथञ्चिदासन्नी जूते, सूत्र० ( ९२६) अभिधानराजेन्द्रः । - २ श्रु० २ श्र० । उपणियिय-उपनिहितक-पुं० उपनिहितं यथाकथविदास श्री येते उपनितिकाः । अनि विशेोपयुके भिक्षाचरके, सूत्र० २ ० २ अ० । प्रश्न० । विशे० । सूत्र० । प्रापिते, स्था० १० ग० । आचा० । "कालोवणीए कंखेज्जा" कालेनोपनीतः कालोपनी तो मृत्युकासेनात्मवशतां प्रापितः । आचा० १ ० ६ भ० ५ उ० । उपनय प्रापिते १४०ति गमितं प्रदर्शितमुपनीत कार्याः । आ० ० १ ० । केनचित्कस्य चिपढौ किते प्रणकादो, औ० । समीपं प्रापिते, उत्त० ४ ० निकटं समागते, उत्त० अ० । आसन्ने, सुत्र २ ० १० । उपसंहारोपनययुक्ते सुत्रगुणनेदे, । अनु० । विशे० । उप सामीप्येन नीतः प्रापितो ज्ञानादावात्मा येन स तथा । ज्ञानादावुपढौकितात्मनि सुत्र० १ भ० २ श्र० । प्रशस्यः कश्चिन्निन्द्यः यथा रूपवती स्त्री किन्त्वसदृत्तेति इति प्रशस्यमिन्द्यलक्षणे षोरुशवचनानामन्यतमे, आचा० २० । उपाशीयचस्य-उपनीतचरक पुं० केचित्कस्यचिपकत - स्य प्रदेणकादेशने प्रतकारके, औ० उत्तर- उपनीततर-०ि मातरे " मे तरागं माया मे पिया मे जाया मे" सूत्र० २ ० १ ० । उपरागत उपनीतरागत्य न० मायदेशकादिश्रामरागतारूपे सप्तमे सत्यवचनातिशये, औ० । स० | रा० ॥ लवणीयया उपनीतवचनन० प्रशंसावचने यथारूपवती स्त्री इदं षोमशवचनानामष्टमम् । प्रज्ञा० ११ पद० । - उवणीयावणीयचरय - उपनीतापनीतचरक - पुं० उपनीतं ढौकितं सत्प्रणाद्यपनी स्थानान्तरस्थापितोपनीते चापनीतं च यश्चरति स तथा । अथवा उपनीतं गायकेन वर्णितगुणमपनीतं निराकृतगुणमुपनीतापनीतं यदेकेन गुणेन वर्णितं गुणान्त रापेक्षया तु द्वेषितं यथा अहो शीतलं जलं केवलं कारमित्यभिप्र हविशेषयुक्ते निक्षाचरके, औ० ॥ उपत्य उपन्यस्त० पकते ०५८० ॥ उपवास-उपन्यास-पुं० उप-नि-अप उपादाने प न्यासश्च शास्त्रेऽस्याः कृतो यत्नेन चिन्त्यताम् " हा० । उपन्य सनमुपन्यासः । तद्वस्त्वादिलक्षणे ज्ञातभेदे ॥ चत्तारि नवन्नासे, तव्त्रत्युग अन्नवत्युगे चैव । - नए उम्म, होति इणमो उदाहरणा ॥ ८३ ॥ चत्वार उपन्यासे विचार्ये अधिकृते वा जेदा भवन्तीति शेषस्ते चाम सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा तथाऽधिकारानुवृत्ते स्तूपन्यासः । तथा तद्न्यवस्तूपन्यासः तथा प्रतिनिनोपन्यासस्तथा हेतूपन्यासश्च । तत्रैतेषु भवन्त्यमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि उदाह रणनीति गाथाकरार्थः । भावार्थस्तु प्रतिभेदं स्वयमेव वक्ष्यति नितिकारः । दश० १ ० ( पतजेदस्वरूपनिरूपणं देष्टव्यम् ) वासाय- उपन्यासोपनय पुं० वादिना अभिमतार्थसाधनाय ते वस्तूपन्यासे घटना या प्रतिवादिना विरुषार्थोपनयः क्रियते पर्यनुयोगोपन्यासो वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः । ज्ञातनेरे, उत्तररूपमुपपत्तिमात्रमपि ज्ञातभेदो ज्ञानहेतुत्यादिति । यथा अकर्तात्मा अमूर्तत्यादाकाशवदित्युके अन्य आद आकाराबदेवात्यपि प्राप्तदिति । यथा वा मांस क्षणमप्रम्प्राण्यङ्गत्वादोदनादिवत् अत्रादान्य भोदनादिदेयस्यादिमांसमक्षणमप्यदृष्टमिति । यथा वा त्यसङ्का Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२७) नवमासोवगाय अभिधानराजेन्डः । नवभोगपरिभोगप. वस्त्रपात्रादिसंग्रहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत्अत्राहकुएिककाद्यपि- नवप्पव-उपप्शव-पुं०उप-प्यु- अप् । भ्रमविषये,पु. "विकल्प ते न गृहन्ति तद्वदेवेति तथा कस्मात्कर्म कुरुषे यस्माद्धनार्थीति तल्पमारुढः, शेषः पुनरुपप्लवः । द्वा०५४ का। इह प्रथमं ज्ञातं समग्रसाधर्म्य द्वितीयं देशसाधर्म्य तृतीयं स. उपप्पुयट्ठाणविवजण-उपप्तस्थानविवर्जन-नग्नपात्रुतं स्व. दोष, चतुर्थ प्रतिवाद्युत्तररूपमित्ययमेषां स्वरूपविभाग इति । इह देशतः संघादगाथा "चरियं च कप्पियं वा, दुविहं तत्तो चक्रपरचक्रनिकोनात् जीजकमारीतिजनविरोधादेश्चास्वस्थीघठविहेक्ककं । आहरणे तहेसे, तदोसे चेव बुन्नासेत्ति ॥५॥ नूतं यत्स्थानं ग्रामनगरादि तस्य विवर्जन परिहरणम् । सामास्था०५ ग० । “नवमासोवणए चाबिहे पन्नते तं जहा न्यतो गृहिधर्मभेदे, “ तत्र सामान्यतो गृहि-धम्मों न्यायार्जितं तब्धत्युतदभवत्पुए पडिणिभेदेदेउ" | स्था०४०। (स्वस्व धनम् । इम्झियाणां जय उप-चुतस्थानविवर्जनम्" अल्पत्यज्यस्याने व्याख्या) माने हि तस्मिन् धर्मार्थकामानां पूर्वार्जितानां विनाशेननन्यानां उवाउ-उपनम्य-अन्य० स्थगयित्वेत्यर्थे, । वृ०१ उ०। चानुपार्जनेनोभयलोकनश एव स्यात् ॥ध०१ अधिः । उवतल-उपतन-न० हस्ततलासमन्तात्पाश्र्वेषु, "हत्थतला न उवजुत्त-उपजुक्त-त्रि० उप-नुज-क्त । कृतोपभोगे वस्तुनि, । समता पासेसु अपया उवतलं नमत्ति"। नि० चू०१०। उपपादिते, आचा०१ध्रु०२ अ०१०। उपनुक्तभोगे, व्य०३२० । नवताव-नपताप-पुं० उप आधिक्ये तप-आधारे-घञ्-स्वरायां, नवनोग-उपनोग-पुं००प-ज-घञ्। उपभोजने, आचा०११० २०३उ०। उपेत्य अधिकं पुनरुपयुज्यमानतया नुज्यते श्त्युपनोगः जावे-घञ् सन्तापे, एयन्ततपेरन् । रोगे, मेदिः । करणे-घञ् । पुनः पुनरुपनोग्य नवनाङ्गनादौ, "सति तुज ति भोगो, सो पुण अशुभे, पीमने, रत्ना० । उपसर्गे, शरीरपीमनोत्पादने, ॥ सूत्र० आहारपुष्फमाईतो । नवनोगो उपुणो पुण, उवनुज्जश्नवणवा१७०३ अ०। या" उत्त ३३ अ० । उपा० । कर्म० । धर्म । आ०चू । श्रा०। उवतीर-उपतीर-अन्य सामीप्यादा अव्ययी तीरसामीप्यादी, साम्प्रतमुपभोगादिभेदमाह"एसणं गोयमा महातवो व तीरप्पनवे" न० ५ ० ५ उ०।। उवनोगपरिजोगवए दुविहे पत्ते तंजहा जोअणओ नवत्थम-नपस्तीर्ण-त्रि० उपशब्दः सामीप्यार्थस्तृञ् च आच्चा कम्मो अलोअणो समणोवासरणं श्मे पंच अइयारा दनार्थः। उपस्तृ उत्पतद्भिर्निपतद्भिश्चानवरतक्रीडाशक्तैरुपर्युपर्या च्छादिते, "आतिणा वितिणा उवत्थमासंथमा" न०१श०१० जाणियन्वा न समायरियच्या तंजहा सचित्ताहारे १ सचिजबत्थिय-उपस्थित-त्रि० उपनते, “दसविहा रुक्खा नवभोग त्तपमिबछाहारे २ अप्पोसिओसहिजक्खणया सचित्तसत्ताए उवत्थिया" ॥ स॥ मिस्साहारे ३ (पागन्तरे ) मुप्पोलिओसहिनक्खणया जबदसण-उपदर्शन-न० उपनयनिगमनान्यां निःशङ्कं शिष्यबु- तुच्छोसहिजक्खण्या ५। आव०५ अ०॥ कौ स्थापने, सकलनयाभिप्रायावतारणतः पटुप्रझशिष्यबुकि । उप नुज्यत इत्युपभोगः उपशब्दः सकृदथै वर्तते सकृद्रोग उपषु व्यवस्थापने, नं० । स्था०॥ नोगः । अशनपानादौ, अथवा अन्तोंग उपभोगः । आहारादी, उपदसणकम-उपदर्शनकट-न० जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरेण नील उपशब्दोऽत्रान्तर्वचनः । ध०२ अधि० । आचा० । गन्धरूपाधवतो वर्षधरपर्वतस्य द्वितीये कूटे, स्था० २०। षये, तं०(पृथ्वी कायानामप्कायानां चोपन्नोगः सुढव्यादिशब्देषु) नवदंसिज्जमाण-उपदर्यमान-त्रि० सोकैरन्योऽन्यं दर्यमाने, उवनोगतराय-नुपजोगान्तराय- न० अन्तरायकर्मनेदे, यस्योज्ञा०१३ अ। दयात्सदपि वस्त्रालंकारादि नोपनुते। उत्त०३३ अपंस। कर्म । स०॥ उपदंसिय-नपदर्शित-त्रि० उप सामीप्येन यथा श्रोतृणां ऊटिति उबजोगपरिजोगपरिमाण-नपभोगपरिनोगपरिमाण-न० उपयथावस्थितवस्तुतत्वावयोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः द भोगः सकद्भोगः स चाशनपानानुलेपनादीनां परिजोगस्तु पुनः शितः श्रवणगोचरं नीतः । उपदिष्टे, “उवदसिया जगवया पन्न पुनर्भोगः सचाशनशयनवसनवनितादीनां तयोः परिमाणम् वणा सम्बनावाणं" । प्रज्ञा०१पद।सकानययुक्तिनिर्दर्शिते, ग देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानभेदे, नश०२०। उपतुज्यते इत्यु५ अधिः । अनु०॥ पनोगः । उपशब्दः सकृदर्थे वर्तते सकृद्रोग उपभोगः अशनपानपदर्य-अव्य० उपदर्शनं कृत्वेत्यर्थे "अंगुलीए उवदसिय ५ नादेः अथवान्तोंग उपभोगः आहारादिः उपशब्दोऽत्रान्तर्वणिज्काएजा" आचा०२ भ्र०। चनः परिचुज्यत इति परिनोगः परिशब्दोऽसवृत्तौ वर्तते पुनः चदंसेमाण-नुपदर्शयमान-त्रि० उपदर्शनं कारयति, "पुरिसका. पुनर्भोगः परिभोगो वस्त्रादेः बहिनोंगोवा परिजोगो वक्षनालङ्कारपरकम उवदंसेमाणे" स्था० ३ ग०॥ रादरत्र परिशब्दो बहिर्वाचक इति एतद्विषयं व्रतमुपभोगपरिजोग नवदीव-देशी-अन्यद्वीपे, दे. ना०॥ वतम्। ध०२ अधिगएतावदिदं नोक्तव्यमुपनोक्तव्यं घाइतोऽन्यत्रैवे रूपे द्वितीयेऽणुव्रते, श्रादंचद्विविधं भोजनतः कर्मतश्च । उपनबद्दव-उपघव-पुं०नुप-छु-नावे-घञ् । उत्पाते, रोगारम्नके, जोगपरिजोगयोरासेवाविषययोर्वस्तुविशेषयोस्तदुपार्जनोपायनधातुवैषम्यजनिते विकारभेदे, उपसर्गे, स्था०५ टा० । अशिवे, । तकर्मणां चोपचारादुपनोगादिशब्दवाच्यानां व्रतमुपभोगपरि वृ०४ ०। मारणे, भ०८ श०७ उ०। तत्र प्रायश्चित्तं । जोगव्रतमिति व्युत्पत्तिः (ध०) नोगतः कर्मतश्च । भोगोऽपि "उवहवेणं खमणं चउत्थ" महा०७ अ०। विधा उपजोगपरिभोगभेदात् तत्र उप ति सकृत् भोग आहारमा नववण-उपधावण-न० महापीमाकारणे, ध०३अधि। ल्यादेरासेवनमुपनोगः । परीत्य सकृत्भोगो भवनाङ्गनादीनामाउबद्दविय-अपजावित-त्रि० चत्वासिते, आव०४०। सवनं परिभोगः । तत्र गाथामाह। नवप्पयाण-उपमदान-न० उप-प्रदा-ल्युद-अभिमतार्थदानरूपे मज्जम्मि य मंसम्मि य, पुप्फे य फझे य गंधमद्धे य । नीतिभेदे,विपा० ३० प्रा० म०प्र०॥ उवनोगपरिजोगे, वीयम्मि गुणव्बए निंदे ॥२०॥ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२८) उवभोगपरिनोगप. अभिधानराजेन्द्रः । उवभोगपरिभोगप. श्रावकेण तावत्सर्गतः प्रासुकैषणीयाहारिणा भाव्यम् । अस- आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं च विवर्जयेत् ।। ति सश्चित्तपरिहारिणा तदसति बहुसावद्यमद्यादीन् वजयिस्वा प्रत्येक मिश्रादीनां कृतप्रमाणेन भवितव्यम्।तत्र मद्यमदिरा द्वाविंशतिरजक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासिनः ।। ३४॥ मांसं पिशितं च शब्दाच्छेसानदयाव्याणामनन्तकायादीनां च त्रिभिर्विशेषकम् । जैनधर्मेणाईतधर्मेणाधिवासितो नाविताग्रहः । तानि च प्रागुक्तानि पश्चापुम्बर्यादीनि पुष्पाणि करीर- त्मा पुमान् (द्वाविंशतिः) द्वाविशतिसंख्याकान्यभदयाणि नोमधुकादिकुसुमानि चशब्दात् त्रससक्तपत्रादिपरिग्रहः फलानि तुमनर्वाणि धर्जयेत् त्यजेदिति तृतीयश्लोकान्तेन संबन्धः । तामे जम्बूविल्वादीनि पषुच मद्यादिषु राजव्यापारादिषु वर्तमानेन | वाह । (चतुर्विकृतय इति) चतुरवयवा विकृतयश्चतुविकृतयः यत्किंचित्क्रायणादि कृतं तस्मिन् पतैरन्तनोंगः सूचितः बहि- शाकपार्थिवादित्वात्समासः कीदृश्यस्ता निन्द्याः सकलशिष्टजस्त्वयं (गंधमवेति ) गन्धा वासाः माल्यानि पुष्पस्रजः अत्री- ननिन्दाविषया मद्यमांसमधुनबनी तसवणा इत्यर्थः । तद्वर्णानेक. पलकणत्वाच्चेषभोम्यवस्तुपरिग्रहः । तस्मिन्नुक्तरूपे उपभोग- जीवसम्मू नात् । तया चाहुः “मज्जे महुम्मि मंसम्मि, नवणीए परिभोगे भीमो श्रीमसेन इति न्यायाफुपभोगपरिभोगपरिमा- चवस्थए । चप्पज्जति चयंति अ.तव्यमा तत्य जंतुणो"१परेऽपि णाख्ये द्वितीये गुणवतेनाभोगादिना यदतिक्रान्तं तन्निन्दामि । "मधे मांसे मधूनि च, नवनीतेचतुर्थके । उत्पद्यन्ते विसीयन्ते, सुसू (ध०)। तत्र जोजनत उत्सर्गेण निरवद्याहारनोजिना भवित- दमा जन्तुराशय" इति । तत्र मद्यं मदिरा तच्च द्विधा काष्ठनिष्पर्कव्यम् कर्मतोऽपि प्रायो निरवद्यकनुष्टानयुक्तेनेति । अत्रेयं ना- पिष्टनिष्पन्न चेति । पतश्च बहुदोषाश्रयान्महानर्थडेतुत्वाच त्याज्य वना । श्रावकेण हि तावत्सर्गतः प्राशुकैषणीयाहारजोजिना यदाह “ गुरुमोहकबहनिहा, परिजवउवहासरोसमयहेक । जाव्यम् तस्मिनसति सचित्तपरिहारः कार्यस्तस्याप्यशक्ती मर्ज पुगश्मूखं, हिरिसिरिमश्धम्मनासकरं ॥१॥ तथा "रसो. यहुसावद्यान्मद्यामिषानन्तकायादीन् वर्जयता प्रत्येकमिश्रसचि द्भवाश्च ट्यांसो, जवन्ति किन जन्तवः । तस्मान्मयं न पातत्तादीनां प्रमाणं कार्य भणितं च "निरवजाहारेणं, १निज्जीवणं व्यं, हिंसापातकभीरुणा ॥शादत्तं न दत्तमात्तं च, नात्तं कृतमया १परित्तमीसेणं ३। अत्ताणुसंधणपरा, सुसावगा एरिसा हुँति?" कृतम् । मृषोद्यराज्यादिवहा-स्वैरं वदति मद्यपः ॥ ३॥ गृहे बहिपवमुत्सवादिविशेष विनाऽत्यन्तचेसो गृहन्युन्मादजनापवादादि ी मार्गे वा, परन्याणि मूढधीः । वधबन्धादिनिको, गृहाजनकमत्युझटवेषवाहनालङ्कारादिकर्मापि श्रावको वर्जयेन् यतः त्याच्चिद्य मद्यपः ॥ ४ ॥ वाविकां युवती वृद्धा, ब्राह्मी आप"अरोसो अश्तोसो, अइहासोजणेहिं संवासो। अश्उम्भमो य चामपि । तुड़े परस्त्रियं सद्यो, मद्योन्मादकथितः ॥ ५ ॥ विवेबेसो,पंचवि गुरुअंपिलहु अंपि१'अतिमलिनाःअतिस्थूलहस्वस कः संयमा झानं, सत्यं शौचं दया कमा । मद्यात्प्रमीयते सर्व, तृविखादिसामान्यवेषपरिधाने कुचेलत्वकार्पण्यादिजना एया वहिकणादपि ॥ ६॥ श्रूयते किस शाम्बेन, मद्यादन्धकविपवादोपहसनीयतादिस्यादतः स्ववित्तवयोवस्थानिवासस्थान- ना । हतं वृष्णिकुत्रं सर्व, प्लोषिता च पुरी पितुः ॥७॥" मांकुलानुरूपवेषं कुर्यात् । उचितवेषादावपि प्रमाणनयत्यं कार्यम् । संच त्रेधा जलचरस्थलचरखचरजन्तूद्भवभेदाच्चर्मरुधिरमां पर्व दन्तकाष्ठाज्यङ्गतलोधर्तनमज्जनवस्त्रविलेपनाभरणपुष्पफ- सभेदाहा । तद्भक्षणमपि महापापमूलत्वाज्यं यदाहुः "पंचिसधूपासनशयनभवनादिस्तयौदनसूपस्नेहशाकपेयः खण्डवा दियबहभूध, मंसं दुग्गंधमसुइबीभच्छ । रक्स्वपरितुलिअभद्यायशनपानखादिमस्वादिमादेस्त्यक्तुमशक्यस्य व्यक्त्याप्रमाणं खग-मामयजयणं कुग मलं ॥ १॥" आमासु अ पक्कासुकार्य शेषं च त्याज्यमानन्दादिसुश्रावकवत् । कर्मतोऽपि श्राव श्र, विपञ्चमाणासु मंसपेसीसु । सययं चित्र उववाओ, भरिण केण मुख्यतो निरवद्यकर्मप्रवृत्तिमता भवितव्यं तदशक्तावप्य श्रो अनिगोअजीवाणं" ॥२॥ योगशास्त्रेऽपि । सद्यः सम्मूत्यन्तसावधविवेकिजननिन्यायविक्रयादि कर्म बर्जनीयं शेष च्छितानन्त-जन्तुसंतानदुषितम् । नरकाध्वनि पाथेयं, कोड कर्मणामपि प्रमाणं करणीयम् यतः "रंधणखंगणपीसण-दलणं श्रीयात्पिशितं सुधीः ॥३॥” सद्योहि जन्तुविशसनकाल एच पयणं च एयमाईणं । निश्चपरिमाणकरणं, अविरश्बंधो जत्रो सम्मूच्छिता उत्पन्ना अनन्ता निगोदरूपा ये जन्तवगुरुयो" आवश्यकचूर्णावप्युक्तम् ॥ श्ह चेयं सामाचारी "भोज- स्तेषां सन्तानः पुनः पुनर्भवनं तेन दूषितमिति तद्वत्तिः मांसभ णओ सावगो उसग्गेण फासुगं आहारं आहारेजा तस्सासति क्षकस्य च घातकत्वमेव । यतः "हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ता अफासुगमपि सश्चित्तवज्जं तस्स असति अणंतकायबहुवीय- भककस्तथा।केतानुमन्ता दाता च,घातका एव यन्मनुः ४ तथा गाणि परिहरिप्रवाणि इमं च अम्मं भोप्रणश्रो परिहर असणे भककस्यैवान्यपरिहारण बन्धकत्वं यथा “ये भक्षयन्त्यन्यपलं,स्वअणंतकायं अल्लगमूलगाइमंस च पाणे मंसरसमजाइ खादिमेउ कीयपनपुष्टये।तएवघातका यन्न,वधको नक्ककं विना"इति मधु उंबरका उंबरवमपिप्पलपिलंखुमादिसादिमे मधुमक्खियादि । च माविकं १ कात्तिकंत्रामर ३ चेति त्रिधा दमपि बद्माअचित्तंच आहार अव्वं जदाकिर ण होज अचित्तोतो उस्सग्गेण णिदिनाशसमुद्भवमिति हेयम् । यतः "अनेकजन्तुसंघात-निघाभत्तंपच्चक्खायण तर ताहे अपवारण सच्चित्तं अणतकार्य बहु तनसमुद्भवम् । जुगुप्सनीयं बालावत्का स्वादयति माक्किमिबीअगवजंकम्मोवि अकम्मा ण तर जीविडं ताहे अश्चंतसा ति" नवनीतमपि गोमहिष्यजाविसंबन्धेन चतुर्का तदपि सुदमधज्जाणि परिहरिजति त्ति" इत्थं चेदं नोगोपभोगवत भोक्तुं जन्तुराशिखानित्वात्याज्यमेव । यतः " अन्तर्मुहर्तात्परता, सुसयोग्येषु परिमाणकरणेन नयति इतरेषु तु वर्जनेनेति पर्यवसि. दमाजन्तुराशयः । यत्र मूर्धन्ति तन्नाद्य, नवनीतं विवकिभिरिति । समिति च श्लोकत्रयेण वर्जनीयानाह ॥ ४ तथा अदम्बरकेणोपत्रक्षितं पञ्चकं वट १ पिप्पलो दुम्बर ३ चतुर्थिकृतयो निन्द्या, नम्बरक्रपञ्चकम् । प्रक४ काकोदुम्बरी ५ फात्रणं उदुम्बरकपञ्चकं महाकाकाहिमं विषं च करका, मृज्जाति रात्रिनोजभम् ।। ३२॥ रसूक्ष्मबहुजीवनिवितत्वाद्वर्जनीयम् । ततो योगशास्त्रे "उद म्बरबटप्लक-काकोदुम्बरशाखिनाम् । पिप्पवस्य च नाश्नीयाबहुबीजाशातफले, सन्धानानन्तकायिके । त्फलं कृमि कुनाकुलम् । १ बोकेपि कोऽपि क्वापि कुतोऽपि कवृन्ताकं चन्नितरसं, तुच्छं पुष्पफलादि च ।। ३३ ।। स्यचिदहो चेतस्यकस्माज्जनः, केनापि प्रविशत्युदरयरफलमा Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ९२९ , नवभोगपरिभोग अभिधानराजेन्दः । उवभोगपरिभोग णि क्रमेण कणात । येनास्मिन्नापि पाटिते विघटिते विस्फोटिते रोचेरपायतः । अतो नक्तं न मोक्तव्यं, सूदाजीवादनादपि ॥३॥" बोटिते, निष्पिष्टे परिगात्रिते विदनिते निर्यात्यसौ घान वा । | तस्माद्विवेकिना रात्री चतुर्विधोऽप्याहारः परिहार्यस्तदशक्ती स्वतथा हिम तुहिनं तदप्यसंख्येयाप्कायरूपत्वात्याज्यम् १०विषम- शने खादिमं च त्याज्यमेव स्वादिम पूगीफलाद्यपि दिवा सम्यहिफेनादि मन्त्रोपहतवीर्यमप्युदरातवर्तिगएकोलकादिजीवघात- शोधनादियतनयैव गृह्णात्यन्यथा त्रसहिंसादयोऽपि दोषाः हेतुत्वान्मरणसमये महामोहोत्पादकत्वाच्च हेयम् ११ करका मुख्यवृत्या च प्रातः सायं च रात्रिप्रत्यासन्नत्वाद् द्वे द्वे घटिके नोरुचीभूता आपः । असंख्याकायित्वाहाः ॥ नन्वेषमसंख्या- जनं त्यजेद्यतो योगशास्त्रे "अहो मोऽवसाने च, यो वे वे घटिके कायित्वेनाऽभस्यत्वे जलस्याप्यनत्यत्वापत्तिरिति चेत्सत्यम् । त्यजन् । निशानोजनदोषको-ऽनात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥१॥" असंख्यजीवमयत्वेऽपिजसमन्तरा निर्वाहाभावान तस्य तथोक्तिः अत एवागमे सर्वजधन्यं प्रत्याख्यानं मुहूर्तप्रमाणं नमस्कार१२ तथा मृज्जातिः सर्वा अपि मृत्तिका दर्दुरादिपश्चेन्द्रियप्राण्यु- सहितमुच्यते जातु तत्तत्कार्यव्यग्रवादिना तथा न शक्नोति त्पत्तिनिमित्तत्वादिना मरणाचनर्थकारित्वात् त्याज्याः । जातिग्र- तदापि सूर्योदयास्तनिर्णयमपेक्त एवातपदर्शनादिनाऽन्यथा हणं खटिकादिसूचकं तद्भवणस्यामाश्रयादिदोषजनकत्वात् । रात्रिभोजनदोषः । अन्धकारजवनेऽपि बीमया प्रदीपाकरणादिमुग्रहणं चोपलवणं तेन सुधाद्यपि वर्जनीयं तद्भककस्यान्त्रशा- ना प्रसादिहिंसानियमभङ्गमायामृषावादादयोऽधिकदोषा अपि टाचनर्थसंभवात् मृद्भवणेचासंख्येयपृथिवीकायजीवानां विरा- यतः "न फरेमित्ति नणित्ता, तं चेव निसेवर पुणो पावं । पश्चधनाद्यपि लवणमप्यसंख्यपृथिवीकायात्मकमिति सचित्तं त्याज्य क्वमुसाबाई, मायानियही पसंगो अ॥१॥ पावं काऊण सम, अप्रासुकं प्राह्यं प्रामुकत्वं चाग्न्यादिप्रवनशस्त्रयोगेनैव नान्यथा प्पाणं सुरूमेव वाहर । दुगुणं करे पावं, वीअं बालस्समंदत्त नत्र पृथिवीकायजीवानामसंख्येयत्वेनात्यन्तसूक्ष्मत्वात् तथा च २" तथा बहुवीजेति बहुवीजं च अज्ञातफलं चेति द्वन्द्वस्तत्र बहपश्चमाते १५ शतकतृतीयोद्देशके निर्दिष्टोऽयमर्थः वज्रमप्यां शि- नि वीजानि वर्तन्ते यस्मिन् तद्वहुवीजं पम्पोटकादिकमज्यन्तरसायां स्वल्पपृथिवीकायस्य वज्रोष्टकेनकविंशतिवारानपेषणे पुटादिरहितं केवलं बीजमयं तच्च प्रतिवीजं जीवोपमर्दसंवादसत्येके केचन जीवा ये स्पृष्टा अपि नेति १३ तथा रात्रौ नक्तं जनीयं यच्चान्यन्तरपुटादिसहितबीजमयं दामिमटिएरादितनोजनं शुक्तिः रात्रिनोजनं तदपि हेय बहुविधजीवसंपातसंभ- नाभवतया व्यवहरन्ति १५ अज्ञातं च तत्फलं चेति कर्मधारयः बेनैहिकपारलौकिकानेकदोषदुष्टत्वात् यदभिहितं “मेहं पिपी. अज्ञातफलं स्वयं परेण वा यद् न झातफबमुपलक्कणत्वात्पत्रं तदसिआओ, हणंति बमणं च मच्चिा कुणइ । जूभा जलोद जदयं निषिकफले विषफले वा अज्ञानात्प्रवृत्तिसंभवात् । अज्ञानरत, कोलिनो कोठरोगं च ॥१॥ वाला सरस्स भंगं, कंटोल तो हि प्रतिषिके फले प्रवर्तमानस्य व्रतजङ्गः विषमफले तुजीगाश्गम्मि दारुं च । तालुम्मि विंधश् अक्षी, वंजणमम्मि तु वितविनाशः १६ तथा संधानं चानन्तकायिकं चेति इन्कस्तत्र अंतो॥२॥" व्यञ्जनमिह वार्ताकशाकरुपमनिप्रेतं तन्तं च संधानं निम्बकविल्यकादीनामनेकसंसक्तिनिमित्तत्वाधज्य संवृश्चिकाकारमेव स्यादिति वृश्चिकस्यासदमस्यापि तन्मध्यप- धानस्य च व्यवहारवृत्त्या दिनत्रयात्परतोऽभक्षत्वमाचक्वते । यो तितस्यालक्ष्यत्वाद्भोज्यता संनवतीति विशेषः । निशीथचूना- गशास्त्रवृत्तावपि “संधानमात्रफलादी-नां यदि संसक्तं भवेत् । वपि “गिहकोश्वअवयवसम्मिस्सेण नुत्तेण पोट्टे किन गिह- तदा जिनधर्मपरा-यणः कृपालुत्वात्त्यजेदिति । १७। अनन्ताः काकोरला संमुच्चंति" एवं सर्पादिवासामनमूत्रादिपाताद्यपि" यिका जीवा यत्र तत् अनन्तकायिकम् । अनन्तजन्तुसन्ताननितथा “मालिति महिलं जा-मिहीसु रयणी य रायमंतेणं । ते पातननिमित्तत्वात् वज्यम् (ध०) (अनन्तकायिकव्याख्या स्वविव्यसंति हु फुलं, रयणीए तुंजमाणं तु ॥१॥ अपि च.निशा- स्थाने उक्ता) अन्यदप्यभक्ष्यं चाचित्तीनृतमपि परिहार्य निः भोजने क्रियमाणे अवश्यं पाकः संभवी । तत्र षट् जीवनिकाय- शूकतामौल्यवृद्धयादिदोषसंभवात् परंपरया सचित्ततद्ग्रहणप्रवधोऽवइयंजावी जाजनधावनादौ च जगतजन्तुनाशः जसो. सङ्गाश्च यथोक्तम् “क्केण कयमकर्ज, कर तप्पच्चया पुणो अन्नो। ज्जनन भूमिगतकुन्थुपिपीलिकादिजन्तुघातश्च जवति तत्प्राणिर- सायाबहुलपरंपर-वुच्छेओ संजमतवाणं । १।” अत एवोत्काक्षणकालयाऽपि निशानोजनं न कर्तव्यम् । यदादुः "जीवाण मितसम्बरकराबार्डकसूरणवृन्ताकादि प्रासुकमपि सर्व वयं मूकुंयुमाईण, घायणं जाणधोरणाईसुं । एमाश्रयणिभोयण-दो- सकस्तु पञ्चाङ्गोऽपि त्याज्यः । शुएठ्यादि तु नाम स्वेदनेदादिसे को साहिउं तर १॥" यद्यपि च सिरुमोदकादिखर्जर- ना कल्पते इति श्रारूविधिवृत्तौ । १० तथा वृन्ताकं निकाबाहुबावादिनक्कणे नास्त्यन्नपाको नच भाजनधावनादिसंनवस्तथापि स्यमदनोद्दीपनादिदोषपोषकत्वात्याज्यम् । पन्ति च परेऽपिच कुन्थुपनकादिसंघातसंजवात्तस्यापि त्याग एव युक्तो यमुक्तं नि- “यस्तु वृन्ताककालिक-मूलकानां च प्रककः। श्रन्तकाने सशीयनाष्ये "जदवि हु फासुगदव्वं, कुंथुपणगा तहावि दुष्पस्सा। मूढात्मा, न स्मरिष्यति मां प्रिये" इति ।१ तथा चलितो दिनपचक्खणा णो वि हु, रानत्तं परिहरंति ॥ १ ॥ ज वि हु पि- यो रसः स्वाद उपलकणत्वाद्वर्णादिर्यस्य तच्चवितरसं कुथितापीजिगाई, दीसंति पश्चाईउज्जोए । तह वि खलु अणानं, मू- नपर्युषितदिनपूपिकादि केवलजलरामपूराद्यनेकजन्तुसंसक्तसवयबिराहणाजमं ॥२" एतत्फलं च "उलूककाकमार्जार- त्वात् पुष्पितौदनपक्वान्नादिदिनध्यातीतदध्याद्यापि च तत्र पक्कागृधशम्बरकराः । अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रिनोजनातू" माद्याश्रित्य चैवमुक्तम् । “वासासु पन्नरदिवसं , सीउएहका सु. परेऽपिपरन्ति "मृते स्वजनमात्रेऽपि, सूतकं जायते किन्न । अस्तंगते मासदिणवीसं । उम्गाहिमं जईणं, कप्पश् आरब्न पढम दिवानाथे, नोजनं क्रियते कथम् ॥१॥ रक्तीभवन्ति तोयानि, दिणे" केचित्त्वस्या गाथाया अलभ्यमानस्थानत्वं वदन्तो याअन्नानि पिशितानि च । रात्री भोजनशक्तस्य, ग्रासे तन्मांसभ- वन्धरसादिना न विनश्यति तावदधगाहिम शुद्ध्यतीकणम् ॥२॥ स्कन्दपुराणे रुष्प्रणीतकपालमोचनस्तोत्रेसूर्यस्तु- स्याहुः दिनद्वयातीते दधन्यपि जीवसंसक्तिर्यथा " जइ मुग्गतिस्तोत्रेऽपि “एकभक्ताशनान्नित्य-मग्निहोत्रफलं लन्नेत् । अन- मासमाई, विदलं कच्चम्मि गोरसे पडइ । ता तसजीवुप्पत्ति, स्तनोजने नित्यं, तीर्थयात्राफलं जवेत ॥२॥" तथा "नेबाहतिने । भणति दहिपवि दुदिणुवरि " १ हारिभद्रदशकालिकच सानं, न श्राऊं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ, भोजन- वृत्तावपि रसजास्तक्रारनालदधितेमनादिषु पायुकृम्याकृतस्तु विशेषतः ॥२॥" श्रायुर्वेदेपि । “ हुन्नाभिपद्मसङ्कोच-श्चएम- योऽतिसूक्ष्मा भवन्तीति दध्यहतियातीतमिति ॥हैममपि।२०। . Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३० ) अभिधानराजेन्ऊः उवभोगपरिजोग तथा तुच्छं सारं पुष्पं च फलं च ते श्रादौ यस्य तत् पुष्पफलादि । चः समुच्चये श्रादिशब्दान्मूलपत्रादिपरिग्रहस्तत्र तुच्छं पुष्यमरणिकरीरमधूकादिसंबन्धितु फलम। मधूकजम्यूटीवरूपीलुपकरम देङ्गदीफलविघूम कुरवाललिवृहद्वदरकश्चकुट्टिभडस्वसखसादि २ प्रावृषि तन्डुलीयकादेव पत्रं बहुजीवसंमिश्रितत्वात् ३ त्याज्यम् । श्रन्यदप्येतादृशं मूलादि पद्यार्द्धनिष्पक्ष कोमलचवलकमुद्र सिम्बादिकम अ हि न तथाविधतृतिर्विराधना च भूपसी २१ तथा आमेति धर्म व तरसं व ग्रामगोरसं तत्र संपूनमामो रससंपृक्तम् । कच्चदुग्धदधितक्रसंमिलितम् । तद्विदलं केवलिगम्यसुक्ष्मजीवसहिसंभवात् हेयम्। उतं च संसनाद "सध्येसु विदेसेसुं सव्वेसु विधेय तह य का लेसु । कुसिणेसु श्रमगोरस-जुत्तेसु निगोत्रपंचिदी" द्विदल लक्षत्वमा "जम्मि उपखिते नेहो न होइ विति तं विदलं । विदले विहु उप्पन्नं, नेह जुअं होइ नो विदलं " १ ह होयं स्थितिः केचिद्भावा हेतुगम्याः केचित्त्वागमगम्याः । तत्र ये वया हेतुगम्यास्ते स्वयमपचन प्रतिपादनीयाः आग मगम्येषु हेतून हेतुगम्येषु त्वागममात्रं प्रतिपादयन्नाशाचिराधकः स्यात् । यतः " जे हेउवायपक्खम्मि, हेन्त्रो आगमे । श्रागमियो । सो समयपत्र, सिद्धंतविराहो अशो" इति । श्रमगोरससंपृक्ताद्वदले पुष्पितीदने अहतिया-तीते दधि कुथिताने च न हेतुगम्यो जीवसद्भावः किंत्वागमगम्य एव तेन तेषु ये जन्तवस्ते केवलिभिर्दृष्टा इति द्वाविंशति माथि वर्जयेदिति पूर्व योजितमेवेति लोकत्रयर्थः । योगशास्त्रे तु षोडशवर्जनीयानि प्रतिपादितानि यथा " मर्दा मांसं नवनीतं, मधूदुम्बरपञ्चकम् । अनन्तकाय मशातफलं रात्री व भोजनम् ।१। श्रमगोरससंपूत-विद पुष्पितीनम् । दध्यहर्द्वितयातीतं, कथितानं च वर्जयेत् |२| अन्यसकलाभक्ष्यवर्द्धनं च । जन्तुमिश्रं फलं पुष्पं, पत्रं चान्यदपि त्यजेत् । संधानमपि संस, जिनधर्मपरायणः । इति संग्रहमोतम् । अत्र च सप्तमवते सचित्ताचित्तमिश्रव्यक्तिः श्राद्धवियुक्ता पूर्व सम्पक देवा युज्यते यथा चतुर्दशादिनियमाः । सुपाल्या भवन्तीति ॥ ( ध० ) ( श्रचित्तव्याक्तिः स्वस्थाने ) एवं सचित्ताचितादिव्यक्ति शात्वा सप्तमव्रतं नामग्राहं सचि सादिसर्वभोग्यवस्तुनैयत्यकरणादिना स्वीकार्य यथानन्दकामदेवादिभिः स्वीकृतं तथा करणाशक्तौ तु सामान्यतोऽपि सवितादिनियमा कार्यास्ते चैवम् ॥ सचित १ दव्त्र २ विगइ ३ वाणह ४ तबोल ए वत्य ६ कुमुमेसु ७ वाहण सण ए विशेवण १० गंज ११ दिसि १२ न्हाण १३ जत्तेमु १४ ॥ १ तत्र मुख्यवृत्त्या सुश्राचकेण सचिन्तं सर्वथा त्याज्यं तदशक्तौ नामग्राहं तथाऽप्यशक्ती सामान्यत एकद्वयादिनियम्यं यतः " निस्वाहारेण " इति पूर्वखितानाचे परं प्रतिदिनैकचित्तानिग्रहिणां हि पृथक दिनेषु परावर्तन सर्वसचित्तग्रहणमपिस्वा तथा च न विशेषविरतिः नामग्राहं सचित्तानिग्रहे तु तदन्यस चित्तनिषेधरूपयावज्जीवस्पष्टमेवाधिकं फलम् उक्तं च "पुकफनाणं च रसं, सुराश्मंसाणमदिविआणं च । जाणंता जे विरया, ते डुक्करकारण वंदे" सवित्तेष्वपि नागवलीदजानि पुस्त्यजानि शेषसचित्तानां प्रायः प्रासुकी भवनं स्वल्पकालमध्येऽपि - पुन निरन्तर जनकप्रेदादिना सचित्ततावा दिविराधनापि नूयसी च तत एव पापभीरुणा त्याज्यानि अन्य नवभोगपरिजोग 99 थाsपि रात्रौ न व्यापार्याणि रात्रिव्यापारिणोऽपि दिवा संशोधनादिपनाया पर मुख्यता चारिणा तु काम सचित दोषस्तु भनेकजीवनात प्रत्येक चित्ते येकस्मिन् पत्रफलादावसंख्यजीवविराधना संभवः यदागमः "जं जणि पज्जतग, निस्साए वुक्कमंत श्रपञ्जन्ता जत्थेगो प सो, तत्य असं अपायेन्द्रसमे पुतु यत्रैको पर्यास्तव तन्निश्राया नियमादसंख्या पर्यायः स्युरित्याचाराङ्गनृत्यादौ प्रोकम । एवमेकस्मिन्नपि पत्रादायसं ख्यजीवविराधना तदाश्रितजल नील्यादि संभवे त्वनन्ता अपि जलघणादि वाऽसंख्यजीवात्मकमेव यदार्थम् ।" एग्मम्मि उदगवि डुम्मि, जे जीवा जिणकरेहिं पान्ता । ते जर सरिसवमित्ता, जंयूदीयेन मायंति। महापमाणे पुढविकाये हयंति से जीचा ते पारयमित्ता, अंधे न माति सर्वसचिवरिव्राजक समशतशिष्यनिदर्शनस् । एवं सचिन्तत्यागे यतनीयमिति प्रथमनियमः । सचित्तविकृतिवर्जे यन्मुखे विप्यते तत्सर्वे व्यं चिकिनिर्विकृति कमोद कपनी पर्यटका रिम करम्यरेयादिक बहुधान्यादिनिष्यन्नमा परिणामान्तराचापरेकैकमेव यमेकधान्यनिष्यन्नान्यपि पत्रिकास्युलरोहक महमकपरकपरीटीकरणादीनि पृथक २ नामा स्वादाचे पृथक २ म्यानिफका न्नास्वादव्यक्तेः परिणामान्तराजावाश्च बहुषव्यत्वमन्यथा वा संप्रदायादिवशाद्रव्याणि गणनीयानि धानुमशिलाकारा ल्यादिकं द्रव्यमध्ये न गणयन्ति २ विकृतयो भक्ष्याः षट् दुग्ध दधि २ घृत ३ तैल ४ गुरु ५ सर्वपक्वान्न ६ नेदात् ३ ( वाणहत्ति ) उपानद्युम्नं मोचकयुग्मं वा काष्ठपाकादि तु बहुजीवविराधना तावाश्याश्यमेव भावके साम्स कत्यकादिस्वादिमरूपम् ५ यखं पञ्चाङ्गादिषः धोतिपति रात्रिवस्त्रादि वेषे न गएयते | ६| कुसुमानि शिरःकएन के पशय्यो तु काद्यतन्नियमेऽपि देवशेषाः कल्पन्ते । ७ । वाहनं रयाश्वादि शयनं खद्वयादे ९ विलेपनं भोगार्थे चन्दनाञ्जनादिचूअ कस्तूर्यादि तन्नियमे देवपुजादौ तिलकस्वहस्तकङ्कणधूपना दि कल्पते । १० । अब्रह्म दिवा रात्रौ पत्न्याद्याश्रित्य ११ दिकूपारमाणं सर्वतोमुकदिशि वा श्यदवधिगमनादिनियमनम् । १२ । स्नानं तेाज्यङ्गादिपूर्वक देवपूजार्थ करणेन नियमन लौकि ककारणे च यतना रया १३ धान्यसुखनादि सबै त्रिचतु खेरादिमितं खरनृजादिग्रहणे बहवोऽपि सेराः स्युः ॥ १४॥ एतडुपलक्षणत्वादन्येऽपि शः उफन्नधान्यादिप्रमाणारम्ननैयत्यादिनियमा यथाशक्ति प्राथा इत्युक्तं भोगोपभोगवतम् ॥ ध० ३ अधि । इदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमित्यतोऽस्यैवातिबाराननिधित्सु ॥ ני जो समोवासएवं इमे पंच इआरा जाणिअव्वा न सामायरिव्वा तं जहा सचित्ताहारे ? सचित्तपमहारे २ अप्पो लियोसहिभक्खया सचित्तसम्मिस्सा हारे (पाठान्तरम् ) ३ पोलिओ सहित क्रुणया ४ तुच्छों सक्खिणया || जोजतो यह व्रत तदाश्रित्य श्रमणोपासकेनापि पञ्चातिसारा ज्ञातव्याःन समाचरितव्यास्तद्यथा सचिप्ताहारः चित्तं चेतना संज्ञान उपयोगोभ्यधानमिति पर्यायाः सविधासावाद्वारा २ सचितो बाहारो यस्य सविसमाहारयतीति या कन्काईकादिसाधारणप्रत्येकतरशरीराणि सवितानि सचितं पृथिव्यायाहारयतीति भावनाः । तथा सचित्तप्रतित्राहारो यथा वृक्षप्र Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३१) उवभोगपरिनोग अनिधानराजेन्डः। उवभोगपरिभोगाइरित्त तिबो गोदादिपक्कफलानि वा तथा अपक्वौषधिनवणत्वमिदं कोऽतिचारो निरवद्यत्वात्तद्भवणस्येति सत्यम् किं त्वाद्यावतीच प्रतीत सनित्तसन्मिश्राहार इति पागन्तरं सचित्तन समिश्र चारी सचेतनकन्दफमादिविषयाबितरे तु शाव्याद्यौषधिविषया आहार सचित्तसन्मिश्राहारः वयादिपुष्पादिना सम्मिश्र तथा इति विषयकृतो नेदोऽत एव मूत्रसुत्रे "अप्पलिओसहिभक्षणदुष्पौषधेर्नवणतो पुष्पक्का अश्विन्ना इत्यर्थः तद्भवणता तथा ये" त्याद्युक्तं ततोऽनाभोगातिक्रमादिनाऽपकौषधिन्नकणमतिचारो नुच्छीषधिनकणता तुच्ग घसारा मुझफलीमनुतयः अत्र महती ऽथवा कणिकादेरपक्वतया संभवत्सचित्तावयवस्य पिष्टत्वादिविराधना अल्पा च तुष्टिीनिरप्यैहिकोऽप्यपायः संभाव्यते । नाऽचेतनमिदमिति बुवा नक्कणं व्रतसापेकत्वादतिचारः। . "पत्थ संगरकायगो उदाहरणम्-पगो खेत्तरक्खगो से गानोखा पकै षधिभक्तणनावना तु पूर्वोक्तव तुच्छौषधिभतणे त्वित्थं न राया निग्गी खायंतं पेच्च ततोपमिए ताखाय रन्नो कोन तुच्छौषधयोऽपक्काः दुष्पक्काः सम्यकपक्काः वा स्युर्यदाद्यौ पक्की ग्गण पोट्टे फानिय कतियाओ स्वाश्याओ होजात नवार फेणं तदा तृतीयचतुर्थीतिचाराज्यामेवास्योक्तत्वात्पुनरुक्तत्वदोषः अथ अन्नं न किंचि भत्थि एव नोजनत" इति गतम् ।आव०६०॥ सम्यक्पक्कास्तदा निरवद्यत्वादेव कातिचारता तद्भवणस्येति सत्यं सचित्तस्तत्मतिरकः, संमिश्रोऽनिषवस्तथा । किंतु यथाऽऽद्यद्वयस्योत्तरध्यस्य च सचित्तत्वे समानेऽप्यनोपुष्पकाहार इत्येते, दैतीयीके गुणवते ॥ ५० ॥ पन्योषधिकृतो विशेष एवमस्य सचेतनौषधितान्यां समानत्वेऽसह चित्तेन चेतनया वर्तते यः स सचित्तः । तेन सचित्तेन पि अतुच्छतुच्छत्वकृतो विशेषो दृश्यस्तत्र च कोमलमुमादिफनीप्रतिबद्धः संबकस्तत्प्रतिबकः । सचित्तेन मिश्रः सवलः संमिश्रः। विशिष्टतृप्त्यकारकात्वेन तुच्छाः सचित्ता एवानानोगादिना अभिषवोऽनेकाव्यसधाननिष्पन्नः पुष्पको मन्दपक्कः स चासा तुम्जानस्य तुच्छौषधिनकणमतिचारः । अथवास्वन्तावधनीरुतया याहारश्चेत्यतीचारादद्वैतीयोके हितीये स्वार्थे श्कण गुणवते चित्ताहारताज्युपगम्ता तत्र च यत्तृप्तिकारकं तदचित्तीकृत्यापि जोगोपनोगपरिमाणाख्ये केया इति शेषस्तत्र सचित्तः कन्दमूल नक्कयतु सचेतनस्यैव वर्जनीयत्वान्युपगमाद्यत्पुनस्तृप्तिजनना समर्थाअप्यौषधी सौल्येनाचित्तीकृत्य नुले तत्तुच्छौषधिनकणफलादिः पृथिवीकायादि । इह च निवृत्तिविषयीकृतेऽपि सचि मतिचारः । तत्र भावतो विरतेर्विराधित्वाद्रव्यतस्तु पालितत्वादिसादी प्रवृत्तावतिचारामिधानं व्रतसापेकस्यानाभोगातिक्रमादि ति पञ्चाशकवृत्तौ । अथ नोगोपनोगातिचारानुपसंहरन् जोगोपनिबन्धनप्रवृत्या अष्टव्यमन्यथा भङ्ग एव स्यात् । तत्रापि कृतसचिसपरिहारस्य कृतसचितपरिमाणस्य वा. सचित्तमधिकसचित्तं भोगवतस्य लकणान्तरं तमतांश्वातिचारानुपदर्शयितुमाह ॥ वाऽनाजोगादिना स्वादतः सचित्ताहाररूपः प्रथमोऽतिचारः । अमी जोजनमाश्रित्य, त्यक्तव्याः कर्मतः पुनः। भादारशब्दस्तु दुष्पक्काहार इत्यस्मादाकृष्य संबध्यः एवमत्तरे- खरकर्म त्रिघ्नपञ्च, कर्मादानानि तन्मलाः ॥ ११ ॥ वष्याहारशब्दयोजना जाव्या १ सचित्तप्रतिबकः सचेतनवृक्का अमी उक्तस्वरूपाः पञ्चातिचारानोजनमाश्रित्य त्यक्तव्या दिसंबको गुन्दादिः पक्कफलादिर्वा सचित्तान्त/जः खजूराम्रादिः तदाहारो हि सचित्ताहारवर्जकस्यानानोगादिना सावद्या हेयाः । अथ कर्मतस्तानाह-तत्र भोगोपनोगसाधनं यदूषव्यं हारप्रवृत्तिरूपत्वादतिचारः । अथवा बीजं त्यक्ष्यामि सचेतन तदुपार्जनाय यत्कर्म व्यापारस्तदपि भोगोपभोगशब्देनोच्यते स्वात्तस्य कटाहं त्वचेतनत्वाद्भक्तयिष्यामीति धिया पकं खजूरा कारणे कार्योपचारात् इति व्याख्यानान्तरं पूर्वमुक्तमेव । ततश्च दिफवं मुखे प्रक्विपतः सचित्तवर्जकस्य सचित्तप्रतिबकाहारो कर्मतः कर्माश्रित्य लोगोपनोगोत्पादकव्यापारमाश्रित्येत्यर्थः । द्वितीयः । २। संमिश्रोऽपरिणतजमादिराकदामिमीजकपू पुनः खरं कोरं यत्कर्म कोहपालनगुप्तिपालनादिरूपं तस्याज्यं रचिर्नटिकादिमिश्रः पूरणादिर्वा तिलमिश्रो यवधानादिर्वा एतदा तन्मलास्तस्मिन् खरकर्मत्यागझक्कणे भोगोपन्नोगवते मला हारोऽप्यनानोगातिक्रमादिनाऽतिचारः । अथवा संभवत्सचित्ता अतिचाराःत्रिघ्नाः त्रिगुणिताः पञ्चदशेत्यर्थः। कर्मादानानि कर्मावयवस्याऽपक्ककणिक्कादेः पिष्टत्वादिनाऽचेतनमिति बुझ्याहारः दानशब्दधाच्या जवन्ति शेषः कर्मणां पापप्रकृतीनामादानानिसंमिश्राहारो व्रतसापेकत्वादतिचारः इति तृतीयः । अनिषवः कारणानीति कृत्वा तेऽपि त्यक्तन्या इति पूर्वक्रियान्वयः। ध०३ सुरासौवीरकादिर्मीसप्रकारकामादिर्वा सुरा मद्याद्यनिस्पन्दिवृ अधिश अधुना कर्मतो यद् व्रतमुक्त तदप्यविचाररहितमनुपालव्यद्रव्योपयोगो वाऽयमपि सावधाहारव कस्यानानोगादिनाऽ नीयमित्यतोऽस्यातिचाराननिधित्सुराह । तिचारः चतुर्थः।।। तथा दुष्पक्चोऽस्विन्नपृथुकतन्दुलयवगोधू कम्मओणं समणोवासपणं इमाई पभरसकम्मादाणाई मस्थूलमएककएमुकफलादिरैहिकप्रत्यवायकारी यावता चांशेन जाणिअव्वाइंन समायरिअव्वाईजहा इंगालकम्मे १ वणसचित्तस्तावता परलोकेऽप्युपहन्ति प्रयुकादेईपक्वतया संनव- कम्मे २ सामीकम्मे । जाडीकम्मे ४फाडकिम्मे ५ दंतवाणसचेतनावयवत्वात्पक्वत्वेनाश्चेतन इति तुञानस्यातिचार शति ज्जे ६सक्खवाणिज्जे ७ रसवाणिज्जे G केसवाणिज्जे । पञ्चमः । ५ । केचित्वपक्काहारमप्यतिचारत्वेन वर्णयन्ति । अपक्कं च यदग्निनाऽसंस्कृतं एष च सचित्ताहारे प्रथमातिचारेऽन्तर्भ विसवाणिजे १. जंतपीक्षणकम्मे ११ निलंबणकम्मे १२बात तुच्औषधिभक्कणमपि केचिदतिचारमाहुस्तुच्छौषधयश्च मु- दग्गिदावणया १३ सरदहसलावसोसणया १४ असईपोमादिकोमलशिम्बीरूपास्ताश्च यदि सचित्तास्तदा सचित्ताति सया ॥ १५॥ आर० ६ अ० चार एषान्तर्भवन्ति । अथाग्निपाकादिनाचित्तास्तहि को दोष (सूत्रव्याख्या इंगाबकम्मादिषु शब्देषु) शति एवं रात्रिभोजनमद्यादिनिवृत्तिष्वपि अनानोगातिकमादिभिरतिचारा भावनीयाः। श्त्यमतिचारव्याख्यानं तत्त्वार्थवृत्या उवनोगपरिजोगाइ(ति) रित्त-उपनोगपरिजोगातिरिक्त-न० धनुसारेण शेयम् । आवश्यकपञ्चाशकवृत्यादिषु तु अपक्का. उपजोगविषयभूतानि यानि अव्याणि स्मानप्रक्रमे उष्णोदकोद्धणकतुऔषधिभक्षणस्य क्रमेण तृतीयाद्यतिचारत्वं दर्शितम् । निकासकादीनि नोजनप्रक्रमेऽशनपानादीनि तेषु यदतिरिक्तम. तत्राकेपपरिहारावित्थम् । नन्वपक्वौषधयो यदि सचेतनास्तदा स- धिकमात्मादीनामनर्यक्रियासिकावण्यविषिष्यते तदुपभोगपरिचित्तमित्यादिपदेनैवोक्तार्थत्वात्पुनर्वचनमसंगतमथाचेतमास्तदा । भोगातिरिक्तम् । आत्मोपनोगातिरिक्त, तऽपचारात्प्रमाव्रता Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभोगपरिभोगाइरित्त तिचारे, ते आत्मोपभोगातिरिकेन परेषां स्नानभोजनादिरनये दएको भवति । अयं च प्रमाद व्रतस्यैवातिचार इति । उपा० १२० । उबजोगपरिजोगाइग्ग- उपनोगपरिनोगातिरेक-पुं० उपनोगपरिगयोरतिरेक अधिकमुपभोगपरिभोगातिरेका प्रमा दचरितस्यातिचारे पर कि स्वोपयोगियोऽधिकानाम् समोदकमकादीन्युपयोगाङ्गानि तमागादिननेव्यानि अन्यथा हि खिद्वादयस्तानि प्रञ्जते ततञ्चात्मनो निरर्थककर्मबन्धादिदोष अयमवित्प्रमादतिस्थाति (९३२) अभिधानराजेन्द्रः । चारः । ६०र० । श्रा० । सपनोग्यच - उपयोग्यत्यन० उपनोगयोग्यतायाम् । स० । उनमा उपमा- स्त्री० उपमानमुपमा उप-मा-भावे-भ-भ-नेन गययेन सदशो गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपे प्रमाणभेदे ॥ उक्तं च ॥ " गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽव यवसामान्य - नाजं वर्तुलकण्ठकम् ॥ १ ॥ तस्यामेव त्ववस्थाय यदि ज्ञानं प्रवर्तते । नैतेन तुल्यो ऽसौ गोपिएक इति सोपमेति ॥ २ ॥ " श्रुतादिदेशवाक्यसमानार्योपलम्भने, संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञाने च । स्था० ४ ० ॥ उपमीयतेऽनेन दार्शन्तिकोऽर्थ इ. त्युपमा । ६० १० | सूत्र० । शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य प्रथमाप्रमहिष्याम् । स्था० वा० । खाद्यविशेषे, जी ३ प्रति० । श्दामी मदश्यमाने प्रश्नव्याकरणानां प्रथमेऽध्ययने च । स्था० १० वा० माण-उपमान न०पम। यतेऽनेन दार्शन्तिकोऽर्थ इत्युपमान दृष्टान्ते । द० १ अ० । प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधने, यथा गौवयस्तथा। सू० १० १२० उपमानोपमेयये साहश्यालम्बने । सम्म० । ( औपम्यजेदा ओवम्म शब्दे वदयते ॥ 1 उपमानस्य प्रमाणान्तरताविचारः ॥ उपमानमपि प्रमाणान्तरं तस्य लक्षणं यथा 66 _श्यमानादन्यत्र विज्ञानमुपजायते । साध्यस्योपाधितमानमिति स्मृतं पयोमुपमान पिसाऽर्थे यति यथा गययदर्शनं गोस्मरणस्येति भस्यायमर्थः येन प्रतिपात्रा गौरुपलब्धो न गवयो नवातिदेशवाक्यं गौरिव गवय इति तं तस्वादयां पर्यटतः गवयद प्रथमे उपजायते परोक्षगचि सायानं अनेन सदृशो गौरिति तडुपमानमिति । तस्य विषयः सादृश्य. विशिष्ट परोको गौस्तदिशि या सादश्यं च वस्तुतमेव प दाह । " साद्दश्यस्य च वस्तुत्वं न शक्यमववाधितुम् । यो. ऽषयवसामान्य - योगो जात्यन्तरस्य तदिति” अस्य चानधिगतार्थाधिगन्तृतया प्रामाण्यमुपपन्नं यतो गवयेन प्रत्यकेण गवय 99 विषयतरसंनिहितोऽपि भारीशिष्टं वा सादृश्यम् । यदपि तस्य पूर्व गौरिति प्रत्यक्षमतस्थापि गवयोऽत्यन्तमप्रत्यक एवेति कथं गवि तदपेकं तत्सादृश्यज्ञानम् । तदेवं गवयसदृशो गौरिति प्रागप्रतिपत्तेरनधिगतार्थाधिगन्तृपरोक्षे गवयदर्शनात् सादृश्यज्ञानम् । तदुक्तं "त स्माद्यत्रमते तत्स्याद, सारश्येन विशेषितः। प्रवेयमनुमान स्प सवासवते प्रत्यक्षावयुद्धे, सारस्य वि स्मृती विशिष्टस्यान्तोस रूपमानप्रमाणता ।। प्रत्य बधादे, स्मयंमाणे च पर्यके विशिष्टविषयत्वेनानुमा आणति" प्रत्यपत्वात् सविकल्पकत्वाचा माप्यनुमानं हेत्वभावात् । न च स एव दृश्यमानो गवयविशेषः तद्गतं वा सादृश्यं हेतुरुभयस्यापि धर्मिणा सह प्रतिबन्धाभा वानवाप्रतिबन्धो हेतुरतिप्रसङ्गात् न च गोमत्त्वं सादृश्यं गौर्वा हेतुः प्रतिहार्यैकदेशस्यात् न च सायमा प्राकृ प्रमेषेण सम्ब उवमाण प्रतिपक्ष न्यान्ययप्रतिपचिमन्तरेण देतेोः साध्यतिपादकत् देवं गतार्थदर्शने व पश्यतः सारश्येन विशिष्टे गवि पक्षधर्मत्वग्रहणं सम्बन्धानुस्मरणं यान्तरेण प्रतिपतिरुप जायमाने नानुमानेसवतीति प्रमाणान्तरमुपमानमत "न तस्यानुमानत्वं धर्मासंभवात् प्राणप्रमेयस्य सादृश्य, न धर्मत्वेन गृह्यते ॥ वयमाणं नानुमापकम् । प्रतिझार्यैकदेशत्वा - फोगतस्य न लिङ्गतः ॥ गवयश्चापि सम्बन्धा -- गोन्विच्छति सादश्यं नच पूर्वेण पूर्व एं ये एक स्मिन्नपि श्ये, द्वितीया पश्यतो बने सारन सकश्मि स्वदेवोत्पद्यतेमितिरिति नैयाचिका भूयमाणलक्षणमभिदधति प्रसिसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानमिति । श्रोपमानमिति सत्यनिर्देशः प्रससाधम्र्यादिया गम पूथिकासिकि दर्शिता श्रागमस्तु यथा गौस्तथा गवय इति एवं प्रसिकेन साधर्म्यप्रसिके संस्कारवान् पुरुषः कदाचिदराये परिभ्रमन् समानमर्थ यदा पश्यति तदा तज्ज्ञानादागमादितसंस्कार प्रबोधसङ्गतः स्मृतिगसो गयय इत्येवं रूपा स्मृतिसाद्रियार्थस गोसोऽयमिति हनमुत्पाद्यते तथेन्द्रियार्थसि तज्जनकत्वेनास्य प्रत्यक्षप्रमाणताप्रसक्तेः । न च शब्देन सार्द्धं यथो समुत्पादयदेतच्छादयते अव्यपदेश्यपदाध्यादारात अन्य पूर्व नपा प्रसङ्गस्तस्य यथोक्तफलजनकत्वाद विनानावसम्बन्धस्मृतिपूर्वकस्य परामर्शज्ञानस्य विशिफलजनानाम नमः विमानावसम्बन्धस्मृतिपूर्वकं गोदस्य गवयशब्दवाच्य नाभ्यस्यादि गोदामा तिरिति चेत् न तस्य सन्निधीयमानगोशहशपिएमविषयत्वेनाप्युपपत्ते निश्चितधान्यः साध्यप्रतिपक्षिन माना साहश्यपिएकादव्यतिरिक्तः गोसदृशसद्भावनिश्चायकं प्रमाणमस्ति न चात्र व्यतिरेकी हेतुः समस्ति सपनासत्वप्रतिपादकप्रमाणात नाचिनाभावसंधानुस्मृतितिरहितेऽपि चागमे गोसदृशो गवय इति सकृदुश्चारिते उत्तरकाल गोसदृशपदार्थदर्शनात् अयं स गवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तिर्भवतीति मानुमानमेतत् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धात्यागमन भत् ब्दस्य तज्जनकस्य तदाऽभावात् शब्दजनितं च शाब्दं प्रमाणमितिव्यवस्थितं प्रा शब्दप्रतीतत्याच्छादमिति येनुमानस्याप्येयमभावप्रक्तिः अम्मिसाम्यस्य प्रात प्रत्यप्रती नमानसादायनिसामान्ये अनुमानप्रवृत्तिरिति अ तीतार्थप्रतिपादकत्वादनुमानेन प्रमाणं भवेत् न च विशिए देशाद्यवच्छेदसाधक साधकत्वेनास्या प्रमाण्यमितरत्रापि समान स्वातयादि विधीयमानमिविषयत्वेन स्वप्रतिपाद्यमिदं प्रतिपादयति आगमस्यसचिसिपिएमविषये न भागमात् संज्ञासंबन्धः प्रतीयते ततः यशस्व साधकतमत्वं तदेव शाब्दं फलं न च विप्रतिपत्यधिकारेण संज्ञासंसिंहाने पतत्समस्तवा हिसंपन्धस्येन्द्रियेणाभिकर्षात् न सधियाविषय त्वात्तस्य तदेव संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिनियतरूपं फलं यतः समुपजायते तदुपमानं आद व सूत्रकारः सात्यसाधनमिति साध्यं विशिष्टं फलं तस्य साधनं जनकं यत् तडुपमानं एवं सारूप्यज्ञानवत्सारूप्यस्याप्यमानत्वं न पुनः संज्ञासंज्ञिसंबन्ध - ज्ञानस्य फलाभावात् न च देयादिज्ञानमस्य फलं प्रत्यक्षादिफलत्वात् । तथा हि हेयादिज्ञानं पिएमविषयं तश्चेन्द्रियार्थसन्निकर्षापज्ञायते यथा प्रत्यक्ष फलमनुमानं विशिफल जनवाद Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवमाण अभिधानराजेन्छः । उवमाण प्रमाणान्तरानिष्पाद्यविशिष्टफसजनकत्वात् प्रमाणान्तरमुपमानम् | र्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रमाणं न भवति तथा हि यथा गौस्तथा अत्र प्रतिविधानम् ॥ उपमानस्य त्वपूर्वार्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रा. गवय इति वाक्यादू गोसदृशार्थसामान्यस्य गवयशब्दवामाएयमेव न संभवति नन्वस्यापूर्वार्थविषयता प्रागुपदर्शितैव स च्यताप्रतिपत्तेरन्यथा विसदृशमहिण्याद्यर्थदर्शनादप्ययं सगत्यमुपदर्शिता नतु युक्ता तथा हि तस्य विषयः सादृश्यादिविशि वय इति संज्ञासंझिसंबन्धप्रतिपत्तिः किं न भवेत्तस्माद्यथा यो गौस्तद्विशिष्टं वा सादृश्यमुपदर्शितं तश्च भूयोऽवयवासामान्य कश्चिदङ्गदी कुण्डली छत्री स राजेति कुतश्चिदुपश्रुत्यायोगमकणप्रतिपादितं न च सामान्यं तद्योगो वा वस्तु संनव- झादादिमदर्थदर्शनादयं स राजेति प्रतिपद्यते न चासौ प्रतितीति प्रतिपादितं तत्सद्भावेऽपि प्रत्यक्तविषयतया परैस्तस्येष्टिःक पत्तिः प्रमाणमुपवाक्यादेवानन्दादिमतीर्थस्य राजशब्दवाथमुपमानगोचरत्वेनागृहीतार्थवाहित्वं प्रामाण्यनिबन्धनं नवेत् च्यत्वेन प्रतिपन्नत्वात् तथेहापि यथा गौस्तथा गवय इत्यति सादृश्यज्ञानस्य चोत्पत्तावयं क्रमः पूर्व तावद् गोगवययोर्विषाणि- देशवाक्यात्संबन्धमवगत्य गवयदर्शनात्संकेतानुस्मरणे सस्वादिसादृश्य गवि प्रत्यक्वतः प्रतिपद्यते पश्चात् गवयदर्शनान त्ययं स गवयशब्दवाच्योऽर्थप्रतिपत्तेरप्रमाणमुपमानम् । यदि न्तरं यद्विषाणित्वादिसादृश्य पिएमेऽस्मिन्नुपलभ्यते मया तत् पुनरतिदेशवाफ्यात्संबन्धप्रतिपत्ति भ्युपगम्यते पश्चादप्यय गव्यप्युपलब्धमिति स्मरति तदनन्तरं गवि विषाणित्वादिसाह- स गवयशब्दवाच्यस्तथापि प्रत्ययो न स्यात्तदपरनिमित्ताश्यप्रतिसंधानं जायते अनेन पिएमेनसदृशो गौरित्येवं च स्मात- भावात् दृश्यते च तस्माद्गृहीतग्रहणानेदं प्रमाणम् । अथामेतत् ज्ञानं कथं प्रमाणं प्रवेत् । यदि च गवि प्रत्यकेणोभयगतं तिदेशवाक्यात पूर्वाङ्गात्सदृशार्थस्य गवयशब्दवाच्यता साविषाणित्वादिसारश्यं प्राग् न प्रतिपन्नं भवेत् प्रतिपन्नमपि यदि मान्येन प्रतीता गवयदर्शनानन्तरं तु गवयविशेष तच्छन्दवाविस्मृतं नवेत् तदा गवयदर्शने सत्यपि परोक्के गवि नैव साह- च्यत्वेन पूर्वमप्रतीतं प्रतिपद्यत इति न गृहीतग्राहिता असदेइयज्ञानमुपजायेत असो विषाणित्वादिसाश्यं पूर्वमेव गवि प्रत्य- तत् सस्नेहितगवयविशेषविषयस्य शानस्य प्रत्यक्षतयोपमाकेणावगतमिदानी गवयदर्शनात् तत्रैव स्मर्यते तन्न गृहीतग्राह- नत्वानुपपत्तेर्गवयदर्शनोत्तरकालभावि त्वयं स गवयशब्दवाणात् सादृश्यकानं प्रमाणम् । अथ पूर्वप्रत्यकेण गांगतमेव साह- च्योऽर्थ इति तज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षबलोत्पन्नत्वात् स्मृतिरेव न इयमवगतं गवयदर्शनेन तु तद्गतमेवोजयगतसादृश्यप्रत्तिपत्ति- | प्रमाणम् । किं च गवयविशेषस्य गवयशब्दवाच्यता यद्यस्तु गवयदर्शनानन्तरं सादृश्यज्ञानतिबन्धनति गृहीतग्राहितया। तिदेशवाक्यान्न प्रतिपन्ना कथं तर्हि गवयविशेषदर्शन उपजाते प्रमाणमुपमानम् । असदेतत् पूर्वमुजयगतसादृश्यप्रतिपत्ती गवय कस्मादस्य तच्छन्दता यस्यैवार्थस्य संबन्धग्रहणकाले येन दर्शनानन्तरमप्यप्रतिपत्तिस्तदनुसंधानप्रतिपत्तेरप्यसंजवात् । न सह संबन्धोऽनुभूतस्तस्यैवार्थस्य तेन सह संबन्धे तच्छब्दहि गवयपिएमदर्शनानन्तरं प्रागप्रतिपन्ने तत्सादृश्येऽश्यपिाने अनेन वाच्यता कालान्तरेऽपि दृश्यते ततःसामान्येन संकेतकाल पव सरशोऽश्वप्रतिपत्तिः कदाचिदपि भवन्ति तस्मात् प्रागध्यक्काबग- संबन्धः प्रतीतः पश्चादूगवयदर्शन उपजाते संकेतमनुसृस्यायं तसादृश्ये प्रतियोगिग्रहणाद्व्यवहारमात्रप्रवृत्तिरेव तदा प्राक् तद- स गवयशब्दवाच्योऽर्थ इति प्रतिपद्यते इत्यभ्युपगन्तव्यमेतेनोप्रवृत्ति प्रतियोग्यपेकत्वात् तस्य वातादिव्यवहारवत् न च तत् पयुक्तोपमानस्तु तुल्यार्थग्रहणे सति विशिष्टविषयत्वेन संबन्धं प्रामाण्यं युक्तप्रमानामियत्ताभावप्रशक्तः एवं धूमदर्शनास्मर्यमा प्रतिपद्यत इत्यपि निरस्तं विशेषस्य संकेतकालानुभूतस्य णाग्निसंचन्धितयाऽध्यक्कानवगतप्रदेशे तदयोगव्यवच्छेदमवगम व्यवहारकालानुगमावाच्यत्वाश्च । यश्च शब्दप्रभवप्रतिपयन्ती प्रतिपत्तिरुपजायामानाऽनुमितिः प्रमाणतां यथा समासा त्तावर्थः प्रतिभाति स एकशब्दवाच्यो न त्वविशेषस्तत्र दयति न तथा सादृश्यप्रतिपत्तिःगवाख्यधर्मिप्रतिपत्तिकास पव प्रतिभालक्षणज्ञाने असतस्तत्र शब्दस्याप्रतिभासनान्न विशेषः नूयोऽवयवसामान्ययोगकणस्य सादृश्यप्रतिपत्तेस्तेन प्रत्य शब्दवाच्यतायामसौ गवयशब्दवाच्य इति विशेषस्य वाच्यकेप यथादेश इत्यादिवचनमयुक्ततया व्यवस्थितम् । किं च । प्रतिपत्तिः सादृश्यविकल्पयोरेकीकरणाद् भ्रान्तिरन्यापूर्वानुयदि सादृश्यज्ञानं गृहीतग्राहित्वेऽपि व्यवहारमात्रप्रवर्तनात् द्भताकारपरामर्श इति दृश्येयमसौ गवयशब्दवाच्य इति प्रतिप्रमाणं तर्हि वैसाश्यज्ञानमपि सप्तमं प्रमाणं भवेत् रश्यप- पत्तिः कथं भवेदतिदेशवाक्यश्रवणसमये विशेषे संबन्धाप्ररोके सादृश्यधीरप्रमाणान्तरं यदि वैधय॑मर्हति तोवम- तिपत्तेः प्रतिप्रत्यभ्युपगमे या विशेषेऽपि सामान्यत्वस्मृतिरेप्येवं प्रमाणं किं न सप्तमम् । तथा सोपानझानात कामतः वेति कुतः प्रामाण्यमुपमानस्य । यदू गौरिव गवय इति प्रथमाकान्तं पश्चादाक्रान्ताद्दीघे महत् म्हस्वं चेत्याद्यनकं- गोगवययोरतिदेशवाफ्यात्सादृश्यमात्रप्रतिपत्तिः संशासंशिप्रमाणं प्रसक्नमिति कुतः प्रमाणषटकवादः संगतो भवेत् । संबन्धप्रतिपत्तिस्तूपमानात्तदप्यसमीक्षिताभिधानं यतो गवदृश्यमानव्याक्षेपं चेदू दृष्टज्ञानं प्रमाणान्तरं तत् पूर्वमस्मादि- यदर्शनानन्तरमयं स गवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तिरुपजा. त्यादिप्रमाणान्तरमिष्यताम् । अप्रमाएये चास्य पक्षधर्म- यते इयं च तावदध्यक्षप्रतिपत्तिः फलश्रुतातिदेशवाक्यस्य त्वाचभावप्रतिपादनं सिद्धसाधनमेवाप्रमा वा प्रमाणस्या- प्रभ्रष्टसंस्कारस्य वा तत्सदभावेऽप्यस्यानुत्पत्तविशेषश्चाध्यक्षनुमानस्वानभ्युपगमादू । यदा च प्रत्यक्षेण प्रतिपशेऽपि गवा- विषयत्वानभ्युपगमाञ्च अतिदेशवाक्यस्मरणसहायस्य गवयश्वादी भूयोऽवयवसामान्ययोगं तद्वियोगवाच्यं मूढः सह- दर्शनस्य तत्प्रतिपत्तिजनकत्वे स्मर्यमाणशब्दवाच्यत्वमिशासहशव्यवहारं न प्रवर्तयति तदा विषयदर्शनेन विषयिणो त्यतिदेशवाक्यमेव तजनकमभ्युपगतं भवेत् न वर्शनं न हि व्यवहारस्य साधनात् वैरुप्यसद्भावादनुमानप्रमाणता सम- यत्राध्यक्षप्रवृत्तिमत्तत्र शब्दस्मरणसहितमपि प्रवर्तते यथा स्त्येव तथा हि गवाश्चादौ विषाणाद्यवयवसामान्ययोगसि- चखुर्शानं गन्धस्मरण सहायपरिमलप्रतिपत्तावतिदेशवाक्याच द्धियोगो वा प्रागुपलब्ध इदानीं स्मर्यमाण इति नासिद्धता संबन्धाप्रतिपत्तावपरस्य तत्प्रतिपत्तिर्निमित्तस्याभावात् अयं हेतोः प्रवृत्तिर्व्यवहारविषयश्च एवार्थोऽत्र दृष्टान्तोऽस्तीति स गवयशब्दवाच्य इति पूर्वानुभूतपरापर्शन प्रतिपत्तिन नान्वयव्यतिरेकयोरप्यभावस्ततो न वै तस्यानुमानत्वमित्या- स्यादपि त्वयं गोदृश इत्येव भवेत् न चतत्प्रतिपत्तिरन्यथानुदिपक्षधर्मत्वाद्यसंभवप्रतिपादनमसंगतव्यवहारसाधनपक्ष- पपनैव प्रमाणान्तरमुपमाख्यमेतत्प्रतिपत्तिजनकं प्रकल्पनीय धर्मत्वादेःप्रसाधनानैयायिकोपवर्णितमप्युपमानमनधिगता- यः कुण्डली स राजेति श्रोतातिदेशवाक्यस्य तदर्शनान्तरमयं Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३४ ) निधानराजेन्द्रः । उवमाण स राजशब्द वाच्य इति प्रतिपत्तेरप्युपमानफलत्यप्रसके। अथात्र तच्छब्दवाच्यता इत्यतिदेशवाक्यादेव प्रतिपन्नेति नातिप्रसस्तिर्हि गौरिव गवय इत्यतिदेशवाक्यागोसर शार्थस्य यवशब्दवाच्यतापि प्रतिपद्येति नोपमानप्रमाणफलता अयं स गवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तेः । तस्मात् स्मृतिरूपत्वादस्याः प्रतिपत्तेर्नैतस्या जनकस्य प्रमाणतेति अनुमानान्तर्भावप्रतिपादनं न दोषायेत्यलमतिविस्तरेण ॥ सम्म० । सूत्र० । उपमादोस - उपमादोष-पुं० हीनाधिकोपमाभिधानलक्षणेत्रदोषे, आ०म०द्वि० । यत्र हीनोपमा क्रियते यथा मेरुः सर्व पोपमः । अधिकोषमा वा क्रियते यथा सर्पपो मेरुसन्निभः अनुपमा वाऽभिधीयते यथा मेरुः समुद्रोपम इत्यादि । अनु० । विशे० । यथा काञ्जिकमिव ब्राह्मणस्य सुराऽपेया ॥ वृ०१३० । उमय उपमित० उप-मि- साहयानुयोगिनि यथा चन्द्रवन् तस्य चन्द्रसरस्यानुयोगित्वात् ॥ पाच ॥ उप-मि-भावेनाप्रत्ययः । उपमाने, विशे० ॥ उपमीयतेगोपमित कात्करणे निप्रत्ययः स्योपमितं क्षेत्रोपमितम् । आ० म० प्र० ॥ उपाय उपयाचितकर्मणि उपार्थिवे त । उपगम्य याचने, न० देवाराधने, स्था० १० ० । पूजाच्युपगमपूर्वक प्रार्थने, ज्ञा०८ श्र० । उवयाण - उपयान- न० सामीप्यन गमने सूत्र० १० २ अ० । लवयार- उपचार -पुं० [उपचरणमुपचारः उप-पर-घन् । । ग्रहणे अधिगमे, “उपयारसद्वचयत्यं पगडिया प्रति । उवयारोन्ति वा अहीतं ति वा श्रागमियंति वा गृहीतंति वा एगहूं" । नि० ० १ ० । चिकित्सायाम्। पूजायाम, पंचा० ६ विव० कल्प० । ज्ञा० । औ० । रा० । देवतापूजायाम्, प्रश्न० सं०३ द्वा० पत्रवणसरसुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिते " चं २० पाहु० । आराधनाप्रकारे, द० अ० । सुखकारिक्रियाविशेषे, प्रव० ६ द्वा० । अन्यक्रियाकलापे, पो० १२ विव० । लक्षणायाम, ८०७ अध्या०लणय क्यार्थत्यागेनाऽन्थार्थयोचने, असदारोपे अष्ट० । उपचरणम। श्रधर्मणि, ६०७ अध्या० । यथा जो ते धम्मसदो, सो उवयारेण निच्छरण इहं । जहसीह सहसी पाहेश्वरात् ॥ एए ॥ यस्तेषु तान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः स उपचारेण परमार्थेन निजनशासने कथं यथा सिंहः सिंहे व्यवस्थित प्राधान्येनोपचारत: उपचारेनान्यत्र माणवादी यथा सिंहमा नवकः उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्यादयः धर्मे त्वहिंसायाधानादय इति गायार्थः ॥ दश० १ अ० । व्यवहारे, स्था० ४ ना० । “णिउणजन्ते वयारकुसला" विपा० २ श्र० । उपचरितवस्तुव्यवहारे, यो० वि० । बोकव्यवहारे, झा० १ ० । जं० ॥ श्रादेशे श्र० म० द्वि० । कल्पनायाम्, विशे० । उपयारो-उपचारतस्प्रध्य कल्पनामात्रेणेत्यर्थे, “उपचार श्रो वित्तस्स विणिगमणं सरुवओ नत्थि " विशे० ॥ उपपारंग- उपचारक- पुं० प्रतिज्ञागरके नि० ० ११ ३० । उवयारग्ग- उपचाराग्र- न० उपचरणमुपचारः तेनोपचारेण करदम्भायात्रे नि० ० १ ० (तदूव्याख्या अग शब्दे उक्ता ) उवयाच्छल - उपचारच्छल न० औपचारिके प्रयोगे मुखप्रतिषे । उवरि पेन प्रत्यवस्थानरूपे उसने यथा मञ्चाः क्रोशन्ति इत्युक्ते पर प्रत्यवतिष्ठते कथमचेतना मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्थास्तु पुरुषाः क्रोशन्ति । स्या० । उपचार मित्तग-उपचारमात्रक न० लोकोपचारे एव केवले "उवचरइ कोणतितो, श्रहवा उवयारमित्तग एइ" वृ०१ उ० ॥ उवयारसय-उपचारशत- न० औपचारिकवचनचेष्टादिशते, " उवयारसयबंधणपउत्ताश्रो " । तं । नवयारोवेयन-उपचारोपेतत्व-नाम्यरूपे तृतीयेस वचनातिशये, स० । श्र० । उपयासि - उपजालि-पुं० द्वारवत्यां वसुदेवस्य धारण्यामुत्प जालिभ्रातरि सच द्वार नगर्यो वसुदेवस्य धारण्यां देव्यां जातः पञ्चाशत्कन्याभिः परिणीतोऽरिष्टनेमे रन्तिके - जितः द्वादशाङ्गान्यधीत्य षोडशवर्षपर्य्यायो मृतः शत्रुञ्जये सिद्धः । शेषं यथा गौतमस्य इत्यन्तकृद्दशासु चतुर्थवर्गे द्वितीये अध्ययने प्रतिपादितम् । अन्त० ४ ० ॥ राजगृहे नगरे शिकस्य राहो धारयां ज्यामुत्यन्ने पुत्रे च सच राजगृहे श्रेणिकस्य धारण्यां जातः अष्टकन्याः परिणायितः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके प्रवजितः एकादशाङ्गान्यधीत्य षोडशवर्षाणि श्रामण्यपरिपाकं प्राप्य कालं कृत्वा वैजयन्ते विमाने देवतयोपपत्रः डामितिथिति परिपाल्य महावि सरस्वतीति अनुरोपपातिकदशाप्रथमे पर्ने द्वितीयेऽध्ययने सूचितम्। अनु डवर उपरति स्त्री० उप-रम-किन विरती, स्था० १ डा० । - श्राचा० । स० । उबरम - उपरम् - पुं० उप-रम्- घञ्-श्रवृद्धिः । उपरमणमुपरमः। नियमे विशे० विरमे, दर्श० । जवरय - उपरत - त्रि० उप-रम्-त । निवृत्ते । कल्प० । स्था० | उत्त० । “ न हणे पाणिणं पाणे, मपवेराउ उवरए उपरतो निवर्तितः । उत्त० ६ श्र० । प्रायः सावद्ययोगेभ्यो निवृत्ते, आव० ४ श्र० । “ उबरया मेहुणा उ" उपरता मैथुनादू धर्मात् श्रष्टादशविकल्पब्रह्मोपेताः । श्राचा० २ श्रु० । उप सामीप्येन रतः । व्यवस्थिते, "एत्थोवरए मेहावी सव्वं पा वं कम्मं झोसेत्ति" श्राचा० १ ० ३ ० २० । “ एत्थो वरण ते भोसमा अय सधीति स "अत्राखिन् साथ यारम्भे कर्त्तव्ये उपरतः संकुचितगात्रः । श्रत्र चाहते धर्मे उपरपदंड उपरदाद-पुं० प्राणिनः आत्मानं वा दी व्यवस्थिते उपरतः पापारम्भात् । आचा० १० ५ श्र० । 95 ति दण्डः । स च मनोवाक्कायलक्षणः उपरतो दण्डो येषान्ते तथा । निवृत्तदण्डेषु, “उवरयदंडेसु अणुवरयदंडेसु वा सोवहिपसु वा गिरुवहिपसु वा आचा० १ ० ४ अ० १३० अवश्यमे हुए उपरतमैथुन त्रि० मैथुनापरते, " से उप्परगा समयमि वह गिरास से उवरयमेहुणे चरे" श्राचा० २० उपराग उपराग पुं० उप-रज-म्-उपरञ्जने, ग्रहणे, "ससि रविगहोय रागविसमेसु प्र० २ ० "चंदसुरोवरागो गहणं भाइ श्राव० ४ श्र० । स्था० । ( गहणशब्दे वक्तव्यता वदयते ) "" बरि- उपरि-य अत्रे हत्य मंदरयूलिया उचरि चत्तारि जोयणाई " स्था० ४ ठा० । उत्तरकाले, " गहणादुवरि पयतो " ध० २ अधि० । उपरिशदर्थे, "उकिट्टवा गांवरिसवसरणविरुवस्स " पंचा० २ विव० भ० । प्रशा० । Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरिभासा अभिधानराजेन्द्रः । नवरोह उपरिजासा-नपरिनाषा-स्त्री० गुरोर्भाषणानन्तरमेव विशेष- जवरुवरि-उपर्युपरि-अव्य० निरन्तरमर्थे, " स्वरुवरितरंगदभाषणरूपायां भाषायाम, " अंतरभासाए उपरिभासाए जं| रियप्रतिवेगचक्खुपहभोच्चरंत" प्रश्न०३ छा। किंचि" ध० २अधि। उवरोह-उपरोध-go उप० रुध्-घञ्-आवरणे, अनुरोधे, य्या. उच (प) रिम-उपरितन-त्रि० ऊर्द्धभव, स्था० १० ठा। घाते, वृ०१ उ.। वाधायाम, विशे० । संघटनादौ, "नूत्रोवरीनवरिमनवरिमगेविज-उपरितनोपरितनौवेय-पुं० नवानां प्रैवे- | हरहिए" भूतानि पृथिव्यादीनि नपरोधस्तत्संघटनादिनक्वणः । यकाणामम्तिमे, स्था० एग श्राव०४०। परचक्रेण बेष्टने,। उवरिमउवरिमगेवेन्जविमाणपत्यर-उपरितनोपरितनोवेयविमा-| प्रामादेरुपरोधे सति निकाटनादिविधिमाह । नमस्तट-पुं० नवमे अवेयकविमानप्रस्तटे, स्था० ए ठा० ।। (सूत्रम् ) गमगमस्स वा जाव रायहाणी य बाहिया । नवरिमग-उवरिमक-पुं० उपरिमा एव उपरिमकाः । उपर्यु- सेणं संनिविट्ठ पेहायं कप्पइ निग्गंयाण वा निग्गंधीण वा परिवर्तिदेवलोकनिवासिषु देवेषु, “ बहुययर उयरिमगा तदिवसं निक्खायरियाए गंतुं पमिपत्नए नो से कप्पा तं उहुंच सकप्पथूभार" श्रा०म०प्र०। विशे० । रयाणं तत्येव उवायणाइ वित्तपजो खल निग्गयो वा निम्गनवरिममाऊमगवेज-नपरिममध्यमवेय-पुं० अष्टमे प्रैवेयकदेवे, स्थान ६ ठा। थी वा तं रयणिं तत्थेव नवायणाश्नवातिएतं वा साइज्जति बरिममझिमगेवेजविमाणपत्यड-उमरिममध्यमवेयविमान- | से मुहतो वि अक्कममा णो आवज्जइ वा उम्मासिय परिहा. प्रस्तट-पुं० अष्टमे प्रैवेयविमानप्रस्तटे, स्था० ठा। रहाणं अणुग्घाश्यं ।। उपरिमहिडिमगेविज-उपरिमाधस्तनोवेय-पुं० सप्तमे वेयके, अस्य संबन्धमाह । स्था०६ ठा। नवरोहनया कीरइ, सप्परिखे पुरवरस्स पागारो । नवरिमहिडिमगेविजक्मिाणपत्थम-उपरिमाधस्तन|त्रयविमान तेण र सुत्तण सुत्तं, अणुअत्तइ जग्गहो जंव ।। प्रस्तट-पुं० सप्तमे विमानप्रस्तटे, स्था० ६ ठा० । पूर्वसूत्रे प्राकारः प्राकारपरिखा चोक्ता स च प्राकारः सपरिखेउरिमहिन-उपरिमाधस्तन-त्रि ऊधिोवर्तिनोः, "उव ऽपि पुरवरस्योपरोधः परचक्रेण वेष्टनं तद्भयाक्रियते तेन कार णेन र इति पादपूरणे ततः सूत्रमिदमारज्यते । यथावग्रहः पूर्वरिमटिले सुखुड़गपयरेसु" उपरिमो यमवधीकृत्योर्द्ध प्रत सुत्रेज्योऽनुवर्तते अव्यवच्चिन पवागच्मुन्नस्तीति भावः । असो रवृद्धिः प्रवृत्ता श्रधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरवृद्धिः यथा रोधके राजावग्रहमनुज्ञाप्य बहिर्निगम्यते प्रविश्यते वा प्रवृत्ता ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः तुझकप्रतरयोः शेषापे तथानिधीयते । अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या । सशब्दोर क्षया लघुतरयोरज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिय॑ग्लोकमध्य थशब्दार्थ अथ ग्रामस्य वा यावाजधान्या चा यावत्करणानभागवतिनोः, । भ० १३ श०४ उ०। गरस्य वा खेटस्य वा इत्यादिपरिग्रहः । एतेषामन्यतरस्य बहिः नवरिमागार-उपरिमाकार-पुं० उपरितनेषु उत्तमाङ्गादिरूपेष्वा सेना राइस्कन्धाचार रोधकं त्वासन्निविष्टं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा कल्पते कारेषु, " तेसि णं दाराणं उवरिमागारा सोबसविहेहिं रयणेहिं निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा तहिवसं निकाचर्यायां गत्वा प्रत्याउबसोनिया" रा०। गन्तुं नो नैव (से)तस्य विवक्तिस्य भिक्कोः कल्पते तां रजनी नवरियतन-नपरितन्न-न गृहस्य पीउबन्धकल्पे स्थाने, “जंबू- तत्रैवोपाददाति उपाददनं वा स्वादयात सद्विधा आद्यानिष्कामन् दीवप्पमाणा लवरियतलेण" भ०२श०८ उ०। जितसीमानं राजसीमानं च विसुम्पन आपद्यते चातुर्मासिकं नवार-नपरितन-त्रि० उपरिशब्दात् । मिडकुल्लौ भवे ।। परिहारस्थानमुद्धातिकमिति सूत्रार्थः । अथ भाष्यविस्तरः। ६३ । भवेऽर्थे नाम्नः परौ श्ल उस इत्येतौ मिती प्रत्ययौ भवत सणादी गाम्मिहिई, खित्तप्पायं इमं वियाणित्ता। इति नवार्थे श्वप्रत्ययः । ऊर्द्धभवे, प्रा०। " उवरिखे तारारूवे असिवे प्रोमोयरिय-जयवका णिग्गमे गुरुगा ॥ चारं चरति" स्था०९० अनु० । “नवरिमं सुयं वापर नव- क्वचितूमासकल्प केत्रस्थितीत सेनापरचक्रमत्र समायास्यति रिखं सुयं जहा दसवेयानियस्स आवस्सगं" नि० चू०१एन। आदिशब्दादशिवमवमौदर्य म्लेच्गदिभयं षा भविष्यति । एव. उबरुकंत-उपरुध्यमान-त्रि० उप-रुध्-कर्मणि-यक-शानन्। मादी कारणे पश्चादपि गमिष्यतीति कृत्वा प्रमागतमेव ततः समनूपाषुधेः ८।४।७। इति उपः परस्य कर्मणि को वा | केत्रान्निर्गन्तव्यं कथं पुनरनागतं तज्ज्ञायत इत्याह केषस्योत्पातः पके उपरुधिज्जंत । निरुध्यमाने, आत्रियमाणे, प्रा०। परचक्रायुपञ्चसूचकानि बिनानीत्यर्थः। तान्तिवद्दिकचक्रवानं नवरुद-उपरोध-पुं० यस्तु नारकाणामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽ- | धूमायते । अकाने तरूणं पुष्पफनानि जायन्ते महता शब्देन भूमिः कम्पते । समंततः क्रन्दितकृजिताः शब्दाः श्रूयन्ते इस्यात्यन्तरीमत्वादुपरौज इति । षष्ठे परमाधार्मिके, भ० ३ श०६ | दीनि मन्तव्यानि एवं केत्रोत्पातमम विज्ञाय निर्गन्तव्यम् । अथ ३० । तत्स्वरूपं यथा न निर्गच्छन्ति ततोऽशिवे अवमौदर्ये बोधिकनये परचक्रागमने नंति अंगमंगाणि, ऊरू बाहू सिराणि करचरणा। हातेऽपि निर्गमनमकुर्वतां चतुर्गुरुकाः।। कप्पेंति कप्पणीहिं. नवरुघा पावकम्मरया ।। ७५ ॥ आणाणो य दोसा, विराहणा होइ संजमायाए। अथोपरुडाण्याः परमाधार्मिकाणामङ्गप्रत्यङ्गानि शिरोबाहरुका असिवाहिम्मि परुविते, अधिकारो होइ सेणाए । दीनि तथा करचरणांश्च भञ्जन्ति मोटयन्ति पापकर्मणः कल्प-1 आझादयश्च दोषाः विराधना च संयमात्मविषया भवति संयनीभिः कल्पयन्ति पाटयन्ति तत्रास्त्येव पुःखोत्पादनं यत्ते न | मविराधना शुळे भक्तपाने अलन्यमाने अनेषणीयम् गृहीयादि. कुर्वन्तीति ॥ सूत्र० १७०५ अावाआ चू० । प्रश्न।। त्यादिका श्रात्मविराधना परितापमहावुःखादिका यदा वाशि Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३६) उवरोह अनिधानराजेन्धः। उवरोह वादिकं प्रतिपदं प्ररूपितं भवति तदा तत्र सेनया अधिकारः अथ जक्तार्थताधारमाह। कर्तव्यः । अशिवादिकं च प्रथमोद्देशके अध्वसूत्रे सप्रपञ्चं प्ररू- पच्छन्ना सति बहिया, अह सनयं तेण चिलिमिली अंतो। पितमिति नेह तूयः प्ररूप्यते । तच्च परचक्रागमनं यथा ज्ञायते असतीए व सनयम्मि व, धरंति अफेयरे मुंजे ॥ तथा दर्शयति॥ संवर्तस्यान्तः प्रच्चन्ने प्रदेशे नक्तार्थ न कर्त्तव्यं अथान्सः प्रच्चअतिसयदेवत्तणिमि-तमादि अवितहपवित्ति मोत्तूणं । नं नास्ति ततः संवर्तस्य यहिर्गत्वा समुद्देष्टव्यम् श्रथ बहिः निग्गमणा होइ पुव्वं, अणागते रुच्योच्चिले ॥ सन्नयं ततोऽन्तः संवर्तस्याज्यन्तर एव चिलिमिलि कां दस्या अवधिझानाधतिशयेन स्वयमेव ज्ञातं अपरेण वा अतिशयज्ञा. नोक्तव्यम् । अथ नास्ति चिलमिलिका सभय वा सान प्रकटीनिना पृष्टेन कथितं देवतया चा कयाचिदाख्यातं अविसंवादिना क्रियते । ततोऽके साधवो नाजनानि धारयन्ति । श्तरे द्वितीवा निमित्तेनाऽवगतम् आदिग्रहणेन विद्यामन्त्रादिपरिग्रहः। अथ- या आर्दकमशकेषु जुञ्जते। वा प्रवृत्तिर्वार्ता तामवितयां श्रुत्वा ततः केत्रात्पूर्वमेव निगमनं काले अपहुत्तंते, नए व सत्ये व गंतु कामम्मि । कर्तव्यं भवति । अथानागतं नातं सहसैव तन्नगरं रुकं पन्यानो व्यवच्चिन्नास्ततो न निर्गच्छेयुराप । अथवा अमीनि: कप्पुपरिजोयणाई, काउं इक्को उ परिवेसो । कारणैातेऽपि न निर्गमिताः भवेयुः । अथ वारकेण नुानानां कासो न पूर्यते नये वा त्वरितं नोक्तगेमन्नरोगि असिवे, रायपुढे तहेव ओसम्मि। व्यं यो वा संवर्ते सार्थः स गन्तुकामस्ततः कल्पस्योपरि भोज नानि कृत्वा स्थापयित्वा सर्वेऽप कमकादिषु नुअते एकच नवही सरीरतेणग-णाते विण होइ णिग्गमणं ।।। तेषां सर्वेषामपि परिनेषयत् । सानो ज्वरादिपीमितः कश्चिदस्ति तत्प्रतिबन्धेन गन्तुं न शक्यते पत्तेगं वफुगा मंति, मज्जिनगादेको गुरू वीमुं। (रोगित्ति) दुष्टरोगेण कुष्ठादिना कश्चिदत्यन्तमनिभूतःस परित्यक्तुं न पार्यते बहिर्वा अशिवं राजद्विष्टमवमौदर्य वा विद्यते ओमोणकप्पकरणं, अप्पे गुरुणेक्कतो वा वि॥ उपधिस्तेनाः शरीरस्तेना वा बहिर्गच्छत उपभवन्ति एतैः कारण प्रत्येकं यदि सर्वेषां वटुकान निमन्त्रितास्ततो ये मजिसकाः परस्प होतेऽपि परचक्रागमने निर्गमनं न भवति। रंसहोदराभ्रातरः। श्रादिशब्दादन्येऽपि ये प्रीतिवशेनैकत्र मिल न्ति ते एकतः समुद्दिशन्ति गुरुवोऽपि विश्वग् पृथक् जुञ्जते यदा एएहिय अमेहि य, ण णिग्गया कारणहि बहुएहिं । सर्वेऽपि नुक्ता यस्तत्रावमो लघुस्तेन कमठकानां कल्पकरणं विअच्छति होइ जयणा, संवत्ते गररोधे य ।। धेयम् । गुरूणां समकं कमरकंती सहन मील्येते अन्यस्तस्य पतैरन्यैश्च बहुभिः कारणैर्न निर्गताभवेयुः ततस्तत्रैव तिष्ठतां कल्पं पृच्छति । अपूर्यमाणेषु साधूनां गुरोश्च कमरकान्येकतो. संवर्ते नगररोधके च यतना कर्तव्या संवर्ती नाम परचक्रागमनं ऽपि कल्पयन्ति। श्रुत्वा स्वरकाथै यत्र जलदुर्गादिषु बहूनां प्रामाणां जनः संवर्ती- जायणस्स कप्पकरणं, हेडिझगमुत्तकम्यरुक्खे य । नूयैकत्र तिष्ठति । नगररोधकः प्रतीतस्तत्र संवर्ने यतनामाह। ते असति कमठकप्पर, कानमजीवे पदेसे य॥ संवदृम्मि तु जयणा, निक्खे जत्तट्टणा य वसहीए। नाजनस्य कटपकरणं दग्धनूमिकायां गोमूत्रनाविते वा जूनागे तम्मि जए संपत्ते, आवाजमे कण वदति ॥ कटुकवृकस्याधस्ताद्वा कर्तव्यम् । तेषां दग्धादिस्थएिमलानामसंवते तिष्ठतां भैदये भक्तार्थतायां बसतौ च यतना कर्तव्या। नावे कमकेषु घटादिकस्योपरि वा नाजनकल्प कृत्या तत्र कतस्मिश्च परचक्रमकणे भये संप्राप्ते अपाता एकेन तिष्ठन्तीति | ल्पानकमन्यत्र नीत्वा स्थएिमले परिष्ठापयन्ति । गते वा संवर्त नियुक्तिगाथा समासार्थः । पश्चात्परिमसिनजीवप्रदेशेषु परिष्ठाप्यं समये वा त्वरमाणाः । सांप्रतमेनामेव विवृणोति । स्थतिमलस्य वा अभावे धर्माधर्मास्तिकायसंबन्धिषु जीवप्रदेशेषु वइयासु व पसासु व, निक्खं काउं वसंति संवद्दे । परिष्ठापयामः इति बुर्कि विधाय अस्थएिको परिष्ठापयन्ति । गतं नकार्थताद्वारम् । वसतिद्वारमाह । सबम्मि रज्जखोने, तस्थ व य जाणियडिवे ॥ गोगादीवाघातो, अलब्जमाणे व बाहिवसमायो । संवर्ते अभिनवसन्निविष्टतया सचित्तः पृथिवीकायो नवतीति कृत्वा भिका हिरमन्ते । किंतु पूर्वस्थितासु नजिकासु वा पली वातदिसिसावयनए, अ वा उमा तेण जग्गणता ।। सुवा जिक्षां कृत्वा तत्रैव स्थापिमझे तुक्त्वा रात्रौ संवर्ते समा संवर्तस्यान्ते निराबाधे परिमिबिते प्रदेशे वसन्ति अथ तत्र गवसन्ति । अथ सर्यस्यापि राज्यस्य कोनस्ततो वजिकादि वादिभिरितस्ततस्ताफमायमानाघातो यद्वा तत्र प्राशुका प्रकमाप नास्ति तदा तत्रैव संवर्ते यानि तेषु भिकां हिण्डन्ते । प्रदेशो न सन्यते ततो बहिर्वसतौ यतो घाटिनयं तं भागं वअथ न सन्ति स्थषिमने स्थितानि तत श्यं यतमा । जयित्वा वसन्ति । अथ तत्र स्वापदन्नयं ततो यस्यां दिशि वात स्तां वर्जयन्ति येन च परचक्रनयन तत्र संघर्ते प्रविष्टास्तस्मिन् पोपनियसत्तुउदगे, गइहं पमनोवरि पगासमहे । प्राप्ते सर्वमुपकरणं गुपिले प्रदेशे स्थापयित्वा स्वयमेकतो ऽन्यत्र सुक्खादीण अखंले, न य चिंता वा सिमाघति ॥ प्रदेशे अपावृताः कायोत्सर्गेण तिष्ठन्ति । स्तेनरवणार्थ च वारकेतक्रतीमनादौ आई प्रपतति पृथुकाएकायविराधना भवेदिति एण रजनीसकलामपि जाग्रति अथ कस्मादपावृतास्तियन्तीत्याह। मत्वा याः पूपत्रिका ये च सक्तयो यश्च शुष्कौदन एवमादिक जिणलिंगमप्पमिहयं, अवाना वा वि दिस्स बजति । शुष्काव्य पटलापरिस्थिते प्रकाशमुखे भाजने गृहन्ति अथ शुष्का- यंजणिमोहणिकरणं, कमजोगे वा नवे करणं.॥ दीनां माभो न भवति । आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचको न- अचेलतासवणं जिनलिङ्गमप्रतिहतमेवं स्थितानां न कोऽप्युपाव चतरात्मानं पातयान्त तत आण गृह्यमाणेन यत्र पटलकादौ करोतीतिनावः। अथवा तेस्तेना अपावृतान् दृष्ट्वा स्वयमेव वर्ज बरण्टको लग्नस्तं सम्यक् लक्कयन्ति । गतं निकाद्वारम् । यन्ति स्तम्जनीमोहनीविद्याज्यां च तेषां स्तम्ननमोहने कुर्वन्ति Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवरोह (९३७) अभिधानराजेन्दः । उवरोह यो वाकृतयोगः सहस्त्रयोधी तेन तादृशे आकम्पे गच्चसंरकणा- मिलिकाया वा आसन्नयोरुभयोः पार्श्वयोर्भागादेकस्मिन् स्थविथै करणं शिकणं तेषां विधेयम् । गतं संवरद्वारम् । राः साधवो द्वितीये च क्षुद्धिकाः संयत्यो भवन्ति । पतञ्चाग्रे व्यअथ नगरारोधकद्वारमाह क्तीकरिष्यते ॥ संवदृणिग्गयाएं, पियट्टणे अट्टरोहजयणाए । ___ अथ तंचेव 'एगदारेत्ति' पदं व्याख्यातिवसही भत्तट्ठणया, थंमिलविमिंचणो जिक्खो ॥ दारदुयस्स तु असती, मजो दारस्स कमगजुत्ती वा। थे मासकल्पप्रायोग्या केवानिर्गत्य संवतें स्थितास्ते संवर्तनि- णिक्खमपवेसवेना, ससद्दपिंडण सज्जातो। र्गता उच्यन्ते तेषां तत उस्थितानामवस्कन्दादिनयेन भूयोऽपि यदि द्वारद्वयं न भवति स्वयं च पृथकद्वारं कर्तुं न बज्यते । संवन्निगरं प्रतिनिवर्तना भवति । यद्वा ग्लानादिभिः कारणैः ततस्तस्यैकद्वारस्य मध्ये कटकं पोत्तिका वा चिझिमिलीं दत्वा प्रथममेव नगरान्ज निर्गतास्ततो नगरवसतावष्टौमासान् रोधके हिधा विनजनं विधेयम् । तत्रान साधवो निर्गच्छन्ति अर्कन यतनया वस्तव्यं । भवति सा च यतना वसतिभक्तार्थनथएिकन- संयत्य इति। अथ संकीर्ण सा वसतिः नवा विभक्तुं बज्यते ततः विवेचननैदयविषया कर्तव्या। तत्र वसतियतनां तावदाह- परस्परं निर्गमप्रवेशवेलायां वर्जयन्ति यस्यां वेलायां संयता हाणीजाते कट्टा, दो दारा कम्गचिलिमिली वसना। निर्गच्छन्ति तस्यां न संयत्य इति निर्गच्छन्तश्च शब्दं कुर्वन्ति तं चेव एगदारे, मत्तगमुविणं व जयणाए । पिएमेन च स्वाध्यायं कुर्वन्ति शृङ्गारकथां न कुर्वन्ति । न वा रोधके तिष्ठद्भिरष्टौ वसतयः प्रत्युपेकणीयास्तासु प्रत्येक मृतुबके परन्ति । अथ स्वप्नं च यतनयेति पदं व्याचष्टे ॥ मासं मासमासितव्यं अष्टानामझामे सप्त एवं चान्या तावद्वक्त. अंतम्मि व मज्झम्पिक, तरुणी तरुणा य सव्वबाहिरतो । ध्यं यावत संयतानां संयतीनां च (एकट्टति) एकैव वसतिन मज्के मजिक्रमथेरा, खुड्डीखुड्डा य थेग य ।। वति । तत्रैकस्यां वसतौ स्थितानां वे द्वारे भवतः । अथान्तराने यास्तरुण्यस्ता अन्ते वा मध्ये वा भवन्ति तरुणास्तु सर्वे बाह्यकटकचिनिमिमिका वा वृषभाः कुर्वन्ति। अथ द्वारद्वयं न नवति तः कर्तव्याः ततो मध्ये मध्यमाः स्थविराःक्षुद्धिकाश्च साध्व्यस्ततः तत एकद्वारे तमवाधं कुर्वन्ति । कायिकभूमेरप्य नावे मात्रकेण चन्तकाः स्यविराश्वशब्दान्मध्यमास्तरुणाश्च भवन्तीत्यक्षरार्थः यतन्ते यतनया च स्वप्नं कुर्वन्ति । इति नियुक्तिगाथा समासार्थः । जावार्थस्तु वृद्धविवरणादवगन्तव्यः । तच्चेदम् । "तरुणीओ अंते अथ भाष्यकार एनामेव विवृणोति धा सुविज्जति मज्के व तत्य अंते ताव भन्न एगम्मि तरुणी नवरोहे उ अचमासे, वासासु सुमितोणि वा जति । । विजंति तासिं पारता मज्झिमातो तासिं आरतो वेरी तासि परवनरकवि पुरे, हातितिणि मास कप्पंतु ॥ प्रारतो खुड्डीतो खुड्डाणं आरतो थेराथेराणं आरतो खुड़ा। तेसिअष्टावृतुवझिकानमासान रोधयित्वारोधं कृत्वा ततोवर्षासुनृपाः स्मि आरतो मजिकमा तेसिं आरतो तरुणा एवं नवेतरुण श्रो तरु णाय अंते जाया श्याणि जर मज्के तरुणीओ उवविजंति तो तास्वभूमिमात्मीयराज्यत्तुवं गच्छन्ति साधवश्च रोधके वसन्तः पर सिन्जयतो मछिमिया उ तासिं बाहिं थेरीगो तासिं बाहिं बारुकेऽपि पुरे मासकल्पं न हापयन्ति किंतु तत्र प्रथमत पवाश वसतयोऽष्टी निक्काचर्याः प्रत्युपेकणीयाः । अथाष्टौ न प्राप्यन्ते ततः थेरा तासि उन्जयतो खुट्टीयो तासिं परिक्खोवण थेरा तसिं उभो खुट्टा तेसिं बाहि मजिकमा तेसिं परिखोवणतरुणाए जिक्खस्स व वसहीए, असती सत्तेव चउरो जा । सारतिं वसंताण जयणत्ति ॥ वेकालं नातंभे, एक्केकगस्साणगाउ संजोगा। अथ मात्रकपदं व्याख्यातिभैश्यस्य वा वसतेर्वा असतिं सप्त प्रत्युपेक्षणीयास्तदप्राप्तौ पत्तेयसमणदिक्खिय-पुरिसा इत्थी य सम्बएगत्थ । षडादिपरिहाण्या चतस्रो यावदेका प्रत्युपेक्षणीया । किमुक्त भवति बसतयो भिक्षाचर्याश्च यद्यष्टौ न प्राप्यन्ते तत एकैक पच्चमकडगचिलिमिलि, मज्के बसना य मत्तेणं ॥ परिहाण्या यावदेका वसतिरेकाभिक्षाचर्या । अत्र च एकैक- यत्रोपाश्रयाणामल्पतया राजकीय आदेशो नवेत् ये केचित्पाषस्यालाभे अलाभे वा अनेके संयोगा भवन्ति । तथाहि अष्टौ रिमनस्ते सर्वेप्यकत्रैव तिष्ठता मिति तत्र यदि प्रत्येकाः स्त्रीवसतयो ऽष्टौ भिक्षाचर्याः, अष्टी वसतयः सप्तभिक्षाचर्याः, वर्जिताः निग्रन्या शाक्यादयो दीक्तिपुरुषाः सर्वेप्येकस्यां वसअष्टौ वसतयः षभिक्षाचर्याः, एवं यावदष्टौ बसतय एका तौ स्थिताः याश्च पापविमन्यः स्त्रियस्ता अपि सर्वा एकत्र भिक्षाचर्या, एवमष्टी भङ्गा भवन्ति एते च वसतेरएकमनव स्थितास्तत श्यं यतना । यः प्रच्छन्नः प्रदेशस्तत्र साधुभिः ता लब्धाः सप्तकादिभिरप्येककपर्यन्तरेवमेवाष्टावष्टौ भङ्गा साध्वीनिश्च स्थातव्यं प्रच्छन्नस्याभावे मध्ये कएटकं चिलिमिलभ्यन्ते सर्वसंख्यया भङ्गकानां चतुःषष्ठिरुत्तिष्ठते । चतुष विकां वा वृषभाः कुर्वन्ति कायिकतूमेरभावे दिवा रात्री च हितमश्च भनक एका वसतिः एका भिक्षाचर्येति लक्षणः। साचैका वसतिः संयतानां संयतीनां च प्रथक भवति । अथो. मात्राकरणे वृषभा यतन्ते । भयेषामपि योग्या वसतिः प्रत्येक नावाप्यते तत एकत्रापि व पच्छन्न असतिनिएहग, वोड्डियनिक्खासोयसोया य । स्तव्यम् । तत्र यतनामाह पनरदव्वउड्डगादि, गरहा य सअंतरं एक्को । । एगत्य वसंताणं, पिह वारासतीयसयकरणं । प्रच्छन्नस्य कण्टकचितिमिलिकयोश्चाभावे निहवेषु तिष्ठन्ति तमज्केण कमगचिलिमिलि, तेसु न उ थेरखुड्डीतो॥ दभावे वोटिकेषु तदप्राप्ता निकुकेषु एतेष्वपि पूर्वमाशोचनादिषु संयतानां संयतीनां च एकत्र वसतामियं यतना ये द्वित्रिच. च स्थिता आचमनादिषु क्रियासु प्रचुरव्येण कार्य कुर्वन्ति तुःशालादिकं पृथकद्वारं तद्गृहं तदा तत्रान्तरे कटकं चिलमि बड़क कमकं तत्र जुञ्जते आदिशब्दादपरेणापि येन ते शोली वा दत्वा तिष्ठन्ति । पृथक्वारस्याभावे ( सयकरणंति) चवादिनो जुगुप्सां न कुर्वन्ति तस्य परिग्रहः। एवं प्रवचनस्वयमेव कुड्यं हित्वा द्वितीयं द्वारं कर्त्तव्यं गृहमध्ये च कुरुधा- स्थागहीं परिहृता भवति सान्तरं चोपविष्टा नुजते ( पगोत्ति) भावे कटकचितिमित्रिका वा दातव्या तयोश्च कटकस्य चिलि- एक खुल्लकादिः कमरकानां कल्पं करोति । Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवरोह (१३८ ) नवरोह अभिधानराजेन्द्रः । अथ पसेयसमणदिक्खियति पदं व्याख्याति । पि पापण्डिभिरगडे गर्तायां शवं परित्यक्तव्यं प्रकारवरण्डके पासमी पुरिसाणं, पासंमित्थीण वा वि पत्तेगो। वा दीर्घिकायां वा नद्यां वहन्त्यां ज्वलति प्रक्षेप्तव्यं तत एतेषां पावें परिष्ठापयन्ति । अथ न लभ्यते पार्श्वतः परित्यक्तुं ततो पासंमित्थियमाणव, एकतो होति मा जयणा ॥ धर्मास्तिकायादिप्रदेशेषु परिष्ठापयामीति बुद्धिं कृत्वा तत्रैव पाखमिस्त्रीणां पाखएिमपुरुषाणां वा प्रत्येकं स्थितानां पा- | प्रक्षिपन्ति । अथ राशा वितीर्णेस्थण्डिले परिष्ठापनाविधिमाह। स्वमिस्त्रीपुरुषाणामेकतः स्थितानां वा श्यं यतना भवति।। अन्नाए परलिंग, जवओगंवा तुलेतुमामेत्थं । जे जह असोयवादी, साधम्मी वा वि जत्थ बाहिं वा । पाते नड्डाहो वा, अयसो पत्यार दोसो वा ॥ सा णिदुयाय हुद्दकालोण, बुग्गहोणावसज्माओ ॥ यद्यसी तत्राज्ञातस्तदा परलिफ्रक्रियते तश्योपयोगाद्वा सान्तये यथा अशाचवादिनो ये च जीवादिपदार्थास्तिक्यवादित्वेनै- मुहर्सलक्षणं तोलयित्वा प्रतीक्ष्य कर्तव्यं नो मिथ्यात्वं गकवाफ्यत्वेन च साधूनां सामिकास्तेषु तेषां मध्ये साधुभिर्वा- मिष्यामीति कृत्वा यो जनज्ञातस्तत्र परलिङ्गंन करोति मा सः कर्तव्यः यदा च तत्र द्वयोरपि शैस्ययोः शुरुकालो भवति उड़ाहो भवेत् उडाहो नाम पते मायावन्तः पापा वान परोपतदा निभृता निर्व्यापारा जवन्ति । श्दमेव व्याचष्टे न विग्रहाः घातकारिणश्चेति इत्थं तेषामुडाहेजायमान प्रवचनस्याप्ययशः स्वपक्केण परपकेण वा सह कत्रहो न कर्तव्यो नैव च तदानीं- प्रवादो भवति प्रस्तारदोषश्चकुलगणसंघविनाशलक्षण उपस्वाध्यायो विधेयः । गता वसतियतना । भक्तार्थयतनापि पउ जायते । एतद्दोषपरिहरणार्थ स्वलिङ्गेनैव परिष्ठाप्यते । रदवडगाई इत्यादिना तदेवोक्ता । अथ भिशाहारमाहअथ स्थएिमलयतनामाह । न वि को वि कवि पुच्चति, णितंब हिअंब अंतो वा । तं चेव पुब्ब जणितं, पत्तेयं दिस्समाण कुरुकुयाय । प्रासंकित पमिसेहो, णिकारणकारणे उ जतणे य ।। थंमिससक्खहरिए, पवायपासे पदेसेसु ॥ बोधके अन्तर्नगराभ्यन्तरादहिर्निर्गच्छन्तं बहिः कटकाद्वा स्थएिकसं तदेव पूर्वजणितम् “अणावायमसंबोए" इत्यादिना नगरान्तःप्रविशन्तं न कोऽपि कंचित्पृच्छति । तत्र स्वेच्छया यथा पीछिकायामुक्तं तथैवाशपि मन्तव्यम् । प्रथमस्थण्डियामा बहिरन्तर्वा भिक्षामटन्ति । यत्र पुनराशङ्कितं क एष कुतो वा भै शेषेषु गच्कृतां प्रत्येक मात्रकग्रहणं भवति सागारिकेण चह आगतो वेश बहिर्गतः सन् किमपि कथयिष्यति किमर्थ वा निर्गच्छति ! ईदृशे आशङ्किते निष्कारणे प्रतिषेधे न गन्तव्यं श्यमाने कुरुकुर्या कर्तच्या एवं बहिः स्थएिमने बज्यमाने यतना अथ बहिर्न लज्यते निर्गन्तुं ततो यन्नगराज्यन्तरे स्थपिमलमनु कारणे तु यतना वक्ष्यमाणा भवति । इदमेव भावयति । कातं तत्र यानि तृणानि शुष्कानि तेषु व्युत्सृजति तेषामनावे पउरमपाणगमणा, चउरो मासा हवंति ग्याया। दरमसिनेषु मिश्रेषु तदप्राप्ती हरितेषु सचित्तेष्वपि व्युत्सृजति । मोत्त इयरे य चत्ता, कुलगणसंघाय पत्थारे । अत्र च प्रत्येकानन्तस्थिरास्थिरादियतना सर्वाप कर्तव्या । प्रचुरानपाने लभ्यमाने यदि बहिर्गच्छति तदा चत्वारो यथैव नियुक्तौ प्रणिता । अथ प्रपाते गायां नदीतटे प्राकारोप- मासा अनुद्धाता भवन्ति आझादयश्च दोषास्तेन साधुना स रि वा राज्ञाऽनुज्ञातं तत पतेषां पार्वे व्युत्सृजन्ति यदि सर्वथैव स्वकीय आत्मा इतरे वाऽभ्यन्तरवर्तिनः साधवः परित्यक्ता स्थापिकसं न बज्यते अधश्च तूमि न पश्यन्ति ततो गर्तादिप्रदेशे भवन्ति तत्र स बहिः सैन्ये गतः पृच्छयमानेऽपि यदा किमपि प्वपि व्युत्सृजन शुकः "अथ पत्तयदिस्समाणो कुरुपायत्ति" पदं नाख्याति तदा चारकोऽयमिति मत्वा गृह्यते । अभ्यन्तरव्याख्याति ॥ वर्तिनस्तु अमीषांसहायिनः प्रवजितोऽयं निर्गतस्तेन भेदः प्रदत्त पढमा सइ अमो , तरणे गिहियाणवादि आभोगं । इति कृत्वा गृह्यन्ते। एवं कुलगणसंघप्रस्तारोऽपिराक्षा क्रियते पत्तेयमत्तकुरुकुय, दिवं च पउरं गिहत्येसु ।। ततो निष्कारणे न गन्तव्यम् ॥ तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीणवञ्चआवातं । अंतो अनब्जमाणे, असणमाईसु होति जइतव्वं । इत्थी नपुंसकेसु वि, परं सुहो कुरुकुया सेव ।। जावंतिए विसोधी, असवमादी अलाने वा ॥ गाथाद्वयमपि पीठिकायां व्याख्यातम् एषा उच्चारयतना अन्तर्मध्ये प्रासुकैषणाये अनन्यमाने पञ्चकपरिहाणिक्रमेणैभणिता ॥ अथ शरीरे विवेचनयतनामाह षणादिषु दोषेषु नगराज्यन्तर एव यतितव्यं यावत् यावन्तिकापच्चमपुधभणियं, विदिपायमिनमुक्कहरिए य । दिरूपेषु विशोधिकोटिदोषेषु यतमानश्चतुर्लघुप्राप्तो जवात तथा प्यलम्भे अमात्यमादिशब्दाद्वा न श्रमान श्रकादीन् वा प्रज्ञापअगमवरंमगदीहिय, जमाण पासे पदेसेसु ॥ यन्ति ते यद्यविशोधिकोटिदोषैर्दुष्टं प्रयच्छन्ति तदा तदपि गृयद्यसौ कालं गतः साधुस्तत्र केनापि न ज्ञातस्ततोऽन्तर्मुहू हते न पुनर्बहिर्गन्तव्यम् । अथ तथापि न बज्यते ततः ॥ तप्रमाणे उपयोगकाले अतीते अन्यलिङ्गं कृत्वा प्रच्छन्नमल्प आपुच्छित आरक्खित, सेट्ठी सेणावती रायाणं । सागारिकं स्थण्डिले परिष्टाप्यते अथ शातस्तदा (पुव्वभणियत्ति) यदि नगरानिमो न लभ्यते प्रत्यपायो वा निर्ग दिग्गमणविट्ठमूत्र, नासा य तहिं असावज्जा । तानां भवति ततो नगराभ्यन्तरे पूर्वमिहैव मासकल्पप्रकृते आरक्तिकः कोट्टपामस्तमागच्छन्ति । वयमत्र संस्तरामस्ततो परिष्ठापनिका निर्युक्तौ वा यो भणितो विधिस्तेनोपाश्रये वाड बहिनिर्गच्छता द्वारं प्रयच्छत यद्यसौ घूयात् मा निर्गच्छत । परदक्षिणस्यां दिशि परिष्ठापयन्ति। अथ तस्यां न लभ्यते ततो अहं भवतां पर्याप्तं दास्यामि ततो गृह्यते । अथ श्रूयात् नास्ति राजवितीर्थमनुशातं यत् स्थण्डिलं तत्र परिष्ठापयन्ति । अथ मे किंचिद्भक्तं दातव्यं युष्मांश्च विसर्जयन राको विन्नेमि । ततः स्थागडले हरितानि भवन्ति ततः शुष्कतृणेषु तदभावे मिश्रेषु | श्रेष्ठिनं पृच्छत ततः श्रेष्ठिनमापृच्छन्ति । एवं सेनापतिममात्य तदप्राप्तौ हरिनेष्वपि परिष्ठापयन्ति । अथ राज्ञाभिहितं सर्वैर- राजानं वा पृच्छन्ति ततो यदि राझाऽपि विसर्जितास्तदा निर्गम Jain Education Interational Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरोह अन्निधानराजेन्मः। उवल नं कुर्वन्ति द्वार पालानां च साधवो दयन्ते यथा एतान् दृष्टरू- बह्वर्थसंग्राहिका नियुक्तिगाथा । अथैनां नाष्यकृद्विवृणोति । पान् कुरुन निवाग्रहणार्थमेते निर्गमिष्यन्ति प्रवेशयिष्यन्ति वा न सावगसमि हाणे, न वि ते कतरं इए य जत्तहुँ । किंचिङ्गवर्विक्तव्यम्।तत्र च बहिर्गतैरसावद्या भाषा भाषितव्या। ते समतीमा सोए, बड्डगकुरुयादिसिं चेव ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयति । यत्र श्रावकः श्राविका वा पतद्वयमापयदि तं साधुसामाचामा बच्चह दाहामि, संकाए वाणविंति निग्गंतुं । रीकुशलं तत्र स्थाने नक्तार्थयन्ति तदलाभे यत्रैकतरं साधुं सादाणम्मि हो गहणं, अणुसहादीणि पमिसेधे ।। माचारिचतुरं तत्र समुद्देष्टव्यमेकतरस्यापि खेदज्ञस्यानावे श्तप्रारक्षिकादयः पृष्ठाः सन्तो भणन्ति मा व्रजत वयं भक्तं रेषु अखेदज्ञेष्वपि श्रावकेषु यथा नरुकेषु वा नक्तार्थयितव्यम् । दास्यामहे ते च भेदशङ्कया साधूनां निर्गन्तुं न ददति ततो तेषामभावे अटव्यामाझोके अशङ्कनीये सप्रकाशे प्रदेश समुयद्यविशुद्धमपि ते प्रयच्छन्ति तदा तस्य ग्रहणं कर्तव्यम् । दिशति । वट्टककुरुकुयादिकाऽनुरूपा सैव यतना कर्तव्या । अथ पडिसेहेत्ति भक्तं न च निर्गन्तुं ददति ततोऽनुशिष्टिधर्म- शैवस्तु यदि कोऽप्युपतिष्ठते तदा न प्रवाजनीयः । अथ कोऽपि कथादीनि प्रयुज्यन्ते ॥ स्वयमेव लिङ्ग कृत्वा प्रविशति ततो वक्तव्यं वयं गणितानामाङ्क बहिया विगमेळणं, आरक्खितमाहियो तहिं णिति । ता एव द्वारण निर्गतास्ततस्तं तत्र गतः सन् गृहीत्वा विनाश यिष्यत एव मुक्तेऽपि यद्यसावागच्छति तदा हारं प्राप्ता द्वारपालं हितणद्ववारिगाही, एवं दोसा जढा होति ॥ नणन्ति न जानीमो वयं कमप्येनम् । अस्मानेतान् रष्टरूपान् कुरुत । बहिरपि गता एवमेवारक्षिकश्रेष्ठिप्रभृतीन गमयित्वा प्रशाप्य तत्र भिक्षामटन्ति एवं कुर्वद्भिर्हतनष्टचारिकादयो दोषाः तत्तुट्टियवाहहो, पुणरविधत्तुं अधिति पज्जत्तं ॥ परिहता भवन्ति । ये साधवो बहिः प्रस्थाप्यन्ते ते अमीभि अणुसकीदारोटे असो वसती जयं अंतं ॥ गुणैर्युक्ता भवन्ति ॥ एवं जक्तपानं पर्याप्तं गृहीत्वा नतार्थिता कृता न जना वाहापियधम्मे दधम्म, संबंधविकारिणा करणदक्खे । मितास्तद्भुतन्यूनभाजनाः पुनरपि नगरं अधियन्ति । प्रविशपमिवत्तीय कुकरे, तब्लूमे पेसए बहिता ॥ न्ति । यहि द्वारस्थो द्वारपालो मार्गयति पौद्गनिकां मे यच्चत प्रियधर्मणो दृढधर्मणश्च प्रतीतान् (संबंधत्ति ) येषामन्तर्बहि- | ततोऽनुशिष्टिः कर्त्तव्या । अन्यो वा यदि कोऽप्यनुकम्पया ददा ति । तदा न वारणीयः तस्या सत्यनावे यदन्नं प्राप्तं तहीयते। श्र स्वजनसंबन्धो भवति । अविकारिणो नाम नोद्भटवेषान | रुके वोच्चिने वा-होरोह दो वि कारणं दीवे । बा कन्दर्पशीलास्तान् करणदवान् भिवाग्रहणादिक्रियासु परिच्छेदवतः । प्रतिपत्तिः । प्रतिवचनप्रदान तत्र कुशलान् (तंभू इहरा वारियसंका, अकालनरवेदमादीसु॥ मित्ति) यो बहिः स्कन्धावार प्रागतस्तस्य नूमौ जातवर्द्धितान् अथ निर्गतानांद्वारं रुकंस्थागतं गमागमौवाव्यवच्छिन्नीततस्तपवंविधान साधून बहिः प्रेषयेत् । 'नासायतहिं असेवेज्जति' तो द्वयेऽपि आज्यन्तरा बाद्याश्च साधवो द्वारस्थस्य मार्गकारणं पदं व्याचिख्यासुराह दीपयन्ति । आज्यन्तरा ब्रुवते अस्माकं माधवो निर्गता पहिश्वकेवति य आसहत्थी, जोधा धमं वि कित्तियं एगरे । रुद्धाः बाद्या वते वयं कारणे भिक्कायां बहिनिर्गताः परं धारा णि निरुकानि इतरथा यदि न कथयन्ति ततोऽकाले रात्री वा परितंतमपरितंती, नागासेणावणविजाणे ।। विकावे वा यद्यवस्कन्दोधादिः तदादीनि तदा चारिकशङ्का नवेबाह्यस्कन्धावारसत्काः पृच्छेयुः नगराज्यन्तरे कियन्तोऽश्वा | त ये साधवो निर्गतास्तेऽत्र न प्रविष्ठास्ते नचारिकास्ते आगता हस्तिनो योधा वा सन्जिताः सन्ति धान्यं वा कियनगरेऽस्ति प्रासीरनिति । नागराः पौराः सेना वा परितान्ता रोधकेण 'ठियाउपरितांतो अ. बाहिं वसिनकाम, अंतिणती पेवणा अणिच्चंते । तुहिया' एवं पृटे वक्तव्यं न जानेऽहम् । ब्रवीरन् तत्रैव च सन्तः कथं न जानीत । साधवो युवते ॥ गुरुगा पराजयजए, वितियं रुके व वोच्छिरो॥ सुणमाण विमो सज्का-यज्माणनिच्चमा उत्ता। बहिर्निर्गतानां कोऽप्येकश्चिन्तयेत् युक्तोऽस्मिन्नेववारके वासो सावजं सोऊण वि, णहु सन्जाइक्खिओ जतिणो ॥ न जयः प्रविशााम अत्र सूत्रमवतरति एवं बहिर्वसन्तं प्रज्ञापयवयं स्वाध्यायध्यानयोर्नित्यमायुक्ताः सन्त शृणुतोऽपि वार्ता न्ति आर्य ! सूत्रे प्रतिषिकं वर्तते वहिर्वस्तं द्वयोर्जिनराजाझयोतरं न शृणुमः। अपि च सावधं श्रुत्वाऽपि यतीनामन्यस्याख्या रतिकृतो भवति । एवं प्रज्ञाप्य नगरं प्रवेशयन्ति । अथ नेच्छन्ति तुं न बज्यते । न युज्यते। अन्तः प्रविष्टस्य तु यदि कोऽपि पृच्छ प्रवेषु ततः ( पेवणत्ति ) वनान्मोटिकया शेषैः स प्रवेषनीयः ति तदा वक्तव्यं निकाद्युपयोगेन न ज्ञातमन्तर्बहिश्व साधा यदि न प्रवेशयान्त ततश्चत्वारो गुरुकाःकदाचिदाज्यन्तराणां परा रणमिदमुत्सरं"शृणोति बहु कर्णाज्यामक्विन्यां बहु पश्यतिान च जयो ऽपरेषां च जयो नवेत् तत पनिनेंदः प्रदत्त शति शङ्कया र; श्रुतं सर्व भिकुराख्यातुमईति” एवं नैक्ष्यमटित्वा पर्याप्ते सं प्रस्तारदोषा नवयुः द्वितीयपदमत्र जपात बहिर्निर्गतस्य सर्वजाते सति किं कर्तव्यमित्याह ॥ तोऽपि नगरं निरुहंगमागमः सर्वथैव व्यवच्छिन्न ति कृत्वा तत्रा. जत्तढाणसलोए, मोत्तूणं संकिता गणाइ । पि वसनं शुकः । वृ. ३०॥ सच्चित्ते पमिसेधो, अतिगहणं दिहरूवाणं ।। नवरोहि (ण )-नपरोधिन्-त्रि०पीमाकारिणि, आव०४ अ०। जक्तार्थ न वा जनमालोके प्रकाशे नवति । यानि शडितानि जवल-उपल-पुं० चप-बा-आदाने, टङ्काापकरणपरिकर्मणा योचरिकादिशङ्काविषयनूतानि यानि गुपिबानि स्थानानि तानि ग्ये पाषाणे, प्रज्ञा० १ पद । जी० । गएमशैलपाषाणखएमादिमुक्त्या तेषु न विधेयामित्यर्यः। यश्च सचित्तः प्रवाजितुमुपतिष्ठते रूपे पृथ्वीकायनेदे, उत्त०३६ अ०। दग्धपाषाणे, भ० ५२०२ तत्र प्रतिसिहासन प्रव्राजयितव्यः किं तु ये पूर्व द्वारपालेन दृष्ट- जा चिन्नपाषाणे, वृ०४ उ० । सामान्यतः पाषाणे, विशे० प्रा० रूपाः कृतास्तेषामेवान्तिकगमनं भूयः प्रवेशो भवति एषा म०प्र० । कर्करे, अष्ट। Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४०) उवलंन अन्निधानराजेन्द्रः। नवलद्धि उववंच-उपनम्न-पुं० उप-बभ-घञ्-मुम् । लाने, विशेझाने करलाभः तथाहि शशब्दं श्रुत्वाऽपि न तेषामेषा लब्धिरुपजाच । जीवाद्युपत्नम्नो वाच्यः । आ० म०प्र०। यते यथायं शङ्खशब्द शक्ति एवं शेषेन्द्रियेष्वपि जावनीयम् । संनवन-उपलब्ध-त्रि० उप-बन्न-क्त । परिझाते, " अहणं स झिनां पुनरर्थ पकाकरमर्थोपसम्भकास एवाक्षरबानो यथा शङ्खहोश उघनको, तो पेसंति तहानूपहिं अन्नानच्छेदं पेहेहि" सूत्र० शब्द इति निश्चये पुनर्भजना शङ्खशब्द एवायं शार्ङ्गशब्द एवाय१७०४ अ० २००। यथावस्थितस्वरूपेण विझाते, दशा मिति वा निश्चयगमनं स्याद्वा न वा एवं शेषेडियेष्वपि भाव१० अ०।रा । नीयम् ॥ ०१०। अथोपलब्धि प्रकारान्तरतो दर्शयति । उपलब्धेरपि दैविध्यमनवनकपुप्यपाव-उपलब्धपुण्यपाप-त्रि उपलब्धे यथावस्थित विरुकोपलब्धिर्विकोपलब्धिश्चेति । न केवलमुपसमध्यनुपलस्वरूपेण विझाते पुण्यपापे येन स उपलब्धपुण्यपापः । तत्वतो ब्धियां भिद्यमानत्वेन हेतोद्वैविध्यमित्यपेरर्थः अविरुकोविविज्ञातपुण्यपापे, दशा० १० अरा। रुरुश्वात्र साध्येन साई रुष्टब्यस्ततस्तस्योपलब्धिरिति । आनवलकि-नपनधि-स्त्री० उपसम्भनमुपलब्धिः काने, विशे०।। द्याया भेदानाहुः । तत्राविरुकोपलब्धिर्विधिसिकौ षोदेति ॥ उपलब्धिः पञ्चविधा "सारिक्खधिवक्खे विवक्खोभवे अोवमा तानेव व्याख्याति । साध्येनाविरुझानां व्याप्यकार्यकारणपूर्वगमतो य” उपलब्धिः सादृश्यतो विपक्षत उन्नयधर्मदर्शनत औप- चरोत्तरचरसहचराणामुपलब्धिरिति । ततो व्याप्या विरुकोपम्यत श्रागमतश्च ।। अधुना सादृश्यतो विपक्वतश्चोपलब्धिमाह-- सब्धिः कार्याविरुकोपलब्धिः कारणाविरुद्धोपलब्धिः पूर्वच सारिक्खविवक्खेहि य, सजति परोक्खेवि अक्खरं कोई। राविरुझोपलब्धिः उत्तरचराविरुकोपलब्धिः सहचराविरुको. सवोरबाडुलेरा, जह अहि नउत्रा य अणुमाणे ॥ पलब्धिरिति षट्प्रकारा जवति । तत्र हि साध्यं शब्दस्य परिकश्चित्परोकेऽप्यर्थे सादृश्यादकर लभते यथाशावलियबाहुले. णामित्वादि तस्याविरुकं व्याप्यादि प्रयत्नान्तरीयकत्वादि व. याकराणि तथाहि कश्चित् शावक्षेयं दृष्ट्वा तत्सादृश्यात्परोकें क्ष्यमाणं तपसब्धिरिति । अथ निदान षते। विधिसिकौ स्वभा. ऽपि बाहुलेय तदकराणि लभते । ईदृशो बाहुलेय इति तथा क वकार्ये एव साधने साधीयसी न कारणं तस्यावश्यतया काविद्वैपक्ष्येण परोकेऽर्थे तदकर लभते । यथा अहिदर्शनान्नकुला- योत्पादकत्वान्नावात्प्रतिबकावस्थस्य मुर्मुरावस्थस्य वा धूमनुमाने नकुनदर्शनाद्वा सर्पानुमाने। संप्रत्युभयधर्मदर्शनत उन्नया स्यापि धूमध्वजस्य दर्शनात् । अप्रतिबद्धसामर्थ्य मुग्रसामग्रीक करलब्धिमाह-- च तगमकमिति चेदेवमेतत्कि तु नैतादृशमाग्दशावसातुं शएगत्ये नवनके, कम्मि वि उन्नयत्थ पच्चओ होइ। क्यमिति तन्निराकर्तुं कीर्तयन्ति । तमस्विन्यामास्वाद्यमानादा घ्रादिफलरसादेकसामग्रयनुमित्या रूपाद्यनुमितिमभिमन्यमान. अस्सतर खरसाणं, गुलदहियाणं सिहरिणी॥ रभिमतमेव किमपि कारणं हेतुतया यत्र शक्तेरप्रतिस्खलनमपरकस्मिश्चिदुभयधर्मा याऽनुमितिः उभयावयवयोगिनि वा एक- कारणसाकट्यं चेति । तमस्विन्यामिति रूपाप्रत्यवत्वसूचनाय स्मिन्नर्थे उपलब्धे उन्नयत्र परोके प्रत्ययस्तदक्करबाभो नवति यथा शक्तरप्रतिस्वजनं सामर्थ्यस्याप्रतिबन्धः । अपरकारणसाकल्यं अश्वतरे वेगसरे दृऐ खरस्य अश्वस्य च प्रत्ययस्तदकरलाभो शेषनिः शेषसहकारिसंपर्कः रजन्यां रस्यमानात्किन रसात्तजनयथा वा सिखरिण्यामुपलब्धायां गुरुनः प्रत्ययो गुरुद- कसामयनुमानंततोऽपि रूपानुमानं नवति। प्राक्तनो हिरूपक्षणः ध्य करनाभः। सजातीयरुपान्तरक्षणबवणं कार्य कुर्वन्नेव विजातीयं रसन्नऔपम्यत उपलब्धिमाह-- क्षण काये करोतीतिप्राक्तनरूपकणात्सजातीयोत्पाद्यरूपक्कणान्त रानुमानं मन्यमानैः सौगतरनुमतमेव किंचित्कारणं हेतुर्यस्मिन् पुव्वं पिअणुवलको, घिप्पइ अत्यो न कोइ अोवम्मा। सामर्थ्याप्रतिबन्धः कारणान्तरसाकल्यं च निश्वेतुं शक्यते ॥ नह गो एवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो॥ अथ तन्नैतत्कारणात्कार्यानुमानं किं तु स्वभावानुमानमदः ईदृशपूर्वमनुपलब्धोऽपि कोऽप्यर्थ औपम्याद् गृह्यते यथा गोरवं रूपान्तरोत्पादसमर्थमिदं रूपमीझारसजनकत्वादित्येचं तत्स्वमवयो नवरं किंचिद्विशेषेण परिहीनः कम्बलकविरहित इत्यर्थः। भावभूतस्यैव तजननसामर्थ्यस्यानुमानादिति चेन्नन्वेतदपि अयं नावमा यया गौस्तथा गवय इति श्रुत्वा कालान्तरेणाट. प्रतिबन्धाभावकारणान्तरसाकल्यनिर्मयभन्तरेण नोपपद्यत एव व्यां पर्यटन गवयं दृष्ट्वा गवयोऽयमिति यदकरजातं लभते पषा तन्निश्चये तु यदि कारणादेव कस्मात्कार्यमनुमास्यते तदा कि श्रौपम्योपलब्धिः । इदानीमागमत जपलब्धिमाह-- नम पुश्चरितं चेतस्वी विचारयेत् । पवमस्त्यत्र गयात्रादिअत्तागमप्पमाणेण, अक्खरं किंचि अविसयत्थेवि । त्यादीन्यव्यभिचारनिश्चयादनुमानान्यवेत्युक्तं नवति । अथ पूर्वजविया नविया कुरवो, नारगदिवलीय मोक्खो या ।। चरोत्तरचरयोः स्वनावकार्यकारणहेत्वनन्तरभावाद्भेदान्तरत्वं भाताः सर्वज्ञास्तत्प्रणीतागम प्राप्तागमः स एव प्रमाणमाप्ता समर्थयन्ति । पूर्वचरोत्तरचरयोर्न स्वनावकार्यकारणभावी तयोः गमप्रमाणं तेन अविषयेऽप्यर्थे किंचिदकर लभते यथा नव्योऽज कालव्यवहितानुपझम्नादिति । साध्यसाधनयोस्तादात्म्येसति । व्यो देवकुरव उत्तरकुरवो नारका देवलोको मोकः चशब्दादन्ये स्वजावहती तपुत्पत्तौ तुकार्य कारणे वाऽन्तर्भावो विभाज्यते नच भावाः । श्यमत्र भावाना । आप्तागमप्रामाण्यवशात्तस्मिन चैतत्तादात्म्यं हेतु समसमयस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वपरिणामितस्मिन् वस्तुनि योऽक्षरलाभो यथा जव्य इति अजव्य इति त्वादेरुपपन्न तत्पत्तिश्चान्योन्यमध्यवहितस्यैव धूमधूमध्वजादे: देवकुरव इत्यादि सा आगमोपलब्धिः । एषा सर्वायुपन्धिः समधिगता नतुव्यवहितकास्यातिप्रसक्तः । ननु कामव्यवधानेसंझिनां भवति असंझिनां तु का वार्तेत्यताह-- इपि कार्यकारणनावो नवत्येव । जाग्रदोधप्रबोधयोभरणारिणनस्मोण असन्नीण, अत्धं लंभे वि अक्खरं नस्थि । योश्चतथा दर्शनादिति प्रतिजानानं प्रझाकरं प्रतिक्तिपन्तिानचाति क्रान्तानागतयोर्जाग्रहशासंवेदनमरणयोः प्रबोधोत्पत्तौ प्रतिकाअत्यो चिय मन्नीणं तु, अक्रवरं निच्चए भयणा ।। रणत्वं व्यवहितत्वेन निर्व्यापारत्वादिति। अयमर्थः जाग्रहशासंअसंझिनामर्थलाभेऽपि अर्थदर्शनेऽभ्युत्सन्नेन एकान्तेन नास्त्य- वेदनमतीत सुप्तावस्थोत्तरकालभाविज्ञानं वर्तमानं प्रतिमरणं वा Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । बसाई नागतं भुवावीणादिकमरिहं सांघातिक प्रतिवे पारपराङ्मुखमिति कथं तत्तत्र कारणत्वमवलम्बेत निर्व्यापारस्यापि तत्कल्पने सर्व सर्वस्य कारणं स्यात् । श्दमेव भावयन्ति ॥ स्वव्यापारापेकिणो हि कार्ये प्रति पदार्थस्य कारणत्वव्यवस्था कु स्वप्रतीति श्रन्ययम्यतिरेकायसेयो हि सर्वत्र कार्यकारमानावस्ती व कार्यस्य कारणव्यापारसज्यपेावेव युज्येते कुम्नस्य कुम्भकारव्यापारसज्य पेज्ञाविति । ननु चातिकान्ताना गोषत्वेऽपि व्यापारः कथं न स्यादित्यारेकमधरयन्ति व्ययतयोस्तयोर्व्यापार परिकल्पनं न्याय्यमतिप्रसरिति । सयोरविकान्तानागतयोग्रह शाखंवेदनमरणयोः प्रतिप्रसकि मेव नावयन्ति । परंपराव्यवहितानां परेषामपि तत्कल्पनस्य निवारयितुमशक्यत्वादिति परेषामपि रा दीनां तत्कल्पनस्य व्यापारकल्पनस्य । अथान्वयव्यतिरेकसमधिगम्यः कार्यकारणभावस्ततो व्यवधानाविशेषेऽपि यस्यैव कार्य मन्वयभ्यतिरेकावनुकरोति तदेव तत्कारणमन्यथा व्यवधानाविशेपेऽपि किन कृशानुपत्र स्थित एच शर्कराणनिकरोऽपि धूमकारणं स्वाततो नातिप्रसति नन्दन्ययस्तद्भावे भा. यः स चात्रायारूपेच जसा वेदनमरणयोरभाव एयस बेदा तत्कार्योत्पादन अथवा तोरेव तयोस्तत्कार्यो पत्तेरन्वयः कर्ष न स्यादिति साईडशोऽयं रावणादिभिर यस्यास्य सत्यमस्त्येव व्यतिरेकतरिक्त इति कोऽयं म्यतिरेको नाम तदभावेऽभाव इति जमदारना कथं स्यात्तदभाव एव सर्वदा प्रबोधादेर्भावात् स्वकाले स्वभावतस्य नास्त्येवेति कथं व्यतिरेकः सिद्धिमधिवसेदिति न व्यवहि. शयोः कार्यकारणभावः संजयति सहचरहेतोरपि स्वनायकार्यका रणेषु नान्तर्भाव इति दर्शयन्ति । सहचारिणोः परस्परस्वरूपपरियानाम्यानुपपत्तेः सहोत्पादेन तत्पतिविप सहचर हेतोरपि प्रोक्तेषु नानुप्रवेश शर्त । यदि हि सहसंचरणशीलयोस्तुनोस्तादात्म्यं स्थात्तदा परस्परपरिहारेण स्वरुपा रोपनो न भवेदच तदुत्पत्तिस्तदा पौर्वापर्येोपादासहोत्पादो न स्यात् नचैवं ततो नास्य प्राप्तेषु स्वनावकार्यकार इदमन्दमन्युत्पत्तिनिमित्तं साध पाल्पाविरुकोपब्धिमुदाहरन्ति ध्वनिः परिण तिमान् प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद्यः प्रयत्नानन्तरीयकः स परिणतिमान्यथा स्तम्नः यो वा न परिणतिमान् स न प्रयत्नानन्तरीयको यथा वान्ध्येयः प्रयत्नानन्तरीयकञ्च ध्वनिस्तस्मात्परिणतिमानिति व्याप्यस्य साध्येनाविन्दस्वेपािधयैण चेति । अत्र ध्वनिः परिणतिमानिति साध्यधर्म्मविशिष्टधनिधानरूपा प्रति प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति हेतु यः प्रय स्नानन्तरीयक इत्यादि तु व्याप्तिप्रदर्शन साधय स्तम्भयेीष्टान्ती प्रयत्नानन्तरीयका व्यनिरित्युपनयस्तस्मात्परिणतिमानिति निगमनम् । यद्यपि व्याप्यत्वं कार्यादिदेनामप्यस्ति साध्येन व्याप्यत्यन्तयापि तथेह विहितं कि तु साम्येन सदात्मीतस्वकार्यादिरूपस्य प्रयत्नानन्तरीयकस्यादे स्वरूपमित्यदोषः ॥ अथ कार्याविरुकोपलभ्यादनुदाहरन्ति अस्य गिरिनिकुजे धनजयो धूमसमुपलम्नादिति कार्यस्येति । साम्येनाविरुद्धस्योपलब्धिरिति पूर्वसूत्रादिदोसर धानुवर्त्त जीयम् भविष्यति वर्षे तपाविधचारिचायिलोकनादिति कारण स्येति तथाविधेति सातिशयोन्नतत्वादिधर्मोपेतत्वं गृह्यते । उदेयति मुहम् तिष्यतारका पुनर्वयदर्शनादिति पूर्वपर स्पेसि तिष्यतारकेति पुनद्पूर्वपूर्व फागुनीनामुपलब्धेरित्युत्तरचरस्येति । अस्ती सद् उपलबि कारफलरूप विशेषः समास्वाद्यमानरसविशेषादिति सहचरस्येति साहात्योढा विरुद्धका परंपरा पुनः से भवन्तीयमचान्तर्भावनीया तथा कार्यकार्याकोप कार्या विरुद्धपलब्ध अन्तर्भवतीति योगः अनूदत्र कोशः कमशोपलम्भादिति कोशस्य हि कार्य कुशूलस्तस्य चाविरुदं कार्य कुम्भ इति एवमन्याऽप्यत्रैवान्तर्भावनीया ॥ श्रधुना विरुद्धोपलविभेदाना॥विश्कोपलब्धिस्तु प्रतिषेधप्रतिपक्षी सप्त प्रका रोते । प्रथमप्रकारं प्राक् प्रकाशयन्ति । तत्राद्या स्वभावविरुकोपनधिरिति । प्रतिषेध्यस्यार्थस्य यः स्वभावः स्वरूपं तेन सड़ यत्साचाद्वितस्योपसन्धिःस्वनावपिकोपादाहर न्ति नात्येव सर्वकान्तोनेकान्नस्योपसम्भादिति । स्पष्टो दि सर्वकामानेकान्तयोः साकाविरोधी प्राधानावयोरिव । मन्ययम नुपलब्धिहेतुरेव युक्तो यावान् कश्चित्प्रतिषेधः स सर्वोपलब्धिशिति वचनादिति चेतन्मही मसमुपसम्नानाच स्यात्र देतुत्वेनाउपन्यासात् । अथ बिरुरूयोः सधैकान्तानेकान्तयो स्पर्शयोरिव प्रथमं विरोधः स्वभावानुपलब्ध्या प्रतिपन्न इत्यनुपसन्धिमूलत्वात्स्वभावविरोधोपलब्धेरनुपलब्धिरूपत्वं युक्तमेवेति सायमणि भूधराई। साधने च धूमादायभ्यते सतीमनुमानं प्रवर्तत इति प्रत्यकत्वादम प्रत्यहं किन स्यात् विरुकोपराकारं प्रद शेषानाख्याति । प्रतिषेध्यवियनामुपसन्धयः पदिति प्रतिषेध्येनार्थेन सह ये साक्काद्विरुद्धास्तेषां ये व्याप्तादयो व्याप्यकार्यकारणपूर्वपरोत्तरचरसद बरास्तेषामुपलब्धयः पहन यन्ति विप्लप निर्विरुरू कार्योपनर्विकारो लब्धिर्विरुरू पूर्व चरोपलब्धिर्विरुद्धोत्तरच रोपलब्धिर्विरुरूसहचरो पलब्धिश्चेति । क्रमेणासामुदाहरणान्याहुः । विरुद्धव्याप्तोपलब्धियथा नास्त्यस्य पुंसस्तत्वेषु निश्चयस्तत्र संदेहादिति । अत्र दि जीवादित्यच निश्वयः प्रतिषेयस्तनिधस्तेन व्याप्तस्य संदेहस्योपलब्धिः । विरुष्कार्योपलब्धिर्यथा न विद्य तेऽस्य क्रोधाद्युपशान्तिर्वेदनविकारादेरिति वदनविकारस्ताम्रशादिरादिशब्दादधरणादिपरिषदः । अत्र च प्रतिषेच्या क धापामस्तद्विरुद्रस्तदनुपशमस्तत्कार्यस्य वदनधिकारादेश्य सन्धिः विकारणोपधिया नास्य महरसत्यं च स मस्ति रामकालुष्याका द्विसानसंपन्नत्यादिति प्रतिषेयेन सरु सत्यं तस्य कारणं रागद्वेषाच्याक द्वितानं तत्कुरितानिधाना। सियासत्यं साधयति तथ्य सिभ्यसत्यं प्रतिषेधति । विरोधानामिष्यति पुष्पतारा रोहिण्युध्मादिति । प्रतिष ध्यायेद्गमस्तद्विरुको मृगशी बौदयस्तदनन्तरं पुनर्वयुदयस्यैव प्रायात्पूर्वदि पस्तस्योपरिचरो पलब्धिर्यथा नोदगान्मुहूर्तात्पूर्वं मृगशिरः पूर्व्वफाल्गुन्युदयादिति । प्रतिषेत मृगशीपदयस्तमयोदयोऽनन्तरमादयादेरेव जाततरबरः पूर्वयुदयस्तस्पर्धिह चरोपलब्धिर्यथा नास्त्यस्य मिथ्याज्ञानं सम्यग्दर्शनादिति प्रतिबेभ्येन हि मिथ्याज्ञानेन सह विरुद्धं सम्यग्ज्ञानं तत्सहचरं स म्यग्दर्शनं तच्च प्राण्यनुकम्पादेः कुतश्चिल्लिङ्गात्प्रसिभ्यत्सहश्वरं सम्यग्वानं साधयति । इयं च सप्तप्रकारापि बिरुकोपलब्धिः ॥ प्रतिषेध्येता साकाविरोधमात्यांचा परंपरचा विरोधाम्रयणेन त्वनेकप्रकारा विरुकोपलब्धिः संभवत्यत्रैवानियुक्तैरन्तनघनीया । तद्यथा कार्यविरुकोपलब्धिर्व्याप कविकोपलब्धिः का रणपिरितियं भवति कार्यवि Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवलखि दोपधिचा नात्र देदिनि दुःखकारणमस्ति सुखोपना दिति साकादन सुखबोविरोधः प्रतिषेण्यस्यभावेन तु दुःखकारणेन परंपरया । व्यापक विरुकोपलब्धिर्यथा न सनिकर्षादिः प्रमाणमज्ञानत्वादिति साकादत्र ज्ञानत्वा ज्ञानत्वयोविरोधः प्रतिषेध्यस्वभावेन तु ज्ञानत्वव्याप्येन प्रामाण्येन व्यवहितकारणापलन्धिया नासी रोमादिविशेषवान् समीपवर्तिधायक विशेषत्वादिति । अत्र पायकः सा शीतेन प्रतिषेभ्यस्वनावेन तु रोमहर्षादिना शीत कार्येण पारम्पर्येण ये तु नास्त्यस्य दिमजानितरोमहर्षादिविश घूमात् प्रतिषेधस्य हि रोमहर्षादिविशेषस्य कारणं हिमोनिस्तत्कार्य धूम इत्यादयः कारणविकायच रोपवेदास्ते ययासंभवं विश्वकार्योपान्त वनीयाः । र० ३ परि० ॥ उबलब्न- उपझज्य-अव्य० विज्ञायेत्यर्थे, “धम्मस्स सारमुव बकरे य मायं " ० २ अधि० ॥ ज्ञेये प्राप्ये च । वाच० । उवलभत्ता - देशी - तथेत्यर्थे, दे० ना० ॥ उन्नयमग्गा - देशी-वलये, दे० ना० ॥ वलय- देशी सुरते, दे० ना० ॥ ( ९४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवल लिय- उपलक्षित- न० उप-बब- भावे-क-क्री कितविशे. पे, ज्ञा० ए अ० । उपलाउ - उपलातुम् ही तुमामि व्य०१४० लालिमाण उपायमान की मादिवासनया (का० १०) सम्पादनाद्वा क्रियमाणे उपभ श० ३३ उ० । “ उवगाइजमाणे जघनालिजमाणे " रा० ॥ उप (तु) उपसम्पत्र० घरमुखस्य तत्वधानकस्य च गोमयादिना र जञ्जति, ज्ञा० ७ ० ॥ उनि पनि त्रि० उप-लिए १० ३ श्र० । गोमयादिना लिप्ते, झा० १ ० ॥ श्र० म० प्र०] दशा०] बी) उपलीन पी-प्रच्छ, "उन लीला मेहुणधम्मं विवत " आचा० २ ० ॥ उवबुत्रं - देशी - सलज्जे, दे० ना० ॥ उवलेव-नपक्षेप पुं० उप-लिप् घञ् । उपलिप्यतेऽनेनेत्युपलेपः कर्मबन्धे, औ० नावे घञ् । आश्लेषे, सूत्र ०१ श्रु० १ ०२ उ० । संश्लेषे, आचा० १० २ अ० २ ० । उनलेवा उपलेपन० उप-मिप्-न्युद-गोमयादिना सेपने, - ग० २ अधि० । “उपत्रेवश सम्मज्जणं करेइ” भ०११२०० उ० "नो उवलेवणादि काऊ णञ्चणं करेश” नि० चू०१ उ० औ०॥ उववज्जमाण - उपपद्यमान- त्रि० यथास्वमुत्पादस्यानेष्वन्यनगरस्योत्पद्यमाने, " चडाईं बायरकापार्ह नववजमाणेहिं लोगे फुगे" स्था० ४ ग० ॥ उपवाद्यमान- त्रि० वादित्रे, कल्प० ॥ काम उत्पतिकाम समुपासी " जो जीवो नववज्जिकामो" सूत्र० २ ० १ अ० । उववज्जित्ता - उपपद्य-अव्य० उप पद् ल्यप् । उत्पादकेत्रं गत्वेत्यर्थ भ० १७ श० ६४० । उबवण - उपवन न० नवनासन्नवने, ज्ञा० १ अ० । उपनाम-उपपन्न- शि० उप-प उत्पने, “उपयोमासम्मि लोगम्मि "उत० ० "दोच्चं पुढवीए नारगावना" उववाय मि० ० ११० । युक्त्या घटमानके, सूत्र० १ ० १ ० । सड़ते पंचा०वि० उप्रेतेि "उचो पावकम्मुण पापकर्मणा उदीर्णः प्रेरितः । उत्त० १०अ० । प्राप्ते, भावे कः । उपपाते, न० १४ श० १ ८० । पत्ता-पत्र उपपातकसरि "देषलोगे देवतार - तारो जवंति " औ० । स्था० ॥ उवात उपपारी श्री० उप-पपपाते, जन्ममि स्था० २ ० । संभवघटने, । विवाहितार्थसंभवव्यवस्थापने, विशे० युकी, "उपपत्तियां तद्भावग्रसाधिका सा स्वयम्यतिरेकादिति श्रममोपपति का सम्पूर्ण विधित्रणम" अनु० सङ्गती देती, उपाये, प्राप्ती, सिकौ, वाचol विषये, "विसवत्ति वा संगति वा उबवत्तित्ति वा एगठा श्रा० चू० १ अ० । 33 उववस्य - उपवस्त्र न० अङ्गप्रोक्कणसाधके धौतवस्त्रव्यतिरिक्के द्वितीयेवले सो श्रीमान्दारिताको य पत्रे न शक्नोति साम्बाम्बेन करोति किं या नेति १५७ प्रश्ने यदि सर्व्वथोपवस्त्रकरणशक्तिर्न स्यात्तदा चालेनापि करोतीति सेनप्र० ४ उला० । उववाय-उपपात - पुं० उप पत् घञ् हट्टादागतौ, फलोन्मुखत्वे, नाशे, उप समीपमुपपात विषयदे साचस्थाने "आसा सियरे गुरूणमुववायकारए” उत्त० १ ० । समीपे, “श्रारणा नववायवयणनिदेशकरे" व्य० द्वि० ४ ० । सेवायाम्, । "श्राणोववायवयण णिसे चिति" भ० ३ ०३३० । आज्ञायाम, "ठववातो णिद्देसो, आणाविणओ य होति एगट्टा" इति वचनात् " व्य० द्वि० ४ ० । उपपतनमुपपातः । देवनारकाणां जन्मनि, “एगे सववाए" उपपात एक यवनवत्। स्था०१ ठा०| कल्प० । अकामनिर्जरादिजनिते किल्विषादिदेवनवे, नारकन च । स्था० ३ वा० | दर्श० स० । आचा० । अणु० । प्राइजवे, प्रज्ञा० १६ पद । "दोराहं नववाए पत्ता तंजहा देवागं चैव रश्यामं चैव द्वयोजयस्थानयोरुपपतनमुपपातो वर्नसम्म लक्षणजन्मप्रकारद्वय विलक्षणो जन्मविशेषः । स्था० २ ० । स च भावि तथा क्षेत्रोपपातो भयोपपात तत्र क्षेत्रमाकाशो यत्र नारकादयो जन्तवः सिकाः पुरुला वा श्र पतिले भचकर्मसम्पर्क नैरधिकत्वादिकः पार्थः सम्भ पति कर्मर्तिनः प्राणिनोऽस्मिथिति भय इति व्युत्पत्तेः नो भवः प्रययतिरिक्त कर्मसम्पर्कसम्पायनेकित्वादि रहित इति जावकः । स च पुत्रः सिको वा उजयस्यापि यथोक्तलकण नवातीतत्वात् । प्रज्ञा० १६ पद । (१) उपपाते संग्रहः । (२) गतीनामुपपातविरहः । (३) सान्तरमिरन्तरोपपातः । - ( ४ ) एकसमये कियन्त उपपातास्तत्र नैरयिकाद्येकोनच स्वारिंशीयानामुपपातविचारः । (५) नैरविकादीनामात्मोपक्रमादिना उपपातचिन्तनम् । (६) कतिसञ्चिताकतिसञ्चितानामुपपातः एषामल्पबहुत्वविचारः । (७) पदकसमर्जितोत्पादस्तदल्पबहुत्वविचारा । ८ ) द्वादशसमर्जिताः । (९) चतुरशीतिसमर्जिताः । असुरकुमारादीनां भेदादिनिरूपं च । Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय (१०) नैरविका नैरवित्पद्यमानानां स्थित्यादि च । (९४३) उपस्थितिभयग्रहणादयः । अभिधानर जेन्द्रः । (११) कृतादिविशेषनिकेन्द्रियादीनामुपपातचिन्तनम् । तत्र प्रथमद्वितीयादिसमयकृतयुग्मविचारः । (१२) राशियुग्मक्षुद्रकयुग्मादिविशेषणेन नैरयिकादीनामुपपात विचारः । (१३) भव्यदेवादीनामुपपानचिन्तनम् । (१४) नैरयिकादीनां स्वतोऽस्वतो वा उपपातचिन्तनम् । (२५) रविका कति तनेरधिका कुत उत्पद्यन्ते । मतिदेशथ। (२३) नैरविण देशस्वर्वतो या उपपातः । (१६) भव्यद्रव्यदेवादयः कुत उत्पद्यन्ते । (१७) महदेवानां द्विशरीरेषूपपादविचारा । (१८) नैरविकादयः कथमुत्यन्त इति चिन्तनम (११) समुधातविशेष केन्द्रियाणामुपपात चिन्तनम् । (२०) पृयादीनां समवहत्य देवलोकेषूपपातः । (२१) राधिकादिषूपपातनचिन्तनम् । - याचित्पत्ति चिन्तनम् । पृथ्वीकायिकेषु पालेश्याविषयविचारः । (२२) लेश्यावस्वेनोपपातश्चतुर्विंशतिदण्डकस्य शेषपदाना (२४) गर्भगतस्य मृत्या देवलोकेपपातः । (२५) कुतो देवा देवलोकेषूपपद्यते। (२६) सोपोर कुमारयोः शोभनाशोभनयस्थम । (२७) नैरयिका नैरविकेषूपपचानां कचिदस्यतरो ऽपरो महाबेदतः । (२८) पूर्वोधि काहीनामा पुष्करसंवेदन | (२६) भाग सबै उपपन्नपूर्णः । (३०) अविवितथामस्यानां देवलोपपातः । (१) सत्वानामुपपातविरहादयश्चिन्त्यन्ते । तत्रादौ इयमधिकारसंग्रहणि गाथाबारसचवीसाई, संतरयं एगसमयको व । जब्बट्टणपरजविया - जयं द्वेव च आगरिसा || प्रथमं गतिषु सामान्यत उपपातविरहोद्वर्तनाविरहस्य च द्वादश मुर्ताः प्रमाणं समन्तरं नैरधिकादिषु पारि या विरस्य चतुवैिशति गतिषु प्रत्येकमादी वक्तव्याः । ततः ( संतरत्ति ) सान्तर नैरयिकादयः उत्पद्यन्ते निरन्तरं येतितरमेकसमयेन नरविकादयः प्रत्येक कति नृत्पद्यन्ते कति चोद्वर्तन्ते इति चिन्तनीयं ततः कुत उत्पद्यन्ते नारकादयः इति चिन्त्यते तत ( उव्वट्टण त्ति ) नैरयिका दय उत्ताः सन्तः कुत्रोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं तदनन्तरं कति ज्ञागावशेषेऽनुयमानायापि जीवाः पारमि कार्य तथा कतिभिरापर्यंत आचक इति वितायाम फक्त एाः संग्रहणी गायासंक्षेपा (२) एतदेव क्रमेण विवरीषुर्गतीनामुपपातविरहमाहनिरयगणं ते केवरिया वाप ता गोयमा ! जहां एक समयं उक्कोसेणं वारसमुदुन । तिरियगणं जंते केवयं कालं विरहिया उपा पचता ? गोमाज एवं समयं पार समुना मयांका विराय जयवाण ! ! देवगणं उबवाय गोमा जनेणं एवं समयं उकासेणं भारसमुदुता व कार्य विरहिया उपवाणं पता ? गोयमा ! जहन्ने एवं समयं उकासेणं बारसमुदुत्ता । सिद्धिंग ई जंते! केवइयं का निरामिणा पहला १ गां माग्ने एवं समयं उसे उम्मामा निरयगईयां भ केवइयं कालं विरहिया उच्चट्टाए पत्ता ? गोयमा ! जहमें एगं समयं उकासेणं वारस मुहुत्ता मायगई नंते! केप का विरडिया उपट्टणाए पकता ? गोयमा ! जहन्नेर्ण एवं समयं उके मेणं बारममुदुत्ता एवं तिरिया देवगइए वि ।। निरयगतिर्नाम नरकगतिमा जीवस्य सौदयिको भावः स चैकः सप्तपृथिवीव्यापि नेति । एकवचनेन सप्तानाञ्च पृथिवीनां परिग्रहः णमिति वाक्याबङ्कारे नदन्तेति गुर्वामन्त्रण परम कल्याणयोगिन् ! (केवस्यति ) कियन्तं कालं विरहिता शु न्या प्रप्ता उपपातेन उपपतनमुपपातस्तदन्यगतिकानां सत्वानां नारकत्वेनात्पाद इतिज्ञावः तेन प्रज्ञप्ता प्ररूपिता जगवता श्रन्यैश्व ऋपनादिनिस्तीर्थकरैः एवं प्रश्ने कृते भगवानाह । गौतम ! जघन्यत एकं समयं यावत्कर्षतां दशमुहूर्तात्रय प्रेरक श्राह । नन्वेकस्यामपि पृथिव्यामग्रे द्वादशमुहूर्त्त प्रमाण उपपातविरहो न वक्ष्यते चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिप्रमाणस्य वक्ष्यमाणस्वात् ततः कयं सर्वपृथिवी समुदायेऽपि द्वादशमु प्रमाणम् । प्रत्येकमनाचे समुदायेऽनावादिति न्यायस्य श्रवणात् । तदयुक्तं वस्तुतत्वापरिज्ञानात् । यद्यपि हि नाम रत्नप्रनादिष्वेकैक निर्मा दिप्रमाण उपपात वरदो पहले तथापि या सप्तापि पृथिव्याः समुदिता उत्पपातविरहचिन्त्यते तदा स द्वादशहा एस अन्यतेादशमुहूर्तानन्तरमवश्यम न्यतरस्यां पृथिव्यामुत्पादसम्भवात्तथा केवल वेदसोपलब्धेः । यस्तु प्रत्येक समुदायावायास कारण कार्यधर्मानु गमचिन्तायां नान्यत्रेत्यदोषः । यथा नरकगतिद्वादशमह कर्पत उपपासेन विरदिता उक्ता एवं तिर्यमनुष्यदेवगत योऽपि । सिगतिस्तत्कर्पतः पएमा सानुपपातेन विरहिता एवमुझर्तनाऽपि नवरं सिद्धानोद्वर्त्तन्ते तेषां साद्यपर्यवसितकालतया शाश्व तत्वादिति सिद्धिरुद्वर्तनया विरहिता वक्तव्या। गतं प्रथमद्वारम् । दानीं चतुर्विशतिरिति द्वितीय द्वारमनिधित्सुराद(१) रयप्पना पुढविनेरइयाणं जंते ! केवइयं कालं विरहिया नववा पत्ता ? गोयमा ! जहनेणं एवं समयं नकोसे ची मुहुत्ता | सकरप्पनापुढविणेरइयाणं ते! केवइयं का विरहिया उच्चारणं छाता ? गोयमा ! जहने व समर्थ होमे सतराईदियाणि वायुपनाए पुदवीए ऐऐइयाण जंते! केवश्यं कालं विरहिया नववारणं पत्ता गोया ! जम्नेणं एवं समयं उक्को अधमासं । पंकपजापुढविणेरड्याणं जंते ! केवइयं कालं विरहिया जनवाएं पम्प्रत्ता ? गोयमा ! जहमेणं एवं समयं उक्कोसे मासं । धूमप्पजापुढविणे रइयाणं जंते ! केवइयं काविरहिया बागां पाता गोयमा जमे समयं उक्कोसेणं दो मासा तमादविशेयानं केवश्यं कालं विराहिया नववाएं पत्ता ? गोयमा ! जहां Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४४) उववाय अभिधानराजेन्द्रः। उववाय एक समयं नकोसेणं चत्तारि मासा । अहेसत्तमा पुढवि- उक्कोसेणं राईदियसत्तं । आणयदेवाणं पुच्चा गोयमा ! रश्याणं नंते ! केवश्यं काझं विरहिया नववाएणं पसत्ता जहन्नेणं एक समयं कोसेणं संखेज्जमासा । पाणयदेवा १ गोयमा ! जहाएं एग समयं उक्कोसेणं जम्मासा (२) णं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं संअसुरकुमाराणं मंते ! केवइयं काझं विरहिया उबवाएणं प- खजमासा । आरणदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एक सत्ता ? गोयमा! जहन्नणं एगं समयं उकोसणं चनव सं समयं उक्कोसेणं संखेज्जवासा | अच्चुयदेवाणं पुच्चा गोयमुदुत्ता । एवं (३) नागकुमाराणं (1) सुवासकुमाराणं मा ! जहोणं एवं समयं उक्कोसणं संखेजवासा । हेटिम(५) विज्जुकुमाराणं (६) अग्गिकुमाराणं (७)दीव- गविज्जाणं पुछा गोयमा ! जहमेणं एक समयं उकोमणं कुमाराणं (0) उदहिकुमाराणं (ए) दिसाकुमाराणं संखेजाई वाससयाई । मन्किमगेविज्जाणं पुच्चा गोयया ! (१०) वाउकुमाराणं (११) यणियकुमाराण य पत्तयं जहम्मेणं एवं समयं उक्कोसेणं संखेज्जाइं वाससहस्साई। जहन्नेणं एग समयं नकोसेणं चउवीसं मुहुत्ता । (१२) नवरिमगविजाणं पुच्चा गोयमा ! जहन्नणं एक समयं पुढविकाझ्याणं जंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं नकोसणं संखजाई बामसयसहस्साई । विजय-जयंतपात्ता ? गोयमा! अणुसमयविरहियं नववाएणं पसत्ता जयंत अपराजिय-देवाणं पुच्चा गोयमा !जहन्नणं एक समय (१३) एवं आउकाइयाण वि (१४) तेउकाझ्याणवि . नकोसणं असंखेज कानं । सबहमिच्छदेवाणं पुच्चा गो(१५) वाउकाइयाण वि (१६) वणस्सइकाइयाण वि यमा ! जहन्नेणं एक समयं नक्कामेणं पलिंग्रोवमस्स संखेअणुसमयविरहिया नववारणं पसत्ता।(१७) बेदियाणं जइलागं | सिकाणं नंते केवश्यं काझं विरहिया सिकजंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाए पमत्ता गोयमा! यण्याए पसत्ते? गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं उकासेणं जहम्मेणं एकं समयं नकोसणं अंतोमहत्तं । एवं (१७) सम्मासा । स्यणप्पजापुढाविनेरइयाणं ते ! केवइयं कालं तेइंदियाय (१५) चरिंदिया य । (२०) सम्मुच्चि विरहिया नवट्टणाए पत्ते ? गोयमा! जहमेणं एक समयं मपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहमणं एक समयं उक्कासणं उकासणं चउचीसमुहत्ता एवं सिकवजा उबणा विजाअंतोमुटुत्तं गम्नवकंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जते ! पियव्वा जाव अत्तरोववायत्ति नवरं जोइसियवेमाणिएम चयति अनिझावो काययो ।। केयश्यं काझं विरहिया उववाएणं पत्ता गोयमा! जहमेणं "रयणप्पभाए" इत्यादि पारसिकम्। नवरमत्रारकर्षविषयाश्मा एक समयं नकोसणं वारसमुदत्ता। (२१) सम्मुच्छिमम संग्रहणिगाथा "चवीसयमुहुत्ता, सत्तयराइंचिया पक्खो य। पास्साणं ते केवइयं कालं विरहिया उववाएणं माता? मासोएको पुनियो, चचरो उम्मास नरपसु ॥१॥कमसो कोगोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कासेणं चउवीसं मुदुत्ता। सेणं, चनीसमुहृत्तभवणवासीसु । अविरहिया पुढवाई, विगन्जवकंतियमगुस्साणं पुच्चा गोयमा ! जहमेणं एक गाणं तो मुहुत्तं तु ॥२॥ सम्मुच्छिमतिरिपणिदिय, एवं चियगम्भवारसमुहत्ता ॥सम्मुछिमगन्जमया, कमसोचउवीसमयं नकोसणं वारसमुहुत्ता। (३२) वंतराणं पुच्छा गोयमा! सवारसया ॥ ३ ॥वणजोश्ससोहम्मो-साणकप्पचनवीसश्मजहमेणं एक समयं डक्कोसेणं चनवीसं मुलुत्ता । (२३) हुत्तायो । कप्पं सणकुमारे दिवसाण वावीसई महत्तानो ॥४॥ जोइसियाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एक एमयं उकोसे- माहिदे राईदिय-वारसदसमुहत्तबंभलोगाम्मि । राईदियभणं चउवासं मुहुता । (२४) सोहम्मकप्पदेवाणं ते! | खतेवी-सुमंतर होति पणयाझा॥५॥ महसुक्कम्मिअसई, स हस्सारिसयं तपो न कप्पपुगे । मासा संखेजा तह, यासा संकेवश्ये कानं विरहिया नववाएणं परमत्ता ? गायमा ! खेज सवरिदुगे ॥६॥हिदिममज्किम उपरिम, जह संखसया जहन्नम् एकं समयं नक्कासेणं चनवीसं महत्ता । ईसाणे सहस्तक्वाई । वासाणं विन्नेमो, उक्कोसणं बिरहकालो।।७॥ कप्पे देवाणं पुच्चा गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उकासेणं कारो संखोश्रो, विजयाइसु चसु हो नायव्यों । संखेजो पवसओ, जागा सञ्चहसिक मि" ||G ॥ प्रशा०६ पद । चवोस मुटुत्ता। सणंकुमारदेवाणं पुच्चा गोयमा ! जहन्नणं बालतवे पविका, उक्कमरोसा तवेण गारविया । एक समयं नकोसेणं नवराईदिया वीसमुहुत्ताई ।। मांहिंददे वेरेण य पडिबद्धा, मरिनो अमुरेसु गच्छति ॥ ७ ॥ पाणं पुच्चा गोयमा ! जहमेणं एकं समयं उकोसेणं रज्जुग्गहविसभक्खण, जलजलणपवेसतण्हछुहदुहयो । बारसराईदियाई दसमुहुत्ताई । बनलोए देवाणं पुच्चा गिरिसिरिपडणाउ मुया, सुह भावा हुंति वितरिया १०॥ भोयमा ! जहम्मेणं एक समयं उकासेणं अफतेवीसं राई तावस जा जोइसिया, चरगपरिव्वाय बंभलोगो जा। दियाई । लतगदेवाणं पुच्चा गोयमा ! जहमेणं एगं समयं जा सहसारो पंचिंदि-तिरिय जा अच्चुत्रो सड्डा ॥११॥ उकोसेणं पणयानीसं राइंदियाई। महामुक्कदेवाणं पुच्छा जइ लिंगिमिच्छदिही, गेविज्जा जाव जति उक्कोसं । गायमा ! जहन्नणं एक ममयं उकोसेणं असं निराइंदियाई। पयमवि असदहतो, सुत्तत्थं मिच्छदिट्टीमो ॥१२॥ महस्सारदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहपोगं एक समयं | सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेय बुद्धरइयं च । Jain Education Interational Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४५ ) निधानराजेन्यः | उबवाय १३ ॥ 1 सुकेवलिया र अभिदसपुष्पिता रहयं ॥ छउमत्थ संजयाणं, उववाय उक्कोसओ सव्वट्टे । सिं सट्टा पि य, जहन्नयो होइ सोहम्मे ॥ १४ ॥ नम्मि चउदस पुष्पिस्स, तावसाईण दंतरेसु तहा। एसो उववायविही, नियकिरियट्टियारण सव्वा वि ॥ १५ ॥ वनविकास्तत्वतो ज्ञानशून्यत्वाद्वाला इव बालास्त्वेषां तपः पञ्चाग्न्यादि तच्च तत्वतः सत्वोपघातहेतुत्वान्न तपः तथा च महाभारते शान्तिपर्वणि व्याप्यार मध्ये यो नरः सूर्यपञ्चमः । तपस्तपति कौन्तेय ! न तत्पश्ञ्चतपः स्मृतपञ्चानामिन्द्रियान्नीनां विषयेन्धनचारिणाम तेषां तिष्ठति यो मध्ये, तद्वै पञ्चतपः स्मृतम्” । तस्मिन् प्रतिबका था. सक्ताः अथवा बाह्रस्थिता तथा तद्द्भव्य क्षेत्रकालभावेषु प्रतिबकाः उत्कटरोषाः चएक कोपाः । तथा तपसाऽनशनादिभेदेन गौरविता वयं तपस्विताः तथा घेरेण फोधानुश रूपेण कचित्प्राणिनि द्वारवत्यां द्वीपायनवत्प्रतिबकाः कृतानुबन्धाः मृत्वा असुरेषु असुरादिषु नवनवासिषु जायन्ते ॥ ७ ॥ ( रज्जुत्ति० ) व्यक्ता नवरं शुभजावा नरकादिगतियोग्या अस्यन्तरौषार्तचित्त परिहारेण तथाविधमन्दगुरू परिणामाः शूलपा॥ १० ॥ (तावससि०) तापसान्यासिनो - कन्दफलाहारास्ते ( जंति उक्कोसन्ति ) वक्ष्यमाणेन योगास्कर्षतो यान्त्युत्पद्यन्ते यावज्ज्योतिष्कास्तत ऊर्ध्व नेति जावः । एवं चरका चारिभिकाचराः परिवाजकाचकपितामा मिनी यावदजोक परचेन्द्रियतिर्यो स्यादया सम्य ऋत्वदेशविरतिप्रयुक्ता यावत्सहस्रारः श्राद्धाः श्राविकादेशविरत मनुष्या यावदच्युतः ॥ ११ ॥ ( जत्ति ) यति लिङ्गिनो रजोहरणादिसाधुपधारिणो मिथ्यादृष्ट्या या त् यान्ति पत जयति । प्रशमसंवेगनिदानुकम्पास्त क्याभिण्यकरूपसम्यावधिका अपि संपूर्णदशविधवासामाचार्यनुष्ठानाचावेकादायक या सोऽप्यभिधीयते या समप्रद्वादशमोऽपि सूत्रोकमेकमपि परमया न ते स्वपस्यापि विद तस्याश्रमानेन तत्र तस्याप्रत्ययात् ॥ १२ ॥ सूत्रोक्तमित्युक्तमतः सूत्रस्वरूपमा ( सुति) बहुगणधर सुधरवाम्यादिमीर तिचाराङ्गादि च प्रत्येक निम्यभ्ययनादि यथ श्रुतकेवलिना चतुर्दशपूर्वधरेण शय्यंजवादिना दशवेकालिकादि यच संपूर्णपूर्वचारिणा रचितं तत्सर्वे सूत्रमिति तथा ॥ १३ ॥ (मत्यति वम्मिति ० ) वादयत्यात्मनो यथावस्थितं रूपमिति उहाावरणादि घातिकर्म च तस्थारच तेषां तूauraः चत्कर्षतस्त्रैलोक्यतिल के सर्वार्थसि विमाने जघन्यतः पुनस्तेषां उग्रस्यसाधूनां श्रावकाणामपि च सौधर्मे उपपातो भवति केवलमत्रापि स्थितिकृतो विशेषो यथा सौधर्मे साधोज - घन्या स्थितिः पल्योपमपृथक्त्वं श्रावकस्य पल्योपममिति तथा चतुर्दशपूर्वरस्य लान्तके जघन्य उपपातः तापसादीनां तु व्यरेषु ज्ञापनायां तु"साजणवासी रूप सर्वोऽप्युपपातविधिर्निजनिजकि पास्थितानां निज निजागमोक्तान / मनुष्ठानरतानां न चाचार ही नानामिति १४|१५| देवीनामुत्पत्तिस्थानान्याह मेष नववा देवी, कप्पदुगं जात्र सहस्सारो | गमणागवणं नयी अच्चुयपरओ मुराणं पि ॥ २७ ॥ तिपक्षिय - तिसार - तेरस, सारा कष्पगतई अंतमहो । , उववाय किव्वसिय महोतुवरं अच्चुपपर ओजिओगाई ॥२७॥ ( उववाओत्ति) भवनपती नारज्य यावत्सौधर्मेशान कल्प द्विकं देवीनामुपपात जन्मत का देवानां तृपपातः सर्वत्र - देवानां च सुरतानिखापः सोदशानापरिता देण्यः सहस्रारं यायच्छन्ति। सच परतो गम नागमनं च देवीनां नास्ति । तथा च मूलसंग्रहणीटीकायां ह रिभरिः देव्यः खलु अपरिगृहीताः सहस्रारं यावद् गच्छ न्ति इति । तथा भगवानार्यइवामोऽपि प्रज्ञापनायामाह णं जे ते मणपरियारगा देवा तेसि इच्छा मणे समुप्पज्जर इच्छा. मोणं अच्छराई सकिं मणपरियाणं करेत्तर तओ णं देवेदि एवमणसीकर समाणे खिप्पामेव ताभ अच्छराओ तत्थ गयाओ चैव समाणी उ श्रणुत्तराई उश्चावयाएं मणाई पहारेमा तत्थ - ओ चिति तस्रोणं ते देवा ताहिं अच्छरार्हि सर्किमणपरिया करिति इत्यादि "तन प्रविचारणार्थमादेवीनग त्यागती स्तः । देवीनां गमागमौ न स्तः । तत्राधस्तनानामूर्ध्वशक्तिनावाद । ता हि जिनजन्ममहिमास्वपि नात्रागच्छन्ति किं तु स्थानस्था एव नक्तिमातन्यते । संशयप्रश्ने वाध्वधिज्ञानतो जग प्रयुक्तानि मगोषच्याणि साम्राकारे परास्तदाकारा यथानुपपत्या जिल्हासितमर्थमन्यप्रयोजन पादागमः ॥ २७ ॥ अथ वैमानिकेषु किल्यिपिकाणामानियो. म्यानां देवानां स्थित्यादिकमाद (तिपमिति) अकर्मकृतश्चाएका प्राया देवास्ते त्रिपल्योपमादि स्थितयः । द्विकादेरचो वसन्ति तथाहि विषयोपास्थित यस्ते समरधयन्ति सागरोपमायुकाः रस्याधः त्रयोदशसागरोपमायुषा बान्तकस्याधः गतं च किल्वि पिका रितान्तानात्परताजियोग्या दासप्राया आदिशब्दात्प्रकीर्णादयो नोत्पद्यन्ते । इदनयति येयकानुसरेषु सर्वेषामपि देवानाममिन्द्रत्वेन शेषाणामपि सामानिकादिदेवमेदानामाय इति ॥ प्र० । ( ३ ) सान्तरं निरन्तरं वा उपपद्यन्ते ॥ किं संतति निरंतर उपति गोयमापित निरंतप । तिरिक्नोणि याएं जसे कि संतरं निरंतरं गोयमा ! संतर पि उववज्जंति निरंतरंपि उववज्जंति । मणुस्साएं जंते! किं संतरं उववज्जंति निरंतरं उववज्जंति ? गोयमा ! मंतरंपि - निरंतरं पिवति । देवानं किं सं तरंति निरंतर उपपति गोषमा ! संतरं पि ववज्जेति निरंतरं पि ववज्र्ज्जति । स्याप्पनापुढविणेरइयानंते कि संतरं उपवनंति निरंतर उपवनंति ? गोषमा ! संतरं पिवज्जति निरंतरंपि उपपति एवं जाव आहे समाए संतरं पिवतिमिरंतरं पि ज्जति । असुरकमाराणं जंते! देवाणं किं संतरं नववज्जंति निरंतर ति ? गोयमा ! संतरेपि नवभिरत रंपि पति एवं जाव णकुमारा मंतर प ज्जति निरंतरं पि ववज्र्ज्जति । पुढ विकाइयाणं ते! पुच्छा किं अंतरे निरंतर उपपति गोपमा नो संतरं निरंतरं क्वति एवं जापकाया जो संवरं ति Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४६) अभिधानराजेन्द्रः । उववाय निरंतरं नवज्जति । बेईदियाणं जंते ! किं संतरं नववज्जंत निरंतरं उववज्जंति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जंति निरंतरं पि ववज्जति एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोगिया । मस्साणं जंते! किं संतरं उबवज्जति निरंतरं उववज्जंति ? गोयमा ! संतरंपि निरंतरं पि ववज्र्ज्जति ।। एवं वाणमतर-जोइसिय- सोहम्म - ईसाए - सणकुमार - माहिंद- बंगलोय-संतग- महासुक-सहस्सार- प्राणय- पाणय- धारण- अच्चुय हिट्टिमगेविज्जग-मज्जिमगेविज्जग-उवरिमगे विज्जग-विजय-वेजयंत- जयंत अपराजिय- सव्वसिद्ध - देवा य संतरं पि निरंतरंपि उववज्जंति, सिद्धाणं ते! किं संतरं निरंतरं सिज्यंति ? गोयमा ! संतरं पिसिज्ऊंति निरंतरं पि सिज्जति ॥ ऐरइयाणं जंते ! किं संतरं उवहंति निरंतरं जवहंति ? गोयमा ! संतरं पि जवहंति निरंतरं पि उवहंति । एवं जहा उववाओ जणि तहा उबट्टणावि सिविज्जा जाणियव्वा । जाव माणिया नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणं अभिलावो कायन्वो ॥ पाठसिद्धं प्रागुक्तसूत्रार्थानुसारेण भावार्थस्य सुप्रतीतत्वात् । गतं तृतीयं द्वारम् | ( ४ ) एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते इत्याहरइयाणं ते! एगसमएणं केवइया उववज्जंति । गोयमा ! जहां एक वा दो वा तिनि वा उक्कोसे णं संखिज्जा वा असंखिज्जा वा उववज्जंति एवं जाव आहेस त्तमाए । सुरकुमाराणं ते! एगसमरणं केवइया जववज्जंति ? गोयमा ! जहां एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा असंखेज्जा वा एवं नागकुमारा जाव थणियकुमारा वि जाणियन्वा । पुढविकाश्याणं जंते ! एगसमरणं केवया नववज्जंति ? गोयमा ! अणुसमयं अविरहियं असंखेज्जा उववज्जंति । एवं जाव वाढकाइयाणं । वएस्सकाइयाणं जंते ! एगसमएणं केवझ्या उववज्जंति ? गोयमा ! साववायं पच्च अणुसमयं अविरहिया अांता उववज्जंति परट्ठावायं पच्च समयं विराहिया असंखेज्जा उववज्जंति । इंदियाणं जंते ! केवझ्या एगसमएणं उववज्जंति ? गोयमा ! जहणं एगो वा दो वा तिन्नि वा नकोसेणं संखेज्जा वा संखेज्जा वा ॥ एवं तेइं दिय- चरिंदिय- सम्मुच्छिमपंचिंदिय-तिरिक्खजो लिय- गब्जवकंतिय-पंचितियतिरिक्खजो यि सम्मुच्छिममणुस - वाणमंतर- जोइसिय- सोहम्मी-साणसकुमार - माहिंद- वंजझोय-लंतग-मुक - सहस्सार - कप्पदेवा - एते जहा ऐरश्या । गज्जवकंतियमणुस्स - आणयपाण्य- आरण - अच्चुय - गेवेज्जग अणुत्तरोववाइया य एते जणं एक वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखिज्जा उववज्र्ज्जति । सिद्धा णं नंते ! एगममएणं केवइया सिज्ऊंति ? गांगमा ! जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा नकोसें For Private उबवाय असयं । णेरइयाणं जंते ! एगसमपणं केवइया उबद्वंति ? गोयमा ! जहन्ने एको वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उवहंति । एवं जहा उबवाओ णि दहा वट्टा वि सिधवज्जा जालियव्वा । जाव प्रणुत्तरोववाइया नवरं जोइसियवेमाणियाणं चयणेणं अभिलावा कायव्व ४ ॥ नेरश्याणं भंते! एगसमएणं केवझ्या उबवतीत्यादि निगद सि कंम् | नवरं वनस्पतिसूत्रे सहाबवायं पमुच्च अणु समयमविरहि या प्रांता' इति । स्वस्थानं वनस्पतीनां वनस्पतित्वं ततोऽयमर्थः यद्यनन्तरजववनस्पतय एव वनस्पतिषूत्पद्यमानाश्चिन्त्यन्ते तदा प्रतिसमयमविरहितं सर्वकालमनन्ता विज्ञेयाः प्रतिनिगोदम संख्ये यभागस्य निरन्तरमुत्पद्यमानतया उद्वर्तमानतया च वज्यमानत्वात् 'परट्ठाचवायं परुश्च अणुसमयमविरहियमसंखेज्जा" इति परस्थानं पृथिव्यादयः । किमुक्तं भवति यदि पृथिव्यादयः स्वनावाsत्य वनस्पतिषूत्पद्यमानाश्चिन्त्यन्ते तदा असमयविरहियमसंखेज्जा वक्तव्या इति । तथा गर्भाच्युत्क्रान्तिका मनुष्या उत्कृ पदेऽपि सख्येया एव नासङ्ख्येयास्ततस्तत्सूत्रे उत्कर्षतः संख्ये या वक्तव्या श्रानतादिषु देवलोकेषु मनुष्या एवोत्पद्यन्ते न तिर्यञ्चो sपि मनुष्याच संख्येया पवेत्यानतादिस्त्रेष्वपि संख्येया एव वक्तव्या नासंख्येयाः सिद्धिगतानामुत्कर्षतोऽष्टशतम् । एवमुद्वर्तनासूत्रमपि वक्तव्यम् । नवरं ( जोइसिवेमाणियाणं चयणेण श्रभिलावो कायन्वो इति) ज्योतिष्कवैमानिकानां हि स्वभावाद्वर्त्तनं - वनमित्युच्यते । तथा अनादिकाल प्रसिकेस्ततस्तत्सूत्रे च्यवनेनाऽजिलापकः कर्तव्यः सचैवं " जोइसियाणं भंत एगसमपणं केव श्या चयंति गोयमा जहनेणं एगो वा दोवा" इत्यादि गतं चतुर्थद्वारम् । प्रज्ञा० ६ पद ॥ लेश्यादिविशेषणेनोपपाताः । वाससयसहस्सेमु संखेज्जवित्थडेसु णरएसु एगसमए केइमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए शिरया या रइया उववज्र्ज्जति १ केवइया काउलेस्सा उबवज्र्ज्जति २ केवइया करहपक्खिया उववज्जंति ३ केवइया सुकपक्खिया उववज्जंति ४ केवइया सभी उववज्जंति ५ केवइया असष्ठी उववज्जंति ६ केवइया भवसिद्धिया जीवा उववज्जंति ७ केवइया अभवसिद्धिया जीवा उववज्जंति ८ केवइया श्रभिरिवोहियणाणी उववज्र्ज्जति ६ केवइया सुयणाणी उववज्जंति १० केवइया हिराणी उववज्जंति ११ केवइया मनाणी उववज्जति १२ केवइया सुपाणी उववज्जंति १३ केवइया विभंगणाणी उववज्र्ज्जति १४ केवइया चक्खुर्दसरणी उववज्जति १५ केवइया अचक्खुदसरणी उबवज्जंति १६ केवइया हिदंसणी उववज्जंति १७ केवइया आहारसोवउत्ता उववज्जंति १८ केवइया भयसम्णोर्वउत्ता उववज्जति १६ केवइया मेहुणसम्पोवउत्ता उववज्र्ज्जति २० haser परिग्गहसमोवउत्ता उववज्र्ज्जति २१ केवइया इत्थि वेदगा उववज्र्ज्जति २२ केवइया पुरिसवेदगा उबवज्र्ज्जति २३ केवइया पुंसगवेदगा उववज्र्ज्जति २४ केवइया Personal Use Only Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अन्निधानराजेन्डः। उववाय कोहकसायी उववज्जति २५जाव केवइया लोभकसायी उ- जाव लोभकसायी सोइदियोवउत्ताण उबटुंति एवं जान ववज्जति २८केवइया सोइंदियोवउत्ता उववज्जंति २६जाव फासिदियोवनत्ता ण उव्वदृति जहमेणं एक्को वा दो वा केवइया फासिदियोवउत्ता उववज्जति ३३केवइया णो- तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा णोइंदियोवउत्ता उन्बटुंति इंदियोवउत्ता उववज्जति ३४केवइया मणजोगी उवव- मणजोगीण उबद्दति । एवं वइजोगी वि जहोणं एको ज्जंति ३५केवइया वइजोगी उववज्जति ३६केवइया का- वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उन्चयजोगी उववजंति ३७केवइया सागारोवउत्ता उववज्जति इंति एवं सागारोवउत्ता वि एवं अणागारोवनत्ता वि। इ ३८केवइया अणागारोवउत्ता उववजति ३गोयमा! इमी मीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयासे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णेरइया वाससयसहस्से वाससयसहस्सेसु संखेज्ज़वित्थमेसु णरएसु केवइया णेरसु संखेज्जवित्थडेसु णरएसु जहमेणं एको वा दो वा इया पमत्ता केवइया काउलेस्सा पमत्ताजाव केवइया प्रणा तिणि वा उक्कोसेणं संखेज्जा परइया उववज्जति जहमेणं गारोवउत्ता पमत्ता ३६ केवइया अणंतरोववमगा पसत्ता? एक्को वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा केवइया परंपरोववमगा पमत्ता? केवइया अणंतरोवगाढा प उववति। जहम्मेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं सत्ता केवइया परंपरोवगाढा पमत्ता केवझ्या अपंतराहाराप संखेज्जा काहपक्खिया उववज्जंति। एवं सुक्कपक्खिया वि । सत्ता? केवड्या परंपराहारा पएणत्ता केवइया अतरपज्जत्ता एवं सभी वि एवं असमी वि । एवं भवसिद्धिया वि। एवं पएणत्ता ? केवड्या परंपरपज्जता पम्पत्ता ? केवश्या चअभवसिद्धिया ।।आभिणिबोहियणाणी सुअणाणी प्रो रिमा पएणता ? केवइया अचरिमा पाणता ? गोयमा ! हिणाणी मतिप्रमाणी सुअअपाणी विभंगणाणी एवं मी से रयणप्पजाए पुढवीए तीसाए गिरयावाससयसहचेव चक्खुदंसणी ण. उववति । जहमेणं एको वा दो स्सेसु संखेज्ज वित्थमेमु णरएसु संखज्जा णेरड्या पएणत्ता वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उवव संखेज्जा काउलेस्सा पाणत्ता, एवं जाव संखेज्जा साणी ज्जंति । एवं ओहिदंसणी वि एवं आहारोवउत्तावि जाव पणत्ता, असएणी सिय अस्थि सिय नस्थि । जइ अस्थि परिग्गहसम्मोवउत्तावि । इत्थीवेदगा न उववज्जति पुरि जहएणे णं एक्को वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा सवेदगा न उववज्जति जहमेणं एको वा दो वा तिमि पाणता, संखेज्जा जवासिफिया पमत्ता, एवं जाव संखेवा उकोसणं संखेज्जा नसगवेदगा उववज्जति एवं कोहकसायी जाव लोभकसायी सोइंदियउवउत्ता न उव ज्जा परिग्गहसाणोवउत्ता पमत्ता, इत्थि वेदगा णस्थि, पुरिसवेदगा त्थि, संखज्जा णासगवेदगा पाता । एवं वज्जति एवं जाव फासिदियोवउत्ता ण उववज्जति जह कोह कसायी वि, माणकसाथी जहा असष्मी एवं जाव ममेणं एको वा दो वा तिम्सि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नो लोभकसायी, संखेज्जा सोईदियोवनत्ता एवं जाव फासिंइंदियोवउत्ता उववज्जति मणजोगीण उववति । एवं दियोव उत्ता, नो इंदियोवउत्ता जहा असमी, संखेज्जा वइजोगी वि जहम्मेणं एको वा दो वा तिमि वा नक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उववज्जति । एवं सागारोवउत्ता वि मणजोगी एवं जाव अणगारोवउत्ता । ३ए । अणंतरो ववस्मगा सिय त्यि सिय पत्थि, जर अस्थि जहा असएवं अणागारोवउत्ता वि ३६ इमी से णं भंते रयणप्प म), संखेज्जा परंपरोवरएणगा, एवं जहा अणंतरोववष्णभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेज गा तहा अणंतरोवगाढा अणंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगा वित्थडेसु खरएसु एगसमएणं केवइयाणेरइया नव्बटुंति? चरिया परंपरोवगाढा जाच अचरिमा जहा परंपरोवणगा। केवइया कानलेस्सा नव्बटुंति? जाव केवइया अरणागारो इमी से नंते रयणप्पनाए पुढवीए तीसाए गिरयावासउत्ता उबद्दति ? गोयमा ! इमी से णं रयणप्पभाए पुढ सयसहस्सेसु असंखेज्नवित्थमेसु रइएस एगसमएणं केवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेमु संखेज्जवित्थडेसु वइया ऐरइया नववज्जंति, जाच केवड्या अणागारोवउत्ता णरएम एगसमएणं जहरणं एको वा दो वा तिषि वा नववज्जति ? गोयमा ! इमी से रयणप्पनाए पुढवीए नकोसेणं संखेज्जाणेरइया नवदृति जहमेणं एको वा दो तीसाए गिरयावाससयसहस्सेसु असंखिज्जवित्थमेसु परवा तिमि वा उक्कोसेणं संखेजा कानलेस्सा नवद॒ति । एम एगसमए णं जहम्मेणं एक्को वा दो वा तिमि वा नएवं जाव सणी असणी व उवति । जहम्मेणं एको वा । कोसेणं असंखेज्जा रइया नववजंति एवं जहव संखेदो वा तिमि वा नकोसेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उब-| ज्जवित्यमेसु तिएिण गमा पम्मत्ता, तहा असंखेज्जवित्थइंति एवं जाव सुत्रमाणी विभंगणाणी ण उन्बटुंति । मेस वि तिमि नाणियन्वा । एवरं असखज्जा नाणियव्वा चक्खुदंसणी ण उच्वदृति जहलेणं एको वा दो वा तिमि | समं ने चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा णाए बेस्सामु वा उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उव्वदंति । एवं | लेस्सायोजहा पढमसए, एवरं संखेज्जवित्यम्मुवि अमंखे Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नववाय अभिधानराजेन्छः। नक्वाय ज्जवित्यडेसु वि ओहिणाणी अोहिंदसणी संखेज्जा उवट्टा दिही णेरइया ण नववजांति मिच्छट्टिी परश्या व्ववज्जति वेयन्या सेसं तं चैत्र । सकरप्पभाएणं नंते ! पुढवीए केवइया | सम्मामिच्छद्दिही णरक्ष्या ण नववज्जति, एवं नव्वटुंति वि, णिरयावासा पुच्छा, गोयमा ! पणवीसं हिरयावाससयसह- अविरहिए जहेव रयणप्पनाए । एवं असंखेज वित्थ मेसु स्सा, ते णं ते ! किं मखेज्जवित्थमा असंखेज्जवित्थमा तिमि गमा सेणुणं जंते ! कएहस्से नीलसेस्से जाव सुकले.एवं जहा रयणप्पनाए, तहासकरप्पाए वि, वरं असमी स्से नावत्ता काहलेस्सेसु णरइएसु नववजति? इंता गोयमा । तिमु वि गमएसु न जाति सेसं तं चेव । बाबुयप्पनाएणं कएहनस्से जाव उववज्जति । से केण टेणं नंते ! एवं बुच्चपुच्छा, गोयमा ! पहारसणिरयावाससयसहस्सा पत्ता, कएहलेस्से जाव उववजंति ? गोयमा! लस्सहाणेसु संकि सेसं जहा सकरप्पनाए, णाणत्तं बेस्सासु लेस्साओ जहा निस्समाणेसु सकिलिकिएहस्सं परिणमइ, कएहश्कएह पढमसए । पंकप्पनाएणं भंते! णिरयावाससयहस्सा पुच्छा मेस्सेसु णेरइएम उववजति । सेतणट्ठणे जाव नववज्जति। से गोयमा ! दस णिरयावाससयसहस्सा पप्पत्ता, एवं जहा णूणं ते! कएइलेस्से जाव मुक्कोस्से नवित्ता गोबसेमकरप्पनाए, एवरं ओहिणाणी ओहिदसणी ए उच्च- स्सेसु णरएसु नववज्जति ? हंता गोयमा ! जाव नवबइंति सेसं तं चेव । धूमप्पनाएणं पुछा, गोयमा ! तिमि ज्जति। से केपटेणं जाव उववज्जति? गोयमा! लेस्सट्टागिरयावाससयसहस्सा एवं जहा पंकप्पभाए । तमाएणं णेसु संकिलिस्समाणेसु विसुज्जमाणसु णीसलेस्सं परिणनेते ! पुढवं ए केवइयाणिस्यावासं पुच्छा, गोयमा ! एगे पं- महणीललेस्सा णीलोस्से मुणेरइएस नववज्जति से चूणे पिरयावाससयसहस्से पम्पत्ते, ससं जहा पंकप्पनाए तेणठणं गोपमा ! जाव नववज्जति ।। अहे सत्तमाएणं ते ! पुढवीए का अत्तरा महति महा रत्नप्रनापृथिव्यां कापोतलेश्या एवोत्पद्यन्ते न कृष्णवेश्यादयझया महाणिरया पम्मत्ता? गोयमा ! पंच अणु० जाव अप्प इति कापोतलेश्यानेवाश्रित्य प्रश्नः कृत इति । "केवतिया कपट पक्खिएइत्यादि" एषां च बक्कणमिदम् । “जेसिमबहोपोग्गल, इहाणे । सेणं ते ! किं संखेज वित्थमा असंखेज्जवि परियट्टो सेसो उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिगे पुण त्यमा ? गोयमा ! संखेज्जवित्यो य असंखेज्जवित्यो य काहपक्खियत्ति" ॥१॥ (चक्खुदंसणी न उववज्जतित्ति) अहे सत्तमाए णं नंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महति इन्धियत्यागेन तत्रोत्पत्सेरिति । तर्हि अचकुर्दर्शनिनः कथमुत्पद्यमहालया नाव महाणिरएसु संखेज्जविस्थ गरए एगसम न्ते ? शन्डियानाश्रितस्य सामान्योपयोगमात्रस्याऽचकुर्दर्शनश ब्दानिधेयस्योत्पादसमयेऽपि नावादचकुर्दशनिने उत्पद्यन्त श्त्यु एणं केवड्या एवं जहा पंकप्पनाए ण वरं तिसु णाणेसु ण च्यत इति (शस्थिवेयगेत्यादि) स्त्रीपुरुषवेदा नोत्पद्यन्ते, भवउपवज्जति, ण उवदृति पाणत्ता एसु तहेव अस्थि । एवं प्रत्ययानपुंसकवेदत्वात्तेषां ( सोतिदिनोवत्तेत्यादि ) श्रोत्राअसंखेज्बवित्यमेसु वि एवरं असंवैज्जा नाणियव्वा । धुपयुक्ता नोत्पद्यन्ते शन्द्रियाणां तदानीमभावात् (नो इंदियो इमी से णं भंते ! रयण पनाए पुढवीए तीसाए णिरयावा- धत्ता नववजंतित्ति) नोइन्द्रियं मनस्तत्र च यद्याप मनःपर्याममयसहस्सेसु संखेज्जवित्य मेसु णरएसु किं सम्मदिट्टी प्त्यभावे एव्यम नो नास्ति तथापि नावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावात्तेनोपयुक्तानामुत्पत्तेनोशन्छियोपयुक्ता उत्पद्यन्त श्त्यु परश्या नववज्जति, मिच्छट्टिी परश्या उववज्जति सम्मा च्यत इति (मणजोगीत्यादि) मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च नोत्प. मिच्छट्टिी गरइया नववज्जति ? गोयमा ! सम्पद्दिष्ट्ठीणे द्यन्ते नत्पत्तिसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवाचोरभावादिति ( कायरक्ष्या उववजंति, मिच्छविही गरझ्या नववज्जति, पोस- योगी नववजंतित्ति) सर्वसंसारिणां काययोगस्य सदैव जावाम्मामिच्छदिती रइया नववज्जति । इमीसे णं नंते ! दिति । अथ रत्नप्रभानारकाणामेवोद्वर्तनामनिधातुमाह । म। स्थापनाए पुढवीए तीसाए गिरयावाससयसहस्सेसु संखे सेणमित्यादि (असमीन उवटुंतित्ति) उतना हि परभवप्रथ मसमये स्यान्न च नारका असंहित्पद्यन्तेऽतस्ते असंझिनः सन्तो जविस्थ मेसु परइएमु कि सम्मादही गरइया जवटुंति एवं नोद्वर्तन्त इत्युच्यते " एवं विनंगनाणी न नब्बति" इत्यपि चेव । इमी सेणं नंते ! रयणपनाए पुढवीए तीसाए णिर- भावनीयम् । शेषाणि तु पदान्युत्पादबयाख्येयानि नक्तंच च-- धावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थमा किरया किं सम्मबिडी एाम् “असक्षिणो य विनंगि-णो य उव्वट्टणाए वजेजा। दोसु हिपरइएहिं अविरहिया मिच्छट्ठिीहिं परएहिं अविर वि य चक्खुदंसी, मणव तह इंदियाचत्ति"॥ १॥ अनन्तरं रत्नप्रजानारकाणामुत्पादे उतर्सनायां च परिमाणमुक्तमथ तेषाहिया, सम्मामिच्छविट्ठीहि परइएहिं अविरहिया ? गोयमा! मेवसत्तायां तदाह(श्मीसेणमित्यादि केवश्या अणंहरोवयमगसम्पदिष्ठीहि ऐरएहिं अविरहिया मिच्छविट्ठीहिं रइएहिं ति) कियन्तः प्रथमसमयोत्पन्नाश्त्यर्थः। (परंपरोचवाय गत्ति) अविरहिया, मम्मामिच्छद्दिट्ठीहिं रइएहिं अविरहिय वि- उत्पतिसमयापेक्वया व्यादिसमयेषुवर्तमाना(अणंतरोबगाढत्ति) विवक्कितक्षेत्र प्रथमसमयावगाढाः (परंपरोगाढत्ति) विधविनरहिया वा। एवं अमखेज्जवित्यमेनु वि तिषिण गया जा- | केत्रे द्वितीयादिकसमयोऽधगाढो येषां ते परम्परोवगाढाः (केवपियवा । एवं सकरप्पनाए वि । एवं जाव तमाए वि । अहे झ्या चरिमात्ति) चरमो नारकभवेषु स पच नया येषां ते चरभा सनमाए नंते ! पुढवी पंचस अत्तरेस जाव संखेज्जवि नारकनवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः अचरमासिवतरे त्याए कि सम्मविट्ठी गरझ्या पुच्ग, गोयमा! सम्य | ( असपी सिय अस्थि सिय मस्थित्ति ) असंक्षिय उदृत्य Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय (९४९) अभिधानराजेन्ः | कायस्थायामसंहित या इति कृत्यासिव बात्यायुकम मागमायालोभकषायो पयुक्तानां मोइन्द्रियोपयुक्तानामनन्तरोपपन्नानामनन्त रावगाढानामनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां च कादाचित्कत्वात्सिय कत्थीत्यादि वाच्यं शेषाणां तु बहुत्वात्संख्याता इति वाच्यमिति । अनन्तरं संख्यातविस्तृतनरकावासनारक वक्तव्यतोता । अथ तद्विपकल्पतमभिधातुमा "मी सेणमित्यादि" (तिथिग मति ) लघवति सव्बति पतन्ति । एते प्रयो गमाः श्रोहिणाणीदिदंसणीयसंखेज्जा ( उब्वट्टावेयव्वन्ति कथं ते हि तीर्थकरादय एव भवन्ति ते च स्तोकाः स्तोकत्वाश्च सख्याता एवेति नवरम् । (असली तिसुवि गमवसुण भारति) कस्माडच्यते । असंज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते । असी समु पढमंति वचनादिति "माणसं बेस्सासु, सेस्साओ जहा पदमपति" हाय पृथ्वीद्रयापेक्षया तृतीयादि पृथिवी नानात्वं लेश्यां भवति । ताच्च यथा प्रथमशते तथाऽ ध्येयास्तत्र च संग्रहगाथेयम् 'काल य दोसु तश्याए, मीसिया नीलिया चडत्थीए । पंचमियाएमीसा, कपड़ा तो परमकएहति " ॥ १ ॥ नवरस् " ओहि. नाणी आणि य न त " कस्मादुच्यते ते दि प्रास्तीकरा एव ते च चतुर्थ्या उत्ता नोत्पद्यन्त इति ॥ ( जाव अपत्तिट्ठाणेति ) इह यावत्करणात्-काले महाकलरोरुप महारोरुपत्ति दृश्यम् । इह च मध्यम एव सख्ययवि. स्तृत इति ॥ नवरम् । “तिसु नासु न उघबजंति न उब्बति चि ॥ सम्यक्त्वभ्रष्टानामेव तत्रोत्पादात उनादेषु 66 हिदंसणी - ज्ञानेषु नोत्पद्यन्तेनापि चोदन्त इति ॥ ( पचतार तब अथिति ) एतेषु पञ्चसु नारकाचासेषु कियन्त आभ नियोधिज्ञानिनः ज्ञानिनोऽवधिज्ञान प्रक्षा इत्य तृतीयगमे तथैव प्रथमादिपृथिवीचिव सन्ति तत्रोत्पन्नानां सम्यग्दर्शनलामे आभिनियोधिकादिज्ञानत्रयभावादिति । अथ रत्न प्रजादिनाकपचम्यतामेव सम्यन्नृपचादीनाशित्याहमीसेणमित्यादि । ( नोसम्मामिच्छदिठी उववजंतिति ) । 46 न सम्ममिच्छो कुरा कालमिति वचनात् " मिश्रदृष्टयो न ब्रियन्ते नापि तद्भचप्रत्ययं तेषामवधिवद्येन मिश्रदृष्टयः सउतरते उत्पद्येरन् । सम्मामिच्छुट्टिनेरहहि अविरहिय विरयियावति । कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसम्भवादिति अथ नारक वक्तव्यतामेव भङ्गयन्तरेणाह से नूणमित्यादि । (साति) लेश्यामेदेषु ( संकिलिस्समारोशि ) अविशुद्धं गच्छत्सु ( करहलेस्सं परिणमति ) कृष्णलेश्यां याति ततञ्च ( कराहले सेत्यादि ) ( संकिलिस्समाणे सु वा विश्झमाणेसुचन्ति) प्रशस्तलेश्यास्थानेष्वऽविद्यु वि गच्छत्सु अप्रशस्तलेश्यास्थानेषु च विशुद्धिं गच्छत्सु मीललेश्यां परिणमतीति भावः भ० १३ श० १ उ० ॥ ( ५ ) नैरयिकादयः आत्मोपक्रमेण परोपक्रमेण वा श्रात्मर्ज्या परवा प्रयोगेण परप्रयोगेण वा उत्पद्यन्ते । रहाणं जंते किं कमेति परोपणमेणं ववज्जंति णिरुवकमेणं उववज्जाते ? गोयमा ! आलोकमेव उति परोचक्रमेण वि उपस्ि वक्रमेण वि ववज्जंति एवं जाव बेमाणियां णेरइयाणं जंते! किं प्रोमो जम्बति परोपतिरुव मेणं ब्वति ? गोयमा ! णो आतोवकमेणं उब्बति णो परोषकमेणं जब्बर्हति णिरुवक्रमेणं उच्चति । एवं जान पणि उववाय यकमारा | पुढवीकाइया जाव मगुस्सा तिम्र उव्वति । सेसा जहा रश्या नवरं जोइसिया वैमाणिया चयंति । णेरइया णं जंते ! कि आयडीए उत्रवज्जति परिडीए नववज्जंति ? गोयमा ! आवडी उपज्जेति यो परिशीप उपवति । एवं जाव बेमाणिया । परश्या ते किं आइडी - व्वति परिठ्ठीए जन्बति ? गोयमा ! आइए उब्बति यो परिधी उच्चति एवं जान नेमाणिया नवरं जोइसिया बेमाणिया च अजिला परश्याणं ते! किं यकम्मणा नववज्जति परकम्मणा उववज्जति ? गोयमा ! कम्मा उपवनंति णो परकम्पना उपवनंति एवं जाव बेमाणिया । एवं उच्हणा दंमओ रयाणं जंते ! किं प्रयोगेणं ववज्जति परप्पोगेणं उववज्जंति ? गोयमा ! आयप्पओगेणं जववज्जति हो परप्पोगेणं नवबज्जति । एवं जाव वैमाशिया । एवं दंमच्य वि ।। आत्मना स्वयमेव आयुष उपक्रमः श्रात्मोपक्रमस्तेन मृत्वा इति शेषः सत्पद्यन्ते नारकाः यया श्रेणिकः । परोपक्रमेण परकृतमरणेन यथा कूणिकः । निरुपक्रमेण उपक्रमणाभावेन यथा कालशोकरिका यतः सोपक्रमायुष्का इतरे च तत्रोत्पन् स्पादानाधिकारादिदमाह नेरहयेत्यादि (आइडीपत्ति ) ने दमनार्थ आपणचि कृतकर्मणा ज्ञानावरणादिना (प्ययोगेति) जामन्यापारेण ॥ (६) कविताकतिसच्चितानामुपपादः रश्याणं नंते किं कतिसंचिया प्रकृतिसंचिया वcarसंचिया ? गोयमा ! णेरइया कतिसंचिया वि क - तिसंचिया वि अवतन्त्रगसंचिया वि, सेकेण्डेणं नंते ! जाव अवत्तव्यगसंथिया वि गोयमाणं या संसेजर ! पवेसणं पविसंति, तेणं णेरइया कतिसंचिया । जेणं परश्या असंखग्ज पोसणणं पविसंति ते नेरइया प्रकतिसंचिया । जेण रइया एकणं पसणणं पविसंतिते रहया अवतव्यगसंचिया से तेषां गोषमा ? जान अवतव्यगसंचिया कि 1 एवं जान पणियकुमारा । पुढवीकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ? पदवीकाध्या शो कतिसंचिया अतिसंीचया को अवत्तब्बनसांचेया । से केणणं जंते ! एवं पुच जाव णो प्रवत्तन्यगपि १ गोपमा पुडवीकाश्या असंखेज्जए णं पवेसणं पविति सेते जाव णो वत्तव्वगसंचिया एवं वणस्सइकाइया । बेदिया जाव बेमाणिया जहा होरया । सिकाणं पुच्छा है गोषमा ! सिका कविसंचिया को अतिसंचिया - संचियादि से केशा जान प्रवतव्यगसंचियां वि ? गोयमा ! जेणं सिया संखेज्जएणं पवेसण एवं पत्रिसंति ते सिका कतिसंधिया, जेसिका एकएणं पवेसणपूर्ण पविसंति ते सिका अवशयगसंचिया विसे तेणणं गोषमा ! जान चव्यगर्स चिया चि ।। Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय (९५० ) अनिधानराजेन्ऊ: 1 उत्पादाधिकारादिदमाह नेरइयेत्यादि ( करसंचियत्ति ) कति इति सङ्ख्यावाची ततश्च कतित्वेन सञ्चिता एकसमये संपादन] पिडिताः कतिचिताः एवं अकइसंचियन्ति ) | नवरं । ( श्रकतित्ति ) संख्यानिषेधोऽसंयावत्यमनन्तत्वं चेति ( अन्यगसंचिपति यादिः संख्या व्यवहारतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसंख्या यश्च संख्यात्वेनासंख्यात्वेन च वक्तुं न शक्यते श्रसाववकव्यः स च एककनायकव्येन एककेन एकस्योत्पादेन सचिता - सचितास्तत्र नारकावयत्रिविधा अपि एकसमयेन से पामेकादीनां संख्यातानामुत्पादात् पृथिवीकाधिकादयस्तु अकतिसञ्चिता एव तेषां समवेनासंख्यातानामेव प्रवेशावनस्पतयस्तु यद्यप्यनन्ता उत्पद्यन्ते तथापि प्रवेशनकं विजानीवेभ्य आगतानां यस्तत्रोत्पादस्तद्विवक्षितमसंख्याता एव विजातीयेभ्य उत्तास्तयोत्पद्यन्त इति सूत्रे उतम्। ( एवं जाव वणस्सइकाइयत्ति ) सिद्धा नो अकतिसंचिता अन तानामनां वा तेषां समयेनासंभवादिति । एषामेवाल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह ॥ एएसि जंते ! ऐरश्याणं कसं चियाएं अकइरांचियाणं अव सव्वगसंचियाण य कयरे २ वज्जां विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्ययो वा परश्या अवतव्यगसंचिया कति संचिया संखेनगुणा अतिसंचिया असंखेज्जा एवं एदि जावमाणियाणं अपावनं पर्गिदियाणं एत्थि अप्पा बहुगं एए सिणं जंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं अव्यम्यगसंघियाण व कयरे २ जाव पिसेसाहिया वा गोयमा ! सम्बस्यो वा सिका कतिसंथिया अवचि या संखेज्जगुणा || ( एसीत्यादि ) अवक्तव्यकसंचिताः स्तोकाः। अवक्तव्यकस्थामस्यैकत्वात् कतिसंचिताः संख्यातगुणाः संख्यायात्संख्यातस्थानकानाम कति सञ्चितास्त्वसंख्यातगुणाः असंख्यातस्थानकानामसंख्यातत्वादित्येके । अम्ये त्या वस्तुस्वभावोऽत्र कार णं न तु स्थानकाल्पत्वादि कथमन्यथा सिद्धाः कतिसंचिता: स्थानकच दुःखं स्तोकाः । अवकव्यास्तु स्थानस्यैकोऽपि संख्यातगुणाः । द्वयादित्वेन केवलमल्यानामायुः समामेरियं [च] लोकस्वनावादेवेति ॥ (७) पर्कसमति नारकासुत्पादविशेषणीतसंख्याधिकारादिदमाह । रव्याणं भंते! किं उक्कसमज्जिया णो कसमज्जिया केश पो उकेश यसमा केहि य समज्जिया के यो य समाजया ? गोयमा ! ऐरव्या समजा विणो ममजिपा के वो २ The समज्जिया ३ बकेहि य समज्जिया वि ४ केहियो चक्रेण व समज्जिया विए से केलणं भंते! एवं बुच्चइ - ऐरइया छकसमज्जिया वि जाव णो केहि यो उय सम्मज्जियावि गोयमा ! जे रइया उफ एणं पवेसणणं पविसंति तेणं णेरड्या बक्कसमज्जिया । जेणं रइया जहोणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उकासे पंच पर्वणणं पविसंति तेणं ऐरइया को ब- सुचवाय ण य जह कसमज्जिया २ जेल ऐरइया कारणं एना दोहिं वा तर्हि या पर्व एवं पविति तेणं परश्या उकेण य णो उकेश यस. मज्जिया ३ जेणं ऐरश्या गेहिं बकेहि पसल एवं पविसंति णं णेरइया उकेहिय समज्जिया ४ जेणं णेरया अहिं केहिं स य जहणं एक्केण वादोहिं या निद्धिं या उकोणं पंचपणं पणवणं पविसंति ते ऐरया केपि यो केश व समज्जिया ।। ए से तेद्वेणं तं चैव समज्जिया वि एवं जाप पलियकुमारा पुढवीकाश्वाणं पुच्छा, गोपमा ! पुर्वी काया को कसम जिया कां णो जिया को उन यो उणय सम ज्जिया ३ उफेरि यसमा विकेपि यो फेल प समज्जिया वि से केद्वेणं जाव समज्जिया वि गोयमा पंच ढकाइया गहिं बक्केहिं पवेसण गं पविसंति ते पुढया हिं समज्जिया, जेणं पुढवी काइया ऐ गेहिं बकए हिं यह एक वा दोहिया तिर्हि वा ठो पंचणं पवेसणं पविसेति तेणं पुढवीकाइया बकेहि य णो के य समज्जिया से तेण्डेणं जाव समज्जिया वि एवं जान बकाया बेदिया जाय वैमाशिया एए सिवा जहा ऐरश्या ॥ रणमित्यादि (समपिति ) प परिमारामस्येति पट्कं वृन्दं तेन समर्जिताः पिश्मिता षट्कसमर्जिताः । श्रयमर्थः एकत्र समय ये समुत्पद्यन्ते तेषां यो राशिः स षट्प्रमाणो यदि स्यात्तदा ते षट्कमर्जिता उच्यन्ते ॥ १ ॥ (नो छक्कसमज्जियत्ति ) नो षट्कः षट्काभावस्ते व एकादयः पञ्चान्तास्तेन नो षट्केन एकाद्युत्पादन ये समर्जितास्तेन तथा । २ । तथा (छक्केय नो छक्केण य समाज्जयत्ति ) एकत्र समये येषां षट्कमुत्पन्नमेकाद्यधिकं से पदकेम गोषट्केन च समजता उता ॥ ३ ॥ ( छकेहि य समजियत्ति ) एकत्र समये येषां बहूनि षट्कानि उत्पन्नानि ते षट्कैः समर्जिताः उक्ताः । ४ । तथा ( छक्केहि य नोछक्केण य समजियत्ति ) एकत्र समये येषां बहूनि षट्कानि एकाद्यधिकानि ते षट्कैः नो षट्केन च समज्जिता एते पञ्चविकल्पाः । इह च नारकादीनां पञ्चापि विकल्पाः सम्भवन्धादीनामख्यातानां तेषां समयेोत्पत्तेरसंख्यातेष्वपि च ज्ञानिनः षट्कानि व्यवस्थापयन्तीति एकेन्द्रियाणां त्वसंख्यातानामेय प्रवेशनात्पदकः समज्जिताः । तथा पदपदकेन च समजिता इति विकल्पद्वयस्यैव सम्भव इति श्रतएवाह पुढविकाइयाणामित्यादि ॥ पटुकसमजितोत्पादे अपत्यम् । एएसिणं भंते! शेरइयाणं बक्कसमज्जिवाणं णो चक्क समज्जियाणं छक्केण व सोचकेण य समन्नियाकेहिय समज्जिया छत्र केहि य णो छक्केण य समज्जिया य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? - गोयमा ! सव्वत्यो वा शेरइया लक्कसमज्जिया णो कसमज्जिया संजगुणा के यो वर्कणय समज्जिया संखेज्जगुणा छक्केहि य समज्जिया असंखेज्जगुणा छक्के हि Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५१ ) उवधाय अनिधानराजेपः। उववाय य णो छक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा । एवं जाव एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसणं एक्कारसएण थणियकुमारा एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं छक्केहि य सम-| पवेसणएणं पविसंति तेणं पुढवीकाझ्या वारसएहि य णो ज्जियाणं छकेहि यणो छ केहि य समज्जियाणं कयरे कयरे वारसरण य समजिया से तेणटेणं जाव समज्जिया वि एवं भाव विसेसाहियावा? गोयमा सव्वत्थो वा पुढविकाश्या जाव वणस्सस्काइया । बेइंदिया जाव सिच्छा जहा णेरइया । छ केहि य समाजया छकेहि य णो छक्केण य समाज्जिया संखे एएसिएं लेते ! रझ्याणं बारससमज्जियाणं सव्वेसिं उस गुणा एवं जाव वणस्सइकाइयाणं बेदियाणं जाव वेमा- | अप्पाबहुगं जहा उक्कसमज्जियाणं णवरं बारसानिलावो। णियाणं । जहाणेरइयाणं। एएसिणं भंते सिद्धाणं छक्कस सेसं तं चेव ॥ मजियाणं को छक्कसमज्जियाणं जाव छक्केहि य णो छक्के (ए) चतुरशीतिसमर्जिताः॥ ऐरझ्याणं जंते ! किं चुलसीति समन्जिया गोचुलसीति हा य समज्जियाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया? मोय समज्जिया चुलसीतिए य णोचुलसीतिए य समज्जिया मा! सव्वत्थो वा सिद्धा छक्केहि य णो छक्केण य समज्जिया छक्केहि य समज्जिया संखेज्जगुणा छक्केण य चनतीतिहि य समज्जिया चुन्नसीतिहि यो चुलसीतिए य समज्जिया? गोयमा! णेरइया चुलसीति समउिजया वि। यो छक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा छक्कसमज्जिया जाव चुनासीतिाहे य णो चुलसीतिहि य समज्जिया वि।से मंखेज्जगुणा णो छक्कसमज्जिया संखेज्जगुणा ॥ केण्डेणं ते! एवं उच्च जाव समज्जिया वि? गोयमा ! एषामल्पबहुत्वचिन्तायां नारकादयः स्तोका प्रायाः षट्कस्थानस्यैकत्वात् द्वितीयास्तु संख्यातगुणाः नोषट्कस्थानानां जेणं ऐरइया चलसीतिए णं पवेसणएणं पविसंति तेणं - बहुत्वात् एवं तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु स्थानबाहुल्यात्सूत्रोक्तं बहु रइया चनसीति समज्जिया, जणं णेरइया जहोणं एकेण त्वमवसेयभित्येके । अन्ये तु वस्तुस्वभावादित्याहुरिति ॥ वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं तेसीति पवेसणएणं पवि(८) द्वादश समजिताः । संति तणं गरझ्या णो चुलसीति समज्जिया, जेणं ऐरऐरइयाणं नंते किं वारससमजिया णो वारससज्जिया श्या चुलसीतिएणं अप्मेण य जहोणं एकेण वा दोहिं वारसरणं णो वारसरण य समज्जिया वारसएहि य सम- | वा तिहिं वा जाव उकोसेणं तेसीतिएणं पवेसणएणं पविज्जियाध बारसएहिय णो वारसरणय समज्जिया? गोयमा! संति तेण ऐरइया चुझसीतिएण य णो चुलसीतिए य सपरश्या वारससमज्जिया विजाव वारसएहि यणो वारसरण मज्जिया। जेणं णेरड्या णेगेहिं चुलसीतिएहि य पवेसणगं य समज्जिया वि से कणढणं जाव समज्जिया वि | गायमा ! पविसंति तेणं ऐरझ्या चुलसीतिरहि य समज्जिया। जेणं णेजेणं णेरड्या वारसरणं पवेसणएणं पविसति तेणं णेरड्या रझ्या णगेहिं चुनसीतिएहि य अप्पेण य जहप्पणं एकेक वारससपज्जिया वि जेणं गरझ्या जहणणं एक्कण वा दोहिं वा जाव उक्कोसेणं तेसीतिएणं जाव पविसति तेणं णरइया या तिहिं वा नकोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं चुलसीतिएहि य णो चुलसीतिएण य समज्जिया से तेणणेरड्या णो वारमसमज्जिया । जेणं णेरइया वारसरणं टेणं भाव समज्जिया वि । एवं जाव थणियकुमारा पुढभमेण य जहलोणं एक्केण वा दोहिं वा तिहि वा उक्कोसेणं | बीकाइया तहेव पच्चिसएहिं दोहिं णवरं अजिमावो चुएक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरड्या वारसरणं ससीति । एवं जाव वणस्सइकाइया वेइंदिया जाव समजिया । जेणं गरइया णेगेहिं वारसएहिं पवेसणएर्ण वैमाणिया जहा परश्या । सिकाणं पुच्छा, गोयमा ! सिका पवितंति तेणं गरइया वारसएहिं समज्जिया। जणं ऐरझ्या चुलसीति समज्जिया वि णो चुलसीति समज्जिया वा चुलणेगेहि वारसएहिं आएणेण य जहएणणं एक्केण वा दोहिं सीति य णोचुलसीति यसमज्जिया विणो चुलसीतिहि यसवा तिहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति मज्जिया को चुनसीतिहि य णो चुनासीति समज्जिया । से तेणं णेरइया वारसएहि य णो वारसरण य समज्जिया से केणटेणं जाव समज्जिया? गोयमा ! जेणं सिम्फा चलसी. सेणतुणं जाव समज्जिया वि । एवं जाव थणियकुमारा । तिए पवेसणएणं परिसंति तेणं सिष्ठा चुलसीति समज्जिया पुढवीकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! पुढवीकाझ्या णो वारसस जेणं सिछा जहतोणं एकेण वा दोहि वा तिहिं वा उकोमज्जिया णो नो वारसएए य समज्जिया णो वारसए य को सेणं तेसीतिएण य पवेसणएणं पविसति तेणं सिफा णो वारतएण य समजिया वारसएहि समज्जिया वारसएहिय चुलसीति समज्जिया जेणं सिका चनसीइएणं अमेण य गो वारसएण य समज्जिया । से केणणं जाव समाजया | जहमेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उकासेणं तेसीतिवि ? गोयमा! जेणं पुढवीकाइया णेगेहिं वारसएहि य पर्व | एणं पवेसणएणं पविसंति तेणं सिक्का चलसीति य एो सणगं पविसति तेणं पुढविकाइया वारसएहिं समज्जिया। जेणं चुनसीतिए य समज्जिया से तेणटेणं जाव समज्जिया । पुढव काझ्या ऐगोहिं वारसएहिं अएपण य जहएणणं एएसिणं ते गरझ्याण चुन्नसीीते समज्जियाणं हो Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५२ ) अभिधानराजेन्द्रः । सववाय चुन्नसीतिसमज्जियाणं सव्वेसि अप्पाबहुगं जहा बकसपज्जि - या जाव वैमाणिया एवंर जिल्लाको चुलसीति एएसि नंते ! सिद्धाणं चुन्नसीति समाज्जयाणं गो चुलसीतिसमज्जियाणं चुलसीतिए य णो चुल्लसीतिए य समज्जि - याएं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्यो वा मिठा चुलसीतिय हो चुलसी तिय समज्जिया चुलसी तिय समज्जिया तगुणा को चुझसीतिय समज्जिया प्रणतगुणा सेवं जंते ! जंते ! त्ति जात्र विहरs || एवं द्वादशकसूत्राणि चतुरशीतिसूत्राणि चेति । असुरकुमाराः कतिविधाः ॥ केवइयाणं भंते! असुरकुमारा वाससयसहस्सा पत्ता ! गोयमा ! चोयट्टि असुरकुमारा वाससयसहस्सा पष्पत्ता, वे भदंत ! किं संखेज्ज वित्थडा असं खेज्ज वित्थडा ? गोयमा ! संखेज्ज वित्थड विसंखेज्जवित्थडा वि । चोयट्ठियाणं भंते ! असुरकुमारा वाससयसहस्सेसु संखेज्जावत्थडेसु असुरकुमारा वाससयसहस्सेसु एगसमएणं केबइया असुरकुमारा उदवज्जंति, केवइया तेउलेस्सा उववज्जंति, केवइया करहपक्खिया उववज्जंति एवं जहा रयणप्पभाए तब पुच्छा, तहेव वागरणं वरं दोहिं वेदेहिं उववज्जंति, पुंसगवेद्गा ण उववज्र्ज्जति सेसं तं चैव, उब्बतगा वि तहेब वरं असम उच्चइंति, अहिराणी हिदंसणी य ण उव्वद्वेति सेसं तं चैव, पत्ता एस तहेब वरं संखेज्जगा इत्थीवेदगा पत्ता, एवं पुरिसवेदनावि, पुंसगवेदगा णत्थि कोहकसायी सिय अथिसिय रात्थि, जइ श्रत्थि जहोणं एको वा दो वा तिथि वा उक्को सेणं संखेज्जा पत्ता, एवं मारण माया संखेज्जा लोभकसाई पत्ता, सेसं तं चेव, तिसु वि गमएस संखेज्जवित्थडेसु चत्तारि लेस्साचो भायिव्वाओ, एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, णवरं तिसुवि गमसु असंखेज्जा भाणियन्त्रा जाव असंखेज्जा अचरिमा पत्ता ! केवइयाणं भंते ! लागकुमारावासा एवं नाव थरिणयकुमारावासा खवरं जत्थ जत्तियाभवणा ।। करवित्यादि ( संखेज्जवित्थडावि असंखेज वित्थडार्विसि) इह गाथा " जंबुद्दीवसमा खलु भवणा जे हुंति सव्वखुडागा । संखेज्जवित्थमा मज्झिमा उ सेसा श्रसंखेज शि" ॥१॥ ( दोहिं वि वेदेहिं उववजंतित्ति) द्वयोरपि स्त्रीवेदपुंवेदयोरुत्पद्यन्ते, तयोरेव तेषु भावात (असमी उब्वतित्ति) असुरादीनामेवावधिमतामुनेः । श्रहिनाणी हिदंसणी न उब्वहंतिति ) असुराद्युद्वृत्तानां तीर्थकरादित्वाभावात्, तीर्थंकरादीशानान्तदेवानामसशिष्वपि पृथिव्यादिषूत्पादात् (पश्चताप तहेवत्ति ) प्रशप्तकेषु प्रज्ञप्तपदोपलक्षितगमाधीतेष्वसुरकुमारेषु तथैव यथा प्रथमोद्देशके “कोहकसाई इत्यादि" क्रोधमानमायाकपायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्कत्वादत उक्रम् "सिय श्रत्थि इत्यादि " लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तम् "संखेज्जा लोभकसाई पात्तति" "तिसुषि उबवाय गमसु चत्तारि लेस्साश्रो भणिश्रव्वाश्रोप्ति " उववज्भंति उब्वनंति पश्नत्तेत्येवंलक्षणेषु त्रिष्वपि गमेषु चतस्रो लेश्यास्तेजोलेश्यान्ता भणितव्याः एता एव सुरादीनां भवन्तीति । ( तत्थ जन्तिया भवणात्त ) यत्र निकाये यावन्ति भवनलक्षाणि तत्र तावन्त्युच्चारणीयानि यथा-" चउसट्ठी असुराणं, नागकुमाराण होइ चुलसीई । वावन्तरि कणगाणं, वाउकुमाराण कुमाउई " ॥ १ ॥ दीवादिसा उदहोणं, विज्जुकुमारिदथणियमग्गेणं । जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सन्ति |२| केवइयाणं भंते ! वाणमंतरा वाससयसहस्सा पात्ता ! गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरा वाससययसहस्सा पछात्ता, तेां भंते! किं संखेज्जावित्थडा असंखेज्जवि - त्थढा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा णो असंखेज्जवित्थडा । संखेज्जेसुगं भंते! वाणमंतरा वाससयसहस्सेसु एगसमरणं केवइया वाणमंतरा उववज्र्ज्जति ? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिमि गमगा तहेव नायिव्वा, वाणमंतराण वि तिमि गमगा | व्यन्तरसूत्रे ( संखेज्ज वित्थडत्ति ) इह गाथा " जम्बुद्दीवसमा खलु, उक्कोलेणं हवंति ते नगरा । खुड्डा खेत्तसमा खलु, विदेहसमगाउ मज्झिमगत्ति ॥ ३ ॥ केवइयाणं जंते ! जोइसियत्रिमाला वासस्यसहस्सा पमाता ? गोयमा ! संखेज्जा विमाणा वाससयसहस्सा प छात्ता, ते भंते । किं संखेज्जवित्यमा एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाण वि तिमि गमगा जाणियव्वा, एवरं एगा उस्सा उववज्जंतेसु पष्पत्तेसु य असी स्थि सेसं तं चैव ॥ ज्योतिष्कसूत्रे संख्यातविस्तृता विमानावासा एगसfoभाग काऊण जोयणमित्यादिना प्रन्थेन प्रमातव्याः नवरं (एगा तेउलेस्सत्ति) व्यन्तरेषु लेश्याचतुष्टयमुक्तमेतेषु तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या, तथा उववज्जंतेसु पसलेसु य असी नत्थित्ति । व्यन्तरेष्वसंज्ञिन उत्पद्यन्त इत्युक्तम् इह तु तनिबेधः, प्रशप्तेष्वपीह तनिषेध उत्पादाभावादिति ॥ सोहम्मेणं जंते ! कप्पे केवइया विमाणावासस्य महस्सा पात्ता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससय सहस्सा पत्ता, ते नंते ! किं संखेज्जवित्यमा असंखेज्ज वित्थमा : गोयमा ! संखेज्जावित्यमा वि असंखेज्जवित्थमावि । सोहम्मे जंते ! बत्तीस विमाणावाससयसहस्से संखेज्जवि - त्थडे विमाणे एगसमएणं केवझ्या सोहम्मगा देवा जववज्जंति, केवइया तेजलेस्सा उववज्जंति, एवं जहा जोइसियाणं तिपि गमगा तहेव तिथि गमगा जाणियव्वा, नवरं तिसु विसंखेज्जा जाणियन्वा, प्रोहिणाणी हिदंसणीय चया देयव्वा सेसं तं चैव । असंखेज्जवित्यमा वि एवं चित्र तिष्ठ गमगा य, णवरं तिसु वि गमएस असंखेज्जा जाणिव्वा, हिणी य हिदंसणी संखेज्जा चयंति सेसं तं चैव एवं जहा सोहम्मबत्तव्त्रया नजिया तहा ईसा बग्गमगा जाणियव्वा, सकुमारे वि एवं चैव वरं For Private Personal Use Only Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नववाय अभिधानराजेन्डः। रवाय इत्यावेदगाण नबज्जति, तेसु पसत्तेसु य ग जाति, अ- रविमाणे एगसमएणं जहमेणं एको वा दो वा तिथि वा समी तिमु वि गमिएसु ण नपति सेसं तं चैव । एवं उकासेणं संखज्जा अणुत्तरोववाइया उववज्जति, एवं जहा नाव सहस्सारो गाणात्तं विमाणेसु लेस्सासु य सेसंतं चेव ॥ गविज्जगविमाणेसु संखेज्जवित्थमेसु एवरं काहपक्खिया सौधर्मसूत्रे भोहिणाणीत्यादि ततश्च्युता यतस्तीर्थकरादयो अभवसिफिया तिमु अप्लाणेमु एएण उववज्जति, ण चजवन्त्यतो अवधिज्ञानादयश्चावयितव्याः। श्रोहिनाणी श्रोहिदं यंति, ण वि पत्तएसु नाणियव्वा । अचरिमावि खोमिसणी य संखेज्जा ( चयंतित्ति) संख्यातानामेव तीर्थकरादित्वे जंति, जाव संखज्जा चरिमा पामत्ता, सेसं तं चेव असंखेमोत्पादादिति (उम्गमगत्ति) उत्पादादयस्त्रयः संख्यातविस्तृतानाश्रित्य पत एव च त्रयोऽसंख्यातविस्तृतानाधित्यैवं षङ्गमाः। ज्जवित्थमेसु वि एएण जयंति, अचरिमा अस्थि सेसं जहा नवरं स्थिवेयगेत्यादि । स्त्रियः सनत्कुमारादिषु नोत्पद्यन्ते, नच गेवेज्जएसु असंखेजवित्यमेसु जाव असंखेना अचरिमा सन्ति उत्तौ तु स्युः (असमी तिसु विगमपसुन भम्पत्ति) पम्पत्ता॥ सनत्कुमारादिदेवानां संझिन्य एवोत्पादेन च्युतानां च संझिम्वे- (पंच अणुत्तरोबवाश्यति) तत्र मध्यम संख्यातविस्तृतं जोव गमनेन गमत्रयेऽप्यसंज्ञित्वस्यानाधादिति (पवं जाय सह- जनलकप्रमाणत्वादिति । नवरं कण्डपक्खियेत्यादि । इह सम्यस्सारोत्ति) सहस्रायन्तेषु तिरश्चामुत्पादनासख्यातानां त्रिवपि ग्दृष्टीनामेवोत्पादात् कृष्णपाक्तिकादिपदानां गमत्रयेऽपि निषेधः गमेषु नाचादिति (नाणाविमाणेसु बेस्सासुयत्ति)तत्र विमा (चरिमावि कामिज्जतित्ति) वेषां चरमो ऽनुत्तरदेवभवः स मेषु नानात्वं वत्तीस अट्ठावीसेत्यादिना ग्रन्थेन समवसेयम् एव ते चरमास्तदितरे त्वचरमास्ते च निषेधनीया यतश्वरमा सेश्यासु पुनरिद " तेठ १ तेक २ तह तेचपम्ह ३ पलाय । एव मध्यमे विमाने उत्पद्यत इति । असंखजवित्थडेसुवि (पए पलसुका य ५।सुक्काय ६ परमसुक्काऽसुक्क विमाणवासीयंति" न भमंतित्ति) श्हेत इति कृश्नपाक्षिकादयः। नवरं (अचरिमा ॥ १॥ इह च सर्वेष्वपि शुक्रादिदेवस्थानेषु परमाळेति ॥ अस्थित्ति ) यतो बाह्यविमानेषु पुनरुत्पद्यन्त इति ॥ श्राणयपाणएसुणं ते! कप्पेसु केवड्या विमाणावाससया चोयट्ठीए णं ते! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखज्जपमत्ता चचारि विमाणावाससया पध्मत्ता । तेणं ते! किं वित्यमेसु असुरकुमारावासेस किं सम्मद्दिट्ठी असुरकुमारा संखेज्जा पुच्छा, गोयमा ! संखेजवित्थमा वि असंखेज्जवि- उववज्जति, मिच्छदिही एवं जहा रयणप्पनाए तिमि श्रा स्थमा वि, एवं संखेजवित्थ मेसु तिमि गमगा जहा सह मावगा नणिया तहा असंखेज्जवित्थ मेमु वि तिमि गमगा, स्मारे, असंखेज्जवित्थमेसु जववज्जति तेसु य चयं तेसु य एवं जाव गेवेज्जविमाणे अत्तरविमाणेसु एवं चेव, णवरं एवं चेव संखेजा जाणियच्चा, पमत्तेमु असंखेज्जा, एवरं तिसुवि पालावएमु मिच्छदिछी सम्मामिच्छादिही य णं णो इंदियओवउत्ता अम्तरोववामगा आणंतरोवगाढा अणं जपत्ति सेसंत चेव । सेणुणं ते काहस्से गीललेस्मे तराहारगा अणंतरपज्जत्तगा य एएसिं जहमेणं एको वा जाव मुक्कनस्से नवित्ता कएहलेस्सेसु देवेसु उज्जति ? दो वा तिमि वा नक्कोसेणं संखेजा पमत्तेसु असंश्लेज्जा हंता गोयमा! एवं जहेव गरएस पढमे उद्देसे तहेव जाजाणियव्वा । आरणच्चुएसु एवं चेव जहा आणयपाणएम णियव्वं, णीनलेस्साए वि जहेव णेरइयाणं, जहा पीलसाणात्तं विमाणेसु, एवं गेवेज्जगावि ।। लेस्साए एवं जाव पम्हलेस्सेसु सुकलेस्सेसु एवं चेव, णवरं अनतादिसूत्रे। संखज्जवित्थोसु इत्यादि। उत्पादे अवस्थाने व्यव लेस्सागणेसु विसुज्माणेसु विसुकमाणेसु सुक्कलेस्सा नेन च संख्यातविस्तृतत्वाद्विमानानां संख्याता पव भवन्तीति भावः । असंख्यातविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः संख्याता एव, परिणमइ, परिणमश्त्ता सुकमेस्सेस देवेसु उववज्जति से यतो गर्नजमनुष्येज्य एव प्रानतादिपूत्पद्यन्ते, न ते च संख्या तेष्टेणं जाव उववज्जति । सेवं नंते ! भंतेत्ति ॥ ता एव । तया श्रानतादिन्यच्युता गर्नजमनुष्येज्य एवोत्पद्यन्ते ( तिमि आलावगत्ति ) सम्यग्दृष्टिमिथ्यारष्टिमिश्ररष्टिमतः समयेन संख्यातानामेवोत्पादच्यवनसम्नवोऽवस्थितिस्त्व- विषया इति । नवरं तिसु वि मालवगेसु इत्यादि, उप्पत्तिए संख्यातानामपि स्यादसंख्यातजीवितत्वेनकदैव जीवितकाले चवणे पश्चात्ता लावए य । मिथ्याष्टिः सम्यग्मिथ्याष्टिश्च असंख्यातानामुत्पादादिति । पमत्तेसु असंवेज्जा नवरं नो ई- न वाच्योऽनुत्तरसुरेषु तस्यासम्भवादिति।भ०१३ श० उ०२। दिओचनुत्तेत्यादि । प्राप्तगमके असंख्यया वाच्याः केषनं नो | (१०) नैरयिकादयः कुत उत्पद्यन्ते । इन्द्रियोपयुक्तादिषु पञ्चसु पदेसु संख्याता एव तेषामुत्पादाव- नेरइयाणं जंते कोहिंतो उववज्जति किं रइएहितो उसर पव नावातुत्पत्तिश्च संख्यातानामेति दर्शिते प्रागिति॥ | ववज्जात तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति मणुस्सेहितो - कह णं जंत ! अणुत्तरविमाणा पमत्ता ? गोयमा ! पंच ववज्जति देवेहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! नेरइया नो नेर अणुत्तरविमाणा पायचा, तेणं ते! किं संखेज्मवित्थमा एहिंतो उववज्जति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति मअसंखज्जवित्यमा ? गोयमा! संखेज्जवित्थमा य असंज्ज णुस्सेहितो नववज्जति नो देवेहिंतो नववज्जति जदि तिवित्थमा य । पंचसु णं जंते! अणुत्तरविमाणेमु संखेज्जवि- रिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं एगिदियतिरिसखजोत्यो विमाणे एगसमए केवइया अशुत्तरोववाश्या नव- पिएहिंतो उववज्जति बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवव. वनंति, केवइया सुकनेस्सा नववज्जति पुच्छा तहेव, गो- जति तेदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति चलरिदियमा । पंचसु णं अयुत्तरविमाणेसु संखेज्जावित्यो अनुच- यतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति पंचिंदियतिरिक्खजोणि Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अभिधानराजेन्दः । उववाय एहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! नो एगिंदिया नो बेदिया | साज्यगन्भवतियचउप्पयथलयरपचिंदियतिरिक्खजोनो तेइंदिया नो चनरिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति णिएहिंतो उववज्जति किंअसंखेज्जवासाउयगम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो नववज्जति । जापंचिदिय- चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं जलयरपंचिंदियतिरि- ति । ? गोयमा ! संखेज्जवासाउएहितो उववजंति नोक्खजोणिए हितो नववनंति थायरपंचिंदियतिरिक्खजो असंखेज्जवासाउएहिंतो उववज्जति। जदि संखेन्जवासाणिएहिंतो नववज्जतिखहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उयगन्भवतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजाोणएउववज्जति ? गोयमा ! जलचरपचिंदियतिरिक्वजोणि | हिंतो उववज्जति किं पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयगम्भवएहितो नववज्जति थलचरपंचिंदियतिरिक्वजोणिएहितो वि कंतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उन उववम्मति खहयरपंचिंदियएहिंतो वि नववज्जति । जदि वज्जति किं अपज्जत्तगसंखेज्जवासाज्यगन्जवतियजलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजात किं सम्मु- चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवज्जतिः छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उबवज्जति ग- गोयमा ! पज्जाएहितो उववज्जति नो अप्पज्जत्तपहिंतोज्जवतिय जयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति उववज्जति । जदिपरिसप्पथक्षयरपंचिंदियतिरिक्रवजोणि? गोयमा !सम्मच्छिमजन्नयरपंचिदिएहितो व नवव- एहिती उवाज्जति किं उरपरिसप्पथक्षयरपंचिंदियतिरिक्खज्जति गन्जबकतिजन्नचरपीचदिएहितो वि नववज्जति । जोणिएहितो नववज्जति नुयपरिसप्पथक्षयरपंचिंदियतिजदि सम्मुच्छिमजलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उ रिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितो विउववजति किं पज्जससम्मुच्छिममलचरपंचिंदिएहिंतो उच ववज्जति जदि उरपरिसप्पयनयरपंत्रिंदियतिरिक्खजोणिवज्जति किं अपज्जत्तसम्मुच्छिमजलचरपंचिदिएहिंतो उव एहितो उववज्जति किं सम्मुच्छिमनरपरिसप्पयलयरबज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तसम्मुच्छिमजलचरपाचदिए- पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं गब्भवकंहिंतो उववज्जति नो अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलयरपंचिंदि- तियउरपारसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितोउपहिंतो नववज्जति जदि गन्नवकंतियजलयरपंचिंदियतिरि- ववज्जति ? गोयमा ! समुच्छिमेहितो वि गब्भवति खजोणिएहिंतो जववज्जति किं पज्जत्तगगब्जवतियपंचिं- एहितो वि उववज्जति जदि सम्मुच्चिमउरपरिसप्पथदियएहिंतो नववज्जति किं अपज्जत्तगगन्नवक्रतियजल- सयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो नववज्जति किं पज्जतयरपंचिंदिराहतो उववजति ? गोयमा ! पजत्तगगब्म- एहितो किं अपज्जत्तएहितो? गोयमा ! पज्जत्तगसम्मुच्चिवतियजलचरपंचिंदिरहितो नववजंति नो अप्पज्जत्त- मेहिता नववजति नो अपज्जत्तगसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथमगब्भवतियजलयरपंचिदिएहिंतो उववजंति । यदि सयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो नववज्जति जदि गन्नबलचरपंचिंदियत्तिरिक्खजोणिएहितो नववर्जति किं वकंतियनरपरिसप्पयलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितोनव_ चउप्पयथलयरपंचिदियत्तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति वति किं पज्जत्तएहितो कि अपजत्तएहिंतो? गोयमा! प. किं परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिता उवव- ज्जत्तगन्नवर्कतिएहितो उववज्जति नो अपज्जत्तगज्जवकजंति? गोयमा! चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणि- तिनरपरिसप्पयनचरपंचिंदियतिरिक्खनोणिएहिंतो उववएहितो वि उववज्जति परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख. ज्जनि । जदि लुजपरिमप्पयलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिजोणिएहिंतो वि उववज्जति जदि चउप्पयपचिंदियतिरि- एहिता उववज्जति किं सम्मुच्चिमभुजपरिसप्पथलयरपंचिंक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं सम्मुच्छिमेहिंतो उवव- दियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति गन्जवकंतियत्तुयपरिसज्जति गम्भवतिएहिंतो नववज्जति ? गोयमा सम्मु- प्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजति? गोयमा च्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि- दाहिंता वि नववज्जति जदि सम्मुच्छिमनुजपरिसप्पथल उववज्जति गम्भवतियचउप्पएहितो वि उववज्जति ।। यरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं पज्जत्तयजदि सम्मुच्छिमचउप्पएहितो उववज्जति किं पज्जत्त- सम्मुच्छिमन्नुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो गसम्मुचिमचउप्पयथलयरपंचिदिएहितो उववज्जति किं नववज्जति किं अपजत्तगसम्मच्छिमन्जुयपरिसप्पथक्षयरपंअप्पज्जत्तगथलयरसम्मुच्छिमचउप्पयपंचिंदिएहिंतो उव- चिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जवज्जति ? गोयमा पज्जत्तग जाव उववज्जाते नो अप्प- तएहिंतो नववज्जति नो अपज्जत्तएहिंतो नववज्जति । जत्तगयनयरचउपपयसम्मुच्चिमपचिंदियतिरिक्वजोणिए-1 जदि गन्जवतियनुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोहिंतो उववज्जति । जदि गन्भवतियचउप्पयथलयरपं- पिएहिंतो नववज्जति किं पज्जत्तएहिंतो उववज्जति किं चिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं संखेज्जवा- अपज्जत्तएहिंतो नववज्जति ? गोयमा! पज्जचएहिता उवव Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५५ ) अभिधानराजेन्द्रः । उववाय ज्जंति नो अपज्जतएहिंतो लववज्जति । जदि खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो जववज्जंति किं सम्मुच्छिमवह परपंचिदियतिरिक्खजोविरहितो उवत्रजेति किं गजवकंतियखयर पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्ज्जति । गोयमा ! दोहितो व नववज्र्ज्जति । जदि सम्मुच्छिमस्वहयरपंनिंदियातेरिक्खजोलिएहिंतो जववज्र्ज्जति किं पज्जत्तएहिंतो अपज्जनगर्हितो उववज्जंति ? गोयमा ! पज्जतएहिंतो उववज्जंति नो पज्जतएहिंतो नववज्जंति । जदि गन्भत्रकं तियखहयर पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो जनवज्जंति किं संखेज्जवासाजपहिंतो जववज्अंति संखेज्जवासाउएर्हितो नववज्जति? गोमा ! संखेज्जवासा उएहिंतो नो असंखेज्जवासाउएहिंतो ववज्जति जदि संखेज्जवासाय गन्नवकंतियखहयरपंचदियतिरिक्वजोणिएहिंतो नववज्जंति किं पज्जत्तएहिंतो उबवज्र्ज्जति पज्जतर्हितो उववज्र्ज्जति ? गोयमा ! पत्तएहिंतो उववज्जंति नो अपज्जत्तएहिंतो नववज्र्ज्जति। प्रज्ञा ०६ पद । नैरयिकादीनां स्थित्यादयः । जर पंचिदियतिरिक्खजोगिएहिंतो उववज्जंति किं सपिं चिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उनवज्जंति असटिपंचिदियतिरिक्खजोएिहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! सापिंचिंदियतिरिक्खजो एहिंतो वि नववज्जंति असधिपंचिदियतारक्खजो लिए हिंतो वि ववज्र्ज्जति । जइ यस पिपचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो जववज्र्ज्जति किं जलचरेहिंतो उववज्जति थलचरेहिंतो उववज्र्ज्जति खहचरेहिंतो उत्रवज्जति ? गोयमा ! जलचरेर्हितो नववज्जंति थलचरेदितो वि डववज्र्ज्जति खह रेहिंतो विजववज्र्ज्जति जइ जलचरेयल चरेखढ़ चरेहिंतो जबजति किं पज्जत्तएहिंतो उववज्जति पज्जत्तएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववज्जति हो अपज्जसहिंतो नववज्र्ज्जति । पज्जत प्रसपिपचिदियतिरिक्खजोणिरणं जंते! जे जविए णेरइएस उवत्र ज्जित्तए सेणं जंते ! कसु पुढवी ववज्जेज्जा ? गोयमा !एगाए रयप्पनाए पुढवीए उववज्जेज्जा पज्जत्तप्रसम्मिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएवं जंते! जे नत्रिए रयणप्पनाए पुढवीएस रइएस उवबज्जित से भंते! केवइयका लडिईएस उववज्जेज्जा ? गोयमा! जहां दसवाससहस्सद्वितीएसु नकोसेणं पलियोमस्स असंखेनागडितिसु उववज्जेज्जा ? तें चंते ! नीवा एगसमरणं केवइया नववज्र्ज्जति ? गोयमा ! जहषेणं एको वा दोवा तिथि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववज्जंति ॥ २ ॥ तेसिगं जंते ! जीवाणं सरीरगा किंसघयणीपत्ता ? गोयमा ! बेवडी संघगणीपत्ता तेसिणं जंते जीवाणं के महानिया सरीरोगाहला पत्ता ? गोयमा ! जहोणं गुलस्स असंखेज्जइजागं उकोसेणं जोयएस हस्तं ॥ ४ ॥ तेसिंणं जंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पणत्ता ? गोयमा ! For Private उववाय माणसंठिया पत्ता ॥ ५ ॥ तेसि णं जंते जीवाणं कs साओ पछताओ ? गोयमा ! तिष्टि लेस्साओ पपओ तंजा कहलेस्सा लीललेस्सा काउलेस्सा ॥ ६ ॥ ते जंते ! जीवा सम्मद्दिट्टी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी ? गोमा ! जो सम्म मिच्छादिट्ठी को सम्मामिच्छादिडी ॥ ७ तेणं जंते ! जीवा किं णाणी अप्पाणी ? गोयमा ! शो पाणी पाणी । नियमा हुअणाणी तंजहा मतिप्रमाण । सुणी | | तेणं अंते ! जीवा किं मए जोगी वय जोगी कायजोगी ? गोयमा ! यो मणजोगी बयजोगी वि कायजोगी वि ॥ ७ ॥ तेणं जंते ! जीवा किं सागारोवजत्ता turaria ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि लागा उत्तावि ।। १० ।। तेसि णं जंते ! जीवाणं कई सच्या पत्ता : गोयमा ! चत्तारि सध्या पणत्ता तंजहा आहारसष्ठा जयसमा मेदु सम्मा परिग्गहसा ।। ११ ।। तेसिणं नंते ! जीवाणं कइ कसाया पष्णत्ता ? गोयमा ! च कसाया पत्ता तंजहा कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोकसाए ॥ १२ ॥ तेसिं जंते ! जीवाणं क‍ इंदिया पएलता ? गोयमा ! पंचिदिया पएलत्ता तंजहा सोइंदिए चक्खिदिए जान फार्सिदिए । १३ ।। तेसिणं नंते ! समुग्धाया पएलता ? गोयमा ! तओ समु घाया पणत्ता तंजहा वेदणासमुग्धार कसायसमुम्बाए मारणं तियसमुग्धाए || १४ || तेणं जंते ! जीवा किं सातावेदगा असातावेदगा ? गोयमा ! सातावेदगा वि सतावेदगा || १५ || ते अंते ! जीवा किं इत्थंीवेदगा पुरिसवेदगा नपुंगवेदगा ? गोयमा ! णो इत्थी वेदगा पो पुरिसवेदगा पुंसगवेदगा ।। १६ ।। तेसि णं जंते ! जीवा i hari का विई पणत्ता गोयमा ! जहषेणं अंतो मुदुत्तंउको पुत्रको ॥ १७ ॥ तेसिणं जंते ! जीवाणं कइ ज्वाणा पणत्ता ? गोयमा ! असंखज्जा - ज्जवसाला पएलता ? तेलं जंते ! किं पसत्या अप्पसत्या? गोमा ! पत्था व अप्पसत्या वि ।। १८ ।। तेणं जंत ! पज्जत्ता सप्रिपंचिदियतिरिक्खजोलिएत्ति कालो केचिरं होइ मोयमा ! जहएऐणं अंतोमुद्दत्तं उकोसेणं पुण्यकोमी ॥ १७ ॥ सेणं जंते ! पज्जत्तप्रसरिए पंचिदियतिरिक्खजो लिए रयणपनाए पुढवी रइए पुणरवि पज्जत - सपिंचिदियतिरिक्खजोगिए त्ति केवइयं का सेवेज्जा केत्रइयं का गतिरागतिं करेज्जा ? गोयमा ! जवादेसेणं दो नवगणाई कालादेसेणं जहमेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमन्नहियाई उको सेणं पक्षियोवमस्स त्र्यसंखज्जइनागं पुत्रको डिमन्नहियं एवइयं का सेवेज्जा एवइयं कालं गतिरागर्ति करेज्जा ॥ १ ॥ पज्जत्त असपिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं जंते ! जे नविए जहाकाल डिईएस स्यणप्पना Personal Use Only Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५६ ) अभिधानराजेन्यः । उबवाय पुढवी रइए वववज्जित्तए सेणं जंते ! केवश्यकाल डिइएस ववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहोणं वि दसवाससहस्सईएस उक्कोसे व दसवास सहस्सट्ठिएषु नववज्जेज्जा ॥ १ ॥ तेणं जंते ! जीवा एगसमएणं केवइया जववज्जं ति एवं सव्वावत्तव्या णिरवसेसा जाणियव्वा जाव अणुबंधोत्ति सेर भंते! पज्जतस सिपंचिंदियतिरिक्खजोगिए जहकालाई य रयणभापुढविणेरइए जहष्पकालं पुणरवि अपज्जत्तप्रसधि जाव गतिरागर्ति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवगहरणाई कालादेसेणं जहमेणं दसवाससहस्सा तो मुहुत्तमम्भहियाई उकोसेणं पुव्वकोडी दसवाससहस्सेहिं अमहिया एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा || २ || पत्तयसपिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएवं जंते ! जे नत्रिए जक्कोसका लट्ठिईएस रयप्पना पुढवी रसुववज्जिए सेणं जंते ! केवइयकाल डिईएस उबवज्जेज्जा ? गोयमा ! जहणं पचिमस्स असंखेज्ज जागईिएस कोसेण वि पविमस्स प्रसंखज्जइनागईिएस नवज्जेज्जा तेणं नंते ! जीवा प्रवसेसं तं व जाव प्रबंधो। सेणं जंते ! पज्जत्तप्रसरिणपंचिदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसका डिई यरयप्पन्नापुढवी रइए कसं पुणरवि पज्जत जाव करेज्जा ? गोयमा ! जवादेसेणं दो नवगणाई कालदेसेणं जहएणेणं पक्षियोवमस्स - संखेज्जइना तमुत्तमन्नहियं नक्कासेणं पक्षियो मस्स असंखेज्जइनागं पुण्वकोकी अन्नहियं एश्वयं कालं सेवेज्जा एवइयं का गतिरागतिं करेज्जा जहएए कालडिई य पज्जतअमरिणपंचिदियतिरिक्खजोणिएणं नंते ! जे जविए रय पापुढवी र उबवज्जित्तए सेणं जंते ! केवइयकाल डिएस नववज्जेज्जा' गोयमा ! जहणणेणं दसवामसहस्स– द्विईएसु नक्कोसेणं पल्लियो मस्स असंखेज्जङ्नागट्टिईएस नववज्जेज्जा ? तेणं नंते ! जीवा एगसमपूणं केवति अवसेमं तं चैव णवरं इमाई तिरिए णाणत्ताई आउज्जव साणाणुबंधो य जहणणेणं विईतो मुद्दत्तं उक्कोसे व तमुत्तं । तेसिणं जंते ! जीवाणं केवइया अन्कवसाया पता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्जवसाला पएलत्ता तेयं जंते! किं पसत्या अप्पसत्था ? गोयमा ! णो पसत्या अ सत्या | अणुबंधो अंतोमुत्तं सेसं तं चैष । सेणं जंते ! जहएएकालडिईय पज्जचा असपिंचिदियरयणप्पना नाव करेज्जा ? गोयमा ! जवादेसेणं दो जवग्गहलाई कालादेसेणं जहणं दसवाससदस्साई अंतोमुहुत्तमन्नहियाई सक्कों पक्षियो मस्स असंबेज्जइनार्ग अंतोमुदुत्तमन्नहियं एवइयं का जाव करेजा ॥ ४ ॥ जहएकालय पसरिएणपंचिंदियतिरिक्ख जोणिएवं नंते ! नए जहणकाल हिईएस रयप्पनापुढवी ऐरइ For Private उववाय एस जववज्जित्तए सेणं नंते ! केवश्यकालाईईएस उबबज्जा ? गोयमा ! जहोणं दस्रवाससहस्साfee उक्कोसे व दसवासस्रह स्सहिईएस उबवज्जेजा तेणं जंते ! जीवा सेसं तं चैव । ताई चैव तिरिए णाणत्ताई जाब से जंते । जहएएकालाई य पज्जत जाव जोलिए जहएकालाइ य रयणप्पना पुणरवि जाव ? गोयमा ! जवादेसेणं दो जगहणाई कालादेसेणं जहां दसवाससहस्साइं तो मुहुत्तमन्नहियाई उनको सेणं दसवाससहस्साई तोमुदुत्तमन्नहियाई एवइयं कालं संवेज्जा जाव करेज्जा ॥ ए ॥ जष्मकालयिं पज्जन्त्ता जाव तिरिक्खजोणियाणं नंवे ! जे नविए नक्कोस काल डिएसृ रयण प्पनापुढविणेरएस उववज्जित से जंते ! केवतियकालडिईएसु नववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहएणेणं पनिश्रवमस्स असंस्थेज्जइनागडिईएस उक्कोसेण विपक्षियोवमस्स असंखेज्जइनागट्टिईएस नववज्जेज्जा, तेणं जंते ! त्र्वसेसं तं चैव ताणि चैव तिणिण णाणताई जाब | सेणं जंते ! जहएणकाल डिईयस्स पज्जत जाव तिरिक्खजोगिए उक्कोसकाल हिईपरयणपना जाव करेज्जा ? गोयमा ! जवादेसेणं दो जवग्गहणाई कालादेसेणं जाणं पलिश्रवमस्स असंखेज्जइनागं - तोमुत्तमन्नहियं उकोसेण विपक्षियोवमस्स असंखेज्जइजागं तो मुदुत्तमन्नहियं एवइयं कालं जांव करेज्जा || ६ || उकोसकाल डिईयपज्जत्तप्रसणि पंचिदियतिरिक्खजोलिएअंते ! जे जत्रिए रयप्पना पुढविणेरइएस उववज्जित्तए, से जेते ! केवइयाई जाव डववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहएणं दसवाससहस्सडिईएयु उक्कोसेणं पक्षिश्रवमस्स असंखज्जइजागइिएस उववज्जेज्जा, तेणं भंते! जीवा एगसमरणं अवसेसं जहेव ओहियगमरणं तत्र आगंतव्वं जात्र इमाई दोम्प्राणत्ता लिई जहोणं पुत्रको उकोसे विपुव्वकोमी एवं अणुबंधोवि अवसेसं तं चैव । सें जंते ! उक्कोसका लट्ठियपज्जत्त अस एिएल जाव तिरिक्खजोगिए रयप्पना जाव ? गोयमा ! भवादेसेणं दो जवगहणाई, कालादेसेणं जहएणेणं पुव्त्रकोमी दसहिं वाससहस्सेहिं नहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स संखेज्जइजागं पुत्रकोमीए जहियं एवइयं जाव करेज्जा 9 उक्कोसकान्नईियपज्जत्ततिरिक्खजोणिएवं अंते ! जे नविए जहएएकान्नट्ठिएसु रयणप्पना जाव नवबज्जित्तए सेणं जंते! केवति जाव नववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहणणं दमवाससहस्सडिईएभु उक्कोसेण वि दसवाससहस्मडिएस उववज्जेज्जा, तेर्ण जंते ! सेसं तं चैव जहा सत्तमगमए जाव सेणं नंते ! उक्कोसकालाई जाव तिरिक्खजोएि जहणकालाई य रयणप्पना जाव करेज्जा ? गीयमा ! जवादेसेणं नवरगहणारं कालादेसेणं जहएेणं Personal Use Only Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५७ ) अभिधानराजेन्द्रः । उववाय पुव्वको की दसहिं बाससहस्सेहिं अन्नहिया उकोसेएवि पुव्वकोमी दसाहं वाससदस्सेहिं अन्नदिया एवश्यं जाव करेज्जा ॥ ८ ॥ उक्कोसकालडिश्यपज्जत्त जाव तिरिक्खजोलिएणं जंते ! जे नावए उक्कोसका डिएस रयणप्पना जाव जववज्जित्तए सेणं अंत ! केवश्यं कालं जाव जेज्जा ? गोयमा ! जहएणेणं पचियोवमस्स असंखेज्जइभागडिईएस उक्कोसेण विपक्षिश्रवमस्स असंखेज्जइनागट्टिईएस उववज्जेज्जा, तेणं अंत ! जीवा एगसमए सेसं जहा सत्तमगमए जाव सेणं जंते ! उक्कोसकानट्ठिई पज्जत जाव तिरिक्खजोणिय नक्कोसडिईयरयप्पना जाव करेज्जा ? गोमा ! जवादेसेणं दोनवरगहणाई, कालादेसेणं जहमेणं पक्षियोवमस्त असंखेज्जइज्जागं पुव्वकोमीए अन्नहियं, नक्को सेण विपक्षिओवमस्स असंखेज्जइजागं पुव्वकोमीमजहियं एवयं का सेवेज्जा जाव करेज्जा ॥ ए ॥ एवं एते ओहिया तिमिगमगा | ३ | जहाकाल ट्टिईएस तिष्पिगमगा । ६ । उक्कोसकालट्टिईएस तिषिगमगा | ए | सव्वे ते एव गमगा जवंति ॥ सेणं नंते पजत्ता असतीत्यादि ( नवासेणंति) नवप्रकारेण (दोजवगणाति ) एकत्राशी द्वितीये नारकः ततो निर्गतरसन्ननन्तरतया संहित्यमेव लभते न पुनरसं त्विमिति (का. areसेणंति ) कालप्रकारेण कालत इत्यर्थः दशवर्षसहस्राणि नारकजघन्य स्थितिअन्तमुदृत्तत्यधिकानि श्रसंज्ञिनवसम्ब विजघन्यायसहितानीत्यर्थः ( उक्कोसेणमित्यादि ) ६ प ल्योपमासंख्येयनागः पूर्वभवासंज्ञिनारकोत्कृष्टायुष्करूपः पूर्वकोटीचा इयुत्कृष्टायुष्करूपेति । एवमेते सामान्येषु रत्नप्रजानारत्पित्सवोऽसंज्ञिनः प्ररूपिताः |१| अथ जघन्यस्थितिषु तेथूस्पित्सुंस्तान्प्ररूपथन्नाह ( पज्जतेत्यादि ) सर्व चेदं प्रतीतार्थमेवमुत्कृष्टस्थितिषु रत्नप्रजानार के पूत्पित्सवोऽपि प्ररूपणीया एवमेते भयोगमा निर्विशेषणपर्याप्त काऽसंज्ञिनमाश्रित्योक्ता पवमेव तं ज. कान्यस्थितिकमुत्कृष्टस्थितिकं ३ चाश्रित्य वाच्यास्तदेवमेते नब गमाः तत्र जघन्यस्थितिकमसंशिनमाश्रित्य सामान्यनारकम उच्यते (जोत्यादि) श्राऊ अज्जवसाणाअणुबंधोयत्ति ) आयुरन्तर्मुहूर्तमेव जघन्य स्थितेरसंज्ञिनोऽधिकृतत्वात् अध्यव सायस्थाना यम रास्तान्येवान्तर्मुहूर्त स्थितिकत्वाद्दीर्धस्थितेहिं तस्य द्विविधान्यपि तानि सम्भवन्ति, कालस्य बहुत्वादनुबन्धश्च स्थितिलमान एवेति काय संवेधे च नारकाणां जघन्याया उत्कृष्टायाच स्थितेरुपर्यन्तर्मुहूर्त वाच्यमिति ॥ ४ ॥ एवं जघन्यस्थितिकं तं जघन्यस्थितिकेषु तेषूत्पादयन्नाह - जहाकाल ईत्या दि ॥ ५ ॥ एवं जघन्यस्थितिकं तमुत्कृष्टस्थितिषु तेषूत्पादयन्ना ह-जहमेत्यादि ॥ ६ ॥ एवमुत्कृष्टस्थितिकं तं सामान्येषु तेषूस्पादथमाह-उक्कोस कालेत्यादि ॥ ७ ॥ एवमुत्कृष्टस्थितिकं तं ज. धन्यस्थितिषु तेषूत्पादयन्नाह - उक्कोसकालेत्यादि ॥ ८ ॥ एवमु त्कृष्टस्थितिकं तमुत्कृष्टस्थितिषु तेषूत्पादयन्नाह उक्कोसकालेत्यादि ॥ ९ ॥ एवं तावदसंशिनः पञ्चेन्द्रियतिरवो नारकेषूत्पादो नवोक्तोऽथसंशिनस्तस्यैव तथैव तमाह (जसमीत्यादि ) तिथि नाणा तिमि अपणा ( जयणापत्ति ) । जदि सपिंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति किं जववाय संखेज्जवा साउयस प्रिपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति असंखेज्जवासाज्यसष्टिपांच दियतिरिक्ख जाव उववज्जति गोयमा ! संखेज्जवासाउयस पिपंचिदिय तिरिक्खजी एहिंतो उवज्जति हो असंखेज्जवासाज्य जाव नववजति जदि संखेज्जवासाज्यसमिपचिदिय जाव उबवज्जंति किं जलचरेहिंतो उववज्जति पुच्छा ? गोयमा ! जलचरेदितो उववज्जंति जहा सम्मी जाव पज्जत्तएहिंतो उववज्जंति णो अपज्जत्तएहिंतो उववज्जंति पज्जत्तसंखेज्जवासा यसरि पंचिदियतिरिक्खजो लिएणं नंते ! जेनविए रइएस व ज्जित्तए सेणं ते! कश्सु पुढवीसु ववज्जेज्जा ? गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववज्जेज्जा तंजहा रयपष्पनाए जाव आहेसत्तमाए पंज्जतसंखेज्जवासाजयसमिपचिदियतिरिक्खजोणिएणं नंते ! जे नfar remपजापुढविरइएस उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्टिईएस उववज्जेज्ञा ? गोयमा ! जहगं दसवाससहस्सडिईएस उक्कोसेर्ण सागरोवमट्ठि - ईएस उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवईया उववज्जति जहेव असमी । तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संघयणी पात्ता ? गोयमा ! छव्विहसंघयणी पण्णत्ता तं जहा वइरोसमनारायसंघयणी उसभनाराय जाव छेवसंघयणी । सरीरोगाहरणा जहेव असणं । तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संडिया पत्ता : गोयमा ! छव्हिडिया पत्ता तं जहा समचउरंसालिग्गोहा जाव हुंडा । तेसिणं भंते! जीवाणं कइलेस्सा पत्ता ? गोयमा ! छल्लेस्साओ पात्ताओ, तं जहा कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा । दिट्ठी तिविहावि । तिमिणाणा तिमि श्रारणा भयरणा । जोगो तिविधोवि सेसं जहा सम्म जाव अणुबंधो रणवरं पंचसमुग्धाया श्रादिल्लगा, वेदो तिोि वि । श्रवसेसं तं चैव जाव सेलं भंते ! पज्जत्तासंखेज्जवासाउ य जाव तिरिक्खजोगिए रयणप्पभा जाव करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहषेणं दो भवग्गलाई उको अभवरगहणा, कालादेसेणं जहां दसवास सहस्साई त्र्यंतोमुदुत्तमम्भहियाई उक्कोसे चचारि सागरोत्रमाई चउहिं पुन्नकोडीहिं अन्न हियाई एवइयं कालं जाव करेज्जा | १| पज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव जे भविए जहाकालं जाव से णं भंते! केवइयकालट्ठिएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहमेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उकोसेणं वि दसवाससहस्सट्टिईएस जात्र उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! जीवा एवं सो चेव पढमगमत्र णिरवसेसो जातियन्वो जाव कालादेसेणं जहोणं दसवाससहस्साई अंतो मुदुत्तमन्नहियाई उक्कोसेणं चत्तारि For Private Personal Use Only Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अभिधानराजेन्डः। उक्वाय पुवकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अब्जाहियात्रो स्नेहिं अब्जहिया नकोसेणं चत्तारिसागरोवमाई चनहिं पुएवश्यं काल सेवेज्जा जाव करेज्जा । २ । सो चेव व्यकोमोहिं अनहियाई एवश्यं कानं जाव करेज्जा ॥७॥ उक्कोसकालट्ठिईएसु उववमो जहम्मेणं सागरोवमहिईएसु सो चेव जहप्तकालहिईएसु नववप्ना जहप्मेणं दसवाससहउकोसेण वि सागरोवमहिईएसु अवसेसो परिणामादीवो स्सटिईएस उक्कोसेण वि दसवाससहस्सटिईएमु नववज्जेज्जा भवादेसे पज्जवसाणे सो चेव पढमगमगो णेतब्बो जाव तेणं नंते ! जीवा सो चेव सत्तमो गमो णिरवसेसो आणिकालादेसेणं जहमेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तमब्भहियं, यव्यो जाव जवादेसोत्ति कानादेसणं जहमेणं पुवकोकी उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइ चाहिं पुव्वकोडीहिं अन्न- दसवाससहस्तेहिं अन्नहिया उक्कोसेणं चत्तारिपुवकोमीहियाई एवइयं काल सेवेजा। ३ । जहमकालाई ओ चत्तालीसाए वाससहस्सहिं अब्जहियात्री एवइयं य पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसमिपंचिंदियतिरिक्ख जोणि- आव करेज्जा ।। ७ । नक्कोसकालट्टियपज्जत जाव तिएणं नंते ! जे नविए रयणप्पजापुढवी जाव उबव-| रिक्खजोणिएणं ते ! जे नविए उक्कोसकालट्टिई जाव जित्तए, सेणं जंते ! केवइयकालट्ठिएसु नववजेज्जा ?।। नववज्जित्तए सणं ते ! केवइयकासहिईएस नववज्जेज्जा? गोयमा ! जहम्मेणं दसवाससहस्सडिईएमु नकोसेणं साग-| गोयमा ! जहम्मेणं सागरोवमट्टिईएसु उक्कोसेण वि सागरोरोवमट्टिईएमु नववज्जेज्जा, तेणं नंते ! जीवा अवसेसो सो | वपट्टिएस नववजेज्जा, तेणं जते । सो चेव सत्तमो गमओ चेव गमओ णवरं इमाई अट्ठणाणत्ताई सरीरोगाहणा ज- लिरवसेसो जाणियव्यो जाव जवादेसोत्ति, कालादेसेणं जहप्मेणं अंगुलस्त असंखेज्जइनागं जक्कोसेणं धणुहपुह्त्त- होणं सागरोवमं पुबकोमीए अन्नहियं उक्कासेणं चत्तारि लेस्लायो तिमिआदिवायो णो सम्मदिट्ठी मिच्छट्टिी। सागरोवमा चनहिं पुवकोमीहिं अन्नहियाई एवइयं जाव को सम्मामिच्छट्टिी । णो णाणी दो अप्माण णियमं ।। करज्जा ॥ ॥ एवं एते णव गमगा नक्खेवओ णिक्खेसमग्घाया आदिया तिमि । आनअावसाणा आणुवंधो । वो णवमु वि जहेव असणं, पज्जत्तसंखेज्जवासान्यय जहेब असमीणं अवसेसं जहा पढमगमए जाव काला- सम्मि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं नंते ! जे नविए सकदेखणं जहम्मणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमनहियाई रप्पनार पुढवीए णरएमु नववज्जित्तए सेणं ते ! केवनकोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चनहिं अंतोमुत्तेहिं अ- इयकालढिईएस नववज्जेज्जा जहम्मेणं सागरोवमट्टिईएस जहियाई एवश्यं काझं जाव करेज्जा ।।। सो चेव जह- नववज्जेज्जा, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा सकाईएमु नववमो जहम्मेणं दसवासमहस्सटिईएसु तणं नंते ! जीवा एगसमएणं एवं जहेव सकरप्पनाए उबनक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्टिएम नववज्जेजा तणं भंते ! | वजंतगमनकी सब्वे विणिरवसेसा जाणिवा जाव एवं सो चेव चमत्यो णिरवसेसो जाणियचो जाव काना- जवादेसोत्ति | कामादसणं जहमेणं सागरोवमं अंतोमुटुदेसणं जहमेणं दसवासपहस्साई अंतोमुत्तमजहियाई तमन्नाहियं नक्कोमेणं वारससागरांवमाई चनहिं पुचकामीउकासेणं चत्तानीसं वामसहस्साई चनहिं अंतोमदुत्तेहिं हिं अब्जहियाई एवइयं जाव करेज्जा । एवं रयणप्पनापुअब्भहियाई एवइयं जाव करंज्जा ॥५॥ सो चेव उक्को- दविगमगसरिसा एव विगमा नाणियव्वा एवरं सव्वगमएमु मकानट्टिईएमु उववो । जहणं सागरोवमट्टिईएसु उको वि परश्यहिई य संवेहेसु सागरोवमा नाणियव्या एवं जाव सेण विसागरोवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा, तेणं ते! एवं सो बट्टपुढवित्ति एवरं गेरए लिई जा जत्थ पुढवीए जहचेव चनत्यो गमो गिरवसेसो नाणियव्यो जाव काला- को सिया सा तेण चेव कमेण चडग्गुणा कायव्वा बाबुयप्पदेसणं जहम्मणं सागरोचमं अंतो मुदुत्तमभहियं नकोसणं जाए अट्ठावसिं सागरोवमा चनगुणिया नवंति पंकप्पनाए चतारि सागरोवगाई चनहिं अंतोमहत्तेहिं अन्नहियाई चत्तालीस,धूमप्पनाए अट्ठमडिं,तमाए अट्ठासीति। संघयणाई एवश्यं जाव करेज्जा ।। ६ ।। नक्कोसकालहि य पज्जत्त- वायुयप्पनाए पंचविहा संघयणी तं जहा वरासभनाराय जाव संखेज्जवामाउ य जाव तिरिक्खनोणिएणं भंते ! जे नविए कीलियासंघयाणी, पंकप्पनाए चनधिहसंघयणी,धूमप्पनाए रयणप्पना पुढविणेरइएसु नववज्जित्तए । सेणं भंत ! केवइ- तिविहसंघयणी, तमाए दुविहसंघयणीतं जहा वइरोसभनारायकालट्टिएम नववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहणं दसवास यसंघयणी नसजनारायसंघयण। सेमंतं चेव । पज्जत्तसंखेजमहस्मद्दिईएमु नकोसे सागरोवमट्टिईएमु नववज्जेज्जा, वासाउ य जाव तिरिक्खजोणिएणं ते जे नविए अहे सत्तमतेणं भने जीवा अवमेसो परिणामादीवो जवादेसे पज्जव- पुढवीणरइएमु उववज्जित्तए सेणं ते ! केवश्यकालटिईसाणे एएमि चत्र पढमो गमओ एतव्यो णवरं विई । जह-| एसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहोणं बावीसं सागरोवम पुचकोडी नकोसण वि पुचकामी एवं प्रबंधा वि। महिएसु नक्कासेणं तेत्तीसं सागरोवमट्टिईपसु उववज्जेज्जा ससं तं चेव । काबादसणं नाहमणं पुबकोमी दमहिं वासमह- तेणं तेजीवा एवं जहेव रयणप्पचाए णव गमगा बसी Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५९ . ) अभिधानराजेन्द्रः । उदवाय सच्चेवि वरं वइरोसमनारायसंघयण इत्यी वेदगा ए वनज्ञ्जति मेसं तं चैव जाव णुबंधोत्ति संवेहो जवादे से जहमें तिथि जवरगहणाई उकासेणं सत्त जवग्गहणाई, कान्नादेसेणं जहां बावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहतहिं नहियाई ठक्कोसेणं बासहिं सागरोवमाई चउहिं पुनकोमोहिं नहियाई एवइयं जाव करेज्जा । १ । सो raise ववम् सव्वेव बत्तव्वया जाव जवासोत्ति, कावादेसेणं जहषेणं कान्नादेसी वि तदेव जाय चाहिं पुत्रको अन्नहियाई एवइयं जाव करंज्जा | २| सो चैत्र कोसकान्नडिईएस नववो सव्येव दी जा प्रबंधोति । जयादेसेणं जहणं तिमि जग्गहणाई कोसे गं पंच जवरगहणाई कालादेसेणं जहमेणं तेतीसं सागमा दोहिं तो मुदुत्तेहि अन्नहियाई उक्कोसेणं सागरोत्रमा तिहिं पुव्यको कीहिं अन्नहियाई एवइयं जाव सेवेज्जा । ३ । सो चेव अपणा जहाकालओ जाओस वि. रयप्पना पुढवि जहाकाल्न हिइयवत्तव्या जाणियन्वा जाव जवादेसोत्ति एवरं पदमसंघयणं । इत्यवेदगा जवादेसेणं जहसेणं तिमि जवग्गहगाईको सेणं सत्त जवग्गहणाई कालादेसेणं जहणं वावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहतेहिं अन्नहियाई उकासेणं सागरोमाई चहिंतोसुतेहिं अन्न हियाई एवइयं जाकरेजा || सो चैव जम्बकाल डिईएस नवयो एवं सो चैत्र उत्यो गमो शिरवसेसो जाणियन्त्रो नाव कानासोति | सो चेव उक्कोसकाल हिईएस उबवणे सव्वी जावबंधोत्ति, जवादे जहोणं तिष्ठि नवग्गहणाई उकासेणं पंच जवग्गहलाई कान्नादेसेणं जह तेत्तीस सागरोवमाई दोहिं अंतोनुडुतेहि अन्नहियाई उकासे बावडिं सागरोवमाई अंतोनुदुत्तेहिं अन्नहवाई एव का जाव करेज्जा | ६| सो चैत्र अपा उसका जाओ जहमेगं बाबीसं सागरोत्रमडिईएसु नकोसेणं तेतीसं सागरोत्रमर्द्धिईएस नववज्जेज्जा, ते पंनंते! अवसेसास विसत्तम पुढवी पढ मगमगवत्तव्यया जाणियन्त्रा जाव जवादेसोत्ति वरं विप्रणुबंधो ति, ज णं पुञ्जको कांसे वि पुत्रको मीस तं चैत्र, का देसेणं जगणं वात्रीस सागरोत्रमाई दोहिं पुव्त्रको मीहिं नहियाई, कोसेणं बावडिं सागरोत्रमाई चहि पुनकोमी अन्नहियाई एवश्यं जात्र करेज्जा | ७ | सो चैत्रजहएएका डिएमु उववएणो सब्बेवटी संवेहो वि तत्र सत्तमगमगसरिसो । ८ । सो चैत्र उक्कोसकान्नाहईएस सच्चे विली जाव अनुबंधोत्ति, जवादेसेणं जतिथि जवरगहणाई, उकासेर्ण पंच जवग्गहणाई, का लादेसेणं होणं तेतीसं सागरोवमाई दोहिं पुत्रकोडी हिं उववाय जहियाई उकासे बावहिं सागरोवमाई तिद्धिं पुष्वकोमी अनहियाई एवइयं कार्य जाव करेज्जा | ए | जड़ मगुस्सेहिंतो उववज्जति किं समिमहिंतो उववज्जंति समस्सेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! समस्सेहिंतो उववज्जति णो असविमस्मेहिंतो उववज्जति ज‍ मिस्सेहितो उववज्जति किं संखेज्जवासाज्यसपि - मस्सेहिंतो उववज्जति असंखेज्ज जाव उववज्जंति ? गोयमा ! संखेज्जवासाजयस मिणुतेहितो उववज्र्ज्जति गो असंखेज्जवासाज्य जववज्र्ज्जति । जइ संखेज्जवासान्य जाव उववज्जेति किं पज्जत्त संखेज्जवासाउय जाव उववज्र्ज्जति अपज्जत जाव नववज्जंति ? गोयमा ! पज्जत्तसंखज्जवासाउय जाव उववज्जंति को अपज्जत्त संखज्जवासाउय जाव वज्र्ज्जति ॥ पज्ज्जत संखज्जवासाज्य सीप मस्से जंते ! जे नविए रइएसु नववज्जित्तर से जंते ! कसु पुढवी ववज्जेज्जा ? गोयमा ! सत्त पुढवी ववज्जेजातं जहा रयणप्पना जाव हे सत्तमाए । पज्जत्तसंखेज्जवासाज्यमपिमस्सें अंते ! जे जविए रयप्पा पुढवीएइएस जववत्तिए सेणं जंते ! केवइया कानहिईएस जववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहां दसवासह स्तट्टिईएस उक्कोसें सागरोत्रमहिईएस जववज्जेज्जा, तेणं नंते ! जीवा एसमए केवइया नववज्जंति ? गोयमा ! जहां एको वा दोवा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा जववज्जंति संघयणा सरीरोगाह जहए येणं अंगुलपुत्तं । उक्कोसेणं पंचसयाई । एवं सेमं जहा सविपचिदियतिरिक्खजोणियाणं जाव जवादेसोत्ति वरं चत्तारि णाणातिष्टि प्राणा भयरणाए । छ समुग्घाया केवलिवज्जा लिई अणुबंधो य जहां मासपुहुतं उकोसेणं पुच्त्रकोडी सेसं तं चेत्र । काला देणं जहरणं दसवास सहस्साई मासपुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेर्ण चत्तारि सागरावमाई चहिं पुव्त्रकोडीहिं भहियाई एवइयं जाव करेज्जा । १ । सो चेव जहरणकाल उववरण एस चैव वतव्त्रया गवरं कालादेसेणं जहां दसवास सहस्साई मासपुहुत्तमव्भहियाई उकासेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अमहिया एवइयं जाव केरज्जा । २ । सो चैव उसकालाईसु उववणो एस चैव वत्तव्त्रया - वरं कालादेसंणं जहणणं सागरोवमं मासपुडुत्तमन्भहियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई एवयं जाव करेज्जा । ३ । सो चे अप्पा जकाल जाओ एस चैव वत्तव्वया वरं इमाई खाताई सरीरोगाहरणा जहरणेणं अंगुल पुहुत्तं उकोसे व अंगुलपुत्तं तिथि गाया तिमि अण्णालाभगाए पंच समुग्धाया दिल्ला विई अणुबंधो यज For Private Personal Use Only Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६०) उववाय अन्निधानराजेन्डः। उववाय हएणणं मासपुडतं उक्कोसेणं वि मासपुहुन सेसं तं चेव कोसेणं वि रयणिपुदुत्तं विती जहमेणं वासपुहुत्तं रक्कोसेण माय भवादेसोत्ति । कालादेसेणं जहएणणं दसवासस- वि वासपुदुत्तं एवं अणुबंधोनि सेसं जहा ओहियाणं संवहस्साई मासपुहुत्तमब्भहियाई उकासेणं चत्तारि सागरो- हो उवजिऊण भाणियन्यो । ६ । सो चेन अप्पणा माई चउहिं मासपुदुत्तेहिं अन्नहियाई एवइयं जाव करे- नकोसकानहितीओ जाओ तस्स वि तिमू गमएम इमं ज्जा । ४ । सो चेव जहएणकालढिईएसु उववएणो एस णाणचं सरीगेगाहणा जहमेणं पंचधणुहसयाई उकासेण वि चेव वत्तव्बया चउत्थगमगसरिसा एवरं कालादेसेणं पंचधणुहसयाई ठिती जहम्मेणं पुचकामी उकासेण वि जहएणणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमम्नहियाई उक्को- पुनकोमी, एवं अणुबंधो चि सेसं जहा पढमगमए एवरं सेणं चत्तालीसं वाससहस्साई चउहिं मासपुहुत्तमम्नहि- रश्यद्विती कायसंवेहं च जाणेज्जा । । । एवं जाव बट्ठयाई एवइयं जाव करेज्जा ।। सो चेव उक्कोसकालट्ठिइ- पुढवी एवरं तच्चाए आढवेत्ता एकेक संघयणं परिहायति, एमु उववरण एस चेव गमगो. णवर कालादेसेणं जह- तहेव तिरिक्खजोणियाणं कालादेमो वि तहेव । एवरं एणणं सागरोवर्म मासपुदुत्तमम्नहियं उकोसणं चत्तारि ममुस्सट्टिई जाणियव्वा । पज्जत्तसंखेज्जवासानसाम्ममणुसागरोवमाई चरहिं मासपुडुत्तेहिं एवइयं जाव करेज्जा स्सेणं नंते ! जे नविए अहं सत्तमपुढविणरइएस नवव। ६ । सो चेव अप्पणा उक्कोसकालहिईओ जाव ज्जित्तए सेणं ते ! केवइयकालाईएस उपवज्जेज्जा ? सो चेव पढमगमश्री णेयव्यो णवरं सरीरोगाहणा गोयमा ! जहणणं बावीसं सागरोवमाधिईएसु उक्कोजहएणेणं पंच घणुहसयाई उकासेण वि पंच धणुह - सेणं तेत्तीसं सागरांवमट्टिईएमु उववज्जज्जा तेणं जंते ! सयाई लिई जहएणणं पुन्यकोमी नक्कोसेण वि पुच जीवा एगसमएणं अवसेसो सो चेव सक्करप्पभपुढविंगकोमी एवं अणुबंधो वि । कानादेसेणं जहएगणं पुव्व मओ गेयन्वो गवरं पढमसंघयणं । इत्थी वेयणा ण कोडीदसहिं वाससहस्सेहिं अन्नाहियाई उक्कोसेणं चत्तारि नववज्जति सेसं तं चेव जाव अणुबंधोत्ति । नवादसेणं दो सागरोवमाई चरहिं पुवकोडीहिं अजहियाई एवइयं नवग्गहणाई कालादेसेणं जहाणं वाव सं सागरोवमाई वाकालं जाव करेज्जा । ७। सो चेव जहाकालटिईएसु उव सपुदुत्तमजहियाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोधमाई पुचके - .वमो सब्वे व सत्तमगमगवत्तव्वया वरं कालादे डीए अब्नहियाई एवइयं जाव करेजा ? सो चेव जहालसेणं जहम्मेणं पुब्बकोडी दसवाससहस्साह अब्भहिया | कालटिईएसु नववरणो एस चव वत्तव्यया एवरं ऐरइयनक्कासेणं चत्तारि पुनकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्से- डिई संवहं च जाणेज्जा ।। सो चेव उक्कोसकालहिइएम हिं अन्नाहेयाओ एवश्यं जाव करना।। सो चेव नको- उववएणो एम चेव वत्तब्धया णवरं संवेहं च जाणेज्जा।। मकालाहिईएमु नववमो सा चेव सत्तमगमगवत्तव्नया णवरं सो चेव अप्पणा जहएणकालढिईओ जाओ तस्स गि कालादमणं जहणं एगं सागरोवमं पुच्चकोमीए अब्ज तिम गमएसु एस चेव वत्तव्बया णवरं सरीरोगाहणा जहियं नकोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चनहिं पुबकोमीहिं हएणणं रयणिपुदुत्तं नक्कोसेण वि रयणिपुदुत्तं, लिई जअम्भाहियाई एवश्यं काझं जाव करेजा । । । पज्जत्तसं- हएणणं वामपुदत्तं नकोसेण वि वासपुहत्तं एवं अणुवंखेज्जवासान य समिमस्सेणं जंते ! जे जविए सकरप्प धो वि संवेहो नवजंजिका जाणियव्यो ।६। सो चेव अजाए पुढवीए णेश्ए जाव उववजित्तए सेणं जंते ! केवइ प्पणा उक्कोसकाझट्टिईओ जाओ तस्स वि तिमु गमएम यं कालं जाव उबवज्जेज्जा? गोयमा ! जहमेणं सागरोवम एस चव वत्तव्वया णवरं सरीरोगाहणा जहएणणं पंचडिईएमु नकोसेणं तिमि सागरोवमट्टिईएस नववज्जेज्जा धणुहसयाई उक्कोसेण वि पंचधणुह सयाई ठिई जहएणणं तेणं जंते ! एवं सो चेव रयणप्पनापुढविगमओ णेयव्यो पुनकोडी नक्कोसेण वि पुन्चकोमी एवं अणुबंधो वि । गवरं मरीरोगाहाणा जहरणं स्यणि एहुत्तं उक्कोसेणं पंचध णवमु वि एतेसु गमएसु णेरइयट्टिई संवेहं च जाणेज्जा । हमयाई ठिती जहम्मेणं वासपुदुत्तं पुव्बकोमी एवं अणु सम्वत्य नवग्गहणाई दोभि जाव णव गमएसु कालादेसेबंधोवि सेसं तं चेव जाव जवादेसोत्ति । कालादेसेणं जहमेणं | णं जहएणणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुष्चकोडीए अन्तहिमागरोवमं वामपुडुत्तमन्नहियं उक्कोसेणं बारससागरोवमाई याई नक्कोसण वि तेत्तीस सागरोवमाई पुचकामी अन्नचनहि पुत्रकोमोहि अनहियाई एवऽयं जाव करेज्जा । हिया एवइयं कानं सेवज्जा एवश्यं काझं गतिरागति करेज्जा।। एवं एसा ओहिएस तिसु गमेस मणुस्समझी णाणत्तं गैर सेवं भंते भंतेत्ति तिमि नाणा तिणि प्रमाणा (जयणापति) इयहिती कालादेसेणं संवेहं च जाणेज्जा । सो चव अप्प तिरश्वां संझिनां नरकगामिना ज्ञानान्य ज्ञानानि च त्रीणि णा जहणकालाहितीओ जाओ तस्स वि तिसु गमएस एस भजनया भवन्तीति द्वे वा श्रीणि वा स्यरित्यर्थः ॥ नवरं चव लकी एवरं सरीरोगाहणा जहणणं रयणिपुदुत्तं उ- पंचसमुग्घाया ( आश्वगत्ति) भसंझिनः पञ्चेन्द्रियतिरश्चन Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (TEF) अभिधानराजेन्द्रः । उबवाय समुद्धता सहिनस्तु नरकं पिपाखो पन्याचा अन्यो योर्मनुष्याणामेव नावादिति । ( जहोणं दो भवग्गणाति ) सचिन्द्रयतिनृत्पद्य पुनर्नरकेत्पद्यते ततो मनुष्येष्येवम धिकृत्य काय संवेधे नवद्वयं जघन्यतो भवति एवं जवग्रहणाष्टकमपि भावनीयम् । अनेन चेदमुक्तं सझिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ् ? ततो नारका २ पुनः सननरकः ४ पुनः सज्झिपवेन्द्रियतिर्यङ्ग ५ पुनर्नारकः ६ ततः पुनः सज्झिपञ्चे पुनस्तस्यामेव पृथिव्यां नारकः इत्येवम देव वारानुत्पद्यते नवमे नवे तु मनुष्यः स्यादिति एवमधिक श्रधिकेषु रत्पादितोऽयं वेद प्रथमो गमः । पचतेत्यादि स्तु द्वितीयः सेो येष उसकाले इत्यादिस्तु तृतीयः। जदकालडितीयेत्यादिस्तु चतुर्थः । तत्र च । नवरं इमारं श्रनासाईति । तानि वर्ष-तत्र शरीरावगाहनोत्कृष्ट योजनस हस्रमुक्ता इह तु धनुः पृथक्त्वं तथा तत्र लेश्याः षट् इह त्वाद्यास्तिस्रः तथा तत्र दृष्टिः त्रिधा इह तु मिथ्यादृष्टिरेव तथा तत्राऽज्ञानानि त्रीणि भजनयेह तु द्वे एवाशाने । तथा तत्राद्याः पञ्च समुद्धाता इह तु त्रयः । श्रऊश्रज्झवसाणा, श्रणुधोय जब मांति । जघन्यस्थितिकासंहिगम हवेत्यर्थः । ततश्चायुरिहान्तर्मुहूर्तम् अध्यवसायस्थानाम्यप्रशस्तान्येवानुबन्धोऽप्यन्तर्मुहूर्तमेवेति (अवेससमित्यादि) अव शेषं यथा सः प्रथमगमे श्रीधिक इत्यर्थः । निगमनवाक्यं वेदम (असेसो सो येथ गमप्रति तदर्थस्य गमत्यादिति सा चैव कालेत्यादिस्तु सविषये प मो गमः इह च । ( सोचेचत्ति ) स एव सज्झी जघन्यस्थितिकः । " सो चेव उक्कोसे " त्यादिस्तु षष्ठः । उक्कोसकालेत्यादिस्तु सप्तमः । तत्र च ( एस बेव पमगति) एतेषामेव सज्झिनां प्रथमगमो यत्त्रौधिक श्रधिकेषूत्पादितः । नवरमित्यादि । तत्र जघन्याप्यन्तर्मुहूर्तरूपा सज्शिनः स्थिति 66 35 सेहन यायेत्यर्थः । एवमनुबन्धोऽपि तपत्यासस्येति । ७ । सो चेवेत्यादिरष्टमः । इह च । ( सोचेत्ति ) स एवोकष्टस्थितिक संधी उक्कोसेत्यादिर्नयमः" उपनिक्लेवोइत्यादि ” तत्रोपक्षेपः प्रस्तावना ( १६००० ) स प्रतिगमनचित्वेन स्वयमेव वाच्यो निक्षेपस्तु निगमनं सोऽप्येवमेवेति पर्यातक संख्यातवर्षायुष्कसन्दिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकमाश्रित्य रत्नप्रभा वक्तव्यतोक्ता श्रथ तमेवाश्रित्य शर्करप्रभा वक्तव्यतोच्यते तत्रीधिक श्रधिकेषु तावदुच्यते पज्जतेत्यादि । (लद्धी सचेव निरवसेसा भाणियव्यत्ति ) परिमाणसंहननादीनां प्राप्त्यैव रत्नप्रभायामुत्पित्सोबक्ता सैव निरवशेषा शर्करप्रभायामपि भवितव्येति । ( सागरोषमअंतोन्मदिति ) द्वितीयायां जघन्या स्थितिः सागरोपममन्त च सहिभवत्कमिति । उक्कोसेणं बारसेत्यादि द्वितीयायामुत्कृष्टता सामरोपमत्रयस्थितिस्तस्था अनुगुणत्वं द्वादश एवं पूर्वकोयोऽपि चतुर्षु संहितिर्य नवेषु चत पयेति । ( मेरश्यहिती संवेदे सुखागरोपमाप्राणिति ) रत्नप्रभायामायुद्धरिसंवेधद्वारेच दशवर्षसहस्राणि सागरोपमं चाहतीयादिषु तत्क 66 तश्च सागरोपमा एयेव वाच्यानि यतः " सागरमेगं १ तिय 2 सत्त, ३ दस य ४ सत्तरस ६ तह य बावीसा । ६ । तेतीसा जाच विती ७ सत्तसु वि कमेण पुढवीसु ॥ १ ॥ " तथा जा पढमाए जेडा, सा वीयाए कणिट्टिया नणिया । तरतमजोगो एसो, दसवास सहस्रमणापत्ति ॥ २ ॥ रत्नप्रनागमतुल्य 35 नववाय नवापि गमाः कियद्दूरं यावदित्याह ( जाव पुढवत्ति ) चचगुणा कायव्वति ४ उत्कृष्टकायसंवेधे इति । ( वालुयप्पनाए महाषी संति) तप सप्ता चतुर्गुणाविशतिः स्यादेतत्रापीति ( बाप्पा पंच विषयपति) मायबोरे दि पृथिव्योः तृतीया चतुर्थी पञ्चमी २ पट्टी २ सप्तमी एक संन हीयते इति । अथ सप्तमपृथिवीमाधित्वादन्यादि ६त्थिवेया न ववज्जतित्ति ) षष्ठधन्तास्वेव पृथिवीषु स्त्रीणामुत्पत्तेः । ( जोणं तिथि नवग्गहणाईति ) मत्स्यस्य सप्तमपृविनारकत्वेनोत्पद्य पुनस्येष्येषोत्पत्ती (तोर्ण सन्तजय माणात) मत्स्योत्या सभ्यां गतः २ पुनर्मत्स्यो जातः ३ पुनरपि सप्तम्यां गतः पुनरपि ६ पुनर्मत्स्य इत्येयमि ति । कालादेसेणमित्यादि । इह द्वाविंशतिसागरोपमाणि जघन्यस्थितिसम्म पृथिवी नारक सम्बन्धीनि अन्तर्मुहूर्त प्रथमतृतीयमत्स्यभयसम्बन्धी नियमाति) वारयं स सम्यां विंशतिसागरोपमा युष्कस्योत्पते तख पूर्वकोटयधतु नारनवान्तरितेषु मत्स्यभवति, तो बचनयते सयां जघन्यस्थितिकीय चारामुत्पद्यत इति कथमन्यथैवंविधं नवग्रहणकालपरिमाणं स्यादिह च काल उत्कृष्टो विवक्तितस्तेन जघन्यस्थितिषु श्रीन् वारानुत्पादित एवं हि चतुर्थी पूर्वकोटिज्यते उन्हस्थितिषुद षट्षष्टिः स.गरोपमाणां भवति पूर्वकोट्यः पुनस्तिस्र एवेति । सो चेव जसकालाईईएस इत्यादिस्तु द्वितीयो गमः ॥ २ ॥ सोचेकोस इत्यादिस्तृतीयः । तत्र च ( उक्कोसेण पंचभवग्गणाइंति ) त्रीणि मत्स्यभवग्रहणानि द्वे च नारकभवग्रहणे अत एव बचनदुष्कृष्टस्थितिषु सम्यां वामेोत्प वसीयते । ३ सोयेव कालो इत्यादिस्तु चतुर्थत (सध्येवरसप्पा चिजमा भाषित) सैप रत्नप्रनागमचकन्यतावरं समयं विशेषः तत्र रत्नप्रभा पट्संप्रदा वा तु समपृथिवी चतुर्थगमे प्रथममेव संदर्भ श्रीवेद निषेधवाच्य इति ॥ ४ ॥ शेषगमास्तु स्वयमेवोयाः मनुष्याधिकारेतिति ) गजमनुष्याणां सई सातानामेवास्तित्वादिति नरं (रात) अवध्यादौ प्रतिपतिते सति केषांचिन्नरकेषूत्पत्तेः आह चूर्णि कारा "मोनियमपजमादारपसरीराणि लकण परिसा किस उपजिणं मासपुदति "मुकं भवति मासद्वयाने नरकं न याति (दसवासदर सारंति) जघन्यं गरका (मास समम्भदियाति) मास जघन्यं नरकयायि मनुष्यायुः ( चत्तारि सागरोवमाति ) उत्कृष्ट रत्नप्रनाना रकनवचतुष्कायुः (चर्चाहिं एव्वकोशी अन्नदिया इति पचतः पूर्व कोटयो नरकयायिमनुष्यवक युः सम्बन्धिन्यः । अनेन चेदमुक्तम् । मनुष्यो नूत्वा चतुर एव वारानकस्यां पृथिव्यां नारको जायते पुन तिर्यक्च प्रयतीति जघन्यकालस्थितिकः । औधिकेषु इत्यत्र चतुर्थे गमे "इमाई पंच जाणता त्यादि "शर रायगाइनेद जघन्येतराज्याममय प्रथम तु सा जघन्यतोऽपृथक्त्वमुतस्तु धनु शतानीति ॥ १ ॥ तथेह त्रीणि ज्ञानानि श्रीएयज्ञानानि जजनया जघन्यस्थितिकस्यैषामेव नावात्पर्य तु चत्वारि ना ॥ २ ॥ तथेहाद्याः पञ्च समृद्धाता जघन्यस्थितिकस्यैषामिव स मनवात् प्राक् परुक्ता अजघन्यस्थितिकस्याहारकसमुद्धातस्या Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उववाय अनिधानराजेन्धः। उववाय पि सम्ञवात् ॥३॥ तथेद स्थितिरनुबन्धश्च जघन्यत बत्कृष्टत- ज्जति नो असंखज्जवासाउयकम्पनूमिगब्नवक्कंतियमणस्सेश्व मासपृथक्त्वं प्राक् स्थित्यनुबन्धो जघन्यतो मासपृथक्त्वमु हिंतो जववज्जति । जदि संखज्जवासाउयकम्मनूमिगन्नवस्कृष्टतस्तु पूर्वकोट्यभिहितेति, शेषगमास्तुस्वयमभ्यूह्याः । शर्करप्रभावक्तव्यतायां (सरीरोगाहणारयणिपुहत्तांत्त) अने क्कंतियमणुस्सेहितो नववज्जति किं पज्जत्तएहितो अपज्जनेदमवसीयते द्विहस्तप्रमाणेभ्यो नितरप्रमाणा द्वितीयायां तएहिंतो? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववज्जति नो अप-- उत्पद्यन्ते इत्यवसीयते । " एवं एसा ओहिएसु तिसु ज्जत्तएहिंतो स्ववज्जति एवं जहा ओहिया उववाश्या तहा गमएसु मणुस्सस्स लद्धीति श्रोहियो श्रोहिएसु" १ श्रो- रयणप्पजापुढवीनेरइया वि उववाएयव्वा । सक्करप्पनापुहिओ जहमट्ठितिएमु २ ओहियो उक्योसहिडएसु त्ति ३" ढवीनेरझ्याणं पुच्छा गोयमा ! एते वि जहा ओहिया तहेव एते श्रौधिकास्त्रयो गमाः ३ एतेष्वेषा उत्तरोक्ता मनुष्यस्य लब्धिपरिमाणसंहननादिप्राप्ति नात्वं त्विदं यदुत ना. नववाएयव्वा नवरं सम्मुच्छिमेहितो पझिसेहो कायव्यो वारकस्थितिकालादेशेन कायसंवेधं च जानीयाः तत्र प्रथमे। बयप्पनापुढाविनेरइयाणं भंते ! कोहिंतो उववज्जति गमे स्थित्यादिकं लिखितमेव द्वितीये तु औधिको जघन्यस्थि- जहा सक्करप्पनापुढवि नेरझ्याणं नयपरिसप्पेहिं तो तिचित्यत्र नारकस्थितिजघन्येतराभ्यां सागरोपमं कालतस्तु वि पमिसेहो कायव्यो पंकप्पना पुढविनेरझ्याणं पुच्छा सम्बेधो जघन्यतो वर्षपृथक्त्वाधिकं सागरोपममुत्कृष्टतस्तु सागरोपमचतुष्टयं चतुःपूर्वकोट्यधिकं तृतीयेऽप्येवमेव नष गोयमा ! जहा बाबुयप्पन्नापुढविनरझ्या नवरं खरं सागरोपमस्थाने जघन्यतः सागरोपमत्रयं सागरोपमचतु- हयरेहिंतो पमिसेहो कायव्यो । धूमप्पनापुढविनेरइयाणं पुप्रयस्थाने तूत्कर्षतः सागरोपमद्वादशकं वाच्यमिति (सचै च्छा गोयमा ! जहा पंकप्पनापुढवी नेरझ्या नवरं चनप्पवेत्यादि चतुर्थादिगमत्रयं । तत्र च (संवेहो उवोजिऊण भाणियब्योत्ति ) स चैवं-जघन्यस्थितिकमाधिकण्वित्यत्र एहितो विपमिसेहो काययो। तमा पुढवीनेरझ्याणं पुग? गमे सम्बेधः कालादेशेन जघन्यतः सागरोपमं वर्षपृथक्त्वा. गोयमा ! जहा धमापनापुढविनेरइया नवरं थायरोहितोपधिकमुत्कृष्टतस्तु द्वादशसागरोपमाणि वर्षपृथक्त्वचतुष्का- डिसेहो कायव्यो इमेणं अनिलावणं । जदि पंचिंदियतिरिधिकानि जघन्यस्थितिको जघन्यस्थितिकण्वित्यत्र जघन्येन कालतः कायसम्बेधः सागरोपमं वर्षपृथक्त्वाधिकमुत्कर्ष क्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं जन्नयरपंचिदिएहिंतो थतश्चत्वारि सागरोपमाणिवर्षपृथक्त्वचतुष्काधिकानि एवं सयरेहिंतो नववज्जति खहयरपंचिंदिएहिंतो गोयमा! जनपष्टगमोऽप्यूह्यः ॥ सो चेवेत्यादि ॥ सप्तमादिगमत्रयं तत्र यरपंचिंदिएहिंतो जववज्जति नो थलयरेहितो नो खहयच ॥ इमं नाणत्तमित्यादि । शरीरावगाहना पूर्व हस्तपृथक्त्वं रेहिंतो नववज्जति । जदि मणुस्सेहिंतो नववज्जति किं कधनुःशतपञ्चस्कं चोक्ता इह तु धनुःशतपञ्चकमेव एवमन्य म्ममिएहितो अकम्मन्नूमिएहितो कि अंतरदीवएहितो? दपि नानात्वमभ्यूह्यम् (मणुस्सट्टिईजाणियब्वति) तिर्यकस्थितिजघन्यान्तर्मुहूर्तमुक्ता मनुष्यगमेषु तु मनुष्यस्थिति - गोयमा ! कम्मनूमिएहिंतो नववज्जति नो अकम्मन्नूमिएतन्या सा च जघन्या द्वितीयादिगामिनां वर्षपृथक्त्वमुत्कृष्टा- हिंतो नो अंतरदीवएहितो उववज्जति । जइ कम्मनूमिएहिंतु पूर्वकोटीति ॥ सप्तमपृथिवी प्रथमगमे " तेत्तीसं सागरोव- तो कि संखेज्जवासानएहितो असंखेज्जवासानएहितो ? माई पुव्वकोडीए अभहियाइंति" इहोत्कृष्टः कायसम्बन्ध गोयमा ! संखेज्जवासाउएहिंतो नो असंखेज्जवासाउएहितो पतावन्तमेव कालं भवति सप्तमपृथिवीनारकस्य तत उद्वत्तस्य मनुष्येष्वनुत्पादेन भवद्वयभावेनैतावत एव कालस्य भावा उववज्जति जदि संखेज्जवासाउएहिंतो किं पज्जत्तएहितो अदिति ॥ भ० २४ श० १०॥ पज्जत्तएहिंनो उवधजति ? गोयमा! पज्जत्तएहिंतो उववज्जति जदि मास्सहिंतो नववज्जांत किं सम्मच्छिममाणस्से- नो अपज्जत्तरहिंतो जदि पज्जत्तसंखज्जवासानयकम्पनूमिहिंतो उववज्जति गन्नवतियमणुस्सहिंतो उववज्जति ?| एहिंतो नववज्जति किं इत्थीहिंतो उववजंति पुरिसंहिता गोयमा ! नो सम्मुच्चिममस्से हिंतो उववर्जति गन्न- उववज्जति नपुंसएहिंतो नववज्जति ? गोयमा ! इत्थीहितो वक्कंति य मणुस्सहिंतो उववज्जाते जदि गन्नववकंति- वि पुरिसेहिंतो वि नपुंसरोहितो वि उववज्जति । अहे सत्तमा यमणस्मेहिंतो उववज्जति किं कम्मन्नूमिगज्जवक्कंति- | पुढवीनेरइयाण नंते ! कोहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! यमणुस्सेहिंतो उववज्जति अकम्मनूमिगन्नवक्कंतिय मणु- एवं चेव नवरं इत्याहिंतो पढिसेहो कायव्यो "असन्नी खबु सहिंतो उववज्जति अंतरदीवगन्नवक्कंतियमास्सहिंतो पढम, दोच्चं सिरीसवा तश्यपक्खी । सीहा जति चनस्थि, उववज्जंति ? गोयमा ! कम्मचूमिगम्भवक्कंतिय मणु- उरगा पुण पंचमी पुढवीं । १। गहिं च त्थियाओ, मच्ा स्महिंतो नववज्जति नो अकम्मगन्नवक्कंलियमणुस्से- मणुया य सत्तमि पुढविं । एसो परमुवयाओ, बोधवो नहिंतो उववति नो अंतरदीवगब्जवक्कंतियमणुस्से हितो रगपुढवीणं । २। उववज्जति । जदि कम्मचूमिगन्जवक्कतियमणुस्सेहितो न असुरकुमाराणां यथाबवज्जति किं संखज्जवासाउयगन्नवक्कतिएहिंतो उवव- असुरकुमाराणं नंते ! कोहिंतो उववज्जति गोयमा ! ति असंखज्जवासानएहिंतो उववज्जति ? गोयमा सं- नो नेरइएहिंतो उववज्जति तिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति खज्जवामानयकम्ममिगन्जवक्कंतियमणुरसहिंतो नवव- मास्सहिंतो नववज्जति नो देवहिंतो उववज्जति एवं जे Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवधाय अन्निधानराजेन्मः। उववाय हिंतो नेरइयाणं उववाओ तहितो असुरकुमाराणं विना- मणं तिमि पनिओवमाइं नक्कासेण वि तिमि पनिओवणियव्वं नवरं असंखेज्जवासाउयप्रकम्मनूमिग अंतर दोग- माई एवं अणुबंधोवि । कानादेसणं जहएणणं उ पलिओमणुस्मतिरिक्खजोणिएहिंतो वि नववज्जति सेसं तं चेव चमाई जक्कोसेण विउ पलिश्रोषमाइं एवश्यं सेसं तं चैव एवं जाव थपियकुमारा । प्रा०६ पद। ।३ । सो चेव अप्पणा जहाकावडिईयो जाओ जहोणं पज्जत्त असम्मिपचिपियतिरिक्वजोणिएणं नंते जे भविए दसवाससहस्सटिईएमु उक्कोसाणं सारेगं पुचकामी आअसुरकुमारेसु नववज्जित्तए से णं नंते ! केवश्यका- नएसु उववज्जेज्जा ? तेणं नंते ! अवससं तं चेव जाव नलट्ठिइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा : जहएणणं दसवास वादेसोत्ति णवरं ओगाहणा जहएणणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसहस्सटिइएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभाग सेणं सारेगं धाणुहसहस्रं । ठिई जहएणणं सारेगा पुन्चछिइएमु उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा एवं रयणप्पभा- कोमी नक्कोसेण वि साइरेगा पुत्वकोमी एवं अणुबंधोवि । गमगसरिसा णववि गमगा भाणियव्वा वरं जाहे अ. कालादसेणं जहएणणं सारेमा पुच्चकोमी दसवारुतहप्पणाजहएणकालटिइओ भवइ ताहे अज्झवसाणा पस- स्सहिं अन्नहिया नक्कोसेणं साइरेगा दो पुचकामी स्था णो अप्पसत्था तिसु वि गमएमु अवसेसं तं चेव । एवश्यं जाव संवेज्जा । । सो चेव जहमकालहि एसु जदि सएिगपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति उववएणी एस चव वत्तव्वया णवरं असुरकुमारकि संखेज्जवासाउयसएिण जाव नववजांत असंखज्ज- हि संवेहं च जाणेज्जा ।ए। सो चेव नक्कोसकालटिइवासाउय जाव उववज्जंति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउ- एमु नववो जहाणं साइरेगं पुवकोमी आउएमु उक्कोय जाव उववज्जति असंखेज्जवासाउय जाव उववज्जति से। वि साइरेगपुचकोमी आउएसु नववज्जेज्जा सेसं तं असंखेजवासाउय सएिणपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं - चत्र एवरं कालादसेणं जहएणणं साइरेगा दो पुचकामीने ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जिसए सेणं भंते ! ओ नक्कोसण वि साइरंगाओ दो पुचकोमीओ एवइयं केवइयकालट्ठिइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहएणणं कालं जाव करेजा। ६ । सो चेव अप्पणा उक्कोसकादरावाससहस्सटिइएमु नक्कासेणं तिमि पनिओवमट्टिइएसु लहिईओ जाओ सो चेव य पढमगमगोजाणियब्यो एवरं नववज्जेज्जा । तेणं नंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा, गोय- | हिई जहएणणं तिमि पलिओचमाई उक्कोसेण वि तिमि मा ! जहमणं एक्को वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं सं- पलिओवमाइं एवं अणुबंधो वि कालादेसणं जहएणेणं ग्वेज्जा वा नववज्जति, बरोसननारायसंघयणी ओगाहणा तिमि पनिोपमाई दसहिं वाससहस्सेहिं अब्जहियाई उ. जहोणं धणुहपुहुत्तं नक्कोलेणं 3 गानयाई समचउरंससं. क्कोसेणं उपलिभोक्माई एवश्यं जाव सेवेजा। ७ । सो गणसंधिया पमत्ता ? चत्तारि लेस्साओ आदिवाओ। चव जहमकासहिईएसु उववाएको एस चेव वत्तव्वया एवरं सम्मदिही मिच्गदिट्ठी को सम्मामिच्छट्टिी। णो णाणी असरहिई संवेहं च जाणेज्जा ।। सो चेव उक्कोसकालप्रमाणी पियमं अपाणी माअामाणी य सुयप्रमाण द्विई एस उववमो जहरणं तिपत्रिोवम उकासेण वि य । जोगो तिविहों वि । उवओगो सुविहो वि । चत्तारि तिपनिओवमं एस चव वत्तव्यया णवरं कामादसेणं जहसमाओ चत्तारि कमायाओ । पंचइंदिया तिमि समुग्माया मेणं उपसिओवमाई नक्कोसेण वि उ पलिओवमाई ।। श्रादिदगा संमोहया वि मरंति असंमोहया वि मरंति । वेदणा जा संखज्जवासानय समिपंचिंदिय जाव उववज्जति किं पुतिहावि, सातावेदगा वि असातावेदगा वि । वेदोऽविहोवि जलचर एवं जाव पज्जत्तसंखेज्जवासाय । समिपंचिंइत्योवेदगावि पुरिसवेदगावि णो णपुंसगवेदगा। विईय जह दियतिरिक्खजोणिएणं ते! जे जरिए असुरकुमारेसु नपणं साइरेगा पुत्रकोमी नक्कोसणं तिलि पलिग्रोवमाई। वव जित्तए सेणं नंते ! केवइयकालटिईएस नववज्जेज्जा ? अज्कवसाणा । पसत्या वि अप्पसत्थावि अणुबंधो जहेव गोयमा ! जहम्मेणं दसवाससहस्सहिइएसु उक्कासेणं सामिई कायमवही जवादेसेणं दो जवग्गहणाई । काबादसणं रंगसागरोवमहिईएसु नववज्जेज्जा । तेणं नंते ! जीवा जहणं साइरेगा पुवकोमी दसहि वासमहस्सहिं अब्न एगमएणं एवं एएसिं रयणप्पनापुढविगमगसरिसा एवहिया नक्कोने छ पलि प्रोवमाई एवयं जाव करेज्जा।। गमगा ऐतव्या गवरं श्रप्पणाजहमाकासटिईओ जव ताहे मा चेव जहाणकालाहिडएसु उववएणो एस चेव वत्तव्वया तिसु वि गमएसु इमं णाणतं चत्तारि लेस्साम्रो अज्वएवरं असुरकुमारदिई संबच जाणज्जा। २ । सो चेव साणा पसत्या सेमं तं चेव संवेहो सारेगेण सागरोवमेण उकोमकासहिईसु उबवामी जहणं तिमि पलिअोवमष्टि कापन्यो ।ए। इह पल्योपमाऽसंख्येयभागग्रहणेन पूर्वकोटी ग्राह्या यतः घम नवाजा एस चव वत्तव्बया एवरं लिइ से जह- सम्मच्छिमस्योत्कर्पतः पूर्वकोटीप्रमाणमायुर्नवति स चोत्क Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अभिधानराजेन्द्रः । उववाय पंतः स्वायुष्फतुल्यमेव देवायुर्वध्नाति नातिरिक्तमत एवोक्तं जमणुस्सहिंतो नववति किं सम्मिमणुस्सेहिंतो नवयूर्णिकारेण " नकोसेणं सतुलपुवकोरिया उयत्तं निम्बत्त वज्जति असम्मिमणुस्सहिंतो उववज्जति ? गोयमा सरिण न य सम्मुच्चिमो पुवकोमियाउयत्ताओ परो अत्यित्ति " असंख्यातवर्षायुः सझिपञ्चेन्धियतिर्यग्गमेषु । ( उक्को मणू णो असएिणमण जइ समिमणुस्से हिंतो उववज्जति सेणं तिपलिओवमहिईएसु नववज्जेज्जत्ति ) इदं देवकु किं संखज्जवासाउयसमिमणू असंखज्जवासाउयसएिणमणवादिमिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्योक्तम् । तेहि त्रिपल्योपमायु- स्स जाव उववज्जति ? गोयमा ! संखवासाउय जाव कत्वेनासंख्यातवर्षायुषो भवन्ति, ते च स्वायुःसरशं देवा- उक्वज ति, असंज्जवासाउय जाव ववजंति । असंखेज्जयुर्वधन्तीति ( संखेजा उववज्जतित्ति) असंख्या तवर्षा वासाउयसरिणमणुस्सेणं जंते ! जे जविए असुरकुमारेसु युस्तिरश्चामसंख्यातानां कदाचिदप्यभावात् ( वश्रोसहनारायसंघयणीत्ति ) असंख्यातवर्षायुषा, यतस्तदेव भव नववज्जित्तए सणं नंते ! केवश्यकासहिईएसु उववज्जेज्जा तीति (जहमणं धणुहपुहत्तांत्त ) इदं पक्षिणोऽधिकृत्योक्तं गोयमा ! जहोणं दसवाससहस्सटिईएमु उक्कोसेपं तिणि पक्षिणामुत्कर्षतो धनुःपृथक्त्वप्रमाणशरीरत्वादाह च । “धणु- पलिओवमा?ईएसु उववज्जेजा एवं असंखज्जवासानयति हपुहत्तं पक्खिसुत्ति" | असंख्यातवर्षायुषोऽपि ते स्युर्यदाह रिक्खजोणिए सरिसा आदिवा तिमि गमा णेयव्या वरं (पलियाअसंखजपक्खीसुति) पल्योपमासंस्येयभागः पक्षिणामायुरिति ( उक्कोसणं छग्गाउयाइंति) इदं च देवकु सरीरोगाहणा पढमविरितएम गमएमु जहप्तोणं साइरेगाई र्वादिहस्त्यादीनधिकृत्योक्तम् (नो नपुंसगवेयगत्ति) असं- पंचधाहसयाई उकासेणं तिछि गाउयाई सेसं तं चेव तस्यातवर्षायुषो नपुंसकवेदो न सम्भवत्येवेति । ( उक्कोसेणं इयो गमोगाहणा जहम्मेणं तिमि गाउयाई नकोसेणवि तिमि छप्पलिअोवमाइत्ति ) त्रीणि असंख्यातवर्षायुस्तिर्यग्भवस गाजयाई सेसं जहेव तिरिक्खजोणियाणं सोचव अप्पणा म्बन्धीनि त्रीणि चासुरभवसम्बन्धीनीत्येवं षट् न च देवभवादुकृत्तः पुनरप्यसंख्यातवर्षायुष्कषत्पद्यत इति । सो चेव अप्प | जहमकासहिो जाओ तस्स वि जहम्मकालाई यतिरिक्ख गाजहम्मकालट्ठिईओ इत्यादिश्चतुर्थो गम इह च जघन्यका- जोणियसरिसा तिमि गमगा भाणियव्वा वरं सरीरोलस्थितिकः सातिरेकपूर्वकोट्यायुः स च पक्षिप्रभृतिकः (उ गाहणा तिसु वि गमएसु जहणणं साइरेगाइं पंचधणुहसक्कोसणं साइरेगपुवकोडिाउपसुत्ति ) असंख्यातवर्षायुषां पक्ष्यानिां सातिरेका पूर्वकोटिरायुस्ते च स्वायुस्तुल्यं देवा याई उक्कोसेण वि साइरेगाई पंचधणुहसयाई सेसं तं चैव युः कुर्वन्तीति कृत्वा सातिरेकेत्याधुक्तमिति । ( उक्कोसेणं ।६। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालटिईओ जाओ तसाइरेगं धणुसहस्संति) यदुक्तं तत्सप्तमकुलकरप्राक्काल- स्स वि ते चेव पच्छिला तिमि गमगा जाणियच्या णभाविनो हस्त्यादीनपेक्ष्येति सम्भाव्यते । तथा हि इहासंख्या वरं सरीरोगाहणा तिसु वि एगएसु जहाणं तिम्मि गाउतवर्षायुर्जघन्यस्थितिकः प्रक्रान्तः स च सातिरेकपूर्वकोट्यायुर्भवति तथैवागमे व्यवहृतत्वात् । एवंविधश्च हस्त्यादिः सप्त याई उक्कोसेणवि तिमि गाउयाई अवसेसं तं चेव ।। मकुलकरप्राक्काले लभ्यते तथा सप्तमकुलकरस्य पञ्चविंशत्य- देवकुर्बादिनरा हि उत्कर्षतः स्वायुःसमानस्यैव देवायुषो बधिकानि पञ्चधनुःशतान्युच्चैस्त्वं तत्प्राक्कालभाविनां च न्धका अतः तिपत्रिोवमहिपसु इत्युक्तम् । नवरं सरीरोगातानि समधिकतराणि तत्कालीनहस्त्योदयश्चैतद्विगुणोच्चाया हणेत्यादि । तत्र प्रथम औधिकः औषिकेषु द्वितीयस्तु औधिअतः सप्तमकुलकरप्राक्कालभाविनामसंख्यातवर्षायुषां ह- को जघन्यस्थितिविति । तत्रौधिकोऽसंख्यातवर्षायुर्नरा जघन्यस्त्यादीनां यथोक्लभवगाहनाप्रमाणं लभ्यत इति (साइरेगा. तः सातिरेकपञ्चधनुःशतप्रमाणो नवति । यथा सप्तमकुलकर भोदोपुव्वकोडीओत्ति) एका सातिरेका तिर्यग्भवसत्काऽन्या प्राक्कासन्नाची मिपुनकनरः उत्कृष्टतस्तु निगव्यूतमानो यथा दे. तु सातिरेकैवासुरभवसत्केति ४ (असुरकुमारहिसंदेहं च जा वकुर्वादिमिथुनकनरः स च प्रथमगमे । हितीये च सिंविधोऽणिज्जति) तत्र जघन्यासुरकुमारस्थितिर्दशवर्षसहस्राणिसम्बे- पि सम्जवति । तृतीये तु निगव्यूतावगाहन एव यस्मादसावेधस्तुसातिरेका पूर्वकोटी दशवर्षसहस्राणि चेति शेषगमस्तु वोत्कृष्टस्थितिषु पल्योपमत्रयायुकेषुत्पद्यते सत्कर्षतः स्वायुः स्वयमेवाज्यूह्यः, एवमुत्पादितोऽसंक्यातवर्षायुः सक्रिपञ्चे- समानायुबन्धकत्वात्तस्येति ।। वियतिर्यगसुरेण्वथसंख्यातवर्षायुरसावुत्पाद्यते । जश् संखेजे- अथ संख्यातवर्षायुः सझिमनुष्यमाश्रित्याह । त्यादि(सक्कोसणं सारेगसागरोतमाहिएसुत्ति) यदुक्तं तदने निकायमाश्रित्येति । (तिसुवि गमएसुत्ति ) जघन्यकासस्थि जा संखेज्जवासानयसएिणमणुस्सेहिंतो उववज्जति किंतिकसम्बन्धिष्वौधिकादिषु (चत्तारिलेस्साओत्ति ) रत्नप्रभा- पज्जत्तसंखेज्जवासाउय अपज्जत्तसंखेज्ज जाव उववज्जपृथिवीगामिना जघन्यस्थितिकानां तिरस्ता उक्ता एषु पुनस्ता ति ? गोयमा ! पज्जत्तसंखज्जवासा णो अपज्जत्तसंखज्ज | श्वतसोऽसुरेषु तेजोमेश्यावानप्युत्पद्यत इति । तथा रत्नप्रनापृधिवीगामिनां जघन्यस्थितिकानामध्यवसायस्थानाम्यप्रशम्ता पज्जत्तसंखेज्जवासान य सएिणमणुस्सेणं नंत ! जे जरिए न्येवोक्तानीह तु प्रशस्तान्येव दीर्घस्थितिकत्वे हि द्विविधान्यपि असरकुमारेस नववज्जित्तए सेणं जंते ! केवतिकालाहितीसम्नवन्ति नवितरेषु कालस्याल्पत्वात् (संवेदो सातिरेगेण एसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहएणणं दसवाससहस्स. सागरोवमेण कायवोत्ति ) रत्नप्रभागमेषु सागरोपमेण सम्बेध हितीएम उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमहितीएसु नववज्जे . तक्तः असुरकुमारेषु तु सातिरेकसागरोपमेणासौ कार्यों बलिपक्कापेकया तस्यैव नावादिति । जा। तेणं भंते ! जविा एवं जहेव एएसिं रयणप्पनाए अथ मनुष्येन्यो सुरानुत्पादयन्नाह । उववज्जमाणाएं णव गमगा तहेव इह वि व गमगा Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अभिधानराजेन्द्रः। नववाय भाणियच्या णवरं संबेहो सातिरेगेण सागरोवमेण का सचिमणुस्से हिंतो को असमिमगुस्सेहितो जहा असुपव्वो सेसंतं चेव ॥ रकमारेसु उववज्जमाणस्स जाव असंखज्जवासानय । सपतच समस्तमपि पूर्वोक्तानुसारेणावगन्तव्यम् । भ०२ उ०।। लिमास्सेणं णांगकुमारेसु उववज्जिचए सेणं ते ! वारायगिहे जाव एवं बयासीणागकुमाराणं ते!कोहितो यकालहिईएमु उववज्जा ? गोयमा! जहएणणं दसवासनववज्जति किं ऐरएहिंतो उक्वज्जति तिरिक्खमणुस्सदे- सहस्सहिईएस उकोसणं देसूणं दुपलिअोवर्म एवं जहेव हितो उववजंति ? गोयमा ! णो परइएहिंतो नववज्जति | असंखज्जवासानयाणं तिरिक्खजोणियाणं णागकुमारेसु तिरिक्णमणुस्सेहिंतो उववजति णो देवेहिंतो उववज्जति । जइ | आदिमा तिमि गमगा तहेव इमस्स वि वरं पढमविईएस तिरिक्खजोणि एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तम्बया तहा गमएस सरीरोगाहणा जहणं सारेगाई पंचधणुहसयाई, एएसि पि जाव असणित्ति । जइ समिपीच दियतिरिक्ख- उकोसेणं तिणि गानयाई, तईयगमोगाहणा जहएणेजोणिएहिंतो नरवति किं संखज्जवासाम्य असंवेज्ज- णं देसणाइं दो गाउयाई ठक्कोसेणं तिमि गाउयाई सेसं तं बासाउय गोयमा ! संखेज्ज वासाउय असंखेज्ज वा चेव । सो चेव अप्पणा जहणकालहिो जाओ तस्स साउय जाव उववनंति । असंखेज्जवासान्य समि तिमुधि गमएसु जहा तस्म चेव असुरकुमारसु उववज्जमापंचिंदियतिरिक्खजोगिएणं ते ! जे नविए णागकुमारेसु णस्स तहेव गिरवसेसं ।६। सो चैव अप्पणा उक्कोसकामउववज्ज सेणं ते ! केवतिकालाहिती ? गोयमा जहम्मेणं ढिईओ जाओ तस्स वि तिसु गमएमु जहा तस्स चेव .. दसवाससहस्सद्वितीएम उकासेणं देसूण पलिओवमहिती कोसट्टिईयस्स असुरकुमारेसु नवाजमाणस्स एवरं पागएसु उववज्जेज्जा । तेणं ते ! जीवा अवसेसो सो चेव कुमारहिति संवेहं च जाणज्जा सेसं तं चेव ।ए। जइ संअमरकुमारेसु नववज्जमाणस्स गमको जाणियव्यो जाव खेज्जवासानयसमिणू० किं पज्जत्तसंखेज्ज. अपज्जत्तसंभवादेसोत्ति । काझादसेणं जहणं सातिरेगा पुचकामी खेज्ज०? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्ज० णो अपज्जत्तसंखज्ज दसहि वाससहस्तेहिं अब्नहिया उक्कोसणं देसणाई पंच वासाउयं । पज्जत्तसंबज्जवासान यसमिमणुस्साणं नंत! पलिओवमा एवइयं जाव करज्जा ।। सो चेव जहम्मका जे लविए णागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं त ! केवइ० महितीपसु उववमो एस चव वत्तव्वया णवरं णागकुमार गोयमा ! जहएणणं दसवाससहस्सहिईएस कोसणं देद्विति संवेहं जाणज्जा ।। सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु मूणं दोपग्लिोवमस्म छिईएम अचवज्जंति एवं जहेव अउबवमो तस्स वि एम चेव वत्तव्वया णवरं ठिती जहोणं सुरकुमारेसु उनवज्जमाणस्स सम्वेवलकी हिरवसेसाण वसु देसणाई दो पलिओवमाई उकासेणं तिमि पलिश्रोमाई गमएसु णवर णागकुमारहिति संवेहं च जाणेज्जा सेवं सेसं तं चव जाव नवादसोत्ति । कालादेसणं जहमणं दे- जंते ! ते ! त्ति । [ ज० १४ श० ३ न. ] मूगाइं चत्तारि पनिोवमाइं डक्कोसेणं देसूणाई पंच पति- अवसेसो सुवएणकुमारा जाव थणियकुमारा एते वि अश्रावमाई एवइयं कालं संवेज्जा ।। सो चेव अप्पणा हनदेसगा जहव णागकुमारा तहेव गिरवसेसा नाणियव्या जहणकालाहितीओ जाश्रो तस्स निसु गमएमु जहेव असु- सवंत! तेत्ति । चउवीसश्मसयस एकारसमो - रकुमारेसु उववज्जमाणस जहणाकालद्वितीयस्स तहेव देसो सम्मत्तो (२४।११ ) पुढवीकाश्य णं भंते ! कगिरवसेसं ।६। सो चेव अप्पणा नकोसकालाहितीो जाओ ओहिंतो उववज्जति । किं ऐरएहितो तिरिमाणदेवहितो तस्स वि तहेव तिमि गमगा जहा असुरकुमारेसु उववज्ज- उववज्जति ? गोयमा ! णो णरएहितो उववज्जति तिरिम.एस्स णवरं णागकुमारहिति संवेहं च जाणज्जा सेसं तं | मणुदेवेहिंतो उववज्जति । जातिरिक्खजोणिएहिंतो नववचे। जहा असुरकुमारसु उववज्जमाण स्स |8| जदि संखे- ज्जति । किं एगिदियतिरिक्वजाणिए एवं जहा वकंतीए ज्जवासान यसमिपंचिदिय जाव किं पज्जत्त० अपज्जत्त० ? नववाश्रो जाव जर बादरपुढवीकाश्यएगिदिय तिरिक्खजोगोयमा पज्जत्तसंखज्जवासानय णो अपज्जत्तसंखजवासा। णिएहिंतो नववज्जति किं पज्जत्तबादर पुढवी० नववज्जतिपज्जत्तसंखेज्जवासानय जाव जे जविए णागकुमारेसु नव- अपज्जत्तवादरपुढवी जाव उववज्जति ? गोयमा! पज्जतबज्जित्तए सेणं भंते ! कवइयकासहिई ? गोयमा ! जहम्मेणं बादरपुढवी अपज्जत्तबादरपुढवी जाव नववज्जति ॥ दसवाससहस्साईनिईनकोसेणं देसूणाई दो पलिअोवमाई “उक्कोसेणं देसणदुपलिओवमहिपसुत्ति" यदुक्तं तदौदीच्य नाब एवं जहेब अमुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स वत्तलया तहेव कुमारनिकायापेक्कया, यतस्तत्र हे देशोने पल्यापमे लत्कर्षत इह वि एवम् गमएसु णवरं णागकुमारहिति संवेहं च श्रायुः स्यादाह च “ दाहिणदिवपबिग्रं, दो देसासारखाण ति" उत्कृष्टसंवेधपदे (देसूणाई पंचपसिओवभाइंति) पल्योआणज्जा सेसं न च ॥ ॥ जइ मस्सहिंतो उनवजाति पमत्रयमसायातवर्षायुस्तिर्यक्सम्बन्धि द्वे च देशोने ते नागकुकिसम्मिमस्मेहिंतो असमिमाम्सेहितो ? गोयमा ! मारसम्बन्धिनी इत्येवं यथोक्तं मानं भवतीति । द्वितीयगमे । Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अन्निधानराजन्यः। उवाय (नागकुमारहिइसंवेहं च जाणेज्जत्ति )त्र जघन्या नागकुमार- णाणी प्रमाणी । दो अण्णाणी णियमं । णो माजोस्थितिर्दशवर्षसहस्राणि संवेधस्तु कालतो जघन्यसातिरेक पूर्व गी वइजोगी कायजोगी। उवोगो दुविहो वि । चत्ताकोटी दशवर्षसहस्राधिका उत्कृष्टः पुनः पल्योमत्रयं तैरेवाधिकमिति । तृतीयगमे "उकोसकासहिपसुत्ति" देशोनद्विपल्योपमाय. रि सप्लायो । चत्तारि कसायाओ एगे फासिंदिए पगकेबित्यर्थः तया "जिहमेणं दो देसूणाईपसिओपमाति" त्ता । तिमि समुग्घाया । वेदणा दुविहा । णो इत्थीवेयदुक्तं तदवसपिण्यां सुषमाजिधान हतीयारकस्य कियत्यपि दगा णो पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा। लिई जहएणणं भागे प्रतीते असङ्ख्यातवर्षायुषस्तिरश्चाधिकृत्योक्तं तेषामेवैतत्य माणायुष्कत्वात, एषामेव च स्वायु:समानदेवायुबन्धकत्वनोत्कृ अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । अज्झवसास्थितिषु नागकुमारेषत्पादात (तिमिपवित्रोवमाइंति ) एत- णा पसत्था वि अप्पसत्थावि । अणुबंधो जहा दिई । से च देवकुर्वाद्यसङ्ख्यातजीवितिरोऽधिकृत्योक्तं, ते च त्रिपल्योप- | कत! पुढवीकाइए एणरवि पुढविकाइएत्ति केवइयं काल मायुपोऽपि देशोन द्विपल्योपममानमायुर्बध्नन्ति । यतस्ते स्वायुषः सेवेजा केवायं कालं गतिरागतिं करेज्जा ? गोयमा ! समं हीनतरं वा तद्वघ्नन्ति, न तु महत्तर मिति । अथ सहयात भवादेसेणं जहएणणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेजीवितं सक्रिपञ्चेन्छियतियञ्चमाश्रित्याह" अ संखज्जवासा नयत्यादि" एतश्च पूर्वोक्तानुसारेणावगन्तव्यमिनि । चतुर्विंशति ज्जाई भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहएणणं दो अंतोमुहुतमे शते तृतीयः एवमन्यऽष्टाविंशत्येषमेकादशः । चतुर्विंश- ताई उकासेणं असंखेज्जं कालं एवइयं जाव करेजा ।। तितमे शते एकादशः॥ सो चेव जहएणकालढिईएमु उववरणो जहणणेणं अंतोपृथ्वीकायादीनाम्॥ पुढवीकाइयाणं नंते ! कोहिंतो नववज्जात कि नेर मुहुत्ता ईएमु उक्कोसेण वि अंतोमुटुत्तट्टिईएमु एवं चेक एहिंतो जाव देवेहितो नववज्जंति ? गायमा ! नो नेरइए वत्तव्वया शिरवसेसं ।२। सो चैव उक्कोसकालटिईएसु उवहिंतो तिरिक्वजोणिएहिंतो जाव देवे हतो वि नववज्जति वएगो जहणणं वावीसवाससहस्सहिईएमु उक्कोसेण जदि तिरिक्खजोणिएहितो नववज्जति किं एगिदियतिरि विवावसं वाससास्तहिएम सेसं तं चव जाव आवंक्खजोणिएहितो जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उव धोति णवरं जहम्मेणं एक्का वा दो वा तिएिण वा, उक्का सेण संखज्जा वा असंखज्जा वा । स्वादसणं जहएणणं वज्जति ? गोयमा ! एगिदियति रक्ख जोणिएहितो जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो नववज्जति जदि एगिदिय दो नवग्गहणाई, उक्कामेणं अट्ठ जवाहणाई। कालाद सेणं जहएणणं वावीसं वासमहस्साई अंतोमुत्तमन्नहितिरिक्खनोणिएहिंतो किं पुढव काइएहितो व्यवजति जाव याई उकासेणं गवतरि बाससतसहस्सं एवश्यं जाव क. वणस्सइकाइएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पुढवीकाइए रेज्जा । ३ । सो चेव अप्पणा जहप्ताकालाहितीओ जाओ हिंतो वि नववज्जति जाव वणस्सस्काइएहितो नि उव सो चव पढमिल्लगमोजाणियव्यो । वरं देस्साोतिष्णिबज्जति किं सुहमपुढवीकाइएहितो वि बादरपुढवीकाइ एहितो विती जहमेण अंतोमुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुत्तं अप्पनववज्जति जदि मुहमपुढवीकाइएहितो क्वज्जति किं मत्या अवसाणा अणुबंधो जहाविती सेसं तं चेव । ।। पज्जत्तपुढवीकाइएहितो उवयजति । जदि सुमढवीका सो चेव जहम्मकालाहितीएम उववएणो सम्मेव चउत्थगमइएहिता किं पज्जत्तयसुहमपुढवीकाइएहितो नववज्जति क बत्तव्बया जाणियव्वा । ए ! सो चेव उक्कोसकालटिअपज्जत्तयमुनुमपुढवीका:एहितो नववज्जति ? गोयमा ।। तीएसु उववमो एस चेव वत्तव्बया एवरं जहएणेणं एक्का दोहितो वि नववज्जंधि । जदि बादरपुढवीकाइएहितो नव वा दो वा तिमि वा जक्कोसणं संखेज्जा वा असंखज्जा वा बज्जति किं पज्जत्तएहितो किं अपज्जत्तएहितो? गोयमा ! जाव जवादेसेणं जहएणणं दो नवग्गहणाई उक्कोदाहिंतो वि नबवज्जति एवं जाव वणस्सएकाश्या चउक्कएणं सेणं अट्ठ जवग्गहणाई । कालादेसेणं जहणं वावीसं नंदणं उववाएयव्वा ।। प्रा०६ पद०॥ वाससहस्माइं अंतोमुत्तमन्नहियाई, नक्कामेणं अट्ठापुढवीकाइएणं भंते ! जे जविए पुढवीकाएसु उववन्जि- सीति वाससहस्साई चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अन्जहियाई तए से णं भंते ! केवइयकालहिईएसु उववजेज्जा ? गो | एवश्यं कान्नं। ६ । सोचेव अप्पणा नक्कासकालहिती यमा ! जहोणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु उक्कोसेणं बाबीसवा- | जाओ एवं तईयगमगसरिसो हिरवसेसो जाणियच्चो वरं ससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेजा तेणं भंते ! जीवा एग- अप्पणा से जहम्मेणं चावीसं वाससहस्साई । उक्कामेण समएणं पुच्छा गोयमा : अणुसमयं अविरहिया असं- वि वावीसं वासमहस्साई। ७ । सो चेव जहाकालाईखेज्जा उववज्जति । छेवट्ठसंघयणी । सरीरोगाहणा ज-| एमु ववमो जहमेणं अंतामुहुत्तं उक्कोसणवि अंतांमुहवं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि अंगुल- दुत्तं एवं जहा सत्तमगमगो जाव जवादेलो । कालादेणं जस्त असंखेज्जइभागं मसूरचंदसंठिया चत्तारि लेस्सा हम गं वावीस वाससहस्माइं अंतोमुत्तमम्नहियाई उक्कोणी सम्मदिही मिच्छादिट्ठी को सम्मामिच्छादिट्ठी णो- | सेणं अट्ठामीई बामसहस्साई चनहिं अंतोमुदुत्तेहिं अन्न Jain Education Interational Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्वाय अनिधानराजेन्द्रः। उववाय हिंयाई एवश्यं का।। सो चच उक्कोसकालाहितीएस उ- स्थितिकस्योत्कृएस्थितिकस्य च चतु कृत्य उत्पन्नत्वाद्वाविंशतिववमा जहाणं वावीसं वापसहस्सहितीएमु नकोसेण वर्षसहस्राणि चतुर्गुणितानि अष्टाशीतिर्भवन्ति उत्थानान्तर्मु हुनौति । नवमें गमे ( जहमेणं चोयाबीसंति ) द्वाविंशतवि बावीस बाससहस्सहिनीएम एस चव सत्तमगमगवत्त वर्षसहस्त्राणां भवग्रहणद्वयन गुणने चतुरश्चत्वारिंशत्सहस्राणि ब्बया जातियव्वा जाव भवासोत्ति । कालादसेणं जहमाणं भवन्तीति । एवं पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकेच्य उत्पादिचायाजीसं बाससहस्साई नक्कासाणं लावत्तरि याससत्तस- तोऽथा उसावेवाप्कायिकेच्य उत्पाद्यते (जश्त्राउकाइप मेत्यादि हस्त एवश्यं ।।।जा आनकाइए एगिदियतिरिक्खजो- चउकओ भेदोत्त) सूक्ष्मबादरयाः पर्याप्तकापर्याहकानेदात (सं णिएहिती उवव जति किं सुहमाउ बादराउ एवं चन बेहो तश्यग्द्वेत्यादि) तत्र जवादेशेन जधन्यत संवेधः सर्व गमेषु को नंदा जाणियव्वा जहा पुढवी काया। आनकाझ्या नवग्रहणद्वयरूपप्रतीत उत्कृष्ट च तस्मिन्विशेषोऽस्तीति दश्यते तत्र च तृतीयादिषु सूत्रोक्तेषु पञ्चसु गमेपूरकर्पत सम्बेधोऽष्टौ एते ज नलिए पुढवीकाइएस नवव जित्तए सेणं ते! भवग्रहणानि पूर्वप्रदर्शिताया अटभनग्रहणनिबन्धनताया केवश्यकासद्वितीएस नववमज्जा ? गोयमा जहोणं अंतो- | स्तृतीयषष्ठसप्तमाष्टमेग्वेकपक्के नत्र तु गमे उभयत्राप्युत्कृष्टस्थिमुदत्तद्वितीएसु नकोसणं वावी वासहस्सद्वितीएमु उव तेः सद्भावात् (सेसेसु चउसु गमएसुत्ति) शेपेषु चतुर्पु गमेषु वज्जज्जा एवं पुढविकाइयगमगसरिसा व गममा जाणि प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमझकणेषत्कर्षतोऽसंख्येयानि नवग्रहणा न्येकत्रापि पके उत्कृष्टस्थितेरभावात् ( तश्यगमए कालादेसणं यव्याण यिनुगविंसंविते विती जहणं अंतो मुहत्तं जहमणं वावीसं वाससहस्माति ) पृथिवीका.यिकानामुत्पनकोसणं सत्तवाससहस्साएवं प्राणुबंधो वि । एवं तिसु वि | त्तिस्थान ततानामुत्कृष्टस्थितिकत्वात् ( अंतोमुत्तमम्भहियागमएमु विती संवेहो तश्यउट्ठसत्तमट्टणवमसु गमएसु । भवा | इति) अकायिकस्य तत्पित्सोरोधिकत्येऽपि जघन्यकालस्य देणं जहम्मे दो नवग्गहणाई नकोसेणं अट्ठ नवग्गणाई विवक्तित्वेनासन्मुहर्तस्थितिकत्वात् (सक्कोसणं सीसमुत्तरं वासंसमु चउसु गमएस जहमणं दो जवग्गहणाई । उक्कोसणं समयसहस्संत । होत्कृष्स्थितिकत्वात्पृथिवीकायिकानां तेषां च चतुगीभावानां जावात् तत्रास्पित्सुश्चापकायिकस्यौघिकत्वेऽअसंखज्जा नवग्गहणाई । ततियगमए कालादेमणं जह प्युत्कएकालस्य विधक्रितत्या उत्कृपस्थितयश्चत्वारस्तद्भया एवं च माणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमनदियाई। नको- द्वाविशतेवर्षसहस्राणां च प्रत्येक चतुर्गणितत्वे G०००। मेणं सोत्रसुत्तरवासमयसहस्तं एवश्यं का गतिरागति मोहने च [११६०००]षोशसहस्राधिकं बकम्। २००००) छठे गमए इत्यादि षष्ठेगमे दि जघन्यस्थितिषत्पद्यते इत्यन्तर्मुकरेज्जा ।। छ? गमए कानादेमणं जहमेणं बावीसं वा हृतस्य वर्षसहस्रद्वाविंशतेश्च प्रत्येनं चतुर्भवग्रहणगणितत्वे - ससहस्साई अंतोमुत्तमन्नहियाई नकोसाणं अहासीत थोक्तमुत्कृष्ट कामानं स्यात् [८८०००] अन्तः एवं सप्तमादिगवाससहस्साई चरहिं अंतोमुत्तमब्जहिया।६। सत्तमगमए मसम्बेधा अप्यूह्याः नवरं नवमे गर्म जघन्येन एकोनविंशद्वर्षसह कालादसेणं जहांगणं सत्तवासमहस्साई अंतीमुदुत्तमम्न स्राण्यकायिकपथिवीकायिकोत्कृष्टस्थितिमीझनादिति । न. २४ श० १२ न० । जीवा। हियाई नकोसेणं सोनसत्तरवाससयसहस्सं एवश्यं अ अथ तेजस्कायिकेन्यः पृथिवीकायिकमुत्पादयन्नाह । द्वमगमए कान्नादेमेणं जहणं सत्तवाससहस्साई अंगांमुहु-1 जय तेक्काइसहिंतो उववज्जति तेउक्काइयाण वि एम त्तमाहियाई नकोस अट्टावसबाससहरसाई चउहि चव वत्तव्बया गवरं णवमु वि गमएस तिमि लेस्साओ। अंतोमहत्तेहि अनहियाई एवइयं । णवगमए जवादेमेणं तेउक्काइयाणं सुईकमावसंधिया ठिई जाणियव्वा । ततियजहणं दोनवग्गहणाई उकासे अट्ठ जवग्गहणाई । गमए कानादेसाणं जहणं वावीमं वाससहस्साई अंतोमकामासा जहणणं एगुणतीसं वाससहस्साई उकोसेणं इत्तमनहियाई उकासेणं अहामीति वाससहस्साई वारससोलमुत्तरवाससहस्सं एवइयं कालं एवं णवसु वि गमएस हिं राइदिएहिं अन्नहियाई एवइयं एवं संबेहो नवनजिकआयुकाद्विती जाणियव्वा ॥ पनापियव्वा । तृतीयगमे नवरं । (जहोणं एक्कोवेत्यादि) प्राक्तनगमयो (तिमि लेस्साप्रोत्ति ) अप्कायिकेषु देवोत्पत्तेस्तेजो वेश्यासहस्पित्सुबहुत्वेनासंख्येया पयोत्पद्यन्ते इत्युक्तमिह तूत्कृष्टस्थितय एकादयोऽसख्येयान्ता उत्पद्यन्ते उत्कृष्टस्थितिषत्पित्सूनामल्य द्भावाच्चतस्ता नुक्ता इह तु तदनावात्तिन पवेति । (चिईजावनकादीनामप्युत्पादसम्नवात् ( उक्कोसेणं अट्ठभवम्गरणा णियवत्ति) तत्र तेजस्सु जयन्या स्थितिरन्तमहत्तमितगत त्रीइंति) दमवगतच्यं यत्र सम्बेधे पकद्वयस्य मध्ये एकत्रापि एयरात्राणीति । ( तश्यगमप इत्यादि ) तृतीयगम औधिकापके अकृपा स्थितिवति तत्रेत्कृष्टतोऽही जवग्रहणानि तदन्यत्र तेजस्कायिक नत्कृएस्थितिषु पृथिवीकायकोत्कृष्टनवग्रहोणत्यसंख्यातानि ततश्चेहोत्पत्तिविग्यजनजीवेपत्कृष्णा स्थितिरिन्यु षु द्वाविंशतेवर्षसहस्राणां चतुगुणितत्वऽष्टाशीतिस्तानि नयन्ति, कर्पतोऽ? भवग्रहणान्यक्तान्येवमुत्तरत्रापि नावनीयमिति । तथा चतुर्वेव तंजस्कायिकभवपन्कर्पतः प्रत्येकमहोगवश्यपरि(गवत्तरं बाससयसहस्संति)घाविंशतर्वर्षसहस्राणामष्टानि- माणषु हादशाहोरात्राणीति । ( एवं संबहो उवजितण भाप्रयग्रहणणने घटसप्ततिवर्षसहस्राधिकं वर्षककं जवतीति णियवात्ति) चैव पष्ठादि नवान्तेषु गमेवटी नवग्रहणानि (१७६०००) चतर्थे गमे (लेसानो तिमित्ति) जघन्यस्थिति- तेषु च कामानं यथायोगमत्या दोषगमषु तत्कृष्टतोऽमण्यकेषु देवो नोत्पद्यत इति । तेजोटेश्या तेषु नास्तीति । पष्ठेगमे याजबान्कामोप्यसवधेय एवति । अथ वायुकायिकेन्यः पृथिवी(उकोसणं अडासीई वाससहस्सा इत्यादि )तत्र जघन्य- । कायिकमुत्पादयन्नाह ॥ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६८) उववाय अभिधानराजेन्द्रः। उववाय जइ वानक्काइएहितो नववज्जति वाउक्काश्याण वि एवं | ति । वसंघयणी । ओगाहणा जहाणं अंगुरुस्स चव णव गमका जहेब तेऊकाइयाणं णवरं पमागासठिया । असंखेज्जइजागं उक्कोसणं वारसजोषणाई हुँसंठिया संवहो वाससहस्सेहिं कायव्यो । ततियगमए कामादमेणं | तिमि लेस्साओ सम्मादिष्टि वि मिच्छादिट्ठी णो सम्मापिजहणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमन्नाहियाई उक्को च्छादिट्ठी। दो गाणा दो अमाणा णियम। णी मणजोगी सेणं एगं वाससयसहस्सं एवं संवेहो उवउंजिकण जा- वयजोगी विकायजागी वि । उवोगो ऽविहो वि । चणियच्चो॥ तारि समाओ । चत्तारि कसायाओ। दो इंदिया पएणता? तेजस्कायिकाधिकारे अहोरानः सम्बेधः कृत इह तु वर्षसहनैः तंजहा जिनिदिए य फासिदिए य तिथि समुग्घाया सेसं स कार्यों वायूनामुत्कर्षतो वर्षसहस्रत्रयस्थितिकत्वादिति ( तइ जहा पुढव काइयाणं एवरं लिई जहाणं अंतोमुहत्तं नकोयगमपइत्यादि)(चक्कोसेणं पगं वाससयसहस्संति) अनाष्टौ जवग्रहणानि तेषु च चतुर्यु अष्टाशीतिवर्षसहस्राणि पुनरभ्येषु च सेणं वारमसंवच्चराइं । एवं अणुबंधो वि सेसंतं चैव । जतुर्ष वायुसत्केषु वर्षसहनत्रयस्य चतुर्गुणितत्वे द्वादश उत्नयमी- वादेसेणं जहम्मेणं दो नवग्गहणाई उक्कोसेणं संखेज्जाई - सने च वर्षकमिति ( एवं संवेहो उवजिऊण भाणियब्वोत्ति) वग्गहणाई । कामादेसेणं जहमेणं दो अंतोमुत्ताई उक्कोसच यत्रोत्कृष्टस्थितिसम्नवस्तत्रोत्कर्षतोऽष्टी नवग्रहणानीतरत्र सणं संखेनं कालं एवइयं कालं ॥१॥ सो चेव जहएणकात्वसंख्येयान्येतदनुसारेण च कालोऽपि वाच्य इति । मट्टिईएस स्ववमो एस चेव वत्तव्वया ॥ २॥ सो चेव नअथ वनस्पतिज्यस्तमुत्पादयन्नाद । जश्वमसइकाईएहितो नववज्जति वणस्सइकाइयाणं श्रा कोसकामहीईएस उववष्णो एस चेव वियस्ससकी एवरं नक्काश्यगमगसरिसा एव गमगा जाणियव्वा एवरं गाणा जवादसेणं जहएणणं दो जवग्महणाई, कोसेणं अट्ट जवसंठिया सरीरोगाहणा पढमपच्चिसएमु तिमु गमएसु जह गगहणाई। कालादेशेणं बावीसंवाससहस्साई अंतोमुहत्तहोणं अंगुस्स असंखेज्जनागं उक्कोसेणं सातिरेगं जोअ. मन्नहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीतिवाससहस्माइं अमयामीणसहस्सं माझमएमु तहेच जहा पुढवीकाइयाणं संवेहो साए संवच्छरेहिं अब्लाहियाइं एवइयं सो चेव अप्पणा जहविती जाणियन्या । तईयगमए कानाएमेणं जहाणं वाचीसं एणकालाढिईओ जाओ तस्स वि एस चेव वत्तव्वया तिमु वि वाससहस्साई अंतोमुटुत्तमम्नहियाई नक्कासेणं अट्ठावीमु गमएमु णवरं इमाई णाणत्ताई सरीरोगाहणा जहा पुठवी काइयाणं । णो सम्मदिही मिच्छादिही णो सम्मामिच्छातरवाससयसहस्सं एवइयं एवं संबेहो नवनजिऊण जा दिह।। दो एणाणी णियमं । णो मणजोगी वजोगी णियव्यो। है । जइदिएहिंतो उववज्जति किं पज्जत्त कायजोगी।विई जहएणणं अंतोमुहत्तए नक्कोमेण वि अं वेईदिएहितो नववज्जांते अपज्जत्तवेदिएहिता उववज्जं तोमुकुत्तं । अज्जवसाणा अप्पसत्था । प्राणुबंधो जहा ठिई। ति ? गोयमा! पज्जत्तवेइंदिपहिंतो ववज्जति अपज्जत्त संवेहो तहेव आदिोसु दो गमएसु तइयगमए नवादेसो वइंदिरहितो वि उववज्जत । तहेव अनवा कालादेसेणं जहाणेणं वावीसं वाससहयस्त्वत्र विशेषस्तमाह (नाणसंठियेत्यादि ।) कायिका माम स्तिबुकाकारावगाहना एषां तु नानासंस्थिता तथा (पढम स्साइं अंतोमुत्तमनहियाई उक्कोसेणं अचासीति वासमपसु इत्यादि )प्रथमकेषु औधिकेषु गमेषु पाश्चात्येषु चोत्कृष्ट-- | हस्साई चनहिं अंतोमुदुत्तेहिं अन्नहियाई । ६ । सो चैव स्थितिकगमेष्ववगाहना वनस्पतिकायिकानां द्विधापि मध्यमेषु अप्पणा उक्कोसकालाहियो जात्रो एतस्स वि श्रोहिया गजघन्यस्थितिकगमेष त्रिषु यथा पृथिवीकायिकानां पृथिवीका मगसरिसा तिएिण गमगा नाणियव्वा णवरं तिसु विगमयिकेषत्पद्यमानानामुक्तास्तथैव वाच्या अट्टमासंख्यातनागमात्रैवेत्यर्थः । ( संवेहोश्यिजाणियब्वत्ति ।) तत्र स्थितिसत्कर्षतो एस लिई जहएणणं वारससंबच्छराई, उक्कोसेग्ण वि वारस दशवर्षसहस्राणि जघन्या तु प्रतीतैव एतदनुसारेण सम्बन्धोऽपि संवच्चराई । एवं अणुबंधो वि नवादसेणं जहाणेणं दो यः तमेवैकत्र गमे दर्शांत ( तश्येत्यादि उकासेणं अहावी जवग्गहणाई उकासणं अभवग्गहणाई, कालादेसणं उवसुसरं वाससयसहरसंति) इह गमे उत्कषतोऽष्टी भवग्रहणा उंजिऊण जाणियव्वं जाव एवमे गमए जहएणणं वावीस नि तेषु च चत्वारि पृथिव्याश्चत्वरि च बनस्पतेस्तत्र च चतुर्ष पुधियानवेषत्कृष्टेषु वर्षसहस्राणामष्टाशीतिस्तथा वनस्पतेर्दश बाससहस्साई वारसहिं संवच्छरोहिं अन्जहियाई, उक्कोसेणं वर्षसहसायुष्कत्वाश्चतर्षु भवेषु वर्षसहस्राणां चत्वारिंशदुनयमी अट्ठास तिवाससहस्साई अमयालीसाए संवच्चरहिं अन्नमने च यथोक्त मानमिति । अथ द्विन्द्रियेज्यस्तमुत्पादयन्नाह ।। हियाई एवश्यं ॥७॥ बेईदिएणं नंते ! जे भविए पुढचीकाइएमु उववजित्तए (बारसोयणाइंति ) यमुक्तं-तच्चलमाश्रित्य यदाह "संखो पुण सणंनंते ! केवतिकासहिति ? गोयमा जहणं अंतामु- चारसजोयणाति" सम्मट्ठिीविति । पतचोच्यते-सास्वादन. द उक्कोसणं वावीसं वाससहस्तहिती । तेणं नंते ! सम्यक्त्वापेक्यति श्यं च वक्तव्यतीधिकाछियस्याधिक पृथि. बीकायिकेषु एवमेतस्य जघन्य स्थितिप्यपि तस्यैवोत्कृष्टस्थितिजीवा एगसमएणं गोयमा ! जहणणं एक्को वा दो वा ति-| पूत्पत्ती संवेधे विशेषोऽत एवाह-नवरमित्यादि ( अटुभवम्गहएिण वा उक्कोसणं संखज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्ज- णाईति) एकपक्कस्योत्कृएस्थितिकत्वात् ( अमयात्रीसाए संब. Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६९) तेववायं श्रनिधानराजेन्द्रः। उववाय सरोहिं मजहियाति । चतुर्यु द्वीन्डियनवेषु द्वादशाब्दमानेषु वाससहस्साई चनवीसाए मासेहिं अन्नहियाए एवइयंजार मष्टचत्वारिंशात संवत्सराभवन्ति तैरज्यधिकान्यष्टाशीतिवर्षस. करेजा ।। इस्राणीति, द्वितीयस्यापि गमत्रयस्यैषव वक्तगता विशेष वाह. (नवरं एएसु चेवट्ठाणेसुत्ति) वक्ष्यमाणेष्ववगाहनादिषु नानानवरमित्यादि वह सप्त नानात्वानि शरीरावगाहना यथा पृथिवी त्वानि द्वान्छियत्रीन्द्रियप्रकरणयापेक्या चतुरिन्छियप्रकरणे विकायिकानामङ्गबासङ्ख्ययनागमात्रमित्यर्थः, प्राक्तनगमत्रये तु द्वा शेषभणितव्यानि भवन्ति तान्येव दर्शयति-सरीरेत्यादि। (सेसं दशयोजनमानाप्युक्तेति । १ । तथा (नो सम्मदिछी ) जघन्य तहेवत्ति) शेषमुपपातादि हारजातं तथैव यथा श्रीन्छियस्थ स्थितिकतवा सास्वादनसम्यम्दृष्टीनामनुत्पादात, प्राक्तनगमेषु तु यस्तु संबंधे विशेषो न दर्शितः स स्वयमूह्य इति । सम्यम्हतिरप्युक्तोऽजघन्यस्थितिकस्यापि तेषुभावात् ।। तथा अथ पञ्चेन्जियतिर्यग्ज्यस्तमुत्पादयन्नाह । से मकाने प्राक् ज्ञाने अप्युक्के । ३। तथा योगहारे जघन्यस्थितिकत्वेनापर्याप्तकत्वान्न वाग्योगः प्राक्कासावप्युक्तः । ४ । तथा जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो नववज्जति किं सम्मिस्थितिरिहान्तर्मुहूर्तमेव प्राक्कसंवत्सरद्वादशकमपि । ५ । तथा- पंचिंदियतिरिक्खजाणिएहिंतो उबवज्जति असारणपंचियवसानानीदाप्रशस्तान्येव प्राकोभयरूपाणि । ६ । सप्तमं ना दियतिरिक्खजोणिए? गोयमा सएिणपंचिदियअसमिपंचिं नात्वमनुबन्ध इति संबेधस्तु द्वितीयत्रयस्थाद्ययाईयोर्गमयोरुस्कर्षतो भवादेशेन सञ्जयभवलकणः कालादेशेन च सवयेय दियतिरिक्खजोणिए नववज्जति । जइ असमिपंचिंदियतिरिकाललकणः तृतीये तु विशेषमा (तश्ए गमए श्त्यादि) अन्त्यग. क्खजोणिएहिंतो नववज्जति किं जलचरेहिंतो नववज्जति जाव मत्रये ( कामादेसेणं उवजिऊण प्राणियब्वंति) यत्तदेवं प्रथमे कि पज्जत्तएहिंतो नववज्जति अपज्जत्तएहितो उववज्जति? गमे कालत उत्कर्षतोऽष्टाशीतिवर्षसहस्राण्यष्टचत्वारिंशता वर्षे. गोयमा ! पज्जत्तएहितो नववज्जति अपज्जत्तएहितो वि रधिकानि द्वितीये त्वष्टचत्वारिंशद्वर्षाएयनन्तर्मुहूर्तचतुष्टयाधि नववज्जति । असमिपंचिंदियरिरिक्खजोणिएणं नंते ! कानि तृतीये तु संवेधो लिखित पवास्ते ॥ अथ श्रीन्द्रियेंज्यस्तमुत्पादयन्नाद ॥ जविए पुढवीकाइएमु नववजित्तए सेणं जंते ! केव० ? जइ तेइंदिएहिंतो पुढवीकाइएसु उववजति एवं चेवणव गोयमा। जहमणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्सं गमका भाणियव्वा णवरं आदिल्लेसु वि तिसु विगमएसु | तेणं जंते ! जीवा एवं जहेव बेइंदियस्स ओहिगमए लकी सरीरोगाहणा जहएणणं अंगुलस्स असंखेजइलागं, न तहेव एवरं सरीरोगाहणा जहमेणं अंगुन्नस्स असंखज्जइकोसेणं तिरिण गाउयाई तिरिण इंदियाई लिई जहएणणं जाग उकासेणं जोअणसहस्सं । पंचिंदियट्टिई अणुबंधो अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगणपएणराइंदियाई । ततियगमए य जहमेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं पुन्बकोमी सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहएणणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्त- भवादसेणं जहमणं दो नवग्गहणाई उक्कोसणं अहनवग्गमन्नहियाई उकोसेणं अट्ठासीवाससहस्साई एणनइ- हणाई कालादेसेणं नवउंजिऊण नाणियव्वं वरं मजिराईदियमन्नहियाई एवइयं । मज्झिमगा तिरिण गमगा मएसु तिसु गमएमु जहेब बेदियस्म । मजिकमएसु तिसु गपच्छिमगा तिमिगमगा तहेव । णवरं लिई जहएणणं एगण- मएसु पच्चिद्वएस तिसु गमएसु जहा एतस्सेव पढमगमए पणराइंदियाई उक्कोसेण वि एगणपणराइंदियाई संवेहो णवरं लिई अणुबंधो जहमेणं पुचकोमी उक्कोसेण वि बउंजिऊण भाणियन्वो ॥६॥ पुवकोकी सेसं तहेक जाव णव गमए जहमेणं पुन्चकोमी (जर नेइंदीत्यादि-उपउयराइंदियसयअभहियाईति) ह तृ. बावीसाए वाससहस्सहिं अन्नहिया उक्कोसेणं चत्तारि तीयगमेऽष्टौ भवास्तत्र चतुर्पु त्रीषियनवेषूत्कर्षत एकोनपश्चा- पुवकोमीओ अट्ठासीती एवं वाससहस्सेहिं अन्नहियाशहात्रिंदिवप्रमाणेषु यथोक्तं कालमानं भवतीति । (मज्झिमा ति ओ एवश्यं कालं सेवेजा ।।। पिण गमा तहेवत्ति)। यथा मध्यमा इन्जियगमाः । ( संवेहो (जईत्यादि-उक्कोसेणं अनुभवग्गहणाइंति ) अनेनेदमवगनवउंजिकण भाणियन्वोत्ति) सच पश्चिमगमत्रये भवादेशे म्यते यथोत्कर्षतः पञ्चद्रियतिरश्चो निरन्तरमष्टैव भवा भवन्ति मोत्कर्षतः प्रत्येकमष्टी भवग्रहणानि कालादेशेन तु पश्चिमगम एवं समानभवान्तरिता अपि भवान्तरैः सहाष्टैव भवन्तीति अयस्य प्रथमगमे तृतीयगमे चोत्कर्षतोऽष्टाशीतिवर्षसहस्राणि बमवस्यधिकरात्रिंदिवशताधिकानि द्वितीये तु षएणवत्युरं (कालादेसणं उवउंजिऊण भाणियव्वंति ) तत्र प्रथमे गमे दिनशतमन्तरर्मुहर्नचतुष्टयान्यधिकामिति । कालतः सम्बेधः सूत्रे दर्शित एव द्वितीये तूत्कृष्टतश्चतस्रः पूर्वकोट्यश्चतुर्भिरन्तर्मुहूर्तेरधिकाः तृतीये तु ता एवाउटाशीअथ चतुरिन्द्रियेज्यस्तमुत्पादयन्नाह । त्यावर्षसहस्रैरधिकाः उत्तरगमेषु त्वतिदेशद्वारेण सूत्रोक्त एवाजा चनरिदिएहिंतो उववज्जति एस चेव चनरिदियाणवि साववसेय इति । अथ संक्षिपञ्चेन्द्रियेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह । पाच गमगा जाणियव्या वरं एएसु चेव गणेसु णाणत्ता जदि सहिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उववति किं संखेजाणियव्वा मरीरोगाहणा जहणं अंगुनस्स असंखज्जइ- ज्जघासान य असंखेन्जवासालय ? गोयमा ! संखज्जवासाजागं उकोसेणं चत्तारि गाउयाई विई जहरणं अंतोमुत्तं उ यसमिपंचिंदिय णो असंखेजवासाश्य जाव जवरजति । उक्कोसेणं जम्मासा एवं अणुबंधो वि चत्तारि इंदिया समं । जइ असंखज्जवामानय जाव नववज्जति कि जलचरेहितो तं चेव जाव णवगमए कालादेसेणं, जहाणं वावीसं वास- ससं जहा असामीणं जाव तेणं जंते ! जीवा एगसमएणं महस्साई यहिं मासेहिं अन्नहियाई उकोमेणं अट्ठासीति । केवड्या उवधजति एवं जहा रयणप्पनाए उववज्जमाणस्म Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७० ) अभिधानराजन्द्रः। उबवाय सम्मिचिदियस क्षेत्र इह वि जाव काझादें जह दोतमहत्ता उकासेणं चत्तार पुव्वकोमीओ अधासीत वामहस्सेरिं अजहियाई एवइयं जाव करेंज्जा । एवं संवेो वसु विगमएस जहा असा तÇव णिश्वसेनं लछी से दस तिस गमएस एस चैव मज्जिएस विति गमएस एस चैव वरं इमाई एव लाए ताई । जहणं गाणा अंगुलस्स असंखज्जइजागं उकोसेण वि अंगुल असंखेज्जइजागं ति. लेस्साओ । मिच्छदि । दो माणा । कायजोगी तिमि समुग्धाया । लिई जहां अंतोमुत्तं । उकासेण वि अंतोमृत्तं प्रप्पस त्या अज्जसाणा । बधो जहा लिई सम तं चैव । पच्छि सृति गए जहेव पढमगमए एवरं विई अणुबंध जहणेणं पुत्रकांडी नकोसे विपुव्वकोमी सेसं तं चैव ॥ ५ ॥ (जह सतीत्यादि । एवं संबेहो नवसु विगमपसु इत्यादि ) एवमुक्ताभिलापेन संबेधो नवस्वपि गमेषु यथा असंज्ञिनां तथैव निरवशेष इह वाच्योऽसंशिनां सशिनां च पृथिवीकायिकेषुत्पित्सूनां जघन्यतो ऽन्तर्मुहूर्तायुष्कत्वादुत्कर्षतश्च पूर्वकोट्यायुष्कत्वादिति । (लद्धी से इत्यादि ।) लब्धिपरिमाणसंहननादिप्राप्तिः (से) तस्य पृथिवीकायिकेषूत्पित्सोः संशिन आधे गमत्रये (एस चेवत्ति ) या रत्नप्रभायामुत्पित्सोस्तस्यैव मध्यमेsपि गमत्रये पवैध लब्धिः विशेषस्त्वयं नवरमित्यादि नव च नानात्वानि जघन्यस्थितिकत्वाद्भवन्ति तानि च श्रवगाहना १ लेश्या २ दृष्टय ३ ज्ञान ४ योग ५ समुद्धात ६ स्थित्य ७ ध्यवसानानुबन्धाख्यानि श्रथ मनुष्येभ्यस्तमुत्पादयन्नाह ( जईत्यादि ) तत्र च ( एवं जहेत्यादि ) यथा ह्यसहिपञ्चेन्द्रियतिरश्चो जघन्यस्थितिकस्य त्रयो गमास्तथैतस्यापि त्रयश्रधिका गमा भवन्ति श्रजघन्योत्कृष्टस्थितिकत्वात् सम्मूचिममनुष्याणां न शेषगमषट्कसम्भव इति भ. २४ श. १२३. । श्रथ सञ्ज्ञिमनुष्यमधिकृत्याह । जदि मस्सेहिंतो उववज्जंति किं सम्पुच्छि ममरणुस्सेहिंतो गज्जवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्र्ज्जति ? गोयमा ! दोहिंतो वि उववज्र्ज्जति । जदि गन्भवकंतियमगुस्से हिंतो किं कम्म भूमिगब्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उर्ववज्जंति क म्मभूमिगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति सेसं जहा नेर ३ यारणं नव अप्पज्जत एहिंतो वि उववज्र्ज्जति । प्रज्ञा ० ६ पद । जस्तो उज्जेति किं समिमणुस्महिंता उवत्रज्जति असमिमणस्संहिता उववज्र्ज्जति ? गोयमा ! सलिम - एस्सेहिंतो वि जववज्र्ज्जति असममणुस्सेहिंनो वि उववज्जेति । असम्मिमणस्तेणं भंते ! ज जत्रिए ढावकाइएस से जंत ! केवड्यकाल ईईएस एवं जहा स. सिपंचिदियतिरिक्खजोशियस्स हायस तसि गमगा ता एतसािहिया तिमि गमका जाणिव्यात देव frain सेसा छ नत्र जएएइ । जइ समिमणुस्नहितो जयवज्जंति किं संखेज्जवासाज्य असंखेज्जवासा For Private उवनाय उय जाव उववज्जंति ? गायमा ! संखेज्जवासाज्य को प्रसंखज्जवासाज्यं जाव उववज्जंति । जइ संखेज्जवासाच्य जाव उववज्जेति किं पज्जत संखेज्ज० अपजशसंखेज्ज० १ गोमा ! पज्जत संखज्ज० अपज्जतसंखेज्जवासा० जाव लववज्जति । सहिस्णं भंते ! जे नविए पुढविकाएस ववज्र्ज्जति संग जेते ! केवइकालस्स : गोयमा ! जहोणं तोमुत्तं उकोसे वात्रं । वाससहस्सडिईएस तेणं भंते ! जीवा एवं जदेव रयणप्पना जववज्जमाणस्स तहेव तिसु वि एली एवरं गाहणा जहां अंगुलस्स असंख जागं उकोसेणं पंचधणुहमयाई लिई जहां अंताहुत्त नकोसेणं एवं अणुबंधों वि । संवेदो वसु गमएस जव समिपचिदियमज्जिति गमएस लकी क्षेत्र सपिंचिदियस्त एस तिस गमएस अच्छी सेमं तं चैव रिसेपच्छिला तिरिए गमका जहा एयस्स चैव श्रोहिप गमका एवरं श्रोगाहा जहां पंचधगृहसयाई उक्को ए त्रि पंचधएहसयाई । विई ऋणुबंधो जहम्पेणं पुत्रको उक्कोण वि पुन्त्रकोमी से तहेव ॥ जर सन्नीत्यादि ॥ जडेव रयणप्पहाट उववज्जमाणस्सति ॥ सप्रिनुष्यस्यैवेति प्रक्रमः ॥ नवरमित्यादि ॥ रत्नप्रनायामुत्यिसोहि मनुष्यस्यावगाहना जघन्येनानुरूपृथक्त्वमुक्त मिहत्वबासंख्येयनागः स्थितिश्व जघन्येन मात्र पृथक्त्वं प्रागुक्तमि हत्व - न्तर्मुहूर्तमिति संबेधस्तु नवस्वपि गमेषु यथैव पृथिवी कायिकेपूत्वद्यमानस्य सझिपञ्चेन्द्रियतिरश्च उक्तस्तथैवेह वाच्यः संधिनो मनुष्यस्य तिरश्वश्च पृथिवी कायिकेषु समुत्पित्सर्जघन्यायाः स्थितेरन्तर्मुहूर्त्त प्रमाणत्वादुत्कृष्टायास्तु पूर्व कोटी प्रमाणत्वादिति । मज्जिमित्यादि ॥ जघन्यस्थितिकसम्बन्धिनि गमत्रये लब्धिस्तथेह वाच्या यथा तवैव गमत्रये सपिश्चेन्द्रियतिरश्च चत्ता सा च तत्सूत्रादेवेदावसेया ॥ पच्छिलेत्यादि । औधिकगमेषु ि अङ्गुलः सवधेयभागरूपाऽप्यवगाहना अन्तर्मुहूर्तरूपाऽपि स्थितिरुक्ता साचेह न वाच्या श्रत एवाह-नवरम् । श्रोगाहणेत्यादि ॥ देवेन्यस्तमुत्पादयन्नाह । जइ दे हितो उववज्र्ज्जति किं जबरणवासिदेवेहिंनो नववज्जति वाणमंतर जो सियदेवेर्हितो वैमाणिय देवेदितो उववज्जति ? गोयमा ! जवणवासिदेवेहितो विठववज्जंति जाव वैमाणियदेवेदितो वि उववज्र्ज्जति । जइ जवणवासिदेवेहितो ववज्जति किं असुरकुमारजवणवासिदेवेदितो नववज्जति जाव यणियकुमार जवलवासि० ? गोयमा ! सुरकुमारजवणवासिदेवेर्हितो जववज्जंति जाव थशियकुमारवासिंदेवहितो ववज्र्ज्जति । असुरकुमार ते ! जे जरिए पुढ का ववज्जित्तए सेणं अंत ! केवइयकाल डिई ? गोयमा ! जहोणं तोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावसं वाससहसाई विई । तेणं ! जीवा पुच्छा, गांयमा ! जहोणं एको वा दो वा तिति वा उक्कोसेणं संखज्जा वा असंखेज्जा वा ववज्र्ज्जति । तेसिणं नंते ! जीवाणं सरीरगा किं Personal Use Only Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७१) अभिधानराजेन्द्रः । उववाय 1 संत्रणा पणत्ता ? गोयमा ! बहं संघयाणं असं घरी जाव परिणम । तेसि णं अंत ! जीवा गं के महालिया सरीरोगाहणा ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा नवधारहिज्जा य उत्तरवेव्विया य । दत्यणं जा साजवाणिज्जा सा जहएणं गुन्नस्स असंखेज्जइजागं कोसेणं सत्तरयणीओ तत्थणं जा सा उत्तरवेउब्वि या सा जो अंगुलस्स असंखेज्जइजागं नकोसेलं जो सय सदस्सं । तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरगा किं संविया पत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पएलत्ता तंजदा-जवधारणिज्जा य उत्तरवेजव्विया य । तत्यणं जे ते नवधारपिज्जा दे समचरंसगणसंविया पत्ता । तत्य जेसे उत्तरवेडब्बिया ते णाणासंाण संविया परमत्त. सेस्सा चत्तारि दिट्ठी तिविद्धा वि तिथि पाला गयमं । तिरिए अएयाला जयणाए । जागे तिविहे वि । ज ओगे विवि । चत्तारि सा । चत्तारि कसाया । पंच इंदिया | पंच समुग्याया । वेदणा दुविहा वि । इत्थी वेदगा विपुरिसवेदगाव णो पुंसगवेदगा । विई जहमेणं दसवास सहरुलाई उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं । अज्झवसाणा असंखेज्जा पत्थावि अप्पसत्था वि अणुबंधो जहा टिई भवा दो भवगहरणाई, कालादेसेणं जहराणे गं दसवास सहरसाई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं वावीसाए वाससःस्सेहिं अमहियं एवइयं । एवं एव वि गमा यव्वा वरं मल्लिएस पचिल्लएसुतिसुगम असुरकुमाराणं विई विसेसो जाणिव्वो । सेसा ओहिया चेव लद्धी काय संवेहं च जाजा सवत्थ दोभवग्गहणाई जाव एव गमए कालादेसेणं जहां साइरेगं सागरोवमं वावीसाए वाससहस्सेहि अन्नहियं, उक्कोसेण वि साइरेगं सागरोवमं वाबसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं एवयं जाव करेज्जा । गागकुमाराणं भंते ! जे जविए पुढवीकाइए एस चेव वतव्वया जाव वासोत्ति वरं विई जहणणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देणाई दो पलिओ माई एवं अणुवि कालादेसेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्त - मन्भहियाई, उक्कोसेणं दो पलिओ माई देभ्रूणाई वाare वाससहस्सेहिं अमहियाई एवं एव वि गमगा असुरकुमारगमगसरिसा एवरं ठिई कालादेसेणं च जा ज्जा एवं जात्र थरिणयकुमाराणं जदि वाणमंतर किं पिसायत्रा मंतर जाव गंधव्ववाणमंतर ? गांयमा ! पिसाय वाणमंतर जाव गंधव्ववाणमंतर | वाणमंतर देवे भंत ! जे भरिए पुढवीकाइए एएसि पि असुरकुमारगमगसरिसा व गमगा भारिणयव्वा णवरं ठिई कालादेसेणं च जाणेज्जा | ठिई जहए येणं दसवाससहस्साई उबवाय उक्कोसेणं पलिवमं सेसं तत्र । जइ जोइसियदेवेहिंतो उववज्जंति किं' चंदविमाणजोइसियदेवेहिंतो उववज्जंति जा ताराविमाणजांइसियदेवेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! चंदविमाण जोइसियदेवेहिंतो वि उववज्जंति जाव तारा जाव उववज्र्ज्जति । जोइसियदेवेण भंते ! जे जरिए पुढ काइली जहा असुरकुमाराणं वरं एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता तिरिण णाया तिरिणअण्णाला यिमं । ठिई जहणणं भाग लियोवमं उक्कोसेणं पलिश्रोत्रमं वाससयस हस्समम्भहियं एवं श्रणुबंधो वि कालादेसेणं ज. भागपलिओनमं अंतोमुहुत्तमन्नहियं उकोसेणं पलिओ मं वाससयसहस्से गं वावीसाए वाससहस्सेहिं अमहियं एवइयं । एवं सेसा विट्ठ गमगा भाणिव्वा णवरं ठि कालादेसेणं च जागेज्जा । जइ वैमाणियदेवेहिंतो उववज्जंति किं कप्पोववरणगवेमाणिय कप्पातीतगमाणिएहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! कप्पोdaruगवेमारिणय जाव उववज्जंति णो कप्पातीतगवेमायि जाव उववज्र्ज्जति । जइ कप्पोववरणग जाव उबवज्जति किं सोहम्मप्पोववरणगवेमाणिए जाव अच्चुतकपोवपगमाणिया जाव उववज्जंति ? गोयमा ! सोहम्मकप्पोववरणगवेमाणिया ईसारणकप्पोवव भगवेमाणिया जाव उववज्जति, णो सकुमार जाव णो अच्चुयकपोaarगवेमागिया जाव उववज्र्ज्जति । सोहम्मगदेवेणं जंते ! जे नवि पुढवीकाइएस उववज्जइ सेणं ते! केवया एवं जहा जोइसियस्स गमगो एवं ठिई अवधो जहर गं पलियोवमं उक्कोमेणं दो सागरोवमाई, कालादेसेणं जहणणेणं पलियोवमं अंतोमुहुत्तमब्भहियं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई वावीसवाससहस्सेहिं अन्नहियाई एवइयं कालं एवं सेसावि अट्टगमगा जाणियव्वा For Private वरं टिईकाला देस च जाणेज्जा । ईसा देवेणं नंते ! जे नविए एवं ईसा देवेण वि णव गमगा जाणियन्त्रा वरं टिई बंध जहरणेणं साइरेगपलिओवमं उकोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई तं चैव सेवं जैते ! जंते ! त्ति जाव विहरइ ॥ "जईत्यादि छह संघयाणं प्रसंघयरिणांते" इह यावत्करणादिदं दृश्यं "वही वच्छिरा नेवर हारू नेवसंघयण मत्थि जे पोगला रहा कंता पिया मणुन्ना मणोमा ते तेसि सरोरसंघायतापत्ति । तत्थ से जा सा भवधारणिजा सा जहंमेख अंगु लस्स श्रसंखेज्जर भागीत " उत्पादकाले ऽनाभोगतः कर्म्मपारतन्त्र्याला संख्येयभागमात्रावगाहना भवति उत्तरबैकिया तु जघन्याङ्गुलस्य संख्येयभागमाना भवत्याभोगजनित्वातस्यास्तथाविधा न सूक्ष्मता भवति यादृशी भवधारणीयाया इति । तत्थ जे ते उत्तरविउब्विया ते " नाणासंठियत्ति " इच्छावशेन संस्थाननिष्पादनादिति । ( तिमि श्राणा भयपति) कुमारा असंशिभ्य आगत्योत्पद्यन्ते तेषा Personal Use Only Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७२) अभिधानराजेन्ऊः । उचवाय मांसावस्थायां विभङ्गस्यानावाच्छेषाणां तु तद्भावादा ने भजनो जहां दसवाससहस्साई अंतोन्भदिवा तिवसाऽसुरेषु अन्तपृथिवीकायिकेति यमेव वो साग लागरोदनमित्याद्यपि माननीयम् एतावानेव तोयव संबेधकाः पृथिवीत तस्य सुरकुमारेषूत्पादाभावादिति ( मज्जिलपसु पछिल दिस्थितिविशेषो मध्यमगमेषु सुकुमाराणां दशवर्षसपत्राणि स्थितिरत्यसाधिकं सागरोपममिति ज्योतिष्कदा एकके तिथि नाणा तिथि श्रमाणा नियमति । इहासन्सनिस्पतिसमयश्च सम्यमऐश्रीषि ज्ञानानि मत्यादीनि इतरस्य त्वज्ञानानि मत्यज्ञानादीनि भवन्ति । भागपति मासास मृदायोपचारादयोपर्म इदं च तारकदेवदेवी राधित्योक म् । उक्कोसेणं "पक्षिओवमं-घाससयस इस्समनहियंति " इदं च चन्द्रविमानदेवानाश्रित्योक्तमिति । भ० २४ श० १२० । प्रकायिकानाम् - काइरणं ते! कोहितो नववज्र्ज्जति एवं जहेब पुढनी काय उरेसर जाव पुढवाका जंते जे जविए काइए उपर सेणं ते केवइ०१ गोयमा ! जमेणं अंतमुत्तं उक्कोसेणं सत्तवासमहस्सटिईएस उववज्जेज्जा एवं पुढवीकाइयनुद्दे सगस रिसो जाणियन्त्रो वरं विसंबे च जाणेज्जा से तंत्र सर्व जंते ! यथा जंते ! त्ति । ज० २४ श० १३ ८० ॥ तेजस्कायिकानां वायुकानि काइया जंते ! ओहिंतो नववज्जंति एवरं पुढवीकासगरियो उदेसो जायिवो वरं विई संवे च जाणिज्जा देवे न ववति से तं चैव से अंतेति जाव विहर बालकाराणं ते! कभ बजंति एवं जहवे ते काश्य उद्देसो तहब णवरं विई बेहं च जाणेज्जा से जंते भंते !त्ति । चडवी सइमसयस्स पारसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ (देवेन उपपतिति देवेन्यानो त्पद्यन्त इत्यर्थः । एवं पञ्चदशेऽपि । भ० २४ श० १४ उ० । वनस्पतीनाम् । वणस्सइकाइयाणं जंते ! कओहिंतो उववज्जंति एवं पुढवी काय सरसो वरं जा सकाश्या वणस्सकाइए उपवज्जति ताई परमविषचत्थपंचमेस गमेसु परिमाण असम अविरयिं तावति जवा से जो दो भवग्गणाई कोसे अता जबहवाई फालादेवे जदो अंतोनुत्ता उस अतं का एवइयं जाव करेज्जा | सेसा पंत्र गमा अजवग्गह शियातच वर लिई संवेदच जाना सेवं जंतेबेति ॥ 'जाहे वणस्सश्काश्त्र इत्यादि " अनेन वनस्पतेरेवानन्तानामुवृत्तिरस्ति नान्यत इत्यावेदितं शेषाणां हि समस्तानामप्यसंख्यातत्वात् । तथा अनन्तानामुत्पादो वनस्पतिष्वेव कायान्तरस्यामन्तानामना जनत्वादित्यप्यावेदितमिह च प्रथमद्वितीयचतु पवमगमेष्वनुत्कृश्यितावादनता अपत्याभिपते उववाय शेषेषु तु पञ्चगमेत्रस्थितिमावादेको पाडी बेत्याभिधी यत इति । तचातिदेव प्रथमद्वितीयमेष्यस्थि तित्वादेवोत्कर्षतो भयादेशनानन्तानि भवग्रहणानि वाच्यानि कालादर्शने चानन्तः कालः शेषेषु तु पञ्चसु तृतीयपष्टसप्तमादिषु गमेष्व नवग्रहणान्युत्कृष्टस्थितिजावात् । (ई संवे च जाणेज्जन्ति ) तत्र स्थिनिर्जघन्या उत्कृष्टा च सर्वेष्वपि गमेषु प्रतीतेय संबध तृतीयससमयोजयन्येन दशवर्षसहखाण्य मर्महधिकाम्युत्कर्षतस्त्वष्टासु भवग्रहणेषु दशसहस्रा त्येकं भावादशीतिसहस्राणि षष्ठाष्टमोस्तु जघन्येन दश वर्षसहस्राएयन्तर्मुहूर्त्ताधिकान्युत्कृष्टतस्तु चत्वारिंशद्वर्षसहएयन्तमुका याभ्यधिकानि नयमे तु जघन्यतो विश तिर्वर्षसहस्रारयुत्कर्षतस्त्वशीतिरिति । भ० २४ श० १६ ४० ॥ डीन्द्रियाणाम वेइंद्रियाणं भंते कहिंतो उववर्जति जान पुढवीका इए भंते! जे भविए बईदिएसु उववज्जित्तए से भंते! केवई सच्चैव पुढवकाइवस्स लदी जान कालादेसेणं जहां दो तोमुडुत्ता उक्कोसेणं संखेज्जं कार्ल एवइयं जाव करेज्जा एवं तेसु चेव चउसु गमएस संबेहो सेसे पंचगमसु तदेव अजया एवं जाव चछरिदि पूर्ण समं च संखेज्जजना पंचसु अडनवा पंचिदियति रिक्खिजोएि मस्से समं तदेव वा विई संवेह च जाऐज्जा सेवं जंते ! जंते ! ति । (सत्येव वीकारयरस) या विकास्थि पृथिवी कायिकेपित्सोन विः प्रागुका द्विन्द्रियेष्वपि संवेत्यर्थः । (तेसु चेवच सुगमपसुत्ति ) तेष्वेव चतुर्षु गमेषु प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमलवणेषु ( सेसेसु पञ्चसुत्ति ) शेषेसु पञ्चसु गमेषु तृतीयष्ठतमाम नवमलकुणेषु ( एवंति ) यथा पृथिवी कायिफेल सह डीस्य संबंध एवं अतेजोवानस्पति द्वित्रिचतुरिन्द्रियैः सह संवेधो वाच्यस्तदेवाढ चतुषुपूर्वेकेषु गमेरको प्रादेशेन संख्या भयाः पचतीयादिष्य नवाः कालादेशेन च या यस्य स्थितिस्तत्संयोजनेन संवेधो परचेन्द्रियतिर्यग्भिर्मनुष्येध सद दीन्द्रियस्तथैव सर्पगमेष्वष्टावष्टौ च नवा वाच्या इति ॥ भ० २४ श० १७ उ० । श्रीद्रयाणां चन्द्रयान ते दियाणं ते! कच्चति उपपति एवं तेई दियाणं जब दिया उस लिई संचा काइएस उववज्जइ समं तो गमो उक्कोसेणं अछूत्तराई ईदिपसाई ईदिए मर्म तयगमे उकोमेणं टा बी राई पराईदिवससमन्नहियाई दि एहिं समं तयगमे उकासेणं तराई तिथि इंदिपनयाई एवं सव्वत्य जाना जा समिति । संव जंते ! भंतोत्ते । चरिंदियाणं भंते ! कचहिंतो उबवजति जहा ते दिवाएं उच्च तहा पठारंदियाणव वरं ठिति सं च जाणेज्जा से भंते । भेतेति । ( हित संच जारजति) स्थितिस्त्रयेत्पत्सुन चियादीनामायुः संयं च श्रीयोपनि त्रियाणां च स्थितेः संयोगं जानीयात् तदेव कचिद्दर्शयति Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९७३) अनिधानराजेन्दः। उववाय उववाय (तेउकापसु इत्यादि ) तेजस्कायिकैः सार्द्ध श्रीयाणां एगा कानलेस्सा परमत्ता । चत्तारि समुग्याया। णो इत्थीस्थितिसंवेधस्तृतीयगमे प्रतीते नत्कण अष्टोत्तरे वे रात्रिंदि वेदगा णो पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा । लिई जहम्मेणं वशते । कथम् ? प्राधिकस्य तेजस्कायिकस्य चतुषु भवेषक दसवाससहस्साई नकोसेणं सागरोवमं । एवं अणुबंधोवि घेण व्यहोरात्रमानत्याद्भवस्य द्वादशाहोरात्राणि उत्कृष्ठस्थितेश्च त्रीन्द्रियस्योत्कर्षतः चतुर्ष भवेषु एकोनपश्चाशन्मान सेसं तहेव । भवादेसेणं जहमेणं दो भवग्गहणाई उकोत्वेन भवस्य शतं पाप्मवत्यधिकं नवति, राशिद्वयमीरने चाऽष्टो- सेणं अस भवग्गहणाई । कालादेसणं जहमेणं दसवासत्तरे द्वे रात्रिदिवशते स्यातामिति ( बेइंदिएडीत्यादि प्रम- सहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई नकोसेणं चत्तारि सागरोयालीसं संवच्चराति) हीछियस्योत्कर्षतो द्वादशवर्षप्रमाणेषु वमाई चरहिं पुन्चकोडीहिं अन्भहियाई एवइयं सो चेव चतुर्ष भवेष्वष्टचत्वारिंशत्संवत्सराः चतुवव श्रीन्द्रियन्नवग्र जहमकालहितीएसु नववालो जहोणं अंतोमुहुत्तद्वितीएसु हणेपूत्कर्षेणैकोनपञ्चाशदढोरात्रमानेषु षमवत्यधिकं दिनशतं भवतीति ॥ तेइंदिपहीत्यादि ।। (वाणच्याई तिमि राइंदिय ज्ववजेज्जा नकोसेणवि अंतोमुहुत्तहिती अवसेसं तहेव सयाई ति ) अष्टासु त्रीजियभवेषकर्षणकोनपञ्चाशदहोरात्र- एवरं कालादेसणं जहम्मेणं तहेव नकोसेणं चत्तारि सामानेषु त्रीणि शतानि दिनवत्यधिकानि भवन्तीति । ( एवं स- गरोवमाई चाहिं अंतोमुटुत्तेहिं अभहियाई एवइयं कालं व्वत्य जाणेचत्ति ) अनेन चतुरिन्द्रियसझितिर्यग्मनुष्यैः सह जाव करेजा। एवं सेसावि सत्त गमगा भाणियव्या जहेब श्रीन्द्रियाणां सम्बेधः कार्य इति सूचितम् । अनेन च तृतीयगमसम्बेघदर्शनेन षष्ठादिगमसंबेधा अपि सुचिता अष्टव्याः । तेषा णेरइयनद्देसए सम्मिपंचिंदियएण समं णेरझ्याणं मज्झिमप्यटनविकत्वात् । प्रथमादिगमचतुष्कसंबेधस्तु भवादेशेनोत्क मएसु तिमि गमएणं पच्छिल्लएसु तिमि गमएसुवितिणार्षतः संख्यातभवग्रहणरूपः कामादेशेन तु संख्यातकामरूप पत्तं भवति सेसं तंचेव सव्वत्थ विती संवेहं च जाणेजा। इति (चतुरिन्द्रियसूत्रस्य व्याख्या नास्ति ) भ०१५श०१८ उ०॥ सकरप्पभापुढवीणेरइएणं भंते ! जे भविए एवं जहा रयपञ्चेन्द्रियतिरक्षाम् । णप्पभाए णव गमका तहेव सकरप्पभाएवि वरं सरीपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! कोहिंतो उवव- रोगाहणा जहा ओगाहणा संठाणे तिमि णाणा तिमि ज्जति किंणेरक्ष्यतिरिक्खमणुस्सदेवेहितो उववज्जति ? अल्माणा णियमं ठिती अणुबंधो य पुव्वभणिया एवं णगोयमा ! णेरइएहितो वि उववज्जति तिरिक्खमणुस्स- व गमगा वजिमण भाणियव्वा एवं जाव लट्ठ पुढवी देवहितो वि उववति । जइ णेरइएहितो उववज्जति गवरं प्रोगाहणा लेस्सा विती अणुबंधो संवेहो जाणिकिं रयणप्पभापुढविणेरइएहिंतो उववजंति जाव अ यव्वा । अहेसत्तमा पुढवीणरइएणं भंते ! जे भविए हेसत्तमाए पुढवीए णेरएहिंतो उववज्जति गोयमा ! एवं चेव णव गमगा णवरं ओगाहणा लस्सा निती अणरयणप्पभा पुढविणेर एहिंतो उववज्जति जाव अहेसत्त- बंधा भाणियन्वा । संवहां जवादेसेणं जहाणं दो भवमाए पुढविणेरइएहितो वि उववज्जति रयणप्पनापुढवि ग्गहणाई उकासेणं उ जवग्गहणाई । कानादसेणं जहमाणं णेरइएणं जंते ! जे जविए तिरिक्खजोणिएसु उववज्जि बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमन्नहियाई उकोमेणं ग-- तए सेणं नंते ! केवतिकालाहितीएस उववज्जेजा ? गो वढि सागरोवमा तिहिं पुब्बकोमोहिं अमजहियाई एवश्यं । यमा ! जहणणेणं अंतोमुदुत्तहितीएसु उक्कोसेणं पुन्चको आदिसएमु उसु गमएसु जहष्मणं दो नवग्गहणाई उकोडिमाउएसु उववजेजा। तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं सेणं छ जवाहणाई । पच्छिमएसु तिमु गमएमु जहाणं केवइया उववजति एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्बया दो जवग.णाई उक्कोसणं चत्तारि जवग्गहणाई सम्। णवरं संघयणं पोग्गला अणिटा अर्कता जाव परिणम णवसु वि गमएमु जहा पढमगमएमु णवरं विइवितेसो ति । भोगाहणा दुविहा पएणत्ता तंजहा जवधारणिज्जा कालादसेणं ? विइयगमए जदय बाबी सागरावमाई प उत्तरवेउब्बिया य । तत्थाणं जा सा जवधारणिज्जा अंतोमुत्तमन्नहियाई उक्कोसेणं गवढि सागरावमाई तिहिं सा जहएणणं अंगुलस्स असंखेज्जइजागं उक्कोसेणं स अंतोमुहुत्तहिं अन्नहियाई एवइयं कानं २ तइयगमए जहसघणुई तिमि रयणोि छच्चंगुलाई । तत्थणं जा सा मणं बावीस सागरोवमाई पुचकामीए अन्नहियाई उक्कोउत्तरवेउब्बिया सा जहए ऐणं अंगुसस्स संखेज्जइजागं सेणं गवढि मागवमाइ तिहिं पुन्चकोमोहिं अजहिउक्कोसेणं पएणरसधणुइं अट्ठाइजाओ रयणीयो । ते याइ ।३। चनस्थगमए जहाणं बावीसं मागरोवमाइं अंतासिणं जंते ! जीवा सरीरगा कि संठिया पसात्ता ? गोय मुहत्तमब्जहियाई उक्कोसेणं गवटि मागरोवमाई तिहिं पु न्चकोमीहिं अन्नहियाई ४॥ पंचमगमए जहाणं बावीस मा! दुविहा पहाता तंजहा जवधारणिज्जा य उत्तरवेउ- | सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमन्नहियाई उक्कोसणं गवाहें सागबिया य । तत्थ णं जे ते भवधारणिजाते हुंडसंठिया ।। रोक्माई तिहिं अतोमुत्तहिं अन्जहियाई । एउगमए तत्थणं जे ते उत्तरवेउन्चिया ते वि हुडसंठिया पामत्ता। महम्णं बावीसं सागरावमाई पुचकोमोहिं अन्नहियाई Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९७४१ अभिधानराजेन्द्रः / उववाय उक्कांसेणं बावहिं सागरोत्रमाई तिहिं पुल्वकोमीहिं अन्नहियाई । ६ । सत्तमगमए जहमेणं तेत्तीस सागरोवमा तमुत्तमनहियाई उकोसें बावहिं सागरोवमाई दोहिं तोते अन्नहियाई | ७| मगमए जहणं तेतीसं मागरोत्रपाई अंतोमुटु तमन्न हियाई उकासेणं बावहिं मागरोमाई दोहिं ततेहिं अन्न दियाई [८] णवमगमए जहोणं तेत्तीस सागरोत्रमाईं पुव्वकोमीए अन्नहियाई उकोसेणं बावहिं सागरोत्रमाई एवइयं जाव करेज्जा | ए | (उसे पुञ्चको आठपत्ति ) नारकाणामसङ्ख्यातवर्षायुष्केष्वनुत्पादादिति । असुरकुमाराणवत्तव्ययन्ति ) पृथिवीकायिकेषत्पद्यमानानामसुर माराणां या वक्तव्यता परिमाणादिका प्रागुक्ता से नारकाणां पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्षुत्पद्यमानानां वाच्या विशेषस्त्वयं नवरमित्यादि (जढोणं अंगुलरस असंखज्जइभागं ति ) उत्पत्तिसमयापेकमिदम् । नक्कोसेणं सत्तधरं इत्यादि इदं च त्रयोदशप्रस्तटापक्कं प्रथमप्रस्तटादिषु पुनरेवम् । 'रयणा प पढमपवरे, इत्थतियं देहचस्सयं प्रणियं । उप्पणंगुड्डा, पयरे पयरेय बुड्ढी उ ॥ १ ॥ चक्कोसेणं पछारसेत्यादि । श्यं च जवधारणीयावगाहनाया द्विगुणेति ( समुग्धाया चत्तारिप्ति ) वैक्रियान्ताः । [ सेसं तदेवन्ति ] शेषं दृष्टचादिकं तथैव यथा अ सुकुमाराणां सो चेवेत्यादि द्वितीयो गमः ( अवसेसं तहेवत्ति) यथौधिक गमे ( एवं लेखावि सप्त गमगा भाणियव्वति ) एवमित्यनन्तरोक्त गमध्यक्रमेण शेषा अपि सप्त गमा नणितव्या नवत्रैयं करणाधादर्श स्थितिर्जघन्योत्कृष्टभेदादाद्ययोगमयोनरकाणामुक्ता तादृश्येव मध्यमे ऽन्तिमे च गमत्रये प्राप्नोतीति । अत्रोच्यते (जहेव नेरध्यउद्देसर इत्यादि) यथैव नैरयिकोद्देश केअधिकृत तस्य प्रथमे संहिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्भिः सह नारकाणां मध्यमेषु त्रिषु गमेषु पश्चिमेषु च त्रिषु गमेषु स्थितिनानात्वं भ वति तथैवेापीति वाक्यशेषः (सर) रोगाढणा जहा श्रगाढणा संगणेति ) शरीरावगाहना यथा प्रज्ञापनाया एकविंशतितमे पदे सा च सामान्यत एवं "सत्तधणु तिरिणरयणी, बचे वय - गुलाई उच्चतं । पढमाप पुढवीप, विउणा विठणं च सेसासुति " १ ( तिथि नाणा तिरिण अण्णाणा नियमति ) द्वितीयादिषु सन्य एवोत्पद्यन्ते ते च त्रिज्ञानास्थ्यज्ञाना वा नियमा द्भवन्तीति ॥ उक्कांसेणं बावडी सागरोवमाई इत्यादि ॥ ३ ॥ इह भवानां कालस्य च बहुत्वं विवक्तितं तच्च जघन्यस्थितिक नारकस्य वज्यते इति द्वाविंशतिसागरोपमायुर्नारको भूत्वा पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु पूर्वकोट्यायुर्जातः एवं वारत्रये षट्षष्टिसागरोपमाणि पूर्वकोटित्रयं च स्याद्यदि चोत्कृष्टस्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुर्नारको त्वा पूर्वकोटचायुः पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्षुत्पद्यते तथा वारद्वयमेवैवमुत्पत्तिः स्यात्ततश्च षट्षष्टिः सागरोपमाणि पूर्वकोटिद्वयं च स्यात् तृतीया तु तिर्यग्भवपूर्वकोटी न सज्यत इति नोत्कृष्टता जवानां कालस्य च स्यादिति उत्पादितो नारकेभ्यः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकः । अथ तिर्य्यग्यां निकेज्यस्तमुत्पादयमाह । जदि तिरिक्खजा लिएहिंदो नववज्जंति किं एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो जववज्जंति एवं उनवातो जहा पुढवीकाsareeए जाव पुढवीकाइएण जंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्रखजोगिएसु नववज्जित्तए सेणं जंते ! केव काल ० !जो अंतमुदुनटिइएस नकोसेणं पुचको For Private उववाय नववज्जांत तेणं जंते ! जीवा एवं परिमाणादीया धज्जवसाणा जंच्चैव अप्पणो सद्वाणे वत्तव्या सच्चव पंचिंदियतिरिक्खजोएिएस वि उववज्जमाणस्स वि जाणिव्वा णवरं वसु वि एमएस परिमाणो जहां एको वा दो वा तिमि वा उक्का से संखेज्जा वा प्रसंखेज्जा वा जववज्जति जवादेसेण वि णवसु गमएस जो दो जवरगहणाई नकोसे छोड जवग्गहणाई सेसं तं चैव कालादेसेणं उजयतो लिई पकरेज्जा । जदि प्राउका वि एवं जाव चनरिंदिया लववातेयव्त्रो एवरं सव्वत्थ पोली जाणियन्त्रा एवम् वि गमएस नवादेसेणं जाणं दो भवग्गहणाई नकोसेणं अट्ठ जवग्गहलाई कालादेसेणं उन वितिं करेज्जा सव्वेसिं सव्वगमएजदेव पुढवीकाइए नववज्जमालाएं अच्छी तहेव सव्वत्थ विसंबे च जाणेज्जा । जइ पंचिदियतिरिक्खजो - णिएहिंतो उववज्र्ज्जति किं सरिए पंचिंदियातीरक्खजोगिएहिंतो उववज्जति यस पिपंचिदियतिरिक्खजो पिएहिंतो नववज्जंति ? गोयमा ! सपिंचिदिपभेदे जहेव पुढवीकाइएस उवत्रज्जमाणस्स जाव असविपचिदियतिरिक्खजांलिएणं अंत ! जे जरिए पंचिदियतिरिक्खजोएिएस उबबज्जित्तए सें भंते ! केवइयकालं ० १ गोयमा ! जहोणं तमुत्तं नकोसेणं पक्षिप्रवमस्स संखेज्जइजागडिइए सु नववज्र्ज्जति । तेणं जंते ! वसेसं जहेव पुढवी काइएसनववज्जमाणस्स असएिएस्स तहेव शिरवसेसं जाव जवादेसोत्ति । कालादेसणं जहमेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्को सेणं पक्षियो मस्स संखेज्जइजागं पुव्त्रको की पुदुत्तमब्ज हियं एवश्यं । त्रिइयगमए एस चेत्र लदी एवरं कालादेसेणं जहां दो अंतोमुहुत्ता नक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोमी ओ चाहिं तोमुहुत्तेहिं अन्न हियाओ एवइयं । सो चैव उकोसका लट्ठिएस उववज्जइ जहां दो पत्रिोत्रमस्स - संखेज्जइनागाईईएस उक्कोसेण वि पविमस्स संखेज्जइनागट्टितिं नववज्र्ज्जति । तेणं जंते ! जीवा एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमाएम्म प्रसमिस्स तदेव शिरवसेसं जाव काला सोति वर परिमाणं जहोणं एको वा दो वा तिष्ठि वा कोसेणं संखेज्जा वा जववज्जंति सेसंतं चैव अप्पणा जहस्प जाओ जहां अंतोमुहत्तट्ठिईएस कोसेणं पुव्वको आसु उववज्जंति तेणं अंते ! त्र्वसेसं जहा एस पुढवीकाइएस उववज्जमाणस्स मज्जिमेसु तिसु गमसुजाव णुबंधोति । जवादेसेणं जहोणं दो नवग्गहणाई उक्कोसेणं अजवग्गहणाई कालादेसेणं जहां दो अंतोमुदुत्ता उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोमीओ हिं तान्निहियाओ । सो चेत्र जहाकालट्ठिईएस वो एस चैव वतव्वया एवरं कालादेसेणं जहम्मेणं दो Personal Use Only Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७५) अभिधानराजेन्द्रः । उबवाय तोमुत्ता उक्कोसेणं अट्ठ तोमुहुत्ता एवइयं सो चैत्र कोसकाईएस सो जाणं पुन्त्रकोमिया एसु कोण विपुव्वको माउएस उववज्जइ एस चैव वत्तव्वया वरं कालादेसेणं जाणेज्जा। सो चैत्र अप्पा उक्कोसकाट्टिईओ जाओ सो चैत्र पढमगमगवतव्वया णवरं विई से जमणं पुन्नकोडी उकोसेण वि पुम्बकोमी सेसं तं चत्र । कान्नादेसेणं जहां पुत्रको मी तोमुदुत्तमन्नहिया उकसे पोस असंखेज्जइ जागं पुव्त्रको मिपुदुत्तमजहियं एवइयं । सो चेव जम्मकालाहितीएस उववरणो एस चैव वत्तव्या जहा सत्तमगमए एवरं कालादेणं जढ़एणं पुत्रको तमुदुत्तमन्न हया उकोणं चत्तारि - पुत्रको उहिं तो हुतेहिं अन्न हियाओ एवइयं । सोचेको कालीएस उववषां जहषेणं पलिवमस्स असंखेज्जइजागं उक्कोसेण विपक्षियोवमस्स असंखेज्जइ नागं एवं जहा रयणपनाए जहषेणं उत्रवज्जमाणस्स असएिएस्स एवमं गर्म तदेव णिरवसेसं जाव कालादेसोति एवरं परिमाणं जहा एतस्सेव त तयगमे सेसं तं चैव । जदि सपिंचिदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति किं संखेज्जवासा असंखेज्जवासालय ? गोयमा ! संखेज्जबासा को असंखेज्जवासा । जदि संखेज्जवासाज्य जात्र किं पज्जत्त संखेज्ज० अपज्जत्तसंखेज्ज० दोस वि। संखज्जवासाउयसपिचिदियतिरिक्खजोगिए जे नविए पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जित्तए सेणं जंते ! केवति ? गोयमा ! जषेणं अंतोमुत्तं उक्को सेणं तिपलि ओवमति । एस उवबज्जेज्जा । तेणं अंते! अवसेसं जहा एयस्स चैव समिस्स पनाए ववज्ञमाणस्स पढमगमए एवरं श्रोगाहणा अहषेणं अंगुलस्स असंखेज्नइनागं कांसणं जो एस• इस्सं सेसं तं चैव जाव जवादेसो, कान्नादेसेणं जहां दो तोमुत्ता उसे तिरिए पनि ओबमाई पुच्चकोडी पुदुमन्नहियाई एवइयं कालं । सो चेत्र जहाकालहिती एस उववरण एस चैव वत्तव्वया एवरं कालादेसेणं जढणं दो अंतमुत्ता उकोसेणं चत्तारि पुव्त्रकार्डीओ चनहिं तोमुदुहि अन्नहियाओ । सो चैत्र उक्कीमकाल द्वितीएस नववष्णो जहएणेणं तिपलिप्रोत्रमहिती एसु नक्कों से ए बिपिविमतीएस जववज्जंति । एस चैव वत्तन्वया णवरं परिमाणं जहां एक्को वा दो वा तिरिए वा छक्को सेणं संखेज्जा वा नववज्र्ज्जति । ओगाहणा जहणणं गुल संखज्जइजागं उक्कोसेणं जो प्रण सदस्सं सेसं सं चव जाव णुबंधोति । जवादेसेणं दो जवग्गहणाई कालादेसेणं जहां ती पलिओमाई अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसें तिमि पलियवमाई पुव्वकोडीए - भहियाई । सो चेव अप्पणा जहसकालद्वितीओ जाओ For Private उववाय जहोणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी आनएस ब वज्जति लद्धी से जहा एतस्स चैव समिपंचिदियस्स पुढ - वीकाइए नववज्जमाणस्स मज्झिल्लएसु तिसु गमसु सव्वेव इहवि मज्झिमेसु तिसु गमएसु कायव्वा संबेहो ata एत्य चैव समिमज्झिमेसु तिसु गमएसु सो चेव पाउकोसकालद्वितीओ जाओ जहा पढमगमएस वरं विती बंध जहमेणं पुव्वकोडी नक्कोसेण वि पञ्चकोडी कालादेसेणं जहोणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तमन्महियाई नकोसे तिमि पलिश्रवमाई पुव्यकोंडी दुत्तमम्भहियाई, सो चैव जहमकालडिइएस उबवम्पो एस चैव वत्तव्या णवरं कालादेसेणं जहोणं पुव्वकोंडी अंतमुत्तमम्भहियाई नक्कोसेणं चत्तारि पुत्रकोडीचो चलहिं अंतमुत्तहिं अन्नहियाओ । सो चैव उक्कोसकाहिए वो जहषेणं तिपलि ओवमहिईएस उक्को - से वि तिपलिओ मट्ठिईएस प्रवसेसं तं चेत्र एवरं परिमाणं गाढ़ा जहा एतस्सेत्र तज्ञ्यगमए जवादेसेणं दोज वग्गणाई, कालादेसेणं जहोणं तिमि पनि ओवमाई दुव्वकोमीए अन्नहियाई ठक्कोसेणवि तिरिण पलिमाई पुनकोमोए अन्नहियाई एवश्वं जाव करेज्जा । जइ मस्तहितो उववज्जेति किं सलिमस्सेहिंतो मिस्से ? गोयमा ! समिमणस्सेहिंतो स समस्ते। मिस्स नंते ! जे जत्रिए पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जति मेणं जंते ! केवइयकाल हिईएस उववज्जंति ? गोयमा ! जहषेणं अंतोमुदुत्तं उक्कोसेणं पुन्त्रकोमी प्रासु उववज्र्ज्जति लच्छी से तिसृवि गमपसु जव पुढवकाइए नववज्जमाणस्स संबेहो जहा एत्थ - असि पंचिदियस्स मज्जिमेसु तिसु गमएस तहेत्र रिवसेसं जायिव्वं । जदि सम्मिस्स ० किं संखेज्जवासाउयस विमगुस्स० संखेज्ज वासाजय ० ? गोयमा ! समि गुस्ससंखेज्जवासाय णो असंखे जवासाज्य । जइ संखेज्जवासा किं पज्जत संखेज्जवासा अपज्जत संखेज्जवासा ? गोयमा ! पज्जत्तसंखज्जवासा अपज्जत्त संखेज्जवासा । सवि मस्से जंते ! जे जविए पंचिदियतिरिक्ख० जाव उवत्रज्जित्तए से जंते ! केवइ ? गोयमा ! जहां अंतोमुहुत्तं उको तिमि पविमहिईएस नववज्जंति तेणं जंते ! बदी जहा एतस्से सम्मिमस्सपुढवीकाइएस उवत्रजमाणस्स पढमगमए जाव भवादेसोति । कालादेसेणं जहां अंतोमुडुत्ता उक्कोसेणं तिथि पलियोवमाई पुव्व हुन् हियाई सो चेव जहाकालट्ठिईएस उव सव्वेव वत्तव्त्रया एवरं कालादेणं जहां दो अंतोमुदुचा उक्कोनेणं चत्तारि पुत्रकोडीओ चउहिं अंतोमृदुत्तेहिं - नदिया | सो चेव कोसकान्नईिएम जवत्रष्यो जह Personal Use Only Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अन्निधानराजन्धः। उववार्य मेणं तिमि पलिग्रोवमईिएसुनकोसेण वि तिमि पक्षियो- मंतरेणं जंते ! जे नविए पंचिंदियातरिक्ख. एवं चेव णवरं बमहिईएमु सम्वेव वत्तव्बया णवरं आगाहणा जहमणं मिति संबेदं च जाणज्जा । नई जोइसिय नववाअो तहेव अंगुलपुडुत्तं नकोसेणं पंचधणहसयाई लिई जहमण मास- जाव जाइसिएण नंते ! जे जविए पंचिंदियतिरिक्ख० एम पुरतं उक्कोमेणं पुवकोमी एव अणुबंधो विजवादसेणं दो चेच वत्तव्वया जहा पुढवाकाइय उद्देसए जवम्गहणाई णव नवग्गहणाई काझादसेणं जहमणं तिथि पंलिओवमाईमा- वि गमएमु अट्ठ जाव कालादमेणं जहम्मेणं अट्ठनागपतिसपुत्तमम्भहियाई उक्कोसांत म पनि बमाई पुब्धको-| आवम अंतोमुटुसमन्नहियं, उक्कोसेणं चत्तारि पनिओवमाई कीए अम्नहियाई एवइयं जाव करेजा । सो चेव अप्पणा ज- चनहिं पुचकामीहिं चनाह य वाससयसहस्सेहिं । हमकासहिईओ जानोजहासामिपंचिंदियतिरिक्खजाणिएस अभाहियाई एवइयं जाव गतिरागतिं करेजा । पदमु उववज्जमाणस्स मन्किमेसु तिसु गमएसु वत्तव्यया नाणिया गमएसु एवरं रितिं संदेहं च जाणेज्जा । जइ वेमाणियसब्वेव एयस्सविमजिकमएसुतिसु गमएस णिरवसेसा जणि- देवकं कप्पोववस्मगवे०कप्पातीता गोयमा! कप्पोववरणया णवरं परिमाएं उक्कोसेणं संखज्जावा उववज्जति सेसंत चेव ।। गवेमाणिया णो कप्पाततिा वेमाणिया। जइ कप्पोववामग सो चेव अप्पणा उकासकालाहियो जाओ सव्वेव पढम- | जाव सहस्सारकप्पोववप्लगवेमाणियदेवहितो उपवज्जति गमगा वत्तव्वया वरं प्रोगाहणा जहमणं पंच धण्हस- णो माणय० जाव णो अच्चुयकप्पोववमगवेमाणिया। याई उक्कोसेण वि पंचधणुहसयाई ठिई अणुबंधो जहमण सोहम्मगदेवाणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख जाब पुवकोकी उक्कोसेण वि पुवकोमा सेसं तं चेव जाव जवा- उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइ ? गोयमा ! जहमेणं अंदेसोत्ति । कालादेसेणं जहणं पुब्बकोडी अंतोमहत्तमन्न- तोमुत्तट्टिईएसु उक्कोसेणं पुवकोडी भाउएसु सेसं जहेहियाइं उकोसेणं तिमि पनिओवमाई पुबकोमिपुत्तमन्न- व पुढवीकाइयउद्देसए णवसु वि गमएसु जहएणणं दो हियाई एवश्यं जाव करेजा सो चेव जहमनामट्टिईएसु भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई वितिं कालादेसंच उववम्मो एस चेच बत्तव्यया वरं कालादेसणं जहोणं जाणेज्जा एवं ईसाणदेवे वि । एवं एएणं कमेणं भवसेपुबकोमी अंतोमुत्तमाहिया उक्कोसेणं चत्तारि पुवको सा जाव सहस्सारो देवेसु उववातेयव्वो णवरं प्रोगाकोमाओ चनहिं अंतोमुदुत्तेहिं अमहियानो सोचन हणा जहा प्रोगाहणा संठाणे लेस्सासणकुमारमाहिउकोसकालाहिईएसु उववालो जहमेणं तिलि पलिओवमाइं दवंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा उकोसेपवि तिमि पनिोवमाई एस चेव अच्छी जहेव स वेदेणो इत्थविदगा पुरिसवेदगा णोणपुंसगवेदगा। भातमगमए । जवादेसेणं दो नवग्गहणाई कामादसेणं जहमणं उअणुबंधा जहा विइपदे सेसं जहेव ईसाणगाणं कायतिमि पनिओवमाई पुन्चकोमीए अन्नहियाई उक्कोसेण वि संवेहं च जाणेजा । सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ तिमि पक्षियोवमाई पुच्चकोमीए अन्नहियाई ६ जश् देवे- (जच्चेव अप्पणो संगणे वत्तव्वयात्त ।) यैवात्मनः पृथिवीहिंतो नववज्जति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववज्जांत वाण कायिकस्य स्वस्थाने पृथिवीकायिकलकणे उत्पद्यमानस्य ब क्तव्यता नणिता सवात्रापि वाच्या केवसं तत्र परिमाणद्वारे मंतरजोइसियवेमाणियदेवहितो नववज्जति ? गोयमा !ज प्रतिसमयमसंख्येया चत्पद्यन्ते इत्युक्तमिह त्वेकादिरित्येतदेवाह वणवासिदेवेहिंतो वि नववज्जति जाव वैमाणियदेवेहितो नवरमित्यादि । तथा पृथिवीकायिकेभ्यः पृथिवीकायिकस्योत्पवि नववज्जति । जइ जवणवासिदेवेहितो नवबज्जति कि चमानस्य सम्बेधद्वारे प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमगमेषत्कर्षतोड अमरकुमारजवणवासिदेवेहिंतो नववज्जति जाय थणियकुव संख्यातानि भवग्रहणान्युक्तानि शेषेषु स्वष्टौ नवग्रहणानि इड पुनरष्टावेष नवस्वपीति । तथा (कालादेसेणं सभयो विप मारजवणवासिक? गोयमा! असरकुमार नवणजाव थणि करेजात्ति) कामादेशेन सम्बेधं पृथिवीकायिकस्य सकिपञ्चे. यकुमारजनणवासि. असुरकुमारणं जंते! जे जविएपचिं न्द्रियतिरवध स्थित्या कुर्यात् तथाहि-प्रथमे गमे (कासाएसेण दियतिरिक्खजोणिएमु उवव जित्तए सणं जते केवइयव ? जहणे दो अंतोमुत्साति ) पृथिवीसत्कं पञ्चेन्द्रियसत्कं चेति उत्कर्षतोऽष्टाशीतिवर्षसहस्राणि पृथिवीसत्कानि चतस्रश्न गोयमा ! जहम्मेणं अंतोमुलुत्ताहिईएसु उक्कोसेणं पुश्वकोडि पूर्वकोट्यः पञ्चन्जियतिर्यसत्का एवं शेषगमेष्वप्यूह्यः सम्बेध हिईएमु उववज्जेजा असुरकुमाराणं अफी वसु विग शति (सव्वत्वअप्पणो नहीभाणियव्यत्ति) सर्वत्राकायिकादिमएसु जहा पुढवीकाइएसु उववजमाणस्स एवं जावईसाण- ज्यश्चतुरिन्द्रियान्तेच्या उतानां पञ्चेन्द्रियतियक्षुत्पादितानाम् । स देवस्स तहेव सही जवादेसेणं मम्वत्थ अट्ठ जवग्गह- (अप्पणोत्ति) अपकायादिसत्का लब्धिः परिमाणादिका नणितणाई उकोसेणं जहाणं दोसि विति संबेहं च जाणेज्जा। व्या सा च प्राक्तनसूत्रेन्योऽवगन्तव्या। अथानन्तरोक्तमेवार्य स्फुटतरमाह "जहेव पुढविकाश्पसुनववज्जमाणाणमित्यादि" पागकुमाराणं ते! जे जविए एम चेष वनव्वया णवर यथा पृथिवीकायिकेन्यः पन्नेन्धिपतिर्यक्षुत्पद्यमानानां जीवानां मिति संवेहं च जाणज्जा। एवं जाव थणियकुमारे जवाण सब्धिरुक्ता तथैवाकायिकादियश्चतुरिन्द्रियाम्तज्य सत्पद्यमामंतरेहिंतो उववज्जति किं पिसायवागणमंतरे तद्देव जाव वाण- नानां सा वाध्यति भसनित्यः पञ्चेझियतिर्यगुत्पादाधिकारे । Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७७) नववाय अभिधानराजेन्द्रः। उववाय (सक्कोसेणं पत्रिोवमस्स असंखज्जा भागट्टिएसुत्ति) अने दाताः, सातासातवेदनास्त्रिविधा वेदाः जघन्येनान्तर्मुहूर्तस्थि.. नासक्षिपञ्चेन्द्रियाणामसंख्यातवर्षायुकेषु पश्चेन्द्रियतिर्यक्षुत्प तयः उत्कर्षेण तु पूर्वकोट्यायुषः प्रशस्तेतराध्यवसाना। तिरुक्ता ( अवसेसं जहेवेत्यादि) अवशेष परिमाणादिघारजातं स्थितिः समानानुबन्धा, कायसंबेधस्तु जवादेशेन जघन्यतो द्वी यथा पृथिवीकायिकेधुत्पद्यमानस्यासकिनः पृथिवीकायिको- भवी उत्कर्षतोऽटा भवाः कामादेशेन तु निखित पवास्ते । १ । देशकेनिहितं तथैवासम्झिनः पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पद्यमानस्य वा- द्वितीयगमे [सञ्चव वत्तव्ययत्ति] प्रथमगमोक्ता विझमिह संबेधच्यमिति (उक्कोसेण पत्रिोवमस्स असंखज्जइभागं पथ्यकोमि- कामादेशेन जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहुर्ते सत्कर्षतश्चतनः पूर्वकोट्यश्चपुत्तमम्भडियंति) कथमसञ्जी पूर्वकोट्यायुष्कापूर्वकोट्यायु- तुरन्तर्मुहर्ताधिकाः तृतीयेऽप्येवं नवरम[ओगाहणा जहणं अंगुप्केष्वेव पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पन्न इत्येवं सप्तसुभवग्रहणेषु सप्त अपहत्तत्तिअनेनेदमवसितम-पृथक्त्वासीनतरशरीरोमनुष्या पूर्वकोट्योऽष्टमभवग्रहणे तु मिथुनकतिर्यक्षु पल्योपमासंख्ये- नोत्कृष्टायुष्केषु तिर्यकृत्पद्यत, तथा ( मासपुरतंति) भनेनापि यभागप्रमाणायुष्केषूत्पन्न इति, तृतीये गमे ( उक्कासण स मासपृथक्त्वाकीनतरायुष्को मनुष्यो नोत्कृष्टस्थितिषु तिर्यकृत्पखेज्जा उववज्जति त्ति)असंख्यातवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिरश्चा घत इत्युक्तं "जहा सन्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स पंचिदिमसंख्यातानामभावादिति । चतुर्थगमे (उक्कोसेणं पुवकोडि तिरिक्वजोणिपसु नववज्जमाणस्सेत्यादि"सर्वथेहसमता परिआउपसु उववज्जेजत्ति) जघन्यायुरसम्झी संख्यातायुकेम्वेव हारार्थमाह। नवरं परिमाण मित्यादि। तत्र परिमाणद्वारे सक्कर्षतो. पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पद्यत इति कृत्वा पूर्वकोट्यायुप्केपित्युक्तम् ॥ ऽसंख्येयास्ते उत्पद्यन्त इत्युक्तमिहतु सजिमनुष्याणां संख्येयत्वेन अवसेस जहा एयस्सेत्यादि । इहावशेष परिमाणादि एतस्या संक्वेया उत्पद्यन्त इति वाच्यम् । संहननादिद्वाराणि तु यथा सशितिर्यकपञ्चेन्द्रियस्य मझिमेसुत्ति) जघन्यस्थितिक तत्रोक्तानि तथेहावगन्तव्यानि तानि चैवं तेषां षट् संहननानि, गमेषु एवं जहा रयणप्पभाए इत्यादि तच्च संहननोच्चत्वा- जघन्योत्कर्षाच्याम मासंख्येयभागमात्राऽवगाहना, षट् संस्थादि अनुबन्धसंवेधान्तं नवरं परिमाणमित्यादि ॥ तच्चेर्द नानि, तिम्रा लेश्याः मिथ्यादृष्टी द्वे अज्ञाने कायरूपो योगो [उकोसेणं संखेजा उववज्जतित्ति अथ सञ्जिपञ्चेन्द्रियेभ्यः द्वावुपयोगी, चतस्रः संज्ञा-श्चत्वारः कषायाः पञ्चेन्द्रियाणि, सक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चमुत्पादयन्नाह " अदि समीत्यादि" प्रयः समुदाता द्वे वेदने त्रयो वेदा जघन्योत्कर्षाच्यामन्तर्मुहर्त(अवसेसं जहा एयस्य चेव सनिस्सात्ति) अवशेष परिमाणा- प्रमाणमायुरप्रशस्तान्यध्यवसायस्थानान्यायुःसमानोऽनुबन्धकादि तथैतस्यैव सम्झिपञ्चेन्द्रियतिरश्च इत्यर्थः केवलं तत्राव- यसंवेधस्तत्र भवादेसेणं जघन्येन द्वे नवग्रहणे उत्कर्वतस्त्वष्टा गाहना सप्तधनुरित्यादिकोक्ता श्ह तूत्कर्षतो योजनसहनमा- भवग्रहणानि कासादेशेन तु सचिमनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यकस्थिना सा च मत्स्यादीनाश्रित्यावसेयेति । एतदेवाह नवरमि त्यनुसारतोऽवसेय शति । अथ देवेन्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चमुत्पात्यादि ( उक्कोसेणं तिथि पलिओवमाई पुबकोमीपुर दयन्नाद-जइदेवेहीत्यादि [असुरकुमाराणलझीति ] असुरकुतमम्नहियाति) अस्य च भावना प्रागिवेति ॥ सही से माराणां सन्धिःपरिमाणादिका[पवं जाव ईसाणदेवस्सत्ति] यथा सहा एयस्स चेवेत्यादि ।। एतच्च तत्सूत्राऽनुसारेणैवावगन्त पृथिवीकायिकेषु देवस्योत्पत्तिरुक्ता असुरकुमारादावीशानकदेवं न्यम् । संबेहो जयेत्यादि (पत्थचेवत्ति) अत्रैव पञ्चन्छि चान्ते कृत्वैवं तस्य पञ्चेन्द्रियतियकु सा वाच्या, ईशानकान्त यतिर्यगुदेशके स चैवं भवादेशेन जघन्यतो द्वौ जवा उत्कृष्ट एव च देवः पृथिवीकायिकेपूत्पद्यत इति कृत्वा याचदीशानकसस्त्वष्ट भवाः कालादशेन जघन्येन द्वे अन्तर्मुर्ते सत्कर्षतश्च देवस्येत्युक्तम् असुरकुमाराणां चैवं सन्धिरेकाद्यसंख्येयान्तानां तन्नः पूर्वकोट्योऽन्तर्मुहूर्तचतुष्काधिका एवं जघन्यस्थितिका तेषां पचन्छियतिर्यसु समयेनोत्पादः। तथा संहननाभावः जप्राधिफेष्वित्यत्र संबंधो जघन्य स्थितिको जघन्यस्थितिकेष्पित्य घन्यतोऽन्नासंख्येयन्नागमानोत्कर्षतः सप्तहस्तमाना भवधारअचान्तर्मुहुर्तेः संबंधः जघन्यस्थितिक उत्कृष्टस्थितिकेचित्यत्र णीयाबगाहना इतरातु जघन्यतोऽङ्गलसंख्येयभागमाना, उत्कर्षपुनरन्तर्मुहृत्तः पूर्वकोटीनिश्च संवेध इति । नवमगमे नवरं परि तस्तु योजननकमाना संस्थानसमचतुरनम्, उत्तरवैक्रियापेक्क या तु नानाविधं चतस्रो वेश्यात्रिविधा दृष्टिः श्रीणि कानान्यमाणमित्यादि । तत्र परिमाणमुत्कर्षतः संख्याता उत्पद्यन्ते, भवगाहना चोत्कर्षतो योजनसहसमिति। अथ मनुष्येज्यस्तमुत्पाद वश्यमझानानि च जनया, योगादीनि पञ्च पदानि प्रतीतानि समुदाता श्राद्याः पञ्च वेदाना द्विविधो वेदो नपुंसकवर्जः स्थियत्राह जर मणुस्सेहितो इत्यादि (बकी से तिसु विगमएसुत्ति)। तिर्दशवर्षसहस्राणि जघन्येतरातु सातिरेकं सागरोपमं शेषद्वासन्धिः परिमाणादिका । ( से) तस्यासज्झिमनुष्यस्य विध्वपि रद्वयं तु प्रतीतं संवेधं तु सामान्यत आह-जवादेसेणं सव्यस्थेगमेण्याघेषु यतो नवानां गमानां मध्ये आद्या एवेद प्रयो गमाः त्यादि । नागकुमारादिवक्तव्यता तु सूत्रानुसारेणोपयुज्य घाच्या सम्जवन्ति, जघन्यतोऽप्युत्कर्षतोपचान्तर्मुहूर्त्तस्थितिकत्वात्त [ोगाहणा जहा ओगाहणा संगणेति ] अवगाहना यथा स्येति । ( पत्थचेवत्ति) भैरव पञ्चेन्द्रियतिर्यगुदेशकमसकि भवगाहनासंस्थाने प्रशापनाया एकविंशतितमे पदे तत्र चैवं पन्छियतिर्यग्भ्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यगुत्पादाधिकारे । नो असंखे- देवानामवगाहना “ भवणवणजोश्सी,सोहम्मीसाणे सत्त हुंति जवासानुपाहिंतोत्ति) असंख्यातवर्षायुषो मनुष्या देवेम्वेयोत्पद्य- रयणीो । पकेकहाणिसेसे, उगे य फुगेचउक्केये" त्यादि ॥१॥ न्ते न तिर्यदिवनि सहीसे इत्यादि अब्धिः परिमाणादिप्राप्तिः। [जहानितिपएत्ति] प्रशापनायाश्चतुर्थपदे स्थितिश्च प्रतीतैवेति। (से) तस्य सझिमनुष्यस्य यथतस्यैव सझिमनुष्यपृथिवी मनुष्याणामकायिकेपूत्पद्यमानस्य प्रथमगमेऽभिहिता, सा चैवं परिमाणतो मणुस्साणं भंते ! कोहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! जघन्येनको द्वौ वोत्कर्षेण तु संख्याता एवोत्पद्यन्ते स्वजावतोऽ णेरइएहितो वि उववजंति जाव देवेहिंतो वि उववजंति पि संख्यातत्वात्सज्ज्ञिमनुष्याणां तथा पविधसंहनिनः उत्कर्षतः एवं उबवातो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिए उद्देसए पश्वधनुःशतावगाहनाः षट्विधसंस्थानिनः पद मेश्याः त्रिविधा दृष्टयः भजनया चतुझानारूयज्ञानाश्च त्रियोगाः किवि जाव तमा पुढवी गरइएहिंतो वि उववज्जति णो अहेसजोपयोगाश्चतुःसंकाः चतुष्कषायाः, पश्चेन्द्रियाः, षद् समु- तसमाए पुढविणेरइएहिंतो उबरजति । रयणप्पभापुढ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७८) उववाय श्रनिधानराजेन्द्रः। उववाय वी णेरड्याणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजंति से आउएम एवं जा चेव पंचिदियतिरिक्खजोणियउद्देसए वत्तव्यणं भंते ! केवइयकाल०१ गोयमा ! जहमेणं मासपुहुत्तहि. या सा चेव एत्य वि जाणियन्या एवरं जहा तहिं जहमगं ईएसु उक्कोसेणं पुब्बकोडी आउएसु अवसेसा वत्तव्वया अंतोमुहुत्तट्टिईएमु तहा इह विमासपुदुत्तट्टिईएसु परिमाणं जजहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उववज्जति तहेव वरं हमेणं एको वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा नववपरिमाणं जहमेणं एको वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं उजंति सेसंतं चेव जाव ईसाणदेवोत्ति। एयाणि चवणाणतासंखेज्जा वा उववजति जहा तहिं अंतोमुहुत्तेहिं तहा इह णि सणकुमारादीया जाव सहस्सारोत्ति जहेव पंचिंदियतिरिमासपुहत्तेहिं संवहं च करेजा सेसं तं चेव जहा रयणप्प- क्खजोणियउद्देसए णवरं परिमाणं जहरमणं एको वा दो वा भाए वत्तव्बया तहा सक्करप्पभाएवि वरं जहमेणं वास-| तिमि वा उकासेणं संखेज्जा वा नववज्जति । नववातो जहपृहुत्तविईएस नकोसेणं पुब्बकोडी ओगाहणा लेस्साणाण- छोणं वासपुडुत्तष्ठिईएसु उक्कोसेणं पुचकामी आउएम उववद्विई अणुबंधसंवेहं णाणत्तं च जाणेजा जहेव तिरिक्ख- ज्जति सेसं तं चेव संवेहं मासपुहत्तपुचकामीसु करेज्जा । जोणियउद्देसए एवं जान तमा पुढवीणेरइए । जइ ति- सणंकुमारई चउगुणिया अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति, रिक्खजोणिएहिंतो उववजति ? किं एगिदियतिरि- माहिंदे ताणि चेव सातिरंगाणि । बभनोए चत्तालीसं लंक्खजोणिएहिंतो उववजंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजो- तए उप्पणं महामुके अहसहि सहस्सारें वायत्तरिं सागरोबणिएहितो नववजति गोमा ! एगिदियतिरिक्खजो. माई एसा उक्कासा विई भणिया जहएणहिति पि चनगुणेलिए भेदो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए एवरं ज्जा । आणयदेवेणं जंते ! जे भविए मास्सेसु नववाज्जितक वाऊ पमिसेहेयवा सेसं तं चेव जाव पुढविकाइए- तए सेणं भंते ! केव कामट्टिईएस ? जहमेणं वासपुदत्तणं ते ! जे भणिए मणस्सेसु नवज्जित्तए से णं नंते ! डिईएम उववज्जेज्जा उक्कासणं पुव्बकोमिडिएसु । तेणं केवइ.? गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तहिईएसु नकोसेणं नंते ! एवं जहेब सहस्सारो देवाणं उत्तब्वया णवरं प्रोगापुनकोसी आइएसु नववज्जिज्जा । तेणं ते ! जीवा एवं हणा नितिं अणुबंध जाणज्जा सेसं तं चेव । भवादेसेणं जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसुनववज्जमाणस्स पुढवीका जहोणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं व जवग्गहणाई काइयवत्तव्यया सव्वेव हि वि उववज्जमाणस्स एवसु वि गम सादसेणं जहमेणं अटारससागरोवमाई बासपुदुत्तमम्माहिएम एवरं तश्यछ?णवमेसु गमरम परिमाणं जहमणं एको याई उकोसेमं सत्तावमं सागरोवमाई तिहिं पुन्चकोमीहिं घा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा नववजति जहव अन्भहियाई एवश्यं कावं सेवेज्जा । एवं एवधि गमगा अप्पणा जहणकालटिईओ नवा तहेव पढमगमए अफव पवरं लिई अणुबंधसंवेहं च जाणज्जा एवं जाव अच्चुयदेवे माणा पसत्था वि अप्पसत्था वि | विश्यामर अप्पसत्या णवरं विई अणुबंधसंवेहं च जाणेज्जा । पाणयदेवस्म लिई तइयगमए पसत्या नवंति सेसं तं चेव गिरवसेसं । जश तिगुणा सहि सागारोवमाई आरणस्स तेवहि सागारोवमाई आनकाइए एवं वाउकारण वि एवं वणस्सस्काइएण वि अच्चुयस्त छावहिँ सागारोवमाई जा कप्पातीतवेमाणिय एवं जाव चरिंदियाएं असमिपंचिंदियतिरिक्खजो. या देवेहितो नववज्जांत किं गेवेज्जगकप्पातीनदेवेहिंतो उववसमिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया असलिमणुस्सा समिमणु- ज्जति अत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवहितो वनस्मा एए सम्वेवि । जहा पंचिंदियतिरिक्खनोणियउद्देमए ज्जति ? गोयमा ! गेवेग्जगकप्पातीत अत्तरांववाइयवेमातहेव जाणियव्वा एवरं एताणि चव परिमाणं अज्व- णिय० । जइ गेविज्जगकप्पातीतवेमाणियदेवे० किं हट्टिमाणणाणत्ताणि जाणिज्जा । पुढवीकाश्यस्स एत्थ चेव मगेवेज्जग कप्पातिवमाणिय. जाव उवरिम २ गेवेज्जग० . नदेसए जणियाणि सेसं तहेव गिरवसेसं । जय देवेहितो गोयमा हेहिमहेमिगविज्जगकप्पातीत जाब वरिम नववज्जति किं जवाणवासिदेवेहिंतो नववति वाणमंतर- गेवेज्जगकप्पातीत. गेवेज्जगदेवेणं नंते ! जे नविए मस्से नाइसियवेमाणियदेवहितो उववज्जंति ? गोयमा! जवण- सु नववज्जित्तए सेणं नंते ! केवश्यकासद्वितीएम ववज्जे वासिदेवहितो वि अवज्जति जाव वेमाणियदेवेहितो वि ज्जा ? गोयमा ! जहमेणं वासपुहुत्तट्टिईएसु उकोसेणं उपयजति । जइ जवणवासिदेवेहिंतो उवचज्जति किं असुर- पुचकोडी आनएम उववज्जेज्जा अवसेसं जहा आणकुमारजवणवासिदेवेहिंतो उववजति जाव थणियकुमारभ- यदेवस्स बत्तन्वया णवरं प्रोनगाहणा एगे जवधारणिज्जवणवासि.? गोयमा असुरकुमारजवणवासि. जाव थणिः। सरीरए से जहम्मेणं अंगुलस्स असंखज्जइभागं उक्कोसेणं यकुमार० उववज्जति। असुरकुमारोएं भंते ! जे नविए मणु-| दोरयणीओ संगणं एगे जवधारणिज्जसरीरए से समचनसमु नववज्जित्तए से णं जंते ! केवश्यकाल एमु ? | रंससंगणसंठिए, पंच समुग्घाया पामत्ता तं जहा वैयगायमा ! जहणणं मामपुहुत्तहिईएसु उक्कोमेणं पुष्चकोडि- | णासमुग्याए जाव तेयगसपुग्याए पो चेव एं वेनवियतय Jain Education Interational Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७९) अनिधानराजेन्धः। उववाय उपवाय गसमुग्धाएहिं समाहागांसु वा समोहणंति वा समोहणिस्स- सम्मूछिमेषु मनुष्येषूत्पादाभावार्भजानां च सडधातस्थामति वा गिति अणुबंधा जहम्मणं वावीसं सागरोबमाई उको तिवर्तित्वात्संख्याता उत्पद्यन्त इति (जहा तहिं अंतो मुहुत्तेसणं एकतीम सागरोवमाई सेसं तं चेव कामादेसेणं वावीसं हिं तहा इदं मासपुहुत्तेहिं संदेहं करेज्जत्ति ) यथा तत्र पञ्चे जियतिर्यगुद्देशके रत्नप्रभानारकेभ्यः उत्पद्यमानानां पञ्चेन्द्रिसागरोवमाई वासपुटुत्तमम्भहियाई उकासेणं तेणत्ति सा यतिरचा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकत्वादन्तर्मुहूतैः सम्बेधः गरोक्माई तिहिं पुत्वको मीहिं अमहियाई एवश्यं कालं कृतः तथेह मनुष्योद्देशके मनुष्याणा जघन्यस्थितिमाभित्य एवं सेमेसु वि अहमगमएमु णवरं ठिती संवेहं च जाणज्जा मासपृथक्त्वैः सम्बेधः कार्य इति भावः तथाहि "कालादेसेणं जइ अत्तरोववाइयकप्पातीतवमाणियदेवहितो नववजं जहोणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमम्भहियाई इत्यादि शर्कराप्रभादिवक्तव्यता तु पञ्चेन्द्रियतिर्यगुहेशकानुसारेणाति कि विजयअणुत्तरोववाइयवेमापिय० वेजयंतअणुच बसेयेति । अथ तिर्यग्भ्यो मनुष्यमुत्पादयत्राह-जातिरिक्वराववाइय जाव सबसिछगअणुत्तरोववाइयकप्पातीत ? त्यादि इह पृथिवीकायादुत्पद्यमानस्य पञ्चेन्द्रियतिरश्चो यावगोयमा ! विजयअणुत्तरोववाश्यकप्पातीत जाव सव्वट्ठसि. तव्यतोक्ता सैव तत उत्पद्यमानस्य मनुष्यस्यापि एतदेवाह-एवं गणत्तरोववाइय । विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवेण जश्चेवेत्यादि विशेष पुनराह-नवरं 'ताएवादि' तत्र तृतीये भंते ! जे भविए मणुस्सेसु नवव० से णं भंते ! केव औधिकेभ्यः पृथिवीकायिकेभ्यःउत्कृष्टस्थितिषुमनुष्येषुये उत्प. द्यन्ते उत्कृष्टतः सङ्ख्याता एव भवन्ति, यद्यपि मनुष्याः सम्मूकासहिइएमु एवं जडेव गवेज्जगदेवाणं णवरं ओगाह छिमसंग्रहादसलयाता भवन्ति तथाप्युत्कृष्स्थितयः पूर्वको णा जहएणणं अंगुलस्स असंखज्जइभागं उक्कोसणं एगा व्यायुषः संख्याता एव पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्वसंख्याता अपि रयणी सम्पट्टिी णो मिच्छद्दिडी णो सम्मामिच्छद्दिडी भवन्तीति, एवं षष्ठे नवमे चेति 'जाहेअप्पणेत्यादि' अयमों पाणी णो एणाणी णियमं तिएणाणी तं जहा-श्रा मध्यमगमानां प्रथमगमे औधिकेषत्पद्यमानतायामित्यर्थः । अध्यवसानानि प्रशस्तानि उत्कृष्टस्थितिकत्वेनोत्पत्तावप्रशभिणिवोहियणाणी सुअणाणी अोहिणाणी विई जहमेएं स्तानि च जघन्यस्थितिकत्वेनोत्पत्तौ ( बीयगमएत्ति ) जएक्कतीसं सागरोवमाई नक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई सेसं घन्यस्थितिकस्य जघन्यस्थितिषूत्पत्ताचप्रशस्तानि प्रशस्तातं चेव भवादेसेणं जहमेणं दो भवग्गहणाई नक्कोसेणं च ध्यवसानेभ्यो जघन्यस्थितिकत्वेनानुत्पत्तेरित्ति, एवं तृतीयोऽपि सारि भवग्गहणाई कालादेसेणं जहोणं एक्कसं सागरो वाच्यः। अप्कायिकादिभ्यश्च तदुत्पादमतिदेशेनाह-एवम प्रा उक्काइयाणवीत्यादि-देवाधिकारे-एवं जाव ईसाणो देवोत्तिबमाई वासपुदुत्तमभहियाई उक्कोसेणं बावहिं सागरोवमाई यथा असुरकुमारा मनुष्येषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकोद्देशकबदोहिं पुवकोडीहिं अमहियाई एवइयं जाव करेजा । एवं क्तव्यता अतिदेशेनोत्पादिता एवं नागकुमारादय ईशानान्ता सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा, णवरं विईअणुबंधसं- उत्पादनीयाः समानवक्तव्यत्वाद्यथा च तत्र जघन्यस्थितेः परिवेहं च जाणेज्जा । सेसं तं चैव सम्वट्ठसिचगदेवेणं नंते ! माणस्य च नानात्वमुक्तं तथैतेष्वप्यत ण्वाह-"एयाणि चेव नाणताणित्ति"सनत्कुमारादीनांतु वक्तव्यतायां विशेषोऽस्तीति में भविए मणए सव्वेव विजयादिदेववत्तव्वया जाणि तां भेदेन दर्शयति-सणकुमारेत्यादि ( एसा उक्कोसहिई जणियचा एवरं वि अजहामणुक्कोसं तेत्तीसं सागरांवमाई यत्ति) यदा औधिकेन्य उत्कृष्टस्थितिकेन्यश्च देवेन्य प्राधिकाएवं अणुबंधो वि सेसं तं चत्र भवादेसेणं दो जवग्गहणाई दिमनुष्येषरपद्यते तदोत्कृष्टा स्थितिर्भवति सा चोत्कृष्टसंबंधविकालादसेणं जहए गेणं तेत्तीसं सागरोवमा वासपहत्तमभ- वक्तायां चतुर्भिर्मनुष्य नवैः क्रमेणान्तरिता क्रियते ततश्च सनत्कुहियाई नक्कोसणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुचकोमीए अन्न मारादिदेवानामष्टाविंशत्यादिसागरोपममाना भवति सप्तादि सागरोपमप्रमाणत्वात्तस्या ति। यदा पुनर्जघन्यस्थितिकदेवेन्य दियाई एवयं जाव करेज्जा सो चेव जहएणकालाढिईएम औधिकादिमनष्येषत्पद्यते तदा जघन्यस्थितिर्भवति सा तथैव जववामो एस चव वत्तव्बया णवरं कालादेसेणं जहम्मेणं ते- चतुगुणिता सनत्कुमारादीनामशदिसागरोपममाना भवति द्यातीस सागरोवमाई वासपुहुत्तमन्नहियाई उक्कोसेण वि ते "दिसागरोपममानत्वात्तस्या इति। आणयदेवेणमित्यादि कोसेणं उजवम्गहणारंति ॥ त्रीणि दैविकानि त्रीएयेव क्रमेण मनुष्यसतीसं सागरांवमाइंवासपुहुत्तमम्भाहियाई सो चेव उकोसका स्कानीत्यवं षद [कालादेसेणं जहयेणं अट्ठारस सागरोयमाईति] लट्टिईएमु नववरणो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादे- भानतदेवोके जघन्यस्थितेरेवंचूतत्वात् [उक्कोसेणं सत्तावण सेणं जहएणणं तेत्तीसं सागरोचमाई पुनकोडिए अभ- सागरोबमाईति ) आनते उत्कृष्टस्थितेरेकोनविंशतिसागरोपमहियाई नकोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई पुचकोडीए प्रमाणाया जपत्रयगुणनेन सप्तपञ्चाशत्सागरोपमाणि भवन्तीति, ग्रैवेयकाधिकारे [पगेमवधाराणिज्जए सरीरोत्ति ] कल्पातीतद। अभहियाई एवइयं एए चेव तिमि गमा सेसा णं भन्मा, वानामुत्तरवैरियं नास्तीत्यर्थः “ नोचेवणं बेवाविपत्यादि " सेनं भंते भंतेत ॥ प्रैवेयकदेवानामाद्याः पञ्च समुदाता सभ्यपेक्कया सम्भयन्ति, [जहमेणं मासपुहुन्सटिइएसुत्ति] अनेनेदमुक्तं रत्नप्रभानारका केवलं क्रियतेजसान्यां न ते समुद्धातं कृतवन्तः कुर्षन्ति कजघन्यं मनुष्यायुर्वनन्तो मासपृथक्त्वाद्धीमतरं न बध्नन्ति रिष्यन्ति वा प्रयोजनाभावादित्यर्थः [जहम्मेणं वावीसं सागरीतथाविधपरिणामाभावादित्येवमन्यत्रापि कारणं वाच्यं, तथा बमाईति ] प्रथम येयके जघन्येन द्वाविंशतिस्तेषां भवति [*परिमाणद्वारे ( उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जतित्ति) नारकाणां | कोसणं एकतीसंति ) नवप्रैवयक उत्कयत एकत्रिंशतामिति वि. Jain Education Interational Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८०) नववाय अभिधानराजेन्छः। नववाय कोसेणं तेणति सागरोवमाई तिहिं पुब्धकोमोहिं भन्भहियाइ पमायुष्कव्यन्तरेषूत्पादयिष्यमाणत्वात् यतोऽसंख्यातवर्षायुः ति] उत्कृष्टतः पम् नवग्रहणानि ततश्च त्रिषु देवनवग्रहणेघून्कृ- स्वायुषा वृहत्तरायुप्केषु देवेषु नोत्पद्यत पतच्च प्रागक्त मेवति । धस्थितिषु तिमृतिः सागरोपमाणामेकविंशतिः त्रिनवतिस्तेषां [ोगाहणा जहरणं गानयंति] येषां पल्योपमायुस्तेषामबगास्यात् विनिश्चोत्कृष्टमनुष्यजन्मभिस्तिनः पूर्वकोट्यो भवन्तीति हना गव्यूतं ते च सुषमपुषमायामिति । न० २४ श० २२ ज० सर्वार्थसिडिकदेवाधिकारे-आद्या एव श्यो गमा जयन्ति सर्वा ज्योतिष्काणाम् । यंसिफिकदेवानां जघन्यस्थितेरभावान्मध्यमं गमत्रयं न भवत्युत्कृष्टस्थितेरजावाचान्तिममिति । भ०१४ श.१००। जोइसियागं कमोहितो उववजति किं णेरइयभेदो जाच देवानां व्यन्तराणाम् । समिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उपवजति णो असबाणमंतराणं नंते ! कोहिंतो उववजंति किंणेरइए- मिपंचिंदियतिरिक्ख०जा समिपंचिंदिय०किं संखेज्जवासा हिंतो उववजति तिरिक्खजोणिय० एवं जहेवणागकुमार उय सएिणपंचिंदियतिरिक्ख असंखेज्जवासाउय सएिणउदेसए अमणि तहेव हिरवसेसं। जइ समिपंदिय० जाव पंचिंदियतिरिक्ख०१ गोयमा! संखेज्जवासान्य सणिणअसंखेज्जवासाउय समिपंचिंदिय० जे भविए वाणमंतर० पंचिंदियतिरिक्ख असंखेजवासाच्य सएिणपंचिंदियतिसे ण नंते ! केवइयकाल ? गोयमा! जहम्मेणं दसवास रिक्खजोगिएहितो वि उववज्जति । असंखेजवासाच्यम गिणपंचिंदियतिरिक्खजोगिएणं नंते ! जे भविए जोइसहस्सहिईएस उक्कोसेणं पलिओवमट्टिईएसु सेसं तं चेव सिएसु उववज्जित्तए से एं भंते ! केवइयकालहिईएसु नहा णागकुमारउद्देसए जाव कालादेसणं जहोणं साइ उववज्जेज्जा ? गोयमा !जहमेणं अट्ठनागपलिग्रोवमट्टिरेगाई पुत्वकोमो दसहि वाससहस्से हिं अब्भहियाई उ ईएसु उववजेज्जा अवसेसं जहा असुरकुमारुहेसए गवर कोसणं चत्तारि पलिओवमाइं एवश्यं कालं जाव करेज्जा सो चेव जहणकालटिईएसु उववमो जहेव एागकुमाराणं ठि: जहमेणं अट्ठनागपलिअोवमं नकोसेणं तिमि पलि ओवमाई एवं अणुबंधोवि सेसं तहेव वरं कालादेसेणं विइयगम वत्तव्बया । सो चेव उकोसहिईएसु नववालो जहमेणं पलियोवमहिईएसु कोसेण वि पलिओवमा? जहमेणं दो अट्ठभागपलिओवमाई उक्कोसेणं चत्तारि पलियोवमाईवाससयसहस्समभहियाइं एवइयं कालं जाव ईएस एस चेव वत्तव्य या णवरं ठिई से जहमेणं पाल करेज्जा ।१। सो चेव जहालकालाई एसु उववालो जहश्रोवम उकोसेणं तिरिण पलिओवमाई संबेहो जहणं हमेणं अट्ठभागपलिमोवमटिईएसु उक्कोसेणचि अट्ठनागदो पलिअोवमाइं उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई एवश्य पलिओवमहिईएसु उवव० एस चेव वत्तव्वया णवरं जाव करेजा ३ । मज्झिमगा तिम्मिवि जहेब णागकुमारसु कालादेसं च जाणेज्जा ।२। सो चेव उक्कोसकालहिएम पच्छिमेसु तिसु गमएसु तं चेव जहाणागकुमारुहेसए ण उववमो एस चेव वत्तव्यया णवरं ठिई जहहोणं पलिवरं वितिं संवेहं च जाणज्जा: । संखेजवासाउय तहेव श्रोवमवाससयसहस्समभहियं उक्कोसेणं तिमि पलिश्रोएवरे लिई अणुबंधो संबेहं च उभो ठिईए जाणेज्जाह वमाइं एवं अणुबंधोवि कालादेसेणं जहोणं दो पलियोजइ मणुसाय असंखेज्जवासाउय जहेवणागकुमाराणं - बमाई दोहिं वाससयसहस्सेहिं अब्भहियाई उकोसे देसए तहेव वत्तव्वया वरं तइयगमए ठिई जहम्मेणं प चत्तारि पलियोवमाई वाससयसहस्समभहियाई । सो लियोवमं उक्कोसणं तिमि पलिओवमाई ओगाहणा ज चेव अप्पणा जहम्मकालहियो जाओ ? गोयमा ! जहहसणं गाउयं उक्कोसेणं तिमि गाउयाई सेसं तं चेव सं मेणं अट्ठभागपलिओवमडिईएस उक्कोसेणवि अट्ठभागपबेहो से जहा एत्थ चेव उद्देसए असंखेज्जवासाउय समि लिश्रोवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा । तेणं भंते ! जीवा एगसपंचिंदिया संखेज्जवासाउय समिमगुस्सा जहेच णाग मए एस चेव वत्तव्बया णवरं श्रोगाहणा जहोणं धणुहकुमारूदेसए वरं वाणमंतरा ठिई संबेहं च जाणेज्जा पुहत्तं उक्कोसेणं सातिरेगाई अट्ठारसधणुहसयाई विई सेवं नंते ! भंतेत्ति॥ जहम्मेणं अट्ठनागपलिभोवमं उक्कोसेणवि भटनागपलिश्रो सत्रामवातवर्षायुः सकिपञ्चेम्झियाधिकारे [ सक्कोसेणं वर्म एवं अणुबंधो वि सेसं तहेव । कालादसेणं जहणं दो बत्सारि पनिओवमाईति ] त्रिपल्योपमायुःसहिपञ्चेन्द्रियनिया पल्योपमायुर्व्यन्तरो जात इत्येवं चत्वारि पक्ष्योपमानि द्वि अहजागपलिओवमाइं डक्कोसणवि दो अहन्नागपक्षियोवतीयगम [ जहव णागकुमाराणं वीयगमे वत्तब्वयत्ति ] सा च माई एवश्यं जहणकासायिस्स एस चेव एको गमो । ६। प्रयमगमसमानव मवरं जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिर्दशवर्षस- सो चेव अप्पणा उकासकाझट्टिईओ जाओ सम्वेव हस्राणि संबंधस्तु [ कालाएसेणं जहचणं सारेगा पुधकोसी प्रोहिया बत्तव्यया एवरं लिई जहप्पणं तिमि पलिअोवबसवाससहस्साह अलहिया उक्कासणं तिमि पन्निश्रोषमाइंद. माई उकोमेणवि तिमि पनिओवमाई एवं अणुवंधोवि सस सहि वाससहस्मोह अम्भडियात ] तृतीयगमे [विई से जह तं चेव एवं परिलमा तिषि गमगा ऐयचा एवरं संवेहं मेणं पलिओवमांत ] यद्यपि सातिरेका पूर्वकोटी जघन्यतोऽस. सातवर्ष:युषां तिरमामायुरस्ति तथापीह पल्योपममुक्तं पल्यो- च जाणज्जा । एते सत्त गमगा । जइ संखज्जवासालय Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८१) निधानराजेन्द्रः | उववाय सपिचिदियमं खेज्जवा साउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उजमालाणं तव एववि गमा जालियव्वा वरं जोड़सिडिई संवेह च जाणेज्जा, सेसं तदेव णिरवसेसं । ज‍ मस्सेहिंतो उववज्जति जेदो तहेब जाव असंखेज्जवासाउय सलिमस्सेणं जंते ! जे जविए जोइसिएस नववज्जि - तए सेवं भंते ! एवं जहा असंखेज्जवासाज्य सपिचिदियजोइसिएस चेव उववज्जमाणस्य मत्त गमगा तदेव मणु विवरं गाढणाविसेसो पढमेसु तिस्रु गमएस गाणा जहसे साइरेगाई एवधणुहसयाई उकासेणं तिमि गाडयाइं मज्जिमगमए जहोणं साइरेगाई एवधणुहमयाई उको सेव साइरेगाई नंव धगृहसयाई पच्छिमे तिवि गए जहां तिमि गाउँपाई उकोसेणवि तिष्मि गाजाई से तव रिवसेसं जाव संवेहोत्ति । जइ संखेज्जवासाउय समिमणुस्से संखेज्जवासाचयाणं जदेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तदेव णव गमगा जाणियव्वा णबरं जोइसियति संवेह च जाऐज्जा | सेसं तहेव रिवसेसं सेवं जंते ! जंतेति ॥ ( जो दो भट्टजागपलि ओवमाईति ) द्वौ पस्योपमाष्टनागावित्यर्थः तत्रैको संख्यातायुष्कसम्बन्धी । द्वितीयस्तु तारकः ज्योतिष्कसम्बन्धीति । ( चक्कोसेण चत्तारि पनिभावमाई वाससयसहस्समनहियाइंति ) श्री एय संख्यातायुः सत्कानि एकं च सातिरेकं चन्द्रविमानज्योतिष्क सत्कमिति तृतीयगमे (ठिई जहोणं पलिओचमं वाससयसह स्समम्भहियंति ) यद्य. पि असंख्यातवर्षायुषां सातिरेका पूर्वकोटी च धन्यतः स्थितिर्भवति तथापी पल्योपमं वर्षलकान्यधिकमुत्तमेतत्प्रमा णायुष्केषु ज्योतिषूत्पत्स्यमानत्वाद्यतोऽसंख्यात र्षायुः स्वायुषो बृहत्तरायुकेषु देवेषु नोत्पद्यते एतच्च प्रागुपदर्शितमेव । चतुर्थे गमे जघन्यकास्थितिकोऽसंख्यातधर्षायुरौधिकेषु ज्योतिष्केषूत्पन्नः तत्र संख्यातायुषो यद्यपि पल्योपमाष्टभागाकीनतरममि जघन्यत आयुष्कं भवति तथापि ज्योतिषां ततो हीनतरं नास्ति स्वायुस्तुस्यायुबन्धाश्वोत्पतोऽसंख्यात वर्षीयुष श्तीह जघन्यतः स्थितिकास्ते पल्योपमाष्टागायुषो नवन्ति, ते च विमल्ल वाहनादिकुलकरकालात्पूर्व्वतरकानुवो हस्यादय औधिकज्योतिष्का अप्येवं विधा एव तदुत्पत्तिस्थानं नवन्तीति । " जहोणं अनागपfastabbu इत्याद्युक्तम्” “ओगाहणा जहसणं धणुपुह संति" यदुक्तम् तत्पल्योगमा भागमानायुषो विमलवाहनादिपूर्वतरकालभाविनो इत्यादिव्यतिरिक्तक्षुद्रकायचतुष्पदानपेक्ष्यावगन्तव्यम् । उक्को सेणं सारेगाई अहारसधपुसयांइति एतश्च चिमझवाइनकुल कर पूर्ववतरकालज्ञाविह स्त्यादीनपेट्योक्तम्, यनो विमलवाहनो नवधनुः शतमानावगाहनः तत्काल हस्त्यादयश्च सद्विगुणाः । यत्पूर्वतरकालभाविनश्च ते सातिरेकतत्प्रमाणाभवन्तीति ( जहनकालठिश्यस्स एस चेव एक्को गमोति ) । पत्रमपगमयोरत्रैवान्तर्भावात् यतः पल्योपमाष्टनागमानायुवो मिथुनकतिरः पञ्च मगमे षष्ठगमे च पल्योमाष्टमागमानमेवायुर्वन्तीति प्रास्नावितं चैतदिति । सप्तमादिगमेषूत्कृ चैव त्रिपल्योपमल कुणतिरश्चः स्थितिः ज्योतिष्कस्य तु सप्तमेद्विधा प्रततिव अष्टमे पढ्योपमाष्टभागरूपा नवमे सातिरेकपल्यो For Private उववाय पमरूपा संबेधचैतदनुसारेण कार्य: (पते सत्तगमगत्ति ) प्रथमायो मध्यमत्रस्थाने एकः पश्चिमास्तु त्रय एवेत्येव सप्त असंख्यातवर्षायुष्क मनुष्याधिकारे ( श्रोगाहणां सारेगा नवध सात) विमलवाइनकुल करपूर्वकालीन मनुष्यापेक्कया । ( तिन्निगाडयाइंति ) एतचैकान्तसुषमादिका अभाविमनुष्यापेक्या ( मज्जिमगमपति) पूर्वोक्तनीतेस्त्रिनिरप्येक एवायमिति ॥ भ२४ श० २३ उ० ॥ (असंदता अकामनिर्जया मृत्वा देवलोकेधूपपद्यन्ते इति वाणमंतरशब्दे वक्ष्यते ) एवं वेमालियावि सोहम्मीसागगा भारिणयव्वा एवं । सकुमारगावि नवरं असंखेज्जवासाय कम्मभूमिगवज्जेहिंतो उववज्जंति एवं जाव सहस्सारकप्पोवगवेमायिदेवा भारिणयव्वा ॥ श्रारणयदेवाणं भंते! कोहितो उववज्जंति किं नेरइएहिंतो जाव देवेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएहिंतो नो तिरिक्खजोगिएहिंतो मणुस्सेहिंतो नववज्र्ज्जति नो देवेहिंतो । जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति किं सम्मुच्छिममणुस्सेहिंतो गब्भवकांतिय मधुस्सेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! गव्भवकंतियम गुस्सेहिंतो उबवज्जंति नो सम्मुच्छिममस्सेहिंतो उववज्र्ज्जति । जदि गन्भवतियमस्सहिंतो उववज्जंति किं कम्मभूमिगब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति अकमम्मभूमिगन्भवकंतिएहिंतो अंतरदिवएहिंतो उववज्र्ज्जति ? गोयमा ! कम्मभूमिगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति नो अकम्मभूमिगेहिंतो नो अंतरदिवगेर्हितो । जदि कम्मभूमिगब्भवक्कतियमणुस्सेहिंतो उववज्र्ज्जति किं संखेज्जवासा-एहिंतो असंखेज्जवासाउएहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउएहिंतो नो असंखेज्जवासाउएहिंतो । जदि संरेवज्जवासाज्यकम्मभूमिगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं पज्जत्तएहिंतो अपज्जत्तएहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाज्यकम्मभूमिगब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति नो अपज्जत्तएहिंतो उववज्जंति । जइ पज्जत्त संखेज्जवासाउयकम्मभूमिगब्भवतियमएस्सेहिंतो उववज्जंति किं सम्माद्दट्ठी पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगन्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववज्र्ज्जति ? मिच्छादिट्ठी पज्जतगसंखेज्जवासान एहिंतो सम्मामिच्छदिही पज्जत्तगसंखेज्जवासाउएर्हितो नववज्र्ज्जति । गोयमा ! सम्म हिडी पज्जत्तसंखेज्जवासाज्यकम्मभूमिगब्भवतियमगुस्सेहिंतो विमिच्छदिट्टी वासाउयकम्मभूमिगन्भवकंतिएहितो वि नो सम्मामिच्छादिट्ठी पज्जत्तएहिंतो नववज्जं ति । जदि सम्मद्दिट्ठी पज्जत्तसंखेज्जवासाउय कम्मभूमिगब्भवतियमस्से हिंतो उववज्जंति किं संजयसम्मदिट्टी पज्जतर्हितो असंजयसम्मदिट्ठी पज्जत्तएहिंतो संजयासंजयसम्मद्दिधी पज्जत्तसंखेज्जेहिंतो उववज्र्ज्जति ? गोयमा ! तिर्हितो वि नववज्र्ज्जति । एवं जाव अच्चुयगो कप्पो एवं Personal Use Only Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८२) . नववाय अभिधानराजेन्दः । नववाय गेविज्जदेवावि नवरं संजयासंजया एते पडिसेहेयव्वा । नेदो जहेव जोइसिएमु नववज्जमाणस्स जाव असंखज्जएवं जहेव गेविज्जगदेवा तहेव अत्तरोक्वाइयावि नवरं वासाउयसमिमाणुस्सेणं नंते ! जेजपिए सोहम्मकप्पे देवत्ताए इमं नाणत्तं संजया चेव । जदि संजयसम्मदिट्ठी पज्जत्त- उववज्जित्तए एवं जहेव असंखजवासान्यस्स ममिपंचिंसंखेजवासानयकम्मभूमिगन्भवतियमस्सेहिंतो ज्व- दियतिरिक्खजोणिए सोहम्मे कपे नववज्जमाणस्स तहेव बज्जति किं पमत्तसंजयसम्मदिट्ठी पज्जत्तएहिंतो अप्पम- सत्च गमगा वरं आदिह्येसु दासु गमएमु ओगाहणा जहतसंजएहितो नववजंति ? गोयमा ! अप्पमत्तसंजएहितो मेणं गानयं उक्कोसेणं तिमि गाउयाई । तझ्यगमे जइमेणं उववज्जति नो पमत्तसंजएहितो नववज्जति । जदि अप- तिमि गाल्याई उक्कोसणवि तिमि गाउयाई चउत्थगमए मत्तसंजएहिंतो उववज्जति किं इहिपत्तअपमत्तसंजएहितो जहम्मेणं गाउयं उक्कोसेणवि गानयं । पच्चिमएसु तिमु अणिहिपत्तअपमत्तसंजएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! गमएमु जहमणं तिएिण गाउयाई उक्कोसेण वि तिएिण दोहितो वि नववति । प्रज्ञा०६ पद । गानयाई सेसं तहेव । णिरवसेसं । जइ संखेज्जवामान्यसोहम्मगदेवाणं नंते ! कमोहितो उववज्जति किं रहए सप्लिमाणुस्से एवं संखेज्जवासाउयसएिणमाणुस्साणं जहेव हिंतो उपवजति लेदो जहा जोइसिय उद्देसए असंखज्जवासा असरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तहेव एव गमगा जाणियच्या नयसम्मिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं नंते ! जे नविए सोह वरं सोहम्मगदेवद्विति संवेदं च जाणे,ज्जा समं तं चेत्र । म्मगदेवेसु उववज्जित्तए से णं ते ! केवइयकालं? गो ईमाणदेवाणं नंते ! कोहिंतो उववज्जति ईसाणदेवाणं यमा ! जहमेणं पक्षिोवमट्टिईएसु उववज्जेजा उक्कोसेणं एस चेव सोहम्मगदेवसरिसा वत्तव्यया णवरं असंखेज्जनिसि पलिओवमट्टिईएमु नववज्जेज्जा । तेणं नंते । अव वासान्यसएिणपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जेसु गणेसु मसं जहा जोइसिएसु उववज्जमाणस्स णवरं सम्मदिट्ठी वि सोहम्मे नवबज्ज पलिओचमट्टिई तेसु गणेसु श्हं सातिरंग मिच्छदिट्ठी वि को सम्मामिच्छादिट्ठ।। णाणीवि एणाणीवि दो णाणा दो अपाणा णियमं। लिई जहणं पनि पलिओवमं कायध्वं । चनत्यगमे ओगाहणा जहएगणं ओवमं उकोसणं तिमि पनिोवमाइं एवं प्रबंधो वि सेमं धण्हपुटुत्तं उकोसेणं साइरेगाई दो गानयाई सेसं तं चैव । तहेव । कालादेसेणं जहाणं दो पत्रिोवमाई नक्कोसेणं असंखेज्जवासाउयसमिणमणुस्सस्सवि तहेव लिई जहा पंउपलिओचमाइं एवइयं ।।। सो चेव जहाकालढिईएस चिंदियतिरिक्खजोणियस्स । असंखेज्जवासान्यस्स आगाउववम्मा एस चेव वत्तव्वया एवरं कालादसणं जहणणं दो हणा वि जेसु गणेसु गान्यं तेसु ठाणेसु ऽहं सातिरे पनिओवमाई कोसेणं चत्तारि पनिओवमाई एवश्यं जाव | गाउयं सेसं तहेव । संखेज्जवासान्याणं तिरिक्खजोणिकरेजा।श सो चेव नक्कोसकालटिईएसु उववष्णो जहोणं याणं मास्साण य जहेव सोहम्मे नववज्जमाणाणं तहेव तिपशिओवमाई उक्कोसेणाव तिपसिओवमाई एस चेव णिरवसेसं णव गमगा णवरं ईसाणे विति संवेहं च जाणेजा वत्तव्बया एवरं ईि जहमेणं तिपत्रिोवमाई उकासेणं | सणंकुमारगदेवाणं नंते ! कोहिंतो नववज्जति नववाती वि तिएिण पलिभोवमाई सेसं तं चेव कानादेसणं जहमणं जहा सकरप्पना पुढवी ऐरइयाणं जाव पज्जत्तसंखेजवामाउप्पमित्रोवमाई उक्कोसेण वि अप्पशिओवमाई एवइयं कालं उयसमिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ते! जे नविए सणंजाव ।३ । सो चेव अप्पणा जहम्मकानछिईओ जाओ कुमारदेवेसु नववज्जित्तए अवमा परिमाणादीयाजवादेमजहाणं पमित्रोवमट्टिईएसु नकोसेणवि पलिश्रोवम-| पज्जवसाणा सव्वेववत्तव्बयानाणियचा जहामोहम्मे उववट्टिएस एस चेव वत्तव्चया णवरं ओगाहाणा जहणं जमागास्मणवरंसणंकुमारहिति संवेहं च जाज्जा । जाहेयं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं दो गान्याई दिई जहणं पमित्रो- अप्पणा जहमकालटिईओ नवइ ताहे तिसु गमएसु पंच वम उकोसेणवि पनिओवमं सेसं तहेव कालादेमेणं जहमेणं मेस्साओ आदिवाओ कायव्याओ सेसं तं चव । जइमदो पलिओवमाई उक्कोमण वि दो पलिअोवमाई एवइयं।६। स्मेहिंतो उववज्जति मणसाणं जहेव सक्करप्पनाए उवसो चव अप्पणा उक्कोसकाझट्टिईओ जाओ आदिवगमग- वज्जमाणाणं तहेव णव वि गमा एवरं सर्णकुमारहिति संमरिमा तिमि गमगाण्यव्या वरं रिति कालादेसं च जा- वेहं च जाणेज्जा । माहिंदगदेवाणं भंते! कओहिंतो नववऐज्जा |ए। जइ संखेज्जवासाउयममिपंचिंदियसंखेज्जवासा- ज्जति जहा सणंकुमारदेवाणं वत्तव्यया तहा माहिंदगदेवाजयस्स जहेव असुरकुमारेमु उववज्जमाणस्स तहेव एववि विनाणियव्वा णवरं माहिंदगदवाणं ठिति सातिरेगा गमगा णवरं विति संवेहं च जाणेज्जा जाहे अप्पणा जाणियच्चा सव्वेय एवं बंभोगदेवाणवि वत्तव्वया पावरं जहाकासडिईओ नवद ताहे तिमु गमएस सम्मदिट्ठी वि बंजरोगठिति संवेहं च जाणेज्जा एवं जाव सहस्सारो णवर मिच्छादिकवि णो सम्मामिच्छादिकी। दो णाणा दो अ- | विति संवेदं च जाणज्जा । संतगादीणं जहालकानट्टिईसाणा णियन सेसं तं चत्र ए जइ मास्मेहिंतो उववति | यस तिरिक्खजोणियस्स सिम विगमएमु उपि स्माओ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८३) उववाय भभिधानराजेन्डः । उववाय कायचाओ संघयाणाई बंजमोगसंतएस पंच आदिवगाणि | कोडीहिं अनहियाई एवइयं कायं सेवेज्जा। एवइयं कालं महामुक्कसहस्सारेसु चत्तारितिरिक्खजोणियाणवि मस्सा- गतिरागति करेज्जा । एए तिएिण गमगा सव्वद्वामिछगण वि ससं तंचेव । आणयंदेवाणं ते काहिंतो उववज्ज- देवाणं ते! ते त्ति । जगवं ! गोयमा ! जाव विहरइ । ति, मधवानो जहा सहस्सारे देवाणं णवरं तिरिक्खजोणि- (जहन्नेणं पसिओवमदिईएसुत्ति) सौधर्मे जघन्येनान्य स्यायुषोऽसत्वात् । ( नकोसेण तिपक्षिोवमहिईएसुत्ति ) या खोमेयव्वा जान पज्जत्तसंखेज्जवासाउय सम्मिमणुस्साणं यद्यपि सौधर्मे बहुतरमायुष्कमस्ति तथाप्युत्कर्षतस्त्रिपल्योपमाअंत! जे नविए आण्यदेवेसु उववज्जित्तए । मणुस्साणं युष एव तिर्यञ्चो भवन्ति तदनतिरिक्तं च देवायुर्वघ्नन्तीति ॥ वत्तव्यया जहेव सहस्सारेसु नववज्जमाणाएं एवरं तिमि (दो पत्रिओवमाईति एकं तिर्यग्भवसत्कमपरं च देवसत्कम् संघयणाणि सेसं तहेव, अणुबंधो नवादसेणं जहहोणं (पसिनोवमाशंत ) त्रीणि पल्योपमानि तिर्यग्भवसत्कानि तिमि भवग्गहणाई उक्कोसेणं सत्त जवग्गहणाई कामादसेणं त्रीएयेव देवनवसत्कानीति।सो चेव अप्पणा जहम्मकासहिश्श्रो जाम्रो इत्यादि । गमत्रयेऽप्येको गमो नायना तु प्रदर्शितव । जहमेणं अट्ठारससागरोवमाई दोहिं वासपुदुत्तेहिं अब्ज (जहन्नेणंधणुहपुहत्तांत) कुषकायचतुष्पदापेक्कम (नक्कोहियाई उक्कोसेणं सत्तावम.सागरोवमाई चनहिं पुबकोमीहिं सेणं दोगा मयाईति) यत्र क्षेत्रे काले वा गन्यूतमाना मनुष्या अन्नहियाई एवइयं । एवं सेसावि अट्ठ गमगा जाणियव्या जवन्ति तत्सम्बन्धिनो इस्त्यादीनपेक्ष्योक्तमिति । संख्यातायुः णवरं ठिति संवेहं च जाणेजा सेसं तहेव । एवं पञ्चेन्डितिर्यगधिकारे जाहभप्यणाजहन्नकाअदिईश्रोजवश्त्या दो (नो सम्मामिच्छादिघीति), मिश्रदृष्टिनिषेध्यो जघन्यस्थिजाव अच्चुयदेवा एवरं छिति संवेहं च जाणेजा। चउसु तिकस्य तदसम्नवादजघन्यस्थितिकेषु दृष्टित्रयस्यापि जावादिचव संघयणा तिमि आणायादीसु । गेवेज्जगदेवाणं नं ! ति । तथा ज्ञानादिद्वारपि द्वे ज्ञाने वा अज्ञाने वा स्यातां जघन्यकमोहिंतो नववज्जति एस चेव वत्तव्यया णवरं दो संघ- स्थितेरन्यज्ञानाज्ञानयोरजावादिति । अथ मनुष्याधिकारे "नयणानिति संवहं च जाणेजा। विजय वेजयंत जयंत अपरा वरं प्राइवएसु दोसु गमएसु इत्यादि" आद्यगमयोहि पूर्वत्रजितदेवाणं नंते ! कोहिंतो उक्वजति एस चेव वत्तव्यया। धनुः पृथक्त्वं जघन्यावगाहनोत्कृष्टा तु गव्यूतषट्कमुक्तेदतु "ज हनेण गाउयमित्यादि " तृतीयगमे सु जघन्यत नत्कर्षतश्च पर गिरवसेसा जाव अणुबंधोति रावरं पढमं संघयणं सेसं गम्यूतान्युक्तानीहतु त्रीणि चतुर्थगमे तु प्राग्जघन्यतो धनुःपृथतहेव । भवादेसणं जहमेणं तिल नवग्गहणाई नकोसेणं | कत्वमुत्कर्षतस्तु द्वे गन्यूते उक्ते शह तु जघन्यत उत्कर्षतश्च गव्यूतपंच भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहम्मेणं एकतीसं सागरोव- मेवमन्यदप्यूह्यम् । शानकदेवाधिकारे (सारेगं पतियोबम माइं दाहिं वासपुदुत्तेहिं अब्नहियाई उकोसेणं गरी कायवंत ) ईशाने सातिरेकपल्योपमजयन्यस्थितित्वात तथा ( चमत्थगमए ओगाहणा जहन्नेणं धणुहपुहुत्तंति ) सागरोवमाई तिमि पुचकोडीहिं अब्जहियाई एवश्यं जाव ये सातिरेकपटयोपमायुपस्तियश्चः सुषमाशोद्भवाः कुद्रतरकाएवं समावि अट्ट गमगा जाणियव्वा । एवरं चिति संवेहं यास्तामपेक्योक्तम् (नक्कोसणं साइरेगाई दो गाउयाति) च जाणज्जा । मणसे लच्छीणवमुवि गमएस जहा गेवे- एतच्च यत्र काले सातिरेकगव्युतमाना मनुष्या भवन्ति सत्काजेसु उववज्जमाणस्स एवरं पढमं संघयणं सबसिग- लनवान् हस्त्यादीनपेक्ष्योक्तम् । तथा ॥ (जेसु गणेसु गानयंदेवाणं ते ! काहिंतो नववज्जति नववाओ जहेव विज ति) सौधर्मदेवाधिकारे येषु स्थानेष्वसंख्यातवर्षायुर्मनुष्याणां यादीणं जाव सेणं नंते ! केवश्यकालहिईएसु उववज्जेज्जा? गव्यूतमुक्तम् (तेसु गणेसु इहं सातिरेग गाउयति ) जघन्यतः सातिरेकपल्योपमस्थितिकवादीशानकदेवस्य प्राप्तगोयमा ! जहोणं तेत्तीसं सागरोवमट्टिई उक्कोसेण वितेत्तीसं व्यदेवस्थित्यनुसारेण चाऽसंख्यातवर्षायुर्मनुष्याणां स्थितिससागरोवमहिईएमु अवसेसा जहा विजयाइसु ववज्जंता| द्भावात्तदनुसारणव च तेषामवगाहनानावादिति । सनत्कुमारवरं नवादेसणं तिमि नवग्गहणाई, कालादेसणं जह देवाधिकार जाहे य अप्पणजहोत्यादी (पंच लेम्सा आदिवाओं कायब्वासोत्ति)जघन्यस्थितिकस्तिय सनत्कुमारे समुत्पत्सुर्जकोणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं वामपुडत्तेहिं अन्नहि घन्यस्थितिसामर्थ्यात्कृष्णादीनां चतसृणां सेझ्यानामन्यतरस्यां याई उक्कामणवि तेत्तीसं सागरोचमाई दोहिं पुचकोडीहिं परिणतो जूत्वा मरणकाले पालेश्यामासाद्य म्रियते ततस्तत्रोअग्नहियाई एवयं सो चव अप्पणा जहएणकालट्टिईओ त्पद्यते यतोऽग्रेतनभवलेश्यापरिणामे सति जीवः परभवं गच्चतीजाओ एस चव वत्तव्चया एवरं ओगाहणार्थिो स्य त्यागमः। तदेवमस्य पञ्च बेश्या नवन्ति बंतगादीणजहमेत्यादि एतझावना चानन्तरोक्तन्यायेन कार्या ( संघयणाई भझोयलंतणिपुटुत्तं च वासपुदुत्ताणि सेसं तहेव संवेहं च जाणेज्जा ।। पसु पंच आइल्लगाणित्ति) दवर्तिसंहननस्य चतुर्णामेव देवमां चव अप्पणा उकासकाझट्टिईओ जाओ एस चव वत्त झोकानां गमने निर्बन्धनत्वात् यदाह-"छेवण उम्गम,चत्तारि व्वया एवरं ओगाहणा जहम्मेणं पंचधाहमयाई उको- न जाव आश्मा कप्पा । वलेज कप्पज़अनं, संघयणे कोनियाईमण वि पंचधणुहसया ठिई जहएणं पुवकोमी उको एत्ति" ॥१॥ (जहनेण तिन्नि भवम्गहणाति ) आनतादिदवा मनुष्येज्य एवोत्पद्यते, तेष्वेव च प्रत्यागच्चतीति जघन्यता भमणवि पुचकामी सेसं तहेव जाव नवादेसोत्ति । काना वत्रयं भवतीति एवं भवसप्तकमप्युत्कर्षतो भावनीयमिति (नुदेसणं जहएणं तेत्तम सागरोवमा दोहिं पुज्यकोमोहिं । कोसणं सत्तावणमित्यादि ) अानतदेवानामुन्कर्पत एकोनअन्नहियाई उक्कोसण विततीसं सागरावमा दाहिं पुच- विंशतिसागरोपमाण्यायुस्तस्य च भवत्रयभावेन सप्तपञ्चाश Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८४) अभिधानराजेन्द्रः । उववाय कायजोगी सागारोवउत्ता वा अणागारोवउत्ता वा । तेसिणं जंते ! जीवाणं सरीरा कइवएणा जहा उप्पलुद्देसए सव्वत्थ पुच्छा, गोयमा ! उप्पलुद्देसर उसासगा वा एां सासगावाको उस्सासगा णीसामगा वा आहारगा वाणाहारगा वा यो विरया विरया णो विरयाविरया सकिरिया णो किरिया । सत्तविहबंधगा वा विहबंधगा वा आहारसमोवनत्ता वा जाव परिग्गहसयोवनत्ता वा कोहकसाई जाव लोभकसाई वा यो इत्थीवेदगा शो पुरिसवेदगा पुंसगवेदगा वा इत्यीवेदबंधगा वा पुंसगवेदबंग वाणो मी असामी सइंदिया णो अगिंदिया ते भंते ! कडजुम्म ॥ २ ॥ एमिंदियाओति काल केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहस्मेणं एकं समयं उक्कोसेणं श्रणतं कालं अता श्रसपिणी उस्सप्पिणी वरणस्सइकालो संवेहो ए भाइ श्राहारो जहा उ प्पलुद्देसर गवरं शिव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पञ्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि सेसं तदेव लिई नहां एकं समयं नकोसेणं वावीसं वाससहस्सा समुग्याया आदिला, चत्तारि मारणंतियसमुग्धाया तेणं समोहयाविमोहया विमरति उव्वट्टणा जहा उप्पलुद्देमए । हते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता कमजुम्मा २ एगिंदिसताए नववपुब्वा ? हंता गोयमा ! अस वा तखत्तो ? कम जुम्मते योग एगिंदियाणं भंते ! कोनववज्जति उवत्राओ तदेव तेणं जंते ! जीवा एगपुच्छा, गोमा ! एबीसावा असंखेज्जा वा अशंता वा जबवज्जंति सेसं जहा कम जुम्माणं जाव अनंतखत्तो २ करुजुम्मदावरजुम्मए गिंदियाणं जंते ! को नववज्जंति उबवातो तहेव । तेणं जंते ! जीवा एगपुच्छा, गोयमा ! अट्ठारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अता वा उववज्जंति सेमं तव जाव णतखुत्तो ॥ ३ ॥ कडजुम्मकलिओग एगिंदियाणं जंते ! को उनवातो तहेव परिमाणं सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अयंता वा सेमं तदेव जाव अतखुत्तो ॥ ४ ॥ त्र्योगकम जुम्मा दियाणं नंते ! कवातो तदेव परिमाणं वारस वा संखज्जा वा अता वा जववज्जंति सेसं तदेव जाव तखत्तो ॥ ५ ॥ तेोगतेोगए गिंदियाएं जंते ! कम्रो नववज्जंति नववा - श्रो तहेव परिमाणं पएारस संखेज्जा वा असंखज्जा वा अता वा मेनं तदेव जाव अनंतखुत्तो | ६| एवं एएस सो स महाजुम्मे एको गमो वरं परिमाणे पात्तं तेो यदावरजुम्मे परिमाणं चउद्दस वा संखेज्जा वा प्रसं खज्जा वा अंता वा नववज्जंति | ७ | तेयोगकवियोगतेरम वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा जववज्जंति || उबवाय त्सागरोपमाणि मनुष्यभवचतुष्टय सम्बन्धिपूर्व कोटी चतुष्काच्य धिकानि भवन्तीति ॥ भ०१४ श० २४ उ० ॥ जी० ॥ कर्म० ॥ एष संकेपार्थः सामान्यतो नरकोपपातचिन्तायां रत्नप्रभोपपातचिन्तायां च देवनारकपृथिव्यादिपञ्चकचिकलेन्द्रियत्रिकाणां तथा ऽसंख्येयवर्षायुषञ्चतुष्पदखेचराणां शेषाणामपि चापर्यातकानां तिर्यक्पचेन्द्रियाणां तथा मनुष्याणां संमूर्चित मानां गर्जन्युत्क्रान्ति कानामप्यकर्मभूमिजानामन्तरदीपजानां कर्मभूमिजानामप्यसं ख्येयवर्षायुषां संख्येयवर्षायुषामपि अपर्याप्तानां प्रतिषेधः शेपाणां विधानम् । शर्करप्रज्ञायां संमूर्चिमानामपि प्रतिषेधः वालुकप्रनायां जपरिसर्पाणामपि पङ्कप्रज्ञायां खेचराणामपि धूमप्रभायां चतुष्पदानामपि तमः प्रनायां वरः परिसर्पाणामपि सप्तमपृथिव्यां स्त्रीणामपि जवनवासिषूपपातचिन्तायां देवनारक पृथिव्यादिपञ्चकचिकलेन्द्रियत्रिका पर्याप्ततिर्यकूपञ्चेन्द्रियसंमूर्चित्रमा पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां प्रतिबेधः शेषाणां विधानम् । पृथिव्यन्वनस्पतिषु सकलर किसनकुमारादिदेवानां तेजोवायुधित्रितुरिन्द्रियेषु सर्वनारकसर्वदेवानां प्रतिषेधः तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेष्वानतादिदेवानां मनुष्येषु सप्तमपृथिवी नारक तेजोवायुनां व्यन्तरेषु देवनारक पृथिव्यादिपचकचिकलेन्द्रियत्रिकापर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूर्तिमा पर्याप्त कान्तिकमनुष्याणां ज्योतिकेषु सम्मूर्चिक्रमतिर्यक्पचेन्द्रियासंख्येयवर्षायुष्कखचरान्तरद्वी पजमनुष्याणामपि प्रतिषेधः । एवं सौधर्मेशानयोरपि । सनत्कुमारादिषु सहस्रारपर्यन्तेष्वकर्मभूमिजासंख्येयवर्षायुष्क कर्म भूमिजानामपि प्रतिषेधः नतादिषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामपि विजयादिषु मिथ्यादृष्टिमनुष्याणामपीति । गतं पञ्चमद्वारम् । प्रशा० ६ पद । ११ कृतयुग्मादिविशेषणेनै केन्द्रियाणाम् कम जुम्म कम जुम्मए गिंदियाणं जंते ! को नववज्जंति किं णेरइय जहा उप्पलुद्देसए तहा उवत्राओ तेणं जंते ! जीवा एगसमणं केवझ्या नववज्जति ? गोयमा ! सोचम वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा जववज्र्ज्जति तेणं जंते ! जीवा समए समए पुच्छा ? गोयमा ! ते अनंता समए समए वही रमाणा २ अनंताहिं श्रसप्पिणी उसपिणीहि अहीरेति णो चेव णं वहिरिया सिया उच्चजहा उप्पलुद्देमए । नेणं जंते जीवा लाणावर णिज्जस्स कम्मस्स किं बंधा पुच्छा, गोयमा ! बंधगा णो अबंधगा एवं सव्वेमं वायवज्जाणं आजयस्स बंधगा वा अबंधगा वा ते जंते ! जीवा पाणावर णिज्जकम्मस्स वेदगा पुच्छा, गोयमा ! वेदगा गो अवेदगा एवं सव्वेसि तेणं जंते! किं जीवा किं सातावेदगा असातावेदगा पुच्छा, गोयमा ! सा तावेगा वा अमातावेद्गा वा एवं खलु उप्पलुद्दे मगपरिवाडी मन्त्रेसिं कम्माणं, उदई णो अणुदई उएहं कम्माणं उदीरगा अदीरगा वेदणिज्जा उयाणं नदीरगा वा अणुदीरगा वा तेणं जंते ! जीवा किं कएहस्सा पुच्छा, गोयमा ! कलेस्सा वाणीललेस्मा वा काउलेस्मा वा तेउलेस्सा वा णो सम्मद्दिही को सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छादिट्टी णो पाणी पाणी नियमं 5 मा। तं जहा मतिय णीय प्राणी य णो मणजोगी णो वदजोगी For Private Personal Use Only Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८५) नववाय अभिधानराजेन्डः। नववाय ज्जति ।। ८॥दावरजुम्मकमजुम्मेसु अट्ठ वा संखज्जा वा थमसमयोत्पन्नानां न सम्भवन्तीति कृत्वा तत्रावगाहनाद्योहेअसंखज्जा वा अणंता वा उववति ।।दावरजुम्मतेओ शकवादरवनस्पत्यपेक्वया महत। उक्ताऽनृत् वह तु प्रथमसम योत्पन्नत्वेन साकल्येति नानात्वमेवमन्यान्यपि स्वधियोह्यानीगसु एक्कारस वा संखज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा | तिज० ३५ श०२०॥ उववज्जति । १० । दावरजुम्मदावरजुम्मसु दस वा संखे अप्रथमसमयकृतः ज्जा वा असंखज्जा वा अणंता वा नववति ॥११॥ अपढमसमयकमजुम्म २ एगिदियाणं ते! को उववदावरजुम्मकलिओगेसु णव वा संखेज्जा या असंखज्जा ज्जति एसो जहा पढममुद्देमो सोनसहि वि जुम्मेसु तहेव वा अणंता वा उववति ॥१॥ कमिओगकमजुम्मसु णेयव्यो जाव कमिओगकलिओगत्ताए जाव अणतखुत्तोचत्तारि वा संखेज्जा वा असंखज्जा वा अणंता वा जयव- सेवं भंते ! नंते ! त्ति ज्जति १३ । कलिागतेप्रोगेसु सत्त वा संखज्जा वा अ- तृतीयोऽशके तु ( अपढमसमयकमजुम्म २ एगिदियत्ति) संखेज्जा वा अणंता वा उववज्जंति ।१४ा कलिओगदाव- शहाप्रथमः समयो येषामेकेन्धियत्वेनोत्पन्नानां द्यादयः समया रजुम्मेसु वा संखेज्जा असंखज्जा वा अणंता वा उवव विग्रहश्च पूर्ववत्, एते च यथासामान्येनैकेन्द्रियास्तथा भवन्तीत्य ज्जति । १५ । कलियोगकझिओगएगिदियाणं ते ! क त एवोक्तम् “एसोजहा पढम उद्देसो इत्यादीति'भ.३५ श०३उ. चरमसमयकृतः॥ ओ उववज्जति उपवाओ तहेव परिमाणं पंच वा संखज्जा चरिमसमयकडजुम्म २ एगिदियाणं जंते ! को उववज्जवा असंखेज्जा अणंता वा नववज्जति सेसं तहेव जाव अ ति एवं जहेब पढमसमय नद्देसनो एवरं देवा न उववज्जति तखत्तो सेव भंते ! नंते ! ति ॥ तेउलेस्सा ण पुच्छंति सेसं तहेव सेवं ते ! तेति ॥ (जहा उप्पलुद्देसएत्तिः) उत्पलोद्देशक एकादशशते प्रथम चतुर्थं तु (चरिमसमयकडजुम्म २ एगिदियत्ति)इह चरमइह च यत्र क्वचित्पदे उत्पलोद्देशकातिदेशः क्रियते तत्तत समयशब्देनेकैन्द्रियाणां मरणसमयो विवक्तितः स च परभवाएवावधार्यम् (संवेहो न भन्नइत्ति) उत्पलोद्देशके उत्पलजी युषः प्रथमसमय एव तत्र च वर्तमानाश्चरमसमयाः संख्येवस्योत्पादा विवक्षितस्तत्र च पृथिवीकायिकादिकायां नरापेक्षया संबेधः सम्भवति इह त्वेकेन्द्रियाणां कृतयुग्म २ विशेष याश्च कृतयुग्मकृतयुग्मा ये एकेन्द्रियास्ते तथा ॥ ( एवं जहा णानामुत्पादोऽधिकृतस्ते च वस्तुतोऽनन्ता एवोत्पद्यन्ते तेषां पढमसमय उद्देसमोत्ति ) यथा प्रथमसमयैकेन्छियोद्देशस्तथा चोत्तरसम्भवास्संबन्धो न सम्भवति। यश्च षोडशादीनामेके चरमसमयैकेन्द्रियोद्देशकोऽपि वाच्यस्तत्र हि औधिकोहेन्द्रियेषूत्पादोऽभिहितोऽसी त्रसकायिकेन्यो ये तेषत्पद्यन्ते शकापेकया दश नानात्वान्युक्तानीहापि तानि तथैव समानतदपेक्ष पवन पुनः पारमार्थिकोऽनन्तानां प्रतिसमयं तेषपपा- स्वरूपत्वात्तत्प्रथमसमयचरमसमयानां यः पुनरिह विशेषस्तं ददादिति ॥ भ०३५ श०१ उ० ( उत्पलोद्देशकः वणस्सइ शब्दे) शयितुमाह "नवरं देवा न उववअंतीत्यादि" देवोत्पादेमैवैकप्रथमसमयकृतः॥ न्द्रियेषु तेजोश्या भवति, न चेह देवोत्पादः सम्भवतीति, पढमसमयकडजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! को उवव- तेजोझेश्या एकेन्द्रिया न पृच्च्यन्ते इति ॥ भ० ३५ श०४ न०। ज्जति ? गोयमा ! तहेव एवं जहेव पढमो उद्देसनो तहेव अचरमसमयकृतः सोलसखुत्तो वितिओ वि भाणियव्वो तहेव सव्वं णवरं अचरिमसमयकडजुम्म २ एगिदियाणं ते ! को इमाणि दसणाणताण ओगाहणा जहमेणं अंगुलस्स उववज्जति जहा अपढमसमयउद्देशो तहेव गिरवसेसो भाणियव्वो सेवं भंते ! भंते :त्ति ॥ असंखेज्जइभागं नकोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइनागं पञ्चमे तु (अचरिमसमयकमजुम्म २ एगिदियत्ति) न विद्यते आनयकम्मस्स णो बंधगा अबंधगा आउयस्स यो उदी- चरमसमय उनलकणो येषां ते अचरमसमयास्ते च ते कृतयुरगा प्रदीरगाणो उस्सागाणो हिस्सासगाणो उस्सास ग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाश्चेति समासःज०३५श०॥५०॥ णिस्सासगा । सत्तविहबंधगा वा णो अट्ठविहबंधगा वा। प्रथमप्रथमसमयः। तेणं भंते ! पढमसमयकडजुम्म २ एगिदिया तिकालो केव पढमपढमसमयकमजम्मश्एगिदियाणं भंते ! को उववज्जचिरं होइ ? गोयमा ! एक समयं एवं वितीए वि समुग्धा- ति जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव गिरवसेसं सेवं भंते ! या आदिबा दोणि । समोहयाण पुच्छिज्जति उवट्टणा भंत ! ति जाब विहर॥ ण पुच्छिज्जइ सेसं तहेव सव्वं हिरवसेस सोलससु विग षष्ठे तु (पढमपढमसमयकमजुम्म २ एगिदियत्ति ) एकेन्छि योत्पादस्य प्रथमसमययोगाद्ये प्रथमाः प्रथमश्च समयः कृतयुमएसु जाव अणंतखुत्तो । सेवं भंते ! भंते ! ति॥ ग्मकृतयुग्मत्वाननतेर्येषामेकेन्द्रियाणं ते प्रथम २ समयकृतयुग्मअथ द्वितीयस्तत्र ( पढमसमयकमजुम्म २ एगिदियत्ति) कृतयुग्मैकेन्द्रियाः।०३५ श०६१०। प्रथमाप्रथमः। एकेन्ष्यित्वेनोत्पत्तौ प्रथमः समयो येषां ते तथा ते च कृतयु पढमअपढमसमयकमजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! को ग्मकृतयुम्माश्चेति प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्माः तेच ते एकेन्डियाश्चेति समासोतस्ते (सोझसखुत्तात्ति ) षोमशक नववज्जति जहा पढमसमयनसिनो तहेव जाणियव्यो सर्व त्वः पूर्वोक्तान् पोमशराशिभेदानाश्रित्येत्यर्थः (नाणत्ताइंति) | जते ! भंतेति ॥ पूर्वोक्तस्य विन्नकणत्वस्थानानि, ये पूर्वोक्ता भावास्ते केचित्प्र- सप्तमेतु पढम अपढमसमयकमजुम्मरपगिदियत्ति) प्रथम Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८६) अभिधानराजेन्द्रः । उबवाय स्तथैव योऽप्रथमश्च समयः कृतयुग्मर स्वानुभूतेर्येषामेकेन्द्रियाणां तं प्रथमाप्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रिया इह च एकेन्द्रियत्वत्पादप्रथम समय वर्तित्वे तेषां यद्विवक्तिसानुतेरप्रथम. समयवर्तित्वं तत्प्राग्नयसम्बन्धिनीं तामाश्रित्येत्य व सेयमेवमुत्तरत्रापीति । प्र० ३५ ० ७ ० प्रथमचरमः । पढमचारिमसमयकरु जुम्म २ एगिंदियाएं जंते ! कत्रो उववज्र्ज्जति जहा चरिमुद्देसो तहेव शिरवसेसं सेवं भंते ! जंते ! ति ॥ श्रष्टमे तु ( पढमचरिमसमयकरजुम्म २ एगिंदियत्ति ) प्रथमाते विवक्तिसात्ताः प्रथमसमयवर्तित्वाश्चरमसजयाश्च मरणसमयवर्तिनः परिशाटस्था इति ॥ प्रथमचरमसमयास्ते च ते कृतयुग्मकृतयुग्मकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः भ० ३५ श० ८० । प्रथमाचरमः पदमचरिमसमयकडजुम्म २ एगिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जति जहा पढमुद्देसओ तत्र णिरवसेसं सेवं जंते ! जंते ! ते जाव विहर‍ नवमे तु (पदम चरिमसमयकडजुम्म २ एगिदियत्ति ) प्रथमास्तथैव यचरमसमयास्त्वे के न्द्रियोत्पादापेकया प्रथमसमयवर्तिन रह विवक्षिताश्वरमत्वनिषेधस्य तेषु विद्यमानत्वादन्यथा हि द्वितीयोदेशकोकानामवगाहनादीनां यदिह समत्वमुक्तं तन्न स्यात्ततः कर्मधारयः शेषं तु तथैव न० ३५ ० उ० । चरभचरमः । चरिम २ समयकडजुम्म २ एगिंदिया जंते! कओ उववज्जति जहा चउत्थो उद्देश्रो तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति ।। दशमे तु (रिम २ समयकरुजुम्म २ एगिंदियत्ति ) चरमाश्च तं विवक्ति संख्यानुभूतेश्च रमसमयवर्तित्वाच्च रम समयाश्च प्रा गुक्तस्वरूपा इति चरमसमयाः शेषं तु प्राग्वत् ।। ३५ ।। १० ।। चरमाचरमः । चरिमचारिमसमयक रुजुम्म २ एगिंदियाणं जंते ! कओ नववज्जंति जहा पढमुद्देसो तहेब णिरवसेसं सेवं जंते ! जंते ! त्ति जाव विहर‍ || एकादशे तु ( चरिमचरिमसमयकडजुम्म २ पगिंदियत्ति ) चरमास्तथैव श्रचरमसमयाश्च प्रागुक्तयुक्तेरेकेन्द्रियोत्पादापेया प्रथमसमयवर्तिनों ये ते चरमाचरमसमयास्ते च ते कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः ॥ ज० ३५ श०११ उ० । एवं एएवं कमेणं एकारस उद्देगा पढमो तिम्रो पंचमय सरिमगमया सेसा ऋद्ध सरिसा णवरं चउत्थे - हमे इसमे देवा ए उववज्जंति । तेजलेस्मा एत्थि । पढमं एगिंदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं ॥ च० ३५ श० १२३० । उक्त देशकानां स्वरूप निर्धारणायाह लेश्याविशेषणेन ॥ कल्लेस्सकम जुम्म २ एमिंदियाणं भंते ! को उववज्जति ? गोयमा ! उनवाओ तहेव एवं जहा ओहियनद्देमए वरं इमं पातं तेां जंते ! जीवा कएहस्सा ? हंता कएहस्सा तेणं भंते ! कएइलेस्सा करुजुम्मा २एगिंदिया विकाल केव चिरं होड़ ? गोयमा ! जहोणं एकं समयं उकोसे अंतोदुत्तं । एवं वितीए वि जान प्रांत| एवं सोन विजुम्मा भाणियन्त्रा सेवं जंते! जंते ! ति For Private उववाय पहले स्सकडम्म २ एगिंदियाएं जंते ! क नववज्जति जहां पढमुद्देसए एवरं तेणं जंते ! कएहलेस्मा ? हंता कएहस्सा सेसं तदेव सेवं भंते ! जंते ! ति । एवं जहा ओसिए एक्कारस उद्देसगा जणिया तहा कहस्सा एकारस उद्देसगा जाणियन्त्रा, पढमो तति पंचमो य सरिसगमगा सेसा ग्रह वि सरिसगमगा एवरं चत्छदसमेसु जववाओ त्थि देवस्स सेवं जंते ! जंत! ति ॥ पणतीसइमे सए वितिय एगिंदियमहाजुम्मसयं २ एवं पीलबेस्सेहिं वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं एकारस उद्देगा तहेव सेवं जंते ! जंते ! ति ॥ ततियं एगिदियमहाजुम्पस सम्मत्तं ॥ ३ एवं काउलेस्सेहिं विसयं are सससरिसं सेवं भंते ! अंत ! ति ||३५|| चनत्य एदियमहा जुम्मस || || जवसिद्धिकरजुम्म २ ए गिंदियाएणं भंते! को उववज्जंति जहा ओहियसयं वरं एक्कारस वि उद्देसएस अह भंते! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता नवसिद्धियकडजुम्म २ एगिंदियत्ताए उववमपुव्वा ? गोयमा ! यो इट्ठे समझे सेसं तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति ।। पंचमं एगिंदियसयं महाजुम्मं सम्मत्तं ॥ ५ ॥ कण्हलेस्सभवसिद्धिर्यकडजुम्म २ एगिंदियाणं भंते ! को उववज्जंति, एवं करहलेस्सभवसिद्धियएगिंदिएहिं वि सयं वितियं सयं कण्हलेस्ससरिसं भारिणयव्वं सेवं भंते ! ! ति ॥ a एगिंदियमहाजुम्पसयं ॥ ६ ॥ पीललेस्से नवनिद्धिएगिदिएहिं वि सयं सेवं भंते! भंते! ति सत्तमं एगिंदियमहाजुम्मसयं ||७|| काउलेस्से नवसिद्धि गिदिएहिं वि तव एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं सयं एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि चउसु वि सएम सव्वपारणा जाव उववष्मपुव्वा णो इरणट्ठे समठ्ठे सेवं भंते ! भंते ! ति मं एगिंदियस महाजुम्मं ||८|| भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाई जरियाई एवं अनवसिद्धिएहिं वि चत्तारि सालि लेस्सासंजुत्ता रिण भाणियव्वाणि सव्त्रपाणा तहेव रणो इट्ठे समट्ठे एवं एयाणि वारस एगिंदि महाजुम्मसयाई भवंति सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ पंचतीसमं सयं सम्मतं ॥ ३५ ॥ [ पढमो तहओ पंचमोयसरिसगमत्ति ) कथं यतः प्रथमापेक्षया द्वितीये यानि नानात्वान्यवगाहनादीनि दश भवन्ति न तान्येतेष्विति ( सेसा अहसरिसगमगत्ति ) द्वितीयचतुर्थपष्टादयः परस्परेण सदृशगमाः पूर्वोक्तेभ्यो विलक्षणगमा द्वितीयसमानगमा इत्यर्थः विशेषं त्वाह-नवरं चउत्थेत्यादि ॥ कृष्णलेश्याशते ( जहमें एकं समयंति) जघन्यत एकसमयानन्तरं संख्यान्तरं भवतीत्यत एकं समयं कृष्णलेश्यकृतयुग्म २ एकेन्द्रिया भवन्तीति ( एवं विई वि त्ति) कृष्णलेश्यावतां स्थितिः कृष्णलेश्यकालवदवसेयेत्यर्थः ॥ भ० ३५८० । Personal Use Only Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय (९८७) निधानराजन्द्रः । द्वीन्द्रियाणाम कम्मर बेइंद्रियाणं भंते ! को जववज्जंति उबवाओ जहा वर्कतीए परिमाणं सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा ववज्जंतिहारो जहा उप्पलुद्देसए श्रोगाहणा जहां अंगुलस्स असंखेज्जइजागं नकोसेणं वारसजोयराई एवं जहा एगिंदियमहाजुम्माण पढमुद्देसए तहेब वरं तिथि लेस्साओ देवा रण उववज्जति सम्मदिट्टी वा मिछट्टिी वा खो सम्मामिच्छादिट्ठी वा खाणी वा श्रमाणी त्रा | णो मरणजोई बड़जोगी वा कायजोगी वा तें भंते ! कडजुम्मर बेदिया कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहमेणं एकं समयं उक्कोसेणं संखेज्जकालं ठिई जहमेणं एकं समयं उक्को सेणं वारस संवच्छराई, आहारो शियम - दिसिं तिमि समुग्धाया, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो एवं सोलससु वि जुम्मेसु वेइंदियमहाजुम्मसयं पढमो उद्देसो सम्मत्तो सेवं भंते ! भंते ! ति ।। ३६ ।। १ ।। पढमसमयकडजुम्मर इंदियाणं भंतें ! कत्रो उववज्जंति एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पदमसमय उद्देसए दस गाणत्ताई ताई चैत्र दस इहवि एकारस वि इमं णाणत्तं णो मणजोगी जो वजोगी कायजोगी । सेसं जहा बेइंद्रियाणं चैव मुद्देस सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ ३६ ॥ २ ॥ एवं एएए वि जहा एगिंदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तहेव भाणि - या वरं च उत्थ मदसमेसु सम्मत्तणाणाणि ए भम्मति, जब एगिदिएस पढमो तस्यपंचमो य एकगमा सेसा एकगमा । पढमं बेईदिए महाजुम्मसयं सम्मत्तं |३६| १ || कण्हलेस्सकडजुम्म२ वेदियाणं भंते ! को उववज्जंति एवं चेत्र कएहसेस्से एकारस उद्देसगसंजुत्तं सयं वरं लेस्सा संचिट्ठा ठिई जहा एगिंदियकरह लेस्सारणं ॥ वितियं बेइंदिययं ॥ ३६ ॥ २ ॥ एवं खीललेस्सेहिं वि सयं । सतं ततियं ॥ ३६ ॥ ६ ॥ एवं काउलेस्तेहि वि सयं चत्थं सतं ||४|| भवसिद्धियकडजुम्म २ बेइंदियाणं भंते ! एवं जबसिद्धिया वि चत्तारि तेणेत्र पुत्रगम एवं तव्वा वरं सव्वपारणा णो णट्ठे समट्ठे सेसं तहेव, ओहियसयाणि चत्तारि सेवं भंते ! भंते ! ति । छत्तीसइमसए असयं सम्मतं ॥ ३६ ||८|| जहा जवसिद्धियसयाणि च तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भारिणयव्वाणि एवरं सम्मत्तणापाणि सव्वहा एत्थि सेसं तं चेत्र, एवं एयारिण वारसबेदियमहाजुम्मसथाणि भवंति सेवं भंते! भंते ! त्ति ।। बेदियमहाजुम्मतया सम्मत्ता । बत्तीसइमं महाजुम्ममयं सम्मर्च ।। ३६ ।। करुजम्म २ तईदियाणं नंते ! कओ ववज्जति एवं तेईदिए वि वारस सया कायव्वा बेईदियस यसरिसा एवरं प्रोगाहरणा जहसेयं गुलस्स असंखेज्जइभागं उकांमेणं तिठि गाउयाई विई जहमेवं एकं समयं उववाय कोसे एगुणवण इंदियाई सेसं तहेव सेवं जंते !भंते ! ति । दियमहाजुम्मसया सम्मत्ता । सत्ततीसइयं सयं सम्मत्तं ॥ || ३७ || चउरिदिएहिं वि एवं वारस सया कायन्त्रा एवरं गाणा जहसेणं अंगुलस्म असंखेज्जइनागं उकासेणं चत्तारि गाडया नई जहोणं एवं समयं, उक्कोसेणं - मासा से जहा बेदियाणं सेवं जंते ! जंते ! त्ति । चरिंदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं (तीसमं सयं सम्मत्तं ) ॥ ३८ ॥ कमजुम्म २ सस्मिपंचिदियाणं जंते ! कओ उववज्जति जहा बेदियाणं तहेव प्रसमिसु विचारस मया कायन्त्रा वरं गाणा जहसेणं अंगुलस्म असंखेज्जड़ जागं उकोसेणं नोणसहस्सं संचिद्वणा जहसेणं एकं समयं क्कोसेणं पुत्रको डिपुहुत्तं । ठिई जहणणेणं एक समयं उक्कोसेणं पुण्कोमी सेसं बेई दियाणं । सेवं भंते ! भंते ! [ || असली पंचिदियमहाजुम्मसया सम्मत्ता । गुणयाली समं सयं सम्मत्तं ॥ ३६ ॥ करुजुम्म २ सपिंचिंदियाणं भते ! को उववज्जति उनवाओ चनसुविगई संखेज्जवासाज्य असंखेज्जवासाज्य पज्जत्ता अपज्जत्तएसु य एकमो वि परिनेहो जात्र अणुत्तरविभाति परिमाणं अवहारो ओगाहा जहा असपिंचिंदियाणं वेदणिज्जवज्जाणं सत्तर कम्मप्पगमीणं बंधगा वा [ वा वेदणिज्जस बंधगा णो प्रबंधगा, मोहलिज्जस्त वेदगा वा अवेदगा वा सेमाणं सत्तएह वि वेदगा हो वेदगा, सायादगा वा असायावेदगा, वा मोहज्जिस्म दई वा अणुदई वा माणं सत्तरह चि उदयी णो अणुदई णामस्त गोयस्स य उदीरगा यो अणुदीरगा सेसा बहवि उदीरगा वा अणुदीरगा वा कएहस्सा वा जा कस्ता या सम्पदिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा सम्मा मिच्छादिट्ठी वा पाणी वा प्रणाली वा मणजोगी वा जोगी वा कायजोगी वा जवआगो वालमादी उस्सासगा आहारगा य जहा एगिंदियाणं, विरया वा अविरया वा विरयाविरयाय सकिरिया णो अकिरिया । तेणं नंते ! जीवा किं सत्तविहगा वा अविबंधगा वा बबिहधावा एगविधा वा ? गोयमा ! सत्तविह बंधा वा जाएगविहगा वा । तें जंते ! जीवा किं आहारसष्णवत्ता जाव परिग्गहसमोव उत्ता पो समोवउत्ता ? गोधमा ! आहारसमोवत्ता जाव णो समोवउत्ता सन्त्रपुच्छा जा यिन्वा | कोहकमायी जाव लोकसाई वा कसायी वा इत्यवेदगा वा पुरिसवेदगा वा णपुंसगवेदगा वा अत्रेदगा वा । इत्यवेदगंगा वा पुरिसंवेदबंधगा वा पुंसगवेदबंग वा अणा वा सम्म यो असम्म सइंदिया णो दिया, संचिणा जहसेगं एवं समयं उक्कोसेणं मा For Private Personal Use Only Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८८) अभिधानराजेन्द्रः । उववाय गरोवमसयपुत्तं सातिरेगं आहारो तहेब जाव यिमं बदिसं ठिई होणं एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई | समुग्धायादिगा मारणंतियसमुग्धारणं समोया विमति गमोहया विमरंति । जन्बट्टा जदेव नववा ओ कत्यइ परिसेहो जाव अत्तरविमाणत्ति । अह भंते ! सव्वपाणा जाव असतो एवं सोलससु विजु पे जायजा अतखुत्तो एवरं परिमाणं जहा बेई दिया सेवं जंते ! जंते ! ति ॥ ४० ॥। १ ।। पढमसमय जुम्म सपिंचिंदियाणं ते! कओ जनवाओ परिआहारो जहा एएसिं चेव पढमो उद्देसए ओगाहणाबंध वेदो वेदणा उदयी उदीरगा य जहा बेइंदियां पढमसवाणं तदेव कहस्सा वा जाव सुकलेस्सा वा सेसं जहा बेदिया पढमसमश्याणं जाव अंतखुत्तो णवरं इत्थवेदगा वा पुरिसवेदगा वाणपुंगवेद्गा वा सम्झियो अ समिरो सेसं तव एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तव सेवं भंते ! भंते ! ति ।। एवं एत्थ वि एक्कारस उदेसगा तहेव पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमगा सेसा अ विसरिसगमगा चउत्थमदसमेसु णत्थि विसेसो कोइ वि सेवं भंते ! ते ! ति ॥ ४० ॥ ( पढमं पंचिंदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं ॥ १ ॥ ) कण्हलेस्स कडजुम्मर समिचिदियां भंते ! को उववज्र्ज्जति तदेव पढमुद्देस वरं बंधो वेओ उदयी उदीरणाले सबंधगसमकसायवेदबंधगा एयाणि जहा बेइंदियाएं कहलेस्साणं तिवि वेगा एत्थि, संचिडला जहां एक समयं उक्कोसेणं तेतीस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमन्नहियाई । एवं ठिईए विवरं विईए अंतोमुहुत्तमन्भहियाई ण जांति से जहा एएसि चैव पढमुद्देसए जाव णतखुत्तों एवं सोलससु विजुम्मे सेवं जंते ! भंते ! ति || || पढमसमयकएइलेस्सकरुजुम्पश्समिपचिदियाणं जंते ! कओ - ववज्र्ज्जति पढमसमयउद्देसए तहेव णिरवसेसं पवरं तेणं अंते ! जीवा कइलेस्सा ? देता कएहलेस्सा सेसं तहेव एवं सोलससु वि जुम्मेसु सेवं अंत ! भंते ! त्ति, एवं एए वि एक्कारस नद्देसगा कएलेस्समए पढमततियपंचमा सरिसगमगा सेसा अविसरिसगमा सेवं जंते ! जंते ! त्ति । ( वितियं सयं सम्पत्तं ) || २ || एवं झलेस्सेसु विसयं णवरं संचिणा जहसेां एकं समयं उक्कोसेणं दससागरोमाई पविमस्स असंखेज्जइनागमन्न हियाई । एवं विईए वि, एवं तिसु उद्देमएस सेसं तदेव सेवं जेते ! जते! ति ॥ ततियं सयं सम्मत्तं ॥ ३॥ पञ्चत्रिंशशते संख्यापदैरे केन्द्रिया प्ररूपिताः षट्त्रिंशे तु तैरेव इन्द्रियाः प्ररूप्यन्त इत्येवं सम्बहस्यास्येदमादिसूत्रकडजुम्मबेदियाणामित्यादि ( जहणं एकं समयंति ) समयानन्तरं For Private उववाय संख्यान्तरभावादेवं स्थितिरपि इतः सर्वसूत्रसिद्धमाशास्त्रपरिसमाप्तेर्नवरं चत्वारिंशे शते ( वेयरि अवजारां सत्तरहं पगडी बंधगा वा प्रबंधगा वत्ति ) इह वेदनीयस्य बन्धविधि विशेषेण वक्ष्यतीति कृत्वा वेदनीयवजनामित्युक्तं तत्र चोपशान्तमोहादयः सप्तानामबन्धका एव शेषास्तु यथासम्भवं बन्धका भवन्तीति ( वेयणिजस्स बंधगा नो अबंधगत्ति ) केवलित्वादारात्सर्वेऽपि सशिपञ्चेन्द्रियास्ते च वेदनीयस्य बन्धका एव नाबन्धकाः । मोहणिजस्स वेयगा वा श्रवेयगा वत्ति ) मोहनीयस्य वेदकाः सूक्ष्मसम्परायान्ता श्रवेदकास्तु उपशान्तमोहादयः ( सेसाणं सत्तएह वि वेयगा नो अवेयगति) ये किलोपशान्तमोहादयः सशिपञ्चेन्द्रियास्ते सप्तानामपि वेदका नो श्रवेदकाः केवलिन एव चतसृणां वेदका भवन्ति ते चेन्द्रियव्यापारातीतत्वेन न पञ्चेन्द्रिया इति ॥ (सायावेयगा वा असा यावेयगा वत्ति) सशिपञ्चेन्द्रियाणामेवं स्वरूपत्वात् (मोहणिजस्स उदयी वा श्रणुदयी वत्ति ) तत्र सूक्ष्मसम्परायान्ता मोहनीयस्य दयिनः उपशान्तमोहादयस्त्वनुदयिनः । सेसाणं सत्तरहवीत्यादि प्राग्वत् नवरं वेदकत्वानुक्रमेणाकरणेन चोदद्यागतानामनुभवनम् उदयस्त्वनुक्रमा गतानामिति (नामस्स गोयस्स य उदीरगा नो श्रणुदीरगत्ति) नामगोत्रयोरकषायान्ताः सशिपश्चेन्द्रियाः सर्वेऽप्युदरकाः (सेसाणं हवि उदीरगा वत्ति ) शेषाणां पामपि यथासम्भवमुदीरकाश्चानुदीरकाश्च यतोऽयमुदीरणाविधिः प्रमन्तान्ताः सामान्येनाष्टानामावलि कावशेषायुष्कास्तु त एवायुर्वर्जसप्तानामुदीरका अप्रमत्तादयस्तु चत्वारो वेदनीयायुर्वजानां षषां तथा सूक्ष्मसम्पराया श्रावल्लिकायां स्वाद्धायाः शेषायां मोहनीयवेदनीयायुर्वजनां पञ्चानामपि उपशान्तमोहास्तूतरूपाणां पञ्चा नामेव क्षीणकषायाः पुनः स्वाकाया श्रावलिकायां शेषायां नामगोत्रयोरेव सयोगिनोऽप्येतयोरेवायोगिनस्त्वनुदीरका एवेति । (संचिट्ठा जहणणेणं एवं समयंति ) कृतयुग्म २ सपिञ्चेन्द्रियाणां जघन्येमावस्थितिरेकं समयं समयानन्तरं संख्यान्तरसद्भावात् । ( नक्कोसेणं सागरोवमसयपुत्तं साइरेगत्ति ) यत इतः परं सझिपञ्चेन्द्रिया न जवन्त्येवेति (बस मुग्धाया आइलगति ) । सञ्जिपञ्चेन्द्रियाणामाद्याः षमेव समुद्धाता जवन्ति सप्तमस्तु केवलिनामेव ते चानिन्द्रिया इति । कृष्णलेश्याशते - ( उक्कोसेणं तेन्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहतमम्भहियाइंति ) इदं कृष्ण वेश्यावस्थानं सप्तमप्रथिव्युत्कृष्टस्थितिं पूर्वभव पर्यन्तवर्तिनं कृष्णवेश्यापरिणाममाश्रित्येति नी श्याशते (नक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिश्रोचमस्स श्र खेज्जश्भागमन्भहियाति ) पञ्चमपृथिव्या उपरितनप्रस्तटे दश सागरोपमाणि पल्योपमासंख्येयभागाधिकान्यायुः सम्भवति नीलेश्या च तत्र स्यादत उक्तम् उक्कोसेणमित्यादि ॥ यच्चेह प्राक्तनभवान्तिमान्तर्मुहूर्त तत्पल्योपमासंख्येयमागे प्रविष्टमिति न भेदेनोक्तमेवमन्यत्रापि । (तिसु उद्देसपसुत्ति) प्रथ तृतीयपञ्चमेष्विति ॥ भ०४० श०१३० जी० । एवं काउलेस्ससयं पिशवरं संचिट्ठणा जहसेगं एक समयं उकोसेणं तिमि सागरोवमाई पलिश्रवमस्स असं खेज्जइभागमन्भहियाई एवं लिईए वि एवं तिसु वि उद्देसए सुसे तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति ( चउत्थं सर्व सम्म तं ) ॥ ४ ॥ एवं ते लेस्सविसयं वरं संचिट्ठा जहमेणं एकं समयं उक्को सेणं दो सागरोवमाई पलियो मस्स Personal Use Only Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८९) नववाय अभिधानराजेन्द्रः। नववाय असंखेजइभागमनहियाई । एवं विवि णवरं णो यं मम्मतं)॥ १५ ॥ कराहलेस्सअभवसिद्धियकडजुम्म सम्मोवउत्ता एवं तिसुवि गमएस सेवं भंते ! भंते ! नि॥ २ असएिणपंचिंदियाणं ते ! को नववजति पंचमं सय ॥ ५ ॥ जहा तेउलेस्सासतं तहा पम्हलेस्स जहा एएसिं चेव प्रोहियसए तहा कर हलेस्ससयं पि एवरं सयं पि णवरं संचिट्ठणा जहम्मेणं एकं समयं उक्कोसेणं तेणं भंते ! जीवा कएहलेस्सा ? हंता करहलेस्सा लि दस मागरोवमाइं अतोमुहुत्तमन्नहियाई एवं विईएवि णव संचिट्ठणा य कएलेस्ससए सेसं तं चेव सेवं भंते ! रं अंतोमुहुत्तं ण भम्मति सेसं तहेव । एवं एएसु पंचसु भंते ! ति । वितियं अभवसिद्धियमहाजुम्मसयं ॥ ४०॥ सएसु २ जहा कराहलेस्ससए गमओ तहा णेतवो जाव ( सोलसमं सयं सम्मत्तं ) ॥१६॥ एवं काहिं लेस्साहि अणंतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति (छ8 सयं सम्मत्तं )। छ सया कायव्वा जहा कराहलेस्ससयं वरं संचिट्ठणा ॥ ६ ।। सुक्कलेस्ससयं जहा प्रोहियसए एवरं संचिट्ठणा ठिती य जहेव ओहियसए तहेव भाणियव्वा एवरं सुक्कविई य जहा कराहलेस्ससए सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो लेस्साए उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भसेवं भंते ! भंते ! त्ति. सत्तमं सयं सम्मत्तं ॥ ७ ॥ हियाई, ठिती एवं चेव णवरं अंतो मुहत्तो पत्थि जहागं जवसिधियकाजुम्म २ सम्मिपंचिंदियाणं भंते ! को तहेव सब्बत्थं सम्मत्तं णाणाणि णत्थि, विरयी विरयाविनववज्जति जहा पढमं समिसत्तं तहा तव्वं जवसिकि रयी अणुत्तरविमाणोक्वात्त एयाणि णात्थि सव्वपाणाणी याभिनावणं णवरं सव्वपाणा णो इणटे समढे सेमं तं चेव | इण समढे, सेवं भंते ! भंते : त्ति । एवं एयाणि सत्त मेवं भंते ! भंते ! त्ति ।। (अट्ठमं सयं)॥ ॥ कण्ह अभासिद्धिसयाणि महाजुम्मसयाणि भवंतिर एवं एयाणि स्सजवसिकियकमजुम्म ३ समिपंचिंदियाणं जंते ! | एकवीसं सम्मिमहाजुम्मसयाणि सव्वाणि एक्कासी तमहाको उववजनि एवं एएणं अनिलावणं जहा ओहिय जुम्मसया सम्मत्ता चत्तालीमसयं सम्मत्तं ॥४०॥ कापोतोझ्याशते “उक्कोसेणं तिमि सागरोवमा पलिश्रो. काहस्रस्मसयं सेवं ते !ते ! त्ति ॥ (णवमं सयं) वमस्स असंखज्जइभागमभहियाति" यदुक्तं तदीशानदेव॥ ॥ एवं णीसमेस्सनवसिधिए विमयं सेवं ते ! परमायुराश्रित्येत्यवसेयम् । पद्मलेश्याशते “उकोसेणं दससागनंते ! ति ।। ( दममं सयं)॥१०॥ एवं जहा ओहिया रोवमाई" श्त्यादि तु यदुक्तं तद्ब्रह्मलोकदेवायुराश्रित्येति मणि मधिपंचिंदियाणि सत्त सयाणि नाणियाणि एवं नव न्तव्यम् । तत्र हि पद्मलेश्ये तावच्चायुर्भवत्यन्तर्मुहूर्त च प्राक्त नभवावसानवर्तीति । शुक्लश्लेश्याशते-(संचिटुणा ठिई य जहा सिचिरहिं वि सत्तमयाणि कायवाणि णवरं सत्तमु वि सए- कराहलेस्ससएत्ति) त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सान्तमहानि सु सधपाणा जाव णो इणटे समढे मेसं तं चत्र सेवं नंते ! शुक्ललेश्यावस्थानमित्यर्थः । एतच्च पूर्वभवान्त्यान्तर्मुहूर्तमनुजंते ति॥ नवसिधियसया सम्मत्ता ।। (चउद्दसमं मयं स त्तरायुश्चाश्रित्येत्यवसेयम् । स्थितिस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपम्पत्तं)॥ १४ ॥ अनवसिषयकड जुम्म २ समिपचिंदि माणीति । " नवरं सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एकतीसं सागरोव" माई अंतोमुहुत्तममहियाइंति" यदुक्तम् । तदुपरितनप्रैवेय. याणं ते ! को नक्वज्जति नववानी तहेव असर- कमाश्रित्यति मन्तव्यम् । तत्र हि देवानामेतावदेवायुः शुक्रविमाणवज्जो परिमाणं आहारो नच्चत्तं बंधा वेदो वेदणं न- लेश्या च भवत्यभव्याश्चोत्कर्षतस्तत्रैव देवतयोत्पद्यन्ते न तु दओ उदीरणा य जहा कएहलेस्ससए कएहलेसमा वा परतोऽप्यन्तर्मुहूर्त च पूर्वभवावसानसंबन्धीति ॥ नाव सुक्कलेस्सा वा णो सम्मदिही मिच्छादिडी णो म (१२) राशियुग्मविशेषेण नैरयिकाणामुपपातः । करणं भंते ! रासीजुम्मा परमत्ता ? गोयमा ! चत्तारि म्मामिच्छादिट्ठी णो णाणी अम्माण एवं जहा कएहले एसीजुम्मा पामत्ता, तं जहा कमजुम्मे जाव कलिओगे, से स्त्रसए वरं पो विरया अविरया णो विरयाविरया केण्डेणं भंते ! एवं बुच्चइ चत्ताार रासीजुम्मा परमत्ता मंचिट्ठणा दिई य जहा ओहियन(सए ममुग्धाया आ- जाव कलिओगे? मोयमा! जेण रासी । च उक्कएणं अवहादिवगा पंच उच्चटणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्जं सबपाणा रणं अवहारमाणे चनपज्जवसिए से तं रासीजुम्मकडणो इणढे ममटे मेग जहा कर हलेसममए जाव अणंतखु. जुम्मे एवं जाव जेणं रासीच उक्कएणं अवहारेणं अवहारतो, एवं मोलसमु विकमजुम्मेसु मेवं जंते ! भंते ! त्ति ॥१॥ माणे एगपज्जवसिए से ते रासीजुम्मकालोगे से तेणढणं पढमसमयअभवसिफियकमजुम्म २ समिपंचिंदियाणं नंते !| जाव कलिओगे रासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं भंते की को उववज्जति जहा समीणं पढमसमयनसए तहेवणव- उववज्जति उववाओ जहा वकंतीए, तेणं ते! जीवा सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं णाणं च सव्वत्य गत्यि से तहे-| एगसमइएणं केवइया उववज्जति ? गोयमा ! चत्तारि वा व सवं भंते ! भंते ! ति॥।॥ एवं एत्य वि एकारस मुद्देसगा अह वा बारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेजा या कायच्या पढमं तस्यपंचमा एकगमा सेसा अहवि एकगमा । उववजति तेणं ते! जीवा किं संतरं उववजति णिरंपदम अभवसिफियमहाजुम्ममयं सम्मत्तं । ( पसरसमं म-1 तरं उववजति ? गोयमा संतरपि नववजनि पिरंतरपि Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९०) अभिधानराजेन्द्रः । उबवाय उववज्जति संतरं नववज्जमारणा जहमेणं एवं समयं उक्कोसे असंखेज्जसमया अंतरं कार्ड उववज्जंति, णिरंतरं नववज्जमाणा जहसेणं दो समया उक्कोसेणं असंखेज्ना समया असमयं अविरहियं णिरंतरं उववज्जंति, तेणं जंते ! जीवा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोगा, जं समयं तेोगा तं समयं कडजुम्मा १ णो णट्टे समट्ठे जं समयं करुजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा ? णो णट्ठे समट्ठे जं समयं कजुम्मा तं समयं कलियोगा जं समयं कलियोगातं समयं कडजुम्मा ? गो इट्ठे समट्ठे तेणं जंते ! जीवा कह उववज्जंति ? गोयमा ! से जहा लामए पवए पत्रमा एवं नहा उववायसए जाव णो परप्पओगे णं जववज्जंति । तेणं जंते ! जीवा किं श्रयजसेणं उववज्र्ज्जति आय अजमेणं जववज्जंति ? गोयमा ! यो आयजसेणं उववज्जंति आय अजसे जववज्जंति जइ आयनजसेणं उववज्जेति किं श्रायजसं नवजीवंति आयअजसं उवजीवंति ? गोयमा ! यो आजसं उवजीवंति आय अजसं उवजीवंति, जदि आजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा णो अलेस्सा । जदि सस्सा किं सकिरिया किरिया ? गोयमा ! सकिरिया हो अकिरिया, जदि सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्यंति जाव अंतं करेंति ? गो इट्ठे समट्ठे | रासीकडजुम्मअसुरकुमाराणं भंते ! को उववज्जंति जहेब रश्या तब णिरवसेसं एवं जात्र पंचिंदियतिरिक्खजोणिया रणवरं वरणस्सइकाइया जाव असंखेजा वा अता वा उववज्जंत्ति, सेसं तं चैव मणुसा वि एवं चैव जाव णो आयजसेणं उववज्जंति आयअजसेणं ज्ववज्जंति, जइ आयअजसेणं उववज्जंति किं प्रायजसं उवजीवंति आय जसं उवजीवंति ? गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आय अजसं पि उवजीवंति ज‍ प्रायजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सावि अलेस्सा वि जदि अलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! यो सकिरिया अकिरिया । जदि किरिया तेणेव भवरगहणे सिज्यंति जाव अंतं करेंति ? हंता सिज्यंति जाव अंतं करेंति, जदि सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया गो अकिरिया जदि सकिरिया तेव भवग्गहणे सिज्यंति जाव अंत करेंति ? गोयमा ! त्येगझ्या ते शेव भवग्गहणेणं सिज्यंति जाव तं करेंति, अत्थेगया णो तेणेव भवग्गहणेणं सिज्यंति जाव अंतं करेंति जदि श्रायजसं नवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा को अलेस्सा, जइ सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया णो For Private उववाय अकिरिया जइ सकिरिया तेणेव भवग्गहोणं सिज्यंति जाव अंतं करेंति ? गो इडे समट्ठे वाणमंतर जोइसियमाया जहा रइया सेवं भंते ! भंते! त्ति (इगुलीसमसयस्स पढमो उद्देसो सम्मतो | ४१ | ) || १ || रासीजुम्पdrivesयाणं भंते! कत्रो उववज्जंति एवं चेव उद्देसओ भाणियन्वो वरं परिमाणं तिमि वा सत्त वा एकारस वा पामरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, संतरं तवं तयं जंते ! जीवा जं समयं ते या तं समयं कमजुम्मा, जं समयं करुजुम्मा तं समयं तेोगा ? णो इट्टे समठ्ठे । जं समयं ते त्र्यांगा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं प्रया ! जो इण्डे समट्ठे । एवं कलिओगेण वि समं सेसं तं चैव जाव वेमालिया एावरं ववाओ सोनिं जहा बकतीए । सेवं जंते ! जंते ! ति ॥ ४१ ॥२॥ रासीजम्मदावरजुम्मणेरयाणं जंते ! को जववज्जंति एवं चैत्र उद्देस वरं परिमाणं दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा ववज्र्ज्जति संवेहो, तेां भंते ! जीवा जं समयं 'दावरजुम्मा तं समयं करुजुम्मा, जं समयं करुजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा ? णो इणट्ठे समट्ठे । एवं ते योगेण विसमं एवं कवि समं, सेमं जहा पढमुद्देमए जात्र वैमाणिया । सेवं जंते ! जंते ! ति ॥४१॥३॥ रास जुम्पकलियो गेरइयाणं जंते ! कओ जववज्जंति एवं चैत्र परिमाणं एका वा पंचवा णत्र वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखज्जा वा उबवज्जंति, संवेहो तेणं जंते ! जीवा जं समयं कल्लियोगातं समयं कम जुम्मा समयं करुजुम्मा तं समयं कलियोगा ? शो इसम | एवं गेण वि समं दावरजुम्माण विसमं, से जहा पढमुस । एवं जात्र बेमालिया । सेवं नंते ! ते ! ति ॥ ४१ ॥ ४ ॥ कहलेस्स रासीजुम्मक रुजुम्म रइयाणं जंते ! कओ जववज्जंति उनवाओ तहा धूमप्पजाए से जहा पढमुद्देसए । असुरकुमाराणं तदेव एवं जात्र वाणमंतराणं । गुस्साए वि जहेब णेरइयां । प्रयाजसंजीवंत, असा अकिरिया तेणेव जवग्ग होणं सिज्यंति एवं ए जाणियन्त्रं सेसं जहा पढमुद्देमए सेव जंते ! जंते ! ति ॥ ४१ ॥ ५ ॥ कएहनेस्सतेयोएहि वि एवं चैव उस से जंते ! जंते ! ति ।। ४१ ।। ६ ।। कएहले स्मदावरजुम्मेहि वि एवं चेत्र उद्देसओ सेवं जंते ! जंते ! त्ति ॥ ४१ ॥ ७ ॥ कएहलेस्सकािंगेहि वि एवं चैत्र उस परिमाणं संवेहो य जहा ग्राहिएस उद्देसएसुमेवं ते! जंतेति ॥ ४१ ॥ ८ ॥ जहा कहलेस्पोर्ट एवं नीलले मेहि वि चत्तारि उद्देसगा ना। एयcar विमेसा वरं रइयाणं उबचाओ जहा वालुयप्पजाए सेसं तं चैव । सेवं जेते ! जंत ! ति ॥ ४१ ॥ १२ ॥ Personal Use Only Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९१) अभिधानराजेन्द्रः । उबवाय वरं काले सेहि वि एवं चैव चत्तारि उद्देसगा कायव्वा रइयाएं उनवाओ जहा रयप्पनाए सेसं तं चैव सेवं जंते ! जंते ! चि ।। ४१ ।। १६ ।। तेउलेस्सरासी जुम्मकजुम्म सुरकुमाराणं जंते ! को जववज्जंति एवं चेव वरं जेसु तेजस्सा प्रत्थि तेसु जाणियव्वं एवं एएवि कएइलेस्ससरिसा चत्तारि उद्देसगा कायव्वा || सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ ४१ ॥ २० ॥ एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा काया | पंचिदियतिरिक्खजोलिया मणुस्सा वेमागिया एएसिं पइलेस्सा सेसाणं णत्थि सेवं जंते ! जंते ! ति ॥ ४१ ॥ २४ ॥ जहा पम्हलेस्सा एवं सुकलेस्साए चचारि उद्देसगा कायन्त्रा एवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहिउदेसएस मेसं तं चैव एएम बसु लेस्सासु चउब्वीसं उदेगा ओहिया चत्तारि सव्वे ते अभावी उद्देसगा जवंति सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ ४१ ॥ २८ ॥ भवांसेवियरासीज कम्मरइयाणं भंते! को नववज्जंति जहा प्रोहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तदेव शिरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा सेवं भंते ! जंते ! ति ॥ ४१ ॥ ३२ ॥ कए हलेस्सभवासेवियरास जुम्मकडजुम्मणेरइयाणं जंते ! कओ नववज्जति जहा कएहलेस्साए चत्तारि उद्देसगा जवंति तहा इमे वसिद्धिकर इलेस्सेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वा ॥ ४१ ॥ ३६ ॥ एवं गीलनेस्सनवसिद्धिएहि विचत्तारि उद्देसगा ॥४१॥४० || एवं काउलेस्सेहि वि चचारि उद्देसगा ||४१॥ ४४ ॥ तेउलेस्सेहि वि चचारि उद्देगा - हिया सरिसा ||४१ || ४८ || म्हसेस्सेहि वि चत्तारि उद्देगा ||४१ ॥ ५२ ॥ मुक्कनेस्सेहिवि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा एवं एएवि भवसिद्धिएहि विट्ठावीसं उद्देसगा जवंति से जंते ! जंते ! ति ॥ ४१ ॥ ५६ ॥ अवसिकियरास जुम्भकरुजुम्मणेरइयाणं जंते ! को उववज्जंति जहा पढमो उद्देसओ एवरं मणुस्साणं णेरइया सरिसा भाणियन्त्रा सेसं तदेव सेवं जंते ! जंते ! ति, एवं चउमुवि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा || ६० ॥ कएहलेस्मा अनवसिद्धियरासं । जुम्मणेरइयाणं जंते ! को नववज्जंति एवं चेत्र चत्तारि उद्देगा ||६||| एवं णीअलेस्सानवसिद्धिए हिवि चत्तारि उद्देगा || ६८ || एवं काउलेस्तेहिं त्रिचत्तारि उद्देगा || ७२ || एवं तेउझेस्सेहिंदि चत्तारि उद्देगा ||७६ || पहले स्मेहिवि चत्तारि उद्देगा ||८०|| सुक्कलेस्से प्रभवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसगा एवं एएस - हावीसा अवसिद्धियन देसएस मणूस्सा रइयगमेणं तव्वा, सेवं जंते ! जंते!त्ति । एवं एतेवि हावीसा उद्देगा ॥ ४१ ॥ ८४ ॥ सम्मद्दिट्ठी रासीजुम्मकडजुम्मणेरझ्याणं जंते ! कति एवं जहा पढमो उद्देसओ एवं For Private उववाय चमुवि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा नवसिकिय सरिसा का यत्रा, सेवंत ! जंते ! त्ति ||८८|| कहलेस्ससम्मदिट्ठी रासी जुम्मणेरइयाणं नंते ! को उववज्जंति, एएवि क - एहजेस्ससरिसा चारि वि उद्देसगा कायव्वा एवं सम्म विवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा, सेवं जंते ! जंते ! ति जाव विहरइ ||४१ ॥। ११२ ।। मिच्छदिरासी जुम्मकरुजुम्मणेरयाणं जंते ! को उबवज्र्ज्जति एवं एत्यविमिच्छादिट्ठी अभिलावेणं अनवसिसिरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायन्त्रा सेवं जंते ! जंबे ! ति ॥ ४१ ॥ १४० ॥ कएहपक्खियरासी जुम्मक रुजुम्मणेरश्याणं जंते ! को उववज्जंति एवं अनवसिद्धियसरिसा अट्टाविस उद्देगा कायव्वा, सेवं जंते ! जंते! ति ॥ ४१ ॥ १६८|| सुक्कपक्खियरासीजुम्मणेरइयां जंते ! को उबवज्जंति एवं एत्थवि जवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देसगा जवंति एवं एएणं सव्वेवि बाउयं उदेसगं सयं जवंति ॥ रासीजम्मसयं सम्मत्तं ।। ४१ ।। ११६ ॥ (रासी जुम्भकरुजुम्मनेरइयत्ति) राशियुग्मानां भेदभूतेन कृतयुग्मेन ये प्रमितास्ते राशियुग्मकृतयुग्मास्ते च ते नैरयिका - श्चेति समासोऽतस्ते " अगुसमयमित्यादि " पदत्रयमेकार्थम् ॥ ( आयजसेणंति ) श्रात्मनः सम्बन्धि यशो यशोहेतुत्वाद्यशः संयम श्रात्मयशस्तेन ( श्रयजसं उवजीवतित्ति) आत्मयश आत्मसंयममुपजीवन्त्याश्रयन्ति विदधतीत्यर्थः । इह च सर्वेषामेवात्मयशसवोत्पत्तिरुत्पत्तौ सर्वेषामप्यविरतत्वादिति । इह च शतपरिमाणमिदमाद्यानि द्वात्रिंशच्छताम्यविद्यमानावान्तरशतानि त्रयस्त्रिंशादिषु तु सप्तसु प्रत्येकमवान्तरशतानि द्वादशचत्वारिंशेत्वेकविंशतिरेकचत्वारिंशे तु नास्त्यवान्तरशतमेतेषां च सर्वेषां मीलनेऽष्टत्रिंशदधिकं शतानां शतं भवत्येवमुद्देशकपरिमाणमपि सर्व शास्त्रमवलोक्यावसेयं तचैकोनविंशतिशतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति । 'श्ह शतेषु कियत्स्वपि वृत्तिकां, विहितवानहमस्मि सुशङ्कितः । विवृतिचूर्णिगिरां विरहाद्विक, कथमशङ्कमियर्त्यथवा पथि ॥ १ ॥ इति एकचत्वारिंशं शतं वृतितः समाप्तम् ॥ प्र० ४१ ० १६६ ४० कृद्रयुग्मविशेषणेन नैरयिकादीनाम् । खुड्डागकर जुम्मणेरइयाणं जंते ! को उववज्जंति किं णेरइएहिंतो उववज्जंति ति रिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! णो णेंरहिंतो उववज्जंति एवं रइओ जबबाओ जहा वर्कतीए तहा जाणिव्वो, तेणं जंते ! जीवा एगसमएणं के या उववज्जंति ? गोयमा ! चत्तारि वा वा वारस वा सोस वा संखज्जा वा असंखज्जा वा जववज्जंति तेलं भंते ! जीवा कह उववज्जंति ? गोयमा ! से जहााणमए पar पवमाणे जसाणे एवं जहा पंचवीसइममए मुदेसए ऐरयाणं वत्तव्वया तहेव इहवि जाणियन्त्रा जाव आयपयोगेणं जववज्जंति णो परप्पयोगेणं उववजंति । रयणप्पजापुढ विखुड्डागक मजुम्मणेरझ्याणं जंते ! कओ उवव Personal Use Only Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अन्निधानराजेन्दः। उववाय जंति एवं जहा अोहियणेरझ्याणं क्त्तव्बया सचेव रयण- श्या प्रक्रान्ता सा च धूमप्रनायां नवतीति तत्र ये जीघा उत्पद्यपनाए वि जाणियव्वा जाव णो परप्पभोगेणं उववज्जते एवं न्ते तेषामेवोत्पादो वाच्यस्ते वा संकिसरीसृपपक्तिसिंहवर्जा इति ॥ ज०३१ २०२ उ०। सकरप्पनाएवि एवं जाव अहसत्तमाएवि । एयं उववाओ णीलनेस्सखड्डागकमजुम्मणेरझ्याणं ते ! कत्रो उपचजहा वकंतीए असामी खलु पढमं दोच्चेव सरोसीवातईयप जंति एवं जहेब कएहस्मखुड्डागकमजुम्मा, एवरं जबक्खी गाहा । एवं उववातेयवा सेसं तहेव । खुड्डागतेओ वाओ जो वायुयप्पभाए मेसं तं चैव वाबुयप्पन्न पुढविणीगणेरइयाणं ते! को नववज्जति किं णरएहिंतो उववातो जहा वकंती तेणं नंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उव. सलेस्सखुड्डागकमजुम्म णेरइयाणं एवं पंकप्पनाएवि । एवं चउसुवि जुम्मेसु णवरं पारमाणं जाणियध्वं, परिमाणं जहा वनंति ? गोयमा ! तिमि वा सक्त वा एकारस वा पमरस कराहलेस्सउद्देसए सेसं तहेव सेवं नंते ! भंते ! ति एक्कतीवा संखेज्जा वा असंखज्जा वा उक्वजति सेसं जहा कम समस्स ततिओ उद्देसो सम्पत्तो ॥ ३१ ॥३॥ जुम्मस्स । एवं जाव अहेसत्तमाए । खुड्डागदावरजुम्मणेर- तृतीयस्तु नीलेश्याश्रयः सा च तृतीया चतुर्थीपञ्चमीवेष इयाणं जंते ! को नववज्जति एवं जहेव खुड्डागकमजुम्मे पृथिवीषु भवतीति कृत्वा सामान्यदएककस्तहण्डकत्रयं चात्र एवरं परिमाणं दो वा उ वा दस वा चनद्दस वा संखज्जा वा जवतीति (उववाओ जो बालुयप्पभाएत्ति ) इह नीललेल्या प्र. असंखेज्जा वा सेसं तं चेव । एवं जाव अहेसत्तमाए। कान्ता सा च बालुकाप्रभायां भवतीति तत्र ये जीवा सत्पद्यन्ते तेषामेवोत्पादो वाच्या ते चासनिसरीसृपवर्जा इति ( परिखुड्डागकलिओगणेरझ्याणं भंते ! को नववज्जति एवं माणं जाणियव्वंति) चतुरष्टद्वादशप्रतिकुल्लक कृतयुग्मादिस्वजहेव खुड्डागकमजुम्मे वरं परिमाणं एको वा पंच वा व रूपं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ ३१ ॥ ३ । वा तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा नववज्जंति सेसं तं काउलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं ते ! को नवचव । एवं जाच अहेसत्तमाए । सेवं नंते ! नंते ! त्ति । जाव वजति एवं जहेच कएहलेस्सखुड्डागकडजुम्मे, वरं उवविहर इक्कतीमश्मस्स पढमो ॥ ३१ ॥१॥ वाओ जो रयणप्पभाए सेसं तहेव । रयणप्पभपुढावि(जहा वकंतीपत्ति) प्रज्ञापनाष्टपदे अर्थतश्चैवं तत् पञ्चेन्द्रि- कालेस्सखुट्टागकडजुम्मणेरइयाणं भंते! को उववर्जयतिर्यग्भ्यो गर्भजमनुष्येभ्यश्च नारका उत्पद्यन्त इति विशेषस्तु ति । एवं सकरप्पभाएवि । एवं वालुयप्पभाएवि एवं चअसली खलु पढममित्यादि ॥ गाथाभ्यामवसेयः ( अज्झ-- बसाणत्ति ) अनेन (अज्झवसाण निव्वत्तिएण करणोववाए. उसुवि जुम्मेसु णवरं परिमाणं जाणियव्वं परिमाणं महा णति ) सूचितम् ॥ एकत्रिंशशते प्रथमः ॥ ३१ ॥१॥ कराहलेस्स उद्देसए सेसं तं चेव । सेवं भंते ! भंते ! ति कएहलेस्मखुड्डागकमजुम्मणेरझ्याणं नंते ! को नवव- चतुर्थस्तु कापोतलेश्याश्रयः सा च प्रयमाद्वितीयातृतीयास्वेव जंति एवं जहा श्रोहियगमो जाव णो परप्पओगेणं णवरं पृथिवीष्विति कृत्वा सामान्यदण्डको रत्नप्रभादिदएकत्रयं चात्र सम्भवतीति ( उववाभो जो रयणप्पभापत्ति ) सामान्यदएमके नववातो जह वकंतीए धूमपत्नपुढविणेरइयाणं सेसं तहेव रत्नप्रभावदुपपातो वाच्यः शेष सूत्रसिकम् ॥ एकत्रिंशं शतं वृ. धूमप्पजपुढविकण्हलेस्सखुड्डागकमजुम्मणेरझ्याणं जंते ! सितः समाप्तम् ॥ ३१ ॥४॥ को नववज्जति एवं चेव शिरवसेसं । एवं तमाएवि एवं भवसिद्धियखुड्डागकडजुम्मरपरश्याणं भंते ! को उवअहेसत्तमाएवि एवरं नववाओ सव्वत्थ जहा वकंतीए । वज्जति किं णेरइए एवं जहेव ओहिओ तहेव गिरवसेस कपडलेस्सखडागतेश्रोगणेरयाणं ते ! को नववत जाव णो परपोगेणं उववजति रयणप्पभापढविनवएवं व गवरं तिमि वा मत्त एक्कारम वा वा पारस वा सिद्धियग्बुडागकडजुम्मणेरझ्याणं भंते ! एवं चेव गिरवमंग्वेजना वा असंखेज्जा वा सेसं तहेव एवं जाव अहेसत्तमा सेस एवं जाव अहेसत्तमाए । एवं नवसिद्धियखुड्डागते. एवि । कराहनेस्सखुड्डागदावरजुम्मणेरइयाणं ते! को। भोगणेरइयावि । एवं जाव कलिोगोत्ति णवरं परिनववनंति एवं चेव णवरं दो वा छ वा दस वा माणं जाणियव्वं परिमाणं पुव्वं भणियं जहा पदमुद्देसए उदस सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ ३१ ॥५॥ कण्हलेस्सभवसिना समं तं चेव । पर्व धूपप्पनाए विजाव अहे मत्तमाएवि द्धियखुहागकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! उववजंति । एवं जकरहस्सखुड्डागकलिभोगणेरइयाणं भंते! एवं चेव एनरं हेव मोहिओ करहलेस्सउद्देसर लहेव गिरवसं चउसु पको वा पंच वा णव वा नेरम वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा वि जुम्मेसु भाणियन्यो जाब अहेसत्तमपुडविकराहलेस्सममं नंचव । एवं धूमप्पनाए वितमाए वि । अहेमत्तमाएवि मे ने ! तेत्ति एगतीमइयस्म वितिनो उद्देसो सम्पत्तो।। भवसिद्धियखुड्डागकलिओगणेरइयाणं भंते : को उवहितीयस्तु कृष्णवेश्याश्रयःसाच पञ्चमीषष्ठीसप्तमीध्येव पृथि वज्जति तहेव सेवं भंते ! भंते ! ति॥३शा६॥णीललेघोष नवतीति कृत्वा सामान्यदएमकस्तद्दामकत्रयं चात्र नवतीति सपनवसिद्धियचउसुवि जुम्मसु तहेव भाणियव्वं जहा श्री(उपवा भी जहावळतीप धूमप्पभपुढविनेरझ्याणंति) इह कृष्णले- हियणीललेस्सउद्देसए सेवं भंते ! भंते !त्ति । जाब विह Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९३) अभिधानराजेन्डः। नववाय नववाय रइ ॥३१॥ ७॥ काउलेस्सभवसिद्धियचउसुवि जुम्मेसु भ्यश्चोत्ता भव्यद्रव्यदेवा न भवन्ति भावदेवेष्वेव तेषामुत्पानहेव उववातेयव्नो जहेब ओहिए काउलेस्सउद्देसए सेवं दात् सार्थसिद्धकास्तु भव्यद्रव्य सिद्धा एव भवन्तीत्यत पतेभ्योऽन्ये सर्वे भव्यद्रव्यदेवतयोत्पादनीया इति ।। भ०१२ भंते ! भंते ! ति जाब विहरइ ॥ ३१ ॥ ॥ जहा भ- श० एउ०॥ (उत्पलजीवादीनामुपपातो वणस्सइ शब्द) वसिद्धिएहिं चत्तारि नदेसगा भणिया एवं अवसिद्धि- धम्मदेवाणं नंते ! काहिती उववज्जति किं परइएतितो एहिं चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा जाव काउलेस्सउ- एवं वकंनी नेदेणं सव्वेसु नववाएयव्या जाव सव्वट्ठसिदेसोत्ति ।। सेवं भंते ! भंते ! ति ॥ ३१ ॥ १२ ॥ एवं कत्ति, वरं तमा अंहसत्तमाए तेक वाऊ असंवज्जबासम्मविट्ठविलेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगाकायव्वा माज्य अकम्मनूमिगअंतरदीवगवज्जेसु । देवाधिदेवाणं एवरं सम्महिही पदमवितिएसु दोमुवि उद्देसएमु अहेस- नंते ! कोहिंतो नववज्जति किं परएहिंतो नववज्जति तमपुढवीमु ण उववातेयन्बो सेस तं चेव सेवं भंते ! पुच्छा गोयमा ! ऐरएहितो नक्वजंति, गो तिरि० को झंत ! चि१॥ १६ ॥ मिच्छादिट्ठीहिंदि चत्तारि मणु देवेहिंतो उववजति जगराए० एवं तिसु पुढवियु नद्देमगा कायव्या जहा भवमिछियाणं सेवं नंते ! नंत ! उववजलि मेसाओ खोडेयव्वाश्रो जइ देवेहितो विमाणिपत्र त्ति ॥ ३१ ॥ २०॥ एवं काहपक्विएहिंवि लेस्सा सं सव्वेसु नववज्जति जाव सव्वट्ठसिकत्ति मेमा खोडेयव्या । जुत्ता चारि उद्देसगा कायव्या जडेव भवसिधिपहिं वि सेवं जावदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? एवं जहा वर्कजति ! भंते ! ति ॥ ३१ ॥ २४ ॥ सुकपक्खिएहिं एवं तीए जवणवासीणं उपवाओ नहा जाणियच्वं ॥ चेव चत्तारि नद्देसगा नाणियव्वा जाव बालुयप्पभापुढवि धर्मदेवसूत्रे नवरमित्यादि (तमनि ) षष्ठपृथिवी तत उट्टकानलस्मसुकपक्विए खुड्डागकलिओगणेरझ्याणं जंते !| त्तानां चारित्रं नास्ति तथा अधःसप्तम्यास्तेजसो वायोरसंख्य को उववज्जति तहेब जाव णो परप्पभोगेणं उच्चवजंति यवर्षायुपककर्मचूमिज़ेज्योऽकर्मचूमिजेन्योऽतरद्वीपजन्यश्चीसेवं ते ! भंते ! ति ॥ ३१॥८॥ सव्वेवि एए अट्ठा कृत्तानां मानुषत्वानावान्न चारित्रं ततश्च न धर्मदेवत्वमिनि बीमउद्देसगा नववायसयं सम्मत्तं ॥ ३१ ॥ २० ॥ देवातिदेवसूत्रे (तिसु पुढवीसु उववजंतित्ति) तिमृय पृधि वीज्य उत्ता देवातिदेवा नुत्पद्यन्ते (सेसानो खोरेयवास्ति) (१३) जव्यदेवादयः कुत उत्पद्यन्ते । शेषा पृथिव्यो निषेधयितव्या इत्यर्थः ताज्य उत्तानां देवानिनवियदबदेवाणं जंते ! कोहितो नववजति किं णरइएहितो | देवत्वस्थाभावादिति "भायदेवापामित्यादि " इह च बहुतरनववज्जति तिरिक्खमणुस्मदेवेहितो नववज्जति? गोयमा ! स्थानेच्य वृत्ता नवनवासितयोत्पद्यन्ते अप्लझिनामपि तेरए हितो उववज्जति निरिणमादेवहितो नववति दो। त्पादादत उक्तम् “ जहावकंतीए भवणवासीणं नववाओ" इत्यादि । भ०१३ २०१० नु० । जहा वक्रतीए सच्चेसु नववातेयवा जाव अणुत्तरोववाइ (२५) स्वतोऽस्वतो वा नैरयिकादय उत्पद्यन्ते ।। यत्ति, णवरं असंखेज्जवासाउय अकम्मनूमिगअंतरदीवस सओ नंते ! गरइया उववज्जति असतो गेरइया उववचट्ठसिझवज्जं जाव अपराजियदेवेहितोवि उववजति । ज्जति ? गंगेया ! मओ रझ्या नववज्जति णो असतो रदेवाणं ते! काहिंतो नववज्जति किं गैरइए पुच्चा? णेरइया नववज्जति एवं जाव वेमाणिया । मओ नंते ! गोयमा परइएहितोवि उववज्जति णो तिरि० णो मण णेरड्या नव्वदंति असओ रश्या उध्वटुंति ? गंगेया ! देवहितोवि नववज्जति । जइ गरइएदितो उववज्जति किं सो रइया नव्यटीते णो असो परश्या उबटुंति एवं ग्यणप्पभापुढविणेरइएहिंतो उववनप्ति जाय अहेसत्तमाए जाव वेमाणिया, एवरं जोशसियवेमाणिएसु चयंति भाणिपुढविए गेग्डएहितो वि उवनजति ? गोयमा ! रयणप्प यव्वं । सा ते ! णरक्ष्या उववज्जति असओ णेरइया नापुढविणेरड एहिंतोवि उवनज्जत जो मक्कर० जाव णो नववज्जति सओ अमुरकुमारा उववज्जति एवं जाव सा अहसत्तमपुढविणरइएहि तोवि उववजति जइ देवेहिता उव वेमाणिया उववज्जति असओ वेमाणिया नववज्जति,मां वजति कि जवणवामिदेवहितो नववज्जति वाणमंतरजोइ करइया उन्नति असनो गरइया नबदति मो असुरमियरमाणियदेवहिता उववनंति ? गोयमा ! जवणवामि कुमारा नन्वति जाव सो बयाणिया चयंति असा देवहितो उववज्जंति वाणमंतर० एवं मन्यदेवेमु नववाएयव्या वमाणिया चयंति ? गंगेया ! सो गरझ्या नववज्जंति णा चकंती भेदेणं जाव मव्वहमिछत्ति ।। अमोरइया उववज्जति सो असरकुमाग उवव जंनि (भेदोनि । " जर नेरदहिंतो उधवजति कि रयणप्पभा णो असओ अमरकुमारा नववज्जति जाव मो बमाणिया पुढविनेरवाहितो" इत्यादिभेदो वाच्यः। (जहा वकंती एत्ति) जववति णो असओ वेमाणिया उववज्जति सो परयथा प्रज्ञापनाषष्टपदे ।। नवरमित्यादि (असंग्वेज्जवासाप्रोत्ति) श्रमण्यानयर्वायुष्ककर्मभूमिजाः पञ्चेन्द्रियनियन या अ-1 इया नबटुंनि णो असओ रझ्या नव्वदृति जाव सओ संपानवायुगमकर्मभूमिजादीनां साक्षादेय गृहतियादेते. माणिया चयंतिणो असओ माणिया चयनि । से काग ain Education International Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९४) अनिधानराजेन्द्र | उववाय ड जंते ! एवं बुच्च स रश्या उववज्जति हो अमोरझ्या नववज्जति । जाव समो वैमाणिया चयंति णो सओ वेमाणिया चयंति से गूणं जे गंगेया ! पासेणं रहा पुरिसादाणिएवं सासए लोए बुझए प्रणाइए प्रणवदग्गे जहा पंचमे सए जाव जे बोकड़ से बोए से तेण गंगेया ! एवं बुच्चजादयो वैमाशिया चयंति णो असी वैमाणिया चयंति । सयं जंते! एवं एवं जाणह नदाह असयं असोच्चा एवं जाणह उदा सोच्चा सत्र रइया नववजंति णो अमरावति जान समाशिया चर्षति णो माया चयंति ? गंगेया ! सयं एते एवं जाणामिणो अमयं असो वा पते एवं जाणामि यो सोच् सराववज्जति हो असओ रइया उववज्जंति जाब सोमाणिया पर्यति णां सभी वेदानिया चयति से जैसे ! एवं जाणो अम ओ मालिया चयंति ? गंगेया ! केवणीणं पुरच्छिमेणं मि यपि जागर अभिपि जाइ दाहिशेणं एवं जहा समुदेस जात्र णिन् पा केवलिस्म से तेणद्वेणं गंगेया ! एवं बुस्वतंत्र जाणो असओ नेमानिया पर्यति । अथ नारका प्रकारान्तरोत्पादन निरुपा "स "इत्यादि । तत्र च सम्रो नेरश्तो विद्यमाना व्यर्थतया न हि सर्वदेवासकिंचित्पद्यते सत्या देव खरविषाणवत् सत्वं च तेषां जीवव्यापक्या नारकपर्यायापक्या वा तथा हि नाविनारकपर्यायापेकया द्रव्यतो नारकाः मतो नारका उत्पद्यन्ते नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका एव ना रकत्वनोत्पद्यन्त इति । अथवा (सउत्ति) विभक्तिविपरिणामात्ससमुत्पयले मासकस्य शासना कादीनां सर्वदैव सद्भावादिति ॥ " से कृणं जे गंगेया " इत्या दि । अनेन च तत्सिद्धान्तेनैव स्वमतं पोषितं यतः पार्श्वनाथाईना शाश्वतो ढोका उक्तोऽतो लोकस्य शाश्वतत्वात्सन्त एव स त्स्वेव वा नारकादय उत्पद्यन्ते च्यवन्ते चेति साध्येयोच्यत इति । अथ गाङ्गेयो जगवतोऽतिशायिनं ज्ञानसंपदं संभावयन् विकल्प“ सयं भंते ! इत्यादि । स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्षयन्नाह । मित्यर्थः ( एवंति ) वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु ( असयंति ) स्वयं परत लिङ्गत इत्यर्थः । तथा ( असोच्वत्ति ) श्रश्रुत्वा आगमानपेक्षम (पतेति ] तदेयमित्यर्थः (सोध्यति ) पुरुपान्तरवचनं श्रुत्वा आगमत इत्यर्थः [ सयं एतेषं जाणामित्ति ) स्वयमेतदेवं जानामि पारमार्थिकप्रत्यक साक्षात्कृतसम तवस्तुस्तोमस्वनावत्वान्मम ॥ भ० श० ३२ ० । मयं भंते ! ऐरया ऐरइएस उववज्जंति असयं ऐरझ्या रंग उववज्जंति ? गंगेया ! सयं खेरइया रइएस स्वजति असयं रव्या रइएस उववति । से के भने ! एवं बुच्च जाति ? गंगेया कम्मो कम्मरुपमा कम्मभारियाए कम्मगुरुसंभारिषत्ताए अनुभा कम्माणं उद असुभार कम्मा उबवाय विवागणं असुभाणं कम्मा फलविपाणं सर्व रइया रएस उववज्जंति से तेराट्ठेां गंगेया ! जात्र उववज्जंति । सयं भंते ! सुरकुमारा पुच्छा गंगेया ! सर्य असुरकुमारा उववज्र्ज्जति णो असयं असुरकुमारा उबवज्र्ज्जति । से केाणं तं चैव जाव उववज्र्ज्जति १ गंगेवा ! कम्मोदए कम्मोरसमे कम्मनियर कम्मविसोही कम्मत्रिसुद्धीए सुभाव कम्मा उदर सुजाणं कम्माणं विवागेणं सुभाणं कम्मारणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए जाव उपवनंति णो असयं असुरकुमारा जाव ववज्र्जति से लेणडे जाव उववजंति, एवं जाव थयिकुमारा । सर्य भंते ! पुढविकाइया पुच्छा गंगेया ! सयं पुवीकाइया उपनति हो असयं जाव वयांति सेकेट्ठे जाव उववज्जंति ? गंगेया ! कम्मोदपणं कम्मगुरुचाए कम्मभारियताए कम्मगुरुयसंभारियताए सुभासुभाणं कम्मारणं उदरणं सुभासुजाणं कम्मारणं विबागेणं सुभासुभा कम्माणं फलविवासयं पुदी काइया जान उति यो अस पुवीकाइया जान छववज्जंति से लेणं जाव सववज्जंति एवं जाय मसा वाणमंत रजोसमालिया जहा असुरकुमारा से ते गंगा ! एवं बुइ सयं वेमाणिया जाव उववज्जंति हो अस बेमाणिया जाय ववति ।। ( सयं नेरइया नेरइरसु उववज्जंति ) स्वयमेव नारका उत्प द्यन्ते नास्वयं नेश्वरपारतन्त्र्यादित्यर्थः यथा कैश्चिपुच्यते । " अशो जन्तुरनीशोऽय मात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो ग स्वमेवेति ईश्वरस्य हि कालादिकारएकलापव्यतिरिकस्य विनिर्विचार्यमाणस्याघटनादिति ( कम्मोदति ) कर्मणामुदितत्वेन न च कम्ममात्रेण नारकेषूत्पद्यते केवलिनामपि तस्य भावादत श्राह (कम्मगुरुयापत्ति ) कर्म्मणां गुरुकता महत्ता कर्मगुरुकता तया ( कम्मभारियापत्ति ) भारोऽस्ति येषां तानि भारिकाणि तद्भा वो भारिकता कर्मणां भारिकता कस्मैभारिकता तथा मह दपि किञ्चिदल्पभारं दृष्टं तथाविधभारमपि व किंचिदमहदित्यत श्राह ( कम्मगुरुसंभारियन्त्तापति ) गुरोः सम्भारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता गुरुता सम्भारिकता चेत्यर्थः । कां गुरुम्भारिकता करग्भारिकता तयाऽतिप्र कर्षावस्थयेत्यर्थः । एतश्च त्रयं शुभकर्मापेक्षया स्वादत श्राह ॥ 'असुभाणमित्यादि । उदयप्रदेशतोऽपि स्वादत आह (c) विपाको यथा बद्धरसानुभूतिः स च मन्दोऽपि स्यादत आह ( फलविद्या फलकादेवि पाको विपन्यमानता रसप्रकर्णावस्था फलविपाकस्तेनासुरकुमारसूत्रे (कम्मति) सुकुमारोदितः कर्मणा येन वापरे तु (कम्मीसमेत) तत्र वाशुभकर्म्मणामुपशमेन सामान्यतः ( करमवियइपत्ति ) कर्मणा भानां विगत्या विगमेन स्थितिमाश्रित्य (कम्मीएत्ति) रसमाश्रित्य (कम्म विशुद्धीपत्ति) प्रदेशापेक्षया एकार्था 46 , Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९५) अन्निधानराजेन्धः। उववाय उववाय भंते शब्दा इति पृथिवीकायिकसूत्रे ( सुभासुभाणंति )शुभानां सत्तमापुढवीनरएसु उववज्जंति ? गोयमा ! रयणप्पनाशुनवर्णगन्धादीनाम शुभानां तेषामेकेन्द्रियजात्यादीनां वा । पुढवीनेरइएमु उववज्जंति जाव अहसत्तमाढवीनरइएमु उभ०९श० ३२ उ०। (१५) श्दानी पठं द्वारमभिधित्सुराह । उद्वर्त्य क गच्छन्ति । ववज्जति । जइ तिरिक्खजोशिएमु जवरजति किं एगिनरक्ष्याण जंते ! अणतरं उबट्टिता कहिं गच्छति कहिं उ दिएसु जाव पंचिंदिएस ? गोयमा ! एगिदिएसुवि उववज्जं ववज्जति किं नेरइएसु नववजंति तिरिक्खजोणिएमु मणस्से ति जाव पंचिंदिएसुवि उववज्जति एवं जहा तेसिं चेव उवमु देनेमु उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जति वाओ नब्बट्टणावि जाणियव्वा तहेव नवरं असंखज्जवासातिरिकावजोणिएमु उववज्जति मणमु उववज्जति नो दे उएसवि एते नक्वजति किं सम्मुच्चिममस्मेसु उववज्जंवेमु नववज्जति । जदि तिरिक्खजोणिएमु उववज्जति किं ति मास्ससु नववज्जति गब्जवतियमणुस्सम नववज्जति? एगिदिय, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु च्ववजंति ? | गोयमा! दोहितोवि एवं जहा उववाओ भणिो तहानगायमा ! नो एगिदिएसु जाव नो चनरिदिएसु उववजात बट्टणाविनाणियचा नवरं अकम्मन्नूमिगअंतरदीवगएवं जेहिंतो उववाओ जगियो तेस उबट्टणा वि जाणि संखेज्जवासाउएसु वि एते नववज्जति ति भाणियव्यं, जादि यन्ना नवरं सम्मुच्छिमेसु न उपवनंति, एवं सव्यपुढवीम दवसु नववज्जति किं भवणवईमु उववमति जाव किं वेजाणियन्वं नवरं अहेसत्तमाओ मणुस्सेस न उववज्जात | माणिएसु उववज्जति ? गायमा ! सव्वेसु देवेसु चैत्र उवअसुरकमाराणं जंते ! अणंतरं उच्चट्टिता कहिं गच्छति कहि वज्जति । जदि जवणवईसु नवमज्जांत असुरकुमारेसु जाव नववज्जति किं नेरइएसु नवबजति जाव देवेस उववज्जति | थणियकमारेसु उववज्जति ! गोयमा ! सव्वेमु चेव उववगोयमा ! नो नेरएस तिरिक्खजोणिएसु मगुस्सु उवव ज्जति एवं वाणमंतरजोइसियवेमाणिएस निरंतरं नववज्जंजंति नांदेवेसु उक्वजंति। जदि तिरिक्ख जोणिएस उवत्र जति ति जाव सहस्सारोकप्योत्ति । मणुस्साणं नंते ! अणंतरं उकि एगिदियएसु जाव पंचिंदियतिरिक्वजोणिएमु नववजंति ब्वादृत्ता कहिं गच्छति कहिं उपवज्जति नेरइएसु उववज्जं. गायमा ! एगिदियतिरिक्वजाणिगम उववज्जति नो बेई- ति जाव देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! नेरइएस वि नववज्जदिएसु जाव नो चरिदिएम पंचिंदियतिरिक्खजाणिएस| ति जाव देवेसुवि उववज्जति, एवं निरंतरं सम्बेसु गणेस उववज्नति । जदि एगिदिएमु नववज्जति किं पुढवाकाइय- पुच्छा, गोयमा ! सव्वेस गणेसु उववज्जति न कहि विपएगिदिएमु जाव वणस्लइकाइयएगिदिएम उववज्जति ? गो-| डिसेहे. कायव्यो । जाव सबट्ठघिसदेवेसु वि नववज्जति यमा ! पुढवीकाश्यएगिदिएमुवि आउकास्यएगिदिएसपि | अत्थेगइया सिज्जति बुज्कंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुनववज्जति नो तेककाइएसु नो वाङकाइएसु वणस्सइकाइ क्वाणमंतं करंति वाणमंतरजोरसियबेमाणियसोम्मीसाणांय एसु उववज्जति गोयमा ! नो सुहमपुढवीकाइएमु अपज्जत्त- जहा अहुरकमारा नवरं जोइसियाण य वेमाणियाण य चयवादरपुढवीकाइएमु उववज्जति । जइ बादरपुढवीकाइएस | यंतीति अजिलावो कायव्यो । सणंकुमारदेवाणं पुच्छा, गाकिं पज्जत्तगबादरपुढवीकाइएस अपज्जत्तयबादरपुढवीका- यमा ! जहा अमुरकुमारा नवरं एगिदिएसु न ववज्जति, इपसु उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएमु उववज्जति नो। एवं जाव सहरसारगदेवा । आणय जाव अणुत्तरोववाझ्या अपज्जत्तएमु एवं आनवणस्सईसु नाणियव्यापंचिंदियति- एवं चव नवरं नो तिरिक्खजोणिएसु ज्ववज्जांत, मणुस्सेसु रिक्खजोणियमगुस्सेसु य जहा नेरइयाणं उन्बट्टणा सम्मु- पज्जत्तगसंखेज्जवासाउय कम्मचूमिगन्जवकंतियमणुस्सेसु उचिमवज्जा तहा जाणियव्या। एवं जाव थर्णियकुमारा। युद्ध ववज्जति दारं ।। वीकाइयाण ते ! आर्णतरं नव्याहत्ता कहिं गच्छति कहिं पासिद्धं नवरमत्राप्येषः संक्षेपार्थः । नैरयिकाणां स्वभानववज्जति कि नरइएस जाव देवेसु नववज्जति? गोयमा! वादुकृत्तानां गर्भजसंख्येयवर्षायुष्कतिर्यकपञ्चेन्द्रियमनुप्येषूनो नेरइएमु नववज्जति तिरिक्खजोणिएमु मणुस्सेस उव त्पादः अधः सप्तमपृथिवीनारकाणां गर्भजसंख्येयवर्षायुष्कतिवज्जति नो देवेसु नववज्जाते । एवं जहा एतसिं चेव उव र्यकपञ्चेन्ज्येिष्वेव असुरकुमारादिभवनव्यन्तरज्योतिप्कसौ धर्मेशानदेवानां बादरपर्याप्तपृथिव्यवनस्पतिगर्भजसंख्येयववाओ तहा उन्बट्टणावि देववज्जा नाणियब्वा । एवं आ युष्कतिर्यगपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु पृथिव्यवनस्पतिद्वित्रिचतुनवणस्सइवेदियतेइंदियचउरिंदिया वि । एवं तेउवाउवि नवरं | रिन्द्रियाणां तिर्यग्गती मनुष्यगतौ च तेजोवाना तिर्यगगतामाणुस्सवज्जेसु नववज्जतिा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ते! वेव तिर्यगपञ्चन्द्रियाणां नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिषु नवरं प्राणतरं उव्यट्टित्ता कहिं गच्छति कहिं उववज्जति? गोयमा ! वैमानिकेषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्याणां सर्वेष्वपि स्थानेषु स. नेहामु नववज्जति जव देवेनु उववजति नइ नेरइएसु उवव नत्कुमारादिदेवानां सहस्रारदेवपर्यन्तानां गर्भजसंख्येयवर्षा युष्कतिर्यकपञ्चन्द्रियमनुष्येषु आनतादिदेवतानां गर्भजसंख्येउति किं रयणपनापुढवीनेरइएस उपवज्जति जाव अहे यवर्षायुष्कमनुष्येष्येवेति । गतं षष्ठं द्वारम् ॥ प्रशा०६ पद ॥ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९६) नववाय अभिधानराजेन्द्रः । नववाय (१६) भव्यद्रव्यदेवादयः कुत उत्पद्यन्ते ॥ न्मनि यत्र वा के जातः ।। " अश्चियेत्यादि" हार्धिताधिपनवियदन्यदेवाणं जंते ! अणंतरं उव्वहिता कहिं ग- दानां पश्चानां कर्मधारयस्तत्र चार्भितश्चन्दनादिना वन्दिनः चंति कहिं उबवजति किं णेरइएमु उववजात जाव | स्तुत्या पूजितः पुष्पादिना सत्कारितो वस्त्रादिना समानिनः प्रतिपत्तिविशेषण (दिव्वेत्ति) प्रधानः । (सथेत्ति) स्वप्नादेवेसु नवबजति ? गोयमा ! णो णेग्इएमु उववजति को दिप्रकारेण तपदिएस्याधिनथन्वात् ( सञ्चावापत्ति ) सत्यानिरि० णो मणु० देवेमु नववजति ज देवेसु उववजंति वपातः सफलमेव इत्यर्थः कुत एतदित्याह ( सन्निहियपाहिमन्चदेवेसु उववनंति जाव सबमिद्धत्ति । परदेवाणं रोति ) सन्निहितमदरबर्निप्रातिहार्य पूर्वसंगतिकादिदेवताभंते ! अणंतरं उबत्तिा पुच्चा गोयमा सेरइएसु उव कृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा ( मणीसुत्ति ) पृथिवी-- कायविकारेषु ॥ वजनिणो तिरिणो मणु णो देवेसु नववज्जति जइ देवणं भंते ! महिथिए जाव विसरीरेसु रुक्खेमु उबदणेरइएमु नवव जंनि सत्तसुवि पुढवीसु उववज्जति । धम्म जेजा एवं चेव वरं इमं णाणत्तं जाव सम्मिहियपाटि.. देवाएं भंते ! अणंतरं नव्याहत्ता पुच्चा गायमा ! णो हेरे लाउल्लोइयमहइयाविभवजा सेसं तं चेव जाव ऐरइएमु नववज्जति णो निरिणो मणु देवेसु उव अंतं करेजा ॥ वज्जति जइ देवेसु उववज्जति किं भवाणवासि दे० पुच्चा, ( लाउलोश्यमहिपत्ति) (लाइयंति ) छगणादिना भूमिगोयमा ! यो भवणवासिदेवेसु नववज्जति, णो वाणम- कायाः संमृष्टीकरणम् ( उल्लाश्यंति) सेढिकादिना कुड्यानां नरजोसियवेमागियदेवेसु उववज्जति,सम्वेसु वेमागिएम धवलनमेतेनैव द्वयेन महितो यः स तथा परुथ विशेषणं उववति जाव सबट्ठसिद्धे नववज्जति अत्यगइया वृत्तस्य पीठापेक्कथा, विशिष्टवृक्षा हि बद्धपीना भवन्तीति ॥ अह भंते गोणंगलवमने कुक्कमवसने मंकवसने एएणं सिज्झति अंतं करेंति ! देवाहिदेवाणं भंते !अतरं उ. जिस्सीत्राणिब्बया जिग्गणा णिम्मेराणिप्पच्चक्रवाणाव्यट्टित्ता कहिं गच्छति कहिं उववन्जति ? गोयमा ! सि सहोववा । काझे मासे कालं किच्चा इमीमे स्यणप्पनाए ज्झति जाव अतं करेंति । भावदेवाणं भंते ! अणंतरं पुढवीए उक्कोसं सागरावमहिश्यसिणगंमि ऐरक्ष्यत्साए उउच्चट्टिता पुच्छा, जहा वकंतीए असुरकुमाराणं नव्बट्टणा ववज्जेज्जा ममणे जगवं महावीर वागरेश ववजमाणे उनहा भाणियना । भवियदव्वदेवाणं भंते ! भवियदयदे ववस्मेत्ति वत्तव्यंसिया अह त ! मीह बग्घे जहा जसबत्ति कालो केवचिरं होई ॥ अथ तेगमेयोद्वर्तनां प्ररूपयन्नाह-" भवियदव्ये" त्यादि । पिणी नदेसए जाव परस्सरे एपनि णिस्सीना एवं चव शह च भविकद्रव्यदेवानां भाविदेवभवस्वभावत्वान्नारकादि जाव वसव्वंसिया अहते ! ढंके कंके पिलए महए भिभवत्रयनिषेधः (गरपसु उववज्जतित्ति) अत्यनकामभोगा खीए एएग लिस्सीना मसं तं चव जाव वत्तव्वंसिया मेवं नरदेवा नैरयिकेषत्पद्यन्ते, शेषत्रये तु तनिषेधस्तत्र च यद्यपि नंने! !ति | जय विहरइ पुवालसममयस्स य अट्ठमा कनिश्चक्रवत्तिनो देवत्पद्यन्ते तथापि ते नरदेवत्वत्यागन नदेमो मम्मत्तो ॥१॥ धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः (जहा वर्कताए असुरकुमाराणं (गोणंगुझावसत्ति) गोलाङ्गयानां वानराणां मध्ये महान म उच्चट्टणा तहा भारिणयब्यनि) असुरकुमारा बहुषु जीवस्था एव चा विदग्धो विदग्धपर्यायत्वापभशब्दस्य पवं कुछटवृनेषु गच्छन्तीति कृत्वा तैरतिदेशः कृतः असुरादयो हीदानान्ताः पभोऽपि एवं मएकवृषभोऽपीति (निस्सीलत्ति समाधानरपृथिव्यादिष्वपि गच्छन्तीति ।। भ०१२ श० एउ०। हिताः (निव्वयेत्ति) अणुव्रतरहिताः (निगुणति) गुणत: (१७) देवो महधिको यावन्महेशाख्ये विशरीरेषपपद्येत ।। कमादिन्जिी रहिताः "नेरश्यसापउववजेजा" इति प्रश्नः । ने कात्रणं तेणं समपणं जाव एव वयामी देवेणं जने ! इहच " उववजेज्जा" इत्येतदुत्तरं तस्य चासम्जयमाशमहिकीए नाव महेसबग्वे अणंतरं चयं चइता विसरीरेमु मानस्तत्परिहारमाह "समणे" इत्यादि असम्नयश्चयं यत्र मनागेसु उववज्जे जा ? हेता गोयमा ! उववजेज्जा, सेणं मये गोसाइगृलादयो न तत्र समये नारकास्ते अतः कथं ने नार. तत्थ अच्चियबंदियपूइयसकारियसम्माणिए दिव्वे सच्चे कनयोत्पद्यन्त ति वक्तव्यं स्यात् ? अत्रोच्यते श्रमणो नगवान् महावीरे। न तु जमाल्यादिरेवं व्याकरति यदुत उत्पद्यमानम्मच्चीचाए समिहियपाडिहेरेयावि भवेजा हंता भवेजा। त्पन्नमिति वक्तव्यं स्यास्क्रियाकाबनिष्ठाकालयोग्भंदात असस्ने मेणं भंत! तथोहिंनो अशंतरं नवहिता सिझेजा गोलांडगृलप्रनतयो नारकतयापनकामा मारका गति कृत्वा बुझजा जाव अंनं करेजा ? हंता सिझेजा जाब प्रयते (नेरश्यत्ताए उवय जत्ति ) (उसाप्पणी उमान अनं करेजा । देवेणं भंते ! महिथिए एवं चेव जाब वि सप्तमशसस्य पष्टे शर्त द्वादशशनेटमः ॥ ज०१०।०० उ०॥ मरीग्सु मणीसु ववजेज्जा एवं चेव जहा नागाणं ॥ (१८) मैरयिकादयः कथमुपपद्यन्त । (विस रेसुत्ति ) हे शरीरे येषां ते विहारी रास्तेषु ये हि रायागह जाव एव बयासी गरदयाणं जन ! कह उवयनागार रं न्यक्या मनुष्यशरीरमवाप्य स्पेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा जंति गायमा ! से जहाणामवए पत्रयमाण अवमा-- इति । ( नागेमुभि मपंषु हस्तिषु वा (तात्ति) नागज- पियसिएणकरणो वाएणं से यकाने ठाणं विपजाईमा Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९७) उववाय अनिधानराजेन्छः। उववाय पुरिमं ठाणं उपसंपज्जित्ताणं विहरांति एवामेव ते विजीवा | जाव विहरइ (पणवीसइमसयस्स अट्ठमो २५८) भवसिपवमोवि पवयमाणा अजवसाणाणिव्वत्तिएणं करणोवा- द्धियनेरझ्याणं भंते ! कहं नववज्जति ? गोयमा से जहाएणं से य काले तं नवं विप्पजहिता पुरिसनवं उपसंपजि-| नामए पबए परमाणे अवसेसं तं चेव एवं जाव वेमाणिया ताणं विहरति । सेवं भंते ! भंते ! ति (पणवीसइमसयस्स णवमो |२६) सप्तमोद्देशके संयता भेदत उक्तास्तद्विपक्कतूताश्चासंयता भ- अभवसिद्धयणेरइयाणं भंते ! कहं नववजति ? गोयमा! वन्ति ते च नारकादयस्तेषां च यथोत्पादो भवति तथाटमोऽ-| से जहाणामए पवए पवमाणे अवसेसं तं चेव एवं जाव भिधीयत इत्येवं सम्बकस्यास्येदमादिसत्रम् " रायगिहे" -1 वेमाणिया सेवं भंते ! भंते ! ति (पणविसइमसयस्स त्यादि [पवएत्ति] प्लवक उत्प्लवनकारी ( पवमाणेसि)प्सवमान उत्प्लुर्ति कुर्वन् (अज्जवसाणनिव्यत्तिएणंति) उत्प्रोतव्यं | दसमो । २५ । १० । ) सम्मद्दिवीणेरइयाणं भंते ! कहं मयेत्येवंरूपाध्यवसायनिर्वर्तितेन ( करणोपायणति ) उत्पा- नववज्जति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे वनलकणं यत्करणं क्रियाविशेषः स एवोपायः स्थानान्तरप्राप्ती अवसेसं तं चेव एवं एगिदियवनं जाच वेमाणिए सेवं हेतुःकरणोपायस्तेन ( सेयकात्ति) एष्यति काले विहरतीति योगः किं कृत्वेत्याह ( तं ठाणंति) यत्र स्थाने स्थितस्तत्स्थान भंते ! भंते ! नि (पणवीसइमसयस्स एक्कारसमो ।२५।११।) विप्रहाय प्लवनतस्त्यक्त्वा [ पुरिमंति ] पुरोवर्तिस्थानमुपस मिच्छट्टिी परइयाणं भंते ! कहं उववजति ? गोयमा ! म्पद्य प्राप्य विहरतीति (पवामेवतेविजीवसि] दार्शन्तिकयोज- से जहाणामए पवए पवमाणे अवसेसं तं चेव एवं जाव मार्थः किमुक्तं भवतीत्याह [पवनोवि अपवमाणत्ति मज्जवसा वेमाणिए सेवं भंते ! भंते ! ति जाव विहर। पणवीसइपनिव्वत्तिएणंति ] तथाविधाभ्यवसार्यानवर्तितेन [करणोपायेति ) क्रियते विविधावस्था जीवस्यानेन क्रियते वा तदिति क मसयस्स दुवालसमो॥ भ० २५ श० १२ उ०॥ रणं कर्म प्लवकक्रियाविशेषो धा करणं करणमिव करणं स्था (उत्पलजीवादीनामुपपातो घणस्स शब्दे) नान्तरप्राप्तिहेतुता साधर्म्यात्मैव तदेवोपायः करणोपायस्तेन (१५) समुद्धातविशेषणेनैकेन्द्रियाणाम् ।। [तं भवंति ] मनुष्यादिनपं [पुरिमं नवंति ] प्राप्तव्यनारकभ अप्पज्जता सुदुमपुढवीकाइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पवमित्यर्थः [अज्जवसाणजोगनिव्वत्तिएणंति ] अध्यवसानं जी- भाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ने चरिमंते समोहए समोहणावपरिणामो योगश्च मनःप्रतिब्यापारस्तान्यां निर्वर्तितो यःस| वेत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले तथा तेन [करणोषापणति ] करणोपायेन मिथ्यात्वादिना क चरिमंते अपजत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए, भवन्धहेतुनेति। तेसिणं भंते जीवाणं कई सीहागतीकह सीहे गतिविसए से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं नववजेजा? गोयमा ! पप्पत्ते ? गोयया । से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं एगसमझएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवं जहा चनदसमस ए पढमुद्देसए जाव तिसमएणं दा वि उववज्जेज्जा। से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ एगसमश्रण माहेणं उक्वज्जति । ते सिणं जीवाणं तहा सीहागई तहा वा दुसमश्रण वा जाव नवबज्जेज्जा एवं खलु गोयमा!मए सीहे गतिविसए पपत्ते तेणं भंते ! जीवा कहं परनविया सत्तसेढीओ पमत्तानोतं जहा नज्जुअायता सेढी एगो उयं पकरेंति ? गोयमा ! अज्कवसाणणिव्वत्तिय कर- वंका दुहओ बंका एगो खुहा दुही खुहा । चकवाला गोवाएणं एवं खलु ते जीवा परनवियाज्यं पकरेंति । ते- अकचकवाना नज्जुयया सेढोए नववज्जमाणे एगसमसिणंजते ! जीवा कहं गती पयत्तइ ? गोयमा ! आउक्खएणं एणं विग्गहणं नववज्जेज्जा ? । एगो वंकाए सेढीए नवक्खएणं दिईएणं एवं खलु ते सिणं जीवाणं गती पयत्तइ नववज्जमाणे समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, मुहओ तेणे भंते ! जीया कि प्राइए नववज्जति परिडीए उवव- वंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहे उववज्जेजति गोयमा भाइवीए ववज्जतिणो परिष्ठीए उववज्जति ज्जा से तेणटेणं गोयमा! जाव नववज्जेज्जा'। अपज्जतो भंते ! जीवा कि आयकम्मुणा उववज्जति परकम्मुणा ता सुदुमपुढवीकाश्याणं नंते ! इमीसे रयणप्पजाए पुढवीए उववजति ? गोयमा ! आयकम्मुणा उववज्जति यो पर- पुरच्छिमचरिमंते समोहए समोहणावेत्ता जे नविए इमीसे कम्गुणा उववजति । तवं भंते ! जीवा किं ायप्पो- रयणप्पनाए पुढवीए पञ्चच्छिमिद्धे चरिमंते पज्जत्ता मुटुमगेणं उववजति परप्पभोगेणं उववजति ? गोयमा !| पुढवीकाश्यत्ताए उववज्जित्तए सेणं भंते ! कर समइएणं विप्रायप्पयोगेणं उपयजति णो परप्पयोगेणं उववति। गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमझएण वा दुसमअसरकमागणं भंते ! कई उववजति जहा पेराया।। इएण वा सेसं तं चेव जाव से तेणटेणं जाब विग्गहेणं उवतहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पभोगेणं उबवजति एवं| वज्जेजा ॥२॥ एवं अपज्जत्ता मुहुपपुढवीकाइओ पुरएगिदियवजा जाव बेमाणिया एगिदिया एवं चेव वरं चिमिझे चरिमंते समोहणावेत्ता पञ्चच्चिमिझे चरिमंते बादचउसमइयो विग्गहो सेसं तं चेव सेवं भंते : भंते ! त्ति | रपव काइएम अपजत्तएसु नववातेयव्या ॥ ३ ॥ नाहे Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९८) अभिधानराजेन्द्रः । उवत्राय ते चेत्र पज्जत्तए || ४ || एवं आउकाइएस वि अपज्जतर जववायव्वा । नाहे तेसु चेत्र पज्ञत्तए, एवं आ उकाइएस विचत्तारि लावगा सुमेहिं अपज्जत्तएहिं ! ता पज्जतएहिं २ बायरेहिं अपज्जत्तएहिं ३ ताहे पज्जतएहिं ४ वायव्व एवं चेत्र सहमतेनकाइएहिं त्रि अपजत्तएहिं ताहे पज्जतएहिं उनवातेयव्वो । अपज्जता मुहु काणं ते! इमीसे रयणप्पजाए पुढवीए पुरच्छिमि चरिमं ते समोहए समो जे जविए मणुस्सखेत्ते अपजत्तवादरते उकाइयत्ताए नववज्जित्तए सेणं जंते ! क इसमe विग्गणं उववज्जेज्जा सेमं तं चैव एवं पज्जता बादरतेनकाइयत्ता नववातेयन्वो वाकाइएस सुदुबादरेसु जहा आजकाइएस जववाइओ तदा जनवातेयन्त्रो एवं सइकाइमुवि । पज्जत्ता सुदुमपुढवीकाइए जंते ! इमीसे रयप्पनाए एवं पज्जत्तमुदुमपुढवीकाइएस वि पुरच्छिमि चरिमंते समोहणावेत्ता एए चेत्र कमेणं एएस चैत्र वीस ठाणेसु उववाएयन्त्रो जात्र वादरवणस्सइकाइएसु पज्जत्तए वि ४० एवं अपज्जतए बादरपुढवीकाइओवि । एवं पज्जत्तत्रादरपुढवीकाइओ वि । ८० । एवं कावि चमुवि गमएसु पुरच्छिमिले चरिमंते समोहयाए चैव वत्तव्वया, एएमु चैव वीसमु ठा सु उववायव्वो । १६० । मुहुमते उकाइओत्रि अपज्जओ पत्त य एएस चैव वीस ठाणेसु उवत्रातेयव्वो । २०० । अपज्जत्तवायरतेडकाएणं भंते ! मगुस्स खेत्ते समोहए, समो० जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए पच्चच्छिमि चरिमंते अपज्जत्तमुहुमपुढवीकाइयताए उववज्जित्तए, से गं भंते ! कइ समइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा सेसं तहेव जाब से तेराट्ठेणं एवं पुढवीकाइएस चव्विसु कि उववातेयव्वो । एवं आउकाइएस व्हे ते काइए अपजत्तएमु पज्जत्तएमु य एवं चैत्र वाएयो । अपज्जत्तावादरतेङकाइएणं भंते ! मस्सखेने समोहए समो० जे भविए मस्सखेने अपज्जत्ता वायर उकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेणं भंते ! कतिसमयसेसं तं चैव एवं पज्जत्तवायरते उकाश्यत्ताए उबवाएव्वो । वाकाइयत्ताए वरणस्सइकाइयत्ताए जहा पुढaterers | उकएणं देणं नववातेयव्त्रो, एवं पज्जता बादरतेकाइयो वि समयखेत्ते समोहरणावेत्ता एएस atest Gadबो जहेत्र अपजत्त उववा - ति एवं सव्वत्य वि बादरतेकाइया अपज्जत्तगा य पज्जतगा य समयखे ते उववातेयच्चो, समोहरणावियन्त्रावि । २४० | वाउक्काइया | ३२० | वरणस्सइकाइया य जहा yatara | ००। तदेव चकएवं भेदेणं नववातेयच्चो For Private उववाय जाव पज्जत्ता बादरवरणस्सइकाइयाणं भंते ! इमीसे रयगप्पा पुढवीं पुरच्छिमिले चरिमंते समोहए समो० जे नविए इमीसे रयणप्पभाए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तात्रादरवणस्सइकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेणं भंते ! कतिसमयसेसं तहेव जाव से तेलट्ठे अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकारणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो० जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उबवज्जित्तए तेरणं भंते ! कइसमइएवं सेसं तहेव शिरवसेसं एवं जदेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते सव्वपदेसुवि समोढ्या पच्चमिले चरिमंते समयखेत्ते य नववातिए जे समयखेत्ते समोहया पच्चच्छिमि चरिमंते समयखेत्ते य उवत्राएयन्वा तेणेव गमएणं एवं एएणं दाहिणिले चरिमंते समयखेतेय समोहयाणं उत्तरि चरिमंते समयखेत्ते य उववातो, एवं चैव उत्तरि चरिमंते समयखेत्ते य समोहियाणं दाहिणि चरिमंते समयखेत्ते य उबवायच्या, तेणेव गमएवं अपजत्ता सुमढवीकाइएणं नंते ! सक्करप्पनाए पुवीए पुरच्छिमि चरिमंते समोहए समो० जे जविए सक्करपाए पुढवीए पच्चच्छिमिले चरिमंते पज्जत्ता सुहुमपु इयत्ता नववज्जेज्जा एवं जहेव रयणप्पनाए जाव से तेलट्ठेणं एवं एएवं कमेणं जाव पज्जत्तएस मुहुमते काइएस पज्जत्तए । सुदुमपुढवीकाइएणं जंते ! सकरप्पनाए पुवीए पुरच्छिमि चरिमंते समोहए समो० जे नविए समयखेत्ते अपज्जता वायरतेनकाइयत्ताए नववज्जित्तए से एणं जंत ! कइसमए पुच्छा, गोयमा ! इसमइएए वा तिसमइए वा विग्गणं नववज्जेज्जा से केाडें नंते ! पुच्छा एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण त्ताश्र तं जहा उज्जुप्रायता जाव अचक्कवाला । एगो वंकाए सेटीए नववज्जमाणे दुसमणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । दुह वंकाए सेढीए नववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहें जेज्जा ! से तेणद्वेणं एवं पज्जत्तएसुवि वादरते उक्काइएमु सेसं जहा एप्पभाए। जे वि वायरते नक्काश्या अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते समोहया दोच्चाए पुढ चच्चिमि चरिमंते पुढविकाइएस चव्विहेसु आThey are dनकाइएस दुविहेसु वानकाइएस विहे वस्सइकाइएस चनन्विदेस जववज्जइ ते वि एवं चैव दुसमण वा तिसमइएण वा विग्गणं नववातेयव्वा । बादरतेङकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगा य जाहे तेसु चैव ववज्र्ज्जति ताहे जहेव रयप्पनाए तहेव एगसमइए ममइए तिसमए विग्गहा जाणियन्वा, सेसं जहा Personal Use Only Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९९) उक्वाय अनिधानराजेन्द्रः। उक्वाय रयणप्पजाए तहेव णिरवसेसं जहा सक्करप्पनाए वत्तव्वया | तए मे णं नंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? जणिया एवं जाव अहे मत्तमाए नाणियव्वा ।। गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं नववकविहेत्यादि । इदं च बोकनामी प्रस्तार्य भावनीयम् । [एग- जेज्जा । से केण्डेणं नंते ! एवं खलु गोयमा ! सए सत्त समश्एणवत्ति ] एकः समयो यत्रास्त्यसावेकसामायिकस्तेन । सेहीओ परमत्ताओ तं जहा नज्जुआयता जाव अच[विग्गहेणंति ] विग्रहो वक्रं गतौ च तस्य सम्नवासतिरेव विग्रहः। विशिष्टो वा ग्रहो विशिष्टस्थानप्राप्तिहेतुलता गतिर्विग्रहस्तेन कवाला एगतो वंकाए सेढीए नववज्जमाणे दुसमइएणं तत्र [ नज्जुआयएत्ति] यदा मरणस्थानापेकयोत्पत्तिस्थानं स- विग्गहेणं नववजेज्जा, उहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे मश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता श्रेणिनवति तथा च गच्छतः तिसमझएणं विग्गणं नववज्जेज्जा से तेणणं एवं पज्जत्तएकसामयिकी गतिः स्यादित्यत उच्यते " एगसमश्पणमि एस वायरतेनकाइएस वि उववातेयव्वो। वानकायवणस्सत्यादि"यदा पुनर्मरणस्थानामुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरेविश्रेण्यां वर्तते तदैकतो वक्रा श्रेणिः स्यात्समयद्वयन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः इकाइयत्ताए चउकएणं नेदेणं जहााउकाइयत्ताए तहेव नस्यादित्यत उच्यत “एगओ वंकाए सेढीए उववजमाणे पुसमय ववातेयव्यो २० । एवं जहा अपज्जत्ता सुहमपुढविकाश्यस्स एणं विग्गणमित्यादि" यदा तु मरणस्थादुत्पत्तिस्थानमधस्त गमोनपिओ एवं पज्जत्ता सहमपढवीकाझ्यस्स वि जाणिने चा प्रतरे विश्रेण्यां स्यात्तदा विक्रा श्रेणिः स्यात्समयत्रयण यवो तहेव वीसाए गणेसु उववाएयव्यो । ४० । अहेचोत्पत्तिस्थानावाप्तिः स्यादित्यत उच्यते "दुहओ वंकाए" सोयखेत्तणावीए बाहिरिझे खेत्ते समोहयो एवं वायरपुढ. इत्यादि एवं " आउकाइएसु वि चत्तारि आलावगा" इत्येतस्य विवरणं " सुहहीत्यादि " बादरतेजस्कायिकसूत्रे रसप्रभाप्र वीकाझ्यस्सवि अपज्जत्तगस्त पज्जत्तगस्स य जाणियव्वं । क्रमेऽपि यमुक्तं ( जे भविष मणुस्सखेत्तेत्ति] तद्वादरतेजसामन्य- एवं आजकाइयस्स चनविहस्मवि भाणियव्वं । मुहमतेन-- प्रोत्पातासम्नवादिति [वीससु गणेसुत्ति] पृथिव्यादयः पञ्च काश्यस्स दुविहस्सवि एवं चेव अपज्जत्ता बादरतेउकाइएणं सूक्ष्मबादरनेदाद द्विधेति दश तेच प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकमे- समयखेत्ते समोहए समोह. जे नविए उपयोगग्वेत्तणादाद्विशतिरिति इह चैकैकस्मिन् जीवस्थाने विंशतिर्गमा भवन्ति तदेवं पूर्वान्तगमानां चत्वारि शतान्येवं पश्चिमान्तादिगमानामपि लीए बाहिरिबे खेत्ते अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयत्ताए नुततश्चैवं रत्नप्रभाप्रकरणे सर्वाणि षोडश शतानि गमानामिति ववज्जित्तए से णं भंते ! कश्ममइएणं विग्गहेणं उववज्जेशर्करामनाप्रकरणे वादरतेजस्कायिकसूत्रे" उसमइएणं वेत्या- ज्जा ? गोयमा दुममइएण वा तिसमश्एण वा चनसमइएण वा दि" श्ह शर्कराप्रभापूर्वचरमान्तान्मनुष्यकेचे उत्पद्यमानस्य स- विग्गहेणं उबवज्जेज्जा । से केणटेणं अट्ठो जहेव रयणमश्रेणिर्नास्तीत्येगसमएणमितीह नोक्तम् 'ऽसमएणमित्यादि'तु प्पभाए तहेव सत्तसेढीए । एवं जाव अपज्जत्ता बादरतेएकस्य वक्रस्य द्वयोर्वा सम्भवामुक्तमिति ॥ उकाइएणं भंते समयखेत्ते समोहए समो० जे भचिए अथ सामान्येनाऽध क्षेत्रमूर्यक्षेत्र वाऽऽश्रित्याह । नकलोगखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्ता मुहुमतेअपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइएणं नंते ! अहे सोयखेत्तणा उकाश्यत्ताए उववन्जित्तए से णं भंते ! सेसं तं चेव । लीए बाहिरिद्धे खेत्ते समोहए समो. जे नविए उम्लोए अपज्जत्ता बादरतेउकाइएणं भंते ! समयखेत्ते समोहए खेत्तणानीए बाहिरिने खेत्ते अपज्जत्ता सुदुम पुढवीकाइय समो० जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ता बादरतेउकाइयताए नववज्जित्तए सणं नंते ! कासमइएणं विग्गणं ताए उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? गोयमा! तिसमझएण वा चउसमइएण वा वि उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा ग्गहेणं उववज्जेज्जा । से केपट्ठणं एवं बुच्चइ तिसमइएण तिसमइएण वा विग्गहेणं उबवजेजा । सेकेणढणं भंते ! वा चनसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अट्ठो जहेव रयणप्पनाए तहेव सत्तसेढीए । एवं पजत्ता अपज्जत्ता मुहुमपुढवीकाइएणं अहोलोयखेत्तणानीए बा बादरतेउकाइयत्ताएवि । बाउकाइएसु य वणस्सस्काइएम हिरिने खेत्ते समोहए समोहणिज्जे जे नविए उमृलोयखे जहा पुढवीकाइएसु उववातिश्रो तहेव चन्कएणं भेदेणं तणालीए बाहिरिने खेत्ते अपज्जत्ता सुदुमपुढवीकाश्यत्ताए उबवातेयब्यो । एवं पज्जत्ता बादरतेउकाइनोवि । एपमु एगपयरंसि असेढी उववज्जित्तए ? सेणं तिसमइएवं चेव ठाणेमु उववातेयव्यो । वाउकास्यवणस्सकाइयाणं विग्गणं नववज्जेज्जा जे नविए विमेढीओ उववज्जित्तए जहेव पुढवीकाइयो नववाओ तहेव नाणियव्यो । अपतेणं च उसमापणं विग्गहणं ग्ववज्जेज्जा । से तेणटेणं जत्ता सुहमपुढवीकाइएणं भंते ! एत्थवि लोगखेत्तणाजाव नववज्जति । एवं पज्जत्ता मुहुमपुढवीकाइयत्ताए वि लीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समो० जे भविए अहेखेएवं जाव पज्जत्ता सहुमतेनकाइयत्ताए वि ॥ अपज्जत्ता त्तणालीए वाहिरिले खेत्ते अपज्जत्ता मुहमपुढविकाइयमुहमपुढवीकाइएणं भंते ! अहोलोग जाव ममोहणित्ता जे ताए नववन्जिए से णं भंते ! कतिसमए? एवं उफ्लोगनविए ममयखेते अपज्जत्ता वादग्तेउकाइयत्ताए नयवाज्जि- खेत्तणालीए वाहिरिल्ले खत्ते समोझ्याणं अहलोयखेत्त-. Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अभिधानराजेन्द्रः। नववाय णालीए बाहिरिने खेत्ते उववजयाणं सो चेव गमश्रो| ज्जेज्जा से तेणटेणं गोयमा ! एएणं गमएणं पुरच्चिमिझे णिरवसेसो भाणियब्यो जाच वायरवणस्सइकाइयो अ-| चरिमंते उववातेयच्यो जाव सुलुमवणस्तइकाइओ पपज्जत्तो वायरवणस्सइकाइएमु अपजत्तएमु नववाइओ। ज्जत्तनुहुमवणस्सइएसु चेव सव्वेसिं उसमइओ तिसमअपज्जत्ता सुहमपुढविकाश्याणं भंते ! लोगस्स पुरच्छि- इओ चनसमइओ विग्गहो नाणियो । अपज्जत्तो मिल्ने चरिमंते समोहए समो० जे जविए लोगस्स पुरच्छि- मुहमपुटव काइएणं नंते ! झोगस्स पुरच्छिमिले चरिमंते मिल्ले चरिमते अपज्जत्ता मुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जि- समो०३ जे जविए लोगस्स पच्चच्छिमिझे चरिमंते अपत्तए । से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं नववर्जति ? ज्जत्तसहुमपुढवीकाश्यत्ताए नवव जित्तए सेणं जते कइ स. गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा मइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा विग्गहेणं नववज्जेज्जा । से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्च उसमइएण वा तिसमइएण वा चनसमइएणं वा विग्गहेणं एगसमश्रण वा जाव उववज्जेज्जा ? एवं खलु ? गोयमा! नववज्जेज्जा । से केणणं एवं जहेव पुरचिमिचे चरिमए सत्तसेढीओ परमत्ताओ,तं जहा उज्जुआयता जाव अद्ध मंते समोहया पुरच्चिमिद्धे चेव चरिमंते उववातिया तहेव चक्कवाला । उज्जुआयताएं सेढीए उववज्जमाणे एगसम-1 पुरच्छिमिझे चरिमंते समोहया पञ्चच्छिमिले चरिमंते नववाएग्णं विग्गहेणं उववजेज्जा । एगायो वंकाए सेढीए उब तेयव्वा । सव्वे अपज्जत्ता मुहुमपुढवीकाइएणं भंते ! सोवज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्नेज्जा । हो | गस्स पुरस्तिमिले चरिमंते समोहए समो० जे जविए लोबंकाए सेढीए नववज्जमाणे जे नविएं एगपयरंसि अणु गस्स उत्तरिझे चरिमंते अपज्जत्तमुहमपुढवीकाइयत्ताए उव० सेढ उववज्जित्तए सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । सेणं नंते ! एवं जहा पुरच्छिमिझे चरिमंते समोहओ दाजे भविए विसेढी उबवज्जित्तए सेणं चनसमझएणं विग्ग हिणिवे नववाइओ तहा पुरच्चिमि समोहओ उत्तरिये हेणं नववज्जेज्जा से तेणटेणं जाव उववज्जेजा । एवं अ चरिमंते नववाएयव्यो । अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयाणं पज्जत्तसहमपुढवीकाअो लोगस्स पुरच्छिमिद्धे चरिमंते समो जंते ! लोगस्स दाहिमिल्ने चरिमंते समोहओ जे हए लोगस्स पुरच्छिमिझे चेव चरिमंते अपज्जत्तएमु य भविए लोगस्स दाहिणिले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीसुहुमपुढवीकाइएम मुहुमाउकाइएमु अपज्जत्तएसु पज्ज काइयत्ताए नववज्जित्तए एवं जहा पुरच्छिमिये समोहओ तएसु सुहुमतेनकाइएमु अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य मुहु-| पुरच्चिमिद्धे चेव उववातिओ तहेव दाहिणिवे समोहओ मवाउकाइएमु य अपज्जत्तएसु पज्जत्तएमु य बादरवाउका तहेव दाहिणि चेव उववाएयचो तहेव गिरवसेसं जाव इएमु अपज्जत्तएमु य पज्जत्तएमु य सुहुमवणस्सइकाइएसु | सुहुमवणस्सकाइओ पज्जत्तो सुहुमवणस्सइकाइएमु चव अपज्जत्तएमु पज्जतएमु य बारसमु वि गणेसु एएणं चेव पज्जत्तएसु दाहिणिवे चरिमंते उववाइओ एवं दाहिणिवे कमेणं भाणियव्यो, सुहमपुढवीकाइओ पज्जत्तो एवं चेव | समोहओ पञ्चच्छिमिझे चरिमते उववाएयव्यो, णवरं दुसमगिरवसेसे वारससु वि गणेसु जववातेयव्यो ।श्वा एवं एएणं इए तिसमझए चउसमो विग्गहो सेसं तहेव दाहिणिवे गमएणं जाव सुहुमवणस्तइकाइओ पज्जत्तो । सुदुमवण-| समोहो नत्तरिझे चरिमंते नववाएयव्यो जहेव सहाणे तस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव जाणियव्यो ! अपज्जत्ता हेव एगसमय दुसमश्य तिसमइय चउसमइय विग्गहो पुरसुदुमपुढवीकाइयाणं जंते ! लोगस्स पुरच्छिमिझे चरिमंते चिमिझे जहा पचच्चिमिझे तहेव समइय तिसमइय पच्चसमोहए समोह जे भविए लोगस्स दाहिणिवे चरिमंते च्छिमिझे चरिमंते समोहयाणं पञ्चच्छिमिझे उववज्जमाणाणं अपज्जत्ता सुदुमपुढवीकाइएसु नववज्जित्तए से णं जंते ! जहा सहाणे उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विकइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! दुसमइ-| गहो णत्थि सेसं तहेव । पुरच्चिमिद्धे जहा सहाणे । दाहिएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उवव णिवे एगसमइओ विग्गहोणत्थि सेसं तहेव उत्तरिखे समोज्जति । से केणणं नंते ! एवं बुच्चइ एवं खलु गोयमा ! हयाणं नुत्तरिझे चेव उववज्जमाणाणं जहा सट्ठाणे उत्तरिले मए सत्तसढीओ पामत्ताओ, तं जहा उज्जुआयता जाव समोहयाणं पुरच्छिमिद्धे नववज्जमाणाणं एवं चेव णवरं अकचक्कवासा । एगो बंकाए सेढीए उववज्जमाणे 5- एगसमइओ विग्गहो पत्थि, उत्तारखे समोहयाणं दाहिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । दुहओ वंकाए सेढीए णि नवववज्जमाणाणं जहा सहाणे उत्तरिले समोहउववज्जमाणे जे भविए एगपयरंसि असेढी उववज्जि याणं पञ्चच्छिमिले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो तए सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । जे नविए | णत्थि सेसं तहेव जाव सुहुमवणस्सइकाइयो पज्जत्तो बिसढीओ उपज्जित्तए सेणं चउसमइएणं विग्गहेणं नवव- सुहुमवणस्सइकाइएमु पज्जत्तएस चेव । ज०॥ Jain Education Interational Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००१) निधानराजेन्द्रः | उववाय " अपज्जत्ता सुदुमेत्यादि" ( अहेलोयखेत्तणालोएति ) । अधोलोक्षणे त्रे या नामी त्रसनामी सा ऽधोलोक क्षेत्रनामी तस्या एव लोक क्षेत्रनाज्यपि ( तिसमश्णवति ) अधोलोक क्षेत्रनाड्या बहिः पूर्वादिदिशि मृत्वा एकेन नामीमध्ये प्रविष्टो द्वितीये समये करूँ गतस्तत एकप्रतरे पूर्वस्यां पश्चिमायां वा यदोत्पत्तिर्भवति तदा तु श्रेण्यां गत्वा तृतीयसमये उत्पद्यत इति । ( च समपणवत्ति) यदा नामघा बहिर्वायव्यादिविदिशि मृतस्तदैकेन समयेन पश्चिमायामुत्तरस्यां वा गतो द्वितीयन नामां प्रविष्टस्तृतीये कर्जे गतश्चतुर्थे तु श्रेण्यां गत्वा पूर्वादिदिश्युत्पद्यत इति । इदं च प्रायो वृत्तिमङ्गीकृत्योतमन्यथा पञ्चसामायिक्यपि गतिः सम्भवति यदाऽधोलोक कोणार्कोककोण एवोत्पत्तव्यं भवतीति । भवन्ति चात्र गाथाः । " सुप्ते वनसमयाओ, नत्थि गईओ परावि णिद्दिठा । जुज्जश् य पंचसमया, जीवस्स गई हो || १ | जो तमतमविदिसाए, समोहश्रो वंभलोगविदिसाए । उववज्जई गईए, सो नियमा पंचसमयाए ॥ २ ॥ वजयाय तेगबंका, डुओ बंका गई वि सिद्दिठा । जुज्जति यति चका, विनाम चच पंच समयाए ॥ ३ ॥ उवधाया नावाओ, न पंच समया ऽहवा न सत्तावि । नणिया जह चचसमया, मह बंधन सत्ताविति ॥ ४ ॥ " " अपजता वायरते उक्कारणमित्यादी" ( समरण वा तिसमश्रण या विग्गणं सववज्जेज्जति ) एतस्येयं भावना समयक्षेत्रादसावेकेन समयेनोई गतो द्वितीयेन तु नाड्या बहिर्दिध्यवस्थितमुत्पतिस्थानमिति । तथा समय क्षेत्रादेकेनोई याति द्वितीयेन तु नाड्या बहिः पूर्वादिदिशि तृतीयेन विदिध्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानमिति । अथ लोकचरमान्तमाश्रित्याह " अपज्जत्ता सुदुमपुढवी काईएणं भंते ! लोगस्सेत्यादि " । इह च लोकचरमान्ते बादराः पृथिवी कायिकाकायिक तेजोवनस्पतयो न सन्ति सूक्ष्मास्तु पञ्चापि सन्ति बादरवायुकायिकाश्चेति, पर्याप्ता पर्याप्तभेदेन द्वादश स्थानान्यनुसर्तव्यानीति । इह च लोकस्य पूर्वचरमान्तात् पूर्वचरमान्ते उत्पद्यमा स्यैकसमयादिका चतुःसमयान्ता गतिः सम्भवत्यनुश्रेणिविथेणिसम्भवात् । भ० ३४ श० १ ३० । [२०] पृथ्वी कायादीनां समचत्य देवलोकेषूत्पादः ॥ yaari जंते ! इम से रयणप्पनाए य सकरप्पनाए अंतरासमोर समोह लित्ता जे नविए सोहम्मे कप्पे पु इयत्ताए उववज्जित्तए से णं जंते ! किं पुव्वि उववज्जित्ता पच्छाहारेज्जा पुत्रि आहारिता पच्छा नववज्जेज्जा ? गोयमा ! पुत्रि वा उववज्जित्ता एवं जहा सत्तरस बहुद्देस जाव से ट्ठे गोयमा ! एवं बुच्चइ पुत्रि वा उववज्जेज्जा एवरं तेहिं संपाणिज्जा इमेहिं आहारो भष्म सेमं तं चैत्र । पुढवीकाइएवं जंते ! इमीसे रयणप्पभाए वीए सरप्पना पुढी अंतरा समोहए जे नविए ईसाणे कप्पे पुढवीकाइयत्ताए नववज्जित्तए। एवं चत्र जाव ईसि पन्नाराए उववायव्वो । पुढवीकाइएणं भंते ! सक्करपजाए बाबुयपनाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहाणित्ता जे विए सोहम्मे जाव ईसिप्पनाराए । एवं एएवं कमेणं जावतमा हेमतमाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहणिजे विए सोहम्मे कप्पे जान ईमिजाराए लववाए उवत्राय roat | पुढवीकाइएणं जंते! सोहम्मीसाणं सां कुमारमाहिंदाय कप्पाणं अंतरा समोहए समोहत्ता जे भविए इमीसे रयणपनाए पुढवीए पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए सें जंते ! पुवि उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा सेसं तं चैव जाव से गणं जाव लिक्खेव । पुढवीकाइएणं जंते ! सोहम्मीसागाणं सकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरासमोहए समाहता जे जरिए सकरप्पजाए पुढवीए पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए । एवं चैव एवं जाव असत्तमाए उववायव्वो । एवं सर्णकुमारमाहिंदाणं बंनलोगस्स कप्पस अंतरा समोह समोहइत्ता पुरणरवि जाव असत्तमाए नववा एयन्त्र । एवं वंजलोगस्स अंतगस्स य कप्पस्स अंतरासमोह पुणरवि जाव असत्तमाए एवं लंतगस्स महा कस्स कप्पस अंतरा समोहए पुणरवि जाव आहेसनमाए एवं महामुकस्स सहस्सारस्सय कप्पस्स अंतरा पुलरवि जाव आहेसत्तमाए, एवं सहस्सारस्म य आणयपाणयकष्पाणं अंतरा, पुणरवि जाव आहेसत्तमाए एवं प्राणयपाएयप्रारण अच्चुताण य कप्पाणं अंतरा, पुणरत्रि जाव समाए एवं आरण्यच्चुताणं । गेबेज्जगविमाणाणय अंतरा पुणरवि जाव आहे सत्तमाए एवं गेवेज्जगविमाला अत्तरविमाणाण य अंतरा पुणरवि जान असत्तमाए एवं अत्तरविमाणाएं ईसिप्पनाराए य पुरवि जाव असत्तमाए उववायव्वो । आउकाइए ते ! इमी से रयणप्पजाए य सकरप्पंजाए य पुढवीए - तरा समोहए समोहत्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आनुकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेसं जहा पुढवीकाइयस्स जाव से तेद्वेणं एवं पढमा दोच्चाणं अंतरा समोहओ जाव ईसिप्पनाराए जववायव्वो । एवं एएवं कमेणं जाद तमाए हे सत्तमाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहइत्ता जाव ईसिप्पन्नाराए उववायव्वो । उकाइयत्ताए आउकाइयाएणं भंते ! सोहम्मीसागाणं सगं कुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए समोहत्ता जे जविए इमीसे रयणप्पना पुढत्रीए घपोदघोलिएसु आउकाइयत्ताए नववज्जित्तए सेसं तं चैव एवं एएहिं चैव अंतरे समोहइत्ताओं जाव प्रहसतमा पुढची घणोदधिधरणोदधिवलएसु आउकाश्यत्ताए उFarmers, एवं जाव अणुत्तर विमाणाएं ईसिप्पभाराए पुढair तरासमोर जाव असत्तमाए घणोदधिघरणोदधिवलए उक्वायव्वो २ वाचकाइएणं जंते ! इमीसे रयणप्पा पुढवीए सकरप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहर समोढइत्ता जे जत्रिए सोहम्मे कप्पे वाडकाइयत्ताए उ जित्तए एवं जहा सत्तरसमसए वाउकाइय उद्देसएस तहा Ferri अंतरे समोहरणा वेयच्वो सेसं तं चैव जाव Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्वाय अभिधानराजेन्द्रः। उकवाय अणुत्तरविमाणाणं ईसिप्पभाराए य पुढवीए अंतरा स- ताव जववाइओ, एवं सोहम्मपुढविकाइओवि सत्तसु पुढमोहए समोहश्त्ता ने भविए घणवाततावातघणवातबलएसु वीसु उववाएयव्वो तहा जाव अहे सत्तमाए एवं जा वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेसं तं चव जाव से तेण- सोहम्मपुढवीकास्त्रो सन्चपुढवीसु नक्वाइओ एवं जाव ट्रेणं जाव उववजेजा। सेवं भंते ! भंते ! ति ।। वीसइ. ईसिप्पभारापुढवीकाइओ सबपुढचीसु नववाएयव्यो जाव मस्स बट्टो नदेसो सम्मत्तो ।। २० ॥६॥ अहेसत्तमाए सेवं नंते ! नंते !त्ति ( सत्तरसमस सत्तमो पञ्चमे पुलपरिणाम उक्तः षष्ठे तु पृथिव्यादिजीवपरिणामो उदेसो सम्मत्तो ।।१७ ॥७॥) आनकाइएणं ते ! इमीसे ऽभिधीयत इत्येचं सम्बम्स्यास्येदमादिसूत्रम् "पुढवीत्यादि" रयणप्पनाए पुढवीए समोहए समोहइत्ता जे जविए मोहम्मे ( एवं जहा सत्तरसमसए छुट्टवेसेत्ति)। अनेन च यत्सूचितं तदिदं "पुब्बि वा उववजित्ता पच्छा पाहारेज्जा पवि वा कप्पे आउकाइयत्ताए उववज्जित्तए एवं जहा पुढवीकाओ आहारित्ता पच्ग उववज्जेज्जेत्यादि"। अस्य चायमर्थः-यो- तहा आनकाइओवि सव्वकप्पेसु जाव ईसिप्पनागए तहव गेन्दुकसन्निभसमुद्धातगामी स पूर्व समुत्पद्यते तत्र गच्चती- नववाएयब्यो एवं जहा रयणप्पभा आउकाइओ नववाश्नो त्यर्थः पश्चादाहारयति शरीरप्रायोग्यान्पुद्गलान् गृहन् गृह्णाती तहा अहेसत्तमा पुढवी प्रानकाइओ उववाएयब्बो जाव त्यर्थः अत उच्यते (पुब्बि वा उववजित्ता पच्छा आहारज्जत्ति) सिप्पनाराए सेवं ते ! नंते ! त्ति ( सत्तरसमस्म अयः पुनरीमिकासनिभसमुदातगामी स पूर्वमाहारयति उत्पत्तिकेत्रे प्रदेशप्रकपणेनाहारं गृह्णातीति तत्समनन्तरञ्च प्राक्त ट्ठमो नसो सम्मत्तो ॥१७॥ ८॥) आनकायणं भंते ! नशरीरस्तु प्रदेशानुत्पत्तिकेत्रे संहरति अत उच्यते ( पुब्धि मोहम्मे कप्पे समोहए समोहएत्ता जे जविएश्मीसे रयणश्राहारित्ता पच्चा उघवज्जेज्जाति) विंशतितमशते षष्ठ उद्देशः। प्पनाए पुढवीए घगोदधिवल एसु आउकाइयत्ताए उववजिपुढवीकाझ्याणं भंते !श्मीसे रयणप्पजाए पुढवीए समोहए तर सेणं नंते ! सेसं तं चव एवं जाव अहे सत्तमाए जहा समोहइत्ता जे नविए सोहम्मे कप्पे पुढवीकाइयत्ताए उवव सोहम्मानकाओ एवं जाव सिप्पजाए आजकाइनो जित्तए से लेते ! किं पुब्धि नवन जित्ता पच्छा मंपाउणेज्जा जाव अहेसत्तमाए उववातेयव्यो सेवं ते! ते ! ति ॥ पुन्धि वा संपाउजित्ता पच्छा नववज्जेज्जा? गोयमा ! ( सत्तरसमस्स य णवमो नदेसो सम्मत्तो ।। १७ ॥६॥) पुब्बि वा उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा पुमि वा संपा वाचकाइएणं जंते ! श्मीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव जे नणेत्ता पच्छा उपवज्जेज्जा । सेकेण्डेणं जाव पच्छा। जविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए नववज्जित्तए से एणं नववज्जज्जा ? गोयमा ! पुढवीकाझ्याणं तओ समुग्घाया जहा पुढवीकाइओ तहा वानकायोवि णवरं वानकाइपरमत्ता तं जहा वेयणासमुग्याए कसायसमुग्याए मारणां- याणं चत्तारि समग्याया पामत्तातं जहा वेदणासमुग्याए जाव तियसमुग्याए । मारणांतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसणं वेनब्बियसमुग्याए मारणांतियसमुग्याएणं समोहणमाणे देवा समोहण सम्बेण वा समोहण, देसेण समोहणमाणे सेण वा समोहए ससं तं चव जाव अहे मत्तमा समोहयाओं पुब्धि संपाउणित्ता पच्छा नवज्जिज्जा सम्वेण समोहण सिप्पनाराए नववाएयव्वो सेवं ते नंते ! त्ति ( सत्तमाणे पुचि नक्वजिज्जा पच्छा संपाउणेज्जा से तेणटेणं | रसमस्स य दसमो नदेसो सम्मत्तो।। १७॥१०) वानकाइजाव नववज्जेज्जा । पुढवीकाइयाणं भंते ! श्मीसे रयण एणं नंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहएत्ता जे जविए प्पभाए पुढवाए जाव समाहए समोहएत्ता जे नविए साणे श्मीसे रयणप्पनाए पुढवीए घणवाए तणुवाए घणवायवलकप्पे पुढवी एवं चव ईसाणेवि । एवं अच्चुयगेवेज्जवि एमु तवायवलएसु बाउकाइयत्ताए नववज्जित्तए सेणं नंते ! माणे अत्तरविमाणे इसिप्पभाराए य एवं चैव पुढवीकाइ सेसं तं चेव एवं जहा सोहम्मकप्पवाउकाइओ सत्तमुवि याणं भंते ! सकरप्पनाए पुढवोए समोहए समोहएत्ता जेन. पुढवीसु उववाओ एवं जावईमिप्पनाए वाचकाइओ अहेविए सोहम्मे कप्पे पुढवीए एवं जहा रयणप्पनाए पुढवीका सत्तमाए जाव उववाएयव्चो सेवं ते! तेत्ति (सत्तरइओ नववाओ एवं सक्करप्पनाए पुढवीकाओ उववाए समस्स एक्कारसमो नद्देसो सम्मत्तो ।। १७ ॥११।) यो जाव ईसिप्पनाराए एवं जहा रयणप्पजाए वत्तव्बया (समोहएत्ति) समवहतःकृतमारणान्तिकसमुद्धातः (उववजिजणिया, एवं जाव अहे सत्तमाए समोहए ईसिप्पनाराए त्तित्ति) उत्पादक्षेत्रं गत्वा (संपाउणेज्जत्ति) पुमलग्रहणं कुर्यात् नववाएयत्रो सेवं जंते ! नंते ! ति ( सत्तरसमस्स उट्ठो जतव्यत्यय इति प्रश्नः (गोयमा पुविवाउववज्जित्तापच्छा संपाउ ।। १७॥६॥) पुढवीकाइएवं नंते ! मोहम्मे कप्पे समोहए ज्जत्ति) मारणान्तिकसमुद्धातानिवृत्य यदा प्राक्तनशरीरस्य समोहणित्ता जे जविए इमीसे स्यणप्पनाए पुढवीए पुढवी सर्वथा त्यागात गेन्दुकगत्योत्पत्तिदेशं गच्चति तदोच्यते पूर्वमुत्प द्य पश्चात्सम्प्राप्नुयात् पुलान् गृह्णीयात् आहारयेदित्यर्थः । काइयत्ताए उववज्जित्तए सेणं भंते ! कि सेसं तं चेव जहा (पुदिव वा संपाणित्ता पच्ग उववज्जति) यदा मारणान्तिकरयणप्पभाए पुढवीकाइओ सव्वकप्पेसु जान ईसिप्पनाराए समुदातगत एव म्रियते ईलिकागत्योत्पादस्थानं याति तदोच्य Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००३) उक्वाय अभिधानराजन्यः । उववाय ते पूर्व सम्माप्य पुफलान् गृहीत्वा पश्चात् उत्पयेत् प्राक्तनारी-| णिए नवर" मित्यादि । अथ कृष्णलेश्याविषयमुत्पत्ती सूत्रमाह। रस्थजीवप्रदेशसंहरणतः समस्तजीवप्रदेशरुत्पत्तिकत्रगतो भ- से नृणं नंते ! कएहलसे नेरपए कएहलेसेसु नरइएसुनवेदिति नावः (देसेण वा समोहण सम्वण वा समोरणा | ववज्जइ कराहलेस्सेसु उववट्ट जबेसे उववज्ज तल्लसे नवइत्ति) यदा मारणान्तिकसमुद्धातगतो म्रियते तदेलिकागत्योत्प- | वट्टइ ? हंता गोयमा ! कएहसेसु नेरइएस उववज्जा कत्तिदेशं प्रामोति, तत्र च जीवदेशस्य पूर्वदेह एव स्थितत्वात, देशस्य धोत्पत्तिदेशे प्राप्तत्वात, देशेन समवदन्तीत्युच्यते यदा एहलेसेसु जवबह जल्लेसे उववज्ज तल्लेसे नवव एवं तुमारणान्तिकसमुद्घातात्प्रतिनिवृत्तःसन् म्रियते तदा सर्वप्रदेश- नीललेसावि एवं कानलेसावि एवं असुरकुमाराणवि जाव संहरणतो गेन्बुकगत्योत्पत्तिदेशप्राप्ता सर्वेण समवहत इत्यु- थपियकुमारा णवरं तेनलेस्सा अन्नहिया ।।। च्यते तत्र च देशेन समवहन्यमान इशिकागत्या गच्चनित्यर्थः " से नूणं भंते" इत्यादि से शब्दोऽथव्दार्थःसचेद प्रश्ने नूनं पूर्व सम्प्राप्य पुमान् गृहीत्वा पश्चादुत्पद्यते, सर्वात्मनोत्पादक्के निश्चितमतत् भदन्त ! कृष्णलेश्यो नैरयिकः कृष्णलेश्येषु नैरआगच्छति ( सब्वेण समोहणमाणेत्ति)गेन्दुकगत्या गच्चन्नि यिकेषु मध्ये उत्पद्यते । तेभ्यश्च कृष्णलेश्येभ्यो नैरयिकेभ्य त्यर्थः पूर्वमुत्पद्य सर्वात्मनोत्पाददेशमासाद्य पश्चात् (संपानणे नद्वर्तमानः कृष्णलेश्य एवोद्वर्तते एतदेव निश्चयदायोत्पादज्जत्ति) पुलग्रहणं कुर्याद्विति । सप्तदशशते षष्ठः । १७ । ६। नार्थ प्रकारान्तरेणाह । यल्लेश्य उत्पद्यते तल्लेश्य उद्वर्तते न शेषास्तु (७1८1ए।१०।११। सुगमा पव) भ०१७०। लेश्यान्तरगत इति भगवानाह " हंता गोयमे" त्यादि हंते[२१] नैरयिकादयो नैरयिकादिष्पपद्यन्ते ॥ त्यनुमतौ अनुमतमेतत्मम। गौतम! कएहलेसेसुनेरश्पसु इ. नेरझ्याणं भंते नेरइएसु नववज्जइ अनेरइए नेरइएसुनव त्यादि । अथ कथं कृष्णलेश्यः सन् कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषत्पवजइ ? गोयमा ! नेरइए नेरइएस उववज नो अनेरइए | द्यते न लेश्यान्तरोपेतः उच्यते इह तिर्यक्पश्चेन्द्रियो मनुनेरइएमु नववज्जा एवं जाच वेमाणियाणं ।। प्योऽबद्धायुष्कतया नरकेषूत्पत्सुकामो यथाक्रमं तिर्यगायुषि अस्य चायमन्निसम्बन्धो द्वितीयोद्देशके नारकादीनां वेश्यापरि मनुष्यायुषि च साकल्येनाकीणेऽन्तर्मुहुर्तशेष यल्लेश्येषु नरकेसंख्यानमरूपबहुत्वमहर्किकत्वं चोक्तमिह तु तेषामेव नारकादि घूत्पत्स्यते तद्गतलेश्या परिणमति ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन परिजीवानां तास्ताः लेश्याः किमुपपातकेत्रोपपन्नानामेव भवन्ति उत णामेन नरकायुः प्रतिसंवेदयते तत उच्यते कृष्णलेल्यः कृष्णविग्रहेऽपीत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थ प्राक् तावन्नयान्तरमाश्रित्य लेश्येषु नरथिकेषूत्पद्यते न लेश्यान्तरयुक्तः। अथ कथं कृष्णमारकादिव्यपदेशं पृच्छति “नेरझ्याणं नंते ! नेरएसु उववजह लेश्य एवोद्वर्तते ? उच्यते देवनैरयिकाणां हि लेश्यापरिणाम अनेरइए नेरश्पसु वधज्ज" इति । इदं च प्रश्नसूत्रं सुगम श्राभवक्षयाद्भवति एतच्च प्रागेव प्रपञ्चत उपपादितमेवं नीभगवानाह गौतम ! नैरयिको नैरयिकेषूत्पद्यते नो नैरयिकोऽनै ललेश्याविषयं कापोतलेश्याविषयं च सूत्रं वक्तव्यमेवमसुरकुरयिकेषु कथमिति चेदुच्यते-इह यस्मानारकादिनवोपग्राहक मारादीनामपि स्तनितकुमारावसानानां वक्तव्यं नवरं तेजोलेमायुरेव न शेष तथा हि नारकायुष्युदयमागते नारकभवो श्यासूत्रं तत्राभ्यधिकमभिधेयं तेजोलेश्याया अपि तेषां भावात्। भवति मनुष्यायुषि मानुषनव इत्यादि ततो नारकाचायुर्वेदन अधुना पृथिवीकायिकेषु कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमाह ॥ प्रथमसमय एव नारकादिव्यपदेशं लभते पतञ्च ऋजुसूत्रनयद- से नूणं भंते ! कएलेसे पुढव काइए कण्हलेसमु पुढशन तथा च नयविद्भिः ऋजुसूत्रनयनिरूपणं कुर्वद्भिरिदमुक्तम्। वीकाइएसु उववज्जइ कण्हलेसे उववट्ट जलेसे उववज्जइ "पसालं न दहत्यग्नि-भिद्यते न घटः क्वचित् । नास्तित्वे निष्क- तोसे उववट्ट ? हंता गोयमा ! करहलेसे पुढविकाइए मोस्तीह, न च शून्यं प्रविश्यते ॥ नारकव्यतिरिक्तश्च, नरकेनोपपद्यते । नारकाधारकश्चास्य, न कश्चिद्विप्रमुच्यते ॥ १ ॥" कए हलेसेसु पुढविकाइएसु उववजइ, सिय कराहलेसे नश्त्यादि [एवं जाव वेमाणिए इति] एवं नैरयिकोक्तप्रकारेण ववट्ट सिय नीललेसे उबबट्टई सिय काउलेसे वववाद तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिको बमानिकविषयं सूत्रं तश्च सुगमत्वातू सिय जब्बेसे उववज्जइ सिय तल्लेसेसु उववट्टइ । एवं नीस्वयं भावनीयम् ॥ ललेसाकाउलेसामु वि । से नूर्ण भंते ! तेउलेसे पुढविकाअधुना उर्तनविषयं नैरयिकेषु सूत्रमाह ॥ इए तेउलेस्सेसु पुढविकाइएसु उववज्जइ पुच्छा हंता गोयमा! नेरइयाणं भंते नेरइए हितोउववट्ट अनेरइए नेरइएहितो तेउलेस्से पुढविकाइए तेउलेसेसु पुढविकाइएसु नववजय, नववट्टइ ? गोयमा ! नेरइए नेरइएहिंतो उववट्ट न अने- सिय कराहस्से उबवट्टइ सिय नीललेसे उबबट्टई सिय रइएनेरइएहितो उबवट्टइ एवं जाव वेमाणिए नवरं जोइ- | काउलेसे उववट्ट तेनलेसे नववज्जइ णो चेवेणं तेउलेसे सियवेमाणिएसु च यति अभिलावो कायव्वो॥ नववट्टः । एवं आउकाइयवस्सइकाइयादि । तेउवाऊ एतदपि ऋजुसूत्रनयदर्शनेन वेदितव्यं तथा हि परभ- एवं चेव नवरं एएसं तेउलेस्सा नत्थि । वितिचनरिंवायुष्युदयमागते तत उद्वर्तते यद्भवायुश्च उदयमागतं तेन दिया एवं चेव तिसुवि लेसासु । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया भवेन व्यपदेशो यथा नारकायुष्युदयमागते नरकभवे न नारक इति ततो नैयिकेन्यो नैरयिक एवोद्वर्तते तेन नैरयिक इति मणूसा जहा पुढविकाइया आदिबियासु तिमु लेसासु एवं चतुर्विंशतिदएडकक्रमेण तावत्सूत्रं वक्तव्यं यावद्वैमानिक भणिया तहा छसु वि लेसासु भाणियव्या नवरं छप्पिविषये च " चयह" इत्यादि अभिलापः कर्तव्यस्तभ्य उद्ध लेस्सा उच्चारेयव्वाो । वाणमंतरा जहा असुरकुमारा से तनस्य च्यवनमिति प्रसिद्धः । तथा चाह "एवं जाव वेमा- | नूणंभंते! तेउलेस्से जोइसिए तेउलेसेसु जोसिएसु उबवज्ज Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००५) अभिधानराजेन्द्रः । उबवाय इ जहेब असुरकुमाराणं । एवं वेमाणियाण वि नवरं दोएह वि चयतीति अभिलावो । से नूगं भंते! कएहलेसे नीललेसे नेरइए कहले से नीललेसेसु काउलेसेसु नेर:एस उववज्ज इकडलेसे नसे काउलेसे उववट्ट जलेसे जववज्जइ तसे वह ? हंता गोयमा ! कहले से नीलसे काउलेसेववज्जइ जसे नववज्जइ तसे उववट्टर से नूर्ण जंते ! कसे जा उसे सुरकुमारे कएहलेसेसु जाव तेनलेसेसु असुरकुमारेसु नववज्जइ एवं जहेब नेरइए तहा - सुरकुमारेवि जाव लियकुमारेवि । से नृणं जंते ! कहसे जाव तेलेसे पुढ विकाइए कएहलेस्सेसु जाव तेजलेस्से पुढ विकाइए नववज्जर, एवं पुच्छा जहा असुरकमाराणं ? हंता गोयमा ! कएहलेसे जाव तेजलेसे पुढ विकाइए कलेसेसु जाव ते लेसेसु पुढविकाइएस उववज्ज‍ सिय area से उags सिय नीलले से सिय काउलेस्से नववट्टर सिय जसे उववज्जइ तसे उबवट्टर तेजलेसे उववज्ज‍ नो चेवणं तेनलेसे ववहह । एवं आकाश्यवएस्सइकायावि जारिणयन्त्रा । से नूणं नंते ! कएहलेसे काउलेस्से नीलसेसे तेजकाइए कहलेसेसु नीललेसेस काउबसे सु dearer नववज्जइ एहले से नीललेसे काउलेसेस उवजलेसे उबवज्जइ तसे वह ? हंता गोयमा ! क एनकाउलेसे ते काइए कएहलेसेसु नीलकाजले से सु काइस वज्जर सिय कएहलेसे उववट्टर सिय नील लेसे सिय काउलेस्से नवबट्टई सिय जसे उववज्जइ तसे एवं वाकाइए बेईदिय तेइंद्रिय चरिंदियावि जाणिव्वा से नृणं जंते ! कएहसे जाव सुकलेसे पंचिदियतिरिक्खजो एक एहलेसेसु जाव सुकलेस्सेसु पंचिदियतिरिक्खजोएिएस उववज्जइ पुच्छा हंता गोयमा ! कहलेसे जाव सुक्कलेसे पंचिदियतिरिक्खजोणिए कहलेसेस जाव कसे पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु सिय कहले से Ears जाव सिय सुकलेसे उववहइ सिय जलेसे नववज्जइ तसे नवबट्ट एवं मणुसेवि । वाणमंतरे असुरकुमारे जोरमियमाणवि एवं चैत्र नवरं जस्स जलेसा दोएहवि चयांति जाणियव्वा ॥ से नृणं अंते इत्यादि । इढ तिरश्चां मनुष्याणां च लेश्यापरिणाम श्रान्तमौहूर्तिकस्ततः कदाचित् तवेश्य उद्वर्तते कदाचिवेश्यान्तरपरिणतोऽप्युद्वर्तते एषः पुनर्नियमो यल्लेश्येत्पद्यते स नियमतस्तश्य एवात्पद्यते " अंतमुद्दत्तम्मिगए अंतमुहसम्मिसेसर आओ। साहिं परिणयाहिं, जीवा वच्चति परलोय' मितिवचनात् । तत उक्तम् । " गोयमा ! कएडलेसे पुढविकाइए कण्डलेसेसु पुढचिकाइपसु नववज्जर लिय कण्डलेसे उबर इत्यादि" एवं नीललेइयाविषयं कापोतवेश्या विषयं च सूत्रं वक्तव्यम्। तथा भवनपतिष्यन्त रज्यौतिष्क सौधर्मेशानदेवाः तेजो For Private उववाय बेश्यान्तः स्वभावाच्च्युत्वा पृथिवी कायिके धूत्पद्यन्ते । तदा कियत्कालपर्याप्तावस्थायां तेषु तेजोलेश्याऽपि लभ्यते तत तु न भवति तथा भवस्वभावतया तेजो लेश्यायोग्यव्यग्रह राशतयसम्भवात्ततस्तेजोलेश्यासूत्रमुक्तम् । " तेउलेसे उववज्ज‍ नो वेव णं ते उसे से उचवट्टर इति " यथा च पृथिवी कायिकानां चत्वारि सूत्राण्युक्तानि तथा अष्कायिकवनस्पति कायिकानामपि वक्तव्यानि तेषामप्यपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यासम्भवात् तेजोवायुद्वित्रिन्चतुरिन्द्रियविषयाणि प्रत्येकं त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि तेषां तेजोलेश्याया असम्भवात् । पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका मनुष्याश्च यथा आद्यासु तिसृषु लेश्यासु पृथिवीकायिका उक्तास्तथा षट्स्वपि लेश्यासु वक्तव्याः परणामप्यन्यतमया लेइयया तेषामुत्पत्तिसम्भवात्पत्तिगत के कलेश्याविषयं चाहतेनायां णां विकल्पानां सम्भवात् । सूत्रपाठश्चैवम् "से नूणं नंते कलेस्से पंचिदियतिरिक्खजो णिपत्यादि" एवं नीलकापाततेजः पद्मशुक्ल लेश्या विषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि " वाणमंतरा जहा असुरकुमारा " इति " जलेसे उववज्जश् त से नववदृश् । इति " वक्तया इति सर्वदेवानां लेश्यापरिणामस्य आजवक्त्रयाद्भावात् एवं बेश्यापरिसंख्यानां परिभाव्य ज्योतिष्क वैमानिकविपयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि नवरं तत्र चयतीत्यभितपनीयं त देवमेकैकले इयाविषयाणि चतुर्विंशतिद एक कक्रमेण नैरयिकादीनां सूत्राणयुक्तानि । तत्र कश्चिदाशङ्केत। प्रविरलै कैकनार कादिविषयमेतत् सूत्रकदम्बकं यदा तु बहवो भिन्नलेश्याकास्तस्यां गतावुत्पद्यन्ते तदान्यथापि वस्तुगतिर्भवेदे कैक गतधर्मापेक्षया स मुदायधर्मस्य कचिदन्ययापि दर्शनात् ततस्तदा शङ्कापनोदाय येषां यावत्यो लेश्याः सम्भवन्ति तेषां युगपत्तावलेश्याविषयमेकैकं सूत्रमनन्तरोदितार्थमेव प्रतिपादयति " से नृणं भंते ! hupa से नीले काउलेसे नेरह करहले सेसु नीललेसेसु कानले सुनेरइएस उबवज्जर " इत्यादि । समस्तं सुगमम् ॥ प्रज्ञा० १७ पद | (२२) बेश्यावस्त्वेनोपपातः । जीव जंते ! जे जविए नेरइएमु नववज्जित्तए से एं जैते ! किं लेस्सेसु उववज्जइ ? गोयमा ! जं बेसाई दव्बाई परियाइत्ता कालं करे तसेसु जववज्जड़ तं जहा कएहलेसेसु वा नीलेसेसु वा कानलेसेसु वा एवं जस्स जा लेसा सा तस्स जाणियव्वा जाव जीवेणं ते! जे भविए जोड़सिएसु उववज्जित्तए पुच्छा ? गोयमा ! जलेसाई दव्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तलेसेसु उववज्जइ तं जहा तेजबेस्मे । जीवेणं जंते ! जे नविए बेमाणिएसु नववज्जितए से णं भंते! किं जेस्सेसु नववज्जइ ? गोयमा ! ज स्सा दव्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तसेसु उववज्जइ, तं जहा उसे सु वा पहलेसेसु वा सुकलेसेसु वा । जीवेणमित्यादि (जेभविपत्ति ) योग्य: ( किले सेसुति ) का कृष्णादीनामन्यतमा लेश्या येषां ते तथा तेषु किंलेश्येषु मध्ये ( जलेसाइंति ) या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि यस्या लेश्यायाः सम्बन्धिनीत्यर्थः । ( परियाइतत्ति ) पर्यादाय परि गृह्य भावपरिणामेन कालं करोति म्रियते तल्लेश्येषु नारकेषूत्पद्यते नवन्ति चाऽत्र गाथाः ॥ " सव्वादि साहि पढमे समयम्मि परिण्याहिं तु । नो कस्स वि उववाओ, परे नवे अस्थि Personal Use Only Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००५) नववाय अभिधानराजेन्द्रः । नववाय जीवस्स ॥१॥ सब्वाहि लेसाह, चरमे समयम्मि परिणयाहिं स्त्वेवमाह । किमवस्थित एव जीवो देशमपनीय यत्रोत्पत्तव्यं सु म वि कस्स वि नववाओ, परे भवे अस्थि जीयस्स ॥५॥ तत्र देशत उत्पद्यते अथवा देशेन सर्वत उत्पद्यते अथवा सर्वाअंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए वेध । असाहपरिणया- स्मना यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देश उत्पद्यते अथवा सर्वात्मना सर्वहिं, जीवागच्छति परलोयं" ।। चतुर्विशतिदएककस्य शेषपदा- प्रेति । एतेषु पाश्चात्यभङ्गी ग्राह्यौ यतः सर्वेण समप्रदेशव्यान्यतिदिशन्नाह ॥ एवमित्यादि ( एवमिति ) नारकसूत्रानियापे- पारेणलिकागतौ यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देश उत्पद्यते तद्देशन उनेत्यर्थः ( जस्सत्ति) असुरकुमारादेर्या लेश्या कृष्णादिका सा त्पत्तिस्थानदेशस्येव व्याप्तत्वात् कन्दुकगतौ वा सर्वेण सर्वत्रोलेश्या तस्याः सुरकुमारदेणितव्यति नन्वतावतैव विवक्ति- त्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानमिति । एतच टीकाकारव्याख्यानं तार्थसिके। किमर्थ नेदेनोक्तम् "जाव जीवेणं ते!"इत्यादि ? वाचनान्तरविषयमिति ॥ उच्यते, दएमकपर्यवसानसूत्रदर्शनार्थमेवं तर्हि वैमानिकसूत्र- नेरइयाणं भंते ! नेरइएहिंतो नववट्टमाणे किं देसेणं देसं मेव वाच्यं स्यान्न तु ज्योतिष्कसूत्रमिति? सत्यं किं तु ज्योति आहारेइ तहेव जाव सब्वेणं वा देसं आहारे सम्वेणं कवैमानिकाः प्रशस्तलेश्या एव नवन्तीत्यस्यार्थस्य दर्शनार्थ वा सव्वं आहारेइ १ एवं जाव वेमाणिया ।। ४ ।। नेरइतेषां भेदेनानिधानं विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति ।ज०३श०४ उ०। (२३) नैरयिका देशतः सर्वतो वा उपपद्यते ॥ एणं भंते ! नेरइएसु उववमे किं देसेणं देसं नववले एनेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे किं देसेणं देसं सोवि तहेव जाव सब्वेणं सव्वं उववो जहा उववज्जमाणे उववज्जइ १ देसेणं सव्वं नववज्जइ२ सव्वेणं देसं उवव- उववट्टमाणे य चत्तारि दंडगा तहा उववरले उव्वट्टणे वि ज्नइ ३सव्वेणं सव्वं उवव जइ ४ ? गोयमा ! नो देसेणं चत्तारि दंडगा भाणियव्वा सव्वेणं सव्वं उववम सम्वेण देसं उववज्जइ १नो देसेणं सव्वं उववज्जइ २ नो सब्वेणं वा देसं आहारेइ सव्वेणं सव्वं आहारेइ एएणं अभिलादेसं उववजा ३ सव्वेणं सव्वं उववज्ज ४ जहा नेरपए वेणं उववामे उबट्टेवि नेयव्वं । नेरइएणं भंते ! नेरइएम एवं जाव वेमाणिए १ नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववज्जमा उववजमाणे किं अद्धेणं श्रद्धं उववज्जइ अदेणं सव्वं णे किं देसेणं देसं पाहारेइ देसेणं सव्वं आहारेइ सम्बे) उववज्जइ सम्बेणं अद्ध नववज्ज सव्वेणं सव्वं उववज्जइ। देसं आहारेइ सम्बेणं सव्वं श्राहारेइ ? गोयमा!नो देसेणं जहा पढमिल्लेणं अस दंडगा तहा अद्धेण वि अट्ठ दंडगा देसं पाहारेइ नो देसेणं सव्वं आहारेइ सव्वेणं वा देसं भाणियव्वा, णवरं जहिं देसेणं देसं उबवज्जइ तहिं श्रद्धेणं आहारेइ सब्वेण वा सव्वं आहारेइ एवं जाव वेमाणिए श्रद्धं उववज्जइत्ति भाणियध्वं एवं णाणतं एवं सब्वेवि ।। नेरइएणं भंते ! नेरएहिंतो उववट्टमाणे किं देसेणं सोलस दंडगा भाणियव्वा ॥ उववट्टइ जहा उववजमाणे तहेव उववट्टमाणेवि दं-| उत्पादे चाहारक इत्याहारसूत्र तत्र देशेन देशमिति आत्मदेशेडगो भाणियचो॥ नाव्यवहार्यव्यदेशमित्येवं गमनीयम उत्तरम् । (सब्वेण वा दे(नेहपणं भंते ! नेरइएसु उववजमाणेत्ति) ननूत्पद्यमान एव समाहारेशत्ति ) उत्पत्त्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेशराहारपुरकथं नारक इति व्यपदिश्यतेऽनुत्पन्नत्वात्तिर्यगादिवत् इत्यत्रो लान् कांश्चिदादसे कांश्चिद्विमुञ्चति तप्ततापिकागततैलग्राहकच्यते उत्पद्यमान उत्पन्न एव तदायुष्कोदयादन्यथा तिर्यगा विमाचकापूपवदत उच्यते देशमाहारयतीति ( सवेण वाद्यायुकाभावाचारकायुष्कोदयेऽपि यदि नारको नासौ तदन्यः सव्वंति) सर्वात्मप्रदेशैरुत्पत्तिसमये आहारपुमनानादत्त एवं कोऽसाविति (किं देसेणं देसं उववज्जइत्ति) देशेन च देशं प्रथमतस्तैलभृततप्ततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते । सर्वमाहारयतीति उत्पादस्तदाहारेण सह प्रान्दण्डकान्यामुयदुत्पादनं प्रवृत्तं तद्देशेन देशं छान्दसत्वाचाव्ययोभावप्रतिरूपः तोऽथोत्पादप्रतिपक्वत्वाद्वर्तमानकालनिर्देशसाधर्म्याचोद्वर्तनादसमास एवमुत्तरत्रापि तत्र जीवः किं देशेन स्वकीयावयवेनन देशेन नारकावयविनोऽशतयोत्पद्यते। अथवा देशेन देशमाश्रि एककस्तदाहारदएमकेन सह तदनन्तरञ्च नोद्वर्तनाऽनुत्पन्नस्य त्योत्पादयन्वेति शेषः एवमन्यत्रापि तथा (देसेण सव्वंति) देशे स्यादित्युत्पन्नतदाहारदएमकावुत्पन्नप्रतिपकत्वाश्चोत्ततदादानच सर्वेण च यत्प्रवृत्तं तद्देशन सर्व तत्र देशेन स्वावयवेन स रदण्मकाविति । पुस्तकान्तरे तु उत्पादतदाहारदएमकानन्तर मुत्पादे सत्युत्पन्नः स्यादित्युत्पन्नतदाहारदएकी ततस्तूत्पादर्वतः सर्वात्मना नारकावयक्तियोत्पद्यत इत्यर्थः । श्राहोस्थिसर्वेण सर्वात्मना देशतो नारकांशतयोत्पद्यते अथवा सर्वेण प्रतिपक्वत्वाद्धर्तनाया गवर्तनातदाहारदएमको,उद्वर्तनायाञ्चोसर्वात्मना सर्वतो नारकतयेति प्रश्नः। अत्रोत्तरम्-न देशन हृत्तः स्यादित्युत्ततदाहारदएमको कण्ग्याश्चैत इति एवं तादेशतयोत्पद्यते यतो न परिणामिकारणावयवेन कार्यावयवो वदशानिर्दएमकैर्देशसर्वाभ्यामुत्पादादिचिन्तितमथाटाजिरेवार्द्धनिर्वय॑ते तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशवत् । यथाहि पटदेशभू सर्वाच्यामुत्पादाघेव चिन्तयन्नाह (जहा पढमिलेणंति)। यथा तेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वय॑ते तथा पूर्वावय. देशेन ननु देशस्यास्य चको विशेष उच्यते देशस्त्रिधादिविप्रतिबद्धेन तद्देशनोत्तरावयविदेशो न निवर्त्यत इति भावः । रनेकधा त्वेकधैवेति । ज० । (गर्भगतस्य मृत्वा नरकेषूतथा न देशेन सर्वतयोत्पद्यते अपरिपूर्णकारणत्वात्तन्तुना पट त्पादो गम्भ शब्दे) इवेति । तथा न सर्वेण देशतयोत्पद्यते सम्पूर्णपरिणामिकार (२४) गर्भगतस्य मृत्वा देवघुत्पादः॥ णत्वात्समस्तघटकारणैर्घटैकदेशवत् सर्वेण तु सर्ष उत्पद्यते जीवणं ते ! गन्जगए समाणे नेरइएमु नववज्जेज्जा ? पर्मकारणसमवायात् घटवदिति चूर्मिव्याख्या। टीकाकार- गोयमा! अत्थेगइए. उववज्जेज्जा अत्यगइए नो उववज्जे Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उखवाय अनिधानराजेन्छः। उवाय जजा से केणणं ? गोयमा ! सेणं सम्मी पंचिदिए सव्याहिं पुलपिवासिए सग्गपिवासिए मोक्खपिवासिए तश्चित्ते तपज्जनिएहिं पज्जत्तए वीरियलबीए वेउब्बियनसीए प- | म्मणे तसे तदवासिए तदोवनत्ते तदप्पियकरणे तराणोयं आगयं सोच्चा निसम्म पएसे निच्चुजइ, वेउब्धिय- ब्जावणाभाविए एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्जा देवझोसमुग्याएणं समोहण समोहणइए चाउरांगिणीए सेणाए एसु उववज्जइ से तेण्डेणं गोयमा ! विउव्वइ विउच्चइत्ता चानरंगिणीए सेणाए पराणीएणं ( तहारुवस्सत्ति) तथाविधस्य उचितस्येत्यर्थः श्रमण स्य साधोः वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वम्प्रति श्रमणमाह । न सकि संगाम संगामेइ सेणं जीवे अत्थकामए रज्जकामए वचनयोस्तुल्यत्वप्रकाशनार्थः (माहणस्सति) मा हनेत्येवमादिजोगकामए कामकामए अत्थकंखिए रज्जकंखिए जोगकं शति स्वयं स्यूबप्राणातिपातादिनिवृत्तत्वाद्यः समाहनः । अथवा खिए कामखिए अत्यपिवासिए रज्जपिवासिए जोगपि- घणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावात् ब्राह्मणो देशविरतस्तस्य वा वासिए कामपिवासिए तश्चित्ते तम्मणे तल्लेस्से तदन्फवसि. (अंतिएत्ति ) समीपे एकमप्यास्तामनेक आर्यमराद्यातं पापए तत्तिव्यावसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्जावणा कर्मभ्य इत्यार्यम्। अत एव धामिकमिति (तत्ति ) तदनन्त रमेव (संवेगजायसवेत्ति ) संवेगेन भवनयेन जाता श्रका श्रनपिए एवंसि णं अंतरंसि काझं करेज्ज नेरइएमु उवबजइ द्धानं धर्मादिषु यस्य स तथा (तिब्वधम्माणुरागरत्तेनि) तीवो से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव अत्यगए नो नववज्जेज्जा ।। | यो धर्मानुरागो धर्मबडमानस्तेन रक्तश्च यः स तथा (धम्मगर्भ गतः सन् गृहीत्वेति शेषः (पंचिंदिपत्ति) स गनों राजादि- कामपत्ति) धर्मः श्रुतचारित्रवकणः पुण्यं तत्फलभूतंशुभकम्मति ॥ गर्नरूपः संशितादिविशेषणानि च गर्नस्थस्यापि नरकप्रायोग्य- ज०१।०७२० । स्था० ॥ तं०॥ कर्मबन्धसंत्रवान्निधायकतयोक्तानि वीर्यबष्या वैक्रियाध्या (२५) कुतो देवा देवलोकेषूपपद्यन्ते ॥ संग्रामयतीति योगः अथवा वीर्यब्धिको वैक्रियवाधिकश्च स तएणं ते समणोवासया थेराणं जगवंताणं अंतिए धर्म निति परानीकं शत्रुसैन्यम् (सोश्चसि) आकर्य निदाम्य मनसाध्यधार्य (पएसे निच्चभत्ति) गर्नदेशाद्वहिः विपति (समो सोचा निसम्म हहतुट्ट जाव हियया तिक्खुत्तो आयाहीहणशत्ति) समबदन्ति समवहतो जवति तथाविधपुमलग्रहणा मयाहीणं करेंति करेइना एवं वयासी संजमेणं नंत! किं थे संग्राम संग्रामयति युकं करोति (अस्थकामएश्त्यादि ) अर्थे फले, तवेणं नंते ! किं फझे ? तएणं थेरा जगवंतो ते सअव्य कामो वाञ्चामात्रं यस्यासावर्थकाम एवमन्यान्यपि विशे- मणोवासया एवं बयासी संजमणं अजो अणण्हयफन्ने षणानि, नवरं राज्यं नृपत्वं भोगा गन्धरसस्पर्शाः कामौ शब्दरू तएणं ते समणोवासया थेरे जगवंते एवं वयामी जइणं पे कान गृहिरासक्तिरित्यर्थः । अर्थकाला संजाताऽस्येति अर्थकाशितः। पिपासेव पिपासा प्राप्तेऽप्यर्थे ऽतृप्तिः ( तश्चित्तेत्ति)। नंते ! संजमे अणएह फल्ने तवे वोदाणफन्ने किं पत्तियं तत्रार्थादी चित्तं सामान्योपयोगरूपं यस्यासो सचिसः [ तम्मणे- | जते । देवा देवस्रोएसु नववज्जति ? तत्थणं कालियपुत्ते त्ति] तंत्रयार्थादौ मनो विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः[त- णाम अणगारे थेरे ते समणोवासए एवं बयासी पुव्वतलेसेत्ति ] बेइयात्मपरिणामविशेषः। [ तदज्वसिपत्ति] | वेणं अज्जो देवा देवस्रोएसु नववज्जति तत्थ णं महिलेइहाध्यवसायोऽध्यवसितम् तत्र तश्चित्तादिभावयुक्तस्य तस्मिन्नथांदावेवास्यवसितं परिभोगक्रियासंपादनविषयमस्येति तदध्य नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी पुन्चमंजमणं अवसितः [तत्तिव्यमज्जवसाणेत्ति ] तस्मिन्नेवार्थादो तीप्रमार-- ज्जो देवा देवलोएमु उववज्जति तत्थणं आणंदरक्खिए नाम मनकालादारज्य प्रकर्षयापि अध्यवसानं प्रयत्नविशेषनवणं यस्य थेरे ते समणोवासए एवं वयामी कम्मियाए अज्जो देवा स तथा [तदोवउत्तेत्तिस तदर्थमर्यादिनिमित्तमुपयुक्तो ऽवहि देवलोएमु नववज्जति तत्थ णं कासवे नाम थेरे ते समणोतस्तदर्थोपयुक्तः [तप्पियकरणेत्ति तस्मिन्नेवादावर्पितान्या वासए एवं वयामी संगियाए अज्जो देवा देवलोएमु उवहितानि करणानीन्द्रियाणि कृतकारितानुमतिरूपाणि वा येन स तथा [तम्भावणानाविपत्ति] असकृदनादिसंसारे तद्भावनयाs वजंति पुब्बतवेणं पुबसंजमेणं काम्मयाए संगियाए अज्जो दिसंस्कारेण भावितो येः स तथा [एयंसिणं अंतरसि ति] देवा देवलोएसु उवत्रज्जति सच्चेणं एस अट्टे नो चेवणं आप.तस्मिन् संग्रामकरणावसरे कालं मरणमिति ॥ यनाववत्तव्ययाए । तएणं ते समणोवासया थेरेहिं जगवंजीवेणं भंते ! गम्भगए समाणे देवस्रोगेसु नववजेज्जा ? तेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरिया समाणा हप्तहा गोयमा अत्येगइए जक्कज्जेज्जा अत्यगए नो नववज्जेज्जा येरे भगवंते बंदंति मंसंति वंदश्त्ता समसत्ता पसिणाई से केणटेणं ? गोयमा ! से एं सामी पचिंदिए सव्वाहिं पुच्चंति अढाई उचाहियंति उट्ठाए नटुंति थरे जगवंते तिपज्जत्तीहिं पज्जत्तए तहारू वस्स समणस्स वा माहणस्स क्वुत्तो जाव बंदंति मंसंति वंदत्ता समसित्ता थेराणं न. वा अंतिए एगमावि आरियं धम्मियं मुवयणं सोचा निसम्म गवंताएं अंतियाओ पुष्फवईयाओ चेझ्याओ पमिनिक्खमंति नो जवा संवेगजायसवे त्तिव्वधम्माणुरागरने सेणं जीवे । पमिनिक्खमइत्ता जामेव दिसं पानब्तूया तामेव दिसंपमिधम्मकामए पुस्तकामए सग्गकामए मोक्खकामए धम्मकं- गया तपाणं ते थेरा जगवंतो अम्लया कयाई तुंगियाओ नखिए पुतमकंखिए मग्गकंखिए योरवकखिये धम्मपिनासिए । यरीओ पुष्फवइयाओ चेइयाओ पमिनिग्गच्छति पमिनि Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००७) श्रभिधानराजेन्द्रः । उववाय गच्छत्ता वहिया जाणत्रयविहारं विहरति तेणं काक्षेणं तें समरणं रायगिहि नामं नयरे जाव परिसापरिगया तेां का लेणं तेणं समयं समस्त जगत्रओ महावीरस्स जेडे अंतेवासी इंदणामं गारे जाव सखित्तविउझतेउझेस्से निक्खिणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा - aari जावेमा विहरइ तए णं से जगवं गोयम बक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्जायं करेइ बीयाए पोरिसीएज्जाणं क्रियाएइ तझ्याए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंमुहपोतियं परिले पहिले हेइत्ता जायणाई वत्थाई पडिले परिता जायलाई पमज्जइ पमज्जइत्ता जायलाई उग्गाहेर उग्गाहेश्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे तेणेव जवागच्छइ उवागच्छत्ता समणं जगवं महावीरं वंद एसइ बंदइत्ता एसइत्ता एवं क्यासी इच्छामि एणं जंत ! तुज्जेहिं अन्नपाए समाणे छडक्खमणपारण्यंमि रायगिहे नगरे उच्चनीयमज्जिमाई कुलाई घरसमुदायस्स जिक्खायरियाए अमित्त ग्रहासुहं देवाप्पिया मा परिबंध जगत्रं गोयमे ! समणेणं जगवया महावीरेणं अन्भणुपाए समाणे समणस्स जगवओो महावीरस्स अंतियाओ गुण सिलाओ चश्याओ पडि निक्खमइ पकिनिक्खमइत्ता - तुरियमचत्रझम संजंते जुगमंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओरियं सोहेमाणे सोहेमाणे जेणेव रायागढे नयरे तेऐव उवागच्छइ उवा गच्छत्ता रायगिहे नयरे उच्चनीयमज्जिमाई कुलाई परघरसमुदाणस्स निक्वायरियं श्रम एवं से जगवं गोय रायगिहे नयरे जाव प्रमाणे बहुजण सदं निसामे एवं ख देवाप्पिया तुंगियाए नयर रीए बहिया फवईया चेहयाए पासा बच्चिज्जा थेरा जगतो समोहिं माई यारूबाई वागरणाई पुच्छिया संजगेणं भंते! किं फले, तवे किं फंझे ? तए एां थेरा भगवंतो समोवासए एवं वयासी संजमेणं अज्जो अण एहय फले तवोदाफले तं चैत्र जाव पुव्वतवेणं पुव्वसंजमेर कम्मियाए संगियाए जो देवा देवलोएस उववज्जंति सच्चे एसमट्ठे को चेत्र णं आयभाववत्तव्त्रयाए से कहमेयं मन्त्रे एवं ? तर भगवं गोयमे ! इमीसे कहाए लट्ठे समा जायसढे जाव समुप्पन्नको हल्ले अहा पज्जत्तं समुदाणं गिरहइ गिरहइचा रायगिहाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ तुरिय जात्र सोहेमाणे जेणेव गुसिलए चेइए जेणेव समशे जगवं महावीरे तेथेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता समरणस्स भगवओ महावीरस्स दूरसामंते गमागमणाए पडिकमइ एसएमसरणं श्रालोएइ भत्तपाणं पडिदंसेइ २त्ता सम भगवं महावीरं जाव एवं वयासी एवं खलु भंते! अहं तु भेहिं पाए समाणे रायगिहे नगरे उच्चनीयम नववाय ज्झिमाणि कुलाणि घरसमुद्राणस्स भिक्खायरियाए - डमाणे बहुजणसद्द निसामेइ एवं खलु देवाणुप्पिया तुंगियाए नगरीए बहिया पुप्फवईए चेइ पासावचिज्जा येरा भगवंतो समोवास एहिं इमाई एयारूबाई बागरणाई पुच्छिया संजमे भंते! किं फले, तवे किं फले १ तं चैव जाव सच्चेणं एसमडे णो चैव आयभाववतन्त्रयाए तं प्रभूणं मंते ति थेरा भगवंतां तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूबाई बागरणाई बागरेचए । उदाहु अप्पभूसमियाणं भंते ! ते घेरा भगवंतो तेसिं समोवासयाणं इमाई एयारूबाई वागरणाई वागरेत्तए । उदाहु असमिया आउज्जियाणं भंते ! ते- थेरा भगवंतो तेसिं समरणोवासयाणं इमाई एयारूवाई बागरणाई वागरित्तए । उदाहुणा उज्जिया पालिउज्जियाणं भंते ! ते थेरा जगवंतो तेसिं समरणो वासयाणं इमाई एयारूबाई वागरपाई बागरेचए । उदाहु अाउज्जिया पनि उज्जियाणं जंते ! येरा जगवंतो तेर्सि समणोवासयाणं इमाई एयारूबाई वागरणाई बागरेच उदाहु अपलिज्जिया पुव्वतवेणं अजो ! देवा देवलास उववज्र्ज्जति पुब्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए जो देवा देवलोएसु उववज्जंति, सच्चेणं एसमडेपो चेव आयाववत्तव्त्रयाए पत्नू गोयमा ! ते थेरा भगवंतो सिं समोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तर यो अप्पन तह चेव नेयव्वं अवसे सियं जाव पनूसमियं उज्जिय पलिउज्जिय जाव सच्चेणं एसमट्ठे सो चैत्र यायाववत्तव्ययाए अहं पिणं गोयमा ! एवमाक्खामिजासेमि पनवे मि परूबे मि पुव्वतत्रेणं देवा देवलोपनु नववज्जेति पुत्रसंजमेणं देवा देवझोएस नववज्र्ज्जति कम्मियाए देवा देवलोएस उववज्र्ज्जति संगियाए देवा देवलोएनु उवत्रज्जति पुव्वतां पुत्रसंजमे कम्मियाए संगियाए अज्जो देवा देवओोएस जववज्र्ज्जति । सचें एसमट्ठे णो व आयनाववत्तव्वयाए || तपणं समोवासया इत्यादि [अखण्डयफलेप्ति ] न आश्रवोऽना ध्रुव इति पाठोऽपि दृश्यते अनाश्रवो नवकर्मानुपादानं फलमस्येस्थनाश्रवफलः संयमः (वोदाणफलेत्ति) दाप्लवने अथवा देण्ड़ो धने इति वचनात् व्यवदानं पूर्वकृतकर्म्मवनगहनस्य सवनं प्राक् कृतकर्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य तयवदानफलं तप इति । ( किं पत्तियंति ) कः प्रत्ययः करणं यत्र तत्किम्प्रत्ययं निष्कारणमेव देवा देवलोकेषूत्पद्यन्ते तपःसंयमयोरुक्तरीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः (पुव्वतघेणंति ) पूर्वतपःसरागावस्थाभावि तपस्या वीतरागावस्थापेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालनाविस्वात् एवं संयमोऽपि प्रयथाख्यानचारित्रमित्यर्थः ततश्च सरागकृतेन संयमेन तपसा च देवत्वावाप्तिः रागांशस्य कर्म्मबन्धहेतुत्वात् (कम्मियापत्ति) कर्म विद्यते यस्मासौ कर्मी तनावस्तता तथा कम्तिथा । श्रन्ये त्याहुः । कर्म्मणां विकारः कामिका तया अक्षीणेन कर्म्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः ( संगियापत्ति ) सो यस्यास्ति स सङ्गी तद्भायस्तता तथा संगितया व्यादि Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय अन्निधानराजन्छः। उववाय पु सत्सङ्गी हि संयमादियुक्तोऽपि कर्म बन्नाति ततः सङ्गित- विनृसिए से णं पुरिसे पासादीए जाब पफिरूवे जे वा से पु. या देवत्वावाप्तिरित आहच"पुव्वतवसंजमो होति,एगिणो पच्चि रिसे अणलंकियवितसिए से णं पुरिसे णो पासादीए जाव मा अरागस्स । एगो संगो वुत्तो, संगाकम्मं भवो तेणं" ॥१॥ सम्वेणमित्यादि ॥ सत्योऽयमर्थः कस्मादित्याह"नो चेवणमि यो पमिरूवे से तेण्डेणं जाव णो पडिरूवे दो जंते! णागकुत्यादि " नैवात्मनाववक्तव्यतयाऽयमर्थः आत्मन्नाव एव स्वाति- मारा देवा एगसि णागकुमारा वासंसि एवं चेव एवं जाव थप्राय एव न वस्तुतत्वं वक्तव्यो वाच्योऽभिमानाधेषां ते आत्म-| णियकुमारा वाणमंतरजोइसियवमाणिया एवं च । भाववक्तव्यास्तेषां भाव आत्मन्नाववक्तव्यता अहंमानिता तया न दो नंते ! इत्यादि [वेठब्वियसरीरत्ति ] विभूषितशरीराः भवयमईमानितयैवं बमोऽपि तु परमार्थ एवायमेवंविध इति भाव- नन्तरमसुरकुमारादीनां विशेष उक्तोऽथ विशेषाधिकारादिदमाह ना ( अतुरियंति) कायिकत्वरारहितम् (अचवबंति) मान- (२७) नैरयिकानैरयिकेषु उपपन्नास्तेषु कश्चिदल्पतरोऽपरो सचापनरहितम् ( असंनंतेत्ति ) असंत्रान्तज्ञानः (घरस महावेदनतरः॥ मुदाणस्स ) गृहेषु समुदानं भैक्षं गृहसमुदान तस्मै गृहसमु- दोजते गरइया एगंसि ऐरझ्या वासास गरक्ष्यत्ताए उवदानाय (भिक्खासमायारपत्ति) निवासमाचारेण (जुगंतरप वरमा तत्थ णं एगे ऐरइए महाकम्मतराए चेव जाव महावलोयणापत्ति) युगं यूपस्तत्प्रमाणमन्तरं स्वदहेदेशस्य दृष्टिपात यणतराए चव । एगणेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेदेशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया यणतराए चेव से कहमेयं ते! एवं ! गोयमा! परइया दुरया (रियंति) र्यागमनं (सेकहमेयं मो एवंति) श्रथ कथमेतत् स्थविरवननं मन्ये इति वितर्कार्थों निपातः एवममुना विहा परमत्ता तं जहा मायी मिच्चदिही उववमगाय अमायी प्रकारेणेति बहुजनवचनम् ( प्रचूणंति ) प्रनवः समर्थास्ते सम्मट्ठिी नववामगा य तत्थ णं जे से मायी मिच्छविट्ठी उब(समियाणंति) सम्यगिति प्रशंसार्थो निपारास्तेन सम्यक्ते वमए गरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए व्याकर्तु वर्तन्ते अविपर्यासास्त इत्यर्थः। समश्चन्तीति वा सम्यञ्चः चेव तत्थ णं जे से अमायी सम्मट्ठिी उववाए णरए से समिता वा सम्यक प्रवृत्तयः श्रमिता वाज्यासवन्तः (श्राउजि णं अप्पकम्मतराए चेव अप्पवेयणतराए चेव दो नंते ! बत्ति) आयोगिकाः उपयोगवन्तो ज्ञानिन इत्यर्थः जानन्तीति - भावः (पवितजियत्ति ) परि समन्तात् योगिकाः परिशानिन सुरकुमारा एवं चेव । एवं एगिदियविगलिंदियवज्जंजाव वेइत्यर्थः परिजानन्तीति भावः । न०१ श०५ उ० । “पुण्यपापा- माणिया । भावे सव्यहा अपरिक्खीणकम्मे पुनानावे देवेसु केण हेचणा - दोभंते ! नेरश्येत्यादि [महाकम्मतराए चेपत्ति] शह यावत्कववज्जंति" एवं चोदकेणोक्त आचार्य आह । गाहा। "पुवतवसं- रणात् “महाकिरियतराए चेव महासत्वतराए चेवत्ति" दृश्य जमा होति, रागिणो पच्छिमा अगारस्स । रागो वुत्तो संगो, सं- व्याख्या चास्य प्राग्वत (एगिदियविनिदियवज्जति) इहैकेन्छिगाकम्मं भयो तेणं" | निचू०११००(जीवेणं भंते ! जे जविए। यादिवर्जनमेतेषां मायिमिथ्यादृष्टित्वेनामायिसम्यग्दृष्टिविशेष-- नेरपसु नववजित्तए से णं नंते ! किं श्ह गए ऐरश्याउयं प- णस्यायुज्यमानत्वादिति। करेऽत्तिआउशब्दे उक्तम् ) धावसुरकुमारौ कोपपद्यते ॥ (२०) प्राग्नारकादिवक्तव्यतोक्ता ते चायुष्कप्रतिसंवेदनावन्त (२६) सहोपपन्नयोरसुरयोः शोन्ननाशोन्जनत्वम् ॥ इति तेषां तां निरूपयन्नाह ॥ रझ्याणं भंते ! अणंतरं नव्याट्टित्ता जे जविए पंचिंदिदो भंते ! असुरकुमारा एगंसि अमुरकुमारावासंसि असु यतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! कयरं रकुमारदेवताए उववस्या तत्थणं एगे असुरकुमारे देवे पासा आउयं परिसंवेदेइ ? गोयमा ! ऐरइयानयं पडिसंवेदेइ दीए दरसणिज्जे अनिरूवे पझिरूचे एगे असुरकुमारे देवे से पंचिंदियतिरिक्खजोणियानए से पुरो कडे चिट्ठइ। णं णो पासादीए णो दरसणिज्जे णो अभिरूचे णोपभिरूवे एवं मणुस्से वि णवरं मणुस्सानए से पुरओ कडे चिट्ठ सेकहमेयं ते! एवं? गोयमा! असुरकुमारा देवा दुविहा असुरकुमाराणं भंते ! अणंतरं उबट्टित्ता जे भविए पुढपपत्ता तं जहा वेउब्वियसरीरा य अवेउब्वियसरीराय तत्थ वीकाइएसु उववज्जित्तए पुच्छा गोयमा ! असुरकुमाराउयं णं जे से वेनव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए पमिसंवेदेइ पुढवीकाझ्याउए से पुरओ कडे चिट्ठइ एवं जो जाव पभिरूवे तत्थ एंजे से अवेनबियमरीरे असुरकुमारे जहिं भवियो उववजित्तए तस्स तं पुरो कर्ड चिट्ठति देवे से णं णो पासादीए जाव णो पभिरूवे से केणटेणं भंते ! तत्व विभो तं पडिसंवेदेइ जाव वेमाणियाणं णवरं पुढवीएवं वुचइ तत्थ णं मे से वेठब्धियसरीरे तं चव जाव णो प- काओ पुढवीकाइएसु उववज्जति पुढवीकाइयाउयं पमि संवेदेश अमेय से पुढवीकाइयाउए पुरओ कडे चिट्ठा एवं मिरूवे ? गोयमा! से जहाणामए इह मणुस्सनोगसि पुचे जाव मणुस्सो सहाणे उववातेयव्चो परहाणे तहेव ॥ पुरिसा भवंति एगे पुरिसे अखंकियविनासए एगे पुरिसे एतच्च व्यक्तमेव ।। भ०१८ श. ५ उ०। (पूर्वमायुःसंवेदअणलंकियविनूसिए एएसिणं गोयमा ! दोएई पुरिसाणं नतोक्ता अथ तद्विशेषवक्तव्यता विउव्यणा शब्दे) कयरे पुरिसे पासादीए कयरे पुरिमे को पासादीए जाव को (२) रत्नप्रभायां सर्वे उपपन्नपूर्वा । पमिरूवे जे वा से पुरिसे अड़कियविनृसिए जे वा से पुरिसे | किं सव्वपाणा नपवमपुव्वा ? हंता गोयमा ! असतिं अणनंकियविनसिए ? भगवंतत्य जे से पुरिसे अतंकिय- | अदुवा अतखुनो। Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००९) अभिधानराजे षः । उबवाय किं सव्वपाणा इत्यादि श्रस्य चैवं प्रयोगः । अस्यां रत्नप्रभाषा शिक्षक लक्षेषु सर्वे प्रासादय उत्पन्न अस रम् (असत) असदका बेलाइयादावपि स्था दो बाहुल्यप्रतिपादनायाह (अपार) अथवा अ तखुत्तोति) अनन्तकृत्योऽनन्तवाराम् ( भ०२ श० ३३० ) "तपणं से महवले अणगारे धम्म घोसस्स श्रण्गारस्स अंतिए सामाइपमाइया बाई हिज्जा" इत्यादि के महाबलस्योपपात महम्बल शब्दे इह च किल चतुर्दश पूर्वधरस्य जपन्यतोऽपि सन्तके उपपात उच्यते "जाति तगाश्रो चोइसपुण्वो जहा उववाश्रांति " वचनः देतस्य च चतुर्दशपूर्वरस्यापि यद् प्रलोके उपपात उगा मनाग्विस्मरणादिना प्रकारेण चतुईशपूर्वाणामुपरि पूर्णत्वा दिति सम्भावयन्तीति भ० ११ श० ११ उ० । ( गुणस्थानकेधूपपातो गुणद्वारा शब्दे मार्गास्थानकं जीवासादिशब्देषु) (२०) अपराधितमयी देवलोके पपपद्यते ॥ भंते! असंजयन वियदव्वदेवाणं विराहियसंजमाणं विराहियसंजमा अविराहियसंजमा संजमाणं विराहियसेजमा संजमारणं असमीरणं तावसाणं कंदपियाणं चरगपरव्यायगाणं कव्विसिया तिरिच्छियाणं आजीवियाणं अभियोगिवार्ण सलिंगाणं दंसणवावमा एएसि देवलोएम भवनमा कस्स कहि उपचार पाचे गोयमा ! असंजयभविपदव्वदेवाणं जहोणं भवणवासी उकोसे उवरिम वेज्जएस विराहिय संजमाणं जहोणं सोहम्मे कप्पे ठकाणं सम्बद्धसिक विमा राष्ट्रियमाणं वणवासी उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे विराहियसंजमासंजमा सोहम्मे कप्पे उसे प्रचुर कप्प विराट्रियसंजमासजमाणं जहणं भवणवासीसु उकोसेणं जोइसियासु सणं जहां भवनवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु - मेसा मोजणं भवणवासी उकोमेणं वीच्छामि तावसानं जोइसिएस कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे चरगपरिवायगाणं साप कप्पे किन्निमिया कप्पे तिरिचियाणं सहस्सारे कप्पे आजीवियाणं अच्चुए कप्पे - भोगिया अच्चुए कप्पे सलिंगाणं दंसणवात्र लगाएं उवरिमगेविज्जए || अहंतेत्यादि नवरथेति परमार्थ (असंजयन विपदव्यदेवाति मापनाचाचात्रिपरिणामशून्या भय्या देवत्वयोग्या च रचः। समासश्चैवम् । असंयताश्च ते जव्यन्यदेवाश्चेति असंयतनव्यपदेपास्त्र असंयतसम्यग्दृष्टयः कित्येके यसः किलोकम् । "मायोकामनिझराए । देवायं विधर, समय जो जीवयुक्तं यतोsara उपरिममैवेयकेनुपपात उक्तः सम्यग्दष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रासौ विद्यते देशविरतश्रावकाणामच्युतादुर्ध्वमगमनात् । नाप्येते निवास्तेषामिदैव भेदेनानिधानात् तस्मान्मथ्यादष्ट्य एवाऽभव्यभव्या मा असंयतव्यदेवाः रोकेपयिप्रभाव पोपरिमय त्पद्यन्त इति असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यस्वात् । ननु कथं तेऽजव्याः भव्या वा श्रमणगुणधारिणो भवन्तीत्यत्रोच्यते तेषां हि महामिथ्यादर्शनमोहप्रादुर्भावे सत्यपि चक्रवर्तिप्रनृत्यनेकभूपतिप्रवरपूजा सत्कार सन्मानदानात् साधून् स. यस प्रयायिकानानं प्रति । ज्ञायते ततश्च यथेोक्तक्रियाकारिण इति । तथा ( श्रविरादियसंजमांति ) प्रव्रज्याकालादारज्याभग्नचारित्रपरिणामानां संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद्वा स्वल्पमायादिदोषभयेऽप्यनाचरितरोपयातानामत्यर्थः । तथा [विराहिय संजमाणंति ] उक्तविपरीतानाम् [ अविराहिसंजमामाति ] प्रतिपत्तिकालादारभ्यारिमतदशविरतिपरिणामानां श्रावकाणाम् ( विराहियसंजमा संजमारांति ] उपलव्यतिरेकिणाम [असीति मनोलन्धिरहितानामकामनिर्जरावतां तथा ( ताव साणंति ) पतितपत्राद्युपभोगवतां बाल तथा व्यति ] कन्दर्पः परिहासः स येषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कन्दर्षिकाः कान्दर्शिका वा व्यवहारतश्चरणवन्त एव कन्दर्पकोत्कुच्यादिकारकाः । तथा हि गाथा'कहकडकहस्स दसणं, कंदप्पो अणिया य उल्लावा कंद व्यकहाकहणं, दस संसाया १ ॥ मनपरायण करपायकमादितं तं करे जह जह हसर परो अत्तणा ग्रहसं || २ || वाया कुक्कुओ पुल, तं जंप‍ जेण इस्सए अो । नाणाविहजीवरुप, कुत्र्वर मुहत्रय चैवेत्यादि ॥ ३ ॥ जो संजो वि एया, सुश्रप्पसत्था सुभवणं कुण । सो जसजसे परति ॥ ४॥ अन " कन्दर्पणाम [ चरणपरिव्ययाति ] सरकपरियाज का घाटियोपजीविनस्त्रिदणिमनः । अथवा चरकाः कच्छकादयः परिव्राजकास्तु कपिलमुनिसूनयोऽतस्तेषाम् [ किव्विसिथाणंति ] किल्वियं पापं तदस्ति येषां ते किल्विषिकास्तं च व्यवहारतश्चरणयन्तोऽपि नयना. गस्स केवलीणं, धम्मायश्यिस्स संघसादृणं । माई अववाई कवियिं भावणं कुणइति " ॥ १ ॥ अतस्तेषां तथा [ तिरिच्छियाणंति ] तिरश्चां गवाश्वादीनां देशविरतिज्ञाजाम् [ आजीवति पाखणिकविशेषाणां नारियां गोशाला शिष्याणामित्यस्य भाजी या ये अधिक स्यात्यादिनिस्तपश्चरणानि ते आजीविक अतस्तेषां तथा [ आभिओ गियाणंति ] अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि अभियोगः स च द्विधा । यदाहअभियोग दव्वे भाव व दोष नायव्य इव्यम्मि होइ जोगा, विज्ञामंताय भावम्मि " ति ॥ १ ।। सोऽस्ति येषां तेन वा खरन्ति ये ते ऽभियोगिका श्रभियोगिका वा ते च व्यवहारिणश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारो यदाह-" को उय भकम्मे, परिणा पणि निमित्तमाजी 66 गुरु भ्रमणगुणधारिणो निखिलसामानाधि उबवाय 66 हिगंजावणं कुणइ " न्ति ॥ १ ॥ कौतुकं सौभाग्याद्यर्थ स्नपन भूतिकर्म यरिनादितिवन प्रश्नानं च स्वप्ना यादि [ सलिंगाणंति ] रजोहरणादिसाधुत्रियां किं विधा नामित्याह [ दंसणवावन्नगाणंति ] दर्शनं सम्यक्त्वं व्यापनं एं येषां ते तथा तेषां मवानामित्यर्थः एव [] Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१०) उववाय अनिधानराजन्धः। अवविद्ध प्रतिपादितम् "विराहियसंजमाणं जहोणं जवणवईसु - षस्य सतो गुणेराहारपरिहारादिरूपैर्वा यास अपवासः।"उपाकोसेणं सोहम्मे कप्पे" इह कश्चिदाह-विराधितसंयमानामु- वृत्तस्य दोषेच्यः, सम्यग्वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयो, करण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं तत्कथं घटते द्रौपद्यास्तुकुमा- न शरीरविशोषणमिति" ध०२ अधिक आहारशरीरसत्कारालिकाभवे चिराधितसंयमाया ईशानोत्पादश्रवणादित्यत्राच्यते, दित्यागे, स० ० । अभक्तार्थकरणे, स्था०३० (पासतस्याःसंयमविराधनोत्तरगुणविषया बकुशत्वमात्रकारिणी नमू. होवघासशब्दे विधिर्वक्ष्यते ) तपनोदयमारज्य यामाएकमन्नो. सगुणविराधनति, सौधोत्पादश्च विशिष्टतरसंयमविराधनायां जनम् । उपवासः स विज्ञेयः प्रायश्चिसे विधीयते । १। उपायस्थात्, यदि पुनर्विराधनमात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारकं स्यास त्तस्य पापन्यो, यश्च वासो गुणैः सह । उपवासः स विडया दाबकुशादीमामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतांकथमच्युतामिपूत्पत्तिः सर्वनोगविवर्जितः।१।" वाचक तथा श्राकानामुपवासे तन्दुस्यात् कथंचिहिराधकत्वात्तेषामिति [असणं जहम्मेणं ज- मधावनं रकानीरं च कल्पते न घेति प्रश्ने तेषामुपवासे प्रामुकवणवासीसु उक्कोसणं वाणमंतरसुत्ति ] इह यद्यपि चमरवलि- मुष्णोदकं चेति पानीयद्वयं कल्पते सम्पुरधावनं रक्काजलं प्रासुकं सारमहियमित्यादिवचनादसुरादयो महर्दिकाः पलिओषममु-। भवति परं श्राकानांन कल्पत हति(११६प्र)तथैकोनत्रिंशदधिककोसं वंतरियाणं ति" बचनाश्च व्यन्तरा अल्पर्शिकास्तथाप्यता हिशतषष्ठोश्चारकृतोऽस्ति पर शक्त्यभावे एकान्तरोपवासैः कर्तुएव वचनादवसीयते सन्ति व्यन्तरेज्यासकाशावल्पयो जयनप- शुद्धयति न यति प्रश्न एकोनत्रिंशदधिकद्विशतं षष्ठा उच्चारतातयः केचनेति असंझी देवेऽत्पद्यत इत्युक्तम्भ-१श०२०।। स्तदा षष्ठापव कर्तुशुध्यन्ति (१२० प्र०) तथाश्विनचत्रास्वाध्याउपसंपादने, “उववाती उवसंपजणं " नि०यू०५ उ01 यमध्ये उपवासः क्रियते सविंशतिस्थानकमध्ये प्रक्तप्तं शुध्यति उपवायकप-उपपातकल्प-पुं०पार्श्वस्थादिनिःसहासित्वा सं. न वेति प्रश्ने प्राश्विनचैत्रास्वाध्यायमध्ये सप्तम्यादौ दिनत्रयकविग्नविहारोपपतने, । पं० ना। तोपचासो विंशतिस्थानकमध्ये प्रकप्तुं न शुरुधति ( १२० प्र०) उववादकपमहणा, वोच्छामि जहक्कमेणं तु । श्रीविजयसेनसूरिसत्कपं. कनकविजयमणिकृतप्रश्नास्तदुत्तरा णि च यथा षष्यादी प्रत्याख्याने भक्तद्वयकथनाधिक्यस्थ किप्रयोपंनाहिं ठाणेहि विवष्मि-ऊण संविग्गमया जुत्तो । जनमिति प्रश्ने सामान्यतः सतां द्विवारं नोजनं लोकप्रथितप्रभुजतं विहारं, उवेइ उववायकप्पो सो। मित्युपवासघ्येन नोजनचतुष्टयं नोजनद्वयं च पारणोत्तरपारणउबवयणं उववाओ, पासत्यादी य पंचठाणा तु॥ योरेकाशनपूर्वकं कार्यत शति (३७७४०) तथा रोहिगयुपवासप तेसु विविहं तु वट्टित्थो, बियाो होति णायव्यो । श्वम्याधुपवासश्च कारण सति मिलन्स्यां तिथौ क्रियते न वेति प्रश्ने कारणे सति मिसनस्यां तिथौ क्रियते कार्यते चेति प्रवृसिद्देश्यसंवेगसमावामो, पच्छा उ उति उज्जयविहारं ।। ते कारणं विना तूदयप्राप्तायामेवेति बोध्यम् सं०प्र०३ उमा०४७७ एस उववायकप्पो ।। पं० भा०। प्रातथा जालोर संघकृतप्रश्नोत्तराणि यथा त्रिविधोपवासप्रत्यापंचाहि त्रादि मा पुण पामाथाहिं अस्थिकण वियविकण रुपानमन्यग्रयाण्यानंचकयारीत्या पार्यते इति प्रश्ने उपवासकीधविविधमनेकप्रकारं वा वर्तितुमित्यर्थः । सिद्धासंवेगजुत्तो संवे- त्रिविहारनमुक्कारसी पोरसीपुरिमच्छादिक कीनं पाणहारपच्चगसगास पर संवेगविहारं उपपतति उपसंपद्यते तत उपपात खाण फासिरपालिउंसोहिउं३ तीरिउकिहि ॥ आराकल्पो जवति । एस उपवायकप्पो । पं० सू०॥ हिलं ६ जंच नाराहिअंतस्समिच्छामि दुष्कर्म इत्युपवासप्रत्याउपवायकारि (ए ) उपपातकाग्नि-पुं० आचार्यनिर्देशकारि- ख्यानपारणरीतिरूपरंपरया ज्ञातव्या । अधुना केयन श्राका उपणि, " उववायकारी य हरीमणे य" सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। बासकीचूंत्रिविहार नमुक्कार सिपुरिमादिक कीधो चनधिहारउपवायगइ-नपपातगति-स्त्री उपपातरूपा उपपाताय वा गतिः। पञ्चक्खाणफासिउं १ पालि २ सोहि ३ तीरिज किट्टि उत्पादाय गमने, नपपातरूपायां गतौ च । उपपादगतिस्तु त्रिवि बाराहिलं ६ जंच नाराहिअंतस्स मिच्छामि पुक्कच्छमपि पारधा केत्रभवनोभवनेदात् तत्र नारकतिर्यनरदेवसिद्धानां यत्स्व यन्तो रश्यन्ते तथा नमुक्कारसिपोरसि पुरममादिक कीधु चउठिवकंत्रे उपपातायोत्पादाय गमनं साकेत्रोपपातगतिःया च नारका. हार एकासविआसणुकित्रिविहार चन्विहा पच्चक्खाण फा दानामेव स्वनवे उपपातरूपा गतिः सा जवोपपातगतिः यश्च सिउंपालि एसोहिउँ ३तीरिउ ४ किट्टि ५ आराहि अं६ सिहपुस्तयोर्गमनमा सा नोनापपातगतिः विहायोगतिस्तु जंच नाराहिअंतस्स मिच्छामि दुकश्त्यन्यप्रत्याख्यानपारपरीस्पृशत्यादिकानेकविधेति । भ०८ श०७०। तिरपि परंपरयेव केयेति १ से०प्र०४ अल्ला० १४४ प्र० । नववायय-उपपातज-पुं० उपपाताजात उपपातजः । देवनार. उववामतव-नपत्रासतपस-नक आहारपरित्यागरूपेतपोदे, तथा प्रथमदिन एक उपवासः कृतोधितीयदिने दितीय इथं कृतं षष्ठकेषु, प्राचा० १७० १०॥ तप ओसाचनामध्ये समायाति नवा तथा प्रहरानन्तरं प्रत्याख्यात जपपातक-न० पातकसदृशे ततो न्यूनफसके पापनेदे, पाच. उपवास आलोचनामध्ये आयातिन वेति प्रक्षे यद्यपि संलग्नतया जनवायसना-नुपपातसना-स्त्री० देवसनानेदे, यस्यां समुत्प- प्रत्याख्यातं षष्ठादितपस्तथा कासवेलाप्रत्याख्यातमुपवासतपश्च यते देवः । स्था०॥ गा० । वर्णकोऽन्यत्र रा० । अत्र हीरवि- बहुफादायि भवति तथापि विशकत्रितजयोच्चारितं षष्ठादिजयसूरि प्रति पाकितगुणविजयकृतप्रश्नो यथा सौधर्मादिषु देवा- तपःकालातिक्रमणोच्चारितमुपधासतपश्च सर्वथा बोचनामध्ये नां प्रत्येकमुपपातशय्या विद्यते एकस्यामनेकेषामुपपातो वेति ? नायातीत्येकान्तोहातो नास्तीति से०प्र०३ उल्वा० १३० प्र० । अत्र महर्धिकसुराणामुपपातशय्याभिन्ना अन्येषां तु अभिन्नापीति उवविट-उपविष्ट-त्रि० उप-विश-क्त।सामीप्येन स्थिते, जी० संभाव्यते तथाविधव्यक्तकराणां दर्शनस्यास्मरणादिति । ही०।३ प्रति० । सभिषम्मे, झा०३ अ० । “तेता नववि समाणं उपवास-पवाय-मुं० उप राय घ । उपेति सह उपावृत्तदो-! सागरचंदो नारयं परा" ग्रा०म०प्र०। Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविणिग्गय अभिधानराजेन्डः। नवसंतकसाय. उवविणिग्गय-उपविनिर्गत-नि निरन्तरविनिर्गते, जी०३मा सफ्हणकाम, मि०००० एतचकन्यता रायपिंड शब्द) उपव्ह (हा)-उप (हा) हण- न० दर्शनादिगुणवतां उववृहणियापट्टय-उपतॄहणीयापट्टक-पुं० जमतो राज्ञः उपयोप्रशंसायाम, उत्त० २८०समानधार्मिकाणां कमणा वैया- ज्ये पट्टके, जमंतस्स रमो उबवूहणियापट्ट आत्ति बुतं नवति । स्थादिसगुणप्रशंसनेन तत्सदगुणधुखिकरणे, प्रव० ६द्वा०॥ | नि०००। अत्रोदाहरणम् ॥ उववृहिय-उपटहित-न० समूचिते, अनुमते, आव० ३ ० । "उववूदणाए सबाहरणं जहा । रायगिद्दे णयरे सेणिो राया | उववेय-उपपेत-त्रि० उप-अप-इत् । इत्येतस्य च स्थाने निरुक्तिइयो यसको देवएया संमत्तं पसंसति । इभो य एगो देवो अ | पशापपेतं भवतीति।युक्ते, भ०२०१०। शकन्वादिदर्शनासरहंतो नयरवाहि सेणियम्स निम्यस्य चेल्लयरूवं काऊण अ दकारसोपः। १० । पृषोदरादय इत्यकारलोपः । रा। जमिसे गिएहति । ताहे तं निघारेति पुणरवि अमात्य संजती गुविणी पुरतोनिता ताहे अपवर विऊण जहाण को वि जाण उपेत-त्रि० उप श्त प्राकृतत्वाद वागमः स्थानिक तहा सूदगिहंकारवेति किंचि सूतिकामंतसयमेव करे ततो झा। युक्ते, सा"पुष्फफलोववेएण वणसंडेणं" नि००१० सो देवो संजश्रूवं परिचपळण दिव्वं देवरूवं दरिसेति जणति 'परमहरिसोषवेए' रा। श्रा०म०प्र० औ निघू उत्त। य सेणियमुलकं ते जम्मजीवियस्य फलं जेण ते पवयणतुषरिए “सरिसमावस्मरुवगुणोषवेयाणं" रा। रिसीमती भवतित्ति उपवूहेकण गो एवं उवहेसव्या सो. उपवेद-पुं० उपमितः वेदेन, वेदसरशे आयुर्वेदादा, वाच। हम्मिया द०३० व्य०॥ मिथ्योपबृंहणायां कपणं प्रशस्तोप नववेसण-उपवेशन- न० उप-विश् भावे ल्युट । आसने, निवेवृहायकरणे आचामाम्बम् । जीता। शने, स्थापने च । वाच । अधिकरणे युट् । चर्मभेदे, यत्रार्शीजवबूहण-उपव्रहण-न० अजमोदने , “रितिसाहणमुषहणह रोगादिनिः कारणैरुपविश्यते । वृ०३ उ० । रिसालोयणं चेव" इह प्राकृतत्वेन निरनुस्वारः पाठः । तत | जवनय-नपत्रत-न० नियमे, हा । नियमास्तु। अक्रोधो गुरुसुश्रोपवृहणं तस्यानुमोदनं कार्य यथा धन्यस्त्वं धर्माधिकारी | भ्रूषा,शीचमाहारमाधवम् । अप्रमादश्चेति । द्वा० ८द्वा। त्यादि । पंचा०२ विष.1 प्रशंसायाम, "यवहणारी वा पसं-[वसंकमंत-उवसंक्रामत-त्रि० सामीप्येन गच्छति, द०५०। संति वा सहाजणणत्ति वा समाधणत्ति वा एगा" नि०० भिकाय वासाय वा गच्छति, आचा० १ श्रु०७१०३ उ०। १ उ० ( एतद्धारवक्तव्यता नवहणविणय शब्दे) नवसंकमित्ता-उपसंक्रम्य-अन्य० । उप सम् व्यः । उपगत्येनववूहण (णा)विणय-उपवरणविनय-पुं० उपडणं नाम त्यथे, "समणं भगवं महावीरं उवसकर्मति उघसंकमित्ता बंदंति" समानसाधार्मिकाणां कपणावैयावृत्यादिसद्गुणप्रशंसनेन तह- स्था०३ गाउघसंकमित्ता चारं चरति । सू० प्र०१ पाहु०॥ किकरणं स एव विनयः । दर्शनाचारविनये, व्य० १०० ।- वसंकमित्त-उपसंक्रम्य-अन्य उप सम्क्रम ल्यप् । आसन्नीभूयेदाणी उपवरणति दारं उवडणनि था पसंसति पा सद्धा त्यर्थे, प्राचा० २ श्रु० । आसन्नतामेत्येत्यथै, “ वसंकमिजणत्ति वा सलाघणंति वा एगट्ठा ॥ सुगाहावतीवूया श्रावसंतो समणा" प्राचा०१श्रु०७ अ०३० खमणे वेयावच्चे, विणए सज्झायमादिसंजुत्तं । नवसंखा-नपसजया-स्त्री० उप सामीप्येन साया उपसंख्या जो तं पसंसए य, स होति नवव्रहणाविणो ॥२७॥ सम्यग्यथावस्थितार्थपरिकाने, “प्रणेवसंखा इति ते सदान(सयणिति) चउरथं ग्लु अट्टम दसम दुवामसम अद्धमासख हे सभासद अम्ह एवं"। सूत्र०२ श्रु०१६ अ०। मणं मास मास तिमास चसमास पंचमास उम्मासा सब्यपि उवसंत-उपशान्त-पुं० उप शम् क्त० । उपशमप्रधाने , सूत्र इत्तरं श्रावकहियं था [वेयावच्चेत्ति] आयरियवयाच्चे उब- १२.३ प्रक्रिोधादिजयादुपशान्ते, शीतीजूते, सूत्र. १ मायवेयाषच्चे तवस्सिवेयावच्चे गिलाणवेयावच्चे कुल- शु०६अ। क्रोधादिप्रमादरहित, प्रव०२द्वा०। क्रोधविपाकागणयेयावच्चे संघवालाइ असुहुसेहे वेयावच्चे दसम पर्स वगमेन (पं०व०) मनोवाकायविकाररहिते, ध० ३ अधिः । पुरिसाण श्मेण वेयावच्छ करेति । असणादिणा बत्थाणा पी- औ० कषायानुदयादिन्छियनोइन्द्रियोपशमाहा ( आचा० १ ढफलगसेज्जा संथारगओ सह भेसजेण य [विणवत्त] नाण- शु०५०४०) उपशमयुक्ते, ज०१श०६० । विष्कविणओ दसणविणओ चरित्तविणो मणविणओ वयणविणी म्भितोदयमुपनीतमिथ्यास्वभावे चशेषमिथ्यात्वमिश्रपुआयाकायविणभो नवचारियविणो य । एसषिणोस वित्थरोमा- श्रित्य विकग्नितोदयं शुरूपुञ्जमाश्रित्य पुनरपनीतमिथ्यास्वजियव्यो । जहा दसवेयासिए [सज्जापत्ति वायणा पुष्टणा प. जावे, विशे० श्रा०सर्वथाऽभावमापने, प्रका०१५ पद । रियणा प्रापपेहा धम्मकहा य पंचविहो सजाओ। आदिस- । उपशान्तमोगुणस्थानके, पं० सं०। पञ्चदशे ऐरवतजेतीबाओ जे अमे तवभेयाभो मोरिया ते धिप्पंति तहा खमादो करे, प्रव०७ द्वा० । निचू । नारकदीनां विशिष्टोदयाभाय गुणा झुत्तति पतेहिं जहानिहिपहि गणेहिं उववेयाजलोज- बात कोधनेदे, स्था०४ ठा। यति जो ति अणिहिसरूषो साह घेप्पर तं सहेण खमणादि-नवसंतकसायवीयरागछउमत्थ-नपशान्तकपायवंतरागच्चगुणोषषेयस्स गहणं पसंसते श्याघयतीत्यर्थः [पसंससिप-यस्थ-पं० गद्यते केवलकानं केवलदर्शनं चात्माननेति ग्भ संसाए णिहेसो हो जयति कि उयवृहणाषिणो थिइसवयण- कानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायकर्मोदयः । सति तस्मिन् चिलो कम्मावणयणहारमित्यर्थः । उबवूहणति दारं गयं ॥ केवलस्यानुत्पादात् तदपगमानन्तरं चोत्पादात्मानं तिष्ठतीनि० चू०१ उ०॥ ति ग्मस्थः स च सरागोऽपि भवतीत्यतस्तव्यवच्छेदार्थ बीउववृहणिया-उपचंदणीया- स्त्री० उपधृहयतीति उपबृंहणीया तरागग्रहण वीतो विगतो रागो मायासोभकषायोदयरूपो यस्य Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१३) नवसंतकसाय. अभिधानराजेन्द्रः । नवसंपय स वीतरागः स चासौ ग्वश्च वीतरागच्छनास्थःसचक्कीणक- पसंतमोहो मुहत्तमेतद्धं । उदितकसायो नियमा, नियत्तए सेपायोऽपि नवति तस्यापि यथोक्तरागापगमात् अतस्तव्यव- ढिपडिलोमं" श्रा०म०प्र०॥ बेदार्थमुपशान्तकषायग्रहणं कषशिषेत्यादिवएमकधातुर्हि सार्थः उवसंतकसायवीयरागदसणारिय-उपशान्तकषायवीतरागदर्शकषन्ति कष्यन्ति च परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः संसारः | नार्य-पुं० वीतरागदर्शनार्थभेदे, प्रज्ञा० १ पद । कषमयन्तेगचन्त्योभिर्जम्तव शत कषायाः क्रोधादयः उपशान्ता उवसंतखीणमोह- उपशान्तकीणमोह- पुं० उपशान्तः सर्पउपशमिता विद्यमाना एव संकमणोद्वर्तनाऽपवर्तनादिकरणो थानुदयावस्था कीणश्च निजीणों मोहो मोहनीयं कर्म येषां ते दयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया येनस उपशान्तकषायः। सचासौ वीतरागस्थः तथा । उपशमक्षयावस्थमोहनीयकर्मके, पंचा०१६ विषः। । प्रव० १२४ द्वा०। एकादशगुणस्वानोपगते, पं० सं०१द्वा० । दर्श० ॥ उवसंतजीवि (ए) नपशान्तजीविन-पुं० उपशान्तोऽन्तवृत्त्या जीवतीत्येवं शील उपशान्तजीवी । अन्तर्वृत्त्यैव जीवामीत्यनिउवसंतकसायवीयरागच्छउपत्थगुणवाण-उपशान्तकपाय प्रहविशेषधारके, भ०६ श० ३३ १०॥ वीतरागध्यस्थगुणस्थान-न० एकादशे गुणस्थाने, तत्राधिरत- उवसंतमोह-उपशान्तमोह-पुं० उपशान्तः सर्वथाऽनुवयायस्थोमोसम्यग्र प्रभृत्यनन्तानुवान्धिनः कपाया उपशाम्तासंभवन्ति - | हो मोहनीय कर्म यस्यस उपशान्तमोहः। उपशमवीतरागे, अयं पशमण्यारम्ने खनन्तानुबन्धिकषायान विरतो देशविरतःप्रम च एकादशगुणस्थानमारूढः उपशमश्रेणिसमाप्तावन्तर्मुहूर्त तोप्रमत्तो वास तूपशमय्य दर्शनमोहत्रितयमुपशमयतितदुपश- भवति ततः प्रच्यवते स०॥ "उपसंतो मोहो नाम जस्स अछमानन्तरं प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानपरिवृत्तिशतानि कृत्वा ततोऽपूर्षक- चा स तिविहंपि मोहणिज्जकम्ममुवसंतं अणु मेत्तमविक्षवेदेति। रणगुणस्थानोत्तरकालमनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानोत्तरका- सो य देसपमिवातेन वा नियमा पभिवतित्ति" ॥ आचू०४०। समनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थाने चारित्रमोहनीयस्य प्रथम अनुत्कटवेदमोहनीये, “अणुत्तरोववाश्या नवसंतमोहा (उपनपुंसकवेदमुपशमयति । ततः स्त्रीवेदक्रमो हास्यरत्यरतिशोक- संतमोहत्ति) अनुत्कटवेदमोहनीयायाः परिचारणायाः कथञ्चिदभयजुगगुप्सारूपं युगपत्षट्कं ततः पुरुषवेदं ततोयुगपदप्रत्या- प्यभावात् न तु सर्वथोपशान्तमोहाः उपशमश्रेणेस्तेषामन्नावात् ख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणौ क्रोधी ततः संज्यलनक्रोधं ततो ॥भ०५०४ उ० । उपशान्त उपशमनीयो विद्यमान एव संयुगपद द्वितीयतृतीयौ मानौ ततः संज्वलनमानं ततोयुगपदद्धि- क्रमणोद्वर्तनादिकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितो मोहो मोहनीयतीयतृतीयमाये ततःसंज्वलनमायां ततो युगपद द्वितीयतृतीयौ कर्म येन स उपशान्तमोहः प्रव०५३ द्वा०॥ उपशामकनिन्थे, लोभौ ततः सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाने संज्वलनलोभमुपशमयती ॥ प्राव०४ अ०। स्युपशमणिः । स्थापना चेयम् । विस्तरतस्तु उपशमश्रेणिः | उपसंतरय-उपशान्तरजस-न० प्रशान्तरजसि, "उपसंतरयंकखोपकशतकटीकायांब्याख्याता ततः परिभावनीया। तदेषमन्ये- | रेह" रा०जी० ॥ उपशान्तमपगतं रजः काबुष्यापादकं यस्य वपि गुणस्थानकेषु कापि कियतामपि कषायाणामुपशान्स- स तथा । रजोरहिते, "समंसिनोमे नघसंतरए सक्खमाणे से स्वसंभवात् उपशान्तकषायव्यपदेशः संभवत्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थ । बिति" | आचा० १ ० ५ अ५ उ० । वीतगगग्रहणम् । उपशान्तकषायवीतराग इत्येतायतापाष्ट- उवसंताहिगरणउद्बाससंजणणी-उपशान्ताधिकरणोझाससञ्ज सिद्धौग्नस्थग्रहणं स्वरूपकथनार्थ व्यवच्छेद्याभावात् म बज- ननी-स्त्री० बपशान्तस्योपशमं नीतस्याधिकरणस्य कलहस्य य प्रस्थ उपशान्तकषायधीतरागः संभवति यस्य छमस्थग्रहणेन ग्लासः प्रवर्तनं तस्य सजननी समुत्पादयित्रीत्यर्थः । षष्ठ्यामव्यवच्छेदः स्यादिति । अस्मिंश्च गुणस्थानेऽष्टाविंशतिरपि मो प्रशस्तायां जाषायाम, प्रघ०२३३ वा। हनीयमकृतय उपशान्ता ज्ञातव्याः उपशान्तकषायश्च जघन्येनैकं समयं भवति उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त कालं यावत् तत ऊर्श्व उवसंति-उपशान्ति-स्त्री० पशमे,प्राचा०१०ानिवृत्ती,वाच॥ नियमादसौ प्रतिपतति । प्रतिपातश्च देधा भषक्कयेण अशा नवसंधारिय-मुपसंधारित-त्रि० संकल्पिते," पत्तबुझीप तेण क्येण च । तत्र भवक्षयो म्रियमाणस्य अद्धाक्षय उपशान्ता- भणियं जति यतबुझीए तो तेण स्वसंधारियं सम्जावं च से द्वायां समाप्तायां अहाक्षयेण च प्रतिपतितं यथैवारूढस्तथैव कहियं " नि० सू०१०। प्रतिपतति यत्र रवन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिनास्तर प्रतिपतता उपसंपज्जंत-उपसंपद्यमान-त्रि० उपसंपदं गृहति, व्य०१३ सता ते प्रारभ्यन्त इति यावत् । प्रतिपतँश्च तावत्प्रतिपतति उपसंपज्जसेणियापरिकम्म(ण)-अपसंपच्छेणिकापरिकर्मन्यावत्प्रमत्तगुणस्थानं कमि ततोऽप्यधस्तनगुणस्थानकद्विकं नाश्विादान्तर्गतपरिकर्मभेदे. स०॥ याति कोऽपि सासादनभावमपि । यः पुनर्भषक्षयेण प्रतिपतति उवसंपजिउकाम-उवसंपत्तुकाम-त्रिनपसंपदं जिघृका,वृ०१३०॥ प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि बन्धनादीनि करणानि प्रषर्तयतीति विशेषः । कर्म० । इह यदि बकायुरुपशमश्रेणि प्रतिपन्नः उपसंपज्जित्ता-उपसंपद्य-अव्य० उप-सम-पद-ल्यप् । सामश्रेणिमध्यगतगुणस्थानपर्ती उपशाम्तमोहो या भन्या कालं स्स्येनाङ्गीकृत्येत्यर्थ, ध०३ अधिक प्राबित्येत्यर्थ, स्था०८ग० करोतीति तदा नियमेनानुत्सरसुरेष्त्पद्यते श्रेणिप्रतिपतितस्य तु सूत्र । उपा०। पाor" नवसंपत्तिाणं घिहरामि " उपकालकरणे नियमः नानामतित्वेन नानास्थानगमनात् । अथा संपनो नूत्वा विहारामि वः न०३ श०१०। बदायुस्ता प्रतिपक्षः तन्तिमुहर्तमुपशान्तमोहो भूत्वा नियमतः | उपसंपल्स-नपसंपन्न-त्रि० उप-सम-पद्-क्त-प्राले, मृते च। हेमा पुनरप्युदितकषायः कास्नेन न भेणिप्रतिलोममापतेव । उक्तं सामीप्येन प्रतिपत्रे, श्राव.६ अ०।" उपसंपन्नो जं कारणं तु च"बसाऊ पडियनो, सेढ़िगतो वा पसंतमोहो वा । जब तं कारणं प्रपूरितो"ध० ३ अधिक। कुणा कोई कासं , वश्च तो पुनरमुरसु। अनिबद्धाऊ होउ | उपसंपया-उपसम्पद-स्त्री० प सामीप्येन संपादन गमनमुप . Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१३) उवसंपया अनिधानराजेन्डः। उवसंपया सम्पद् । श्यन्तं कालं नवदन्तिके प्रासितव्यमित्येवंरूपे (ग० व्यमेवं काने नव वेदा दर्शनप्रभावनायशास्त्रविषया पत एव भेदा २ अधि०) मानार्थगुर्वन्तराश्रयणे, ध०३ अधिः । पंचा। कल्याः । अत्र च संदिष्टः संदिष्टस्यैवोपसंपद्यते इत्यादि चतुश्रा०म० वि० । त्वदीयोऽहमित्येवं श्रुताद्यर्थमन्यसत्तान्युपगमे, भङ्गिका। तत्र प्रथमो भङ्गः शुरुः शेषास्त्वाकाः। द्विविधा चारिअनु०॥ सामीप्ये, प्रशंसायाम, अस्तित्वे, निष्पत्ती, प्रतिपत्ती च। प्राथायति यदुक्तं तदुपदर्शनायाह ( यावच्चे स्यादि) चारिपं० ० "अथणे नवसंपया" अर्थने ज्ञानाद्यर्थ परस्य आचार्य- घोपसंपत् वैयावृत्त्यविषया कपणविषया चाश्यं कायतो यावत् स्य पार्षे अवस्थाय कानादिगुणार्जनमुपसंपदुच्यते । तस्याचा- कधिका च भवति चशब्दादित्वरा च । एतदुक्तं प्रवति चारिय॑स्य समीपे अंवस्थानाय स्वामिन् श्यन्तं कालं अवतां समीपे आर्थमाचार्याय कश्चियावृत्यकरत्वं प्रतिपद्यते स च काल मया स्थातव्यं गच्चान्तरे प्राचार्यान्तरे ज्ञानाद्यर्थमिति विक-| इत्वरो यावत् कधिकच कपकोऽपि उपसंपद्यते द्विविधा त्वरी प्तिपूर्वकं ज्ञानाचज्यसनरूपा उपसंपत्सामाचारीति भावः ॥ यावत्कथिकश्चेति गाथासंकेपार्थः। सांप्रतमयमेवार्थो विशेषतः उत्त०१६ भ०। प्रतिपाद्यते। तत्रापि संदिऐन संदिष्टस्योपसंपहातव्येति मानोऽयं (१) अपसंपदो दास्तत्र चारित्रगृहस्थोपसंपत्प्रतिपादनं च।। गुणः । एतत्प्रभवत्वादुपसंपद इत्यतोऽभुमेवार्थमनिधित्सुराह । (२) आचार्यादा मृते अन्यत्रोपसंपत् । तत्र हानिवृरुधादिप संदिह्रो संदिहस्स, चेव संपज्जएसु एमाई । रीक्षणेन कर्तव्याकर्तव्यनिरूपणम् । चउभंगो एत्थं पुण, पढमो नंगो हवइ मुद्धो । (३) निक्कोगणादपक्रम्य अन्य गणमुपसंपद्य विहारः। (४) शैकेण सपरिच्छन्नेन रत्नाधिकस्योपसंपहातव्या। संदिष्टो गुरुणा ऽनिहितः संदिष्टस्यैवाचार्यस्य यथा अमुकस्य (५)सांनोगिकासांनोगिकयोः सहमिझितयोराचार्यायोःसा संपद्यस्व उपसंपदं प्रयच्छेत्यर्थः । एवमादिश्चतुर्नङ्गी तद्यथा संविएस्य एष नङ्ग उक्तः । एवं संदिशोऽसंदिष्टस्यान्यस्याचार्यमाचारी तत्रावग्रहश्च। स्येति द्वितीयः । असंदिष्टः संविष्टस्य न तावदिदानी गन्तव्यं (६) पावस्थादिविहारप्रतिमामुपसंपय बिहारे कर्तव्यताविधिः। त्वयाऽमुकस्येति तृतीयः । असंदिष्टोऽसंदिष्टस्य न तावदिदानी (७) निक्षोर्गणादपक्रम्य अन्यं गणमुपसंपरा विहरणे प्रका न वाऽमुकस्येति चतुर्थः । अत्र पुनः प्रथमो भङ्गो भवति गुरुः रान्तरप्रतिपादनम् । पुनःशब्दस्य विशेषणार्यत्वात् । द्वितीयपदेनाव्यवछिमत्ति निमि तमन्येऽपिष्टव्याः। (6) गमावच्छेदकस्यान्यं गणमुपसंपरा विहारः । संप्रति वर्तनादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह। (ए) कुगुरौ सत्यन्यत्रोपसंपत् । (१) अपसंपदे॒दा यथा अथिरस्स पुब्वगहियस्स, वत्तणा जं हं थिरीकरणं । उपसम्पत् विधा साधुविषया गृहस्यविषया च ज्ञानादिहेतो. तस्सेव पएसंतरं, नदृस्सणुसंधणा घमणा ।। यंदपरं गणं गत्वोपसम्पद्यते सा साधुधिषया । यत्पुनरवस्था- गहणं तप्पढमतया, सुने अत्ये य तदुभए चव । मनिमित्तं गृहिणामनुज्ञापनं सा गृहस्थविषया वृ०१ उ० । तत्रा-1 अत्थगहणम्मि पार्य, एस विही होइ नायव्यो । स्तां गृहस्थोपसंपत साधूपसंपत् प्रोच्यते। पूर्वगृहीतस्य सूत्रादेरस्थिरस्य यदिह स्थिरीकरणं सा वर्तना तिविहा जवसंपया पसत्ता तंजहा भायरियत्ताए उव- तस्यैव सूत्रादेः प्रदेशान्तरनष्टस्य या घटना मीलनं साऽनुसंज्झायत्ताए गणिताए । धना तत्प्रथमतया च सूत्रे षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यनेदात् । सूत्रस्य उपसंपत् ज्ञानाद्यर्थ नवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः। तथा हि क-1 पवमर्थस्य सूत्रार्थोमयस्य यदादानमिति शेषः । तद्ग्रहणमिश्चित् स्वाचार्यादिसंदिष्टः सम्यक भुतप्रन्थानां दर्शनमजावक- त्यादि । अथग्रहणे प्रायो बाहुल्येन एष यक्ष्यमाणशकणो विशास्त्राणां ना सूत्रार्थयोर्ग्रहणं स्थिरीकरणं विस्मृतसंधानार्थं तथा धिर्भवति ज्ञातव्यः।प्रायोप्रहण सूत्रग्रहणेऽपि कश्चिद्भवत्येवधर्माचरित्रविशेषजूताय वैयावृत्त्याय कमणाय वा संदिष्टमाचार्या जनादिरितिज्ञापनार्थम् । (आ.म.)स चैवं योज्यते कर्ततरं यमुपसंपद्यते । स्था०३ गधा ज्ञानाद्युपसंपत्रिविधा व्यमेव नवति कृतिकर्म चन्दनमिति एवं तावत् ज्ञानोपसंपतिकानादिन्नेदात्तथा चाह। धिरुतो दर्शनोपसंपद्विधिरप्यनेनैवोक्तो छपव्यस्तुस्ययोगक्केउवसंपया य तिविहा, नाणे तह दसणे चरिने य । मत्वात् । तया हि दर्शनप्रभावकशास्त्रपरिकानार्थमेव दर्शनोदसणनाणेतिविहा. दुविहा य चरित्तअट्टाए । पसंपदिति । संप्रति चारित्रोपसंपविधिमनिधित्सुराह ॥ उपसंपत् त्रिविधा तद्यथा ज्ञाने ज्ञानविषया एवं दर्शनविषया दुविहान चरित्तम्मि, वेयावच्चे तहेव खमणे य । चारित्रविषया च । तत्र दर्शनशानयोः संबन्धिनी विविधा द्विधि- नियगच्छा आणम्मि उ, सीयणदासाणा होइ ।। धा च चारित्रायेति । तत्र यदुक्तं दर्शनझानयोस्विविधैति द्विविधा चारित्रविषया उपसंपत् तद्यथा वैयावृत्यविषया केतत्प्रतिपादनार्थमाह । पणविषया च । किमत्रोपसंपदा कार्य स्वगच्छ एव तत् कस्मान्न बत्तणा संघरणा चेव, गहणे सुत्तत्य तदुभए। क्रियते निजगच्छादन्यस्मिन् गमनं सीदनदोषादिना जवति वेयावच्चे खमणे, काले श्रावकहाई य॥ आदिशब्दादन्य नावादिपरिग्रहः।। वर्तना संधना चैव ग्रहणमित्येतत्त्रितयं (सुत्तत्थतन्नयत्ति) इत्तरिया य विभासा, वेयावच्चे तहेव खमणे य ।। सुत्रार्थोभयविषयमवगन्तव्यमित्येतदर्थमुपसंपद्यते । तत्र घर्तना अविगविगढीम्म य, गणिणा गच्छस्स पुच्छाए । प्राग्गृहीतस्यैव सूत्रा देर स्थिरस्य गुणनमिति । सन्धना तस्यैव इह चारित्रार्थमाचार्यस्य कश्चिद वैयावृत्त्यकरत्वं प्रतिपद्यते स प्रदेशान्तर विस्मृतस्यामझना योजना घटनेत्येकोऽर्थः। ग्रहणं पुन- च कान त्वरा यावत् कयिकश्च भवति । प्राचार्यस्यापि वैयाम्तस्यैव तत्प्रथमतया आदानम् पतत्रितयं सूत्राधानयविषयं अष्ट- स्यकरोऽस्त धा न वा। तत्रायं विधिर्यदिनास्ति ततोऽसाविध्यत पह॥ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१५) उवसंपया अभिधानराजेन्दः । उबसंपया एव । अथास्ति स द्विविध इत्वरो वा स्यात् यावत् कथिको वा श्त्यरमपि खल्यमपि कामिति गम्यते न कल्पते अविदनं आगन्तुकोऽप्येवं द्विनेद एव । तत्र यदिद्वावपि यावत्कथिको ततो खलु परावग्रहादिषु आदिशब्दः परावग्रहोऽनेकनेदप्रख्यापकः कि यो बधिमान् स कार्यते इतरस्तूपाध्यायादिज्यो दीयते। अथ | न कल्पते इत्याह स्थातुं कायोत्सर्ग कर्तु निसत्तमुपवेष्टु किमिद्वावपि लब्धियुक्ती ततो वास्तव्य एव कार्यते इतरस्तुपाध्याया-1 त्यत आह (तश्व्वयरक्खणठाए)अदत्तादानविरत्याख्यतृतीयदियो दीयते । अथ नेच्चति ततो वास्तव्य एवं प्रीतिपुरस्सरं वतरकणार्थ तस्मात् भिकाटनादावपि व्याघातसंभवे चित् तेत्यो दीयते आगन्तुकस्तु कार्यते इति । अय प्राक्तनोऽप्युपाध्या- स्थातुं शक्यमनुज्ञाप्य स्वामिनं विधिना स्थातव्यम् । अटव्यादिष्वपि यादियो नेति तत आगन्तुको विसर्यते एव । श्रथ वास्त- विधमितुकामेन पूर्वस्थितमनुज्ञाप्य स्थातव्यं तदभावे देवतां व्यो यावत्कथिक इत्वरस्त्वितर श्त्यत्राप्येवमेव भेदाः कर्तव्या यस्याः सोऽवग्रह इति । आ० म. द्वि० । मा० चू० ॥ पंचा० याचदागन्तुको विसृज्यते ततो वास्तव्य उपाध्यायादिभ्यो निच्छ- (अत्रालोचना आलोयणा शब्द) न्नपि प्रीत्या विनाएयते यदि सर्वथा नेति ततो विसृज्यते (२) श्राचार्यादौ मृते ऽन्यत्रोपसंपत् । श्रागन्मुकः । अथ वास्तव्यः खल्वित्वरः आगन्तुकस्तु यावत्कथि- गामाणुगाम मुइज्जमाणे जिक्व जं पुरो कट्ट बिहे रेकस्ततो वास्तव्योऽवधिकासं यावपाध्यायादिभ्यो दीयते शेषं ज्जा मे आहच्च विसंजेज्जा अत्थिया इत्थ के नवसंपज्जणापूर्वषत् । अथ द्वावपीत्वरौ तत्राप्येक उपाध्यायादिन्यो दीयते अन्यस्तु कार्यते शेषं पूर्ववत् । अन्यतमोऽवधिकासं यायप्रियते रिहे कप्पा से उवसंपन्जियवेसिया णस्थि इत्थ केइ श्स्येवं यथाविधि विज्ञाषा कार्या । उपाध्यायादिज्य इत्यत्रादि अमे उपसंपज्जणारिहे अप्पए असमत्ते कप्पई से एगरायाए शदान स्थविरम्लानशैक्वकादिपरिग्रहः । उक्ता वैयावृस्योपसं. पमिमाए जसं जन्म दिसिं असाहम्मियां विहरंति तय पत् । संप्रति कपणोपसंपत् प्रतिपाद्यते (अबिगिठेत्यादि) कश्चि- तमं दिसं उपबित्तए णो से कप्पइ तत्य विहारपत्तियं वत्थए त्वपणार्थमुपसंपद्यते स च कपको द्विधा श्वरी यावत्कथिकश्च यावत्कथिक उत्वरकाले अनशनकर्ता इतरस्तु विधा वि. कप्पा से कारणपत्तियं वए तेसिं च णं करण सि निविकृष्टकपकः खल्वाचार्येण पृच्छपते हा आयुष्मन् ! पारणके त्वं यंसि य रोवइज्जा वसाहि अज्जो एगरायं मा दुरायं वा कोरशो जयसि यद्यसाबाह ग्लानोपमस्ततोऽसानिधातव्योऽलं एवं से कप्पा एगरायं वा पुरायं वा वत्थए णो कप्पइ एगतव कपणेन स्वाध्यायवैयावृत्यकरणेन यत्नं कुरु इतरोऽपि पृष्टः राओ वा पुरानो वा परवत्थए जं तत्य एगरानो वा सन् एवमेव प्रज्ञाप्यते । अन्ये तु व्याचकते विकृष्टक्वपकः पारण दुराओ वा परं वसति सेसंतरा ए वा परिहारे वा ॥ ककाले ग्लानकल्पनामनुभवन्नपि इष्यते एव । यस्तु मासादिकपको यावत्कथिको वा स इष्यते एव तत्राप्याचार्येण गच्च: प्रामानुग्रामं ग्रामेण (दुज्जमाणे) गच्छन् एतावता ऋतुबद्धः काओ दर्शितो यं पुरतः कृत्वा प्रतुं कृत्वा श्यर्थः । स नियमादाप्रहठयो यश्चायं कपक'उवसंपत्ति'शति अनापृच्चसंगच्चते चार्य उपाध्यायो वा अपव्यो विहरति स आहश्च कदाचित् सामाचारीविराधनां यतस्ते संदिष्टा अपि उपाधिप्रत्युपेक्वणादि तस्य न कुर्वन्ति । अथ पृष्टा वते यथाऽस्माकमेकः कपकोऽस्त्येव मुंजेज्जा शरीराहिष्वर नवेत् कालगतो नवेत् ( अत्थियाइ स्थ इत्यादि ) अस्ति वात्र समुदायेऽन्यः कश्चित् आचार्यादुपातस्य वपणपरिसमाप्तावस्य करिष्यामस्ततो ऽसौ ध्रियते अथ नेच्छान्ति ततस्त्याज्यते अथ गच्चस्तमप्यनुवर्तते ततोऽसावियत ध्यायाद्वा व्यतिरिक्त गणी प्रवर्तकस्थविरो वृषनो वा उपसंपएव तस्य च विधिना प्रतीच्छितस्य नर्तनादि कार्यम् । यदा पुनः दनाईस्तत उपसंपत्तव्यः । अथान्योनास्ति कश्चिदशेषसंपदनाप्रमाद तोऽनानोगतो वा न कुर्वन्ति शिष्याः तदा आचार्येण बन्द ईस्तर्हि स आत्मनः कल्पनासमाप्त इति (से) तस्य कल्पते । एकरात्रिक्या प्रतिमया यत्र वसति तत्रैकरात्राभिग्रहेण (जम्मूनीया इत्यवं प्रसङ्गेन। संप्रति चारित्रोपसंपद्विधिविशेषप्रतिपादनार्थमाह। जम्पमित्यादि) यस्यां यस्यां दिशि अन्ये साधम्मिका विहरन्ति तां तां दिशमुपगन्तुं न पुनः (से) तस्य कल्पते तत्रापान्तराउवसंपन्नो जं. का-रणं तु तं कारणं अपरंतो । ने बिहारप्रत्ययं वस्तुं कल्पते (से) तस्य कारणप्रत्ययं संघाअहवा समाणियम्मि, सारण्या वा विसग्गो वा ॥ तादिकारणनिमित्तं वस्तुम् । तस्मिंश्च कारणे निष्ठिते यदि परो यत्कारणं यनिमित्तमुपसंपन्नस्तुशब्दादन्यत्वसामाचार्यन्तर्गतं वदेत वस आर्य ! एकरात्रं द्विरात्रं वा एवं (से) तस्य कल्पते किमपि गृहीतं तत्कारणं वैयावृत्यादि अपरयन् अकुर्वन् यदा एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वाशब्दात्रिरात्रं वा वस्तुंन (से) तस्य वर्तते इत्यध्याहारस्तदा किमित्याह (सारणया वा विसम्गो वा कल्पते एकरात्राद् द्विरात्राद्वा परं वस्तुम् यस्तत्र एकरात्रात् द्विइति ) तदाऽस्य सारणा चोदनं क्रियते अयिनीतस्य पुनर्विस. रात्राद्वा परं वसति तत्र (से) तस्य स्वकृतादन्तराच्छेदः परिहा. मगी या परित्यागः क्रियते । तथा नापूरयन्नेव यदा वर्तते तदा रो बेति । अधुना नियुक्तिविस्तरः । अत्रोपसंपदनाह श्त्युक्तं सा सारणा वा विसो वा किंतु ( अहवा समाणियम्मित्ति) अ- चोपसंपद् द्विधा लौकिकी बोकोत्तरिकीच ते आइ ।। थवा समानीते परिसमाप्ति नीते अभ्युपगतप्रयोजने सारणा च लोग य उत्तरम्मि य, नवसंपयोगिगी न रायाई । क्रियते यथा परिसमाप्तम् । ततो यदि ऊमापिच्छति ततो न. राया वि होइ दुविहो, साक्खो चव निरवेक्खा ।। वति अथ नेति सोऽवस्थातुं ततो विसर्गोवेति नुत्ता चारित्रो उपसंपद् द्विधा लोके लोकोत्तरे च। तत्र लौकिकी राजादौ पसंपत् । संप्रति गृहस्थोपसंपदुच्यते तत्रेयं साधूनां सामाचारी आदिशब्दात् युवराजादिपरिग्रहः । तथा च यदा राजा मृतो सर्वत्रैव साध्वादिषु वृक्ताद्यधोऽप्यनुज्ञाप्य स्थातव्यं यत आह । भवति तदा युवराजमुपसंपद्यन्ते तं राजानं स्थापयन्तीत्यर्थः। इत्तरियं पिन कप्पड़, अविदिन्नं खलु परोग्गहाईसु । युवराजोऽन्यः स्थाप्यते स च राजा भवति । द्विविधः सापेको चिद्वितु निसीयइ क, तइयव्ययरक्रवणहाए । निरपेक्वश्च । सहापेक्कया सापेक्वस्तद्विपरीतो निरक्केपः । तथा च Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०/१५) अभिधान राजेन्द्रः । उवसंपया प्रजा राजाऽऽद्यपेकः सन् जीवन्नेव युवराजं स्थापयति निरपेकस्तु नैव । अथ किं जीवन्नेव युवराजं स्थापयति तत श्राह । सुवराजम्मिलिए, पयाति आपतितत्व | नेव य का गयम्पि, खुति पडिवेसियन रिंदा || युवराजे राज्ञा साकाद्विद्यमानेन स्थापिते प्रजास्तत्र श्रायतिमागामिका विषय महतीमास्थां वनन्ति नैव च सहसा कालगते राशिप्रातिवेशिकनरेन्द्राः सीमातटवर्तिनः प्रत्यन्तराजानः कुज्यन्ति राज्यविलोकनाय संबलन्ति । उक्तः सापेकः । संप्रति निरपेक्षमाह । पचरायते, आपपरोदुहि होइ निक्लेवे।। ओलीगुगरियो, ओगुत्तरवप्पियर यो ॥ निरपेक्षो नाम यः प्रजानां राज्यस्य चायति नोपेकते तस्मिन्कालगते स राजा मृतः प्रच्छन्नो प्रियते यथा अतीव राजा शरीरवा धितो वर्तते स च तावत् भियते यावदन्यो निवेश्यते । स च कदाचित्स्तनोऽपि । तथा निक्केपणं निकेपः स द्विविधो द्विप्र कारस्तद्यथा आत्मनः परतश्च । पुनरेकै को घिधा लौकिको लोकोतरकश्च । तत्र लोकोत्तरिकः स्थाप्यः पश्चाद्वक्ष्ये इत्यर्थः । इतरं ओफिक प्रथमगाया प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति निरवेकरखे कालगते, जिरहस्सा चिमिच्चय । अहिवास आणि नको तियमूलदेवो न ॥ एको राजा निरपेक्षस्तस्य राज्ये मूलदेवश्चोरिकां करोति । स कदाचिदारककैः प्राप्तो राज्ञः पार्श्वे नीतो राज्ञा च स्तेन इति कृत्वा वध्य आइप्तः ततः राजा तत्कणमेव निजमावासस्थानमु पगतः । कणमात्रेण च सहसा कालगतः । तस्मिन्निरपेके कालगते द्वौ भिन्नरस्यौ राजा मृत इति रहस्यं छौ जानीतस्तद्यया चिकित्सो वैद्यो ऽमात्यश्च राजा चानपत्यस्ततोऽश्वस्याधिवासना कृता सर्वत्र राषु कथं नाम राज लक्षणयुक्तं पुरुषं लभेमहि यं राजानं स्थापयाम शर्त मूलदेवश्व यो वध्य आज्ञापित स तेनावकाशेन नीयमानो वर्तते । सस्स पट्टिदाणं, आणणं हत्यचालणं अन्नो । अभिगनोइयपरिभव, तरणजक्खनिवायणं आणा ॥ ततोऽश्वेन तस्य मूत्रदेवस्य वध्यतया नीयमानस्य पृष्टं दत्तं । गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् प्राकृते हि लिङ्गं व्यभिचारि ततो मृदेवो यह राजा प्रणो जयनिकान्तरितोऽवतिष्ठते तानीतस्ततो वैद्यकुमारामात्याभ्यां जवनिकाभ्यन्तर स्थितायां राज्ञो हस्त उपरि मुखे नीत्वा चालित एतत् राज्ञो हस्तचालनं ततो वैद्यकुमाराभ्यामुक्तं कृता राज्ञाऽज्ञा यथा मूलदेवं राजानमनिपिचत न शक्नोति वाचामिति ततो अभिषिको मूत्रदेवो राज्ये नवरमसदृश इति कृत्वा केचिद्भोजिकाः परिभवमुत्पादयन्ति । न पुः कुर्वन्ति । राजाई विनयं ततश्चिन्तयति मूलदेवो ममैतेापरिजयं कुर्वन् परं किमिदानी मेते कदा चित्स्वयमेवसभामक जयन्ती शासनसती sन्यदिवसे आत्मनः शिरसि तृणशूकजातं कृत्वा आस्थानम एकपिकायामुपविः तेजः परस्परति अद्यापि नन्वेष चोरत्वं न मुञ्चति अन्यथा कथमेतादृशस्य तृणशूक जातस्येदृशे भवने संभवो नूनं तृणगृहादिषु चौरिकानिमितमतिगतस्ततस्तृणशूकजातं शिरसि लग्नमिति एतच्चाकर्ण्य रोषमुपागमत् तेच अस्ति कोऽपि नाम मश्चित नु | नवसंपया कारी य एतान् शास्तीति । तत एवमुक्ते तत्पुण्यप्रभावतो राज्यदेवताधिष्ठितैर्निशिता सिलताकैश्चित्रकम्मप्रतीहारैः केषांचित शिरांसि लूनानि शेषाः कृतप्राञ्जन्नयः आज्ञामभ्युपगतवन्तः । तया चाह ( नोश्यपरिभवेत्यादि ) भोजिकाः परिभवं कृतवन्तोऽन्यदा मूलदेवः ( तणत्ति ) तृणानि शीर्षे कृतवान् ततस्तस्कोपदेशं दाराविनाशनं कृतम्। शेरा प्रतीचिता । एतदेव सविशेषमाह । जक्खनिवातियसेसा, सरणगया जेहिं तोसितो पुव्वं । ते कुव्वती रस्मो, अत्ताण परे य निक्खिवणं ॥ यवनिपातितशेषाः शरणागता मूलदेवस्य शरणं प्रतिपन्नाः । यैश्च पूर्व मूलदेवस्तोषितस्तै राइ आत्मनः परस्य च निक्केपमद्य प्रकृति युष्मदीया वयसमर्पणं कुर्वन्ति । निर पेको sनिरपेकश्च लोकोत्तरिको वक्तव्यस्तत्र प्रथमं सापेकमाह । पुत्रं आयतिबंध करेइ सावेक्ख गहरे वविए । अवि पुत्ता, दोसा उ अरणाहमादीया || यो नामाचार्यः सापेक्षः स पूर्वमेव गरे स्थापिते साधूनामायतिबन्धं करोति यथाऽयं युष्माकमाचार्य त्येतदाहया पतिव्यमिति । अथ न पूर्व गणधरं स्थापयति ततस्तस्मिन्नस्थापिते दोषाः पूर्वोक्ता अनाथादयः “श्रणाढमादीया" इत्यादिनाभिहिताः क्षिप्तादयो दोषा भवेयुः । उक्तो लोकोत्तरिकः सापेकः । संप्रति निरकुमार आयुकारोवर, अडविते गहरे इमा मेरे | चिलिमिलिहत्थामा, परिभवमुत्तत्थहावण्या ॥ आशुकारेण शूलादिनोपरतः कालगत आशुकारोपरतस्तस्मिन् सत्याचायें अस्थापिते ऽन्यस्मिन् गणधरे इयं वक्ष्यमाणा मर्यादानामेवाद (चिलिमिली स्वादि) खगुकारोपरा वनिकान्तरितः प्रच्छन्नः कार्यों वक्तव्यं चाचार्याणामतीवाशुनं शरीरं वाचाऽपि वक्तुं न शक्नुवन्तीति । ततो यो गणधरपदार्हस्तं जय निकाय हिः स्थापयित्वा सूरयो भएयन्ते को गणधरः स्थाप्यतामेवं योक्ता जवनिकाभ्यन्तरस्था गीतार्था आचार्यस्तमपर्युकृत्या स्याप्यमानानि दर्शयति वदन्ति च गणपरत्वमेतस्यानु परं याचा वक्तुं न शक्यन्ति पा स्तानुज्ञा न एतस्योपरि वासा निक्विप्यन्ते । स्थापित एप गणधर इति पश्चात्ता आचार्या इति प्रकाश्यते ( परिभवसुतत्थहावणया शर्त ] ततो येऽनिनवस्थापितस्याचार्यस्य परिप्रयोत्पादनाचानि कुर्वन्ति ते सूत्र थे वा स हापयति न ददातीत्यर्थः । संप्रति " आयपरो पुधिदोनो लोग्यलोसरितो " इति व्याख्यानार्थमा। दंडे असा लोए लोगुत्तरे व अप्पार्ण । उनि सिति सो पुरा खोफिकलोग्रुचरे दुनिहो ॥ झोके झोकोत्तरे बधाई नियमकुर्वन्तो दमेवानुशिष्य - व्यानमुपनयति तत्र सीकिको दर पूर्वमुक्तो यो दे पेन भोजिकानां केप कांरिक सूत्रापहरणम् । रह नवे राईीव नवे गणधरे स्थापिते निक्केपरसो लोकस्य जायते तत्तत्फलाद्युपवते निक्षेपस्य फलं लोके परिपालनं लोकोनानामभियुकि बोपनिषद्विधा ि कोतरिक मरेको द्विधा आत्मोपनिष पनप तब ओकिक आत्मनि ते आमवात्मानं राइ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवसंपया अनिधानराजेन्द्रः। उवसंपया उपनिक्किपन्ति तिष्ठस्ति च अरणोपपातकारकाः प्रपत्रशरणा ये इत्येवं नवत्विति अन्युपगते तासां तत्र संवसन्तीनामथकियपुनरप्रगल्भास्ते ये राज्ञो वल्लभास्तरात्मानमुपनिवेपयन्ति । एष कालातिक्रमेण या रक्कणं तासां करोति सा महत्तरिका कासगता। परोपनिवेपः । लोकोत्तरिक आत्मनिकेपो गच्छवर्तिनां साधनां सविकारातो दटुं, सेहिसुया विहावेइ रायाणं ।। तथाहि ये गच्छे एव वर्तन्ते साधवस्त आत्मानमात्मनैवाभिनवाचार्यस्योपनिक्किपन्ति । परनिकेपः फड़कगतानां ते हि समा महतरियदाणनिग्गह, वणियागमए य विसवणं ॥ गताः स्पर्द्धकपतिना निक्किप्यन्ते यथा एते अहं च युष्माकमि महत्तरिकाकालगमनानन्तरं ताः कन्यकाः सविकारा अभूवन् ति। "इह मिथियाश्य अनेक नवसंपजणारिहे" इत्याद्युक्तम् ततस्ताः सविकाराः दृष्ट्वा श्रेष्ठिसुता राजानं विज्ञपयति अन्यमतत्र यद्यपिस गीतार्थस्तरुणःसमर्थश्चेन्डियनोशन्द्रियाणां निग्रहं हत्सरिकां प्रयच्छत दत्ता राज्ञा । तया च महसरिकया [निग्गकर्तु तथापि तेनान्यो गणो निश्रयितव्यो निश्रयश्च परप्रत्य हत्ति ] कन्याः सविकारा उपसभ्य खरण्टिताः एवं तासां तिष्टयनिमित्तं तत्रापि निक्लेपः कर्तव्यः । न्तीनां (वणियागमत्ति) स देशान्तरगतो वणिक समागतः अत्र लौकिको दृष्टान्तस्तमेवाह ।। (विएणवणमिति) राज्ञो विज्ञपनमकार्षीत् यथा देव! नयामि निजह को वमितो , धूयं सेहिस्स हत्यानक्खियो। जपुत्रिकामिति । पूएऊण विसजण, सरिसकुलदाण दोएह वि भोगा । दिसि जत्ताए गत्तो, कासगतो सो य सेट्ठी उ॥ एमेव उत्तरम्मि वि, अवत्त राइदिए नवमा ।। एको वणिक तस्य गृहे मारिरुत्थिता । सर्व गृहमुपच्गदितमे ततः श्रेष्ठिकृतविक प्तिकानन्तरं ते द्वे अपि पूजयित्वा राइा विका उड़िता तिष्ठति परः स श्रेष्ठी निर्धन इति तां पुहितरं न सृष्ट सदृशकुत्रे दानं विवाहिते इत्यर्थः । ततस्तयोईयोरपि विपरिणापयितुं समर्थस्ततो दिग्यात्रां कर्तुमिच्छति जानाति वै त पुना भोगा दत्ताः। एवमेव अनेनैव प्रकारेण उत्तरेऽपि सोकोत्तस्याः कन्यकायाः स्वभावं यथा समर्थात्मानमेषा संरक्तितुं केव रोप अव्यक्तस्य रात्रिदिवैरुपमा । श्यमत्र भावना। यदि तावल्लीसमेका कन्यका महती गृहे तिष्ठन्त। पुष्टशीला बोकेन संजाव्यते किका अपि यशःसंरक्कणनिमित्तमात्मानमन्यत्रोपनितिपन्ति ततः ति मित्रवेष्ठिनो हस्ते तां निक्तिप्य मुक्त्वा वाणिज्येन दिग्यात्रों सुतरां लोकोत्तरिकैः साधुनिः संयमयशःसंरतणनिमित्तमात्मा गतः । तस्यापि च मित्रष्टिनो गृहे मारिरभूत् । ततः सोऽपि ऽन्यगणे निकेतव्यः। स चाव्यक्तो वयसा ततो यावद्भिरहोरात्रैर्वसकुटुम्बो विनाशमुपागमत् तथा चाह स च श्रेष्ठी काबगतः यसा व्यक्तो जवति तावन्तं कालं तत्रान्यगणनिथायां तिष्ठत्ति केवलमेका कन्यका स्थिता सा च मूत्रवेष्ठिदुहितुः सखी साच सखी अध्यात्मानं संरक्तुिं कमा केवलं यशःप्रत्ययनिमित्तं राज्ञः कथं पुनरात्मानं गणं वोपनिक्षिपति । तत आह । समीपमुपस्थिता तथा चाह। एते अहं च तुम्भं, वत्तीभृतो सयं तु धारेइ । सेष्टिस्स तस्स धूया, वणियसुयं घेत्तु रस्मो समुवगया। जसपन्चयाउराला, मोक्खसुहं चेव उत्तरिए । अह यं एस सही मे, पालेयव्वा उ तुजोहिं ।। एते मदीयाः साधवोऽहं च युष्माकमेवं चोपनिक्तिप्य तावत्तत्र तिष्ठति यावत् व्यक्तो जायते ततो व्यक्तीनूतः सन् तस्मानिर्गत्य तस्य मूलभूतस्य श्रेष्ठिनो दुहिता वणिक्सुतां मृतपितृवणिग्यु स्वयमेव गणं धारयति एवं च कुर्वतस्तस्य फलमिह रोके उदा हितरं गृहीत्वा राज्ञः समुपगता समीपमुपगता पादेषु निपत्य विज्ञपयति यथा देव युष्माभिर्निजदुहितरो रक्ष्यन्ते तथा अहमेषे रायशःप्रत्यया अवदातं यशोऽयदाताश्च लोके प्रत्ययाः संयमयं मे सखी युष्मानिःपालयितव्या आवयोरपियुष्मत्कन्यकात्वात्।। नमल्यविषयाः । परलोके फवं मोकसुखमौत्तरिके लोकोत्तरिके उपनिक्षेपे । अथवा लौकिकम्य लोकोतरिकस्य च सापेक्षस्य इय होन ति य नणिय, कमा अंतेनरम्म तुढेण । पदस्थापनायोग्यविषयेयं परीक्षा ॥ रक्षा परिकत्ता उ, भणिया वाहरिउ पालान॥ सावेक्खं पुण पुन्वं, परिक्वए जह धणे न सुबहा उ । इति एवं भवत्विति नणित्वा तुष्टेन राज्ञा ते हे अपि कन्यान्तः पुरे प्रति भणिता च व्याहत्य आकार्य (पालाओ) पालिका अणिययसहावयपरिहा-विय१मुत्ता तच्चि३ वटा उ४॥ महत्तरिका किं भणितेत्यत आह । सापेकं पुनः पूर्व परीकते साधून यथा धनश्रेष्ठी स्नुषा भनिजह रक्खह मज्म मृता, तहेव एया तो दोवि पानेह । यतस्वभाषाः परीक्तिवान् कमिति चेडुच्यते " रागिढे नयरे धणो नाम सेट्टी तस्स चत्तारि सुएहा ता अन्नया तो चिं. ते एवि तेउ पाले, विस्मवियं विणीतकरणाए । तेश्का मम सुण्डा घर बुकृितहित्ति ततो अन्नया तासि परिक्षणयथा रकय मम सुताः कन्यकास्तथैव पते अपि द्वे मत्कन्यका निमित्तं सयणवग्गो णिमंतितो भोयणोत्तरं सयणसमक्खं मुस्ये पायथ पवमुक्ते तयापि महत्तरिकया विनीतकरणया एहातो सद्दावेकण पत्तेयं पत्तेयं पंच सालिकणा समप्पिया विज्ञप्ति देव पते प्रतिपाहयामि । एवमुक्त्वा ते कन्यान्तःपुरं नीते। एपसु रक्खियं करेह यदा मन्गेहामि तथा दायग्वा हतो नत्र च मूतष्ठिदुहिता महसरिकां विज्ञपयति । पढमाए वुडो एस न अजितो सयणसमक्खं पंच कणे स जह कना एयातो, रक्खह एमेव रकवह मम पि । मप्पंतो न किंपि जाण जया मम्गिदिति तया अन्ने दायव्वा जह चेव ममं रक्खह, तह रक्वह मम महि पि॥ इति गया । विययाए वुफुसेसति तुक्ता तश्याए, अाभरणकरयथा एताः कन्या यूयं रक्कथ एवमेव मानपि रक्षथ । यथा च | मियाए सुरवीकया चउत्थीए ता न य खेत्तेसु आरोविऊरण मां रक्कथ तथेमां मम सखामपि रकथ। विहिनीया जाया । वरिसपणगेण सयसहस्सा। पुणो विसेष्टि गा बरिसपणगानंतरं सयपावग्ग णिमंतेऊण नुत्तरंसयणसइय होन अब्दुवगए, अह वासि तत्थ मंबसंतीणं । मकवं ततो सहावियानो ते मे पंच साविकणे समप्पेढा ततो कालगया महतरिश, जा कुणती रक्वणं तासि ।। पदमाग अहातो वाणातोआणेमण समपिया सेहिया सत्वहसा For Private & Personal use only .. Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसंपया अन्निधानराजेन्द्रः । उवसंपया विता नाणया ते चेव श्मे पंच सालिकणा किं वा अन्ने । तीए उपसंपज्जा अरिहे, अविजमाणाम्मि होइ नातव्यं । कहियं ते मर तया चेव चहिया पुण अहो आणीया एवं विश्या गमणम्मि मुकामुके, चभंगो होति नायनी ॥ पवि नवरं तीए भुत्ता कहिया । तइयाए ते चेव आणीया भणि उपसंपदनाहे अविद्यमाने भवत्यन्यत्र गन्तव्यं तत्र च गमने यं आजरणकरंझियाए मर सुरक्खीकया। चचत्थीए नणियं ताय सगमाणि समपिजंतु जेण ते पंच सालिकणा आणिजं शुरूपदे संयोगतश्चतुर्भङ्गी भवतीति ज्ञातव्यम् । तद्यथा निर्गम ने शुद्धो गमने च शक इति प्रथमः निर्गमने शुको गमने शक ते । ततो सेहिणा विम्हिएण पुच्छियं तीए कहियं जहावत्तं जाव इति द्वितीयः । निर्गमने अशुद्धोगमन शुद्ध इति तृतीयः। निर्गमजाया मूलसहस्सा तउपरि तुछेण सेष्णिाजणियं एतीए मऊ ने अशुद्धो गमने चाशुरू इति चतुर्थः । गाथायां चननंगा इति पंच सालिकणा अतीव बुद्धि नेत्तित्ति एसा मम घरस्स सामिणी । तश्या भंडाररक्खिया जीए नुत्ता सा मढ़ाणसवावारे पुंस्त्वनिदेशः प्राकृतत्वात् । तत्र प्रथम नगव्याख्यानार्थमाह। निजोइया पढमा घरबाहिकम्मे । तथा चाह प्रथमया परिहापि असतीए वायगस्स, जं वा तत्थत्थि तम्मि गहियम्मि। ता द्वितीयया नुक्तास्तृतीयया तावन्मात्राःधृताश्चतुर्थ्या (बुमृत्ति) संघामो एगो वा. दायव्यो असति एगागी॥ वहिताः । एष दृष्टान्तः संप्रति । दान्तिकयोजनामाह । यः काशिकमत्कानिक दृष्विाद वा वाचयति स नास्ति ततअोमेसिवमतरते य, नफिउं आगतो न खलु जोग्गो। स्तस्य वाचकस्यासत्यनावे अथवा यत्तत्रास्ति श्रुतं तत्सथै गृढ़। तं ततस्तस्मिन् गृहीतेऽन्यसूत्राद्यर्थमन्यत्र व्रजति तस्य च एका कितिकम्मनारजिवावा, दिएमुजुत्ता य जुत्ताए । संघाटो दातव्यः । असति संघाटकाजाचे एकाकी व्रजेत् । एवमाचार्येणापि परीक्वानिमित्तं साधून्समय देशदर्शने शिष्या अह सम्बसि नेमि, नत्यि उ नवसंपयांरिहो अम्लो । नियोकव्यास्तत्र योऽयमे दुनिकेऽशिवे वा साधून त्यक्त्वा अथवा येऽनरन्तोऽसहायास्ताचा त्यक्त्वा समागतः सखसुन योग्यः सव्वे घेत्तुं गमाणं, जत्तियमत्ता व इच्छति ॥ येनापि कृतकर्मसुपात्रलेपनादिज्यापारेषु नारे च पथ्युपकरण अथ तेषां गच्चवर्तिनां साधूनां सर्वेषामन्य उपसंपदों नास्ति वाहनेन भिकादिषु चात्मतुक्त्या जुक्ता उपयोगं नीताः साधयो ततः सर्वान् गृहीत्वा गमने कर्तव्यम् । अथ सबै गन्तुं नेच्छन्ति न च सम्यक्पासिताः सोऽपि न योग्यः । तर्हि यावन्मात्रा इच्छन्ति तावन्मात्रैः सह गन्तव्यमेष निर्गमशुरू न य पहिया न भुत्ता, नेव य परिहाविया न परिवुठा। उच्यते। ततिरणं ते चेव उ, समीवपच्चाणिया गुरुणो॥ एवं सुके निग्गमे, वइयाइअपमिवज्जतो। संविग्गमाणोमहि, तेहिं वि य दायव्यो संघामो ॥ . तृतीयेन ये समर्पिताः साधवो गुरुणा ते न उड़िता न दुर्निका- शिवादिषु परित्यक्ता नापि चुक्ताः केवलमात्मोपयोगं नीताः । एवं शुके निर्गमे ब्रजिकादिषु गोकुलादिष्वप्रतिबन्धमकुर्वन् नापि पुरुषासिप्रदानादिना परिहापिताः परिहानि नीताः नाप्य गच्छेत् । तत्र यद्यपान्तराने संविग्नमनोझाः सन्ति ततस्तैः सह न्यान्यपरिवाजनेन परिवर्द्धिताः किं तु तावन्त पव गुरुसमीपं मिलित्वा गन्तव्यं तैरपि च निर्गमन शुरुत्वात् ज्ञानाद्युपसपन्निप्रत्यानीताः । चतुर्थमाह । मित्ते च चत्रितत्वावश्यं संघाटो दातव्यः । अथ यदा एक ही वा दिवसी संघाटो न भवति व्याकुलत्वात्तदा कि कर्त्तव्यमत श्राह। उवसंपाविय पव्वा-वियाय अराणे य तेसि संगहिया । एगं च दो व दिवसे, संघामत्थं स पडिजिा । एरिसए देइ गणं, कामं तश्यं पि पूएमो॥ असती एगागीन, जयणा नवही न उपहम्मे ॥ येन बहव उपसंपादिता उपसंपदं ग्राहिता बहवः परिवाजि एक द्वौ वा दिवसौ स संघाटाय प्रतीकेत असत्यभावे संघाटताश्च अन्यन च तेषामुपसंपादितानां परिबाजितानां च संबन्धिनः संगृहीतास्तेऽपि उपसंपदं ग्राहयिष्यन्ते परिव्राजयिष्यन्ते चे स्य एकाकी बजेत् तत्र च यतना कर्त्तव्या सा च प्राकम्पास्यत्यर्थः । ईदृशे चतुर्थे ददाति गणमाचार्य एकान्तयोग्यत्वात् न यनेऽन्निहिता तत उपधिनोपहन्यते यतनया प्रवृत्तत्वात् । उपकेवलमेतस्मिन् किंतु काममतिशयेन तृतीयमाप पूजयामश्चतुर्था संहारमाह । लाने तमपि योग्यं प्रशंसाम इत्यर्थः। एसो पढमो जंगो, एवं सेसा कमेण जोएना। तत्रात्मपरो निकेपयोजनामाह । आसतुज य गाणं, गच्छे दारा य तत्थ इमे॥ तम्मि गणे अभिसित्ते, सेसगभिकावण अप्पनिकखेवो । एषोऽनन्तरादितः प्रथमो भङ्ग एवमुपदर्शितन प्रकारेण शेषा जे पुण फडगवतिया, आयपरे तसि निक्खेवो ।। अपि नङ्गकाः क्रमेण योक्तव्यास्तद्यथा निर्गमाः प्राग्वत् गमएवं कालगते ठविए, सेमाणं आयनिक्खेवो । नाशुद्धो बजिकादिषु प्रतिबन्धकारणात निर्गमनाको दोपाकी तया निर्गमनात् निर्गमनको प्रजिकादिष्वप्रतिबन्धान्निर्गमफगवतियाणं तु, आयपरो नेसि निक्खयो । नायको गमनाशुरुश्च प्राग्वन् । श्रथ प्रथमनङ्गवती प्रदास्यः तस्मिन् चतुर्ये तदनावे तृतीये वा गणे पदे अनिपिक्त शेषका- | कारणतो द्वितीयनङ्गवपि एवं च गच्चता तन यासन्ना उद्यणां भिकूणां ताणान्तर्वर्तिनामात्मनिक्केपो जवति। ये पुनः स्पर्ड ता नुद्यतविहारिणस्तेषां स्थानं गच्छेत्तत्र च गतस्य परीकादिकपतयस्तेषामात्मनः परतश्व नि केपः पर्दकपतीनामात्मतस्तदा निमित्तमिमानि द्वाराणि नन्ति तान्येवाह । श्रितानां परतः स्पकपतिद्वारेण तेषामुपनिपभावात् । एव उपसंपदहस्य गच्चस्य हानियुक्षिपरीक्षणं तत्र मात्मपरोपनिक्षेपिका झगते रएव्यस्तथा चाह ( एवं ति) पयं नि कटप्याकटप्यायधिः॥ पदय सहसा कासगते पूर्वप्रकारेणान्यस्मिन् स्थापिते शेषाणां गणान्तर्यर्तिनामात्मनिक्षेपो भवति स्पर्डकपतिकानां त्वात्मनिकेपः । पारिकवहाणि अमती, आगमणं निग्गमो अमंदिग्गे । स्पर्ककपतीनामारमनस्तदाश्रितानां परतो निक्षेप प्रत्यर्थः । निवियप जयणनिरा, दीहवाई पमिनि॥ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१८ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवसंपया नादीनां परीक्षा (हात) हानिवृकि विषया कर्तव्या यत्र हानिस्तत्र न वास्तव्यमन्यत्रवास्तयमिति भावः ( असतित्ति ) यस्य समीपं संपन्नस्तस्मिन्सापे के निरपेके वा कालगतनाति योऽन्यः स्थापिनस्तस्य सफा स्थातव्यं तस्मिन्नपि सीदति यावत्कुत्रादिस्थविराणामागमनं तावत्प्रतीकणीयं तैरपि प्रतिचोदने कृते सीदति निर्गमो विधेयः । गच्छता च संविग्ना भाये यदिस्वन्यमविग्ने निवेदना कर्त्तव्या बहित्या ये प्यप्यसंविग्नेषु नपरं यतना विधेया तथा संविग्नेषु वा संवसनं निएम शतमेकमुत्कर्षणि दिनानि वर्षादिकारणतः पुनर्यतनया ( दारूमपि ) प्रचुरमा दीर्घका प्रतीकृते । एष द्वारगाथा संपार्थः । सांप्रतमेनामेव वचः प्रथमतः पारिहाणिति घारमाह । पासल्यादिविरहितो काहियमाईहवापि दोसेहिं । संविग्गमपरिततो, साहम्मि य वच्छलोज्जा उ ।। अपाराले पार्श्वस्थादिपापादितः काधिकादिभिर्वा जावप्रधानोऽर्थनिर्देशः काथवादिनि दोस्तथाविनोऽपरिभ्रान्तः सामाचार्याभिति गम्यते । तथा व सामात्यप रायणः स्वः । अन्जुज्जएस गणं, परिच्छिनं हीयमाणए मोतं । केसु पदेसुं हाणी, बडी वा तं निसामेहि ॥ अयुधतानामुचतविहारिणां स्थानं परीक्ष्य गाथायां सप्तमी मामकान्युक्त्या तिष्ठेत् केषु देहानि df सूरिराह । तदेतत्कथ्यमानं निशामय । तदेवाह । तव नियमसंजमार्ग, जहियं हाणी न कप्पते तत्य । नीतिगतही विवाव ॥ यत्र तपोनियमसंयमानां हानिस्तत्र न कल्पते वस्तुं यत्र पुनस्किन दर्शनचारित्रिकस्थादारोपधिशय्यारूपस्य शोधयंत्र वापस्थादिस्थानान प्रवर्त्तनं यत्र व सुशिक्षा ग्रहणे आसेवना व तत्र वास्तव्यम् । सांप्रतमेनामेव गाथां विवृणोति ॥ वारस त उ इंदिय नोईदिए य नियमे उ । संजयसचरसहिो, हाणी महिय तहिं न वसे ॥ यत्र विधे तपसि द्रियविषये नियमे संयमे सामशत्रिधे हानिस्तत्र न वसेत् । तत्रनियमनमा एएस चैव हि तिगड़ी | नाणादीरण व तिर ं, तिगसुद्धी उग्गमादीणं ॥ पामेचा तपोनियमसंयमान वृद्धि जथ या ज्ञानादीनां प्रयाणां वृद्धिविकवृद्धि प्रयाण मुमादीनामुपत्रकणमेतदाहारादीनां वा त्रयाणां शुद्धिस्त्रिकशुद्धिः । पासत्थे सम्मे, कुसीनसत्त तह श्रानंदे | एहि जो विरहितो, पंचविसुद्ध हवइ सो उ । पार्श्वस्थोऽवसन्नः कुशीतः संसको यथाच्छन्द एते पञ्चापि प्राक् प्रपञ्चं प्ररूपिता एतैः स्थानयों विरहितः स पञ्चविशु जयति । पञ्चािवेव प्रकारान्तरमाह ॥ पंत्रय महत्वयाई, हवा वि नारदंसणचरितं । विवि पंच न पंचविसंपया बात्रि । य उवसंपया वाशब्दः प्रकारान्तरोपप्रदर्शने पञ्च महाव्रतानि श्रथवा ज्ञानं दशनं चारित्रं तपो विनय इति पञ्च । यदि वा पञ्चविधा ज्ञानदनचारित्रतपवैयावृत्यभेदतः पञ्चप्रकारा उपसंपत पत्र तैः पञ्चनिर्विरुः पञ्चविशुद्धः ॥ सुशिक्षामाह । सांभाि सा पुण यासेवणे व गहसो व दुविहार विन हाजी जस्य कहिये निवासे ॥ शोजना शिक्षा सुशिक्षा सा द्विविधा तद्यथा आसेवने ग्रहणे च । आसेवने प्रत्युपकणादेः सामाचार्या ग्रहणमागमस्य । एतस्यां द्विविधायामपि यत्र न डानिस्तत्र वासः कल्पते कर्तुम् । ठाणे सीते चांदंति आयरिया | हार्वेति उदासीणा, न तं पसंसंति आयरिया || तेषु स्थानेषु तप-प्रकृतिषु स्वयमाचार्या हीयमानान ते शिष्यास्तु केचित्सीदन्ति तान् लीदतो यत्राचार्याश्वोदयन्ति निवासमा आचार्याः प्रशंसन्ति। यत्र पुनराचार्या उदासीना मध्यस्थाः सामाचारी हापयन्त उपेक्षन्ते न तं प्रशंसमयायाः नासी गच्छ उपसंपादनीय क्षयर्थः । किं कारणमत आह ॥ परियडमाथा नालाया जिहिं सिप्पा | चरणे जोगा-बढ़ाने या ॥ श्राचार्या उपाध्यायाश्च जिनैस्तीर्थकृद्भिर्न शिल्पार्थाः शिल्पाशऋणनिमित्तमनुज्ञाताः । कैः कारणैः पुनरनुज्ञातास्तत श्राह । ज्ञाने चरणे व ये योगास्तेषामावहाः प्रापका यतो प्रविष्यन्ति ततस्ते धनुज्ञाता ज्ञानचर एस्फातिनिमित्तमनुज्ञाता त्यर्थः । अपि चेडशा आचार्योपाध्याया अनुज्ञाताः । नाणचरणे निउत्ता, जा पुव्वपरू किया चरणसेढी | हाडे नियं सिखावणाकुसला ॥ ज्ञाने एकग्रहणात् तज्जातीयस्य ग्रहणमिति न्यायाद्दर्शने वा[रित्रे च नियुक्ताः सततोचतास्तथा सुखशीलाः पायादयः तेषां स्थानं यते सेवन्ते पूर्वतिकर्मसूत्रे चरणयेणिः प्ररूपिता तस्यां स्थितास्तथा नित्यं खदा शिक्षापनायां पण शिक्षायामासेवनाशिकायां ग्राह कुः समर्थः दशां समीपमुपगम्योपसंयम ग परिहाणिति द्वारम् । इदानीमसतित्ति धारमाह । जेण वि पडिच्छितो सो, कागतो सो वि होइ प्रहच्च । सोवियख वा निरपेक्खोवा गुरुसि । येनापि स प्रतीच्छितो यस्य समीपे सशिष्यपरिवार उपसंपनइत्यर्थः सोऽपि कदाचियेोऽप च गुरुः कालगतः सापेको वा आसीन्नरपेको वा । तत्र यः सापेकः सोऽमुं विधिं करोति । सावेकख सीसगणं, संगकारे आबीए | पाडच्छागगवेत्ति, एस वियाने ग्रह महतो || सापेक्षः शिष्यगणं स्वदीक्षितशिष्यसमूहमजिनवस्थापितस्य संग्रहमानुपूर्व्यानुपूर्वीकथनेन कारयति । यथा पूर्व सुधर्मस्वामी गणधर आसीत् । ततस्तच्ष्यिो जम्बूस्वामी तस्यापि शि. च्यः प्रभव एवं तावद्यावत्संप्रति वयमहमपि च संप्रति महान् - ततोऽसयोको गणपरःस्थापितो वर्तते कुवैनयिकादिकं च तथा दिन Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१९) उवसंपया अनिधानराजेन्डः। उवसंपया मागताःप्रतीमागतास्तानपि ब्रूते एष मम स्थाने विज्ञायेत म- पदादिषु शिष्याः परीक्वणीयाः । तत्र यो शक्तिको भीरुः स मेवैतस्य संप्रति वैनयिकादिक कर्तव्यमित्यर्थः। अत्रैवाऽधैर- राजप्रवेषादिषु समुत्पन्नेषु गणमपहाय नश्यतीति प्रथमकुमार न्तमाद। इव गुरुपदस्थान।। यः पुनरदाता सोदायकत्वेन संग्रहोपजह राया व कुमार, रजेवावेन मिच्छए जंतु । ग्रहीन करिष्यतीस्ययोग्यः । यस्त्वनीरुतया शुनकस्थानीयान्वजमजोहे वेतितिगं, सेवह तुम्ने कुमारंति ।। नीपकान्वारयति दायकत्वेन च संग्रहोपग्रहौ करोति स योग्य इति गणधरपदे स्थापयितव्यः । तस्मिंश्च स्थापिरो काबेन अह यं अतीमहलो, तेसिं वित्ती उ तण दावेइ । विष्वग्नूते प्राचार्य साधवः कृतप्राजलयस्तमुपतिष्ठन्ते उपस्थासो पुण परिच्चिकणं, इमण विहिणा उठावे ॥ प्य च यो यस्य पूर्व नियोग आसीत् स तं तस्मै नवकाचार्याय यथा राजा यं कुमार राज्ये स्थापयितुमिच्छति तं प्रात जटान् कथयति । एतदेवाह। योधांश्च ते सांप्रतमयं महान् ततो यूयं सेवध्वममुकं कुमार- दुविहेणं संगहेणं, दवं संगिएहए महाभागो। मिति एवं तानुक्त्वा तेषां वृत्चीस्तेन कुमारेण दापयति येन ते तो विमति ते वि, तं चेव य गणयं अम्हं॥ तदनुरक्ता जायन्ते स पुनः कुमारोऽनेन पत्यमाणेन विधिना सोऽभिनवस्थापितो महाभागो गच्चं द्विविधेन संग्रहेण व्यपरीक्य राज्ये स्थाप्यते । तमेव विधिमाह । संग्रहेण जावसंग्रहेण च तत्र व्यसंग्रहेण वनपात्रादिना भावपरमन्न हुंजमुणगा, छडणदंमेण वारणं वितिए। संग्रहेण ज्ञानादिना संगृह्णाति एवं संगृहति तस्मिन् ततस्तेऽपि झुंजइ देश य तश्यो, तस्स न दाणं न श्यरोसि ॥ साधवः कृतप्राजयस्तं विज्ञपयन्ति यथा तदेव स्वं स्वं स्थाराजा बहूनां कुमाराणां मध्ये कतरं कुमार युवराज स्थापया- नमस्माकं प्रयच्छन्विति । अथ किंकिं तेषां स्थानमिति तत्स्थामीति विचिन्तयन् परीक्षानिमित्तं तान् सर्वान् कुमारान् शब्दाप- मनिरूपणार्थमाह। यित्वा तेषां पृथक पृथक स्थाले परमान्नं पायसं परिवेषयति उवगरणवालवुवा, खमगगिलाणे य धम्मकाहियादि । परिवेष्य राजमाबद्धान् अनकान् व्याघ्रकल्पान् कुमारान् प्रति मो गुरुचिंतवायणा पे-सणेसु कितिकम्मकरणा य ॥ चयति ते च सुनका वेगेन कुमारसमीपमागतास्तत्रको राजपुत्रः एको ब्रूते अहम् ( उपकरणत्ति) उपकरणोत्पादक आसम शुनकनयेन पायसं परित्यज्य पलापितः द्वितीयो राजपुत्रो द अन्योऽहं बासकानां वैयावृत्यकरोऽपरः कपकवैयावृत्यकरोऽएमेन तेषां शुनकानां वारणं करोति तुळेच नच किमपि ते न्यो ग्याने शत स्लानवैयावृत्यकरः । अपरो धर्मकथा धर्मकभ्यो ददाति तृतीयः पुनः स्वयं तुले शुनकेभ्योऽपि च स्वस्था थाब्यापारनियुक्तः अन्यो वादी परवादिमथने नियुक्तः (गुरुसात परस्थासाश्च ददाति तस्य तृतीयस्य राजपुत्रस्य राज्यदानं नेतरयोईयोः। किं कारणमिति चेदत आह । चिंतति ) अपरो छूने अहं गुरोर्यकर्त्तव्यं तत्र नियुक्तः (वाय जत्ति) अपरोऽहं वाचनाचार्यत्वे नियुक्तः । अन्योऽहं प्रेषणे नियुपरवलपेधिोनासति, वितियो दाणं न देइ उनमाणं । तः अपरो भते अहं कृतिकर्मकरणे विश्रामणे । न वि जुज्जत ते उ, एए दोवी अणरिहारो॥ एएसुं गणेमुं, जो श्रासि समुज्जयो अविश्रो वि। प्रथमो यदा परबदमागच्छति तदा तेन परवरून प्रेरितः सन् ठविभो वियन विसीयइ, स ठाविउमलं खलु परोसि ।। राज्यमपहाय नश्यति ।हितीयो न भटानां सुजटानां किमपि एतेषु स्खलु उपकरणादिषु कृतकर्मपर्यवसानेषु स्थानेषुयः पूर्वददाति न च ते भटा दानमृते परबले समागते युध्यन्ते ततः मस्थापितोऽपि गणधरपदे समुद्यत आसीत् स गणधरपदे समर्थस्यापि परवलेन प्रेरणमत एतौ हावपि राज्यस्यानहीं। स्थापितोऽप्यतेषु स्थानेषु न विषीदति कृतकरणत्वात्स श्र्थतइओ रक्खइ कोसं, देश य भिचाण ते य जुज्झति ।। भूत एतेषु स्थानेषु परान् गाथायां षष्ठी हितीयार्थे प्राकृतत्वात पालेयव्वे रिहा, रज्जंतो तस्स तं दिम ।। यथा 'माषाणामश्नीयादित्यत्र' स्थापयितुमनम् । तृतीयः पुनः कुमारः कोश जाएमागार रकति भृत्यानां सुजटा- एवं ठितो वेइ, अप्पाण परस्स गो वि सो गावो। नां ददाति ततस्ते नृत्याः परबले समागते युध्यन्ते ततः परानग्न अठितो न ठवेइ परं, न य त ठवियं चिरं होई ।। परबलमपगच्छति तदपगता च स्वराज्यसौख्यमतः स पासयि एवं पूर्व गणधरपदे अस्थापित एतेषपकरणादिस्थानेषु स्थितः सव्ये राज्ये अई इति तद्राज्यं राझा तस्य दत्तं यथा भो रोका सन् आत्मनः परस्य चैतेषु स्थापयति गोवृष श्व गाः स्वस्थाने एष युवराजो युष्माभिरेव प्रासेवनीयः॥ यः पुनः पूर्वमेतेषु स्थानेषु स्थितः स परमुपलकणमेतदात्मानं च अजिसित्तो सहाणं, अणुजाणे भमादिअहियदाणं च । न स्थापयति स्वयं तत्राव्याप्तत्वात न च तत्स्थापितं चिरं नवति । वीसुम्मि य आयरिय, गच्छे वि तयाणुरूवं तु ॥ कस्मादिति चेदुच्यते । स यदाऽन्यान् उपकरणादिष्वनुयातः एवं तस्मिन् युवराजे स्थापिते यदा राजा कागतो नवति तदा | शिवयति यथा सति वले किं यूयं स्वशक्त्या नोचवथानुधते भटप्रभृतयस्तं युवराज, राजानमभिषिञ्चन्ति अनिषिक्ते चन्तो हि वैयावृत्यफलात् भ्रंशथ । तदा ते चिन्तयेयुः यदि सति तस्मिन्सेवका उपस्थाप्य खं स्वमायोगस्थानं निवेदयन्ति वैयावृत्यफलमभविष्यत् ततस्त्वमप्येतेषु स्थानेषूदयस्यथा ति। ततः सोऽभिषिक्तो नषकोराजा यत् यस्य पूर्वमायोगस्थानं तत्त अथवा वैयावृत्यफलं श्रधानोऽपि षग्जूमत्वेनैवं मन्येरन एवं स्मै अनुजानाति अधिकं च तेषां जटादीनां दानं छिपदादिदानं जानन्तो यूयं कि पूर्व नातिध्वमिति । संप्रति गोवृष श्ष गा ददाति । एष रान्तोऽयमर्थोपनयः । विष्वग्जूते शरीरे पृथग्नुते ति रशन्तं भावयति। मृत इत्यर्थः । प्राचार्ये गच्छेऽपि तदनुरूपंतृतीयराज्याईकुमारा पउरतणपाणियाई, रहियाई खुहर्जतहिं । नुरुपमाचार्य स्थापयन्ति । श्यमत्र नावना । आचार्यण व्या नेइ विमो गोणीउ, जाणइ य उवट्ठकाझं Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२०) उवसंपया अभिधानराजेन्मः। उवसंपया वृषो वलीची गोधनानि प्रचुरतृणपानीयानि तथा कुषज- वर्तनस्य वा अभावो यदि ततो यावत्पातिके चातुर्मासिके न्तुभिः कुरुप्राणिनी रहितान नयति जानाति च । उपस्थान- संवत्सरे वा कुझस्थविराणां वा गमनं नवति तावत्तत्प्रतीकमाकालमन्यागमवेलां ज्ञात्वा च स्वस्थानमानयति एवमभिनय- ण आस्ते तेषु च कुंलादिस्थविरषु समागतेषु निवेदयति तथाप्यस्थापित आचायाँ गच्छ स्वस्वव्यापार नियोजयन्परिपालयति । तिष्ठत्सु ततो निर्गमनमेतदेव व्याचिख्यासुः प्रथमता वृषभचोदअत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह । नं सप्रायश्चित्तमाह। जह गयकुलसंनूतो, गिरिकंदरविसमवस्य उग्गेमु । गुरुवसभगीयगीते, अचोदेंति गुरुगमादि जा लटुओ। .. परिवहति अपरितंतो, निययसरीरुग्गवेदंते ।। सारेइ सारवई, खरमउएहिं जहावत्थं ।। यथा गजकुलसंभूतोऽनेन जात्यतामाह गिरिकन्दरेषु गिरिगु- वृषनः प्रतिपन्नगच्चभारः स्वयं सारयति शिक्कयति अथवा यो हासु विषमकटकेषु विषमेषुगिरिपादेषु दुर्गेषु वा अपरित्रान्तोऽ येनोपशाम्यति तं तेन सारापयति शिक्कापयति । कथमित्याह । श्रान्तः सन्निजशरीरोगतान् दन्तान्परिवहति !! आचार्योपाध्यायवृषभस्थविरनिनुकाणां मध्ये यथावस्तु वस्त्वझ्यपवयणभत्तिगतो, साहम्मि य वच्चझो असहनायो। नतिक्रमण खरमृदुभिर्वचनैः सारयति सारापयति वा । किमुक्तं परिवह साहुबग्गं, खेत्तविसमकालदुग्गेसु ॥ भवति यः खरेण साध्यस्तं खरेण खरण्टयति मृदुसाध्य मृदुइति अनेन गजदृष्टान्तप्रकारेण प्रवचनभक्तिगतो गच्छवाह भिवचनैः सारयति अन्यथा प्रायश्चित्तं तदेव पूर्वान निदर्शयकत्वं प्रवचनभक्तिं मन्यमानः साधम्मिकवत्सलो लिङ्गप्रवच ति (गुरु इत्यादि ) वृषनो गुरुमाचार्यमुपाध्यायं वान प्रतिचोदनाभ्यां ये साधम्मिकास्तद्वात्सल्यपरायणोशठभावोऽमायावी यति तदा चतुर्गुरुकं वृषनो वृषभं न प्रतिचोदयति चतुघु । विषमेषु केत्रेषु विषमेषु च कालेषु पुर्भिक्षमार्याापद्रवतात वृषनो गातार्थ न प्रतिचोदयति मासलघु । अक्करयोजना त्वेवं संकुलेषु दुर्गेषु च साधुवर्ग परिवहति तस्य समीपे स्थातव्यम् । गुरुवृषभगीतागीतान् चोदयन्ति । गुर्धादिचतुर्गुरुप्रतियावदगतमसतीति द्वारम् । न्ते लघुको मासः । अत्र पुनःसीदत्सु चत्वारो भङ्गास्तानेवाह ॥ इदानीमागमनद्वारमाह गच्छो गणी नसीयप, विई न गणीउ तइए न वि गच्छो । जत्थ पचिट्ठो जइ तेसु, उज्जया होन पच्छहा वेति । जत्थ गणी अविसीयइ, सो पावतरो न उण गच्छ । सीसा आयरितो वा, परिहाणी तत्थिमा होइ । गच्छः सीदति गण। चेति प्रथमः । गच्छः सीदति न गणीति यत्र गरके सशिष्यपरिवारः प्रविष्टः सन् सूत्रार्थानामागमनं द्वितीयः । न गच्छःसीदति किं तु गणीति तृतीयः। न गच्चोनापि करोति तत्र यदि ते साधवः पूर्व सुष्टु उद्यता भूत्वा पश्चात्सा गणीति चतुर्थः। तथा चाह द्वितीये जङ्गे गणी न सीदति तृतीय माचारी हापयन्ति प्राचायाँ वा पश्चात्परिहापयति । तत्र हानि न गच्चः चतुर्थे सीदनमधिकृत्य शून्य इति नोपात्तः । तत्रायेषु रियं वक्ष्यमाणा भवति ज्ञातव्या । तामेवाह ॥ त्रिषु भङ्गेषु मध्ये यत्र प्रयमे तृतीये वा गण। स पापतरो यत्र पुनर्ग: सीदति न गणी नासौ हितीयः पापतरः । कि पमिनेह दियतुयट्टण-निक्खिवायाणविनयसकाए । कारणतिति चेदत आह । आलोयठवागममलि-भासागिहमत्तसेजतरे ।। आयरिए जयमाणे, चोए जे मुहं हवा गच्छो । (पडिलहित्ति) उपकरणं न प्रत्युपेक्वन्ते । तथा अग्लाना ताम्म न विसीयमाणे, चायणमयर कहं गेएहे ॥ मार्गपरिश्रमरहिताश्च दिवा त्वग्वर्तनं कुर्वन्ति शेरते इत्यर्थः (निक्खिवत्ति) दमादिकं निक्तिपन्तःप्रत्युपेक्वन्ते न परिमार्ज प्राचार्य यतमाने गच्छः सुखेन चोदायितुं शक्यमानो भयेत् यन्ति दोषैर्वा दुष्टं प्रत्युपेकणं परिमार्जनंवा कुरुते (आयाणत्ति) आचार्यस्य प्रतिजयाभावादतः प्रथमतृतीया भङ्गा एतस्मिन्नादण्डादिकमाददाना न प्रत्युपेक्षन्त न प्रमार्जयन्ति दुष्प्रत्युपेकण चार्ये पुनर्विषीदति चोदनां शिवामितरे साधवः कथं गृह्णीयुदुषमार्जनं वा कुर्वन्ति । विनयं कृतकर्मलकणं वाचनादिषु न च गृहीयुरिति भावः । आचार्यप्रतिनयाभावादतः प्रथमतृतीन कुर्वन्ति (सज्झाएत्ति) स्वाध्यायो वा न क्रियते । मण्डली यो ना पापतरौ न द्वितीय इति ।। सामाचारी वा न कुर्वन्ति ( आलोयत्ति ) संखडी शरीरं वा आसपछिएसु नज्जुएसु, जहति सहसा न तं गच्छं। प्रलोकन्ते यदि चा आलोचना न क्रियते । अनालोचितं भुञ्जते मा दृसज अपुढे, दृरतरे चापणो सेज्जा ।। इत्यर्थः ( ठवणसि) स्थापना कुलानि विशन्ति स्थापितं वा यद्यपि नाम आसन्ने प्रदेशे उद्यतविहारिणः स्थिता षिचन्ते त. गृह्णन्ति ( मंडलित्ति) भोजनमण्डली सामाचा हापयन्ति थापि तेष्वासन्नस्थितेषुद्यतेषु सहसा न तं गच्छ जहाति परि( भासत्ति) भाषायामसमिता भाषन्ते एकग्रहणे तज्जातीयग्रह- त्यजति किं कारणमिति चेदत प्राह तन्मा अपुष्टान दृषयेत् गणमिति न्यायात् । शेषास्वपि समितिष्यसामिता (गिहिम- चम् । किमुक्तं नवतिाये न विषीदन्ति तेऽपि संदित्साधुसंसर्गत्तत्ति) गृहिमात्रकेषु पर्यलकादिवानीतं गृह्णन्ति (सेजयरेत्ति) तो मा विषादेयुरिति येऽपि सीदन्ति तेऽतिदरतरं निर्गततर शय्यातरपिण्डं भुञ्जते ॥ प्रणश्ययुधिषीदयुः । तदेवं वृषभचोदनं नाषितम एमार्य। सीयंते, वसभा चोयंति चिट्ठति ठियम्मि। इदानीं स्थविरागमनं नावयति । अप्सती थेरा गमणं, अच्चति ताहे पडिच्चंती ।। कुलथेरादी आगम-चोयागया जेसु विप्पमायति । एवमादिष्यादिशब्दाफुमादिपरिग्रहः । सीदतः साधून गुरुं चादयति तेसुगणं, अधिएम उ निग्गमो भणिती ।। वा वृषनाश्चोदयन्ति शिवयन्ति । तत्र यदि चोदितः साधुवाँ वृषभशिकायाः प्रत्यावर्त्तनस्य वा अभाये पालिके चातुर्मामि गुरुवा तिष्ठति ततस्तस्मिन् स्थिते सोऽपि सशिष्यपरिवार आग- के सांवत्सरिक चा यावत् कुलस्थविराणां गणस्थचिराणां संन्तुकम्तिष्ठति ( असतीइत्यादि ) असन् शिकायाः पुनः प्रन्या- इस्पविराणं वा यागमस्ताचप्रतीकत कुलस्थविरादीनां चाराम Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया अनिधानराजेन्धः। जवसंपया तेषां निवेदना क्रियते ततस्ते स्थविरा येषुस्थानेषु ये विप्रमाद्य- साहम्मिएमु जयणा, तिमि दिण पमिछसमाए । न्ति तेषु स्थानेषु वान प्रतिचोदिताः। यदि स्थितेषु सत्सु स शि- (सविगंति ) संविग्नगुणेनैकेनान्तरिता व्यवहिताः संविग्नध्यपरिवारस्तत्रैव स्थानं करोति स्यितेन च तेन द्विविधाऽपि कान्तरिता असंविग्नास्तेषु कारणवशता गम्तव्यं तत्र म निकां शिक्का शिक्कर्णीया। अथ ते चोदिताः सन्तो न स्थितास्ततस्तेष्व निधसनं च कुर्वतो यथा प्रथमोद्देशके परिहारिकम्य यतनोक्ता स्थितेषु ततो गच्छति गच्चनिगमोजणितस्तीर्थकरगणधरैः गत तथात्रापि व्या। तैरपि असंविम्नैर्यदि स एकाकी ततः एकामागममद्वारम् । पतितं निर्गमद्वारमतस्तदेव भावयति । किनः सतस्तस्य संघाटको दातव्यः । अथ योऽसौ द्वितीयको कापसमत्ते विहर, असमत्ते जत्य हुँति आसन्ना। योग्या दातव्यः सोऽन्यत्र प्रेषणेन गतो वर्तते ततस्ते धूयुराचासाहम्मि तहिं गच्छे, असताए ताहि दूरं पि ।। ये पकरावं द्विरा त्रिरात्रं पा प्रतीक्षणीयः । तत एतेन कारयदि प्राचारप्रकल्पः सूत्रतोऽर्थतश्च समाप्तो भवति ततस्तस्मि णेनोत्कर्षतः त्रिरात्रमपि प्रतीक्षत असति संघाटके एक पका. न कल्पे आचारप्रकल्पे समाप्ते स्वयं यथाविहारक्रम विहरति । की व्रजेत् तस्य च तथा यजतोऽपान्तराझे यदि मार्भिका भव. अथ नाद्यापि समाप्त प्राचारप्रकल्पस्तहि तस्मिन्नसमाप्ते यस्यां न्ति ततस्तन्मध्ये गत्वा वस्तव्यम् । कारणं च निवेदितमा कारणे दिशि प्रासमा अनन्तरकेत्रवर्तिनः सार्धामकाः संविम्नसांनो तैः संघाटको दातव्यस्तदभाव ततो ब्रजनीयमथ प्रतिपृच्छा गिकास्तत्र गच्छत् । अथासना न विद्यन्तं तत आसनानामस निमित्तमेकं त्रीणि वा दिनानि यावत्प्रतीक्षापयेत् तत आह त्यनावे दूरमपि गच्छेत् । कयं गच्छेदत आह। स्वाध्यायनिमित्तं प्रतिपृच्छानिमित्समित्यर्थः नुस्कर्षतस्त्रीणि दिनाबझ्यादीए दोसे अ-संविग्गे यावि सो परिहरंतो। नि प्रतीकेत एषा साधर्मिमकेषु यतनातदेवमसंविनद्वारमुक्तम् । इदानी निवेदनाद्वारमाह । केउ असंविग्गा खबु, नइया दीया मुणेयध्या।। बहिगामघरे सन्नी, सो वा सागारिओ बहिं अंतो । जिकादीन् दोषान् व्रजिका गोकुलम आदिशब्दात स्वमातापितृपूर्वपरिचितपश्चात्परिचितकुलपरिग्रहस्तान् दोषान इह ब्र गणनिमज्जतुयट्टण-गहियागहिएण जागरणा ॥ जिकादयः प्रतिबन्धदोषहेतुत्वाहोषा इत्युक्तास्तथा संविग्नांश्चापि संविग्नसमनोझानामजावे ग्रामस्य बहित्यिकादीनां निवेद्य स परिहर गच्छेत् । अथ के खज्यसंविग्नाः सुरिराह । नित्या तिष्ठति प्रामस्य बहिः प्रत्यपायसंभवे ग्रामस्यान्तः शून्यगृहे तत्रादेया नित्यवाम्यादयस्ते ज्ञातव्याः। तेषामपि हरणे प्रवेशादी पिनिवेदना कर्तव्या । न्यगृहस्याभावे संझी श्रावकस्तस्य गृहे प्रायश्चित्तविधिमा । वस्तव्यम् । स चा संझी श्रावकः सागारिकोऽगारिसहितः स्यानिइयादीए अहच्छंद, वज्जिए पविसदाणगहणे य । त्तर्हि तस्य गृहस्य बहिरन्ती या कुटी तत्र वस्तव्यम् । तस्या अप्यभावे अमनोझेषु संविग्नेयुवस्तव्यम् । तेषामप्यनाये नित्यकाबहुगा लुंजणगुरुगा, संघामे मासो जम ण ॥ दिष्वसंविग्नेषु वसति । तत्रेयं यतना स्थानमर्द्धस्थानं निषद्या इह मार्गे गच्चता अपान्तराले संविग्नसुमनोकानां वसती उपवेशनम् त्वग्वर्तनं दीर्घकायप्रसारणं ते गृहीतेनागृहीतेन वस्तव्यं तदभावे नैत्यिकादीनां संचिम्ने च अमनोज्ञानां निवेद्या उपकरणेन जागरणं कर्तव्यम् । एष द्वारगाथासंकेपार्थः व्यासान्यस्यां यसतौ स्थातव्यं यदि पुनर्नेत्यिको नित्यवासी आदिश- थे त्वनिधित्सुराह । प्रथमतो बहिर्मामेति व्यख्यानयति । ब्दापार्श्वस्थादिपरिग्रहस्तस्मिन् नेत्यिकादिके यथाच्छन्दवञ्जिते वसही समणुष्पास, ग.मवाहि ठाइ सो निवेदे । प्रविशति यदि वा तेज्यः किमपि भक्तादिकं ददाति अथवा तेभ्यो अनिवेदियम्मि लहु तु, आमाविराहणा चेव ॥ गृहति तदा प्रवेशे ग्रहणे दाने च प्रत्येकं चत्वारो अघुकाः। (नु समनोझानां संविग्नानां वसतेरसत्यभावे प्रामावहिस्तिष्ठति जणगुरुका ति ) अथ तैः सह नुते तदा नोजने चत्वारो गु न पुनर्नत्यिकादिष्वसंविग्नेषु प्रवेष्टव्यं प्रागुत प्रायश्चित्तभावात्। रुकाः । अथ नैत्यिकादिसंघाटं याचित्या तेन सह हिरामते ततः सच बहिस्तिष्ठति तेयां नैत्यिकादीनां वा संविग्नानां वा अमनोसंघाटेन हिामने अघुको मासः ( जमणमिति ) यञ्च तेन संघाट झानां निवेद्य कथयित्वा यदि पुनर्न निवेदयति ततोऽनिवेदिते केन हिएममानोऽकल्पिकग्रहणतस्तदास्वादते न बाम्पश्यतः प्रायश्चित लघुको मासः । आझादिविराधना आदिग्रहणादान्मसेविप्यते तदपि च प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । तदेवं यथाच्नन्दवर्जि विराधना संयमविराधना व परिगृह्यते । तथाहि श्यं जगवदातोनत्यिकादौ प्रवेशादिपु प्रायश्चित्तमुक्तमधुना यथाच्चन्दे तदाह झा तेषां निवेद्य दिर्वस्तव्यम् । अनिवेदनायामाझालोपः । पए चेव य गुरुगा, पच्छित्ता होंति उ अहाच्छंदे । आत्मविराधनां संयमविराधनां चाह । अणमामसुं मासो, गंजणं होति चनगुरुगा ।। गलपन कहिंति, कोहे। जं च पाविहिती तत्थ । एतान्येय प्रायश्चित्तानि यथाच्चन्दे गुरुकानि भवन्ति । तद्यथा तम्हा उ निवेएज्जा, .यणा एतेसिमाएन ।। प्रवेशे दाने ग्रहणे नोजने चत्वारो गरुकाः। संघाटे गुरुको मासः अनिवेदने सति कदाचित् ग्यानो जायेतं ग्नान्ये सति नास्माकं अथामनोझेषु संविग्नेषु प्रविशति तदा प्रवेशे दाने ग्रहणे नोजने किमपि तेन निवेदितमिति क्रोधेन न किमाप खाने कृत्यं करिचत्वारो गुरुकाः । संघाटे गुरुको मासः । अथामनाझेषु संविग्नेषु प्यन्ति ! गृहस्थाश्च तं तथान्तं ग्वानं दृष्ट्वा तेषां नत्यिकादीनां प्रविशति तदा प्रवेशे दाने ग्रहण च प्रत्येकं लघुको मामः । अ. निवेदयेयुर्यधा युष्मदीयो ग्यानोऽसंग्राहको वर्तते ततस्ते बयुतैः सह तु तदा चत्वारो गुरुकाः संघाटे बघुको मासः । यत मध्ये या पपोऽम्मदीयो न जवति यदि भवेत्तदा अस्माकमुपापवमसंधिग्नेषु प्रायश्चित्तानि तस्मादेतापरिहरेत् । अथ माग श्रय तिष्ठत् निवेदयेद्वा । एवं यत्र सानत्वेन वा आरक्ककादिनसंविम्ना न सन्ति ततः कारणवशतोऽसंघिग्नेष्वपि गन्तव्यं प हणं तत्र यदर्थं प्राप्स्यति संयमविराधनात्मकमात्मविराधनात्मतितमिदानीमसंविग्नद्वारं तेषु च गया यन्कर्तव्यं तदाह । कंवा तत्सर्वमनिवेदनानिमित्तं तस्मात्तेषामनया वक्ष्यमाणया मंदिग्गगंतरिया, पमिसंपामए असति एगो । यतनया निवेदयेत् । तामेव यतनामा । Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२२) उवसंपया अनिधानराजेधः। उवसंपया तुम्नं अहेसि दारं, उस्सरोत्ति जुताए एवं तु । संयतीरहिताभावे कामचारिणीभिः संयतीनिः सहिते वस्तव्यन य नज्ज सत्या वि, चक्षिहि किं केत्तियं वेझं ॥ | म् । एतदेव सप्रपञ्चमनिधातुकाम पाह। यदादमागतस्तदा युष्माकमुपाययद्वारं संकुचितमासीत्तत एवं सेज्जुबहिलत्तसुच्छ, संजरहिए य जंगसोलसओ । मया विकल्पितमुत्सूरं वर्तते इति युतायां पृथग्नूतायां वसताधु संजइ अकालचारिणि, सांहए बहुदोसला वसही ।। पितः। अपि च न च ज्ञायते सार्थोऽपि किं कियती बेला सप्तम्यर्थे शय्याशुरू नपधिशुको नक्तशुकः संयतीरहित इति चतर्षु पदेव्याप्ती द्वितीया कस्यां वेलायां चमिष्यति ततः पृथगुपाश्रये स्थि- षुसप्रतिपके पक्षाः षोमश तद्यथा शय्याशुरू उपधिशुद्धो भक्ततः । भथ स वेडायामागतस्तत इदं वदेत् ॥ शुरुः संयतीरहित इति प्रथमः । शव्याशुरू उपाधिशुकोजक्तशुरुः माइसगासे वसिउं, अतिप्पियं मज्क किं करेमित्ति । संयतीसहित इति द्वितीय इत्यादि प्रस्तारैश्चार्पणीयाः। एतेषु च षोडशसु नङ्गेषु मध्ये यत्र यत्र संयत्यस्तत्र कालचारिणीससत्यवनो हं भंते. गोसे में वहेज उदंतं ।। हिते वस्तव्यं नाकासचारिणीनिर्यत आह संयतीनिरकासचारिसाधुसकाशे साधुसमीपे च वस्तुं ममातिप्रियं परं नदन्त ! णीभिः सहिता बहुदोषा वसतिरिति । प्राह पूर्वमुपधिनतशय्यासार्थवशोऽहं ततः किं करोमि तस्मात् (गोसे में वहेज्जह उ शुका इत्युक्तमिदानी प्रचिन्तायां प्रथमतः शय्योपात्तं तत्र किं दंतं ) साधो ! प्रभाते मे उदन्तं वातौ बहेत | कारणमत ग्राह। एवं न उ दृरुस्से, अह बाहिं होज पच्चवायाओ। सागारितणाहिमवासदोसा, दुस्सोहिया तत्य उ होइ सेजा। ताहे सुबहघरादिसु, वसतिनिवेदितुं तह चेव ।। बत्यन्नपाणाणि व वत्य ठिच्चा,गएहति जोग्गाणुवहुंजते वा ॥ पवमनया यतनया निवेदितुं नैव प्रामावहिरं वसेत् किं तु शयां विना मगल्यामुपविधायां सागारिकाः समापतन्ति उपग्रामस्य समीपे बसेदय बहिस्तेनादिकृताः प्रत्यवाया अनर्था धिग्रहणाय स्तेना वा निपतन्ति हिमप्रपाते वा संयमात्मविराधना भवेयुस्ततस्तथैव पूर्वोक्तप्रकारेणैव निवद्य शून्यगृहादिषु वसति- दोषाः । तत्र तेषु शय्योपधिवक्तेषु मध्ये शय्या दुःशोधितानमादिशब्दात श्रावकगृहादिपरिग्रहः । एतदेव भावयति । वति । आहारोपधयः शुकाः सुखेन लभ्यन्ते महता कष्टेन पुनः अगुवासियसकवाम-निविले वसति सुमे । शुका बसतिरिति नावः । तथा तत्र शय्यायां स्थित्वा योग्यानि तस्सासइ सुम्मघरे, इत्थीरहिते वसेज्जा वा ।। कल्पनीयानि वस्त्रानपानानि गृहन्त्युपतुजते च। पतैः कारणैर्जअधुना सांप्रतमुद्वासितमधुनोद्वासितं सकपाटं कपाटसहितम चिन्तायां प्रममतः शय्या कृता तथा ॥ न्यया स्तेनादिप्रवेशसंजवात् निर्विलं विलरहितमन्यथा सर्पा- आहारावहिसेज्जा, उत्तरमूझे असुके य । दिसंजवात निश्च न जराजतिया पतितुं प्रवृत्तम् अमीषां च अप्पतरदोमपुब्धि, असतीए महन्नदासे वि ।। चतुर्णी पदानां षोडश भङ्गाः । तत्र प्रथमो भङ्गः शुरुः शेषा अ आहारोपधिशय्याभिरुत्तरगुणविषये अशुद्ध शुरु इति भङ्गैगुहास्तत आह इत्थम्भूते शून्ये गृडे वसति तस्य शून्यगृहस्या रस्पतरा दोषा इत्यत आह प्रथमचिन्तायां ये घोरश नङ्गाः प्रागुसत्यभावे संझिगृहे श्रावकगृहे । सोऽपि श्रावको द्विधा संनयति क्तास्तेषु मध्ये पूर्वमल्पतरदोषे वस्तव्यं तस्यासत्यनावे महादोसस्त्रीकः स्त्रीरहितो वा । तत्र स्त्रीरहिते वसेत् । पेऽपि । अथ कस्मिन् जके अल्पतरदोषा इत्यत आह । सहिए वा अंतोवहि, अंतोवीसु घरकुमीए वा । पढमासति विध्यम्मिवि, तहियं पुण गइ कालचारीम् । तस्मासति नइया दिसु वसेज उ इमा य जयणाए । एमेव सेसएम वि, उक्कमकरणं पि पूएमो॥ स्त्रीरहितस्य श्रावकगृहस्थाभावे सहिते वा स्त्रीसहितेवा श्रा सर्वेषां भङ्गानां मध्य प्रथमभङ्ग सल्पितरदोषा इति तत्र वकगृहे तस्य गृहस्यान्तर्बहिर्वा विविक्ते प्रदेशे वसेत् अन्यथा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु तस्याप्यनावे तस्य धायकस्य पहिरन्तः पृष्ठतः। वस्तव्यं प्रथमस्यासत्यनावे द्वितोयपि तत्र पुनस्तिष्ठति कालचा रिणीषु संयतीषुपवमेव शेषेष्यपि नङ्गेषु वसति ।किमुक्तं नवपार्श्वतो वा यदिवाऽन्तर्गृहस्य कुटीसमस्ति तस्यां वसेत्। तस्य. ति । येवप्यन्येषु भङ्गेषु संयतीसहितपदं तेष्वपि कालचारिणीपि कुटीरकस्यासत्यभावे नैत्यिकादिष्वपिशब्दात् पार्श्वस्थादि भिः सहितेषु वस्तव्यं नाकाबचारिण भिरिति । तथा कमकरणपरिग्रहोऽनया वक्ष्यमाणया यतनया वसेत् पनायता मूलद्वार मपि अकालचारिणनिः सहितत्वमपि पूजयामः उपादेयतया गायोपन्धस्तं निवेदनाद्वारमगमत् ॥ यतनाद्वारमापतितमिदानी प्रशंसयामः सर्वेषां जङ्गानां मध्ये कथमिति चेदुच्यते यस्मिन् तामेव यतनामाह। जङ्गे छाय्यानक्तोपधयः समुदिता भङ्गत एकष्किा वा शुद्धास्तत्र निश्यादि नवधिजते, मेज्जा सुद्धा य उत्तरे मझे। यद्यकाबनारिण्यो भक्तं पानं वा दत्वा गृहीत्वा तवणमेव बजमंजरहिए काले, माए अनिक्वं च ॥ न्ति न पुनरागच्छन्ति स्वाध्यायं वा कृत्वा सकाने गच्छन्ति तत्र ये नैयिकादय उपधा भक्ते शय्यायामुत्तरगुणर्मूलगुणैर्या शुकाः स्थातव्यं प्रायो दोषाभावादिति । किमुक्तं भवन्ति । ये जसरगुण बगुणैर्चा शुझांशयां गवेषयन्ति । पतदेव स्पष्टतरमाद ॥ शुरूं भक्तं शुरुमुपधि तेषु वसेत् तत्रापि संयतीर हिते तदनाये सेज सोहे उबहि, भत्तं सोहेइ संजतीरहितो । संयतीसहितेऽपि । ताश्व संयत्यो द्विधा कामचारिगयोऽकाल- पढमो वितिओ संजइ-सहिो तओ पुण कालचारीतो।। चारिण्यश्च । तत्र याः । पाक्तिकादिष्वागच्छन्ति ताः कारचारि- शग्यां शोधयति उपधि शोधयति भक्तं शोधयति संयतीरहियस्तद्व्यतिरेकेणागचन्त्योऽकाझचारिण्यः स्वाध्यायनिमित्त- तश्चेति प्रथमो भङ्गः। द्वितीयः संयतीसहितस्ताः पुनः संयत्यः मभीक्ष्णं चशब्दात जक्तपानं दातुं ग्रहीतुं वा कन्दपार्थ वा । कालचारिण्यो यदि स्युस्तदा वस्तव्यमेवं शेषेष्वपि संयतीसतत्राकायचारिणीय बहयो दोषाः कामचारिणीच्वल्पतरा इति ] हितेषु नोट जावनीयम् । Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२३) नवसंपया अभिधानराजेन्डः। नवसंपया अथाकायचारिणयः कथं स्युरित्यत आह । रात्रि कल्पते किमुत किं पुनरन्येष्वसांभोगिकेष्ववसने उपलआयाणे कंदप्पे, बियाल करालियं वसंतीणं । क्षणमेतत् पार्श्वस्थादिषु वा । तत्र सुतरामेकराज्यधिकं न निययाद। बदमहा, संजोए मोत्तहा बंदे॥ कल्पते कारणवशतः पुनरुत्कर्षतस्त्रीणि दिनानि वसेत् गतं निभक्तपानादीनामादाने उपलकणमेतत् दाने च तथा कन्दर्पनि सृष्टद्वारम् । इदानीं " दोहबद्धं परिच्छतीत्ये" तयाख्यानार्थ माह (असढो इत्यादि ) असठः पुनर्न केवलमुत्कर्षतस्त्रीणि मित्तं कन्दप्पग्रहणमुपलक्कणं स्वाध्यायनिमित्तंच यिकाले पौराशि दिनानि किं तु चिरमपि प्रभूतकालमप्येभिर्वक्ष्यमाणैः कारणकमतिशयेन स्फारेप्रभूतवेवायामिति यावत् संयतीनामकामचारिणी त्वं अष्टव्यम् । एवं नैत्यिकादीनां यः षम् दशधा षोमशन यतनया तिष्ठेत् । तान्येव कारणान्याह कारः संयोगस्तत्र वस्तव्यं किं सर्वत्र नेत्याह मुक्त्वा यथाच्चन्दा. वासं खंधारनदी, तेणासावयवसण सत्थस्स । किमुक्तं भवति तेषु सत्सु यथाच्चदेषु न वस्तव्यं तदभाव तत्रा. एएहिं कारणेहिं, अजयणजयणा य नायव्या ।। पि बसेत् । संप्रत्येतेषु नैत्यिकादिषु संवासमधिकृत्य यतनामाह। वर्षे पतति स्कन्धावारः कटकं तद्वा चलति नदी गिरिनदी गहियनिसियतुय? वा, गहियागहिए य जग्गसुवणं वा ।। पूर्णा वर्तते स्तेना अपान्तराले द्विविधा शरीरापहारिण उपकरपासत्थाद। ऐवं, नियए मोत्तुं अपरिजूते ।।। णापहारिणश्च श्वापदाः सिंहादयः सार्थस्य वा वशेन गच्छति सार्थश्च चिरमपि तिष्ठन् वर्तते एतैः कारणैश्चिरमप्यपान्तराले पार्श्वस्थादीनामुपाश्रयेषु (गहियत्ति) गृहीतोपकरणः स्थित कर्कस्थितो वसेत् । यद्येवं स्थातुं न शक्नोति ततो गृहीतोपकरण तिष्ठति तत्रायतना यतना वा ज्ञातव्या । तत्र यदि यतना कृता एव निषद्योपगतो जाग्रत्तिष्ठेत् तथाप्यशक्नुवन् गृहीतोपकरण तदान प्रायश्चित्तविषयः । अथायतनामाचरितवान् तदा प्राय श्चित्तं लगति । उक्तः शुद्धस्याशुद्धगमनमिति द्वितीयो भङ्गः। स्त्वगृतो जाग्रदवतिष्ठेत् । अथ त्रिष्वप्येतेषु यदि कथमपि प्रच संप्रति तृतीयचतुर्थभङ्गावाह ॥ लाया आशङ्का तदा मा पात्रादिभङ्गः स्थादित्युपकरणं पार्थे निक्किप्यागृहीतोपकरणो यथासमाधिस्थितो निषमस्त्वगृतो दोसा उ ततियनंग, गाणगणिया य गजेदो य । वा जाप्रत्तिष्ठेत् अथ जागरणं कर्तुं न शक्नोति तत प्राह स्वपन् सुयहाणी कायवहो, दोसि वि दोसा जवे चरिमे ।। वा गृहीतोपकरणोऽगृह तोपकरणो वा यथा समाधिं कुर्यात् । एवं दोषौ द्वौ तृतीयभने अशुद्धस्य शुद्धगमनमित्येवलकणे तयतना पार्श्वस्थादीनामुपाश्रयेषु अष्टव्या। नैत्यिके नित्यवास्युपा- द्यथा गाणगणिकता गणे गणे प्रविशतीत्येवं प्रवादलक्षणा श्रये नित्यवासिपरिनुक्तान् प्रदेशान् मुक्त्वा अपरिनुक्ते प्रदेशे तद्यथा गच्छभेदतश्च । तथाहि तस्मिन्निर्गच्छत्यन्येऽप्येवमेव उपकरणं निक्तिप्य यथासमाधि जाग्रत्स्वपन्या वसेत् । निर्गच्छन्ति ततो जायते गणविनाशः।चरमेऽप्यशुद्धस्यागुरुगएमेव अहाच्छंदे, पमिहणणजाणअज्यणकामा । मनमित्येवंरूपे भने द्वौ दोषौ अपिशब्दो भिन्नक्रमः स च यथागणवितो विनिसामे, सुण आहरणं च गहिएणं ॥ स्थानं योजितः । श्रुतहानिः कायवधश्च निष्कारणं दोषबहुलएवमेव पार्श्वस्थादिगतेनैव प्रकारेण यथाच्छन्देऽपि यतना क तया यातो निर्गमने ह्यत्रापि नावकाश इति श्रुतहानिर्मार्गे च तव्या । नवरं यदि शक्तिस्तर्हि तस्य प्रतिहननं कर्तव्यं यया स गतो ग्लानत्वादिभावतो वा कायवधः । तदेवं भाषितम्स्वाग्रह मुञ्चति । अथ न विद्यते तादृशी शक्तिस्तार्हे ध्यान तथा तुबद्धविषयम् ॥ संप्रति वर्षावासविषयं सूत्रमाह । भ्या यति यथा तद्वचो न शृणोति यदि वा [अज्झयणत्ति] यथाचन्दप्रज्ञापनाप्रतिश्रवणमध्ययनं परावर्तयति यथा स ते मामां (सूत्रम् ) वासावासे पज्जासबिए जिक्खू य जं पुरो कटु नाशयेति [कम्पत्ति ] तस्य यथास्वच्छन्दं देशनां कुर्वतः कर्णी विहरेज्जा सेय पाहच विसं जेज्जा अस्थि वा इत्य के नवसं निजी स्यगयति येन देशनां न शृणोति दूरतरंवा तिष्ठति । अथ पज्जणारिहे उवसंपज्जियवसिया णत्यि वा इत्थ केश अमे दूरतरस्थानस्थितोऽपि तद्देशनां निशमयतिन च नितां समाग नवसम्मारिहे तस्स य अप्पणो य से कप्पड़ जाव दे वा पचात ततः स यथाच्चन्दो वक्तव्यो यथा शृणु किमयाहरणं ततो यत्तस्यापूर्व तदाहरणं कथनीयम् [गहिपणंति ] गृहीते रिहारे वा॥ नात्मीयोपकरणेन । पतदेव युक्त्या रढयति ॥ (बासावासेपज्जो इत्यादि ) वर्षावासे पर्युषिते नितुर्य पुरतः ज: कारणे निगमणं, दिटुं एमेव सेसगा चनरो। कृत्वा विहरति आस्ते स कदाचित् विष्वग्नवेत् शरीरात्पृथओमे असंथरंते, आयारे बइयमादीहिं॥ म्नवेत् म्रियेत इत्यर्थः । अस्ति वान्यः कश्चिमुपसंपदनाईःस उपयथा कारणे कारणवशता निगमनं निर्गतं दृष्टमेवमेव तथा संपत्तव्यः । नास्ति वा तत्रान्यः कश्चिदुपसंपदनाहस्तर्हि स आकारणवशतः शेषाएयपि चत्वारि द्वाराण्यसंविग्ने निवेदना स्मनः कल्पे मा समाप्त इति ( से )तस्य कल्पते एकरात्रिक्या प्रयतना इत्येवमादीनि पानि यथा चाचारे श्राचारप्रकल्पे अवमे तिमया यत्र बसति तत्रैकरात्रानिग्रहणे ( जम्मं जन्ममित्यादि) दुर्भिक्षे जिकादिभिरपि आदिशब्दात्स्वशात्यमनोशासंविग्नप यस्यां यस्यां दिशि अन्य साधमिका विहरन्ति तां तां दिशमुरिग्रहो बजेदित्युक्तमतः सोपपत्तिकेयं यतनेति सम्यक् श्रद्धे या । पक्षातुं न पुनः (से) तस्य कल्पते । तत्रापान्तराने विहारप्रत्यय गतं यतनाद्वारम् ।। वस्तुं कल्पते ( से ) तस्य । तत्र कारणप्रत्ययं संघाटादिकारणअधुना निसृष्टद्वारमाह निमित्तं वस्तुं तस्मिश्च कारणानिष्ठिते यदि परो वदेत् यस आर्य! एकरात्रं द्विरत्रं वा वाशब्दात्त्रिरानं वा एवं (से) तस्य कस मणुमेसु वि वासो, एगनिसि किमत अप्समो माये । स्पते एकरात्र द्विरात्रं वा वाशब्दात्विरानं वा वस्तुं नो (से) असदो पुण जयणाए, अच्छेज चिरं विउ इमेहिं ।। तस्य कस्पते एकरात्रात् द्विरात्राद्वा परं वस्तुम् । यत्तत्र एकस मनोशेष्वपि अपान्तराले वास उत्सर्गत एकां निशामेका रात्राद द्विरात्राद्वा परं वसति ततः (से) तस्य स्वकृतादन्त Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवसंपया राच्छेदः परिहारो वा इति सूत्रार्थः । अत्र प्राप्यप्रपञ्चः । एमेद व वासा, भिक्खे बसहीए संकनाशनं । एगाचत्यादी असती हास्य तस्येव ।। एवमेवऋतुविषयस्तत्र तेनैव प्रकारेण वर्षासु सूत्रं नाचनीयं नवरं निकाय वसतौ शङ्कायाञ्च नानात्वं तत्रान्यत्र गन्तव्यमेकादेन चतुर्थेनादिशब्दात् षष्ठेनाष्टमेन वा असत्यम्यत्र गमने तत्रेय वर्षाः कर्त्तव्यः । वष द्वारगाथासंक्षेपार्थ सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः एवं शब्दं व्याख्यानयति । परिमाणे पिब्जावे, एगत्ते अवधारणे । एवं सद्दो उ एएसिं, एगत्ते न इहं जवे ॥ (१०२४) अभिधानराजेन्द्रः । एवं शब्दपरिमाणे चग्नये एकस्ये साधारणे परिमाणे यथा मन्येत्यादी पृथावे यथा पार शास्तिकायात् धर्मास्तिकायोऽपीति । एकत्वे यथाऽयमेतद्गुण मेोऽपि शब्दस्तयोरेकरूपतामनिद्योतयति । अथधारसे यथा केनापि पृष्ठमिदमयं भवति मित्थमेवेति भावः । एवमेवंशब्द एतेष्वर्थेषु वर्त्तते शह पुनरेकवे भवति वर्तते । एकत्ववृत्तिमेष जावयति ॥ एगचं उ सबके महेव गमणं तु जंगमउरो य । तह चैव य वासासु,नवरि इमं तत्थ नारणतं ॥ चिकत्वमेवं शब्दकामित्यवेऽयन्त गमन यथा च तत्र जङ्गाश्चत्वारः शुद्धस्य शुद्ध गमनमित्येवमादयस्तथा चैत्र तेनैव प्रकारेण गमनं भङ्गचतुष्टयं च ज्ञातव्यम् । नवरं केव लमिदं तत्र वर्षासु निकायां वसतौ शङ्कायां च नानात्वम् । तत्र भिकामधिकृत्याह । परागम इहरा परे ताज एसला पातो । तरस य संकमणे, गुरुगा लहूगा य आभरणा ॥ यो गच्छ ः प्रचुरान्नपाने स्थितस्तत्र गन्तव्यम् । इतरथा यदि पुनरागच्छे प्रविशति ततस्ते अस्तरन्त कृधा प रिलायन् परितापन हमारेपणाघातः कियते अनेषणीयमपि गृह्णीयुरित्यर्थः यथासंस्तरन्तः क्षेत्रसंक्रमणं कुर्वन्ति तदा कृषि क्षेत्रस्य संक्रमणे आरोपणाप्रायश्वितं पयारो गुरुकाः । वर्षाराभाद्रपदाभ्याचारो लघुका गर्त जिहाद्वारम् अधुना पखलिद्वारमाह बारगजग्गणदोसा सागारादी हवंति मासु । खादिफलाए, भाविणमित्थं पवासंति ।। यस्मिन् गच्छेति नोपपयं यदि पनरुपसंपद्यते तत इमे दोषाः संकटयां हि बखती वसन्तस्ते वारके क्रमेण जागरणं कुर्यान् स्वपतिसरं ले जा प्रत्यन्ये स्वपन्ति एवं क्रमेण जागरणेऽजीवादयो दोषाः । न्यायसति केचित्स्थपनाथ प्रजन्ति प्रागभिहि ताः शय्यायां सागारिकादयो दोषास्ते ऽपि भवन्ति गतं वसतिद्वारम् । इदानीं शङ्काद्वारमाह । भिकाया अनावतो वसतिसंक त्यदोषतो या संक्रमणं गच्छतो रा लोकस्य स्तेनादिशोपजायते यथा न कल्पते साधूनां वर्षासु गमनं तनूनमेते देरिकाः स्तेना या साधुपेणातिमन्ते अथवा भा परिपथातिमिवारूपं यदि यान निष्पत्स्य शस्यमित्येवंकणं ततोऽनागता नश्यन्ति तस्माद्वयमपि यत्नं - पदे पाने मे त्र जवसंपया दोषाः । तस्माद्ये प्रचुम्नपानग्रामे स्थिता ये च सावकाशायां वसतौ तत्र संपत्तव्यं तत्र चानया यतनया गन्तव्यम् । तामेवाह । जाविणादपरोपरं मिलतेगु । जा जाय, माणात बहू पासे ॥ ये श्रासने अनन्तरे क्षेत्रे स्थिता गच्छास्तत्र गन्तव्यमसत्यनक्षेत्रे परे क्षेत्रे स्थिता धर्मिकादिनिमित्तमाग धि परस्परं मिलद्भिर्गाथा सप्तमी तृतीयार्थे ऽपान्तराले पथि भाविता ग्रामास्तत्र गन्तव्यं तेषामप्यभावे दूरेऽपि गम्यते । as पुनर्भिकामहिण्डमानो गच्छति । किं कारणमत श्राह । ( माइत बहूपासे) मा रामिति वाक्यालङ्कारे भिकामदन्तं लोकोsभावितः पश्यनिति कृत्वा ततोऽभक्कार्थेन यावत्प्राप्यते षष्ठेन वा श्रष्टमेन वा तत्र गन्तव्यम् । श्राह यद्यपि चतुर्थादिना गच्छति तथापि लोकः पश्यति । तत्र आह ॥ पाय न रीयह जहां वास पडिवत्तिकोविदो जो य । असतो व पकेरे, अच्छर जाय जायति ॥ प्रायः कर्पजनः क्षेत्राणां जलकमाकुलतया शेषजनो मार्गस्थ जलदिन दुर्गमतया वर्षे वर्षाकाले नरपते ना ति । यचात्र प्रतिपतिकोविदः परप्रतिपादनकुशलस्तेन एममादिषु विषयेऽनेकान्युत्तराणि जल्पितव्यानि एतावता "एगाहत्थादी" इत्यादिव्याख्यातमिदानीमसती श्रपत्थतत्येवेति व्याख्यानार्थमाह । " असतोयवल्यादि" पूर्वोक्को विधिः सान्तरे वऽभिहितो यदि पुनरसत् पर्य या सततं वर्ष पतति यदि वा अतिदूरं गन्तव्यं नाष्टमेन प्राप्यते ततोऽसकृत् अवबद्धे वा वर्षे पतति दूरे गन्तव्यम् । तत्रैव वर्षारात्रं कृत्वा प्रभाते मेघकृतान्धकारापमगतः प्रभातकल्पे संवत्सर याति ॥ (३)भर्गणादपक्रम्येच्छेदन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुम ॥ (सूत्रम् ) निक्वू गणाओ अवक्रम्य प्रागणं उपसंपज्जित्ताणं विहरिज्जा तं च केइ साहम्मिया पासे ता वा अतो उनसंपािणं विहरति जे तत् सव्वराइणिए तावज्जा ग्रहं ने कप्पाड़ जे य तत्य बहुस्सुए तं भिमा जहा से जगवं वक्खति तस्स प्राणाश्ववाय वयदेिशे चिह्निस्सामि || rahuratक्रम्य विशिष्टसूत्रार्थनिमित्तमन्यगणमुपसंपद्य विहरेत्। तथोद्धामके भिचुरे प्रकार्यमन्तं रहा कसाधम्मिको वदेत् कार्यमुपसंपद्य त्वं विहरसि वर्ष पृष्टः सन् यस्तत्र सर्वरत्नाधिको गीतार्थ श्राचार्यस्तं वदेत् । तस्मि परिकल्पयति यमेष व्यपदिशति सोऽगीतार्थो नचायमगीतार्थनिश्रया विहरति ततो भूयः पृच्छति अथ भदन्त ! कस्य कल्पेन सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्कस्य निश्रयात्वं विहरसि पत्रमुक्ते यस्तत्र सर्वबहुश्रुतस्तं वदेत् तथा तस्य सर्वरत्नाधिकस्याचार्यस्थागीतार्थस्य यः शिष्यो गीतार्थः सूत्रार्थनिष्णातः समस्तस्यापि गच्त्रस्य तृप्तिकारी तनिश्रयाऽहं विहरामीति वदेत् । यं वा स भगवानाख्याति यथैतस्याज्ञा त्वया कर्त्तव्या तस्माकायामुपपाते समीपे वचननिर्देशे देशप्रतीच्यां स्थास्यामीति के पार्थः अधुना भाग्यव्ययकामा प्रथमतः सूत्रविषयमुपदर्शयति ॥ पत्रावित दिगंतूण उजयनिम्पातो | Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२५) नवसंपया अनिधानराजेन्द्रः। उवसंपया आगम्मसेससाहण-ततो य साहू गोमत्थ ॥ पुट्टो सुत्तत्यं ते, सरति निस्साय के विहरे ॥ कश्चिदीतैरगीतार्थैराचार्यैः प्रवाजितः सोऽन्यत्र गणे गत्वा | स तत्र गतो गत्वा वाऽध्येति एतपियमधिकृतं सूत्रमधुना सृषउजयतः सूत्रतेऽर्थतश्च निर्मितोऽभवत् ततः स स्वगणे आगम्य व्याख्यामाइ । सोऽधीयानोऽन्यदा उचामे उज़ामकनिकाशेषाणां गीतार्थानां साधूनांसाधनं करोति सर्वानपि गीतार्थान निमित्तं गतस्तब केनियाधार्मिकाः केचिदन्यगच्चवर्तिनः सासूत्रार्थ निमित्तमितस्ततो विप्रसृतानाचार्यसमीपमानयति समा- धवः सहान्यायिनो मिश्रितासः ( सन्नतिपहिति )सहाव्यायिनीय च तेषां सूत्रान् पूरयति छान्यदा ततो गच्चात्कोऽपि भिः पृटास्त तव सुत्रार्थ सरन्ति निर्वहन्ति तथा कं निश्राय मा साधुरन्यत्र गणान्तरे केनापि कार्येण गतः । श्रित्य भवान् विहरति । तत्य वि य असमाई, अत्ति अहेज्ज मा ण साहणं । अमुगं ति सो अगोतो, विहर करण गीयसिस्सस्स । विती मा पढ एवं, किंति य अत्यो महो एवं ॥ अहमद य तस्स कप्पा, जं वा भय उवदिसंति ।। तत्रापि च गणान्तरे अन्यं साधुमाचाराने "अट्टे तोप परिजिम्मे" एवं पृष्टः सन् यस्तत्र सर्वरत्नाधिको गीतार्थ याचार्यस्तं कथइति सूत्रे अट्टे इति अधीयानं परन्तं श्रुत्वा ने मा पर । एवं यति यथा अमुकं निश्रायाहं विहरामि एतावता "जे नत्थ सस प्राह किमिति इतरो ब्रूते अर्थो न नवति विसंवदत्येवं यथा | ब्वराशण य ते वपज्जा" इति व्याख्यातम् । एवमुक्ते ते चिन्तत्वं पसि अस्मात अट्टे इति द्विटकारको निर्देशोऽध्येतव्यः।। यन्ति यमेष प्राह सोऽगीता गीतार्थस्तता नूयः पुनन्ति कस्य अत्यो वि अस्थि एवं, आम नमोक्कारमादिसम्बस्स । कल्पेन कस्य गीतार्थस्य निश्रया भवान् विहरति पतेन " अहं करिस पुण अत्थो ति, वेती मुण सुत्तमट्टत्ति ॥ भंते फस्स कराए" इति व्याख्यातम् । स प्राह सूत्रबहुश्रुततया अधोयानः पृच्चति अर्थोऽपि न तु सूत्रस्यास्ति । इतरः प्राह । गीतार्थस्तस्य शिष्यस्तस्य कल्पेन समस्तो गणो विहरति । श्रश्राममेवं न केवलमस्य सूत्रस्यार्थोऽस्ति किं तु सर्वस्यापि हमपि च तस्य कस्पात विहरामि यं वा नगवन्त अपदिशान्ति यथाऽस्याका कर्तव्या तस्याझोपयातवचननिर्देशेषु स्थास्यामि । नमस्कारादिकस्य सूत्रस्यास्ति एवमुक्तोऽध्येता पृच्चति कोशः एतेन "जं वा सो जयवं अक्वाति" इत्यादि व्यातम् । इदमेय पुनरस्य सूत्रस्यार्थ इति । इतरो ब्रूते शृणुप्रथमतो यथावस्थित सूत्र ततः परति ( अट्टे शति) “अहे लोर परिजिएणे" इति एवं | स्रष्टं नावयति। रायणियस्स न गणो, गीयत्थोमस्त विहरइ निस्साए। पठित्वा अस्य व्याख्यानमाह। अहे चउबिहे खलु, दव्वेन वि मादि जत्थ तणकट्ठा ।। जो जेण होति महिती, तस्साणादी न हामि ॥ रात्निकस्य रत्नाधिकस्य गणोऽवमस्य गीतार्थस्य निश्रया विहमावर्तते पमिया, जह व मुवमादि पावट्टे । रति अहमपि तन्निश्रया विहरामि । अपि च तस्मिन् गणे यो येन अट्टः आर्तः खलु चतुर्विधस्तद्यथा नामातः स्थापनातॊ द्रव्यात? गुणेन तपःप्रवृतिना महितस्तस्याझादि प्राज्ञ समीपनवनं घचप्राधातः । तत्र नामस्थापने सुप्रतीते अन्यातॊऽपि नोआगमतो ननिर्देशं च न हापयामि सम्यकरोमीति भावः। व्य०वि०४ उण इशरीरभव्यशरीरव्यतीरित्तो यत्र नद्यादेः प्रदेशे तृणकाष्ठानि (चरिकाप्रविष्टस्योपसंपद्विधिः चरियापविक शब्द वक्ष्यते) पतितानि आवर्तन्ते यत्र वा सुवर्णाद्यावर्ततेस द्रष्टव्यः। आसर्वतः ४शैकेण सपरिच्छन्न रत्नाधिकस्योपसंपदातम्या। परिचमणेन रुतानि गतानि यत्र यो वा स आर्त इति व्युत्पत्तेः (सूत्रम् ) दो साहम्पिया एगतो विडरति तं जहा सेहे अहवा अत्तोभूतो, सञ्चित्तादहि होइ दवम्मि। रायणिए य तत्य सेहतराए पग्निच्छिन्ने रायणिए अपभाव कोहादीहिं, अभिभूतो होति अट्टो न॥ लिच्छन्ने तत्थ सेहतरएणं रातिणिए नवसंपज्जितव्वा अथवा सचित्तादिभिर्डव्यैरसंप्राप्तः प्राप्तवियुक्तर्वा य आर्तः स व्यातः अव्यरातों द्रव्यात इति व्युत्पत्तेः । क्रोधादिनिरभिभूतो | निकख ववहारवाला तिकप्पयं । १३ । नो भागमतो नाबार्तः । तदेवमार्तशब्दार्थ नक्तः । द्वौ साधर्मिमको समानगुरुकुलावेकतः सह ती विहरतस्तसंप्रति परिजीर्णशब्दार्थमाह ।। यया शैको रास्निकश्च तत्र यः शकः स परिच्चन परिवारोपरिजिम्मो उ दरिद्दो, दब्वे धणरयणसारपरिहीणो। पेतः रातिको रत्नाधिकोऽपरिच्चनः परिवाररहित इत्यर्थः भावे नाणादीहिं, परिजमो सव्वक्षोगा न॥ तशतरकण रत्नाधिक वसंपत्तव्यस्तया शतरको रत्ना धिकस्य निकामुपपातं विनयादिकं च कम्प्यं कल्पनीयं ददाति परिजीर्णोऽपि चतुर्विधस्तद्यथा नामपरिजीर्णः स्थापनापरिजी एप सूत्रसंक्षेपार्थः। गों व्यपरिजीर्णोनावपरिजीर्णश्च । तत्र भामस्थापने प्रतीते। अधुना नाप्यविस्तरः।। न्ये व्यतः परिजीर्णो नो आगमतो इशरीरजव्यशरीरव्यनि- साहम्मि पनिच्छिने, उपसंपय दोएह वी पनिच्छातो । रित्तो धनरत्नसारपरिहीनो हरिद्रो भाव जावतः परिजीणों कानादिनिः परिहीन एष समस्तोप साकः। वाचत्ये मासबहुओ, कारणअसई सभावो वा ॥ एवं पठे सो वेति, कत्य ने अहीयं ति । तो हावपि जना सहाध्यायिनौ म ब्रह्मचारिणी तत्र यः शक्क तरकः स परिजनो ध्यपरिच्छेदोपतः परिवारसहित इत्यर्थः । अमुगस्स तिसगासे, अहंगं पी तत्थ बच्चामि ।। भावपरिच्छेदेन पुनर्वयोरपि परिच्छेदोऽस्ति तत्र शक्के द्रव्यतः पषमाचाराङ्गसूत्रस्याथै स्पष्टे कथिते स ब्रूते कुत्र भवता धया। परिच्चन्ने सति तेन रत्नाधिकस्योपसंपदातव्या ततो जघन्यतः ऽधीतमिति । स प्राह अमुकस्य सकाशे समीपे । सतः सोऽध्येता | संघाटो रत्नाधिकस्य दय मुत्कर्पतो बहयोऽपि दातव्याः । तथा चिन्तयति अहमपि तत्र व्रजामि एवं चिन्तयित्वा । । शैक्षण रत्नाधिकस्य पुरत यासोचनीयं रत्नाधिकेन शक्वकरय सो तत्थ गतो धिजात, मिलिनो सम्भंति एदि उभामो।। परनाऽन्यथा (योग्नम्ये) विपर्यासे नजयारापि प्रायश्चित्तं मा Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया अभिधानराजेन्द्रः। जवसंपया सयधु । तथा कारणे ग्लानादिसक्कणे व्याप्ततया दावेव तौज- तहा वेदमिच्छते, अविकारी उ कारए । नाचित्यसति सहायस्थानावे न दद्यादपि सहायं स्वनाथो या त- वारेण तस्य शुश्रूपकमेकैकं साधुन युक्तेन च तस्मात्साधूनांबाच स्यात्मीयकरणादिलकणस्ततो न ददाति सहाय कित्वाचित्येन नांदापयति मा म गणनेदं कार्षीरिति हेतोः । अथैवमपि दुःस्वतस्य कृत्यं कारयति । एष द्वारगाथासंकपार्थः। भावतया गणभेदं करोति तत प्राह । तथापि क्रियमाणे गणभेद __सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः पूर्वार्थ विवृणोति । कर्तुमिच्छति योऽधिकारी उर्मेदः साधुस्तेन तस्य कृत्यं कारयसति वासिणो दो वि, भावण नियमतो मरणो। ति [सूत्रं दो साहम्मिया इत्यादि] द्वौ साधर्मिकावेकतः संहतो गणिएउवसंपया, सेहतरमेण कायब्धा ।। बिहरतस्तद्यथा शक्षो रत्नाधिकश्च । सत्र रालिका परिचन्नः परिवारोपेत इत्यर्थः । शकतरकोऽपरिच्चन्नः परिवाररहितस्तत्र सौ द्वावपि सहान्यायिनावेकस्य गुरोरन्तेवासिनी द्वावपि भावे रानिके रत्नाधिकस्येच्ग यदि प्रतिन्नासते शैकतरकमुपसंपद्यन झानादिना नियमतो नियमन उनी ज्ञानादिरूपनावपरिवारो ते अथ नेनान प्रतिभासते तहिं नोपसंपद्यते निकामुपयातं च पेतावित्यर्थः । व्यपरिच्छेदेन पुनः शैक्षतरक पयोपेतस्तत्र | कलप्यं यदीच्छा तो ददाति अथावातुमिच्छा तर्हि न ददाति शैकतरकेण रालिको रत्नाधिकस्योपसंपत्कर्तश्या । “वोच्चत्थे एष सूत्रसकेपार्थः । अधुना नाष्यविस्तरः। मासलदुतो" इत्यस्य व्याख्यानार्थमाह । आनाइयम्मि सेहेण, तस्स वियमेश पच्छ राशणतो। रायणिय परिच्चने, जवसंपपनिच्छओ य इच्छाए। शति अकरणम्मि बहुगा, अवरोप्परगवतो बहुगा ।। सुत्तत्थकारणे पुण, परिच्छयं वेंति पायरिया ।। प्रथमतः शक्कतरकेण रत्नाधिकस्य पुरतः पालोचनीयं तेनायो रालिके रत्नाधिके अव्यतः परिच्छन्ने परिवारोपेते स तेन शैक्कचिते पश्चात्नाधिकस्तस्य शैक्तकस्य पुरतो विकटयत्यासोचयति | तरकस्य उपसंपत्परिकलेवश्च इच्छया दातव्यः । श्यमत्र नावना। एथतीन कुरुतस्तत शति एतस्याकरणे योरपि प्रत्येक स यदि शैकतरकोऽवमरत्नाधिकस्तुल्यश्रुतो गुरुरक्षाधिकेन मह लघुको मासः प्रायश्चित्तम् (अवरोप्परगन्यतो बहुगा इति) यदि ततः सरत्नाधिकश्चिन्तयति मा नूनमेतस्य भिकाहिएमनव्याक्केपेशकतरको व्यपरिच्छेदनाह परिच्छन्न ति गर्वतोरत्नाधिक ण च सूत्रार्था नश्येयुस्ततः संघाटं ददाति अथवा मा एष मम कुलवासी सहाध्यायी द्रव्यपरिच्छदेनापरिच्छदो भूयात्सहास्य पुरतोनालोचयति तदातस्यापिप्रायश्चित्वारो लघुकाः । एतदेवोपदेशद्वारेण स्पष्टयति । ध्यायात्तेनातिस्नेहतः संघानं ददात्यालोचनां प्रयच्छति। अल्प श्रुतस्य परिच्छदमुपसंपदा वा न ददातीति । अथ स शक्कतरको एगस्स न परिवारो, वोइए रायणिय सि वादो य । रत्नाधिकाद्वहुश्रुतस्तदा नियमत उपसंपत्सव्यः।परिवदध तस्य इइ गयो न कायबो, दायव्नो चेव संघामो॥ दातव्यस्तथा चाह सूभर्थ कारणात् सूत्रार्थ गृहीतुकामाः पुनराएकस्य परिवारोऽस्ति हितीये रालिकत्वषादः रत्नाधिकोऽय-| चार्या उपसंपद्यन्ते परिच्छदं च ददति । एतदेव स्पध्याति। मिति प्रबाद इति एवं रूपो गवां द्वान्यामपि न कर्तव्यः किंतु सुत्तत्थं जइ गेएह, तो से देइ परिच्छदं । परस्परमालोचयितव्यमन्यथा चतुर्बघुकप्रायश्चित्तापसातव्य गहिएवि देश संघाम, मा से नस्से य तं मुयं ।। शैक्षतरकेण जघन्यतोऽपि रत्नायिकस्य संघारः । संप्रति यदि स राधिकस्ततः सूत्रार्थ गृह्णाति ततः (स) तस्य ददाति "निक्खो वा पंचवानि कप्पागमि" त्येतदर्थमाह । परिच्छदं परिवारं गृहीतेऽपि सूत्रार्ये ददाति संघाट कस्मादिपेहानिक्ख कितीओ, करेंति सो आवि ते पवाएति । स्याह । मा ( से ) तस्य निकाटनव्यापितः प्रतिलेखनाव्याकेन पहुचं ते दोएह वि, गिताणमादीसु च न देज्जा ।। | पतश्च तत् श्रुतं नइयेदिति हेतोः। शकतरस्य शिका रत्नाधिकस्य संबन्धिनो यत्रादेः प्रेका प्रति बहुश्रुतादी तु न ददाति इत्येतद्भावयति । देखनां कुर्वन्ति । तथा तयोग्यां भिकामानयन्ति । कृतकर्म विन- अवहुस्सुते न देती, निरुबहते तरुणये य संघाम। यो विधामापा तत्कुर्वन्ति किमुकं जयति यदाज्ञापयन्ति तत्पूर्व- घेसण जाव वज्जइ, तत्य य गोणी 4 दिलुतो । न्ति वाचनादिपरिश्रान्तस्य च विश्रामणामिति स चापि रत्नाधि अबहुश्रुतो निरुपहतपञ्चेन्ज्यिस्तरुणकश्च तस्मिन् सास्वपि कस्तानवाचयति सूर्य पाउयत्यर्थं च श्रावयतीत्यर्थः । कार साधुषु सघाट न ददाति सहायानददातीति भावः। यो वा गीणे असती इत्यस्य व्याख्यानमाह (न पुटुब्बते इत्यादि ) ते श तार्योऽपि सन् प्रदान्तान् सहायाधिपरिणम्य गृहीत्वा जति क्वतरशिष्या यानादिष प्रयोजनेतु उयापृतास्ततो न प्रभवन्ति न तस्यापि सत्स्यपि साधुषु सहायान ददाति तथा च तत्र पुष्ट प्रपारयन्ति सहायं न दद्यात् । यदि वा द्वायेव तौ जना ततः किं | शीतया गवां दृष्टान्तस्तमेव नाधयति । दीयतामिति न दद्यात् । साडगवघा गाणी, जहतं खेत्तं पलाति दुस्सीला । ___ अधुना "सन्नाचो वा"इस्यस्य व्याख्यानमाह। अतीकरेजा खलु जो विदिएणे, एसोविमति महंतमाणी इय विप्परिणामेते, तम्मि न देज्जा सहाए य ।। न तस्स तं देश बहिं तु नेउं, तत्येव किचं पकरेंति में से ॥ यथा कस्यापि गौः पलायिता ततः कथमपि लम्धा सती तेन शाटके बका यथा शाटकया दुःशीया गौस्तं शाटकं गृहीयो वितीर्णान्साधनात्मीकर्यात् यश्चैषोऽपि शिक्षाधिपतिः शैक्क. स्वा पवायते इति एवममुना प्रकारेण यो विपरिणामयात सहातरको ममेति महामानी तस्य तान्साधूनू बहिस्तस्मात् स्था। यान् तस्मिन्विपरिणामयति सहायान दद्यात् । नादन्यत्र विहारक्रमेण नेतुं न ददाति किं तु यत् (सेतस्य कृत्यं (4) सांजोगिकासांभोगिकयोः सहमिलितयोराचार्यायोः करण।यं तत्रैव स्थितस्य तत् कुर्वन्ति अथवा सामाचारीमाह ॥ बारा य से दे, न य दावे वायणं । (मूत्रम् ) दो साहम्मिया एगतो विहरति ना से Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२७) निधानराजेन्द्रः | उपसंपया देव रायगिय तत्व रायलिय पलिष्ठ सेहत प्र पलिच्ति रायणिए इच्छा सहतरा य जबसेपज्जेज्जा । इच्छा नोट संपन्ना इच्छा भिक्खोवचार्य दलः ति कप्पाग इच्छाए णो दन्नाति । २४ । दो जिक्खू यो एगतो बिहरंति गोह कप्पति अछामस्स उपसंपज्जिचाएं विहरिएक पति यहं आहाराविशियाए ममहं जनसंपज्जिचाएं विहरिच। २५। एवं दो गावच्छेया । २६। दो आयरिय वाया । २७ । बहवे जिक्खुणो णो ततो विहरति पोएडं कप्पड़ प्रणमरणस्स उवसपविचाणं बिहरिए कप्पति एवं भाद्दारातिणियाए प्रथम उवसंपज्जित्ताएं विहरतिय २० एवं बहवे गणावच्छेश्या २६ बहवे आय १० यो बहवे गणावच्छेदया सब आयरियवज्जाया एगतो विहरंतियो एवं कष्पति प्रणउवसंपज्जित्ताणं विहरितम् वासावासवत्यए कप्पति पवितिणीए कष्पति पत्रितिणीए कप्पति एवं आहारायणिचाए यमनं उवसंपज्जिचाणं विढरित्तर हेमंतगिम्देसु || ३ || ( श्रत्र चतुर्विंशतितमसूत्रस्य व्याख्या प्रन्थकृता न व्याख्यातेत्यस्माभिरपि न व्याख्यायते) एवं दो मिणो एगतो विहरति इत्यादि सूत्रसप्तकं सुगमम् । अस्य संबन्धमाह । संखहिगारा तुला, धिगारियाए सोसते जोगो । आयरिस्स व सिस्सा, जिक्खु अजिक्खू अहतिभिक्खू ।। अनन्तरसूत्रे' दो सामिया लक्षणा संपा धिकृता अत्रापि सैव 'दो निक्खुणे' इत्यादिवचनासतः संख्याधिकारातुख्याधिकारिता पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्येत्येष लेशत आद्यस्य योगः संबन्धः अथवा पूर्वसूत्रे रत्नाधिकपड़ेगाया उपात्तः । प्राचार्यस्य च शिष्यो द्विधा भिक्षुरभित्र निकुः प्रतीतावच्छेदक उपाध्याय भायाय या तत भाषात्प्रागुकायानन्तरं त्रिसूत्रमुकम् । शेषसूत्र संबन्धप्रतिपादनार्थमाह । मेस वि, गुणपरिचीय ठाणभावे । पनि खलु संखा, बहुर्पियो उ ते परं ॥ एवमेव पूर्वोक्तप्रकारेणैव शेषयेोरपि गणावच्छेदकाचार्यसूत्रयोः संबन्धस्तथा ह्याचार्यस्य शिष्यो भिक्षुरभिक्षुश्च तत्र भिकुसूत्रमुकं तमन्तरमनिसायच्छेदकरपाचार्यस्य च सूत्रे अथ स्नानो प्रवति तथा हि निर्गुणाधिकत्वेन गणावच्छेदकस्थानं अनते गणावच्छेदको गुणाधिकतया घाया योपाध्यायस्यानमतो जिकुसुत्रानन्तरं क्रमेण गणावच्छेदकाचायोपाध्यायसूत्रे तथा द्विमनृतिका खलु संक्या बहुका भवति ततो द्विक्पतरं बहुसंख्याश्रयं बहूनां च परस्परमुपसंपचानां पिएको भवति तेन बहुसंख्यासूयात्परं पिएक पिएमसूत्रमुक्तमिति एवमनेन संबन्धजातेनायातस्यास्य सूत्रसप्तकस्य व्याख्या । द्वौ मिक्षू एकत्र संहतौ विहरतो णोणमिति वाक्याद्वारे कापते मन्योन्यमुपसंपद्य विकल्पते । मिति पूर्ववत् यथा रत्नाधिकतया अन्योन्यमुपसंपथ विहर्तुमेवं गणायच्छेदकसूत्रमाचार्योपाध्यायसूर्य व प्रावनीयमेवं बहु संक्यास पिएस येति पार्थः । उवसंपया संप्रायाद्यानसूत्रम्ययनार्थमार संजोइया दोएडं खतादी पेहकारणगयाणं । पंच समानवाणं, जिवण इमा नये मे‍ || डायाचार्यान्यन्यस्मिन् क्षेत्र स्थिती तीच परस्पर सोनीगिकी तथा सांगिक पोई पोराचार्ययोगिकृतायां प्रेषिताः क्षेत्रादिकाकारणगताः प्रत्युपकणार्थमादिशब्दपथिमागणार्थं वा गतास्ते च तथा गच्छन्तः पथि समागताः परस्परं मिसिताः। तेषां चैकेन यथा गन्तव्यमतस्तेषां केादिकाकारण गतानां पचि समागतानां मां या मर्यादा सामाचारी सा श्यं पयमाणा भवति । तामेबा क्रिस मामि खलु, पलिताणं च सगाणं तु । चल अपसिउने, तम्हा जयसंपमा तेनि ॥ यो स्पिकपती तयोः शतरकेण राचिकस्य पुरतः खोचयितव्यम् । तेनाचिने पचात् राधिकेन दीक्षतरक स्य पुरत पथमकरणे निको: रत्नाधिकस्य च प्रायश्वितं खमु मासिकं मासलघु " परिच्छन्नाणं चेत्यादि " एतद्वहुसंख्याविशिष्टस्य निकुसुत्रस्य व्याख्यानम् । परिष्वानां जघन्यतोऽ यात्मीयानां शेषाणामद्वितीयानां यथेोकविभ्यकरणे प्रायश्चितं मासलघु । तत्र यद्येको परिष्वन्नस्तर्हि तेनास्य आत्मद्वितीयमात्मीयो वा उपसंपथप्यो मा बेनुपसंपद्यते तस्मिन्त्रपरिष्द्धमुपसंपद्यमाने प्रायश्वितं सत्यारो कार चोपपद्यमानं यो नोपसंपदा प्रतीच्छति तस्य मासमधु यत एवं तस्मात्परस्परमुपसंपत्तेषां नयति कर्तव्या पनामेव निर्युक्तिगाथां भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः प्रथमतो भिक्खुस्स मासिय खवित्येतद्व्याख्यानयति । दो भिक्खु गीयत्था, गीया एको व होज्ज उ अगीतो । राणियपछि पुर्व इयरेसु लहु लहूगा ॥ द्वौ भिक्षू अगीतार्थी यदि वा द्वाषपि गीतार्थी यदि वा छावपि गीतागीतार्थी तयोः परस्परस्यालोचनमन्यथा प्रायश्चित्तं मासलघु । अथवा एको गीतार्थः तत्न रत्नाधिके परिष्क प्रावपरिक दोपेते गीता इत्यर्थः पूर्वमाचयितम्यं पश्चादितरेष्यगीतार्थेषु रस्माधिन एवं चेतेन कुर्वते नाधिके प्रायथितं मास घु । इतरेषां चत्वारो लघुकाः । एनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतो" दोष भगीरथा गीया" इत्येतमृिणोति । दोसु अगी पत्थे अहवा गीतसु सेहवरो पुब्बि । जर मा लोया बहुओ, न विगमेइ परो वि जइ पच्छा ॥ श्योपोरगीतार्थयोरमा गीतार्थयोर्मध्ये यदि तरः पूर्वरत्नाधिकस्य पुरतो नाथप्रोयति तदा तस्य प्रायश्वितं मधुको मासः । इतरोऽपि रत्नाधिकोऽपि यदि पश्चात्तस्य शक्तरस्य पुरतो न विकटयति तदा तस्यापि प्रायश्चित्तं मासलघु । तत्र यदि aratगीतार्थी तदा परस्परस्य बिहारालोचनैव केवला नापराधाढोचनापि । भयादि गीतार्थी तदा परस्परविराग्रोचना अपराधालोचना च । अथैको गीतार्थोऽपरवागीतार्थस्तनासोचनाविधमा । राइणिए गीयत्थे राहाशिए पेव विषमणा पुि देह बिहार वियक, पच्छा रा खितो सेहे ॥ यदि राधिको गीतार्थ इतरो ऽगीतार्थस्ता गीता राना Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२८) उपसंपया पाभिधानराजेन्धः । उपसंपया धिके सति रत्नाधिके एष पूर्व शैकतरेण विहारविकटना अप- एकस्मिन्नुपसंपन्ने पश्चादितरावप्युपसंपद्येते यदि पुनरकं ताराधविकटना च दातव्या तत्पश्चात् रक्षाधिका शके शवतरक- वितरौ पश्चान्नोपगच्छेतां तदा तयोर्मासिकं प्रायश्चित्तं सधुकं । स्य विहारविकटनां ददाति । अथ शवतरको गीतार्थों रत्नाधि- यत्रापि भङ्गे पकत एकोऽपरत्र प्रयस्तत्र यदि परस्परमुक्तप्रकाकस्त्वगीतार्थस्तत्राह। रेण नोपगमस्तदा प्रायश्चित्तं लघुकाः । किमुक्तं भवति । यद्येसेहतरगे वि पुवं, गीयत्थे दिज्जए पगासण्या। कस्त्रीम्रोपगच्छति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो अधुकास्तपच्छा गीयत्यो वि हु, ददाति आलोयणमगीते ।। चेदुपगच्छन्तं पश्चादितरे त्रयो नोपगच्छन्ति तर्हि तेषां प्राय विसं लघुको मासः॥ यदि गीतार्थः शैक्षतरकस्तहि तस्मिन् गीतार्थे शैक्वतरकेऽपि एमेव अप्पवीतो, अप्पतश्यं तु जइ न उवगच्छे । पूर्व रत्नाधिकेन प्रकाशना विहारविकटना अपराधविकटना चे इयरोस मासलइयं, एवमगीए य गीए य॥ त्यर्थः दीयते। पश्चात् गीतार्थोऽपि सन् स शैक्तरको दुनिश्वितमगीते रत्नाधिके पालोचनां विहारालोचनां ददाति न त्वपरा एवमेव अनेनैवानन्तरोदितेन प्रकारेणात्मद्वितीय श्रात्मतृतीयं धासोचना कस्मादित्याह। यदि नोपगच्छति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्लघु । इतरश्चेत्यनुप गन्तं नोपगच्छेत्तदा तस्य मासिकं लघुश्तरेषामेक श्रात्मतृअवराहविहारप्पगासणान, दोमि वि भवंति गीयत्थे । तीयोऽपर यात्मचतुर्थ श्त्येवमादीनां परस्परमनुपगमे प्रायश्चित्तं अवराहपये मुत्तं, पगासणं होतु ऽगीयत्थे ॥ मासलघु। एवमुक्तप्रकारेणागीते अगीतार्थानां गीत गीतार्थानां अपराधप्रकाशना बिहारप्रकाशना च पते द्वे अपि प्रकाशने चव्यम्। जवतोगीतार्थे। अगीतार्थपुनरपराधपदं मुक्त्वा शेषस्य विहार मिश्रानधिकृत्याह । स्य प्रकाशनं नवति विहारासोचना भवति नापराधासोचनेति मीसाण एगो गीतो, होति अगीया उदोरि तिमि विवा। नाम। अगीतार्यतया तस्यापराधाोचनानईत्वात् । एवं उवसंपन्जे, ते न अगीया इहरमासे ॥ संप्रत्युपसंहारमाह। मिश्राणां मध्ये एक एकाकी गीतो गीतार्थोऽपरे तु द्वौ त्रयो भिक्खुस्सेगस्स गर्य, पलिग्नाणं इयाणि वोच्छामि। वा भवन्त्यगीता अगीतार्थाः तत्र तेऽर्माता एकमुपसंपरन् । दव्वपलिच्छाएणं, जहालेणं अप्पतइयाणं ॥ इतरथा चेन्नोपसंपद्यन्ते तर्हि तेषां प्रायश्चित्तं लघुको मासः। "भिक्खुम्स मासिय खस्वि"त्यनेन पदेन यदेकस्य भिक्तोर्वक्तुमु- सोवि य जइन विश्यरे, तस्स वि मासो उ एव सम्वत्य। पक्रान्तं तद्वत परिसमाप्तमिदानी प्रव्यपरिजेदेन परिवन्नानां जघ- नवसंपया उ तेसिं, भणिया श्रमालनिस्साए ॥ न्येनात्मतृतीयानां यद्वक्तव्यं तद्वक्ष्यामि । तदेवाह ।। सोऽपि चैको यहि तान् इतरानुपसंपद्यमानान् नोपसंपद्यते तेसिं गीयत्थाणं, अगीतमिस्साण एस चेव विही ।। तदा तस्यापि प्रायश्चित्तं मासो लघु । एवमेक अात्मद्वितीयो एत्तो सेसाणं पि य, वोच्गमि विहिं जहाकमसो ।। गीतार्थोऽपर आत्मतृतीयश्रआत्मचतुर्थ इत्यादी सर्वत्र भावनीयमेतेषां परिच्छेदेन परिच्नानां जघन्यत आत्मतृतीयानां बहनां घमन्योन्यनिश्रयाप्राक द्वारगाथायां तेषामुपसंपद्भणिता उपदिष्टा सर्वेषां गीतार्थानामथवा अगीतार्थानां यदिया मिश्राणां केषांचि- _एणोएणनिस्सियाणं, अगीयाणं वि जग्गहो तसिं । गीतार्थानां केषांचिदगीतार्थानामित्यर्थः । एष एवानन्तरो दिक्षु गीयपरिग्गहियाणं, इच्छाए सिमो होइ ।। गत प्राचार्याणामालोचनाविषयो विधिरवसातव्यो व्यतिरेके अन्योन्यनिश्रितानां तेषामगीतानामपि गीतपरिगृहीतानामवच प्रायश्चित्तमपि तथैव । अत कर्फ शेषाणामपि विधि यथाक्र महो भवति। अवग्रहो नाम आभवनव्यवहारः सचद्विधा इच्छमशो यथाक्रमेण वक्ष्यामि । तत्र शेषशब्दवाच्यानुपदर्शयति। या सूत्रोक्तश्च । तत्रेच्च्या तेषामयं वक्ष्यमाणोभवति तमेवाह ॥ सेसा ते जमती, अप्पवितिया न जे तर्हि केई । इच्चियपमिच्छियाए, ण खेत्त वसही य दोएह वीमानो। गीयत्थमगीमत्थे, मासे य विही उसो चेव ॥ इच्छंतो न होइ उगहो, निकारणकारणे दोएडं ॥ शेषा नाम ते भएयन्ते यत्र तेषां बहूनां निकृणां मध्ये केचिदात्म इच्छाया अवग्रहो नाम इच्छितप्रतीच्छितेन इच्छा संजाताऽस्येद्वितीयास्तस्मिन् शेषे गीतार्थे प्रगीतार्थे मिश्रेचस पर पूर्वोक्तो ति इच्चितं प्रतीच्छा संजाता अस्येति प्रतीच्छितम् इच्छितं च विधिरालोचनाविषयस्तयतिरेके प्रायश्चित्तविधिश्वावसातव्यः । तत् प्रतीच्छितं च इच्चितप्रतीच्छितम् । घाचा आनवनव्यवसंप्रति चशब्दव्याख्यानमाह ! हारस्थापना । यथा यत्पथि लज्यते तदस्माकं यत् प्रामे तत् यु. संजोगा उ चसद्देण, अहिगया जह एगो दो चेव । प्माकं यदि वा यत्सचित्तं तदस्माकं यदचित्तं तत् युष्माकम् । एगो जइ न वि दोषिह, उवगच्चे चउलहु तो से ॥ अथवा या स्त्री व्रतग्रहणार्थमुपतिष्ठति साश्रस्माकं पुरुषो युष्मापरिच्छन्नानां चेत्यत्र चशब्देन संयोगा अधिकृताः सूचिता इ. कम् यद्वा वाओ युष्माकं वृक्षोऽस्माकम् अथवा यः सार्थन सह बजता बानः सोऽस्माकमसाथै युष्माकम् । यदि वा यो यन्बनते त्यर्थस्तानेघोपदर्शयति । तथा चेति ननोपदर्शने एकत पको तत्तस्यैव एवं जूतेन इच्छितप्रतीच्छितेन य ानवनव्यवहारः स भिक्षुरपरतो द्वौ जिकू तत्रैकेनात्मद्वितीय अपसंपत्तव्यो यदि पु इच्छाया अवग्रहः । एष च प्रायः पथि गच्चतां नवति स्थानप्रानरे को न द्वायुपगच्चति उपसंपद्यते तदा (से) तस्य प्रायश्चित्तं सानां सूत्रोक्त आभवनव्यवहारस्ततस्तमुपदर्शयति । समकालं चत्वारो लघुकाः। केत्र प्राप्तानामकेत्रे या वसति प्राप्तानां द्वयानामपि लाभःसाधापच्छा इतरे एगं, ज न उवगच्छे मासियं लहुयं ।। रणः । अथ न केत्रमकेत्रं वा वसति समकालं प्राप्ताः किं तु जत्थ वि एगो तिमि, न उवगमे तत्य वीबहुगा॥ विषमकासं तत माह इच्छतो न होति इत्यादि ) यदि निष्का Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२०) नवसंपया अनिधानराजेन्द्रः। उपसंपया रणं स्थिता इति पश्चात्याप्तास्तदा नास्ति तेषामवग्रहः किं तु | इयोरपि साधारणो लाभस्तथापि यथा संघाटकेन भिका हिपूर्वप्राप्तानामेष । अथ कारणेन केनापि खानप्रतिजागरणादिना | एडमानयो रत्नाधिकस्य लाभो भण्यते एवमिहापि रत्नाधिस्थितास्ततः पश्चात् प्राप्तास्तहिं भवति स्यानामपि साधारणोऽ- कस्यावग्रहः । अथैको गीतार्थः परोऽगीतार्थस्तत्र यदि रत्नाषग्रहः । पतदेव स्पष्टतरमुपदर्शयति । धिकोऽगीतार्थोऽवमरत्नाधिको गीतार्थस्ततोऽवमरत्नाधिकसमयं पचाणं सा-हारणं तु दोण्डं पि होति तं खेत्तं । स्थावग्रहः । अथ द्वावपि समानार्थी तत आह । समे गीतार्थे विसमं पत्ताणं पुण, इमा उ तहिं मग्गणा होई॥ परस्मिन्समकं च प्राप्ते द्वयोरपि साधारणोऽयग्रहः । तदेवं द्विसमकमेककालं प्राप्तानां द्वयानामपि तत् क्षेत्रं भवति साधारणं संख्याकगणावच्छेदकसूत्रमिति भाषितमेयं द्विसंख्याकाचायाँविषम विषमकालं प्राप्तानां पुनरियं तन क्षेत्रे मार्गणा भवति।। पाध्यायमपि भावनीयम् ।। तामेव कुर्वन्नाह। श्दानी बहुत्वपूत्राणि पिण्डसूत्रं चातिदेशत आह । पमियरए व गिलाणं, सयं गिलाणो उरे व मंदगती। एमेव बहूणं पि, पिंडे नवरोग्गहस्स न विभागो । अप्पत्तस्स वि एएहि, उग्गहो दप्पतो नस्थि ।। किं कतिविहो कस्स व कम्मि व, केवइयं वा भवे कालं ॥ प्रतिचरति वा प्रतिजागर्ति म्यानं यदि वा स्वयं ग्वान थातुरो एवमेव बहूनामपि भिकुप्रभृतीनां सूत्राणि भावनीयानि द्विकवा यदि वा स्वजावान्मन्दगतिरतैः कारणैरप्राप्तस्यापि समकालं सूत्रापकया बहुत्वसूत्राणामर्थतो नानात्वाभावात् पिण्डे पिण्डपश्चात्प्राप्तस्यावग्रहो भवति दर्पतो निष्कारणं स्थितानां पुनरव कसूत्रस्यापि म पवार्थो नवरमत्रावग्रहस्य विभागो वक्तव्यप्रहो नास्ति । स्तमेवाह किं कतिविधः कस्य वा कस्मिन्चा कियन्तं कालं एमेव गणावच्छेए, पलिच्छएणाणं च सेसगाणं तु।। भवत्यषग्रहः । तत्र किमित्याद्यद्वारव्याख्यानार्थमाह ॥ पलिच्चने ववहारो, सुविहो वायंतिम्रो नाम । किं जग्गहोति जणिओ, उग्गहो तिविहो न होति चित्ताद।। यथा भिकोरेकस्य बहूनां परिचन्नानां शेषकाणां चोक्तमेवमेव एकेको पंचविहो, देविंदादी मुणेयव्यो । अनेनैव प्रकारेण एकस्मिन् गणावच्छेदे बहूनां परिच्छन्नानां जघ किमवग्रह इति भणिते पृष्टे सूरिराह । त्रिविधो भवत्यवग्रहन्यतोऽप्यात्मतृतीयानां शेषकाणां वशत आत्मद्वितीयानांतुशब्दा श्चित्तादिः सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च । पुनरेकैकः कतिविध इति देकत एकोऽपरत भात्माद्वितीय श्त्यादि संयोगगतानां च निर प्रश्नमुपजीव्याह स पकैकः पञ्चविधः पञ्चप्रकारो ज्ञातव्यः । वशेष वक्तव्यम् । तत्र परिच्चन्ने जातावेकवचनं परिच्छन्नानामु कोऽसावित्याह देवेन्द्रादिः देवेन्द्रावग्रहो राजावग्रहो माएडमिपत्रकणमेतत् परमुपसंपन्नानां चाभवनव्यवहारो द्विधा नवति । कावग्रहः शय्यातरावग्रहः साधमिकावग्रहश्च । गतं कतिविसूत्रोको वागन्तिकवावाचा अन्तःपरिच्छेदोघागन्तस्तेन निवृत्तो धद्वारम् । इदानीं कस्य न भवतीति प्रतिपादयति ॥ वागन्तिकस्तत्र वागन्तिको नाम वक्ष्यमाणस्तमेवाह । कस्स पुण उग्गहोत्ति, परपासंटीण उग्गहो नत्थि । पहि गामे चित्तमचित्तं, पुरिसंवा वाझवुसत्यादी। निएहे सेत्ते संजति, अगीते गीत एके वा ॥ इच्छाए वा देती, जो जं लाने भवे वितितो॥ कस्य पुनरवग्रहो भवतीति शिष्यप्रश्नमाशङ्कय प्रोच्यते परपायत् पथि मार्गे लत्यं तदस्माकं यत् प्रामे तत् युष्माकम् । खण्डिनामवहो नास्ति ये च निहवा ये च सन्ना याश्च संयत्यो यदि वा यत्सचित्तं तत् युष्माकमचित्तमस्माकम् । अथवा गीतार्थैरपरिगृहीता ये चार्गीतार्था गीतार्थनिश्रामनुपपन्ना यश्च स्त्री युष्माकं पुरुषोऽस्माकम् । अथवा वृद्धो युष्माकं चालोऽस्मा निष्कारणमेकाकी गीतार्थ एतेषां सर्वेषामप्यवग्रहो नास्ति । कम् । यदि वा (सत्थादी इति) साथै लज्यं तत् युष्माकम एतदेव सुव्यक्तमाह। सार्थेऽस्माकम् । अथवा इच्छया ददाति कथमित्याह-यो यल्ल असम्माण बहूणं पि, गीतमगीताण उम्गहो नत्थि। भते तत्तस्य भवति एष सूत्रोक्त आभवनव्यवहारः। द्वितीयो सच्छंदियगीयाणं, असमत्त अणीस गीए वि॥ वागन्तिक आभषनव्यवहारः । क्षेत्रप्राप्तानामक्षेत्रे वा वसति अवसमानां बहूनामपि गीतार्थानामगीतार्थानां चावग्रहो प्राप्तानां यः सूत्रोक्त भवनव्यवहारः स भिकूणामिव प्रतिप- नास्ति ( सच्छदियगीयाणत्ति) ये गीतार्था अपि स्वच्छान्दतव्यः स चाविशेषणार्थों यदि वा द्वावप्यगीतार्थपरिगृहीत काः स्वच्छन्दतयैव एकाकिनो विहरन्ति तेषामपिनास्त्यवग्रहः । गीतार्थनिश्रां प्रतिपनौसमकमेककालं प्राप्तौ ततस्तयोःसाधारणं तथा ये असमाप्ता असमाप्तकल्पाः यस्य च समुदायस्यन विद्यते क्षेत्रमाभवति । सति विद्यमाने कार्ये ग्लाने प्रतिजागरणादिल गीतोगीतार्थ ईशस्तेषामपि नास्त्यवग्रहः । क्षणे ये स्थिता अगीतार्था असमाताश्च ततः समाप्तानां साधारणं एवं ता सावखे, निरवक्खाणं पि नग्गही नस्थि । क्षेत्रम् । ये पुनरगीतार्था अपि च पूर्व प्राप्ता गीतार्थाः समासाश्च निष्कारणं प्राकस्थित्वा प्राप्तास्तदा असमाप्तानामप्यगीता मुत्तुण अहा दे, तत्थ वि जे गच्छपडिबका ॥ नाम् । भपि च तत्क्षेत्र पूर्व प्राप्तत्वान गीतार्थः समाप्ताव एवं तावत्सापेक्षे जाताघेकवचनं सापेक्षिणामुक्तसापेक्षाणापि च तस्य क्षेत्रस्थ प्रभुनिष्कारणं स्थित्वा पश्चात्प्राप्तवान् । मस्थविरकल्पिका निरपेक्षा जिनकल्पिकादयस्तेषामप्यवाही समपच्छकारणेणं, खेत्ते वसहीए दोएह वी लाभो।। नास्ति। किमविशेषेण सर्वेषां नेत्याह । मुक्त्वा यथालन्दान् तथा प्रापि गच्छप्रतिबकान तेषामवग्रहो नवति गच्छप्रतिबद्धत्वाएयणिए होति उग्गहो, गीयत्यसमम्मि दोएहं पि । दन्येषां तु सर्वेषामपि नास्ति ॥ समं समकमेककावं कारणेन पश्चाबा क्षेत्रे अक्षेत्रे वा वसतौ प्राप्तयाईयोरपि लाभः साधारणः। अत्र पुनर्यदि विशेषविवक्षा आसन्नतरा जाणंति, संजया सो व जत्थ नित्थगइ । क्रियते तदा यो रत्नाधिकस्तस्मिन्नवग्रहो भवति । यद्यपि नाम ताहियं देंतुवदेस, आयपरं ते न इच्छति ।। . Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसंपया (१०३०) नवसंपया भाभिधानराजेन्द्रः। तेषां गच्छनिर्गतानां जिनकल्पिकादीनां यो व्रतग्रहणार्थमुप- खेत्तजया वा कोई, माश्ट्ठाणेण मुण एवं ॥ निष्ठति तं तेम प्रथाजयान्त तथाकल्पत्वात्कि तु ये तत्रासन्नत- | यदि वेत्रवतां शिष्य आगन्तुकमाचार्यमुपसंपन्नो यदिवाचार्या गः संयताः स्थितास्तत्रोपदेशं ददति यथा अमुकानां समी गणं शिष्ये गीतार्थे निक्किप्य तमुणसंपन्नास्तदा तेषामेव निक्किपे गत्वा प्रबजेति । अथवा आनन्ति श्रुतबलतो ये दूरे स्थिता प्तगणानां वाशब्दादुपसंपन्नतदेकशिष्याणां तत्त्वेत्रम् । किमुक्त स्तत्र स एष निस्तरियति । तदेतत् शात्वा यत्र स निस्तरति जयति यद्यत्तत्केत्रात्सचित्तादिकमुत्पद्यते तत्तेषामेवाभवति यतत्रोपदेशं प्रयच्छन्ति । परमार्थतः पुनस्ते प्रात्मपरमात्मगच्छ- | भागन्तुको न लभते कोऽपि पुनर्ममागन्तुकस्य पाइवें एषतः परगच्छविभाग नेच्छन्ति स्थविरकल्पाद्रतात्विात् । केत्रं यायादिति केत्रभयादेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण मातृस्थानेन अगीयसमएसंजड-गीयत्यपरिग्गहाण खेत्तं तु । शृणोति । तमेव प्रकारमाह । अपरिगहाण गुरुगा, न अनति सीसे त्थ आयरिश्रो॥ कुडेण चिलिमिलीए व, अंतरितो सुणइ कोइ माणेण । अगीतानामगीतार्थानां श्रमणानां संयतीनां च गीतार्थपरिम-1 अहवा चंकमणीयं, करेंतो पुच्छागमो तत्थ ।। हाणां गीतार्थपरिगृहीतानां क्षेत्रमयग्रहो नवति । श्यमन भाव- कुड्यन यदिवा चिनिमित्रिन्या जवानकान्तरितः सन् कोऽपि ना। ये गीतार्था अपि साधयो गीतार्थपरिगृहीता विहरन्ति वा मानेन ममेदं केत्रमानवति तन्मा इह तावदुसरवित्ति क्षेत्रगण अपि संयत्यो गीतार्थपरिगृहीता वर्तन्ते तेषामवग्रहो भवति ते ाणोति । अथवा माननैव यथोक्तरूपेण चंक्रमणिकां कुर्वन् कोच यदि साधयो यदि संयत्यो गीतार्थनिश्रामगुपपन्ना अगीता- ऽपि दृणोति तत्र यद्यपि स शृणोति तथापि तत्र पृच्चागमोजा विहरन्ति तदा तेषामपरिग्रहाणां गीतार्थपरिग्रहरहितानां वति पच्छा कर्तव्या भवति ततः पृच्छातोऽपि तस्य जयविहरतां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुस्का इत्येषां च संयतीनां च ति क्षेत्रम । अथ कतिनिः पृच्छाभिः कियन्तं कालंतस्यान्नवति गीतार्थापरिगृहीतानां यः परिव्राजक प्राचार्यः सोऽत्र शिष्यान् | क्षेत्रमित्याह ! स्वदीक्वितान् न लभते परिगृहीततयैव तेषां वीक्वणात् ।। पुच्छाहिं तिहिं दिवस, सत्तहिं पुच्छाहिं मासियं हर । गीयस्थगते गुरुगा, असती पगाणिए वि गीयत्यो। । अहवा दिवससमत्तो, इमो उ ते हिनं अहिज्जते ।। समोसरणे नत्यि उम्गहो, वसहीए न मग्गण अखत्ते ॥ तिसृभिः पृच्चाभिरेक दिवसं यावत्तत्क्षत्रं हरति पृच्चादियसे ये ते स्वयं गीतार्था गीतार्थपरिग्रहरहिता वर्तन्ते यद्यन्यस्मिन् | यत्तस्मिन के सचित्तादिकमुत्पद्यते तत्कथयन्त समते नेतरति गीतार्थे भागते तस्योपसंपदं न प्रतिपद्यन्ते तदा तेषां प्रायश्चित्तं जावः । सप्तभिः पृच्छानिः पुनासिकं पृच्चादिवसादारज्य मासं चत्वारो गुरुकाः । अथान्यो गीतार्थ उपसंपदनाहों मायातः का- यावत्सचित्तादिकमपहरतः तदेवं 'खेत्तभया धा कोइ' इत्यादि रणवशतश्च कथमप्येकाकी जातस्तस्य गीतार्थस्याशस्य परि- गाथा पश्चार्क व्याख्यातमिदानी "निक्खित्तगणाणं चेत्यादि" वाररहितत्वेनैकाकिनोऽपि केत्रमानवति । गतं कस्येति द्वार- पूर्वाई व्याख्यानयति । अथवा यो वक्ष्यमाणोऽन्यविशेषस्तस्मिन्नम् । इदानी कस्मिन्वेति द्वारमधिकृत्याह । यत्र यावन्ति दिनानि धीयानेऽध्यापयितरि । तमेवाह । संघस्य समवसरणं तत्र तावन्ति दिनान्यवग्रहो न जवति जति निक्खिऊण गणं, उवसंपाएह वा विससिं तु । एवं जिनसानादिषु मिलितानां यावन्महिमा ताबदवप्रहाभावः। ता तेसि चिय खेत्तं, वाएंतो लाज खेत बहिं ॥ पतत्सर्व समवसरणे नास्त्यवग्रहः इत्यनेन सूचितमेवमक्केत्रेऽव यदि गीतार्थे गणं निक्षिप्य तमागन्तुकमुपसंपद्यते अथवा शिष्यं ग्रहानावः । अत्रेऽपि बसता मार्गणाऽषग्रहस्य भवंति सा प्रेषयति तदा तेषामेव पूर्वस्थितानां तत्क्षेत्रमानवति न तु वाचवमक्षेत्रे वसतिषु समकं स्थिताना साधारणं केत्रं पश्चादागता यतां वाचयति लाभस्तस्मात् केत्राहिः। नां तु न जवति । अह वेती वायतो, लानेण नास्थ हंति वश्चामो। सेसं सकोसजायणं, पुब्बजाहिर्य तु जेण तस्सेव । हरेहि य सो रुको, मा वञ्चसु भम्ह साहारं । समगोग्गहसाहारं,पच्छा गतो होइ उ अखेत्ती ।। अथ ते वाचयत यथा नोऽस्माकमिह नास्ति सान इति बजाम शेर्ष केप्रमयग्रहो नवति । तच प्रमाणतः सकाशयोजन कोश- | एवमुक्ते इतरैः पूर्वस्थितः स रुद्धो यथा मा प्रजत यूयं युष्माकसहितगन्यूतक्षिकमित्यर्थः तत्रापि येन पूर्वमवगृहीतं तस्यैव मस्माकं च साधारण केत्रमिति । अथ साधारणेऽपि के स्थितत्केत्रमाभवत्ति न शेषस्याअथ समकमेव तस्यावग्रहः कृतस्त ता न संस्तरन्ति तत्र विधिमाह । त आह साधारणं तदा तेषां केत्रमा यस्तु पश्चादागतः सनवस्य निग्गमणे चउभंगो, निडियमुहदुक्खयं जति करोति । केलीन तस्याभवति क्षेत्रमिति भावः ।। निट्टियपहावितो वा, रुद्धो पच्छा य वाघातो ॥ अप्लो गतो कहतो, वसंपले तहिं च ते सध्ने । अथ साधारणक्षेत्रे स्थितास्ते न संस्तरन्ति तर्हि निर्गन्तव्य संकतो नव कहते, साहारणे तस्स जो भागो।। तत्र निर्गमने चतुर्भङ्गी वक्तव्या। गाथायां पुंस्त्वनिर्देशःप्राकृतत्वाअन्यः कोऽप्याचार्यः कथयन् बहुश्रुतः पश्चादागतः ते च पूर्व-] त् तथा यस्य श्रुतस्कन्धस्व निमित्तमुपसंपन्नास्तन्निष्ठितं तस्थिताः सर्वेऽपि तस्मिन्नन्यागते कथयत्युपसंपन्नास्तदा तस्मिन् ] स्मिन्निष्ठिते समाप्त नृयः क्वेत्रं साधारणं जातं तत्र यदि भूयः कथयति सोऽवग्रहःसंक्रान्तस्तस्थानाव्यं तत्केलं जातमिति भावः।। सुखदुःखतां कुर्वन्ति सुखपुःखनिमित्तमुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते श्रथ ममकप्राप्ततया साधारण केत्रे स्थितानां मध्ये एकः कश्चना- तथा निष्ठिते श्रुतस्कन्धे यः प्रधावितः पुनरपि प्रतीच्छिकैः पश्चापितं पश्चादागतमन्यमाचार्य बहुश्रुतमुपसंपन्नस्तदा यस्तस्य त रुको व्याघातोषाऽदिवादिनिः कारणैरुपजातस्तत्र यदाभाग्य भागम् तत्र कथयति संक्रान्तः। तद्वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः । सांप्रतमेनामेव गार्था वि. निस्वित्तगागाणं वा, नर्मि रिय होड तंतु खत्तं तु। । वरीषुः प्रथमनो निर्गमनचतुर्मीमाह । पाचमाहा Jain Education Interational Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३१) उवसंपया अभिधानराजेन्द्रः। जवसंपया वत्थव्व नितिन न जे, पाहुप्मा ते न इयरे वा। श्वमुक्तमागन्तुकाः सर्वेऽपि निर्गच्छन्ति केवलमेव प्रवाधनभयं व नोजयं वा, चननयणा होति एवं तु ॥ कोऽवतिष्ठते तत्र यदि निर्गतेषु शिष्येषु वाचयन् प्रधाचकः यस्य प्रामप्रधानस्य नगरप्रधानस्य वा नियोगेन तिष्ठन्ति सा-| समाप्ते श्रुते सुखदुःखितः सुखदुःखनिमित्तमुपसंपदं प्राहित स्तथा तस्य वान्यस्याभवति तत् केत्रम् । इदं द्वितीयभङ्गमाधिधयः स चतुर्का । लयथा आगन्तुकभको नामको न वास्तव्यन कृत्योक्तम् । प्रथमभङ्गमधिकृत्यात् । तथा वाच्यमानो निर्गतकः । वास्तव्यभरूको नामैको नागन्तुकभकः । २। आगन्तु शिष्यः समाप्ते श्रुते वक्तव्यः किमुक्तं भवति यदि वाच्यमामो कभको वास्तव्यजकश्च । ३ । नागन्तुकनद्रको नापि वास्त निर्गतेषु शिन्येषु वाचनाग्रहणाय पश्चात् स्थितः समाप्ते श्रुतव्य नद्रका एतचतुर्भङ्गीवशादधिकृताऽपि चतुर्भजी जातात स्कन्धे वाचयता सुखदुःखानिमित्तमात्मोपसंपदं प्राहितस्तदा यथा प्रथमभावशात् वास्तव्या निर्गच्छन्ति न प्रार्णिका नियो. पाचयत श्राभवति क्षेत्रम् ।। तुरागन्तुकभरकत्वात् । द्वितीयनङ्गवशात् प्रार्णिकाः निर्गधन्ति न इतरे द्वितीय भङ्गे नियोक्तुर्वास्तव्यनककत्वाच्चतुर्थ दोएह वि विणिग्गएK, बाएंतो तत्थ खेत्तितो होइ । भवशात् उन्नयं प्राधर्णिका वास्तव्याश्च निर्गच्गन्ति भयानपि तम्मि सुए असमत्ते, समत्ते तस्व संकम्मति ।। प्रति नियोक्तुरजकत्वानृतीयभरवशान्नोभयं वास्तव्याः प्राघू- तद् द्वयोरपि शिष्येषु विनिर्गतेषु तावेव ही केवलौ तिष्ठतस्तत्र र्णिकाश्च निर्गच्छन्ति उजयानपि प्रति तस्य जनकत्वात्।पवममु- यावदद्यापि तत् श्रुतं न समाप्यते तावत्तस्मिन् श्रुते असमाप्ते ना प्रकारेण चतुर्भजना चतुर्भङ्गी नवति । तत्र प्रथम भङ्गमधि- तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये वाचयन् केत्रिको भवति समाप्ते पुनः भुतऋत्य विशेषमाह। स्यैव पूर्वस्थितस्य तत्केत्रं संक्रामति । अथ द्वावपि परस्पर सु. प्रागंतुयजद्दगम्मि, पुन्यडिया गंतु जइ पुणो एज्जा। खदुःखोपसंपदं प्रतिपनी तदा साधारणं क्षेत्रमिति यो यल्लतम्मि अपुले मासे, संकामति पुर्वसिं खेत्तं ।। भते तस्य तदाभवतीति । आगन्तुकभद्रके नियोक्तरि ये पूर्वस्थितास्ते वक्ष्यमाणचतु संथरे दो वि ननिति, बहवे उववाइया न जा सीसा । नागानागगमनया यतनया गच्छन्ति। तथाऽप्यसंस्तरणे सर्वा सानो नत्यि महत्ति य, अहव समत्ते पधाविज्जा । स्मना गच्कृन्ति तेन गत्वा यद्यपूर्णे एव मासे तस्मिन् केत्रे पुन- संस्तरे संस्तरणाद्वयेऽपि पूर्वस्थिता आगन्तुकाश्चन निर्गच्छन्ति। रागच्छेयुस्तदानीं तेषां प्रत्यागतानां क्षेत्र संक्रामति तेषां तदा- तैश्च पूर्वस्थितैर्यदि बहवः शिष्या उपपादिता उत्पादितास्तदा भाज्यं भवतीति भावः। कारणतो गत्वा पुनरपूर्णे एव मासे प्रत्या- सागन्तुको नास्ति मम मान्न इति विचिन्त्य प्रधावेन गच्चेत गमनात् । अथ साधारणमुभयेषां तत्क्षेत्रमासीत् “मा वञ्चसु अथ ते निक्किप्तगपास्तस्य समीपे वाचयन्ति तेषां शिष्यो घासत अम्ह साहारमिति " व्यवस्थाकरणात्तदा तेषां पुनः प्रत्यागतानां आह । अथवा समाप्ते श्रुते प्रधावत् संप्रति "निध्यिपहाविमोवा साधारण्येन क्षेत्र संकामति । रुको पग य वाघातो" इत्येतद व्याख्यानयति ॥ द्वितीयं भङ्गमधिकृत्याह । जइ वायगो समत्तो, नितिन पडिच्छिएहि रुंधेजा। वत्यन्वनगम्मि, संघाडगजयण तहविओ अझनो। । असिवादिकारणे वा, तत्तो लानो इमो होइ ।। आगंतुं वेंति तओ, अस्थितियो पवायगो नवरं ॥ यदि समाप्ते श्रुते ततः क्षेत्रात वाचको निर्गच्छन् प्रतीच्चिकैवास्तव्यभड़के नियोक्तरि तेषामागन्तुकानामसंस्तरतामियं रुच्यते यथा मा निर्गच्छत यूयं वयमद्यापि वाचयिष्याम इति । यतना । वास्तव्या आगन्तुकैः सममेकैकेन संघाटेन भिक्षां हि यदि वा निर्गतो बहिरशिवादीनि कारणान्युपस्थितानि ततोव्याएडन्ते अथ तथाप्यलाभस्तर्हि निर्गच्छन्ति । तत्रेयं भद्रचतुष्ट घात इति कृत्वा न निर्गच्छति तदा तस्मिन्प्रतीरिवरोधनात् येन यतना । आगन्तुकानां चतुर्भागो निर्गच्छति न वास्तव्या पश्चाद् व्याघाताद्वा अनिर्गच्छति तस्यायमायो लाभो भवति । तमेवाह। नाम् ।। वास्तव्यानां चतुर्भागो निर्गच्छति नागन्तुकानाम् ।। वास्तव्यानामपि चतुर्भाग आगन्तुकानां च चतुर्भागः।३।उभ मायसमुत्य लाभ, सीसपमिच्छएहि सो लहर। येषामपि न चतुर्भागो गमने चतुर्थः।४। स चात्र शून्यो गमनमा एवं च्छिाववाए, अच्छिएणे मीसागते दोगह ॥ न्तरेण संस्तरणात्। एवमप्यसंस्तरणेऽद्धिगमने यतना प्रथः स प्रातीच्छिकैर्गच्चन्नपरुरुः सन् यश्च तस्य शिष्या यच तस्य मभङ्गेऽपि द्रष्टव्या । स चात्रापि पूर्वप्रकारेण शून्यः। अथैवमपि प्रतीच्छिका वा बन्नन्ते तत्सर्वमात्मसमुत्थं शिष्यप्रातीच्छिक न संस्तरन्ति ततः आगन्तुकाः सर्व निर्गच्छन्ति नवरमेकः समुत्पादितं बनते एवमा नवनं चिन्ने समाप्ते उपपाते हेतौ भुतप्रवाचकस्तिष्ठति येन वास्तव्यान्प्रवाचयति । अथ सोऽप्यसं- स्कन्धादौ श्रुते प्रष्टव्यम् । अचिन्ने असमाप्ते श्रुतस्कन्धादौ यदि स्तरेण वशिष्यैः सह गतस्ते च वास्तव्यास्तमुपसंपन्ना यदि तस्य पटत आचार्यस्य शिष्या सामान्तरगताः प्रत्यागताः तस्य "मा पञ्चह साहारमिति” व्यवस्थाकरणत उभयेषां साधारणं च शिष्यो नियमात् गीतार्थों यस्य गण आरोपितस्तदा द्वयोतत्क्षेत्रं ततो यदि गत्वा पुनरपूः एव मासे तत्र के प्रत्याग- रपि झाभः साधारणो गीतार्थ शिष्ये निक्किप्तगणतया परतोऽच्छन्ति तदा कृतायामुपसंपदि तेषामेव प्रत्यागतानां क्षेत्रमा- प्याचार्यस्य पारयिता गच्छन् तेन प्रतिरुद्ध ति पारयितुरप्याभाव्यतया साधारणेन । सांप्रतमनयोरेव भङ्गयोराभवनव्यव- जवनात् ॥ हारशेष उच्यते । अत्र पतितं " नियठिसुहदुक्खयं जति करें- एवं ता उउबढे, वासासु इमो विही हवति तत्थ । ती" ति द्वारमस्य व्याख्यानार्थमाह । खेत्तपडिहगा न, पहिया तेण अन्नत्य ।। सुहदुक्खितो समत्त, वाएंतो निग्गएस सीसेस् । एवं तावत् ऋतुबद्धे काले आभवनव्यवहारविधेिरुतो वर्षासु वाइजतो विहता, निम्गयमीसो समत्तम्मि । वर्षाकाले पुनरयं वक्त्यमाणो विधिर्नवति तमेवाह (सत्येन्यादि) Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३२) अभिधानराजेन्द्रः । उवसंपया द्वयोराचार्ययोः ऋतुबद्धे काले साधारणक्षेत्रस्थितयोरेकोपरस्यैकस्य पाइवे उपसंपदं गृहीतवान् वर्षारात्रश्च प्रत्यासन्नीभूतोऽन्यानि च क्षेत्राणि वर्षावासयोग्यानि तादृशानि प्रत्यासन्नानि न सन्ति ततः स उपसंपन्न आचार्यस्तत्रेति तस्मिन्नेव प्रापादमासिके वे वर्षावास स्थित वायनाचार्येाऽन्यत्र वर्षावासयोग्यस्य क्षेत्रस्य प्रतिलेखकाः प्रवर्तन्ते तांध प्रवर्तयमिचादीत्। जा तुझे पेढेहा, तावेतेसि इमं तु सारेमि । तं च समं तेसिया, बासं च पवद्धमाल | यावत यूयं के प्रत्युपेक्ष्य समागच्छथ तावदेतेषामाचार्याणामिदं श्रुतस्कन्धादिकं सारयामि सूततोऽर्थतश्च गमयामि तच तकन्यादि तेषां तथा अधीयानानां समाप्तमेतनम त्युच्यते । अत्रान्तरे च वर्ष प्रबन्धेन पतितुमाबग्नं तेऽपि च क्षेत्र प्रत्युपेक्कास्तत्रैव वर्षेण नि निम्गंतू न तीर चहमासे तत्थ अतगते । आ वोच्चिवं कुम्बति गिक्षाणगस्त वय । यतः प्रबन्धेन वर्षे पतितुमारब्धं न च केवप्रत्युपेककाः समागच्छन ततः समाप्तेऽपि श्रुते स वाचनाचार्यस्ततः क्षेत्रान्निर्गन्तुं न शक्रोति। निर्गतच तस्मिन् चतुरो वर्षारामासा यायदात्मगतमात्मसमु जानवेोऽप्यात्मसमुत्थस्य प्रा अस्य स्वामी । एवं कुर्वति व्यवच्छिन्ने समाप्ते श्रुते अथवा " गिarita वि य इति ” समाप्ते श्रुते वाचनाचार्यो ग्वानोऽभवत् ततो गन्तुमशकस्यापि च ग्लानस्यैवाभवनव्यवाये। उभयोरपि चतुरो वर्षांवासनात्समुत्थानस्त्वर्थः । अह पु प्रत्य सुए, ते आया वेंति माय तुब्जं तु । अहो चंदोमा साहारणम्मिएसिं तु ॥ अथ तत् श्रुतस्कन्धादिकमद्यापि न समाप्तं ते च केवप्रत्युपेक्षका प्रयातास्ततो वाचनाचार्या श्रपृच्छन्ति वयं निर्गच्छामः । तत इमे प्रतीच्छका प्राचार्य ब्रुवते मा यूयं निर्गच्छत समाप्तेऽपि श्रुते युष्माकं वयं केनं दास्यामः । एवमुक्ते तत् क्षेत्रमेतेषां द्वयानामपि साधारणं भवति । एष संस्तरणे विधिः । श्रसंस्तरणमधिकृत्याह । असंथरण निंत निंते, चउजंगो होइ तत्थ वि तद्देव । एवं तो सेचें इामना मम्मण विहादी || संस्तरणे साधुषु निर्गच्छत्सु निर्गच्छत्सु चतुङ्गयति । सार्या प्रकारेण साधम्रो निगदन्ति न वाचनाचार्याणामिति प्रथमः । वाचनाचार्याणां नेतरेषामिति द्वितीयः । उभयेषामिति तृतीयः । नोभयेषामिति चतुर्थः । तत्राचितुङ्गयामपि तथैवाभवेत् व्ययद्वारा पानामध्यात्मसमुस्यो लान इति भावस्तृतीयभङ्गे यद्येकतर एकतरस्य पार्श्वे साध्यजायत उपसंपद्यते तत उपसंपद्यमानसान इतरस्मिन्संक्रामति । अनुपसंपत्ती च द्वयोरपि साधारणं क्षेत्रम् एवं तावत् क्षेत्रे मार्गणा कृता । श्रथायमन्यो मार्गणविधिरादिशब्दात् दिग्वारणपरिग्रहः । गाथायां च निर्देशः प्राकृतत्वात्तमेव मार्गमाविमा अकारणादिसु नका, अणुवडिया तहा उवडविया । अगविद्वाय गविट्ठा, निप्पमा धारणं दिसासु ॥ अध्वा मार्ग आदिशब्दाद शिवमौदर्यादिनिमित्तनिर्गमनपरि - प्रहस्तेष्वन्वादिषु नष्टाः साधवस्ते च द्विधा उपस्थापिता अनुपस्थापिताश्च एकेके द्विधा आचार्यस्य ते तेन गवेपिता श्रगवेषिता जयसंपया 7 * तत्र ये निष्पना उपस्थापितास्ते निष्पन्ना एव न तेषां दिग्वारणं कर्त्तव्यमितरेषां यथा जवनं धारणं दिकु अभ्वादिषु कम्मत के कारने नासावस्यान्यभिधसुरा संजम महंत सत्ये, जिक्खायरिया गया व ते नट्ठा । मिगती परिरण व आजरतेादिये मुंच || संभ्रम वनाग्नि समादिकस्तशात् गच्छत् स्फटि यदि वा महति साथै व्रजतां कोऽपि कुत्रापीति गच्छादपगतो यदि वा निक्काचर्यानिमित्तं सार्थादपसृत्य प्रजिकापल्यादिषु जगतास्ततो नष्टशः अथवा सार्थः शीघ्रगतिस्ते व मन्दगतयस्ततः सार्थात् गच्छात् परिभ्रष्टाः ( परिरणवत्ति ) यदि वा नद्यादिषु तरितत्र्यासु सार्थ ऋजुमार्गेणोसी इतरे साधवः परिरयेण गत्वा तो पानीचे समुत्तरन्ति चिन्तयन्ति च वयं साथै वि मिलिष्यामस्ते च तथा परिरयेण गच्छतः सार्थात् स्फिटिता अथवा श्रातुराः प्रथमद्वितीयपरीषदाभ्यां जितास्ते तथा आतुराः सन्तो ऽन्नादिशब्दात् रचक्रादिपरिग्रहस्तेषु स्तेनादिषु समापतत्सु जयेन पलायमाना गच्छादव स्फिटिता पवमध्वादिषु साधवो नष्टा भवन्ति । अत्र मार्गणाविधि दिग्धारणविधिं चाह । गंदेस मा व कन्या ने, सम्येव तेसिं तु दिसा पुरिला । गेमा लवडे, अादिया संगढ़िया नेणं ये कृता उपविभात्यर्थस्याना माया तथापि तेषां सैव दिक् पुरातनी व प्रजनाचार्योऽशaभावेन गवेषयति न च लभते तथापि तान् सुचिरेणापि कालेन लब्धान् स एव प्रयाजनाचायाँ बनते ( प्रणादिया संगहिया समिति पुनरनाहता अनादरपरेण गतास्ते न संगृहीतास्तस्यैव ते शिष्य इति सामान्य दिशं धारयति अयमेव वृद्धोऽथोऽन्येनाचार्येण सोफेन वस्तमेव कमाह । वेसि पुण्वदिसा गरिए न पच्छिमा । लिए एवं अभिचाइमा | अनुपस्थापिते नष्टशिष्ये शिष्यवर्गे वा प्रयाजनाचार्येण गवेचिते पूर्वेदिक प्रदिप अगवेषिते पश्चिमा दियेन सं होतास्तस्य दिनयतीत्यर्थः एवमनुपस्थापिते मार्गणा भवति । पः पुनरम्य जगताना बार्यन निधारयन्त्रजति सन्मार्गणा । तामेवाह । अधारतो वचति वत्त अवसो व बत एमागी । जं समति च अनिधारिजंति तं सच्चे ॥ यस्य क्षेत्रगतानाचार्य अभिघारयन् ब्रजति को वा गोतार्थोऽगीतार्थो वा इत्यर्थः । तत्र व्यक्त एकाकी वजन यस क्षेत्रमेकाकिनो न भवतीति तत्प्रतिषेधः कृतः । अभिधार्यमाणे बस्य समीपे गन्तव्यं तस्मिन् भवति तदभिधारणस्थितेन तस्य लाभात् ॥ अन्य ससहाए, परखेत बज्जो लामो दोएदं पि । सो सोमग्गिने, जान न निक्षिप्य तत्थ ॥ अथाव्यक्तः ससहायस्तमभिधारयन् प्रजति तर्हि तस्मिन् अपके सहाये ब्रजति पर यस्मिन क्षेत्रे ते अभिसंधार्यमाणा आचार्यले क्षेत्राम भिधार्यमाणानामाभाष्यमिति तत्प्रतिषेधः यो द्वयोरपि लाभो Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३३ ) अभिधानराजेन्द्र | जवसंपया व्यकस्य सहायानां च लाभ इत्यर्थः । स सर्वः पूर्वस्याचार्यस्याभवति स च तावद्यावत्तत्र न निविष्यते । निविस्वचनियचाणं खेचे लाजो व होति वातो । वस्य जान नीती, सानो सोची पाती ॥ तमव्यक्तं तत्र निकि त्या ये निवृत्ताः सहायास्तेषां स्व पचगव्यूतप्रमाणस्यान्तर्मध्ये यो साभो भवति स वाचयत्याभवति तत्क्षेत्रे तस्य लाभस्य भावात् तस्यापि च निि तस्य यावन्न निर्गच्छति तावद्यः कञ्चनापि लाभः सोऽपि प्रवाचयति भवति । संप्रति यस्तत्र क्षेत्रस्थितः सन् गणं निकिप्योपसंपन्नस्तस्य यत्सर्वे न भणितं तदिदानीं सिंहावलोकन्यायेनाह । अहवा आपरिओपि, निक्खेचगयागतो व हरये । वादे सार्थ जं चाता न ईसोचि ॥ अथवेति प्रकारान्तरे तच प्रकारान्तरमिदं पूर्व शिष्यस्य व्यतस्याव्यक्तस्य चोक्कमिदानीमाचार्यस्य तत्क्षेत्रगतस्योच्यते श्रासार्योऽपि कचित् गीताचे शिष्ये नियमो भूत्वा तथाग तस्तत्रोपसंपन्नः सन् यत्स्वयं लभते तमात्मोत्थं लाभं वाचयति । तथा अथ तेन गणः स्वशिष्यें निक्षिप्तस्ततः स क्षेत्रस्याप्रचुरे वेति कुतस्तस्यात्मसमुत्थो लाभस्तत श्राह ! यत् यस्मात्स केषिका क्षेत्रस्थ प्रभुरासी सुस्मा शक्यत स्मिन् क्षेत्रे भ्रात्मसमुत्यस्य लाभस्य न ईशः प्रभुरिति तदेव मुको विधिः संयतनम् । अधुना संयतीनां विधिमतिदेशत श्राह ॥ भारत सुता सरमागन्ते, जा पिंडचं इमं समन्तं । एमेव वच्चो खलु संजतीणं, वोच्छिन्नमी से त्र्यं विसेसो । सरमाणकान्“आयरिया सरमाये" इत्येवं रूपान् रम्य यावदिदमन्तिमं पिएमसूत्रमेतेषु सूत्रेषु यथा संयतानां विधिरुक्त एवमेव खलु संयतीनामपि गीतार्थपरिगृहीतानां वाच्यः । मायंणो विशेषस्तमेवाह । बोलिवर, गुरुम्मि गीयाथ जन्मो तासि । दोह बच विषय लियम जयनिधारे ॥ व्यवच्छिन्नो नाम तासां गुरुरुपरतः कालं गत इत्यर्थः तस्मिन् गुरापुरते यदि कुलिन्यमानंति) कुन सत्कमन्यमाचार्थमभिचारयन्ति तद्वयोर्बन वा पिडकेन समुदायेन स्थितानां गीतार्थानां संयतीनां पिएककेन व्यवस्थितानामपि नावग्रहः । मीसो उजयगणाव-सत्यसमा जो लाभो । सोख गणिणो नियमा, पुव्यडिया जाब सत्य हो । मिथो नाम उजयगणावच्छेदकस्तत्र उजयगणावच्छेद के सति संपतीनां सास बहु नियमात् पूर्वस्तत्र गणिनो यावदन्ये न गच्छन्ति तावत्तस्य गणिनो वेदितव्यः सोऽन्येष्वाचार्येष्वागतेषु तेषामिति तदेवं कस्येति द्वारम् । संप्रति कियन्तं कालमवग्रह इति द्वारव्याख्यानार्थमाह । पति का उग्गहो, विविहो उठबसुवास य | मासच उमासवासे, गेलो सोललुकोसा || कियन्तं कालमवग्रह इति शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिराह । विधो भवति श्रवग्रहस्तद्यथा ऋतुबद्ध वर्षाकाले वृरुवासे ख । तब का एक मामा वर्षे वर्षाकाले चतुरो मासान् वानत्वमधिकृत्योत्कर्षतः पोमश मासान् अन्ये - नवसंपया तु पो वर्षायाः व्य० ४ ४० ( अत्रावासमधिकृत्य यतव्यं तद् बुडावासशब्दे वक्ष्यते ) [ पाइर्वस्थाविहारप्रतिमां प्रतिपद्य पुनरुपसंपद्येतेति पासत्यशब्दे पयामि) पियामि तत्र (६) पार्श्वस्थादिविहारप्रतिमामुपसंपद्य बिहारे विधिमाह ॥ (सूत्रम् ) मिक्लू अ गणामो अक्षम्म परपासंद संपाचाणं विहरिना से प इच्छेला दोघं पि संभव उवसंपज्जित्ताणं विहरितए नत्थि एणं तस्स तप्पइयं कइ - दे वा परिहारे वानन्नत्य एगाए भालोयणाए । ३१ । अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्यत आह । दोसे धरता, समे चैव भावलिंगाच्यो । इति समुदिया उ सुत्ता, इम देवतोचि गतो ॥ द्रव्यनिङ्गमधिकृत्य देशनोपक्रान्ता प्रावहितो भावलिङ्गमधिकृत्य सर्वेण सर्वात्मनाऽपकान्ताः पार्श्वस्यादय इति । एवमर्थाम्यन्तरसूत्राणि समुदितानि सम्यक्प्रतिपादितानि दानमधिकृतमन्यत्सूर्य इव्यलिन विगते वियुक्रे द्रव्यलिङ्गवियुविषय मिति भावः । अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या । भिक्षुः प्रा गुक्तशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । स चैतत् समुश्चिनोति रागदेषादिना कारणेन गणादपक्रम्य निर्गत्य परपाखण्ड प्रतिमां परपा LAT मुपसंपद्य विहरेत् विहाय च कारणे समाप्ते द्वितीयमपि चारं तमेव गरामुपपच विमिच्छेत् तस्य तथोपसंप मानस्य नास्ति कश्चिच्छेदो वा परिहारो वा । उपलक्षणमेतत् अन्यदपि प्रायश्चित्तं न किमप्यस्ति । कारणतः परलिप्रतिपतेः प्रतिपत्तावपि सम्यभ्यतनाकरणात्किं सर्वथा न किमपि नेत्याह नान्यत्र एकाया आलोचनिकायाः अन्यत्र शब्दपरिवर्जनार्थो जीमार्जुनाभ्यामन्यत्र सर्वे योद्धार इत्यादिवत्ततोऽयमर्थ एकामात्रोचनां मुक्त्वा पुनर्भवत्येवेति भावः । एष सूत्रसं पार्थः । अधुना निर्युतिभाष्यविस्तरः । कंदये परलिंगे, मूलं गुरुगा व गरुलपक्खम्मि | सुतं तु चिगादी, कालक्खेवावगमणं वा ॥ यदि कन्दर्पे कन्दर्पनूत श्राहारगृख्यादिकरणलक्षणतः परलिङ्गं करोति ततस्तस्मिन्परसिङ्गे कुते तस्य प्रायश्चितं मूलम् । अ] गरुपा गादिरूपं परसिद्ध करोति तदा वा गुरुकाः । इत्यादि सूचनार्थः । अत्र पर आह । ननु सूत्रनिर्युक्त्योरनुपपत्तिः । तथा हि सूत्रेण परलिङ्गकरणमनुज्ञातं प्रायचित्तादानात् । निर्युतिकृता तु वारितं प्रायश्चित्तप्रदानात् । नैष दोषोऽनिचापरिज्ञानात निर्मुक्तिकता द कन्दतः करणे प्रायश्चितमुकं सूत्रं पुनः कथमपि राहि प्रयावासार्थो न अज्यते तावत्काल केपः क्रियतामिति । वा देती वाशब्दो न के वलं विकल्पार्थोऽनुक्तसमुच्चयार्थश्च स चैतत्समुश्चिनोति न शक्यते सहसा विषयपरित्यागं कर्तुमिति यावत्प्रज्ञापना क्रियते ( गमनं वेति) गमने या अशियादिकारणार्थ समभ्येन समुपस्थितं ततः पतैः कारणैर्वस्य राहो से पूज्या मिथुकादया भिक्षुका कोनीया आदिवात्परिमाजक परामरागादि परि ग्रहः । सीयादित्येतो व कश्विदोषः । नामेव गाथां नायक व्याख्यानयति ॥ संधे दुबार संजय गरुडसे व पहलिंगदुवे | लहु बहु लहुरा, निमुपजगुरुदो मूलं तु ॥ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया (१०३४) अभिधानराजेन्द्रः | पूर्वोत्तरापादानां यथार्थक्येन योजना वैवं यदि क दर्पतो वस्त्रं गृहस्थ श्व स्कन्धे करोति तदा तस्य प्रायश्चित्तं ast मास (दुवारोस ) गोपुकिं करोति तदाऽपि लघुको मासः । संयत प्रावरण करणे चत्वारो लघुमालाः । गरुडादिपत्रिकरणे चत्वारो गुरुका (असंप्ति) स्कन्धे दिगम्बरच यदि वस्त्रस्य करोति तदापि चत्वारो गुरुकाः ( पट्टति ) यदि गृहस्थ श्व कटिपट्टकं बध्नाति तदापि चत्वारो गुरुकाः (लिं गवे इति) लिङ्गद्विकं गृहिलिङ्गं परपाखण्डिलिङ्गं च तस्मिन् गृहिलिङ्ग परपाखकिलिङ्गे च कन्दर्पतः परिगृह्यमाणे प्रत्येकं प्रायश्चित्तं मूलम् । संप्रति " कालक्खेवो व गमणं वा " इत्येतद्यायानामाद असवादिकरणेर्टि राय व दो परलिंगं । कालक्खेवनिमित्तं, पावण्डा व गमगडा || शिवं देवताकृत उपयः आदिशब्दादयमोदय दिपरिग्रहः तेषु अशिक्षादिकारणेषु गायायां तृतीया सम्यर्थे प्राकृतत्वात्तथा द्वेषणं द्विष्टं राज्ञो द्विष्टं राजद्विष्टं राजद्वेष इत्यर्थः । तस्मिन्वासति पर नयति | किमर्थमिति चेदन आह कालेत्यादि । यावत्सार्यो न सभ्यते ताक्स खलु परसिङ्गग्रहणेन काल केपः क्रियतामित्येवं कालपनिमित्तमथवा न शक्यः खलु सहसा विषयः परित्यक्तुमिति यावद्राज्ञः प्रज्ञापना क्रियते तावद् गृह्यतां परमिति प्रज्ञापनार्थ यदि अशिवादिकारणेषु समुपस्थि तेष्वनादेशमध्ये गमनमुपजातं तच्चानार्यदेशमध्ये गमनं न प प्रणमृते शक्यते कर्तुमिति गमनार्थ वा परञ्जिङ्गग्रहणम् । अथ कस्य पर िग्राह्यमित्याशङ्क्य निकुगादि इत्येतयाख्यानयति । जं जस्स अश्चियं तस्स, पृपतिं तमस्सिया लिंगं । वीरादि गर्मति तं उन्नसामत्था ॥ यत् निक्कादिगतं लिङ्गं यस्य राज्ञोऽर्चितं जावे कप्रत्ययो मान्य स्पर्थः। तत्रार्थितमपि नावश्यं कस्याप्यनतिक्रमणीयं भवि ततोऽनतिक्रमणीयताप्रतिपादनार्थमाद सस्योत्पूजनी यमनतिक्रमणीयं समाधितास्तसिद्धं प्रतिपक्षाः उद्यसामर्थ्या परलिङ्गवाच्छादित स्वस्वरूपाः तं राजानं गमयन्ति कीडशौ उपशमयन्तीत्यत आह । कीरादिशविधयुक्ताः की राधवनधि संपला आदिशब्दाविद्यामन्त्रयोगादिवशीकरणकुशलतायाः परिग्रहः ॥ सब्वा सविधरामु आगाप व संच जो जन्म सन्तो त पविस्से अवाहको तस् स एव पंथो कक्षा द्वासप्ततिसंख्या लोकप्रसिकास्तासु कलासु सर्वास्वपि सविस्तरासु आगादयश्श्रेार्भेषु परिचयेत्सु यो राजा यत्र कादिविशेषे सक्त प्रसक्तो भवतेि । किमुक्तं भवति तस्य राज्ञो यस्मिन् कनादिविशेषे अत्यन्तमभिष्वङ्गो भवति तमनुप्रवेशयेयुस्तं सम्यग् ज्ञात्वा रामः पुरतः प्रवेदयेयुः प्रवेदयन्तश्च राजानमुपशमयन्ति । यत एव तस्य राश उपशमने अव्याहतः स्वपराविरोधी पन्था मार्ग उपाय इत्यर्थः । तत्र यदीत्यमु पशान्ती जवति तदा समीचीनमथ नोपशान्तस्तत एव कलादिविशेषं तावत्प्ररूपयन्ति यावत्सार्थो लभ्यते । सार्थे च लब्धे निर्गच्छन्ति । तथा चाह । yari for संगवे होगा | उपया देसंतरमेकम, निक्खुगमादी कुलिंगे || अनुपरामयति शशि उपशमं कुर्विति निषेध निर्गमो जयति । कथमित्या लिवियेागेन स्थरियर्थः । अथ तयापि न मुञ्चति गोपाल (आगादेसियाको तोकादिन देशान्तरसंक्रमणं कर्त्तव्यम | शिवादीका कारण समुपदेशान्तरगमनं कर्तव्यम्। तत्र येन यथा गन्तव्यं स कीदृश इत्याह । आयरिया संक्रमणे परिहरति दिम्मि जा व पविची। असतीए पत्रिसणं, खुजियम्मि गियम्मि जा जयणा ॥ देशन संक्रमन्यमिति वाक्यशेषा श्रार्यक्रमग्रहणतो नङ्गवतुष्टयं सूचितं तद्यथा आर्यदेशे भार्यदेशमध्ये गमनमित्येकी भङ्गः । भार्यदेशे अनार्यदेशमन्येनेति द्वितीयः । श्रनादेशे भार्यदेशमध्येति तृतीयः अनार्यदेश अगादेशमध्येति चतुर्थः तत्र प्रथमभङ्गे विंशतिज्ञ नपदमध्ये, द्वितीयनङ्गे देशे मालवनामकश्लेच्छदेशमध्येन, तृतीयभ यथा कुरुकविषये श्रनार्यविषये श्रार्यविषयमध्येन, चतुर्थभङ्गे पारसीकदेशे अनार्यदेशमध्येन । श्ह प्रथमभङ्गे ऽशिवादिकार पनि सम्यम् द्वितीयतृतीयचतुर्थभ निरामिषे अशिवादिकार वा भाद गच्छन् उमादीन् दोषान् तेषां च लिङ्गानामाश्रयस्थानानि परिहरति । तथा गच्छन् यदि केनापि क्वापि ग्रामनगरादी दृष्टो नवे दृष्टे सति तेन या काचनाधिकृतलिङ्गानुशासनप्रतिपसिसामाचारी र कर्त्तव्या । किमुक्तं भवति । तत्सामाचार्या [वर्तितयमिति । अथ ताम्रयस्थानपरिहारे न समुदाय प्रवेश सावस्था नप्रवेशन कर्त्तव्यम्। अब यदि तेषां प्रत्ययोत्पादनार्थ तिमा स्तपानि वा वन्दनीयानि भवन्ति तदा जनप्रतिमां मनस यानि भिकायां स्वयं गन्तव्यम् अथ शिक्षा न लभ्यते ततो निक्षुकैः सह जोक्तव्यम् । तत्र यदि पुरु कन्दादिकंवा पतति तदा शरीरस्य ममानुपकारकं येथे निवारितमिति प्रतिषेधयेत् । अथ कथमपि अनाजोगतस्तदोषजयतो वा गृहीतं जवेत् तदा तस्मिन् गृहीते या यतना सा कर्तक्या किमुळे जयति । भल्यागारिक कथमव्यपसार्य विधिना परिष्ठापयेत् । एष गाथा संकेपार्थः । मेनामेव गोि आयरिषदेसाय रियलिंगकमे स्प होगा। वितयचर, अभिवादिमतो करे अन्नं ॥ अशिवादिषु कारणेषु समुपस्थितेषु आर्यदेशे श्रार्यदेशमध्येन नि संक्रमो भवति । यन्मध्ये च यत्र न गन्तव्यं तयोरुभयोरपि देवात्। अत्र प्राप्रकारेण तु गा धार्या पुंस्त्वनिर्देशः प्रकृतद्वयमेन शिवादिगतः सन् अन्यतः गृहस्थति यदि वा यस्य देशस्य मध्येन यत्र या देशे गन्तव्यं तत्र येऽतिप्रसिका भिक्षुकादयस्वयं करोति । संप्रति परिहरतीति यमुक्तं तयाख्यानयति । परिहरड़ उगमादी - विहारखाऐ य तेोस लिंगीणं । पुब्वे मागमित्तो, आयरियचेतरोमं तु ॥ परिहरति उमादीन् दोपान् । तथा तेपां लिङ्गानां यानि विहा रस्थानानिनानिपतितस्थानेषु गतः सन् Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३५) उवसंपया अनिधानराजन्तः। जवसंपया यदि यलिन गृहीतं तदागमेषु कुशनो नयति तन्मा केनापि ( सूत्रम् ) जिक्खू य गणाओ अवकम्म अोवहावज्जा से लिङ्गविसम्बक इति ज्ञात्वा प्रतिगृह्येतेति । आचार्य विधिः। इच्छेजादोच्चं पितमेव गणं वर्मपन्जि विहरितए पन्धि इयरेसिमागमेसुं, मा वायंतेसि निंगीणं । [ तस्म तप्पश्यं के छेद वा परिहारे वा एन्नत्थ पगाए अपुथ्वं सागामित्तो, पायरियत्तेतरोमं तु ॥ सेहोवहावणाए॥ अथेतरस्तेषामागमेष्वकुशलस्ततः स इदं करोति । तदेवाह । "जिक्खू य गणातो अवकम्म श्रोहावेजा से पच्छेजा" इत्यादि मोणेण जं च गहिय, तु कुकु उभयलिगिअविरुई। अस्य सूत्रस्य का संवन्ध उच्यते ॥ पञ्चयउपणामे, जिएपमिमानो मणे कुणति ।। एगयरशिंगविजद, इ सुत्तावप्पिया उजे हेहा । मौनेन वाचंयमनवणेन क्रियां करोति मानवतित्वमवलम्बत उत्जयजढे अयमन्नो, पारंनो होइ सुत्तस्स ।। इत्यर्थः । यच विशिष्टसंप्रदायाद् गृहीतं कुकुटविद्यादिनाबस्त यान्यधस्तात्सूत्राणि पार्श्वस्थादिगतानि तानि एकतरलिङ्गप्रयोगवणम् । उन्नयतोऽपि अजयेषामपि साधुचर्यास्तेषां च | विजढे एकतरनिङ्ग परित्यागे तथा हि पावस्थादिसूत्राणि लिझिनामविरुकं तत्करोति । तथा समुदानासंनये तेषामाश्रयेषु नावमिङ्गपरित्यागविषयाणि परपाखएमप्रतिमासूत्रं न्यलिङ्गपगतस्य सतस्तेषां प्रत्ययातोः प्रत्ययोत्पादनार्थ बप्रतिमानां रित्यागविषयमितिशब्दो हेतौ यतोऽधस्तनानि सूत्राएयपरशिङ्गस्तूपानां वा प्रणामकरणीयतयोपस्थिते जिनप्रतिमा मनसि करो विषयाणि ततोऽयमन्य प्रारम्भः सूत्रस्य जयत्युजयजढे ति उनति । किमुक्तं जवति।जिनप्रतिमा मनसिकृत्य तेषां प्रणामं करोति यसिंगपरित्यागविषयः प्रस्तावायातत्वात् एवमनेन संबन्धेनायाभावे ति पिस्वावि-तणेण घेत्तुं च वच्चइ अपत्ते । तस्यास्य व्याख्या निकुर्गणादपक्रम्य निर्गत्य अवधावेत व्रतपर्याकंदादिपुग्गलाण य, अकारगं एय पमिसेहो । यादवाङ्मुखीनूय पराङ्मुखो नृत्या गृहस्थपर्यायं प्रतिगच्ोत् तथा आत्मानं जनेभ्यः पिएमपातित्वेन नावयति । ततो भिका-1 द्वितीयमपि वारं तमेव गगमुपसंपद्य विहर्तु (नस्थिणमित्यादि) परिचमणेन जीवति । अधावमादये दोषतः परिपूर्णों न भवति णमिति खल्वथें निपातानामनेकार्थत्वात् । नास्ति खलु तस्य तता दानशामायां जिकुकादिभिः सह पङ्खया समुपविशति । कश्चिदपि दः परिहारो चा किं सर्वथा न किमपि नेत्याह । ततः परिपाट्या परिवेषणे जाते सति (अपत्ते इति) अत्र प्राकृ- नाम्यत्र एकस्याः शैक्षिकोपस्थापनायाः किमुक्तं नवत्यका शैक्कितत्वात् यकारसोपः अयःपात्रे तत् गृहीत्वा अन्यत्र विविक्ते कोपस्थापनिका भवति मूखं भवतीत्यर्थः । एष सूत्रसंकेपार्थः। प्रदंशे समुद्दिशति । अथान्यत्र गत्वा समुद्देशकरणे तेषां काचि- | सांप्रतमेतदेव सूत्रं व्याचिख्यासुरपक्रमेदवधावेदिति भेदपर्यातू शङ्का संभाव्यते ततो भिकुकादिभिरव स पङ्कयोपविष्टः सन् | ययाख्यानयति ।। समुद्दिशति । तत्र यदि सचित्तं कन्दादिपुरं वा मांसापरपर्या-1 निग्गमनमवक्कमणं, निस्सरणपलायणं च एगट्ठा । यं परिवेषकः परिवेषयति तदा ममेदमपकारकं वैधेनप्रतिषिरू- लोटण युटणपलोटण, अोधाणं चेव एगहा ।। मिति वदता तेषां कन्दादीनां पुलस्य च प्रतिषेधः कर्त्तव्यः।। निर्गमनपक्रमणं निस्सरणं पलायनमित्येकार्थाः । लोटनं सट्टन अत्रैव पुतविषये अपवादमाह। प्रलोटनमवधावनमिति चैकार्थाः। तत्र लोटनमिति सुट विलोवितियपयं तु गिलाणे, निक्खेवं चंकमादि कुणमाणो। टने इत्यस्यैव प्रपूर्वस्य पर्यायशब्दरप्यधिकृतशब्दार्थप्रतीतिरुपलोयं वा कुणमाणो, किकम् वा सरीरादि । जायते तत्व नेदपर्यायाख्या इति वचनमप्यस्ति । ततस्तदप न्यास इति । द्वितीयपदमपवादपदं यदि नाममात्रोपकरणानां निकेपमुपक्ष अथ कैः कारणैरवधावनं कुर्यादित्यवधावनकारणान्याह । क्षणमेतत् । आदानं प्रत्युपेवणादिकं च कुर्वन् तथा चरमणादि आदिशब्दामुत्थानादिपारग्रहः कुर्वन्यदि वा सोचं कुर्वन् अथवा विनोदएण अहिकरण-नावतो व दुक्खसेज्जाए। कृतकर्म शरीरादेः कुर्वन्यदि सानो नवति तदोपजीव्यं पुल इइ लिंगस्स विवेगं, करंज पच्चक्खपारोक्ख ॥ मिति । प्रस्तुतमनुसंधानमाह । विषयोदयेन अत्र विषयग्रहणेन विषयविषयो मोड़ः परिगृहाते अह पुण रूसेज्जाही. तो घेत्तु विगिंचए जहाविहिणा। विषयण विषयिणो सकणा ततोऽयमर्थः विषयविषयमोहोदयेन एवं तु तहिं जयणं, कुसाही कारणागाढा ॥ यदि वा केनापि सह अधिकरणभावतः अथ वा दुःखशय्यया चतुधिया स्थाजित इति तोधिङ्गस्य प्रवल्याचिहस्य रजोअथ पुनः प्रागुनप्रकारेण कन्दादिपुशनानां प्रतिषेधे क्रियमाणे रुध्येयुरिति संजाव्येत तर्हि गृह्णीयात् गृहीत्वा च यथावि हरणस्य विवेक परित्यागं कुर्यात् । कथमित्याह साधूनां प्रत्यकं धिना यथोक्तेन विधिना विगिफ्यात् । तेन दृष्टिबन्धनेनापसार्य वा कुत्र कुर्यादित्याह। सूत्रोक्तविधिना परिष्ठापयत् । उपसंहारमाह । अंतो उवस्तए छ-हुणा बहिगामपासे वा। इति कारणेसु गहिते, परलिंगे तीरिए तहिं कजे । विडयं गिलागाए, कितिकम्मसरीरमादीसु ।। उपाश्रयस्थान्तमध्ये विङ्गस्य उतृणा परित्यागः क्रियते । यदि जयकारी सुज्छाइ थियम-णाए इयरो जमावेजा॥ वा बहिरूपाश्रयातू अथवा ग्राममध्ये यदि वा ग्रामस्य पाव इत्येवमुत्तेन प्रकारेण कारणेष्वशिवादिषु समुपस्थितेषु ती-| आसन्नप्रदेशे अथवा तत्रैवाचार्यस्य समीप श्दमवधावन काले रित चसमाप्ति नीते च कार्य तत्र यो (जयकारीति ) यतनाकारी बिस्याज्झनम् । अपवादतोऽवधावनाभावेऽपि भवति तथा चाह यथोक्तरूपां यतनां कृतवान् स विकटनया आलोचनामात्रेण शु.| हितीयपदमपयादपदं विङ्गस्योभने ग्यानो के ग्नानजने शरीध्यति यतनया सर्वदोषाणामपहतत्वात् । तरो नाम यन यतना | रादिषु आदिशब्दादुच्चारपरिष्ठापनादिपरिग्रहस्तेषु कृतकम्मणि न कृता स यत् यतनया प्रायश्चित्तमापद्यते तत्तस्मै दीयते॥ व्यापारे नयाहि ग्लानस्य शरीरे विश्रामणादिकमुत्रारादिपरि Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३६) उवसंपया थाभिधानराजेन्द्रः। नवसंपया छापनादिकंवा कुर्वन् खरएटनादिनयाल्लिङ्गस्य विविक्ते प्रदेशे मो- णावच्छिइयं वा अनं गणं नवसंपन्जित्ताणं विहरित्तए ते चनं नवतीति।संप्रत्यवधावनेन सिङ्गस्योज्कने विधिविशेषमाह। य से विहरेज्जा एवं से कप्पइ अचं गणं नवसंपज्जित्ताणं नवसामिए परेण व, सयं च समुहिए उवट्ठवणा । विहरित्तए ते य से नो वितरज्जा एवं से नो कप्पा अमं तक्खणचिरकालेण व, दिलुतो अक्खनंगेण ।। गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । सपाश्रयान्तः प्रतिषु येषु स्थानेषु रजोहरणं मुक्तं तेषु स्थानेषु एवमग्रेतनमपि सूत्राष्टकमुच्चारणीयम् । भिक्षुः सामान्यसाधुश्च तेभ्यः परस्मिन्बाऽन्यस्मिन् स्थाने उपशामिते परेणोपशमं नीते शब्दान्निग्रन्थीच गणादवक्रम्य निर्गत्य इच्छेदनिषेदन्यं गणस्वयं वा तथाविधानुकूलकर्मोदयतः उपशम गते ततः पुनर मुपसंपच विहर्तु नो (से) तस्य भिक्कोः कल्पते नो प्रापृच्चाकरणतया तरवणं सिलोज्जनानन्तरं तत्कालं चिरेण वा दीर्घका चार्य वा नपाध्यायं वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणधरं वा गणालेन गुरुसमीपे समुपस्थिते नियमादुपस्थापना कर्तव्या नान्यथा बच्छेदकं वा अन्यं गणं वा उपसंपध विहर्तुं कल्पते ( से) तस्य प्रवेशनीयः । आह यदि तेन न किञ्चिदपि प्रतिसेवितं ततः क निकोराचार्य या यावत्करणं उपाध्याय वा प्रवर्तिनं वा स्थविरं स्मासुपस्थाप्यते । अत्र सूरिराह । शान्तोत्रावनक्रेन यथा श षा गणधरं वा गणावच्छेदकं वा आपृच्छयान्यं गणमुपसंपद्य कटस्याके भन्ने नियमादन्योऽक्षः क्रियते एवं साधोरपि भा विहर्तु ते चाचार्यादय आपृष्टाः सन्तस्तस्यान्यगणगमनं वितरेधाक्षे भन्ने पुनरुपस्थापनारूपो भावाक माधीयते । अक्षोऽभ्या युरनुजानीयुस्तत एवं तस्य कल्पते अन्य गणमुपसंपद्य विहर्तु पुनरपि परः प्राह। ते च तस्य न वितरेयुस्ततो नो कल्पते तस्यान्य गणमुपसंपद्य मूलगुणउत्तरगुणे, असेवमाणस्स तस्स अतियार। विहर्तुमिति सूत्रार्थः। तक्खण नवाट्टियस्स उ, किं कारणा दिजए मूलं ॥ | अथ नियुक्तिविस्तरः । मूलगुणे मूलगुणविषये उत्तरगुणे उत्सरगुणविषये किंचिद-| तिहाणे अवकमणं, णाणट्ठा दसणे चरित्तहा । प्यतीचारं तस्याप्रतिसेवमानस्य कथमप्रतिसेवनेत्यत आह । आपुच्छिकण गमणं, जीतो य नियत्तते कोधि ।। तत्क्षणं लिङ्गोज्झनानन्तरं तत्काले अपुनःकरणतया समुत्थितस्य न भावाको भग्न इति । किं कारणं तस्मै मूलं दीयते | स्थानं कारणमित्येकोऽर्थस्ततस्त्रिनिः स्थानः करणैर्गादपक्रम णं भवति ज्ञानार्थ दर्शनार्थ च । अथ निष्कारणमन्यं गणमुपसंपद्यउपस्थापना क्रियते । सूरिराह । ते ततश्चतुर्गुरुकम् आझादयश्च दोषाः । कारणेऽपि यदि गुरुमसेवन मा न वयाणं, अतियारं तहवि देति से मूलं ।। नापुच्छ्य गच्छति ततश्चतुर्गुरुकं तस्मादापूच्च्य गन्तव्यम् । तना विगडासवा जलम्मि उ, कहन्नु नावा न बोडेज्जा ।। ज्ञानार्थ तावदभिधीयते यावदाचार्यसकाशे श्रुतमस्ति तावदशेषबतानां प्राणातिपातविनिवृत्यादीनामतीचारं सेवांवा मा वा | मपि केनापि शिष्येणाधीतम् अस्ति च तस्यापरस्यापि श्रुतस्य तथापि (से) तस्य प्रवचनोपनिषद्वेदिनो मूलं ददाति भाव- ग्रहणे शक्तिस्ततोऽधिकश्रुतग्रहणार्थमाचार्यमापृच्चति प्राचार्यतोऽसंवृताश्रवद्वारतया चारित्रभङ्गात् तत्रैव प्रतिधस्तूपमया णापि स विसर्जयितव्यः तस्यैवमापृच्छय गच्छत श्मे अभिचारा भावनामाह ( वियडासवेत्यादि) विकटानि अतिप्रकटानि जवन्ति न परिहर्त्तव्याः । तत्र कश्चित् तेषामाचार्याणां कर्कशस्थूराणीत्यर्थः पाश्रवाणि जलप्रवेशस्थानानि यस्याः सा तथा चयों श्रुत्वा भीतस्सन्निवर्तते यथा ॥ रूपा सती नौः कथं नु जले प्रक्षिप्ता न विमज्जेदिति भावः । चितंतो, वइगादी, संखमि, पिमुगादि, अपडिसहे य । श्राववद्वाराणामतिप्रकटानामभावादेवं साधुरपि भावतोऽनि परिसेबे, सत्तमपयं, गुरुपे सविए य सुच्छो य ।। पारिताश्रयस्सन् शुभकर्माजले निमजतीति भवति तस्योप किंवजामि मा वेति चिन्तयन् ब्रजति ब्रजिकायां धा प्रतिबन्ध स्थापनार्हता । अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह ।। करोति आदिशब्दादानधकादिषु दीर्घा गोचरचर्या करोति । अचोरिस्तामि ति मतिं, जो खलु संधाइ फेमए सुषं। प्राप्तं चावेशकालं प्रतीकते (संखमित्ति) संस्थत्या प्रतिवध्यते अधियम्मि वि सो चोरा, एमेव इर्म पि पासामो।। (पिसुगाति) पिशुकं मन्कुणादितया निवर्तते । अन्यत्र या अहं चोरयिष्यामीति संधाय यः खलु मुद्रा स्फेटयति स | गच्छे गच्छति (अप्पमिसेहोत्त) कश्चिदाचार्यः परममेधाधिनमयद्यपि तदानीमारतकैहोतत्वादिना कारणेन न किञ्चिदपह- न्यत्र गचन्तं श्रुत्वा परिस्फुटवचसा तं न प्रतिषेधयति किंतु तवान् तथापि तत्परिणामोपेतत्वादनपहृतेऽपिस चौरोभवति। शिष्यान् व्यापारयति तस्मिन्नागते व्यञ्जनघोषर्क पठनीयं अयमेव अनेनैव प्रकारेण इममपि पश्यामः । प्रचरितपरि- येनत्रिव एष तिष्ठति एवं प्रतिषेधापनेऽपि प्रतिषेधको सन्यते । पामोपेतस्वेनचरितत्वादुपस्थापमायोग्यं पश्याम इत्यर्थः । व्या तेनैवं विपरिणामितः सन् तदीये गच्चे प्रविशति (परिसिझेत्ति) प्र० १ उ01 पर्षद्वान् स च्यते यः संविग्नायाः असंविग्नायाश्च पर्षदः संप्र(७) गणादपक्रम्येच्छेदन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तु- है करोति तस्य पार्श्वे तिष्ठतः ( सत्तमपयं गुरुपेसपिए अत्ति) मिति प्रकारान्तरेण प्रतिपादयति । तत्र संप्राप्तो प्रवीति अहमाचार्यैः श्रुताध्ययननिमित्तं युष्मदन्ति (मूत्रम् ) भिक्खू य गणामो अवकम्म इच्छंजा अनं गणं | के प्रेषितः । एतेषु भीतादिष्वष्टस्वपि पवेषु षत्यमाणभीत्या प्रायउपसंपज्जित्ताणं विहारत्तए न मे कप्पइ अ-पज्जित्ता आय श्चित्तम्। यस्तु भीतादिदोषविप्रमुक्तः समागतो प्रीति अहमा चार्यविसर्जितो युष्मदन्तिके समायात ति स शुको न प्रायश्चिरियं वा उबझायं वा पत्तिं वा थेरिं वा गण वा गण सभाक। हरिं वा गणावच्चेश्यं वा अप गणं उपजित्ताणं जीतादिपदेषु प्रायश्चित्तमाह। विहारित्तर कप्पड़ से आपुच्चित्ता आयरियं वा जाव ग-1 पणगं च जिन्नमासो, मासो बडगा य संखमी गुरुगा । Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३७ ) निधानराजेन्द्रः | जवसंपया १ ॥ ए पिमुगादी मासल, उचरो लहुगा अपसेो ॥ परिसे चललुगा, गुरुपेसवियम्मि मासितं बहुगं । सेहेण समं गुरुगा, परिस पविसमाणस्स ॥ २ ॥ पडिसेहगस्स लगा, परिसे बच्च चरिम सुद्धो । देसि पि होति गुरुगा, च तं लजति ॥ २ ॥ प्रीतस्य नियमानस्य पञ्चकं चिन्तयतो निमासः प्रजिकादिषु प्रतिपद्यमानस्य मासलघु संखड्यां चतुर्गुरुकाः पिशुकादिप्रयान्निवर्तमानस्य मास प्रतिषेधकस्य पार्श्वे ये लघुकाः पर्यत आचार्यस्य सकादो तिरु मेोऽमिति भणिते लघुमासिकं शक्रेण प गच्छे प्रविशतश्चतुर्गुरुको गृहीतोपकरणं तत्र प्रविशत उपधिनिपनं प्रतिषेधकस्य प्रतिषेधकत्वं कुर्वतश्चतुर्लघु पर्यद्वतः पर्षदं मयतः पद अकाश्रमो भीश्रादिदोषरहितः स शुद्धः । येषामपि प्रतिषेधकारीन माचार्याणां तं स्वगच्छेत्वारो गुरुकाः यच सचित्तमचित्तं वा वाचनाचार्यस्तत् जाव्यं तप्ते किंचिदपि न लभन्ते यः पूर्वमनिधारितस्तस्यैवाचार्यस्य तदामान्यमिति जावः । अथ भीतादिपदानां क्रमेण व्याख्यानमाह । संसाहगस्स सानं, परिपंथिगमादिगस्स वा भीओो । परणा तत्थ खरा सयं व खाओ पडिणियतो ॥ संसाधको नाम दोल्लापकः पृष्ठतः कुतश्चिदागतो वा साधुः तन्मुखेन श्रुत्वा त्या प्रतिपन्धिका सन्मुखीनः सान्यादिस्तदादेर्वा मुखात् श्रुत्वा स्वयं वा ज्ञात्वा स्मृत्वा किमित्याह । श्राचरणाचर्या तत्र स्वाचार्यस्य गच्छे खरा कर्कशा एवं श्रुत्वा ज्ञात्वा वा भीतः सन् यः प्रतिनिवृत्तस्तस्य पञ्चकं जवतीति शेषः । अथ चिन्तयतीति पदं व्याचष्टे ॥ पुत्रं चिंतेयव्वं, णिग्गतो चिंतेति किं करोमि त्ति । वच्चामि विपतामिव ताव प्रस्त्य वा गच्छे ॥ पूर्वमेवास्तु नियति किं करोमि व्रजामि निवर्ते वा यद्वा तत्र वा अन्यत्र वा गच्छामीति स मासलघु प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति प्रक्रमः । प्रजिका संखडीद्वारद्वयमाह । प्रतीक बत्तणमप्पत्ते, लडुओ खस्स चुंजणे लढुगा । सिसुवणा लहुआ, संखदिगुरुगा य जं वयं ॥ या मार्गाद्धर्त्तनं करोति प्राप्त था वे मधुमासः अथ प्र अजीम निरह प्रकामं स्वपिति लघुमासः । संखयम प्राप्तकालं प्रतीक्षमाणस्य प्रनृतं गृहतो वा चतुर्गुरुकाः (जंबति यच तेन हस्त पादेन पादस्याक्रमणं शीर्षेण शीर्षस्थानमित्यादिकमन्यदपि संखच जयति तय प्रायवित्तम्। अथ प्रतिषेधकद्वारमाह । अगत्यप्रमुगो वच्चति, मेहावी तस्स कट्टणट्ठाए । गाव पड़े वसधि ग्रह कोई बाबारे । भिलावसु पुच्छा, गेलेग मा हु ते वि पासिज्जा । इति कट्टते लगा, जति सेहट्ठा ततो गुरुगा || कश्चिदाचायों विशुमार्थस्फुट विकटव्यजनाभिलाषी सेन मानार्यात अमुमेाच साधुरमुकनाय उवसंपया यनार्थ व्रजति ततोऽसौ मा मामतिक्रम्यान्यत्र गच्छेदिति कृत्वा तस्याकर्षणार्थमथानन्तरं शिष्यान प्रतीष्ठांश्च व्यापारीत्याह (पंथग्गामे व पहेति ) यत्र पथि ग्रामे सभिकां करिष्यति मध्येन वा समेष्यति येन वा यथासमागमिष्यति यस्यां वा वसता स्थास्पति तेषु स्थाने गया यूथमनिद्रा परिय यन्त स्तिष्ठत या श्रागमनं जवति तदा यद्यसौ पृच्छेत् केन कारणेनास्ततो जययिमस्माकं वाचनाचाय अभिपाति पनिलाः कथंचिदन्यथा क्रियते ततीति कुर्वन्ति नमन्ति चाप रोलेना मित्रा मा विमाायतेति ततस्तदादेशेन पयमत्र चिजने परि वर्त्तयामः । एवमाकर्षणं कुर्वत चतुर्लघुकाः । श्रथ तेन वा गच्छता दशैको प्रद ततश्चतुर्गुरुकाः । अक्खरज, मम पुच्छ सम्म गए संत | घोसेहि य परिसुद्धं, पुच्छह णिउ य. सुतत्थे ॥ आचार्यः शिष्यान् प्रतीकिान या भणति यदा युष्माक मभिलापशुद्धगुणतया रञ्जितः स उपाश्रयमागच्छति तदा तस्माते अकरम्य अशुद्धं सूत्रं मां पृ अक्षराणि प्रती तानि व्यञ्जनशब्देनार्थाभिव्यञ्जकत्वादपदमुच्यते तैरक जन शुद्धं तथा पोयोदात्तादिभिः परिशुद्धं सूत्रं पठनीयम निपुणांश्च सूत्रार्थान् मां तदानीं पृच्छत एवमनया भङ्गया तमन्यत्र गच्छे प्रतिषेधयति । गतं प्रतिषेधकद्वारम अथ परसिल्लद्वारमाह ॥ पापमपापलो य रविविधवेमहरा। परिसेस्स तु परिसा लिए वा किंचि वारेति ॥ यः परिक्षित प्राचार्यः स संधिवाया अग्निया पर्यदः संग्रहं करोति ततस्तस्य साधयः केचित्प्रावृताः केचिदाः केचिदूघृष्टाः फेनादिना घृष्टसंघाः केचित् पृष्टाः तैलेन पृष्टशरीरा वा अपरे लोचलुञ्चितकेशा अन्ये कुरमुण्डिताः एवमादि • विविध एतस्यापदः स्थली देवद्रोणी तस्यामिया न किंचिदपि वारयति ॥ सत्य पसे लहूगा, सचि गुरुं च आबादी | वही फि पिय, अचित्तचिते व गिरते ।। तत्र पर्षद्वतो गच्छे प्रवेशं कुर्वतश्चतुर्लघु । श्रथ सचि प्लेन शैक्षेण सार्द्धं प्रविशति ततश्चतुर्गुरवः श्राशादयश्च दोषाः । अथाचितेग वस्त्रादिना स प्रविशति तत उपनियमसंयोगप्रायश्चित्तम्। तथा सचिताचितं ददतोतवमेव प्रायश्वितम् अथ पिशुकाविहारं बाह ढिकुरणपिसुगादि ताहं, सोनुं गाउं व सस्मिवत्तंते । ', अयुगमुतत्थनिमितं, तुम्भम्मि गुरूहि पेसविष्य || पिशमशकादीन् शरीरोपकारिणस्तत्र त्वा ज्ञात्वा वा संनिवर्त्तमानस्य मासलघु तथा अमुक श्रुतार्थनिमित्तं गुरुभिर्युष्मदन्तिके प्रेषितोऽहमिति भणतो मासलघु । श्रवं भणतः को नाम दोषः । सूरिराह | आणजिसिदा हु बलिपतराव आपरिषमाणा । जिन आणाए परिजयो एवं गन्यो अदिशितोय ॥ जिनेन्द्ररेय भगवानकं यथा निर्दोषो विधिना सूत्रार्थनि मिर्च यः समागतस्तसार्थीमयीन व जिनेन्द्राणामा Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंपया ज्ञायाः सकाशादाचार्याणामाज्ञा वलीयस्तराम् । अपि च एवमाचा ते दीयमाने नाशायाः परिभवो भवति । तथा प्रेषय उपसंपद्यमानस्य प्रती प्रयाणामपि गर्यो भवति । तीर्थकृतां श्रुतस्य चाविनयः कृतो भवति ततो गुरुभिः प्रेषितोऽहमिति न वक्तव्यम् । यस्तु भीतादिदोषविमुक्तोऽभिधारिताचार्यस्यान्तिके श्रायातः स शुद्धः । यस्तु प्रतिषेधानांपा तिष्ठति स विधिमाह । अन्नं निधारेतुं, अप्पडिसेह परिसिह्नमं वा । पवित कुन्नादिगुरु, सचित्तादी व से होउ || ने दो उपासना, पिरति दंतिम घेरा ( १०३८ ) अभिधानराजेन्द्रः / विरति य, पुच्छा विष्फालगडी ॥ यः पुनरन्यमाचार्यमभिधातिषेधवा पर्यन्तं या अन्य वा प्रविशति तस्य पार्श्वे उपसंपद्यते इत्यर्थः । तं यदि कुलादिगुरवः कुलस्थदिरा गणस्थविरा संघस्थविरा का जानीयुस्ततो यत्नेनाचित्तं सवित्तं वा तस्याचार्यस्योपनीतं तत्तस्य सकाशातू हृत्वा तौ द्वावप्याचार्यप्रतीच्छकौ स्थविरा उपाल जन्ते कस्सास्वया श्रयमात्मपार्श्वे स्थापितः कस्माद्वा त्वमन्यमनिधार्य स्थितः । एवमुपात्रभ्य तं प्रतीच्छकं घट्टयित्वा तत् सचितादिकं सर्वमनिधारितं तस्याचार्यस्य प्रयच्छन्ति तदति प्रेषयन्तीत्य र्थः । अथ घट्टस्थिति कोऽर्थ इत्याह घट्टनेति वा विचारणेति या पृच्छेति वा विस्फाइनेति वा एकार्थानि पदानि । तं घट्टेन सचित्तं, एसा आरोवणा व अहिते । वितियपदमसंविग्गे, जयगाए कयंति तो सुद्धो ॥ प्रतीच्या कमभिधाये भवान् प्रस्थित आसीदि ति पृष्ट्वा सचित्तादिकं तस्य श्रभिधारितस्य पार्श्वे स्थविरा: प्रेषयन्तीति गम्यते ( एसा आरोपणात अचिहीयस) या पूर्वप्रतिषेधकत्वं पर्वन्मीलनं वा कुर्वत आरोपणा भणिता सा अयधनिष्पता मन्तव्या विधिनाऽनुकरणं कुर्वाणस्य न प्रायश्चित्तम् । तथा चाह (वियपयत्यादि ) यमसाववधारयति स श्राचा संविग्नः ततो दितीयपदे यतनया प्रतिषेधकत्वं कुर्यात् का पुनसमेति यते प्रथमं साधुस्तं भाणयति मात्र मज पश्चादारमनाऽपि भगति पूर्वेकेन या शिष्यादिव्यापारेण प्रयोगेण वारयेत् । एवं यतनया प्रतिषेधकत्वे कृतेऽपि शुद्ध निर्दोषः । मुमेवार्थमाह । अनिपाते पास-स्मादिको तं पतितं अस्थि । कुतोविशिदोसो | यानिधारयसी जति ते या पार्श्वस्यादिदोषदुष्टा यच श्रुतमसाभिलपति तद्यदि यस्य प्रतिषेधकस्यास्ति ततो ये अधिक कुतो दोषाः यिव्यापारणास्तान् कुर्य निर्दोषस्तदा मन्तव्यः । 可 जं पुण सविनादी, तं तेसि देखि वि स गेए हे | वितिए चित्त ण पैसे, जावश्यं वा असंथरणे ॥ यत्पुनः सम्यं तत्ते राति न पुनः स्वयं द्धति पदिकमशिवादिनि फार प्रे afi | अथवा यावदुपयुज्यते तावद् गृहीत्वा शेषं तेषां समीपे प्रेपयेत् । श्रसंस्तरणे या सर्वमपि गृह्णीयात्। सचित्त मध्यमुना कारणेन न प्रेपयेत् । उवसंपया नाऊणय वोच्छेयं, पुन्नगए कालियाओगे य । सयमेव दिसावं, करेगा तो न पसिना ॥ यस्तेन शक आनीतः स परममेधावी तस्य च गच्छे नास्ति पदयोग्यो यस्तस्य पूर्वगतं वा सम तस्यापीता न प्राप्यते तस्व यमेव तस्यामी दिन् कुर्यात् न ते प्रापरतान पार्श्वे प्रेषयेत् । अपनोऽपवादमाह । असा तो परिसिन-पि कुज्जा न मंदधम्मे य । पप व काकाणे, सचित्तादी तिगिएकेा ॥ असहाय एकाकी स आचार्यस्ततः संविग्नमसंविग्नं वा सहाय वृद्धीया शिष्या वा मन्दधर्माणो गुरुण व्यापारं नयन्ति ततो यं वा तं वा सहायं गृहतः पर्षद्वत्वमपि कुर्यात् । श्राका या मन्दधर्माणो न पानादि प्रयच्छन्ति ततो शिष्यं यं वा तं परिगृह्णीयात् । दुर्भिक्षा दिकं वा कालमध्वानं वा प्राप्य ये उपग्रहकारिणः शिष्यास्तान् संगृह्णीयात् । श्रथ योऽसौ प्रतीच्छको गच्छति तस्यापवादमाहं । कालगयं सोऊर्ण, असिवादी तत्व अंतरा वा वि । पडिसिनं पमिसे, सुद्धो अमं व विसमाणो ॥ यमाचार्यमनिधार्य व अति तं कालगतं श्रुत्वा यद्वा यत्र गन्तुका तत्रान्तरा वा शिवादीनि श्रुत्वा पर्वतः प्रतिषेधकस्य वा अम्यस्य या पार्श्वे प्रविशेतः एतदविशेषितम्व जाग्या नानाव्यविशेषं विमणिपुराह । वच्तो विविहो, दत्तमदत्तस्त मग्गणा होति । वचमिखेण रचते ण पिको जान ॥ यः प्रतप्रति सोऽपि द्विविधो तयोः सहायः किं दातव्यो न वेति मार्गणा कर्तव्या । तत्र व्यक्तस्य यः सवितो विलासः केत्रवर्ज परक्षेत्रं मुक्त्वा भवति स सर्वोऽप्यभि धारिताचार्यस्याभवति यः पुनरन्यः स सात स्याचार्यस्यार्पितो न भवति तावत्पर क्षेत्रं मुक्त्वा यत्तं सहाया प्रभम् तत्पूर्वीचार्यस्यैवाभवतीति संग्रह गाथासमासार्थः । नामेव विवृणोति । सुतव्वत्तो गीतो व जो सोलसह आरेां । तव्विवरीश्रो वत्तो, वत्तमवत्ते य चउभंगो ॥ श्रव्यक्तो द्विधा श्रुतेन वयसा च । श्रुतेनाढ्यको गीतार्थो वयसा अभ्यस्तु षोडसाम वर्षाणामयम्यर्तमानस्तद्विपरीतो व्यक्त उच्यते । अत्र च व्यक्ताव्यक्ताभ्यां चतुर्भङ्गी भवति । श्रुतेनाव्यव्यको वयसाऽव्यक्तः |१| श्रुतेनाव्यक्तो वयसा व्यक्तः । २ । श्रुतेन व्यक्तो वयसा श्रव्यक्तः ॥ ३॥ श्रुतेनापि व्यस्तो वयसाऽपि व्यक्तः । ४ । अस्य च सहायाः किं दीयन्ते जत न दीयन्ते इत्याह । वत्तस्स वि दायव्वा, पुज्जमाणे सहा य किमु इयरे । अतिसु नं लग्नति पुरिक्षे || आयार्येण पूर्वमाणेषु साधुषु व्यख्यापि सहाया दातव्याः किं पुनरितरस्याव्य कस्य तस्य सुतरां दातव्या इति भावः । तत्र सहाया ह्या आत्यन्तिका अनात्यन्तिकाश्च । आत्यन्तिका नाम ये तेनासिकामाः ये तु तं तत्र का प्रतिभिय अनियनि Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३९) उवसंपया निधानराजन्धः । उवसंपया केत्रविवर्जे परक्षेत्रं मुक्त्वा सचित्तादिकं लभते (तन् पुरित्ति)। अपरिगृहीते वा केत्रे ततस्तस्मिन् वाताहते प्रवजितुं परिणते श्य तस्याचार्यस्याभिमुखं व्रजति स पुरोवर्ती भएयते अनिधारि- मार्गणा भवति ॥ त इत्यर्थस्तस्य सर्वमपि सचित्तादिकमाजवति। परकेत्रेषु अन्धं खेत्तम्मि खेत्तियस्स, खेतबहिं परिणए पुरेससस । केत्रिकस्यानाव्यम्। अंतरपरिणयविप्परि-णएण एगा उ पग्गणता ।। जा णेउं पत्तुमणा, नंते मग्गिले वत्तिपुरिमस्स। साधुपरिगृहीतकेचे प्रव्रज्यापरिणतः क्षेत्रिकस्यानयति । केत्रानियमव्वत्तसहाया-णं तु णियत्तत्ति जं सोयं ॥ द्वहिः परिणतस्तु (पुरिस्स्स त्ति ) तस्यैव साधोरानवति अअथ ते सहाथास्तं तत्र नीत्वा आगन्तुकामा अनात्यन्तिका पान्तराने स प्रव्रज्यायां परिणतो विपरिणतइन्च भवति ततः इत्यर्थस्ततो यत्ते सहाया लभन्ते तत्सर्वमाप ( मग्गित्ति ) | क्षेत्रे च धर्मकथिकस्य रागद्वेषप्रतीत्याऽनेका मार्गणाः । तद्यथा यस्य सकाशात्प्रस्थितास्तस्यात्मीयस्याचार्यस्याभवति ( वत्ति- यदि धर्मकथा ऋजुः जयात्कथयति तदा केत्रे परिणतः केत्रिकपुरिमस्सत्ति ) यत्पुनः स व्यक्तः स्वयमुत्पादयति यत्पुरिमस्य स्यानवात अक्षेत्र परिणतो धर्मकथिकस्य। अथ विपरिणतेन घे. अभिधारितस्याभवति यः पुनरव्यक्तस्तस्य नियमेनैव सहाया गेन कथयति यदा केवान्निर्गतो नविष्यति तदा कथयिष्यामि दीयन्ते ते च सहाया यद्यात्यन्तिकास्तदा यदसौ ते च लभन्ते न मे अधुना भवति एवं केत्रनिर्गतस्य कथिते यदि परिणतस्तदा तदनिधारितस्याभाव्यम् । अथ तं तत्र नीत्या निवर्तते ततो देत्रिकस्याजवतीत्येवं विभाषा कर्तव्या। यदसौ ते च परकेत्रं मुक्त्वा बभन्ते तत्सर्वं पूर्वाचार्यस्यान- वीसज्जियम्मि एवं, अविसज्जिए चउबहुं व आणादी। पति यावदद्याव्यसौ नापितो भवति । तेसिं वि इंति बहुगा, प्रविधिविही सा इमा हो । वितियं अपुज्जयंते, न देज्ज वा तस्स सो सहाये तु । एवमेव विधिर्गुरुणा विसर्जिते शिष्य मन्तव्यः। श्रथाविसर्जितो वइगादि अपमिवऊ-तगस्स उवही विसुको उ ।। गन्छति तदा शिष्यस्य प्रतीच्छकस्य च चतुर्वघु । अथ विसर्जितो द्वितीयपदमत्र भवति अपूर्यमाणेषु साधुषु सहायान साधून द्वितीयं वारमनापृच्ज्य गच्छतितदामासाघु आझादयश्च दोषाः। तस्थाचाया न दद्यात् स चात्मना श्रुतेन वयसा च व्यक्तस्तस्य येषामपि समीपेऽसौ गच्छति तेषामप्यविधिनिर्गतं तं प्रतीच्या बजिकादावप्रतिबध्यमानस्योपधिर्विको नवति नोपहन्यते । । चत्वारो लघवः । सचित्तादिकं वा भाव्यं न लभन्ते एषोऽविधिअथ वजिकादिषु प्रतिबध्यते तत उपधेरुपघातो जवात । रुक्तः । विधिः पुनरयं वक्ष्यमाणो भवति । स पुनराचार्य पनि एगे तू वच्चंते, जग्गहवज्जं तु लसति सञ्चित्तं । कारणैर्न विसर्जयति। बच्चंति गिलाणा अं-तरा तु तदि मग्गणा होइ । परिवार पूयहेतुं, अविसज्जते ममत्तदोसा वा । यो व्यक्त एकाकी ब्रजति स यद्यन्यस्याचार्यस्य योऽवग्रहस्त- अपलोमेण गमेजा, दुक्खं ख विमंचियं गुरुणो । द्वजिते अनवग्रहकेत्रे यत्किंचिजते तत् सचित्तमनिधार्यमा आत्मनः परिवारनिमित्तं न विसर्जयति बहुभिर्वा परिवारितः जस्याजवति ( वञ्चंतश्त्यादि) योऽसौ ज्ञानार्थ ब्रजति स द्वौ पूजनीयो भविष्यामि मम शिष्योऽन्यस्य पाव गतीति मम. श्रीन वा प्राचार्यान् कदाचिदनिधारयेत् तेषां मध्ये यो मे अनि त्वदोषाद्वा न विसर्जयति एवमविसर्जयन्तं गुरुमनुलोमा अनुकूरोचिष्यते तस्यान्तिके उपसंपदं गृहीण्यामीति कृत्वाऽसावन्तरा | बैचानिर्गमयेत् कुत इत्याह । (क्खंबुत्ति) खलुरवधारण खानो जातस्तैश्वाचायः श्रुतं यथाऽस्माननिधार्य साधुरागच्छन् गुरवो विमोक्तुं परोपकारकारित्वात् न च ते यतस्ततो विपथिम्मानो जात इति तत्रेयमानाच्यानाभाव्यमार्गणा प्रवति ॥ मोक्तुं शक्या इति जावः । ततः प्रथमत एव विधिना गुरूनापृ. पायरिया दोसि गया, एके एकं च णागए गुरुगा। च्छय गन्तव्यम् । का पुनर्विधिरिति चेडुच्यते । ण य लजती सञ्चित्तं, कालगते विप्परिणए वा ।। नाणम्मि तिहि पक्खा, आयरिय नबज्काय से सगाणं वा। यदि तौ द्वावयाचार्याचागतौ ततो यत्तेन लब्धं तऽभयोरपि एकेकपंचदिवसे, अहवा पक्खेण एक्ककं ।। साधारणम् । अथैकस्तयोरागत एकश्च द्वितीयो नागतस्ततोऽ ज्ञानार्थ गच्चता त्रीन् पकानाच्या कर्त्तव्या तत्र प्रथममाचार्य नागतस्य चतुर्गुरु यश्च सश्चित्तमश्चित्तं वा तदसौ न बनते । यस्तं पञ्चदिवसानापूरजति यदि न विसर्जयति तत उपाध्याये पञ्च गवेषयितुमागतस्तस्य सर्वमानवति एवं व्यादिसंख्याकेवाचा- | दिवसानापृच्छत् यदि सोऽपि न विसर्जयति तदा शेषाः साययानिधारितेषु नावनीयम् । अथासौ ग्लानः कालं गतः तत्रापि | धवः पञ्च दिवसान पटव्या एष एकापको गतस्ततो द्वितीयपक्कयो गवेषयितुमागच्छति तस्यैवाभवति नेतरेषाम् । अथासौ मेवाचार्योपाध्यायशेषसाधून प्रत्येकमेकैकं पञ्चनिर्दिवसैः पृ. विपरिणतस्ततो यस्य विपरिणतःस न लभते यत्पुनः सचित्ता | कति तृतीयमपि पक्कमेव पृच्छति एवं त्रयःपक्का जवन्ति। अथवा दिकमभिधार्यमाणे लब्धं पश्चादिपरिणतस्ततो यदविपरिणते निरन्तरमेवाचार्य एक पकमापूच्चनीयस्तत उपाध्यायोऽध्यक नावे लब्धं तवनसे चिपरिणते जावे लब्धं न सजते । पगच्छलाधवोऽप्येक पकम् । एवं च त्रयः पकाः एवमपि पंथसहायसमत्थो, धम्म सोऊण पव्वयामिति । यदि न विसर्जयन्ति ततोऽविसर्जित एव गन्नति । खेत्तं य बाहि परिणए, वाताह मम्गणाश्णमो।। एयविहमागतं तु, पमिच्छअपमिच्छो नवे बहुमा । योऽसौ ज्ञानार्थ प्रस्थितस्तस्य पथि गच्छन् कश्चित् मिथ्याष्टि- अहवा मेहिं आगम, एगादि पमिच्छतो गुरुगा । वाताहतः समर्थः सहायो मिलितःस च तस्य पार्वे धर्म श्रुत्वा पतेन विधिना आगतं प्रतीकं प्रतीच्छेत् । अप्रतीच्चतश्चतुप्रवजामीति परिणाममुपगतवान् स च परिणाममुपगतैः साधु-| बघुका नवयुः । अथामीतिरेकादिनिः कारणैरागतं प्रतीति भिरपरिगृहीते केले जातो जवेत क्षेत्राद्वा बदिरिन्छस्थानादौ वा ततश्चनर्गरकाः तान्येपैकादीनि कारणान्याह । Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४०) नवसंपया अभिधानराजेन्द्रः । नवसंपया एगे अपरिणते य, अयाहारे य थेरए । कारणजाते अनाभाव्यस्याप्यात्मीयो दिम्बन्धः कर्तव्यः । श्राह गिलाणे बहुरोगे य, पाहुडे मंदधम्मए । किमर्थमनिबद्धोन दाप्यते उच्यते अनिबद्धः स्वयमेव कदाचिएकाकिनमाचार्य मुक्त्या स समागतः। अथवा तस्याचार्यस्य मच्छन् पूर्वाचार्येण धा नीयेत कालदोषेण वा ममत्वाभापार्श्वये तिष्ठन्ति ते अपरिणता आहारवस्त्रपात्रशम्यास्थमित्राना वमालम्म्य वाचयिष्यतीति दिग्बन्धोऽनुशातः । इदमेव समकल्पिकास्तैः सहितमाचार्य मुक्त्वा आगतः । अथवा स आ विशेषमाह ।। चार्याधारस्तमेय पृष्ट्वा सूत्रार्थवाचनां ददाति स्थविरो वा स ससहाय अवत्तणं, खेत्ते वि उवडियं तु सञ्चित्तं । श्राचार्यः । यद्वा तदीये गो कोऽपिसाधुः स्थविरस्तस्य स पर दलियं गाउं बंधंति, उन्नयममत्तट्ठया तं वा ।। वैयावृत्त्यकर्ता मानो वा बहुरोगी वा स आचार्यः ग्यानोऽधुनो- अव्यक्तेन ससहायेन यःशैको लब्धो यश्च परकेत्रेऽपि उपस्थितः त्पन्नरोगः।बदुरोगिणामचिरकाझं बहुनिर्वा रागैरभिभूतः।अथवा सचित्तः स पूर्वाचार्यस्य केत्रिकाणां वा यद्यप्याभाव्यस्तथापि शिष्यास्तस्य मन्दधर्माणस्तस्यैव गुणेन सामाचारीमनुपालयन्ति | तं दंलिकं परममेधाविनमाचार्यपदयोग्यं ज्ञात्वा यद्यात्मीये पचंविधमाचार्य परित्यज्यागतः(पाहुत्ति ) गुरुणा समं प्रानृतं गच्छे नाचार्यपदयोग्यः ततस्तस्यात्मीयां दिशं बध्नाति स्वकाहं कृत्वा समागतः । अथवा प्रान्तकारिणःपाखण्डिकास्तस्य शिष्यत्वेन स्थापयतीत्यर्थः।कुत इत्याह उभयस्य साधुसाध्वीशिष्यास्तस्यैव गुणेनागतः। वर्गस्य तत्र शैको ममत्वमस्माकमयमित्येवं ममकारो भूयादिति एयारिसं विनस्सज, विप्पवासो ण कप्पती। कृत्वा। यद्वा स्वगच्छीयसाधूनां तस्य च शैकस्य परस्परं संमेसीसपमिच्छायरिए, पायच्छित्तं विहिज्जत।।।। लका वयमित्येवं ममत्वं भविष्यतीति बुद्ध्या तमात्मीयशिष्यएतादृशमाचार्य व्युत्सृज्य विप्रवासो गमनं कर्तुं न कल्पते यदि त्वेन बनाति (तं वत्ति) यो वा प्रतीच्छक अायातस्तमपि प्रहगच्छति ततः शिष्यस्य प्रतीकस्याचार्यस्य च त्रयाणामपि णाधारणासमर्थ च विज्ञाय स्वशिष्यं स्थापयति एवं शक्कः प्र. प्रायश्चित्तं विधीयते तत्रैक ग्लानं वा मुक्त्वा शिष्यस्य प्रतीच्च तीच्छको वा कारणे शिष्यतया निबद्धः सन् यदा निर्मातो कस्य वा समागतस्य चतुर्गुरुकाः यश्चाचार्यः प्रतीच्चति तस्या भवति । तदा॥ पि चतुर्गुरु । प्राकृते शिष्यप्रतीच्छकयोश्चतुर्गुरुकमेव । आचार्यस्य आयरिए कालगए, परियट्टइ तं गणो उसो चेव । पञ्च रात्रिंदिवं चेदः । शेषेषु परतादिषु पदेषु शिष्यस्य चतुर्गुरु । चोएति य अपदंते, इमा न तह मग्गणा होइ । प्रतीकस्य चतुर्वघु प्राचार्यस्यापि शिष्यं प्रतीच्छत एतेषु चतु- प्राचार्य कालगते सति गच्छस्य निबद्धाचार्यस्य च व्यवहारो गुरु प्रतीच्चकप्रतीकस्य चतुर्दाघु । प्रतीकं प्रतीच्चतश्चतुर्थ- भण्यते स स्वयमेय तं गणं परिवर्तयति सच गच्छो यदि श्रुतं घु । अथ ज्ञानार्थं त्रीन् पक्वानाप्रच्छनीयमित्यत्रापयादमाह । न पठति ततस्तं अपठन्तं नोदयति यदि नोदिता अपिते गच्छविइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे । साधवो न पठन्ति तत श्यमाभवद्यवहारमार्गणा भवति ।। नाऊण तस्त जावं, कप्पति गमणं अणापुच्छा॥ साहारणं तु पढमे, वितिए खेत्तम्मि ततियसुहदक्खे । द्वितीयपदं तत्र जवति।आचार्यादिष्वसंधिग्नीभूतेषु न पृच्चेदपि अणिहजते सीसे, सा एकारस विभागा ।। च संविग्नेष्वपि वा किंचिदागाढं चारित्रविनाशकारणं स्त्रीप्रतृत- | कालगतस्याचार्यस्य प्रथमे वर्षे सचित्तादिकंसाधारण यद्यमात्मनः समुत्पन्नं ततोऽनापृच्छयापि च गच्चति तेषां वा गुरूणां सौ प्रतीच्छकाचार्य उत्पादयति तत्तस्यैवाभवति । यदीतरे स्वजावं ज्ञात्वा तेनोदूघृष्टाः सन्तः कथमपि विसर्जयिष्यन्तीति गच्छसाधव उत्पादयन्ति तत्तेषामेवाभवतीति भावः। द्वितीये मत्वा अनापछयापि गमनं कल्पते । अथाविसर्जितेन गन्तव्य मि. वर्षे यत् केत्रोपसंपन्नो लभते तत्तेऽपठन्तो लभन्ते । तृतीये त्यपवदति।। वर्षे यत् सुखदुःखोपसंपन्नो लभते तत्ते लभन्ते । चतुर्थे वर्षे अज्कयणं वोच्छिनं ति,तस्स यगहणम्मि अस्थि सामत्यं । कालगताचार्यशिष्या अनधीयाना न किंचिल्लभन्ते । शेषा नाम ण वि वियरंति चिरेण वि, एतेण विसज्जितो गच्छे । येऽधीयते तेषामधीयानानां वक्ष्यमाणा एकादश विभागाः भकिमान्यध्ययनं व्ययच्चिद्यते तस्य च तहणे सामर्थ्यमस्ति न वन्ति । शिष्यः पृच्छति क्षेत्रोपसंपन्नः सुखदुःखोपसंपन्नो वा किं लभते । सूरिराह ।। च गुरवश्चिरेणापि वितरन्ति गन्तुमनुजानन्ते एतेन कारणेनाविसजितोऽपि गच्छेत् । अविधिना पागत आचार्येण न प्रतीच्चनीय खेत्तोवसंपयाए, वावीसं संथयाय मित्ताय । इत्यस्यापवादमाह। सुहदुक्खमित्तवज्जा, चउत्यए नालबद्धाई ॥ नाऊण य वोच्छेदं, पुषगते कालियाणुओगे य । केत्रोपसंपदा उपसंपन्नो द्वाविंशति अनन्तरपरम्पराबडीवकान् अविहि अणापुच्छागत, सुत्तत्थविजाणोवोए ॥ मातापित्रादीन् जनान् लन्नते संस्तुतानि च पूर्वापश्चात्संस्तवसं बहानि प्रपौत्रश्वसुरादीनि मित्राणि च सह जातकादीनि बनते पूर्व गते कालिकश्रुते वा व्यवच्छेदं ज्ञात्वा अविधिना प्रश्रजिका स्वाभाषितानि तु न बनते । सुखदुःखोपसंपन्नेषु एतान्येव मिविप्रतिबन्धेनागतमनापृछ्यागतं वा सूत्रार्थज्ञापको वा येन क प्रवर्जानि अभते । चतुर्थस्तु एवंविधोपमः प्रक्रमप्रामाण्यात् श्रुश्चिद्दोषः यत्नेन प्रतीच्चकेन शैक्वस्तस्याभिधारितस्यानानाव्य तोपसंपन्नः स केवनान्येव द्वाविंशतिनालबद्धानि बनते अयं च धानीतः सन् गृहीतव्य इत्यपवदति ।। प्रसङ्गेनोक्तः केत्रोपसंपन्नसुखदुःखापन्नयोर्यदानाव्यमुक्तं तत्ते शिनाऊण य वोच्छेदं, पुचगये कालियाणुयोगे य । ध्या अनधीयाना द्वितीये तृतीये च वर्षे यथाक्रम लजन्त । चत) सुत्तत्थजाणगस्सा, कारणजाते दिसाबंधो॥ वर्षे सर्वमप्याचार्यस्याजवति न तेषाम् । ये तु शिष्या अधीयते पर्वगते कालिकश्रुते दा व्यवच्छेदं ज्ञात्वा सूत्रार्थज्ञापन | तेषां विधिरुच्यते तस्य कागताचार्यस्य चतृवि| गणो नवेत् । Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४१) नवसंपया अनिधानराजेन्द्रः । उवसंपया शिघ्याः शियिकाः प्रतीच्चकाः प्रतीचिकाधेति । एतेषां पूर्वो- प्रतीच्छकाचार्यास्तेषां कुलसत्को गणसत्कः संघसत्को वा भदिएपश्चादुद्दिष्टयोः संवत्सरसंख्ययैकादश गमा भवान्त । पूर्वो- वेत् तत्र यदि तत्सत्कः तदात्रीन् संवत्सरान् शिष्याणां वाच्यविधानां यत्तेनाचार्येण जीवता तेषां श्रुतमुद्दिष्टं यत्पुनस्तेन मानानां सचित्तादिकंन गृह्णातियत्पुनःप्रतीच्छकास्तेषां वाच्यमाप्रतीजकाचार्येणोद्दिष्टं तत्पश्चादुद्दिष्टम् । तत्र विधिमाह । नानां यस्मिन्नेव दिने प्राचार्यः कागतस्तद्दिवसमेव गृह्णाति एवपुन्बुद्दिढे तस्स, पच्छुदिढे पवाययंतस्स । मेव कुत्रसत्के विधिरुक्तः । अथाऽसौ गणसत्कस्त-संवत्सरं शिसंबरम्मि पढमे, पडिजिए जंतु सच्चित्तं ॥ ध्याणां सचित्तादिकं नापहरति यस्तु कुवसत्को गणसत्को वा न जवति स नियमात् संघसत्कः स च पामासान् शिष्याणां सयदाचार्यण जोवता प्रतीच्छकस्य पूर्वमेवाद्दिष्टं तदेव पन् प्रथमे । वर्षे यत् सचित्तमाचित्तं वा स लनते तत्तस्य कालगताचार्य चित्तादिकंन गृह्णाति । तेन च प्रतीच्छकाचायण तत्र गच्छे वर्ष यमवश्यं स्थातव्यम् । परतः पुनरिच्छा। स्याभवति एष एको विनागः । अथ पश्चादद्दिष्ट ततः प्रथमसंवत्सरे यत् सचित्तादिकं लनते तत्सर्व प्रचाचयतःप्रतीच्छकस्या तत्येव य निम्माए, अगिगए निग्गए इमा मेरा । चार्यस्याभवति एष द्वितीयो विभागः । सकले तिनि तियाई, गणे द्गसंवच्छर संघे ॥ पुन्वं पच्चुद्दिढे, पडिच्छए जंतु होइ सञ्चित्ते । तत्रैव प्रतीच्भकाचार्यसमीप तस्मिन्ननिर्गते यदि को गच्छे संवच्छरम्मि वितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स ॥ निर्मातस्तदा सुन्दरम। अथ न निर्मातःसच वर्षत्रयात्परतोनिर्ग तस्ते वा गच्छीया एष सांप्रतमस्माकं सचित्तादिकं हरतीति प्रतीच्छकः पूर्वोद्दिष्टं पश्चादुद्दिष्टं वा पठन् यत्तस्य सचित्तादिकं | तदा द्वितीय वर्षे सर्वमपि प्रवाचयतो नवति । एष तृतीयो वि कृत्वा ततो निर्गतस्तदा श्यं मर्यादा सामाचारी (सकुलेशत्ति) स्वकुले स्वकीयकुत्रस्य समवायं कृत्वा कुत्रस्य कुलस्थविरस्य भागः । अथ पश्चानिध्यस्यानिधीयते। चा उपतिष्ठन्ते ततः कुवं तेषां वाचनाचार्य ददाति धारकेण वा पुत्वं पच्छुद्दिढे, सेसम्मि उ जंतु होइ सञ्चित्तं । वाचयति । कियन्तं काझमित्याह (तिनितियत्ति) प्रयस्त्रिका नवसंवच्चरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आजवइ ।। न्ति । ततो नव वर्षाणि वाचयतीत्युक्तं नवति। यदा भयता निशिष्यस्य काबगताचार्येण वा उदिए जवेत् प्रतीच्छकाचार्यण र्मातस्तदा सुन्दरम् । प्रथैकोऽपिन निर्मातस्ततः कुसं सचित्तादिक था तदसौ परन् यत् सचित्तादिकं बभते तत्सर्व प्रथमे सं- गृहातीति कृत्वा गणमुपतिष्ठन्ते गणोऽपि द्वे वर्षे पाग्यप्ति न वत्सरे गुरोः कालगताचार्यस्याभवति एष चतुर्थी विनागः । सचित्तादिकं हरति । यद्येवमपि निर्मातस्ततः संघमुपतिष्टन्ते पुन्बुद्दि तस्स, पच्छुदिहें पवाययंतस्स । संघोऽपि वाचनाचार्य ददाति स च संवत्सरं पाग्यति एवं संवच्छरम्मि वितिए, सीसम्मि उ जंतु सञ्चित्तं ॥ हादश वर्षाणि जवन्ति यद्येवमेकोऽपि निर्मातस्ततः पुनर्राप कुल्लादिस्थविरेषु घा तेन क्रमेणोपतिष्ठन्ते तावन्तमेव काझं कुमाशिष्यस्य पूर्वोद्दियमधीयानस्य द्वितीयवर्षे सचित्तादिकं काल दीनि यथाक्रमं पाग्यन्ति न सचित्तादिकं हरन्ति एवमन्यान्यगताचार्यस्याभवतीति पञ्चमो विजागः पश्चाऽद्दिष्टं पठतःशिष्यस्य सचिसादिकं प्रवाचयत आभाव्यं नवतीति षष्ठो विनागः । पिद्वादश वर्षाणि जवन्ति पूर्ववादशभिश्च मीसितानि जाता वर्षाणां चतुर्विशतिः । योतावता कान नैकोऽपि निर्मातस्तदा पुध्वं पच्चुदिडे, सीसम्मिन जंतु होइ सच्चित्तं । विहरन्तु अथ निर्मातस्ततो नूयोऽपि कुत्रगणसंघेऽपि तथैवासंवच्चरम्मि ततिए, तं सव्वं पवाययंतस्स ॥ पतिष्ठन्ते तेऽपि च तथैव पाठयन्ति । एतान्यपि हादश वर्षाणि पूर्वोद्दिष्टं पश्चादुद्दिष्टं वा पति शिष्ये सचित्तादिकं तृतीये चतुर्विशत्या मील्यन्ते जाता पत्रिंशत् यद्येवं त्रिंशता वरेवर्षे सर्वमपि प्रवाचयत अाभवतीति सप्तमो विनागः ॥ कोऽपि निर्मातस्ततो विहरन्तु । अथकोऽपि न निर्मातः। कथपुवुद्दिष्टे तस्स, पच्चुद्दिष्टे पवाययंतस्स ॥ मिति चेपुच्यते। संवच्छरम्मि पढमे, सिस्मिणिए जंतु सच्चित्तं ॥ प्रोमादिकरणेहिं च, दुम्मेहत्तेण वा न निम्माओ। शिप्यिकायां पूर्वोद्दिष्टपठन्त्यां सचित्तादिकं तस्य कालगताचा- काऊण कुन्नसमायं, कुलयेरे वा नबढति ॥ र्यस्य प्रयमे वर्षे पानाव्यमित्यष्टमो विनागः। पश्चादुद्दिष्टमधीया- अवमादिकारणैर शिवादिभिः कारणैरनवरतमपरापरग्रामेषु प. नायो प्रवाचयत आभाव्यं नवमो विभागः ॥ यंटतां दुर्मेधतया वा नैकोऽपि निर्मातस्ततः कुत्रसमवायं कृत्वा पुवं पच्छुद्दिढे, सिस्सिणिए जं तु होइ य सञ्चित्तं । कुत्रस्थविरान् वा सर्वेऽप्युपतिष्ठन्ते ततस्तैरूपसंपदं ग्राहयितव्याः संवच्चरम्मि वाए, तं सव्वं पवाययंतस्स ।। कुत्र पुनरिति चेदुच्यते। पूर्वादिष्ट पश्चादुद्दिष्टं वा पठन्त्यां शियिकायां सचित्तादिवानो पबज्जएगपक्खिय, नवसंपययं गहा सए गणे। द्वितीय वर्षे प्रवाचयत आभवतीति दशमो विभागः । बत्तीसातिकते, वसंपयए नवादाए ॥ पुव्वं पच्नुद्दिटं, पडिच्छिगा जं तु होति सच्चित्तं । यः प्रवज्ययकपाकिकस्तस्य पार्श्व उपसंपदं ते कुलस्थचिग संवच्छरम्मि पढमे, तं स पवाययंतस्स ॥ ग्राहयेयुः सा च उपसंपत् पञ्चधा वक्ष्यमाणरीत्या जवति पूर्वादिष्ट पश्चाउद्दिष्टं वा पन्त्यां प्रतीच्छिकायां प्रथम एव तस्यां चोपसंपदि पत्रिंशद्वर्षातिक्रम प्राप्तायां (सए वाणित्ति) संवत्सर सर्वमपि प्रवाचयत पानवति एष एकादशी विनागः। विभक्तिव्यत्ययात् स्वकमात्मीयं स्थानमुपादाय गृहीत्वा तैरुप संपत्तव्यमिदमेव नावयति। एक एष आदेश उक्तः । अथ द्वितीयमाह ॥ संवच्छराइ तिनि उ, सीसम्मि पडिच्छए न तदिवसं । । गुरुमजिकलोम, तिनचन गुरु गुरुस्स वा जत्तू । एवं कुझे गणे य, संवच्छरे संघे य उम्यासो । अहवा कलिव्धनो उ, पन्चजा एगपक्वीओ। Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४२) आभधानराजन्द्रः । जबसंपया I "गुरुमज्जिनको " गुरूणां सहाध्यायी पितृव्यस्थानीयः मऊन्तिक आत्मनः स ब्रह्मचारी छातृस्थानीयो गुरुगुरुः पितामहस्थाभी गुसंबन्धी प्राप्त शिष्य आत्मनो ब्रानुष्यस्थानीय पते पाक्षिका उच्यन्ते अथवा कुयः समानकुलोद्भवः सो पियां समीपं यथाक्रममुपन्यम गाय चर्भगुव्यसंपया कमेणं तु । पुख्वाहि यबीसरिए पदमास ततियभंगे उ ॥ कपाकिकप्रव्रज्या श्रुतेन च जयति । तत्र प्रवज्यैकपाहिको अनन्तरमुक्तः पाहि येन सदैकायनिक सूत्रम् अ ङ्गी । मज्ययैकपातिकः श्रुतेन च १ प्रवज्यथा न श्रुतेन २ श्रुतेन न प्रवज्या ३ न प्रवज्यया न भूसेन ४ एतेषु चामुना क्रमेणेोपसंपति पदमात्यादि) प्रथमतः प्रथम उपसंपसभ्यं तदजावे तृतीये नङ्गे कुत इत्याह यतः पूर्वाधीतं श्रुतं स्मृतं ससेषु मुखेनैवाज्ञापयितुं शक्यते श्रुतैकपाक्तिकत्वात् । अथ पञ्चविधामुपसंपदमा । सुयसुदुक्वक्वेते, मग्गे विभवसंपवार य बावीस संयुयं सं-दिट्टभट्ठे य सव्वे य ।। संपत् शेोपसंपत् मागौपसंपद चिनयोपप एवं पचविधा उपसंपत् ( वृ० ४० पासु रायान्यमाचार्यमुपसंपद्यमानस्य श्रुतोपसंपत मार्गे मम यौष्माकी निश्रेति मार्गोपसंपत् ४ विनयं कर्तुं गच्छान्तमुपसंपद्यमानस्य नियोपसंप भाष्यकृता युक्तम् "पसं पयपंचविदा, सुयसुहदुक्खे य खित्तमो य । चिण उपसंपया विविष, पंचविदा दोष नावच्या " एतासामन्यतरानुपसंपदं प्र थममाददानस्य विभागालोचना भवति बिहारे कृते निरतिचार. स्वाप्यालोचना भवति । अयं नावः एकाहात्पकाद्वर्षाद्वा यदा सानोगिकाः स्पर्धपतया गीतार्थाचार्या मिनन्ति तदा निरतिचारो sन्यन्योन्यस्य विहारा लोचनां स्वस्वविहारक्रमानुष्ठितप्रकाशरूपां ददातीति (जीत०] पं० पं० भा० ) पतासूपसंपद्व्यवहारमाढ़ (द) तोपसंपदि द्वाविंशति न यथा माता १ पिता २ भ्राता ३ जगिनी ४ पुत्रो ५ दुहिता ६ मातुर्मा मातृपितामाता मी०११ पितु पिता १२पीता १३ पितुगिनी १४ पुष १५ दु हिता १६ जगिन्याः पुत्रः १७ नगिन्याः पुत्रिका १८ पुत्रस्य पुत्रः १९ पुत्रस्य पुत्रिका २० बुदिः २१ दिनुः पुत्रिका २२ वेति। पतानि प्राविंशतिरपि भ्रतोपसंपद प्रतिपद्मस्यानयन्ति सुखदुः खोपपन्नास्तु तां द्वात्रिंशतिमन्यांश्च पूर्वसंस्तुतपश्चात्संस्तुता न् प्रपौत्रश्वसुरादीन् सन्नते । क्षेत्रोपसंपन्नस्तु तान् सर्वानपि वयस्यांश्च लभते । मार्गोपसंपन्न एतान् सर्वानपि लभते । अपरं च ये केचिता नापितास्तानपि प्राप्नोति । चिनयोपसंपदं प्रतिपद्मस्तु सर्वानपि ज्ञाताज्ञातरा अभते नवरं विनयार्हस्य विनयं प्रयज्ञे 'सहाणेति' यदुक्तं तस्थायमर्थः । पञ्चविधयुपसंपत् तस्मिन् स्थाने प्रतिपत्तव्या । किमुक्तं भवति । श्रुतोपसंपदं प्रतिपिसोर्यस्य पार्श्वे श्रुतमस्ति तत्तस्य स्वस्थानम् | सुखदुःखार्थिनः स्वस्थानं यत्र वैयावृत्यकराः सन्ति षो क्षेत्रे भक्तपानादिकमस्ति । मार्गोपसंपदर्थिनो यत्र मार्गः समचिनयोपसंपदानो यत्र विनयकरणं युत्प स्थानानि । अथवा स्वस्थानं नाम प्रवज्यया श्रुतेन ये एकप्राक्रिकास्तर प्रथमस्य समुपसंयम पश्चात 1 जब संपया चकपातिकस्य पार्श्वे । ततः श्रुतेन गणेन च एकपातिकस्य समीपे ततः पाकिस्य समीपे ततः प्रत्ययैकपाक्षिक स्य सकाशे ततः प्रव्रज्यया श्रुतेन वा नैकपाक्तिकस्यापि पार्श्वे उपसंपत्प्रतिपसव्य आद साधर्मिकचात्सल्यराधनार्थ सर्वेनापि सर्वस्य श्रुताध्ययनादि कर्त्तव्यं ततः किमर्थ प्रथमं प्रज्यादि निराखतरेषूपसंपद्यत इत्याद स्वकाय निष्छयओ किं कुचलं प कालसजा ममत्ते गारवलज्जादिकं हिंति || निश्चयतः सर्वेण सर्वस्याप्यविशेषेण श्रुतवाचनादिकमात्मनो विपुलतरां निर्जरामभिलषता कर्त्तव्यम् । किं कुलमकुलं चेत्यादिनिवारणायाः परतुः षमालऋणो यः कालस्तस्य यः स्वभावोऽनुनावस्तेनात्मीयोऽयमित्यादिकं यन्ममत्वं तच गुर वं बहुमानबुद्धिर्या च तदीया लज्जा रतैः प्रेरिताः सुखेनैव करि यन्तीति कृत्वा प्रथमं प्रत्यादिनिरासत संपते ते ज्ञानार्थे गमनम् । अथ दर्शनार्थे गमनमाह । कालियव्वगए वा, लिम्माओ जति य प्रत्थि सेसति । सदी वगगहि गच्छ हवा गेहिं तु || कालिक पूर्व यहा यस्मिन्काले भुतं प्रचरति तरिम न् । अत्रार्थेन च यदा निर्मातो नयति यदि च तस्य ग्रहणधारणाशक्तिस्तथाविधा समस्ति तथाविधानि ततो दर्शनदीपकानि सम्यदर्शनासहकारीणि यानि सम्मत्यादीनि शाखाणि तेषां हेतोरस्यं गणं गच्छति अथवा एभिः कारणैगच्छेत । जिक्खुगा ना देखे, नोमय लिहिरा समी ते संपति असहमाणो बिसाय गम ॥ यत्र देशे निक्षुका चौका वोटिका या निहवा घा तेषां तत्र स्थ सीताः स्थिताः सार्कमाचार्याप्रीतिरित्यर्थः ते च निकुकादयः स्वसिकान्तं प्रज्ञापयन्ति स चाचार्यो दाशियन तर्फप्रत्थाप्रवणतया या तुष्णीति च तदीयां प्रज्ञापनामसहमानः कश्चिद् द्वितीयश्चिन्तयति अन्यं गणं त्या दर्शनानि शाखाणि पामि येनासून विस्तरात् करोमि एवं विचिन्त्य स तथैव गुरुनापृच्छ्च तैर्बिसर्जितो गच्छ ति । इदमेव नावयति । लोए वि परिवादो. जिक्खुगमादी य गाढव महिति । विपरिणामति सेहा, जामिज्जति सच्छा य ॥ fregardini स्वसिकान्तशिर उद्घाट्य प्ररूपयतामपि यदा सूरथो न किमपि ततो जोके परिवादो जातः पतेमुरमान किमपि जानते श्रमी तु सौगताः सर्वमेव बुरुधन्ते । एवञ्च ते भिकुकादयः परिवादं श्रुत्वा गाढतरं जैनशासनं च मढयविज्ञाश्च विपरिणमन्ति भ्राकाश्च रपटोपास केरपम्राज्यम्ले तेश्य से निकलो परशिरोमणचहवाकारिणो यद्यस्ति सामर्थ्य ततो ऽस्माकमुत्तरं प्रयच्छन्तु अथवा तैर्मिकादिनः स्थानिकाचामाचार्यस्यापि ष्टको निव सो रमनिको पनिए, परतित्थियतज्जणं असहमाणो । गमणं बहुस्स जेणं, आगमणं वादिपरिसाओ ॥ सारसः स्निग्धमथुरादासम्पदः साम सत्यपि न किंचिदुत्तरं प्रयच्छति एवमादिकां परतीर्थिकतर्जनामसद Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४३) उवसंपया अनिधानराजेन्ः। उवसंपया मानः शिष्यः प्राचार्य विधिना पट्टा निर्गतोऽन्यगणगमनं कृत- एष विधिर्गुरुणा विसर्जिते मन्तव्यः अधिसर्जितस्य तु गवतवाद । तत्र च तर्कशास्त्राणि मुत्वा बहुभुतत्वं तस्य संजके। ततो| वधु दोषाश्चाज्ञादयः। तेषामपि प्रतीच्या चतुर्सघुकाः एषोभूयः स्वगन्ने आगमनम् । भागतेन च पूर्वमाचार्याः काव्यास्त- विधिलकोऽतोऽधिधिना गम्तव्यं सच्चाऽयं विधिर्भवति । तोऽन्यस्यां धसतौ स्थित्वा या तपादमार्गकुशला पर्षत् सांप- दसणमत्थे पक्खो, पायरिय नवमाय सेसगाणं च। रिचितां कृत्वा राको महाजनस्य च पुरतः परतीथिकान् निष्पि- | एकेकपंचदिवसे, अहवा पक्खेण सव्वे वि।। प्रभव्याकरणान् करोति। दर्शनप्रभावकाणां शास्त्राणामर्थाय निर्गकृत पकं पक्षमापून चोयपरायणकुपिया, जति पडिसेहंति सानु सदं च। कालो भवति तयथा । आचार्यः पत्र दिषसानापुच्यते यदिम मह विभागो अम्हं, मासपवत्तं परिहवेह ॥ विसर्जयति तत उपाध्यायोऽपिपञ्च दिवसा शेषसाधयोऽपिपचोदे पराकापने कुपित..तोयदि ते भिक्षुकादयः प्राचार्यस्य | शदिवसान अथवा पक्षण सर्वेऽपि पच्छपन्ते । किमुकं भवति तंवएट प्रतिधान्त ततः साधु सुन्दरं लष्ठं पानीटं जातमिति। दिने दिने किन्तु सर्वेऽपि पृच्च्यन्ते बावत पकः पूर्स शति । अथ तत्र कोऽपिघूयात पतस्य को दोपश्चिरमनुगत एषोऽस्मा- एस विहि भागतं तु, परिच्छपमिलणा भवे लहुमा। कंमा पूर्वप्रवृत्तं दातम्यमस्य परिहापयत तयको विधिरित्वाह । महवा इमेहिं पागम, एगादिपहिच्छए गुरुगा ॥ काऊण पद पणाम, छेदमुत्तस्स दलाह पकिपुच्छ। एगे अपरिणए य, अप्पाहारे य थेरए। अस्मत्थ वसहिमगणं, तेसिं च णिवेदणं का॥ गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुड़े ।। गुरोः पदकमनप्रणामं कृत्वा वक्तव्यं दे भुतस्य प्रतिपृगं मम | एतारिस विउस्सज्ज, विष्पवासो न कप्पई । प्रयच्छत । अत्र चागीतार्थाः पयन्ति ततोऽन्यस्यां वसतौ गध्यायः पवमुक्तोऽपि यदि तस्या वसतेनं निर्गवति तत्राख्यायि सीसपडिरछायरिए, पायच्चित्तं विहिजइ ।। कादिकथापनेन चिरं रात्रौ गुरवो जागरणं कारापणीयास्तेषां विइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे । चागीतार्यानां वयमाचार्यमेवं मेघ्यामो भवद्भिोंसो न कर्त नाऊण तस्स भावं, होइ उ गमणं णापुच्छा ।। व्यः । इति निवेदनं कृत्वा गन्तव्यमिदमेव व्याचष्टे ।। गाथाचतुष्टयमपि गतार्थ गतं दर्शनार्थ गमनम् । सईच हेतुसत्य, अहिजो बेदमुत्तण्डं मे। अथ चारित्रार्थमाह! तत्थ य मा मुत्तत्था, मुणिज्ज तो अमाहिं वसिमो॥ चारित्तढ देसे (दुविहा) एसणदोसाय इत्थिदोसाय। शमशाखामिम्बादिकं हेतुशास्त्रं सम्मत्यादिकं शास्त्रमध्ययनस्य गच्छंति य सीयंते, पायसमुत्येहिं दोसेहिं ।। च्छेदपूर्व निशीथादिकं सूत्रतोऽर्थतस्तदुजयतो वा मम नष्टं तस्य चारित्रार्थ गमनं द्विधा देशदोषैरात्मसमुत्थदोषैश्च देशदोषा प्रतिपच्य मे प्रयच्छत । अत्र च बसतावभुतार्थाः शैका अपरि द्विविधा एषणा दोषाः स्त्रीदोषाश्च । श्रारमसमुत्था अपि विधा णामका था नशणुयुरतोऽन्यस्यां बसती घसाम एषमन्य गुरुदोषा गळदोषाश्च । तत्र गो यद्यात्मसमुत्यैश्चक्रवासभ्यपदेशेन निष्काशयात। अथ तस्या वसतेः क्षेसादा निर्गन्तुं ने सामाचारीवितथकरणशक्षणैर्दोषैः सीदते तत्र पतमापूरनति ततोऽयं विधिः। मास्ते तत ऊर्फ गच्छति । इदमेव व्याचष्टे । खित्तारक्खिणिवेयण, इयरे पुव्वं तु गाहिया समणा । जिहि यं एसणदोसा, पुरकम्माई ण तत्थ गंतव्यं । जम्गविभो मो भचिरं, जहणिज्जतो ण चेतेति ॥ उदगपउरो व दोसो, जहिं व चरिगाइसंकिस्मो ॥ आरक्तिको वएसपाशिकस्तस्य निवेदनं क्रियते ( सितंति ) | ___ यत्र देशे पुरःकर्मादय एषणादोषाः भवेयुस्तत्र न गन्तव्यं योषा अस्माकं किप्तचित्तः साधुः समस्ति तं वयम:रात्री वैद्यसकाशे सदकाचुरो देशः सिन्धुविषयवत् यो वा चरिकादितिः परिवानभ्यामः स यदि नीयमानो द्रियेऽहं व्हियेऽहमित्यारटेत् ततो जिकाकापालिकी नवनिकादिभिर्बहुमोहाविनिराकीर्णो विषयस्तयुष्यानिन किमपि भणनीयमितरे अगीतार्थाः भमणाः पूर्वमेव प्राहिता कर्चव्याः वयमाचार्यमेनं नेष्यामो मा बोसं कुरुवम्। स पापिन गन्तव्यमा भथाशिवादिभिःकारणैस्तत्र गता भवेयुस्ततः चाचार्यविरमाक्यायिकाः कथापयित्वा जागरितः सन् यदा असिवाईहिं गता पुण, तकन्जसमप्पिया तो णिति । निर्भरं सुप्तो प्रवति तदानीयते यदानीयमानो न किंचितयति। प्रायरियमणिते पुण, भापुच्चिन अप्पणा णिति।। निएहयसंसग्गीए, बहुसो भमं तु वेहसो कुणइ । अशिवादिभिर्दुर्मिक्षपरचक्रादिभिः कारणैस्तत्र गता अपि (तकज्जसमप्पियत्ति) प्राकृते पूर्वपदमिपातस्यामिमतत्वात तुह किंति बत्ति परिणम, गतागतेणीणिमो विहिणा ॥ समापिततत्कार्याः संयमक्केत्रे यदा भशिवादीनि स्फिटितानिनअथ निहवानां संसाचार्यों न निर्गति बहुशो भएयमा- | घन्तीति भावः । तदैते असंयमकेत्रान्निर्गच्छन्ति यद्याचार्याः केनोऽप्युपेकां कुरुते अथवा श्रूयात् यद्यहं निवसंसर्ग करोमि ततो नापि प्रतिबन्धेनसीदन्तोन निर्गच्छेयुस्ततो ये एको द्वौ बहवो वा भवतोमुखयतिब्रज त्वं यत्र गन्तव्यमएवं परिणामं गुरुणांशात्या असीदन्तस्ते गुरुमापृच्छचात्मना निर्गच्छन्ति सत्र चाऽयं विधिः । शिष्येण गतागतेनान्यं गणं गत्वा शाखाण्यधीस्य भूयः प्राग- दो मासे एसणाए, शत्थि बज्नेज्ज अट्ठ दिवसाई । तेन निहवान् पराजित्याचार्यों विधिना अनन्तरोक्तेन निष्काशि गच्छम्मि होइ पक्खो, मायसपुच्छेगदिवसं तु ॥ तः कर्तव्यः। एस विहिविसज्जिए, अविसज्जियलहुगदोसाणाई । एषणायामाध्यमानायां यतनया अनेषणीयमपि गृहन् दौ मासौ गुरुमापृष्ठन् प्रतीकते। अथ स्त्री शय्याप्रभृतिका उपसर्गतेसि पि हुंति लहुगा, भविहिविही सो इमो होइ । । यति । भथात्मना शग्यातर्यादौ स्त्रियां मध्यमिकायां वा प्रांतिये. Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४४.) उवसंपया अभिधानराजेन्द्रः। नवसंपया शिमल्यामतीवाभ्युपपन्न उन्नयं वा परस्परमभ्युपपन्न ततो यदा | य से वितरंति एवं से कप्पति अमं गणं उपसंपज्जिताणं चार्यसंनिहितस्तदा तमाच्यापगति अथासंनिहितः संका विहारत्तए ते से णो वियति । एवं से णो कप्पति । म्यादी गत प्राचार्यस्तदा एवमेवानापृष्ज्यागच्छति अपरं वा संनिहितसाधु भणति मम बचनेन गुरूणामापृच्छनं निवेद असं गर्ण उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । २। नीयम् “एयविहिमागयंतु" गाहा 'एय अपरिणए य' गाहा “पया प्रस्य सूत्रद्वयस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं गणावच्छेदिकत्वमारिसं विनस्सज्ज" गाहा । ति गाथात्रयमपि गतार्थ नवेकि चार्योपाध्यायत्वं च निक्किप्य गन्तव्यमिति विशेषः। अथ भाष्यम् । कारणं येनं न पृच्छेत् । एमेव गणावच्चे, गणियायरिए विहोइ एमेव । वितियपदमसंदिग्गे, संविम्गे चेव कारणागावे। नवरं पुण नाणतं, ते नियमा हुँति वत्ताओ। नाऊण तस्स जावं, अप्पणजावे अणापुच्छा ।। पवमेव निक्षुवत् गणावच्छेदकस्य ज्ञानदर्शनचारित्रार्थमन्यं गणं द्वितीयपदमत्रोच्यते। प्राचार्यादिरसंविघ्नो प्रघेत अथवा संवि गच्छता विधिप्रष्टव्यः। गणिन उपाध्यायस्याचार्यस्य चैषमेव विधिः म्नः परमहिदष्टादिकमागाढकारणमवलम्थ्य न पृच्छत् । तस्य नवरं पुनरिदं नानात्वं नियमाते गणावच्छेदिकादयो व्यक्ता च गुरो वसुचिरेणापि न विसर्जयतीति सक्षणं ज्ञात्वा प्रा जवन्ति नो अव्यक्ताः॥ त्मीयं च भावमहमिह तिष्ठन्नवश्यं घिनश्यामीति ज्ञात्वा अनाप- एमेव गमो नियमा, निग्गयीणं पि होइ नायव्यो । पचापि ब्रजेत् । अथ गुरोश्चारित्रे सीदतो विधिमाह । पाणट जो नई, सच्चित्तं ण आप्पणो जाव ॥ सज्जायरकप्पट्ठी, चरित्तरवणा अभिगया खरिया। एष एव निकुसूत्रोक्तो गमो निर्ग्रन्थीनामप्यपरं गणमुपसंपद्यसारूविप्रो गिहत्यो, सो वि जवाएण हरियव्यो ।। मानानां ज्ञातव्यः नवरं नियमेनैव ताः ससहायाः यः पुनशल्यातरस्य कल्पस्थिकायां प्राचार्येण चारित्रस्य स्थापना कृता निार्थ न आचार्यको नयति स यांवदद्यापि न वाचनाचार्यस्यातां प्रतिसेवत शतिनावः तस्यां चारित्रस्थापनाया जातायां यक्क र्पयति तावत्सचित्तादिकं तस्यैवाभवति अर्पितास्तु पुनर्वाचनारिकाबा काचिदजिगता जीवाद्यधिगमोपेताश्राविकेत्यर्थस्तस्या- चार्यस्यानाव्यं कः पुनस्तां नयतीत्याह । माचार्योऽभ्युपपन्नः स च चारित्रवर्जितो वेषधारी भवेत् सारु- पंचएहं एगयरे, जग्गहवजं तु लभति सच्चित्तं । पिको वा गृहस्थो वा उपलकणत्वात्तिकपुत्रको वा तत्र मुण्डि- आपुच्छ अट्ठपक्खे, इत्यीसत्येण संविग्गो ॥ तशिराः शुक्सवासापरिधायी कच्चामबनन् प्रभार्यको भिक्तां पञ्चानामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकानामेकत हिएकमानः सारूपिक उच्यते। यस्तु मुएमा सशिखाको वा स- र संयतीर्नयति तत्र च सचित्तादिकं परक्षेत्रावग्रहवर्ज स भार्यकः ससिरूपुत्रका एवमेषामन्यतर उपायन हर्तव्यः । कथ एव बजते निर्ग्रन्यी च ज्ञानार्थ वजन्ती अष्टौ पक्कानापृच्छति । मिति चेमुच्यते पूर्व तावरवो नण्यन्ते वयं युष्मद्विरहिता तत्राचार्यमेकं पक्कमापृच्छति यदि न विसर्जयति तत उपाध्याय अनाथाः अतः । प्रसीद गच्छामोऽपरं केलं परमुक्ते यदि वृषभं ग चैवमेव पृच्छति संयतीवर्गेऽपि प्रवर्तिनी गणाव. नेम्ति ततो यस्यां स प्रतिवः सा प्रज्ञाप्यते एष बहूनां सा- | छेदिकाभिषेकाशेषसाध्वीर्यथाक्रममेकैकं पकमापृच्छति। ताश्च धूनामाधारः पतेन बिना गच्चस्य ज्ञानादीनां परिहाणिरतो स्त्रीसाथैन समसंविग्नेन परिणतवयसा साधुना नेतव्याः । मा नरकादिकं संसारमात्मनो वर्द्धय यदि साच्चति ततःसुन्द- (सूत्रम्) भिक्खू गणाओ अवकम्म चिज्जा अनं गणं रमथ न तिष्ठति ततो विद्यामन्त्रादिभिरावय॑ते । तदनाये संभोगपमियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए नों से कप्पा केवयिका अपि तस्या दीयन्ते । गुरुश्च क्रमेण रात्री हर्सव्यः । एवं तावनिकुमङ्गीकृत्य विधिरुक्तः । अणापुच्लित्ता आयरियं वा जाव अनं गणं संजोगपटि(सूत्रम् ) गणावच्छेइए जे गणादवक्कम्म इच्छिज्जा असं याए नवसंपन्जिताणं कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा गणं नवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए कप्पति णो से कप्पर जाव विहरित्ता ते य से वियरंति । एवं से कप्पा जाव अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव अमं गणं उपसंपन्जि विहरित्तए । ते य से न वियरिज्जा एवं से नो कप्पड़ जाव ताणं विहरित्तए । कप्पइ णो आउत्थिता पायरियं वा। विहरित्तए जत्युत्तरियं धम्मविणयं सज्जा । एवं से जाक विहरित्तए य से वितरंति एवं से कप्पड जाच कप्पइ अचं गर्ण संभोगे पडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहविहरित्तए एते य से णो वितरंति एवं से हो कप्पा रित्तए जत्युत्तरियं धम्मविणयं नो भेज्जा एवं से नो जाब विहरित्तए १ भायरिय उवज्झाए य गणाओ | कप्पा अग्नं गणं जाव विहरित्तए । अवकम्म इच्छेज्जा भर्ती गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरि- अस्य व्याख्या प्राग्यत् नवरं सांभोगिकमएमस्यां समुद्देशिनातए कप्पा मायरिय पायरियस्स पायरियगणावच्छे- दिरूपस्तत्प्रत्ययनिमित्तं " जत्युत्तरियमित्यादि " यत्र उत्सरं प्रइयस्स गणावच्छेइयतं निक्खिवित्ता अर्म गणं नवसंप धानतरं धर्मविनयं स्मारणधारणादिरूपां धार्मिकी भिक्कां अन्नेत एवं (से)तस्य कल्पते अन्य गणमुपसंपद्य पिहर्तुं यत्रोत्तरंधजित्साणं विहरित्तए उवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता श्रमं ग. मविनयं नो लभेत पर्व (से) तस्य नो कल्पते उपसंपद्य विहणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । णो से कप्पइ भणापु-1 तुमिति सूत्रार्थः । अथ नाष्यम् । च्छित्ता आयरियं वा जाव अम गर्ण उपसंपज्जित्ताणं संजोगो वि हु तिहि का-रणेहिं नाणहदसणचरिचे । विहरित्तए कप्पति से आपुच्छित्ता जाव विहरितए ते मंकमणे च उलंगो, पढमो गच्छम्मि सीयते ।। Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४५) उपसंपया अभिधानराजेन्द्रः । नवसंपया सेनोगोऽपि त्रिनिः कारणैरिष्यते तद्यथा कानार्थ दर्शनार्थ संविग्गविहाराश्रो, संविग्गा दुभि एज अभयरो। चारित्राच। तत्र ज्ञानार्थ दर्शनार्थच यस्योपसंपदं प्रतिपन्नस्त आलोइयम्मि मुच्छो, तिविहो न विहि मग्गणा नवरिं ॥ स्मिन् सत्रार्थदामादौ सीदति गणान्तरे संक्रमणे स एव विधेयः सांवग्नविहारात् संविग्नौ द्वौ अन्यतरौ गीतार्थाऽगीतार्थी संपूर्वसूत्रे प्रणितश्चारित्राथै तु यस्योपसंपन्नस्तत्र चरणकरणक्रि-। विग्ने गच्छे समागरोतां सच गीतार्थोऽगीतों वा यातो दियायां सीदति चतुर्नङ्गी भवति । गच्चःसीदति नाचार्यः। प्राचा वसान संविग्नेल्या स्फिटितस्तहिनादारभ्य सर्वमप्यायोचयति यः सीदतिन गच्छ गच्चोऽप्याचार्योऽपि सीदति। न गच्चो प्रायोचितेच शुरुः । नवरं त्रिविधोपधेर्यथाकृतादिरूपस्य मा. नाचार्य इति । ४ । अत्र प्रथमो भनो गच्छे सीदति मन्तब्यस्त. गणा कर्तव्या । इदमेव व्याचष्टे । अच गुरुणा स्वयं वा गच्चस्य नोदना कतव्या कथं पुनः स गीयमगीतो गीते. अप्पडिवडे ण होइ उवघातो। गच्छा सोदेदित्याह। पडिलेहादिपमिउवेक्षण,निक्खिादाणविणयसकाए। अगोयत्थस्स वि एवं, जेण सुता ओहनिन्जुत्ती॥ स संबिग्नो गीतार्थो ऽगीतार्थों वा । यदि गीतार्थो जिकाआझोगवणनत्त-टनासपालसज्जातराईसु॥ दिषु अप्रतिबका आयातः तत उपधेरुपधातो न जवति तदा ते मच्चसाधवःप्रत्युपेकणां कालेन कुर्वन्ति न्यूनातिरिक्तादिदोषै प्रायश्चित्तम् । अगीतार्थस्य येन जघन्यतःोधनियुक्तिः श्रुतात. विपर्यासेन वा प्रत्युणेवन्त गुरुग्लानादीनां वा न प्रत्युपेक्वन्ते नि स्याप्येवमेवाप्रतिबध्यमानस्य नोपधिरुपहन्यते। करणादिनाथावर्तयन्ति दएमकादिकं निक्तिपन्त आदतोवान गोयाण व मिस्साण ब, एह वयंताण वइयमाईसु । प्रत्युपेक्वन्ते न वा प्रमार्जयन्ति दुपत्त्युपेक्वितं दुष्पमार्जितं वा कुवन्ति यथाई विनयं न प्रयुञ्जते स्वाध्यायं सूत्रपौरुषी वार्थपौरुषीं पडिवजंताणं पि हु, उहि तह गएह चारुवणो ।। वा न कुर्वन्ति । अकाले अस्वाध्याये वा कुर्वन्ति पाक्तिकादिषु द्वयोर्गीतार्थयोगीतार्थागीतार्थविमिथयो, व्रजतोजिकादिषु श्राझोचनां न प्रयच्छन्ति । अथवा आलोचयन्ति “गणे दिसि प्रतिबद्ध्यमानयोरप्युपधिनोपहन्यते न वा आरोपणा प्रायश्रितं पगासेण या" इत्यादिकं.सप्तविधमालोकं न प्रयुञ्जते संखी वा | जवति । एवमेकोऽनेके वा विधिना समागता यत्प्रभृति गणानिर्गभानोकान्तः स्थापनाः कुनानि स्थापयन्ति भक्तार्थ माएमयां तास्तत प्रारज्यालोचनांवदन्ति । अथ त्रिविधोपधिमागणानामा समुद्देशनं न कुर्वन्ति गृहस्थनाषाभिर्भाषते सावध वा भाषन्ते आगंतु जहागम्यं, बत्यन्च अहाकडस्स असईए । पटकेऽप्यानीतं तुञ्जते । शय्यातरपिएडं तुञ्जते आदिग्रहणेनो- मेनिति मज्झिमेहिं, मा गारव कारणमगोए ॥ घ्माचगुरूंगृहन्ति । इतरेषु गच्छस्य सीदतो विधिमाद । तस्य गीतार्थस्यागीतार्थस्य वा त्रिविध उपधिवेत् । तथा चोयावेई गुरुणा, वितीयमाणं गणं सयं वावि । यथाकृतोऽल्पपरिकर्मा सपरिकर्मा वा धास्तव्यानामध्येवमेव प्रायवियं सीअंत, संयं गणेणं व चोयावे ॥ त्रिविध उपधिर्भवति । तत्र यथाकृतो यथाकृतेन मील्यत अल्पप्रथमभड़े सामाचार्या विषीदन्तं गच्वं गुरुणा नोदयति । अथ परिका अल्पपरिकर्मणा सपरिकर्मा सपरिकर्मणा । अथ वास्तवा स्वयमेव नोदयति । द्वितीयभक्त आचार्य सीदन्तं स्वयं था | व्यानां यथाकृतो नास्ति तत आगन्तुकस्य यथाक्रम वास्तव्यगणेन वा नोदयति। मध्यमरल्पपरिकर्मभिः सह मीनयन्ति किं कारणमिति चेदत दुनि विविसीयमाणे, सयं व वा जे तहिं न सीयंति । श्राह । माऽसौ मीक्षितः सन् अगीतार्थस्य मदीय उपधिरुत्तमगणं गणासज्जन, अणुमोमा चोएंति ।। सांनोगिकः अतोऽहमेव सुन्दर इत्येवं गौरवकारणं नवदिति । तृतीयनले गच्छाचार्यों द्वावपि सीदन्ती स्वयमेव नोदयति गीयत्येण मिलिज, जो पुण गीमा वि गारवं कुणइ । ये वा तत्र न सोदन्ति तैनोंदयति । किंबहुना स्थानं स्थानमा- तस्सुवही मेलिज्जइ, अहिगरणअपच्चो इहरा ।। साथ प्राप्यानुलोमादिभिर्वचोभितॊदयति।किमुक्तं नवति । प्रा- गोताओं यद्यगौरवी ततस्तदीयो यथाकृतः प्रतिग्रहो वास्तचार्योपाध्यायादिकं भिक्षुहकादिकं या पुरुषवस्तु शात्वा यस्य व्ययथाकृतानावे ऽस्पपरिकर्मभिः सह न मीलयन्ति कि तुनयारशी नोदना योग्या यो वा खरसाध्यो मृडसाध्यः करोऽकरो समसांभोगिकाः क्रियन्ते। यस्तु गीतार्थोऽपि गौरवं करोति तस्य वा यथा नोदनां गृहात तं तथा नोदयेत् । कृते वास्तव्याल्पपरिकर्मभिः सह मील्धते किं कारणमिति चेजणमाणे जणाविते, अयापमाणम्मि पक्खो उक्कोसो। दत आह (इहरत्ति) यदि यथाकृतपरिजोगेन परिशुभ्यते तदा केनाप्यजानता अल्पपरिकर्मणा समं मेक्षितं रष्टा स गीतार्थोंलज्जए पंच तिभिव, तुह किंति विपरिणए विवेगो॥ ऽधिकरणमसंखएडं कुर्यात् किमर्थ मदीय उत्कृष्टोपधिराखेन सह गच्छमाचार्यमुभयं वा सीदन्तं स्वयं भणेत् अन्यैश्च भाणय मीसित इति। अप्रत्ययो वा शक्काणांजवेत् । अयमेतेषां सकाशादुमास्ते यत्र न जानाति पते भएयमाना अपि नोद्यम करिष्यन्ति पुक्ततरविहारी येनोपधिमुत्कष्टं परिहते एते तुहीनतरा इति। तत्रोत्कर्षतः पवमेकं तिष्ठति गुरुं पुनः सीदन्तं बज्जया गौरवेण एवं खलु संविग्गा-संविग्गे संकम करेमाणे । वा जाननपि पश्च त्रीन् वा दिवसान् अजणन्नपि गुरुम् । अथाभाष्यमाणो गच्छो गुरुरुभयं भणेत । नवतः किं दुःखयति यदि संविग्गासं विग्गे, संविग्गे वा वि संविग्गे ॥३॥ वयं सादामस्तहि वयमेव दुर्गतिं गमिष्यामः । एवं विधिना एवं खनु संविग्नस्य संविम्नेषु संक्रमं कुर्वाणस्य विधिरुक्तः । मावेनैव तेषां परिणतेविवेकस्ततः परित्यागो विधेयस्ततश्चा अथ संविम्नस्यासंविम्नेषु संक्रामतो ऽसंचिम्नस्य वा संबिम्नषु न्यं गणं संक्रामति तत्र चतुर्नङ्गी संविग्नःसंविग्नगणं संक्रामतिर संक्रामतो विधिरुच्यते । तत्र संधिग्नस्यासंविग्नसंक्रमणे तावसंबिम्नां संचिम्नम् २ असंविग्नः संविनम् ३ असंविग्नो ऽसं. दिमे दोषाः। विग्नम् । तत्र प्रथमो नङ्गस्तायच्यते । सीहगुहं वग्घगुहं, उदहि व पवित्तं व जो पविमो। Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४६) उवसंपया अनिधानराजेन्धः। उवसंपया असिवं प्रोमोयरियं, धुवं से अप्पा परिच्चत्तो॥ विहरित्तए कप्पति से आपुच्चित्ता आयरियं वा जाब विसिंहगुहां व्याघ्रगुहामुधिं समु प्रदीप्त वा नगरादिकं यः हरित्तए ते य से वितरंति एवं से कप्पइ अमं गणं संजोगपप्रविशति शिवमवमौदर्य वा यत्र देदो तत्र यः प्रविशति तेन डियाए जाब विहरित्तए तया से नो विहरति एवं से जो धुवमात्मा परित्यक्तः। कप्पइ जाव विहरित्तए जत्युत्तरियं धम्मविणयं लजा चरणकरणप्पहीणे, पासत्थे जो न पविमए समणो। एवं से कप्पति अमं गणं स जाव विहरित्तए । जत्युजतमाए य पहिलं, सो गणे परिचय तिमि ॥ एवं सिंहगुहादिस्थानीये चरणकरणप्रहाणे पार्श्वस्थे यः तरियं धम्मविणयं को अनेज्जा एवं से णो कप्पति अम श्रमणो यतमानान्संविग्नान् प्रहाय परित्यज्य प्रविशति स मन्द गणं स जाव विहरित्तए जत्थुत्तरियं धम्मविणयं को लभेज्ज धर्मात्रीणि स्थानानि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि परित्यजति ।। एवं से णो कप्पति जाव विहरित्तए। आयरिय नवज्झाए य अपि च सिंहगुहादिप्रवेशे एक नविकमरणं प्राप्नोति पार्श्वस्ये गणादवक्कम्म इच्छेज्जा असं गणं संजोगपमियाए जाव षु पुनः प्रविशन्ननेकानि मरणानि प्राभोति । विहरित्तए णो से कप्पइ आयरिय नवज्काए य गणं खनेजा एमेव अहाळंदे, कुसोलोमन्ननीयसंसत्ते । एवं से णो अवकम्म इच्छेज्जा असं गणं संभोगपमियाए जं तिएिण परिचय, नाणं तह दंसणचरित्तं ।।। एवमेव पार्श्वस्थवत प्रथाच्छन्देषु कुशीवायसन्ननित्यवासिसं. जार विहरित्तए णो से कप्पा । पायरियम्बकायतं असक्तेषु च विशतो मन्तव्यम् । यश्च त्राणि स्थानानि परित्यज णिविखवित्ता असं गणं स जाब विहरित्तए कप्पति से तीत्युक्तं तज्ज्ञानं दर्शनश्चारित्रं चेति अष्टव्यं गतो द्वितीयोनङ्गः। आयरिय उवज्जायत्तं णिविखवित्ता जाव विहरित्ता णो से अथ तृतीयनङ्गमाह । कप्पति प्रणापुच्चित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए कप्पइ पचएह एगयारे, संविग्गो संकम करेमाणो। से आपुच्चित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए । ते य से आलोइए विवेगो, दासु असंविग्गसच्छंदो ।। विहरति । एवं से कप्पति जाब विहरित्तए ते य से णो पार्श्वस्थाबसन्नकुशीयसंसक्तयथाजन्दानामेकतरः संविग्नेषु सं विहरंति एवं से णा कप्पति जाव विहरित्तए जत्युत्तरियं क्रम कुर्वन् प्रथममालोचनां ददाति । तत आलोचितेऽविशुकोपधेर्विवेकं करोति स च यदि चारित्रार्थमुपसंपद्यति ततः प्रती धम्मविणयं खनेजा एवं से कप्पइ जाब विहरित्तए जत्युत्तरियं च्छनीयो यस्तु द्वयोनिदर्शनयोरर्थयोः संविना उपसंपद्यते धम्मविणयं णो लज्जा एवं से नो कप्पति जाव विहरित्तर। तस्यास्वन्दः स्वाभिप्रायो नासौ प्रतीच्छनीय इति भावः । अस्य सूत्रध्यस्य व्याख्या पूर्ववत् । अथ भाभ्यम् । पंचेगतरे गीये, आरुवियवते जयंति एतम्मि । एमेव गणावच्छेदिन, गणिआयरिए वि होइ एमेव । जं उवहिं उपाए, संभोश्यसेसमुकंति ।। णवरं पुण णाणत्तं, एते नियमेण गीयाओ। तेषां पश्चानां पार्श्वस्थादीनामेकतर प्रागच्छन् यदि गीतार्थः एवमेव गणावच्छेदिकस्य तथा गणिन उपाध्यायस्य आचार्यस्य स्वतः स्वयमेव महाव्रतान्युश्चार्यारोपितवतो यतमानो ब्रजिका- च सूत्रं मन्तव्यं नवरं पुनरत्र नानात्वं एते नियमात् गीतार्था दावप्रतिषभ्यमानो मार्गे यमुपधिमुत्पादयति स साम्भोगिकः नवन्ति नागीतार्थाः । वृ०४०नि० चू० । (सेसमुज्जंवित्ति) यःप्राक्तन पार्श्वस्थोपधिरविशुरूस्तं परिष्ठापय. (सूत्रम् ) जे निवस्व बुसियराइयाओ गणिो अवसाति यः पुनरगीतार्थस्य उपधिस्तस्य चिरंतमोऽभिनयोत्पादितो एइयं गणं संकमंतं वा साइज्जा ।। १५ ।।। वा सर्वोऽपि परित्यज्यते। तेषु चाऽयमालोचनाविधिः । बुसिरातिया गणातो, जे निक्खू संकमे य अवृसिं वा। पासत्थाई मुंगिए, आलोयणा होइ दिक्खपनिइं तु । अवुसारागणं वा, सो पावति आणमादीणि ॥३०॥ संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिइ चेत्र ओसम्मो । बुसितितो खुसिरातिय चनभंगो कायश्वो चनत्थभंगो अवस्यु ते तियनंगे किं पमिसेहो आचार्य आह तत्थ णो पमिसेहो कारणे यत्पार्श्वस्थादिभिरेव मुमतः प्रधाजितस्तस्य दीवादिनादार पुण पढमे भंगे उपसंपदं करेति सा य वसंपया कालं पमुच ज्यालोचना भवति यस्तु पूर्व संधिम्नः पश्चात्पार्श्वस्थो जातस्तस्य तिधिहा श्मा। संविग्नपुराणस्य यत्प्रनृत्यबसन्नो जातस्तहिनादारभ्यालोचना जवति । उम्मासे नवसंपदे, जहाल वारससमाउ मज्झिमिया । (८) गणावच्छेदको गणादवक्रम्येच्छेदन्यं गणमुपसंपध श्रावकहा उक्कोसो, पमिच्छसीसे तु जे जीव ॥ ३५॥ संभोगप्रतिकया विदर्तुम् । नवसंपदा गाहा जहया मज्झिमा उक्कोसा जहन्ना नम्माप्तो म. फिमा वारसवरिसे कोसो जावजीवं एवं पमिच्छगस्स सिस( सूत्रम् ) गणावच्छेइए य गणादवकम्म इच्छेज्जा मं| स्स एगविहा चेव जावजीवं आयरियो ण मोत्तव्यो। गणं संजोगपरियाए वसंपज्जित्ताणं विहरित्तए णो से बम्मासे य अपूरेता, गुरुगा वारससमासु चउत्नहुगा । कप्पा गणावच्छेइत्तं अणिविखवित्ता संजोगपमियाए जाव तेण परमासियतं, जणितं पुण भारतो कज्जे ।। ३६०।। विहरित्तए कप्पति । स गणावच्छेइयत्तं णिक्खिवित्ता जाव | जेणं पडिच्छगेणं नम्मासिता अवसंपया कता सो जति - विहरित्तए पो से कप्पा अणापुच्चित्ता पायरियं वा जाव मासे अपूरेत्ता जाति तस्स चतुगुरुगा । जेण वारस वरिसा Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४७) उपसंपया भभिधानराजन्धः । उवसंपयाकप्प कता तं अपूरेत्ता जाइ चउबहुं । जेण जावजीवं उपसंपदा कता नत्तोवहि तत्थेमें चत्तारि गच्छा एगो जत्तपाणं दे गिपहर तस्स माससई छम्मासाणं परेणं णिकारणे गच्चंतस्समासन- वि । एगो देश न गेएहर । पगो गेएहन देश । पगो न देन हुँ । जेण वारससमा उपसंपदा कता तस्स वि उम्मासे अपूरेत- गेएडा । तत्थ पर्दमे उबसंपज्जियव्वं सेसा माणुन्नाया विश्प स्स चउगुरुआ चेव वारससामातो परेण मासाहुं चेव जेण साभं न बना गिलाणाश्सु कज्जेसु तश्प भंगे गिमाणस्स आवज्जीवे वसंपदा कता तस्स नम्मासे अपूरेतस्स चगुरुगा से न कोर किंचि करेश अध्वसहस्स भरणदोसा चउत्थो व तस्सव पारससमाओ अपूरेतस्स चननहुगा एस सोही असेज्जएव्वं पढमे गुणा प्रत्तोवहिसयणासणासु गहणदागच्छतो णितस्स भणिता ॥ नि०००० १६ ॥ णे य हगिक्षाणाइकज्जेसु अवरो परस्स एयाणि जत्थ की(ए)कुगुरौ सत्यन्यत्रोपसम्पत् रांति तत्थ अणुमायं गाहा सिर्फ च जो पुण सुकं आयरियं दुसे जयवं जयाणं गणिणा गच्छे तिविहेण बोसिरि सशकणयपुचियो असुयस्स आयरियस्स पासे कीस नट्टिए विज्जा तया णं ते गच्छे अादरेजा जा संविग्गभवित्ता ओ सि न पढो वा प्रमश तस्स असुनो नाम दोसो अप्पियसएं जहु तं पच्चित्तमचरित्ताणं अन्नस्स गच्छाहिवइणो ज्जाया जाय ते तस्स दोसा नस्थि ताहे तमावज्जाजं दोस उपसंपन्जिता समग्गमासरेजा तोणं आयरिजा अ भण जंच असुरूस्स मूले अवसंपज्जइ तं च तयं आवजा । हाणं सच्छंदत्ताए तहेव चिढ़े तो चनविहस्सवि स एवं ता च्यसंपज्जा । श्याणि उपसंपयारिहो जा असुकं असुमगसंघस्स बज्जतं गच्छं मो भायरेजा। महा०-७भ०। गो नाम पयस्स दोसो अविणिय तं जद पमिताहे ग्ट्ठा(सामायिकसंयतादयः सामायिकसंयतत्वादिकं जहतः कि णवार तट्ठाणमावजह जंच असुरू रागेण पडिच्छ जे तस्स मुपसंपचत इति संजयशम्दे ) ( समायिकार्थमम्यत्रोपसंपरसा. दोसा ते आवज्ज बोसहि तिहाणो नाम नाणदरिसणचरित्तामाश्यशब्दे वदयते) (श्रुतमार्गसुखःखाद्युपसंपदमधिकृत्या णि केरिसो आयरियो अणरिहो उपसंपदं प्रात गाहा माहारे भवद् व्यवहारः ववहारशब्दे वक्ष्यते) उच्यते जो भाहारोवही उ मई अभिस्सामीति संगई करेश प. उपसंपयाकप्प-उपसंपत्कन्प पुं० उपसंपद्विधी, मिच्छमाणं च ततो लज्जामि अणरिहे वा तिलिणियानो पा नवसंपदा य कप्पं, एत्तो ३ समासतो वोच्चं॥ चेतियसट्ठीए वा आकसिमाकही कारण वा चयति सो वि मुविहम्मि पागमाम्म न, परमवणा चेव आयरणता य॥ नोवसंपजियवो । जो पुण एगंतनिज्जरठी पंचदि गणेहिं वा पर्हि संगहोवग्गह अव्वोच्चित्ती नयट्टयाए सो उवसंपज्जियपपवणगहणअणुपा-लणा य नवसंपदा होति । व्यो । वायणारिहो वि नाणदंसण अहत्थि नावा जाणणच्याए आगमहेन नवसंपदाउ, स य भागमो नवे दुविहो ।। वा पढए सो वापयन्वो तस्स पुण वापंतस्स पयाणि चेव - मुत्तं अत्यो य तहा, पारगते तत्य उपसंपा। हारोवहिमाणि सम्भति पर चेव गणावायणार वि सनयंति दो आयरियप्पे-ग कत्थ तहिं कुज्जा ॥ रागेण थामवहारविजहोतित्थस्स अणुवमया ति कर्यतस्स प्रजो निनणतरंजासति, अह निनणं दो विनासंति पंजा कासंचनयति गणहारिस्साहारोएस वसंपयाकप्पो पं०० श्याणि उवसंपया कप्पो तत्थ गाहा दुविहम्मि सा विहा उवसंपयसंकप्पो, मुगुरुसगासे गिही असुत्तत्थो । नवसंपया प्रागमनिमित्तं उपसंपजिज्जा सुत्तनिमित्तं अत्यनि- वदहिअगहणसमत्थो, अणुबाउ देण संपज्जो ॥८६॥ मिर्स वा अहवा ते पायरिया परुवेऊण सुत्तपयाणि उस्सग्गाव- उपसंपदानां संकल्पोव्यवस्था स्वगुरुसकाशे यथा संनवंगृहीवापसु गाढ जाणंति अहवा गाढतरं तत्थ पाचरणा पमिनेहणा तसूत्रार्थःसन्नतत्प्रथमतया तदधिकग्रहणसमर्थःप्राकःसन्नतुझाइस महवा ते पनवणं धम्मकदाए अक्वेवणासु धम्मपम्पवणं तस्तेन गुरुणोपसंपर्यते विवक्षितसमीप इति गाथार्थः। तत्रापि । निरागं जाणंति तंपिकिरि सिक्सियचं धम्मकहिस्स वा गाह सप्परिणयपरिवार, अप्परिवारं च णाणजाणावे । णा ते पायरिया गाहणाकुसला अणुयत्तत्ति वा ते पायरिया गुरुमेसोवि सयं विअ, एतदनावेण धारिज्जा ।। ०७॥ गिजाणासु कारणेसु अगुवालेति वा मूलगुणा पवं परुवणा सपरिणतपरिवार शिक्षकप्रायपरिवारमपरिवारं चैकाकीप्राय संपनो नवसंपब्जियम्बो पयवारिसोन उषसंपज्जियव्यो जवि गीयत्थो होइ जे पुण असंविग्गादयो नवसंपज्जर परुवणा नानुज्ञापयेद्गुरु शिष्योऽनेकदोषप्रसङ्गाहोषोऽपिगुरु स्वयमेवैतदसंपति काऊण गाहा वत्तणा संधणा वत्सणा नाम सुत्तस्स भावेपरिणतपरिवाराद्यनावेनधारयेद्विसर्जयेदिति गाथार्थः। तत्र परियणा अत्थस्स गुणणा संधणा सुत्तत्थाणं पच्चुचकार संदिट्ठो संदिहस्स, अंतिए तत्थ मिह परिश्चाओ। णा गहणं अभिणवाणं सुत्तत्थाणं चेव गाढ़ा ततिया जो सो सादुअमग्गे वाण, तिदुवरि गुरुसम्मए चागो ||09॥ नवसंपजं तो सो ग परिच्छर सो वा गच्छेण परिच्चि संदिष्टः सन् गुरुणा संदिष्टस्य गुरोः समीपे उपसंपयेतेति ज्जर तयाो निकारणे आमुंचति वच्चाश्चमणाणि वा निकारणे वाक्यशेषस्तत्र मिथः परस्परं परीक्का भवति । तयोः साधूनाधुवंति मरति वा य मज्जणा मंगा गहणनिक्खवणा भव ममार्गे वादनं करोत्यागन्तुकः मिथ्यादुष्कृतादाने प्रयाणामुपारी माणेसि निक्खमणपसे आवसियनिसीहियाओनस्थि सुत्तत्थ- गुरुकथनं तत्सम्मते शीतलतया त्यागः असम्मते निवासस्तेषातदुन्नयाणि वा न करति मोणेण इच्छांतिपयाणि उपसंपज्जमाणो मापि ते प्रत्ययमेव न्याय इति गाथार्थः। न कुज्जा गच्छे वा एवमाश्नस्थि पच्छा सारणया वा विसग्गो गुरुफरसाहिगकहणे, सुनोगनो अह निवेत्रणं विहिणा। था जश् वत्तहानिमित्तमुवसंपन्नो न वत्ता न सेवा अनिण- मुअखंधादिउ निअमो, आहव्वापासणा चेव | | वं वा न गेण्ड सारि पमा विसग्गो जो पुण पासत्याइ गुरोरपितं प्रति परुषाधिककथनं जीतं वर्तते सुयोगतः प्रतिप वसंपज्जा तत्थ गाहा सिर्फ सीमुहं चरणकरणं गाहा सिहं तिशुद्धौ सत्यामथानन्तरं निवेदनं गुरुवे विधिना प्रवचनोक्केएमेव अहाब्दे सिकं को पुण अरिहो कत्थ उवसंपज्जियच्वं नोपदिशेदित्यर्थः । तत्र श्रुतस्कन्धादौ नियम पतावन्तं कालं Jain Education Interational Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aa संपयाकप्प ० || यादित्येवमादिसाकिकी स्थापना कायोत्सर्गपूर्वकोय उयनियमाध्यमाभान्यानुपासना शिष्येशये नासवलिव्यातिरिक्तादयं गुरुणाऽपि सम्यक्पालनीय इति गाथार्थः । इह प्रयोजनमाह । अस्सामिसंपूया, इमरो बेवस्वार जो जावो । मुहजावो परिणम ग्राहया दाणागो वेष | अस्यामित्वं भवति सत्पर्य तथा पूजा गुरोः कृता भवति इतरापेक्षयाऽनावरू बहिनि वेद नेतरर्वपेयेति प्रायः तथा जीतमिति कल्पोऽयमेघ एवं जगवता दृष्ट इति श्रुतनावादित्यनेन प्रकारेण शुभाशयोपपत्तेः परिणमति श्रुतं यथाईतया चारित्रशिष्यस्य नान्यथत्याभाय्यादानं शिष्येण कर्त्तव्यं ग्रहणमत एव तस्य गुरुणा कर्त्तव्यं तदनुप्रयममादिति गाथार्थः । पं० ० ७६० । उपसंहार- उपर्महार-० उप-सम-ह-पत्र- समाप्ती सच ग्रन्थतात्पर्य्यायधारकलिक्रमेदः " उपक्रमोपसंहारी हेतुस्तात्यनिय" इत्युक्तेः तत्रोभयोरेव तकेतुत्वं न तु प्रत्येकस्य सङ्ग्रहे सम्यग् हरणे, श्रुतार्थस्यान्यत्रान्वयार्थमुपक्षेपे, यथा गुणोपसंहारा वाच उवसग्ग-उपसर्ग - पुं० उप-ज-पम् उपसृज्यन्ते धातुसमीपे युज्यन्ते इत्युपसर्गाः । प्रश्न० ४ द्वा० प्रश्नव्याकरणोक्तेषु, निपाताबाद हेयाः प्रादयस्तूपसर्गका किया योगे लोकादवगता इमे ” इत्युक्तलक्कणेषु क्रियायोगे प्रादिषु, तेषां त्रिधा प्रवृत्तिः धाय वाचते कश्चित्तमनुवर्तते। तमेव विशिनाथम्य उपसर्गगतिखिधा । क्रमेणेादाहरणमि यथा आदने प्रणमतीति । अपि च " उपसभाप्रसूते उपसर्गेण स्वर्षो बलादन्यत्र नीयते महाराहारसंहार-विहारपरिहारवत् " प्रादयस्तूपसर्गान सार्थकाः सार्थका चादयो निपाता याचकत्वात् । "उपसर्गास्तु उभये योनका इति मेनिरे " वाच० | पो वः । ८ । १ । ३१ । इति पस्य वः । प्रा० । उपसृज्यन्ते विप्यन्त व्याव्यन्ते प्राणिनो धर्म्मादेर्येषु इत्युपसर्गाः । देवादिकृतोपद्रवेषु, स्था० १० ठा० । पंचा० । श्रा०म० श्रा०यू० । ( १ ) उपसर्गख्याख्या । 64 (२) उपसर्गनिक्षेपः । (३) तत्कारिभेदादुपसर्गभेदाः । (४) उपसर्गसहनम । ( ५ ) संयमस्य रूक्षत्वम् । (६) लोखर्गमदनम् । ( १०४८ ) अभिधानराजेन्द्रः । 66 (१) अथोपसर्गान् व्याख्यातुमाह । उपसणमुपसग्गो देश तोसजए जम्दा । उपसर्जनमुपसर्गः अथवा करणसाधमः उपसृज्यते संबध्यते पीकादिभिः सह जीवस्तेनेत्युपसर्गः अथवा कर्मसाधन सृज्य संबध्यते तत्कोऽसावेव तदुपसर्गः । अथवा उपादामसाधनः ततस्तस्मादुपसर्गाजीवः उपसृज्यते संबध्यते पीडादिभिः सह यस्मात्ततः उपसर्गः । विशे० । उत० । (२) उपसर्गो यथा । सम्प, दब्बे यदुवं । आगंतुमय पीला करो य जो सो छ उवसग्गो ॥ १॥ नामस्थापनात् द्रव्य क्षेत्रका भावमेदात उपसग्गीः षोढा । तत्र नामस्थापने क्षुत्वादनादृत्य द्रव्योपसर्गे दर्शयति । द्रव्ये - و यविषये उपसाग द्विधा यतस्तद्रव्यमुपसर्गकन दात् द्विविधम् । तत्र तिर्यङ्मनुष्यादयः स्वावयवाभिघातेन यडुपसर्गयन्ति स सचितद्रव्योपसर्गः स एव काष्ठादिनेतरस्तत्वपर्यायैर्व्याख्यातः । तत्रोपसर्ग उपतापः शरीमत्पादन मित्यादिपर्यायाः। भेदाय तियमनुष्योपसर्गादयः नामादय का तत्र व्याख्यातु नियुक्तिदेव गाथापा स्मा दिव्यादेरागच्छतीत्यान्तुको खापों भवति स देदस्य संयमस्य वा पाकारीत ॥१॥ त्रोपा खेतं बहुषपर्य, कालो एतदुस्समादी थी। जावे कम्म सो दुविहो ओघुवक मिश्रयते ॥ २ ॥ यस्मिन् क्षेत्र बन्यो यतः सामान्येन परवीरापसर्गस्थानानि जयन्ति पद पानान्तरं वा षोपनये बहून्योधतो जयस्थानानि पत्र तथा चामादिविषयादिकं क्षेत्रमिति । कालस्त्वेकान्तद् दिः आदिग्रहणात् यो यस्मि न क्षेत्रे दुःखोत्पादको भी प्मादिः स गृह्यत इति । कर्मणां ज्ञानावरणानामभ्युदयां भावोपसर्ग इति स च उपसर्गः सर्वोऽपि सामान्येन श्रधिकोपक्रमिकभेदात् द्वेधा । तत्राधिकोऽ कर्मप्रतिजनितनावोपसगों प्रवति भीपक मेकस्तु दण्डकशा शस्त्रादिनाऽसात वेदनीयोदयापादक इति ॥ २ ॥ (३) तत्रौधिक पक्रमिकयोरुपसर्गयोरौपक्रमिकमधिकृत्याह । 1 उवसग्ग · कम संयम - विग्धकरे तत्थुत्रकमे पगयं । दब्बे चोदे, व मायतिरिया य संवेतो ॥ ३ ॥ उपक्रमणमुपक्रमः । कर्मणामनुदपत्रासानामुद यशपणमित्यर्थः । एतच यस्योपयोगात् येन या इज्येणाऽसावेदनीयाच कम्मोदीर्यते यदद्याच्चाल्पसत्वस्य संयमविघातो भवति भत surfar उपसर्गः संयमविघातकारीति । इह च यतीनां मोक्षं प्रति प्रवृत्तानां संयम मोक्षा वर्तते तस्य यो चित्रहेतुः स एवाधिति इति दर्शयति । वधिक कमिको पक मि प्रकृतं प्रस्तावस्तेनात्राधिकार इति यावत् । स चब्बे कल्पयिष्यश्चिन्यमानश्चतुर्विधो भवति । तद्यथा देविको मानुषस्तैरश्च आत्मसंवेदनश्चेति । सूत्र० १ ० ३ अ० । चव्हा उवसग्गा छत्ता तं जहा दिव्वा माणूसा ति बिजोलिया प्रयमंयणिना। दिव्या गाठविहा पहला जहा डासाप्पोसा दीमंसा पुढामाया | माणुस्सा उबग्गा चढव्विदा पाता से जहा हासामीसावमा कसा तिरिक्खजोलिया उपलम्गा चव्हाणा जहा जया पदोसा आहार अ चत्रेण साक्खणया | आयसंचेय पिज्जा उवसग्गा चनव्विहा जहा पट्टया परणया पंजणया प्रेमाया । सूत्रपञ्चकमाह कएव्यञ्चेदं नवरमुपसर्जनान्युपसृज्यते धर्मायाव्यते जन्तुनिरिपुपसर्गाः बाधाविशेषास्ते च कर्तृभेदाच तुर्विधाः । श्राह च " उवसजणमुवसम्गो तेण तम्रो उवलयजिए जम्दा सो दिवमयतेरिच्य प्रायसंचयणा ॥१॥ आत्मना सञ्चेत्यन्ते क्रियन्त इत्यात्मसञ्चेतनीयाः तत्र दिव्याः । ( दाससि) सायन्ति दासत्वात् वा हासा उपसर्गा वेत्येवमपि यथाभिकामान्तरस्थिती उपयाचितं प्रतिपतिं स्यामहे तदा तयमेरिकादि Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४९) लवसग्ग अभिधानराजेन्द्रः। नवसग्ग दास्याम इति लब्धे च सन सघेदमिति नणित्वा नएमेरका-थों भेदो द्रष्टव्यः । विमात्रापकस्यात्र हास्यादिष्वेवान्तर्भावदि तैः स्वयमेव भक्तितं देवतया च हासेन तदूपमावृत्य क्रीमि- विवकणादिति तिर्यङ् भयात्प्रद्वेषादाहारार्थमपत्यनीडगुहादितमनागवत्सु कुलकेषु व्याकुले गळे निवेदितमाचार्याणां देवतया स्थामरकणार्थमुपसर्ग कुर्यादिति । आत्मसंवेदनीयस्तूपस! कुखकवृत्तम् । ततो वृषभरुण्डेरिकादि याचित्वा तस्यै दसं तया तु नेत्रपतितकणिकादिघनादङ्गानां स्तम्भनास्तब्धताभावाते दर्शिता इति। प्रद्वेषाद्यथा सङ्गमको महावीरस्योपसर्गानकरो- दौ वा प्रपतनाद्विगुणितवासाद्यङ्गानां वासनात्परस्परं श्लेत् । विमर्षाद्यथा कचिद्देवकुलिकायां वर्षासूषिवा साधुषु तदीय षणाद्भवतीति सप्तचत्वारिंशसाधार्थः । विशे०॥ एवान्यः पश्चादागतस्तत्रोषितस्तञ्च देवता किं स्वरूपीयमिति सांप्रतमेतेषामेव भेदमाह । विमा उपसर्गितवतीति। पृथग विनिन्ना विविधा मात्रा हासादि- एकेको य चनविहो, अढविहो वा वि सोलसविही वा। वस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्रा । अथवा पृयग् विविधा मात्रा विमा घट्टणजयणा य तेसिं, एत्तो वाच्चं य अहियारो ॥४॥ त्रा तयेत्येतल्लुप्ततृतीयैकवचनं पदं दृश्यम् । तथा हि हासेन एकैको दिव्यादिश्चतुर्विधश्चतुर्भदः । तत्र दिव्यस्तावत् हाकृत्वा प्रदेषेण करोतीत्येवं संयोगः यथा संगमक एवं विम-| पण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवानिति । तथा मानुषा हास्यात् स्यात् प्रद्वेषात् विमर्शात् पृथग्विमात्रातश्चति । मानुषा अपि यथा गणिकामुहिता क्षुल्लकमुपसर्गितवती सा च तेन दण्डे. हास्यात प्रद्वेषाद्विमर्शात् कुशीलप्रतिसेवनातश्च तिरथा अपि चतुर्विधाः तद्यथा भयात्प्रद्वेषादाहारादपत्यसंरक्षणाश्च । प्रान्मन तामिता विवाद च राज्ञः श्रीगृहदृशान्तो निवेदितस्तेनेति प्र. द्वेषात् यथा गजसुकुमारः सोमिलब्राह्मणेन व्यपरोपितो विम संवेदनामपि चतुर्विधाः घट्टनातो लेशनातोऽहल्याद्यषयवसंर्षात् यथा चाणक्योक्तचन्जगुप्तेन धर्मपरीक्षार्थ लिङ्गिनोऽन्तःपुरे श्लेषरूपाया स्तभनातः प्रपाताच्चेति । यदि वा वातपित्तश्लेष्म संनिपातजनितश्चतुर्धेति । स एव देव्यादिश्चतुर्विधोऽनुकूलधर्ममाख्यापिता कोभिताश्च साधवस्तु कोभितुं न शक्ता इति । कुशोलमब्रह्म तस्य प्रतिषेधणं कुशीमप्रतिषेवणं तद्भावः कुशी प्रतिकूलभेदात् अष्टधा भवति । स एव दिव्यादिः प्रत्येकं यश्वसप्रतिषेवणता उपसर्गकुशीवस्य वा प्रतिषेवणं येषु ते कुशी तुर्धा प्रादशितः स चतुर्णा चतुष्काणां मेलापकात् षोडशभदो भवति । तेषां चोपसर्गाणां यथा घटना संबन्धप्राप्तिः प्राप्तानां सप्रतिषेधणकाः । अथवा कुशीलप्रतिषेवणयेति व्याख्येयं यथा संध्यायां वसत्यर्थ प्रोषितस्यालोहे प्रविष्टः साधुश्चतसृभि चाधिसहनं प्रतियातना भवति तथाऽत ऊर्द्धमध्ययनेन व क्ष्यते इत्ययमत्रार्थाधिकार इति भावः । सूत्र.१ ध्रु. ३०। रीालुजायाभिर्दत्तावासः प्रत्येकं चतुरोऽपि यामानुपसर्गितो न च भितः । तथा तैरश्चो भयात् श्वादयो दशेयुः प्रद्वेषाश्च एतेषाञ्च सहनाऽवधिभूतः श्रीमन्महावीरो बोद्धव्यः । भावनोएमकौशिको भगवन्तं दष्टवान् श्राहारहेतोःसिंहादयोऽपत्यल त्पादनार्थ पुनरेकैकशः परमगुरुपाः सम्यक्सहनादाप्तकल्याणाः कथ्यन्ते । तथा चाह॥ यनसंरक्षणाय काक्यादयः उपसर्गयेयुरिति । तथा आरमसंवे देवेहिं कामदेवो, गिही विनयचाइनरगुणेहिं । दनीया घट्टनता घट्टनया वा यथाऽवणि रजः पतितं ततस्तद मत्तगयंद अंगम-रक्खसघोरट्टहासेहिं ।। कि हस्तेन मलितं दुःखितुमारब्धमथवा स्वयमेव अवणि गले देवस्यैते देवा देवकृताचा देवो भगवच्छीमहावीरसत्कदशश्रावा मांसाङ्करादि जातं घट्टयतीति प्रपतनात् प्रपतनया वा यथा बकान्तर्गतः गृह्यपि गृहस्थोऽपि न च मैव व्यधितश्चक्षितस्तपी. श्रप्रयत्नेन संचरतः प्रपतनात् दुःखमत्पद्यते स्तम्भनतस्तम्भ गुणेन्यः कथं नूतैर्मत्तगजेन्मनुजङ्गमराक्कसघोराट्टहासैः। तथाहि नया वा यथा तावडुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः पादादिस्तब्धो शक्रवर्णनाश्रश्रमानायातदेवनिर्मितैः कदर्यमानेनापि न परिजातः श्लेषणता इलेपणया वा यथा पादमाकुच्य स्थितो वा तेन त्यक्ता स्वप्रतिझेति गाथार्थः। जावार्थः कथानकेन्यः स्फुटीभविष्यतथैव पादौ लगितौ इति । आत्मसञ्चने उदाहरणानि उपसर्ग ति जगवो महावीरस्स दस सावया अहेसितं । 'आनन्द कामंद सहनात्कर्मकयो भवतीति । स्था०४ ग०४ उ०।। घे, चलणिपिया तह य सुरदेवे । चुल्लसए कुंगोलिय, सयालपुत्त य सो दिव्यमणुयतेरि-च्छिया य संवैयणा भेो। महसयए । नंदिणिपियझेयपिय, दस सावगान वीरेणं । मिस च देवेन्यो नवो दिव्यो मनुष्येज्यो भवो मानुषः तिर्यम्यो- च्चत्ततमविमोश्य, एए दढसावए सुवए'। दर्श०। (कथानकानि नित्यो भवस्तैर्यग्योनः आत्मना संवेद्यत इत्यात्मवेदनीयः इत्येवं तत्तच्छब्दे वक्ष्यन्ते । आत्मसंवेदनीयोपसर्गोदाहरणन्तु स्वधिचतुर्भेद इति । केन पुनः कारणन देवादिभ्य साधूनामुपसर्गा याऽप्यूहाम् ) कल्प० । गाव. निचू० । जीतास्था। भवन्तीत्याह। दिब्ध य जे उवमगे, तहा तिरिच्छमाणुस्से। हासप्पोसव मंस उ, विमायाए वा नवे दिव्यो। जे जिक्खू सह निचं, सेन अत्थइ मएमले ॥५॥ एवं चिय माणुस्सो, कुसीलपमिसेवणचउत्थे । यो निकुर्दिव्यान् देवैः कृतान् तथा तैरश्चान् तिर्यग्निः कृतान् तिरिोनयप्पओसा, हारावच्चाइ रक्खणत्यं वा । तथा मानुष्यकान् मनुष्यैः कृतान् उपसर्गाम् सम्या कषायाजाघट्टणथंजणपवरूण, लेसणो वायसंवेश्रो ॥ वेन सहते स मामले संसार न तिष्ठति 1 उत्त० ३१०। हासाक्रीडातः अवज्ञातः पूर्वभवसंबन्धादिकृतप्रद्वेषाद्वा (वीमं त्रिविधा उपसग्गाः । सउत्ति) किमयं स्वप्रतिज्ञातश्चलति न वेति मीमांसातो वि. तिविहे य नवसग्गे, दिव्ये माणस्म तिरिक्खें य । म(दिव्य उपसर्गों भवेत्तथा (विमयाएत्ति) विविधा मात्रा दिव्ये य पुषभणिए, माणुस्से आजिओगे य ।। विमात्रा तस्याः सकाशाकिमपि हास्याकिमपि प्रद्वेषाकिंचि- विविधः खयु परसमुत्थ उपसर्गस्तद्यथा देवो मानुष्यकस्तरश्चन्मीमांसातश्चेत्यर्थः । दिव्य उपसर्गो भवेदिति । एवं मानु- श्च । तत्र देवो देवकृतः पूर्वमनन्तरसुत्रस्याधस्तात् भणितः । प्योऽप्युपसर्गश्चतुर्विधो भवेत्केवलं (कुसीलपडिसेबलचउत्थे- | मानुष्यस्तु मनुष्यकृतः आभियोग्यो विद्यावनियोगजनितः ।। ति) खोपए इकलकणो यः कुशीलस्त प्रतिसेवनामाथिल्प चतु-| २६ । आव ॥ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५०) उवसग्ग अनिधानराजेन्द्रः। जवसम्ग (४) सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे तृतीयाऽध्ययने उपसर्गस-| काचर्यायां निकाटने कोविदा निपुणः अपक्षणार्थत्वादन्यत्राहनं तत्र तावदेशार्थाधिकारमधिकृत्याह । ऽपि साध्याचारेऽमिनवप्रवन्जितत्वादप्रवीणः स एवंजूत आत्मापढमम्मि य पडिलोमा, हुंती असोयगा य वितियम्मि।। नं तावच्छिापालवत् शूरं मन्यते यावजेतारमिव रुकं संयमताए अत्तविसी-दणं य परवादिवयणं च ॥५॥ कम संश्लेषकारणाजाबात् न सेवते नमजत शत । तत्प्राप्तौ तु प्रथमे उद्देशके प्रतिसोमाः प्रतिकूला उपसर्गाः प्रतिपाद्यन्त घडवो गुरुकर्माणोऽस्पसत्या भङ्गमुपयान्ति । इति । तथा द्वितीय ज्ञातिकृताः स्वजनापादिता अनुलोमा अनुकूला संयमस्य रुतत्वप्रतिपादनायाह । इति । तथा तृतीये अध्यात्मविपादन परयादियधनं चेस्ययमर्था ___ जया हेमंतमासम्मि, सीतं फुसइ ( सवायगं) सम्वगं । ऽधिकार इति ॥ तत्य मंदा विसी यति, रज्जहीणा वि खत्तिया ॥४॥ हनसरिसेहिं अहे उएहि समयपडियाहिं पिउणेहिं । यदा कदाचित हेमन्तमासे पौषादी शीतं सहिमकणवातं स्पृसीअखणिनामवना, कया चउत्यम्मि उद्देशे ॥६॥ शति गति सत्र तस्मिन्नसह्ये शीतस्पर्श झगति सति पके चतुर्थोद्देशके अयमर्थाऽधिकारः तद्यथा हेतुसरशैवाभासैर मन्दा जमा गुरुकर्माको विषीदन्ति दैन्यनाथमुपयान्ति राज्यही ना राज्यच्युताः यथा वनिया राजान श्वेति ॥ ४॥ सूत्र० ३. न्यतैर्थिकैर्युदगृहिताः प्रतारितास्तेषां शीशस्वालिताना ज्यामोहितानां प्रज्ञापना यथाऽवस्थितार्थप्ररूपणा स्थसमयप्रतीतैर्निपु. १ उ०। नक्तः प्रथमोद्देशकः। साम्प्रतं द्वितीयः समारज्यते। अस्व णजणितैहेंतुभिः कृतेति सास्तसूत्रानुगमे ऽस्खलितादिगुणोपेतं चायमनिसंबन्धः इहोपसर्गपरिहाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादिता स्ते चानुकूमाः प्रतिकृयाश्च। तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूत्रा प्रतिपासूत्रमुच्चारणीयं तच्छेदम् ॥ दिता इह त्वनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेम संबन्नायातस्यामूरं मम अप्पाणं, जाव जेयं च पस्सती। स्योद्देशकस्थादिम सूत्रम्।। जुज्झतं दधम्मापं, सिमपालो व महारई।१॥ अहिमे सुहमासंगा, भिक्खणं जे मुरुत्तरा ।। कश्चिम घुप्रकृतिः संग्रामे समुपस्थिते शूरमात्मानं मम्यते । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥ निस्तोयाम्बुद श्चात्मश्लाघाप्रवणो वाजिबिस्फूर्जन् गति । न अथेत्यानन्तये प्रतिकृयोपसर्गानन्तरमनुकूमाः प्रतिपाद्यन्तस्त्यामत्कल्पः परानीके कश्चित्सुभटोऽस्तीत्येवं ताधार्जति यावत् नन्तर्यार्थः । श्मे त्वनन्तरमेवाभिधीयमानाः प्रत्यक्कासयाचित्यापुरोऽवस्थितं प्रोद्यतासिं जेतारं न पश्यति । तथा चोक्तं । "ता दिदमभिधीयन्ते । तेच सूक्ष्माः प्रायश्चेतोधिकारकारित्येनान्तरा वजः प्रस्तुतदानगगमः कगेत्यकालाम्बुदगर्जितानि । यायन न प्रतिकूलोपसर्गा व पाहुस्येन शरीरविकारकारित्वेन प्रकटतसिंहस्य गुडास्थनी बाङ्गविस्फोटरवं शृणोति॥ १॥ न हु या वादग इति । सङ्गाः मातापित्रादिसंबन्धाः । य एते भिक्षूणां धान्तमन्तरेण प्रायो लोकस्यार्थावगमो नयतीत्यतस्तदवगतये साधूनामपि पुरुत्तरापुर्बधा पुरतिक्रमणीया इति । प्रायो जीवि. दृष्टान्तमाह । यथा माजीसुतः शिशुपाओ वासुदेवदर्शनात्प्राक तविारकरैरपि प्रतिकूलोपसर्गेरुदीर्णैर्माध्यस्थ्यमवसम्बयितुं महाप्रात्मश्लाघाप्रधानं गर्जितवान् पश्चाश्च युध्यमानं शराणि व्यापा पुरुषैः शक्यमेते त्वनुकूलोपसर्गास्तानप्युपायेन धर्माश्यावयन्त्यरयन्तं दृढः समर्थो धर्मः स्वनाषः संग्रामाभङ्गरूपो यस्य स तोऽमी पुरुसरा इति । यत्र येष्पसर्गेषु सत्स्बेके अस्पसत्वाःसतथा तम् । महान् रथोऽस्येति महारथः स च प्रकमादत्र मारा दनुष्ठानं प्रति विषादन्ति शीतगविहारित्वं भजन्ते सर्वथा वा यणस्तं युध्यमानं रा प्रारगर्जनाप्रधानोऽपि वोभं गतः । एवमु संयम त्यजन्ति नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन यापयितुं वर्तयितुं ततरत्र दान्तिकेऽपि योजनीयमिति । नाबार्थस्तु कथानकाद स्मिन् व्यवस्थापयितुं शक्नुवन्ति समर्था नवन्तीति ॥१॥ यसेयः ( सूत्र ) ( तच्च सिसुवालशब्दे वक्ष्यते) साम्प्रतं सर्वजनप्रतीतं वार्तमानिक दृष्टान्तमाह । तानेव सूक्ष्मसङ्गान् दर्शयितुमाह । अप्पेगे नायओदिस्स, रोयंति परिवारया। पयाता मूग रणसीसे, संगामम्मि उवाढते ! पोसणे ताय पुट्ठोसि, कस्म ताय जहासिणे ॥ २॥ मायापुतं न याणाइ, जेएण परिविथए ॥२॥ अपिः संभावने । एके तथाविधा ज्ञातयः स्वजना मातापित्रायथा वाग्भिस्फूिर्जन्तः प्रकर्षेण विकटपादपातं रणशिरसि दयः प्रवजन्तं प्रत्रजितं घा रष्वोपनत्य परिवार्य वेष्टयित्वा रुदसंग्राममूर्धन्यमानीके याता गताः। के ते शूराः शूरमायाः सुन्नटाः न्ति रुदन्तो वा वदन्ति च दीनं यथा याख्यापनात त्वमस्मानि: ततः संग्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुभटमुक्त हे तिसंघाते सति पोषितो वृतानां पानको नविष्यतीति कृत्वा ततो धुनानोऽस्मातत्र च सर्वस्याकूमीतूतत्वात् माता पुत्रं न जानाति कटीतो नापि त्वं तात! पत्र पोषय पाय। कस्य कृते केन कारणेन कस्य श्यन्तं स्तनन्धयमपि न सम्यक प्रतिजागीत्येवं मातापुत्रीये वा वोन ताताऽस्मान् त्यजसि नाऽस्माकं जवन्तमन्तरेण कश्चिसंग्रामे परानीकसुनटेन जेत्रा च शक्त्यादिनिः परि समन्तात् त्राता विद्यत इति । किञ्च । विविधमनेकपकार तो हतचिन्नो वा कश्चिदल्पसत्वो नङ्गमु पिया ते थेरो सान, सामा ते खुड़िया इमा। पाति दीनो भवतीति याचदिति । दार्शन्तिकमाइ । भायरो ते सगा तात, सोयरा किं जहासिणे ॥३॥ एवं सेहे वि अप्पुटे, शिक्खायरिया अकोविए । सरं मामंति अप्पा, जाव अहं न सेवए ।। ३.॥ मायरं पियरं पोस, एवं लोगो जविस्सति । पवामिति प्रक्रान्तपरामर्थः । यथाऽसौ शूरंमन्य उत्कृष्टसि- एनं खुलोइयं ताय, जे पालंति य मायरं ॥ हनादपूर्वकं संग्रामशिरस्युपस्थितः पश्चाजेतार वासुदेवमन्यं वा हे तात! पुत्र ! पिता ते तव स्थविरो वृक्षः शतातीतः स्वसा च युध्यमानं दृष्ट्वा दैन्यमुपयाति । एवं शिष्यकोऽजिनवप्रवजितः । नगिनी तव जुल्लिका अध्ची अप्राप्तयौवना इमा पुरोवर्तिनी प्रत्यपरोपदरस्पृष्टोऽचुप्तः किं मनःपायां पुष्करमित्येवं गर्जन भि-| क्षेति । तथा द्रातरस्ते तव स्वका निजास्तात ! सोदरा एकाद Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसग्ग अभिधानराजेन्द्रः । लवसग्ग राः किमित्यस्मान् परित्यजसीति ॥३॥ तथा ( मायरमित्यादि | धावति प्रवज्यां परित्यज्य गृहपाशमनुबध्नातीति । । । किञ्चामातर जमनी तथा पितरं जनयितारं पुषाण घिहि । पयं च | न्यत् (जहारुक्वमित्यादि ) यथा वृकं वने अटव्यां जातमुकृते तवेह लोकः परलोकश्च प्रविष्यति । तातेदमेव सौकिक त्पत्रं मालूया वल्ली प्रतिबध्नाति वेष्टयत्येवं णमिति वाक्यालंसोकाचीर्णमयमेव झोकिकः पन्था यदुत वृष्योर्मातापित्रोः प्रति- कारे झातयः स्वजनास्तं यतिमसमाधिना प्रतिबध्नन्ति ते पासनमिति तथा चोक्तम् । “गुरखो यत्र पूज्यते, यत्र धान्यं सुसं- तन्कुर्वन्ति येनास्यासमाधिरुत्पद्यत इति । तथा चोक्तं । “अस्कृतम् । अदन्तकहो यत्र, तत्र शक वसाम्यहमिति" अपिच | मित्तो मित्सवेसेण, कंठे घेतूण रोयइ । मा मिस सोगई जाई, उत्तरा मदुरुझावा, पुत्चा त तात खुड्डया। दो वि गच्छासु दुग्गइं"।१०। अपि च । नारिया ते णवा तात, मा सा अन्नं जणं गमे ॥ विवच्छो नातिसंगेहिं, हत्यी वा वि नवग्गहे। उत्तराः प्रधाना उत्तरा जाता वा मधुरो मनोई उल्लाप आला- पिट्टतो परिसप्पंति, मुयगो ब्च अदूरए । ११ । पो येषां ते तथाविधाः पुत्रास्ते तव तात! पुत्रदाल्लका लघवः ।। विविधं बद्धः परवशीकृतः विषद्धो झातिसङ्गैर्मातापित्रादितथा भार्या पत्नी ते नवा प्रत्यग्रयोयना अतिनवोढा वा माऽसौ | संबन्धैस्ते च तस्य तस्मिनवसरे सर्वमनुकूलमनुतिएम्तो धृ. त्वया परित्यक्ता सत्यन्यं जनं गच्छेदुन्मार्गयायिनी स्यादयं च | तिमुत्पादयन्ति हस्तीवापि नवगृहे अभिनवग्रहणे धृत्युत्पामहाजनापवाद शति । अपि च । दनार्थमिक्षुशकलादिभिरुपचर्यते । एवमसावपि सर्वानुकूलैरुएहि ताय घरं जामो, मा य कम्मं सहावयं । पायरुपचर्यते । दृष्टान्तान्तरमाह । यथाऽभिनवप्रसूता गार्निजवितियं पिताय पासामो, जामु ताव सयं गिहं ॥६॥ स्तनंधयस्यादूरगा समीपवर्तिनी सती पृष्ठतः परिसर्पत्येवं जानीमो वयं यथा त्वं कर्मनीरुस्तथाप्येहि आगच्छ गृहं यामो तेऽपि निजा उत्प्रवजितं पुनर्जातमिव मन्यमानाः पृष्ठतोऽनुसगच्छामः । मा त्वं किमपि सांप्रतं कर्म कृथाः । अपि तु तव कर्म पैन्ति तन्मार्गानुयायिनो भवन्तीत्यर्थः । ११ ।। एयुपस्थिते वयं सहायका भविष्यामः साहाय्यं करिष्यामः। सङ्गदोषदर्शनायाह । एकवारं तावद् गृहकर्मभिर्भग्नस्त्वं तात! पुनरपि द्वितीयवार प एते संगा मसाणं, पाताला व अतारिमा । श्यामो क्यामो यदस्मानिः सहायभवतो भविष्यतीत्यतो यामो कावा जत्थ य किस्संति, नायसंगेहिं मुच्चिया ॥१२॥ गच्छामस्तावत् स्वकं गृहं कुवेतदस्मद्वचनमिति ॥ ६॥ पते पूर्वोकाः सज्यन्त इति सङ्गाः मातृपित्रादिसंबन्धाः कर्मोगंतु ताय पुणो गच्छे, ए य तेणासमणो सिया ॥ | पादानहेतवः मनुष्याणां पाताझा श्व समुद्रा श्वाप्रतिष्ठितभूअकामगं पराकम्मं, को उ ते वारेउमरिहति ॥७॥ मितलत्वात् ते (अतारिमात्ति) दुस्तरा एवमेतेऽपि सङ्गा अल्प-- सत्वर्दु खेनातिलष्यन्ते । तत्र च येषु सङ्गेषु क्लीवा असमर्थाः तात! पुत्र! गत्वा गृहं स्वजनवर्ग दृष्ट्वा पुनरागन्तासि न च क्लियन्ति क्लेशमनुन्नवन्ति संसारान्तर्वर्तिनो प्रयन्तीत्यर्थः । तेनैतावता गृहगमनमात्रेण चाश्रमणो भविष्यसि । (अकामगंति ) अनिच्छन्तं गृहव्यापारेच्छारहितं पराक्रमन्तं स्वाभिप्रे किंभूताः शातिसङ्गैः पुत्रादिसंबन्धैनिता गृका अध्युपपन्नाः सन्तोन पर्यालोचयन्त्यात्मानं संसारान्तर्वर्तिनमेवं क्लिश्यन्ति तानुष्ठानं कुर्वाणं कस्त्वां भवन्तं वारयितुं निषेधयितुमर्हति अपि च। योग्यो भवति । यदि वा (अकामगेति) पार्द्धकावस्थायां म तं च भिक्ख परिन्नाय, सव्वे संगा महासवा । दनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति कस्वामय जीवियं नावकंखिज्जा, सोच्चा धम्ममणुत्तरं १३ ।। सरप्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं धारयितुमहतीति । अन्यच्च । । जं किंचि अणगं तात, तं पि सव्वं समीकतं । तंच झातिसङ्ग संसारहेतुं निशुईपरिया प्रत्याख्यानपरिइ. या परिहरेत् । किमिति यतः सर्वेऽपि केचन सजास्ते महाश्रवा हिरम नवहाराइ, तं पि दाहासु ते वयं ॥ ७॥ महान्ति कर्मण आश्रवधाराणि वर्तन्ते । ततोऽनुकूबैरुपसर्गरूपतात!पुत्र! यत्किमपि भवदीयमृणजातमासीत्तत्सर्वमस्माभिः स्थितरसंयमजीवितं गृहावासपाशं नाभिकाङ्केत नानिलषेत् । सम्यग्विभज्य समीकृतं समभागेन व्यवस्थापितं यदिवोत्कटं प्रतिकूचोपसर्गःसद्भिर्जीविताभिलाषी न भवदसमञ्जसकारिसत् समीकृतं सुदेयत्वेन व्यवस्थापितं यच्च हिरण्यं द्रव्य स्वेन जवजीवितं नामिकाढत । किंकृत्या श्रुत्वा निशम्यावगम्य जातं व्यवहारादावुपयुज्यते । श्रादिशब्दात् येन वा प्रका कं धर्म श्रुतचारित्राख्यम् । नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुसरं प्रधानं मौनीरेण तवोपयोगं यास्यति तदपि वयं दास्यामो निर्धनोऽहमिति न्द्रमित्यर्थः । अन्यश्च । मा कृथा भयमिति ।। अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेश्या।। उवसंहारार्थमाह। इच्चेव णं सुसेहंति, कालुणी य समुध्यिा बुछा जत्थ व सप्पंदि, सीयंति अबुहा जहि ॥१४॥ । अथेत्यधिकारान्तरदर्शनार्थः । पागन्तरं वा ( अहो इति) तञ्च विवको नायमंगेहिं, ततो गारं पहावइ । ६। विरूय । श्मे इति प्रत्यक्कासन्नाः सर्वजनविदितत्वात् सन्ति विद्यजहा रुक्ख वरणे जायं, माया पमिबंधइ । म्ते वक्ष्यमाणा आवर्तयन्ति प्राणिनं वामयन्तीत्यावर्तास्तत्र च्या एव णं पमित्रंधति, णातो असमाहिण।।१०।। वर्ता नद्यादेवावतीस्तूत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंरणमिति वाक्यालङ्कारे। इत्येवं पूर्वोक्तयानीत्यामातापित्रादयः पादकसंपत्प्रार्थनाविशेषा एते चावर्ताः काश्यपेन श्रीमन्महावीकारुणिकैचोभिः करुणामुत्पादयन्तः स्वयं वा दैन्यमुपस्थि- रवमानस्वामिना उत्पन्नदिव्यज्ञानेनार्वेदिताःकथिताः प्रतिपादितास्तं प्रवाजितं प्रयजन्तं वा (सुसेहंतित्ति) सुष्ठ शिक्षयन्ति ताः। यत्र येषुसत्सुबुझा अवगततत्त्वा श्रावर्तविपाकवेदिनस्तेज्यो व्युहायन्ति । स चापरिणतधर्माऽल्पसत्वो गुरुकर्मा झातिस- ऽवसर्पन्ते प्रमत्ततया तहरगामिनो भवन्त्यबुधास्तु निर्विवेकतया कैबिंबद्धो मातापितृपुत्रकलत्रादिमोहितस्ततो गारं गृहं प्रति- ये ह्यवसीदन्यासक्तिं कुर्वन्तीति तानेयावान् दर्शयितुमाह। Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गग रायण रायमचा य, माहणा अब खलिया। निर्मतिति जोगेहिं जिक्वूर्ण साहुजीविणं । १५ । राजानश्चक्रवर्त्यादयो राजामात्याश्च मन्त्री पुरोहितप्रनृतयस्तथा ब्राह्मणा अथवा कत्रिया इक्ष्वाकुवंशप्रभृतयः । एते सर्वेऽपि भोगेः शब्दादिविषयेनिमन्त्रयन्ति भोगोपभोगं प्रत्यभ्युपगमं कारयन्ति के भिक्षुकं ( साहुजी विणमिति ) साध्वाचारेल जीवितुं शीलमस्येति साधुजीविनमिति । यथा प्र दत्तचक्रवर्तिना नानाविधैर्भोगैश्चित्रसाधु रूपनिमन्त्रित इत्येचमन्येऽपि केनचित्संबन्धेन व्यवस्थिता यौवनरूपादिगुणोपेतं साधुं विषयोदेशेनोपनिमयेयुरिति । १५ । एतदेव दर्शयितुमाह । हृत्थस्मरहजाणेहिं, विहारगमणेणिया । (१०५२ ) अभिधानराजेन्द्रः | " भुंज भोगे इसे सम्पे, महरिसी पूजयामु तं १६ हस्यम्वरथपानैस्तथा विहारगमनः विहरणं क्रीडनं बिहारस्तंन गमनायुधानादी कांडया गमनानीत्यर्थः । शब्दादन्यन्द्रियानुकूल पियेरुपनिमन्त्रयेरंस्तथा तृवि मोगान् शब्दादिविषयानिमानसमानिकितान् प्रत्यासनाद या प्रश स्तान् न निन्द्यान् महर्षे ! साधो ! वयं विषयोपकरणढौकनेन त्वां भवन्तं पूजयामः सत्कारयाम इति । १६ । किश्चाऽन्यत् । बत्यगंधमलंकारं इत्वा सवणानि य । भुंना इमाई जोगाई, उस पूजा तं । १७ । वस्त्रं चीनांशुकादि गन्धाः काष्ठपुटपाटकादयः वस्त्राणि च गन्धाश्च वागन्धमिति समाहारद्वन्द्वः । तथा श्रलङ्कारं कटककेयूरादिकं तथा स्त्रियः प्रत्यप्रयौवनाः शयनानि च पर्यङ्कतूतीप्रवरपटोपधानयुक्तानि इमान् प्रोगानिन्द्रिय मनोनुकूल नस्माभिढकितान व तदुपनोगेन सफलीकुरु हे आयुष्मन् ! भवन्तं पूजयामः सत्कारयाम इति । १७ । अपि च । जो तुमे नियमो चिनो, भिक्खुजावम्मि सुव्वय । अगारमा वसंतस्स, सव्वो संविज्जए तहा । १८ । वस्त्या पूर्व निभावे प्रत्यावसरे नियमो महावतादिरूपश्रीर्णोऽनुष्ठितः इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमगतेन सुव्रत ! ससांतमप्यगारं गृहमावसतो गृहस्थभाव सम्पनुपालयतो भव तस्तथैव विद्यत इति नदि सुतस्यानुचीर्णरूपमाशोऽस्ती ति भावः । १८ । किञ्च । चिरं माणस, दोनो दाणिं कृत । इच्चेव णं निमंतेति, नीवारशेव सूर्यरं । १७ । निरं प्रनृतका संयमानुष्ठानेन ( वृइजमा णस्सत्ति ) विहरतः सत इदानीं साम्प्रतं दोषः कुतस्तव नैवास्तीति भावः । इत्येवं हस्त्यश्वरथादिभिचारादिनिश्व नानाविधैपभोगीप करणैः करणभूतैः। समिति नं निमन्त्रयन्ति जोगवुः कारयन्ति । दृष्टान्तं प्रदर्शयति । यथा श्रीचारेण श्रीदिविशेषकाने सुकरं वराहं प्रवेश तमाम १२. अनन्तरोपयस्यापसंहारार्थमा चोइया जिक्खचरिया, अचयंता वित्तए । तस्थ मंदा विसंयंति, उनाएंसि च व्ला । २० । भिक्षूणां साधूनामुद्युक्तविहारिणां वर्या दशविधचकवा सामा उवसग्ग चारी इच्छामिच्छेत्यादिका तथा नोदिताः प्रेरिता यदि वा भिकुचर्यया करणभूतया सीदन्तश्चोदितास्तत्करणं प्रत्याचार्यादिकैः पौनःपुन्येन प्रेरितास्तयोदनामशक्नुवन्तः संयमानुष्ठानेनात्मानं यापवितुं वर्तयितुमसमर्थाः सन्तस्तत्र तस्मिमे मनोतीजयकोन्दिविषदति शतप्रविड़ारिणां जयन्ति । तमेवावित्य निन्तामणिक महा संयमं परित्यजन्ति । दृष्टान्तमाद कयानमुद्यानं मागस्यास तो भाग मित्यर्थः । तस्मिन् उद्यानशिरसि महारा वाणी प्रति पुषं यथाऽवसीदन्ति प्रीयां पातयित्वा तिष्ठन्ति निरनिर्वाका जयन्तीत्येवं तेऽपि भावभन्दा उ महाव्रतभारं वोदुमसमर्थाः पूर्वोवावः पराभना विपीदन्ति । २० । किञ्च । अवयंता व लूण, जबद्वागेण तज्जिया । तस्य मंदा विनीत, उज्जानंसि जरावा | २१ | रूक्षेण संयमेनात्मानं यापयितुमशक्नुवन्तस्तथेोपधानेनानशनादिना सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा तर्जिता बाधिताः सन्तस्तत्र संयमे मन्दा विषादयुधानस्तके जोगीरियूनोपायसदनं संभाव्यते किं पुनर्जर अवस्येति जीर्ण ग्रहणम्। एवमावर्तमन्तरेणापि धृतिसंगमोपेतस्य विवेकिन. यस संभाव्यते कि नराखतानां महामति२१ सर्वोपदारमाह । एवं निमंतिए लगी। अज्भोववन्ना कामेहिं, चोइजंता गया गिहं (तित्रेमि ) एवं पूर्वतयामीत्या विषयोपभोगोपकरणं दानपूर्वकं निम न्त्रणं विषयोपभोगं प्रति प्रार्थनं लब्ध्वा प्राप्य तेषु विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु मूर्च्छिता अत्यन्ताशुक्तास्तथा स्त्रीषु गुफा दत्तावधाना रमणीरागमो हितास्तथा कामेषु इच्छामदनरूपेष्वभ्युपपन्नाः कामगतचित्ताः संयमेऽवसीदन्तरेणविहा रिणो नोद्यमानाः संयमं प्रति प्रोत्समाना नोदनं सोम बन्तः सन्तो गुरुकर्माणः परित्यज्यात्सत्या गुढं गता गृहस्थीभूताः इति परिसमाप्ती प्रति पूर्ववत् सूत्र० १० २०३८० आ० सू० आत्मविसीदनादयोऽन्यत्र (निकाट नाय गतस्योपसर्गसहनं गोवरवरिया श (६) अनुकलोपसर्गसहनम् । उडियमणगारमेसणं, समर्ण ठानि तवस्मिणं । डहरा बुढा य पत्थर, विमुस्से णय तं भेज्जणो ||१६|| अगारं गृहं तदस्य नास्तीत्यनगारस्तमेवंभूतं संयमात्याने पणां प्रत्युत्थितं प्रवृत्तं श्राम्यतीति श्रमणस्तं तथा स्थानस्थितमुप्रविशिष्टसंयमस्थानायासिनं तपखिनं विशिष्तपोनिष्ट देहं तमेवम्भूतमपि कदाचित महरा पुत्रनप्त्रादयां वृष्ाः पितृमातादयः चन्निष्क्रामयितुं प्रार्थयेयुर्याचेरस्त एवमूचुर्भवता वयं प्रतिपाल्या न त्वामन्तरेणास्माकमेकः प्रतिपाल्य एवं भणन्तस्ते जना अपि शुष्येयुः भ्रमं गच्छेयुनं साधुं ब्रिदितपरमार्थ लभेरन् नैवात्मसात्कुर्युर्नैवाऽऽत्मवशगं चिदभ्युरिति ॥ १६ ॥ किञ्च जड़ कापालिकासिया, न रोति य पुत्तकारणे । दवियं जिक्खु समुधियं, यो लब्नंति एए संवित्तए ॥ १७ ॥ दस्तदति समेत्य करणा Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५३) अभिधानराजेषः | उवसग्ग धानामि विलापप्रायाणि वचस्यनुष्ठानानि वा कुर्युः । तथाहि । "जाद पिय कंत सामिय, अवलद दुलहो सि भवणम्मि ॥ तुह विहरम्मि य निक्किव, सुषं सव्वं पि पडिहार " ॥ १ ॥ " सेणिमाम्मो गोट्टी, गणोत्र तं जत्थ होसिसणिहितो || दिप्पर सिरि पुरिस, किं पुण नियमं परहारं" २ तथा यदि रोतिपतित पुकारणं सुतनिमित्तं कुर्तनमेकं सुतमु पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हति वयं हन्तो यदि प्रणन्ति तं नि रागद्वेषरहितत्वान्मुयोग्यत्वाद्वा अन्यभूतं सम्यक संयमोत्या मेनोत्थितं तथाऽपि साधुं न लप्स्यन्ते न शक्नुवन्ति प्रवज्यातो भ्रंशयितुं जावाच्च्यावयितुं नापि संस्थापयितुं गृहस्थनावेन ज्यानिङ्गाच्च्यावयितुमिति ॥ १७ ॥ अपि च । जर विष काम लोबिया, जाणं जाहिणवंधियो परं । जजीवितनावकखए, गो लब्जंति ण संवित्तए || १८ || यद्यपि ते निजास्तं साधुं संयमत्यागोत्थितं कामे नरूपेोचयन्ति उपनिमन्त्रयेयुरुपाभयेयुरित्यर्थः अनेनाऽनुकू सोपसर्गप्रणम् । तथा यदि नयेच्या गृहं णमिति वाक्या तिलोपसर्गरनितोऽपि साधुर्यदि जीवितं नानिकात् यदि जीविताभिलाषी न भवेत् असंयमजीवितं वा नाभिनन्देत् ततस्ते निजास्तं साधुं ( णो सम्भंतित्ति । ) न अन्नप्रति आत्मसात्कर्ता (ण संततिपत्ति) नाि गृहस्थनाचे संस्थापयितुममिति ॥ १५ ॥ किञ्च । सेवियां ममाइखोमाया (पिया) ताय सुया य भारिया । पोसाहि ण पास तुमं, लोगपरंपि जहासि पोस णो | १६ | ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमजिनवप्रवजितं ( सेइंतिप्ति ) शिक्षयन्ति समिति वाक्यालङ्कारे (ममाइणोति ) ममाध्यमि त्येवं स्नेहालवः । कथं शिकयन्तीत्यत श्राह पश्य नोऽस्मानत्यदुःखितांव पोषकानावाद्वा त्वं च यथावस्थितार्थपश्य कः समदर्शी सति इत्यर्थः । अतो नोडस्मा पोषय प्रतिजागरणं कुरु अन्यथा प्रस्यान्युपगमेने लोकस्य को भवताsस्मत्प्रतिपननपरित्यागेन च परलोकमपि त्वं त्यजसीति दुःचितमित्र तपासनेन च पुरुषावातिरेवेति । तथाहि । “था गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम्। विभृतां पुत्रदारांस्तुतां गतिं ब्रज पुत्रकेति ॥ १९ ॥ एवं तैरुपसर्गिताः केचन कातराः कदाचित् यद्यत्कुर्युरित्याह ॥ अन्ने अन्नेहि मुत्थिया, मोहं जंति गरा असंबुका ॥ विसमं विसमेहि गाहिया, ते पावहिं पुणो पगन्निया ॥ २० ॥ अन्ये केचनायाः अन्यैर्मातापिशादिनिमियुपप सम्यग्दर्शनादिव्यतिरेकेण सकलमपि शरीरादिकमन्यदित्य म्यग्रहणं ते एवम्भूताः भसंवृता नराः संमोहं यान्ति सदनुष्ठाने मुह्यन्ति तथा संसारगमनैकहेतुत्वात् । विषमोऽसंयमस्तं चिपमैरयतमात्रवृत्तित्वेनापायाची रुनिः रागद्वेचैव मनादिभवाभ्यस्तता दुरद्यत्वेन विपनेहिता असंयमं प्रतिवि ताः पापैः कर्मभिः पुनरपि प्रवृत्ताः प्रगल्भताः पृष्टसां गताः पापकं कर्म इति ॥ २० ॥ यत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याद । सम्हा दक्खिपं किए, पावाओ विरते निव्वुिडे | पण घीरे महाबिर्दि, सिकिप (गाय) आयं धुवं ॥ मातापित्रादिमूर्द्धिताः पापेषु कर्मसु प्रगरमा नवन्ति तस्माद उवसग्गतितिक्खा यो यो मुक्तिगमनयोग्यो रागद्वेषरहितो या सभी स्व तद्विपार्क पर्यालोचय । परितः सद्विवेकयुक्तः पापात् कर्मणोऽ सदनुष्ठानरूपात् विरतो निवृत्तः क्रोधादिपरित्यागाच्चान्तीभूत इत्यर्थः तथा प्रणामही तूता वीराः कर्मविदारणसमर्था म हावीचि महामार्ग तमेव विशिनष्टि सिरुिपयं ज्ञानादिमोहमा गे तथा मोके प्रतिमेतारं प्रापकं भवमन्यभिचारिणमित्येत म्य स एव मार्गोऽनुष्ठेयो वा सदनमध्यमिति ॥ २१ ॥ पुनरप्युपदेशानपूर्वकमुपसंहरन्नाह । वेयालियमग्गमागड, मणवयसाकाय (ए) संवुको । विद्या विनं चथाओ, आरंभं च सुतुमे चरेज्जास (शिवेमि) कर्मणां विदारणमार्गगतो त्या तं तथाभूतं मनोवाक्कायसंकृतः पुनस्त्यक्त्वा परित्यज्य वित्तं इव्यं तथा ज्ञाता स्वजनो तथा सावधारम्नं च सुष्ठु संवृत इन्द्रियैः संयमानुष्ठानं चरेदिति ब्रवीमीति पूर्ववत् । सूत्र० १ ० २ श्र० २ उ० । त्रिविधोपसर्वाधिसमधिकृत्याह । तिरिया मयाय दिव्वगा, उवसग्गा तिविदाहिया सिया । लोमादिपं पि हरिसे, सुभागारगओ महामुर्ण ।।। १५ ।। तैरथाः सिंहण्यासादितास्तथा मानुषा अनुकुलप्रतिसा सत्कारपुरस्कारवएकशातारनादिजनिताः। तथा (दिव्यगाइति ) व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनिताः । एवं त्रिविधान प्युपसर्गानधिसंहेत नोपसगैर्विकारं गच्छेत् । तदेव दर्शयति । सोमादिकमपि न हर्षेत् प्रयेन रोमोममपि न कुर्यात् । यदि वा एवमुपसर्गात्रविधा अपि अहियासियन्ति) अधिसोढा भयति यदि रोमोमादिकमपि न कुर्यात् श्रादिग्रहणात् ि मुखविकारादिपरिग्रहः शून्यागारगतः शून्यगृह व्यवस्थितस्य चोपणार्थत्वात् पितृधनादिस्थितो वा महामुनिर्जिन कल्पिकादिरिति ॥ १५ ॥ किञ्च । यो निकखेज्जजीवियं, नो वि य पृयणपत्थर सिया । अन्तत्यजुर्विति भेरवा, सुभागारगअस्स भिक्खुणो । १६ । तैरचैरुपसर्गेरु स्तोतुद्यमानोऽपि जीवितं नाऽनिका तजीचितनिरपेक्षेणोपसर्गः सोदव्य इति भावः । न चोपसर्गस इनफारेण पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाभिलाषी स्यात् प्रवेदयं जीवितपूजानिरपेक्षेनासकृत सम्पद सामाना प्रेरया भयानकाः शिवाः पिशाचादयोऽन्यस्तभावं स्वात्मन उप सामीप्येन यन्ति गच्छन्ति तत्सदनाच्च भिक्षोः शून्यागारगतस्य नीराजितवारणस्येव शीतोष्णादिजनिता उपसर्गाः सुसहा एव भवन्तीति भावः । सूत्र०१ श्रु० २ अ०२८० । “उवसग्गेहि पासिता भामोक्खाए परिवएजाए" उपसर्गाननुकूल प्रतिकूलान् सम्यगधिसधामोशाय मोक्षपर्यन्तं यावद परि समन्तात् संयमानुष्ठानेन गच्छेत् । सूत्र० १ ० ३ ० ४ ० । ( ' उवसग्गगग्भरणमिति भर्यजेदत्वोपसर्गनिरूपणम् अच्छेर देस ) रोगविकारे, शुजायके दिव्यादिविकाररूपे उत्पाते बाच उवसग्गकप्पट्टि - उपसर्गकल्पस्था स्त्री० उपसर्ग एव कल्पस्था शय्यातरदुहितृकपिलचेज्ञकानां लोभाच्यातरकल्पस्थाधामुपसर्गकरणे, "उपसम्ोति" उदसम्म एव कप्पडी लेखापरमा कपिलचेगो लोभा सेजापरकल्पही उचसम्म क रोतीत्यर्थः १०० १० उपसमिनिक्खा उपसर्गनिनिकाली० उपसामीप्येन सर्ज Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गतितिक्खा नात् उपयुज्यते पभिरिति वा उप से वियमानु रश्चात्मसंवदनभेदतश्चतुःप्रकाराः प्रत्येकमपि ते स्युश्चतुर्विधाः हास्याद् द्वेषाद्विमश्च तन्मिथत्वाश्च दैवतः । हास्यादुद्वेचाचमशः शीलसद्वाच्च मानुषाः। २ तैरस्यास्तु भवाहारापत्यादिकृणात् पट्टगस्तम्भनद्वेष-प्रपातादात्मनः । ३ पा वातपित्तकफसवितोया इति तेषां हि नम । उपसर्गसहने ध० ३ अधि० "श्रतीवारालोचनेन प्रायवित्तविधेयता । उपसर्गतितिक्षा च परीषहजयस्तथा ध० ३ अधि० । 91 उवसग्गपत्त- उपसर्गप्राप्त त्रिः उपद्रवं प्राप्ते, स्था०५४०२० | उपसर्गप्राप्तस्य ग्रहणं कल्पते । (सूत्रम्) उवसग्गपच भिक्यूँ गिलायमाणं नो कप्पे तस्म गावच्छेदितस्स निज्जूहित्तए । अमिलाए करणिज्जं क्या जात्र रोगकालो विप्यमुके ततो मुके ततो पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियन्बे सिया इति । अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धः । मोहेण पित्ततो वा, आयासंचेततो समक्खातो । एमो उवसग्गो इमो मो परसमुत्यो । मोहन मोहनीयोन दो सितो या वि त्यर्थः । उन्मत्तः स आत्मसञ्चतकः श्रात्मनैवात्मनो दुःखोत्पादकः समायातः पचत्वात्मनो दुःखोत्पादनमे आत्मसंचे ननीय उपसर्गः ततः पूर्वमात्मसंचेतनीयः उपसर्ग धरत उपसर्गाधिकारादयमन्यः परसमुत्थ उपसर्गोऽनेन प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या । सा च प्राग्वत् । तत्रोपसर्गप्रतिपादनार्थमाह । 64 (१०५४) अभिधानराजेन्द्रः । तिविहो य उवसग्गो, दिव्बो मास्सितो तिरिच्छो य । दिव्य पुष्पभणितां माणुसतिरिए अतो वृच्छं || त्रिविधः खलु परसमुत्थ उपसर्गः । तद्यथा देवो मानुषिकस्तै तत्र देशे देवहतः पूर्वमनन्तरसूत्रस्याधस्ताङ्गतिः । भनो मानुषं तैराधं च बये प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति । विजाए मंतण व सुषण व जोतो अणव्यवसो । माणा लिहावा, खमए मदुरा तिरिक्खादं । ॥ विद्यया वा मन्त्रेण वा चूर्णेन वा योजितः संबन्धितः सन् कश्रिनात्मवशो नूयात् तत्रानुशासनेति । यथा रूपलब्ध्या विद्यादिप्रयोजितं तस्यानुशासनाऽपि क्रियते। तथा तपस्वी एप न वर्तते तासं प्रतीक एवं करणे हि प्रतापप संभव इत्यादि मानवता प्रति प्रतिविद्यया विद्वेषणमुत्पाद्यते । अथ सा नास्ति तादृशी प्र तिविद्याविपत्ति) शून्येऽसागारिकं विद्याप्रयोगत स्तस्य पुरत आलेखाप्यते । येन स तत् दृड्वा तस्याः सागारि कमिदमन मिति जानानां विद्यमुपपद्यते मनु पिक उपसर्ग (मग महरा इति) मथुरायां भ्रमणप्रति मानुष उपसभूतं निवारिताऽपि मानुष उपसा (तिरिक्त सिर्या ग्रामेयका आ वयका या भ्रमणादीनामुपकुर्वन्ति यचानिकर्त व्याः । सांप्रतमेनामेव गाथां विधरीपुरा । ) बिना अनि जोडियादिगदिए पा उवसग्गपन्त सासणाविहार-महुराखमकादि व वजेण || विद्यामन्त्रेण चूर्णेन या अनियोजित बोधिकाः स्तेना आदिश परिस्यां गृहीते या विद्यारियोजित - प्रागुकारेणानुशासन कियते तथा प्रतिविद्याप्रयोगतस्तं प्रति द्वेषापायते तस्यानाये पूर्वप्रकारेण लिखाकार्यतेोधिकाः क्षपकादिनेष बलेन यथा शक्तियधिक देर्निवारणं कर्तव्यं विद्याद्यनियोगःपादयति । विलाभिओगो पुण, प्रविशे माणुरिसतोय दिव्योप तं पुरण जाणंति कहं, जइ नाम गेरिहए तेसिं ॥ विद्यादिभिरनियोगोऽ नियुश्यमानता पुनर्द्विष कार स्तथा मानुषिको देय रात्र मनुष्येण कृतो मानुषिको देवस्था तेन कृतत्वादेवः तत्र देवकृतो विद्यादिभिरभियोग एप एक यत्तस्मिन् दूरस्थितेऽपि तत्प्रजावात्स तथारूप उन्मत्तो जायते । अथ तं विद्याभियोगं देवं मानुषिकं वा कथं जानन्ति सुर राह । तयोर्देवमनुष्ययोर्मध्ये यस्य नाम गृहातितः सवि याद्यनियोगो यः साम्यतमसासणाविदावनेत्येतद्यारूपानयति ॥ असासियम लिए विदेस देति तह वियतिते । क्खीएकोवीणं, तस्स न पुरओ लिहावेंति || येन सामान्यतः स्त्रिया पुरुषेण वा विद्याद्यनियोजितं तनुशासना कियते । अनुशासितेऽप्यतिष्ठति योग तिं साधुं प्रति तस्य विद्याद्यभियोर्विद्वेषं ददत्युत्पादयन्ति वरवृपनाः । तथापि च तस्मिन्नतिष्ठन्ति जदयाः शून्याः कीपनि तस्य पुरतो विद्याप्रयोगत लेखापयन्ति नसता तस्या इदं सागारिकमिति जानतो विरज्यते । सम्प्रति विद्याप्रयोग हादरताख्यापनार्थमाह । fare विसमेवे य, सहै अग्गिमग्गियो । मंतस्स परितो उ, दुज्जएस्स विवज्जरणा || विषस्योपधं विपमेय अन्यथा विपानिवृतेः पवमादयस्वीषधमनिः मन्त्रस्य प्रतिमन्त्री, दुर्जनस्यात श्रामनगरपरित्यागेन परित्यागः ततो विद्याभियोगसाधुसा ध्वीरaणार्थे प्रतिविद्यादिप्रयोक्तव्यमिति ॥ जति पुरण होज्ज गिलाणो, निरुञ्ऊमाणो ततो तिगिच्छं से । संवारयमसंवरिया हवालभते नितिं वसभा ॥ यदि पुनर्विद्याद्यभियोजितस्तदभिमुखं गच्छन् निरुध्यमानो सानो जयति ततः (से) तस्य साधोश्चिकित्सां संवृतां केनाऽप्यक्ष्यमाणां कुर्वन्ति । तथा असंवृताजाया विद्याद्यनियोजितं तस्याः प्रत्यक्कीभूय निशि रात्रौ तामुपालभन्ते । नेष्यन्ति च तातू यावत् सा मुञ्चतीति । "खमपमदुरत्ति" अस्य व्याख्यानमाह । भ्रममणं, बोदियहरणं च निपया जाय । मरणय कंदे, कयम्मि जुच्छेष मोति ।। मदुरा नपर जो देवनिम्ति महिमानमसीतो समणी हि समं निभाया तो राबतो व त्य भायातो तो ससमतीदिहि गहियात " Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसग्गपत्त अनिधानराजेन्द्रः। उवसम सेणे प्राणीया ते घोहितं साई बटुं अक्कंदो कतो तत्तो रायपुत्तेण सम्यगध्यास्ते चिन्तयति च न सम्यक अभ्यासिध्ये ततः कुत्र सादुणा जुई दाऊण मोश्यातो । अक्षरगमनिका स्वियं पश्य महे याम अवध्वंसो भविष्यति स्नुषाचारश्चापयास्यति देवरा अपि महोत्सवे श्रारिकाः श्रमणीभिः सह निर्गतास्तासां बोधिकैश्ची- चोल्लुए ज्वचमानि भाषन्ते यद्यपि तेषां सानोलजते तथाऽपिन रैईरणं नृपसुतश्च तत्रादरे अतापयति । बोधिकैश्च तास्तस्य तानुलुएनति किंतुसम्यक तद्ववचनान्यध्यास्ते दासा अपि तांस्नु मध्येन नीयन्ते । तानिश्च तं दृष्ट्वा आक्रम्दे कृते स युकेन स्तेने षामुजुषग्यान्त तथाऽपि किं किं तेषां वचनान्यहं गणयामीत्यज्यस्ता मोचयति । उक्तो मानुषिकः उपसर्गः संप्रति तैरश्चमाह। घगणनया सम्यगध्यास्ते न प्रतिवचनं ददाति । एतत्तव्यसहनं गामेणारण व, अभिनूयं संजयं तु तिरिएणं । यत्साधु-दशविधानप्युपसर्गान् कर्मविनिर्जरणार्थ सम्य गभ्यास्त एतदेवाह। बर्फ पकंपिया वा, रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा ।। सासुसमुरोवमा खयु, दिव्वादिपरोवमा य मणुस्सा । ग्रामेनारण्येन वा अभिनूतमापादितानिभवं संयतं च यदि वा लब्धं तद्भयात् स्तम्जीनुतं प्रकम्पितं वा तद्भयतः कथं क दासत्थाणीविरिया, तह सम्मसोहिया सोए। म्पमानशरीरं रकेत् । यदि पुनर्न रकति सत्यपि वझे ततोऽरक्षणे तथा वधूदृष्टान्तोक्तप्रकारेण श्वश्रूःश्वशुरोपमान् दिव्यान् उपप्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुका मासाः । व्य० प्र०२ उ०। सर्गान् देवरोपमान मानुषान् उपसर्मान् दासस्थानीयान् तेर वान् उपसान्सम्यगध्यास्ते। नवसग्गपरिणा-उपसर्गपरिका-स्त्री. “घमणजयणा य तेर्सि संप्रति उवि घेत्यस्य व्याख्यानार्थमाह । एत्तो वोच्छेय अहिगारो" तेषां उपसर्गशमदर्शितषोमशविधाना दुहा वेते समामेणं, सव्वे सामपकंटगा। मुपसर्गाणां यथा घटना सम्बन्धप्राप्तिः प्राप्तानां चाऽधिसहनं प्रतियातना भवति तथाऽत फर्कमध्ययनेन वक्ष्यत इत्ययमत्राधि विसयाणुलोमिया चेव, तहेव पडिलोमिया ॥ कार श्तीत्येवं बक्कणे सूत्रकृताङ्गस्य तृतीयेऽध्ययने, सूत्र०१ श्रु. अस्य वापते उपसर्गाश्रामण्यस्य कण्टका श्वश्रामण्यकण्टकाः २०१०। ( यथा तत्र दर्शितं तथा दर्शितमुवसम्गशब्ने)। सर्वे समासेन द्विधा प्रतिपादितास्तद्यथा विषयानुनोमिका इन्द्रिनवसग्गसह-उपसर्गसह- त्रि० दिव्याद्युपत्रवसोढर, "वोस:- यविषयानुनोमिका शन्जियविषयप्रतियोमिकास्तानेव दर्शयति । चत्तरेहो, उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पा" पंचा० १० विधा। वंदणसकारादी, अणुलोमा बंधवहणपडियोमा । [जिणकप्पशव्ये जिनकल्पिकस्य उपसर्गसहत्वं व्याख्यास्यामि | ते वि य खमता सव्वे, पत्थं रुक्खण दिलुतो॥ संप्रति ये व्युत्सृष्टग्रहणेनात्मसञ्चेतनीया गृहीतास्तानुपदर्शयति ।। वन्दनसत्कारादयोऽनुलोमाः बन्धवधप्रकृतयः प्रतियोमास्तामपि घट्टणपवम गथं नण, लेसण चहा नायवेसंया। सर्वान् क्षमते अत्र वृक्षण दृष्टान्तस्तमेवाह । ते पुण सबिवयंती, चोसट्ठदारे न इहं तु ॥ बासीचंदणकप्पे, जह रुक्खाइ य सुहउहसमो उ । चतुर्भिरात्मना सचिन्त्यन्ते ये ते इत्यात्मसंचेत्यास्तद्यथा घट्ट। रागद्देसविमुत्तो, सहई अणुलोमपडिलोमा । नतः प्रपतनतस्तम्जनतः श्लेष्मतश्च । तत्र घट्टनतो यथा चक्षुषि घासीचन्दनकल्पो यस्य स वासीचन्दनकल्पोऽथवा कल्परजःप्रविधं तेन च चतुर्दुःखटितुमारब्धमथवा स्वयमेव चनुषि स्तुल्यवाची ततोऽयमों वास्यां वास्यालक्षणे चन्दनेनानुलेपगलके वा किञ्चिानु खीमप्रभृति समुत्थितं घट्टयति । प्रपतनतो नेन कल्पस्तुल्यो वासीचन्दनकल्पो यथा वृक्को भवति इस्येषयथा मन्दप्रयत्नेन चङ्कम्यमाणप्रतिपततो दुःखाप्यते स्तम्भनेन ममुना प्रकारेण रागद्वेषविमुक्तोऽत एव सुखदुःखसमोऽनुलोयथा तावउपविष्ट प्रास्ते यावत्पादसुप्तस्तब्धो जातः श्लेषणतो | मप्रतिलोमान् उपसर्गान् सम्यक् सहते ॥ व्य०वि०७०। यथा पादं तावदाकुच्यावस्थितो यावत्तत्र वातेन अग्नः अथवा | नवसग्गानिलंजण-उपसर्गाजियोजन-न उपसर्गा दिव्यादनृत्तं शिक्कयामीति किंचिदनमप्यतिशयेन नामितं तच सत्रैव यस्तरभियोजनम् उपसर्गाभियोजनम् । अभिभषकायोत्सर्ग, सग्नमिति ते पुनरात्मसंचेतनीया व्युत्कृष्टद्वारे निपतन्ति नह दिव्याघभिभूत एव महामुनिस्तदेवायं करोतीति उदयम् । "ते उप्पो सम्म, सहन्ति, स्वम त्ति, सिक्खइ, अहियासे" | उपसर्गाणामभियोजनम् । सोढव्या भयोपसर्गास्तद्भयं न कार्यइति चत्वार्यप्येकार्थिकानि पदानि । तत्र सम्यक् सहनमाह ।। मित्येवंभूते कायोरलगें, 'उवसग्गामिउंजणे वीओ आव०५०। मणवयणकायजोगेहि, तहि न दिवमादिए तिथि। नवसजण-उपसर्जन-न० उप० सृज. ल्युट । देवाघुपद्रवे, सम्म अहियासेइ, तत्थ उ सुएहा पदिलुतो । घाच० । अप्रधानभूत गौणे विशेषणे, विशे। त्रिमिनोचाकाययोगैः प्रत्येक दिव्यादीन् त्रीनपसर्गान् प्रत्येक | नवसत्त-नपसक्त-त्रि विशेषेण सक्तिमति, उत्त० ३२ अ०। चतुर्भेदान् सम्यगध्यास्ते सहते तत्र सहनं द्विधा व्यतो भावतश्च तत्र सन्यस्य हाने स्नुषाद्या दृधान्तस्तमेवाह । उवसह-उपशब्द-न० सुरतावस्थायां वलवलायमानादिषु,तं० सासूसमुकोसोदेवर-लत्तारमादिमज्झिमगा। उवसम-नपशम-पुं० सपशान्तिरुपशमः । श्रा० । अपराधवि धायिन्यपि कोपपरिवर्जने, स च कस्यचित्कषायपरिणतेः कदोसादी य जहया, जह सुएहा सहियनवसग्गा ॥ टुकफलावलोकनाद्भवति । कस्यचिरपुनः प्रकृत्यैवेति । प्रव. श्वशुरः श्वश्रूश्चैताबुत्कृष्टी पूज्यत्वादेवरजर्तृका मध्यमा दोसो १४८ द्वा० । आचा। संस्था० । क्रोधादिनिग्रहे,प्रा०म०वि०। अघन्या यथा सत्कृता उपसर्गाः स्नुषायाः सोढास्तथा साधुनाऽपि "उषसमेणहणे कोहं" उपशमेम क्षान्तिरूपेण ९० ८ ०। सोढन्याश्यमत्र साधना स्नुषया अपराधे कृते तां श्वशुरः श्व- श्राचा माध्यस्थ्यपरिणमे, श्राव०६अ। शान्तावस्थाने, अश्व हीलयति सा च हील्यमाना अतीव लञ्जते यद्याप तानि श्राष०१०। इन्द्रियोपशमरूपेरागद्वेषाभाघजनिते (सूम०२ दुःखोरपादनानि पचनानि दुरध्यास्यानि तथाऽपि सा तानि । श्रु०१ १०)शमे, प्राचा० । स च द्वेधा द्रव्यभावभेदात्तत्र Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०५६) नवसम अभिधानराजेन्द्रः । जवसमग कम्योपशमः कतकपालापाद्यादितः कलुषजलादेः भावोपश- यस्तु सत्कर्मापि नवेदयतीति कयोपशमोपशमयोर्विशेष इति । मस्तु ज्ञानादित्रयात् । तत्र यो येन ज्ञानेनोपशाम्यति स कानो- विशे०पं०सं० उपशान्तकषायवीतरागछमस्थगुणस्थापने,प्रध० पशमस्तद्यथा केपण्याचन्यतरया धर्मकथया कश्चिदुपशाम्य- २२४ द्वारा उपशमश्रेणी,कल्पग पञ्चदशे दिवसे,चं०१०पाहु । तीत्यादि, दर्शनोपशमस्तु यो रिशुद्धेन सम्यग्दर्शनेनापरमुप- जो । जं०। साविंशतितमे मुहूर्ते, ०७ धक० । जो०। शमयति यथा श्रेणिकेनाश्रद्दधानो देवः प्रतिबोधित इति दर्श- कल्प० । तृष्णानाशे, रोगोपद्रवशान्तौ निवृत्तौ च । चाच. । . मप्रभावकैर्वा सम्मत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति । चारित्रोपश-| उवसमग-उपशमक-पुं० उपशमधेण्यन्तर्गतेवपूर्वकरणादिषु, मस्तु कोधायुपशमो विनयनम्रतेति।। उपशान्तमोहान्तेषु, उपशमश्रेण्या रुदेषु अपूर्वकरणानिवृत्तिपावाणमुवलब्भ हेच्चा उवसमं फारुसियं समा दयति । बादरसूक्ष्मसंपरायेषु, पं० सं०२ द्वा० । स० ।। स्यक्त्योपशमं तत्र केचन शुषका ज्ञानोदन्यतोऽद्याप्युपर्येवप्लवमा | उवसमण-उपशमन-न० उप शम भावे-ल्युट-उपशमाथे, "उबमास्तमेवम्नूतमुपशमं त्यक्त्वा ज्ञानसंवोत्तमिजतगर्वा माताः पौ. "समणाए अहिगरणस्सअम्भुका एवं भवति" स्था०८ ठा। कम्य परुषतां समाददति गृहन्ति तद्यथा परस्परगुणनिकायां उपसमणा-उपशमना-स्त्री० उदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरमीमांसायां वा एकोऽपरमाद त्वन्न जानीष न चैषां शब्दानामय- णायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते कर्म यया सा उपशमना । क०प्र०॥ मर्थो यो भवताभाणि । अपि च कश्चिदेव मारशः शम्नार्थनिर्ण पं०सं०। उदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्यत्वेनफगाया न सर्व इत्युक्तं च पृष्टा गुरवः स्वयमाप परीक्तिं नि- मणोऽस्थापने, उक्तं च " उवट्टणशोवट्टणसंकमणा च तत्थ चितं पुनरिदं न वादिनि च मल्लमुख्येच मारगेवाऽन्यतरं गच्छेत् करणाईति" अष्टानां करणानां षष्ठं करणमेतत् । स्था०४ठा० द्वितीयस्त्वाह नन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीत्युक्ते पुनराह २ उ०संप्रति उपशमनाप्रतिपादनार्थमाह । अवसरस्तत्र चैतेऽ सोऽपि वा कुण्ठो बुकिविकनः किंजानीते त्वमपि च शुकवत्पा- धिकाराःतद्यथा प्रथमं सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा, सर्वविरतिलाठितः निरूहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि दुर्थहीतकतिचिदक्करो भप्ररूपणा, अनन्तानुबन्धिविसंयोजना, दर्शनमोहनीयकपणा, महोपशमकारणं ज्ञानं विपरीततामापादयन् स्वोरुत्यमावि - दर्शनमोहनीयोपशमना, चारित्रमोहनीयोपशमना पुनः सप्रभेवयन भाषते सक्तञ्च अन्यस्वेच्चारचितानर्थविशेषान् श्रमेणा | देति। तत्र वेदमुपशान्तमुपशमनाकरणम् प्रभेदं सर्वात्मना ध्याहाय कृत्स्नं पाहायमित ति स्वादत्यङ्गानि दर्पण क्रीमतकमी- ख्यातुमशक्यं ततो यत्रांशे व्याख्यातुमात्मनोऽशक्तिस्तत्रांशे तकेश्वराणां कुक्कटवावकसमानवद्वभ्यः शास्त्राण्यपि हास्यका तुश्रोतृणामाचार्यो नमस्कारं चिकीर्षुराह । सघुतां वा जुलको नयतीत्यादि पागन्तरं वा "हेच्चा नवसमं करणकया अकरणकया, चउब्धि हाउवसमणा विईयाए । च एगे फारुसियं समारुहंति" त्यवत्योपशमथानन्तरं बहुश्रुतीलता अकरणअणुइनाए, अणुओगधरे पणिवयामि ॥ ३१४॥ एके न सर्वे परुषतामासम्बते ततश्वासप्ताः शब्दिता वा तूष्णीं इह द्विविधा उपशमना करणकृता अकरणकृता च तत्र करणं. भावं भजन्ते हुंकारशिरःकम्पनादिना वा प्रतिवचनं ददति क्रिया यथा प्रवृत्तिपूर्वकनिवृत्तिकरणसाध्यक्रिया विशेषः तेन १७६१०४० (कनहोपशमे गुणा अहिगरणशब्दे सक्ताः) कृता करणकृता तद्विपरीता अकरणकृता च या संसारिणां जीविष्कम्भितोदयत्वे, उत्त० १ अ०। विपाकोदयविष्कम्भे, न०। वानां गिरिनदीपाषाणवृत्ततादिभिःसंनववत् प्रवृत्तादिकरण कि" उदयविधाय उवसमा " अनुदितस्योदयविधाने, विशे० । याविशेषमन्तरेणापि वेदनानुनवनादिभिः कारणरुपशमनोपजामोहनीयकर्मणोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नस्योपमणिप्रतिपन्न यते सा अकरणकृतेत्यर्थः । इदं च करणकृताकरणकृतत्वरूपं स्य मोहनीयभेदाननन्तानुबन्ध्यादीनुपशमयति (इति ) उद दैविध्यं देशोपशमनाया एव अष्टव्यं न सर्वोपशमानुकरणकृताबनावे, स्था० ६ ठा० ॥ मिथ्यात्वमोहनीये कर्मणि, उदीयें, या वेति। अस्याश्चाकरणकृतोपशमनाया नामधेयन्वयं तद्यथा अकीणे , 'शेषस्यानुदयापादने , विशे० । कयोपशमादे करणोपशमना अकृतोपशमना च तस्याश्च संप्रत्यनुयोगो व्यवदः । अथ प्रेरको नणति ननु कयोपशमोपशमयोः का चिन्नस्तत प्राचार्यः स्वयं तस्यानुयोगमजानानस्तद्वेदिनृणां किन्न विशेषः । सूरिराह मनु नदीर्ण उदयप्राप्ते कर्मणि विशिष्टमतिप्रनाकरिकचतुर्दशवेदिनां नमस्कारमाह । ( विकीणे शेषे चानुदाणे उपशान्ते सति वयोपशमोनिधीयत ईयाए इत्यादि ) द्वितीया प्रकरणकृता तृतीयाया उपशमनाया इति । प्रेरकः प्राह। एव अष्टव्यं न सर्वोपशमनानुकरणकृतेवेति । अस्याश्चाकरणसो चेव नवसमा, उदए खोणम्मि सेसए समिए । कृतोपशमनाया अनुयोगधरान् प्रणिपतामि तेषु प्रतिपातं करोमि गुडमोदयता मीसे, ननृपसमिए विसेसो यं ॥ तस्मादिह करणकृतोपशमनाया अधिकारः साऽपि च द्विधा मनूपशमोऽप्ययमेव यः किमित्याह। यः उदिते कणिक्षीणोड क्रियद्वैविध्यमेवाद।। नुदितेऽनुपशान्तो भवति अत्रोत्तरमाह । ननु मिथे क्योपशमे सव्वस्स य देसस्स य, करणमुक्समनदुन्नि एकेका । सूत्रमादयता अस्ति प्रदेशोदयेन सत्कर्मवेदनमस्तीत्यर्थः । उप- सबस्स गुणपसत्था, देसस्स वि तासि विवरीआ|३१५१ शमिते तुकर्माण तदपि नास्तीत्ययमनयोर्विशेष इति एतदेवाह । साकरणकृतोपशमना द्विविधा सर्वस्य विषये वेशस्य विषये च एइ संतकम्म, खोवसामएसु नावाजावं सो। सर्वविषया देशविषया चेत्यर्थः । एकैकस्याश्च वे वे नामधेये जवसंतकमाओ पुण, वेएइ न संतकम्मा पि ॥ तयथा सर्वस्योपशमनाया गुणोपशमना प्रशस्तविहायागतिशमकयोपशमावस्थाकषायवान जीवः क्षयोपशमिकेच्वनन्तानु मना च । क०प्र० । बन्ध्यादिषु तत्संबन्धे सत्कर्मानुभवति प्रदेशकर्म वेदयति न देसुगसमा सम्वाण, दोइ सम्वोवसामणा मोहो। पुनानुभावं विपाकनस्तु तान्न वेदयतीत्यर्थः । उपशान्तकषा-। अपसत्यपसत्था जा, करणावममणाए अहिगारो॥ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवसमा अन्निधानराजेन्द्रः। उवसममा इह विधा उपशमना तद्यथा देशोपशमना साँपशमना च ।। टीप्रमाणां कृत्वा अशुभानां कर्मणामनुभागं चतुःस्थानकं हितत्र देशोपशमना सर्वेषामपि कर्मणां प्रचति । सर्वोपशमना तु स्थानकं करोति शुभानां च कर्मणां द्विस्थानकं सततं चतु:मोहे मोहनीयस्यैव देशोपशमनायाश्चामून्ये कार्थिकानि तद्यथा स्थानकं करोति भवतया प्रकृतीः पञ्चविधानावरणनविध देशोपशमना अनुदयोषामैना अगुणोपशमना अप्रास्तोपशप- दर्शनावरणमिथ्यात्वषोमशकषायन्नयजगुप्सातजसकार्मणवर्णनाच । सर्वोपडामनायास्त्वमूनि तद्यथा सर्वोपशमना नदयोप गन्धरसस्पर्शाःगुरुलघूपधातिनिर्माणपञ्चविधान्तरायरूपाः सप्तशमना गुणोपशमना प्रशस्तोपशमना च। तत्र देशोपशमना द्वि- चत्वारिंशत्संख्या बनन परावर्तमानाः स्वस्वभावप्रायोग्याः धा कारणकृता कारणरहिता च । सर्वोपशमना तु कारणकृतैय प्रकृतीः शुन्ना एवं यनाति ता अप्यायुर्वजाः प्रतीष विकिपरिकारणानि यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिसंझानि ते: कता तद्विपरी- णामो हि नायुबन्धमारभत इति कृत्वा तम्जन नवप्रायोग्या इति सा कारणरहिता या संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणवृत्तता वचनाचतदवगन्तव्यम् । यदुत तिर्यअनुष्यो वा प्रथमसम्यदिसम्भवयन् यथाप्रवृत्तादिकारणासाध्यक्रियाविशेषमन्तरेणापि क्यमुत्पादयन् देवगतिप्रायोग्या शुभाः प्रकृतीदेवगतिदेवानुपचंदनानुनयनादिनिः कारणरुपजायते । तस्याश्च संप्रत्यनुयोगव्य बीपञ्चेम्झियजातिक्रियशरीरवैप्रियाङ्गोपाङ्गसमचतुरस्रसंस्थावच्छित्तिस्ते द्वे नृणामनावात् ततोऽप्रशस्ता च या करणोपशमना नपराघातांच्वासप्रशस्तविहायोगातंत्रसाददशकसातवेदनीयोसयोराधिकारः प्रथमतः सर्वोपशमनावाच्या तत्र चैतेऽर्थाधिका- चैर्गोत्ररूपा एकविंशतिसंख्या बध्नाति देवो नेरयिको वाप्रथमरास्तयथा सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा देशविरतिमानप्ररूपणा सर्व- समये सम्यक्त्वमुत्पादयन् मनुजगती प्रायोग्या मनुजगतिमविरतिमानमरूपणा अनन्तानुबन्धे विसंयोजना दर्शनमोहनीयक नुजानुपूर्वीपञ्चन्द्रियजातिसमचतुरस्रसंस्थानप्रथमसंहननादारिपणा दर्शनमोहनीयोपशमनाचारित्रमोहनीयोपशमाचा पं०सं०। कशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गपराघातोच्चासप्रशस्तविहायोगतित्रतत्रादौ सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणार्थमाद । सादिवशकसातवेदनियाच्चैगोत्ररूपा द्वाविंशतिसंख्या न बध्नाति केवझं यदि सप्तमनरकपृथ्वीनारकःप्रथमस्य सम्यक्त्वमुत्पादयसव्वुवसमणा मोहस्सेव, तस्स सवसमकियाजोग्गो। ति ततः तिर्यम्गतितिर्यगानुपूर्वीनीचैगोत्राणि वक्तव्यानि शेष पंचिंदियोवसना, पज्जतो बहितिगजुत्तो ।। ३१६ ॥ तदेव तथा बध्यमानप्रकृतीनां स्थिति बध्नाति अन्तः सागरोप मकोटाकोटीप्रमाणामेव नाधिका योगवशाच प्रदेशाग्रमुत्कृष्टमपुच्च पि विसुऊतो, गठिअसत्ताण इक्कामय सोहि। ध्यमजघन्यं च बध्नाति तथा हि जघन्ययोगे वर्तमानो जघन्य अनयरे सागारो, जोगे य विसुषिोसासु ॥ ३१७॥ प्रदेशाग्रं बन्धाति मध्यमे मध्यममुत्कृष्ट तूत्कृष्टमिति । स्थितिठिइनत्तकम्म प्रत्तो, कोड कोमी करेत्तु सत्तएहं । बन्धेऽपि चूर्णे सत्यन्यं स्थितिबन्धं प्राक्तनस्थितिबन्धापेक्तया पल्यापमं संख्येयनागन्यूनं करोति तस्मिन्नपि च परिपूर्ण सति प्रदुट्ठाणचउठाणे, असुभसुभाणं च अगुजार्ग ।। ३१७ ।। न्य स्थितिबन्धं पल्पोपमासंख्येयनागन्यूनं करोति एवमन्यमन्य बंधतो धुवपगडी, भवपाउग्गा सुना अणायो य । स्थितिबन्धपूर्वपूर्वापेक्वया पक्ष्योपमासंख्येयनागन्यनं करोति प्रश भानां च प्रकृतीनां बध्यमानानामनुनागं द्विकस्थानकं बध्नाति तजोगवसायएसंको, नकोसं मज्झिमजहए ॥ ३१ ॥ मपि प्रतिसमयमनन्तगुणहीनं शुकानां चतुःस्थानकं यनाति तमविई य बंधवचा पूरे, नवबंधपसंखनागूणं । पि प्रतिसमयमनन्तगुणवछिमेवमसौ कुर्वन् कि करोति इत्यत पाह । करणमित्यादि) करणं यथाप्रवृत्तं करोति ततोऽनिवृअसुजाणमुनाणुभागं अणंतगुणहाणिवीहिं । १२० । त्तिकरणमिति परिणामविशेषकरणं “परिणामोत्तेत्ति" वचनकरणं अहापवत्तं, अपुधकरणमनियट्टिकरणं च । प्रामाण्यात् एतानि च त्रीण्यपि करणानि च प्रत्येकमन्तमौदत्तिअंतोमहत्तयाई, नवसंतकं चनहिं कमेण । ३२१।। कानि सर्वेषामपि करणानां कालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्ततोऽनेन क्रमेण चतुर्थीमुपशान्ताहालनते साऽपि चान्तर्मुहुर्तिकी । क०प्र० इह सर्वोपशमना मोहस्यैव मोहनीयस्यैव शेषाणां तु कर्मणां सम्प्रति करणानामेव स्वरूपमाविश्चिकीर्षुराह॥ देशोपशमना तत्र तस्य मोहनीयस्य सर्वोपशमना क्रियायोग्यः पञ्चेन्डियः संही सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्त इत्येवं अधित्रिक- प्राइवेसुं दोमुं, जहन्न उक्कोसिया नवे सोही । युक्तः पञ्चयित्वसंशित्वपर्याप्तित्वरूपानिस्तिमृभिः सन्धिनियु- जो पइसमयं अफव-साया रांगा असंखेज्जा । क्तः अथवा उपशम अम्ध्युपशमणिश्रवण अधिकरणत्रयहेतुप्र- आद्ययोर्द्वयोः करणयोर्यथाप्रवृत्तिनिवृत्त्याख्ययोजघन्या उत्कृष्टा कृएयोगलब्धिरूपत्रिकयुक्तः करणकासात् पूर्वमाप अन्तर्मुदत. च शुकिर्जवति यतो यस्मादाद्यद्वयोः करणयोः प्रतिसमयमध्यकानं यावत् प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्यादिनिर्विशुध्यमानोऽवदा- वसाया विशोधिरूपा नानाजीवापेक्या असंख्येयत्रोकाकाशप्रदयमानचित्तसन्ततिः अन्धकसत्वानाभव्यसिकानां वा विशो- शप्रमाणास्ततः श्राद्ययोद्वयोः करणयोः प्रतिसमयं जघन्या उत्कृ. धिस्तामतिक्रम्य वर्तमानः ततोऽनन्तगुणविशुरू इत्यर्थः । तथा टा च विशोधिर्भवति। ताश्च विशोधय एवम् । तथा प्रथमसमये अन्यतरस्मिन् मतिश्रुतज्ञानावरणविभङ्गझानानामन्यतस्मिन् सा- विशोधयो नानाजीवापेकया भसंख्येयत्रोकाकाशप्रदेशप्रमाणाकारे साकारोपयोगे वाऽन्यतरस्मिन् मनोयोगे घाग्योगे काययोगे स्ततो द्वितीयसमये विशेषाधिकास्ततोऽपि तृतीये समये विशेवा वर्तमानस्तिसृणां विशुद्धानां वेश्यानामन्यतमस्यां वेश्यायां पाधिका एवं तावद्वाच्यं यावच्चरमसमय एवमपूर्वकरणेऽपि जघन्येन तेजोलेश्यायां मध्यम परिणामेन पाश्यायामुत्कएप. अष्टव्यमेते च बिशोध्यध्यवसाया यथाप्रकृत्तापूर्वकरणयासंबरिणामेन शुक्ललेइयायां वर्तमानो जघन्येन तेजोवेश्या तया | धिनः स्थाप्यमाना विषमचतुरस्रं वेत्रमावृगवते तयोरुपरि चामायुर्वजानां सप्तानां कर्मणां स्थिनिवन्तः सागगेपमकोटाको निवृनिकरणाध्यवसाया मुनावत्रीसस्थिता स्थपना । Jain Education Interational Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसमा अभिधानराजेन्डः । नवसमणा २००००००००००००००११ ७००००००००००००० १०००००००००००१८ ४०००००००००--पूर्वकरण ३००००००००१४ २०००००००१५ १००००० ०००७ .०५ पतदेवाह। पइसमयमणतगुणा, सोही उड्डामुही तिरिट्टा उ । छेदाणि य जीवाणं, तइए उामुहा उक्का ॥ प्रयाणामपिकरणानां प्रतिसयमूहमुस्खा सिकिरनन्तगुणा वेदितव्या तद्यथा प्रथमसमयगुरपेकया द्वितीयसमये शुद्धिरनन्तगु णाततोऽपितृतीयसमये अनन्तगुणा पवं यावदभिवृत्तिकरणचरम समय आद्यध्योः शुष्योः करणयास्तयङ्मुखा शुरुः षट्स्थाना पदस्थानपतिता तद्यथा प्रथमसमग्रगता शुद्धिः पदस्थानविशिटा द्वितीयस्थानगता विशिष्टा एवं यावदपूर्वकरणचरमसमयः तृतीयविनिवृशिकरणे प्रतिसमयं सकसजीवापेकयाऽप्येकमेवाभ्यवसायस्थानम् । तथाहि अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये वर्तन्ते ये व प्रवृत्ताः ये च पर्तिध्यन्ते तेषां सर्वेषामप्येकमेवाध्यवसायस्थामें द्वितीयसमयेऽपि वर्तन्ते ये च प्रवृत्ता ये च वर्तिष्यन्ते तेषामवि सर्वेषामेकमेवाभ्यवसायस्थानं केवलं प्रथमसमयनाविविशोधिस्थानापकया अनन्तगुणविशुष्म एवं तावहाच्यं यावत्तस्यानिवृत्तिकरणस्य च सरमसमयस्ततस्तृतीये करणे पकैकशोधिरूबमुखरुपा म द्वितीया तिर्यमुखा तत्र यया प्रवृत्तिकरण एव । विशोधिविधितारतम्यमुपदर्शयन्नाह ॥ गंतुं संखेज्जसं, अहापवत्तस्स हीण जा सोही। तोए य पढमसमये, अनंतगुणिया उ उक्कोसा ।। यया प्रवृत्तिकरणस्य संख्येयं भार्ग गत्वाऽन्तरसमये या जघन्या हाकिस्तस्याः सकाशात् प्रथमे समये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा । इयमत्र भाधना यथाप्रवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये या मर्षजघन्या पिशोधिः सा सर्वस्तोका ततो द्वितीये समये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा एवं तावद्वाच्यं यावत् यथाप्रवृत्तिकरणस्य संख्येयो नागो गतो भवति ततः प्रथमसमये उत्कृष्टा विशोधिरमम्तगुणा ततो यतो जघन्यस्यानानिवत्तस्तस्योपरितना जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि द्वितीयसमये नस्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा तत उपरि जघन्या विशोधिरनन्तगुणा एवमुपयधश्च पफैका विशोधिरनम्तगुणा तावद्वाच्या यावच्चरमसमये जघन्या विशोधिः । तथा चाई। एवं एकतरिया, हेवरि जाव हीएपज्जते । तत्तो नकोसाओ, उपस्किरि होयणंतगुणा ॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण संख्येय नागात्परत आरभ्य अध उपरि च एकान्तरिता विशांधिरनन्तगुणा तावद्वान्या यावकीनपर्यन्ता जघन्यविशोधिपर्यवसानं पस्योपमसंख्येयभागमात्राश्चोकृष्टा वि शुरुयोऽद्याप्यनुत्तराः सन्ति ततस्ता उपरि उपरि अनन्तगुणा वक्तव्याः तदेवमुक्तं यथाप्रवृत्तिकरणम् । संप्रत्यपूर्वकरणस्य स्वरूपमाविश्चिकीर्षुराह । जा नकोसा पढ़म, तीमेणं ता जहन्निया वाए । करणातीए जेहा, एवं जा सब्दकरणं पि॥ प्रथमे यथाप्रवृत्तकरणे चरमसमये या उत्कृष्टश विशोधिस्तस्याः सकाशात् द्वितीय पूर्वाख्ये करणे प्रथमे समय जघन्या विशोधिरनन्तगुणा तस्या अपि सकाशात प्रथमसमये एव ज्येष्ठा सत्कटश विशोधिरनन्तगुणा ततो द्वितीये समये जघन्या विशोधिरनन्सगुणा । ततोऽपि तस्मिन्नेव तृतीये समये उत्कृष्टा विशोधिरनम्तगुणा । ततोऽपि द्वितीये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा । ततो ऽपि तस्मिन्नेष तृतीये समये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा । एवं प्रतिसमयं तावद्वाच्यं यावत्सकसमपि करणं परिसमाप्यते। अपुग्धकरणसमयं, कुणइ अपुव्वे इमे च चत्तारि। ठिघायं रसघायं, गुणसेढी बंधगछाय।। अपूर्वकरणेन समकं तस्मिन्नेव समये अपूर्वकरणे प्रधिशात तस्मादेव समयादारज्येत्यर्थः । इमान्वक्ष्यमारणांश्चतुरः पदार्थान अपूर्वान् करोति अतीते काझे न कदाचनापि पूर्व कृताः । ततो न वा स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणिबहकाउं च । तत्र प्रथमतः स्थितिवतः स्वरूपव्यावर्णनायाह । उकोसेणं बहुमा-गराणि इयरेण पक्षसंखेयं । ठिय अग्गाग्रो घायइ, अंतमुटुतेग ठिइखडं ।। स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमन्नागादुत्कर्षेण प्रनूतानि सागरोपमाणि प्रतूतसागरोपमप्रमाणमितरेण जघन्येन पल्योपमासंख्येयानागमा पत्रिखएममन्तर्मुहर्तेन कालेन घातयति घातयित्वाच दलिकं याः स्थितीरधो न खण्डयिष्यति तत्र प्रतिपति ततःपुनरापिअधस्तातु पल्योपमासंख्येयनागमात्रस्थितिखएकमन्तर्मुहूर्तेन फालेन घातयन् प्रागुक्तप्रकारेणैव च निक्षिपति एवमपूर्वकरणासायाः प्रसूतानि स्थितिखएमसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति तथा च सति अपूर्वकरणस्य प्रथमे समये यत् स्थितिसत्कासीत् तत्तस्यैव चरमसमये संख्येयगुणहीनं जातं तदेवमुक्तः स्थितिघातः । संप्रति रसघातप्रतिपादनार्थमाह । असुभाणं तं मुहुत्तेण, हणइ रसं कंडगं अणंतंसं | करण ठिइखंडाणं, तम्मिन रसकंडगसहस्सा ।। स्थितिखरामानां करणे उत्किरणे प्रवृत्तः सन् अशुना वा प्रकृतीनां रसकएमकमनुभागकएमकमनन्तानन्तचिन्नागात्मकमन्तर्मुर्तेन विनाशयति किमुक्तं नवति अशुनप्रकृतीनां यत् अनुजागसत्कर्म तस्यानन्तानुभागान् मुक्त्वा शेषान् अनुनागनागान् सर्वानप्यन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति ततः पुनराप तस्य प्रागुक्तस्यानन्ततमस्य नागस्यानन्ततमं मागं मुक्त्वा शेषान् अनुभागनागान् सर्वानन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति एवमनेकानि अनुनागखण्डसहस्राणि एकैककस्मिन् स्थितिखएमे व्यतिकामन्ति तथा चाह (तम्मि उ रसकंगसहस्सा ) तस्मिन् स्थितिखएके एकैकस्मिन् रसकएमगसहस्राणि गच्छन्ति स्थितिस्त्रएमानां च सहस्रैरपूर्वकरणे परिसमाप्यते तदेवमुक्तो रसघातः। सम्प्रति गुणणेणिमाइ । घाइयहिदलियघेत्तुं, घेत्तुं असंखगुणणाए । साहियदुकरणकानं, उदयाओ एइ गुणसदि ।। घातितायाः स्थितिः शुभध्यानदानकं गृहीत्वा उदयसमयादारभ्य प्रतिसमयमसंख्येयगुणवुद्ध्या क्पयति तद्यथा उदयसमये स्तो कं द्वितीयसमये असंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीये समये असंख्येयगुणम् । पर्व नात्रवनव्यं यावत्साधिककरणद्वय कानो मनाक Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५९) नवसमाणा अभिधानराजेन्द्रः। नवसमणा समधिका अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणकाससमया एष प्रथमसम- सिकं कर्म परमाद्यात्मकं गृहीत्वा गृहीत्वा प्रथमास्थती प्रतिपति यगृहीतदसिकनिक्षेपविधिः एवं द्वितीयादिसमये गृहीतानाम- | तथा उपरितन्यां द्वितीयस्थितौ च एवं च प्रतिसमयं तावत्प्रक्तिपि दासकाना निक्केपविधिष्टव्यः । अन्यच्च गुणश्रेणिरचनार्थ पति यावदन्तरकरणद लिकं सकलमपि कीयते अन्तर्मुहर्तेन च प्रथमसमये यत् दलिकं गृह्यते ततः स्तोकं ततोऽपि द्वितीय- कालेन सकलदक्षिकक्कयः। समये असंख्ययगुणं ततोऽपि तृतीये समये असंख्येयगुणमेवं इगदुगावलिसेसा, नत्यि पढ़माए उदीरणागालो । तावद्वक्तव्यं यावद्गुणश्रेणिकरणचरमसमयः । अपूर्वकरणानिवृ. पढमठिए उदीरण, वियाउए भागालो। तिकरणसमयेषु वा उन्नयतः क्रमशः तीयमाणषु गुणश्रेणिदलि. कनिकेपः शेषे भवति उपरि च न घळते । इह प्रथमस्थिती वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण यत् प्रथमस्थिते रेव दक्षिकं समाकृष्योदयसमये प्रतिपति सा उदीरणा । यत करणाई अप्पुट्ठो, जो बंधो सो न होई जो । पुनः द्वितीयस्थितेः सकाशात् उदीरणाप्रयोगेण समाकृष्योदभस्मो बधगउका, सा उद्विमा जहिगाए । ये प्रतिपति सभागान इति । उदीरणायाः एव विशेषप्रतिपअपूर्वकरणस्यादौ प्रथमसमये यो बन्धःप्रारम्धसंबन्धकासा - स्यर्थमिदं द्वितीयं नाम पूर्वसरिनिरावेदितम् । उदीरणायां च च्यते कियन्तं कालं यावत् स प्रारब्धांशो बन्धो बन्धकाका उच्य | प्रथमस्थितिमनुन्नवन तावतो यावदावल्लिकाद्विकं शेषं तिष्ठति ते अत आह यावदभव्यो बन्धो न भवति न प्रारज्यते स प्रार- तस्मिश्च स्थितेः आगासो न नवति किं तु फेवा उदीरणव । न्धो बन्धो यावन्न समाप्ति यातीत्यर्थः । सा च बन्धकाला स्थि- असावप्युदीरणा तावत् प्रवर्तते यावदावलिका शेषा न भवति तिकण्डकध्या स्थितिः घातकासे तुल्या श्दसक्तं भवति स्थिति- श्रावलिकायां शेषीचूतायामुदीरणा विनिवर्तते ततः केवोन नघातस्थितिबन्धौ युगपदारज्येते युगपदेव च निष्ठां यात शति । वोदयेन पावलिकामनुभवति । अक्षरयोजना त्वेवम् । एकस्यामाजा करणाइए वि-करणं तेतीए होइ संखंसो। वनिकाशेषायां प्रथमस्थितौ यथासंख्यमुदीरणागासो ननवति। अनियट्ठीकरणमओ, मुत्तावलिसंठियं कुणा प्रथमंस्थितेश्च सकाशात् यदि च आगच्छति सा उदारणा अपूर्वकरणस्यादौ प्रथमसमये या स्थितिः सा स्थितिघात हितीयायाश्च स्थितेः सकाशाद्यद्यागच्छति स आगान ति॥ सहस्रः खएिकता सती करणान्ते अपूर्वकरणस्य चरमसमये सं. आवलिमेत्तं उदये-ण चेइन गइ नवसमहाए । ख्येयांशो जवति संख्येयभागमात्रा नवति संख्येयगुणाहीना भ उपसमियं तत्थ प्रवे, सम्मत्तं मंग्वुवीयं जं ॥ बतीत्यर्थः । एतच्च प्रागपि प्रस्तावामुक्तं तदेवमुक्तमपूर्वकरणम्। तत आवलिकामा प्रथमस्थितिसत्कं केवलेमैवोदयेन घेदसंप्रत्यनिवृत्यकरणप्रतिपादनार्थमाह "अनियट्टीत्यादि" अन्तोऽपू. यित्वा अनुभूय उपशमाद्धायां तिष्ठति उपशमादायां प्रविशति वंकरणं तदूर्डमनिवृत्ति करोत्यारभते तच्च कथं नूतमित्याह मुक्ता- तस्यां चोपशमाद्धायां स्थितस्य सतः प्रथमसमये एवौपशमिवलीसंस्थितमनिवृत्तिकरणे हि अध्यवसायस्थानानि मुक्तावली- कसम्यक्त्वं भवति तच मोक्तस्याभावात् । संस्थितानि भवन्ति एतच्च प्रागेवोक्तं तत पतदपि अनिवृत्तिक- उपरिमविइ अणुनागं, तंति ता कुणचरमिमच्छदए। रणमनेदात् मुक्तावलीसंस्थितमित्युक्तम् ॥ देसघाएण सम्म, इयरेणं मित्यमीसा ।। एवमनियट्टिकरणे, ठिइघाईणि होति चउरो वि। प्रथमस्थितिचरमसमये मिथ्यात्वोदये वर्तमानो मिथ्याष्टिरुसंखजसे सेसे, पढमनिई अंतरभवे ॥ परितनं स्थितिद्वितीयस्थितेः संबन्धिनां कर्मपरमाणुनामनुएवमपूर्वकरणक्रामणानिवृत्तिकरणेऽपि स्थितिघातादयश्चत्वा- भागं विधा करोति । अनुभागभेदेन त्रिधा द्वितीयस्थितिगतं रोऽपि पदार्था जवन्ति प्रवर्तन्ते इत्थं या निवृत्तिकरणा द्वयोः मिथ्यात्वं दलिकं करोति इत्यर्थः । तथा शुद्धमविशुद्धं च तत्र संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिश्च संख्येयगते भागे शेषे शुद्धं सम्यक्त्वं तच्च देश घातिरसेन समन्धितं करोति । अर्द्धतिष्ठति अन्तर्मुहूर्तमात्रमधोमुक्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणमन्तर्मु- विशुद्धं सम्यग्मिथ्यात्वमविशुबै मिथ्यात्वम् । एते च इतरेण हर्तप्रमाणं प्रथमस्थितेः किञ्चित्समधिकं जवति प्रथमस्थितिश्च। सर्वघातिनारसेन समन्विते च करोति। इहोपशमिकसम्यक्त्यअंतमुहुत्तियमित्ताई, दो विनिम्मवइ बंधगहाए । लाभप्रथमसमयादेवारभ्य मिथ्यात्वस्य सम्यक्त्वं च गुणसंगुणसेढि संखजागं, अंतरकिरणेण उकिरइ ।। क्रमात्प्रवर्तते स चैवम् । प्रथमस्थितिमन्तरकरणं च पते के भाप अन्तर्मुहूर्तप्रमाणो यु सम्मे थोवो मीसे, असंखो तस्स संखो सम्मे । गपत् निर्मापयति । तथा तत् अन्तरकरणं अभिनवस्थितिब- पइसमयं इइ खेवो, अंतमुहुत्ता उ विप्पाउ ।। न्धोदयानभिनवस्थितिबन्धकालप्रमाणेन कालेन करोति तथा औपशमिकसम्यक्त्वलाभप्रथमसमये स्तोकोदलिकनिक्षेपस धन्तरकरणप्रथमसमयाएवान्यस्थितिबन्धमिथ्यात्वमारभते स्थि म्यक्त्वे ततो मिश्रे तस्मिन्नेव प्रथमसमये असंख्येयगुणस्ततोऽपि तिबन्धान्तरकरणे च युगपदेव परिसमापयति । तथा गुणश्रेणि- द्वितीये समय सम्यक्त्वे असंख्येयगुणः ततोऽपि तस्मिन्नेष संयन्धिनः संख्ययभागाः प्रथमद्वितीयस्थित्याश्रितास्तिष्ठन्ति द्वितीये सम्यग्मिथ्यात्वे असंख्येयगुणः इत्येवमुक्तेन प्रकारण एका तु श्रेणिः संख्येयतमं नागमन्तरकरणादन्तरकरणेन सहो- प्रतिसमय केपे सगुणसंक्रमरूपस्तावद्रष्टव्यो यावदन्तर्मुहर्स किरति विनाशयति । तदूर्द्ध पुनः प्रागभिहितत्वरूपो विध्यातसंक्रमः प्रवर्तते ॥ संप्रति अन्तरकरणस्य विधिमाह । गुणसंकमेण एसो, संकामो होइ सम्ममीसेसु। अंतरकरणस्स विही, घेत्तुं घेत्तुं लिई य मज्झाउ । अंतरकरणम्मि ठिो, कुणई जो सप्पसत्यगुणो ॥ दलियं पढमाठईए, विक्खिवइ तहा उवरिमाईए । एष प्रागाभिहितस्वरूपसंक्रमो मिथ्यात्वस्य सम्यग् मिश्चयो मन्तरकरणस्यायं विधिः यदुत अनन्तरकरणस्थितेमध्याद- भवति गुणसंक्रमेणानन्तरोक्तस्वरूपः संक्रमो वेदितम्य - Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६० ) अभिधानराजेन्द्रः । उवसमणा त्यर्थः । यतोऽसावन्तरकरणे स्थितः सप्रशस्तगुणः सह प्रशस्तेन प्रशस्येन गुणेनोपशमिकसम्यक्त्यल पारोम वर्तते इति समशस्त गुराः सन् संक्रमं करोति तस्मादन्तरकरणे स्थितस्य गुणसंक्रमः प्रवर्तते तलक्षणस्य संभवात् तथाहि मुखकमस्येदं लाराम पूर्वकरणादारभ्य गुणानां वध्यमानानां प्रकृतीनां गुणसंक्रमः प्रवर्तते इति गुणसंकमो अवरति गणे असुभाष पुस्वकरणादी " इति । श्रपूर्वकरणे च मिथ्यात्वस्य बन्धः प्रवर्तते तस्य वेद्यमानत्वात् अन्तरकरणे च तस्योदयाभाषात् बन्धो न प्रवर्तते तत्र गुणसंक्रमः प्रवर्तते । गुणसंक्रमेण समए, वितिदिज्जकंतित्र्यावज्जाणं । मिस्स गियुग, वसिमेसार पदमा ।। वेन गुणसंक्रमः प्रचर्तते तावदानां सप्तानां कर्मणां गुरुशियां प्रवर्तते यदा गुरासंक्रमस्ति प्रतिनिवर्तते तदा गुणसंक्रमेण समं तिस्रोऽपि गुण श्रेणयस्तिष्ठन्ति तथा मिथ्यात्वस्य यावदेकावलिका प्रथमस्थितौ शेषीभूता न भवति सायद स्थितिघातरघाती प्रय तैसे आपलिकामात्रशेषीभूतायां तु प्रथमस्थिती न भवतः सदा यावन्मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितिर्द्धावलिका शेषा न भवति तावत् गुणश्रेणिरपि प्रवर्तते व्यावलिकापार्या तस्यां गुरुश्रेणिनं भ पति उत्तरार्धस्य चाकरयोजना इति मिध्यात्वस्य एकट्यालिकाशेषायां प्रथमस्थितौ यथासंख्यं स्थितिघातरसघातौ गुणश्रेणिश्च तिष्ठन्तीति । उवसंतद्धा ते, विहीय उकट्टियस्स दलियस्स । वसायविसेसो, सो एकस्सुदप्रो जवे तिष्ां ॥ उपशमाद्धावा श्रीपशमिकसम्यकाका अन्पर्यि त्समधिकाषनिकाशेषे वर्तमानन्त्रयाणामतिस्थितितानां सम्यक्त्वादिषु जाताना दलिकमध्यवसायविशेषेण समाकृष्यातरकरणे पर्यन्तावलिकायां प्रतिपति तत्र प्रथमसमये प्रभूतं द्वितीयसमये स्तोकं तृतीयसमये स्तोकतरमेवं तावा याय दायका चरमसमयः तानि चैवं दक्षिकानिक्षिप्यमाणानि मो संस्थान संस्थितानि भवन्ति ततः आवलिकामात्रे अन्तरकरयस्य होपे सति अध्यवसायविशेषादमीयां प्रयाणामेकतरस्य दह्निकस्योदयो जयति । इदमुक्त भयति यदि तदानीं शुनः परि णामस्तर्हि सम्यकस्योदयः । मध्यमत्परिणामस्तदिसम्यग्मियात्पदकस्येति धन्यता मिथ्यावदलिकस्पेति । बालिया सेसाए, जवसमअाए जान इगिसमयं । मुजपरीणामत्तो, कोइ सासायणसं पि ॥ उपशान्ताकाया जघन्यतः समयशेषायामुत्कर्षतः पमावलिकाहोपायामशुभ परिणामतोऽनन्तानुयादिसणासा स्वादनत्वमपि याति प्रतियाति स च नियमाप्तदनन्तरं मिथ्यात्वमेव प्रतिपद्यते । सम्मणं समगं, सच्वं देतं च कोइ पडिवज्जे । यसो सो, अंतरकरणडिओ जात्र ॥ सम्यक्त्वेनोपशमिकसम्यक्त्वेन समकोऽपि कश्चित् सर्वविरि देशात प्रतिपद्यते तदुकं तदपूर्ण उपसम्मि अंतकरणे वियो को देसविरपि लने को पमत्तापमतनावसोय णो ण न किंपि सभेति" उपशान्तदर्शनचीप 66 उवसमणा शभिकसम्यग्दृष्टिश्च ताबदवगन्तव्यो यावदन्तरकरणे स्थिती विजेते इति तदेयं कृत सम्पदरूपणा संप्रतिधारियोयस्योपशमनानिधातव्या चारित्रमोदनीयस्य योपशमकी पेदकसम्पतिो देदारिता सर्वतोपम रिणामस्तथा चाह । बेगसम्पदिडी, सोही प्रकार अजयमाया । करणगेण उपसमं चरिचमोहस्स चिति ॥ वेदकसम्ययः कायोपशमिकसम्यक्त्यापरत्य संश विशोध्यायां वर्तमाना अयतादयोऽविरतादयोऽविरतदेशविरतसर्वविरताधारित्रमोदमी यस्योपरामार्थ करना प्रवृता पूर्वरूयेन यथायोगं बेइन्ते अनुचरा भवन्ति मूर्तीयेन तु करन Tagपशमका एव भवन्तीति करणद्विकेन चेष्टन्ते इत्युचम् । संप्रत्येताविरतादीनां मा जाणगापाल, रिओ किरई अबिर सिं । श्रामकरण, परिवज्जइ दोएट मतपरं ॥ विरते यत् ज्ञानं ग्रहणं पालनं च तैः कृत्वा विरतो भवति तत्र त्रिविधं त्रिविधेन भवेद्विरतः स सर्वविरतः यस्तु एकादिना चिरतः स देशविरतः शुभगायतिरेकेण चान्येषु नागेषु वर्तमानो नियमादविरतः परमे वर्तमान देशविदेशाविरतः स चानेकप्रकारस्तद्ययात कोऽपि ती एवं यात्कर्षतः परिवृ द्वादशतधा प्रत्या ययातसफलतावचकम्मी केवमनुमतिमाचकः । अनुमतिरपि त्रिधा तद्यथा प्रतिसेवनानुमतिः प्रतिष्यचानुमतिः संवासानुमतिश्च तत्र यः स्वयं परैव तं पापं साम्भो पनं वा शनाप तस्य प्रतिसेवनानुमतिः । यदा तु पुत्रादिभिः कृतं पापं शृणोति चानुमते त तिश्रवणानुमतिः । यदा पुनः सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं ममत्वमायुक्तो भवति नान्यत् किञ्चित् प्रतिशृणोति सा पा तदा संवासानमति तत्र संचासाद्मतिमामेव यः पतेस चरमो देशविरतः । स चान्य सर्वश्रा व कारणामुत्तमः यः पुनः सा पारम्प्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं सत्यमायुक्तो नयति नाम्पत् सानुमते विरतः स सर्वविरत उच्यते मनोधइयोशविरतिसर्वविरत्योरन्यतरां विरतिमादिमेन या प्रकृतपूर्ण येन करणद्विकेन प्रतिपद्यते छह ह्यविरतः सन् यथोक्तं द्वे करणे कति देशाविरति सर्वविरति या प्रतिपद्यते अथ देशविरतहिं विरतिमेव । अथ कस्माद्देशविरतिसर्वविरत्योर्साने तृतीयमनिवृत्तिकरणं न जयति इह करणकानात् प्रागप्यन्तर्मुहूर्त का यावत् प्रतिसमयम कर्मणामनुनास्थिानकं करोतीत्यादि तदेव पच्यं यावत् 1 प्रकरणं तदपि च तथैव वक्तव्यं ततोऽपूर्वकरणं तदपि च तथैव नवरमिह गुणश्रेणिर्न वक्तव्या अपूर्वकरणायांच प रिसमाप्रायामन-तरसमये नियमाद्देशाि प्र पद्यते ततो निवृतिकरणं तृतीयमिह मायाप्यते । उदद्यावलिया उपि, गुणसेढिं कुणइ सहचरितेण । तो असंखगुणणा- एताव य वट्टए कालं ॥ करणव्यतिक्रान्ते उद्या उपरि सह चारित्रेण पा समका प्रतिसमयमसंख्येयगुणनया गुणश्रेणिमन्तर्मुहूर्त काउं यावत् करोति कस्मादन् कालं याचत् गुणणि करोति परतोऽपि नेत्यत आह ( ताव य घट्टण कालं यतस्तावन्मात्रम Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा अन्निधानराजन्छः। जवसमणा न्सरमुळे कालं यावदवश्यं वर्तते प्रवर्कमानपरिणामो नवति मासु प्रकृतिषुसंक्रमयति ततोऽन्तर्मुहूर्तात्परतोऽनिवृनिकरणपकोऽपि हीयमानपरिणामः ततो यदि प्रवर्कमानपरिणामो जवति र्यवसाने शेषकर्मणामपि स्थितिघातरसगुणश्रेणयो न भवन्ति तत कमपि गुणश्रेणि प्रवर्धमानां करोति । अथ हीयमानपरि- किं तु स्वनावस्थ एव भवति चतुर्विंशतिसत्कर्मा तदेवमुक्ताणामस्तर्हि हीयमानामवस्थितपरिणामश्चावस्थितस्वनावस्था नन्तानुबन्धेनाविसंयोजना । ये त्वाचार्या अनन्तानुबन्धिनामुहीनपरिणामो वा देशविरते स्थितिघातरसघातौ न भवतः। पशमनामपि मन्यन्ते तन्मतेनोपशमनाविधिः षमशीतिवृत्तेः सप्त तिकावृत्तेर्या अवसेयः। परिणामपच्चएणं, गमागमं कुणइ करणरहियो वि । संप्रति दर्शनमोहनीयवपणाविधिमाह। भाजोगनट्टवरुणो, करणे काऊण पावे ॥ दसणखवणस्स रिहो, जिणकाजीओ दुग्गट्ठवासुवरि । परिणामप्रत्ययतः कथंचित्परिणामहासात्कारणात देशविरतो. विरतिं प्रतिपन्नः सर्वविरतो वा देशविरतिं गच्छति ततः स भू अणणासकमाकरणाई, करइ गुणसंकमं तश्यं ॥ योऽपि तां पूर्वप्रतिपन्नां सर्वविरतिं वा करणरहितोऽपि प्रतिपद्यते दर्शन मिथ्यात्वसम्यक्त्वरूपं तस्य क्वपणा तस्या अर्थी योग्यो पवमकृतिकरणेऽनेफशो गमागमं करोति यः पुनराभोगतः प्रति- जिनकालीयो जिनविरहेण कारसंन्नवी प्रथमसंन्नवी प्रथमसंहपत्या नष्टकरणो देशविरतेः सर्वविरतेर्धा परिन्नयो मिथ्यात्वं च ननी च पुतिं मनुष्यगतौ वर्तमानो जीवो वर्षाष्टकस्योपरि धमतः स भूयोऽपि जघन्येनान्तर्मुहूर्तेन कालेन सत्कर्षतः प्रभूतेन र्तमानोऽनन्तानुबन्धेन विसंयोजनक्रमेण यथाप्रवृत्तादीनि श्रीणि कालेन पूर्वप्रतिपन्नामपि देशविरतिं सर्वविरतिं वा उक्तप्रकारेण करणानि यथा गुणसंक्रमं च कृत्वा साकल्येन वपयति । करणन कृत्वा करणद्वयस्य पुरस्सरमेव प्रतिपद्यते । श्यमत्र नावना दर्शनमोहनीयतपणार्थम युद्यतस्त्रीणि करोति परिणामपच्चएणं, चनधिह होइ वळूई वावि । तद्यथा यथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं बा एतानि परिणामवन्याए, गुणसेटिं तत्तियं कोरइ ॥ च त्रीपयपि करणानि प्रागेव वक्तव्यानि नवरं पूर्वकरणस्य परिणामप्रत्ययेन परिणामात्कारणात् चतुर्विधः चत्वारःप्रका प्रथमसमये एवं गुणसंक्रमेण मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्दलिक रो यथा भवति एवं हीयते वईते वा गुणश्रेणिरिति विभक्ति सम्यक्त्वे प्रक्षेपयति नबनासंक्रममपि तयोरेवमारनते । तद्यथा विपरिणामेव संबद्ध्यते इदमुक्तं भवति यदि हीयमानपरिणामो प्रथमस्थितिखए वृहत्तरंघातर्यात ततो द्वितीय विशेषहीनमेवं जयति तर्हि तथा तथा परिणामहानिमध्ये कृतगुणश्रेणिः चतुर्की तावद्वक्तव्यं यावन्मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः करोति । हीयते तद्यथा कदाचिदसंख्येयनागेन कदाचित्संख्ययनागेन तकरणाई ज तं, तस्संते संखजागो हो । कदाचिदसंख्येयगुणेन कदाचित्संख्येयगुणेन । अथ परिणामः तत्करणादायपूर्वकारणादौ यत् स्थितिसत्कासीत्तत्तस्यैव प्रतिसमयं प्रवर्सते तहि तत्परिणामानुसारेण गुणश्रेणिरयुक्तप्र- करणस्यान्ते चरमसमये संख्येयनागमात्रं नवति । कारेण वळते यदि पुनरवस्थितपरिणामो भवति तर्हि तावन्मा- प्रथमसमयापेक्या संख्येयगुणहीन नवतीत्यर्थः । बामेव गुणश्रेणिमाख्याति एषा चैव दक्षिकापेक्रया द्रष्टव्या। काल- एवं ठिबंधोविय, पविसइ अनियट्टिकरणसमयम्मि । श्च पुनः सर्वदाऽपि तावन्मात्रेणैव यावश्च देशविरतिं सर्वविरति अपुव्वगुणसे दिविइ-रसघाय ठिइबंधं च ॥ चा परिपालयति तावद्गुणश्रेणिमपि समये समये करोति । स्था एवमनेन प्रकारेण स्थितिसत्कर्मन्यायेन स्थितिबन्धोऽपिवेदितपना चेयं तदेवमुक्तो देशविरतिसर्वविरतिलानः । व्यः अपूर्वकरणप्रथमसमये याचान् स्थितिबन्ध मासीत् तदपेसंप्रत्यनन्तानुबन्धेनाविसंयोजनमानएयते ॥ क्वयाऽस्यैयापूर्वकरणस्य चरमसमये संख्येयगुणहीनो नवतीसम्मुप्पायण विहिणा, चनगइया सम्मदिपिज्जत्ता। त्यर्थः। ततोऽनिवृत्तिकरणसमये प्रविशति तत्रच प्रविएः सन् संजोयणा विजोएति, न नण पढमविइं करेंति ॥ प्रथमसमयादेवारज्यापूर्वी गुणश्रेणिं अपूर्व स्थितिघातं रसघातसम्यक्त्वोत्पादविधिना सम्यक्त्वोत्पादनणितकरणत्रयरूपेण मपूर्व च स्थितिबन्धमनुक्रममारभते । प्रकारेण चतुर्गतिकाः सम्यग्दृष्टयो वेदकसम्यग्दृष्टयः पर्याप्तास्त- देसुवसमणनिकायण, निहत्तिरहियं च होइ तिगं॥ प्राधिरतसम्यग्दृष्टयश्चतुर्गतिका अपि देशविरतास्तिर्यग्गतिका अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये एवं च देशोपशमना निकाचनावा मनुष्या या सर्वविरतास्तु मनुष्याः संयोजनातोऽनन्तानुबन्धि- निधत्तिरहित दर्शनत्रिकं भवति देशोपशमादीनां त्रयाणां करनो वियोजयन्ति नाशयन्ति पुनरत्रान्तरकरणं कुर्वन्ति तदनावाच्च णानां मध्ये नैकमपि तदानी दर्शन त्रिकस्य करणं प्रवर्तते इत्यप्रथमस्थितिमपि न कुर्वन्ति अन्तरकरणस्य हस्तना स्थितिरित्यु- र्थः । दर्शनमोहनीयत्रिकस्य च स्थितिसत्कर्मस्थितिघातादिच्यते । द्वितीया तु द्वितीया ततोऽन्तरकरणकारणाभावे प्रथम- भित्यमानसझिपञ्चेन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानं भवति । ततः स्थितिमपि न कुर्वन्तीति । स्थितिखएमसहस्रपृथक्त्वे गते सति तु चतुरिन्द्रियस्थिअत्रैव विशेषमाह । तिसत्कर्मसमानं ततोऽपि तावन्मात्रेषु गतेषु श्रीन्द्रियस्थितिउपरिमगे करणदुगे, दलियं गुणसंकमेण तेसिं तु । सत्कर्मसमानं ततोऽपि तावन्मात्रेषु स्वामेषु गतेषु द्वीन्द्रियास्थिमासेई त पच्छा, अंतमुटुत्तो सभावत्यो । तिसत्कर्मसमानं ततोऽपि तावन्मात्रेषु खएमेषु गतेषु पढ्योपमउपरितनके द्विके अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणाख्ये तेषामनन्तानु संख्येयभागमात्रप्रमाणं भवति तदेवाह । बन्धिना दमिक परमाएवात्मकं गुणसंक्रमणोज्ज्वलनासंक्रमस्तु कमसो असलिचउरिं-दियाण ता किट्ट संत । विद्धन नाशयति अनिवृत्तिकरणे च वर्तमानः सन् गुणसंक्रमा- विइखंडसहस्साइ, एकेके अंतरराम्मि गच्छति॥ नधिोनोज्ज्वलनासंक्रमेण निरवशेषान् विनाशयति । किं त्वध- पलिओवमसंखाणं, दमण सातं तउजाणं । स्तादापमिकामात्र मुञ्चति तदपि च स्तिबुकसंक्रमेण बेद्यमा- अनिवृत्तिकरणादारज्य क्रमशोऽसंझिपञ्चन्धियचतुरिनियादि Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६२) निधान राजेन्द्रः । उवसमणा तुल्यं स्थितिसत्कर्म वक्तव्यम् । एकैकस्मिधोतरे स्थितिख एकसहस्त्राणि स्थितिघातसहस्राणि प्रजन्ति भावना प्रागेव कृता एवं प स्योपमसंख्येयभागमा दर्शनमनीयतेति यावत् सत्कर्मणि जाते सति यद्भवति संख्येयान् भागान् खण्डयति । श्यमत्र जावना पत्योपमयेयभागमात्रस्य स्थितिकमैण एकसंख्येपना मुक्त्वा शेषानशेषानपि संख्येयान् नागान् त्रयाणामपि मिथ्यात्वादीनां विभासयति ततः प्रागुक्तस्य संख्येयभागस्य एकसंख्येयभाग मुफ्या पानशेषानपि संध्येयान् भागान् विनाशयति पर्व ते संख्येयजागाः खण्ड्यमाना सहस्रशोऽपि व्रजन्ति ततो भि ध्यात्वस्यासंख्येयान् नागान् खरमयति सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तु संख्येयान् जागान् । तत्तो तो बहुमंते, खंड उदयावीरहियमिद । ततो भागो सत्तामीसाण खंमेह ॥ तोऽनेन विधिना स्थितिकानां प्रतानामते यात्रि कारहितसकलमपि मिथ्यात्वं खरमयति विनाशयति । तदानीं सम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्ययादेश ल्यापमासंख्येपभागमाश्रमवतिष्ठते अनूनि च स्थितिखण्डानि खएड्यमानानि मिध्यात्वसम्यपत्यानि सम्यक्सम्यमिध्यापयोः क्षिपति सम्यमिच्याव सम्यक्त्वातिसम्यक्त्वानि सम्यक्त्वाधस्तात् स्वस्थाने इति तदपि नमियाकमात्रं स्तियुकसंक्रमेण सम्यपत्ये प्रक्षिपति मिथ्यात्वस्यापलिकामा सत्यां सम्यक सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयरिसंख्येयान् भागान् खरामयति एवं ते विशिष्यते ततस्तस्याप्यसंख्येयान् नागान् खएमयति एकं मुञ्चति पर्व कतिपयेषु स्थितिद्वेषु गतेषु सम्यमध्यान्यमावि कामावं जातं तदानीं च सम्यक्त्वस्य स्थितिसत्कम्मं च पष्टिकप्रमाणं विद्यते स चाप्रवर्षप्रमाणसम्यक्त्व सत्कर्म तत्काले सकलप्रत्यूदागमतो नियमित दर्शनमोहनी यस्य पयते। अंतनियमं तत्तो रिउमा । पक्व असंखगुर्ण नाऊ गुणवेदिपरे ईणं ॥ लोनियनयमतेन कपकस्यनयना सम्ययस्य स्थिति मन्तर्मुहूर्तप्रमाणमुत्किरति घातयति तद्दविकमुदयसमयादारव्य प्रतिपति तथेदमुदयसमये स्तोकं शा असंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीय समये असंख्येयगुणवंताच या गुणति शेषशेत वत् यावच्चरमा स्थितिः । उकि असंवगुणे, जाब चरिमं वि अंतिमे खंके । सोखंडे, गुणी तहा देश ॥ ततो द्विस्थितिखत्कमन्तर्मुहूर्तप्रमाणं पूर्वस्मादसंख्येयगुणभुकिरति खाडयति प्रकार उदयसमयादारज्यमिि पति पूर्वपूर्व संस्थेयगुणसंस्थितरत ककरणका पिक सेमी से अग्र या समारुद || 66 कृतकरणः सन् कश्चित्तत्कालमपि करोति कृत्वा च तत्कालं चतां गतां तावद्यते तदेवं प्रस्थापक मनुष्य निस्केषु चतसृष्वपि गतिषु भवति । उक्तं च । 'पट्टणा उ मस्सो निवणो होइ चसु वि गई " यदि पुनस्तदानीं कालं न क रोति तर्हि वेदिशेषोऽनुदितसम्यक्त्वशेषः कायिक सम्यग्दृष्टिः सन् अन्यतरां श्रेणिकपणा समाति मानिकेप्येष वायु उपरामणिम अबधायुष्कस्तु पि चतुर्गतिवायुस्तु न कामधि श्रेणिमित्यर्थः उवसमगा गई। सप्तकः कतिथे भवे मोकमुपयातीत्युच्यते । तये चस्येत व नवम्मि सिति देसणो खीखे। जं देवनिरय संखान, चरमदेहेसु ते होंति ॥ तृतीये चतुर्थे तस्मिन्वा जये कीणे दर्शने दर्शनमोहनीये सिधन्ति जीवाः कुत इत्याह । यत् यस्मात्कारणात् कीणसप्तकदेवनारका संख्येययुकं ते बरमदेवा नवन्ति चरमदेहा वा नवन्ति ततस्तृतीये चतुर्थ तस्मिंश्च भवे विभ्यन्तरूयते यत्र भावना गती वा तत्प्रकृत्या यत्कृत्वा देवेषु मध्ये उत्पद्यन्ते ये तु नरकेषु बायुकास्ते नरकेषु ततो देवेषु देवमात्मानमनुष्यो मोकं यातीति चतुर्थे भवे सिरुचन्तीत्यभिधीयते ये वायुकाः सप्तकं कृपयन्ति ते चरमदेहा उच्यन्ते न च सतकायानन्तरक्षपकश्रेणिमेव प्रतिपद्यन्ते इति तस्मिन्नेव जब सन्ति ता दर्शनीयमोदमी यस्योपशमना । संप्रति दर्शनमोहनीयोपशमन्त भएयते । सा च क्षीणसप्तकस्य वैमानिकेष्वेव वायुष्कस्य नतिरुपमा यस्तु वेदसम्बि स तूपशमणि प्रतिपद्यते निकोवासे च के षाचिन्मतेनानन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य चतुर्विंशति सप्तकर्मासन् प्रतिपद्यते केचित्तवियोजितानन्ताउपसमितामन्तानुपायवान् दर्श यमुपशमयति । तथा चाह । हवा दंसणमोहं, पढमं उवसामइत्तु सामने । दिव्या अपयश, परम नियमा || पदमुपसे तहुत विश्झाउ । संकेत पत्त, इरपणं बहुसो | अथवेति प्रकारान्तरे दर्शन प्रथममुपशमयापि प्रतिपद्यते इत्या धामध्ये संयमे स्थिता उपप्रागुका करण उप पारिस्थितिमा स्थिति दन्तिम स्थितिएलं संख्येयगुणं तस्मिंश्रान्तिमे स्थिति मे खाड्याने संख्येयभागं गुणश्रेण्या खरास्यति अन्याश्च तपगिनी: संख्येयगुणाः स्थलमार प्रतिपति तथा उपमयेोत द्वितीयसमये असंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीयसमये असंख्येयगुत्पत्ति पणम् । एवं तावद्वाच्यं यावद् गुणश्रेणिशिरः । अत ऊर्कमुत्कीमाणमेव किं ततस्तल न प्रतिपति एवंगव स्थितिखएके उत्कणि सति अरूपकः कृतकरण उच्यते । दर्शनीय प्रथममुपाि प्रतिमा आपमे स्थिता उपशमनाविधधनमतरक रणं कुर्योध्ये सम्यग्मियात्प्रथमस्थ तिराalasatत्रा नियमाद्वेदितव्या सम्यक्त्वस्य चान्तर्मुहउत्पादकमन्तरेण त्रयाणामा सम् प्रथमस्थिती प्रतिपति शेषं प्रथमोपशमवत् प्रथमोपशमसम्यक्त्वद्वेदितयं (अंतमुहसा उ तस्सेत्यादि) बहुशो ऽन्त रकरणप्रदेशसमवादारज्यन्त विध्यातसंक्रमस्तस्य सम्यक्त्वस्य भवति किमुक्तं भवति । वि Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६३ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवसमा ध्यात संक्रमेण मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वयोर्दलिकं सम्यक्त्वं प्रविशनिमोनीय त्रितये उपान्ते संप्रेशविधिशात् प्रमसत्यमितरप्रमत्तत्वं बहुशो करने नुसारित्रमोह नीयोपशमनाय सम्पत्वं प्रतिपद्यते इत्यर्थः । पुण तिमि करणा, करेह तयम्मि एत्थ पुण ते । अंतो कोमाकोमी, बंधं संतं च सत्ताहं ॥ चारित्रमोहनीयोपशमनार्थे पुनरपि त्रीणि यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्ताख्यानि करणानि करोति करणवक्तव्यता प्राग्वद्द्रष्टव्या केचमत्र तृतीयकरणे नेदस्तमेव दर्शयति अतः फोडाफोडीनाम बन्धकर्मासमानामायुर्वजानां करणं प्रथमसमये करोति त यद्यपि प्राप्या करणेयेतेषां बन्धः सत्कर्मणां प्राप्यत थाsors बन्धसत्कर्मणी तदपेक्षया संख्येयगुणहीने ये शर्त विशेषः कती स्व स्वत्कर्म च सागरोपमकोटाकोटी माणमुक्तं बन्धस्त्वन्तः सागरोपमकोटा कोटीप्रमाणः तटुक्तम् "तो कोराडी, संतं अनियहि णो उ उद्दीविश्व चक्कोस् पि तस्स पलस्त संखतमन्नागं " । महस्से एकेक जं भणिस्सामो स्थितिखमपि पयोषमसंख्येयभागमाचं वारयति । तथा एतस्य प्राक्तनबन्धस्य पढ्योपममसंख्येयभागमात्र हापयित्वा अन्यं स्थितिबन्धं करोतीति शेषः । तत्र यद्यपि शतानाऋषि कर्मणां पोषम संस्थे यत्नाद्यमाह उस्तथाऽपि एवं सत्कर्म्म प्रष्टव्यं तद्यथा नामगोत्रे सर्वस्तोके हीनस्थितिकत्वात् ततो ज्ञानावरणदर्शनीयावरीयान्तरायाणि विशेषाधि कानि खाने तु परस्परानि ततोऽपि मोहनीयं विशेषाधि कस्थितिखमसनेषु च यतिकान्तेषु किं करोति भणिष्यामः । तदेवाह । करणास संखभागे, सेसे अवमायाणं । समो धो कामण, पनवसेगतीसाणउद्दिव | करणस्यानिवृत्तिकरणस्य संख्येयेषु भागेषु सत्सु एकस्मिन् शेषे अन समो बन्धः क्रमेण भवति सदेवमनि सिकरणस्य संख्येयेषु नागेषु गोप्येकस्मिन् शेषे परचेन्द्रियन्धनुपस्थितिबन्धो जयति तदनन्तरं स्थितिल ये गते सति चतुरिन्द्रियवचनुयस्थितिबन्धः सतो योऽपि स्थितिखण्डपृयक्त्वे गते सति त्रीन्द्रियबन्धतुल्यस्थिनियन्यस्त एवमेव इन्द्रियः ततोऽप्येवमेकेन्द्रिय बन्चयस्ततोऽपि स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु विशतिकयोः विंशतिसागरोपमकोटी प्रमाणयोर्नामगोत्रयोरित्यर्थः । पल्योपममात्रं स्थितिबन्धो भवति त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायवेदनीयानामपल्योपममात्रः । " मोहस्स दोसि पना, संतो वि हु एवमेव अप्पबहू । पतियम्मित पंपे अन्नो संजगुणहीणो ॥ मोहनीयस्य ही पदयोगी स्थिति स्थितिसत्कर्मणि वा पबहुत्वं बन्धक्रमेण वक्तव्यं तच सर्वस्तोकं नामगोत्रयोः ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनयान्तरायाणां विशेषाधिक मोहनी यस्य विशेषाधिकं तथा यस्य यस्य कर्म्मणो यदा यदां पल्योपमप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति तस्य तस्य तदा तत्काझादारस्पान्योन्यस्थितिबन्धः संस्थेयगुणहीनां जयति तदानी नामः पयोमा स्थितियन्वादयः स्थितिबन्ध उवसमणा ख्येयगुणहीनं करोति शेषाणां तु कर्म्मणां पल्योपमसंख्येयभागहीनं ततः । एवं तीसाथ एवं मोहे, सारणं पासो || पद्ममोस्स होइ हु दिवई । एवमुक्तेन प्रकारेण स्थितिबन्धसहस्त्रेष्वतिक्रान्तेषु त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणदनाचरणमेदनीयान्तरायाणां स्थिति पयोपम प्रमाणं करोति मोहनीयस्य स्वार्फ पल्योपममात्रं ततो नावरण | यादीनामन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति मोहनीयस्य तु संयेागदीना तल पर्व पूर्वक्रमेण स्थितिबन्धसर यतिकान्तेत्यर्थः मोदनीयस्य स्थितिबन्धः पस्योपमप्रमाणं भवति ततो मोहनीयस्याप्यन्यः स्थितिबन्धः संख्यगुणनः प्रवर्तते तदानीं शेषकर्मणां स्थितिबन्ध पल्पोपमसंकपेयभागमात्रप्रमाणो वेदितव्यः । बीसगती सममोहाण, सकम्मं जह कमेण संखगुणं । पक्षासंखेज्जंसो नामगोपाल तो बंधो । विशत्कविंशकमोहानां सत्कम्मे यथाकर्म संस्थेयगुणं वक्तव्य तथा सर्वतो नामत्रयः सत्कर्म ततो ज्ञानावरणदर्शना वराणान्तरायचे यानां सगुणं स्वस्थाने तु परस्परं मुख्यम सोमस्य संख्येयगुणं मोनीषस्य पत्योपास्थि तिचे जाते सति नामगोत्रयोरम्यस्थितिबन्धो ऽसंख्येयगुणही नो नवति पल्येोपमासंख्येयभागमात्रो भवतीत्यर्थः । अत्र सत्क पिया अल्पत्वं विनयते सर्वस्तोकनामगोत्रयोः सत्कर्म ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनयान्तराषाणामसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं ततोऽपि मोदस्य संख्येवगुणं ततः। एवं सहस्सापद एकपयारेण मोहनीयस्स । तीसगखागो, विबंधी संत पंच जवे ॥ एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण स्थितिबन्धसहस्त्रेष्वतिक्रान्तेष्वित्यर्थः । ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां स्थितिबन्धोऽसंख्ये यो भवति पत्योपमासंख्येयभागमाचयोवनादिति तात्पर्यार्थः इदानीं च साम्मांपेक्षा अत्यहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोकनामगोत्रयोः सत्कर्म्म ज्ञानावरणीयादीनां चतुर्षा मसंख्येगु स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणं ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु एकप्रकारेण एकटेलदेव मोहनीयस्य पस्योपमासंख्येयभागमात्र ज्ञानाव रणीयादीनां चतुमसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यम् । वासप्रसंखनागो, मोहपव्वाउघाइतइयस्स | वासात होज्जर, असंवभागमिवति ॥ ततः स्थितियन्यसहस्रेषु गतेषु कहेलयेय विंशतिकोनांम गोत्रयोरधस्तात् असंख्येयगुणहीनो मोहनीयस्य स्थितियो भवति । अत्र स्थितिबन्धमाश्रित्याल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्ततो नामगोत्रयोः संख्गुणः श्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । ततो ज्ञानावरणादीनां चतुर्णामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । स्थितिबन्धसहस्रेष्यतिकालेषुधा तृतीयस्य वेदनीयस्य घातानि शनावरणदर्शनावरणान्तरायाणि अधोजातानि । श्रत्र स्थितिबन्धमापित्वंवियते सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धा ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः । स्वस्थाने तु तयोः परस्परं तुल्यः ततोऽपि ज्ञानावरणदर्शनात्र रणान्तरायाणामसंख्येयगुणः तु Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६४) उवसमणा अभिधानराजेन्द्रः। नवसमणा स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः। ततोऽपि वेदनीयस्यासंख्येयगुणः। दयकाबात्सज्वलनमानस्य उदयकालो विशेषाधिकस्ततोऽपि ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु विंशतिकयो मगोत्र- संज्वलनमायाया विशेषाधिकस्ततोऽपि संज्वलनोभस्य वियोरसंख्येयभागो जातानि ज्ञानावरणीयादीनि त्रीणि दध्यन्ते शेषाधिकस्तत्र संज्वबनक्रोधेनोपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य यात्रनामगोत्रापेक्वया ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुण- वप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधोपशमो भवति तावत् संहीनो भवतीत्यर्थः। अत्राल्पबहुत्वं सर्वस्तोको मोहनीयस्य ज्वलनक्रोधस्योदयः संज्वनमानेनोपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य याष. स्थितिबन्धः ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामसंख्येय. दप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानोपशमो न नवति तावत्संगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्ये- ज्वलनमानस्योदयः संज्वलनमायया चोपशमणि प्रतिपन्न. यगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । ततोऽपि वेदनीयस्या- स्य यावदप्रत्याख्यानावरणमायापशमो नोपजायते तावत्संसंख्येयगुणः । ज्वलनमायायाः उदयः संज्वलनलोभेनोपशमश्रेणि प्रतिपाअसंखसमयबछा, णामुदीरणा होइ तम्मि कामम्मि । स्य यावदप्रत्याख्यानावरणलोनोपशमो न भवति तावहादरसं ज्वलनबोभस्योदयस्ततः परं सूदमसंपरायाद्वा तदेवमन्तरकरदेसघाइरसत्तो, मणपज्जवअंतरायाणं ॥ णमुपरितनभागापेक्षया समास्थितिकम् । अधोभागापेक्वया चोयस्मिन्काले सर्वकर्मणां पल्योपमासंख्येयभागमात्रस्थिति कनीत्या विषमस्थितिकमिति । बम्धो जातस्तस्मिन् काले असंख्येयसमयबद्धानामुदीरणा भवति कथमेतदवसीयते इति चेदुच्यते इह यदा पल्योपमा अंतरकरणेण सम, ठिखंडगबंधगच्छनिप्पत्ती। संख्येयभागमात्र स्थितिबन्धं करोति तदा बध्यमानप्रकृति- अंतरकरणाएंतर, समये जायंति सत्तामो ॥ स्थित्यपेक्वया याः समयादिहीनाः स्थितयस्ता एवोदीरणामुप- अन्तरकरणेन समंसममित्यव्ययं ततोऽयमर्थः । अन्तरकरणेन गच्छन्ति नान्याः ताश्च चिरकालमबद्धा एव कीणशेषाः संभ- समाना स्थितिखएमस्य बन्धकाळायाश्च अभिनवबन्धासायाश्च चन्तीत्यसंख्येयसमयबद्धानां तदानीमुदीरणा ततः स्थितिबन्ध- निष्पत्तिः किमुक्तं भवति यावता कान स्थितिस्वएमकं घातयति सहस्रेषु पतेषु देशघातिनः समनुभागं मनः पर्यवज्ञानावरणा- यद्वा अन्यस्थितिबन्धं करोति तावता कानान्तरकरणमपि कदोनामन्तराययोर्बध्नाति ॥ रोति त्रीण्यप्येतानि युगपदारभते युगपनिष्कामयति अत्रान्तकलोहादीणं पच्छा, लोग अचक्खुमयाण तो वक्खा । रणकाले चानुभागखएडसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति अन्तरकरणपरिभोगमईयंते, विरयस्स असेढिगायाई ।। सत्कदत्रिकस्य प्रदपविधिरयं येषां कर्मणां तदानी बन्ध उदपश्चास्थितिबन्धसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु नवान्तरायावधिज्ञानावर यश्च विद्यते तेषामन्तरकरणसत्कं दझिकं प्रथमस्थितिद्वितीयणावधिदर्शनावरणानां देशघातिनं रसं बध्नाति ततोऽपि संख्ये स्थितिं च प्रक्विपति यथा पुरुषवेदोदयारूढः पुरुषवेदस्य येषां येषु स्थितिबन्धसहस्रवतीतेषु जोग्यान्तरायाचक्कुः कुदर्शनावर तु कर्मणामुदय एव केवबो न बन्धस्तेषामन्तरकरणसत्कं दणक्षुतज्ञानावरणानां देशघातिनं रसं बध्नाति ततोऽपि स्थिति लिकं प्रथमस्थितावेव प्रतिपति न द्वितीयस्थितावपि । यथा बन्धसहस्रग्धतिक्रान्तेषु परिभोगान्तरायमतिज्ञानावरणयोर्देश-- स्त्रीवेदोदयारूढः स्त्रीवेदस्य येषां पुनरुदयो न विद्यते किं तु केमातिन रसं बध्नाति ततोऽपि स्थितिबन्धसहस्रषु वीयर्यान्तरायस्य वसो बन्ध एव तेषामन्तरकरणसन्कं दनिकं द्वितीयस्थितावेव देशयति न संबध्नाति पतेषामेवानन्तरोक्तानां कर्मणां श्रेणिगताः प्रतिपति न प्रथमस्थितौ यथा संज्वलनक्रोधोदयारूढः शेषसंकपकोपशमश्रेणिरहिताः सर्वघातिनमेव रसं बानन्ति । ज्वलनानां तेषां पुनर्न बधो नाप्युदयः तेषामन्तरकरणसत्कं द. लिकं परप्रकृतिषु यथा द्वितीयतृतीयकषायाणां तथा अन्तरकरसंजमघाईण तो, अंतरमुदन जाण दोरहं तु । णानन्तरसमये अन्तरकरणे कृते सात द्वितीये समये इत्यर्थः । बेयकसायन्नयरे, सोदयतुझा पट्टविई ।। श्मे सप्त पदार्थाः युगपजायन्ते तानेवाह । वीर्यान्तरायदेशघात्यनुनागबन्धानन्तरं संख्येयेषु स्थितिबन्ध एगहाणाणुनागचं, स नदीरणा य संखेया । सहस्रष गतेषु सत्सु संयमघातिनामनन्तानुबन्धे वर्जानां द्वादशकषायाणां नवानां च नोकषायाणां सर्वसंख्यया एकविंशतिप्रक अपुव्वं संकमणं, लोजस्स असंकम्मे मोहे ।। तीनामनन्तरकरणं करोति तत्र चतुर्णी सङ्कलनानामन्यतमस्य बकं बर्फ छाउ, आवलीसु उबरेयुईरणं । यस्य संज्वलनस्योदयो यस्य च त्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्य पप गवेनवसमणा, असंखगुणणाय जावंतं । तयोर्वेदकषायान्यतरयो कर्मणोः प्रथमा स्थितिः स्वोदयकालप्रमाणा भवत्यन्येषां चैकादशकषायाणामष्टानां च नो कपाया मोहे मोहनीयस्यानुनागबन्धो रसबन्धः एकस्थानकः नदी रणा संख्येयसमा संख्येयवर्षप्रमाणा चशब्दास्थितिबन्धः संणां प्रथमा स्थितिरावत्रिकामात्रा । संप्रति चतुर्णी संज्वलनानां ख्येयवार्षिकः स च सर्वोऽपि पूर्वस्मात् संख्येयगुणहीनो भाव। प्रयाणां च वेदानां स्वोदयकालप्रमाणमाह तथा मोहनीयस्य पुरुषवेदसंज्वानचतुष्टयरूपरसस्य भानुपूपीअधुवोदयकाली, संखातगुणो उ पुरिसवेयस्स । । ा क्रमणैव संक्रमो लोजस्य च संज्वलनग्रोभस्य या संक्रमस्त. तस्स हि विसेसअहिओ, कोहे तत्तो विजयकमसो ॥ था 'बळंबरू'मित्यादि इह प्राक् बरूं बर्फ कर्म बन्धावलिकायास्त्रीवेदनपुंसकवेदयोरुदयकासः पुरुषवेदायुदयकालापेकया मतीतायामुदीरणामायातिस्म अन्तरकरणे तु कृते तदनन्तरससर्वस्तोकः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः ततः पुरुषवेदेच्य उदय- मयेषु यबध्यते कर्म तत् षमावलिकाकाबमवस्थाप्योदोरणाकालः संख्येयगुणस्तस्यापि पुरुषवेदस्योदयकालात क्रोधस्यो- मायाति तथा पाएमकवेदस्य नपुंसकवेदस्योपशमना असंदयकानो विशेषाधिकस्ततोऽपि क्रोधोदयकालान्मानमायामोना- ख्येयगुणनया तावङ्गवति यावदन्तश्चरमसमया तथा हि नपुंनां यथाक्रमशो यथाक्रमेण विशेपाधिकस्तद्यथा संज्वलक्रोधो- सकवेदस्य प्रथमसमये स्तोकं प्रदेशाग्रमुपशमयति ततो द्विती Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसमा अनिधानराजेन्दः। उवसमणा यसमयश्च संख्येयगुण एवं प्रतिसमय संख्येयगुणं तायद्वक्तव्यं द्यावलिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूपायामेव व्यवच्छिद्यते उदीरणा तु यावश्चरमसमयः परप्रकृतिषु च प्रतिसमयमुपशमितदलिकाप- भवति तस्मादेव च समयादारभ्य प्रधाननोकषायाणां सत्कं कया असंख्येयगुणं तावत्संक्रमयति याबद् द्धिचरमसमये पुनरु- दलिकं पुरुषर्षदेन संक्रमयति किं तु संज्वलनक्रोधादिषु यदा पशमय्यमानं दलिकं परप्रकृतिषु संक्रमेण दलिकापेक्कया असं. च पुरुषवेदस्य सत्का प्रागुक्ता एकाप्युदयस्थितिरतिकाम्ता ख्येयगुणं अष्टव्यं नपुंसकदोपशमनारम्भप्रथमसमयादारन्य भवति तदाऽसौ वेदको भवति अवेदकाद्धायाश्च प्रथमसमये सर्वकर्मणामावनिकापेक्वया सर्वस्तोका उदयसंस्थेयगुणाः। समयद्वयोनावलिकाद्विकेन कालेन यदद्धं तदेव केवलमुपशान्ते अंतरकरणपविट्ठो, संखासखं समोहश्यराणं । तिष्ठति शेषं सकलमपि नपुंसकवेदोक्तेन प्रकारेणोपशमितं त. बंधादुत्तरबंधा, एवं इच्छेई संखंसो॥ दपि च तावता कालेनोपशमयति एतदेवाह ।। अन्तरकरणे मविष्ट. सन् जीवः प्रथमसमय एव बन्धात्तरब आगालेणं समगं, पडिगहिया फिमइ पुरिसवेयस्स । न्धस्य संख्येयगुणा अन्तरकरणे विवझाःसंख्याः सन्तीत्यर्थः। सोलसवासियबंधा, चरमो चरमेण उदएण ।। थो हि यदपेक्षया संख्येयभागमात्रकल्पः स तदपेक्षया संख्यये तावइ कालेणं वि य, पुरिसं उवसामए अविएसो। रामहीन पवेति मोहनीयवजीनां तु शेषाणां कर्मणां बन्धादुत्तरबन्धमसंख्येयभागं करोति असंख्येयगुणहीनं करोतीत्यर्थः बद्धो वत्तीससमा, संजलणियराण उ सहस्स ॥ एवं नपुंसकवेदमुपशमयति तदुपशमनानन्तरं चस्थितिबन्ध यदा पुरुषवेदस्य प्रागुक्तस्वरूप प्रागालो व्यवच्छिद्यते तदा तेन सहनेष्वतीतेष्वेवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण स्त्रीवेदमुपशमयति स्त्री समकं तत्कालमेव तस्य पुरुषवेदस्य यत ईहता शेषदलिकसंवेदस्य च संख्येयतमे भागे उपशान्ते यद्भवति तदुपदर्शयन्नाह । माधारता स्फिटति अपगच्छति योऽपि च चरमः पर्यन्तेऽपि उवसंते घाईणं, संखेज्जसमा परेण संखेसो । पोमशवार्षिक स्थितिबन्धः पुरुषवेदस्य सोऽपि चरमेण प्रथम स्थितिचरमसमयभाविना उदयेन सहापगच्चति यदा च पुरुबंधो सत्तएहेव, संखेजवसंति उवसंते ॥ पवेदस्य स्थितिबन्धः षोडशवार्षिकस्तदा संज्वलनानां संख्येस्त्रीवेदस्य संख्येयतमे भागे उपशान्ते सति घातिनां घातिकर्म यानि वर्षसहस्राणि स्थितिबन्धः यदपि च वेदकाळाप्रथमसणां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां संख्येयसमाःसंख्येयवर्ष- मये समयोनावलिकाद्विकवर्क पुरुषवेददलिकमस्ति तदपि वेदो. प्रमाणो बन्धःस्थितिबन्धो भवति (परेणत्ति) ततः संख्येयवर्षप्र- दयरहितः सन् स उपशमको जीवस्तावतैव समयद्वयोनावमाणात स्थितिबन्धव्यापारादन्यः संस्थितिबन्धघातिस्वरूपा- विकाद्विकप्रमाणेन कालेन पुरुषवेददलिकमुपशमयति द्वितीयसणां पूर्वस्मात् संख्येयांशः संख्येयभागकल्पः संख्येयगुणहीन मये असंख्येयगुणं तृतीयसमये असंख्येयगुणमिदं तावद्वक्तव्यं इत्यर्थः । तस्मादेव च संख्येयवर्षप्रमाणात स्थितिबन्धादारभ्य यावत्कारद्वयोनावलिकाद्विकचरमसमयः परप्रकृतिषु प्रतिसदेशघातिनां केवबज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणवर्जानां ज्ञानावर- मयद्वयोनावलिकाद्विककालं यावद्यथाप्रवृत्तं संक्रमेण संक्रमणदर्शनावरणकर्मणां नैकस्थानकं बध्नाति तत एवं स्थितिबन्ध- यति तद्यया प्रथमसमये प्रनूतं द्वितीयसमये विशेषदीनं तृतीसहसेषु गतेषु सत्सु त्रिधा वेद उपशान्तो जवति ततः स्त्रीवेद यसमयेऽपि विशेषहीनमवं तावत् यावश्चरमसमयः ततः पुरुष नअपशान्ते शेषाणां नोकषायाणामेवं नपुंसकवेदोक्तेन प्रकारेण पशान्तस्तदानीं च संज्वलनानां द्वित्रिंशात्समा द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणः संख्येयतम भागे उपशान्ते किमित्याह । स्थितिबन्धः इतरेषां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायनामगोत्राणां नामगोयाण संखा, बंधावो सा असंखिया तइए । संख्येयानि वर्षसहस्राणि स्थितिबन्धः अवेदप्रथमसमयादास्य तो सव्वाण वि संखा, तत्तो संखेजगुणहीणा ॥ ऋोधत्रिकाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वानरूपमुपशमयति । 'कोहतिगं बाढवे उवसमितिसुपमिगहणाएगाचलय उदीरणा नामगोत्रयोः संख्येयाः समाः संख्येयवर्षप्रमाणो बन्धः स्थितिबन्धो भवति तृतीयस्य वेदनीयस्य कर्मणः स्थितिबन्धोऽ बंधी पिटुंति आवलीए सेसाए इति” । यस्मिन् समये पुरुषवेदसंख्येयानि वर्षाणि असंख्येयवर्षप्रमाण इत्यर्थः तस्मिंश्च स्थि स्यावेदकाबस्ततस्तस्मादेवैकप्रथमसमयादारज्य क्रोधात्रकाप्र त्यास्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वबनरूपं युगपउपशमयितुमारजते तिपूर्णे सत्यन्यः स्थितिबन्धो वेदनीयस्यापि संख्येयवर्षप्रमाणो भवति (ततोत्ति )ततस्तस्मादिनीयसत्कसंख्येयवार्षिकस्थि उपशमनां च कुर्वतःप्रथमे स्थितिबन्धे पूर्णे सत्यन्यः स्थितिबन्धः तिबन्धात्प्रभृति सर्वेषामपि कर्मणां स्थितिबन्धः संख्येयवार्षिक: संज्वलनानां ससंख्ययनागहीनशेषाणां च संख्ययगणहानः शषं स्थितिघातादि तथैव संज्वानक्रोधस्य च प्रथमास्थता समयाप्रवर्ततेसच पूर्वस्मात् पूर्वस्मादन्योऽन्यःप्रवर्तमानः संख्येयगुणहीनः प्रवर्तत इत्यर्थः ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु स नावलिकात्रिकशेषायां पतहतापगच्चति अप्रत्याख्यानप्रत्यास्वपि नोकषाय उपशान्तो भवति । ण्यानावरणक्रोधद लिकंन तत्र प्रतिपति संज्वलनमानादाधिति जावः । ततोऽकादबिकाशेषायां प्रथमस्थिती संज्वलनक्रोधस्याजं समयं नवसंतं, छकं उदयट्टिई यता सेसा। गालो भवति । किं तदीरणा तावत्प्रवर्तते यावदेका आवदका पुरिसे समोणावलि, दुगेण वअणुवसंतं ।। श्रावनिका शेषा जवति चदीरणावलिकायाश्चरमसमये स्थितिव. यस्मिन् समये षट् नोकपाया उपशान्ता, जलसिक्तदूषणं | न्धश्चत्वारोमासाः शेषकर्मणां तु संख्येयानि वर्षसहस्राणि संकुट्टितभूमि रजांसोवोपशमं नीतास्तदा पुरुषवेदस्य एका ज्वलनक्रोधस्य च बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदात्तथा चाह एकस्याउदयस्थितिः समयमात्रा शेषा तदानीं च स्थितिबन्धः षोड- मावसिकायां शेषायामुदय उदीरणा बन्धश्च एते त्रयोऽपि पदाथा श वर्षाणि तस्मिश्च समये सा एका उदयस्थितिर्यञ्च समयो- | युगपत् स्फुटन्स्यपगच्छन्ति तदानी वाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरनावलिकाद्विकेन कालेन बद्धमेतावदेवानुपशान्तं वर्तते शेषं | णक्रोधानपश्यन्तौतदाचैकामावनिकासमयोनावालकां द्विकबद्धसर्वमप्युपशान्तम् । इयमत्र भावना पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिती। दानिक मक्त्वा शेषमन्यत्सा संज्वानां क्रोधस्योपशान्तंसमया Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवसमणा अनिधानराजेन्द्रः। उवसममा नावनिकाद्विकबकं च दक्षिकपुरुषवेदोक्तेन प्रकारेणोपशमयति सर्वमुपशान्तं ततो निरन्तरसमये संज्वलनलोजस्य द्वितीयस्थिते तथा चाह "सेसयं तु पुरिससम, एवं सेसकसायावेय इति मुग सकाशात् दलिकमाकृष्य प्रथमस्थिति करोति वेदयते च पूर्वोणं भावक्षिया" संवक्षनक्रोधस्य बन्धादौ व्यवच्छिन्ने शेषं पुरुषवेदं तां च मायायाः प्रथमस्थितिसत्कां समयावलिकास्तिवुकसंक्रमेसमं वक्तव्यम् । एवं क्रोधत्रिकोक्तेन प्रकारेण शेषानण्यप्रत्याख्या- ण संज्वलनलोभे संक्रमयति समयोनावलिकाद्विकबद्धाश्च लताः नप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनमानमायानोभरूपान् कषायानुपशम- पुरुषवेदक्रमेणोपशमयति संक्रमयति च संज्वलनक्रोधादीनां यति याश्च शेषीनूता श्रावलिकास्ता उत्तरस्मिन् कषाये स्तिवुकेन सूदमोदयचरमसमये यावत्प्रमाणस्थितिबन्धोऽनन्तरमुक्तस्तास्तिवुकसंक्रमेणानुभवति । श्यमत्र भावना संज्वनक्षत्रोधस्य ब. | वत्प्रमाणमत्र साकात्सूत्रकृत् संवादयति । धादिव्यवच्छिन्ने या प्रथमस्थितिरेका आवक्षिका तिष्ठति तां चरिमुदयम्मि जम्हा, तब्बंधो दुगुणो उ होइ जवसमगे। स्तिबुकसंक्रमेण माने प्रक्तिप्य वेदनीयान् यदपि च समयोना तयणंतरपगईए, चउगणोऽस्मेसु संखगुणो ॥ बनिकाद्विकबरूं सदस्ति तदपि तावता कासेनोपशमयति तद्यथा शह यः कपकश्रेण्या कपकस्य संज्वलनक्रोधादी स्वस्वचरमोप्रथमसमये स्तोकमुपशमयति द्वितीये असंख्येयगुणं ततोऽपि दयकाले जघन्यः स्थितिबन्ध उक्तः स उपशमके द्विगणो भवति तृतीयसमये असंख्येयगुणमेवं यावत्समयोनावनिकाद्विकचरम तदनन्तरं प्रकृतेः पुनश्चतुर्गुणः अन्येषु तुसंख्येयगुण शत ततोऽ समयः परप्रकृतिषु च समयोनावसिका द्विककालं यावत् यथाप्रव पिपरस्याः प्रकृतेरष्टगण इत्यर्थः। यथा कपकमधिकृत्य संज्वलनसं संक्रमेण पूर्ववत् संक्रमयति एवं संज्वलनक्रोधे सर्वात्मनोप क्रोधस्य मासघ्यं जघन्यस्थितिबन्ध एको मासम्ततस्तस्य कोशमयति यदेव संज्वलनक्रोधस्य बन्धादयः उदीरणाव्यवच्चिन्ना धचरमोदयकाने चतुर्मासप्रमाणो बन्धः प्रवर्तमानः स्वजघन्यस्तदेव संज्वलनमानस्य द्वितीयस्थितः सकाशात दलिकमाकृष्य बन्धापेकया चतुर्गुणो भवति ततोऽपि परा प्रकृतिर्माया स्यात् तप्रथमस्थितिं करोति निवेदयते च तत्रोदयसमये स्तोकं प्रतिपति दामीमगणो बन्धस्तस्या हि वपकमधिकृत्य स्वचरमोदयकाले द्वितीयस्थितावसंख्येयगुणं तृतीयस्थितावसंख्येयगुणमेवं तावत् जघन्यः स्थितिबन्धोऽर्डमासस्ततः क्रोधचरमोदयकाले चतुर्मायावत् प्रयमस्थितेश्चरमः समयःप्रथम स्थितिप्रथमसमये संज्वन सिको बन्धः प्रवर्तमानः स्वजघन्यबन्धापेकया अपगुणो नवति नमानस्य स्थितिबन्धश्चत्वारो मासाः शेषाणां तु ज्ञानावरणीया तथा मानस्य क्षपकमधिकृत्य जघन्यो बन्ध एको मासः स चोपदीनां संख्येयानि वर्षसहस्राणि तदानीमेव च श्रीनपि मानान् शमके मन्दपरिणामत्वात् द्विमासप्रमाणो भवात मानस्य चानयुगपऽपशमयितुमारजते संज्वमानस्य च प्रथमस्थिती सम न्तरा प्रकृतिर्माया तस्यास्तदानीं चतुर्गुणःपक्कापेक्वया मासद्वयस्य योनावलिकात्रिकशेषमप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानदविकंसं चतुर्गणत्वात् तथा मायायाःवपकमधिकृत्य जघन्यो बन्धः एकः ज्वलनमानं प्रतिपति किं तु संज्वलनमायादौ आवलिका पक्कः सर्योपशमे मन्दपरिणामत्वात् चरमोदये मासप्रमाणप्रवद्विकशेषायां स्वागासो व्यवच्छिद्यते तत उदीरणैव कवला प्रब मानष्गुिणो जवति शेषकर्मणां तु ज्ञानावरणीयादीनां सर्वतते साऽपितावत यावदावबिकाचरमसमयः तत एका प्रथम- त्रापि संखोयवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धः केवलं पूर्वस्मात् हीनो स्थितेरावलिका शेषीतता तिष्ठति तस्मिश्च समये संज्वसनानां हीनतर शत । संप्रतिसंज्वलनशोभवक्तव्यतामाह । द्वो मास स्थितिबन्धः कर्माशेषाणां तु संख्येयानि वर्षाणि तदा लोजस्स उ पढमविई, विश्रो य कुण तिविनागं । नीं संज्यमनमानस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नाः । अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानौ चोपशान्तौ तदानी च संज्वलनमान दो पुग्गलनिक्खेवो, ततिइओ पुण कि.ट्टिवेयका ।। स्य प्रथमस्थितिरेकामावलिकां समयोनाबलिकाहिकबकाश्च लोजस्य द्वितीयस्थितेर्दलिकमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति सात्रि बता मुक्त्वा विशेषमन्यत्सर्वमुपशान्तं तदानीमेव च संज्व भागा त्रिनागोपेता तद्यथा प्रथमो विनागोऽश्वकर्णकरणासासं. सममानस्य प्रथमस्थितेरेकामावलिको लोभमावलिकाधिक का द्वितीयः किट्टिकरणासासंशः तयोश्च द्वयोरपि विभागयोर्दबाध बता मुक्त्वा विशेषमन्यत्सर्वमपशान्तं तदानीमेव च लि निक्केपो जवात किमुक्तं नवति द्वितीयस्थितेर्दसिकमावृप्य संज्वलनमायायां द्वितीयस्थितेदलिकमाकृष्य प्रथमस्थिति करो बिनागप्रमाणां प्रथमां स्थितिं करोतीति । तृतीयः पुनः विजागः ति वेदयते च पूर्वोको संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितिसत्कामेका किहिवेदनाका संज्वलनलोनोदये घाश्वकर्णकरणाद्वायां वर्तमानः मायलिकां स्तिकसंक्रमेण संज्वहनमायायांप्रतिपति समयोना प्रथमसमय एव त्रीनपि लोभान अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरवधिकाछिकयझाश्च बताः पुरुषवेदोक्तक्रमणोपशमयति संक्र- णसंज्वलनरूपान् युगपदुपशमितुमारभते अन्यश्च यत्करोति मयन्ति च संज्वलनमायोदयप्रथमसमये च मायाबओभयोधौमा प्रथमे अश्व कर्णकरणाझासं विभागे तनाह । मो स्थितिबन्धः शेषकर्माणां तु संख्येयानि वर्षाणि तत्समयादेव संतावज्झमाणग, सरूवनुप्फुङगाणि जं कुण। चारज्य तिस्रोऽपि माया युगपऽपशमयितुमारनते ततः संज्वल- सा अस्सकमकरण-द्धति माकिट्टिकरणका॥ नमाया प्रथमस्थिती समयोनावक्षिकाविशेषायामप्रत्याख्यान- सन्ति विद्यमानानि यानि संक्रमितानि मायावार्मदलिकानि प्रत्याख्यानावरणमाया दक्षिकसंज्वलनमायायांन प्रक्विपति किं पूर्व बरूसज्वलनस्रोने दलिकानि वा तानि वध्यमानस्वरूतु संज्वानोभे आवलिकाविशेषायां त्वागासो व्यवच्छिद्यते पतस्तत्कालवध्यमानसंज्वानहोनरूपतया किमुक्तं भवति ततत नदारणेव केवाप्रवर्तते साऽपि तावत यावदावलिकाचरम- स्कानबध्यमानसंज्वलनलोजस्य द्विकानि चात्यन्तिरसामि यत्र समयः तस्मिश्च समये संज्ववनमायालोनयोः स्थितिबन्धयो. करोति सा अश्वकर्णकरणाद्धा श्यमत्र नावना अश्वकर्णकररेको मासः शेषकर्मणां तु संख्येयानि वर्षाणि तदानीमेव च णासासंझे प्रथमे त्रिभागे वर्तमानसंक्रमितमायादलिकेच्या संमज्वलनमायायां बन्धोदयोदोरणाव्यवच्छेदः अप्रत्याख्यानप्रत्या- ज्वलनलोभसत्केन्यो वा पूर्वस्पर्ड केज्यः प्रतिसमयं दलिक ख्यानावरणमायोपशान्ते संज्वलनमायायाश्वप्रथमस्थितिसत्का- गृहीत्वा तस्य चात्यत्तदीनरसतामापाद्य पूर्ण च प्रतिसमय मेकावत्रिकां समयोनावालकां द्विकबद्धाश्च अतामुक्त्वा शेषमन्य- दक्षिकं गृह्णन् अपूर्वाणि स्पर्ककानि करोति आसंसार हि Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६७ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवसमणा परिमता न कदाचनापि बचापानि कृतानि किं तु संप्रत्येय विशुरूवात्करोतीत्यर्थः पूर्वाणि (स. ति तथा रूपाणि वा पूर्वाणि स्पर्ककानि कुतः संख्येयेषु स्थितिबन्धषु गतेषु सत्सु अश्वकर्णकरणका व्यतिक्रामति रातो मध्यमा द्वितीयाका प्रवर्तते तदानीं च संज्वलनलोजस्य स्थितिबन्धो दिनपृथक्त्व प्रमाणः शेषकर्म्मणां तु वर्णपृथक्त्वमानः किट्टिकरसाद्वायांच] पूर्वस्पर्द्धकेभ्यश्च दलिकं गृहीत्या प्रतिसमयमनन्ताः किडी- करोति संयति किट्टिस्वरूपं प्रथमसमयोदये यावतीः किट्टी: करोति तदेव प्रतिपादयति । 1 पुष्यविसोही अणुभागो विजजणं किट्टी | पदमसमयम्मिरसम-वग्गणा व जागसमा ।। तं अपूर्वा चिया अनुभागस्य जनस्य एकोत्तरस्यापनयनेन दीनतरस्य यत् पिभजनं खा किंह्निः किमुक्तं भवति पूर्वप केभ्यो ऽपूर्वस्पर्द्धकेभ्यश्च वर्गणा गृहीत्वा तासामनन्तगुगां हीनरसतामापाद्य वृहत्तरलतया यदपस्थानं यथाऽऽसां वर्गणानामसंकल्पनया अनुभागरसभागानां शतं प्रयुतरं द्वत्तरमेोचरमासीत् तासामनुभागानां यथाक्रमं पञ्चविंशति पञ्चदशकं पञ्चकमिति ताः किद्वयस्ता एकस्मिन् रसस्पर्कके अनुभागस्पर्धके या अनन्ता वर्गणास्तासामनन्ततमे जागे यावत्या वर्गाणास्तावत्प्रमाणाः प्रथमसमये करोति ताश्चानन्तानुबन्धाः किं तु सर्वज्ञपन्यानु जागरूप के कनुभागेग सदशाः करोति न तु ततोऽपिहीनाः उच्यन्ते ततोऽपि हीनास्तथा चाह । सव्वजहनए फडग, असंतगुणहाणिया उ सारसयो । समयस आइमसमया उ जायचो ॥ यत् सर्वजघन्यं रसस्पर्ककं ततोऽपि रसमधिकृत्य ताः किट्टी रनगुणहानिका अनन्तगुणहीनाः करोति ता आदिमसमपात्रता प्रतिसमयमसंख्येयांशान् प्रतिसमयं पूर्वस्मात् असंख्येयनागमात्राः किट्टीस्तावत्करोति यावदर्वाक्विट्टिकरणाखा चरमसमयः इयमत्र नावना प्रथमसमये प्रभूताः किट्टीः करोति द्वितीयसमये असंख्येयगुणहीना एवं तावद्वाच्यं यावत् किट्टिकरणाद्धाया धरमसमयः । समयमसंखगुणं दलियमतं स उ अणुभागो । सव्वे मंदरसमा - इयाण दलयति सेसूणं ॥ अनुसमयं प्रतिसमयं दल्लिकसंख्येयगुणं तद्यथा प्रथमसमये सकनकट्टिगत दलिकं सर्वस्तोकं ततोऽपि द्वितीयसमये कृतासु किष्विनन्तगुणहीनं ततोऽपि तृतीयसमये कृतासु किट्टी वनन्तगुणहीनम् एवं तावद्वाच्यं यावत्किविकरणाद्धाचरमसमयः । तथा सर्वेषु मन्दरसादिकानां जघन्यरसतां कीनां इसके विशेषो न पापं यावत्सर्वोत्कृपरस ि इयमत्र भावना सर्वेषु या निवर्त्तिताः किड्डयस्तासां मध्ये या मन्दरसास्तासां दलिकं सर्वप्रभूतं ततोऽनन्तरेणानुनागेनानन्त गुणेनाधि. काया कि दक्षिकं विशेषीमं ततोऽप्यन्तरानुमा मन्तगुणेनाधिकार्या तृतीयस्यां किट्टी विशेष हीनमेवमनन्तरानुनागाधिकासु किट्टिषु विशेषहीनं तावइवसेत्प्रथसमयकृतानां किडीनां मध्ये सर्वोत्हरसा किति एवं स ध्यासमयेषु प्रत्येकं भावयितव्यम् । आइमसमयका मंदारसो अगुणो । सकस्स गा वि उवरिमसमयस्स तसे ।। , डु, उवसमणा आदिमसमयकृतानां प्रथमसमयकृतानां मन्दादीनां जघन्यर सादीनां रसो यथोत्तरमनन्तगुणो वक्तव्यस्तद्यथा प्रथमसमयतानां किट्टीनां मध्ये सर्वा मन्दानुभागा किट्टिः सा सर्वस्तोकाभागा ततो द्वितीया श्रनन्तगुणानुभागा ततोऽपि तृतीया अनन्तगुसानुभागा एवं वायद्वाच्यं यावत्प्रथमसमानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्टानुभागा किट्टिरिति । एवं द्वितीयादियपि समयेषु किट्टीनां प्ररूपणा कर्त्तव्या । तथा सर्वोत्कृष्टरखापि सर्वोत्कृानुभावाऽपि निश्चितमुपरितनसमयस्य सरका पश्चात्समयभाविखर्वमन्दानुभागधिपेयाऽनन्ततमे भागे वर्तते तद्यथा प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वमन्दाभागा कि सा सर्वप्रभूतानुभागा ततो द्वितीयसमयतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्टानुभागा किट्टिः साऽनन्तगुणहीना । तथा द्वितीयसमयकृतानां मध्ये या सर्वमन्दानुभागा किट्टि - स्तदपेकृया तृतीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृानुभा गाऽनन्तगुणहीना एवं तावद्वक्तव्यं यावश्चरमसमयः । संप्रत्यासामेव किट्टीनां परस्परं प्रदेशयत्वमुच्यते प्रथमसमयतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वा बहुप्रदेशा किट्टिः सा स्तोकप्रदेशा ततो द्वितीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वाल्पप्रदेशा किहि सा अप्रदेश ततस्तृतीयसमयकृतानां कि डीनां मध्ये या सर्वाल्पप्रदेशा सा असंख्येयगुणप्रदेशा एवं तावद्वक्तव्यं यावश्चरमसमयः ॥ किट्टीकरणदाए, ति आवलिया समग्रहीषासु । ते पटिगड़िया दोष वि स उवसमति । किकरणायायास्तिसुवासिका समय होना पड़ता न भवति अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणे लोभदलिकं संज्वलनलोभे संक्रमयतीति भावः किं तु तपोईयोरप्यप्रत्याख्यानत्याख्यानावरणलो भयोईलिकं स्वस्थान एव स्थितमुपशमं नबते व्यायलिकाषायां पुनः किट्टिकरणाद्वायां यादसंज्वल नलोभस्यागालो न भवति किं तुदीरशैव साऽपि तावत् याव दावलिका तथा किट्टिकरणाकायाः संश्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु संज्यलगलोभस्य स्थितिबन्धोऽ दर्शनावरणान्तरायाणां दिन पृथक्त्व प्रमाणानां नामगोत्रयोर्वेदनीयानां प्रभूतवर्षसहस्रमानस्ततः किट्टिकरणाद्धायाश्वरमसमये संज्वलन लोभस्य स्थितिबन्धो ऽन्तमुंड प्रमाणः केवलमिदमन्तर्मुहूर्त स्तोफचरममवसेयं ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामन्तरहोरात्रस्य नामगोत्रवेदयामां किचिनयद्वयमाणः श्रागालव्यवच्छेदानन्तरखण्डा या उदीरणावलिका तस्याश्वरमसमये कट्टिकरणादावरमसमयस्तस्मिन् किट्टिकरणाद्वाचरमममये यरभूत् तद्वरा । लोस्स वसंतं, किट्टी उदयात्री य पुव्वत्तं । वायगुणाण समगं, दो पिलोजसमुपता ॥ किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमये संज्वलमलोभस्य तूपशान्तम्यह द्वितीयथितगर्त किट्टीकृतं दलिया च उदद्यावलिका कड़कर शेषीभूता यच पूर्वोकसम पोनावालाकि बद्धमित्यर्थः । शेषं सर्वमप्युपशान्तं तथा तम्रिय समये बादरगुणेन अनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानकेन समकं द्वायप्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरण लोभावुपशान्तौ किमुक्तं भवति । पमिव समये द्वावप्यन्यायाप्रत्याख्यान लोभायुपशान्ती तस्मिन्नेव समये प्रनिवृत्तिवाद संपरायगुणस्थानकं व्यवच्छेयम Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६८ ) अभिधामराजेन्ऊः | तबसमणा उपलकणमेतत् बादरसंज्वलनलोभोद योदीरणा व्यवच्छेद्याश्च । सेत, हे ताया कि पढमविई । वजयअसंखनागे, दिज्जुवारमुदीरए सेसा ॥ शेषाशेषं कालं तृतीये विभागे इत्यर्थः सूक्ष्मसंपरायो भ घति तास प्राकृताः किट्टीद्वितीयास्थितः सकाशात् किवतीः समाकृष्य प्रथमां स्थितिं तावती सूक्ष्मसंपरायाद्धातुल्यां करोति किट्टिकरणाद्धायामन्तिममावलिकामात्रं तितुकसंक्रमेण संक मयन्ति तथा प्रतिसमयान्तिमसमपकृताः किट्टीविया शेषसमयकृताः कियः सूक्ष्मसंपरावाद्वायाः प्रथमसमये प्राय उदयमपगच्छन्ति ( दिशेत्यादि ) वर्षसमयकृतानां किट्टीनामवस्तादसंख्येयभागं प्रथमसमयकृतानां चोपरितनसंख्येयममार्ग वयित्वा शेषाः किडीनदीरयति । तो यया, असंखजागं तु चरमसमयम्मि । नवसामियईपटिई, उसे सभ गुणद्वाणं ॥ समये प्राप्तानां किनामध्यभागं मुख्यति उपशान्तत्वादयेन ददातीत्यर्थः । अपूर्व वा संख्येयं भागमभावनार्थमुदीरणा करणे गृह्णाति । एवं ग्रहणमोकौ कुर्वन् तावत् काव्य या सूक्ष्मपरायाकायाश्वरमसमयद्वितीयस्थितिगतमपि दक्ष संपरायास प्रथमसमयादारज्य सकलमपि सासं परायगुणस्थान का यावत् पूर्वपशमयति सम योनासिकाविमपि दक्षिकं परायाकायाश्वरम सम ये ज्ञानावरणदर्शनाचरणान्तरायाणामन्तमसिकः स्थितिबन्धो नामगोत्रयोः षोडशमुहूर्त्तप्रमाणो वेदनीयस्य चतुर्विंशतिमुहूर्तमानः तस्मिय चरमसमये द्वितीयस्थितिगर्त कम मोहनीमुपशान्तं तत एवमुपशमित द्वितीयस्थितिरमन्तर समये उपशान्तमुपशान्ततमोरूपं गुणस्थानं लभते । तो मुतमेचस्स वि संखेजा जागनुझा छ । गुणसेडी सम्बर्क तुटाय एसकासेहिं । अम्मा तत उपशान्तमोह गुणस्थानकं तस्याऽपि उपशान्समोर गुणस्थानका संख्येयः संख्ये नागरं गुणश्रेणी: करोति तास गुणश्रेणी: सर्वा अपि सर्वमप्युपशान्तगुणस्थानकाकाया अनुप्रदेशापेक्षया कालापेकया च तुल्याः करोति अवस्थितपरिणामावात् । करणाय नोवसंतं, संकमणो वट्टणं मुदिट्ठितिगं । मां विसेसेणं, परिवदर जा पमनोति ॥ मोहनीयस्य प्रकृतिजलमुपशान्तं सत् करणाय करणयोग्यं न जयति उदीरणानिनिकावितानां करणानामयोग्यं प्रयतीत्य संक्रमणाच सम्यत्वं सम्यमिध्यात्वरूपशेपाणां मोदनीयप्रकृतीनां न भवति दृष्टिकेतुमण वनवति तत्र संक्रमो मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वयोः सम्यक्त्वम् अप वाणामपि एवं कोन आणि प्रतिपक्षस्य यदा तु मानेन आणि प्रतिपद्यते तदा माने वेदमान प्रथम नपुंसक वेदोककमेोपशमयति ततः क्रोधोक्तप्रकारेण त्रिक शेषं तथैव यदा तु मायया श्रेणि प्रतिपद्यते तदा मायां वेदयमान एव प्रथमतो नपुंसक वेदोक्तप्रकारेण क्रोधत्रिकं ततो मानत्रिकं ततः क्रोधोक्तप्रकारेण मायात्रिकं शेषं तथैव । यदा तु सोजेन श्रेणि प्रतिपद्यते तदा लोनं वेदयमान एव प्रथमतो नपुंसक वेदोक्तप्रकारेमानतितो माया प्रकारेण श्रो तबसमणा त्रिकमिति । संप्रति प्रतिपात उच्यते सोऽपि द्विधा नवकर्येण अकायेण च तत्र वक्कयो म्रियमाणस्य अकाय उपशान्तादयोच्छेदः तत्र 'यो भवकयेण प्रतिपतति तस्य प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि कारणानि प्रवर्तन्ते च प्रथमसमये च यानि कर्माएयुदीर्यन्ते तान्दा कार्या प्रवेशयन्ति यानि य मोहोदरिणामा यानि तेषां कन्यायसिकाया यरि गौपुकार संस्थितानि विरचयति यः पुनरुपशान्तमोगुणस्थानकाखापरिक्षण प्रति पतति किमु भवति येनैव क्रमेण स्थितिघातादीन् कुरु ढास्तेनैव क्रमेण पश्चानुपूर्व्या स्थितिघातादीन् कुर्वन् प्रतिपतति स च तावत् प्रतिपतति यावत् प्रमत्तसंयतगुणस्थानकम् । डालिये, पदम लिई कृण विश्वतिर्हितो | उदयाइविसेसू प्रावलि असंखगुणं ॥ उपशान्तमोगुणस्थानकान् प्रतिपतनक्रमेण संस् निकम्पनुभवति यथा प्रमत्तः संचलनसो तो पत्रमा योदयन्ययच्छेदस्तत आरभ्य मायां ततो यत्र मानोपय स्ततः प्रकृतिमानं ततो यत्र क्रोधोदयव्यवच्छेदस्तत प्रय शेषः शयं च ममेणाशुनयनार्थ तेषां द्वितीयस्थितः स काशात दलिकमपकृष्य प्रथमस्थितिं करोति उदयादिषु च उदयसमयप्रभृतिषु असंख्येयगुणं ततोऽपि द्वितीय समये असंख्यवगुणं ततोऽपि तृतीयसमये असंख्येयगुणमुदयवतीनामापाणी शिरः तथा पुनरपि मे विशेबहीनो दलिकनिक्षेपः एतदेवाह । र जावया गुणासेदी, उदयवई तासु हीागं परती | दयावतीमकाय, गुणसेढी कुरण इयराणं ॥ या उदयवत्यस्तत्काल मुदयभाजस्तासां प्रकृतीनां यावाती गुणचित्राणीशिर इत्यर्थः तावदुदयायला उपरिप्रागुक्तक्रमेण संख्येयगुणं दलिकनिकेपं करोति ततः परतो हीनकं विशेषनमितरासादयतीन प्रकृतीनामुदयाठिकाया दलिनिमहत्या इत्यर्थः तत उपरि संदेयगुणतया दलि निशेषःसा गुणश्रेणी शिरस्ततः परतः पुनर्विशेषमा संकम उदीरणार्थ, नस्थि विसेसो एत्य पुम्वत जं जदिए पछि, जायर वा होइ à तस्थ || ह य उपशमश्रेणयारोहे संक्रमे विशेष उक्तो यथाऽनुपूच संगम नानानुपूर्वी तथा व उदीरणायां विशेष यथावद्धं कर्म पमावलिकातीतमुदीरयति न पावलिकामध्ये विशेषोऽशेषसमणिप्रतिपालेन न प्रयति किमुकं भवत्यपूयोऽपि कर्मावतिकासिकान्तमुदीरयतीति तथा पद्मस्थानं व्ययमुपगतं वा संक्रमणं या अपना उद रणं वा देशोपशमना वा निधत्तिनिकाचनं वा तत्तत्र स्थाने नवति तथा यत्र यत्र च स्थाने जातं स्थितिरसघातादि तत्र स्थान तद्विधमेव जयतीति । बेयमाण संजलण, कालतो अहिगमो ह गुणसंदी । पविचकम्मा उदर, तुला सेसफिम्मेहि।। मोदी मोदी यकृतानां गुणश्रेणिका नानां संज्वलनकालादप्यधिका प्रतिपतिता सती प्रारभ्यते समारोहका गुणा मुख्या तथा यस्य कषायस्योदय उपशमश्रेणिप्रतिपत्तिरासीत् तस्योदयप्राप्तस्य सतो गुणश्रेणिः प्रतिपतिता शेषकम्म निःशेषकम्मशतगुणाश्रेणिभिः सह Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६९) जवसमणा अभिधानराजेन्द्रः। जवसमणा तुल्या क्रियते यथा कश्चित् संज्ववनक्रोधेन उपशमश्रेणि प्रति- तत्र नेति एवं पुरुषवेदेनोपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य विधिसक्तः। संप्रति पन्नस्ततः श्रेणि प्रतिपतत् तदा संज्वलनधिमुदयेन प्राप्तवान् स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन चोपशमणि प्रतिपद्यमानस्य विधिमाह भवति ततःप्रभृतितः स्वगुणश्रेणिशेषकर्मभिः समाना नवति दुचरिमसमये नियणा, यस्स इत्यी नसगो मम । एवं मानमाययोरपि वाच्यं संज्वलनलोभेन पुनरुपशमश्रेणि प्र. समइत्तु सत्त पच्छा, किं तु नपुंसो कमारके ॥ तिपन्नस्य प्रतिपत्तिकाने प्रथमसमयादारभ्य संज्वानोभस्य गुणश्रेणिनिः सह तुल्या प्रवर्तते शेषकर्मणां तु यदागेहत उक्तं स्त्री नपुंसकस्य वेदेन सहान्योन्यं परस्परं वेदमुपशमयतिकिमु. तं भवति स्त्री स्त्रीवेदमुपशमयति नपुंसकवेदं च नपुंसको नपुंतदेव प्रतिपततोऽप्यन्यूनातिरिक्तं वेदितव्यम् । सकवेदमुपशमयति स्त्रीवेदं चेति किं तु नपुंसकगते सति पूर्वखवगुवसमगम्मि एव्य, गणे दुगुणो तहिं बंधे। क्रमेणारब्धे सत्युक्तप्रकारेणापशमयति इह चोपशमनकरणे अनागो तगुणो, अनुनागे सुभाण विवरीओ।। स्त्रिया नपुंसकस्य च निजकोदयस्य स्ववेदोदयस्य द्विचरमसमये कपकस्य कपकश्रेणिमारोहतो यस्मिन् स्थाने यावान् स्थितिब- एकेन्द्रियस्थिति मुक्त्वा शेषं सर्वमुपशातमित्थं च शमयित्वा न्धस्तस्मिन्नेव स्थाने उपशमश्रेणिमारोहतस्तावान् स्थितिबन्धो स्त्री नपुंसको वा पश्चात्स पुरुषवेदादिकाः प्रकृतीरुपशमयति । द्विगुणो भवति ततोऽपि तस्मिन्नेव स्थाने उपशमश्रेणितः प्रति- श्यमत्र भावना । इह स्त्री उपशमश्रेणि प्रतिपन्ना सती प्रथमतो पततो द्विगुणो नवति कपकसत्कस्थितिबन्धापेकया चतुर्गुणोज- नपुंसकवेदमुपशमयति पश्चात् स्त्रीवेदं तश्च तावपशमयति बतीत्यर्थः। तथा कपकस्य यस्मिन् स्थाने अशुभप्रकृतीनांयावान् यावस्वोदयस्य विचरमसमयस्तस्मिंश्च निजकोदयस्य द्विचरअनुभागो जवति तदपेक्कया तस्मिन् स्थाने तासामेव शुभप्रकृ- मसमये एकां चरमसमयमात्रामुदयस्थिति च वर्जयित्वा शेषं तीनामुपशमश्रेणीतःप्रतिपतितोऽनन्तगुणः(सुभाणविवरिओत्ति) सकलमपि स्त्रीवेदसत्कं दनिकमुपशमितं ततश्चरमसमये गते शुनानां पुनरनुनागो विपरीतो वाच्यः स चैव उपशमश्रेणीतः सति अवेदके सति पुरुषवेदहास्यादिषट्करूपाः सप्तप्रकृतीयुगपप्रतिपतितो यस्मिन्स्थाने गुजप्रकृतीनां यावानगुन्नागो भवति दुपशमयितुमारजते शेष पुरुषवेदेन च श्रेणिप्रतिपन्नस्य व्यं तदा तदपेकया तस्मिस्थाने • तासामेव शुभप्रकृतीनामुपशमकस्या- स्त्रीवेदेन पुरुषवेदेन वा उपशमणि प्रतिपद्यमानो यास्मन् स्थाने नुनागोऽनन्तगुणस्ततोऽपि तस्मिन्नेव स्थाने तासामेव शुजप्रक- नपुंसकवेदमुपशमयति तहरं यावन्नपुंसकवदेन श्रेणि प्रतिपन्नःसतीनां कपकस्यानन्तगुणः । न्नपंसकवेदमेव समुपशमयति तत ऊर्द्ध नपुंसकवेदं युगपदुपपरिवाडीए पमियो, पमत्तइयरत्तणे बहुति किच्चा ! शमयितुं अनः स च तावतो यावन्नपुंसकवेदोदयो द्विचरमदेसजई सम्मो वा, सासणभावं वए कोई ।। समयः तस्मिश्च स्त्रीवेद उपशान्तः नपुंसकवेदस्य च एका उद्यथा परिपाट्या श्रेणिमारुढस्तथा परिपाट्या पतितःसन् ताव गमात्रा उदयमात्रस्थितिवर्तते शेषं सर्वमप्युपशान्तं तस्यामप्युदधो गच्चति यावत् प्रमत्तसंयतगुणस्थानकं ततः प्रमत्तत्वात्प्र दयस्थितावतिक्रान्तायामवेदको भवति ततः पुरुषवेदादिकाः समत्तत्वे बहुन्वारान् कृत्वा कश्चित् देशयतिर्भवति कोऽप्यविरत- प्त प्रकृतीर्युगपपशमयतीति । तदेवमुत्ता साप३.मना । सम्यग्दृष्टिा येषां मनानन्तानुबन्धेनानुपशमना न जयति तेषां . संप्रति देशोपशमनामभिधातुकाम आह । मतेन कश्चित् सासादनमपि ब्रजति ॥ मुलुत्तरकम्माणं, पगावियाइ होइ चनभेया। उवसमसम्मत्तद्धा. अंतो आउखया धवं देवो। देसकरणेहिं देसं, समझ जं देसुममानो ॥ जेण तिसु ानगेसु, बच्चेसु सा सेढिमारुहइ ।। देशोपशमना मूबकर्मणां मूलप्रकृतीनामुत्तरकर्मणामुत्सऔपशमिकसम्यक्त्वाकायां वर्तमानो यदि कश्चिदायुःक्वयात् रप्रकृतीनां प्रत्येक प्रकृतिस्थित्यादिका प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदे. काल कति तर्हि ध्वमवश्यं देवो भवति येन यस्मात्कारणात शविषया चतुर्नेदा चतुर्विधा जयति इयमत्र नावना । देशोपशत्रिषु नारकतिर्यग्म पुण्यसंबन्धेष्वायुष्केषु श्रेणिमुपशमणि ना- मना द्विधा तद्यथा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च, रोहति किं तु देवायुष्क एव बके ततः कालं कृत्वा देव एव एकै.काऽपि चतुर्भदा तद्यथा प्रकृतिदेशोपशमना स्थितिदेशोजवतीति ॥ पशमना अनुनागदेशोपशमना प्रदेशोपशमना च । श्रथ कसेढीपमित्रो समो छ-डावलीसासणे वि देवेस। स्माद्देशोपशमनेत्यनिधीयते प्रत अाह । यत् यस्मात्कारणात एगवे मुक्खुत्तो, चरित्तमोहं उसमेन्ता ।। एकदेदातृताभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंशिताभ्यां करणाभ्यां प्रकृतिस्थित्यादीनां देशैकदेशं शमयत्यतो देशोपशमनाऽभिधीयस्मात्कारणात् देवायुर्वर्जेषु शेषेषु त्रियायुःश्रेणि नारोहति यते देशवृताभ्यां करणाभ्यामुपशाम्यतीति देशोपशमना । यदि तस्मात्कारणात् श्रेणीतः पतितः सम उत्कर्षतः धमावमिका वा देशस्य प्रकृत्यादीनामेकदेशस्योपशमना देशोपशमनेति कालं जघन्यतः समयमात्रं सासादनो भवति सोऽप्यवश्यं च्युत्या व्युत्पत्तेः ॥ संप्रत्ययावयवतात्पर्य विश्रान्तिमाह । देवेषु मध्ये समुत्पद्यते तथा एकस्मिन् नवे उत्कर्षतश्चारित्रमोहनीय द्वी बारानुपशमयति न तृतीयमपि वारं यस्तु द्वी वारानु उवस मयस्सुव्वट्टण-संकमकरणाई होति नन्नाई। पशमश्रेणि प्रतिपद्यते स तस्मिन् भवे कपकणि न प्रतिपद्यते देसोवसामिय जम्हा, पुवो सबकम्माणं । यस्वेकवारमुपशमणि प्रतिपन्नस्तस्य भवेदपि तस्मिन् भवे देशेपशमनया उपशमितस्य कर्मण बर्तनसंक्रमलतणानि कपकणिः । एवं कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः। श्रागमानिप्रायेण त्येक जवन्ति नान्यानि करणान्युदोरणाप्रवृत्तीनि एष देशोपशमनायाः स्मिन् नवे एकामेव श्रेणि न तुहितीयामपि तदुक्तं "अन्नयरसेढि सर्वोपदमनातो विशेषः। अनया या देशोपशमनया मूलप्रकृतिमु. वज, एग भवेणेव सव्वाई" । अन्यत्राप्युक्तं मोहापशम एक- त्तरप्रकृति वा उपशमयितुं प्रस्तावदयसेयो यावत् पूर्वः पूर्वकस्मिन् भवे स्यादसन्ततः यस्मिन् भये उवशमक्कयो मोहस्य रणस्थानकचरमसमयः। श्यमत्र नावना अस्या देशोपशमनाया: पतति ॥ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमगा स्वामिनः सर्वतिर्यञ्च एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजेदभिन्नाः सर्वे नारकाः सर्वे देवाः सर्वे मनुष्यास्ते च मनुष्यास्तावद्यावदपूर्वकरणान्तसमय इति एा चैव देशोपशमना सर्वेषामपि कर्मणामवगन्तव्या न मोहनीयस्यैव केवलस्य । स्वामिविषयमेकं च विशेषमाद स्वगो (१०७०) अभिधानराजेन्द्रः | समगोवा, पढमकसायाण दंसणविगस्स । देसोवसमा पुव्वकरगो जात्र देशोपशमनास्वामी देवरामकः प्रथमपायाणां दर्शन त्रिकस्य च कृपक यास्यस्यापूर्णकरणान्तगः । एतदुक्तं प्रयति । प्रथमकषायाणां विसंयोजना च तुर्गतिका पि उपशमका मनुष्याः प्रतिपन्नसर्वविरतेयें दर्शनत्रिकस्य कपका मनुष्या अविरत सर्वविरता उपशमकाः सर्वविरतास्तावदेशोपशमनाकारिणे यावत्स्यस्यापूर्यकरणचमसम यो व परत इति संप्रति साचादिरूपणार्थमाह । साइयमाइ चउद्धा, देसुवा प्रणामंतीणं । चरणं सा अवसर पाइयो वा ॥ अनामित्यादिसत्ताकास्तासां देशोपशमना चतुः प्रकारा तद्यथा सादिरनादिवाऽध्रुवा च । तत्र मूलोत्तर प्रकृतीनामष्टानामपि अपूर्वक रणगुणस्थानकात्परतः सा देशोन प्रवर्तते ततः प्रतिपाते च भूयोऽपि प्रवर्त्तते इति सादिस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिर्भुवा अभव्यानां त्वधुवा भाविता मूलोत्तरप्रकृतीनां साद्यादिरूपतया चतुर्विधा देशोपशमना । संप्रत्युत्तरप्र कृतीनामनादिसत्कानां सा भाव्यते तत्र वैक्रिय सप्तकाहारकसतक मनुष्य द्विकदेवद्विकनारकद्विकसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वो थेगौत्ररूपोऽञ्जनयोगत्रयोविंशतितीर्थकराश्चतुण्यवजः शेषात्रिशङ्खत्तरशतसंख्याः प्रकृतयोऽनादिसत्ताकास्तासां मध्ये मिथ्यात्यानन्तानुबन्धिनां स्वस्यपूर्वकरणात्परतो देशोपशमना नोपजा यशेषकर्मणां त्वपूर्वकरणगुणस्थानकात परतः स्थानात् च्यवमानस्य भूयोऽपि जायते इति सादिस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिर्भुवा वा अभव्यजन्यापेक्षया यास्त्वध्रुवा अध्रुवसत्ताकाः प्रकृतयोऽनन्तरोक्ता अष्टविंशतिसंख्याकास्ता देशोपशमनामधिकृत्य साद्यवास्तासां देशोपशमना सादिरध्वा चेत्यर्थः । साद्यभुवता अध्रुवसन्तावदेव समवसेया । - संप्रति प्रकृतिस्थानानां साचादिप्ररूपणार्थमाह । गोपाषाणं दो चउत्पद्वाण हो सनए । साइयमाइ चडका, सेसा एगवाणस्स || इह गोत्रस्य देशोपशमनामधिकृत्य द्वे प्रकृतिस्थाने तद्यथा दे एफा च तत्रानुवलितांचेगोत्रस्य द्वे उदलितोगों स्का तथा श्रायुषोऽपि द्वे प्रकृतिस्थाने तद्यथा द्वे प्रकृती एकाच । तत्र श्ररूपरभवायुष्कस्य एका बद्धपरभवायुषो द्वे एतेषां च चतुर्णामपि स्थानानां देशोपशमना सादिरधुवा च स्थानानामपि स्वयं साद्यवत्वात् तथा "उत्थवठाण होइ सतरहमिति " तत्र यथासंख्येन पदयोजना तत्र चतुर्थ मोहनीयं तस्य देशोपशमनयोग्यानि पर प्रकृतिस्थानानि तद्यथाविशतिः चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः पतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिश्च शेषाणि पुनरनिवृतिवाद प्राप्यन्ते इति देशोपशमनापोग्यानि भवति तत्राविशतिस्थानं मिथ्यासासादनस दृष्टिवेदक सम्यग्दृष्टीनां प्राप्यते सप्तविंशतिस्थानमुद्वलित उवसमणा सम्यकस्य सम्यमिध्यारी पाँशतिस्थानम् इलितसम्यकसम्यग्मिध्यात्वस्यानादिमध्याहऐ पशि विंशतिसत्कर्मणो मिथ्याः सम्ययमुत्पादयोऽपूर्वक रणात्परतो वेदितव्यं तस्या मिथ्यात्वदेशोपशमनाया श्रभावातू तथा अनन्तानुबन्धिनामुइलने पूर्व करणात्परतो वर्त्तमानस्य चतुर्विंशतिस्थानं चतुर्वशतिको वा चतुर्दिशतिकानं क्षेपिसप्तकस्य एकविंशतिस्थानम् श्रत्र पविंशतिलक्षणस्थानं मुक्त्वा शेषाणां पञ्चानामपि स्थानानां देशोपशमना साद्यध्रुवस्थानानामपि स्वयं कादाचित्कत्वात् परविशतिस्थानस्य चतु तद्यथा सादिरनादिया अक्षया । तखितसम्पत्यसम्यग्मिथ्यात्वस्य सादिरनादिमध्याप्रेरनादिया अभ व्यानां भव्यानान्वध्रुवा तथा षष्टानामनन्तस्य देशोपशमनाय - ग्यानि सप्त स्थानानि तद्यथा त्र्युत्तरशतं द्वघुत्तरशतं षष्ठवतिः पञ्चनवतिः त्रिनवतिः चतुरशीतिर्ह्यशीतिश्च तत्रादिमानि चत्वा रिस्थानानि यावदपूर्वकरणगुणस्थानकचरमसंमयस्तावद्वेदितव्यानि न परतः शेषाणि च त्रीणि त्रिनवतिचतुरशीतियशीतिरूपाणि एकेन्द्रियादीनां पति णिप्रतिपद्यमानानां शेषाणि तु स्थानानि अपूर्व कर स्थानकात्परतो भ्यानमा गिति न देशोपशमनयोग्यानि यपि च स्थानेषु देशेोप मना सायअवस्थानानामपि स्वयमनित्यत्वात् पातु ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनान्तरायाणां देशोपशमनामधिकृत्यैकैकं प्रकृतिस्थानम् । तत्र ज्ञानावरणस्यान्तरायस्य च प्रत्येकं पञ्च प्रकृत्यात्मकं स्थानं दर्शनावरणस्य नवप्रकृत्यात्मकं तृतीयस्य द्विमत्यात्मकम पांच देशोपशमना खायादिभेदाच तुर्द्धा चतुःप्रकारा तद्यथा सादिरनादिर्भुवा अध्रुवाच । “साइयमाइचउद्धा सेसाणं एगगणस्स " तत्रापूर्वकरणगुणस्थानकात्परतो न भवत्युपधेणिस्ततः शमप्रतिपाते च भूयोऽपि भवतेि। ततः सादिस्तस्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः पाऽध्या भव्या भव्यापेक्षया । उक्ता प्रकृतिदेशोपशमना । संप्रति स्थितिदेशोपशमनामाद वसामणा दिईओ, नकोसा मे तुलाओ। इषरा वि किंतु अभने, उज्वल अपुष्यकरणं ॥ स्थितिविधातिषा कृतिविषयाच एकैकाऽपि द्विधा तद्यथा उत्कृष्टा जघन्या न्र तत्र सूत्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिर्देशोपशमना मंत्रमेण मुक्तं प्रति यः प्रस्थति मस्याम प्रतिपादितो यथास्थिति संक्रम्य साधणातासमु कृष्ट स्थितिदेशेोपशमनायामपि पापमितस्थिति जघन्यास्थिनिर्देशोपशमनासंक्रमेण तुल्या जयस्थिति संक्रम किंचिजम्पमायोग्यस्थिती वर्तमानस्य तस्यैव प्रायः सर्वकर्मणामपि जघन्यायाः स्थितेः प्राप्यमाणत्वात् याच प्रकृतयो भव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिकाले जयन्ति तासामुके अपूर्वकरणे या जधम्यस्थितिदेशोपशमनादि या प्रायोग्पाणां प्रकृतयमन्तिमा पस्योपसंख्येयभागमात्रे वर्त्तमाने तत्राप्याहारकसप्तक सम्यक्त्यसम्यग्मिव्याखानामेकेन्द्रियस्थाने केन्द्रियस्यशेष वैकियदेवकिनारकमनुष्यद्विकरूपाणामेके प्रियस्यैव अभ्यासान्याकरण वर्तमानस्येति । Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७१) उवसमणा अभिधानराजेन्द्रः। नवसमसेढि अणुनागपएसाणं, सुभाष जा पुज्वमिच्चझ्यराणं । णकामात्पूर्वमन्यन्तर्मुहर्तकासंयावदवदायमानवित्तसन्तत्यपूउक्कोसियर अरूविय, एगेंदी देससमणाए॥ वकरणं तिष्ठति तथा च तिष्ठमानश्च परावर्तमानाःप्रकृती शुना अनुनागप्रदेशोपशमनाय यथाक्रममनुनागसंक्रमप्रदेशसंक्रम पव बध्नाति नाशुनाः । अशुभानां च प्रकृतीनामनुनागं चतुः स्थानकं सन्तं द्विस्थानकं करोति गुनानां च हिस्थानकं सन्तं तल्या श्यमत्र भावना विविधा अनुभागदेशोपशमना तद्यथा ज चतुःस्थानकं स्थितिबन्धेऽपि च पूर्ण सति अन्यं स्थितिबन्धं घन्या उत्कृष्ट चतंत्र प्रपञ्चितंप्राक् उत्कृष्टानुभागप्रदेशोपशमनाया अपि तत्र शुनप्रकृतीनां सम्यग्दृष्टिनवरं सातवेदनीययशाकीयु पूर्वपूर्वस्थितिबन्धापेकया पक्ष्योपमासंख्येयभागहीनं करोति । च्चैनीमगोत्राणान्तूत्कृष्टानुनागे संक्रमस्वामी अपूर्वकरणगुण श्य करणकालात्पूर्वमन्तर्मुहर्त कालं यावदवस्थाय ततो यथास्थानकात्परतोऽपि नवति उत्कृष्टानुभागदेशोपशमनायाः पुनरु क्रमं त्रीणि करणानि प्रत्येकमान्तौहर्तिकानि करोति । तद्यथा स्कर्वतोऽप्यपूर्वकरणगुणस्थानपर्यवसानः स्वामी इतरासामशु यथाप्रवृत्तिकरणम्, अपूर्वकरणम्, अनिवृत्तिकरणम् । चतुर्थी तूपशान्ताका । तत्र यथाप्रवृत्तिकरणे प्रविशन् प्रतिसमयमनन्तभानां प्रकृतीमामत्कृष्टानुन्नागदेशोपशमना स्वामी च मिथ्याह गुणवृख्या विशुद्धया प्रविशति पूर्वोक्तं च शुनप्रकृतिबन्धादिकं हिरवलेयः श्तरस्या जघन्यानुनागोपशमनायास्तीर्थकरघर्जानां तथैव तत्र कुरुते न च स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणि गुणसंक्रसर्वा सामपि प्रकृतीनामजवसिक्षिप्रायोग्यजघन्यस्थितौ वर्त मं वा करोति तद्योग्यविशुद्ध्यभावात् प्रतिसमयं नानाजीवापेक्कमान एकेम्ब्यिस्वामी प्रतिपत्तव्यस्तीर्थकरनाम्नस्तु य एव या असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवजघन्यानुभागसंक्रमस्वामी सपव जघन्यानुनागदेशोपशमनाया अपि । प्रदेशोपशमनाऽपि द्विधा उत्कृष्टा जघन्या च । तत्रोत्कृष्ट न्ति षट्स्थानपतितानि च । अन्यच्च प्रथमसमयापेक्षया द्विती यसमयेऽध्यवसायस्थानानि विशेषाधिकानि ततोऽपि तृतीयप्रदशोपशमना उत्कृष्टप्रदेशसंक्रमतुल्या नवरं यथा कर्मणामपूर्व समये विशेषाधिकानि एवं तावद्वाच्यं यावद्यथाप्रवृत्तकरणसकरणात्परतोऽपि उत्कृष्टप्रदेशसंक्रमः प्राप्यते तेषामपूर्वकरणगुणस्थानचरमसमयं यावत उत्कृष्टप्रदशापशमनावाच्या जघन्या मयः एवमपूर्वकरणेऽपि द्रष्टव्यम् । अत एवैतानि स्याप्यमानाप्रदेशोपशमना अजव्यप्रायोग्यजघन्यस्थिती वर्तमानस्यैकेन्धि नि विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति स्थापना चेयम् । यस्यति समाप्तमुपशमनाकरणं तदेवमुक्तमुपशमनाकरणम् । पं० १२०००००००००००१६ १०००००००००००१५ सं० । प्राचा० (कर्मप्रकृतितो ग्रन्थोऽर्थतो नातिरिच्यते शब्दतस्तु G०००००००००१४ निनोऽपि न पृथगवस्थापितोऽभिधेयस्यैवोपादेयत्वात) ६००००००००१३ ४०००००००११ नवसमप्पनव-नपशमप्रभव-त्रि उपशम इन्धियनान्छिय ३००००००। जयस्तस्मात्प्रभवो जन्मोत्पत्तिर्यस्याऽसी उपशमप्रभवः इन्छि १०००००७ यमनोनिग्रहअभ्ये, पा० "अहिरनसो वझियस्स उवसमप्पभवस्स १००००५ नवबंभचेरगुत्तस्स " उपशमप्रनवस्येन्द्रियमनोजयोत्पन्नस्य ।। ह कल्पनया द्वौ पुरुषौ युगपत्करणं प्रतिपन्नौ विवक्ष्येते तत्रध०३ अधि। कसर्वजघन्यया विशोधिश्रेण्या प्रतिपन्नः प्रपरस्तु सर्वोत्कृष्टया नवसमयकाइकलिय-उपशमलब्ध्यादिकलित- पुं० ३ त० उ.| विशोधिश्रेण्या तत्र प्रथमजीवस्य प्रथमसमये जघन्या विशोधिः पशमन्युपकरणसब्धिस्थिरहस्तबन्धियुक्त,"अविसाई परलोए | सर्वस्तोका ततो द्वितीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोउवसमसझाश्कलिंओ य" पं० व०। ऽपि तृतीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा एवं तावद्वाच्यं नवसमलछाइजुत्त-उपशमलब्ध्यादियुक्त-पुं० उपशमनधिः यावद्यथाप्रवृत्तकरणाच्या संख्येयो भागो गतो नवति ततः परमुपशमयितुं सामर्थ्यलकणाऽऽदिशब्दाऽपकरणलब्धिः स्थिर संख्येय जागे गते सति चरमसमयजघन्यविशुरूसकाशात्प्रथहस्तलब्धिश्च गृह्यते ततस्ताभिश्च संयुक्तः संपन्नः । उपशमन मसयये द्वितीयस्य जीवस्य उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा ततोध्यादिकबिते, ध० ३ अधि०।। ऽपि यतो जघन्यविशुकिस्थानानिवृत्तस्तत उपरितनं जघस्वसमलछि-नपशमलब्धि-स्त्री. पग्मुपशमयितुं सामर्थ्य न्यविशोधिस्थानमनन्तगुणं ततो द्वितीयसमये उत्कृष्टा विशुकिध० ३ अधिः । उपशमनाकरणसामध्यें, "पजसो समितिगजु रनन्तगुणा तत उपरितनं जघन्यं विशोधिस्थानमनन्तगुणं तततो" लब्धित्रिकयुक्त उपशमलबध्युपशमश्रेणिश्रवणकरणलब्धि स्तृतीयसमये उत्कृष्टा विशुहिरनन्तगुणा । एवमुपर्यधश्च एकैकरणत्रयहेतुप्रकृष्टयोगन्धिरूपत्रिकयुक्तः क०प्र० । कविशोधिस्थानमनन्तगुणतया द्वयोर्जीवयोस्तावन्नेयं यावद्यथा प्रवृत्तकरणस्य चरमसमये जघन्यं पिाकिस्थानं ततः शेषाणि जवसमसार-नपशमसार-त्रि० उपशमप्रधाने, “ से किमाहु उत्कृष्टानि यानि विशोधिस्थानानि अनुक्तानि तिष्ठन्ति तानि निभंते! जवसमसारं खु सामा" कर्म। रन्तरमनन्तगुणया वृख्या तावन्नतव्यानि यावच्चरमसमये उत्कृउवसमसेढि-उपशमश्रेणि-स्त्री० उपशमनाप्रकारे, उपशमश्रेणि एं विशोधिस्थानम् । जणितं यथाप्रवृत्तिकरणम् (संप्रत्यपूर्वकरप्रकटयन्नाह। णमुच्यते।तपूर्वकरण प्रतिसमयमसंख्येयोकाकाशप्रमाणानि अणदंसनपुंसत्थी, वेयच्छकं च पुरिसवेयं च । अध्यवसायस्थानानि भवन्ति प्रतिसमयं च षट् स्थानपतितानि दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं नवसमे ।। ७ ॥ तत्र प्रथमसमये जघन्या विशोधिः सर्वस्तोका सा च यथाप्रवृतत्र प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिनामुपशमनाऽनिधीयते अविरत- तकरणचरमसमयसत्कोरकृष्टविशोधिस्थानादनन्तगुणा ततः प्रसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तानामन्यतमोऽन्यतमस्मिन् यो- थमसमय एवोत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि द्वितीयसमये गवर्तमानस्तेजःपन शुक्ललेश्यानामन्यतमलेश्यायुक्तः साकारो- जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयसमये जुपयोगोपयुत्तोऽतः सागरोपमकोटाकोटीस्थितिसत्कर्मा कार्म- कृश विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि तृतीयसमये जघन्या विशो. Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उयसम से ढि धिरनन्तगुणा पर्व अपत्यमुत्र वृद्ध्यायादपूर्वक रणस्य चरमसमये किरमन्तगुणा । स्थापना चेयम् । २५००००००००२६ २३०००००००२४ २१००००००‍ १२०००००२० १७००००१८ (२०७२) अन्निधानराजेन्द्रः | विशोधस्थानमम्गुणया पूर्वकरणे प्रविशन् स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणि गुण संक्राममवस्थितिबन्धं च युगपदारंभते तत्र स्थितिघातो नाम-स्थितिसत्कर्म्मणोऽभितः प्रतसागरोपम (शत) पू थक्त्वमात्रं जघन्यतः पल्योपमसंख्येयभागमात्रं स्थितिखरामं खएमयति तद्दलिकं वाऽधस्ताद्याः स्थितीने खएमयिष्यति तत्र प्रक्षिपति अन्तर्मुहूर्खेन कालेन तत्र स्थितिखएकमुत्कीर्यते खण्ड्यत इत्यर्थः ततः पुनरधस्तात्पल्योपम संख्येयनागमात्रं स्थि तिक्रमन्तर्मुन कामोरिति पूर्वोकप्रकारेणैव च निि पति यमपूर्वकरणायां प्रभूतानि स्थितिसहस्राणि तिक्रामति तथा च सत्यपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत् स्थितिस कम्मांस तत्तस्यैव चरमसमये संस्थेयगुणहीनम् । जातरसघातो नाम प्रकृतीनां यदनुभागं सत्कर्म तस्याऽनन्ततमनागं सुकवा शेषाननुभागमन कालेनाशेपानपि विनाशयति ततः पुनरपि तस्य प्रागुक्तस्यानन्ततमनागस्याऽनन्ततमं भागं सुरापानागमन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति पयमनेकान्य भागख येकस्मिन् स्थितिखाएके व्यतिक्रामति से स्थितिखान सदरपूर्वकरणं परिसमाप्यते गुणसामन्तर्तप्रमाणानां स्थितानामुपरि या स्थित वर्त मध्याहीत्या उदयापत्रिकाया उपरती प्रतिसमयमसंकपेयगुणतया निक्षिपति वद्यथा प्रथमसमये स्तोकं द्वितीयसमयेऽपेयगुणं तृतीयसमवेता मेयं यावदन्तर्मुहूर्त चरमसमयस्तच्चान्तर्मुहूर्तमपूर्वकरणानिवृसिकरणकाभ्यां मनानतिरिकं पतिम्यम् । एप प्रथमसमयगृहीतदक्षिकस्य निविधिः। एवं तयादि समयगृहीतानामपि दलिकानां निपो वक्तव्यः श्रन्यश्च गुणश्रेणिरचनाय प्रथमसमये यह स्तोपि द्वितीयसमयेऽसंकदेयगुणं ततोऽपि तृतीयेऽयेय एवं ताबा वह गुणणिकरण चरमसमयः भपूर्वकरणसमयेष्वनिवृत्तिकर एसमधेषु चानुभवतः श्रमशः कीयमाणेषु गुणवेदिलिफनि पः शेषे भवति उपरि चन वर्द्धत इति । तथा गुणसंक्रमां नाम अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये समन्तानुबन्ध्यादीनामप्रकृतीनां यह लिकं परप्रकृतिषु संक्रमपति तत्स्तोकं ततो द्वितीयसमयपरप्रकृतिषु संयमाणमयमसंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीयसम येऽसंख्येयगुणम् एवं तावद् वक्तव्यं यावच्चरमसमयः । तथा अम्यस्थितिबन्धो नाम अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽन्यापूर्व स्तोकः स्थितिबन्धः श्रारभ्यते स्थितिबन्धस्थितिघातौ युगपदेव निष्ठां यातः एवमेते पञ्च पदार्थ अपूर्वकरणे प्रवर्तन्ते व्याख्यातमपूर्वकरणम् । इदानीमनिवृत्तिकरणमुच्यते । अनिवृत्तिकरणं नाम यत्र प्रथिनां सर्वेषामपि तुल्यका छानामेवाध्यवसायस्यानम् । तथा हि श्रनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये ये वर्तन्ते ये च वृत्ता ये च वर्त्तिष्यन्ते तेषां सर्वेषामप्येकरूपमेवाध्यवसाय स्थानं समये वर्तन्ते ये च वृत्ता ये च वर्तिष्यन्ते तेषामपि वयसमसेटि सर्वेषामेकरूपमध्यस्थानं नवरं प्रयमसमयन्नाविविशोषि स्थानापेागुणम्। एवं तावाच्यं पादनिवृतिकरण चरमसमयः श्रत एवास्मिन् करणे प्रविष्टानां तुल्यकालानामशुम संधामध्यवसायस्थानानां परस्परं ि यते इत्यनिवृतिकरणं नाम विवृत्तिकर मयास्तावन्त्यभ्यवसायस्थानानि पूर्वस्मादनन्तगुणवृद्धानि एतानिच मुक्तावली संस्थानेन स्थापयितव्यानि । अमपि प्रथमसमयादारभ्य पुचाः पदार्थ युगप रणायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु सतु एकस्मिन् भागव्यवतिष्ठमाने अनन्तर बन्दिमामधस्तादावि प्रमाणमन्तरकरणमभिनव स्थितियन्धाकासमेत प्रमाणेन कालेन करोति अन्तरकरणाच दरम प्रकृतिषु वध्यमानासु प्रतिपति प्रथम स्थितिगतं दलिकमा सिकामात्रं वेद्यमानानामुपरि प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति अन्तरकरणे कृते सति दितीयसन्धिमामुपालनस्थितिदलिकमुपशमयितुमारजते । तद्यथा प्रथमसमये स्तोकमुपरामपति द्वितीयसमये तृतीयसमयेऽवगुणम एवं यदन्तकालम तावता कान सामान धनपति नयन्ति उपशमितानां धारेनर स दुनियर पिस्याभिषिष्य पणादिनिष्कुिटितो स्पन्दो भवति तथा कर्मरेणुनिकरोऽपि विशोधण परिषिच्य परिषिच्यानिवृत्तिकरणरूपद्रुघण निष्कुटितः संक्रमणोदयोदीरणानिशिनिकाचनकरणानामाग्यो भवति समे यामाचार्याणां मनानन्तरमुपशमनानिरिता अन्य त्याच मानापमान जवकिपि जनैव विसंयोजना क्षपणा सा चैवम् इह श्रेणिमप्रतिपद्यमाना अपि अविरता विरताश्च चतुर्गतिका आप । तद्यथा नारका देवा अविरत सम्यग्दृष्टयः तिर्यञ्चोऽविरतसम्यग्दृष्टयो देशीवरता वा मनुजा अविरतसम्यदृष्टया देशावरताः सर्वविरता वा अन न्तानुबन्धिनां विसंयोजनार्थं यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि कुर्वन्ति करणचा सर्वाऽपि प्रयत्नवरमिदानिसिकर प्रविष्टः सन् अन्तरकरणं न करोति । उक्तं च कर्मप्रकृतौ । चटगइया पज्जना, तिथि वि संजोयशे विसंजोयेंति । करणेहि तिहिं सहिया, नंतरकरण उवसमो वा ॥ अस्याकरणमनिका चतुर्गतिका नारकतिर्यनुपदेवाः सर्वाः पर्यामिभिः पाखयोऽप्यविरत देशविरत सर्ववितास्तावि सम्यग्दृष्टयश्चतुर्गतिकाः देशविरतास्तिर्यञ्चो मनुष्या वा सर्वविरसा मनुष्या एवं संयोजनामनन्ता बन्दिनो दिसंयोजयन्तिदिना यति विशिष्ठाखन्त इत्याद करस्त्रिभिधापूर्वक णानिवृत्तिवादरैः सहिता नवर मिहान्तरकरणं न वक्तव्यम् । उपशमो वा उपशमश्चानन्तानुबन्धिनां न भवतीत्यर्थः । किं तु कप्रकृत्यभिहितस्वरूपेणोनाक्रमेणाधस्तादावकिमा मु क्त्वा उपरि निरवशेषानन्नतानुबन्धिनो विनाशयति श्रावलिकामा त्रं तु स्तियुकसंक्रमेण वेद्यमानासु प्रकृतिषु संक्रमयति । तदेवमुक्ता अनन्तानुबन्धिनां विसंयोजना संप्रति दर्शनस्यपदा मना भएयते । तत्र मिध्यात्वस्योपशमना मिथ्यारऐर्वेद सम्यम्यूरेथ सम्ययसम्य मिध्यान्ययोस्तु देदकसम्यन्यत मिथ्यादृष्टेर्मिथ्यात्वोपशमना प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयतः सा चैवं " Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्समसेढि अन्निधानराजेन्द्रः। उसमसेदि पशेलियसंही सर्वानिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः करणकापूर्वमय- | वि मिथ्यात्वमुपशान्तं लज्यते । संप्रति बेदकसम्यग्दृष्टेनयाणातमुहर्तकासं प्रतिसमयमनन्तगुणवृस्या विशुख्या प्रवर्षमानो- मपिर्दशनमोहनीयानामुपशमनाविधिरुच्यते। इहवेदकसम्यग्दउजव्यसिस्किविहुस्खपेक्वयाऽनन्तगुणविशुकिको मतिश्रुता- ष्टिसंयमे वर्तमानःसन्नन्तर्मुर्तमात्रेण कालेन वर्शनत्रितयमुपशकानविभकानानामन्यतमस्मिन् साकारोपयोगे उपयुक्तोऽन्यत- मयति उपशमयतश्च करणत्रिकादिविधिर्यथा कर्मप्रकृतिटीकार्या स्मिन् योगे वर्तमानो जघन्यपरिणामेन तेजोमेश्यायां मध्यमप-| तथा वेदितव्यः । एवमुपशान्तदर्शनमोहनीयत्रिकश्चारित्रमोहरिणामेन पचनश्यायामुत्कृष्टपरिणामेन चाललेश्यायां वर्तमानो मीयमुपशमयितुकामः पुनरपि यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि मिथ्याष्टिश्चतुर्गतिकोऽन्तः सागरोपमकोटीकोटीस्थितिसत्कर्मा | करोति करणानां च स्वरूपं प्राग्वत् केवलमिह यथाप्रवृत्तकरणइत्यादि पूर्वोक्तं तावद्वाच्वं वाषचथाप्रवृत्तिकरणमपूर्वकरणं च मप्रमत्तगुणस्थानकंडष्टव्यं पूर्वकरणमपूर्वकरणगुणस्थानके भनिपरिपूर्ण नवत्ति नवरमिहापूर्वकरणे गुणसंक्रमो नो वक्तव्यः कि वृत्तिकरणमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानके अत्रापि स्थितितु स्थितिधातरसघातस्थितिवन्धगुणश्रेणय एव वक्तव्याः । गु- घातादयः पूर्ववदेव प्रवर्तन्ते नधरमिह सर्वासामशुभप्रकृतीनाजोणिदक्षिकरचनाप्युदयसमयादारज्यवेदितव्यात्ततोऽनिवृत्ति- मवध्यमानानां गुणसंक्रमः प्रवर्तत इति वक्तव्यम् । भपूर्वकरकरणेम्प्येवमेव वक्तव्यम् अनिवृत्तिकरणासायाश्च संख्येयेषु ना. णावाय.श्च संख्येयतमे भागे गते सति निद्रामचलयोर्वन्धव्यगेषु गतेषु सत्सु एकस्मिन् संख्येयतमे नागेऽवतिष्ठमानेऽन्तर्मुह बच्छेदः ततः प्रभूतेषु स्थितिखण्डसहस्रेषु गतेषु सत्सु अपूर्वसमात्रमधोमुक्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणमन्तर्मुहूर्तप्रमाणं प्रय- करणाखायाश्च संख्येयतमो भागोगतो भवति एकोऽवशिष्यते मस्थितेः किंचित्समधिकं न्यून वाऽनिनवस्थितिबन्धाका समे- अत्र चान्तरे देवगतिदेवानुपूर्वीपश्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीरनान्तर्मुहान कालेन करोति अन्तरकरणसत्कं च दक्षिकमु. क्रियातोपाकाहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गतैजसकामेणस्कार्य प्रथमस्थिती द्वितीयस्थितौ च प्रतिपति । प्रथम- समचतुरस्रवर्णचतुष्कागुरुबघूपघातपराघातोच्चासत्रसबादस्थितौ च वर्तमानोदीरणाप्रयोगेण यत्प्रथमस्थितिगतं दक्षिक रपर्याप्तप्रत्येकप्रशस्तविहायोगत्यसुभसुभगसुखरादेयनिर्माण - समाप्योदये प्रतिपति सा उदीरणा यत्पुनर्द्वितीयस्थितेः तीर्थकरसंहितानां त्रिंशतः प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदः । ततः सकाशादीरणाप्रयोगणव दक्षिकं समाकृष्य उदये प्रकिप- स्थितिखएडपृथक्त्वे गते सति अपूर्वकरणाशायाश्चरमसमये ति साउदीरणाऽपिपूर्वसूरिनिर्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमागास इत्युच्यते हास्यरत्यरतिभयजुगुप्सानां बन्धव्यवच्छेदः। हास्यरत्यरतिउदयोदोरणाज्यां च प्रथमस्थितिमनुन्नवन् तावतो यावदाव- शोकभयजुगुप्सानामुदयः सर्वकर्मणां देशोपशमनानिधतिमिकाद्विकं शेषं तिष्ठति तस्मिश्च स्थिते आगाझो व्यबच्चियते निकाचनाकरणव्यवच्छंदश्च ततोऽनन्तरसमये निवृत्तिकरणे तत उदीरणैव केवा प्रवर्तते साऽपि तावद्याबदावलिका शेषो प्रविशत्यपि स्थितिघातादीनि पूर्ववत्करोति ततोऽनिवृत्तिकरन भवति आवनिकायां तु शेषीचूतायामुदीरणाऽपि निवर्तते ततः णाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु सत्सु दर्शनसप्तके शेषाणामेकर्षिकेवग्नेनैवोदयनावशिकामात्रमनुभवति आवमिकामात्रचरमसम- शतिमोहनीयत्रकृतीनामन्तरकरणं करोति तत्र चतुर्णा संज्वलयेच द्वितीयस्थितिगतं दलिकमनुभागनेदेन त्रिधा करोति तद्यथा नानामन्यतमस्य वेद्यमानस्य संज्वलनस्य प्रयाणां वेदानामसम्यक्त्वं सम्यम्मिथ्यात्वं मिथ्यात्वं चेति। नक्तंचकर्मप्रकृतिचूर्णी न्यनमस्य वेदस्य प्रथमा स्थितिः स्वोदयकालप्रमाणा शेषाणां "चरमसमयमिच्छदिही से काझे उवसमं सम्महिछी ढोहिई ताहे त्वेकादशकषायाणामष्टानां च नोकषायाणामावलिकामास्वोविश्यहि तिहाणुजागं करेइ तं जहा सम्मत्तं सम्मामिछसं दयकालप्रमाणं च चतुर्णा संज्वलनानां त्रयाणां च वेदानामिदं मित्तंचेति" स्थापना चेयम् ००० ततोऽनन्तरसमये मिथ्या- स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोरुदयकालः सर्वस्तोकः स्वस्थाने च परस्वस्योदयाभावादीपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति। उक्तं च कर्म- स्परं तुल्यः ततः पुरुषवेदस्य संख्येयगुणः ततः संज्वलनकोप्रकृतौ । “ मित्तुदप खाणे, लहए सम्मत्तमोवसमियंसो । अंने- धस्य विशेषाधिकः ततः संज्वलनमानस्य विशेषाधिकः ततः ण जस्स साजर, पायहियमसरूपुव्वं जे" अन्यत्राप्युक्तम् “जा- संज्वलनमायाया विशेषाधिकः ततःसंज्यलनलोभस्य विशेषात्यन्धस्य यथा पुंस-श्वकुर्लाने शुभोदये । सद्दर्शन तथैवास्य, विकाहानिवृत्तिकरणे बहु वक्तव्यं तत्तु ग्रन्थगौरवभयानाच्यसम्यक्त्वे सति जायते" १ आनन्दो जायतेऽत्यन्तं, सात्विकोऽ- ते केवलं विशेषार्थिना कर्मप्रकृतिटीका निरीवितव्या । अन्तरस्य महात्मनः । सद्याभ्यपगमो यव-व्याधितस्य सदोषधात" करणं च कृत्वा ततो नपुंसकवेदमन्तर्मुहर्तमात्रेण सपशमयति १ एष च प्रथमसम्यक्त्यलाभो मिथ्यात्वस्य सर्वोपशमनाद्भवति ततोऽन्तर्मुहर्तमात्रेण स्त्रीवेदं ततोऽन्तर्मुहर्तमात्रेण हास्यादिषद्कं सक्तं च “सम्मत्तपढमलम्जो, सवोवसमा " शति । सम्यक्त्वं तस्मिञ्चोपशान्ते तस्मिन्नेव समये पुरुषवेदस्य बन्धोदयोदोरणादंपतिपद्यमानः कश्चिद्देशविरतिसहित प्रतिपद्यते कश्चित्स- व्यवच्छेदः ततः समयोनावलिकाद्विकेन पुरुषवेदमुपशमयति विरतिसहितम् उक्तं च पञ्चसंग्रहे “सम्मत्तेणं समग, सव्वं ततो युगपदन्तर्मुहुर्तमात्रेणाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याक्यानावरपादेसंच को धमिवज्जे'। वृहच्चतकचूर्णावयुक्तम् “सवसमसम्म क्रोधौ तपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनक्रोधोदयोहीरणा ही अंतरकरणे चिो कोई देसविर पलिहर, कोश पमत्त- व्यवच्छेदः ततः समयोनावलिकादिकेन संज्वसमक्रोधमुपशमभावं पि सामायणो पुण न किंपि देशत्ति" [कर्म०] जिनभाग- यति ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेणाप्रत्याख्यामावरणप्रत्याख्यानापरणणिकमावणोऽपि "वसामगसेढीप, पढवो अप्पमत्तविर- माना युगपदुपशमयति तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलयो उ । पज्जयसाणे सो वा, होर पमो अविरओ वा॥ "अहो- नमानस्य बन्धोदयादीरणान्यवच्छेदः ततः समयोनावालिकाजणंति अधिरय-सपमत्तापमत्तविरयाण । अन्नयरो पविजर, द्विकेन संज्वलनमानमुपशमयति ततो युगपदम्तमतमात्रेण अप्रसणसमणम्मित नियट्टी अपि गतार्थेनवरमविरताचप्रमत्ता- त्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमाये उपशमयति तदुपशान्ती नां मध्याकेनापि दर्शनसप्तके उपशमिते ततो ( नियट्टित्ति) नि- च तत्समयमेव संज्वलतमायाया बन्धोदयोदीरणाम्यवच्छेद वृतिवादरोभवति (विशे०) ततो देशविरतप्रमत्तानमत्तसंयतेष्व- ततः समयोनावनिकादिकेन संज्वलनमायामुपशमयति ततो Jain Education Interational Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमसे ढ युगपदप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण लोनावुपशमयति तसमयमेव संयलोजस्य बन्धोदयोदीरात संयमनमोभमुपशमयंखिधा करोति ही भागी युगपदुपशमयति तृतीया संख्येयमानि करोति तान्यपि पृथक पृथक कामप्रेदेनोपशमयति पुनः संख्येयानां खएमानां किट्टीकृत्य परपर्यायाणां चरमखण्डमसंख्येयानि खण्डानि सूत्रमकिट्टीकृत्य परपर्यायाणि करोति ततः समये २ एकैकं खमुपशमयतीति । दर्शनके उपान्तेनाद मनिवृत्तिवाद पाचलाभस्यासंख्येयान्तिम चरम इति प्रपिता मोहनीयस्पाठाविसभिरभिन्नस्यायुपशमना संध ति गाथार्थो विव्रियते । इहोपशमश्रेणिप्रारम्भको भवत्यप्रमतसंयत एष मन्ये तु प्रतिपादयन्ति अविरतदेशचिरप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतम इति श्रेणिपरिसमासीवाऽविरतदेशविर तप्रमत्ताप्रमत्त संयतानामन्यतमो भवति । स च प्रथमं युगपत् (प्रणति ) अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायाक्षेोजानुपशमयति ततो ' दर्शनं दर्शस्तं ' दर्श मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यग्दर्शनं युगपदुपशमयति ततोऽनुणमा नपुंसकयेदं यदि पुरुषा रम्भकस्ततः प्रथमं नपुंसक वेदं ततः पश्चात्स्त्रीवेदं ततः षट्कं हा स्परस्परतिशोकभयजुगुप्साःक्षणं ततः पुरुषवेधी प्रार जिका ततः प्रथमं नपुंसक वेदं ततः पुरुषवेदं ततः षट्कं ततः दमिति । अथ नपुंसकवेद एव प्रारम्भकस्ततोऽसावनुदीर्णमपि प्रथमं पशमयति ततः पुरुषवेदं ततः पतत नपुंसकयेदमिति । पुनब्ध कोषाधाकान्तरिती संग्रामविदोषकोधारित तुल्यामुपशमयति । श्रयमर्थः । अप्रत्यक्यामावरण प्रत्याख्यानावरण क्रोधौ सदृशौ क्रोधत्वेन युगपटुपशमयति ततः संज्वलनक्रोधमेकाकिनं ततोऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदुपशमयति ततः संज्वलनमागं ततोऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमाये युगपवुपशमयति ततः संज्वलनमायां ततोऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणयुगपशमयति ततः संज्वलन लोनमिति । स्थापना चेयम संज्वलनसोजः अप्रत्याख्यानप्रत्या क्यानलोभः । संज्वलनमाया अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानमाया । संज्वलनमानः | अप्रत्याख्यानप्रत्याक्यानमानः अप्रत्याख्यान संज्वसनक्रोधः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकोषः . पुरुषः हास्यादिषट्कः श्रीवेदः नपुंसक वेदः मिथ्यात्वमिवसम्प क्त्वम् ( १०७४ ) निधानराजेन्द्रः । अनन्तानुबन्धिक्रोधमाममायालोजः उससे ढ मनु संज्वनादीनां युक्त उपरामोऽनन्तानुबन्धिन शायोपशमित्या युज्यते न दर्शनप्रतिपत्ती तेषां योपशमादिड सोपशमादित्यविरोध इति आयो का प्रतिविशेष उच्यते। योपशम्रो ह्युदीर्णस्य कथोऽनुदीर्णस्य विपाकानुभवापेोपमः प्रदेशानुभवतोऽस्त्येव उप शमे तु प्रदेशानुनयोऽपि नास्तीति । यदाद प्राप्यपीयूषपाचोधिः " वेपर संतकम्मं, खओवस मित्थ नानावं सो । उवसंतकम्मश्रो पुण, घेर न संतकम्मंदि” अन्यत्राप्युक्तम् । " उवसंतकम्मं जं न, तर कढेइ न देश सदवि । म य गमय परपराई, न चैव व कछुए तं तु " । अस्या अक्षरगमनिका सर्वोपशमेन यदुपशान्तं मोहनीयका अन्यस्य सर्वोपशमायोगात् "सन्ययसमो मोस्स चेयेति" बचनातून तदपकर्षति न तदपवर्तनाकरणेन स्थितिरसाभ्यां हीनं क रोतीत्यर्थः । अपिशब्दस्य मिन्नवान्नाप्युदये ददाति नापि तद्वेदयतीत्यर्थः । उपलक्षणात्तदविनाना विम्यामुदरिणायामपि न ददातीत्यपि मम्तव्यम् । न च बध्यमानसजातीयरूपां परप्रकृति संक्रमकरणेन गमयति संक्रमयतिन चकमक यत्युर्तनाकरणेन स्थितिरसाभ्यां वृद्धिं नयति निधत्तिनिकाबनायास्तु प्रागपूर्वकरणकाल एव निवृत्यान्नेोपशान म्निषेधः क्रियते इति । आह संयतस्यानन्तानुबन्धिनामुदयो निधितत्कथमुपशम इत्युच्यते स धनुभाग कर्माङ्गीकृत्य न तु प्रदेशकम्मैति तथा वाज्यधायि परमगुरुणा" जीवेणं भंते ! सयंकडं कम्मं वेपर अत्थेगइयं नो वेपर से केणणं पुच्छा डुडि कम्मे पक्ष जहा परसकामे य भाग तत्परसम्मं तं नियमावेष तथ जं अनुभागक 1 अगर इनोवे "त्यादि प्रदे शकमध्यभावोदयस्येोपशम इयः आइ यद्येवं संयतंस्थानन्तानुबभ्युदयतः कथं दर्शनविधान प्रदेश कर्मणो मन्दानुज्ञात्वात् । तथा कस्यचिदनुभागकर्मानुप्रागोSपि नास्यन्तमपकाराय प्रवन्नुपलभ्यते यथा संपूर्णमत्यादिचतु शनिनस्तरावरचोदय इति ततः समभचरमकिपा संज्वलनोज उपशान्तो भवति तत्समयमेव च ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्कान्तराययञ्च कयाः कीर्त्यांबन्ध व्यवच्छेदस्ततोऽनन्तरसमयेऽसावुपशान्तकषायो नवति स च जघन्येन समयमात्रमुत्कर्षेण त्वन्ता नयादी प्रतितति प्रतिपालक द्विधा भवणायेण तत्र भवक्कयो म्रियमाणस्य अकाय उपशान्ताकायां समाप्तायाम् । श्रायेण च प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति । यत्र यत्न बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छिन्नास्तत्र तत्र पतता सता ते आरज्यन्त इति यावत् प्रतिपतितश्च तावत्प्रतिपतति यावत्प्रमसंयगुणस्थानकम्। कशिपुनस्ततोऽप्यगु स्थानकद्वयं याति कोऽपि सास्वादनभावमपि । यः पुनर्भवक्षयेण प्रतिपतति स प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि बन्धनादीनि करणानि प्रवर्तयतीति शेषः । उत्कर्षतश्चैकस्मिन् भवे द्वौ धारासुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते यथ ही पारापम प्रतिपद्य तस्य नियमात स्मिन् भवे कपक श्रेण्यज्ञावः । यः पुनरेकं वारं प्रतिपद्यते तस्य कपकश्रेणिर्भवेदपि उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी "जो वारे उसमसेढं परिवज्जर तरस नियमा तम्मि नवे खवगसेदी जो परिवार बस सदमेटी अति" एप कार्मग्रन्थिकानिप्रायः सिद्धान्तानिमायेन वेक Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७५) अभिधानराजन्द्रः । समसेढि उवहरु स्था० १० ० । 33 द्विषयः सं संशभेदे स्था० १० डा० । उवस्सा - उपभा - स्त्री० द्वेषे व्य० १ ० । स्मिद् जये एकामेच मेणि प्रतिपद्यते उकं च कल्याण्ययने “श्य उपस्सव किलेस - उपाश्रय संपलेश-पुं० उपाभयविषये म "एव असं परिचय सम्म देवयजम्मे अनरसेडियां पग प्रदेसाई "सर्वाणि सम्यक्त्यदेशवित्यादीनि अन्य व्यस्सयसंकिलेम-पाश्रयसंक्लेश-पुं० उपाय वसतिस्त त्राप्युक्तम् । " मोहोपशम एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततः । यस्मिन् भवेत्पशमः कृयो मोदस्य तत्र नेति । तदेवमनिदिता प्रपञ्चमुपशमश्रेणिः । कर्म० । विशे० । धृ० । श्राचा० । आ० म०प्र० प्र० पं० [सं० (उपशमणाऽधिकारेशम विनश्यतोक्का श्तः संयोज्या ) वसामइत्तु-उपशमय्य अव्य० उप-शम् ल्यप् । उपशमं नीस्वेत्यर्थे, “उवसामसु चन्दा अंतमुद्दत्तं धिऊणं बहुकालं" पं० सं० जवसामग - उपशामक-पुं० उपशान्तमोहे, श्राव० ४ ० । उवसामिय-उपशामित त्रि० उपशमं नीते, " उवसा मिए परे ण व " उपशामिते परेणोपशमं नीते । व्य०१ ८० । उपशमं प्राहिते, व्य० ६ उ० । हवास्य उपाश्रित-त्र० उपाधा नाम द्वेषः स जातोऽस्येति सपामिता । द्वेषयति ०१० वैयावृत्य करत्यादिना प्रत्यासन्नतरे उप----० भावे कये, शिष्यप्रतीच्छक कुलाद्यपेक्कायाम्, स्था० वा० । उप-पप-उपडी किते, उपहाररूपेण इसे उपहिते प्रोजनस्थाने, डीफिले भने । - तिविहे जबडे पत्ते तं जहा फलिह जबह मे सुहोवहडे संसोबहमे || सामेमाण- उपशमयत्- त्रि० उपशमं कारयति, क्षुद्रव्यन्तराधिष्ठितं समयप्रसिरुविधिनोपशमयति, स्था० ६ ठा० । सामन त्रिविधमुपहतं प्रभं तथापि पतिपहृत्तं च । स्था० ३ ठा० । श्रमीषां पदानां व्याख्यानं प्राष्यकृत्क रिष्यति । अधुना प्राध्यप्रपञ्चः । निर्दोष, सूच० सुके संसई य, फलितोवह य तिषिद्धमेकैकं । तिनेगदुगमा तिमि य, तिगसंजोगे भवे एक्को | पहृतशब्दः प्रत्येकमनिय सुन तथा शुद्ध संपतं फक्षितोपहतं च पकैकं पुन पिंपगृहाति यच संदरतिस्प्रतिपति पतन तरसूत्रे पश्यते। अकसंयोगे भयो भङ्गास्तथा फलितोपहतं तिथे पहात द्विक संयोगे ऽपि जयस्तथा शुकोपहतं फि या पशु० १ श्रु० ७ अ० । सबसोजिय-उपशोभित- त्रि० सामस्त्येन शोभिते । श्रा० मं० प्र० । रा० । “कविस सपर्हि उबसोभिए” रा० । 'हारकहारचवसोभिए" । रा० । समारचितकेशत्वादिना जनितशोभिते, [झा० अ० ॥ सोहिय-उपशोधित निजीकृते ० अ० । नवस्तिद उपस्थित - त्रि० उप-स्था क- । स्थर्थयोस्तः । ४ । २९० । इति स्थस्थाने सकाराक्रान्तस्तकारः । समीपस्थिते, प्रा० उवस्सय - उपाश्रय - पुं० उपाधीयते सेव्यते संयमात्मपालनायेत्युपाश्रयः । स्था० ५ ० । उपाश्रीयते प्रज्यते शीतादित्राणार्थे यः स उपाश्रयः। वसतौ स्था० ३ वा० । श्राचा० । ज्ञा० । उपाश्रय केपः ॥ नाम उवणा दविष जावे य उस्सओ मुणेयच्वो । एए ना, बोच्छामि अडाणुपुब्बी || नामोपाश्रयः स्थापनोपायः इन्योपाधयः भायोपपत् पावनुक मन्तव्यः पतेषामुपाश्रयाणां नानात्यविशेषमह मानुपूर्व्या वक्ष्यामि । तत्र नामस्थापने सत्वादनादृत्य इव्यप्रायोपाप्रतिपादयति । दम्म्म उस्सओ, कीर कटस्यमेव सुम्पि भावम्मि निसिके जं, एदव्यम्मि परे ॥ तुविषयं पुनरुपाय यः संवतार्थ किया तो वा परमधापि न संयतेभ्यो वितीर्यते। यो गृहस् रामार्थे निष्पादितः परं यत्र संपता मासक या (च) उपचा] अन्य गताः सांप्रतमुपायः शून्यस्तिष्ठति एन्योपाश्रयः । भावोपाभ्यो नाम या संपतेभ्यो नि प्रदस्त परिज्यमानइत्यर्थः । यः पुनरितरेव पार्श्वस्यादीनां सुष्टः सो sपि द्रव्यपाश्रयो विज्ञेयः । श्राह च वृहद्भाष्यकृत् " जो समणट्ठाकतो, बुच्छा वा आसि जत्थ समणाश्रो । अहवा दव्बउवसो पासस्यादपरिगदियो" वृ० २ उ० । ( उपाश्रयस्य सर्वो विषय बशिन्दे पश्यते ) कर्मणि यणी, भावे भय् । आश्रये, वाच० । कोपहतं संसृष्टोपहृतम् २ पोहच त्रिक संयोगे एकः । शुद्धोपहृतं फलितोपहृतं संसृष्टोपहृतं च गृहाति । सर्वसंख्यया सप्त जङ्गाः । एतेषामेकतरम निगृहात्यनिग्रही । संप्रति शुकादिपदानामर्थमाचष्टे । सुद्धं तु अलेवक अहवणमुष्टोदयो भने सुकं । संसद्वं आदत्तं, लेवाणमलेवरं चेव । फलियं पढ़ेणयादी, वंजरणजक्रखेहि वा विरश्यं तु । भोतुं मणसोपहियं, पंचमदिंडेसला एसा ॥ यत्कृतं काबिन पानीयेन वा सम्मिश्रीकृतं । अथवा कोदो नरहितो भवति तदपि नियमकृतम् । नाम कामेन गृहीत किमुक् भवति । यत्स्थाले परिवेषितं तत्र ग्रहणाय हस्तः किप्तो न ताघदद्यापि मुखे प्रक्षिपति । अत्रान्तरे साधुरागतां शिक्षार्थे ततः पहला संमित्युच्यते फलितं नाम पर व्य अमेय मानाप्रकारविरचितं पणकादि हे सामन कमादिशब्दशासर अस्कानां दानाय कल्पितं परिप शब्दस्यार्थमाह । यत्र जोक्कुमनस उपहृतं तडुपहृतमित्युच्यते एषा च पञ्चमी पिण्डेषणा । सुरग्गदणं पुण होइ चउत्थी बि एसणा गढ़िया । संस उ विजासा, फलिय नियमा लेपकर्म ॥ शुद्धयेन तुष्येषणा ब्रपले पहला नामिकागृहीता या संविभाषा । कदाचिक्षेपतं काविति । फक्षितं तु Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवहरु नियमापमेवेति यदपि किञ्चि कव्यं तम्ाहियशब्दतो बोध्यम ) उवहणंत - उपघ्नत्- त्रि० विध्वंसयति, प्र० १० भ० । - उपटुनन-म० पारस्य विराधने, स्था० १००। उत्य-सम् आर० बुरा-पर-समारचने, समारचेबहत्थसारपसमारकेलायाः ४ २५ इति समास्था देशः । उबहत्थर सारबर समारश्रइ समारचयति । प्रा० । उपाय-पत्र पहन-क-तिरस्कृते विनाशिते पाच हा उपघातपण्डके, पं० भा० १०० उत्पातग्रस्ने अशुरू संयोगेन शुरू, अभिभूते च वाच० ॥ उपजोणि-उपहतपोनि श्री रणसमर्थायाम, "अ. यशोणित्थयात्वर्थ:" नि० चू० १ ३० । उवहयजाव- उपहतभाव- त्रि पुष्टतादिभिर्दोषैरुपहतो मात्रः परिणामो यस्य । पृष्टतया परिणते, वृ० ४ उ० । - 0 मणि उपहतपतिविज्ञान- मतिः स्वाभावि विज्ञानं च गुरूपदेशजं मतिविज्ञाने ते उपहते दूषिते यस्य स उपतमतिविज्ञानः | तत्वातत्वव्यतिकर विवेकविकले, वृ० १८० माकप्पलपतमनः संकल्प शि० उपहतोऽस्वच्छत या संकल्प यस्य स तथा मीमसचित्तवृत्ती, २०१०। उपट्तो यस्तो मनसः संकल्प प्रभवो विकल्पो यस्य स तथा । विध्वस्तमनः संकल्पे, " किएहं देवापिया उवश्यमणसंकप्पा जाब क्रिया य ह" भ०३०२३०| जवहरंत - उपहरत् - त्रि० पूजयति, घातवोऽर्थान्तरेऽपि 1८|४| ५० । इति उपहरतिः पूजार्थे, प्रा० । विनिवेशयति, शा० १४ श्र० । पहा उपतवत् श्र० उपनीत "श्रम मे सहार जाव उवहरिसु" स्था० वा० । बहसिय-उपहसित० उप-भावे ० उपहासे, निन्दासूचके हासभेदे पास दास्यदेशकरणे, सं० वहाजोग - उपधायोग- पुं० मायाप्रयोजने, “गुर्वनुज्ञोपधायोगोबृस्युपायसमर्थनम्" उपधायोग इति । उपचा माया तस्या योगः प्रयोजन सा च तत्तत्प्रकारे सर्वथा परेयमाणैः प्रयोज्यते प्रकाश इत्यं धर्मविन्दौ प्रोकस्तद्यथा । दुःस्वप्रादिकथनमिति दुःस्वःस्य खरोष्ट्रमहिषाथारोहणादिदर्शनरूपस्य आदिशब्दात् मातृमादिविपरीतानादिपरिग्रहः तस्य कथनं देवेनमिति ०३ चहा उपधान- उप द सरोमादिपूर्ण उच्च पृ० ४ ४० "धादिपु सिरो चहा हाणणगं"मि० ० १२४० कर्मणि घम् प्रणये, हेम० विशेषेण प्रणये, विश्यः प्रावे. ल्पुर. समीपस्थाने १० करने ज्यू-उपधानसाधने मन्त्रे ० याय० । मोप्रत्युपधामध्ये दधातीति उपधानम् । अनशनादिके तपसि सूत्र० १ ० २ अ०१ ००। स्था० । श्राव० | पं० व० । उप समीपे धीयते क्रियते सूत्रादेकं येन तपसा तदुपधानम् । प्रव० ६ द्वा०| उपदधाति पुष्टि नयति अनेनेत्युपधानम् । व्य० प्र० १० । सितानां पठनाचनार्थमायारोपणास निर्वि कृत्यादि तपोविशेषे १० उपचीयते तमनेनेति उपमानम् । चारिषोपम्ननती उपचा शिरोऽय उपधा-आधारे , ( १०७६) अभिधानराजेन्द्रः । • सूत्र-दि उबढ़ाया aro ए विव० । स्था० | २० | दशा० । विनयबहुमानायां चतुर्भङ्गयोपधान। ति उपधानम्। तपसि, ग० १ अधि० । ६० । उपधाननिपचिपाउद नामं ठवणुवहाणं, दव्वे जावे य होइ नायव्वं । एमेव यत्तस्स वि, निक्लेवो चर्चाविहो होइ | २६८ ॥ नामोपधानं स्थापनेोपधानं द्रव्योपधानं भावोपधानं च । श्रुतस्वाप्येवमेव चतुको निक्षेपस्तत्र अन्यतम प्रयुतस्य यस्त अध्याय यायच्यावयनिकतानि चेति प्रज्यातं वङ्गातिविषयोपयोगस्तत्र सुगमनामस्थापनाम्युदासेन इल्याद्युपधानप्रतिपादनायाह ॥ व्युवहाणं सयणे, जाववहां तवो चरित्तस्स | तम्हा उनाददंसण, तवचरणागारं तु ॥ २९ ॥ उप सामीप्येन धीयते व्यवस्थाप्यत इत्युपधानम् । व्यभूतमुपधाव्योपधानं तत्पुनः सय्यादी सुखशयनार्थ शिरोऽयम्भवस्तु भायोपधानमिति प्रायस्योपधानं प्रायोपधानं तत्पुननदर्शनवारवाणि उपोया साह्यान्तरं तेन हि चारित्रपरिणता स्योपष्टम्भनं क्रियते यत एवं तस्मात् ज्ञानदर्शनतपश्चरण रिहाधिकृतमिति गाथार्थः । किं पुनः कारणं चारित्रोपष्टम्भकतया तपोयोपधानमुच्यतइत्याह । जह खलु मझं वत्थं, सुज्ऊ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भावयेर कम्मम ॥ ३०० ॥ यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः यथैतत्तथाऽन्यदपि प्रष्टव्यमित्यर्थः । खलु शब्दो वाक्याकारे यथा महिनं वमुदकादिनि द्विमुपयत्येवं जीवस्यापि प्रायोपधाननूतेन स बाह्याभ्यन्तरेण तपसा प्रकारे कम्पयतीत्यस्य च कर्मक्षय गोस्तप उपधान सत्येनापातस्य तत्वभेदपर्यायस्येति कृत्या पर्यादर्शायाह । यदि वा तपोनुष्ठानेनापादिता भवधूननादयः क पगमविशेषाः सम्भवन्तीत्यतस्तान् दर्शयितुमाह । ग्रहण धुवणनासण-विणासरणज्भवणखवणसो हिकरणं । aण या फेड, महणं धुणणं च कम्माणं ॥ तथावधूननमपूर्वकरन कर्मप्रन्येर्भेदापादनं तच तपो त्यस रमेदसामर्थ्याद्भवतीत्येषा क्रिया शेषष्वप्येकादशसु पदेशेष्वायोग्य तथा धूननं धरनिवृत्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थानम् । तथा नाशनं कर्मप्रकृतेः स्तिवुकसंक्रमेण प्रकृत्यन्तरगमन तथा विनाशनं शैलेश्यवस्थायां सामयेन कर्माभावापानम् । तथा ज्यापनमुपशमश्रेण्यां कर्मानुयल वयापनम् । तथा कृपणमप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण क्षपकश्रेण्यां मोहाभावापादनम तथा शुद्धिकरमित्यनन्तानुबन्धिप्रक्रमेण क्षायिक सम्यक्त्वापादनम् । तथा छेदनमुत्तरोत्तरशुभाध्यवसायारोहणात् स्थितिहासजननम्। तथा भेदनं बादरसम्परायण संज्यलनलोभस्य खण्डशो विधानम्। तथा (फेडणंति) अपनयनं चतुःस्थानिकादीनामशुभप्रकृतीनां रसतरूपादिस्या नापादनम् । तथा दहन के बलिसमुद्धातध्यानाग्निना वेदनीयस्य भस्मसात्करणं शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्वापादानम् । तथा घावनं शुभाभ्यवसायान्मिथ्यात्वपुलानां सम्यक्त्वभावसंजननमिति । श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । तं दब्वे जावे य, दव्व उवहा गगा दिजाव इमं । Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहामा अभिधानराजेन्मः। उवहाण दोग्मपस्यणधरणी, उवधाणं जत्य जे सुत्त । रत्तं संबुडा सव्वदारत्तेणं च दमोपसमो तो य समसत्तुमि आगाढमणागादे, गुरुलहुयाणादि सगडपिता ।। १५ ॥ तपक्खयाए य अंरागदोसत्तं तो य अकोहया अमादुघा गती दुग्गा वा गती दुग्गति दुःख वा जाँस विज्जति एण्या अमायया अलोजया अकोहमाणमायालोभयाए य गतीए एसा गई दुग्गती विषमेत्यर्थः । कुत्सिता वा गतिर्दु अकसायत्तं तत्रों य सम्मत्तं सम्मत्ताओ य जीवाइपयतिःअणभिलासयत्थे दुस्सहो जहा दुम्भगोसाय नरगगती नियगती वा । पतणं पातः तीए हुग्गतीए पतम्तमप्पाणं जेण स्थपरित्ताणं तो सव्वत्थ अप्पडिबका तं णेयं प्रमाणधरेति तं उवहाणं भष्मति तं च जत्थ जत्थत्ति एस सुत्तधीप्सा मोहमिच्चत्तक्खयं तो विवेगो विवेगानो हेयउवाएयजत्थ उद्देसगे जत्थ अज्मयणे जत्थ सुयक्षंधे जत्थ अंगे वत्यूवियालणे गंतनचलक्खत्तं तो य अहियपरिचाओ कालुकालियअंगाणंगेसु नेया जमिति जं उवहाणं णिब्धितितादि तं तत्थ तत्य सुत्ते श्रुते कायव्यमिति पक्कमे संभवति । हियायरेण य अच्चतमज्जमो । तो य परमपवितुत्तम आगाडेति च उद्देसगावीसुतं भणियं तं सव्वं समासो | खंतादिदमविह अहिंसालक्षणं धम्माणुढाणिककरणकादुविहं भस्मति । आगाढं अणागाढं वा तं च भागाढसुयं भग- रवणामत्सवित्तया । तो य खतादिदसविहभाहिंसापतिमा अणागाढं आयारमाति।आगाढं उवधाणं कायव्वं प्र लक्खणधम्माणुष्ठाणिककरणकारवणासत्तवित्तयाए य संणागाढे अणागाढं जो पुण विवज्जासं करेंति तस्स पच्छित्तं भवति भागाढेवा प्रणागाढे वााणा प्रणवत्थमिच्छत्तविरा बुसमा खती सव्वुत्तमम्मि न तं सव्वुत्तमं अजहणाय भवति पत्थदितोत्रसगडपिया कोसो प्रसगडतातो विभावितं सव्वुत्तमं सम्वन्तरं सव्वसंगपरिच्चागं सव्वुअप्पती भपत्ति । गंगातीरे एगो आयरिश्रो वायणापरिस्संतो | त्तमं सव्वन्तरवालसविहं अञ्चंतघोरवीरगकतवचसज्झाए वि असज्झायं पोसेति एवं णाणंतरायं काऊण देव- रणागृहाणाभिरमणं सवुत्तमं सत्तरसविहकसिणसंजलोगं गो तो चुभो आभीरकुले पञ्चायाओ भोगे भुजति माणुट्ठाणपरिपाझनेकवचलक्खत्तं सव्युत्तमं सवगिरणं धूया य से जाया अतीव रूववती ते पव्वंदिया गोयरियाए हिएकन्ति तस्सय सगडं पुरतो वञ्चति साय से धूता सगडस्स उक्काहियं अणुगृहियवसवीरियपुरिसकारपरकमपरितोलणं तुंडे ठिता तीसे य दरिसणत्यं तरुणेहि सगडाणि उप्पहेण च सव्वुत्तमुत्तमसज्माणसझिलेणं पावकम्मसमलेवपपेरियाणि भग्गाणि य तो से दरिसेण लोगेण णामं कतं अ- क्खामणति । सव्वुत्तमुत्तमं आकिंचणं सव्वुत्तममुत्तम सगडाए पिमा प्रसगडपिया तस्स तं चेव वेरम्ग जातं दारियं परमपवित्तुत्तमसव्वजावभावंतरेहिणं मुफसव्वदोसविप्पमु. दाउं पव्वइतो पढिो जाव चाउरंगि जं असंखए उहिले तमाणावरणं उदिमं पढंतस्स नट्टाति छ?ण अणुभव इति कणवगुत्तीसणाहमहारसपरिहारकारपरिवेडियमुउद्धरघोभणिए भणति एयस्स को जोगो पायरिया भणन्ति जाद रवंजवयधारणंति तो एएसिं चेव सव्वुत्तमा खंती मद्दवणमाति ताव आयंबिलं तहा पढति बारसविज्जा बारसहिं अजवमुत्ती तवसंजमसव्वसोयाकिंचणसुदुकरबनवयबरिसेहिं आयंबिलं करतणं पढिया तं च से णाणावरणं खीणं धारणं समुहाणेणं च सबसमारंजविवज्जणं तो विय एवं सम्म आगाढजोगो प्रणागाढजोगो वा अणुपालेयम्वोति उवहाणेचि दारं गयं । निचू०१ उ० । द० । व्य० । पुढविदगागणिवाउवणस्तइविति चनपंचेंदियाणि तहेव अएव तु समाचिस, वीरवरेणं महालावेणं । जीवकायसंरंभसमारंजारंजाणं चमणोवइकायतिएणं तिविजं प्राचरित्त धीरा,सिवमउलं जति निव्वाणं॥३०२॥ इंतिविहेणं सोइंदियादिसंवरणआहारादिसमाधिप्पजढताएवमुक्तविधिमा भाषोपधानं ज्ञानादितपो वा धीरवर्द्धमान- एवोसिरणं तो य अट्ठारससीलंगसहस्सधारणेणं च श्रस्वामिना स्वतोऽनुष्ठितमतोऽन्येनापि मुमुक्कुणैतदनुष्ठेयमिति खनियअखंमियअमिनियवएडियमुट्ठसग्गुग्गयरविचित्तानियुक्तिगाथार्थः समाप्तः । आचा०१ श्रु०ए०१ उ० (तच अनिश्चितं कर्तव्यमिति अणिस्सिोवहाणशब्दे उक्तम् ) जिग्गहनिचाहणंत जयसुरमण्यतिरिच्छोरियघोरपरीसपञ्चमङ्गलस्योपधानकर्तव्यतामाह। होवसग्गाहियासणं समकरणेणं तो य आहारायाइएएसिं अट्ठएहं पिपयाणं गोयमा जे केइ अणोषहाणेणं पमिमासु महापयतंतनो निप्पमिकम्मसररीरया निप्पमिकसुपसत्यं नाणमहीयंति । अभावयति वा अहीयंति वा म्मसरीरमत्ताए य सुक्ककाणे निप्पकंपत्तणं तमोय अणाअज्झावयंतेइ वा समणुजाणंति तेणं महापावकम्मे महती इभवपरंपरसंचियअसेसकम्मट्ठए सिक्खयं अर्थतनाणदसणसुपसस्थनाणस्सासायण पकुव्वंति । से भयवं जइ एव ता किं धारित चउगइनववारिगननिफर्म सव्वदुक्खविमोक्खं मोपंचमंगलस्स ण उवहाएं कायव्वं गोयमा ! पढमं नाणं क्खगमणं च तत्य अनिद्वजम्मजरामरणाणिसंपया उगिट्टतमो दया एय सन्चजगजीवपाणभूयसत्ताणं अत्तसम- विओ य संतागायसज्झायमाणमहवाहिवेयणारोदरिसित्तं सब्बजगज्जीवपाणतूयसत्ताणं अत्तसमंदसणाश्रो | गसोगदारिद्ददुक्खजयवेमणस्स तं तो य एगतियं अचंतियं य तसिं चेव संघट्टणपरियावणकिलावणोदावणाई दुक्ख- शिवमयामक्खियं धुवं परमसासयं निरंतरं सबुत्तमसोपायणनवविवज्जाणं ततो अासवाउ य संवुडा सबदा- खंति वा सव्वमेवयं नाणान पवत्तेज्जा ता गोयमा ! एग Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवहाण अभिधानराजेन्द्रः। जवहाण तियं अचंतियपरमसासयधव निरंतरसन्नुत्तमसोक्खकखुणा यायविण पारयेवं । एवं अणंतरजणिए व कम्मेण पढमपरमेव ताबापरेणं सामाश्यमाइलोगविदुसारपज्जवसाणं अणतरतुपसाहगति पदं परिच्छिने गानावगसत्तक्खदुवालसंग सुयनाणं काझं विलादिजहुत्तविहिणोवहाणाणं रपरिमाणं । णमो आयरियाणंति तश्यमज्झयणं श्राहिंसादीयं च तिविहं तिविहेणं परिकतेण य सरवंजणमता यंबिलेणं अहिजेयन्न । तहा य अणंतरुतुच्छपसाविदुपयक्खराए मगं पयच्छेदघोसबछयाणपुन्धिपुवाणुपु हगतिपयपरिच्छिन्ने गाझावगसत्तक्खरपरिमाणं नमो नबिणाणपुचीप सुविसुषं आचारिकायएण पगत्तेणेण वज्कायापति चउत्थमज्झयणं अहिज्जेयव्वं । तद्दियहे मुविनेयं तं च गोयमा! अणिहणोरेमुविच्छिन्नचरमो हिमि- य आयंबिलेणं पारेयध्वं । नमो लोए सब्यसाहणंति पंचमय सुंदरवग्गहं सयलसोक्खपरमहं उनूयं च तस्स य सयन्नसो- ज्यणं पंचमदिणे आयंविलेण तहेव तमत्यागामियं एक्खहे उनूयाओ न पट्टदेवया नमुक्कारविरहिए के पारं कारसपयपरिच्छिन्नतियलावगतितीसवखरपरिमाणं "एसो. गच्छंजा टुंदेवयाणं च नमुक्कारं पंचमंगलमेव गोयमा ! पंचनमोकारोसबपावापरणासणो। मंगलाणं चसम्वेसिं पढमं णोणमन्नति ता णियमओ पंचमंगस्सव पढम ताव विण- इवइ मंगलमिति" चूलति छसत्तट्ठमदिणे तेणेव कम्मविप्रोवहाणं कायव्वति । से भयवं कइए विहीए पंचमंग- जागेण आयंबिलेहिं अहिज्जेयव्वं । एवमेवं पिच मंगलबस्स णं वि ण नवहाणं कायन्वं गोयमा! इमाए बिहीए महासुयक्खधं सरवनयरेहियं पयरकरविंमुमताविमुद्धं गुरुपंचमंगलस्स णं वि ण उवहाणं कायव्वं तंजहा सुपसत्थे गोववेयगुरूवश्र्ल्ड कसिणमहिजित्ताणं तहा कायव्वं जहा चेव सोहणतिहिकरणमुहुत्तनक्रवत्तजोगनग्गससीवनवि- पुवाणुपुवीए पच्छाणुपुबीए प्रणाणुपुवीए जोहग्गो प्पमुक्कजायाईमणा संकेण संजायसवसंवेगमतिब्बतरमई- तरेजा तो तेणेवाणंतरजणियतिहिकरणमुहुचनक्खत्ततुझसंतमुहजवसायाणुगयजत्ती बहुमाणपुव्वं णिलियाण- जोगनग्गससीवजंतुविरहिनगासवेलाया अम्गाई कम्मेणं दुवालसभत्ताहिएणं चेइयालए जंतुविरहिओ गोयमा ! अट्ठमनत्तणं समाजाणविऊणं गोयमा ! महया पबंधण मे जत्तिभरनिन्जरटुसियससीसरोमावलीपप्फुसनयणसय - सुपरिफुम णिउणं असंदिढ सुत्तत्यं ऋणेगहा सोऊणाववत्तपसंतसामथिरदिहीणवणवसंवेगसमुच्चलंतसंजायबहन- धारेयव्वं एयाए विहीए पंचमंगलस्सणं गोयमा ! दिणउवहा घणनिरंतरचितपरमसुहपरिणामविसेसससियजीववीर णे काययो (महा० )से जयवं सुदुकरं । पंचमंगलमहासुयाणुसमयविवरतपमोयसुविसुन्धसुनिम्माविमलथिरदढ- यखंधस्स वि ण उवहाणं पन्नत्तं महती य एसाणियंतणा यरंतकरणेणं खितिणिहयजाणुणिसियउत्तमंगकरकमन्नम- कह वा लेहं कज्जई गोयमा ! जेणं के ण इच्छेज्जा एय उलसोहंजामिफुमेणं सिरिनसवाइपवरवरधम्मतित्ययरपडि- नियंतणं अविणिणं व पंचमंगलाई सुयनाणं महिजणे मा विविणिवेसियनयण माणसमग्गतग्गयवसाणं समयदढ- अजाई वा अज्जावयमाणस्स वा अणुनं वा पयाइ से चरित्तादिगुणसंपउवव्या गुरुसद्दत्यष्ट्ठाणकरणेकबद्धक्ख णं ण भवेज्जा पियधम्मेण हवेज्जा दढधम्प्रेण भवंजा तवाहियगुरुवयणविणिग्गयं विणयादिबहुमाणपरिनसा- भतीजुए हीलिजा मुत्तं हीलिजा अत्थं हीलिजा मुत्तणुकंपोबलम् अगसोगसंताब्वेगमहवाहिवेयणाघोरदु- त्यनमए हीलिज्जा गुरुजणं हीलिज्जा सुत्तत्योजए जणेक क्खदारिदकिलेसरोगजम्मजरामरणगभनिवासादुद्रुसावग्ग गुरुं सेणं अासाएजा अतीताणागयवट्टमाणे तित्ययरे आगाहभीमभवोदहितरंडगनूयं णमो सयमागममऊवत्तगस्स साइज्जा अायरियनवज्झायसाहुणे जेणं आसाइज्जा सुयमिच्छत्तदोसोवहविसहबुकी परिकप्पिय उ भणियं अघम णाणमरिहंतसिफसाहु से तस्स णं सुफीसुयालमणंतसंमाणअसेसहेउदितजुत्तीविकसणिकपच्चलपोढस्स पंचमं सारसागरमाहिमेमाणस्स तासु तामु संकुडवियमासु चुलगन्नमहासुयक्खधस्स पंचायणेगचूलापरिक्खित्तस्स पवरप सीइसक्वपरिसंखणामु सीओसिणमिस्सजोणीसु तमिवणदेवयाहिट्टियस्तातिपदपरिच्छिनेगालावगस्स तक्रवर संघयारसुग्गं धामिजविलीणरवारमुत्तोजभजपढहत्थवपरिमाणं अणंतगमपज्जवत्यपसाहगं सव्वमहामंतपयरवज्जा सुजयपूयदुर्बिणविविचिरुहिरविलखाबुद्दसणवामपंकरणं परमवीयनूयं नमो अरिहंताणंति । पढमजयणं अहिजे वोजत्थघोरगन्जवासेसु कम्कढकतचलचमचलस्स टलयन्वं । तदियहे य प्रायविलेणं पारेयच्वं तहेवय वीयदिणे टलटलस्स रज्जतसंपिडियंगमंगस्स सुइयरं नियंतणा जेऊणं भगाइसयगुणसंपउवयं अणंतरजणियत्यपसाहगं - एयविहं फासेजा। नोणं मणयपि अइयरेज्जा महा०३१० श्रीहीरविजयसूरि प्रति उपधानमामारोपणयोः किं फसमुद्दिश्य एतरं तेणेव कमेणं दुपरिच्चिन्ने गालावगपंचक्खरपरि-| कर्तव्यता यत्र च साभिहिता तदापि शास्त्रं व्यक्त्या प्रसाचं मिमाण नमासिघाणंतिवीयमा य अहिजेय । तद्दियहे नि प्रश्नः उत्तरमुपधानमामारोपणयोः किं फसमुद्दिश्य कर्तव्य Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाण अनिधानराजेन्ः। उवहाय ता यत्र च साऽभिहिताऽस्तीत्यत्र उपधानवहनं श्रुताराधननि- | वध्वहारः संप्रदायश्च प्रमाणं यमुक्तं श्रावकाः पञ्च नमस्कारामित्तं मानारोपणं तु तपस उद्यापनार्थ महानिशीथादिशास्त्रे दिकियत्सूत्राणि विमुच्य शेष सामायिकादिषजीवनिकान्तं सूसक्नमस्ति । श्रीहीरविजयं प्रति जिनदासगणिकृतप्रश्नो यथा।त- प्रमुपधानमन्तरेण यत्पगन्ति यच्चाकृतोपधानतपसोऽपि प्रथम थाऽश्विनचैत्रमासास्वाध्यायिके सप्तम्यष्टमानवमीदिनत्रयमुपधा- नमस्कारादिस्तत्र जीवट्यवहारस्संप्रदायश्च प्रमाणमिति संममध्ये आयाति न वा तथाऽश्विनचैत्रमासास्वाभ्यायिकदिनत्रय- भाव्यत इति विचारामृतसंग्रहे श्रारूप्रतिक्रमणविचाररूपे षष्ठमुपधानतपोविशेषेषु लेख्यका नायातीति बोध्यम्।गुणविजयगणि- द्वार इति (प्रश्न०१८) तथा मौलविधिनोपधानवहने श्राख्या रुतमश्नो यथा। उपधानयाहिनःश्राद्धादेरकालसंज्ञायां जलशौचा- अस्वाध्याय दिनत्रयसत्कंतपः प्रवेदनं च लेख्यके समायाति न दिविधिः किं निशायामपि स्यान्न वेति । अत्रोत्तरम् स्वकीयादिना वेति प्रसाद्यं पूर्व तु तपो न यातीति श्रुतमस्तीति प्रश्नः । अत्रोत्तनीतेनोष्णोदकेन शौचादिविधानं युक्तिमदिति। जेसलमेरुसंघक- रम् अस्वाध्यायदिनत्रयसत्कं तपः प्रवेदनं च न यातीति वृरुवातप्रश्नो यथा। तथा केनचिदुपासकेन चत्वार्युपधानान्युढानि नव. दोऽत एव पोमशदिने वाचना प्रदीयमानाऽस्ति वाचनानन्तरंच न्ति तन्मभ्ये प्रथमोपधानस्य द्वादशवर्षातिक्रमे प्रथममेवोपधानं प्रवेदनरहितं पौषधत्रयं कार्यत इति ( प्रश्न ३४ ) तथोपधानपुनरुकाह्य स मानां परिदधाति नत चत्वार्यपीति । उत्तरम् । प्र- चतुष्टयस्य मालारोपणस्य चान्तरकासः कियानिति प्रश्नः । - थमोपधानस्य द्वादशवर्षतिक्रमे पुनस्तस्मिन्नुढे माला परि- श्रोत्तरम् । मुख्यवृत्त्या प्रथमोपधानप्रवेशानन्तरं द्वादशवर्षाहिता शुध्वति । अथ यदि मनः स्थाने तिष्ठति तदा चत्वार्यपि तिक्रमे तच्चतुष्टयं गच्छति तेन ततोऽर्वागेव माझारोपणं विधेय. पुनरुद्वाह्य माला परिदधाति ॥१॥ तथा उपधाने बाह्यमाने तपो- मिति । श्येन० १ उदा००३ प्रश्न । तथा षष्ठोपधानप्रवेशे अ.दिने यदि कल्याणकतिथिरायाति तदा तेनैवोपवासेन सरति धदिन एव मालापरिधापने प्रथमां वाचनां दत्वा मालापरिधानतान्याऽ धकः ततो विलोक्यते इति प्रश्ने उत्तरम् उपधानतपो- प्यत उत पूर्फे तत्तपास मात्रापरिधानानन्तरमाद्यवाचना दीयत दिनान्तः कल्याणकतिथ्यागमने नियन्त्रिततपस्तया तेनैवोपवा- शति प्रश्नः । अत्रोत्तरं षष्ठोपधानप्रवेशाधदिने प्रवेदनकं प्रवेद्य सेन सरति । १२ । द्वीप पन्दिरकृतप्रश्नो यथा। तथोपधानपूर्णी- प्रथमा वाचनां दत्वा समुद्देशादिक्रिया कारयित्वा मासा भवनानन्तरं तपोवासरे उत्तरितुंकरपते नवेति? अत्रोत्तरम् ।च- परिधाप्यत इति । श्येन०२ उल्ला०८३ प्रश्नः । तथा श्रावपधानपूर्णीभवनानन्तरं तपोवासरे नोत्तीर्यते तथाविधकारणेगी- काणामुपधानवहनं विना नमस्कारादिपज्नं शुद्ध्यति न वेतिसाझापूर्वकमुत्तरपे एकान्तेन निषेधो ज्ञातो नास्तीति । तथोपधा- प्रश्नः। अत्रोत्तरम् तथा यतीनां योगवहनं विना सिकान्तवाचननवाचनानमस्कारं विना दीयते उत तत्पूर्विकेति ? उपधानवाचनां पापनादिन शुद्ध्यति तथोपधानतपोऽन्तराश्राधानामपि नमस्काश्रीविजयदानसूरयो नमस्कारं विनैव दत्तवन्तो वयमपि तथैव रादिसूत्रनणनगणनादि न शुद्यति यमुक्तं महानिशीथे " सेभदन्न इति । २७। तथोपधानवाचना पारणादिने दीयते न वा ? | यवं सुकरं पंचमंगलमहासुअखंधस्स विणलोवहाणं पनत्तं तथोपधानवाचना प्रातःसंध्यायां च दीयते न वा इति? पधान- एसा नियंतणा कहं वा हिकिज्जई गोयमा जेणं केणश्न इनाचना तपोवासर पारणादिने वा दत्ता शुद्ध्यति तथोपधानवा- च्छेज्जा पयं नियंतणं अविणओबहाणेण पंच मंगवास अन्नाणमचना आचामासैकाशनकरणानन्तरं संध्यायामाप दत्ताशुष्यति हिज्जई अज्काइ वा अझावयमाणस्स वा अणुपयाश्से णं न परं प्रतिदिनक्रियमाणसंध्यासमयक्रिया पश्चात क्रियते । २० । भवेज्जापि अधम्मे न हवेज्जा दढधम्मे न हवेज्जा भत्तिज्जए है।तथा चतुर्मासकमध्ये माझारोपणनदी कुतःप्रभृति विधीयते इति? | लिजा अत्थं हीलिज्जा सुत्तत्थोभए होलेजा गुरुजेणं हीलिजा सुत्तं चातुर्मासकमध्ये तुरीयवतमालारोपणनन्द। विजयदशम्यनन्तरं जाव हीलिज्जा सुत्तं हीलिजा सुत्तत्योभए होलिजा गुरु जेण भवतो द्वादशवतनन्दी त्वर्वागपि भवन्ती दृश्यते इति । २।। हीसिजा सेणं आसाएजा प्रतीताणागयवट्टमाणे तित्थयरे आसातथोपधानमध्ये आईशाकनवणं कल्पते न वा? तथा विलेपनम- पज्जा पायरि उवज्झायसाहुणोजेणं आसाएजासुअनाणमरिईस्तकतैलप पादिकं कल्पते न वेति ? उपधानमभ्य सांतमाई- तसिम्साहु सेत्तस्सणं अणंतसंसारसागरमाहिडेमापास्स तासु शाकनकणे रीतिर्नास्ति तथा विश्लेपनमस्तकतैसकेपादिकं यति तासु संवुमविसमासु (प्र०)चुलसीअक्खपरिसंकदासुसीश्री. चस्वयं न वाञ्चति अन्यः कश्चिद्यदि नक्तिं करोति तदा निषेधो सणमिस्स जोणीसु सुइरनियंतणा'इति' परं येन प्राग नमस्कानास्ति । ३० । तथा श्रावकश्राविकाणां नन्दीसूत्रश्रवणं " नाणं | रादिसूत्राण्यधीतानि तेनापि यथायोगं निर्विलम्बमेवपधानानि पंचविपन्नत्तं" इत्यादिरूपं नमस्कारत्रयरूपं वा क्रियते न बा ? विधिनाऽवश्यं वहन्ति यानि संप्रति तु अन्यत्रकालाद्यपक्कया श्रावकश्राविकाणां नन्दीसूत्र नमस्कारत्रयरूपं श्राव्यते इति ।३१॥ साभालाभ विनाव्याचरणयोपधाननपा विनाऽपि नमस्कारादितथोपधानवाचनां श्राका श्राद्ध्यश्च कर्कस्थानेन शुएधन्युपविश्य सूत्रपागदिनणनं कार्यमाणं दृश्यते आचरणायाश्च लकणमिदं वति ? उपधानवाचनां धान्य ऊर्वस्थिता शुपबन्ति श्राद्धास्तु कल्पभाष्ये उपदेशपदे च यथा “असढेण समाइने, जं कत्थ य चैत्यवन्दनमुध्यति । ३२ । ही०३ प्रशनावे ट्युद-प्राप्ती, सम्मा केणई असावजं । न निवारिमन्नेहि, बहुमणुमयमेअमायरिअं"। तथा पौषधकरणात् पूर्व स्वाध्यायः कृतो देवाश्च वन्दितास्तदा १२॥ प्राचरणा खजिनामा समानैव यद्भणितं भाष्यादी "असढाइपश्चात्पौषधकरणे उपधानप्रवेशे वा पुनरपि स्वाध्यायदेवबन्दना- माणवजं, गीअथ अचारिअंतिमन्नस्था। आयरणा बिहु आणत्ति, दि करणीयं मवेतिप्रश्नः पौषधकरणात्पूर्व स्वाध्यायदेववन्दना- घयण सुबइमन्नंति १ इति ध्येयम( प्रश्न) तथा गुरुसमीपे दिकृतं स्यात्तदा पश्चादपि तेनैव सरतीति (सेन०२ चह०५८प्र०) नपाधनादि क्रियां कुर्वतः श्रासादरम्तरामस्थस्थापनाया गुरोश्चासामायिकाध्ययादीनां कान्युपधानामि धामस्थानों परस्यानु- न्तराने पञ्चेछियगममे अप्रे भवति न वेति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् योजने किं प्रतिवचः प्रदीयत इति प्रश्नः। अत्रोत्तरं महानिशीथादौ अग्रे जवतीति (१७ प्रश्न०) तथा तृतीयाद्यपधानेषु सप्तकमाश्रचैत्यबन्दनसूत्राणामयोपधानान्युक्तानि सन्ति.न तु सामायिकाध्य-। मणानि दाप्यन्ते तत् कुत्र विधिः पत्रेपस्तीति प्रश्नः । अत्रोत्तरं यनादीनां यच्चोपधानमन्तराऽपिसामायिकादीनां पठनं तत्र जी-1 तृतीयाद्युपधानेषु तद्विधिदर्शकपत्रादी सप्तकमाश्रमणदानवि Jain Education Interational Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८०) उपहाण अभिधानराजेन्द्रः। उवहाणसय धानं न रयते तथापि श्रीपरमगुरुणामनुशिष्टिरस्ति यतोऽग्रे| परं दिनसंख्या ज्ञाता नास्तीति (४४१प्रश्न०) तथा कोऽप्यपधामानाधापनसमय तेषां समुद्देशानुजयोर्विधीयमानत्वादुद्देशोऽपि नचतुष्कमुद्वाह्य मालां परिदधाति तस्य समुद्देशानुज्ञावस्थाकर्तव्य इति तत्सप्तकमाश्रमणानि देयानीति ( २० प्रश्न) तथा यामवशिष्टोपधानयो म गृह्यते नवेति प्रश्नः । अत्रीत्तरम् कृषिककोपधानपहनानन्तरं षएमासमध्ये मात्रापरिधापनं शु- षमामप्युपधानानां समुद्देशानुक्कयो म गृह्यते व्योरदेशस्य च यति किं वा षएमासानन्तरमिति प्रश्नः अत्रोत्तरं तफहनानन्तरं पुरतोऽपि भवने न दोष शत वृक्षसंप्रदायः (४१७ प्रश्न०) पएमासमध्य एव मालापरिधापनं शुद्धयतीत्येकान्तो ज्ञातो ना. तथोपधानतपसि पूर्मे जाते शेषप्रवेदनेषु दिनवृधिर्भवति नयति स्ति परं त्वरितं परिधाप्यते तदा वरमिति (११० प्रश्न) तथा- प्रश्नः । अत्रोत्तरम् उपधानशेषप्रवेदनेषु दिनवृद्धिर्भवति क्कियाख्योपधाने उच्चरितपञ्चमीतपसां षष्ठदिने पञ्चमीस- (४२६ प्रश्न) तथोपधाने पानीपरावर्तनं शुस्यतिन वेति प्रश्नः । मेति तदा पञ्चम्युपवासं कृत्वा सप्तमदिन आचामं करोति कि भत्रोत्तरम् तथाविधप्रकारेण तत्प्रख्यानं शुद्धयति (क्येन०३चल्लान या षष्ठं करोतीति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् सप्तमदिने उपवासस्याव ४२८ प्रश्न) तथोपधानवाचनाऽन्तगृहीतुं पिस्मृता सा साय श्यककरणीयत्वेन षष्ठं करोति शक्त्यभावे तदनुसारेणवो- क्रियाकरणानन्तरं गृह्यतेऽथवा द्वितीयदिने यदि द्वितीयदिने पधानप्रवेशं करोति (१३४ प्रश्न ) तथोपधानोत्तरणदिनस्य तदा स वासरः कस्यां वाचनायां गएयते इति प्रश्नः । अत्रोत्तप्राक दिने योगोत्तरणदिनवत्तप एव कृतं विलोक्यते किंवा रं प्रातरुपधानवाचना लातुं विस्मृता सा संध्यायां क्रियाकरएकाशनकपारणकेऽप्युत्तरितुं कल्पते न वेति प्रश्नः । अत्रोत्तर- णादर्वाग् गृह्यते तथाऽपि यदि स्मृता तदा द्वितीयेऽहि प्रवेमाह एकाशनादिपारणकेऽप्युत्तारयितुं कल्पते न तु योगादि- दनादाग गृह्यते स वासरस्त्वतनवाचनामध्ये गएयत इति । वत्तपोनियम इति (१६४ प्रश्न०) तथा पएिकतकनकविजयगणि- | श्येन ४ उल्ला० १२६ प्रश्न। कृतप्रश्नस्तदुत्तरं च यथा वृद्धविध्युपधानवाहकस्य कृतचतु- नवहाणपडिमा-उपधानप्रतिमा- स्त्री० उपधानं तपस्तद्विषया विधाहारोपवासस्य संध्याप्रत्याख्यानवेलायां संध्याप्रत्या- प्रतिमा । प्रतिमाभेदे, स्था०३ ग तपोविषयनिग्रहे, औ०। ख्यानं गुरुसमकं कर्तव्यं न वेति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् प्रातः नवहाणवं-उपधानवत्-पुं० उपधानं तपस्तद्विद्यते यस्याऽसौ फतचतुर्विधाहारोपवासस्य संध्यायामुपधानक्रियाकरणवेला उपधानवान् । तपोनिष्टप्तदेहे, उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति यांपश्चात्प्रत्याख्यानं कृतं विलोक्यते उपधानमन्तरा तुसंध्यायां उपधानम् । श्रुतविषयोपचारवति, सूत्र. १ श्रु०७ अ० । स्था। तत्स्मरणं विलोक्यते परं पुनः प्रत्याख्यानकरणविशेषो झातो उपधानमङ्गोपाङ्गादीनां सिद्धान्तानां पाठनाराधनार्थमाचाम्लोनास्तीति ( ३७६ प्र०) तथाऽष्टपूर्वार्धेरेक उपवास इत्यादि पवासनिर्विकृत्यादिलक्षणं तपोविशेषः स विद्यते यस्य स उपगणनया गणितं तपस्तृतीयपञ्चमोपधानमध्य आयाति न धानवान् । सिद्धान्ताराधनतपोयुक्ते, " वसे गुरुकुले णिचं, वेति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् पञ्चमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धः १ प्रतिक्र जोगवं उवहाणवं । पियंकारे पियंवाई, स सिक्खं लकुमरणश्रुतस्कन्धः २ शकस्तवाध्ययनं ३ चैत्यस्तवाध्ययनं ४ नाम हई" उत्त०११ श्र। सूत्र०॥ स्तवाध्ययनं ५ श्रुतस्तवसिहस्तवाध्ययनं चेति ६ षडुपधाना उवहाणनीरिय-उपधानवीर्य-पुं० उपधानं तपस्तत् यथाशनि तत्र चतुर्थषष्ठे विना चत्वार्युपधानानि मूलविधिनापरवि पत्या वीर्य यस्य स भवत्युपधानवीर्यः । सूत्र०१ श्रु०११ धिना वोह्यमानानि सन्ति तत्रापरविधावष्टभिः पुरिमाधिरेक उपवास इत्यादिगणना भवति तनु मूलविधौ प्रयोजनाभावा । तपस्यनिगूहितबलवीये, " धम्मही उवहाणवीरिए" चतुर्थषष्ठयोर्मूलविधिनैवोह्यमानत्वात्तणना प्रयोजनास्तीति सूत्र० १ श्रु० २ ०२०।। (१७६ प्रश्न०) तथैकादशोत्तराध्ययनचतुर्दशसहरुयां १३१ पत्रे उवहाणसुय-उपधानश्रुत-न० महावीरासेवितस्योपधानस्य "जोगवं उवहाणवं" इति द्वयमपि शिष्यस्योक्तमस्ति तत्कथं तपसः प्रतिपादकं श्रुतं प्रन्थः उपधानधुतम् । अष्टमे नवमे वा शिष्यस्य श्रारस्य च कार्यत इति प्रश्नः। अत्रोनरम् योगमनो- प्राचाराङ्गस्य ब्रह्मचर्याध्ययने, स्था०६ ठा। प्रश्न । श्राव। वचनकायसम्बन्धिन उपधानं तपोविशेष एतदद्वयमपि मनीना स० । अथापधानश्रुतस्य प्रतिपाद्य महावीरस्यामिकृतं तप मिवोक्तमस्ति श्राकानामुपधानोद्वाहनं तु महानिशीथाकरप्रामा- उपदर्श्यते । एयादेवेति (१८६ प्रश्न०) अथ पण्डित काहर्षिगणिकृतप्रश्ना- अहासुयं वदिस्सामि जहा से समणे भगवं उहाय संखाए स्तमुत्तराणि च यथा उपधानवाहिश्राश्राद्धीनां कल्पदिनप- तेति हेमंते अदुणा पन्चइए रीइच्छा णो चेविमेगा वत्थण चकमध्ये उत्तरितुं कल्पते न वेति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् महत्कारणं पिहिस्सामि तसि हेमंते से पारए आवकहाए एवं खु विना उत्तरितुं न करपते यदि च तथाविधकारणे उत्तरति तदारम्भवर्जनं करोतीति (२०६ प्रश्न) तथोपधानाऽवाहिना आणुधम्पियं तस्स ॥ १ ॥ पञ्चमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धपाये ऽविनायामनन्तसंसारावाप्तिः फलं (अहासुयं वदिस्सामीत्यादि) आर्यः सुधर्मस्वामी जम्बूस्थातदाश्रित्य किमादिश्यते इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम् उपधानावहने- मिने पृष्टत्वात् कथयति यथाश्रुतं यथासूत्रं वा वदिष्यामि तहऽनन्तसंसारिता महानिशीथे उक्ता परं तत्सूत्रमुत्सर्गतया श्रितं था असी श्रमणो भगवान् वीरवर्षमानस्वाम्युत्थायोद्यतधिहारं तेन यो नास्तिकस्सन्नुपपधानं वोढुं निरपेक्तस्तस्य सेति यम प्रतिपद्य सर्वालंकारं परित्यज्य पञ्चमुष्टिकं सोचं विधायैकेन (३३७ प्रश्न०) तथा अष्टाविंशतिदिनोपधाने पञ्चत्रिंशहिनोपधाने देवदृष्येणेबकिप्तेन युक्तः कृतसामायिक प्रतिज्ञः श्रावितमनःच माविधिना वहमाने कति दिनानि भवन्ति तथा तपधानन्- पर्यायज्ञानाष्टप्रकारकर्मकयार्थ तीर्थप्रवर्तनाथ धोत्थाय संख्याय यात्कतिदिनेषु न्यूनेषूत्तार्यते इति प्रश्नः। अत्रोत्तरम् मूलविधिना ज्ञात्वा तस्मिन् हेमन्ते मार्गशीर्षदशम्यां प्राचीनगामिन्यां गयातदूतये वहमाने दिनन्यूनाधिक्यं ज्ञात नास्ति तथा तदुपधाने | यां प्राज्य.ग्रहणसमनन्तरमेव रीयते स्म विजहार । तथा च न्यूनदिनेषु महत्कारणे सपूम्म तपास जाते उत्तारवन्ता दृश्यन्त किन कुण्डनामान्मुहूत्ते शेषे दिवसे कुमारग्राममाप । तत्र च Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८१) उवहाणसुय अनिधानराजेन्डः। जवहाणासुय नगवानित प्रारज्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् परीषदोपस- सयणेहिं विमिस्सेहिं, इथिओ से तत्थ परिणाय । गानभिसहमानो महासत्वतया म्बेगनप्युपशमं नयन हादश सागारियं ण सेवेइ, ति से सयं पवेसिया ज्काइ ॥५॥ वर्षाणि साधिकानि नास्थो मौनव्रती तपश्वचार । भत्र च शय्यन्ते येष्विति शयनानि वसतयः तेषु कुतश्चिन्निमित्तादिसामायिकारोपणसमनन्तरमेव सुरपतिना जगवपरि देवदू ति मिश्रेषु गृहस्थतीथिकैस्तत्र व्यवस्थितः सन् यदि खीनिः प्यवस्त्रं चिक्तिपे । तागवताऽपि निःसङ्गानिप्रायेणैव धर्मोप प्रायते ततस्ताः शुभमार्गार्गक्षा इति ज्ञात्वा परिकया प्रत्याकरणमृतेन धर्मोऽनुष्ठातुं मुमुचुभिरपरैः शक्यत इति कारणापे ख्यानपरिक्षया परिहरन् सागारिकं मैथुनं न सेवते शून्येषु च क्षया मध्यस्थवृत्तिना तथवावधारितंन पुनस्तस्य तदुपत्नोगेच्छा नावमैथुनं न सेवते इत्येवं स भगवान् स्वयमात्मना वैराग्यमास्तीत्येतद्दर्शयितुमाह "णो चेव इमेण" इत्यादिश्लोकानचैवाहमन यात्मानं प्रवेश्य धर्मध्यानं शुक्मध्यानं वा ध्यायति । तथा । नवस्रेण इन्प्रतितेनात्मानं पिधास्यामि स्थगयिष्यामि तस्मिन् हेमन्त तद्वा वस्त्रं त्वत्राणं करिष्यामि सजाप्रच्गदनं वा विधा जे केइ इमे अगारत्था, मीसीजावं पहाय सेज्जाति । स्यामि किम्तूतोऽसाविति दर्शयति । स जगवान् प्रतिज्ञायाः प पुट्ठोविणानिनासिंसु, गच्छति णाश्वत्तती अंजु ॥६॥ रीषहाणां संसारस्य वा पारं गच्यतीति पारगः कियन्तं काल- ये केचन श्मे अगारं गृहं तत्र तिष्ठन्तीत्यगारस्थाः गृहस्थामिति दर्शयति । यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः किमर्थं पुनरसौ स्तैर्मिश्रीनावमुपगतोऽपि कन्यतो जावतश्च तं मिश्रीभावं प्रहाय विभौति चेद्दर्शयति खुरवधारणे स च भिन्नक्रमः । पतद्वस्त्रा- त्यक्त्वा स भगवान् धर्मभ्यानं ध्यायति । तथा कुतश्चिनिमित्ताबधारणं तस्य भगवतोऽनु पश्चात् धार्मिकमनुधामिकमेवेत्यप- त् गृहस्थैः पृटो वा न वक्ति स्वकार्याय गच्छत्येव न तैरुक्तो रैरपि तीर्थकृद्भिः समाचीर्णमित्यर्थस्तथा चागमः "सेवेमि ये अ- मोकपथमतिवर्तते ध्यानं वा ( अंजुत्ति ) । ऋजुः ऋजोः सोता जे व पप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहंता नगवन्तो जे य| संयमस्यानुष्ठानात् । नागार्जुनीयास्तु पन्ति “पुठो व से अपुको पञ्चसु जे पब्वयंति जे य पञ्चश्स्संति सव्वे ते सोवहीधम्मो वा णो अणुमाइयापावगं" काव्यम् । किश्च॥ देसियवत्ति" तथा भगवतः प्रवजतो ये दिव्या सुगन्धिपट- __णो सुकरमेतमेगसिं, णाजिनासे अभिवायमाणो । वासा आसंस्तमन्धाकृणाश्च भ्रमयदयः समागत्य शरीरमुपता- हतपुच्चो तत्थ दंडेहिं, लूसियपुवो अप्पपुरोहिं ॥ ७॥ पयन्तीत्येतदर्शयितुमाह ।। नैतद्वक्ष्यमाणमुक्तं वा एकेषामन्येषां सुकरमेव नान्यः प्राकृतपुचत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाश्या आगम्म। . रुधैः कर्तुमसम् । किं तत्तेन कृतमिति दर्शयति । अभिवादयता अनिरुज्झ काय विहरिंस,पारूसिया णं तत्थ हिंसंसुश नामिन्नापते नाण्यनन्निवादयद्भधः कुप्यति नापि प्रतिकूलोपसगैर" चत्तारि इत्यादि" श्लोकः चतुरः साधिकान्मासान्बहवःप्रा- न्यथानावं याति दपईतपूर्वस्तत्रानार्यदेशादौ पर्यटस्तथा मूणिजातयो भ्रमरादिकाः समागत्यारुह्य स कार्य शरीरं विजन्हुः पितपूर्वो हिंसितपूर्वः केशलुचनादिनिरपुण्यैरनार्यः पापाचारैकाये प्रविचारं चकः । तथा मांसशोणितार्थतया प्रारुह्य तत्र रिति । किश्च। कार्य णमिति पाफ्यासंकारे जिहिंसुः। श्तश्चतश्च विमुम्पन्ति | फरसाई दूतितिक्खाई, अइयव्य मुणी परकममाणे । स्मेत्यर्थः । कियन्मानं कालं तत् देवदृष्यं भगवति स्थितमित्ये. आघायणट्ठगीयाई, दंडजुज्झाई मुट्ठिजुज्झाई॥ ॥ तदर्शयितुमाह। परुषाणि कर्कशानि वा दुष्टानि तानि वा परैर्युःखेन तितिवन्त संवच्चरं साहियं मासं, जत्य रिकासि वत्थगं जगवं । इति पुस्तितिक्वाणि तान्यतिगत्याधिगणय्य मुनि गवान्विदितअचेन्ने तत्तो चाई, तं वोसज्ज वत्यमणगारे । ३ । जगत्स्वनावः पराक्रममाणःसम्यक् तितिक्कते तथा आख्यातानिच संवत्सर इत्यादिकं रूपकं तदिन्छोपहितं वस्त्रं संवत्सरमेकं । तानि नृत्तगीतानि च आख्यातनृत्तगीतानि तान्युद्दिश्य न कामुकं साधिकच मासं (जत्यरिकासित्ति) यत्र त्यक्तवान् भगवांस्त विदधाति नापि दण्डयुद्धमुष्टियुकान्याकर्य विस्मयोत्फुललोव स्थितकल्प इति कृत्वा तावः तद्वस्त्रत्यागात् त्यागी ब्यु- चन उकर्षितरोमकूपो भवति । स्सृज्य च तदनगारो भगवानचेसोऽनूदिति । तच्च सुवर्णवालु- गदिए मिहो कहास, समयम्मि णायपुत्तो विसोगो । कानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति । किश्च । अदक्खु एताइ सो उरालाई, गच्छति णायपुत्ते असरअनु पोरिसिं तिरियनिति,चक्खुमासज्ज अंत मोज्काति। पाए ॥ए॥ अह चक्खु जीता सहिया, ते इंता इंता बहवे कंदिसु ।। अयितो वा बको मिथोऽन्योन्यं कथासु स्वरैः कथासु समये अथानन्तर्ये पुरुषप्रमाणा पौरुषी आत्मपरिमाणा चीथी तां वा कश्चिदवबरूस्तं स्त्रीद्वयं वा परस्परकथायां गृहिमपेक्ष्य गच्छन् च्यायतीर्यासमितो गच्छति । तदेव चात्र ध्यानं यदीर्या | तस्मिन्नवसरे ज्ञातपुत्रो भगवान् विशोको विगतहर्षश्च समितस्यागमन मिति भावः । किम्भूतां तां तिर्यग्भित्ति शकटो तान् मिथः कथावधकान्मध्यस्थोऽकाक्षीत् । एतान्यन्यानि विपदादौ संकुटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः । कथं ध्यायति चकु. वाकूलप्रतिकूलानि परीषहोपसर्गरूपाण्युरामानि पुष्प्रधृरासज्य चतुर्दत्वा अन्तर्मध्ये दत्तावधानो भूत्येति । तं तथा दी- ध्याणि दुःखान्यस्मरन् गच्छति संयमानुष्ठाने पराक्रमते ज्ञायमानं रवा कदाचिदव्यक्तवयसः कुमारादय उपसर्गयेयुरिति ताः कत्रियास्तेषां पुत्रोऽपत्यं ज्ञातपुत्रः वीरवमानस्वामी स दर्शयति । अथानन्तर्य चक्षुः शब्दोऽत्र दर्शनपर्यायो दर्शनादेव जगवान्तःस्मरणाय गच्छति पराक्रमत इति सम्बन्धः यदिषा भीता दर्शनभाताः सहिता मिलितास्ते यहयो निम्नादयः पांसु शरणं गृहं नात्र शरणमस्तीत्यशरणः संयमस्तस्मै अशरणाय मुराचादिनिहत्या हत्वा चकन्छः पश्यत यूयं नाम्ना मुषिमतस्तथा पराक्रमत इति। तथा हिकिमत्र चित्रं यद्भगवानपरिमितवलपराकोऽयं कुतोऽयं किमिता वाध्यमित्येवं हलवावं चरिति।किश्च। | क्रमः प्रतिज्ञामन्दरमारूढः पराक्रमते सजगवानप्रवजितोऽपि Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८२) अभिधानराजेन्द्रः | सबहाणसुय मासुकादारानुवत्सीत् । श्रूयते च किल पञ्चत्वमुपगते मातापितरि समतोऽनुत्। ततः प्रातिभिरभिहितो यथादि भगवन्नमा कृथाः कृतिकारायसेचनमित्येवमभिहितेन भगवताऽवधिना व्यज्ञायि यथा मय्यस्मिन्नवसरे प्रवजति सति बहवो नष्टचित्ता विगतासवश्च स्युरित्यवधार्य तामुवाच कियतं कालं पुनरत्र मया स्थातव्यमिति । त ऊचुः संवत्सरद्वयेनास्माकं शोकापगमो भावीति भट्टारकोऽप्योमित्युवाच । किं कृत्याद्वारादिकं मया स्वेच्या कार्य नेष्वविद्या पस्थातव्यं तैरपि यथाकथंचिदार्य ! तिष्ठत्विति तैः सर्वे तथैव प्रतिपेदे । ततो नगवांस्तद्वचनमनुवर्त्यत्मीयञ्च निष्क्रमणावस रमवगम्य संसारासारतां विज्ञाय तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्श बिनुमाह । साहिए दुवे वासे, सीतोदगं अनुनाणिक्खते । एग गए पिपिच्चे से अभिशापरणे संते ॥ १० ॥ पुढच कायं च तेनकायं च वाकार्यं च । प्रणगाई बीहरियाई, तसकार्य सव्यसाच्च ॥ ११ ॥ एवाई संति पहिले चितमत्ता से अभिधाय । परिवज्जियाण विहरित्या, इति संखाय से महावीरे || १२ || अपि साधिके द्वे वर्षे शीतोदकमनुक्त्वा अनभ्यवहृत्यापत्वेत्वर्थ: अपरा अपि पादधावनादिकाः प्रावेव महाषा ततो निष्क्रान्तो यथा च प्राणातिपात परिहतवाने शेतपि पाञ्जितवानिति । तथा एकत्वमिति तत एकत्वनावनाभावितान्तःकरणः पिहिता स्थगिताच क्रोधज्वाला येन स तथा । यदि वा पिदिता गुप्तः स जयश्वद्यस्थकाले ऽनिज्ञातदर्शनः सम्यक्त्व प्रावतया नावितः शान्त इन्द्रियनोइन्द्रियैः स एवंभूतो भगवान् गृहवासेऽपि सावद्यारम्भत्यागी किं पुनः प्रव्रज्यायामिति दर्शयितुमाह " पुढावेंच इत्यादि एयाई इत्यादि" श्लोकद्वयस्याप्ययमर्थः । एतानि पृथिव्यादीनि चित्तमत्यभिज्ञाय तदारम्भपरि विहरति क्रियाकारकर्मबन्धस्तत्र पृथ्वीसूक्ष्मवादरभेदे न द्विधा सूक्ष्मा सर्वगा बादराऽपि श्लक्ष्णकठिनभेदेन द्विधैव । तत्र लक्णा शुक्लादिपञ्चवर्णा कठिना तु पृथिवी शर्करवालुका पशिदा शस्त्रपरिधानुसारेण एव्या प्रकायोऽपि सूक्ष्मबादरभेदात् द्विधा । तत्र सूक्ष्मः सर्वगो दादरस्तु शुद्धोदकादि भेदेन पञ्चधा । तेजःकायोऽपि पूर्ववन्नवरं बाद रोङ्गारादि पञ्चधा। वायुरपि तथैव नवरं बादर उत्कलिकादिभेदेन पञ्चधा । वनस्पतिरपि सूक्ष्मवादरभेदेन द्विधा । तत्र सूक्ष्मः सर्वगो बादरोऽप्यधमूलकपर्ववीजसंमूर्च्छनभेदात्सामान्यतः षोढा पुनर्द्विधा प्रत्येका साधारणध तत्र प्रत्येको गुष्ाददातू द्वादशधा साधारणस्त्वनेकविध इति । स एवं भेदभिन्नअपि वनस्पतिः सूक्ष्मस्य सर्वगतत्वादयित्वाच तद्युदा सेन बाद मेदवेन संगृहीतस्तद्यथा पनकग्रहसेन धीडु रभावरहितस्य पनकादेरुत्पादिविशेषापत्रस्य ग्रहणं वीजग्रहपेनीपादानं हरितशब्देन शेषस्येत्येतानि पृथिव्या दीनि भूतानि सन्ति विद्यन्त इत्येयं प्रत्युय तथा वित मंति) सवितान्यभिज्ञायात्तत्यवाग्वगम्य स भगया महावीरस्तदारम्भं परिवज्यं विहृतवानिति पृथिवीकायादीनां जन्तूनां त्रसस्थावरत्वेन भेदमुपदर्श्य सांप्रतमपरस्परतोऽनुगमनमप्यस्तीत्येतदर्शयितुमाह ॥ उहाण सुय अथावरा य तसत्ताए, तसजीवा य यावरत्ताए । अवा सव्वजोशिया सत्ता, कम्मरणा कप्पिया पुढोवाला १३ जगव च एवमसिं, सोबहिए दु सुप्पती वाले । कम्मं च स राचा, परिवाइकखपावगं जगवं ॥ १४ ॥ वि समेच मेात्री, किरियमक्रखायमणेनिस पाए । । आपण सोयमतिवाप सोपं जोगं सो गया ||१५|| अथानन्तर्ये वथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः प्रसतया ईयादितया विपरिणमन्ते कर्मवशान्ति शब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थस्तथा सर्जावाश्च कृम्यादयः स्थावरतया पृथिस्यादित्वेन कम्पनिशाः समुत्पद्यन्ते तथा चान्यत्राप्युक्तम् "अयणं ते! जीव पुढविकाश्यत्ताए उव्ववापुब्वे हंता गोयमा ! अस अदुवां अनंतखुत्तो जाव वपुःवेति" अथवा सर्वा योनय उत्पत्तिस्थानानि येषां सत्वानां ते सर्वयोनिकाः खाचाः सर्वगतिनाजस्ते च वाला रागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनिमुन कल्पित व्यवस्थापिता इति । तथा चोतं" णत्थि किर सो पपसो लोएवालग्गकोमिमेन्तो वि । जम्मणमरणावाहाणेगसो जत्थ गवि पत्ता " अपि । रङ्गभूमिर्न सा का जगति विद्यते विप टित" मित्यादि । किञ्च ( जगवं च इत्यादि) जगवांश्व वीरपर्कमानस्वाम्येवमवगम्य ज्ञातवान् सह उपधिना वर्त्तत इति सोअधिकाचियुक्का हरवधारणेप्यत एप कर्मणः कले शमनुजवत्येवाको बाल शते । यदि वा हुर्हेतौ यस्मात् सोपधिकः कर्म्मणा सुध्यते वावस्तस्मात्कर्म्म सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्मप्रत्याख्यातयस्तदुपादानं च पापकम्मानुष्ठानं गवान् वर्कमानस्यामीति । किञ्चदस्ति द्विविधं कि तत्क तच्चेर्याप्रत्येयं सांगरायिकञ्च तद् द्विविधमपि समेत्य ज्ञात्वा मेधावी सर्वभावज्ञः क्रियां संयमानुष्ठानरूपां कम्मच्छेत्र | मनीदृशीमनन्यदशमायातवान् किम् नित्यर्थः किं वा परमायातानि दर्शयति आदीयते कम्मी नेनेत्यादानं दुष्याणिहितमिन्द्रियमादानम् प्रदानात्तथा तपा तोप कृणार्थत्वादस्य मृषावादादिकमपि त्या तथा योग मनोवाक्कायणं पुष्प्रणिहितं सर्वशः सर्वप्रकारैः कर्मबन्धायेति ज्ञात्वा श्रोतः क्रियासंयम लक्षणामाख्यातवानिति संबन्धः किञ्च । अतिवादियं अणावहिं सत्तमसिं अकरणयाए । जस्सिस्थि उपरिणाया, सव्वकम्मा वहा से अवतु । १६ । तामतिष्ठा कुहिंसा न कुहिनाकुरित्यर्थः । तां पातादतिपालका विदोषा सामायिक रणतया व्यापारतया प्रवृत्त इति । तथा यस्याः स्त्रियाः स्वरूपतस्तद्विपात परिहाता भवन्ति सर्व कर्मातीत सर्वकर्मा हा सर्वपापपादानतः स एवाकाशीस एव यथास्थितं परिहारेण स भगवान् परमार्थददिति मूलगुणानासंसारस्वभावं ज्ञातवान् । एतदुक्तं भवति । स्त्री स्वनावपरिज्ञानेन ख्यायोत्तरगुणप्रचिकट विषयाह ॥ हागणं ण से सेवे, सव्वसो कम्मुला अदवबू । यं किंचि पावगं जग, सेवंवियां ज्जित्था | १७| यथा येन प्रकारेण पृढावा तं यथाकृतमधाकर्मादि माउस सेवते किमिति । यतः स प्रतिदासेयमेन कर्मणाsgप्रकारेण बन्धमप्राङ्गीत् दवानन्यदप्येवं जातीयकं न Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८३) अनिधानराजेन्द्रः । उपहासय सेवते इति दर्शयति । यत्किञ्चित्पापकं पायोपादानकारणं रागयामम्बिक प्रासुकमन उपवाक सेवतीय परवत्यं परपाए वि सेण जित्था । परिवज्जियाण व माणं, गच्छति संखार्ड असरणाए १८ || नासेवते व नोपलुङ्क्ते व परवखं प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रं नासेवते । तथा परपात्रेऽप्यसौ नो मुझे तथा परिव ज्या पमानमवगणय्य गच्छत्यसावाद्वाराय संखएड्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति संखरिकस्तामाहारपाकस्थाननृतामशरणाय शरणमनानम्धमानो ऽदीनमनस्ककल्य शर्त कृत्वा परीषद विजयार्थे गच्छतीति । किञ्च माय असणपाणस्त, वासुकि रसेसु अपि पोपमज्जिज्जा, णो विकरूंय मुखी गायं । १५ । आहारस्य मात्रां जानातीति मात्रः कस्याश्यत इत्यशनं शाल्योदनादि पीयत इति पानं प्राक्कापानकादि तस्य च । तथा मानुगुको रसेषु विकृतिषु भगवतो हि गृहस्थनावेऽपि रसेषु प्रवजितस्येति । तथा रसेष्वेव प्रहणं सी। किं पुनः प्रत्यप्रति यथा मयाऽद्य सिंह केसरामोदका एव ग्राह्या इत्येवंरूपप्रतिकारहितोऽन्यत्र कुल्माषादी प्रतिज्ञ एव तथा प्रय विरजःकणकाद्यपनयनाय नो प्रमार्जयेनापि च गात्रं मुनिरसौर कालादिना गात्रस्य करमूल्यपनों न पित इति । किञ्च । अपं तिरियं पेहाए, त्र्यं पिइन पेहाए । अयं पराणी, पंचपेड़ी घरेजते माणे ॥ २० ॥ नावेर्तते अत्यंतिक तिरधीनं गच्छन्ते तथाऽपं पृष्ठतः स्थित्वोत्प्रेक्ते तथा मार्गादिः केनचित्पृष्टः सन्नसाधुप्रतिज्ञाषी सन्नपं ब्रूते मौनेन गच्छत्येव केवलमिति दर्शयति पथमे मनः प्राणिविषये यत्नवानिति । किञ्च सिसरंसि प्ररूपयिथे तं बोसिरिज्ज बत्यमणगारे | पनारेतु वार्ड परकमेशी संवियाण संघांसे ।। २१ ॥ भाप शिशिरे स्वति तद्देवदृष्ययखं म्युत्यानगारो भगवन् प्रसार्य वा पराक्रमते नतु पुनः शीतार्दितः सन् संकोचयति नापि स्कन्धो व्यतितिष्ठतीति । सांप्रतमुपसं जिड़ी राह ॥ एस विड़ी अणुते, माहखेण महमया । बहुसो अपसिंग, भगवता एवं रीयंति त्ति वैमि !! एष चर्याविधिरनन्तरोकोऽन्यान्तो ऽनुचीः (माहणेति ) श्रीवमानस्वामिना मतिमता विदितवेद्येन बहुशोऽनेक प्रकारमप्रतिननिदानेन भगवता ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन पवमनेन यथा भगवदनुचीर्णेनान्ये मुमुयोभोषकाय साधवो रायते गच्छन्तति । इत्यधिकारपरसमाप्ती प्रीमीति पूर्ववदुपधानताध्ययनस्य प्रथमोद्देशक इति उक्तः प्रथमोद्देशकः । सांप्रतं द्वितीय आरभ्यते । अस्य चायमभिसंबन्ध इहानन्तरोद्देशके भगवतश्चयोऽभिहिता । तत्र चावश्यं कदाचिद्यथाऽवसत्या भाव्यमतस्तत्प्रतिपादनायामुद्देशः प्रतयत्यनेन संवगावातस्पास्पो शकस्यादिसूत्रम् ॥ परियाणाई सेनाओ, एगतियाओज्ज ओम्जसाभी । इक्खताई पणासणाई, जाई सेवित्य से महावीरे ॥ उवहाण सुय चर्यायामवश्यंभावितया यानि शय्यासनान्यनिहितानि सामयातानि शयनासनानि शय्याफलकादीन्याचचक्षेसुधर्मस्वामी जम्बूनानाऽनिहितो यानि सेवितवान्महावीरो वर्कमान स्वामीत्ययsa लोकचिरन्तनटीकाकारेण न व्याख्यातः । तत्र किं मत्वादुताभावात् सूत्र पुस्तकेषु तु दृश्यते तदभिप्रायं च वयं न विद्यइति प्रति प्रतिवचनमाद (आवेसण इत्यादि) भगवतो ह्यादाराभिप्रतिमाध्यतिरेकेण प्रायशो न शब्याज आ सीत् नपरं यय चरमपनयति तवैवानुाप्य स्थितवान् । तदर्शयति ॥ सुग आवेससभापवा पणियसाला एगया बासो । अदुवा पसियाणे पलालपुंसु एगदा बासो ||२ || आ समन्ताद्विशन्ति यत्र तदावेशनं शून्यगृहं सजा नाम ग्रामनगरादीनासिकाच्छाविकार्थमागन्तुक रायनाचे चा धाकृतिः क्रियते । प्रपा सदकस्थानम् आवेशनं च सभा च प्रपाचेत्यावेशनसभाप्रपास्तासु । तथा पण्यशालासु दट्टेषु एकदा कक्षाचिद्वासो नगवोऽथवा (पानियंति) कर्म्म तस्य स्थानं कर्म्मस्थान नम् । अवस्कारवदेकिआदिकम् । तथा पालपुरव्यवस्थिते न पुनस्तेष्वथः सुषिरत्यादेति । किञ्च ॥ आगंतारे आरा-भागारे गरे वि एगदा वासो । सुमसाणे सुखगारे वा, रुक्मूले बि एगदा बासो ॥ २३ ॥ प्रसङ्गायाता श्रागत्य वा यत्र तिष्ठति तदागन्तारं तत्पुनर्प्रामानगराद्वहिःस्थानं तत्र यथा श्रारामे श्रागारं गृहमारामागारं तत्र वा तथा नगरे वा एकदा वासस्तथा श्मशाने शून्यागारे वा श्रावेशन यागारयोर्भेदः समूले या पदा वासः किञ्च ॥ तेहिं मु सय, समये असि पतेरवासे । राइदियं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए जाति ॥४॥ पूर्वोकेषु शयनेषु वसतिषु स मुनिर्जग बजे वर्षासु वा श्रमणस्तपस्युद्युक्ता समना वास । निश्चलमना ६त्यर्थः कियन्तं कालं यावदिति दर्शयति ( पतेरसवासंति ) प्रकर्षेण त्रयोदश वर्ष यावत्समस्तं रात्रिन्दिवमपि यतमानः संयमानुष्ठान उद्युक्तवांस्तथा श्रप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितविश्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं ध्यानं या ध्यायति । किञ्च । हिं पि णो पगामाए, सेवइ य भगवं उट्ठाए । जगातिय अप्पा, इसि सातिय अपदि ॥ ५ ॥ नामप्यसादपरप्रमादरहितो न प्रकामतः सेवते तथा च किभगवती द्वादशसु संवत्सरेषु मध्येऽस्थिकप्रामे व्यन्तरोपसगन्ते कायोत्सर्गव्यवस्थितस्यैवान्तर्मुहूर्त्त यावत् स्वप्नदर्शना यातिः सप्रमाद भासीशतोऽपि त्यापात्मानं जाग रयात कुशानुष्ठाने प्रवर्तयति । यशपीपच्यासीताप्य विशः प्रतिज्ञारद्वतो न तत्रापि थापाज्युपगमपूर्वक शयीत - त्यर्थः । किञ्च । संज्झमाणे पुणरवि, आसं जगवं बहाए । क्aिम्म एगया पराओ, बहिं चंकमित्ता मुहुत्तगं ॥ ६ ॥ स मुनिर्निद्राप्रमादाद्युत्थितचित्तः संबुध्यमानः संसारपातायायं प्रमाद इत्येवमवगच्छन् पुरप्रमतो भगवान संयमानेोत्था यदि तावस्थितस्य कुतश्चिन्निद्राप्रमादः स्यात् तत Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवहाणसुय अनिधानराजेन्द्रः। उवहाणसुय स्तस्मान्निकम्यैकदा शीतकालरात्र्यादौ बहिश्चङ्क्रम्य मुहर्त- अयमुत्तम से धम्मे, तुसिणीए सकसाइए ज्झाति।।१।। मात्र निडाप्रमादापनयनाथै ध्याने स्थितवानिति । किवा अयमन्तमध्ये कोऽत्र व्यवस्थित एवं सङ्केतागता दुचारिणः सयणे हिं तस्मुवस्सग्गा, भीमा आसी अणेगरूवा । पृच्छन्ति कर्मकरादयो वा तत्र नित्यवासिनो बुष्प्रणिहितमानसाः संसप्पगा य जे पाणा, अदुवा पक्विणो नवचरंति॥७॥ पृच्चम्ति तत्र चैवं पृच्चतामेषां नगवांस्तृष्णींनावमेव भजते । कहाय्यतेस्थीयते नत्कुटुकाशनादिनियेष्विति शयनान्याश्रयस्था चिद्वहुतरदोषापनयनाय जल्पत्यपि कथमिति दर्शयति । अहं नानि तेषु तैर्वा तस्य भगवत उपसर्गा भीमा भयानका आस निक्षुरस्मोत्येवमुक्त याद तेऽवधीरयन्ति ततस्तिष्ठत्येवानिप्रेता. ननेकरूपाश्च शीतोष्णादिरूपतया अनुकूलप्रतिकृमरूपतया था। र्थव्याघातात्कषायिता महान्याः । सांप्रतक्कितया एवं घूयुर्यथा तूतथा संसर्पन्तीति संसर्पकाः शून्यगृहादावहिनकुमादयो ये मामस्मात स्थानान्निगच्च ततो नगवानपीयत्ताध्वग्रह इति कृत्या प्राणिन उपचरन्युप सामीप्येन मांसादिकमश्नन्यथवा श्मशा निर्गच्छत्येष नगवान् किन्तु सोऽयमुत्तमप्रधानो धर्म प्राचार नादौ पक्विणो गृकादय उपचरन्तीति वर्तते । किञ्च । इति कृत्वा सकषायितेति तस्मिन् गृहस्ये तूष्णीभावव्यवस्थिते अदुवा कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सात्त हत्था य । यद्भविष्यतया ध्यायत्येव न ध्यानात प्रच्यवते । किञ्च अदु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगतिया पुरिसोवा.॥८॥ जं सिप्पेग पवेवंति, सिसिरे मारुए पवायंते । अथानन्तरं कुत्सितं चरन्तीति कुचराश्चौरपारदारिकादयस्ते तंसिप्पगे अणागारा, हिमवाए णिवायमेसति ॥ १३ ॥ च कचिच्छून्यगृहादावुपचरन्त्युपसर्गयन्ति । तथा ग्रामरक्षका यस्मिन् शिशिरादावप्येके त्वत्राणाभावतया प्रवेपन्ते दन्तर्वीदयश्च त्रिकचत्वारादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचर णादिसमन्विताः कम्पन्ते यदि वा प्रवेदयन्ति शीतजनितं फुःखन्तीति । अथ ग्रामैका ग्रामधर्माश्रिता उपसर्गा एकाकिनः स्पर्शमनुभवन्ति आर्तध्यानवशगा भवन्तीत्यर्थः । तस्मिश्च शिस्युस्तथाहि काचित्स्त्री रूपदर्शनाध्युपपन्ना उपसर्गयेत्पुरुषो शिरे हिमकणिनि मारुते च प्रवाति सत्येके न सर्वेऽनगारास्तीवेति । किञ्च ॥ र्थिकप्रव्रजिता हिमवाते सति शीतपीमितास्तदपनोदाय पावकं प्रज्वालयन्त्यङ्गारशकटिकामन्वेषयन्ति प्रावरिकं याचन्ते । यदिइहबोझ्याई परलोइयाई, भीमाई अणेगरूवाई। घाऽनगारा इति पार्श्वनाथप्रनजिता गच्छवासिन एव शीतार्दिता अविसुभिदुब्भिगंधाई, सद्दाइं अणेगरूबाई॥६॥ निवातमेषयात घंधशालादिवसतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थअहियासए सयासमिते, फासाई विरूवरूवाई । यन्ति । किञ्च । अरति रति अभिभूय, रीयति माहणे अबहुवाई ॥१०॥ संघामित्रो पविसिस्सामो, पहा य समादहमाणा। इह लोके भवा ऐहिलौकिका मनुष्यकृताः केते स्पर्शा दुःख. | पिहितावासक्खामो, अतिदुक्खहिमगसंफासा ।। १४॥ विशेषा दिव्यास्तैरश्चाश्च पारलौकिकास्तानुपसर्गापादितान् | इह संघाटीशब्देन शीतापनोदक्कम कल्पद्वयं त्रयं वा गृह्यते दुःखविशेषानध्यासयत्यधिसहते । यदि वा इहैव जन्मनि ये ताः सङ्घाटीः शतार्दिता वयं प्रवेक्ष्यामपवंशीतार्दिता अनगारा दुःखयन्ति दएम्प्रहारादयःप्रतिकूलोपसर्गास्त ऐहलौकिकास्त अपि विदधति तीर्थकप्रवजिताः। तथा समिधः काष्ठानीति याद्विपर्ययाश्च पारलौकिका भीमा भयानका अनेकरूपा नानाप्र- वदेताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सोढुं शक्ष्यामस्तथा सङ्घाट्या कारास्तानेव दर्शयति सुरभिगन्धयः स्रक्चन्दनादयो दुर्गन्धाः वाभिहिताः स्थगिताः कम्बलाद्यावृतशरीरा इति । किमर्थमेत. कुथितकलेवरादयस्तथा शब्दाश्चानेकरूपा वीणावेणुमृदङ्गा- कुर्वन्तीति दर्शयति । यतो अतिपुःखमतदतिदुःसहमेतदनूत दिजनितास्तथा| क्रमेलकारटिताद्युत्थापितास्तांश्चाविकृतमना हिमसंस्पर्शाः शीतस्पर्शवेदना फुःखेन सह्यन्त इति यावत् । अध्यासयत्यधिसहते। सदा सर्वकालं सम्यगितः समितः पञ्च- तदेवम्लते शिशिरे यथोक्तानुष्टानवत्सु वा स्वयूथोत्तरप्वनभिर्युक्तस्तथा स्पर्शान् दुःखविशेषानरति संयमे रति चोपभी- गारेषु यद्भगवान् व्यधात्तदर्शयितुमाह ॥ गाभिष्वङ्गे अभिभूय तिरस्कृत्य रीयते संयमानुष्ठाने व्रजति तसि जगवं अप्पमिम्मे, अधो दियो अहियासए । ( माहणत्ति) पूर्ववत् । तथोभयभाषी एकद्विव्याकरणं कचि दविए णिक्खम्म एग-दारा उ वा एति भगवं समियाए१५॥ निमित्ते कृतवानिति भावः । किञ्च ॥ तस्मिन्नेवंजूते शिशिरे हिमवाते शीतस्पर्श च सर्वकषे भगस जणेहिं तत्य पुञ्छिम, एगचरा वि एगदाराओ। वानैश्वर्यादिगुणोपेतस्तं शीतस्पर्शमध्यासयत्यधिसहते । किंप्रवाहित कसाइच्छा, पेहमाणे समाहिं अपमिले।।११।। भूतोऽसावप्रतिज्ञो न विद्यते निवातवसतिप्रार्थनादिका प्रतिज्ञा स भगवानर्द्ध त्रयोदशपकाधिकाः समा एकाकी विचरंस्तत्र यस्य स तथा क्वाध्यासयत्यधो विकटे अधः कुड्यादिरहिते बनेशून्यगृहादी व्यवस्थितः सन् जनैलोकैः पृष्टस्तद्यथा को भग- ऽप्युपरि तदनावे चेति पुनरपि विशिनष्टि रागद्वेषविरहाद - वान् किमत्र स्थितः इत्येवं पृष्टोऽपि तृष्णींभावमभजत । तथा । व्यभूतः कर्मग्रन्यिझावणाद्वा ज्वः संयमः स विद्यते यस्यासी उपपत्त्याचा अपि एकचरा एकाकिन एकदा कदाचिद्रात्राव- उविकः स च तथाऽभ्यासयत् यथाऽत्यन्तं शीतेन वाध्यत ततहि वा पप्रच्छुरख्याकृते च भगवता कपायितास्ततोऽझानावृत स्तस्मात्स्थानानिष्क्रम्य बहिरेकदा रात्री मुहूर्तमात्र स्थित्वा हएयो दण्डमुण्यादिना ताडनतोऽनार्यत्वमाचरन्ति भगवांस्तु पुनः प्रविश्य स जगवान् समितया सम्यग्वा समतया वा व्यवसमाधि प्रेक्षमाणो धर्मध्यानोपगतचित्तः सन् सम्यक तिति- स्थितस्तं शीतस्पर्श रासनदृष्टान्तेन सोढुं शक्त इत्यधिसहत तते । किंभूतो प्रतिझो नास्य वैरनिर्यातनप्रतिज्ञा विद्यत इत्य- प्रति । एतदेवोद्देशकार्थमुपसजिहीर्घराह । प्रतिहः । कथं ते पप्रच्छुरिति दर्शयितुमाह ॥ एस विही अणुकंता, माहणेणं ममया । अयमंतरंसि को एत्यं, अहमंसो ति निकाव आहह । अप्पमिम्मेणं, जगवया पर्वरीयते तिमि॥१६॥ बहस Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८५) उवहाणसुय अभिधानराजेन्धः। नवहाणसुय एस विडी इत्याद्यनन्तरोद्देशकवनेयमिति इति ब्रवीमीतिशब्दः | एवं तत्य विहरंता, पुट्ठपुव्वा अहमि मुणएहिं । पूर्ववपधानश्रुतस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः । उक्तो द्वितीयो संलुंचमाणा सुणए हिं, दुचराणि तत्य लादेहिं ।। ६॥ इंशकः । सांप्रतं तृतीय आरभ्यते । अस्य चायमभिसंबन्ध इहा यष्टचादिकया सामथ्या श्रमणाविहरन्तः स्पृष्टपूर्घा मारब्धपूर्वाः नन्तरोदेशके जगवतः शय्याः प्रतिपादितास्तासु व्यवस्थितेन ये श्वभिरासंमुच्यमाना श्तश्चेतश्च भक्ष्यमाणाः श्वभिरासन् दुयथोपसर्गाः परीषदाश्च सोढास्तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यते । श्त्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् ।। निवारस्वात्तेषां तत्र सेषु साढेष्वार्यलोकानां दुःखेन पर्यन्त इति ऽश्चारान् ग्रामादीनिति । तदेवं नूतेप्वपि साढेषु कथं नगवान तणफासे सीयफासे य, तेउफासे य दंसमसगे य। विहृतवानिति दर्शयितुमाह । अहियासए समिए, फासाइं विरूबरूवाई ॥१॥ णिहाय दंम पणिहितं, कायं वोसज्ज मणगारे। सृणानां कुशादीनां स्पर्शास्तृणस्पर्शास्तथा शीतस्पर्श उष्ण अह गामकंटए जगवं, ते हियासए अजिसमेञ्च ।। ७॥ स्पश्चिातपनादिकाने आसन् । यदि वा गच्छतः किन भगवत प्राणिषु यो दएकनाहरामो मनोवाक्कायादिस्तं जगवानिधाय स्तेजःकाय एवासीत्तथा दंशमशकादयश्च एतांस्तुणस्पर्शान्धि त्यक्त्वा तथा तच्चरीरमप्यनगारो व्युत्सृज्याथ ग्रामकराटकानीरूपानानाभूतान जगवानध्यासयति सम्यगितः सम्यग्भावं गतः चजनरुवामापानपि भगवांस्तां सम्यकरणतया निर्जरामभिससमितिभिः समितो वेति । किञ्च । मेत्य ज्ञात्वाऽऽध्यासयत्यधिसहते कथमधिसहत इति दृष्टान्तअह दुरचरनाढचारी, वज्जनूमिं च सुन्ननूमि च । द्वारेण दर्शयितुमाह । पंत सज्ज सेविंसु, पासणगाई चेव पंताई ॥२॥ णायो संगामसीसे वा, पारए तत्य से महाविरे। अथानन्तयें दुःखेन चर्यतेऽस्मिन्निति ऽश्वरः सचासौ लाढश्च एवं पितत्य लादेहि, अलपुव्वो विएगदा गामे ।। जनपदविशेषा पुश्चरसाढस्तं चीर्मवान्विहृतवान् । स च हिरूपो नागो हस्ती यथाऽलौ संग्राममूर्द्धनि परानीक जित्वा तत्पारगो बज्रभूमिः शुचनूमिः श्वभ्रादिरूपमपि विहृतांस्तत्र च प्रान्तां नवस्येवं भगवानपि महावीरस्ता माढेषु परीषहानीकं विजिशय्यां वसति शून्यगृहादिकामनेकोपऽवोपद्रुतां सेवितांस्तथा त्य पारगोऽभूत् । किञ्च तत्र लादेष विरतत्वात् ग्रामाणां कचिप्रान्तानि वासनानि पशूत्करकिरात्रोष्ठाद्युपचितानि काष्ठनि देकदा वासायासब्धपूर्वो प्रामोऽपि जगवता । किश्च । च धीटतान्यासवितवानिति । किञ्च । नवसंकमंतं अपमि, गामंतिय वि अप्पत्तं । लादेहिं तस्सुवसग्गा, बहवे जाणवया सिम् । पमिणिक्वमित्तु लुसिंह, एतातो परं पलेहि ति ॥६॥ अह सुक्खदेसिए भत्ते, कुक्करा तत्य हिंसंसु णित्तिमु ।३। उपसंक्रामन्तं भिक्षायै वासाय वा गच्छन्तं किम्न्तमप्रतिसाढा नाम जनपदविशेषास्तेषु च विरूपेष्वपि बाढेषु तस्य इं नियतनिवासादिप्रतिझारहितं प्रामान्तिकं प्राप्तमप्राप्तमपि तजगवतो बहव उपसर्गःप्रायशः प्रतिकूला आक्रोशाच नकणा- स्मात् प्रामात्प्रतिनिर्गत्य ते जना भगवन्तमबूषिपुरतच्चोचुरिदयश्च आसंस्तानेव दर्शयति जनपदे नवा जानपदा अनार्यचा तोऽपि स्थानात्परं दूरतरं स्थान पर्यहि गच्छेति । किञ्च । रिणो बोकास्ते भगवन्तं लूषितवन्तो दन्तनकणोल्मुकदएकप्रहा हय पुचो तत्य दमेणं, अहवा मुहिणा अह कुंतादिफलेणं । रादिभिर्जिहिंसुः। अथ शब्दोऽपि शब्दार्थे सचैवं अष्टव्यो नक्तमपि तत्र रूकदेश्यं रूककल्पमन्तप्रान्तमिति यावत्ते चानार्थतया अह लेबुणा कमानेणं, हंता बंता बहवे कंदिसु ॥१०॥ प्रकृतिकोधनाः कार्पासाद्यजावत्वाच्च तृणप्रावरणाः सन्तो नगव तत्र ग्रामादेर्बहिर्व्यवस्थितः पूर्व हतो हतपूर्वः । केन दरमेनाति विरूपमाचरन्ति । तथा तत्र कुक्कुराः श्वानस्ते जिहिसुरुपरि थवा मुष्टिनाऽथवा कुन्तादिफनाथवा वेष्टना कपासन घटस्त्रनिपतुरिति । किञ्च ॥ परादिना हत्वा हत्वा बहवोऽनार्याश्चक्रन्दुः पश्यत यूयं किम्जूतोअप्पे जणो णिवारेइ, लसणए सुगए दंसमाणे । ऽयमित्येवं कलकवञ्चक्रः। किञ्च ।। बुलु करंति आहंतुं, समणं कुक्करा दसंतु त्ति || Vil मंसूणि चिाणपुबाई, उहनिया एकदा कार्य । परीसहाई बंचिंसु, अहवा पंसुणा उपकरिमु ॥११॥ अल्पः स्तोकः स जनो यदि परं सहस्राणामेको यदि वा नास्त्ये मांसानि च तत्र भगवतश्विन्नपूर्वाणि एकदा कायमवण्यावासाविति यस्तान् शुनो लूरकान् दशतो निवारयति निषेधय क्रम्य नानाप्रकाराः प्रतिकत्रपरिषहाश्च जगवन्तमझुचिषुरथवा त्यपि तु दएकप्रहारादिभिर्भगवन्तं हत्वा तत्प्रेरणायासीत बुबु कु-। पांशुना अवकीर्णवन्त इति । किञ्च वन्ति कयं तु नामनं श्रमणं कुक्कराश्वानो दशन्तु भकयन्तु तत्र चे. वंविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधि कालं स्थितवानिति किञ्च । उच्चामा यणिहाणंसु, अहवा असणाउ खलईस । वोसट्टकाए पणतासी, दुक्खसहे भगवं अपमिले ।।१।। एलिक्खए जणे भुजो, ब.वे वज्जनूमि फरुसा । जगवन्तमूर्ध्वमुक्तिप्य नूमौ निहतवन्तः क्विप्तवन्तोऽथवाऽऽससीलटिगहाय पानीयं, समणा तत्थ एवं विहरिंसु ॥५॥ नातू गोदोहिकोत्कुटुकासनवीरासनादिकान् स्खलितबन्तो नि. शक्तः पूर्वोक्तस्वन्नावो यत्र जनस्तं तथानृतं जनपद नगवान् पातितवन्तो भगवास्तु पुनर्युत्सृष्टकायः परीपहोपसर्गकृतं पुःखं न्यः पौनःपुन्येन विहृतवांस्तस्याञ्च वजनमौ बहवो जनाः पुरु- सहत इति पुःखसहो भगवान् नास्य दुःखविचिकित्सा प्रतिक्षा पाशिनो रूकाशितया च प्रकृतिकोधनास्ततो यतिरूपमुपज्य विद्यत इति अप्रतिः । कथं पुःखसहो भगवान् इत्येतदृष्टान्तकदर्थयन्ति ततस्तत्रान्ये श्रमणाः शाक्यादयो यष्टि देहप्रमाणां द्वारणे दर्शयितुमाह । चतुर नाधिकप्रमाणां वा नात्रिका गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय मूरो संगामसीसे वा, मंबुडे तत्य से महावीरे । विजनिति । किञ्च ॥ पडिसेनमाणे फरसाई, अचले जगवं रीइच्छा ॥१३॥ . Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८६) नवहाणसुथ अनिधानराजेन्द्रः । उवहाणसुय यथा हि संग्रामशिरसि शूरोऽनोभ्यः परैः कुन्तादिभिर्भिद्यमा- सुब्ब्यत्ययेन सप्तम्यर्थे षष्ठी । ग्रीष्मेवातापयति कथमिति नोऽपि वर्मणा संवृताङ्गो न भङ्गमुपयातीत्येवं स भगवा- तिष्ठत्युत्कुटुकासनोऽनितापं तापाभिमुखमिति । अथानन्तये महावीरस्तत्र लाढादिजनपदे परीषहानीकतुद्यमानोऽपि प्रति धर्माधारं देहं यापयति स्म रुक्केण स्नेहरहितेन केन श्रोदनसेवमानश्च परुषान् दुःखविशेषान् मेरुरिवाचलो निष्प्रकम्पो मन्थुकुलमाषेण ओदनञ्च कोषचौदनादि मन्यु वदरचूर्णादिकं वृत्या संभृताङ्गो भगवान् रीयते स्म शानदर्शनचारित्रात्मको कुल्माषाश्च मासविशेषा एवोत्तरापथे धान्यविशेषभूताः पर्युषिमोक्षाध्वनि पराक्रमते स्मेति । उद्देशकार्थमुपसंजिहीर्घराह ।। तमाषाः वा सिम्माषा वा ओदनमन्युकल्माषमिति समाहारएस विही अणुकतो, माहणेणं मईमया । द्वन्द्वः । तेनात्मान यापयतीति सबन्ध इत्येतदेव कालावधिविशेबहुसो अप्पमिलेणं, नगवता एव रीयति त्तिवेमि ॥१४॥ षणतो दर्शचितुमाह ॥ "एसविही" इत्यादि पूर्ववत् उपधानश्रुताध्ययनस्य तृतीयोद्दे एयाणि तिरिण पमिसेवे, अट्ठमासे अज्जावए जगवं । शकः परिसमाप्त इति उक्तस्तृतीयोद्देशकः । सांप्रतं चतुर्थ अपि इत्थं एगया भगवं,अच्छमासं अहवा मास पि ॥५॥ आरभ्यते । अस्य चायमभिसंबन्धः । इहानन्तरोऽशके भग- एतान्योदनादीन्यनन्तरोक्तानि प्रतिसेवते तानि च समाहारवतः परोषहोपसर्गातिसहनं प्रतिपादितं तदिहापि रोगातङ्क- द्वन्द्वन तिरोहिताचयवसमुदायप्रधानेन निर्देशारकस्यचिन्मन्दबुझे। पीडां चिकित्साव्युदासेन सम्यगधिसहते तदुत्पत्तौ च नितरां | स्यादारेका यथा त्रीण्यपि समुदितानि प्रतिसेवत इत्यतस्तव्युतपश्चरणायोद्यच्छतीत्येतत्प्रतिपाद्यते तदनेन संबन्धेनायात- दासाय त्रीणीत्यनया संख्यया निर्देश इति श्रीणि समस्तानिस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् । व्यस्तानिया यथालाभं प्रतिसेवित इति।कियन्तं काहमिति दर्शश्रोमोदरियं वा त-अपुढे वि जगवं रोगेहिं । यत्यष्टी मासानृतुबद्धसंज्ञकानात्मानमयापयर्तितवान् नगवानिपुट्ठो विसे अपुट्ठो वा से, णो सेसाइज्जति ते इत्थं ॥१॥ ति । तथा पानमप्यर्कमासं भगवन्नपीतवानपि च ॥ अपिशीतोष्णदंशमशकाक्रोशताडनाद्याःशक्याः परीषहाः सोढं वि साहिए दुवे मासे, न पि मासे अदुवा विहरित्या । नपुनरवमोदरता भगवांस्तु पुना रोगैरस्पृष्टोऽपि वातादिक्षोभ- रानवरायं अपमिले, अमे गिलायंते गया नजे ॥६॥ भावेऽप्यवमौदर्य न्यूनोदरतां शक्नोति कर्तुं लोको हि रोगैर- मासद्वयमपि साधिकमथवा पाघि मासान् साधिकान् भगभिद्रुतः संस्तदुपशमनायावमोदरतां विधत्ते।भगवांस्तु तदभा- वान् पानकमपीत्वाऽपि रात्रोपरात्रमित्यहर्निशं विकृतवान् । किवेऽपि विधत्त इत्यपिशब्दार्थः । अथवा स्पृष्टोऽपि कासश्चा- नूतोऽप्रतिशः पानाच्युपगमरहित इत्यर्थस्तथा (अमेगिमायंति) सादिभिव्यरोगैरपिशब्दात् स्पृष्टोऽप्यसवेंदनीयादिभिर्द्रव्यरा. पर्युषितं तदेकदा भुक्तवानिति । किञ्च ।। गै!नोदरतां करोति । श्रथ कि द्रव्यरोगातका भगवतो न __ अहवा अट्टमेणं दसमेणं, छ?णमेगया मुंजे। प्रादुष्यन्ति येन भावरोगैः स्पृष्ट इत्युक्तं तदुच्यते भगवतो हि दुवालसमण एगया लुंजे,पेहमाणे समाहिं अपमिले ।।७।। न प्राकृतस्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्स्यागन्तुकास्तु षष्ठेनकदा लुङ्गे तथा नामैकस्मिन्नहन्येकजक्तं विधाय पुनर्दिनशस्त्रप्रहारजा भवेयुरित्येतदेव दर्शयति । स च भगवान् स्पृष्टो द्वयमनुक्त्या चतुर्थे ऽहन्येकभक्तमपि विधत्ते ततश्चाद्यन्तयोरेकवा स्वभक्षणादिभिरस्पृष्टो वा कासादिभिर्नासौ चिकित्साम जक्तदिनयोक्तद्वयं मध्यदिवसयोश्चजक्तचतुष्टयमित्येवं षमानभिलषति न अव्योषधाशुपयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीत्येतदेव दर्शयितुमाह। क्तानां परित्यागात् षष्ठं नवत्येवं दिनादिवृष्ट्याऽयमाघायोज्यमिति अथवा अष्टमेन दशमेनाथवा द्वादशमेनैकदा कदाचिद् नुक्तवान् संमोहणं च वमणं च, गायब्नंगणं च सिणाणं च । समाधि शरीरसमाधान प्रेकमाणः पर्यावोचयन् पुनर्निगवतः कसंवाहणं च ण से कप्प, दंतपक्वानणं परिमाय ॥२॥ थश्चिद्दर्मिनस्यमुत्पद्यते । तथा अप्रतिशो ऽनिदान इति। किश्च । गात्रस्य सम्यक् शोधनं विरेचनं निश्रोतादिभिस्तथा वमनं बच्चा से महावीरे, णावि य पावगं सयमकासी। मदनफलादिभिश्वशब्द उत्तरपदसमुच्चया गात्राभ्यङ्गनञ्च अमेहिं वि ण कारित्था,कीरंतं पिणाणुजाणित्या ॥८॥ सहस्रपाकतैलादिभिः स्नानञ्चोद्वर्तनादिभिःसंवाधनश्च हस्त ज्ञात्वा हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णु पि च पापादादिभिस्तस्य भगवतो न कल्पते । तथा सर्वमेव शरीरम पकर्म स्वयमकार्षीन्न चान्यैरकुर्वन्न च क्रियमाणमपररनुज्ञातवाशुद्ध्यात्मकमित्येवं परिक्षाय ज्ञात्वा दन्तकाष्ठादिभिर्दन्तप्रवाल निति । किञ्च नम्वन कल्पत इति । किञ्च । गामं पविस्स णगरं वा. घासमेसे कडं परट्ठाए । रिए य गामधम्महि, रोयमाणे अबधाई सुविसुमेसिया जगवं, आयतजोगताए सेवित्या ।।। सिमिरांसि एगदा जगवं, गयाए फाति आसोय ॥३॥ ग्राम नगरं वा प्रविश्य भगवान् ग्रासमन्वेषयेत्परार्थ यत् कृतविरतो निवृत्त केल्या ग्रामधर्मेन्यो यथास्वमिन्द्रियाणां शब्दा- | मित्युद्गमदोषरहितं तथा सुविशुरुमुत्पादनादोषरहितं तथषणादिज्यो विषयेच्या रीयते संयमानुष्ठाने पराक्रमते (माहणेत्ति) दोषपरिहारणषित्वाऽन्वेष्य भगवानायतः संयतो योगो मनोवानगवान् किम्तूतोऽसाववहुवादी सकृद् व्याकरण नावात् बहु- कायहक्कण आयतश्चासौ योगश्चायतयोगो ज्ञानचतुष्टयेन सम्यगशब्दोपादानमन्यथा ह्यवादीत्येवं पात्तथैकदा शिशिरसमये योगप्रणिधानमायतयोगस्य भाव आयतयोगता तया सम्यगाहारं स भगवां वायायां धर्मशुक्लध्यानध्याय्यासोश्चेति । किश्च शुकं ग्रासपणा दोषपरिहारेण सेवितवानिति । यावड य गिम्हाणं, अत्यत्ति नए अनिताये। । अवाय सा दिगंछित्ता, ज अन रसे सिणो सत्ता । अह जाव इत्य बृहे, ओयणमंथुकुम्मामेणं ॥४॥। घासेसणाए चिट्ठति, सयाणं णिवत्तिते य पहाए ॥१०॥ Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८७) उवहाणसुय अभिधानराजेन्द्रः। उवहि अथ निक्कां पर्यटतो जगवतः पथि वायसाः काका (दिगिंच्चि- सयमेव अजिसमागम्म, आययजोगमायसोहीए । त्ति) चुक्ता तया आर्ता ये चान्ये रसैषिणः पानार्थिनः कपोत अजिनिव्बु अमाइवे, आवकहं जगवं समितासी ॥१६।। पारायतादयः सत्वाः । तथा प्रासैषणार्थमन्वेषणार्थच ये तिष्ठ स्वयमेवात्मना तत्वमभिसमागत्य विदितसंसारस्वभावः स्वयं न्ति तान् सततमनवरतं निपतितान् नूमौ प्रेक्ष्य पृष्ठा तेषां वृत्तिव्यवच्छेदं वर्जयन् मन्दमाहारार्थी पराक्रमते । किञ्च ॥ बुद्धः सन् तीर्थप्रवर्तनायोद्यतवांस्तथा चोक्तम् । 'आदित्यादिर्वि बुधगण इमं विस्मरन्त्यांत्रिलाक्या-मास्कन्दन्तं पदमनुपमं यअदु माहणं च समणं वा, गामपिंडोअगं च अतिहिं वा। च्छित्वामुवाच । तीर्थनाथालधुभवभयच्छेदि तूर्ण विधत्स्वे-स्ये सोवागमसियारिं वा, कुक्करवा चिट्ठियं वा पुरो ॥११॥ तद्वाक्यं त्वदवगतये नाकिमुस्यान्नियोग' इत्यादि कथं तीर्थप्रध. वित्तिच्चेदं वज्जतो, तेसप्पत्तियं. परिहारंनो । तनायोद्यत इति दर्शयत्यात्मसुद्ध्या कर्मक्षयोपशमक्षयलक्कणया मंदं परिक्कमे जगवं, अहिंसमाणो घासमे सित्था ॥ १॥ आयतयोगं सुप्रणिहितमनोवाक्कायात्मकं विधाय विषयकषायाअथ ब्राह्मणं लाभार्थमुपस्थितं दृष्ट्वा तथा श्रमणं शाक्याजीव धुपशमादिभिनिर्वृतःशीतीभूतः तथा मायावी मायारहित उपकपरिवाट्तापसनिर्गन्धानामन्यतमं ग्रामपिएकोलक ति भि लक्कणार्थत्वादस्याऽक्रोधाद्यपि द्रष्टव्यं यावत्कथमिति यावजीवं कयोदरभरणार्थ ग्राममामृतस्तुन्दपरिमृजो अमक इति तथाऽति भगवान् पञ्चभिः समितिभिः समितस्तथा तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुथि वा आगन्तुकं तथा श्वपाकंचाण्डालं मार्जारं वा कुक्करं वाऽ सश्चासीदिति । श्रुतस्कन्धाध्ययनोद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराह । पि श्वानं विविधं स्थितं पुरतोऽग्रतः समुपलभ्य तेषां वृत्तिच्छेदं एसविहीं आणूकते, माहणणं मईमया । वर्जयन्मनसो प्रणिधानञ्च वर्जयन्मन्दमनास्तेषां त्रासमकर्व- बहुसो अपडिप्मेणं, भगवया एवं रीयंते ति बेमि ।। न जगवान् पराक्रमते । तथाऽपरांश्च कुन्धुकादीन जन्तून् अहिं- आहाणं सुयं मम्मत्तं ॥ सन् प्रासमन्येषितवानिति । किञ्च । एषोऽनन्तरोक्तः शत्रपरिक्षादेरारभ्य योऽभिहितः सोऽनुआविसुइयं च सुक्कं वा, सीयपि पुराणकुम्मासं। क्रान्तोऽनुष्ठित श्रासेवनापरिक्षया सेवितः केन श्रीवईमानस्साअदु बक्कसं पुलागं वा, बच्चेपि अलफए दबिए ॥१३॥ मिना मतिमता शानचतुष्टयान्वितेन बहुशोऽनेकशोऽप्रतिज्ञेना" सूझ्यंति" दध्यादिना भक्तमाकृतमपि तथाभूतं शुष्कं निदानेन भगवतैश्वर्यादिगुणोपेतेनातोऽपरोऽपि मुमुक्षुरनेनैव घा ववचनकादि शीतपिएकं वा पर्युषितभक्तं तथा पुराणं कु- जगवदाचीर्णेन मोकप्रगुणेन यथा आत्महितमाचरन् रीयते पराल्माषं वा बहुदिवससिद्धस्थितकुल्माषं ( वकसंति ) चिरन्त- क्रमते इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बू नधान्यौदनं यदि वा पुरातनं सत् कुपिण्डं बहुदिवससम्भृत- स्वामिने कथयति साऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारबिन्दागोरसगोधूममण्डकञ्चेति तथा पुलाकं जवनिष्पादितं तदेव- दर्थजातं निर्यातमवधारितमिति उक्तोऽनुगमः। श्राचा०१०म० भूतं पिण्डमवाप्य रागद्वेषविरहाइविको भगवांस्तथाऽन्य- | नवहाणाझ्यार-उपधानातिचार-पुं० आचाराम्लादितपसा स्मिन्नपि पिण्डे लब्धे अलब्धेवाविक पव भगवानिति । तथा योगविधानरूपस्योपधानस्याऽकरणे, जीत० ॥ हि लब्धे पर्याप्त शोभने वा नोत्कर्ष याति नाप्यलब्धे अपर्याप्ते तसा-नपटार- जप-7-घन-पदोकने. जपायने. कर्मअशोभने वात्मानमाहारं दातारं वा जुगुप्सति । किञ्च ॥ णि-घञ् । उपढौकनीये,नपायनऽन्ये, उपगतः हारम् अत्या०स०। अविज्झाति से महावीर, आसपत्थे अकुक्कुए ज्माण । हारसमीपस्थे तपशानके द्रव्ये, वाच । उप-र--नावे घश् । उ अहे तिरियं च, लोए ज्कायतीसमाहिमपमिले ॥१४॥ विस्तारणे , “पहासमुदओ वहारेहिं सबको नया दीवयंतं" तस्मिंस्तथाभूत अाहारे लब्ध उपभुक्ते अलब्धे वाऽपि ध्या- कल्प०। (मातृप्रामस्य मैथुनप्रतिइयोपहारसंपादनं मेहुणशब्दे) यति स महावीरो दुष्पणिधानादिना नापध्यान विधत्ते किम- उवहारणया-उपधारणता-स्त्री० अविच्युतिस्मृतिवासनाविषवस्थो ध्यायतीति दर्शयत्यासनस्थ उत्कुटुकागोदेोहिकावीरा- यीकरणे, " सुयाणं धम्माणं उबहारणयाए अन्य च्वं भष" सनाद्यवस्थोऽकाकुच ईषन्मुखविकारादिरहितो ध्यानं धर्म स्था० ६ ठा०॥ शुक्लयोरन्यतरदारोहति किं पुनस्तत्र ध्येयं ध्यायतीति दर्श उवहारिय-उपधारित-त्रि० अवधारिते, सूत्र०२७०। यितुमाह । ऊर्द्धमधस्तिर्यक लोकस्य ये जीवपरमाएवादिका भावा व्यवस्थितास्तान् द्रव्यपर्यायनित्यानित्यादिरूपतया ध्या उवहास-उपहास-पुं० उप-हस्-नावे-घम् । निन्दासूचके दासे. यति । तथा समाधिमन्तःकरणशुद्धिश्च प्रेक्षमाणोऽप्रतिझो "अरे मए समं मा कारेसु उवहासं" पा। ध्यायतीति । किञ्च ॥ नवहि-उपधि- पुं० उपधीयते संगृह्यते इत्युपधिः । व्यतो अकसाई विगतगेहिय, सद्दरूवेसु अमुन्छिए जाए। हिरण्यादौ, जावतो मायायाम, प्राचा० १ श्रु०४ ० १ ०। उउमत्थो वि परक्कम-माणो ण पमायं सयं पिकुवित्या ।१५।। सत्रः । उपधीयते ढाक्यते ऽगतिं प्रत्यात्मा येनासावपधिः न कपायी तदुदयापादितभुकुट्यादिकार्याभावात् । तथा वि- मायायाम, अष्टप्रकारे वा कर्मणि, सूत्र०१ श्रु०२०। प्रश्न गता गृद्धिाय यस्यासौ विगतगृद्धिः तथा शब्दरूपादिष्वि- सासे, अमर । उप-धा-भावे-कि-अन्यस्थास्थितस्य वस्तुन्द्रियार्थेप्वमूञ्छितो ध्यायति मनोऽनुकूलेषु न रागमुपयाति नोऽन्यथाप्रकाशरूपे, व्यापारे आधारे-कि रथचक्रे, हेम०। उपनापीतरेषु द्वेषवशगोऽभूदिति। तथा छद्मनि शानदर्शनावरणमो- धीयते येनाऽलावपधिः । वञ्चनीयसमीपगमहती भावे, न. हनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छमस्थ इत्येवं भूतोऽपि विवि- १२श०५ ला उपधिनमायेत्यनान्तरम् । द०१ अ० उपधीधमनेकप्रकारं सदनुष्टाने पराक्रममाणो न प्रमादं कपायादिकं यते जीवतो पुगतौ स्थाप्यते ऽनेनायनव्यापारितेनेत्युपधिः। आतु सकृदपि कृतवानिति । किञ्च । उप सामीप्येन संयमं दधाति पोषयति चेत्युपधिः । ध०३० Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८८) जवहि अभिधानराजेन्डः। नवहि उपधातीत्युपधिः । वस्त्रपात्राद्यनेकविधे परिग्रहे, द. १ अ० नम्मिश्रः शरीरमेवोच्चासाविपुजनयुक्तं तेषां सचेतनाचेतनत्वन प्रश्न । स्था। कल्पादौ, ध० ३ अ० । स० प्रा० । स्था । मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति । एवमेव शेषाणामप्यूह्यमिति । (१) उपधेर्नेदाः। स्था० ३ ग । नि० चू । तत्वभेदपायाख्येति पर्यायान (२) भेदेन सविस्तरतः प्रतिपादनम् । प्रतिपादयन्नाह । “उवही उचग्गहे सं-गहे य तह य वग्गहे (३)हारसंग्रहः। चेव । जंग वगरणे वि य, करणे चि य हुंति एगहा" सर्वे(४)जिनकल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां चोपधिः। षां व्याख्यात्रैवोपरि [ ओघनिर्युक्तौ ] द्रष्टव्या । (५) जिनकल्पिकानां (स्थविरकल्पिकानां ) गच्छवासिनां [२] श्दानी नेदतः प्रतिपादयन्नाह । चोपधेरुत्कृष्टविनागप्रमाणम् । आहे नवग्गहाम्म य, दुविहो नवही उ होइ नायव्यो । (६) आर्यिकाणामुपधिप्रमाणम् । एकेको वि य दुविहो, गणणापमाणओ चेव ।। (७) औपग्रहिकोपधेरुत्कृष्ठादिजेदाः। उपधिर्द्विविधः ओघोपधिपग्रहोपधिश्चति । एवं द्विविधा वि() श्रीपग्रहिकोपधयः । केयः । इदानीं स एवैकैको द्विविधः कथं गणनाप्रमाणेन प्रमाण(ए) उपधिन्यूनाधिक्ये प्रायश्चित्तम् । तश्च तत एतदुक्तं नवति श्रोधोपधेः गणनाप्रमाणेन तथा प्रमाण(१०) प्रथमसमवसरणे उपधिग्रहणम्।। प्रमाणेन चद्वैविध्यम्।अवग्रहोपधेरपि ग्रहणाप्रमाणेन प्रमाणप्रमा(११) प्रथम प्रव्रजत उपधिः। णेन नवेद द्वैविध्यम् । तत्र ओघोपधिनित्यमेव यो गृह्यते अवन(१२) प्रवज्यां गृहन्त्या निर्ग्रन्थ्या उपधिः। होपधिस्तु कारणे आपने संयमार्थयोर्गुह्यते सोऽवग्रहोपधिरि(१३) रात्रौ विकाले वोपधिग्रहणम् । ति । ओघोपधिगणनाप्रमाणमेकद्वयादिभेदं वक्तव्य प्रमाणप्रमाणं (१४) भिवणाय गतस्य निकोरुपनिमन्त्रणा । चवक्तव्यं दीर्घपृथुतया। तथा अवग्रहोपधेरपि एकध्यादिप्रमाणं (१५) निवार्थ गतस्यापकरणपतने विधिः । प्रमाणप्रमाणं च दीर्घयुत्वद्वारेण वक्तव्यमिति (श्रो०) (ोहो(१६) स्थनिराणां ग्रहणयोग्या उपधयः । वधेत्ति) श्रोहः संकेपः स्तोकः बिङ्गकारकोऽवश्यं ग्राह्यः । “उव. (१७) निर्ग्रन्धीज्य उपकरणदाने निर्ग्रन्थीनामागमनपथे सप-| गहोवही" उत्पत्तिकं कारणमपक्ष्य संयमोपकरण इति गृह्यते करणानि स्थापयितव्यानि । एस संखेवतो दुविधो वही । उवग्गहिरो तिविधो जहलो म(१०) पात्रवन्धादिप्रमाणं , उपधिविषयोऽवग्रहः, तीर्थकृता स्किमो नकोसो अवहीगणप्पमाणेण पमाणपमाणण य जुत्ता सोपधित्वं, पादप्रोजनं याचित्वा प्रत्यर्पणम, जपधीनां | भवति श्मं गणणप्पमाणं । धावनं, परिष्टापनं, प्रत्युपेक्कणं च,प्रलम्बग्रहणे क उप- वारस चोदस पणवीस, उय श्रोधोवधी मुणेयन्यो । घि ह्य इत्यादि स्वस्वस्थाने । जिगकप्पो थेराण य, अच्छाणं चव कप्पम्मि || (१५) उपकरणप्रयोजनं बिहारशब्दे ऋतुबके वस्त्रग्रहणं वनयाचनविधिश्च वत्थशब्दे भिक्काचर्यायां क उपधि वारसविहो चोइसविधो पणवीसविहो ओहोवही एएअंगणमेंतव्य इत्येषणा विहारादिशब्देषु उपधेरवश्यकर पमाणं यथासंख्यं जिणाण थेराण अज्जाण य । कल्पशब्दोऽपि णीयत्वं वोटियशब्दे मध्यमतीर्थकृतां महामव्यानि प्रत्येक योज्यः। वास आदीनीत्यचेनशब्दे धर्मोपकरणे परिग्रहदोषो प्रोपोवधी जिणाणं, थेराणोहे उवगहो चेव ।। नेति परिग्गहशब्दे विलोकनीयम् ) ओहोवधिमज्जाणं, नवग्गहिरो अस्मा तन्यो । (१) त्रिविध उपधिः । जिणाणं एगविहो ओहोवधी भवति थेराण अज्जाण य श्रोहियो तिविहा नवही पामत्ता? तंजहा कम्मोवही सरीरोवही उवग्गहिओ य विधो भवति।नि० चू० २ उ०प्र० जीत० । बाहिरडेपत्तोवही । एवं असुरकुमाराणं भाणियच्वं । एवं (३) हारसंग्रहःअथ प्रमाणादिस्वरूपनिरूपणाय द्वारगाथामाङ दव्वप्पमाणअइरे-गहणे परिकम्मविनुसणामुच्चाए । एगिदिय नेरझ्यवजं जाव वेमाणियाणं ॥ उबहिस्स पमाणजिणं, थेरं अहक्कम वोच्छं ।। कर्म एवोपधिः कोपधिः एवं शरीरोपधिः । बाह्यं शरीरबहिर्व इह व्यं वस्त्रं तस्य प्रमाणं गणनया प्रमाणेन च द्विविधं वक्तनी भागमानि च नाजनानि मृण्मयानि मात्राणि मात्रायुक्तानि व्यम् । अतिरिक्त होने वा वस्त्रे दोषा अभिधातव्याः परिकर्मण कांस्यादिजाजनानि नोजनोपकरणमित्यर्थः। भाएममात्राणि ता सीवनमित्येकोऽर्थः तन्निरूपयितव्यम् । (विभूसणयत्ति) विभून्येवोपधि एकमात्रोपधिरथवा भाएमं वनाजरणादि तदेव षणार्थ यदि वस्त्रं कायति वा रजति वा घर्षति या संप्रमार्टि मात्रा परिच्छेदः सेयोपधिरिति ततो बाह्यशब्दस्य कर्मधारय वा तदा प्रायश्चित्तं भवतीति कर्तव्यम् । मूळया यदि इति चतुर्विशतिदएकचिन्तायामसुरादीनां त्रयोऽपि वाच्याः। वस्त्रं न परिनले तदाऽपि प्रायश्चित्तं व तव्यम् । तत्र प्रथमद्वारे तानारकै केन्ब्यिबस्तेिषामुपकरणस्यानावात द्वान्छियादीनान्तूप- | वमुपधेः प्रमाणं जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकानाङ्गीकृत्य यथाकरणं दृश्यते । एवं केषाञ्चिदिति । अत एवाह । एवमित्यादि । ममहं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुं जिनकल्पिकानामुपधि अहवा तिविहा नवही पामत्ता? तंजहा साच्चत्ते अचित्ते । गणनां प्रमाणतो निरूपयति । वृ० ३ उ०। मीसए । एवं नरइयाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं । (४) जिनकल्पिकानामुपधिमाह । ( अहवेत्यादि । सचित्तोपधिर्यथा शैलभाजनमचित्तोपधिर्व- जिणकप्पिया न दुविधा, पाणीपाता पमिग्गहधरा य । बादिः मिश्रः परिणतप्राय हौलनाजनमिवेति ! दएकचिन्ता पाउरणमप. उरगा, एक्केका ते भवे दुविधा ।। सुगमा। नवरं सचित्तोपधि रकाणां शरीरमचेतन उत्पत्तिस्था- जिगकपिया दुविधा नयान्त पाणिपात्रभाजिनः प्रतिग्रहधा Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८९ ) अभिधानराजे अ: । रिणश्च । एक्केका दुविधा दष्व्वा सपाउरणा इयरे य जिणकप्पे चाविभागो इमो । एते गतिगचतूक, पण णवदस एगदसगं । विकप्पा, जिएकप्पे होंति उवहिस्स । पाणिप डिगहियस्स पाउर वज्जियस्स जखोपड़ी दुविधोर बदरणं मुहपोत्तिया य । तस्सय सपाचरणस्स एगकप्पाहणे द सविध दुकपणे प्रकारसविधो तिकप्परगहणे पंचविहोपरिम्पारिस्स अशउरणस्स गुहपोचियरोदरपणा सहितो वविदो गायो तर पहने सविधो क माहने पक्कारविधो तिकपणे वारखचियो । अहवा डुगं च एवगं, जबकरणे होंति दोपि तु विकप्पा | पारणवाज्जिताणं, विसुद्ध जिगकप्पियां तु ॥ जे पारणा विकपिया जयंति सि दुवि एव भवति विविध वा नि००२०० पं० भा० यानियकानामाह । पत्तं पत्ताबंधो, पाठवणं च पायकेसरिया । परुलाइ रहणार्थ, गोष्ठी पायनिजांगे || तिनेव य पच्छागा, रयहरणं चैव होइ मुहपोत्ति । एसो दुवालसविदो, उनी जिएकप्पियाणं तु ॥ पात्र प्रतिग्रहपात्र बन्धो येन देन चतुरा येते पात्र स्थापन कम्बलमयं तत्र पात्रकं स्थाप्यते पात्रकेसरिका प्रतिपेक्षन्ति पटलकानि यानि भिकां पर्यटः पात्रोप रिस्थाप्यन्ते रजस्त्राणं पात्रवेष्टनकं गोच्नकः कम्बलमयो यः पाफोपरि यते । एष सप्तविधः पात्रनिर्योगः पापरिकरत्य उपकरणकलाप इत्यर्थ । तथा त्रय एव न चतुःपञ्चप्रभृतयः क पते इत्याह । प्रच्छादकाः प्रावरणरूपाः कल्पाः । द्वौ सौत्रिका[येक]मय पर्थः रोहरणं प्रतीत वा समुच्चये । एव शब्दः पादपूरणे। मुखका प्रसिका एप द्वादशव उपधिर्जिन कल्पिकानां मन्तग्यः । तुशब्दो विशेषणे स चैतदिशिनष्टि । जिनकविका द्विविधाः पाणिपात्रा प्रतिग्रहारिक्ष पुनरेकै द्विधा अप्रावरणाः सप्रावरणाश्च । तत्राप्रावरणानां पाणिपात्राणि रजोदरणमुखको उपधा धरणातु विविधो वा चतुर्विधो या पचविधो या त त्रिविधा रजोर मुखका एक कल्प सीधिकमधिः स पीर्णिकः कल्पसहितः पञ्चविधः चतुर्विधः । द्वितीयः सौविककल्पसहितः प्रतिप्रधारिणां प्रावरणवर्जितानां नवविध उपधिः । तद्यथा पानं १ पात्र कबन्धः २ पात्रस्थापनं ३ पात्रकेसरिका ४ पानिज ६ गोष्टकः रजोदरमुखका ९. चेति । ये तु प्रावरणसहितास्तेषामत्रैव नवविधे एककल्पकेपे दशविधः । कल्पद्वयप्रक्षेपे एकादशनेदाः कल्पत्रयप्रकेपे तु द्वादशविधस्तदेवमुत्कर्षतो जिनकपिकानां काय उपधिः संभवति । एष सब्दसूचित विशेषणार्थः पतीयानां सर्वेषां ग्रहणमितिन्यायात् अन्येऽपि ये गच्छनिर्गतास्तेषां यथायोगमिदमेवोपकरणप्रमाणमव सातव्यम् । 1 अथ स्थविरकल्पिकानङ्गीकृत्याह । म चैव दुबास-मसग भइरेगचोलपट्टो य एए एसो उचदवविहो, वही पुण घेरकप्पम्मि | तपय अनन्ता द्वादशोषभेदाः अपरं चातिरिकं मात्रकं उपहि arause एष चतुर्द्दशविध उपधिः स्थविरकल्पे भवति । अनन्तरोक्तमेवार्थमुपसंहरन्नाह । जिला वारसचाई, थेरा, चन्दसरूविणो । ओण बहिमिच्छति, अवस्गहो । जिना जिनकल्पिकाश्वोपकरणानां द्वादश रूपाणि धारयन्तीति शेषः । स्थविरास्तु चतुईशरूपिणः उपकरणचतुर्दशधारिण इत्यर्थः । एवमोघेन सामान्येनोपधिमिच्छन्ति तीर्थकराः श्रघो पधिमित्यर्थः । श्रत ऊईमतिरिक्तो दएर कचिञ्जिकादिस्थविरकपिकानां सर्वोऽप्युपग्रहोपधिर्मन्तव्यः । (५) अथ जिनकल्पिकानामुपधेरुत्कृष्टादिविभागं प्रमाणयन्नाह । चत्तारि नकोसा मज्झिम- जहन्नगा वि चत्तारि । कप्पाणं तु पमाणं, संडासो दो कुरंटओ ।। जिनका वायुपकरणानि कानि नयन्ति प्रयः कल्पाः प्रतिग्रदश्चेति मध्यमजघन्यान्यपि प्रत्येकं चत्वारि । तत्र पटकानि रजस्त्राणं रजोहरणं पात्र कबन्धग्धेति मध्यमानि । मुखवस्त्रिका पात्रकेसरिका पात्नस्थापनं गोच्छकश्चेति जघन्यानि । तेषां च ये कल्यास्तेषां सन्देशकः कुटकी दोस्ती द त्वेन प्रमाणं भवति विस्तरतस्तु सर्व्वे हस्तमेकम् । अथवा || अन्नविय आएसो, संडासो सत्यिएण बने य । जं खंमियं दतं छम्मासे दुब्बलं इयरं ॥ अन्यो वा देशः प्रकारादेश इत्यादि संदेशः स्वस्तिका तत्र जिनकल्पिकस्योकुटनिविष्टस्य जातु संसकादारभ्य पुरः पूर्व दादा स्कन्धोपरि वाचता न प्राप्यते तावद्यक ल्पस्य दैर्ध्यप्रमाणम् । अयं च संदंशक उच्यते । तथा तस्यैव कल्पस्य द्वावपि पूर्वोक्तकर्णी हस्ताभ्यां गृहीत्वा द्वे अपि बाहु या तथा दक्षिणन स्तेन वा वाशी वा दक्षिणमे द्वयोरपि कादिये यो विन्यासशेषः स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक उच्यते । एतत्पृथुत्वप्रमाणयुक्तं च यदि च तत्पर हुज्यमानं परमासान् यावद् पिते तदादेशं दृढमिति ज्ञात्वा गृह्णाति इतरन्नाम षण्मासानपि यावन्न निचकर्म मिति न द्धति अथ किमर्थमसी स्वस्तिकं करोतीत्याद संडास बिदेण हिमादिपति, गुत्ता अगुत्ता विय तस्स सेज्जा हत्थेद्दि सामो विहिप वयस् कोणेमुवव जाति ॥ तस्य जिपि हायागुता अगुप्ता वा भवेत्। ततः संदेशकच्छिद्रेण हिमादिकं शीतवातसर्पादिकमे त्यागच्छति । ततस्तस्य रक्षणार्थ स्वस्तिफकृताभ्यां स्वस्तिकाकारनिवेशितायां द्वापि वस्त्रस्य कोणी गृहीत्वा उत्कुटुक एव स स्वपिति वा न्यायति वा । तत्र प्रायेण धर्मजागरिकया जागर्ति परं केचिदाचार्या वते उत्कुटक एव तृतीययामे क्षणमात्रं स्वपितीति । वृ० ३ ० प्रव० | ध० | निम्बू० | इदानीं स जिनकल्पिकोपधिः स्थविर कल्पिकोपधिश्च सर्व एव नवविधो भवति तस्य च मध्ये कानिनिभाने कानिचित् धन्यानि कानिचित् मध्यमानि । तत्र जिनकल्पिकानां तावत्प्रतिपादनायाह । तिभेव य पच्छागा, परिग्गहो चैव होइ उक्कोसो | गुच्छगपत्तडवणं, मुद्दांतग केसरिजहनो ॥ ८४ ॥ त्रयः प्रच्छादककल्पा इत्यर्थः प्रतिग्रहश्वेति एष जिनकल्पिकावउपप्रधानचतुर्विधो मासूनि प्रधानानि Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९०) जवाह अभिधानराजेन्द्रः। नवहि प्रशानीत्यर्थः गोच्छका पात्रकस्थापनं (मुहणन्तक)मुखवत्रिका अप्पं असंथरतो, निवारित्रो होइ ताहि सत्थेहिं । पात्रमुखपत्रिका चेत्येष जिनकल्पिकावधिमध्ये जघन्यः । अप्रधा गिएहति गुरू विदिने, पगासपमिहणे सत्ता ।। . मश्चतुर्विधः सपधिरिति । पात्रकबन्धपटलानि रजवाणो रजोह आत्मशरीरं स शीतादिना संस्तरति त्रिनिलनिवारितो भरणमित्येष चतुर्विधोऽप्यपधिर्जिनकल्पिकावधिमध्ये मध्यमोप धति तथा चात्र विशेषचूर्णिक्षिखितोनावार्थः। “उस्सग्गेण तव धिना प्रधाननाप्यप्रधान इति । उक्तो जिनकल्पिकानामुत्कृष्टज पाउरियव्वं जाहे न संधर ताहे एकं कप्पं पाउण जाहे तेण पन्यमभ्यमाऽयधिरिति । बोधगच्छवासिनां कल्पप्रमाणमाह। बिन संथरेजा ताहे विश्यपि पाउणिज्जा। जर नाम तहवि कप्पा भायपमाणा, अवाइजाउ वित्यडा इत्या । न संथरेज्जा ताहे तश्यं वि पाणिज्जा । जइनाम तहविन संथएवं मज्झिममाणं, नकोसं होति चत्तारि॥ रंज्जा ताहे तिनि विच्छ कण बाहिं पडिमाप वर ताव भत्थर करूपा भात्मप्रमाणाःसाहस्तत्रयप्रमाणायामा अर्धवृता यावद् । जाव सीपण न सहा वि तो पच्छा तम्मि निवेस । ज तन्थ इस्ता विस्तृताः पृयुमा विधेया।पतन्मभ्यम मानं प्रमाणं भवति।। नसंथरज्जा ताहे अंतोपमिमं वगइ। तत्थ जाणोवगओ चिटुर उत्कर्षतो दैर्येण चत्वारो हस्ताः । एतदादेशध्यं मन्तव्यम् । जन संथरताहे तम्मि चेव निवेस एवं पि जन संथरे ताहे अत्रैव कारणमाद । पकं कप्प गिदहेज्जा जाहे तेण विन संथरे ताहे विश्यं ततो संकुचिय तरुण आय-पाणसुयमे न सीयसंफासे । तश्यं तत्थ से अईवसायं जवा । एवं अप्पा तिहिं वत्थेहिं निइहभो पेवाणथरे, थान्विय पाणाइरक्खी य ।। पारिओ हवा ति" श्रथ तानि परिजीर्णानि तेन त्रिभिः शीतं यस्तरुणो बलवान् संकुचितपादः स्वप्तुं शक्नोति तस्य तथा स्व- निवारयितुं पार्यते तत आह । गुरुभिराचार्यर्वितीर्णानि प्रकाशयमेव शीतस्पों न भवति अतस्तस्यात्मप्रमाणाकल्पोऽनुशातः।। प्रत्युपेक्वणानि जीर्णत्वादचौरहरणीयानि सप्त वस्त्राणि उत्कृष्टतो पस्तु रूधिरो षयस्यो वृद्धः स कोणबसत्यान्न शझोति संकुचि- गृहाति । इदमेव स्पष्टयति। . तपादः शयितुं भतस्तस्यानुग्रहार्थ देय॑णात्मप्रमाणावषम- तिमि कसिणो जहने, पंच य दहदुबलाई गेएहे । जमामि बिस्तरतोऽप्य तृतीयहस्तप्रमाणाज्यधिकानि पमङ्ग श्रासनयपरिजुत्ताई. एवं उक्कोसगं गहणं ॥ काम विधीयन्ते एवं विधीयमाने गुणमुपदर्शयति (दुइओ पल्ल कृष्णानि नाम घनमसृणानि यैरन्तरितः सविता न दृश्यते ईपत्ति) शिरपादान्तमवणद्वयोरपि पार्श्वयोर्यकरपस्व प्रेरणमा दृशानिनीणि वस्त्राणि जघन्यतो गृहीयात्। यानि तु दृढपुर्घकमणं तेन स्थविरस्य शीतं न जवति । अनुचितोऽभावितशैक लानि तानि पञ्च गृहीयात् । यानि परिजीर्णानि तानि सप्त पतप्रत्यर्थः । तस्यापि स्वाविधावननिहस्य कल्पप्रमाणमेव ज्ञात उत्कृष्टं प्रहणं मन्तव्यम् । वृ० ३ उ०। ग्यम् । अपि च एवं प्राणिनां रक्षा कृता नवति न मएकप्त्या | कीटिकादयः प्राणिनः प्रविशन्तीति नावः । प्रादिशब्दाहीर्घजा-1 उवगरणं पिधारेज्जा, जेण न रागस्स होइ उप्पत्ती । तीयादयोऽपि न प्रविशन्ति तेनात्मनोऽपि रका कृता भवति । बोगम्मि य परिवाओ, विहिणा य पमाणजुत्तं तु।।६।। ए. ३ ० (पात्रकबन्धादीनांप्रमाणनिरूपणमन्यत्र स्वस्वस्थाने)। उपकरणमाप बसपात्रादि धारयत्किविशिष्टमित्याह । येम न पदानी स्थविरकल्पिकानां प्रतिपादयति । तत्रापि प्रथमं । रागस्य भवत्युत्पत्तिस्तमुत्कर्षावात्मना एच लोके च परिवादः मध्यमावधिप्रतिपादयन्नाह । खिसा येन न नवति विधिनाऽवयवतया प्रत्युपेक्षणादिना धारपरलाइ रयत्राणं, पत्तमबंधो तहेव रयहरणं । . येत्प्रमाणयुक्तं च न न्यूनाधिकमिति गाथार्थः ( पं०१०) अत्रेमत्तो य पट्टगो वि य, पेवाणं विहो नवरि ॥ ५॥ दमवधेयं स्थविरकल्पिकानां प्रच्चादकत्रिकादिधारणं यत्पूर्वमुक्तं परमानि रजस्त्राणं पत्नकबन्धश्च चोलपकश्च रजोहरणं मात्रक ततः सामान्यापेक्कया विशेषा पेक्षया स्वधिकधारणेऽप्यदोषः । वेत्येषः स्थविरावधिमध्ये परुविधो मध्यमावधिोत्कृष्टो नापि ध० ३ अधि। कोदशं पुनरुपधि भिकुर्धारयतीत्याह। जघन्य इति । पात्रकं प्रच्छादनकल्पत्रयम् । एष चतुर्विधोऽपि सत्कृ जिन्नं गणणाजुत्तं, पमाणइंगामधूमपरिसुद्धं । पुः प्रधानः स्थविरकल्पिकावधिर्मध्ये पात्रस्थापनकं पात्रकेस- उवाहि पारइ भिक्खू, जो गणचित्तं न चिंतेइ ॥ रिका गोच्चको मुखयतिका एष जघन्योऽयधिः। स्थविरकल्पि- भिन्न नाम सदृशं सक वा यन्न भवति गणनायुक्तं गणनाकावधिमध्ये चतुर्विधोऽपि । श्रो० । इह स्थविरकलिपकानां त्रयः प्रमाणोपेतं प्रमाणन च यथोक्तदैर्ध्यविस्तरविषयमानेन युक्तान. प्रच्छादका भवन्तीति पूर्वमुक्तं तदिदानी ढयन्नाह । त्यनुवर्तते । तथाऽङ्गारधूम्या परि समन्तात् शुद्ध विरहितमपं वि जो वि तिवत्थडवत्यो, एगेण पानवगो व संथरई। धमुपधि स भिक्षुर्धारयेत् यो गणचिन्तां न चिन्तयति सामान्यन हु त खिसंति परं, सत्येण वितिन्नि घेत्तव्वा ॥ साधुरिति नावः । यस्तु गणचिन्तकस्तस्य न प्रतिनियतमुपधियोऽपि साधुस्त्रिवस्त्रो द्विवस्त्रो वा संस्तरति त्रिनिर्वाभ्यां पा प्रमाणम् । तथा चाह। करित्यर्थः । सौत्रान् द्वौ वा कल्पान् परिनुक्तान योऽप्यकेन गणचिंतगस्त पत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहनो य। कल्पेन संस्तरति स एकमपि कल्पं न गृहातु परं न हि ते सव्वाविहे य नवही, उवग्गहकरो महाजणस्स ।। स्वल्पतरवस्त्रा अचेलका वा परमन्यमधिकतरवस्त्रं खिसन्ति कत इति चेपुच्यते सर्वेणापि स्थविरकल्पकेन तत्र त्रयः कल्पा गणचिन्तको गणावच्छेदकादिस्तत्प्राप्ता यावदूईमुत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । सर्वोऽप्याधिक औपग्राहिकश्योपधिर्महाजनस्योपनियमाद् गृहीतव्याः यद्यपि शीतपरीषहसहिष्णुतया कश्चिदेकेनापि केनापि कल्पेनाप्रावृतः संस्तरति तथाऽपि जगवतामाझाम प्रहं करोति । इदमेव भावयति। नुवर्तमानः सोऽपि श्रीन कल्पान् गृह्णाति किमर्थं पुनरीदृशी जग आलंबणे विसुद्ध, दुगुणो चउगुणो वा वि । वतामाका उच्यते । सन्चो वि होइ उवग्गह-करो महाजएस्स ।। Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९१) उवाहि अभिधानराजेन्सः। उवाह प्रासम्बनं द्विधा व्यतो गर्तादौ निमञ्जतो रज्ज्वादि भाषता अंतोनिवसणी पुण, लोणतरा जाव अजंघातो। संसारगर्तायां निपततां ज्ञानादि इह पुनर्थत्र के काले षा - बाहिरखुनगपमाणा, कमी य दोरेण पडिबा ॥ संभ वस्त्रं नदादिकमालम्बनं गृह्यते तत्र विशुके प्रशस्ते सति अन्तर्निवसनी पुनरुपरि कटीभागादारभ्याधोऽर्द्धजला यायद्विगुणो वा चतुर्गुणो या औपनहिकचोपधिः सर्वोऽपि महाज द्भवति सा च परिधानकाले लीनतरा परिधीयते मा भूदनानस्य गच्चस्योपग्रहकरो भविष्यतीति कृत्या गणचिन्तकस्य परि वृता जनोपहास्येति बहिर्निवसनी पुनरुपरि कटीभागादारप्रहे भवतीति ! गतं प्रमाणद्वारम् । भ्याधः खुलकप्रमाणा चरणगुल्फं यावदित्यर्थः कट्यां च दब(६) आर्यिकाणामुपधिप्रमाणम् । रकेन प्रतिवर इदमधः शरीरस्य षड्विधमुपकरणमुक्तम् । पत्वं पत्ताबंधो, पायढवणं च पायकेसरिया। अथार्द्धकायोपयोगिकञ्चुकादिकं व्याख्याति । पमिलाई रयत्ताणं, गुच्छो पायनिज्जोगो ।। दतिअणकुयिते उरोरुहे, कंचुरो असिन्वितो।। तिमेव य पच्चाया, रयहरणं चेव होइ मुहपात्ती ! एमेव य नक्कच्छी, मा णवरं दाहिणे पासे ।। तत्तो पमत्तए खलु, चोहतमकमट्ठए होति ॥ दैर्घ्यमाश्रित्य स्वहस्तेनातृतीयहस्तप्रमाणः पृथुत्वेन तु हस्तलग्गहणंतगपट्टो, अच्छोरुअवलणिआय बोधव्वा । मानोऽसवित उन्नयतः कसाबद्धः कन्चुकः क्रियते सा चोरोरुही गदयति किम्नूतौ च नुक्ते चितौ श्लथौ गाढपरिधान हि विविक्तअनितरबाहिणिय-सणी य तह कंबुए चेव ॥ विनागौ भवेताम् कवायाः समीपमुपककं तत्र नवा औपकक्तिकी ोकच्चिय चेगकच्छिय, संघाडी चेव खंधकरणी य । अध्यात्मादित्वादिका प्रत्ययः पवमेव च कञ्चुकवत्तस्या अपि ओहोवधिम्मि एते, अजाणं पसवीसं तु ॥ स्वरूपं वक्तव्यं सा नवरं दक्विणपावें समचतुरस्रा हस्तेन सापात्रकादित्रयोदशेऽपि करणानि साधूनामिव द्रष्टव्यानि ।। हस्तप्रमाणा सरोजागं पृष्ठं च प्रादयन्त। वामस्कन्धे वामचतुर्दश तु चोलपट्टकस्थाने तासां कमरकं भवति । तच्चाष्टक- पार्श्वे च वीटकबद्धा परिधीयते । मयमकैकं संयतीनां निजदेहप्रमाणेन विशेयम् । तथा अव- उवगछिया न पज्जे, कंचुकमक्किटियं च गदेति । ग्रहानन्तकं १५ पट्टम १६ अोरुकं १७ बलनिका च १८ बोध संघाडीओ चनरो, तत्य दुहत्था उ वसथीए । न्या । अभ्यन्तरनिवसनी १६ बहिर्निवसनी २० तथा कम्बुकश्चैव २१ औपकक्षिकी २२ चैककक्तिकी २३ संघाटी २४ दुन्निति हत्यायामा, जिक्खहाएगनचारे। स्कन्धकरणी २५ एवमेतान्योघोपधौ धार्यिकाणां पञ्चविंशति ओसरणे चनत्थाम, निसन्नपच्चगणी मसिणो ॥ रुपकरणानि भवन्ति । अथैतान्येव विवृणोति । औपकक्षिकी विपरीता चैककतिकीनामकः पदः कञ्चुकीपकनग्गहाणंतो नोच, गुज्कदेसरक्खणवाए। क्विकी च गदयन् वामपार्श्वे परिधीयते तथा उपरि परिभोग्या सोयप्पमाणो तणुको, घणमसिणो देहमासज्ज ॥ संघाटिकाश्चतस्रो भवन्ति । एकाहिस्ता द्वेत्रिहस्ते एका च चतु ईस्ता दैर्येण चतस्रोऽपिसाऽपि साहस्तत्रयप्रमाणा चतुर्हस्ता दहावग्रह इति योनिद्वारस्य सामायिकी संशा तस्यानन्तकं वा मन्तव्या तत्र हि विहस्ता विहस्तविस्तृता संघाटिका बसस्यां वस्त्रमवग्रहानन्तकं पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् तश्च नौनिभं मध्यभागे परिधीयते न तां विहाय प्रकटदेहया कदाऽपि भवितव्यमिति भाविशालं पर्यन्तभागयोस्तु स्तनुकं गुह्यदेशरक्वार्थ क्रियते । तच घः। ये च द्वित्रिहस्तायामे त्रिहस्तविस्तृते तयोर्मध्ये एका निवार्थ गणनयकं अन्तर्षीजपातसंरक्षणार्थ च घनं घनघस्रेण पुरुषस- गच्छन्त्या प्रावियते एका उच्चार तृमि ब्रजस्या तथा समवसरणे मानकर्कशस्पर्शपरिहरणार्थ च मसणं मसणवरेण क्रियते व्याख्यानश्रवणादौ गच्चन्ती चतुर्हस्तां प्रावृणोति सा च प्राकनप्रमाणे न च देहं खीशरीरमासाद्य तद्विधीयते देहोहि कस्या संघाटीच्या वृहतरप्रमाणा अनिषण्मप्रच्छादनार्थ क्रियते यतो न चित्तनुः कस्याश्चिन्त स्थूलः। ततस्तदनुसारेण विधेयमित्यर्थः । । तत्र संयतीभिरुपवेष्व्यं किंत्वर्क स्थित्वा ताभिरनुयोगश्रवणादि पट्टो वि होइ एक्को, देहपमाणेण सो उ भयव्यो । विधेयं ततस्तथा स्कन्धादारज्य पादौ यावद्वपुः प्रच्गय तिष्ठन्ति छंदंतोग्गहणंत, कडिबको मसकच्छो वा ।। एनाच पूर्वप्रावृतचेषप्रच्छादनार्थप्रवचनवर्णप्रनायनार्थ च मसणा पट्टोऽपि गणनयको भवति स च पर्यन्तभागवर्तिवाटकबन्ध फ्रियन्ते चतस्रोऽपि च गणनाप्रमाणनैकमेव रूपं गण्यते युगपबरुः पृथत्वेन चतुरङ्गलप्रमाणःसमतिरिक्तो वा दीर्घेण तु स्त्रीक स्परिभोगाजावात् । टीप्रमाणः सच देहप्रमाणन भक्तव्यः पृथुलकटीभागाया दीर्घः खंधकरणी चउहत्या, वित्यरा वायबिहुतरक्खडा । संकीर्घकटीभागायास्तु हस्व इत्यर्थः । स चावग्रहानन्तकमु- खुज्जकरणं उ कीरति, रूबवतःणं कुमुहहेनं ॥ भयान्तयोराच्छादयन् कटीबद्धःसन् मल्लककावज्जायते ।। स्कन्धकरणी चतुर्हस्तचिस्तरासमचतुरना प्रावरणस्य पातविअकोरुगो उदो वि. गिरिहनं छादए कमीभागं । धुतरक्कणार्थ चतुष्पला स्कन्धे कृत्या प्रावियते रूपवतीनां च जाणुप्पमाणवलणी, असिद्धिया संखियाए व ॥ संयतीनां कुरुपहेतोः कुब्जकरण्यपिक्रियते पृष्ठदेशे संबर्हितायोअरुकोऽपि तौ द्वावपि अवग्रहानन्तकपट्टायुपरिटाद् गृ- | पकक्तिकी वैककक्विकीनिया तया विरूपतापादनीयं कुरूपं विधीयत इति भावः । उपसंहरचाह । हीत्वा सर्वकटीभागमाच्छादयति । स च मल्लचलनाकृतिः कपलमुपरि ऊरुखये च कशापद्धः चलनिकाऽप्येवमेव । नवर संघालिमेतरो वा, सव्वो वेसो समासश्रो उवधी। मधो जानुप्रमाणा अस्यूतलंखिका परिधिर्भवति वंशाग्रनर्सको पासगबरूममुसिरा, जं वाइपंतगंणेयं ।। . मलनकशा मम्तन्या। सर्वोऽप्यपोऽनन्तर उपभिः समासतो विधा सहातिमः इतरम Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवाह (१०९०) अभिधानराजेन्द्रः। जवाह द्विघ्यादिखएडानां मीलनेन निष्पन्नः संघातिमः । इतरस्तद्विपरी- मयी दण्डमयी कडगमयीति प्रमाणमस्याः गच्छापेक्षया सातोऽसंघातिमः । अयं च पाशकबरूःकशावरूः तथा यश्चाशुषि- गारिकप्रच्छादनाय तदावरणात्मिकैयमिति संस्तारद्वयं च रो गृहिसं वानिकारहितः प्रतिग्बानवजितो या यश्चात्र बन्यक्के- शुषिराशुषिरभेदभिन्नं तृणादिकृतस्तु शुषिरस्तदन्यकृतस्त्वशुप्रकावतो वेषेषु संविग्नगीतार्थैः पूर्वरिभिराचीण तत्सर्वमपि | पिर इति । तथा दण्डादिपञ्चकं पुनस्तद्यथा दण्डको विदकेयं सम्यगुपादेयतया मन्तव्यम् । ण्डकः यष्टिवियष्टिर्नालिका चेति । मात्रकत्रितयं तद्यथा । का. ___ अथ जिनकल्पिकादीनामुपधेरुत्कृष्टादिविभागमाह । यकमात्रकं संशामात्रक खेलमात्रकमिति । तथा पादलेखनी हकोसओ जिणाणं, चनविहो मज्झिमोवि य तहेव । काष्ठमयी कर्दमापनयिनीति गाथार्थः । पं०५०। जहस्रो चरबिहो खव, पत्तो थेराण योच्यामि ॥ संयारुत्तरपट्टो, अवाज्जा उ आयया हत्या । प्रयःकटपाःप्रतिप्रति जिनकहिपकानामुत्कृष्टतश्चतुर्विधः। एवं दोण्हं पि य वित्थारो, हत्यो चउरंगुलं चेव ॥४६॥ मध्यमोऽपि रजोहरणपटबकपात्रकबन्धरजस्त्राणदाश्चतुर्विधो संस्तारकः तथा उत्तरपट्टकश्च एतौ द्वावपि एककमीतजघन्योऽपिमुखपोत्तिका पादकेसरिका गोच्चकपात्रकस्थापनक तीयहस्तौ दैध्येण प्रमाणतो भवति तथा द्वयोरप्यनयोविनेदाश्चतुर्विधः। स्तारो हस्तचतुरलं भवतीति श्राह किं पुनरेभिः प्रयोजन (७) औपप्रहिकोपधेरुत्कृष्टादिनेदाः । संस्तारकादिभिः पट्टकैरुच्यते ।। उकोसो थेराणं, चउविहो उबिहो य मज्झिमत्रो। पाणारेणुसंर-क्खण्या होंति पट्टगा चउरो । जहप्सो चउबिहो खलु, पत्तो अजाण बोच्छामि । छप्पश्यरक्खणट्ठा, तत्युवरि खोम्मियं कुज्जा ॥४७॥ उत्कृष्टो जघन्यश्च जिनकस्पिकानामिव अष्टव्यो नवरं मध्यमः प्राणिरेणुसंरक्षणार्थ पट्टका गृह्यन्ते । प्राणिनः पृथिव्यादयो विध इत्थं रजोहरणं पटलकानि पात्रकबन्धो रजत्राणं मात्र रेणुश्च स्वशरीरे लगति अतस्तद्रक्षणार्थ पट्टकग्रहणं ते च. कम्बलपट्टकश्चेति । त्वारो भवन्तीति द्वौ संस्तारकपट्टकयुक्तावेव तृतीयो रजोहउक्कोसो अट्ठविहो, मज्झिमत्रो होइ तेरसविहो न । रणबाह्यनिषद्यापट्टकः पूर्वोक्त एव चतुर्थः । खोमिय एवाभ्या न्तरः निषद्यापट्टको वक्ष्यमाण एव एते चत्वारोऽपि प्राणिनः जहलो चउनिहो खस, पत्तो न उबग्गहं वोच्चं ॥ संरक्षणार्थ गृह्यन्ते । तत्र षट्पदासंरक्षणार्थ तस्य कम्बली भाचार्याणामुन्कृष्ट नपधिरष्ठविधः प्रयः कल्पा ३ प्रतिग्रहः ४. संस्तारकसंघर्षेण षट्पदा न विराध्यन्ते इति । इदानी अभ्यन्तभ्यन्तरनिवसना ५ बहिर्निवसना ६ संघाटिका ७ स्कन्धकरणी रक्षामनिषद्याप्रमाणप्रतिपादनायाह । चेति । मध्यमस्त्रयोदशविधो नवति तद्यथा रजोदरणं १ प. टसकानि पात्रकबन्धः ३ रजत्राणं ४मात्रक ५ कमकम् ६ रयहरणपट्टमत्ता. अदसणा किं चि वा समतिरेगा । प्रवग्रहानन्तकं ७ पट्टः अहोरुकम्ए कञ्चुकी१० बलनिका ११ इक्कगुणा न निसिज्जा, हत्थपमाणा सपच्ागा ॥४६॥ श्रीपकक्तिकी१२ विकधि.की १३ चेति । जघन्यश्चतुर्विधो मुखपो- रोहरणपट्टकोऽभिधीयते यत्र दशिकालग्नाः तत्प्रमाणा त्तिका गोधकः पात्रस्थापनं चेति । अत कईमतिरिक्तो यः - दशा दशिका तजहिताक्षीमा रजोहरणाभ्यन्तरे निषद्या भवति। पधिः स च पग्रहोपधिरुच्यते । तमपि जघन्यादिविभागनिरूप- (किं चि वासमतिरेगेत्ति ) किंचिन्मात्रेण वा समधिका नाहं बहये । वृ० ३ ०। तस्य रजोहरणपट्टकस्य भवतीति ( एकगुणत्ति ) एकैव मा (G) तावदोपग्रहिकोपधिमाद। निषद्या भवति हस्तप्रमाणा च प्रथुत्वेन भवति (सपच्छागात्ति) पीठगनिसिज्जदंग-पमज्जणी घट्टए डगलमाई। सह बाघया निषद्यया हस्तप्रमाणा भवतीति। एतदुक्तं भवति बाह्याऽपि निषद्या हस्तमात्रैव । पिप्पलगसूइनहरणि-साहणगदुर्ग जहमो उ ॥ ३४॥ वासोवग्गहियो पुण, दुगणो वही उ बासकप्पाई। पावकं काष्ठच्छगणात्मकं लोकसिम्मानं स्नेहवत्यां वसतौ वर्षाकाले वा प्रियत इत्यौपग्राहिकं संयतीनां त्याग इत्यागतसाधु प्रायासंयमहेऊ, एकगुणो सेसो होइ ।। ४ए । निमित्तमिति निषद्या पादपुजनं प्रसिहप्रमाण जिनकल्पिका- वर्षासु वर्षाकाले औपग्रहिकः अवधिगुणो जवति कश्चास्यासो दीनां न भवति निषादनाभावात् दएकोऽप्येवमेव नवरं नि- वर्षाकल्पादिः आदिग्रहणात् पटलानि “जो व हिंझ तस्स धारणाभावात् एवं प्रमार्जनी वसतेईएमकपुनानिधाना एवं तिम्म सो सो दुगुणो होति पगोति तो पुणो अन्नो घेप्प "स घटकः पात्रमुखादिकरणाय पिप्पलका कुरप्रःलोहमयः । सूची च वर्षाकस्पादिदिगणो प्रवति श्रात्मसंरक्षणार्थ च सत्रात्मसंरसीवनादिनिमित्तं वेण्यादिमयी नखहरणी प्रतीता मोहमप्येव | क्वणाद्यदि एकगुणा एव कल्पादयो भवन्ति ततश्च "तेहिंति तेर्डि शोधनकवयं कर्मशोधनकदन्तशोधनकाभिधानं सोहमयादि ज-| पोट्टसूलेणं मरति संजमरक्खणज पगं चेव कप्पं अक्ष्मश्लो घन्यतस्वयं जघन्यः औपप्रडिकः खबपधिरिति गाथार्थः। न देनं नीसरह ततो तस्स कप्पस्स जं पाणिय पत्ति तरस एनमेव मध्यममभिधातुमाह । तेणं पातुक्कोनो विणासिज्जा" शेषस्ववधिः एकगुण पव बासनाणे पाणगं, चिलमणिपणगं दुर्ग च संयारे। भवति न छिगुण इति । किञ्च । दंडा पणगं पुण, मत्तगतिगपायलेहणिया ।।३।। जं पुण सपमाणाओ, ईसिंहीणाहियं व भेजा। वर्षात्राणविषयं पञ्चकं तद्यथा कम्बलमयसूत्रमयतालपत्रम- उभयं पि अहाकायं, न संधणा तस्स बेश्रो वा ॥५०॥ यपलाशपत्रकुटशीर्षकं छत्रकं चेति लोकसिद्धमानानीति । यत्पुनः कल्पादि उपकरणं स्वप्रमाणादीपकीनमधिकं या बतथ चिलिमिलीदऽचकं तथा कम्बलमयी सूत्रमयी वाल- ज्यते उभयमिति "मोघियस्स उवहिरस उबग्गहियरस चा" यदि Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.०९३) अभिधानराजेन्द्रः । बहि जयं तदेव हीनमधिकं वा लब्धं सत् 'आधाकरुयगं' पश्चात्कृतमल्पपरिकर्म यज्यते तस्य न संघना क्रियते दीनस्य तथा दनः क्रियते अधिकस्य । किं च । ine लहिया चेत्र, चम्मए चम्मकोसए । चम्मच्छेयणपट्टे, चिलिमिली धारए गुरू ।। ५१ ॥ यमपर औपग्रह कोपधिः साधोः साध्वाश्च नवति दमको नवति दमका यष्टिश्च चशब्दाद्वियष्टिश्वेति । अयं सर्व्वेषामेवमेव पृथक् पृथक् श्रपग्रह्निकः । प्रथमपर एव औपप्रदिकः कश्वासौ चम्मपत्ति ) वर्म्म कृत्तिश्वमिया चर्म्मकोसकः "जत्थ न हणाई बुज्छंति ” तथा चर्मच्छेदः बर्धपट्टिका | यदि च छेदकं पिप्पलकादि तथा ( पट्टेति योग चिि मिली चेति । पतैधम्र्म्मादिभिर्गुरोरीग्राहिकोपर्नियति । जं च एवमाई, तवसेजमसादयं जजणस्स । ओहो इरेगगहियं, जवग्राहियं तं वियाहि ॥ यचान्यद्वस्तु एवमादि उपानहादि तपः संयमयोः साधयति जनस्य श्रोपोविरिकं गृद्धिसमापयदिकं सद्विजानीहि । भ० (पाणिमन्य चम्मति पट्टदुर्ग, नायो मरिमो उवदि एसो । अजाण पारगो पुण, मज्झिम हो अरियो । धम्मंत्रिवर्धनाकृतिरूपम् तथा पर्थ संस्तरपडचोप लक्षणं ज्ञातव्यो मध्यम उपधिरेषः । औपग्रहिक श्रार्याणां चारकः पुनः सागारिकादनिमित्तमभ्यमोचाणो भवस्यतिरिक नित्यं जनमध्य एव ताखां वासादिति गाथार्थः । एतदेोत्कृष्ट मभिधातुमाह । अक्खा संथारो वा, एगमणेगंगियो उक्कोसो | पोत्यगण फल, कोसोपमहो सच्ची ॥ ३७ ॥ श्रकाश्चन्दनकादयः संस्तारकश्च किं विशिष्ट इत्याह । एकाङ्गि sister ङ्गिश्च फलकं कम्बिमयादिः उत्कृष्स्वरूपेण । तथा पुस्तकपतद्यथागरिकांपुस्तकः नियतकाि स्तकः मुष्टिपुस्तकः संयुकश्चेति । तथा फलकं पट्टिका समयसरणफलकं वा उत्कृष्ट इति श्रीक रुपये सर्व इत्यादिः सर्व एवेति गाथार्थः । अनयोरौ धिको पग्रहिकविशेषलक्षणमभिधातुमाद अ यो 1 1 अहे जस्म गहणं, लोगो पुरा कारणा स ओहोहि । जस्स उ दुर्ग पिनिअमा, कारणओसी उहि ॥ १८ ॥ धन सामान्येन भोगेन वा यस्य पात्रादेरणादा भोगः पुनः कारणान्निमित्तेनैव भिकाटनादिना स ओघोपधिरभिधीयते यस्य तु पीचकारेयमपि ग्रहणं भोगाय मात्कारणतो निमसेन खेदादिना स कादिः श्रपदिकः क दामिकप्रयोजननिवृत इति गाथार्थः अस्यैष गुणकारितामाद मुच्छार हाथ्यो, सम्पचरणस्स साइनो नणिओ । जुतीए ईहा पुरा, दोसा इत्थं पि श्राइ ॥ ३७ ॥ मूर्च्छारहितानामभिष्वङ्गवर्जितानां यतीनामेव द्विविधा पोकादिरूप उपचिः सम्यगधिकरणका तुल्येन चरणस्य सापको भाति मानभोगवत्या इतर पुरा यथोकमान नोगाभावे दोषाः । मत्राप्युपधी गृह्यमाणे तुद्यमाने चा आज्ञादय इति गाथार्थः ॥ पं० च० । (प उवदि तेषामन्येषां खोपकरणानां प्रयोजनं विहार शब्दे चारित्रार्थमने काहगमने प्रस्तोष्यमाणे स्पष्टीभविष्यति ) । (९) अतिरिकोपगमेन प्रायश्चितम् । बुविटुप्पमाणातिरे मुचदेमेण तेरा लहूगाओ | मज्झिमगं पुण उबहिं, पकुच मासो वे लहु ॥ द्विविधं शिकार गणनाप्रमाणभेदात्प्रमाणं ततोऽतिरिके पथी तत्रादेशेन च भवन्ति यत उक्तं निश निफ्लू गणणारचं वा पमाणादरिणं या घर से अड्डा चातुम्मासयं परिहरेद्वाणं उग्धाश्यं " वृ० १ ० ॥ ऊणातिरिचधरणे, चटारो मासा हति उपाया। आणाणो य दोसा, संघट्टणमादि पनिमंथो ॥ 66 गणनया प्रामाणेन च ऊनस्यातिरिक्तस्य वा उपकरणस्य घरप्रायश्चित्तं चत्वारो मासाः उद्धाता लघवः आज्ञादयश्च दोषास्तथा यत्र परिकर्म्मणां कुर्वन् तज्जातान् प्राणान्संघट्टयति श्रादिशब्दात्परितापयति अपाययति च ततस्तनिमित्तमपि तस्य प्रायश्वितं तथा प्रतिदेवसमुनका पात्राणि अन्यातिरिकपकरणं प्रत्युपेक्षमाणस्य परिमन्थः सूत्रार्थव्याघातः । तस्मात् गणनामानमुपकरणं धारथितव्यस्य द्वि०० मी. १० प्रथमसमवसरणे उपधिग्रहणम् । (तत्र नो कल्पते इति शब्देनाविष्यते ) वर्षासु अतिरिक्तोपकरणग्रहणकारणमुपदर्शयितुं समा Godarहा, दियारण तह वा ककुयमाणं । वासारन्न कुरुंवी अतिरेगं संचयं कृष्णइ ॥ अयं दिवयादि उपस्कर सूपं दिः स्नेो घृतं तैलं वा आदिशब्दादेकादितै प्रपरिषद का सादिया कटुकं graीपप्पल्यादि जाएभानि घटपिठरादीनि । अथवा कटुकनाएक समयवाहिप्रभृतिजातं । एतेषां द्रव्योपस्करादीनां कुटुम्व्यविराजे अतिरिकसम्वयं करोति किं कारणमिति चेदुच्यते । मणियाण संचती, हट्टा ण हवंति कम्मपरिहाणी | गेला देव किं काहिति अम्गहिते पु ि।। वर्षाकाले वणिज प्रामेषु क्रयविक्रयार्थे न सन्ति प विदा न पति अपि यदि कुटुम्बी goryस्कारादीनामतिरिकं सञ्चयं न कुर्यात् तत उत्पन्ने प्रयोजने कविका मानवीय गन्तव्यं ततश्च सकर्षणप्र तानां कर्मयोगानां परिश्वा संज्ञा आदेशबुवा प्राघूर्णिकेषु आगतेषु अतिरिक्तसञ्चये पूर्वगृही कि पथ्य भोजनमा घूर्ण कनक्त्यादिकं करिष्यति ॥ तह अन्नतिस्थिगा विय, जारिसो से संचयं कुणति । इह पुरा विराणा, परमम्मिय जे नणियदोसा || तथेति दृष्टान्तान्तरोपन्यासे अन्यतीर्थिका श्रपि सरजस्कादो यादृशो यस्य येनोपकरथेन प्रयोजनमित्यर्थः (से) तस्थातिरिक्तं समयं वर्षासु करोति । यथा सरजस्का रक्षाया दकसैत्करिकामृत्तिकाया वोटिकल गणल कणयोरित्यादि । इहेति अस्मिन् पुनर्येन शासते यद्व्यतिरिक्तमुपकरणं न गृह्णन्ति ततः जीवनिकायानां विराधना भवति । अथातिरिकोपकरखाभावाद्वपछि गृह्णन्ति ततो ये प्रथमे समवसरणे उपकतो दोषा भवितास्तान प्राप्नुवन्ति कथं पुनः पक्षां कायाचिन भवतीयते। Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९४) अभिधानराजेन्द्रः उबाह रपहरणांझाणं, पमाफल्समालपुवीए । गामंत रितगलणे, पुढवी उदगं च दुविहं तु ॥ (फरससातति) कुम्भकारशाला तस्य वर्षासु स्थितानां द्वितीयायेाभूतं रजाहरणं सेनय प्रमार्जने पृथिवीकायस्य विराधना प्रामान्तरं भिकाचर्यादिकार्येण ( इतति गच्छत शागत अन्तराभावादतरं वर्षमा धे मलिनरजहर परिगलति पृथिष द्विविधं च भूमान्तरिभेदाद्विकारमुदकं विराधयति । हवा अंत्री, उदगं पुण उपतावणे अगणिं । बंधना, बाणासु केण व पम ।। अद्वितीयरजोहरणाभावे बदाई रजोहरणं शोषयति ततो ऽवग्रहात् स्फिटयति । श्रथ न शोष्यते ततोऽस्लीभवति एवमलीभूते तस्मिन् उदकं विराध्यते । पनका संमूर्च्छति अधिशेष परिहारार्थमग्नि तापयति ततोऽग्निविराधना अ थाईल प्रमार्जयति ततो दशिकान्तेऽच्युडका मुगोलका प्रतिबध्यन्ते तेषु प्रतिबद्धेषु यद्विप्रमार्जनं करोति तत श्रात्मविराधना । अथ न प्रमार्जयति ततः संयमविराधना । स्थाननिषदनादिषु वा केन प्रमा एमेन सेसम्म, जमदोसा उ भिक्खणिजाए। चोलनिसज्जा उच्च-ग्रजी रगेलनमायाए || एमेव वर्षाकल्पादावपि शेषोपकरणे भिक्षानिर्योगे च पटलकपात्रबन्धरूपे द्विगुणं श्रगृहीते संयमदोषाः पकायविराधना लक जोहरचा बीस रजेोहनिषद्यायां पाय द्वियमाणायां षदितानां वाभावे जाते. त्यपरिभोगेन भक्तं न जीर्यते । अजीर्यमाणे भक्ते ग्लानत्वं भयति । ततश्रात्मधिराधना परिताषमहाखादि। किंच अकाण शिम्णवादी, परिता वा अहव णगहणमि । जं च समवसरणम्मि, अगड़ो में च परिभोगे ॥ विद्याविभाडा अध्वनो निर्गता आदिशब्दादशिवादिकारणानीता वा ये परीताः परिमितोपकरणा अथवा (नहन्ति ) नष्टपकरणा हारितोषधय इत्यर्थः ( गढ़णम्मिति ) प्रत्यनीकेन वा उपधे कृते विविक्ता आगच्छेयुः एतेषामागतानामतिरिक्तोपकरणभावाद्युपग्रहणं न करोति तत उपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् अदन्ति ततोऽधिनिप्पन्नम् अथ प्रथमे समवसरणे उपकरणग्रहणे दोषजालं तत्प्राप्नुवन्ति । श्रथ न गृह्णन्ति तत उपकरणं विना यन्तृणादिपरिजोगे दूषणकदम्बकं तदासादयन्ति । अमुमेवार्थे व्याख्याग्रन्थेन स्पष्टयति । अा णिग्गयादीण-मदाते होति उपधिणिप्पमं । जं ते सारंग, मेवेदं च ।। निर्गतादीनामतिरिकामा उपकरणं यदि न प्रयच्छन्ति तत उपधिनिष्पन्नं प्रवति प्रायश्चित्तमिति शेषः । तच्च जघन्ये पयकं मध्यमं मातुः अभ्यनिर्गता अनेषणं घोष करणमणि या पदासेवन्ते निष्पन्न च प्रायश्चित्तम् । अथात्मीयमुपकरणं तेषां प्रयच्छन्ति तत आत्मपरिहाणियाणादि सेवनं कुर्वन्ति सन्निष्यन्नम के दुः प्रथमसमवसरणं वरूग्रहणे दोषा इत्याह ॥ अनपरा या ओमर पार वहि दानं परिभोग वप्पति-चढतरं उयगेलने ॥ अथात्मनो वा परेषां वा अध्वनिर्गतादीनामर्थाय प्रथमसमबसरणे उपधि गृहन्तित आधाकर्माश्यः पञ्चदशोप्रमदोषा भवन्ति आत्मोपधिमन्वनिर्गतादन्या तमेवैकं प्रत्ययसारं नित्यं परिज्ञानस्य पदपदिका संतापामध्ये पतिता भहितासु जनयति तारे या कोण राशिप्राकृतेन शुरू जीर्यति अति चयानत्यमुपजायत तहान गेरिहयव्वं, वितियपदम्मि जह ए एहेज्ज । अाणे गेलो, अहवा वि जवेज्ज असतीए । यत एवं तस्यात् कारणादमन द्विगुणप्रत्यय तारादतिरिक हीतव्यं दितीय यथा न हीयुषाऽभिधीयते अध्यनि यहमानानां ग्लानत्ये वा द्विविधायामससायां वा वर्त्तमानाना मग्रहणं जवेदिदमेव व्याख्याति ॥ काले चिंदिणं, या वरिसा मंतरेण वाघाते । गेलो वा न परे दुविधा पुण होत असतं ओ | ग्रीष्मस्य चरमे मासि केचिदवनि प्रतिपन्नाश्चिन्तितवन्तश्च यावदापाटपूर्णिमा पतिदेवताका क्षेत्र प्रा प्स्यामः । अन्तरा च नद्यादिव्याघातो जवेत् अत वाढपूर्णि माका अतिकान्ते प्राप्ते ततो द्विगुणेोऽतिरिक्तो वा उपधिर्न गृहीतः। श्रथवा श्रात्मनो ज्ञानत्वेन परस्य वा ग्लानस्य व्यापृततया नातिरिक्तो गृहीतः । श्रसत्ता पुनर्हिविधा भवति सदसत्ता असद सत्ता च सदसत्तायामनेषणीयं लभ्यते । अथवा बहवः साधवो वस्वग्रहणस्याकल्पिका एव कल्पिकः । अतः सर्वेषां योग्यो अतिरिक्तः पथि गृहीतुं न पार्यते । असदसत्ता तु मार्गितमपि न सज्यते पते कारण पूर्वमतिरिपथ असृशेऽपि शुकाः । गए अगरिए वा अप्पत्ताणं तुहोति अभिगमणं । उबही संथारगपादरलाई या गरणड़ा ॥ एवं गृहीतेऽगृहीते या वर्षावासप्रायोग्ये उपधौ कालमप्राप्तानामापदपूर्णिमाया अधीक पञ्चनिचिपत्रे भतिगमन प्रवेशो भवति । किमर्थमित्याह उपधिपत्यादिकः । सं स्तारका कामयः कम्बिकामयो वा पादयोरजोरणम् आदिशब्दात तृणादिपरिग्रहः पतेषां ग्रहणार्थमा का प्रवेश्य । इदमेव व्यक्तीकरोति । कारण पत्ता पत्तां खेतओ गहणं । वासानो सेनाम्म झमाझी ॥ कालतो नियमादप्राप्तानां क्षेत्रतः प्राप्तानां वा वर्षावासयोग्यपटलक पात्रबन्धादेरुपधेर्ग्रहणं नवति एतेन चरमनङ्गो सूचितौ कालतः प्राप्तैरप्राप्तैर्वा क्षेत्रतां नियमात्प्राप्तैर्म गलादीनि गृहीतध्यानद्वाविति तान्येव गा दर्शन दर्शयति । डगलसरवरकुट मतगतिवादलेहरिया | संथारपीठफलगा, बिज्जोगो चैव गुलो न ॥ इकारादिमयानिनः प्रार्थ गृह सर जस्कः कारससंज्ञा खेलादिविसर्जनार्थे कुटमुखं घटकरावकस्तत्र ग्लानयोग्यमौषधं कायिकी मात्रकं वा स्थाप्यते । मात्रकत्रिकं खेaari कायिकी मात्रकं संज्ञामात्रकं चेति । द्वेषः प्रतीतः प्रद्विप्रजाजन संस्थापनार्थम् । पादलेखनिका वर्षासु कई मनिपना , Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९५) उबहि अन्निधानराजेन्द्रः। उवाहि धम् । संस्तारकः परिशाटी वेति द्विविध नभयोपशमनार्थ जी- ग्रामनायका अधिष्ठातारः पकत्र स्थिताः सर्वत्तः बाकुटिका उङ्गरा चादिरकणार्थ च गृह्यते पी गणादिमयमुपवेशनार्थ फल- बजिका गोकुलिका सेवकाचारभट्टका: जामातृकाः प्रसिकाः पकचं एकपट्टादिमयः दामनोपयोगी पात्रसत्वश्च निर्योगः । प्र- थिका ये बहवःस्वं देशं प्रति प्रस्थिताः एवमादिषुपूर्व मार्गयन्ति त्यवतारो द्विगुण एतानि सर्वाण्यपि तदानीं गृह्यन्ते । अथ शि- कथमित्याह । ध्यः प्रश्नयति। आगंतुकेसु पुचि, गवेसए चारणादिसु बाहिं । चत्तारि समोसरणे, मासा कि कप्पती ण कप्पति वा । पच्छा जे सग्गामं, तालावरादिणो यति ॥ कारणिग पंचरत्ता, सबसि मल्लगादीणं ।।। (बाहिति) सोशयोजनान्तर्वतिष्वन्तरपलिकासहितेषु बाआषाढर्णिमाऽनन्तरं ये चत्वारःप्रथमसमवसरणे मासास्तेषु ह्यगामेषु ये आगन्तुकाश्चारणादयस्तेषु पूर्व गवेषयन्ति । पश्चात् ग्रहीतुं कल्पते न वा। सूरिराह उत्सर्गतो न कल्पते द्वितीयपदे बाह्यगामेषु चारणादीनामजावे ये तानावरादयः स्वग्राममायान्ति केत्रस्याप्राप्ता अध्वनिर्गता वा आषादपूर्णिमायां प्राप्तास्ततः तेषु गवेषयितव्यम् । कथमेतेषु वस्त्रसंन्नव श्त्याह । संस्ताराद्युपधि डगलादीनि च पञ्चरात्रिदिवानि गृह्णन्ति लकण एवे इतरे, समणाणं देज सेवजामादी । पर्युषणाकल्पं च रजन्यामाकर्षन्ति । ततः पञ्चम्यां पर्युषणं चारणधारवणीयं, पडंति इयरे उ सहितरा ।। कुर्वन्ति । अथ पूर्वोक्तकारणात्पञ्चम्यामेव ते प्राप्तास्ततः पश्चरात्रं तथैव संस्तारकमङ्गलादीनि गृहन्ति दशम्यां पर्युषणयन्ति । संघका जामातृका नवानि वस्त्राणि लब्ध्वा इतराणि पुराणानि विशेषं चूर्णिकृत्पुनराह “तं खत्ताणं पजंते प्रासादपुमिमाए श्रमणानां दद्युः। चारणानां (धारत्ति ) देवत्रधारिणां राजाचेव चिया तेहि य उवही न गहिओ संथारगार ताहे जाब पंच दयः प्रसादतो वस्त्राणि प्रयच्छन्ति तानि पुराणानि वा ते सारत्तं ताव गेण्हंति एक्का पंचदिवसे पोसणाकप्पं कहंति द धूनां दद्युः ( वणीयंति) वाणिज्यकं वणिजः पतन्ति । इतरे तु पसमीए एस कारणेणं कप्पाई पंचरत्तं श्रह पंचमीए पत्ता तहेव थिकादयःथाहाः श्रावका भवेयुः बहिमे स्वग्रामेऽप्युपचारणाय वरत्तगावकुंतीति" एवं सर्वेषां मल्लकादीनामुपकरणानाम दीनामभावे विधिमाह । र्थाय कानि पञ्चरात्रिंदिवानि प्रवर्द्धमानानि तावन्मन्तव्यानि बहिरंतसमिसणिमु, दि8 तेसु वा जमदि। यावद्भाद्रपदशुद्धपञ्चम्यां गृहीतेऽगृहीते चा उगलमल्लकादौ केई हउवधि, सुगहिते सम्ममु दिहितरे ॥ नियमारपर्युषणं विधेयम् “तेसि तत्थ विआणं पडिलहुवट्टचार केत्राभ्यन्तरे प्रतिवृषलग्रामेषु ये असंझिनस्तेषु पूर्व दृष्टं वस्त्र णादोसु लेवाईण अगहणे लहुगा पुग्विश्रा गहिते वा" तेषां मार्गयन्ति तदभावे बहिामेऽप्येवं संझिषु पूर्व र सदभावे साधूनां तत्र वर्षाक्षेत्र स्थितानामियं सामाचारी सभाप्रपाऽऽरा अन्तर्मूलनामे असंक्षिषु पूर्व दृष्टं तदसत्वे मूलग्राम एव संशिषु यत्पूमदेवकुलशून्यगृहादिषु यद्वस्त्रमुज्जितं पथिकादिभिः परित्यक्तं मदृष्टं तदनावे मूझग्राम एवासंचिषु पूर्वमहापं घर मार्गयन्ति तत्प्रत्युपेक्षन्ते यदा किल कार्यमुत्पत्स्यते तदा ग्रहीष्यन्ते तद केचिदाचार्या इत्थं ब्रुयते । द्वयोरपि पहिरन्तरवणयोः स्थानयोः भावे चरणादिषु प्रत्युपेक्षन्ते वर्षासु यदि लेपमादिशब्दात्पात्रं प्रथमसंझिषु गृडीते सति ततो बहिरन्तर्वतिष्वेव संशिषु यथा वा वस्त्रं वा गृहन्ति ततश्चतुर्लघुकाः पूर्व चालेपादीनि यदि न कर्मदृष्टमितरत्वात दृष्टं गृहातीति किं पुनः कारणं पूर्व दृष्टं प्रथम गृहीतानि तदाऽपि चतुर्लघु । इदमेव व्याख्याति । गृह्यते उच्यते तत्र हि पूर्वप्रत्युपेक्तित्वेनाधाकर्मादय उरकेपनिकेवासाण एस कप्पो, सब्यतो चेव जाउ सक्कोसं । पादयश्च दोषा परिहृता भवन्ति ॥ परिभुतं विप्पइस्म, वाघातहा परिक्खंति ॥ कोई तत्थ वणिजा, वाहिं खिसस्स कप्पती गहणं। (वासाणत्ति) विभक्तिव्यत्ययाद्वर्षासु तिष्टतामेष कल्पः समा गंतु ता पमिसिहं, कारणगमण बहुगुणं तु.॥ चारी सर्वतः सक्रोशं यावद्यत्कार्पटिकः परिभुक्तं विप्रकोर्स पूर्व कश्चिन्नोदकस्तत्रेति अनन्तरोक्तव्याख्याने इदं भणेत् यदि पूर्व परिभुज्य ततोऽकिश्चित्करमिति मत्वा परिष्ठापितं ततस्तिष्ठन्त प्रतिवृषलग्रामेऽप्युग्रहीतव्यं ततो मूखग्रामे पचं तर्हि दूरत्वात् । एव व्याघातार्थ निरीक्षन्ते । कः पुनाघात इति चेदुच्यते। केत्राडिर्ग्रहणं सुभगं कल्पते। गुरुराह केत्रादहिवर्षासु गन्तुमपि अघाण णिग्गतादी, कामियबूढे व सह परिज्जुमे । तावत्प्रतिषिकं किं पुनर्वस्त्रग्रहणम् । अथ कारणे वर्षासु क्वेत्राआगंतु बाहिपुम्बि, दिह्र असमिसामीसु ॥ द्वहिर्गमनं करोति तत्रगतश्च वर्षाकल्पादिना निमन्यते तदा संयअध्वनिर्गतादयः साधवः आगच्छेयुः आत्मीयो पा उपधि- मस्य बहुगुणमिति कृत्वा तदपि ग्रहीतव्यम् । इदमेव व्याचिध्यामितो दग्धो भवेत् उदकेन वा ब्यूढः शक्षो वा अवश्यप्र- ख्यासुः प्रथमतः परवचनं व्याख्याति । वाजनीयः पुराणादिरूपस्थितः परिजीर्णो वा उपधिरेतैः एवं नामं कप्पति, जं दूरे तेण बाहि गिएहंतु । कारणरागन्तुकेषु तालावरादिषु पूर्वमार्गयन्ति ततः क्षेत्राहि एवं जणंति गुरुगाण, गमणे गुरुगा व बहुगा वा ॥ रसंक्षिषु पूर्व दृष्टं गृहन्ति । अथेदमेव विभावयिषुरागन्तुकान यत् दूरे गामावहिर्षनं तद्यदि प्रथम कल्पते तत एवं नाम नागन्तुकान् व्याख्याति । केबादिः सुतरां प्रथमतरं गृहन्तु सूरिराह एवं प्रणतो भवततालायरे य धारे, वाणियखंधारसेणसंवट्टे । श्चतुर्गुरुकाः । अथ केत्राद्वहिर्गच्छति ततो गुरुका वा लघुका वा लागि वइग सेवग, जामाउगं पथिगादीमुं॥ प्रायश्चित्तं तत्र नव प्रावृषि चत्वारो गुरषः शेष वर्षाकाले चतालावरा नटनर्तकवर्धादयो (धारोत्ति ) देवकत्रधारकाः स्वारो बघवः । कारणगमने बहुगुणमिति व्याचष्टे ॥ वणिजो वाणिज्यकाः राजविम्बसहितं स्वचक्रं परचक्र या स्क संबंधभाविएस, कप्पति जोयणे कजे । धावार उच्यते राजबिम्बविरहिता सेना चौरधाटीमन बहवो | जुम्मेव वासकप्पं, गेगहति जं बहुगुणं वां ॥ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९६ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवहि यानि साधम्मिक संबन्धेन संबद्धानि परस्परं गमनागमननारि तानि च क्षेत्राणि तेषु वर्षासु कल्पते साधम्मिकाणामुदन्तवदनाथे चत्वारि पञ्च योजनानि यावत् गन्तुं वस्तुं वा एवं कार्ये गतस्यापान्तराले वर्षात्राणेन कश्चिनिमन्त्रणं कुर्यात् तस्य च प्रा. तनो वर्षात्राणः परिजीर्णस्ततश्च वर्षात्राणं घनमसृणमभिनवं च ततो वर्षासु बहुगुणमिति कृत्वा गृह्णाति । कारणतोऽन्यदार्प पटलकादिकं घनमत्रणादिगुणोपेतमाचार्यप्रायम्यं वा य सज्यते तदपि नूयान् गुणोऽत्र गृहीने भविष्यतीति कृत्वा गृह्यते एवं कारणगमनं ग्रहणं चोजयमपि दृष्टम् । कारणानावे तु न कल्प सेतुं या गृह्णाति ततोऽमून पोडश दोषान् प्राप्नोति आहाकम्य, पूतीकम्मे व मीसजायाए । वरण पाहुडियाए, पादोकरकीतपामिचे ॥ परियट्टिए अति मे न, उग्भिमालाह में य । विजे अणिसि, धोते रत्ते य घट्टे य ॥ आधादेशिकं २ भूमिकम्मे ३ मिश्रज्ञातं स्थापनाथ प्राकृतिका ६ प्रादुष्करणं तं प्रामित्यं परिवर्तितम् १० दूत्याहृतम् ११ नं १२ मालाहृतम् १३ श्रच्छेद्यम् १४ अ सिति २५ पञ्चदश दोषाः ( धोयते वधयति ) सानूनामर्थाय मझिनवस्त्रं धौतं गौरवं कृतमित्यर्थः । एवं रक्तं प्रदत्तरागं घृष्टं मसणं पाषाणादिना उत्तेजितमेते त्रयोऽप्रत्येक एव दोष इति । एते सव्वे दोसा, पढमोसमोसरे एवज्जिता होंति । जिदिहिं अहितो, जो गेहति तेहि सो पुडो पते सर्वे कर्मादयो दोषाः प्रथमे समवसरणे वस्त्रादिकं शृढता न वर्जिता नयन्ति अथ पूर्व दप्तो न गृहीतमुपकरणं ततः प्रथमे समवसरणे यो गृह्णाति सोऽपि जिनैस्तीर्थकरेये हृष्टाः कर्मबन्धदोषास्तैः स्पृष्टो मन्तव्यः । प्रावतस्तेन दोषाणामङ्गीकृतस्यात् । पढमम्मि समवसरणे, जो वतियं पत्तचीवरं गहियं । सव्यं वोस रिषण्यं पायच्तिणं च वोढव्वं ॥ , प्रथमे समवसरणे दर्षतो यावत् पात्रचीरं हि तावत्सर्वमाज्यं प्रायश्वितं च गुरुदत्तं यथो वोदयम्। अथवा कार्ये समुत्पन्ने यत्पात्र या बीवरं चारणादिषु सुदीत सर्वे ते कार्ये परिष्ठापनीयम् अपरिणामकप्रत्ययनिमि यथालपीकः प्रायश्वितं वोढव्यम् । सम्झाया दप्पेण, वाचि जावपछि । कारणगहियं तु विधूय, घरेत गीए एए उज्जाति ॥ स्वाध्यायार्थं दर्पण वा यदि "बहिअंतसन्निसु जं दिषं तेसु चव जमदि ं" इत्यादिकं क्रममुल्लङ्घ्य गृहीतं तत्र जानतोऽपि गीतार्थस्यापि प्रायश्चित्तम् य कारणे क्रमेण विधिना गृहीतं तद्यदि सर्वेऽपि विदो गीतार्थास्तं धारयन्ति अथागीतार्थनिश्रा यतोऽन्यस्मिन्पकरणे लब्धे न पुष्यन्ति । पृ० ३३० नि० न्यू० | कल्प (ऋतुबद्धे वस्त्रग्रहणं वत्थ शब्दे ) ( ११ ) प्रथमं प्रव्रजत उपधिग्रहणम् । (सूत्रम् ) निर्णयस्य तप्पडमार संपव्ययमाणस्न aur tयहरणगोच्छयपडिहिं कमिणेहिं वत्थेहिं अयाए संपत्त से पुव्वोडिए सिया एवं से नो कप्प‍ रयहरणगोच्छ मायाए तियि कामोत् वहि आया संपव्वतए कप्पर से हापरिगहियाई क्त्याई गहाय आयाए संपव्वतए । अथास्य सुत्रस्य कः संबन्ध इत्याह । शिदिवेग जणियं समणाण वोच्छामे । निक्खते बाहुतं, निक्खममाणे इमं सुतं ॥ निर्ग्रन्थीविषयं चेलग्रहणं भणितम् । इदानीं श्रमणानां यथा वस्त्रं गृहीतुं कल्पते तथाऽभिधीयते । यहा निष्कान्तो दीक्षितस्तद्विषयं वस्त्रग्रहणमुक्तमिदं तु निष्क्राम्यति दीनामददाने वस्त्रग्रहणानिधायकं सत्रमारज्यते अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या निर्मान्थस्य तत्प्रथमतया समिति सम्यक् प्रकर्षेण पुनरभङ्गी कारलकणेन व्रजतो गृहवासान्निगच्छतः संप्रव्रजतः कल्पते । रजो रणमोजके प्रतिमादाय चिनि वजितम् । इह रजोहरणग्रहणेन मध्यमोपधिगोच्छकग्रहणेन अघस्योपपिः प्रतिग्रहप्रद सहीतस्ततोऽयमर्थः जघन्यमय मोशेष चिनिष्पक्ष में यः कृताः प्रतिपु पात्रे प्रत्ययतारास्तैरात्मना सहितैः प्रम ( सेयति) शब्दांचे मधासीय प्रतिपद्मः पूर्वमुप दीक्षितः स्यात् ततो मेो कम्पते (से) तस्य पूर्वोपस्थितस्य रजोहर गोकप्रतिग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैरात्मना संप्रधजितुं किंतु कल्पते से ) तस्य यथा परिगृहीतानिीतकृतीदिदोषरहितानि वखाणि मना समासार्थः । अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते । आह न तावदद्याप्ययं प्रव्रजति ततः कथं निर्ग्रन्थः । उच्यते द्रव्यत एको भावतो द्वितीयः इव्यतोऽपि जायतोऽपि अपरो न द्रव्यतो न जावतः । तत्र द्रव्यतो नि ग्रन्थः स उच्यते यो लिङ्गसहितो व्यक्ति ङ्गयुक्तो निःशङ्कः सन्नवधा यति उत्प्रत्ययस्तु ज्यायाम निमुखा न तावदद्यापि प्रव्रजति कारणेन वा यः साधुः परङ्गेि वर्तते स द्वितीयो द्वितीनङ्गवर्ती यस्तु उदयसहितो सव्यभावाही ङ्गयुक्तः स तृतीयः उयथापि निर्ग्रन्थ इति भावः । उजयविमुक्ते तु द्रव्यभावलिङ्गरहिते गृहस्थादी चरमतुर्थी मो प्रयति । अत्रायाय देव मानुष्यस्य सहवासलकर्ण दृष्टान्तं कर्तुकाम प्रथमतः सिका प्रज्ञापयति । चावल संवासो, देवासुररक्खसे मस्से य । पोकामा, संजोगा सोहास हवेति ॥ देवसंवासः असुरसंघासो राकससंवासो मनुजसंघासश्चेति संवासश्चतु । अत्र चान्योन्यकाम्यया षोरुश संयोगा भवन्ति । तद्यथा देवो देव्या साई संवसति १ देवोऽसुर्या साईम २ देवो त्या स्वार्कम् ३ देवो मानुष्या स्वार्कम ४ असुरो देव्या सम संगति असुरो ६ असुरो मानुष्या असुरो राजस्था राहो देव्या सोयी १० राइसो मानुष्या ११ राकसो राक्षस्या १२ मनुष्यो देव्या १३ मनुष्योऽसुर्या १४ म नुष्यो रातस्या १५ मनुष्यो मानुष्या १६ चेति । अत्र देवशब्देन वैमानिको ज्योतिष्को वा । असुरशब्देन तु सामान्यतो व्यन्तरः परिगृह्यते। अधस्तने च षोमश भङ्गान् चतुर्षु भङ्गेष्ववतारयन्नाद् । हवा देव संवासे एत्थ होति चचगो । पव्वज्जाभिमुहंतर, गुज्भगनझा मिया वासे || अथवेति प्रकान्तरद्योतकः । देवच्छविमतोः संचासे चतुर्भङ्गी नवति । देवो देव्या सार्क संघसति देवमित्या सा 7 Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवहि अन्निधानराजेन्द्रः। उवाहि कम् २ विमान् देव्या सार्द्धम् ३ अधिमान् विमत्या । अत्र दे स प्रविजिषुः श्रमणसङ्घस्य सकलस्यापि प्रासुकैः शुरर्वत्रघृ. वशब्देन सामन्यतो भवनपत्यादिनिकायचतुष्टयान्यन्तरवर्ती गृ- तगुरुगोरसादिनिच्यः प्रतिलाननां करोति । अथ नास्त्येतावखते गविर्माश्च मनुष्य उच्यते अत एतेषु चर्तुषु भङ्गेषु पूर्वोक्ताः सारं ततो ये गणिन आचार्या ये च वाचका उपाध्यायास्तेषां पोशापि भङ्गा अन्तता एवं सिकान्तं प्रज्ञाप्य प्रस्तुतार्थसाधकं सर्वेषार्माप करोति । अथ मास्येतायती शक्तिस्ततो यस्मिन् उपान्तमाह 'पवजा इत्यादि । एकः कश्चित्तरणः प्रवज्यानिमुखो गच्छेऽसौ प्रजिष्यति तस्य सर्वस्यापि प्रतिलाभनां विधत्ते ॥ गुरूणां पार्वे प्रस्थितः अन्तरा कस्मिंश्चिद्रामे पकस्यास्तरुण्या तदसति पुव्वत्ताणं, चउएह सीसतिय तेसि वावारो। रहे वासार्थमुपगम्य द्वारमूले सुप्तः सा च तरुणी उहामिका हाणी जा तिमि सयं, तदभावे गुरुन सव्वं पि॥ कुशीमा गुहाकः कश्चिद्यकस्तया उद्भामिकया सह रात्री वासं तस्या अपि सकसगच्चपूजाकमायाः सामच्या अभावे ये पूर्वकृत्वा प्रभाते स्वस्थानं गच्छति एवं दिवसे दिवसे करोति । माचार्या ये च पाचका उपाध्यायास्तेषां सर्वेषामपि करोति प्रा. तस्मिश्च दिवसे यको नोपागमत् द्वितीये दिवसे कोऽपि सन्नि चार्योपाध्यायप्रवर्तिसंघाटकसाधुलक्षणाश्चत्वार उक्तास्तेषां पूजा क्रोध धावी चौर्य कर्तुकामस्तस्मिन्नेव प्रामे तस्या एव तरुण्या करोति । तेषां चाचार्यादीनां ब्यापारोऽर्थकथनादिस्तस्य पुरतः गृहे तथैव मूझे प्रसुप्तः । यतश्च तद्दिवसमागतः । शिष्यत्ते कथ्यते यथा आचार्योऽर्थ व्याख्यानयति उपध्यायः सूत्र वितियणिसाए पुच्छा, एत्य जती आसि तेण मितअनो। वाचयति प्रवर्तते यःमसंयमादी प्रवृत्ति कारयति संघाटकः सानतिवेसो यं चोरो, जो अज्ज तुई वसति दारे ।। धुनिभक्काविचारनूम्यादौ गच्चतांसाहाय्यं विधत्ते अत एषां पूजा यस्मिन् दिवसे यकोनायातस्ततो यो द्वितीयो दिवसस्तन विधेयेति । अथ नास्त्येतावती शक्तिस्ततो यतो यथामाहात्म्य निशायामागतस्य यक्षस्य पार्श्व पृच्छा कृता कल्ये किं नागतोऽसि प्रथममाचार्योपाध्याययोस्तथाप्यशक्तौ केवलस्यैवाचार्यस्य पूजा यकाप्राह । अत्र कल्ये यतिरासीत् । तेन कारणेनाइमत्र नायातः। करोति । एवमप्यशक्ती स्वयमात्ममो योग्यान त्रीन् प्रत्यवतारान् अपि च साधुसंवन्धिना तेजसैव तमुखवय गन्तुं न शक्यतेसा तदभावे एकमपि प्रत्यवतारमादाय प्रव्रजति । अथ नास्ति तस्यैप्राह किमेव मृथा भाषसे अयमपि तावदन्यः साधुारमूले सुप्त- कोऽपि प्रत्यवतारस्ततः सर्वमपि पात्रनिर्योगादिकं तस्य गुरवः स्तिष्ठति । अत एवमुखल्य कथमद्यागतोऽसीति । जकः प्राह प्रयच्छन्ति । अयास्य विद्यमानविनवस्यो जमकोटिदोषैर्विशोधिपष चारित्रं प्रति विपरिणतश्चौर्य कर्तुकामः । अतो यतिवेषण कोटिदोषैर्यान्यविशुरूानि वस्त्राणि प्रयच्छतो प्रहीतुं करपन्ते चौरोऽयं मन्तव्यः यस्तवाद्य द्वारे वसतीति । तदेवमनेन रष्टा- नवेति चिन्तां चिकीर्षुराह ॥ मेन प्रवज्यायामनिमुखः प्रवजित एवोच्यते । उक्तंच नैश्चयिक- अपणो की तक व, श्राहाकम्मं व घेतु भागमणं । नयवक्तव्यतामङ्गीकृत्य जगवत्याम "नेरश्पण नंते नेरेसु उवव संजोए चेव तधा, अणिारेहे मग्गणा हुंति ॥ अ अनेरइए ? गोयमा ! नेरश्पसु नववज्ज नो अनेरश्पसु । स गृहस्थशक प्रात्मनो योग्यं वस्त्रपात्रादि कीतकृतं वस्त्वाधा. अचवज्ज" ॥ अथ रजोहरणादिपदानि व्याचष्टे ॥ कर्म धा गृहीत्वा गुरूणामन्तिके दीक्षागृहणायागमनं कुर्यात । अत्र कोतकृतग्रहणेन विशोधिकोटिदोषा गृहीताः। अमीषां च स्यहरणे विमजिकमो, गुच्छग्गहणे जहमगरगहणं । दोषाणामनिर्दिष्ट उपलकणत्वानिर्दिष्टे वा ये संयोगानकास्ते पमिगहगहणं गहणं, नकोसो होइ अवहिस्त ॥ षां मार्गणा कर्तव्या भवतीति द्वारगाथासमासार्थः। रजोहरणग्रहणेन विमध्यमोपधिहीतो गुच्छकग्रहणेन जघन्यो सांप्रतमेनामेच विवृणोति। पधिग्रहणं नवति प्रतिग्रहग्रहणेन चोत्कृष्टस्योपधेर्ग्रहणं मन्तव्यम्। कीयम्मि अणिदिवे, तेणोग्गहियाम्मि सेरुगो कप्पे । परिपुमा पम्यारा, कसिणग्गहणेण अप्पणो तिमि। | निद्दिष्टम्मि ण कप्पति, अहव विसेसो इमो तत्थ ॥ पुचि उवहितो पुण, जो ऽव्वं दिक्खितो आसी॥ क्रीतकृतं द्विधा निश्मिनिर्दिष्टं च । निर्दिष्टं नाम वस्त्रपात्रादिकं मत्स्नवस्त्रग्रहणेनेदमुक्तं नवति । तेन प्रवजता आत्मनो योन्या कोणीत इत्थमुद्देशं करोति अमूनि मम नविष्यन्ति अमूनि सास्त्रयः प्रत्यवतायः प्रतिपूर्णा ग्रहीतव्याः पूर्वमुपस्थितः पुनः स धूनां दास्यामि तद्विपरीतमनिर्दिष्टम् । एवमन्येष्वपि दोषेषु भासच्यते यः पूर्वदीकित आसीत् एष सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तर। वना कर्तव्या तत्र यानि वस्त्राणि तेनानिर्दिष्टानि क्रीतानि तेषां मसोकण कोइ धम्म, उपसंतो परिणो य पन्चज्ज । ध्ये यत्तस्या निरुचितं वस्त्रजातं तेनावगृहीतेसति शेषाणि साधूनां पुच्चति पूर्य आयरिय उव-जफायपवत्तिसंघानिए चेव ॥ कल्पात मिदिऐ तु साधूनामर्थाय यत् क्रीतं तत् किमापन करह कश्चित्तयारूपाणां स्थविराणामन्तिके धर्म श्रुत्वा उपशान्तः ल्पते । अथवा तत्र निर्दिष्टेऽयं विशेषो ऽभिधीयते । प्रतिषका प्रवज्यायां च परिणतः आचार्यान् पृच्चति आदिशत मज्झतिगाण गिरहह, अहं तुज्जबए परिचित्यं । कमाभ्रमणाः किं मया कर्त्तव्यम् । सूरयस्तस्य सारसंनवं ज्ञात्वा सेहेहिं ति व वत्थं, तदनावे विगिचंति ॥ शुषते (पूर्यति ) चैत्यानां विपुलां पूजां कुरु श्रमणसंघस्य च वस्त्रा मदीयानि मया आत्मार्थ क्रीतानि वस्त्राणि यूयं गृह्णीथ अहं दिभिः प्रतिक्षाभनं कुरु। एवमुक्ते स तथैव चैत्यानांश्रमणसंघस्य तु युष्मदीयानि युष्मदर्थे मयैव क्रीतानि वस्त्राणि परिगृहीध्ये च पूजां करोति । अथ श्रमणसङ्घन पूजयितुमीशस्तत प्राचार्य एवं तेनोक्त तान्यात्मार्थक्रीतानि कल्पन्ते । अथवा स त्यात स्योपाध्यायस्य प्रवर्तिनः संघाटकसाधोश्च वस्त्रादिनिः पूजा यावत यमदर्थमेतानि कीतानि श्त कर्क यत् जानीथ तत् कुविधातव्या । इदमेव भावयति ॥ रुथ ततस्तनिर्दिष्टं वस्त्रप्रत्यवताराः शैक्कस्यानुपस्थापितस्य प्रयतगतगुलगोरस, फासुपमिलानणं समणसंधे। च्वन्ति । अथ नास्ति शैको वा परं किमहं साधुन नवामि यदेअसति गणिवायगाणं, तदसति सच्चस्स गच्छसि ॥ चमेतानि मम दीयन्ते इति कृत्वा नेच्छति ततस्तानि (बिगि Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०९८) अभिधानराजेन्द्रः । सबहि । यंति) परिचयति एवं परिष्ाप्यमानेषु स हो एतं पिमा उज्जह देह मज्ऊं, मज्जव्वगा गेए इह एक दो वा । तडिए होति कदायि सव्वे, सव्वैवकपंत विसोधएसा ॥ एतमपि वस्त्रप्रत्यव तारमकल्पनं । यतया प्राप्तंमाखज्जद किं तु महां प्रयच्छत मदीयप्रत्यवतारान् चैकं छौ वा यूयं गृहोत । श्रथ तेन बहवः प्रत्ययताराः क्रीतास्ततः को विधिरित्याह यान् प्रत्यवतारान् एकं वा द्वौ वा श्रीनू वा स दाता श्रात्मार्थयति स त्रीन् या कदाचिदात्मार्थ करोति तदा सर्वेऽपि कल्पन्ते एष विशोषि कोटिविषयो विधिरुक्तः । भयाविशोधिकोटिविषयं तमेवाड़ उगमको सिंगनं तथव हांति अनिद्दिष्ठे । इयरम्मि विसंोजो, जइ सेहो सयं जग || अक्रमको टिनम आधाकमादयोऽविशोधिकोटयो दोषास्तेष्व पि यदि निर्दिष्टमिदं साधूनां दास्यामि एवं मम भविष्यतीति नितादि क्रीतं तख कल्पतेोनि दिति निर्देश परोष दाता पत्ये यदि तानि तत इमानि मत्परितानि माभिः प्रतिषितानि ममजविष्यन्ति एवम यदि ददाति ताई सर्वाए कप ह. जोति ) इतरनाम निर्दिष्टं तथापि संकोनो यदि स्यात्ततः कपते न वचसो गृहस्थ समम्येनानुपदिष्ट आत्मनैवेत्थं प्रणति । | निमन्त्रिता यानि यु कोसगाव दुक्खन जिया के सितो हमि विधेव । इति संयो तेहि पर्दति निगेपि ॥ यानि पाणिमया युष्मदर्थं कारितानि उत्कृ नि ततः कथं परित्यजन्ति दुःखं वा महता प्रयासेन वाऽपि तानि अतःशित प्रापितोऽयं वृथैवामीतिः युष्माकमनुपकरणात् श्रतो मदीयानि यूयं गृह्णीथ युष्मदीयानि च मम भवन्तु । इत्येवं तत्र निर्दिष्टेष्यपि संयतनिमित्तं निर्दिश्य कृतेष्वपि संज्ञानं कल्पनीयताकारणं पति तीर्थकराया। संवत निर्देशम्यपि कल्पन्त इति भावः । अत्र मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाह । जा संजय रिहा, संम्म दिन कम्पते केई । तं तु जुज्जइ जम्हा, दिज्जति सेहस्स अत्रिसुद्धं ॥ या शोधताय निर्दिश सादश्य कृता सा पिकेानयुज्य से यस्मात् शैक्षितस्यानुपस्थापितस्याविरूपणीयंत्रा दिदीयते इत्यत्रैव चतुर्थोदेशकं वक्ष्यति तत्र शैक्षयोन्यमपि शुरू साधुभिः परिगृहीतं जवति श्रतो ज्ञायते अविशोधिकोटिदोषैर्दुटमपि वस्त्रादिकं संकोजे कृते कल्पते । किंचान्यत् ॥ जह अपडा कम्र्म्म परिनृशं कप्पते य इतरे । एमेव व अम्हाणं, परिगहिये व कष्पते इरेसि ॥ यथा गृहस्थेनात्मनोऽर्थायाधाकर्म कृतं तदितरेषां संयतानां परिभोक्तुं कल्पते ! इत्यमुनैव ज्ञापकेनास्माकमपि स शैको गृहस्थ एवेति कृत्वा तेन परिगृहीतं ममेदमिति बुद्ध्या स्वीकृतमितरदापयनिर्दिष्टमपि कल्पते। इतरेषां साधूनां ये पुनरा चार्या अषिशोधिको निसंकोऽपि । तेश् कारणमुपवर्णयन्ति ॥ महस्सावादिणा तेरा, लिट्ठेि के एए इच्छंति । प्रणिदिट्ठे पुण छोनं, वदंति परिफग्गु मंतव्यं ॥ वहि यथा सहस्रानुपाति विषं महयमाणं सदान्तरितम मारयति । एवमाधाकमयुज्यमानं सरितमपि साधु संयमजीविताद् व्यपनयति न सहस्रानुपातिविषजातेन केचिदापार्याः साधुनिमित्तं निर्दिधे कोनेपुनः कोनं कृत्वा ददानस्य कल्पनीयं वदन्ति । एतदेव प रिफल्गु निस्सारं मन्तव्यम् । कथमित्याह ॥ एवं पि सम्पइरमीसेण, परिसरग ते फग्गुमिच्छामो । दुविधं पि ततो गहियं, कप्पाविरतणावपातं । यत्ते आचार्यदेशीया इति निर्दिष्टे संकोने ते कल्पनीयं हुघते एतदपि स्वगृहपतिमिश्रेण सदृशं तेन कारणेन परिफल्गु मायानि प्रायेण हतदपि स्वपसमिति अकल्पनीयं प्राप्नोति तच्धानि ततो द्विविधमपि निर्दिशि मेदाद्विप्रकारमपि तेन शेण संज्ञानकारणेही मा त्मीकृतं सत्करूपते । तथा वात्र रत्नोषायो मे लड़ीधरो हातष्टान्तः । तथा हि तत्र प्रक्तिं तृणादिकमपि सुवर्णीभवति एवं शकगृहस्थेन परिगृहीतं सर्वमपि कल्पनीयं भवति । अपि ॥ जहडकडं चरिमाणं, पडिसिद्धं तं हि मज्झिमो गहियं । परिवपंचनामे कष्पति तेसि हो || यथा चरमती पनि पत्यामिकानां समाय पिवा पावाः प्रतिषिध्य पार्श्वनाथतीर्थपतिनिधयां निस्तत्प्रतिगृहीते का पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नास्ततस्तद्वत्यादिकं तेषामन्धमधि useयामिकानां परिोक्तुं कल्पते । एवमत्रापि साधूनामर्थाय प्रतिषि स्नात्मा सदीयमानं कल्पते । श्रथ संयोगद्वारं व्याख्याति ॥ उग्गमविसोधिकोटी, डुगादिसंजोगो पर बत्थे । पगमी सिगासु य, णिदिट्ठा तह अणिदिट्ठा ॥ होमकोडिदा आधाकर्ममिश्रजातादयस्तेषां विकादिसंयोगतो द्विकत्रिकचतुष्कादिसंयोगनिष्पन्ना बहवोऽत्र भङ्गका भवन्ति । ते च सुगमतया स्वयमभ्यूा मन्तव्याः । एवं विशीपिफोटिभेदानामपि श्रीतकृतादीनां द्विकादिसंयोगनिष्पक्षाः तथैव बहवो भङ्गकाः । पते च प्रत्येकं भङ्गका उच्यन्ते । एतेषामेसोमकोटिभेदानां च परस्परं द्विकादिसंयोगनिष्पक्ष एवमेव यो भङ्गका भवन्ति ते च मिश्रभङ्गका भरयन्ते सर्वेऽप्येते द्विधा निर्दिश अनिशिथ पतासु प्रत्येकमिश्रासु भङ्गपि कल्याकल्ल्याविभागाः प्रागुक्तप्रकारेणावसातव्याः । श्रथ वक्ष्यमाणार्थबन्धनाय प्रस्तावनां करोति । त्या व पत्ता व परे वि हुज्जा, दच्वंपि कुज्जा णिवणे सर्वपि । विरमोहरादि कोई कि कुपितो पाणि या पात्राणि या प्रायो गृहे ऽपि भवेयुः । यतु निर्यु कभाण्डं पात्रनिर्योगोपकरणं वाशब्दस्य व्यवहितसंबन्धतया रजोहरणादिकं वा यदन्यत्र दुर्लभमुपकरणं तत् कश्चित्पुनः बुद्धिमान साधुसमीपे हड्डा तदनुसारेण स्वयमपि कुर्यात् । कलिदेव कुत्रिकापात् क्रीणीयात् । पृ० ३ उ० (कुषिकापणवक्तव्यता स्वस्थान एव ) अथ सप्त नियोगीन् व्याचष्टे । शिष्य अप्पती, बचारि पारि देति । दितस्स व पिम्बो, सेस्स विचिणं वाचि ॥ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहि नियमान् हत्वा प्रव्रजतोऽयं गुणस्तेषां सप्तानां मयात् मीनू स क आत्मनोऽर्थाय गुह्यतीत्यर्थः । चतुरध निर्योगान् पूजनासामाचार्योपाध्यायप्रतिसंघाटक साधूनां प्रयच्छति तस्य चैवं प्रयच्छतो यद्यसौ निर्योगः शुरूस्ततो ग्रहीतव्यः । अथाशुद्धस्ततः शैक्षस्य दातव्यः । शैकस्याभावे 'विगिचनं' प रिठापनं तस्य क्रियते । एवं तस्य श्रीभिर्योगान् गृहीत्वा प्रत्रजितस्य यद्भवति तद्दर्शयति । ( १०९९.) अभिधानराजेन्द्रः । सज्जाए पलियो, पहिले णिया य सो हवः खिन्नो । एगा व देति तहि तं दोनि य से अप्पणी हुंति ॥ तस्य श्रभियोगानुभयकाल मत्युपेक्षमाणस्य महान स्वाध्या परिमन्धो भवति । तया च महत्या प्रत्युपेक्षतया स खिन्नः परिभ्रान्तो भवति तत एवं निर्विधः सन् एकं निर्योगं सुरीणां ददाति प्रदते च तस्मिन् तस्य द्वी निर्योगाचात्मनः सन्तायां भवतः । एवमप्यसौ द्वाभ्यां नियोगाभ्यां नैव साधुभ्यो इव दृश्यते । ततः । निगम बहुडो, कती कतरो व वाखिए । ब्रितियं पि देति तर्हि, सा जंते दुखहं होज्जा ॥ मासकर पूर्णतः मध्ये स एवैको बहुमण्डोबहूपकरणो दृश्यते । ततो लोकस्तमुद्दिश्य भूते । अहो कुतः तापमुपस्करसंभारितः समुपैति । एवसुपहासमाकर्ण्य स द्वितीयमपि निर्योगं गुरूणां ददाति । तत्र गुरुभिर्वव्यं भदन्त ! श्रार्य मा ते तव भूयो दुर्लभमुपकरणं भवेत् श्रतश्रात्मपार्श्वे एव तावद्धारय । स माह । जारे खंधे च कमी य वाहा, पोसिजए पिस्ससए य उ । तेथे पोषणमनिज्जा, एचिया इति ममोवांगं ॥ मम मार्ग गच्छतो द्वयोर्महान् भारो भवति तेन स्कन्धः कटी वागढी निश्वासेनाकुलो प्रथामीत्यर्थः स्तेनाथ मामुपकरणमजिम रहा उपधिकारवादभिवेयुः । एतावन्ति व वस्त्रपात्राणि ममोपभोगं नायान्ति । यच्च भगवद्भिरुक्तं मा भूयो दुर्लनं भवेत् । तत्रोच्यते ॥ 1 होहित बहुगणं, दम्म धम्मचरणं पचताय । तं हांहिति अपि तुम्हास पवणाणं ॥ यदि युष्माकं बहूनामस्मिन् नागवते शासने धर्मचरणं प्रपन्नामामुपकरणं भविष्यति तदस्माकमपि युष्माभिः समं हिमा मानां चारित्रं प्रपन्नानां भविष्यति एष तत्प्रथमतया प्रव्रजतो विचिरक अथ पूर्वोपस्थितविष समेषाद सो वीरेसकुए, अजुद्वाणं पुणो जाते। कषकारितं व कीर्त जाणंत अधापरिग्गहिते || चारित्रं परित्यज्य गृहवासमुपगतस्तस्य कथं पुनरपि प्रव्रज्यामानसिक संजाता अत्र वीरणसदृशन्तो वः। एवं तस्य पुनरज्युत्थानं जवति स च विघा जानानोऽजानानश्चयः कल्याकयविभागं जानाति स जानानस्तद्विपरीतोऽजानानः । अगीतार्थ इत्यर्थः ( अजानत्ति ) भूयः प्रव्रज्यायाम ज्युत्तिष्ठमा मे कृतं वा कारितं वा क्रीतं वा दानं वा तं पूर्वोक्तविधिना कल्प से वस्तु जानानस्य यथा परिगृहीतानि शुकदेव पन्ते म कृतकारितादीनि । अथ वीरणसमुकदृ न्तमाह ॥ जह सो वीरणसढ, णइतीररुहो जन्नस्स वेगेण । वाह थोवं थोवं खणता, पक्खित्तो भूमिरिण हितमूलो वि ॥ यथा स कश्चिद्विषवितो वीरणसढको वीरणानां तृणविशेषाणां स्तम्बो नद्यास्तीरे रोहति स्म जायते स्मेति नदीतीररुहो नद्याःप्रत्यासन्नतया जलस्य वेगेन स्तोकं स्तोकं खनता भूमिकानिहितमूलजानोऽप्यचिरादेव श्रोतसि प्रप्तिः । ततश्च श्रोतसा प्रवाहयित्वा समुद्रं प्रापित इति भावः । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः । नियमसियं दिहिं सामूहिं जहरि समातो उहे उपहतहि य, चालिज्जति बद्धमूलो वि ॥ कृषिका दिवेषेण साधूनामागमनभूतेचिद् ग्रामे गृहवासमध्यास्य तिष्ठन् यत्तत्र मासकल्पं वर्षाकपं वा स्थिताः साधवो ये (वगमित्ति ) तत्र गच्छन्त भगता वा त्रिणिदिनानिन्ति ते साधुभिर्या समनुज्ञातः सणतरैश्च वचनैकवेगस्थान देने प्रेर्यमाणः समादिपरिग्रहः विस्तरेण वरुमुचते। गृहवास त्याजयित्वा संयमांत प्रष्यि कर प्राप्यत इति भावः । अथ जानानाजानानविषयविधिविभागमाह । auraपविसेस, णधीए जो उ संजमा चलिओ । पुध्वगमो तस्स जये, जाखते जाइ सुहाइ ॥ पाचादिविषये करण्याकयविशेषे धनी सति । सं यमाच्चलितस्तस्य पूर्वः प्राक्तनो नाम प्रकारो भवति यथा शैकगृदस्थस्योक्तः । यस्तु कल्य्याकल्ल्यविधिं जानाति तस्य सर्वाणि शु कान्येव ग्रहीतुं कल्पन्ते न क्रीतादिदोषपुष्टानि । वृ० ३ ० । (११) निर्मन्थ्याः प्रवज्यां गृहन्त्या उपधिः । (सूत्रम् ) निग्र्गथी एणं तप्पढमयाए संपव्वयमाणी कपरहरणो गोच्छपरिग्गहमायाए चउहिँ कसिरोहिं वत्थे या संपत्रइतर कप्पर से अहापरिगहि एहिं त्थे हैं या संपन्नइत्ता । अस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं निर्ग्रन्श्याश्चतुर्भिः प्रत्यवतारे स दितायाः प्रब्रजितुं कल्पते इति विशेषः अथ नाप्यम एसेव गमो शियमा निम्गंधीयपि होइ नायव्यो। जाती कष्पति, पेतं जे आपापरिग्गहितो ॥ एष एव गमो निर्ग्रन्थीनामपि जयति ज्ञातव्यः । सा च पूर्वोपस्थिता स्यादित्यत्र सूत्रे तासां कल्प्या कल्प्य विभागं जानतीनां यानि यथापरिग्रहीतानि कल्पन्ते ग्रहीतुम (जे) इति वाक्यालङ्कारे । समग्री नातं खिजोगा तार्थ अप्पणो जोग्या । चड पंच व संसा, आपरिवादी अडाए || निर्धन्यः सकाशान भ्रमणीनामिदं नानात्वं विशेष उप तासां प्रव्रजन्तीनामात्मनो योग्याश्चत्वारो निर्योगा भवन्ति सेवास्तु श्राचार्यादीनामर्थाय चत्वारो वा पञ्च वा । तत्र यहा - त्वारस्तदा एकमाचार्यस्य द्वितीयं प्रवर्तिन्यास्तृतीयं गणावच्छेदिन्याः चतुर्थ संघाटकसाध्याः प्रयच्छति । यदा पञ्च तदा तथैपञ्चमः पुनरुपाध्यायस्य योग्य इति चूर्णिकानि प्रायः । वृहद्भाष्यकारः पुनराह । चत्तारि अप्पणो से, चहरे पंच बहव से सगा हुंति । श्रयरिभवज्जार, पवतिणी मिले प संघाने ॥ पंच अभियोगा अभिओगावाहुति चत्तारिति" । Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०० ) अभिधानराजेन्द्रः | तवहि (१३) रात्री विकाने बोपधिग्रहणम् । (सूत्रम्) नो कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा त्रियाले वा वत्यं वा पाई वा कंवलं वा पाय वा परिग्गहिए अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह । जह सेज्जाणाहारो, बत्थादेव सापयपतंगादि । दियहणं, कुजा उ निसि अतो सुतं ॥ बधायां वसति रात्री महामे दिकमपि कल्पयिष्यते इत्यतिप्रसङ्गादिपादस्य यस्य निशि रात्रौ ग्रहणं मा कुर्यादित्यत इदं सूत्रमारज्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा रा श्री वा विकाले वा वस्त्रं या प्रति वा कम्वा पाद या प्रतिमनुमिति सूत्राकरमनिका । अथ भाष्यविस्तरः रचो वत्थग्गणे, चउरो मासा हर्षति उपाया । श्राणो य दोसा, यावज्जण संकष्णा जाव || रात्री वस्त्रग्रहणे मासा उद्धाताः प्रायश्चित्तम् आज्ञादयश्च दोषाः । तथा रात्रौ भक्तग्रहणेऽपि तथैव वक्तव्याः । विश्यं विविवित्ता, परिसत्थाई समित्त रयणाए । ते व परायि सत्या, क्षिहिं तु नए व एको वा ॥ द्वितीयमच्यते (विद्विति) ध्वनि विधिका मुषिताः सन्तः प्रतिसार्यादिकं समेत्य प्राप्य रजन्यामपि दि ग्रु इन्ति तत्रापि कथमित्याह तावुभावपि साथै प्रागेव प्रातरेवालिष्यतःएको वा अन्यतरः साधये निष्यतीति मत्या रात्रापि प्रणं कुर्वन्ति भएप अध्वा गन्तुमेव न कल्प्यते यत्रैते दोषा उत्पद्यन्ते तथा चाह । उदरेसु भिक्खु ाण, पव्वज्जां तु दप्पेण । लगा पुणमुच्यपदे, नं वा आयज्जई जस्य || व्याख्याताथी द्वितीयपद्माद नाहर्दम खट्टा, चरिचडा एमाइन् । बगरणपुष्वपडिले हिपण सत्येण तवं ॥ धमपि गतार्था । सत्यं विवत्थमाणे, असंजए संजए य तदुजए । मग्गंते जयगाणं, छिन्नं पि हु कप्पई घेत्तुं ॥ ज्ञानाद्यर्थमध्वानं प्रतिपन्नानामपान्तराले चतुर्विधाः स्तेना भवेके असंयत प्रान्ताः १ अन्ये संयतप्रान्ताः २ अपरे तदुभयप्रान्ताः ३ श्रन्ये तज्जयनकाः ४ तत्रासंयतप्रान्तैः स्तेनैः साथै विद्यमाने मनुष्यगणे व एवं साधनां मार्गय न्ति यतनया दानं कर्त्तव्यं प्रत्यर्थमाणं च विनमपि तदेव वस्त्रं तेनान्यदिति संग्रहगाथासमासार्थः । अथेनामेव विधुरा । संजयजा गिजिदगा प, पंतोज ये उजयजदा य देणा होति चटका, विचिणा सुजणं ॥ एके स्तेनाः संयतभद्रकाः परं गृहस्थप्रान्ताः एके गृहस्थभरूकाः परं संयतप्रान्ताः श्रन्ये उभयेषामपि प्रान्ताः श्रपरे उभ येषामपि भद्रकाः एवं स्तेनाश्चतुर्विधा भवन्ति । अत्र च द्वितीयतृतीययोर्यतीनां विवेचनं पप्रेभ्यः पृथक्करण | वहि भवति । अथ यत्र संयता न विविक्तास्तत्र विधिमाह । जड़ देसि जायाजा पाय न वि देति लहुगगुरुगा व । सागरदा गम, गहणं तस्सेव वत्थस्स | साधवो दद्यथाचिताः सन्तो पत्राणि गृहिणां प्रयन्ति तदा चतुर्लघु अथ वाचिताः सन्तो न प्रयच्छन्ति तदा चत्वा रो 'गुरवः । अतः सागारिकं प्रातिहारिकं भणित्वा प्रयच्छन्ति यथा भवनि प्रत्यर्पणीयमिदमस्माकं यद्य वर्तमाना वा गता अन्यद्वस्त्रं लभध्वं गमनं नाम येषां गृहस्थानां तद्वत्र प्रदर्श ते पद्यनेन पथा गच्छन्ति ततः साधुभिरपि तेनैव ग स्वयं पद्यन्येन प्रजन्ति तदा तेननिता भवन्ति सदा स्यापि तस्यैव यत्रस्य ग्रहणं कर्त्तव्यं नान्यस्य । ततः पुनर्वस्त्रं कीदृशं दातव्यमित्याह । परिहार, चोल परिमाणं दाणं, उड्डाहपत्र्त्रोसपरिहरणा । महती जीर्णकम्बलिका दण्डपरिहार उच्यते चोलपट्ट पडलकपात्रबन्धनि पानि शेषास परिष मुहद्वेषपरिहरणार्थ दानं कर्त्तव्यम । उट्टाहो नाम हो अमीषामनुकम्पा ये विविकानामप्यस्माकंन छन्ति प्रदेषनामामीति शायां तददोषास्त परिहरणार्थ दातव्यम् ( छिन्नंपित्ति ) योऽयमपि शब्दस्तत्सूचितमेवमपरमाह । धोवस्स व रत्तस्स व, गहणं गिरहम्मि चनल हुगा । घोड, परिने भेजा ॥ यदि तैर्गृहस्थैस्तद्वीवर वा तथापि तस्यैव ग्रह कर्त्तव्यम अथ साधुयायोग्यं न कृतमिति मत्यान न्यस्य या ग्रहणं कुन्ति तदानुकः तदेव य गृहीत्याचारादिना पाकिया साघुप्रयोग्यं कृत्वा परिभुञ्जते । अथातीयजीत उन्मेषु परिष्ठापयेयुरित्यर्थः । गतः प्रथमो भङ्गः । अथ गृहस्थभद्रकाः संयतप्रान्ता इति द्वितीयो भङ्गो भाव्यते तत्र भूतु संयत्यो चिन संयता- १ संपताविविक्ता न संयत्यः २ संयत्यो विविक्ताः संयता श्रपि विविक्ताः ३ न संयत्यो नापि संयता विविक्ताः ४ श्रत्र विधिमसुराह सहाणे अणुकंपा, संजयपरिहारिए निसिको य सतयेवा, जया परिसमाई || यत्र संयता गृहिणश्च विविक्ता न संयत्यस्तत्र संयतीनां सुस्थानं साधवः तत्रानुकम्पां कर्त्तव्याः । साधूनां वस्त्रं दातव्यमित्यर्थः । साधुभिरपि तत्प्रातिहारिकं ग्राह्यम् । यत्र संयत्यो गृहस्थाश्च मुषिता न संयतास्तत्र साधूनां संयत्यः स्वस्थानं तासां दानेनानुकम्पां कर्त्तव्याः तच निसृष्टं निजं दातयं न प्रातिहारिकं ग्राह्यम् ( असईत्ति ) अथात्मनोऽप्यधिक मुपकरणं नास्ति ततः प्रातिहारिकमपि दातव्यं तदुभयं साधु साध्यायः तस्य चिचितस्य यत्राभावे प्रतिसार्थादिषु यतना पराविषयकव्येति संग्रहगाथासमासार्थः । अथैनामेव विवृशांति । वित्त जत्य मुणी, समणी य गिद्दा जत्थ प्रदुद्दा | सडकंप ताई, समत्तियरा स वि तदेव ॥ Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उबहि यत्र मुनयो न विविक्ताः श्रमण्यश्च गृहिणश्च यत्र ( उच्छूढत्ति ) मुषिताः तत्र स्वस्थाने संयतीवर्गे अनुकम्पा कर्त्तव्या । ताश्च संयत्यो द्विविधाः संविना असंविग्नाश्च यदि वस्त्राणि सन्ति ततः सर्वासामपि दातव्यानि अथ न सन्ति तावन्ति वस्त्राणि ततः संविसंदेयानि ता अपि द्विविधाः सांजोगिन्य सांभोगिन्यः यदि प्रयन्ते तद्वयोरपि वयोस्तथैव तानि न पूर्यन्ते ततः स्वस्थाने दातव्यानि समनोकानामित्यर्थः अपिशब्दात या धृतिदुर्यास्ताः संयताः - विग्ना वा स्थविरास्तरुण्यो वा जवन्तु नियमात्तासां दातव्यम् । यत्र साधवो विविक्तास्तत्रेयं यतना ॥ ( ११०१ ) अभिधानराजेन्द्रः । लिंग क्खिसीए, गिएहंति परिहारियमेएस | मनियर गिहिंसुं, जं लब्धं तंनिजं देति ॥ सदर रजोदरणमुख सुतये निका तु पात्रकयन्यपकादि ताणाचे तु प्रावरणादि एतत्सर्वम पिप्रातिहारिकमेतेषु गृह्णन्ति । तद्यथा श्रमनोज्ञा सांभोगका इतरे पार्थस्थादयो वृदिणः प्रतीताः । अचेषु न प्राप्यते ततः संपतीनामपि हस्तातिहारिक प्राततादिकं यदा पति तदा तदारिकं ददति प्रत्यर्पय न्ति द्वितीय व्यायामाने प्रथमच क्षेशतः स्पृष्टा अवगन्तव्याः । गतो द्वितीयनङ्गः । अथ तृतीयं जङ्ग व्याख्यानयति ॥ नितदुभये, सपक्वपरपक्वतदुभयं होइ । अहवा वि समग्रसमणी, समन्नियरेसु एमेव ॥ तदुभये वा उच्छूढे मृषिते सत्येवमेव यतना ज्ञातव्या । अथ तदुभयमिति किमुच्यते इत्याह । स्वपक्षाः संयताः परपक्का गृहस्थाः । अथवा तदुजयं नाम श्रमणाः श्रमण्यश्च । यद्वा तपुभयं समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च । यदि वा संविग्ना असंविग्नाश्चेति तदुभयम् तत्र मुषिते सति विधिमाह ॥ अमर गिहि-जई असर पडित्यपक्षी | तिesडाए गहणं, पडिहारिय एतरे चैव || अमोड़ा अजोगिया इसरे पावस्थादयो गृहिणः संयत्य प्रतीताः एतेषु चिकिया प्रतिसाया या पश्चकपरिवारया मार्गनियम संवतीनां नास्ति पक्षतु पराणिदेव लभ्यते तदेव गृहीत्वा गावाच्छादनं तामिः कर्त्तव्यं तच व प्रयाणां काशवाणानामय प्रातिहारिकं वा इतरफा निसृष्टं ग्राह्यम् । एवं तु दिया गहण, अढवा रति मिलेज्ज पडिसत्यो । गीएस रत्तिगहणं, मीसेसु इमा तहिं जयरणा ॥ एवं दिवा ग्रहणमभिहितम् । अथवा रात्रौ प्रतिसाथ मिलेत् तत्र यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततो रात्रावेव गृह्णन्ति अगीतार्थमिश्रास्ततस्तेषु मिश्रेष्वियं यतना । तामेवाह । वत्येव पाएण व, मिंत व अत्थमिए । आमे उदितेय, गहणं गीपस्थसंविग्ने || प्रतिखार्थे कश्विद्दानादिरनु वा अस्तमिते वासू स्त्रेण वा पात्रेण वा निमन्त्रयेत् तत्र यदि साथ रात्रावेव चलितुकामस्तर गीतार्थी गुरुनालोचयन्ति दिव कृत्वा समायाताः एवं गीतार्थाः संविग्ना गृह्णन्ति । अथ प्रतिसार्थे सादिकं दृश्यते ततः किमित्याद तेन उपदि खमे पत्ते तह द-भचीवर तह य हत्थपिहणं तु । अकाण विविनाश, आगार्ड सेसणागाई || यानि संपतीनां परिचामाय तस्यामि सभाये शा कादिपत्राणि तदप्राशी दर्भचीरं धर्म ग्रन्थयित्वा समर्पय तिसर्वथा परिधानादेशस्य विधानं कर्णव्यम् । एवमध्वनि विविक्तानामागाडं कारणं मन्तव्यं शेषं तु सर्वमप्युपकरण अनाम असंजय निम्या सुट्ट-गाइ पेसंति चसु बग्गेसु । अप्पा निवगारं साहुं च विचारमाइमयं ॥ प्रतिसाद याममा 1 निर्माता उद्यानं प्राप्ताः सन्तः क्षुल्लिकादिविवक्तिं ग्रामं नगरं वा चत्वारः संगत संयतीत्यत्राविकालका ये वर्णास्तेषु तेषां समीप प्रेषयन्ति । यद्वा सांनोगिकाः संयता इत्येको वर्गः अम्यसांजोगिफा ततः सांजोगका संयस्य इतिवृतीयः अन्यसांनोमिक इति चतुर्थः एतेषां या समीचे प्रेषयति । अथ नास्ति कृलकः क्षुल्लिका वा ततो यस्ततो प्रामान्नगराद्वा श्रगारो गृहस्वः समायातः यो वा सामूर्विरभूम्याद त्यागतस्तम् अप्यादिति संदिशन्ति यथा खासा सांगि यतादीनां वा भवता कथयितव्यं साधवः साध्यश्व बहिरप्रोद्याने स्थिताः सन्ति ते बाप्यनिधिः अतस्तेषां योग्याचीवराणि प्रेषणीयानि । अन चायं विधिः संयतः संयतानां वस्त्राणि दातव्यानि । संयतीनां तु संयतीजिः । अथ तत्र संयताः संयत्यो वा न संन्ति तदा श्रावकाः श्राविका वा प्रयच्छन्ति । यत्र तु संयत्यः संयना वा संयतीनां प्रयच्छन्ति तत्र विधिमाह । आलोगितरी उषितु पविसंति । सुट्टी घेरा वि य घेत्तुमइगया, समणुन्न जढे जयंते व ॥ क्षुल्लिका उद्यानं गत्वा स्थविरसाधूनां वस्त्राण्यर्पयन्ति । अथ न सन्ति कृलिकाः तत इतरा मध्यमास्तरुण्यो वा गत्वा स्थविराणामालोके स्थापयित्वा भूयोऽपि ग्रामं प्रविशन्ति । यत्र संयतेन संतोनात शुकाःस्थविरसायनामयतिका नावे शेषा अपि साधवः स्थविराया आलो के स्थापयन्ति तेऽपि व संयताः संयतीदत्तानि वस्त्राणि गृहीत्वा प्रावृत्य नगरमनिर्ग ताः प्रविष्टाः सन्त आत्मयोग्यमुपकरणमुत्पाद्य संयता सत्कवप्रित्यर्पयन्ति एवं मनोद्वेषु विधिरक समज जयं ते वत्ति) यत्र ते मनोज्ञाः सांयोगिका न भवन्ति तत्रैयं वद्यमा णनीत्या यतन्ते ॥ ऋण निग्याई, संविग्गा समिविह असाणी | संजई एसमा असंचिग्गा दोणि वा बग्गा ॥ " अध्यतो निर्गता यत्र ग्रामाद। प्रातस्तमे भवेयुः संविविहा रिणः अनेनेदान्यसंभोगान्ते संविधा संविग्ननाविता संविग्ननाविताश्च । संविग्नोऽपि द्विधा आजियहिकमिध्यादि (संज प्ति) मनोविज्ञानद्वौ वर्गों तथा साधुवर्गः साध्वीवर्गश्च । श्रत्र विधिरुच्यते (यसणमा ) संप्रिभृतिषु मामुवन्तः पञ्चकप रामेषु यतन्तइति । अथैतदेव सविस्तरं व्याख्यान्यति ॥ संविग्गतरं जाविय, सन्नीमिच्छा उ गाढणागाढे । असंगमिगाहरणं पारंजे विसं हीला ॥ Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०२ ) अभिधानराजेन् उबहि निद्विविधाः संविप्रभावित इतरभाषिताथ मिध्यादयोऽ पि द्विविधाः आगाढा अनागादाश्च । तत्र प्रथमं संविग्ननाघितेषु चिनगामिष्याकिं वस्त्रमन्येपणीयम् । संविग्नभावितेषु श्रगाढमिथ्यादृष्षुि च न गृह्णन्ति कुत इत्याह । प्रसंविप्रभाविता] मृगाहरणं सुन्धरान्तं चेतसि प्रणिधानसाधूनामयं प्रयच्छन्ति ये त्वाभिग्रहिका मिथ्यादृयस्ते साधुद तद प्रयुजीन वा कुः अहो मतादाना अम वराका इत्यं विनश्यन्ति इत्यादि । अथे नागादमिथ्यादृष्टिषु शुकं न प्राप्यते ततः किं विधेयमित्याह ॥ असंदिग्गजाविष अगाडे जयेति पणवादी । उसो संघाग, पुण्यगहियं च वसं ॥ असंविग्ननावितेषु प्रमादिदोषशुरू यद्वस्त्रं ग्रहीतव्यं तदभावे श्रगाढ मिथ्यादृष्टिष्वपि यद्यात्मप्रवचनोपघातो न स्यात् अथ नेष्वपि न प्राप्यते ततः संभावितादिपचका रिहाण्या वाचन यन्तावमा प्राप्ता भवन्ति ततोऽ यसोभोगिर्येषु कुरुते तेषु दतोपदेशेषु याचितयं तथाऽव्याप्त तेषां संचारकेन एवमप्यलाभे तेषामेव यत् पूर्व गृहीतं यत्रादि प्रहीतव्यम् । अमुमेवार्थ विधिशेषज्ञापनाय पुनरप्याह ॥ उसो संघाडग, तेसिं अट्टाए पुत्रगहियं तु । अभिनव पुराण उत्तरमृझे सर्व वापि ॥ अत्यसंभोगकोपदेशेन प्रथमतः पर्यटस्ति ततसादीयसंघाटन तथाऽप्राप्ता तेषामययभगिकाः पर्यदन्ति तथा अपि यदि न लभ्यते ततस्तेषामेव गृहीतवतीत तच्चाभिनवं वा स्यात् पुराणं वा । पूर्वमभिनवं पश्चात्पुराणमपि गृह्यते तदपि यद्यन्तरगुणमूलगुणशुद्धं तत उपादेयं नान्यथा अथापिन प्राप्यते ततो यः कृतकरणो भवति तं तच्च एवमेव वक्तव्यम् एतच्च यथाऽवसरमुत्तरत्र भावयिष्यते तदेवमन्य सांभोगिकानामपि पूर्व गृहीतं यदा न प्राप्यते तदा मासलघुकादारभ्य सास-यातुकं प्राप्ताः ततः किं कर्तव्यमित्याह । उवएसो संघारुग, पुव्व गहियं न निययमाईणं । अभिनव पुराणसुद्ध - पुत्रमनुत्तं पि परितुत्तं । चप्राप्तमित्यवासिस्थादीनामुपदेशेन इयन्ति तदभावे तेषामेव संघटन तथाऽप्यलाभे यां पूर्वगृहीतं मूलोत्तरगुणयुद्धम अभिनयमपारमुक्तं तत्प्रथमतो प्रहीतव्यं ततः परिभुक्रमपि पुराणमपि मूलोत्तर शुद्धमपरिभुक्तं ततः परिभुक्तमपि ग्राह्यम । इह निशीथचूभिप्रायेणास्यैव कल्पस्य विशेषचू सर्व भिप्रायेण वाऽन्यसांभोगकालावति पञ्चकपरिहाणिः किं तु ततः प कहान्यायतित्वा यदा मासलघुप्राप्तास्तदा पार्थस्थादीना मुपदेशानिमान् गृहन्तीति योयोरभिप्रायः परमे यूि कृता भिन्नमासप्राप्तान्यसांभोगिकानां चतुर्लघु प्राप्तास्तत्पार्श्वस्थादीनामुपदेशादिना यह यतन्ते इति प्रतिपादितम रास्तदुरो येनास्माभिरपि तथैव व्याख्यातमित्यवगन्तव्यम् । यीमध्ये विशेषज्ञापनार्थ भूयाह । उनले सुके नये पुराणे चकयवं । परिकम्मा परिभोगे, न होंति दोसा अभिनवम्मि || मूलगुणशुद्धमयुग्गुणशुद्धम् १ न मूलगुणशुद्ध मुन्तरगु वाह राजमपि मूलगुणशुद्धं नोत्तरगुणशुद्धम् ३ मूलगुणशु नोत्तरगुणशुद्धं ४ एतेषु चतुर्षु भङ्गेषु प्रत्येकं नवपुराणपद वि. षयं यद्भङ्गचतुष्कं तस्य भजना सा च यथाक्रममेवं कर्त्तव्या यत्तावन्मूलोत्तरगुण विशुद्धं तत्प्रथमतो नवमपरिभुकं ग्रहीतव्यं तदभावे नवं परिभुक्तं तदभावे पुराणं परिभुक्तमेवं द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वपि भङ्गेषु चत्वारश्वत्वारो विकल्पाः यथाक्रमं चैते श्रासेवितव्याः कुत इत्याह । परिकर्म्मणा दोषा श्रविधिसीवनादयः परिदोषा मलिनीभूतगन्धिनात् दयोsभिनवे परिभुक्ते च वस्त्रे न भवन्ति । श्रथ पार्श्वस्थाविग्यपि न प्राप्यते ततोऽमनोशसंपतीनामप्युपदेशेन रन्ति वा अधीयताः पर्यन्ति पूर्व या तासां ग्रहीतव्यं सद्भावे असंसिंपसीनामप्युपदेशादिना गृहन्ति 1 प्रथमतः किमित्याह । असई सिंगकरणं, पचवण्डा सर्व च गहणडा | आगाढेकाराम, जदेव ईसाइयो ग्रहणं ।। पवमप्यसत्यज्यमाने शायादयेयेव तदीयोपासकाना यतिभ्यो दानाय प्रापनार्थ स्वयं या ग्रहणं वस्योत्पाद कर्त्तव्यं किंबहुना आगा कारण यथेय ईसलिलादेरननुज्ञापितस्यापि ग्रहणं तथैव वस्यापि तथाऽप्याने सु मागविश्वा अन्यैर्याययति तद्भावे स्वयमेवापसागारिके पर्याय अथ सूत्रं न लभ्यते । ततः को विधिरित्याह । सेडरुए पिंजियए, पेलुग्गहणे य लहुगदप्पेणं । भक्काले हि विसिहा, करेण अकर्मण ते चैव ।। सेकुगो नाम कर्त्यासः स एव लोडितः सन् वीजरहितो रुतं तदेव रुतं पिञ्जनिकया ताकितं पिज्जितं तदेव पूणिकया वहितं पेरिति भएयते । एतेषां यदि दर्पण ग्रहणं करोति तदा च त्वारो लघुकाः तपःकालाभ्यां विशिष्टास्तत्र से रुके वजयगुरुका ते तपगुरुः पिजितेका गुरुकाः पेतुकेा का कारणे पुनः प्रथमपेनुकं पश्चात् पिजितं ततो रुतं ततः सेरकमपिं गृह्णाति । अथाक्रमेण गृह्णाति ततस्त एव चत्वारो लघुकाः सेरुसम योग एक वा, सईए नालबद्धसहिओ वा । मिच्छार अक्गरणं, उभओ पपरपरस पाउ | कृतयोगी नाम यो गृहवासे कर्त्तनं कृतवान् स गच्त्रस्य वनाकको वा नातीसहितो या बिजनेमागे कर्त्तनं वयनं च कृत्वा नजयपक्कस्य संयत संयतीलक्षणस्य प्रायोग्यमुपकरणं परते ततः किमित्याह गिचे, जहलाभं सुलभ वहिने । पच्तिं बति अाने से पति ॥ तार्थास्ततस्तेषु सुनो गताः सन्ती यथालाभ यजन्ते तत्सदृशमपरं विवेचयन्ति परिय त्यर्थः । माययनिमित्तं च यथाधिपति अथापरं न लभ्यते ततस्तदेव स्वयं व्यूतं वस्त्रं धारयन्ति । अथ स्वर्गेऽपि गतास्ततोऽपरस्पसा प्राकृतं परित्यजन्ति यान या न कोऽपि नियमः । अथ “गणनिग्गयाई " इत्यत्र योऽयमादस्तस्य फलमुपदर्शयन्नाह । सिमाम् पिकामि मंत्र पुण्य व सस्थे समजए वाषि ।। महिषपरिजुने Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११०३ ) अनिधानराजडः । उबहि फेमध्यनिधिकानामेष विधिः किन्तु ग्रामादी सिमे पथि व योनि ध्यापितमा पिया पानी वा व्यूढपरिजीर्णो वा पुराणतया दुर्बभूतो विवक्षितं कार्य कर्तुमसमर्थः तत्राप्येवमेवानन्तरोक्त विधिमन्तव्यः । अत्र वापरो विशेष उपदइयं यत्र ग्रामे साधवः स्थिताः सन्ति तत्र सार्थः कश्चित्प्राप्तः वच आदित्योदयापूर्वमेवोत्थितः उच्चमाधो वर्तते यत्र च गतस्य तस्य रविरुदेष्यति तत्र गच्छता अपान्तराने च स्तेनादियं साधयो दग्धा साथै म रात्रौ प्रा प्रभा अनुए सूर्य कामाः अतो राजा बेव यथोक्तनीत्या वस्त्रादि गृह्णीयुः । (सूत्रम्) अत्यएगा पहरिया हडिया ऐसा यि परि भुचा वा घट्टा वा मट्टा वा संपमिया वा ॥ अस्य संबन्धमा | सुरेश चैव जोगो, हरिवाहक कप्प निमि पितुं । हरिका व हरिया, बूढा हरियस वा हह । सूत्रेणैव सूत्रस्य योगः संबन्धोऽत्रास्ति अनन्तरसूत्रे रात्रौ वस्त्रादिकं ग्रहीतुं कल्पते इत्युक्तम् । अत्र तु या व्याहृता हृतिका सा निशि रात्री ग्रहीतुं कल्पते इति प्रतिपाद्यते नायातस्यास्य व्याख्या । न कल्पते रात्रौ वस्त्रं ग्रहीतुमिति प्रनिषेधो ऽन्यत्रैकस्वा तालिकाया हरिताइतिकाया था तप पहुचातानी वादे हताहतिका स्त्रार्थे कप्रत्ययः । निवर्तन्ते स्वार्थिकप्रत्ययप्रकृति लिङ्गवचनानीति वचनादत्र रूढितः स्त्रीहिङ्गनिर्देशः । एवं हरितेषु वनस्प तिसु श्राहृतं हरिताहृतं वस्त्रं तदेव हरिताहृतिका साऽपि च परिनुका परिचामादायापारिता चीता अकायेन प्रज्ञारिका विचित्रवणकैरुपराजिता पृश घट्टका दिना घटित कुमा कृता संग्रभूमिता भूषच्येण स ततः प्रकरण पिता पा शब्दः सर्वोऽपि विकल्पार्थः । एवंविधाऽपिसा स्वीकर्त्तव्या पुनरसाधुप्रायोग्य कृतेति कृत्वा परिहर्तव्येति सूत्र र्थः । अथ भाष्यम् । "हरिण य" इत्यादि पश्चार्द्ध स्तेनैः पूर्व हृता पश्चात्रमाद्भुतमानीतं तदेव हताहतिकेत्युच्यते । यद्वा हृतेषु प्रक्षिप्ता या सा हरिताहृतिका सा पुनः कथं भवतीत्याह । अामा, व विवित्ताणं तु होज्ज आहडिया | विहिम्मति से विम्पच्छे सह गुम् ॥ अनियमितिका संयति त ( अवि ) अनध्वनि मासकल्पेन विहरन्तो केमं निरुपद्रवमादौन सति सत्सु विद्यमानेषु ज्ञानादिगुणेषु विहमध्यानं न ग च्छेत् न प्रविशेत् । तथा चाह । ककरे मिक्से अवसतु दप्पेण । अनुगा पुणे सुपर जेवाजस्य ॥ नासा परिना एवमाह तक । उबगरणपुत्रपार्कले दिए सत्येश गंतन्त्रं ॥ गाथाद्वयमपि प्राग व्याख्यातम् । तत्राध्वनि प्रविशतां विधिमाह प्राण पत्रिसमाला, गुरुं पवादिति ते गता पुरतो । अतस्य पान बाउम्मानावे गुरुगा | अध्यानं प्रविशन्तः प्रथममेव गुरुमाचायै प्रमादयन्ति गुरु उवहि वादमुत्थापयन्तीत्यर्थः । तथा ते अस्माकमाचार्याः पुरतः पूर्वमेवान्येन चार्थेन सह गताः श्रत एव वयं त्वरामहे कथं नाम तेषां समीपं क्षिप्रमेव प्राप्नुयामः । अथ तत्राध्वनि प्रविशन्त एवं प्रवादयन्ति ततब्यतुर्मासा गुरुकाः प्रायश्चितम् । गुरुवारक्खणहेनुं, तम्हा थेरो उ गणधरो हो । विरइय गणाहिवई, अाणे होड़ भिक्खुस्स । गणधराकारधारकः क्रियत इत्यर्थः । यस्तु गणाधिपतिः सोऽध्वनि मार्गे स्वयं भिक्षुभावेन सामान्यसाधुषेण विरहति कुत इति चेदुच्यते कदाचिदभ्यनि साधकः स्तेनि विक्ताः क्रियेरन् ततस्ते स्तेन काश्चिन्तयेयुः । हयनायगा न काहिति उत्तरं राजले गणे बाबि। अहं विस्स व नायगमित्ताइएहिं वा ॥ हतो नायक श्राचायों येषां ते हतनायकास्तथाभूताः सन्तः ते राजकुले वागणे या गत्वा न किमिप्युत्तरमुपकरणापहार - यात्मकं करिष्यन्ति प्रस्थामिकतया निराशीभूत तथा स्माकं योऽधिपतिस्तस्य वा तदीया वा ये ज्ञातकाः स्वजना यानि मित्राणि तत्प्रति नाम तेषामन्तिके गतास्तैः पृष्टाः सन्तो न किमप्युत्तरं प्रदास्यन्ति आचार्यस्यैय तदानीमभावेनासत्यादिति भावः तस्मादाचार्यमेवोपद्वायाम इति विचिन्त्य तथेच कुर्युः ततो यथोचीत्या गुरवः प्रयाचितायाः ततः स्तेनाः चतुर्विधाः । संजयपता व तहा, गिहिमरा चेव साहुभदा य । माता संजयनंदेसु आइडिया || , एके संयतप्रान्ताः गृहस्थभडकाः । श्रन्ये साधूनां भद्रकाः गृहस्थप्रान्ताः । श्रपरे तदुभयभद्रकाः श्रपरे तदुभयप्रान्ताः । श्रत्र ये संयमकास्तेषु हताहतिका भवेत् हत्याऽपि तोम वेयुरित्यर्थः । सत्ये विविधमाणा अपि भव तो ना । शनिवार व गहियं च पैसे | साथै विद्यमाने मुध्यमाने साधवोऽपि विवि तत्र योऽधिपतिः चीरसेनाधिपतिः स साधूनां भद्रको वा स्वात् प्रान्तो वा यदि कस्तदा साधून विविध्यमानान निवारण करोति तेषां पापहरतेति चासो - संनिहितस्तेनैर्गृहीतं तदुपकरणं भूयोऽपि प्रेषयति । श्रमून्येव गाथावयवान्याचष्टे । निद सिव्वीहिंव, नान य सेउ वा लजिताएं । ते चैव तकरे - ओ अंतिए पेसे || चौरसेनाधिपतिः साधूनामुपधिं नीतमुपढौ कितं दृष्ट्वा विनदशाकन्येन साधुसंबन्धिनीभिः सीवनीभिः सीवितत्वेन वा साधनां सत्कमेतमिति ज्ञात्वा तान् तस्करानुलभने याः पापा विनष्टाः सूर्यदेवं मम वस्त्रायतानीत्यादि वमुपाय भूयोऽपि तस्योपधेः स्वामामर्पणार्थ तानेव तस्करा सानाम लिके प्रेषयति । वी सत्यमपिते जण दहितु के वति । बिहिया पासवान, उवस्म दिडम्पि जा जपा || माहिया अनाकान्तकारस्ते नि एयरसेनापतिमा प्रत्यर्पणार्थ प्रेषिताः सन्तो Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०५) अभिधानराजेन्द्रः । उवहि विश्वस्ताः निर्भयादिव स एव भगीयवखं संयतानामर्पयन्ति अनाक्रान्तिकास्तु भयेन मा केनाप्यारकिकादिना ग्रहीष्यामह इति परिजाय रात्रावानीयोपाश्रयाद्वहिः प्रश्रवणन् माबुपाश्रयमये व प्रकिय व्रजन्ति पलायन्ते तस्मिन् वस्त्रे दृष्टे सति या यमाणा यतना सा करणीया । तामेवाह || trailer विगीय - पत्रयट्ठा करिति वसिं तु । जर संजइ वि तहियं दिगिंचिया तासिवि तहेव || यदि सर्वेऽपि गीतायास्ततस्तदुपकरणं मीकरणेन सह मी यथास्वरुचि परितुजते अथ ते केचिद्र गीतार्थी केचिचागतार्था अतिप्रत्ययार्थ तातिकोपकरणं विश्वक पृथक स्थापयन्ति ते गीतार्थी एवं चिन्तयेयुः एप प्रय उपास्तावपतेन च समिति अतस्ते पाकेोपकरणं विष्वक पृथक स्थापयन्ति अथ संयत्योऽपि विविक्तास्ततस्तासामत्युपकरणं तथैव पृथकू कुर्वन्ति । 19 जो वि य तेसिं उवही, महागओप्पो य सपरिकम्मो य । पिय करिंत बी मा अविगीयाइभंडे वा ॥ योऽपि तेषां साधूनां धातोरिको सपरिकर्मा चोपचितमप्यविष्यक परस्परं कुर्वन्तोऽविगीतार्थाः परस्परं भएकयेयुः कलहं कुर्युः यथा किमिति त्वदीयैर्मदीयोपकृतोपाधिः सपरिकर्मणा सह मीति यादवं तावद्भके सेनापती वि चिरनिहितः। अथ प्रान्तापयं विधिमार । पंतोहिम को आयरिए इच्छवि कपकरणे करण वा आगाडे किसी सर्प भगइ ॥ प्रान्तभीरसेनापत्तिरुपचापकरणे सुधः सन् आचार्या या पादयितुमिच्छति ततो यस्तत्र कृतकरणो धर्मकथालब्धिमान धनुर्वेदान्यासो वा स तत्र कारणं करोति धर्मादिना जलप्रपातं शमयतीत्यर्थः अथवा भागादे कार्ययः । स यमात्मनात्मानमाचार्य प्रणति । एतामेव गाथां नावयति । को शुभं अयरिओ एवं परिपृथ्वियम्मि अकाणे | को कह आयरियं, लग्गइ गुरुए व चनमासे ॥ प्रान्तः सेनापति पृच्छति को युष्माकं मध्ये आचार्य मध्यनि परि सति पदाचा निर्धाि प्राप्नोति चतुरो मासानू गुरुकानिति । किं तर्हि वक्तव्यमित्याह सत्येश्रेा गया, एहिंति यतो गुरु अजं । सत्य एवं सार्थ वसति ॥ येऽस्माकं गुरवस्ते अन्येन सार्धेन सह प्रागेव गता मार्गतो वा पृष्ठतस्य यदि वा न प्रतीति ततः खार्थिकान - यातास्माकमाचार्यः पलायितो या वर्ष सोप्रतमनाथा वर्तमड़े एवं कथयन्ति ॥ जो वा दुब्बलदेहो, जुंगियदेहो असचवको वा । गुरु मिल पनि अहं न य मि गन्नो गुरुगोहि ॥ अथवा यो दुर्बलदेहो विकलाङ्गः यो वा असत्यवाक्योऽसमञ्जसाप्रति सर्वे परंन नेवास्य पूर्ण गुरुगुणैः शररपदादिभि वाजिकुकाणा व जातो । वहि मा मे वह सीसे, जं इसे कुह मक ॥ धिरोगेणादमीचा खपादविकलः कुणि पाणिविकः काणदिशो या जातोऽस्मि मामीयान् शिष्यान् वयन्मारणादिकं कर्तुमिष्यं सम्म मैव कुरुध्वं यतः ॥ इरा विमरिम संति सिस्साए देह मा हगढ़ । मम मारगतूल मिणं, जं किरइ मुंह सुते मे ।। श्रथाऽपि तावद ममिच्छामि तती म। यशिष्याणां शान्ति प्रयतमा पुनर्वथारुचि दन्त विनाशयत यतो यदिदं मम मारणं तत्तस्यैव मारकत्वं नयति तो मुत मदीयान् शिष्यान् सुतान् । अपि च ॥ य, एवं पत्र जाह, रिसिवज्जा जह न सुंदरा होइ । इह य परत्थ य लोप, तो मिया एवं ।। नाभा पिसार्य जाना था यथा ऋषिहत्या विधीय माना इह च परत्र च लोके सुन्दरा न भवति एवमनुलोभिताः प्रज्ञापिताः सन्तस्ते तस्कराः साधून मुञ्चन्ति । अथैवमपि न मुञ्चेरन् ततः किं कर्तव्यमित्याह ॥ धम्मक चूमेह व मंतनिमिनेा वा वि विजाए । नित्यारे वत्रेण व अप्पानं चैव गच ॥ यो धर्मकामान्धर्मकथया तं सेनापतिमुपशमयति चूर्णेविद्यया या निमित्तेन कापावेतो वा धनुर्वेदादी परिश्रमः स निजवप्रेन सेनापति निर्जित्यात्मानं निस्तारयति । अथ एषामेकमपि न विद्यते ततः ॥ योसलिया व तेणं पंथफिडिए व हिंमाणे वा । गंग सेण पक्षि, धम्महाईहिं पद्मवणे || तेन सेनापतिनो पश्चिमपहृत्व साधवो विलर्जिता मुक्ता इत्यर्थः । मुख्य पनि गरेका ततः स्तेनप त्या गवेषयितव्य उपधिः गच्छता वाऽपान्तराले यदि कोऽपि प्रश्नये तू कुतो भक्त इहागता ततो वक्तव्यमेते मार्गात्परिभ्रष्टा हि एकमाना का विहारक्रमेण विहरन्त एव वयमिह संप्राप्ताः ततः स्तेन पन्वा धर्मकथादिभिः सेनापतेः प्रज्ञापना कर्त्तव्या । दमेव भवति ॥ जद्दमभवं अहिवं, नाउं भदे वसति तं पनि । फिमिया मुलिय पंथे भांत पुडा कहा प॥ि स्तेनपल्लीं गच्छद्भिः प्रथमत एवैतद् ज्ञातव्यं किमत्र सेनापतिकोsनद्रको वा यदि नकस्ततस्तां पल्लीं प्रविशन्ति । श्रथाभकस्ततो मा प्रान्तापतापावणादीनि कार्यदिति कृत्वा न तत्र मन्तव्यम् अगच्छन्ति ततश्वा गुरवः प्रय कोऽप्युपश मनायोत्सढते ततस्तं गृहीत्वा गन्तव्यं गच्छन्तश्च कुतः किमर्थ भवन्त इहायाताः अत्र कुत्र वा वजिष्यथ इति पृष्टा भणन्ति पन्थस्फिटिताः परिभ्रष्टा वयमिह पल्ल्यामाराहान्वेषणं कुम्मंडे | यति पुच्मा को पुच्छ किं च अपुसिय अहि जति पुत्रि, अणिच्छे सम्नायगादीहिं ॥ किं मुषिता यूयमिति पृच्छन्तं ब्रुवते । को नामास्मान् पृच्छति किं वा निर्ग्रन्थानामस्माकं मुषितव्यं ततश्च स्तेनपखीं गत्वा यस्तव सेनाया अधिपतिस्तं पूर्व प्रथमतो भद ना महापयन्ति प्रापितश्च यदा व्यापुनस्तवमा प्रियादिना सेनापतिरुपशमयितव्यः । Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहि उपसंतो सेणा (११०५) अभिधानराजेन्द्रः । वगरणं देवा दवा त्थे हि गहणं, तं वीसुं वसीकरणं ॥ उपशान्तः सन् सेनापतिः स्वयमेवोपकरणं ददाति स्वमानु पैर्वा दापयति ते सर्वे गीतार्थास्तत उपकरणं मिश्रयन्ति वा न वा । अथागीतार्थ मिश्रास्ततो गीतार्थैस्तस्योपकरणस्य ग्रहणं कर्तव्यम्। यच्च संपता संपतानामपकरणं सद्विष्यक विधेयम्। अथ सेनापतिब्रूयात् । सत्ये बहू विवित्तो, गिरहह जं जन्म पे अडंता । इह पडिपी य, रुसेड बियो नओ हूं सो || साथमा तो विविक्ता व्यतो न ज्ञायते कर बुवादिकमस्तीति ततो गृहीत स्वकीयमुपकरणं य चत्र पर्यटन्तः पश्यथ ततः साधुभिर्वक्तव्यं यद्यवं ततः स्वमानुचमस्माभिः सह वर्जयत ततस्तदीयमानुषेण सह गच्छन्ति । सव वृते इहास्थामेव पल्ल्यां प्रतिपल्लीषु वा यद्यद्भवतामुपकरणं तत्तद् (रुति) देशीय गवेष भद्वितीयोऽस्मीति ततो द्यत्र पश्यन्ति तत्तन्मानुषादिनिः प्रज्ञाप्य गृहन्ति। यह ताव न जातो जह, एएसि पि पात्रइ न हत्थं । तह कुलिमो मोसमेत पात्रा अह इमे ॥ अस्माकं तावदयं मोपो मुषितवखादिलक्षणो न जात यथैतेषामपि हस्तं न प्राप्नोति तथा वयमेनं मोषं कुर्महे इति विचिन्त्य केचित्पापाः स्तेनकास्तथेति चिन्ताऽनन्तरमेतेषु प्रक्षिपन्ति । तद्यथा । पुनका असे सार | तत्यजाणपणं प्रप्यावहुयं तु नायन्त्रं ॥ " पृथिवीकार्य या अप्काये वा अगडे वा गर्तायामित्यर्थः । वनस्प तिषु वासेषु वा संहरन्ति निक्षिपन्तीति यावत् । गाथायामेक वचननिर्देशः प्राकृतत्वात् तेषु निमिल् ते इति बुद्ध्या । अत्र च सूत्रार्थः येन गीतार्थेन पृथिव्यादिनिक्षिप्ते तत्रोपकरणे स्वल्पतरमेवाधिकरणमद्यमानेषु बहुतरमसंयतपरिभोगाप्रकालनादिक्रमेणापपत्वं शातव्यं त्याच प्रहीतव्यं तद्वस्त्रम् । अथ न गृह्णाति ततश्चतुर्लघुका अनवस्था यं भवति। भूयोऽपि हत्या से या अन्ये वा यथा दिषु निक्षिपन्तीति भावः । अथ " सावि य परिनुत्ता वा इत्यादिसूत्रावयवं विवृणोति । हरियाहरिया सुत्राविकप परिचमपरित्ता, अप्पाच विद्याणित्ता ।। हे सुविहित ! हताहतिका यद्यपि स्तेनकैः पञ्चवर्णा कृता तथापि ग्रहीतुं कल्पते तथा परिचुक्ता अपरिभुक्ता वा उपलक्षणत्वाद्धौता घृष्टा मृष्टा संप्रमिता वा भवतु परं तथाऽप्यस्त्रीवन परिया किए परिजुते तस्म चैव गहणं तु । अन्नस्स गिरहणंत-स्स चैव जयणाए हिंमंति ॥ स्तेनकैस्तद्वस्त्रमाधत्तं ग्रहणके मुक्तं भवेत् विक्रीतं वा परिभुकं वा ततस्ते क्र्युः वयमन्यद्वस्त्रं प्रयच्क्काम इति ततो वक्तव्यं तदेवास्माकं प्रायेन प्रयोजनमिति भणित्वा तदेव ग्रहीतव्यं यदि न लभते ततोऽनवस्थाप्रसङ्गनिवारणार्थमन्यस्यापि ग्रहणं कुर्वन्ति तत्र यदि संस्तरति ततः परिष्ठापयित जयष्टि व्यम असंस्तरे तु परिभोल्यम तथा तस्यैव सेनापतेमीनुषः सह वस्त्रान्वेषणाय यतनया हिण्डन्ते पर्यटन्ति । इदमेव भाषयति ॥ , अनं च दे नवहिं सा वि य नातो तदेव अन्नातो । मुद्धरून होई गहणं, अपेितं परिहवणा ।। अथासौ सेनापतिरन्यमन्यसाधुसंबन्धिनमुपधि ददाति ततः स उपधितो वा स्यात् संविग्नासंविग्नसंबन्धितया उपलतवा तद्विपरीतः तत्रयः शुद्धविधिपरिमितो यथोकप्रमाणोपेत स संविग्नसंबन्धी तेषामेव संविनानामयति अथ ते देशान्तरं गतास्ततो यदि सं स्तरन्ति ततः परिष्ठापयन्ति। अथ न संस्तरन्ति ततः परिभुअते । यः पुनरशुद्ध एतद्विपरीतः सोऽसंविग्नानां संबन्धी तमयथाधिकरणपरिहरणार्थ गृहीत्वा पापापयन्ति । इदमेव्याच , तं हि नार्थ, पमाणहीणाहियं विरंगं वा । इतरोवापि गिरह मा अहिगरणं पसंगो वा ॥ तदुपकरणमविधिसीधनिकामः सीयितं प्रमाणही नापिक विरङ्गं विचित्रवर्णक रक्तमेवंविधं दृष्ट्वा ज्ञातव्यं यथैष इतरेषामसंविमानामुपचितमपि कुत इत्यादमा नगृह्यमाणे अधिकरणे असंयतपरिभोगादिना प्रसङ्गो वा नूयोउपकरणहरण कृणो भवत्विति कृत्या अंतस्स व पक्षी, जयागमणं तु गहण तह चैव । गामा गामयम्मिय, गहिए गरणे य तं जणियं । अथान्यस्य सेनापतेः पातस्योपकरणस्यानी नवे ततस्तत्रापि यतनया गमनं ग्रहणं तथैवानुशिष्यादिना विविकानां विधिः । ग्रामानुग्रामिण विहारे मासकल्पं विधिं कुर्वन्तो यदा विविक्ता प्रवन्ति तदा गृहीते स्वहस्तचटिते ( गढणेत्ति ) गृह्यमाणे चोपकरणे उपचिपृथकरणादि धर्मकथादिकं च यत् पूर्व नणितं तयात्रापि रुष्टयम् । इदमेव व्याचिख्यासुराह । तत्थेव आणावे, तं तु पेसेइ वा जहिं भहो । सत्ये कपियारं त देइ जो णं तहिं नेड़ । पकरणमन्यस्यां पनीतं तदा यदि मूलपचीपति कस्तत उपकरणं तत्रैवात्मनो मूले तत्पद्धवास्तव्यमारामाययति । अथवा तमात्मीयं मनुष्यं तत्र प्रेषयति यत्रासावन्यस्य सेनापतेः पयामुप पधिर्वर्तते । अथासौ न समर्थः स्वसमीपे श्रानाययितुं ततः सार्थेन सह तस्यां पल्ल्यां गन्तव्यम् । अथ साथ न प्राप्यते ततो मूत्रपतेर्मानुषो मार्गयितव्यः स च कल्पितारं मागंदर्शयितास्वमनुष्यं ददाति यस्तत्र पल्ल्यांनत सहाई तर विकाउ सपचि इतरी वा घेतं सत्थेण व यं, उवयंति ग्रह जद्दए जयणा || तत्रापि पयामनुशिष्टिकर्मकथादिप्रायोग्य कृत्या स्वकीयमुपकरणं जातं यदि ततः साथों न वज्यते ततस्तेनैव मनुष्येण सदस्यपल्यामागच्छन्ति परायामित्यर्थः तत्र चागत्य सार्थेन सह जनमदमुपयान्ति । अथ तस्याः पल्ल्याः सकायादितरासां जनपदप्रत्यन्तपल्लीनां साथ याद अज्यते ततो मुन्रोपकरणं नीतं भवेत् ततस्तदर्थं तत्र गत्या तच्च गृहीत्वा ततः Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०६) टवाहि अभिधानराजेन्द्रः। नवाहि सार्थेन साई जनपदमुपयान्ति । अथैष नषकस्ततोऽन्यपढीपतौ गःप्रोजनशमेन तुरजोहरणमुच्यते । प्राह च चूर्णिकृत् । "पाययतना जाणता ॥ मगहणेण पायभंमयं गहिये पुंबणं रयहरणंति" पतैरुप समोपे फागपाए पंते, मणंति सेणावई तेहि। आगत्य निमन्त्रयेत् उपनिमन्त्रितस्य च (से) तस्य निग्रन्थस्य एते नत्तरमा-बियाइ जा पच्छिमा राया । साकारकृतमाचार्यसत्कमेतद्वखं न मम अतो यस्यैव महसा वह मूल रहीं मुक्त्वा या अन्याः पल्ल्यस्तासामधिपतयो आत्मनो वा परिभोगिष्यते तस्यैतद्भविष्यतीत्येवं सधिकल्पष चनव्ययितं स गृहीत्वा ततः आचार्यपादमुझे तखं स्थापयित्वा मूलपल्लीपतिषशषर्तिनः स्पर्ककपतय उच्यन्ते तेषामेकतरेण यदि तस्यैव साधोः प्रयच्छन्ति तदा द्वितीयमप्यधप्रहम । एकसाधषो विषिताः सच प्रकृत्यैव प्रान्तस्ततस्तस्मिन् प्रान्ते स्ताव गृहस्थादधग्रहोऽनुशापितः द्वितीयं पुनराचार्यपादमूसाबादशोऽपि मार्गिते उपकरणमप्रयच्छति मूलसेनापति भणन्ति वग्रहमनुज्ञाप्य धारणापरिजोगरूपं द्विविधपरिहारं तस्य पखधर्मकथादिना प्रज्ञापयन्ति सच प्रज्ञापितःसन्न दापयति । अथ स्य परिहर्तुधातूनामनेकार्थत्वादाचरितुं कल्पते इति सूत्रसंकेसोऽपि प्रान्तस्ततो यः कोऽपिमामम्बिकश्चिमडम्बाधिपतिः पार्थः । वृ०१० (पतहिस्तरार्थ एव वस्त्रयाचनविधौ पत्थस प्रज्ञाप्यते तत उत्तरोत्तरं तापनेतव्यं यावदपश्चिमः सर्वा शब्दे वक्ष्यते) (उपधिविषयोऽवग्रहः उम्गहशब्दे सक्तः) म्तिमो राजा तमपि प्रज्ञाप्योपकरणं गृहीतव्यमिति भाषः । अथ (१५) निकाथै गतस्योपकरणपतने विधिमाह॥ प्रमादायुपगतो न मार्गयति न धा धौतरफाधिकमसंयतप्रायोव्यमिति करवा च गृहाति ततश्चतुर्लघवः। . (सूत्रम् ) निग्गंथरस एं गाहवतिकुलं पिंडवायपमियाए वसिमे वि विवित्ताणं, एमेव य वीमुकरणमादी य । अणुपविट्ठसं प्रा.लहुस्सए उवकरण जाएपविनहसिया तं बोसिरणे चउलघुगा, जं महिगरणं वहाणा य । च केश साहम्मिया पासेज्जा कप्पनि एं सागरकम गाहाय मकेवलमध्वनि विविक्तानां किंतु वसिमेऽपि जनपदे विविः | जयेव त अमममं पासेज्जा तयेकं तमाणावाहे बहु फासुए कानामुपकरणविष्त्रकरणादीनि कार्याण्येवमेव मन्तव्यानि यस्तु थमिले परिहवेयव्वेसिया ।। स्वोपकरणं व्युत्सजति को नामात्मानमायासयिष्यतीति कृत्वा निर्ग्रन्थस्य णमिति वाक्यासतारे गृहपतिकुलं ( "पिंडवायपमिनगवेषयतीति मावस्तस्य चत्वारोलघवः यश्चाधिकरणमाका याए शत") पिएमभक्तंपानं वा पातयिष्यामीति बुश्या यथा यप्रक्षालनादि याचते तेनोपकरणेन विना सूत्रार्थयोः संयमयो सहोष्ट्र “सुसं पगमंतु निम्गो" आनेष्यामीति मुद्ध्या निर्गत गानां चापरिहाणिस्तनिष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं यत एमतःसव. इत्यर्थः । अनुप्रविष्टस्य यथालघुक मेकान्तल घुकं जघन्यं मप्रयझेन गवेषणीयम् । वृ०१ उ०। ध्यमं वा इत्यर्थः । उपकरणजातं परिष्टं पतितं स्यात्तश्चक(१४) भिकणाय गतं भिकुमुपनिमन्त्रयेत् । श्चित्साधर्मिकः पश्येत्कल्पते (से) तस्यासागारकृतं नाम यस्यै(मत्रम् ) निम्गंथं च एं गाहावइकुलं पमियपभियाए - वेदमुपकरणं तस्यैवेदं देवमिति बुद्ध्या गृहीत्वा यत्रैवान्यमन्यं एपबिटु केइ वत्येण वा पमिग्गहेण वा कंबलेण वा पाय- साधार्मकं पश्येत्तत्रैव एवं वदेत् इदं भो आर्य! किं परिझातं पुंकणेण वा उवनिमंतिजा कप्पइ से सागर कभंगहाय ततस्तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं समर्पणीयं स्याकिमुक्तं भवति यदि तस्य सत्कं तर्हि तस्मै दीयते । अथ ब्रूयादमुकस्य सत्कं यदा प्रायरियपायमूझे वंदिता दोश्च पि नग्गहं श्रमविए । तस्येति स च वदेत् न परिझातं न कोऽपि न जानातीति प्रायः अस्य सूत्रस्य संबन्धमा । तर्हि तन्मात्मना परिजुञ्जीत न अन्यस्य दर्शयेत्किन्त्येकान्ते बाप्राअविरु के भिक्खगतं, कोइ निमंतेज वत्यहि। सुके स्थएिमले परिष्ठापयितव्यं स्यात् । “एवं निग्गंथस्स गं कारणावरुषचारी, विगिचिते वावि गेण्हेज्जा॥ यहिया वियारभूमि वा विहारनूमि वा निक्खंतस्से" त्याद्यपि अविरु विरुराज्यरहिते प्रामादौ विकराज्यचारी स्तेना- सूत्र भावनीयम् । तथा निर्ग्रन्थस्य णमिति प्राग्वत् प्रामानुग्राम दिभिर्विवितो मुपितः सन् खाणि गृहीयात अतो बह- "अदूरजश्गामानुग्गामंदूरजमाणस्सत्ति" विहरतोऽन्यतरत् णयिधिः प्रतिपाद्यते। उपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात्तच्च कश्चित्साधर्मिकः पश्येत्कल्पते अहवा लोश्य तेणं, निवतममइक्कम्म पश्चिम जाणितं । (में) तस्य सागारकृतं गृहीत्वा दूरमध्यध्वानं परियोढुं “जत्थेदोश्चमण गुभव, उत्तरियं वत्यभोगादी ॥ येत्यादि " प्राग्वत् एष सूत्रत्रयसंकेपार्थः । संप्रति नाध्यकृत् यथालघुस्पकग्रहणं तृतीयसूत्रगतमन्यतरग्रहणं व्याख्यानयति । अथवा नृपसमानमतिक्रम्य विरुषराज्यसंक्रमणे लौकिकस्तै दविहो य अहाबहुतो, जामत. मज्मिो य उवहीो । न्यमिदमनन्तरसूत्रे भणितम् । अथ द्वितीयं वारमवग्रहमाचार्य अनयरग्गहणेण उ, घेप्पइ तिविहो उ उवहीभो । समीप अननुज्ञाप्य तदा वस्त्रपरिभोगमादिशब्दात् धारणं वा करोति तदा लोकोत्तरिकस्तैन्यं नवतीति प्रतिपाद्यते । एनिः यथालघु स्वक उपधिर्द्विविधो भवात जघन्यो मध्यमश्व अन्यसंबन्धेरायातस्यास्य व्याख्या निर्ग्रन्थपूर्वोक्तशब्दार्थ चशब्दोऽ. तरग्रहणेन तु त्रिविधोऽप्युपधिः परिगृह्यते। तदेषं कृता विषमपदर्थान्तरोप-यासे णमिति वाक्यालङ्कारे गृहस्य पतिः स्वामी व्याख्या भाष्यकृता । संप्रति नियुक्तिविस्तरः । गृहपतिस्तस्य कुलं गृहपिएमपातप्रतिझया पिएम ओदनादि- अंतो परिवंते, बहिया व वियारमादिसु लहुगो । स्तस्य पातपात्रं प्रविष्टस्तत्प्रतिज्ञया तत्प्रत्ययमनुप्रविष्टः कश्चि अनयरं उवगरणं, दिढ संका न घेप्पति ।। तुपासकाविर्षस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा पादप्रोचनेन षा उपनिमन्त्रयेत वस्त्रं सौत्रिकामह गृह्यते प्रतिग्रहःपात्रकं कम्बन किं हुज्ज परिद्ववियं, पम्हट्ठा वा वितो न गेएहति । मौ.णिक कप पाचशमेन तु पात्रके मरिकाप्रभृतिकः पात्रमियो- । किं एयरपत्रस्त व. सं.कजा मेएहमाणो वि ॥ Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०७) निधानराजेन्द्रः । सबहि ( अन्तमा मध्ये बहिर्निचारभूमी या पतिस्मरति " पति वा परिहवियंति वा एगडु मिति " वचनात् प्रायश्चित्तं लघुको मासः । कस्मादोरां प्रमादं करोतीति देतो काम तो विस्मृतमत बाद अन्यतरत् ज घन्यं मध्यममुत्कृष्टं वा उपकरणं दृष्टं ततो जाता शङ्का ततश्च न के प्रीयन्ति सामेव स्पष्टतरां भावपति किं दोजेत्यादि ) साधवस्तदन्यतरत् उपकरणमन्तर्बहिर्वा वृष्ट्वा किमेतत् परिष्ठापितमुत कस्यापि विस्तृतं भवेत् एवं शङ्कमानास्तडुपकरणं विस्मृतं न गृह्णन्ति यतो गृह्णन्नपि जनैः शङ्खयते तथादि सम् पतितं गृहन्तं संयतं कोऽपि बड्डा हान किमेतस्य अन्यस्य वा । किमुक्तं भवति । किमात्मीयं पतितं गृह्णाति किं वा परकीयं कस्यापि दानार्थमवं शङ्काजवे तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । अथ निःशङ्कितं परेषां स्यात्तदा चतुर्गुरुकम । एवं शङ्कावतो न विधिमाणे श्मे दोषाः । थिग्गल बिसा पोते, वालगचीराइएहिं अहिगरणं । बहुदलमा कण्या, परिहाणी जाणि च ॥ सत्पतितं यथालघु स्वकरणं गृहस्थैर्दृष्टं ततस्ते तत् गृहीत्वा अन्यस्य यतो वास्य थिग्गनकं कुर्वन्ति तथा प्रकाल्य पोतकानि वहिकापटिकादिरूपाणि कुर्युर्यदि वा उत्तानशाचिनां वाकानां योग्यानि विरइत्येवमादिभिः प्रकारया स्वोपकरणस्याप्रढणे अधिकरणं यदा तु पतिताः कपान गृह्यन्ते तदा ते बहुदोषतमाः प्रभूततमं तेष्वधिकरणमिति भावः । तच उपकरणं याचमानस्य परिहाणिः सूत्रायो येन तृणाग्निसेवनादयो दोषास्तेऽपि सन्ति । एते अणे य बहू, जम्हा दोसा तर्हि पसज्जति । आसछे अंती वा वम्हा उबहिं न वांसिर । एते अनन्तरोदिता अन्ये च यस्माद्बहवो दोषास्तत्र पतिते प्रजन्ति तस्मात् प्रामादीनां बहरास प्रदेशे अन्तर्वात विस्मरणतः पातयेत् अधुना यशात मानो वा वद्धातिं प्रत्युपदेशमा। निस्संकियं तु नानुं, विच्चुयमयंति ताहे घेत्तव्वं । संकादिदोसविजढा, नाउं पंति जस्स तयं ॥ यदा पतपकरणं कस्यापि विच्युतं विस्मरणतः पतितमिति नियमतो ग्रहीतभ्यं गृहीत्वा च शङ्कादिदोषरहितानामविबये कस्यापि शङ्का स्यादित्यादिदोषवर्जिता यस्य तपकरणं तस्य ज्ञात्वा समर्पयन्ति । एतश्च यद्विषये कर्त्तव्यं तानाह । समणु इयराणं, वा संजती संजयाणं वा । इपरे उ अबदेसो, गहि पुरा पेपर तेहिं ॥ मासांनोगिकानामितरासाम सांगिकानां संगतीन संतानां वा सत्कमुपकरणं पतितं गृहीत्वा यस्य सत्कं तस्य दातव्यमितरे तु पाखादयस्तेषामनुपदेशस्तेषां सत्यं पविर्त न्यायस्य सत्कं तस्मै देवमिति नास्माकमुपदेशो ऽधिकरण प्रहस्तः पुनः पार्श्वस्थादिभिः संविग्नानां विहारिणामेतक रणमिति ज्ञात्वा यत्पतितं गृहीतं तदानीतं पुनर्गृह्यते । महितीपद्माद विपदे न गेहेना विवचियजुगुद्धिए असंवि तुच्छमपप्रयणं वा, अगएहता होय पच्चिती ॥ उवहि द्वितीय अपवादपदे न गृहीयात् पतितं परिष् पितमिति सितमचिस्थानपतितमिति या कृत्या विज्ञान या तंपकरणमिति त्या तथा तुच्छेखो कादि कृतित्यादिना कारणेनाप्रयोजनमत जयति प्रायथितम् । सांप्रतमेनामेव गाथां विवृणोति ॥ " तो विसगन्नजुष्णं, विवंचियं तं च दछु नो गिरहे । अमुविनं बहुधा वालादिवन्नं वा ॥ अन्तमादीनां मध्ये विशकायेचितं परिष्ठापितमिति ज्ञातव्यं यच्च दृष्ट्वा न गृह्णीयात् । तथा अविस्थानेऽपि च्युतं बहुधा या व्यासादिनिध प्रतिनिष्ठ न गडीपात् ॥ ही णायिप्पमाणं, चित्तलं विरंगजंगी य । एहि कारणे हि य, नाऊणं तं विवज्जंति ॥ हीनं चाधिकं च हीनाधिकं तत्प्रमाणं यत्र तत् क्वचिकीनं कविदधिकमित्यर्थः । तच सांधनिया चित्र चित्रे सीवनिकाचि या र राज्येण यंत्र रिि पतेः कारणैरयमसंविद्यानामुपधिरिति या विवर्जयन्ति एमेव य वीयपदे, जं तो उवरिविज्जइ इमेहिं । तुच्छ प्रतिमो वा सुखे वा विविवेजा ॥ एवमेव अनेनैव प्रकारेण एनिर्वक्ष्यमाणैर्ग्रामादीनामन्तर्द्वितीयपदेन परिष्ठापयेत् । पतितं न गृह्णीयात् । कैरित्याह तुष्टो मुपोतिकापानादिका कुधियादिना कि यदि या अतिजी इस्तेम गुहामाणोऽनेकधा बिहाराज विविक्ते प्रदेशे पतितो यत्र विस्मरणासंभवः । ततः एतैः कारणैः परिशापित पप उपधिरिति कृत्वा पिविष्य न गृहीयादिति नाथः । एमेव य बहिया वि, वियारभूमीए होज्ज त घेतु | तस्स विउ एस गमो, दाइ य ओ निरवसेसो ॥ एवमेव भनेनैव प्रकारेण प्रामादीनां परिपि विचारी पति तं भवेत् । तस्याप्येष पधानन्तरोदितो गमः प्रकाश निरवदोषो यो म्यो भवति । तदेवं सूत्र भाषितम् ॥ अधुना तृतीयसूत्र नावनार्थमाह ॥ गामो खोजते उ दोनि दुविहाले । अनतरग्गहणं, दुविहो होइ उवहीओ || ग्रामः खलु पूर्वमुक्तस्तस्मादनुकूलो ऽन्यो ग्रामोऽनुग्रामः श्रामचाग्रामश्च प्रामानुग्रामं समाहारत्वादेकवचनं तत् दूयमानस्य गच्छ तस्तस्मिन् गच्छति द्विविधा ऋतुबके काले गन्तव्यम् । तथा पादाभ्यामिति यन्यां प्रख्या संप्रतिनियुकिविस्तरः ॥ ये पसरवा. पासवारयते वा । एक्स एप तदा मोहिमे गया || तत् उपकरणं पथि व्रजः कथमपि पतत् प्रामानुग्रामं षा गच्छन् यत्रोपाथये उषितस्तत्र विस्मरणतः पतितं भवेत् विनायतो वा क्वचित्पतितं स्यात् उच्चारं प्रश्रवणं वा कुर्वतः स्यात्पमितवा विस्तृतमेतः कारणैविस्मरणः पतनसंभवस्ततो येषु विश्राम्यत उच्चारं प्रवणं वा कुर्यतो दोषा भवन्ति सानीमानिस्थानानि वर्जयेतान्येवाह पंवे व समनिविसादि, तो मासो होइ लडओ व । श्रागतरसंवा, लडुगा आणादिलो दोसा || Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उबहि पथि यदि विभ्राम्यति निवसति या आदिशब्दा तिष्ठति सुन या उपचारं प्रवणं या व्युत्सति तदा सर्वत्र म समाचारीति निष्यन्नं प्रायश्चित्तं मास । यदि पुनरागन्तुनां स्थाने सन्नाऽऽदी विभ्रमणादि करोति सदा सर्वत्र प्रत्येकं त्यां मघुकाः आज्ञादयश्च दोषाः । संप्रति पथि विश्रमणादी दोषानाह । मिच्छत अमपंथे, धूली उणि उबहिणासो । से चैव य सविसेसा, संकादिविविचमाणे वि ।। स साधुः पथि विश्राम्यति विजातीयाधान्ये जातिमालि तास्तेन पथा समागता भवेयुस्ततः स साधुः चिन्तयेत् । मा मनिमित्तमे वर्त्तमाना हरितकायादि विकास साधुः पथि उत्थाय अन्यत्र तिष्ठेत् तत्र च श्मे दोषा जानन्त्येतू अमणवादिन] आत्मनः सारमतोऽयमस्मान् वृहत इति तथा साधूनां विजातीयानां पचि दचेत एव तेषामपि गुरयो घिग्जातीयाः प्रधानाश्च एतच्चाभिनवधर्म्माणः श्रुत्वा दृष्ट्वा च मिथ्यात्वं प्रतिपद्येरन् तथा ( श्रापंथेन्ति) तं साधुं पथि स्थितं दृड्डा पथिका त्यजन्ति ते पोर्तमाना हरितकायादीनवराच कुन्ति तथा केचितं पथि स्थितं अहो निर्लज्जाः श्रमणाः पन्थानं रुध्वा स्थिताः तच्च श्रुत्वा कोप्य सहमानः कलहं कुर्यात् ततो युद्धे समापतिते भाजने भेदोन परितापना व स्यात् तथा पादनिषेण या उत्खननं भवति तेन च उपधेर्विनाशो मलिनत्वनावात् । ते पमानन्तरोदिता दोषाः सविशेषाः शङ्कादयो विचिकित्साऽपि स्वारादिना तथा हि उच्चारादि पथि कुर्वत लोकस्य श जायते किमनेन निषितमुतनेति आदिशब्दात्कमेव स्तेन कः किं मा मोनिकारको हेरिको या इत्यादिपरिग्रहः ए द्वारगाथास के पार्थः । सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतो मिथ्यात्वद्वारं विवृणोति । ते नावं, बहवो दोसा तहिं पसज्जंति । अपि जं वा आवज्जती जुत्तो ।। गुरुगा, साधुना विश्रमण निमित्तं न स्थातव्यं यतस्तत्र बहवो दोषाः प्रजन्ति तामेवाह । साधुना विजातीयानां पथि प्रद अभ्युत्थिता एते अभ्युत्थानमेतेषां कृतमिति लोकप्रतिपत्तौ तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः यच्च स्वयं दृष्ट्वा यतो वा श्रुत्वा मि-ध्यात्वमापद्यते अभिनयमा मिष्यादृष्टिय गाढतरं मिथ्यात्वमधिगच्छति तन्निष्पन्नं च तस्य प्रायश्चित्तं धिग्जातीयानां चात्मबहुमानसंजयस्तथा चाह । जाति अप्पणी सारं, एते समणवादियो। सारमेएसि लोगो य-मप्पणी न विवाणई ॥ ये श्रात्मानं श्रमणमिति वदन्ति ते श्रात्मनः सारं परमार्थतत्वं जामन्ति यथाऽस्मज्यमेते गरीयांस इति यस्त्वेतेषामयं लोकः संसारमर्थतत्वमात्मनो न विजानाति श्रविदितपरमार्थत्वात् । गतं मिथ्यात्वद्वारम् । (९१०८) अभिधानराजेन्द्रः । A अधुना श्रन्यपथद्वारमाह । पण वयंते, काया सी चैव वा नवे पंथे। अति असंमादी, जायणराहणा चैव ॥ तं साधुं पथि स्थितं दृष्ट्वा पान्था अन्येन पथा व्रजन्ति तथा वसति काया हरितकायादयो विराध्यन्ते । तथा स एव न उबहि दति पचास्ततो महानादोषः तथा पथि स्थित दृष्ट्वा कस्यापि (अधिपति) अप्रीतिरुपजायते ततः स हो एकः पन्थानं सध्या स्थितस्तस्य श्रुत्वा कोऽप्य सहमानोऽसंख कलहं कुर्यात् श्रादिशब्दात् युद्धमपि तथा च सति भाजनविराधना आदिशब्दादनागाढादिपरितापना नावतः शरीरविराधना च । संप्रति "धूञ्जी उक्खणण उत्रदि विणासो इति” व्याक्यानयति। सरक्खधुली चेयो, पस्थिवाणं निशाणा | अचिरेणुमलम्मि, दोसा होति अघोगे ।। सह रजसालणधूलिरूपेण वर्त्तते इति सरजस्कः स चासी भूमिश्च तस्याश्चतस्यस्तस्यां चेतनायामित्यर्थः पाद निक्षेपेण उ त्यनेन शरीरादिस्पदतः पार्थिवानां पृथिवीकायानां दिना शनं भवेत् । अथ सोऽचित्तो रेस्तर्हि तेनाचित्तेन रेहुना म लिने उपधौ यदि प्रकालयति तथाऽपि दोषः । प्राणविराधनापतिर्वा कुत्वसंभवान्त्र अप्रकालनेऽपि दोषाः प्रवचनदीनाद्यापत्तेः । श्रन्यच्च । तुरंगादी, सहसा दुक्ख निग्गहा । किच्चा पहि ठाणं पणो ॥ गाव वेगेनागच्छन्तस्तुरङ्गादय आदिशब्दाही चांग मपि परिग्रहः । सहसा निपाति निग्रहा निवारयितुमशक्या इति नावस्ततः शरीरविराधना जा जनविराधना च । तथा केचित्प्रान्ताः परान्मुखं मुखं कृत्वा पथि स्थितं साधुं प्रणुदेयुर्गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात्याकृते दिवचनव्यत्ययो भवति । किं च । परम् पतुमवि अन्नत्थ, जइट्टा कोति पेच्छति । पंथ उपरिषक विष्णुं गति अक ।। पथो ऽन्यत्र विस्मरणतः पतितमपि प्रेक्ष्यते पथि पुनः अध्वगा परिभ्र हिम गृहन्ति तस्मात्पथिन विश्रमितम्यम् । एवं ठितोषविडे, सविसेसतरा भवंति उवथे। दोसा निपमार्थ, गते य उवहिं हरति तो ।। एवममुना प्रकारेण स्थिते ऊस्थानेनावतिष्ठमाने तथा उपधिमाने वक्तव्यानि चात्र शयाने सविशेषतरा दोषा भवन्ति । तथाहि पूर्वोकास्तावतचैव ष्एय्याः । अन्यस्य शयाने कधमपि निगते उपधिमन्ये पदिकादयो दन्ति तस्मात्पथिन शयितव्यमिति । संप्रति " चे व य सविसेसा संकादिविविचमाणे वी " त्यतयाख्यानार्थमाद | उच्चारं पासवणं, अणुपंथे चैत्र प्रायरंतस्स | बहुतो य हो य मासो, चानम्मासो सवित्थारां ॥ उच्चारं प्रश्रवणं वाऽध्वगानामनुकूले पथि अवतरतः समाचारीनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं लघुको भवति मासः । अथ तथोच्चारं प्रश्नवर्ण वा कुर्वन्तमवलोक्य केचिदन्यं पन्थानं कुर्वन्ति मासाका विधारोति यथवादिभिः सह संघा दि प्राप्नोति तन्निष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तमिति भावः । तथा । मनदासतिय गंधक उसपे । तेो चि व संकेज्जा, आदिवणे चैव ठट्टाहो । कोsपिस एव राजकुलमान्यः प्रान्तः श्रमणमुच्चारं पथि कुर्वन्तं हवा कोपात्तमेव श्रमणमास्कन्द्य तमुश्चारं बापयेत् अपरेरन्यः Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवहि अभिधानराजन्नः। नवहि पन्थाः क्रियेत तत्र चोक्तं प्रायश्चित्तम्। तथा पथिवीनाये दुरभि- गंतव्वपझोएउं, अकरणिबहुतो उ दोस आणादी। गन्धः नच्चनेसत्रापि प्रवचनोडाहस्तथा कोऽपि कलुपात्मा पम्हुट्टो वा सट्टे, लहुतो प्राणादियो चेव ॥ शङ्केत स्तेनक शति उपलकणमेतत् हेरिकोऽनिचारिको वा इ विनम्य उच्चारं प्रश्रवणं वा कृत्वा यदा गन्तव्यं जवति तदा सिंहास्यपि शङ्केत तत आदाने ग्रहणे प्रवचनस्य नहाहः तस्मात्पथि वलोकनेन पश्चादवलोक्य गन्तव्यम् । यदि पुनरवलोकनं न कगेविश्रामणादि न कर्तव्यम् ॥ ति तदा प्रायश्चित्तं तस्य लघुकोमासः। अधिकरणदोषाश्च प्रागुअत्रैवापवादमाह॥ ताः कथमपि विस्मरणतः पतन्ति सम्नवन्ति । आझानादयश्च अच्छेय व दूरपहे, असहू भारेण खेदियप्पा वा । दोषाः । तथा यदि कथमपि विस्मरतः पतितं स्यात् ततस्तइहचन्ने व मोतुं पह, गामसमीवे य बन्ने वा ।। णाय प्रतिनिवर्तितव्यम् । यदि मन्यते किं तेनेति व्युत्सृजति अतिशयेनातपउष्णं तपति वृत्ताश्च पथि दूरे वर्तन्ते यथासन- तदा मासलघुकमाझाजगादयश्च दोषाः एतदेवाह । पल्लीमार्ग प्रतिपन्नानामेक पवाध्वनि विश्रमणहेतुरेक एवं वृक्को पम्हढे गंतव्ब, अगमणे लहुगो य दोसाणादी। ऽन्यत्र सर्वत्राकाशं तेन कारणेन पथ्यपि वृकस्याघ्रस्तात् विश्रा. निकारण रिम तिन्नि न, पोरिसीकारणे सुछो॥ म्येत । असहो नाम नातिबूरे वृक्षाःसन्ति परंतत्र गन्तुं न शक्नो कथमपि विस्मरणतः पतिते सिंहावलोकनेन च दृष्टे नियमतति ततः सोऽपि पथि वृकस्वाधो विश्रमणं कुर्यात् । अथवा उप स्तदानयनाय पश्चात् गन्तव्यम् । अगमने प्रायश्चित्तं लघुको माधिनारेण खेदितात्मा अतिशयेन परिश्रान्तस्ततः पय उर्तितुं न सः । श्रधिकरणदोषाश्च प्रागुक्ता आझादयश्च । तथा निष्कारणशकोतीति पथ्येव विश्रामयति । तदेवं पथ उन्नयोः पार्श्वयोर्दूरेण मिति कारणस्यानावे निष्कारणमस्मिन् यदि नास्ति निवर्तमावृतसंजवे द्वितीयपदमुक्तमिदानीं समन्ततो वृकच्चन्ने प्रतिपादय नस्य प्रत्यवाय इत्यर्थस्तदा अवश्यं निवर्तितव्यम् । (तिमिनति । (उन्ने व मोस्तुं पहंत्ति ) पन्था उन्नयोः पार्श्वयोर्व श्छन्न सि) यदि प्रथमायां पौरुष्यां विस्मरणतः पतितं चरमायां च स्तत्र वा विभाषायां यदि निर्भयं ततः पन्थानं मुक्वाऽन्यत्र पौरुष्यां स्मृतं तत्र यदि निष्प्रत्यवायमन्तराच वासोऽस्ति यदा विश्रमणादि करोति । अथ नयं तदापथ्येवेति एतद् दूरेऽनिहितम्। निवृत्य गृहीत्वा आनेतव्यमथ सूर्यास्तमयवेलायां स्मृतं यथा ग्रामसमीप पुनर्निर्नयमिति वृतश्चन्नस्तत्र वा विभाषायां यदि अमुकमेव विस्मरणतः पतितमिति तदा प्राद्यान् त्रीन् यामान् निर्जयं ततः पन्थानं मुक्त्वाऽयन्त्र विश्रमणार्थपथ नछुत्य विश्रम उषित्वा चतुर्थे यामे प्रतिनिवृत्त्यानेतव्यं प्रत्यवायाभावे कारणे तु णादि करोति । यामसमीपे यस्य तस्य वृक्कादेर्देवकुमादेश्वगया प्रत्यवायलकणेऽनिवर्तमानोऽपि संशुरुः । एतदेव जावयति ॥ संजवासन पुनः साधुना पथः कियद्दूरे उद्धर्तितव्यमत प्राह । चरमाए वि नियत्तइ, जइ वासो अत्यि अंतरा वसिमे । पंथे ठितो न पेच्चइ, परिहरिया पुचवामिया दोसा। तिमि वि जामे वसि, नियत्त निरच्चये चरमे ।। विइयपए असतीए, जयणाए वट्टणादीणि ॥ प्रथमायां पौरुष्यां विस्मरणतः पतिते तदानयनाय चरमायाम. तावति दूरे कृत्य स्थातव्यं यत्र पथिकः पथा प्रजन् पथि वि पौरुष्यां निवर्तते यदि च तेषामन्तगवासोऽस्ति । अथ चरमाकर्द्धस्थितो वा साधुमकृतं न पश्यति । एवं च पूर्ववर्णिता दोषाः यां दिनपारुष्यां पतति तदा रात्रेस्त्रीन् यामानुषित्वा चरमे यामे समस्ता अपि परिहताः। द्वितीये पदे अत एवापवादपदे पुनरु निरत्यये प्रत्यवायाभावतो निर्भयो निवर्तते ॥ द्वर्त्तने असति उद्वर्तनानावे पथ्यपि यतनया वदयमाणया स्था कारणे सुको इति व्याख्यानार्थमाह॥ नादीनि करोति सच तथा कुर्वन् तीर्थकराझ्या प्रवृत्ते शुरू इति। दूरं सो विय तुच्छगे, सावयतेणानदी व वासं वा । सांप्रतमुहर्तनाभावं यतनां चाह । संकटहरियच्चाया, असति य गहितोवही ठितो पेच्छे । इच्चाइकारणहि, करेंति उस्सग्गमो तस्स ।। दूरमतिशयेन गतानां स्मरणपथमवतीर्मः पतित उपधिः सोऽपि उडे व अप्पत्ते, सहसा पत्ते ततो पिढें ॥ वा उपधिरतिशयेन तुच्छः । मुखपोत्तिकादिरूपोऽतिशयजीमसंकष्टो नाम पन्थाः स उच्यते यो वा द्योरपान्तराने तत्रोद्वर्त्त श्चेति भावः । अथवा अपान्तराले व्याघ्रादीनि स्वापदानि स्तेना नस्यासंभवः । अस्य वा चतसृष्वपि दिनु समन्ततो हरितकायः। वा शरीरापहारिण उपकरणापहारिणो वा नदीवाऽपान्तराखे वर्षा अथवा पन्थानमति रच्यान्यत्र सर्वथा गया न विद्यते । ततः या पतति आदिशब्दात् म्लेच्छन्नयं वा अशिवं वेत्यादिपरिग्रहः एतैः कारणैरुद्वर्तनासंभवे पथ्येव गृहीतोपकरणो मुहूर्तमात्रमू इत्यादिभिः कारणस्तस्य विस्मरणतः पतितस्योपकरणस्य उईस्थितो मार्ग एव गयायां विश्राम्येत । यदा तु पथिकानाग त्सर्ग"वासिरामिति” त्रिनणनपूर्वकं परित्यागं करोति एवं करणे छतः पश्यति तदा तेषु तं प्रदेशमप्राप्तप्येव उत्तिष्ठति तथा ते अधिकरणादयो न नबन्ति ॥ जानन्ति पूर्वमेव उत्यित इति । अथ सहसैव ते पथिका अदृष्टा एवं ता पम्हट्ठो, जेसिं तेसिं विही नवे एसो।। एव संप्राप्तास्तदा तेषां पृष्ठं दत्वा नत्तिष्ठति यथा ते जानन्ति यथैष आत्मव्यापारेणोत्थित इति एवं मिथ्यात्वदोषाः जे पुण अन्ने पेच्ने, तोस तु इमो विही होइ । परिहता भवन्ति । एवमुक्तेन प्रकारेण तावत् येषामुपधिविस्मरणतः पतितस्तेषाझुंजण पाणुचारे, जयणं तत्थ कुव्वति । मेषोऽनन्तरादितो विधिर्भवति ये पुनरन्ये साधर्मिका प्रेवन्ते ते. पामयं वक्ष्यमाणो विधिर्भवति । तमेवाह ॥ जमाहडा उ जे दोसा, पुव्वं तेसु जतो भवे ।। भोजने पाने चारे च यतनां तत्र पथि करोति कथमित्याह ।। द8 अगिएहणे लहुगो, दुविहो नवही उ नायममातो। नदाहृता ये पूर्व दोषास्तेषु यतो भवेत् यथा ते न जवन्ति | दुविहा नायमणाया, संविग्ग तहा असंविग्गा ॥ तथा यतेतति जावः। | विविध उपधिरौघिक औपनाहि कश्च । तस्य हितयस्यापि पति Jain Education Interational Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवहि अन्निधानराजेन्द्रः। उवहि तस्य डा अग्रहणे प्रायश्चित्तं लघुको मासो ये च पूर्वमुक्ता अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति संदेशयति वा यस्त्वितरषामसंवि. अधिकरणादयो दोषास्तेऽपि तस्य प्रसजन्ति स चोपधियों | नानामुपधिस्तं पतितं दृष्ट्रान गृहाति । द्विधा ज्ञानोऽज्ञातश्च । तत्र ज्ञातोनाम येषां स उपधिस्तेषां झाय अत्रैवापवादमाह । ते अज्ञातो नाम यो न ज्ञायते यथा अमुकस्य संबन्धीति । ते इयरे वि होज गहणं, आसंकाए अणज्जमाणम्मि । झाता द्विविधाः संविना असंविनाश्च । किरण होज्जा संका, इमहिउ कारणेहिं तु ॥ मुत्तूण असंविम्गे, संविग्गाणं तु नयणजयणाए । श्तरस्मिन्नप्यसंविग्नपातिकसंबन्धिन्युपधावसंग्नपाक्षिकसंबदो वग्गा संविग्गे, छब्नंगा नायममाए॥ न्धित्येनाज्ञायमाने आशङ्कया प्रहणं भवेत् । सूरिराह पानिर्वदयमुक्त्वा असंविमान किमुक्तं भवति यो ज्ञायते असंविमानामेष माणैः कारणैः तान्येवाह। सपधिः स न नीयते यस्तु संविनानां तत्र द्वौ वर्गों तद्यथा संयताः ___ एहाणादिसमासरण, अहव समावत्तितो गयाणेगा। संयत्यश्च तत्र संविग्ने एकस्मिन्वर्गे षम्नङ्गा झाते भवन्ति अ सांवेग्गमसविग्गा, इति संका गेएहते पम्यिं ।। काते च वक्ष्यमाणो विधिः । तत्र पान्नानुपदर्शयति । जिनप्रतिमास्नानदर्शननिमित्तमादिशब्दात् संघप्रयोजमेन वा सयमेव अमं पसेइ,अप्पाहे का वि एव सग्गामे । केनापि समवसरणे मेलापके यदि वा एवमेव समापत्तितो परगामे वि य एवं, संजतिवग्गे विम्भंगा। गताः पुरतोऽनेके संविग्ना असंविग्नाश्च तेषां गच्छतां कस्याप्युबदि ते संयताः संविना इति तास्तदा स्वयं वा गन्तुं नय- पधिर्विस्मरणतः पतितः स न ज्ञायते सम्यक् किं संविग्नानां ति अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति संदेशयति वा यथा मया स केवलं स्यादसंबिम्नानामपति तं पतितं गृह्णाति । सपधिर्विस्मरणतः पतितो लब्ध इति । एवं स्वग्रामे त्रयो नङ्गाः सविग्गपुराणोवहि, अहवा विहिसीवणा समावत्ती। परप्रामेऽपि स्थितानामेते एव त्रयः प्रकाराः एवं पम्नङ्गाः संय- होज व असीवितो श्चिय, इति प्रासंकाए गहण तु ।। तानामेवं संयतीवगेऽपि भङ्गास्तदेवं ज्ञातविषये विधिरुक्तः। अथ । पुराणसंविग्नोपधेः किमुक्तं नवति येषां सत्क उपधिः संप्रत्यक्षातविषयं विधिमाह। पतितस्ते पूर्व संविग्ना आसीरन् पश्चादसंविनीतूताः स चौएहाणादिणा य घोसण, साउंगमणं च पेमणप्पाहे। पधिः पूर्व संचिम्नसीधनेन सीवितः। अथवा सविनरापि समापपम्हुई वोसडे, अप्पबहुअसंघरंतम्मि । त्या विधिसीनिकथा सांषितो यदि वा असीवित पथ संभवेयो न ज्ञायते कस्याप्येष उपधिरिति स परिज्ञाननिमित्तं स्ना ततस्तं धा आशङ्का भवति कि संविनानामुतासंविनानां तत नादिसमवसरणे घोप्यते घोषणं च श्रुत्या केनापि कथिते येषांस आशया ग्रहणं भवति। सपधिस्तत्र स्वयं वा गन्तुं नयत्ति अन्यस्य वा हस्ते प्रेपर ति । संप्रति ग्रहणानन्तरविधिशेषमाह । संदेशयति वा । तथा (पम्ह) विस्मरणतः पतिते व्यत्सृणे ते पुण परदेसगते, नाउ हुँजति अहव बजति । परित्यक्ते येनानीतस्तस्मिन्नसंस्तरति अल्पबहु परिजनाव्य परिभो- अन्ने उ परिहवणा, कारणलोगा व गीएसु ॥ गोऽनुज्ञातः । एतदेव व्याख्यानयति। तमुपधि गृहीत्या येषां संविग्नानां सत्क उपधिस्ते परदेश कामं विम्हाणे, चत्तं पुण जावतो इमम्हहिं। गताः ततस्तान्परदेशंगतान् ज्ञात्वा कारणे समापतित परिनुजते इति ते समणुल्ले, इच्छाकज्जेसु सेसेसुं । अथवा कारणाभावे परिष्ठापयन्ति । एवं कारणरसंविग्नानामपि येप स नपधिर्विस्मरणतः पतितस्तेषामन्तिकमानीयते नीत्वा | पतितम्पधि गृह्वानो न प्रायश्चित्तभाग्नवति । अथ येषां सत्क - चेदं भएयते यथाऽयं युष्मद्विस्मरणतः पतितोऽस्मानिश्चानीत- पधिः पतितो गृहीतस्ते संविग्ना अप्यन्ये असांभोगिकास्तेषां स्ततो गृह्यतामिति एवमुक्ते ते प्राहुः कामं नोऽस्माकं विस्मरणतः देशान्तरगतानामुपधि गृहीत्वा निष्कारणे परिष्टापयन्ति (कापतितमिदमुपकरणं परं नवत दमस्मानिस्त्यक्तं त्रिविधं त्रिवि रणत्ति) यदि ते सर्व गीतार्था न च तेषामपधिरस्ति यदि धा धेन व्युत्सृजितमिति भावः । एवं वति उपधिस्ते यदि संभो- तादृश उपधिरन्यो पुलंनस्तदा एवं कारण परिनुजते । अथ ते गिकास्तेन च विना संस्तरन्ति तर्दि स येषां सत्कस्तैः परिष्ठा- अगीतार्थ मिश्रास्तदा परिष्टाप्यन्त प्रज्ञाप्य वा गीतार्थान्परिजत पयन्ति । "एतेन इच्छगकजेसु इति" व्याख्यातम् । संप्रति "सेसे- पतश्चान्यसांनोगिकसत्कतया परिझायते । व्यपरिझाने प्रागुक्त सुत्ति" व्याख्यायते । शेषा असांजोगिकास्तेष्वपि कार्येष्विच्छ एव विधिः। इयमत्र भावना अन्यसांभोगिकैरानीते तैश्च प्रतिषेधे यदि यैरा- विश्य पदे न गेराहेज्जा, संविग्गाणं पि एदि कज्जहिं। नीतस्ते तेन विना संस्तरन्ति अन्यश्चोपधिदुभो न लभ्यते वा आसंकाए य नज्जइ, संविग्गाण च इयरेसि ।। तदा तैः समनुज्ञातं परिजुञ्जते एतावता “अम्पबहुसंथरंतम्मि" | द्वितीयपदे अपवादपदे संविनानामपि पतितमुपधिमभिवंदयव्याख्यातम् । तदेवं संविग्नानां विधिः।। माणैः कायः कारणर्न गृहीयात् ।तान्येवाह नझायते किमेष संघि___इदानीमसंविम्नानामुपधिविधिरुच्यते। मानामुत इतरषामसंविग्नानामित्याशङ्कया पतितं न गृहाति तथा॥ पविखगापक्खिगा चेव, हवंति इयरे दुहा । असिवगहियं व साज, ते वा भव व होज्ज जइ गहियं । संविग्गपक्खिगे ऐति, इयरेसिं न गेण्हात । ओमेण अन्नदेस, व गंतुकामा न गेएहेज्जा ॥ इतरे असंविग्ना द्विविधास्तद्यथा पालिका अपालिकाश्च संवि- येषां स उपधिस्ते अशिवगृहीता येन दृपःसनेति प्रथमोभङ्गः ग्नपालिका असंविग्नपातिकाश्च श्त्यर्थः । तत्र यः संविग्नपा- यैदृष्टस्ते अशिवगृहीता येषां सत्कस्तेन गृहीता इति हितीयः किकः संविग्नपाक्षिकस्य संबन्धी पधिस्तं स्वयं वा नयति । वनयं गृहीतमितितृतीयः३चन्नमपि न गृहीतमिति चतुर्थो ४ज Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि अन्निधानराजन्छः। जवहि हुः तत्र चतुर्थे भने अपवादमधिकृत्य शून्यो न भवति तत्रापवाद अध्वनि मार्गे निर्गता अभ्यनिर्गता आदिशब्दात् अशिवादिइति भावः । तत्र प्रथमजङ्गेन गृह्णाति अशिवोपहतत्यात हिती. भिर्वा कारणैर्निर्गताः परिगृह्यन्ते तेषामुपकरणे दग्धे बहिना नयेऽपि न गृह्णाति तदानीं तस्य तैरवग्रहणादाशिवोहतत्वात तृतीये स्मीकृते निन्ने वा विविक्ते वा विस्मरणतः पतिते वास्तव्याजङ्गे सदृशे अशिवे कारणे गृह्णाति विसदृशे सोमसुखादिबक- स्तान अवनिर्गतादीन ब्रुवते अस्माकमुरितानि वसा.ण न गर्न गृह्णाति यदि वा अवमौदर्यण देशान्तरं गन्तुकामा न गृहीयुः॥ सन्ति केवलमस्माभिरमुकप्रदेशे परिष्टापितानि धर्तन्ते तान्या अह पुण गहियं पुव्वं, न य दिढ जस्त विच्चुय तु ।। नीय गृहीथ पवमुक्ते तेऽपि प्राघूर्णका ये गीतार्थास्तान प्रेषउवहावियनदेस, मिणा विहिणा विगिंचिज्जा ।। यन्ति वास्तव्या अपि च तेषां चिह्नानि उपदिशन्ति यथा गर्तभथ पुनर्गृहीतं पूर्वमुपकरणं न च स दृष्टो यस्य सत्कं तदुपकः | समीपे गिरिसमीपे तरुसमीपे कूपसमीपे इत्यादि (प्राणयणरणं विच्युतं विस्मरणतः पतितं यस्मात् (उवहावियनदेसंति) मिति) अथवं चिह्न कथितेऽपि स्थानं न जानन्ति यदि वा न भथ पुनर्थहीतमुपकरणं न च स दृष्ये यस्य सत्कं तपवेगेन ते वास्तव्या म्यानादिप्रयोजनावृतास्ततः स्वयमानीय प्रयधाविताः प्रधाविता अन्यं देशं गतास्ततः अनेन पक्ष्यमाणेन यन्ति (पेसणं वा वित्ति ) अथवा वास्तव्याः प्राघूर्णकानां विधिना विवेचयेत् परिष्ठापयेत् । तमेव विधिमाह ॥ देशकं ददति यथा अमुकप्रदेशे वस्त्रादि परिष्ठापितमस्ति तदमीषां दर्शय अपि शब्दात् यदि खानादिप्रयोजनैन ब्यादुविहा जायमजाया, जाया अभियोग तह असुद्धा य । वृतास्तदा परिष्ठापितानावे अन्यतू याचित्वा प्रयच्छन्ति ( अआभयोगादी उत्तुं, इयरं पुण अक्खयं चेव ॥ वि कोविए अप्पणमिति ) आनीते परिष्ठापित कोऽप्यकोविदो सा परिष्ठापनिका द्विविधा जाता अजाता च तत्र जाता नाम गीतार्थ उपहतमिति कृत्वा नेति तत्र प्राघूर्णकैर्वास्तव्यैवा तभजियोगकृता विषकृता च तत्रानियोगो वशीकरणम् । अथवा स्यात्मीयं वस्त्रं पात्रं वा दत्वा श्तरत्स्वयं ग्रहीतव्यम् । अथ तजाता अशुद्धा सा हिविधा मूत्रगुणाशुका उत्तरगुणागुकात्र । दपि कश्चिदगीतार्थतया न गृह्णीयात्तर्हि तत् आनीतं पुनः परितत्र जाता अभियोगकृता विकृता वा मूत्रगुणाशुझा उत्तरगुणाशु- टाप्यते एष गाथासंकेपार्थः । का वा सा उत्तुं भेन्तुं वा कर्तव्या। इतरत् पुनरुपकरणमाभयो सांप्रतमेनामेव विवरीषुराह । गादिदोषरहितमकतं चैवपरिष्ठापयितव्यम् । अत्र पर प्रश्नं करोति अघाण निग्गयादी, नाउ परित्तोवही विवित्ते वा । पहनिग्गया इयाणिं, विजाणणहाइ तत्य चोदेइ । संपड्डगभंडधारी, पेसंती ते वियाणंतो ।। तेसि मुछिनिमित्तं, कीर विधि इमं तु तहिं ।। अश्यनिर्गतादीन आदिशब्दादशिवादिकारणनिर्गतपरिग्रहस्तापथि निर्गताः आदिशब्दादशिवादिभिः कारणैर्निर्गताः परिगृ न परीतोपधीन परिमितोपधीन् विविक्तान्या विविक्तोपधीह्यन्ते तेषां शूफिनिमित्तं यदत्र प्रागुक्ते विधौ प्रतिपादिते परः न्वा विस्मरणतः पतितोपधीनित्यर्थः । उपनक्कणमेतत् दग्धोपअसहमानश्चोदयति प्रश्नयति पथिनिर्गतादीनां पथिनिर्गता मा- | धीवास्तव्या ज्ञात्वा कथंनृता वास्तव्या इत्याह । संपादुकभार्गप्रतिपन्नास्तेषां परिष्ठापितमिदमिति विज्ञानार्थ तत्रेदं वक्ष्यमा एमधारिणो नाम यावन्मात्रमुपकरणमुपपद्यते तावन्मानं धरणं चिह्न क्रियतामिति । तदेवाह । न्ति शेषं परिष्टापयन्ति । ततस्तान् तथाभूतान् दृष्ट्वा वते - एगा दो तिनि वली, वत्थे कीरति पत्तचीराणि । स्माकमुद्वरितानि वस्त्राणि न सन्ति कि त्वरमाजिरमुकप्रदेशे सुज्झंतु चोदगेणं, इति नदिते वेति आयरितो ।। परिछापितानि वर्तन्ते तानि गत्वा प्रतिगृहातेति एवमुक्ते तम्वगुणैरशुळे वस्त्रे एकावविरेकं वयं कृत्वा तत् परिष्टाप्यते थाऽपि प्राघूर्णका जानते गीतार्थान्प्रेषयन्ति कथमित्याह । मलगुणरशके पात्रे पकं चीवरमेकं प्रस्तरं किप्त्वा तत्परिष्ठा गड्ढागिरितरुमादी ण, काउं चिंधाणि तत्थ पसंति। प्यतामुत्तरगुणैरगुके शुरू या क्रियेतां पात्रे द्वे चीवरखण्डे द्वौ अवयवेटा सयं वा, आणं तवं व मग्गति ॥ वा प्रस्तरी किप्येयाताम् । मूबगुणरुत्तरगुणैश्च शुके वस्त्रे त्रीणि अत्र प्राघूर्णकाः प्रेपित न वास्तव्या गर्तगिरितर्वादीनि चिचक्राणि क्रियेरन् । पात्रे त्रीणि चीवराणि त्रयो वा प्रस्तराः हानि कृत्वा प्रेषयन्ति यदि वा सानादिनिरच्याप्रताः स्वयमानक्विप्येरन् इति । अमुना प्रकारेण चोदकेनोक्ते प्राचार्यो व- यन्ति परिप्तापिताभावे अन्य मार्गयन्ति । सांप्रत"मविकोविए वीति । किं तदित्याह। अप्पणगमिति” व्याख्यानयति । सुखमसुखं एवं, होति अनुकं च सुचवायुवसं । नीय म्म य उवगरणे, उवहयमेयं न इ काई । तेण तिदुगेगगंठी, क्त्ये पत्तम्मि रेहो न ।। श्रावकोविय अप्पणगं, अनिच्छमाणे विविंचंति ॥ एवं युष्मक्तप्रकारेण चक्रकरणे वातवशात् शुद्धमपि चक्र- नीतेऽप्युपकरणे कश्चिदकोविद उपहतमेतदिति कृत्वा नेकद्विकाङ्गतोऽशु भवति । अशुद्धमपि वातवर्शन चक्रत्रिकभा- च्छेत तस्मिन्नकोविदे आत्मीयं वस्त्रादि समय॑ते । अथ तदपि वतः शुळ जवति। पात्रमपि यातवशेन पकब्किचीवरापगमे शुरूं मेच्चति तदा परिष्यापितमानीतं पुनर्विविञ्चन्ति परिप्पयन्ति । भवति । अशुद्धमपि वातवशेनान्यागन्तकचीवरख एकसमागमे असतीए अप्पणावि, झामियहियवृढपमियमादीसु। शुरूं तस्मादयं विधिस्तत्र कर्त्तव्यः । मूरोत्तरगुणगुले वस्त्र त्रयो सुज्झति कयप्पयन्नो, मेव गएहं असढनावो ॥ ग्रन्थयः कर्तव्याः पात्रे तिस्रो रेखाः उत्तरगुणरशके वस्त्र द्वौ ग्रन्थी पारेखेमूत्रगुणरशुझे वस्त्रे एको ग्रन्थिः पात्रे एका रेखा । येन पूर्व तत् परिष्यापितं तस्य पश्चादुपधिः कथमपि प्रदी पनकेन दग्धः हृतो या तस्करैः पानीयेन वा नद्यादिप्लवेन सा. अछाणनिग्गयादी, नवएमा गएण पेसणं वावि । वितः व्रजतो वा कथमपि विस्मरणतः पतितः । आदिशब्दात्प्रअविको वते अप्पणम, दके निन्ने विवित्ते य । त्यनीकन वा केनापि वस्त्राणि फाब्रितानि पात्राणि अनेकधा Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१२) अभिधानराजडः | उवहि जिन्नानि ततो ध्यामितहृतव्यूढ पतितादिषूपकरणानि याचनीयानि तेषामप्यसत्यनावे प्रयत्नस्तदेव पूर्वपरिष्वापितं स्वयं गु हानेऽशठभाव इति कृत्वा शुरूः । व्य० द्वि० ० उ० (निक्काच यांक उपवितव्य इत्येणाविहारादिशब्देषु) (१६) स्थविराणां ग्रहीतव्या उपधयः ॥ (सूत्रम् ) थेराणं धेरनर्मि पत्ताणं कप्पति दंगए वा ? जंग वा २ उत्तगंवा ३ मत वा ४ लडिया वा ५ भिसि वा ६ वा ७ चेनचिनिमिलिया वा चम्मए वा ए चम्म कोसं वा १० चम्मपत्रिच्छेयणाए वा ११ विरहिए छ वा से वेत्ता गाहावतिकुलं भत्तए वा पाणाए वा पविसित्तए वा निक्खमि वा कप्पति से सं नियट्टचा रिस्स दार्थ पिलाई वित्ता परिहारं परिहरित्तए वा || ५ || स्थविराणां जरसा जीर्ष्यानां स्थविरभूमिं प्राप्तानां सुत्रार्थतजयोपेतानामित्यर्थः कल्पते दकं चिकादिभिन्नं भएक कमनेकविधानि उपकरणानि उनके प्रतीतं मात्रकमुचरादिसत्कं लटिका दमविशेषः । चेलं कल्पादि चर्म्म तनिकादिरूपं धर्मपरिच्छेदकं या पता अधिरहिते स्थापयि स्वा गृपतिकूलं पिएमपातप्रतिपाताय प्रवेष्टुं वा निष्कमितुं वा कल्पते सनिवृत्तचराणां नाचतः प्रत्यागतानां स्थविराणां द्वितीयमपि वारसवग्रहमनुज्ञाप्य परिहर्तुं धारणया परिभोगेन चेत्येष सूत्राकरमात्रार्थः । विशेषत्र्याख्या तु प्राष्यकृता क्रियते । सन यानि पदानि व्यापानि तानि दर्शयति ॥ दं विदं लडी, विडिचम्मे य चम्मकोसा य । चम्मस्स ने या पेरा वि जे व जराजुणा ॥ दरको विरामः यष्टिर्वियष्टिः चम्मचकोशः चर्मणा ये बेदास्ते चर्मपरिच्छेदनकास्ते च व्याख्येयास्तत्र प्रथमतःस्थविरपदमावते स्थविरा अधि च ये जरालेयाः ॥ श्रयवताणनिमित्तं, छत्तं दंमस्स कारणं वृत्तं । कम्दा वे पुच्छा, संदिग्यपरो दुग्गडा || आतप उष्णेन परितापना तस्य त्राणार्थ उत्रकं गृह्णाति दएकस्य उपकृणमेतत् चिपकानां कारणं पूर्वनिक भणितम् । अथ कस्माइएकं स्थापयति एषा पृच्छा अत्रोत्तरं दमको दीर्घः स्वरिब्ध ततः तं दुर्गे व्याघ्रादिपरिवारनिमित्तं परिवदति ॥ संप्रति भाषादिव्याख्यानार्थमाद | जंड परिम्गडो खस उमारादी व मलगा तिनि । अवा नंग्गणे, अहेगवि जडगं गहियं ॥ भाएककः खलु पतग्रह उच्यते उच्चारादौ च आदिशब्दात् प्रश्रवणे श्लेष्मणि चेति परिग्रहस्त्रीणि मात्रकाणि जवन्ति तद्यथा उच्चार मात्रकं प्रश्रवणमात्रकं श्लेष्ममात्रकं चेति । अथवा जाएककग्रहणेनानेकविधं भाएककं गृहीतं द्रष्टव्यम् ॥ वेलम्महणे कष्णा, तसथावरजीवदेहनिष्पन्ना । दोरग इयरा व चिलिमिलि कम्मतझिगाव कत्तिध्वा ॥ बेलन अस्थायीवारी निष्पक्ष किसकरुपा इत्यर्थः कल्पाः परिगृह्यन्ते चिह्निमिलिर्नाम जवनिका सादवरकमय। इतरा वा या चर्ममयतालिका उपानत कृत्तिर्वा आपको उबहि siya फाणू, नह कोसच्छेयणं तु जे बच्छा । दिना दुवा चर्ममयः कोशा चम्मकोशः सोऽङ्गस्य यदि वा (अवरफाणु) पाष्णिका तस्याः परिरक्षणाय धियते । अथवा नखरदनादेरोपप्रदिकोपकरणविशेषस्य धर्ममयः कोशथामकोशः तु स्ते धर्मपरिच्छेदकमित्युच्यन्ते तेच निधानार्थमववा द्विख एकसंधान देशोप्रियन्तं तदेवं विश्रमपदानि व्याख्यातानि संप्रति दकाद्युपकरणस्थापनाचिन्तां चिकीर्षुराद जय वेश असले, न य वेइ देज्ज अत्य ओहाणं । लहुगो सुने सहुगा, हियम्मि जत्य पावति ॥ यदि चाशून्ये अविरहिते प्रदेशे दएकाछुपकरणं स्थापयति न च कस्यापि संमुखमेचं ते अत्र यादवधानमुपयोगमिति तदा तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः । अथ शून्ये स्थापयति तदा चत्वारो लघुकास्तथा शून्ये मुक्ते स्तेनैश्चापहृते यत्र यत्र जघन्ये मध्यमे उत्कृष्टे वा उपकरणे प्रायश्चित्तमुक्तं तत्प्राप्नोति । अत्र परस्याशङ्कामाद || एवं सुतं फलं जणि कप्पतिथि थेरस्स । भाति सुत्तनिपातो, ती महास्स पेरस्स || चोदकः प्राह यद्येवमये च प्रदेशे उपकरणे दोषस्तर्हि तत्सूत्रमफलमविषयं कल्पते अविरहिते अवकाश स्थापत्त्यादि । सूरिराह भएयते अत्रोत्तरं दीयते श्रस्य सूत्रस्य निपातोऽतिमहतोऽतिशयेन गरीयसः । गच्छाणुकंप णिज्जा, मेण उवेऊण कारणं तु । हिंजुम, सुबो समामेणं ॥ तं सोऽतिवृद्धो महान् गच्छस्यानुकम्पनीयं परं येन कारणेन स जीवों महान् एकाकीभूतोऽविरहिते प्रदेशे उपकरणं स्थापयित्वा भिक्षां हिण्डते तत्कारणं समासेन वषये तथ्य वक्ष्यमाणं शृणु प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति । सो पुगच्छेण समं गंतू जंगमो न वा एइ । पण हिंद बेरो पयण || स पुनरजंगमो गच्छेन सति ततः स गच्छ स्यानुकम्पनीय इति कृत्वा स्थविरो वक्ष्यमाणेन प्रयलेन यतनया हिण्डते तमेव प्रयत्नमाह । पिणि उ मेरा भणिया लोनजेण । संक्रमणे पडवणं, पुरो समर्ग व जयशाए । यमुपचि न कोऽपि तर्कयति विशेषतः परिभावयति तेनातकरणीयेनोपधिना श्रत एवालोचनीयेन लोभगोचरतामतिक्रातेन परिधाप्य मासकल्पप्रायोम्पस्य वर्षावासमायोग्यस्य या क्षेत्रस्य संक्रमेण कर्त्तव्ये याचार्येण ते स्थविरा अतिमहान्तो भणिताः पुरतः समकं वा यतनया चल्यता तत्र यदि प्रतिभासते तर्हि पुरतो साधुभिः सह तस्य प्रस्थापनं क्रियते । श्रथ न शक्नोति पुरतो गन्तुं तदा समकं नीयते कथमित्याह । यतनया तामेव यतनामाह । संघाग एगेण व, समगं गेएहंति सभए ते उवहिं । aaकम्म दवं पदमा, करेंति तेसिं असति एगो ! यदि गच्छेन समं प्रति ततः सुन्दरमेव सकलस्थापि ग च्छस्य तःसाहाय्यकरणात् । अथ समकं गन्तुं न शक्नोति तदा Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१३) अभिधानराजेन्ऊ: उबहि साधुसंघाटकेन समं साधुसंघाटकस्याभावे एकेन वा साधुना समं ब्रजति त यो सहायी इसी ती तस्योपकरणंगृहीतः परिवहतः। यदा तु वीरभयेन समयं स्थानं तदा समस्तमपि उपधिकल्पादिलतो त्या स्थापिरो यथाजातः कृत्वा अग्रे कियते ततः समयस्थानने कृतिकर्म्मविश्रामणां तस्य कुरुतः कृत्वा द्रवं पानीयश्च समर्पयतः । तदनन्तरं प्रथमालिकां कारयतः । तयोर्द्वयोः साध्वोरभावे एकः समस्तं प्रागुक्तं करोति । न गच्छेजाहि गणो, पुरतो पंबे यसो फिडिजाहि । सत्थख एवं रिक्वं पपिंगप्पा ॥ श्रथैकोऽपि सहायो न विद्यते तदा स्थविर एकाक्यपि पुरतः प्रवर्त्यते तत्र यदि साथदिपरितं गच्छन् स गणरतो गच्छेत् यदि वा पथि परिश्यादिना स स्फिरितो भवेत्र एक साधुं रिकमुपकरणरहितं स्थापयते । अथ तत्र शरीरापहारिस्तेन जयं दुष्टज्याघ्रादिखापद्भयं वा ततः स मोतुं न शक्यते तर्हि श्रप्रेतनस्थानात्प्रतिनिवर्त्तमानं पथिकमप्याह इति संदेशापयेत यथा साधुसमुदायो व्रजन्नास्ते तस्मात्वरितमागन्तव्यमिति । संप्रति यथा स स्फिटितो भवति तथा प्रदर्शयतिसारिक्खकरिसीए, अहवा वाते हुज्ज पुट्ठो उ । एवं फिडितो हुज्जा, हवा वीपरिरणं तु । कलगए व सहाए, फिरितो वा वि संजमो हुज्जा । पढमपिकतो वरण व गामपविट्टो व जो हुज्जा ॥ पथि गच्छतो मार्गव्यं तत्र येन पथा गच्छो गतस्तस्मादन्यस्मिन्पथि केचित्साधुसदृशाः पुरतो गच्छन्तो दृष्टास्ततः साधव पते गच्छन्तीति सादृश्यकर्षिएया मित्या विप्रलब्धः सन् तेन पथा गच्छेत् अथवा अपान्तराले स वातेन स्पृष्टः स्तनोति न प्रकारेण रिपार्टतो जवेत् । अथवा तथाविधमहागर्त्तया पर्वतस्य नद्या वा परिर येण स स्थविरो वजन गच्छन् स्फिटितः स्यात् । यदि वा यस्तस्य सहायो दत्तः स कालगत इति स्फिटित एकाकी संजातः। अथवा संभ्रमे वा त्वरितं सार्थेन सह पलायमाने गच्छे स्थत्रिरः शनैर्व्रजन् गच्छन् स्फिटितो न्यात् । यदि वा प्रथमेन क्षुत्परीषदेण पीमितः सन् यः स्थविरो ग्रामं वजिकां वा प्रविशे जवेत् गच्छ स्तेनादिभयेन सार्थेन समं त्वरितं व्रजति सगकरितो चुपात् । एहिं कारणेहिं फिडितो जो इमं तु काऊण हितो मग्ग, इतरे विय तं विमग्गति ॥ एतैरनन्तरोदितैः कारणैयों गच्छात्स्फिटितः सोऽष्टमं षष्ठं चतुर्थ वा कृत्वा भिकामटन् गच्छं मार्गयति अन्वेषयति इतरेऽपि च गच्छाघवस्तं स्थविरं विमार्गयन्ति । अथ ते गच्छसाधवः सा सन्तो यदि साथै मुञ्चन्ति तदा स्तैनैरपि डीयन्ते वनदान चा दान्ते ऐन वा स्थापन केनापि गृह्यन्ते ततोपयितुं न शक्नुवन्ति ताई स्थविरेणावश्यमुक्तप्रकारेण मार्गणा कर्त्तव्या । अह पुरण न संयरेज्जा, तो गहितेणेत्र हिंडते भिक्खं । जइ न तरेज्नाहि ततो, उपजा प्रमुखमि ॥ यदि पावन संस्तत्तत स्तदा तपकरणमशून्ये प्रदेश स्थापयेत्। पानिधानानि तानि प्रदर्शयति । उवहि यानि ब पुण उनि पचिगकम्प वा । नापवेज्ज दीहं, बहुर्भुज तत्थ पच्चित्तं ॥ तिम्र बहुग देसु लहुगो, खग्धाश्यणे य चलन् होवि । चगुरु समखंडीए, अप्पत्तपमिच्यमाणस्स || अत्राद्यगाथापदानां द्वितीयगाथोक्तप्रायश्चित्तैः सह यथासंख्येम योजना सा चैवमथ पुनः स्थापयेरेषु वयमाणेषु स्थानेषु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे ततः प्रायश्चित्त संभवस्तत्र यदि शून्ये स्थापयति ततस्तु अफिमकायामपि शालायां स्थापने तुका अम्निमा यदि कथमप्युकरणस्य दादस्तदा तनिष् नमपि प्रायश्चित्तं जुगुप्सितगृहेषु स्थापयति चतुर्लघु तस्मादेतानि वर्जयित्वा वक्ष्यमाणेषु स्थानेषु स्थापयेत् यत्र स्थापयति अनुपता धनुझाने माखल दीघापंति मात्र यह हजारो वो नयन्ति (खारयणेति ) वकस्य प्रयुरस्य यदने सतीत्यर्थः । तथा अप्राप्त संखमी प्रतीक्षमाणस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । संप्रति येषु स्थानेषु स्थापयेत्तानि दर्शयति । असतिय समानार्थ सम्योपहिया व दय था । देसकसि हिंद मह लेन आए । यदि सुमनाः सन्ति वहि तेपूपकरणं स्थापयितव्यं तेषामसत्यभावे मनोनामपि प्रसांभगिकानामप्युपाये स्थापयेत् यदि वा सर्वेणाऽप्युपचितो न कि यदि शक्तिरस्ति पायें स्थापयति यदि वा यथा भद्रकेषु गृहे स्थापयति (देसकसिणे व घेतुमिति ) समस्तस्योपदेशतानि यानि कृत्स्नानि परिपूर्णानि कल्पादीनि तानि गृहीत्वा निकामटति अती तान्यपि वा परिभ्रमति सवि लाने तेषु सुषु निकामात अन् उपकरणं पश्यति । असति अविरडियम्मि णिचिकादी अंतिए उप । देह ओहाति, जाव अक्लिं परिजयामि || श्रसति अविद्यमाने भावे अविरहिते प्रदेशे नैत्यकादीनां नैत्यिको ध्रुवकमिको लोहकारादिरादिशब्दात् मणिकार शंखकारादिपरिग्रहस्तेषामन्तिके स्थापयेत् ब्रूते च दद्यादस्योपकरणस्यानेपानिकां परिभ्रमामि ॥ वयेति गती या समवं तेसि बंधिनं । आगतो रक्खिया जोत्ति, तेण तुब्जेच्चिया इमे ॥ तेषां कामिकां समहं गणयद बच्चा स्थापयति वा शब्द स्थापनाविषयप्रकारान्तरसुचने भी मपिवामनुज्ञापयतेि कथमित्याह भो इत्यामन्त्रणे युष्मा भी रक्षितान्यमूनि तेन युष्मदीयानीमानि मां गृह्णन्तमनुजानीत ॥ दहूण वा विं, केरण सुन्दो चि पुच्छति । रहिये किं घरं आमी को परो व इहागतो । वह यदा तेषां समकमुपकरणं बध्वा स्थापयति तदा सानिज्ञानं ग्रन्थि बध्नाति । ततः आगतः सन् तं प्रलोकयति । मा केनाप्युन्मुच्य किंचित् हृतं स्यात्तत्र यदि तथैव ग्रन्थिं पश्यति ततः पूर्वकप्रकारेण द्वितीयपापयति अचमि न्यथा पश्यति ततो मुझे केला धिरमुदित इति Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवहि अभिधानराजेन्द्रः । नवहि पृच्छति । तथा किमिति क्केप रहितं शन्यं गृहमासीत् को वा भिक्षाटनेम च खिन्नः परिश्रान्तस्तहि तत्रैव छन्ने श्रावृते प्रदेशे अपर वह समागत इति । भुङ्क्ते। अथ छत्रप्रदेशो नास्ति तर्हि (कञ्चगे व दुगे ) सर्व नत्यि वत्युं सुगंजीरं, तं मे दावेह मा चिरा। भाजनाद्यावृत्य भाजनस्य च कल्पं कृत्वा भुके। नदिट्टो वा कहं एत्तो, तणो वो इह ।। मझ दवं पिवत्तो, भुत्ते वा तेहि वा दवावेति । ममोपकरणमध्ये यास्तु सुगम्भीरमतिशोजनं तनास्ति तदर्शय नेच्छे वा मोयत्तण, एमेव य कच्चए डहरे॥ तद्वस्तुमा चिरकासं कुरु । अथ न गृहीतं मया नापि कोऽप्याग मध्ये भोजनमध्यभागे किञ्चित् भुर्के इत्यर्थः । एवं पिबन पाजन एस्तत आह नदाटो वा कथमत्रागात् स्तनक (उब- तुकामो वा भुक्ते वा परिपूर्णस्तैरेव गृहस्थैर्दापयति मात्रकायति) उत्परकः अवश्य इष्टः स्वयं वा गृहीतमिति नावः॥ स्पानीयमपवर्तापयति अपवापि द्वाभ्यां हस्ताभ्यामञ्जलिं धम्मो कहिज सि, धम्मट्ठाए व दिनमन्ोहि । कृत्वा पिबति तथा यदि क्षुल्लके नववटुकेन सधै भक्तं माति तदा तुम्जारिसेहि एयं, तुज्सु य पञ्चतो अम्हं ।। यः पानीयविषये विधिरुक्तः स एवात्रापि द्रष्टव्यस्तथा एवमेष अनेनैव प्रकारेण डहरे कुल्लके तश्च द्रष्टव्यम् । धर्मस्तेषां प्रवकम्मिकप्रकृतीनां कथ्यते । कथयित्वा च पर्यन्ते अप्पडिवझंतगमो, इयरे वि गवेसए पयत्तेण । संघाटकमानीयमिदमुच्यते धर्मार्थमेव युप्मादृशैरन्यैरेतत् उपकरणं मह्यं दत्तं युष्मासु च विषये अस्माकमतीव प्रत्ययो वि. एमेव अवृहस्स वि, नवरं गहिएण अडणं तु ।। श्वासस्ततः किमित्याह । एवं यतनां कुर्वतो वजिकादिष्वप्रतिबध्यमानस्य प्रतिबन्धमतो वियं ऐपत्य, दिजन तं सावया इमं अम्हं। कुर्वतो गमो गमनं गच्छे भवति । इतरेऽपि च गच्छसाधवस्तं स्थविरं प्रयत्नेन गवेषयन्ति गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् । जइ देंती रमणिज्ज, अति ताहे इमंजणति ॥ योऽप्यवृद्धः कारणतः कथमप्येकाको भवेसस्याप्येवमेवाननैष बत पवंतस्मात् थावका यन्नोऽस्माकमत्र स्थापितं तदिदमस्माकं प्रकारेण यतना द्रष्टव्या नवरं भिक्षार्थमटनं गृहीतेनोपकरणेन दीयतामेवमुक्ते यदि ददति ततो रमणीयं सुन्दरम्। अथ नददति तस्य द्रष्टव्यम् । व्यद्वि०८ उ०। (तीर्थकृतां सोपधित्वं तिततोऽददतस्तान् इदं वक्ष्यमाणं भणति । तदेवाह ।। स्थयरशब्द) (उपधेरवश्यधारणीयत्वं वोटिकशब्दे )(मध्यथेरत्ति काउं कुरु मा अवनं, संतीसहाया बहवो ममन्ने। मतीर्थकरसाधयो महामूल्यान्यपि वासश्रादीनि भुञ्जत इत्यजे उग्गमेस्संति ममेयमोसं, खित्ताइ नातं इति ते अदेते। चेलगशब्दे दर्शितम् ) (पादप्रोग्छनकादीन् याचित्वा प्रत्यस्थविर इति कृत्वा मा ममावां कार्युर्यतः सन्ति ममान्ये बहवः पणं पादपुंछणकादिशब्देषु ) ( उपधीनां धावनं धोवणशब्दे) सहाया ये केत्रादि ज्ञात्वा केत्रकामादिकमवबुद्ध्य ममैतत् मास- | (१७) निर्ग्रन्थीनामागमनपथे उपकरणानि स्थापयति ॥ मुमयिष्यन्ति इति पतत् तान् अददतः प्रति ब्रूते । ( सूत्रम् ) जे जिक्खू णिग्गवीणं आगमणं पहसि दनवहिप्पडिबंधेण, सो एवं अत्यई नहि थेरो। मग वा लट्ठियं वा रयहरणं वा मुहपत्तिं वा अएहयरं वा पायरियपायमझा, संघाडेगो व अह पत्तो ।। उवगरणजायं ग्वेइ ठवित्तं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥ उपधिप्रतियन्धेन स स्थविरस्तत्र एवमुक्तप्रकारेण अर्थयति जेण पहुणपक्खियादिसु आगच्छति तिमिपहे दंडो वा हुप्पतावत् यावदाचार्यपादमूलात् संघाटक एको वा साधुः समा. माणो सही आयप्पमाणा अस्पतरगहणा ओहियं नवम्गहियं वा. गच्छति । अथ सोऽपि प्राप्तः तर्हि यत्तः कर्तव्यं तदुपदर्शयति।। णिक्खिवति तम्मि पहे मुंचति तस्स मासबहुं प्राणादिया य ते वि य मग्गति ततो, अदत्ते साहेति नोझ्याईणं । दोसा कहं उवकरणस्स णिक्खवसंभवो उच्यते । एवं तु उत्तरुत्तर, जा राया अह व जा दिन्न। णिसिपंते य ठवेजा, पमिलेहंतो व भत्तपाणं तु । तेऽपि प्राचार्यपदे मूबादागताः साधवस्तान् ध्रवकर्मिकादी- संथारझोयकितिकम्म, कत्तितवावाप्रणो भोगा। १२१ । मार्गयन्ति याचन्ते ततो यदि न ददति तर्हि तान् अददतो जिसिपंतो रयहरणं मुंचति जत्नपाणाति या पमिसेतो संथाभोजिकादीनां नगरप्रधानपुरुषादीनां साधयन्ति कथयन्ति । रगं बम्तो वा लोयं वा करतो कितिकम्मं घिस्सामणंतं वा कअथ तत्रापि न किमप्यनुशासनं तर्हि ततोऽपि वृहतां वृहतां वृह रंतो मत्ताए वा कत्ति तावण मुचति अणानोगेण वा पतेहिं कारतराणां कथनीयम् । एवमुत्तरोत्तरस्य कथनं तावत् यावत् यहिं रोहरणादि मुंचता ॥ राजा अथवा याबद्दसं भवति तावत्कथनीयम् । निग्गंधीणागमणं, पवेज्जो य निक्खु णिक्खिये। अह पुग्ण अक्खयचिढे, ताहे दोव्योम्गहं अणुनवए। कश्तवणं अम्मतरेण गुरुगा लहुगोतरे पाणा ॥२२॥ तुम्भव्वयं इमं ति य, जेणं ने रक्खियं तुमए ।। पडिपुच्चदाणगहणे, सलावणुरागहासखेडे य । अथ पुनस्तत् उपकरणमक्षतं तिष्ठति तदा द्वितीयमवग्रहम- भिलकधादिराधण, दहण व जावसंबंधा ॥ २५३ ॥ नुज्ञापयति यथा इदं समस्तमप्युपकरणं युष्मदीयं येनेदं यु- कतितवणं मेहुणटुस्स चउगुरुगं इतरं अकेत, अणाभोगो माभी रक्षितं तस्मान्मांगृहन्तमनुजानीतेति एतावता'कप्पति- अणाभोगण मुंचति । मासलई प्राणादिया य दोसा नवंति इमा एहं सन्नियट्टचाराणं दोञ्चपि उमाहं अणुत्मवित्तति'व्याख्यातम्। चरित्तविराहणा पमिपुच्चगा पढमा पुच्चा वितिया पमिपुच्ा घेत्तूवहिं सुन्नघरम्मि लुंजे, खिन्नो व तत्थेव य छन्नदसे । । तस्सिमं धक्खाणं । उनो सतोतुंजकच्चगेऊ, सव्यो वि उजाण करेतु कप्पं ॥ | कस्सेयं ति य पुच्छा, मम्मिति का तृण किं वृतं वितिया। गृहीत्वा उपधि शून्यगृहे गत्वा भुङ्क्ते । अथ मार्गपरिश्रमेण वित्तं ण मे सधीणं, पक्खित्ते दट्ट एजंति ॥ २२४ ॥ Jain Education Intemational Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११५) निधानराजेन्द्रः । उवहि रोहरणादि कति संजती घेत्तूण पुच्छति कस्सेयं ति रयोड़रणं साहू भणति ममेयंति काऊण मया कृते साधुना इत्यर्थः । अढवा साहूति पढमपुच्छा किं घुयविति पच्छा एस परिपुच्छा वटुव्वा 'ततो साहू भणति वित्तं ण मे सहीणंति ण मे वा संवट्टती वित्तं कस्मातोः पक्खीए तुम आगच्छमाणी दिठा साभणति । किं च मए अट्ठो भे, आमं षणु दाखििहं तुह सहीणं । संपत्ती होतु कत्ता, चत्ता तु एक्कतरो जणितोय ॥ २२५॥ साहू भणति मं अनुमतार्थे सा भणति ननु श्रामन्त्रणार्थे इन्द्राणि तुह सहीणा श्रायत्तेत्यर्थः । ततियपुच्छा गता संपत्ती सागारिया सेवणा चउत्थपुष्कसंजतो करैति संजविता पडिपुच्छति गयं इदाणिं दणेग्गहन्ति भणिश्रो य । हंद गेहह ऊं, दातूण साहरति जुज्जो तु । तुज्यं घेत्तुं व पुणो, मुंचति जा पुणो देति ॥ २२६ ॥ इंदत्यामन्त्रणे संजतो हत्थं पसारेऊण सुज्को पडिसाहरेति भणतिय तुज्भेव भवतु श्रहवा सो संजतो तीर हत्थाओ घे लूण पुणो मुंचति कस्माद्धेतोः जा पुणो देति जेण द्वितीयं वारं मम देति देतीय पुणो हत्थफासो भविस्सति तस्माद्धेतोः इदाणि संलावो साहू भणति धारेबव्वं । धारेतव्वं जातं, जात पउमदलकोमल तहिं । हत्थेहि परिग्गहितं इतिहास णिरागसंबंधा ॥२२७|| इतिहासमेतत् इतिहासतो श्रणुरागो भवति ततो य परोपरं भावसंबंधो इयाणि " अनुरागोत्ति " गाहा । संलावाद रागो, रत्तावेति जो मए दिलं । इतरो वियपभिणती, कस्स व जीवेण जीवामो ॥ २२८ ॥ संलावा रागो भवति इदाणिं हासखेड्यात्त संजाती - पुरावेह भे मए दिवं भे इति भवतः इतरो साहू भणति जं पि मम जीवियं तं पि तुज्झायचं तेण तुज्झ वपण जीवि पण जीवामो । एवं परोप्परस्त, जावबंधे होति मे दोसा । सेवागमणादी, एहण दिट्ठेसु संकादी ||२२|| पडिलेवणा चउत्थस्स एगतरस्स दोपहंवा गमणं तु क्खिमणं दिसदातो सलिंगठितो वा श्रणायारं सेवति संजतो वावितिणि वत्तिणा वा संजय उदिष्वमोहावला वा गेरहेज हवा खयरकनिहि गेएहणं हासाखेडुं वा करेताणि सागारियेण दिट्ठाणि संकिते चउगुरुं णिस्संकिते मूलं अहवा दि घाडिय भोतियातिपसंगो । विराध, पुच्छादीए हि होति जम्हा उ । ग्गिंथी पागमण, पद्धं उप शिक्खिवे उवधिं । २३० । विपदमानोगे, पडिए हुज्ज संजमेगतरे । दूरे वा, णिवेदजताए अप्पां ति ॥ १३१ ॥ पम्ह णाम विसरियं एगतरसंभमो सावयगणिश्रा उमाति सो संजयागं उवही वस्त्रहीए श्रास वा पडितो दूरे वा जति असोति णिवेदेति श्रह दूरतो घणुं जयणाप अप्पणिति ॥ सो साहंती, दूरे पडितं तु थेरिगाणेति । संणिक्खिति पुरतो, गुरुणा इमि पमज्जत्ता ॥ २३२ ॥ (सूत्रम् ) वसहीए जइ आससे परियंतो ए एहंवि लि उवहिकप्प यत्ति थेरिया गुरुणा साहंति श्रह दूरे पडियंतो थेरिया गिहंति तरुणी व घेत्तुं पेरिया एा समप्पैति ता थेरिया संजयत्र सहिमागंतुं पमज्जित्ता भूमिगुरुणं पुरतो क्खिवेंति एसो अपिणे जयता भणिया || एतत्सूत्रस्य व्याख्या सुगमत्वाद् ग्रन्थकृता न व्याख्याता । (उपधेः परिष्ठापना स्वस्थाने ) उपधिप्रत्युपेक्षणं व्याख्यातमेव ( प्रलम्बग्रहणे क उपधिग्रह्य इति पलम्बशब्दे ) (धर्मोपकरणे परिग्रददोषो नेति परिग्गहशब्दे ) जवहित्र्यसंकिलेस - उपध्यसंक्लेश-पुं० उपधिविषयोऽसंक्लेशः उपभ्यसंक्लेशः असंक्लेशजेदे, स्था० १० वा० ॥ उवहिकम्प - उपधिकल्प - पुं० उपधिधारणसामाचार्य्याम, । एसो चरित्तकप्पो, एतो वोच्छामि उवह्निकप्पं तु । सोपुपुव्वानिहितो, नवढियोवग्गहे चैव ॥ विसेसत्यं तं वारे इह अहं पवक्खामि । मुगमादिहिं, वारेयब्वो जहाकमसो । फासुयमफासुए य, विजाय जाणए ओहो || ओहो बहुवरहिते, वारणा कस्स केश्चिरं । जदि फावही करणे, गहिश्रो उ जाणए ण तो धारेज्ज । हो हो विदु, टुकुडे बुब्जति दु ॥ फागो जाए, कारणगहियो धरिज्जते ताव । जानो उप्परहो, ताहे तु विचिए तं तु । यह पुण अफासु तु, जाणगगहि तु कारणे होज्ज । जदि गीतत्था सव्वे, तो धारेती तु जा जिल्हो || गीतविमिस्सेहिं, अणुपन्नमितं विचिंति । पुण अफासु तु, कारणगहियो अगीतेणं ॥ उपपदे अहम्मि, विगिंचती तु सो ताहे । एवं चतुगेणं, वारणता वा परिवणा ।। सो पुरण विहो वही, वत्थं पातं च होति वोग्धव्वं ॥ 'वत्थं तु बहुविहाणं, पाता पुण दो अहाता || तो व पंच, किएह वि एगो परिग्गहो होति । तो दो एकेकस्स तु भएहति न पहुच्चए एवं ।। तो चतुतिएढ 5वेएदं, हवा एकेक तस्स एक्केकं । पति पाहुणगादिसु ताहे किं काहितेकेणं ॥ अप्पापरोष्पवयणं, जीवाशिकाया य चत्तहोतेच्वं । चारित्तगदितो, तम्हा दो दो तु घेत्तव्वो ।। याणि जवकिप्पो वाद उग्गमाइसुद्धो धारेयव्वो । गांहासिकमेव । उगमापत्तं पत्ताबंधो। गाहासिकमेव तिएहयपच्छागा गाहासिकमेव । एस जिणकप्पो थेरकप्पो एए चेव डुवालसम्कए गाढ़ा | पंचसमाए गाहा कोसए गाढ़ा सिर्फ जं बकरं गाहासिकं । गाढा । फासुय अफासुए य बावि वही पुणो जो गहिओ भवर सो केश्चिरं धारयन्वो जो फासुभो वही सो जाणगा वा होतु श्रजाणगा वा ताव परिजुंजंति जाव जुत्तो जाव रंधिक ण वि किज्जइ श्रयरिवज्जाया नियमा जा Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११६) उवाहिकप्प भाभिधानराजेन्द्रः। नवहिपच्चक्खाण ण गाहा। अह फासुओजाणगा यकारणे गहिओ तहावि ताव प. जमति पवित्ति कम्हि व,कम्हि व पुण होति अप्पवित्तीओ।। रितुज्जर जाव वर अह अफासुत्रो अयाणगाय कारणे गहिओ संजम पमीनियत्ता-मेहुणमादीण णाएहा। ताहे उप्पन्ने फासुए श्यरो परिविज एवं चननंगो धरणे वा परिघ्षणा वा । चोयगाह । गाहा । एगेण किमेगो पादो जा णाणाचरणविताणं, नवग्गहं कुणति णाणचरणाणं ॥ व पंचएह वि सयाणं एगो पमिमाहो अहवा दोएडं तिएहं चन- आहार जवहि सेज्जा, तेण जवहित्तणं वेति । एडं वा पमिग्गहनो एगो न पहुञ्च तो दो दो एगस्स पमिग्गह जस्त पुणो वहिगहिता, उवघातकरी तु तस्स उवघाता। उ मत्तमो य दिज्जर उच्यते अद्धाण पाहुणगाश्सु कारणासु कह उबघाय करेती, अइरित्तगहो य मुच्छाए । कहं धरति तु जर पहुगाण एगमेगो पमिग्गहभो एव य नणं संथरमाणो गाएहति, अतिरितं उवहि जो जवे समणो। तस्स चउगुरु । अप्पापवयणं जीवनिकाया परिचंता घा रत्तय. दिट्टतेण सव्येण वि दोषिह गिएिहयव्वा मत्तो पमिमाहओ वएहादिजुत्ते मुच्छति, दव्यहारे बुवस्से वा ।। य किं कारणं जेण गच्चो सकारणोवा लघुसहपादुणयाइसु । एतेसु अणिढेसु य, जो दुस्सति सो करति उवघातं । प्राह ज नियमा दो दो धरिजंति जिणकप्पियाणं किं निमित्तं गाणादणं तिएहं, तम्हा ते वज्जए हेतू ॥ एगो पडिग्गहो । गाहा । संगहिय उच्यते । सो नगवानस जो जत्य जदा जहियं, नवहीधरिनोगओ अणुमाओ । गहियकुच्ची जोयणं पि गच्चं सन्नाहो जसकारी य पवयणस्स मेण अपसो नवरतं न करे अप्पाहारो सो भगवं तत्ते अओ सो तत्य अणतिचारो, अणुबहाते चरण भेदे ।। कनवे वि विद्धंस तस्साहारो सरीरप अपमिबद्धो न य जह सिंधूनो कप्पा, ओराला नरिहया अपहाता । आसणे बोसिर उच्चारा न य ाचारावि विच्चिष्मे थंमिले पिसियादीण य गहणं, खीरादीणं चणुएहाता ॥ पझिग्गई एगपास ग्वेऊण पहिं कारणेहिं तस्स एगो पमिग्ग अतिहिमदेसे य तहा, कारणियगताण सिसिरकाझम्मि। हो । गाहा । तिाहें जश्वत्थाणि दाणि कहिं वत्थोहि पडिपुव्वउसग्गेण तिहिं जया पुण तिहिं न संथरेज्जा तो अइरेगाणि ध परिनुंजताण य का, तवादिचरणे अणुवघातो ॥ रेज्जंति । आह न गु पमाणारेगे दोसा उच्यते । सबालवुठायो लामविसयादिएमुं, एतसिं चेव जोत्तु पमिसेहो । लोगत्थो सहकारणेण सकारणे तेसिं बहुएहिं कज्जं अप्पओ य पमिसिके परिभोग, कुएमाणे जंजती चरणं ॥ मग्गतो महार कारणेसु न लनरताहे परिश्वत्ता सेहादयो पच्छा गाणं पि तु सो निंद, नुवदेस जण ण कुणति । वोच्छेयकरो अवर सपक्खस्स तित्थस्स वुत्तं भव । गाहा । तस्स जणाणुपुवं, दसणनेदो वि तो तेणं ॥ जर एए वियपहुणे जश् आहारोवहिसेज्जासु विप्पडणाण नाणदंसणचरित्ताणं तवनियमसंजमसज्कायमाईणं निप्पत्ती णिवदिक्खितमतरता-दिएम होति परिजोगा । दोजा तेण आहारा आगहणेण उसहाणं व को उवग्गहं समभमाओ कसिणा-दियाण शहरा अणुवनोगो पं०ना। कुन्जा । गाहा। जम्मि परिग्गहियं जत्थ पुण परिगिजमाणे तस्स इयाणि उवहिकप्पो गाहा जीवाणुम्गहोयही कि निमित्त थावराणं उवघातो पवत्तेज्जा पुरेज्जा पुरेकम्म सदनलाइसु तं। धारिजइ याइ उच्यते जीवाणुग्गहहेऊ रसाएणं सा रक्खणन घेप्पइ महिए वा पने कमाश्धरे ते वा पडिहणाभएण णिमित्तं एयम्मि तित्थेवं निओ उवही असहुतणेण य वत्थापमिलेहेइ नएण माहीरिहित्ति सो परिग्गहो भवर उवाहिम्मि ईण गहणं । श्राह जइ असहुत्तरेण वत्थाइगहणं तेण अविरइयाघेप्पंते गहिए धरिजंते वा एए दोसा न नवंति सो परिग्गहो श्रो कम्हा नोवभुंज उच्यते क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिरिनिदोसोत्ति अपरिग्गहो चेव । गाहा । आहारोवहिं किं निमित्तं त्यादि । संयमप्रत्यनीकानि मैथुनादीनि अतस्तेषामभावो भवति जगवया तित्थं पवत्तियं उच्यतेन विनगवता नपहारादिनि- आचरितव्ये गाहा। नाणावरणे किमुक्तं भवत्युपधिरिति उच्यते मित्तं तित्थं पवत्तियं नाणदरिसणचरित्तनिमित्तं तवसंजमाईणं शानदर्शनचारित्राणामुपकारं कुरुते उपग्रहं करोतीत्यर्थः । मिव्वाणसाहणं पमिविद्धिकारणं तित्थं पवत्तियं । गाढ़ा । उवही श्राहारेज्जा उपव्यतोऽवधिरित्यपदिश्यते गाहा जनाणचरण होराइणि नाणाणं गुणकारगाणित्ति तेणाणुएहायं तेसु स्सो जो पुण संथरमाणो वि अइरितं उहि धरेइ तस्स पुण णाणासु छियस्स पूयावि इचिज जहा गणहारिस्सुको स एव उवहिनिमित्तो उवघाभी नन्न कारणेण वा श्राहारे साहारोवहिसाणं एस नवहिकप्पो । पं० चू०॥ वि रसहेउं वा भुंजइ रागद्दोसेहिं वा पयस्सोवघामो भव । अहुणा हु उवहिकप्पं, गुरूवदमेण वोच्छामि। गाहा जो जत्थ उवही पुण जो जत्थ जया जम्मि नेत्ते अणुउवगेएहति नवकारं, करेइ नवहीयते व उवही तु ।। न्हाप्रो जहा सिद्धए उक्कोसयाणिणं तयाणं जम्मि वा काले अ गुन्हातो हेमन्तकाले वासे वा तेणोवहिणा नाणा आयारो किं कारणं तु नवही, देसीए जलती सुणसु । न भवर जो पुण खेत्तकालेसु अणणुन्हालो । गाहा जो जन्थ जीवाणगाहट्ठा, एवं खनु वएिहतो (हं) तित्थे । उवही धरिजइ सो उवघाो । एस उवहिकप्पो । पं० चू० ॥ काऊण णुग्गहपदं, पडिणीयपदे अनावो तु । उवहिकय-नपधिकृत-त्रि उपधिनिष्पन्ने, “परिहारियं भरसकादणुकेयहा, अगणीमादीण चव रक्खष्ट्ठा ।। दितो गिहणी उवधीकतं तु पच्छित्तं " नि०चू०१ उ० । असहू णणुकंपा य, तज्वहिगहाणं जिणा यति । उवहिपञ्चक्खाण-उपधिपत्याख्यान-न० उपधिरुपकरणं तस्य माह जदग्गहटा, वत्थादोगहणदेसियं समये ।। रजोहरणमुखवत्रिकाव्यतिरिक्तस्य प्रत्याख्यानं न मयाऽसौ तो असहणं काहा, थोपरिजोगो णण्हातो। महीनल्य कन्येवंरूपा निवृत्तिपधिपत्याख्यानम । रहरण Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवहिपञ्चक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। उवागय मुखवत्रिकां विहायाऽन्योपधिपरिहारे तत्फलं यथा। भगवता गोयमेण महावीरवकमाणसामी पुच्छितो पतेसि ॥ उवहिपच्चक्खाणेणं भंते ! कि जयइ उवहिपच्चक्रवा- नंते वालाणं किंवलियत्तं से यनगघया वागरिय पुप्पसियत णेणं अपलिमंथं जणय निरुवहिएणं जीव निकखे उव सेयं वलियत्तं अस्सेयंतस्स य वलियत्तणस्स मूवं श्रह सो हिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ॥ य साहसमोवे आहारं आहारेत्ता बहूणि अधिकरणाणि करेज्ज हे भदन्त ! उपधिप्रत्यास्यानेन रजोहरणमुखघस्त्रिकापात्रा गद वा पिपज्ज अयमेज वा तुचो वा सुग्गंगाए वमेज्जा रुयुदिव्यतिरिक्तस्य उपधेः प्रत्याख्यानेन उपधित्यागेन जीवः किं प्पातो वा स हवेज्ज संजएहिं परिसं किं पि मे दिम्नं जण एगो उपार्जयति गुरुगह हेशिष्य ! सपधिप्रत्याख्यानेन अपरिमन्थं | जात्रो एवं रिनड्डाहो मरेज्ज वा सध्यस्थ पच्छाकम्मो फासुपण जनयति परिमन्थः स्वाध्यायव्याघातः म परिमन्थोऽपरिमन्थः देसे मासलहुं अफासुरण देसे सब्वे चबटुं तम्हा गिहत्या स्वाध्यायादौ निरालस्यं जनयति । पुनर्निरुपधिको निष्परि अन्न उत्थि प्रो वा ण चाहेज वा प वा असणादी दायब्धं भवे काअहो जीयो निष्काको भवति घनादी अभिलाषरहितः स्या रणं जेण च हावेज चा असणादि वा देज्जा ॥ दित्यर्थः तारशो हि उपधिमन्तरेण उपधि विना न संक्लि असिवे ओमोयरिए, रायपुढे जए व गेलम्मे । श्यते क्लेशं न प्राप्नोति सपरिग्रहो क्लेशं प्राप्नोतीति भावः। देसुट्ठाणे अपरि-कमेवहायज देज्जा वा ।। २२७॥ ( उत्स०)निष्कान्त उपधिनिरुपधिस्स एव निरुपधिको जीवो असिवकारणे ओमे या राय वा घोहिगादिनए वा रज्जंतो निष्काको वखाद्यभिलाषरहितः सन्तश्च पदं क्वचिदेव दृश्यते | अप्पणो असमत्था वाहवेज वा तन्निमित्तं असणादि देज्ज गिउपधिमन्तरेण चास्य भिन्नक्रमत्वान्न संक्लिश्यतेन च मानसं | लाणो वहावेज्ज वा गिलाणा वा गमंते देसुहाणे वा अपरिशारीरं वा क्लेशमाप्नोति उक्तं हि "तस्स णं भिश्वुस्स हो | कमो गिहिणा वहावेज देज्ज वा आहारं । नि० चू० १२ न० । त पारजुन्नमवत्थ सूजाश्स्सामि संधिस्सामि उक्कं- | नवहिविनस्सग्ग-उपधिव्युत्सर्ग-पुं० उपधित्यागरूपे धन्यव्युसिसामितुं निस्सामि वा काससामि श्त्यादि" उत्त०२८ अ०।। त्सर्गे, औ०॥ उवहिप्पहाण-उपधिप्रधान-त्रि० उपधिर्माया तत्प्रधानः । कृत नवहिमकिलस-नपधिसंक्लेश- पुं० उपधीयते उपष्टज्यते कपटशते, "कतिन वि याहि उवहिप्पहाणाहि"सुत्र०१ श्रु०४ अ० | संयमः संयमिशरीरं वा येन स उपधिः वस्त्रादिस्तद्विषयः स. जवहिय-उपहित-त्रि० उप-धा-क्त-निहिते, अर्पिते, समीपस्था- | पोशः उपधिसंक्लेशः । संक्लेशभेदे, स्था० १०। पिते, भारोपिते, उपाधिसङ्गते, उपसक्कित, पाच भाव-क्तः सं| उवहिसंभोग-नपधिसम्भोग-पुं० उपधेः परिकर्म परिभोग या स्तारकादेरुपढौकने, न. नि० चू० २० १०॥ | कुर्वन् संभोग्यो विसंनोग्यश्चेति । संभोगभेदे, उक्तं च "पगं च उबहियविहि-उपहितविधि-पुं० उपग्रह भेदे, उपहितविधिर्नाम दो वि तिन्नि च, आनई तस्स होइ मिच्चत्तं" आलोचयत यदाऽऽचायैर्वितीर्ण तदाऽऽचानिनुज्ञाप्य अन्येषां साधूनां तद- इत्यर्थः । "श्राठदंत वितरो, परेण तिहि वि सन्नोगोत्ति"स. न्तरेण विसूरयतां ददाति । अन्ये तु व्याचकते यद्यस्य गुरुभि-नवीहत-उपनजान-त्रि० उपभोगं कुर्वाणे, प्रा०॥ दे तत्तस्योपनयतीत्येव उपहितविधिः व्य० ३ ० । जवाणा वित्तए--उपानाययितुम-अव्य. संप्रापयितुमित्यर्थे, उवहिवहावण-उपधिवाहन-न० वस्त्रपात्रादेरुपधेरन्येन नयने, "पच्छिम पारिसिं ज्वाइणायित्तए" वृ०४ उ० । अतिक्रमयितु(सूत्रम् ) जे जिक्व अमनस्थिएण वा गारस्थिएण वा | मित्यर्थे, कल्प० । उपादाययितुम् ग्राहयितुमित्यर्थे, झा०१५ अ०। उवहिव्यहावेइ वहावंतं वा साइज्जइ । १७ । जे निकाव- | गाव | उवाणावित्ता-उपादापप्य-अव्य० उप-आ-दा-ट्युद. । प्राप aroo जातंसप असणं वा४दियइ देयंत वा साइज्जइ ।वना रोय. "पतिम पोरिमि उवाणावित्ता आहारमाहार"जे जिवाव नवकरणं, वहाविगिहि अहव अम्म तित्थाणं । न०७श०१०। आहारं वा देज्जा, पमुच्च तं आणमादीणि ॥ २२४॥ | उवाणित्तए-नुपयाचितम्- अव्य० उपयाञ्चां कर्तुमित्यर्थे, ममेस नवकरणं वहत्ति पडुच आहारं देज्जा तस्स चतुबहुं विपा० अ०॥ आणादिया य इमे दोसा।। उपादातुम्-अध्य० गृहीतुं प्रवेष्टमित्यर्थ, स्था० ३ ०। पामेज्ज व निंदेज व, मलगंधावं न उप्पति य नासो । | उवाश्य-नपयाचित-त्रि उपयाच्यते मृम्यतेऽस्मै यत्तत् उपयाअत्यंमले ग्वेजा, हरेज्ज वासोच्च अन्नो वा ।। २२५ ॥ चितम् । इप्सिते, "ज्वाश्यं उयवाश्त्तए" उपयाचितुमीप्सितं से गिहत्थो अन्नतिस्थिो वा उवकरणं पसेज भायणं वा भि- वस्तु याचितुं प्रार्थयितुम् । ज्ञा०३ अ० वि० । नासिक्यपुरस्थजे जा मक्षिणे पुगंधे वा उवकरणे अनं वा देज उप्पतियाओ देवाधिष्ठितमहादुर्गब्रह्मगिरिस्थितप्रासादपातके स्वनामख्याते वा ग्डोज बा मारेज्ज वा अहवा सो अयगोलो अर्थमिले पुढ महति कृत्रियजात्यवरे, ती. वियरियादिसु ग्वेज्ज अहवा तस्स भारेण प्रायविराहणा हवे- उवाएज्ज-उपांदय-त्रि० उपा० दा-कर्मणि--यत् । गृहीत. ज्ज सत्थ परितावणादी जंच पच्छा सहभेसज्जाणि वा करेंतो । व्ये, अनु० । जी । विशे०। विराधेति तसिपमं च से पत्तिं तं उवकरणं सो वा हरेज्ज | वागम-जपागम-पुंस्वीकारे, समीपगमने, वाचः। उपागमन, अणुवात्तस्स या अन्नो हरेज किं च जो तं पफुच्च भसणादी स्थाने, आचा०२ श्रु०। देज्जा तस्स चाहूं। उवागय-नपागत-त्रि० उप-अ--गम्-क्त-स्वयमुपस्थिते, अमुबलियत्तं साहू, पायाणं तस्स भोयणं मूलं । भ्युपगते च । वाच० "तत्थावासमुवागर"उत्त० २३ अ० । दगपातो वि प्पियणे, दुगुञ्छवमणे उ नड्डाहो ॥ २२६ ॥ सूत्र० । जं० । Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवागाह अभिधानराजेन्डः। नुवाणह उवाणह-उपानह-स्त्री. चर्मपाकायाम, औ० । सूत्र० । "ते विह अतरासहुसंजम-कोचारिसचक्खुमुव्वले वाले । गिच्छयाणदायाप, समारंभं च जोइणो" उपानही पादयोरनाच अज्जा कारणजाते, कसिणग्गहणं अणुन्नायं ।। रिते पादयोरिति सानिमायकं नत्वापत्कल्पपरिहारार्थम"द.३ अ. | विहं अध्वा अतरो ग्लानः असहिष्णुर्नाम राजादिदीक्तिः । अथ उपानहोर्दोषप्रदर्शनार्थमिदमाह। सुकुमारपादः संभ्रमश्चौरश्वापदादिसंकोनः कुष्ठरोगी अर्शरोगी गव्यो णिम्मदवता, हिरवेक्यो निद्दतो णिरंतरता। चकुषा पुनः कश्चिद्भवति वालो वा यदि यत्र तत्र पादौ नूताणं तवधाओ, कसिणे चम्मम्मि उद्दोसा । निविपति । आर्या वा अध्वानं नीयन्ते कारणजातं वा कुलगणउपानहोः पिनच्योग? निर्मार्दवता च नवेत् । जीवेषु निर- सङ्घविषयमुपस्थितम् । पतेषु कृत्स्नस्य चर्मणो ग्रहणमनुकातमिपेको निर्दयश्चासौ नवति निरन्तरता निरन्तरं भूमिस्पर्शनाद् नू ति द्वारगाथासमासार्थः । अथैनामेव विवृणोति ॥ तानां तु प्राणिनामुपघातश्च उपजायते एवं कृत्स्ने चर्मणि षट दोषा कंटाहिसीयरक्खह, ता विहे खलु समाहि जा गहणं! जवन्तीति द्वारगाथा। ओसहपाणगिलाणे, अहुट्ठियते सधट्ठा वा ॥ सांप्रतमनामेव प्रतिपदं विवृणोति ॥ (बिहे) अध्वनि प्रतिपद्यमाने कराटकस्यावा अस्य च रक्षार्थश्रासगतो हत्थिगतो, गविज्जा वृमितोइ कम पिट्यो । मङ्गलिकोशिकं खबङ्कादि वा गृह्णन्ति । किंबहुना खलु समाधि पाढो उ समाउको, कमाणाउ खरो अवि य नारो॥ । कृत्वा यावदर्द्धजबन्योरपि ग्रहणम्। तथा ग्लान औषधपानं कृत्वा अश्वगतादश्वारूढात् दृस्तिगतः पुरुषो यथागर्वायते एवं भूमि- वैद्योपदेशेन पृथिव्यां पदं न स्थापयति । अधुनोत्थितो धा ग्लागतात् गर्व करोति । अहो अहं सोपानरको बजामीति । तथा | नः क्रमयोः क्रमणिके श्राविध्यति शीतानुभावेन भक्तं न जरिपादः स्वभावनैव समार्दवस्ततः स न तथा जीधोपघातं करोति | ष्यतीति कृत्वा ग्लानस्य वा भेषजार्थं त्वरितं प्रामान्तरंगन्तव्यं यथा क्रमणिकाः खराः कर्कशस्पर्शा जीवापघातं कुर्वन्ति । अपि ततः क्रमणिका पिनद्धव्या। . च भारस्तासां महान् भवति । ततस्तदाक्रान्ता बढ्यो जीवा परिसिसस्स व अरिसा, मा खुम्भे तेण बंधते कमणी। विनाशमाप्नुयते । निरपेक्कारमाह ॥ असहुमवंती हरणं, पादो पट्टोनु गिरिदेसा । कंटाई पहतो, जीव वि हु सो तहेव पेहिज्जा । अर्शोवतः पादतलदौर्बल्यादर्शासि मा कुभ्येरनिति कृत्वा अस्थि महंति य कमणी, णावेक्खइ कंटएण जिए । क्रमणिके असौ बध्नाति । असहिष्णुर्नाम मार्गे गच्छन्नुपानअनुपानको गच्चन कएटकादीन् मार्गे प्रेकमाणो जीवानपि | मिर्विना गतुं न शक्नोति यदि गच्छति ततः पादाभ्यां रुधिरं तथैवासी प्रेकते सोपानकस्तु गच्छन् विद्यते मम कामणिके परिगलति । अत्रावन्तीसुकुमारोदाहरणं भवति तच्चावश्यइति कृत्वा निरपायत्वादात्मनोन कएटकादिकमपेक्वते ततश्चासौ काद्विज्ञेयम् । स क्रमणिके बनीयात् उदकाग्निस्तेनश्वापदादी जीवष्वपि निरपंको जवति । अथ निर्दयद्वारमाह ॥ वा संभ्रमे क्रमणिकाः परिभोक्तव्याः । गिरिदेशे वा पर्यटतः पुव्वं अदया नूए-सु होति बंधति कमेसु तो कमण।। कस्यापि पादतलं घृष्टं तत उपानही पिनह्य पर्यटति । जायति हु तदब्जासा, सुदयाबुस्सा वि णिद्दयया ॥ कुहिस्स सकरादी-हिं वावि जिन्नो कमो मधला वा । पूर्व तावददया निर्दयत्वं नृतेषु मनसि संजातं भवति ततः वालो असंफुरो पुण, अज्जा विहं दोव्व पासादी। क्रमयोः क्रमणिके बध्नाति तदन्यासाश्च सुदयालोरपि प्रायो नि- कुष्ठिनः संबन्धी शोणितपूयेन भिन्नः स्फटितक्रमः शर्करा देयतैव भवति । निरन्तरद्धारमाह ॥ कण्टकादिस्तदादिभिराक्रान्तो महती पीडामुपजनयति मधूअवि यं व खुज पादेण, पेक्षितो अंतरंगुरागतो वा । ला वा पादगएडं कस्यापि समजनि ततः क्रमणिके बध्नाति । मुञ्चेज कुलिंगादी- य कमणीपेक्षितो जियति ।। वालो वा कश्चिदसंस्फुरोऽसंवृतो यत्र तत्र पादं मुश्चन् कण्टकुसान्दस्यासदर्थयाचकतया असंपूर्मा नि झिङ्गानि इन्डियाणि कादिभिरुपदूयते अतोऽसौ क्रमणीके परिधाप्यते । श्रार्या वा यस्यासो कुविङ्गी विकन्द्रियः स आदिशब्दान्मए मूक्यादिश्च विधमध्वानं मेतव्यास्तत्र च (दोव्यात्त) चौरादिभयं ततो अनुपानकस्य पादेन प्रेरितोऽमीति संनाधनायां संजायते प्रय वृषभाः क्रमणिकां पिना पन्थानं मुफ्वा पार्श्वस्थिताः गच्छन्ति मों यदाम्रकुजं पादतनमध्यं गतस्तदा अथवा अन्तरागुनमहु श्रादिशब्दात्सर्वाणि वा तत्रोत्पथेन व्रजन्ति । यो चा चक्षुषा बीनामङ्गस्य चाऽपान्तरानं तत्र पागतः सन् मुच्येत नम्रियेत। | दुर्वलः स वैद्योपदेशनोपानही पिनाति । यतः पादयोरभ्यसोपानकस्य तु निरन्तरतमिस्पर्शिनीभिः क्रमणीभिःप्रेरित प्रा- ङ्गतोपानद्वन्धनादि परिकम यक्रियते तश्चक्ष उपकाराय क्रान्तो न जीवति अवश्यं मरणं प्राप्नातीत्यर्थः। परिणमते । यत उक्तं" दन्तानामजनं श्रेष्ठं कार्माना दन्तधाभूतोपघातद्वारमाह ॥ वनम् । शिरोभ्यङ्गश्च पादानां पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषोः" कारणकह नया रावघातो, ण होहिती पगतिपेशवताणं । जातद्वारमाह। सनराहिपलियाणं, कक्खडफासाहि कमणीहिं॥ कुलमाइकज्जदंडिय, पासादी तुरियधावणट्ठा वा । कथं केन प्रकारेण जूतानां प्राणिनां प्रकुत्या स्वभावेनैव पेशव कारणजाते व हमे, सागारमसागरे जतणा ॥ तनुनामढशरीराणां सभाराभिः पुरुषनाराकान्ताभिः कर्कश- कुवादिषु कुलगणसङ्घविषयेषु कार्येषु दधिमकायजगतार्थ पास्पर्शान्निः क्रमण निः प्रेरितानामुपघातो न भविष्यति भवि- यस्थितरादिशब्दात्पुरः पृष्ठतो वा गच्चद्भिस्त्वरितं धाधनार्थ प्यायवेत्यर्थः। यत पले दोषाः अतः क्रमणिका न परिधातव्याः।। कारणजाते घाऽन्यस्मिन् आगाढे समुत्पन्ने उपानहः परिभोक्तकारण तु प्राप्ने परिदध्यादपि । किं पुनस्तत्कारणमित्याह॥ । उयाः । तत्र च सागारिकासागारिकविषया यतमा । यत्र सा Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाणह अभिधानराजेन्द्रः। नवाय गारिकदोषो नास्ति तत्र नास्ति यतनाक्रमः। यत्र पुनःसागारिका नवातिकम्म-नपातिक्रम्य-श्रव्य० उप सामीप्येनातिक्रम्य अतिउडाहं कुर्वन्ति तत्र ग्रामादिषु क्रमणिका अपनीय प्रविशन्तीति बलेचत्यर्थे, "उवातिकम्म अह निक्खू जाणेज्जा" श्राचा०२ श्रु०७ भावः । एवमध्वादिषु कारणेषु कृत्स्नचर्मणो प्राप्ते विधिमा । | अ०। सम्यक परिहत्येऽर्थे, आचा०२१०१ अ० ११ १०॥ पंचविहम्मि विकसिण. किएहगहणं तु पढमतो कुज्जा। यातिणिवेत्ता-उपनीय-अव्य० अतिवाहोत्यर्थे, “ उवातिणिवे. किएहम्मि असंतम्मि, विवामकसिणं तहिं कुज्जा । सा तत्थेव शुज्जो तुज्जो संवसति" आचा०२ श्रु०२ अ०२०। पञ्चविधे वर्षे कृष्णे प्रथमतः कृष्णवर्णग्रहणं कुर्यात् । ततः कृष्णे वर्णकृष्णे असति अबज्यमाने लोहितादिवर्णकृष्णमपि गृ नवादाण-उपादान-न० उप० प्रा० दा० ल्युट । ग्रहणे, स्यादा. हीयात तच्च कृष्णं तैलादिनिर्विवर्ण विरूपवर्ण कुर्यात् । यथा त्मनोऽप्युपादानात् सा० द० स्वस्वविषयेभ्य इन्द्रियाणां निवालोको नोडाहं कुरुते । आत्मनो वा तत्र न रागो भवति । रणरूपे प्रत्याहारे, कर्मणि-युट् कार्यजननार्थमुपादीयमाने कार्यान्विते कारणे, यथा घटे मृत्पिाममुपादानमात्मा कर्ता किएहं पि गिण्हमाणे, मुसिरग्गहणं तु वज्जए साढू । झानादि कार्य तत्र स्वसत्ता उपादानम् अष्ट० । विशे० । प्रा० बहुबंधएकसिणं पुण, वज्जेयव्वं पयत्तेण ॥ म. द्वि०।नं। तच सर्वदा कार्येष्वनुगतम् “असदकरणादुकृष्णं वर्णकृष्णमपि गृह्णन् शुषिरग्रहणं साधुःप्रयत्नतो वर्जयेत् | पादानग्रहणात् सर्वसम्भवानावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् अत्र पागन्तरम् । “कसिणं पि गिराहमाणेत्ति" कृत्स्नं प्रमा- कारण नावाच्च सत्कार्यम्” इति साङ्ख्याः । नैयायिकैस्तु उपाणकृत्स्नं वा द्वितीयपदे गृह्णातु । शुषिरग्रहणं साधुर्वर्जयेत् यत्तु दानकारणं समयायिकारणतया व्यवडियते साह्मचमतसिके बहुबन्धनकृष्णं तत्प्रयत्नतो वर्जयितव्यम् । अथ किं तद्बन्ध- आध्यात्मिकतुष्टिभेदे, वाच० ( पतन्निराकरणमन्यत्र) नमित्याशङ्कयाह । । दोरेहि व वकेहि व, दुविहं तिविहं च बंधणं तस्स । । उवादाय-उपादाय-अव्य० उप-आ-दा-व्यप् | गृहीत्वेत्यर्थे, "उघ संपनुबादाय" वृ० उ० । “णेया जयं सुयक्वाय, ग्वादाय अणुमोदणकारावण, पुव्वकतम्मि अधिकारो॥ समीहए" सूत्रः १ श्रु०७०। दवरकैर्वा वधैर्दिषिधं वा बन्धनं तस्य चर्मणो भवति । द्वौ | वा त्रयो वा बन्धा दातव्या इत्यर्थः। पचं विधं बन्धनं कृत्स्नमनु उवादिय-उपादित-त्रि. अद् नकणे इत्येतस्मात् उपपूनिझातं ततश्चतुरादिबहुबन्धनबद्धं तथा कृत्स्नमकृत्स्नं वा चर्म सा । ष्ठाप्रत्ययस्तत्र बहुलं उन्दसीतीमागमः । उपनुक्ते, प्राचार धुना स्वयं न कर्तव्यम् । अन्येनन कारयितव्यम् अन्यस्य कुर्वतो। १ श्रु० २ अ०। नानुमोदना कर्तव्या किंतु यत्पूर्वमेव गृहस्थैर्यथाभावेन कृतं | उवादीयमाण-उपादीयमान-त्रि० उपादीयन्ते कर्मणा बध्यन्ते तस्मिनाधिकारः प्रयोजनं तस्य ग्रहणं कर्त्तव्यमिति भावः । इत्यर्थः । जीवनिकायवधप्रवृत्ते, " पत्थं पि जाणे उवादीयमाणा अथ द्वौ त्रयो वा बन्धाः कुत्र भवन्तीत्युच्यते । जे पायरेण रमंति" आचा०२ श्रु०। खसुए एगो बंधो, एगो पंचंगुलीण दो बंधा। उवाय-उपाय- पुं० उप-अय्-नावे-घञ् । उपगमे, उपाय्यतेऽयों चनरंगुन्ने वि ततितो, वितियो अंगुट्ठए होई॥ ऽनेन करणे घञ् । अप्रतिहतबाजकरणे, ज्ञा०१०। हेतौ, “एगं खलुके घुण्टके एको वर्धबन्धो भवति । एकस्तु द्वितीयो | च दोसं च तहेव मोहं, उसत्तुकामेण समूत्रजासं । जे जे उवाबन्धः पञ्चाङ्गलस्य चतसृणामङ्गलीनामङ्गष्ठस्य चेत्यर्थः। एता। या पमिवजियव्या, ते कित्तस्सामि अहाणपुब्वि" जत्त०३२ । बन्धौ मन्तव्यौ यदा तु त्रयो बन्धा भवन्ति तदा खलुके अविशेक "प्रयोग उपाय इत्यनर्थान्तरम्" आ००१ अ०। एकः अङ्गुष्ठे द्वितीयः चतसृणामङ्ग लीनां तृतीयः। “सुत्तादुवायरक्खणं" उपायःसम्यक्त्वाणुवताणुव्रतादिप्रतिअथ स्वयंकरणादिषु प्रायश्चित्तमाह। पत्तावन्युत्थानादिवकणे हेतुराह च "अनुहाणे विणए परकसयकरणे चउमडगा, परकरणे मासियं अणुग्घायं । मे साहु सेवणाए । सम्मइंसणझंजो, विरयाचिरई य पप य" श्रामोदणे य लडओ, तत्य वि आणादिणो दोसा ।। अथवा जातिस्मरणादितीर्थकरबकणः यदाह " सह समुश् आस्वयं यदि चर्म करोति तदा चतुर्बघवः । अथ परेण कारयति ए अ परवागरणेणं अन्नेसिं वा सोचा" अथवा प्रथमद्वितीयतदा मासिकमनुझातं मासगुरुकमित्यर्थः । अनुमोदनायां मास कपायक्कयोपशमः इति । ध०२ अधि० । “उवायफुससेण" लघु । तत्रापि स्वयंकरणादौ आज्ञादयो दोषा उहाहश्च भवति । उपायो नाम तथा कथमपि करोति यथा तेषां वन्दनकमददान तथाहि तं संयतं स्वयमेव चर्म कुर्वाणं दृष्ट्वा सोको ब्रवीति । पव शरीरवार्ती गवेषयति न च तथा क्रियमाणे तेषामप्रीतिकअहो चर्मकरोऽयमिति । अथ पूर्वकृतं न लभ्यते ततोऽनुमोद मुपजायते प्रत्युत चेतसि ते चिन्तयन्ति अहो पते स्वयं तपस्वि. नया गृह्णीयात् कथमिति चेदुच्यते । यदि कोऽपि ग्रूयात् अहं नोऽपि एवमस्मासु स्निह्यन्ति । घृ० ३ ० । " उपायेन ते नपान हौ करोमि ततः प्रतिशृणुयात् तूष्णीको वा तिष्ठत् । च यच्चक्यं न तच्चक्यं पराक्रमः " हितो० राज्ञां रिपुनिअथानुमोदनया न प्राप्यते ततोऽन्येन कारयेत् । एवमप्यमाने राकरणहेतुषु सामादिषु च । वाच । उप सामीप्येन विवक्किऽप्यात्मना यतनया कुर्यात् वृ० ३ म०! तवस्तुनोऽविकलबाजहेतुत्वाद् वस्तुतो लाभ एयोपायः। अनिअत्र प्रायश्चित्तम् । अषितवस्त्ववाप्तये व्यापारविशेषे, दश०१। उपेयं प्रति पुरुसोवाहणो परिसक्किज्जा उवट्ठावणं उवाहणो ण पडि-| षव्यापारादिकार्यासाधनसामय्याम, स यत्र जन्यादावुपेयेऽस्ती त्यभिधीयते यथैतेषु व्यादिविशेषेषु साधनीयेषु अस्त्युपायो गाहिज्जा खवण तारिमेणं संविहाएगे नवाहाणो ण परि- विवकितव्यादिविशेषवत् । उपादेयता चास्य यत्राभिधीयते मुंजेम्जा खवणं । महा० ७ अ०॥ तदाहरणमुपाय इति तस्मिन्नाहरणभेदे. स्था०४०॥ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवाय (११२०) अनिधानराजेन्द्रः । असावपि चतुर्विध एव तथा चाह । एमेव चटावगप्पो, हाइ लाओ पितर दव्वम्मि । घाऊवा पढमो, जंगलकुलिएहि खेतं तु ॥ ६१ ॥ पवमेव पया उपायः किं पितुर्वेदः प्रत्यायो ऽपि तथापायः क्षेत्रोपायः कालोपाया भावोपायच । तंत्र रूय इति द्वारपरामर्शः पाये विचासु वर्णपानत्कर्षणः न्योपायः प्रथम इति लोकोको चरेत्ववादी पटादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम् । क्षेत्रोपायस्तुवादिना षोपक्रमणे भयति प्रत का भ्यां क्षेत्रमुपक्रम्यत इति गम्यते । ततश्च लाङ्गलकुलिके तदुपायो लौकिकः । सोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरहानाद्यर्थमनादिना क्षेत्रभावनम् । अन्ये तु योनिप्रानृतयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेययोजना विद्यादिभिश्व पुस्त राधिरणक्षणम्। क्षेत्रीपायमित्यत्र पप्रथग्रहणपार्थोऽतिरिव्यमान इवाभाति । पाठान्तरम् वा धानव्वाम्रो भणितोसि " मंत्र कविरोधत पचेते गायार्थः । कालो व नालिया हो जावम्मि ओ अनमो चोरस कए नहिं कुमारिं परिकेइ ॥ ६२ ॥ कालश्च नालिकादिभिशीयत इति शेषः । नालिका घटिका आदिशाष्ठादिपरिषदः ततश्च नासिकादयः कालोपयो सीकिक: लोकोत्तरस्तु परावर्तनादिभिस्तथा प्रयति । भावे चेति द्वारपरामर्शत्याद्भावोपाये विचायें निदर्शनं क ६स्वाद परिस्तो विज्ञानमयोऽययकुमारस्तथा बाद चोरनिमितं की रुकुमारी किम् विकारदर्शनार्थमाद परिकथयति । ततश्च यथा तेनोपायतश्चोरभाव शिक्षकादीनां तेन विधिनापायत एव भावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः । दश० १ अ० । सोऽपि ऊग्यादिनिश्चतुर्थैव तत्र द्रव्यस्य सुदेोदादेवी इन्यमेव वा उपाययोपाय प तत्साधनमेतदुपायसाधनं या हरणामा तथोत्य गश्चैषम् अस्ति सुवर्णादिषूपाय उपायेनैव या चांदी तव्यं तथाविधधातुवादसिकादिवदिति । एवं क्षेत्रोपायः क्षेत्रपरिकर्मणोपायां यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो सामादिस्तथाविधसाधुवियापारो वा तेनैव या प्रवर्तितम्यमत्र तथाविधान्यदिति एवं कालोपायः कालानोपायां यथास्ति कास्य ज्ञानोपायः धान्यादेखि जानीहि वा कालं घटिकापादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञवदिति । यर्व नावांपायी यथाऽ भाषकाने उपयोऽस्ति नायबेोपायतो जानीहि बृहत्कुमारिका कथाकथनेन विज्ञातचौरादिभावाभयकुमारवदिति ॥ स्था-४ जा. नवरं " भावोवाद " उदाहरणम् । रायगिहिं णाम णयरं तत्य सेणिश्रो राया सो जज्जाए नणियो जहा मम एगखंनं पासायं करोहि । तेण वट्टश्णो आणता गत्ता करूं विदित्ता तेहि अत्री सनक्खणो सरलो महर महालओ वुमो दिठो ध्रुवो दोन परिरुिखो दरिसाये अप्पाणं तो पो 66 दामोति अह ण देश दरिसावं तो विदामोति ताहे तेण रुखवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसावो दिष्णो । अहं रतो एगखंभं पासायं करेमि । सञ्वोउयं च आरामं करेमि सववणजाइवेयं मा विदहत्ति । एवं तेण कओ पासाओ । अन्नया एगा मायंगी अकाले अंबयाण दोहलो। सा जत्तारं जण‍ मम याणि आदि । तदा अकालो घयाणं तेण उत्तामणी उवाय विजाए डालं श्रोणामिय बयाणि गहित्राणि । पुणो श्र उष्ठामणी श्रोणामियं । प्रभाष रन्ना दिहुं । पयं ण दीसर को एस मणूसो श्रतिगश्रो जस्स एसा परिसी सत्तिति सो मम भंतेचरं पिधरिसेडिति का अनयं सहावेऊण भणइ । सत्तरतस्स अनंत अबोरं तथा अभमा गवसितं श्राढतो णवरं एगम्मि परसे गोजो रामनं कामो मिलिओ लोगो त गओ अजओ भणति जाव गोजो मंदेड - प्पाणं ताव ममेगं अक्खाणगं सुणेह । जहा कहं पि णयरे एगो दारिदसि परिवसति । तस्स धृया वटुकुमारी भईव रुविण । य वरणिमितं कामदेवं अच्चे । साथ एगम्मि आरामे चोरिय पुफाणि वश्यंती श्रारामिरण दिना कयहिउमादत्ता । तीए सो मणिम माम कुमारं विषासहि उपादि नयी प्राणिजीभो भनि । तेण भणिभा एक्का एव षठाए सुयामि ज‍ णवरं अम्मिदिवसे परिणञ्जसि तदिवस देव नाराय समाण मम सयासं पहिसि तो मुयामि। सीए भणिभो । एवं इवन्ति । तेण विसजिभा । अन्नया परिणांआ जाहे अपवरकं पवेसिया ताहे भतारस्स सम्भावं कई । विसजिया बच्चई । पहिया आराम अंतरा व सोहि गहिला सिन कहिओ मुक्का गच्छंतीए अंतरा रक्खसो दिट्ठा जो एवं मासाणं आदारे तेज गढ़िया कहिए मुका गया धारामिया रोग दिवा सो संभंतो प्रणश् । कडमागयासि । तीए भणिनं मया कम सोपुवि समओ । सो जण‍ । कहं नसारेण मुक्का ताडे तस्स तं सभ्यं कहिश्रं श्रहो सच्चपन्ना एसा महिलति । एसि एहि मुक्का किहाई हामित्ति । तेण विमुक्का परियंती अ गया सव्वेसि तसि मज्भेणं । श्रागता तेहिं सव्वेहिं मुक्का । नत्तारसगासं श्रणहसमग्गा गया । ताहे अजश्र तं जणं पुच्छई । अक्खढ एत्थ केण दुक्करं कयं । ताहे इस्सासुया भणति भत्तारेणं छुहासुया जणंति रक्सेणं । पारदारिया जणंति मालागारेणं । हरिसेण प्रणिअं चोरेहिं । पच्छा सो गरिओ जहा एस चोरोति । एतावत्प्रकृतोपयोगि जहा अन्नपण तस्स ( चोरस्स ) वापण भावो जाओ एवमिह वि सेहाणमुवठायं तयाणं उषापण गीयत्थेण विपरिणामादिया गायी जाणि धावान देखि पाविते भाषणापसेष I विभासा य । तटुक्तम् । “पञ्चाबिओ सिपत्तिअ, मुंकावेचं न कप्पर" इत्यादि । कहाणयसंहारो पुण चोरो से पिस्स उष।। पुच्चिरण सम्भाभो कहियो ताई रन्ना भणियं । ज नवरं पयाओ बिजाओ देहि तो न मारेमि । देमि ति अवग घासणे तिम्रो पढ । नट्ठाई राया भणई किं नहाई । तादे माग प्रदा भविणरणं पदसि । मी तु आसणे णीयतरे विट्टो जिया तो सिकाओं व विज्ञामो " एककमपणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्ता इव्योपायादयः । दश० १ अ० । तथाहि किस राजगृहनगर स्वामिनः श्रेणिकराजस्य मारा निधान देवताप्रसादेोषः सर्वर्तुकादिसमुकारामस्याफलानामकाल फलोद्वार्याोदरपूरणार्यारेणापरणे कृते परिहाना दर्शन निमित्तमिति बहुजनमध्ये बृहत्कुमारिकाकथामकथयादि कात्ि कुमारिकावाञ्चितवरलानाय कामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती भारामपतिना गृहीतासाने या सामन्यमिति प्र Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाय मुक्ता । ततः कदाचिद्विवाहिता सती पतिमापृच्छच रात्रावारामपतिपागच्छन्ती चीररावाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्या भवत्पार्श्वे श्रागन्तव्यमिति कृताभ्युपगमा मुक्ता । आरामे गता श्ररामिकेण सत्यप्रतिज्ञेत्यख एकतशीला विसर्जिता श्यामपि तथैव विसर्जिता प्रतिसमीपमागतेति । ततो नो लोकाः पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासी प्रपच्छ । तत इर्ष्यालुप्रभृतयः पत्यादीन् दुष्कर कारकत्वेनाभिदधुः । चौरचाएकाङ्गास्तु चौरानिति ततोऽसावनेनोपायेन जावमुपलक्ष्य चोर इति कृत्वा स तं बन्धयामासति स्था० ४ ० ३ ३० । दृष्टान्ते, "हवाओ सो साधम्मेण य विधम्मेण य श्र० ० १ अधि० । उपायकारि ( ) उपायकारिन् वि० आचार निर्देशकारि णि, " वायकारी य हरीमध्ये य एतदिठीय मारूचे " सूत्र० १ ० १३ श्र० । वायकि रिया- उपायक्रिया स्त्री० भावकिया उपाय किया घिनोपायेन वियते तद्यथा मूत्खननमनथ कारीपदमलिकुम्नकारण्यापरिययसि सर्वाऽप्युपायक्रिया सू० २ ० ० उवायग- उपायक-पुं० उपाय चिन्तके, विशे० । वायती उपायतम् अन्य उपायेनेत्यर्थे, “उपायती मोहनि न्दा " ध० १ अधि० । (११२१) अभिधानराजेन्छ | १ उवायर क्खण - उपायरक्षण- १० उपायेन रणे, "सुतादुवायरक्खण - गहणपयन्त विसया मुणेयव्वा " ध० २ अधि० । उवायविषय उपाय विषय पुं० मनोचाकापव्यापारविशे सुष्व पाणां स्वीकरणमुपायः स कथं नु मे स्यादिति संकल्प प्रबन्ध, सम्म० । " 35 उपाबंध-उपालम्भ-पुं० उपालम्भनमुपाभः भचैव विचित्रणने, दश० १ श्र० । जङ्गचन्तरेणानुशासने, स्था० ४ ० "तिषिडेवालनेपन तं जहा आयोवा मे परोपालंभ सदनयोषाने उपालम्भ मेवानीनित्यप्रवृतिप्रतिपादनगर्भा स चात्मनो यथा" गरि सदरुण माणसं जम्मे । जं न कुणसि जिणधम्मं, अप्पा किं वैरिओ तुज्यत ॥ १ ॥ परीपालनो यथा " उत्तमकुत्रसंओ उत्तमगुरुदपि तुम वच्छ । उचमणाप्यगुण हो, कई सहस्साववसितो एवंति ॥ १ ॥ तदुभयोपालनो यथा एगस्स कए नियजी - वियस्स बहुयाच जीवकोमीओ। दुक्खे ववंति जे के विताणकि साखयं जीयं ति ॥ १ ॥ " एवमित्यादिना पूर्वोक्तातिदेशो व्याख्यातः एवञ्चात्राकरना पयोपकमे आत्मपरतनयैखय प्रापका का एवमेकस्मिन् वैयावृत्त्यादिसूत्रे ते पयस्त्रयो वाच्या इति । स्व० ३ ० | नि० चू० ॥ 46 संरपारमपान दर्शयति । तुमए चैव कथमिणं, न सुगारिस्स दिजए दंगो इह मुको विन मुच्चइ, परत्य ग्रह हो नवाशंभो ॥ त्ययेय स्वयं मिदं प्रायश्चित्तस्थानं तस्मान कस्याप्युपरि श्रन्यथानावः कल्पनीयः । न खलु शुद्धकारिणो लोकेऽपि दशको दीयते । किं च यदि वह नवे कथमप्याचार्येणैवमेव मुच्यते । तथा इह नवे मुक्तोऽपि परत्र परओोके न मुच्यते । तस्मादा- जवालंज पनं प्रायश्चित्तमवश्यं गुणवृद्ध्या कर्त्तव्यमिति । अह एष भवत्युपालम्भः एष आत्मोपालम्नः । एतदनुसारेण परोपालम्नः । उजयोपाaratऽपि नावनीयः व्य० प्र०१ २० । उपालम्नो यत्राऽभिधीयते तादृशे आहरणतद्देशभेदे, स्था० ४ ० । अधुनोपासनद्वारविषया उम्म मिगाव, नाहियवाई एवं वतव्वं । नत्थि त्ति कुविन्नाणं ययाभावे सह अजुत्तं ॥ ७५ ॥ उपासने प्रतिपाये मृगपतिदेयोदाहरण 5 हा आवस्सप दव्यपरंपराए भणियं तदेवं दव्वं जाव पक्वता अज्जचंद्रणाए सिस्सिणी दिसा अन्नया जगवं विरमाणो कोसंबीय समसरित्री चंदाच्या सविमारीहिं चंदणा श्रागया चउपोरसीयं समोसरणं काउं अस्थ काले परिगता ततो माती संता अयि विद्यालक तंति भणिऊणं साडूणीसहिया जाय ब्रह्मचंदासगास गा वाय अंधारयं जातं अर्थदणापमुहाहि खाणीताय पडिक्कतं ताहे सा मिगावती श्रजनंदणाए उबालम्भति जहा एवं रामं तुम उसमा होऊय पर्व करेखि अहो न लभ्यं । ताहे पणमिऊण पारसु प्रडिता परमेण विपण खामेति समह मे पगमवराहं साई पुवं कहामिति यकिल से समता पा इरीय वि परमसंवेगताय केवनाणं समुप्पनं परमं व यारं वट्ट सप्पो य तेनंतरेण श्रागच्छति पव्वतिणीए य मोती उप्पाडियो परिय 5 च्छिता किमेवं सा भणति दीहजातीओ कहं तुमं जाणसि कि कोर प्रतिसम्रोप्राति पडियाति पडिवालि पुि या सामग्रह अपडिवाहति तम्रो खामिया लोगलोगुत्तरसाहरसमेयं एवं पमायती सीसो उवालभेतव्यन्ति उदाहरणंदेशता पूर्वयत् योजनीयेत्येवं तायरकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालम्भद्वारमधुना द्रष्यानुयोगमधिकृत्य व्याया यते नास्तिकाद्यपि चार्याकोऽपि जीवनास्तियप्रतिपादक इत्यर्थः एवं वक्तव्योऽभिधातव्यः नास्ति न विद्यते कः प्रकरराजीव इति एवंभूतं कुविज्ञानं जीवसचाप्रतिषेधावभासीत्यर्थः । श्रात्माभावे सति न युक्तमात्मधर्म्मत्वात् ज्ञानस्येति भावना भूतपता पुनरस्य धर्म्यननुरूपत्वादेव न युक्त तत्समुदायकार्यताऽपि प्रत्येक भावाभावविकल्पद्वारे तिर स्कर्तव्येति गाथार्थः । अमुमेवार्थमुपसंहा अस्थि ति जाविया, अहना नस्थिति विचाणं । अर्थाभावे पोरस एवं चिय न जुतं ॥ ७६ ॥ अस्ति जीव इति एवम्भूता या वितर्का अथवा नास्ति न वि द्यते इति एवम्भूतं यत्कुविज्ञानं लोकोत्तरापकारि अत्यन्ताभावे पुलस्य जीवस्य इदमेव न युक्तमिदमेवान्याय्यं भावनापूर्ववदिति गाथार्थ उदाहरणदेशता नास्तिकस्य परलोकादिप्रतिषेधवादिनो जीवसाधनाद्भावनीयेति । गतमुपालम्भद्वारम् । दश० १ ० । “ एवं खन्नु जंबूसमणं भगवया महावीरेण दिगरे तिरथगरे जाय संपले अप्पालंभनि मित्तं पदमस्त गायज्झयणस्स श्रयमडे पन्नत्तेति वैमि इति ज्ञाताप्रथमाध्ययने उक्त आत्मोपालम्भः शा० १ ० | निन्दापूर्वकतिरस्कारे वाच० । Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : (११२२) अभिधानराजे उवलंभंत उपासंनंत-उपालजमान त्रि० उपालम्भं कुर्वाणे, प्रा० । उपालद्ध-उपालब्ध-उपलभत तिरस्कारेण निन्दि ते, वाच० । “उवालद्धो य सो सिवो वंभणो" नि० प्यू० १ उ०। उवासं अवकाश-पुं० स्थाने नि०० १७० उच्चासादिसु सेहो ममसपडि सेवणं उवास आदी जेसिं ताणि उधासादीहिताहि संधारवस कुलगामश्गरदे सरजं नि०यू० १४० ॥ उपासंतर- अवकाशान्तर १० पातकानामधस्तादाकाशेपु 66 स्था० २ ग० । " सत्त उवासंतरायं परसुणं सत्तसु वासंतरेसु सन्त तवाया पठिया स्था० ७ ० । आकाशविशेषे, भवकाशरूपान्तराले न भ० १ ० ६ ८० । अवकाशान्तरं नाम अमुकयोर्द्वयोर्मध्यमिति । व्य० उ० । “ सचमे उवासंतरे " प्रथमद्वितीययोर्यन्तमाकाशमं तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तमं न० १२ श० ५ उ० । उपास-उपासक उपासते सेवन्ते खामित्युपासकः । श्रावकेषु, उत्त० २ ४० । श्रव० नं० । स्था० स० । “उवासो विहोवती अती या अती सो परदंसणं संप पोपुषि पायगो बनायो या" नि०० ११४० सेवके, उपासनाकर्त्तरि शुडे, पुं० स्त्री० वाच० ॥ उबासगदसा-लपाशकदशा स्त्री० ब०० उपासकाः श्रावकास्ततावतादिक्रियाकलापप्रतिषका दशा अध्ययनानि उपासक दशाः । नं० पा०| स० । सप्तमाङ्गे, बहुवचनान्तमेतत् ग्रन्थनाम आसां च सम्बन्धानिधेयप्रयोजनानि नामान्वर्थसामथ्र्येनैव प्रतिपादितान्यवगन्तव्यानि । तथा हि उपासकानुष्ठानमिहाभिधेयं तचगमश्च श्रोतॄणामनन्तप्रयोजनं बोधनमेव तत्परम्परप्रयोजनं तुभयेषामप्यपवर्गप्राप्तिरिति । सम्य वस्तु द्विचा शास्त्रनिचयते उपायेोपेयावरु मंत्रणदोषायोपेयाः शान्यर्थामध्ये नेवासामभिहितस्तचा दं शास्त्रमुपाय एतत्साध्योपासका नायगमपेयमित्युपायपेयभावलक्षणः सम्बन्धः ॥ गुरुपर्वतु सम्बन्ध काणं तेणं समएवं चंपा एामं एयरी होत्या । ओ। पुण्पभद्दे चेइए। वपत्र । तेणं कालेणं तेणं समएणं असुहम्मे समोसरिए जाव जंबू पज्जुवासमाणे एवं वयासी । जइ एणं भंते ! समं जगवया महावीरेणं जाव संपत्तें बस्स अंगस्स णायाधम्मकहाणं यमद्वे पाते ? सत्तमस्स णं ते! अंगस्य उपासगदसाणं । समलेणं जात्र संपत्तेणं । के पत्ते एवं खलु जंबू समणस्स जगवो महावीरस्स जाव संपनेणं सत्तमस्स अंगस्स उवसगदमाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता । तं जहा आणंदे ? कामदेवे व २ गाहाणं पिया ३ सुरादेवे ४ सय ५ गाहाको लिए ६ सदाझपुणे ७ महासनंदणीपिया माझे पिया १० जणं ते! समणं जाय संपर्ण समस्य अंगस्य उपासगदसाणं । दस अज्कयणा पम्मुत्ता ? ।। "ते काणं तेणं समर्पणमित्यादि" सर्व येाधर्मकथाप्रथमाध्ययनविबरणानुसारेणानुगमनीयं नगरम् "आणंदेत्यादि" उवासगदसा रूपकं तत्रानन्दाभिधानोपासकषयता प्रतिबध्यमानन्द एवाभिधीयते एवं सर्वत्र उपा० १ ० । एवं खलु समणं नाव संपनेणं सतमस्स अंगस्न उवासगदसाणं दसमस्स प्रस्स प्रथम प उवासगदाओ सम्मता उवसगदसाणं सचमरस अंग एगो सुखंधो दस अजयला दससु चैव दिवसेतु उद्दिसंति । खलु जंबूइत्यादि उपाशकदशानिगमनवाक्यमध्ये यमिति तथा पुस्तकान्तरे संग्रहगाथा उपलभ्यन्ते ताबेमा " वाणिया मे चंपा, डुवे वणारसीप नयरीए ४ । आभिया य ॥ पुक्खरि, कंपिपुरं च बोधव्वं । १ । पोलासं रागगिडं, सावत्थीप पुरीष दोन्निभवे । एवासगाणं, नयरा खनु हुति बोल्या | २| सिवनंद १ ज २ सामा, ३ घण ४ बहुला ५ पुस ६ अगिमिता य ७। रेव अस्सिणि ए तहफ-ग्गुणाय १० भज्जाण णामाइ ३ ॥ ओहिणाण १ पिसाए २ माया ३ वाहि ४ घण ५ उत्तरि य ६ । जज्जायकुवया ७ 5- व्वयानिरुवसग्गया दोनि १० ॥ ४। अरुणे १ अरुणाने २ खमु, अरुणप्पड़ ३ अरुण कंत ४ सिड्डेय ।। अरुणज्जर य बठे, ६, भूय ७ वर्डिसे - गवे ६ कीले” १०।५ । शिक्षादीनामान्यरुणपर्वणि दयानि । अरुपशिष्टमित्यादि पताश्च पूर्वोकानुसारेणावसेया यदि न व्यापातं तत्सर्व हाताधर्मकाम्याख्यानमुपयुक्तेन निरूप्यासेयमिति । "सर्वस्यापि स्वकीयं वचनमभिमतं प्रायसः स्याज्जनस्य यत्तु स्वस्यापि सम्यम्न हि विदितरुचिः स्यात् कथं तत्परेषाम् । चिसोल्लासात्कुतश्चिदपि तं किंचिदेतदुक्तं यश्चात्र तस्य ग्रह्ममनधियः कुर्वतां प्रीतये मे " समाप्तमुपासकदशाविवरण समाप्तं सप्तमाङ्गम् ॥ उपा० १० भ० । 5 उपाशकदशानां विषयाः । से किं तं उवासगदाओ उवासगदसासु णं नवासयाणं गराई उज्जाणाई आई वनखेडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मका हाओ इहलोइयपरलोयसेसा उवासयाणं सीलव्वयंवरमल गुणपच्चक्खा पोसहोत्रवासपमित्रज्जियाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाथाई परिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपर पखालाई पाचोगमाई देवलोगगमलाई पचाया पुणो वोि लाजो अंतकिरियाओं पविति ॥ ( उपासकदसासु णंति ) उपासकानां नगराणि उद्यानानि चै त्यानि वनखएमा राजानः अम्बापितरौ समवसरणानि धमीचार्या धर्मकथा ऐहलौकिकपारलौकिका ऋद्धिविशेषा उपासकानाखव्रतपरमगुणस्यास्थान पौषधोपचास प्रतिपादनता शीलान्यव्रतानि विरमणानि रागादिविरतया गुणा गुणानि प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि पौषधमम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनमाहारशरीर सत्कारादित्यागः पौषधोपवासततो सत्येतेषाम्पति पाइनताप्रतिपत्तय इति विग्रहः अपरिग्रहस्तप उपधानानि प्रतीत (परिमयति ) एकादश उपासकप्रतिमाः कायोत्सर्गी वा उपसर्ग देवादिकृतोपद्रवः संलेखना भक्तपानप्रत्याख्यानानि पादपोपगमनानि देवलोकगमनानि कुले प्रत्यायाति पुनर्वोधिलाभोऽन्तक्रियाश्राख्यायन्ते पूर्वोक्तमेव ॥ Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छवासगदसा अतो विशेषत आह । नवासगदसासु णं वासयाणं रिद्धि सेसा परिसा - वित्यरधम्मसाणि रोहिलाओ अभिगम सम्पन्त विसु या थिरचं मूलगुणउत्तरगुणाइयारा दिइ बिसेसा बहुविसेसा परिमाजिग्गहाण उवसग्गाहि संहालिरुवसग्गा तवोयचित्ता सीलव्त्रयगुण वेरमणपञ्चक्खाणपोस होबवाना अपमिमारणंतिया पहला झोसणा अ पाणं जह य जावइत्ता बदृणि जत्तारिण अणसाए - असा उदवस्या कप्पवर विमात्तमे जहा अनुभवति सुरवरविमाणवरपौकरीएस सोक्खाई अनोषनाई कमेणा जुत्ता उत्तमाई तो अ: उक्खर हुआ समाया जह जिरामयम्ब बोर्ड लकूण य संजमुत्तमं तमरथोपविण्यमुक्का ति जढ़ अक्खयसम्यदुक्खमोक्खं एते श्रेय एवमाइ उ वासपदसासु णं परिचा पाया संखेन्जा अभोगदारा जाव संखज्जा संगहीओ से गंगट्टयाए सरुमे - गे एगे सुयक्खंधे दस अायणा दस उसरणका ला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाइ पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पत्तो संखेज्जाई अक्खराई जाव एवं चरणकरणपरूवणा प्राघविज्जति सेत्तं उवासगदसाओ || ७ || चवासगेत्यादि तत्र ऋकिविशेषा अनेककोटीसंख्याव्यादिस म्पद्विशेषाः तथा परिषदः परिवारविशेषाः यथा मातापितृपुत्रादिकाः अन्यन्तरपरिषत् दासदास मित्रादिका बाह्यपरिषदिति विस्तरपणन महामरसन्निधौ ततो बोधिलाभोन - (११२३) निधानराजेन्द्रः । सम्यक्त्वस्य विशुद्धता स्थिरावं सम्व मृणोतरगुणा श्रतादयः भतिवारस्तेषामेव पन्था दितः खगमनानि स्थिति विशेषाश्वोपासक पर्यायस्य कालमानभेदाः विशेषाः प्रतिमाः प्रभूतभेदाः सम्यग्दर्शनादिप्रतिमा बहु अनिग्रहणानि तेषामेव च पाञ्जनानि पानि निरुपयोगीभावश्येत्यर्थः । तपांसि स सादयोऽनन्तरूपा अपश्चिमाः पश्चात् काभविन्या यमपरिहारार्थः । मरणरूपे अन्ते नया मारणान्तिक्यः आत्मशरीरस्य जीवस्य च संलेखनाः तपसा रोगादिजयेन च कृशीकरणानि आत्मनः संलेखनाः ततः पदत्रयस्य कर्म्मधारय सांवत) ओोषणाः सेचना करणार्मत्यर्थः तानिपश्चिममारणान्तिकात्म संलेखनाजोषणाजिरात्मानं यथा च भायित्वा बहूनि भक्तानि अनशनतया च निर्भोजनतया वेदयित्वा व्यवच्छेद्य उपपन्ना मृत्वेति गम्यते । केषु कल्पवरेषु यानि विमानोत्तमानि तेषु यथाऽनुवन्ति सुरवर विमानानि दर एकरीकाणि यानि तेषु कानि यान्यनुपमानि मेणवोत्तमानि ततः आयुष्ककण च्युताः सन्तो यथा जिनमते बोधि लब्धा इति विशेषः । यथा च संयमोत्तमम्प्रधानं संयमं तमोरजओघ विप्रमुक्ता अज्ञानकर्मप्रवाह विमुक्ता उपयन्ति । यथा अक्कयमपुनरावृतिकं सर्वमक कम्यमित्यर्थपादास्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः । एते चान्ये चेत्यादि प्राग्वन्नवरं "संखेजाई पयस इस्साई पयम्गेणंति " किलैकादशलकाणि द्विप खाशश्च ७ । । उवासगपनिमा खेज्जा वेदासंखिजा सिलोगा संखिजाओ निज्जुती संखिजाओ संगणी ग्रां संखिजाओ पडित "मं०। व्यासगपमिमा उपासकमतिमा उपासका धावकास्तेषां प्रतिमाः प्रतिज्ञा अभिग्रह विशेषाः उपासकप्रतिमाः । उत्त०२० स० । श्रावकोत्थितानिग्रह विशेषरूपेषु सुदर्शनादिषु, उपा० १ अ० । ध० | ग० । तथैकादशप्रतिमायां श्रारुः सामायिको "जाव नियमं पा जाय पक्रिर्म था " कथमुचरते तथा पम्पादयतिमाम्यादितिथि रात्री कार्यास करणयदेकादश्यां प्रतिमायां कायोत्सर्ग करोति न वेति प्रश्नः। उत्तरम् एकादशप्रतिमायां श्रापण सामाधिके "जाय पडिमं वासेमित्ति" पात्रो नणनीय स्तथा कायोत्सर्गेऽपि करणीयः । शेन० २ ० ३७ प्र० । श्रावकधर्माधिकारातदुचितभावस्तद्विशेषमुपासक प्रतिमानकनमनिचित्याद्यभिधानाया। नमि महावीर भवहिवहाय लेस किंपि । यो समोवास परिमाणं सुतमग्गेण ॥ १ ॥ त्या प्रणम्य महावीरं वाजिनं भन्यानां जीवानां दिसं पथ्यं स पार्थः पदार्थः प्रयोजनं वा भम्यदितार्थस्तस्मै भव्यहितार्थाय योपकारायेत्यनेन च परोपकारस्य मुरुणामादेय तां दर्शयति । लेशतः संकेपेणाल्पग्रन्थ तयेत्यर्थः । अल्पग्रन्थेनापि समस्तमनिधेयमुच्यत इत्यत आह किमपि स्तोकमभिजान समस्तमत्वर्थः ये मणिष्यामि। श्रमणोपासक प्रतिमानां श्रावकाभिग्रह विशेषाणां संबन्धिनां पुनर्भिक्षुप्रतिमानां श्रावकधर्माधिकारात्कथमित्याह सूत्रमार्गेण दशाश्रुतस्कन्धानिधानागमपथेनानेन श्रुतविशेषावलम्बनत्वात्प्रकरणस्यास्य प्रामायमाचेदितमिति गाथार्थः पंचा० १० बि०१ । अथ कियत्यः किमादिकाश्च ता इत्याशङ्कायामाह । एकारस उपासगपडिमा पत्ता तं जहा दंसणसावार कयन्त्रकम्मे सामाइक पोसहोववासनिरए दिया बंजया रचिपरिमाण कटे दिआ विराम्रो वि वंजयारं प्रसि पाईन अमजोई मोलिकडे सचिचपरिचाए आरंजपरिभाए पेसपरिनाए उद्दि भत्तपरिनाए समणनए आविभवइ समणासो ॥ - । सहस्राणि पदान मिति ॥ सम० यावदेन "संर्थः पौषधोपयास इति इयं व्युत्पत्तिरेव प्रवृत्तिस्तस्य शब्दस्य तत्र दर्शनं सम्यायं तत्प्रतिपक्षः आयको दर्शनाका प्र विमान प्रान्तरचेऽपि प्रतिमाप्रतिमाच तर प्रेोषयाचाप्रतिमायतो निर्देशः कृतः पयमुत्तरपदेध्यपि प्रथम आपको दर्शन श्रावकः इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमानावार्थः सम्प दर्शनस्य राष्ट्रादिपरहितस्यानु प्रतादिगुणाधिकःपस्यापमन्यु पगमः सा प्रतिमा प्रथमेति । तथा कृतमनुष्ठितं बतादीनां कर्म सहयातिपत्तिसमं येन प्रतिपद कृतव्रतकर्मा प्रतिपन्नाव्रतादिरिति भावः इतीयं द्वितीया । तथा सामायिकं सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्य योगोपसेवनस्वभावं कृतं विदितं देशो न स सामायिकतः नादितान्यादिदर्शनात् का तस्योत्तरपदत्वं तदेयं प्रतिपन्नपीपधस्य दर्शनप्रतीपेतस्य प्रतिदिनमुनयसंख्यं सामायिककरणं मामत्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति । तथा पोषं पुष्टिं कुशलधर्माणं धत्ते यदाहरत्यागादिकमनुष्ठानं तापीपचं तेनोपपसनमपस्थानम्होरा याति प धोपवास इति । अथवा पौषधं पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोवास उक्ता Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२४) अवासगपडिमा अभिधानराजेन्मः। नवासगपमिमा भाहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेबिति । तत्र पौष- | स्यैकादशमाशान् यावदेकादशी प्रतिमा भवतीति। पुस्तकान्तधोपवासे निरत आसक्तः पौषधोपवासनिरतः स एवंविधस्य | रे त्वेवं याचना "दसणसावपप्रथमा । कयवयकम्मे मितीया । श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः। अयमत्र नावः पूर्वप्रतिमात्र | कयसामाइए तृतीया । पोसहोववासनिरए चतुर्थी । राइभत्तयोपेतोऽष्टमी चतुर्दश्यमावस्यापौर्णमासीवादारपौषधादिचतु- परिन्नाए पंचम।। सचित्तपरिन्नाए षष्टी । दिया बंजणयारी रात्री विध पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरो मासान् यावश्चतुर्थी प्रतिमा | परिमाणको सप्तमी दिया वि राम्रो वि बम्हया । असिणाभवतीति । तथा पञ्चमीप्रतिमायामप्टम्यादिषु पर्वस्करात्रिका | णपयावि नवति बोस?केसरोमनहे अष्टमी । आरंजपरिनार तिमाकारी नवत्येतदर्थ च सूत्रमधिकृतमुत्रपुस्तकेषु न दृश्यते नवमी । उद्दिभत्तवज्जए दशमी। समणएया वि भवइत्ति सदशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः। तथा शेषदि- समणा उसो एकादशीति । क्वचिनु प्रारम्नपरिक्षात इति नवम।। नेषु दिवा ब्रह्मचारी ( रत्तीति) रात्री किमत आह । परिमाणं प्रप्यारम्भपरिहात इति दशमी । उहिष्टभक्तवर्जकः श्रमणताधस्त्रीणां तद्भोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत शति । अ- कादशीति । सम० । पंचा। यमत्र भावो दर्शनवतसामायिकाष्टम्यादिपौषधोपेतस्य पर्वस्वेक- तएणं से आणंदे समणस्स जगवत्रो अंतिधे पढम उवारात्रिकप्रतिमाकारिण शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रौ ग्रह्म सगपडिमं नवसपज्जित्ताणं विहर । पढम उवासगपझिम परिमाणकृतोऽस्नातस्यारात्रिभोजिनः अबककस्य पञ्च मा अहामुत्त ४ सम्मकाएणं फासे । जाव पाराहए । तएणं सान् यावत्पश्चमी प्रतिमा जवतीति । नक्तंच "अहम्मि चलहसीसु पार्ममट्ठा पगराईय " पश्चार्द्धम् ॥ से आणद समण । दोचं नवासगपमिमं चउत्थं पंचम उ8 असिणाणवियडभोई, मउत्रियमो दिवसबंजयारी य। सत्तमं अध्मं नवमं दशमं एक्कारसमं जाव पाराहे ॥ रति परिमाणकडो, पमिमा बजेदिसुजहेसुत्ति ॥ ५ ॥ (पढमंति ) एकादशानामाद्यमुपासकप्रतिमाश्रायकोचितानितथा दिवाऽपि रात्रावपि ब्रह्मचारी (असिणा शत्ति) अ-| प्राविशेषरूपामुपसंपद्य विहरति तस्याश्चेदं स्वरूपम् “संकादि. स्नायी स्नानपरिवर्जकः क्वचित्पठ्यते ( अनिसात्ति ) न | सवविरहित, सम्मइंसणजुओ जो जंतू । सेसगुणविष्पमुक्को, निशायामत्तीत्यनिशादी ( वियानोति ) विकटे प्रटक- एसा खयु होइ पढमाओ।" सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिश्चास्य पूर्वमप्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः दिवाऽपि अप्रकाशे देशे न | प्यासीत् केवलमिह शङ्कादिदोषराजानियोगाद्यपवादयर्जित्येन शुले प्रशनाद्यज्यवहरतीति विकटनोजी (मझिकमेत्ति) अ- तथाविधसम्यग्दर्शनाचारविशंषपालनाज्युपगमेन च प्रतिमात्वं बरूपरिधानकच्च इत्यर्थः । षष्ठी प्रतिमेति प्रकृतम् । अयमत्र संभाव्यते कथमन्यथाऽसावेकमासप्रथमायाः पालनेन द्वौ मासी भावः प्रतिमापञ्चकोक्तानुष्ठानयुक्तस्य ब्रह्मचारिणः पएमासान् | द्वितीयायाः पालनेन एवं यावदेकादश मासानेकादश्याः पालनेयावत्पष्ची प्रतिमा जवतीति । तथा सचित्त इति सचेतनाहार- न पञ्चसार्माणि वर्षाणि पूरितवानित्यर्थः । ततो वक्ष्यतीति न परिज्ञातः तत्स्वरूपादिप्रतिज्ञानात्प्रत्याख्यातो येन स सचित्ता- चायमर्थो दशाश्रुतस्कन्धादावुपलभ्यते श्रकामात्रप्ररूपायास्तहारपरिकातः श्रावकः सप्तमी प्रतिमेति प्रकृतम् । श्यमत्र भावना स्याः प्रतिपादनात (अहासुतंति ) सूत्रानतिक्रमेण यथाकल्पपूर्वोक्तप्रतिमाषदकानुप्गनयुक्तस्य प्रासुकाहारस्य सप्त मासान् प्रतिमाचारानतिक्रमेण यथा मार्ग क्षायोपसमिकभावामतिकयावत्सप्तमी प्रतिमा भवतीति तथा आरम्नः पृथिव्याधुपमर्दन- मेण ( अहातचंति ) यथातत्वं दर्शनप्रतिमेति शब्दस्यान्वर्धासक्वणः परिज्ञातस्तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्नपरिझातःश्रा- नतिक्रमेण (फासइत्ति) स्पृशति प्रतिपत्तिकाले विधिना प्रतिकोऽष्टमी प्रतिमेति। इह भावना समस्तपूर्वोक्तानुष्ठानायुक्तस्या- पत्तेः (पालेत्ति) सततोपयोगप्रति जागरेण रक्षति (सोहइति) रम्नवर्जनमष्टौ मासान् याबदष्टमी प्रतिमेति । तथा प्रेष्या प्रार- शोभयति गुरुपूजापुरस्सरं पारणकरणन शोधयति वा निरम्भेषु व्यापारणीयाः परिज्ञातास्तथैव प्रत्याख्याता येन स प्रेष्य- तिचारतया (तिरइत्ति) पर्णेऽपि कालावधावनुबन्धात्यागात् परिक्षातः श्रावको नवमीति । नावार्थश्वेह पूर्वोक्तानुष्ठायिनः प्रा. (कीर्तयेत्ति) तत्समाप्तावेवमिदं चेहादिमध्यावसानेषु कर्तव्यं रम्ने परैरप्यकारयतो नव मासान यावन्नवमी प्रतिमेति । तथा मया तत् कृतमिति कीर्तनात् आराधयति एभिरेव प्रकारैः उहिष्टं तमेव श्रावकमुद्दिश्य कृतं नक्तमोदनादि उद्दिष्टभक्तं तत्प- संपूर्णैः निष्ठां नयतीति उपा० १ उ०। रिजातं येनासावुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः प्रतिमेति प्रकृतम् । इ सुयं मे आउसत्तेणं जगवया एवमक्खायं इह खलु थेरहिं हार्य जावार्थः। पूर्वोदितगुणयुक्तस्याधाकर्मिकभोजनपरिहारपतः शुरमुहिमतशिरसः शिखाबतो वा केनापि किंचिद् गु. भगवंतेहिं कारस उवासगपडिमा परमत्ताओं कतराओ खा हव्यतिकरे पृष्टस्य तज्ज्ञाने सति जानामीस्यकाने च सति सामो इमाओ खलु तं जहा अकिरियावादी याचि जवति न जानामीति वाणस्य दश मासान यावदेवंविधविहार- मोहियषादीणोहियपामे नो हियदिट्ठी नोसमावादी गोणिस्य दशमी प्रतिमेति । तथा श्रमणेति निर्ग्रन्थसद्वेद्यस्तद त्तियावादी ण संति परलोगवादी पत्थि इहलोए णस्थि नुष्ठामकरणात् स श्रमणजूतः साधुकल्प इत्यर्थः । चकार: समुच्चये अपिःसंभावने नवति श्रावक इति प्रकृतं हे श्रवण ! परलोए णत्थि माता णस्थि पिता णस्थि अरहताणस्थि चक्क हेआयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्यूस्वामिनमामन्त्रयतोक्त- वट्टी णस्थि बनदेवा णत्यि वासुदेवा णत्यि णरयाण स्थिणेमित्येकादशीति । इह चेयं भावना पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य रइया णत्थि सुक्कडंदुक्कमाणं फलवित्तिविसेसे णो सुचियाक कुरमामस्य कृतलोचस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य समि म्मा सुचिन्नफमा भषंति णो सुचिमा कम्मा हचिम फलाभत्यादिकं साधुधर्ममनुपाबयतो निक्षार्थ गृहिकुलप्रवशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिपन्नाय भिक्का देयेति नापमाणस्य कस्त्व वंति। अफले कक्षाणपावए नो पञ्चायति जीवा एस्थि णिरमिति कस्मिश्चित्पच्छति प्रतिपन्नश्रमणोपासकोऽहमिति बुवाण या नत्थि सिदी मे एवं वादी एवं पामे एवं दिट्ठी एवं बंदग Jain Education Interational Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२५) उवासगपडिमा भाभिधानराजेन्मः। उवासगपमिमा गजिणिविहे आधिजवति से अनव महिजे महारंभे महा- करेह इमं मुख इमं वेच्छे न इमं हिययत नप्पामियं करे।। परिग्गहे अहम्मिए अहम्माणुए अधम्मसेवी अधम्मक्खाई एवं नयणदसण वयणजिन्भुप्पीडितं करह । इमं जलभधम्मरागी अधम्मपलाई अधम्मजीवी अधम्मपालज्जाणं अ- वित्तं करेह । इमं घंसियतयं इमं घोसित इमं सूझाकायधम्मसीलसमृदाचार अधम्माणं चेव विा कप्पेमाणे विहरइ ।। तयं इमं मूलाजिम इमं खारवत्तियं करेह । इमं दम्भवहण विंद भिंद विकलए लोहियपाणीचंमा रुद्दा खुद्दा साह-| त्तियं० इमं सीधपुच्छितयं० इमं वसन्जपुच्चितयं० इमं कडस्सिया उकंचएवंचणामायाणिय कुमकव मातिसंपयो ग्गिदच्यं करेह । इमं काकिणिमंसवित स्वादि) तं करेह । गबहुना दुस्सीमा दुचरिया दुरणुणेया दुव्बदा दुप्पमिया | इमं भत्तपाणनिरुक्षयं० इमं जावर्जावबंधणं करेह । इमं एंदा निस्सीले णिग्याए निग्गुणे निम्मारे निम्मेरे निप्पच्च अन्नतरेण असुभण मारेह जा विय से अभितरिया पक्वाणपोसहोववासे असाहू सव्वातो पाणाइवायाउ अपमि रिमा भवंति तं जहा माताते वाभागिणित्ति वा मज्जाति विरए जावज्जीवाए एवं जाव सम्बाओ कोहायो सव्वाश्रो वा धृयाति वा सुहाात वा तसि पि य णं अमयरंमि माणाओ सम्बातो मायातो सन्चातो लोभातो सव्वातो अहालहगसि प्रवराहसि सयमेव गरुय दंडवत्तेत्ति पेज्जातो दोसातो काहातो अभक्खातो पेसुम्मपरपरिवा सीतोदगवियमंसिकायंता वासित्ता भवति नसणोदगचियदाहो अरतिरइमायामोसातो मिच्छादसणसवातो अपमि मेग कार्य सिंचित्ता नवति अगणिकाए णं कायं उहित्ता विरए जावजवाए सव्वतो कसायदंतकट्ठएहाणमहणविले जवति । जोचेण वा वेतण वा नेतेण वा कामेण वा छिवणसहफरिसरसरूवगंधमळालंकारातो अप्पमिविरया जाव वामीए वा पासा नहालित्ता नवति । दमण वा अट्ठीण जीवाए सम्बातो सगमरहजाणजुगगितिथिद्विसीया-- वा मुट्ठीण वा लेख वा कत्रालेण वा कार्य आउमेत्ता जसदमाणियजंपणासणजाणवाहणजोयणपवित्यरविधीतो वति तथप्पगारे पुरिसज्जाते सवणसम्मणे सुम्मणा नवंति अपडिविरता जावज्जीवाए असमक्खियकारी सव्वाश्रो तहप्पगारे पुरिसज्जाते दम्मामी दंगगुरुए दंम्पुरक्खो अभासहत्यिगोमहिसदासीदासकम्मकरपोरुसातो अपमि हिते असिनोयंसि अहिए परसोयंसि ते दुक्खे निमोयति विरता जावज्जीवाए सव्यतो कयविक्कयमासघमासरू एवं करे तिप्पति पीति परितप्पति ते दुक्खणसोयणज्जूरबगसंववहारातो अपमिविरता जावज्जीवाए सव्वाहिरण पतिप्पणप्पिट्टणपरितप्पावधबंधपरिकिनेसातो व पविसुवणधणधप्पमणिमोत्तियसंखसिमप्पवासातो अपडिविरता रता नवंति । एतामेव ते इत्यिकामनांगहि मुच्छित्ता गिछा जावज्जीवाए सब्बतोकूमतुलकूडमाणातो अप्पमि बरता स- | गढिता अब्भोववन्ना जाव वासाई चनपंचमाई छदसमाबातो आरंभसमारंभानो अप्पमिविरता सव्वातो करण णि वा अप्पतरो वा नज्जतरो वा कालं जित्ता जोगनोकारावणतो अप्पडिविरता सव्वातो पयणपयावणातोप गाई एस चित्तावरायतणाई संचिणिचा बहूई पाबाई कम्पाई पमिविरता मब्बातो कुट्टणपिट्टणातो तजणतालणबंधवधपरिकलेसातो अप्पमिविरता जावज्जीवाए जेयावहो तहप्प उसाभारकईणकम्मुणासेजधानामते अयगोवेत्ति वा सेगारा सावज्जा अवोहिया कम्मती कज्जति परपाणा पा. लगोनेत्तिवानदयंसि पक्खित्ति समाणे नदगतममतिवतित्ता आहे धरणितमपतिट्ठाणे जवति । एवमेव तहप्पगारे पुरिसरिश्रावणकमा कज्जति ततो वि य अप्पडिविरता जावजीबाए से जहाणामए केइ पुरिसे कलममसूरति मुग्गमासान जाते बहुझे धुमबहुले पंकबहुझे वेस्यवदुझे दंमतिपमिअसाप्फावकुसत्यालिसंदजवएवमादिएहिं अयते करे मिच्छा यबहुझे अयसबाहले अप्पत्तियवहले उसनतणपाणघाती दंड पउंजइ एवमेव तहप्पगारे पुरिसज्जाते तित्तिरबट्टा लाव का.मासे कालं किच्चा धरणितलमतिवत्तित्ता अहे नगरतककपोतकपिजलमियमहिसवाराहगाइगोगोहकुम्मासिरी-- लपतिहाणे जवति तणं परगा अंतोवट्टा बाहिं चउरंसा अहं खुरप्पसंगणसंविता निच्चंधकारतमसा वरगयगहचंदसूरनसवादिएहिं अयते करे मिच्छादं पउंज ॥ जावि य से बाहिरिया परिया परिसा नवंति दासेति वा पेसेति वा ज क्खत्तजोतिसपहा मेयवसामसरुहिरपूयएमसचिवखवालितएइ वा जाइब्रेति वा कम्मारएति वा भोगपुरिसेति वा त्ताणु वणनला असुई जीमा परमब्जिगंधा काळाग अगनोसि पिय णं अम्पयरगसि अहालघुसयंसि अवर धंसि णिवायाला कक्खमफामा दुरुहिया सा अमुभा नरगा असयमेव गरुयं दंडं वत्तेति तं जहा इमं दंडेह इमं मुंह मं सुजा नरयस्स वेदण तो नो चेव णं नरएमु नेरझ्या निद्दापतामेह इमं इंदुबंधणं करेह इमं नियलबंधणं करेह इमं चा यति वा सत्तिं वा रतिं वा धिति वा इमं वा उबलनंनि रगवंधणं करेह इमं हत्यच्छिाएं करेह इमं पायच्छिमं करेह | तणं तत्य नजलं चियनं पगाढं कक्कसं कम्यं च रुक्खं दुमं कामच्छिमन करेह इमं नक० इमं नह० मंसीमच्छिन्नयं गं निव्वं दुमद्रियामं नए मुग्नेग्इया नरयवयणं पच्चणुभ Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२६) अभिधानराजेन्द्रः उवासंगपरिमा बाणा विहति से जपा खखेसिया पायगजाते मुझ छने गे गए जातो निच्चं जतो दुग्गं जतो विसमंततो पयति एवमेव पगारे पुरिसजाते जातो गब्जं ज मातो जम्मं मारातो मारं दुक्खातो दुक्खं दाहिएगामिए here are आगमे साणोधिते याविजतिमेतं किरियावादी यावि भवति तं जहा आहिवादी आहियपत्ते आदि दिवी साम्माबाद। निश्वाद। संति रोगवादी अस्थि इह लोगे अत्थि परलोंगे अतिथ माना अस्थि पिया प्रत्थि भरता अत्यि चकनही अस्थ महादेवा अपि स्थि कदुकमा फलविधिविसेले चिया कम्मा सुविष्यफला भयंति दुचिच्छा कम्मा दुचिम्फा भवति । सफले कलाणे यावए पच्चायंति जीवा अनेरया देवा सिटी से एवं वादी एवं पने एवं दिट्टीच्दरागमति निविडे विजवति से भवति महेच्छे जात्र उत्तरगाभिए नेग्इए पविवयत आगमसाणं सुलभा बोधयविभवा से तं किरियावादसव्वधम्मरुची यावि भवति । तस्स बहु सीवगुणचेरम पथक्खापन होबालाई सम्मं पद्धतिपुबाई जवति पढमा उपासगपकिमा । (किरियवात्ति) ननु प्रतिमाधिकारे तु पूर्व दर्शनप्रतिमास्ति दश च सम्यक्त्वं तदेव पूर्वे वक्तुमुचितं किमर्थं तर्हि पूर्व म ध्यात्वप्ररूपणमनुपयोगित्वात् । उच्यते मिथ्यादर्शनं खलु सभ्यदर्शनप्रतिपचनृतं तदपि ज्ञातुमुचितं जावन्न तद्विपकतया ज्ञातं तत्सम्पदति पूर्वे सर्वजीवानां मिथ्यात्यमेव प केषांचित्सम्यक्त्यमतः पूर्वे मिथ्यादर्शनमेयोचितं वतुमिति । तद् द्विविधं तद्यथा आभिग्राहिकमनानिप्रादिकं मानिग्राहिको ना कुदर्शनप्र होयथा नास्ति जीवोऽनित्यो वा जीवः नास्ति वा परलो कश्यादिरूपः अनाभिग्राहि महिनामपि पांति तथाविधनविन अपि केचनाकियासादिनोऽय्याखापि योऽदिनियमात् कृष्णपाक्षिक तरुणमेवमाहुः 'जे सिमको पुग्गल परियट्टो चेव हो संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु यरे पुण कन्दपक्खिया |१| इति । क्रियावादी च निममाद्रव्य एव शुक्ल पाकिकश्च । यतः" अंतो पुग्गल परियहस्स णियमा सिज्जिहित्ति" सम्पदृष्टिमिष्याभिषेद तो मादी तदुद्देश करणमिति । तत्र यात्रुपासां वकुं शालमस्येतिवादी तद्विपरीतस्वक्रियावादी यतः ये क्रियाया दिनले अस्तीति क्रियाविशिष्टा भवति यापिशब्दार्थसंग्राहकी टथ्यो स पुनः कथंभूतो जयतीति दर्शयति ( णाहियावादिति ) नास्तिकवादादयो नास्यात्मा एवं वदनशील नास्तिकवादी एवं ( नाहियपति) नास्ति देयोपादेयरूपा तां नास्तीत्येवं वदनशीलो नास्तिकप्रज्ञः प्रतिज्ञा वा निश्चयरूपोऽभ्युपगम एवं ( नादिपदिति स्विमतमिति प्रायः (नो सम्मादति) नदीमध्यादिशत्यर्थः ये वधावस्थितं भणन्ति से सम्यग्वादिनः तद्विपरीतस्तु मध्यावादिनः णो मिति याददिति यो मोको यत्र गतानां पुनरागमनादिमान वासगपरिमा पायस्थितितिधिवादी अथवा नियतमनुध्वानं णंसत्ति) पोका स्वर्गनरकादयः तद्वादी स पुनरित्यं नास्ति वदति यथा नास्तीह लोकः इहेति श्रयं प्रत्यक्तः सोऽपि नास्ति यद् दृश्यते तत् भ्रान्तमन्यथा प्रतिभासते तथाभूतसमुदायेन जीवादिकमस्ति तच वस्तुतया प्रतिभास इति भ्रान्तिः । नास्ति परलोकः कोऽर्थः परो नाम सुखदुःखोत्कृष्टनावसंयुक्तः सोऽपि नास्ति ( णत्थि माता णत्थि पिता ) इति कण्ठ्यं निषेधमेवं ते कुर्वन्ति योऽयं मातृपितृव्यपदेशः स जनकत्वे कृतो जनकत्वाश्च यूकाकु मिगएकोलकास्तथाश्रित्य स स्यान्न चैवं तस्मान्न था स्तयों मातृपितृव्यवहार इति ( णत्थि श्ररहंतति ) अन्तस्तीर्थकराः शेषपदत्रयं व्यक्तं ( नरयत्ति ) नरान् उपलक्षणत्वात्तिर तथाविपापकारिण कायन्ति इति नरकासीमन्तकादयः (रवित्ति) निर्मात अनिष्फलं कर्म येन्यस्तेषु प्रथा नैरधिका "नत्य सुकमेत्यादि" नास्ति सुकृतदुष्कृतयो अतिविशेषः सुकृतं तप अति दुष्कृतं जीवखादि "नो सुचि केत्यादिन सुनिरितानि कर्माणि सुखी फलनि इष्टसाधकानि भवन्ति एवमितरदपि नवरं व्यत्ययः अफसे इत्यादि अयमात्मा अफलः फलवर्जितः केत्याद कल्याणपापकवस्तुनि ( णो पञ्चायतित्ति ) न प्रत्यायान्ति जीवा गत्यन्तरसंभारेणेत्यर्थः ( णत्थि णिरयादि) अत्रादिशब्दोपादानात् नारकास्वैरक्षा नरा देवात्यारो ग्राह्याः ( सन्धि सिकिति ) गास्ति न सिद्धित्ति यसमा मुक्तिले तियान सेलिस यादी अनन्तप्रकारवादी कथकः परिकीति' पूर्ववत एवं उंदरां (त) उन्दः स्वानियायः रागो नाम स्ट्रागादिसूत्रनिनिधिप्रत्यर्पितयति (संपत्ति) सो जयति अनन्तरयमाणस्वरूपो यथा " महिष्ये" इत्यादि मदती राज्यविनयपरिकारादितिशायिनीच्छान्तःकरणप्रवृत्तिर्यस्य स महेच्छः तथा महानारम्जो वदनोष्ट्रम एडलिकानां गन्त्रीप्रवाह कृषिषएक पोषणादिको यस्य समारम्भः भूतः स महापरिग्रहः धनधान्यद्विपदचतु पचास्तु केषादिपरिग्रहान् कचिदप्यनिवृत्तः स एव धर्मेण चरतीति धार्मिकः न धार्मिकोऽधार्मिकः । तत्र सामान्यतोऽप्यधार्मिकस्थादत माह (धम्मापति) धम्मचाररूपमनुगच्छतीति धर्मानुगः । यद्वा धर्मे उत्तरोऽनुमोदनं यस्य सो धर्मानुस्तद्विपरीतस्तु धर्मातुः तथा (अमसेवी) मंत्र से समस्यधर्मसेवी तथा अम्मिति धर्मः श्रुतरूप एवेष्ट वल्लभः पूजितो यस्य स धर्मिष्टः । अथवा धर्मिण: मिष्टः । अथवा धमिष्ठः भतिशयेन धम्र्मी धर्मिष्ठः तनिषेधादधमिष्टः श्रमिष्ठो वा यद्वा अधर्मिष्ठो नित्रिंशकर्मकारित्यादधर्मः अत एव ( सम्मषसाईलि ) न धर्ममा ख्यातीत्येवं शीलोऽधर्माख्यार्य । श्रथवा न धर्माख्यायी अथवा अधर्मात आख्यातिर्यस्य स अधर्म्म ख्यातिः । तथा श्रधर्म्मराएव रागो यस्य सोऽधर्म्मरागी । तथा ( अहम्मपलोइन्ति ) न धर्ममुपादेयतया प्रलोकयति यः सोऽधर्मप्रलोकी (भजीवित्ति ) अधर्मेण जीवति प्राणान् धारयतीति अधर्मजीवी । तथा ( श्रहम्मपलजणेति ) न धर्मे प्ररज्यति श्रसजति यः सोऽधर्मखनः । यद्वा प्रथमंत्रापणीयेषु धर्म्मसु प्रकर्षेण राज्यत इत्यधर्मरतः खपोरेपमिति रस्य स्थाने सकारोsa कृत इति । कचिदधम्मपाजणे" इति पाठः तत्राधर्मप्रकर्षण - नयति उत्पादयति लोकानुपपानी अधम्मंजनः । तथा अधर्मशीति धर्मशील धर्मस्वभावः तथाधर्मात्मकः समु Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२७) अभिधानराजेन्द्रः | वासगपरिमा दाचारो किसानुष्ठानं यस्य भवति स अधर्मशीलसमुद्राचादोन धर्मात्किमपि जयति तस्यैवानावादित्येषम् तथा (अथम्मेन चेवन्ति) अधर्मेण चारित्रश्रुतविरुरूरूपेण वृत्ति जीविकां कल्पयन् चिरस्यास्ते यद्वा गदडानिनादिकेन कर्मणा वृत्तिर्वर्तनं कल्पयन् कुर्बाण विरतांत कामतवादयति पढा अधर्मेणेति सर्वजन थापन कल्पयन् इति पापानुानमेव तो दर्शवितुमाह " हणेत्यादि " स्वत एव हननादिकाः क्रियाः कुर्वारोऽपरेषामप्येवमात्मकमुपदेशं ददाति । तत्र हननं दण्डादिभिस्तकारयति तथा छिन्धिकर्णादिकं भिन्धि शूलादिना विकर्त्तकः प्राणिनामजिनाथ नेता अत एव लोहितपाणिमरित्या हस्तवारण्यालनात् अत एव पापः पापकर्मकारित्यात् । चस्तीकोपावेशात् रौद्रो निखिशकर्मकारिवात् । क्षुद्रः क्षुद्रकर्मकारित्वात् । साहसिकः सहसा अविमृष्यैव पापकर्मणि प्रवृत्तत्वात् । स्वत एव परलोकभयाभावात् श्रसमीक्षितकारी अनालोचितपापकारीति भावः । तथा उक्तं च वञ्चनं प्रतारणं तद्यथा श्रभयकुमारः प्रद्योतगणिकाभिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः मायावञ्चनबुद्धिः प्रायो वणिजा मंत्र । निकृतिस्तु बकवृत्वा कुकुटादिकरणेन दम्भप्रधानव त्रियायाकारेण परवचनार्थ मङ्गलकर्तकानामियायस्वानं देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणम्। कूटमनकेषां मृगादीनां ग्रहणाय नानाविधयोगकरणम् । अथवा कूटं कार्षापर्णतुलादेः परवश्यनार्थ न्यूनाधिककरणं कपटं यथाऽ पादभूतिना नंदेन वा परवेपपरानृत्याचार्योपाध्यायसंघाटका स्मार्थे चत्वारो मोदका श्रवाप्ताः । एतैरुद्वञ्चनादिभिः सहातिशयेन संप्रयोगो योगः तेन बहुलं यांदे वा सातिशयन प्रवेश कस्तूरिकादीनामपरस्य इव्यस्थ संप्रयोगः सातिसं प्रयोगः तेन बहुलोमभूतः । उकं च सूत्रकृताकृता "हो सांग दवं जत्थादि । सगुणवाणं कुण १ इति संप्रयोगबलः । अपरे तु व्याख्यानयन्ति उक्तं च न नाम उक्तो वा निकृतिर्वचनप्रच्छादनकर्मसातिर विजृम्भ एतत्संप्रयोगबहुलः शेषं तथैव । एते यादव माथापयया यचेन्द्रराजस्य पुरन्दरा हयः पुनः किंभूताः (दुस्सालेति एं शीलं खभावो यस्य स दुःशील दुष्परिचपरिमुपचरितोऽपि कि विसंवदति । दुःखानुनेयो दारुणस्वभाव इत्यर्थः । तथा (दुव्वप) दुष्टानि वृत्तानि यस्य स तथा यथा मांसभक्षणव्रतकाल समाप्तौ प्रभूततरसखोपघातेन मांस वानमन्यपि भोजनादिकं तस्य दुष्टत मिति । तथाऽन्यस्मिन् जन्मान्तरेऽई मधुमद्यमांसादिकमभ्यवहरिष्यामीत्येवमज्ञानान्धो जन्मान्तर विधिद्वारेण स निदानमेव च तं गृह्णाति । तथा दुःखेन प्रत्यानन्द्यत इति दुष्प्रत्यानन्द्यः श्वमुक्तं भवति तैरानन्दितेनापरेण केनचित् प्रत्युपकारतुनाम तो योग प्रत्यानयते। यदि वा सत्युपकारे प्रत्युपकारी वानन्दति प्रत्युत शक्तया उपकारे दोषमेवोत्पादयति । तथा चोक्तं "प्रतिमा नराः पूर्वोपकारिणाम द - मनामिव वाग्रसा इति" । तथा निश्शीलो ब्रह्मचर्यपरिणामाभावात् । निर्घातो हिंसादिविरत्यभावात्। निर्गुणो हितकारित्वादिगुणाभावात् । निर्मयांदि परिपरदारादि त्वात् । तथा अविद्यमान पौरुष्यादिप्रत्याख्यानसदिनोपवा सचेत्यर्थः। यतएवमतः । मतः साधुपापकर्मकारियाद तथा यात्या नवासगपरिमा धारणेन सर्वस्मात्प्राणातिपातादतिथिरतो सोकनिन्दनीयादपि ब्राह्मणघातादेरविरत इति सर्वग्रहणम् । एवं पूर्वकप्रकारेण यावत् करणात् " सव्वातो मुसाबायातो श्रपकिविरया इत्यादि" पदकदम्बकपरिग्रदः। तत्र सर्वस्मादपि कूटसाक्ष्यादेरतिविरत इति । तथा सर्वस्मात् स्त्रीवालादेः परव्यादपहरणादविरतः । तथा सर्वस्मात्परस्त्री गमनाई में कुनादधिरतः एवं सर्वस्मात्परिग्रहाद्यो निपोषकादप्यविरतः । एवं सर्वेभ्यः क्रोधमानमायालोज्योऽप्यविरतस्तथा प्रेमद्वेषकलहाच्याख्यान पैशून्यप 1 1 रपरिवादारतिरतिमायामृयामिथ्यादर्शनशल्यादिज्योऽसदनुष्ठानेज्यो यावद्भः प्रतिविरतो भवतीति तत्र प्रेमाननिव्यक्तमायाहोमस्वभावमष्टिमा प्रेम । नभिव्यक्तो धमानस्य रुपाप्रीतिमार्थ क्षेत्र कलोरा अन्यायानमसदोषारोपणम, । पैशून्यं प्रच्छन्नमद्दोषाविष्करणम्, । परपरिवादो विप्रकीर्ण परेषां गुणदोषवचनम् । अरतिरती ऋरतिमोहनीयोदयश्चित्तोद्वेगः तत्पुनातिर्विषयेषु मोदनी योद याचिताभिरति भरतर सीमाया पापद्वितीयाश्रययोः संयोगः सर्वसंयो गा उपलक्षिताः। अथवा वेषान्तरकरणेन वा यत्परवश्चनं तन्माया मृषेति मिथ्यादर्शनं सत्यमिव विविधत्ययानिबन्धनाय मि यादर्शनत्यमिति तथा सर्वस्मात् स्नानो नाज्ञ्जनवर्णकायद्रयसंयुक्तया विलेपनशब्दस्पर्शररूपगन्धमायाल ङ्कारात् कामाङ्गात् मोहजनितादप्रतिविरतो यावज्जीवमिति । अत्र स्नानादयः शब्दाः प्रसिकः नवरं वर्णकमव वर्णा दकलोधादिकं परिगृह्यते । ननु पूर्व तावत् अभ्यङ्गः पश्चात् उन्मईनं युभ्यते पचाच स्नानं ततः कथमादी स्नानोपन्यासः उच्यते पश्चाच्च यद्यपि अनुक्रम एवमेव परं कोपि कदाचिदभ्यन्तरादिना कुर्वन् पृष्टिसंवाहनादि कारयति तेन न ध्या दोषावर इति गन्धाः कोष्ठपुटादयः माल्यानि प्रथितदामानि अलङ्काराः केयूरादयः तथा सर्वतः शकटरथादेर्यान विशेषादिप्रविस्तर विधिपरिकरकपात परिग्रहादतिविरत इति । इह च शकटरधादिकमेव पानं शयानं पुम्पुरुषसमाकाशयानं शिि पुरुष गिट्टिका ( वेगसरादिपव निर्मितो यानविशेषस्तथा ( सीयत्ति ) शिविका विलापत् अपनाएं रुद्रं तदन्यविषयेषु परित्युच्यते यद्वा तथा शिविका नाम कुढाकाराच्छादितो अम्पानविशेषः । तथा (संदमणिपति) शिविका विशेष एव पुरुषायाप्रमाणो ज पानानि पानि मानि कादीनि यानानि चाइनानि } पूर्वोकान्पातान्येव वेदितव्यानि अथवा नानिनौकादीन वाहनानि पेसरादीनि भोजनमोहनादिरूपं प्रविस्तरो नाम गृहोपस्कार इति तथा प्रदत्यादिपदानि कानि नवरं दाख श्रामरणं क्रयक्रीतः । कर्मकरो लोकहितादिकर्मकरः । पौरुषं प दातिसमुद्रः तेभ्योऽप्रतिविरतो याची पायेति । तदेवमन्य स्मादपि । दुपकरणभूतादविरतस्तथा सर्वतः क्रयविक्रयाभ्यां करणभूताज्यां यो मासकार्धम/ सकरूपकार्षापणादिनिः पण्यविनिमयात्मकः संव्यवहारस्तस्मादव्यविरतो याव जीवावेति तथा सर्वस्मात्सर्पतः दिश्य यसुवर्णधनधान्यमणिमीकिकशङ्खशिलाप्रवाज्योऽन्यप्रतिविरतो यावज्जीवामेति । तत्र हिराचं रूप्यमयादितस्य मित्येक सुवर्णघटितं धर्म गणिमादि चतुर्धा तद्यथा " गणिमं जाई फलपूगफलाइ धरिमं तु कुंकुमगुकाई | मज्जं वोप्पमलोणार रयणवचार परिचिनं ॥ १ ॥ धान्यं चतुवैिशतिया यशास्यादि मणयोवैसूर्य चिन्तामणिप्रकृत Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०८) उवासगपमिमा अनिधानराजेन्द्रः। उवासगपडिमां यो, मौक्तिकानि, प्रतीतानि, शङ्खा दक्षिणावर्तादयः, शिक्षाप्रवा- मामूवत् शूलाप्रोतं शूधिकारोपितं गुदे प्रोता सती शूली घदने सानि विद्रुमाणि, । अन्ये चाहुः । शिला राजपट्टादिरूपाः प्रवाझं निर्गच्छति झूलाभिन्नं मध्ये विध्यते वारान्तिकं नाम शरण किविजुममेतेन्योऽप्यप्रतिविरतो जावजीवायेति । तथा कूटमानाद- त्वा सवणकारादिनिः सिच्यते दर्भयर्तितं दर्भेण शारीरविकतनं विरतस्तथा सर्वतः सर्वस्मात् प्रारम्नसमारम्नात् तत्रेमी द्वा- सिंहपुच्छे बन्धनं कटाग्निदग्धं कटान्तर्वेष्टयित्वाऽग्निना दह्यते बपि त्रिप्रकारौ तद्यथा मानसिकवाचिककायिकनेदात् तन | काकनिमांसानि कर्त्तयित्वा खाद्यते अभ्यन्तरेण जक्तपानविधं मिमानसिको मन्त्रादिभ्यानं परमारणे हेतोः प्रथमः तथा समारम्नः ममन्यतरेणाशुनेन कुत्सितमारेण व्यापादयत यूयम् । याऽपि च परपीमाकरोचाटनादिनिबन्धनभ्यानं वाचिको यथा भारम्भः पर- करकर्मवतोऽभ्यन्तरा पर्षद् भवति तद्यथा नान कश्चित्पुरुषः प्रव्यापादनक्कमनुषविद्यादिपरावर्तनासंकल्पसूत्रको ध्वनिरेष।स- भुकल्पो मातापितृसुहास्वजनादिभिः सापग्विसंस्तेषां चमामारम्भः परपरितापकरमन्त्रादिपरावर्त्तनम् । कायिको यथा तापित्रादीनामन्यतमेनानानोगतया यथाकथञ्चिलघुतमेऽप्यपराभारम्भोऽनिघाताय यष्टिमुष्टयादिकरणं समारम्नः परितापकरो धेवाचिके दुर्वचनादिके तथा कायिके हस्तपादादिसंघद्वनरूपे मुष्टया अभिघातः। तथा सर्वतः कृषिपाशुपाट्यादेर्यत्स्वतः करणं कृते सति स्वयमेवात्मना क्रोधामातो गुरुतरं दएमपुखोत्पावकं अन्येन व यत्किचित् कारयति तस्मादविरतः उपसकणमनुमते- पतयति करोति। तद्यथा शीतोदकधिकटे प्रवृते शीते घा शिशिरप्येतत् तथा पचनपाचनतोऽप्यप्रतिविरतः । तथा सर्वतस्सर्व- रादौ तस्यापराधकर्तुः कायमधो बोलयिता भवति । तथोष्णोदस्मात् कुट्टनपिट्टनतर्जनतामनया यः परिक्लेशःप्राणिनां तस्मा- कविकटेन कार्य शरीरमपसिञ्चयिता भवति । तत्र चिकटग्रहणादप्यप्रतिविरतः। सांप्रतमुपसंहरति ये चान्य तथा प्रकाराः परपी- दुष्णतलेन काञ्जिकादिना षा कायमुपतापार्यता भवति । तथा माकारिणः सावद्याः कर्मसमारम्ना अबोधिका योध्यभावका- निकायोल्मुकेन तप्तायसा वा कायमुपदाहयिता भवति । तथा रिणस्तथा परमाणपरितापनकरा गोग्रवन्दी प्रहप्रामघातात्मका योत्रेण वा वेत्रेण पाखरुन वा नेत्रोवृक्तविशेषस्तेन त्वचा वस्कस येऽनायः करकर्मभिः क्रियन्ते ततोऽप्रतिविरता यावज्जीघमिति। तया वाऽन्यतमेन बादवरकेण तामनतस्तस्यास्पापराधकर्तुःश पुमरन्यथा बहुप्रकारमाधाकर्मिकपदप्रतिपिपादयिषुराह"सेजहा. रीरपााणि उद्दालयितुं भवति चर्माणि लुम्पयितुं भवति । तथा णामए इत्यादि " तद्यथेत्युपदर्शनार्थम् । नामशब्दःसंभावनायर्या दामनयध्यादिना वा अस्थ्ना वा सेना वा सोष्ठेन वा सुधाषाकसंभाव्यतेऽस्मिन्विचित्र संसारे केचनैवंभूताः पुरुषाः ये कलमसू- पालेन वा अपरेण वा कार्य शरीरमाकयिता उपतामयिता भषरतिक्षमुझमाषनिष्पावकुलस्थाऽऽलिसिन्दकसन्तानानुपरिमन्थकाः | तिप्रत्यर्थ कुहयिताघातदेवमल्पापराधिभ्यपि महाक्रोधदएमंघर्त दिषु पचनपाचनादिक्रियया स्वपरार्थमयतः अयन वचननिकेपः। । यति तथाप्रकारे पुरुषजाते एकत्र यसति तत्सहवासिनो मातापितत्र कला वृत्तचनकाः मसूराश्चनकाः । तिनमुन्माषाः प्रतीताः । पादयो दुर्मनसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्तिमार्जारदर्शने मूर्षिकावत् निष्पवा वढी कुलत्थाःचपक्षकसहशाश्चिप्पिटका नवन्ति । आति तस्मिश्च प्रवसिते देशान्तरंगति गते वा तत्सहवासिनो हि सुसिन्दकाःसतानानुपारमन्थकाःरोमिथ्यादएमस्तं प्रयुञ्जति मि मनसो जयन्ति त एवं यथामाजीरे प्रवसिते मृषका विश्वस्ताःसुध्यैवानपराधिष्वेव दोषमारोप्य दएको मिथ्यादएकस्तं विदधाति। | खेन विचरन्ति एवं तस्मिन् प्रचसिते पौराः प्रातिवेश्मिकाः स्थ. तथा एवमेव प्रयोजनं विनैव तथा प्रकारः पुरुषो निष्करुणो जी- जनादिकाः सर्वे वाऽन्यो स्रोको विश्वस्तःस्वकर्मानुष्ठायी भवति। घोपवातनिरतः तित्तिरवर्तकलावककपोतककपिञ्जनमृगमहिष- तथा प्रकारश्च पुरुषजातोऽल्पेऽप्यपराधे महान्तं दराम कल्पयतीबराहगोगोणकूर्मसरीसृपेषु जीवनप्रियेषु प्राणिप्वयतः करकर्मा ति । एतदेव दर्शयतिमाह । तथा प्रकारःसदएमोमृषादरमेनाममिथ्यादएकं प्रयुञ्जति तस्य च करबुकेर्यथा राजा तथा प्रजा | पी सोकोऽपि भणति तथा अमुको धराको राज्ञा कारागारे क्विप्तो द इति प्रवादात् परिवारोऽपि तथाजूत एव तेषु प्राणिप्वयतः कर कितश्त्यर्थःदएम्पासीति वा पाठस्तत्र दरामस्य पार्श्वदएमपार्श्व तद्विद्यते यस्यासौदण्डपार्श्वः स्वल्पतया स्तोकापराधेऽपि कुप्य. कर्मा मिथ्यामतिरिति । तथा दर्शयितुमाह । (जाविया से श्त्या ति दएकं च पातयति तमप्यतिगुरुकमिति दर्शयितुमाह । दएमदि) पापिनी च तस्य बाह्या पर्षद्भवति । तद्यथा दासः स्वदासी गुरुको यस्य च दएको महान् भवत्यसौ दामन गुरुयति । सुतः प्रेष्यो हि प्रेषणयोग्यो नृत्यादिश्यो नृतको वेतनेनोदकाथा तथा दएमपुरस्कृत सदा पुरस्कृतदएम इत्यर्थः स चैचूतः नयनविधायी। तथा जागिको यः षष्ठांशादिनाभेन कृप्यादी ब्या-1 स्वस्य परेषाञ्चास्मिलोकेऽस्मिन्नेव जन्मन्य हितः प्राणिनामप्रियते । कर्मकरः प्रतीतः। तथा नायकश्चितः कश्चिनोगपरस्त- हितदएकोपादानात् । तथा परस्मिन्नापजन्मन्यसावहितस्तच्छीदेवं ते दासादयोऽन्यस्य लघावप्यपराधे गुरुतरं दएकं प्रयुअन्ति बतया चासौ येषाञ्चिदेव येन केनचिन्निमित्ते मनसाऽन्येषां प्रयोजयन्ति च । स च नायकस्तेषां दासादीनां बाह्यपर्षग- पुःखमुत्पादयति तथा नानाविधैरुपायस्तेषां शोकमुत्पादयति सानामास्मिन् यथा बघावयपराधे शब्दाश्रवणादिक गुरुतरं शोकयतीत्येवं जूरयति गईति तृप्यति सुखाच्यावयत्यात्मादएकं वक्ष्यमाणं प्रयुक्ते तद्यथा श्मंदासं प्रेष्यादिकं सर्वस्वापहा- नं परांश्च । तथा स वराकोऽपुष्टधर्मा सहानुष्ठानैः स्वतः पीपरेण दमय तमित्यादिपारसिकं नवरम् । ( अध्यादुवंधणंति) ते परांश्च पीत्यति । तथा स पापेन कर्मणा परितप्यते दह्यते अपुष्टा पाहुबन्धनं निगहानि प्रतीतानि इमिरिति काष्टघोटका परांश्च स तापयति । तदेवमसावसद्दण्डी सन् फुःखेन शोकेन चारको बन्दीप्रतृतीनामवस्थानार्थ गृह विशेषः श्मं निगम्युगझेन संकोचितं संकोचकरणेन इस्वीकुरुत मोटितमङ्गभङ्गेन जरणतर्पणपीमनो हि प्राणिनां बहुप्रकारपीमोत्पादकतया वधमुखे मध्यवेधः शरीरस्यासिप्रतिकेन (विच्छेउत्ति) ब्रह्मसू बन्धपरिक्लेशादप्रतिविरतो नवति स च विषयासक्ततयैतत्कत्रायाकारेण बेदन जीवत एव हृदयोत्पाटनं हृदयमध्यमांसक रोति तहयितुमाह "एवमेवेत्यादि" एवमेघ पूर्वोक्तस्वजाय एवं स निष्कृपो निरनुक्रोशो पाह्य ज्यन्तरपर्षदोराप कर्मनासावकर्तनम् । (बोलवितंति ) अवम्बितं कृपपर्चतनदीप्रतिषु ज- | निदएमपातनस्वभावः । स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः यदि वा छांम्बतं वृक्कादिषु घर्षितं करीषादिनाघालितं रसनिष्कासनार्थ- स्त्रीषु मदनकामावषयजूतामु कामेषु चशब्दादिच्छाकामा Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवासगपमिमा अभिधानराजेन्द्रः। उवासगपमिमा मूर्षितः गृकोप्रथितःअध्युपपन्नः एतेच शक्रपुरंदरादिवत्पर्यायाः। ते तथा अथवा मेदोवसामांसरुधिरप्रतिपटरिनाम कचिदमे बाऽश्रिय व्याख्येयाः । एतच्च स्त्रीपुंशन्दादिषु च | स्तेन लिप्तमुपदिग्धमनुलेपनेन सततलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपमेन प्रवर्तनं प्रायः प्राणिकरपृष्टप्रकारादिभिर्षहस्पृष्टनिधत्तनिका-| तसं भूमिका येषां ते मेदोवसाबितरुधिरांसमिक्खलालिप्तानुचनावस्थान विधाय तेन च संजारकृतेन कर्मणा प्रेर्यमाणस्तत्र लेपनतझाः अत एवाऽशुचयो विष्ठासक्लेदप्रधानत्वात् भत कर्मगुरुनरकतलप्रविष्टानो भवतीति। अस्मिन्नेवायें सर्वलोकमतीतं एवंविधाः कुथितांसादिकल्पकर्दमविलिप्तत्वात् कचित् 'बीरखान्तमाह । से जहाणामप इत्यादि) तद्यथा नामायोगोलको- जच्चा' इति पाठः तत्र वीभत्सा दर्शनेऽप्यतिजुगुप्सोत्पत्तेः । ऽयपिण्डः शिलागोलको वृत्ताइमशकलं वोदके प्रतिप्तः स- एवं परमपुरभिगन्धाः कुथितगोमायुकवेवरादण्यसहागन्धकाः । मानसलिलतलमतिघातिलपाधोधरणितलप्रतिष्ठानो भ- (अगणिवणाभा इति) सोहेधम्यमाने यारक्कपोतो बहुकृष्णरूपापति । अधुना दाष्टान्तिकमाह । “एवमेवेत्यादि" यथाऽसाव योवर्णः। किमुक्तं नवति याशी बहुकृष्णवर्मरूपा अग्निज्वायोगोलको वृत्तत्वात् शीघ्रमेवाधो यात्येवमेव तथा प्रकारः ला निर्गतीति ताशी प्राभा आकारो येषां ते कपोताग्निषपुरुजातस्तमेव लेशतो दर्शयति बज्रवद् वजं गुरुत्वात् कर्म मीनाः धम्यमानोहाग्निज्वालाकल्पा इतिनावः । तारकोत्पत्तिसबहुलस्तत्प्रचुरो वध्यमानकर्मगुरुरित्यर्थः । तथा धूयत स्थानातिरेकेणान्यत्र सर्वत्राप्युष्णरूपत्वात् एतच्च षष्ठसप्तमपृथि. इति धूनं प्राग्बकं कर्म तत्प्रचुरः पुनः सामान्येनाह ( पंकय- वोवर्जमवसेयम् । यत उक्तम् । "छठसत्तमीसुणं काठलागणिय. तीचि) पद्धं पापं तद्बहुलस्तथा तदेव कारणतो दर्शयितुमाह।। माना न नवंति" पताशास्ते रूपतः । स्पर्शतस्तु कर्कशाः वैरबहुलो वैरानुबन्धप्रचुरस्तथाऽप्यतियन्ति मनसो दुष्पणि- कविना वजूकपटकासिपत्रस्येव स्पर्शा येषां ते । तथा अत एव(दुधानं तत्प्रधानस्तथा दम्भो मायया परवञ्चनं तदुत्कटः। तथा| रहियासा इति) पुःखेनाध्यासन्ते सह्यन्ते इति पुरध्यासाः किनिकृति यावेषभाषापरावृत्तिच्चाना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयः। मिति यतस्ते नरकाः पश्चानामपीकियार्थानामशोननत्वादशुतथा (सातिबहुल इति ) सातिशयेन द्रव्येण परस्य हीन- नाः तत्र सत्यानामशुभकर्मकारिणामुग्रदएमपातिनां वजप्रचुरागणस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिस्तदहलस्तत्करणप्रचुरस्तथा। णां तीवा अतितिवा अतिःसहा वेदनाः शरीराः प्रापुर्नवन्ति कचित् प्रासायणबहुलेति पाठः तत्राशातना पूर्वोक्तार्था पाठ-1 तया च वेदनया अभिजूतस्तेषु नरकेषु ते नारका नैवाक्विनिमेषसिद्धा तया बहुलोऽतिप्रचुरत्वादलाध्योऽसहत्ततया निन्दा- मपि कालं निजायन्ते नाप्युपविष्टाद्यवस्थामक्तिसंकोचरूपामीशया रत्नप्रभादिकायास्तलमतिनिष्ठति । परापकारभूतामि षन्निप्रामवाप्नुवन्ति । श्रुतं विशेषज्ञानरूपं रति चित्तानिरतिकर्मण्यनुष्ठानानि विधत्ते तेषु तेषु च कर्मसु करचरणच्छे- रूपां धृति विशिष्टसत्वरूपां मर्ति वेशेषबुद्धिरूपां नोपत्रभन्ते न दनादिप्वयशोभाग् भवति स एवंभूतः पुरुषः (कालमासेत्ति)। ह्येवंभूतवेदनापीमितस्य निमादिलानो जवतीति दर्शयति तास्वायुषः क्षये कालं कृत्वा पृथिव्याः रत्नप्रभादिकायास्तलमति. मुज्ज्वना तीवामनुभवनोत्कटाम् । (तितुति) त्रीनपिं मनःप्रनृवर्त्य योजनसहस्रपरिमाणमतिलभ्य नरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ तिकान् तुझयति जयति तित्रितुवा तां कचिद्विपुलामित्युच्यते तत्र भवति । नरकस्वरूपप्ररूपण्याह । “ तेणमित्यादि" णमिति सकसकायव्यापकत्वाद्विपुलाम । ( पगाढंति) प्रकर्षवर्तिना (कचाफ्यालङ्कारे ते नरकाः सीमन्तादयः बाहुल्यमङ्गीकृत्यान्तर्म- संति ) कर्कशाव्यमिव कर्कशां दृढामित्यर्थः ( कदुयंति) कध्यभागे वृत्ताकाराः बहिर्भागे चतुरस्राकाराः इदं च पीठोपरिव- दुकां नागरादिवत् सकटुकामनिष्टामेव (चंति) चरामांरौडाम तिनं मध्यभागमधिकृत्योच्यते सकलपीठाद्यपेक्षयात्वावलिका- | (तिब्बति ) तीवां निकनिम्बादितव्यमिव तीवाम् (दुक्खति) प्रविष्ठा वृत्तारूयनचतुरनसंस्थानाः पुष्पावकीर्णास्तु नानासं- | दुःखहेतुकाम (दुग्गति) कष्टसाध्याम (दुरहियासंति )स्थानाःप्रतिपत्तव्याः (अहेखुरस्य संठाणा संठियाइत्ति) अधो रधिसह्यां वेदयन्तो विचरन्ति । अयं तावदयोगोलकपाषाणदृष्टान्तः भूमितले कुरप्रस्येव प्रहरणविशेषस्य यत्संस्थानमाकारविशेष- शीनमधोनिमज्जनाप्रतिपादकः प्रदर्शितोऽधुना शीघ्रपातार्थप्रतिस्तीदणतालकणस्तेन संस्थितास्तथाहि तेषु नरकावाप्लेषु भूमि- पादकमेवाएरं दृष्टान्तमधिकृत्याद “से जहाणामए इत्यादि " तन्ने मस्णत्वाभावतः शर्कराप्रचुरेभूभागे पादेषु न्यस्यमानेषु श- तयथा नाम कश्चिकः पर्वताये जातो मूले छिन्नः शीघ्रं यथा र्करामात्रसंस्पर्शऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते (निश्चंधयारतमसा निम्नं पतत्येवमसावप्यसाधुकर्मकारी तत्कर्म वातेरितः शीघ्रइत्ति) तमसा नित्यान्धकाराः उद्योताभावतो यत्तमस्तदिह तम मेव नरके पतति ततो नरकादप्युहतो गनीमवश्यं याति । उच्यते तेन तमसा नित्यं सर्वकासमन्धकाराः तत्राप्यवर्गादिष्व- एवं जन्मतो जन्म मरणान्मरणं नरकानरकं पुःखाद दुखं सुखात पिनामान्धकारोऽस्ति केवलं पहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति । शरीरमानसोद्भवात् दुःखं समाप्नोति (दाहिणत्ति) दक्विणस्यां नरकेषु तीर्थकरजन्मदीकादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालम- दिशि गमनशीलो दक्विणगामुकः । इदमुक्तं जति यो हि करपिउद्योतलेशस्याभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छरकामाईरात्र कर्मकारी साधुनिन्दापरायणः सहाननिषेधकस्स दकिणगामश्व चातीव बहलतरो वर्तते तत उक्तं तमसा नित्यान्धकाराः त- को भवति दाक्किण्यात्तेषु नारकतिर्यामनुप्यामरेषु उत्पद्यत ता. मश्च तत्र सदाऽवस्थितमुद्योतकराणामसंजवात् । तथा चाह । उग्रतश्चायमतो दक्विणगामुक इत्युक्तम् । श्दमेवाह (णेरपर"ववगयगचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा" व्यपगतः परिनष्टो त्यादि ) नरकेषु नवो नारकः कृष्णपक्कोऽस्यास्ताति कृष्णप्रदचन्छसूर्यनकत्ररूपाणामुपत्रकणमेतत् तारारूपाणां च ज्यो- पाकिस्तथाऽगामिनि काले नरकापुछतो दुर्बनबोधिकश्चय सिष्काणां पन्था मार्गो येज्यस्ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्वत्रज्यो च बाहुल्पेन भवति । श्दमुक्तं नवति दिक्षु मध्ये दक्विणा तिष्कपथाः तथा पुनरप्यनिष्टोपादानार्थ तेषामेव विशेषणमाह। दिगप्रशस्ता गतिषु नरकगतिः पक्कतः कृष्णपकस्तदस्य वि "मेयवसेत्यादि" दुष्कृतकर्मकारिणां तेषां पुखोत्पादनायैवंनू षयान्धस्येन्डियामुक्ततप्रवर्तिनः परलोकनिःस्पृहमतेः साधुता नवन्ति । तद्यथा स्वनावसंपन्नमेंदोवसामांसरुधिरप्रयादीनां | प्रवषिणो दानान्तरायविधायिनो दिशमप्रशस्तां प्रामोति एषपटमानि सास्तैर्लिमानि पिच्चिसीकृतान्यनुलेपनप्रधानानि येषां मन्यदपि यारगाशस्तं तिर्यग्गत्यादिकमबोधिलाभादिकंच. Jain Education Interational Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३०) अभिधानराजेन्द्रः । उवासगपरिमा तद्योजनीयमस्येति न तस्य किंचित्त्राणं भवति । एवं मिथ्यास्वयुजीवनमुषा यदा कदाचित् सम्यक्यमाशितदा यादृशः स्यात् तथाह ( से तमित्यादि ) स क्रियावादी वाsपि भवति यथा पूर्वे व्याख्यातं तथोत्तरत्रापि व्यत्ययेन व्याख्येयम् । एवं यदा स श्रास्तिको भवति तदा स सम्यग्दष्टिर्भवति यावदुत्तरगामुकः शुक्लपातिको देवादिषु उत्पद्यते आगामिनि काले च सुलभ धर्मप्रतिपत्तिर्भवति स क्रियावादी सत्यधर्मद विद्यपि भवति सद्भ्यो हितः स वासी धर्मः क्षायादिक स्तचिरित्यर्थः । पवित् " सयधम्मरति पाठः । तत्र धर्मः स्वभाव इत्यनर्थान्तरं जीवाजांवयोर्यस्य तद्रूपस्य गतिः स्थित्यवगाहनादिका । अथवा सर्वे धर्माः श्राशाग्राह्याः हेतु. ब्रह्माश्च तान् श्रद्धन्ते सम्यकतया मन्यते परं तस्य मिति वाक्यालंकारे ( वह सीययेत्यादि ) शीलताम्यतामि गृणशतानि विरमान श्रीचित्येन रामादिनिवृत्तयः प्रत्यायानानि पौरुप्यादीनि पौष अवश्यतया पर्यदिनानुष्ठानंत 59 41 पवासोऽवस्थानं पौषधोपवासः एषां द्वन्द्व पते नो निषेधे सम्यग् यथा भवन्ति तथा प्रस्थापिता भवन्ति न स्वचेतसि नियततया कर्त्तव्यत्वेन व्यवस्थापिता भवन्ति । एवमनुना प्रका. रेम दर्शनावको भयति दर्शनं नाम सम्यक साि श्रावको भवति । ननु तथाविधविरति विना कथं श्रावको भ यति उच्यते वस्तुतान्यपि न सम्यक्त्वं विना भवन्ति यतः 'नत्थि चरितं सम्मत्तवजियं " इत्यादि वचनात् । सम्यक्त्वं ममेय अथवा सम्यत्वं तु पश्चद्वारामार्थ संघद्वार ततः सम्यक्वे थावको भवत्येवेति नात्र संशयः । इदं च सम्यकू श्रानरूपा प्रथमा श्राद्या उपाशकप्रतिमा दशा० ६० श्रा. चू. अथ दर्शनप्रतिमास्वरूपनिरूपणायाह । दारं दंसणों श्रविच्छेदः शुभानुबन्धः सोऽस्यास्तीति शुभानुबन्धी । तथा निरतिचारः शङ्खादिनामित इति तदेतो म्यात् दर्शनप्रतिपचिमानं निरतिचारसम्यत्यसायाच त्रिकं प्रतिमेत्यवसीयते । उपासकदशासु पुनरानन्दादीनां प्रतिमाकारिभावका पूर्व प्रतिपदर्शनप्रतानां प्रतिका कस्य प्रतिपत्तिर्वर्णिता तत्प्रमाणं च सार्द्धं वर्षपश्चकमित्यतोऽनुमीयते दर्शनप्रतिपत्तिमात्रादतिरिक्तस्वभावा सा तदतिरेकधे राजाभियोगाद्याकारपटक वर्जनं यथावत्समदर्शनाचारपालनादिभिः संभाज्यते कालमानं आस्यामे को मासीय एका दिकयैकोत्तरया वृद्ध्यैकादशसु प्रतिमामु यथोक्तं कालमानं भवतीति गाथार्थः । अथ दशाश्रुतस्कन्धादिषु प्रतिमाशब्दोऽ भिग्रहार्थो व्याख्यातः । इह पुनः कस्मात्तद्व्याख्यानत्यागेन शरीरार्थी व्याख्यात इत्याशङ्क्याह । रिसगुणयोगा" इति दर्शनादतिमुक्तं भवति । गुरुदे मादिभिर्गुणैर्गुणिले का शुभतरः प्रतिमा यारूपास्तदभिव्यङ्गाश्च वर्तन्ते ततस्तेषां तदभिव्यक्तेश्च बोन्दिदेतुकत्वात् वन्दिमतः प्रतिमावतः प्राधान्यमिति ख्यापनाय वोदीप्रतिमेत्युक्तमिति गाथार्थः । एवं तावद्दर्शनप्रतिमाशब्दस्यानिधेयमनिधाय शेषप्रतिमासु तदतिदेशं व्रतप्रतिमास्वरूपं चाह । मादिमिति परमेश्वया । नवासगपमा णामक नाक्युलगपाणयविरयादी ॥ ८ ॥ यमनेनैव प्रकारेण दर्शनप्रतिमन प्रतादिष्यपि प्रतसामादिनृतिषु सर्वप्रतिमान केवल दर्शनप्रतिमायामेव द्रष्टायम यम् इदं प्रतिमावास्याभिधेयमितिशब्द वाक्यार्थसमारी पवमतिदेशद्वारेण सामान्यतो व्रतादिप्रतिमां व्याख्याय विशेषव्याख्यानार्थमादनपरं केवलमत्र प्रतिमायां मन्यन भियन्ता एरवधारणे किं स्वरूपण सामीत्याह प्राणत्पादन] सत्यदिसामिप्रकृतीस्पू कमृपावादचिरत्यादिपरिग्रह इति गाथाथः । श्रथ तानि यदा भत्तिदर्शनार्थमाद सम्मोपरि ते सेस को अवगण पुचम्मि । पिश्रियाणं होंति शियमा सुहाय परिणामबाउ ॥ ५ ॥ सम्यक्त्वोपरि सम्यक्त्वलान कालस्योर्क ते इति तान्यव्रतानिशेषकर्मणः सम्यतं शेषरूप देशोनखागरोपमकोराको प्रमाणस्य मोरनीयादिकस्थि विस्थापण का पृथकप्रतिनाले सं ख्याविशेषे केषामित्याह । पल्यानां पल्योपमानां नवन्ति जायन्ते नियमादवश्यतया । तथा शुजात्मपरिणामरूपाणि तु प्रशस्तजीयाव्यवसायस्वभाषान्येव कायोपशमिकत्वादिति माथार्थः । तेषां शुभात्मपरिणामस्वरूपाय देव यत्स्यात्तदा । बंधादि सकिरिया, संतेसु इमेसु पहवइ ण पायं । कंपधम्मसवगा - दिया उपहवति विसेसेण ॥ १०॥ बन्धादिन्धविच्छेदप्रतिरसक्रिया अशोभना बेटा प्रतिम समतिचारपञ्चरूपात् विद्यमानेषु न चैवं प्रायो बाहुल्येन प्रमादादिना कदाचित्स्यादप्रीतिः प्रायोब्रह्मण्यमनुकम्पाधर्म्मअपणादिकानुजीवदापशाखाननृतिका पुनः क्रियेति प्रकृतं प्रभवति जायते । विशेषेण सुतरां दर्शनप्रतिमापेक्षया व्रतमात्रापेक्षया चेति । तदेवं व्रतप्रतिमा निरतिचारपञ्चाणुव्रतपालनरूपा उपासकदशाभिप्रायेण चार्थाप त्र्यते मासव्यमानेनातोऽन्यत्र व्रतमात्रमेवेति गाथार्थः । पंचा० १० विव० । यदी यस्य परिमा, विगुणाजी बलोग मणिया । ता एरितगुणजोगा, होन सोक्खावणत्थि ति ॥ ७ ॥ योन्दिश्च तनुः पुनरत्र प्रकरणे ग्रन्थान्तरे त्वभिग्रहः प्रतिमा प्रनिमेतिशब्देन किमर्थमिति सांगतं द्वितीयप्रतिमास्यते। अहावरा दोषा वासगपामा सम्वधम्मरुईया बिनवति तस्स णं बहू सीलव्यगुण व्वयवेरमणपोसहांबवा - साईपविताई जयंति से सामाइयानका सिणोस संसारानिग दिसायापेक्षया मार्गादिसुखादिवासी जीव लोकश्च सत्यलोको विशिष्टगुणजीवलोकस्तस्मात्सकाशात् शुभसुप्रशस्त पथ संदर्शनप्रतिमायामिति स्थापनार्थमेतत्प्रति पायेति कुतः पुनः सगुन इत्यादयेदशगुणयोगात त धोखा देतुतया योगः प्रागुदर्शनप्रतिमागुणसंपदानि च प्रस्थापितानि भवन्ति तावता पिरतिमान्वति परं सन सामायिक देशावकाधिकं न सम्यभ्यधा भवत्यतिचाररदि पाक्षिणा जवति दोबा उपासगपडिमा ॥ २ ॥ अथेत्यानन्तयें अपरा अन्या उधासमेत्यादि व्यक्तं शीलव्रता मोगादिसंस्कृतस्य - .. Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३१) नवासगपमिमा अभिधानराजेन्डः। नवासगपमिमा सं तथा अनुपालयिता प्रवति शतहितीया श्रावकप्रतिमा दशा० ने तथा स्मृतिभावसामायिकं प्रति कृताकृतादिविषयस्मरणसभा६० प्रा०। चु० । द्वितीया व्रतप्रतिमा इदं चास्याः स्वरूपम्। वस्तथ ऽवस्थितसामायिककरणनिषेधरूपोभवतीति प्रकृतम् । च "दंसणपमिमाजुत्तो, पालंतो एब्धए निरझ्यारे । अणुफपाई शब्दः समुच्चये कस्मादेवमित्याह । श्रामण्यबीजं श्रमणभावहेतुरिगुणजुत्तो, जीवो इह होर वयपमिमा" नपा०१०। पंचा। ति कृत्वा यत् श्रमणन्नावस्य परमसामायिकरूपस्य बीजं तत्कथं अथ तृतीयामुपासकप्रतिमामाह । मनोदुष्पणिधानादियुक्तं प्रवति कारणानुरूपत्वात्कार्यस्येति । यअहावरा तच्चा उवासगपडिमा सव्वधम्मरुचिया विभव- धप्येषा सामायिकप्रतिमा एतस्य प्रकरणस्य दशाश्रुतस्कन्धस्य ति तस्स एं बढ़ सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोस वाऽनिप्रायेणानियतकालमाना तथाऽप्यावश्यकचूर्यभिप्रायेणो पासकदशाभिप्रायेण च प्रतिदिनमुभयसाध्यं सामायिककरणताहोववासाई सम्मं पट्टवियाई भवंति से णं सामायिक मासत्रयमानोत्कर्षेण अष्टव्या जघन्यतस्तु सर्वा प्येकाहादिदेसावकासियं सम्म अणुपालित्ता नवात से णं चाउद्दस- माना इति । एतश्चाग्रे घयत इति गाथार्थः। उता सामायिकअहमिनदिपुलमासिणीमु पमिपुरम पोसहो नो सम्मा प्रतिमा पंचा० १०विव०॥ अापालित्ता भवति तच्चा नवासगपमिमा || अथापरा चतुर्थी उपासकप्रतिमा । अथापरा तृतीया सुगमा नवरं तस्य बहुनि व्रतादीनि प्रस्था अधावरा चनत्था उवासगपडिमा सन्बधम्मरुश्या विभवपितानि अात्मनि निवेशितानि भवन्ति (सेणंति ) स णमिति ति तस्स णं बदई सीखव्वया जाव सम्मं पट्टवियाई जचंवाक्यालंकारे "चाउद्दसीत्यादि" चतुर्दशी प्रसिद्धा पर्वतिथित्वेन ति से रणं सामाईयं देसागासियं सम्मं अणुपादेत्ता भवतथैवाष्टमी पर्वत्वेन प्रख्याता ( उद्दिष्टुत्ति) उद्दिष्टा अमावस्या ति से णं चउद्दसर्ट जाव सम्मं पोसह अणपालेत्ता नवति पौर्णमासी पूर्णी मासो यस्यां सा पूर्णमासी तासु एवंजूतासु धर्मतिथिषु प्रतिपूर्णे यः पोषधो व्रताभिग्रहविशेषस्तं प्रति से एं एगराईयं नवासगपमिमं नो सम्म अणुपालिचा पूर्णमाहारशरीरसंस्कारांब्रह्मचर्यान्यापाररूपं पोषधं नानुपान- नवति चनत्था उवासगपमिमा ।। यिता जवति । इति तृतीया उपासकप्रतिमा दशा०६ ० । यस्मिन् दिने उपवासो भवति तस्मिन् दिने वा रात्रौ प्रतिमा आ० चू० ( तच्चति) तृतीयां सामायिकप्रतिमा तत्स्वरूपमिद- प्रतिपद्यते न च सतां शक्नोति कर्तुमिति चतुर्थी दशा०६०। म् । “वरदसणवयजुत्तो, सामश्यं कुणइ जो उ संकासु । उक्को- आ० चू० ( चउत्थंति ) चतुर्थी पोषधप्रतिमैवंरूपा "पुज्योदियपसण तिमासं, पसा सामध्यप्पमिमा"। मिमजुश्रो, पालश् जो पोसहं तु संमत्तं । अहमिचउद्दसीसु, सामायिकशब्दार्थमाह । चउरो मासा चवथी सा ॥" उपा०१० । अधुना पोषधप्रसावज्जजोगपरिव-जणादिस्वं तु होइ विस्मयं । तिमावसरस्तत्र च पोषधमेव स्वरूपतो दर्शयन्नाह ॥ सामाश्यमित्तिरिय, गिहिणो परमं गुणट्ठाणं ॥ ११॥ पोसे कुसलधम्म, जं ता हारादिचागणुट्ठाणं । सावद्ययोगपरिवर्जनादिरूपं सपापव्यापारपरिहारनिरवद्ययो- इह पासहो ति भष्मति, विहिणा जिमनासिएणेव ।१४॥ गासेवास्वजावं तुशब्दः पुनरर्थोनवति स्याद्विझेयमवसेयं सामा- पोषयति पुष्णाति कुशलधर्मान् शुभसमाचारान् प्राणातिपातयिकं प्रागुक्तनिरुक्तमित्वरः स्तोकः कालो यत्रास्ति तदित्वरिक विरमणादीन् यद्यस्मात्तत्तस्मादाहारादित्यागानुष्ठानं भोजनदेहमुहर्तादिप्रमाणं गृहिणः श्रावकस्य परमं प्रधानं शेषगुणस्थाना- सत्कराब्रह्मव्यापारपरिहारकरणमिह प्रक्रमे पोषध इत्येवं नएयपेक्षया गुणस्थानं देशचारित्रविशेषो गुणाश्रयो वेति गाथार्थः। ते अनिधीयते पोषं धत्ते पुष्णाति वा धर्मानिति निरुतात्कथं परमगुणस्थानमेवास्य समर्थयन्नाह ।। यदाहारादित्यागानुष्ठानमित्याह विधिना विधानेन यथाकथञ्चिसामाश्यम्मि उ कए, समणो व सावो जतो नपितो।। त्किभूतेन जिनभाषितेनैव सर्वोक्तेनैव स्वमतिवर्तितेन विधान बहुसो विहाणस्स य, तम्हा एयं बहुत्तगुणं ।। १२ ।। च प्रथमप्रकरण पचोक्तमिति न पुनर्भएयते इति गाथार्थः । सामायिक एव समभावरूपे नतु व्रतान्तर तुशब्दोऽवधारणार्थः। अथ पाषधं तत्वतो निरूप्य नेदतस्तन्निरूपयनाह। कृते प्रतिपन्ने सति श्रमण श्व साधुतुल्यः सिकिसुखपरमसाध आहारपासहो खलु, सक्कारपोसहो चेव । ननूतसमभावसाधम्र्योद्यतो यस्मात्कारणाद्रीणतोऽभिहितस्तथा भव्वावारेसु य, एयगया धम्मबुद्धिति ॥ १५ ॥ बहशोऽनेकशो विधानं वा सेवनं वाऽस्य सामायिकस्य नणितं आहारपोषधः प्रागुक्तस्वरूपः खलुक्यालंकारे शरीरसत्कानियुक्तिकृता। तथा हि "सामाश्यम्मि न कए, समणो श्व सावओ रपोषधः पूर्वोक्तस्वरूप एव। वहशब्दः समुच्चयार्थः ब्रह्मव्यापारहवर जम्हा । एपण कारणणं, बहसो सामाश्यं कुजा" तस". योश्चेति पतद्विषयश्च पोषधो भवति ब्रह्मचर्यपोषधो व्यापारपीस्कारणादेतत्सामायिकं यथोक्तगुणं प्रागभिहितगुणं परमं गुण- षधश्चेत्यर्थः । आहारादिपोषध इति कोऽर्थ उच्यते एतता स्थानामत्यर्थ शते गाथार्थः । अत्र सामायिके सति यन्न ज- आहारादित्यागसमाश्रिता धर्मबुद्विधर्मपुष्टिः पोषं धत्त शति यति यच्च भवति तदर्शयन्नाह । व्युत्पादनादितिशब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति गाथार्थः । मणदप्पणिहाणादी, ण होंति एयम्मि नावा संते । इह यर्मयत्यसौ तदाह । सब्जावावा?यकारि, या य सामामवीयति ॥१३॥ अप्पमि प्पडिसेहिय-सेज्जासंथारमाश्चज्जे ति । मनोपुष्प्रणिधानादीनि मनोदुष्प्रणिधानवचनपुष्प्रणिधानका सम्म च अणापासण-माहारादीसु एयम्मि ।। १६ ॥ यदुष्प्रणिधानानि प्रथमप्रकरणोक्तरूपाणि न भवन्ति न जायन्ते 'अप्पमित्ति' पदावयवे पदसमुदायोपचाराद् 'अप्पमिलेरियत्ति' पतस्मिन् साहायिके जावतो नावेन न तु अन्यतः सति विद्यमा- दृश्यं ततश्च अप्रत्युपेक्तिष्प्रत्युपेक्तिशय्यासंस्तारकादि वर्ज Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३२) अभिधानराजेन्द्रः । टापनमा त यति परिहरतीत्य प्रत्युपेकितमनिरीक्षितं दुष्प्रत्युपेक्षितं दुर्निरीक्षितं शय्या शयनं तदर्थः संस्तारकः कम्बल्यादिखएकम् अथवा शय्या वसतिः सर्वाङ्गीणशयनं वा संस्तारकततो तर इति समाहारद्वात् शय्यासंस्तारकः। श्रादिशब्दादमति पुष्यमार्जितशय्यासंस्तारकमप्रत्युपेक्षित प्रत्युपेतो रक्ष पणतू भिमप्रमार्जित पुष्पमार्जितोच्चारप्रश्रवणभूमिं चेति सम्यग् यथागमं चाननुपालनमयधायन भोजनाचीत्सुक्याद निराद्वारा दिष्विति सप्तम्याः षष्ठयर्थत्वात् माहारा सत्का व्यापारोपधानाति पोषधे व देवमियं पोषचप्रतिमा प्रयान्तरानिप्रायेणाम्यादिपर्वसु संपू पोषधानुपालनारूपोत्कर्षतश्चतुर्मासप्रमाणा प्रवतीति गाथार्थः अथ पञ्चमी । आहावरा पंचमा उवासगपरिमा सव्वधम्मरुझ्या वि जयति तस्स हुई सीझ जायसम्म पडिसेहिलाई जवान चादसिं तदेव से एगराईयं उत्रासगपमिमं सम्म अनुपालिचा भरति सेणं असणाणविपटनोई मलयके दिया बंजचारी रत्तिं परिमाणकडे से णं एतारूवेणं विहारे विहरमाणे जहां एगाई वा दुबाई वा तप वा कांसे पंचमासे विहरेज्जा पंचमा उवासगपढिमा || सम्बधम्मेत्यादि व्यतम (असिगाणेति न जाति ज्ञानं न करोति (वियडभोइस) प्रकाशभोजी न रात्रौ भुङ्क्ते अप्रकाशे या यतो ये दोषाः पिपासिकापघाताः भवन्ति त पचान्धकारभोजने इति प्रवादः न प्रकाशभोजी भवति ( मउलिकडेच ) परिधानवाससो बलद्वयप्रदे म्यति । अग्रे पृष्ठे च उन्मुक्तकच्छो भवतीत्यर्थः यावन्मासप मं तत्परिसमाप्यते तावदिया ब्रह्मचारी (सेयमित्यादि) स इत्यनिर्दिष्टनामा पतपेण विहारेण प्रतिमाचरणरूपेण वि खरन् एकाहमेकदिवस पाशम् परापरमेदसूचका उत्कर्षतो यावत्पमासास्तावहरति तत्रैका यदि अङ्गीकृत्य प्रतिकारं कुर्यात् असामयद्वा अन्तराले एच त्यजेत कोऽपि तत उकमेका याद इतरथा तु सम्पूर्णोऽपि भवति पूर्वाकः प्रतिमाचतुष्टयस्याचारोऽत्रापि द्रष्टव्यः दिवा रात्री च ब्रह्मचारी भवति एवमुत्तरचापि पूर्ववत् प्रतिमावारोऽवि वाच्य इति पञ्चम्युपासकप्रतिमा । क्वचित् " अहासुरु" इत्यादि पाठस्तत्र ( अदासुता इति) सामान्यस्त्रानतिक मेण (अहाकप्पा इति) प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण कल्पे वस्त्वनतिक्रमेण वा अदामो इति) ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षयोपशमिकभावानतिक्रमेण वा ( अहातश्चा इति ) यथा तत्तत्वानतिक्रमेण पञ्चमासिक श्रावकप्रतिमा इति शब्दा नलिनेयर्थः जहा सम्मइति) समभाषानतिक्रमेण (कापांति ) न मनोरथमात्रेण ( फासेइति ) उचित विधिना अहसात् ( पालेहाने असदुपयोगेन प्रतिजागरसाद शोघयति या अतिचारपालना (तारे) पूर्ण तद वधौ तत्कृत्यपरिमाणपूरणात (किइति) कीर्तयति पारणकदिने इदं चदं चैतस्याः कृत्यं तच मया कृतमित्येवं कीर्तनात् । (पति) तत्समानी तदनुमोदनात् किमुक्ती त्याह आज्ञया श्राराधयतीति पञ्चम्युपासकप्रतिमा । दशा०६ to श्रा० चू० । (पंचमति ) पञ्चमीं प्रतिमां प्रतिमां कायो उवास पडिमा त्सर्गप्रतिमामित्यर्थः । स्वरूपं चास्याः “ सम्माणुब्वयगुणवयसिवाय या थिरा व नाणी व अमिचतुद्दसीपडिमा एगराईयं । (असिणाणवियमभोई ) अस्नानोऽरात्रिभोजी चेत्यर्थः (मडलिकडो ) मुक्तकच्छ इत्यर्थः । दिवसबंभयारियं राइपरिमाणको पडिमा जेसु दियहेसुज्झायपडिमा ठिओ तिलोयपुखे जियकसाये नियोपचयं वा पंच जामासा उपा० १ ० । अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपमाह । सम्ममन्यगुणवय- सिक्खावयवं पिरो य णानीय पिच उदसीसुं, पाडमंठा एगरातीयं ॥ १७ ॥ सम्यक्त्वमणुव्रत गुणवंत शिकायतपदानि प्रतीतानि यस्य सन्ति स तद्वान् पूर्वोक्तप्रतिमाचतुष्कयुक्त इत्यर्थः । सोऽपि स्थिविलसत्व इतरो हि तद्विराधको भवति यतः सा ( परिमा) रात्री चतुष्यदादी व विधीयते तत्र सोपसर्गः संवन्तीति का नी च ज्ञाता प्रतिमाकल्पादेरज्ञानो हि सर्वत्राप्ययोग्यः किं पुनरस्यामिति चशन्दः समुच्चयार्थे ऽष्टमीचतुर्द्दश्योः प्रतीतयोः पणत्वादस्य पोषधदिवसेष्विति दृश्यं प्रमाणकायोत्सर्गे वा करोतीत्यर्थः । किं प्रमाणमित्याह । पका रात्रिः परिमाणमस्या इत्येकरात्रिकी सर्वरात्रिकी प्राप्ता प्रतिमाप्रतिमा प्रचतीति शेष इति गाथार्थः । शेषदिनेषु यादृशोऽसौ भवति तद्दर्शयितुमाह । असिनाविपटनोई, मयि दिवसवजयारी प रति परिमाणकडो, परिमावज्जेस दियहेसु ।। १८ ।। अस्नानो विद्यमानस्नाना विकडे प्रकडे दिवसे म राजावितिं यावद् प्रोक्तुं शीलमस्येति विकटभोजी चतुर्विधाहाररात्रिभोजनका ततः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः । तथा मौलिक तः भवरूकच्छस्तथा दिवसे ब्रह्म चरतीत्येवंशी तो दिवसब्रह्मचारी चशब्दः समुच्चये तथा ( रत्तिमिति ) विभक्तिपरिणामात्रात्रौ रजन्यां परिमाणकृतः मैथुनसेवनं प्रति कृतयोषिद्धोगपरिमाणः कदेस्वाद प्रतिमावर्जेष्यपरिक दिवसेषु दिनेकव्या मानसंवादिनी चेयं गाथा यदुक्तम् " असिणाण वियमभोई, पगासनोति भणियं होई। दिवसे न सिहंजे मलिय को कमविराधं " कच्छानारोपयतीत्यर्थः । इति गाथार्थः । अथ यत् कायोत्सर्गस्थितश्चिन्तयति तदाह । काय परिमातियो, तिलांग जिसे जियकसाए। यिदोसपञ्चणीयं, असं वा पंचजा मासा ॥ १६ ॥ ध्यायति चिन्तयति प्रतिमायां कायोत्सर्गस्थित स्थित लोकपूज्यान् वनत्रयाचनीयान् जिनानईतो जिनकषायानिरातकोधादिभावान् तथा निजदोषप्रत्यनीकं स्वकीय रागादिदूष प्रतिष कामनिन्दादिकमन्यजनापेचया परम्पराविरु स्पार्थः किंप्रमाणेयं पञ्चमी प्रतिमा स्यादित्याह पञ्च यावन्मासानेोत्कर्षेण नवतीति गाथार्थः। उक्ता पञ्चमी | पंचा० १० वि० अथ षष्ठीं प्रतिमामाद । धम्मजाय स एगराईये वासगपडिमा पालेचा न यति मे णं असिणार बिगडभोई मछलियम दिसं वा ओवा बंजचारी सचिताहारे से परिष्मानेन जवति से सं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहम्मेणं एगाहं वा पुयाई वा विवाह वा फोमे छम्मासे बिहरेला हा उासगपमिमा ।। ६ ।। Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३३ ) अभिधानराजेन्द्रः । बास पडिमा शेषं व्यकं रात्रिभोजनापरतो प्रपत्ति र राति ) रात्री दिया ब्रह्मर्यो भवति 'सचिचाद्वारे इत्यादिः स तना जीवसहिता इति यावत् परिश्या आहारितः सन् कर्मबकारणत्वेन परं प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यातः 'एतारूपेण' पूर्ववत् एवमुत्तरोत्तरप्रतिमासु मासा वाच्या यथासंख्यं मासा इति षष्ठी । दशा० ६ अ० । श्रा० चू० । षष्ठी श्रब्रह्मवर्जन प्रतिमा तत्स्वरूपं त्रयम् । पुव्वोइय गुणजुत्तो, बिसेस विजियमोह णिज्जो य । वज्जइ अर्वनमेगं-तओ उ रायं पि थिरचित्ते ॥ २० ॥ पूर्वोदितगुणयुक्तः प्रागुक्ता ये स्नानविकटभोजनादयः सम्यक्त्वमसामायिक पोषप्रतिमाच्या या गुणाः पूर्वोदिगुणयुक्तत्वं च नास्यामेवापि तु सर्वासु व्रतादिप्रतिमासु अष्टव्यं द शादिषु विशेषतो विशेषेण पञ्चमप्रतिमापेक्षया विजितमोहनी यो निराकृत कामोदयधशब्दः समुच्चये आवक इति गम्यते किमित्याह वर्जयति परिहरति अब्रह्ममैथुन मेकान्ततस्तु सर्वचैव ( राई पति ) सर्वजनमप्यास्तां सर्वद षष्ठप्रतिमास्थित इति शेषः । अयमेव च पञ्चम्याः षष्ठयाच विशेषत स्थिरचिसो कम्पमानसः समिति याथार्थः अथ स्थिरचित्तोपायानाद | सिंगारकाविरो, इत्थीए समं रहम्मि णो वाइ । चय य प्रतिष्पसंगं, तहा विनूसं च उक्कोसं ॥ १२ ॥ शृङ्गारकयाविरतः कामकथा निवृत तथा स्त्रिया योषिता सम सह रहस्येकान्ते न तिष्ठति नास्ते रहः स्थानस्य चित्तवियुतिनि मिचत्यायतो लौकिका अध्यादुः मात्रा स्पस्ना दुदिना वा नो वि विनोत्पतिमुहात तथा स्वजति वर्जयति चातिप्रसङ्गमतिपरिचयं श्रिया समिति पर्त यतः "शोक दर्शना संसारा स्त्रीव्याधाः किन कुर्वते" तथेति वाक्यान्तरोपक्के पार्थः । विभूषां स्वशरीरसत्कारमलङ्काराङ्गदादिभिश्चः स मुष्वये उत्कर्षामुत्वष्टां त्यजतीति वर्तते उत्कर्ष ग्रहणाच्छरीरस्थितिमात्रानुगां करोत्यपीति गाथार्थः ॥ "देव कालमानमाह ॥ एवं जा बम्मासा, एसो हि गतो इहरहा दिहं । जावजी पिइर्म बज्जर एवम्मि लोग म्मि ॥ २२ ॥ यमुनाङ्गारकाविरमणादि लक्षणया (इति) या माकपरिमा ते एव श्रावकोऽधिकृतस्तु षष्ठप्रतिमाप्रतिपन्न एव । श्रवधारणफसमाह् । इतरथाऽन्यथा षष्ठप्रतिमाप्रतिपन्नकादन्यत्रेत्यर्थः । दृष्टमलोकितं किं यायायमप्याजन्मायास्तां परमासाद् यादिवर्जयति परिहरतीत्येतमित्यादपतस्मिन् प्रत्यक्ष लोके धावकलोक इति गाथार्थः । यत्कुर्वाणस्य षष्ठी भवति तदुक्तम् । पंचा० १० विव० । उपा० । अथ सप्तमी मुपासकप्रतिमामाह 1 सव्वधम्म जान रातो व राई बम्हयारी सचिताहारे परिष्ठाते जवति आरने अपरिसाए जवति से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जो एगाई का दुपाई वा तपाई वा मत्तमासेविहरेजा सत्तमा उवासगपडिमा । नवासगपरिमा श्रथापरा सप्तमी नवरं परिज्ञातः प्रत्याख्यात आरम्भश्चापरिज्ञातो भवति करणकारापणानुमोदन त्रिविधेनापि करणेन । दशा० ६ श्र० प्रा० ० अथ यत्कुर्वतः सप्तमी भवति तद्दर्शयन्नाह । सचिन आहारं वज्जादियं शिरवसेसं । अस चांउलोविंग चणगादी सव्वा सम्मं ॥ २३ ॥ सचितं विद्यमानचैतन्यमहारं भोजनं वर्जयति परिहरते काशनादिकमशनप्रभृति चतुर्वेदं निरवशेषं सर्वत मास्थित इति शेषः समाशु आहारविशेषेषभूचिकणकादि प्रतीतमादिशब्दादमिलादिपरिग्रहः । कार्य यतीत्याह । सर्वथा अपदुष्पकोषध्यादिवर्जन इत्यर्थः सम्यग्भावशुद्धेति गाथार्थः । तथा । पाले आउकार्य, सच्चित्तरससंजु तहां पि । पंचो व रिककं मि-गाइय तह खाइमे सव्वं ॥ २४ ॥ पाने पानकाहारे अच्कायमामुकोदकं समितरससंयुतं तत्का लपतितत्वेन सचेतनलवणादिरसोन्मिश्रं तथेति समुच्चये - न्यदष्यकायादपरमपि काञ्जिकादियान काहारं वर्जयति न केल समप्कायमेवेति तथा पञ्चानामुदुम्बराणामुदुम्बरसमानधर्माणां समाहारः पश्चोदुम्बरी सास साधिके सचेतना भवतीति पञ्चोदुम्बरी फर्कटिका निर्मिटिका आर्यिस्य खादिस्य तथा चः समुच्चये तथेति वाक्यापा स च गाधोतरार्द्धस्यादी दृश्यः खादिमे आहारविशेषेविषय भूते सर्व समलं सवितं वर्जयतीति प्रकृतमिति गाथार्थः । दंतवणं तंत्र, हरेडगार्दी य साइमे सेस । सेसपयसमाउसो जा मासा सच विहिपुत्रं ||२५|| दन्तधावनं दशनका ताम्बूलं प्रतीतं हरीतक्यादि च पच्याप्रभृति च स्वादिमे स्वादिमाहारविषये अशेषं सर्वस वर्जयतीति प्रकृतम् । किंभूतः सन्नित्याह शेषपदसमायुक्तो दर्शनादिगुणयुक्तः कियन्तं कालं वर्जयतीत्याह यावन्मासान् कालविशेषाप्तो विधिपूर्वकमाभिकन्यायपुरस्सरं तु मन्देति गाथार्थः कासमीति पंचा०१० वि० पा० अथाष्टमीमुपासकप्रतिमामाह । अमावासमा सन्वधम्मआ वि भवति जा दियाओं या राजचारी सचिताहारे से परिमाए ज तिरने से परियार जवा पेस्सारंजा अपरिमाए जबति से एवरुणं विहारेण विहरयाणा जाएगा या दुगाई वा विगाई वा उसे अमास रिहरेका हुमा उवासगपमिमा || स्वयंकरणमाश्रित्यारम्भः परिज्ञातो भवति प्रेप्यारमनोऽन्धामा देशदानतः कारापणाच निवृत्त स्यष्टमी दशा०६ अ० आ० चू० । अष्टम) स्वयमारम्नवर्जनप्रतिमा । अथ यथा वर्तमानस्याष्टमी जयत्ति तथा दर्शयन्नाह ॥ वज्जइ सयमारंभ, सावज्ज कारवेइ पेसेहिं । पुष्प ओग थिय, विनिणिमित्तं सिलिनायो । २६ । वर्जयति परिहरति स्वयमात्मना स्वयंकरणत इत्यर्थः । आरभं व्यापारं साधं सपापं कृप्यादिकमित्यर्थः । स्वयमिति वच Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३४ ) अभिधानराजेन्द्रः | उवासंगपरिमा देशकारिभिः " मात् यदा तदाह कारयति विधापयति कथमित्याह । पूर्वप्रयोगत एव प्रवृत्तव्यापार एव नापूर्वव्यापारनियोजनत इत्यर्थः किमित्याद वृत्तिनिमित्तं जीविकार्यम्। किं भूतः सपि शिथितभावः प्रेष्यप्रयोगतो प्यारम्भेष्यतीप रिणाम इति गाथार्थः । नन्वारस्नेषु प्रेष्यप्रयोजने सति स्वयमप्रवर्तमानस्य को गुणे जीवघातस्य तदपत्यादित्याचार निग्धितियां एवं वि हु होइ चैव परिचत्ताए । मेनोमि वर्जित करो। २७ ॥ निर्घृणता निर्दयता एकान्तेन सर्वथैव स्वयमारम्भण कुर्वतः परे कारवतो या स्यात्सा पवमप्युतीत्यापि स्वयं वर्जनमाजलकणया आस्तामुभयवर्जनतः । हुशब्दोऽलंकारे भवति चैव स्वादेव परित्यक्ता परिता नन्यात्मारम्भकत्वादात्म नः परतस्तु बहुतमः परेषां च बहुत्वात्ततश्च बहुतमारम्भाश्रयणेनाल्पतरारम्भवर्जन के गुणं पुष्णातीत्याशङ्कयाह (इहमेलोवितोऽपि स्वयंकरणमात्र येनापोप्यास्त बहुतमः ( इमोति) श्रयमारम्भो वर्ज्यमानस्त्यज्यमानो हितकरः कल्याएक पत्र महान्यादिति गाथार्थः । कस्य कथमयं जयतीत्याह ॥ सारा वीरिय-संफासरण जावतो ओिगे | तो नाज्जति अजा मासा २० ॥ प्रध्वस्य योगस्य सत्यविशेषस्य या यापूर्वचनमति माय स्वयमारम्भ वर्जनीय इत्येवंरूपम् पीयें जीवसामर्थ्य स्व यमारम्भपरित्यागविषयं तयोः संस्पर्शनमाराधनं तद्रूपो यो भावोऽध्यवसायस्तस्य वा यो जावः सत्ता स तथा तस्मादाकावीर्यमभाषाभियोगेन नियमेन हितकरो नयतीति पूर्वेण योगः । अथ किंविधः सन् क्रियन्तं वा कालमष्टम्यां स्वयमारम्भं वर्जयतीत्याह । पूर्वोदिनगुणयुक्तः प्रागुक्तदर्शनादिगुणान्वि स्वापति परिस्यान्मासानुत इति गाथार्थः । वक्ताऽमी प्रतिमा पंचा० १० विव० । उपा० ॥ अथ नवमीमुपासकप्रतिमामाह । अहावरा वा उदासगपदिमा सम्ययम्मरुया विनबात जाव दिया वा राओ वा जचार सचिताहारे से परिसाए जवति पेस्सारंजे परिसाए भवति से णं एयारुवेणं बिहारणं विहरमाणेणं जात्र एगाहं वा दुगाहं वा तिगाहं वा उकासेणं नव मासे विहरेज्जा नत्रमा उवासगपदमा ।। नवम्यां तु कारणारम्नः प्रेष्यादिभ्यः स परिज्ञातो नयति उद्दिनक्तं तु न परिज्ञातं भवति उद्दिष्टं नाम तदुद्देशेन यत्कृतं तदुदिष्टमित्युच्यते इति नवमा । दशा० ६ श्र० । श्रा० चू० । (नवमंति) नयी तर्क प्रेप्यारम्नवर्तनप्रतिमा सा सेयं "पसेहिवि आरंभ, साब कर जो गराये पुण्यो स्यगुणतो, नवमा सा जाव बिहिणात्रो " उपा० १ ० । यत्करणान्नवमी भवति तदाह ॥ पेसेहि विआरंभ, सावज्जं कारवेड़ णो गुरुयं । अस्थी संत वा सो पुण होति विखेो ॥ २५ ॥ प्रेष्यैरपि कर्मकरैरप्यास्तां स्वयमारम्नं व्यापारं सावधं सपापं कारयति विधापयति नै गुरु कृष्णादिकमित्यर्थः । मनेनासनदानादिव्यापाराणामति नामनि उवासगपरिमा यमप्रतिमायामित्येव तनेन च कीदृश: समय भवतीत्या अर्थी अर्थवानीवर यर्थः सन्तोषयतिसंतोषचा बाराब्दो विकल्पार्थः पप प्रेप्यारम्यर्जकः पुनः शब्दो विशेषणार्थस्तेन यः कश्चिदपि जवति स्याद्वियो ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ शक्ति पार्थ, पुसादिसु अडव से सपरिवारे । थोममतोय तह सम्वत्यविपरिणओ नवरं ॥ ३० ॥ निप्तिभरो न्यस्तकुम्बादिकार्य जारः प्रायो बाहुल्येन पुत्रादिषु योग्यसुतम्भ्रातृप्रनृतिषु अथवेति विकल्पार्थः शेषपरिवारे पुत्रादिव्यतिरिक्तपरिजने कर्मकरादौ तथेति वाक्यन्तरत्वद्यो - तको द्रष्टव्यः स्तोकममध्ये उपयाभिष्यन्दः समु तथेति योजितमेव सर्वत्रापि सर्वस्मिन्नपि धनधान्यादिपरिग्रहे न तु कविदेव अयं चैवंभूत उत्तानबुद्धिरपि स्याता परि णतबुर्तिवरं केव समिति गाथार्थः । लोगवहारविरो, सो संवेगजावियमई प पुदि माता जान चिड़िया ॥ ३१ ॥ लोकयवहारविरतो लोकयात्रानिवृत्तस्तथा बहुशो अनेकशः संवेगमावितमति म हाजिज्ञावासिद्धिस्तथा पूर्वोत युक्तो दर्शनादिगुणान्वितो व मासा पा ना स्वागमविधानेनैवेति गाथार्थः पंचा० १० वित्र० । चपा० । अथ दशमी मुपाखप्रतिमामाह । अहावरा दसमा पटिमा सम्या विजयति से रसुंदर वा सिहाधार या तस्स आनस वा न इस कप्पति दुवि जासानो जासिनाए नया जाएं या जाएं अजा वा अजार्थ से तारुणं विहारेणं विहरमाणे जहां एगाहं वा प्याहं वा तियाहं उक्कोसेणं दन मास विरेना दममा वासगपार्कमा || दशम्यां तु उद्दिष्टतं तेन परिज्ञातं भवति स च कुरमुएको वा शिखाधारको वा भवति यथा परिव्राजकाः शिखामात्रं धरन्ति तथाभ्यमीति सा तं प्रति भाया तम्मुकं किं वस्तु जानाना प्रति किं कृतं तद्वस्तु तदा तेन कथमुत्तरविवास्तदा। (अनस) मा ईषत् "महस्पति" देशीवचनात् भाषितव प्रत्युत्तरं देयान्तेन पृष्टस्य पुनः पुनर्वा भाषितस्य कल्पेते युयेते भाषेभाषितुं वमिति यदि जानाति यदा यद हिं जानामि यतस्तेषामकथने अतिशामकृतादयोऽथ दोषादयो वा दोषा यथा ते हास्यन्ति अमेय राम्या दि भक्तिं येन मुखं वस्त्रितं तेन जानामीति वदति । अपरा तु याई न जानाति तदा पति ना जानामि - स्पेते इति दशमं । प्रतिमा । दशा० ६ श्र० । दशमी उद्दिष्टवर्जनप्रतिमा सायम् । उद्दिकरं भत्तं पि वज्जती किमु य से समारंजं । सो होइ उ बुरमुंगो, सिंह या भारती कोइ ॥ २२ ॥ उद्दिष्मुदेशस्तेन कृतं विनिमुदितं तदर्थ संस्कृत स्वयं तक्तमपि भोजनमपि वर्जयति परिहरति किमुक्तं भवति किं पुनः सुतरामित्यर्थः। शेषं दुष्परिहार्यनक्तारम्नव्यतिरिक्तमार साबधयोगं दशमप्रतिमायां वर्तमानः श्रावकः इति शेषः (सो होड ति) स पुनर्दशमप्रतिमावर्ती भवति स्यात् तुरमुण्डः सुरमुरिमत. Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३५ ) अभिधानराजेन्द्रः । उवासगपरिमा शिराः (सिनित्त ) शिखा तां वाशब्दो विकल्पार्थः धारबात विश्वकोऽयीति गाथार्थः । जं लिहियमत्यजायं, पुट्ठो गियएहि ावर सा तस्य । जर जाई तो साहे, ग्रह ण वि तो वेइ ए वि जाणे । ३३ । पिहितं यनिक्षितं तूम्यादावर्थजातं इव्यप्रकारः तद्दर्शीत शेषः । पृष्टः प्रश्नितो निजकैः स्वकीयैः पुत्रादिभिर्नवरं केवलं स भावक इति शेषस्तन दशमप्रतिमायां प्रश्ने वा यदि जानाति स्मरति ( तो ति) तदा साधयति कथयत्यकथने वृत्तिच्छेदप्राप्तेः । अथ यदि न नैव जानातीति वर्तते ( तो ति) तदा ब्रूने वाक्के किं तदित्यादनापि नैव जाने स्मरामीति नान्यत् किमपि तस्य गृहत्यं कर्तुं कल्पत इति नाव इति गाथार्थः । जति पज्जुवासरणपरो, सुहुमपयत्ये चिलिच्छ । दिगुणत्तो, दस मासा कालमासेण ॥ ३४ ॥ यति पर्युपासनापरः साधुसेवापरायणः सूक्ष्मपदार्थेषु निपुणमतिसमधिगम्य नावेषु जीवादिषु तेष्वेव लिप्सा बन्धुमिच्छा बस्य स तापसः स नित्यं नितान्तं तलिप्सो नित्यतसः । तथा पूर्वोदिगुणयुक्तो दर्शनादिप्रतिमानवकान्वितः कियन्तं काल बादित्याह । दश मासान् यावत् कालमानेन कालप्रमाणापेकवेत्यर्थः । कालमासेनेति क्वचित् दृश्यते तत्र प्राकृतनाषापेक्षया सदस्य काधान्यसुवर्णादिषु वृत्तिदर्शनाच्च पव्यवच्छेदामुord कालमासेनेति गायार्थः । उक्ला दशमी | पंचा० १० विव० । उपा० आ० ० । अथैकादशी प्रतिमामाह । अहावरा एकारसमा उवासगपरिमा सव्वधम्म जात्र ते से परिष्ा भवति से एां खुरसुंगए वा लुत्तसिरए वा गहितायारभंगनेवत्या जे इमे समणाएं निग्गंभाएं धम्मे तं सम्मं कारणं फासेमाणे पालेमाणं पुरतो गमायाए पमाणे दडूण तसे पाले उद्दड पायं रीऐजो वितिरिच्छंवा पांत करु रीएज्जा सति परक्कमे संजतामेव परकमे जाणो उजुयं गच्छेजा केवनं से गायाए पेम्मनं अवच्छिन्ने भवति एवं से कप्पति नायवीथि ति तए तत्थ से पुव्वागमणं पच्छानते चाउलोदणे पच्छाउ मिलिंगसूबे कप्पति से चाउलोदगे परिगाहिए णां से कष्पति जिलिंगसूत्रे परिगाहित्तए तत्य ां से पुन्नागमणं पुवाउने भिलिंगसूत्रे पच्छात्ते चाउलोदणे कपति से जिलिंगसूत्रे पडिगाहित्तए नो से कप्पति चाउ लोगे कमि तत्य से पुव्वगमणे दो वि पुण्वानत्ताई कप्पति से दो वि पाडगा हित्तए तत्य से पच्छागमरंगणं दो वि पच्छाउत्ताइं को से कप्पति दो वि परिगाहित्तए जे से तस्य पुन्यागमणं पुण्वनत्ते से से कप्पति परिगाहित्तए जे से तत्थ पुन्त्रागमणेणं पच्छाउत से से णो कप्पति पडिगाहित्तए तस्तां गंधातिकुझं पिंरुवातपरुयाए अणुपविस कप्पति एवं व दित्तए समणोवासगस्त परिमापfree भिक्खं दलह तं वैतारूवेणं विहारेणं विहर उवासगपरिमा माणं केइ पासेत्ता वदेज्जा केइ आउसो तुर्म वत्सव्वेसिया समणोवासए परिवज्जित्तए अहमसीति वचव्वं सिया से णं एतारुणं विहारेणं विहरमाणे जहनें एगाई वा या वा तिया वा उक्कोसेणं एक्कारस मासे विहरेज्जा एक्कारस जवासगपडिमा ॥ अहावरेत्यादि व्यक्तं लुञ्चितशिरस्को लुम्वितशिरोजो वा शिरसि जाताः शिरोजाः (गहियाइति) गृहीतानि श्राचारपालनार्थ भाण्डकानि उपकरणानि पात्ररजोहरणमुख वरित्रकादीनि नेपथ्यं साधुवेषस्तथाप्रकारवस्त्रादिप्रावरणं ततो द्वन्द्वः तथा ( जारिसेति ) यादृशः श्रमणानां निर्ग्रन्थानां बा ह्याभ्यन्तरमन्थरहितानां धर्म्मः क्षान्त्यादिकः प्रशप्तः तादृशमिति अध्याहार्य तं धम्मं सम्यग् यथा भवति कायेन नतु मनोरथमात्रेण स्पर्शयन् पालयन् यथाचारं ( पुरतात) पुरतोऽग्रतो युमात्रा शरीरप्रमाणया शकटौ द्विसंस्थितया दृष्ट्रचेति बाक्यशेषः प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् भूभागं तत्र ( दट्टणति ) दृष्ट्वा त्रस्यन्तीति सा द्वीन्द्रियादयस्तान् । प्राणान् धरन्तीति प्राणा जीवाः पतङ्गादयः तान् ( उरुति ) पादमुकत्यात लेन पादपातप्रदेशं वातिक्रम्य गच्छेत् एवं संहत्य शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवक्षितपादपातप्रदेशादारत एव विन्यस्य उत्क्षिप्तवान् भागपाणिकया गच्छेत् तथा तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत् । अयं चान्यमार्गाभावे विधिः। सति त्वन्यस्मिन् गमनमार्गे तेनैव पराक्रमेत गच्छेत् ऋजुनेत्येवं सर्वे साध्वनुगमेन सर्वे तेन त्यक्तं केवलं ( णायाए ति ) ज्ञातीयं स्वजातिविषयं मातृपितृभ्रातृप्रभृतिविषयं प्रेमबन्धनमन्यच्छिन्नमत्रोदितं भवति एवमित्यादि एवमनन्तरवच्यमाणप्रकारेण (से) तस्य प्रतिमधरस्य कल्पते युज्यते श्राहारग्रहकाले ( नायवीथिति ) ज्ञातयः स्वगोत्रजास्तेषां वीथी गृहपतिस्तत्र प्राप्तः पत्थण " मित्यत्रान्तरे तस्य ( पुव्वागमणेति ) प्राकृतत्वा त्पदव्यत्ययः श्रागमनात्पूर्वकालमथवा पूर्व प्रतिमाधर श्रागतः पश्चाद्दायका राद्धं प्रवृत्ताः इति पूर्वागमनेन हेतुना पूर्वायुक्तस्तन्दुलोदनः कल्पते उपलक्कणं चैतत् सर्वोदनानाम् । ( पच्छाउते भिलंगसूवे त्ति ) पश्चादायुक्तो भिलिङ्गसुपो ज कल्पते तत्र पूर्वायुक्तः प्रतिमाधरागमने पूर्वमेव स्वार्थे गृहस्यैः पत्तुमारब्धः प्रतिमाधरे वा गते यः पत्तुमारब्धः स पश्चादायुक्तः स च न कल्पते उमादिदोषसंभवात् पूर्वायुक्तस्तु कंल्पते तदभावात् । भिलिङ्गस्पो मसूरादिदालिः शेषं कराख्यम् । " तस्स णमिति " वाक्यालंकारे गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिशया अनुप्रविष्टस्य न कल्पते युज्यते एवं वक्तुं किं तदित्याह 'समणोवासगस्सेत्यादि' श्रमणोपासकस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य भिक्षां ददध्वं न पुनर्यथा साधवो गत्वा धर्मलाभमिति वदन्ति तथा स वदति एनां च प्रतिमां प्रतिपन्नस्य भिक्षां ददध्वमि त्यपि न वदति श्रतो वस्तुतः प्रतिमां विना न भिक्षामार्गणमु चितं सूत्ररीत्येति 'तं चेत्यादि' तं च श्रमणोपासकं प्रतिपक्षमेतद्रूपेण विहारेण विचरन्तं दृष्ट्वा कश्चिन्निर्दिश्य वदेत् केयं त्व वृत्तिः किमाचारप्रतिपन्न श्रायुष्मन्नित्यामन्त्रण्वचनं त्वमिति भवान् वक्तव्यः स्यात् तदा स वदति 'समणोवासर इत्यादि : व्यक्तम् । निर्वचनवाक्यमत्रापि पञ्चमप्रतिमाधिकारोकानि. पदानि " समं कारण फासति " इत्यादीनि रुष्टन्यानि शेष 66 Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३६) उवासगपडिमा अभिधानराजेन्डः। उवाहि पाठसिद्धम् । इत्येकादशोपासकप्रतिमा षष्ठमध्ययनं च समा- ञ्चमी, सचित्ताहारपरिममा इति षष्ठी, दिया बंनचारी राओ परिसम् । दशा०६ मा आ० चू०। माणकमेति सप्तमी, दिया विराओ वि बंभयारी असिणाणपएकादशी भ्रमणभूतप्रतिमा तत्स्वरूपं चैतत् । वोसहकेसमंसुरोमनहत्ति अष्टमी, सारंजपरिन्नाए सि नघमी, खुरमुंगो लोएण व, रयहरणं उग्गहं व घेत्तण । पेस्सारंभपरिमाए ति दशमी, उद्दिभत्तविवजए समणभूत्ति समणब्जूश्रो विहरइ, धम्मं कारण फासातो ॥ ३५॥ एकादशीति । तदेवं प्रतिमानुष्ठानमुपासकस्य। पंचा०१० विव०। 'पकारसहि उवासगपमिमाहिं' उपासकाः श्रावकास्तेषां प्रतिमाः कुरेण बुरेण मुएमो मुषिमताकुरमुएमो सोचेन वा हस्तलुचनेन प्रतिकादर्शनादिगुणयुक्ताः कार्या श्त्यर्थः । आव०४० ! ग। वा मुएमः सन् रजोहरणं पादप्रोञ्छनमवग्रहं च पतइह चोपन एकादशोपासकानां श्रावकाणां प्रतिमाःप्रतिपत्तिविशेषाः दर्शनकर्ण चैतत्साधृपकरणस्य सर्वस्य गृहीत्वाऽऽदाय श्रमणभूतः व्रतसामायिकादिविषयाः प्रतिपाद्यन्ते यत्र तत्तथैवोच्यते इति । साधुकटपः सकलसाघुसमाचारासेवनेन विहरति गृहान्निर्ग आचारदशानां षष्ठेऽध्ययन, स्था०१० म०प्रथमायां श्रारूप्रतिस्य प्रामाविषु विचरात साधुवत् धर्म चारित्रधर्म समितिगश्यादिकं कायेन देहेद न मनोमात्रेण स्पृशन् पालयन्नेकादश्यां मायां दर्शनिहिजादिभिक्षुकाणामन्नादि दातुं कल्पते न घा ॥१॥ प्रतिमायामिति शेष इति गाथार्थः। तथा कुलगुरुसंबन्धेन समागतानां दर्शन्यादीनामपि ॥ २॥ ममकारेऽवोच्चिो , वच्चति समायपति दहूं जे। अन्यच्च नवमप्रतिमादिषु देशावकाशिकं कर्तुं युज्यते न वा ॥३॥ तथा कचिद्विखितविधौ दशमप्रतिमायां कर्पूरवासादिनिर्जिनातत्थ वि जहेव साहू, गेएहति फासुंतु आहारं ॥ ३६॥ नां पूजा कर्तव्येति लिखितमस्ति तद्विषये कियती प्रतिमा यावममेत्यस्य करणं ममकारस्तत्राव्यवच्छिन्ने अनपगते सत्यनेन चन्दनपुष्पादिनिःपूजा कियतीषु च कपुरवासादिनिः कस्यांव स्वजनदर्शनार्थित्वकरणमुक्त सझाता स्वातयस्तेषां पसी सनि नेतिया (उत्तरम्) प्रयमश्रारूप्रतिमायां दर्शनिद्विजादिज्योऽनुकपेशस्ता सातपल्ली षष्टुं दर्शनाय सझातानीति गम्यते जे इति म्पादिना भन्नादि दातुं कल्पते न तु गुरुबुद्ध्येति तत्त्वम् ॥ १ ॥ पाद पूरणे निपातः । तत्रापि सझातपहीवजनेऽव्यास्तामन्यत्र एवं कुत्रगुरुतादिसंबन्धेनागतानां निङ्गिनां दातुं कल्पते ॥२॥ यथैव यहदेव साधुः संयंतस्तथैवेति शेषः गृह्णात्यादत्ते प्रासुकं नवमप्रतिमादिषु देशावकासिकस्याकरणमेव प्रतिनाति ॥ ३॥ तु प्रगतासुकमेवाचेतनमेवोपक्षणत्वाचास्यैषणीयं चाहार तथा प्रतिमाधरश्रावकाणां सप्तमप्रतिमा यावच्चन्दनपुष्पादिमशनादिकमिति सहातपद्विग्रहणेन चेदं दर्शयति प्रेमान्यवच्छे- निरईदचनमौचित्यमश्चति । सक्षितविस्तरापञ्जिकाभिप्रायेण नपात्र गमनेऽपि तस्य न दोषस्तथा ज्ञातयः स्नेहादिनैषणीय स्वष्टम्यादिषु। कर्पूरादिपूजा तु अष्टम्यादिष्वपि नानुचितेति शायभक्तादि कुर्वन्त्याग्रहकरणेन च तद्ग्राहयितुमिच्चन्त्यनुवर्तनीयाश्च त तेषां निरवद्यत्वादिति । अक्षराणि तु ग्रन्थस्थाने नोपायन्ते ते प्रायो जवन्तीति तहहणं संभाव्यते तथापि तदसान गृहाती- शति । पकाइयां च साधुयदे वेति बोध्यम् । ४॥ ही। तिगाथार्थः । सातपल्लीगमन एव तस्य कल्प्याकल्प्यविधिमाह॥ उवासण-उपासन-न० उपास्यन्ते नूयः विप्यन्ते शरायत्र उपपुन्बाउत्तं कप्पति, पच्चानतं तु ण खल एयस्स । अस्- विप, प्राधारे-व्यः । शरपशिवाथै शराभ्यासे, अमरः । श्रोदण निलंगसूपा-दिसच्चमाहारजायं तु ॥ ३७॥ । उप-आस-भावे-प्युट् चिन्तने,मनने, वाचा सेधने, ५०१४पूर्व तदागमनकासात् प्राक् आयुक्त रन्धनस्थात्यादी प्रतिप्तं धिका तं च परिवायगो बढ़ाई उवासणेहि अवं नि० चू० । १उ०॥ पूर्षायुक्तं स्वार्थमेव राकमारब्धमित्यर्थः । कल्पते प्रहणयोग्य "सुस्सूसमाणो वासेज्जा,सुप्पन्नं सुत्तवस्सियं" सूत्र०१७.ए.। भवति पश्चादायुक्तं तु तदागमनकालादनन्तरमायुक्तं पुनर्न खलु। उवासणा-उपासना-स्त्री० श्मश्रुकर्तनादरूपे नापितकर्मणि, नैष एतस्यैकादशप्रतिमास्थश्रावक स्य कल्पत इति वर्तते । गृह. तच्च ऋषभदेवकाले एव जातं पूर्वमनवस्थितनखसोमानस्तथा स्थानामधिकृतश्रावकार्थमधिकतरौदनादिकरणसंकल्पसंभषा-- काममहात्म्यतः प्राणिनोऽजवन्निति किञ्च जगवत्काल पव नवकिं तदित्याह । ओदनश्च कर भिसिङ्गसूपश्च मसूराख्यद्विदलधा रोमाएयतिरेकेण प्रवर्मितुं अग्नानि न पूर्वमिति । गुरुराजादीम्यपाकविशेष आदिर्यस्य तत्तथा तत्सर्वमपिनिरव शेषमप्याहा नां पर्युपासनायाम, आ० म०प्र० । तदुक्तं नियुक्तिकृप्ता “उवारजातमत्यवहार्यसामान्यं तुझशब्दोऽपिशब्दार्थस्तस्य च प्रयोगो सणाणाम सुकम्ममाया गुरुरायाणं वा उवासणा पज्जवासदर्शित पवेति गाथार्थः॥ णया" आ०म०प्र० । आ.चू. (नसहशब्दे स्पष्टीनविष्यत्येतत्) अथैतस्याः कालमानमाह ॥ नवासमाण-नपासीन-त्रि० उपासनं विधाने, स्था० ६ ग. एवं उक्कोसेणं, एक्कारस.मास जाव विहरे । नवासीय-उपोषितवत-त्रिक कृतोपवासे, “नवकिरचाम्मासे, एगाहा पियरेणं, एवं सव्वत्थ पाएणं ।। ३ ।। गकिर दो मासिए नवासीय" आ०म०वि०। एषमुक्तेन प्रकारेण क्षुरमुएलादिना एकादश मासान् यावदि उवाह-अवगाह-धा-वा-प्रात्म० प० । अवगाहने, अवात् हरति मासकस्पादिना विहारेण पकाहादि एकाहोरात्रप्रति गाहवाहः । ४।४। अवारस्य गादेवाह इत्यादेशो वा । प्राविशम्दात् यहच्यहादि यावद्विहरतीति प्रकृतम् । इतरेण उवाह जगह अवगाहते । प्रा०। जघन्येनेत्यर्थः । छह च पूर्व प्रतिमासु जघन्यं कालमानं नोक्तमत उवाहण-उपानह-स्त्री० उप-नह-किप-उपसर्गदीर्घः। चर्मपादुस्तदतिशत माह । एघमनेनैव प्रकारेण जघन्यमानमेकाहा- कायाम, । "उत्तावाहणसंजुत्ते, धाउरत्तवत्थपरिहिए" भ०२ दीत्यर्थः । एतच मरणे वा प्रनजितत्वे पा सति संभवति नान्य. श०१० "अगुवाहणाय समणा मज्के चउवाहणारंतु" था सर्वत्र सर्वप्रतिमासु प्रायेण बाहुल्येन प्रायोग्रहणादन्तर्मुह श्राव०१ अ० । अनुपानकाच श्रमणाः मम चोपानही प्रवत नादिसद्भावो दर्शित इति गाथार्थः । इह चोत्तरासु षट्स्वाध इति। प्रा०म०प्र०। भयकथूपयो प्रकारान्तरमपि रयते। तथाहिराईनपरिया प- वाहि-उपाधि-पुण्उपाधीयते इति उपाधि व्यतो हिरण्या Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३७ ) जवाहि भाभिधानराजेन्द्रः। नवेहासंमज दो नावतोऽष्टप्रकारे कर्मणि, उपाधीयते ध्यपदिश्यते येनेत्युपा- जपेय-त्रि० उप-छा-यत् । उपायसाध्ये प्राप्तव्ये उपगम्ये, अन्धिधिः । प्राचा०१ श्रु०३ अ०। कर्मजनिते विशेषणे, । ज्यगम्ये च । पाँच। उपेयाभावे उपायासिकिः विशेगास्था। किमस्थि वाही पासगस्स णस्थि विज्जणत्थि तिमि उवेल्ल-प्र-स-धा प्रसरणे, "प्रसरेः पयरोवेली" ८।४।७७ । किं प्रश्ने अस्ति विद्यते कोऽसावुपाधिः कर्म जनितं विशेषणं | ति प्रसरतेश्वेतादेशः वेदर प्रा० ॥ सद्यथा नारकस्तिर्यग्योनिः सुखी दुःखी सुभगो दुर्भगः पर्यासकोऽपर्याप्तक स्यादि पाहोश्विन विद्यते इति परमतमाशङ्कप नवेहमाण-उपेक्षमाण- वि० अवगच्चति, “ अपहायोगमुहतनचुः पश्य कस्य सम्यग्वादादिकमर्थ पूर्वोपातं पश्यतीति माणे इति कम्मं परिमाय सव्यसो से ण हिंसति"आचा० । पश्यः स एव पश्यकस्तस्य कर्मजनितोपाधिर्न इत्येतदनुसारे १७०४०। अकुर्वति, आचा०१ श्रु. ३ अ० । अपव्लोचणाहमपि ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति भाचा० १७०४०४० यति, " उवेदाए उवेहमाणे अणुचूहमाणं व्या वेहाहि समिउपाध्यानमुपाधिः । सनिधी, भ०१२०१०। अन्यथा स्थित याए नवति" प्रागमपरिकर्मितमतित्वाधथाथस्थितपदार्थस्थस्य वस्तुनोऽन्यथाप्रकाशनरूपे कपटे, उपाधीयते स्वधम्मोऽनेन नावर्शितया सम्यगसम्यगिति ह्यत्प्रेकमाणः पर्यायोषयन्त्रपरकरणे-वा-किः । स्वसामीप्यादिनाऽन्यस्मिन् स्वधर्मारोपसाध- मुत्प्रेकमाणं गद्दरिकायूयप्रवाहप्रवृत्तं वा गतानुगसिकन्यायानुने विशेषणभेदे, उपसकणरूप विशेषणे च । कुटुम्बव्याप्ते, उ- सारिणं शङ्कया वा प्रधावन्तं ब्रूयाद्यथोत्प्रेकस्य पालोयय सम्यपाधीयते माम समीपे कर्मणि के । उपनामनि, यथा जट्टाचार्य- म्भावेन माध्यस्थ्यमवयम्य किमेतदईपुक्तं जीवादितत्य मिश्रादयः। उपाधीयते मनोऽत्र प्राधारे किः।धर्मचिन्तायाम, व्य घटामियाहोश्विनेत्यक्विणी निमीत्य चिन्तयेति प्रापः। यदि निचारोन्नायके न्यायमतसिके पदार्थनेदे च । उपाधिःसाध्यत्वा चोप्रेकमाणः संयममुत्पावट्येनेवमाणः संयमे नद्यध्यन्नतु प्रेकनिमतव्यापकत्वे सति साधनत्वान्निमताव्यापकः । वाच॥ माणं याद्यथा सम्यग्नावापन्नः संयममुत्प्रेक्वस्व संयमे उद्योगं उवाहिमुद्ध-उपाधिशुद्ध- आर्यदेशसमुत्पन्नादिविशेषणशुद्ध, कुरु । आचा० १७०५.५ उ० । "वेहमाणे कुसोर्टि “ता धनाणं गीरो, उपाहिसुकाण देश पव्वजां"पं०व०॥ संघसे" उपेकमाणः परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषय चौपेक्त्रमाणो माध्यस्थ्यमवझम्बमानः कुशीताथैः सह संघकविता-अवनश्य- भव्य० विच्चिोत्यर्थे, “जावतियं अंतो। सेत् आचा०२ श्रु०॥ उदासीने, वेहमाणा णाइकमाई" || सपेपमिग्गहगस्स विश्ता दसएजा" व्य० १०॥ कमाणा इति उपेक्वा विविधा व्यापारोपेक्षा अव्यापारोपेका च। रविंद-उपेन्छ-पुं० उपगत इन्द्रम कृष्णे, अत्या. समा० सुखि. सत्र व्यापारोपेकया तमुपेकमाणास्तद्विषयायां दनबन्धनादिमो विषयातृप्ता नेन्झोपेन्छादयो रहः। उपेन्छः कृष्णः। अध। कार्या समयप्रसिरुक्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः । अश्यापारो" राजाऽधिराजस्तासीऽपेन्खोऽपीन्घदनुवि।सदानवं सुम- पेक्वया च नृतकस्वजनादिभिस्तं सक्रियमाणमुपेकमाणास्तनसां, चित्रमोदमदस्तयत् " प्राव०१०। तति द्वारवत्याम। दासीना इत्यर्थः स्था०६०। जविंदवज्जा-उपेन्छवज्रा-स्त्री. “उपेन्द्रवजा जतजास्ततो गौ" वेहा-उपेक्षा-स्त्री० उप-क-अअवधारणे, माध्यस्थ्ये. पो. इति पृ. २० उक्त एकादशाकरपादके गन्दोनेदे, । अस्याश्च ४ विवाहा। आरोपणे, अष्ट विशेषणे, पो०१३ विव० । इन्छवज्रया संमेलने उपजातिवति । याच॥ परदोषोपवणमुपेक्षा परेषां दोषा अविनयादयः प्रतिकर्रामाउविक्खेव-उद्विक्षेप-पुं० वासोत्पाटने, मुएमनमिति सोकोक्तिप्रसि- क्यास्तेषामुपेकाऽवधारणमुपेक्षा । सम्भवत्प्रतीकारेषु दोषेषु, खेऽर्थे, तं०॥ नोपेक्षा विधेया पो०४ विध० । “उबेहेणं बहिया य लोयं" उवियग्ग-उद्विम-त्रि० उगवति , स्था० ४ ० । ( उवेहेति) योऽयमनन्तरं प्रतिपादितः पाण्डिलोकः पनं धजमोचील-अपवीम-ज० शेखरे, वि०६अाअवपीमनं परे दिहिर्व्यवस्थितमुपेक्षस्व तदनुष्ठानं मानुमंस्थाः।चशब्दोऽनु तसमुच्चयार्थस्तदुपदेशमभिगमनपर्युपासनदानसंस्तधनादिकं पामित्यवपीरः । अष्टादशे गौणादचादाने, प्रभ०१श्रु०३ म०॥ च मा कृथा इति प्राचा०१६०४ ०२ उ०1 ( यः पापउवालण-अवपीडन-न० निष्पीकने, विपा०००। रिडलोकोपेतकःस कंगुणमवाप्नुयादिति सम्मत्तशम्दे वक्ष्यते रवीला-उपपीमा-श्री. वेदनायाम्, "अप्पेते नवीर दलेंति" | सति कलहे उपेक्षा कर्तव्येत्यहिगरण शब्दे उक्तम् ) अवपी शेखरं मस्तके तस्यारोपण.व उपपीमांचा वेदना दन-उबेहाप्रसंजम-उपेक्षाऽसंयम-पुं०असंयमयोगेषु व्यापारणरूपे यन्ति विपा० ६ अ० । संयमयोगेष्वव्यापारणलक्षणे वाऽसंयमभेदे, स। उवीमेमाण-( नप) अवपीमयत-त्रि० वेदनामुत्पादयति, वेडाए-नपेक्ष्य-श्रव्य उप-ईत ल्यप्-प-लोध्येत्यर्थे, प्राचा० "राखीसेमाणे विधम्ममाणे तज्जमाणे" विपा० ३०।। १ श्रु०३ अ. मात्वेत्यर्थे, "लोगवित्तं ण उवेहाए" उपेक्ष्य उवढेता-अनुवहयित-त्रि० परेण खस्य क्रियमाणस्य पूजादेर ज्ञात्वा परिक्षया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरेत् नुमोदयितरि, तझाये हर्षकारिणि, "पूयासकारमए उदेसा न. प्राचा० १७०५० वर" स्था०७ग। नवेहासंजम-पक्षासंयम-पुं० संयमन्नेदे, दानीसुपेक्कासंयम उवच्च-नपेत्य-अव्य० उप-इ-ख्यप् । प्राप्येत्त्यर्थे, “ सवेध सुर उच्यते सा चोपेक्षा द्विविधा कथं यतिव्यापारोपेक्वा गृहस्थण वेति मोक्खं" सूत्र० १७० १४ ॥ व्यापागेपेक्षा च । तत्र यथासंख्यं चोदनाचोदनविषया । संजय-जपेत-त्रिसपण-क । उपगते, समीपगते, सेवादिध- | यतस्य चोदनविषया व्यापारोपेता । एतठक्तं भवति साधं Mण प्राप्ते, पाच । युक्ते, स०।संथा। पं० श्राव०1"प- विषीदन्तं दृष्ट्वा संयमव्यापारेषु चोदयतः संयमव्यापारोपेक्षा सपुष्पफनोवेप " उत्त०० अ० । नि० । समन्धिते च । । क्ष दर्शने उप समीपेम ईक्षा उपेक्षा । गृहस्थस्य व व्यापारो Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३८) सवेहासंजम अभिधानराजेन्द्रः। उव्या पंका गृहस्थ मधिकरणल्यापारेषु प्रवृत्तं रष्ट्वा अधिकरणव्या- दयावनियाप बाहिर ईिण" मिति वचनात् । मनु यदा वा पारेषु प्रवृतं.चोदयतः गृहस्थव्यापारोपेका उच्यते । उपेक्षाश- बन्धे सत्यद्वर्तनां प्रधर्तिध्यत "प्रबंधा उञ्चर" ति वचनात मात्र अवधारणायां वर्तते । ओरावृ०। तत सदयावलिकागताः स्थितपोवाधान्तर्गतम्वेन मोवर्तिध्यन्त उधक-उत्पा-पुं० शोपद्रिमध्ये प्रक्षिप्य कियत्कालं - किमुदयावमिकाप्रतिषेधेम तदयुक्तमभिप्रायापरिकानातं प्रवाधा त्वा ततो निष्काशिते "डसिणोदगावीरउव्वको" व्य०१०।। म्तर्गताः स्थितयो मोद्वर्तन्ते शति। किमुक्त अवनि प्रवाधान्तर्गताः उबट्टत-उदयत-त्रि० उद्वर्तनं कुर्वति. " उद्बोलतं उन्वत स्थितया स्वस्थानामुत्पाद्य अबाधायामध्ये पुनस्तासां वक्ष्यमाणखा साइजाइ" नि०.०१६ उ०। क्रमेणोधर्तनानिकेपी प्रवर्तमानौ न विरुध्येते तत उदयावमिकाउबहण-नवर्लन-न० बद्-त्-भावे-ल्युट । चालने, “उम्य न्तर्गता अपि नवर्तनामाप्नुवन्तीति प्रतिषिभ्यन्ते । समत्थे रमफा वि।०२ उग सुरभिचूर्णादिना (ग० संप्रति निकेपाल पणार्थमाद । अधि.) कल्कोनादिना (वृ० १.३०) पिटिकादिना वाम- इच्चियरिश्मणायो. भावलियं संधिळण तहलियं । सोचारणे.२०। सातामुद्भर्तननिषेधोऽणायारशब्दे उक्तः) बद्ध- सम्बेसु वि निक्खिप्पर, ठिठाणेसु उवरिमेह ॥ प्रसादाचरितं तथा । नदतेने संसक्तचूर्णादिनिः उतनि ईप्सितस्थितिस्थानात् यतः स्थितिस्थानमुवर्तते ततकाश्चम भस्मनि मिक्किप्तास्ततस्ताः काटिकाकुलाः श्वादिजिन मित्यर्थः। श्रावलिकां महयिन्या अतिक्रम्य तहसिकमुद्भर्त्यमाश्यन्ते पादैर्वा मृद्यन्ते घ०२ अधि। व्यानेदैः स्नेहाद्यपहा नस्थितिदमिक सर्वेष्यपि उपरितनेषु स्थितिस्थानेषु निक्षिप्यते गर्थे व्यापारेन । उदय॑तेऽनेन, उद्-वृत्-णिच् करणे न्युट् । श एष निक्केपविधिः । संप्रति निकेपविषयप्रमाणनिरूपणार्थमाह । रनिर्मशीकरणकन्यादा, पाचकाकर्मपरमा खूनांहस्व. श्रावलिय असंखजागाई, जाव कम्महिपत्ति निक्खेवो। स्थितिकामतामपगमस्य दीर्घस्थितिकातया व्यवस्थापने, पं० संका मोवेशस्योपकरणेन परिवर्तने, का अ०३ वामपाश्र्वेन सम उत्तराणियाए, सावाहाए जवे ऊणे॥ सुप्तस्य दकिणपाइन वर्तने च । आव० ४ ०। इह निकेपविषयो द्विधा जघन्य उस्कृष्टश्च। तत्रावहिकाया - उमाणा-उद्वर्तना-स्त्री०उर्तनमेवोद्वर्तना। तत्प्रथमतया वाम- संख्येभागमात्रासु स्थितिषु यः कर्मवलिकनिक्केपः स अघन्धपाश्येन सुप्तस्य दक्विणपाश्वेन वर्तने, "इच्छामि पमिकमित्रोप स्तथा हि सर्वोत्कष्टात स्थित्यप्रावध आवलिकाऽऽचलिकाया गामसिजाप णिगामसिजाए उबट्टणाप परियणाप" श्राव. भसंख्येयं च जागं जवतीत्यधस्तनीया स्थितिस्तस्यादसिकम४ अ । उहत्येते प्राबल्येन प्रतूतीक्रियते स्थि यनुन्नागी यया तिस्थापनावसिकामात्रमतिक्रम्योपरितमाधिकाया असंख्येयवीर्यविशेषपरिणत्या असो नद्वर्तना । पं० सं०। उद्वय॑ते प्राव. भागभाविनीषु निक्लिप्यते नाबलिकाया मध्येऽपि तथा स्थानास्येन प्रतीक्रियते स्थित्यादि यया जीववीर्यविशेषपरिणत्या सा व्यात् ततोऽसावेतावान् जघन्ये दनिके निक्षेपविषयः । एवं महतना स्थित्यनुमामयोर्वृहत्करणरूपे तृतीये करणे, क०प्र०। सति प्रावलिकाया असंख्येयतमे नागे नाधिकासु प्रावविशे० । अथ स्थित्यनुजागविषया वर्तना व्याख्यायते। लिकामालासुस्थितिषु उद्वर्तनं भवतीति सिकम् । तथा नदयावलिवज्झाणं, लिईण नव्वट्टणा उ ठिइविसया। च सत्युत्कृष्टस्थितिबन्धे उद्वर्तनायोग्याः स्थितयो बन्धापकिसोकोस अवाहाओ, ना वावलि होई अतिउवणा ।। कामयाधामुपरितनी चावक्षिकामसंख्येयभागाधिका मुक्त्य) नर्तना स्थितिविषया भवति । उदयावनिकबाह्यानां स्थितो शेषा एव दृष्टव्या तथा हि बन्धावक्षिकान्तर्गतंसकत्रकरणयोग्य. मामुदयावनिकादिसककरणयोग्येति न सदा स्थितीनां प्रति मिति कृत्वा बन्धावलिकान्तर्गताः स्थितयो मोद्वर्तन्ते अबाधान्तपेधः किं सर्वासामप्युदयावलिकाबाह्यानां स्थितीनामुद्वर्तना ने र्गता अपि नोद्वर्तनायोग्यास्तासामतिस्थापनात्वेन प्राक्प्रतिपास्थाह। स्वोत्कृपया अबाधायाः स्थितयस्तासामुद्वर्तना एषा दितत्वात् संख्येयभागाधिकमात्रभाविन्यश्च नपरितन्यः स्थितयः स्वोस्था बाधाप्रमाणा उत्कृष्ट असिस्थापना । अतिस्थापना प्रागुक्ता व्यक्तरेव नोद्वर्तमायोग्याःसंप्रत्युत्कृष्टो निक्केपविषयधि त्यत 'आयकरमट्टि' इत्यादि । श्यमत्र भावना यदा आपतिकामानाम उशबन्ना तदा अतिन्हस्वा म्हस्वप्तरा प्रतिस्थापना तावत् यावज्जघन्या अाधा ततोऽपि जघन्या ऋतिस्थापना भवति । बलिकासंख्येयन्नागमध्यवर्तिनी द्वितिया अधस्तनीस्थितिरुवर्तयते. श्रावलिका आवालिकाप्रमाणा इयमत्र नावना वध्यमानप्रकृतर्या तदा समयाधिकालिकाया असंख्येयभायो बिकेपविषयः याः पती अबाधा तया तुझ्या अबाधादीनां या पूर्ववत्प्रकृतीनां या स्थि सुतृतीया स्थितिरुद्वर्तयते तदाद्विसम्याथिका पवं समयवृख्या तिः सामोर्तते सा उत्पद्य ततः स्थानादूई वध्यमानपतेरवा ताबद्दभिकनिक्केपविषयो यावत्कृष्टो नवति सच कियान भयपाया उपरितः शिव्यते अबाधाकान्त प्रविष्टत्वात् यासु पुनर तीति चमुच्यते समयाधिकाका अबाधया वा डीवा,सर्वबाधापासपरितनी सास्थिति पर्यन्तमुर्तयते तदेवमबाधान्तःप्र कर्मस्थितिः तथा हयाधोपरिस्थितीनामुद्वर्तना भवति तथा विष्टाः सर्वा अपिस्थितय उद्वयं उतनामधिकृत्य प्रतिक्रमणी प्यबाधया उपरितने स्थितिस्थाने उद्वर्त्यमाने अबाधाया अपरिदया भवन्ति तथा वसती येवोत्कृष्टा अबाधा स्थिता सैव न. लिकनिक्केपो जीत न अबाधामध्ये उद्वय॑मानदक्षिकस्य नहत्य मानस्थितेरु निकेपात् तत्राप्युद्वय॑मानस्थितरुपरि मावधिछ प्रतिम्यापना समयाना उन्कृष्टा अबाधासमयोना उत्कृष्टा प्रतिस्थापना द्विसमयोना उत्कृष्टा अबाधा द्विसमयोना उत्कृष्टा कामात्राः स्थितीरतिक्रम्योपरितनोषु सर्वासु दविकनिकेपणा नयति ततः स्थापनावासिकामद्धय॑मामां स्थिति समयमात्रामप्रतिस्थापना। एवं समयसमयादन्या अतिस्थापना तावद्वक्त.व्या बाधां वर्जयित्वा शेषाः सर्वा अपि कामस्थितिरुकृप्टो दलिकपावजघन्या अबाधा अन्तर्मुदूर्तप्रमाणा ततोऽपि जघन्यतरा भतिस्थापना आवत्रिकामा सच उदयावविकासकणमवसेयं निक्षेपविषयः । तथा चाह । न हपुदयावनिकान्तर्गताः स्थितय उद्धर्तिताः " नम्बट्टणानिए आवाहोवरिगणा, दलिये पञ्चह परमनिक्खयो। Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (११३९) उबट्टगा श्रभिधानराजेन्द्रः। नव्वदृणा वरिषुब्बाताणं, पाचई जाइ य जहनो ॥ जो नवति निक्केपस्तु तत्र सर्वत्रापि तापमात्र एष प्रतिस्थापप्रवाधाया सुपरितनं यत् स्थितिस्थानं तनिकं प्रतीय न नावनिकायां परिपूर्णायां निक्केपो बलते इति शब्द बर्तमादर्तनाकरणे परम उत्कृष्टो निकेपो भवति परम तु स्थितिस्थान कर्तव्यतापरिसमाप्तिसूचको यावश्चानेन नवकर्मबन्धः प्राक्कमयस्मात्परं नोर्तते तदधिकृत्य जघन्यो दनिकनि केपः । स्थितिसत्कम्र्मणः सकाशात् द्वान्यामावलिकासंख्येयतमायाँ संप्रति यावन्मात्राः स्थितय उतनयोग्यास्ताः प्रतिपादयति । भागाच्यामधिको न भवति तावत् प्राक्तनस्थितिसत्कर्मण श्वरम स्थतेरध प्रालिकामसंस्येयत्नागाधिकामतिक्रम्योपरितने नाकडे निइबंधे, बंधावलिया प्रवाहमेच। भावनिकाया असंख्येयतमे नागेनिविपति। यदा तु द्वितीयममा निकखेवं च जहम, ता मोत्तुं उन्धए सेसं ॥ स्तनी स्थितिमुर्तयति तदा समयाधिके असंख्येवलमे पाने उत्कृष्टे स्थितिबन्धे क्रियमाणं धन्धावनिकामबाधामा निकै निकिपति एवं प्रकारेण हधुव्यम् । संप्रत्यरूपबहत्यमुच्यते या बजघन्यम् । इह जघन्यनिरुपग्रहणात् सर्वोपारतनी श्रावलि जघन्या प्रतिस्थापना यश्च जघन्या निरूपएतौ द्वावापि सर्वस्तोकं का भासंख्येयनागाधिका गृह्यते ततस्तां च मुक्त्वा शेषं सर्व परस्परं वा ब्यौ पती द्वावप्यावसिकासत्कासंख्येयतमभायप्र. मपि स्थितिजातमुदतते नावना चैतद्विषया प्रागेव कृता । एष माणौ ताज्यामसंख्येयगुणा उत्कृष्टा भतिस्थापना तथा नकानियाघाते विधिः । व्याघाते पुनरयम्। याधारूपत्वात् ततोऽन्यु-कटो निक्केपोऽसंश्येयगुणो यतोऽसौ निवाघाए एवं, वाघानी संतकम्मविइबंधो। समयाधिकावझिकया साबाधया होना सकर्मास्थितिः ततोऽपि भावलिमसंखजागो, जा बलियो तत्य अइवणा॥ सर्वकर्मस्थितिर्विशेषाधिका पं० सं०। क.प्र.। एवं पूर्वोक्तिन प्रकारेण दलिकनिक्षेपो निर्व्याघाते ब्यादाता प्रथानुभागोद्वर्तनामाह । भावेष्टव्यः व्याघाते पुनरन्यथा।प्रथ कोऽसौ व्याघात इत्याह। चरमं नो बहिज्जइ, जा ठाणंताणि फड़गाणि तउ । व्याघातः प्राक्तनस्थितिसत्कर्मापेक्षया इन्यधिकाभिनवकर्मब- उस्स कियउबट्टा, उदयाववट्टणा एवं ॥ धरूपा तत्रातिस्थापना आवलिकाया असंख्येयतमोभागः स घरमं स्पर्धक नातयते नापि विचरमं नापित्रिचरमम एतांवच प्रवर्तमानस्तावदवसेयो यावदावलिका । इयमत्र भावना। प्राकनसत्कर्मस्थित्यपेक्षया समयादिनाऽभ्यधिको योऽभिनवक ताताववाच्यं यावश्चरमान् स्पर्ककानधोऽनन्तानि स्पर्ककानि नोर्मबन्धस्य व्याघात इझाभितस्तम्नामा स्थापना आवलिका वर्तयते किं तु तस्य चतुष्कस्याधस्ताववतीर्य यानि स्पर्डकानि जघन्याया असंख्यभागमात्रा। तथाहि प्राक्तनसत्कर्मस्थितेः समयमात्रस्थितिगतानि तान्युदर्तयति तानि चोवर्य प्रावलिसकाशात् समयमात्रेणाभ्यधिकेभिनवकर्मयन्धे सति प्राक्तन कामात्रस्थितिगतानि अनन्तानि स्पर्ककानि अतिक्रम्योपरितने से सतर्मयोऽन्य विचरमा वा स्थिति!वर्तते । एवं यावदा प्रावलिकासत्कासंस्पेयभागमात्रगतेषु स्पर्क केषु निविपति । बलिका जघन्याया असंख्येयभागमात्रा अन्यस्याश्चावलिकाया यथा पुनरधोऽवतीर्य द्वितीयसमयमात्रस्थितिगतानि स्पर्ककानि सर्तयति तथा श्रावलिकामात्रस्थितिगतानि स्पर्ककानि अतिक. असंख्येयतमो भाग इति । एवं समयद्वयेन समयत्रयेण यावदावलिकाया असंख्येयतमेनापि भागेनाधिके अभिनवकम्म. म उपरितनेषु समयाधिकापलिकासत्कर्मसंख्येयभागमात्रगबन्धे द्रष्टव्यम् । यदा पुनर्वाभ्यामावलिकासंख्येयतमाभ्यां तेषु स्पर्क केषु निविपति एवं यथा यथा प्रधोऽवतरति तथा तथा भागाभ्यामधिकोऽभिनवकर्मबन्ध उपजायते तदा प्राक्तनस निकपो बर्द्धते प्रतिस्थापना पुनः पुनः सर्वत्रापि प्रावमिकामाकर्मणोऽन्त्यस्थितिरुद्वर्तते उद्भवं च प्रावलिकायाः प्रथ. प्रस्थितिगतान्येव स्पर्ककानि । कियान् पुनरुत्कृष्टो निक्षेपविषय मं संख्येयतमं भागमतिक्रम्य द्वितीयेऽसंख्येयतमे भागे नि इति चेपुच्यते बन्धावसिकायामतीतायां समयाधिकावमिकामाक्षिप्यते पती प्रतिस्थापनानिक्षेपी जघन्यौ । यदा पुनः सम प्रगतानि स्पर्ककानि व्यतिरिच्य शेषाणि सर्वाएयपि निक्केपवियाभ्यधिकाभ्यां द्वाभ्यामावलिकाया असंख्येयतमाभ्यां भागा षयः । संप्रत्यत्रैवाल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोको जघन्यनिकेपः भ्यामधिकाभिनयकर्मबन्धस्तदा पावलिकायाःप्रथममसंख्ये. तस्यावनिकासत्कासंख्येयनागगतस्पर्ड कम विषयत्वात ततोऽ पतमं भागं समयाधिकमतिक्रम्य असंख्येयतमे भागे निक्षि तिस्थापना अनन्तगुणा निकेपविषयस्पर्ड केज्य प्राथमिकामात्र स्थितिगतानां स्पर्ककानामनन्तगुणत्वात् । एवं सर्वत्राप्यनन्तप्यते एवमभिनवकर्मबन्धस्य समयादिवृद्धौ प्रतिस्थापना प्रवखते साच तावत् यावदावलिका परिपूर्णा भवति। निकेपस्तु गुणता स्पर्धकापेकया द्रष्टव्या तत उत्कृष्टो निक्केपोऽनन्तगुणः ततो ऽपि सर्वो नागो विशेषाधिकः। तदेवमुक्ता अनुनागोवर्तना। ५० सर्वत्रापि तावन्माष एव भवति तत ऊर्दै पुनरपि नवकर्मनिकेप एव केवलो वर्धते । पतदेयाह । सं० (कर्मप्रकृतौ तु " एव सब्वट्टणा उ" एवं चतुर्थपाना । अयमिहानुपयुक्तो ऽव्याख्यातोऽपि गाथापूर्तये प्रदर्शितः) आवनि दोखंसी, जइ वहद हिणवो उठिबंधो । पवर्तनमुबर्तना । तत्कायाभिर्गम मरणे , “दोएई सम्वट्टणा उकिडातो चरिमा, एवं जा वनिय अइठवणा ॥ पमत्ता तं जहा नेरक्याणं चेव भषणवासीणं चेव" सबअइवणा वतियाए, पुमार वरंति निकयो । तैना नरयिकभवनवासिनामेवैवं ध्यपदिश्यते भन्येषान्तु मरणयदा प्राक्तनस्थितिसत्काएकया अनिनवस्थितिबन्धो बर्द्ध। मेवेति । स्था२२ ग०। ( उद्वर्तनायाः सर्वा वक्तस्यता व्यवाते ध्यावनिकाया असख्येयांशो यतस्तो भागो ततः प्राक्तनास्थ यशब्दे दर्शिता यथा सान्तरं निरन्तरं चोद्वर्तन्ते इति सतोतिसत्कर्मणोऽन्या स्थितिरुवर्तते । उवयं चावाकयोः प्रथ ऽसतो वा नैरयिक विषयादुवयं तीर्थकृत्वादिसामः इति च मसंख्येयतम भागमतिक्रम्य द्वितिये असंख्येयतमे भाग निकिप अंतकिरिया शब्ने उक्तम् ) ति एतावता स्थापनानिक्केपी जघन्यो ततोऽनिनवकर्मबन्धस्य खुङगकमजुम्मणेरयाणं जने ! अर्णतरं उच्चट्टित्ता समयादिबूकावतिस्थापना वर्कते तावत् यावदावनिका परिपू- कहिं उवव जति किं ऐरएनु नववजति तिरिक्खजोणिसुए Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उबट्टणा सववज्जति उपट्टणा जहा बकंतीए तेयं भते । जीवा एग समयं केवइया ब्वति गोयमा । चचारि वा अडवा मारस या सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उब्बहंति तेणं जंते ! बाई पति गोमा से जहायाम पव एवं तदेव एवं सो चैत्र गमनो जाब आयप्पोगेणं उब्वहंति णां परपद्मोगेणं उष्वति रयणप्पभपुढविवृडागकरुजुम्म एवं र भाए वि एवं जाव देसत्तमाए वि । एवं खुड्डागतेओगे खुट्टागदावरजुम्मे खुट्टागकओिगे एवरं परिमाणं जाणिव से तं चैव सेवं भंते! तेति (३१ ० ३१४०) कहलेस्सकम जुम्मे णरश्या एवं एएवं कमेणं जदेव उबवायसर डावी उद्देसगा जलिया तब बट्टणास विं अट्ठावीसं उदेगा जाणियव्वा शिरवसेसा एवरं उच्चइति चि अभिलायो भाणिपयो से तं च सेवं भंते! ते ! ति जाव विहरह || उब्वट्टणासयं सम्पचं ॥ ज० ३१ ३० ३१ ३० । सब्वट्टणासंकम- उर्तनास उपानहीन बन्धे, ' यंत्रा' पं० [सं०] स्तोकस्य रसस्य प्रभूतीकरणे, पं० सं० हिता उद्र्त्य अभ्य०त्येत्यर्थे स्था० ३ ० ॥ सवाय उति लि० पिकादिना तद्वर्तने "अम्भंगिय सं ३२ ॥ भ० श० ५ उ० । चाहिय उव्यट्टियमज्जियं च से जाएं" पिं० । तत्वाच्च्याविते, "उपड़िया पीन उन्नामयो प सेजते" या अभिनयस्थापतास पार्तिता धात्रीत्याख्यापितापित उद्विजद त्रि० तोता, "जरा कपट्टिया अथरणा ते चित प्रश० १ द्वा० । ततो वि चम्बडिया समाणा पुणो वि पवति" प्रश्न• ३ ३०० । “ब्राढभक्षरण उच्चाट्टया समाप्या" प्रश्न० १० हम "गोपतराय स - मणता पुरिसा कूरुसे हे चवर्णेतु " । प्रा० म० द्वि० । - इर्तने, “मच्यर्स" मत्स्यो या मत्स्यवर्ती साधुं द्वितीया परावर्तते श्र० ३ म० । उपचण उदर्शन-१० एकपात्यायने घ०३ अधि० । रेचका 16 - 19880) निधानराजेन्द्रः । - 66 उत्ताणयस्स पास लियकरणं उष्वक्षण 10 प्यू० ४४० । उ. द्वर्तनं नाम तस्या उत्तानायाः पार्श्वतः करणम् । पृ० ३४० | वर्तने, "म्यनिषणाची नियोगं" पर्तन दसाधु वर्तते । मो० । शरीरपरिवेशकारिषु निम्योमकेषु, प्रव० ७२ द्वा० । उन्दर देश धर्मार्थे, दे० ना० । हम्प-उन-न० पहनती कन्यादिना बहने, विवादे च पाच जीविकाक्षानेनात्मनो धारणे, स० उव्वा-उद-वा-धा० ज्वा० प० अक० सेट् " स्वरादनती वा 33 ४३ प्रकारान्तवर्जितास्रान्ता द्वारकागमो पा Had इत्यकारागमो वा । चव्बाइ उव्वाभइ उद्वाति । प्रा० । रोमा ४ ११ वसुआद सव्वाद प्रा० धर्मार्थे, दे० मा० । उज्या उर्वाग्नि-पुं० [पडघान, अष्ट ते उग उच्चाव- उद्वात-पुं० परिभ्रान्ते, " असा तानियोदिसाणपण परिणीय " वृ० १ ० " उज्यालो दिवस विषदं तु प्रतिक्कमे गुरुगा " उघातः परिश्रान्त इति कृत्वा नष्टः । परिहाणी" ४४० ॥ ५० १४० । अतिपरिभ्रान्ते, "दितो बातो त्याच उब्बाह- देशी-धर्मायें, दे० ना० । उम्माहिज्जमाय-उद्वाभ्यमान- वि० प्रायस्य वाच्यमाने " उकचारपासवणेणं सब्वाहियमाणे " आचा० २ ० । प्रावल्येन मोहदयात्माने "माणे गामो" भा० १ श्रु० ॥ श्र० । +6 उम्बिग्ग- उद्विग्न- त्रि० मद्-विज- कर्त्तरि-क-सर्वत्र अवराम| २ || इति लोपः प्रा० । आनन्द रसत्यागमामसे, २०३० १०० मते, “जम्मममता दुपखरसंगसिणो " उत० १४ भ० । अविजम्मणा णिश्ववास अणगाणं" प्रश्न० १ द्वा० । उद्वेगवति, “ उग्विग्ग अप्पुया असरणा रवा उर्वेति " प्रश्न० ३ द्वा० । पराङ्मुखचिते, तेणं नरकेसु नारका नियंतसिया जिचं उब्धिम्गा" प्रज्ञा०२पद । यथेोकदुःम्नानुभवतस्तद्वतबासपराखचित्ताः जी० ३ प्रति० ॥ छब्बिन्गया-द्विग्नता श्री० वियोगाद्यनिमित्तक सहजन्याछायाम, नाशिक ० २१० ० ४२१६ उमेरस्यस्थ - वो भवति । चव्विवर उद्विजते प्रा० । उव्विह-उधिह- पुं० द्वादशानामाजीविकोपासकानां तृतीये, 9 पति ४० ७ ० १४० उत्पतति च । किमपरं मणसा वि उव्विदचा इति का०१७म० । उब्विहमाण - उद्विजत् त्रि० उद्विजइति न० १ ० १ ४० । बिदिय उम्मेदयेत्यर्थे, भ० १३ श० ७०। बब्बीडद-उ० पूढे ८१ १२० इति पूदशब्दे त त्वं या । उव्वीढं उब्वूढं । उत्प्रेरिते प्रा० । लम्बी लय-अपनी क ० अ तिवारान गोपायन्तमुप रिति विगतन • करोतीति प्रपत्रीका | पंचा० १५ विव० । स्था० । लज्जयाऽतिचारान् गोपायन्तं षित्रय सम्यगालोचनाकार विरोचना प्रतीके न०२०७० अयं ह्यालोचकस्यात्यन्तमुपकारको भवतीति घ०२ अधि० । अभिहितं च "वषहारं ववहरं श्रागममाई उ सुण पंचविदा आज भोस स्था० वा० । क्षेमाण- प्रवीत् ०ि वाध्यात, “पंथकोदिय बीसेमाणे २ विहिंसेमाणे २ विहर” वि० १ ० १ ० पा० उष्ण- उम्मम्ननिमग्नत्वमगमगे, सपारासातासातपरितापने, "सातस्स असातस्स य, परितावणमयं नियुयं करेति" सातमुन्मम्नत्यमिय प्रातपरितापमं निमग्नत्वमिवेति । प्रश्न० ३ द्वा० । १०८।१।१२० इति कृत इत्वानावे रूपम् । उत्प्रेरिते, प्रा० । बेग उद्वेगम्शां देवानामुयः । - Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब्वेग तिर्हि गणेहिं देवे उच्बेगमागच्छेज्जा संजहा अहो णं एमाओ वाओ दिव्या देवी दिव्याश्रो देवदिम्बा देवा जावा पचाओ बकाओं अभिगाओ वियन्वं विस्स ? अहो मायोष पिकं ते भयसिकं तप्पटमवार आहारो प्रायव्य नविस्म २ अहो णं मए कलमावाला सुए उन्dयणित्ताए भीमाए गन्भवसहीए बसिय भविस्स ॥ ३ ॥ मए ( ११४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । ( उब्वेगंति) उद्वेगं शोकं मयेतच्यवनीयं भविष्यतीत्यकं तथा मातुरोज पितुः शुकं तथाविधं किमपि विनामामतिथि तयोरोजोमयं द्वयं भयं तच तत् संस संष्यात परस्परमे की जूतमित्यर्थः यष्टिं वा eaणो य आहारस्तस्य गर्भवास कालस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्यां प्रथमसमय इत्यर्थः । स आहर्त योऽयथार्थी प्रविष्यतीति द्वितीय तथा व्यसमूहः हः स एव जम्वालः कर्दमो यस्यां सा तथा तस्यामत पत्राशुचिकायामुद्वेजनीयायामुद्वेगकारिण्यां भीमायाम्नयानि कायां गर्भ एव वसतिस्तस्यां वस्तव्यमिति तृतीयम् । स्था० ३ वा०३ उ० । निषॆदे, अनु० । इष्टषियोगादिजन्ये चित्तव्याकुलत्वे, न० ३ ० ६ उ० | जीवा । चित्तदोषे, तत्र द्वेषाडुद्वेगो यथा । स्थितस्यैव स उद्वेगो योगद्वेषाचतः किया । राजविष्टिसमाजन्म - वाधिते योगिनां कुले ॥ १४ ॥ (स्थितस्यैवेति ) स्थितस्यैवाप्रवृत्तस्य स श्रम उद्वेग उच्यते सतस्तस्यामादजनिताद्योगद्वेषात्क्रिया परवशादिनिमित्ता प्र वृत्तिः राजषिष्टिसमा नृपनियुक्तानुष्ठानतुल्या योगिनां श्रीमत भावानां कुले जन्म पाते प्रतियति योगक्रियाया योगिकुलजन्मबाधकत्वनियमाव द्वा० १० ३० सहुकम् । उगे विद्वेषा द्विष्टिस करणमस्य पापेन । योगिकुल जन्मवाधक - मलमेतत्तद्विदामिष्टम् || 'इत्यादि चिसो विद्वेषाद्योगविषयवस राजविधिकल्यं करणमस्य योगस्य पापन हेतु धिं करणं योगिनां कुत्रे जन्म तस्य बाधकमनेन योगिजन्माप जन्मान्तरे न लभ्यत इति कृत्वा योगिकुल जन्मवाधकमलमत्ययमेतद्विदामिष्टं योगविदाममित पो०२४०चितायाम, विरहजन्ये मे नये व तो बेगो यस्मात् । निश्चले, स्तिमिते, शीघ्रगामिनि च वाच० ! उच्चढ- उद्वेष्ट- घा० वा० प्रा० एक सेट् पृथक्करणे, वोदः ४ । २१ । उदः परस्य वेटेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति इति लत्वाभावे रूपम उब्वेल उबेद उद्वेष्टते । प्रा० । “उब्वेढेज वा गिध्वेज या उप्पो का प्राचा०२ ० उद्देष्टन १० उपाधने उप ये च । पृथक्करणे, उन्मुक्तबन्धने, त्रि० वाचः । आचा० २ श्रु० । बेपारा उद्देजनक उद्वेजनकः । जयानके, उद्वेगकारिणि, " उब्वेयणायं जाईमरणं नरपसु भणाओ य" भ्रातु उद्वेगदेत्यारिका प्राण । बन्धे, प्रश्न० १ द्वा० । godaलिस- उद्वेजनीय - त्रि० उद- विज् श्रनीयर-कर्त्तरि । चंद्र - उसन गकारिणि, "सुईए उयणित्ताए नीमाए गन्भवसी घ विपन्यं प्रविस्सहरु ३० उपेक्ष-उद्वेष्ट पा० प्रा० द०४/२२ परस्य वेटेरन्त्यस्य वा छः उब्वेल्ल उच्वेदश उद्देष्टते । प्रा० । उचिउद्वेष्टित उत्सारि "उस तो साहाहिं " वृ० ३३० ॥ उप-उद्वेग उद् इति अन्त्यस्य वा वः । चित्तव्याकुलत्वं प्रा० । उसकण-वष्वष्करण-नज्वालने, “णपणं जलणं जाणं उसकणंति एगठा " नि० चू० १ उ० । “जलमाणिप्रयाणं करणा भाति" नि० चू० १ उ० ॥ उसड्ड - उत्सृत- त्रि० उच्च, “उसड्डा उसड़ खुट्टगा " राय० । उसम्म - उषण- न० उप-क्युन मरिचे, पिप्पलीमूत्रे च शुठ्यां श्री उशब् देशी यथा " उसण सायं यणं वेयंति " कर्म ॥ प्रायः इत्यर्थे । जं० २ ० । प्रवाहेणेत्यर्थे, त० 1 उसल दोम - उषणदोष-पुं० उपणेन बाहुल्येन अनुपरतत्वेन दोषो । ऽनृतादानसंरकृणानामन्यतमः । रुद्रध्यानस्य लक्षणभेदे, औ० । उसन (ह) ॠ (तृ) पज-पुं० ऋपनशन्दस्य द्विधा व्या क्या सामान्यतो विशेषतश्च । तत्र सामान्यतो यथा ऋपति मच्छति परमपदमिति ऋषभः। त्वदौ ८ १ । ३१ । इत्युत् उसो वृपन इत्यपि । वर्षति सिञ्चति देशनाजलेन दुःखाग्निना दग्धं जगदिति अस्थात्वर्थः । ऋषभे वा वा छ । १ । ३३ । इति वृपने ऋतो वेन सह उद् वा भवति । उसो वसो प्रा० । धर्म० । वृषेण धर्मेण भातीति वृषनः अं० २ वक्ऋ० । नृपभ उने एप आगमिको धातुः समग्रसंयमनारोद्वहनाद् वृपनः आ० म० ६ि०। वृषभ उपहने उच्छूढं तेन भगवता जगत्संसारः समग्रं तेन ऋषभ शर्त सर्व एव जगवन्तो जगदुहन्ति “अतुलं नाणदंसणचरितं वा एवं सामं " एषा सामान्यत ऋषजशब्दस्य व्युत्पत्तिः । श्राच० २ म० । एवञ्च सर्वेऽप्यर्हन्त ऋषभा पनवेन मनुस्वप्नेषु प्रथमं वृषभदर्शनेन च ऋषभो वृषनो वेति जं०२वक० । करू उस भइन उसनं सुमितेण नसनजिणो जेण जगवतो दो मजा उप्पराचा या जेणे व मरुदेवीए भगवतीए चोदसएदं महासुमियां पदउसो मदिहां ते उस उस चि नाम कर्म से सतित्ययराणं मायरो पढमं गयं पाति ततो बस । अरगमनिका त्वेवं यतो जगवत ऊच्चावृषभवदूईमुखं ब मेमदेवी भगवती स्वप्ने प्रथमं भगवान पनि मि प्रब० ७६६० । अनुः । (१) (२) (३) (४) (५) (६) स्वामिनः पूर्ववरिष । स्वामिनी रागधः । नामिनी जन्मम। स्वामिनी नाम | पनस्वामिनो वृद्धिः । स्वामिनो जातिस्मरणम् । Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ (७) (a) (६) (१०) स्वामिनो विवाह स्वामिनो उपस्थानि पनस्वामिनो नीतिव्यवस्था । स्वामिनो राज्याभिषेकः । स्वामिनो राज्यसंग्रहः । (१२) (१२) ऋपस्वामिनो लोकस्थितिनिबन्धनं शिल्पादि शिक्षणं च । (१३) ॠषभस्वामिनो वासः । (१४) स्वामिपुत्रराज्यानिकः । (२५) (२३) (१७) ॠवनस्वामिनो निक्का कालमानम् । (१६) (२०) (१८) ऋग्भस्वामिनः श्रेयांसेत जाटककथनम् । स्वामिनः श्रामायानन्तरं प्रवर्तनप्रकारः । स्वामिनः श्रमयावस्थावर्णनम् । (२१)मिनः सत्यस्यनन्तरं धर्मकथनम् । (२२) ऋषनस्वामिनो वन्दनार्थ मरुदेव्या सह भरतगमनम् प्ररतदिग्विजयइत्र | (२३) प्रकार करदेव वासुदेवाय भ प्रश्नक स्वामिनो दी कल्याणकम् । स्वामिनी (२४) स्वामिन (१५) (२६) ( ११४२) अभिधानराजेन्द्रः । । स्वामिनः। स्वामिनः केषामोस्यस्यनन्तरं प्रन्यानां किया कालेन सिद्धिमनं प्रवृत्त कियन्तं काळं यावदनुवृत्तम्। (१७) ॠषनस्वामिनो जन्मकल्याणकादिन कत्राणि । (२) स्वामि शरीरसंपत्-शरीरप्रमाणं कीमारे राज् गृहित्वे व यावान् का स्तम्मानं त्र । (२१) भस्वामिनो निर्वाणगमनं देवकृत्यवर्णनं च । (३२) चितानन्तरं शक्रयवर्णनम् । (३१) वाणामपरा चितिका भरतकारिता । (२) श्रमपरि तत्र प्रथमतः पूर्वभाववरिषमाह । नाभीणियम मरदेवी उचरा असादा प राया वरनाहो, विमाणसन्द सिहाओ ।। ए६ ॥ धनमिहुसुस्म हम्बल-तियंगयवयर अंधमिहुणे भ मोहम्म बेज, की सज्यसने ॥ ७ ॥ धणत्याहघोसण- जइगमणं क्रम वेवासठाणं च । बहु वासे, चिंताघयदामासि तया ।। ५० ।। उत्तरकुरुसो हम्मे महा विदेहे महावलो राया । ईसा लग्नियंगी, महाविदेहे वयरजंघो ॥ ६७ ॥ ऊचरकुरुसोहम्मे विदेह गियरस तत्थ ओो । रायसूत्र सिडिमचा - सत्यासुया वयस्सा से || १०० ॥ अथवा प्रतिपादितः कुलकरवंश इदानीं प्राक् सूचितेयाकुवनः प्रतिपाद्यते । स च ऋवनाथप्रभव इत्यतस्तद्वक्तव्यताऽनिधियाऽऽह । नाजीगाहा । ९६ । गमनिका श्यम् । नियुक्तिगाथा प्रतिपादिका अस्यां च प्रतिपदं पदार कार्यः । स चेत्थं नाभिरिति नाजिर्नाम कुलकरो बभूव । विनीता मीति तस्य विमती प्रायः अवस्थानमासीत्। मस्यति तस्य जाय राजा च प्राग्नये वैरनानः सन् प्रवज्यां गृहीत्वा तीर्थकर नामगोत्रं कर्म बन्ध्या मृत्या सर्वार्थसिकिमवाप्य ततस्त उसभ या मरुदेव्यास्तस्यां विनीतभूमौ सर्वार्थसिद्ध्यादिमानादवतीर्य ऋषभनाथः संजातः तस्योत्तराषाढन कत्रमासीदिति गाथार्थः । ६ ॥ इदानीं यः प्राग्भवे वैरनाजो यथा च तेन सम्यक्त्वम वा यामतो वा जवानवाप्तसम्यक्त्वः संसारं पर्यटितः यथा च तेन तीर्थकर नामगोत्रं कर्म बदमित्यमर्थमनिधिसुराद चणगाडा |9|| उत्तरगाहा। ए| उत्तरकुरुगाहा ॥ १०० ॥ अन्या अप्युकसम्बन्धा एक अष्टव्या तावत् यावत 'पढमेण परमेण गाढा' किन्तु यथाक्रमसम्मोहनिमित्तमुपन्यासं करिष्यामः प्रथमगाथागमनिका धमः सार्थवाहो घोषणं योगिनी वर्षास्थानं च बहवो झीने वर्षे चिन्ता तानमा द्वतीय गाथा गमनिका । उत्तरकुरी सीधमें महाविदेहे मरायो राजा ईशाने ललिया महादेव गाथा सोपयोगा व तृतीयगायागमनिका उत्तरकुरी सीधम्मँ महाधिदेहे चिकित्सकस्य तत्र सुतः राजसुतश्रेष्ठद्यमात्यसार्थवाहसुता वयस्याः ( से ) तस्य । आसां भावार्थः कथानका दवसेयः प्रतिपदं चानुरूपभिपाध्याहारः कार्यः इति यथा घनो मासार्थवाह आसीत् स हि देशान्तरङ्गन्तुमना घोषणां कारितयानित्यादि कथानकम् आय० १ ५० ॥ पोऽस्ति जम्बूदीपोऽत्र, सदा यः परिरभ्यते । अम्भोधिना वियामि ॥१॥ विदेहे पश्चिमासंस्थे कि तिमण्डलम एमनम् ॥ कितितितिं नाम नगरं सुप्रतिष्ठित ॥ २ ॥ प्रियंकरकरस्थ, राजा राजेय ति शुचिः कुबलयोलासी, प्रसन्नचन्द्रनामकः ॥ ३. आसी धनः सार्थवादः पितृगृढं श्रियः । स पटित्रिशती संख्य-क्रयाणकमहाकरः ॥ ४ ॥. क्रयाणकानि. संगृहा, वाणिज्यार्थे कृतोद्यमः सोsपरेद्युर्गन्तुकामो, वसन्तपुरपत्तनम् ॥ ५ ॥ सर्वलोकोपकाराय साधा। माघोषयत्पुरे कृत्स्ने, मेनपूर्वकम् ॥ ६॥ यो मया समस्ये क्रयाणान्यक्रयाणस्था ऽवाहनानां च वाहनम् ॥ ७ ॥ सहायमसहायस्या-शम्यलानां च शम्बलम् । दस्युभ्यः श्वापदादिज्य-स्त्रास्येऽहं पथि बन्धुवत् ॥ ८ ॥ अपानस्तया यी पापमेषजेः । विसूरयति यो येन, सर्वे यच्छामि तस्य तत् ॥ ६ ॥ तत् श्रुत्वा वणिजोनेके, संवहन्ति स्म सत्वरम् । पदः ॥ १० ॥ प्रस्थानं मुथ, सार्थक विनिर्ममे प्राविमङ्गनसंसूत्रि-विहिताने कमङ्गलः ॥ ११ ॥ अत्रान्तरे धर्मघोषाऽऽचार्यः सूर्य इवापरः । पादैः पविश्य भूमिं दीयमानस्तपस्विषा ॥ १२ ॥ तमागच्छन्तमालोक्य, सहस्त्रानन्दकारकम् । सार्थवाहो नमस्कृत्य, प्रस्फुटत्कटको द्विधा ॥ १३ ॥ उपवेश्यासने प्री-गुरोर्गमनकारणम वसन्तपुरमेयाम त्वया सहेतिभ्यः ॥ १४॥ सार्थमा मुदानिति समादिशत् । सम्पाद्यमन्नपानाच मेषान्निःशेषमन्वहम् ॥ १५ ॥ मायार्या अपि तस्थारूपन शुकिमाहारगोचराम तदा व कोऽपि पक्का स्थायं तस्योपनीतवान् ॥ १६ ॥ Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४३) उसभ अन्निधानराजन्यः। उसभ सार्थवाहोऽवदत्पूज्या, विधायानुग्रहम्परम् । वन्दित्वा तान् गुरुन् भक्त्या, विधत्ते स्म स्वगर्हणाम । स्त्यानीतूतसुधाभानि, गृहीतामाण्यमूनि मे ॥ १७ ॥ पूज्याः सह मया नीताः, कृता साराऽपि म कचित् ॥ ४२ ॥ मार्यपैतानि कल्पन्ते, नाशस्रोपहतानि नः तदहं निष्फलो जके, ऽवकेशिरिव पादपः ।। धनोऽवादीद् व्रतं पूज्या-यौष्माकमतिपुष्करम् ॥ १७ ॥ कमन्वं मेऽपराधं तत, यूयं सर्वसहा यतः॥४३॥ कस्यमादि वः सर्वे, पूज्याः सम्पादयिष्यते । ऊचे गुरुस्ते साहय्यात, केमेण धयमागताः। प्रातः प्रयाणम्नायोत-स्तदागत्यात्र तिष्ठत ॥१६॥ दत्तं त्वयैव नः सर्व-मधृति भज!मा कृथाः॥४॥ चक्रे प्रयाणं सार्थेशो, गुरवोऽपि सहाचबन् । सोऽवदचन्दनं धृष्ठ-मपि समन्धबन्धुरम् । सजातेषु प्रयाणेषु, ततः कतिपयेष्वपि ॥ २० ॥ प्रगुरुर्दह्यमनोऽपि, सदोझिरति सौरभम् ॥४५॥ उज्जजम्ने तदा प्रीष्मः, कालः कलितयोवनः । पुनरूचे ध्रुवं पूज्या, अमृतेनैव निर्मिताः । स्वकीयेनोमणा ज्वाला-जिबामप्यवहेलयन् ॥११॥ अमन्तोर्या समन्तोर्वा, यूयं समदृशस्ततः ॥४६॥ नृपस्येव निदाघस्य, महायोध श्वार्यमा । न्यमन्त्रयदथो पूज्यान, साधून प्रेषयताधुना। करेः शररिवाशेषान्, जनानाहन्त्यरीनिव ॥ २२ ॥ यच्छामि प्रासुकाहार-माधारं देहवेश्मनः ॥४७॥ तदा तापादिवाणांगु-स्तृणातिशयविह्वलः । ययौ स्वावासमित्युक्त्वा, पश्चात्यैषि मुनिद्वयम् । पिवन करसहस्रेण, जलस्थानान्यशोषयत् ॥१३॥ तदहमन्यदनाद्य-मपश्यन् किञ्चनापि सः॥४८॥ प्रस्वेदप्लुतसर्वाङ्ग-स्तदा धातुमयो जनः । स्त्यानीभूतं घृतं दृष्ट्वा, स्माहेदं गृह्यतां प्रभो!। प्रीमनामिन्धमध्यानादू, ज्वरूप श्वानवत् ॥२४॥ साधुः शुद्धमिति शात्वा, पतहमधारयत् ।।४।। निदाघदहनोत्तप्त-वासुका वसुमत्यपि । हिमस्त्यानं प्राज्यमाज्यं. निर्मलं निर्मलात्मकः । वाट्रीभृताभ्यगान जन्तून, पचते चणकानिव ॥२५॥ स्वयं यथेष्टं दत्ते स्मा-नन्यसामान्यभाषतः ॥५०॥ सत्यप्यविधे काले, यान्तःकान्तारमापतन् । स्वयं ददत्तदा दानं, वीजं मोक्षमहातरोः । प्रावृदकासकमापास-स्तत्राध्वनि रुरोध तान् ॥१६॥ तीर्थकृत्कर्माचलनं, सम्यग्दर्शनमासदत् ॥५१॥ संग्रहमाह सेनान्यस्तस्य गजन्तः, पर्जन्याः श्याममूर्तयः । "धणसत्थवाहघोसण, जइगमणं अडवि वासु ठाणं च । पुरस्कृतेन्जधन्वान-स्तमिदएमासिधेनवः ॥२७॥ बहुवोलीणे वासे, चिंताघयदाणमासि तया" ॥५२॥ वारिधाराशरासार-रुपर्युपरिपातिनिः । धन्यंमन्यो धनोऽनंसीद्, बनान्ते तन्मुनिद्वयम् । नश्यतोऽपि जनान् प्रन्ति, कत्रधर्मानभिवत् ॥२८॥ (युग्मम) तदप्यात्माशिषं दत्वा, धनायागानिजाश्रयम् ॥ ५३ ।। कोऽपि श्रेयांप्ति यासांसि, पर्यधत्त न तद्भयात् । रजन्यामथ सार्थेशो, गुरुन्नन्तुमुपागमत् । श्रीमन्तोऽपि जरद्वस्त्रा, संचरन्ति पुरेऽपि हि ॥२०॥ गुरवो धर्ममादिकन्, मोकसोपानपद्धतिम् ॥ ५४॥ मार्गास्तदा जमर्लन्धा-प्रसरैरवहाः कृताः। गुरूपदेशपीयुष-प्रवाहेण प्रसर्पता । गन्तुं कोऽपि न शक्नोति, पदात् पदमपि क्वचित् ॥ ३०॥ पूरितं सार्थपस्याभू-मानसं मानसोपमम् ।।५५ ।। प्राज्यस्वर्णधियो मत्ता-स्तदानीनिम्नगा अपि । गुरुन्नत्वा महासत्वान् , भावनां भावयन्नथ। लोकात्सर्वस्वमादाय, हदेषु प्रतिपन्यथा ॥ ३१ ॥ कृतार्थ मन्यमानः स्वं, सौवं धाम जगाम सः ॥ ६ ॥ स्थाने स्थाने ग्राहयन्ति, लोकेन्यो बहका अपि । लब्धाधिकारप्राप्तोऽथ, शरत्कालो महीतले । वमरका धनमिव, तारकैरातमच्चलात् ॥ ३२॥ यदच्युताः पलायन्त, वारिदासपरिच्छदाः ॥५७ ॥ पादमाकृन्य पङ्कस्तु, तश्च श्व धुईमः। सरितः पदेषु लग्ना, वहन्ति निरहंकृताः। वियं पातयते नृमौ, प्रधानमपि मानुषम् ॥ ३३ ॥ जीवनाशं प्रणेशुश्च, मार्गरोधकृतो वहाः॥२८॥ रिश्यचागमे याते, प्रारम्भेऽप्यतिभैरवे । वक्षः पुस्फोट पङ्कस्य, स्वामिनो विरहे सति । पुन्मार्गान् धनो ज्ञात्वा, तत्रैवावासमाददे ॥ ३४ ॥ कमलान्युल्लसन्ति स्म, गते बैरिणि पारिदे ॥ ५५ ॥ कृत्वोटजान जनोऽप्यस्था-वेश्मनीय निजे सुखम् । मेघागमे निलीयास्था-दधुनार्कः प्रकट्यभूत् । शुकोटजेऽस्थुराचार्या, माणिभोपदर्शिते ॥ ३५॥ नाप्रस्ताव स्फुरत्यत्र, तेजस्तेजस्विनामपि ॥ ६॥ प्राप्तोत्कर्षासु वर्षासु, निष्ठिते भोजने नृणाम् । सार्थवाहश्वचालाथ, गुरवोऽपि सहाचलन् । कन्दमूलफत्राशित्वं, तापसानामिवाभवत् ॥ ३६ ॥ महापटीं समुत्तीर्ण, दुष्करं किं महीयसाम् ॥११॥ पु:खिताः साधवस्तत्र, कथञ्चित्कस्यचिद् गृहे । अनुशाग्याथ सार्थेशं, गुरवो ययुरन्यतः। चेलभन्तेऽनवद्यानि, फलान्याददते तदा ॥ ३७॥ सार्थवाहः पुनर्गच्छन् , वसन्तपुरमासदत् ॥६२॥ एवं व्रजति काले च, स्तोकशेषे तपात्यये । क्रयविक्रयमाधाय, दिनैः कतिपयैर्धनः । निशायाः पश्चिमे यामे, चिन्ता सार्थपतेरनृत॥ ३८॥ प्रत्यावृत्त्यागमभूरि-लाभः खं नगरं पुनः ॥ ६३ ॥ दुःस्त्रितः कोऽस्ति मे साधे, स्मृतं सन्ति मुनीश्वराः । चिरं प्रपाल्य सम्यक्त्वं, पूर्णायुः शुद्धभावनः । ते हि कन्दादि नामम्ति, निरवद्यान्नभोजिनः ॥ ३९ ॥ इहोत्तरकुरुक्षेत्रे, सविपद्योदपद्यत ॥ ६४ ॥ तस्य तश्चिन्तयैकोऽपि, यामोऽगात् शतयामताम् । धनजीयो युग्मधा , तत्र वैषयिकं सुखम् । सार्थपः प्रातरायासीन्-मुनीनामाश्रये धनः ॥ ४०॥ प्रास्वाद्य पुण्यशेषण, सौधर्मे त्रिदशोऽभवत् ॥६५॥ पदर्श विस्मितः साधून, विविधासनसंस्थितान् । सतश्युतो धनजीवो, विदेहाः सपश्चिमे । अध्यायाध्यापनपरान्, सुहितान् जिमितामिव ॥४१॥ विजये गन्धिमावस्यां, बैताब्यगिरिमूर्कमि ॥६६॥ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम अनिधानराजन्तः। उसम गन्धाराख्ये जनपदे, पुरे गन्धसमृरुके। तत्प्रियाऽऽसीत्पुनर्गु/, नागिनोऽथ व्यचिन्तयत् । राझा शतबलस्यानू-शकान्ता तनूद्भधः ॥ ६७॥ स्याद्यद्यस्याः सुतैवातो, यास्याम्यूर्ध्वमुखः क्वचित् ॥ ६॥ महायलो धनस्यात्मा, महापस श्वापरः । जाता सुताऽथ तान्यः स, राकसीच्य श्वानशत् । वर्धमानः क्रमाप्राप, यौवनं केमिनाजनम् । ६० ॥ नागश्रीदुःखिता दुःस्था, तस्या नामापि न व्यधात् ॥ १३॥ कभ्यां विनयवत्याख्यां, भूतुजा पर्यणाय्यत । लोकैर्निर्नामिकेत्युक्ता, पु गा दुःखसेवधिः । राज्ये तमथ संस्थाप्य, स्वयं राजाऽग्रहीइतम ॥६६॥ परगेहेषु पुष्कर्म-करणाजीवति स्म सा ॥ १४ ॥ सद्यः सोऽथ महाराजो, दुरमात्यप्रतारितः । अथान्यदाऽद्यझिम्नानां इस्तेष्वालोक्य मोदकान् । यथेष्टं चेष्टते धर्म-विमुखो विषयोन्मुखः ॥ ७० ॥ ययाचे मातरं साऽपि, मातोचे पुत्रि! मोदकान् ॥ ५ ॥ प्रमादमदिरामत्तो, निरर्गशिरोमणिः । गतोऽस्त्यानेतुं त्वकेतो-स्त्वजन्मन्येव ते पिता। कृत्याकृत्यमजानानः, शिक्काहीनो बनेऽभवत् ॥ ७१ ॥ शैखादम्बरतिलका-तावद्दारूण्युपानय ॥ १६ ॥ सङ्गीतकेऽन्यदा जाय-माने मन्त्रिमतद्धिका । दह्यमानतया मातुः, कालकूटकिरा गिरा। स्वयं बुधः प्रबोधाय, तुजःप्रोचिवानिति ॥ ७ ॥ रज्जुमादाय याति स्म, मुश्चन्त्यभूणि तं गिरिम् ।। १७ ॥ सर्व गीतं विवपितं, सर्व नाट्यं विमम्बना । युगन्धरमुनिस्तत्र, तदा केवलमासदत् । सर्वेऽप्याजरणा नारा, कामाः सर्वेऽपि दुःखदाः ॥ ७३ ॥ व्यन्तरैमहिमा चक्रे, लोकास्तं नन्तुमाययुः ॥ १७ ॥ सम्भिन्नमतिरुचे तं, किमप्रस्तावमुच्यते। निर्नामिकाऽपि तत्रागा--त्केवली धर्ममादिशत् । वीणायां वाद्यमानायां, वेदोदारो न रोचत ॥ ७ ॥ निर्नामिका गुरुनूचे, प्रनोऽहं कथमीट्टशी ॥ ६॥ स्वयम्वुरूस्तमाह म, नाऽहितोऽस्मि प्रलु प्रति । गुरुः स्माइ पुरा धर्म--स्वया नाकरि तत्फलम् । ऐहिकस्यैव वक्ताऽसि, नामुष्मिकविधी पुनः ॥ ७ ॥ ततोऽधुनापि तम्भ ! कुरु स्या येन सौख्यभाक॥१०॥ देव! कारणमत्रास्ति, यत्त्वामभिदधेऽधुना । सम्यक्त्वं गृहिधर्म च, साऽय गुर्वन्तिकेऽग्रहीत् । अद्योद्याने मयाऽदर्शि, चारणश्रमणध्यम् ॥ ७६ ॥ सार्मिकीनि लोकेना-नुगृहीता सुखं स्थिता ॥ १०१ ॥ तत्समीपे मयाऽप्रच्छि, कियदायुमंदीशितुः । तेपे तपांसि भूयांसि, स्यात्कर्मप्रलयो यतः । तेनाख्यायि मासमेक, ततो भीतोऽभ्यधामिदम् ॥७७॥ युगन्धरगुरोः पार्श्व, साऽस्त्यात्तानशनाऽधुना ॥ १०२ ॥ राजोचेऽमात्य ! सुप्तोऽहं, साधु जागरितस्त्वया । ततो मन्त्रिगिरा तस्याः, स सुरः स्वमदर्शयत् । तदानीमेव सङ्गीतं, विससर्ज भयदुतः ॥ ७८ ॥ निदानं सा व्यधास्तश्च, दृष्ट्वा स्यामस्य पन्यहम् ॥ ३॥ कथयामात्य! को धर्मः, कर्तव्योऽल्पीयसाऽऽयुषा । मृत्वा सा तस्य भार्याऽभू-द्देवी स्वयं प्रभानिधा। लग्ने प्रदीपने विष्वक, कः कृपखननोद्यमः ॥७६ ॥ नवीनूतामिवायाता, तां रेमेऽथ स पूर्ववत् ॥ ४ ॥ मन्यूचे देव! मा भैषी-दिनमेकमपि व्रतम् । कियत्यपि गते कात्रे, अनिताङ्गस्ततच्युतः। न स्याद्यद्यपवर्गाय, स्वर्गाय स्यान्न संशयः॥५०॥ जम्बूद्वीपे प्राग्विदेहा-ज्यन्ते सीतोत्तरे तटे ॥५॥ ततो राज्ये निजं पुत्र-मभिषिच्यानुशिष्य च । विजये पुष्कमावत्यां, लोहार्गमहापुरे । सप्तक्षेच्यां धनं प्राज्य-मुप्त्वा मुक्त्वा परिग्रहम् ॥१॥ सुवर्णजयप्रदमीनू-वज्रजङ्घः सुतोऽभवत् ॥ ६॥ ततः प्रवज्य राजर्षि-द्वाविंशतिदिनानि सः। स्वयंप्रभाथ व्युत्वा, विजयेऽत्रैव सा भवत् । कृत्वाऽनशनमीशाने, विमाने श्रीप्रभाभिधे ॥२॥ चक्रिणः पुण्डरी किएयां, वज्रसेनस्य पुत्रिका ॥ ७॥ ललिताङ्गाभिधो जशे, शकसामानिकः सुरः । यौवने चन्नशालास्था, श्रीमती सुस्थितस्य सा । देवी स्वयंप्रभा तस्य, तत्र दिव्यप्रभा प्रिया ।.८३ ॥ उद्याने केवलोत्पत्ती, विलोक्यागच्छतः सुरान् ।। ॥ कोडतोरपृथक्त्वेन, मनसोरिव देहयो। जातजातिस्मृतिर्दध्यौ, ललिताङ्गः क्व मे पतिः । तयोः कालो ययौ भूयां-अच्युताऽन्येाः स्वयंप्रभा ॥८॥ सदज्ञानात्तदप्राप्ता, मौनमेवास्तु मेऽधुना ॥॥ मुमूर्छ ललिताङ्गोऽपि, वजेणेवाभिताडितः । कृतैरप्युपचारौघैः, सा मुमोच न भूकताम् । मनोभिरामरामाया, विगमे कस्य नासुखम् ।।५।। धाच्या पृष्टा रहः प्राह, पटमात्रिख्य चार्पयत् ॥१०॥ मूर्ध्वान्ते विललापोञ्च-मुक्तकण्ठं रुरोद च । चक्रिणो बज्रसेनस्य, वर्षग्रन्थौ नृपागमे । अशानखीव शोकातः, शोकमाविश्वकार सः ॥८६॥ तं पटं पएिमता धात्री, धृत्वा राजपथे स्थिता ॥ ११ ॥ स्वयंबुद्धोऽपि तन्मन्त्री, पश्चाबादाय संयमम् । तत्रागाद्वज्रजसोऽपि, तं दृष्ट्वा जातिमस्मरत् । ईशानेऽजनि पूर्णायुः, सोऽपि शक्रसमः सुरः ॥ ८७ ।। उघाचेदं चरित्रं मेऽ-लिखन्नूनं स्वयंप्रना ॥ १२॥ सोऽवधेः स्वामिनं मत्वा, ललिताङ्गमुपागमत् । अनिशानानि सर्वाणि, पएिमताया अपूरयत् । प्राग्वत्प्राबोधया -ख्यानः शोकापनोदवित् ।।८।। श्रीमत्यै साऽथ गत्वाऽख्य-त्तदैव मुमुदे च सा ॥ १३ ॥ उपयुज्यावधि ज्ञात्वा, पुनस्तं स्माह मा मुह । पितुर्व्यरुपयत्तञ्च, श्रीमती पएिमतामुखात् । भाविनी भवतो जार्या, मया झाताऽस्ति तत शृष्ण ॥ EVI पिताऽपि तत्कणाज-जसमाजूहवसतः ॥ १४ ॥ द्वीपेऽत्र धातकीखएके, प्रग्विदेहावनायभूत् । कचे राजा वज्रजल! तव प्राग्भवपत्न्यसी । मन्दिग्रामे गृहपति-नागिलोऽतीव दुग्र्गतः ॥ १० ॥ अस्मिन्नपि भवे ते स्या-दिति तां पर्यणाययत् ।। १५ ।। मागश्रीस्तस्य भार्यातू-त्कन्याः षम् जनितास्तया । सह धियैव श्रीमत्या, वजज्रङ्को मुकुन्दवत् । प्रायेण हि दरिद्राः स्यु-र्थहुकन्या बहुकुधः ।। १ ॥ अगाम राहाऽनुज्ञातो, लोहार्गलपुरं निजम् ॥ १६ ॥ Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११४५) उसम मभिधानराजन्नः । उसन स्वर्णजास्ततो राज्ये, बाजर्षम्यवेशयत् । गमनिका । वैद्यसुतस्य च गेहे कृमि कुष्टोपहतं यात राषदस्वयं संयमसाम्राज्य-प्रपेदे निर्वृतिस्पृहः ॥ १७ ॥ ति मते वैद्यसुतं कुरु प्रस्य चिकित्साहन चिकित्सकसुताकग्यपनजाबिर राज्यं, श्रीमत्या सह निर्ममे । स सन्दमं धणिग्दत्वा अनिमिष्काम्तस्तेमेष मम मन्ततः । पण्याषथ सुतं राज्ये, कृत्वा स्थः प्रवजिभ्यते ॥ १०॥ भावार्थः स्पष्ट पचकश्चित क्रियान्याहारः स्वयुखा कार्य इति राज्योत्सुकः सुतस्ताव-स्पितुापादनाकृतं । गाथाद्वयार्थः । श्राव. ० "उसमे परहा कोसलिष बोहम विषधूम म्यवादात्री, सुप्तयोस्तेन तौ मृतौ ॥ १९॥ पुल्या होत्था" उसभण परहा कोसखिए पुष्यभव चषको "उत्तरकुडसोहम्मे, महाधिदेडे महब्बलो राया। होत्था "स। ईसाणे मसिगो, महाविदेहे वरजंघे"॥१॥ (उतार्था) कथामकोषमुध्या । पाप्योषधसामग्री, स्वागु निसंनिधी । उत्पयोत्तरकुरुषु, तौ द्वौ युगलधर्मिणी। शुक्स्या भोगांस्ततो जातो. सौधमे सुहदी सुरी ॥२०॥ अनुज्ञाप्य मुमीकं तं, चिकित्सामाग्भन्त ते ॥ ३८॥ यजजस्य जीवोऽथ, शुक्रवा भोगांस्ततायुतः। मुनेः सर्याङ्गमन्या, तेन तैलेन त ध्यधुः। तीर्येण तदाकाम्तः, साधुर्मिश्चतमोऽमषम् ॥ ३॥ जम्यूजीपे विदेडेषु, पुरे वितिप्रतिष्ठिते ॥१॥ यस्य सुविधेः सूनु-जीवामम्दामियोऽनयत् । माकुमास्तेन तैम, स्मो मिययुबहिः। यहिने सोऽभवत्पुत्र-प्रत्यारस्ताहिनेपरे ॥ २५॥ जीवानन्दस्ततो रन-कम्पलेम तमावृणोत् ॥ ३०॥ सर्वेऽपि कमयो सन्नाः, शीतत्वाचनकम्बो । प्रसनवम्भूपाब-पुत्रो मात्रा महीधरः। सुबमिनामा तनयः, सुनासीरस्य मन्त्रिणः ॥२३॥ वैद्यस्ततोऽक्विपत्सर्वान, रुमीस्तान गोशयोपरि ॥४१॥ धनदत्तष्ठिस्नु-गुणाकर शत स्मृतः। साधुमाश्वाइब गोशीर्ष-बदमेनाथ सोऽनिपन । पूर्णकाभिषः सार्थ-पतिसागरनन्दनः॥१४॥ प्राद्याभ्यनेन कमय-स्वग्गता निर्गता मुनेः ॥४३॥ जायन्ते स्म सामान्य-प्रेष्ठिसार्थपनन्दना।1 द्वितीयेऽभ्यङ्गे मांसस्था-स्तृतीये चास्थिसंस्थिताः । कृमयो नियंयुः सवें, मन्त्राका श्वाऽडयः ।। ४३॥ समं ववृघिरे सर्वे, समश्च जगृहुः कनाः ॥२५॥ श्रीमत्या प्रपिजीवोऽथ, बनूपात्रय पनने। संरोहिण्योषधेः साधु, स्वर्णकान्तिमथाकरोत् । सनुरीश्वरदत्तस्य, भेष्ठिनः केशयानिधः ॥१६॥ विजहार ततः साधु-बीकतवपुः स तैः ॥४४॥ रत्नकम्प प्रगोशीर्ष-चन्दनस्य च विक्रयात् । सधुताः सहवासाचैः, मेहावट सुहदोऽभवन् । चायन्ते कारयामासु-मेगामिवोन्नतम ॥ ४५ ॥ वियेद वैद्यकजीवा-मन्दोऽपि स्वपितुर्मुखात् ॥२७॥ कृत्वा व्यस्तवन्तेऽथ, नाषस्तवचिकीर्षयः । सदैव रममाणास्ते, परस्पराषियोगिनः । कदायिकस्यबिटे, मोष्टया तिष्ठन्ति नित्यशः ॥ २० ॥ सुसाधुसन्निधौ दीवां, परप्यादाय धीधमाः ॥४६॥ अम्पदा वैद्यपुत्रस्य, जीवामन्दस्य घेश्मनि । चिरं चारित्रमाचर्य, निरतीचारमुन्दरम् । सर्वेषां तिष्ठतां तेषा, साधुर्भिकाकृतेऽज्यगात् ॥ २६ ॥ मृत्वा पापि ते ऽभूव-अच्युते त्रिदशोत्तमाः॥४॥ जगाद राजसूर्येचं, परिहासेन किशन । जम्बूद्वीपानिधे द्वीप, विदेहाः च पूर्वतः। मस्ति म्याध्यौपचकाम, केवलनास्ति ते कृपा ॥ ३०॥ विजये पुष्कमावत्या, नगरी.पुएरीकिर्णी । बेइयेव व्यरएिस्त्वं, यत्साधु म चिकित्ससि। वज़सेनो नृपस्तत्र, धारिणी सस्य घामना । जीवामन्दो पदन्मित्र! सामग्री मौषधस्य मे ॥ ३१॥ तेवच्युतच्युताः पञ्च. तत्पुत्राः क्रमशोऽजयन् ॥ ४२ ॥ भोषयेषु सकपाक, तैसमस्त्येकमेव मे। चतुर्दशमहास्वप्न--सूचितः प्रथमोऽङ्गजः। गोशीर्षचन्दनं रस-कम्बलं चेति यो वशे ॥ ३ ॥ वजनानास्यया स्यातो, वैद्यस्यात्मा विविक्तधीः ॥ ४. चान्दनं काम्बर मूल्यं, पञ्चाप्यादाय ते गृहात् । बाहुपसुतस्यात्मा, सुधाएमन्त्रिसन्ततः । प्रययुर्विपणियां , स्वस्थानं मुमिरप्यगात् ॥३३॥ मात्मापीगे महापीठः श्रेष्ठसार्थेशपुत्रयाः ॥ ५५ ॥ वणिज पुरूमेकं ते, स्माहुर्मप्यादिता मनु । केशवस्य च जीवोलू-स्वरशा राजपुत्रकः । गोशीर्षचन्दन रन-चन्दनं च प्रयष्टमः ॥ ३४॥ माधितो धजनालस्य, शैशवादपि सोऽभवत् ॥ ५२ ॥ सोऽकि कार्यमाभ्यां व-स्तेऽत्यधुः साधुवैद्यकम् । ते पर्छन्ते स्म पमपि, घरगुणा श्च देहिनः । दायी वृषो युवानोऽमी, धर्मकर्मषिधित्सवः ॥ ३ ॥ कलाचार्यात्कसाः सर्वे, स्पयवादिन् धिया ॥५३/ घका करोमि किमाह-मतस्तामाह स प्रधी। सोकान्तिकैरथेत्युक्ते, स्वामिस्तीर्थ प्रवर्तय । गोशीर्षकम्पती गृह-नवस्तु श्रेयोऽत्र मे फलम् ।। ३६ ॥ बजसेनस्ततो राज्ये, बजनाभं न्यवेशयत ॥५४॥ तौ समर्प्य स धर्मेण, धर्मात्मा भेष्टिपुङ्गवः । स्वयं साम्बत्सरं दान, दया संयममग्रहात । प्रतं संगृह्य कर्माणि, मिगृह्य व शियं ययौ। ३७॥ आका तुर्य ज्ञानं तदा नर्तुः, सातिकमिवामिसत् ५५ ममुमेधार्थमुपसंहरन् गाथाध्यमाह। राजा नासुंश्चतुरोपि, सोकपालानिवाकरोत् । विजसुअस्म य गेहे, किमिकुटोवहां जई दई । राजपुत्रं सुयशसं, सारथ्ये च न्यवेशयत् ॥५॥ वितिम्रते विजसु, करेहिए अस्म तेगिच्छं । वनसेनजिनस्याभू-रकेवलज्ञाममेकतः। अन्यतश्चक्रशालाया-मुत्पन्नं चक्रमायुधम् ॥५॥ तिवं तोगनिमुनो, कंबलगं चंदणं च वाणिप्रभो।। जगवन्तं ततोऽभ्यर्य, गळं बानुप्रपूज्य च। दानं.प्रनिनिक्खतो, सेणेव नदेखनमको ।। साधयामास सक यांच्या दशक मया ॥८॥ Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४६ ) उसन अभिधानराजेन्दः। उसन्न मच चक्रवर्तित्वा जिषेकोऽस्थाखिले पैः। पूर्वलकेषु चतुरा-शीती शेषेषु सस्विड । भपालयरिचरं राज्य-मेकत्रम्महीतले ॥ ५ ॥ स नवाशीतिपकेषू-त्तराषाढायुते विधौ ॥६॥ अन्धका समवासापों-धजसेनजिनेश्वरः । आषाढे मासि कृष्णेऽपि-चतुर्थेऽहि सुनिर्मले। भ्याल्यामधरितकाका, श्रुत्वा चक्रापादयोश्रुधन ॥ ६॥ जीवो युगादिदेवस्य, व्युत्वा सर्वार्थसिक्तिः ॥ ७॥ पुत्रं निवेश्य राज्ये स्वे, वजनानः ससारथिः। देव्याः श्रीमरुदेवायाः, सरोवर श्वोदरे । चतुनि तृभिः साई, प्रववाजान्तिके प्रभोः ॥ ११॥ ज्ञानत्रयपवित्रात्माऽवततार मरावत।। ८॥ प्राप्तकावं बसन-स्तीर्थन्निवृति यया । त्रैलोक्येऽपि तदेवासी-दङ्गिनां जवसङ्गिनाम् । बनानो द्वादशाङ्गी, परे चैकादशाङ्गिमः ॥ ६॥ उद्योतः कोऽप्यनिर्वाच्यः, सुखश्च वणमद्भुतम् ।।६।। बाहुः साधुपञ्चशत्या, भक्तपानान्यपूरयत् । स्वप्नेष्यत्युत्तमाः स्वप्ना, वर्णराशौ स्वरा श्व। सुबाहुः सर्वसाधूना-मनविश्रामणां न्यधात् ॥ ६३॥ निजाणया तदा देव्या, दृश्यन्ते स्म चतुर्दश ॥ १० ॥ साधू पोऊमहापीठो, रहः स्वाध्यायकारिणी । वृषभः १ कुञ्जरः २ सिंहः ३ पनवासाभिषेचनम् ।। बाहुँ सुबाहुमाचाया, लोकः सर्वश्व शंसति ॥ ६४॥ पुष्पदाल ५ शशी ६ सूर्यः ७पूर्णकुम्भः ८ सितध्वजः।।११। धन्यावेतौ महासत्वौ, वैयावृत्यं सुकरम । पनाकरः १०पयोराशि ११ विमानं कल्पवासिनाम । १२ कुरुतः कुरुते कोऽन्यः, कष्टमाजिकमीरशम् ॥ ५॥ रत्नोवयं १३ शिस्वी चेति १४ प्रविशन्तो मुखाम्बुजे । १२ । पतरौ कुरुतोऽग्रीति-मावां स्वाभ्यायिनावपि । तानाख्याति स्म सा नाने-निसादे प्रमोदनाक। न कोऽपि लावते यद्वा, पहनकर्म चर्म च ॥ ६६ ॥ अत्युत्तममुतातिं, तस्याः सोऽपि न्यवेदयत् ॥ १३ ।। राजर्षिर्वजनाभोऽथ, विंशत्या स्थानकैस्तदा । सदैव युगपत्सर्वेऽन्यागत्य चक्षितासनाः। तीर्थकरनामगोत्रं, कर्माबध्नान्महामनाः॥ ६७॥ प्रा० क०॥ स्वप्नपाठकवहेव्याः, शका. स्वप्नार्थमज्यधुः ।। १६॥ तीर्थकरत्वहेतुसंग्रहार्थ गाथाचतुष्टयमाह । देषि त्वदङ्गजस्यैते, महास्वप्नाश्चतुर्दश । साडं तिगि च्छऊएं. सामनं देवलोगर.मणं च । चतु: रमिते, बोके स्माहुरधीशताम् ॥ १५॥ पुमरिगिगिए न चुआ, तो सुश्रा वरसेणस्स । चतुर्दशानां पूर्वाणा-मयमेव जगत्प्रभुः। उपदेश्यति हेमात-र्मातृकां वीजसन्निभाम ॥१६॥ पहमित्य वरनाहो, बाहुमुबाढू अप ढमहपीढो । चतुर्दश पूर्वधराः, शिष्याश्चैतस्य भाधिनः । सेसि पिया तित्थयरो, निक्खंता ते वि तत्येव ।। तथा चतुइंशचतु-ईशकानेष वक्ष्यति ॥१७॥ पढमो चउदसपुची, सेसा इकारग वो चउरो । एवं स्वप्नार्थमावेध, सर्वेऽपि त्रिदशाधिपाः । विश्ओ वयावच्चं, किइकम्म तईयोकासी ॥ स्थानं निजनिजं जम्मु-र्विसृष्टा इव सेवकाः ॥१८॥ तमिन्द्राख्यातमाकर्य, स्वप्नार्थ देव्यमोदत । जोगफलं बाहुबलं, पतसणा जिहइअरनचिअत्तं । नाभिरप्यभजत्प्रीति, कस्येष्टाख्या मुदे न या ॥१६॥ श्रा०क०। पढमो तित्ययरत्तं, वीसहि ठाणे कासी।। अमुमेवार्थमुपसहरन्नाह । भासाम करगमनिका साधु चिकित्सयित्वा श्रामण्यं देवलोके उववाओ सबढे, सव्वेसिं पढमओ चो उसनो। गमनश्च पोपरीकिण्याश्च च्युतः सुता पैरसेनस्य जाता · इति वाक्यशेषः। प्रथमोऽत्र वरनाभो बाहुसुबाहूच पीरमहापीग रिक्खणासादाहिं, असाढ हुले चनत्थीए ।। तेषां पिता तीर्थकरो निष्क्रान्तास्तेऽपि तत्रैव पितुः सकाश इत्य गमनिका । उपपातः सर्वार्थं सर्वेषां संजातस्ततश्चायुष्कपरिर्थः। प्रथमश्चतुर्दशपूर्वी शेषा एकादशाङ्गविदश्चत्वारः तेषां चतु क्षये सति प्रथमश्च्युतो ऋषभ ऋषभेण नक्षत्रेण आषाढाभिः की बाहुप्रभृतीनां मध्ये द्वितीयो वैयावृत्त्यं कृतिकर्म तृतीयो आषाढबहुले चतुर्थ्यामिति गाथार्थः । इदानीं तद्वक्तव्यताभिऽकापत जोगफलं बाहुबलप्रशंसनाज्येष्ठया इतरयोचितत्वं धित्सयैनां द्वारगाथामाह नियुक्तिकारः। प्रथमस्तीर्थकरत्वं विंशतिभिः स्यानरकार्षीत् । भावार्थस्तूक्त एव जम्मणे नामबुढी, जाइस्सरणे श्र। क्रियाध्याहारोऽपि स्वबुद्ध्या कार्य इह विस्तमयान्नोक्त शति वीवाह अ अवच्चे अ-निसेए रजसंगहे ।। गाथाचतुष्टयाथः । श्राव० १ ० । [ तीर्थकजन्मनिबन्धनकार. गमनिका (जम्मण इति) जन्मविषयो विधिर्वक्तव्यः वक्ष्यति णानि तित्ययरशब्दे] च " चित्तबहुलटुमोए" इत्यादि (नाम इति) नामविषयो विएतैः स्थानैर्वजनान--स्तीर्थकृत्कर्मबख्वान् । धिर्वक्तव्यः । वक्ष्यति च “देसूणगं च इत्यादि " (बुहायत्ति) साधुनकादिदानेन, बाहुश्चक्रभृतः श्रियम् ॥ १ ॥ वृद्धिश्च भगवतो वाच्या वक्ष्यति च "अह सो वह भगवं. पाहोर्व सुबाहुश्च, साधुविश्रामणायधात् । त्यादि "(जाइसरणश्यत्ति) जातिस्मरणे च विधिर्वक्तव्यः । इतरौ तु तेन माया-कर्मणा स्त्रीत्वमर्जतः ॥२॥ वक्ष्यति च “जाइस्सरोयमित्यादि " (वीवाहेयत्ति) विवाहे ततः पूर्णायुषः कासं, कृत्वा पश्चापि साधवः। चविधिर्वक्तव्यः। वक्ष्यति च 'भोगसमुत्थमित्यादि'(अंघोत्ति) षष्ठश्च सुयशाः सर्वे, सर्वार्थसिमियरुः ॥३॥ अपत्येषु क्रमो वाच्यः वक्ष्यति च " तोभरहवंभिसुन्दरी इ. जम्बूद्वीपाभिधे हीपे, जरताः च दक्षिण । त्यादि"/अभिसेगित्ति) राज्याभिषेके विधिर्वाच्यः। वक्ष्यति च गङ्गासिन्धुसरिन्मध्य--वाले कल्पगुमाएकते । ४। "प्राभोएउं सक्को उवागो इत्यादि" ( रजसंगहेसि) राज्यसं इहावसर्पिणीकाले, सुषमादुःषमारके। गृहे विधिर्वाच्यः वक्ष्यति च “प्रासाहत्थीगावो इत्यादि" अयं अकृत्सप्तमो नानि-मरुदो या प्रियो ऽभवत् ॥५॥ समुदायार्थः । अवयवार्थन्तु प्रतिद्वारं यथावसरं वक्ष्यामः । Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४७) उसम अभिधानराजेन्द्रः। उसभ [तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयाजन्म तन्महोत्सव चाह। पीठं तस्योपरितले, ततोऽहजन्मगेहतः ॥२१॥ चित्तबहुलहमीए, जाम्रो नसतो असाढनक्खचे । पूर्वस्याश्च दक्षिणस्या-मुचरस्यां विचक्रिरे । ताभिश्च त्रीणि कदली-गृहाणि स्वर्षिमामवत् ।। २२॥ जम्मणमहो अ सब्बो, नेयम्बो जाव घोसम्मं ॥ प्रत्येकमेषां मध्ये च, सिंहासनविजूषितम् । गमनिका । चैत्रस्य बहुलाष्टम्यां जात ऋषभः पापादनको विचक्रिरे चतुःशासं, स्वर्णरक्षमणीमयम् ॥१३॥ जन्ममहश्च सवा नेतन्यो यावद् घोसणमिति गाथार्थः वा दक्षिणचतुःशाले, जिनं न्यस्य कराम्जनौ । भावार्थः कथातो केयः सा चेयम। निम्युस्तन्मातररुचाप्त-चेटीवहत्तवाहवः॥२४॥ मात्पूर्णेवथाहासु, चैत्रे कृष्णाष्टमीतिथी । सिंहासने निवेश्योभा-वन्यानब्लुः सुगन्धिना। निशीथे सुषुवे सूर्नु, देवीयुगलधर्मिणम् ॥१॥ तालकपाकतलेन, जरत्संवाहिका श्व ॥२५॥ अचेतना अपिदिश-स्तदानीं मुदिता इव । धामन्दानन्दनिस्यन्द-प्रमोदितरशो दृशम् । प्रसेतुः किं पुनर्वच्मि, लोकानां चेतनावताम ||२|| उभावुर्तयामासु-दिव्येनोसनेन ताः ॥२६॥ वायवोऽपि सुखस्पर्शा, मन्दं मन्दं घवुस्तदा । नीत्वा ताः प्राक चतुःशाले, न्यस्य सिंहासने वती। काप्यवीक्षितमीरक्ष, प्रेक्षमाणा इव प्रभुम् ॥३॥ सपयामासुरम्मोभिः, स्वमनोभिरिवामः ॥ २७ ॥ उद्योतखिजगत्यासी-दवान दिवि दुन्दुभिः। गन्धकाषायवासोनि-स्तदङ्गान्यमृमन्मथ । नारका अप्यमोदन्त, भूरप्युच्यासमासदत् ॥४ गोशीर्षचन्दनरसै-अर्चयामासुराभुताः ।। २० ॥ "गयदन्तसेलहिफा, अहो लोगवासिणीदेची। ताज्यामामोचयामासु-देवदूप्ये वासस। मन्दणवणकूडेसुं, अध्य तह उकुलोगाओ" ॥१॥ विद्युद्योतसाध्यञ्चि, ताचित्राभरणानि च ॥१०॥ दिकुमार्योऽष्टाधोलोक-वासिन्यः कम्पितासनाः । प्रथोत्तरचतुःशासे, नीत्वा सिंहासनोपरि । अर्हजन्मावधेात्वा-भ्येयुस्तत्सूतिवेश्मनि ॥५॥ न्यवादयन् भगवन्तं, भगवन्मातरञ्च ताः ॥ ३०॥ भोगङ्करा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी । गोशीर्षचन्दनैधांसि, नाक कुहिमवगिरेः । सुवत्सा वत्समित्रा च, पुष्पमाला वनन्दिता ॥ ६॥ ताः समानययामासु-रमरैराभियोगिकैः॥३१॥ नत्वा प्रभुं तदम्बाश्च-शाने सूतिगृहं व्यधुः । सत्पाद्यारणिदारुज्यां, वहिमहाय तास्ततः। संवर्तेनाशोधयत्दमा-मायोजनमितो गृहात्॥७॥ होम वितेनुर्गोशीर्ष-चन्दनरेधसात्कृतः ॥ ३२॥ मेधंकरा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी। रक्षापोट्टलिका बका, तयोरथ जिनान्तिके। तोयधारा विचित्रा च, वारिषेणा बलाहिका ।। ८॥ पर्वतायुर्भवेत्युक्त्वा, स्फालयनशमगोलकी॥ ३३ ॥ अष्टोललोकादेत्यैता, नत्वाईन्तं समातृकम् । सूतिकानवने तस्मिन्, मरुदेवीं वितुं च ताः। तत्र गन्धाम्बुपुप्पाघ-वर्ष हर्षाद्वितेनिरे । शय्यागतौ विधायाऽस्पु-यन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥३॥on. अथ नन्दोत्तरानन्दे, आनन्दा नन्दिवर्द्धने । संप्रदमाह । विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चापराजिता ॥१०॥ तेणं काझेणं तेणं समरणं उसमेणं अरहा कोसलिए चल अष्टावभ्येत्य पौरस्त्य-रुचकाद्रयादिमाः। उत्तरासाढे अनीपंचमे होत्था ।। २०४॥ उत्तरासाजिनं जिनाम्बानत्वाऽस्थुः, प्राच्यां दर्पणपाणयः ॥११॥ दाहिं चुए चइत्ता गम्भवकंते जाव अजीणा परिनियुए समाहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा। लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुंधरा २॥ ॥ २०५॥ तणं कालेणं तेणं समएणं उसनेणं अरहा अपाच्यरुचकाद्रेश्चा-टैत्य देवं समातृकम् । कोसलिए जे से निह्माणं च उत्ये मासे सत्तमे पक्ख भासाप्रणम्य दक्षिणेनता-स्तस्थु झारपाणयः ॥१३॥ दबहुल तस्स पं श्रासादबहुमस्स चनत्थीपक्खेणं सब्बइलादेवी सुरादेवी, पृथिवी पावत्यपि । सिद्धाओ महाविमाणाो तितीसं सागरोवमाहितीएकनासा नबमिका, भद्रा सीतेति नामतः ॥१४॥ प्रत्यग्रचकशैलाद-टैत्य व्यञ्जनपाणयः। यात्रो भणंतरं चश्ता इहेब जम्बुद्दीवे दीवे भारहे स्वामिनं मरुदेवीच, नत्वाऽस्थुः पश्चिमेन तु ॥१५॥ वासे इक्खागनूमिए नाभिकुनगरस्त मरुदेवाए नाअलम्बुषा मितकेशी, पुण्डरीका च वारुणी। रियाए । पुम्वरचावरत्तकालसमयंसि आहारवर्कतिए हासा सर्वप्रना श्रीही-रष्टोदप्रचकाद्रितः ॥ १६ ॥ जाव गन्नए चकते । २०६ । उसभेणं अरहा कोमसिए तत्रागत्य जिनं जैनी, जननी चात्तचामराः। तिनापोवमए या वि होत्या चएस्सामि त्ति जाणइ जाव प्रणिपत्योत्तरेणासा-वक्रिरे मोदमेदुराः॥१७॥ शतेरा चित्रकनका, चित्रा सात्रामणी तथा। मुविणे पासइ तं । गय सहगाहा “सव्वं तहेव नवरं, पडर्म दीपहस्ता विदिक्षत्या-स्थुर्विदिनचकाद्रितः॥१८॥ उसनमुहेणं अतं । पास सेसाउगर्य, नाजिकुलगरस्स रुचकद्वीपतोऽप्येयु-श्वतस्रो दिकुमारिकाः । साहे" सुविणपाढगा नत्यि नाभिकुलगरो सयमेव वागरूपा रूपासिका चापि, सुरूपा रूपकावती ॥१६॥ रेइ । २०७ । तेणं कालेणं तेणं समयेणं उसनेणं अरहा प्रकल्प्य भगवन्नालं, चतुरङ्गलनिर्जितम् । खनित्वा विवरं तत्र, नालनिक्षिप्य तं ततः ॥२०॥ कोसलिए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तरबैहरनैरापूर्य, ववन्धुर्हरितालयाः। इले तस्स एं चित्तबमस्स अट्ठमीपक्खेणं नवएहं मामा Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४८) उसन प्रमिषानराजेन्द्रः। उसभ बहुपडिपुत्राएं अट्ठमाणराईदियाणं जाव आसाढाहिं नक्ख- बेन स्वामी तीर्थकरो, निनिमेषविलोचनः । घेणं जोगमुपागएणं आरोग्गारोग्गं दारय पयाया ।।०८। पश्यन सुखं सुखेनैव, रममाणोऽस्ति निर्वृतः॥५१॥ ततो वैश्रवणः शक्रवचनात्सरवणादपि। मथास्यामवसर्पिएयां प्रथमधर्मप्रवर्तकत्येन । परमोपकारित्वास्किश्चिद्विस्तरतः श्रीऋषभदेवचरित्र प्रस्तौति । तेणमित्यादितः द्वात्रिंशबिरयकोटी, सुवर्णस्य च तावतीः ।। ५२॥ अभी पंच मेदुत्थति' पर्यन्तं तत्र (कोसामिपति) कोशमा द्वात्रिंशत्रु मन्दासमा-न्यथ भकासनाम्यपि। यामयोध्यायां प्रवः कौशनिकः ॥२०४॥ तंजरेत्यादितः "परि रूपयौवनमावएय-सौभाम्यप्रमुखान गुणान् ।। ५३॥ भ्यधात्तीर्थाधिनाथस्य, जन्मवेश्मानिवासिषु । नियुपति" पर्यन्तं सुगमम् ॥२०५॥ तेणमित्यादितो गन्जषकतेति पर्यन्तं सुगमम् ॥२०६ ॥ उसनेणमित्यादितः सयमेव भयाभियोगिकदेव-महानादेन देवराट् ॥ ५४॥ घोषयामास एवन्तु, भवन्तः सर्व एष हि । वागरे पति पर्यन्तं तत्र मरुदेवा. प्रथमं सुखेन (मस्तंति) प्रवनवासिनो देवा, ज्योतिष्का व्यस्तरास्तथा ।। ५५. प्रविशन्तं वृषभ पश्यति शेषास्तु जिनजनन्यः प्रथमं गजं पश्य देवा वैमानिका देव्यः, कथा सावहितं मनः। न्ति वीरमाता तु सिंहमलाकीद् ॥२०७॥ तेणमित्यादितो दारगं यो देवानुप्रियः कश्चि-स्वामिनसिजगत्पते ॥६. पयायसि पर्यन्तं प्राम्यत् ।। २०७ ॥ कल्प० । अस्य संग्रहमाद । त्रिजगत्पतिमातुश्च, करिष्यस्यानं मनः । संवट्टमेहमायं-सगा य चिंगारतालयंटा य । सप्तधार्यमम्जरीब, शिरस्तस्य स्फुरिष्यति ।। ५७ । चामरजोईरक्ख, करिति एवं कुमारीश्रो॥११६।। चातुर्निकायिका देवा, एवं जन्मोत्सवं प्रमोः । संवर्तकमेघमुक्तप्रयोजनं किं कुर्वन्ति भादर्शकाच गृहीत्वा | मन्दीश्वरेऽशाहिको च, कृत्वा जग्मुर्यथागतम् Inाया। तिष्ठान्त वृक्षाराँस्तासन्ताश्चेति तपा बामर जातीरको कुर्वन्ति (४)मामद्वारमाह। पतत्सर्वे दिक्कुमार्य ति गाथार्थः ॥ ११६ ॥ पाव. १०। देसूणगं च परिसं, सकागमणं च सम्षणाय । ततःसिंहासनं शाकं, चचा साऽचसनिश्चमम्। प्राहारमंगुलीए, ठवंति देवा मामं तु ॥१॥ भवधिं प्रयुज्य ज्ञात्वा. जम्मादिमजिनेशितुः॥ ३५ ॥ सको सहवणा, इक्खु भगू तण हुँति इक्वागा। सपः स्वर्गाडिमानेन, पानकेनेत्य देवराद । जिनेन्द्रं च जिनाम्बांच, त्रिः प्रादक्षिणयस्ततः॥ ३६॥ जंच जहा जम्मि वए, जुग्गं कासीम सब ।।२।। पन्दित्वा नमंसित्वा चे-त्येव देवेश्वरोऽवदत् । देशोम चवर्षे जगवतो जातस्य तापत् पुनः शक्रागमनं व संनमोऽस्तु ते रत्नकुक्षि धारिके विश्वदीपिके ।। ३७॥ जातं तेन घंशस्थापना च कृता भगवत इति साऽयं प्रषजनाप्रदंशकास्मि देवेन्छः, कल् गदादा दहागमम् । थः। अस्य ऋषजस्य गृहवासे भसंस्कृत भासीदाहार ति। मनोयुगादिदेवस्य, करिष्ये जननोत्सवम ॥ ३८॥ किं च स तीर्थकरा एय षासभावे वर्तमानाः न स्तन्योपयोग नेतव्यं देवि! तनैवे-त्युक्त्यावस्वापिनीं ददौ। कुर्वन्ति किन्वाहाराभिमाचे सति स्वामेवाहालि बदने प्रतिपन्ति कृत्वा जिनप्रतिविम्बं, जिनाम्यासन्निधौ धात् ॥ ३६॥ तस्यां चाहारमहल्या मानारससमायुक्तं स्थापयन्ति देया मनोकं भगवन्तं तीर्थकर, गृहीत्वा करसंपुटे। मनोऽनुकूममेवमतिकान्तवामनायास्त्वनिपकमेव गृहन्ति । - विचके पञ्चधा रूपं, सवयोऽर्थिकः स्वयम् ॥४०॥ षभनाथस्तु प्रवम्यामप्रतिपन्नो देवोपनीतमेवाहारमुपतुक्तवानिएको गृहीततीर्थेशः, पाइर्धे द्वावातचामरौ । स्यनिहितमानुपातिकमिति गाथार्थः ॥११०॥ प्रकृतमुख्यते । माएको गृहीतातपत्र, एको वजधरःपुनः॥४१. हेम्ब्रेण घंशस्थापना व कृतेत्यनिहितं सा किं यथाकपश्चिकशराजस्ततश्चातु-निकायिकसुरान्धितः । सा माहोश्चित् प्रवृत्तिमिमितपूर्षिकेति । सच्यते प्रवृत्तिमिमित्तशीनं सुमेरुयेनैव, वनं येनैव पएमकम् ॥ ४२ ॥ पूर्विका न यारधिकी कथम (प्राव. १०) शक्रः सौधर्ममेरुयूवादक्षिणेना--तिपापमुकम्बमा शिसा । न्छो वंशस्थापने प्रस्तुते श्खं गृहीत्वा मागतः । प्रक भग कुसिंहासन बानियके, तेनैवोपेति देवराद ॥४३॥ रिलायो गती अनेकार्थत्वासातूनाम् प्रक् धातोरोणादिके सप तत्र सिंहासने पूजा-ऽनिमुखे च निषीदति। प्रत्यये अकुशवोऽनिसाधार्यः। ततः स्वामी को । माकुमानिघात्रिंशदापि देवेन्त्राः, स्वामिपादान्तमैयकः ॥ ४४ ॥ लाषेण करं प्रासारयत् शक मार्पयत् तेन कारणेन षन्ति इ. अच्युतेन्द्रतत्र पूर्व, विधात्यभिवचनम् । स्वाकुवंशभषा पेक्ष्वाकाः । माका । ऐश्थाका प्रपनततोऽनुपरिपाटीतो, यावलकोऽनिशिषक्तवान् । । माथवराजा शत एवं पञ्चवस्तु यथा येन प्रकारेण यस्मिनषयसि संतश्च चमरादीबा, यावच्चन्द्रार्यमादयः । योग्यं शकः कृतवांश्च तत्सर्वमिति । पश्चाई पागम्तरं षा। एवं जन्माऽभिषेकस्यो-सवं निर्वस्य॑ देवराट् ॥ ४६॥ तामफलाहयनगिणी, होहियति सारवणा॥ प्रकर्षात्सर्वखा, प्राग्वत्सर्वामराम्पितः। तामफलाहतभगिनी षिष्यति पत्नीति। 'सारवणा' किस भगवीर्यनाथ उपादाय-सद्यः प्रत्यागमरकणात ॥४७॥ पतो नन्दायाश्च तुल्यवयाख्यापनार्थमेवं पाने इति । तदेष प्रतिहत्य तीर्थेश-प्रतिविम्ब सपयपि । तालफमाहतनगिमी भगवतो वासभाष एव मिघुमकर्माभेः सवत्र मातुः सन्निधाने, जगवन्तमतिष्ठिपत् ॥४८॥ काशमानीता। तेन च भविष्यात ऋषभपस्मीति । 'सारषणा' सं संत्यावस्थापिनी च, दिव्य शोमयुगं सतः। गोपना कतति । तथा चामन्तरं वयति मन्दायाः "मुमंगमासदि दिव्यं कुपमलयुग्मच, विमोच्योच्चीर्षके प्रभोः ॥ ४ ॥ भोलि" भन्ये तु प्रतिपादयन्ति सर्वेयं जन्मद्वारवतम्यता घरश्रीदामगएम्सुलोचे, स्वामिनो रस्नवामयुक। गाथापि किवं पठ्यते "जमणे य विवडीयत्ति" असं प्रसन पसरलम्बमानान्त:-स्वर्णकन्युकमादधे ॥५०॥ भाव. १३०मा००। Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४९) उसभ अन्निधानराजन्धः ।। उसम नाजिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए नारियाए कुच्छसि एत्य लक्षपूर्वेषु गतेषु भरतव्राह्मीरूपं युगलं सुमङ्गला। बाहूलिसणं नसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमाजिणे पढमके न्दरीरूपं युगलं.च सुनन्दा प्रसुषुवे । तदनु कोनपश्चाशत्पुत्र युगलानि क्रमात् सुमङ्गला प्रसूतवती । २०६। वनी पढमतित्यंकरे पढमधम्मवरचकवट्टी समुप्पजिजेजा।। उसमेणं अरहा कोसलिए तस्स पंच नामधेजा एवमाहि नाम्ना कोशायामयोध्यायां भवः कौशनिकः नाविनि भूतपत्र पचार इति न्यायादेतद्विशषणम् अयोध्यास्थापनाया ऋषभदेव ज्जं नि तं जहा उसभेवा १ पढमराया वा २ पढमनिक्खा राज्यस्थापनासमये कृतत्वात् तद्यक्तिस्तु भरतकेत्रनामान्वर्थ- यरे या ३ पढमजिणे वा ४ पदमतित्थंकरे वा ॥१॥ कयनावसरे । “धणवश्मनिनिम्माया" पतत्सूत्रव्याख्यायां दर्श- "उसभेणं परहा कोसलिए इत्यादितः पढमतित्थंकरश्वेति" यिष्यते । अईन्तश्च पाश्र्वनाथादय इतः केचिदनङ्गीकृतराजधर्म- पर्यन्तं तत्र इकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारे ( पदमरायत्ति ) प्रध. काः अपि स्युरित्यसौ केन । क्रमेणाईमनुदित्याह प्रथमो राजा मराजा चैवम् । २२० कल्प० । ति। श्रा०चू०। स्दावसर्पिपयां नाजिकुलकरादियुग्मिमनुजः शक्रेण च प्रथम. अथ यथा भगवान् चयः प्रतिपन्नवान तथाऽऽह । मभिषिक्तत्वात्। प्रथमजिनः प्रथमो रागादीनां जेता ।यद्वाप्रथमो तो उसने अरहा सो कोसलिए दक्वे दक्खपइन्ने मनःपर्यवज्ञानात् राज्यत्यागादनन्तरं द्रव्यतो जावतश्च साधु पहिरूब अब्बी नहए विणीए । कल्प० । वर्तित्वेन अत्रावसर्पिण्यामस्यैव भगवतः प्रथमतस्तद्भवनात जिनत्वं चावधिमनःपर्यवकेवबज्ञानिनां स्थानाङ्गे सुप्रसिकम् । (५) इदानी वृद्धिद्वारमधिकृत्याह् ।। अवधिजिनत्वेऽनुब्याण्यायमानेऽक्रमबमसूत्रमिति केवलिजिनत्वे अह बट्टइ सो जयवं, दियजोगचुओ अणुवम सरीओ। चोत्तरग्रन्थेन सह पौनरुक्तयमिति ब्याख्यानासङ्गतिः। श्रोतृणां देवगणसंपमियुडो, नंदाइसुमंगलासहिश्रो ॥११॥ प्रतिज्ञा तेन प्रथमकेवली आद्यः सर्वज्ञः केवमित्वे च तीर्थना- असिअसिरोअ सुनयणो, विवुट्टो धवन्नदंतपंतोओ। मोदयो नवतीत्याह प्रथमतीर्थकरः आद्यश्चतुर्वर्णसवस्थापकः । वरपउमगन्जगोरा, फुल्युप्पगंधनीसामो ॥ १०॥ उदिततीर्थकृन्नामा च कीरशः स्यादिति प्रथमो धर्मवरो धर्मप्र प्रथमगाथानिगदसिद्धैव द्वितीयगाथागमनिका । न सिता धानश्चक्रवर्ती यथा चक्रवर्ती सर्वत्राप्रतिहतवीर्येण चक्रेण वर्तते असिताः कृष्णा इत्यर्थः । शिरासे जाता शिरोजाः केशाः असि तथा सोऽपीति जावः । समुत्पद्येत समुत्पन्नवानित्यर्थः । जं. २ ताःशिरोजा यस्य स तथाविधः। शोभने नयने यस्यासी सुनवक (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युक्तः तित्थयर शब्द वदयते) यनः । विम्ब गोडाफलं विम्बवदोष्ठौ यस्यासौ विम्योष्ठः । धयले तंचव सव्वं जाव देवा देवीश्रा य बहारवासिम सेसं। दन्तपङ्की यस्य स धवलदन्तपतिकः । वरपद्यगर्भवीरः । नहेव चारगसोहणमाणुम्माणबघणनस्सकमाइयं विश्व- फुल्लोत्पलगन्धवनिःश्वासो यस्येति गाथार्थः।१२०/आव०११० भियजूयवजं सव्वं भाणियन्वं ॥२०॥ (६) दानी जातिस्मरद्वारावयवार्थ तु विवरीषुराह। "तंचेव सब्वमित्यादितो दिवमिययवजं सव्वं भाणियब्वं. जाईसरो अभयवं, अप्परिवडिएहिं तिहिं उ नाणेहिं । ति" यावत् । तत्र देवलोकच्युतोऽगतरूपोऽनेकदेवदेवीपरि कंतीइ अबुछोइ अ, अन्नहिओ हिंमणुएहिं ॥२१॥ वृतः सकलगुणस्तभ्यो युगलमनुष्येभ्यः परमोत्कृष्टः क्रमेण गमनिका।जातिस्मरश्च भगवन् ! अप्रतिपतितैरेव त्रिभिनिप्रवर्द्धमानः सन्नाहाराभिलाषे सुरसंचारितामृतरससरसाम मंतिश्रुतावधिभिः। अघधिज्ञानं हि देवलौकिकमेवाप्रच्युतं भगङ्गलि मुखे प्रक्षिपति । एवमन्यऽपि तीर्थकरा वाल्येऽवगन्तव्याः वतो भवति तथा च कान्त्या च बुध्या अभ्यधिकस्तेभ्यो मिथुनवाल्यातिक्रमे पुनरग्निपक्काहारभोजिनः ऋषभस्तु प्रवज्यां या कमनुष्येभ्य इति गाथार्थः । वत्सुरानीतोत्तरकुरुकल्पद्रुमफलान्यास्वादितवान् । अथ संजा (७) इदानी विवाहद्वारव्याचिख्यासयेदमाह। तकिञ्चिदूनवर्षे भगवति प्रथमजिनवंशस्थापनं शक्रः स्वजीनमिति विचिन्त्य कथं रिक्तपाणिः स्वामिसमीपं यामीति मह पढमो अकालमञ्च, तहि तालफझेण दारओ पहो । तोमिनुष्टिमादाय नाभिकुलकराङ्कस्थस्य प्रभोरग्रे तस्थौ कन्ना य कुलगरेणं, सिर्फ गहिया उसनपची ॥२२॥ दृष्ट्वा चेकुष्टि हटवदनन स्वामिना कर प्रसारिते इतुं भक्षय- भगवतो देशोनवर्षकाल पव किञ्चिन्मिथुनकं संजातापत्यसीति भणित्वा तां दत्त्वा इक्ष्वभिलाषात्स्वामिनो वंश इच्वा- मिथुन तालवृक्षाधो विमुच्य निः संशयं क्रीडागृहकमगमत् कुनामाऽभवत् । गोत्रमपि अस्य एतत्पूर्वजानामियभिलाषा- तस्माच्च तालवृतात्पवनप्रेरितमेकं तालफलमपतत् तेन काश्यपनामेति शक्रो वंशस्थापनां कृतवान् । अथ किञ्चिद्युगलं दारको व्यापादितः। तदपि मिथुनकं तां दारिका संवर्द्धयित्वा मातापितृभ्यां तालवृक्षाञ्चो मुक्तं तस्मादेतत्तालफलेन पुरुषो प्रतनु कषायं मृत्वा सुरलोकमुत्पन्नं सा चोद्यानदेवतेवोत्कृष्टव्यापादितः। प्रथमोऽयमकालमृत्युः । अथ सा कन्या माता- रूपा पकाकिन्येव वने विचचार । दृष्ट्वा च तां त्रिदशवधूसमापित्रोः वर्गतयोः एकाकिन्येव वने विचचार । दृष्ट्वा च तां सु- नरूपां मिथुनकनराः विस्मयोत्फुल्लनयनाः नाभिकुलकरायम्यन्दरी युगलिकनरा नाभिकुलकराय न्यवेदयन् । नाभिरपि शि वेदयन् । शिष्टैश्च तैः कन्या कुलकरेण गृहीता ऋषभपत्नी ऐयं सुनन्दानाम्नी ऋषभपत्नी भविष्यतीति सकललोकशाप- भविष्यतीति कन्वेति गाथार्थः ॥ नावार्थः कथानः साचयम् नपुरस्सर तां जग्राह । ततः सुनन्दासुमङ्गलाभ्यां सह प्रवर्द्ध- प्रगुणीकुरु कल्याणि-भूयिष्ठं जादणकडूमम । मानो भगवान् यौवनमनुप्राप्तः इन्द्रोऽपि प्रथमजिनविवाहकृत्य- सीमन्तिनीनां सीमन्तं, परिपूर्तिकृते चिरात् ॥ २५ ॥ मस्माकं जीतमिति अनेकदेवदेवीकोटिपरिवारपरिवृतः समा- त्वं वयस्ये प्रशस्थानि, पुष्पदामान्युपानय । गत्य स्वामिनो वरकृत्यं स्वयमेव कृतवान् बधूकृत्यं च द्वयोरपि विचित्ररचनान्मुग्धे !, मुकुटान्निकटीकुरु ॥ १६ ॥ कन्ययादेव्य हनि ननस्ताभ्यां विषयोपभोगिनो भगवनः पद- चतुष्कान् पूग्य कारि, मुकाकोदेन सुन्दरि। Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५०) उसम अभिधानराजेन्द्रः। उसन बेयन्तः कुरु हेकार्म, धेनुगोमयगोमुखम् ॥ १७ ॥ प्रसर्पदानलेखेव, माद्यतः कामकुम्निनः ॥५२॥ निवेशयात्र तन्यडि! सत्वरं वरमश्चिके। प्रथाजनेन तन्नेत्र-यं तामिरभूष्यत । पवित्राः शतपत्राति! त्वं चेहानय पाशुकाः ॥ २० ॥ शादीन्दिरकुलेनेव, नीलेन्दीबरकाननम् ॥ ५३ ।। कार्यान्तरं च हित्या त्वं, कस्तूरी सखि! धर्तय । तयोललाटपट्टान्त-श्चान्दनं चन्द्रकं व्यधुः। येन पुत्र्योः कपोलेषु लिख्यते पत्रवबरी ॥ २९॥ भासितुः स्मरराजस्य, विमला यष्टिकामिव ।। ४ ।। कुन्तले! कुन्तलोत्सा -वाविष्कुरु वधूकृते । तयबिन्धुर्धम्मिल-मुल्नसन्माल्यगर्भितम् । मङ्गल्यधवज्ञान यूयं, देसण्यो दत्तसत्तमान् ॥ ३०॥ निषङ्गमिव कामस्य, पूरितं कुसुमेषुभिः ।। ५५ ॥ जामे किमसि निखानु--स्तन्द्रामुरास किं स्नुपे!॥ अथ तान्या कुमारीज्यां, व्यूतानीवेन्दुराश्मभिः। किमङ्गभङ्गं मृदाङ्गि, त्वं करोषि शयामुषत् ॥ ३१ ॥ पासांसि वासयामासुः, पारिणेत्राणि तास्ततः॥ ५६ ॥ चस्तरी विस्तरी मुञ्च, चतुरे किमनादरा। तयोरबनन्मुकुट, चञ्चश्चन्छकराजितम् । सानन्दा स्पन्दसे किंग, साख! मन्दायसे कथम् ॥ ३२॥ रुक्मपल्होत्तंस-व्योमगाविसम्बनम् ॥ ७॥ लग्नमत्यन्तमासन, नवत्यः किन जानते॥ नेत्रैः कर्णान्तविश्रान्तै-र्वतसे सत्यपि स्वयम् । तदिदानोमनानस्या-मवरवं स्वस्वकर्मसु ॥३३॥ (कुलकम)। भन्यमारोपयामासुः, पुनरुक्ता जया श्व ॥ ५८॥ मात्रादिमात्रकइय, स्थित्वा काश्चिहिवः स्त्रियः। कर्णयोर्मणिताटङ्की, नितिपन्ति स्म तास्तयोः। रजसात्प्रारम्भन्ते स्म, कर्म वैवाहिकं ततः ॥ ३४॥ हिदिरूपाविवाकेंन्दू, विवाहं मागतौ ।।५॥ तत्रोपवेशयामासुः, श्रीसुनन्दासुमङ्गवे । निवेश्यते स्म देवी नि-स्तयोर्मुक्तासरो हाद । काश्चित्स्वर्णासने ज्यवं, खजुवः कन्यके श्व ॥ ३५ ॥ वरिवस्यानिवास्येन्दु-मभितस्तारकागणः॥ ६॥ गीयमानेषु योषानि-वलेषु कलस्वनम् । कयूरे चुजयोय॑स्ते, स्नीलमये तयोः। सुगन्धितैः सर्वाङ्ग-मयाज्यानञ्जरजसा ॥ ३६॥ पञ्चवाणस्य वाणानां, शाणे श्व निशाणने ।। ६१ ॥ ते अथोतयामासु-नर्तयन्स्यो वपुलताम् ।। निहितं काञ्चने र, राजनीति धिया किस । विष्टिकान्निः सुपिष्टानिः, कोमः करपल्लवैः ॥३७॥ विन्यस्यते स्म तत्पाणी, सुरीनिर्मणिकङ्कणे ॥ २ ॥ प्रतिष्ठिपनाकान्ते, नूनं प्रवरमश्चिके । अङ्गुलीषु तयोः किमा-इचारुहीरकमुखिकाः । भभिषेकुरतिप्रीत्यो, रुक्मपी इबोज्ज्वले ॥ ३० ॥ दोलतायाः फसानीव, परिपाकारुणान्यथ ॥ ६३ ॥ तयोश्चतुर्षु कोणेषु, न्यधुर्वर्णकपृयकान् । तवा श्रोणौ च सजाना, तयोश्चन्बाइममेखला । क्रमितुं मन्मथस्येव प्रथमं पदमण्डकान् ॥ ३॥ गुरुनाभिसरस्तीरे, हंसावलिरिवोज्ज्वला ॥ ६४ ॥ ततः कौमुम्भवासांसि, परिधाप्य च तत्क्षणात् । मीराणि तयोय॑स्यन, झणत्कारीणि पादयोः। तयोर्निवेशयन्ति स्म, कन्यके ते सुरखियः॥४०॥ मरालानाहवयन्तीव, गर्ति स्पर्द्धयतुं मदात् ॥६५॥ नवस्वडेषु तिलकान्, प्रदेशिन्यः सभर्तृकाः। प्रथोत्पाट्यामरीज्यां ते, दिवभूषणभूषिते । तयोश्चकुर्नवनिधी-निव कन्दर्पचक्रिणः॥४१॥ आसिते कौतुकागारे, मूर्ते वाणिश्रियाधिव ॥ ६६ ॥ जात्वसंवास्पृशत् सव्या-सव्यत्वेनैतयोमिथः । विवाहाकल्पमाधातुं, विज्ञप्तो धज्रिणा वितुः । कौमुम्भस्तन्तुभिस्त'-संपर्किभिरथापराः ॥४२॥ भोगकर्मास्ति झोके च, स्थितिर्देश्य यमन्यत ।। ६७ ॥ ते एवं कर्सके वाले, सुरनार्यो निचिक्षिपुः। ततश्च कल्पिताकल्पः, कृतमाङ्गख्यमज्जनः। आस्थानां ते क्षणं तत्र, नानाकेलिकुतूहलैः ॥४३॥ विहिताशेषकृत्यइच, कन्यविद्भिर्यथाविधि ॥ १० ॥ तदैव तास्तयोर्वेगा-दुद्वर्णकमपि व्यधुः । चान्दनैरसनिस्पन्नैः कृतदेहविलेपना । विविम्ना प्राक्तनेनैव, पूर्वरूढिरियं यतः॥ ४४ ।। विच्छरितः पुण्यलक्ष्मी, कटाकैरिव सर्वतः॥ ६॥ स्नानविष्टरमध्यास्य, स्नफ्यामासुराशु ते। वसानः पारिनत्राणि, शुचीनि सिचयानि च । हिरएमयघटाम्भोभिः, सुखदैरमृतैरिव ॥ ४५ ॥ जिनेन्झोप शरमेघा-कीर्णस्वर्णाचसोपमः ॥ ७० ॥ अथ प्रमार्जयामासु-रङ्गयष्टिं मृगीदृशोः। सौधमध्याकरित्रीनृ-स्कन्दरादिव केसरी। आदर्शमिव तत्सख्यः, सुखस्पर्शेन वाससा ॥४६॥ निर्जगाम गुणप्राम-ठुमारामसहोदरः ॥ ७१ ॥ तयोः स्मानजलराई-केशपाशमवेष्टयन् । अथाधिका जात्याश्व-मुचःस्रवसमिन्यत् । मसूणैरंशुकोद्देशै-रुत्तेजितकृपाणवत् ।। ४७॥ संक्रान्तैः पश्यतां नेत्रैः, सहस्रवणतां बहन् ॥ ७॥ आश्वासात्तत्ततो वारि, विष्षस्तत्सखीजनः। मायूरेणातपत्रेण, स्यणकुम्नोपशोनिना। करादिष करीन्स्य , शीकरासारमातपः ॥ ॥ प्रावृषेण्यघनेनेवा-जीयमानस्तडित्वता ॥ ७३ ॥ धूपायन्तिस्म धूपेन, स्निग्घकश्योः सुगन्धिना । शुञान्यां चामराज्यां च, वीज्यमानो मुहर्मुहुः । ईचदाई केशपाशं, घोतानीवांशुकानि ताः ॥ ४६॥ साम्राज्यकममासीमा-कमलाभ्यामिवाभितः ॥ ७ ॥ तत्पादान पल्सयाताम्रा-नपि साकारसेन ताः। तूर्यनादेन रोदश्यो-रुदरम्नरिणा ततः ॥ अमएडयन धियेति, रक्तं रक्तेन युज्यताम् ॥ ५० ॥ निघोषणय घण्टायाः, सुघोषायाः प्रसर्पता ॥ ५ ॥ सर्वाङ्गमङ्गरागेण, तन्वङ्गपोयंक्षिपन्त ताः । श्रवं श्रवणपूरंच, गायद्भिः कलगीतिकाः । रविर्वान्नातपेनेव, काश्चनाचलमेखले ॥५१॥ रक्तकएवैः कृतोत्कएः, कसकएरिवाङ्गिनाम ॥ ७६ ॥ नकपोलतो तानि सिविता पत्रवल्नरी । नृत्यद्भिरसरोवृन्दै-नानाभरणनारिभिः । Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ भनिनान्दोलितैः कल्प - शा खिशाखागणैरिव ॥ ७७ ॥ उच्च पियानोत्करः । तानीकृत दस्ता गर्जङ्गिरिव कुञ्जरैः ॥ ७G H उत्तार्यमाणलवणो, देवीजिः पक्षयोर्द्वयोः ॥ पृष्ठे विम्बीफलोष्ठी भगीयमानैरुमुनिः ॥ ७ ॥ शुभोदयः शकुनु अभ्यगान्मएकपद्वारं, भगवान् शुभगं जनैः ॥ ८० ॥ तत्रावरुह्याथ वि-रर्वतः सर्वतादिव । मस्थितः स्थितिनिष्णातः, कणमेकमनुत्सुकः ॥ ८१ ॥ अथ प्रगुणयामासु-ईधिवृर्वादिभांजनम् । मन्धानमुरावा, मङ्गल्यानविज्ञानपि ॥ ०२ ॥ भूयमाणति निःस्वनम् । शरावसंपुढं का मुमोच द्वारि सानम् ॥ ८॥ अथेोद्भवं पट्टयुग, सन्ध्यारागमिवारुणम् । परिधायाप्रतः काचिदर्घदानोद्यताऽभवत् ॥ ८४ ॥ महा जग सुखमदे स्फीतं यश इवामुष्य, नवनीतं समुन्नय ॥ ८५ ॥ उद्वेष्टय वचावीची- सिशिरं चान्दनं रसम् । दधिकं प्रमु०६ ॥ समुन्मीलन्मदानीरसहोदरम्। प्रागेव शालां दूर्वी, सुवासिनि ! समुद्धर ॥ ८७ ॥ वेषभ रस्ते तोरणद्वारि, त्रिजगजैविक्रमः ॥ समस्त सर्वामुत्तरीयांतः। शरद ज्योत्स्ना जातजातिः ॥ ५ ॥ नृशं पुष्यन्ति पुष्पाणि, वातेनोद्वाति चान्दनम् । सद्वारि सुचिरं श्वश्रु, वरं माधरमाधर ॥ ० ॥ इत्यवं घवतान् श्वश्रूः शृण्वानाः श्रुतिपावनैः । स्वामिने दत्यर्थमनर्थगुणशालिने ९१ ॥ भृत्यान्तमस्तेन विचायामेव दक्षिणम युगशाख व प्रोणकृणम् ॥२॥ मनोरथमिवारणा-मथो लवणसंपुटम् । भगवान् सव्यपादेन, दलयामास लीलया ॥ २३ ॥ स्कन्धे पट्टाञ्चनेनाथ, समाकृष्य जगत्प्रजुः । नीतः श्वश्र्वा वधूपान्त-मासां चक्रेऽथ शक्रवत् ॥ ९४ ॥ मदनस्य फलं ग्राह्यमित्यस्य किन सूचकम् | मदनस्य फलं पाणी, बरूं वभ्वोर्वरस्य च ॥ ६५ ॥ जीवन् मातापितृश्वश्रूश्वशुराः सघवाङ्गनाः । दस्तापं ददौ पिठुवा, वयोः पाणिपङ्कजे ॥ ६६ ॥ प्रधानपि मुक्तग्नपीनिजे । जाते सति सहस्रांशु-चिम्बे विम्बीफलद्युति ॥ ७ ॥ श्रुत्वा भाजनशब्दं च, साबधानस्ततो हरिः । 9 योजयामास तत्कालं वधूवरकरान्मिथः ॥ ९८ ॥ अथान्योऽन्यस्य पश्यन्तो विस्फारित विलोचनाः । निमेषमप्यकुर्वाणा, अन्तरायनयादिव ॥ ९९ ॥ रेजिरे से तदा तत्र, तार मेककारिणः । विशन्त इव वक्त्रोऽन्त-मिथस्तारासु संक्रमात् ॥ १०० ॥ चैः कौतुकधवलान्, जगुर्वभ्वाः सखीतमाः । नर्मकर्मणि चातुर्य, विद्वाणास्तत्र १ बधूपरस्य सुषमा, मिथः। (११५१ निधानराजेन्द्रः । उसभ तेषां मनीषाद- मनुरागः परस्परम् ॥ २ ॥ कौतुकागारतो द्या मधानिन्ये वधूवरम् । ऋषियोजित स्ताम मामोचितपावनम् ॥ ३ ॥ शः कोऽपि च वेद्यमान व्यधादू धूमं समित्केपादू, धूमपाताय कन्ययोः ॥ ४ ॥ कंसारश्च सखएकाज्यः, पक्कस्तेनैव नाकिना । ताभ्यां प्रस्तद्वय ते-नात्स्यत स्वस्वपाणिना ॥ ५ ॥ अथोश्चर्मङ्गलाचारे, दीयमानेऽङ्गनाजनैः । रभसोहसितैर-वैगुण्यमय अमितैः ॥ ६ ॥ मे सरोहिणी पत्रमा जयषाभितो मसम् । स्वाम्याम्यद्युतस्ताच्या मामलचतुष्टयम् ॥ ७॥ अथ श्याकदेशीय ॥ स्वामिनं चरणा, नीचे भूयोऽज्यधारयत् ॥ ८ ॥ यथेच्छं भगवांस्तस्मै, स्वर्णरत्नान्यदात्तदा । महान्तो नानां ददते यत्र तत्र हि मोदकृत्येषु नियि सुमङ्गतासुनन्दाभ्यां सहारूढो हयं प्रभुः ॥ १० ॥ स्फीतावगीतसंगीत- मुखरीकृत दियखः । प्रत्यप्रतोरणद्वार - माययौ निजवेश्मनः ॥ ११ ॥ घोट पूर्वमासुरं तत्र वधूवरम् । हर्षोत्कर्षेण कुर्वाणा, देवा जयजयारवम् ॥ १२ ॥ लताश्व समीरण, प्रमोदेन प्रणोदिताः । पौलोम्याद्याश्च ननृतुगत पूर्णमनोरथाः ॥ १३ ॥ प्रविवेश ततः स्वामी, स्वसौधे कृतमङ्गलः । विषादोत्साद] सौन्दर्य-रजितत्रिजगञ्जनाः ॥ १४ ॥ शुकमी फल खानाप शापितमाज्या ॥ १५ ॥ मिथो जेमनवाराभू-दूरिगौरवसुन्दरा । ताम्बूलांक दानाद्यैः, सम्माननमथानवत् ॥ १६ ॥ पूर्णपात्रप्रवेशादि विवाहोत्सवनिः । स्वामिनः पितरी तत्र मुमुदात सदा ॥ १७ ॥ तोऽथादिदेवदेषी गणोखयः । प्रणिपत्य प्रनोः पादानू, स्थानं निजनिजं ययौ ॥ १८ ॥ भ०क० मुमेवार्थमाह । जोगसमस्यं नार्ड, वरकम् कामि देविंदो । 5 परमहिसणं, बहुकम् कासि देवीओ ॥ भगवाच तेन कन्यायेन साई विहरन् योधनमनुप्राप्तः । अत्रान्तरे देवराजस्य चिन्ता जायाकृत्यमेतदत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां प्रथमतीर्थकराणां विवाहकर्म क्रिय इति संचिनयाने विशद समन्वितोऽवती चैवान वतः स्वयमेव वरकर्म चकार । पत्म्योरपि देव्यो वधूकर्मेति । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह ( जोगगाड़ा) गमनिका । भोगसम कात्वा घरकर्म तस्य कृतवान् देवेन्द्रः द्वयोर्वर महिलयो कर्म कृतादेव्य इति गाथार्थः प्रायार्थस्तुत एव ॥ १२२॥ (८) भथापत्यद्वारम् । उप्पुवसयहरुमा पुत्र जायस्स विदिस्स । तो जरजिदरि, बाहुबली सुंदरी चैव ।। १२४ ॥ देवमंगला, भरही बंजी अमिदुरागं जायं । देव | सुनंदाए. बाहुबली सुंदरी चैव ।। १२५ ।। Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसज (वाहा) निगद्येयं नरम रविमानादवतीय सुमङ्गप्रायाः पुनः बाहुपीवरच भरतब्राह्मी मिथुनकं जातं नया बादाश्च सुनन्दायाः बाबी सुन्दरी मिथुनकमिति। १२४ अमेवार्थ प्रतिपादयवाद सूत्रभाष्यकार: (देवी गाढ़ा १२५ ) सुगमत्वान्न विव्रियते याद । किमेतावन्त्येव नगयतोऽपत्यानि उत नेति । उच्यते । (१९५३) अनिवानराजेन्द्रः | " अपने पुजाण सुमंगला पुछो पसवे । नीमः कमले नियेगं सजसामिस्स ।। १२६ ।। गमनिका । एकोनपञ्चाशतयुग्मानि पुत्राणां सुमङ्गला पुनः प्रसुतवती । अत्रान्तरे प्राग्निरूपितानां दकारादिप्रती ते प्रकाः प्रचुरतरकषायसंभवात् अतिक्रमण कृतवन्तः । ततब्ध नीतीनामतिक्रमणे सति तल्लोका अभ्यधिकनादिगुणसमपितं भगवतं विज्ञाय निवेदनं कथनम्रपस्यामने आदितीर्थंकराय कृतवन्त इति क्रियाऽयं गाथार्थः । एवं निवेदिते सति भगवानाह राया करंइ दंड, सिडे ते विंति अम् विमहो न । मगह व कुचगरं सो, वे उसजो भ जे राया।। १२७|| गमनिका । मिथुनकैर्निवेदिते सति भगवानाह । नीत्यतिक्रमणकारिणां राजा सर्वनरश्वरः करोति दशमं स चामात्यार कि कादिवचयुक्तः कृताभिषेकः अनतिक्रमणीयाइश्च नवति । एवं शिष्टे कथिते सति भगवता ते मिथुनका ब्रुवते भणन्ति श्रस्माकमपि राजा भवतु वर्तमानकालनिर्देशः खल्वन्यास्वसर्पिर्णषु प्रायः समानन्यायप्रदर्शनार्थः । त्रिगर प्रदर्शनार्थी वा अथवा कृतान्त खतवन्तः । जगवानाह यद्येवं ( मग्गहयकुलगरंति ) याचयध्वं कुकरं राजानं स च कुतकरस्तैर्याचितः सन् ( घेतेति ) (जे) जवरजेाधार्थः ततश्च से मिथुनका राज्यानिषेक निर्तनार्थमुदकानाय पश्चिमी रोगल धन्तः । अत्रान्तरे देवराजस्य खल्वासन कम्पो विभाषा 'बनूव पूर्ववत्पादागत्यानिषेकं कृतवानिति । । (१०) स्वामिनो राज्याभिषेकः । आभोएनं सको, जवागओ तस्त्र कुरण अजिसे मनडाइ अकारं, नरिंदजोगं च से कुणइ || १२८ ॥ गमनिका आभोगयित्वा उपयोगपूर्वकेनायमविज्ञाय शो देवराज उपागतस्तस्य भगवतः करोति श्रभिषेकम् । राज्याभिषेकमिति । तथा मुकुटालङ्कारे व आदिशब्दात्कटककु गडल केयूरादिपरिग्रहः । चशब्दस्य व्यवहितसंबन्धो नरे 3 योग्यं (से) तस्य करोति त्रापि वर्तमानकालनिर्देशप्र योजनं पूर्वपदसेयम पाठान्तरम् "प्रभोसको आग नम्स कासिश्रमिसेयं । मउडादि अलंकारं नरिंदजोगं च से कासी" भावार्थः पूर्ववदेवेति गाथार्थः । अन्तरे ते मिथुनकनरास्तस्मात्पद्मसरसः खलु नलिनीपत्रैरुदकमादाय भगव यमीपमागत्य तं चाभूषितं विस्मय किंकर्तव्याकुलीनचेतसः कियन्तमपि का स्था भगवत्पादयोः तदुदकं निक्तिवन्त इति तानेवंविधक्रियोपेताहो खलु विनीता पुरुष नयोज वैश्रमण राजाज्ञापिता अविष्कम्भां विनीतां नगरी निष्यादयेति । स चाशासमन उसन रमेय दिव्यभवनमा कारलोपशोभितां नगरी चक्रे । मुमेवार्थमुपसंहरन्नाह । जिपि हे पर, सदयं पितुं इति पापमु सानियापुरसा बिनयरी अह निविहा । १२५ । गमनिका विखिनी के गृहीत्वा जन्तीति प्रक्षिपति र्तमाननिर्देशः प्राग्बत् पादयोरुपरि देवराइनिहतवान् साधु विनीताः पुरुषाः विनीतनगरी अथ निविऐति गाथा | १२६ ( ११ ) सांप्रतं राज्य संग्रहद्वारमभिधित्सयाऽऽह । आमा हत्य गावो, गहिया एए य रज्जसंगढ़ निमित्तं । वितृ एवमाई, चहिं संगहं कुणइ ।। १३० । गमनिका अश्या हस्तिनो गाव पतानि चतुष्पदानि ता गृहीतानि भगवता राज्ये संग्रहः तन्निमित्तं गृहीत्वा एवमादि चतुष्पदजातमसौ भगवान् चतुर्विधं वक्ष्यमाणलक्षणं संप्रहणं करोति । वर्तमाननिर्देशप्रयोजन पूर्ववत् पाठान्तरं वा चतुर्वि संग्रहं " कासी " इत्ययं गाथार्थः ॥ १३० ॥ स चायम् । उग्गा भोगा राय सनिया संगहो नये पड़ा। आरवखगुरुवयं सा सेसा जे खत्तिया ते ।। १३१ ।। सचायम् | उम्गहगाहा। गमनिका उग्रा भोगा राजन्या क्षत्रिया एवं समुदायरूपः संग्रहो भवेधतुर्धा । पतेषामेव यथासंख्यं स्वरूपमाह । ( आरक्खेत्यादि ) आरक्षका उम्रदण्डकारि त्वात् उग्रा गुर्विति गुरुस्थानीया भोगाः वयस्या इति राजन्याः समानवयस इति कृत्वा वयस्याः शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये क्षत्रियास्ते शब्दः पुनश्शब्दार्थस्ते पुनः कृषिया इति गाथार्थः । (१२) खोकस्थितिनिधनप्रतिपादनाय गाथाचतुष्टयमाह । हारे सिप्पकम्मे, मामला य विसणा । लेहे गणिए अरूबे अ. लक्खणे माणपोयए ।। १३२ ।। हारे नीइजु, ईसत्थे अनवासणा । तिमिच्छा अत्यसत्ये प्र, बंधे घाए जन्तृनवसमावा, मंगले कोरुएइ । मारणा ।। १३३ ।। गंधे अमले अ, अलंकारे तहेब य ॥ १३४ ॥ चोलो पवित्र हे अ, दलिया मडयपूयणा । कावणा नसा धूसदे छेलावणपुच्छणा ॥ १३५ ।। एताश्चतस्त्रोऽपि द्वारगाथाः । एताश्च भाष्यकारः प्रतिद्वारं व्याख्यास्यत्येव तथाप्यकरगमनिका मात्रमुच्यते तत्रापि प्रथमगाथामधिकृत्याह । तत्राहार इति आहारविषयो विधिर्वक्तव्यः कथं कल्पतरुफलाहाराजावः संवृत्तः कथं वा पक्काहारः संवृत्त पूर्ति तथा शिल्प इति शिल्पविषयो विधिर्वक्तव्यः । कुतः कथं कि या शिपायानामीति कर्मणीति कर्मविधिर्वाच्यः यथा कृषिवाणिज्यादिकर्म संजातमिति तचाग्नावुत्पन्न संज्ञानमिति ः समुच्चये (मामी) ममीकारायें देशवचनम् । ततश्च परिग्रह ममीकारो वक्तव्यः स तत्काल एव प्रवृत्तः यः पूर्ववत् विभूषणं विणा मनमित्यर्थः सा तव्या सा च भगवतः प्रथमं देवेन्द्रः कृता पश्चानोकेऽपि प्र वृत्ता । लेख इति लेखनं लेखः द्विपिविधानामित्यर्थः । तद्विषयो विधिर्वक्तव्यः ः तच जिनेन ब्राह्मचा दक्षिणकरेण प्रदर्शितमिति । ग णिनविषयो विधिर्वाच्यः एवमन्यत्रापि क्रिया योज्या । गणितं संबदनं गतासुन्दयां वामकरणोदिशमिति । कः सम Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५३) उसम भनिधानराजधः। उसभ रूपं काष्ठकर्मादि तच्च जगवतो जरतस्य कथितमिति । चः पू. र्यवाः खस्यागम्य कर्ण कथयन्ति किमपि प्राविवक्षितमिति । र्ववत् । लकणं पुरुषत्रवणादि तश्च नगवतैव बाहुबलिनः कथित- अथवा निमित्तादिपृच्छा सुखशयनादिपृच्छा चेति चतुर्थद्वारमिति ।मानमिति मानोन्मानाचमानगणिमप्रतिमानां लक्षणम् । गाथासमासार्थः ॥ ३५ ॥ श्राव०१०। श्वानी प्रथमद्वाराष(पात इति) धोहित्यः प्रोतं वा अनयोर्मानप्रोतयाबिंधिर्वाच्यः ।। यवानिधित्सया मूलभाष्यकृदाह ॥ तत्र मानध्धिाधान्यमानं रसमान च। तत्र धान्यमानमुक्तम् । "दो आसी कंदाहारा, मूसाहारा य पत्तहारा य । असती उपसती इत्यादि" रसमानं "चनसहिया वतीसिया एच. एफफनभाइयो वि या, जश्आ किर कुलगरो उमहो। मादि" २ सन्मानं येनोन्मीयते यद्वोन्मी मयते तद्यथा कर्ष गमनिका। मूसाहाराश्च श्रासन् कन्दाहाराः पत्राहाराश्च पुइत्यादि । अवमानं येनावमीयते तद्यथा हस्तेन वा दएमेन वा हस्तो पफलमोजिनोऽपि च कदा यदा किस कुलकर ऋषभः।भावार्थः वेत्यादि । ३ । गणिमं याएयते एकादिसंख्येति । प्रतिमानं गु. स्पष्ट पव नवरं ते मियुनका नरा एवंनूता आसन् किनशब्दस्तु आदि एतत् सर्वं तदा प्रवृत्तमिति । पोता अपि तदेव प्रवृत्ताः । परोक्काप्तागमवादसंसूचक इति गाथार्थः । तथा । तथा प्रकर्षण उतनं प्रोतः मुक्ताफसादीनां प्रोतनं तदैव प्रवृत्तमिति । प्रथमद्वारगाथासमासार्थः ॥ ३३ ॥ द्वितीयगाथागम भासी अइक्खुभोई, इक्वागा तेण खंत्तिया हुंति । निका ( ववहारेत्ति ) व्यवहारविषयो विधिर्वाच्यः राजकुल सणसत्तरसं धनं, आम प्रोमं च तुंजीपा॥ करणनाषाप्रतिपादनादिवकणो व्यवहारः स च तदा प्रवृत्तोलो- गमनिका । आसँश्च श्नुभोजिन श्दयाकवस्तेन क्वत्रिया भवकानां प्रायः स्वस्वभावापगमात् (णीतित्ति) नीती विधिर्व न्ति । तथा सणः सप्तदशो यस्य तत्सणसप्तदशं धान्यं शाल्यागि क्तव्यः । नीतिहक्काराविनवणा सामाधुपायलकणा वा तदैव आममपक्कम (ओमं) न्यूनं च (मुंजीया शति) तुक्तवन्त इतिगाजातेति (युकेयत्ति) युरूविषयो विधिर्वाच्यः। तत्र युकं याहुयु थार्थः । १३७ । तथापि काबदोषासदपि न जीर्णवत्ततश्च भग. कादिकं लावकादीनां वा तदैवेति (ईसत्येयत्ति ) प्राकृतशे चन्तं पृष्टवन्तः। जगवाँइचाह हस्ताज्यां घृष्ट्वाऽऽहारयश्वमिति॥ ल्या उकारसोपात् श्वशास्त्रं धनुर्वेदस्तद्विषयो विधियांच्य इति अमुमेवार्थ प्रतिपादनाह नायकृत् । तदपि तदेव राजधर्मे सति जातमथवा पकारान्तत्वात्सर्वत्र प्र. ओमप्पाहारंता, अजीरमाणम्मि ते जिणमुर्विति । थमान्ताः पव एव्याः । व्यवहार प्रति व्यवहारस्तदा जात पवं हत्यहि घंसिकणं, आहारेहंति ते जणिया ॥ ३८ ॥ सर्वत्र योज्यम । यथा " कयरे आगच्च वित्तवेत्यादि" (उ. गमनिका । अवममप्याहारयन्तः । अजीर्यमाणे ते मिथुनका घासणेति ) उपासना नापितकर्म तदपि तदेव जातं प्रागनव जिन प्रथमतीर्थकरमुपयान्ति । पूर्वावसपिणीस्थितिप्रदर्शनार्थ स्थितनखसोमान एवं प्राणिन आसन्निति गुरुनरेन्जादीनां चो वर्तमाननिर्देशो जगवता च हस्ताभ्यां घृष्ट्वा आहारयध्वमिति पासनेति । चिकित्सा रोगहरणशकणा सा तदैव जाता । एवं ते जाणताः सन्तः किं कुर्वन्ति ।। सर्वत्र क्रियान्याहारः कार्यः । ( अत्थसत्थेयत्ति) अर्थशास्त्र (वं. आसी य पाणिघसी, तिम्मि तंदुलपवालपुमनोई । धे घाते य मारणेयत्ति) बन्धो निगमादिजन्यः । यातो दएकाद हत्थतमपुमाहारा, जाकिर कुलगरो उसनो ।। ३ ।। सामना । जीविताद् व्यपरोपणं मारणेति सर्वाणि तदैव जातानीति द्वितीयाहारगाथासमासार्थः॥३३॥ तृतीयगायागमनिका । आसंश्च ते मिथुनका भगवदुपदेशात्पाणिज्यांघर्ष शीलं येषां एकारान्ताः प्रथमाद्वितीयान्ताः प्राकृत भवन्त्येव तत्र ये ज्ञानादि ते पाणिर्षिणः । एतदुक्तं भवति । ता पवौषधीः हस्तान्यां पृजारूपाः उत्सवाः शक्रोत्सवादयः समवायाः गोष्ठयादिमे- घृष्ट्वा त्वचं चापनीय नुक्तयन्तः । एवमपि कासदोषात् कियसकाः एते तदा प्रवृत्ताः मङ्गानि स्वस्तिकसिकार्थकादीनि को- त्यपि गते कामे ता अपि न जीर्णवत्यः । पुनर्नगवडुपदेशतः एव तुकानि रकादीनि मनमानि च कौतुकानि चेति समासः (मंग- तीमिततन्दुलप्रवासपुटभोजिनो बनूवुः । तीमिततन्मुलान् प्रवालेत्ति) एकारोऽलाकणिको मुखसुखोच्चारणार्थः। एतानि जगवतः अपुटे प्रोक्तं शीशं येषां ते तथाविधाः । तन्दुशय्देनौषध्य पयोप्राग् देवैः कृतानि पुनस्तदेव लोक प्रवृत्तानि । तथा वस्त्रं चीनां- च्यन्ते । पुनः कियतापि कालेन गच्छता अजीर्णदोषादेव भगवशुकादि गन्धः कोटपुटादिनकणः । माल्यं पुष्पदाम । अलङ्कारः मुपदेशेन हस्ततमपुटाहारा आसन् । हस्ततमपुटेषु माहारो केशनूषणादिनकणः। एतान्यपि वस्त्रादीनि तदैव जातानीति तृती. विहितो येषामिति समासः । हस्ततमपुटेषु कियन्तमपि कामयकारगाथासमासार्थः । चतुर्थगाथागमनिकातत्र(चूमेति )वा मौषधीः स्थापयित्वोपयुक्तवन्त इत्यर्थः । तथा कवासु स्वेदलानां चूमाकर्म तेषामेव कानाग्रहणार्थः नयनमुपनयनं धर्मश्रव- यित्वेति यदा किन कुनकर ऋषनशब्दः परोक्काप्तागमवादसंसूणनिमित्तं वा साधुसकाशं नयनमुपनयनम् । विवाह प्रतीत एवं चकस्तदा ते मिथुनका एवं भूता प्रासन्निति गाथार्थः । ३६ । पते घूमादयस्तदा प्रवृत्ताः ।। ३५० ॥ दत्ताच कन्या पित्रादिना पुनरभिहितप्रकारा द्वयादिसंयोगैराहारितवन्तस्तद्यथा पाणियां परिणीयत इति तत्तदैव संजातम् । निकादानं या नृतकस्य पूजा घृता पनपुटेषु च मुहूर्त तीमित्वा तथा हस्ताभ्यां घृष्ट्वा हस्तपुटेनाम मरुदेव्यास्तदेव प्रथमसिद्ध इति कृत्वा देवैः कृतोत लोके च पु च महतं धृत्या पुनर्हस्ताज्यां घृष्ट्वा कवास्येदं च कृत्वा रूढा। अध्ययना अग्निसंस्कारः स च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्य प्रथम पुनस्तीमित्वा हस्तपुटेषु च मुहत धृत्वेत्यादिनङ्गकयोजनां त्रिदशः कृतः पश्चाल्लोकेऽपि संजातः । नगवदादिदग्धस्थानेषु केचित्प्रदर्शयन्ति । घृष्ट्वा पदं विहाय तश्चायुक्तं त्वगपनयनमन्तस्तूपास्तदैव कृताः बोके च प्रवृत्ताः शब्दश्च रुदितशब्दो नग- रेण तीमितस्यापि हस्तपुटधृतस्य साकुमायत्यानुपपत्तेः श्लदणवत्यवापवर्ग गते सति जरतदुःखमसाधारणं ज्ञात्वा शक्रेण कृतो । वनाचत्वाद्वा अदोष इति । द्वितीययोजना पुनस्ताच्या घृष्ट्या लोक ऽपि रूढ एव । "ज्ञापनक" इति देशीवचनमकृपयासक्री- पत्रपुटेषु तीमित्वा हस्तपुटेषु च महतै धृत्वेति । तृतीययोजना मापनसाटकाथवाचकमिति । तथा प्रच्छनं प्रच्छना मा इंखिः । पुनर्हस्तायां घना पत्रपुटेपुतमित्वा हस्तपुटेषु धृया कलासु णिकादिसणा विणिका कर्ण मूबे घभिटकां वानयन्नि पूनः | म्बदयिन्याना ... । Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसन्न अभिधानराजेन्द्रः। जसम अमुमेवार्थमुपसंहरनाह । वस्त्रशिल्पमुत्पादितं तदनन्तरं गृहाकारेयपि कल्पद्रुमेषु हानिघंसेकणं तिम्मण, घसणतिम्मणपवानपुमनाई । मुपगच्छत्सु गृहकरणनिमित्तं लोहकारादिशिल्पमुत्पादितं प. घंसियनिम्मपवाले, हत्थउडे कक्खसेए अ॥३०॥ श्चात्प्राणिनां कालदोषान्नखरोमाणि अपि वर्द्धितुं प्रवृत्तानीति जावार्थ उक्त एव नवरमुक्तार्थाकरयोजना । घृष्ट्वा तीमितं कृत नापितशिल्पोत्पादना । गृहाण्यपि च चित्ररहितानि विशोबत इत्यनेन प्रागभिहितप्रत्येकनङ्गकाकेपः कृतो वेदितव्यः । भानि भान्तीति चित्रकारशिल्पोत्पादना कुम्भकारशिल्पोत्पादपृष्ठा प्रवाबपुटतीमितमोजिन इत्यनेन द्वितीययोजनाक्केपः । कारणं प्रागेव भावितम् । " एकेकस्स येत्यादि " एभ्यः पघूति घृष्ठातीमनं प्रवान इति प्रवाले तीमित्वा हस्तपुटेषु कि इचभ्य एकैकस्य विंशतिर्विशतिभेदाः अभूवनिति सर्वसंख्यया पन्तमपि कालं विधाय नुक्तवन्त इति वाक्यशेषः इत्यनेन तृती तदा शिल्पशतस्योत्पत्तिरभवदिति ।। ४५ ॥ ययोजनाकेपः । तथा कक्कास्वेदे च कृते सति नुक्तवन्तः इत्यने संप्रति कर्ममामणाविभूषणाद्वारप्रतिपादनार्थमाह। मानन्तरानिहितत्रययुक्तेन चतुर्भङ्गक्रयोजनाकेप इति गाथार्थः। कम्म किसिवाणिज्जा-इमामणा जा परिग्गहे ममता। भत्रान्तरे। | पुच देवेहिं कया, विनसणा मंझणा गुरुणो ॥४६॥ अगणिस्स य उट्ठाणं, घुमघंसा दह जीअपरिगहणं । । कर्म नाम कृषिवाणिज्यादि । तश्चानावुत्पन्ने संजातमिति पासेसु परिच्छिदह, गिएडह पागं तो कुएहह ॥११॥ (मामणेत्ति ) ममीकारार्थे देशीवचनमेतत् । ततो योऽपरिमाह सर्व तीमनादि ते मिथुनकास्तीर्थकरोपदेशात्कृतवन्तः ग्रहे ममता सा मामणा ज्ञातव्या सा च तत्काल पक्ष प्रवृसब नगवान् आतिस्मरः सन् किमित्यम्युत्पादोपदेशं न दत्त त्तेति । तथा विभूषणा मण्डना सा च पूर्व देवेन्द्रैर्गुरोर्भगवतः आदितीर्थकृतः कृता पश्चाल्लोकेऽपि प्रवृत्तेति । बानिस्युच्यते तदा कालस्यैकान्तस्निग्धत्वात् असत्यपि यत्ने वस्त संप्रति लेखगणितरूपद्वारद्वयप्रतिपादनार्थमाह । " स्पत्तरिति स च भगवान् विजानाति न खेकान्तस्निग्धरुक्कयोः कायोलिपुत्पादः किं त्वनतिस्निग्धरूतकाल इत्यतो नादिष्टवा देहं लिवीविहाणं, जिणेण बंभीए दाहिणकरेण । मिति तेषां च चतुर्नङ्गविकल्पितमप्याहारं कालदोषान्न जीर्णवत्: गणिय संखाणं सुं-दरीए वामेण उवइह ॥४७॥ श्त्यस्मिन् प्रस्ताव अग्नेश्वोत्थानं संवृत्तमिति । कुतः दुमघर्षात्तं लेखनं लेखो नाम सूत्रे नपुंसकता प्राकृतत्वाल्लिपिविधानं तच घोत्थितं प्रवृहज्वालावलीसनाथं भूप्राप्तं तृणादि दहन्तं दृष्ट्वा अ- जिनेन भगवता ऋषभस्वामिना ब्राहम्या दक्किणकरण प्रदर्शितपूर्वरताचा प्रहणं प्रति प्रवृसवन्तः दह्यमानास्तु भीतपरिकथ- मत एष तदादित प्रारज्य वाच्यते। गणितं नाम एकविध्यादिसंनमुपजाय कृतवन्तः इति । भीतानां परिकथनं जीतपरिकथनम् । ख्यानं तच भगवता सुन्दर्या घामकरेणोपदिष्टमत एव तत्पजीस्या वा परिकथन भीतिपरिकथनं पागन्तरमिति | जगवा र्यन्तादारभ्य गण्यते । अधुना रूपलक्षणमानरूपद्वारत्रयप्रनाह पार्वेत्यादिसुगम ते दि अजानाना बहावेवौषधीः प्रक्तिप्तव- तिपादनार्थमाह। म्सः ताव दाहमापुः पुनस्ते भगवतो इस्तिकन्धगतस्य निवेदय- जरहस्स रूवकम्म, नराश्लक्खणमहोइयं वलियो । स्ति । स हि स्वयमेवौषधानकयतीति । भगवानाहन तत्रान्निरो माणुम्माणुवमारणं, पमाणग मा य वत्थूणं ॥४८॥ हितानां प्रकपः॥४१॥ इत्थं तावत्प्रथम कुम्भकारशिल्पमुत्पन्नममु रूपं नाम काष्टकर्म पुस्तककर्मेन्यवमादि । तच्च भगवता भरमेवार्थमुपसंहरबाह। तस्योपदिष्टम् । तथा नरादिबकरणं पुरुषलवणादि तच्च । अथ पक्खेवदहणमोसहि, कहणं निग्गमणहत्थिसीसम्मि । जरतस्य काष्ठकर्माद्युपदेशानन्तरं भगवता बाहुबनिन उदितं पयणारंजपवित्ता, ताहे कासी य ते माया ॥ ४२ ॥ कथितम् । तथा मानं नाम वस्तूनां मानोन्मान.वमानप्रमाणगमित्रेण हस्थिसीसे, मट्टियपि गहाय कुमगं तु । णितानि तत्र मानं द्विधा धान्यमानं रसमानं च । धान्यमानम् नियत्तेसिअ तह आश्-जियोवइडेण मम्गेण ॥४३॥ "दो असतीए सश्या दो य सईतो सेश्या चत्तारि सेश्या कु सयो चत्तारि कुलबो पत्थो"श्त्यादि । रसमानं " चउसनिव्वत्तिए समाणे, जणई राया तो बहुजणस्स । द्विया चनतिसिया सोलसिया" इत्यादि । चन्मानं येनोन्मीयते एवआ भे कुबह, पथहि पढमसिप्पं तु ॥ ४ ॥ तच्च तुलागतं कर्षः पसमित्यादि । अवमानं येनावमीयते त. भावार्थ उक्त एव किंतु क्रियाध्याहारकरणनाकरगमनिका | यथा हस्तो दएको युगामत्यादि । प्रमाणं प्रतिमानं तच्च सुवस्वबुख्या कार्या । यथा प्रक्षेपं कृतवतो दहनमौषधीनां बभूवे। र्णपरिमाणहेतुः गुआदि गणिमं यदेकादिसण्यया परिच्चिद्यते । स्यादि उक्तमाहारहारम् । श्राव.१ अ। यत्तु गाणत सत्प्रागेव पृथग्द्वारतयाभिहितमेतत्पश्चप्रकारमपि शिलाद्वारावयवानिधित्सयाऽऽह । मानं भगवति राज्यमनुशासति भगवडुपदेशेन प्रवृत्तमिति (पोपंचेव य सिप्पाई, घडलोहे चित्तणंतकासवए : यए)इति द्वारगाथायां यमुक्तं तस्य संस्कारःप्रोतकमिति। पोतक एकेकस्स य पत्तो, वीसं वीसं न भेया ॥४॥ शत वा । तथाचाह । माणियाई दोराइसु, पोता तह सागरम्मि वहणाई । पञ्चैव मूलभूतानि शिल्पानि । तद्यथा (घडलोहे चित्तणं-| ववहारो लेहवणं, कज्जपरिच्छेयणत्यं वा ।। ए ॥ तकासवपाति) तत्र घट इति कुम्भकारशिल्पस्योपलक्षणं (लोहेसि) लोहकारशिल्पस्य ( चित्ति ) चित्रकारशि- ये मणिकादयः प्रादिशब्दान्मुक्ताफलादिपरिग्रहः । दवरकास्पस्य "प्तमिति" देशीवचनं वखवाचकं ततोऽनेन वस्त्र- दिषु लोकेन प्रोताः क्रियन्ते तदेतत्प्रकर्षेण उतनं तदा प्रवृत्तम् । शिरूपस्य ग्रहणं काश्यप इति नापितशिल्पस्य । इयमत्र भा- अथवा पोता नाम सागरे समुने प्रवडणानि तान्यपि तदैव बना । वनक्षेषु परिहीयमानेषु भगवता वसोत्पादनिमित्तं । प्रवृत्तानि । तथा व्यवहारो नाम विसंवादे सति राजकुछ करणे Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसन अभिधानराजेन्मः। नसन गत्वा निजनिजनाषालेखापन अक्षणः कार्यपरिच्छेदनार्थ वा पण- तथा मङ्गसानि नाम स्वस्तिकसुवर्णसिकार्थकादीनि पूर्व देवैनमुक्तिलकणः स उन्नयरूपोऽपि तदा प्रवृत्तः कालदोषतो लोकानां | गवतो मङ्गलवुवा प्रयुक्तानि ततो लोकेऽपि तथा प्रवृत्तानि । प्रायः स्वस्वन्नावापगमात् । संप्रति कौतुकादिद्वारपञ्चकमाह । ___अधुना नीतियुकरूपं द्वारद्वयमनिधित्सुराह । पुनं कयाइं पहुणो, सुरेहिं रक्खादिकोउयाई च । नीई हकाराई, सत्तविहा अहव सामभेयाई । तह वत्थगंधमता-लंकारकेसनूसाइ ।। ५५ ।। जुधाइँ बाहुजुकाइ, यइ वट्टयाईणं च ।। ५० ॥ तं दखूण पवत्तो, लंकारे न जणो असेसो वि । नीतिई कारादिलक्षणा सप्तविधा । तद्यथा हक्कारो मक्कारो घि- पूर्व प्रवृत्तो जगवतः ऋषभस्वामिनः सुरैः कृतानि कौतुकानि कारः परिभाषणा मएमसीबन्धश्चारके प्रवेपो महापराधे वि- रवादीनि ततो लोकेऽपि तानि जातानि । तथा वखं चीनांशुकाच्छेद इति । एषा सप्तविधापि नीतिस्तदा विमलवाहनकुलकरा- दिभेदनिम्नं गन्धः कुटपुटादिलकणः माल्यं पुष्पदाम । एतानि दारज्य भरतकाचं पर्यन्तं कृत्वा यथायोगं प्रवृत्ता। तथा च व-तदैव जातान । अबकार:केशनधादिः तं चाला यति" किंचिच भरहकावे" इत्यादि।अथवा नीति म साम- देवैः कृतं हा अवशेषोऽपि स्वं स्वमतं कर्तु प्रवृत्तः । भेदादिका चतुष्प्रकारा। तद्यथा सामभेदो दण्डः उपप्रदानमिति संप्रति चूलाद्वारमाह ॥ एषा चतुर्विधाऽपि भगवत्कोले समुत्पन्नेति । तथा युकानि नाम विहिणा चूलाकम्मं, वालाणं चोलयं नाम ।। ५६ ।। पाहुयुद्धादीनि । यदि वा वर्तकादीनां तानि उभयान्यपि तदा चूमा नाम विधिना शुभनक्कातिथिमुहर्तादौ धवसमासेष्टदेवप्रवृत्तानि । तापूजास्वजनभोजनादिलकणेन बालानां चूमाकर्म तदपि तदा सांप्रतमिषुशास्त्रोपासनारूपं द्वारद्वयमाह। प्रवृत्तम्। ईसत्यं धणुवेदो, उवासणा मंसुकम्ममाईया । संप्रत्युपनयनद्वारमाह । गुरुरायाईणं वा, उचासणापज्जुवासण्या ॥५१॥ नवनयणं तु कलाणं, गुरुमूले साहुणो तवोकम्म । इषुशास्त्र नाम धनुर्वेदः स च राजधर्मे सति प्रावर्तत उपास- घेत्तुं हवंति सप्ता, केई दिक्खं पवति ॥ ७ ॥ ना नाम श्मश्रुकर्तनादिरूपं नापितकर्म तदपि तदैव जातं उपनयनं नाम तेषामेव वामानां कसानां ग्रहणाय गुरोः कसाचापूर्वे धनवस्थितनखरोमानस्तथा कालमाहात्म्यतः प्राणिनोऽभव- र्यस्य मुझे समीपेनयनम् । यदि वाधर्मश्रवणनिमित्तं साधोः सकानिति । एषा च शिल्पान्तर्गततया प्रागभिहिताऽपि पुनः पृथग्द्वा- शं नयनमुपनयनं तस्माश्च साधोधर्म गृहीत्वा केचित् श्राशाजवरतयोपन्यस्ता भगवत्काल एव नखरोमायतिरेकेण प्रयर्षितुं न्त्यपर लघुकर्माणो दीवां प्रपद्यन्ते। एतश्चोभयमपि तदा प्रवृत्तम् सग्नानि तत्पूर्वमिति ख्यापनार्थम् । यदि वा पासना नाम अधुना विवाहद्वारं दत्तिद्वारमाह। गुरुराजादीनां पर्युपासना सापि तदैव प्रवृत्ता । अधुना दढे कयं विवाहं, जिणस्स लोगो वि कानमारको । चिकित्साशास्त्रबन्धधातरूपद्वारचतुष्टयप्रतिपादनार्थमाह । गुरुदत्तिया य कमा, परिणिते ततो पायं ॥ ७ ॥ रोगहरणं तिगिच्छा, अत्थागमसत्थमत्थसत्थिात्ति । दत्तव्य दाणमुसभं, दित्तं दर्दु जणम्मि विपयत्तं । निगमाइजमा बंधो, घातो दंडादितालणया ॥ ५॥ चिकिन्सा नाम रोगापहारक्रिया साऽपि तदैव भगवउपदेशा जिणभिक्खादाणं पिय, दई जिक्खा पवत्ताओएएगा त्प्रवृत्ता । अर्थागमनिमित्तं शास्त्रमर्थशास्त्रम् । बन्धो निगमादि जिनस्य नगवत ऋषनस्वामिनो कृतं विवाहं राष्ट्वा लोकोऽपि भिर्यमः संयमनं घातो वएमादिनिस्तामना । पतेऽपि अर्थशा स्वापत्यानां विवाहं कर्तुमारब्धवान् । गतं विवाहद्वारम् । दत्तिस्रबन्धघातास्तत्काले यथायोगं प्रवृत्ताः । द्वारमाह । भगवता युगधर्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता अधुना मारणयहोत्सवरूपद्वारत्रयप्रतिपादनार्थमाह । ब्राह्मी बाहुबनिने दत्ता बाहुबलिना सह जाता सुन्दरी भरताये मारणया जीववहो, जन्नानागाइयाण पूयातो। ति दृष्ट्वा तत आरज्य प्रायो लोकेअर्प कन्या पित्रादिना दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम् । अथवा दत्तिर्नाम दानं तच नगवन्तइंदापमहापूया, पइनियया ऊसवा होति ।। ५३॥ मृषभस्वामिमं सांवत्सरिकं दानं ददतं रष्ट्रा लोकेऽपि प्रवृत्तम्। मारणं जीववो जीवस्य जीविताद् व्यपरोपणं तश्च जरतेश्व-। यदि वा दत्तिर्नाम भिक्कादानं तच जिगस्य निक्कादानं प्रपौत्रेण रकाले समुत्पन्नम् । यहा नागादीनां पूजाः सत्सवाः प्रायः प्रति- कृतं दृष्टा लोकेऽपि भिका प्रवृत्ता । सोका अपि निकां दातुं प्रवृ. नियताः वर्षमध्ये प्रतिनियतदिवसनाविनः इम्सादिमहापूजा | ता इति भावः।। स्त्वनियतकालभाविन्य इति महोत्सवानां प्रतिविशेषः । एतेऽपि अधुना मृतकपूजाध्यापनास्तूपशब्दद्वाराण्याह। तत्काले प्रवृत्ताः। ममयं मयस्स देहो, तं मरुदेवीए पढमसिको ति। संप्रति समवायमङ्गलरूपधारद्वयमनिधित्सुराह । देवेहिं पुरा महिर्ग, झावणया अगिसक्कारो ॥६०॥ समवानो गोट्ठीणं, गामाईणं व संपसारो वा। सो जिगदेहाईणं, देवेहिं कतो चितासु थूना य । तह मंगझाइसोस्थिय, सुवमसिछत्थगाईणि ॥ ५४॥ सदो य रुप्लसद्दो, लोगो वि ततो नहा य कतो ॥११॥ समवायो नाम गोष्ठिनां मेलापकः । यदि वा प्रामादीनामादि- मृतकं नाम मृतस्य देहस्तच मृतकं मरुदेव्याः प्रथर्मासद्ध शब्दात खेटवाटनगरादिपरिप्रहः । स एकीभावेन किमप्युद्दिश्य इति कृत्वा देवैः पुरा महितं पूजितम् । तत प्रारभ्य लोकेऽपि एकत्र मीलनं संप्रसारः समवायः । किमुक्तं जवति प्रामादिजना- | मृतकपूजा प्रसिद्धिंगता । ध्यापना नामाग्निसंस्कारः सच मां किंचित्प्रयोजनमुद्दिश्य यदेकर मीसनं स वा समवाय इति।। भगवतो निर्वाणप्राप्तस्यान्येषां च साधूनामिवाकूनामितरेषां Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५६) उसम अभिधानराजन्यः। च प्रथम त्रिदशैः कृतः पश्चालोकेऽपि संजातः। तथा भगव- बासमध्ये वसन् लिपिविधानादिका गणितमङ्कविद्या धर्मकर्मदेहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपाः कृताः ततो लोकेऽपि तत व्यवस्थितौ बहुप्रकारत्वात् प्रधाना यासु ताः । शकुनरुतं पक्किप्रारभ्य मृतकदाहस्थानेषु स्तूपाः प्रावर्तन्त । तथा शब्दोनाम जाषितं पर्यवसाने प्रान्ते यासां तास्तथा द्वासप्ततिकलाः कनरुदितशम्दः स च भगवस्यपवर्ग गते भरतदुःखमसाधारणम- नानि कझाविज्ञानानीत्यर्थस्ताः कसनीयभेदात् द्वासप्ततिः अ. षबुध्य तदपसरणाय शक्रेण कृतस्ततो लोकेऽपिततःकालादा- र्थात् प्रायः पुरुषोपयोगिनीः । चतुःषष्टि महिलागुणान् स्त्रीगुरभ्य रुदितशम्दाः प्रवृत्तास्तथा चाह लोकोऽपि । तथा भरत- णान् कर्मणां जीवनोपायानां मध्ये शिरपशतं च विज्ञानशतं व यत् शक्रवत् वा रुदितशब्दं प्रवृत्तः कर्तुमारब्धवान् । कुम्नकारशिल्पादिकं त्रीण्यप्येतानि वस्तूनि प्रजाहिताय लोको. संप्रति लापनकद्वारं पृच्छाद्वारं चाह । पकारायोपदिशति । अपिशब्दः एकोपदेशकपुरुषतासूचनार्थः । बेलावणमुक्किट्ठाइ, वानकीलावणं च सेंटाइ । वर्तमाननिर्देशश्चात्र सर्वेषामाद्यतीर्थकराणामयमेवोपदेशविधिखिणियादिरुयं वा, पुच्छा पुण किं कहिं कजं ॥६॥ रिति ज्ञापनार्थम् । यद्यपि कृषिवाणिज्यादयो बहषो जीधनोपा यास्तथापि ते पाश्चात्यकाले प्रादुर्बनूवुः । जगवता तु शिल्पअहव निमित्ताईणं सुह-सइ याइ मुहमुक्खपुच्छा वा । शतमेवोपदिष्टमत एवाचार्योपदेशज शिल्पमनाचार्योपदेशं तु इच्चवमाइयाई, नप्पन्नं उसनकालम्मि ॥ ६३॥ कर्मेति शिल्पकर्मणोर्विशेषमामनन्तीति । श्रीदमसूरिकृतादिदेव लापनकमिति देशीवचनं तच्चानेकार्थ तथाचाह । " उक्कि- चरित्रे तु । " तृणहारकाष्ठहार-कृषिवाणिज्यकाम्यपि । कर्माछाइ इत्यादि" उत्कर्ष नाम हर्षवशादुत्कर्षेण नर्दनमादिशब्दात् एयासुत्रयामास, लोकानां जीविकाकृते ॥१॥" इत्युक्तमस्ति -सिंहनादितादिपरिग्रहः । यदि वा वालक्रीडनं केलापनकम् । तदाशयेन तु “कम्माणमित्यत्र" द्वितीयाथै षष्ठी केया। तथा अथवा शैटितादि । तथा प्रच्छनं पृच्छा साइंखिणिकादिरुदि- च कर्माणि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रीएयप्युपदिशति इत्यपि तलक्षणा । इंखिणिका हि कर्णमूले घण्टिका चालयन्ति ततो व्याख्येयम् । शिल्पशतं च पृथगेवोपदिशति इति शेयमिति जं. यकाः खल्वागम्य तासां कर्णेषु किमपि प्रष्टुर्विवक्षितं क- २ वक्त । (अथात्र सूत्रसंतपतः प्रोक्ता विस्तरस्तु राजप्रश्नीयाथयन्ति । श्रादिशब्दात् इंखिणिकासरशपरिग्रहः । अथवा किं दर्शेषु दृश्यमाना द्वासप्ततिकशास्ताश्च कलाशब्दे दर्शयिष्यन्ते) कार्य कथं वा कार्यमित्येवं लक्षणा या लोके प्रसिद्धा पृच्छा। शिल्पशतं चेदं कुम्नकल्लोहकृच्चित्रतन्तुवायनापितसवणानि प. सा प्रच्छना । यदि वा निमित्तादीनामादिशब्दात्स्वमफलाफ- इच मूत्रशिल्पानि तानि च प्रत्येकं विंशतिजेदानीति । तथा-- लादिपरिग्रहः। पृच्छा प्रच्छना । अथवा सुखशयितादिरूपा | चार्षम् " पंचेव य सिप्पा, घस्रोह चित्तणतकासाए । इकिकसुखदुमपृच्छा प्रच्छना इत्येवमादितया सर्वमुत्पन्नमृषभस्वा- स्स य पत्तो, बीसं बीसं भवे भेा ॥१॥" इति । नन्व!षां मिकाले । उपलक्षणमेतत् । किश्चिद्भरतकाले किश्चित्कुलकर पञ्च मूशिल्पानामुत्पत्ती किं निमित्तमित्युच्यते युग्मिनामामौकाले च । तथाचाह । पस्योदरे मन्दाग्नितया अपच्यमाने द्रुतजि प्रतिप्यमाने तु किंचिच्च भरहकाले, कुलगरकाले वि किंचि उप्पन्न । समकालमेव दह्यमाने युगलिकनरैर्विज्ञप्तेन हस्तिस्कन्धारूढेन भ. पहुणा उदेसियाई, सव्वकला सिप्पकम्माई ६४॥ गवता प्रथमं घटशिलामुपदार्शतं क्वत्रियाः शस्त्रपाणय एव ऐज्यः प्रजा रक्युरिति मोहशिल्पं, चित्रानेषु कल्पड़मेषु होयमानेषु किञ्चिनिगडादिभिर्घात इत्यादिभरतकालोत्पन्नं किंचित् | चित्रकृच्छिल्पं, वस्त्रकल्पं अमेषु हीयमानेषु तन्तुवायशिस्पं, बहकारितं कुलकरकालेऽप्युत्पलं प्रभुणा तु भगवता ऋषभस्वामिना सर्वा गणितप्रभृतयः कलाः सर्वाणि घटशिल्पप्रभृ हुसे युग्मिधर्मे पूर्वमवर्धिष्णु रोमनखं मा मनुजान्तुदत्विति ना. तीनि शिल्पानि सर्वाणि च कृष्यादीनि कर्माणि देशितानि । पितशिल्पमिति । श्रीहेमाचार्यकृतभचरित्रे तु गृहादिनिमित्त मा० म०प्र० श्राव। धर्कक्ययस्कारयुग्मरूपं हितीयं शिल्पमुक्तं शेषं तत्तथैवेति । (१३) श्रीशषजदेवस्य वासः। मनु नोग्यसत्कर्माण पवाईन्तो भगवन्तः समुत्पन्नव्याधिप्रतीका रकटपरुयादिपरिग्रहं कुर्वते नेतरत्ततः किमसौ निरबौकरुचिसोणं उसमे रिहा कोसलिए वीसं पुन्चसयसहस्साइंकु भगवान् सावद्यानुसंबन्धिकसाघुपदर्शने प्रववृते ? उच्यते स. मारवासमज वसवसश्त्ता तेवहि पुव्वसयसहस्साई महारा- मयानुभावतो वृत्तिहीनेषु दीनेषु मनुजेषु पुःस्थविभाव्यसंजातयवासमज्के वसइ तेवहिं पुव्वसयसहस्साई महारायवासमके करुणैकरसत्वात् । समुत्पन्न विवक्कितरसो हि नान्यरससापेको वसमाणे हाइमाओ गणिअप्पहाणाओ सउणरुपज्जव- नवतीति वीर व द्विजस्य चीवरदाने । अथैवं तर्हि कथमधिसाणाओ वाबत्तरि कलाभो चोसहि महिलागुणे सिप्पसयं कलिप्सोस्तस्य सति सकोऽशुके शकलकदानं सत्यं जगवतश्च नुर्धानधारकत्वेन तस्य तावन्मात्रस्येव माभस्यायधारणेनाधि. चकम्माणं तिमि वि पयाहिआए उवदिसत्ति ॥ कयोगस्य केमानिर्वाहकत्वदर्शनात् । कथमन्यथा भगवदंशस्थसतो जन्मकल्याणकानन्तरमित्यर्थः । ऋषन्नोऽईन कौशलिका सस्तच्चकन्नग्रहणेऽपितपुच्चरित्कृताई विभाजकस्तन्तुषायः समविशात पूर्वशतसहस्राणि पूर्यप्रकाणि भावप्रधानत्वानिर्देशस्य जायत । किं च फलाद्युपायेन प्राप्तसुखवृत्तिकस्य चौर्यादिव्यकुमारत्वेनाकृताभिषेकराजसुतत्वेन वासोऽवस्थानं तन्मध्ये व- सनाशक्तिरपि न स्यात् । ननु भवतु नामोक्तसुखहेतोर्जगद्भर्तुः सति । “कुमारवासमज्जावस" इति पाने तु कुमारवासम- कलाद्युपदर्शकत्वं परं राजधर्मप्रवर्तकत्वं कथमुचितमुच्यते । च्याषसति आश्रयतीत्यर्थः । उषित्वा च त्रिषष्टिपूर्वलक्वाणि श्र- शिष्टानुग्रहाय दुष्टनिग्रहाय धर्मस्थितिसंग्रहाय च। तेच राज्यप्रापि भावप्रधानो निर्देश ति महाराजत्वेन साम्राज्येन वासो | स्थितिनिश्रयाः सम्यक्प्रवर्तमानाः क्रमेण परेषां महापुरुषमाऽवस्थानं तन्मध्ये घसति । तत्र वसत कथं प्रजा उपचके - गोपदर्शकतया चौर्यादिव्यसननिवर्तनतो नारकातिथेयीनिधास्याह " तेव िन्यादि" त्रिएिं पूर्वकासि याचन्महाराज- रकतया ऐहिकामुष्मिकसुखसाधकतया च प्रशस्ता एवेति । Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसन अभिधानराजेन्द्रः। नसन महापुरुषप्रवृसिरपि सर्वत्र परार्थत्वसाधकताबहुगुणाल्पदोष- वनः ॥ १६ श्रीमालः १७ नेपालः १८ जहाबः१६ कौशलः २० कार्यकारणविचारणापूर्वकैवेति । युगादो जगमवस्था प्र- मानवः २१ सिंहलः २२ मरुस्थलादीनि १३ छयानि बन्धवणः धमेनैव पार्थिवेन विधेयेति । हातमपीति स्थानाङ्गपश्चमाध्य- कल्प० । (राज्यादिप्रधानस्य किं फलमिस्यन्यत्र ) यनेऽपि " धम्मर्ण चरमाणस्स पंचणिस्सा ठाणा पमत्ता तं (१५) अथ भगवतो दीवाकल्याणकमाह । ज छक्काया १ गणो २ राया ३ गाहापई सरीर" ५ मित्याचावश्यकवृत्तौ राज्ञो निश्रामाश्रित्य राजा नरपतिस्तस्य धर्मस अभिसिंचित्ता तेसीई पुव्वसयसहस्साई महारायवासमा हायत्वं दुष्टेभ्यः साधुरकणादोत्युक्तमस्तीति परमकरुणापरी के वसइ वसत्ता जे से गिलाणं पढमे मासे पढमे पक्व तचेतसः परमधर्मप्रवर्तकस्य ज्ञानत्रययुक्तस्य भगवतो राज- चित्तबहले तस्स णं चित्तबहुलस्स णवीपक्खे णं दिवधर्मप्रवर्तकत्वे न काप्यनौचिती चेतसि चिन्तनीया युक्त्युप सस्स पच्छिमे भागे चइता हिरणं चइता सुवमं चइत्ता पञ्चत्वात् तद्विस्तरस्तु जिनमगवत्पश्चाशकसूत्रवृस्योर्यतनाद्वारे कोर्स कोडागारं चइत्ता वलं चाचा वाइणं चइत्ता पुरं चव्यक्या दधितोऽस्तीति तत पवावसेयो प्रन्थगौरवभयादत्र न लिख्यते इति । एतेन “राज्यं हि नरकान्तं स्थाद् यदि राजा इत्ता अंतेनरं चइचा विउलधणकणगरममणिमोतियसंन धार्मिकः" इन्युक्किरपि बढयद्धमूला न कम्पत इति । किं खसिन्नप्पवालवणरत्तसतसारस्सा वइएजं विवइयित्ता विचात्र तृतीयारकमान्ते राज्यस्थित्युत्पादे धर्मस्थित्युत्पादः पन्च बोचहत्ता दाणं दाइ आणं परिजाएत्ता सुदंसणाए सीएसीमारकप्रान्ते “ वसुअरुरीसंघधम्मो, पुब्घरहे विज्जही अगणि आए स देवमणुअमुराए परिमाए समागम्ममाणमग्गे संसंघ । निवविमलवाहणसुहुम-मतिनयधम्ममज्झरहे" ? इति बचमातू धर्मस्मितिषिच्छेने राज्यस्थितिविच्छेद इत्यपि राज्य खिअचकिअणंगनिअमुहमंगलिअपूरसमाणवकमाणग-- स्थितिहेतुस्वाभिध्याकमेवेति सर्व सुस्थमित्यलं विम्तरेणेति । माइक्खगलंखमंखघंटिअनणेहि ताहि इटाहिं कंताहि पीयाजं. २ वक्षः । कल्प० । स०। हिं म गुमा मगासहि उरालाहि कहाणा हिंधणाहिं मं. (१५)पुत्राणां राज्याभिषेकस्तदनुच भगवान् कि चक्रे इत्याह । गमाहिं सस्सिरीमा हिययगमणिग्राहिं हिययल्हायणिउवदिसित्ता पुत्तसय, रज्जसए अनिसिचा। ज्जाई काममनिव्वुझ्करााह अपुणरुत्ताहिं सहसइयाहिं वउपदिश्य कनादिकं पुत्रशतं जरतबाहुयविप्रमुखं कोशलात- ग्गुहिं अणवरयं अभिणदंताय अनिवृणंताय एवं वयासी जय कशिलादिराज्यशते अभिषिञ्चति स्थापयति । अत्र शङ्खादिप्र- जय नंदा जय नहा धम्मेणं अभीए परीसहोवग्गाणं खंति भजनावसानानि भरताटनवति चातृनामानि अन्तर्वाच्यादि खमे नयनेरवाणं धम्मे ते अविघं जवउ तिकडु अभिघुसुप्रसिहानीति नलिखितानि देशनामानि बहन्यप्रतीतानीति। जश्वक । कल्पसुबोधिकारेण तु दर्शितानि । नन्दननामानि दति य अजिधुणंति य तएणं उसने अरहा कोसलिएण सानि चेमानि । भरतः।। बाहुबनिः। शक ३ विश्वकर्मा पणमालासहस्सेहिं पि बिजमाणा एवं जाव णिग्गच्छा । विमनः ५ सुभक्तणः ६ अमनः ७ चित्राः ८ ख्यातकीर्तिः ९ जहा नववाए जाव आउलबोलबदुलं गभंकरे ते विणीयरदत्तः१० सागरः ११ यशोधरः १३ अमरः १३ रथवरः १४ आए रायहाणीए मझण णिग्गच्छइ आसिअसंमजिअ कामदेवः १५ भ्रवः १६ वच्चः १७ नन्दः१८ सुरः१५ सुनन्दः२० सितमुत्तसुइकपुयावयाकरे कनि सिकत्यवणविउलराय कुरुः२१अः२२ वडा २३ कोशः२४ बीर.२५ कमिशः २६माग धः२७ विदेहः २८ संगमः२६ दर्शाणः३० गम्भीरः३१ वसुचर्मा मग्गं करेमाणे हयगयरहपहकरेमाणे पाइकचमकरेण य मंठं ३२सुवर्मा ३३ राधः३४सुराधः३५बुद्धिकरः३६ विविधकरः३७सुय २ उद्धतरेण्यं करेमाणे २ जेणेव सिफत्यवणे उज्जाणे शाः३० यशःकीर्तिः ३६ यशस्करः४० कीर्तिकरा४१ सूरणः ४५ जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्च न्वागच्चइत्ता ब्रह्मसेनः ४३ विक्रान्तः ४४ नरोत्तमः ४५ पुरुषोत्तमः ४६ पन्छ असोगवरपायवस्स अहेसीअं ठावेइ गवेइत्ता सीधाश्रो सेवः५७ महासेनः ४ ननस्सेनः ए भानुः ५० सुकान्तः ५१ पुष्पयुतः ५२ श्रीधरः ५३ ऽधर्षः ५५ सुसुमारः५५ उर्जयः ५६ पच्चोरुहइ पचोरुहत्ता सयमेवानरणालंकारं मुअइ मुअइत्ता अजेयमानः५७ सुधर्मा ५७ धर्मसेनः ५६ आनन्दनः ६० आनन्दः६१ सयमेव चनहिं अट्ठाहिं मुट्टिहिं लाकरेइ करेइत्ता बढेणं नन्द.६२ अपराजितः ६३ विश्वसेनः ६४ हरिषेणः ६५ जयः ६६ नत्तणं अपाणएणं आसाढाहिं एक्खत्तेणं जोगमुवागएणं विजयः ६७ विजयन्तः ६८ प्रभाकर-६६ अरिदमनः७० मानः ७१ उग्गाणं जोगाणं राइनाणं खत्तियाणं चाहिं सहस्सेहि महाबाहुः७२दीर्घबाहुः७३ मेघः७४ सुघोषः१५विश्वः१६ वराहः सकिं एग देवदूसमादाय मुं भविता अगाराओ अण७७ सुसेनः७८ सेनापतिः७६ कपित्रः ८० शैविचारी७१ भरिम्जयः७२ कुजरबनः८३ जयदेवः८४ नागदत्तः५ काश्यपः ८६ गारिश्र पब्वइए ।। बल:०७ धीरः शुनमतिः ८६ सुमतिः ६० पद्मनानः-११ सिंहः अनिषिच्य अशीति पूर्वक्वाणि महाच रागो मौल्यं यत्र स १२ सुजातिः६३संजयः६४ सुनामः५ नरदेवःए६ चित्तहरः १७ चासी वासश्च महारागवासो गृहवासस्तन्मध्ये वसति गृहसुरवरः६८ रढरथः प्रभजनः १०॥ इति । राज्यदेशनामानि पर्याये तिष्ठतीत्यर्थः । यद्यपि प्रागुक्तव्याधिप्रतीकारन्यायनैव तु अङ्गः १ । धनः। कविः ३। चौमः ४ागौमः ५।कर्णा- तीर्थकृतां गृहवासे प्रवर्तन तथाऽपि समान्यतः स यथोक्त पति का६काणाटः । लाटः सौराष्ट्रः काश्मीर:१०सौवी-। नबोषः । यद्रा महान परागोऽलील्यं यत्र म चावी वामरति र११ आभीरः १२ चीणः १३ महाचीणः । १४ गूर्जरः १५ । योजनीयं यतो प्रगवदपेक्वया स पवविध पचति एतेन" ते चट्टि Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५८) नसभ शनिधानराजेन्द्रः। उसभ पुन्वसयसहस्सा महारायवासमज्के वस" इति पूर्वग्रन्थधि- प्रियानिः प्रियाजिः मनसा झायन्ते सुन्दरतया यास्ता मनोहा रोधो नेति उषित्वा (जे सेत्ति) य. स (गिह्माणति ) आर्ष ग्री. भावतः सुन्दगश्त्यर्थस्ताभिर्मनसा अभ्यन्ते गम्यन्ते पुनः पुनः याः प्पशब्दःस्त्रीलिङ्गबहुवचनान्तश्च ततो ग्रामस्येत्यर्थः प्रथमो सुन्दरत्वातिशयात्ताः मनोमास्तानिरुदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च मासो यथा ग्रीष्माणामवयवे समुदायोपचारादुष्णकालमासानां कल्याणाप्तिसूचिकानिः । शिवानिनिरूपवाभिः शब्दार्थक्षणोमध्ये प्रथमो मासः प्रथमः पाश्चत्रबहाश्चात्रान्धकारपस्त- फिताभिरित्यर्थः धन्याभिधनम्भिकाभिःमाध्यानिःमडलेड स्य नवम्यास्तिथेः पक्को गेहो यस्य तिथिमेशपातादिषु दर्शनात् नर्थप्रतिघात साध्वीभिः सश्रीकाभिः । अनुप्रासाद्यलङ्कारोपेततिथिपाते तत्कृत्यस्याटम्यामेव क्रियमाणत्वात् स नवमीपक्षोऽष्ट- स्वात् सशोभानिः । हृदयगमनीयाभिःअर्थप्राकट्यचातुरीसचिमीदिवसस्तत्रानेन व्याख्यानेन "चित्तबहुसहमीप" त्याचाग- चत्वात् सुयोधानिः । हृदयप्रहादनीयाभिः हृदयगतकोपशोकादिमविरोधात् । वाचनान्तरेण वा नवमीपको नवमो दिघसः दिध- प्रन्थिविजावणीतिः उन्नयत्र कर्तर्यनट् प्रत्ययः कर्णमनसोनिवृतिस्याष्टमीदिवसस्य मध्यन्दिवातुस्तरकाले यद्यपि दिवसशब्दास्या- करीनिः अपुनरुक्तानिरिति च स्पष्टमर्थशतानि यासु सन्ति ता दोरात्रयाचकत्वमन्यत्र प्रसिकं तथाऽप्यत्र प्रस्तावाहिवसे गतो अर्थशतिकास्ताभिःअथवाऽर्थानामिष्टकार्याणां शतानि याच्यस्ता रजनीरजनिः इत्यादाविव सूर्यचारविशिष्टकालविशेषग्रहणमन्य अर्थशतास्ता एवार्थशतिकाः स्वार्थे कप्रत्ययस्ताभिर्वाग्निर्गीर्भिथा दिवसपाश्चात्यनागस्यानुपपत्तेःत्यक्त्वा हिरण्यमघटित- रेकाथिकानि वा प्राय इष्टादीनि घाग्विशेषणानीति । अनवरतं सुवर्ण रजतं या सुवर्ण घटितं हैम देम वा कोशं नाएमागारं विश्रामाभावात् अनिनन्दयन्तश्च जयजयेत्यादिभणमसमृझिमकोष्ठागारं धान्याश्रयगृहं बलं चतुरङ्गवाहनं घेसरादि पुरान्तः न्तं नगवन्तमाचक्काणाः अभिष्टुवन्तश्च भगवन्तमेवमवादिषुरिपुरव्यक्ते विपुलं धनं गवादि कनकं सुवर्ण येज्यस्सस्नकणेज्य- ति। किमवादिषुरित्याहा जयजयेति नक्तिसंभ्रमे द्विर्वचनं नन्दति स्तानि रत्नानि मणयश्च प्राग्वत् मौक्तिकानि शुक्त्याकाशादि समुफोनवतीति नन्दःतस्यामन्त्रणमिदमिह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वा प्रभवानि शाबाश्च दक्षिणावर्ताः ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः शि- तू । अथवा जयत्वं जगत्समृधिकरत्वाजय जय जति प्राग्वत् । नाः पट्टादिरूपाः प्रवानानि विनुमाणि रक्तरत्नानि पारागाः नवरं नः कल्याणवान् कल्याणकारी वा कथं शोजते स्मेत्याह। पृथग्रहणमेषां प्राधान्यस्थापनार्थमुक्तस्वरूपं यत्ससारं साराति- धर्मण करणनूतेन न त्वभिमानलज्जादिना अनितो नवपरीषहोपसारं स्वापतेयं द्रव्यं त्यक्त्वा ममत्वत्यागेन विवर्य पुनर्ममत्वाकर- सर्गेज्यः । प्राकृतत्वात्पञ्चम्यथ षष्ठी परीषहोपसर्गाणां जेतान. णेन। कुतो ममत्वत्याग इत्याह । विगोप्यं जुगुप्सनीयमेतत् अस्थि- वेत्यर्थः । तथा कान्त्या नत्वसामर्थ्यादिना कमः सोढा नव भयरत्वादिति कथनेन कथं च निश्रात्यजनंमित्याह । दायकानां माकस्मिकं भैरवसिंहादिसमुन्न तयोः प्राकृतत्वात पदव्यत्यये भैरगोत्रिकानां दायधनविजागं परिभाज्य विभागशो दत्त्वा तदाऽव- वजयानां वा जयङ्करजयानां कान्ता भवेत्यर्थः । मानायतृणां नानानौ नाथपान्धादियाचकानामभावाद्रोत्रिकग्रहणं तेऽपि च जग- विधवाम्नागीति न पूर्वविशेषणान्तःपातेन पौनरुक्त्यं धर्म प्रस्तुते यत्प्रेरिता निर्ममाः सन्तः शेषमात्रं जगृहुः। श्दमेव हि जगद्गुरो- चारित्रधर्म अविघ्नं विघ्नाभावस्ते तव जयतु इति कृत्वा धातनामजीतं यदिध्यावधि दानं दीयते तेषां च श्यतैब इच्छापूतः । ननु नेकार्थत्वाऽपचार्य पुनःपुनरभिनन्दयन्ति वाचाऽभिष्टुवन्ति चेति। यदीवधिकं प्रभोदनं तर्हि पदयुगीनो जन एकदिनदेयं अथ येन प्रकारेण निर्गच्छति तमेवाह । “ त एएणमित्यादि" संवत्सरदेय वा एक एव जिघृकेत इच्छाया अपरिमितत्वात् । ततस्तदनन्तरमृवभोर्डन कौशलिको नयनमासासहरीःश्रेणिस्थिसत्यं प्रनुप्रनावेणैतादृशेच्छाया असंनवात् । सुदर्शनानाम्न्यां तजगवहिकमाणनागरनेत्रवृन्दैः प्रेक्ष्यमाणः पुनः पुनरवलोक्यशिधिकायामारूढमिति गम्यं किं विशिष्टं जगवन्तं सदेवमनुजा- मानः। आभीदण्याद् द्विवचनमेवं सर्वत्र एवं तावद्वक्तव्यं यावनिसुरया स्वर्गभूपातामवासिजनसहितया पर्षदा समुदायेन समनु- गच्छति यथोपपातिकेयथा प्रथमोपाङ्गे च पायो जम्नासारसूत्रस्य गम्यमानम् अग्ने अग्रतननागे शाखिकादयोऽभिनन्दयन्तोऽजिष्ट्रव निर्गमगम उक्तस्तथाऽत्र वाच्यो वाचनान्तरेण यावदाकु लबोलन्तश्च एवं वक्ष्यमाणमवादिषुरित्यन्वयः। तत्र शासिकाइचन्दन- बड़नभः कुन्निति पूर्यन्त इति । तत्र च यो विशेषस्तमाह। विनीगर्नशाहस्तामाङ्गल्यकारिणः शङ्गमा घा चाक्रिकाइच चक्रभ्रा- ताया राजधान्या मध्यं मध्येन भागेन इत्यर्थः । निर्गच्छति सुमकाः कुम्भकारतैबिकादयो वा माङ्गझिका गलावलम्बितसुव- खं सुखेनेत्यादिवन्मध्य मध्येनेति निपातः। औपपातिकगमश्चा दिमयढ़धारिणो नविशेषाः। मुखमाङ्गलिकाश्चाटुकारिणः यं "हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिजमाणे २ मणोमालासहपुष्टमाणा वा मागधा वर्षमानकाः स्कन्धारोपितनराः प्राख्या- स्सेहिं विच्छिप्पमाणे २वयणमालासहस्सेहिं अभिथुबमाणे २ पकाः शुभाशुभकथकाः सहा वंशाग्रझेखकाःमवाश्चित्रफसक- कांतिरूवसोहागुणेहि पिच्छिजमाणे २ अंगुलिमालासहरस्ता भिक्षाका गौरीपुत्रा ति रूढाः। घाण्टिका घएटावादका- स्सेहि दायिजमाणे २ दाहित्थेणं बहणं णरणारिसहस्साणं स्तेषां गणाः सूत्रे च आर्यत्वाद् प्रथमार्थे तृतीया यथार्थतव्या- अंजलिमालासहस्साई.पंडिच्छमाणे २मंजुमंजुणा घोसेण श्रात्याने च शालिकादिगणैः परिवृतमिति पदं कुलमहत्तरा इति पदं पडिपुच्छमाणे २ भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे २ तंतीचान्वययोजनार्थमध्याहार्य स्यात् ।साध्याहारव्याख्यातो ऽनभ्या- तलतालतुडियगीयवाइयरवेण महुरेण य मणहरेण जयसहहारव्याण्यामाधवमिति पञ्चमाङ्गेजमाविचरित्र निष्क्रमणमहवर्ण- ग्योसविसरणं मंजुणा घोसेणं पडिबुझेमाणे कंदरगिरिविवने शालिकादीनां प्रयमान्ततया निर्देश एतस्यवाशयस्य सूचकः। रकुहरगिरिवरपासा उद्धघणभवणदेवकुलसिंघाडगतिगचउयदि च प्रायः सूत्राणि सोपस्काराणि भवन्तीति न्यायोऽनुश्रियते कचश्चरभारामुज्जाणकाणणसहापवाएसदेसभागे पडिसुंश्रातदासाध्याहारव्याख्यानेऽप्यदोषःतानिर्विवक्क्तिाभिरिन्यर्थः। वा- सथसंकुलं करेति हयहेसिअहत्थिगुलगुलाइ अरघणघसाइ म्भिरजिनन्दयन्तश्चानिणुवन्तश्चेति योजना । विवक्तित्वमेवाह। सद्दमीसिएणं महया कलकलरवेण जणस्स महुरेण पूरयंते ध्यन्ते रमेतीष्टास्ताभिः प्रयोजनवशादिष्टमपि किंचित्स्वरूपतः | सुगंधवरकुसुमचुमाउम्विट्ठवासरेणुकविलं नभं करेंति कालाकान्तं स्थानकान्तं चेत्यत आह कान्ताभिः कमनीयशम्दानिः । गरुकंदुरुक्कतुरुक्कधूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते समंत Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५९) उसम अभिधानराजेन्द्रः। उसन उक्स्वत्तिश्रचक्कवालं परजणवालवुपमुइअतुरीअपहावित्र- कुर्वन् तथा हयगजरथानां (पहकरत्ति ) देशीशब्दोऽयं समूविउलत्ति" पाउलपदमारभ्य निर्गच्छति पदपर्यन्तं तु सूत्रे हवाची तेन हयादिसेनयेत्यर्थः । तथा पदातीनां च टंकारेण वृ. साक्षादेवास्ति। अत्रव्याख्या हृदयमालासहस्रैर्जनमनःसमूहैर- न्देन च मन्दं च यथा नवति तथा क्रियाविशेषणं यथा हयागिनन्द्यमानः २ समृद्धिभुपनीयमानो जयजीवागन्देत्याद्याशी- दिसेना पाश्चात्यसमति तथा बहुतरबहुतमकमित्यर्थः । नरुतदर्शनेन मनोरथमालासहनरेतस्यैवाशापरा भवाम इत्यादिजन- रेणुकमगतरजस्कं कुर्वन् यत्रैव सिद्धार्थवनमुद्यानं यत्रैवाशोविकल्पैर्विशेषेण स्पृश्यमानः२ इत्यर्थः । वदनमालासहस्रर्वच- कबरपादपस्तत्रैवोपागच्चतीति उपागत्य यत्करोति तदाह नपानमालासहस्रैर्वा अमिष्टयमानः २ कात्यादिगुणैर्हे तुभिः प्रार्थ्य- गत्याशोकवरपादपस्याधः शिविकां स्थापयति स्थापयित्वा च मानः २भर्तृतया स्वामितया वा स्त्रीपुरुषजनैरभिलष्यमाणः २ शिविकायाः प्रत्यारोहति अवतरतीत्यर्थः। प्रत्यवराच स्वयमेदक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणामञ्जलिमालासंयुतकर- वाजरणालङ्कारान् तत्राभरणानि मुकुटानि अनवारान् पत्रामुद्राविशेषवृन्दानि प्रतीच्छन् २गृहन् २किमुक्तं भवति त्रैलोक्य- दीन सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात् आमरणानि च अलङ्कारान्ति नाथनापि प्रभुणा पौराणामस्माकमञ्जलिरूपा भक्तिर्मनस्यवता- समाहारद्वन्द्वकरणाद्वा अवमुञ्चति त्यजति कुसमहनरिकाया हंरितेति दक्षिणहस्तदर्शनम् । तथा महाप्रमोदाय भवतीति कु- सबकणपदे अवमुच्य च स्वयमेव चतसृभिः ( अमाहिति ) बन मम्जुमजुनातिकोमलेन घोषेण स्वरेण प्रतिपृच्छन् २५- मुष्टिभिः करण नूताभिर्खश्चनीयकेशानां पञ्चमभागलुचिकाभिश्नयन् प्रणमतांवरूपादिवार्ताभवनानां विनीता नगरी गृहाणां रित्यर्थः लोचं करोति अपराङ्गालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिपडचा समश्रेणिस्थित्या सहस्राणि न तु पुष्पावकीणस्थित्या रोऽवडूगरादिमोचन विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालङ्कारकेशसमतिक्रामन् २ तन्त्रीतलतालाः प्रसिद्धाः त्रुटितानि शेषवा- विमोचनं तीर्थकृतः पञ्चमुष्टिकलोचसंभवेऽपि अस्य भगवद्यानि तेषां वादितं वादनं प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः गीतं च तयोः श्चतुर्मुष्टिकलोचगोचरः श्रीहेमाचार्यकृतऋषभदेवचरित्रानिप्रारषेण । यद्वा तन्त्र्यादीनां त्रुटितान्तानां गीते गीतमध्ये यद्वा- योऽयं प्रथममेकया मुष्टया श्मश्रुकूर्चयोः सोचे तिसभिश्च शिरोदितं वादनं तेन यो रवः शब्दस्तेन मधुरेण मनोहरेण तथा बोचे कृते एकां मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकावजयशब्दस्य उद्घोषः उद्घोषणं विशदं स्पष्टतया प्रतिभासमानं बदातयोः प्रनुस्कन्धयोरुपरि सुरवन्ती भरकतोपमानमाविभ्रती यत्र तेन मजुमजुना घोषेण पौरजनरवेण च प्रतिबुद्धयमानः परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण जगवन्मय्यनुग्रहं वि२ सावधानीभवन् कन्दराणि दर्यः गिरीणां विवरकुहराणि धाय ध्रियतामेवमित्यमेवोत विज्ञप्ते भगवतापिसा तथैव रक्तिगुहापर्वतान्तराणि च गिरिवराः प्रधानपर्वताः प्रासादाः सप्त- तेतिनो कान्तजक्तानां याञ्चामनुग्रहीतारःखएमयन्तीत्येवेदानीभूमिकादयः ऊर्फ घनभवनानि ऊर्ध्वविस्तृतगृहाणि देवकु-| मपि श्रीऋषभमूर्ती स्कन्धोपरि वेल्लरिकाः क्रियन्ते इति सुश्चिलानि प्रतीतानि शृङाटकं त्रिकोणस्थानं त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं ताश्च केशाः शक्रेण हंसबकणपटे कारोदधा किला इति । षप्रेन भिलति चतुष्कं यत्र रथ्याचतुष्टयं चत्वरं बहुमार्गा पारामाः जतेन उपवासत्रयरूपेण अपानके चतुर्विधाहारण प्राषाढानिपुष्पजातिप्रधानवनखएमा उद्यानानि पुष्पादिमकृतयुक्तानि का. रित्यत्र " ते लुग्वे" त्यनेन उत्तरापदलोपे उत्तराषाढानिर्वचनननानि नगरासन्नानि सभा अास्थापिकाः प्रपा जलदानस्था- वैषम्यमार्यत्वात् नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाचणति गम्यम् । नमेतेषां ये प्रदेशरूपा भागास्तान् तत्र प्रदेशा लघुतरा भागा उग्राणामनेनैव प्रक्षुणा आरककत्वेन नियुक्तानां भोगानां गुरुत्वेन देशास्तु लघवः प्रतिश्रुताः प्रतिशब्दास्तेषां शतसहस्राणि ल- व्यवहृतानां राजन्यानां कृत्रियाणां शेषप्रकृतितया विकस्पिताक्षास्तैः संकुलान् कुर्वन् अत्र बहुवचनार्थे एकवचनं प्राकृतत्वात नां चतुर्निः पुरुषसहस्रैः सार्द्धमते च बन्धुनिः सुहृद्भिः भरतेन हयानां हृषितेन हेषारवरूपेण हस्तिनां गुलगुलायितेन गुलगु- च निषिका अपि कृतकत्वेन स्वाम्युपकारं स्मरन्तः स्वामिविरलायितरूपेण स्थानां घनघनायितेन घणघणायितरूपेण शब्देन हभीरवो वान्तान्न श्व राज्यसुखे विमुखा यत्स्वामिनाऽनुष्ठेय मिश्रितेन जनस्य महता कलकलरवेण श्रानन्दशब्दत्वान्म- | तदस्मानिरपीतिकृतनिश्चयाः स्वामिनमनुगच्छन्ति स्म । एक धुरणारेण पूरयन २ अत्र नभ इति उत्तरग्रन्थवर्तिना पदेन देवदूप्यं शक्रेण बामस्कन्धे जीसमित्यर्पितमुपादाय न तु रजोहयोगः सुगन्धानां वरकुसुमानां च उद्वेध ऊर्द्ध गतो वासरेणु- रणादिकं लिङ्गं कल्पावीतत्वाजिनेन्डाणाम् । मुएको व्यतः सकरजस्तेन कपिलं नभः कुर्वन् कालागुरुः कन्दुरुक्कश्ची. शिरःकृर्चयोचेन भावतः कोपाद्यपासनेन भूत्वा अगाराद् गृहडाभिधं द्रव्यं तुरुष्कं सिहकं धूपश्च दशागादिगन्धद्रव्यसंयो- वासान्निष्क्रम्येति गम्यमनगारितामनाहीत् । गृही असंयतस्तत्प्रगजः एषां निवहेन जीवलोकं वासयन्निव अत्रोत्प्रेक्षा तु जीवलो. तिषेधादनगारी संयतस्तद्भावस्तत्ता तां साधुतामित्यर्थः । प्रध. कवासनस्यावास्तवत्वेन सर्वतः क्षुभितानि ताश्च तया ससं- जितः प्रगतः प्राप्तः इति यावत् । अथ वा विभक्तिपरिणामादनभ्रमाणि चक्रवालानि जनमण्डलानि यत्र निर्गमे तद्यथा भवती- गारितया निम्रन्यतया प्रवजितः प्रवज्यां प्रतिपन्नः। ०श्वक। त्येवं निर्गच्छ-तीति । प्रचुरजनाश्च अथवा पौरजनाश्च बाल अत्रैव वक्तव्यशेषं चूर्णिकदाह।। वृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्च शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां "सेय उसने कोसलिए पढमराया पढमनिक्खायरिए पढमव्याकुलाकुलानां यो वोलःशब्दः स बहुलो यत्र तत्तथा एवं भूतं तित्थयरे वीस पुचसयसहस्साई कुमारवासे यसित्ता तेवर्षि नभःकुर्वन् विशेषाणानां व्यस्ततया निपातः प्राकृतत्वादिति नि- पुन्चसयसहस्साई रजमणुपालेमाणे नेहाश्यातो सउणरतपजगत्य च यत्रागच्छति तदाह । अासी इत्यादि आसिक्तमीपरिसक्तं वसाणातो चावत्तरि कलातो चोटुिं महिलागुणे सिप्पाए मग गन्धोदकानि प्रमार्जितं कचवरशोधनेन सिक्तं तेनैव विशेषतो सयमेए तिनि पयाहियघाए उवदिसई भवदिसित्ता पुत्ससयं ऽत एव शुचिकं पवित्र पुष्पैर्य उपचारः पूजा तेन कलितं युक्तमिदं रज्जे सप अभिसिंच ततो योगतिहिं देवाह जीयम्मि तिकट्ट व विशेषणं प्रमार्जितासिक्तशुचिकमित्येवं दृश्यं प्रमार्जिताद्य- संघाहिए संवच्चरियं दाणं दाऊण जरई विणीयाए पानि नन्तरजावित्वाच्नुचिकत्वस्य एवंविधसिकार्थवनविपुलराजमार्ग | बीए कच्चमहाकच्चाणं सहस्सपरिवारा भयवया सहभा Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम ( ११६०) उसभ अनिधानराजेन्डः। पन्यश्या अन्ने नणंति पए वि कच्चमहाकच्छे रजे ग्वे ग्वेश्त्ता नमिविनभीसोबसविजाहरनिकाए विजउणं दया श्व विजाचेत्तबहुनटुमीप दिवसस्स पच्चिमे भागे सुदंसणाए सिबियाए वलेण गगणवासिणो सयणपरियणसहिया मणु यदेघनोए सदेवमायासुराए परिसाए समागम्ममाणे विणीयाए रायहा- मुंजेति । पुरेसु भगवतो उसनसामिस्स रजमणुपालेमाणस्स जीए मऊ मझेणं निग्गच्छमाणे जेणेव सिरुत्थवणे जेणेव अ- वयपडिमा विया विजाहिवश्णो य धरणस्स नागरायरस । सोगवरपायये तेणेव उपागच्च वागचित्ता कासोगवरपाय- (आ०म०प्र०)चतुर्भिः सहन्नैः समन्धित युक्तम् । तत्र वस्स हेहा भयवया सयमेय कतो चउमुट्टिो लोचो पंचममुट्ठि | तेषां दीकां किं भगवान् प्रदत्तवान् नत नेति तत्राह । गहणेहिं भगवतो कणगावदाते सरीर अंजणरेडाओ घरेहती- चउरो य सहस्सीको, बोयं काऊण कप्पणा चेव । ओ सक्को उवलम्निऊणं नणिया तो जयघं एयातो एवमेव चिठं. तु तहेव वियातो तेण भगवतो चउमुछियो लोओ । लोयं काऊ जं एस जहा काही, तं तह अम्मे विकाहामो !! ण बोण जत्तेण अपाणएणं आसाढानखत्तेणं उभाणं भोगाणं चत्वारि सहस्राणि सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्यात लोचमात्मनव पञ्चरायमाणं खत्तियाणं चरहिं सहस्सहिं सार्द्ध तैसि पंचमुहितो मुष्टिकं कृत्वा इत्थं प्रतिज्ञां कृतवन्तो यत्क्रियानुष्ठानमेष भगवान् सोचो प्रासि । एगं देवदूसमादाय पव्यस्तो । सब्बतित्थयरा यथा येन प्रकारेण करिष्यति तत्तथा ( अम्हे वि ) वयमपि करिष्याम इति : भगवानपि नुवनगुरुत्वात्स्वयमेव सामायिकं विणयं सामश्य करेमाणा एवं भणंति करेमि सामाश्यं सव्यं सावजं जोगं पश्चक्खामि जावजीचाए तिषिहं तिहेर्ण जाव प्रतिपद्य विजहार । तथा चाह " उसभी वरवसभगई, घेतृण अनिम्गहं परमघोरं। वोसघचत्तदेहो, विहर गामाणु गामं तु" ॥ पोसिरामि भदंत इति न भणंति तथा कहपत्वादत ऊर्चमेतदेवोपसंहरमाहेत्यादिधक्तव्यम् । एवं नगवं कयसामाश्त्रो नाणा (२६) अथ भगवतश्चीवरधारित्वकाल माह । भिग्गहं परमं घोरं घेसूण योसचासदेहो घिहर भगध रहा। उसभेणं अरहा कोसलिए संवच्छर साहियं चीवरधारी उसने कोसलिए साड़ियं संघचरं चीवरधारी होत्था । होत्था तेणं परं अंचलए ।। एवं जाव विहर । ताहे पुव्यमणिप्पगारेण उये कच्चमहा- ऋषनोऽहन कौशालिकः साधिकं समासमित्यर्थः ( संवच्चरं ) कच्चाणं पुत्ता णमिविणमिनो नयट्ठिया भयवं विणवंति जहा वर्षे यायद्वपधारी अभवत्ततः परमचेह कः । अत्रायं केचन भयवं ब्रह्म तुह्मादि संविभागो ण केवश्वत्थुणा कत्तो त्ति ततो लिपिप्रमादादाविदमधिकमित्या स्तर पर कर्णिगतश्रीऋ. ते सन्नरूबरूकवया करवानवम्गहत्थामो लम्गति विसावंति पनदेवदेवदूप्याधिकारे अयमेवालापको इष्टव्यः । ०२ यदा यति सज्जं ताव तुन्नेहि सव्वेसि तोगा दिवा ता अम्ह घि __ अथ भगवतो बिहारमाह। देह एवं तिसझं विम्मवंताणं मोलग्गताणय कालो वश्च । उसभो वरवसनगई,घेत्तण अभिग्गहं परमघोरं । अन्नया धरणो नागकुमारिंदो नयवतो बंदतो आगतो इमेहि वोसट्टचत्तदेहो, विहरइ गामाणुगामं तु ॥ य विन्नवियं ततो सो ते तहा जायमाणे नवर नो सुणह जयवं चत्तसंगो गयरोसतोसो सरीरे विनिम्ममतो अकिंचणो ऋषभो वरवृषन्नगतिरभिग्रहं परमघोरं परमः परमसुखहेतु त्वात् घोरः प्राकृतपुरुषैः कर्तुमशक्यत्वात् व्युत्सृप्रत्यत्तदेहो परमजोगी निरुकासबो कमलपसमिरवक्षेवचित्तो मा एय ग्रामानुग्राम विहरति । व्युत्सृटो निष्प्रतिकर्मशरीरतया तथा जायह अहं तु जगवतो भत्तीए मा तुम्नं सामिसेवा अफला चोक्तम् । " अच्छि पि नोपमज्जिय नो वि य कंमूच यामुण। होउत्ति काउं पढियसिकाई अमयाबीसं विञ्जासहस्साई मि गायं" इत्युक्तः खमु नपसर्गसहिपातया स एवं भगवान् तेराताण इमातो चत्तारि महाविजातो । तं जहा । गोरी गंधारी त्मीयैः परिवृतो विजहार न तदा अद्यापि भिवादानं प्रवर्तते रोहिणी पन्नती तं गच्छह तुम्भे विजारिकीए सजणं जपवयं लोकस्य परिपूर्णत्वेनार्थित्वानावात्तथाचाह । उज्जनोभेऊण दाहिणिलाए नुत्तरिल्लाए विजाहरसेढीए गगणवत हपामोक्खे रहने नरचक्कबालपामोक्ने य पदासं सचि नविताव जणोजाणइका भिक्खा के रिसायभिक्खयग। विजाहरनगरे निवेसिद्धणं विहरह । ते वि तं सम्वमाणत्तियं ते जिक्रसमलनमाणा, वए मज्जे ताबसा जाता। पमिचिऊण लम्पसाया कामियं पुप्फगविमाणं पिवळणं नापि तायड्जनोजानाति यथा का निक्का कीरशा वा भिवाग भगवं तित्थयरं नागरायं च चंदिऊण पुप्फगविमाणमारूढा इति ततस्ते भगवत्परिवारजूता भिकामनभमानाः सुस्परीषहाकन्चमहाकच्नाणं भगवप्पसायं नवदंसेमाणा बिणीयनगरि- तः जगवतो मौनव्रतायस्थिताऽपदेशमनाकर्ण यन्तः कममतिगम्म नरहस्स रएणो तमत्थं निवेता सयर्ण परियणं च हाकच्चाविदमुक्तवन्तः । अस्माकमनाथानां भवन्ती नेतारावतः गहाय येयके उत्तरसेढीए बिनमीसहिं नगराई गगणवद्धजप- कियन्तं कालमस्मानिरवं क्षुत्पिपासोपगौरासितव्यं तावाहतुः महा निवेसर नमी दाहिणसेढीए रहनेउरचक्कवानाईणि पन्ना- वयमपि तावन्न विद्मः यदि नगवाननागतमेध पृष्टोऽभवत् किमसं नगराणि निवेसर । ज जतो जणवयातो नीया मणुया तेसिं स्माभिः कर्तव्यं किं या मेति सतः शोभमं नवेत् । इदानी तन्नामा धेयके जणवया जाया । विजाहराणं च एगेगस्स अट्ट- स्वेतावद्युज्यते जरतलज्जया गृहगमनमयुक्त.माहारमन्तरेण चाट्रनिकाया सब्वे मिक्षिया सोबस तेपिश्मे गोरीणं विजाणं माया शितुं न शक्यते ततो धन चासो नः श्रेयान तत्रोपचासरताः पगोरिया १ मणणं मया २ गंधारीणं गंधारा ३ माणवीण रिटितपरिणतपत्राापनोगिनो भगवन्तमेव ध्यायन्तस्तिष्ठाम माणवा ४ केसिगाणं केसिगाए मितुझिगाणं भूमितुमिगा।६। इत्येवं संप्रधार्य सर्वसम्मतेनैवं गङ्गानदीदक्षिणको पु रम्येषुव७। मूलवारियाणं मूलवारिया ८ संबुक्काणं संयुका ए कानीणं नेषु चल्काचीवरधारिणः सल्वामिणरसंवृत्तास्तथा चाह । घ. कालिया १० समीणं समका ११ प्लायंगीणं मायगा । १२ नमध्ये तापसा जातास्तयोश्च कच्छमहाकठयोः सुती नमिधिपवणं पब्बया १३ वंसाप्रयाणं वंसानया १५ पंसुमुत्रियाणं | नमी पित्रनुरागात्ताभ्यां सह विकृतवन्तौ तौ च धनश्रयकाले ता. पंमुमलिया । १५ रुक्खमूझियाणं रुक्खमूधिया १६ पतं ते ज्यामतीदारुणः स्खल्विदानीमस्माभिनयासविधिरकृत Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६१ ) अभिधानराजेन्द्रः | उसन वयात यूयं स्वगृहाणि । यदि वा भगवन्तमेवमुपसर्पत स चानुकम्पया अभिलषितफलदो भविष्यति तावपि च पित्रोः प्रणामं कृत्वा पित्रादेशं तथैव कृतवन्तौ भगवत्समीपमागत्य च प्रतिमास्थिते नगवति जलाशयेन्यो नखिनी पद कमानीय सर्वो जनप्रवर्षणं कृत्वा आजातोच्छ्रायप्रमाणसुगन्धि कुसुमप्रकरं च कृत्या भवतोसमातिनिधिक प्रतिदिवसं त्रिसन्ध्यं राज्यसंविभागप्रदानेन भगवन्तं विज्ञाप्य पुनस्तदुभयपार्श्वे नङ्गव्यग्रहस्तौ तस्थतुः । तथा चाह । नमिनि जयणा, नागिंदो वेज्जदारावेयष्ठे । तरदाहिडी, सपिनासनगराई || नमचिनोचना नागेन्द्रो वन्दना वागतस्तेन विद्यादान मनुष्ठितं पर्वते उत्तरदक्षिणयोर्ययाक्रमं परिपञ्चाश नगराणि निवेशितानि । भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम् । एवं जयवं कयसा - माइयो जाव नागरायस्स । जय श्रीरामनयो, संवरमसियो विहरमाणां ।। कन्नाहिं निमंतिज्जर, त्याभरणासणेहिं च ॥ भगवानपि अदीनमना निष्प्रकम्पचित्तः संवत्सरं वर्षे न श्र शितोऽनशितो विहरन् निक्काप्रदानानजिज्ञेन लोकेनाभ्यर्हितत्वात् कन्याभिर्निमाध्यते वस्त्राणि पट्टदेषाङ्गादीनि आजरणानि फटकयादीनि भासनानि सिहासनानिमिते च र्तमान निर्देश प्रयोजनं प्राग्यत् । (१७) अथैवं विहरता जगवता कियत्कालेन भिका लब्धत्यत आह । संवच्यरेण निक्खा, लग्दा उसमे लोगनादेश | सेसेहिं वीयदिवसे, लाओ पढमनिक्खाओ || संवत्सरेण निक्का पत्रेण लोकनाथेन प्रथम तीर्थकता लग्धा र जितजिनादि निर्धितीयदिवसे प्रथमभिका लब्धा । संप्रति यद्यस्य पारणकमासीत्तदभिधित्सुराह ॥ उसभस्स उ पारणए, इक्खुरसो आसि लोगनादस्स | मेसाणं परमन्नं, अमियरसरसोवमं यासी ॥ ऋषभस्य लोकनाथस्य पारणके इक्षुरस आसीत् शेषाणामजापान परमार्थ पायसमरसेन रसस्योपमा यत्र तदमृतरस रसोपममासीत् । तीर्थकृतां प्रथमपारणके यद्वृत्तं तदनिधित्सुराह । घु च अहो दाएं, दिव्वाणि य आहयाणि तूराणि । देवाय संनिवश्या वसुद्वारा चैव युद्धाय । देवैकाशस्थिते धुएं यथा अहो दानमिति । अहो शब्दो विस्म ये अहो दानमहो दानमस्यायमर्थः । एवं हि दीयते एवं दतं भवतीति । तथा दिव्यानि सुराणि राहतात सन्निपतिता वसुधारानिपातार्थमाकाशे जृम्भका देवाः समागतास्ततो वसुधारा वृष्टा द्रव्यवृष्टिरनूदित्यर्थः । एवं सामान्येन पा गणक कामाकमिदानी यत्र यथा च यचादितीर्थकरस्य पार पक्रमासीदनिि गयपुर से सिक्खु रसदा सुहारपहिगुरुपूजा। सिहाग, वालिनियां ।। श्रस्या नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् ( आ० म० प्र० ) आकररमपस्तूनां [देशोऽस्ति नामका समुद्रश्य रक्षानां गुणानामित्र सज्जनः ॥ १ ॥ पुरं गजपुरं तत्र, करनजमदोर्मिभिः । देव नर्मदा जड़े नूनं या ना ॥ २ ॥ सत्र बाहुनेः पुत्रः, सोम्यस्सोमप्रभो नृपः । चित्रं पद्मा हितानन्दः, सूरस्तीयप्रतापवान् ॥ ३ ॥ श्रेयांसस्तनयस्तस्य यौवराज्य पदास्पदम् । - समन्दरं श्याम नि देवालेनापि मेऽधिकम् ॥ ॥ राझा दृष्टो जटः स्त्रमे युध्यमानः सहारिनिः । श्रेयांसकृतमाहाय्यो, भगवान् सोऽपि तद्वलम् ॥ ६ ॥ श्रेष्ठी सुराकी-त्स्व सूर्यमरहिमकम् । 66 उसन शिशुः ॥॥॥ समस्वनैः ॥ ७ ॥ राजस्थानेऽय मिलिताः सर्वे स्वमान्न्यवेदयन् । श्रसंजात्याः परं स्वम-फरमायाति तन्मतौ ॥ ८ ॥ पवस्व महाजानीपतिः । स्थानीतः समुत्तस्थी, श्रेयांसोऽपि ययौ गृहम् ॥ ॥ तावासीमान्तकृत सोऽथ दध्यौ मयेदृकं नेपथ्यं काव्यदृश्यत ॥ १० ॥ पितामहस्य में यार, जातिस्मृतिरथाभवत्। प्राग्भवश्रुतमज्ञामीद् ह सस्मार चाखितम् ॥ ११ ॥ तत्रेरकुकी-प्यभूतेऽस्य च तमेव कुम्भमादायो-पस्थितः स प्रधुं प्रति ॥ १२ ॥ प्रजुषाऽपि युध्यतीति पाणिपार्थ प्रसारितम् । रसः सर्वेपि निकिता १३ ॥ न बर्धने विन्दुरपि शिखाधिरिव वर्धते । स्वामी युगाश्रमस्तेन, वर्षान्ते पारणं व्यधात् ॥ १४ ॥ प्राडुर्भूतानि दिव्य नि, वसुधाराऽपतदे । यो १५ ॥ पञ्चवर्ण पुष्पवृष्टिष्टिगोच अहो दानमहो दान-मुदयोः ॥ १६ ॥ तदेवागमनं वीक्ष्य, श्रेयांसगृहमाययुः । लोकाः सर्वेऽपि राजानो ऽन्ये च ते च तपस्विनः ॥ १७ ॥ श्रेयांकचदथ, भिक्केदग् दीयते जनाः ! | सुगविज्यते इत्ते सुचेतसाम १० ॥ सर्वेऽपि तमथ प्रोचुतमेतत्कथं त्वया । यथा जगवतो भिका, दीयतेऽन्नजलादिका ॥ १०५ ॥ श्रेयांसः स्माह विज्ञातं, जातिस्मरणतो मया । अनवान् भगवता, सहादं भ्रान्तवान् यतः ॥ २० ॥ पृष्टस्तैः कथयामास, प्रावदेव भवाष्टकम् । आ० क० ॥ (१०) ॠषभस्वामिनः श्रेयांसेन जवाष्टककथनम् ॥ 'अनाहाणि वसुदेवहिता विहाणा सुतरसंखेतो भइ सेसो भणइ । इम्रो य ब्रघ्नवे उत्तरकुरुप श्रहं मिणा शथिवा भयं मिणरिसोई तो पर्य सम्मि देवलोक सहिकम्प रूपरूप्पभाव संपण भोगायोगा कस्बाइ उत्तर कुदरती भोगवादय णिसित्रायत्रे णवणीय सरिसफासे सुदनिसमा अत्थामो | देवो तमि र मरिज पती गगणरेण ततो तेण नियमपना पासपाती ि तारिसं पस्लमाणां किं विचिंतकण मोई बगतो कदमवि कोण हा सयंपते! कत्थासि देदि मे परिचवर्ण Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसभ अभिधानराजेन्द्रः। नुसम तं च तस्स वयणं सोऊण त्थिया वि कथमन्ने मए सयंपना- मुच्छितो मच्छो,फरिसमुच्छितो गईदो, वह बंधणमारणाणि पाया। निदाणं असुजय पुवंति चिंतेमाणो तहेव मोहमुवगया । पश्चा- एवं जीवा वि सोदिया श्व सगया सहाश्संरक्खणपरा तदधगयचेयणा भण। अहो अज्ज अहं सयंपनाजीवे तुज्मोहिं नाम रोधकारितु पाणीपसु कलुसहियया श्ड लोगे वि मारणादीणि गहियं ति ततो पुरिसो परं तुढिमुबहंतो भण अज्जे कहे हिं पावेति परसोगे नरगाश्दुक्खभायणं ततो मुहावहा कामा । कहं तुम सयंपभा । ततो साभण कहेमि जं सुबमाणुसुयं च एवं नणंतो सयंबुझो मर जणितो नूणं तुम मम भहितोसि जो भत्थि ईसाणो कप्पो तस्स मज्झदेसातो उत्तरपुरस्चिमे दिसी म संसश्यपरलोयसुहेण लोनंतो संप सुदं च निंदतो मुडे जागे सिरिप्पानं नाम विमाणं तत्थ अभियंगतो नाम देवो अहि- | पामेतुमिच्छसि । ततो संनिन्नसोपण जणिती सामि! सयबुको घई । तस्स सयंपभा अग्गाहसी बहुमया आलिमा अहं तस्स । जहा जंबुको मजकंखी मंसपेसिं चश्त्ता णं मच्छ पक्ष धावितो य देवस्स तिए सह दिव्वविसयसुहसागरगयस्स बहुकालो मच्छो जले निमम्गो.मंसपेसी सउणियाए गहियत्ति निरासो दिवसो श्वगतो। कया चितावरो पमनायमहदामो अहो दिठि- जातो तहा संदिरूपरलोयसुहासाए दि सुहं परिच्चयतो कायमाणो मए समरिसाए विनवितो । देव! कीस विमणो उभयो विमुक्को सोहि । सयंघुको जण जं तुमं तुच्छकदीससि । को ते माणसो संतायो । ततो सो देवो भणई । सुहमोहिनो भणसिं को तं सवेयणोपमाणं करे को कुसलजमर पुत्रनवे तवो घोचो कतो ततो अहं तुम्नेहिं विप्पजुज्जी- पपसंसियं रयणं सुहागयं कायम्मि पसत्तो न इच्क्ष केरिसं हामित्ति परो संतावो ततो अम्हेहिं पुणरवि पुच्छितो । कहेह मनसि । तं संभिन्नसायधीरा सरीर चिन्नवाईया मणिब्बया कहं तुमहिं थोवो तपोकतो। ततो नणति जंबुद्दीवे दीवे अवर- जाणिकण कामभोगे परिव्वज तवसि संजमे य निवाणसुहकाविदेहे गंधितावरविजए गंधमायणवक्खारगिरिवरासमवेय- रणे जुसंत्ति । सनिन्नसोयो भण सयंबुरू! मरणं होहित्ति कि पचए गंधारा नाम जणवा । तत्थ समिद्धजणासेवियं गंधस- सका पढममेष मुसाणे गश्न नूणं तुमं रिट्टिीसरिसो । जहा मिनाम नयरं । तत्य राया जणवय हितो सयपतस्स रमो हिटिभी गगणपणसं किया धरेनकामा रुपाया सवर तहा मत्तु नो अबलस्स सुतो महाबलो नाम । सो अहंपिउपिया तुम मरणं करि होहित्ति अश्पयत्तकारी संपकालियं सुहं महपरंपरागयं रज्जसिरि अणुनवामि । मम य बालमित्तो ख- परिच्चाय अणागयकालियं सुहं पत्थेसि नणु पत्ते मरणसमए त्तियकुमारो सयंबुको नाम सो य जिणसासण नावियमई वि- परलोगहियमायरिस्सामो । सयंबुरुण नणिय मुरू ? जुरू श्तो संभिन्नसोतो सो पुण मती बहुसु कजेसु पुच्छणिजो परं | संपलग्गे कुंजरतुरगदमणं कज्जसाढ़गं न हव । न वा गेहे नाहियवाई एवं तेहिं समं रजमणुपालेमाणो समं थिए बहु पज्जलित्ते कूवखणणं कज्जकरं । ज पुण दमणं खणणं था म्मि काझे । कया विगीयपमिरत्तो नश्चमाणि नट्टियं पस्सामि सयं- पुवकयं होतं तो परवलमढणं जमणविज्काचणं च सुहेण होतं । बुरुण विमवितो देव!"सवंगीयं विनवियं सव्यं नर्से विझवणा। पवं जो कणागयमेव परसोगहिए न उज्जम सो उक्तमतेसु सव्वा आजरणा भारा कामा पुण हावहा" ता पर लोग पाणेस परमऽक्वाभिभूतो किह परबोगमा ट्रेहित्ति । पत्थ हिए चित्तं निवेसियब्वं असासयं जीवियं अहितो विसयपमि सुणेहि वियक्खणकहियं उवएसं। को किस हत्थी जरापरिणबंधो । ततो मए भणियं कहं गीयं सवणामयं विनासेक नयणु तो गिम्हकाने कंचि गिरिनई समुत्तरतो विसमे तीर पमितो अनुदयं नटुं विझवणा कहं वा देहविनूसणाणि आभरणाणि सो सरीरगरुयत्तणेण सुव्ववत्तण य उनमसत्तो तत्व जारो लोगसारभूया पोश्करा कामा कहं दुहावड़ा । ततो संभ कागतो सो अपाणदेस सियारेण परिक्खातो तेण मगण पगो वायसो अतिगतो उदगंच सधजीवंतोचिर उपहेण य मक तेण सयंबकेण जणियं । सुणह सामी पसन्नचित्ता जहा गीयं माणे कवरे सो परसो संकुचितो वायसो तुझो अहो निराबाई विसावो जहाका वि शत्थिया पबियपक्ष्गा पश्णो सुयरमाणी जायं पारुसकाले यतं गयकोवरं गिरिनई पूरेण बुज्झमाणं महानयं तस्स समागममनिलसंती नक्षुणो गुणे विकप्पेमाणी पदोसे पच्चूसे य विषमाणी चि । जहा वा को विभिच्चो पहुस्स सोय पमियं समुहमतिगयं । तत्थ मच्छमगरेहिं चिन्नं ततो जलपूकुवियस्स पसायणानिमित्तं दासनावे अप्पाणं ग्वेकरण पत्तो रियातो कलेवरातो वायसो निग्गतो तीरं अपस्समाणो तत्थेव आणि वयणाणि भासइ ताणि चिलावो तहा इत्थी पुरिसा वा निहणमुवगतो जर पुण अणागयमेव निम्गतो होतो तो दीहसरागममोम्मानिझासी कुवियपसायणानिमित्तं चा जातो का का सच्चंदप्पयारं विविहाणि य मंसादगाणि य श्राहारती । यमणवाश्यातो किरियातो पञ्जइ ताओ कुससनियकायो गी.. एयरस दितस्स अयमुवसंहारो । जहा वायसो तहा संसारियतिए वुश्च तं पुण साम। चिंते किं विश्वावपक्खे वश न वा णो सत्ता, जहा इथिकलवरप्पवेसो तहा मा स्मोदिक्षानो. इति । नटुं जहा विझवणा तथा भन्नइ । इत्थी पुरिसो वा ज जहा कलेवरभंतरे मंसमुदगं च तहाविसयसंपत्ती, जहा मापनाको पीयमज्जो वा जातो कायविश्ववकिरिया तो दंसे निरोधो तहा तब्भवपमिबंधो, जहा दकसोविच्छगेभो तहासा विझवणा एवं । जा इत्थी पुरिसो वा पहुणो परितोसणनि मरणकालो जहा विवरानिम्गमो तहा परजवसंकमा । तं जाणामिसं विदुसजणनियविधिमणसरंतो जे पाणिपायसिरनयणा हि संभिकसो य सो जो तुच्चए निस्सारे थोवकालिए कामभो धरादी सा जन्मं वि परमत्थतो विझवणा । श्याणि आमरणाणि गे परिचऊण तवसंजमुज्जोगं करे सो सुम्गगतो न सोहि भारो जाविज्ज । कोश पुरिलो सामिणो नियोगेण पेमागयाणि जो पुण बिसपसु गिको मरणसमयमुदिक्खर सो सरीरजेए श्रमउमाईणि आजरणाणि वडेजा जहा सो अवस्संभारेण पीमि गहियपाहे इयो चिरं ही होहितं मा जंबुक श्च तुच्चकप्पबह एवं जो परविम्हयानिमित्तं तांणि चेव आभरणाणि जोम्गेसु णामेत्तसुहपम्बिको विचमकालियं सुहमवमन्नसु । संनिकासोसरीरटाणसु सनिवेसियाणि यह सो विनारेण पीमिज्जा एण भणियं । को सो जंबुकदितो । सयंबुशेण नणियं सुणानवरं सारागेण भारंन गण । कामा पुण एवं दुहावहा जहा स हि । कोश किर वणयरो वणे संचरमाणो विसमे पपसे म्तिो हमुच्छितो मिगो, रूवमुच्छितो पयंगो, गंधमुच्छितो महयगे, रस- विट्ठो एगो गदो। सो एगेण कंमेण पाहतो निटरं सम्मापदे Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६३ ) नसन अभिधानराजेन्छः। नसन्न समग्गकंगप्पहारेण पडितो परतेण एगो महाकाओ सप्पो प्रक- संसारजयनीतो वंदिऊण केवलनाणि सनगरमश्गतो ततो पु. मितो अहनिम्गतो अत्यश्ततो पमियं गयं जाणिऊण सजीवं धणु- त्तस्स रायसिरिं समप्पेळण सुबुद्धिं संदिस। तुमं मम पुत्तमकिरिय परेसु गहाय दंतमोत्तियगइदं संलयमाणो तेण स स्स नवएसं देज्जासि त्ति । तेण विमवितो सामि! महं केवप्पेण खश्तो मतो । ततो एगेण जंबुगेण परिन्जतेण सो लिणो वयणं सोऊण सह तुहि न करेमि तवं तो मप न सुयं हत्थी सो य मणुस्सो दिजो । भीरुत्तणयेण अवसरितो मंसलो- परमत्थतो केवलिवयणं तम्हा अहं पि तुम्भेहि समं पञ्वश्स्सामि। लुयाए पुणो अल्लीयः । ततो निज्जीवंति निस्संसयो मुणिकण जे पुण उबदेसो दायब्वोत्ति संदिसह तं मम पुत्तो काहि । तुको अवलोप चितेश् य हत्थी जावज्जीवयं भत्तं मणुस्लो प- ततो राया पुतं संदिसा तुमे सुबुझिसुयोवएसो कायव्यो । प्पो य कंचि कालं होहिश् । जीवाबंधणं ताव खाएमि त्ति तुछो ततो पवित्तगिरिकंदरातो सीहो ध्व राया विणिग्गतो पवमंदबुद्धी धाकोमीए चिपनिबंधाए ताबुदोसजिनो मतो । ज श्तो केवबिसमीचे सह सुबुधिणा । ततो परमसंवेगो सो पुण अप्पसारं तुच्छति जीवा बंधणं परिहरिऊण हत्थी म-1 सज्झायपसत्थचिंतणपरो परिक्ववियकिलेसजालो समुप्पगुस्सोरग कलेवरेसु सांगतो ताणि य अम्माणि चिरं खायंतो । न केवलनाणदसणो परिनिव्वतो तस्स हरिचंदस्स रायरिसिएवं तुमंपि जाणाहि । जो माणुससोक्खपमिष छोपरयोगसाह- णो वंसे संखाईएसु नरवईसु धम्मपरायणेसु अतिक्तेसु तुम्भे निरवेक्नो सो जंबुको श्व विणस्सिहि जं पिसामी तुब्भेभ संपयं सामी। अहं पुण सुबुद्धिवंसे तं एस श्रम्हं नियोगो ण ह । संदिको परलोगो इति तं पिन जुत्तं जतो तुम्ने मए सह बहुसु पुरिसपरंपरागतो धम्मदेसणाहिगारोजं पुण एत्थ मया कुमारकाल नंदण नज्जाणमुवगया तत्थ एगो देवो पागासातो अकंडे विमविया तं कारणं सुणह । अज्ज अहं नंदणवणं उवे तंदण अम्हे अवसरिया देवो य दिव्वारगतीए खणेण गतो पासी तत्थ मप दुवे चारणसमणा दिघा आइञ्चजसे अम्ह समीवं पत्तो । नणिया य अम्हे तेणं अहो महावन ! अहं अमियतेश्रो य । ते य वंदिऊण पुच्छिया भयवं महाबलस्स तव पियामहो सयंबलो रज्जसिरिं पयहिऊण विमवितो संतगे रसो केवइयमाउयं चिन्ह तेहिं कहियं मासो सेसो ततो संकप्पे अहिवाई जातो। ता तुम्ने वि मा पमायह । नावह अप्पा- भंतो श्रागतो एस परमत्थो । ततो जं जाणह से यं तमकालणे जिणवयणणं ततो सुगश्गामिणो नवेस्सह । एवं बोत्तण देवो। हणिं करेहत्ति । एवं सयंबुद्धवयणं सोऊण अहं धम्माभिगतो। तं जइ सामि तुन्भे सुमरह तत्थो अस्थि परलोगोत्ति । मुहो जाओ । श्राउपरिक्खयसवणे य श्राभघ्यिभायणमिष । सदहह । मया भणियं सुमरामि सयं ततो अभावगासो सयं| सलिलपूरिजमाणमेव सुपहिययो भीतो सहसा उद्वितो कयंबुछो भण सुणह सामि! पुववृत्तंतं । तुम्भं पुव्वजो कुरुचंदो जली सयंबुद्धं सरणमुवगतो वयस्स!किमियाणिं माससेसजीनाम राया आसी तस्स य देवी कुरुम हरिचंदो कुमारे। सो य वितो परलोगहियं करेस्सामि । तेण समासासितो सोम्म ! राया नथिकवाई बहूणं सत्ताणं वहाय समुहितो निस्सीलो | दिवसो वि बहुप्रो परिचत्तसव्वसावज्जस्स किमंग!पुण मासो निम्यतो एवं तस्स बहू कालो अतीतो मरणकालो अस्सायवेय- ततो तस्स वयणेण पुत्तसंकामियपयापालणब्बावारो गतो जीयबहुबयाए नरगपमिरूवगो पोग्गलपरिणामो संवुत्तो गीयं । सिद्धाययणं कतो भत्तपरिचातो सयंबुद्धोवदिट्ठजियमहिमासुरमहुरं अक्कोसंति मन्न मणोहराणि रुवाणि विकतानि पास- संपायणनिरतो सुमणसो संथारगसमणो जातो निरंतरं च ति खीर खंमसरोवणीयं पूरं मन्नर चंदणाणुझेवणं मुंमुरं वे- संसारस्स अणिव्वयवेरग्गजणणिं धम्मकहं च सुखमाणो सपर हंसत प्रमहफासं कंटकिसाहासचयं पमिसेवर तस्स तहा- माहिपत्तो कालगतो इहागतो । एवं मए थोवो तवो चित्ति विहमसुनकम्मोदयातो विवरीय नावं जाणि ऊण कुरुमई देवी एयं च अन्ज मम सपरिवारा य ललियंगपण देवेण कहियं । हरिचंदेण सह पच्छन्नं पमियर । एवं सो कुरुचंदो राया। इच्छंतरे ईसायणदेवसयसमीवातो दढधम्मो नामदेवो पागतो परमक्खि तो कागतो तस्तनीहरणं काकण सजणवयं गंधस- भणह अहो ललियंगय ईसाणदेवराया नंदीसरदीवं जिणममिनाएण पालेश पिणो य तहान्यं मरणमणुचिंतियस्स एवं हिमं काउं वश्चत्ति गच्छामि अहंपि त्ति सो गतो ततो अज्ज मती समुप्पन्ना । अस्थि सुकयऽक्यफलंति ततो अणेण एगो ललियंगदेवसहिता इंदाणत्ताए अवस्सगमणं होहित्ति इयाणिं खत्तियकुमारो वालवयंसो सुबुद्धी संदिछो। भद्द ! तुमं पंमियज- चेव वच्चामित्ति गयामो खणण नंदीसरदीवं कया जिणायणेसु जोवर्ट्स धम्मकहं पदिणं मे कहेसु एसा चेव ते सेवत्ति । ततो महिमा । ततो तिरियलोए सासयचेइयाण पूयं तित्थयरवंदणं मो एवं निउत्तो जं जं धम्मसंसियं वयणं सुणे तं तं राश्णो च कुणमाणो चुतो ललियंगतो ततो अहं परमसोगडिज्मनिवेएर राया सहहरु तहेव पविजः । कया च नगरस्स माणा विवसा सपरिवारा गया सिरिप्पभं विमाणं । ततो सयंनास्दूरे तहारूधस्स साहुणो केवधनाणुप्पत्तिमहिमं का देवा बुद्धदेवो पागतो परिगलमाणसरीरसोभं संदट्ठण भणइ सयंउवागया एवं सुष्णिा खत्तियकुमारेण जाणिकण हरिचंदस्स पभे पच्चासन्नो ते चवणकालो तो जिणमहिमं करेहि जेण भरमो निवेश्य । सो वि देवागमणविम्हितो तुरियं पवरतुरंगा- चंतरे वि बोहिलाभो भवइत्ति! ततोहं तस्स वयणेण पुणरवि रूढो साहुसपीवमागतो वंदिऊण विणपण निसरो केवलिमह- नंदिस्सरदीवे समयक्खेत्ते य कयजिणवंदणपूया वृत्तासमाणा। विणिग्गयं वयणामयं सुणे । सोऊण संसारमोक्खसरूवं अत्थि जंबुद्दीवे दीवे पुवविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरिगिणीए नपरनवसंकमोत्ति निस्संकिय जायए पुच्चा भयवं!मम पिया गरीए यहरसेणचक्कवट्टिस्स गुणवतीए देवीए दुहिया सिरिकंगरंगतो । जगवया जणियं हरिचंद ! तव पिया अनिवारिय- मई नाम जाया । धाईजणपरिम्गहिया सुहेण वठिया कलातो पावासवो बहूणं सत्तावणं पीमाकरो पावकम्मगरुयत्ताए वह य गहियातो अन्नया कया पदोसे सव्यतोभद्दगं पासायमधिरूढा विवरीयविसयोधनंजणं पाविळण अहे मत्तमपुढवीए नेरो पस्सामि नगरबाहिं देवसंपायं । ततो मए देवजाइसु मरियासु जातो । सो तत्थ परमनिविसहं निरुवमं निष्पमियारं दुक्खम- मरिऊण य दुक्खणाहयपरिचारिगाहिं जन्नकणगसित्ता पवा पुनवः । ततो कम्मविवागं पिउणा सोऊण हरिचंदो राया, गयवेयणा चिंत्तेमि । कत्थ मे पिया खनियंगतो देवो त्ति तेण य Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसन्न अभिधानराजेन्द्रः। नसभ विणा किं प्रणेण आनणं ति मूकत्तणं पवमा परियणो नण | तेण समाहीए काझगया ईसाणे कप्पे सिरिप्पनविमाणे - इमी से वाया जंभगेहिं निरुद्धा ततो तिगिच्चगेहि होममंतर- लियंगयस्स देवस्स अगमहिसी सयंपभा नाम जाया । श्रीक्खाविहागणेहिं कतो महंतो पयत्ता अहं पि मूकत्तणं न मुयामि । हिणाणोवयोगविमाय देवजवकारणा जहा एस नहि यंगी प्र. परिचारियाणं पुण बहिण माणत्ति देमि । अन्नया पमयवणगयं हुणोववन्नो समाणो नियपरियणं पनावितो देवीसु मज्के सयं ममं पंडिया नाम अम्मधाई विरहे जण । अहं ते धाई तो मे | पनाए देवीए अज्कोचवन्नो सा नक्खए चुया देवो य अविनकहेहि सम्भूयं । ततो मया नणियं अम्मो अस्थि कारणं जेणाई माढतो सयंबुझो य महाबले कालगए गहियतामाप्नो चिरकालं मूयत्तणं पवमा ततो सा तुहा नण पुत्ति ! साहसु मे कारणं संजमं परिपालिकण समाहिपत्तो कागतो श्हेव ईसाणे कप्पे ततो जहा जणसि तहा चेहिस्सामि । ततो मया या सुणा- इंदसामाणितो जातो तेण वि लवंतो संबोदितो भणितो य । हि । अत्थि धायकीखंडे दावे पुव्वविदेहे मंगवावविजए नंदि- जहा धायसंमे दीवे अवरविदेहे नंदिग्गामे निन्नामिगा कयनग्गामो नाम सन्निवेसो तत्थ अर्ह इनो तश्यभवे दरिहकुसे त्तपञ्चक्खाणा चिठ तं नियदसणेण पंसोनेदि जेण कयनिसुलक्खणसुमंगलाईणं एहं भगिणीणं कणिट्टा जाया कयं याणा ते अमामहिसी सयंपमा जायइ । ततो अणेण निच मे अम्मापिकहिं नामं ततो निमामियत्ति पसि िगया । से यदसणेण पलोजिया कयनियाणा हि मागयत्ति सहरिसं कम्मपम्बिका य जीवामि । अन्नया कया ऊसवे इब्जगम्भिाणि सहअनियंगपणं सहिया निरुस्सुका पहुकालं अणुहवामि नाणाविहभक्स्वहत्थगयाणि सगिहेहिता निग्गयाणि पासाम्म- देवो य सो सनियंगतो आमक्खएण चुतो अम्मो न जाताणि दट्ठण मए माया जाश्या अम्मे दोह मे मायगं अन्नं वा भ- णामि कत्थ गतो । अहमवि तस्स वियोगदुहिया वुत्ता पखं जेण मिनेहिं समं रमामिति । तीए रुद्वाए आइया निच्चू- समाणी इहमागया । देवुज्जोयदरिसणेण समुप्पन्नजाढा य गिहातो कतो ते ऽहं नक्खा बच्चसु अंबरातिलकं पन्चयं इस्सरणा तं देवं य मणसा परिवहंती मूवत्तणं पवना । किं तत्थ फाणि खायसु मरसु वत्ति । ततो रोयंती निम्गया दि- तेण विणा कपण संझावण त्ति एस परमत्थो । तं सोकण हो मया जणो अंबरतिबगानिमुहं वच्चतो गया तेण सहिया अम्मधाई ममं नणंति । पुत्ति! सुद्ध ते कहियं पयं पुण पुष्वभदिवो मया सिहरकरेहि गगणतामिव मिणि समुज्जुत्तो अंबर- वचरियं पमिलेहि जत ततो अहदमावहामि सो य सकियंगतो तिनको नाम पब्वतो तत्थ जणो फलाणि गेएहरु भए वि य पाम- जमणुस्सेसु आयातो होहि तो सचरियं दहण जाई सुमपमियाणि साइणि नक्खियाणि रमणिज्जयाए य गिरिवरस्स रिहिर तेण य सह निबुया बिसयसुहमणुभवसु । ततो सजिसह जणेण संचरमाणी सई सुश्मणोहरं सुणामि सहमणुसरंती तो पमो ततो विविहवालाहि यट्टिगाहिं दोहि विजणीहि पढगया पदेमं दिघा जुगंधरा नाम आयरिया विविहनियमधरचनह- मंतत्थ नंदिग्गामो लिहितो ततो अंबरतिनगगिरियरसंसियकुसुसगुब्बी चनमाणोधगया तत्थ बयो समागया देवा मण्या य मिया सोगतरुतलसंनिसना गुरवो देवमेहुणगं च बंदणागय तेसिं बंधमोक्खविहाणं कहति। अहं पि पापसु णिवडिळण एग- ईसाणो कप्पो सिरिप्पन विमाणं संदेवमिदणं महावो राया देसे निसामा धम्मकह सुणामि पुच्छिया मए जयवं अस्थि मम सयंबुरूसंजिन्नसोयसहितो निन्नामिगा य तवसोसियसरीमतो को वि क्खिो जीवो जीवझोगे । ततो तेहिं भगवतेहिं | रासम्वत्थयात्रियंगयसयंपजाणं नामाणि बेहियाणि । ततो निष्फभणियं निन्नामिगे तुहं सदा सुहासुहा सुश्पहमागच्छति रूवाणि ने पो धातीपट्टगं गहेऊण धायसंमदीचं वच्चामित्ति गयणण वि सुंदरमंगुल्लाणि पाससि गंधे सुन्नासुभे अग्घायसि रसे- य नियत्ता पछिया मया कीसम्मो सई नियत्तासि साजणा वि मणुप्पामणुसे आसाएसि फासे वि इछाणिटे परिसंवेदेसि । पुत्ति ! सुबह कारणं इह अम्ह सामिणो तव पिणोवरिसवकाअत्यि य तो सीउपहबहाणं परिकारी निई सुहागयं सेविसि वणनिमित्तं विजयवासिणो बहुगा रायाणो समागया तं जर तमसि जोए पगासेण कज्ज कुणसि नरए पुण नेरक्याणं निच्च- देव तव हिययदश्तो होहि तो बकमेवेति चैतिऊण नियत्ता । मसुभा सद्दरूवरसगंधफासा निप्पमियाराणि य परमदारुणाणि जर इत्थ न होहि तो परिमग्गणं करेस्सामि गया भणिया सीउराहाणि तहा हापिवासातो य न य खणं पि निद्दासुहं सुह कयंति । ततो वीयदिवसे पर्स गहाय अवरएहे भागया तसिं।तेय निश्चंधयारेसुचिट्ठमाणाऽक्खसयाणि विवसा अणु- पसन्नमुदी प्रणश्पुत्ति ! निळुया होह दिछो मया ते ललियंगतो हवमाणा बहुं कालं गर्मति । तिरिया विसपक्खपरपक्खजाणि- पुच्च्यिा मया अम्मो साहसु कति । सा भणति पुत्ति ! मया याणि दुक्खाणि सीउएहखुदापिवासादीयाणि य अहवंति । रायमग्गे पसारितो पडो पडं के आनिक्सकुसहा भागमं पमातय पुण साहारणं सुहदुक्खं केवलमसिं रिहिं पस्समाणाणं करता पसंसति जे अकसहा ते बारूवाईणि पसंसंति तत्थ मुहियमप्पाणं तक्केसि । ततो मप पणयाए जह नणद तहत्ति दुम्मरिसणरायसुतो दुईतो कुमारो सपरिवारो आगतो वो पडिस्सुयं । तत्थ य धम्मं सोकण के पब्वश्या केइ गिहिवा मुत्तमेत्तं पासिऊण मुच्छितो पडितो खणण आसत्थो मणुसजोगाई सीलध्वयाई पश्विना । ततो गर विन्नवियं भयवं सेहिं पुच्छितो सामि ! कि मुच्छितो । सो भण नियरियं जस्स नियमस्स पासणे हं सत्ता तं मे उबासह । ततो मे तेहि पम्यतिहियं दहण जाती मए सुमरिया अहं सनियंगतो देवी पंचअणुब्बयाई नवदिशाणि परितुहा बंदिऊण जणेण सह नं- प्रासि सयंपजा मे देवी मया पुच्छितो पुत्त ! साहसु को पसी दिग्गाममागता पालेमि ताणि अमुव्वयाणि परियायसती चन- | संनियसो । जण पुंगरिगिण। नगरी पव्ययं मेरं कह अणगात्थ हमाह खमामि । एव काल गत कयभत्तपञ्चवखाणा पती रो को वि पस साहू वीसरियं से नाम कापं सोहम्मं साह देवं परमदसणीयं पस्सामि सो भण निन्नामिगे चितेहि हो- महाबलं राया को वि पसो मंतिसहितो त्ति जंप। निन्नामिगं मिएयस्स नारियत्ति । ततो देवी मे नविस्ससि मया सह दिव्ये का वि पसा तपस्सिणी न याणं से नामंति ततो विप्पावणा नोगे तुजसि । एवं बोलण असणं गतो अहमचि परितोस- एसो त्ति मणिकण मया जणितो वृत्त संवदति सव्यं जं पुण चसविसप्पमाणहियया देवदंसणेण हभिरज देवत्तंति चि. वीसरियं तेण किं सव्यं तुम लोह यंगतो सा पुण ते सपमा Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६५ ) अभिधान राजेन्द्रः उसभ घार दी नदिग्गामै कम्मदोसेण पंगुलिया जाया । समरिया नियजाती ततो तो तब मानहेतुं श्रागमकुलझाए नियचरियं द्वियं । मम धायखंडे गयाप पको समप्पिल कटितो मनी कंप कना पुत! यदि नेमचा संतांसह नियण पंगु लियं एवं प्रणिए उवहसिता मित्तेहि गम्मतो सिज्जनत्तो पंगुनिया तो सो प्रगाण अतो मुटुसमे ओडमालाओ घणो नाम कुमागे लंघणपणादि असमरथोत्ति संजाग्रवइरजंबोत्ति बीयाज्ञिहाणो आगतो परं दडूण मं प्रण | केणेयं लिहियं चित्वं मया जणियं । किं निमित्तं पुच्छ सि सो भणइ मम एवं चरियं श्रहं नियंगतो नामासि सयंभा मे देवी असंसयं तीए लहियं जइ वा श्रणं वितीय उपसेणंति तक्केमि ततो मए पुच्छितो जर ते चरिय साहस को पस संनिवेसो । सो प्रण नंदिग्गामा एसो पव्वतो नंबर तिनको जुगंधरा आयरिया एसा खमणकिलंता निनामिया महत्वत्तो राया स्वयंशिसोद्दि सह लिहितो एस खायो कप्पो सिरिय भं विमाणं एवं सव्यं सपब्वयं कहियं । ततो मए जणितो जाएसा सिमिती कुमारी तोडिया सामना तेज रो निवेरमि जेण सा ते भव । एवं सोऊण सो समणसो ग तो अहं कयकज्जा आगया ता गच्छामि पुष्ति ! रो निवेपमि जेण ते पि सयं कामो भव । गया रायसमीत्रं सद्दाविया अहं रामावसाहिया गया रायसमीयं रायाए कहितो वसुम ! जो सिरिम लक्षियंगतो देवो श्रासि तं जहा अहं जाणं न तहा सिरम अधि अपराजय दीयोगा नाम नगरी जियसन राया तस्स मनोहर केकई डुवे देव। ओ । तासिं जडकमं अयक्ष विनीसणो य पुत्ता वनदेववासुदेवा पिनि रविज्ञमणो बचाया कम का पुच्छति अषा में सुखिरी सिरीयसं पपव्ययामि करेमि पर लोगहियं विदि मंतिन विसज्जे निबंधे कप भर अम्मो जर ते निच्छतो ता देवलोगं गया में वसणपडियं पडियो हिज्जासि ती पडिवनं पव्वश्या । परमधिश्लेण अह।याणि एक्कारस अंगाणि वरिसकोमी तवम चरिकण अपरिवमियवेरग्गा समाहीए कालगया संत बच्चे देयो जातो ताय में जाण यसदेषवासुदेवाय बकास मुदिता भोगे जति कयाद निगम अ हिया धर्माचि पथिसिया दूरं आसानी कागतो अयलो नेहेण न जाणद ! परिस्रमेण मुच्छितो एसो मिस प्राणि गणाम अचलग एससि संग सुमरि क्षणात विभीरू विधिक अयलो भणितो भाय अहं विज्जाहरेहिं समं जुज्जिडं गतो ते मए पसाहिया तुज्छे पुरा अंतरं जाणिऊणं केण वि मम रूवेण मोहिया । ता छड्डेहि एवं कलेवरं सकारेसु अग्गिणा ततो सक्कारेऊण स नगरमा गया। जमाला जण सहिं पचिट्ठा कासनिया वयात मया मोहरीरूवं दसिय संभंतो अयलो भरणइ श्रम्मो ! तु भेकतोति ततो मए पब्वयाकालो संगरो य कहितो बिमीसमरणं च । अहं लगातो इह गतो तं च पडियोहणनिमित्तं श्रणिचं मयरिद्धिं जाणिऊण करेहि पर लोगहियं । वो गत सगं कप विपुल संकामिवर सिरी नियमो यो तरिकाल उसभ गतो देवो जातो अहं पुरा तं सदेयोगं जाहे जाहे सुमरामि सादे ना त कप्पं नेमि सो सागरोपमस्त समयभागे ताहे देवसुहं भोलू तो तत्थ नो उववन्नो । तं पि ललियंगयं एस मे पुत्तों जत्थ तिलमि पण कमेण गया सत्तरसलिलयंगतो सो हारसमो सो वि मे पुत्तसिणेहेण बहुसो लतगं कप्पं नीतो तं जाणामि सिरिमई भत्ता ललियंगतो जातो बारजो कंचुकी सहावे पारजं साधितो प्रा गतो दिठो मया परितोसवियसियष्ट्रीय अभूतप हतो राइनो भणितो राइणा पुरा ! वहरजंय पुज्बभवयंपर्भ सिरिम ति श्रवलोइया तेण श्रहं कलहंसेणेव कमलिणी विहिणा पाणिग्गहितो दिषं तारण विपुलं धणं परिवारिगा तो विजियाणि देण्याणि लोहाल मुंजामो निस भोगे । बहरसेणो वि या लोगतियदेवपडिमोहित संघ हरियंदा पोक्खलपालस्स निययुत्तरसज्दाऊण नियमसुनरहं सहितो पाहतो उप्पक्षकेवलजाणो धम्मं दिसइ | मम वि कालेण पुतो जातो सो सुहेण afgतो कयाइ पोक्खलपालस्स केइ सामंता विसंवदया । ततो तेरा अहं पेलिए बहरघो सिरिमई व हे पु नगरे daai विउले संधावारेण पत्थिया सरवणस्स मज्भेणं जाणजणेण पंथो पडिसिद्धो । जहा दिठिविसो सरवणे सप्पो . त्रिघ्इ तो न जाइ तेण पहेण गंतुं ति ततो तं सरवणं परिहरंगा मे पता पंडरिगण चि संक्रिया संचामागया अम्हेपि पोक्लपालेण रा पूरकण विसज्जिया पत्थिया सनगरं भण जो सब गुज्जाणमज्जेण गंतव्त्रं जतो तत्थ वियस्स साहुणो फेन ततो देवा यस्या देवुखोपवि संप्पो निव्विसो जातो । ततो म्हे कमेण पत्ता सरवणं तत्थ आवासिय दिठा नियमायरो मर सागरसेम सेिच समा त्रिविमा परिसानिया असणपाणखामसाध्मेण ततो मीता कया देवि निगा सामने बिरामी | रागमभामोतिया पता कमेण सनगर पुण अहं विहरकाले भिन्नयग्यो दाणमाणेहिं रंजितो दासघरे विस धूमो परंजितो अम्छे वि विसजियपरियणा वासहरं रयणीय पविडा | धूमधूसियधातू काल गया इहागया उत्तरकुराए चि । तं जाणामि श्रज्ज ! जा निनामिगा सा सर्वपजा जा सिरिमई सा अहं । जो सो महावलो राया सोय लझियंगतो देवो जो य पर. घोराया ते तुम्भे एवं जीव से नामं गहियं सा ग्रहं सयंपभा ते सामिणो भणियं । अज्जे देवज्जोपण जाई संजरिकण मर एवं चितयं देवभवे वह्नामि ततो सयंपभा आजट्ठा तं सम्यमेयं करिति परिमाणसाथि पुन्ययममरणपलियाणि तिथि पनि जीविकायानि सोम्मे क देवा या सणापीति भासि पहिलो पा ॐ परा नगरी सामी सुवि राजपुतो केसी नाम जातो भई पुरा सेतो विणे अधिगो सिपेहो तत्क्षेत्र नगरे रायसुता मतिसुतो सेठ: सुतो सत्थवाहतोय तेहि विसयमती जाया कयाइ साडू म या कम गहितो परिवरियो एवं जहा आप समही काल गया अच्चुए कप्पे दसमाणा देवा जाया ततो वि इइस केस रो मंगलादेवी था नाम रायवाईक रवी से जातो Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ मान्नधानगजाः । उसभ णगनाजरुप्पनाभपीठमहापीग जाया। कणगनाभरप्पनाना धी- सग्गा नवजाति तं दिव्वा वा जाव पडियोमा वा तत्य यनामेण बाहुसुबाह अहं पुण नगरे तत्थेव रायसुतेो जाता वासो पामलोमा वेष वा जाव कसाग वा काए आउटेजा चेव वरनासमलीणो सारही सुजसो नाम वरनामेण सममगुपचश्तो भगवया य वरसेणेण वश्रनाजो भरहे पढमति अणुस्रोमा वंदेज वा जाव पज्जुवासेज वा ते सव्वे सम्म स्थयरो नसतो नाम आदिटो कणगनालो चकवट्ठी जरहो प्रति साहई जाव अणुहियो मेजई ॥ सेसं जहा पुवं जाव सय? देवा जाया ततो चुया इहा- यतः प्रभृति ऋषनोईन कौशलिकः प्रवजितस्ततः प्रति गया मथा य वरसेणतित्थयरो परिसेण नेवत्थेण दिट्टोत्ति नित्यं व्युत्सष्टकायः गृहकर्मवर्जनात् त्यक्तदेहः परीपहादिसहय पियामहलिंगदरिसणेश पोराणतो जाईतो सरियातो वि- नातू ये केचिदुपसा उत्पद्यन्ते तद्यथा दिव्या देवकृताः वाशनायं च अन्नपाणा दायब्वं तवीणं । तेसिं च तिथि विसु- ब्दः समुरुचये यावत् करणात् "माणुसा या तिरिषखजोणिमा विणाणमेतदेव फलं जंजयवतो निक्खा दिन्ना । पयं च कहं सोक- वा इति" पदग्रहप्रतिक्षामा प्रतिकूलतया वेद्यमाना अनुलोमाः अण नरनश्माईहिं पहट्टमाणसहिं सेजंसो पूजितो" आमाप्र०॥ नुकूतया बंद्यमानाः वा शब्दः पूर्ववत्। तत्र प्रतियोमा येत्रेण जस्वप्नानां च फन्नमिदं, यत्प्रनुः प्रतिलानितः ॥२२॥ सवंशेन यावच्चब्दात् “तयाए वा छियाए वा अयाए बा" इति । तदाकार्य जनः सर्वः, श्रेयांसमभिनन्द्य च। तत्र तपयाऽसनादिकया दिवया सदणया लोहकुश्यया लतया अमन्दानन्दमेदस्वी, स्थानं निजनिजं यया ॥२३॥ कम्बया कर्पण चर्मदएमेन वाशब्दः प्राग्वत् । कश्चिद्दष्टात्मा काये श्रयांसोऽपि प्रचुर्यत्रा-वस्थितः प्रतिमानितः। विवकातः कारकाणीत्याधारविवक्तायां सप्तमी । आकुट्टयेत् ता. रत्नपी व्यधात्तत्र--माऽप्तौ नूः ऋम्यतां जनैः ॥२४॥ म्येदित्यर्थः । अनुलोमास्तु “ वंदेज्ज वा यावत्करणात् पूपज्जा तश्च त्रिसंध्यमानर्च, सोको प्राकी दिदं हि किम् । वासकारज्जा वा सम्माणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेश्य धेयांसः कथयामास, युगादिजिनमएडसम ॥२५॥ इति" बन्दे त वास्तुतिकरणेन पूजयेद्वा पुष्पादिभिः सत्कुर्याद्वाधलोकेनापि ततो यत्र, यत्र श्रीजगवान् स्थितः। नादिनिः सन्मानयेद्वा अभ्युत्थानादिनिः कल्याणं नाकारित्यातत्र तत्र कृतं पीठं, सूर्यपी क्रमादभूत् ॥ २६ ।। प्रा० क०। त् मङ्गलमनर्थप्रतिघातत्वात् देवतामिष्टदेवतामिव चैत्यमिदेप्रस्तुतमाह। बताप्रतिमामिव पर्युपासात या सेवेति तान् प्रतियोमानुलोमतस्वसिझायनगमणं, बाहुबलि निवेणं चेव । नेदभिन्नान् उपसर्गान सम्यक् सहते नयानावेन यावत्करणात अकरगमनिका कियाध्याहारतः कार्या । तथा गजपुरं नाम नग खम तितिक्खइत्ति कमते क्रोधाभावेन तितिक्ते दैन्यावलम्बरमासीत् श्रेयांसस्तत्र राजा तेनेचुरसदानं जगवन्तमधिकृत्य प्रच नेन अध्यासयति अविचाकायतयेति । र्तितम् । तत्रार्द्ध त्रयोदशहिरण्यकोटीपरिमाणा वसुधारा निषति अथ भगवतः श्रमणावस्थां वर्णयन्नाह । ता । पायमिति धेयांसेन यत्रजगवता पारितं तत्र तत्पादयोर्मा क- तएणं से जगवं समणे जाए रिआस मए जाव पारिचिदाक्रमणं करिष्यतीतिभक्त्या रत्नमयं पीठ कारितं गुरुपूजेति हाव आसम ए मए.समिए वयसमिए कायसामए मणगुतदर्चनं चके। अत्रान्तरे भगवतःत कशिनातनगमनं बनूव नगवतःप्रवृत्तिनियुक्तपुरुषैर्वाहुबनिनिवेदनं कृतमित्यक्करगमनिका । ते वयगुत्त कायगुत्ते जाव गुत्तबंतयारी अकाहे अमाणे एवमन्यासामपि संग्रहगाथानां स्वबुध्या गमनिका कायेति गा- अमाए अनांहे संते पसंते नवसंते परिणिबुडे हिमसीए थार्थः । श्रा० म०प्र० । निरुवक्षेचे संखमिव निरजणे जच्चकाणगं व जायसवे आदरअथ पुनः कथाशेषमुच्यते ॥ सप मजागे इव पागड नावे कुम्मो श्व गुछिदिए पुक्खरज्ञात्वा स्वामिनमायान्तं, हर्षोत्कर्षेण परितः। पत्त मव निरुवलेवे गगणमिव निरालंबणे अणिले इच अचिन्तयद्वाहुबत्रिः, स्वसर्वा प्रभोः पदौ ॥१॥ नंस्थामीत्यागतस्तत्र, यावत्प्रातः स नागरः। णिरामए चंदो इव सोमदए सोतेयसि विहग इव अप्पविजहार प्रस्ताव-द्वायुवन्मुनयोऽममाः ॥२॥ मिवरगामी सागरो इब गंभीरे मंदरोश्व अकंपे पुढविश्व अदृष्ट्वा स्वामिनं बाहु-विनिर्मायाधृति पराम् । सवफारिसहे जीवो विव अप्पडिहयगई एत्यि णं तस्स यत्रास्थाद्भगवांस्तत्र, धर्मचक्र मणीमयम् ॥ ३॥ जगतस्स कत्यइ पमिबंधे से पडिबंधे चनविहे नवतितंजहा अष्टयोजनविस्तार-मेकयोजनमुच्चूितम् । सहस्रारं सहस्रांशा-रिव विम्ब न्यवेशयत् ॥४॥ दव्यो खित्तो कामओनावो। दव्वो इह खलु माया पूजयामास पुष्पैस्त-चके चाष्टाह्निकोत्सवम् । मे पिया मे भाया मेनगणी मे जाव सगं थसं थुआ मे हिरणं संस्थाप्य पूजकांस्तत्र, ययौ वार्निजां पुरीम् ॥ ५॥ मे सुवासं मे जाव नवगरणं मे अहवा से समासो सञ्चित्त ततश्च विहरन् स्वामी, समीरण श्वास्पृहः। वा अच्चत वामीसए वादया जाए एवं तसणं जबइ खियवनामम्बयल्लादि-म्लेच्छदेशेषु माननाक् ॥६॥ तो गामे वा गरे वा अरसे वा खेत्तं वा खले वा गिढे उपसगैरसन्तुष्टः, सहमानः परोषहान् । आ० क.॥ (१०) श्रामण्यानन्तरं कथं प्रभुः प्रववृते इत्याह ॥ वा अंगणे वा एवं तस्स ण जवइ कामओ थोवे बालवे जप्पभि च णं उसमे अरहा कोसलिए मुंडे नवित्ताणं | वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा उऊ वा अअगाराो अपगारियं पचाए तप्पभिचणं नसभे अ- यणे वा संवच्चरे वा अन्नयरे वादीहकालपमिबंधे एवं तस्स रहा कोसलिए णिचं वोमढकाए वि अत्तदेहे जे केइ नय- ण जबइ जावो कोहे वा जाव लोहे वा जए वा हासे Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५६७) अभिधानराजन्धः उसभ वा एवं तस्स जव । से गं भगवं वासावासवजं हेतं गिम्हामु गाये एगराए नगरे पंचराइए ववगग्रहाससोरभयपरित्ता से णिम्ममे निरहंकारे लहजूए अ गये वासी तत्व अ चंदा अरचे सेम्म कंम्प समे । इह लोए परोए अप डेव अमर निरपखे संसारगामी कम्पयणिन्याय ठाए प्रभुट्टिए विहरः । तस्न णं जगवंतस्त्र एते विहारेगं विहरमाणस एगे वाससेविते समाणे - रिमत लस्त नगरस्व पचि सगमुहांसे न जाएोस गोहरपायवस हे भातरिआए वट्टमाणस्स फगुणबस एक्कारसीए पुव्वएहकाललमयंसि मेणं अते अवारा उत्तरासादाववतेर्ण जोगबागगुत्तरेणं नाणं जाव चरिते अणुत्तरेणं तत्रेणं लेणं वरिएणं प्रालपणं पिद्वारे भाषाए संतीए एडीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवं सुच्चचरितवचि ग्रफल निव्वाणममेणं अप्पाणं भवेमाणइस अत अणुत्तरे शिव्वाघाए शिरावर कलिए पटिकेवल ये समुप्पो जिणे जाए केवल भवन्न सर सर अतिरिरायरस लोग पज्जवे जाण पास तं जहा आगई गई लिई उनवार्यमुत्त कर्म कम्पे रहो कम्मे से सेकले मणक्य काए जोगे एवमदं विभनणवि naraja मोलमग्गस्स विसुधतराए बहने जाणमा पासपा से एसख मंगलमयोसि च जीवाहिसिकरे सचिव परमा गुणं भविरूप || अथ कथं नु भगवान् विहरति स्मेत्याह ( सेणमित्यादि) सभ गवान् वर्षा प्रावृा स्थान वज्जनेनेत्यथः । हेमन्ताः शीतकाप्रमासाः प्रोष्मा उध्यकालमाखास्तेषु श्रामेऽपोयस सनिवेशे एका रात्रिवसमानतया यस्य स एकरात्रिकः एकदिनवासीत्यर्थः । नगरे गरीयसि सन्निवेसे पञ्च रात्रयो वासमानतया यस्य स तथा पञ्चदिनवासीति भावः । यथा दिनशब्दोऽहोरावयाची तथा राषिशब्दोऽप्यदोरात्रयाचीति । ननु ना दिनशब्द एवं कथं नोपासते। निशाविहारस्यासंयम तुरचतु तीर्थङ्करा अवगृीतायां वसतावेवा वासिषुः यरस्यन्ति सन्तति मायः यपगत हास्यशोकारतिरतिभययरिवासः । तजातिममसीत्सुक्यमुति स्तदद्भावः । परित्रास आकस्मिकं जयं शेषं व्यक्तम्। निर्गतोममे ति शब्दो यस्मात् स तथा । किमुक्तं भवति प्रभोर्ममेत्यभिमानो नास्तीति पष्ठयेकवचनान्तस्यास्मच्छन्दस्यानुकरणशब्दत्वाममेत्यस्य साधुता | निरहङ्कारः श्रहमिति करणमहङ्कारः स नितो यस्मात् स तथा लघुभूत ऊर्द्धगतिकत्वात् । अत एवाग्रम्यो] बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः । वास्या सूत्रधारशस्त्रविशेषेण तरुणं त्यकोत्तनं तत्र द्विद्वेषान्नुप उसन कोरागत्वात् । नौ हर्षादि काञ्चने च समः उपेक्षणीयत्वेनोभयत्र साम्पा झोके वर्तमाने नवे मनुष्यलोके परलोके देवभयादी तत्र प्रतिद्धस्त प्रत्यसुखनिष्पिपासित्वात् जीवित मरणयोर्निश्वकाङ्क्षमिन्द्रनादिपूजाप्रासी जी हासौ मरणे निष्पृहः । संसारपारगामीति व्यक्तम् । कर्मण सङ्गोऽनादिकानि जीवप्रदशैः सह संबन्धस्तस्य निर्घातनं चिश्लेषणं तदर्थमभ्युत्थित उद्यतो विहरति । अथ ज्ञानकल्पाकवनाया ( तस्सणामित्यादि ) तस्य भगवतः एतेनानन्तरोक्तेन विहारेण चित एकस्मिन् वर्षसहतिक्रान्ते सति पुरिम ताज्ञस्य नगरवद्विशकटमुळे उद्याने पादपस्थाचा नान्तरिकेति । अन्वस्व विच्छेदस्य करणमन्तरिका ि अथवा भन्तरमेवान्यं भेषजादित्यात स्वार्थे त्वविवकायां ङीपि प्रत्यये आन्तरी आन्तर्येचान्तरिका आरब्धभ्यानस्य समातिरपूर्वस्य नारग्नमित्य र्थः । अतस्तस्यां वर्तमानस्य फोर्थः पृति सविचार कत्यचित कम विचारम् २ सूक्ष्मषमणिर्ति ३ समुनियमप्रतिपाति ४ इति चतुश्वरणात्मकस्य शुक्तध्यानस्य चरणइये ध्याने चरमचरणद्वयमप्रतिपन्नस्येति योगनिरोधरूपध्यानस्य चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनि केशिन्येव संवात् । फाल्गुनबहुलस्यैकादश्यां पूर्वाह्नकाल पो यः समयोऽवसरस्तस्मिन् अष्टमेन भक्तेनागमभाषयोपवास नापानकेन जलवर्जितेनोत्तरापादानत्रे बसति पासति । उभयत्र णं वाक्यालङ्कारे । अथ वा तृतीया अनुत्तरेणेति झपकणिप्रतिपत्येन के सत्येन परमविद्धिपदप्राप्तत्वेन न विद्यते उत्तरं प्रधानमप्रवर्ति वा ब्राह्मस्थिकज्ञानं यस्मात्तत्तथा तेन ज्ञानेन तत्वाव बोधरूपेण एवं वादा दर्शनेनाषिकायापन सम्प वेन चरिषेण विरतिपरिणामरूपेण शकिनावापनेव पति बननार्येण मानसोत्साहेन आलयेन निर्दोषवसत्या विहारेण गोचरचयदि हिमनलकणेन जाननयामासंवन्धिन्या मनोगुत्यादिरूपतया पदार्थानाम नित्यत्वादिचिन्तनरूपया वा कान्त्या क्रोधनिप्रहेण गुप्त्या प्राख्याख्यातस्वरूपया मुक्त्या निर्दोजतया तुष्टया इच्छानिवृत्या आर्जवेन मायानिय देण मायेन मानदे लावेनासुद जावेन क्रियोक्तप्रत्य निधानात् सोपचितं सोपचयं पुष्टमिति यावत् एताशेन समुत्पन्नोऽयमित्यन्वयः । एवमनन्तमविनाशित्वात् सानिया कटादिनिप्रतिया तू निरावर्णाधिकार्थत्वात् प्रतिपूर्ण सकस्यांशकलितस्वात् पूर्णचन्द्रवत् । केवलमसहाय " - मि ब्राउथिए णाणे" इति वचनात् परं प्रधानं ज्ञानं च दर्शनं समाहारद्वन्द्वे एकवद्भावः ततः पूर्वपदाभ्यां कर्मधारयः । तत्र सामान्यविशेोभयात्मके वस्तुनि ज्ञानं विशेषय दर्शनं सामान्यावबोधरूपमिति । अत्रायमाशयः दूरादेव तासतमालादिकं तरुनिक विशिष्यति ययातिमयलोकयतः पुरुषस्य सामान्येन वृद्ध मात्रश्तीति जनकं पदपरि स्पर्ट किमपि रूपं निर्विशेषाणा मग्रहो दर्शनमिति वचनात् पुनस्तस्यैव प्रत्यासीदस्तात मालादिव्यक्तिरूपतयाऽयधारितं रामेय तस्समुत्पश्यतो विशिष्टयप्रीतिजन परिस्ट रूपमाभाति तज्ज्ञानम् । ननु भवतु नाम इत्थमभविशेष हकता दर्शने च सामान्य ग्राहकता परं केवलिनो ज्ञानक्षणे Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६८) नसभ अभिधानराजेन्द्रः। उसन्न सामान्यांशाग्रहणादर्शनेन विशेषांशग्रहणाभावाद् द्वयोरपि (२१ अथ उत्पशकवनझानो भनवान् यथा सर्वार्थविषयत्वं विरुध्यति उच्यते ज्ञानक्षणे हि केवलिनांश ने 'धर्म प्रापुश्चकार तथाह । यावद्विशेषान् गृहति सति सामान्य प्रतिभातमेवाशेषराशि- | तंत णं से भगवं समणाणं णिगंयाणं णिग्गंथो, य रूपत्वात् सामान्यस्य । दर्शनक्षणे च दर्शने सामान्यं गृह्णति पंचमहत्वयाई सनावणगाई छच्च जीवणिकाए धम्म देससति यावद विशेषाः प्रतिभाता एव विशेषानालिङ्गितस्य सामान्यस्याभावात् अत एव निर्विशेष विशेषाणामग्रहो दर्श माणे विहरति तं जहा पुढविकाए जाव गागमणं पंचमहन्वनमित्युक्तमनन्तरोक्तप्रन्थे एकार्थः । ज्ञानप्रधानभावेन विशेषा याई सन्नावणागाई जाण अव्बाई ।। गौणभावेन सामान्या दर्शनं प्रधानभावेन सामान्यं गौ- ततः स भगवान् श्रमणानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च पञ्चमभावेन इति विशेषः । समुत्पन्नसम्यक्षायिकत्वेनावरणदेश- हावतानि सर्वप्राणातिपातविरमणादीनि सभावनाकानि र्यास्याप्यभावात् । उत्पन्न केवलस्य यद्भगवतः स्वरूपं तत् प्रकट- समित्यादिस्वभावेनापतानि षटच जीवनिकायान् पृथिव्यादित्रयति (जिणे जाए इत्यादि ) जिनो रागादिजेता । केवलं सान्तान् इत्येवरूपं धर्ममुपदिइन् विहरतीति संबन्धः । तच धभुतकानाचसहायकं ज्ञानमस्थास्तीति केवली अत एव सर्व- में प्रक्रन्तव्ये पम्जीवनिकायकथनमुपक्रान्तं तीयपरिशानमन्ततो विशेषांशपुरस्कारेण ज्ञाता सर्वज्ञाता सर्वदर्शी सामान्यांश- रेण व्रतपालनासंनवति इापनार्थम्। नन्वनियमःप्रथमवते संन्नपुरस्कारेण । नन्वहतां केवलज्ञानकेवल दर्शनावरणयोः क्षी- घेत मृषाचादविरमणादीनां तु भाषाविनागादिज्ञानाधीनत्वात् न णमोहान्तसमय एवं क्षीणत्वेन युगपदुत्पत्तिकत्ये उपयोग- संनवेदित्युच्यते शेषवतानामपि प्राणातिपातविरमणवतस्य रकस्वभायात् क्रमप्रवृत्ती च सिद्धायां" सम्वन्नू सव्वदरािस" कत्वेन नियुक्तत्वात् महावृतस्य वृक्तयत् तथा हि मृषाभाषामइति सूत्रं यथा ज्ञानप्राथम्यसूचकमुपन्यस्तम् तथा "सबद- भाषमाणा हान्याख्यानादिविरतो न कुझवध्वादीन् छादत्तमनारिसी सव्वन्नू" इत्येवं दर्शनप्राथम्यसूचकं किंन तुल्यन्याय- ददामो धनस्वामिनं सचित्तजन फसादिकं च मधुमविरतो नवलस्वात् नैवं "सवाउ लद्धीओ, सागरोबउत्तस्स उववर्जति णो कपञ्चेन्नियादीन परिग्रह विरतः वृत्तिकस्तूरी मृगादीश्व नातिपाप्रणागारोवउत्तस्स" इत्यागमादुत्पत्तिक्रमेण सदा जिनानां तयेदिति । अथैतदेव किंचिद्व्यक्त्या विवृणोति तथा पृथिवीप्रथमे समये ज्ञानं ततो द्वितीये दर्शनं भवतीति ज्ञापनार्थत्वा- कायिक न जीवान अपदिशन् विहरतीति संबन्धः । साघधार्थकदित्थमुपन्यासस्येति छद्मस्थानां प्रथम समये दर्शनं द्वितीयो त्वेन सूत्रप्रवृत्तेर्देशग्रहणात्पूर्णोऽप्यासापको वाच्यःस चाय "पाठ शानमिति प्रसङ्गादोध्यम उतविशेषशादद्वयमेव विशिनष्टि स- क्काइए ते काइप वानक्काइएवाणस्सश्काइए तसकाइपत्ति"ध्यनैरयिकतिर्यग्नरामरस्य लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मक क्षेत्रख- क.म् तशा पञ्चमहाव्रतानि सन्नावनाकानि नावनागमन शीआएडस्य उपलक्षणादलोकस्यापि नभःप्रदेशमात्रात्मक क्षेत्रधि- चाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धगतभावनाख्याध्ययमगतपान भणितशेपस्य पर्यायान कमभाविस्वरूपविशेषान् जानाति केवलशा- व्यानि अत्र च सूत्रे यद्देशे प्रथमं "पंचमहब्बयाई" त्याहुक्तं नेन पश्यति केवलदर्शनेन पर्यायानित्युक्ते द्वयमपि प्रायम् । निर्देशे तु व्यत्ययेन “तं जहा पुढयिकाए" इत्यादि तत्कथमिन हि पर्याया अन्यवियुता भवेयु:व्यं वा पर्यायचियुतं तेनाधे- ति नाशङ्कनीयम् । यतः पश्चाऽद्दिष्टानामपि परजोनिकायानां यमाघारमाधिपतीति अन्यथा प्राधेयत्वस्यैवाटपपत्तेः यथा- | प्रस्तरतो बाङ्गे स्वल्पवक्तव्यतया प्रथम प्ररूपणाया युक्त्युपपन्नशस्यनादि आकाशः काप्यवतिष्ठले तस्याधारमात्ररूपस्यय सिद्धा वात् सूचीकटाहन्यायोऽत्रानुसरणीयो विचित्रा सूत्राणां कृतिराम्ते भणनात् । अथवा सामान्यत उक्तपोयाणां ज्ञान व्या या चार्यस्येति न्यायेन वा स्वत पवेति झेयम् । ननु गृहिधर्मसंविनिरूपयन्नाह। तद्यथा आगतिं यतः स्थानादागच्छन्ति विवाद नपातिकधर्मावपिनगवता देशनीयौ मोकाङ्गत्वात् यमुक्तम् । स्थानं जीवाः गति यत्र मृत्योत्पद्यन्ते स्थिति कायस्थितिभव "सावज्जजोगपरिव-जणा : सव्यत्तमा जईधम्मो । वीओ सास्थितिरूपां च्यवनं देयहोकाद्देवानाम् मनुष्यतियश्ववतरणम् । वगधम्मो, तो संविगपरखपहो ॥१॥" इति तत्कथमत्र उपपातं देवनारकजन्मस्थानं नुक्तमशनादि कृति चीयर्यादि प्रति तो नोक्तो त्रुच्यते सर्यसायद्ययर्जकत्वेन देशनायां यतिधर्मस्य सवितं मैयुनादि प्राविःकर्म प्रकट कार्य कर्म प्रच्चाहतं तं तं प्रथमं देशनीयत्वादत्यासम्मो३.पथयात श्मणसंघस्य प्रथम (कासंति ) प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया तस्मिन् काले वी व्यवस्थापनीयत्वास प्राधान्य ख्यापनार्थ प्रथममुपन्यासस्तो सायां विंचनं मनोवचा कायान योगान् करणत्रयध्यापारान व्याख्यानो विशेषार्थप्रतिपत्तिारति न्यायादतत्पुरुभूती तावपि पवमादीन जीवानामपि सर्वभावान् जीवधर्मानिरर्थः । अजी धर्मो भगवता प्ररूपिताविति शेयम् । भगवत्प्ररूपणामन्तरेणाऽघानामपि सर्वनावान् मोकमार्गस्य रत्नत्रयस्य विरु तरकान् न्येषां तक्तद्वन्धषु तयोः प्ररूपणानुपपत्तरित्यक्षं प्रसङ्गेनति । जं. प्रकर्षको प्राप्तान् कर्म यहेलन् भावान् ज्ञानाचारादीन् जानन् २ वक०॥ पश्यन् विहरतीति गम्यम । कथं च जानन् पश्यन् विचरती नमोणं अरहा कोसलिएणं इम.से उस्मप्पिणीए नवाई स्याह एपोऽनन्तरवक्ष्यमाणो धर्मः खझुरवधारणे मोकमार्ग: सिरिसाधकत्वन समदेशकस्यान्येषां च शातणां हितं कल्याण सागरोवमकोमाकोम.हिं वो कंताहिं तित्ये पयत्तिए । पश्यनजनवदित्यर्थः । सुखमनुकृत्रिवेद्यं पिपासोः शीतयजल- स्या० १० ग० ॥ पानवत् निःश्रेयसं मोवस्तकरः नक्तानां हितादीनां कारक नज्जापुरिमताने, पुरीविणीयाइ तत्य नाणवरं । इति । सर्वदुःखविमोकण इति व्यक्तं परमसुस्वमात्यन्तिकसुखं समापयतीति व्युत्पत्तिवशात्परमसुखसमानतः"समापःसमान" चवकुप्पयायनरहे, निवेयणं चैव दोएहं पि॥ इति प्राकृतसूत्रेण समानादेशेऽजटि प्रत्यये रूपसिद्धिः । निः तथा तस्मि.वाह नि जरतनृपतेरायुधशालायां चक्रात्पादश्च बधेयसत्यत्र पकारलोपः मानत्वात भविष्यतीति ॥ ज०२ वक नृष (चरहे निवेयणं चेव दोएइपित्ति)नरताय निवेदनं च द्वश्राय० प्रा०म०प्र०। योरपिज्ञानरमचक्ररक्षयोः। तन्नियुक्तपुरुः कृतमिन्यभ्यादार इति Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११६९ ) नसभ अनिधानराजेन्द्रः। उसभ गाथार्थः। अत्रान्तरेजरतश्चिन्तयामास पूजा तावद्द्वयोरपि का. रीचिरिति जातमात्रो मरीचि मुक्तवानित्यतो मरीचिमान् र्या । कस्य प्रथमं कर्तुं युज्यते। किं चक्ररत्नस्य चत तातस्येति तन | मरीचिरभेदोपचारान्मतुटलोपाद्धेति । अस्य च प्रकृतोपयोगितातम्मि पूइए चक-पूइयं पूअणारिहो ताओ। स्वात् कुमारसामान्याभिधाने सत्यपि भेदेनोपन्यासः । सम्य क्त्वेन लब्धा प्राप्ता बुद्धिर्यस्य स तथाविधः शेष सुगममिति इह लोश्यं तु चर्क, परलोअसुखावहो ताओ ॥२४॥ गाथाचतुएयार्थः । श्रा० म०प्र० श्राव०११० । (भरतविताते त्रैलोक्यगुरौ पूजिते सति चक्रं पूजितमेव तत्पूजानिबन्ध जयवक्तव्यता भरहशब्दे)भगवद्वन्दनार्थ सह मरुदेव्या निर्गतः नत्वाच्चक्रस्य । तथा पूजामतीति पजाहस्तातो वर्तते देवेन्डा (कहणं) भगवद्विभूतिकथनं ऋषभसेनस्य पुण्डरीफापरनाम्नः दितुल्यत्वात् । तथा इह लौकिकं चक्रं तुरेवकारार्थः स चावधा प्रवज्या ब्राहयादिदीक्षा सुन्दर्या अवरोधार्थ धारणं (सयएह) रणे किमवधारयति । ऐहिकमेव चक्रं सांसारिकसुखहेतुत्वात समकालं सामान्येन कुमारदीक्षाभिधानेऽपि मरीचेर्विशेषेणापरलोकसुखावहस्तातः शिवसुखहेतुत्वादिति गाथार्थः । तस्मा भिधानं प्रकृतोपयोगित्वात् (सम्मत्तलद्धबुद्धित्ति)लब्धासम्यत्तिष्ठतु तावश्चकं तातस्य पूजा कर्तु युज्यत इति संप्रधार्य तत्पू क्त्वबुद्धिर्येन स लब्धसम्यक्त्वषुद्धिः शेषं स्पष्टम् । अथ भरतः जाकरणसंदेशव्यापृतो बभूव ॥ श्दानी कथानकम् "भरहो सञ्च किंचकारेत्याह "अथोत्थाय प्रभोः पूजां, विधाय भरतेश्वरः। च वीप नगवंत वंदं उपयट्टो । मरुदेवी सामिणी य भगवंते पब्व कार चक्ररत्नस्या-टाह्निकामहिमोत्सवम्" (आ०क०)वारसवाइए भरहरज्जसिरिं पासिकण नाणया श्यो मम पुत्तस्स एरि साणि महारायाभिसेश्रो वुत्तोराइणो विसज्जिया ताहे निययसी रज्जसिरी पासि संपयं सो खुदापिवासापरिगओ नन्गो वग्गं सरिउमारद्धोताहे दाइज्जति सब्वे निपल्लया एवं परिवाडी हिंमत्ति । नन्वेयं करिया श्यो जरहस्स तित्थगरविभू वन्ने ए सुंदरी दाश्या सापंमुल्लुगितमुही सा य जद्दिवसं रुका तद्दितस्स बिनपत्तिज्जिया श्यो पुत्तसोगेण य किलेसम्भामंतचक्खं वसमारम्भ आयविवाणि करेति तं पासित्ता रुट्ठो ते कुटुंबिए जायं भवंती एत्तो भरहेण गच्छतेण विन्नत्ता। अम्मो एहि जे. भण । किं मम नस्थि नोयणं जं एसा य रिसीरूवेण जायावे. ण भगवो विभूति दसमि ताहे भरहो हत्थिखंधे पुरओ का ज्जा वा नत्थि तेहिं सिटुं जहा आयंविक्षाणि करे ताहे तस्स कण निम्गओ । समोसरणदेसे य गयणतलं सुरसमूहण विमा तस्सोवरिं पयाणुश्रो रागो जाओ । सा य भणिया जर रुश्चति णासढेणोवरण विरायंतघयवर्स पहयदेवउंहिनिनायापूरि तो मए समं नोगे मुंजाहि ण वि तो पब्धयाहि त्ति। ताहे पापसु यदिसामंडलं पासिकण नरहो नणिया ईश्रो पेच जर एरिसी पमिया विसज्जिया पव्वश्या । अन्नया परहो तेसिं नाउयाणं रिकी मम कोसियसहस्सभागेण वि । ततो तीए भगवओ दूयं पध्वेश् । जहा मम रजं श्रायणह ते नणंति अम्हं वि रज्ज उच्छवा इत्थतं पासंतीए चेव केवबमुप्पमं । अन्ने प्रणंति जगवओ तापण दिम तुम्नं वि एतु तावताओ पुचिन्जिहित्ति । जनणिभम्मकहासहं सुणेतीए तकादं च तिकमाउयं । ततो सिका । | हित्ति तं करिहामो तेण समएण भगवं अघावयमागओ विहरह भरहे श्रोसप्पिणीए पढमसिहोत्ति काऊण देवेहिं पूजा क-| माणे एत्थ सब्वे समोसरिया कुमारा ताहे प्रणति तुम्नेहिं दिया सरीरं च खोरोए बूढं । जगवं च समोसरणमन्नत्थो सदे- मानि रज्जा हरति भाया तो किं करेमो किं जुज्कामो उदाहु वमरणयासुराए सहाए धम्मं कहेश् । तत्थ जसजसेणो नाम आयणामो ताहे सामी भोगेसु नियतावेमाणो तेसिं धम्मं कहे। भरहपुत्तो पुवनवबरूगणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पब्वाइ- न मुत्तिसरिसं सुहमत्थि ताहे इंगालदाह कदिटुंतं कहेश् । श्रो बंभी य पव्याया। भरहो सावगो जाओ। सुंदरी पब्धयंती " जहा एगो इंगालदाहओ पगं जाणं पाणियस्स भरेऊणं गओ भरहेण इत्थीरयणं भविस्सइत्ति रद्धा सा वि साविया जाया। तं तण उदगं निट्टवियं नवरि आश्चो पासे अम्गी पुणो परिएस चउब्विहो समणसंघो । ते य तापसा भगवश्रो नाणमु- स्समा दारुगाणि कुट्टितस्स घरं गतो पाणियं पीयं । मुच्चितो प्पन्नं ति कच्छसुकच्छवज्जा भगवो सगासमागंतूण भव- सुमिण पास। एवं असजावपट्टवणा कूबतबागनदीदहसमुद्दा गावतिवाणमंतरजोइसियमाणियदेवागि परिसं दहण भग- य सब्वे पीया । न य बिज्जर तएडा। ताहे अन्नम्मि जिन्नरूवे यो सगासे पव्वइया एत्थ समोसरणे मरीचिमाइया बहवे तणपुलियं गहाय नस्सिंच: । जं पडियसेसं तंजीहाय लिहर कुमारा पव्वइया श्रा० म०प्र० । एवं तुब्भेहिं वि अगुत्तरा सव्व योगे सवपुरिसा सव्वट्ठसिके (२२) सांप्रतमभिहितार्थसंग्रह परमिदं गाथाचतुष्टयमाह । अणुनूया तह वि तत्ति न गया। एवं वेयालियं नाम अज्जयणं सहमरुदेवीइ निग्गओ-कहणं पव्वज्जमुसजसणस्स । भास संबुज्कह किन्न बुज्कह । एवं अट्ठाणनई वि तेहिं अछा ण नई कुमारा पब्यश्यत्ति को पढमिल्लुएण संबुद्धो कोइ विबजीमरीइदिक्खा, सुंदरिओरोहसु अदिक्खा ॥२५॥ तिएण को ततिएण । जाहे ते पव्वश्या" प्रा० म०प्र० । पंच य पुत्तसयाई, भरहस्स य सत्तनत्तुअसयाई । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह । सयएहं पव्वआ, तम्मि कुमारा समोसरणे ॥ २६ ॥ मागहमाई विजओ, सुंदरिपन्चजवारसभिसेओ । लवणवश्वाणमंतर-जोइसवासी विमाणवासी अ। आणावाण नाउआणं, समुसरणे पुच्छदिढतो ।। सव्वडिसपरिसा का-सी नाजाप्पया महिमं ॥२७॥ मागधमादौ यस्य स मागधादिः कोऽसौ विजयो भरतेन कृत दहूण कीरमाणिं, महिमं देवेहिं खत्तिो मरिई। इति पुनरागतेन सुन्दर्यवस्थिता दृष्टा कोणत्वान्मुक्ता चेति द्वासंमत्तलम्बुकी, धम्मं सोकण पव्वो ॥२०॥ दश वर्षाएयभिषेकः कृतो जरताय आज्ञापनं चातृणां चकार तकथनं धर्मकथा परिगृह्यते । मरुदेव्यै भगवद्विभूतिकथनम्।। ऽपि च समवसरणे जगवन्त पूजयन्तः पृष्टवन्तः भगवता चाङ्गातथा नप्तृशतानीति पौत्रक शतानि । तथा “ सयएहमिति" रदाहकदृष्टान्तो गदित इति गाथाकरार्थः॥ प्रा०प्र०॥ देसीवचनं युगपदर्थाभिधायकं त्वरिताभिधायकं चेति । म- पचं षष्टिसहस्राद्या, सधै निर्जित्य भारतम् ॥ ३०॥ Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७०) अभिधानराजेन्द्रः। नसन्न नसभ राजधान्यां विनीतायां, प्रत्यगाद्भरतेश्वरः । महाराजाभिषेको भू-तत्र द्वादशवार्षिकः ॥ ३१ ॥ सर्वान् विसृज्य तूपाबा-नारेने स्वजनेकणम् । दर्शमानेष्वथ स्वेषु, सुन्दरी दर्शिता यदा ॥ ३२।। हवा पाएमुमुखी कामां, क्रमः कौटुम्बिकानवक्। अस्ति मे नोजनं किं न, रूपेणेयं यदीदशा ॥ ३३ ॥ वैद्यो वा नास्ति शि, तैः, सर्वमप्यस्ति ते प्रनो !। परं व्रतायाचामाम्ः, कटकाद्यदिनात् स्थिता ॥ ३४॥ अथ विज्ञाय तद्भावं, मुदितो जरताधिपः। श्रुत्वा च समवसृतं, प्रनुमष्टापदाचले ॥ ३५।। चिरादुत्कण्वितस्तत्र, ततो गत्वा यमी मुदा । प्रचुं प्रणम्य सुन्दर्य, दापयामास संयमम् ॥ ३६॥ अथ प्रत्यागतोऽयोभ्यां, नगरी जरतेश्वरः। व्यझयत युधागार-नियुक्तेनैत्य केनचित् ॥ ३७ ॥ चक्रं न चक्रशालाया-मद्यापि विशति प्रनो!1 विना त्वदाझा कुर्वत्सु, राज्यानि तव बन्धुषु ॥ ३० ॥ चक्रवर्ती ततः सद्यो, दूतैस्तानचिवानदः । राज्येष्वस्ति यदीच्छा व-स्तत्लेवाक्रियतां मम ॥ ३६॥ प्रत्युचिरेऽष्टानवतिः, कुमारास्तानइयवः । राज्यं तातेन दत्तं न--स्तत्कि जरतसेवया ॥ ४० ॥ यूयं व्रजत हे दूता! वयं त्वत्स्वामिना सह । तातं पृष्ठा करिष्यामः, सख्यं वाऽसख्यमेव वा ॥४१॥ ततस्तेऽष्टापदे गत्वा, प्रचुं नत्वाऽवदन्नदः। राज्यं तावत्त्वया दत्तं, नाता हरति तद्वयम् ॥ ४२ ॥ युध्यामहे किमथवा, तदाझामनुमन्महे । धर्म तेषामथायेंऽवक, लोनज्यस्तान्यवर्तयन् ॥ ४३ ॥ निःश्रेयससम सौख्यं, संसारे क्वाप नास्त्यहो। अनारदाहकस्यात्र, दृष्टान्तं शृणुताधुना ॥ ४४ ॥ है कोऽङ्गारकृद्यातो, गृहीत्वाम्नोघट वने । पीतं तेनाम्बु तत्सर्वे, तृष्णयाहून कुम्जतः॥४५॥ उपर्यादित्यतापेन, पार्वेऽग्नेर्वसनात्तथा। काष्ठकुट्टनखेदाच्च, पीमितस्तृष्णया पुनः ।। ४६ ॥ सोऽथ गाढं गतो मूर्ग, सुप्तः स्वप्ने तदा जलम् । सर्वे गेहसरः कूप-नदीहदसमुखजम् ॥ १७॥ सर्व पपौ परं तस्य, तृष्णा बिन्ना तथाऽपि न । ततो मरो जीझकूपे, गृहीत्वा तृणपूत्रकम् ॥ ४० ॥ तेनाहृतं पयःशेष, पतिताल्लेढि जिह्वया । न गिना या समुपान्ते, सा त चेत्स्यति तेन किम् ॥४॥ अन्वनूवन् नवन्तोऽपि, सुखं भवसुखावधि। विमाने सर्वार्थसिके, तृप्तिस्तदपि नाजवत् ॥ ५० ॥ ततो वैतानिक नामा-ध्ययनं स्वाम्यभाषत । बुध्यध्वं किं न बुध्यध्व-मित्यवानवतिधवाः ॥ ५१ ।। कोऽपि प्रथमया बुहः, कश्चनापि द्वितीयया । बुझाः सर्वेऽपि सर्वानि:, कुमाराः प्रायजस्तदा ॥ ५२ ॥ ज्ञात्वा चरेज्यस्तवृत्तं, जरतो भरतादिनः। तेजांसीवांशुरग्नीनां, तेषां राज्यान्यपाहरत् ॥ ५३॥ विज्ञाय बघुबन्धूनां, तनाज्यहरणं तदा। प्रायान्तं नारतं दृत-मूचे बाहुबली बनी ॥ ५४॥ अथ तुतिन ते भर्तु-वृहत्कुक्किरिवैष कः। धन्धूनामपि राज्यान्या-च्छिनत्ति स्मातिसोनतः ॥ ५५॥ मदीयमपि किं तद्व-डाज्यमेष जिहीर्षति । मरिचान्यप्यधीर्वाञ्च-त्यत्तुं चणकलीया ॥५६॥ पायातोऽहं तदेषोऽस्मि, राज्याय स्वं प्रतुं युधि । इत्युक्त्वा दूतमुत्सृज्य, बाहुवल्यप्यषेणयत् ॥ ५७॥ ज्ञात्वाऽऽयान्तं च जरतं, सर्वोघेण तमन्यगात् । ततस्तदलयोरासी-संग्रामो द्वादशाब्दकः॥ ५८ ॥ अथ बाहुबलिः स्माह, किमेतैः कीटकुट्टनैः । आवयोरेव यद्वर-मावयोरेव यत्रणः॥५६॥ अथाङ्गाङ्गिरणे देव-प्रार्थनात्स्वीकृते शुमे । हग्युरूप्रथम चक्रे, जरतस्तत्र निर्जितः ।। ६० ॥ एवं वाग्युन्मुष्टीमुष्टि-दएकादएिकरणैर्जितः। जरतोऽचिन्तयश्चक्री, एष एवास्म्यहं न किम् ॥ ६ ॥ तस्यैवं खिन्नचित्तस्य, चक्र देवतयाऽर्पितम् । सगर्वस्तेन सोऽधावत्, हन्तुं बाहुबा प्रति ६२॥ तमायान्तं समाओक्या--चिन्तयद्वाहुबल्यापि। एतं सचक्रमप्यक-मुष्टिघातेन चूर्णये॥ ६३॥ किं पुनः कामनोगानां, तुच्छानां कारणे मम । चातुर्चष्टप्रतिकस्य, वधः कर्तुं न युज्यते ॥ १४ ॥ 'भव्यं मे भ्रातृभिश्चक्रे, तत्करोम्यहमप्यतः । अथोचेऽधर्मयुकेच्चो! धिक्ते भरत! पौरुषम् ॥६५॥ असं भोगैर्ममेत्युक्वा , तदैव व्रतमाददे । भरतस्तनयं बाहो, राज्ये सोमप्रभ न्यधात् ॥ ६६ ॥ अग्रे केवलिनः सन्ति, तातोपान्ते ममानुजाः । ततोऽहमपि यास्यामि, संजाते तत्र केवझे ॥ ६७॥ तत्रैवास्थात्प्रतिमये-त्युपलस्तम्भनिश्चयः । पादयोर्जातवमीको, बताएहतविग्रहः ॥ ६ ॥ वत्सरान्ते बोधकासं, झात्वा ब्राह्मी च सुन्दरी । स्वामिना प्रेषिते गत्वा, दृष्ट्वा तं वद्विवेष्टितम् ॥ ६ ॥ नत्वोचतुरिदं बन्धो, हस्तिनोऽवतराधुना। द्वित्रिर्वचनमित्युक्त्वा, गते साध्यौ यथा गतम् ॥ ७० ॥ बाहुर्दध्यौ व हस्ती मे, मृषा चैते न जल्पतः । ईज्ञातं मान हस्त्यस्ति, को मानो मे विके किनः ॥ ७१॥ तद्यामि स्वामिनं वन्दे, तान् स्वजातन् मुनीनपि। उतिते चरणे जातं, केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥ ७२ ॥ ततो गत्वा प्रतुं प्रेक्ष्य, तस्थौ केवसिपर्षदि । जरतः कुरुते राज्यं, मरीचिः श्रुतवानभूत् ॥ ७३ ॥ श्रा० का ___अथ किमनूदित्याह अन्यदा । बाहुबलिकोवकरणं, निवेअणं चक्किदेवया कहणं । नाहम्मेणं तुज्के, दिक्खा पभिमायइनायं ॥३१॥ पढम दिह्रीजुई, वायाजुबै तहेव वाहाहिं।। मुट्ठीहि य मंडेहि य, सव्वत्थ विजिप्पए नरहो॥३॥ सी एन जिप्पमाणो, विहुरो अनरवई विचिंता । किं मनि एस चक्की, जहि दाणिं दुबलो अह यं ।।३।। ताहे चकं माणसी, करे पत्ते अ चक्करयणम्मि ! बाहुबलिणाय जणि अं, धिरत्यु रजस्मनो तुम्नं ॥३४॥ चिंतेइ असो मज्झ, सहोयरा पुव्वदिक्खिया नाण।। अह य केवली होउं, बच्चेहामी विश्रो पमिमं ॥ ३५॥ Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७१) नसन अभिधानराजन्धः। उसन संवच्छरेण धू, अमूढ नक्खा न पेसए अरहा। गमनिका । श्रमणा मनोवाकायलकणत्रिदण्डविरताः श्व हत्थीयो ओअर त्ति, बुत्ते चिंता पए नाणं ।। ३६ ॥ र्यादिभगयोगाज़गवन्तः नितान्यन्तःकरणाशुनव्यापारपरित्यानप्पननाणारयणा, तिनपइन्नो जिएस्स पाभूले। गात् संकुचितान्याभाकायव्यापारपरित्यागादङ्गानि येषां ते त थोच्यन्ते अहं तु नैवंविधो यतः अजितेन्द्रियेत्यादिन जितानीगंतुं तित्यं नमिनं, केवलिपरिसाइ आसीणो ।। ३७॥ छियाणि चारादीनि दण्डाश्च मनोवाकायलक्षणा येन स तकाऊण एगउत्तं, जरहो वि अनुंजए विउसनोए। थोच्यते । तस्याजितेन्डियदएमस्य तु त्रिदण्डं मम चिहममरिई वि सामिपामे, विहरइ तवसंजमसमग्गो ॥ ३८॥ विस्मरणार्थमिति ॥ सामाइअमाईअं, कारसमाउ जाव अंगाओ। लोइंदियमंडा सं-जया न अह यं खुरेण समिहारो। उज्जुत्तो नत्तिगो, अहिज्जिो सो गुरुसगासे ॥३॥ थूवगया ण वहाओ, विरमणं मे सया होन॥४४॥ भरतसंदेशाकर्णने सति बाहुबलिनः कोपकरणं तन्निवेदनं च- मुण्डो हि द्विधा जवति द्रव्यतो भावतश्च । तत्रते श्रक्रवर्तिनरताय दून कृतं ( देवयत्ति ) युके जीयमानेन किमयं मणा अव्यनावमुण्डाः कथं सोचनेन्द्रियैश्च मुण्डाः संयताः सन्ति चक्रवर्ती न त्वहमिति चिन्तिते । देवता आगतेति (कहणंति) अहं पुननेंद्रियमुण्डो यतः अतोऽलं व्यमुण्डतया तस्मादहं बाहुबलिना परिणामदारुणान् भोगान् पर्यास्रोच्य कथनं कृतमतं कुरेण मुण्डः सशिखश्च भवामि । तथा सर्वप्राणिवधविरताः मे राज्येनेति । तथा चाह । नाधर्मेण युध्यामीति । दीका तेन श्रमणा वर्तन्ते अहं तु नैवंविधो यतः अतः स्थूलप्राणातिपागृहीता अनुत्पन्नझानः कथमहं ज्यायान् अघीयसोऽदयामीत्य- ताद्विरमणं मे सदा नवत्यिति गाथार्थः॥ भिधानात प्रतिमा अङ्गीकृता प्रतिज्ञा च कृता । नास्मादनुपपन्नझान यास्यामीति नियुक्तिगाथा । शेषास्तु भाष्यगाथाः। तयोश्च निकिंचणा य समणा, अकिंचणा मज्क किंचणा होउ। जरतबाहुबलिनोः प्रथमं दृप्रियुकं, पुनर्वाभ्युकं, तथैव बाहुभ्यां सीलसुगंधासमणा, अहयं सीलेण दुग्गधो॥४॥ मुधिभिश्च दएफैश्च सर्वत्रापि सर्वेषु जीयते मरतः । स एवं गमनिका । निर्गतं किंचनं हिरण्यादि येज्यस्ते निष्किचनीयमानो विधुरोऽथ नरपतिर्विचिन्तितवान् अर्हन्नादितीर्थकरः नाश्च श्रमणास्तथाऽविद्यमानं किंचनमल्पमपि येषां ते हस्तिनः अवतर ति चोक्ते चिन्ता तस्य जाता यामीति संप्रधा- अकिञ्चना जिनकस्पिकादयः अहं तु नैवंविधो यतो मार्गाय (पए) इति पदोरकेपे ज्ञानमुत्पन्नमिति । उत्पन्नझानस्तीमप्र- विस्मृत्यर्थ मम किंचन नवतु पवित्रिकादि। तथा शीलेन शोजना तिशो जिनस्य पादमूने गत्वा केवनिपर्षदं गत्वा तीर्थ नत्वा प्रा. गन्धो येषां ते तथाविधाः। अहं तु शीलेन दुर्गन्धः अतोगन्धचसीनः। अत्रान्तरे कृत्वा एकत्रंनुवनमिति वाक्यशेषः जरतोऽपि न्दन ग्रहणं मे युक्तमिति गाथार्थः । च भुङ्क्ते विपुबनोगान् ।मरीचिरपि स्वामिपाचे विहरति तपःसं. यमसमनः सच सामायिकादिकमेकादशमङ्गं यावत् । उद्युक्तः ववगयमोहा समणा, मोहच्छन्नस्स छत्तयं होन। क्रियायां भक्तिगतो जगवति श्रुते वा अधीतवान् । स गुरुसकाश अगुवा पहा य समणा,मज्झ च उवाणहा हुँतु ।। ४६॥ श्त्युपन्यस्तगाथार्थः। गमनिका व्यपगतो मोहो येषां ते व्यपगतमोहाः श्रमणाः अहं अह अन्नया कयाई, गिटे उपहेण परिगयसर रो। तु नेत्थं यतः अतो मोहाच्छादितस्य च्छत्रकं नवतु अनुपानत्काअपहाणएण चाओ, इमं कुलिंग विचिंतेइ ।। ४० ॥ श्व श्रमणाः मम चोपानही भवतामिात गाथाक्षरार्थः ॥ गमनिका । अथेत्यानन्तर्ये कदाचिदेकस्मिन् काले ग्रीष्मे उष्णेन परि ___ सुकंवरा य समणा, निरंवरा मन्न धाउरत्ताई। गतशरीरः। अस्नानेनेत्यस्नानपरीषहेण त्याजितः संयमातू पत हुंतु अमे वत्थाई, अरिहोमि कसायकबुसमई ।। ४७॥ स्कुन्त्रिकं वक्ष्यमाणं विचिन्तयतीति गाथार्थः। मेरुगिरीसमजारे, न हुमि समत्यो महत्तमवि वोढुं । गमनिका । शुक्लाम्बरा श्रमणास्तथा निर्गतमम्बरं येज्यस्ते नि रम्परा जिनकल्पिकादयः (मभत्ति) मम य एते श्रमणा इत्यमामन्त्रए गुणे गुण-रहिओ संसारमणुकंख। ।। ४१ ॥ नेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणव्युदासः धानुरक्तानि जयन्तु मम कान् श्रमणानामेते श्रमणाः के ते गुणाः विशिष्टतान्त्यादयस्ता वस्त्राणि किमित्यहाँ योग्योऽस्मि तेषामेव कषायैःकमुषा मतिर्यन कुतो यतो धृत्यादिगुणरहितोऽहं संसारानुकाजीति गाथार्थः । स्यासावहं कषायकलुषमतिरिति गाथार्थः॥ ततश्च कि मम युज्यते । गृहस्थत्वं तावदनुचितं श्रमणगुणानुपालनमप्यशक्यम् ॥ बजति वजनीरुयो, बहुजीवसमाउलं जमारंभं । एवमणचिंतयंतस्स, तस्स नियया मई समुप्पचा ।। होन मम परिमिएणं, जमेण एहाणं च पियणं च ॥धना लको मए उवाओ, जाया मे सासया बुद्धी॥ १३ ॥ गमनिका वर्जयन्त्यवद्यन्नीरवो बहुजीवावद्यन्नीरवो बहुजीवएवमुक्तेन प्रकारेणानुचिन्तयतस्तस्य निजा मतिः समुत्पन्ना न समाकुलं जझारम्भं तत्रैव बनस्पतेरवस्थानात्। अघद्यं पापं अहंत परोपदेशेन स होवं चिन्तयामास । अन्धो मया वर्तमानकायो नेत्थं यतः अतो नवतु मे परिमितेन जलेन स्नानं च पानं चेति चितः खपायो जाता मम शाश्वती बुकिः शाश्वतीत्याकालिकी गाथार्थः। प्रायो निरवद्यजीविका हेतुत्वादिति गाथार्थः ॥ एवं सो रुइअमई, निहगमविगप्पि इमं हिगं । यमुक्तमिदं कुनिङ्गमचिन्तयत् तत्प्रदर्शनायाह । तछियहेनसु जुत्तं, परिवज्ज पत्ते ।। ४ ।। समणा तिदमविरया, भगवंतो निहुअसंकुचिअगत्ता। | स्थूलमृपावादादिनिवृत्तः एवमसौ रुचिता मतिर्यस्य असौ रुअजिइंदिअदमस्म, ओहो उतिदंडं ममं चिन्हं ।। ४३॥ | चितमतिः अतो निजमत्या विकल्पिकं निजमतिविकल्पितमिद Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७२) अभिधान राजेन्द्रः | उसन सिङ्गं विशिष्टम् । तस्य हितास्तास्ताः तहिताश्च तवश्चेति सम.सः तैः युक्तमित्यर्थः परिवाजा मिदं पारिवा प्रवर्तयति शास्त्रकारवचनात् वर्तमान निर्देशोऽप्यविरुरू एव पा गन्तरं वा ( पारिब्वज्जं ततो कारित्ति ) पारिवाजं ततः कृतचानिति गाथार्थः ॥ भगवता च सह विजहार । तं च साधुमध्ये विजातीयं वा कौतुकाल्लोकः पृष्टवान् । तथा चाह । अह तं पागमरूद पुच्छेद बहुजणं धम्मं । कई जई तो सो विद्यालये तस्स परिकहणा ||२०|| गमनिका । अथ तं प्रकटरूपं विजातीयत्वात् दृष्ट्वा पृच्छति बहुजनो धम्र्म कथयति यतीनां नाणं ततो साविति खोका भणन्ति यद्ययं श्रेष्ठो जयता किनाङ्ग कृत इति विवा रेण तस्य परि समन्तात्कथना परिकथना श्रमणा स्त्रिद एमविरता इत्यादिणा पृच्छतीति त्रिकाल गोचरस्तत्र प्रदर्शनार्थत्वादेवं निर्देशः । पाठान्तरम् | "अह तं पागरुरूवं, दहुं पुच्चिसु बहुतणो धम्मं कढ़ती सुजती खो, विपासणे तस्स परिकरणा प्रवर्तत इति गाथार्थः । आ० म० प्र० । ० १ ० । (२३) ब्राह्मणानामुत्पत्तिप्रकारमाह । धम्मका क्खित्ते, उबट्टिए देइ सामिणो सीसे । गामनगराई विह-रह सो सामिया सकं ॥ ५१ ॥ धर्मकयाक्षिप्तान् उपस्थितान् ददाति भगवतः शिष्यान् ग्रामनगरादीन् विहरति स स्वामिना सार्द्धम् भाषार्थः सुगम इत्थं निर्देशप्रयोजनं पूर्वयन्धकारवचनत्वाद्वा अदोष इति गाथार्थः ॥ अन्यदा भगवान्विहरमाणोऽष्टापदमनुप्रासवांस्तत्र च समवसुतः भरतोऽपि भ्रातृप्रययाकर्णनात्संजातमनस्तापोऽधृतिं चक्रे । कदाचिद्भोगान् दीयमानान् पुनरपि गृहन्तीत्यालोच्य भगवत्समिपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् भोगैर्निराकृतश्च चिन्तयामास । एतेषामेवेदानीं परित्यक्तसङ्गानामाहारदानेनापि ताद्धर्मानुष्ठानं करोमीति पञ्चभिः शकटेििचत्रमाहारमानाय्योपनिमन्त्रय धाकतं च न कल्पते यती नामिति प्रतिषिद्धेऽकृतकारितेनान्येन निमन्त्रितवान् राजपिराहोऽप्यकल्पनीय इति प्रतिषिद्धः सर्वप्रकारे भगवता प रित्यक्त इति सुतरामुन्माथितो बभूव । तमुन्माथितं विज्ञाय देवराट् तच्छोकोपशान्तये भगवन्तमवमहं पप्रच्छ । कतिविaisar इति भगवानाह । पञ्चविधोऽवग्रहस्तद्यथा । देवेन्द्रावग्रहो राजावग्रहो गृहपत्यवग्रहः सागारिकावग्रहः साधसिकाग्रहश्च राजावग्रहो भरताधिपो गृह्यते । गृहपतिमण्डलिको राजा । सागारिकः शय्यातरः साधर्मिकः संयत इत्येतेषां चोत्तरोत्तरेण पूर्वः पूर्वो बाधितो द्रष्टव्य इति । यथा राजा देवेन्द्र हो याचित इत्यादिरूपते भगवन् ! य एते श्रनगा मदीयावग्रहे विहरन्ति तेषां मयाऽवग्रहोऽनुज्ञातइत्येवमभित्रायाभिवन्द्य व भगवन्तं तस्थी भरनोऽचिन्तयदहमपि स्वकीयमवग्रहमनुजानामीत्येतावताऽपि नः कृतार्थता भवतु भगवत्समीपेऽनुज्ञातावग्रहः शक्रं पृष्टवान् म पानमिदमानीतमनेन किं कार्यमिति देवराम गुणोत पति के मम साधुयतिरेकेण जास्यादि भिरुतराः पर्याछोचयता ज्ञातं आपका विरता विरतरबाणोप्तरास्तन्यो दत्तमिति । पुनर्भरतो देवेन्द्ररूपं नास्वर माकृतिमत् किमेतेन रूपेण देवलोके तिष्ठत त नवतितमान पार्यते नास्पर उसन त्वात् । पुनरप्याह जरतस्तस्यावृतिमात्रेणास्माकं कौतुकं तनि दाम देवराज आवमुत्तमपुरुष इति कमाय यवं दर्शयामीत्यभिधाय योग्यालङ्कारविभूषितामहुली मत्यन्त रामदर्शयत् तो भरतोऽतीव मुमुदे शाहू स्थापविश्या महिमामादिकां च ततः प्रवृति शकोत्सवः प्रसइति । जरत आयकानायकवाद पनि प्रतिदिनं मदीयं भोकम्यं कृष्पादि च न कार्य स्वाध्यायपरेि के च मदीयगृहद्वारासन्नव्यवस्थितैर्वक्रव्यम् । जितो भवान् वर्द्धते भयं तस्मान्माइनेति । ते तथैव कृतवन्तः । भरतश्च रतिसागरावगाढत्वात्यमत्त त्याच्यासराय के नाई जित इति । श्रम ज्ञातं कषायैस्तेभ्य एव वर्द्धते भयमित्यालोचनापूर्वक संवेगं बातवानिति। अत्रान्तरे लोकवाल्यात सूपकाराः पाकं कर्तुमशक्नुवन्तो भरताय निवेदितवन्तः नेह ज्ञायते कः श्रावकः को वा नेतीति लोकस्य प्रचुरत्वात् । आह भरतः पृच्छापूर्वकं देयमिति । ततस्तान् पृष्टवन्तस्ते को प्रधान श्रावकाणां कति व्रतानि स आइ श्रावकाणां न सन्ति व्रतानि किं स्वस्माकं पञ्चावतानि । कति शिकावतानि ते उक्तवन्तः सप्त शिकावतानि । य एतास्ते राज्ञो निवेदिताः स काणी रत्नेन तान् लाजितवान् । पुनः षण्मासन ये योग्या भवन्ति तानपि साच्छितवान् पएमासकालादनुयोगं कृतवानेव ब्राह्मणाः संजाता शर्त । ते च स्वसुतान् साधुज्यो दत्तवन्तस्ते च प्रवज्यां जगृहुः । परीषहभीरवस्तु श्रावका एवासनिति । इयं चनरतराज्यस्थिति आदित्ययास्तु काकणीरत्नं नासी दमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान्महायहा प्रतयस्तु केव रूप्यमयानि केचन चिचित्रपत्रानीत्येवंप मुमेवार्थ समुसरणेत्यादिगाथया प्रतिपादयति । समुसरणभत्तउग्गह- मंगुलिऋत्यस कसावया अहिया । जेया बढइ कागिणि-संबण गुसज्जा ग्रह ॥ २ ॥ गमनिका । समवसरणं भगवतोऽष्टापदे खल्वासीत् । नक्तं भरतेनानीतं तदग्रहणान्माथिते सति जरते देवेशो नगवन्तमवप्रदं पृष्टवान् नगवां तस्मै प्रतिपादितवान् (अंगुलियति ) म रपतिमा देवलोक निवासिरूपपृष्ठायां कृतायामिन्द्रेणंशिंता । तत एवारज्य ध्वजोत्सवः प्रवृत्तः ( सब्बुप्ति ) भरतनृपतिदा किमनेनाहारेण कार्यमिति पृष्टः शक्रोऽनितियान्व दधिकेोदीयतामिति पर्यालोचयता ज्ञातं भावका अधिका इति (जेया इति) प्राकृता जितो भवान् बते जयं पोरका ते काणी रत्नेनानं चिह्नं तेषां कृतमासीत (असजण अति अष्टौ पुरुषान् यावदयं धर्म्मः प्रवृत्तः श्रधै वा तीर्थकरान् याव दिसि गाथार्थ तमियात्यमुपगता इति । च राया इच्चजसे, महाबले अइबले म बसन दे । बबरियकतविशिष, अनावेरिए दंक बिरिए अ ॥ ए३॥ अस्या भावार्थः सुगम एवेति गाथार्थः । एहि अकभर सपतं तु सिरेश परिको जिएसओ अमउको, सेसेहिं चाइयो वोढुं ५४ ॥ गमनिका परिभरतं सकलं शिरसा का कोसाविवाद चरी जिनेन्द्र मुकुट देवेन्द्रपनीतः शकिती पोई महाप्रमाणत्यादि ति गायार्थः । 1 प Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसम अभिधानराजेन्धः। नसभ प्रस्तावगपडिसेहो, छट्टे अमासि अोगो। । श्रह भाइ नरवरिंदो, भरहे वासम्मि जारिसोन अहं। कालेण य मिच्छत्तं, जिणंतरे साहुवच्छेओ ॥ ५५॥ एरिसया कह अने, ताया होहिंति रायाणो॥६३ ॥ गमनिका अथावकाणां प्रतिषेधः कृतकमपिषष्ठे मासेऽनुयो- गमनिका अथ नणति नरवरेन्डो नरतः भारते वर्षे यारशगो बनूव । अनुयोगः परीक्का कालेन गच्चता मिथ्यात्वमुपगता। स्वहं तादृशाः कत्यन्ये तात! भविष्यन्ति राजान ति गाथार्थः॥ कदा नवमजिनान्तरे किमिति यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसी. अह जणइ जिणवरिंदो, जारिसओ तं नरिंदसलो । दिति गाथार्थः। एरिसया कारस, अन्ने होहिंति रायाणो ॥ ६४ ॥ साप्रतमुक्तार्थप्रतिपादनापरसंग्रहगाथामाह । होही सगरो मघवं, सणंकुमारो अरायसहो । दाणं च माहणाएं, वेया कासी अ पुच्च निव्वाणं । कुंडायूनजिणघरे, भरहो कविज्ञस्स दिक्खा य ।। ५६ ॥ संती कुंथू अ अरो, हवइ सुन्नूमो अकोरव्यो ।। ६५ ।। दानं च माहनानां लोको दातुं प्रवृत्तो भरतपूजितत्वात् (धे नवमो अ महापउमो, हरिसेणो चेव रायसङ्लो । या कासी यत्ति) आयान् वेदान् कृतवांश्च परत एव तत्स्था- जयनामो अ नरवई, वारसमो वंचदत्तो अ॥ ६६ ॥ ध्यायनिमित्तमिति । तीर्थकरस्तुतिरूपान् श्रावकधर्मप्रतिपाद- होहिंति वासुदेवा, नव अन्ने नीलपीअकोसिज्जा । कांश्च । प्राचार्यास्तु पश्चात्सुनसा याज्ञवल्क्यादिभिः कृता इति हलमुसलचक्कजोही, सतालगरुडज्जया दो दो ॥ ६७ ।। (पुच्छत्ति) भरतो जगवन्तमापदसमवसृतमेव पृष्टवान् याह अथ भणति जिनवरेन्द्रो यादृशस्त्वं नरेन्द्रशार्दूलः सिंहपग्जूता यूयमेवविधाः तीर्थकृतःकियन्तः खस्विह नाविष्यन्तीत्या र्यायः ईशाः एकादश अन्ये भविष्यन्ति राजानस्ते चैते । दि (निष्वाणं ति) भगवानष्टापदे निर्वाणं प्राप्तो देवैरग्निकुएमा (होहिंति ) गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव यदुक्तमपृष्टश्च दशारान् नि कतानि स्तूपाः कृताः जिनगृहं जरतश्चकार कपिलो मरीचि कथितवान् । तदभिधित्सयाह भाष्यकारः (होर्हिति ) भविसकाशे निष्कान्तो परतस्य दीका च संवृत्तेति समुदायार्थः। ध्यान्त वासुदेवा नव बलदेवाश्चानुक्ता अन्यत्र तत्सहचरत्वात् अवयवार्थ उच्यते । आद्यावयवद्वयं व्याख्यातमेव । पृच्छावय कष्टव्याः यतो वक्ष्यति “स तालगरुलज्जया दो दो" ते च वार्थ " पुणरवि य" गाथेत्यादिनाऽऽह ॥ सर्वे बलदेवा वासुदेवा यथासंख्यं नीलानि पीतानि च कौशेपुणरवि असमोसरणे, पुच्छा अजिणं तु चक्कियो भरहे। यानि वस्त्राणि येषां ते तथाविधाः । यथासंख्यमेवाह हलमुअप्पुट्ठो भदसारे, तित्थयरो को इहं भरहे ।। ५७ ॥ शलचक्रोधिनः । हलमुशलयोधिनो बलदेवाः चक्रयोधिनो गमनिका पुनरपि च समवसरणे पृष्टवांश्च जिनं तु चक्रवर्ती घासुदेवा इति । सतालगरुडध्वजाभ्यां वर्तन्त इति सतालगप्ररतश्चक्रवर्तिन इत्युपलकणं तीर्थकृतश्चेति परतविशेषणं वा रुडध्वजाः एते च भगवन्तो युगपद् द्वौ द्वौ भविष्यतः। बलचक्री जरतस्तीर्थकरादीन पृष्टवान् । पागन्तरं वा "पुच्छी य देववासुदेवाविति गाथार्थः । श्रा०म०प्र० श्राव०१०। जिणे य चकिणो नरहे" पृष्टवान् जिनांश्चक्रवर्तिनश्च भरतः च- "तित्थगरो को हं भरहेत्ति" तयाचिख्यासयाऽऽह । शब्दस्य व्यवहितः संबन्धः भगवानपि तान् कथितवान् तथा अह भण नरवरिंदो, ताय इमीसित्तियाइ परिसाए । मपृष्टश्च देशारान् तथा तीर्थकरः क श्ह भरतेऽस्यां परिषदीति अनो वि को विहोही,भरहे वासम्मि तित्थयरो॥४२॥ पृथ्वान् भगवानपि मरीचिं कथितवानिति गाथावरार्थः। तथा अत्रान्तरे अथ भणति नरवरेन्डः तात! अस्याः पतावत्याः साह । नियुक्तिकारः॥ परिषदः अन्योऽपि कश्चिद्भविष्यति तीर्थकरः अस्मिन् भारते जिणचक्किदसाराणं, वनपमाणा' नामगुत्ताई। वर्षे भावार्थस्तु सुगम एवेति गाथार्थः॥ भाउपुरमाइपियरो,परियायगई च साही य ॥ ५० ॥ तत्थ मरीई नाम, आइपरिवायगो उसजनता। गमनिका जिनचक्रवर्तिघासुदेवानामित्यर्थः । वर्णप्रमाणानि सज्झायज्झाणजुत्तो, एगते झायइ महप्पा ॥४॥ तथा गामगोत्राणि तथा आयुः पुराणि मातापितरौ यथासंनवं गमनिका तत्र भगवतः प्रत्यासन्नभूभागे मरीचिनामा श्रादी पयार्य गतिं च । चशब्दाजिनानामन्तराणि च पृथ्वानिति कार- परिवाजक प्रादिपरिवाजकः प्रवर्तकरवात ऋषभनप्ता पोषक गाथासमासार्थः । अवयवार्थ तु वक्ष्यामः॥ इत्यर्थः । स्वाध्याय एव ध्यानं तेन युक्तः एकान्ते ध्यायति मजारिसया लोगगुरो, जरहे वासम्मि केवली तुम्भे । हात्मेति गाथार्थः । भरतपृष्टो भगवान् तं मरीचि दर्शयति । एरिसया का अन्ने, ताया होहिंति तित्थयरा ॥७॥ तं दाएइ जिणिदो, एव नरिंदेण पुच्छिो संतो। यारशा लोकगुरवो भारते वर्षे केवनिनो यूयमीदृशाः कियन्तो- धम्मवरचक्कवट्टी, अपच्छिमो वीरनामुत्ति ॥४३॥ ऽन्येऽवं तात ! भविष्यन्ति तीर्थकरा ति गाथार्थः॥ जिनेन्द्रः एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् धर्मघरचक्रवती अपश्चिमो अह जण जिणवरिंदो, नरहे वासम्मि जारिसोउ अहं।। वीरनामा भविष्यतीति गाथार्थः ।। एरिसया तेवीस, अन्ने होहिंति तित्थयरा ।। ६० ॥ आइगरदसागणं, तिविछ नामण पोरणाहिबई । होही अजिओ संजव-मजिनंदणसुमइसुप्पत्सुपासो । पियमित्तचकवट्टी, माइविदेहवासम्मि ॥ ४॥ गमनिका प्राधिकरः (दसाराणंति ) पृष्टनामा पोतना नाम ससिपुप्फदंतसीयल-सिज्जंसो वासुपुज्जो प ।। ६१ ॥ नगरी । तस्या अधिपतिर्भविष्यतीति क्रिया । तथा प्रियविमन्नमणंत य धम्मो. संती कुंथ अरो अमबी भ। मित्रनामा चक्रवर्ती मुकायां नगर्यो (घिदेपासम्मिति) मणिमुन्वयनमिनेमी, पासो तह बछमाणो अ॥६॥ | महाविदहे भविष्यतीति गाधार्थः । Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७४) अन्निधानराजेन्द्रः। उसन्न उसन तं वयणं सोकणं, राया अंचियतणुरुहसरीरो। अज्जो तित्थयराणं, अहो कुलं उत्तम मज्क ।। ५३ ॥ अनिबंदिऊण पिअरं, मरीइ अनिवंदो जाइ ॥४॥ गमनिका । अहमेव चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् किं दशाराणं गमनिका । तद्वचनं तीर्थकरघदनविनिर्गतं श्रुत्वा राजा अश्चि प्रथमो भविष्यामीति वाक्यशेषः। पिता च मे मम चक्रवर्तिवंतानि तनूहाणि शरीरे यस्य स तथाविधः अभिवन्द्य पितरं शस्य प्रथम शति क्रियाध्याहारः । तथा आर्यकः पितामहः स तीर्थकर मरीचिम् “ अभिवंदो" इत्यभिवन्दको याति । तीर्थकराणां प्रथमः यत एवमत अहो विस्मये कुलमुत्तमं ममति पाठान्तरं वा । " मरीइं अभिवंदिउं जाइ त्ति" मरीचि याति गाथार्थः । आव०१ अ०। श्रा० म०प्र०। किमर्थमभिवन्दितुमभिवन्दनायेत्यर्थः यातीति वर्तमानकाल (२४) अथाम्वन्ध्यशक्तिवचनगुणप्रतियुधस्य प्रनुपरिकरजूतनिर्देशस्त्रिकालगोचरत्वप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः । स्य सङ्घस्य सङ्ख्यामाह। सो विणएण उवगो, काकण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। उसभस्स एणं अरहो कोसलिस्स चनरासी गणहरा वंदा अनित्थुम्तो, माहि महराहिं वग्गृहि ॥४६॥ होत्था। उसनस्स एं अरहो कोसनिस्स उसजसेण पामोक्खाओ चुलसीइं समण साहस्सीओ नक्कोसिया बामा दु ते सुमका, जसि तुमं धम्मचकवट्टीएं । सम संपया होत्था । उसहस्सणं बंभी सुंदरी पामोक्खाओ. होहिसि दसचनदसमो, अपच्छिमो वीरनामुत्ति ॥ तिमि अजिआसयसाहस्सीओ नक्कोसिअजिआसंपया आइगरदसाराणं, तिविठ्ठना० (४४)- ना स भरतो विनयेन करणजूतेन मरीचिसकाशमुपगतःसन् कृत्वा | होत्या । नसभस्स णं सेजंसपामोक्खाओ तिमि समप्रदकिणां च (तिक्खुत्तोति ) त्रि:कृस्वस्तिस्रो वारा इत्यर्थः व-| णोवासगसयसाहस्सीमो पंचसयसाहस्सीयो नकोसिआ इते अनिष्टुते पतानिर्मधुराभिर्वाल्गुनिर्वाजिरिति गाथार्थः । समणोवासगसंपया होत्था ! उसभस्सणं सुनहापामो(साभेत्ति) गमनिका बाजा अभ्युदयप्राप्तिविशेषा हुकारो नि क्खाओ पंचसमणोवासिआसयसाहस्सीओ चनप्पामं च पातः स चैवकारार्थः । तस्य व्यवहितः संबन्धः तव सुमधा एव यस्मात् त्वं धर्मचक्रवर्तिनां भविष्यति दशचतुर्दशः चतुर्विंश सहस्सा उकोसिआ समणोवासिप्रासंपया होत्था । तितम इत्यर्थः । अपश्चिमो वीरनामेति गाथार्थः । (प्राश्गरसि) उसनस्स एं अरहनकोसलिअस्स अजिणाणं जिएसंव्याख्या पूर्ववर्भया एकान्तप्रदर्शनानुरञ्जितहृदयो भावितीर्थक- कासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जियो विव वितहं वारजक्त्या च तमनिवन्दनायोद्यते भरत एवाह ॥ गरमाणाणं चत्तारि चनहसपुवासहस्सा अट्ठमायसन वि ते पारिव्वज, बंदामि अहं इमं च ते जम्मं । या उक्कोसिया च उद्दसपुवी संपया होत्था। नसभस्स एं जं होहिसि तित्ययरो, अपच्छिमो तेण बंदामि || वोहिणाणिसहस्सा उक्कोसिश्रा संपया होत्या । उसगमनिका नापि च परिवाजामिदं पारिवाजं चन्दामि अहमिदं नस्स णं वीसं जिणसहस्सा वसिं वेउबिअसहस्सा सयाचले जन्म किंतु यज्ञविष्यति तीर्थकरः अपश्चिमस्तेन बन्दामीति गाथार्थः । नकोसिमा चनहसपुची संपया होत्था । नसनस्स एणं एव एडं थोकर्ण, काकण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। । णवहिगाणिसहस्सा नक्कोसिआ संपया होत्या ! उमभस्स आपुच्छिउण पियर, विणीयनयार अह पविष्ड्डो ५०।। णं वीस जिणसहस्सा वीस वे उच्चसया उकोसिया आवारएवं स्तुत्था एहमिति निपातः पूरणार्थो वर्तते कृत्वा प्रदक्षिणां स्स विउनमसहस्सा उच्च सया पलासा वारसवाइसहचत्रिःकृत्वः आपृच्च पितरं ऋषनदेवं विनीतनगरीमयोध्याम स्सा छच्च सया परमासा उसनस्सणं गइकबाणाणं विश्कथानन्तरं प्रविष्टी भरत शति गाथार्थः । अत्रान्तरे। तं वयणं सोऊणं, तिवई अप्फोमिऊण तिक्खुत्तो। माणाणं अगमा सिनहाणं वा बीसअणूत्तरोववाइमाणं अन्नहियजायहरिसो, तत्थ मरीई इमं भणइ ॥५१॥ सहस्सा णव व सया उक्कोसिया उसभस्स णं वीसं समणगमनिका । तस्य भरतस्य वचनं तवचनं श्रुत्वा तत्र मरीचिः सहस्सा सिछा चत्तासीसं अज्जिासहस्सा सिद्धा सहि इमणतीति योगः । कथमित्यत आह । त्रिपदी दच्या रङ्गम अंतेवासीसहस्सा सिका।।। भ्यगतमववत् । तथा प्रास्फोट्य त्रिकृत्वः तिम्रो बारा इत्यर्थः। सुगम नवरं "जस्स जावश्था गणहरा तस्स तावा गणा" किं विशिष्टः संस्तत प्राह । अत्यधिको जातो हों यस्येति स- इति वचनादणाः सूत्रे साकादनिर्दिष्टाः अपि तावन्त एव मासः तत्र स्थाने मरीचिरिदं वक्ष्यमाणाक्वर्ण भणति । वर्तमान बोध्याः । कचिजीईप्रस्तुतसूत्रादर्श "चरासीति गणा गणहनिर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः।। रा होत्था" इत्यपि पागे दृश्यते तत्र चतुरसीतिपदस्योजयत्र जइ वासुदेवपढमो, मूत्राइविदेहचकवहितं । योजनेन व्याख्या सुबोधैवेति । गणश्चैकवाचनाचारयतिसमुचरमो तित्थयराणं, होउ अलं इति य मम ॥ ५॥ दायस्तं धरन्तीति गणधराः वाचनादिनि नादिसंपादकत्वेन गणाधारजूता इति नावः ( होत्था इति) अभवन् ( उसनगमनिका यदि वासुदेवः प्रथमोऽहं मुकायां विदेहे चक्रवर्तित्वं स्सणमित्यादि) ऋषजसेनप्रमुखानि चतुरशीतिः श्रमणसहप्राप्स्यामि । तथा चरमः पश्चिमस्तीर्थकराणां नविष्याम एवं तर्हि स्त्राणि एष उत्कर्ष उत्कृष्टभागस्तत्र जया औत्कर्षिका "प्रत्ययेभवतुपतावन्मम पतायतैव कृतार्थ श्त्यर्थः। प्रलं पर्याप्रमन्येनेति ॥ | कीर्वा" इत्यनेन मीविकल्पे रूपसिमिः। ऋषजस्य श्रमणसंपदभअह यं च दसाराणं, पिया य मे चक्कवहिवंसस्स । बत्। अत्र वाक्यान्तरत्वेन श्रमणशब्दस्य न पौनरुक्त्यमेव सर्वत्र Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसन अभिधानराजेन्द्रः । प्रसन्न योज्यम् “उसहस्स णमित्यादि" प्रायः कराठ्यानि नवरं चतुर्द- सिकानि वा कृतयुगादीनि तानि च क्रमवर्तीनितत्साधाधेकशपूर्विसूत्रे अजितानां उमस्थानां (सम्यक्षरसन्निवाईणंति ) मवर्तिनो गुरुशिष्यादिरूपाःपुरुषास्तेऽपि साध्यावसानलकणया:सर्वेषामकराणामकारादीनां सन्निपाता द्वयादिसंयोगाअनन्तत्या- भेदप्रतिपत्त्या युगानि पदपछतिपुरुषा इत्ययस्तैः प्रमितान्तक. दनन्ता अपि यतया विद्यन्ते येषां ते तथा । जिनतुल्यत्वे हेतु-| रमियुगान्तकरमिरिति पर्यायस्तीर्थकृतः केवलित्वकालस्तदमाह" जिणो विव अवितहमित्यादि" जिन श्वावितथं पेक्कयान्तकरमिः कोऽर्थःऋपनस्य श्यति केवलपर्यायकालेऽयथार्थ व्यागृणतां व्याकुर्वाणानां केवलिश्रुतके वसिनोःप्रज्ञापनायां तिक्रान्ते मुक्तिगमनं प्रवृत्तमिति तत्र युगान्तकरनूमिर्यावदसंख्यातुल्यत्वात् । चत्वारि सहस्त्राणि अर्द्धष्टमानि च शतानि एपा तानि पुरुषाः पट्टाधिरूढास्ते युगानि पूक्तियुक्त्या पुरुषयुगानि औकर्पिको चतुदर्शपूर्विसंपदभवत् ( विनयित्ति )वैक्रिया- समर्थपदत्वात् समासः । नरन्तये द्वितीया। ऋषभात्प्रवृतिथीधिमन्तः शेषं स्पष्टम् । विपुलमतयो मनःपर्यवज्ञानविशेषवन्तः अजितदेवतीर्थ यावत् । श्रीऋषभपट्टपरम्परासूढा असंख्याताः द्वादशविपुत्रमतिसहस्राणि अधिकारात्तेपामेव पद्शतानि प- सिकाः न तावन्तं कालं मुक्तिगमनविरह इत्यर्थः। यस्तु आदिचाशच्चेत्येवं सर्वत्र योज्यम् । वादिनी वादिलब्धिमन्तः परप्रवा- त्ययशःप्रनृतीनां ऋषभदेववंशजानां नृपाणां चतुर्दशनकामिघदूकनिग्रहसमर्थाः ( सभस्स णमित्यादि ) देवगतिरूपायां तानां क्रमेण प्रथमतः सिछिगमनं तत एकस्य सर्वार्थसिरुप्रस्तकल्याणं येषां प्रायःसातोदयत्वात्तेषां तथा स्थिती देवायूरूपायर्या टगमनमित्याद्यनेकरीत्या अजितजिनपितरं मर्यादीकृत्य नन्दीसूकल्याणं येषां ते तथा अप्रविचारसुखस्वामिकत्वात्। आगमिष्य- प्रवृत्तिचूर्णिसिहदधिमकादिषु सर्वार्थसिम्प्रस्तटगमनव्यवहिद्भर्ड येषामागामिभवे सेत्स्यमानत्वात् ते तथा तेषामनुत्तरो तः सिलिगम नुक्तः स कोशलापट्टपतीन प्रतिपत्त्यावसातव्योऽयं पपातिकानां पश्चानुत्तरअवसप्तमदेवविशेषाणां काविंशतिसह पुएकरीकगणधरादीन् प्रतीत्येति विशेषस्तथा पर्यायान्तकरनाणि नवशतानि " उसनस्सणमित्यादि" सुगमं नवरं श्रम- मिरेषा अन्तर्मुहूर्ते यावत् केवलज्ञानस्य पर्यायो यस्य स तथा णार्यिकासंख्यावयमीलने अन्तवासिसंख्या संपद्यते । एवंविधे ऋषभे सति अन्तं नधान्तमकार्षीदकरोन्न वा कश्चिद(२५) अथ जगवतः श्रमणवर्णकसूत्रमाह । पीति । यतो भगवदम्बा मरुदेवी प्रथमसिका सा तु जगवत्केउसनस्स णं बहवे अंतेवासी अणगारानगवंतो अप्पेग-1 वोत्पत्त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव सिझेति ॥ इया मासपरियाया जहा उववाइए सब्यो अणगारवामी (२७) अथ जन्मकल्याणकादिनकराएयाह । जसजेणं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अजीउढे होजाव नजाणु अहोसिरज्माणकोहोवगया संजमेणं त त्या तं जहा उत्तरासादाहिं चुए चुइत्ता गब्ज वर्कते उत्तवमा अप्पाणं नावेमाणा विहरति ।। रासढाहिं जाए उत्तरासाढाहिं रायाभिसेअंपत्ते नत्तरासाअर्हतः ऋपजस्य बहवो अन्तेवासिनः शिष्यास्ते च गृहिणो ढाहिं मुंम नवित्ता अगाराओ अणगारिअं पब्बइए । नऽपि स्युरित्यनगाराः जगवन्तः पूज्याः अपिः समुच्चये एकका एके अन्ये केचिदपीत्यर्थः । मासं यावत् पर्यायश्चारित्रपासनं येषां तरासाढाहिं अणंते जाव समुप्पस्मे अजीइणा परिणिबुए। ते तथा । यथोपपातिके सर्वोऽनगारवर्णकस्तथाऽत्रापि वाच्यः । ऋषभोऽईन् पञ्चसु च्यवनजन्मराज्याभिषेकदीकाज्ञानकियावदित्याह कर जानुनी येषां ते ऊर्फ जानवः शुरूपृथि- बकणेषु वस्तुषु उत्तराषाढानक चन्प्रेण तुज्यमानं यस्य व्यासनवर्जनादी प्रोपग्राहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कुटुकासना स तथा। अनिजिन्नकत्रं षष्ठे निर्वाणलकणे वस्तुनि यस्य स इत्यर्थः। अधःशिरसोऽधोमुखा नोतिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टयः ध्यान. यद्वा अभिजिति नक्षत्रे षष्ठं निर्वाणलक्षणं वस्तु यस्य स तथा रूपो यः कोष्ठः कुसुत्रस्तमुपागतास्तत्र प्रविष्टाः यथा हि कोष्ठके उक्तमेवार्थ भावयति । तद्यथा उत्तराषाढाभिर्युतेन चन्द्रेणेति धान्यं प्रक्तिप्तं न विप्रसृतं नवति एवं तेऽनगारा विषयेष्वपि प्रस्- शेषः । सूत्रे बहुवचनं प्राकृतशैल्या एवमग्रेऽपि च्युतः सर्वार्थतेन्जिया न स्युरिति। संयमेन संबररूपेण तपसाऽनशनादिना स- सिद्धनाम्नो महाविमानानिर्गत इत्यर्थः। च्युत्वा गर्भव्युत्क्रान्तमुच्चयों गम्यः । संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोकाङ्गत्व- महदेव्याः कुकावतीसंवानित्यर्थः । १ । जातो गर्भवासानिस्थापनार्थ प्रधानत्वं च संयमनवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च कान्तः । २। राज्याभिषेकं प्राप्तः । ३ । मुण्डो भूत्वा अगारं पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन भवति चाभिनवकर्मानुपादानात् पु. मुक्त्वा अनगारितां साधुतां प्रवजितः प्राप्त इत्यर्थः । पञ्चमी राणकर्मकपणाच सकझकर्मक्य वकणी मोक इति श्रात्मानं चात्र क्यम्लोपजन्या ।४। अनन्तरं यावत् केघल ज्ञानं समुत्पभावयन्तो विहरन्ति तिष्ठन्तीत्यर्थः । अत्र यावत्पदसंग्राह्यः “अ. नम् ॥५॥ यावत्पदसंग्रहः पूर्ववत् अभिजिता युते चन्द्रे परिपेगमा दो मासपरिभाया" इत्यादिकः श्रीपपातिकग्रन्थो थि- निर्वृतः सिद्धिगतः । ननु अस्मादेव विभागसूत्रबलादादिदेस्तरजयान लिखित इत्यबसेयम्। वस्य षट्कल्याणकाः समापद्यमाना दुर्निचारा इति चेन्न तदेव (२६) अथ ऋषभस्वामिनः केवलोत्पत्त्यनन्तरं भव्यानांकिय- हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुता कालेन सिद्धिगमनं प्रवृत्तं कियन्तं कालं यावदनुवृत्तं चेत्याह । रेन्द्रा जातमिति विधित्सवो युगपत्ससंभ्रमा उपतिष्ठम्तेन ह्ययं अरहोणं नसजस्स मुविहा अंतकरजूमी होत्था तं षष्ठकल्याणकत्वेन भवता निरूप्यमारणो राज्याभिषेकस्तादृशजहा जुगंतकरजूमी जाव असंखेज्जाई पुरिसजुगाई परिमा स्तेन वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकः अनन्तरोक्तलक्षयंतकरजूमी अंतोमुटुत्तपरिआए अंतमकासी ।। णायोगात् । न च तर्हि निरर्थकमस्य कल्याणकाधिकारे पठऋषभस्य द्विविधा अन्तं नवस्य कुन्तीति अन्तकरा मुक्तिगा नमिति वाच्यं प्रथमतीर्थेशराज्याभिषेकस्य जातमिति शक्रेण क्रियमाणस्य देवकार्यत्वलक्षणसाधयेण समाननक्षत्रजातमिनस्तेषां भूमिः कालः कालस्य चाधारत्वेन कारणत्वाद्भुमित्वेन तया च प्रसङ्गेन तत्पठनस्यापि सार्थकत्वात् तेन समाननक्षव्यपदेशः तद्यथा युगानि पञ्चवर्षमानानि काविशेषाः लोकप्र प्रजातत्वे सत्यपि कल्याणकत्याभावेनानियतवक्तव्यतया क Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ ( ११७६ ) अभिधानराजेन्द्रः । चिद्राज्याभिषेकस्याकथनेऽपि न दोषः । श्रत एव श्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययने पर्युषणाकल्पेन श्रीभद्रबाहुस्वामिपादाः "तेणं समएवं उसमे रहा कोसलिए चउ उत्तरासाढे श्रभि पंचमे होत्था " इति पञ्चकल्याणकनक्षत्रप्रतिपादकमेव सूत्रं यबन्धिरे न तु राज्याभिषेकनक्षत्राभिधायकमपीति । न च प्रस्तुतव्याख्यानस्यानागमिकत्वं भावनीयम् आचाराङ्गभावनाध्ययने श्रीवीर कल्याणसूत्रस्यैव व्याख्यातत्वात् । (२८) श्रथ भगवतः शरीरसंपदं शरीरप्रमाणं च वर्णयन्नाह । उस रहा कोसलिए वज़ रिसहनारायसंघयणे समचरं संत्राणडिए पंचधणुसयाई उ उच्चत्तेणं होत्था ॥ उसमे मित्यादि कएव्यम् । अथ भगवतः ऋषभस्य कौमारे राज्ये गृहित्वे च यावान् कालः प्रागुक्तस्तं संग्रहरूपतयाऽभिधातुमाह । उसने हा वीसं पुण्वसयसहस्साई कुमारवासमभे वसित्ता तेवहिं पुव्वसयसहस्साई रज्जवासमज्जे वसित्ता तेसिई पुव्त्रसयस हस्ताई अगारवा समज्जे वसित्ता मुंडे नविता आगाराओ अणगारित्र्यं पव्वइए उसनेणं रहा एवं वाससहस्सबनमत्थपरित्र्यायं पाणित्ता एवं पुव्वसय सहस्सं वाससहस्रणं केवलिपरिश्रायं पाउणित्ता एगं पुव्वसयसहस्सं बहुपरिपुष्पं सामापरियं पाउलित्ता चनरासीई पुत्रसदस्साई सव्वा पाल पालइत्ता जे से हेमंताणं तच्च मासे पंचमे पक्खे माहबहुले तस्स णं माहबहुलस्स तेरक्खे दसहि अणगारसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुमे अट्ठावय सेल सिरंसि चोदस्समणं भत्तेणं अपाणएवं संपसिंसि पुत्रहकाल समयास अनिश्णा णक्खते जोगमुवागणं सुसमद्समाए एगुएएनइए पक्खहिं सेसेहिं कालगए वीइकंते जात्र सव्वदुक्खप्पही || 'उसभेणामित्यादि 'व्यक्तमथ छास्थ्यादिपर्यायाभिधानपुरस्सरं निर्वाणकल्याणकमाह । ( उसभेणं इत्यादि ) ऋपनोऽईन् एकं वर्षसहस्रं छद्मस्थपर्यायं प्राप्य पूरयित्वेत्यर्थः । एकं पूर्वलकं वर्षसहस्रानं केवलिपर्यायं प्राप्य एकं पूर्वकं बहुप्रतिपूर्ण देशेनापि न्यूनमिति यावत् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य चतुरशं । तिपूर्वलक्वाणि सर्वायुः पालयित्वा उपञ्चज्य हेमन्तानां शीतकालमासानां मध्ये यस्तृतीयो मासः पञ्चमः पको माघबहुलो माघमासकृष्णपक्षः तस्य माधबहुलस्य त्रयोदशीपके त्रयोदशी दिने विनक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् दशभिरनगारसहस्रैः सार्द्धं संपरिवृतः अष्टापद शैलशिखरे चतुर्दशेन भक्तेनोपवासानापनकेन पानीयाहाररहितेन संपर्यङ्कनिषष्ठः सम्यक् पर्यङ्केन पद्मासनेन निषपः उपविष्टः न तॐ दमादिरिति भावः । पूर्वाह्नकाल समये अभिजिता नक्कत्रेण योगमुपागतेनार्थाश्चन्द्रेण सुषमदुःषमायामेकोननवत्या पक्त्रेषु शेषेषु अत्रापि विभक्तिव्यत्ययः पूर्ववत् प्राकृतत्वात् । सप्तम्यर्थे - तृतीया कालं गतो मरणधमै प्राप्तः व्यतिक्रान्तः संसारात् । याव चन्दात् "समुज्जाए ब्रिन्नजाश्जरामरणबंधणे सिके बुके मुत्ते - तगमे परिनिब्बु इति" संग्रहः । तत्र सम्यगपुनरावृत्या कर्कलोकाग्रलचणं स्थानं यातः प्राप्तो न पुनः सुगतादि वदवतारी यतस्तद्वचः "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छन्ति For Private उसभ भूयोऽपि भवतीर्थनिकारतः ॥ १ ॥ " इति बिनं जात्यादीनां बन्धनं हेतुभूतं कर्म येन स तथा । सिको निष्ठितार्थः बुको ज्ञाततत्वः । मुक्तो नवोपयादिकमशेज्यः श्रन्तकृत् सर्वदुःखानां प रिनिर्वृतः समन्तान्बीनीभूतः कर्म कृत सकल सन्तापविरहात् सर्वा णि शारीरादीनि दुःखानि प्रहीणानि यस्य स तथा । जं०२ वक्०। श्र० प्र० प्र० स० ॥ उसमें अरहा कोस लिए इमीसे उसप्पिणीए ततियाए सुसमदुस्समाए समए पच्चिमे भागे एगूणण नए अच्छ मासे हिं सेसेहिं कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीनोसम० ॥ २६ ॥ ( २ ) इदानीं निर्वाणद्वारावयवार्थानि धित्सयाऽऽड् । अह भगवं जवमहो, पुव्वाण अणूगं सय सहस्सं । आपुव्विविरहिणं, पत्तो अट्ठावयं सेल्लं ॥ ५४ ॥ अट्ठावयम्मि सेले, चउदसनतेण सो महारसीणं । दसहि सहस्सेहि समं, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ५५. ।। गमनिका । श्रथ भगवान् भवमथनः पूर्वाणामन्यूनं शतसहस्रमानुपूर्व्या विकृत्य प्राप्तोऽष्टापदं शैलं नावार्थः सुगम एवेति गाथार्थः । अष्टापद गाड़ा गर्मनिका । अष्टापदशैले चतुर्दशभक्तेन स महर्षीणां दशनिः सहस्रैः समं निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः अस्या अपि नावार्थः सुगम एव । नवरं चतुईशनक्तं पात्रोपवासः भगवन्तं चाष्टापद प्राप्तमपवर्गजिगमिषु श्रुत्वा नरतो दुःखसंतमानसः पद्यामेवाष्टापदं ययौ । देवा अपि नगवन्तं मोक्कजिगमिषु ज्ञात्वाऽष्टापद शैलं दिव्यविमानानारूढाः खल्वा गतवन्तः । उक्तं च। जगवति मोकगमनायोद्यते "जाय य देवावासो, जावय डा. वो नगवरिंदो | देवेहिं देवी हि य, अविरहियं संचरंतेहि" तत्र भगवान् त्रिदशनरेन्द्रैः स्तूयमानो मोकं गत इति गाधार्थः ॥ अथ नगवति निर्वृते यद्देवकृत्यं तदाह ॥ जं समयं च णं उसने अरहा कोसलिए कालगए वी - इकं समुज्जाए छिष्जाइजरामरणबंधणे सिर्फ बुछे जाव सव्वक्खपहीणे तं समयं च णं सकस्त देविंदस्स देवरमा आम चलिए तएवं से सके देविंदे देवराया आस चलि पास पासित्ता उहि पजइ पनजस्ता नयतित्ययरं ओहिणा आभोए आनोएत्ता एवं वयासी परिणिन् खलु जंबुद्दीवे दवे भरहे वासे उसके अरहा कोस एवं जी अंतीच पच्चुप्पामागयाणं सक्काणं देविंदा देवराईां तित्थगराणं परिशिष्वाणमादिमं करतए तं गच्छामि अपि जगवतो तित्यगरस्त परिणिव्वाणमहिमं करेमि तिकटु वंदइए मंसइ बंदइत्ता एसइत्ता चउरासईए सामाणि साहस्सीहिं तायतीसए तायतीसएहिं च हिं लोगपालेहिं जाव चहिं चउरासीईहिं आयरक्खदे वसाहसीहिं अहिं बहिं सोहम्मकप्पवासीहिं वेमा लिएहिं देवे देवीहिंसार्द्ध संपरिवुडे ताए किडाए जाव तिरि मसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्भं मज्भेणं जेणेव अट्ठाae oar भगवत्थगरस्स सरीरए तेणेव उवागच्छइ carगच्छित्ता विमरणे एिणं देणं सुपुष्पण्यरतित्यय Personal Use Only Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसभ अभिधानराजेन्द्रः। उसभ रसरीरयं तिक्खुत्तो पायाहीणं पयाहीणं करेइ करेइत्ता | ौ पचा शिस्त्रा २ाची-३ अब्ज अममा ५ अप्सरा ६ णचासणे णाइदूरे सुस्मूसमाणे जाव पज्जुवासइ तेणं काझे | नवमिका ७ रोहिणी ८ तानिः पोशसहस्रदेवदेवीपरिवार युताभिः तिसूनिः पर्वद्भिर्वाहामध्यान्यन्तररूपाभिः सप्तनिरनीणं तणं समएणं इसाणे देविंद देवराया उत्तरमोगा कैहय १ गज २ रथ ३ सुनट ४ वृषन्न ५ गन्धर्व ६ नाट्य ७ हिवई अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिवई सूझपाणी बसह- रूपैः सप्तभिरनीकानामधिपतिभिः चतसृभिश्चतुरशीतिनिश्च. चाहणे मुरिंदे अयरं वरवत्थधरे जाव विउलाई जोगभोगाई तुर्दिशं प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्राङ्गरक्ककसद्भावात् षट्त्रिंशत् मुंजमाणे विहर । तएणं तस्स ईसाणस्स देविंदस्स देव सहस्राधिक सवत्रयप्रमितैरङ्गरक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुनिः सौ धर्मकस्पवासिभिर्देवैर्देवीनिश्च सार्क सपरिवृतस्तया देवजरको पासणे चलइ । तएणं से ईसाणे जाव देवराया नासिरूया उत्कृष्ठया प्रशस्तविहायोगतिषूत्कृष्टतमत्वात् यावआसणं चलिनं पास पासइत्ता ओहिं पउंज पउंजइत्ता त्पदात् "तुरिआए चयझाए चंगाए जयणाए मुरुमाए सिग्घाए जगवं तित्थगरं महिणा आजोए आभोएना जहा सके दिवाए देवगए विश्वयमाणे २त्ति" अत्र व्याख्या त्वरितया निअगपरिवारेणं आणे अव्वा जाव पज्जुवासइ । एवं सब्वे | मानसौत्सुक्यात चपनया कायतः चएमया काधाविष्टयव जीमसंवेदनात् 1 जवनया परमोत्कृष्टचेगत्वात् । अत्र च देविंदा जाव अच्चुए णिश्रगपरिवारेणं आणेअब्बो एवं समयप्रसिकाचण्मादिगतयो न ग्राह्याः । तासां प्रतिक्रम नाव मवणवासीणं इंदा वाणमंतराणं सोलमजोशसिधारणं संख्यातयोजनप्रमाणकेत्रातिक्रमणात् तेनैतानि पदानि देवगतिदोलि निगपरिवारा अव्वा । तएणं सके देविंदे देव- विशेषणतया योज्यानि देवास्तु तथा भवस्वजावादचित्यसामराया ते बहवे भवणवइवाणमंतरजोड्सवमाणिए देवे यतोऽत्यन्तशीवा एव चलताति अन्यथा जिनजन्मादिषुमहिमाएवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया एंदणवणाओ निमित्तं तत्रैव झदित्यवारयन्तदूरकल्पादिन्यः सुराः कथमागच्चे युरिति । उहतया कलस्य दिगन्तव्यापिनो रजस श्य या गतिः सरसाइं गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहर साहरश्त्ता तो सा तया अत एव निरन्तरं शीघ्रत्वयोगाच्छीघ्रया दिव्यया देवाविगाइनो रएह एगं नगवओ तित्थगरस्स एगं गण- चितया देवगत्या व्यतिवजन् २ संज्रमे द्विर्वचनं तिर्यगसंख्येयाधराणं एग अवसेसाणं अणगाराणं तपणं ते भवणवश ना द्वीपसमुत्रां मध्य मध्येन मध्यनागेन यत्नवाटापदः पर्वतः जाब बेमाणिया देवा णंदणवणाश्रो सरसाइं गोसीसवर- यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य शरीरकं तत्रैवोपागच्छति । अत्र सचंदणकघाई साहरांति साहरतित्ता तश्रो चिश्गाश्रो रएहति चत्रातीतनिर्देशे कर्त्तव्ये वर्तमान निर्देशस्त्रिकारमाविष्वपि तीर्थ करेवेतन्न्यायप्रदर्शनार्थ इति न हि निर्हेतुका ग्रन्थकाराणां प्रवृएग जगवनो तित्थगरस्स एगं गणहराणं अवसेसाणं अ तिरिति । उपागत्य च तत्र यत् करोति तदाह ( उघागचित्ताणगाराणं से सके देविंदे देवराया भाभिओगे देवे सद्दा- इत्यादि ) उपागत्य विमनाः शोकाकुलमनाः अश्रुपूर्णनयनस्तीर्यवे सदावइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव जो देवाणुप्पि- करशरीरकं त्रिकुत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोतीति प्राग्वत् । श्रा खोरोदगसमुहाओ खीरोदगं साहरत्ति तएणं ते नात्यासन्ने नातिदूर शुथूपत्रिव तस्मिन्नप्यवसरे भक्त्याविष्टत. या भगवद्वचनश्रवणेच्छाया अनिवृत्तावत् पदात् “णमंसमा. आजिभोगा देवा खोगेदगं साहरति । ण अभिमुहे विणएणं पंजझिमे पज्जवासत्ति" परिग्रहः अत्र (जं समयं चपामित्यादि ) यस्मिन् समये सप्तम्यर्थे तिीया व्याख्या नमस्यन् पञ्चप्रणामादिना अभि भगवन्तं खदमीकएवं तब्दवाक्येऽपि अवधिना ज्ञानेनानोगयति उपयुनक्ति शेष त्य मुखं यस्य स तथा । विनयेनान्तरयहुमानेन प्रान्जलीकृत इति सुगममुपयुज्य एवमवादीत् किमित्याह । परिनिर्वृतः खलुरिति प्राग्वत् । पर्युपास्ते सेवते इति । अथ द्वितीयेन्द्रवक्तव्यतामाह वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपे जारते वर्षे ऋषभोऽहन कौशक्षिकस्तच्च- (तेषं कामेणमित्यादि) सर्व स्पष्ट नवरम् अरजांसि निर्मनानि स्माकेतोः जीतं कल्पः प्राचार पतद्वक्ष्यमाणं वर्तते अतीतप्रत्यु- यान्यम्बरवस्त्राणि स्वच्छतया आकाशकस्पानि वसनानि धरतीपनामागतानामतीतवर्तमानामागतानां शक्राणामासनविशेषा-| ति । यावत् करणात् “पानअमानम उम जय हेमचारुचिधिष्ठातृणां देवानां मध्ये इन्द्राणां परमैश्वर्ययुक्तानां देवेषु राशा त्तचंचत्रकुंमलविहिज्जमाणगढे महिहीए महज्जुईप महाबले म. कात्यादिगुणैरधिकंराजमानानां तीर्थकराणां परिनिर्वाणमहिमा हायसे महाणुभावे महासुक्ने भासुरचोदीपलंघषणमालधरे ईकी तमन्ममि । णमिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकर- साणकप्पे ईसाणवसप विमाणे सुहम्माप सनाए ईसाणंसि स्य परिनिर्वाणमहिमा करोमीति कृत्वा नगवन्तं निवृतं बन्दते सिंहासणंसि से गं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसाहस्साणं स्तुति करोति ममस्यति प्रणमति । यच्च जीवरहितमपि | असीईए सामाणिअसाहस्सीण तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं तीर्थकरशरीरमिन्जवन्धं तदिन्छस्य सम्यग्दृष्टित्वेन नामस्थापना- चन योगपालाणं अहए अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं व्यभाषाहतां वन्दनीयत्वेन श्रकानादिति तत्वम् । वन्दित्वा न- तिएह परिसाणं सत्ताह अणीवाणं सत्ताह अणीवाहिवणं त्वा च किं चक्रे श्त्याह (बचरासीई इत्यादि .) चतुरशी- चउपहं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अमेसि च ईत्या सामानिकानां प्रतुत्वमन्तरेण वपुर्विनवातिस्थित्यादिनिः साणकप्पवासीणं देवाणं देवीण य आहेवश्च पोरेवश्चं सामित्तं शकतुल्यानां सहस्त्रयस्त्रिशता त्रयात्रिंशकैर्गुरुस्थानीयैर्देवैश्चतु- भहितं महत्तरगत्तं प्राणा ईसरसेणवच्चं कारेमाणे पालेमाणे निलोकपाः सोमयमवरुणकुवेरसंज्ञैः यावत्पदात् "अहिं । महया हयनदृगीयवाई अतंतीतलतालतुझिअघणमुअंगपापडअगमहिसीहि सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्ताह अणि- पाश्अरवेण इति " संग्रहः । सर्व स्प{नवरम् श्रालिङ्गितीय पाई सत्तहिं अणिआहिहिति" अत्र व्याख्या अग्रमहिप्योऽ- थास्थानं स्थापिती मायामुकुटी येन स तथा । नवाभ्यामिव हेम Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७८) निधानराजेन्द्रः | उसभ मयाय वाल्यांविषयांचायामित मियमानी गयी यस्य स तथेति णमित्या दि) यथा शक्रः सौधर्मेन्द्रो निजक परिवारेण सह तथा प्रणि तत्याने यावत्पर्युपास्याप्य इत्यर्थः । एवं सयेत्यादिकस्यायेन सर्ववेन्डा वैमानिकाः अत्युत्तरसूत्रं संवदति निजपरिवारेमामी वामी सामानिकादिचारचारेण सहाव्या भगव गतिक प्रापणीया प्रत्यवाय केनेत्यर्थः चेदं सू योजनीयमेवैमानिकप्रकारेण याज्ञवनवासिनां दक्षिणोत्तर जननीविशनिरित्यर्थः । अत्र बाच्न ग संग्रह संग्रहादाजावाद कि तु सजातीयजनयति सूचकः धानमन्वराणां व्यन्तराणां षोक शेन्ड्राः कान्त्रादयः । ननु मादिषु द्वात्रिंशद्वयन्तरेन्द्रा भिदिसापको मेदास्तु महर्षिका काय उपात्तात देवान्तरवेदतास्तु पोरा पत्रापोऽपरिवा ताऽपि तवेदित्र प्रसिद अपि भावाः कुतश्चिदाशयविशेषात् स्वसूत्रे सूत्रकारोन नियधनाति यथा प्रतिवासुदेवाः अन्यत्रावश्यक निर्युकयादिपूमपुरुषत्वेन प्रसिका अपि चतुर्थाङ्गे चतुःपञ्चाशन्तमसमवाय नोक्ताः । "नरदेवगमेगा उसी २ सूतिकाया वासुदेवा" प्रतिपरमुपसंग्राह्याः । उपतिष्णांच सूर्यो जात्याश्रयणात व्यक्त्या तु तेऽसंख्याता निजकपरिवाराः सहपर्तिस्परिक नेताः किं दि ततः शक्र देवेन्द्रो देवराजस्तान बहु नयनपत्यादीन देवदमेव निमेष जो!! स्वस्वामिनो ऽनुचरणेनानुमीयन्तीति देवयान् वगात् रसानि विम्यानि तु काणि गोशरचन्द तस्य काष्ठानि संहरत प्रापयत संहृत्य व तिस्रश्वतिका रचयत । [एक] जगवतस्तीर्थकर एक गणधराष्ट्र मेकामयाम गाराणामिति (तरणामित्यादि) स्पष्टम् । श्रयमावश्यकवृत्या सुरुचिताश्चदपिनागः तचन्दनदार निगवतः प्रवृत्तचितांगणधराचामपायांत शेवानां प्रती चतुरसुरारिति नवाश्यकादाचियार्णा या चितोक्ता इह तु गणधराणां कथमिति उच्यते । अत्र प्रधानगया गणवराणामुपादानेऽप्युपा गणपतीनामा कृणां द्वितीया चिता शेयेति न काऽप्याशङ्का । जं० २ ० । अरे देवा सर्व श्वापद्मागतादितिकाकृतिरिति ते तिस्रञ्चिताः वृत्तभ्यस्त्रचतुनाकृतीः कृतवन्त इति । एकां पुर्वेण अपरां दक्षिणेन तृतीयामपरेणेति । तत्र पूर्वा तीर्थकृतः दकिणा चाकूणामपराबद स्वग्नि प्रक्षिप्तवन्तः एस तव निबन्धनालोके " अग्निमुखा वै देवा" इति प्रसिकम् । वायुकुमारास्तु वातमुक्तवन्त इति । मांसशोणिते च ध्यामिते सति मेघकुमाराः सुरभिणा की रोइजमेन निर्वापितवन्तः ( स कथेति ) सकथा हनुमोच्यते । तत्र दहि हनुमां जगवतः संबन्धिनीं शक्रो जग्राह वामामीशानः अधदक्षिणां पुनधरमः पततु वा अवशेषास्तु चिदशाः। वाङ्गानि ततस्तु स्मगु धन्तः । शेषा लोकास्तु तद्भस्मना पुरुषाणि चक्रः तत एव च प्रस्तुति जतो गल उसभ दिश्य पर्व किरोन योजनायामं गतिं संनिपायतारितवान् प्रमाणमुक्ताशतिजधानिमकपरिवारयुक्तास्ती शंकरनिमास्तथा प्रावृतप्रतिमा आत्म प्रतिमां च स्तूपतं च मा कधिदाक्रमणं करिष्यत सबैक नगयता पायेकोनशतस्य भ्रातृणामिति तथा सोमयान् पुरुषस्ताराधिकार दामरत्नेना सर्व अवान योजने योजनेऽष्टी पदानि कृतान्। सगरसुतैस्तु वंशानुरामाद्यधा परिक्षां कृत्वा गङ्गावतारिता तथा प्रन्थान्तरतो विज्ञेयमिति । याचकास्तेनाहिताग्नयः इत्यस्य व्याख्या देवैर्भगवते सति का देवानतिशयनया याचितवन्तः देवा अपि तेषां प्रचुरत्वान्महता यत्नेन याचनानिहता आहुः । श्रहो याचका इति । तत एव याचका रूढाः ततः श्र निगृहीत्वा स्थापित करनादिः इति प्रसिद्धास्तेषां चानां परस्परतः कुएसका विधिगवता संधिभूतः सर्वमेषु सम्धरति निस्तु शेष एकाग्नौ सञ्चरति । न जगवत्कुएकाम्नाविति शेषानगार. एकाम्नेस्तु नान्यत्र संक्रम इति गाथार्थः । प्रा० म०प्र० ।. (३०) ततखिताऽनन्तरंशकः किं करोतीत्याह तणं से सके देविंदे देवराया तित्थगर सरीरगं खीरोदगेणं एहाणेति एहतित्ता स सेणं गोसीसवरचंद गेणं लिंप अंलिंपड़ता हंसलक्खणं परुसाम्यं प्रिंसेड़ पिता सव्वालंकारविनृसि करेंति । तए एतं जवव जाव मणि गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाई पि खीरोदगेणं एहावेंति एहावेंतित्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं असंपति अणुर्विपतित्ता ग्रह ताई दिव्वादेवजुअाई सिंति संतता सम्यालंकारवि इसिआई करेंति त ां से सके देविंदे देवराया से ब वणवई जाव वेम. लिए देवे एवं वयासी । खिप्पामेव भो देवाभाई मिग सभतुरयजावण लयभानः चेत्ताश्री तो सिविआओ विवहह एगं भगवभो तिरथगरस्य एवं राणं एवं अवसे साणं अणगाराणं । तए णं बहवे भववई जाव माणिक तथा विति ए जग तित्थगरस्स एगं गणहराणं एवं अवसे साणं अणदारात से सके देविंद देवराया विमाने शिरा शंदे पुणे भगवतित्यमरस्सम्पनरामरणस्स मरीरगं सी रहे आरहेहता चिड़गाए तवे तरणं ते पहने जवणवई नाव वैमारिया देवा गए ह राणं अणगाराणं य विगड़जम्मजरामरणाणं सरीरगाई सी आरुति श्ररुतित्ता चिइगाए वेंति । तए एं से सके देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सहावे सरावेइसा एवं क्यासी विप्पामेव भी देवापि निश्वगरचिड़गाए जाव अणगारचिड़गाए अ अगणिकार्य विजमहा विद्यव्यहस्सा एप्रमाणति पचपि तए णं ते कुमारा देवा विमा गिरा गंदा सुमाया Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७९) अनिधानराजेन्द्रः । उसभ तित्वगरचिगाए जाव अणगारचिगए अ अगणिकार्य विति ॥ यदि स्पष्ट करणानन्तरं स शक्र किं करोतीति दर्शयति तय ततः शक्रतीर्थंकररा शरीर छोरोदकेन पपति पवि गोयन्दनेनानुलिम्पति अनुलिप्य हंसलक्षणो हंसविशदत्वात् शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पट्ट इत्यभिधीयते । तं हंसनामकंपरशा निवासपति परिधापयतीत्यर्थः परिधाप्य सव रविकरोति (रायणमित्यादि ) ततस्ते जयनपत्याइयो देवां गणधराणामनगाराणं च शरीराणि तथैव चकुः अहतान्यखकितानि दिव्यानि धर्याणि देवदृष्ययुगन्नानि निवासयन्ति शेषं ममित्यादि) ततः शको भवन मेवो देवायामृगादिभचास्तिस्रः शिविका तिरिति सौत्रो धातुस्तस्मापसि स्पष्टम् । (रणमित्यादि) गरी कायम ति महर्ष्या च चितिकास्थाने नीत्वा चितिकायां स्थापयति शेष स्पष्टम् तपणमित्यादि) स्पष्टम् (तरणमित्यादि) ततः स शोऽकुमारान् शब्दांत यादीत् जो अग्निकुमारा ! देवास्तीर्थकर चितिकायां गणधर चितिकायामनगारचितिकार्याचाग्निकार्य कि पितामासिकमा प्रत्यर्पयत शेषं व्यक्तम (त एवं अग्निकुमारादे थाइत्यादि व्याख्यातप्रायमेव ( एवं से सदस श्रद्वयमपि व्यक्तम् उज्ज्वाक्षयत दीपयत तीर्थकरशरीरकं यावदनगरशरीरकाणि च भ्यामयत स्ववर्णत्याजनेन वर्णान्तरमापादयत अग्निसंस्कृतानि कुरुतेति । तमित्यादि ) ततः स शको भवनत्यादिदेवाया तीर्थकर तिकायां यावदनगारचितिकायां च गुरुं तुरुकं सिहकं घृतं मधु च एतानि द्रव्याणि कुम्नाग्रशोऽनेककुम्नपरिमाणानि जाराप्रशोऽनेकविंशतिपरिमाणानिस पुरुषत्केपणीयो भारत सोऽयं परिमाणं येषां ते जाराग्रास्ते बहुशो नाराग्रशः संहरतेति प्राग्वत् । अथ मांसादिषु ध्यामितेषु श्रस्थिष्ववारीष्टेषु शक्रः किं के इत्याह "तमित्यादि" स्पष्यं नवरे कीरोइन कीरसमुद्रा नीजन निर्वापयदर्थः । अथास्थिताबाद "तरणमित्यादि ततश्चितिका विशेष गाइनु जगतस्तस्य परदादामित्यर्थः शोकक सत्यासत्याज्यः सका शादू व इति विशिष्टं रोचनं दीपनं दीप्तिरिति यावत् येषामस्तीति वैरोचनाः स्वार्थे नदीच्याः सुराः दाक्षिणात्ये ज्यः उत्त राणामधिक प्रकृति तेषाम एवं रोज अस्तनं वा स गुद्धानि लोकपासिया तरण्यधिय त्याच अवशेषा भवनपतयो वत्करणात् व्यन्तरा ज्योतिष्काच ग्राह्या वैमानिका देवा यथाऽदै यथा महद्धिकम् । अवशेषाणि - कायस्थीनि उपाङ्गानि अपनास्थानात योगाः अयं जायः सनत्कुमारादितिरि या अवशिष्शनाविशतिदन्तान् अन्येभ्यशिक्षा भने पा स्थानीति । ननु देवानां तणे के आशय इत्याह । केचिजिनजिनेनि जनजिवराज्यमिति के मिति पुरातनादिमाचार्णमित्यस्मानिरपीदं कर्तव्यमिति केऽपि धर्मः पुण्यनितिकृयात्र प्रयान्तरमसिऽयमपि देतुः 1 उरुज "अति अपदिअहं, अह को पराजयं जर करेजा। तो परका सिता च सलिलेण करेति निक्खं १ । सौधर्मेन्देशानयोः परस्परं सर्वरोगहोत्यादि को यस्तथा पारित विद्याधररा चिताभस्मशेषामिष हन्ति सर्वोपचविणमिति कृ आस्तां त्रिजगदाराध्यानां तीर्थकृतां योगभुश्च्चत्र. वर्तिनामपि देवाः सक्थिग्रहणं कुर्व्वीति । अथ तत्र विद्याधरादिमिर पूर्विकया प्रस्मनि गृह बतायामेव गतयां जातायां मा भूत पामरजनकृताशातनाप्रसङ्गः सातत्येन तीर्थप्रवृत्तिश्च भूयादि ति स्तूपविधिमाह (तरणमित्यादि) सर्व स्पष्टं नवरं सर्वात्मना रत्नमयान सर्व रामखचितान (महसि ) महतोसि स्तीर्णान् प्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतप्रजवः श्रीनू चैत्यस्तूपान् चैत्याधिकाः स्तूपार्थिवस्तूपास्तान् कुरुत रितिथित्यर्थः प्रकरणसूत्रे ततस्ते बढ्यो नपत्यादयो देवा स्वथैव कुर्वन्ति न थाहाकरणसूत्रे बापत करणे तथा पूर्वसूत्रेऽपि कथं न सावकिता विवित्तप्रवृत्तेरिति (तरणमित्यादि ) ततस्ते बहवो नवनपत्यादयो देवास्तेषु स्तृपेषु यथोचितं तीर्थंकरस्य परिनिर्वाणममि कुर्वन्ति थापाका नन्दीश्वरव द्वीपरागत त म पीर अष्टादिकामानामहां दिवखानां समाहारोऽहं तदस्ति यस्यां महिमायां सा अष्टादिका तां महामहिमां करोति । ततः शकस्य चत्वारो लोकपाला समयमयरुणमनमान धमुखतेषु यादिकां महामहिमां कु न्ति नानन्दीश्वरवरादिशब्दानां कोऽन्यर्थयते नन्द्या पुष्करप्रमुखपदार्थसमुद्धता समापतिमा न्दीश्वरस्य चामनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरसिद्धायादिसमु द्भावेन वरो नन्दीश्वरवरः । तथा अनरत्नमयत्वादअनास्ततः स्वार्थे कप्रत्ययः । यद्वा कृष्णवर्णत्वेनाञ्जनतुल्या इत्यञ्जनकाः उपमाने कप्रत्ययः । तथा दधिवदुज्ज्वलवर्ण मुखं शिखरं रजतमयत्वाद्येषां ते तथा बहुव्रीहौ कप्रत्ययः । श्रयेशानेन्द्रस्य नन्दीश्वरावतारच कल्पमाद ईसाई देवेन्द्र उत्तरा हे के शाहको तस्य लोकयात्रा उत्तराहाज्जनकस्योपरिवारकेषु चतुर्षु दधिमुकेषु अष्टाहिकांचम दा जात्यातस्य सोकपाला दधिमुखप पाश्चात्याञ्जनके तस्य लोकपाला दधिमुखकेषु ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा अष्टारिका महामहिमामहोत्सवा कुन्तीति बहुवचनं चात्रादिकानां सीधादिभिः पृथक पृथा ( करिता त्यादि) थाहारिका महा महिमाः कृत्वा यत्रैव लोकदेशे स्वानि स्वानि स्वसंबन्धीनि दि मामात्रै पानि स्थानिय सादात्ययः सनाः सुधर्माः यत्रैव स्वकाः स्वकाः स्वस्वसंवन्धिनो माणवकनामान चैत्यस्तमात्पार्थः प्रायसोपा उपा गाय च चमषषु गोसमुद्र भाजनचिशेषजनीि प्रतिपन्तति । सक्थिपदमुपलक्षणपरं तेन दशनाद्यपि यथार्हे प्रकिन्तीति अथाधर्मकथा मलिनायनिवेदयत तिनिधी नसत प्रति प्रक्षिप्य च अभ्यैः प्रत्ययैर्वरैर्माल्यैश्च गन्धैश्चार्चयन्ति प्रर्चयित्वा विविता भोगावात इति । अग्राह पर नरिवादिगुणविक भगीरथ पूज Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह। (१९८०) अभिधानराजेन्द्रः । उसमकड नादिकं पूर्वमपि ममान्तर्वणमिव बाधते तदनु इदं जिनसक्थ्या- साइरेगाई सत्ततीसं जाणाई परिक्खवेणं मज्के साइरेदिपूजनं कते कार व सुतरां वाधते मैवं वादी नामस्थापना गाई पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेमं नपि सारेगाइं बाअन्यजिनानां भावजिनस्येव वन्दनीयत्वात, तदा भगवच्छरीरम्य च व्यजिनरूपत्वात् सक्थ्यादीनां च तदवयवस्वादू भावजि रमजोअणाई परिक्खवणं मूले विच्छिम्म मो संखित नादभेदेन वन्दनीयत्वमेव अन्यथा गर्भतयोत्पन्नमात्रस्य भग- नपि त गए गोपुच्चसंठाणसंविए सबबृणयामए अपतः "समणे नग, महावीरे" इत्याद्यनिसापेन सूत्रकृतां सूबर- स्पेसएहे जाव पडिरूवे सेणं एगाए परमवरवेइआए तहेव चना शक्राणां शक्रस्तवप्रयोगादिकं च नौचितीमवेदिति । अत जान जवणं कोसं पायामेणं अद्धकोसं विखंभेणं देसूर्ण एवं जिनसक्थ्याद्याशातनानीरवो हि देवास्तत्र कामसेवनादी कोसं उर्ल नञ्चत्तेणं अट्ठो तहेव उप्पमाणि पनमाणि जाव न प्रवर्तन्ते इति जं.श्वक। (३१) अथेदवाकूणां द्वितीयां चितिका वर्णयति ॥ उभे अएत्य देवें महलिए जाव दाहिणणं रायहाणी तहब यूभसयभानआणं, चवीसं चेव जिणहरे कासी। मंदरस्त पव्वयस्त जहा विजयस्म अविसेसियं ।। सम्बजिणाणं पमिमा, वनपमाणेहिं निगेहिं ।। क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तराजरते वर्षे ऋषनटोनाम्ना पर्वतः प्राप्तः जगतानाह गौतम! गङ्गाकुलस्य यत्र हिमवता स्तूपशतं चातृणां जरतः कारितवानिति । तथा चतुर्विंशति गङ्गा निपतति ताकुरामं तस्य पश्चिमायां यत्र तु सिन्धुर्निपइचैध जिनगृहे जिनायतने (कासित्ति)कृतवान् का इत्याह । मर्वजिनानां प्रतिमा वर्णप्रमाणनिजैरात्मीयैरिति गाथार्थः । श्रा० पति सिन्धुकुएमं तस्य पूर्वस्यां क्षुल्लहिमवत्रो वर्षधरस्य दाक्ति णात्यनितम्बे सामीप्यकसतम्या नितम्बासने इत्यर्थः । अत्र प्रदे म. प्र. । श्रीऋषनदेवेन साकं यैर्दशसहस्रमुनिभिर्नक्तं प्र शे जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तराभरते वर्षे ऋषनकूटो नाम्ना पर्वतः स्याण्यातं ते कियता कानेन सिकास्सन्तीति प्रश्न ऋषनदेवेन प्रशतः अयोजनान्यूच्चत्येन द्वे योजने मधेन तमिप्रवेसाकं दशसहनमुनयोऽनि जन्नको सिद्धास्सन्तीत्येतदकराणि शेन व्यत्वचतुर्थाशस्य नूम्यवगाढत्वात् अष्टानां चतुर्थाशे धसुदेवहिएज्यादौ वर्तन्ते इति बोध्यम् । वेन ४ उल्ला०३१ प्र० योरेव लानात् । मूत्रमध्यान्तषु क्रमादष्ट षट्चत्वारियोजनानि परिवेष्टनपट्टे, प्रव० २१६ घा० । जी । “वरसंघयणे" स्रो विष्कम्जेन विस्तारेण उपतकणत्वादायामेनापि समवृत्तस्यायाहादिमयपट्टवरूकाष्ठसम्पुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वावर्षनः ॥ भ० १ श०१० । उत्त । वृषने, जी०३ प्रति । रा० । जं० । मविष्कम्भयोस्तुल्यत्वादिति । तथा मूलमध्यान्तेषु पञ्चविंशतिऔ० । अनु। ज्ञा० । ओषधिनेदे, कर्णनिद्रे, कुम्नीरपुच्ने, रष्टादश हादश च योजनानि सातिरेकाणि परिकेपेण परिधिमेविका पर्वतजेदे च धरणिका वराहपुच्छे, हेम । "नानिमूसात् ना । अथास्य पागन्तरं वाचनाभेदस्ततं परिमाणान्तरमाह । मुले बादश योजनानि विकम्नेन मध्येऽष्टयोजनानि तपरिचयारि यदा वर्ण, उत्थितः कुरुते ध्वनिम् । वृषजस्येव निर्वाति, हेलया योजनानि विष्कम्नेन अत्रापि विष्कम्भायामतः साधिकत्रिगुणं ऋषभः स्मृतः" इति सङ्गीतशास्त्रोक्त स्वरोदे, राजकर्तव्ये,वाच. कात्यायनगोत्रायाः शिवानाम्न्याः कन्यकायाः पितरि, तत्कथा मूत्रमध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोक्तं सुबोधम् अत्रापरः एकस्य वरतुनी विष्कम्नादिपरिमाणे वैरुप्यासंभवेन प्रस्तुत ग्रन्थस्यासातिशय ब्रह्मदत्तहिएमयां दर्शिता तत एवाऽवधार्या । उत्त० १ अ० । स्थविरप्रणीतत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः यदेकस्यापि ऋषभकूटप. प्रापनकूटाधिपदेवे चास्थाग। तस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादि पुनस्तत्रैवास्य द्वादउसन-(ह) कंत्र-ऋषभकण्ठ-पुं०६ त० वृषनस्य कएने, शादियोजनविस्तत्वादीति सत्यं जिनभट्टारकाणां सर्वेषां बृपनकाप्रमाणे रत्नविशेषे, र.. " उसनकंगण अट्ठसयं" क्षायिकशानवतामेकमेव मतं मूलतः पश्चात्तु कालान्तरेण जी०३ प्रति। विस्मृत्यादिनाऽयं वाचनाभेदः॥ यदुक्तं श्रीमलगिरिसूरिभिउपभकूम-ऋषनकूट-नए जम्बूधीपे उत्तराजरते वर्षे स्वना ज्योतिषकरण्डवृत्ती " इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्ती दुःषमानुभामण्याते पर्वते ॥ वतो दुर्मिकप्रवृत्या साधूनां पठनगुणादिकं सर्घमायनेशत् । कहिणं जंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरभरहे वासे नसजकडे ततो दुर्भिक्षातिकमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः सङ्घमेलापकोऽभवत तद्यथा एको वल्लभ्यामेको मथुरायां तत्र च सूत्रार्थसंघटने परणाम पन्चए पामत्ते गोमा ! गंगाकुरूस्त पञ्चच्चिमेणं सिं स्परं वाचनाभेदो जातः विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा स्मृधुकुंरस्य पुरच्छिमेणं चुहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स दा- त्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेद इत्यादि ततोऽत्रापि दुहिणिो णितंवे एत्य एं जंबुद्दीचे दीवे उत्तरहे नरहे वारे उ-| करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञामहकूने णामं पबए पपत्ते अट्ठजोअणाई उई उच्चत्तेणं दो | निभिरनभिनिषिधमतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरु पैरिति न काचिदनुपपत्तिः। किंच सैद्धान्तिकशिरोमणिपूज्यजोअणाई उव्वेहेणं मूले अट्ठजोषणाई विखंनेणं म-| श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतक्षेत्रसमाससूत्रे उत्तरमतमेवं के जोअणाई विक्रखंनेणं उपरि च चत्तारि जोअ दर्शितं यथा “सम्वेवि उसहकूडा, उविष्ठा अठ जोगणे हुँति । णाई विक्खनेणं मूले साइरेगाई पाणवीसं जोभणाई परि- वारस अ य चउरो, मूले मबार विस्मिमा ।।। मूले विखेवेणं मज्के साइरेगाई अट्ठारसजोषणाइं परिक्खेवेणं - छिम इत्यादि शेषवर्णकः प्राग्वत् । अथास्य पावरदिकाद्याह। ( से णं पगाए इत्यादि )स ऋषभकूटादिरेकया पायरवेदिवरि सारेगाई वालसजोषणाई परिक्खेवेणं ( पाठा कया तथैवेति । यथा सिद्धायतनकूटवर्णकः प्रागुक्तस्तथाऽत्रापि तरं ) मूने वारसजोअणाई विक्खनेणं मज्के अट्ट जोन-1 वक्तव्य इत्यर्थः कियत्पर्यन्त इत्याह । यावद्भगवत ऋषभास्यपाई विखंजेणं न िचत्तारि जोअणाई चिक्खनेणं मले देवस्थान स चायं "पगेण य वणसंडेशं सव्यत्रो समंता संप Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसत्तदत्त उसगदव उसभ ( द ) दत्त - ऋषभदत्त - पुं० ब्राह्मणकु एकग्रामवास्तव्ये फोमा गोत्रे स्वनामस्याने प्राय साचा०२० खाय कल्प (यस्य देवानन्दानाम्या प्रार्थ्यायाः कक्की प्रथमं श्रीवीरजस्तो हरिगमेषिणा संता सिद्धार्थनरेन्द्रमहियां के पति वीरशब्दे स्पष्टीनविष्यति ) तस्य शेषवक्तव्यता चैवम् ॥ रिक्स सह सं उपि बहुसमरमणि भूमिभागे उसणाराय-ऋषभनाराव म० पत्र की शिकारहित पत्ते से जदा गाम श्रलिंगमुक्खरेद वा जाव वाणमंतरा संहननं तदपनाराचम् । द्वितीये संहनने, पं०सं० | क० स्था० जाय बिहरति तर बहुसमरमणिजस्स भूमिभागन्स उभाद-ऋषजनाय पुं० श्री ऋषभदेये, आ० म०प्र० । बहुमध्यभागे महंगे भयले पक्ष से" इति अब व्यापा र्षवत् । भवनमानं साक्षादेव सूत्रे दर्शयति । क्रोशमायामेनार्द्धकोशं विष्कम्भेन देशोनकोशं चत्वारिंशदधिकचतुर्दशधनुःशतरूपमुचावेन यद्यपि भवनायामापेक्षा किंचियुष्य मानं भवति प्रासादस्तु श्रायामद्विगुणोच्छ्राय इति श्रीज्ञाताघयाद भवनप्रासादयोर्विशेषो दृश्यते तथायरा योरेकार्थकार्य हे श्रीमलयगिरिरिभिः क्षेत्रसमासी एतेषां षभानामुपरि प्रत्येकमेकैकः प्रासादावतंसकः ते व प्रासादाः प्रत्येकमेकं क्रोशमायामतोऽर्द्धक्रोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमुच्चैस्त्वेनैत्यकं भयननुत्यप्रमाणतया ऋषभदेषु प्रासादानामभिधानादिति । अर्थो नामान्वर्थ ऋषभकूटस्य तथैवेति यथा जीवाभिगमादौ यमकादीनां पर्वतानामुक्तस्तचापि साचित्वेन चतव्यः तदभिलापसूत्रं तु उत्पलानीत्या दिना सूचितं तनुसारेणेदं “ सेकेणठेणं भंते! एवं बुच्चाइ उसesser २ गोत्रमा ! उसहकूडपव्वर खुट्टासु खुड्डियासु वावसु क्खरिणीसुजाव विलपंतीसु बहूई उप्पलाई पउमाई जब सदस्यताई उसहरुध्यभाई सहयणाई उसह कूडवयाभाई इति " अत्र व्याख्या प्रश्नसूत्रं सुगमम् । उत्तरसूत्रे ऋषभकूपयेते शिकावापीषु पुष्करिणीषु यावद्विलद्विषु बहन्युत्पलानि पद्मानि पाय सहखपप्राणि ऋषभप्रभाणि ऋषभकुटाकाराचि ऋषभकूटशनि तथा ऋषभकूट वर्णस्येव श्राभा प्रतिभासो येषां तानि ऋषभकूटवसांभावि ततस्तानि तदाकाराद्वारश्याच ऋषभाचीति प्रतिकानि तद्योगादेव पर्वताऽपिषभकूटः । उभयेषामपि नाम्नामनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति मेतरेतराश्रयदेोषप्रसङ्गः एवमन्यत्रापि परिभावनीयम । प्रकारान्तरेणापि नामनिमित्तमाह " उसमे अ एत्थदेवे " इत्यादि ऋषभश्चात्र देवो महर्द्धिकः अत्र यावत्करणात् " महज्जुईए जाय उसहकूमस्ल उसहाए रायहाणीए अग्रेसिव देवाण व देवीण य आदेष जा दवाई से पर ( ११८१ ) अभिधानराजेन्द्रः । उस कुरुप २” इति पर्यन्तः सूत्रपाठो शेयः । अत्र व्याख्या माम्ब" दक्षिण" इत्यादि राजवान पनदेवस्य पना नाम्नं । मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतस्वथैव वाच्या यथा विजया देवस्य प्रतिविशेषदित क्रियाविशेषणमेतत् । अस्या विजयायाः राजधान्याश्च नामसोऽन्तरं तत्त्वस्मिन् वर्णके इति भावः । जं० २ वक० ॥ जंवमंदरपुरच्छिमणं कीयाए महाराईए उत्तरेण भट्ठ - सभकुका पाता ।। पनपता भास्यपि विजयेषु तद्भावात् तेच ब घरपर्यत्यासचा खयमध्यवर्तिनः स विजयनरतैराचतेषु नदन्ति तत्प्रमाणं चेदम्। "सच्चे वि उसढकुडा, उपिका भट्ट जोषणा हाँति पारस अ य ब मुझे मजवरिवित्थिन्न " ति ॥ १ ॥ उसभा ऋषभदेव पुं० भकूटनियासिन देथे "मंदरपुरमेसीयामा उनकूडदेवा पा सा. "स्था० ठा० । तणं कारणं तेणं समरणं पाहणं कुंरुग्णामे णानं एयरे होत्या व बहुसालए चेश्यवपओ तत्थ एं माहणकुंडग्गामे यर उसनदचे एामं माहणे परिवतइ | अठ्ठे दित्ते वित्ते जाव अपरिनूए रिउन्नेय जउव्वेय सामवेय अग्रव्वणवेय जहा खंदओ जाव असेसु य बहुसु य बंभणए नए परिनिडिए समयोबास अभिगयजवाजीचे अप्पाणं जावेमाणे विहर ॥ यदि सुगम (अति) समृया (दिति) पीरजवं। दृप्तो वा दपैवान् । ( वित्तत्ति) प्रसिको यावत्करणात् "विभिन्न विद्यलयणसयणासणजाणवाहर " इत्यादि दृश्यम् ॥ न० ए० ३३ उ० ॥ तस्स उभयस्स माइणस्स देवाशंदा शामं माहणी होत्था कुमालपाणिपापा जाय मिना सुरूवा समो वासिया अगियजीवाजीवा नवलद्धपुष्पपात्रा जाव विहरह देणं काले ते समपर्ण मामी समास परिमा पज्जुवासइ तर खं से उसनदत्ते माह इमसे कहाए लट्टे समा हट्ट जाव हियए जेणेव देवादा माहणी बेणेव उपागच्छ उरागच्चा देवर्णदा माह िएवं क्यासी एवं व देवाप्पिया समणे जगवं महावीरे मदिरे जाव सव्व सम्पदरिमी आग. सगणं चणं जब सुई सुदेणं विहरमा बनाए चेहए अाप डिस जाहिर से महष्फलं स देवाप्पिए वहा स्वार्थ भरत जगवंताणं धामगेोयस्स वि सवार किमंग अभिगमणदणणमंसणपादपृष्ठ पशुवासण याए एगस्स वि आरियस्त धम्मस्स सुवयस्स सवरायः ए किमंग ! पु विपुलस्स अहस्स गहरणयाए तं गच्छामो देवापि सम जगवं महावीरं बंदायो णर्मसामो जात्र सामोद जये परसवे य हियाए हाए खमा आगामियचार नविस्स तर सा देवादा मादी उसनद माह एवं वृचा समणी हट्ट जाब हियाकरयल जात्र कट्टु उसनदत्तस्स माहणस्स एयम 1 ।। दियास) हिताय पध्याय (सुदापति सुखाय श 'मापनि मत्वा सतायेत्यर्थगामिय Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसनदत्त अन्निधानराजेन्धः । उसन्नदत्त ताप त्ति) अनुगामिकत्वाय शुभानुबन्धायेत्यर्थः (इट्ठ) इह सुजातयुगयोक्षरज्जकायुगे ते प्रशस्ते अतिशुन्ने सुविरचिते सु. याबरकरणादेवं दृश्यं ( हट्टतुडचित्तमाणंदिया)एं तुष्टमत्यर्थ घपिटते निर्मिते निवेशिते यत्र सत् सुजातयुगयोक्त्ररज्जकायुगतु हर्ष वा विस्मितं तुणं च तोषवच्चित्तं यत्रतत्तथा । तद्यथा प्रशस्तसुविरचित निर्मितम् (पवमित्यादि) एवं स्वामिन् (तथेति) भवत्येवमानन्दिता ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृकिमुपगता माझ्या इत्येवं युवाण इत्यर्थः। विनयेनाञ्जलिकरणादिना । ततश्च नन्दिता समृष्तरतामुपगता (पीश्मणा ) प्रीतिः प्री- तएणं सा देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसिएहाया कणनमाप्यायनं मनसि यस्याःसाप्रीतिमनाः (परमसोमनसिया) यवनिकम्मा कयकोउयमंगल पायच्छित्ता किं ते वरपादपत्तनेपरमसौमनस्य सुषु समनस्कतासंजाता यस्याः सा परमसौमनस्थिता ( हरिसबसविसप्पमाणहियया) हर्षवशेन विसर्पति उरमणिमेलाहाररइयउचियकम्यखड्गएगावन्नीकंठसुत्तउस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा। रत्यंगवेजसोणिसुत्तगणाणामणिरयणन्नसणविराध्यंगाची तएणं से उसजदत्ते माहणे कोवियपुरिसे सहावेइ सद्दा- णंसुयवत्यपवरपरिहियागुनसुकुमालउत्तरिज्जासव्वोनय वंइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो! देवाणप्पिया!बनुकरण- मुरभिकुसुमवरियसिरया वरचंदणवंदिया वराभूसणचूसिजुतजोश्यसमखुरवाझिहाण समलिहियर्सिगेहिं जंबूणयम- यंगी कालागुरुधूमधूविया सिरिसमाणवेसा जाव अप्पमहयकलावजुत्तपरिविसिडेहिं रययमयघंटमुत्तरज्जुप्पवरकंचण- ग्यभरणासंकियसरीरा बहहिं खुजाहिं चिलाइयाहि वामणत्यपग्गहोग्गहियएहिणीलुप्पाकयामेल एहिं पवरगोणज णियाहिं वडहियाहिं ववरियाहिं चनसियाहि इसिगणियावाणपहि णाणामणिमयघंटियाजानपरिगतमुजातजुगजु- हिं खारुगणियाहिं जोणियाहि पल्हावयाहि ल्हासियाहिंतरज्जुयजुगपसत्यमुविरचियनिम्मियपवरलक्खणाववेयं- लासियाहिं भारवी हिं दमिलाहिं सिंघल हिं पुलिंदीहि धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उबडवेह मम एयमाणत्तिय पक्कल हिं वहिली हिं मुरंडीहिं सवरीहिं पारसीहिं णाणापच्चपिणह । नए णं से कोमुवियपुरिसा नसभदत्तेझं माह- देसी विदेसपरिपिमियाहिं सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं इंगिणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया करयल जाव एवं याचंतियपत्थिय वियाणियाहिं कुसलाहिं विणीयाहिं चेसामी तहत्ता पाए विणएणं वयणं जाव पडिमुणेत्ता डियाचक्कवालव रिसपरथेरकंचुइज्जमहतरगविंदपरिक्खिखिप्पामेव लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवर जुत्तामेव त्ता जाव अंतेउराओ णिग्गच्छद णिग्गच्चइत्ता जेणेव बानवद्ववेत्ता जाव तमाण त्तियं पच्चापणंति तए णं से उसमदत्ते हिरिया नवहाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव माहणे एहाए जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे सयाओ उवागच्छद उवागच्चइत्ता जाव धम्मियं जाएप्पवरं दुरूढा। गिहाओ पमिणिक्खम पमिणिक्खमइत्ता जेणेव वाहिरि (तरण सा देवाणदामाहणीत्यादि) । इह च स्थाने वाचनान्तरे या उवट्ठाणसाझा जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवा- देवानन्दावर्णक एवं रश्यते (अंतो अंतेउरंसि पहाया ) अन्तर्मगच्छा उवागच्छश्त्ता धम्मियं जाणप्पवरं पुरुटे । ध्येऽन्तःपुरस्य स्नाता अनेन च कुजीनाः खियः प्रच्छन्नाः स्ना न्तीति दर्शितम् । ( कयवनिकम्मा) गृहदेयताः प्रतीत्य (कय(बहुकरणजुत्तजोइए इत्यादि) बधुकरणं शीघ्रक्रियादकत्वं तेन कोग्यमंगलपायच्चित्ता) कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चियुक्ती यौगिकौ च प्रशस्तयोगवन्तो प्रशस्तसशरूपत्वाद्यौ तौ सान्यवश्यं कार्यत्वाद्यया सा तथा तत्र कौतुकानि मषीतिककातथा समाः खुराइच प्रतीताः (वालिदाणत्ति) वालिधाने च पुगै ययोस्ती तथा समानि बिखितान्युविखितानि शृङ्गाणि ययो दीनि मङ्गलानि सिकार्थकदूर्बादीनि (किंते) किन्चान्यत् (वरस्तो तथा ततः कर्मधारयोऽतस्ताभ्यां अघुकरणयुक्तयौगिकस पादपत्तनेवरमणिमेहलाहाररश्यउचियकमयखड़यएगावलीक-- मखुरवानिधानसमलिखितगृङ्गकाभ्यां गोयुवज्या युक्तमेव या उसुत्तनरत्यगेषेज्जसणिसुत्तगनागामणिरयणभूसणविराश्य-- नप्रवरमुपस्थापर्यतेति सम्बन्धः। पुनः किंजूताज्यामित्याह । जा- गी ) घराभ्यां पादप्राप्तनुपुराज्यां मणिमेखलया हारेण च म्यूनदमयौ सुवर्णनिर्वृतौ यौ कलापौ कण्ठाभरणविशेषा ताभ्यां रचित रतिदैर्वा सुखदोचितैर्युक्तैः कटकैश्च ( समात्ति) युक्तौ प्रतिबिशिष्टकौ च प्रधानौ जवादिनियों तो तथा ताज्यां जा अङ्गलीयकैश्च एकावल्या च विचित्रमणिमय्या कण्ठगूनदमयकलापयुक्तप्रतिविशिष्टकाज्यां रजतमग्यौ रुप्याविकारे सूत्रेण च उरःस्थेन च रूढिगम्यन ग्रेधेयकेण च प्रतीतेन उरःघण्टे ययोस्ती तथा सूत्ररज्जुके कार्पसिकसूत्रदयरकमय्यौ घर- स्थौवेयकेण वा थोणिसूत्रकेण च कटीसूत्रेण नानामणिरत्नाना काश्चने प्रवरसुवर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये नस्ते मासिका- भूषणैश्व विराजितमहं शरीरं यस्याः सा तथा (चीणंसुयरज्जू तयोः प्रग्रहेण रश्मिना अवगृहीतको बकौ यौ तौ तथा ततः षत्वपघरपरिहिया ) चीनांशुकं नाम यद्वस्त्राणां मध्ये प्रवरं कर्मधारयोऽतस्ताच्यां रजतमयघएटसूत्ररज्जुकवरकाश्चननस्ताः तत्परिहितं निवसनीकृतं यया सा तथा ( दुगुल्लसुकुमालउप्रग्रहावगृहीतकायां नीत्रोत्पल झजविशेषैः कृतो विहितः । सरिता) दुकूलो वृक्षविशेषस्तद्वल्कलाज्जातं दुकूलं वस्त्रविशे(आमेसत्ति) आपीक शेखरो ययोस्ता ताज्यां नीलोत्पक्षकृता- | षस्तत्सुकुमारमुत्तरीयमुपरिकायाच्छादनं यस्याः सा तथा पीडकाच्याम् ( पवरगोणजुवाणपहिति) प्रवरगोयुवज्यां ना- | (सव्धोउयसुरभिकुसुमपरियसिरया) सर्वर्तुकसुरभिकुसुमैमामणिरत्नानां सत्कं यद्धएिटकाप्रधानं जासं जानकं तेन परि- वृत्ता वेष्टिताः शिरोजा यस्याः सा तथा (वरचंदणवंदिया) गतं परिक्तिप्तं यत्तत्तथा सुजातं सुजातदारुमयं ययुगं यूपस्तत्सु- वरचन्दनं वन्दितं ललाटे निवेशितं यथा सा तथा (घराभरजातयुग तश्च योकत्ररज्जकायुगञ्च योक्त्रानिधानरझुकायुगं भूसियंगीति) व्यक्त्रम । (कालागुरुधूमधूपिया) इत्यपि व्य Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८३) निधानराजेन्द्रः । उसनदत्त कम् । (सिरिस माणसा ) श्रीदेवता तया समाननेपथ्या इतः प्रकृतवाचनानुश्रियते ( खुजाहिति ) कुब्जिकाभिर्वक्रजवाभिरित्यर्थः (चिलाइ याहिंति ) चिलातदेशोत्पश्चाभिः यायत्करणादिदं दृश्यम् (वामणियाहि ) हस्वशरीराभिः ( घड हिया ) मडहकोष्ठाभिः ( वव्वरियाहि पोसियाहि ६सिगणियाहिं थासगणियाहिं जोगियाहि पल्हवियाहि ल्हासि - याहि लोसियाहि आरवीहिं दमिलाहिं सिंहलीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं वहलीहिं मुरुंडीहिं सवरीहिं पारसीहिं नाणादेसीविदेसपरिपिंडियाहिं ) नानादेशीभ्यो बहुविधजनपदेभ्यो विदेशे तदेशापेक्षया देशान्तरे परिपिण्डिता यास्तास्तथा (स. देसनेवत्थगहियवेसाहिं ) स्वदेशनेपथ्यमिव गृहीतो वेषो काभिस्तास्तथा ताभिः ( इंगियचितियपत्थियवियाणियाहि ) इङ्गितेन नयनादिचेष्टया चिन्तितञ्च परेण प्रार्थितं चाभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः ( कुसलाहि विणीया ) युक्ता इति गम्यते ( चेडियाचक्कवालवलिसधरथेरकं सुरज महत्तरयविदपरिक्खित्ता ) चेटीचक्रवालेनार्थात्स्वदेशसम्भवेन वर्षधराणां वर्द्धितकरणेन नपुंसकीकृतानामन्तःपुरमहल्लकानाम् । (थेरकंचुरज ति ) स्थविर कञ्चुकिनामन्तःपुर प्रयोजन निवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकानां वान्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा । इदं च सर्वे वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति ॥ तएां से उस दत्ते माहणे देवाणंदामाहलीए सर्फि धमेजावरं दुरूढेमाणे णियगपरियाल संपरिवुडे माहएकुंभग्गामं एयरं मज्ऊं मज्झेणं णिग्गच्छ निग्गच्छत्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेदेव उवागच्छर नवागच्छत्ता बताइए तत्कराइए पासइ पासइत्ता धम्मियं जालप्पबरं ब्बेइ उबेइत्ता धम्मियाओ जाप्पवरात्रो पञ्च्चोरुहइ पचहत्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं निगमेणं अभिसमागच्छतं सचित्ताणं दव्वाणं विसरणायाए एवं जहा विएसए जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुबास । तणं सा देवाणंदा मादणी धम्मियाओ जाएपराओ पचोरुभइ पचोरुभत्ता बहूहिं खुज्जाहिं जात्र महत्तरगपरिक्खित्ता सम ं भगवं महावीरं पंचविद्वेणं अभिगमे अनि समागच्छतं सचित्ताणं दव्वाणं विसर - याए अचित्ताणं दव्वाणं विमोयणयाए विश्रांणयाए गालडीए चक्ष्फासे अंजलिपग्गहेणं मरणसो एगसीभावकरणं जेणेव समले भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ गच्छत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रादाहिणं पयाहिणं करे करेइत्ता बंद एमंसइ वदित्ता एमंसित्ता उस दत्तं माहणं पुरो व कछुडिया चैव सपरिवारा सुस्सूसमाणी एमंसमाणी अनिमुद्दा विणएां पंजलिउमा पज्जुनासइ ॥ ( सचिताणं दव्वाणं विश्रोसरण्यापत्ति ) पुष्पताम्बूलादिद्रव्याणां व्युत्सर्जनतया त्यागेनेत्यर्थः ( श्रचित्ताणं दव्याणं अविमोययापति) वस्त्रादीनामत्यागेनेत्यर्थः (मणसो एग For Private उसनदत्त सोभावकरणंति ) अनेकस्य सत एकताल क्षणभाव करणेन (ठियाचेत्ति ) उर्द्धस्थानस्थितैव अनुपविष्टेत्यर्थः । तर एणं सा देवानंदा माढणी गयपल्या पप्पुयली संवरिवलियादा कंचुकयपरिक्खित्तिया धाराहतकलं वपुष्पगं पि समुहससियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अमिसाए दिट्ठाए दहमाणी २ चिट्ठा तेति १ गवं गोयमे समणं जगवं महावीरं वंदर णमंस बंदिता मंसित्ता एवं बयासी किं णं अंत ! एसा देवाणंदा मा पाचैव जाव रोमकृवा देवाप्पिए मिसाए दिए देहमाणी २ चिट्ठइ गोयमादिसमणे भगवं महावीरे जगवं गोयमं एवं व्यासी एवं खलु गोमा ! देवादा माहणी मम अम्मा अहं एां देवानंदाए माहणी अत्तर तरणं सा देवाणंदा माहणी तेणं पुव्वपुत सिणेहानुरागेणं श्रागयपाहया जाव समुस्ससियरोमवाम मिसाए दिट्ठीए देहमाणी २ चिडइ तए पं समणे जगवं महावीरे उसनदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीस महर महालियाए इसिप रिसाए जात्र परिसागिया तरणं से उसनदते माहणे समणस्स नraser महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा पिसम्म दडतुडे उदाए उट्ठे उट्ठेत्ता समणं जगवं महावीरं तिक्खुतो जाव मंसित्ता एवं वयासी एयमेयं जंते ! तहमेयं भंते ! जहा खंदओ जाव से जहे यं तुब्जे वदह तिकट्टु उत्तरपुरच्छिमं दिसीजागं अवकमइ अवकमइत्ता सयमेव आचरणमल्लालंकारं उमुयइ उमुयइत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ करेत्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे तेोव उवागच्छइ उवागच्छत्ता समयं जगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं क्यासी असे ते ! बोए पक्षिनेणं अंते ! बोए जराए मरण य एवं एए कमेणं जहा खंदो तहेव पव्वइए जान सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई हिज्जइ जाव बहूहिं चनृत्यछट्टमदमम जात्र विचितेहिं तवोकम्मेहिं प्रप्पाणं नामा बहूई वासाई साममपरियागं पाउसर पाउ ता मासिया संहार अत्ताणं जूसेइ कूसित्ता महिं ताई असणाई बेदेइ बेदेइत्ता जस्स डाए कीरइ नग्गजावे जाव तमहं श्रारात्ता जाव सव्वदुक्खप्पहीने तए ण सा देवाणंदा माहणी समरणस्स जगवओ महावीरस्स - तिए धम्मं सोचा खिसम्म हट्टतुट्ठा समणं भगवं माहवीरं तिक्खुत्तो याहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं वयामी एवमेयं जंते ! तहमेयं भंते ! एवं जहा लसनदत्तो तहब जब धम्ममाइक्खड़ तर हां समणे जगवं महावीरे देवादा माहसियमेव पव्त्रात्रे‍ पवावेइत्ता सयमेव अज्जचंदणाए Personal Use Only Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८४) उसमदत्त अन्निधानगजेषः। उसिणोदगतत्तनो प्रज्जाए सीसिणित्ताए दनयतत्तातए सा अज्जचंदा सोकण पवतो तेण तिहिं पुवाई गहिताचप्पले विगते धुये" अज्जा देवाणंदा माहणि सयमेव मुंमावेऽश्त्ता सयमेव सेहा- श्रा०पू०१० कल्प० स० (अस्य ऋषभशब्दे वक्तव्यतोक्ता) बश्त्ता एवं जहा जमभदत्तनेमहंव अज्जचंदणाए अज्जाए " श्रागरपुरिमताले पयत्तिया उसभसेणस्स" नं०॥ उसा-उषा- स्त्री० ओषत्यन्धकारम्-उष्-क--प्रातरादिसध्याइमं एयागुरूवं धम्मियं उवदेससम्म पमिवजश्त्तातमा पाए सु, " तेजःपरिहानिरुषा, भानारद्धादयं यावत्" वृहत्संहितोके तह गरछः श्त्ता जाव संजमेणं संजमइ । तए णं सा देवाणंदा काटे, मत्रप्रजाकयः काल उषा तेन पञ्चाशद्धटिकोत्तरमारअज्जा मज्जचंदणाए अजाए अंतियं सामाइयमाइयाई एका. ज्य सूर्याझोदयपर्यन्तः। स कालः समाद्यमाने उपाकाले यात्रारस अंगाईपाहिजइसेसं तं चेव जाव सव्वदुक्खप्पहीणा।। शस्ता अन्धकारेण सन्तापकरियां रात्री, मेदिाधारहमा,ततः (भागयपाहयक्ति ) आयातप्रसवा पुत्रस्नेहादागतस्तनमुख कचित् गौरादित्वाङी स्रो० । गव्याम, हेम० । स्थाल्याम, स्तम्येत्यर्थः ( पप्पुयकोयणा ) प्युतलोचनापुत्रदर्शनप्रवर्तिता रमानाथः । प्रातःकाले, अव्य० मेदि० । अव्ययत्यातू ततो भधार्थ नन्दजलेन ( संयरियवालयवाहा ) संवृतौ हर्षातिरकादतिस्यू टघुझतुट च उपातनः। तद्भवे, शिनियां की। याच॥ रीनवन्तौ निषिद्धौ वायैः कटकै.हू जुजौ यस्याः सा तथा।। जसिंचित्ता-अपसिञ्चयित- वि० उपतापयितरि, "सिणोद(कंचुयपरिफिम्बत्तिया) कंञ्चुको धारवाणः परिक्षिप्तो विक्किप्ता | गवियोण कायं उसिचित्ता भवति" उप्णोदकविकटन कार्य विस्तारितोहर्षातिरेकस्यूरीनृतशरीरतया यया सा तथा (धा-| शरारमपासञ्चायता नवात। | हर रमपसिञ्चयिता नवति । तत्र विकटग्रहणा प्णतेन कालि राहयकवाफगमिवसाधसियरोमकूबा) मेघधाराज्याहत- | कादिना कायमुपतापयिता भवति दशा० ३०॥ कदम्बपुष्पमिव समुन्नसितानि रोमाणि कृपेषु रोमर-भ्रेषु यस्याः | उसिक्क-मुच्-धा तुदा० सक० अनि० मुचेश्यावहम्मेल्लो. सा तथा (पंहमाणत्ति) प्रेकमाणा आजादण्ये चात्र द्विरुक्तिः । सिक्करे अवणिलुम्बधंसामाः ८।४। ए१ । इति मुचेरुसिक्कादे(भंतेत्त) नदन्त ! इत्येवमामन्त्रणवचसाऽऽमन्त्र्येत्यर्थः गोयम! | शः। नसिक्कर मुम मुश्चति । प्रा० । इति) परमामध्येत्यर्थः । अथवा गौतम प्रति नामोच्चारणम् (अ- नसि.कया-अपयष्क्य-श्रव्य प्रज्वल्येत्यर्थे, भाचा०२७०। याति ) आमन्त्रणार्थे निपातो हे भो इत्यादिवत् ( अत्तपत्ति) उसिण-उष्ण-कुंकन ६षति दहति जन्तनित्युप्णम् उत्त०१० भारमजः पुत्रः ( पुण्यपुत्तासणेडाणुरापणंति) पूर्वप्रथमगभाधामका सम्जयो यः पुत्रस्ने हलकणोऽनुरागः स पूर्वपुत्रस्नेहानुरा आहारपरिपाकादिकारणे घडयाद्यनुगते सशदे, अनु०। गस्तेन (महश्महालिपति ) महती चासावतिमहती चेति म स्था ( नष्णाने र सो उपहाशब्दे वत्यते) उष्णयुक्त, 13. हातिमाती तस्यै आअप्रत्ययश्चेह प्राकृतप्रभवः (इसिपरिसाए अमरः । उष्णस्पई परिमाणे, 'उसिणं यणं देवति' कणां घेदना घेदयन्ते गुणस्पर्शपरिणामा अष्णा प्रका०० पद० । नष्णा प्रथति) पश्यन्तीति ऋषयो ज्ञानिनस्तद्रूपा पर्षपरिवार ऋषिपपत्तस्यै यावत्करणादिदं दृश्यम्- "मुणिपरिसाए जश्परिसाए मादिषु उष्णस्पर्शजनिता वेदना । स्था०१० ग.। "उसिणपप्रोगसयाप अणेगसयविंदपरिचाराए इत्या द" तत्र मुनयो रितावेहिं घिसु" प्रा० चू० १ अा पाखंयमा यतयस्तु धर्मक्रियासुप्रयतमानाः अकानि शतानि य नसिएजोणिय-नुष्णयोनिक-पुं० प्णमेव योनिर्येषान्ते उस्पाः सा तथा तस्यै अनकशतप्रमाणानि वृन्दानि परिवारो य. णयोनिकाः । उप्णात्पम्नेषु जीयेषु, । ज०७ २०२२० । स्थाः सा तथा तस्यै (तएणं सा अजचंदणा अजेत्यादि ) वह | जसिणपरि (री) सह-उष्णपरि (1) पह-पुं० उघ दा. चदेवानन्दाया भगवता प्रधाजनकरणेऽप यदार्यचन्दनया पन- | ह इत्यस्याणादिकनवप्रत्ययान्तस्य उष्णं निदाघादितापात्मक स्तकरण तत्तत्रैवानवगतावगमकरणादिना विशेषाधानमित्यव | तोय परीषहः । परीषभेद, उत्त० २०। सूत्र० । तद्वक्तगन्तव्यमिति (तमाणापत्ति) तदाझ्या आर्यचन्दनाया। भए व्यता ( उराहपरीसहप्रकरणे उक्ता) श० ३३ ० । विपाकदशानां तृतीयपुःखविपाकोक्तसुजातकु-उमिण जय-शीलत- त्रि० अस्वाभाविकमौयं प्राप्ते, मारस्य पूर्व नये जीये च।" उसुयारणयरे सभदत्से गाहावरे" 1" उसुयारणयरे सभदत्ते गाहावरे" | "उसिणे उसिणभूप याचि होत्था" न. ३ श० २ ० । अनन्तघि०४ भ०॥ रपि नरकगतजाड्यापगमाजातीसाहे, जी०३ प्रति०१०। ग्मन () पुर-ऋषनपुर-न० राजगृहनगरप्रस्थापकरा- | उमिलोदग-नोदक-न० स्वभावत एव क्वचिकिरादादुप्णजपूर्वजेन प्रस्थापिते पर भेदे, " तत्थ एगो बसतो अमेहिं परहा | परिणाम कायदे, जी०१प्रतिः। प्रज्ञा कथितोदके, "ठपंझगिरणे अत्थति न तीरति अमेहि वसतेहिं पराणे तुं" बार सिणोदगं सत्तफासुयं. पलिंगाहेज संजए" ६०० अ० । चू०४०। आय।" कीगयास्तुनि तत्रापि,चरन्तं वृष बने। तच्च त्रिनिदासत्कलितमावृतं यष्णोदकम् प्रघ०१३५६ ऽन्याजप्यमृषभ, पुरं तत्र व्यधात्पुनः ॥" मा० म० । आ० पि० । कल्प। फायत्र जीवप्रादेशिकाख्या द्वितीयनिहवा उत्पन्नास्तस्मिन | उसिणोदगतत्तनो (ण)-ष्णादकतप्तनोजिन्-पुं० विदमगर, विशे० । आ० क० । स्था० । “सहपुरे णयरे यूझकर- एमोस्तोष्णदकीजिनि, ॥ समजाणे " विपा०२ थु० २ । उसिणोदगतत्तलाइणो, धम्मानियस्स मुहिस्स हीमनो। नमभ (ह) पुरी-ऋपनपुरी-स्त्रीजम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्व | संसम्गिअसाहुराइहिं, असमाह। न तहागयस्स वि।१०। मशीतोदाया महानद्या दक्षिणतःस्थे राजधानीनेदे, स्थामा (सिणोदगेत्यादि) मुनेरुप्णोदकतप्तभोजिनः त्रिदण्डाकतोउसम (ह) सेग-ऋष नसेन- पुं० नगवत ऋषभदेवस्य णोदकभोजिनः । यदि चा प्ण सन्न शीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणप्रथमगणधर, " उसनसेयो नाम नरहस्स रणो पुत्तो सो धम्म म्। तथा श्रुतचरित्राक्ये धर्म स्थितस्य (हीमतोति) हीरसं Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिणोदगतत्तभो धमं प्रति सा ततोऽसंयमनुगुप्साचत इत्यर्थः । तस्यैयंभूतस्य मुने राजादिनिः सार्कं यः संसर्गः संबन्धोऽसाव साघुरनधदयहेतुत्वात्तथा गतस्यापि यथोक्तानुष्ठायिनोऽपि राजादिसंसर्गवशादसनाविरेवापध्यानमेव स्यात् न कदाचित स्वाध्यायादिकं जयेदिति ॥ १८ ॥ उसिणोगनियम-उष्णोदक निकट न० अप्रासुके त्रिकोकने पाया विस जूते उष्णोदके, धान०२४०२२०६४० डॉन सिण- उष्णोष्ण- त्रि० अन्युष्णे, प्रश्न० १ द्वा० ॥ टसियउपेितम्---उ ०१० स्थियासे तु पुरिसा " सूत्र० १ ० ४ अ० १ ० । बस-क उप दाई- दग्वेद पर णिः। जाये । वासे, न० वाचः । आचा० २ ० । उनि (सि) यैः कृने, उत्त०२२० प्रख्याते, सूत्र ०२ श्रु० ७ ० ज्ञा०] प्रज्ञा उत्सृत त्रि० प्रवनतया सर्वासु दिक्षु प्रसृते, चं० प्र०१ पाहु विलम्बमाने, "मुत्तजा अंतरूसिय हेमजालगवक्सं " रा० । उसिफलिटिक प्रस्फ टिकवासी स्फटिकः प्रयातनिर्म यासि सूत्र० २ ० ७ ० । उच्छ्रितानि स्फटिकानं व स्फ टिकरण करणेषु सूत्र० - ( ११८५ ) अभिधानराजेन्द्र | - - २ ० २ ० ॥ उसीगर - उशीनर - पुं० वृष्णिवंशोशवे क्षत्रियभेदे, "उशीनरश्च वितस्ते प्रका" पर उपभेदे "उशीनरं च धर्म, तितिक्रुञ्च महावनम् । हरिवंशे कपोतार्थे स्वशरीरमांस दानं प्रसाशि सुताराच्या पती, सी० सीर - उ (पी) शीर- पुं० न० वश- ईरन् कि वीरणमूले सूत्र० १ ० ४ अ० । ० जी० आ० म० प्र० । ० । प्रन० | चं०] आचा०] वृत्त । तस्य गुणाः "उशीरं पाचनं शीनं, स्तम्जनं मधु विककम मधुरं इतिमनुकफपित् पिसाट पदम भाव उम्र-धु-पुं० [ईप्यते हिंस्यंत श्रनेन ईष-उ-ह्रस्वश्च । शरे, सूत्र० १० ५० १० । प्रतोदे, सूत्र० १० ५ ०२३० । शरपफलादिसमुदाये, "श्रहेां से उसु" भ० ५० ६४० कामस्य पञ्चवाणान्तस्य पञ्चसंख्याम्यिते वृत्तान् ते जीवावधिपरिधिपर्यन्तकृत सरल रेखायां च । वाच० ॥ तत्र पोरानयनाय करणमाह । नियमा, जीवावगं विसोताणं । सेसरसागं मूलं तं उम्र हो । नियमादवश्यतया धनुःपृष्ठयर्थात् जीवाच विशोच्या पाय शेषरुपमा मनांगे ते नागरि परिमार्थ भवति तत्र भरत क्षेत्रस्य धनुः पृष्टवर्गः सप्तकः पदको द्विकोऽष्टौ च शून्याः । तम्मात् जीवावर्गः सप्तकः पञ्चकः प कोष्टा शून्यानि । ७५६०००००००० तस्य पभिर्भागे ह आत एक यानि १०००००००० एतस्य वर्गमूलनपने लग्यानि दशसहस्राणि फलानां तासामेोनविंशत्या मागे नियोजनानिविशत्यधिकानि पद कलाः एतावान् भरतक्षेत्रस्येषुः । एवं सर्वेशमपि क्षेत्राणाfree तयाः जो० १० पा० । उसुयार उमुकामुकाल -५० देशी० उसले मि० ० १२४० । नमृग-इशुक-० घु-स्थूला कन् शरप्रकारे, चाच० | इलुकाकारे, श्राभरणे, तिलके च । " उसुपाइपार्ह मंडेहिं नाव - हवणं विभूसेमि " पिं० । उपाय- चोदित वि० शराभिघातप्रेरिते सू० १५० - ५ श्र० २३० । उमट्टिया - इमृतिका - स्त्री० मुञ्जादिभिः सह कुट्टितमृत्तिकायाम "इसिया होति उमा मिसा सरसइसिमिति तस्सेच उपरि तर सशी सोय मुं दो वा एते विष्पितत्तिकुट्टिया पुणो मट्टियाप सह कुट्टिअंति एसा उमट्टिया कुसुमट्टिया वा" नि०यू०१८ उ० । उमुयार- इषुकार - पुं० पुं करोति कृ-श्रण | चाणकारके शिलिपभेदे, वाच० । अस्य निचेपः । उसुयारे निक्खेवा, चड ध्वो दुविहो होइ दव्वम्मि | श्रागम नोश्रागमश्र, नोश्रागमती य सो तिविहो |४| जाग मरीज विए, सबइरिय से पुतिविहो ! एगज वियबद्धाओ, अभिमुहओ नामगोए य || उपारनागगां, बसो जाओ व उसुपारी तो समुयिमिर्ण, उसुधारिज्जति अजय ॥७६॥ गाथामयं स्पष्टमंच नवरमिकाभिलापेन तथा यदि पुकारात्समुत्थिते तत्तस्य प्रायो हितमेव भवतीतिराय हितमिषुकारीयमुच्यते प्राधान्याश्च राशा निर्देशोऽन्यथा तत्समुत्थानं तुल्यमेवेति । संप्रति कोऽयमिपुकार इति तामाद ि पुन्वनवे संघरिया उ, संपीया अन्नममरता । जो भोगभोगे, निधापयए समया ॥८७॥ काण व सामने मम्मे मा उदयमा पक्षिमा चउरो, नई उ उक्कोसया तेसिं ॥६८॥ ततो व या संता, कुरुवपुरम्म सुपारे । बा विजणा उबवन्ना, चरिमतर रा विगयमोहा || राया उपाय कमलाप देवि महिस से । निगुनामे य पुरोहिए, वातिई। भारिया तस्त ॥५००॥ सुगारपुरे नपरे, उसुधार। पुत्तस्स कए बहुसो, परितप्ती युगानि ॥ १ ॥ कारण समरूवं, तहियं देवो पुरोहिओ जइ । होहिंति तु पुत्ता, दोन जणा देवलोगचुया | ३ | हिप महा य न परह अंतराय । संत बहिंती जब च ॥ ३ ॥ तंवणं सोऊणं, नगराओ निति ते वयग्गामं । वतिय ते महियं गार्हति य णं असावं ॥ ४ ॥ समावृत्तापास मसाने पुना दियामेला ॥ ७ ॥ Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११८६) उसुयार काभिधानराजन्मः । उसयार पट्टण तहिं समरण, जाइ पोराणियं च सारेजण । तत्थेब सा माहण। पसूया दारगा जाया ततो मा पच्चरसतिमाहितम्मापियरो, उसुयार रायपत्तिं च ॥ ६ ॥ त्ति का मायाचित्तेहि बुग्गादि ति जहां एए पश्यश्यगा मिसामंधरा य राया, भिग्गू य वानिहरायपत्तियं । करूवा घेतुमारेति पग तेसि मंसं खायंति तं मा तुम्ने कया. ईएएसि अल्लिएस्सदा अन्नया ते तम्मि गामे रमंताबाहेरगबनणीदारगा चव, छपए परिनिघुया ॥ ७ ॥ या। यो य अाणमिवनया साह आगजांत ततो ते दारभासामकरार्थः स्पष्ट एव नवरं ( संघडियत्ति ) सम्म् गा साहुं नहण जयनीया पायंता एगरिम बम्पायवे आसघटिताः परस्परं स्नेहन संबद्धा वयस्या इति यावत् तेऽपि कदा ढा साहुणो समावत्तीए गडियनत्तपाणा तम्मि चेव बटपायवदचिद्विगमितान्तरप्रतियोऽपि दाक्किएयजनलज्जास्तेस्तथा स्युरत हि छिया मुहुतं च वीसामिऊणं तुं जलं पयत्ता ते वमारूढामाह। संप्रीताः सम्यगान्तरप्रीतिनाजस्तथाऽन्योन्यमनुरक्ता भ पासंतिसाभावियं जसपाणं णन्थि मसंति। तोचितिउं पयत्तातिशयम्पापनकमत्वावस्यात्यन्तस्नेहनाजः। अथवा (संघाडियत्ति) देशीपदमव्युत्पन्नमेव । मित्रानिधायि प्रीतिर्बाह्यानुगमः कन्थ अम्हेहि पयारिसाणि व्याणि दिपुण्याणि त्ति जाई सं भरिया मंबुका साहुणो वंदिलं गया अम्मापिसमीपं मायासभावतः प्रतिबन्धः पठ्यते च (घडियाकत्ति मटिता मिलि वित्तं संबोहिम्ण सह मायाविण पश्यत्तिया दय। संयुकादतास्तथा ( भागभोगेत्ति ) नोक्तुं योग्या ये नोग्या नांगास्तान भोग्यभोगान् जोगनोगान्याऽतिशायियो भोगान्पावान्तरतः का वीए गया संबोहियो ताणि वि पञ्चश्याणि । एवं ताणि ग वि केवानाणं पाविळण निवाणमुवगयाणि ति" । इह तु सूत्रोक्तमनोगान्वा (णिग्गंथापब्वए समणत्ति) निर्धन्यारत्यक्तग्रन्थाः प्रावजत् प्रवज्यां गृहीतवन्तस्ततश्वश्रमणतपस्विनोऽपि अनूवन्नि स्यार्थस्थानिधानं प्रसङ्गत इत्यदोषः। उक्तो नाम निष्पन्नानपः। ति शेषः[यम्गाविति] देशीपदं प्रक्रमाच्युत्याद्वायपि दम्पती संप्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तसदमा तथा अन्तरायं धिं (पति) अनयोस्तथा (णितिक्ति) नियो देवा नवित्ताण पुरे जवाम्म, केई चुया एग वमाणवासी। स्याधिक्येन मन्ति कं वजनार्म गोकुलप्रायग्रामं प्रत्यन्तग्राम- पुरे पुराणे उसुयारणामे, खाए ममि सुरलोयाम्मे ॥१॥ मित्यर्थः ( गाति असम्माति) ग्राहयतोऽसद्भावमसन्तमसु रुकम्म सेण पुरा करणं, कुलमु दग्गेमु य ते पसया । दरं नाथ साधुप्रेतत्वादिलक्षणं प्रेता जूताः पिशाचाः पिशा निधिसंसारभया जहा य,जिणिंदमग्गं सरणं परमा। अनिकायोत्पन्नाः पौरुषादाश्च प्रस्तावतः पुरुषसंवन्धिमांसभकका राक्षसा इति यावत (तेसिति) सूत्रत्वात् तान् श्रमणान्[अष्चिय देवाः सुरा भूत्वोत्सद्य पुरे (नयम्मित्त ) अनन्तरातीतजन्मइत्ति] आलीयेतामाश्रयेताम् । किमित्यत माह मा[भ] जयन्ती नि केबि.दत्यनार्देष्टनामानश्च ता तुष्टा एकस्मिन् पद्मगुल्मनाम्न चिनाने वजन्तास्वंशी या एकामानवासिनः पुरे नगर पुराणे पुत्री विनश्येतामिति । अत्र चेषुकारमिति राज्यकामनाना सीम | चिरन्तने इछुकारनाम्नि ख्याते प्रथिते सन ऋमित्यतपय रुवरश्चेति मौलिकनाम्नातिसंनावयाम इति गाथैकादशावयचा थानावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः स चायं 'जे तो दोनि गोवदारया रमोकरम्ये देवलोकवक्रमणीये ते च किं सर्वधोपभुक्तपुण्या साहु अणुकंपाए अहसम्मत्ता कालं काऊन देवसोगे उ चत्ता ते पानगुना मान्ययेयाह । स्वमात्मायं कर्म पुग्यप्रकृतिः कणं तस्य शेषमुरितं सकर्मशेषस्तेन लवण तृतीया पुरातओदेवगायो चउ खिश्टुणयर इन्जको दो विभायरा कृतेन पूर्वजन्मान्तरोपार्जितेन कुलेष्वन्धयेषु उदारेषु षु चः आया। तत्थ तेसि अयो वि चतारि भदारमा वयंसया जाया तस्य विनोगे लुजितहारूपाणं थेणं अंतिए धम्मं सोमण पूरण त इति ये देवा भूत्वा च्युताःप्रसूना उत्पन्नाः ( निविणत) भावानिर्बिमा उद्विग्नाः कुतः संसारजबात यान्ति परित्यज्य पत्तिया सुविरका संज- अपानेऊण जत्तपश्चरखा भोगाद निति गम्यते । किमित्याह जिनेन्डमाग तीर्थकृपदकानं काऊण सोहम्मे कप्पे पनमगुम्मधिमाणे गवि जणा र्शितं सम्यग्दर्शनशानवास्त्रिात्मकं मुक्तिपथं शरणमपायरकाचपाउओचहितिया देया उवका । तत्थ जे ते गोववजा कममाश्रयं प्रपन्ना प्रत्युपगता इत्यध्ययनार्थसूचनम् । देवा ते चऊण कुरुजणवए सुयारपुरे एगो उसुयारी णाम राया जाओ वाओ तस्सेक महादेवकमयावती नाम संवत्ता कब कि रूपः सन जिनेन्जमार्ग प्रतिपन इत्याह । तो तस्स चेव राइणो निग नाम पुरोहियो संवत्तो च.त्थो हुमत्तमागम्मकुमारदेवी, पुरो.हो नस्स जताय पत्ती। तस्स चेव पुरोहियस्स भारिया संवृत्ता। वसिगोसण जसा विगाल कत्तय तहसुयारो, रापत्थदेवीक.मलाई य ।। नाम सो य जिगू अणवञ्चो गट तम्बए अवच्चनिमित्तं उपाय पुस्त्वं पुरुषत्वमागम्य प्राप्य कुमारावतपाणिग्रहगोधी अपि णए देवयाणि पुच्च नेमित्तिए। तेग दो विपुव्य नवगो वा देव. पुणे मुल नबोधिकत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ वाऽनयोः पूर्वमुपादा. भवे वहमाणा ओहिणा जाणिउ अहा अम्हे पयस्स भिगुस्स में पूरोहितस्तृतीयः। तस्य जसाच नाम्ना पत्नी चतुर्थः। विशापुरोहियस्स पुत्ता नविस्सामो तो समसरूवं काऊण उवा- सकीर्तिश्चविस्तीर्णयशाश्वतेविषुक रोनाम राजा पञ्चमः। भत्रै. गया भिगुसमीवं निगुणा संभारिपण य वंदिया सुहारूणत्था तस्मिन् भये देवाति प्रधानपत्नी प्रक्रमासस्यैव रा. क.मयाथय धम्म कति दोहि वि सावगवयाणि गहियाणि । पुरोहिए. ताच नाम्ना पठ इति सूत्रत्रयार्थः । संप्रति यथैतेषु जिनेन्द्रमार्गण भन्न भगवं अम् प्रवनचं होजति साह हैं भण नविरस- प्रतिपत्तिः कुमारयोर्माता तथा दर्शथितुमाह । ति दुवे दारणा ते य डहरगा चेव पचरसंति तेसि सुब्जेर्सि ज,ईजरामच्चभयाजिनए. वहि विहारा.म.नविट्ठचित्ता । वाघातो न कायब्बो पन्चयंताणं तेसु बहुजणं संबाहिरसंतिनजिऊण पगिया देवा णाबिरेण य चलण य तस्स पुरोहि. संसारचक्कस्स विमोक्खणट्टा, ददाण ते कामगुणे विरत्ती । यरूप भारियाए वासिट्टीए व उदरे फनायाया । तओ सो पियपुत्तगादो न वि माहणत,सकम्मसीकस्स पुरोहियस्स पुरोहिओ सनारिओ जयरविणिग्गो परवंतगाम विको ब सरिनु पं.राण य तत्थ जाईत हा सुचिन तब संजमंच Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८७) उसुयार थभिधानराजेन्द्रः। उसुयार जातिर्जन्म जरा विश्रसा मृत्युः प्राणत्यागकणस्तेच्यो भयं | तातः स एव तातकत्ता तस्मिजियोऽवसर वा मुन्योनीवतः साध्वसं तेनाभिभूतौ बाधितो जातिजरामृन्य नयाभि नूतो पाग-1 प्रतिपन्नमुनिनाययोःतयोःकुमारयोस्तपसोऽनशनादेरुपलक्षणत्या न्तरतश्च जातिजरामृत्युभयाभिभूते सत्यर्थात्संसारिजने यहिः संपतर्मानुष्ठानस्य च व्याघातकरं वाधावियवचनमिति संसागविहारः स चार्था-मोक्षस्तस्मिन्नभिनिविष्णं वधाग्रहं चि. शेषः ( वयासित्ति ) अवादीत् यदवादोत्तदाहेमां वाचं वेदविदो तमन्तःकरणं ययास्तौ तथा संसारश्चक्रमिव चक्रं भ्रमणोपल- वदन्ति प्रतिपादयन्ति यथा न जवति जायते असुतानामविद्यकितन्वात्मसारचक्रं तस्य विमोकणार्थ परित्यागनिमित्तं दृष्ट्वानि- मानपुत्राणां लोकः तं विना पिएप्रदानाद्यभावे गत्यायनावात् रोक्य साधूनिति शेषः यद्वा दृष्टुति प्रेत्य मुक्तिपरिपन्थिनोऽमी तथा वेदवः प्रत्यय नोका न सन्ति तथाऽन्यैरप्युक्तं "पुत्रेण कामगुणा इति पर्यायोच्य तावनन्तरोक्तौ । कामगुणेत्ति ) सु- जायते लोक" इत्येषा वैदिकी श्रुतिः । “अथ पुत्रस्य पुत्रण, स्यव्यत्ययात् कामगुणेन्यः शब्दादियो विषयसप्तमी वा विरक्ती गंतोके महीयते " तथा "अपत्रस्य गति स्ति, स्वगों नेय प्राला बीभूतौ प्रियो ववना तो च तौ पुत्रावेव पुत्रकौ च प्रिय. च नेव च । गृहिधर्ममनुष्ठाय, तेन स्वगं गमिष्यति" यत एवं पुत्रों द्वावपि नैक एब इत्यपि शब्दार्थों माइनस्य ब्राह्मणस्य स्व- तस्मादधीत्य पवित्वा वेदानुग्वदाई। परिवेश्य नोजयित्वा कर्मशास्य यजनयाजनादिस्वकीयानुष्ठान नरतस्य पुराहितर विप्रान् ब्राह्मणान् तथा पुत्रान् प्रतिष्ठाप्य कलाकात्रग्रहणादिना शान्तिकर्तुः ( सुमरितुत्त ) स्मृत्वा ( पाराणयांत ) सूत्रत्वात गृहस्थधम्म निवेश्य कीदृशः पत्रान् गृहे जातान तु गृहीतप्रतिपराणमेव पौराणिकी चिरंतनी तयेति सन्निवेशे कुमारभाव वा पत्रकादीपागन्तर च पुत्रान्परिष्टाप्य स्वामित्वे निवेश्य गृहे वर्तमानाविति शेषः जातिजन्म तथा (सुचिमंति) सुचीर्ण सु. [जायात्त ] गृहे जातौ पुत्रौ हुक्त्या णमिति वाक्याबारे भोचरितं वा निदानादिनाऽनुपहतत्वात् तमोऽनशनादि प्राकृतत्वा- गान् शदादीनू सह स्त्रीजिनारीजिस्ततोऽरण्ये भयो प्रारण्यो द्विन्धोपः संचमं च तपःसंयममिति समाहारद्वन्बो कासकाम "भारण्यालो वक्तव्य इति ण प्रत्ययः" आरण्णवेवारण्यकाचार. गुणविरफिरेव जिनेन्मार्गप्रतिपत्तिरिति सूत्रध्यार्थः॥ एयकवतधारिणा [ हाहित्ति ] भवतः संपोथा युवां मुनी तपततस्तौ किमकायमित्याह॥ स्विनी प्रशस्तौ श्लाघ्याविन्यमेव ब्रह्मचर्याद्याश्रमव्यवस्थानादुक्तं ते कामनांगेस असज्जमावा, माणुसपमुंजे याविदिया। हि"मवारी गृहस्थध, बाण प्रस्था यतिस्तथेति" इह चाधी त्य बेदनित्यनेन ब्रह्मवर्या श्रम उक्तः परिवेश्येत्यादिना व गृहामंकि वाभिकंवा अभिजायसका,तायं उवागम्म इमं उदाहु ।६।। थम आरण्यकावित्यनन च वाणप्रस्थाश्रमः मुनिग्रहणेन च यतौ पुरोहितपुत्रौ कामभोगेषक्तरूपेषु ( असञ्जमाणत्ति ) असं त्याश्रम इति सूत्रद्वयार्थः। यता सङ्गमकुर्वन्ती मानुष्य केषु मजसंबन्धिषु ये चाप दिव्या इत्थं तेनोक्ती कुमारको यदका तदाह ॥ देवसंबन्धनः कामभोगास्तेषु चेति प्रक्रमः मोहानिकातिणी | मुक्त्पजिलाविणावनिजातश्रद्धावुत्पन्नतत्वरुची तातं पितरमुपा सो अग्गिणा पायगुणिधणं,मोहानिला पज्जक्षणाहिएणं गम्येदं बश्यमाणं (उदाहुत्ति ) उदाहरतां तयो साधुदर्श संतत्तजावं परितप्पमाणं, लोप्पमाणं बहुहा वहुं च १० नानन्तरंक अस्माभिरित्यजूतानि रूपाणि पुराऽपि पानीति पुरोहियं तकमको गुणतं, णिमंतयंतं च सुए धणेणं । चिन्तयनोतिम्मरणमुत्पन्नं ततो जातवैराग्यौ प्रव्रज्याभिमु- जहक्कम कामगुणे चेा, कुमारगा ते पसमिक्ख चकं ११ स्वावात्ममुत्कमीकरणाय तयोब्ध प्रत्विोधोत्पादनाय वक्ष्यमाण वेया अह.या ण हवं. ताणं, मुक्तवन्ताविति सूत्रार्थः। ___यच्च तावुक्तवन्तौ तदाह । भुत्तादिया णिति त तमेगं । असामयं ददु इमं विहार, बहु अंतरायं ण यदीहमाउं । जाया य पुत्ता ण भवंति ताणं, सम्हा गिठम्मीन रईलहामा, आमंतयामो चरिसामो माणं ।। को णाम ते अणुमन्नेज एयं ॥ १२ ॥ अशास्वतननित्यं दृष्ट्वेमं प्रत्यकं विहरणं बिहार मनुष्यत्वेनाव खणमत्ततोक्खा वहुकालदुक्खा, स्थानामत्यर्थः । भएयते हि (जोगाई जमाणे विहरतित्ति) पक.मदुक्खा आणकामक्खा । किनित्येवमत प्राह । बहवः प्रभूना अन्तराया विप्ना व्याध्याद- संसारम.क्खस्स विवक्खभूया, यो यस्य तद्वहतराय बदन्तरायमपिदार्घत्वावस्थायि स्थादित्या- ख.ण अणत्याण न कामोगा ॥ १३ ॥ ह। न च नैव दीर्घ दायकात्रस्थित्यायुवितं संप्रति पस्योप- परिव्ययंते प्रणियत्तकाम, अहोय राम्रो परितप्पमाणे। मायुष्कताया अप्यभावात् यत एवं सर्वमनित्यं तस्मात् । गिह अन्नप्पमत्त धणमेसम.णे,पप्पति मच्चु पुरिसोजरंच।१४। मित्ति) गृडे वेश्मीन न रातधति (भामोत्त) अनाव प्राप्नुयः अतश्चामन्त्रयावः पृच्छाव आवां यया चरिस्थावः आसविप्या इमं च मे अस्थि इमं च नत्यि, इमं च मांकञ्च इमं प्रकिच्चं बहे मौनं मुनिभावं संयममिति सूत्रार्थः । तं एवमेव लोयुप्पमाणे, दरा हरतित्ति कहं पपाए । एवं च ताज्यामुळे । सुतवियोगसंजायनाजनितं मनोदुःखमिह शोकः स चामिरिम हतायगो तत्य मुर्णण तेसिं,तवस्स वाचायकर वयाती। शोकाग्निस्तन प्रान्मनो गुगा प्रात्मगुणाः कर्मयोपशमादम मुद्भनाः सम्यग्दर्शनादयस्तै इन्धनं दाह्यतया यस्य स तथा तुइमं वयं वेयवितोवयंति, जहा हा हाई अमुयाण लोगो।। नादिकालसरचरितत्वेन रागादयो वात्मगुणास्ते इन्धनमुद्दीपअहिजवर परिविस्स विप, पुत्ते परिदृप्य गहंसि जाया। कतया यस्य स तथा तेन । माहो मूढता अज्ञानामात यावत् सोड हुत्ताण जोग मह इत्थियाहि.भारमगा होहिमुणी पसत्या॥ निजश्य मोहानिजस्तस्मादधिकं महानगरवाहादियोऽ प्यनगल अथानन्तरं तायत सत्तानं कराति प.लयतित्र सर्वापद्य इति | प्रज्वनं प्रकरण दीपनमस्योत अधिकप्रज्वननो यद्वा प्रज्वलने Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८८) अभिधानराजेन्द्रः | नसुयार मानिकरावा यस्तेन पूर्व प्राकृतत्वादधिकशब्दस्य परनिपातस्तथा समिति समन्तात्सप्त इव तप्तोऽनिर्वृत्तत्वेन भावोऽन्तःकरणमस्येति सन्तप्तभावस्तमत एव च परितप्यमानं समन्ताद्द्यमानमधरे तदाहस्यापि शोकावेत पत्रसुप्यमानं तद्वियोगशङ्काशोत्पन्नः खपरसुनिरतिशयेन हृदि विद्यमानम् वृद्धास्तु [मति ] लुप्यमा मं" जरणपोस कुप्रसंताय तुम्म नविस्वति "बहुधा अनेकप्रकारच प्रभूतं यथा नयत्येवं यमानं देति संबन्धः । पुरोहितं पुरो वसन्तमिति प्रक्रान्तं ( कम सोति ) क्रमेण परिपाट्या तु नयन्तः स्वाभिप्रायेण प्रज्ञापयन्तं निमन्त्र यन्तं च भोगैरुपच्छन्दयन्तं सुतौ पुत्रैौ धनेन द्रव्येण यथाक्रमं कमानतिक्रमेण कामगुणैरभिलपणी यशच्दा देविषयेः पाठान्त रतः कामगुणेषु पाचः समुचये पवेति पूरणे कुमारकीतानन्तरमान्ती प्रसमीच्य प्रकर्षेण मानाच्छादितमतिमालच्य वाक्यं वदयमान्ताविति गम्यते । किं तदित्याह । बेदा ऋग्वेदादयोऽधीतः पठिता न भवन्ति जायन्ते शर तदध्ययनमात्रतो दुर्गतिपतन रसासिद्धेः । दि "अकारणमधीयानो ब्राह्मणस्तु युधिष्ठिर। दुष्फलेाप्यधीबन्ते, शीलं तु मम रोचते " तथा " शिश्पमध्ययनं नाम, दु ब्राह्मणलक्षणम् । वृत्तस्थं ब्राह्मणं प्राहु-र्नेतरान् वेदजीवकान् तथा (भुति) अन्तभतियर्थत्याजिता द्विजा णा नयन्ति प्रापयन्ति तमो रूपत्वात्समो नरकस्तमसा ज्ञानेन यद्वा तमसोऽपि यत्तमस्तस्मिन तिरौद्ररौरवादिनर के समिति वाक्यालङ्कारे ते हि भोजिता कुमार्गप्ररूपणपशुवधादावेव कमपचनिने सारे प्रवर्ततस्त ड्रोजनस्य नरकगतिहेतुत्वमेवानेन च तेषां निस्तारकत्वं दूरापास्तमित्यर्थादुम तथा जाताश्रोत्पन्ना पुत्राः सुता न भवन्ति मा शरणं नरकादिकुगती निपततामिति गम्यते । उदितन्मतानुसारिभिरपि "यादेषानध न विद्यते । मुषितस्तत्र लोकोऽयं, दानधर्मो, निरर्थकः । बहुपुदुली गोधा, ताम्रचूडस्तथैव च तेषां च प्रथमं स्वर्गः, पश्चाल्लोको गमिष्यति " यतश्चैवं ततः को नाम न कश्चित्सं भाग्यले यस्ते राय अनुमन्येत शोभनमिदमित्यनुजानीयात्स विवेक ते गम्यते एतदनन्तरमुकं वेदाध्ययनादित्रितयमिति भुक्त्वा भोगांनति चतुर्थीप देशप्रतिवचनमाह । क्षणमात्र सौख्यं येषु ते तथा बहुकालं नरकादिषु दुःखं शारीरं मानसं न येभ्यस्ते तथाविधाः कदाचित् कालमपि सुखमतिशायि रुपात दुःखं स्वन्यथेति स्वप्नकालमपि तद्वहुकालभाविनोऽपि दुःखस्योपहन्तु स्यादत श्राह । प्रकाममतिशयेन दुःखं येभ्यस्त तथा अनिकामसौख्या अपकृष्टसुखाः । ईशे ऽप्यायती शुभफलाः स्युरत श्राह । संसारमोक्षो विश्लेषः संसारमोक्षो निर्वृतिरित्यर्थः तस्य विभूति यन्त कृमित्येववान इत्याह । समिरिन मामि परनाक दुःखायाप्तिरूपाणां तुशब्दोऽवधारणे निन्नकमञ्च ततः खनेरेव क एवंविधाः कामजोगा उक्तरूपाः । श्रनर्थपतित्वमेव स्वयमाद परिजन् विषयसुखाभार्थ स्ततो ग्राम्पन् न नियुकामोऽनुपरतेच्छन् (य(त) आपत्वाश्वस्य च भिन्नक्रमत्यादह्नि रात्रौ च अहर्निशमिति वापत् परितप्यमानस्तसती समन्ताचिन्तमिदमानः मन्ये सुहृतः स्वजनादयोऽथवाऽन्नं भोजनं तदर्थं प्रमत्तस्तत्कृत्य च लसुवार सक्तचता अन्यप्रमन्तः अन्नप्रमत्तो वा धनं वित्तम् ( समाणि विविधोपादेयमाणः [ प्योतिप्ति ] प्राप्नोति मृत्युं प्राणत्यागं कोसी पुरुष योनिशां किं इदं च मे मम अस्ति रजतरूप्यादि इदं च नास्ति पद्मरागादि वं च मे मम कृत्य कर्त्तव्यं गृहमाकाशाद दम प्रारब्धमपि वणिजादिना न कर्तुमुचितं तमिति पुरुषमेवमेव वृथैव लोलुप्यमानमत्यर्थ व्यक्तवाचा वदन्ति हरन्त्यपनयन्ति आयुरिति इरादिरजन्यादया व्याधिविशेषा या हरन्ति जन्मान्तरं नयन्ति रुपसंहर्तुमाह । इत्यस्मा तो कथं केन प्रकारेण प्रमादो उद्यमः प्रक्रमम् कर्तुमुचित इति शेष इति सूपकार्थः । संतती धनादिलाभयितुं पुरोहितः प्राद धणं पयं सह इत्यिाहिं, सयणा तदा कामगुणा पकाया । तवं कए तप्प जस्स लोगों, तं सव्वसाही मित्र तुब्नं १६ धनंज्यं प्रचुरं सखीभिः समं नारीतिः स्वजनाः पितृपितृव्यादयः तथा कामगुणाः शब्दादयः [ पग:मति ] प्रकामा प्रविशायिनस्तपः कानुष्ठानं कृते निमितं तप्यते अतिते यस्य धनादेशको जनस्तत्सर्वमशेष स्वादीनमात्माददेखि यस्तदा न सन्ति तथाऽपि तदवाप्तियोग्यताऽस्तीति तासामनिधानमिति सुत्रार्थः । तत्र हेतुः । धरणेण किं धम्मधुरा हिगारे, सपोर्ट या कामगुणेहि चैत्र । समाज विस्साम गुणोघवारी, बड़े विहारो भगम्म भिक्स् ॥ १७ ॥ घन वे किन 66 33 सूर्यपुरा तधिकारे साये मेन या कामगुणैश्चैव तथा च वेदे ऽप्युक्तम् । न प्रजया न धनेम न त्याग के नाता मान्सु रित्यादि ततः श्रमदरायस्पी नामृतत्वमानसु भविष्याचो गुणौघं सम्यग्दर्शनादिगुणसमूहं धारयतः इत्येयं शगुणधारिणी श्रमनगरादिभ्यो तो नाचनश्च करिष्यविहार यो स्ती हिरावप्रतिविहाराविति यावत् अभिगम्यायि निशुवाटारयन्ताविति भाष इति सूत्रार्थः। श्रात्माऽस्त त्वमूलत्वात्सकलधर्मानुष्ठानस्येति तन्निराकरणायाढ पुरोहितः। जहा या अरणीयसंतो, खीरे घयं तिनमहातिझेसु । एमेव जाया सरीरम्मिसत्ता, समुच्छई खास णावचिट्ठे १८ यथेत्पम्ये शब्दोऽवधारणे यथैवाग्निर्वैश्वानरो [ भरनीति ] अतोऽग्निमन्थन काष्ठादसन्न विद्यमान एव संमूर्च्छति तथा कम विप्रेषु एवमेव दे जाती पुत्र [सर त्ति ] शरीरे काये सत्याः प्राणिनः [ संमुच्कृप्ति ] समूर्च्छयन्ति पूर्वमत एव शरीराकारपरिणतसमुदाय प तथा पाहू पृथिव्योवायुरिति सत्या तथा [णास]ि नपर [ ]न पुनरपतिष्ठते शरीरात कणमध्यवस्थितिजाजी भवन्ति । यद्वा शरीरे सत्यप्यर्म सत्या सानन्द बज्जीय मंत्र मरवतोप म्भ एव प्रमाणं न हामी शरीरे शीरष्यतिरिको घर भवान्तर Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसुयार थन्निधानराजेन्द्रः। उसयार प्राप्ता प्रत्यकत उपलभ्यत इति नास्ति शशिविषाणवदिति भाव गृहानिर्गममलभमानाः परिरकमाणा अनुजीविभिरनुपाल्यमाइति सत्रार्थः । कुमारकावाहतुः। नाः [तदिति] पापकर्म [ नेवत्ति ] नैव भूयोऽपि पुनरपि समाणोदियग्गिन्झ अमुत्तजावा, चरामोऽनुतिष्ठामो यतः संप्रत्युपलब्धमेबास्माभिर्धस्तुतत्वमिति अमत्तभावो वि य होइ निचो। भावः सर्वत्र च। अस्मदीद्वयोश्च १।२। ५५ इति द्वित्वेऽपि बहुवचनमिति सूत्रार्थः ॥ अन्नत्यहे नियतस्स बंयो, अभाइयम्मि ले.गम्मि, सव्वोपरियारिए। संसारहे न वयाते बंधं ॥ १४ ॥ अमोहाहिं पडंत हिं, गिहसिन र लने ॥१॥ मो इति निषेधे इन्द्रियैः श्रोत्रादिनियःसत्व शति प्रक्रमात्स अध्याहते आभिमुस्येन पारिते लोके अने सर्व्यतः सासु स्वादयामयिग्राह्य इत्याशङ्क्याह । अमूर्तभावादिन्छियग्राह्य दिक्कु परिवारिते परिवेष्टितेऽमोघाभिरवश्यमहरणोपमानिः पतरूपायभावात् अयमाशयः यदिन्द्रियग्राह्य सन्नोपलभ्यते तदस लीभिरागच्चन्तीनिः [गिहंसित्ति] गृह तस्य चोपसकणत्वात दिति निश्चीयते यथा प्रदेशविशेषे घटो यत्तु तबाह्यमेव न नव गृहवासेन रतिमाशक्ति सन्नामि सभाघहे । यथा हि बागुरया ति न तस्यानुपम्नेऽप्यभावनिश्चयः पिशावावियत्तद्विषयानुप. परिवेष्टितो मृगोऽ मोघेश्च प्रहरणाधेनान्याहतो न रति लभते बम्जस्य संशयहेतुत्वात् । न च साधकप्रमाणाभावात्संशयविषय एषमावामपीति सूत्रार्थः सेवास्विति वाच्यं तत्साधकस्यानुमानस्य सद्भावात् तथा ह्यस्स्या भृगुराह। स्मा अहंपश्यामिजिनामीत्यायनुगत्य प्रत्ययान्ययानुपपत्तरात्मा भावे होम्बियाण्येवरष्टानि स्युस्तेषु च परस्परं भिवहं पश्या केण प्रभाठतो लोगो, केण वा परियारियो । मि जिवामोत्यादिरनुगतोऽहमिति प्रत्ययोऽनेकेष्विव प्रतिपने को वा अमोहो वाता, जाया चिंतावरो हुमि ॥२५॥ नस्यात्। उक्तं हि । “अहं शृणोमि पश्यामि, जिव्राम्यास्वादयामि कन व्याधतुस्येनाज्याइतो सोकः केन वा बागुरास्थानीयन चातयाम्यध्यवस्यामि, बुध्यामीत्येवमस्ति सः" ॥॥ वृद्धास्ट परिवारितः कावा अमोघा अमोघप्रहरणापमा अभ्याइ तिःक्रिया व्याचक्षते अमूर्तत्वाचोइन्द्रियग्राह्यो नो इन्द्रियं च मनो मनस प्रति करणतयोता जाती! पुत्री! चिन्तापगे[मिति ] जयामि श्चास्मेवातः स्वप्रत्यक्ष एषायमात्मा कस्मादुच्यते काल्य ततो ममावेद्यतामयमर्थ इति नाव इति सूत्रार्थः । कार्यव्यपदेशत्वात्तथा ॥ कृतवानहं करोम्यहं करिष्याम्य तावाहतुः हम, उक्तवानहं ब्रवीम्यहं वक्ष्याम्यह, ज्ञातवानहं जाने मच्खुणान्नाहतो लोगो, जराए परियारियो। झास्थेऽहमिति । योऽयं विकालकार्यव्यपदेशहेतुरहं प्रत्ययो अमाहा रयणी योचा, एवं ताव विजाएह ॥ २३ ॥ नायमानुमानिको न चागमिकः किं तर्हि प्रत्यक्वकृत एवमने मृत्युनामृतान्तमायाहतोहारतस्य सईदासिहसरस्थानैव आत्मानं प्रतिपद्यस्व नायमनात्मक घटादावुपलभ्यत इति । तू जरया परिवारितःतम्या व तदनिघातयोग्यतापादनपीयतथा अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः तथा हि यद्रव्यय स्वात् (अमोधाग्यरित्ति) रजन्य उक्त दियसायिनाभायित्वासत्यमूर्ने तनित्यं यथा व्योम अमूर्तश्चार्य द्रध्यत्वे सत्यनेक विमाशानयस्थाने प्रत्युक्ते.। न चैवममूर्तत्वादेव तस्य बन्धास तासां दिवसाश्च तत्पतने ह्यवश्यंभावी जनस्यानिधातः एवं तात : विजानीतावगच्चतेति सूत्रार्थः । किं च । भवे या सर्वस्य सर्वदा तत्प्रसङ्ग इति वाच्यं यतः "ज.प हे निययस्स बंधे" अध्यात्मशब्देन आत्मस्था मिथ्यात्वादय जा जा बच्चइ रयणी, ण सा पमि.नयत्तई। इहोच्यन्ते ततस्तद्धतुस्तनिमित्तः परस्थहेतुकृतत्वेऽतिप्रस- अधम्म कुण्.माणस्स, अप.ला होत राहो ॥ २४॥ कादिदोषसंभवाभियतो निश्चिता न संदिग्धो जगद्वाचेयान्य- जा जा वच्च रयणी, ण सा प डणियत्त । थानुपपत्तरस्य जन्तोषन्धः कर्मभिः संश्लेषो यथा ह्यमू धम्म च कुणमाणस्स, सफला जं.त राइयो ।। २५ ॥ मैस्वापि व्योम्नो मनैरपि घटादिभिः संबन्ध पधमस्याप्यम् या या ( वच्चत्त) ब्रजति रजनी रात्रिरुपनवणत्याहिनच तस्यापि मृतरपि कर्मभिरसी न विरुध्यते । तथा चाह" अरूपं न सा प्रतिनियर्तते पुनरागजात दागमने ह सईदा का हि यथाकाशं, रूपद्रव्यादिभाजनम् " तथा रूपी जीवोऽपि क जन्मरात्रिः स्यात्ततो न हिताया मरणरात्रिः कदाचित्यामुःस्यामाविभाजनमिति मिथ्यात्वादिहेतुत्वाचन सर्वदा तत्प्रसा ताश्चाधम्मै कुर्वतो जन्तोरिति गम्यते पला रान्ति सत्रयोऽ इत्यदोषः । एवं हि येषामेव मिथ्यात्वादितबेतुसंभवस्तेषामे धम्म निबन्धनं च गृहस्थन्यायुषोऽनित्यत्वादधर्मकरण तस्य बसौ न तु तद्विरहितानां सिद्धानामपि । तथा संसारश्चतुर्गति निष्फलत्वासत्परित्यागपच श्रेयानिनि नावात्य व्यतिरेकदारेपर्यटनरूपस्तद्धेतुं च तत्कारणं पदन्ति बन्धं कर्मबन्धम् । ण प्रवज्याप्रतिपत्ति हे तुरथमभिधाय तमेघान्यरर से नाह । (ज जेएतेनामूर्तत्वाद् व्योमा इव निष्क्रियत्वमपि निराकृतमिति सूत्रा त्यादि) पूर्ववत नवरं (धम्म चत्ति ) शब्दः पुनर) धरम पुनः र्थः । यत एवमस्त्यात्मा नित्योऽत एव च भवान्तरयायो तस्य कुर्णतः सफला धम्मनक्कणफनोपार्जनतोन च व्रतप्रतिपत्ति पिना च बन्धो बन्धादेव मोक्ष इत्यतः। धम्म इत्यतो व्रतं प्रतिपस्यावदि इत्याभप्राय इति सत्रयार्थः। जहा वयं धम्ममया माणा, पाचं पुरा कम्ममकासि माहा। इत्थं कुमारवचनादावितसम्यक्त्वस्तद्वचनमेष पुरस्कुन् मोरुज्माणा परिरक्खयंता,तं नेव जो विसमायरामो॥ तृगुराह॥ यथा येन प्रकारेण वयं धम्म सम्यग्दर्शनादिकमजानाना एगओ संवसित्ताणं, दुहशो सम्पत्तसंजुया। अनुवबुध्यमाना पापं पापहेतुं पुरा पूर्व कर्म क्रियाम् [अका- पच्छा जाया गमिस्सायो, भिक्खमाण। कुछेवले ॥२६॥ सित्ति अकार्ग कृतवम्तों मोहाचत्वानवबोधात अवरुभ्यमाना । पकत पकस्मिन स्थाने साध्य महेवोमित्या (इत्तिय Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार आयपेक्षा वचनं पुरुपत्रा धान्याच्च झिङ्गता सम्यक्त्वेन संयुताः सहिता उपलक्षणत्वाद्देविरल्या पायीवनावस्थी सरकाकोऽर्थः पश्चिमे वयि जाती! पुत्री ! गमिष्यामो जिभ्यामवयं श्रामनगरादिषु मासक स्पेन क्रमेणेति शेषोऽर्थाच्च प्रव्रज्यां प्रतिपद्य निकमाणा याचमापदमिति गम्यते कुले कुले गुडेन कि शेव वेश्मनि । किमुक्तं भवत्यज्ञातोकवृत्येति स्वार्थः । कुमारावादनुः । जस्सत्यि मच्चुणा सक्ख, जस्स वत्थि पलायणं । जो जागर न मरिस्सामि, मोटु कंखे सुए सिया |२७| अले व धम्मं परिजयामो, ( ११९० ) अन्निधानराजन्धः | जहिं पन्ना प पु भवः । अणाrयं नेव य अत्यि किंचि, सामं नो वित्तु रागं ॥ २८ ॥ यस्पे/यतिनिर्दिष्टस्वरूपस्यास्तिपद्यते नान मित्रत्वं यस्य चास्ति पलायनं मृत्योरिति प्रक्रमः । तथा यो (जाति] जानीते यथा न मरिष्यामि [ सोहु कलेस त्ति ] स एव काङ्क्षति प्रार्थयते स्व श्रागामिनि दिने स्यादिदमिति गम्यते न च कस्यचित् मृत्युना सह सख्यं ततो वापञ्जा तवा भाव धर्म प्राधिक जयामोति ] प्रतिपद्यामहे । तमेव फलोपदर्शनद्वारेण विशिनष्टि [ जत्ति ] आर्यत्वाद्यं धर्मे प्रपन्ना आश्रिताः [ न दुष्कभवामोत्ति ] न पुनर्भविष्यामो न पुनर्जन्मानुजविष्यामस्तन्निबन्धनभूतकर्मापगमा जर मरणाद्यजावोपलक्षणं चैतत् कथमनागतमप्राप्तकिन तिम पूर्वतो न महावस्थानं युक्तमिति नाथः । यद्वा ऽनागतमार्गातविरहितं नैव चास्ति किंचित् किं तु जरामरणादिसना माविवादस्य त्रस्थानम् । यद्वा अनागतं यत्र मृत्योरागतिर्नास्ति तन्न किंचित स्थानमस्ति तवमा भाऽनित्राः कर्मयुक्तमिड होकर प्रसिनिमामिति शेषः [] मानियोसादाय्यक धर्म स्वजना भिष्वङ्गलवणं तत्यतो हि कः कस्य स्वजनो न वा स्वजन इति । चकं च । " अयणं नंते जीवस्स सामाइतार धृयत्ताप, सुबहताप भए सहि सयण संबंधसंधुयन्ताए उपवनपुत्र हंता गायमा ! सात अडुवा प्रणतत्तोत्ति " सूत्रद्वयार्थः । ततस्तयसमा पुरोहित तत्पमतपरिणामो ब्राह्मण धाविकारिणी मा पात्र हुनरिय वानी, वासिभिकखायरियाए काक्षी । साहाहरुको लाई समाहि, विष्णाहि साहाहिं तमेव खा ॥ २७ ॥ पंखाविहिणा व जब पक्खी, निच्चविणे व रणे नारदो । वनसारो व पोते, नापि ॥ ३० ॥ टसुयार प्राणी प्रभू पुत्री यस्मात्स ग्रहण अथवा प्राकृते पूर्वपर निपातस्यातन्त्रत्वात्पुत्राच्यां प्रहीणस्त्यक्तः पुत्रप्रहणस्तस्य दुः पूरणे नास्ति न विद्यते वासोऽयस्थानं मम गृह इति गम्यते वाशिठे!! पापना कथं नु नाम धर्माभिमुख्यमस्याः स्यादिति भिक्कार्याया भिकाटनस्योपलक्षणं चैतद्व्रत ग्रहणस्य कालः प्रस्तावो वर्तत इति शेषः । किमित्येय ग्राह शाखानिः प्रतीताम शोति समाधिं स्वास्थ्यं विनाजिर्द्विधाकृताभिः शाखाभिस्तमेव वृकं यस्ताभिः समाधिमवाप्तवान् [ खाएं ति ] स्थाणुं जना व्यपदिशतीति उपस्कारः । यया हि तास्तस्य शोनासंरक्षणसहायकृत्यकरणादिना समातिन एवं ममाप्येतीसुतास्त रतिमपि स्थापयेति किं ममेवंविधस्य स्वपरयोः किंचिदुपकारकमनस्तमेव गृहवासेनेत्यभिप्रायः किं च पज्ञायो विगो विरतः पान्तसरसमुच्चये वचेास्मिन् ओके पकी विहङ्गमः पलायितुमशक इति मार्जारादिजिरभिभूयते यथा नृत्याः पदातयस्तद्विदनो वा प्राग्वणे संग्रामे नरेन्द्रो राजा शत्रुजनपराजयस्थानमेव जायते यथा पिपनिहारो रियादतिप विक सांगादेति प्राम्यत् पोते प्रवहमिति परततोऽम तथा अमकोऽर्थः पादाय विरहितोमध्येपिवेति ॥ वाशिष्टघाट । सुसंहिता कामगुणा इमीते, संपिं गया अगरसा पन्या । जामु ता कामगुणे पकामं पच्छामा पाए मर्म ॥ [रतिशयेन संवृतः संस्कृतता के कामसुर्याकमेलि प्रत्यक्कृतया निर्दिशति ते तत्र तथा संपिताः सम्यक् पुञ्जीकृताः ( अगरसत्ति ) चशब्दस्य गम्यमानत्वात् अग्रा रसाच प्रधाना मधुरा प्रभूताः प्रडुराः कामगुणान्तर्गतत्येप रसनापृथगुपादानमतिदेदिप्यपि मे र्तकत्वात् । कामगुणविशेषणं वा अग्रा रसास्त एव शृङ्गाराया था फारसा सुखानाम रसा ये कामगुणाः सूत्रे च प्राकृत्यशस्य पृथ्येनिपात (नजामसिजी तस्माद्यस्यादनृतादिविशेषण स्वाधीनाः सन्ति कामगुणानुक्तरूपान प्रकाममतिशयेन ततो शुक्तभोगी [पधादिति वृद्धावस्था गमिष्यावः प्रतिस्थाप प्रधानमार्गमहापुरुषसेवितं प्रव्रज्यारूपं मुक्तिपथ मिति सूत्रार्थः । पुरोहितः प्राह । जुत्ता रसा जोइ जहाति वक्री, जीविया पहामि जोए । सालानंच सुहंच दोक्खं, संचिरमाणो परिस्साम मोणं ॥ च्यः सेविता रसा मधुरादय उपत्याकामगुणाश्च यद्वा रसा इह सामान्येनैवास्वाद्यमानत्वादजोगा भष्यन्ते । (भोलि) हे भवति ! श्रामन्त्रणवचनमेव जति जति न इत्यस्मान् वयः शरीरावस्था कालकृताच्यते सा चेहाभिम तकियाकरणमा गृह्यते तस्य या पत्रानेकशो भोगावयअमित क्रियाकरणक्रम इति राजीव च Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसयार अन्निधानराजेन्दः। उसुयार सता यावतत्यजतितापहीका प्रतिपद्यामहे श्त्यभिप्रायस्तत किं | धौरयशीमास्तपसाऽनशनादिनोधाराः प्रधाना धीराः सत्त्यन्त चयःस्थेचर्थ दीकांप्रतिपद्यसे उच्यते कैश्चिद्दीका बयःस्थर्या- हुरिति यस्मानिकाचर्या चरम्त्यासवन्ते प्रतग्रहणोपवणमेतद. दिविधायितीत्याशझ्याह नेति निषेधे जीवितमसंयमजीवितमु. तोऽहमपीत्थं व्रतमेव ग्रहीष्य इति भावः इति सूत्रद्वयार्थः ॥ पत्राणवायश्च तदर्थ प्रजहामि प्रकणत्यजामिनोगान् शब्दा. इथं तत्प्रतियोधिता ब्राह्मण्याह । न् किं तु लाभमभिमतवस्त्वयाप्तिरूपमलाभं च तदभाषरूपं तहेव कोंचा समश्क्कमंता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। सुखमभिलषणीयविषयसंभोगजं चस्य भिन्नकमत्वात दुःखं च याधात्मकं (संचिक्त्रमाणोत्ति) समतया ईक्षमाण पश्यन् पति पुत्ताय पई यमझ, तह कह नाणुगमिस्सइक्का ३६ किमुक्तं भवति लोभालोभयोस्तथा सुख दुःखयोरुपलक्षण- नभसीवाकाश इव क्रौञ्चाः पक्तिविशेषाः समतिकामन्तस्तान त्याजीवितमरणादीनां च समतामेव भावयंवरिष्याम्यासे तान् देशानुक्यन्तस्ततानि विस्तीणानि जामानि बन्धनविशेविष्ये किं तत् मौनं मुनिभावं ततो मुक्त्यर्थमेव मम दीक्षाप्र. परूपाण्यात्मनोऽनय हेतून्द त्रिस्वा (हंसत्ति) चशमस्य गम्यमानतिपत्तिरिति भाव इति सूत्रार्थः। घासिष्ठयाह । स्वारसाश्च पतित्ति परियन्ति समन्ताद् गच्छन्ति पुत्री व मा हू तुमे सोयरियाण संहर, सुतौ च पतिश्च भर्ता मम संबन्धिनो गम्यमानत्वाद्ये ते जाझो पमविषयानिष्वङ्गभित्ता नभः करोनिरुपतोपतया संयमावनि जिम्मो व हंसो पडिसोयगामी । तानि संयमस्थानान्यतिक्रामस्तस्तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका हुंजाहि भोगाइँ मए समाणं, सती किं स्वनुगमिष्याम्येव । एवंविधं वचनं हि स्त्रीणां पतिः दुक्खं खु भिक्खाचरियाविहारो॥ ३३ ॥ पुत्रो वा गतिरिति । यदि वा जामानि भिस्वेति हंसानामेव मा इति निषेधे हुरिति वाक्यालंकारे त्वं सोदरे शयिताः | संबध्यते। समतिक्रामन्तः स्थात-प्रेण गच्छन्त इति तु कौञ्चोदासोदर्याः सोदराय इति यः प्रत्ययः ते च समान कुक्षिभवा हरणमजातकलत्रादिबन्धनसुतापेहं हंसोदाहरणं तु तद्विपरीभ्रातरस्तेषामुपलक्षणत्वाच्छेषस्वजनानां भोगानां च ( संभ- तपत्यपेक्वमिति भावना यमिति सूत्रार्थः । इत्थं चतुर्मामप्येकरित्ति) अस्मार्षीक इव (जिमो वहसोत्ति ) व शब्दस्य भिन्न- वाक्यतायां प्रव्रज्याप्रतिपत्तौ यदभूसदाह । क्रमत्वात् जीर्णो क्योहानिमुपगतो हंस इव प्रधानपक्षीय प्रति पुरोहियं तं समुयं सदारं, मोच्चाभिणिकखंत पहायनोगे । कूलः श्रोतः प्रतिश्रोतस्तामी सन् किमुक्तं भवति यथाऽसौ कुटुंवसारं विरलुत्तमंतं, रायं अनिखं समुवाय देव।।३७) नदीश्रोतस्यतिकष्टं प्रतिकूलगमनमारभ्यापि तत्राशक्तः पुनरनुश्रोत एवानुधावत्येवं भवानपि दुस्तरं संयमभारं वोदुमस वंताल पुरितो रायं, न सो होइ पसंसितो। मर्थः पुनः सहोदरान सइ भोगान् वा स्मरिष्यति तदिदमे- माहोणं परिच्चत्तं, धणं आइ नमिच्छसि ॥ ३०॥ पास्तु भुदय भोगान्मया (समाणंति) सुखदुःखहेतु (खु इति) सन्वं जग जइ तुह, सव्वं वावि धणं नवे । खलु निश्चितं भिक्षाचर्या भिक्षाटनं विहारो ग्रामादिष्वातिया | सव्वं पि ते अपज्जत, नो वा ताणा ने तव ॥ ३ ॥ द्धविहारो दीक्षोपलक्षणं चैतदिति सूत्रार्थः । पुरोहित श्राह। मरिहसि रायं जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहाय । जहा य भोई तण्यं तुजंगे, निम्मोयणं हेच पलेइ मुत्तो। एको हु धम्मो नरदेवयाणं, न विजए अन्नमिहेह किंचि४० पुरोहितं पुरो वसन्तमिति च नगुनामानं सपुत्रं पुत्रध्यान्वित एमेय जाया पयहंति भोए, तेहं कहं नाणुगमिस्सएगो ।३५। । सदारं सपानीकं श्रुत्वाऽऽकार्य अनिनिष्क्रम्य गृहानिर्गत्य प्र. निंदितु जालं अवलंबरोहया, मच्छा जहा कामगुणो पहाय । हाय प्रकर्षण त्यक्त्या नोगान् शब्वाईन प्रवजितमिति गम्यते । धोरेय मीनातवसा उदाग,धरा ह भिक्खायरियं चरंति ३५ | कुटुम्बसारं धनधान्यादि विपुतं च विस्तीर्णतया उत्तम च प्रधायथा च हेभवति ! पठ्यते चाहे भोगिनि तनुःशरीरंतत्रजाता नतया विपुलोत्तमं ( यदिति ) यत्पुरोहितेन त्यक्तं गृहन्तमिति तनुजां भुजंगमः सो निर्माचनीयं निर्माकं हित्वा पयति सम- शेषः (राय) राजानं तुपतिमनीषण पुनः पुनः समुवाच सम्यन्तानच्छति मुक्त इति निरपेकोनाभिव्यक्त इत्यर्थः (समेतित्ति)। गुक्तवती देवी कमलावती नाम तदनमहिन। । किमुक्तवत्याह एवमती पठ्यते च ( इमेनित्ति) अत्र च तथेति गम्यते तत्त- वन्तमुद्गीण मशितुं भोक्तुं शीबमस्येति वान्ताशी पुरुषः पुमान् य थमा ते तव जाती पुत्रौ प्रजहीतः प्रकर्षण त्यजतो भोगान् इति गम्यते राजन् ! नृपते ! सन प्रसंशितः श्लाधितो चिहनतः किमित्याह तौ भोगांस्त्यजन्ती जातौ अहं कथम् नानुग- द्भिरिति शेषः । स्यादेतत्कथमई वान्तार्शीत्यत आह । ब्राह्मणमिष्यामि प्रवज्याग्रहणेनानुसरिष्याम्येको द्वितीयो यदि ताव- म परित्यक्तं परिहृतं धनं सन्यमादातुं ग्रह तुमिच्छसि परिहते दनयोः कुमारकयोरपीयान् विवेको यनिमोकवदत्यन्तसह- घनं हि गृहीतोकितत्वाधान्तमिव ततस्तदादातुमिच्चस्त्वमचरितानपि भोगान् भुजङ्गवत त्यजतस्ततःकिमिति भुक्तभोगोऽ पिवान्ताशीव न चेदमुचितं जवादृशामित्यभिप्रायः । अथवा प्यहमेनान्न त्यहामि कि घाममासहायस्य गृहयासेनेति भावः । काक्षा नीयते राजन् ! वान्ताशी यः स प्रशस्यो न नवत्यतो तथा चिया द्विधा कृत्वा ताणपुलादिना जालमानायमव- ब्राह्मणेन परित्यक्तं धनमादातुमिच्छसिन चैतद्भवत उचितं यतअनिय जोर्णत्वादिना निःसारमिव वयोऽरीति गम्यते । स्त्वमप्येवं वान्ताशितया अन्याय एवं भविष्यसीति काफः। रोक्तिा रोहितजातीया मत्स्या मानाश्चरन्तीति संघन्धः । यथति किं च सर्व निरवशेयं जगद् वनं नयदिति संपन्यो यदीत्यरान्तोपदर्शने यत्तदोश्च नित्यसंबन्धातयेति गम्यते ततस्तथा स्थायमर्थो न संजवत्येवंतत्कथशिसंभवे या ( तुहति ) सप जानप्रायान् कामगुणान् प्रहाय परित्यज्य धुरि वहन्ति धौरेया- सर्वव्यापि धनं रजतरुप्यादितव्यं भवेद्यदि तवेतीहापि योज्यते स्तेममिष शीलमुन्तिभारवाहिताप्रकरणः स्वभावो ये | तथा पूर्वमगि ते बन गएमशमिश्गपरिपूर्ति प्रतीति शेषः। Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९२) उसुयार निधानराजेन्दः। उसुयार आकाशसमत्वेन तस्या अपर्यवसितत्वात्तथा नव प्राणाय जरा ता। कथं चैबनूनेत्याहनिष्कान्ता मामिषादू बिहेसोरनियषिमरणाद्यपनादाय तदिति सर्व जगरुनं या तवेति ते । इह च तविषयावनिर्गतं या भामिषमस्या प्रति निरामिषा (परिमाहारपुनः पुनः स→शब्दस्य युष्मदस्मदोश्योपादानं जिसवाक्यवाद । म्जनियत्तदोसेत्ति) प्राकृतत्वात पूर्वपरनिपातोऽतामिति परित्रपुनरुकमिति नावनीयं पूर्वेण गर्हितत्वमनेन चानुपकारिता पु. हारम्नदोषा अभियङ्गनिस्त्रिंशतादयस्तेज्यो निवृत्तीपरतापरिनरोहितचनाव्यग्रहणहेतुमादय संप्रत्यनित्यता तसेतुमाह । मरि. हारम्भदोषनिवृत्ता । यद्वा परिग्रहारम्भनिता अत एव चादीप्यसि प्राणांस्त्यवसि राजन् !मृप! यदा तदा वा यस्मिस्तस्मिषा विकृतिविरहिता । अनयोविंशेषणसमासः । अपरंच दोषाम्वा का अवश्यमेव मग्यम्"जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु" रि- मिना दावानलम यथारण्ये बने दह्यमानेषु नस्मसास्त्रियमाणेत्युकं हि"कधिचावरवया तपः, भुतो या शङ्कितोऽपि वा किती घु जन्तषु प्राणिष्यन्येऽपरे सत्याः प्राणिनो विवकिनः प्रमोदन्ति पायदिया स्वर्गे, यो सातो न मरिष्यति" तत्रापि च कदाचिदलि- प्रकर्षण हुष्यन्ते । किमित्येवंविधास्त इस्याह । रागद्वेषयोर्वश मषितवस्तु भावायैष मरिष्यामीस्यत माह । मनोरमांश्चित्साहा. भायसता रागवेषप्रशस्तं गताः प्राप्ताः (ज्यमेवंति) विदोरदकान् कामगुणानुकरूपान् प्रहाय प्रकर्षेण त्यक्त्वा त्वमेकाक्येय सााणकत्वादयमवत्ति वयं दति) मूढानिमोहवशगा नि. मरिष्यसि नकिंचिदम्बस्वया सह यास्यतीत्यभिप्रायः। तथा एके कामभोगेषकरूपंधु (मुछियात) मूञ्चिताम गृकानि दह्यमा(हुति) एक एवाद्वितीय एष धर्मः सम्यग्दर्शनाविरूपो नरदे- नामव दह्यमानं न बुयामहे नावगम्गमो रागद्वेषावनिरिव बामप! पाणं कारणमापरपरिरक्षणाकम न विद्यतेनास्यन्यद- | रागद्वेषाग्निस्तन किं तजगत्प्राणिसमूहं यो हिसविवेको रागापरमिह इति त्यनिधानं संथमस्थापना किंचिदिति स्व- दिमांश्च न जयति स दाबानोन दामानानन्यसत्वानवलोक्याजनधनादिकं यदि वा हति लोके हत्यस्मिन् मृत्यो धर्म प- हमप्येवमनेन दहनीय इति तद्रवणोपायतत्पर एव भवति न तु पैकरमाणे मुक्तिहेतुत्वेन नान्यत् किंचित्ततः स एवानुछेय इति प्रमादयशगः रून् प्रमोदते । यस्त्वत्यन्समझो रागादिमांश्च सूत्रचतुष्टयार्थः। स आयतमाचिन्तयन् दृष्यति न तु तदुपशमापाये प्रवर्तते तसो यतश्च धर्माहते नान्यत्त्राणमतो। वयमावोगापरिस्यामादेयं विधावति नाथः । यदंविधाम नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा, भवन्ति तं किं कु.चन्तीत्याहनोगान्मनाइ.शब्दादीन (मोति) संताणविना चरिमामि मोणं । सक्याऽसेव्य पुनरत्तरकासं यात्यानापहाय पिपाकदारणत्या लघुर्वायुस्तध्द्त मदनमेषां लघुकृताः कोऽया वायूपमारतथाअकिंचणा नजकमा निरामिसा, विधाः सन्ताबहरन्तीस्येबंशीला धुभूतविहारिणोऽप्रतिषकपरिगहारंभनियत्तदोसा ॥ ४ ॥ विहारिण इयर्थः । यद्वा सघुनूतः संयमस्तेन बिहशीलं दवमिणा जहा रमे, काममाणेसु जंतुसु । येषां त तथा प्रासमन्तान्मोदमाना कृप्यन्त कामोदमानास्तथा. अमेरुत्ता पायंति, रागोससंगया ॥ १२॥ विधानति म्यते । गच्चति विवहिसस्थानमिति शेषः । एवमेवं वयं मूढा, कामनोगेसु मुच्छिया। क इव ('दयाकामकमाघेत्ति ) श्वशको जिम्मा मस्.तो आ दव कामो ऽभिमापस्तन क्रामन्तीति कामक्रमाःयथा पहिणः स्ये. मज्झमाणे न दुज्झामो, रागदोसगिणा जयं ॥३३॥ चरा या यत्रावासन्ते तत्र तत्रामोदमाना छाम्यन्ते परमेसे:भी। भोच्च वमित्ताय, लहुल्यावहा रणो। प्याभयहस्य परतन्त्रताहेतोरभावाद्यत्र यत्र संयमयात्रानिर्वह आमोयमाणा गच्छति, दिया कामकमा श्वा ॥४४॥ तत्र तत्र यान्तीत्याशयः। पुनर्वहिरास्था निराकुर्वन्तीत्याह मे - त्याभूत मानतया प्रत्य का शम्छादयश्चःसमुशये घसानियन्त्रिता. इमे य बचा फंदति, मम हत्थजमागमा । नेकधोपायै गर्दिता इत्यर्थः एते किमित्याह । स्पन्दन्त इस वयं च सता कामे मु, .णियामी जा इमे ॥४॥ स्पदन्ते अस्थितिधर्मतया ये कीडश इत्याह (मम हत्थजमासामिसं कननंदिस्ता, वज्झमाणं निरामि। गयत्ति ) ममेत्यात्मनिर्देश उपलकणवासवन हस्तं करमार्ग श्रामित सव्वमुज्झिता,विहरिस्सामा निरामिसा।।६। प्रद्य या भागताः प्राप्ताः कोऽर्थः स्ववशा पात्मनोऽकता हशय. गिडावमेइ नचा पां, कामे सारबघणे। तुम्ह । (वयं च सत्तत्ति) वयं पुनः शक्तानि संबन्धान्यनिष्य अवन्तीत्यर्थः प्रबहुत्वेऽप्यस्मदोद्वयोश्चेति बहुवचनं कामेष्यनिसउर उन सुबमासे वा, संकमाणो तणु चरे ।। ४७॥ षणायाम्दादिषु एघविधेयपि चामीवभिप्यत इति मोहधिपागो व्व बंधएं वित्ता, अप्पणो वसहिं वए। ससितमितिनावः यता श्मे चचेति चशदाद्वयं च स्पन्दामहेष इति पच्छ महारायं, उसुयारेत्ति मे मुयं ।। ४८।। स्पन्दामहे आयुषश्चञ्चलतया परहोकगमनाय शेषं तथैष यत नति निषेधे अहमित्यारमनिर्देशे रमे ति रतिमवानोमि [प- एवमतो जविण्यामो यथेमे पुरोहितादयः। किमुक्तं भवति यथाs. क्मिणो पंजरेवत्ति] वादाब्द औपम्ये जिवक्रमश्च ततः पक्षिणी- म निश्चचमन्यमवलोक्यसे परित्यक्तास्तथा ययमपि त्यक्ष्याम पशकुनिकेव शारिकादिः पञ्जरे प्रतीत पय । किमुक्त भवति य. इति । स्यादेतदस्थिरत्वेऽपि सुसहेतुत्वात् किमित्यमा स्पन्दन्ते थाऽसौ दुःखोत्पादिनि पजरे न रति प्रामोत्येवमहमपि जरामर- इत्याह । सह मिषेण पिशितरूपेण धर्तत इति सामिषस्तं कल वायुपञ्चविद्यते नवपक्षरेन रमे । अतजिनसन्ताना प्रक्रमात मिह गृध्रशकुनिकं या दृष्ट्वाऽवलोक्य वाध्यमानं पोख्यमानं पहाविनाशितस्मेढ सन्ततिः सती निन्नशब्दस्य सूत्रे परनिपातःप्राग्य न्तरिति गम्यते मिरमिषमामिषधिरहितमन्यथातृत हेत त चरिष्याम्यनुष्टास्यामि मौनं मुनिभावम । न विद्यमानं क- गम्यत भामिषमभिष्वङ्गतुं धान्यादि सर्च निरधषमुजि.त्या चम व्यतो हिरण्यादिजावतः कषायादिरूपमस्या श्त्यकिश्व- स्यक्त्वा (विहरिस्सामोत्ति) बिहरिष्याम्यप्रतिबकाविहारितया जा प्रापय ऋजु मायाविरहितं तमनुष्ठितमस्या इति ऋजु परियामीत्यर्थः । निरामिषा परित्यत्तानिध्यङ्गतः उक्तानुषाने Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार नोपदेष्टुमाह गृध्रेण उपमा येषान्ते गृधोपमास्तानुक्तन्यायेन तुः समुचये भिन्नक्रमा योक्ष्यते झात्वाऽचबुध्य णमिति प्राम्यत् कारद्वयोरपि संडा ( १९९३) अभिधानराजेन्द्रः / संसारन्न ज्ञात्वेति संबन्धा अथवा कामयन्त इतिकामा इति व्युत्यकामात्यानार्थ कामा विषयिण पयोका अस्तापमा संसारकां किमित्यादयति दस्यनिक्रमत्वादात्याश्योर इव जग व सौपर्णेयपार्श्वे गरुरुसमी मानो भयत्रस्तमिति स्तोकं मन्दयतनयेति यावत् । रेका अस्थायमाशयो यथा सीप पि यैर्न वाध्यते तथा संयममासेवस्व । ततश्च किमित्याह (नागोव्य) अर्थः स्पष्टः आशयश्चायं यथा नागेो बन्धनं वरत्राएककादि त्याचा विहायात्मनो स्थिि कम्बन्धनमुपत्यात्मकको श्रात्मापति ते सा मुक्तिरेव तां व्रजेरेतेन दीकायाः प्रसङ्गतः फलमुक्तम् । पदिश्य निगमयितुमा पल यन्मयेकं पहिलं महाराज ! प्रशस्य नृपते! फारनामन्नमया स्यमनी विकयैवोच्यते किं खित्येतन्मया श्रुतमवधारितं साधुसकाशादिति गम्यते इति सूत्रष्टकार्थः । एवं च तद्वचनमाश्ये प्रतिका नृपस्ततश्च यत्तौ द्वावपि चक्रतुस्तदाह । चावल र काममांगे हि दुब निसिया निरामिसा, निदा निष्परिग्गदा ॥ ४६ ॥ सम्मं धम्मं वियाणित्ता, चिच्चा कामगुणं वरे । तवं पगिज्जहक्खायं घोरं घोरपरकम ॥ ५० ॥ त्यक्त्वाऽपहाय विपुलं विस्तीर्ण राष्ट्रं मएम पाठान्तरतो राज्य काम करून परिहारानिर्विषय शब्दादिविषयविरहितायत एव निरामियाँ । यद्वा विषयो देशस्तद्विरहितौ राष्ट्रपरित्यागतः कामजोगत्यागतश्च निरामिषावपितुरिति कुतः यतो नि बन्धी निपरिवही मनकारी सम्यगविपरी धम्माकं विज्ञाय विशेषो ऽध्य (विश्व) त्यक्त्वा कामगुणान् शब्दादीन् वरान् प्रधानान् पूर्व विशेषणपुनरागमतिशपायाच तपोऽनशनादि प्रधा युपगम्य यथास्यातं येन प्रकारेण तीर्थकरादिभिः कथितं धां घोराः पराक्रम प ष्ठानविषयसामर्थ्यात्मको ययोस्ती । तथा देवीनृपौ तथैव कृतवन्ताविति शेष इति सूत्रद्वयार्थः ॥ " संप्रति समस्योपसंहारमाह । एवं कमी बुद्धा, सच्चे धम्मपरायणा । अम्मा इक्वस्संतगये किणी ॥ ५१ ॥ साम विगमोहाणं, पुव्यनावराना चिया । चिरेन कालेन तवाया ॥ ५२ ॥ या सह देवी माह व पुरोहियो । माही दारगा चैव सच्चे ते परिनिन्कुडे नि वे मे ॥५३॥ एचममुना प्रकारेण तान्यनन्तरमुकरूपाणि कमशो मिति परायणानि धनिष्ठानि पठ्यते च ( धम्मपरंपरांत) परस्परया धम्मों येषां तानि परम्परा धर्माणि प्राकृताचाच परंपरा و उस्सकइता शब्दस्य परनिपातस्तथाहि साधुदर्शनात् कुमारकयोः कुमारवचनात्तत्पित्रोलोकनात् कमलादेव्यास्ततोऽपि च राह इति परम्परवैयधमनयः रुरूपेभ्य एषो हिमानि प्रस्तानीति जन्ममृत्युभयकानि दुःखस्यासातस्यान्तः पर्यन्तस्तपसि तदन्येषा सापेपिसमा सोया देवदत्तस्य गुरुकुलमिति । पुनस्तद्वयतामेवाह। शा सने दर्शने विगतमोहानामर्हतामन्यजन्मनि भावनयाऽभ्यास रूपया भावितानि वासितानि भावनाभावितानि । यद्वा भाविता भावना यस्तानि भाषितमानानि पूर्वोत्तरनिपातात दत्ताविव कालेन दुःखस्यान्तं मोचनुपमतानि प्राप्तानि । सर्वत्र च प्राकृतत्वात् पुल्लिङ्गनिर्देशः । मन्दमतिसरणायाध्ययनार्थमुपसंहर्तुमाह । राजपुकार सह देण्या कमलावत्या ब्राह्मणश्च पुरोहितो भृगुनामा ब्राह्मणी तत्पत्नी यी दारी येति तानि परिनानि कर्माभ्युपशमतः शीतीभूतानि मुक्तिं गतानीति यावत् सूत्रप्रयार्थः । इति परिसमाप्ती हीमति पूर्वयत् । उच्ोऽनुगमः ॥ उत्त० १४० वनामध्यारो नगरमेवे, "सुगारे रे उस भदचे गाहावई " विजा० १ ० १ ० । १०० उपकारपर्व्वत पुं० घातकीखण्ड विभागकारि णि पर्वते. " दो उसुगारपध्थया " इषुकारी दक्षिणोत्तरयोदिशोकड विभागकारिणाविति । ० २४०३० " समय बचारि उसुकारा" इयुकारा पातकीपु रायो पूर्वोत्तराभागारिरः ल० स्था उस्याज्ज-काय न० "उसुधार शाम गोयं, परंतो भाषयो य उसुयारो । तत्तो समुठियमिणं, उसुधारिज्जयंति श्रभयणं यदिषुकारात् समुत्थितं तत्तस्मै प्रायो हितमेव भवतीति इषुकाराय तिमि कायमुध्यते प्राधान्याश्च राम्रो निर्देशोऽन्यथा परभ्यश्येतत्समुत्थानं यमेवेति चतुर्दशे उत्तराध्ययने, उत्त० १४ श्र० स० । i - , उसुपात्र - देशी ०-० उदूखले, " उसुयालंसि वा कामजलांस वा श्राचा० २ ० । 39 उस के रियक्रियाम० शरम्य कियासदृशे, "श्रुतः समाधिव्यक्त, घुम्रयक्रियोपमः २१ द्वा० । 33 | ० उसूलग-उसक-पुं० खातिकायां परवपातार्थमुपरिच्छादिगाउयो उ० अ० । 39 - उस (ए) (ऊ) मन्यास्ः । शपोः संयोगे सोऽग्री । ४।७८ । इति पस्थाने सकारो मा गध्याम् । ग्रीष्मत, प्रा० । वृ० उस अवश्याय पुं० बेहे, "अप्पर बरसे " ० ४ उ० । नि० तूर | बुद्धान्याधि-उपंक लय उत्संकलित 33 उ-पुं० वसन्ति रसा अत्र घस् रक्- निपातनान्न पत्यम् । फिरणे, सूर्यकिरणानां वृषे सुरज्याम, लतायाम् पृथिव्याम, स्त्री० । घावः । २० उस्कत्ता उत्पष्क्य-प्रव्य० उत्सृत्येत्यर्थे, बावसरतोसुकीभूयेति यावत् । स्था० ६ ० ॥ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९४) उस्सका अभिधानराजेन्द्रः। उस्सग्ग उस्सकण-उत्ष्यष्कण-न० स्वयोगप्रवृत्तकालावधेयं पुरतः | द्विधा प्रशस्तं शोलनं वस्त्वधिकृत्य [इतरत्ति] अप्रशस्तमशोजनं वष्कणमारस्नकरणमुत्वकणम् ध०३ धा स्वयोगप्रवृत्ते- तथा येन चा नायन उत्सर्जनीयवस्तुगतेन स्वरादिनाअयकिरतिज नियतकालावधिपरतः करणे, । यथा काचिन्मरामकादिप्रार्थ- तु मत्स्जति यत्तत्र भावनोत्सर्ग इति तृतीयासमासः। तत्रासंयम नया रुदन्तं वासमाश्वासयति यत मा रोदीः समीपगृहागतो | प्रशस्ते भावोत्सर्गे त्यजति अप्रशस्ते तु संयमत्यजतीति गाथार्थः। मुनिरस्मद्गृहे आयास्पति तदा तदर्थमुस्थिताऽहं तवापि दा- यदुक्तं येन या भाषेनोत्सृजति तत्प्रकटयनाह । स्यामीति । ततश्च साधाघागते तस्य भिकादानायोत्थिता वा- खरफरुसाइसचेश्रण-मचअणं सुरजिगंधविरसाई । बस्यापि ददातीति उत्वष्कणम् । ध०३अधिक (पाहुमिया श- दन्धि अमवि चयश्दोसेण,जेण नावझणा साउ॥३॥ ने स्पष्टीभविष्यति) “उस्सरणं अहिसक्कणं परमहोल किए अरोषा विनायत्तपरेण शुभो अह नावाभिम्गहो नाम अयस खरपरुषादि सचेतनं खरं कग्निं परुषं पुर्जाषिणोपनीतमचेपन्"।०१ अधिः। तनं पुरनिगन्धविरसादि यह्रव्यमपि त्यजति दोषेण येन स्वरादि मा वा नावोजना सा नक्ता येनोत्सर्ग इति गाथार्थः । ३५ गतं उस्सकावइत्ता-अपसर्य-अन्य अपसृतं कृत्वेत्यर्थे," उस्स मूसद्वारगाथायामुत्सर्गमधिकृत्य निरूपनारम् । कमावत्ता" विवादे प्रतिपन्धिन केनापि व्याजनापसापसृतं अधुनकार्थिकान्युच्यते ॥ कुत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते स्था ६० ।। उस्सग्ग-मत्सर्ग-पुं० सृज विसर्गे उत्पूर्वात सृजेर्घम् । उज्कने, उस्सग्ग १ विनस्सरणा, आव०५०। अस्य निकेपः ।। नज्मणा य ३ अवकिरण ४ गुण ५ विवेगो ६ । नामं? उवणार दविए, ३खित्त ४ काले ए तहेव जावे य६ वजण ७ चयण जम्मुअणा ए, पसो उस्सग्गरस तु, निक्खयोगविहो होइ ।। ३६ ॥ परिसामण १० सामणा चेव ११ ॥ ४०॥ अर्थमधिकृत्य नियदसिहा विशेषार्थ तु प्रतिद्वारं प्रपश्चन ब- उत्सर्गः व्युत्सर्जना उज्जनाच अवकिरणं गर्दनं विवेकःवर्जनत्यक्ष्यामः । तत्रापि नामस्थापने गतार्थे । जनम जन्मोचना परिशातना शातनाचैवेति गाथार्थः।आव०५० प्रव्योत्सर्गादिरभिधित्सया पुनराह ।। उत्सर्जनीयस्य त्यागरूपे आभ्यन्तरतपोभेदे, तद्भदः स द्विदव्वुज्जणा न जं जेण, जत्थ अवकिरइ दव्वभृयो वा । विनोबाह्य प्राभ्यन्तरश्च । तत्र बाटो द्वादशादिभेदस्योपधेरति रिक्तस्थानेषणीयस्य संसक्तस्यानपानादेर्वा त्यागः। आभ्यन्तरः जं जत्य वा वि स्वित्ते, जंजञ्चिर जम्मि वा काले ।।३७।। कषायाणां मृत्युकाले शरीरस्य च त्यागः। ननु उत्सर्गप्रायश्चिवितिरित्तो बब्वस्सगो अकिंचिक्कर सदोसंच कत्तुं जो जं द त्तमध्य वोक्त स्तत्कि पुनरत्र भएदेन सत्यं सोऽतिचारविशुब्वं बहेति तत्थ अकिंचिकरं जहा भिष्मं निखजायणं सदोसं व्यर्थमुक्तः श्रयं तु सामान्येन निर्जरार्थ इत्यपौनरुक्त्यम् ।प्रव० जहा विसकतमन्नियोगकतं वा एवमादि । अहवा जेण दवेण ६द्वाराध०। सानं० ।पश्चाoयथा भामेत्युक्तेसत्यभामेति गजत्थ वा व्वे दव्वलतो बडुति एस दव्युस्सग्गो ऊ हा जरहादी म्यते तथाऽत्राप्येकदेशेन समुदायाचगमात् कायोत्सर्गे,प्रव०१ हिं चक्कवट्टीहि नारहं बासं पञ्चयंतेहिं हितं । जो वा जं खेत्तयं चयति जम्मि वा खेले चयति किंचि जम्मि वा खेत्ते उरूगो व द्वा० । ( काउस्सम्गशब्देऽशेषवक्तव्यता ) "उस्सग्गंति" ई. णिजत्ति पचमादिको उस्सम्गो जो जं कालं उज्जति । जहा उपथनिमित्तं पञ्चविंशत्युच्चासप्रमाणं कायोत्सर्ग करोति । श्रो । सामान्योक्ती, ध०२ श्राधादर्श सामान्योक्तो धिउज्जातो वसंतो मेदणो ण वाहत्ति गडतो वा सिगेएवमादि। धिरुसगः यथा त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातविरतिः। दर्श। प्रहया खित्तकानं पप्प ण रीयिजति वासारत्ते वाण विहरिज पञ्चा० । इह विधित्सितस्य वस्तुनः कारणनिरपेक्षं सामान्यति । जश्चिरं व कालं नस्सम्गे जम्मि काले नस्समो वणिजति । [आ००५ अ.] जव्योज्झना तु व्योत्सर्गः स्वयं (जंति ) स्वरूपमुत्सर्ग उच्यते। वृ०४ उ०ा अभिप्रेतवस्तुस्वरूपनिर्वाच्य यद्न्यमनेषणीयमयकिरतीति योगः [ अधकारशत्ति ] नु कारणनिरपेकमुत्सर्गः । निचू० ११ उ० । "उस्सग्गो पोहो" त्सृजति (जेणेत्ति) येन करण नुतेन पात्रादिनोत्सृजति [जत्थति] उस्सग्गो पडिसेहो। नि० चू० १ उ० । श्रथोत्सर्गापवादयोयत्र भव्य व्युत्एजति उच्यतो वा अनुपयुक्तो वा नस्सृजांत एष धिविचारः। अथ योऽयं "न हिंस्यात्सर्वाभूतानी" त्यादिना ज्योत्सगांनिधीयते । द्वारं क्षेत्रोत्सर्ग उच्यते [ज जत्थ बा हिंसानिषेधः श्रौत्सगिको मार्गः सामान्यतो विधिरित्यर्थः वेदवि खेत्तेति यत् केत्राणदेशाद्युत्सृजति यत्र वाऽपि के उत्स विहिता तु हिंसाऽपवादपदं विशेषतो विधिरित्यर्थः। ततश्चापगों व्यावापर्यते एष केत्रोत्सर्गः। काझोत्सर्ग उच्यते [जं जश्चिर ज वादेनोत्सर्गस्य बाधितत्वान्न श्रीतो हिंसाविधिोषायोत्सर्गाम्मि वा कात्ति ] यं कासमुत्सृजति यथा भोजनमधिकृत्य रजनि पवादयोरपवादो विधिर्वलीयानिति न्यायात् । भवतामपि हि साधवः [ जश्चिरं वत्ति ] यावन्तं कालमुत्सर्गो यस्मिन् वा का न खल्वेकान्तेन हिंसानिषेधः तत्तत्कारणे जाते पृथिव्यादिप्रउत्सों घयते एप कानोत्सर्ग इति गाथार्थः । श्राव०५ श्र तिसेवनानामनुज्ञानात् ग्लानाद्यसंस्तरे श्राधाकर्मादिग्रहणभभायोत्सर्गान् प्रतिपादयन्नाह । णनाश्च । अपवादपदं च याज्ञिकी हिंसा देवतादिप्रीतेः पुष्टाल म्बनत्वादिति परमाशक्य स्तुतिकार श्राह नोत्सृष्टमित्यादि भावे पसत्थमि अरं, जेण व नावेण अवकिरइ जं तु । अन्यार्थमिति मध्यवर्ति पदं डमरुकमणिन्यायेनोभयत्रापि संबअस्संजमं पसत्थे, अपसत्ये संजमं चयई ॥ ३८॥ म्धनीयम् । अन्यार्थमुत्सृष्टमन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तमुत्सर्गवाक्यपबमादिणो आगमतो उस्सम्गो पसत्यो अपसत्थो अाणादाणं | मन्यार्थप्रयुप्तेन वाक्येन नापोद्यते नापवादगोचरीक्रियते यमेजातिमदादीण य अप्पसत्थोणाणादाण उज्णा जेण वानावण | वार्थमाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते तयोनिम्नोन्नतादिव्यवहारवचरति एरमादि[भा० चू०] नाव तिवारपरामर्श भावोत्सर्गों परस्परसापेक्षवनैकार्थसाधनविषयत्वात् यथा बैलाला संथ Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९५) नरुग्म भाभिधानराजेन्द्रः। तस्सग्गववाय मपरिपालनार्थ नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गस्तथाविधद्र- मत्राप्यवादी तारशे कार्ये ऽपवादमप्रतिपद्यमानो विनश्यति। किं व्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराभावे पश्चका. बरोगिणस्तीक्ष्णां क्रियामसहमानस्य मृद्धी क्रिया न कियते क्रियत दियतनयाऽनेषणीयादिग्रहणमपवादः सोऽपि च संयमपरिपा- एवेत्यर्थः यथतदेवमत्राप्युत्सर्गात्परिवष्टस्यापधादगमनम् । मनु लनार्थमेव । न च मरणकशरणस्य गत्यन्तराभावोऽसिद्ध इति किमुत्सर्गादपवादप्रसिद्धिरुतापवादादुत्सर्गस्य तत माह । वाच्यं “ सव्वत्थ संजमं सं-जमाउ अप्पाणमेव रक्सिज्जा । नयमविक्खनिमय,पसिफि उन्मयस्स निनाउ । मुच्चा अहवायाओ, पुणो विसोही नया विरई" इत्यागमात श्य अन्नुनपसिका, उस्सग्गववायगातुमा ।। तथा आयुर्वेदेऽपि यमेवैकं रोगमाधिकत्य कस्याश्चिश्वस्थायां यथोत्तमा प्रेक्य निम्नस्य प्रसिकिनिम्ना चोचतस्य प्रासिकिकिञ्चिस्वपथ्यं तदेवावस्थान्तरे तत्रव रोगे पथ्यमुत्पद्यतेहिंसा रित्येवमन्योऽन्यप्रसिकावुत्सर्गादपवादोऽपवादात्सर्गः प्रवस्था देशकालामयान्प्रति “यस्थामकार्य कार्य स्यात्कर्म कार्य तु सिक इति द्वायप्युत्सर्गापवादौ तुल्यौ। तदेवमुत्सर्गापवादधारमुवर्जयेत् " इति वचनात् यथा वनवदादेवरिणो सनं कोणधा क्तम् । इदानीमपधारमुच्यते। शिष्यः पृच्छति नगवन् किमुत्सतोस्तु तविपर्यय एवं देशाद्यपेक्कया ज्वरिणोऽपि दधिपानादि यो गर्गा अस्पे उतापवादा उच्यते तुल्या यत माह । ज्यमातथा च वैद्या: "कालाविरोधि निर्दिष्टं,ज्यरादौ लवनं हितम्। ऋतेऽनिलश्रमक्रोध-शोककामकृतज्वरात्" एवं च यः पूर्वम जावड्या नस्सग्गा, तावइया चेव हुँति भववाया। पथ्यपरिहारो यश्च तत्रैवावस्थान्तरे तस्यैव परिजोगः स खलु जावइया अववाया, उस्सग्गा तेत्तिया चेव ॥ उभयोरपि तस्यैव रोगस्य शमनार्थ इति सिकमेकविषयत्वमुत्स- यावन्त उत्सर्गास्तावन्तोऽपवादाः यावन्तोऽपवादास्तावन्त सत्स पवादयोरिति । जवां चोत्सर्गोऽपवादश्वान्यार्थः । “न दि-1 र्गाः कथमिति चेपुच्यते सर्वस्यापि प्रतिषेधस्यानुशाभावात् वये स्यात्सर्वाभूत्यानी" त्युत्सों हि पुतिगतिनिषेधार्थः अपवादस्तु ऽपितुख्याः । संप्रति सेयवसवते इति धारद्धयं ब्याविख्यासुराह। वैदिकहिंसाविधिदेवताऽतिथिपितृप्रीतिसंपादनार्थः अतश्च पर- सहाणे सहाणे, सेयावलिणे व हुंति खलु एए। स्परनिरपकत्वे कथमुत्सर्गोऽपवादेन वाध्यते तुल्यबत्रयोर्विरोध महाणपरहाणे, पहुंति वत्थूण निष्फबा ॥ इति न्यायात् निन्नार्थत्वेऽपि तेन तद्वाधनेऽतिप्रसङ्गात् । न च शिष्यः पृच्चति किमुत्सर्गःश्रेयान् पसषांश्च उतापवादः सूरिवाच्य वैदिकहिंसाविधिरपि स्वर्गहेतुतया ऽतिनिषेधार्थ एवे राह। पते खलु उत्सा अपवादाश्च स्वस्थस्थाने श्रेयांसोबलिति तस्योक्तयुक्त्या स्वर्गहेतुत्वनिनावनात् तन्मन्तरेणापिच प्रका नव नवन्ति । परस्थानऽश्रेयांसो दुर्घलाश्च । अथ कि स्वस्थान रान्तरैरपि नत्सिडिजावादत्यन्तरानावे खपवादे पक्कककीकारः । किं वा परस्थानमत प्राह । स्वस्थानपरस्थाने वस्तुनो निष्पस्या संप्रति किमुत्सर्गा अल्प उतापवादास्तथा उत्सर्गोऽपवादो को। अथ वस्त्वेष न जानामि किं तस्त्विति । उच्यते पुरुषोष. चा स्वस्थाने श्रेयान बनवांश्च । परस्थाने बनवानाप श्रेयांश्च स्तु तथा चाह। इत्याह । (सूत्रम) "नो कप्पर निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा आमे सान पवे अनि पमिगादिसए अववाश्यं जहा कप्पश् निग्गंथाण संयरो सहाणं, उस्सग्गो असदुणो परहाणं । वा निग्गीण वा पक्के तालपसंवे जिन्ने वा पझिगाहित्तप" इय सहाण परं वा, न हो व वत्यू विणा किंचि ॥ अथवा त्रिविधं सूत्रमुत्सर्गसुत्रमपवादसूत्रमुत्सर्गापवादसूत्रं च। संस्तरतो निस्तरत उन्सर्गः स्वस्थानमपवादः परस्थानमसतत्रौत्सर्गिकमापवादिकं चोक्तमुत्सर्गापवादसूत्रं पुनरिदम् । नो हस्यासमर्थस्य यः संस्तरीतुं न शक्नोति तस्यापवादः स्वस्थाकप्पर निग्गंधाण वाणिग्गथीण वा अनमन्नस्स मोय आदित्तए नमुत्सर्गः परस्थानमिति एवममुना प्रकारेण पुरुषसक्कणं वस्तु या आयमित्तए वा अन्नत्थागाढहिं रोगाश्यकेहि,, अथवा चतु विना न किंचित् स्वस्थानं परस्थानं वा किं तु पुरुषो वस्तुसंविधं सूत्रमौत्सर्गिकमापवादिकमुत्सर्गापवादमपवादौत्सर्गिक स्तरति नवेत्यतः पुरुषात् स्वस्थानं परस्थानं वा निष्पद्यते तत तत्राद्यानि श्रीएयुक्तानि चतुर्थमपवादौत्सर्गिकमिदं यथा “ चम्म | उक्तं प्राक् स्वस्थानपरस्थाने वस्तुनो निष्पन्ने गतं सूत्रद्वारम्वृ० मंसं च दनादिमा अघ्यिाण " प्राह उत्सर्ग इत्यपवाद इति ११०। प्रकीर्णकथायाम, "नस्सम्गो पइन्नकहा अववाभाणिवा कोऽर्थ उच्यते ॥ च्छयकहा" नि००५उ० । अपानवायोापारे, विष्ठात्सर्गत्यागे, नज्जयसग्गुस्सग्गो, अववाओ तस्स चेव पविक्खो। | दाने,समाप्ती, व्रतोत्सर्गः वार्षिकवेदपाउसमाप्ती च वाच । उस्मग्गा वि निवतियं, धरे सालबमववाओ। नस्सग्गढि-उत्सर्गस्थिति-स्त्री. मत्सर्गस्थाने, “उत्सम्मडिदउद्यतःसगाऽविहार उत्सर्गस्तस्य चोत्सर्गस्य प्रतिपक्कोऽपवाद- सुरूं जह दवं विवज्जय लन" निघू०१६ २०। कथमिति चेदत आह उत्सर्गादरमौदर्यादिषु विनिपतित प्रच्यु नस्सग्गरवाडय कसल-नस्सगोपवादिक शल-पु० उत्सगेसंज्ञानादिसालम्बमपवादो धारयति । ननु स उत्सम्गोऽपवाद श्व अपवादे नवमापवादिकं च तस्मिन् कुशलः । उत्सर्गागतः सन् कथं न जम्नव्रतो नवति उच्यते । पवादविषयविनागवेदिनि, दर्श० । अपवादे भवमापवादिकं धावंती नव्चाओ, मग्गन्नू किंन गच्छइ कमेणं । तस्मिन्नुत्सापधादिके कुशला विषयविभागवेदिन इत्यर्थः। किंवा मनई किरिया, न कोरए असहोतिक्खं ॥ ते ह्यत्सर्गापवादवेदितया समयानुरूपप्रवर्तमाना बोजगृहप्रस्तसर्वोऽप्यस्माकं प्रयासो मोक्कसाधननिमित्तं स च मोकं तथा सिंहकेसरिककपकसाधोरकालेऽपि दानदातृश्रावकवनिर्जरामासाधयति नेतरत् स्यान्तोऽयं यथा कोऽपि पाटलिपुत्रं गच्च धावन् | जो जायन्त इति । दश जो जायन्त इति । दर्श०॥ उद्वातः श्रान्तो जवति तथा म क्रमेण स्वनावगत्या मार्गऊः सन | उस्सग्गववाय-उत्सगोपवाद-पुंद्वि०प० इतरेतरन्तः। सा गच्छगत गच्चत्यवति नावः केवलं चिरेण तत्पाटसिपत्रमचानोति मान्योक्तविशेषोक्तविभ्योः, "सम्पयधायाणं वियाणगा सेषगा" यदि पुनः श्रान्तोऽपि धायात तदा अपान्तराम एव नियते एव उत्सर्गापवादयोः सामाग्योक्तविशेषोक्तविध्योर्षिापकाः । पञ्चा० Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सग्गववाय मभिधानराजन्नः। उस्सप्पिणी ११ विव०॥ "उस्समाववायाणं विसयविभागम्मि दक्याणं । बहु वा अनन्तगुणतया परिवहन्ते अशुभाइच हानिमुपगच्छन्तीघयणेण दुवयणमिति" प्राकृतनकणवशादुत्सर्गापवादयोः सा. ति ज्यो०२ पाई। मान्योक्तविशेषोक्तलकणयोः विषयिभागे गोचरविचित्तौ दवा अत्र पारकाः । णां कानाम् । जीवा०१ अधि०। (पादप्रोजनस्यात्सर्गिकत्वा- उस्सप्पिणी काणं भंते ! कतिविहे पाते गोयमा । पवादिकत्वविचार: पायपुरणशब्दे) छविहे पाणते ? तं जहा मुस्समदुस्समाकाले १ जाव उस्सग्गववायकुसल-उत्सर्गापवादकुशल-पुं० सामान्योत्तो वि सुसमसुसमाकाने॥ धिरुत्सर्गः यथा त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातविरतिर्विशेषो एवमुत्सर्पिणीसूत्रमपि नाध्यं परं पापि काक्षा व्यत्ययेन नाको विधिरपवादः यथा "पुढवाइसु आसया, सप्पाणे कारण- व्या यथाऽवसर्पिण्यां षष्ठः कालो दुःषमाख्यः स एवात्र प्रथमा म्मि जयणाए। मिगरहियस्सठियस्स, अवधाओ होइ नायचो"। यावत् सुषमरुपमाकासः षष्ठ इति । अं० २ वक्व० । स्था। सत्र कुशलः दर्श० । प्रवचनकुशमभेदे, । सांप्रतमुत्साएमादपु भ० । ग्रा.चू (सुषमसुषमाद्यानां वर्णकः ओसप्पिणी शब्द शानिधानी तृतीयचतुर्थदौ युगपदनिधित्सुर्गाथोत्तराईमाह यदयते) एवमत्रापि शेयः केवझमरकविपर्ययः कर्तव्यः । “ोसउस्सग्गववायाणं, विसयविभागं बियाणाइ ।। ५३ ॥ प्पिणीप एसी कालविभागो जिहि निहिट्ठो पसो चिय सत्सर्गापवादयोजिनप्रवचनप्रतीतयोर्विषयविजागं फरणाकर- | पडिझोमं विनेो उस्सप्पिणीए वि" नं0 । य एवं प्रागवसर्पिणप्रस्ताव विशेषेण जानाति अवगच्छति । अयमत्राभिप्रायः नो | एयां सुषमसुषमादयः कामविनागा उक्ता एत एवोत्सपिण्यामसर्गमेव केव समाजम्यते नाप्यपवादमेव प्रमाणीकरोति किं तय पि भवान्त ज्ञातव्याः नवरं चिन्नागेषु परिपाटिः प्रतितोमेन इातचनपुरश्रावकालमुदायवत् तयोरवसरमवबुध्यते । उक्तं च । “ठ व्या तद्यथा प्रथमः कारधिनागोषमःपमा द्वितीयो फुपमा, प्रयमविक्वनिम्नस्स, पसिकि जन्नयस्स श्यराम्रो । श्य अन्मुन्न- तृतीयो दुःषमसुषमा, चतुर्थः सुषमदुःपमा, पञ्चमः सुषमा, षष्ठः पलिका, नस्सग्गववायगा तुह्या" ज्ञात्वा च यथाऽयसरं तयोर्वि सुषमसुषमेति (ज्यो. २ पाहु ) सांप्रतं प्रागुहियानुत्सर्पिणी षये स्वल्पव्ययां बहुमाभांप्रवृत्तिमातनोतीति ध०र०। (अय. निरूपयितुकामस्तत्प्रतिपादनपूर्वकं ततः प्रथमारकस्वरूपमाह ॥ सपुरशब्दे तद्वतव्यतोक्ता) तीसे एं समाए इक्कीसमाए वाससहस्सेहिं काले वीउस्सग्गववायधम्मता-नत्सर्गापवादधर्मता-स्त्री० प्रतिषेधानुका इकते थागमोसाए उस्स.प्पिणीए सारणबनुलपविए वासवणतायाम, | "काम सञ्चपदेसु वि, उस्सग्गयवायधम्मता जु लवकरणंसि अभोइणखत्ते चोइसपढमसमये अणंतेहिं सा। मोत्तुं महु गन्नावं, विणा तं रागदोसेहि । उस्सग्गो पनिसेहो अववातो अणुमाधम्मतालपत्रणताजुत्ता जुजते घटत इ वमपज्जवेहिं जाव अम्तगुणपरिवुझीए परिवरमाणे परित्यर्थः।" निचू०१० । चुमाणे एस्थ णं दूममदूरामा एमं समा काले पम्विन्जिउस्सग्गमुत्त-उत्सर्गसूत्र-न० श्रौत्सर्गिकार्थप्रतिपादके सूत्रनेदे, स्सइ समणान्सो। त.से णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स वृ०१०। [सुत्तशब्दे इदं व्याख्याभ्यते] केरिसए आगारनावपडोभारे भविस्सइ गोत्रमा ! काले उस्सग्गिय-औत्सनिक-घि उत्सर्ग सामान्यविधिमर्हसि धम् | भविस्सह हाहाए जाभूए एवं सो चेव दूसमसमावे सामान्यविधियोग्ये, स्त्रियां जी स्या। दो अव्यो। उस्मएण-उत्सन-त्रि० न्दू-सद्-त-अनुत्साहोरसनेसच्चे तस्यां समायामयसर्पिण्या दुःषमानाम्न्यामेकविंशत्या वर्ष८।१।१४ इत्युत्सन्नपयुदासानादेरत उत्वम् प्रा० नचिन्ने, नष्टे च । सहस्रः प्रमिते काले व्यतिक्रान्ते आगमिष्यन्त्यामुत्सपियां पाच०। वसन्तपुरवास्तव्यः, कश्चिदुत्सन्नवंशकः । देशान्तरं - धावणमासस्य बहुनप्रतिपदि कृष्णप्रतिपदि पूर्वावसपिण्या: जन् सोऽथ, तोडगादूनौतपद्धिकाम् । आक०। भाषाढपूर्णिमापर्यन्तसमये पर्यवसानत्वात् पानधनाम्नि करणे उस्सएण-देशी-बाहुल्ये, “लस्सरणं देयासायं धेयक पति कृष्णप्रतिपत्तिथ्यादिमाऽस्यैव सद्भावात् । अभीचिनकचे चन्छ ण योगमुपागते चतुर्दशानी कामविशेषाणां प्रथमसमये प्रारबरसाणं बाहुट्येन प्रायेणेत्यर्थः । कर्मक। व्य० । “उसएणमं म्नक्षणेऽनन्तर्वर्णपर्यवैर्यावदनन्तगुणपरिवृद्धया परिघईमानः ।असाहाराज. ७श ७ उ० । एकान्ते, " उस्समा अक्खणसं प्रान्तरे दुण्यमयुष्यमानाम्ना समः कालः प्रतिपत्स्यते हे श्रमण ! जया"निघू०३०। उस्सरणं माम कोतिवाधारंवहतिप्रमि आयुष्मन् ! इति वर्णादीनां वृद्धिश्च येनैव क्रमेण पूर्वमवसापायतमित्यर्थः । अक्षणं स च लोगो आयरति । (न चू०१० उ०। रकेषु हानिरुता तथैवात्र घाच्या चतुर्दशकालविशेषा पुनः निःजस्तमहास- ननदोष- पुं० उत्सनमनुपरतं सादुल्येन श्वासापुच्चासाद्वा गण्यते समयस्य निर्विभागकासन्येनाद्यन्तप्रवर्तत इत्युत्सन्नदोषः। रोऽध्यानस्य प्रथमे लिङ्गे, आव०४०। व्यवहाराभावादावलिकायाश्चाव्यवहार्यत्वेनोपेवा । तत्र निःउस्सप्पिणी- नत्सर्पिणी- स्त्री० उत्सर्पन्ति शुभा जावा अ श्वासः उच्चासो वा १ प्राणः २ स्तोकः ३ भवः ४ मुहूर्तः ५ स्यामित्युत्सर्पिणी ज्या०२ पाहु । उत्सर्पति धर्फते अरकापेक्कया अहोरात्रं ६ पक्वः ७ मासः ऋतुः ए श्रयनं १० संवत्सर ११ पर्धयति वा क्रमेण पुगदीन भावानित्युत्सर्पिणी। अं०२ वक। युगं १२ करणं १३ नकलम १४ इति एतेषां चतुर्दशानां मध्ये प. । भ० । दशसागरोपमकोटाकोटीपरिमाणे, शुननावक- चसूत्रसत्का दुक्तानामपरेषां चोपलकणं संगृहीतानांप्रथमसमजनावहानिकारके कालभेदे, आ० म०प्र० । अनु। विशे०।। ये कोऽर्थः य एव हि एतेषां चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमः सइससागरोवमकोमाकोमीओ कालो लस्सपिणीए स्था०१०- मयः स एबोत्सर्पिणीप्रथमारकप्रथमसमयः । अवसर्पिणीसगा। आ० म०वि०।। उत्सपियां च क्रमेण शुभा ना. कानामेषां द्वितीयाऽऽपाढपौर्णमासीचरमसमयः एवं पर्यवसा Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९७ ) नस्सप्पिणी अन्निधानराजेन्द्रः। उस्साप्पिगी मात् इदमुक्तं भवति अवसर्पिण्यादौ महाकाले प्रथमतः प्रव- | म्मन्नयवाद्वतणपव्यय हरितगओप्तहिपवाझंकुरमाईए तस्स समाने सर्वेऽपि तदवान्तरभूताः काझविशेषाः प्रथमत एव यु षणप्फइकाइए जणइस्सइ तसि चणं अमयमेहंसि सत्तर गपत् प्रवर्तन्ते तदनु स्वस्वप्रमाणसमाप्ती समाप्नुवन्ति तथैव णिवत्तितास समाणं सि एत्य णं रसमेहे णाम महामेह पुनः प्रवर्तन्ते पुनः परिसमाप्नुवन्ति यावन्महाकालपरिसमाप्तिरिति । यद्यपि प्रन्थान्तरे ऋताराषाढादित्वेन कथनादुत्सपि पाउब्मविस्ताइ । नरहप्पमारणमित्त आयामेणं जाव वासंगयाश्च श्रावणादिखे अस्य प्रथमसमयो न संगच्छते ऋत्य वासिस्सइ जेणं तेसिं बहूणं रुक्रवगुच्चगुम्मायवसितणपकंस्य गतत्वात् तथापि प्रावृ श्रावणादिवर्षाराम्रोऽश्वयुजादिः व्यहारितोसहिपवालंकुरमादोणं तित्तकमुअकसायअंशरन्मार्गशीर्षादिहेमन्तो माधादिर्वसन्तश्चैत्रादिष्मो ज्येष्ठादि- विनमहुरे पंचविहे रसविसेसे जणइस्स तएणं भरहे वासे भगवतीवृत्तिवचनात् श्रावणादित्वपक्काश्रयणेन समाधेयमिति न दोषः। किंचेदं सूत्र गम्भीरग्रन्थान्तरेच व्यक्तानुपलभ्यमानभा. जविस्सइ परूद्वरुक्खगुच्छगुम्मलयावसातणपव्ययहरिवार्थ कपनान्यथाप्यागमाविरोधेन मध्यस्थैर्यहुश्रुतैः परिजावनी. ओसहिए उपचिअतयपत्तपवालंकुरपुप्फफझसमुभए सहोवयमिति । अथात्र कामस्वरूपं पृच्चति "तीसणमित्यादि"सर्वसु- भोगे प्राविभविस्सइ। गर्म नवरं पुष्पमदुष्षमाया:अवसर्पिणीषष्ठारकस्य वेष्टको वर्णको 'ते णमित्यादि ' तस्मिन् काले सरसर्पिण्यां द्वितीयारकमवणे नेतन्यः प्रापणीयस्तन्मानत्वादस्याः गतः उत्सर्पिण्याः प्रथमोऽर: तस्मिन् समये तस्यैव प्रथमसमये पुष्कसं सर्वमानानुनावरूपं अथ द्वितीयारकस्वरूपं वर्णयति । जरतनूरौक्यदाहिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयति नाशयतीति तीसणं समाए एकव साए वाससहस्सेहि काझे वीइ- पुष्कलसंवर्तकः स च पर्यन्यप्रभृतिमेघत्रयापेक्वया महान् मेघो कते अणं तेहि वमपज्जवेहिं जाव अणंतगुग्णपरिवुटीए परि-| दशवर्षसहस्रावधि एकेन वर्षणेन भूमीवकत्वात् महामेघः वुमाणे परिखुमाणे एत्य णं दूसमा णामं समा काने प्रादुर्नविष्यति प्रकटीभविष्यति भरतकेत्रप्रमाणेन साधिकैकस ततिचतुःशताधिकचतुर्दशयोजनसहस्ररूपेण मात्रा प्रमाणं यस्य पमिव जिस्सइ समणांउसो ।।। स तथा । केनायामेन दीर्घनावन । अयं नावः पूर्वसमुकादारज्य तीसेणमित्यादि सर्व सुगमनवरमुत्सर्पिणीद्वितीयारकइत्यर्थः पश्चिमसमुद्रं यावत् वादलकं व्याप्तं भविष्यतीत्यर्थः तदनुरूपश्च अथाऽवसर्पिणीदुषमातोऽस्या विशेषमाह। तस्य जरतक्षेत्रस्याऽनुरूपः सदृशः सूत्रे च लिङ्गव्यत्ययः प्राकृततेणं कालेणं ते णं समए णं पुक्खलसंवट्टए णामं महामेहे स्वात् क्रियाविशेषणं वा केनेत्याह विष्कम्नबाहत्येन अत्र समापाउभविस्सइ भरहप्पमाणमित्ते आयामेणं तदारूवं च हारद्वन्द्ववशादेकवद्भावः कोऽर्थः यावान् व्यासो नरतत्रस्य - णं विक्खंजबाहोणं तए णं से पुक्खले संवट्टए महामेहे घुस्थाने पञ्चशतयोजनानि पविशतिर्योजनानि षट्कामायोजन कोनविंशतिनागरूपास्तदतिरिक्त स्थानतु अनियततया तथाऽस्याखिप्पामेष पतणतणास्स खिप्पामेव पतणतणाइत्ता खि पिविष्कम्नः बाइख्यं तु यावता जलनारेण यावरगाढनरतकेप्पामेव पविज्जुश्राइस्स खिप्पामेव पविज्जुआइत्ता खि-| प्रतप्त नूमिमा कृत्य तापः उपशाम्यते ताबजादनिष्पन्नमेव प्पामेव जुगमसनमुट्टिप्पमाणमित्ताहिं धाराहिं उघमेघ सत्त-| ग्राह्यमिति । अथ स प्रादुर्भूतः सन् यत्करिष्यति तदाह "तरणरत्तं वासंचासिस्स जेणं जरहस्स वासनूमिनागं इंगाल- भित्यादि" ततश्च स पुष्करसंवर्तकमेघः किप्रमेवाबमकाल एय 'पतणतणाश्स्सत्ति' अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षण स्तनितं भूभं मुम्मुरनूनं छारीअनुवं तत्तकवेल्लुगनूनं तत्तसम करिष्यति गर्जिष्यतीत्यर्थः । तथा च कृत्वा 'पविजुत्ताइस्ससि' जोइभूतं णिव्वाविस्सइ तसि च णं पुक्खनसंवगंसि | प्रकर्षेण विद्युतं करिष्यति तथा च कृत्वा किप्रमेव युगं रथावयमहामेहंसि सत्तरतं णिवतितंसि समाणंसि एत्य णं खी- वविशेषः मुसलं प्रतीतं मुष्टिः पिहिमताङ्गत्रिकः पाणिः येषां यत् रमेहे णामं महामेहे पानभविस्स जरहप्पमाणमेत्ते आया प्रमाणमायामबाहल्यादिनिस्तेन मात्रा यास तानिःश्यता प्रमामेणं तदारूवं च णं विक्खंभवाहोणं तए णं से खीरमेह णेन दीर्घानिःस्यूलानिरित्ययः धारानिः श्रोधेन सामान्येन सर्वत्र निर्विशेषेण मेघो यत्र तं तथाविधं सप्ताहोरात्रान् वर्षे घर्षिणाम महामहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाव खिप्पामेव प्यति वर्षा करिष्यतीत्यर्थः । जे णमिति पूर्ववत् जरतस्य वर्षस्य जुगमुसलमुठि जाव सत्तरत्तं वासं वासिस्सः । जेणं जर केत्रस्य नूमिभागमङ्गारनूतं मुर्मुरजूतं कारिकनूनं तप्तकवेल्युहेवासस्स चूमीए वसं गंधं रसं फासं च जणइस्सइ तसि कनूतं तप्तसमज्योतिर्भूतं निर्वापयिष्यति स पुष्करसंवर्तको महाच णं खीरमेहंसि सत्तरत्तणिपतितं समापंसि इत्यणं घय- मेघः । अथ द्वितीयमेघवक्तव्यमाह । तंसि च णमित्यादि तस्मिश्च मेहे णामं महामेहे पानम्भविस्सइ । भरहप्पमा,मेते आ चशम्दो वाक्यान्तरपारम्भार्थः पुष्कनसंवर्तके महामेघे सप्तरात्रं यावनिपतितेसति निर्भरंवृष्टे सति। अत्रान्तरे कीरमेघो नाम महायामेणं तदणुरूवं च णं विक्खंजवाहोणं तएणं सेघयमेह मेघः प्रादुर्नविष्यति शेष तरतेत्यादि प्राग्वत् । श्रथ स प्रानमहामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्स जाव वासं चासिस्सइ। वन् किं करिष्यतीस्याह 'तपणमित्यादि' अत्र चासिस्स पर्यन्नं जेणं जरहस्स वासस्स जूमाए सिणेहभावं जाणइस्सइ तसि प्राम्बत् यो मेघो जरतस्य वर्षस्य नृम्या वर्ण गन्धं रसं स्पर्श च एं घयमेहंसि सत्तरत्ता शिवतितंसि समाएं सि एत्थ एं च जनयिष्यति । अत्र वर्णादयः गुना एव ग्राह्याः येत्यो बोको अनुफूलं चेदयते अशुनवादियः प्राक्कालानुनाये जनिता वर्तन्स अयमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्मइ जरहप्पमाणमित्ते एवेति ननु यदि शुभवर्णादीन् जनयति तदा तरुपदिषु नीसो आयामेणं जाव बासं वासिस्सइ भरहे वासे रुवस्वगुच्छगु- पो जम्बूफलादिषु कृष्णः मरिचादिषु कटुको रसः का. Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नस्सप्पिा अभिधाजराजेन्षः। नस्सप्पिणी रवेल्लादिषु तिक्तः चणकादिषु रुकः स्पर्शः सुवर्णादिषु गुरुः क्र- कुरपुष्फफलसमुइअं सुहोवयोगं जायं चावि पासिहिति कवादिषु स्वरः इत्यादयोऽशुभवर्णादयः कथं संनवेयुरित्युच्यते पासित्ता विलहिं जो णिस्संति णिट्ठाइत्ता हतुट्ठा अ. अशुभपरिणामा अप्येते अनुकूलवेद्यतया शुभा एव यथा मरि मम सदाविरसंति सदाविस्संतित्ता एवं वदिस्मंति जातं एवं चादिगतः कटुकरसादिः प्रतिकृयवेद्यतया शुजा अप्यशुभा एव यथा कुष्ठादिगतः स्वेतवर्णादिरिति । अथ तृतीयमेधवक्तव्यमाह देवाणप्पिा भरहे वासे परूढरुक्खगुच्छ मुम्मलयवान्वितण"तंसि इत्यादि " तस्मिन् वीरमेघे सप्तरात्रं निपतिते सति पचयहरिअ जाव सुहोवनोगं जेणं देवाणप्पिया अम्हं अत्रान्तरे घृतवत् स्निग्धो मेघा घृतमेधो नाम्ना महामेघः प्रा के अजप्पलिई असुभं कुणिमं श्राहारिस्सइ से णं अणेभविष्यतीत्यादि सर्व प्राग्वत् । अथ स प्रापुतः किं करिप्यतीत्याह (तएणमित्यादि) सर्व प्राम्यत् नवरं यो घृतमेघो गाहिं लायाहिं वज्जणिज्जे तिकडे संविई वेस्संति ठवे. भरततमः स्नेहनावं स्निग्धता जनयिष्यतीति । अथ चतुर्थमेघ स्संतित्ता जरहे वासे मुहं सुहेण अभिरममाणा अभिरमवक्तव्यमाह " तंसि इत्यादि " तस्मिश्च घृतमेघे सप्तरात्रं नि- माणा विहरिस्संति ॥ पतिते सति अत्र प्रस्तावे अमृतमेघो यथार्थनामा महामेघः प्रा- | 'तएणमित्यादि' ततस्ते मनुजा नरतवर्षे यावत् सुखोपनोग्य पुर्नविष्यति यो वर्षिष्यति इति पर्यन्तं पूर्ववत् । यो मेघो भरते चापि द्रदयन्ति दृष्ट्वा विलोक्य निविष्यन्ति निर्गमिष्यन्ति निवर्षे वृत्ता गुच्छा गुल्मा बता वल्ल्यः तृणानि प्रतीतानि पर्वजा काव्य दृष्टा आनन्दितास्तुष्टाः सन्तोषमुपगताः पश्चात्कर्मधारयः । श्क्वादयः हरितानि दूर्वादीनि औषध्यः शाल्वादयःप्रवाला प- अन्योन्यं शब्दायिष्यन्ति शब्दायित्वा च एवं वदिष्यन्तीति । अथ ल्लवाः अङ्कराःशाल्यादिवीजसूचयः इत्यादीन् तृणवनस्पतिका- ते किंवरिष्यन्तीत्याह । “जातं णमित्यादि"जातंनो! देवानुप्रिया! यिकान् वादरवनस्पतिकायिकान् जनयिष्यतीति । अथ पञ्चम- भरतं वर्ष प्ररूढवृक्कं यावत्सुखोपभोग्यं तस्माद्भो! देवानुप्रिया!अ. मेघस्वरूपवक्तव्यमाह "तंसिचणमित्यादि" व्यक्तं परं रसज- स्माकमस्मजातीयानां कश्चिदद्य प्रभृति अशुभं कुणिमं मांसनको मेघो रसमेघः यो रसमेघस्तेषाममृतमेघोत्पन्नानां बहनां माहारमाहारयिष्यति स पुरुषोऽनेकानिभायानिः इत्यं भावे वृताद्यङ्करान्तानां वनस्पतीनां तिक्तो निम्बादिगतः कटुको म- तृतीया सहनोजनादिपङ्किनिषामा याश्वायाः शरीरसंबन्धिन्यरिचादिगतः कषायो विभीतकामलकादिमतः अम्झोऽम्लका- स्तानिर्वर्जनीयः। अयमर्थः प्रास्तां तेषामस्पृश्यानां शरीरस्पर्शः द्याश्रितः मधुरः शर्कराद्याश्रितः एतान् पञ्चविधान रसविशे- तच्चरीरच्ययास्पशोऽपि वजनीयः क्वचिद् 'वजे' इति सूत्रपाठे तु पान् जनयिष्यति । बवणरसस्य मधुरादिसंसर्गत्वादेतदनेदेन वयों वजनीय श्त्यर्थ इति कृत्वा संस्थितिं मर्यादां स्थापयिष्यविवकणात संभाव्यते तश्च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः सर्व न्ति स्थापयित्वा च जरतवर्षे सुखं सुखेनाभिरममाणा अन्निरममारसानां लवणप्रकेप एव स्वापुत्वोत्पत्तेः तेन पृथग निर्देशः। णा सुखेन क्रीमन्तः क्रीमन्तो विहरिष्यान्त प्रवतिष्यन्त इति ॥ एषां च पञ्चानां मेघानां क्रमेणेदं प्रयोजनसूत्रमुक्तमपि स्पष्टी अथ नरतनूमिस्वरूपं पृच्छति । करणाय पुनबिख्यते । आद्यस्य भरतमेदाहोपशमः द्वितीय- | से णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयास्य तस्या एव गुजवर्णगन्धादिजनकत्वं तृतीयस्य तस्या एव रभावपमोआरे जविस्सइ गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे नृस्निग्धताजनकत्वम् ।न चात्र कीरमेधेनैव शुभवर्णगन्धरसस्पर्शसंपसी नूमिस्निग्धतासंपत्तिरिति वाच्यं स्निग्धताधिक्यसंपा मिभागे जविस्सइ जान कत्तिमहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव । दकत्वात्तस्य न दि यादृशी घृते स्निग्धता तादृशी कीरे - तासे णं भंते ! समाए मा आणं केरिसए आयारजावरमा श्यत इत्यनुभव एवात्र साती । चतुर्थस्य तस्यां वनस्पतिजन- आरे भावस्सइ गोत्रमा! तेसि णं मा आणं छब्बिहे संकत्वं पञ्चमस्य वनस्पतिषु स्वस्वयोग्यरसविशेषजनकत्वं यद्य घयण छाब्वह संठाणे बईईओ रयणीयो उठं उच्चत्तेण प्यमृतमेघतो वनस्पतिसंभवे वर्णादिसंपत्ती तत्सहचारित्वात् रसस्य संपत्तिस्तस्मादेव युक्तिमती तथाऽपि स्वस्वयोग्यरस जहमेणं अंतो मुहुर्त उकोसेणं साइरेगं वासरूयं पाअं विशेषान संपादयितुं रसमेघ एव प्रक्षुरिति तदा च यादृशं ज- पालेहिंति पाहितित्ता अप्पेगा णिरयगामी जाव अप्पेरतं तादृशं तथा चाह । 'तए णं जरहे वासे' इत्यादि तत उक्त- गा देवगामी ण सिति । स्वरूपपश्चमेघवर्षणानन्तरं णमिति पूर्ववत् । भरतं वर्ष नविष्य- 'तीसे णमित्यादि'सर्व पूर्ववत् नगु कृत्रिममण्यादिकरणं तदाति कीदृशमित्याह । प्रस्ढा उमता वृक्का गुच्ग गुल्मा लता व- नीतनमनुजानामसंनवि शिल्पोपदेशकाचार्याजावामुच्यते द्वितीत्यस्तृणानि पर्वजा हरितोषधयश्च यत्र तत्तथा । अत्र समा- यारे पुरादिनिवेशराजनीतिव्यवस्थादिकृज्जातिस्मारकादि पुरुषसे कप्रत्ययः पतेन वनस्पतिसत्ताऽनिहिता । उपचितानि पुष्टिम- विशेषधारा वा केत्राधिष्ठायकदेवप्रयोगेण वा कामानुभावजपगतानि त्वक्पत्रप्रवामपन्दवाडूरपुष्पफनानि समुदितानि सम्य- नितनैपुण्येन वा तस्य सुसंनवत्वात् कथमन्यथाऽत्रैव ग्रन्थे प्रकप्रकारेण उदयं प्राप्तानि यत्र तत्तथा क्तान्तस्य परनिपातःप्राक- स्तुतारकमाश्रित्य पुष्करसंवर्तकादिपञ्चमहामेघवृपयनन्तरं वृ. तत्वात् । एतेन वनस्पतिषु पुष्पफसान्ता रीतिर्दर्शिता। अत एव कादिनिरोषच्यादिभिश्च भारायां संजातायां जरतन्नूम्यांतत्कासुखोपभोग्य सुखेनासेवनीयं नविष्यति अत्र वाक्यान्तरयोजना लानमनुजा विज्यो निर्गत्य मांसादिभवणनियममर्यादां विथमुपात्तस्य भविष्यति पदस्य न पौनरुक्यं नावनीयमिति । धास्यन्ति तद्वोपकं च पङ्कवहिः करिष्यन्तीत्यर्थानिधायकं प्राअथ तत्कालीना मनजास्तादृशं भरतं गुक्तं सूत्रं संगच्चत इति । अथ मनुजस्वरूपमाह । 'तीसेणमिदृष्ट्वा यत् करिष्यन्ति तदाह। त्यादि' सर्व अवसर्पिणीदुण्यमारकमनुजस्वरूपवद्भावनीयं नवरं तए ण तेमणुा भरहं वासं परुदरुक्खगुच्छगुम्मलयव (सि िति) सकलकर्मवयलक्वणां सिद्धि न प्राप्नुवन्ति चरदि.ताणपन्वय हरिअोम हए नवचिअतयपतवालपझव णधर्मप्रवृन्यनावात् । अत्र भविष्यनिर्देद प्रार्वर्तमान निर्देशः प. Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९९) श्रभिधानराजेन्द्रः । उस्सप्पिणी काल युक्तितः समाधेयः इत्युत्सर्पिष्यां द्वितीयारके "तीसे णं समाए एकवीसार वास इत्यादि" तस्यां समायां पुष्यमानान्यामेकविंशत्या वर्षसहस्त्रैः काले व्यतिक्रान्ते श्रनन्तैर्वपर्यवैर्यावत् प रिवर्द्धमानः । श्रत्रावसरे दुष्पमसुषमा नाम्ना समः उत्सर्पिणी तृतीयारकः प्रतिपत्स्यते हे श्रमणेत्यादि प्राग्वत् । तीसेमित्यादि सर्वे प्राग्वत् । श्रवसर्पिणीचतुर्थारकसदृशत्वमुत्सर्पिणी तृतीयारकस्येति तत् सादृश्यं प्रकटयन्नाह । तीसेणमित्यादि प्रायः प्राख्याख्यातार्थम् | तीर्थे करास्त्रयोविंशतिः पद्मनाभादयश्चतुर्विंशतिमस्य भद्रकृन्नाम्नश्चतुर्धारके उत्पस्स्यमानत्वात् एकादश चक्रवर्तिनो भरतादयो वीरचरित्रे तु दीहदन्तादयः द्वादशस्यारिष्टनाम्नश्चतुर्थार के एव भावित्वात् । नवबलदेवा जयन्तादयः नव वासुदेवा श्रानन्द्यादयः समुत्पत्स्यन्ते यतु तिलकादयः प्रतिविष्णुवो वा नेहोकास्तत्र पूर्वोक्त एव हेतुरवसातयः । गतस्तृतीयार उत्सर्पिण्याः ॥ अथ चतुर्थः । तीसे णं समाए एकबीसाए वाससहस्से काले वीइकंते अणतेहिं पज्जवेहिं जाव परिवमाणे परिवमाणे एत्थ दुस्समसमा णामं समा काले पार्डवज्जिस्सइ समरणाउसो । तीसे एां जंते ! समाए भरइस्स वासस्स के रिसए आयाराव मोरे भविस्सर गोमा ! बहुसमरम पिज्जे जात्र अकत्तिमेहिं चैव तेसि णं जंते ! माणं केरिसए आयारामोयारे भविस्य गोमा तेसि एणं मणुश्राणं afort संघणे हे संत्रा बढ़ई धणूहिं न उच्चतेजहोणं अंतोमुत्तं उकासेणं पुण्वकोमी आनं याबिर्हिति प्रालिहिंतित्ता अप्पेगइ गिरयगामी जाव करेहिंति । ती सेणं समाए तो वंसा समुप्पाजस्संति तं जहा तित्यगरसे चकवट्टिवसे दसारवंसे । तीसे एां समाए तेवीस तित्यगरा एक्कारस चक्कवट्टी एव बलदेवा एव वासुदेवा ममुपज्जिस्संति ॥ 'तीसे समित्यादि' तस्यां समायां सागरोपमकोटाकोया द्विचत्वारिंशतां वर्षसहस्त्रैरनियता कालव्यतिक्रान्ते श्रनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावद्वर्द्धमानोऽत्र प्रस्तावे सुषमदुष्षमा नाम्ना समः कालः उत्सर्पिणी चतुर्थारक लक्षणः प्रतिपत्स्यते । अथ पञ्चमषष्ठावतिदेशत आह । तीसे गं समाए सागरोवमकोमीए वा पालीसाए वासमहस्संहिं ऊणिआए काले वीइकंता अणतहिं नापज जावतगुणपरिवृड्कीए परिवुडमा परिवुडमाणे एत्थ णं सुसमसमा एामं समा काभ्रे पडिवज्जिस्स समास । साणं समा तिहा विभाजिस्सई पढमे तिजांग ममेतिभागे पछि तिनागे । तीसे एवं भंते! समाए पढमे तिजार भरहस्स वास्स केरिसए आयारभाव पारे विस गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे जाव भविस्सई | म पंजाव उसप्पिणीए पच्छिमे तिभागे वतव्वया सा भाणि अन्ना कुलगरवज्जा उसजसा मित्रन्जा । असे पत उस्सप्पिणी ती समाए पढमे तिभाए इमे परम कुलगरा समुप्यज्जिसंति तं जहा सुमई जात्र उसमे सेसं तं चैव दंडणी इत्रां पडिलोमाओ वाओ । तीसे एां समाए पढमं तिजाए रा धम्मे जाव धम्मचरणे अव्वोच्छिज्जिस्सइ । ती से गं समाए मज्झिमचिमेसु तिजागेसु जाव पडममज्झिमेसु वत्तव्वया सपिणी एसा जाणिव्वा सुसमा तहेव सुसमसमा वि तहेव जाव बम्विहा मगुस्सा अणुसज्जिस्मंति जाव सणिचारी ॥ सुषमा पञ्चसमालक्षणः कालस्तथैवाऽवसर्पिणीद्वितीयारकवदिति । सुपमसुषमा पष्ठारकः सोऽपि तथैव श्रवसर्पिणीप्रथ मारकसदृश इत्यर्थः । कियत्पर्यन्तमत्र शेयमित्याह यावत् प विधा मनुष्या अनुसंक्ष्यन्ति संतत्या अनुवर्तिष्यन्ते यावच्छनैश्चारिणः । यावत् पदात् पद्मगन्धादयः पूर्वोका पत्र ग्राह्याः गतौ पञ्चमषष्ठी तमने चोत्सर्पिणी गता तस्यां च गतायाम बसवित्युत्सध्विणीरूपं कालचक्रमपि गतम जं० २ क्ष० । एवं बडेर उस्सप्पिणीए समत्ते वि पढमे अरए एता चैव वतव्वया तम्मि बोल । वोयारपयारंजे मत्ताहं पंचमहाजार हे वासे वा सिस्संति कमेणं तं जहा पढमो पुक्खरातो तात्रं निव्वावेहि वो ओखी रोदो वन कार। तर श्रो नेहकार त्यो अभि सहिकरो पंमोरसोद भूमीए सस्सजरणरणो ते य विलवासिलो पइसमयं मास राज पुढहविसुहं दहूण विभेदितो निस्सरंति धनं फलाई झुंजता मंसाहारं निवारइस्संति तम्रो मज्जदोससुतकुलगरा जविस्संति तत्थ पढमो विमलवाहणो सुवामो त संग चन्त्यो सुपासो पंचमो दत्तो वो मुझे सत्तमो सम्मुची जाइसमरणेणं विमलवाहणं विवाह नगराइ निवे काहीं अंग्गिम्पि उत्पन्ने पाni सिप्पा कालाउ लोगववहारं च सव्वं पवतेहित गुणनवइपक्खसमझिए हिए उस्सप्पिणीश्ररयदुगे ते पुंसे सहारे पुरे संमुनरवणे भद्दाए देवीए चउदसमहामुमिरणसूत्रो से शिवराय जीवो रयप्पजाए बोलुबुकयपच्छडा चुलसीई बाससहस्साई आ पालिता बट्टो समाणो कुच्छिसि पुत्तताए उववज्जिहि वपुष्पमाणलचणउगिन्भावहारवज्जं पंचकल्याणयाणं मासनिर्हि नखत्तारिण जहा मम तव भविस्संति नवरं नामे पनाहो देव सेणो विमलवाहणो अ । तत्र वीयतिFree सुपासाजीव सूरदेवो तइओ उदाइजी वो सुपासां त्यो पोलिजीवो सयंपजो पंचमो दयओजीवाओ सव्वाणनूई छट्ठो कित्तियजीवां देवमु सत्तमो संजीवोदय म आणंदजीवो पेटालो नवमो सुनंदा जीयो पोहिलो दसमो सयगजीवो सयकित्ती एक्कारसमी देवजीवो मुवि दारसमो कमजीवो अमम्मा ते Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२००) नरसप्पिणी पन्निधानराजेन्मः। उस्साचारण रसमो सयजीवो निक्कसाओ चन्दसमो बलदेवजीवो (सिनासियत्ति ) ऋषिजाषिताध्ययनानि कादक श्रुतविशेषनिप्पुलाओ पारसो सुलसाजीवो निम्ममो सालसमो नूतानि ( दियालोयसुयाभासियत्ति) देवबोकच्युतैः ऋषीभू तैराजाषितानि देवलोकच्युतानासितानि । क्वचित्पावः देवोय. रोहणीजीवो चित्तगुत्तो कई पुण जयंति ककिपुत्तो दत्त तूयाणं वायाबीसंशसिभासियज्जयणा पन्नत्ता(पुरिसजुगाइति) मानो परमरसउत्ति उत्तरं विक्कमवरिसे तुंजे उदारं का- पुरुषाः शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता युगानीय कालविशेषा रित्ता जिणभवणमंमिश्र च वसुई कान प्राज्जियतित्य- श्व क्रमसाधात्पुरुषयुगानि (अणुपिमति) आनुपूर्ध्या (श्रयरनामो सगं गंतुं चित्तगुत्तो नाम जिणवरो होहित्ति । णुबंधति ) पागन्तरे तृतीयादर्शनादनुबन्धन सातत्येन सिका नि जावंति करणेन बुझाई सध्यमुक्खप्पहाणा इति दृश्यम् । इत्थ य बहुस्सुअसंसर्य पमाणं सत्तरमो रेवजीवो समाही स०टी० समवायाले प्रतिवासुदेवेषु बास्थाने महानीम इति । प्रहारसो सयालिजीवो संचरो. एगणवीसो दीवायण अहवा तिावहा उस्माप्पणी पपत्ता तं जहा नकोसामजीवो जसोहरी बीसइमो कणजीवो विजओ एकवीसो ज्जिमा जहन्ना एवं बप्पि य समारो नाणियवाओ जाव नारयजीवो मला वाव सयमो अंबाजीको देवो तेवीसय दुसमसमा तिविहा उस्सप्पिणी पहाता तं जहा उक्कोसा मो अमरजीवी अणंतवी रिमो चनवीसयमो सायं वुधजी मज्झिमा जहन्ना । एवं उपि य समाओ नाणियब्वात्रो बो जदकरो अंतरालाइ पच्छापुदीए जहा वट्टमाणजि जाव मुसमसुसमा ।। पाणं चाविचकवहिणो सुवालस होहिंति तं जहा दाह- उत्सर्पिण्या दुषमष्यमादि तद्भेदानांचोक्तविपर्य येणोत्कृष्टदेतो १ गूढदंतो सिरिचंदो ३ मिरिई सिरिसोमो | स्वं योज्यमिति । षष्ठेऽरके उत्कृष्ट चतुर्ष मध्यमा प्रथम जघन्या ५ पउमो ६ नायगो ७ महापनमो ८ विमलो ए अमन- ॥ स्था० ३ ग०१०। वाहणो १० विलो ११ अरिहो १२ श्र। नव भाविवा- | उस्सप्पिणीगमिया-नत्सर्पिणीगएिभका-खी. उत्सर्पिणीसुदेवा तं जहा नन्दो १ नन्दिमितो ३ सुन्दरबादः ३ महा विषयकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतायां गएिमकायाम, स०॥ बाह ४ अइबलो ५ महाबला ६बलभदो७सुविठ्ठा गतिविठ्ठो उस्सप्पिणीसमय-उत्सर्पिण समय-पुं० उत्सर्पिणीशब्देनावपए। नव नाविपमिवासुदेवा जहा तिनो लोहजघोर सर्पिण्युपलक्ष्यते दिनग्रहणेन राज्युपलकणवत् तयोः समयाः परमनिकृष्टाः कामविशेषाः उत्सर्पिणीसमयाः । अघसर्पिण्युत्सपदरजंघा ३ केसरी ४ बली ५ पहाए ६ अपराजिनो पिंण्योः समयेषु, कर्म०॥ ७त्नीमा सुग्गीवो नव नाविवरदेवा तंजहा जयंतो? उस्मय-उच्छ्य-पुं० शारीरे, आध० ५ ० । स्वभावोन्नतत्वे प्राजोरधम्मा ३सुप्पनो४सुदंसणो५आणंदो ६नंदणो७ | तद्रूपे पञ्चचत्वारिंइत्तमे गौणाहिंसाहवणेऽथे, प्रश्न० २ श्रु० पउमा ८ संकरिसणो ए य | इगसहीसलागा पुरिसा उस्स | १अचव्याङ्के, “ उच्चायण गुणितं चितेः फलम्"वाचा पिणं ए तइए अरएनविस्संति अपाच्चम जणचकबट्टि- | नस्सयण-उच्चाय-पुं० यस्मिश्च सति ऊर्य श्रयति जात्यादिजो जहलिचनत्ये अरए होहिंति तो दसमाई कप्परु- | ना दर्षामातः पुरुष उत्तानी जवति स उच्ब्रायः । माने, "थंकि झुस्सयणाणि य" जात्यादीनामेतत्स्थानानां बहुत्वात् तत्कार्यपरवा उपि जहिं त अहारसकोमाकामीओ सागरांवमा स्यापि मानस्य बहुत्वमतो बहुवचनम् । गन्दसत्वानपुंसकणं निरंतरं जुगलधम्मो भविस्सइत्ति २१ ती । लिङ्गता। सूत्र०९ ६० प्र०॥ एगमगाए उसपिणीए पढमव याश्रो समाओबायाशीसं| उस्सव-उत्सव-पं०७द्-सू-अप् । मामन्द जमकव्यापारे, शक्रोत्सबाससहस्सा कालेणं पसत्ता ॥ वादी, प्रश्न०२ ध्रु०५द्वा० । इन्डमहादौ, श्रा० चू०१०॥ (पढमबीयाउनि) एकान्तदुष्षमा पुपमा चेति ॥४२॥ त्रि- नस्सविय-मच्चाय्य- अव्य कच व्यवस्थाप्येत्यर्थे, “ अघह चत्वारिंशात्स्थानकेऽपि किंचिलिख्यते [कम्मवियागझयणति] लस्सपिय पुरुहेजा"माचा०२ श्रु०१ अ०।" आमंतिय उस्सधिय कर्मणः पुण्यपापात्मकस्य विपाकस्य फलं तत्प्रतिपादकान्यध्यय-| भिक्षु आयसा निमंतति" संस्थाप्योच्चावचैर्विभ्रमनजनकरालानानि कर्मविपाकाध्ययनानि पतानि च एकादशाङ्गमितीयाङ्गयोः पैर्विधम्ने पातयित्वा सूत्र १ श्रु०४ अ० ॥ सम्जाम्यन्त इति"जबर्दीवस्सणमित्यादि" जम्वृद्धापपौरस्त्यान्ता- उस्ससिय-उच्चसित-त्रि० उद्वसिते, सस० २०१०॥ दोस्तुलपर्वतो द्विचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि तद्विष्कम्नश्च उस्ससियरोमकून-नच्छसितरोमकप-पुं० साधादर्शनाद्वाक्यसहस्त्रं तदाधिकाया द्वाविंशतरल्पत्वेनावियतणादेयं त्रिचत्वारिंशा श्रवणाऽवसितरोमकूपे, उत्त० २० १०॥ सहस्राणि भवतीति एवं [चद्दिर्सिपित्ति] उक्तदिगन्तीवन उस्ससेजमाण-उच्चस्यमान-त्रि० उच्नृसिते क्रियमाणे"यतम्रो विश उक्ता अभ्यथा एवं तिहिसिपित्ति)वाच्यं स्यात् तत्र च्चस्ससजमाणे वा अच्छिन्ने पुम्गले चखा" उच्चस्यमान उच्चाचेवमानितापाः"जंबूहायस्सणं दीवस्स दाहिणिन्द्वाओदओ ना सवायुपुमनः" स्था० १० ग०॥ सस्स णं आवासपब्बयस्स दाहिणिल्ले चरिमंते पसिणं तेयालीसंजोषणसहस्साई भवाहाए अंतरे पन्नत्ते" पवमन्यत्सूत्रतयं नवरं | उस्सा-अवश्याय-पुं० कपाजले, (स्था०४ वा०) योगगनापश्चिमायां संखा प्रावासपर्वत उत्तरस्यामुदकसीम इति॥४३॥ | स्पतति । कल्प० । धेनुपर्याये, देशी०॥ चतुश्चत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किंचिलिख्यते चतुश्चत्वारिंशतं । नस्साचारण-भूप्रवश्यायचारण-पुं० अवश्यायमयष्टत्याकाथ Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरसाचारण भनिधानराजेन्धः। उस्सारकप्प जीयपीमामजनयति गतिमसङ्ग कुर्वाण चारणनेदे, प्रव.६७ वा. स्सरं मध्ये विद्वज्जनसभं कृतास्ते निष्पप्रधनव्याकरणाः । ततः उस्तारकप्प-उत्सारकल्प-पुं० यत्रकस्मिन् दिने बहुदिवसयो- समुत्रितः पारमेश्वरप्रवचनगोचरः कीर्तिकोलाहलः प्रापुर्वभ्यसूत्रस्य पाचना दीयते तस्मिन्, प्रा००१०॥ तः परतीथिकानामपि परमः पराभवः निमग्नः प्रमोदपीयूषपयोउत्सारकल्पस्य दोषादिवक्तव्यता अधानुषङ्गिकमुत्सारकल्पि निघायस्तोकः श्रमणोपासकडोकः संपादिता सपदि विशेषता कद्वारमनिधित्सुः प्रस्तावनामाह ॥ स्तेन महती तार्थस्य प्रभावना । ततस्ते पाचकाः कियन्तमपि चोयगपुच्चा उस्सार-कप्पियो नत्थि तस्स विह नाम। कामसङ्कतं ग्राम प्रबोध्य मिथ्यात्वनिकाविजावणचैतन्यं मध्य जन्तुजातमन्यत्र कुत्राऽपि व्यहार्पः तेषु च दिनकरवदन्यत्र प्र. उस्सारे चउगुरुगा, तत्य वि आणाइणो दोसा ॥ तापसदमीमुबहमानेषु परतीथिका उल्का चाप्तप्रसरतया कल्पिकद्वारे व्याख्याते सति स्वधावकाशो नोदकः पृच्छां घोरघूत्कारकल्पं प्रवचनावादं कर्तुमारब्धाः । वदन्ति च करोति भगवनमीषां कल्पिकानां मध्ये किमित्युत्सारकल्पि श्रावकान् प्रति जो स्वेताम्बरोपासका! यद्यस्ति जवतां कोऽकेनोग्न्यस्तः । सूरिराह नास्युत्सारकल्पिक इति । भूयोऽपि पिकपमूलमुखो वादी स प्रयच्चतु सांप्रतमस्माकं यादमिति । परःप्राह । यद्युत्सारकल्पिको नास्ति ततः कथं तस्य नाम श्रावकैरुक्तम् । अहो विस्मृतमधुनैव भवतां नपान्तरानुभूयते गुरुराह ययस्स्युरसारकल्पो नास्त्याव्यवाहियते तथाऽपि नूतमिव तत्तादृशमद्यवोनमाप लाघवं यदेवमनारमका असन कल्पते उत्सारयितुं यद्युत्सारयति तदा चत्वारो गुरुकाः मजसं प्रश्नपत नबत्वेयं तथाऽप्यायान्तु तावत्केत्रिद्वाचका सत्राप्याशादयो दोषा रुष्टव्याः । तानेवाह । या मणिनो या पश्चाश्च भणिष्यन्ति नवम्तः तत्करिष्याम इति । प्राणाणवत्यपिच्छा-निराहणा संजमे य जोग य ।। अथकदा कदाचिन्निजपारिकत्यानिमानेन तु तुवनमपि तृणवअप्पा परो पत्रयणं, जीवनिकाया परिच्चत्ता ।। न्मन्यमानस्तुएताएवामम्बरेण वाचस्पतिमपि मूकमाकल्पयमाझा भगवतां तीर्थकृतामुत्सारकल्पकता न कृता भवति न समागतः कतिपयशिष्यकनिवः औस्सारकल्पिकवाचकः। तमाचार्यमुत्सारयन्तं दृष्ट्वा अन्येऽप्याचार्य उत्सारयिष्यन्ति ततः प्रमुदिताः श्रावका गताः अभ्य प्रथिकानामध्यणे निवेदितं खदीया अन्यदोया या शिष्या विवक्षितशिष्यस्पर्धानुबन्धादु- तत्पुरतः युष्माभिस्तदानीमस्माकं समीपे वादः प्रार्थित आसीस्सारापयिष्यन्ति वेत्यनवस्था। मिथ्यात्वं वा प्रतिपन्ना अभिनव. तू । अस्माभिश्च नणितमत् यदा घाचका अत्रागमिष्यन्ति धर्माणः सत्वा बजेयुः। विराधना संयमे च संयमविषया योगेच तदा सर्वमपि युष्मदभिप्रेतं विधाम्याम इति तदिदानीमागताः योगविषया भवति । तथा तेनोत्सारकेण प्रारमा खजीवः पर सन्ति याचकाः कुरुत तैः सह वादगोष्ठी पूरयत स्वप्रतिकामित्यउत्सारकल्पविषयः शिष्यःप्रवचनं तीर्थ जीवनिकायाः पृथिव्या- निधाय गताः थावकाः खस्वस्थानम् । तैश्चान्यथिकै प्राचीनपदयः एतानि परित्यक्तानि भवन्तीति द्वारगाथासमासार्थः । राजयप्रनवभयत्रान्तरेकः प्रचन्नवेषधारी प्रत्युपेक्वकः किं सहदसांप्रतमेनामेत्र विवरीषुः राज्ञाऽनवस्थे चमत्वादनाश्त्य मि यः शास्त्रपरिकमितमतिर्वाग्मी वाचकः किं वा नेति झानाय प्रेध्यात्वं दर्शयितुं दृष्टान्तमाह । षितः स चागम्योत्सारकटिपकयाचकं प्रायति परमाणुपुकलस्य पुनमलियनस्सार-वायए आगए पमिमिलिति । कतीन्द्रियाणि जयन्तीति ततः स एवं पृष्टः सन् किंचिन्मानप वचत्वरितमाहितया यथोक्ताव्यभिचारिविचारबाहि खत्वात पडिलेहपुगलि बिय, बजएओनाजणा तित्थे ॥ चिन्तयति यः परमाणुपुजलः एकस्माबोकचरमान्तादपरं लोकतत्र तावत्प्रथम कथानकमुच्यते । इह पुरा केचिदाचार्याः चरमान्तमेकेनैव समयेन गाति स निश्चितं पञ्चेन्ड्यिः कुतोऽपूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारकतया लन्धवाचकनामधेयाः सर्वज्ञशा- नीरशस्यैवंविधा गमनाथलब्धिरित्यभिसन्धाय प्रतिवचनमाभसनसरसीरुहविकाशनैकसहस्ररश्मयः प्रावृषण्यपयोमुच इव धत्त भ! परमाणपत्रस्य पञ्चापीडियाणि भवन्ति तत एवं सरसदेशनाधाराधरनिपाते महीमण्डलमेकार्णवधर्मकमा- विधं निर्वचनमवधार्य स पुरुषः प्रत्यावृत्य गतः अभ्ययूथिकानां बधाना गन्धहस्तिन इव कलयूथेन सातिशयगुणवता सनिधी कथितं सर्वमपि स्वरूपं तदप्रतस्ततः चिन्तितं स्वचेतसि निजशिष्यवर्गेण परिकलिता एकं कविडाममुपागमन् । तैनूनमयं शारदवारिद श्व बहिरेव केवलं गर्जति अन्तस्तुच्च तत्र चाधिगतजीपाजीवादिविशेषणविशिधा बहवः श्रमणोपा- पवेति विमृश्य समागतः संजूय यांसं लोकमीसं कृत्वा पाचसकाः परिवसन्ति । ते च गुरुणामागमनमाकार्य प्रमोदमे- कान्तिक कुभितोऽसौ स्वतुच्छतया तावन्तं समुदायमघलोक्य पुरमानसाः स्वस्वपरिवारपरिवृताः सर्वेऽप्यागम्य तदीयं सजातः स्वेदविन्धुसुचकितशरीर: प्राक्किप्तः साटेोपमन्यत्तीपादारविन्दमनिवन्ध योजितकरकुममा यथावत्पुरतः आसा- र्थिको प्राहितो यथाऽनिमतं पक्तविशेषं न शक्नोति निर्धेदं चक्रिरे । ततः सूरिभिरपि रचिता यथोचिता धर्मदेशना । तदा-1 प्रगलिनतो दुस्तराणि प्रश्नोत्तराणि न जानीते सेशतोऽपि प्रतिषकर्णनेन संजातसंवेगसुधासिन्धौ नान्तरमलः सकझोऽपि श्राव- तं ततः कृतो मिथ्या निर्जितं जितमस्मानिरित्युत्कएकत्रकलः कोको गतः परमपरितोषपरवशः सूरीणां गुणग्रामोपवर्णनं प्रापुर्तृतं प्रवचनमालिन्यं मुकुलितानि श्रमणोपासकवदनकमकुर्वन् स्वं स्वं स्थानम, तैश्च वाचकननोमणिभिस्तत्रायातः लानि विप्रतिपन्ना यथा जद्रकादय इति । अथ गाथाक्रार्थः पूर्व प्रतिहतः खद्योतपोतकल्पानामन्ययूथिनांप्रनाप्रसरः। ततो न श- कैश्चिद्वारन्ययूथिका । मनिअत्ति) मानमर्दनेम मर्दितस्तत अनुवन्ति तेऽन्ययूथिका प्राचार्याणां व्याख्यानादिभिगुणैर्जायमा | सत्सारवानके आगते सति प्रतिमर्दयान्त प्रत्याश्या मानमर्दनं नं निरुपमान महिमान अमसि संभूय सेवऽप्युपमान्त्रार्य वाद कुर्वन्ति कमिन्याह " पमिलेह" इत्यादि तैरन्यतीथिकः प्रत्युपराजित्य तृणादपि मधूकरिष्याम इत्येकवाक्यतया चेतसिव्य- पेक्वकः पुरुषः प्रेक्वितस्ततः स श्रागत्य पृष्टवान् पुनसस्य परमाघस्थाप्य समाजग्मुः सूरीणामन्तिकम् । सूरिभिरपि निष्पतिमप्र-| णोः कतीन्द्रियाणि तेम प्रत्युक्तं पञ्चति । ततस्तबहुजनमध्ये स तिनामामारबत नववादलब्धिसंपचौर्नि पुण्हेतुरष्टान्तोपन्यासपुर | वाचको बाद मिरुत्तरीकृतः एवमपभ्राजना साघवं तीर्थस्य प्र. Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सारकप्प वति तत्र चानिनवधर्मणां चेतसि विकल्प उपजायते यदि नाम बायकोच्येन न शक वनपरिमन्यथा कथमेष ते इति विपरित माग नपेत भाषितं मिथ्यात्वद्वारम् | अथ संयमविराधनां भावयति । जीवाजीचे न मुग, अलिया कडे दगमिगाई । करणे, करे श्रगाढणागाढे ॥ " जीवाश्वाजीवाश्च जीवाजी बास्तानसौ वाचनामात्ररूपेणोत्सा कल्पेनानुयोगमवगाह्यमानो विविक्तेन न मुणति न जानीते तत्परिमात्रचतः सद्भाव परमर्दिनिः" ओ जीवे विनयाण, अजीये वि न जाण‍ । जीवाजीवे अजातो, कह सो नाहिर संजमं तथा अनीकमत्यन्तभयाइकमृगान्पति किमु प्रति तारकल्पिकपमा ग्राहितया सत्यमेव नापितत्र्यं नासत्यमिति कृत्वा उदकार्थिन नागदी पानीयमस्ति नास्ति येति पृच्छतामत्री मानू. दिति कृत्वा विद्यते नद्यादी जलमिति कथयति गया प्रस्थितानां च व्याधानां मृगच्छदं न वेति पृच्छतामली कभयादेव दृष्टमिति प्रयच्छति श्रादिशब्दात् शूकरादिपरिग्रहः न पुनर्जानीते यथा । " सच्चा विसा न वक्तव्वा जओ पावस्स अ प्ति " ततः स जलगतसूक्ष्मजन्तुजातस्य मृगादीनां वा यद् व्यपरोपण ते करिव्यन्ति तत्समुत्सांरकल्पकारकः प्राप्नोति । तथा करणे चारित्रे उत्सर्गापवादवित्रिमजानन् यद्विपर्यासं करोति तद्यथा श्रगाढे मानादिकायें अनागाढं त्रिः कृत्वः परिभ्रमणादिकणमना गाढे वा आगाढं सद्यः प्रतिसेवनात्मकं करोति । एषा सर्वापि संयमाराधना (१२०२) निधानराजेन्द्रः | अथ योगाविराधनामा तुरियं नाहि जंते, नेव चिरं जोगनंति ता हूं ते । लो महंतसो ति, केई पासाइति ॥ कमजोगं न विनाइ गई का काम जोगाम्य विदेति तहा, परंपरा घंटदितो || अनुासमा गुरुनिः सकलोऽपि तस्कन्धः ततः किय नेन पविर्तन कार्यमिति कृत्वा ते शिष्यास्त्वरितं शीघ्रं नाश्रीयनेत्र ते चिरं पावनधनापविशेषः यन्त्रना नियमित प्रयन्ति एकादेनापि तयांचयासानु दानात् । तथा लब्धोऽस्माभिर्गणिरयं वाचकोऽयमिति महान् शब्दस्ततः कुतो हेतोर्वयमत्राचार्य सन्निधौ निष्फलं तिष्ठाम इति परिमान्य के विवरण पर्युपासनापरिभग्नाः पश्यनिति पातो प्रामेषु पंथास्ये विहरन्तीति प्रायः [कमजोगमिति ] योगक्रमं नापि नैव जानन्ति यथा अस्मिन् योगे एतावन्स्याचा च नयन्ति निर्विकृतिकानि इत्थं चानुद्देशादयः कियन्ते तथा ऽधिकृतयः काः कुत्र योगे कल्पन्ते न वेत्येवमपि न जानाति यथा कल्पका कल्पिकनिशीथा दिये। गेषु न विसृज्यन्ते काञ्चनापि विष्टतयः पापाप्रतियोगेषु पुनरयगाद्दिमविकृतिविज्यते यादयोगेषु तु मादकः तथा चाह स एव कल्पाध्ययनस्य चूर्णिकत् । जहां कपियाकपियनसीहाईणं विगईओ न विसजिपितओगाह दिवार मो हो भागादो म श्रागाढो यथा 66 "नित्राह "जोगो गाढवा आग्रादतरा जम्म जोगे जयणा सो उस्सारकप्प जगवतीत्यादि । इतरो ऋणागाढो यथा उत्तराध्ययनादि । का गाहे भोगमा रुव बिगरंभ पि मार भयणमहाकप्पसुए एक्को परं मोदकविगई कप्पर सेसा आवासगओन कप्पति प्रयाग इसक बिगईओ भहवाओं गुरु न कि एवंविधां यदस्थामजानन् यदाऽसी विराधयति सा ये. गविराधना । तथा ( अन्नस्स विदिति तहप्ति ) ते उत्सा पिका अन्यस्यापि स्पशिष्यादेः तथा चोसार कल्पनेव वाचन प्रति सोऽप्यपरेषां वायसरा हतः क्रियमाणे परम्परया सूत्रार्थव्यवच्छेदः प्राप्नोति घण्टाहान्तञ्चात्र वक्तव्यः । तमेवेोपनययुक्तं गाथायेणाह । उपकरोग पडणं घंटा सियालना सख्या । विगमाई पुच्छ परंपराए नासीत जा सीहो । पारस ओ आसानिया मिगगणा व । इय कइ वाइ जाण, पयाःण पढमिन्दु गुस्सारी ॥ किं पिअप तुसारो प्रयोती। गीता ममखरंटर - पच्चित्तं । कत्तिया चेव ॥ 33 श्रत्र कथानकम् । पयस्स महावश्यस्स उच्छुवाड़ो बहुसश्री सियाल परिक्षा कति उसामीसियामानिमित्तं तस्स च्वास्स पर उदिसि खाइयं खणावे तत्थ एगो सियालो परिश्रोसो ओगि ककसिा ि धितोमा दिशा I दूरश्र ते सियाला अन्नारिसों ति काउं चपण पलाया तो विहिं दिठा बुक्रिया किं नासहति तेहिं कहियं श्रपुव्यं सरे करेमा कपि भूयं पति से पिलाता घराच्या परिसि पलाता विदा किया कहिये कि किर एत्ति तुरियं पलायह ते वि पलायंता सीहेण पुच्छिया कहियं सोमो पनि बाहा मुयामि गवसामि साथ तेरा सहि पडिवरियता सियाली वि घंटालीवासीकीस आलीयामोतिरोसेसेलाइयो मिया समो भी यह हो सो बराओ मत विम्मी धे घंटासीलो कण वि अवराहेण तं ताकओ एस दिहंतां । अयमत्थो वओ जरस त उस्सारिजति सो जावतिपहिं दिवसो जोगी समय तायति दिवस कति चयाणं भलावणं किवि फासि सिता पदतं तव गडरागहिसणं करेति अमित तिसारा पता प णणं वीरत्ता सिस्साणं परिच्छ्रयाण य उस्सारकप्पं करेति । अम्हे फिरणं अतकरेमो रथ जी सोपि गनस्सारी सो जहा ते सियाला तस्स घंटासियाहस्स अकिति घंटाच जाणति तओण को एस किं वा पयस्स गनण्यस्स कस्स वा एस सो पर्व सो पढ मदुगुस्सार किंचि वि जाणइ न सव्यं सम्भावं जो पयस्स पासे उस्सारकप्पं करेति सो क श्रासावर जाणेन्ति न पुण अत्यं सो सिस्से जति कपि फेरियो अथ पयस्स भयो सा कवि वि आनावर न कट्ठेति ते सिस्सेहि पुच्चिता भणं तिण याणामो पुण किंपि एयं तस्स तुम्ने जोगं वहह । एवं ते अप्पाणं च परं च नासता विहरति । अह अनया गीयत्था Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०३) उस्सारकप्प अन्निधानराजन्दः । उस्सारकप्प पायरिया आगया तेहिं ते उबाबका गच्याय कित्ता कापि नगरादौ पृष्टश्च कैश्चिनिष्णातैः किमर्पय पदं यावत् न 'गच्छतु य पवेसिया सब्वे जहा पते दोसा तम्हा न जु- किंचित् अयं जानीते ततस्ते युवते यैरेष सूत्रार्थमएमसीमध्यम सारेयब्बा कत्तिया ते नविस्संति जे एवं निहोमिहिति । धिरप आचार्यपदभाजनमाकरितेऽप्याचार्या एवंविधा भधिगाथाबयस्याप्य करगमनिका श्स्येवं क्रियते । यत्र तदिकुक- प्यन्तीत्यात्मा परित्यक्तः । तथा प्रवचममापि तेनाचार्येण परिरणमिक्षुवादस्तस्य रक्षणार्थम् वराको गताख्यानिकेत्यर्थः त्यक्तं कथमित्याह श्रुतस्योत्सारकल्पयशादमधीयमानस्य व्यस ख्यानिका तत्र क्रोष्टुः शृगामस्य पतनं ततो गृहपतिना ग. बरसेदः प्राप्नोति श्रुते च व्यवच्छिद्यमाने झानानावे च दर्शनसके घण्टा बध्वा मुक्तस्य दर्शनं शुगालानां नाशनं ततो चारित्रयोरप्यज्ञावातीर्थस्थापि व्यवच्छेदः प्रामोति । यदि नावृकादीनां पृच्छा ततः सर्वेऽपि परम्परया नश्यन्ति या- म तीर्थ व्यवच्छिद्यते ततः को दोष इत्याह ।। वत् सिंहः समागतस्तेन प्रतिसागर्य निरूप्य स घण्टाशृगा- पवयणवोच्छयवट्ट-माणो जिणवयणबाहिरमईयो । लो हतः । शेषा मृगगणाः शंगाबवृकादय आश्वासिताः । श्रयं हन्तः । अथ दान्तिकयोजनामाह " श्यकश्वयाई वंध कम्मरयमनं, जरमरणमणंतयं घोरं ॥ इत्यादि " इत्यमुनव प्रकारेण प्रथमिल्सकोत्सारी शिष्यः क प्रवचनं तीर्थ तस्य व्यवच्छेदे हेतुरूपतया वर्तमानः कथंनूतोऽ तिपयानि सूत्रासापकरूपाणि किञ्चिन्मात्रसूत्रस्पर्शकनियुक्ति सावित्याह। जिनवचनबाहमतिकः सर्वशासनबहिर्मुखशंमुमिथितानि जानीते अस्य च समीप योऽन्योऽधीत सक पीको न खल्बनीदशस्य प्रवचनव्यवच्छेदं कर्तु मतिरुत्सहते स एवं जूतो बध्नाति कमरजोमसं रजाशब्देन बकायस्थ मनशब्दतिपयान सुत्रासापकान् जानीते न पुनरर्थ तस्यापि पावं यः पठलिस सूत्रालापकानपि नाकर्षति । अन्येन पृष्टः प्रतिजणति अ न निकाचितावस्थं कर्म परिग्टह्यते रजश्च मलश्चति रजोमलं स्ति किमप्यतदङ्गोपाङ्गादिकं श्रुतं तद् यूयमेतस्य योगमुद्रहते कमेव रजोमलं कर्मरजीमलं निकाचिताऽनिकाचितावस्थं कर्म ति । पते च दुरधीतविद्यत्वात्प्रायः प्रत्यन्तग्राम पवार्थ लभन्ते । यथाभ्यवसायस्थानमनुबन्नातीत्यर्थः । कथंनूनमनन्तानि जयत उक्तम् । “पापण खीणदव्या, धणियपरहा कयावर हाय । रामरणानि यस्मात् तदनन्तजरामरणं गाथायां प्राकृतम्यादनपञ्चतं सेवंती, पुरिसा दुरहीयवजाया" । अतः प्रत्यन्तं गत्वा तशयस्य परनिपातः । घोरं रौ शारीरमानसदःखोपनिपा. सूत्रार्थयोरुत्सारणं कुर्वान्त बदन्ति च वयं सूत्रार्थयोरव्यवच्छिति तनिबन्धनत्वात् शत तथा परजीवनिकायानप्यगीतार्थतयाऽसौ कर्म इति अन्यदा च यत्र प्रत्यन्तग्राम गीताथीनामागमन तह विराधयतीति जीवनिकाया अपि तेनोत्सारकेण परित्यक्ता असारकल्पिकानां खरएटनं यथा आः किमेवं सूत्रार्थयाः पारपा वसातव्याः। यत एते दोषास्ततो मोत्सारणीयम् ॥ टिवाचनां परित्यज्य सकश्रुतधर्मधूमकेतुकल्पमुत्सारकल्पमा अथ क्रमेणवाधीयमाने सूत्रे के गुणा उच्यन्ते । चरन्तः आत्मानं च परं च नाशयतेत्यादि । ततश्च गच्चामावलि आणा विकोवणाणुओगद्यत तेषामपुनः करणेन प्रतिकान्तानां प्रायश्चित्तं दत्तम् [कित्तिय बुझण उवोगनिज्जरागहणं । तिकियन्त एतादृशागीतार्था भविष्यन्ति य एवं शिकायच्यम्ति त. गुरुवामजोगसुस्मूस्मात्प्रथमत एव नोत्सारणीयम् भाविता सप्रपञ्चं योगविराधना। सणा यकमसो अहिज्जते ।। अधात्मा परश्च परित्यक्त इति पदव्यं नावति । क्रमशः क्रमेणाधीयमाने अध्याप्यमाने च सन्ति पते गुणास्तअप्पत्ताण उदितल, अप्पो इह परत्य वि य चत्ते । द्यथा प्राक्षा तीर्थकृतां शिष्यणाचार्येण चाराधिता भवति [धिसो वि अहु तेण चत्तो, जं न पढ तेण गम्बेणं॥ कोवणत्ति ) योगोष्हनविधी गच्चसामाचार्यां च विकोपना हएअपात्राणामयोग्यानां यद्वा अप्राप्तानां विवकितानुयोगभूमिमनुपा त्पादनाच शिष्यस्य कृता भवति ततश्च स्वयं सामाचारीवैतथ्य गतानां श्रुतं ददतोत्सारकल्पकृता आत्मा इह परत्रापि चत्यक्त. न करोति अपरान् कुर्वतो निवारयति । तथा गच्छमध्ये हितीस्तत्रेह तद्वाचनादानसमुद्भतापयशः धादादिना परत्र बोधिध. रुप्यामनुयोगः प्रवर्तते तदाकर्णनान्मन्दबुझेरपि बोधनं जीभत्यादिना तथा सोऽपि शिष्यो हु निश्चितं तेनाचार्येण परि- वाजीवादितत्वेषु प्रबुकता संपद्यते बुध्यमानस्य च श्रुते निरन्तत्यक्तो यत् तेन गणिवाचकत्वादिगणाधिष्ठितः सन्न पति रमुपगोगो जायते निरन्तरोपयुक्तस्य च महती निर्जरा प्रतिसमपउनाभावे हि कुतो यथावरणपरिपालनम् । किं च यसंख्येयभवोपात्तकर्मपरमाणुपटलापगमायुक्तं च । “कम्ममअजस्स होणाल-ज्जणा य गारविअकारणमणज्जे । संखेज्जजवं, वे अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरम्मि वि जोगे आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुत्तस्स तित्थस्स ॥ सज्जायं मा विससेणं" नित्योपयुक्तस्य च शीघ्र सूत्रार्थयोर्ग्रहआर्यः सुजनः सुमानुपश्त्येकोऽर्थः । तस्य यथावदागमार्थवोध णं भवति तथा हि गुरुवासेन गुरुकुलवासन साई योगः संबविकास्य वाचकनाम्ना हीजना भवति । अहो हीलेयं मम यदहं न्धो भवति अन्यथा क्रमेण सूत्राध्ययनायोगात् । यद्वा पदवाचकंत्यनिधीये तथा (अजणत्ति) वाचकमिश्रा अयमासापकः यमिदं पार्थक्येन व्याख्यायत गुरूणामन्तिके वासो गुरुवासस सिद्धान्ते विद्यते को वा अस्यात्रापकस्यार्थति केनापि पृष्टस्य सेवितो भवति योगाश्च विधिवदाराधिता भवन्ति । प्राचार्यादीनां व्याकरणं दातुमशक्नुवतो नृशं बजा भवति ततश्च श्यामबदनकु शुश्रूषा विनययावृत्यादिना कृता भवति । यत पते गुणास्ततः जानकन्धरश्चिन्तया विमनायमानोऽवतिष्ठते अनायें अनार्यस्य क्रमणैवाध्येतव्यः । नपसंहरबाहपुनस्तदेव गौरख्यकारणं गर्वनिबन्धनं जायते अहो वयमेव निस्स। इअ दासगुणे नाउं, उक्कमकमओ अहिजमाणाणं । मप्रतिष्ठापा जगति वामहे यदेवं वाचकपदधीमध्यारोहास नजयविमेसविहिन्न , को वचणमन्नुवेजाहि ।। इतिथं परः परित्यक्तो मन्तव्य एव । आचागेच पारवादाभव- शतिशब्दः एवम) एवमुत्क्रमतः क्रमतश्चाधीयानानामुपसतति तथाहिस. बहुश्रुताचार्यपाइर्वापुत्सारकल्पं कारयित्वा गतः । णत्वावल्यापयतां च यथाक्रम दोपान गुणांश्च ज्ञात्योभयविशे. Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०४ ) अभिधानराजेन्द्रः । उस्सारकप्प विधिः क्रमाध्ययनगुणदोषविभागविधिवेदी प्राचार्यः शिष्यो या को नामोत्सारकल्पस्थ करणेन कारापन या आरोप चनम ज्युपेयात न कश्चिदित्यर्थः । यतश्चषमताऽतु पयोगित्वात्सारकल्पिक इति ० १ ० ० ० ॥ कारने स्तीति निधापयन्पुनरपि परः प्राद नइ नत्यिक नाम, अलहु श्रत्थे न होइ अभिहाणं । तम्हा तस्स पसिद्धी, अभिहापसिद्धि तिवा ॥ यदि नान्युत्सारकल्पिक स्ततः कुतोऽस्य नामाभिधानमिदमायातं न कुतश्चिदित्यर्थः । अनेन प्रतिज्ञातार्थः सूचितः । कुत इत्याह । श्रसत्यविद्यमाने ऽर्थे श्रभिधेये हुशब्दस्य हेत्वर्थवाचकत्वात् यस्मान्न भवत्यभिधानं किं तु सत्येवेति श्रनेन च हैस्वयं उपाथः यतश्येयं तस्मात्तस्पार्थस्य प्रसिद्धिमिधान सिद्धित एव सिद्धा प्रतिष्ठितेति निगमनार्थः । दृष्टान्तोपनयो स्वयमेवापादयोऽत्र प्रयोगः अत्युत्सारकल्पिकः अ मानवस्या घटादिवत् यद्यदभिधानयत् तदस्त यथा घटपटादि श्रभिधानवश्चेदं तस्मादस्तीति । इत्थं परेण स्वपक्षे समर्थिते ते प्रतिविधीयते भो भद्र! सुष्ठु प्रमाणानिको ने कान्तिकोऽयं भवता हेतुरुपन्यस्तस्तथा चाह ! जइ सन् वि य नामं, सअत्यगं होज्ज तो भवे दोसा | जम्हास अस्यगचे, नजिरं तम् अगंतो || यदि सर्वमपि नाम सार्थकं भवेत् ततो भवेदस्माकं दोषः । उत्सारक पिकस्पास्तित्वापति यस्मात्पुनः सार्थकये नाम भक्तं विकल्पितं स्यात् सार्थकं स्यान्निरर्थकमिति भावः । तत्र सार्थकं जीवाजीवादिकं मिरर्थकं खरविषाणाकाशकुसुमकूर्म रोमबन्ध्यापुत्रादिकं यत एवं तस्मादनेकान्तोऽयं यदसदूभूसेऽर्थे न भवत्यभिधानम् । इदमत्र तात्पर्यम्। श्रभिधानस्य वा भावाभावयोरपि सद्भावादनिधानबलक्षयतु उत्सा रकल्पित्यं साचयति तथा नास्तित्वमपि साचयति उभयत्रापि साधारणात् अतः साधारणरूपी नैकासिकहेतुरिति । इत्थं व्यभिचारिपचभूतः परः परित्यज्य जन्माचार्यवचनमेव प्रमाणीकुर्वि त्याह । भगवन्नभ्युपगतं मयाऽनन्तरोक्तयुक्तितोऽभिधानस्य सार्थकत्वमनर्थकत्वं चेति । यदिदमुत्सारकल्पिकाभिधानं सार्थकमा होलिरिर्थकमिति पिपर्तते संशयाचर्तगतयमस्माकं चेतस्तदिदानीमुनिवेति । उच्यते। निकारणम्मि नाम पि निम्मि नस्तारक पियस्स उ चोकारणं तं तु ॥ धत्म ! निष्कारणे कारणाभावे नामापि नेच्छामो वयं किं पुनरये कार्य प्रयोजन प्राप्ते इच्छाम उत्सारका माध्यम कारणं हे नोदक ! शृणु निरामय । तत्र तिष्ठतु तावत् कारणं क रीना व अधिक्रिया इति ज्ञापनार्थ प्रथमतः उत्सारमा आगारादिवापत्यं जाए पुरिसकारणविद्दिन्नू । गिपरित, अरिहर उस्सारणं काट || आचारः प्रथमम दृष्टिवादश्वरमं तयोरर्थ जानातीत्याचार वारा पत्यमाणकार इत्यमर्थम् ( पुरिसकारण इति) पुरुषकारविधिको नाम किमयं पुरुष उत्सारकल्पमईति न वा ये करावे उस्सारकप्प विनो मोका जिज्ञाषी श्रपरितान्तः सूत्रार्थग्रहणायामहोरात्रमध्यपरिश्रान्तः एवंविध उत्सारणं कर्तुमईति एवं गुणोपेत पयोत्माकरोतीत्यर्थः अथ यस्योत्तारकल्पः क्रियते तस्य गुणानाह । अभिगए पविद्धे, संविग्गे सद्धिए । अडिए य मेहावं, परिषी जो प्रकार | अभिगतः प्रतिबद्ध अवस्थित मेघाची प्रतियो। योगकारक गुणोपेतः सत्सारयोग्य पति निर्युतिश्लोक समासार्थः ॥ अथैनमेव विवृणोति ॥ गि, विपादि अनुगमां वा । परिबके, गुरु निएलए या ॥ सम्मसम्म सज्जाए सम्यक भाजिमुख्येन गतः प्रविष्टः सोऽभिगत उच्यते यो जीवादको विदेहाता सोभगतः । या योऽयुपगतो यायीयं मया गुरुपादमून मोम्यमिति कृतान्युपगमः सोऽजिगतः । यः पुनः स्वाध्याये परावर्तनानुप्रेशादी सततमाको गुरु या स्थिरममाथानुबन्धः केिषु या संवन्धिषु प्रवज्याप्रतिपदेषु संजातप्रेमस्थेमा एप विधिधोऽपि प्रतिबद्ध उच्यते ॥ सविग्गो दम्म उ जावे चरवतो ! लकी आहाराश्य, अओगे धम्मड य | सादग्नो द्विधा । द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्ये द्रव्यसंधि मृगः सदैव सर्वतोऽपि पतित्यभावे भादवि लोसरेषु तु मूलगुणोत्तरगुणेषु पुनर्यनमानः उद्यमं संविदधानः साधुसदैव संसारापायचकितत्वात् तथा पिराहा२. दिपादयेोगे दाराविधेयेयः स सलब्धिक इति । 2. लिगविहार वो मेरा महाषिगण भओ । पकड़कर, कुणा जोगं सहस्न || अवस्थितो द्विवा लिने विहारे च । लिङ्गावस्थितः स्वलिङ्गं न परित्यजति विहारास्थितः संविविहारं विहाय नपास्थादिविहारमाद्रियते मेघावी द्विधा ग्रहणमेधा मर्यादा पाय उभावपि वदयमाणस्वरूपी राम मर्यादामेघामिः उत्सारकल्पः क्रियते स पुनर्ग्रहणे मेधावी वा स्यादमेधावी वा । विविधस्यापि कारणविशेष उत्साहित भक्तो विकल्पितः । तथा यत्कथ्यते अभिधीयते तत्सर्वे यः प्रतिबुध्यते स प्रतिषोढुं शीलमस्येति प्रतिबोधी दशस्य तत्र उत्सार्यते तदर्थस्य ग्रह योग व्यापारं करोति कदाचि स्माद्यति स योगकारक इति तदेवं व्याख्याता " श्रभिगएइटा दिगाथा | अधोत्सारकल्पिकस्यैवापराचार्य परिपाटा गुणामाह अभिगयथिरसंविग्गे, गुरुमुई जोगकारण चैव । दुम्लीपप परि आपले धम्मसहिए चैव ॥ वारिस मागे उस्सारं कामरिहर अभिगतः प्रतिबुद्धः स्थिरःसम्यदर्शनादक्षोभ्यः संविणः को गुर्दोषी विप्रं निर्माखितोऽपि गुरूणाममोचनशीलः Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२०५) नस्सारकप्प अभिधानराजेन्षः। नस्सारकप्प योगकारकः पूर्ववत् । दुर्मेधा अपि यः सलब्धिकः परिपक्क- म। अथ गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपनन्ति तत एककोऽप्यसहायोड षयाः परिणामको विनीतः अभ्युत्थानादिविनययोगतः श्राचा- प्याचारोत्सारितसूत्रार्थः आचारान्तर्गतवस्त्रैषणादिसूत्रार्थमुयवर्णवादी गुरूणां गुणोत्कीर्तनकारी अनुकूलः प्राचार्याणाम- त्सारकल्पकरणेन ग्राहितः सन् हिामते । ननु च किं कोऽपि न्येषां वा पूज्यानां वैयावृत्त्यादिना हितकारी धर्मे तपःसंय- कस्यापि बानान्तरायकर्मकयोपशमसमुत्था सब्धिमुपहन्ति येमात्मके चारित्रधर्मे श्राद्धिकः श्रद्धावान् एतादृश एवंविधगु- नैवमुच्यते ते गीतार्थास्तस्योपलब्धिमुपनन्ति इत्यत आह ॥ णोपेतो महाभागः शिष्यः उत्सारं कर्तुमर्हति उत्सारकल्पस्य निक्स्व विहतावद्दल-अजागधेजो जहिं तहिं न पडे । योग्यो भवतीत्यर्थः। ___अनीटशानुत्सारयितुः प्रायश्चित्तमाह । उग्गतिगमाइभेदे, पडइ तहिं तत्थ सो नत्थि ॥ भणनिगयमाश्याणं, नस्सारिंतस्स चउगुरू होति । " को किर परं वसईओ सत्यो अमविं पवनो तत्थ य एगो रत्तपटो निब्भग्गसिरसेहरो पंचएह वि सयाणं पुले उवहण जग्गहणम्मि वि गुरुगा, कालमसज्काय वक्खेवे ॥ सो असत्थो तएहाए पारको दूरे अ अभवद्दलयं वास तेसिं आदेशद्वयेनापि ये गुणा उक्तास्तद्विपरीता ये अनभिगतादय. नवरिन पर ते दहा तिमा श्यरो रत्तपमो पुब्विमे णं मज्के स्तद्यथा अनभिगतः अप्रतिबकः असंविग्नः अझब्धिकः अनय मेलिओ सब्वत्थ पर जत्थ सा तत्थ न पसर जाव निवेमिओ स्थितः अमर्यादो मेधावी अप्रतिबोद्धा अयोगकारकः अपरिणतः एकत्रो जायो जत्थ सो तत्थ पमर एवं पयारिसा परस्स पुत्ते अविनीतः आचार्यावर्णवादी अननुकूलः अधर्मश्रद्धानुः एतेषा स्वहणंति" अथ गाथाक्तरार्थः भिकुरेकः सार्थेन सार्द्ध विहममुत्सारयतः उत्सारकल्पं कुर्वतः आचार्यस्य प्रत्येकं चतुर्गुरवः ध्वानं प्रविष्ट ति शेषः । ततस्तृष्णया सार्थः प्रारब्धः बार्दसं प्रायश्चित्तम् । ( उम्गहणम्मि वि गुरुगत्ति) सूत्रमर्थ वा झगि च वर्षितुमारब्धं यत्र येषां मध्ये सोऽभागधेयो यो निक्षुस्तत्र वर्ष स्यवावगृह्णातीत्यवग्रहणः नन्द्यादिन्योऽ नद् इति कर्तर्यनत्प्रत्य न पतति ततो द्विकत्रिकादिना द्विधा त्रिधादिना प्रकारेण सार्थयः प्रहणमेधावीत्यर्थः । तस्य यदि निष्कारणमुत्सारयति तदापि स्य भेदः कृतस्तस्मिश्च कृते यत्र स भिक्षुर्नास्ति तत्र सर्वत्र वर्षे चत्वाये गुरुकाः। अथ किमर्थ मेधाविनो नोत्सार्यन्ते उच्यते पतति तस्योपरि न पततीत्येयं दृष्यन्तः । अथार्थोपनयः यथा यतोऽसौ प्रज्ञावत्त्वादेवानुपूयेव पाठ्यमानो झगित्येव विवक्ति- स भिक्कुः पञ्चविंशतिकस्यापि सार्थस्य पुण्यान्युपतवानेषमतमुत्सारणीयं श्रुतं प्राप्स्यति ततः को नाम तस्योत्सारकल्पकर- न्येऽप्येवंविधाः परेषां लब्धिमतामपि स्वस्वकर्मक्षयोपशमसमुणेऽभ्यधिको गुणः। अथवा (उग्गहणम्मि वित्ति) यस्याचारा स्थां लब्धिमुपघ्नन्तीति। न्तर्गतवौषणाध्ययनस्योपक्रमणनिमित्तमुत्सार्यते तस्य यद्यप्यु अथासौ कथं च वस्त्राएयुत्पादयतीत्युच्यते ॥ सारकल्पसमकानमेव सर्वमपि सूत्रमर्थ वा अवम्टद्वाति अपिश जिक्खं वा वि अमंतो, विइआ पढमा य अहव सव्वामु। ब्दात्मन्दमेधस्तया यद्यपि नावगृह्णाति तथाप्यवग्रहणे अनवग्रहणे वाऽकालोऽस्वाध्यायिकं व्याक्षपश्च न कर्तव्यः यदि करोति तदा सहिओ व असहिओ वा, उप्पापवायजावे वा। चत्वारो गुरुकाः । एतच्चाकासादिकमुपरिष्टाद्भावयिष्यते । अ- निकामटन वस्त्राण्युत्पादयति वाशब्दो वक्ष्यमाणपक्कापेक्षायां थवा ( उम्गहणम्मि वि गुरुगत्ति) अन्यथा व्याख्यायते योऽवग्र- विभाषायामपिशब्दः संभावनायां संभाव्यते । अयमपि प्रकार हणे समर्थ उत्तममेधावी अपिशब्दः संभावनायां किं संना-1 इति । अथ न शक्नोति युगपत् भिवामप्यटितुं वस्त्राण्युत्पादवयति यावन्मात्रं सूत्रं तस्योद्दिश्यते तावदशेषमप्यर्थेन युक्तम- यितुं व्यतिक्रामति वा वेला नैवस्य वस्त्राण्युत्पादयतः। भिकां वगृह्णाति यो वा वैरस्वामिवत् पदानुसारिप्रतिभो भूयस्तरमप्य- | वाऽद्भिर्न प्राप्यन्ते बखाणीत्यादिना कारणेन द्वितीयायां पौरुनुसरति तस्योत्सारणीयम् । अथ नोत्सारयति तदा चतुर्गुरुकाः प्यामनुयोगग्रहणं हापयित्वा वस्त्राण्युत्पादयेत् । अथ तदा नं तत्रापि यावदुत्सारकल्पः क्रियते तावदकालोऽस्वाध्यायिकं व्या- लभते बही वा हिरिमः कर्तव्या ततः प्रथमायामप्युत्पादयेत् । केपश्च न कर्तव्यः यदि करोति तदापि चतुर्गुरुकाः ।। अथ बहवो गृहस्था द्रष्टव्या महता च कटेन ते श्रकां ग्राह्यन्ते अथोत्सारकल्पकरणे यत् प्राक् कारणं संन्यासिकीकृतं तद्द- ततः द्वयोरपि पौरुष्योः सर्वासुवा पौरुषीषु पर्यटति। यद्यपरेगीशयति ॥ तार्थास्तस्य सन्धिनोपानन्ति तदास तैः सहितोऽप्युत्पादयेहावगच्छो अ अलद्धीओ, ओमाणं चव अणहिसहाय । | स्त्राणि प्रभावयेद्वा दानधर्म गृहिणां पुरतो यथा ईदृशः साधूनां गिहिणो उमंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए नवहिं ।। धर्मो न कल्पतेऽमीयां भगवतामुझमोत्पादनैषणादोषपुष्टं पिकस्याप्याचार्यस्य गच्चः सवोंऽपि वस्त्रपात्रशय्योत्पादने अन्न- एकशय्यावखपात्रचतुष्यं गृहीतुं तदमीषां वस्त्रादावनुपयोज्यब्धिकः तत्र च केत्रे स्वपक्कतः परपक्वतो वा अवमानं विद्यते ते मानो महती कर्मनिर्जरेत्यादि । अथ ते गीतार्थास्तस्य लब्धिच साधवोऽनधिसहाः शीतादिपरीषहान् सोढुमसमर्थाः गृह-| मुपहन्यस्ततस्तैरसहितोऽप्येकाकी उत्पादयितुं वा प्रभावयितं स्थाश्च मन्दधर्माणः तुच्चधर्मश्रककाः अप्रज्ञापिताः सन्तो न ब वा प्रभुन कश्चिद्दोषः । इत्थं तावद्वस्त्रादीनां कल्पिको भवविति स्त्रादि प्रयच्छन्ति सुकं चोपधि साधवो गवेषयेयुरिति जगवता कृत्वा यथा प्राचारः उत्सार्यते तथा प्रतिपादितम् । मुपदेशः स च दुर्बभत्वात् यादृशेन साधुना न बज्यते अत ईशे अथ दृष्टिवादी येन कारणेनोत्सार्यते तत्प्रतिपादयति । कार्ये लब्धिवान् दुर्मेधा अप्युत्सारकल्पं कृत्वा वस्त्रैषणाध्ययनमुद्दि कालियसुआणुओगम्मि, गंडियाणं समोयरणहे । श्य कल्पिकः क्रियते ततश्च कल्पिकीकृतःसन् किं करोति इत्याह । उस्सारिति सुविहिया, भूयवायं न अन्नणं ॥ हिमउगीयसहाओ, समद्धिा उवहाणंति से लम्।ि । यो धर्मकथासब्धिसंपन्नः परमद्यापि स्वल्पपर्यायत्वात दृष्टितो एकओ वि हिंमद, आयरुस्सरियसुत्तत्थो । | वाद पवितुमप्राप्तस्तस्य कालिकचतानुयोगेम धर्मकां कुर्वाणगीतसहायो गीतार्थसाधुमहितो वस्त्राद्युत्पादनार्थ दिएमता- स्य गएिमकाः कुलकरतीर्थकरगरिककादयो दृष्टिवादान्तर्गता Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्सारकप्प अभिधानराजेन्द्रः। उस्सिोदग सपयुज्यन्त इति तासां गएिमकानां कालिकश्रुतानुयोगे समव- | तस्योत्सारकल्पिकस्योपधि विशेषसाधवः स वा उत्सारकतारणहतोरुद्देशसमुद्देशादिविधिना न कटपते तासामध्ययना- ल्पिको नान्येषामाचार्यकपकादीनामुपधि प्रत्युपेक्षते सर्वत्र दिकमिति कृत्वा सुविहिताः शोभनविहितानुष्ठाना आचार्याभूत- मा भूदध्ययनव्याघात इति योज्यम् । बादं दृष्टिवादमुत्सारयन्ति तान्येव वाचको भूयादिस्यादिना एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अप्पणो न अन्नस्त । कारणेन । अथ "का समसज्कायवक्ववत्ति" यत्प्राक् पदत्रयमुक्त खेत्तं व न पेहावे, न याचिते सोवहिं पेहे।। सत्राद्यं पदद्वयं तावद्विवृणोति। एयमेव लेपग्रहणमुपलक्षणत्वात् ले पभमपि पात्रस्य तस्य सज्झायमसज्झाए, मुछासुकेर बाहिसे काले । निमित्तमन्यैः साधुभिः ६.तं यम् । अथ शेषसाधवः कुतोऽपि दो दो अ अणोएसुं, एसुं तू अतिमं एक ॥ हेतोरक्षणिकास्तत स श्रात्मन एव पात्राणि लिम्पति माएगंतरमायविल-विगईए रविवयं वि यजति । न्यस्य साधोः। क्षेत्रं च तं न प्रेवापयेत् क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ से जावा य अहिज्जइ, ताक दिसे के। न प्रहिणुयादित्यर्थः । न चाप्यसावुत्सारकल्पिकस्तेषां क्षेत्रप्रतस्यात्सारकल्पे क्रियमाणे स्वाध्यायिके अस्वाध्यायिके वा झुके त्युपेक्षकाणामुपधि प्रत्युपेक्षेत। मशुद्धे या काले विवक्कितश्रुतमुद्दिशेत् सर्च वाक्यं साधारणं दिति पण याहारं, न य बहगं मा हु जग्गतो जिमं । भवतीति न्यायाधुदिशेदेव न व्याघातं कुर्यात् । केन विधिनेत्य- मोआइ निसग्गेमुं, बहुसो मा होज पलिमयो । नाह (यो दो अप्रणोपसुंति ) प्रोजःशब्देन विषयमुच्यते प्रणीतं स्निग्धमधुरमाहारं परमानं शर्करादिकं तस्य गुरवः सहिपरीतः अनोजाः समा द्विचतुःषमादय उद्देशका यत्राध्ययने प्रयच्छन्ति सुखेनैवाहर्निशमपि दृष्टिवादादिसूत्रार्थान् प्रेक्षानिनत्रानोजस्सु उद्देशकेषु दिने दिने द्वी द्वौ उद्देशकाबुद्दिशेत् । क मित्तमिति भावः । तमपि प्रणीतं न च नैव बहु कं किं तु स्वल्पं थमिति चेषुच्यते प्रथमायां पौरुष्या प्रथममुद्देशकमुद्दिश्य च कुत इत्याह मा भूत्सूत्रार्थनिमित्तं रजन्यामपि जाग्रतोऽजीर्णहितीय सहिश्यते दितीयमुनयोरप्युद्देशकयोस्तस्यानुयोगो दी. मिति रुक्काहारमोजिनश्च बहुशो धारान्मोकादिनिसर्गेषु प्रथयते ततइन्चरमपौरुष्यांप्रथममुद्देशकमनुज्ञाय द्वितीयोद्देशकःस घणसंज्ञादिकव्युत्सर्गेषु विधीयमानेषु परिमन्थः सूत्रार्थव्यामुद्दिश्यतेऽनुक्कायते चेति चणि लिखिता सामाचारी। सथा (ो घातो मा भूदिति कृत्वा प्रणीतं दीयते । अल्पा च निद्रा स्वजस्सत्ति) पञ्चसप्तादिसंख्याकेषु विषमेषूद्देशकमेकमेवोदिशेत् । ल्पप्रणीताहारभोजिनो भवतीत्यल्पनिद्राद्वारमपि व्याख्यातयथा शस्त्रपरिज्ञाध्ययने तथाहि तत्र सप्तोद्देशकास्तेषु च त्रिनि मवसातव्यम् । इत्थमुत्सारकल्पे समापिते सति विवक्षितं दिवसैः सद्देशकानुदिश्य चतुर्थ दिवसे एकपयावशिष्यमाण- वस्त्रोत्पादनादिकार्य पूर्वोक्तविधिना कार्यते तदेवं व्याख्यातसप्तम उद्देशक सहिदयते स च प्रथमपौरुष्यामुद्दिश्य नरमाया मानुषङ्गिकमुत्सारकल्पिकद्वारम् । वृ० १ उ०। मनुज्ञायते तथैकान्तरमेकदिवसान्तरितमाचाम्बमसौ करोति ए उस्सारग-उत्सारक-पुं० । उत्सारकल्पाहे, वृ. १२० । कस्मिन् दिवसे श्राचाम्समपरस्मिन् निर्घकार्तिकं करोतीति भावः। (तल्लकणमुत्सारकप्पशब्देऽनन्तरमेव दर्शितम् ) द्वारपाले, तथा विका रक्तिमपि खरएटतमप्यसौ वर्जयति केचित्पुनराचार्या वते यावत् यत्परिमाणं श्रुतमसावधीते तावदुद्दिशत् हेम० तेन हि प्रजुद्वारतो जना दूरी क्रियन्ते इति तस्य तथात्वम यदि मेधावितया द्वे श्रीणि चत्वारि भूरितराणि वा अध्ययना अपसारके, वाच०॥ न्यागमयति ततस्तानि सर्वाएयुद्दिश्यन्त न कश्चिद्दोष इति उस्सारण-उत्सारण-न उद्-सृणिच् । ल्युट् ।दूरीकरणे स्थामावः । व्याख्यातं “कालमसज्जाएति " पदद्वयम् । नान्तरनयने, अपसारके, चासने, वाच० । नत्सारकल्पकरणे, अथ प्रवक्खेवेति" पदं विवृण्वन्नाह । “अरिहर उस्सारणं का" वृ० १०॥ श्राहारे नवकरणे, पमिलेहणलेवखित्तपडिलेहो। उस्तारित-उत्सारयत-त्रि० उत्सारकल्पं कुर्वति, वृ०१०। अप्पाहारो परिहा-रगो अजह अप्पनिदो अ॥ नस्सारिय-उत्सारित- त्रि० उद्-स-णिच्-क्त-दूरीकृते चानितस्योत्सारकठप कर्तुमारब्धे आहारग्रहणे उपकरणस्य प्रत्यु-| ले. वाच । पातिते, “सहसा उस्सारिओ य नावाए" संथा पेक्कणे लेपग्रहणे केत्रप्रत्युप्रेक्षणायां च व्याकेपो न कत्र्तव्यः। श्र- | नस्सास-उच्चास-पुं० के प्रबत्रः श्वासः उच्वासः । प्राय स्पाहारश्च यथा स भवति तथा कार्य परिहारःसंझा एककायि- ५० । उच्चासने, प्रइन०१ श्रु०१ अ० । “समयं उस्सासनीका तयाः स्वल्पता अल्पाहारता नवात यथा वाऽसावल्पनिको सासो" । प्रज्ञा०१ पद । प्रझापनासप्तमोच्नासपदोक्तवक्तव्यता भवति तत्कर्तव्यमित्येषा संग्रहगा अन शब्दे उक्ता) (समोच्चासनिश्श्वासप्रश्नः समशब्दे) अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति। उस्मासग -उच्चासक-पुं० उच्चस-तीत्युच्चासकाः । उच्चाहिंभाविति न वा णं, अहवा अब्रहया न सो अमइ । सपर्याप्तिपर्याप्तकेषु नैरयिकादिवैमानिकान्तेषु जीवेषु, स्था०२ एहिंति वसे उवहि, पेहेई व सो अनसि ।। ग०२ २० । उच्चासयति वर्षयतीति उदासः स एवोच्वासकः पमिति । तमुत्सारकल्पिकमाचार्या भिक्षां न हिएडापयन्ति जीवितादेवरूके, " जीविनस्साए " | जीवितोचासकः धाशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वातू संस्तरणे सतीति अभ्यं यदि जीवितमस्माकमुच्लासयति वर्कयतीति जीवितोच्चासः स पुमरसंस्तरणं तदा ' अहवेति' संस्तरणस्य प्रकाराम्तरता. एव जीवितोच्वासकः । झा० १०॥ योतका अन्यार्थमन्येषामाचार्यग्लानबालवृद्धादीनामर्थाय ना- | जस्सादग-नाच्छूतादक- ३५ उस्सिोदग-नच्चितादक- वि० ६ ब. ऊऊँ वृद्धिंगतजले, साधुत्सारकल्पिकः पर्यटति यावन्मात्रमाहारमात्मना भुते 'लवणेणं समुद्दे उस्सिओदए ' उच्छ्रितोदकाऊ कृमिगतजन्नः तावन्मात्रमेवानयतीत्यर्थः । तथा प्रेक्षन्ते वा प्रत्युपेक्षन्ते स साधिकषोमायोजनसहस्राणि ०६श०. Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०७) मस्तिओसिय अभिधानराजेन्द्रः । नस्सयत्त रस्सिओसिय-उत्सृतोत्सृत-पुं० कन्यतः कर्कस्थानस्थे जावतो | कावश्त्ता" विवादे, परमुत्सुकीकृत्य सन्धावसरोजयार्थी विवधर्मगुक्ताभ्यायिनि, तादृशावस्थस्य कायोत्सर्गे च। प्राय०५० दत स्था० ६ ग०. । ( क उस्लम्गशब्दे स्पष्टीभविष्यति) नस्सुत्त-उत्सूत्र-त्रिसूत्रादूर्द्धमुत्तीर्ण परितुष्टमित्यर्थः। प्रथ. नघण-उत्सिडन-नश्वायूपयोगभेदे, प्राचा०१७०१०००। १ द्वा। सूत्रोत्तीणे, व्य० ३ ०1" उस्सुत्तमपट्ट" उस्सिचश्त-उत्सिञ्चद-त्रि० उत्सेचनं कुर्वति, “उत्तिगादिणा | सूत्रं नाम यत्तीर्थकरादिभिरनुपदिष्टम् । व्य० १००। स्मुत्तं सुत्तादवेयं "" उस्सुत्तमवई" नि चू० ११ उ० । थापचिहसु एगममयरेण कहादिणा तस्सिचणं उस्सिचति"। " उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पन्नवेमाणे" इति यथा उन्दो नि० चू० १८३० । आचा॥ सवणम् । आव. ३ अ० प्रा० चूकाऊ सूत्राशुत्क्रान्तः उत्सूत्रः। उस्सिचण-उत्सेचन-न ऊर्दू सेचनमुत्सेचनम् । कूपादेः को सूत्रमतिक्रम्य कृते, " उस्मुत्तो उम्ममगोध०२ अधि। सूत्रातिशादिनोरक्षेपणे । श्राचा १ श्रु० १ ० ३ उ० । उद्-सिन् तिक्रान्ते, पंचा० १४ विव० सत्ररहिते, “अस्मुत्तो खा न विकरणे-ल्युट । उत्सेचनोपकरणे काष्ठादी, आचा०२ श्रु० । उ ज्जते अत्थो" व्य०५ उ० । संघा०। सूत्रापुस्कृते, सूत्रानुक्ते, रक्रम्य आधारमतिक्रम्य सेचनमुत्सेचनम् । आधारातिक्रमेण आव०४०। “स्नुत्ता पुण वाह सम विगप्प सुरुविसेचने, वाच। णियमेणं" प्रतिः। तथासूत्रप्ररूपका महाव्रतपासनतपश्चरउस्सिनमाण-उसिञ्चत-त्रि० पाक्षिपति, । 'भिक्षुबडियाए णादिकां क्रियां कुर्वन्तः कर्मधुका जवन्ति नबेति प्रो उत्सूत्रउस्सिचमाणे णिस्सिचमाणे वा प्राचा०२ श्रु०११०६ उ० । प्ररूपका महावतपासनादिक्रियासहिता निवाइय उत्कर्षतो ननस्सिचिय-नत्सिञ्च्य-श्रव्य उत्सेचनं करवेत्यर्थे, 'उस्सिचि. वमवेयकं यावयान्ति तेन महाव्रतपासनादिक्रियावां तजन्य याणं उप्पत्तियाणं गिराहाहि'। प्राचा०२ श्रु। शुनं फलं भवतु परं तेषां कर्मणां बघुकता गुरुकताच सर्वधिउस्सिक-उत्क्षिप-धा० तुदा-सक-ऊर्द्ध केपे, उत्क्षिपेर्गुलुगु-। द्वेद्योति । १८ प्र०॥ छात्थंघाल्लत्थाभुतोसिकहक्खुप्पाः ४४३ | इति उस्सिका-नस्सुत्तारूवणा-उत्सूत्ररूपणा-स्त्री०सूत्रानुपदिष्टार्थप्रज्ञाप. देशः । उस्सिका । उक्खिवह । उरिक्षपति । प्रा०॥ नायाम, व्य०१०। नि०१०। (सा च यथाच्छन्दस इति उस्सिट्ठ-नुत्सृष्ट-त्रि० उत्सर्गविषयीकृते सूत्रे, सद्धेतुनोत्सृष्टमपि यथाच्छन्दसशब्दे ) (अहाउन्दशब्दे उक्ता) मवरमुत्सुत्रभाक्वचिदपोद्यते । द्वा० ३ द्वा० । त्यक्ते, दत्ते च । वाच । षणफलम् । मरीचिना एष मम योग्यः शिष्य शति विचिन्त्य न क्तम् । “कपिला धं पि श्यं पि" कपिल ! जैनेऽपि धम्मोडनस्मिा -उत्स्विन-न उण्डेरकादौ, वृ०१ उ० । स्ति मम मार्गेऽपि विद्यते तच्नत्वा च कपिलस्तत्पार्श्वे प्रवजितः उस्तिय-उत्सत-त्रिका ऊर्धीकृते, श्रा०म०प्र०। द्रव्यतः ऊर्द्ध- | मरीचिरपि अनेन उत्सूत्रवचनन कोटाकोटिसागरप्रमाणं संसास्थानस्थे भावतः ध्यानचतुष्टयरहिते कृष्णादिलेश्यां गते प रमुपाजयामास । यत्तु किरणावजीकारण प्रोक्तं "कपिला इत्थं रिणामे, तारशावस्थस्य कायोत्सर्गे च, श्राव०५ अ० (काउ-1 पि श्हयं पित्ति वचनम्" उत्सूत्रमिश्रितमिति । तत्रुत्सूत्रनास्सग्गशब्दे स्पष्टीभविष्यति) पिणां नियमादनन्त एव संसार शति स्वमतस्वारसिकतया संयम उच्छिक-त्रि० उत्कटे, “वंभचेराई उस्सिताइ भवंति" सु०। इदं हि तन्मतं ये उत्सूत्रभाषिणस्तेषां नियमादन त एव संसारः प्र०१८ पाहु। स्यात् । यदि च इदं मरीचिवचनमुत्सूत्रमित्युच्यते तदा भस्यानसिक-पुं० उस अल्पार्थे स्वार्थे वा ठन् (घ) अल्पवाहके वि अनन्तसंसारः प्रसज्यते न त्वसौ संपत्तिस्तदिदमुत्स्त्रमिति। जीर्णवृषभे, अल्पकीरनाविण्यां गव्याम, स्त्री० । धाच० । तच्चायुक्त.म् । उत्सूत्रनाषिणः नियमात अनन्त एव संसार इति नियम जावात् । श्रीनगवत्यादिबहुग्रन्थानुसारेण उत्सूत्रभाषितबस्तियरिणसमय-उत्सतनिषत्मक-पुं० व्यत ऊर्द्धस्थानस्थे शिरोमणिर्जमालिनिवस्यापि परिमितजयस्य दर्शनात् स चोभावतः प्रातरौद्रभ्यातरि तादृशावस्थस्य कायोत्सर्ग च । सत्र मिश्रकथनेऽपि अस्य मरीचिवन्नास्य उत्सत्रत्वमपगच्छति "अ रुई च दुवे, मायइ झापाइ जो ठिो संतो। एसो का- | विष मश्रितानस्य विषत्वमिवेत्यलं प्रसकेन । कल्प० : उस्सागो, दबुसितो भावन णिसमो" आव०५० (काउ उसमय-नुत्सुक-त्रि उत्सुवतिषु-प्रेरणे मितद्धाविकन् इटावास्सग्गशम्दे स्पष्टीभविष्यति) प्तये कालपासहिप्णी, इष्टार्थोद्युक्ते, च । " अप्पुम्सुमो - उस्मुक-नचुस्क-त्रि० उन्मुक्तं शुल्कं विक्रेतव्यभाण्डं प्रतिरा राले सुजयमाणो परिव्यय" सूत्र १ श्रु०१०१० । अल्पोत्सुकोजदेयं द्रव्यं यस्याः सा तथा । यस्मिंस्तत्तथा तस्मिन् । जं. ३ | विमनस्कः । श्राचा०२ श्रु। वक्षः। भ० । कल्प० । अविद्यमानशुल्कग्रहणे, विपा० १७०३ | जस्मृयत्त-उत्सुकत्व-नापामोत्पत्तौ यदि मियेऽहं तदा परमित्येअ । अर्थाभावे, अश्या " उस्मुक्कं वियरह " शा० ८ वमादिरूपे औत्सुक्ये, आतु। श्रा। उत्कण्ठायाम, इच्छामात्रे, वाचः । इतराभिलापाति नस्थ एव उत्सुकायते न केवली । के, पो० ३ विव: । " औत्सुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठां, उउमत्थे गं ते! मग्रामे हमज्जा वा उस्मुयाएज बा ! फिलश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव । नातिथमापगमनाय यथा श्रमाय, राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिघातपत्रम्" अष्ट०१ श्रष्ट हंता हसेज या उस्याएज वा जहा णं भंते ! उन्मत्ये उस्सुकायेणिवित्ति-औत्सुक्यविनिवृत्ति-स्त्री. अभिलाषव्या मासे हसेज्ज वा समुआएज्ज वा तहाणं केवली कि वृत्ती, श्रा०। हसेज्ज वा उस्मुयाएज वा ? गोयमा! णो इणढे समढे उम्मुकाबइत्ता-नाकरण-अव्य० उत्सुकीकृत्येत्यर्थे, “ उस्सु- से के राष्टुंणं जाव नो णं तहा केवली हसेन्ज वा उस्सुभा Jain Education Interational Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सुयन्त एज्ज वा ? गोयमा । जसं जीवा चरितमोहाणिज्जकम्मसउद इति वा उस्नुयायंति वा से णं केवलिस्स नत्थि से तेणद्वेणं जाव नो एं तहा केवली हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज वा । भ० श० ४ ० । उस्मृयन्नुय उत्सुकीभूत- त्रि० उत्प्रव्रजिते, वृ० १० । “उस्सुय"नूर्ण अप्पाने " आचा० २ श्रु० । उस्सेइम - उत्स्वेदिम - न० उत्स्वेदेन निर्वृत्तमुत्स्वेदिमम् । येन त्रीह्यादिपिष्टं सुराद्यर्थमुत्स्वेदते [स्था० ३ ठा०] तादृशे पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदके, श्राचा० २ श्रु० । पिष्टभृतहस्तादि कालनजले, कल्प०। " तं बसिणं चैव पाणयं जं सीतोदगेण चैव संसि चियं उस्सेमस्स इमं वक्खाणं " ॥ सीतोदगम्म कति, दीवगमादी न से इमं पिहं । सेमं पुरण विला- सिमा बुज्छंति जत्युदए । ६२ ॥ मरहठविसर उस्सेर आदीवगा सीओदगे वुज्झति उस्से मे उदाहरणं जहा पिठं | अहवा पिट्टस्स उस्सेजमाणस्स देठा जं पाणि तं वस्सेश्मं पच्छ गतार्थम् ॥ ( १२०८ ) अभिधानराजेन्द्रः । पढमुस्सेतिसमुदयं, कपकप्पं च होति केसि चि । तं तु रणदुज्जति जम्हा, उसिं वीसंति जा दएको ॥ ६ ॥ तं दीवगादि उस्सेति मा पक्कं पि पाणिए दो वि तिसु वा णिश्चजिंति तत्थ वितियततिज्जा य सव्वेसिं वेत्रकप्पा पढमं पाणियं तं पि अकप्पं चेव केसि चि आयारियाणं कप्पं तं ण धरूति कम्दा जम्दा उसिणोदगमवि अणुवत्ते दंगे मि संभवति तं पुण कहि उस्सेति मे सुच्छूढेसु अचितं भविष्यतीत्यर्थः । नि० ० १७ ८० ॥ उस्सेतिमपिट्ठादी, तिलाति मीसेति मतिनायव्वं । मं* * * * * * * * * * * ** कंकरुगादि वक्खन, अतिपकरसं तु पलियाम ।। २१ ।। उस्सेतिमं ग्रामं जहा पिठ्ठे पुढविकायभायणं श्राक्कायस्स भरेता मीलए श्रद्धहिज्जंति सुहं सेवत्थेणं उहाडिज्जति ताहे पिपयणयं रोस्स भरेता ताहे तीसे थालीए जलभरियाए raft उविज्जति ताहे अहोदिद्देणं तं पि श्रोसिजति हेठा हु तं वा विजति । नि०यू० १५ उ० । उस्सेग - उस्सेक - पुं० उद्-सि-घञ्-गर्वे, उद्रेके, उद्धृत्य बहिःसेचने च । वाच० । न सुखदुःखयोरुत्लेकविषादौ विधेयौ श्राचा० १ ० ३ श्र० १ उ० । उत्लेह - उत्सेध-पुं० उत्सेधति कारणमतिक्रम्य वर्द्धते उत्सिधगत्याम् अच् । देहे तस्य शुक्रशोणितरूपसूक्ष्मकारणातिक्रमेण वर्द्धनात्तथात्वम् । वाच०। उच्छ्राये, स्था० १० ठा० । जं० । कर्तरि अच्-उच्चे, त्रि० वाच० । शिखरे, " रययमप उस्सेहे " रजतमय उत्सेधः शिखरमाह च जीवाभिगमम्लटीकाकारः " कूटो माडभागः । उच्छ्रयः शिखरमिति । शि खरमत्र माडभागस्य संबन्धि द्रष्टव्यम् । तद् द्वारस्य तस्य प्रागेवोक्तत्वात् । जीवा० ३ प्रति० । उस्ते हंगुन-उत्सेधाङ्गञ्ज-न० उत्सेधः “श्रणंताणं सुडुमपरमाणुपोग्गलाणमित्यादि" क्रमेणोच्छ्रयो वृद्धिनयनं तस्माज्जातमङ्गुलमुत्सेधाङ्गलम् । अथवा उत्सेधो नारकादिशरीराणामुत्वं तत्स्वरूपनिर्णयार्थमङ्गलमुत्सेधाङ्गुलम् । अङ्गुलप्रमाणभेदे, अनु० (तद्भेदः अंगुलशब्दे उक्तः ) उहार - उहार - पुं० मस्त्यविशेषे, स किल नावमधस्तले जलस्य नयति । वृ० ४ उ० | गिक्खि उहद्दु-उष्कृत्य-श्रव्य० उपरिकृत्वेत्यर्थे, “ सिया " आचा० २ ० ७ ० । ****: इति श्रीमत्सौधर्मवृत्तपागच्छीय - कलिकाल सर्वज्ञ श्री महट्टारक- जैन श्वेताम्बराचार्य श्रीश्री १००८ श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचिते अनिधानराजेन्द्रे उकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥ ----- For Private Personal Use Only 'उहद्दुउहद्दु Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १...... .. ... ... . . १ ऊकार (१२०९) अभिधामराजेन्सः। कणोयरिया दिधस्तु तद्विषयं मिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्य सः । - नातिरिक्तमिश्यादर्शनप्रत्ययवति, तथा हि कोऽपि मिथ्यादृधिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अङ्गुष्ठपर्वमात्र एवमात्र श्यामाकत. म्दुबमात्रं चेति हीनतया चेति तथाऽन्यः पञ्चधनु-शतिक सर्वव्यापक चेस्यधिकतयाऽनिमन्यते । स्था० २ ग० । मणिय-ऊनित-त्रि० कनीनूते, "यायामीसं घासाकणिया " जं. २ वक्त। करणोयर-ऊनोदर-न० क-स-उने उदरे, प्रव० ६ द्वा० । कनमवममुदरं यस्य स ऊनोदरः । ध०३ अधि०। स्तोकाss*RROR>-- हाराभ्यवहारादपूर्णोदरे, पश्चा०१८ वि०। ऊणोयरिया-ऊनोदरिका-(ता) स्त्री नमुदरमूनोदर तस्य --अश्यण्वे-किप-संवोधने, वाक्यारम्भे, दयायां, र- करणं जावे-घुम्-कनोदरिका । प्रध० ६द्वा० । कममधममुदरं क्षायां च । मेदिका अवसाने, वितके, वञ्चनायो, व्यसरे निषेधे, यस्य स छनोदरस्तस्य भाव ऊनोदरता । व्युत्पत्तिरवेयमस्य एका० । प्राकृतेऽपि । ऊ गहाऽऽकेपधिस्मयसूचने । ।२ए। प्रवृत्सिस्तूनतामात्रे । बाह्यतपोदे, ध० ३ अधि० । सः । क इति गर्दादिषु प्रयोक्तव्यम् । गर्दा । ॐ णिज्ज! प्रक्रान्तस्य | पञ्चा। उनोदरिका ऊणोयरिया इति अवमोदरिका ओमोय. वाक्यस्य विपर्यासाशङ्कया विनिवर्तनवकण आलेपः। कि रिया इति च समानार्थका इति तद्भेदानाह। मए प्रणिधे । विस्मये कह मुणिणा अह भा । सुचने के से किं तं प्रोमोदरिया प्रोमोदरिया दुविहा परमत्तातं जहा बनविणाअं प्रा०। दब्बोमोयरिया य जावोमोयरिया य भ० २५श०७०। ऊ-पुं० अवति रकति । अध-विप-ऊप-अर-महादेवे, चन्छे, सा द्विधा व्यतो नावतश्च । प्रव०६ वा । अथवा । पाच । तोये, तोयधी, धरणीधरे, रकणकृति, पुरुषे, राजपुत्र- श्रोमोयरियं पंचहा, समासेण विहाहियं । के, उपकारे, अपाङ्गणे, क्वचिदर्थे, गो, मङ्गलकुम्भे, दैवे, वणि दव्वो खित्तकालेण, नावेणं पज्जवेहि य॥ १४ ॥ जरकणे च। “ऊकारो रजनीनाथे, पुरुषे राजपुत्रके । उपकारेऽ. पानणे च, कचिदर्थे प्रवर्तते । । गले मङ्गलकुम्ने च देवे षणि अवममूनमुदरं यस्मिन् तत् अवमोदरं तत्र भवमवमोदरिक जरवणे" । एका। तत्तपः समासेन संकेपेण पञ्चधा व्याख्यातं बन्यतो द्रव्येण के श्रेण कालेन नावेन च पुनः पर्यायैः । उत्त० ३०० । जास-उपवास-पुं० उप वस्-घञ् । कचोपे । । १। ७३ ।। तत्र व्यतोऽयमोदरिकामाहइति उपेत्य स्थाने ऊत् । श्रभोजने, प्रा० । से किं तं दव्योमोयरिया य दश्वोमोयरिया ऽविहा पऊजकाय-उपाध्याय- पुं० । प्राकृते उच्चोपे । ७।१।७३ ।। इति उपेत्यस्य स्याने उत् । पातयितरि, प्रा०। पत्ता तं जहा नवगरणदच्वोमायरिया य भत्तपाणदबोका-ऊन-त्रिकन- हानी-अच्-स्वप्रमाणाकीने, स्था०५ मोयरिया य । से किं तं नवगरणदबोमोयरिया उनगरगा। अवमे, स्था०६ ग०। स्वतोऽवमे, सूत्र०५ श्रु०७ अ० पदव्योमोयरिया । एगे वत्थे एगे पादे वियत्तीवगरणअसंपूर्ण, कनार्थशब्दयोगे तृतीया एकेनोनः । कनार्थकश- साइज्जण्या सेत्तं उवगरणदव्बोमायरिया। भ० २५ मेन पा तृतीया । माषेण कनः माषोनः । वाच० । व्यञ्जनाभि- श० ७ न०॥ लागवश्यकैरसंपूर्ण अधाविंशे धन्दनकदोषे, ध० १ अधिः । कन्यत उपकरणभक्तपानविषया तत्र उपकरणविषयोनोदरिका "वयणकरेण हि कणं जहएणकात्रवसेसहिं" । अष्टाविंशदोष- जिनकदिपकादीनां न तवज्यासपरायणानां वा बोरुन्या न पुनमाह-वचनैरासापकैः करणैर्वा अवनादिनिरावश्यकैय॑नं हीनं रन्येषां तेषां समुपश्यन्नाचे समप्रसंयमपालनाजावात् । अथवा यवन्दते यद्वा कश्चिदत्युत्सुकतया जघन्येनैव कालेन बन्दनं अन्येवामप्यतिरिक्तोपकरणाग्रहणतो नवत्येवोनोदरता । सध्यति शेषैर्वा साधुभिर्वन्दिते सति पश्चावन्यते तन्मूलं ना यमुक्तम् । म चन्दनकम । वृ. ३० । अकरमात्रापदादिभितूदाहरणा- जं वह उघगारे, नवगरणं तं च होश उवगरणं । ज्यो था हीनरूपे सूत्रदोषे, यथा अनित्यः शब्दो घटवदिति प्ररित्तं अहिंगरणं, अजभो य जयं परिहरंतो" इति । हेतूनम् । पानेत्यः शब्दः कृतकत्वादिति उदाहरणहीनमित्यादि (परिहातोत्ति) मासेवमानः परिहारोऽपरिजोग इति धचविशे। अनु०। श्रा०म० द्वि०। नात् । ततोऽयतश्च यत्परिनुजानो भवतीत्यर्थः। प्रव०६ढ़ा। कात्त-ऊनत्व-नहीनत्वे, "ऊणत्तं न कयाविज्ञ माणसंखं ६० म० । इमं तु अहिगिच्च" दर्श। से कितं भत्तपाणदव्योमोयरिया जत्तपाण दव्योमोयरिया कणमयभाग-ऊनशतभाग-पुं० नश्चासौ शतभागरचोन- अट्ठकुक्कुमिअंडगप्पमारणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे शतभागः । शतनागेऽप्यपूर्यमाणे, । श्राव०३०। अप्पाहारे दुयालस जहा सत्तपसएपढमुद्देसए (ज.२५ श.७ मणाइतिरिनमिच्छादसणवत्तिय -ऊनातिरिक्तमिध्यादर्श- न.) तद्यथा अट्ठकुक्कुमिअंगप्पमाणमत्ते कवले श्राहारमानमत्यय-त्रि०नं स्वप्रमाणाडीनमतिरिक्तं ततोऽधिकमात्मा- हारमाणे अवलोमोयरिया सोलस कुकुमिअंगप्पमाणमत्ते Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१०) कणोयरिया अनिधानराजेन्दः । कणोयरिया कवले आहारमाहारेमाणे दुनागपत्त चउनीसं कुक्कु- जं जं नवगहे वा, चरणस्स तगं तगं भण।। डिअंडगप्पमाणे जाव आहारेमाणे श्रोमोयरिया वतीसं अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनन अपिशब्दः संबन्धस्यैव समुहये कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमा- पूर्वसूत्रेण प्रतिग्रहक नक्तः तस्मिश्च प्रतिग्रह के साथयो भत्तं गृहाणपत्तो एको एकेण वि घासेण ऊणगं आहारमाहारेमा न्ति तस्य नक्तस्य किं प्रमाणमित्यनेन प्रमाणमभिधीयते । अथ वा किं संबन्धेन यत् चरणस्य चारित्रस्यापनहे वर्त तसस्त्रगे समण णिगये नो पकामरसभोइत्ति वसव्वंसिया (भ. कारो बदति । अनेन संबन्धनायातस्यास्य व्याख्या। अहा कुक्कु७ श०१ न०) सेत्तं जत्तपाणदव्योमोयरिया सत्त दव्वो ट्यएमकप्रमाणमात्रान् कयनान् आहारमाहरयन निर्ग्रन्थोऽपा. पोयरिया ज०२५ श० ७ १०॥ हारो नएयते द्वादश कुक्कुट्यएमकप्रमाणमात्रान्कवतानाहारमाजक्तपानानोदरिका पुनरात्मीयात्मीयाहारमानपरित्यागतो वि हारयन् अपसावमौदर्यःद्वात्रिंशतं कुक्कुट्यामकप्रमाणमात्राक वलानाहारमाहारयन् किश्चिदूनायोदयःद्वात्रिशतं कुषकुट्यएमझाय आहारमानं च " यत्तीसं किर कवता, आहारो कुच्छिप कप्रमाणमात्रान्कबलानाहारमाहारयन धम्मानिन्थः प्रमाणरनो भणियो । भरिसस्स महिवलियाए, अट्ठावीसं नवे कव प्राप्तः। इत एकेनापि कवसेन उनमाहारमाहारयन् श्रमणा बा । कवनस्स य परिमाण, कुक्कुमिअंडप्पमाणमेत्तं तु । जंवा | अविगिय वमो, वयण मित्रु-त्तिजवीसतो" इत्यादि । सा च | निर्ग्रन्थो न प्रकामनाजीति वक्तव्यः स्यात् । एष सूत्रावरार्थः । अल्पाहारादिनेदतः पञ्चविधा भवति । यदाहुः । अथ नाष्यप्रपञ्चमाह ॥ अप्पाहारयज्जा, उभागपत्ता तहेव किं बुमा । निययाहारस्स सया, वत्तीसमे न जो भवो जागो। अह ज्याझस सोझस, चनवीस तहेक्कतीसा य । तं कुक्कुमिप्पमाणं, नायव्वं बुछिमंतहिं ।। अयमत्र जावार्थः । अल्पाहारोनोदरिका नाम एककवनावार निजकस्याहारस्य सदा यो द्वात्रिंशत्तमो नवति जागरूकुपकु.. ज्य यावदशी कवला इति अत्र चैककवलमाना जघन्या अg-1 टीप्रमाणं पदैकदेशे षदसमुदायोपचारात् । कुक्कुट्यएमकप्रमाण कवनमाना पुनरुत्कृष्ट नादिकवनमानानेदा मध्यमा पवं नव ज्ञातव्यं बुद्धिमतिः॥ भ्यः कवयः आरज्य याबद् द्वादश कवास्तावदपाकॉनोद अत्रैव व्याख्यानान्तरमाह ॥ रिका अत्रापि नय कवना अघन्या बादश कवनोत्कृष्पा शेषा तु कुच्छिय कुमीय कुक्कुमि-सरीरगं अंमगं मुहं तीए । मध्यमा । एवं त्रयोदशज्य प्रारज्य यावत् पोमश कवक्षास्ताव- जाय देहस्स जओ, पुव्वं वयणं ततो सेसं ।। द्विभागोनोदरिका जघन्यादिनेदत्रयभावना पूर्ववत एवं सप्तदश- कुत्सिता कुटी कुक्कुटीशरीरभित्यर्थः । तस्याः शरीररूपायाः ज्यो यावच्चतुर्विंशतिकवलास्तावत्प्राप्तानोदरिका एवं पञ्चविंश- कुक्कुट्या अपकमिवाराडकं मुखं केन पुनः कारणेनाएड फं तेरारज्य यावदेकत्रिंशत्कवलास्तावकिञ्चिदूनोदरिका जघन्या- मुखमुच्यते । तत आह यत् यस्मात् चित्रकर्मणि गर्भ उत्पादिभेदत्रयं पूर्ववत नावनीयम् । एवमनेनानुसारेण पानेऽपि भ- ते वा पूर्व देहस्य वदनं मुखं निप्पद्यते पश्चाच्छेषं ततः प्रथणनीया तथा स्त्रीणामप्येवं पुरुषानुसारण सध्या प्रवल द्वारा मभावितया मुखमण्डकमुच्यते । विशेषव्याख्या। थमकुक्कुझिप्पमाणं, जं वा नायासिए मुद्दे खिवति । अकुक्कुडिडगप्पमाणमित्ते कवले आहारं आहरिमाण अयमन्नो रुविगप्पो, कुक्कुडिअंकी न वा कवः ।। निग्गये अप्पाहारे दुवालसककुडिअंडगप्पमाणमित्ते कवले इह कवलप्रक्षपणाय मुखे विडम्यिते यदाकाशं भवति तआहारं आहारमाणे अवलोमोरिया सोनम कुक्कुडिअंड स्थल भण्यते । स्थलमेव कुक्कुट्यण्डकं स्थलकुक्षु ट्यएडक गप्पमाणमित्ते कवने आहारं आहारेमाणे दुभागपस चउ तस्य प्रमाण यदि नायासि ते मुखे कवलं प्रक्षिपति । किमुनी भवति यावत्प्रमाणमात्रेण कवलेन मुखे प्रक्षिप्यमाणेन मुखं न व्वीस कुक्कुमिअंगप्पमाणमित्ते कवने आहारं आहारमाणे विकृतं भवति तत्स्थलकु.क्यु ट्यण्डकाप्रमाणम् । गाथायामश्रामोदरियातिवत्तबंसिया वतीसं कुमिअंगपमाणमित्त कशब्दलोपः प्राकृतत्वात् । अयमन्यः कुक्कुटयण्डकोपमे कवले आहारं आहारमाणे समणे निग्गंथे पमाणपत्ते इतो. कवले विकल्पः । अयमन्याऽथः कुक्कुट्यराटकप्रमाणमात्रशएकेणवि कवलेणं ऊपगाहारं श्राहारेमाणे समणे णिगं ब्दस्यत्यर्थः । पतेन कवलमात्रेणादिना संरया दम्या । तदेव कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता । थे णो पगामरसजोगीति वत्तव्बसिया ॥ १२ ॥ संप्रति नियुक्तिविस्तरः। अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह ॥ अट्ठ त्ति जाणिकणं, उम्मामा हावएउ वतीसा। लखणमतिप्परतं, अइरेगा वि खलु कापते उवही। नाम चौदगवयाणं, पामाए होनि दिता ।। इइ आहारमाणं, अतिप्पमाणे बह दोसा ।। अष्टाविति भणिया यावदधमौदर्य ताबदतम्तरता मध्य अतिरेकोऽपि खलु कल्पत उपधिरित्युच्यमाने लवणमतिप्रस- भणितमसंस्तरतः पुनः द्वात्रिंशत्कं प्रमाणं भगिनमुत्सर्गः । नं ततो मानव प्रसन्नाहारमप्यतिप्रमाणं कुर्यादिति हेतोराहारे पुनरयमुपदेशः परमासादारभ्य तावत् हापयेत याचन द्वात्रिमानमधिकृतसूत्रेणोच्यते यतातिप्रमाणे गृहम णे आहार बहयो शकवलाः । इयमत्र भावना । यदि योगानां न हानिरुपजायते दोषाः "हापज्जब वामेज्ज व इत्यादि " रूपाः ॥ तदा पामासान उपवासं कृत्या पारणके एक सिक्थमाहारयेत । प्रकारान्तरेण संबन्धमाह ॥ अथ तेन न संस्तरति ततः पारणके द्वे सिक्थे अाहारयेत । अहया विप.डेग्गहगे, जगाति तम्स किं माणं ।। पवककमियपरिवद्धया तावनेयं यावदेक लम्पनं. कचरत-- Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२११) कागोयरिया अभिधानराजेन्द्रः। कणोयरिया मित्यर्थः। तेनाप्यसंस्तरणे कवलपरिवृद्धिर्वक्तव्या। सा च ता. हणमेतत् झापयति सिस्प्रिासादनिमापणाय व्यापार्यमाणानावत यावदेकत्रिंशत्कबलाः परमासमुपवासकर्तुमशक्नुवन् पके मावश्यकानां योगानां यावन्मात्रेणाहारेण परिहानि पजायते न विवसेनोनं षण्मासक्षपणं कृत्वा एवमेव सिक्थकवलपरि- तावन्मात्रं तमभिग्रहविशेषमभिगृह्याहारयितव्यम् । वृश्या पारणकं कुर्यात् । एवमेकावहान्या परामासक्षपणं अत्रैव रष्टान्तमभिधित्सुराह । तावत् वक्तव्यं यावद्यार्थ कृत्वा पूर्वप्रकारेण सिक्थककवलप- दिलंतो (अ) मञ्चेणं, पासादेणं तु रायसंदिढे। रिबर्द्धनेन पारणकं परिभावयेत् । श्रथ न संस्तरति ततो दिने दम्बे खेत्ते काले, नाव ण य संकिलेसेइ ।। दिने भुक्त्वा मात्राप्येवमेव सिफ्थादारभ्य यावत् द्वात्रिंशत् कवला इति । अत्र चोदकवचनं यद्येवमष्टावित्यादिसूत्रोपनि इयं गाथाकरयोजना | भावार्थस्तु केनापि राहा अमात्य प्राप्तः शीघ्र प्रासादः कारयितव्यः स चामात्यो द्रव्ये सुग्धबद्धं नाममात्रं वचनमात्रमाचार्य श्राह । सिद्धिप्रासादनिर्माप स्तान् कर्मकरान अन्यतः केत्रतः काइतो भावतश्च संश्लेशयगाय योगानां संधारणनिमित्तमेतन्मध्यमुपात्तं सूत्रेण ततो न ति कथमित्याह । कश्चिद्दोषस्तथा चात्र प्रासादो भवति रष्टान्तः। स चाग्रे अलोणेण य मुकर्य, सुक्खं नो पगाम दव्यतो । भावयिष्यते। संप्रति यदुक्तं " छम्मासा होवते उ बत्तीसा" इति तद्भाव. खेत्ताणुचियं नएहे, काले उस्मूरभोयाणं ॥ नार्थमाह। नावे न देति विस्सामं, निटुरेहिं य खिसइ । कम्मासक्खवलंतम्मि, सित्थमेगादि लंवणं । जेयं वित्तिं च नो देश, नहा अकयदंगणा ।। ततो संवणवढी जा-बकतीसमसंथरे ।। व्यतोऽअबणसंस्कृतं विशिष्टसंस्काररहितं शुष्कं वातादिना एकमेकं तु हावेत्ता, दिणं पुम्बकमेण न । झोपं नीतं वल्सचनकादि तदपि न प्रकामं न परिपूर्ण ददाति । दिण दिण उ सित्यादी, पात्र जुत्तामसंथरे ।। केत्रतो यत्तस्मिन् केत्रे अनुचितं नक्तं वा पानं वा तहदाति। तथा पणमासक्तपणान्ते सिक्थमेकमादिशब्दात असंस्तरणे हे उष्णे कर्म कारयति काले उत्सरे नोजनं दापयति जावतो न त्राणि चत्वारि इत्यादिपरिग्रहोऽधान्तनुक्तमयमे संस्तरणे च ददाति विश्रामम्। निपुरैश्ववचनैः खिसयति। जितामपि च कसिक्थपरिवृष्टिस्तावत्कर्तव्या यावदवमकवलो भवति । तेना- मकरतो बज्यामपि वृत्ति मूल्यं न ददाति । एवं च सति ते कर्मक प्यसंस्तरणे द्वात्रिंशदपि अष्टव्याः परमेतत्कस्याऽपि कदाचित् राः प्रासादमकृत्वापि नष्टाः पनायिताः। स्थितःप्रासादोऽकृतो रा. अन्यथा प्रकामभाजित्वदोषप्रसक्तेर्यत आह । “ एतो एगेण वि का चैतज्ज्ञातं ततोऽमात्यस्य दामना कृता अमात्यपदापयावयिकवलण ऊणगमाहारेमाणे समणे णिग्गंथे पगामरसभात्ति त्वा तस्य सर्वस्वापहरणं कृतमिति । एप पान्तः। वत्तवं सिया" इह प्रकामग्रहणेन निकाममपि सूचितमतो वे सांप्रतमुपनयमाह ॥ अपि व्याख्यानयति । अकरणे य पसायम उ, जह सो मच्चो उ दंमितो रमा। पगामं होइ बत्तीसा, निकामं हो निच्चसो। एमवय आयरिए, उवषयणं होति कायच्वं ।। दुयवि जहधा ते न, गिनी हवति वज्जिया ॥ यथा प्रासादस्याकरण सेोऽखात्यो राज्ञा दण्डित एवमेवाचार्य द्वात्रिंशत्कयना प्रकामं नवति त पच यन्नित्यशः सर्वकालं भु-| उपनयनं भवति कर्तव्यं तथैव राजस्थानीयेन तीर्थकरेण प्रमाज्यते तनिकामम् । पते के अपि द्वात्रिंशकवलेज्यः एकेनापि त्यस्थानीयस्याचार्यस्य सिक्षिप्रासादसाधूनामर्थमादेशो दत्तः। कबलेनोनमाहारमाहारयतो ऽपरिक्त गफिश्च वर्जित जयति । सच कर्मकरस्थानीयानां साधूनां न्यादिषु तत्करोति । यथा "अधुनाथमायणमिति" व्याख्यानार्थमाह । ते सर्वे पलायन्ते । तथा चाह । अप्पावक कुनागो-मदेसणं नाममेतगं नाम । कज्जन्म विनो विगति, भत्तं न तं च पज्जतं । एइ दिणमेयतीम, आहारेउ तिज भणह ।। खेत्तं खलु खेत्तादी, कुवमहि उब्जामगे चेव ।। यदि नाम प्रतिदिनमेकत्रिंशमपि कवज्ञानाहारापयेदिति नणथ तइयाए देत काले, ओमे वुस्सग्गवादिगो निच्च । यूयं प्रतिपादयथ तर्हि यत् अल्पाईविभागावमौदर्यवेकानं तत्राम मात्रकमेकत्रिदातोऽपि कवनानां प्रतिदिवसमाहारानुहानात् । संगहउबग्गहे विय, म कुण भावे पयंडो य॥ प्राचार्य प्राह । व्यतः कार्यऽपि समापतित विकृति घृतादिकां न ददाति । भ क्तमपि प्रान्तं दापयति । तदपि च न पर्याप्तम् । क्षेत्रतः अनु क्षेजमात अप्पाहारा-दो समत्यस्स गिह विसेमा। त्रादीन प्रेषयति खजु केत्रं नाम यत्र तु किमपि प्रायोग्य सभ्यंत चंदायणादयो विव, मुत्तनिवातो पगामम्मि । प्रादिशब्दायत्र स्वपक्कतः परपक्कतो वाऽपभ्राजना तदाविपरिमजायते उत्तरं दीयते अल्पाहारादयः समर्थस्य सतोऽभिग्रह- हः। कुवसतौ वा स्थापयति उशामके वा ग्रामे यदा तदा वा प्रे. विशेषाश्चान्छायणादय इव । सूत्रनिपातः पुनरन्तिमोऽसमर्थस्य | षयति काअतः सदैव तृतीयायांनोजनं ददाति । अवमेऽपि - प्रकामनिकाम निषेधपर इत्यदोषः । ये चाट्पाहारादयोऽजिग्रह-| भिऽप्युन्सर्गे वादिको नित्यं जावतः संग्रहं ज्ञानादिनिरुपग्रहं वविशेषास्त बहुना संथतसंयतीनां साधारणार्थ तथा चाह। खपात्रादिजिनं करोति । प्रचण्डश्च प्रकोपनत्रः॥ अप्पाहारगहणं, जाग य आवस्सयाण परिहाणी। लोए होउत्तरे चेव, दो दि एए असाहगा। न वि जायह तम्मतं. आहारयम्य तयं नियमा। विवरीयशिव पोसिघी, अन्ने दो विवमाहगा। अल्पाहारग्रहणमप्पा द्युपलकणं तत दमटपा द्याहारन- लोके लोकोत्तरेऽपि च एतायनन्तरोको द्वारप्यसाधको Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१२) कणोयरिया भनिधानराजेन्द्रः। गोयरिया व्यतो जायतश्च प्रासादस्य विपरीतवर्तिनः पुनरुजयथापि खेटं धूलिप्रकारपरिक्षिप्तं तस्मिन् खेटे । पुनः सर्वदं कुनगरं सिद्धिरिति कृत्वा अन्यौ द्वावपि द्रव्यतो भावतच प्रासादस्य द्रोणमुखं जलस्थलनिर्गमप्रवेशं तत् भृगुकच्छादिकम् । पत्तनं साधकौ ॥ तु यत्र सर्वदिग्भ्यो जनाः पतन्ति प्रागच्छन्ति इति पत्तनम् । सिकी पासायवडिं-सगस्स करणं चउब्धि हो। अथवा पत्तनं रत्नखानिरिति लक्षणं तदपि द्विविधं जलमध्यदव्वे खेत्ते काले, भावे य न संकिलेसेइ ।। पर्ति स्थलमध्यवर्ति च । मटम्बं यस्य सर्वदिक्क साचतृती ययोजमातीमो न स्यात् तत्र तथा संबाधःप्रभूतचातुर्वण्र्यसिरिः प्रासादायतंसकरणं चतुर्विधं भवति तद्यथा द्रव्यतः केषतः कालतो भावतश्च । ततो गीतार्थो कव्यादिषु साधून न निवासः खर्बटशम्दादारभ्य संबाधशब्दं यावद् द्वन्द्वः समासंक्लेशयति ॥ सः कर्तव्यः । खर्घटश्च द्रोणमुखं च पत्तनं च मटम्यं च संबा धश्च खर्घटद्रोणमुखपत्तनमटम्बसंपाधास्तेषां समाहारः खर्वएवं तु निम्मवति, ते वि प्रचिरेण सिछिपासाया। द्रोणमुखपत्तनमटम्बसंबाधं तस्मिन् वर्षटद्रोणमुखपत्तनम. तेसि पि इमो न विही, माहारेयव्यए होति ॥ टम्बसंयाधे एतेषु स्थानेषु इत्यर्थः (१६) पुनः कुत्र कुत्र इत्याह । एवं व्यादिषु संकेशाकरणतस्ते साधवोऽचिरेण स्तोकेन का आश्रमपदे तापसाश्रमोपलक्षिते स्थाने विहारे देवगृहे पुनः मेन सिभिप्रासाद निर्मापयन्ति तेषामपि सिद्धिप्रासाद निर्माप- सन्निवसे यात्राद्यर्थसमागतजनावासे समाजः परिषत् घोषः कामामाहारयितव्ये अयं वक्ष्यमाणो विधिस्तमेवाह ।। भाभीरपल्ली समाजश्च घोषश्च समाजघोषं तस्मिन् समाज. असमसणस्स सव्वं, जणस्स कुजा दवस्स दो जागं । घोघे स्थलं च सेना च स्कन्धावारश्च स्थलसेनास्कन्धावारं बायपवियारणहा, छम्भागं कुणइ यं कुज्जा ।। तस्मिन् स्थलसेनास्कन्धाधारे । तत्र स्थलं उच्चभूमिभागः सेमा ममुदरस्य दधितकते ममादिसहितस्याशनस्य योग्यं कुर्यात् चतुरङ्गकटकसमूहः स्कन्धाधारः करकोसरणनिवासः सार्थक सौ नागा व्यस्य पानीयस्य योग्यौ षष्ठं तु भागं वातप्रविचर याणकभृतांसमूहः प्रतीत एष तत्र संघों भयत्रस्तजनसमवाणार्थमूनकं कुर्यात् । इयमत्र मावना । उदरस्य षर भागाः क यः कोट्टो दुर्गः संवर्तश्च कोदृश्च संवर्तकोठें तस्मिन् संघर्तस्पस्ते तत्र ये जागा प्रशनस्य सव्यञ्जनस्य द्वोजागी पानीयस्य कोट्टे (१७) पुनर्वाटेषु वृत्यादिपरिक्षिप्तगृहसमूहेषु रथ्यासु सेपठो पातप्रविचरणाय । एतच्च साधारणे प्रावृदकाले चत्वारो रिकासु च गृहेषु प्रसिद्धेषु च एतेषु च स्थानेषु अधमोदर्य नागाः । सव्यञ्जनस्याशनस्य पञ्चमः षष्ठो वातप्रविचरणाय । कृतं केवतो भवति । अथ पुनःप्रकारान्तरेण क्षेत्रावमार्यमाह। ष्णकाने ही जागावशनस्य सव्यञ्जनस्य त्रयः पानीयस्य षष्ठो माय अपेडा, गोमुत्तियपतंगबीहिया चव । बातमविचरणायेति । संयुकावट्टा य, गंतुं पञ्चागमा बहा ।। १५ ।। एसो माहाराविही, जह जणि तो सवभावदसीहि । पविधा क्षेत्रावमोदारका वर्तते पेटा पेटाकारा चतुष्कोणा धम्मवसगाय जोगा, जेण न हीयंति तं कुज्जा॥ पेटाकारेण गोचयों कृत्वा अधमोदरीकरणमेघमर्चपेटाकारण एष माहारविधिर्यथा सर्वनाघदर्शिनिः सर्वणिता येन च गोचरीकरणं गोमूत्रिकाकारेण पतङ्गवीथिका पतङ्गः शलभप्रकारेण धर्मनिमित्ता अवश्यकर्तव्या योगा न हीयन्ते तं कुर्या- स्तस्य वीथिका उड्यनं पतङ्गवीथिका अनियता निश्चयरहिता मान्यविति । व्या दि००। शलभोड्यनसदृशीत्यर्थः । पुनः शम्बूकावर्तः शम्बूकः शङ्खस्तअथ क्षेत्राधमौदर्यमाह । इत्माष? भ्रमणं यस्यां सा शम्बूकावती सापि द्विविधा अभ्यगामे नगरे तहा य, रायहाणि निगमे य भागरपची। न्तरशम्बूका बहि-शम्बूका च । शङ्खनाभिरूपक्षेत्रे मध्यावहिर्ग म्यते सा अभ्यन्तरशम्यूकावर्ता विपरीता बाधात् मध्ये भागखेमे कब्बडदोणमुह-पट्टणमडंबसंबाहे ॥ १६ ॥ मनरूपा बहि-शम्बूकावर्ता पञ्चमी । पुनः षष्ठी आयतं गन्तुं आसमपए विहारे, सभिवेसे समायघोसे य । प्रत्यागमाझेया श्रादित एष प्रायतं सरलं गत्वा यस्यां प्रत्याथलसेवाखंधारे, सत्थे संबट्टकोट्टे य ।।१७।। गमो भवति सा षष्ठी शेया इत्यर्थः । पतास भिक्काचर्याणाबोडेमु य रत्थामु य, घरेसु वा एवमित्तियं खितं । मपि अधमोर्यवं क्षेयं यतो हि अवमोदर्यार्थमेव ईस्कप्रका रेणैष साधुराहारार्थ भ्रमति तस्मान्नात्र दोषः।१६। कप्पइ न एकमाइ, एवं खित्तेणो जवे ॥१०॥ तिसृभिर्गाथाभिः कुलकम् । एषमिति अमुना प्रकारेण हद दिवसस्स पोरिसीणं, चउएहं पि जत्तिभो नवे कालो। यस्थप्रकारेण एतापनियतमान क्षेत्र परितुं मम धर्तते इति एवं चरमाणो खा, कालोमाणं मुणेयव्यो॥३०॥ एवमादिहशालादिपरिग्रहः । अध एतावत्प्रमाणं भिक्षार्थ दिवसस्य चतसृणां पौरुषीणां प्रहराणां यावद् घटिकाचमुष्टभ्रमितव्यमिति निर्धारणं क्षेत्रेण भवमोदर्य भवेत् । तदेव भि यादिकोऽभिग्रहविषयः कालो जयति एवममुना प्रकारेण कासेन क्षाभ्रमणक्षेत्रमाह । कुत्र कुत्र भिक्षार्थ साधुर्भमति प्रामे गुणान् चरमाण इति गोचयाँ चरतः साधोः खलु निश्चयेन कासाथम प्रसतीति प्रामस्तस्मिन् प्रामे । अथवा प्रसति सहते अष्टादश इति काम अचमं कालायम मन्तव्यः॥ विधं करम् इति प्रामस्तस्मिन् । अथवा कण्टकवाटकावृतो पुनः कालाधमोदर्यमेव प्रकारान्तरेणाह। जनानां निवालो प्रामस्तस्मिन् प्रामे । पुनर्नगरे मात्र कराः अहव तइयपोरिसाए, जणाए घासमेसंते । सन्ति इति नगरं तस्मिन् । तथा राजधान्या राजा धीयते मस्यां सा राजधानी सस्था राजधान्यां राजपीठस्थाने निगमे घउभागूणाए वा, एवं कानेणो जवे ॥२१॥ प्रभूतवणिनिषासे माकरः स्वद्युित्पत्तिस्थानं तस्मिन् पाकरे अथवा तृतीयायां पौरुष्यामूनायां किश्चिद्धीनायां प्रासमाहारपसी वृक्षवंशादिगहनाधिता प्रान्सजनस्थानं तस्यां पहल्याम। | मेषयन् गवषणां कुर्वन् वा अथवा चतुर्नागेन ऊनायां तृतीयवाद Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२१३) कोयरिया थन्निधानराजेन्द्रः। कणोयरिया प्यां निका चयों साधोरक्तास्ति कालेन अवमोदय भवेत् ।। प्यस्य निःशङ्कितस्यैवमेवायमित्येवं वक्ता । अथवा अबहारयिता सस०३५०॥ परगुणानामपहारकारी यथा तथा हासादिकमपि परं नणति " मथ नावावमोदर्यमाह ॥ दासचोरस्त्वमित्याघेकादशमसमाधिस्थानम् । दशा०१०। से कितं भावोमोयरिया श्मणेगविहा पमत्ता! तंजहा जमिणण-अवमान-नालोकशालासिके प्रोक्षण अप्पकोहे जाच अप्पलोले अप्पस अप्पझंझे अप्पतु णारी कमिणणं अहिंगासु नत्थि उ विरोहो " ध०२ अधि । तुमे सेत्तं जावोमोयरिया सेत्तं ऊनोमोयरिया ॥ | उरण-उरण-पुं० सरने, रा० । मेष, विशे०। अल्पोधः पुरुषः अवमोदरिका भवत्यनेदोपचारादिति (भप्प- ऊरस-रस-पुं० सरसा वर्तत इति करसः । बवति बाहुबसद्देत्ति) अल्पशब्दो राज्यादावसंयतजागरणभयात् (अप्पऊ लिनीय पुत्रभेदे, स्था०१०म०। कत्ति) ह ऊका विप्रकीर्णा कोपविशेषाचनपतिः चायसूक्तम् । “झंझा अणत्थ य बहुप्पसा वित्त अपतुमं तुमेति" ऊरुघंटा-ऊरुपएटा-स्त्री० जाधएटायाम, का० १० भ० । तुमतुमो हरयस्थः कोपविशेष एव । प्र० २५ श० ७ १०। उरुयावल-ऊरुकाबल-पुं० करुषयोराबानमूरुकावनः । शारीनावादूनोदरिका क्रोधादिपरित्यागो यत बक्तम् । “कोहाईणम- रदएमजेदे, प्रभ०१०३वा । पुदिणं, चामो जिणवयणभाषणाओ य । भाषणोणोदरिया, जरुयाल-उदार-पुं०कर्वोर्जयोरो दारणा ज्यालो वा ज्यापत्ता बीयरागेहिं ॥" प्रव०६ वादगास्था औ०॥ ययास तथा । शारीरदयमनवे, प्रश्न०१सं.' इत्थी वा पुरिसो वा, अलंकिओ वा पलंकियो वा वि। स-नस-पं०वसन्ति रसा अत्र वस-रक-नि-न षत्वम् रसाअनयरवयत्यो वा, अश्रयरेणं च बत्थेणं ॥२२॥ "लप्तपरवशषसां दीर्घः ।।१।४३ । इति मुप्ताधास्थ- . अनेणं विसेसेणं, वनेणं भावमणमुयंते ।। रेफस्य सकारस्यादेः स्वरस्य दीर्घः। किरणे, प्रा० । एवं चरमाणो खस जावोवमाणं मुणेयव्वं ॥३॥ ऊष-पुं० अष रुजायाम्, का पांशुक्कार, ०५ ०। अपरादियुग्मम एवमनुना प्रकारेण चरमाणः इति प्राकृतत्वाधरमाणस्य केत्रोद्भवे सषणिमनि, लषणसंमिश्ररजोषिशेषे, पिं०। यदशाभिकायां भ्रममाणस्य साधोः बमुनिश्चयेन (भाषोषमाणं ति) दूषरं केत्रम् प्रज्ञा०१ पद । जीवा०1 मानुषनगप्रथमकूटवैदूर्यभावोऽवमत्वं भावाबमोदय (मुणितव्यं) केयमित्यर्थः । भाषेन | पल्योपमस्थितिके नागदेवेद्वी कर्णरन्ध्र चन्दनाद्री, तत्रभवमोदय भावावमोदर्य कोऽर्थः । यदा कश्चित्साधुरिति चि-| चन्दनापिरहितापकत्वाकर्णच्चिद्रस्य अल्पजलादिप्रषेशेनोहे. म्तयति अच कबिहाता प्रावमेतारशं स्वरूपम् (मणुमुयंते शति) | गहेतुत्वात कारमृत्तिकाया मसापहारकत्वात्सथात्वमिति भेदः। अनुम्मुञ्चन् अस्यजन् पतारशस्वरूपं मजन् मह्यम्भाहारदा- कषति अन्धकार मेचकं वा । प्रनाते, रेतसि, न० तस्य कारवस्यति तदा प्रदीष्यामि नान्यथेतिनावः । को दाता कीरशंचा स्वातीनत्वापुष्णत्वास तथात्वम् ।कारमृत्तिकायाम,स्त्री०चाचा भाषमत्यजन् तदाह (पत्थी) स्त्री वा पुरुषो वा भसंकृतःआन- सह-उत्सष्ठ-नन्द सूज-त-। उत्सजन, सह रणादिसहितोऽथवाऽनलकृतोऽसारै रहितः (अन्नयरषयत्थो)। अजयरषयत्था, गे, आचा०२ ध्रु० । भन्यतरषयस्थो वालतरुणस्थवियदिकामांप्रयाणांषयसामध्ये अन्यतरस्मिन् एकस्मिन् वयसि स्थितः भन्यतरेण पदक्रमादि उसद-नुत्सृत-त्रि० उच्चे, जी. ३ प्रतिक। जं० । उत्कृष्टे, व्य. बोण उपलकितः। १२ । अन्येन विशेषेण कुपितप्रहसितादि ६301“कसदाति वा गम्भियातिषा" प्राचा०२ श्रु०। "वत्रानाऽवस्थानेदेन उपसवितः वर्णेन स्वेतरक्तादिना उपसक्कितः जुयमूसमित्याधुक्ते शुभर्वणगन्धादियुक्त प्रव०२० दशा जावं पर्यायमुक्तरूपमसकारादिकम् ( अणुमयंते) भनुम्मुञ्चन् भाचा "रसियं रसिय सदं कसलं मामुम्मं मम्मुम" समः। पतारशःसन् मद्यपाहारं दास्यति तदा मास्यामित्यभिग्रह ऊसण-उषण- नष-न्युह मरिची, पिप्पलीमूले, शुण्ठयां, च। धारणेन नावावमोदर्य केयम॥ चित्रके, पुं०पिप्पल्यां, सव्ये व स्त्री। मरीच्यादीनां जिहो___ अथ पर्यायावमोदर्यमाह । देजकतया तथात्वम् वाच । दव्वे खित्ते काले, भावम्मि आहियाउ जे नावा। जसएहसपिहया--उचलणश्लक्षिणका--श्री० । उत् प्राएएहिं भोमचरभो, पजवचरमो जवे भिक्खू ॥ २४ ॥ बस्येन लक्कणश्लक्कणिका अनन्तेषु परमाणुषु, भमन्तैः पर माणतिरकस्या उच्लक्षणलदिणकाया अभिधानात् ॥प्रथ. व्ये प्रशनपानादौ के पूर्वोक्त प्रामनगरादौ कामे पौरम्यादा। २५४ द्वारा "अर्णताणं परमाणुपोग्गाणं समुदयसमितिभावे स्त्रीवादी बाख्याताः कथिता ये नापाः पर्यायास्तैः सधैर-1 समागमेणं सा एगा उसपदणिया' अनन्तानां व्यवहारिकपि व्यादिपर्यायः अषममवमोदर्य चरति सेवति यः सोऽव-1 परमाणुपुझझानां समुदयाधादिसमुदयास्तेषां समितयो मिसमचरो भिक्छुः पर्यवचरको प्रवेत् । पर्यावावमोदर्यचरको भवती नानि तासां समागमपरिणामवशादेकीभावनं समुदयसमित्यर्थः । एकसिक्थकाद्यस्पाहारण व्यतोऽवमोदर्य स्यादेव परं तिः समागमस्तेन या परिमाणमात्रेति गम्यते। सा पका अध्यप्रामादौ केत्रतः पौरुष्यादी कामतः स्त्रीपुरुषादिषु जाधतः कथ म्तं लक्ष्णलक्ष्णा सैव लक्ष्णलदिणका सित्प्रावस्येन लक्षणमवमोदर्य स्यात् उत्सरं क्षेत्रकासन्नावादिष्यपि विशिष्टाऽनिन लविणका सच्लक्ष्णलदिणकाः०६०७१।। हवशादधमोदर्य स्यादेव । इह पुनः पर्यायग्रहणेन पर्यषप्राधान्यधिवक्कया पर्यवावमोदर्य केयम् । २४ उत्त० ३००। । कसत्त-उत्सत-त्रिक कर्क सक्त उत्सतः। उल्लोचतले उपरिसंऊधारिता-अवधारायित-वि० मिश्चितं धक्तरि, " भनिक्खणं बके, " पासत्तो सत्त विलवहमलदामकलावं" श्रा० म.प्र. । अभीक्ष्णमबधारयिता । शद्धितस्या- मर-ऊपर-न० रुप मत्वर्थीयो र ऊषं कारमृत्तिका राति द Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसर अभिधानराजेन्द्रः। कासित्त दाति क-वा। कारमृत्तिकायुक्त देशे, यस्मिन्नुप्तं वीजं न प्ररो- ऊसास-ऊच्चास-पुं० उत् ऊर्दू श्वास उच्छासः । प्रा० चू० हति । यत्र तृणादेरसस्नवः । श्रा०प्र० । यो० । ५ अ०। अनुत्साहोत्सन्ने सच्छे ८।२।१३। इतिच्छपरस्य उत् ऊसरण-नुत्सरण-न. नद्-सूत्युत् । अनुत्साहोत्सनेसच्चे ऊत । प्रा० । ऊर्द्धगमनस्वभावे श्वासे, जो०१ पाहु । अहोना१।१४। ति त्स परस्यादेरुत ठत् प्रा० । आरोहणे, "थाणू रात्रादिषच्चासमानम् इह अहोरात्रे मासे वर्षे वर्षशते घोच्चामरणं तम्रो समुप्पयणं " विशे। सपरिमाणमेवं पूर्वसूरिभिः संकलितम्। “एगं च सयसहस्सं, ऊसरदेस-ऊपरदेश-पुं० परविनागे, श्रा कसासाणं तु सेरस सहस्सा । नउपसपमम्महिया, दिवसकसल-नवस-उद्-क्षम्-धा० बछासे, उसो रूसमोसुम्न निसि होति विनेया। मासचियऊसासा, लक्खा सेसीससजिसपुलआश्रगुज्जोलारोआः ।।४।१०१ । न्युखसेरुस. हस्स पणनऊ। सत्तय सयाई नारणसु, कहियाई पुव्वसूरिहि । लादेशः। उसलर उनसइ उसति । प्रा० ॥ चसारि उ कोडी उ, लक्खा सत्ते व होति नायब्धा । अडया लीखसहस्सा, वारिसया होति परिसणं" जीवा०३ प्रति०। ऊसव-उत्सव-उद्-सू-अए अनुत्साहोत्सन्ने सच्चे ।।१।१४ संख्येयावलिकात्मके काले, "संखेजा भावलियाओ ऊसाइत्यादेशत कच्चम् । प्रा० । प्रानन्दजनकन्यापार, "उसयो जत्थ जत्तपाणं विस्टुिं कसबाविज्ञति"नि०मू०१६:०१दाय महा पायं सो"किल षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयोनावलिकानां क्षुल्लकभपानिययाकसवा ९ति" उत्सवाःप्रायः प्रतिनियता वर्षमध्ये प्रति धग्रहणं भवति तानि च सप्तदश सातिरेकाणि उच्चासनिःश्वानियतदिवसनाधिन इन्सादिमहाः। एतेच भरतकाले प्रवृत्ताः "प्र सकालः । एवञ्च सङ्ख्याताः पावलिका उच्चासकालो भयति भ०६श०७ उ०। अनु० कर्म० (एकेन्द्रियादीनामुच्चासमायाकयाईऊसचे पनगमियाई"आ०म०प्र० सवे जहाएगति वक्तव्यताप्राण शम्दे उक्का) उत्पचने, मरणे, "छेदण ऊसास पवंतियगग्मे आभीराणि ताणि साहण पासे धम्म सुणति ताहे देवोगे बहंति एवं ते सं अत्यधम्मे बुझी । अन्नया कया इंद अणाहियासे य" वृ० १ उ०। . महे वा सन्मम्मि वा सवे नगरिंगयाणि आरिसा बारपती तत्य. मसासग-उच्चासक-पुं० उच्चसितीत्युच्यासकः । मानपायोग पेवंति मंमियपसाहियसुगंधविवित्तनेवत्यं ताणि तंदट्टण | प्तिपरिनिष्यन्ने, विशे। श्रा०मद्वि०। । भणति । एस देवलोगो जो सो तया साइ िवनितोपत्ताज | ऊसासणाम-उच्चासनामन्-न० यदुदयषशादात्मन उच्चासपचमो तो सुंदरतरं करेमो जेण अम्ह वि देवलोगे उववज्जामो। निःश्वासलब्धिरुपजायते तस्मिनामकर्मभेदे, कर्म । प्रवः । मार ताणि मंतूण साहूण साहिति जो तुम्भेहिं अम्हं कहितो श्रा० । पं०सं० । “ऊससणलद्धिजुत्तो, हा ऊसासणामवसा" देवलोगो सो पचक्यो अम्हेहिं दिघो। साहू जतिन तारिसो उच्चासनामवशादुच्चासनामकर्मोदयेन उच्चसनलब्धियुक्तो देवमोगो अतो अप्यारिसो अणंतगुणो ततो ताणि अजहियजा- भवति उच्चासनिःश्वासलब्धितो जायते । यदुदयादुच्चसनयविम्हयाणि पब्वश्याणि । एवं ऊसयेण सामान्य जो। प्रा०म० लब्धिरात्मनो भवति स उच्यासनाम सर्वलब्धीनां क्षायोपशद्वि० (पार्श्वस्थानामुत्सवा अन्यत्र) मिकत्वादीदयिकी लब्धिर्न संभवतीति चेत् नैतदस्ति वैकिकसवज्ज-उत्सववज्ये-न० वत्सवानावे, “ऊसवकाजकया याहारकलब्धीमामौदयिकीनामपि संभवाद्वीयान्तरायक्षायांपवि, लहुरो बहुया निक्खगहणम्मि" व्य०१०॥ शमैरपि चात्र निमित्तीभवतीति सत्यप्यौदयिकत्व कायोपशजसविष-नुच्गय्य- अव्य ऊर्मस्थं कृत्वेत्यर्थे, " तणाऊस- मिकव्यपदेशोऽपि न विरुध्यते । कर्म। विय प्रमाणिणिसिरति" तृणानि कुशेषीकादीनि पौनापन्येनो- सासगिरोह-उच्चामनिरोध-पुं० बालमरणसाधके प्राणनिबांधःस्थानि कृत्वा सत्र०२ श्रु०.२ अ०॥ रोधे, व्य०१०३० उचित-त्रिक कौनूते, काप्र० । आ० म०प्र० ॥ | ऊपासणीसास-उच्चासनिःश्वास-पुं० उच्चासन सह निःश्वासः उच्चयितात्रि कन्वीकृते,का० ८ ० ॥ प्राणसके कारनेदे, “एगे उसासनीसासे एस पाणुप्ति बुध" म०६ श० ७३०। कसवियरोमकव-नच्छूितरोमकृप- नि: उच्छ्रितानि रोमाणि कूपेषु तसन्धेषु यस्य स तथा जातरोमाञ्चे, भ०११.२०११ ०० नसासका उच्चासाका-खी० उच्चासप्रमितकासविशेषे, न०६ कल्प० " कसवियरोमकूवा अप्पिय अणगारे णिदाए दिही" श०७०। कसासपज्जात-उच्वासपर्याप्ति-स्त्री० पर्याप्तिभेदे, यया पुनर-- आ०म०द्वि०॥ उससण-उनुसन-त्रि० नवसितं कुर्वति, “कससमाणे नी-पासप्रायोग्यवर्गणा दक्षिकमादायोच्वासरूपतया परिणमय्यालससमाणे वा कासमाणे वा गयमाणे वा" आचा. म्य च मुञ्चति सा उच्यासपर्याप्तिः । कर्मः। ऊससिय-उच्चूसित-न० उच्चसनमुञ्चसितंजावे निष्ठा क्तप्रत्ययः ऊसित्त-उसिक-न० वत्सेचनमुत्सिकम् नावे कः। अनुबनकरतोदे, नं० । प्रा० म०प्र० । विशे० । ऊ प्रवलं त्साहोत्सन्नेत्सच्चे ७।१।१४। इति उत ठत् प्रा० । सौवीरश्वसितमुसितम् । कर्कश्वासग्रहणे ," अनत्थ ऊससिएणं" स्य उस्लेचने, वृ०२०। किट्टमुत्सितं ग्राह्यम् । अन्यत्रोच्द्रसितात् ऊर्द्धश्वासग्रहणात् । उत् ऊर्द्ध प्रवलं वा अथोरिसक्तपदं भावयति ।। श्वसितमुसितमिति व्युत्पत्तेः । ध०२ अधिः । आव०। समणत्थसघरपासंमें, जातिय अत्तणो य मुत्तम् । ऊमसिर-उच्चसित-त्रि० शीलार्थे तृन्-तत्स्थाने, । शीलाद्य. बहो नत्यि वि कष्पो, टस्सिचाणमो जगट्टाए । धस्थरः ८२ । ४५ । इति तृन इरादेशः । उसनशीले, मा। काजिकस्य सौकीरिणीतो यनिष्काशन तरिसक्तं तच्च पऊसारिय-उत्पारित-त्रि० प्रलम्बीकृते, शा० १८१०। चधा श्रमणाथै साधूनामभयेत्यर्थः । स्वगृहपतिमिदं २ पाप Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊसित किमि ३ यावदर्थिक मिश्रम् ४ आत्मार्थकृतम् ॥ । एतान् पञ्चदादा भरा विकल्प नास्ति यदर्थमुत्सेनं न बेत् । अत्र चात्मार्थे यत् गृहिजिरुत्सितं तवेष प्रहीतुं कल्पते शेषाति दूषिताऽयनपुंसकये " दूसी दुविहा सितो जो लावच्चो ऊसितो जो श्रणवच्चो " पं० मा० । कमिय- उच्छ्रित- त्रि० उदू-धि-क-1 उन्नते, कल्प० । श्र० । ० उपनेते ०२२ ० उच्चे विचा० १ ० [अ०] कहते भी उड़े, कप० । प्रख्याते सूत्र २० ७० प्रतिसपरिव्ययस्थि सूत्र० २ ० १ ० प्रासादादौ वास्तुभेदे, नि०यू०१४० “ऊसियं जं उच्छ्रयेण कथं " प्रा० ० ४ भ० । प्राय० । उत्त० तासु दिक्षु प्रभूते ० १० पा०| समाने जातक सियडेमजा लगाय" रा० । ऊसियम्य-उच्छ्रितध्वज पुं० कर्कीकृत जयपताकायाम्, विपा० 1 - १ ० २ ० । 土患手 ऊसियपभाग- उच्छ्रितपताक - त्रि० कर्कीकृत पताका युके, “जहा पमिताडे ऊसिपमागं णयरं कथं " भा० म० द्वि० । “ ऊसियपकागगगणतक्षम पुलिहंता" रा० । " - सिफलिस (स्मृ) तस्फटिक ( परिघ - स्फटिकमय स्फटिकमन्तःकरणं यस्य स तथा मौनी प्रवचनाचा ह्यापरितुष्टमनसि इति रुध्याय के वा अर्गला स्थानादपनीय कर्सीकृतो न तिरखीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः । उत्सतो वाऽपगतः परिघोऽर्गला गृरद्वारे यस्यास्ती जास्तपरिघः इतिपरियो वा भीहाय्या तिरेकादतिशय महापित्वेन निवेशार्थममसितारे प , 寮南京南京****** slee ( १२१५) श्रनिधानराजेन्द्रः । 6 शहापजच "सियन अगुवारे विय तंते वरपरघरप्पवेसे " का० ५ श्र० । दशा० ॥ श्र० । ऊसुअ- उच्छुक - त्रि० उगताः शुकाः यस्मात्सः । अनुत्साहोत्स त्सच्छे ८ । १ । १४ इति च्छ जागस्यादेरुत रुत्वम्, ॥ रुकतड़के प्रा० , ऊसुम्भ-कास-घा० ज्या-पर-अक-से-उलासे, उद्धसेरुसलो. सुम्नाणि सपुरोः ४२०१ दे संजर बसर उसति प्रा० यह कह पुं० [पृथिव्यादिसम्बन्धिन्यामोघमात्र कायाम विशे० मन्दमन्दप्रकाशे स्थापतिदेशे कि मयं स्थालरुत पुरुष इत्येवमात्मके तर्फे, सूत्र० २ भु० ४ ० बुगुणमेस विज्ञातमर्थमचयान्येषु तथाविधेषु व्या यातिर्कणम् ० १ अधि०) स्वरूपप्रतिवाद तर्फ टीत्र्त्यते कह प्रति च संज्ञान्तरं लभते र० ३ परि० । (तप्रामाण्यादिनिरूपणं तदेतससे जो० २ पाहु० ॥ भागमाविरोधिना तर्केण गमार्थस्य पूर्वपनि चारणपूर्वको तर कृम्यवस्थापन निर्णयरूपे प सार्थकवित्यादिकल्पने पदान्तरेण श्राकाङ्गापूरणार्थे ऽस्याहारे, सांख्यो ताराज्ये भेदे, आरोगे, समूहे च । वाच० । कहंग-महाड-१० चतुरशीतिमा ओ०२ पाहु० ॥ कहा- उन्हा-श्री-सह-म० श्री. रा. अध्याहारे वाचण वितर्कात्मकाय तर्कबुद्धौ चत० ३ श्र० । भा० म० ० ॥ 66 साप कहापचच कामतः स प्रणीले घोरियविभूरा धर्म " ० म०शि० । Creat इति श्रीमत्सौ धर्मवृत्तपागच्छीय-कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमहारक- जैन श्वेताम्बराचार्य श्रीश्री १००० श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचिते व निधानराजेन्द्रे ककारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तंसमाप्तश्चायं द्वितीयो भागः ॥ Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਨੇ ਚ ਦ ਰ ਊਦ ਦਾ ਦੇਣ ਦਾ ਮੁੱਦਾ ਮੂੰਹ ਗੂੰਦ ਦਾ ਮੂੰਹ ਭੀਭ ਉੱਤਵਚ ਊਠ ਦਾ ਵਣਾ ਤ ਉਹ ਵਾਰ ਵਰ ਦ ਦ ਹ ਦ ਹ ਵ ਤ ਰ ਰ ਰ ਣ ਤ ਵ ਰ ਵ ਵ ਰ ਵ ਲ ਵ ਵਸੇ ਨੂੰ ਭੁ ਭ ਤ ਮੁੱਭ ਮੇਰਣ 5 Sാവ്വവ്വാവസ്ഥയിലായ്റ്റ്ല്ല്യാഴാ്ര്ര്ര്ര്ര്യാട്ടിന്റ്റ്യാഴാഴ് *************************************************************************** कागल 190 ALS PG 2 Conno ( ******************** aaplevroledodisplaiGolcoloolcetailsoorkeekaetc. inkatootaplentrateationniestrotaoiratoakedar picsites oramidarनिपगळmammichmon insaamere *********************** -ar- O क्तिीयो नागः समाप्तः Mohinitish राजेन्छे शब्दसङ्कलने सूरिविरचिते थनिधान १००७ भी विजयराजेन्द्रजैन श्वेताम्बराचार्य श्रीश्री कलिकाल-सर्वज्ञ-श्रीमनहारक इति श्रीमत्सौधर्मवृहत्तपागच्छीय Sakselwalwaleaiopicotootcotootolalsotootwalwotcoiculookcomicolotcoiralsokcocalsotbaicalcolicelcokcolcalcolcesso N ****************** Do T POR969 TKOTA ****************** 挖靠长长长长长的 Saireiosleoledieolaolorionloalsiladonkokaolorisekerlorisolonlaolorlcolonlaolonkonkanloblonloocolcolookoolooterioriteisoloneerioelodioolookoolookonkookskoakcekasicalcolealcology Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -*-*-*** आजार-प्रदर्शनम् । -* ***4-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1 -*-*-*-*-*-*-*-*-* -1-1--1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1-1 -*-*-*-*-*-*-*-* सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचा. री-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराज-क्रियाशुद्धथुपकारक-श्री सौधर्मबृहतगच्छाय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव-जहारक श्री १००८ प्रनु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने 'श्रीअनिधानराजेन्द्र प्राकृत मागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्रीसियाणा नगर में संवत् १९४६ के थाश्विनशुलद्वितीया के दिन शुभ लग्न में प्रारम्भ किया । इस महान् संकलन कार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य. श्रीमद्धनचन्मसूरीजी महाराजने नी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् १९६० चैत्र-शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्री सूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण ( तैयार ) हुश्रा। *-* -1-1-1-11** **************** *-*-*-* -*-*-* ----*** - * गवालियर रियासत के राजगढ (मालवा ) में गुरुनिर्वाणोत्सव के दर. मियान संवत् १९६३ पौष शुक्ला १३ के दिन महातपस्वी-मुनि श्रीरूपवि. जयजी, मुनिश्रीदोपविजयजी, मुनिश्रीयतीन् विजयजी, श्रादि सुयोग्य मुनि महाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय छोटे बमे ग्राम नगगे के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि मर्तुम-गुरुदेव के निर्माण किये हुए 'श्रभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन जैनेतर समानरूप से लान प्राप्त कर सकें, इस लिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपाने के लिये रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्जुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखपदासजीत्-नागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्-प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंदजीत्-निहाल वंदजी, श्रादि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीनिधानराजेन्द्र कार्यालय और 'श्रीजैनप्रनाकर प्रिटिंग प्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का * --* ******** -*-*-*-******** 非主一半米手書士事業主半士半半学者基本事基苯等半老半孝孝孝丰書事業率非半事基本手法非事事,事事主未事本书主主 Jain Education Interational Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************** समस्त--जार मर्तुम - गुरुदेव के सुयोग्य शिष्य मुनिश्री दीप विजयजी ( श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी ) और मुनिश्रीयतोन्द्रविजयजी को सोंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १९६४ श्रावणसुदि ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः बपना शुरू हुआ, जो सं० १९८१ चैत्र - वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ । इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकाल सिद्धान्तशिरोमणि - प्रातःस्मरणीय - श्राचार्य - श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज, उपाध्याय श्रीमन्मोहन विजयजी महाराज, सञ्चारित्रीमुनिश्री टी कम विजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेव सेवादेवाक - मुनिश्री हुकुमविज यजी महाराज, सत्क्रियावान्महातपस्त्री--मुनिश्री रूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद --विद्या भूषण श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय - मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी - मुनिश्री हिम्मत विजयजी, मुनिश्री - लक्ष्मी विजयजी, मुनिश्री गुलाब विजयजी, मुनिश्री - दर्षविजयजी, मुनिश्री इंसविजय जी, मुनिश्री — अमृतविजयजी, आदि मुनिवरोंने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आजारी है । जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्म बृहत्त रोगच्छीय श्रीसंघ ने इस मद्दान् कोषाङ्कन - कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की हैं, उनकी शुनसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ मानवा श्रीसंघ बाँगरोद | श्रीसंघ - रतलाम | जावरा । "" 5-564 *** 99 बारादा बड़ा | ******* ऋकत्र For Private Personal Use Only श्रीसंघ - राजगढ़ | झाबुवा । " **** * Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंघ - बड़नगर । खाचरोद | मन्दसोर । सीतामऊ । निम्बाहेड़ा | " "" 19 " 11 27 " "" 19 11 77 " " " 19 श्रीसंघ - अहमदाबाद | वीरमगाम । 19 "? 19 97 " 22 श्रीसंघ - जोधपुर | आहोर | जालोर । " "" 25 इन्दौर | उज्जैन | महेन्दपुर | " नयागाम । नीमच सिटी | संजीत । नारायणगढ़ | बरड़ाबदा | सूरत । साद | बम्बई । पालनपुर । 米 भैंसवाड़ा | रमणिया । मोकलेसर | देवास | विशनगढ़ । मांडवला | ** श्रीसंघ सरसी । मुंजाखेड़ी । खरसोद-बड़ी | चीरोला - बड़ा । " 17 29 11 17 17 19 " 19 " 12 27 " " 19 19 "" "" ?? " " श्रीसंघ - भीनमाल | सांचोर | बागरा । " " धामपदा । राजोद | श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय संघ - गुजरात मकरावन । बरड़िया । (भाट) पचलाना | पटलावदिया । पिपलोदा | दशाई | बड़ी-कड़ोद | धानपुर । आकोली । श्रीसंघ झकणावदा । कूकसी। आलीराजपुर । रंगनोद | राणापुर । पारां । टांडा । बाग । साधू | सियाणा । काणोदर । देलंदर | "" श्रीसंघ - थिरपुर (धराद) । श्रीसंघ - ढीमा । वाव । 11 दूधवा । भोरोल । वात्यम | 17 धानेरा । वासए । धोराजी । डुवा । For Private Personal Use Only "" 27 " "" " "" "" 27 श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय-संघ - मारवाड़ - " " " 77 17 "" " " " 93 " 17 " "" 17 "9 - श्रीसंघ - शिवगंज । कोरटा । ****** खवासा । रंभापुर । अमला । बोरी । नानपुर । जामनगर । खंभात | फतापुरा । जोगापुरा । भारुंद्रा । पोमावा । बीजापुर | बाली । विमेल | **************************************** Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * ********* श्रीसंघ - गोल | "" 17 " 99 19 "" " "" " 99 ት साहेला । आलासण | रेवतड़ा | धाणसा । बाकरा । मोदरा । थलवाड़ | मंगलवा | सूरांणा । दाधाल । धनारी । श्रीसंघ - मंडवारिया । बलदृट । जावाल । सिरोही । सिरोड़ी | "" ** " カラ 17 "" 17 "7 17 " " * हरजी । गुडाबालोतरा | भूति । तखतगढ । सेदरिया । गेवाडा । भावरी । श्रीसंघ-सांडेराव | खुड़ाला । राणी । खिमाड़ा । कोशीलाव | 17 " "" For Private Personal Use Only "" " 27 ** 19 17 11 " पावा । एंदला का गुड़ा । चाणोद । डूडसी । थाँवला | इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है । जोयला | काचोली । श्रीअभिधान राजेन्द्र कार्यालय. रतलाम ( मालवा ) * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *** Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________