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'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत
ore भाषा थी । उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो का धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन आगमों को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है। इस महाकोश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म ' अ ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाग्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है; इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं ।
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वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्यादवाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सतावे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं ।
वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है । इसमें धर्म-संकृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट - सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं । इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे; तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पडेगा ।
इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है । जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोघे विहार किये; प्रतिष्ठा-अरंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । ऐसी विषम परिस्थिति में sra atre वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है । इस महाप्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्ववपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है ।
श्रीमद् विजय यशेादेवसूरिजी महाराज ' अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्त्ता के प्रति अपना भावास प्रकट करते हुए लिखते हैं- आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र ) मेरा निकटतम सहचर है । साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है; इसका अवलोकन करके मेरा मन आचार्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है । मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने fart पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा सकेत इस कोश की ओर ही होगा; जो बढ़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है ।
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