Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 94 // प्रशापनासूत्र परमत्थसंथवो वा सुदिट्टपरमस्थसेवणा वा वि। वावग्ण-कुवंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा // 131 // निस्संकिय 1 निक्कंखिय 2 निन्वितिगिच्छा 3 अमूढदिट्टी 4 य / उबवूह 5 थिरीकरणे 6 वच्छल्ल 7 पभावणे 8 अट्ठ // 132 // से तं सरागदसणारिया। [110 प्र.] सरागदर्शनार्य किस-किस प्रकार के होते हैं ? [110 उ.] सरागदर्शनार्य दस प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं गाथाओं का अर्थ-] 1. निसर्गरुचि, 2. उपदेशरुचि, 3. आज्ञारुचि, 4. सूत्ररुचि, और 5. बीजरुचि, 6. अभिगमरुचि, 7. विस्ताररुचि, 8. क्रियारुचि, 6. संक्षेपरुचि, और 10. धर्मरुचि / / 116 // 1. जो व्यक्ति (परोपदेश के बिना) स्वमति (जातिस्मरणादि) से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्राश्रव और संवर आदि तत्त्वों को भूतार्थ (तथ्य) रूप से जान कर उन पर रुचि-श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-(रुचि सराग-दर्शनार्य) है / / 120 / / जो व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों (पदार्थों) पर स्वयमेव (परोपदेश के बिना) चार प्रकार से (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) श्रद्धान करता है, तथा (ऐसा विश्वास करता है कि जीवादि तत्त्वों का स्वरूप जैसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है,) वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं, उसे निसर्गरुचि जानना चाहिए / / 121 / / 2. जो व्यक्ति छद्मस्थ या जिन (केवली) किसी दूसरे के द्वारा उपदिष्ट इन्हीं (जीवादि) पदार्थों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए / / 122 / / 3. जो (व्यक्ति किसी अर्थ के साधक) हेतु (युक्ति या तर्क) को नहीं जानता हुआ, केवल जिनाज्ञा से प्रवचन पर रुचि-श्रद्धा रखता है, तथा यह समझता है कि जिनोपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं; वह प्राज्ञाहीच नामक दशनाय है / / 123 / / 4. जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता हुआ श्रुत के द्वारा ही सम्यक्त्व का अवगाहन करता है, चाहे वह श्रुत अंग-प्रविष्ट हो या अंगबाह्य, उसे सूत्ररुचि (दर्शनार्य) जानना चाहिए / / 124 // 5. जैसे जल में पड़ा हुया तेल का बिन्दु फैल जाता है, उसी प्रकार जिसके लिए सूत्र (शास्त्र) का एक पद, अनेक पदों के रूप में फैल (परिणत हो जाता है, उसे बोजरुचि (दर्शनार्य) समझना चाहिए / / 125 / / 6. जिसने ग्यारह अंगों, प्रकीर्णकों (पइन्नों) को तथा बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग तक का श्रुतज्ञान, अर्थरूप में उपलब्ध (दृष्ट एवं ज्ञात) कर लिया है, वह अभिगमरुचि होता है / / 126 / / 7. जिसने द्रव्यों के सर्वभावों को, समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नयविधियों (नयविवक्षाओं) से उपलब्ध कर (जान) लिया, उसे विस्ताररुचि समझना चाहिए / / 127 / / 8. दर्शन, ज्ञान और चारित्र में, तप और विनय में, सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रियाभावरुचि (आचरण-निष्ठा) वाला है, वह क्रियारुचि नामक (सरागदर्शनार्य) है / / 12 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org