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9595PSPSPSS विधानुशासन Y5PSPSP5955
भट्टारक श्री मतिसागर विरचित
विद्यानुशासन
(卐
व्याख्याकार
युवाचार्य १०८ मुनिश्री गुणधरनंदीजी
प्रकाशक
श्री दि. जैन दिव्यध्वनि प्रकाशन, जयपुर
C5952525252595 : 95959595252525
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25959529595* विधानुशासन 9595959059 अनुक्रमणिका
ग्रन्थ के २४ विषय मंत्र साधक के लक्षण
शिष्य के लक्षण
गुरू का महत्व
मंत्रों के भेद और लक्षण अक्षरों की शक्तिकी तालिका
बीजाक्षर सामर्थ्य
पंचवर्ग ( बीजकोश: )
अवशिष्ट परिभाषा प्रारंभ
राशिपरीक्षा
अंशक परीक्षा मंत्र विधि
मंत्र साधना विधान
जपमें दिशा- कालादि विचार
षटकर्म कथन
मंत्र फल वर्णन श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र स्तोत्र वृहत टीका
श्री पार्श्वनाथ द्वितीय स्तोत्र सरस्वती देवी का स्तोत्र काम चांडाली विधानं लक्ष्मी विधान
वालामालिनी विधानं
सुखदायक यंत्र
कुष्पाडिनी साधक विधानं दूसरी विधि
95959595905
प्रथम अध्याय
द्वितीय अध्याय
तृतीय अध्याय
चतुर्थ अध्याय
३
૪
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6
२९
३५
.३७
४३
४५
४७
४९ से प्रारंभ
६४
९९
१०२
१०८ से प्रारंभ
११५
१२१
१३४
१४७
१५१
१५८
१६१
१६८
१८१
१८८
Pa xx pop5959596959
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S50152510051955105 विद्यानुशासन 205051015215215IST
१९२
२२५
२३८
२६५
पद्मावती साधन विधानं दश दिक्पाल स्थापनमंत्र
१९५ पद्मावती स्तोत्र
२०२ गणेश विधान
२१३ जमलविद्या
२१८ दपर्ण निमित्त विधि
२२२ दीपक निमित्त गौरी विधानं
पंचम अध्याय फल उत्पन्न करने वाले मंत्रों की विधि प्रारंभ सिद्ध चक्र विधानं पूजामंत्र
२४० श्री पार्श्वनाथ आराधना विधान
२४३ श्री कलिकुंड कल्प रक्षामंत्र
२८३ श्री गणधरवलय विधानं
२९४ विषापहार
२९८ स्वप्नसिद्धि भृत्यमंत्र अंगन्यास श्रयादिपूजा
३३३ षोडश दल पूजा
३३८ चतुर्विशंति दलपूजा
३४० पार्श्वनाथाष्टक यंत्रोद्धार
३५१ ऋषि मंडल स्तोत्र
३५४ घोणा यंत्र विधानं
३७४ षष्टम समुदेश (अध्याय) गर्भोत्पत्ति विधान
३९० कल्याण घृत
४०८ सूतिका ग्रह रक्षा विधान
४२६ घंटादि विद्या
४३० प्रसूता योनिकष्ट निवारण उपाय
४३६ හවසටහලහි xxi eeeeeem
३१८
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95959
बालग्रह चिकित्सा
दांतो से होनेवाले अनिष्ट शांति उपाय बुद्धि वर्धक दवायें
कष्ट देनेवाली देवियों का वर्णन
प्रथम दिन से इकतीस दिन तक की रक्षा प्रारंभ विधि द्वितीय मास से बारह मास तक की रक्षा विधि
बालग्रह चिकित्सा कथन
( पहले दिन से १० दिन तक )
( प्रथम मास से १० मास तक ) ( प्रथम वर्ण से १६ वर्ष तक )
शिखा बंधन मंत्र
दिग्- बंधन मंत्र
पद्मावती मालामंत्र
सप्तम समुदेश (अध्याय )
विधानुशासन 969596959
ग्रहों के भेद-लक्षण यंत्र
ग्रहों को जगाने का मंत्र
ग्रहो का बाधने का ब्रह्माग्रंथ मंत्र
आप्यायन मंत्र
सर्वतो भद्र मंडल
समय मंडलं मंत्र
समवशरण मंडलं
अपस्मारक नाशक योग उन्माद लक्षणं
गारुडी विद्या प्रारंभ
शुभदूत
नाग के स्थान
C/50/505
शकुन
पृथ्वी विष के लक्षण संग्रह तथा त्याग के मंत्र
अष्टम समुदेश (अध्याय ) मंडल आदि उपाय
नवम समुदेश (अध्याय )
19503 xxii P50SP
४३९
४४२
४४३
४४६
૪૪૮.
४६८
४९१
५०५
५१८
५५४
५६३
५६४
५६४
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५६७
५७५
५८४
५८८
५९०
६०१
६०३
६०५
६१०
६१३
६१६
६१७
६२६
ちゃらどらや
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CADRISCIEIOSERAPID विधानुशासन RECRPIRIDIOETRESS
६३५
६९७
___ दशम समुदेश ( अध्याय) विषवेग रक्षण मंत्र प्रारंभ
६२९ गरूड हस्त विधानं रक्षा विधानं विषनाशन विधानं
६५८ __ ग्यारवा समुदेश ( अध्याय) सर्प चिकित्सा वर्णन
बारहवा समुदेश ( अध्याय) विविध विष चिकित्सा वर्णन
६१२ भ्रमर विसर्ग चिकित्सा बिच्छु मंत्र चिकित्सा मूसक विषमंत्र चिकित्सा
७०२ लूता विषस्य
७१४ गधा विष मंत्र चिकित्सा
७१७ गृह गोधा विषस्य
७१९ जल्का विषस्य
७२० कृत्रिम विषस्य
७२२ गायत्री मंत्र विविध मंत्र एवं उपचार
७३८ पापरूप बनावटी रोगों की चिकित्सा
७६२ यम विद्या ।
७८४ तेरहवाँ समुदेश ( अध्याय) मारणकर्म नाम उपाय
७९९ शत्रुनिग्रह उपाय गौरीमंत्र निवर्धन मंत्र
८२० यंत्र देने की विधि अमृत मंत्र
८२२ मारण प्रतिकार की सामान्य विधि
८३८ विद्वेषण
८४४ व्याधि ग्रह स्तमन औषधि मंत्र-यंत्र
८५० SASOISISTERISPIREDICKExxillpREIDISTRI52150505TOISS
८०९ ८१८
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OSESSISISCISDISIS विधानुशासन 75050SCIEDISCISS
पार्श्व यक्षाराधन विधान प्रतिष्ठापन यंत्र
८५८ शुद्धि मंत्र
८६० स्नानमंत्र गजमंत्र
८६३ दुर्गा मंत्र
८७२ उक्षेस मंत्रोयं शांतिविधान ( रोग-शत्रु-ग्रह शांति हेतु )
९०८ मृत्युंजय मंत्र
९२९ वसुधारा स्नानविधि
९३१ उद्वर्तन मंत्र
९३४ सिद्ध मिट्टी की परिभाषा
.३४ मलचरू निवर्द्धन मंत्र
९३५ नव ग्रह चरू निवर्द्धन मंत्र
९३७ पुष्प वृष्टि स्नान मंत्र
९३८ मृत्युंजय मंत्र का फल नवग्रह की शांति का विधान
१४८ नवग्रहों के मंत्र
१४९ नवग्रहों का विशेष वर्णन
९५६ दानविधि
९५८ रोग शांत विधि
९५८ सर्वसिद्धि मंत्र ( उपाय)
९७० ग्रन्थातर नक्षत्र वृक्षा
९९५ स्त्री सौभाग्यवृद्धि कारक मंत्र
१००१ नवतत्व
१००४ द्रावण मंत्र
१०१६. गौरीमंत्र ।
१०१७ पूजामंत्र
१०३१ नयनांजन मंत्र
१०४९ आकर्षण विधान
१०६१ नर्मन कर्म विधान
१०७९
९३९
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SSIODIDISTRICISIOF विधानुशासन 2050513052150
॥ॐ॥ श्री जिनाय नमः श्री पार्श्वनाथाय नमः श्री सरस्वत्यै नमः श्री पद्मावत्यै नमः श्री मति सागर गुरवे नमः
॥ अथ: विद्यानुशासन शास्त्रं लिख्यते॥
मंत्रस्य इयमाहु राघवयवं, विस्तीर्ण विद्यार्णवाः
प्रोक्तंयेन शुभं च, कर्म निरिवलं कर्माच्छभ चारिवलं॥ विद्या के बड़े भारी समुद्र विद्वान लोगों ने जिनको इस लोक में मंत्र का आदि अवयव कहा है। जिन्होंने सम्पूर्ण शुभ और अशुभ कर्मों का वर्णन किया है।
शक्तिर्यस्य सविस्मयेकं निलया सं प्राप्तं सौरव्योदयो।
विद्यानाम धि देवता सभवतान्नः सिद्धये सन्मतिः ॥१॥ जिनकी शक्ति बड़े भारी आश्चर्य को उत्पन्न करती है और जिनको उत्तम सुख का उदय प्राप्त हो गया है वह सब विद्याओं के आधि देवता भगवान सन्मति महावीर स्वामी हमारे कार्यों को सिद्ध करें।
सर्वेयन्मति सागरस्य महतो मध्ये गभीराशये। माांति स्मागम सागर स्य पुरतो विद्यानुवादादयः यद्वाग्मं पदानि लोकमरिवलं रक्षति पूतान्यलं।
तं बंदे गणानायकं गुणनिधि श्री गौतम स्वामिनं ॥२॥ जिनकी बड़ी भारी बुद्धि रूपी समुद्र के गंभीर आशय वाले मध्य में आगम रूपी समुद्रों के प्राधन विद्यानुवाद पूर्व आदि समाये हुवे हैं, और जिनकी वाणी के पवित्र मंत्र पद सम्पूर्ण लोक की रक्षा करते हैं। उन गुणों के निधि गण के स्वामी भगवान गौतम स्वामी को मैं (मतिसागर) नमस्कार करता हूँ। ಆಗುಣಪಣ Yಣಪಡಣೆಗೆ
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95959595ए
विधानुशासन 95999
जयति श्रुत भगवतो मुखांबुजा दुदितं जिनस्य सकलार्थवेदिनः गणनायकै स्त्रिभुवनानि रक्षितु करुणाधने विरचितं महात्तम मभिः
113 11
सम्पूर्ण पदार्थ के जानने वाले श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख रूपी कमल से प्रकट हुआ तथा तीनों लोक की रक्षा करने के लिए करुणानिधि महात्मा गणधर भगवान के द्वारा रचना किया हुआ याणी रूपी श्रुत जयवंत हो ।
पर्वत ।
एकदाऽति महावीरं दैवं वैभार अप्राक्षी तं मुनि मान्यः सभायां गौत्तमो गणी
॥ ४ ॥
एक बार विपुलाच ( वैभार राजगाह ) पर्वत के ऊपर माननीय मुनि गौतम गणधर ने सत्ता में सर्वज्ञ देव भगवान महावीर से प्रश्न किया।
आत्त प्रश्ने गणाधीशैः पश्चिम तीर्थ नायकः । व्यावहारार्थ रूपेण समस्तागम विस्तरं
॥५॥
गणधरों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन अंतिम तीर्थंकर ने समस्त आगम के विस्तार का अर्थ रूप से वर्णन किया ।
सार्वः सर्वज्ञदेशीयः परम श्रुत केवली । इंद्र भूतिः स चं ग्रन्थान निखिलानं परमागमान्
॥ ६ ॥
उन सब परमागम रूप ग्रन्थों की सर्वज्ञ के समान सब लोक में प्रसिद्ध परम श्रुत केवली इन्द्र भूति गणधर ने
व्याचरव्ये च मुनीद्रेभ्यः सन्मतिभ्यः सतां मतान् । हितोपदेशयुक्तेभ्यो रक्षितुं सकलं जगत्
अच्छी बुद्धि वाले सज्जनों के द्वारा अति मित हित के उपदेश से युक्त होकर उत्तम मुनियों के समस्त जगत की रक्षा करने के लिए विस्तार से व्याख्याा पूर्वक पढ़ाया ।
॥७॥
ततः प्रभृत्य विछिन्न संप्रदाय परंपरा । हितोपदेशावर्तते सर्वे परमागमाः
|| 2 ||
तब से ही लगातार यह हितोपदेश रूप सब परमागम अविछिन्न रूप से संप्रदाय की परंपरा से चला आ रहा है।
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CMD5055015106505 विधानुशासन 950151015101510551015
तेषु विद्यानुवादारख्यो यः पूर्वो दशमो महान
मंत्र यंत्रादि विषयः प्रथते विदुषां मतः उनमें से जो विद्वानों से सन्मान किया हुआ विद्यानुवाद नाम से दसवाँ महान पूर्व प्रसिद्ध है उसमें मंत्र और यंत्रादि का विषय है।
॥९॥
1 ग्रन्थ की रचना |
तस्यांशा एव कतिचित्पूर्वाचास्रनेक धा स्वां स्वां कति समालंब्य कृताः परहितैषिभिः
॥१०॥ दूसरों का हित चाहने वाले आचार्यों ने उसी के कई अंशों का अनेक प्रकार से अपने अपने ग्रज्यों में वर्णन किया है।
उद्धत्य वि प्रकीर्णेभ्यः स्तेभ्यः सारं विरच्यते। ऐदं युगीनानुदृिश्य मंत्रान विद्यानुशासनं
॥११॥ उन अनेक प्रकार के बिखरे हुये ग्रन्या का सार लेकर आज कल के युग के मंत्रों को प्रकट करने के उद्देश्य से विद्यानुशासन की रचना की जाती है।
। अथ मंत्री लक्षण विधिमंत्राणां लक्ष्म सर्वपरिभाषा: सामान्यमंत्र साधन मुक्तिः सामान्य यंत्राणां
॥१२॥
गर्भोत्पत्ति विधानं बाल चिकित्सा गृहोपसंग्रहणं विषहरणं फणितंत्र मंडल्याद्यपनयोरुजां शमनं
॥१३॥
कृत रूग्वधो बधः प्रति विधानमुच्चाटनं विद्वेषः स्तंभन शांतिः पुष्टि वश्यं स्याकर्षणं नम
॥१४॥
अधिकारांःशास्त्रे स्मिन्नमी संख्यानं चतु विशंति : क्रमाकथिताः पंच सहस्त्रास्य ग्रंथानां भवति संव्यानं ॥१५॥
CHRI5015TOROSCO
PERISIPISIOISIOISTRADESH
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CHOTECTRICISSISTS विद्यानुशाम RACCIRCTERTAICISCESS
इसमें
(१) मंत्री के लक्षण
(२) मंत्रो के लक्षण विधि (३) सर्व परिभाषाओं के लक्षण (४) सामान्य मंत्र साधन (५) सामान्य मुक्ति यंत्र साधन विधान (६) गोंत्पित्ति विधान (७) बालचिकित्सा
(८) ग्रहाधिकार (९) विष हरण
(१०) सर्प तंत्र (११) मंडल आदि की चिकित्सा (१२) दोषज रोग शांति (१३) कृतरूग्वधो
(१४) कृत्रमरोग शांति (१५) मारण
(१६) मारण प्रतिकार (१७) उच्चाटनं
(१८) विद्वेषण (१९) स्तंभन
(२०) शांति (२१) पुष्टि
(२२) वशिकरण (२३) स्त्री आकर्षण
(२४) नर्मधिकार क्रम से इस शास्त्र में २४ अधिकारकहे गये हैं। और इस ग्रन्थ की श्लोक संख्या ५०००
।। मंत्र साधक के लक्षण॥ अथातः संप्रवक्ष्यामि मंत्रि लक्षणमुत्तमं। यो मंत्रादि विधौ प्रोक्तः सजातीय स्त्रिवर्णभूत
॥१॥ अब मंत्री के लक्षण जो मंत्रादि के विधि में कहे गये हैं अब कह रहे हैं। मंत्री अच्छी जाति वाला और तीन वर्णो को धारण करने वाला हो।
रत्नत्रय धनः शूरः कुशलो धार्मिकः प्रभुः। प्रबुद्धारिवल शास्त्रार्थः परार्थ निरतः कती
॥२॥ वह सम्यकदर्शन-सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन रत्नत्रयी रूपी धनवाला, शूरवीर, धार्मिक, प्रभु, सब शास्त्रों के अर्थ को जानने वालों दूसरों का उपकार करने वाला और कृतज्ञ हो।
QಥಡಣಚಂಡE Y_Fಅಣಣಠಡಪದ
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S5I0505250SOTE विद्यानुशासन 501512151052525
शांतः कृपाल निषिः प्रसन्नः शिष्य वत्सलः षट्कर्म वित्साधुः सिद्भविद्यो महायशाः
॥३॥ वह अत्यंत शांत कृपालु,द्वेषरहित, कुशल शिष्यों से प्रेम करने वाला, छहों कर्मों के कृत्य को जानने याला,भली प्रकार विद्या सिद्ध किये हुआ और बढ़ा यशस्वी हो।
सत्ययादी जितासूयो निराशो निरहंकृतिः लोकज्ञः सर्वशास्त्रज्ञो तत्वज्ञो भावसंयुतः
॥४॥ वह सत्यवादी , ईर्ष्या रहित, अहसान करने याला, अतिमान रहित, लोक को पहचानने वाला, सब शास्त्रों के तत्त्वों को जानने याला और भायुक हो।
भवेतमंत्रोपदेशेषु गुरुमंत्रं फलाथिनां। इहोपदिश्यमानानां मंत्राणमुपदेशने
॥५॥ यह यहाँ आगे उपदेश किये जाने वाला मंत्रों के मंत्र के फल की इच्छा करने वालों को उपदेश देने से गुरू का काम कर सकता है।
| शिष्य के लक्षण॥
लक्षणेन गुरू: प्रोक्तः शिष्ट वास्याभि धीयते
दक्षो जितेन्द्रियो मौनी देवताराधनोद्यतः गुरू के लक्षण कहे गये हैं। अब शिष्य के लक्षण कहे जाते हैं। शिष्य चतुर, जितेन्द्रिय, मौन रखनेवाला और देवता की आराधना करने को तैयार हो।
निर्भयो निमंदो मंत्र जप होम रतः सदा। धीरः परिमिताहारः कषाय रहितः सुधीः
॥७॥ यह भय, और मद रहित च सदा जप और होम में लीन रहने वाला, धीर, अल्प भोजन करने वाला, कषाय रहित और विद्वान हो।
सदष्टि विगतालस्टा: पापभीरू ढव्रतः शीलोपवास संयुक्तोधर्मदानादि तत्परः
॥८॥ यह अच्छी दृष्टि वाला, पाप से डरने वाला, दृढ़ व्रत वाला, शील और उपवास से युक्त और धर्म तथा दान आदि में तत्पर हो ।
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95959595952 विधानुशासन 959526
मंत्राराधन शूराधर्मदया स्वगूरू विनयशीलयुतः । मेधावी गत निद्रः प्रशस्त चित्तोभिमानरतः
Post
॥ ९ ॥
यह मंत्र की आराधना में शूरवीर, धार्मिक दयालु, अपने गुरु की विनय करने वाला, शीलवान, बुद्धिमान, निद्रारहित, प्रशस्त चित्त वाला और अभिमानी हो । अर्थात कार्य करके सफलता प्राप्त करने का पूर्ण विश्वास रखने वाला हो ।
देवजिन समयभक्तः सविकल्पः सत्य वाग्विदग्धश्च वाक्यदुरपगत शंकः शुचिराद्रमनाविगतकामः
॥ १० ॥
यह जिनेन्द्र देव और जैन शास्त्र का भक्त, सविकल्प, सत्य भाषी, विदग्ध, बोलने में चतुर, निशंक, पवित्र और आर्द्र मन वाला तथा काम रहित हो।
गुरुभणितमावर्ती प्रारास्तदर्शनोयुक्तः बीजाक्षरावधारी शिष्यस्यात सद्गुणोपेतः
॥ १९॥
वह गुरु के कहे हुवे मार्ग पर चलने वाला, भाग्य के परिणाम को भोगने के लिए उधत्त और बीजाक्षरों का निश्चय करने वाला हो, ऐसे उत्तम गुणों से युक्त शिष्य होता है।
॥ मंत्र साधक के अयोग्य पुरूष लक्षण ॥.
सम्यक दर्शन दूरो वाक्कूठस्यांद सो भय समेतः शून्य हृदयोपलज्जो मंत्र श्रद्धा विहीन श्व
॥ १२ ॥
जो सम्यकदर्शन से दूर, कुंठित वाणी वाला, वेदपाठी, भय करने वाला, शून्य हृदय वाला, निर्लज्ज और मंत्र की श्रद्धा से रहित हो ।
आलस्यो मंद बुद्धिश्च मायावी क्रोध नोविट: गर्वी कामी मदोद्रितो गुरुद्वेषी च हिंसकः
11 23 11
जो आलसी मंद बुद्धि वाला, मायावी, क्रोधी, पर स्त्री, भोगी, इन्द्रिय लोलुपी, कामी, अभिमानी, गुरु से द्वेष करने वाला और हिंसक हो ।
अकुलीनोति बालश्च वृद्धोऽशीलोऽदय श्चलः चर्मादिश्रृंग केशादिधारी चाधर्मवत्सलः
95959519596959435959595195195
॥ १४ ॥
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969595955
विद्यानुशासन
95959595एनएक
जो नीच कुलोत्पन्न अत्यंत बालक, वृद्ध, शील रहित, कुत्ता, मृग के चर्म आदि सींग अथवा केशजटाधारी अधर्म और पाप से प्रेम करने वाला हो।
ब्रह्महत्यादि दोषाढ्यो विरूपो व्याधि पीडितः ईद्दशोन भवेद् योग्यो मंत्र वादेषु सर्वदा
॥ १५ ॥
अथवा जो ब्रह्मा हत्या आदि दोषों से युक्त हो, बिगड़े हुवे रूप याला अथवा रोगी हो ऐसा व्यक्ति मंत्र वादी कभी नहीं हो सकता अर्थात् मंत्र आराधना के योग्य नहीं हो सकता।
॥ गुरू का महत्त्व ॥
गुरुरेव भवेद्देवो गुरुरेव भवेत्पिता गुरुरेव भवेन्माता गुरूरे धर्भवदहितं । गुरु: स्वामी गुरुर्भर्तागुरू विधा गुरू:गुर गुरुस्वर्गी गुरूमक्ष गुरुबंधु गुरुःसरवा
॥ १७ ॥
गुरु ही देव है, गुरू ही पिता है गुरू ही माता और गुरु ही हितकारी होता है। गुरू ही स्वामी, गुरू ही भाई और विद्या है गुरू ही बड़ा होता है, गुरू ही स्वर्ग और मोक्ष है, गुरु ही बंधु और गुरू ही मित्र होता है।
गुरुपदेशादिह मंत्र बोधः प्रजायते शिष्य जनस्य सम्यक् । तस्माद् गुरुपासनमेव कार्यमंत्रां न्बुभुत्सोर्विनयेन नित्यं
॥ १९ ॥
गुरु के उपदेश से ही शिष्यों को भली प्रकार मंत्र का ज्ञान होता है। अतएव ज्ञान की इच्छा रखने वाले शिष्य को सदा ही नियम पूर्वक गुरु की उपासन करनी चाहिये।
इत्यार्षे विद्यानुशासने मंत्रि लक्षणं नाम प्रथमः परिच्छेद समाप्तः इस प्रकार विधानुशासन में मंत्री का लक्षण नामक प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।
25252525252521 · 15059595959595
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2525252 P50 विधानुशासन
दूसरा अध्याय
अथातः सर्वमंत्राणां भेदा अंगानि च क्रमात् पूर्वशास्त्रानुसारेण व्यावति मयाधुना
॥ १ ॥
अब पूर्व शास्त्रों के अनुसार क्रम से सब मंत्रों के भेद और अंगों का वर्णन किया जाता है ।
स्यमंत्र्यंते गुप्तं भाष्यंते मंत्र विद्भिरिति मंत्राः अन्वर्थ मंत्र संज्ञास्ते ज्ञातव्याः विबुधैः सदा
すぐりですやすです
|| 3 ||
जो सलाह किये जावे अथवा मंत्र के जानने वाले से गुप्त रूप से कहा जावे वह मंत्र कहलाता है। यह सदा ही मंत्र का इस शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ है ।
अकारादि हकारंतावणमंत्राः प्रकीर्तिताः
सर्वज्ञैरसहाया वा संयुक्ता वा परस्परं
॥ ३ ॥
अकार से हकार तक के स्वतंत्र असहाय अथवा परस्पर मिले हुवे वर्ण (अक्षर) मंत्र कहलाते हैं ।
स्वरोष्माणो द्विजाः श्वेता अंबुमंडल संस्थिताः अंतस्था भूभुजो रक्ता स्तेजोमंडलसंस्थिता
॥ ४ ॥
स्वर अकारादि १६ स्वर और उष्म ( श ष स ह ) द्विज, ब्राह्मण और श्वेत (सफेद) कहलाते हैं । यह अंबु (जल) मंडल में स्थित हैं और अंतस्थ ( य र ल व ) भूभुज (क्षत्रिय) और रक्त कहलाते हैं यह अग्नि मंडल में स्थित है।
अवर्ग शवर्गो कवर्ग पवर्गों शुप्तवैश्यान्वयो पीतौ पृथ्वीमंडल भागिनी दुतूकृष्णत्विषौ शुद्रौवायुमंडल संस्थितौ ॥ ५ ॥
अवर्ग शवर्ग कवर्ग प्रवर्ग शुप्त वैश्य पीतवर्ण के हैं। और पृथ्वी मंडल में स्थित हैं टवर्ग और तवर्ग कृष्ण कांति वाले और शूद्र वंश वाले तथा वायु मंडल में स्थित हैं । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ अं अः, श ष स ह क ख ग घ ङ, प फ ब भ म शुप्त वैश्य वंश वाले पीले रंग के हैं। और पृथ्वी मंडल में रहते हैं । टठ ड ढ ण त थ द ध न कृष्ण रंग के शुद्र और वायुमंडल में रहते
हैं ।
9595959 PSPSPA PSP595
25
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F
95959595 विद्यानुशासन 9595950555
वर्ण
रंग
ब्राह्मणवर्ण श्वेत
अक्षर
स्वर
कवर्ग
चवर्ग
टवर्ग
तवर्ग
पवर्ग
यवर्ग
रक्त
शवर्ग
ब्राह्मण
शेत्
उल
नोट :- मंत्र व्याकरण के अनुसार ई ऊ लृ लू का रंग पीत व जलमण्डली है। 'ष' का पीत रंग व आकाशमण्डली कहा है।
अर्थ
-
क्षत्रिय
वैश्य
शूद्र
शूद्र
वैश्य
क्षत्रिय
रक्त
पीत
मण्डल जलमण्डली
कृष्ण
कृष्ण
पीत
अग्नि
क्षिति
वायु
वायु
क्षिति
अग्नि
चवर्ग पवर्गो टवर्ग तवर्गों
प्रतिपन्त धमी रविशनिवारे द्विज सिद्धिरथ चतुथ्यांच च द्वादश्यैकाद्श्योः सितवारे भूपसिद्धिः स्यात्
॥ ६ ॥
वर्ग (च छ ज झ ञ) और पवर्ग ( प फ ब भ म ) वैश्य वंश वाले और पीत कहलाते हैं। वह पृथ्वीमंडल में स्थित हैं टवर्ग ( ट ठ ड ढ ण) और तवर्ग ( त थ द ध न ) शुद्ध और कृष्ण कांति वाले होते हैं। और वायुमंडल में स्थित द्विज मंत्र की सिद्धि प्रतिपदा नवमी रविवार और शनिवार को होती है। क्षत्रिय मंत्र की सिद्ध एकादशी द्वादशी चतुर्थी और सोमवार को होती है।
कुज वारे पंचम्यां षष्टयां च चतुर्दशी त्रियोदश्योः वैश्याक्षर संसिद्धिः स्तंभन कमंत्र कर्तव्यं
|| 19 ||
वैश्य मंत्रों की सिद्धि कुजवार (बुधवार) मंगलवार पंचमी षष्टी चतुर्दशी त्रयोदशी की होती है। और इसमें स्थंभन कर्म करना चाहिये।
गुरुवारे पर्वयुगे सप्तम्यां शुद्र जाति संसिद्धिः वह्नि स्तंभन शांतिक पौष्टिक कर्माणि कृत्यांनि
:
॥ ८ ॥
गुरुवार पर्व अष्टमीका दिन और सप्तमी को शुद्ध बीज की सिद्धि होती है इसमें अग्नि का स्तंभन शांति और पौष्टिक कर्म करने चाहिए |
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विद्यानुशासन 959595 Ses
॥ ९ ॥
विप्र (ब्राह्मण) मंत्र एक लाख योजन तक जाने वाले, क्षत्रिय पचास हजार योजन तक जाने वाले
और वैश्य २५ हजार योजन तक जाने वाले और शूद्र बारह हजार पांच सो योजन तक जाने
·
वाले होते हैं।
ब्राह्मण
क्षत्रिय
वैश्य
लक्ष योजनगा विप्रा स्तर्द्धगतयो नृपाः तदर्द्ध गामिनो वैश्याः शूद्रा स्तर्द्धदलयायिनः
अर्थ - विशिष्ट ब्राह्मणादि वर्ण की सिद्धि की तिथि, वार व उसकी गति की तालिकातिथि प्रतिपदा, नवमी ( ९ ) रवि, शनि
अक्षर
बार
गति
११,१२,४
सोमवार
५, ६, १३, १४
मंगल
शूद्र
पर्व के दिन १४ आदि तथा ७ को
गुरूवार
एकलाख योजन पचास हजार योजन पच्चीस हजार योजन कार्य स्तम्भन
१२.५ हजार योजन
कार्य पौष्टिक
आप्याक्षरमग्न्यक्षरमरयांमरुदनि बीजमपि मित्र
भूम्यक्षरमाप्याक्षर सुभवे च मित्रं रव बीजं च
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जल अक्षर और अग्नि अक्षर एक दूसरे के शत्रु होते हैं। वायु अक्षर और अग्नि अक्षर एक दूसरे के मित्र होते हैं। पृथ्वी अक्षर और जल, अक्षर और रव बीज वायु अक्षर भी मित्र होते हैं ।
धरा निलज वर्णा नाम
न्यान्यमिह सर्वदा न मित्रतत्वं न वैरत्वं मौदासीन्य तु केवलं
॥ ११ ॥
पृथ्वी और वायु अक्षर की परस्पर न मित्रता ही है और न ही शत्रुता ही है किन्तु उदासीन हैं।
एकः शुद्रस्त्रिभिर्वितेम्मिंत्रत्वं प्रतिपद्यते त्रिभिः शुद्रैर्द्विजीप्येक स्तथाक्षत्रिय वैश्ययोः
॥ १२ ॥
एक शूद्र की तीन ब्राह्मणों के साथ तीन शुद्रो की एक ब्राह्मण के साथ और क्षत्रिय तथा वैश्यों की मित्रता नहीं होती है।
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959695951 विधानुशासन 9599691591
एक भागो भवेद्विप्रस्यैकः क्षत्रिय वैश्ययोः शुद्रस्याप्येक भागश्चत्संयुक्तो मित्रतां व्रजेत
॥ १३ ॥
यदि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र प्रत्येक का एक एक भाग हो तो एक वर्ग के यह मिलकर मित्रता रूप में परिणत हो जाते हैं।
सर्वे मंत्रान् चैकस्मिन् वर्गेऽभिष्ट फलप्रदाः विभुच्याक्षर संथातमिति सर्वज्ञ भाषितं
॥ १४ ॥
एक ही वर्ग में सब मंत्र अभिष्ट फल को नहीं देते किन्तु अक्षरों के संधात को बचाकर ही (अक्षर संधात वाले मंत्र) फल देते हैं। ऐसा श्री सर्वज्ञ देव ने कहा है ।
पुल्लिंगाक्षर मित्रत्वं रामाक्षर समं सदा । नपुंसकमुदासीनमक्षरं तद्वयोरपि
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पुल्लिंग अक्षरों के साथ रत्रींलग अक्षरों की ही तरहती है कि अक्षर उन दोनों में ही उदासीन रहते हैं ।
सप्तकलाः पुल्लिंगा नपुंसका स्तत्र संति सप्तकलाः द्वेच कले स्त्री ज्ञेये कलासु मध्येतु षोडशेषु सोलह कलाओं में से सात अक्षर पुल्लिंग और सात नपुसंक उ ऊ ए ऐ ओ औ अं ) पुल्लिंग है। (आ ई) स्त्रीलिंग है। (इ
॥ १६ ॥
लिंग एवं दो स्त्रीलिंग वाले हैं। (अ ऋ लृ लृ ए अ:) नपुंसक हैं।
आदिम पंचम षष्ट द्वादश मुरव पंच दशक पर्यंताः पुल्लिंगा: स्त्री लिंगो द्वितीय तुयं स्वरौ स्यातां
॥ १७ ॥
शुरू का पहिला अ पांचवाँ उ, छठवाँ ऊ बारहवाँ ऐ और पंद्रह तक अर्थात तेरहवी चौदहवीं और पन्द्रहवीं ओ औ अं पुल्लिंग हैं। दूसरी और चोथी कला आ ई स्त्रिलिंग की है।
अ उऊ ऐ ओ औ अं पुल्लिंग आ ई स्त्रिलिंगौ सप्तं कलादि रूद्र प्रमाण पयंत सकलांतकला: त्रिकलापि सप्तषंढा इत्युदिता मंत्र वादेऽत्र
॥ १८ ॥
अ उऊ ऐ ओ औ अं पुल्लिंग आ ई स्त्री लिंग और तीसरी कला से ग्यारह कला तक और अंत की कला अः यह सात स्वर नपुंसक लिंगी है। ऐसा मंत्रवादियों ने कहा है।
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ऋ ऋल ल ए ई अकवर्गा ध्यत्रयोवर्णा वर्गाय चतुर्थकाः
तवांट द्विवों च पवधियोपिच ॥१९॥ ( क ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ ब ) अर्थात कवर्ग के आदि तीन वर्ण र वर्ग के आदि के चार वर्ण तवर्ग के आदि के दो वर्ण और पवर्ग के आदि के तीन वर्ण यह बारह व्यंजन और
त्रिचतुर्थी चवस्थि तवर्गास्य चतुर्थकः पवर्गास्यांति मोत्य स्य शवगर्गस्य द्विक त्रिको
॥२०॥ च वर्ग के तीसरा और चौथावर्ग ज झ तवर्ग का चौथा वर्ग ध पवर्ग का अंत का वर्ण म और शवर्ग का दूसरा और तीसरा वर्ण ष स (ज झ ध म ष स)
कूटाक्षरेण ते सर्वे मिलितैकोन विशंतिः पुलिंग संज्ञिनो वर्णा मंत्र व्याकरणे मताः
॥२१॥ ( क ख गट ठ ड ढ त थप फ ब ज झ घमष स क्ष) २१और ा वर्ण इन १९ वर्णो का मंत्र व्याकरण में पुल्लिंग संज्ञा वाले वर्ण माने जाने गये हैं।
उष्मणगाविसों वर्णपतवाद्यक्षर ट्रां
यवर्गात्यं द्विवर्ण च स्त्रीणां पंचाक्षराणिवै ॥२२॥ उष्मणा शवर्ग के आदि का वर्ण श चवर्ग के आदि के दो वर्ण च छ और यवर्ग के अंत के दो वर्ण ल व अर्थात् श च छ ल व इन पांचों को स्त्री लिंग माना है। श च छ ल वा : स्त्री लिंगाः।
क प वर्ग तुर्य वर्णावितंस्थाद्यक्षरद्वयं सांत पंचम वर्ग तृतीयोज ३ वांस्तषंढाः स्युः
॥२३॥ कवर्ग का का चौथा वर्ण घ पवर्ग का चौथा वर्ण भ और अंतस्थ वर्ग के आदि के दो वर्ण (यर) और हकार और पांचवें वर्ण का तीसरा वर्णट और जण ङ यह नो वर्ण नपुंसक लिंग के माने गये हैं। घम य र ह य ज णडन अर्थात अ उऊ ऐ ओ औ अंक ख ग ट ठ ड ढ त थ प फ भ ज झ घ म ष स क्ष इस तरह सात स्वर और १९ व्यंजन कुल २६ अक्षर पुलिंग हैं। अ इ और श च छ व ल न कुल दो स्वर पांच व्यंजन कुल ७ अक्षर अक्षर स्त्री लिंग है। ऊ ऊ ऋ मा ल ल ए अ: और घ भ य र ह बन जण इनपुंसक लिंग अक्षर है।
जाति सामथ्र्य मित्रारि लिंग मित्थं प्रकीर्तितं वर्णानामथ मंत्राणां लक्षणं च प्रवक्ष्यते
१॥२४॥ CASIOISTORIDISTRICTSIDE १२ PADRIDICISIODICISCISIONS
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CHEARISTOTSTRISRIDE विधानुशासन DISTRISISISTRISTOISTRIES इस प्रकार वर्गों का जाति सामर्थ्य मित्र शत्रु और लिंग का वर्णन किया गया है। अब मंत्रों के लक्षण कहे जाते हैं।
बीज मंत्राश्च मंत्राश्च माला मंत्रा श्चते त्रिधा
आरभ्य का क्षरं मंत्रास्य बीजान्यान वाक्षरात् ॥२५॥ मंत्रों के तीन भेद हैं। बीज मंत्र १ मंत्र र मंत्र और माला मंत्र ३ एक अक्षर से लगा कर नौ अक्षर तक के मंत्रों को बीज मंत्र कहते हैं।
आ विंशत्यक्षरान् मंत्राः समारम्य दशाक्षरात् टोविंशत्यक्षराद् उध्वमंत्रा माला इति स्मृताः
॥२६॥ दस अक्षर से बीस अक्षर तक को मंत्र एवं बीस अक्षर से अधिक अक्षर वाले को माला मंत्र कहते
इतराणितु बीजानि तस्ट सिद्धति सर्वदा मंत्राख्या मंत्राणो मंत्राफलंददति यौवने
॥२७॥ बीज मंत्र सदा ही सिद्ध हो जाते हैं। मंत्र नाम वाले मंत्र, मंत्रों की यौवनावस्था में ही फल देते हैं।
॥अंत मेव यसि प्राहु र्माला मंत्राफल प्रदाः॥ आषोऽशाक्षरात्युमालाम्मंत्राः कल्पा स्ततः परे
अत्रामुत्र च कल्पा फलाया मालाः स्युर त्रैव ॥२८॥ माला मंत्र वृद्धावस्था में फल देते हैं। सोलह अक्षरों तक माला और उससे आगे कल्प कहलाते हैं। कल्प इस लोक और परलोक दोनों स्थल में ही फल देते हैं।
इति व्यावक्षते मंत्र विकल्पं गुरवः परे स्वज्ञान मौसमुत्तीर्ण मंत्रवाद महार्णवाः
।।२९॥ इस प्रकार उत्तम गुरुओं ने मंत्र वाद रूपी समुद्र को अपनी ज्ञान रूपी नौका (नाव) से पार करके मंत्र के भेद कहे हैं।
स्त्री पुं नपुंसकत्वेन मंत्रा स्ते त्रिविधामताः
स्वाहा शब्दावसानाः स्युर्ये मंत्रास्तान् विदुः स्त्रियः ॥३०॥ मंत्रों के भी तीन भेद हैं। स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जिन मंत्रों के अंत में स्वाहा शब्द होता है वह स्त्री मंत्र होते हैं। CISIOISTDISTRISTRISTRASTRA १३ P5051DISTRISEDICISTOISS
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विधानुशासन 959595959595
पुमांसो हुं वषट फट् स्वधाप्रभृति पल्लवाः ते नपुसंक लिंगाः स्युर्येषामते नमः पदं
॥ ३१ ॥
हुं वषट फट घे थे और स्वाहा आदि पल्लव जिन मंत्रों के अंत में होते हैं यह पुल्लिंग मंत्र होते हैं। और नमः अंत वाले मंत्र नपुंसक मंत्र होते है।
स्त्री मंत्रान्नाम पध्वंसे पुं शुभेषु च कम्र्म्मसु मारणो च्चाटनाधेषु प्रयुंजीत प्रयोगवित
॥ ३२ ॥
स्त्री मंत्रों को पाप नष्ट करने में प्रयोग करे पुरुष मंत्रों का प्रयोग शुभ कर्म मारण उच्चाटन निविर्षीकरण और वशीकरण में करे ।
विषापहारिषु मंत्रान् वश्योच्चाटनयोरपि । स्यान्नपुसंक मंत्राणां प्रयोगः शेष कर्मसु
॥ ३३ ॥
निर्विषीकरण वशीकरण और उच्चाटन कर्म में पुरूष मंत्रों का प्रयोग करे और शेष कर्मों में नपुंसक मंत्रों का प्रयोग करे।
आग्नेयाः सौम्याद्वांत मल्यंत ते पुन द्विविधा नेत्राः प्रणवात्याग्नि वियत्प्रायाः अपि तेस्युराग्नेयाः
1138 11
उन मंत्रो के फिर दो भेद हैं । आग्नेय और सौम्य प्रणव हैं और अग्नि और आकाश स्वाहा बीज वाले अग्नि मंत्र कहलाते हैं।
अन्ये सौर्य सौभ्वानेव फट् अंता च वदंति चाग्नेयात् आग्नेयानामेव स्यात् सौम्यत्वं नमो अंतत्वे
॥ ३५ ॥
दूसरे आचार्य सौर्य बीजों को सौम्य और फट् अंत वालों को आज्ञेय कहते हैं। आग्नेयों के ही अंत में नमः लगा देने से वह मंत्र सौम्य हो जाता है।
मारणोच्चाटना येषु मंत्र माग्नेय मादिशेत सौम्यं शांती व शीकृत्यै पौष्टिकादिक कर्मणि
॥ ३६ ॥
मारण उद्घाटन आदि में आग्नेय मंत्र बतलाये शांति वशीकरण और पौष्टिक आदि कर्मों में सौम्य मंत्र बतलाये ।
こちでらでらでらでらでらでらでらでら
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तेषा मुभे अवस्थे स्वापो बोध इति तैज सस्य स्वापौ वामवहनं प्रबोधोदक्षिण वहनं परस्यतौ विपरीतौ
॥ ३७ ॥
उनकी दो अवस्थायें होती हैं। स्वाप (सोया हुवा) और बोध (जागृत) तेजस आग्नेय अर्थात स्वाप बाम वायु बहे और प्रबोध या बोध अर्थात जागृत अवस्था में दाहिने स्वर से वायु बहती है यह एक दूसरे के विपरीत अवस्था होती है।
मंत्रस्योग्य हे बोधः स्यादुभयत्र भेदानां मंत्र: मात्रः सिद्धैयैन भवेत्प्रसुप्तश्च
प्रबुद्ध
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यदि मंत्र दोनों में बह रहा हो तो दोनों ही भेदों को समझना चाहिये केवल प्रबुद्ध जागृत और केवल प्रसुप्त सोयी हुवी अवस्था में अर्थात केवल दाहिना स्वर या केवल बायाँ स्वर बहे तब मंत्र सिद्ध नहीं होता है ।
हृन्मस्तक शिखा वर्ष्म नेत्रास्त्रिषु क्रमाब्दुधः. नमः स्वाहा वषट हुं संवौषट फट् इति योजयेत्
॥ ३९ ॥
पंडित हृदय में नमः मस्तक में स्वाहा चोटी अर्थात् शिखा में वषट् कवच में हुं और नेत्रों में संवोषट् और फट् लगावे ।
अंग मंत्रान् विद्यते यस्य मंत्रस्य वितस्योपद्देश कल्पेयेदात्मनैवतान्
ਮਿਜ਼
स्यात्
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जिस मंत्र में पृथक अंग भेदों का वर्णन नहीं होवे बुद्धिमान उनमें अपनी बुद्धि से ही उनकी कल्पना कर लें ।
एक स्य मंत्रस्य षडंग मंत्रा ते न्यस्य पंचोपि दिशं तितज्ञाः
पंचागं मंत्रस्य तु पंचमेन मंत्रेण नेत्रसहितं विलिपेत् ॥ ४१ ॥
जिस मंत्र का षडंगन्यास होता है उस न्यास में पांच अंगों का उपदेश भी किया जाता है। पंचाग मंत्र का नेत्र सहित न्यास करके अनुष्ठान करे।
अरहंता अशरीरा आईरिया उवज्झाया तहा मुणिणो पढमक्षराणिप्पणो उंकारी पंच परमेट्ठी ।
उकार पंच परमेष्ठी का द्योतक है यह अरहंत का अ, सिद्ध अशरीर का, आचार्य का आ, उपाध्याय काउ और सर्व साधु अर्थात् मुनि का अनुस्वार प्रथम अक्षर अ अ आ उ अं को सम्मिलित करके बताया गया है।
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SSCI5015015555 विधानुशासन SOISO15050SOTI
मकारादि हकार पर्यतं में कैकाक्षरलक्षण मुदाहरिष्यामः । अब अकार से लेकर हकार तक के एक एक अक्षर के लक्षण का वर्णन करेंगे।
अः वृत्तासनं गज वाहनं हेमवर्ण कुकुम गंध लवण स्वादजंबंद्वीप विस्तीर्णं चतुर्मुख अष्टबाहुं कृष्णालोचनं जटा मुकुट धारिणं सित
वर्ण मौलिक आभरणं अतिव बलि गंभीरं पुल्लिंग मकारस्य लताणं ॥१॥ अंकार गोल आसन गजवाहन सुनहरी रंग वाला कुंकुम गंध नमक का स्वाद जंबुद्वीप में विस्तीर्ण चतुर्मुख अष्ट भुजायें काले नेत्र जटा और मुकुट धारी श्वेतवर्ण के मोतियों के आभूषण याला अत्यंत बली गंभीर और पुल्लिंग यह अकार का लक्षण है।
आ :- पद्मासनं गजव्याल वाहनं सितवर्ण शंख चक्र पद्म अंकुश धारिणं द्विमुरवं अष्टहस्तं अहि भूषणं शोभानदि महाद्युति त्रिशत सहस्रयोजन विस्तीर्ण स्त्रीलिंग आकारस्य माहात्म्य
॥२॥ आ, पद्मासन गज व्याल (सर्प) वाहन श्वेत वर्ण शंख चक्र पद्म अंकुश धारण करने वाला दो मुख आठ भुजायें सर्प का आभूषण वाला अत्यंत शोभित बहुत कांति वाला तीस सहरू योजन तक विस्तीर्ण स्त्रीलिंग यह आकार का स्वरूप है।
इ:- कूर्म वाहनं चतुरश्रासनं हेमवर्ण वज्रायुधं एक योजन विस्तीर्ण द्विगुणायाम मुत्सेधं कषाय स्वादं वज़ वैडूर्य वर्णलंकृतं मदं स्वरं नपुंसकं क्षत्रिय इकारस्टा माहात्म्य
॥३॥ कछवा वाहन चौकोर आसन, हेम वर्ण वज्र आयुध, एक योजन लंबा दुगुना चौड़ा और ऊंथा कषायला स्वाद बज और वैहुर्य के वर्ण से अलंकृत, मंदस्यरं, नपुंसक और क्षत्रिय यह इकार का स्वरूप है।
ई:-कुवलयमासनं वराह वाहनंमंदगमनं अमतरसंसुगंधंद्विभुजंफलपद्म धारिणं श्वेतवर्ण शत योजनविस्तीर्ण द्विगुणोत्सेधं दिव्य शक्तिधारिणं स्त्री लिंग ईकारस्य माहात्म्य
॥४॥ कमल का आसन वराहवाहन, मंदगमन अमृतरस, सुगंधयाला, दो भुजायें फल कमल को धारण करने वाला, श्वेतवर्ण सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन ऊँचा, दिव्यशक्ति धारी और स्त्रीलिंग ईकार का माहात्मय है।
CASTRITERSTSTOICESSISISE १६ HISTOISTOTRAISISTRICTSITES
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C52525P
विधानुशासन
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3 :- त्रिकोन आसनं कोक वाहनं द्विभुजं मुशल गदा आयुधं धूम्रवर्ण कठोर कटुं स्वादं शत योजन विस्तीर्ण द्विगुणोत्सेधं कठोर गंध वश्या कर्षणं उकारस्य माहात्म्यं ॥५॥
त्रिकोण आसन कोक (भेडिया, चकवा, मेढ़क) वाहन दो भुजायें मूशल और गदा आयुध को धारण करने वाला, धूम्रवर्ण कठोर और कटु स्यादा वाला, सौ योजन चौड़ा और दो सौ योजन ऊँचा कठोर गंध वशीकरण और आकर्षण करने वाला उकार का माहात्म्य है।
ऊ :- त्रिकोणसनं उष्टवाहनं रक्तवर्ण कषाय रसं निष्टर गंधं द्विभुजं फलशूलधरं नपुंसकं शत योजनं विस्तीर्ण उकारस्य माहात्म्य ॥६॥ त्रिकोण आसनं ऊंट वाहन रक्त वर्ण कषाय रस निष्ठुर (कठिन) गंध फल और शूल के लिए हुवे दो भुजायें नपुंसक और सौ योजन विस्तीर्ण उंकार का माहात्मय है।
ऋ :- लम्बा उष्ट्र स्वभावं उष्ट्र स्वरं शत योजन विस्तीर्ण द्विगुणायामं उष्टं र नागआभरणं सर्वविप्रं कारिणं ऊकारस्य माहात्म्यं
॥७॥
ऊंट का स्वभाव ऊंट के जैसा स्वर, सो योजन चौडा दुगना, ऊंट के मुख की सुगंध जैसा रस, नाग, आभरण और सबके विघ्न करने वाला ऋकार का माहात्म्य है।
ऋः पद्मासन मयुर वाहनं कपिलवर्णं चतुर्भुजं शत योजन विस्तीर्ण द्विगुणायाम मल्लिका गंध मधुर स्वादं हेम आभरणं नपुसंकं ऋकारस्य माहात्म्यं ॥ ८ ॥ पद्मासन, मोर वाहन, कपिल वर्ण, भुजायें, सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन लंबा, चमेली की सी गंध मधुर स्वाद, हेम आभरण और नपुंसक ऋकार का माहात्म्य है।
लकार:- हय स्वभावं हय स्वरं हा रसं शत योजनं विस्तीर्ण द्विगुणायामं शूरवाहनं चतुर्भुजं मूशल कुंत पद्म को दंड हस्तं कुवलयासनं नागाभरणं सर्व विप्रकारिणं नपुंसकं लृकारस्य माहात्म्यं
९
घोड़े जैसा स्वभाव, घोड़े का सा स्वर, घोड़े का सा रस सौ योजन घौड़ा दुगुना लम्बा, शूरवीर, वाहन, मुशल-भाला-कमल और धनुष लिए हुवे, चार भुजायें, कमल आसन, नाग आभरण सब विघ्नों का करना नपुंसक लृकार का माहात्म्य है ।
लकारः मौलि मौक्तिक यज्ञोपवीत कुंडलाभरणं द्विभुजं मल्लिका गंधपंचासयोजन विस्तीर्ण द्विगुणयामं नपुंसकं क्षत्रियं उच्चाटनं कुंत पद्महस्तं लृकारस्य माहात्म्यं ॥ १० ॥
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SASRISRISIOSISTSIDE विद्यानुशासन 850MSDOISOSDISS मुकुट मोतियों का यज्ञोपवीत और कुंडल आभूषण, भाला और कमल लिये हुवे, दो भुजायें चमेली की गंध,पचास योजन चौडा,दुगुना लम्बा नपुंसक,दात्रिय और उच्चाटन रूप लकार का स्वरूप है।
एकार जटा मुकुट धारिणं मोक्तिकाभरणं यज्ञोपवीतोपेतं चतुर्भुजंशंख चक्रपरशु पद्म हस्तं दिव्य स्वादं सुगंधि सर्वप्रियं शुभ लक्षणं वतासनं नपुंसकं एकारस्य माहात्म्य
॥११॥ जटा मुकुट धारी, मोती का आभूषण, यज्ञोपवीत सहित, शंख चक्र कमल और परशु लिए हुवे, चार भुजायें, दिव्य स्वाद, सप्रिय सुगंधि, सब का प्यारा, शुभ लक्षण गोल, आसन और नपुंसक एकार का माहात्म्य है।
ऐकार त्रिकोणासनं गरडवाहनं द्विभुजं त्रिशूल गदाआयुधं अग्नि वर्ण निष्ठुर गंध क्षीर स्वादं धर्धर स्वरं दश योजनं विस्तीर्ण द्वि गुणायाम वश्याकर्षण शक्तिः ऐकारस्य माहात्म्य
॥१२॥ त्रिकोण आसन, गरूडवाहन, त्रिशूल और गदा के लिए हुवे, दो भुजायें, अग्नि वर्ण निष्ठर गंध, दूध का स्वाद, घर्घर स्वर, दस योजन चौड़ा, दुगुना लंबा, वशीकरण और आकर्षण शक्ति रखना ऐकार का माहात्म्य है।
ओ :- वृषभ वाहनं तप्तं कांचन वर्ण सर्वायुध संपन्नं लोकालोक व्याप्त महाशक्ति त्रिनेत्रं द्वादश सहस्त्र बाहुं पद्मासनं महाप्रभु सर्वदेवता पूज्यं सर्वमंत्र संसाधकं सर्वलोक पूजितं सर्वशांति करं सर्वानुग्रहं विग्रहं क्षिति जल पवन हुताशनं यजमाना काश सूर्य चंद्रादि कार्य करिण कतार सर्वाभरणभूषितं दिव्य स्वादं सुगंध सर्वरक्षं शुभ देहं स्थावर जंगमाश्रमं सर्वजीवदयापरं परमं अव्ययं पंचाक्षरगर्भित ओकारस्य माहात्म्य
॥१३॥ बैल बाहन, तपे हुवे सोने के समान वर्ण, सर्व शस्त्रों सहित लोक और अलोक में व्याप्त महाशक्ति तीन नेत्र बारह हजार भुजा, पद्मासन महाप्रभुसब देवताओं से पूज्य सब मंत्रों को सद्धि करने वाला, सब लोक से पूजित, सर्वशांति करने वाला, सबके अनुग्रह रूप शरीर वाला, पृथ्वी, जल, पवन, अग्नि यजमान, आकाश, सूर्य और चन्द्र आदि के कार्य को करने वाला कर्ता, सब आभूषणों से युक्त दिव्य स्वाद सुंगध वाला, स्थावर और जंगम का आश्रय सब जीवों पर दया करने वाला, परम अव्यय और पांच अक्षर वाला ओंकार का माहात्म्य है। S5I0RRISTD357385101527 १८ PORTERISTOTSIDDRISTRIES
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ಇDECEDES GEAR WIFE
औ. वृत्तासनं कोकवाहनं कुंकम गंध पीत वर्णं चतुर्बाहुं वज्र पाशधारिणं कषाय स्वादं श्वेत माल्यादि लेपनं स्थंभन शक्तिं शत योजन विस्तीर्ण द्विगुणायाम औकारस्य माहात्म्य
॥१४॥ गोल आसन, चकवा वाहन, कुंकुम गंध, पीतवर्ण, वन और नाग पाश धारण किये हुवे, चार भुजायें कषायेला स्वाद श्वेतमाला आदि पहिने स्तभन शक्ति सो योजन विस्तीर्ण और दुगुनी लम्बाई वाला औंकार का महात्म्य है।
अं:- पद्मासनं सितवर्ण नीलोत्पल गंधं कौस्तुभ आभरणं द्विभुजं पद्मापाशायुधं शुभगं टाज्ञोपवीतधारिणं प्रसन्न मति मधुर स्वादं शत योजन विस्तीर्ण द्विगुणायाम अंकारस्य माहात्म्य
॥१५॥ पद्मासन, श्वेतवर्ण नीलकमल के समान गंध वाला, कौस्तुभ मणि का आभरण, पद्म और पाश लिए हुए दो भुजायें, यज्ञोपवीतधारी, प्रसन्नमति, मधुर स्वाद सो योजन चौड़ा और दुगुना लंबा अंकार का माहारस्य है।
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अ:-त्रिकोणासनं पीताबरं कुकुमं गंधं धूमवर्ण कठोर स्वरं निष्ठुर द्दष्टि क्षार स्वादं द्विभुजं शूलायुधं निष्ठुरगतिं शोभनांकृति नपुंसकंशुभकर्म शासनं अःकारस्य
॥१६॥ त्रिकोण आसन, पीतवर्ण के वस्त्र वाला, कुकुम गंधवाला, धूम्र वर्ण कठोर स्वर निष्ठुर हष्टि, नमकीन स्वाद, दो भुजायें, शूल आयुध, निष्ठुर गति, अशुभ आकृति, नपुंसक और शुभकर्म बतलाना अः का माहात्म्य है।
. प्रथम वर्ग: क :- चतुरस्त्रनं चतुईतेन वाहनं पीतवर्ण सुगंध माल्यानुलेपनं स्थिरगति प्रसन्न द्दष्टिः द्विभुजं वज़ मूशलायुधं जटामुकुंट धारिणं सर्वाभरण भूषितं सहस्रयोजनः विस्तीर्णः दशसहश्र योजनोत्सेधः पुल्लिंग क्षत्रियं इन्द्रादि देवता स्तंभन शांतिक पौष्टिक वश्याकर्षण कर्म कार्यकारी ककरास्य शक्ति
॥१॥ चौखूटा आसन. चार दांत वाले हार्थी की सवारी करने वाला, पीत वर्ण सुगंधीत मालाओं और सुगंधित लेप सहित स्थिर गति प्रसन्न द्दष्टि दो भुजायें, यज और मूशल के आयुध, जटा और मुकुट धारी सब आभूषणों से भूषित सहसा योजन चौड़ा, दसहजार योजन ऊंचा, पुल्लिंग, दात्रिय इंद्रादि देवताओं वाला स्तंभन शांति पुष्टि वशीकरण और आकर्षण कर्म के काम करने वाला ककार की शक्ति है।
CUSSI5015DISSISTRICA १९ PISTRISIOIRIDISIOTSIDEOS
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CSP595PX
विद्याभुशासन 959595959
व :- पिंगल वाहनं मयूर ग्रीव वर्ण द्विभुजं तोमर शक्ति हस्तं व्याल यज्ञोपवीत सुस्वर त्रिशंधोन विस्तीर्ण आकाश गामिनंक्रियां क्षत्रियं सुगंध माल्यानुलेपनं आग्नेय पुरा कमतं चितिंत मनोरथ सिद्धिं करं अणिं मादि दैवतं पुलिलिंग स्वकारस्य शक्ति :
॥ २ ॥
खकार:- पिंगल वाहन, मोर की गर्दन के समान रंग, तोमर मोर शक्ति के लिए हुवे दो भुजायें, सर्प का यज्ञोपवीत, अच्छा स्वर तीस योजन चौड़ा आकाश गामी क्रिया क्षत्रिय सुगंधित माला और अनुपयुक्त अग्नि के भी नगर को कंपाने वाला, , सोचे हुवे मनोरथ को सिद्ध करने वाला, , अनिमा आदि देवताओं की सिद्धि वाला और पुल्लिंग खकार का माहात्म्य है।
गकार :- हसं वाहनं पद्मासनं माणिक्य भरणं इंगलिंक वर्ण हथं चेतवस्त्रं सुगंध माल्यानुं लेपनं कुकुंम चंदन प्रियं क्षत्रियं पुल्लिंग सर्वशांति करं शत योजनं विस्तीर्ण सर्वाभरणभूषितं द्विभुजं फलपाश धारिणं यज्ञादि देवता अमृत स्वादं प्रसन्न द्दष्टि गकारस्य शक्ति : || 3 || हंस वाहन, पह्यासन, माणिक्य का आभूषण (आभरण) इंगलिक वर्ण, हृदय को प्रसन्न करने वाला श्वेत वस्त्र वाला, , सुगंधिक्त मालाओं और अनुलेप से युक्त, कुंकुम और चंदन को पसंद करने वाला क्षत्रिय, पुल्लिंग, सब शांति करने वाला, सो योजन विस्तीर्ण, सब आचरणों से भूषित, फल और नागपाश के लिए हुये, दो भुजायें यक्ष आदि देवताओं वाला अमृत का स्वाद वाला और प्रसन्न दृष्टि गकार का माहात्म्य है ।
घ कार :- उष्ट्र वाहनं उलूकासनं द्विभुजं वज्र गदायुधं धूम्र वर्ण सहस्त्रयोजन विस्तीर्णहंस स्वरं कठोर गंधी धार स्वाद महाबलम उच्चाटनं छेदन मोहन स्तंभन कारि पंचाशद्यो योजन विस्तीर्ण नपुंसकं रौद्र शक्ति क्षत्रियं सर्व शांति करं महावीयदि दैवतं धकारस्य शक्ति ॥ ४ ॥
ऊंट वाहन, उलूकासन (उल्लू) वज्र और गधा धारण करने वाला दो भुजायें, धूम्र वर्ण सहस्र योजन विस्तीर्ण, हंस का स्वर, कठोर गंध वाला, नमकीन स्वाद वाला, महाबली उच्चाटन छेदन- मोहन और स्तंभन करने वाला, पांच सो योजन विस्तीर्ण नपुंसक रौद्रशक्ति क्षत्रिय सबकी शांति करने वाल महाबलवान देवता रूप धकार का माहात्म्य है।
डकार :- सर्पाशिनं दुष्ट स्वरं दुर्द्दष्टि: दुर्गंधं दुराचारि कोटि योजन विस्तीर्ण सहस्त्र योजनोत्सेधं कार्पाशासनं रात्रि प्रियं षड्भुज मूशल गदा शक्ति मुष्टि भुसंडी परशु हस्तं नपुसकंयमादि दैवतं ङकारस्य शक्ति :
॥ ५॥
959595951959591 २० P1595959591396951
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STSIDER152510585 विधानुशासन 015015015015015015 सर्प को खाने वाला, दुष्ट स्यरयाला, बुरी दृष्टि दुर्गंध दुराचारी, करोड़ योजन चौड़ा, सहरू योजन ऊंचा कार्यास (कपास) आसन याला, रात्रि तो पसन्द करने वाला, मूशल गदाशक्ति मुष्टि भुशुंडी और परशु लिए हुये, छ: भुजायें याला नपुंसक यम आदि देवता रूप हकार का माहात्म्य है।
चकार :- शोभनं हंस वाहजं श्वेत वर्ण शतकोटि सहश्र योजन विस्तीर्ण वज़ वैडूर्यमुक्ताभरणभूषितं चतुर्भुजं शुभ चक्र फल पा धरं जटामुकुट धारिणं सुस्वरं सुमनः प्रियं ब्राह्मणी यक्षादि देवतं चकारस्य शक्ति
॥६॥ सुंदर हंस का वाहन, श्वेतवर्ण, एक सो करोड़ सहश्र योजन (दसलाख) चौडा, वज, वैडूर्य और मोतियों के आभूषणों से भूषित, शुभ चक्र, फल और कमल से युक्त, चार भुजायें याला, जटामुकुटधारी, अच्छे स्वर द्याला, सुमन पुष्प से प्रेम करने वाला, ब्राह्मणी और यक्ष आदि देवताओं वाला चकार का माहात्म्य है।
छकार :-मकर वाहनं पद्मासनं महाघंटास्वरं उदद्यार्क प्रभंसहस्त्रयोजन विस्तीर्ण आकर्षणादि रौद्रकर्म करं सुमनः सुगंधं श्याम वर्ण दिव्याभरण भूषितं चतुर्भुजं चक्र वज्र शक्ति गदायुधं सर्व कार्य सिद्ध करंगरूड दैवतं छकारस्य शक्तिः ॥७॥ मकर याहन, कमल आसन बड़े घंटे का जैसा स्वर उदय हुवे सूर्य के समान कांतिवाला, सहस्त्र योजन विस्तीर्ण, आकर्षण आदि रोद्र कर्म करने वाला, अच्छा मनवाला, सुंगधित श्याम वर्ण दिव्य आभूषणों से भूषित चार भुजाओं याला, चक्र-यज-शक्ति-गदा आयुध को धारण करने वाला सब कार्यों को सिद्ध करने वाला गरुड़ देवता रूप छकार की शक्ति है।
जकार :-शुद्रं पुल्लिंगं चतुर्भुजं पाशु पाश पद्म वज्र धरं अमृत स्वादं जटा मुकुट धारिणं मौक्तिक वजाभरण भूषितं वश्याकर्षणं सत्यवादि सुगंधप्रियं शतपय सन्निभं वरुणादि दैवतं जकारस्य शक्ति
॥८॥ शूद्र पुलिंग, परशु नाग, पाश कमल और वज लिए हुवे चार भुजाओं वाला, अमृत का स्वाद जटा और मुकुट धारण करने वाला, मोती और हीरे के आभूषणों से सुसज्जति, वशीकरण और आकर्षण करने याला सत्यवादी, सुगंध को पसन्द करने वाला, सौ कमलों के समान कांति और वरुण आदि देवता रूप जकार की शक्ति है।
झकारः पुरुषं वैश्यं धर्मार्थ काम मोक्ष वश्याकर्षण कुबेरादि देवतं द्विभुजं शरव चक्र हस्त मौक्तिकं वजा भरणं भूषितं सत्य वादि पीतवर्ण पद्मासनं सुगंधि अमृत स्थाएं झकारस्य शक्ति JOLASLILILOPAPP_PSPILSNASLLADAS
|॥९॥
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SSIOS01501501505 विधानुशासन 265015DISCISSSSSSS पुरुष, वैश्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को आकर्षण और वशीकरण करने वाला कुबेर आदि देवता रूप शंख और चक्र को लिये हुवे, दो हाथों वाला, मोती और हीरे के आभूषणों से सुसज्जित, सत्यवादी पीतवर्ण, पद्मासन, सुगंधि और अमृत स्वाद झकार की शक्ति है।
यकार :- काक वाहनं गंधकाष्ट आसनं कृष्ण वर्णदूत कर्मानपुंसकं शतयोजन विस्तीर्ण चतुर्भुजं त्रिशूल परशु निष्ठु र गदायुधं महाकूर स्वरं सर्व जीव भयंकर शीयगति व्यभिचार कर्मण युक्तं क्षार स्वादं शिप्रगमनं रौन द्दष्टि टाम दैवतं यकारस्य
शक्ति काक वाहन, गंध वाली काट का आसन वाला, कृष्णा वर्ण, दूत कर्म करने वाला, नपुंसक, सो योजन विस्तीर्ण त्रिशूल, परशु, निष्ठर और गदा लिए हुवे चार भुजायें वाला, महाक्रूर स्वर, सब जीवों को भयभीत करने वाला, शीघ्र चलने वाला, व्यभिचार कर्म से युक्त, नमकीन स्वाद, शीघ्रगामी रौद्रदृष्टि और यम देवतारूप प्रकार की शक्ति है।
टकार :- वृतासनं कपोत वाहनं कपिल वर्ण द्विभुजं वज्र गदायुधं शतयोजन विस्तीर्ण पुलिंग मुटु स्वरं मंद गंधी लवण स्वादं शीतलस्वभावं व्यालयज्ञोपवीतं
चन्द्र दैवतं टकारस्यशक्ति गोल आसन, कबूतर का वाहन वाला, कपिल वर्ण, वन और गदा लिए हुवे दो भुजाये वाला, सो योजन विस्तीर्ण पुलिंग मृदुस्वरवाला, मंद गंधवाला, नमकीन स्वाद, शीतल स्वभाव, सर्प की यज्ञोपवीतधारी और चन्द्र देवता रूप टकार की शक्ति है।
ठकार :-चतुसासनं गजवाहनं शंख संन्निभं द्विभुजं वज़ गदायुधं जंबू द्वीप प्रमाणं अमृत स्वादं पुलिंगं रक्षा स्तंभन मोहन कार्य सिद्ध करं सर्वाभरणभूषितं क्षत्रिय दैवतं ठकारस्य शक्ति
॥१२॥ चौखूटा आसन, गजवाहन, शंख की जैसी प्रभा, वज़ और गदा लिए हुवे दो भुजाओं वाला, जंबू द्वीप के बराबर विस्तीर्ण, अमृत स्वाद, पुल्लिंग, रक्षा स्तंभन और मोहन कार्य को सिद्ध करने वाला, सब आभूषणों से भूषित, क्षत्रिय देवता रूप टकार का स्वरूप है।
डकार :- चतुरस्त्रासनं शंख सन्निभंजंबुद्धीप प्रमाणं क्षीरं अमृत स्वादं पुलिंगं द्विभुजं वन पद्मधरं रक्षा स्तंभनमोहन कारिकपूर गधंसर्वाभरणभूषितं कदलिस्वादं शुभ स्वरं कुबैर दैवतं डकारस्य शक्ति
SSIRIDIOSDISTRASIPTSDAR २२ PROPSIRISTOTSIDISPIDIOES
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विद्यानुशासन PPPSPSPSPS
चौखुटा आसन, शंख के समान कांति, जंबू द्वीप के बराबर विस्तीर्ण, दूध और अमृत के समान स्वाद वाला, , पुलिंग, वज्र और पद्म लिए हुवे दो भुजायें रक्षा स्तंभन और मोहन कर्म करने वाला कपूर जैसी गंध वाला, सब आभूषणों से भूषित केले के स्वाद वाला, अच्छे स्वरवाला, कुबेर देवता रूप डकार की शक्ति है।
ढकार : चतुरस्त्रासनं मोहन सन्निभं जंबू द्वीप प्रमाणं पुलिंगं अष्ट भुजं परशु पाश वज्र मूशल भिंडपाल मुग्दर चाप हल नाराच आयुधं सुस्वादं सुस्वरं महाध्वनि सिंहनादं रक्तवर्ण उर्ध्य मुखं दुष्ट निग्रह शिष्ट प्रतिपालकं शत योजन विस्तीर्ण सहस्र योजनावृत्तंतद अर्द्धपरिणाहं जटामुकुट धारिणं सुगधिंनिश्वासं किन्नर ज्योतिष्क पूजितं महासत्वं युतं कालाग्नि रूद्र शक्ति वश्याकर्षणं निमिषार्द्धसाधन विकल माग्रि दैवतं ढकारस्य शक्ति
॥ १४ ॥
चौखूंटा आसन, मोहन करने की आभा वाला, जंबू द्वीप के बराबर विस्तृत, पुलिंग, पाशुनागपाश, वज्र मूल- भिंडपाल - मुद्गर-धनुष-हल बाण लिए हुवे आठ भुजाओं वाला अच्छा स्वाद अच्छा स्वर सिंह के शब्द जैसी महाध्वनि करने वाला, रक्त वर्ण, ऊपर की तरफ मुख वाला, दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करने वाला, सो योजन विस्तीर्ण, सहस्र योजन का गोल घेरे वाला, उसके
प्रमाण ऊंचा, जटा और मुकुट धारण वाला, अच्छी गंध की निश्वास युक्त और किन्नर और ज्योतिष देवों से पूज्य, महान वीरता युक्त, प्रलय काल की अभि के समान भयंकर शक्ति वाला, वशीकरण और आकर्षण करने वाला और आधे क्षणमात्र में प्रसिद्ध होने वाला अग्निदेवता रूप ढकार की शक्ति है।
कार :- त्रिकोणासनं व्याघ्र वाहनं शतसहस्त्र योजनायामं तदर्द्धविस्तारं षड्भुजं शशि तोमर भुडि भिंडपाल परशु त्रिशूल घरं कठोर गंधं शायानुग्रहं कृष्ण वर्ण रौद्रदृष्टिः क्षार स्वायुं नपुंसकं वायुदैवतं एकारस्य शक्ति 112411
त्रिकोण आसन, व्याघ्र वाहन, सो योजन लंबा, उसका आधा चौड़ा, छ भुजायें, चन्द्रमा, तोमर, Paris भिंडपाल, परशु और त्रिशूल शास्त्रों वाला, कठोर गंध शाप और अनुग्रह दोनों में समर्थ रौद्र दृष्टि वाला, नमकीन, स्वाद नपुंसक और वायु देवता रूपएकार की शक्ति है।
तकार : पद्मासनं गजवाहनं शौर्यात्तभरणं शतयोजनं विस्तीर्ण तदर्द्धायामं चंपक गंधं चतुर्भुजं परशु पाश पद्म शंक हस्तं पुलिंगं चन्द्रादि देवता पूजितं मधुरस्वाद सुगंध प्रियं तकारस्य शक्ति:
॥ १६ ॥
CARAVANSPARSE: <3 P5252525252525
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CISIO501501501501 विधानुशासन 9851015015015015ISI पद्मासन, गजवाहन, चमकते हुए आभूषणधारी, सो योजन लंबा उसके आधा चौड़ा, चंपे की गंध वाला परशुनाग पाश पद्म और शंक लिये हुवे चार भुजाओं वाला पुलिंग चंद्रादि देवताओं से पूजित, मधुर स्वाद वाला, सुगंधित प्रिय तकार की शक्ति है।
थकार : वृषभ वाहनं अष्टभुजं शक्ति तोमर परशु धनुई पाश गदा चक्रधरं कृष्ण वर्ण कृष्णं वर्ण जटा मुकुट धारिणं कोटि योजना यामं तद विस्तार कर द्दष्टि कठोर गंधं धतूर रस प्रियं सर्वकामार्थ साधनं अग्नि दैवतंथकारस्य शक्ति ॥१७॥ बैल वाहन, आठ भुजायें,शक्ति-तोमर- परशु-धनुष-दंड- नागपाश गदा और चक्रा का धारक कृष्ण वर्ण कृष्ण वस्त्र, जटा और मुकुटधारी , करोड़ योजन लम्बा उसके आधा चौड़ा क्रूर दृष्टि कठोर गंध धतूरे के रस को पसंद करने वाला सब काम अर्थ को सिद्ध करने वाला अग्नि देयता रूप यकार की शक्ति है।
दकारः महिष वाहनं कृष्ण वर्ण त्रिमुरवं षडभुजं गदा मूशल त्रिशूल भुसंडि यज तोमरधरं कोटि योजनयामं तदद्रं विस्तार दिगंबरं लोहाभरणं उर्ध्वदृष्टिः सर्प यज्ञोपवीतं निष्ठर ध्वनि मकरंद मुन्मोक्षणं मंत्र साधनं यम दैवतं कृष्ण वर्ण नपुंसकं दकारस्य शक्ति |
||१८॥ महिष वाहन, कृष्ण वर्ण, तीन मुख, छ: भुजार्ये गदा-मूशल-त्रिशू-भुशंडि-वज-तोमर धारण करने वाला, योजन का विस्तीर्ण उसका आधा चौहा दिगम्बर लौह का आभूषण वाला, उर्घ्यदृष्टि याला, सर्प यज्ञोपवीत वाला निष्ठर ध्वनि कमल को छुड़ाने वाला मंत्र को सिद्ध करने वाला यम देवता रूप कृष्ण वर्ण, नपुंसक दकार की शक्ति है।
धकार :- पुलिंग कषाय वर्ण त्रिनेत्रं चतुरायुत योजन विस्तीर्ण रौनकार्य कारणं षटभुजं चक्र पाश गदाभुशंडि मुशल वज सराशऽनायुधं कष्णवर्ण कष्ण सर्प यज्ञोपवीतं जटामुकुट धारिणं हुंकार महानिनादं महाशूरं कठोरं घूम रौद्र दृष्टिः नैऋति दैवतं धकारस्य शक्तिः
॥१९॥ पुलिंग, कषाय वर्ण, तीन नेत्र और चार अयुत अर्थात ४० हजार योजन लम्बा चौडा रौद्र कार्य को करने वाला, छ: भुजाओं चक्र-पाश-गदा-भुशंडि-मूशल-वज-धनुष-बाण अस्त्रों के धारक, कृष्ण वर्ण वाला काले सर्प की यज्ञोपवीत पहिने हुवे जटाऔर मुकुट धारण करने वाला हुंकार रूप महान शब्द वाला महान शूरवीर कठोर धुए को पसन्द करने वाला रौद्र दृष्टि नैऋति देवता रूप धकार की शक्ति है।
SMSDISTRISTRISTORTOISTOTA २४ PERSPECISIOISSIODI
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CASIRISTRICISTOISIO5 विधानुशासन 9501501501501501 नकार :- कृष्ण वर्ण नपुंसकं त्रिशूल मुग्दलाशस्त्रं ऊध्य केशं व्याप्त चर्म धारिणं रौद्र दृष्टि :कठोर स्यादं कृष्ण सर्पप्रियंकाक स्वरं शत योजनोत्सेधं तद् अर्धायाम निर्यास गुगुल तिल तैल धूपप्रियं दुर्जन प्रियंरौद्रकर्म धरं यमादि दैवतं नकारस्य शक्ति
॥२०॥ कृष्ण वर्ण, नपुंसक, त्रिशूल और मुगल के शस्त्र वाला, ऊँचे उठे हुबे बालों वाला, सारे शरीर में व्याप्त है। चर्म को धारण करने वाला, रौद्रदृष्टि कठोर स्वाद काले सर्प से प्रेम करने वाला, कौवे जैसा स्वर वाला, सौ योजन ऊंचा उसके आधा चौडा बिनौले गूगन तिल का तैल और धूप को परन्द करने वाला, दुर्जन प्रिय रौद्रकर्म को धारण करने वाला यम आदि देवता रूप नकार की शक्ति है।
पकार : असित वालिग जाति नुगःधं दश सिरं विशंति भुजं अनेक आयुधं मुद्रा परं कोटि योजन विस्तीर्ण द्विगुणयामं त्रिकोटि योजन शक्तिं गरुड वाहनं पद्मासनं सर्वाभरणभूषितं सर्प यज्ञोपवीतं सर्व देवता पूजितं सर्वदैवात्मकं सर्वदुष्ट विनाशामलयानिलं चंद्रादि दैवतं पकारस्य शक्ति :
॥२१॥ कृष्णवर्ण, पुलिंग चमेली के फूल के समान, गंध दस सिर और बीस भुजायें अनेक आयुध मुद्रा में लीन, कोटि योजन चौड़ा, दुगुना लम्बा तीन करोड योजन तक जाने की शक्ति वाला, गरूड वाहन पद्मासन सब आभरणों से भूषित सर्प की यज्ञोपवीत पहिने हुवे, सब देवताओं से पूजित, सब देवों में दुष्टों के नाश करने में समर्थ चंदन की अग्नि के समान चन्द्र आदि देवता रूप पकार की शक्ति
फकार : विद्युत तेजं पुलिंगं पद्मासनं सिंह वाहनं दश कोटि योजनायामंतदर्द्ध विस्तार द्विभुजंपरशु चक्रधर केतकी गंध सिद्ध विद्याधर पूजितं मधुरं स्वादं व्याधि विष दुष्ट गृह विनाशनं सर्व महारति महादिव्य शक्ति शांति करं ऐशान्य दैवतं फकारस्य शक्ति
॥२२॥ बिजली के समान तेज वाला, पुलिंग, पद्मासन-सिंहवाहन, दश कोटि योजन लंबा उसके आधा चौड़ा दो भुजा परशु और चक्र लिए हुवे, केतकी पुष्प की गंध वाला सिद्ध विद्याधरों से पूजित मधुर स्वाद व्याधि विष और दुष्ट ग्रहों को नष्ट करने वाला, सबको अत्यन्त आनन्द देने वाला, महादिव्य शक्ति युक्त शांति कारक ईशान देवतारूप फकार की शक्ति है।
बकार इंगलिकामं दश कोटि योजनोत्सेधं तद्र्द्धविस्तारं मौक्तिकं आभरणं यज्ञोपवीतं घर दिव्याभरण भूषितं अष्टभुजं शंख चक्र गदा मूशल कांड कण शरासान तोमारायुधं हंस वाहनं कुवलायसनं बदरीफल स्वादं धन स्वरं चंपक गंधवश्या कृष्टि प्रसंग प्रियं कुबैर दैवतं बकारस्य शक्ति ॥२३॥ COSPISOISTOTRIOSITION २५ DIDIOISTOTRIBRISTOTRIES
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SCRIPTERISTOTRIOTSITE विद्यानुशासन PRICESSOROSCIES
ईगली के समान प्रभावाला, दस कोटि योजन ऊंचा उसके आधा चौड़ा लंबा, मोतियों के आभूषण और यज्ञोपीत को धारण करने वाला, दिव्य आभरणों से भूषित शंख चक्र गदामूसल कांड धनुष बाण और तोमर को लिये हुवे, अष्ट भुजा हंस वाहन, कमलासन, बोर के जैसा स्वाद वाला, बादल की गरजना के जैसा गंभीर स्वर, चम्पे की गंध वशीकरण और आकर्षण कर्म प्रिय और कुबेर देवता रूप बकार की शक्ति है।
भकार:- नपुंसकं दशसहस योजनोत्से तड़परिवृतं निष्ठरं मनसं रत्नकठोर स्वादं शीग्रगति गमन कारि उर्व मुरवं त्रिनेत्रं चर्तुभुर्ज चकं शूल गदाशक्ति घरं त्रिकोणसनं ब्यान वाहनं लोहिताक्षं तीक्ष्णं उध्वकेशं विकृत रूपं रौद्र कांति निमिषार्द्ध सरणं सिद्धिं करं नैऋति दैवतं भकारस्य शक्तिः ॥२४॥ ऋ नपुसंक दश सहस्त्र योजन ऊंचा, उसके आधा गोला घेरा वाला, निष्ठर मन वाला, रूखे और कठोर शब्द याला (स्वाद वाला) शीघ्रगति से चलने वाला उर्द्ध मुख तीन नेत्र चार भुजायें चक्रशूल गदा और शक्ति लिए हुवे त्रिकोण आसन व्याघ्र वाहन वाला लाल नेत्र वाला तीक्ष्ण ऊंचे उठे हुये केश वाला विकृत रूप याला रोद्रा कांति आधे क्षण में शरण देने वाला सिद्ध करने वाला नैऋत देवता रूप भकार की शक्ति ॥
मकार : उदिटादित्यप्रभंअनंत योजन प्रभाशक्ति सर्वव्यापि अनंत मुरवं अनंत बाहुभूम्याकाश सागर पर्यंत द्दष्टि सर्व कार्य साधक अमरी करणं दीपनं सर्वगंध माल्यानुपनं धूप चळं काक्षतप्रियं सर्वदेवता रहस्टा सर्वकरणं प्रलयाग्नि शिरिव योति सर्वनायकं पद्मासन अग्नि देवर्त मकारस्य शक्ति
॥२५॥ उदय होते हुवे सूर्य के समान क्रांति, अनंत योजन तक प्रभाव, सर्व व्यापी अनंत मुख, अनंत बाहु भूमि, आकाश और समुद्र तक द्दष्टि वाला, सर्व कार्य का साधक और दीपन करने वाला, सब गंध मालाओं और अनुलेप युक्त धूप तरू अक्षत को पसंद करने वाला अभट करने वाला सब देवताओं में रहस्य रूप काम करने वाला , सबका स्वामी पद्मासन अग्निदेवता रूप मकार की शक्ति है।
टकार :नपुंसकं भूम्याकाशदिशा विशेष सर्वव्यापी अरूपी शीय मंद गतिःयुक्तं प्रमोदं व्यभिचार कर्मप्रियं सर्वदेवताग्नि प्रलयाग्नि तीद्र ज्योति सर्वविकल्पं अनंत मुरवं अनंत बाहु सर्वगर्भ कर्तारं सर्वलोकप्रियं हरिणं वाहनं वृतासनं अंजनवर्ण महामधुरप्वनि वाराव्यं देवतं यकारस्य शक्ति
॥२६॥ नंपुसंक भूमि आकाश और सब दिशाओं में व्याप्त अरूपी शीघ्र और मंद दोनों प्रकार की गति
SSIOISTRISTR5058ISTRIA २६ PSPIDITPSSIRIDIOSDISTORY
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विद्यानुशासन
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वाला. प्रसन्नता युक्त व्यभिचार कर्मप्रिय सब देवताओं की अग्नि तथा प्रलय काल की अग्रि रूप तीव्र ज्योति वाला, अनंत मुख, अनंत बाहु वाला, सब गर्भों का कर्ता, सर्व लोकप्रिय हरिन बाहन, गोल आसन, अंजन वर्ण महामधुर ध्वनि युक्त वायव्य देवता रूप यकार की शक्ति है।
॥ २७ ॥
रकार :- नपुंसकं सर्वव्यापी द्वादशादित्य प्रभंज्वाला मालं कोटि योजन धुतिं सर्व लोक कर्तारं सर्वहोम प्रियं रौद्रं शक्तिं स्त्रीणं पंच सायकं पर विद्याछेदनं आत्म कर्म साधनं स्तंभन मोहनकर्तारं जंबुद्वीपविस्तारं मेषवाहनं त्रिकोणासनं अग्निदैवतंस्कारस्य शक्ति नपुंसक, सर्वव्यापी, बारह सूर्यो के समान प्रभा युक्त अग्नि स्वरूप, कोटि योजन तक कांति वाला सब लोकों का कर्ता, सर्व होम प्रिय रौद्र शक्ति स्त्रियों के लिए पांच बाण, दूसरे की विद्या का नाशक अपने कर्म का साधक, स्तंभन और मोहन करने वाला, जंबू द्वीप प्रमाण विस्तृत, मेंढे के वाहन वाला त्रिकोण आसन, अग्नि देवता रूप रकार की शक्ति है ।
लकार:- पीतवर्णं चतुर्भुजं वज्र चक्रं शूल गदा युधं गजवाहनं स्तंभन मोहन कर्तारं जंबूद्वीप विस्तारं मंदगतिप्रियं महात्मानं लोकालोक पूजितं सर्वजीव धारिणं चतुरस्त्रासनं पृथ्वी जयं इन्द्र दैवतं लकारस्य शक्ति
॥ २८ ॥
पीत वर्ण, वज्र शूल, चक्र और गदा के लिए हुवे चार भुजायें हस्ती वाहन स्तंभन और मोहन करने वाला, जबूद्वीप प्रमाण विस्तृत मंदगति को पसन्द करने वाला, महात्माओं लोक और अलोक से पूजित सब जीवधारी रूप चोखदा आसन पृथ्वी को जीतने वाला इन्द्र देवता रूप लकार की शक्ति है।
वकार :- श्वेतवर्ण बिन्दु सहितं मधुर क्षारं रसं विकल्पे न नपुंसकं मकरवाहनं पद्मासनं वश्याकर्षण निर्विषं शांतिकरं वरुणादि दैवतं वकारस्य शक्ति ॥ २९ ॥ श्वेतवर्ण बिन्दु अनुस्वार सहितं मधुर और खारा स्वादा वाला, विकल्प से कर्म का नपुंसक मकर वाहन वाला, पद्मासन वश्य आकर्षण निर्विष और शांति कर्मों का करने वाला, वरुणादि देवता रूप वकार की शक्ति है।
शकार :- रक्त वर्णं दश सहस्त्र योजन विस्तीर्ण तद् अर्द्ध परिणाहं चंदन गंध मधुरस्वादं मधुर रसं चक्रवा का रूढं कुवलयासनं चतुर्भुजं शंख चक्र फल पद्म हस्तं प्रसन्न दृष्टि सुमनसं सुगंध धूप प्रियं रक्त हारं शोभना भरणं जटामुकुटधारिणं वश्याकर्षण शौतिक पौष्टिक कर्तारं उदितोदित विद्याधरं चन्द्रादि दैवतं शकारस्य शक्ति || 30 ||
959595959PSA २७ PS9595959595 PS25P:
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952525252525 Rangnica 959595952525
शः रक्त वर्ण दस सहस्र योजन लम्बा उसके आधा चौड़ा. चंदन की गंध, मधुर स्वाद, मधुर रस, चकवे पर चढे हुवे कमल सम शंख, चक्र फल और पद्म लिये हुवे चार भुजाये, प्रसन्न द्दष्टि, अच्छे मनवाला सुंगधित धूप को पसन्द करने वाला, लाल हार, सुन्दर आभरण तथा जटाधारी मुकुट पहिने हुवे वश्य आकर्षण शक्ति और पौष्टिककर्मों का कर्ता, अत्यंत प्रकाशित विद्या को धारण करने वाला, चन्द्र आदि देवता रूप शकार की शक्ति है।
यकार :- पुलिंगं मयुर शिख वर्ण द्विभुजं फण चक्र धारिणं प्रसन्न दृष्टिः शत सहस्त्र योजना यामं तद् अर्द्ध परिणाहं आम्लरसं शील गंधं कूर्मासनं कूर्म वाहनं दृष्टि प्रियं सर्वाभरणभूषितं स्तंभन मोहन कारिणं इन्द्रादि देवतं षकारस्य शक्तिः ॥ ३१ ॥ पुल्लिंग, मोर की शिखा के समान वर्ण फल और चक्र लिए हुवे दो भुजायें, प्रसन्न द्दष्टि एक लाख योजन लंबा इसका आधा चौड़ा, खट्टा रस, सुन्दर गंध कूम्र्म्मासन, कूर्मवाहन प्रसन्न द्दष्टि सब आचरणों से भूषित स्तंभन और मोहन कारक इन्द्र आदि देवता रूप षकार की शक्ति है।
सकार :- पुलिंगं श्वेत वर्णं चतुर्भुजं वज्र चक्र शंरय गदा आयुधं शत सहस्त्र योजन प्रमाणं मधुर स्वरं मौक्तिक वज्र वैडूर्य भूषणं सुगंध माल्यानुलेपनं शितांबर प्रियं सर्वकर्म कर्त्तारं सर्वमंत्रगण पूजितं महा मुकुट धारिणं वश्याकर्षण कर्तारं प्रसन्न द्दष्ट हंसवाहनं कुबैर दैवतं सकारस्य शक्तिः ॥ ३२ ॥
सकार :- पुल्लिंग श्वेत वर्ण वज्र चक्र शंख गदा लिये हुवे चार भुजायें एक लाख योजन प्रमाण मधुर स्वर हीरे मोती और वैडूर्य के आभूषण पहिने हुवे सुंगधित माला और अनुलेप युक्त श्वेत वस्त्र प्रिय सब कर्मों का कर्ता सब मंत्र से पूजित महामकुटधारी वश्य और आकर्षण के कर्ता प्रसन्न दृष्टि हंस वाहन कुबेर देवता रूप सकार की शक्ति है ।
हकार :- नपुंसकं सर्वव्यापि सित वर्णं सित गंध प्रियं सितमाल्यानुलेपन सितांबर प्रियं सर्वकर्म कर्तारं सर्वमंत्राग्र सर्वदेवता पूजितं महाद्युतिं अनेक मुद्रा आयुध युक्ति सपन्नं अचिन्त्य गति मनस्थापि विजयं चिंतित मनोरथं विकल्पं सर्वदेव महा कृष्टित्वं अतीतानागत वर्तमान त्रैलोक्य काल दर्शन सर्वश्र्यादिदैवतं हकारस्य शक्ति ॥ ३३ ॥
हकार :- नपंसुक, सर्वव्यापी, श्वेतवर्ण, श्वेत गंध, प्रिय श्वेतमाला और अनुलेप युक्त श्वेत वस्त्र प्रिय सर्वकर्मों के कर्ता, सर्व मंत्रो में प्रधान सर्व देवताओं से पूजित महान कांति वाले अनेक मुद्राओं शस्त्र तथा युक्तियों से युक्त अचिंत्य गति वाले स्थायी न रहने वाले, विजय करने वाले चिंतित
959595959SP २८ 9595959519
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CTECISISTRISTOTRIRIT विधानुशासन 985105501510051050ISS मनोस्य रूप सब महान देवों काआकर्षण करने वाले भूत, भविष्य और वर्तमान तीन काल और तीनों लोकों को देखने वाले सब लक्ष्मी आदि देवता रूप हकार की शक्ति है।
क्षकार :- पुल्लिंग, पीत वर्ण, जंबूदीपो ध्यायं प्टोयम संख्यात द्वीप समुद्र व्याप्टोक मुरवं मरुद्गांभीर्याष्ट बाहुं बज पाश मूशल भुसंडि भिंडपाल गदाशंक चक्र हस्तं गजबाहनं चतुरसासनं सर्वाभरण भूषितं जटामुकुटधारिणं सर्व लोकपूजितं स्तंभनं सुगंधमाल्य प्रियं सर्वरक्षा करं सर्वप्रिटां काल ज्ञान महेश्वरं सकलमंत्रपियं रूद्राग्नि देवपूजितं क्षकारस्य शक्ति
॥३४॥ क्षकार :- पुलिग, पोत वर्ण, जॉप के समान ध्यान करने योग्य असंख्यात द्वीप और समुद्रों से व्यापी एक मुख वाला, वायु के समान गंभीर वज़ पाश-मूशल, भुसुंड, भिंडपाल, गदाशंखचक्र लिए आठ भुजायें गज वाहन चोखूटा आसन, सब आभरणों से भूषित जटा और मुकुट के धारक सब लोकों से पूजित, स्तंभन रूप सुगंधमालाओं को पसंद करने वाले, सबकी रक्षा करने वाले, सर्वप्रिय सबकाल के ज्ञान वाले, माहेश्वर सब मंत्रों को पसंद करने वाले, इन्द्र और अग्नि देवता से पूजित क्षकार की शक्ति है।
वर्ण
देम
अक्षरों की शक्ति की तालिका अकार से लेकर हकार पर्यन्त एक एक अक्षर का लक्षण स्वरूप आदि क्रं अक्षर अक्षरों की शक्ति व कार्य लिंग १. अकारस्य अतीव बली, गंभीर
हेमवर्ण २. आकारस्य महाद्युति कारक
स्त्री श्वेत ३. इकारस्य मन्द स्वर, क्षत्रिय ४. ईकारस्य दिव्य शक्ति कारक
श्वेत उकारस्य वश्याकर्षणकारक
घूम्र ऊकारस्य फल शूलधर
रक्त ऋकारस्य सर्वविघ्न विनाशक ऋकार
कपिल लकार संर्वविघ्नकारी
पीत १०. लकार उच्चाटन कारक क्षत्रिय
पीत ११. एकार शुभकारक १२. ऐकार वश्याकर्षण शक्ति
अग्नि
EEEEEEE
व्यभिचार मोहन
SASCISIODOISISISIOTSITE २९ PERSIDASIRISTRISTOISIOIST
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959595959
१३. ओकार
१४. ओंकार
१५. अंकार
१६. अः कार
१७. ककार
१८.
खकार
१९. गकार
२०. घकार
२१. डकार
२२. चकार
२३. छकार
२४. जकार
२५. झकार
२६. ञकार
२७. टकार
२८. ठकार
२९.
डकार
३०. ढकार
३१. णकार
३२. तकार
३३. थकार
३४. दकार
३५.
धकार
नकार
पकार
३६.
३७.
विद्यानुशासन 95959599
सर्वमंत्र, संसाधन, पंचाक्षर गर्भित तप्तकांचन
स्तंभन शक्ति
प्रसन्न, अतिमधुर
शुभ कर्म शासन
स्तंभन, शांतिक, पौष्टिक, याकर्षणकारी चिंतित मनोरथकारी
पीत
श्वेत
नपुं
नपुं.
पुं.
सर्वशान्तिकर क्षत्रिय
उच्चाटन, छेदन, मोहन, स्तंभनकारी,
सर्वशान्ति कर महाशक्ति क्षत्रिय नपुं.
दुष्ट स्वर, दुर्दष्टि
नपुं.
सुस्वर, सुमनप्रिय ब्राह्मण
आकर्षणादि रौद्रकर्म कारक सर्वकार्य सिद्धिकारक
वश्याकर्षण सत्यावादी
धर्म-अर्थ-काम-मोक्षकारी, सत्यवादी, वश्याकर्षणकारी
पुं.
महाक्रूरस्वर, सर्वजीव भयंकर
मृदुस्वर
पुं.
रक्षा, स्तम्भन, मोहन, कार्यसिद्धिकर क्षत्रिय रक्षा स्तम्भन मोहनकारी, शुभस्वी
दुष्ट निग्रह, शिष्ट प्रतिपालन, रूद्रशक्ति,
वश्याकर्षण
शापानुग्रहकारी चन्द्रादि देवता पूजित
सर्व कामादि
रौद्रदृष्टि, रौद्रकर्म
सर्वदुष्ट विनाशक
नपुं.
निष्ठुरध्वनि, मरकरन्दुन्मोक्षण, मंत्रसाधन नपुं. रौद्रकार्यकारक, रौद्रदृष्टि
PSPSPSPSPSPSPA ३० PSP
धूम्र
पीत
धूम्र
?
श्वेत
श्याम
पीत
कृष्ण
कपिल
शंख
रक्त
कृष्ण
कृष्ण कषाय
कृष्ण
P59595
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252525252595_fangenaa_952525252525
विधानुशासन
व्याधि, विष, दुष्टग्रह विनाशक, महादिव्यशक्ति, शालिकर वश्याकृष्टि प्रसंगप्रिय विकृतरूप, रौद्रकान्ति, सिद्धिकर अनन्त योजन प्रभाशक्ति, सर्वव्यापि, सर्वसाधक
व्यभिचार कर्मप्रिय, सर्वगर्भकर्तारं, सर्वलोक प्रिय नपुं. सर्वहोमप्रिय, रौद्रशक्ति, परविद्याछेदक, आत्मकर्मसाधक, स्तंभनादिक कर्मकर नपुं. स्तम्भन, मोहनकारक, सर्वजीव धारक, वश्याकर्षण, निर्विष, शान्तिकारक श्याकर्षण, शान्तिक, पौष्टिक कर्ता स्तम्भन, मोहनकारी
पुं.
सर्वकर्म कर्ता वश्याकर्षण कर्ता पुं. सर्वव्यापि, सर्वकर्मकर्ता, सर्वमंत्राग्रणी मनः स्थायी विजय, चिन्तित मनोरथ साधक, त्रिकाल, त्रिलोक दर्शक सर्वरक्षाकर, सर्वप्रिय, सर्वकाल ज्ञान महीश्वर, सकल मंत्रप्रिय
नपुं.
पुं.
द्वितीय वर्ग
श्वेताक्षरं धनार्थ :- पीताक्षरमाकृष्टि स्तंभन मोहनाथ हरिताक्षरं कृष्णांक्षरं च व्यभिचार करें तत स्तत त्कर्म करोति ॥
श्वेत अक्षय धन के लिए, पीत अक्षर आकर्षण स्तंभन और मोहन के लिए हरा और काला अक्षर व्यभिचार करने वाला होता है। यह अपने अपने कार्यो को करते हैं।
३८. फकार
३९. बकार
४०. भकार
४१. मकार
४२. यकार
४३. रकार
४४. लकार
४५. वकार
४६. शकार
४७. चकार
४८. सकार
४९. हकार
५०. क्षकार
इगुंल
उदयार्क
अरूपी
आदित्य
पीत
श्वेत
रक्त
नील, मतांतरसे पीत
श्वेत
पीत
ई ऊ वरुणं स्त्रीऋ ऋ लृ ङ ण न म पदा ए ऐ उ ऊ विकल्पेन स्त्री नाम करोति जयमा विल्पेनषंदा: शेषाक्षराणि पुमांसः
95961969599597 ३१ 959695969
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eeeeps &&zwgfeeටටටටක් इऊ वर्ण स्त्रिलिंग हे ऋऋ ल ल मुजाण न म पद ए ऐ उ ऊ यह विकल्प से स्त्रिलिंग है जय और म विकल्प से नपुसंक अक्षर कहे जाते गये हैं। शेष अक्षर पुल्लिंग है।
गण नाम इते त्रिधा ता:भ्रम विकल्पेन प्रयोजनमिति इस प्रकार अक्षरों के तीन प्रकार के गण कहे नाम का विकल्प से प्रयोग करना चाहिए। इसप्रकार नपुंसक अक्षर कहे गये हैं।
इषल लऊ रेवं पीताक्षरं = ईष ल ल औ ऊ नपुंसक और पीत अक्षर हैऋऋ ष
ण य द दाक्ष रा संभाविक कच्छं विकल्प स्टाभेदानि । कार्यकारण संबंध स्यान्या सर्याक्षरास्तिल तंदुल मिश्रवत्तिष्टंति ऋऋ ष ण य दक्ष और र कठिन भेद और कार्य कारण संबंधवाले कार्यों को करते हैं। शेष अक्षर मिले हुवे तिल और चावलों के समान रहते हैं।
बुद्धि मनुष्यता मात्रा मंत्र वत् कार्य। मंत्र को जानने वाला मनुष्यता की विशेषता बुद्धि से सब काम ले ।
अकारो आकारस्य प्रतिषेधकाःबिन्दुसर्वसंहिताःशांतिकंपौष्टिकंवश्याकर्षणानि करोति॥ अकार आकार का प्रतिषेधक है अकार बिन्दु सहित होने पर शांतिक पौष्टिक वश्य और आकर्षण कर्मो को करता है। उ ऋ ऋ ए ऐ ओ निर्विष व्यभिचारं करोति अंकारः सर्वोच्चाटनं करोति उ ऊ ऋ ऋ ए ऐ और आं निर्विष कर्म तथा व्यभिवार करते हैं अंकार सब का उच्चाटन करता है।
रखकारो निर्विषं विकल्पेन वश्यं करोति। यकारों वश्यं करोति विकल्पेन/ स्तंभन/ भेदन व्यभिचार कर्माणि करोति। सकार निर्विष कर्म को य विकल्प से वशीकरण करता है।धकार वशीकरण किन्तु विकल्प से स्तंभन भेदन और व्यभिचार कर्म को भी करता है।
चछकार :- शांतिकं पौष्टिकं करोति विकल्पेन भेदनं व्यभिचारं करोति चकार और छकार शांतिक पौष्टिक को करता है और विकल्प से भेदन और व्यभिचार को भी करता है। प्रकर्ण ।।
SSCISIOTSICISESRISTORI ३२ DISTRISCISIODIOSEXSEISS
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0505501501505 विद्यानुशासन 95IOSISTSIOSIO15015
ज झ कारो निर्विषं करोति विकल्पेन व्यभिचारो करोति ज झ कारो निर्विष करता है और विकल्प से व्यभिचार को भी करता है।
यकारे आकष्टिं विकल्पेन व्यभिचार करोति । टकार:- वश्य व्यभिचारं करोति कार आकर्षण को किन्तु विकल्प से व्यभिचार को भी करता है । टकार वश्य और व्यभिचार को करता है। __णकारो व्यभिचारं करोति - तथकार : शांतिकं पौष्टिकं करोति एकार व्यभिचार करता है। तया शांति और पुष्टि करता है।
दध कारों व्यभिचारं करोति नकारो व्यभिचारं करोति द ध व्यभिचार करता है, न व्यभिचार करता है।
प फ कारः शांतिकं पौष्टिकं करोति ब भकारः स्तोभ स्तंभनं करोति प और फ शांतिक और पौष्टिक करता है। ब म स्तोभ और स्तंभन करता है |
मकार :सर्वकर्म विकल्पेन सर्व सिद्धि करोति। यकार:- सर्वभिचार कर्म विकल्पेन आकृष्टिं करोति।। लकारः स्तंभन मोहन वशीकरणं विकल्पेन निर्विों करणं वकारो निर्विषं करोति॥ . म सब कर्मो को और विकल्प से सब सिद्धि को करता है। य सब व्यभिचार के कर्म और विकल्प से आकर्षण करता है । ल स्तंभन वशीकरण मोहन तथा विकल्प से निर्विष करता है व निर्विष करता है।
शकार : शांति पौष्टिक वश्या कृष्टिं षकारः स्तंभन मोहनं सकारो वाचा सिद्धिं करोति श शांतिक पौष्टिक वश्य और आकर्षण करता है ष स्तंभन और मोहन करता है स वाणी को सिद्ध करता है। हकारः सर्वकर्म करोति क्षकार: सर्वयोगाक्षरं मंत्रिणा अक्षरं प्रति प्रयत्न सर्व
कर्तव्यं । ह सब कार्य करता है। क्ष सब योगों को करने वाला अक्षर है। मंत्री को अक्षर के प्रति सभी प्रयत्न करना चाहिए।
इति तृतीय प्रकरणं SADRISTOTRIOTICIPIERRISTRA ३३ PISTORSCISSISTICS25505
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9501510651935125 विधानुशासन 265015015015015015
अह हा हि ही हुहूह हह हहे है हो होहं हः इति षोडशाक्षरै बीजैः परस्परं सहितं एषामक्षर बंध सहितं कर्म। अर्ह ह हा हि ही हु हू ह ह हहे ही हं हः इन सोलह बीजों से अदारों को बांधने का कर्म होता है।
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः एषाक्षरै विकल्पैनान्योन्य स्य निरोधं। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन अक्षरों से विकल्प से एक दूसरे का निरोप होता है।
(स्वा) वाटा व्यावर माग्नेयाक्षरं मित्रं
(स्वा) यायव्याक्षरमा काशाक्षरह:पास्थर शभु स्वा (वायव्य)और रं (अग्नि) अक्षर परस्पर मित्र होते है। (स्वा) वायव्य और हं (आकाश) परस्पर शत्रु है। .
पृथिव्य क्षर (क्षि) म पक्ष र मित्रं पीताक्षर रक्ताक्षरं परस्परं संबद्धं ति (पृथ्वी) प (जल) मित्र होते है। पीताक्षर और लाल अक्षर एक दूसरे के संबंधी है।
कृष्णाक्षर हरिता अक्षर संबध स्वेताक्षरमात्म संबध काले अक्षर और हरे अक्षर एक दूसरे के संबंधी हैं श्वेत, अक्षर का अपनी ही संबंध होता है।
व्याक्षर पुलिंगाक्षरं मित्रं नपुंसकाक्षरमुदासीनं स्त्री अक्षर और पुलिंग अक्षर मित्र होते हैं और नपुंसक अक्षर उदासीन होते है।
- ज क ग ल ल ए ऐ अभक्ष संबधं च उ एकार संबधं चशकार संबधं ज क ग ल ल ए ऐ अभक्ष संबंध होता है। और उ ए का संबंध है और श का संबंध है ।
ऋय र ण म अतत्संबंध विकल्पेन संयोगसंबंध
स्य पछझट धफव प्रसंबंधशेषअक्षर मुदासीनं ऋऋ य रण और म का संबंध नहीं होता है विकल्प से संयोग संबंध हो जाता है ख ध छ झ ठय फ व का और प्रकार संबंध होता है। शेष अक्षर उदासीन रहते है।
आधाराक्षरै ज्जालयान् आधारावर संयुक्तं चयोक्षरै बलीयान् आधार अदारों से आधार अक्षरों को मिलाकर जल बनाये उनमें जो अक्षर बलवान हो उसी से मिलावे।
CSCTERISCISIOSDISOR ३४ DISCIROIROIDS50505
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PSPSSSPA विधानुशासन 153)
कृष्णाक्षरं सर्व शकरं न कार्य विनाशयंति संबंधि विकल्पनोर्द्धाधोक्षर भाषाक्षरैराकर्षण मुच्चाटनं करोति ॥
कृष्णाक्षर सब से सुख देते है । वह मिलाये जाने से कार्य को नष्ट नहीं करते उर्द्ध अक्षर और अधः अक्षर भाषा अक्षरों के साथ विकल्प से आकर्षण और उच्चाटन करते हैं।
अव्याक्षरं स्तंभन प्रतिषेधं अधोरक्षर विकल्पेन सर्वकर्म करोति । प्रतिषेध कार्य रहित निर्विषाक्षरं विसर्गरहितं वश्यम मे वच ॥
अव्यय अक्षर स्तंभन और प्रतिषेध करते है । अधः अक्षर विकल्प से सब काम करते हैं, निर्विष अक्षर प्रतिषेध कार्य को नहीं करता विसर्ग रहित वशीकरण को ही करता है।
तच्चतुस्त्रिंशधोरक्षरै: षोडशाक्षरः सर्वकर्म करोति । एकैकाक्षरं षोडशा मंत्रयंत्राणि भवंति ॥
25PSPS
चौबीस योगाक्षर और सोलह स्वर अक्षर सभी कर्म कर लेते हैं। एक एक अक्षर के सोलह मंत्र और यंत्र होते हैं ।
क्रिया कारक संबंधि पंचाशत चतुरोत्तर चत्वारिशन्मत्रं यंत्राणि भवंति मंत्र व्याकर्णे चतुर्थ प्रकर्ण क्रियाकारक से संबंध से पचास तथा ४४ चौवालीस मंत्र और यंत्र बनते हैं।
बीजाक्षर सामर्थ्यं
ह्रीं अं ह्रीं मृत्यु नाशनं ह्रीं आं ह्रीं आकर्षणं
ह्रीं ई ह्रीं पुष्टि करं ह्रीं ई ह्रीं आकर्षणं
ह्रीं ह्रीं बलकरं
ह्रीं ऊं ह्रीं उच्चाटनं -
श्री क्षोभनं श्री मोहनं लं विद्वेषणं लृ उच्चाटनं एं वश्यं ऎ पुरुष वश्यं ओ लोक वश्यं औ राज्य वश्यं अंगज वश्यं अः मृत्यु नाशनं ॥
ह्रीं मृत्यु नाशक है। ह्रीं आं ह्रीं आकर्षण, ह्रीं इ ह्रीं पुष्टिं कर्षण, ह्रीं ई ह्रीं आकर्षण, ह्रीं ॐ ह्रीं बल करने वाला, ह्रीं ह्रीं उच्चाटन, ॠ शोभनं ॠ मोहनं, लूं विद्वेषण, लूं उच्चाटनं, एं वश्य पुरुष वश्य ऐ लोक वश्य औं राज्य वश्य अं हस्ति वश्य अः मृत्यु नाशन है।
95%
PSPSPA ३५ P596959595Pas
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PSPSP596
विधानुशासन 959595959595
के विषबीजं वं स्तोभनं गं गणपति घं स्तभनं डं असुरं वं सुर बीजं छं लाभ मृत्युनाशनं च जं ब्रह्म राक्षस जं मृत्युनाशनं झ चन्द्र बीजं काम्यादयः धर्मार्थकाम मोक्षराज वश्याकर्षणं चं - य मोहनं - टं क्षोभणं चित्र करलंक कारि- ठं तन्द्र बीजं विष मृत्यु नाशनं डं गरुड बीजं - विषनाशनं च ढं कुबेर बीजं उत्तारभिमुखं स्थित्वा चतुर्लक्ष जपात्सिद्ध धन धान्य समृद्धि शंख निधि पद्म निधिं च करोति ।
-
कं विष बीज - खं स्तोभन गं गणपति - घं स्तंभन - डं असुर बीज चं सुर बीज छं लाभ और मृत्यु नाशन है- जं ब्रह्म राक्षस जं मृत्यु नाशन झं चन्द्र बीज है यह काम्य आदि धर्म अर्थ काम मोक्ष को देते है और राज्य को यश्य और आकर्षण करता है। ञं मोहन -टं क्षोभण और चित्त को कलंक कारी है। ढं चन्द्र बीज है विष बीज है और मृत्यु नाशन है। डं गरुडबीज है और विष नाशन हैदं कुबेर बीज है इसको उत्तर की तरफ मुख करके चार लाख जपने से सिद्ध होती है। यह धन धान्य की समृद्धि शंख और पद्म निधि को देता है।
असुरं बीजं त्रिलक्ष जपात्सिद्धिं तं अष्ट वसुधा बीजं जपात् धन धान्य समृद्धिः य यमराज बीजं मृत्यु भय नाशनं दं दुर्गाबीजं वश्यपुष्टिकरं धं सूर्यबीजं जय सुरव करं न ज्वर बीजं ज्वर देवता बीजदं पं वीर भद्र बीजं सर्वविघ्न विनाशनं- फं विष्णु बीजं धन धान्य वर्द्धनं बं ब्रह्म बीजं वातपित्त श्लेष्म रोग नाशनं भं भद्रकाली बीजं भूतप्रेत पिशाच भयोच्चटानं मं मालाग्नि रूद्रबीजं स्तोनं मोहन विद्वेषण करें: भूतप्रेत पिशाचावा ह्वाननं अष्ट महासिद्धि करं यं वायु बीजं उच्चाटनं रं आग्रेय बीजं अग्र बीजं उग्र कर्म कार्य कर्तु
णं असुर बीज है यह तीन लाख जपने से सिद्ध होता है। तं अष्ट वसुधा पृथ्वी बीज है इसको जपने से धन धान्य की समृद्धि होती है। यं यमराज बीज है- यह मृत्यु भय नाशक है। दं दुर्गा बीज है यह वश्य पुष्टि करते है। घं सूर्य बीजं है- जय सुख कर रहे है। नं ज्वर बीज ज्वर देवता का है। वीरभद्र बीजं सर्व विघ्न विनाश कहे है फं विष्णु बीज है। धन धान्य यर्द्धक है। बं ब्रह्म राक्षस बीजं है। वातपित्त कफ रोग का नाशक है। भं भद्रकाली बीज भूत प्रेत और पिशाच के भय कर्ता उच्चाटन करता है। मं मालाग्निरुद्र बीज है। स्तोभन मोहन विद्वेषण करने वाला भूतप्रेत और पिशाच आदि का आवन करता है और अष्ट महासिद्धि को देता है। यं वायू बीज है उच्चाटन करता है रं अग्नि बीज उस आदि कर्मों को करता है।
इन्द्र बीजं धनधान्य सपंत्करं वरुण बीजं विष मृत्यु नाशनं : शंलक्ष्मी बीजं लक्षजपात श्री करं षं सूर्यबीजं धर्मार्थ काम मोक्ष करं सं वागीशं ज्ञानं करं वाचां सिद्ध करं हं शिव बीजं दश सहस्रजपात्कार्या भिद्धिः
-
959596959PPA ३६ 959599695695935
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959595969 Poe *
विद्यानुशासन 9595959595
लं इन्द्र बीज है धनधान्य संपत्ति का कर्ता है वं वरूण बीज है विष मृत्यु नाशन हैः शं लक्ष्मी बीज है इसको एक लाख जपने से लक्ष्मी मिलती है। षं सूर्यबीज है यह धर्म अर्थ काम और मोक्ष को भी देता है। सं बागीश बीज है ज्ञान करता है और वाणी सिद्ध करता है। हं शिव बीज है इसको दस हजार जपने से कार्य सिद्ध होता है।
लंभू बीजं भूलाभं क्षं सिंह बीजं दश सहस्र जपात्मृत्यु नाशनं एतानि अक्षरानि पृथक-पृथक साध्यं ह्रीं कार मध्ये आकारमादिं कृत्वा क्षकर पर्यंतं लिखित्वा अक्षरमणिं स्थापयित्वा जपेत् क्रियमाणे सर्वकार्य सिद्धि र्भवति ॥ लं भू बीज है भू लाभ कराने वाला है । दक्षं नृसिंह बीज है । इसको दसहजार जपने से मृत्यु का नाश करता है । इन अक्षरों को सिद्धि पृथक पृथक की जाती है । ह्रींकार के बीच में अकार आदि में लेकर कार तक अक्षरों की मणि माला की स्थापना करके जप करने से सब कार्यों की सिद्धि होती है।
॥ पंचम वर्ग ॥ अथ बांज कोश:
तेजो भक्तिः विनयः प्रणव ब्रह्म प्रदीप यामाश्च वेदो
अब्ज दहन ध्रुव मादि धुंभि रोमिति ख्यातः
॥ १ ॥
तेज भक्ति विनय प्रणव ब्रह्म प्रदीप वामा वेद अब्ज दहन ध्रुव आदि और छुः ईं के नाम हैं ।
माया तत्वं शक्ति लॉकेशो ह्रीं त्रिमूर्ति बीजैशौ कूटाक्षरं क्षकार मलवरयूंपिंड मष्ट मूर्तिवा
माया, तत्व, शक्ति, लोकेश त्रिमूर्ति (त्रयमधर) बीजेश ह्रीं के नाम है । क्ष कूट मत्वर्यू पिंट अष्ट मूर्ति है ।
बाणा: पंच द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः इति ठ वर्ण मरिवलेन्दुः सकलचन्द्र बीज संज्ञा ठः वर्णाः वीं क्ष्वीं हंसः सुरभि मुद्रोक्षर मथवा वागभवैश्चैवः
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः काम के पांच बाण है-ठ अखिलेन्दु पूर्ण चन्द्र इवीं देवीं हंस सुरभि मुद्रा अक्षर और वाग्भव
बीज है।
क्षिप उ स्वाहा बीज क्षिति जल दहना निलांबरं क्रमशः खगपति पंचाक्षर मिति आपाशं तक्षशां चस्यात्
959595959PPA ३७ PSP5951 P/50/505
॥ ४ ॥
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CASIOISTOISIOSDIS05 विधानुशासन 9450150510151015015 क्षि पृथ्वी-पजल ई अग्नि-वायू हा आकाश -क्षिपउँ स्वाहा खगपति पंक्षाक्षर आं पाशं दिसा तक्ष शां होता है।
खगपति गरूडस्य पंच अक्षरानि पाश बीजमामर्यादिकत्य आँ पंचतत्व दिशां च स्युक्षिपात वः ॥
ईकारः श्री श्च लक्ष्मी स्यात स्वीं मिंद क्वीं सुधाक्षर
को मंकुशं क्लीं मनंग बीजं क्ष्म पीठमक्षरं ई श्री लक्ष्मी इवी इन्दु दयीं सुधाअक्षर -क्रों अंकुश क्लीं अनंग बीजक्ष्मं पीठ अदार होता है।
स्वाहेति होम संज्ञं स्यात् इवीं मिंदु क्ष्वी सुधक्षरं
वं सुधां संज्ञकं हंसः निर्विषीकरणं स्मृतं स्वाहा होम संज्ञक है। दलें क्लीं रल युग्मक, वं सुधा, हंसाः निर्विष बीज है। ..
॥६॥
रखः स्यादं चाक्षरं प्रोक्तं हतौ महाशक्ति बीजक हाः निरोधनं बीजं च ठः स्तंभाद्वय मक्षरं
॥७॥ खः खाद बीजः हसौं महाशक्ति बीज हा निरोधन बीज ठः ठः स्तंभन बीज दोनों अक्षर हैं।
है जैनं सकलारव्यं च ब्लें विमल पिंडकं आकर्षणाक्षरं ज्ञेयं ग्लौं च स्तंभनं स्मृतं
॥८॥ ह जैन बीज सकलाख्य का बीज है ब्लें विमल पिंड है आकर्षण करने वाले बीज हैं। ग्लौं स्तंभन बीज है
सृष्टि विसर्जनं जं अं विद्वेषं जूं च हूं मपि ब्लू द्रावण मिति प्रोक्तं चलनं य स्तथा चलः
॥९॥ जं अं सृष्टि विसर्जन बील-जूं हूं विद्वेष बीज-ब्लू दावण यः चलनं और अचल बीज भी
हामादि पंचकं शून्यं लं इन्द्राक्षर संज्ञकं
ये युगं वधबीजं स्यात् द्रां द्रीं च द्रावण व्यकं । ॥१०॥ हां ही हूं ह्रौ है: पंध शून्य बीज है। लं एन्द्र बीज है घे घे वध बीज है द्रा द्रीं द्रावण बीज है।
हकारं शब्दकं शून्य नमः शोधनमर्चनं
जपं च कुदिऽकलं परं सिद्ध समाव्हये ह शब्द शून्य नमः शोधन अर्चन अपर सिद्ध इनका जप करना चाहिए।
॥११॥
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STERIDDICTICISIOTE विद्यानुशासन ISISTERTAICTION
पंचम प्रकरण (बीजाक्षरों की सामर्थ्य की तालिका) बीजाक्षर बीजाक्षरों के कार्य ह्रीं अंह्रीं मृत्युनाशन ह्रीं ह्रीं आकर्षण ह्रीं इंहीं पुष्टिकर ह्रीं ई ह्रीं आकर्षण ह्रीं ह्रीं बलकारक ह्रीं ॐ ह्रीं उच्चाटन
क्षोभणं मोहनं विद्वेषण उच्चाटन वश्य पुरुष वश्य नोकवश्य राजा वश्य हस्ति वश्य मृत्यु नाशन विष बीज स्तोभन गणपति स्तम्भन असुर सुरबीज लोभ और मृत्युनाशन ब्रह्मराक्षस और मृत्युनाशन चन्द्र बीज, काम्य और धर्म-अर्थ-काम- मोक्ष को देता है राज्य वश और आकर्षण कारक मोहन क्षोभन और चित्र कलंककारि
而币对河亡节词讲时研亦母訂矿产过访可可可寸
SADEISTOISITOISTOIEICIRROR ३९ PIRRISPECISIOTISTRICIST
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CASTOTRICISTOREDICTIOTE विद्यानुशाशन CIDEOSTOISTOTRICIATIONS
चन्द्र बीज विष मृत्यु गरूड बीज, विषनाशक कुबेर बीज, उत्तराभिमुख होकर चार लाख जप से सिद्ध होता है। धन धान्य समृद्धि, शंख और पद्मनिधि को करने वाला असुर बीज और तीन लाख जप से सिद्ध होता है। अष्ट वसुधा बीज, जपात् धन धान्य समृद्धि कारक यमराज नी मृत्युनाशनम् दुर्गा बीज, सत्य पुष्टिकारक सूर्य बीजं, जय-सुखकरं ज्वर बीजं, स्वर देवता वीरभद्र बीज, सूर्य विघ्न विनाशनं फं विष्णु बीज, धन-धान्य वर्द्धक ब्रह्म बीज, वात-पित्त-कफ श्लेष्म नाशक भद्रकाली बीज, भूत-प्रेत-पिशाचभयोच्चाटन मालाग्नि रूद्र बीज, स्तोभन, मोहन, विद्वेषण करं भूत-प्रेत पिशाचाद्याहाननं अष्ट महासिद्धिकरं वायु बीजं, उच्चाटनं आग्नेय बीजं, उग्रकर्म कार्यकारक इन्द्रबीजं धनधान्य सम्पत्करं ऋणबीजं, विष-मृत्यु नाशनं लक्ष्मी ब्रीजं, एक लाख जप से श्री कारक सर्यबीजं. धर्मार्थकाम-मोक्ष कारक वागीशं ज्ञानकारक-बचन सिद्धि कारक शिवबीज, दस हजार जप से कार्य सिद्ध भूबीज-भूलाभकर
नृसिंह बीज, दस हजार जप से मृत्युनाश होता है। नोटः इन अक्षरों की सिद्धि पृथक पृथक की जाती है।हींकार को मध्य में और अकारादि'क्ष'पर्यन्त अक्षरों को लिखकर उनमें अक्षरों की मणिरूप स्थापन कर उनमें जप करने पर सह कार्य सिद्ध होते
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PSPSS
१. बीजकोश
बीज
شت
ह्रीं
क्ष्वीं
مد
ल्व
द्रां ह्रीं क्लीं ब्लूं सः ये पाँच बाण के वाचक हैं।
5
अखिलेन्दु (पूर्णचन्द्र)
इवीं क्ष्वीं
ह्रः
क्षि
प
स्वा
ई
इवीं
क्ष्वीं
क्रों
क्ली
क्ष्मं
स्वाहा
क्ष्म-क्लीं
हा
क्षिप ॐ स्वाहा खगपति, पंचाक्षर, आयास, दिशा
श्री, लक्ष्मी
इन्दू
सुधा अक्षर
अंकुश
अनंगबीज
पीठअक्षर
वं
हंस:
ह्यौं च
हा
पर्यायवाची नाम
तेज, भक्ति, विनय, प्रणव, ब्रह्म, प्रदीप, वेद, वाम, अब्ज, दहन, ध्रुव आदि, और ॐ के वाचक हैं।
माय तत्व, शक्ति, लोकेश, त्रिमूर्ति और बीजेश-ये ह्रीं के वाचक हैं। कूट और कूटाक्षर
पिण्ड, अमृत मूर्ति (म् ल् व् र् - यूं ) इनका संयुक्त वर्ण मल्यू है।
1
मुद्राक्षर और वाग्भव सुरभि
सुरभि
पृथ्वी
जल
अग्नि
विधानुशासन 95595959695
षष्ठ प्रकरण तालिका
वायु
आकाश
होम संज्ञक
रत्न युग्मक
सुधा
निर्विष बीज
ख खल्वाट बीज, महाशक्ति बीज निरोध बीज
SP595959SP ४९ PSPSSPP एक
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जं
अं
लं
STORISTR1501501505 विधानुशासन 9500500051055015 ठठ स्तम्भन बीज
सकल, जैन ब्लें में विमल पिण्ड, आकर्षण ग्लौं ग्लौं स्तम्भन
धि विसर्जन जूं हूं विद्वेषण ब्यूँ द्रावण
चलन और चल ह्रां ह्रीं हं ह्रौं ह्रः शून्य
ऐन्द्र बीज घे घे वध बीज द्रां द्रीं द्रावणबीज
शब्द शून्य नमः शोधन, अर्चन
पर, सिद्ध
इनका का जाप करन चाहिये। आं ह्रां ह्रीं क्षी कों, क्ली द्रां द्रीं ब्यूँ , नौतत्व व्हः श्वीं यः वः स्वाहा सुधाक्षर क्षांक्षी क्षं क्षौ क्षः
वां क्षे क्षै क्षो क्ष कूट पांच वज्र आठ हैं - वायूं, खy, झम्ल्यू, भल्यूं, सल्व्यू हy (घल्य) पिंडाक्षर १४हैं - वान्थ्यूं, खल्ब्यू, घल्यूं, छायू, इम्ल्यू, इम्ल्यूं, तम्ल्यूं, भल्ब्यू, म्म्ल्यू, एल्यू, सल्ब्यूँ हल्यूँ, क्षल्यूं।
इत्याचे विद्यानुशासने मंत्र लक्षण विधि नाम इसप्रकार विद्यानुशासन ग्रंथ में मंत्र लक्षण नामक द्वितीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।
द्वितीय परिच्छेदः
CASIRIDORIESICHEIRTICIR ४२ PASTOTRIOTECIRCTCRETS
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こらこらでお 15 विद्यानुशासन 969599
तीसरा अध्याय प्रारम्भ
अथ शेषाः प्रभाष्यंते परिभाषा विशेषतः कृत्स्नोपि मंत्र यंत्रातया थोतया अपेक्ष्यैव वर्तते
॥१॥
अब उन अवशिष्ट परिभाषाओं का विशेष रूप से वर्णन किया जाता है। जिनकी उपेक्षा से कोई भी मंत्र यंत्र नहीं कर सकता।
योगोपदेश दैवत सकली करणोपचार जपहोमात् दिक्कालादीन मंडल संज्ञांश्चवक्ष्ोत्र
॥ २ ॥
मक्षर
योगोपदेश देवता सकली करण उपचार जप होम दिशा और काल आदि तथा पृथ्वी आदि मंडल और शांति आदि संज्ञायें इस तीसरे परिच्छेद में कही जायेंगी ।
साधकारव्यादि मंत्रादि वर्णों तत्तारयोरपि
तद्ाश्योश्च क्षयोनुकूल्यं योगइति स्मृतः
॥ ३ ॥
प्रथम साधक के नाम और मंत्र के अक्षरों को नक्षत्र तारे और राशी को मिलाना चाहिये विरोध न होने पर समझ लेना चाहिये कि मंत्र सिद्ध हो जायेगा ।
द्वयैक त्रि चतुरेकैक द्वि संख्याः क्रमतः स्वराः अश्वावास्तारकाः स्मृताः रेवती स्या त्स्वरांतिमौ
॥ ४ ॥
एक द्वि द्वेक द्विद्वि चेक द्वित्र्यैकैटयैके के पैक द्वित्रि प्रमिताः स्यु वर्णाः पुष्याद तारा स्युः
॥ ५ ॥
अब प्रथम नक्षत्र क्रम से अक्षर गिनने का उपाय बतलाय जाता है। अश्विनि आदि नक्षत्रों में स्वर दो, एक, तीन, चार, एक-एक दो-एक और दो -दो के क्रम से हैं। अंत के दोनों स्वर रेवती में होते हैं। व्यंजनों का क्रम पुष्य आदि नक्षत्रों में दो-दो एक-दो एक दो तीन एक तीन एक एक एक दो एक दो और तीन है ।
つちこちでらでらでらどちらとらどらどらどらでらでら
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ST501512550151955
विधानुशासन 015105505504510151058
अश्विन
मधा
पू.फा
स्वाति विशाखा अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
उ.षा. श्रवण घनिष्ठा शत
उ.भा
Inh |
रेवती
|१३|४|११|२१|२२|१२/२/३१२३/१|३१|११/२ १२३२
देव पर राक्षस
देव र देवदेव समाक्षस भर भर देव मम देवाराक्षम देव क्ष राक्षाम पर भर देवारावास बालसभर भर देग)
Ha at
ए ऐ ओ क ख घ च छ जट डर धम ब भ म ये
औ | गऊ |ज अठण
आ
|
-
मंत्री के नाम से नक्षत्र से यदि मंत्र का नक्षत्र १-१०-१९ हो तो जज्म दूसरा, ११-२० होतो संपत, ३-१२-२१ हो तो विपत्त, ४-१३-२२ हो तो क्षेम, ५-१४- २३ प्रत्यरि, ६-१५-५४ साधक, ७-१६२५ वध ९-१७-२६ मंत्री ९-१९-२७ परम मैत्रिक होता है। यदि मंत्र विपत्त प्रत्यरि वध होतो छोड दो मंत्र शत्रु अक्षर से आरंभ होतो शत्रु कहलाते हैं । मित्र अक्षर से आरंभ वाले मित्र कहलाते हैं। देव गण व मनुष्य गण मंत्र शुभ होते हैं। तया राक्षस गण मंत्र अशुभ फलदाता होते हैं।
॥मतांतरेणापि ॥ राज्य लोभोपकारय प्रारभ्यारि स्वरः,
कुरूगोपाल कुक्कुटी प्रायात्कुल्लचित्युदितालिपि ॥६॥ दूसरे मत से यदि मंत्र शत्रु स्वर से आरंभ हो तो शत्रु होता है। अन्यथा राज्य लाभ व उपकार का करने वाला होता है। लिखने में कुरुगोपाल कुट्टी प्रायात कुल्लो आदि के अक्षरों को इस प्रकार लगा लेना चाहिये।
नक्षत्रेषु क्रमाद्योज्यां स्वरांत्यौ रेवती गुजौ जन्म संपद्रिपेक्षेमं प्रत्यरिः साधको वधः
॥७ ॥ मैत्रं परं च जन्मा दीन्येतानि च पुनः पुनः मंत्री नाम नक्षेणमंत्राक्षरं पर्यतं योज्यं
॥८॥ उपरोक्त यंत्र के लिए नक्षत्रों में क्रम से रेवती तक स्वर तथा व्यंजनों को लगाने से मंत्र में जन्म संपत्ति विपत्ति कुशलता शत्रु की सिद्धि और वध मित्रता शत्रुता और जन्म आदि बार बार भलीप्रकार जाने जा सकते हैं। मंत्री का नाम और मंत्र के अक्षरों को इसी यंत्र से देखना चाहिये।
CASTO151015015121525
४४_PISODIOSDISTRISIOSDIS
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अथः राशि परीक्षा चतु स्त्रि त्रि द्वि द्विद्वगिषु वणों ष्वि शरा चय: एते राशि षु वर्णः स्यु नायमूउष्माक्षराण्यापि यत्र जराक्षरददि स्यात् तस्मादारभ्याराशय श्चत्वारः
॥९॥
रक्षक सेवक पोषक द्योतक तुल्याः पुनस्त स्ततो न्ये द्वेग
वर्णश्चतुष्पदेस्यै नरियादियेंषु भवंतिते वर्णाः ' सिद्धास्तेभ्य: साध्यास्ततः सिद्धा स्ततो रिपवः
॥१०॥ जिस राशि में पुरूष का अक्षर हो तो उससे आरंभ करके चार से पहले पहली राशि या रक्षक सेवक पोषक होती है इसके अतिरिक्त घातक उद्वेगी होती है। इन तीनों के भीतर यदि मंत्र के पद आवे तो वह सिद्ध होते हैं। उनको अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य शत्रु होते हैं।
मतांतरेणापि येला गुरू स्वार शोण शर्मणवेतिभदिताः लिपि वर्ण राशिषु ज्ञेया षष्टे शादी न्युयोजयेत्
1॥११॥ बेला गुरू स्वार शोण और शर्मा आदि के अक्षरों को भी इसी प्रकार राशी चक्र में देखकर जान लेना चाहिए।
एक पंच नव वंदु रक्षकाः दे च षष्ट दशमः सुसेयकाः
त्रीणि रूद्र सप्तगण पोषकाः द्वादशाष्ट चतुरस्तु घातकाः ॥१२॥ नाम राशि से प्रथम, पंचम, नवम मित्र और रक्षक होते हैं। दूसरी, छटी और दसवीं सेवक होते है तीसरी, सातवीं और ग्यारहवीं पोषक होती है- और चौयी, आठवीं, बारहवीं घातक होती है।
मंत्रिणं रक्ष्यते रक्षसे सेवो च्च ससेवक: मंत्रः स पोषको ज्ञेयो घातो त्स च यातकः
॥१३॥ जो मंत्री की रक्षा करे वह रक्षक जो सेवा करे वह सेवक, जो उसको पुष्टि करे वह पोषक और जो धात करे उसको घातक कहते हैं।
अथ मंत्रः सुसिद्धादिः सिद्धादि वाम तः शुभः मंत्रं विद्वेषि वर्णाचं साध्यादि वात् साधयेत्
॥१४॥
ಆಗಬಹ59 Y YEEDEEME
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SSIOISCISIOI50150 विधानुशासन DISTRI50150505CSI जिन मंत्रों के आरंभ में अथ हो उसको सिद्धादि जिसके आरंभ में उँ ह्रीं हो उसको सुसिद्धादि कहते हैं। वह शुभ होते हैं उनको सिद्ध कर लेये, तथा जिनके आदि में विद्वेषि पद हो उनको साध्यादि कहते हैं उनको सिद्ध न करे।
मंत्र सिद्ध ससिद्धादि पाठत्सिद्धादि कोजपात्
साध्यादि जैपि होमायैरप्यादिहांति साधके । ॥१५॥ सुसिद्धादि व पात मात्र से सिद्धादि जस से और साध्यादि जप और होम आदि से साधक को फल देते हैं। अरिमंत्र साधक का वध करते हैं।
सिद्धादि नाममध्ये ये मंत्राद्यक्षरान्विता याः
सिद्धादीन पुनरपि कृत्वैवं योगमुपगच्छेत ॥ १६ ॥ सिद्धादि नाम के अन्दर जो मंत्र के आदि के वर्ण होते हैं सिद्ध किये जाने वाले मंत्र में उनको लगाने से सिद्धि शीघ्र होती है।
न दुष्ट वर्ण प्रायश्वेन मंत्रः सिद्धिं प्रयच्छति। इत्युक्तो वर्णयोगोन्न पेषां वण्यते मतं
॥१७॥ यदि मंत्र में दुष्ट वर्ण अधिक होतो सिद्ध नहीं देते वह वर्ण योग वर्णन किया गया अब दूसरा वर्णन आरंभ करते हैं।
कुंभ कन्या
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COOTERASICISIPISODE विधानुशासन IPSTOTARISTOISSISTS
अथः अंशक परीक्षा
परिज्ञायांशकं पूर्व साध्य साधक योरपि मंत्रं निवेदटोत प्राज्ञोव्यर्थ तत्फल मन्यथा
॥१८॥ बुद्धिमान साध्य-साधक के अंशों को भली प्रकार जानकर ही मंत्र को आरंभ करे अन्यथा इसका 4. यर्थ लाता है।
साध्य साधकयो नामानुस्वारं व्यंजनं स्वरं प्रथक कत्वा क्रमात्स्थाप्य मूधि: परिभागतः
॥१९॥ साध्य और साधक के नाम के अनुसार व्यंजनों और स्वरों को पृथक पृथक करके क्रम से ऊपर नीचे के विभाग से रखो।
साध्य नामाक्षरं गण्यं साधकाय वर्णतः ऋऋ ल ल परित्यज्य कुर्यात् तेद वेदभाजितं
॥२०॥ ऋऋ ल ल को छोड़कर साध्य के नाम के अक्षरों को साधक नाम के अक्षरों से जोड़े फिर उसको चार से भाग दे।
लब्ध आयो गण नाशेषा स्तंचायं स्थापयेत क्रमाद्रीमान्
एकद्धि त्रि चतुर्ण सिद्धं साध्यं सुसिद्धमरिं ॥२१॥ बुद्धिमान उस भागफल को क्रम से एक स्थान पर रख लेवे उनमें से शेष १ बचे तो सिद्ध दो साध्य तीन सुसिद्ध और ४ बचे तो शत्रु कहलाते हैं।
सिद्ध सुसिद्धं ग्राह्य शत्रं साध्यं च वर्जयेत प्राज्ञः
सिद्ध सुसिद्धे सफलं विफलं साध्योपरिनाशाटा ||२२॥ सिद्ध और सुसिद्ध को ग्रहण कर लेना चाहिये किन्तु शत्रु और साध्य को छोड़ देना चाहिये, क्योंकि सिद्ध और सुसिद्ध सफल होते हैं और साध्य निष्फल होते हैं और शत्रु नाश करते हैं।
फलदं कतिपयदिवसैः सिद्धं चे त्साध्य मपि दिनैं बहुभिः
झटिति फलदं सुसिद्धं प्राणार्थ विनाशन: शनः ॥२३॥ सिद्ध योड़े दिन में फल देता है साध्य अधिक दिनों में फल देता है। सुसिद्ध शीघ्र फल देता है और शत्रु प्राण और अर्थ का घात करता है।
SASRISRTERISTRI50SOTE ७ 250SCISSISTRICISTRIES
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PSPPSSPP विधानुशासन 69695969595
आदांवंते शत्रुर्यदि भवति तदा परि त्यजेन्मंत्र
॥ २४ ॥
स्थान त्रितये शत्रु मृत्युः स्यात् कार्य हानिर्वा यदि आरंभ में और अंत में शत्रु हो तो मंत्र को छोड़ दे यदि अंत और मध्य और आदि में अर्थात् तीनों स्थानों में शत्रु वर्ण होतो या तो मृत्यु या कार्य हानि होती है।
शत्रुर्भवति यदादी मध्ये सिद्धं तदंतगं साध्यं कष्टेन भवति महता स्वल्पफलं चेति कथनीटां
॥ २५ ॥
यदि मंत्र के आदि में शत्रु वर्ण मध्य में सिद्ध वर्ण और अंत में साध्य हो तो वह मंत्र अत्यंत कष्ट सिद्ध होता है और फल बहुत थोड़ा होता है ।
अंते यदि भवति रिपुः प्रथमे मध्ये च सिद्धि युग पतनं कार्य यदादि जातं तन्नश्यति सर्वमेवांते
॥ २६ ॥
यदि आदि और मध्य में सिद्ध वर्ण और अंत में शत्रु हो तो बनता बनता काम बिगड़ जाता है।
सिद्ध सुसिद्धम थवा रिपुणांतरितं निरीक्ष्यते यत्र दुःखापाद्य प्रबलं भवतीति विसर्जयेत् कार्यं
॥ २७ ॥
और
अतएव बुद्धिमान सिद्ध औक सुसिद्ध के बीच में शत्रु वर्ण भी देखे तो उस मंत्र को अनेक दुख हानियों वाला समझकर छोड़ देवे ।
वेरि निपातेन बिना ययायाः संभवंति सर्वत्र तत्रै हिक फल सिद्धिः स्याद चिरेणेति वक्तव्यं
॥ २८ ॥
यदि सभी पद शत्रु पदों से पूर्णतः रहित हो तो तुरंत ही सब सांसारिक फलों की सिद्धि हो जाती
है।
५. अथकह चक्र - (मंत्र । सा. सा. वि. )
पाँच रेखायें खड़ी तथा पाँच पड़ी बनाकर सोलह कोष्ठक का यंत्र बनाया जावे। उसमें ' अ ' से लेकर तीन, ग्यारह, 'ह' तक के वर्णों ल, क्ष, और ज्ञ सहित निम्नलिखित कोठों के क्रम से रखें। एक, नौ, दो, चार, बारह, दस, छः, आठ, सोलह, चौदह, पाँच, सात, पन्द्रह और तेरह। इसमें जिस चौकड़ी में नाम का प्रथम अक्षर हो वह चारों कोष्ठक सिद्ध, उससे अगले चार साध्य, उससे अगले चार सुसिद्ध और उससे भी अगले चार सुसिद्ध कहलाते हैं। यदि उस कोष्ठक में अपने नाम का तथा मंत्र का दोनों
959519595959594_४८ P595959595959
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CSTRISADISIOTICISIOE विद्यानुशासन 19055105215105CISI के वर्ण हों तो उसको सिद्ध कहते हैं। यदि मंत्र के वर्ण उससे अगले कोष्ठक में हो तो उसको सिद्धसाध्य कहा जाता है। यदि मंत्र के वर्ण उससे तीसरे कोष्ठक में हों तो उसको सिद्ध-सुसिद्ध कहा जाता है। अथवा यदि मंत्र के वर्ण उससे चौथे कोष्ठक में हों तो सिद्ध शत्रु कहलाता है। यदि मंत्र के अक्षर नाम वाले चारों कोठों में न हों तो नाम वाले कोठे से आरम्भ करके उन चारों कोठों को क्रम से साध्य सिद्ध, साध्य-साध्य, साध्य-सुसिद्ध, और साध्य शत्रु समझना चाहिये। इसीप्रकार उससे आगे के कोठों को सुसिद्ध-सिद्ध, सुसिद्ध-साध्य, सुसिद्ध-सुसिद्ध, सुसिद्ध-शत्रु, शत्रुसिद्ध, शत्रु-साध्य, शत्रु-सुसिद्ध-औरशत्रु-शत्रुजानकर सोलह भेद बनालेने चाहिये।सिद्ध-सिद्ध विधि में लिखे हुए जप आदि से सिद्ध होता है। सिद्ध-साध्य, द्विगुणित क्रिया से सिद्ध होता है। सिद्ध सुसिद्ध आधी क्रिया से सिद्ध होता है। और सिद्ध-शत्रु बन्धुओं का नाश करता है। साध्यसिद्ध दुगुनी विधि से सिद्ध होता है। साध्य-साध्य का अनुष्ठान का व्यर्थ जाता है। साध्य-सुसिद्ध दुगुनी विधि से सिद्ध होता है। और साध्य-शत्रु अपने गोत्र वालों को नष्ट करता है । सुसिद्ध-सिद्ध आधेजपसे सिद्ध होता है।सुसिद्ध-साध्य दुगुने जप से सिद्ध होता है। सुसिद्ध-सुसिद्ध आरम्भ करते ही सिद्ध होता है। और सिद्ध शत्रु कुटुम्ब को नष्ट करता है।शत्रु-सिद्ध पुत्र को मारता है।शत्रु-साध्य कन्या को मारता है। शत्रु-सुसिद्ध पत्नी को मारता है और शत्रु-शत्रु साध मंत्री को ही मार डालता है। नाम और मंत्र के स्वर-व्यंजनों को पृथक्-पृथक् लिख कर प्रत्येक अक्षर का हिसाब तब तक लगाना चाहिये जब तक मंत्र समाप्त न हो।यदि नाम समाप्त हो जाये तो फिर नाम को ही लिख लेना चाहिये। इसप्रकार विचार करने पर सिद्ध और सुसिद्धों की अधिकता और साध्य तथा शत्रुओं की न्यूनता में मंत्र को शुभ समझना चाहिये।
उक्त मंत्र निम्न है
अएक के
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तेरह
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G4
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।
|
ऋ
१ चारा
१० आठ
| ३ग ऋछ . १२ सात
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११तीन ग
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CSRISIOISIOSDISTRIK विशानुशासन 265050512055105CASI ६. अकड़म चक्र - ( मंत्र. सा. सा. वि.) एक द्वादश दल कमल बनाकर उसमें नपुंसक वर्णों को (ऋऋ लु ल) को छोड़कर पूर्वोक्त वर्णों को लिखें जो इसप्रकार है। चक्र में भी नाम को प्रथम अक्षर से आरंभ करके मंत्र के प्रथम अक्षर तक क्रमशः सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और शत्रु को गिने।सिद्ध समय पाकर सिद्ध होता है, साध्य जप
और होमसे सिद्ध होता है। सुसिद्ध आरम्भकरते ही सिद्ध हो जाता है। और शत्रु साधक को खाजाता है। नाम से एक पाँच और नौंवें कोष्ठक के वर्ण सिद्ध, दौ-छ: और दसवें कोष्ठकों के साध्य, तीनसात और ग्यारहवें कोष्ठकों के सुसिद्ध, और चार-आठ तथा बारहवें कोष्ठकों के वर्ण शत्रु होते हैं। इसी क्रम से इसमें बारह भेद बनाकर इसका फल भी अकथह चक्र के अनुसार जानना चाहिये। अकडम चक्र
अ उ ल चक्र
आ
ख
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IK F5
शिरान 13 कझख च अदा थप मवफ यशल ह ई ऋऐ अऋ एअ घजठत गछटण भ ल स ध र
ल
क्ष
अकडम
चक्र
4*44
षटकोण चक्र
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७. अ उस्ल चक्र - ( मंत्र. सा. सा. वि.) पूर्वोक्त सभी वणों को चार कोठों में इसप्रकार लिखें ।इस यंत्र के नाम के अक्षर के कोष्ठक से पूर्वोक्त क्रम के अनुसार सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और शत्रु जानना चाहिये।
८. षट्कोण चक्र (मंत्र. सा. सा. वि.)। एक षट्कोण चक्र बनाकर उसके कोनों में असे लगाकर ह तक के नपुंसक वर्ण ( ऋऋल ल) रहित वर्णों को लिखें । संलग्न यंत्र में नाम के अक्षर के कोनों से लगाकर यंत्र के अक्षरों का निम्न प्रकार से शोधन करें। यदि नाम वाले कोष्टक में ही मंत्र का अक्षर होतो सम्पत्ति की प्राप्ति हो। उससे
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दूसरे कोनों में होने पर धन का नाश हो, तीसरे में धन की प्राप्ति हो, चौथे में भाई-भाई में विद्रोह हो, पांचवें में मन में चिन्ता हो और छठे कोने में होने से सह कुछ नष्ट हो। मंत्री इसप्रकार इन उपायों से विचार किया हुआ मंत्र ही शिष्य को सिद्ध करने के लिये देवें।
९. ऋणधन शोधन चक्र - (मंत्र सा. सा. वि. )
अ | | | ऋलए ऐ
औ
अं
अः
प्रथम विधि - सात तिरक्षी और बारह सीधी रेखायें लिखकर एक छयासठ कोठों का यंत्र बनावे। इसको ऊपर की पंक्ति में कम से चौदह सत्ताईस, दो, बारह, पन्द्रह, चार, तीन, पांच, आठ और नौ के अंक लिखें। दूसरी पंक्ति में आदि के पांच दीर्घ स्वर छोड़कर शेष स्वर लिखें। तीसरी पंक्ति में 'क' से लगाकर 'ट' तक के अक्षर, चौथी में 'ठ' से लगाकर 'फ' तक के अक्षर और पांचवीं पंक्ति में व से लगाकर 'ह' तक के अक्षर लिखें। इसके पश्चात् अंतिम अर्थात् छट्ठी पंक्ति में दश, सात, चार, आठ, तीन, सात, पांच, चार, छ और तीन के अंकों को लिखकर जोड़ लेवें। दीर्घ स्वरों के स्थान में हस्व स्वरों के ही अंक लेवें। फिर इस जोड़ को आठ से भाग देकर शेष अंक को पृथक रख लेखें । यह मंत्र राशि है। नाम के वर्गों में भी यही विधि करें, किन्तु नाम में नीचे के अंक लेना चाहिये। इसका शेष नाम राशि कहलाता है। इनमें से अधिक राशि ऋणी और न्यून राशि धनी कहलाती है। मंत्र ऋणी अर्थात अधिक शेषवाला होतो ग्रहण कर लेना चाहिये। अन्यथा छोड देना चाहिये। द्वितीय विधि:- नाम के आदि अक्षर से लगाकर मंत्र के आदि अक्षर तक के अंक जरादि मातृका वर्णों को गिनकर उनको तीन से गुणा और सात से भाग दे, इसका शेष नाम राशि कहलाता है। इसीप्रकार मंत्र के आदि अक्षर से लगाकर नाम के आदि अक्षर तक के अकारादि मातृका वर्णों को गिनकर उनको तीन से गुणा और सात से भागदे।इसका शेष मंत्र राशि कहलाता है। इसमें भी ऊपर के अनुसार अधिक वाले को ऋणी और कम शेष वाले को धनी समझना चाहिये। तृतीय विधि - मंत्र के स्वर और व्यञ्जनों को पृथक् पृथक् गिनकर उनको दो से गुणा दें। फिर उनमें पृथक् पृथक् गिने हुए साधक के नाम के स्वर और व्यञ्जनों की संख्या को जोड़ दें। इसको आठ भाग देने पर शेष अंक मंत्र राशि कहलाता है। इसीप्रकार साधक के नाम के स्वर और व्यंजनों को
SSIRISTOISIOIDIODISTRICAL ५१ PISTOTSTOTSIRISISTERISTRISA
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STRICIDIRKSRIDESIRE विधानुशासन BADRASIDASTOTRICISCRI पृथक पृथक् गिनकर उनको दो से गुणा दें, फिर उनमें पृथक-पृथक् गिने हुए मंत्र में नाम के अक्षरों की संख्या जोड़ दें। इसको आठ का भाग पर शेष अंक वा राशि कहलाता है। इसमें भी ऊपर के अनुसार अधिक शेष वाले को ऋणी और कम शेष वाले को धनी समझना चाहिये। १०. मंत्रों के ऋणी होने के कारण - (मंत्र -। सा. सा. वि.) एक नियम की बात है कि हमारे वर्तमान जन्म की सब प्रेरणाएं हमारे पिछले जन्मों के संस्कारों के कारण हआ करती हैं। मंत्र सिद्धि में भी यही नियम काम करता है। हमारे इस जन्म में मंत्र शास्त्र में प्रबल प्रेम का कारण भी अवश्य ही हमारे पूर्व जन्म के प्रबल संस्कार हैं। पूर्व जन्म का संस्कार इतना प्रबल होता है कि इस जन्म में भी प्रायः उन्हीं या उन्हीं विषयों से सम्बन्ध रखने वाली मंत्रों या विधा आदि अन्य विषयों को देखते हैं, जिनका हमसे पिछले जन्म में संबंध था।मंत्र सिद्ध करने बालों को प्राय असफलताओं का भी सामना करना पड़ता है। किन्तु उस असफलता का कारण उस जन्म के पाप की अधिकता होने से मंत्र की शक्ति याप के दूर करने में ही लग जाती है। पूर्व जन्म में भी साधकों को ऐसा अनेक बार हुआ है। अतएव जो मंत्र पूर्व उन्म में उपासना के समय पापकी अधिकता से पाप का क्षय करते हुए अन्य फल नदे सके और पाप का क्षय होने के पश्चात् फला समय आने पर साधक को मृत्यु हो जाने के कारण उसको फल न दे सके वह मंत्र पिछले जन्म में फल न देने से दूसरे जन्म में ऋणी होते हैं। अतएव ऋणी मंत्र साधक को प्राप्त होते ही सिद्धि होते हैं। बराबर अंकवाले मंत्र भली प्रकार साधन करने से सिद्ध होते हैं। और धनी मंत्र बहुत अधिक सेवा से फल देते हैं।
न मंत्रं साधटोत् यत्र द्दष्ट मा कर्णिन बलात् यद्दच्छया वाचनेन यतो सोनर्थ कद्भवेत्
॥२९॥ मंत्रों को कभी देखकर या सुनकर ही अपनी इच्छा से कभी आरंभ नहीं करे अन्यथा उससे अनर्थ हो सकता है।
अतो गुरू मुरदादेव मंत्र मादाय साधक: साधटोद् विनयानम्रोभूत्वा अभिमत सिद्धटो
॥३०॥ अतएव साधक गुरू के मुख से ही मंत्र लेकर सिद्धि के लिए विनयपूर्वक नम होकर जाप प्रारंभ करे।
कलिंग फल वृतांक मत्स्याक्षी लसुनादिकं नाद्यात् शिष्यो भवे जीर्णानिमपि क्षीर धतादिक
॥३१॥ शिष्य कलिंग फल मछली लहसन पुराना अनाज दूध और घृत कभी न खायें।
SERISTRISTRIEIDISTRICT ५२ PECIDICIDEADRISTOTRICISS
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STORISSISTRI501505 विधानुशासन 95015015015100SRISH
गुरु ददानो विगुणाय मंत्रं शिष्याय शिष्या स आददानः
अनर्थ माप्नोत्यधिदेवतायाः फलंच मंत्रस्य न किंचन स्यात्।।३२।। मंत्र गुरू के द्वारा दिये जाने और शिष्य के द्वारा लिया जाने पर विशेष गुणकारी होता है। अन्यथा मंत्र के अधिष्टता देवता से अनर्य की प्राप्ति होती है। और मंत्र का फल भी कुछ नहीं होता।
षटकणे र्भिद्यते मंत्रोयेन तेन रहस्य सौ शिष्याय गुरूणा दे यो न चान्य संनिधौ
|॥३३॥ मंत्र कानों में जाने से छिन्न भिन्न हो जाता है इसलिये गुरू एकान्त में ही शिष्य को मंत्र प्रदान करे।
उपदिशत यथा तत्वं परोपदेश प्रवीण गुरू मुख्यः शिष्येण तथा देयं नहिं कर्तव्यो विचारांत्र
॥३४॥ जिस प्रकार परोपदेश में चुतर गुरु उपदेश देते हैं। उसी प्रकार योग्य शिष्य भी उपदेश देये । और कुछ विचार नहीं करे।
मंत्रो गुरुपदिष्टः स्यात सफल स्तदिह पुस्तके प्रकटं लिरिवतोपि गुरोरेव ग्राह्यं नैवस्वयं मंत्रः
॥३५॥ इस ग्रन्थ में लिखे हुये सभी मंत्रो को गुरू से ही ग्रहण करे यद्यपि वह प्रकट रूप में लिखें है। किन्तु उनको स्वयं न लेयें।
शिष्याय यमुपादीक्षम् मंत्र साधितमात्मना सूरिः सहस्र भटोपि तं जपेत् स्वस्य सिद्धये
॥३६॥ मुनि जिस मंत्र को शिष्य को बतला देवें उसको अपनी सिद्धि के लिए एक हजार फिर जपे।
अथापवादः अब इस नियम के अपवाद बतलाये जाते हैं।
प्रणवस्तु हरिर्माया व्योमव्यापी षडक्ष्यः प्रासादोबहुररूपी च सप्त साधारणः स्मृताः
॥१॥ हरिमाया व्योमव्यापी षडक्षम प्रासाद बहुरूपी और साधारण यह सात प्रणव होते हैं।
STORIEDOSTISISTER ५३ PISISTERISTRICIRISTOTRICTS
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CSIRDOSTORICICI विधानुशासन DRISTOTSCIEDEOS
सौरि मत्राशेयोरि स्युजिन मंत्रा स्तथैव च
सिद्ध साध्य सुसिद्धार विचार परिवर्जिता जो सौरि मंत्र है और जो जिनमंत्र है उनमें सिद्ध साध्य और सुसिद्ध व शत्रु के विचार की कोई आवश्यकता नहीं है।
||२||
आम्नाय गत मंत्राणां प्रसादं प्रणव स्य च स पिंडाक्षर मंत्राणां सिद्धारिनैव शोधयेत्
॥३॥ आम्नाय के अनुसार मंत्री प्रसाद नामक प्रणव के जो सपिंड अदार वाले मंत्र है उनमें ऐसा विचार नहीं करे कि यह सिद्ध मंत्र है और यह अरिमंत्र है।
एकाक्षरस्ट मंत्रस्य मूलमंत्रस्य भो मुने सैद्धांतिकस्य मंत्रस्य सिद्धारिनैव शोधोत्
॥४॥ हे मुनि एकाक्षरक्ष मूल मंत्र और सैद्धांतिक मंत्र में सिद्ध और शत्रु का विचार नहीं करे।
स्वप्न दत्तस्य मंत्रस्य स्त्रिया दत्तस्य चैवहि
नपुंसक स्टा मंत्रस्ट सिद्धारं नैव शोधयेत् स्वप्न में दिये हुवे स्त्रिय से दिये हुवे और नपुंसक मंत्रो में सिद्ध और शत्रु को न विचारे।
हंसस्याष्टक्षरस्यापि तथा पंचाक्षरस्य च एकदि शादि बीजस्य सिद्धारिं नैव शोधटोत्
॥६॥ हंस के अष्टाक्षर मंत्र है तथा पंचाक्षर मंत्र तथा एक दो और तीन आदि बीजों के मंत्रों में सिद्ध और शत्रु नहीं विचारे।
अकारादि क्षकारांतैः बिंदुवन्मात्रकाक्षरैः अनुलोम विलोमस्थैलप्तया वर्णमालया
॥७॥ अकार से लगाकर क्षकार तक के अनुस्वार सहित मातृका अक्षरों से चाहे वह सीधे क्रम से हो चाहे उलटे क्रम से हो अथवा वर्णमाला से पृथक हो।
प्रत्येक वर्णयुग्मंत्रा जप्ताः स्युः क्षिप्रसिद्धिदाः वेरि मंत्राश्च ते नृणां मन्ये मंत्राश्च किं पुनः
॥८॥ प्रत्येक वर्ण को साथ लगाकर जप करने से शीघ्र ही सिद्धि होती है। उसके अतिरिक्त अन्य मंत्र मनुष्यों के शत्रु है। SSCISEDICISIOTISIOTSICAL ५४ PISOISIOISTSISTERSTOOTER
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esP5PSPSS विधानुशासन
मंत्रादिषु सर्वेषु लेखा काम बीजकं श्री बीजं चापि निक्षितंजपे मंत्र विशुद्धये
PSPSPS
॥९॥
सब मंत्रो के आदि में हृ लेखा अर्थात् ह्रीं काम बीज क्लां और श्री बीज को लगा कर मंत्र की शुद्धि के लिए जप करे ।
भार संपुटितो वाथ दुष्ट मंत्रोऽपि सिद्धयति यस्य यस्मिन् भवेद् भक्तिः सोपि मंत्रोषि सिद्धयति
॥ १०१ ॥
भार नाम के
मंत्राक्षर से संपुट किया जाने से दुष्ट मंत्र भी सिद्ध हो जाता है, और जिसकी जिसमें भक्ति होती वह मंत्र भी सिद्ध हो जाता है।
१३. गृहीत शत्रु मंत्र को त्याग करने की विधि मंत्र, सा. सा. वि. )
यदि भूल से शत्रु मंत्र का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया हो तो उसके त्याग करने की विधि भी है। किसी भी उत्तम दिन में सर्वतोभद्र मण्डल (दे. ज्वालामालिनी भाषा टीका) में कलश की स्थापना करके मंत्र को उल्टा बोलते हुए कलश को जल से भरें। उस पर वस्त्र ढ़ककर उसमें देवता का आह्वानन करें। फिर उसके सामने अग्निकुण्ड बनाकर उसमें अग्नि की प्रतिष्ठा करके ग्रहण किये हुए मूल 'मंत्र को उल्टा करके घी की दो आहुतियां देवें। फिर खीर और घी की दिक्पालों को बलि देवें। इसके पश्चात् देवों के देव भगवान ऋषभदेव से निम्नलिखित शब्दों से प्रार्थना करें 'हे भगवान्! मुझ चंचल बुद्धिवाले ने मंत्र की अनुकूलता बिना विचार किये ही जो इस मंत्र को ग्रहण करके इसका पूजन किया है, इससे मेरे मन में क्षोभ हो रहा है। हे भगवान्! आप कृपा करके मेरे मन के क्षोभ को दूर कीजिये। और मेरा उत्तम कल्याण करके मुझे अपनी निर्मल भक्ति दीजिये।' इसप्रकार प्रार्थना करके उस मंत्र को ताड़पत्र कपूर- अगर और चन्दन से उल्टा लिखकर पहले उसका पूजन करें और फिर उसको अपने सिर से बाँधकर उस घड़े के जल से स्नान करें। उस कलश में फिर जल से भर कर उसके मुख में उस पत्र को डाल दें। फिर उस घड़े का पूजन करके उसको किसी नदी या तालाब में डालकर श्रावक भोजन करावे। इस प्रकार उस मंत्र के कष्ट से छूट जाता है ।
१४. दुष्ट मंत्र को जपने की विधि (मंत्र. सा. सा. वि.)
यदि मंत्र उपरोक्त प्रकार से अनेक बार शोधन किया जाने पर भी शुद्ध न हो तो उसके दोष दूर करने के वास्ते उसकी आदि में 'ह्रीं क्लीं' श्री, बीजों को लगाकर जपें। अथवा 'ॐ' के सम्पुट में जपा जाने से दुष्ट मंत्र भी सिद्ध जाता है ।
१५. पुरूष का ऋणी धनी विचार ( मंत्र. सी. सा. वि.)
-
किसी पुरुष या स्त्री से कोई कार्य लेने के लिये मंत्र जपना हो तो निम्नलिखित उपाय से विचार करें कि काम देने वाला व्यक्ति साधक का ऋणी है या नहीं। यदि साधक का ऋणी होगा तो कार्य निश्चय रूप से पूर्ण होगा। नीचे लिखे कोष्ठक में वर्णों और उनकी शत्रु मित्रता का ज्ञान हो जावेगा । । इस 959595959595ON 44 PMPSPA
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CRICATIOTERATORREE विधानुशासन 95015ICISIOISO905 कोष्ठक में ऋणी-धनी इस रीति से देखा जा सकता है कि दोनों पुरूषों के वर्ग की संख्या को पृथक्पृथक् दो-दो से गुणा करके इसकी वर्ग संख्या उसमें और उसका इसमें जोड़ दें।तथा दोनों को आठ का भागदें।जिसका अंक शेष में अधिक हो तो वह ऋणी जिसका न्यून हो वह धनी । अर्थात् अधिक अंक वाला न्यून अंक वाले को धन देगा। जैसे सेठ भगवान दास के पास नन्दकशिोर नौकरी चाहता है तो उसको मिलेगी या नहीं। अब देखो भयवान दास की संख्या छै है और नन्दकिशोर की पाँच है।दोनों को दो से गुणा किया तो ६x२% १२ और ५४२= १०।अब इसमें एक दूसरे की वर्ग संख्या जोड़ दो और आठ का भाग दो।१२+५= १७/८-१ शेष।१०+६- १६/२-० यहाँ पर शून्य के शेष से भगवान दाम का शेष १ अधिक है। अतएव भगवान दाम नन्दकिशोर को नौकर रख लेगा।'
|
मंख्या । वर्ग का वर्ग के अक्षर | शत्रु | मित्र | उदासीन
स्वी गरूण | अाए । सर्या श्वाम
सिंह बिलाब । कखगघा | पूषक मर्य
कल सिंह । बछ जाम । मृग - मूषक
सर्व प्रदान | ठरण | मेव मृग । मूषक सर्प नाथदधन | गहा मेष
मृग मुधक पफमबिलावा गमा | मग यरलव सिंह | बिलाव
| बिलावा गह | मेष |शवसह स्कान | सिह , बिलाब
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१६. कलियुग के सिद्धिप्रद मंत्र - (मत्र. सा. सा. वि. )
एकाक्षर के मंत्र, दो व तीन अक्षर वाले मंत्र, अनुष्टुप छन्द के मंत्र, तीन प्रकार के नृसिंह मंत्र, एकाक्षर अर्जुन मंत्र, दो प्रकार के हयग्रीव मंत्र, चिन्ता-मणि मंत्र, क्षेत्रपाल मंत्र, यक्षाधिपति भैरव के मंत्र, गोपाल मंत्र, गणेश मंत्र, चेटका मंत्र, यक्षिणी मंत्र, मातंगी मंत्र,सुन्दरी मंत्र, श्यामा मंत्र, तारा मंत्र, कर्ण पिशाची मंत्र, शबरी मंत्र, एकजटा मंत्र, यामा मंत्र, काली मंत्र, नील सरस्वती मंत्र, त्रिपुरा मंत्र और काल रात्रि मंत्र कलियुग में सिद्ध होते हैं। १७. मंत्र के अधिकारी द्विजवर्णी के योग्यमंत्र - ( मंत्र. सा. सा. वि.) अघोर मंत्र, दक्षिणामूर्ति मंत्र, उमा मंत्र, माहेश्वर मंत्र, हयग्रीव मंत्र, वाराह मंत्र, लक्ष्मी मंत्र, नारायण मंत्र, प्रणव से आरम्भहोने वाले मंत्र, चार अक्षरों के मंत्र, अग्निके मंत्र, सूर्य के मंत्र, प्रणव से आरम्भ होने वाला गणेश मंत्र, हरिद्रा गणेश षडाक्षर राम मंत्र को और वैदिक मंत्रों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को ही देने चाहिये। निंद्य कार्य वालों को नहीं।
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CISORRISTORICTARTE विद्यानुशासन 9501501510551015015 १८. ब्राह्मण और क्षत्रियों के योग्य मंत्र - (मंत्र. सा. सा. वि.) सुदर्शन मंत्र, पाशुपत मंत्र, आग्नेयास्त्र, और नृसिंह मंत्र, को ब्राह्मण और क्षत्रिय को ही देना चाहिये अन्य को नहीं। १९. चारों वर्गों के योग्य मंत्र ( मंत्र. सा. सा. वि.) छिन्नमस्ता, मातंगी, त्रिपुरा, कालिका, शिव, लघु, श्यामा, कालरात्रि, गोपाल, राम, उग्रतारा , और भैरव के मंत्र चारों वर्गों को देने चाहिये। यह मंत्र स्त्रियों को विशेष रूप से सरलता से सिद्ध होते हैं। इसकी अधिकारी चारों वर्गों की स्त्रियाँ ही होती हैं। २०. वर्णक्रम से बीजों के अधिकारी-(मंत्र-सा.सा.वि.)ह्रीं-क्लीं श्री और ऐं बीज ब्राह्मण को देवें । क्ली, श्रीं और ऐं क्षत्रिय को देखें। श्रीं और ऐं वैश्य को देवें। तथा 'ऐं' शुद्र को देवें। अन्यों को फट् बीज देवें। २१. मंत्रों के जप में गूंथने के भेद - मंत्रों को जपने से निम्नलिखित तेरह प्रकार हैं। जिनको विन्यास कहते हैं- ग्रंथित, सम्पुट, ग्रस्त, समस्तयायोग, विदर्भित, आक्रान्त, आयन्त, अगर्भित या गर्भस्थ, सर्वतो मुख, विदर्भ, विदर्भ ग्रसित, रोधन और पाभव।
साध्य के नाम के एक एक अक्षर के साथ मंत्र के एक एक अक्षर कोएक बार प्रयोग करने को ग्रथित कहते हैं। यह वश्य और आकर्षण कर्मों में फल दायक होता है।
जिसमें आदि और अन्य में आधा-आधा मंत्र और बीच में साध्य का नाम हो ग्रस्त कहते हैं। इसकी मारणादि सभी अशुभ कर्मों में प्रयोग किया जाता है।
जिसमें पहले नाम और फिर मंत्र बोला जावे उसे समस्तयायोग कहते हैं। यह उच्चाटन में प्रयोग किया जाता है।
जिसमें मंत्र के दो-दो अक्षर और एक-एक साध्य के नाम कर अक्षर आवे उसे विदर्भित कहते हैं। यह वशीकरण करता है।
यदि साध्य का नाम चारों ओर मंत्र के अक्षरों से घिरा हुआ हो तो उसे आक्रान्त कहते हैं। यह सब कार्यों की सिद्धि, स्तम्भन, आवेशन, वश्य और उच्चाटन कर्मों को करता है।
. जिसमें आदि में एक बार पूरा मंत्र, मध्य में साध्य का नाम और अन्त में फिर पूरा मन्त्र लगाया जावे उसे आधन्त कहते हैं, यह विद्वेषण करता है। आदि और अन्त में दो-दो बार मंत्र का प्रयोग करके बीच में एक बार साध्य का नाम रखने को गर्भस्थ या गर्भित कहते हैं। यह मारण, उच्चाटन, वश्य, नदी स्तम्भन, नौका भंजन और गर्भ स्तष्थन में प्रयोग किया जाता है। • जिसमें आदि और अंत में तीन-तीन बार मंत्र जपा जावे और नाम-बीच में एक ही बार उसे सर्वतोमुख कहते हैं।
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विद्यानुशासन 959595969
सब उपसर्गों को शांत करने वाला, सब सौभाग्यों को करने वाला तथा देवताओं को भी अमृत देने वाला है। जिसमें आदि में मंत्र और फिर नाम और फिर मंत्र इसप्रकार तीन-तीन बार किया गया हो उसे विदर्भ कहते हैं। यह सब व्याथियों को नष्ट करने वाला तथा भूत, और मृगी के रोग को दूर करता है ।
जिसमें साध्य के नाम एक-एक अक्षर को विदर्भ रूप में करके पहले के समान आदि और अन्त में प्रयोग किया जावे उसे विदर्भ ग्रसित कहते हैं। यह सब कार्यों को करने वाला और सभी ऐश्वर्यो के फलों को देनेवाला है।
,
केके आदि माद और बना में मंत्र रखने को रोधन कहते हैं। मंत्र के अन्त में नाम रखने को पल्लव कहते हैं।
मंत्रों के ४९ दोष व उनके फल (मंत्र. सा. सा. वि. )
छिन्नता आदि दोषों से युक्त मंत्र साधक की रक्षा नहीं कर सकते। वे दोष निम्न प्रकार हैं। - ९ छिन्न, २ रूद्ध, ३ शक्तिहीन, ४ पराङ्मुख, ५ कर्णहीन, ६ नेत्रहीन, ७ कीनित, ८ स्तम्भित, ९ दग्ध, १० त्रस्त, ११ भीत, १२ मलिन, १३ तिरस्कृत, १४ भेदित, १५ सुषुप्त, १६ मदोन्मत्त, १७ पूर्छित, १८ हतवीर्य्य, १९ भ्रान्त, २० प्रध्वस्त, २९, तालक, २२ कुमार, २३ युवा, २४ प्रौढ़, २५ वृद्ध, २६ निस्त्रिंशक, २७ निर्बीज, २८ सिद्धिहीन, २९ मन्द, ३० कूट, ३१ निरंशक, ३२ सत्त्वहीन, ३३ केकर, ३४ बीजहीन, ३५ धूमित, ३६ अलिंगित, ३७ मोहित, ३८ क्षुधार्त्त, ३९ अदिदीप्त, ४० अंगहीन, ४१ अकिक्रुद्ध, ४२ अतिक्रूर, ४३ वीड़ित ( लज्जित ), ४४ प्रशान्त मानस, ४५ स्थान भ्रष्ट, ४६ विकल, ४७ अतिवृद्ध, ४८ अति निःस्नेह, ४९ पीड़ित ।
ये मंत्रों के ४९ दोष बताये गए हैं। अब इनका भिन्न भिन्न स्वरूप व फल बताते हैं।
१. जिस मंत्र के आदि, मध्य और अन्त में संयुक्त वियुक्त या स्वर रहित तीन, चार या पांच बार अग्निबीज (रं) का प्रयोग हो वह मंत्र छित्र कहलाता है।
फल
२. जिस मंत्र के आदि, मध्य और अन्त में दो बार भूमि बीज (लं) का उच्चारण होता है उसको रूद्ध जानना चाहिये। फल- बड़े क्लेश से सिद्धि दायक होता है।
३. प्रणत और कवच (हुँ ) ये तीन बार जिस मंत्र में आये हों वह लक्ष्मी युक्त होता है। ऐसी लक्ष्मी
से हीन मंत्र को शक्तिहीन जानना चाहिए
फल- यह दीर्घकाल के बाद फल देता है।
"
४. जहाँ आदि में काम बीज (क्लीं ) मध्य में मायाबीज ( ह्रीं ) और अन्त में अंकुश बीज ( क्रौं) वह मंत्र पराङ्मुख जानना चाहिये।
फल- यह साधकों को चिरकाल से सिद्ध देने वाला होता है।
५. कर्ण हीन मंत्र को बधिर कहते हैं ।
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फल - यह बहुत कष्ट उठाने पर थोड़ा फल देने वाला होता है।
६. यदि पंचाक्षर मंत्र हो किन्तु उसमें रेफ, मकार और अनुस्वार न हों तो उसे नेत्रहीन जानना चाहिये । फल- यह क्लेश उठाने पर भी सिद्धि दायक नहीं होता।
७. आदि, मध्य और अन्त में हंस ( सं ) प्रासाद तथा बाग बीज (ऐं) हों अथवा हंस और चन्द्रबिन्दु वा सकार, फकार अथवा (हुँ) हों तथा जिसमें मा, प्रा और नमामि पद हों वह मंत्र कीलित माना गया है ।
फल - x
८. इसीप्रकार मध्य में और अन्स में भी ये दोनों पवन को एक जिसमें पद और लकार न हो वह मंत्र स्तम्भित माना गया है।
फल - जो सिद्धि में रूकावट डालने वाला है।
९. जिस मंत्र के अन्त में अग्निबीज (रं) वायु बीज (यं ) के साथ हो तथा जो सात अक्षरों से युक्त (स) दिखाई देता हो वह दग्ध संज्ञक मंत्र है।
फल - X
१०. जिसमें तीन, छ: या आठ अक्षरों के साथ अस्त्र (फट्) बीज दिखाई दे उस मंत्र को त्रस्त जानना चाहिये ।
फल - X
११. जिसके मुख भाग में प्रणच रहित हकार अथवा शक्ति हो वही मंत्र भीत कहा जाता है।
फल - x
१२. जिसके आदि, मध्य और अन्त में चार (म) हों वह मलिन माना जाता है।
फल- वह अत्यन्त क्लेश से सिद्धिदायक होता है।
१३. जिस मंत्र के मध्य भाग में 'द' अक्षर और अन्त में क्रोध बीज ( हुं हुं ) हो और साथ अस्त्र बीज (फट्) हो तो वह मंत्र तिरस्कृत कहा जाता है।
फल - X
१४. जिसके अन्त में म तथा य तथा हृदय हो और मध्य में वषट् ऐं वौषट् हो यह मंत्र भेदित कहा जाता है।
फल- उसे त्याग देना चाहिये क्योंकि वह बड़े क्लेश से फल देने वाला होता है।
१५. जो सीन अक्षर से युक्त तथा हंसहीन हो उस मंत्र में सुषुप्त कहा गया है।
फल - x
१६. जो विद्या अथवा मंत्र १७ अक्षरों से युक्त हो तथा जिसके आदि में पाँच बार फट् का प्रयोग हुआ हो तो उसे मदोन्मत माना गया है।
फल - x
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CASIRISTOISTOISEASTH विधानुन DISSISTSTORISISTRICT १७. जिसके मध्य भाग में फट् का प्रयोग हो उसे मूर्च्छित कहते हैं। फल-x १८. जिसके विराम स्थान में अस्त्र ( फट् ) का प्रयोग हो वह हतवीर्य कहा गया है। फल-x
१९. जिस मंत्र के आदि मध्य और अन्त में अस्त्र ( फट) का प्रयोग हो तो उसे भ्रान्त जानना चाहिये। फल-x
२०. जो मंत्र अट्ठारह अथवा बीस अक्षर वाला होकर काम बीज क्लीं से युक्त होकर साथ ही उसमें हृदय, लेख और अंकुश के भी बीज हों तो उसे प्रथ्वस्त कहा गया है।
फल-x २१. सात अक्षर वाला मंत्र बालक कहलाता है। फल-x २२. आठ अक्षर वाला मंत्र कुमार कहलाता है। फल-x २३. सोलह अक्षर वाला मंत्र युवा कहलाता है। फल -x २४. चौबीस अक्षरों वाला मंत्र प्रौढ़ कहलाता है। फल -x २५. बीस, चौसठ, सौ चार सौ अक्षरों वाला मंत्र वृद्ध कहलाता है। फल -x २६. प्रणव सहित नवार्ण मंत्र को निस्त्रिंश कहते हैं। फल -x
२७.जिसके अन्त में हृदय ( नमः) कहा गया हो, मध्य में शिरो...(स्वाहा ) का उच्चारण होता हो, और अन्त में शिखा वषट्का वर्म (हुं) नेत्र (वौषद्) और अस्त्र ( फट् ) देखे जाते हों, शिव एवं शक्ति से हीन हों, उस मंत्र को निर्जीव कहते हैं।
फल-x
२८. जिस मंत्र के आदि, मध्य और अन्त में छ: बार फट्का प्रयोग देखा जाता हो, वह मंत्र सिद्ध हीन होता है।
फल-x २९. पाँच अक्षर के मंत्र को मन्द कहते हैं।
फल-x 05123510051065015100507 ६० PISOD5015015015015DIST
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SXSIOTSIRISIOISOIDOE विधानुशासन POSDISCSSSCISIOTSI ३०. एकाक्षर मंत्र को कूट कहते हैं। फल-x ३१. एकाक्षर मंत्र को निरशंक भी कहते हैं। फल-x ३२. दो अक्षर का मंत्र सत्त्वहीन कहा गया है। फल-x ३३. चार अक्षर का मंत्र केकर कहलाता है। फल-x ३४. छः या साढ़े सात अक्षर का मंत्र बीज हीन कहलाता है। फल -x ३५. साढ़े बारह अक्षर के मंत्र को धूमित माना गया है। फल- वह निन्दित है। ३६. साढ़े तीन बीज से युक्त बीस-तीस तथा इक्कीस अक्षर का मंत्र आलिंगत कहा गया है। फल-x ३७. जिस मंत्र में दन्त स्थानीय अक्षर हों, वह मंत्र मोहित बताया गया है। फल-x ३८. चौबीस या सत्ताईश अक्षर के मंत्र को क्षुधार्त जानना चाहिये। फल-x ३९. ग्यारह, पच्चीस अथवा तेईस अक्षर का मंत्र दृप्त (अतिदीप्त ) कहलाता है। फल-x ४०. छब्बीस, छत्तीस तथा उनतीस अक्षर के मंत्र को हीनांग कहते हैं। फल - x ४१. अट्ठाईस और इकत्तीस अक्षर का मंत्र अत्यन्त क्रुद्ध ( अत्यन्त क्रूर ) कहा जाता है। फल - यह सम्पूर्ण कामों में निन्दित माना गया है। ४२. यह बत्तीस अक्षर से लेकर तिरेसठ अक्षर तक काजो मंत्र है उसे वीडित( लग्नित )समझना चाहिये। फल- यह समस्त कार्यों की सिद्धि में समर्थ नहीं होता। ४३. पैंसठ अक्षर के मंत्र को शान्त मानस जानना चाहिये। . फल-x
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CASIRISTRIDICISTRISIO5 विद्यानुशासन 985RISESSIODSEISE ४४. पैंसठ अक्षरों से लेकर निन्यानो अक्षरों तक के जो मंत्र हैं उन्हें स्थान भ्रष्ट जानना। फल- x ४५. तेरह और पन्द्रह अक्षरों के जो मंत्र है उन्हें सर्वतंत्र विशारद विद्वानों ने विकल कहा है। फल४६. सौ, डेढ़ सी, इक्यानबे, अथवा तीन सौ अक्षरों के जो मंत्र होते हैं, वे निःस्नेह कहे गये हैं। फल-x
४७. चार सौ से लेकर एक हजार अक्षर तक के मंत्र प्रयोग में अत्यन्त वृद्ध माने गये हैं। उन्हें शिथिल कहा गया है।
फल-x ४८. जिन मंत्र में एक हजार से भी अधिक अक्षर हों, उन मंत्र को पीड़ित बताया गया है। फल-x
नोट- उनके अधिक अक्षर वाले मंत्र को स्तोत्र रूप माना गया है। इस प्रकार के मंत्र दोष युक्त कहे गये हैं।
२३. दूषित मंत्र साधन विधि।
छिन्नादि दोषों से दूषित मंत्र का साधन बताता हूँ। मनुष्य योनि मुद्रासन से बैठकर एकाग्रचित्त हो जिस किसी भी मंत्र का जाप करता है, उसे सब प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
बायें पैर की एड़ी को गुदा के सहारे रखकर दायें पैर की एड़ी को ध्वज (लिंग) के ऊपर रखे तो इसप्रकार योनिमुद्रा बंध नामक उत्तम आसन होता है।
२४. मंत्र दोष शान्त्यर्थ संस्कार - प्राचीन मंत्र शास्त्रों में मंत्रों के छिन्न, कच्छादि ४९ दोष कहे हैं। किन्तु सात कोटि मंत्रों से कोई भी ऐसा दोष नहीं है , जो उन मंत्रों में न हो। अतएव उन दोषों की शान्ति के लिये निम्नलिखित दश संस्कार करने चाहिये। ये हैं
१. जनन, २. दीपन, ३, बोधन, ४. ताड़न, ५. अभिषेक, ६. विमलीकरण, ७. जीवन, ८. तर्पण, ९. गोपन और १० आयायन । अब इनका स्वरूप कहते हैं।
१. एक भोजपत्र पर गोरोचन ( केशर) से एक त्रिकोण यंत्र बनावे । उसको पश्चिम के कोने से आरम्भ करके सात बराबर भागों में बांटकर दक्षिण और पूर्व की ओर से भी सात बराबर भागों में बांट दें। इसप्रकार उसमें ४९ कोठे बन जायेंगे। उनमें अ से ह तक ४९ मातृकाओं को लिखे। यह मंत्र निम्न है।
CHOTEORDISTRIEDISCE PR RECISCESOSECSCISCESS
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CISTORICISCISTRISODE विधानुशासन 9505051250ISSISI
इस यंत्र के ऊपर देवी का पूजन चन्दन आदि से करके फिर इसप्रकार का दूसरा यंत्र बनाकर उसमें प्रथम मंत्र में से मंत्र के अक्षरों को लेकर लिखे। इसको जनन कहते हैं। २. मंत्र को 'हंस' मंत्र के सम्पुट में एक सहस्त्र जपने को दीपन कहते हैं। जैसे : हंसः रामाय नम सोऽहं। ३. मंत्र को 'हूँ' के सम्पुट में पाँच सहस्त्र जपने को बोधन कहते हैं। जैसे :- हूँ रामाय नमः हूँ। ४. मंत्र को फट् के सम्पुट में एक सहस्त्र जपने को ताड़न कहते हैं। जैसे- फट् रामाय नमः फट. ५. ताड़पत्र पर लिखे हुए मंत्र को ऐं हंसः ॐ मंत्र से एक सहस्त्रबारअभिमंत्रित जल के द्वारा अभिषेक कराने को अभिषेक कहते हैं। ६. मंत्र को "ॐ"त्रों वषट् के सम्पुट में एक सहस्त्र जपने को विमलीकरण कहते हैं। जैसै- ॐ त्रों वषट् रामाय नमः वषट् त्रों ॐ । ७. स्वधा वशद् के सम्पुट में एक सहस्त्र जपने को जीवन कहते हैं। जैसैः स्वधा वषट् रामाय नमः स्वधा"। ८. दूध, घी और जल के द्वारा उसी मंत्र से एक सहस्त्र और तर्पण करने को तर्पण कहते हैं। ९. "हीं" के सम्पुट में एक सहस्त्र जपने को गोपन कहते हैं। जैसे - "ह्रीं समाय नमः ह्रीं । १०. "मौः" के सम्पुट में सहस्त्र जपने को आप्यायन कहते हैं। जैसे - ह्यौं: रामाय नमः ह्यौंः ।
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SISTOREYSISTICISIOTSIDE विधानुशासन CASEASCIRSCISSISTI
॥ अथ मंत्र साधन विधान।
शिष्यो मंत्र क्रियारंभे स्नानःशद्धा वरं दधत् समाहित मना मौनी प्रयुक्त गुरू वंदनः
॥१॥ शिष्य मंत्र क्रिया से आरंभ में स्नान करके शुद्ध धुले हुवे वस्त्र पहन कर एकान्त चित्त होकर मौन व्रत धारण करते हुवे गुरू की वंदना करे।
जिनालय सरित्तीरे पलिने पर्वते वने भवनेऽन्यत्रवा देशं शुमजतु विधाजते ।
॥२॥ जिनालय नदी के तट या पुलिन पर्यत वन घर अथया किसी अन्य जन्तु रहित स्थान में !
यथार्हमासनासीनः सामग्री मानुदग्मुखः प्राङ् मुखोवाभवेत पूजा जय होमान् कोरन्विति
1॥३॥ जिनेन्द्र भगवान के सामने यया योग्य पहासन पर बैठकर अनुष्ठान की सामग्री उत्तर अथवा पूर्व की तरफ मुख करके पूजा जप और हवन करे।
विद्यादि देवतानां च विद्यानामपिनाम घेयानि
कथ्यतेऽत्रतु कति चित् कः कथये तानि का त्सन्टोन ॥४॥ अब विद्यादि देवताओं और विद्याओं के कुछ नाम कहे जाते हैं। पूर्ण तो भला कौन कह सकता है।
वृषभायजितश्चव संभव श्चाभिनंदनः सुमतिः पन प्रभश्चव सुपार्श्व चन्द्रमाः प्रभुः
सुविधिः शीतलः श्रेयान वासुपूज्यो जिनोत्तमः विमलो नंत जिद्धर्मः शांति कुन्युः त्वर प्रभुः
॥६॥
मलिश्च सुव्रतश्चैव नमि नेंमि जिनेश्वरः पार्थोवीर तीर्थेशाश्चतु विशतिरचिता:
॥७॥ वृषभ अजित संभव अभिनंदन सुमति पद्म प्रभु सुपार्श्व चन्द्र प्रभु सुविधि (पुष्पदंत) शीतल नाथ श्रेयांस वासु पूज्य विमल अनंत धर्म शांति कुंथु अर मल्लि मुनि सुग्रत नमि नेमि पार्श्व और महावीर यह चौरीस तीर्थंकर हैं। ಇ5ಜಟಠಠ_{Y Bದಾರ್ಥಥದರ್ಥ
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CASTOIDESOSISTAIRTE विधाकुशासन PASCISCTRICIROISOISS
वषवदन महाराक्ष स्त्रि मुरखो यक्षेवर श्च तुंबुरू कुसुमो वरनादि मातंग यक्ष विजयाव जितो ब्रह्मादिधर कुमाराख्यो॥ ८॥
षद्वदनः पातालः किन्नर गरुडोतथैक गांधारस्य:
रवेन्द्रा कुबेर वरूणो भूकुटि गोरुंद पार्थ मातंगारख्याः ॥९॥ वृषवदन (गोमुख) महायक्षाय त्रिमुखाय यक्षेश्वराय तुंबर पुष्प (कुसुम) मातंग- वरनादि विजय (श्याम) अजित-ब्रह्म-ईश्वर कुमार-षडवदन (षन्मुख) पाताल -किन्नर गरूड़-गंधर्व-चन्द्र कुबेरवरूण-भृकुडी-गोमेद-पार्थ (धरण) मातंग नाम वाले
तीर्थेषु महायक्षाः क्रमाचतुर्विशति जिनानां कथिताः
यक्षा:कुबेर शाख प्रमुवाचान्येतु बहुविद्या ज्ञेयाः ॥१०॥ चौबीस ती फार क्रमश: Ves hd हैं | कुबेर और शास्त्र प्रमुख वृहस्पति अन्य भी बहुत प्रकार के देव होते हैं।
चकेवरी रोहिणी च प्रज्ञप्ती वंजस्यला तथा पुरूषदत्ता स्वमनो वेगा च कालिका ज्यालामालिन्या भिधाना महाकाली च मानवी गौरी तथैव गांधारी वैरोटी जन संस्तुताअन्यानंतमतीनाम्रामानसीचजयातथाविजयापराजितादेवी बहुरूपिएथपि स्तुता चामुंडान्या च कुष्मांडी पाना सिद्धायिनी त्य: मूस्युचतुर्विशतिर्यस्या सेयंते जिन शासनं। चक्रेपरी१ रोहिणी र प्रज्ञप्ति ३वज श्रृंखला पुरूषवता५मनोवेगा६ कालिका ७ ज्वालामालिनी ८ महाकालि ९ मानवी १० गौरी ११ गांधारी १२ वेरोति १३ अनन्त मति १४ मानसी १५ महामानसी १६ जया १७ विजया १८ अपराजिता १९ बहुलपणी २० चामुंडा २१ कुष्माडिनी २२ पद्मावती २३ सिद्धायिनीर४ यह २४ तीर्थकरों की देयिया है। और जैन शासन की सेवा करती है।
श्री देवी वसुधारा सरस्वती काम चांडाली दुग्गॅस्याचाश्चान्याशदेवता स्सन्यनेक विद्याः। प्रोत्तानांयक्षाण राक्षीनां चाद्भुत प्रभातनां
परिवार देवता अपि संति सततं विविध महा शक्ति युत्ताः ॥१६॥ लक्ष्मी वसुधरा सरस्वती सिद्धायमा दुर्गा इत्यादि अन्य देवता तथा देवियां है उपरोक्त अद्भुत प्रभाव याले यक्ष और यक्षियों के परिवार की अन्य देवियाँ भी विविध प्रकार की महान शक्ति वाली होती
CAOISTOISSISTORSCISIOTH ६५ P5125501501501505001
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252525252525 daganan Y525252525295.
विद्यामुशासन
इत्येवं कथिताः काश्चिन मुख्य विधादि देवताः विद्यानाम थ मुख्यानां नामान्यत्र निगद्यते
|| 219 ||
यह मुख्य विद्यादि देवता कहे गये हैं। आगे कुछ मुख्य विद्यायों के नाम कहे जाते हैं ।
रोहिण्या द्यामहाविद्या विद्यतेऽचिन्त्य शक्तयः समस्त फलवादिष्टाः पाणिना पंचभि शतैः
॥ १८ ॥ रोहिणी आदि अचिन्त्य शक्तिवाली और समस्त फल के देनेवाली पांच सो महाविद्याहैं ।
संत्यं गुष्टा प्रसन्नधाय विद्याः क्षुल्लक संज्ञकाः श्लाघ्य प्रभाव प्रभवाः सप्तभि प्रमिताः शतिः
॥ १९ ॥
सत्य अंगुष्ट प्रश्न आदि प्रशंसनीय प्रभाव को देने वाली सातसो क्षुल्लक विद्यायें हैं।
आसां द्विधोदितानां विद्यानां भेदा तद्भिदाश्चैव अंतर्भवंति मंत्राः सर्वेपि प्रथित सामर्थ्याः
|| 30 11
यह दोनों प्रकार की विद्याएं और उनके भेद ही प्रसिद्ध सामर्थ्य वाले मंत्र कहलाते हैं।
विद्यास्वतासु सर्वासु सं सिद्धयति विशेषतः विद्या विद्याधारणां याः कथ्यतेता च काश्चना
॥ २१ ॥
इन सब विद्याओं में जो विद्यायें विद्याधरों को विशेष रूप से सिद्ध होती है। उनमें से कुछ के भेद यहां कहे जाते हैं ।
प्रज्ञप्ति शांतिवेताली भ्रमरी बंध मोचनी आभोगिन्युष्ण वेताली मातंगी शत संकुला
मनो वेगा महावेगा दुर्गिणी चंडवेगिका पर्णलब्धी महाज्वाला चंडाल्याकाश गामिनी
॥ २२ ॥
॥ २३ ॥
१ प्रज्ञप्ति शीत २ वेताली ३भ्रमरी ४बंध मोचिनी ५ अभोगिनी ६ उष्णवेताली ७ मातंगी शत
संकुला ९ मनोवेगा १० दुर्गिणी ११ चंडवेगिनी १२ पण लब्धी १३ महाकाली १४ चांडाली १५ आकाश गामिनी
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SSCISIOIDIOSIRTAIRTE विद्यानुशासन DRISTOTRIOTSPECISI
विश्व प्रवेशिल्या वतिन्य प्रतिघात गामिनी उत्पाटिनी लघुकरि कामिनी कामरूपिणी
॥२४॥
विपाटनी प्ररोधिनी प्रवर्तनी प्रलापिनी प्रमोहनी प्रभाफणी प्रभावती'प्रभांजणी
॥२५॥
उदक स्तंभिन्यग्नि स्तंभिन्या वेशनी वशीकरणी प्रस्थापनी प्रहारिणी संग्रहाणी प्रहरणी च
॥२६॥
कुंभांडी खड्वागीं शबरी विक्षेपणी विरल वेगा वेगावती रण वीर्या वेषा संत्रासि कार्याची
॥२७॥ १५ विश्व प्रवेशनी १६ आयर्तनी-१७ अप्रति घात गामिनी- १८उत्पादिनी- १९ लघुकारि - २० कामिनी- २१ काम रूपिणी- २२ विपाटिनी- २३ प्ररोधिनी २४ प्रवर्तनी २५ प्रलापिनी- २६ . प्रमोहिनी-२७प्रभाफणी-२८ प्रभावती-२९ प्रभेजनी- ३० उदक स्तंभिनी-३१ अग्नि स्तंभिनी-३२ आयेशिनी- ३३ वशीकारणी ३४ प्रस्थापिनी ३५ प्रहारिनी-३६ संग्रहनी- ३७ प्रहरणावणी ३८ कुभांडी ३९पड्यांशी शबरी-४० विक्षेपणी-४१ विरलयेगा -४२ वेगवती -४३ रणवीर्या- ४४ वेषा४५ संत्रासि-४६ कार्याची तामसीका -सूर्य प्रभा सूर्यपातिनी चंद्र पातिनी च आकास पातिनी पुनः राहु वुधका जल पातिनी॥
मनोजानधरा चैव तामसा स्वधरा पुनः जलस्थाना नदीधारा चक्रधारा तपत्रिणी
॥२९॥ उदयानंद का हंसी सूर्य कांति मणिधरा इंद्रनील मणिधरा महास्फटिकभासिनी
॥३०॥ चामरी पांडुरा पत्री भद्राकात्यायनी महा प्रेयसी महिला गौरी नायकी रंजनातरी
॥३१॥ ४७ तामसिका- ४८ सूर्यप्रभा-४९ सूर्य पातिनी ५० चन्द्रपातिनी-५१ आकाशपातिनी-५२ राहुयुध जलपातनी ५३मनोजा-५४ अरूधरा तामस ५५ अस्त्रधरा-५६ जल स्थाना नदीधारा-५७ चक्रधारा ५८ तप राणी ५९ उदयानंद का ६० हंसी सूर्य कांति मणीधरा ६१ इन्द्रनील मणिधरा ६२ महास्फटिक भासिनी ६३ चामरी पाडुरा ६४ पत्री भद्रा ६५कात्यायनी ६६ महाप्रेयसी ६७ महिला गौरी-जायकी-६८रंजना तरी
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SHRISTMISSISASTE विधानुशासन 95015RIOTSID500
प्रतीप दर्शिनी दुग्गा हेम वंती यशस्विनी कीर्तिमती महामति श्च विश्वमति मतिवती
॥३२॥ ६९ प्रतीपदर्शनी - ७० दुर्गा हेमवती-७१ यशस्वनि -७२ कीर्तिमति महामति-७३विश्वभारती मतियती -७४ साधनी देवी- महती-७५महाभक्ति यती
रख्याता वैमलि शिरयंडिनी च महानदी सिंधु धारिणी ख्याता
॥३३॥
विशेषा भाभ का सैनी भवानि सर्वशकुंला अपर्णाचंडिका पौलोमी अभया पथ्य का पुनः
॥ ३४॥
कायस्था-निर्जरा सुरा अमरा स्वर्गधारिनी रूद्राणी सर्याणी देवी तामसा स्त्री महामहा
॥३५॥
महापूज्या महामाता महादेवी महासुरा अमराधा महानागी महामायी महोत्तमा
||३६॥ ७६ साध्वी देवी-७७ महती-७८ महाभरा भक्ति वती-७९ वैमालि-८० शिखंडनी-८१महानदी-८२ सिंधुधारिणी-८३ विशेषा ८४ भामकासैनी-८५ भयानी-८६ सर्वशंकुला-८७ अर्पणा-८८-चंडिका -८९ पौलोमी- ९० अभया- ९१पथ्यका- ९रकायस्था निर्जरा सुरा ९३ अमरा स्वर्ग धारिणी- ९४ रूद्रानी-९५सर्याणी-९६तामसा अस्त्री-९७ महामहा-९८ महापूज्य ९९महामाता-१०० महादेवी -१०१-महासुरी अमराधा -१०२ महानाग -१०३महामायी- १०४महोत्तमा
आयुधा नाम्ना ख्याता तामुहा इति ख्याति
मृग मत्यानाम्ना परा सुविधा परविधा छेदिनी चपलवेगा ॥३७॥ १०५ आयुधा- १०९ परायुधा- ११०सुविधा-१११परविधा छेदिनी - ११२चपलयेगा १०६ तामहा इति नाम वाली १०७ मृग और १०८ मत्सा नाम वाली यह विद्यायें हैं।
आसां प्रसादात्संप्राप्त खेचरत्यादि वैभवाः विद्याधरां विराजते माअपि सुराईव
॥३८॥ इन विद्याओं के प्रसाद से विद्याधर लोग आकाशगामी आदि ऐश्वर्य से मनुष्य होते हुवे भी देवों के समान शोभित होते हैं।
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SSIOHDDISCISIODO विद्यानुशासन 9501510351015015015
विद्याना प्रकाराणि मान साधनसाधयि: विद्यानुवादे सर्वासामाभ्य द्यायि गणेशिना
||३९॥ इन दोनों प्रकार की विद्याओं की साधन विधि को श्री गणधर भगवान ने विद्यानुवाद पूर्व में वर्णन किया है।
अस्मिं स्तु कति चित शास्त्र विद्याः सुकर साधनाः
अभ्य स्माभि रूप दिश्यांते मंदानुग्रह काम्टाटा ॥४०॥ इस शास्त्र में मंद बुद्धियों पर अनुग्रह की इच्छा से सरल विधि वाली थोही सी ही विद्याओं का वर्णन किया जायेगा।
प्यात्वैवं परटा भत्तया प्रोक्ता विद्याधि देवताः तत्र विधा सु कर्तव्याः सकली करणादयः
॥४१॥ इस प्रकार उपरोक्त विद्याधि देवियों का अत्यन्त भक्ति पूर्वक ध्यान करके उन विद्याओं की साधन विधि में सकली करण आदि करे।
सकली करेणन बिना मंत्री स्तंभादि निग्रह विधाने
असमर्थस्तेन आदी सकलीकरणं प्रवक्ष्यामि ॥४२ ।। मंत्र स्तंभन आदि निग्रह के विधान से सकली करण के बिना मंत्री समर्थ नहीं हो सकता अतएव शुरू में सकली करण को कहेंगे।
सि साधयिषुणा विद्या म यिनेनेष्ट सिद्धये रात्स्वस्य क्रियते रक्षा साभवेत्सकली क्रिया
॥४३॥ विद्या साधने की इच्छा वाले को निर्विघ्न इष कार्य की सिद्धि लिये अपनी रक्षा वह सकली करण क्रिया है।
झं ठं स्वरा वतं तोय मंडल द्वय संवत्तं तोटोन्यस्य ततस्तेन स्नायान्मंत्रमिमं पठेत् सं बिदुंकं चवर्गस्य मध्ये कृत चतुष्टयं
चतुर्थे टांत संवोष्टयं कलाभोमंडल द्वयं एक पत्र पर झंव को पृथक सोलह स्वरों से वेष्टन घेरकर उसके बाहर दो जल मंइलों से घेरकर स्नान के जल से इसे रखकर यह मंत्र पढ़े। अथवा । अर्ह के चारों तरफ चवर्ग के चौथे अक्षर झ को अनुस्वार सहित करके अर्थात् झं को टके अंत में आने वाले ठः अदार से वेष्टन करके स्वर लिखकर दो जल मंडल बतावे। RABIDI5DISTRISTOTSIDEO ६९ P1521501501525512552IER
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SDOSDISCI525125 विवाहमापन mpscmmeOTOS
शुद्धेना मतमंत्रेण वेष्टयं तत् शुद्धि यंत्रक न्यस्यं शुद्धजले स्नायात् तेनो मत पदं स्मरेत
॥४६॥ इन उपरोक्त शुद्धि मंत्रों को इस नीचे लिखे हुवे वेष्टन मंत्र से वेष्टित करके उसको शुद्ध जल में न्यास करें और अमृत मंत्र का ध्यान करता हुआ स्नान करे अर्थात अपनी हथेली में पानी से यंत्र लिखकर साल के जलने अपनी हथेली को जिस पर यंत्र लिखा है धो लेवें। और स्नान के जव को अमृत से अभिमंत्रित करे।झंट को १६ स्वरों से अभिवेष्टन करे। जिसके बाहर दो जल मंडल लिखे। च वर्ग का चोथा अक्षर झ को अनुस्वार सहित लिख कर अर्थात झं लिखकर ठकार से वेष्टित कर चौथी कलाई से वेष्टित करके दो जल मंडल से घिरे अथवा ई के बाहर चार वर्ग और ठकार के चारों तरफ सोलह स्वर लगाकर दो यंत्र बनावे और उसको जल मंडल में न्यास करे। फिर अमृत मंत्र से अभिमंत्रित करके रनान करें।
उकारः प्रथम स्तत्र अमृते अमताद्भवे अमृत वर्षिणी अमृतं श्रावय श्रावोस्यतःसंसं क्लीं क्लीं क्लीं तथा ब्लू ब्लूंद्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावट दावा स्वाहेति स्नान मंत्रोटय विद्वदि प्रकीर्तितः॥ ॐ अमृते अमृतोद्भवे वृर्षिणी अमृतं श्रावट श्रावट सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू ट्रां द्रां
द्रीं द्रीं द्रावटा द्रावय स्वाहा। इसको विद्वानों ने अमृत मंत्र कहा है।
उपक्षि हंसःक्वीं हूं: पः क्षः हर हंसः प प क्षीं स्वाहा
उ क्ष: सरसंसः हर हुं हः स्वाहा ।। इति वेष्टन मंत्र यह वेष्टन मंत्र है।
ॐ नमो भगवते विश्यजन हिताय त्रैल्योक्य शिवराय विशुद्ध चतुरगुण शुद्धाय शुद्धिं करायरं एल्यूँ स्वाहा ।
शुद्धि मंत्रः
उ अमृते अमृतोटवे अमृतवर्षिणी अमृतं श्रावय श्रावय संसं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्राव्या स्वाहा ॥
SENSE PERSONGS
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CHODRISIOTISTICISIOE विद्यानुशासन PIROIDDITIODICIARIES
अमृत मंत्र स्नान के पश्चात इस आगे कहे हुवे मंत्र को पढ़कर सब अंगों की शुद्धि करनी चाहिये।
अमृत अमृतोद्भवं अमृत वर्षिणी क्यों व्धी
वं वं मं में सांगंशुद्धिं कुरू स्वाहा स्नान मंत्र :
एवं स्नान पवित्रांगो धौत वस्त्र परिग्रह
स्थित्वा सन्माजित एकांत प्रदेशे देश संयमी। इस प्रकार स्नान से अपने अंगो को शुद्ध करके धुले हुवे वस्त्र पहन करके व्रतों का धारण करने वाला शुद्ध और एकांत स्थान में बैठे।
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२१
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कते ईंया पथ संशुद्धि : पर्यकासन संस्थितः समीप स्थार्चाना द्रव्यः कुर्याद् विधि मिमं पुरा
॥१॥ वह ईर्यापथ के द्वारा शुद्धि करता हुया पर्यंक आसन से बैठ जावे और अपने पास पूजन के द्रव्यों को रखता हुआ नीचे लिखी विधि को करे।
ಗಣಪಣಡದಥಳದ ಆ8_KಥEFENSE
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CSIRIRCISIODICISIOTE विधानुशासन DSDISCISIOTECTERIST
अग्नि मंडल मध्यस्थोरेफै ज्वाला शताकुलैः सर्वांग देशगै ध्यात्वात्मानं दग्ध वपुर्मलं
॥२॥ फिर अपने को सैंकड़ो ज्याला निकलते रेफ स्वरूप अग्निमंडल के बीच में बैठा हुवा ध्यान करके विचार करे कि मेरे सब अंगो कमल उस अग्नि जे जला जा रहा है। अथवा
वन्हि मंडल मध्दास्थो वायुना पूरकेनच प्रणवेणामलं देहे शोषयित्वांमुना दहेत्
॥३॥ अथया ऐसा ध्यान करे कि अग्नि मंडल के बीच में बैठा हुआ पूरक प्राणायाम के द्वारा वायु को खींचकर कार के ध्यान से देह के मल को जलावें।
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23
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STERISTRISTOTRICISIOTES
७२ DISCIESISCIRIDICISCESS
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CUSICISIOISORSRCISIOTE विद्यानुशासन DIFIE50ISTRISTOISION
* झ जा
Jana
Jan
Jane
मोहनी
आरप स्वरूप
अंतराय
घरर्ण वेदनी
दर्शनी
वरण
CSCRIPOISCTERISION ७३ PISIOI5015015105PISOTISH
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CROSISSIOISISTRICT विधानुशासन DECISIPISOTEISISIOTES
ओ
औ
NPTET
दहनं कुभं केन स्याद भस्मोत्सर्गध रेचकैः शोष दा होज्नं कुर्यात् प्रणवैरेव मंत्रवित्
॥४॥ पुरुष मंत्र को कुंभक प्राणायाम से मल को जलावे दाह करे और रेचक से भस्म को फेंके। इस प्रकार गावों के निमित्त कर शोषण सुखाना दाह जलाना और उसका त्याग करे इस प्रकार कर्ममल का जलाना सुखाना और त्याग करना ई मंत्र के साथ करे।
95015015TRASTRIESDM ७४ PISIOISTRISTOTRICTSIDESOIN
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252525252595 dagenen Y52525252525
सं विसर्ग एकारांते झं वं व्हः पः सुधाक्षरैः सत्यं च गुरु मुद्राग्रे न्यस्तै र मृत वणिर्षिः
अथवा गुरू मुद्रा के आगे अमृत मंत्र को वर्षाने वाले सत्य स्वरूप सुधा अक्षर झ यं व्ह पः हः इन सुधा अक्षरों से व्यास करे ।
ललाट नल निक्षिप्त सुधा बीच चतु विधात प्रस्त्रवद्वारिधाराभिरात्मानां स्नापये त्क्रमात
॥६॥
अथवा ललाट (मस्तक) के तटों पर स्थापित किये हुवे सुधा बीजा क्षरों को चारों तरफ से झरती हुई जल धारा से आत्मा को स्नान करावे ऐसा ध्यान करे।
गुरू मुद्राग्र निक्षिप्तं पंच ब्रह्माक्षरा मृतैः स्नायादमृत मंत्रेण ध्यायेत् शुद्ध वपुः स्थितं
असि आउसा पंच ब्रह्मे अक्षरानि वा पंच गुरू मुद्राग्र निक्षिप्त पंच ब्रह्म अक्षरानि ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः तान्ये वा मृतानि तैः
॥ ५॥
अभिषंच्या स्वमात्मानं ध्यायेत्
उज्वलतेजसं एवं त्रिधा विशुद्धः सन् विदध्याते सकली क्रियां
गुरु मुद्रा करके अग्रभाग में न्यास किये हुवे उन पांच ब्रह्माक्षरों से स्नान करे, और अमृत मंत्र से अभिमंत्रित करके अपने शरीर को शुद्ध जानकर अपनी शुद्ध आत्मा को ध्यावे ।
|| 6 ||
केश मूले ललाटे क्ष्णोः श्रुत्यो नसा पुटद्वये युग्मे गंडोष्ट दंतस्य मूर्व न्यासे न्यसेत् स्वरान्
|| 4 ||
इस प्रकार स्नान कराते हुए अपने आपको बड़ा भारी उज्वल तेज बाला हूं ऐसा ध्यान करे इस प्रकार तीन बार विशुद्ध होकर सकली करण क्रिया करे ।
॥ ९ ॥
विन्यस्य विशंतौ हस्त पाद संधिषु पार्श्वयोः पृष्टे नाभौ हृदि स्पशर्नित्यांदीन् धातषु हं हादि
॥ १० ॥
सिर में ॐ केशों के मूल में अ ललाट में आ आंखों में इ ई कानों उ ऊ नाक में ऋ ऋ वाणी समेत गालों में लृ लृ दांतों में ए ऐ होठों में ओ औ जिव्हा में अं कंठ में अः की स्थापना करे भुजाओ
में कं खं गं घं डं दोनों कोखो में टं ठं डं ढं ण पीठ में तं थं दं धं नं नाभि में पं फं बं भं मं हृदय
में चं छं जं झं ञं और सातों धातुओं में यं रं लं वं शं षं सं
やらせちゃ
50524 - 15252525252525
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55150351015RISRTE विधानुशासन OTSIDISCISIOSSIOSSOSI
हस्त द्वय कनीय स्यायं गुलीनां यथा कमो मूले रेरवा त्रय स्योर्द्ध पर्वाग्रेषु च युगपत् सुधी
II & IP न्यस्य पंच नमस्कार ततः जात्रा संपुटयां गुटं युग्मेन स्वांग त्यास करोत्विति
॥२॥ दोनों हाथों की उगुलियों के तीनों रेखाओं से ऊपर के पोखों में और दोनों हथेलियों में एक साथ पंच नमस्कार मंत्र के अक्षरों का ज्यास करे । फिर दोनों हाथों के दोनों अगूठों से निम्नलिखित प्रकार से अपने अंगो में व्यास करे। १०( एवं यरित्रशत्स्थानेषु त्रय त्रिशद्वर्णान स्थापयित्वा) (कादयों क आदि शब्देन शष स ह ऊष्मा ण) कादयो माव साना स्पर्श य र ल या अंतस्था) (केशमूलमें ई ललाट में अ आ आंखों मे इ ई कानों में उ ऊनाक में ऋऋ गाल में ल ल होठ में ए ऐ दांत में ओ औ मुँह में अं आः हाथ में क ख ग घ इं पैर में च छ ज झ ञ संधि में ट ठ ड ढण पार्थ में त थ द ध न पीठ प फ ब भ म नाभि य र ल व स्पर्शन में श र यष हृदय में हं लगायें)
उही अहवं मंहं सं तं पं असि आउसा हस्तसंपुटं करोमि स्वाहा ॥ इति हस्तं संपुटं हाथ जोहना चाहिये। ॐ हां णमो अरहंताण स्थाढि- हाथों को दोनों अंगूठों के हृदय को पूर्व ॐ हीं णमो सिद्धाणं स्याहा- ललाटे ॐ हूं णमो आयारियाणं स्याहा - दाहिने काने ॐ हौं णमो उयज्ज्ञावायाणं स्याहा- पश्चिमे पिछले भाग को छूये . ॐ ह्र: णमो लोण सव्वासाहणं- बाम करणे ॐ ह्रां णमो अरहताणं स्वाहा - शिरो मध्ये ॐ हीं णमो सिद्धाणं स्वाहा - शिरो आग्नेय भागे ॐहीं णमो आयरियाणं स्वाहा - शिरो नैत्रत्य भागे ॐ हूँ णमो उज्झायद्याणं स्वाहा - शिरो वाराव्याम भागे ॐ हां णमो लोए सव्य साहूणं - शिरो ईशान भागे ॐह: णमो अरहताणं स्वाहा - दक्षिण भुजे ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं - वाम भुजे ॐ हूंणमो आयरियाणं स्वाहा - नाभी ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा - दक्षिण कुक्षौ ॐ ह्रीं णमो लोए सव्व साहूर्ण माम कुचो स्पर्शति।। CASIOISOISODCOISON ७६ 15051051055CISION
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959595959 विद्यानुशासन 959595955
हृदि न्यसेन्नमस्कारमो ह्रीं पूर्वक मर्हतां पूर्वे सिरस सिद्धानाभों ह्रीं पूर्वास्तुविन्यसेत् गुरु मुद्रा हाथ की अंगुलियां मिलाकर की जाती है।
-
4
१ ॐ ह्रां णमो अरहंताणं- हृदय २-ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं पूर्वे शिरसि कहकर वामे सिर को यूवे ३ ॐ हुं णमो आयरियाणं दक्षिण सित दाहिने भाग सिर में
४-ॐ हौ णमो उवज्झायाणं- दक्षिण पार्श्वे कहकर दाहिनी पार्श्व में ५- ॐ ह्रः णमो लोए सव्व साहूणं वाम पार्श्वे बायें पार्श्व में
फिर कह कर दाहिनी पार्श्व में इन्हीं पांचो मंत्रों को सिर के आगे ऊपर दाहिने पिछले और बायें भाग में न्यास करे यह दूसरी बार का विन्यास क्रम है।
ॐ हूं पूर्वक मार्य स्तोत्रं शीर्षस्य दक्षिणे ॐ ह्रौं पूर्वमुपाध्याय स्तवं पश्चिम तो न्यसेत
वामे पार्श्वन्यसेद्रोह: पूर्वासाधु नमस्कृतिं ततः पंचाप्य मून्मंत्रान् सिरस्येव पुनसित्
प्राग्भागे शिर सो मूर्द्धि दक्षिणे पश्चिमे तथा वामे चेत्येष विन्यास क्रमो वारे द्वितीय के
वामायामथ तर्ज्जन्यां न्यस्येत्पंच नमस्कृतिः
पूर्वादि दिक्षु रक्षार्थ दश स्वपि निवेशयेत्
113 11
फिर पांचो मंत्रो की क्रम पूर्वक सिर पर सिर के पूर्व भाग पर मुँह के दाहिनी तरफ तथा पश्चिम की तरफ तथा बाईं तरफ न्यास करे। दूसरी बार का विन्यास है।
हस्त द्वयांगुली बंधैः पंचानां परमेविष्टनां मुद्रां धृत्वा तनुत्सर्ग तिष्ठेत्पर्यक योगतः
◎らやってたらこらこらで
|| 8 ||
॥६॥
अब पाँचो नमस्कारों का बाईं तर्जनी अंगुली में पंच नमस्कार मंत्र का न्यास करे और पूर्वादि दश दिशाओं में अपनी रक्षा के लिए न्यास का ध्यान करे । अर्थात् दशों दिशाओं में उस अंगुली को क्रम से फिरावे ।
らでらす
11411
|| 6 ||
5959595
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やらでらで
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विधानुशासन
6959605965
फिर हाथ को दो दो अंगुलियों के बंध से पंच परमेष्टि मुद्रा को बना कर शरीर से ममत्व को छोड़कर
पर्यकासन से बैठे।
नामोपोडश विद्या द्रष्टा परा मध्यगं
हकार बिंदु संयुक्तं रेफा क्रांतं प्रचिंतयेत
॥ ८ ॥
नाभि में एक सोलह दल कमल का ध्यान करे और उसकी कर्णिका में हैं का ध्यान करे उस कमल की प्रत्येक दल पंखडी पर एक एक स्वर (मात्रा) हो
हृट्टाष्ट कर्म निर्मूलं द्विचतुः पत्रमंबुजं मुकुल भूतमात्मानं मावृत्यावस्थितं स्मरेत
फिर हृदय में एक अष्टदल कमल का ध्यान करे और उसकी कर्णिका में आत्म स्वरूप का ध्यान करे इस कमल के प्रत्येक दल पर आठों कर्म हो यह कमल आधा खुला हो । कुंभकेन तदंभोज पत्राणि विकचप्य च निर्द्दन्नाभिपंकज बीज रकार: विन्दु शिखाग्निा
॥ १० ॥
फिर कुंभक स्वर से नाभि कमल के पत्रो को फैलाकर हैं बीज के रेफ की अग्नि से उन कर्मों को जलाये ।
॥ ९ ॥
रेचको ध्वर्द तत्तद्भस्मानि षिचेभिज मादरात् इवीं श्रीं हंसोलिका र्द्धन्दु श्रयद्धारा मृतैस्त्रिभिः
॥ ११ ॥
फिर रेचक के द्वारा उस कर्मों की भस्म को बाहर फेंक कर उस हैं के अर्द्ध चन्द्र से निकलने वाले तीन प्रकार के अमृत इवीं श्री हंसः से अपने को आदर पूर्वक सींचे।
ततः पूरक योगेन व्याप्राशेष जगत् त्रटां परमात्मानमात्मानं प्रातिहार्यैरलं कृतं
॥ १२ ॥
फिर पूरक प्राणायाम के योग से अपने आपको अष्ट प्राति हार्यो से अलंकृत तीनों लोकों में व्याप्त परमात्मा स्वरूप है ऐसा समझकर ध्यान करें।
शुद्ध स्फटिकसंकाशं स्फुरंतं ज्ञान तेज सा ध्यायेत स्वपाद युग्माव नम्र मूर्द्ध चराचरं
॥ १३ ॥
उस समय अपने आपको शुद्ध स्फटिक मणि के समान और ज्ञान के तेज से देदीप्यमाण सब चरा अचर को अपने दोनों चरणों में झुंक रहे हैं ऐसा ध्यान करे।
2525252525050: · P50505 59595
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CISIOINDI52550505 विधानुशासन 985101512551315015215
ॐ हीं सकलशते पूजिताष्ट महाप्राति हार्य विभवरलंकत द्वादश गण परिवेष्टित सर्वानंत चतुष्टये सर्वज्ञ भट्टारक तव पाद युगलं मम मानस वंसति स्थितं करोमि
स्वाहा। ध्यान मंत्रः उही सभी एक सोइंद्रों से पूजित अष्ट महाप्राति हार्य के ऐश्वर्य से अलंकृत बारह गणों से परिवेष्टित अनंत चतुष्टय युक्त महारक में आपके दोनों चरणों को अपने मन में स्थापित करता हूँ।इस ध्यान मंत्र का अर्थ है।
इत्येवं परत्मात्वेनात्मानं प्यायतः सतः प्रतिक्षणं स्यात्प्राश्वद्ध कर्मणं निर्जरां परा
॥१४॥ इस प्रकार अपने को परमात्मा रूप में ध्यान करने वाले सज्जन के पिछले बंधे हुये कर्मों की निर्जरा प्रत्येक क्षण में होती रहती है।
विनौयाः प्रलयं यांति व्याधयो नाशमाप्रयुः विषं निर्विषतां याति स्थावरं जंगमं तथा
॥१५॥ दूरादेव प्रणश्यति शाकिनी भूत पन्नगाः लोक द्वय हितं प्याना देत स्मात्नां परं परं
॥१६॥ उसके विघ्न के समूह नष्ट हो जाते व्याधियाँ नष्ट हो जाती है। स्थावर जंगम दोनों प्रकार के विष निर्विषता को प्राप्त होते हैं। उससे शाकिनी भूत और पन्नग दूर से ही भाग जाते हैं। इस ध्यान से अधिक हित कारी ध्यान तीन लोक में कोई भी नहीं है।
इत्थं संकीर्तितामेनां विद्याय सकली क्रियां पंचोपचार विधिनायजेन मंत्राधिदेवताः
॥१७॥ इस प्रकार वर्णन की हुई इस सकली करण की क्रिया को करके पंचोपचार विधि से मंत्राधि देवियों की पूजन करे।
सकली करणं येषु मंत्रष्वाहत्य नोधितं
तेष्वेषां संविधातव्यामंत्रिभिः सकली कृतिः ॥१८॥ जिन मंत्रों में सकली करण की विधि न हो उनमें इन मंत्रों सकली करण की क्रिया कर लेनी चाहिये।
पंचा ह्वान स्थापन साक्षात् करणार्चना विसर्गाः स्युः मंत्राधि देवतानामुपचाराः कीर्तिता स्तज्ञैः ॥१॥
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335015215051215125 विधानुशासन 050512SDISTRISOIN मंत्राधि देवता के पांच उपचार निम्नलिखित कहे गये हैं। आह्वानन स्थापन साक्षात्करण पूजन विसर्जन
मंत्रादि देवतानां देशे न्यत्र प्रतिष्टितायतः ना आह्वानं तत्प्रोक्तं मंत्रि भिरावाहनं नाम्नां
॥२॥ किसी दूसरे स्थान में ठहरे हुवे मंत्र के अधि देवताओं को मंत्र द्वारा बुलाने को आह्वाहन कहते हैं।
उचिताभिमते देशे गत्तासां स्थापनं मुदा क्रियते तत्प्रतिबिवाना या भवेत्प्रतिष्ठापनं तदिदं
॥३॥ उन देवताओं या उनके प्रतिबिम्ब को उचित स्थान में स्थापित करने को स्थापन कहते हैं।
साक्षात्करणं ता सां यन्म मंत्र शक्ति रूपाणां विहितं पूजा समये प्राहु स्तत सन्निधीकरणं
॥४॥ उन मंत्र की शक्ति वाले देवताओं का पूजन के समय में जो मंत्रों द्वारा साक्षात्करण किया जाता है। से समतलर या शिविगार करने में।
गंधोदक प्रभृतिभिःक्रियामाणं वस्तुभिर्यथा शास्त्रं
अभिषेचनादि ता सांयतत्स्यादर्चनं नामः ॥५॥ जो उनकी शास्त्रों के अनुसार अभिषेक पूर्वक जल चंदन आदि द्रव्यों से पूजा की जाती है उसे अर्चना या पूजन कहते हैं।
आहूतानां तासां स्वस्थान प्रायणादरा द्विहिता यातां बुधा विसर्जन मुपचारं पंचमं प्राहु:
॥६॥ उन बुलाये हुवे देवों को आदर पूर्वक अपने स्थान पर भेजने को पंडितों ने पाँचदाँ उपचार विसर्जन कहा है।
अहान्ने मंत्राणां मंते स्यादेहि एहि संवौषद तिष्ट द्वितीयंठ: द्वयं संयुक्तं स्थापने योज्यं
॥७॥ अंत में मंत्रो के आह्वाहन में एहि एहि संयोषट् और स्थापन में तिष्ट तिष्ट ठः ठः लगाने चाहिये।
मम सन्निहिता भव भव वषद एतद सन्निधीकतौ क्रियता अभ्यर्यनाविद्याने गंधादीन गृह गन्ह नमः ॥८॥
STSTOTRICISTRISERISTICISIOTH ८० PEDISTRIEODESIRISTI
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252525252525 fangenend Y52525252525.
. सन्निधिकरण में मम सन्निहितो भव भय वषट ऐसा कहे पूजन में गंधादीन गृह्न गृह्न नमः बोले ।
अंते भवे द्विस्टष्टौ स्व स्थानं गच्छ गच्छ जस्त्रि तयं इत्युपचारात् जनन विद्या फल भाक् भवेत् पुरुषः
॥ ९ ॥
ही
विसर्जन में स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः लगाने चाहिये पुरुष 'उपचारों को जानता हुवा विद्याओं के फल का बागी हो सकता है।
यंत्रोपचार मंत्रानोक्ता मंत्रेषु तत्र कर्तव्याः
उपचाराः स्वैरेव प्रोक्तैः स्तद् वाक्य संयुतेर्विधिभिः
॥ १० ॥
जिन मंत्रों की विधि में उपचार मंत्र न दिये हो वहां उपरोक्त प्रकार से अपने वाक्य बनाकर विधि में प्रयोग करने चाहिये ।
आह्वानं पूरकेण स्यात् रेचकेन बिसर्जनं शेष कर्माणि योज्यानि कुंभकेन प्रयत्नतः
॥ ११ ॥
पूरक प्राणायाम से आह्वाहन करे रेचक से विसर्जन और शेष कर्मों की विधि कुभंक प्राणायाम से
करें ।
संख्यानुक्ताज्ञेया दशलक्षण्येक वर्ण मंत्राणां
विद्या जपेत् द्वि वर्णादीनामपि वृद्धि हानिं च
॥ १२ ॥
इन मंत्रो के जपने की संख्या यह है एक अक्षर वाले मंत्र की संख्या दस लाख है और दो वर्ण वालों की फिर कम और अधिक है। अथवा
सर्वेषा मपि मंत्रणाम
वचने जपादिषु
संख्या शतमष्टयेतरं संख्या सहस्रमष्टोत्तरं वदंति मुनीन्द्राः ॥ १३ ॥
आचार्यों ने सभी मंत्रो के जपने बोलने की संख्या एकसो आठ अथवा १००८ रखी है।
होमादिषु संख्या स्याद् दश भागा मूल मंत्र संख्यायाः अंगा देरपि संरख्या मंत्रस्य तथैव बौद्धव्या
॥ १४ ॥
होम आदि की संख्या मूल मंत्र के जप का दसवाँ भाग है और मंत्र के अंगों की जप की संख्या भी दसवाँ भाग जाननी चाहिये ।
2525252525259 « 15252525252525
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CSP59SPSC
विधानुशासन 1295
सर्वेषामपि मंत्राणं मनसा जिव्हया शनै:
उचैरपि जपेद् भक्त्या विहितोमन्यते क्रमात्
॥ १५ ॥
सभी मंत्रो को धीरे धीरे मनोयोग पूर्वक जिल्हा से कम अथवा अत्यंत भक्ति युक्त होने पर जोर से
भी जपे ।
ܐ܂
959521
एकैकाक्षर मंत्राणा भेदं ज्ञात्वा पृथक् पृथक् पूर्वमेव प्रकर्त्तव्या पुष्पैश्चाष्ट सहस्रकैः
॥ १६॥
एक एक अक्षर मंत्र के भेदों को पृथक पृथक जान कर पहले ही आठ हजार पुष्पों से बिखेरे।
सवृंतकं समादाय प्रसूनं ज्ञानमुद्रया मंत्रमुच्चार्य तन्मंत्री मुंचेदुच्च्छावास रेचनात्
॥ १७ ॥
मंत्री इंदल सहित पुष्पों को लाकर ज्ञानमुद्रा धारण करके एक एक मंत्र पढ़कर श्वास के रेचक के साथ छोड़ देवे चढ़ा दें ।
जपाद विकलो मंत्रः स्व शक्तिः लभते परां होमार्चनादिभि स्तस्य तृप्तास्यादधिदेवता
॥ १८ ॥
मंत्र जपा जाने से अपनी शक्ति को प्राप्त होता है और होम पूजन आदि से उस मंत्र के स्वामी देवता' तृत होते हैं।
एकस्तावत्रखङ्गः पुनरपि निशि तो यथेष्ट सिद्धि करः एकस्तावद्योद्धा सन्नद्धोन्यत् किमा पृच्छां
॥ १९ ॥
. जिस प्रकार तेज शस्त्र अकेला होने पर भी चलाने से कार्य की सिद्धि करता है तो उसको यदि एक योद्धा भी तैयार होकर लेकर जुट जावे तो क्या पूछना |
एकस्तावद्वन्हिः पुनरपि पवनाहतोन कुर्य्यात् किं एको मंत्रः पुनरपि जप होम द्युतोऽस्य किम साध्यं
1120 11
और जिसप्रकार अकेली ही अग्नि पवन से झपकी जाने पर क्या करती है उसी प्रकार अकेला मंत्र भी जप और होम से युक्त होने उसके लिए पर क्या असाध्य है।
जपकाले नमः शब्दं मंत्र स्याते प्रयोजयेत्
होम काले पुनः स्वाहा मंत्र स्यायं सदा क्रमः
॥ २१ ॥
जप के समय मंत्र के अंत में नमः शब्द और होम के समय में मंत्र के अंत में स्वाहा शब्द लगाएं यह मंत्र का सदा क्रम है।
969595959८२ PA959595959595
+
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959595999वधानुशास
चतुरस्त्रं त्रिकोणं च वृत्तं चेति त्रिधा विधु: कुंडानि गार्हपत्यायाः पूज्यंते यत्र पावका
॥ १ ॥
अब उन कुंडों का वर्णन किया जाता है जिनमें गार्हपत्य आदि आग्नियों की पूजा की जाती है वह कुंड तीन प्रकार के होते हैं चौकोर त्रिकोण और गोल होते हैं।
こちとらわ
तेषां हस्तोव गाढे विस्तारे च
प्रमामता
पृथक् पृथक् स्मृतास्त्रि स्ति स्त्रिमेरवला स्त्रिषु मंत्रिभिः
॥ २ ॥
उनकी लम्बाई चौड़ाई गहराई एक हाथ होनी चाहिये और वह चारों तरफ मेखला के समान तीन कटिनियों से घिरी हुई हो ।
आरभ्यतां सामा धायविस्तृतावस्थितावपि अंगुलानि प्रमा पंच चत्वारि त्रीणि च क्रमात्
॥ ३ ॥
उनमें से पहले कटिनी की ऊँचाई पाँच अंगुल दूसरी की चार अंगुल और तीसरी की तीन अंगुल
है।
हस्त त्रयेण प्रमित स्तस्था आयाम इष्यते हस्तपादेन संयुक्तों वेद्याः कुंडस्य चांतर
उसकी लम्बाई तीन हाथ और उसकी कुंडों से छ अगुंल अंतर हो ।
कुंडेनां तरितां मंत्री स्तस्याभि मुखमर्पयेत् वेदीमरलि प्रमितं विस्तारोस्त्रय संयुतां
॥ ४ ॥
मंत्री कुंड से कुछ दूर उसके पास एक अरलि (हाथ) लम्बाई वाली ऊंची वेदी बनाये।
॥ ५॥
ततः कुंडं च वेदीं च परितः परिकल्पयेत्
सर्वेषां लोक पालानाभिज्यायै दशपीठिका
॥ ६ ॥
तब कुंड और वेदी के चारों तरफ सब लोक पालों के पूजन के लिए दस आसन बनावे । अथवा
पीठे च नवकुंडानि पठिका अथवा कुर्यात् शास्त्रोक्त मार्गेण मंत्रिणां मंत्र सिद्धये
अथवा मंत्री मंत्र सिद्धि से लिए एक मेरू पीठ को शास्त्रोक्त विधि से बनाये ।
252525252/SPSP: « PS252525252525.
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CTERISTIARIERICT विधानुशायरा ISIRISTOTSIRIDIOSOTES
सकली क्रिया विशुद्धः परिधारा वोम मक्षत्तं नून
क्षौभ मय मुत्तरीयं विभ्राणो ब्रह्म सूत्रधरः ॥८॥ सकली करण से शुद्ध हुवा मंत्री होम की सामग्री रखकर यज्ञोपवीत और रिशमी या सण) की धोति और दुपट्टा पहलन कर ।
रचटान् पल्यंकासन मुपानंतर वर्तमान होमार्थ: होमक्रियां विदध्या दासं सुः कर्म संसिद्धं
॥९॥ पल्यंकानस से होम कुंड के समीप बैठकर कार्य की सिद्धि को चाहता हुवा होम करें। हयन करने वाला निम्न लिखित मंत्रों को बोलकर हवन कुंड के आगे बैठे।
उब्रह्मासने अहमुप विशामि स्वाहा। होम कुंडागे होतु रूप वेशनं होम कुंड के आगे होम करने वाला बैटे वेदी में
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राय कर्म दहनाटोति । अमुना मंत्रेण शुधी समर्चयेद भक्ति युक्त मनाः
॥१०॥ तस्या वेद्यां प्रतिष्ठाप्य मंत्री मंत्राधि देवतां यथाविधि तथा पूजां विदधीत जलादिभिः
॥११॥ मंत्री फिर उस वेदी में मंत्रके अधिष्ठाता देवता का स्थापन करके फिर उसकी जलचन्दनादि से पूजन करे।
संमृष्टं पंचभि गौस कुंड देशिके कमात् अचरोज्जल गंधाधैः पूजामंत्रं समुच्चरन्
॥१२॥ उस कुंड के समीप बैठा हुवा वह मंत्री उस समय पंच गव्य और जल चंदन आदि से मंत्र बोलता हुआ पूजन करे।
समाभ्यां क्षीर सर्पिभ्यां मन्यद्रव्य त्रयं समं
गव्यानि पंच ग्रहणीयाद न्योन्य सद्दशानिवा घी और दूध को तथा तीन द्रव्यों को बराबर मिलाकर पंच गव्य बजावे यह सब एक दूसरे के समान
हो।
ॐ हीं कुंड मभ्ययामि स्वाहा पूजा मंत्रः यह कुंड पूजने का मंत्र है। CSIRSSIOTSICISIOTECTECH ८४ PISOTICISODRISIOTSIDESI
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CHORITERISTRISIT विधानुमान CRETOMORRHONEY
ॐ ह्रीं स्वस्तये श्री मत्पवित्र तर मग्नीन्द्र स्थापयामि स्वाहा। इस मंत्र को जप कर अग्नि स्थापना करे
मंत्रस्यै तस्यै जाप्य द्रन्हि संस्थापये त्ततः कुंड सं धुक्षटो त्पश्चात् मंत्रेण पिंगलादिना
॥१४॥ फिर निम्न मंत्र से कुंड को झपके पहले मंत्र को जप कर के अग्निदेव के स्थापना करे।
ॐ पिंगल दह दह पच पच सर्व आज्ञापयति स्याहा । पिंगलादि मंत्र: फिर निम्नलिखित मंत्र को पढ़कर अग्निकुंड में एक समिधाहवन करने से अग्नि सन्निहित होता
ॐ वैश्वनर जाति बेदस इहाव रोहिताश्व सर्वकर्माणि साधयामि स्वाहा
एतेन जाति वेदाधि देवते अग्नि कुंड संस्थेग्नौ
एकां समिधंजुहुयात्तत्राग्नि भयति सं निहितंः ॥१५॥ यह अग्नि देव का मंत्र है अग्नि देव होम कुंड की अग्नि में स्थान ग्रहण करे। एक समिधा लकडी धीमे गीली करके अग्नि कुंड में आदरपूर्वक रखने से अग्नि सन्निहित होती है।
ॐ ह्रीं को सुवर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वााद्य वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे इन्द्र एहि एहि सवोषट् (इत्याहालन)
ॐ ह्रीं क्रों सुवर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे इन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ट ठः ठः स्थापनं ।।
ॐ हीं कों सुवर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुद्य वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे इन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधायनं ।
ॐ हीं को सुवर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे इन्द्र जल गंधादिन् गृह गृह स्वाहा।।
ॐ हींकों सुवर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुद्य वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हेइन्द्र स्वस्थानं गच्छ गच्छ ज ज ज ज विसर्जनं ।
SSIO5505505051250 ८५ PISRSD85101512351005015
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CASTO5015015XDISASTE विधानुशासन DISTR5RIDISCSSCIEN
तत्त शरीर वर्णाभिधान द्योगादागतेन दश भावः
मनुनाऽने न दिगीशान्यजेत पंचोपचारज्ञाः दशो दिग्पालों के शरीर के रंग के अनुसार उनके मंत्रो से पंचोपचार पूजन करे।
॥१६॥
ॐ ह्रीं क्रों रक्त वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह परिवार हे अग्नि ....पूवर्वत्। ॐ ह्रीं को कृष्ण वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह परिवार है द्यम...पूर्ववत् ॐ ह्रीं क्रों श्याम वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु स चिन्ह परिवार हे नैऋत्य...पूर्ववत् ॐ ह्रीं क्रों धवल वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे वरूण..पूर्ववत ॥ ॐ ह्रीं को कृष्णा वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे वायु...पूर्ववत् ॥ ॐ ह्रीं कों पीतवर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे कुबेर...पूर्ववत्॥ ॐ ह्रीं क्रों धवल वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे ईशान...पूर्ववत्॥ ॐ ह्रीं क्रों निशाकर किरण प्रभ सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे धरेणन्द्र...पूर्ववत् अधरस्यादिशि इन्द्रेशानयोर्मप्टोभागेः ॐ ह्रीं क्रों धवल वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे सोम...पूर्ववत् ऊरायांदिशि नैऋत्य वरूणयो मध्ये
इन्द्राय स्वाहा, इन्द्र परिजनाय स्वाहा, इन्द्रानुचराय स्वाहा, इन्द्रमहत्तराय स्वाहा, आग्नेय स्वाहा, अनिलाय स्वाहा, वारूण्टा स्वाहा, सोमाय स्वाहा, प्रजापतेटो स्वाहा, ॐ स्वाहा, भूस्वाहा, भुवः स्वाहा , स्व स्वाहा, ॐ भूर्भुवः स्वाहा, ॐइन्द्र देवाय स्वगण परिवृताय इदं अप्य पाद्यं गयं पुष्पं धूपं दीपं फलं बलिं अक्षतं स्वस्तिकं यज्ञ भागं च यजामह प्रति ग्रह्यतां प्रतिग्रह्यतामिति स्वाहा॥
SSIRIDIOISODERISTICISION ८६ P51035925SIRIDIOS2050
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S5I0150151051015105 विधानुशासन 9851065DISISISADISCESS
ॐ ह्रीं को प्रशस्त वर्ण सर्वलक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवारा सर्वे देवा आगच्छता आगच्छत संयोषट तिष्टत तिष्टत ठः ठः मम सन्निहिता भवत भवत वषट इंद जलादिकमर्चनं गृहीध्वं गृहीत्वं ॐ भूर्भव स्वः स्वधा स्वाहा । पूर्णाहूति ॥
वागंधाक्षत पुष्पायै दीपधूप फलै कमात्
स्वं स्वं मंत्र जपेन्मत्रीं सप्ताचिषमथा चयेत् इसके पश्चात मंत्री क्रम से जल चंदन अक्षत पुष्पनैवेद्य दीप धूप और फल से क्रम से अपने अपने निम्रलिखित मंत्र सहित उपरोक्त देवताओं का और अग्नि का पूजन करे। ॐ दWमथनाय नमःदर्भस्थ:- इस मंत्र से दों को चढ़ाना ॐनीरजष्टनम:जलस्य: इस मंत्र से जल चढ़ाना ॐशीलगधाय नमःगंधस्टा इस मंत्र से गंध चढ़ाना ॐ अक्षता नमःअक्षतस्य इस मंत्र से अक्षत चढ़ाना ॐ विमलाय नमः पुष्पस्य इस मंत्र से पुष्प चढ़ाना ॐ परम सिद्धाय नमःचरौं इस मंत्र से नैवेद्य चढ़ाना ॐ ज्ञानोद्योतायनमः दीपस्य इस मंत्र से दीपक से आरती उतारे ॐ श्रुत धूपाय नमः धूपस्य इस मंत्र से अग्नि में धूप रखे। ॐ अभिष्ट फलप्रदाय नमः फलस्य इस मंत्र से फल चढावे।
सगार्हपत्यश्चतुरन कुंडेन्यस्ते महीनाहवनीय वह्निः
वृत्ते पुनईक्षिण कृष्ण यत्माप्रपूज्यान्मंत्रिभि रेवमेव ॥१८॥ चौकोर कुंड में नित्य हयम करने योग्य गार्हपत्य अग्नि की स्थापना करे और त्रिकोण कुंड में आहवनीय अग्नि की स्थापना करे और गोलकुंड में केवली में दक्षिण अग्नि स्थापना करे।
अभ्यचितेनेन यथा कशानौ समीहितं होम विधिं करोतु
स सय एयारिवल वांछितार्थ संसिद्धिमापादयितुं समर्थः ॥१९॥ इस प्रकार अग्नि का पूजन करने के पश्चात जो नियम पूर्वक होम की विधि को करता है यह शीघ्र ही सब इकित पदार्थों की सिद्धि को प्राप्त होता है।
तरिमन प्रथम त्रिमधुर युक्तामेकां समिध स्वहस्तेन मंत्री जयादाज्यैक्षा हुतिमेकां स्तवेन ततः ॥ २० ॥ 559 48_95UFNESE
ಇ
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PSPAPSPSPS
विधानुशासन
さらにらり
फिर मंत्री उस कुंड में एक समिधा त्रिमधुर (दूध घी गुड़) की एक घी के साथ मंत्र पढ़ता हुआ अपने खुद हाथ से डाले ।
व्या मिश्रित शेष द्रव्याहुति में कांततः सृचा कुर्यात् प्रतिं समिध मेव विधिः समिधस्त्वष्टोत्तर शतं तस्य
॥ २१ ॥
इसके पश्चात सब हवन के द्रव्यों को मिलावे और अपने पास १०८ समिधाये रख लेवे क्योंकि यह द्रव्य प्रत्येक समिधा के साथ डालना होगा।
अविकल्यासामग्ह्याध्येनैकः साधु साधितो मंत्र: तस्याल्पयापिच तथा परे पिमंत्राः प्रसिद्धंति
॥ २२ ॥
जो मंत्री एक मंत्र को पूर्ण विधि पूर्वक अच्छी तरह सिद्ध कर लेता है। उसको थोड़ी सामग्री से ही दूसरे मंत्र भी सिद्ध हो जाते हैं ।
मारणा कृष्टि वश्येषु त्र्यस्तं कुंडं प्रशस्यते विद्वेषोच्चाटयो वृतमन्येषु चतुरशकं
॥ २३ ॥
मारण आकर्षण और वश्य कर्मों में त्रिकोण कुंड प्रशंसनीय होता है। विद्वेषण और उच्चाटन में गोल कुंड और शेष शांतिक और स्तंभन कर्मों में चौकोर कुंड प्रशंसनीय कहा है।
पलाशस्य समिन्मुख्या स्याद मुख्यापद्य स्तरोः विधान मेतत् संग्राह्यं विशेष वचनादते
॥ २४ ॥
हवन के लिए मुख्य रूप से पलाश की और उसके अभाव में दूध वाले वृक्षों की समिधा लेना चाहिये यह सामान्य नियम है। विशेष विधान में उसके कहे अनुसार ही लेना ।
वध विद्वेष वाटे ष्वष्टौ पुष्टौ मतानव शांती आकृष्टि वशीकृत्यो द्वादश समिधं प्रमांगुलयः
॥ २५ ॥
मारण विद्वेषण और उच्चाटन में आठ अंगुल की तथा पौष्टिक और शांति कर्म में नौ अंगुल की,
आकर्षण वश्य कर्म में बारह अगुल की समिधायें लेनी चाहिये ।
यांईधनानि पूतानि श्रुष्काण क्षीर भुरूहां भवंति तानि काष्टानि सर्वस्मिन होम कर्मणि
॥ २६ ॥
こちらたらたらたらこらこらこらこらたらたらたらやり
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ಉಪಥಗಣಗಳT RKREIRA NEWS दूध वाले वृक्षों का जो काष्ट पवित्र और सूखा हो वह सभी होम कर्मों में लिया जा सकता है।
सच गोपुच्छ समानास्यादि तरो नाशिका सद्दशग्रः
उचिति रिक्तो हस्त स्थौल्पंतुरवंडगुलानि तयोः ॥ २७॥ यह गाय की पूँछ की तरह अथवा नाशिका तरह हो लकडी हो तथा होम करने याला खाली हाथ या कम उंगुली वाला खंड उगुंली याला न हो ।
मक सयौ चांदनौ मुख्यो पैपलौदल संभवे तद्भाये पलाशस्य दलं वापिष्पलस्य वा
॥२८॥ सृक सृया चंदन का श्रेष्ठ होता है उसके अभाव में पीपल की लकड़ी का हो समिधायें भी सफेद व लाल चंदन की मुख्य होती हैं, उसके मिलने पर शमी की और लकडी के न मिलने पर ठाक या पीपल के पत्तों से ही होम करें।
प्रस्थः क्षीरस्य मानं स्याद् पतस्य चतथा भवेत् होम द्रव्य विमिश्रस्ट मानं प्रस्थ द्वयं मतं
॥२९॥ होम करने में एक सेर घृत और अष्टांग धूप आदि से मिला हुवा द्रव्य दो सेर लेना चाहिये।
शशि शद के लवंग दुहोमेन शांतिकं पुष्टिं
करवीर पुष्प हवनात् कुर्यात् स्त्रीणां वशीकरणं ॥ ३०॥ कृष्ण अष्टमी से अमायस तक लौंग और दूब के होम से शांति और पौष्टिक कर्मो को तथा कनेर के पुष्यों के हवन से स्त्रीयों का वशीकरण होता है।
महिषा ख्याब्ज होमात् प्रतिदिवसं भवति पुर जन क्षोभः
कमुक फल पत्र हयना द्राजानो वश्य मायांति ॥३१॥ महिषा गूगल कमल गट्टे के होम से प्रतिदिन नगर निवासियों को क्षोभ होता रहता है। सुपारी के फल तथा नागवल्ली पत्ता के हवन से राजा लोग वश में हो जाते हैं।
मल्लि प्रसून होमात् स धताद् वश्यं भवे नियोगी जनः
तिलधान्यानां होमैराज्यातै भवति दान्य धन वृद्धिः ॥३२॥ मल्लिका (चमेली) के फूलों को घृत सहित होम करने से योगि लोग वश में होते हैं, तिल धान्य और घी के होम से धन धान्य की वृद्धि होती है। SECT525015015050 ८९ PERISTICISIOSDISTRIOSI
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SSIOS5I055DISCISO विधानुशासन OSCADIOTSIRIDICISIOTI
कं गुप्रियंगु तिलातसिशालि कुलथ्याढकी शण श्यामाकाः
यव माष द्वय राजि वैष्ण गोधूम शिंवकौरवमुद्गाः॥३३॥ कंगु (कांगनी) प्रियंगु (सुपारी) तिल आलसी, शालि (चावल) कुलत्थी आठ की (अरहर) शण के. बीच श्यामक (सामाधन) जौं उड़द मूंग सफेद सरसों पीली सरसों विणव) यांस के चावल (गेहूं) शिबि) राजशिबी) कौद्रव (कोदों) और मूंग।
अष्टा दशधान्यानीटो एत्तद्वेदिभिः प्रभाष्टाते क्षीरं पतं गुडं च ग्रोच्यते त्रिमधुराणिति
॥३४॥ यह अठारह तरह के धान्य कहलाते हैं और दूध, घी, और गुड़ त्रिमधुर कहलाता है।
श्री राज्याप्तिः कपूर करवीर कुसुम् होमात्
स्टात भूमिकंदबक होमाम्नाग कुमारी भवेदश्या ॥३५॥ नारियल, कपूर, करवीर, पुष्प, भूमि, पुष्प और कंदब पुष्प के होम से नाग कुमारी वश में होती
पत मिश्र चूतफल निकर होमेन भवति खेचरी
वश्या वट टाक्षिणीच होमाद भवति वशा ब्रह्म पुष्पाणां ॥३६॥ आम तो घी में मिलाकर होम करने से विद्याधरी वश में होती है और ब्रह्म पुष्पो (पलाश के फूलों) के होम से यट यक्षिणी वश में होती है।
गह घूम निंब राजी लवणान्वित काक पक्षकत होमैः
एकोदर जातानामपि भवति परस्पर द्वेषं ॥३७॥ गृह धूम नीम के पुष्प राई नमक और कौवे की पांख के होम से एक पेट से पैदा हुये सगे भाइयों में भी विरोध हो जाता है।
प्रेतवन शाल्टा मिश्रित विभितकांगारि सदन धूमानां
होमेन भवति मरणं सप्ताहाद्वैरि लोकस्य ॥३८॥ प्रेतयन (श्मशान) के चावलों की विभितक (बहेडा) के अंगारों में होम करने से बैरी एक सप्ताह मे मरण को प्राप्त होता है।
अशुभै होम कुर्यात् कुद्धमणा, क्षुद्रकर्म सर्वमपि
कर्म शुभं विदधीतः प्रसन्न चितः शुभैद्रयैः ॥३९॥ CSIRISTOISIOTSIDEICISISTA ९० PIERIDDITICISIONSORSCIEN
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SSIOESDASCISIOSIOS विद्यानुशासन 25TOSRIDIO15121525 मारण आदि अशुभ कार्यों में क्रोध सहित होकर अशुभ द्रव्यों से होम करें। और शांति आदि शुभ कार्यों में उत्तम द्रव्यों से प्रसन्न चित्त होकर होम करे।
मारणोच्चाट विद्वेषः स्तंभनान्य शुभानिःच
क्षुद्राणि च वदंत्याश शुभान्यन्यानि कर्म सुः । ॥४०॥ मारण उच्चाटन विद्वेषण और स्तंभन कर्मो के अशुभ और क्षुद्र कर्म कहा जाता है। तथा कर्मों को शुभ कर्म कहा है।
इति होम विधिः प्रोक्त: सकर्तव्यो मनीषिभिः इसप्रकार यह ऊपर कही हुई होम की विधि मनीषि( इच्छुक ) पुरूषों को करनी चाहिये।
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STERISTRICISIOSSIOE विद्यानुशासन
SRISCIRRISORSCIT
IN
दिक्काल मुद्रासन पल्लवानांभेदं परिज्ञाय जपेत समंत्री
न चान्यथा सिद्धयति तस्टामंत्रः कुर्वन् सदा तिष्टतु जाप होमं ॥१॥ दिशा काल मुद्रा आसन और पल्लयों के भेदों को जानकर ही मंत्री को मंत्र का जाप करना चाहिये अन्यथा निरन्तर जप और होम करने से भी उसका मंत्र सिद्ध नहीं होता।
स्तंभं विद्वेषमात्कृष्टं पुष्टिं शांति प्रचालनं वश्यं वधं च कुर्यात् पूर्वाभिमुखः कमात्
॥२॥ मंत्र में आठ प्रकार के कार्य होते हैं स्तंभन विद्वेषण आकर्षण पौष्टिक शांति प्रचालन अर्थात् उद्घाटन वश्य और मारण कर्म इनकी सिद्धि में क्रम से पूर्व आदि दिशाओं में मुख करके बैठे।
उच्चाट शांतिकंपुष्टिं वश्यमाकष्टिम प्रियं
ऋतुषु प्रावृडाटयेषु षटसु कुर्वीत कालयित् काल को जानने वाला उद्याटन शांतिक पौष्टिक वश्य और आकर्षण के अप्रिय कर्मो को प्रविट आदि ऋतुओं में करे।
05015015015IOSDISCL ९२ BARDISCISCI5015015015
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SSIRISTRICISTORICT विद्यानुशासन ISIOISO151055815RICA
वश्य विद्वेषणोच्चाट पूर्वमध्या पराह्निके संध्यार्द्ध रात्रि राज्यंते वद्य शांतिक पौष्टिकं
॥४॥ वश्य कर्म को प्रातःकाल, विद्वेषण, मध्यकाल, उच्चाटन को अपराह्न काल, वध को संध्या काल, शांति को मध्य रात्रि और पौष्टिक कर्म को रात्रि के अंत में करे।
कृष्णाष्टम्यांमथ तद्भूत तिथौ वा कुजांशकाभ्युदटो
दुष्टग्रह शुभग्रह लग्ने प्रविशे जो कृष्णा अष्टमी अथवा उसी भूत की तिथि अथवा मंगल के अंशो के निकलने पर दुष्टग्रह के लग्न में दुष्ट कार्य को और शुभ ग्रह के लग्न में शुभ कार्य को करे।
पितृपौस्त्र वरणविधि हरि गुरुत्तरा त्रय कर त्रयादि तपः ताराः
शांतिक पौष्टिक कर्मणि सिद्धि प्रदाः कथिताः ॥६॥ शांतिक और पौष्टिक कर्म में विशेष करके कृष्ण पक्ष का पुष्य नक्षत्र और सामान्य रूप से कृष्ण पक्ष सिंह लग्न (राशि) वृहस्पति वार उत्तरा, फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र तथा वव वासव और कोलवकर्ण सिद्धि प्रद कहे हैं। -
रिक्ताष्टमी पर्व सु कृष्ण पक्षे कुजार्कि भास्वद ग्रह वासरश्च
शांतिश्च पुष्टि श्च विधिः फलाय नस्यादिति ज्योतिष विद्भिरुक्तं ॥७॥ कृष्ण पद की रिक्ता चोथ, नवमी, चतुर्दशी अथवा अष्टमी तिथि मंगल, शनि अथवा सूर्यग्रह और दिन का समय शांति और पौष्टिक कर्म के लिये विद्वानों ने कहा है।
अष्टम राशिः कुलिको वैनाशिक तारकास्थ चिरयोगः
अंगारस्य तु वारो भवत्परं क्षुद्रकम संसिद्धयै ॥८॥ क्षुद्र कर्म की सिद्धि के लिये वृश्चिक राशि अश्विणी अश्लेषा मधा ज्येष्टा मूल और रेवती यह वैनाशिक नक्षत्र विष्कुंभ सोभाग्य सुकर्मागंड ध्रुव वज़ वर्याण सिद्ध द्वितीय सिद्ध शुक्ल और वैधृति यह चिर योग तथा मंगल वार को लाभप्रद बतलाया है।
साध्य सानु गुणेषु ग्रहेषु सिद्धयति तरां
शुभं कर्म अननु गुणे श्वशुभानिक्षणेन सिद्धंयाति कर्माणि ॥९॥ शुभ कर्म को उसके अनुकूल शुभ गुणवाले ग्रहों में अशुभ कर्म को उसके अनुकूल अशुभ गुणवाले ग्रहों में सिद्ध करने में तुरंत ही सफलता मिलती है। CI501525TOISTORICISIOTA ९३ PADRISTOTRIOSISIOTECTRICTS
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OSSISTRI50150150 विद्यानुशासन 950151215CISIONSIOS
अंकुश सरोज बोध प्रवाल शव यज मुद्राः स्युः आकष्टि वश्य शांतिक विद्वेषण रोध वध समटो
॥१०॥ आकर्षण में अंकुश, वशीकरण में सरोज, शांति पौष्टिक में योध, विद्वेषण तथा उच्चाटन में प्रवाल स्तंभन में शंख और मारण में वन मुद्रा होती है।
दंड स्वस्तिक पंकज कुर्कट कलिशोधभद्र पीठानि
आसन विद्या प्रयोज्यन्युक्ते ष्वाकर्षणोषु ॥११॥ फिर उन आकर्षण आदि में क्रम से दंड स्वस्तिक पंकज कुर्कुट वज और भद्र आसनों का प्रयोग करना चाहिये।
वषट वश्तो फट उच्चाटे ई देखे पौष्टिके स्वधा वौषट आकर्षणे स्वाहा शांती घे घे थ मारणे
॥१२॥ फिर वशीकरण में वषट् पल्लव, उचाटन में फट, विद्वेषण में हुं, पौष्टिक में स्वधा, आकर्षण में वौषट, शांति में स्वाहा और मारण में घे घे पल्लव का प्रयोग करें।
आकष्टौ संवश्ये शांतीद्वेषेचरोधने व क्रमशः
उदद्यार्क रक्त शशधर धूम्र हरिद्रासिता वर्णाः ॥१३॥ फिर आकर्षण में उदय होते हुए सूर्य के समान वर्ण, वश्य में लाल, शांति में श्वेत, विद्वेषण में धूम, वर्ण, स्तंभन में हल्दी के समान पीला और मारण में कृष्ण वर्ण का उपयोग करें।
पीता रूण सितैः पुष्पै स्तंभनाकष्टि मारणे शांति पौष्टिकटोः श्वेतैर्द्रम वर्णः प्रचालने
॥१४॥ फिर स्तंभन में पीत वर्ण पुष्प, आकर्षण में रक्त, मारण में कृष्ण, शांति में वेत, पौष्टिक में श्वेतवर्ण के पुष्पों का प्रयोग करें।
लोहित छविभि वश्ये विद्वेषेऽजन सन्निभैः जप होमार्चनान्यत्र तत्त कुर्याणि मंत्र वित्
॥१५॥ मंत्र शास्त्र के ज्ञाता वशीकरण के जप होम और पूजन में लाल वर्ण के सब द्रव्य लेवे । विद्वेषण में अन्जन के समान वर्ण वाले द्रव्यों का प्रयोग करे।जप होम और पूजन के कर्म मंत्र की तरह द्रव्य काम में लावे।
SASICISTRISIRIDICISTRISTOTL ९४ PIRICISDISTRISTRI5105510558.
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BASICSIRIDIODIOTSIDE विद्यानुशासन RISTOTSIDISTRISASTEROTES
कुंभकं स्तंभननाटोषु रेचकं चालनादिषु कपूरक
चांगनाकृष्टि प्रमुख च प्रयोजयेत ॥१६॥ स्तंभन आदि कर्मो में कुभंक, प्राणायाम चालन आदि में रेचक, और स्त्री आकर्षण आदि में एक प्राणायाम का प्रयोग करें।
दीपन पल्लव संपुट रोद्य ग्रंथना विदर्भनं कुर्यात्
शांति द्वेष वशीकृति वधन स्त्र्या कृष्टि स्तंभनं कुर्यात् ॥१७॥ शांति पौष्टिक में दीपन, विद्वेषण, उच्चाटन में पल्लव, वश्य में संपुट, मारण में रोध, स्त्र्याकर्षण में ग्रन्थ तथा स्तभंन में विदर्भ न की रीति से जप करे।
आदौ नाम निवेशो दीपनमंते च पल्लवो ज्ञेयः तन्मध्य गतं संपुट मयादि मध्यांत गोरोध:
॥१८॥ ग्रंथितं वर्णातरीतं द्वराक्षर मध्यस्थितो विदर्भः स्यात्
षट्कर्मकरण मेत त ज्ञात्वानुष्टानमा चरेत्मंत्री ॥१९॥ नाम को मंत्र के आदि में रखना, दीपन नाम को मंत्र के अंत में रखना, पल्लव मंत्र के बीच में रखना संपुट और आदि मध्य तथा अंत में रखना रोध कहलाता है। नाम के एक एक अक्षर के पश्चात मंत्र रखने को ग्रन्थ तथा नाम के दो दो अक्षर अक्षर के पश्चात मंत्र रखने को विदर्भन कहते हैं। यह छहों कर्मों को करने की क्रिया है मंत्री इसको जानकर ही अनुष्ठान करें। देवदत्त ह्रीं दीपनं
शांति व पौष्टिक कर्म ह्रीं देवदत पल्लव
विद्वेषण उचाटन कर्म ह्रीं देवदत्त ही संपुट
वश्य कर्म दे ह्रीं व ह्रीं दहीं दहीं त ग्रन्थन स्त्री आकर्षण कर्म ह्रीं तहीं दहीं वहींद विदर्भन स्तंभन कर्म
अमुकपदोप पदेषु मंत्रेश्वोपक्रमो न संग्राह्याः अभिधानं तद्रूप विन्यस्टोत्तत्यद स्थाने
॥१९॥ अमुक अमुक पद उपपदों में इस उपरोक्त विधि का प्रयोग न करे यह जान कर ही उस मंत्र का उस स्थान में प्रयोग करें। SSIODRISISTERIORISRAL ९५ PXSTOECISIOSDISCTRICISS
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252525252525 dengguna 3525252525205
स्फटिक प्रवाल मुक्ता चामीकर पुत्रजीव कृत मणिभिः अष्टोत्तर शत जाप्यं शांत्याद्यर्थं करोतु बुधः
॥ २० ॥
शांति कर्म में स्फटिक मणि से वश्य तथा आकर्षण में प्रवास (मूंगे ) से, पौष्टिक में मुक्ता से, स्तंभन से सुवर्णकी माला से माराण विद्वेषण तथा उच्चाटन कर्म में पुत्र जीव (जीया पोता) कृत मणी की माला से पंडित कौं ।
मोक्षाभिचार शांतिक वश्या कर्षेषु योजये क्रमशः अगुंष्टाद्यं गुलिका मणियोगुष्टेन चाल्यंते मोक्ष की इच्छा में अंगुठे,
॥ २१ ॥
मारण विद्वेषण तथा उद्घाटन में तर्जनी से, शांति तथा पौष्टिक कर्म
में मध्यम, वश्य कर्म में अनामिका और आकर्षण तथा स्तंभन कर्म में कनिष्टा उंगुली से जप करे मणिया अंगुठे से ही चलाई जाती है।
कुर्याद् वाम हस्तेन वश्या कर्षण मोहनं दक्षिणेनाखिलं होमं शिष्टाः सर्वे क्रिया अघि
॥ २२ ॥
बायें हाथ से वशीकरण, आकर्षण और मोहन कर्म, कर्म को करे, शेष क्रियायें और सभी होम दाहिने हाथ से ही किये जाते हैं।
वाम वाची प्रवृत्ति स्याद्वश्यं शकादि साधनं, दक्षिणे कृष्टि नाशादिरुभयो मोक्षि साधनं
॥ २३ ॥
बायें स्वर के चलने पर वशीकरण और इन्द्र आदि (शत्रु आदि) का साधन करना चाहिये दाहिने स्वर के चलने पर स्तंभन और मारण आदि धर्म करने चाहिये तथा बायें और दाहिने दोनों स्वरों के चलते वक्त मोक्ष का साधन करना चाहिये ।
वसंतं ग्रीष्मं प्रावृट शिशिरं शरदं तथा हेमंतश्चेति विज्ञेयाऋतवोत्रदिनेदिन
॥ २४ ॥
वसंत ग्रीष्म प्रावृत (वर्षा) शिशिर शरद और हेमंत ऋतुयें प्रतिदिन आती रहती है।
वसंत विद्वि पूर्वान्हं ग्रीष्मं मध्यदिनं विदुः प्रावृत अपरान्हं प्राहुः संध्यां शिशिर मादिशेत्
॥ २५ ॥
पूर्वान्ह को वसंत, मध्यान्ह को ग्रीष्म, अपरान्ह प्रावृट या वर्षा और संध्या को शिशिर कहते हैं। (वर्षाऋतु अषाढ़ शुक्ल १ से भादौ शुदि अमावस्या तक जाने)
95959595913969 ९६ P519590595195195
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मध्य रात्रं शरत्काल प्रत्यूषं च हिमं विदुः
घटिका दशभुंजंति प्रत्येकं ते दिनोदयात्
॥ २६ ॥
मध्यरात्री को शरद ऋतु और प्रातःकाल को हिम या हेमन्तऋतु कहते हैं। यह सभी ऋतुएं दिन के उदय होने से दस दस घड़ी तक रहती है।
आकर्षण वसंतस्या ग्रीष्मे विद्वेषणं कुरु प्रावृटयुच्चाटनं कर्म शिशिरे मारणं तथा
शरत्सु शांतिकं कुर्यादुहेमंते पौष्टिकं क्रिया ज्ञात्वा स्वकाल बेलायां सर्वकर्माणि कारयेत्
॥ २८ ॥
आकर्षण को वसंत ऋतु में, विद्वेषण ग्रीष्म में, उच्चाटन वर्षा में, और मारण कर्म शिशिर ऋतु में करे ।
शांति कर्म को शरद ऋतु में और पौष्टिक कर्म को हेमन्त ऋतु में करे। सब कर्मों का समय जानकर अपने अपने ही काल में करे ।
अथ मंडलोद्धारः
अन्योन्य वज्र विद्धं पीतं चतुर स्त्रमवनि बीजयुतं कोणेषु रातं युक्तं भूमंडल संज्ञकं ज्ञेयं
पीतवर्ण और चौकोर दो वजों से बिंधा हुवा चारों कोणों में लं बीज सहित पृथ्वी
॥ २७ ॥
नीरज भूषित वदनं कलशाकारं चतुर्वकारंयुतं श्वेतजल बीजं युतं मंडल माहुराचार्याः
मुख मूल वपोपेतं पत्राकितः सितः
पंच वर्णात्तद्दिकोण: कलशस्तोय मंडलं
1138 11 मंडल कहलाता है ।
|| 30 ||
कमल से शोभित मुख वाला कलश के आकार वाला और चार वकार युक्त श्वेत वर्णवाला तथा मध्य में प ( जलबीज) लिये हुवे यंत्र को आचार्यों ने जल मंडल कहा है।
|| 30 ||
मुख
की जड़ में वे और प से युक्त कमल के चिन्ह सहित पं और यं वर्णों से दिशाओं में भरा हुवा कलशा कार श्वेत यंत्र को जल मंडल कहा है।
अर्द्धनु मंडलाकारं प्राहु वरुणमंडलं केचित्त त्रापिनान्यस्य भेदो भवति लक्ष्मणाः
9595959159159597 ९७ P51969595959SPSY
॥ ३१ ॥
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esese596PSPE विद्यानुशासन 9595905959595
अर्द्धेन्दु चन्द्राकार यंत्र को वरुण मंडल कहते हैं। किन्तु उसमें कोई ऐसा चिन्ह नहीं होता जिसमें उसका अन्य यंत्रों से भेद किया जा सके।
त्रि स्वस्तिकं त्रिकोणं यांत्तं कोणेषु वह्नि बीज युतं ज्वाल युत्त मरुणामं तन मडंल माहुराग्नेयां
॥ ३२ ॥
तीन स्वस्तिक वाले त्रिकोण कोणों में अग्रि बीज रं युक्त ज्वाला सहित अरुणज्योति वाले यंत्र को अग्निमंडल कहते हैं ।
बहु विंदु वक्रं रेवं वृत्ताकारं चतुर्थकार युतं कृष्णं मारुत बीजं वायव्यं मंडलं प्राहुः
|| 33 ||
बहुत से बिन्दु और टेढ़ी रेखाओं वाले गोलाकार चार मारुत बीज यः सहित कृष्ण पत्र को वायुमंडल कहते हैं ।
चत्वारि मंडलानि च लवस्य वर्णेः क्रमेण युक्तानि पृथ्वी सलिल हुताशन मारुत बीजैः समेतानि
|| 38 ||
क्षिपं रं यं बीज सहित ल व र य से पृथ्वी जल अग्नि वायु से चारो मंडल बने हैं।
विन्दु पंचक संयुक्त मुत्तमाकार मंडलं दिग विदिगात हाकार हंकारं पंच वर्णक
॥ ३५ ॥
इस प्रकार ल सहित पृथ्वी मंडल व सहित जलमंडल रसहित अग्निमंडल और य सहित वायुमंडल को बनावे | पांच विन्दु सहित उत्तम आकार वाला दिशा तथा विदिशाओं में हा बीज याला हंकार रूप पंचवर्ण आकाश मंडल होता है ।
मंडलानां यदा मध्ये नामादि न्यास उच्यते तदा मध्य स्थितं बीजं महादिक्षुनिवेशयेत
॥ ३६ ॥
जब इन मंडलों के बीच में नाम आदि का रखना बतलाया जाये तो मध्य के बीज को महादिशाओं
में रखें।
मंडल लक्षण मेतन्निरूपितं प्रथमेव सर्वेषां एतत्सं बंधतया यंत्राणां वक्ष्य माणेन
॥ ३७ ॥
पीछे मंडलों के वर्णन में लिखा गया था कि इनके यंत्रो का वर्णन आगे लिखा जावेगा अस्तु यह वर्णन यहाँ कर दिया गया।
OSPAPSPSS ९८ PSP595959595
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252525252525 dagoen Y525252525V5.
जप में दिशा- कालादि का विचार
१. अष्ट कर्मों के जप में दिशादि का चार्ट
नं. कर्म
१. दिशा
२.
समय
३. मुद्रा
गदा
४. आसन विकटासन कुर्कटासन
५.
पल्लव
ठः ठः
हुं हुं
६.
वस्त्र
पीत
७
पुष्प
पीत
वर्ण पीत
८.
९.
स्तंभन विद्वेषण आकर्षण
आग्नेय दक्षिण मध्यान्ह पूर्वाह्न
पूर्व
पूर्वाह
विन्यास आक्रांत
गर्भित
१२. मणियें
पुत्रजीवि
१३. अंगुली
१०. प्राणायाम कुंभक
११. मामा
नीम
के फल
स्वर्ण
कनिष्ठा
अंगुष्ठा
दक्षिण
दक्षिण
१४. हाथ
१५. स्वर
१६. ऋतु वसंत १७. मण्डल पृथ्वी १८. योग
चर
१९. करण
२०. दानों की १५ संख्या २९. दिवस रवि, शनि
मंगल
मूशल पाश
धूम्र पाचांत
रोधन
ग्रीष्म
वायु
चर
रेचक
रीठे
के फल
पुत्रजीवि मूंगा
तर्जनी
१५
दंडाशन
बौष
शुक्र, शनि
बाल रवि
ग्रंथित
पूरक
कमल
के बीज
कनिष्ठा
वाम
वाम
वसंत
अग्नि
स्थिर
१०८
1
पौष्टिक शांतिक नैऋत्य पश्चिम
अंतरात्रि मध्यरात्रि
कमल
पद्मासन
स्वधा
प्रवेत
संपुट
सर्वतो
मोती
मध्यमा
।,
मुख विदर्भ
ग्रसित
-
पद्मासन
T
श्वेत
श्वेत
हेमन्त 'शरद्
जल
जल
कृष्ण
४,८
ad, बालव
कौलव
१०८ १०८
उच्चाटन वश्य
मारण
वायव्य उत्तर ईशान
अपराह्न
पूर्वान्ह
संध्या
वज्र
पाश
खड़ग
वज्रासन स्वस्तिकासन भद्रासन
जाण
गूढ़ धूम्र
समस्त
आनंत
गर्भित
विदर्भित
स्फटिक पुत्रजीवि मूंगा
तर्जनी
वायु
घर
१५
रवि शनि बुध, शनि, शनि
मंगल
रक्त
कृष्ण
मन्थन सस्त
गर्भित
आद्यन्त
गर्भित पल्लव
कपल
के बीज
दक्षिण ब्राम दक्षिण
दक्षिण वाम
दक्षिण
वर्षा
शिशिर
अग्नि
चर
कृष्ण
८, १४
अनामिका तर्जनी
बसन्त
जल
स्थिर
रेचक
१०८
२२. पक्ष
कृष्ण
शुक्ल
२३० तिथि अष्टमी, ८.९.
२,३
ちからもちこちでたら らにたちやらでらでらみ
१५
गुरू, सोम, रवि शनि,
मंगल
कृष्ण
शुक्ल
४. ६
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S501510505DIDOE विधानुशासन 9501501510525059
पूर्णा, अमावस्या १०, ११ २४. नक्षत्र अश्विनी, वैवाहिक पुष्य,उत्तरा
वैनाशिक पुष्य, उत्तरा वैनाशिक मघा-ज्येष्ठा - त्रय
मूला, रेवती २५. लग्न वृश्चिक - - सिंह . वृक्षिक . वृश्चिक २६. तत्वोदय पृथ्वी आकाश अग्नि जल
बायु अग्नि - २७. अक्षर पृथ्वीबीज आकाशबीज जलबीज चन्द्रबीज
वायुबीज जलबीजअग्निबीज
जल
पृथ्वी महरा
वायु मंडल
JH
स्वा
नि
AMILA
जानमाल
O50505OTECISIOTSITA ९०० PSIRIDICISIOSISTRICISIOISS
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________________
CERISTRICTERIST
विह्यानुशासम
STORIDASIDASIRISTOTSS
जल मंडल
महिन महल
m
00 में
क्षि
क्षि
CISIOROTICISIO5CISION १०१ PISCERT505RISIODES
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________________
959595955 विद्यानुशासन 95959595959
अनुक्तमपि सर्वेषां यंत्राणां क्षितिमंडलं बाह्यदेशे विलेख्यं स्यान्नरेन्द्रयंत्र कोविदै :
यंत्र शास्त्र के पंडित बिना कहे भी यह सब यंत्रों के बाहर पृथ्वी मंडल बनावे |
एषां भूमंडलादीनाविद्या प्रायः प्रयोगवित् स्थभेन च तथा शांतौरामाकृष्टौ प्रचालने
॥ ३८ ॥
॥ ३९ ॥ स्तंभन कर्म में पृथ्वी मंडल शांति पौष्टिक और वश्य कर्म में जल मंडल स्त्री आकर्षण में अग्नि मंडल तथा मारण विद्वेषण और उच्चाटन में वायु मंडल बनावे यह इन मंडलों का प्रयोग है। चतुर्भिमंडलै कुर्यात्ः पृथ्वी तोयाग्निमारुतैः वेडस्य स्तंभन नाशस्तोभ संक्रमणानि च
॥ ४० ॥
किसी के स्तंभन मारण स्तोभ और सक्रमण रूप मिश्र कर्म में उपरोक्त चारों ही मंडलों का प्रयोग करे अब दूसरे प्रकार से छहों कर्मों का कथन किया जाता है।
प्रकारांतरेणापि षट्कर्म कथनं
स्त्री पुं नपुसंकत्वेन त्रिधा स्टुमंत्र जातय:
श्री स्त्री मंत्रा वह्निजायांता (स्वाहांता) नमोतांश्च नपुंसका ॥ १ ॥
मंत्र के फिर भी तीन भेद होते हैं स्त्री पुरुष नपुंसक इनमें से श्री तथा स्वाहा अंत वाले मंत्र स्त्री और नमः अंत वाले नपुंसक होते हैं।
शस्तावश्येषू च्चाटनेषु च क्षुद्र क्रियामयध्वंसे स्त्रियोन्यत्र नपुसंकाः
शेषाः
पुमांस स्ते
॥ २ ॥
और शेष मंत्र पुरूष मंत्र होते हैं। वश्य कर्म उद्घाटन कर्म तथा क्षुद्र कर्म और पाप नष्ट करने में
स्त्री मंत्रो का और शेष कर्मों में पुरूष मंत्रो का प्रयोग करे।
(स्वाहांता उकारस्तार अंत, अग्निः रं ह ह प्रायो बाहुल्येन यस्मिन्)
तारांताग्नि वियत् प्रायोमंत्र आग्नेय इष्यते
इष्टौ शोम्य प्रशस्ती तौ कर्मणः क्रूर सौम्ययोः
113 11
अंत के ऊंचे बीज अग्नि बीज और वियत आकाश बीज वाला मंत्र आग्नेय कहलाता है।
इसका प्रयोग क्रूर कर्म में करना चाहिये और सौम्य मंत्र का प्रयोग प्रशस्त कर्म में करने योग्य है ।
आग्नेय मंत्र सौम्यः स्यात् प्रापसोन्तेन नमोत्वितः, सौम्य मंत्र स्तु विज्ञेयः फट् कारेणान्वितोंततः
95959SP595969 १०२ P/5959595969595
॥ ४ ॥
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252525252595_fdengpura 95PSPSI
595
आग्नेय कर्म के मंत्र में नमः लगा देने से यह सौम्य मंत्र हो जाता है और सौम्य मंत्र के अंत में फट लगा देने से वह आग्नेय मंत्र हो जाता है।
स्वायंकालो याम वहां जागरो दक्षिणे वह: आग्नेयस्य मतः सौम्यमंत्र स्यैतद्विपर्ययः
॥५॥
बायाँ स्वर चले तो स्वापकाल सूता हुया काल, दाहिना स्वर चले तो जाग्रतकाल अग्नि तत्व हो तब सौम्य मंत्र जपे तो उल्टा होता है।
प्रबोध कालं जानीयादुभयोरुभयोरपि स्वापकालेतु मंत्रस्य जपौनैव फलावहः
॥६॥
स्वापकाल में सोता हुदा चन्द्रस्वर में कार्य धीरे हो । सौम्य अथवा आग्नेय (उभय) दोनों ही के लिये प्रबोध (जाग्रत) काल जानना चाहिये। किन्तु जपने के समय स्थापंकाल होने से विशेष फल मिलता है।
वश्याकर्षण संतापे होमे स्वाहा प्रयोजयेत क्रोधोपशमने शांतौ पूजने च नमोभवेत्
वश्या आकर्षण और संताप के होम में स्वाहा शब्द का प्रयोग करें और क्रोध शांत करने में शांत कर्म में पूजन में नमः पद को लें ।
॥७॥
सं वषट् मोहन उद्दीपन पुष्टि मृत्युंजयेषु वा हुकारं प्रीति नाशे च छेदने मारणे तथा
112 11
संमोहन, उद्दीपन, पुष्टि अथवा मृत्युंजय में वषट तथा प्रीति नाशछेदन और मारण में हुं का प्रयोग
करें ।
उच्चाटने च विद्वेषे तथा चात्मकृते वषट विघ्न ग्रह विनाशे च हुं फट्कारं प्रयोजयेत्
उच्चाटन विद्वेषन और दूसरों को अपना बनाने में वषट तथा ग्रह का विघ्न नष्ट करने में हुं फट का प्रयोग करें।
मंत्रोद्दीपन कार्ये च लाभालाभे वषटस्मृतः एवं कर्मानुरूपेण तत्तन्मंत्र प्रयोजयेत्
॥ ९ ॥
॥ १० ॥
मंत्र का उद्दीपन करने लाभ और अलाभ में वषट का प्रयोग करें इस प्रकार हर एक कर्मों के अनुसार उस मंत्र का प्रयोग करें।
PSPAPSPSPSPSP १०३ Po959529695955
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C52525252525 fangmera 9505
ह्रीँ
देवदत्त
पलव
ह्रीं दे ह्रीं व ह्रीं द ह्रीं त ह्रीं ग्रन्थनं देहीं नहीं द हीं नहीं रोत देवदत्त ह्रीं देवदत्त दीपनं ह्रीं ह्रीं ह्रीं व ह्रीं दे विदर्भनं ह्रीं देवदत्त ह्रीं संपुट
ग्रंथितानां प्रभेदेन मंत्राण वक्ष्यतेऽधुना ग्रंथितं संपुटं ग्रस्तं समस्तं च विदर्भितं
तथा चाक्रांत माद्यंत गर्भितं सर्वतोमुखं तथा युक्ति विदम्बं च विदर्भ ग्रंथितं तथा
इत्येकादशधामंत्राः प्रयुक्ताः कार्यसिद्धि दाः साध्य नामार्ण में कैकं मंत्रानकं प्रयोजयेत् ग्रंथितं तत्समाख्यातं वश्या कृष्टिं फल प्रदं
21559
शांति पुष्टिं करं ज्ञेयं त्रैलोक्यैश्वर्यदायकं अर्द्धमद्धं तथायंते मंत्रं कुर्याद्विचक्षणः
॥ ११ ॥
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
अब सब मंत्रों को गूंथने के विशेष भेद कहे जाते हैं। ग्रंथित संपुट ग्रस्त समस्त विदभित आक्रांत आत गर्भित सर्वतोमुख विदर्भ- विदर्भ ग्रंथित इस प्रकार यह ग्यारह प्रकार के मंत्र कार्य की सिद्धि देने वाले प्रयोग करने चाहिये। साध्य के नाम के एक एक अक्षर के साथ एक एक बार मंत्र का प्रयोग करने को ग्रंथित कहते हैं । यह चश्य और आकर्षण में फल दायक होता है। मंत्र मादौ वदेत्सर्व साध्य संज्ञामनंतरं विपरीत पुनश्चांत मंत्रं तत्संपुटं मतं
1188 ||
जिसमें आदि में मंत्र फिर साध्य का नाम और अंत में फिर मंत्र बोला जाये उसे संपुट कहते हैं।
॥ १५ ॥
यह शांति और पुष्टि करने वाला तथा तीन लोक के ऐश्वर्य को देने वाला है जिनके आदि और अंत में आधा मंत्र और बीच में साध्य का नाम हो
मध्ये चारय्या भवेत्साध्यांग्रस्त मित्य भिधीयते अभिचारेषु सर्वेषु योजयेन्मारणेषुच
उसे ग्रस्त कहते है इसका मारण आदि सभी व्यभिचारों में प्रयोग करे।
ES2505PSPJESME· 15052525252525.
॥ १६ ॥
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________________
i
95959595
विधानुशासन 9595959599105
अभिधानं वदेत्पूर्व पश्चात्मंत्रं तथा वदेत
एतत समस्त मित्युक्तं शत्रूच्चाटन कारकं
॥ १७ ॥
जिसमें पहले नाम और मंत्र बोला जाये वह उच्चाटन करने वाला समस्त कहलाता है।
द्वौ द्वौ मंत्राक्षरौयत्र एकैकं सांध्य वर्णकं विद्वभिर्वतं तु तत्प्रोक्तं दुष्टुमु वश्य लक्षणं
॥१८॥
जिसमें दो दो मंत्र के अक्षर और एक एक साध्य को नाम का अक्षर आवे उसे वश्य कर्म का करने वाला विदर्भित कहते हैं।
मंत्राणारितं साध्यं समंता तिष्टते यदि आक्रांतं तद्विजानीयात्सद्यं सर्वार्थ सिद्धिदं
॥ १९॥
यदि साध्य का नाम चारों तरफ मंत्र से घिरा हुवा हो तो उसे सब अर्थों को सिद्धि करने वाला आक्रांत कहते हैं।
तोभ स्तंभ समावेश वश्योच्चाटन कर्मसु सकृत्य सर्व वदेन्मंत्र मंते चैव तथा पुनः
॥ २० ॥
वह स्तोभन स्तंभन आवेशन वश्य और उद्घाटन कर्मों में काम में आते हैं, जिससे जिसमें आदि
में एक बार पूरा मंत्र और अंत में भी पूरा मंत्र कहें ।
मध्ये चास्य भवेत्साद्य माद्यतं मितित द्विदुः अन्योन्य प्रीतियुक्तानां विद्वेषण करं परं
॥ २१ ॥
तथा मध्य में साध्य का नाम हो तो उसे आद्यंत कहते हैं। यह दो व्यक्तियों में विद्वेषण करते हैं।
·
आदौ चांते तथा मंत्रं द्विधातं सं प्रयोजयेत् साध्य नाम स कृन्मध्ये गर्भस्थिंतु तदुच्येत्
॥ २२ ॥
आदि और अन्त में दो बार मंत्र का प्रयोग करके बीच में एक बार साध्य का नाम रखने को गर्भस्थ कहते हैं ।
मारणोच्चाटनं वश्यं प्रयुक्तकारयेन्नृणां हंतिनौ सो नदीगर्भ स्तंभनं च गतिं तथा
॥ २३ ॥
मनुष्यों के मारण उच्चाटन यश्य में तथा नदी स्तभंन नौकाभंजन और गर्भ स्तंभन में प्रयोग किया जाता है।
95959695959594 १०५ 959595959595
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959596959 विधानुशासन 959595959595
त्रियां मंत्र जपेत्सव तथैवांतेपुनस्त्रिधा सकृत्साध्यं भवेन्मध्येत द्वियांतेसर्वतोमुखं
॥ २४ ॥
जिसमें आदि और अन्त में तीन तीन बार मंत्र जपा जावे और नाम बीच में एक ही बार है। उसे सर्वतोमुख कहते हैं।
सर्वोपसर्ग शमनं महामृत्यु विनाशनं
सर्वसौभाग्य जननं मृतानाममृत प्रदं ॥ २५ ॥
यह सब उपसर्गो को शांत करने वाला, महामृत्यु को नष्ट करने वाला, करने वाला और देवताओं को भी अमृत देने वाला है।
आदौ मंत्र ततो नाम पुनमंत्रं समादिशेत
एवमेव त्रिधा कृत्वा भवेद्युक्तिं विदर्श्वितं ॥ २६ ॥
जिसमें आदि में मंत्र फिर नाम और फिर मंत्र इस प्रकार तीन तीन बार किया गया हो उसे विदर्भ कहते हैं ।
सर्व व्याधि हरं प्रोक्तं भूतापरमार मर्द्दनं एकैक साध्य वर्णतु कृत्वा मंत्र विदतिं
सर्वसौभाग्य को उत्पन्न
॥ २७ ॥
यह सब व्याधियों को नष्ट करने वाला, भूत और (मृगी) रोग को दूर करने वाला है। जिसमें साध्य के नाम के एक एक अक्षर को मंत्र के साथ विदर्भित किया जाये।
पूर्व वत्कथितं वश्यार्धते च ते प्रकल्पयेत् विदर्भग्रंथितं नाम मंत्र लक्षण मत्तमं
॥ २८ ॥
सर्व कर्मकरं प्रोक्तं सर्वैश्वर्य फल प्रद एवमेते प्रयोगांस्युः सिद्धा मंत्रस्य सिद्धिदां अथ अक्षर नामानि
पहिले के समान आदि और अंत में प्रयोग किया जावे उसे विदर्भ ग्रंथित कहते हैं। यह सब कार्यों को करने वाला और सभी ऐश्वर्य के फल को देने वाला है यह मंत्र की सिद्धि देने वाला सिद्ध प्रयोग है । अब अक्षरों के नाम कहे जाते हैं।
2525252525PSP: ‹•; PSRS25E525252
॥ २९ ॥
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________________
महान वामेऽजितो ज्योति रितो जिष्णुः कवि मुनिः शंभु विश्वो विभुर्योगी वरदो विदितः शुभः सत्योच्चत स्थाष्णुर वारीरांठ्यः देवो गुरूशांति। र भी र पायः श्रेयान् सुधी'नेंमिर पैंण आटौं:
पूज्यः पुमानभुष्ण रमोय आप्तौ नित्यःपुराणो विमलो विविक्तः पार्थो गणेशःपरमः स्वयंभूः (क्रमेण संज्ञाश्च महाक्षराणां) विश्धो महात्मा प्रणिधिश्च्युतेशः महान(अ) वाम (आ) अजित (इ) ज्योति(ई) इति (उ) जिष्णु (ऊ) कवि(झ) मुनि (ऋ) शंभु (लु) विश्व (ल) विभु (ए) योगी (ऐ) वरद (ओ) विदित (औ) शुभ (अ) सत्यः (अः) चल (क) स्थाष्णु (ख) अव (ग) अरि (घ) आदय (ङ) देव (च) गुर (छ) शांति (ज) अभि (झ) पाय (अ) श्रेयान (ट) सुधी (ठ) नेमि (ड) अघ (3) अवार्य (ण) पूज्य (त) पुमानाय) भूष्णु (द) अमोघ (ध) आप्त (न) नित्य (प) पुरा तिमल !! निटिशा भाग म) शाय) परम (२) स्वयंभू (ल) विश्व(ब) महा (श) आत्मा (ष) प्राणिधि (स) अच्युतेष (ह) यह क्रमशः महाअक्षरों की संज्ञायें हैं।
इत्याष्ये विद्यानुशासने अशेष परिभाषा विद्यानामः तृतीयः समुद्देश्य: इसप्रकार विद्यानुशासन में अशेष परिभाषा विद्या नामक तृतीय अध्याय पूर्ण हुआ।
CRICROICKETCRICISTOTRICA १०७ PRICTSTOTRIOTICKETECTREIES
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________________
S50521STRISTOTRE विधानुशासन 95251055DISTRISION
। चतुर्थ अध्याय
अथ सामान्य मंत्राणां वक्ष्येत साधन क्रमः गदीटांतेऽद्भुतया शक्त्या सुबहुनि फलानियाः
॥१॥ अब सामान्य मंत्रों का साधन क्रम उनकी अद्भुत शक्ति से प्राप्त होने वाले बहुत से फलों सहित वर्णन किया जावेगा।
प्रतिमंत्रं सकली कति रूपचाराः पंच साधन विधानां
फलमप्प दिश्यते प्रायेना स्मिन समुद्देशे ॥२॥ इस समुद्देश में प्रत्येक मंत्र का सकली करण उपचार मंत्र साधन विधान और फल का वर्णन किया जावेगा।
कथितं परिभाषायां लक्षणं सकलीकते: पंचानामुपचाराणां शेषयोर्लक्षणं ब्वे
॥३॥ सकली करण की परिभाषा का लक्षण पीछे तीसरे समुदेश में कह आये हैं अब बाकी पाँचो उपचारों का लक्षण कहा जाता है।
साधनं जप होमादि तत्र तत्रोपदर्शिताः सिद्भया विद्यया मंत्री पदवाप्रोति तत्फलं
॥४॥ प्रत्येक मंत्र का जाप और होम आदि का वर्णन उस उस मंत्र के वर्णन के साथ साथ कर दिया गया है। उन मंत्रों के सिद्ध होने से मंत्री निश्चय से उनके फल को पाता है।
ॐनमो भगवते चन्द्र प्रभजिनेंद्राय चंन्द्रेद्र महिताय चंद्रकीर्तिमुख रंजिनी स्वाहा॥
चन्द्रप्रभ जिनस्यास्ट सरच्चंद्र समुद्यतेः मंत्रोऽनेक फलः सिद्धि मायात्यज्युत जापतः
॥१॥ तमग्रे दक्षिणे वामे पृष्टे च सं जपेत कमात् यंद्यमानं जिनं प्यायेत् शकाळ श्री ढुंचक्रिभिः
॥२॥ शरदकालीन चन्द्रमा के समाज कांतियाले श्री चन्द्रप्रभु भगवान का यह मंत्र दसहजार जप से सिद्ध होकर अनेक फल देता है। इस मंत्र का क्रम से भगवान के आगे दाहिने बायें और पीछे जप करे फिर उन भगवान का ध्यान इंद्र सूर्यलक्ष्मी चन्द्रमा और चक्रवर्ती रूप से ही करें।
CORDI510150150150150 १०८ PSIOSDISIONEDISCISION
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CT500501501501505 विधानुशासन 3150150510151215105
जपोऽस्य सर्वमप्यर्थ साधयेदभि वांछितं विनिहंति च नि:शेष मभिचारोंद्रवंभयं
अभिषे को गव्यै क्षीरतुर त्वकषाय सलिला तोयैसिंजप्तः क्षुद्रग्रह हद्भवेद मुना
॥४॥ इस मंत्र का जप सब इच्छा किये हुवे प्रयोजनों को सिद्ध करता है और सब मारण आदि अनुष्ठानों से पैदा हुये भयों का नष्ट करता है। उनका भगवान का गाय का दूध अथवा दूधवाले वृक्षों कीछाल के बनाये हुये जल अथवा केवल जल से अभिषेक करके जप करने से सब क्षुद्र ग्रह नष्ट हो जाते हैं।
॥१॥
अज शक्ति लाह्यापल बीजानि क्ष्मी ततश्च सोमसुधे
कुरू स्वाहे त्योषः स्यान्मंत्रः श्री पार्श्वनाथस्य मंत्रोद्धारः ॐहीं ला व्ह:पः लक्ष्मी श्वी क्ष्यी कुरूस्वाहा
मंत्रोयं यष्टितोऽजेन शक्या षोडश भिःस्वरैः स मंत्राष्टाब्ज पत्रैश्च मूलयंत्र मह स्मृतं
॥२॥ श्री पार्श्वनाथ स्वामी का मंत्र है अज (3) शक्ति (ही) ला हःप लक्ष्मी बीज सोम (इवीं) सुधा (श्ची) खु और स्वाहा इस मंत्र को अज (3) और फिर शक्ति (ही) से वेष्टित करके फिर सोलह स्वरों से वेष्टित करे इसके पश्चात बाहर आठ दल कमल बनाकर उसके प्रत्येक दल में मूल मंत्र को लिखे।
कवचत्रितयोप्रेतं टोयं मंडल पंच , हत्फणामणिसंयुक्त तत्तन्नागाभिवेष्टितं
|३|| फिर आगे लिखे तीन कवचों सहित पृथ्वी आदि पांचो मंडलों का ध्यान करे जिसमे आगे लिखी हुई हृदय मणि और फणामणि लगी हुई हो और दो नाग उनके ऊपर हैं।
आजानुनाभि हकंठ मस्तकं वं व्यस्तकमात् स्यादारोहावरोहाभ्यां पंच कृत्यः कमोत्कमात्
॥४॥ इन यंत्रो का क्रम से घुटनों से लेकर नाभि हृदय कंठ और मस्तक में चढ़ावे और उतारे इससे क्रमशः पांच बार न्यास करें।
कनिष्टायंगुली ष्यंतादम्मंडलपंचकं कनिष्ट कायाआरभ्य ज्येष्टांतवार पंचकं
STSICISCIETOISTRISTOISE १०९ PISCES100505125501555
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ASTRISTM5RISIONSIDE विधानुशासन ISI055015015015015 इस प्रकार उन पाँचों मंडलों का कनिष्टा आदि अंगुलियों में कनिष्टा से आरंभ करके अंगुठे तक पांच बार न्यास करे किसी अंग में किसी बीज या मंत्र के ध्यान करने को न्यास कहते हैं।
एक बार स्मरेबीजं हत्फणमणि पन्नगान कवच त्रिता पंच सून्यान्टंगलिषु कमात्
॥६॥ उंगुलियों में क्रम से एक बार हृदय मणि बीज फण मणि बीज नाग तीनों कवच और पांचो शून्यों का ध्यान करे।
स्वां लां ह्रीं प्रथम वर्म सरसंसः द्वितीयाकं, हरहुंहः तृतीयं स्यादेतानि कवच त्रयं
॥७॥ स्वां लां ह्रीं प्रथम कवच हे सरसुंसः दूसरे कवच है और हरहुंहः तीसरा कवच है इसप्रकार यह तीनो कवच है।
ईवा यां क्षां आं लां मां रांॐ ह्रीं च हणमणीयः स्युः
गंधं जी झी कां रवां चों छों छीं हूं तूंच फ ण मणयः ई वां यां क्षां आं लां मां रां ह्रीं यह हृदय मणिया है। गं घं जी झी का खां चो छों हूं धूं यह फण माणिया है।
स्युः शंस्यपाल वासुकि सरोज ककॉटिकारस्य कुलिकानंता:
तक्षक महातक्षक तथा जय विजयाश्च द्वंद्व मुर्वरादि भुजंगाः॥९॥ शंखपाल तथा वासुकि सरोज और ककेटिक कुलिक तथा अनंत तक्षक महातक्षक तथा जय और विजय यह पृथ्वी आदि के दो दो के क्रम से जोड़े हैं।
अयमेवं विध्य हस्तः समस्तविष निग्रहं सं स्पर्श नादिभिः कुयात्सर्व भूतं ग्रहापहः
॥१०॥ इन मंत्रों को इसप्रकार हाथों आदि में लगाकर विष वाले पुरुष को छूने आदि से सब विष तथा सभी भूत और ग्रह नष्ट हो जाते हैं।
पश्चाद्विहित दिग्बंध: सकलीक्रिययानया श्रुद्धोस्टमूलमंत्र स्थ कुर्यादाराधन त्रट
॥११॥ इसके पश्चात सकली करण से दिशा बंधन करके शुद्ध होकर उपरोक्त मूल मंत्र तीन बार पढ़े। CASIONSIOSD15035100510११० PHOTSIO1512350SIRTISITIES
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CISIOTSPIRICISIOISIOF विधानुशासन DISTRICISCISIOTECISI
विविध माणिक्यकिरण कवलित दशदिग्वलटीः सवर्ण निर्माणैः
गमणा गमणे प्रभुतिभिभागैः सप्तभिः कमात्तुंगै ॥१२॥ इसके पश्चात अनेक प्रकार के माणिक्य आदि रत्नों का किरणों से युक्त ऊँचे ऊँचे सात परकोटो से शोभित समवशरण मंडल की कल्पना करे । उन पर कोटों की दिवालों के वलय दशो दिशाओं में सोने के बने हुवे हो और उनमें जाने तथा आने आदि के मार्ग बने हैं।
उप शोभितस्य निरिवल त्रुिभवन शरासन स्टा समवशरणस्य अध्यासीनो मध्ये गंध कुटी मंडपं जगद्वंटाः ॥ १३ ॥
श्री मान जिनः स्वयंभूरष्ट महाप्राति हार्य परिवारः
गणनायकै: सुरेन्द्रेः सवै संस्तूय माणगुणाः ॥१४॥ ऐसे तीन लोकों के धनुष बाण के समान समवशरण के बीच में गंध कुटी के मंडप के अन्दर समान
ना करने बोर: आठों प्रातिहार्य से युक्त गणघरों और सब देवताओं के इन्द्रों से स्तुति किये जाते हुये श्री मान स्वंयभू (ब्रह्मा) जिनेन्द्र भगवान का ध्यान करे।
भास्वन मरकत हरितं व पर्दधद्दोष धात मल रहितं,
श्री वृक्षा द्यष्टोतर सहस शुभ लक्षणक्षुणं ॥१५॥ उन भगवान की चमकती हुई मरकत मणि के समान हरा शरीर धारण किये हुवे अष्टादश दोष सातों धातुओं और सबप्रकार के मल रहित श्री वृक्षा इत्यादि एक सो आठ हजार उत्तम उत्तम लक्षणों से युक्त ।
चरमांते च चतुर्मुख परमेष्ठी नष्ट धाति कर्म मलः
रक्षतु दुसवा पापात् सर्वानपि करूण्या शरीर भतः ॥१६॥ उत्तम चरम शरीर को धारण किये हुये चार मुख युक्त परमेष्ठि स्यरूप चारों घातिया कर्मो के मल को नष्ट किये हुवे ध्यान करेगा और उनसे मन ही मन में प्रार्थना करे कि "हे भगत्यान आप कृपा करके सब शरीर धारियों को दुःख रूप हानि से रक्षा कीजिये।"
धरेणन्द्रेण च देव्यापद्मावत्या च वंद्य मानाहिः
श्री पार्श्वनाथ देवोध्यातव्यो मूल मंत्रै स्वे ॥१७॥ फिर धरणेन्द्र और देवी पद्मावती से सेवित चरणवाले श्री भगवान पार्श्वनाथ के मूल मंत्र यंत्र में ध्यान करें। CSPECISCESCSRICA १११ PISTRICISCIECIACISCES
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संग्रह सकली रक्षा स्तोभं सं स्तंभ निर्विषा वेसो, परकृत विद्या छेदं शाकिन्युरु निग्रहं वक्ष्ये
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अब संग्रह सकली करण रक्षा स्तोभन स्तंभन निर्विषकरण आवेशन (देवता को जगाना) पर विद्या
छेदन और शाकिनी निग्रह कर्म का वर्णन किया जायेगा ।
श्री मन्नाग निकाटा नायक फण माणिक्य बाला तप श्रेणी पल्लवितांग गारूड मणि श्याम प्रभा भासुरे ध्याते पार्श्वजिनेश्वर भगवति त्रैलोक्य रक्षा मणौ, सद्यः कल्मषु कालकूट गरलं ज्वालावली शम्यति श्री पार्श्वनाथमानम्य धरणेन्द्र नमस्कृतं पाश्वाष्टकस्य संबंद्धा सद्सद्वृत्तिं विदधाम्यहं
॥ १॥
श्री मदिंद्रनद्यचाद्य मंत्र स्तुति रूपेण श्री पार्श्वनाथ भट्टारकं स्तोतु काम इदगिमाह अत्रनवभिर्वृतैर्यथाक्रमं ।
संग्रह, सकलीकरण, रक्षा, स्तोभ, स्तंभन, निर्विष, आवेश, परविद्या छेदन, शाकिनि, निग्रह कर्म्म, गर्भाः स्तुतयो विधीयते तत्र प्रथमं संग्रह गर्भास्तुति माह ॥
टीका :- नागों के समूह के अधिपति बाल सूर्य की श्रेणियों अर्थात् पंक्तियों के समान फैले हुवे शरीर वाले गारूड़ियों में उत्तम नागराज से शोभित, श्याम प्रभा के चमकते हुए तीन लोक की रक्षा करने वाले भगवान पार्श्वनाथ का ध्यान करने पर पाप रूप काल छूट विष की ज्वाला का समूह शांत हो जाता है।
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अब धरणेन्द्र से नमस्कार किये हुए श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार करके पार्श्वष्टक नाम से उत्तम छंदो का वर्णन किया जावेगा।
कहते
श्री मान इन्द्र नन्दि आचार्य श्री पार्श्वनाथ भट्टारक की मंत्र स्तुति रूप से स्तुति करते हुए हैं ।
अबनो छंदो से क्रम से १ संग्रह २ सकलीकरण ३ रक्षा ४ स्तोभन ५ स्तंभन ६ निर्विष कर्म ७ आवेषण ८ परविद्या छेदन ९ और शाकिनी निग्रह कर्म का वर्णन किया जाएगा।
श्री पार्श्वनाथजी स्तोत्र
श्री मन्नागेन्द्र स्फुरित फणमणि द्योतिताशामुरवश्री :
ॐ ह्रीं ला ह्राप लक्ष्मी पवन गगन सन्मंत्रदूता परागं (रो ह्रीं ) क्ष्मा चाग्नि प्रतीत त्रिपुर विचिति दष्टात्म वक्षस्थ हंसः ग्रीवा स्पदादि संदर्शिति वियदुदयेः पातुमां पार्श्वनाथः
टीका :- पातु रक्षतु कौ सौ पार्श्वनाथः कं मां स्तुति कर्त्तारं किं विशिष्टये सौ भगवान् श्री मन्नागेन्द्रं रूद्रं स्फुरित फणमणि द्योतिता शामुख श्रीः नागानामिंद्रो नागेन्द्रों धरणेन्द्रः श्री सर्वनागधिपत्य लक्षण शंखपाल वासुकि पद्म कर्कोट अनंत कुलिक महापद्म तक्षक जय विजयादयः तेषामाधिपत्य लक्षणा सा विद्यते यस्या सौ श्रीमान सचासौ नागेन्द्रश्च श्री मन्नागेन्द्र तस्य रुद्रा : स्फीताः स्फुरिताः सा टोपाः संतः स्फुरिताश्च ते फणाश्च तेषु मणय स्तैद्यतिता कांति नीता आशा मुखानां दिग्मुरखानां श्री योनि स भगवान तथा भूतः अत्र नागेन्द्र शब्दोपोदानात् तत्संबंधिनो अनंतादि नागा भगवत स्तदाधिपत्य च दर्शितं पुनरपि कथं भूतं ॐ ह्रीं लाव्हा प लक्ष्मी पवन गगन सन्मंत्र दूता परागं क्ष्मा वाखग्नि प्रतीत त्रिपुर विचिति दष्टात्म वक्षस्थ हंसः ग्रीवा स्पंदादि संदर्शित विदुदयः पवनः स्वा शब्दः गगनं हा शब्दः ॐ च ह्रीं चला श्च ह्वाश्च पश्च लक्ष्मीं श्च गगनं श्च एतै वर्णे: म्मिलितं सन शोभनो मंत्र: दूतस्य अपरांगं दूतापरागं दूत पृष्टभागः तत्रक्ष्मा च वायुश्च अग्निश्च क्ष्माग्न चाख्वाः पृथ्वीवाताग्नि मंडलानि प्रतीतिनि मंत्रवाद प्रख्यातानि तानि च तानि त्रिपुराणि च तेषां विचिति न्यासः दष्टस्यात्मा दष्टात्मा तस्य वक्षो हृदयं तत्र तिष्टति यो सौ हंस हंस शब्दः स दष्टात्म वक्षस्थ हंसः ग्रीवायाः गलस्य स्पंदः किं चि त्सफुरणं ग्रीवा स्पंदः स आदि व्ययेषां द्दष्टिं दंत नरव छाया दीनां ते ग्रीवा स्पंदादयः वियत् असंग्रह उदयः संग्रहः
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9501501501501505 विधानुशासन 9503STRASIRISTRISTD39 ॐ ह्रींलालापसमययन गगज सकस रच दूतांऽपरांगक्ष्मा वावग्नि प्रतीतत्रिपुर विचिति श्च दष्टात्म वक्षस्थ हंसः ग्रीवा स्पंदादयश्च तैः संदर्शितौ सम्यग्विदितौ विद्यदुदद्यौ रोन भगवता स तथोक्तः ।
तथाहिः श्री पार्श्वनाथ भट्टारकाग्रे श्रुचि प्रदेशे स्थित्वाऽष्टदल कमल कर्णिकार्य प्रणवादिकं पार्श्वनाथाय नमः इति पदं सुगधंद्रव्यै लिरिवत्वा प्रवणेवना वेष्टयित्वा पूर्वादि दलेषु ही काराद्यऽष्टाक्षरमंत्रचलिरिवत्वा त्रिगुणितमायद्यावेष्टियित्वातस्य वहि: प्रणवादिके स्वाहांते जयाय विजायाय इति पदे वलय रूपेण दत्वा तद्वाह्ये लिरिवत हुंकारादीनि स्वाहांतानि अनंताय तक्षकाय पह्माय ककोटिकाय महापद्माय शरवपालाय वासुक्ये कुलिकाय इति पदानि दत्वा पश्चाद् विधिपूर्व ॐ ह्रीं ला हा पलक्ष्मी इवीं क्ष्वी वुःस्वाहेतिमंत्रेण द्वादशे सहस्त्रं सित करवीर पुष्पैजपोदशांश होमश्च क्रियते एवमेवासौमंत्र सिद्धो भवति || उही ला हा प लक्ष्मी चल चल चालय चालय स्वाहा शाकिनी निग्रहःततःसिद्धं कत्वा नित्याभ्यासं कुर्वतेःस्वप्न दष्टागमनं कथयति तथा दूते समायते तत्काल नाडी प्रवेश निर्मन पूर्णरिक्त शीतोष्णाद्यात्म सद्भावं नष्ट चंद्रोपयोग कलिकोपकलिया उपग्रहो दयादिकं दृतस्य प्रशस्ताऽप्रशस्त तारकं सात्वा तस्य गच्छतः पधि प्टष्टतश्च पूर्वोक्त मंडल त्रय न्यासे कते मंत्रेऽवधारिते च रादा मंडल पथमाक्रमति पश्चा नावलोकयति च तदा संग्रह अन्यथा त्व संग्रहः तस्य दुधात्म वक्षस्थहंस शब्द श्रवणं ग्रीवा स्पंददृष्टि: उक्षमंत्र:दंतनरव छाया व हंसःमंत्र दशस्थानादि समस्तावयवादिपरीक्षणद्वारेण संग्रहासंग्रही ज्ञातव्यो।
इति। टीकाः लक्ष्मीवान नागेन्द्रों के बड़े तथा उठे हुवे फणों की मणियों से दिशाओं के मुख की कांति को प्रकाशित करने वाले, ई ह्रीं ला व्हा पः लक्ष्मी स्वाहा इस मंत्र का ध्यान करते हुए दूत के पीछे के भाग में पृथ्वी, वायु और अग्नि मंडल के न्यास को करें। इसे हुए के हृदय में हंसः पद लगाकरले गर्दन के फड़कने आदि के लक्षणों को संग्रह तथा न फड़कने रूप लक्षण को असंग्रह कहने वाले भगवान पार्श्वनाथ मेरी रक्षा करे। बृहत टीका:यह भगवान नागेन्द्र, शंखपाल, वासुकि, पद्म कर्कोटक अनंत कुलिक महापद्म तक्षक और जयविजय आदि नागों के स्वामी होते है। इनमें इन सब नागों का ऐश्वर्य एकत्रित रहता है। इन नागों के बड़े बड़े उठे हुए फनों में ऐसी प्रकाशमान मणियां लगी होती हैं जिनमें चारों दिशायें
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विद्यानुशासन 9595955 प्रकाशित हो जाती हैं। यह सब अनंतादि महानाग भगवान पार्श्वनाथ को अपना स्वामी मानते हुये उनके अनुचर होते हैं। इनमें से अथवा किसी भी नाग से इसे जाने पर जो दूत नाग इसे जाने का समाचार लाता हो उसकी पीठ में ॐ ह्रीं ला ह्नः पः लक्ष्मी स्वाहा इस मंत्र का ध्यान करके क्रम से पृथ्वी मंडल, वायु, अग्नि मंडल का ध्यान करके क्रम से पृथ्वी मंडल, अग्नि मंडल, का ध्यान करें | अर्थात् वह ध्यान इस प्रकार हो और फिर हँसे हुए हृदय में हंसः पद का ध्यान करे यदि इस क्रिया से हँसे हुए पुरुष की गर्दन आदि अंग फड़कने लगे तो संग्रह अर्थात् उसको बचने वाला जानना चाहिये, और यदि हंसः का ध्यान जो हृदय में हँसे हुए के किया गया है, इस क्रिया से उसका कोई भी अंग न फड़के तो उसको असंग्रह अर्थात् अवश्य मरने वाला समझना चाहिये । साथ ही साथ श्री पार्श्वनाथ भट्टारक के सामने पवित्र स्थान में बैठकर एक अष्टदल कमल की कर्णिका में " पार्श्वनाथाय नमः" इस पद को सुगंधित द्रव्यों से लिखकर तथा उस कर्णिका में लिखे हुए इस पद में हैं से वेष्टित करके पूर्व आदि के पत्रों में ह्रीं कार आदि आठ अक्षरों में मंत्र को लिखकर तीन बार ह्रीं से वेष्टित करके उसे बाहर आदि में ॐ तथा अंत में स्वाहा लगाकर जयाय विजयाय पदों को लिखे, इसके बाहर आदि में ॐ और अंत में स्वाहा लगाकर अनंताय तक्षकाय पह्याय कर्कोटकाय महापद्माय शंखपालाय वासुकाय और कुलिकाय पदों को लिखे। इसके पश्चात विधिपूर्वक 'ॐ ह्री ला ह्वः पः लक्ष्मीं इवीं क्ष्वीं खुः स्वाहा' इस मंत्र का कनेर के फूलों से बारह हजार जप और बारह सौ बार हवन में आहुति दें। इस विधि से यह मंत्र सिद्ध होता है ।
'ॐ ह्रीं ला हृपः लक्ष्मीं चल चल चालय चालय स्वाहा' यह शाकिनी निग्रह मंत्र है । उपरोक्त मंत्र को सिद्ध करके प्रतिदिन अभ्यास करते रहने से डँसे हुए पुरुष के आने का समाचार स्वप्न में विदित हो जाता है तथा दूत के आने पर उस समय नाड़ी का रहना या जाना पूर्णरिक्त शीतोष्ण आदि अपने सद्भाव नष्ट चन्द्रयोग कुलिक योग उपकुलिक योग पापग्रहों के उदय आदि स्वयं ही विदित हो जाते हैं। फिर दूत के अच्छे या बुरेपने तथा नक्षत्र आदि को जानकर जाते हुवे मार्ग में ही उस दूत की पीठ में पूर्वोक्त तीनों मंडलों का न्यास करने और मंत्र का ध्यान करने पर जिस समय वह दूत मंडल के मार्ग में आगे बैठे और पीछे न देखें उस समय संग्रह अर्थात् डँसे हुवे के बचने की पूरी आशा जाने । अन्यथा असंग्रह जाने उस हँसे हुवे पुरुष के हृदय में हंसः शब्द कान गर्दन और दृष्टि में ई वं क्षः मंत्र दांत और नाखूनों की छाया में वं हंसः मंत्र लगावे इस प्रकार दसोस्थानों के सब अवयवों के सब अवयवों की परीक्षा से संग्रह और असंग्रह जाने ।
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ॐ पहा पद्याय स्वाहा
| # মালালাব হোক।
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पाश्र्वनाथाय नमः।
ॐ पद्याय स्वाहा
ॐ वासु कियै स्वाहा
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ॐ अनन्ताय स्वाहा
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अं घं पाशधरं खरोष्ट्र महिषा रूठं च दंडांकितं पंका लिप्त विमुक्त केशमसितं कृष्णाम्बरा धारिणं तैलाभ्यंगमभिन्न लिंग विकटं भूति स्वनिं भीरुकं दुर्वारि च निवार हस्त विमुरयं दूतं यमदूतकं सित वासाश्च प्रशान्त: पुरूषोभय वर्जितश्च सुमनस्कः जीवधर जातियानपि दूतो गदिते शुभो मुनिभिः
अंधा पाश धारण किये हुए, . ऊँट या भैसें पर चढ़े हुए, दंड धारण किये हुवे, कीचड़ में सने अर्थात् लिपटे हुए खुले बाल वाले, काले वस्त्र वाले, तेल आदि उबटन युक्त नपुसंक चिन्ह वाले, विकट भस्मवाले डरावने शब्द वाले, कठिन और हाथ में निवार वाले, दूत विमुख दूत या यमराज के जैसे अशुभ दूत होते हैं। सफेद कपड़ो वाले शांत निर्भय अच्छे मन वाले और डँसे हुवे पुरुष जाति वाले दूत अच्छे दूत कहे गये हैं।
इदानीं सर्वकर्म्म प्रधानभूत सकली गर्भा स्तुति माह, अब सब कर्मों में प्रधान सकली करण युक्त स्तुति को कहते है।
:
भूम्यं भोजात वेदोऽनिल पवन पथैः स्वोचितांऽस्थ कोण र्भा स्वद्भोगींद तन्मस्तक हृदय मणि प्रांचितैः पंचशून्यैः स्वां लां ह्रीं कार सारै विधि घृत सरसुंसः परै कल्पितोद् यद्गात्र ञाञातपादा न त भुवनजनः पातु मां पार्श्वनाथः मां पातु पार्श्वनाथः किं विशिष्टः कल्पितोयङ्गात्र त्रात्रात पादानत भुवनजन त्राणंत्रा मात्र स्य शरीरस्टात्रा गात्र सकली कल्पिता रचिता उद्यता अव्यागता सा चासौ गात्र त्रा च कल्पितोद्यङ्गात्र त्रा तया त्रातो रक्षितः पादानत पाद प्रणतो भुवन जनो येन स तथोक्तः कैः कल्पिता या गात्र त्रा भूम्यंऽभोजात वेदो निल पवन पथैः भूमिश्च अभश्च जातवेदाश्च अनिलश्च पथन पथश्च तैः पृथ्वे तेजोवाता काशमंडलैरित्यर्थः कथं भूतैस्तै स्वोचितांतस्थ कोणैः अंत मध्ये तिष्ठतीत्य भ्यंतरस्था वर्णः कोणा : कोण वर्तिनः कोण वर्णाः स्वस्य स्वस्टा मंडलस्य उचितां योग्याः अंतस्था कोणायेषु ते स्वोचितांत स्थ कोणा स्तैः तत्र चतुरस्राकार स्य वहि: कोणेषु द्वि द्वि वज्रांकितस्य पृथ्वी मंडलस्य मध्ये उचितोनाम गर्वितः क्षि वर्णाः कोणेषु लकारा: कलशाकारस्य मुख तलयो व्यर्थाक्रमं वकारा पकारान्वित पद्म पत्राकितस्य श्वेत वर्णस्य मंडलस्य मध्ये चितोनाम गर्च्छितः पकारः कोणेषु वकराः त्रिकोण कारस्य वहि: कोणेषु स्वस्तिकांकित स्य ज्वालायमान कृष्णस्यग्रेय मंडलस्य मध्ये उचितो नाम गर्भितः ॐ कारः कोणेषु रेफः वर्तुल गोमुत्रिका: कारस्य वहि 2525252525252: « PSY5PSYGRSP505
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505101501512151015 विधानुशासन 950152ISTRISTRI5DASI विद्धांकतस्य कृष्ण वर्णस्य वायुमंडलस्य मध्टो उचितो वाम गर्भितः स्वाकारः कोणेषु यकार: आकाश कारस्य आकाश वर्णस्य आकाशमंडल वर्णस्ये इत्यर्थ मीत नित कांचनासित सुर चाप निभानि परियायेति गारूडाध्याटो वक्ष्यमाणत्वात तस्य मप्टो उचितोनाम गर्भितः हाकराः कोणेपि स एव पुनः कथं भूतैःभास्वद भोगिन्द्र तन्मस्तक हृदय मणि प्रांचितः भोगिनो नागाँ इन्द्राः स्वस्व मंडलास्य स्वामिनः तयथा पृथ्वी मंडलस्ट स्वामिनी क्षत्रियो रक्त वर्णे शांलिगंधी सिरो वज़ लांछनौ पार्थिव विषौ वासुकि शरवपालौ अब्मंडलस्य शुद्रौ कृष्णमत्स्यगंधी सिरः झष लांछनौवारुण विषौ कोंक पद्मौ आग्नेय मंडलस्टौद्री ब्राह्मणैश्वेत वर्णों पुष्पगंधी शिरः स्वस्तिक लांछनौ अग्नेय विषो अनंत कुलिको वायुमंडल स्य स्वामिनौवैश्यौपीतवर्णीयत मंधीशिरोबिन्दु लांछनौ वायव्यविषो तक्षकमहापद्मटो आकाश मंडलस्य दैव कुलौ आकाश वौँ मणि लांछनौ अदृष्ट विषौजट विजयाविति भोगिनश्चतेहन्द्रास भोगीन्दास्तेषां सस्तकं न इतरांचतल्मस्तक हदटो तन्मस्तक हृदययोमणय स्तन मस्तक हृदय मणयःवासुकिशंखपालयो मस्तक मणीगंधःकर्कोटक पद्मयो:झांझी अनंतकुलिकयोःकारवां तक्षकमहापद्मयो: चोगों जय विजयोःहूं क्ष मिति हृदय मणटाः इवां यां क्षां आं लां मां रां ॐ ह्रीं मिति तथैव भोगींद्राश्च तन्मस्तक हृदय मणय:भा स्वंतश्चते भोगीन्द्र तन्मस्तक हृदय मणय श्च भश्च द्भोगीन्द्रं तन्मस्तक हृदय मणय स्तै प्रकर्षणेन मंडलादहिः द्वि दिनागा:अन्योन्य:संधेष रूपेणां चितैः पूजितै रित्यर्थः पुनः किं भूतैस्तैः स्वां लां हीं कार सारै स्वां लांहीं कारैः साराः श्रेष्ठास्तैः किंविशिष्टश्च विधिपत सरसुंसःपरैः परे हरहुंहः इत्येति वर्णाः सरसुंस श्च परे च सरसुंसः परे विधिना पता न्यस्ताः सरसंसः परेयेषते विधियत सुरसुंसः परास्ते विधिधत सरसुंस परैः भूम्ट भोजात वेदोनिल पवन पथै रिति संबंधः यद्यपि यं सकली सामान्टोन प्रोक्ता तथापिव्याख्यानतो विशेष्टाते तथान्हि वामकर स्यांगुष्टायऽगुलीषुक्षिपस्वाहा हा स्वा ई पक्षि इति पंच भूत क्रमोक्रमाभ्यां नागांकित पूर्वोक्त मंडलानि पुनऽरंगुल्यग्रेषुपंचशून्यानि प्रत्येकं त्रिषु पर्वसुस्वां लांहीं मिति सत्वरजस्तमांसि सरसुंसः हरहुंहः अष्टाक्षर करतल मंत्रं करतले च विन्यस्य पुनरष्ट वारं क्षिकार मुच्चार्यता पादादि जानु पयतं भूमंडलं न्यस्य तत्र स्थित नागदा स्य नूपूराभरणं संकल्पांगुष्टेन स्पर्शः त्रयोदशवारं पकार मुच्चार्यता जानुनोपरि नाभि परयंत अमंडलंन्यस्य तत्र स्थित नाग दास्य कटि सूत्रं संकल्प तर्जन्यां स्पर्शःपुनरष्ट चारमांकार मुच्चार्यता नाभ्यादिग्रीवा पर्यतं अग्निमंडलंन्यस्यतत्र स्थित नागद्वयस्य
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बाहूभूषणं संकल्पमध्यमया स्पर्शःचतुवार स्वाकारं मुच्चार्यताग्रीवादि ललाटपर्यंत वायुमंडलंन्यस्य तत्रस्थितनागदस्य कर्णपुरंपरिकल्पानामिकया स्पर्शःचतुवार हाकारं मुच्चार्यता ललाटादि मस्तका पर्यतं मंडलं न्यस्य तत्र स्थित नाग द्वस्य तत्र मुकुटाभरकणं परिकल्प कनिष्टया स्पर्शःकरणीयः पश्चात उंहुं सिर सिखू हदि उँका स्तनयो पुनःक्षिकारं हृदो पकारं मुखे उंकारं शिरसि उंवं नेत्रयोश्च संचित्य स्वाकार त्रोणसन्नाह उंकारेण शीर्षके स विसर्ग हकारेण स्त्र्य च कृते कृते गरूड मुद्रा पूर्वकं जगद्व्यापकं पंचवर्ण गरुडात्मकमात्म स्वरूपं ध्यातव्यं एवं परिपूर्ण सकलीभवति:
स्तोत्र टीका पृथ्वी मंडल जलमंडल अग्नि मंडल वायु और आकाश मंडल के योग के अंदर के कोनों को चमकाते हुये नागेन्द्र तथा उनके मस्तक और हृदय की मणियों पंच शून्य 'स्वा लां ह्रीं सुरसंसः' और हर हुंहः से पूज्य तथा उदय होने वाले शरीर की रक्षा करने वाले तथा समस्त लोक से बंदनीय चरणयुक्त भगवान पार्श्वनाथ मेरी रक्षा करे।
बृहत टीका उपरोक्त पांनो मंडल इस एका, फे में उनके अन्दर के कोनों में योग्य बीज लगे हुए हो । अब उन पांचों मंडलों का वर्णन किया जाता है। पृथ्वी मंडल चौकोर तथा दो वजों से बना हुआ होता है। उसके बीच में रहने योग्य बीज क्षि तथा कोणों में रहने योग्य बीज लकार हैं। जल मंडल कलशाकार होता है उसके मुखपर कमल पत्र का चिन्ह होता है । मुख में वं और तली में पं बीज से युक्त होता है। इसके बीच में पं और कोणों वं लगाना चाहिये। अग्निमंडल त्रिकोण होता है। इसके बाहर के कोणों में स्वस्तिक का चिन्ह होता है । इस अग्नि के समान जलते हुवे अग्निमंडल के बीच में ई और कोणों में रं बीज लगाना चाहिये। वायुमंडल गोमूत्र के समान गोलआकार वाला बाहर से बिंधे काले रंग का होता है। उसके बीच में उचित बीज रया होता है । तथा उसके कोणों में यं बीज लगता है। आकाश मंडल आकाश के आकार याला आकाश के वर्ण वाला पीले श्वेत सुनहरे और नीले इन्द्र धनुष के समान होता है । जैसा कि गरुड़ अध्याय में वर्णन किया जायेगा इसके बीच तथा कोण का ह बीज है। फिर यह मंडल उस मंडल के स्वामी नागेन्द्रो से युक्त हो, जो यह है । पृथ्वी मंडल के स्वामी वासुकि
और शंखपाल होते हैं यह क्षत्रिय लाल रंगवाले चावलों की सी गंध वाले सिर पर वन (सरलरेखा) के चिन्हवाले और पृथ्वी विषसे युक्त होते हैं। जल मंडल के स्वामी कर्कोटक और पद्मानाग होते हैं। यह क्षुद्रकाले रंगवाले मछली की सी गंध वाले सिर पर मछली के चिन्हवाले और जल विष युक्त होते हैं।
0505050512521525 १२१ PISTRISTRISTOIED05051035
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अग्निमंडल के स्वामी इन्द्र अनंत और कुलिक नाग होते हैं। यह ब्राह्मण, सफेद रंग वाले फूलों की सी गंध वाले, सिर पर स्वस्तिक के चिन्ह वाले और अग्नि विष युक्त होते हैं।
वायुमंडल के स्वामी तक्षक और महापद्मानाग होते हैं। यह वैश्य पीले रंग के घी की गंध वाले, सिर पर बिन्दु के चिन्ह वाले और वायु विष युक्त होते हैं।
आकाश मंडल के स्वामी जय और विजय नांग होते हैं। यह देव कुल के आकाश वर्णवाले अणियों के चिन्ह वाले तथा अदृष्ट विष से युक्त होते हैं।
अब इन नागों की मस्तक मणियों का वर्णन किया जाता है। वासुकि की फणमणि गं शंखपाल की धं कर्कोटक की जी पद्म की इवीं अनंत की कों कुलिक की खों तक्षक की चों महा पद्म की छों जय की हूं और विजय की फण मणि क्षं होती है।
'ईं वांयां क्षां आं लां मां रां ॐ" और ह्रीं यह दस बीज इन नागों के हृदय की मणिया हैं। इसके अतिरिक्त 'स्वां लां ह्रीं सरसुंसः' और हरहुहे:' तीनों कवच हैं। इन सब बातों से युक्त यंत्र ह्रीं नाग विद्या में कार्यकारी होते हैं यद्यपि यह सकलीकरण की विधि सामान्य रूप से कही गई है तथापि विशेष रूप से भी व्याख्यान किया जाता है।
बायें हाथ के अंगूठे आदि उंगिलयों में क्षिप उ स्वाहा और हा ॐ स्वा पक्षि इन पांचों बीजों को भूतों के सीधे और उलटे क्रम से नाग से चिंतित पूर्वोक्त मंडलों सहित लगाये। फिर उंगलियों के अग्रभाग में पांचों शून्य बीज लगावे उंगलियों के पोरों में स्वां लां ह्रीं इन सब रज और तम बीजों को तथा सरसुंसः और हरहुंहः आठो अक्षरों के करतल मंत्र को करतल अर्थात् हथेली से स्थापित करके फिर आठबार क्षि बीज का उच्चारण करे। पैरों से घुटनों तक पृथ्वी मंडल को स्थापित करके उसके दोनों नागों को पैरों के नूपूर बनाकर अंगूठे से स्पर्श करे । फिर तेरह बार पं बीज का उच्चारण करके घुटनों से नाभि तक जल मंडल को स्थापित करके उसके दोनों नागों को कटिसूत्र कमर की कनगती ( तगड़ी) मान कर उनके अंगूठे के पास की तर्जनी उंगुली से छूये। फिर आठ बार उ को बोलकर नाभि से गर्दन तक अग्निमंडल को स्थापित करके उसके दोनों नागों को हाथों का आभूषण मानकर उनको मध्यम उंगुली से छूवे । अर्थात् स्पर्श करे । फिर चार बार स्या बीज को बोलकर गर्दन से मस्तक तक वायु मंडल को स्थापित करके उसके दोनों नागों को काटने का आभूषण मानकर उनको अनामिका अंगुली से स्पर्श कर फिर चार बार हा बीज को बोलकर मस्तक से कपाल तक आकाश मंडल को स्थापित करके उसके दोनों नागों को भुकुट रूप आभूषण मानकर उनको कनिष्टा उंगुली से स्पर्श करें। फिर ई हूं बीज को सिर में उ क्षूं बीज को हृदय में उं रं बीज को दोनों स्तनों
क्षिं बीज को हृदय में उप बीज को मुख में उं बीज को सिर में हैं वं बीज को दोनों नेत्रों में हैं स्वा बीज को बुद्धि सहित तीनों नेत्रों में फिर उ का सिर में और विसर्ग सहित हकार अर्थात हः का अस्त्र में ध्यान करके गरूड़ मुद्रापूर्वक जग व्यापक क्षिप स्वाहा रूप गरूड़ के पांचो वर्णों के भये आत्म स्वरूप का ध्यान करे। इसप्रकार पूर्ण सकली करण की क्रिया होती है।
इदानीं रक्षा गर्भा स्तुति माह । अब रक्षा स्तुति का वर्णन करते हैं।
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विधानुशासन
हूं क्षं पूर्णेन्दु बीज स्वर कुलितस्या भिधानस्य बाह्य दंत्तैर्द्वय टाब्ज पत्रैः स्वदि गुचित शिरोमणि द्वंद्व भाग्भिः
रामोंकारां तरालै स्त्रिगुण परिवृत मायया सं प्रयुक्तेनैः तयंत्रेण सं रक्षित सकल जगत्पातु मां पार्श्वनाथः
हूं धूं पूर्णेन्दु (ठ) और बीज (ह्रीं) से वेष्टित नाम के बाहर सोलह दल का कमल बनाकर उनमे अपनी अपनी दिशा के योग्य फणमणियों तथा हृदय मणियों के युगलों को लिखे । उसके चारों तरफ रां ईं का मंडल बनाकर उसको तीनबार माया बीज ह्रीं से वेष्टित कर दे। इस बनाये हुवे यंत्र के द्वारा समस्त संसार की रक्षा करने वाले श्री पार्श्वनाथजी भगवान मेरी रक्षा करे ।
टीका:
पातु मां पार्श्वनाथ, किंविशिष्टः संरक्षित सकल जगत सं रक्षितं सकलं जगद्दोन स तथा केन एतदयंत्रेण एतदधृतोक्त यंत्रं एतदयंत्र तेन कथं भूतेन सं प्रयुक्तेन संपादितेन कै: द्वयऽष्टाब्ज पत्रैः अब्जे पत्राणि कमल दलानि द्वाभ्यां प्रगुणितानिऽष्टौवष्टौषोडशे इत्यर्थः द्वयष्टौ च तानि अब्ज पत्राणि द्वयअष्टाब्ज पत्राणि तैः किं विशिष्टैः दत्तैः संयोजितैः कः बाह्ये वहिः प्रदेशे कस्य अभिधानस्य अभिधान मंत्र वलयस्य उ नमो भगवते पार्श्वचन्द्राय हूं क्षं ठः नमः स्वाहा एवं भूत मंत्र वेष्टितस्य कथं भूतस्य हूं हूं पूर्णेन्दु बीज स्वर परिकलितस्य पूर्णेन्दुष्टाकार: बीजं ह्रीं कारः स्वरा षोडशअकारादयः हूं च क्षूं च पूर्णेन्दुश्व बीजं च स्वराश्च तै परिकलितस्य वेष्टितस्य इत्यर्थः पुनः कथं भूतै स्तैः स्वदिगुचित शिरोमणि द्वं द्व भाग्निः शिरोमण्यश्च हन्मणयश्च तेषां द्वंद्वानि युगलानि स्वस्थाः दिशाः उचितानि स्व दि गुचितानि तानि च तानि शिरो हन्मणि द्वं द्वानि च तानि भंजन्ते युंजंति स्व दिगुचित शिरो हन्माणि द्वं द्वभाजितैः तत्र पूर्वदिक् चतुर्द्दलेषु ईन्द्र मंडल संबधिनो वासुकि शंखपालयोः शिरोमणि हन्मणि अंतरितौ उचितौ दक्षिण दिक चतुर्द्दलेषु अग्निमंडल संबंधिनोरनंत कुलिकया: शिरोमणि हन्मणि तथा पश्चिम दिक चर्तुद्दलेषु वायु मंडल संबंधिनां स्तक्षक महापद्मयोः शिरोमणी हन्मणि एवमुत्तर दिक चतुद्दलेषु वरुणमंडल संबंधिनो: कक्कटक पद्मयो शिरोमणी हन्मणि एवमेव पुनरपि किं भूतैज्ञ रामोंकारांतरालै रां च उंकार श्च ताऽवंतराले येषांतैः एतेनाकाशमंडल संबंधिनोजय विजययोः हन्मणि व्याख्यातौ शिरोमणिचपूर्वमेव मध्ये निवेशिती पुनरपि कीद्दशैः त्रिगुण परिवृतौ त्रिवार परिवेष्टिती कया मायया ह्रीं
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विधानुशासन 9559/5059595
कारेणेति एव मिदं सर्वरक्षा यंत्र कुकुंम कपूरादि शुभद्रव्यैलिखितं नित्यं पूजनीयं तथा दष्टेन स्वस्थेन च विद्या हृन्मणि कृत्य बाहौ धरर्णायमिति ॥
टीका :
बीच में साधक का नाम लिखकर उसके चारों तरफ इस मंत्र का वलय बनावे हैं नमो भगवते पार्श्वचंद्राय ह्रूं क्षं ठः नमः स्वाहा । इस वलय मंत्र के पश्चात सोलह दल का कमल बनाकर उसमें सोलह यर लिखें। इसके पश्चात अपना अपनी दिशाओं के योग्य फन मणियां और हृदय मणियां को लिखे दक्षिण दिशा के चारों दलों में अग्नि मंडल संबंधी अनंत और कुलिक की फणमणि और हृदय मणियों को लिखे पश्चिम दिशा के चारों दलों में वायुमंडल संबंधी तक्षक और महापद्म की फणामणि और हृदयमणि को लिखे । उत्तरदिशा के चारों दलों में वरुण मंडल संबंधी कर्कोटक और पद्मनाग की फण मणि और हृदयमणियों को लिखे । इसके पश्चात वलय को ॐ यं ॐ रां से भर देवें इसके आकाश मंडल संबंधी जय विजय नागों की हृदय मणियों का भी व्याख्यायन किया गया क्योंकि इनकी फण मणियों का समावेश पहले ही अंदर के मंत्र में कर लिया गया है। इसके पश्चात तीन बार माया बीज ह्रीं से वेष्टित करके क्रौं का निरोध करे। इस सर्वरक्षा यंत्र को कुंकुम कपूर आदि शुभ द्रव्यों से लिखकर इसकी नित्य पूजा करें। डँसे हुवे और स्वस्थ दोनों प्रकार के ही मनुष्यों को फणमणियां और हृदय मणियों के इस यंत्र को हाथ में पहनना चाहिए।
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इदानीं गारूड सिद्धि प्रतीत निमित्तं स्तोत्र गर्भिता स्तुतिमाहः अचं गारुडी सिद्धि के विश्वास के कारण स्तोभ गर्भवाली स्तुति को कहते हैं।
वायव्याशा मुरवस्य त्रिपुर वलय मध्य स्थितस्योवंजानौ ज्वालामाला कुलस्या ज्वलनात ललाटस्य दष्टस्य पुंसः
रेफा कांतांगयष्टे रायुत शरदंडेन हृद्याहतस्य
स्तोभं सद्यो विद्ध्यात्पदभिनुतिर सौ पातुमां पार्श्वनाथ: ॥४॥ वायु कोण (पश्चिम उत्तर दिशा के कोणे) की और मुख वाले तीन मंडलों के बीच मे ठहरे हुवे ऊपर को घुटने किये हुवे अग्नि के समूह से व्याप्त ज्वलन अर्थात ॐ बीज युक्त मस्तक वाले र वर्ण से व्याप्त शरीर वाले इँसे हुवे पुरुष को य य से युक्त शरीर अर्थात् हू बीज दंड से हृदय में चोट किये हुए पुरुष को शीघ्र ही स्तोभन करने वाली स्तुति स्वरुप भगवान पार्श्वनाथ में ही रक्षा करे। CASIRIDICT5101510501512 १२५ PISTORSDISTRISIOTSIRIDDES
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विधानुशासन 959595959
टीका
की शो सौ भगवान मां पातु यस्यामिनुति स्तुतिर्य्यद भिनुतिः विदध्यात कुर्यात् कं स्तोभं पूर्वदष्टस्य मंत्र वशात्पालनं स्तोभः तं कथं सद्यः शीघ्रं कस्य पुंसः पुरुषस्य कथं भूतस्य दष्टस्य पुनः कीद्रशस्य वायव्याशा मुखस्य पवन दिक् अभि मुखस्य पुनः किं विशिष्टस्य त्रिपुर चलय मध्य स्थितस्य स्व स्व वर्ण समन्विताऽग्नि पवन भूमंडलांतर गतस्य पुनः किं विशिष्टस्य ऊर्द्ध जानोः ऊर्ध्व स्त्येत्यर्थ पुनरपि कीदृशस्य ज्वाला माला कुलस्य अग्नि शिखा कलाप व्याप्तस्य ज्वलन युत ललाटस्य ललाटन्यस्त प्रणवस्य रेफा क्रांतांग यष्टेः र वर्ण व्याप्त शरीरस्य कीदृशस्य आहंस्तस्य ताडितस्य केन घटाद्युत शरदंडेल हूंकार कांडेन हूं यय: उं को उ वो उ वो उ अथवानेन मंत्रेण क हृदि हृदये इति पवित्रित भूमौ स्वोचित द्रव्यैः स्व बीजान्वितऽग्नि मंडलं तद् वाह्ये चतुर्द्दिशा दत्त स्वाकार कोण न्यस्त
कारं पवन मंडलं तद्वाह्ये चतुदृिशां दत्तक्षीकारं कोणन्यस्त लकारं भूमिमंडलं चे विलिख्यंपुष्प धूप अक्षतादिभिः पूजयित्वा व स्का सुगंधद्वयानुलेपल पुष्पधूप धौत वस्त्र पवित्रितागे पुराण दष्ट स्तन मंडल त्रयस्य मध्ये पूर्वादिगाभि मुखेन उध्वीकृत: स्तोभः ग्राहयितव्यः ततोऽस्यापि पूर्वोक्त रक्षायंत्र कर्णाय मिति ।
टीका:
भगवान पार्श्वनाथ जी की स्तुति डँसे हुवे पुरुष का स्तोभन करती है। मंत्र के द्वारा रक्षा करने को स्तोभन कहते हैं। अब हँसे हुवे पुरुष के स्तोभन करने का उपाय लिखा जाता है। हँसे हुवे पुरुष को तीन मंडलों के बीच में पश्चिम उत्तर के कोण की तरफ मुख करके बिठा दिया जावे । वह तीनों मंडलों अग्निमंडल - वायुमंडल तथा पृथ्वीमंडल में हो और अपने अपने बीजों से युक्त हो हँसा हुआ पुरुष उसके अन्दर पश्चिमोत्तर कोण की और ऊपर को घूँटने किये हुए अर्थात् उकडू बैठा हुआ हो । अग्निमंडल के बीच बैठने के कारण वह इंसा हुआ पुरुष अग्नि से पूर्ण रूप से भरा हुआ तो होगा ही किन्तु उसके मस्तक में भी ॐ कार को ध्यान पूर्वक स्थापित करे और उसके सारे शरीर में रं बीज स्थापित करे। इतनी क्रिया करने के पश्चात उस डँसे हुए के हृदय में 'हूं य य' इस मंत्र से या ॐ को ॐ खो ॐ चों ॐ छों" इस मंत्र से ताड़न करे। मंडलों को पवित्र की हुई पृथ्वी पर अपने योग्य द्रव्यों से इसप्रकार बनावे कि बीच में अपने बीजों सहित अग्नि मंडल हो उसके बाहर चारों दिशाओं में स्वा बीज तथा कोणेभिं यं बीज लगाकर बायुमंडल बनावे | उसके बाहर चारों दिशाओं में क्षि बीज तथा कोणों में लं बीज को लगाकर पृथ्वी मंडल बनावे इन मंडलों को बनाकर उनकी धूप पुष्प अक्षत आदि से पूजा करें। फिर स्नान करके सुगंधित द्रव्य लगाकर तथा शरीर में लेप करके पुष्प धूप और घुले हुए वस्त्र पहनकर अपने शरीर को पवित्र
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SHSRISIOHIDISTRI52 विघापुसासन 9I52RSIOSIS50150151 करके उन तीनों मंडलों के बीच में इसे हुवे पुरूष को घुटने ऊपर को करके बिठा देयें ,और स्वयं पूर्वदिशा की तरफ मुख करके स्तोभन करे। फिर इसकी भी पहिले कहे हुवे रक्षा यंत्र से रक्षा करे।
इदानी विपक्ष मंत्र वादि प्रति गृहीत दष्टस्य गरल
स्थंभनाय स्तभर गर्भितः स्तुति माल अब विरोधी मंजवादी से रोकेहए हँसे हुए पुरूष के विष को स्तभंग करने के लिए स्तभंन गर्भित स्तुति कहते हैं।
नाम हल्वयूँकार सत्संपुट गतमवनी संपटस्थं प्रदीपैः कूटैर्वजांतरालस्थिति भिरूपचितं पूर्णचंद्रा वृतागैः
पीतं भूमंडलांतः स्थितमुरुकुलिशैः पीडितं स्तभं मिष्टं
यन्नाम स्तोत्र मंत्रतैर्जनयति सततं पातुमां पार्श्वनाथ नाम हल्वयूं के संपुट के बीच में रखकर उसके चारों तरफ पृथ्वी मंडल का सम्पुट बनावे । वह वजों के अंतराल में प्रदीप (5) और कूट (क्ष) से व्याप्त हो नाम पूर्णचन्द्र बीज ठ से घिरा हुआ हो पीला पृथ्वी मंडल चार वजों से भी बिंधा हुआ हो जिनके नाम का मंत्रो से इसप्रकार स्तंभन होता है वह पार्श्वनाथ भगवान मेरी रक्षा करे।
समां पातुपार्श्वनाथःयस्य नामयन्नामजनयतिसंपादयतिकंस्तंभनं किंविशिष्टं इष्टंगतिःगर्भादिकां कैकल्पितंयन्नाम स्तोत्र मंत्रैःकिं विशिष्टं सत्नाम हल्गुंकार संत्संपुटगतं नाम समिन्वितौ हल्यूकारो नाम हल्च्यूकारौ तयोः संपुट मत नामानुविद्ध हल्ब्यूँकार संपुटच रूपेण गत मित्यर्थः किं विशिष्टं अवनि संपुटस्थं भूमंडलसंपुट स्थितं पुनः कीदृशं उपचितं व्याप्तंकै कूटै सकारैः कीदृशैः प्रदीप प्रकृष्ट आदि तेज स्थितो दीपः उकारोयेषांतेः कीदृशैःश्चतै वजांतराल स्थिति भिः वजांतरालेषु स्थितिर्येषांतैः किं विशिष्टं नाम पूर्ण चंद्रावृतांगं ठकार वेष्टितं मित्यर्थः पुनः कीदृशं पीतं तालकादि पीत द्रव्यलिरिवतं पुनः किं विशिष्टं भूमंडली स्थितं कीदृशं च पीडितं विद्धं के उरू कुलिशैचतुर्भि महा वझै रित्यर्थः इदं स्तंभन यंत्रं लूतादि दुष्ट वृणे ष्यपि योजनीयं तथा मुरव मति गति गर्भ दिव्य क्रोधादि काश्च स्तंभयतु कामेन पटयोःफलकयो भूर्जयो विलिरिवत्वा सपुटितं भूमौ निक्षिपं उपरि शिलामायाय प्रणादि स्वाहात यत्रांतर्गत मंत्रेण ॐक्ष्ल्यू वक्षःसः ठः ठः ठः स्वाहा ।
. इति मंत्र CASCISCTICTIOTICIDCA १२७ PASCTRICIRCIACISCESCIEN
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GENEWEST REQRQಡ ಬಲಪಡಿತರಣಾ भगवान पार्श्वनाथ के नाम के स्तोत्र मंत्र इच्छानुसार गति गर्भ आदि सभी प्रकार का स्तंभन करते हैं। उपाय यह है नाम को हटृ के संपट में लिखे उसके चारों तरफदो पृथ्वी मंडलों का संपुट बनावें। वह पृथ्वी मंडल वजों के अंतराल में उँ क्ष बीजों से व्याप्त हो जाम भी पूर्ण चन्द्र बोज ठकार के बीच में हो यह पृथ्वीमंडल हरताल आदि पीले ब्रह्मों से लिखना चाहिये । फिर यह मंडल चारों वजों से से घिरे हुए हों। इस यंत्र की चींटी या मकड़ी आदि दुष्ट जन्तुओं के जख्मों में भी लगा सकते हैं इसको मुख बृद्धि गति गर्भ और दिव्य क्रोध आदि का स्तंभन करने की इच्छा से दो वस्त्र दो तखती अथवा दो भोजपत्रों पर लिखकर एक दूसरे की और मुँह किये हुवे पृथ्वी पर रखकर ऊपर से शिला रख दे इस यंत्र को यंत्र के अन्दर के मंत्र
क्षम्ल्यूँ क्षःक्ष :क्षः ठः ठः ठः स्वाहा इस मंत्र से लिखें।
ॐ स्वाहा पक्षि बीजैरघ उपरिसुधा सोमवद्भि दिपाश्वविकाशैः सध्यान नासामृत विभव युतैर्दिव्यमंत्रैश्च हं झं
वीं क्ष्वी हंसः पयोभूम्यपगत स विसर्गोलसद्य त्रयाः
पूतात्माऽपासित स्थावर चर गरलः पातु मां पाईनाथ: ॐ स्याहा पक्षी बीजों से नीचे और ऊपर सुधा देवी तथा सोम झ्वीं बीजों से दोनों करवटों की और आकाश (ह) बीजों से अच्छे ध्यान के द्वारा नाशिका में उत्पन्न किये हुए अमृत के ऐचर्य से युक्त हं झं इवीं क्ष्वी हंसः पयः (प) भूमि (क्षि) विसर्ग सहित प आदि बीजों के द्वारा पवित्र आत्मा वाले स्थायर तथा जंगम विष को नष्ट करने वाले भगवान पार्श्वनाथ जी मेरी रक्षा करें।
मां पातु पार्श्वनाथः किं विशिष्टःपूतात्माऽपासित स्थावर चर गरलःस्थावरगरलानि स्थावरविषाणि अंगीकवत्सनामादीनि चरगरलानिजंगमविषाणिसर्प वृश्चकादि जानितानि पूतःपवित्रित आत्मायस्यःसःपूतात्मादष्टःतस्मात्दष्टात अपासितानि नोदितानि स्थावर चर गरलानि रोनसः कै कत्या पूतात्मा ॐ स्याहा पक्षि बीजैः मस्तकादिन्यस्त प्रणवादि बीजै:कीदशैःअधःउपरिसुधासोमवद्भिसुधाध्वींकार: सोमो इवीकारः अध: उपरिच तो विद्यते येषांतैः पाद तले स्वीकार उपरि मस्तके श्वींकार सहित रित्यर्थः पुनः किं विशिष्टः द्वि पार्श्वकाशै द्वि पार्श्वयोर्हकार पंचकान्वितैः कै: कैः कृत्वा अपासित स्थावर चर गरलः दिव्य मंत्रै कै स्तैःहं झं इची क्ष्वी हंसः पयोभूम्युपगतसविसरगोलसरात्रयायैः पयःपकार:भूमिःक्षिकारः उपगतंसमीपगतंसह विसर्गणवर्ततेइतिसविसग्गैलि सद्य त्रयं च तैः पदे आये येषां हः हः प्लावट प्लावल विषं हर हर स्वाहेति उपदेश वर्णातैः कीदृशैः सध्यान नासामृतं विभवद्युत:नायायानिर्गतं अमृतं नासामृतं सध्यानेन कल्पितं नासामृत स ध्यानासामृतं तस्य विभवो माहात्म्यं तेन युतैः रीति हं झंइची क्ष्वी हंसः पक्षि य यय हा हा हा प्लावर प्लावर प्लावय विषं हर हर स्वाहेति
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ॐ नमो भगवते पार्थ चंद्राय स्वाहा पक्षि हंसः पक्षिटाः पक्षियः पक्षियः
हःह: प्लावट प्लावया विषं हर हर स्वाहेत्युपदेश मंत्राक्षरै रित्यर्थः।। भगवान पार्श्वनाथजी स्थावर तथा जंगम (अर्थात् दोनों प्रकार के विष को नष्ट करते हैं। (श्रृंगीको (मगरमच्छ) और वत्सनाम (मीठा तेलिया) आदि के विषों को स्थावर विष तथा सांप बिच्छू आदि के विषों को जंगम या चर विष कहते हैं । पहिले ई स्थाहा पक्षी बीजों का मस्तक आदि कर न्यास करे। फिर नीच पारी में सुधा बीज याकार और ऊपर साक में सोम बीज झ्वींकार का न्यास करे। दोनों पायों में पाँचो ह बीजों का न्यास करें। फिर हंझं इवीं क्ष्वी हंसः जलः (प) पृथ्वी (क्षि) विसर्ग सहित पांच पद यः यः यः हः हः प्लावय प्लावय विषं हर हर स्वाहा। इस दिव्य मंत्र से नाशिका में ध्यान करता हुआ अमृत टपकाये नाशिका में ध्यान करने का अमृत मंत्र यह है। हे झंडची क्ष्वी हंसः पक्षिय पक्षियः पक्षियः पक्षियाः हः हःप्लावर प्लावय विषं हर
हर स्वाहा उपदेश मंत्र यह है।
ॐ नमो भगवते पार्धचंद्राय ॐ स्वाहा पक्षिः हंसः पक्षिय पक्षिय पक्षिय हह प्लावर प्लावा विष हर हर स्वाहा।
इदानीं मंत्रवाद प्रभाव स्थापनार्थ वाद्य कर्म गर्भितां स्तुति माहः । अब मंत्र के प्रभाव को स्थापन करने के वास्ते वाजे के कर्म आवेशन कर्म के गर्भवाली स्तुति को कहते हैं। SSCISIOSITISTRISTRISTRA १२९ PSCISCCSRISOTSIDESI
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विद्या
॥ ६ ॥
हूंकार व्याप्त संधिं मरुदवनि पुरांतर्गत धूमंधूमं हां स्वाहा मंत्रिता मोहत मुख हृदयं वायुना धूयमानं पद्मामूर्द्ध स्फटाकारित वर कर सन्मुद्रयविशं मुच्चै दष्टं यस्य स्तुति ग्रहयति स भगवान पातु मां पार्श्वनाथ हँसे हुए पुरुष के शरीर के जोड़ो में हूँकार को भरकर फिर उसको वायुमंडल और पृथ्वीमंडल के बीच में विठलाकर धुएँ के समान धूम्रवर्ण के जल को हा स्वाहा आदि मंत्र से मंत्रित करके उसके मुख और हृदय पर डाले, फिर उसके शरीर को वायु से कंपावे। इस प्रकार पद्मावती देवी के सिर के फण के समान आकार वाली दाहिने हाथ की मुद्रा से आवेशन करने वाले भगवान पार्श्वनाथजी मेरी रक्षा करें।
मां पातु भगवान पार्श्वनाथः कीद्दशों भगवान यस्य स्तुति ग्रहयति कं आवेशं कं ग्राहयति दष्टां कथं भूतं हूकारं व्याप्त संधि हूंकारेण व्याप्ताः संघयो यस्य तं पुनः कथं भूतं मरु दवनि पुरांतरगतं पवन भूमंडलं मध्यगतं धूम धूमं धूम वद्धूमं धूमलं किं विशिष्टं हां स्वाहा मंत्रितां भो हत मुख हृदयं हां स्वाहा मंत्रः क्षिप स्वाहा अयं मंत्र अनेन मंत्रितं यदं मंः पानीयं तेन हते मुख हृदय यस्य तां आधूयमान कप्यमानं केन वायुना कया कृत्वा आवेशं ग्रहयति पद्मा मूर्द्धस्फुटाकारित वर कर सन्मुद्रया वर कर सन्मुद्रा दक्षिण हस्त शोभन मुद्रा पद्मा पद्मावती तस्या मूर्द्धि मस्तके स्फुटाः फणाः तासामा कारः संजातो यस्यां वरकर सन्मुद्रायां सा तथा सआत्मानः पद्मावती सद्ध्यानेन त्यर्थः एवं सद्यो दष्टंवा कृत्वा आवेशनानां विद्य कथा कथनादि चोटा कम्र्म्मकारयित्वा देवि पद्मावति स्व स्थानं गच्छं गच्छ जः जः जः इति मंत्रेण विसर्जन करणियमिति ॥
उससमय से हँसा हुवा पुरूष चैतन्य सा होकर बैठ जाता है और इसप्रकार से बात करती है मानो वह उस पुरुष को हँसने वाला नाग हो भूतप्रेत आदि के विषय में भी जगाना या आवेशन इसी को कहते हैं | जगाने के वास्ते हँसे हुये सब अंगों के जोड़ों में हुं बीज का न्यास करे फिर उसको वायुमंडल - पृथ्वी मंडल के बीच में बैठाएं। फिर धुएँ के सामान धूम्रवर्ण जल को क्षिप ॐ स्वाहा मंत्र से मंत्रित करके उसके छींटे उसके मुख और हृदय पर मारे और उसको वायु से कंपावे। फिर पद्मावती का ध्यान करे फिर अनेक प्रकार की कथायें कहकर अपने योग्य कर्म करके विसर्जन करे !
विसर्जन मंत्र :
देवी पद्मावती स्व स्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः इदानीं परंण स्तंभे कृते तद्विधा छेदनेनानुविद्धां स्तुतिमाह
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CSIRIDDISTRISTRA विधानुशासन DISTRISTRISIOTSIRIDICTI यदि दूसरे ने स्तंभन करा दिया हो तो दूसरे की विद्या का छेदन करके वास्ते स्तुति का वर्णन करते हैं।
वह्नि ऊवी व्योम वारि स्व सन युत यकारैः स्त्रिभिः पंच टांत प्रांतैः हूँ फट समेतैपित रवटिकया नामित टांता वतांते वजै विद्रश्चतुर्भिः कुलिशविवर दत्तानले सप्त कृत्वः
छिन्ने य त्प्रभावात नश्यति विकृति रसौ पातुमा पार्श्वनाथ ॥७॥ वह्नि (3)ऊर्यि (क्षि) व्योम (हा) वारि (प) श्वसन (स्वा) तीन प पांच ठ प्रान्त (स्फ्रा स्फ्री स्प॑ स्पों स्पः) हुं और फट सहित मंत्र को खडिया से सात बार जप कर और मंत्री के नाम को टांत (ठ) से धेरकर उसको चार वजों से बांध देवें तथा वजों के अंतराल में अनल (1) लिखकर अपने प्रभाव से विकार का नाश करने वाले भगवान पार्श्वनाथ जी मेरी रक्षा करें। असौ पार्श्वनाथौ मां पातुयास्टा प्राभवं प्रभुत्वंयत्प्रभावं तस्मात यत्प्राभावात्नश्यति का विकृति: मंत्र शक्तरन्यथा भाव लक्षणा क्रसाति नाम्रि पर मंत्रिणोभिद्याने कथं भूते टांता वृतांतै टांत: ठकारः तेना वृत्तं अंतं समीपे देशो यस्य तत टांता वृतांतं तस्मिन पुनःकथं भूते विहेकै:वज्जैःकतिभिःचतुर्भिःपुनःकीदशेः कुलिश विवर दत्तानले कुलिश विवरेषु वजांतरालेषुदत्तःअनले उकारो टास्य तत तरिमन कथं भूतोछिन्नो कथं सप्त कत्वः सप्रवारान् जपति रवटिकया कैः वह्नि वीं व्योम वारि श्वसन युतःयकार:वहिःउकारः उवी क्षिकारःव्योम हाकार:वारिपकारः श्वसन
स्वाकारः तैर्युता श्वते यकारा श्वतैः कतिभि त्रिभिः पुनः कथं भूतैः पंच टांत प्रांत ८ ठकार पंच कान्वितै पुनरपि कीद्दशै हुं फट समैतैः क्षिश प स्वाय ठ ठ ठ स्फ्रा
स्फ्री स्फ्रें स्फ्रौं स्फू: हुं फट ।। अनेन मंत्रेण सप्तवार जपति रवटिकया सप्तवारं विलिख्यते गंधाक्षत पुष्प दीप धूप पूजिते सप्तवार छिन्ने च नाम्नी त्यर्थः एवम श्टां विद्यापि गति गादि स्तंभे योजनीटोति (इदानिं दष्टस्य शाकिनी संक्राति निग्रह गर्भास्तुति माहः) अब इँसे हुवे को शाकिनी की संक्राति के निग्रह स्वरूप की स्तुति को कहते हैं। भगवान पार्श्वनाय के प्रभाव से मंत्र शक्ति से किसी दूसरे प्रकार का प्राप्त हुवा विकार तुरन्त ही नष्ट हो जाता है। अब इसका उपाय लिखा जाता है। पहिले विकार पहचानने वाले दूसरे मंत्री के नाम को 'ह' बीज के बीच में लिखकर फिर उसको चार वजों से बांध दे। उन यजों के अंतराल में 'ॐ' बीज लिखकर मंत्र को पूर्ण करे फिर खड़िया से यह मंत्र सात बार जपे। उँ क्षि हा प स्वाय स्वाय स्वाय स्याय ठः ठः ठः ठः ठः स्फ्रा स्फ्री स्यूं स्फ्रौं स्फ्रः हुं फट इस मंत्र को जपकर सात बार खड़िया से उस नाम वाले मंत्र को लिखे सातों बार पूर्ण होने पर उसका गंध अक्षत पुष्पदीप और धूप से पूजन करें। इसप्रकार यह विद्याकी गति गर्भ आदि स्तंभन में लगाई जाती है। SSOSISISTRISTRISTOTRA १३१ PISPECISIOTSIRIDIDISTRI
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ලලලඟටes Rz6IrieeeeeeS
| 3යි
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QಥಳಥT RಕGERE NEWS
झौंकारं रांत युक्त शिरिव पवन पुर स्थापितं नाम गर्भ पश्यंतं यत्प्रभावाद्विजहति पुरुषं योगिनी मुद्रया द्राग। ॐ ह्रां ग्रां हुं फट ग्राक्षर जपित रावस्ताडितं सास्व गंधं
शाकिन्याः श्री द्रं नंदि प्रथित गति रसौ पातुमां पार्श्वनाथः ८॥ शंत (ल) से युक्त झौं को अग्निमंडल और वायुमंडल के बीच में स्थापित करके सबके बीच में नाम लिखे । उसको दिखलाने और योगिनी मुद्रा से हां ग्रां हुं फट मंत्र को जौ और अश्वगंध पर पढ़कर मारने से जिसके प्रभाव से शाकिच्या पुध को छोड़ देती हैं। वह इन्द्रों के आनंद से समवशरण आदि रूप प्रसिद्ध गति वाले अथवा इन्द्रनंदि आचार्य से की हुई प्रसिद्ध ज्ञान रूपी स्तुति वाले भगवान पार्श्वनाथ मेरी रक्षा करें।
कीद्दशो सौ मां पातु पार्श्वनाथः इन्द्र नंदि प्रथित गतिः इंद्राणं नंदो महोत्सवो विद्यते -यस्यां सा इन्द्रनंदिनी प्रथिता प्रख्याता गतिः समवशरणा दियात्रा यस्य सः अत्र भगवतः स्तुति रूपेण करया इन्द्र नदि ति आत्म नाम प्रकाशितं कीद्दश वत्प्रभाव द्विजहति स्तुति कतारम्यजंति काःशाकिन्यः कं पुरुषं कया योगिनी मुद्रया कथं द्राक शीयं किंविशिष्ट ताडितं कैः ॐ हंसः वक्षः शल्यू झों हों यां हुं फट मंत्रः ॐझौंझौझौं शाकिनी नां निग्रहं कुरूहुं फट ग्राक्षर जपित यवै कथं यथा भवति साऽश्वगंधं यथा भवति अश्वगंधा समिन्विते यंदै रित्यर्थः किं कुंर्वतं पुरुषं पश्यं अवलोक्वंतं कं झौंकारं उद्धाधोरेफ युत जकाराव स्थिता ॐकारः कथं भूतंरातं युक्तं रस्टातों रांतो लकारः तेन युक्तं समिन्वितं पुनः कीदृशं शिरिव पवन पुर: स्थापितं अग्नि वायु मंडल मध्य न्यस्तं कथं भूतं च नाम गर्भ दष्टस्य नाम गर्भेटास्य तत नाम गर्भ इति इदं यंत्रं कुठ्ये फलके वा रवटिकया लिरिवत्वा पूजियित्वा दर्शनीय मित्यैव मधि गतार्थ पंच भूतादि यंत्राणां संग्रहमंत्रवत् पूर्वसेवा कृत्वा कृत
मंत्रानुष्टानं सिद्ध मंत्र रत्न करड़ी जगद् विशद कीर्तिर्भवतीति ॥ भगवान पार्श्वनाय के प्रभाव से शाकिनीपुरूष को छोड़ देती है।इब उनको छोड़ने का प्रकार बतलाते हैं। योगिनी मुद्रा से जो अश्वगंध के ऊपर निम्नलिखित मंत्र को पढ़कर इनसे शाकिनी से ग्रहीत पुरुष को मारे मंत्र यह है।
ॐ हंसः वक्ष मल्व्यू झौं हौं या हुं फुट
ॐ झौ झौं झौं शाकिनी नाम निग्रहे कुरू कुरू हुं फट् ॥ फिर उसको यह मंत्र दिखलावे ल तथा ऊपर और नीचे रेफ युक्त झौं के चारों तरफ अग्नि मंडल बनाये, उसके चारों तरफ वायुमंडल बनावे और यंत्र के ठीक बीच में इंसे हुए का नाम लिखे। इस यंत्र को स्वाड़िया से दीवार पर या तख्ती पर लिखकर पूजन करके दिखलावे | इसप्रकार जाने हुए
CISI52I5TOISSIOS
१३३ PISIOTSIDISIOISO15015015
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959529595
विधानुशासन PPPP 555
अर्थ वाले पंच भूतादि यंत्र के संग्रह और मंत्रों केद्वारा पुरुष पहिले की हुई सेवा से मंत्रो के अनुष्ठानों से सिद्ध करके अपने पास मंत्रों का पिटारा बनाकर समस्त संसार में निर्मल कीर्ति को प्राप्त करता है ।
पार्श्वनाथ जी का दूसरा स्तोत्र
श्री मद्देवेन्द्र वृंदारक मुकुट मणि ज्योतिषां चक्रवालै व्यालिढि पाद पीठं शठ कमठ कृतोपद्रवा र्वाधितस्य लोकालोकावभासि स्फुरदुरु विमलज्ञान सद्दीप्रदीपः प्रध्यस्त ध्वांत जालः सविता सुखं माधोनि ॥१॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः विभास्वन्मरकतमणि भाक्रांत मूर्त्तेहि वं मंहं सं तं बीज मंत्रैः कृत सकल जगत क्षेम रक्षोरुवक्षः क्षीं क्षीं क्षं क्षे समस्त क्षिति तल महित ज्योति क्ष क्ष क्ष क्ष क्षः क्षिप्त बीजात्मक सकल तनोनः सदा पार्श्वनाथः || R ||
ह्रीं कारं रेफ युक्तं रदेव सं सं प्रयुक्तं ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं सरेफं विद्यदमल कलापंचकोद्भासि हूं हूं यूं यूं धूम्र वर्णै रविलमिह जगन्मेवि देह्यां मुवश्यं मंत्र पठतं त्रिजगदधिपते पातु मां पार्श्व नित्यं (पार्श्वमां रक्षः रक्षः) ॥३ ॥
ॐ ह्रीं क्रों सर्व वश्यं कुरू कुरू सरसं क्रामणं तिष्ट तिष्ट हूं हूं हूं रक्ष रक्ष प्रबल बल महाभैरवाराति भीतं द्रां द्रीं तूं द्रावय हन हन फट फट वषट बंध बंध: स्वाहा मंत्र पठतं त्रि जगदधि पते पार्श्वमां रक्ष नित्यं
|| X ||
हंसः इवीं क्ष्वींस हंसः कुवलय कलि तैर कितांग प्रसून वं व्हः पक्षि हं हं हर हर हर हु पक्षि पः पक्षि कोपं वं झं हं संभवं सः सर सर सर सुंसः सुदा बीज मंत्रः स्त्राय स्वस्थावरादि प्रवल विष मुखं हारिभिः पार्श्वनाथैः ॥ ५ ॥
2695959059 १३४ PS959595959595
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SOSOTISTRISOISTOISOTE विधानुशासन 95015050STRASOISS
मां मी मूं मौं क्ष्मः एतैरहि पति विनुते मंत्र बीजेश नित्यं, हा हा करोग्र नादैज्वल दनल शिरवाकल्प दीर्घोकेशैः पिंगाक्ष ल्र्लोल जिव्है विषम विषधरा लं कृत स्तीक्ष्ण दंष्ट्र: भूत प्रेत पिशाचैरनय कृत महो पढ़वाद्ररक्षः ॥६॥
उझौं झं किनिनां सपादिहरमदंभिंदि सुद्धेद्धबुद्धे ग्लौं क्ष्मं ठं दिव्य जिव्हा गति मति कुपितं स्तंभने सं विधेहि फट फट फट सर्वरोग ग्रहमरणभयोच्चाटनं चैवं पावत्राय स्वाशेषदोषाद मरनर वरैत पादारविंदः
॥७॥
स्फ्रां स्फ्रीं स्फूं स्फ्रौं स्फः प्रवल वल फलं मंत्र बीजं जि नेन्द्र रां री 5ौं र एभि परम तरहितं पार्श्व देवादि देवं क्रां क्रीं क्रौं कः मेति ज ज ज ज ज जराज जरि कृत्य देवं धूं धूं धूं धूम वर्ण दुरित विहारित पाचमां रक्ष नित्यं ॥८॥
इत्थं मंत्राक्षरोत्थं वचन मनुपमं पाश्वनाथस्य नित्यं विद्वेषोच्चोटन स्तंभन जनवश कत पापरोगापनोदि प्रोत्सर्पज्जंगम स्थावर विषमविषध्वसनं चाय दीर्य
मारोग्यैवयादि भक्त्या स्मरति पठति यः स्तोति तस्येष्ट सिद्धि ॥९॥ पर नित्यं मंत्राक्षरों से निकला हुया उपमा रहित वचन श्री पार्श्वनाथ जी का स्तोत्र है। यह विद्वेषण उच्चाटन, स्तंभन और वशीकरण करता है। रोगों को नष्ट करता है ।बैठे हुवे जंगम और स्थावर कठिन विषों को नष्ट करता है। बड़ी आयु आरोग्य और ऐश्वर्य देता है। यहां तक कि जो इसको भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं स्मरण करते हैं अथवा इससे स्तुति करते हैं उसकी इच्छा किये हुवे सब कार्य सिद्ध होते
संप्रदाय कम ज्ञेयं यंत्र मंत्रार्थ गर्भयोः दोन स्तोत्रयोः पाश्वः स्तूत्यश्चजिनोमतः
||१॥ उपरोक्त दोनों स्तोत्रों में संप्रगाय के क्रम से आये हुवे मंत्र-यंत्रों को स्वंय ही जानते हुये इन दोनों स्तोत्रों से भगवान की स्तुति करनी चाहिये।
CADRISTOTARISTOTRICISRAJ १३५ PISIRIDRDOISIOISTORSTOISS
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S5I0ISIOSAD59150 विधानुशासन 95955050521505
अथ श्री पार्श्वनाथ स्य पाद पद्मौ प्रपूज्येत पंचोपचार विधिनामूलं यत्रं ततोचयेत्
॥२॥ श्री पार्श्वनाथ भगयान के चरण कमलों को पहले पंच उपचारों से पूजे और इसके पश्चात मूल यंत्र का पूजन करें।
सन्नियो पाश्र्वनाथ स्य मूलमंत्र ततो जपेत लक्षं तद्दशमांशं च होमं कुर्यात् स सिद्धयति
॥३॥ इसके पश्चात श्री पार्श्वनाथ भगवान के समीप बैठकर मूलमंत्र का एक लाख जप करके उसका दसयाँ भाग अर्थात दस हजार होम करने से मंत्र सिद्ध होता है।
प्रजप्तः सप्त कृत्वोयं प्रयुक्तः सर्वमा मयं विन विषं भयं दुष्टं गृहादींश्च विनाशेरात्
॥४॥ इसके पश्चात इसको सात बार जपने से ही सब रोग, विघ्न, विष , भय और दुष्ट ग्रहों को नष्ट करता
वशयेत पुरुषान राज्ञः स्त्रीश्च संस्तंभोदरीन
आत्मनश्च सदापदभ्यो विदधीता भिरक्षणं यह राजा पुरुष स्त्रियों को वश में करता है। शत्रुओं का स्तंभन करता है. और निरंतर अपनी रक्षा करता है।
ज्वर हरण मंत्रः
नामो नमो भगवते बीजस्याधो विलिख्य तस्याथः
न्यस्येच्च पार्श्वनाथो त्यों ह्रीं बीज वेष्ट्रांततः ॥१॥ ॐ नमो भगवते बीज के नीचे नाम लिखकर उसके नीचे श्री पार्श्वनाथाय लिख्खे और उसको क्रम से ॐ ह्रीं से वेष्टन करें।
वहि रष्टं दलं कमलं दलेषु शेषाक्षरापि मंत्रस्य, रक्षोहर दलयोस्तु द्वे द्वे मंत्राक्षरे दद्यात्
॥२॥ उसके बाहर आठ दल का कमल बनाकर उनमें मंत्र के शेष अक्षरों को लिखे रक्ष हर एक दलों में दो दो अक्षर दे देवें।
0510150150150510500 १३६ PERI50150151005055017
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SCRISIS5ISISTRASIDE विधानुशासन 985105051215I0RSIOIST
नामोध्वर्दा विलिरिवत बीजायेना मुना बहिस्तेषां
मंत्रेणवेष्टयित्वा विलेरिवद्भूमंडलं बाह्य नाम के ऊपर और नीचे लिखे हुवे इस बीज आदि के बाहर यंत्र को इस मंत्र से वेष्टित करके बाहर पृथ्वी मंडल बनावे
1॥३॥
यंत्र मिदं नय कमलं योद्भावन शुभंकं सभाजने लिरिवतं
मंत्रेणापित्तमभः पीतं शमयेत् ज्वरान सर्वान् ॥४॥ इस नवीन कमल वाले उत्तम यंत्रको उत्तम बरतन में (अथवा ताम्रपत्र) लिख कर उसमें इस मंत्र से मंत्रित किये हुए जल को पीता हैं। उसके सब प्रकार के ज्यर शांत हो जाते हैं।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं भगवती दह दह हन हन चूर्णयचूर्णयभंजय भंजय कडु मईया मद्देयम्ल्यूँ आवेशय आवेशय हुं फंट्स्वाहा
मार्तड संरव्यथा जापं सह च कुसुमैः
पुरागतइशांसेन होमेनाप्येष मंलः प्रसिद्धयति पहले इस मंत्र की फूलों के साथ बारह हजार जपे और यारहसौ होमसे सिर करके तब काम में लेना चाहिए ।
ज्वर ग्रह पिशा चाचा स्तोभं कृत्वा शिरो व्याथां
नश्यतिं पार्श्वनाथस्य मंलेण नेन तत्क्षणात् पार्श्वनाथ स्थानक इस मंत्र से ज्वर ग्रह पिशाच आदि रुक जाते है सिर का दर्द उसी क्षण नष्ट हो जाता है।
O5CISIOASTOTSIDISCIEDA १३७ PDRISIOSRISTDISTRI50158
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SSIOISO150150155 विद्यानुशासन 05IOSDISIONSOSOTES
and
धी
पावता
मील
ही
ति
ॐ नमो भगवते
देवदत पाश्र्वनाचाय
7 आवेशय २५
नमो भगवते
ॐ नमो भगवते पार्वतीर्थकराय नीलकंठी नीलकंठी निर्मलाक्षि निर्मलाक्षी अमत वर्षिणी वर्षिणी शीधं शीघं अविशय एहि पर ॐदीं फट स्वाहा॥
ॐ नमो भगवते पावें तीर्थकराय नीलकंठी नीलकंठी निर्मलाक्षि निर्मलाक्षि नागदूती नागदूती अमृतवर्षिणी शीघं-शीधं आवेशय आवेश्य एहि एहि पर परॐ फट् स्वाहा।
श्री पार्श्वनाथ जिनवर पादांबुज पार्श्वसंस्थितं पौ: संजप्प नील कंठीमंत्रमिमं द्वादश सहसं साधयतु तत्रक्षिप्त रुग्विष जिदस्य संस्पर्शाःस्वस्थावेशकृदष्टोत्तर शतंतन्मल संजप्तिः ॥२ ||
05250SOISORRISTO १३८ PASSI501501510155555
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ಆಡದಂಥಗಣG Ragಥಣ ಬಣಣಠಟಣದ इस नील कंठ मंत्र का श्री पार्श्वनाथ भगवान के चरण कमलों के समीप बैठकर १२ हजार बार जपे इस मंत्र को १०८ बार जप कर शीघ्र ही सिद्ध करलेना चाहिये इस मंत्र के द्वारा छूने से यह रोग और विष को जीतकर निरोग कर देता है और आयेशन करता
ॐ नमो भगवतो पार्थ तीर्थकराय काली मुरवीरवीनां वासुकिना कर्कोटकानांकपिलानां काल दंतानां काल दंष्टाणां काल दृष्टं कराल कानां अष्टादश वृश्चिकानां एकादशदेवतानां पणासविष साणां षोडशमूषिकाणां षोडश मर्कटानां व्यतरं विष वा सर्प विष वा सर्वरोग विनाशिनी सर्व विटा छेदिनी आत्म विद्यां रक्ष रक्ष हितंकारी हितंकारी यशंकर वंशकार अत्रयंकरि र मनोहरि सर्व रोग शमं करिभीम करिभीम भीष्ण दंष्ट्रा करालाय सर्वजन वंश कराय सर्वराज वशमानय वशमानय सर्वलोक मगभूत पिशाचादीनवशमानयर हन हन दह दह पंच पंचशीघशीयं आवेशय आशादा मुंच मुंच माह मुंन नमो भगाते पाश्वतीर्थकरे भ्यो नमो नमः स्याहा॥
पार्श्वप्रज्ञप्ति मंत्रोयं विषक्षुद्र निषदनः वंध्यानां गर्भ जननः सर्वभूत ग्रहापहाः
स्तनोदामन कृत स्त्रीण मार्तवोत्पत्ति कच्चसः अपमृत्युहरो मार्गभयेभ्यश्चापि रक्षाति
॥२॥ यह पार्श्व प्रज्ञप्ति मंत्र छोटे छोटे विषों को नष्ट करता है वंध्या के गर्भ उत्पन्न करता है रज उत्पत्ति करता है, कुच उद्गम (बड़ा करे) तथा सब भूत ग्रहों को नष्ट करता है। स्त्रियों के बंद हुए ऋतुधर्म को फिर पैदा करता है, शांतिरूप हैं, अपमृत्यु का नाश करता है और मार्ग के भय से रक्षा करता है।
ॐ णमो अरहताणंॐ णमो भगवते त्रैलोक्यनाथाय नमोस्तु परमेशराय क्षी नमो भगवते केवलि तीर्थकराय देवकरे देवकरे देवकरे यक्षकरे राक्षकरे राक्षसकरे
रावसकरे देव कटाक्ष करे देवकटाक्ष करेगरूडाक्ष करेगरूडास करे गंधर्वाक्षकरे CASIOISOISTRISTOTR A १३९ P5050SSIRISTRASIDASIDISA
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252525252595 fazugoucna Y59595252525
गंधर्वा करे भूताक्ष करे भूताक्ष करे, पिशाचक्ष करे-पिशाचक्ष करे, राक्षसकरेराक्षस करे, साधू राक्षस करे, साधु राक्षस करे, सर्वाक्ष करे, सर्वाक्ष करे गवाक्ष करे, पिंगलाक्षकरे पिंगलाक्ष करे, कनाताक्ष करे कमाताक्ष करे गुंजाक्षकरे गुंजाक्षकरे मंडलाक्ष करे मंडलाक्ष करे, युद्धाक्ष करे युद्धाक्ष करे, दक्ष करे दक्षकरे, धरयु धरयु, धर-धर तव तव हुत-हुत सुच सुच भूत-भूत, पुष्प-पुष्प दुष्ट-दुष्ट, महादुष्ट-महादुष्ट ग्रहदुष्ट- ग्रहदुष्ट, पर पर, हर हर, भर-भर गरुडावाहिनी हरु हुरु शनि फट फट हुं फट ह्रीं हुं फट चारण तीर्थंकरेभ्य स्वाहा ॥
द्वादश सहस्र जापात् होमाचायं प्रसाधितः कुर्यात, केवल तीर्थकख्यो मंत्रः सर्वाणि कार्याणि
॥ १ ॥
अष्टोत्तर शत जपतः स्वकर तलान्योन्य ताडनं ग्रह शांति शत्रुक्षयं च कुरुते मसुरिकां हरति भस्म जंतु कृज्जप्तं ॥ २ ॥
तन्मंत्रित: मुडिकादि व्याधीन सर्वान सणाशपीतं तज्जसाः संस्पृष्टाः पुष्पंति फलांति च द्रुम लताद्याः
|| 3 ||
तन्मंत्रितः सिकता कृत परिवृत्ति सं रक्षिते भाग मूषक मूषिक विषधर शार्दूलाद्यै परिहियंते
॥ ४ ॥
यह केवली तीर्थंकर मंत्र बारह हजार जाप और होम से सिद्ध होता है। और सब कार्यों को करताहै। यह मंत्र १०८ बार जपकर हथेली बजाने से ग्रहों की शांति तथा शत्रु का नाश करता है। इस मंत्र से जपी हुई भस्म को देने से मसूरिका (शीतला) दूर होती है।
इस मंत्र से मंत्रित जल को पीने से सर्वरोग नष्ट होते हैं इस मंत्र को जपकर छूने से वृक्ष लता आदि पर फल फूल आने लगते हैं।
इस मंत्र से जपी हुई बालू को मार्ग में अपने चारों तरफ ड़ालकर मार्ग की रक्षा करने से चूहे, सर्प और सिंह आदि मार्ग से भाग जाते हैं।
ॐ नमो भगवते अरहंत सिद्ध आईरिय उवज्झाया साधु रक्षा चतुर्विशंति तीर्थकर रक्षा ब्रह्मा रक्षा विष्णु रक्षा क्षेत्र शत कोटि पिशाच रक्षा त्रिटा स्त्रिंश दिद्रं रक्षा ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः क्षां क्षीं क्षं क्षीं क्षः स्वाहा ॥
0525252525252: *• PSY525
3595
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CSCI501525IOTSTR5 विधानुशासन 98512150150151215805
सं सिद्ध सर्व रक्षारख्यो मंत्रोयं सार्यकार्मिकैः
अनेन विहितं स्नानं शांत्यादिशुभकर्मकृत यह सर्व रक्षा मंत्र सब कार्यो को सिद्ध करता है। इस मंत्र से स्नान करने से शांति आदि उत्तम कार्य होते हैं।
ॐनमोभगवतेपावचंद्राय अष्टमहासिद्धिकराया लूतिज्पाला गहनावशूलमूल व्याधि दुष्ट वण विनाशाय अनेक विधि विष संहाराय छिंद छिंद भिंद भिंद ज्वाला ग्रह संतापं हन हन रण रण रूण रूण कुण कुण सिलि सिलि चिलि चिलि मिलि मिलि कलि कलि ॐ हां हंसःहीं हंसः ॐ हूं हंसः ॐ ह्रौं हंसः ॐ हूं: हंस ग्लौं धमं ठः ठः स्वाहा।।
. सर्वव्याधि हरी मंत्र :श्री पार्श्वस्य जिनेशिनः जपे होमादिनानित्यं सर्वकर्म करो भवेत्
॥१॥ यह श्री पार्श्वनाथ स्वामी का सर्वव्याधि हरण मंत्र जप होम इत्यादि से सदा ही सब कार्यो को करता
है।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय फणामणि मंडिताय कमठ विध्वंसनायसर्वग्रहोच्याटनाय सर्वविषहराय सर्वशांतिकांतिचकुरूकुरू ॐ ह्रां ही हूँ ह्रौं हः असि आउसा मम सर्व शांति कुरू कुरू स्वधा स्वाहा ॥
श्रीमतः पार्श्वनाथस्य मंत्रः सर्वार्थसाधन:
_ शांति पुष्टि करोत्येव मंत्राराधन योगतः यह श्री पार्श्वनाथ स्वामी का मंत्र सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला है मंत्र सिद्ध होने से शांति और पुष्टि करता है।
ॐ ह्रीं पद्मावती नालिकरं भ्रामय भ्रामय शीयं शीघं हुं फट् स्वाहा ॥
अयं पद्मावती देव्या मंत्रः कंभस्य भ्रामक:
नालिकेरो भ्रमत्याश्रुमंत्र स्वास्य प्रभावतः यह कुंभ (घड़े) को घुमाने वाला पद्मावती देवी का मंत्र अपने प्रभाव से शीघ्र ही नारियल को घुमाता
है।
CIETIECISCISCISIOCH १४१ PISICISIOTECTSICISIOTECISI
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PSPS
विद्यामुशासन
॥ सरस्वती विधान ॥
9552959599
विनयं माया हरिवल्लभाक्षरं तत्पुरो वद द्वितीयं, वाग्वादिनी च होमं छाग़ीशा मूल मंत्रोद्यं ॐ ह्रीं श्री वद वाग्वादिनी स्वाहा यह सरस्वती का मूल मंत्र है। विनयं बीजं हरि प्रिया तत्पुरो वद द्वितीयं वाग्वादिनी च होमं वागीशा मूल मंत्रोऽयं
मंत्रोद्धारः
ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा ।
विनयं ( 3 ) माया बीज (हीं) प्रिया (श्री) दो बार यद वाग्वादिनी और होम (स्वाहा) यह वागीशादेवी
का मूलमंत्र है।
मंत्रोद्धार :
॥ १ ॥
तेजोवद युगवादिनी त्यतः शून्यमेकैकं क्रमतोंग मंत्र पंच कमापि पंचागेषु विन्यसेत्
तेज (3) दो वद वाग्वादिनी के पश्चात क्रम से एक एक शून्य बीजों के पांचो अंगों को लगाकर पंचांग न्यास करे ।
ॐ वद यद वाग्वादिनी ह्रां हृदयाय नमः ॐ वद वद वाग्वादिनी ह्रीं शिर सेस्वाहा ॐ वद वद वाग्वादिनी हूं शिखायै वषट् ॐ वद वद वाग्वादिनी ह्रौं कवचाय वषट् ॐ वद यद वाग्वादिनी हः अस्त्राय फट् ॥
रेफ ज्वलद्धिरात्मानं दग्धं मग्नि पुरः स्थितं ध्यायेद्धृत मंत्रेण कृत स्नान स्ततः सुधीः
॥ ३ ॥
इसके पश्चात विद्वान मंत्री अपने को अग्निमंडल के बीच में बैठा हुआ तथा अपने मल को जल जलते हुवे रं बीज से जला हुवा ध्यान करके अमृत मंत्र से स्नान किया हुआ ध्यान करे ।
सर्वशरीरे प्रणवः शीर्ष वानयनयो ह्रीं कारश्च घोणा यां च वकार सर्वत्र मुखे दकारः स्यात
9619595951959591 १४२ P59595959519
॥ ४ ॥
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052525252595 degresi Y50525252525
वाग्वदेन वा कंठे दि हृदये नींच योजयेन्नाभौ पाद द्वितये स्वाहा शब्दं कुंदेन्दु सम वर्ण
॥ ६॥
महा पद्म यसो योग पीठा ग्रेति नमोतकः पीठ स्थापन मंत्र: स्योत्तजो ह्रीं कार पूर्वकः फिर सर्व शरीर में प्रणव (3) सिर में और दोनों आंखों में हीं नाक में व और मुख में सर्वत्र द का ध्यान करे ।
कंठ से लगाकर हृदय तक वाग्वदने नामभि में नीं और दोनों पावों में कुंद पुष्प तथा चन्द्रमा के समान वर्ण वाला स्वाहा शब्द लगावे । तेज (3) और ह्रींकार पूर्वक महापद्मा यशोयोग पीठा के अंत में नमः लगाकर पीठ स्थापन मंत्र बनता है ।
ॐ ह्रीं महा पद्मा यशो योग पीठाय नमः ॥
॥५॥
दिक्कपत्रे (पटके) ष्ट दलांभोजं श्री खंडेन सुंगधिना । जाति का स्वर्ण लेविनीन्या दुर्वा दर्भेण वा लिखेत
॥ १ ॥
दिशाओं के पत्रो में आठ दल युक्त कमल को सुगंधित चंदन चमेली सोने या डाम का कलम द्वारा लिखे ।
ॐ कार पूर्वाणि मोतं कानि शरीर विन्यास कृताक्षराणि प्रत्येकतोऽथैवयथा क्रमेण देवानि
कादीनां प्रथमायु अष्टौ काद्याः परस्परः स्वताभ्यां क्रमाद्युक्ता विज्ञेया स्तत्र केशरा
il
तान्यष्टषु पत्र के षु ब्रह्म होम नमशब्दांमध्ये कर्णिकमा लिखेत, कंक प्रभुति भि स्तंच कैशरै वैष्टये नमः
उन आठों पत्रों के प्रत्येक पत्र के आदि में ॐ और अंत में नमः लगाकर शरीर में न्याय करके अक्षरों को पृथक पृथक पत्रों में विखे ।
उसकी कर्णिका के बीच में ब्रह्म (ॐ) होम (स्वाहा) और नमः शब्द को लिखे और कंक: आदि को उसके पराग के स्थान में रखे ।
॥ २ ॥
क आदि वर्ग के प्रथम आदि अक्षरों तथा प आदि आठो अक्षरों के अंत के दो स्वर अं अः से युक्त करके पराग या केशर के स्थान में रखे ।
969596959PPA १४३ P159595951959595
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SSPASTOTRICISTRISIO75 विधानुशासन 95TOISSISCTRICTSIDESI कंकःचंच: टंट: तंतः पंप: यंगःर: लंल: वंवःशंशःषषः संसःहंहः वरवः उंछः ठंठः थंथः फंफ: गंगः जंज: इंड: दंदः वःधं यःशःशः दंढः धंधःभभः इंट: गंणणः जनःमंमः
एतानि के सराक्षराणि बाह्य त्रिमायया वेष्टटयं
कुंभकेनांबुजोपरि प्रतिष्टापन मंत्रेण स्थापयेतां सरस्वतीं ॥३॥ फिर इस यंत्र को बाहर से हीं से तीन बार वेष्टन करके उस कमल के ऊपर कुंभक प्राणायाम से प्रतिष्ठापन के द्वारा सरस्वती देवी की स्थापना करें। . ॐ अमले विमले सर्व देवी भारती वागीश्वरी ज्वल टुपुषिणे स्वाहा
ॐ प्रतिष्ठापन मंत्रः पाठांतरः ई अमले विमले सर्वज्ञे ह्रीं हंसः ॐ ह्रीं षद वद वाग्वादिनी भगवती सरस्वती श्री देवी भारती वागीश्वरी ज्वल वज्र मणि प्रभवे ॐ नमः स्वाहा।
प्रतिष्ठापन मंत्र अर्चयन्परया भक्त्या गंध पुष्पाक्षतादिभिः विनयादि जमातेन हीं मंत्रेण सरस्वती
॥४॥ इसके पश्चात उस सरस्वती देवी का आदि में विनय () तथा अंत में नमः वाले ह्रीं मंत्र से अत्यंत भक्ति पूर्वक गंध पुष्प अक्षत आदि के द्वारा पूजन करे।
ह्रीं श्री वद वद वाग्वादिनी नमः पूजा मंत्र
सारख्या भौतिक चार्वाक मीमांसक दिगंबराः योगकास्ते पिदेवि त्वां प्यायंति ज्ञान हेतवे
गमकत्वं कत्वं कवित्वं च वादित्वं वागमिता तथा हे भारती त्वत्प्रसादेन जायते भुवनै नणां
॥६॥
SSIRIDIOSEI5TOSISTSIC१४४ DISTRICKSTRISTRICTSTOST
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OSDISIOSD15251315 विधानुशासन 151915TOTHRISTOTRIOTSI
भानुदटो तिमिर मेति यथा विनाशं क्ष्वेडं विनस्यति यथा गरुडाग्मिन
तद्वत्समस्त दुरितं चिरं संचितं मे देवी त्वदीय मुख दर्पण दर्शनेन ॥७॥ हे सरस्वती आप की सांख्य भौलिक चार्वाक मीमांसक दिगम्बर और योगमति ज्ञान की वृद्धि के वास्ते ध्यान करते हैं। आपका ध्यान करने से कविता करने को वाचन सिद्धि होती है। जिस तरह सूर्य के उदय होने से अंधेरा नष्ट होता है, तथा गरूड़ के आगमन पर विष नष्ट होता है, उसी तरह से चिरकाल से इकट्ठा किया हुआ पाप हे सरस्वती देवी आप के दर्शन से नष्ट होता है।
सिंताबरां चतुर्भुजा सरोज विष्टर स्थितां सरस्वती वर प्रदा महन्निशं नमाम्यहं अभयज्ञान मुद्राक्ष माला पुस्तक धारिणी त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटा बालेन्दु मंडिता इत्थं स्तुत्वा मंत्री रवि संख्य सहस्र जातिका कुसुमैः
भक्त्या जपेत् श्रुद्या भारत्या मूल मंत्रं तं॥ श्वेत कपड़े पहने हुए चार हाथों वाली कमल के आसन पर बैठी हुई वर देने वाली सरस्वती देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।उसका एक हाथ अभय वर देने वाला है , दूसरे हाथ से ज्ञान मुद्रा ,तीसरे हाथ में रूद्राक्ष की माला तथा चोथे हाथ में पुस्तक धारण किये हुवे हैं। तीन नेत्रवाली है उस सरस्वती वाणी देवी की जटा बाल सूर्य की तरह मंडित है- वह मेरी रक्षा करे। मंत्री इसप्रकार स्तवन करके सरस्वती देवी के पूर्वोक्त मूलमंत्र का चमेली के फूलों से भक्ति पूर्वक शुद्ध होकर आठ हजार जप करे।
महिषाक्ष गुगल रजःप्रवि निर्मितचणक मान वटिकानां.
मधुर त्रय युक्तानां होमै वागेश्वरी वरदा ॥१०॥ भंसा गुगल के चूर्ण की चने के बराबर बनाई हुई गोलियाँ तथा घी दूध बूरा के होम से सरस्वती देवी वरदान देती है।
नैवेद्य दीपादिभि रितु संरव्यैःसुवर्ण पादावमि पूज्य देव्या:
स्ववाम देश स्थित शिष्य मेव मंत्र प्रदद्या त्स हिरण्य मंत्रः ॥११॥ नैवेद्य दीपक तथा चतुर्थास सोने के भाग आदि से देवी का पूजन करके अपने बांई ओर बैठे हुये शिष्य को सुवर्ण सहित जल देकर कहे।
STOISTRISTOTTOSSIOTHE१४५ PISTRICISTRISEXSTRICIST
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CTSIDESIRI5DISSIO5 विधानुशासन 05050505051215
विद्या मयेयं भवते प्रदद्यात त्वानदेयान्यद्दशेजनाय
तं श्रावटित्वा गुरू देवताना मग्रे सु विद्यां विधिना प्रदयात ॥१२॥ मैं तुमको यह विद्या दे रहा हूँ | तुम भी इसको मिय्यादृष्टि पुरुष को नहीं देना । गुरू देवताओं के सामने यह वचन सुनाकर विधिपूर्वक विद्या दें।
मंत्री सुर मंत्री समः स्या द्धया स्या च्चत्तस्य वैदग्ध्यं
कवितायां गमकत्वे वादित्वे वाग्मितायां च ॥१३॥ इस मंत्र की सिद्धि में मंत्री देवताओं के मंत्री वृहस्पति के समान बुद्धिमान, चतुर हो जाता है। व कविता बनाने में और व्याख्यान देने में और शास्त्रार्थ करने में अद्वितीय हो जाता है।
उष्मा मादिमं बीजं ब्रह्म बीज समन्वितं लांते रांतेन संयुक्तं माया वाग्भव संयुतं
॥१४॥ उष्मा के आदि बीज श ब्रह्म बीज ई लांत (व) रांत (ल) को माया ही और वाग्भव (ऐं) से युक्त करें।
शल्या ह्रीं एं मंत्रं जपति द्यो नित्यं जाति का कुसुमैवरैः
रवि संख्या सहस्वाणि स स्थावाचस्पते समः ॥१५॥ श्ल्यों हीं ऐं मंत्र का जो नित्य उत्तम चमेली के फूलों से आठ हजार जप करता है वह वृहस्पति के बराबर हो जाता है।
वाग्भवं काम राजं च सांत षांतेज संयुतं ॐकार संयुतो मंत्रः सःस्या स्लिपर संज्ञकं
॥१६॥ वाग्भथ () कामराज (क्ली) सांत (हकार) में मिला हुआषात (स) औरउँकार सहित मंत्र अर्थात् ऐ क्लीं ह्सौं त्रिपुर नाम वाला मंत्र कहलाता है।
श्वेतैः पुष्पैः भवेदाचा सोणितैर्वस्य मोहनं लक्ष्याजापेन सं सिद्धिं यांति मंत्रः सहोमतः
॥१७॥ सफेद फूलों से बाणी की सिद्धी और लाल फूलों से यश्य और मोहन होता है। यह मंत्र एक लाख जप और होम से सिद्ध होता है।
सप्त लक्षाणियोविद्यां मायामेकाक्षरी जपेत तस्य सिद्धयति वागीशा पुष्पैरिंदु समप्रभैः
॥१८॥ CSIRASTRITICISTOIDIODCA १४६ -5I0RRIERISTICISTRASOISI
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ORSIRIDICISISISTRISITE विधानुशासन EASIDISISISTRISTORIES जो पुरुष चन्द्रमा के समान कांतिवाले पुष्पों से एकाक्षरी माया बीज ही का सात लाख जप करता है उसको सरस्वती सिद्ध हो जाती है।
पीतं स्तंभादि कार्यों सितमति सुभगे शांतिके वाग्विधाने आकृष्टो वश्य कामे जप कुसुम निभं जाति सिंदुर वर्ण, उच्चाटे धूम्र वर्णे स्फटिक मणि निभं रखेचरत्वं ददाति
व्योमामं मोक्ष हेतुः परम परमयं पातुनो जैनशक्ति ॥१९॥ पीला फूल स्तंभन आदि कार्यो में, अत्यंत श्वेत उत्तम कार्यों में, सरस्वती विधान में जाति (चमेली) से सिंदूर के समान वर्ण वाला पुष्प आकर्षण तथा वशी करण में , धूमवर्ण का पुष्प उद्याटन में प्रयोग किया जाता है स्फटिक मणि के समान वर्णवाली आकाशगमन की सिद्धि देता है और आकाश के समान वर्णवाला मोक्ष का कारण है। यह जिनेन्द्र भगवान की शक्ति जयवंत होवे।
| सरस्वती देवी का स्तोत्र |
बोधेन स्फुरताचिताप चलया सूक्ष्मा विकल्पात्मना पश्यंती श्रति गम्य तज्जवपषा या वैरवरी मध्टामा तां चित्रात्मा समस्त वस्तु विशदोन्मेषोन्मुख ज्योतिषे
शब्द ब्रह्म लसत्परापर कलां ब्राह्मी स्तुम स्ता वं जसा ॥१॥ सरस्वती का दूसरा नाम ज्ञान है ऐसा कोई जीव नहीं हो जो ज्ञान रहित हो। इसलिये सदा मोजूद रहकर प्रकाशित होने वाली चिररूप सरस्वती देवी तुम्हारा अति सूक्ष्म रूप हो जाता है लब्धि प्रयाप्तक निगोदिया जीव में तुम्हारा अति सूक्ष्म रूपहोजाता है और वह ज्ञानाबरणी कर्म से आवृत नहीं होता तुम जब कंठ, तालू, होंठ, मूर्घा आदि के द्वारा उत्पन्न होकर श्रोतेन्द्रिय द्वारा गम्य होती है। तब कानों से सुनाई पड़ने लगती है। तब तुम्हारा रूप मध्यम हो जाता है संसारी जीवों के ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार का होने लगता है इसलिये हे श्रुतज्ञान रूपे नाहि तुम्हारी स्तुति हम विभिन्न प्रकार की समस्त वस्तुओं के स्वरूप को भली प्रकार जान कर शक्ति प्राप्त करने के लिए अर्थात सर्वज्ञ बनजाने के लिये करते हैं।
त्वं लब्ध्यक्षर बोधनेन भविनो नि त्युद्यताणी यशो स्तत चित्कलया परा स्त्रिभुवनानु ग्राहिगीः सर्गया चिच्छक त्यां रिवल वेदिनः परमया संजीवयस्या तया मुक्त्यानयुते ग्रहती भगवती ध्येयासि कस्य हेन || २ ||
CSCISSISTOISTRISP510१४७ PSTOISIST5127505125510155
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252525252525 kengunes 252525252525
हे भगवती सरस्वती ! तुम संसार में किसका उपकार नहीं करती। इसलिए तुम किसके ज्ञान करने योग्य नहीं हो ? जीव की सबसे हीन अवस्था निगोद है । उसमें तुम लब्ध्य अक्षर ज्ञान देकर जीवों को उपकृत करती हो। इसके बाद जीव की अवस्था निगोद से निकल कर जैसे जैसे पृथ्वी जल आदि स्थावर दो इंद्रिय आदि मनुष्य आदि संती पंचेन्द्रिय रूप से बदलती जाती है, वैसे वैसे बढ़ती बढ़ती श्रुतज्ञान प्रदान कर महा उपकार करती है। जब यह जीव ज्ञानावरणी आदि चार घातिया कर्मों को क्षयकर लोक अलोक के समस्त चर-अचर पदार्थों का ज्ञाता हो जाता है तो उस अवस्था में भी पूर्ण चिदशक्ति का विकास कर उसको उपस्कृत करती है, और जब आठों कर्मों का नाश कर जीव सिद्ध मुक्त हो जाता है तो उससमय भी तुम उन पर अनुग्रह कर अनंत सुखों का भोक्ता बनाती हो । इसप्रकार जीव की हर अवस्था में तुम अनुग्रह करती है ।
क्षेत्रेषु सहोपयुक्त वचन ज्योति विकल्पात्मया क्लेषा वर्तिषु वाच्य वाचक विकल्पानुक्रमानुग्रहात छेदाच्चानुपयुक्त वाग्मय विकल्प स्याक्षरादि च्छिदा स्यादांत क्रम निर्विभाग वपुषः श्री शारदऽध्येमिते
11 3 ||
हे शारदे ! तुम्हारा शरीर स्यात् पद के ग्रहण करने से क्रम और अक्रम रूप है। एक साथ प्रयोग किये हुवे वचन ज्योति के विकल्पात्मक होने से क्लेश पाते हुए क्षेत्रज्ञों पर वाच्य वाचक विकल्पों का अनुक्रम बनाकर तुम अनुग्रह करती हो। जो प्रयोग नहीं आ रहे हैं। ऐसे वचन विकल्पों में अक्षरादि का अभाव होने से, उसको गौण बना देती है।
लोकेन्यान्य मनु प्रविश्य परितोयाः संति वाग्वर्गणः श्रव्यात्म क्रम वृति वर्ण परता ता लोक यात्रा कृते नेतुं संविभजत्पुर प्रभृतिषु स्थानेषु यन्मारुतं तत्रायुष्मति भिंत तवं ततो दीयायुरानीमितत
हे आयुष्मति दीर्घजीवन वाली सरस्वती देवी इस लोक में भाषा वर्गणा सब जगह भरी पड़ी है और वे इतनी सघन हैं कि एक दूसरे में प्रविष्ट हैं। वे भाषा वर्गणायें लौकिक जनों के हितार्थ हृदय कंट तालु आदि स्थानों में हवा की प्रेरणा होने से कर्ण गोचर क्रमशः शब्द रूप बनती है उसमें आपका ही प्रभाव स्पष्ट मालूम पड़ता है।
अर्थात आत्मा के ज्ञान द्वारा ही भाषावर्गणायें शब्द रूप बनती हैं जिनको सुनकर लोग अपना सांसारिक व्यवहार चलाते हैं।
॥ ४ ॥
सर्वज्ञ ध्वनि जन्य मत्यतिशयोद्रोक श्रुतैः सूरिभिः साध्वाचार पुरसरं विरचितं य त्कालिकाद्यं चयत् सांख्य शाक्य वचस्त्रयी गुरूवच श्चान्य च्चा लौकिकं सोयं भारति मुक्ति मुक्ति फलदः सर्वोनुभाव स्तव 959595959SPPA १४८ PSP5959696955
॥ ५॥
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CTERISTISIONSIONSIDE विधानुशासन 95015521510500 हे भारती ! सर्वज्ञ अहंत भगवान की दिव्य ध्यनि सुनकर मतिज्ञान और श्रुतिज्ञान के अतिशय को धारण करने वाले आचार्यों ने आचारांग आदि बारह अंग और कालिक और उत्कालिकादि प्रकीर्णक शास्त्रों की रचनाकी तथा पधीस तत्यों की प्रकृति के सांख्य और त्रि पटक रूप शाक्य बोध चार्वाक आदि ने लौकिक ग्रंथों को बनाया। यह सब मोक्ष और भोग दोनों को प्रदण करने वाला आपका ही प्रताप है , अर्थात् सम्यकज्ञान और मिथ्याज्ञान दो रुप आपके है उनसे मोक्ष और संसार दो फल प्राणियों को मिलते हैं।
प्राह : सां व्यावहारिकार्य मषयो टान्नैगमा नटो: भूतार्थः प्रयते भवत्पद युषां तस्मात्किं मत्राद्भुतं चित्रं त्वेतदीय यत्पश नणां याद्दच्छिकी रे वगा:
श्रुत्वा शासति भूतभावि भवतः श्री वाणि युक्ता स्तत्वयी ॥६॥ हे श्री वाणी ! ऋषि लोगों ने नैगमादि नयों को बताकर संसार का व्यवहार सुचारू रूप से प्रवर्तित करने का उपाय बताया और उसके अनुसार सत्य तत्व ज्ञान प्राप्त हुआ इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का है कि मनुष्य और पशुपक्षियों की अपनी इच्छाधले गये यचजों को सुनकर आपके प्रताप से लोग भूत भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों की बातों को स्पष्ट बतलातेहैं।
ह्रीं हंसः पर मंत्र वर्ण परिधि: व्यः कर्णिकं स्वा भिधाः पूर्वांतो नमसंश्चत्सूउपयोत्पत्रेषु नंदादिकाः अष्टौ षोडश रोहिणी प्रभतीकाः सेन्द्रा बहि ब्रह्मधी
म्भायो वीवृतमां स्थिता सरसिजं श्री देवी नंद्यात्सदा ॥७॥ हे सरस्वती देवी ! आप ऐसे कमल पर विराजती हैं जिसको कर्णिका में ही हंसः' तीन बीजाक्षर हैं पूर्व अंत में चार नमः है आठ दलों में नंदा आदि सोलह दलों में रोहिणी आदि देवियाँ है जो दस दिकपाल माया बीज पृथ्वी मंडल से घिरा हुआ है। अर्थात् वरूणाद दिक्पाल ऊपर ई ई ई ब्राह्मणे नमः पूर्व और इन्सान होकर क्रों से निरोधित है उसके बार पृथ्वी मंडल हैं।
वाग्दवादिन्यधिको वदौस भगवत्युक्तं सरस्वत्यपि श्री मायावभितं सि मूर्ति मुरवतं स्तेजो नमः श्चातंतः मंत्रोयं प्रवरः शशि दुति मितोः नुस्थत बीजो ज्वलं
स्वास्टा हत्कमल स्थिते तव मुरवाद् प्टोटो विशदवणिभिः ॥८॥ ह्रीं श्रीं यद यद वाग्वादिनी भवगती सरस्वती ही नमः॥ इस मंत्र का हृदय कमल में स्थापना करके जाप करें
050512852215250१४९ P50510151DISPERTOON
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PSPSPPSSP विधानुशासन 959595959595
118 11
चंच चंद्र रूचं कलापि गमनां यः पुंडरीकासनां सज्ञानाभय पुस्तकाक्ष वलय प्रावार राज्युज्जवलां त्वामध्येति सरस्वति त्रिनयनां ब्राह्मे मुहूर्ते मुद्रा व्याप्ताशाधर कीर्तिरस्तु महाविद्यः संवधः सतां जिसकी कांति प्रकाशमान चन्द्रमा के समान है, मयूर पर जिसकी सवारी है कमल जिसका आसन है, जिसके हाथ में ज्ञान मुद्रा है, एक हाथ में शास्त्र है, एक हाथ में अक्ष माला है, एक हाथ प्राणियों को अभयदान दे रहा है, जो उत्तरांग (दुपट्टा चादर) पहने हुए है। ऐसी सरस्वती का जो ध्यान स्मरण करता उसकी कीर्ति दशों दिशाओं में फैलती है। वह महान विद्वान हो जाता है सज्जन लोग उसका अभिनंदन करते हैं ।
32 यमायै स्वाहा
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ॐ स्वाहा
ॐ वरुणाय स्वाहा
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भगवत्यै नमः
शि
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ॐ सरस्वत्यै नमः
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ॐ नंदायै नमः
ॐ नमः
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959595t 2505014. P50505
वायवे स्वाद कराय
35 मयूरवाहिन्यै स्वाहा ॐ अधीनामच्य स्वाहा
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ॐ ईशानायै स्वाहा
३
कनक
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SCISCERISTRIP विधानुशासन 9850505PISODERN
काम चांडाली विधान
वर्द्धमान जिनेन्द्रस्य यक्षी सिद्धायका मता तद्देय पर नाम्रा च काम चांडालि संज्ञका
॥१॥ श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र देव की यक्षी सिद्धाय का जो सब इच्छाओं को पूर्ण करती है। उसका दूसरा नाम काम धांडाली भी है। अथ: मूल मंत्रोद्धारः
उकार लोकनाथं गजवशं करणं पाश शून्यानि पंच रां री रूं रौं र:च युग्मं मधु श्री मथ नमनः
॥२॥
स्थाक्षरं कामं राजं ब्लू कारंटू च हां हुं तदनुं लिरव महारौद्र कर्मोक्त बीजं ज्ञातव्यो मूल मंत्रोयं
॥३॥ विनय विष नमोंतान्वितः सोपदेशः उँकारं लोकनाय (ही) गजवशकरणं (क्रौं) पाश (आं) शून्यानि पंच युग्मं (हा ही हूं हौं हः) रां री रुं रौ रः) मधु मथ नमन (श्री ) स्थाक्षरं (स्याहा सहित) कामरज (कली) ब्लकारं (ब्लू) यूँ (!) हां हुं बीजं महारौद्र कर्मोक्त बीज (घे घे) विनय (3) विष नमः याला उपदेश सहित मूलमंत्र है।
ॐ विष नमः ॐ ह्रीं क्रौं आं हां ह्रीं हूं हौं हःगरी रौं र: श्री क्ली ब्लूं यूँ हां हुघे घे स्वाहा
इति मंत्रोद्धारः
ब्रह्मादि नमो भगवति देवी नामाग्रपंच शून्यानि हत शीर्ष शिरवा कवचं चास्त्रं रक्ष द्वयं होम
॥४॥
कुर्यादे तै मंत्र क्रमेण पचांग रक्षणं मंत्री:
दिव्याराधन काले प्रतिदिवेसं पीत सत्पुष्प ब्रह्म (ॐ) को आदि में लगाकर नमः भगवति काम चांडाली देवी के आगे पंच शून्य बीज ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः शीर्ष शिखा कवच और अस्त्र में लगाकर दो बार रक्ष रक्ष और स्वाहा लगाकर अंग न्यास करे। मंत्री देवी की प्रतिदिन पीले पुष्पों से आराधना करते समय इन मंत्री से अपने पांचों अंगो की रक्षा करे।
S5I0RSDISEXSTOISTRISION १५१ PISTRIS101521510501525
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STSTD35315251255125 विधानुशासन 950151233CISIOISION
मध्ये देव्याभिधानंमष्ट दल भृत्पद्म ततस्तेषु च माया पाश गजेन्द्र रोधनकर बीजं हरेवल्लभ
॥६॥
कामेट्रैवल पिंडकं मदनुंगं ५ ब्लेकमेण
लिवेत टाहो वर मूल मंत्र वलयं यंत्रं लिरिवत्वार्चयेत् ॥७॥ बीच में देवी का नाम लिखकर उसके चारों तरफ अष्टदल कमल बनाये । इनके पत्रों में माया (ही) पाश (आं) गजेन्द्र रोधन बीज (क्रों) हरि वल्लमाक्षर (श्री) कामेन (क्ली) ऐक्ल पिंड (ब्लें) यूँ और ब्लू को क्रम से लिखे इसके चारो तरफ मूल मंत्र का यलय सहित यंत्र को लिखकर उसका पूजन करें।
ॐ नमो भगवत्या स्त्रिभि मंत्र क्रमादिमैः
कर्तव्याकाम चांडाल्या आह्यानेज्या विसष्टयः ॥ इसके पश्चात क्रम से आदि तीनों मंत्रो से काम चांडाली देवी का आह्वान पूजन और विसर्जन करे।
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आह्वनादि मंत्र
ॐ नमो भगवते काम चांडालि ऐहि ऐहि आगच्छ आगच्छ संवोष्ट आह्वाननं ॐ नमो भगवतं काम चांडाल अत्र तिष्ट तिष्ट ठः ठः स्थापन ॐ नमो भगवते काम चांडालि अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणं
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पूजामंत्र
ॐ नमो भगवते काम चांडालि जल गंधाक्षत कुसुमादीन गृह-गृह नमः ॐ नमो भगवते काम चांडालि मदोन्मत्त गामिनी स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जःजः पुनरागमनाय स्वाहा।
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॥
विसर्जन मंत्रः इसके पश्चात इस तरह ध्यान करे।
भूषिताभरणैः सबैमुक्त केशादि गंबरी पातमां काम चांडाली कृष्ण वर्ण चतुर्भुजा
॥७॥
फल कांचन कलश करा शाल्मनि दंडोच्च डमरू युग्मोटोता ।
जयता त्रिभुवन वंद्या वश्या जगति श्री काम चांडाली ॥८॥ CASIRISTSTORISTRISTOTRA १५२ PISIOISTORICISIO505051
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95250
विद्याभुशासन 99999595
आभूषणों से भूषित, खुले हुये केशों वाली, दिगम्बरी, कृष्ण वर्णवाली, चार भुजाओं वाली मेरी रक्षा करे। हाथों में फल सुवर्ण के कलश वाली, दो डमरू लिये हुवे सेभंल के दंड के समान दोनों जंघाओं वाली तीन लोक से वंदनीय, काम चांडाली देवी जपने वालों के वश में हो जाती है ।
इत्यमुना स्तोत्रेण स्तुत्वा स्वेष्ट प्रसिद्धये मंत्री ध्याये चैवं रूपां देवीं तां काम चांडाली
0130
मंत्री काम चांडाली देवी की स्तुति करता हुआ उपरोक्त रूप से अपने कार्य सिद्धि के वास्ते उसका ध्यान करे।
पट्टे स्वरूपं प्रविलिख्यं देव्याः वनावृतं
तद्वरकेतकानां
द्विकाधिकाशिति वलार्द्धमानं जपं च्च साष्टाशत मेव पुष्पैः ॥ १० ॥
देवी के स्वरूप को एक पट्ट पर या वस्त्र पर लिखकर उसके सामने बैठकर केतकी के फूलों से बयालीस का आधा और आठसौ अर्थात आठ सो इक्कीस जप करें।
ततो दशांस प्रकरोतु होमं घृतादि मिश्रित गुग्गुलेन ददाति देवी वरमात्म चित्ते यच्चिंतितं तद्भुवि साधकाय
॥ ११ ॥
इसके पश्चात गूगल में घी आदि मिलाकर दसवाँ अंश अर्थात बयासी आहूतियां देकर होम करने से देवी साधक को उसके मन में सोंचे हुए सब पदार्थों को देती है ।
भूम्यामपतित गोमयी लिप्ते धरणी तले सु चतुर स्त्रे स्थापयितव्ये देव्याकांचन मय पादुके तत्रा
॥ १२ ॥
पृथ्वी पर न गिरे हुए गाय के गोबर से लिपी हुई चौकोर भूमि पर देवी की स्वर्ण रूप पादुकाओं की (खडाऊँ) की स्थापना करनी चाहिए।
द्विक युत चत्वारिशंत्पूपान्यित पूगपत्र दीपायैः वस्त्र फल कांचाना गुरुचरणं पूजये तत्र:
फिर बयालीस पूर्वो सुपारी पत्र वस्त्र फल और सुवर्ण आदि से गुरु
जिन समय गुरुपदांबुज भक्ति मते देा एष मंत्रोयं दास्यसि कुद्दष्टये चेत्मुनि वद्य पापं भविष्यति ते
9595959
1133 11 पूजा
के चरणों की
॥ १४ ॥
करें।
PSPA १५३ PSP59595959595
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1
4
1
ちちこちゃ
एवं निवेद्य पूर्व शिष्याय जिनेंद्र गुरूजन स्याग्रे आत्मायागत विद्या दातव्या शाळूमपहाय
विधानुशासन 959595969
॥ १५ ॥
यह मंत्र जैनशास्त्र और जैन गुरु के चरण कमलों में भक्ति रखने वाले ही को देना चाहिये। मंत्र देकर शिष्य को बतलादे कि यदि तू यह मंत्र कुद्दष्टि (मिथ्याद्दष्टि) को देगा तो तुझको मुनि की हत्या करने का पाप लगेगा। शिष्य से जिनेन्द्र भगवान और गुरुजनों के सामने पहले यह बात कहकर अपनी विद्या निष्कपट होकर देवें।
र. श्रीं
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ॐ
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निशेषागम मंत्रवाद कुशलान वाग्देवता वल्लभान् नत्या तान विशेषरा न्यति पतिनाचार्य यर्यान गुरून्, दद्यात् स्वर्ण समन्वितोन्नत घटाधारा जलं तत्करे साक्षी कृत्य हुतासना निल अनंता पृथ्वी कुरिति विद, भ्रमाका शमनं तमं बर मिति सोम प्रभाचार्य कोशात् कुवि चद्रार्क तारा गणान्
2525252525959 R4 P5252525252525
॥ १६ ॥
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SCSIRISTRIEDEOSE विद्यानुशासन CISIOISTRISTRISTRISTOTRA फिर सम्पूर्ण शास्त्रों और मंत्र वाद में चतुर सरस्वती के प्रिय नग्न मुनियों, यतियों , आचार्यों और गुरुओं को नमस्कार करके तथा अग्नि, जल, शुक्र आदि ग्रहों चन्द्र, सूर्य और तारों को साक्षी करके सोने के बने हुये घड़े से उसके हाथ में जल की धारा दे।
द्रवंति वनिताः सद्दिष्टावा सन्मंत्र वादिनं, सोमं गत्वा ग मिष्टांति पुरग्राम वर स्त्रिय धनाभिलाषस्य धनं महत्ता द्विषाय हारं च विनासनेच्छा
यदीप्सितं चेत सि साधकेन तदेव तस्मै भुवि सा ददाति ॥१७॥ इस मंत्र वाले उत्तम मंत्री को देखकर सब स्त्रियां द्रवित हो जाती हैं तथा नगर और ग्राम की उत्तम लियां क्षोभ को प्राप्त होती हैं। धन की इच्छा करने वाले को बड़े भारी धन की राशि प्राप्त होती है। विष को नष्ट करने की इच्छा वाला विष को दूर करता है। यहां तक कि साधक पृथ्वी पर जो इच्छा करता है देवी उसको वही देती है।
आकृष्टि विद्वेषण वश्य शांति संमोहनोच्चाटन रोधनानि,
सएव मंत्रः कुरुतेह मुरव्यै जानाति चेन्मंत्रं विधि समस्तं ॥१८॥ यदि कोई पूर्ण विधि मंत्र को जानता हो तो यही मंत्र आकर्षण विद्वेषण, वशीकरण, शांति , मोहन, उच्चाटन और स्तंभन भी करता है।
बजासनः पूर्व मुरवोपविष्टः स्तालादि भिः संविलिरयेत्संत्रमंत्रं
मत्रांतरे नाम पदं वितन्व न्दिरोध यत्वायु पथः समंतात् ॥१९॥ वजासन से पूर्व की तरफ मुख करके बैठा हुआ हरताल आदि से मंत्र को लिखकर तथा दूसरे मंत्र में नाम के पद को रखने से जन्मभर के लिये विरोध हो जाता है।
पट्टे च पट्टांबर भूर्य पत्रे पीत प्रसूनैरभि पूज्य पूर्व,
पीतेन सूत्रेण च वेष्टियित्वा धरातलस्थं कुरुते निरोधं ॥२०॥ पट्ट वस्त्र या भोजपत्र पर लिखकर पहले पीले पुष्पों से पूजन करे तया पीले धागे से लपेटकर पृथ्वी में गाड़ने से स्तंभन करता है।
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252525252525 kangenes Y50505050/505.
रक्त करवीर दंड दग्धं सर्वग्रौ निधाय चांगारं रुधिरेण वामजंधो दद्भवेन तं सिंचयेत् प्राज्ञः
पश्चात् भूतलेतं निक्षिप्तव्यं प्रयत्रतोन्य पत्रतेन च सूत्रेण च भूर्ये बले कार्पोत्पन
लाल कनेर के दंड को जलाकर उसके अंगारों की अग्नि में रखकर पंडित पुरुष अपनी बाई जंघा के रक्त से उसको सींचे। फिर भोजपत्र पर अपने कार्य को लिखकर उस धागे से लपेटकर उसक किसी दूसरी जगह यत्न पूर्वक पृथ्वी में रख दें।
आरक्त सूत्र वेष्टितमथकृत्वा मदन पुत्रिका हृदये, निक्षिप्याधः शीर्ष भवति यथा सा तथा लभ्या
॥ २१ ॥
मालिख्य ॥ २२ ॥
॥ २३ ॥
इसके पश्चात उस काम देव की पुतली स्त्री के हृदय पर लाल धागा लपेटकर उसका सिर नीचे की तरफ करके रख दें। तो उसको किसी तरह प्राप्त कर लें ।
पश्चात त्रिकोण कुंडं निखन्य संध्या सुधमेह तस्मिन तिल शर्षय लवण यृतैरे काद्दानयेन्नारी
॥ २४ ॥
फिर इसके पश्चात सायंकाल के समय त्रिकोण कुंड खोदकर उसमें तिल सरसों लवण और घृत का होम करें तो स्त्री को एक दिन में प्राप्त करे स्त्री एक दिन में हो आ जावे ।
ॐ ह्रीं कों हदि कर्णयोरऽपि तथा हस्त द्वये श्री न्यसे, नाभौ ब्लूं स्मरबीजकं स्मर पदं तस्याधरे यूँ पुनः येथे हस्त तलाग्रयोर्मणिपदे बाहौ च हामां क्रमालिखेत् बाह्ये ह्रीं वलयं ततोऽग्नि पुटके शब्दादि मंत्रं लिखेत्
हृदय में ॐ दोनों कानों में ह्रीं क्रौं दोनों हाथों में श्री नाभि में ब्लूं योनि में क्लीं नीचे होठ में यूँ दोनों हथेलियों में घे घे कलाइयों में हां दोनों भुजाओं में आं लिखें। उसके बाहर ह्रीं का वलय देकर फिर अग्नि मंडल से शब्दादि मंत्र लिखे ।
ॐ ह्रां आं कों ह्रीं यूं श्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं अंबे अंबिनी जंभे जंभिनि मोहे मोहिनी स्तंभे
स्तभिनी ररररर घे घे स्वाहा ॥
こちらにすらたち
१५६ P/59/52595959595
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SERI5DISEDICTE विधानुशासन 195250ISTRISDISODE शब्दादि मंत्र:
पूर्वादित स्तदा लब्ध प्रतवासीय खपरे तप्तं रखदिरजागिरैःरिष्टा कृष्टिः सतां मतां ।
||२६॥ इसको श्मसान के अप्पर पर पूर्वादि की तरफ लिखने से और खेर के अंगारों पर तपाने से इच्छित स्त्री का आकर्षण होता है।
- लोकपति टांत स्वर परियत मालिरव्य नाम संयुक्तं
अष्ट दल तस्य वहि स्तेषु च मायाग्नि पुरमेव ॥२७॥ लोकपतिहीं कोटांत (ठ) और स्वरों से घेरकर नाम सहित लिखे उसके बाहर आठ दल कमल बनावे माया ह्रीं लिखकर बाहर अग्नि मंडल बनाये।
निंब रस रोचना विष तन्मूत्रित मूर्तिका मलै विलिरवेत्
चित्रक पुत्तलिकाया हृदये तन्निक्षद्भूर्जे ॥२८॥ इस यंत्र को नीम के रस गोरोयन विष उस मूर्ति के मूत्र और अन्य मलो से भोज पत्र पर लिखकर उस पुतली के हृदय में रख दें।
खदिरांगारस्यो परि वद्धांतां तापये च्च पत्तलिकां
ध्यायन भीष्टं वनितां क्षिप्रतामानये देखें। फिर उस पुतली को बाँधकर घर के अंगारों पर तपावे तो शीघ्र ही इच्छा की हुई स्त्री आ जाती है।
SSIOSCASTOTSTOISODO १५७ PISIPISTRISTOTSIDISIOSDESI
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9595959555 विद्यानुशासन 959596959
लक्ष्मी विधानं
पद्महस्ता विशालाक्षी सृप्तवाद्धिं भिरावृता । पल्लवांकुर संकीर्णा पुष्प मंडप मध्यगा शुभ्राभ स्फुट वर्णाभ्यां सौधांत Ăवतावृत्तां हस्तिभ्यां हेमकुभाम्यां क्षीर वार्यऽभिषेचितां
अर्थ:- हाथ में कमलवाली, बड़े बड़े नेत्रों वाली, सप्त समुद्रों से घिरी हुई, पत्तों और अंकुरों से व्याप्त, फूलों के मंडप में स्थित, अत्यंत शुभ बादलों के समान प्रकाशित वर्ण वाली, राजमहलों और उनकी देवियों से घिरी हुई, दो हाथियों के द्वारा सोने के कलशों से दूध रूपी जल से स्नान कराई जाती हुई महालक्ष्मी देवी का ध्यान है ।
इत्थंभूता महालक्ष्मीर्यस्यचित्ते व्यवस्थिता । तस्य प्रयु नित्यं कामाचं ज्ञान संपदा ।
अर्थ : ऐसी महालक्ष्मी जिसके चित्त में बस जाती है उसको सदा ही ज्ञान अर्थ और काम के ऐश्वर्य को देती है।
इति मूर्तिध्यानं
कर्णिकायांतु विनस्यदेवीं पत्र चतुष्टये । मति ज्ञानादि दातव्यं भक्ति स्वाहा प्रताडितं
॥ १ ॥
अर्थ : कर्णिका में उपरोक्त प्रकार से देवी को लिखकर फिर चारों पत्रों में भक्ति (ॐ) और स्वाहा सहित मति ज्ञानादि लिखे ।
ततोष्ट पद्म पत्रेषु श्री ही धृति कीर्ति बुधयः । लक्ष्मी शांति प्रभावत्या प्रणव स्वाहान्वित मतः
॥२॥
अर्थ: फिर आठ पत्र बनाकर उनमें ॐ तथा स्वाहा सहित श्री ही घृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी शांति और प्रभावती को लिखे ।
पश्चात् प्रवेष्टये लक्ष्मीं ततो षोडश पत्रकं । तत्र देवाः प्रयोक्तव्याः भक्ति स्वाहा प्रभाजिताः
959P6959595959 १८PSPSPSP59595951
|| 3 ||
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050505050505_idenggara YSUSEK
15051
अर्थ : इसके पश्चात लक्ष्मी को सोलह पत्रों से घेर देवें जिनमें अति (ॐ) और स्वाहा सहित निम्नलिखित देवियाँ लिखी हैं।
जया च सर्व शास्त्री च विजया यक्ष देवता । जिता पद्मावती चान्या सिद्धा यन्य पराजिता
अर्थ :- जया सर्वशास्त्री विजययक्ष देवता अजिता पद्मावती सिद्धायिनी अपराजिता
सुंदरी सुभगा प्रीति सम्मोहनि मनोहरी सुतारा कामरूपीच वाह्नि रूपी तथा परा
॥ ४ ॥
॥ ५॥
तस्यांते च लिखेत् पद्म द्वात्रिशद्दल शोभितं तत्र कादीन प्रयोक्तव्यं तेजो भक्ति विनय बीजं स्वाहांतरात्मकान
इति
॥ ६ ॥
अर्थ :- सुंदरी, सुभगा, प्रीति सन्मोहिनी, मनोहरी, सुतारा, कामरूपी और वह्नि रूपी और अपरा इसके पश्चात बतीस दलों वाला कमल बनावे उनमें ॐ और स्वाहा सहित कन्यादिकों को लिखे।
दलोपांत लिखे त्सम्यक् देवी चक्रं सनातनं । भक्तयादि होम पर्यंतं चक्राकार व्यवस्थितं
॥७॥
अर्थ :- इन दलों के पश्चात भक्ति (ॐ) से आदि करके अंत में स्वाहा लगाकर गोलाकार में प्राचीन देवी चक्र को लिखे ।
मंगला त्वरिता नित्या कौमारी चैव किन्नरी । असुरा धनदादेवी गायत्री च सरस्वती
भौमार्किवारिणी चादौ विद्युन्मालाच जृंभणी । कात्यायनी च विशा भृकुटी युवशार्श्वती
॥ ८ ॥
अर्थ: आदि में भोमार्क वारिणी विद्युन्माला जृंभणी कात्यायनी विद्येशा भृकुटी ध्रुव शास्वती
॥ ९ ॥
सु सावित्रीच गांधर्वा राक्षसी भैरवी तथा भूत केशी पिशाचेशी शंखा पद्मनिधि परं
959595959bees १५९P96959595959
॥ १० ॥
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SSSDISTRISTOTSTRI525 विधानुशासन 9851015DISEASRIDESI
अर्थ :- मंगला त्वरिता नित्या कौमारी किनरी असुरा धनदादेवी गायत्री सरस्वती
सावित्री गांधर्वा राक्षसी भैरवी भूतकेशी पिशाचेषी शरव पनिधि
अक्षयादि निधि शांते कामधेनु स्तथा मती सौपर्णा चन्द्रमाला च वणरोपिणी शंकरी
॥११॥
काली च पापहारी च श्रयस्करी यशस्करी कल्यानी मदनोन्मादी मातंगी च पुलिदिनी
॥१२॥ अर्थ :- अक्षया आदि निधि शांता, कामधेनु, अमृती सौपर्ण चन्द्रमाला, वृणरोपिणी, शंकरी काली पापहारी, श्रेयस्करी, यशस्करी, कल्यानी, मदनोन्मादी, मातंगी, पुलिंदिनी
मोहा कर्ण पिशाची स्यान्मोहिनी शंबरी परा चंडाली नागदत्ता च स्तंभा च स्तंभिनीनुता
॥१३॥
जभा च जंभिनी. चैव पादया रूधिनी
तथा ब्रह्माणी सूर्यपुत्री च महैश्वर्या ततः पराः अर्थ : मोहा कर्ण पिशाची मोहिनी शंबरी चंडाली नागदता स्तंभा
॥१४॥
स्तंभिनी जंभा जंभिणी पादधा धिनी ब्रह्माणी सूर्यपुत्री महेश्वरी कौमारी वैश्रवी देवी वाराही वडवा मुरवी इन्द्रणी नुत चामुंडी लक्ष्मी श्री योण नामका ॥
कौमारी वैश्रवी देवी वाराही वइवामुरवी इंद्राणी नुत चामुंडी लक्ष्मी श्री घोण ततोभूमंडलं दद्यात ष्ट नाग समन्वितं देवी यंत्र मिदं श्रेष्ट सर्व कार्येषु पूजितं ।।
इति अर्थ : इसके पश्चात आठों नाग युक्त पृथ्वी मंडल बनाये या श्रेष्ठ देवी यंत्र सब कार्यो में पूजा जाता
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ज्ञानाय स्वाहा
ॐॐ श्री नवरा
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श्रीं ही क्स्नी
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कामधेन अमृती
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मधुमल्ला
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वारीणी
समा सकरी
कुपोि पंद्रमालाई
सौपर्णा
Artha
Lalka
पुरे
ज्वालामालिनी विधान
तस्य प्रयोग कालेपंच नमस्कार मंत्र कृत रक्षः दिग्बंधनं विधानं मंत्रण वाम कुष्मांड्या
॥ १ ॥
अर्थ :- इसके प्रयोग काल में पंच नमस्कार मंत्र से रक्षा करके आम कुष्मांडी के मंत्र से दिशा बंधन करे ।
आम्रकुमाया वत् ज्वालामालिनी मंत्र संति उपचाराणं पचाना
अर्थ:- आम्र कुष्मांडी के मंत्रों के समान ही ज्वाला मालिनी देवी के पांचो उपचारों के मंत्र है । PSPSPSPSSPP १६१ P559 595952590s
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अनएनएनएनएनएन विधानुशासन क
चिनयोज्वाला मालिन्युद्येतन वतत्व नमस्कारः
एषा प्रधान विद्याज्ञातव्या ज्वालिनी देव्या
॥ २ ॥
अर्थ :- ज्यालामालिनी की विनय (ॐ) और नय तत्व सहित नमस्कार मंत्र ही देने की विद्या है वह ज्वालामालिनी कल्प से जानना चाहिये ।
त्रिमूर्ति मूर्ति द्वय मैंद्र युक्तं पयोधिमेन्द्र स्थित मां समेतं स्त्री रेत सो द्रावण मुत्तमं द्रां मु मां द्भेदिविदु स्तथा द्रीं
एनड
॥ ३ ॥
शून्यं द्वितीय स्वर मिद्रं युक्तं स्वरो द्वितीय श्च स बिन्दु रन्य: मृगेन्द्र विद्धि द्रू शकृ च्च कट् स विसु विंदु नवभेद तत्त्वं ॥ ४ ॥ अर्थ :- त्रिमूर्तियाला क्लीं दो मूर्तिवाला ल इन्द्र युक्त लं समुद्र रूप हं ऐन्द्र लं और लं सहित यंत्र स्त्री के रज को द्रवित करता है और चन्द्ररूप द्रां द्रीं लक्ष्मी के हृदय को भी भेदन करने वाला है। दूसरा स्वर बिंदु से युक्त होने पर शून्य कहलाता है। आं सहित अर्थात् उसी को दुबारा कुट विष्णु और विन्दु सहित लेने से अर्थात् आं आं क्षः हं और अं यह मंत्र सिंह के मार्ग को भी वश में करता है ।
(ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं हां आं क्रों क्ष्वीं) नवतत्व मंत्र है।
उभय करांगुलि पर्व सु वं मं हं सं तथैव तं बीजं न्यस्य कराभ्यां मुकुली कुर्यात् सर्वांग संसुद्धि
11411
दोनों हाथों की उंगुलियों के जोड़ो में वं मं हं सं तं बीजक्षरों को रखकर फिर सब अंगो की शुद्धि
करें ।
वामां करांगुलि पर्व सरां रीं रू रौं रः न्यस्ये च्च रं बीजं
ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः पुनरेतानपि विन्यसेतद्वत ॥६॥
बायें हाथ की उंगुलियों के जोड़ो में रां री टं रौं र बीजों को रखकर फिर उसी प्रकार ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं हः बीजो को रखें ।
वामांदीन्येतान्येव देवि पादौ च जघनमुदरं
वदनं शीर्ष रक्ष युगं स्वाहांतानि स्वांग पंचके न्यसेत्
अर्थ :- इन्हीं को वामांग में आरंभ करके दोनों पैर जाँघ, पेट, मुख और सिर में लगाकर रक्ष रक्ष स्वाहा के साथ पांचो बीजों को लगावे ।
こちにちにちにちにちにちにマンにでらでらでらですぐり
|| 99 ||
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SHIRISIRIDICTICKSEE विद्यानुशासन ADIDISTRICIRSSISTORY ॐवं रां हां ज्वालामालिनी मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा। ॐ मंरी ही ज्वालामालिनी मम जयनं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐहं 5 हूं ज्वालामालिनी मम उदरं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐसं रौं ही ज्वालामालिनी मम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ तं रह: ज्वालामालिनी मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा
आपाद मस्तकां तं ध्यायेत जाज्वल्यमान मात्मानं
भूतोरगशाकिन्योभी त्वाजश्यंती दुष्ट मगाः ॥८॥ अर्थ :- अपने को घरस से मस्तक तक अत्यंत प्रज्वलित घ्याज करे इस प्रकार भूत सर्प शाकिनी और दुष्ट पशु दूर होकर नष्ट हो जाते हैं।
सां क्षीं झू 4 क्षों क्षः रखे रखे प्राच्यादि दिक्षु विन्यस्तं
मूलावा पयंतां दिशा वंद्यं करोतिदं । अर्ग ..मि. गूलगो मारो फति निशानों में मां श्रीं हू क्षे ? क्षों क्षौं क्षः को रखकर दिशा बंधन करें। पाठांतरं
आत्मानपि समंत्रः आतुर स्तं वज्र पजरम रोड ध्यायेत् पीतं मति मान भेद्य मन्टोरिदं दुर्ग
॥१०॥ अर्थ :- फिर यह बुद्धिमान अपने चारों तरफ चौकोर वज़ मय अखंड पिंजरे के समान दूसरों से अभेद पीतवर्ण के दुर्ग का ध्यान करें।
मंत्र जप होम कालेनोपद्रवति स मंत्रिणं कश्चित्
दुष्टगहो जिघांश्रु नलंधो दुर्ग मध्यगतं ॥११॥ अर्थः उस दुर्ग के बीच में बैठे हुये मंत्री के पास मंत्र जाप तथा होम के समय में कोई दुष्ट ग्रह भी लांघकर नहीं आ सकता है।
भूत्रीषु सप्त भीषु त्रिभूकोष्टा सर्व दिग्मुखाः लेख्या विद्या जव टोक चत्वारिंशत्पदप्रभा
॥१२॥ अर्थ : सातों प्रकार के भयों से पृथ्वी की रक्षा करने वाले उस वज मय पिंजरे में सब दिशाओं की तरफ पृथ्वी पर तीन कोठे बनावे और उनमें विधि पूर्वक इकतालीस पद लिखे CISISISTRISTOTRIOTICISIS5 १६३B975ICISTOTRICISIOS505
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9595959595 विद्यादुशासन 95959595959
नव तत्वान्ये कैकं नव पदं विंध्यो लिखेद्विधि क्रमश:
तत कोण त्रिपद चतुष्कै द्वादश पिंडान्प्रदक्षण तः ॥ १३ ॥
अर्थ :
- दूध तत्वों में से एक को लिखे हुवे वह यह है- द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः हां आं क्रों क्षीं फिर क्रम से विध्य के नौ पदों को लिखे । उसके पश्चात तीसरे कोठे में तीन गुण चार अर्थात बारह पिंडों
को लिखे जो यह है ।
:
क्ष हर्च्यू म्मल्यूं रमल्यू रम्ल्यूं घम्ल्यू इम्ल्यू म्ल्यू ठ्ल्यू
कम्ल्यू
अत्राष्टमे समुद्देशे द्वादश पिंड पिंडाक्षाकार पिडाधा: स्तंभादिषु ग्रहाणां निग्रहणं चापि वक्ष्यंते
॥ १४ ॥
अर्थः- इन पिंडों को आगे आठवें समुदेश में ग्रहों के स्तंभन तथा निग्रह आदि के साथ साथ लिखेंगे।
:
विलियेच्च जयां विजयामऽजिताम पराजितां स जंभां । मोहां गोरीं गांधारी चं क्रों ब्लूं पार्श्वे ष्व ॐ जादिका
118411
अर्थः- जय विजया अजिता अपराजिता जृंभा मोहा गोरी गांधारी क्रों ब्लूं को श्रीं और क्लीं को आदि में (ॐ) अंत में स्वाहा लगाकर बारह विन्द पदों के स्थान में लिखे ।
ॐ जयायै नमः ॐ विजयायै नमः ॐ अपराजितायै नमः ॐ जूंंभायै नमः ॐ मोहाद्यैनमः
ॐ गोयॅनमः ॐ गाधायें नमः ॐ क्रों नमः ॐ ब्लूं नमः ॐ श्रीं नमः ॐ क्लीं
नमः ॥
स्वाहांताः क्षीं क्लीं पार्श्वस्थेषु ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः श्चतुः कोष्टेषु विलिखेत् । रेखाग्रेषु विलिखेषुच वज्राण्यथ वज्र पंजरं प्रोक्तं ॥ १६ ॥
अर्थ: चारों कोठों में ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः इन पाँचों शून्यों बीजों को लिखे और सब रेखाओं के अग्रभाग में वज्रों को लिखे यह वज्र मय पंजर का वर्णन किया गया है ।
पिंडेषु ष्वभानां देव्यभिधानं पृथक पृथक लिख्यंतान् । स्त्रीनेके जैव प्रवेष्टेरोन मध्य पिंडेन् ॥ १७ ॥
अर्थ :- पिंडों को लिखने में हम आदि अक्षरों को पृथक पृथक रूप से लिखकर पिंडों के अंदर सावधानी से लगायें फिर मध्यपिंड के द्वारा देवी को वेष्टित करें।
C5P50
PSP59a १६४P/5PSP59595951क
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CISIONSCI5015105 विधानुशासन DISTRISTOISISI50151215
रक्षक यंत्रः
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intain
कोही कम
नमी क्ली
नमःही क्ली
ज्वालामालनी
मालामाल HOL
समये
जालामालनी
nों की नमः
कोक्षी नम.
यूं
-
भाइये मायूँ
हा
को भी नमः
ही हा आं को झी मः
स्वर केशरमष्टदल कमलं याो कमाइलेषु लिरवेत्।
अष्टौ ब्रह्मणद्या ब्रह्मादि नमोति मार्गात ॥१८॥ अर्थ :-पराग में ज्यालामालिनी देवी को लिखकर उसके चारोंतरफ अष्टदल कमल बनावे जिनमें क्रम से आठों ब्रह्माणी आदि माताओं को आदि में ईऔर अंत में नमः लगाकर लिखें।
CBSTRICICICISCES १६५ VIDIODICIDITATOHDRISTOTES
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1551 विधानुशासन 959595959595 ਧ झ ष छठ व चाष्टौ शेषान ।
ਹ T
पृथक क्रमाद् विलिखेत् तथैव प्रणावाद्यान्नव तत्व नमतिमान्मंत्री ॥ १९ ॥
अर्थ :- इसके पश्चात दूसरे क्रम से य र घ झष छठ व पिंडों को आदि में हैं और अंत में नमः लगाकर लिखे।
やらでらで
क्रों सर्व दलाग्रेषु ह्रीं सर्व दलांतरेषु लिखेत । ॐ नय तत्वं ज्वालिनी नमः इत्यावेष्टयेत् ब्राह्ये
|| 20 ||
अर्थः- सर्व दलों के अग्रभाग में क्रों और बीच में ह्रीं लिखकर बाहर ॐ नव तत्व ज्वालिनी नमः मंत्र से वेष्टित करें
1
इत्थं कथितस्यास्य ज्वालिन्या परम मूल मंत्रस्टा मध्ये ध्यायेन् मातृ भिरष्टां भिः परिवृतां देवी
॥ २१ ॥
अर्थ : :- इस कहे हुवे ज्वालामालिनी के मूल मंत्र के बीचों में अष्ट मातृका देवियों से घिरी हुई ज्वाला मालिनी देवी का ध्यान करें ।
ज्वालामालिनी का ध्यान चन्द्रप्रभ जिननाथं चंद्रप्रभमिन्द्र णंदि महिमानं भवस्था किरीट मध्ये विभ्राणं स्वोत्त मांगेन
॥ २२ ॥
कुमुददल धवल गात्रां महिषा रूढां समुज्वलाभरणं, श्री ज्वालिनीं त्रिनेत्रां ज्वामाला करालागीं
॥ २३ ॥
अर्थ :
:- अब ज्वालामालिनी देवी के स्वरूप का ध्यान के वास्ते वर्णन करते हैं। ज्वालामालिनी देवी इन्द्रों को प्रसन्न करने वाली, (इन्द्रनंदी आचार्य से वंदनीय) महिमा वाली चन्द्रमा के समान कांतिवाले भगवान चन्द्र प्रभु की मूर्ति को भक्ति से अपने सिर पर मुकुट के धारण करती है। वह देवी कुमुद के पुष्प के समान श्वेत शरीर वाली भैंसे वाहन वाली, उज्जवल आभूषणों वाली, तीन नेत्र वाली, और अग्नि की शिखा के समूह से भयंकर अंगवाली है।
पाश त्रिशूल कार्मुक रोपण श ष चक्र फल वर प्रदानानि दधतीं स्व करेरष्टम यक्षेश्वरीं पुण्यां ॥ २४ ॥ नागपाश - त्रिशूल-धनुष-बाण- मछली चक्र फल और वरदान देने को अपने हाथों में धारण करने वाली पुण्य स्वरूप आठवीं यक्षेश्वरी है।
959595951955 PS959595905969
१६६Por
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SSCISEASOISTRICT विधानुशासन HSDISPIRICISI2I5055
अथ ग्वालिन्या विधान परं स्तोत्रं
श्री मदैत्यों रूगंद्रामर मुकुट तटा लीढ पादार विंदे । माद्यन्मातंग कुंभ स्थल दलन पटु श्री भगन्द्राधिरूढे ज्वालामाला कराले शशि का धवले पर पत्राय ताक्षी। ज्यालामालिन्यऽभीष्टे प्रहसित वदने रक्ष मां देवी नित्यं
॥१॥
ह्रां ह्रीं हूँ हौं महे चे क्षण रूचि रूचिरागां गदै देव मं हूं वं संत बीज मंत्रै कत सकल जगत क्षेम रक्षा भिधाने क्ष क्षीं हूं मैं समस्त क्षिति तल महिते ज्वालिनि रौद्र मूर्ते वै क्षों सौं क्ष क्षः बीजै रहित दश दिशा बंधने रक्ष देवि
||२॥
हंकार राव घोर भ्रकटि पुट हट दक्त लोलेक्षणाऽग्नि रायवोर ज्वालाविक्षेप लक्ष क्षपित निज विपक्षों दया क्षुण रक्षे भास्वत्कांची कलापे मणि मुकुट हट ज्योतिषां चक्रवाल श्वं चं डांभु मन्मंडल समर जया पाल्दिके रक्ष देवी ॥३॥
ॐही कारोप युक्तं र र र र र गं ज्वालिनी संप्रयुक्तं ह्रीं क्लीं ब्लू ट्रां द्रीं सरेफ विपद मल कलापं च कोद्भासि हूं हूं घुघु घूमांधकारिण्य रियल मिह जगद्देवि दैत्याशुवश्यम षोमें मंत्रं स्मरंत प्रतिभय मथने ज्वालिनी मामवत्वं ॥४॥
ॐहीं क्रौं सर्ववश्यं कुरू कुरू सर संक्रामणी तिष्ठ तिष्ठ हूंहूं हूं रक्ष रक्ष प्रबल बल महाभैरवा राति भौते द्रां द्रीं दू द्रावय द्रावय हन फट फट वषट बंध बंध स्थाहा मंत्रं पठंतं त्रि जगदभि तुते देवि मां रक्ष रक्ष
॥५॥
हं शं श्वी क्ष्वी सहसः कुवलय वकुले भूरसंभूतधात्रि श्वी झूहूं पक्षि हं हं हर हर हर हुं पक्षि पः पक्षि को वं झं हंसः परं झं सर सर सर सूं सत्सुधा बीज मंत्र
मा ज्वालामालिनी स्थावर विष संहारिणी रक्ष रक्षः ॥६॥ SHEDISCIPESIRECISIOTS १६७850DRISTOTSIRIDIOBODY
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CASIOHIDISTRISTOTSIS5 विद्यानुशासन 85121510513501505
एहि एहिहौंकारं नादे.ज्वल दनल शिरया कल्प दीयों ध्वर्द केशैः ा मा स्टौस्तीन नेत्रै विषम विषधरा लंकतै स्तीक्ष्ण दष्टै: ॥ भूतैः प्रैतै: पिशाचै स्फुट यटित रूप] बाधिती ग्राप सगान धूली कृत्य स्वधाम्रा पन कुच युगले देवी मां रक्ष रक्ष ॥७॥
झौं झौं झौं शाकिनी नां समुपगत मत प्वसिनी नीर जास्य ग्लौं क्ष्मं ठं दिव्यं जिव्हागति मति कुपित स्तंभिनी दिव्य देहे फट फट फट सर्व रोग ग्रह मरण भयो च्याटिनी योर रूपे आंकों क्षी मंत्र पूते मद गज गमने देवि मां पालय त्वं ॥८॥
इत्थं मंत्रोक्षरोत्थं स्तवनममनुपमं वह्नि देव्याः प्रतीतं विद्वेषो च्चाटन स्तंभन जन वश कत पाप रोगाटा नोदि प्रोत्सप्पजंगम स्थावर विषम विष ध्वसनं स्वायुरारोग्यै
शवयादीनि नित्यं स्मरति पठति यः स्मो श्रुते भीष्ट सिद्धिं ॥९॥ विधि:-इसप्रकार यह मंत्राक्षरों से निकला हुआज्वालामालिनी देवी का अनुपम स्तोत्र है जो इसका नित्य स्मरण करता है और पढ़ता है वह अपनी इच्छित सिद्धि को पाता है। इसी स्तोत्र से विद्वेषण उधाटन स्तोभन और वशीकरण होते है। यह पाप तथा स्थावर और जंगम विष भी नष्ट करता है तथा आयु आरोग्य और ऐश्वर्य आदि को देता है।
सुखदायक यंत्र :पाश त्रिशूल झषचक्र धनुः सस च सन्मातुलिंग वरदान कराष्ट हस्ता
मातंग तुर्ग महिषा धिपयान वाहा सा पातुमां सिरिव मती शरदिंदु वर्णा ॥ १॥ . अर्थ:- नाग पाश त्रिशूल मछली चक्र धनुष बाण विजोरा और वरदान सहित आठ हायों वाली हाथी के समान ऊँचे भैंसे पर चढ़कर चलने वाली और शरदकाल के चन्द्रमा के समान वर्ण वाली ज्यालामालिनी मेरी रक्षाकरे।
हां हीं सु बीज सुरव होम पदांत मंत्रै रा ज्वालिनी प्रमुख गैर्मम पाद नाभि
वक्षःस्थलाननं शिरांसि च रक्ष रक्ष त्वं देव्यं मीमिऽरिति पंच वियैः सुमंत्र उत्तम बीज द्रां द्रीं की आदि में सुख (ॐ) लगाकर ज्वालामालिनी मम पादौ नाभिवक्षःस्थले आननं शीर्ष रक्ष रक्ष पदों के पश्चात् अंत में स्वाहा पद सहित पांच सुंदर मंत्रों से शरीर की रक्षा करे।
SUSD5100510150151915
१६८/5051510051015015015
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ह्रीं ज्यालामा
ॐ म पार्टी रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ मं रीं ह्रीं ज्वालामालिनी मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ हं हूं ज्वालामालिनी मम वक्षःस्थलं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ सं रौं ह्रौं ज्वालामालिनी आननं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ तं : ह्रः ज्वालामालिनी मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा
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कूटाक्ष पिंडमथ शून्य भपिंड युग्मं तद्वेष्टितं मपरपिंड कलात्रि देहैः । •बाट पत्र कमलं यरधादि पिंडान विन्यस्य तेषु पर तो नवतत्ववेष्ट्रां ॥ ३ ॥
अर्थ:- कूटाक्षरपिंड मर्च्यू शून्य पिंड हर्च्यू दो भपिंड म्म्ल्यू को भपर म्म्र्यू से वेष्टित करके इस त्रिदेह पिंड को स्वरों से वेष्टित करे उसके पश्चात आठ पत्रों में यर घ झष छठ व आदि पिंडों से वेष्टित करके नव तत्व लिखे ।
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9595296959595 विद्यानुशासन 959595959596
हा मां पुरोद्विप वशीकरणं तदेग्र क्षीं बीजकं शिरिवमती वर पंचबाणैः मंत्रा नमत विनयादिक लक्ष जापं होमेन देवी वरदा जपतां नराणां ॥ ४ ॥ अर्थ:- हां आं द्विप वशकरणं क्रों क्षीं के पश्चात देवी का नाम और पांच बाण सहित मंत्र के आदि में विनय ( 3 ) करने से देवी जप करने वाले पुरूष को वर देती हैं।
ॐ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ह्रां आं क्रों क्षीं नमः तांबूल कुंकुम सुगंधि विलेपनादीन् यः सप्त चार मभिमंत्र्य ददाति यस्यै सातस्य वश्य मुपयाति निजानुलेपात् स्त्रीणां भवेदभि नवः स च कामदेवः
॥५॥
अर्थः इस मंत्र को सिद्ध करनेवाला पुरुष तांबूल, कुकुंम और सुंगधित लेप आदि को इस मंत्र से सात बार मंत्रित करके जिसको देता है, वह स्त्री या पुरुष सेवन करते ही साधक के वश में हो जाते हैं। यह साधक स्त्रियों के लिए नया कामदेव बन जाता है।
प्रणव
मायाक्षरं संपुटभाविलिट बाह्येऽग्नि संपुट पुरं रर कोण देशे तद्वेष्टितं शिरिव मती वर मूलमंत्रऽदायाति देव वनितापि खदिराग्नि तापात्
॥ ६ ॥
अर्थ:- माया अक्षर ह्रीं प्रणव (3) के सम्पुट में लिखकर बाहर अग्निमंडलों का सम्पुट बनाकर उनके कोणों में रं बीज लिखे | सबसे बाहर ज्यालामालिनी देवी के मूलमंत्र से वेष्टित करके खैर के कोयलो की तेज अग्नि की आंच देकर, ताम्र पत्र पर लिखकर, खेर कोयले की अग्रि में तपाने से देवताओं की स्त्री आ जाती है ।
वेष्टेन मंत्रोद्धार
ॐ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं हां आं कों क्षीं शीघ्रं अमुकं आकर्षय आवय संवोषट्
-
पाष्टकां बूरुह मध्यगत त्रिमूर्ति शेर्षाक्षराणि च विलिख्य दलेषु देव्याः
मायावृतं मधु समन्वित भांड मध्ये
निक्षिप्य पूजयति तद्वशमेति साध्य
96959595969599 १७०P/595
たぶんぶ
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CERISTOTSIDISAST555 विधानुशासन 51005105ISISCISSIST अर्थ:- अष्टदल कमल की कर्णिका में त्रिमूर्ति ह्रीं लिखकर देवी के शेष अदारों को आठ दलों में लिखे और ह्रीं से वेष्टित करे दें। इस यंत्र को मधुयुक्त बर्तन में रखकर जो इसका पूजन करता है उसके वश में इच्छित स्त्री पुरूष हो जाते हैं।
" ही निलिमा
कि
मी
को आ
रामा वरांग वदने स्मर बीजकं तत्तस्योद्धभाग तल भागगतं त्रिमूर्ति पार्श्व द्वय च पुनरेवल पिंड मेकं ध्यायेत अदभुतं द्रवमुपैति नदी व नारी
॥७॥ अर्थ :- स्त्री के योनि प्रदेश में स्मरबीज क्ली शिर और पैर में ही दोनों करवटों में एवलपिंड में ब्लें का ध्यान करने से स्त्री तुरंत द्रवित हो जाती है।
ब्लें क्लीं ब्लें
ಪಥಗಣಪಥದ ಅಡಚಣಪರಿಣಾಥ
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35EK REREQ= 2mUES
इत्थं पंडित मलिषेण रचितं श्री ज्वालामालिनी देवीका स्तोत्रं शांतिकरं भयापहरणं सौभाग्य सपत्करं प्रातमस्तक सन्निवेशित करोनित्यं पठेयः पुमान्
श्री सौभाग्य मनोभि वांचित फलं प्ताप्रोत्यऽसौ लीलया ॥८॥ अर्थ : यह पंडित मल्लिषेण का बनाया हुआ ज्वालामालिनी देवी का स्तोत्र शांति करता है भय को दूर करता है सौभाग्य और सम्पत्ति को उस पुरूष के लिये करता है जो इसका प्रातःकाल के समय सिर पर हाथ जोड़कर पाठ करते हैं।
पाश त्रिशूल कार्मुक रोपण श ष च क फल वर प्रदान करा
महिषा रूढाऽष्ट भुजा शिरिष देवी पातुमां श्रुचः ॥१॥ अर्थ :- नागपाश त्रिशूल धनुष बाण मछली चक्रफल और वर प्रदाण युक्त आठ हाथों वाली में भेंसे पर चढ़ी हुई वह देवी ज्वालामालिनी मेरी रक्षा करे।
यात्रेच्छ मुक्त रूपां तां मुखांतां ज्वालिनी तथा आचरंतु उपचाराणां पंचकं साधकोचयेत्
॥२॥ अर्थ :- साधक पुरूष उस देवी ज्वालामालिनी की एक पत्र के ऊपर कहे हुवे रूप वाली लिखकर उसका पांचो उपचारों से पूजन करें।
ब्रह्मावशिष्ट पिंड ज्वालिनी नव तत्व पूर्वमें हि युगं।
स्वाहा संवोषडि ति ज्वालिन्याऽहान मंत्रोयं ॥३॥ अर्थः- ब्रह्म (3) शेष पिंड ज्वालामालिनी नव तत्व तथा दो बार ऐहि ऐहि के पश्चात स्वाहा और संयोष्ट युक्त मंत्र ज्वालामालिनी देवी का आह्वानन मंत्र है।
क्ष ह भ म पिंड ज्वालिनी नवतत्वान्टेष मंत्र मुचार्य
स्वनिधन पद समुपेत स्त्रितये संस्थापनादिना ॥४॥ अर्थ :- क्ष ह भ और म अक्षरों के पिंड ज्यालामालिनी देवी और नयतत्वों का उच्चारण करके अपने अंत के पदो सहित स्थापना आदि के मंत्र बनते हैं।
ॐ एल्च्यू रम्ल्यूँ म्ल्यू इम्ल्यूँ मल्ड्यू ब्ल्यू सम्पूणेन्दु स्वायुध वाहन समेते सपिवारे हे ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू ट्रांट्री आंकों सी ऐहि ऐहि स्वाहा संवोषद
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CHIDISTRICTOISTRISP5 विधानुशासन HISTOSTERISTOI5015
ॐ ल्वयूँ हल्ब्यू भल्व्यू म्ल्यू धवल वर्ण सर्व लक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन चिन्ह समेते सपरिवारे ज्वालामालिनी ही क्लू ब्लू द्रां दीं हां आं क्रों क्षी अत्र
अवतरावतर संवौषट् ।। आवाहनन मंत्रः पूर्वका ग्रहन करें।
अत्र तिष्टतिष्टठः ठःस्थापन मंत्र अनमम सन्निहिंताभवभवषट ( सन्निधिकरणंमंत्र) पूर्व का ग्रहन करें।
इदं मध्य पायं गंध अक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चकं फलं वलिं गह्र गृह नमः अर्चना मंत्र: उँ दम्ल्यूँ हल् मल्ल्यूँ म्ल्यू यवल वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहन चिन्ह समेते सपरिवार हे ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूंद्रां द्रीं हां आंकों क्षी स्व स्थानं गच्छ गच्छ जःजः जः (विर्सजन मंत्र)
इति ज्वालामालिनी पूजा उत्स्वानुमंव में नश्यतुं संदरीत संवरच योनि मुद्रां व
बूयाद् विशिष्ट समये महामहिष वाहने हत्यं ॥५॥ इन उपरोक्त मंत्रों को बोलता हुआ विघ्नों को नाश करता हुआ योनि मुद्रा को बार बार दिखलाकर अंत में महामहिष वाहने यह भी कहें
अथ ब्राह्याद्यष्ट देवतानां पूजा ब्राह्यभ्यादि देवतानां तु पूजा पिंडैः समंध्रुवं
ब्राह्यादिद्यादिभिः सम्यक् कुर्यात्तन्नामतः सुधी: ब्राह्मी आदि आठ देवियों का पूजन भी उनके नाम से पिंड लगाकर पंडित पुरूष करे।
ॐ ह्रीं क्रों म्ल्यू पद्म राग वर्णं सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे हे ब्राह्माणि ऐहि ऐहि संवोषद आह्वननं । ॐ ह्रीं तिष्ट तिष्ट ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं मम सन्निहिताभय भव वषट सन्निधिकरणं ॐ ह्रीं इदं मां पाद्यं गंधमक्षतं पुष्पं धूपं दीपंचरुंफलं बलि गृह गृह स्वाहा ॥ (पूजा मंत्र) ॐ ह्रीं क्रों स्वस्थानं गच्छ गच्छ जःजःजः (विसर्जन मंत्र)
इति ब्राझ्या पूजा
CSIROISTRISTRISTOTRIC555 १७३२151315050512151055CISI
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SHADISIOISSISTRISIS विधानुशासन 51055105CISIONSIDHI
ॐहोकों म्ल्यू राशिधर वर्णे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहन समेते सपरिवारे माहेश्वरी ऐहि ऐहि संदोषट आह्वानन मंत्र ॐ हीं कों म्म्ल्यूँ राशि धर वर्णे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे माहेश्वरी तिष्ट तिष्ट ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रींकों राशिधर वर्णे सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहनसमेते सपरिवारे माहेश्वरी मम सन्निहिता भव यस समितिका ॐहींकों राशिधर वर्णे सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहन समेते सपरिवारे इद मध्य पाचं गन्ह गृह स्वाहा (पूजा मंत्र) ॐहींकोंराशिधर वर्णेसर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहनसमेते सपरियारे स्वस्थानं गच्छ गच्छ ज ज ज विसर्जनमंत्रः ॐ ह्रीं को म्ल्यूँ प्रवाल वर्णे सर्वलक्षण राशि घर वणे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे कौमारी ऐहि ऐहि इत्यादि ज ज ज ॐ हीं सम्ल्यूँ नीलोत्पल वणे सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे वैष्णवी एहि एहि इत्यादि ॐ ह्रीं रम्ल्यू इंद्रनील वर्णे राशि धर वर्णे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे वाराही ऐहि ऐहि इत्यादि जः जःजः ॐ हीं इम्ल्यू महामेरुवर्णे राशि धर वर्णे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे माहेश्वरी इद्रि ऐहि ऐहि ज ज ज ॐहीं को हल्ल्यू बालार्क राशि घर वणे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे वर्णे चामुंडे ऐहि ऐहि ज ज ज ॐ ह्रीं क्लों वाल्व हंस वर्णे राशि घर वणे सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन समेते सपरिवारे महालक्ष्मी ज ज ज
निज पिंड देह वर्णरख्या टोगादि अष्ट भावमापन्ना पंचोपचार मंत्रै मात् संप्राचटों दिभिः
॥१॥ इति अष्ट मातृकाणां पंचोपचार क्रम । अपने देह पिंड के वर्णनाम योग और आठों माताओं सहित पंचोपचार मंत्रों से उन माताओं का पूजन करें।
ज्यालिन्या सन्निधौदेव्या मूलविद्याई मिमा सुधी:
लक्षमेक जपेत् पुष्पै सं: वृतैरण प्रभाः SHRIOTICISIOTSIRSSIRIDIE5 १७४/DISCIRCIDIOISTRATORS
॥१॥
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CASSISTDISTRICISISTERS विद्यानुशासन PASTISEDICTIO51955 अर्थ :- बुद्धिमान पुरुष ज्वालामालिनी देवी के संमुख मूलमंत्र का लाल पुष्यों से एक लाख जाप करें।
तन्निष्टामण निशायां हिम कुंकुम लघुपरादिभि द्रव्यैः
रचिताभि गुंडलिकाभिःर्जु हुयाद युतं यथा भिहितं ॥२॥ अर्थ:-फिर राशि के समटा नंदन कुकुंम लघुपरा (शुद्ध गुग्गल) आदि द्रव्यों की गोली बनाकर उससे दसहजार होम करें।
अंबादेवी सन्निहिता शुभमशुभ यथा फलं निरिवलं।
संपादोदऽभिमतं साधन विधि संग्रहित विद्यस्य ॥३॥ अर्थ :- इसप्रकार इस साधन विधि से विद्या सिद्ध करने वाले को वह माला ज्वालामालिनी देवी पास आकर संपूर्ण शुभ और अशुभ फल को कहती है।
मंत्र जप होम नियम ध्यान विधि मा करोतु सन्मंत्री
यद्यपत्र समुक्तं तथापि सन्मंत्र साधनं न जहातु ॥४॥ अर्थः- यद्यपि अग्नि एक होती है तथापि उसको हवा से क्यों नहीं झपका जावे, उसी प्रकार यद्यपि मंत्र एक ही होता है तब भी जप हवन से युक्त होने पर उसको लिये क्या असाध्य है?
शाल्य क्षतै मंडल माविलिख्य द्विहस्तमानं चतुरस्त वंर्तत
जिनेन्द्र बिंब शिरिव देवतायाः सुवर्ण पादौ च निवेश्य तत्र ॥५॥ अर्थःसाठी चांवलों से दो हाथ लम्बा-चौडा चौकोर मंडल बनाकर उसमें जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा और ज्वालमालिनी देवी के चरणों की स्थापना करें।
अष्टोत्तर शतपूर्ण रष्टोतर शतक भक्ष दीपाये:
जिन शिरिय देवी पदयोः पूजा गुरू भक्तित: कार्याः अर्थः फिर उन भगवान और देवी के चरणों की एक सौ आठ सुपारी और एक सौ आठ नैवेद्य दीप आदि से गुरू में भक्ति लगाकर पूजन करे।
चन्द्रादयः साक्षिण इत्यथोत्का हिरण्य निक्षिप्त घटस्ट तोयैः
दद्यात्ततः साधक सव्य हस्ते विद्या प्रदत्ता भवते मोति ॥५॥ अर्थ:- चन्द्र सूर्य आदि की साक्षी करके मैं तुमको यह विद्या देता हूँ. यह कहकर शिष्य के बायें हाथ में सोने के कलशों में सेजल की धारा डालें CHOICTORISODOISTOTRIOTE १७५PASTISIST505505512505
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151 विधानुशासन 9595999
श्री जैन धर्मानुरक्तया विद्या त्वया प्रदेयेति च भाषणीयं मिथ्याद्दशे दास्यसि लाभ तश्वेत् प्राप्नोति गौ ब्राह्मण यात पापं ॥ ६ ॥
PPSPO
अर्थ:- फिर से उससे कहे तुम यह विद्या जैन धर्म में अनुरक्त पुरुष को ही देना। यदि मिथ्यादृष्टि को दोगे तो तुमको गाय ब्राह्मण की हत्या का पाप तथा सर्व वस्तु का अलाभ मिलेगा। (श्री जैन धर्मानुरक्तया विद्यात्यया प्रदेये। ऐसा कहें।
इति साधन विधिरेषा ज्वालिन्याः कथित एष संक्षेपात् । साधन विधि मिमम परं स विस्तरं संप्रवक्ष्यामि
अर्थ :- यह ज्वालामालिनी देवी की साधन विधि संक्षेप से कही गई है अब इस दूसरी विधि को विस्तार से कहेगें।
ईशान दिगभि मुख जल निपात युत शून्य जिन गृहोद्दिशे स्वस्थपित अपतित गोमय गोमूत्र विहित संमार्जितै रम्य' चूर्णेन पंच वर्णेन
शून्य जिनमंदिर के एक स्थान में ईशान कोण की तरफ द्वारा बनाकर, पहले जल छिड़क कर फिर उसे पृथ्वी पर न गिरे हुये गोबर और गोमूत्र से लीप पोत कर शुद्ध करे फिर वहां पर पंचवर्ण के चूर्ण से.
-
सप्त हस्तायुतं चतुः कोणं रेखा त्रयेण विधिनासत्याव्यं मंडलं विलिखेत् ।
अर्थ : सात हाथ लम्बे चौडे, चौकोर इस सत्यनाम वाले मंडल को तीन रेखाओं से विधि
पूर्वकबनावे |
तस्य वहि वारि निधिं भ्रांता वर्तो मिंजल धरा कीर्ण
पश्चिम दिशि जल मध्ये रूपं वणस्य लिखितव्यं
अर्थ :- उसके बाहर पश्चिम दिशा में समुद्र बनावे जिसमें नदियों का जल आ रहा हो लहरे उठ
रही हो और जलचर भरे हुवे हो। फिर समुद्र में वरुण का रूप बनावें ।
मलयज कुसुमाक्षत चर्चितान् सितान्
बीजपुर पिहित मुखान पूर्ण घटान् सहिरण्यान्
अर्थ :
:- उस मंडल के चारों कोणों में चंदन पुष्प और अक्षत से पूजे हुए बिजौरे से मुख ढ़के हुए
पानी से भरे हुये सुवर्ण सहित घड़े रखे चार सफेद पुष्पमाला पहने हुवे घड़े रखे ।
つけてりですわ
2525-P5252525252525
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95959696996 विधानुशासन 9595959595975
तत्कोण चतुष्टये न्यसेत सौवर्ण रोपंावां
पदयुगलं कारये दुरोर्देव्याः अभिषिच्य पंच गव्यैर्द्दधिघृत सत्क्षीर गंध जलैः
अर्थ:- फिर वहाँ पर देवी के चरण कमल सुनहरे या चांदी के बना कर और गुरु के चरण बनाकर पंचगव्य दही घृत गंध जल से दूध से अभिषेक करें ।
मंडल दक्षिण देशे पद युगलं पूजितं निधाय तयोः नैऋत्यादिषु दिक्ष्वप्यन्वः चरण द्वयानि चूर्णेन लिखेत् ।
अर्थः- इन चरणों को मंडल की दक्षिण दिशा में बनाकर पूजा करें और दूसरे चरण नैऋत्यादि दिशाओं में चूर्ण से बनावे
अर्हत पद युग कमलं मंडल मध्ये कोणेषु सूप्रदेश मुनि गधांक्षत पुष्प
विलिख्य चूर्णेन युगानि लिखेत् समर्चयेत्सर्य ॥
अर्थ :- मंडल के मध्य में चूर्ण से भगवान अरहंत देव के चरण बनावे और कोणों में सिद्ध आचार्य उपाध्याय और मुनियों के चरण बनायें। इन सबकी गंध अक्षत पुष्प दीप धूप और चरू से पूजा करें।
तस्योपरिपुष्पाणां मनोहरं मंडलं रचयेत सत्यं मंडलमेवं
विलिख्य पश्चात सुगंधि कुसुम सलिलास्यैः ॥
अर्थ :- इनके ऊपर अनेकप्रकार के पुष्पों से शोभित मंडप बनावें । इसप्रकार सत्यमंडल को बनाकर पीछे सुगंधित पुष्प जलादि रखे।
कंकण चरणा सपर्णा परा विकैर चंद्ये दुरोश्चरणौ । कनक रजत सूत्रैः पुस्तकमावेष्टय दिव्य वस्त्रैश्च शिरिव देवि पद युगले निधाय गंधादिभिश्च राजेत
अर्थ :- सोने और चाँदी के तारों पिरोई हुयी मणियों की माला और दिव्य वस्त्र से पुस्तक को लपेटकर उसे ज्वालामालिनी देवी के चरणों में रखकर उसका गंध आदि से पूजा करें।
कुसुमाक्षातांजलि पुटं ललाट हस्तंकृत प्रदक्षिणकं मंडल मध्यनिविष्टं घटोदकै स्नापयेत् शिष्यं
॥ ११ ॥
9596969595PSPA १७७PPS
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050505ICIDITIERE विद्यानुशासन AERSISTRISTRISISTERIES अर्यः- फिर पुष्प और अक्षतों को हाथों में लेकर हाथ जोड़े हुये प्रदक्षिणा करने वाले मंडल के बीच में बैठे हुये शिष्य को घड़ो के जल से स्नान कराये।
स्नानांबर भूषादिक मुचितं नान्यस्य तदरो रूचितं
परिधातुमस्य पक्षादन्यं वस्त्रादिकं दद्यात् ॥ अर्थ :- उस समय के वस्त्राभूषण आदि गुरु को ही देने उचित है। शिष्य को दूसरे वस्त्र आदि देवें ।
देवी मुनि गुरुचरण प्रणताय सुधर्म भक्ति युक्ताय।
पतपुयायतमे दिया साध्या द्विना देया अर्थ :- फिर देवी मुनि और गुरू के चरणों में झुके हुये धर्म तथा भक्ति युक्त पुस्तक धारण किये हुवे उस शिष्य को विद्या जो कष्ट साध्य रहित हो देवे।
पर समयिने ने देयात्वतया प्रदेयाश्च स्वकीय भक्तियुताय
गुरू विनय युताय दयाद्रचेत से धार्मिक नराय॥ अर्थ :- तुम यह विद्या अन्य मतावलम्बी को न देना किन्तु अपने शास्त्र के भक्त गुरु की विनय करने वाले दयालु धार्मिक पुरुष को ही देना।
ऋषि गौस्त्री हत्यादिषु यत्पापं तद्भविष्यति तवाटिय यदि दास्यसि पर समटा दो त्युत्कातः प्रदातव्या
क्षिति जल पवन हुतासन यजमाने व्योम सोम सूर्यादीन
ग्रह तारा गण सहितान् साक्षी कृत्य स्फुटं दद्यात् अर्थः- यदि तुम यह विद्या अन्य मतावलम्बी को दोगे तो तुमको ऋषि- गाय- स्त्री की हत्याका पाप लगेगा। यह कहकर उसको विद्या देखें। उस समय पृथ्वी, जल, पवन, अग्नि, यजमान, आकाश, सूर्य, चन्द्र और तारागण आदि की साक्षी से उसको विद्या दें।
त्वां मां शिरिव द्देवी पूर्याचार्यश्च लोकपालाच
साक्षी कृत्य मटोयं तुभ्यं दत्तेति खलु वाच्यं अर्थः तुमको मैंने ज्वालामालिनी देवी हेलाचार्य और लोकपालो की साक्षी से यह विद्या दी है उस समय यह कहे। ।
CASSISTRISIOTECISIOIST05 १७८PISCIEDDICISIODISSIOISS
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e5959595952 विधानुशासन 25959596959
साधन विधिना देया शिष्येण न साधनाद्विना देया ।
विधिना गृहीत विद्या शिष्यो सौ लिउ विद्यः स्वात् ॥
अर्थ
• यह विद्या शिष्य को साधन और उसकी विधि सहित देनी चाहिये यह शिष्य पूर्वक विद्या पाकर तुरंत ही विद्या को सिद्ध कर लेगा ।
अयमेव विधिः योजयः स्यादन्येषां च मूल मंत्राणां ॥ उपदेशेऽष्वखिलेषु विधि द्वैवंत मात्र कृत स्तऋतु विशेष:
अर्थ :- अन्य मूलमंत्रों का उपदेश देने में भी इसी विधि से काम लेना चाहिये किन्तु उन सभी में केवल दो मात्राओं का विशेष है।
या विद्या ते विद्या ज्वालिन्या स्त्र्य क्षरी तिविदितान्या सान लिखितात्र गुरुभि स्तां विद्यांत्तन्मुखा देवि
॥ २१ ॥
अर्थः वह विशेष यह है कि ज्यालामालिनी का असली मंत्र तो यही है। किन्तु उस देवी का अक्षरी मंत्र है वह यहां नहीं लिखा गया है । वह केवल गुरू मुख से ही जाना जा सकता है।
इति
ज्वालामालिनी माला मंत्र
ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय शशांक शंख गोक्षीर हारनीहार धवल गाय घाति कर्म निर्मूलनो छेदन कराय जाति जरामरण शोकं विनाश नाय संसार कांतारोन्मूलन कराय अचित्यं बल पराक्रमाय अप्रति हत शासनाय त्रैलोक्य वशंकराय सर्वसत्व हितं कराय सुरासुरो रगेन्द्र मणि मुकुट कोटि धृष्ट पाद पीठाय त्रैलोक्य नाथाय देवाधिदेवाय अष्टदश दोष रहिताय धर्म चक्राधीश्वराय सर्वविद्या परमेश्वराय कुविद्याघ्नाय तत्पाद पंकजाश्रय निषेवणि देवि जिन शासन देवते त्रिभुवन जन संक्षोभिणी त्रैलोक्य शिवाय हारिणि स्थावर जंगम कृत्रम विषम विष संहारिणी सर्वाभिचार कर्माप हारणि परविद्या छेदिनीं परमंत्र यंत्र तंत्र प्रणशिली अष्टमहानाग कुलोच्चाटिनी काल दष्टमृतको च्छापिनी सर्वरोगापनोदिनी ब्रह्मविष्णु रुन्द्र चंद्रादित्य ग्रह नक्षत्र तारा लोकोत्पात मरणभय पीडा प्रमर्दिनी त्रिलोक्य महिते भव्य लोक हितकारी विश्वलोक वशंकर महाविद्ये महाभैरवे भैरव रूप धारिणी भीमे भीमरूप धारिनी सिद्ध सिद्ध रूप धारिणी महारौद्र रौद्ररूप धारिणि प्रसिद्धे प्रसिद्ध सिद्ध विद्याधर यक्ष राक्षस गरूड गांधर्व किन्नर किं पुरूष देत्यो रंगेद्रामर पूजिते ज्वाला माला करालित दिगंतराले महामहिष वाहिने त्रिशूल चक्र झष पाश कृपाण शर वरासन फल वर प्रदान (खङ्ग कृपाण त्रिशुल शक्ति चक्र
95959595959595 १७९PSP5969595
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ORRISORDIDASADISIS सिमासन 95mmmm5RISMIST
पाश) शराशन शरव) विराजमाने षोडशार्द्धभुजे (रखेटक कपाण हस्ते) देवी ज्वालामालिनी ऐहि ऐहि उहल्यूँज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूंद्रां द्रीं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः हा: देव ग्रहाना कर्षय आकर्षय नाग ग्रहानाकर्षय यक्ष यक्ष ग्रहानाकर्षय ग्रहानाकर्षय गांधर्व ग्रहानाकर्षय ग्रहानाकर्षय ब्रह्मराक्षस ग्रहानाकर्षय ग्रहनाकर्षय भूत ग्रहानाकर्षय ग्रहानाकर्षट व्यंतर ग्रहानाकर्षय ग्रहानाकर्षय सर्वदुष्ट ग्रहानाकर्षाग्रहानाकर्षय सर्वदुष्ट ग्रहानाकर्षय ग्रहानाकर्षयशतकोटि देवताकर्षय सहस्त्रकोटि पिशाच राजानाकर्षय कट्ट कट्ट कंपय कंप्रय कंधावय कंपावटा शीर्ष चाला चालय नेत्रं चालय चालय बाहुं चालय चालय गात्रं चालय चालय पादौ चालय चालय सर्वागं चालय लोलय लोलय धुनु धुनु कंपय कपंय कंपावट कंपावय शीघ्रमवतर शीघ्रमवता गृहण गृहण ग्राह्य ग्राह्य आवेश्य आवश्य हूं संवोषट ॐ भव्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्यूँ द्रां द्रीं क्षां क्षीं हूं क्षौं क्षः हाः सर्वदुष्ट ग्रहाना स्तंभंय स्तंभय ठठ फट फटये घेॐ म्ल्वयूँ ज्वालामालिनी देवी ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं दूं ज्वलज्वल र र र र र रा रां प्रज्वल प्रज्वल धग धग यूं घुघूमांध कारिणी ज्वलन शिरवे प्रलय धग द्रगित वदने देवग्रहान दह दह नाग ग्रहान दह दह सर्व दुष्ट ग्रहान दह दह यक्ष ग्रहान दह दह गंधर्व ग्रहान दह दह, ब्रह्म राक्षस ग्रहान दह दह भूत ग्रहान् दह दहशत कोटि देवतां दह दह सहश्र कोटि पिशाच राजान दह दह ये घे स्फोटय स्फोटय मारय मारय दहनाक्षिप्रलय द्भगद्धचित मुरिव ज्वालामालिनी हां ह्रीं हूं ह्रौं हाहाः सर्वदुष्ट ग्रहान हृदयं हूं दह दह पच पच छिंद छिंद भिंद भिंद ह ह ह हाः फट फट ये थे। ॐम्ल्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां द्रीं भ्रां भी भ्रौं भ्रः हाः सर्वदुष्ट ग्रहान् ताडय ताडय हुं फट घेघे ॐ म्म्ल्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू ट्रां द्रीं मां नी म नौं म्रः हाः सर्वदुष्ट ग्रहान हुं फट येथे सर्वदुष्ट ग्रहाणं वज़मय शूच्यां अक्षिणी स्फोटय स्फोटय न दर्शय न दर्शय हुं फट घेणे ॐ एल्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं ट्रां द्रीं ह्रां आं क्रों क्षीं टां टों यूं यो यःहाः सर्वदुष्ट ग्रहाण प्रेषय प्रेषय ये ये हूं जःजः जः॥ ॐाल्च्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू ट्रांट्री हां आं क्रोंक्षी धांधी घूघौं य: हायं घरखं वं रव रावणस द्विाया घातय यातय सच्चन्द्रहास शस्त्रेण छेदय छेदय भेद भेदय यं यं ठंठं हं हं फट फट येये। ॐ इम्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूद्रां द्रीं हां आंवलों क्षीं झंझी झौं झाःहा सर्वदुष्ट
ಇಡಚಣಸಣಣಣ {¢oಳಗನಾಥರಿಗಣWS
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CSIRIDIOTSIDSPIRIRIS विधानुशासन PASIRISIOSISISTRI5DIST गहाणं वज़ पाशेन बंध बंध फट फट । ॐ रम्हा ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं बनूं ट्रां द्रीं हां आंकों क्षीं खा रवीं रदूं रखों रतः हाः सर्वदुष्ट ग्रहाणं गल भंग कुरू कुरू फट फट ये ऐ॥ ॐ एम्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं आंकोंक्षी छां श्रीं छौं छः है: सर्व दुष्ट ग्रहाणां मंत्राणि छिंद छिंद भिंद भिंद फट फट येथे ॐम्ल्यूज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूद्रांद्रीं हांआं क्रोक्षी ब्रांतींवौं वःहां सर्वदुष्ट ग्रहाण विद्युतपाषाणस्त्रेण ताडय ताडय भूम्यां पातय पातय हुं फट् घेघे॥ ॐ ठम्ल्यूँ ज्वालामालिनी हीं क्लीं ब्लूं द्रां दीं हां आं क्रों क्षीं ट्रांठीं ढूंठौ ठः हा सर्वदुष्ट ग्रहाण समुद्रे मर्जय मर्जय हुं फट येथे। ॐ इम्ल्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं दादा हा आं को सी ड्रां जो हाहा सर्वडाकिनी स्तज्जट स्तजय सर्वशत्रून ग्रासय ग्रासय स्व व व व व स्वाद रवादय सर्व दैत्यान् विध्वंशय विध्वंशय दह दह पच पच पाचा पाचय धमाधम धर धर पुरुपुरुखुरुखुरुधुरुधुरु सर्वोपिद्रव महाभयं विनाशय विनाशय झम झम हम हम धपधर फर फर स्वर वर वरावण विद्या यातायातय पातय पातय चंद्रहास शस्त्रेण छेदय छेदय भेदय भेदय झंझंछंछ हं हं वं वं छिंद छिंद भिंद भिंद फट फट ये ये हां आं क्रों क्षीं ह्रीं क्लीं ब्लू ट्रां द्रीं ज्वालामालिन्याज्ञापयति स्वाहा।।
अयं पठित सं सिद्धः श्री ज्वालिन्यधि देवता
माला मंल : पजापावै गह रोगविषादि हत: यह श्री ज्वालामालिनी देवी का माला मंत्र केवल पढ़ने से ही सिद्ध होता है। इसका जप इत्यादि करने से ग्रह रोग और विष आदि नष्ट हो जाते हैं।
इति ज्वालामालिनी विधि पंचमोचारसे जपे
अथः कुष्माडिनी साधन विधानं
हूं ह्रौं मों मध्ये हैं ह्रौं मों रूपांत्यादि स्थितं है हौं स्वाहांतं प्रणवादिकं
मंत्र स्थावर श्रुदयाः फलदः शून्य पंचकं ॐहीं क्ष्मं ठः नमः हूं ह्रौं मों के सहित मध्य में है ह्रौ मों लगाकर अंत के स्वाहा बीज से पहले है ह्रौं आदि में प्रणय अर्यात् ॐकार सहित लगाये।
ॐहूं ह्रौं भों हूँ ह्रौं मों है ह्रौं स्वाहा ।। यह फल को देनेवाली वर सुंदरी का मूलमंत्र है इसके पश्चात पांचो शून्यों ।
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SAS125512851015015I05 विद्यानुशासन 7510052152519STOYSI
ॐ ह्रीं क्ष्मः ठः नमः नमः ॥ मंत्रोद्धार ॐ हूं ह्रौं हैं 3 हैं ह्रौं स्वाहा उँ ह्रीं क्ष्मं ठः नमः स्फ्रां आम्र कुष्माडिनी नमः
इत्यसो ही माम कुष्मांडीनि इति पंचापचारकं सुयोज्यो मंत्राविभौयक्षा: मूलविद्यामिया मुक्तं
ब्रह्मचारी नरोजपेत गदास्नान विशुद्धः सननित्यब्रह्म चायपि इत्यादि स्तों आम कुष्माडिनी सहित पांच उपचारों का मंत्र है। यक्षणी के इन दोनों स्तोत्रों को भली प्रकार योग्य स्थल पर लगाना चाहिये। इस मूलमंत्र को ब्रह्मचारी पुरुष जपे अथवा बिना ब्रह्मचारी भी प्रतिदिन स्नान से शुद्ध होकर जपे।
जपेन्मत्रंम मुं मंत्री लक्षं यक्ष्या पुरः स्थितः
अशोके फलके तस्य लिरिवताया पुरोथवा मंत्री यक्षिणी की मूर्ति को निम्नलिखित लक्षणों से युक्त अशोक वृक्ष की तखती पर या पत्र पर लिखकर और उसके सामने बैठकर एक लाख जप करें।
मंत्रोद्धारः यक्षेश्वरी मंगल भूरूहाणामंगैर शेष रूप शोभितस्य आम्रस्य कुष्मांड फल प्रसूते रध्यासिता कांचन पादवेदी ॥१॥
आरूढ़ जांबूनद सिंह पीठा हरिन्मणि श्यामल देहः कांतिः नात्यु ट्रिते हेम निपादपीढे विन्यसत सो तरपाद पद्मा ॥२॥
डिंडीर पिंडादीक पारेण छत्रेण मुक्त मणि भूषितेन मुरवेन्दु मे या पज्जितेन संस्थे व्यमाना रजनी श्वराणां
॥३॥
सविभ्रमं यक्ष विलासिनीभिर्महु महु महुश्शामर मारूतेन मंदेन पार्श्वदय वर्तनीभि रमंद मांदोलित कुंतला लि:
॥४॥
देव्याः पदांभोरुहयोर्द्धयस्टा लाक्षा रसादिः पुनरक्ति मेलि निरंतरं भक्तजनानु राग रसेन साक्षाद्धनुरंजितस्य ॥५॥
STERIOSISTEISIRIDIOTSITE १८२२/5I0SOTRICISTRICIDESI
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जयंति देव्याश्चरणागुलीनां नरवेदवः कुंद लतांत गोरा: मुखेदकांच्या विजितासचैव पावन होष चन्द्रा
पादद्वयं यक्षकुलोद्भवाया: पदेपदे नूपुर संजितेन नैवोपमान जगतीह दृष्टा वन्योन्य सल्लापमिवातनोति
कुरु द्वोना प्रतिमेन देव्याः श्यामाय मानेन जितात्मशोभौ रंभा च नागेन्द्र करं च नूनं वैलक्ष्य पाहुंत्व मिवोपयातौ
आगुल्फलं वं कलधौतवासं सहेम कांची वलयवशानां विभाति देवी नवमेघ लेखा तडिल्लत्ता बंध परिस्कृतेवा
यक्षेन्द्र लोक प्रयमोत्तमायां पराजितं बाहुलता द्वयेन निलीयते वाल मृनाल नालं निमज्य दूरं सरसी जलेषु
॥६॥
वाम प्रकोष्ट प्रयांशु कोस्या लीलर विदोदर दत्त तुंड: पठत्य जस्तं परमेष्टिनामां प्ययं नमस्कार पदानि पंच
|| 6 ||
विलासवत्याः कृत देहयष्टि स्ति स्त्रोपितस्या वलयो विभांति मध्यस्य पीन स्तनयो भरण भुग्नस्य जाताद्रव निर्मरेरखाः ॥ १० ॥
सवर्ण वर्ण वर वीजपुरमा मोदिता शेष दिगंतरालं हस्तांबजं दक्षिण मांबिकापादधाति पुत्राय पुर स्थिताय
॥ ८ ॥
प्रतिष्टिती जैन जनाभि रक्षा विधान हेतो विधिवाद्विधात्रा कृतोपचारौ हरि चंदनेन भानु स्तनो मंगल पूर्ण कुंभौ ॥ ११ ॥
॥ ९ ॥
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
॥ १४ ॥
आस्थापिकाया मवसाय मानो लीलार विंदग्रणेपि देव्याः रणांगणे शत्रु भयं कराया शंखं च चक्रं च भुजौ दधानौ ॥ १५ ॥
CSPSP595PSPSS १८३ P5595PS959595
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C95015123510505125 विद्यानुशासन 150151015TOSISTERS
कंठश्रियं अक्ष कलोद्भवाद्याः नूनं दिवृक्षुःस कुत् हलात्मा उपेत्य पश्चात्सहकार शारवा स्कंथं समागच्छति वोलपूंग ॥१६॥
मंदेनमंद स्मित चंद्रिकाया: बिवाधरेण प्रविभक्त कांति: मुरवेन्दुरस्या उपमामुपैति सध्यानुपक्तेन निशा कोण
॥१७॥
देव्या कनत्कांचन कर्णपुर रक्ता प्रभामंडल मध्यवर्ती मुरवेंदु रिदोः परिवेष चक्र मध्यं गतास्यनुकरोति लक्ष्मीं ॥१८॥
पर्याययतः पद्म समान गंध निश्वास गंधं निज मर्पयंती नासा तदीया वदनार विंदं गंधं समायातु मिव प्रवृत्ता
॥१९॥
स्वभाव कात्यां निमिषं मगादयायल्या दशोर्द्धद्रमनिंदितायाः निव्याजमेवा निमिष द्वयस्य विवर्तभम मातनोति ॥२०॥
अपांग सीमांत मतीत्पद्याता महेन्द्र नील दुति चोर कांति भूचाप रेरवा विदधाति मातुः कर्णावतं सोत्पल शोभनीय ॥२१॥
देव्या ललाटे इंदु कला विलासं विलोक्य वैलक्ष्य विसंस्तुलात्या इंदोः कला धूर्जटि मौलि वंधजटाटवी गहरमभ्युपैति ॥ २२ ॥
विभर्ति भक्या सुचिरं स्वमूर्भाः यक्षेश्वरी हेम किरीट मध्ये अरिष्टनेमि भगवंत मुच्चै महेन्द्र नीलोत्पल रत्न मूर्ति ॥२३॥
देव्या पुरो रत्न विनिमितांगो प्रभावतो जंगमतां प्रयत्नौ आ कीडतः कृत्रिम पुत्र कौतौ प्रियंकर श्चाथ श्रभैकरश्च ॥ २४ ॥
भक्तटात्मनापि प्रिय सं विधानां प्रोक्तं पुरोभागितया ममेरं जिनेन्द्र वृंदै रूप लाभ नीयो साक्षात सुतौ तौन- यक्ष देव्या ।। २५ ॥
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SSIOTSIRIDIODOISIS विद्यानुशासन PASIRISTOTSIRISTRIDIOSS
आ स्थान सिंहासन पाववर्तिदेव्या मगेन्द्रः सुर वाहनेन्द्र क्षणेन निविध गति दशापि दिशोराशो राशि रिवाभ्युपैति ॥२६॥
विडंबयन कोपि विषकोपि स्वयं परिहास रसेन युक्तः देव्या पुर स्ताय नृत्य तीह चेष्टि जनेन तहतोपवीतः ॥२७॥
काचित्प्रतिहार पदेन युक्ताः विसर्जना वंध नितंब बिंबा (चंडातकं) यक्ष स्त्रियः रवा लातभि युक्ता:कुर्वत्यं शून्यां प्रतिहार भूमिं ॥ २८ ॥
कुब्जा च कांचीपटवास चूर्ण मंजूषिकां पार्श्वगतां विमर्ति काचित्त्व तांबूल करांक हस्त सं सेवते संसादिवां मनागी ॥२९॥
काचित्सरची कल्पतरू प्रसूनै रम्लान मालां रचयत्पनल्पां पर्यत भूमौमणि वेदिकायाः पिनष्टि गंधान वनोनिषिणां ॥३०॥
मृत्यंतिकाचि ललितांग हारा गायति काश्चित्कल कंठ कंठा वीणादि काश्चि न्मधुवादयंति काश्चिन्निषी दंति समंत तोपि ॥ ३१ ॥
अनन्य साधारण भक्ति भाजाम स्माद्दशामीप्सित सिद्धि हेतो। नामानि पूर्वैः रवलु कीर्तितानि सकीर्तियामो वयमंबिकायाः ॥ ३२ ॥
कलन्नपूर निषि कल सेन्द्र गामिनी करभो रुवराहीहानिम् नाभिस्तनूदरी
11३३॥
चक्रवाक स्तनी पद्म हस्ता रूचिर कंदरा: बिंबोष्टि कुंद दशाना कनत्कन कुंडला
॥३४॥
तंगनासा सरोजाक्षी नतभू नीलि कुंतला।
संपूर्ण चंद्र वदना सौवर्ण मुकुटांगदा SECRECIPIECTARTE R८५PIDIOSOTROPERTIES
॥३५॥
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कलधौत मया वासा कलधौत मयांबुरा । कलधौत मया कल्पा कलधौत विशेषिका
अब कुषांड का पक्षी हानिशां यक्ष देवता अरिष्ट जेमि भट्टारक प्रतिमा रत्नधारिणी
कुष्मांड यक्षी कुष्मांडी चंडी शत्रु भयंकरा तीर्थयक्षी महायक्षी स्वर्ण यक्षी सुरोत्तमा
भद्रा भगवती कांता व्यंतरा वास वासिनी विद्यानुवाद कुशला पर विद्या प्रभंजनी
आम छाया तल स्थानासुवर्ण म्राम देवता तीर्थाधिदेवता देवी श्यामा मरकत प्रभाव
मांगल्या मंगल वती मंगलाकार धारिणी सती साध्वी महाभाग पुण्या पुण्य प्रवर्तिनी
कल्याणभागिनी जैन पंच कल्याण सेविनी कल्याणकारिणी कल्पा कल्याणभिनिवेशिनी
मंगेन्द्र चाहना दुर्गा गुह्या गुह्यक देवता संसार दुःख शमन सर्वसत्वानुकंपिनी
सर्वशक्ति मति सर्वा सर्वाभरणभूषिता सर्वरोग प्रशमनि सर्वदुःख प्रमाथिनी
जिनपादाबुजोत्तमा जिनाराधन तत्परा जिन शासन संतुष्टा जिनालय निवासिनी 959595905969
॥ ३६ ॥
113611
॥ ३८ ॥
॥३९॥
॥ ४० ॥
॥ ४१ ॥
॥ ४२ ॥
|| 83 ||
॥ ४४ ॥
118411
१८६ 5959595959
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PSPSPSPSS विधानुशासन 159595959595
अभिष्ट फलदा सौम्या वरदा वरदायिनी यक्षेन्द्र सुन्दरी रामा सुंदरी वरसुंदरी
सम्यग्दर्शन संपन्ना सम्यक् ज्ञान परायण सम्यक् चारित्र सहिता रत्नत्रय महानिधि
पुत्रावलालिनी पुत्र वत्सला गुणवत्सला पुत्ररत्नवती पुत्रवर्द्धनी पुत्ररक्षणों
जैनाधि देवता जैन महाशासन जननी मातृका मातामात पर्याय नामिका
यक्षि देवी शरणं संप्रपधे हमंजसा मंजुहा मंजुका मयतामा भमां वालमंबिका अंब
॥ ४६ ॥
॥ ४७ ॥
।। ४८ ।।
॥ ४९ ॥
॥ ५० ॥
जिनेन्द्र माराध्य यथा वदंबा देवीं समाराधयति क्रमाधः तस्यास्य जैनस्यदिनं दिनेपि सिद्धयंति सर्वाणि समीहितानि ॥ ५१ ॥
यक्ष्या स्तोत्र मिदं पठेदन दिनं तन्मूल विद्याजपेन्नित्यं यो विकलोप्पुदीरित जपे सा तस्य सिद्धोद्धवं ॥ ५२ ॥
तस्यास्यात्कविता गुर्णाद्भूत रसः सस्यात्कुशा ग्रीय घी स्तद्विधा प्रजपेन तस्य जगती स्याद् वाखितार्थ प्रदा इत्यंबिका स्तोत्रं
॥५३॥
जो
पुरुष श्री जिनेन्द्र भगवान की आराधना करके क्रम से विधिपूर्वक देवी की आराधना करता है उसको जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के कारण सभी अभिलिखित वस्तुयें दिन प्रतिदिन सिद्ध होती जाती हैं। जो पुरुष यक्षिणी के हंस स्तोत्र को प्रतिदिन पढ़ता हुआ इसके मूल मंत्र का जप करता
देवी उसके जप में विकलता (अधूरापन) होने पर भी उसको निश्चय से सिद्ध हो जाती है। इस मंत्र के जपने से उस पुरुष में कविता करने की बड़ी भारी शक्ति, अद्भुत रस और अत्यंत तीव्र बुद्धि हो जाती है। यहां तक कि जगत में उसके इच्छा किये हुये सब कार्य सिद्ध होते हैं।
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POPE १८७P/595959595951951
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2505050
15 विधानुशासन 95959SP/595
दूसरी विधि
सोने के सिंहासन पर विराजमान सुवर्ण चरणवेदी हरितमणी श्याम देहि की कांति हे हेम सिंहासन पर बैठी हुयी ध्यान करें ।
अन्य प्रकारेणाप्यबिंकाराधन क्रम
अष्ट महाप्रातिहार्य समन्वितां द्वादशा गण परिवृतां अरिष्टनेभि भट्टारकस्य प्रतिमा मालिख्य तस्य पादमूले आम कुष्मांडी अष्टभुजां शंख चक्र धनुः परशु तोमर यह पाएको एकै देन चतुभजां शंख चक्र वरद पाशन्या स्वरूपेण सिंहासन स्थिता शांति द्विभुजा स्थिता पार्श्वदेव कन्या वाम हस्त स्थित विमुकादिश्रमतां
अष्ट महाप्रातिहार्यो से युक्त बारह गणों से घिरी हुई श्री अरिष्टनेमि भट्टारक की प्रतिमा को लिखकर उसके चरणों के मूल में आम्र कुष्मांडी देवी को शंख धनुषवाण परशुतोमर खडं नाग पाश वरद सहित चार भुजाओं वाली तथा शंख चक्र वरद और पाश सहित चार भुजाओं वाली लिखे वह दूसरे स्वरूप से सिंहासन पर बैठी हुई है। उसके पास दो भुजाओं वाली देवकन्या खड़ी हुई दो जिसके बायें हाथ के ऊपर विमुपकादि श्रमतां ?
एवं क्रमेण देवीं पटे लिखित्वा श्यामरूपेन अतः पर प्रवक्ष्यामि अर्हद रिष्ट नेमि भट्टारकस्यार्चनं क्रियते पश्चाद आम्रकुष्मांडया देव्या अर्चना विधिं प्रवक्ष्यामि
इसप्रकार क्रम से वस्त्र के ऊपर श्याम रूप देवी को लिखकर इसके पश्चात पहिले अर्हत देवी श्री अरिष्टनेमि भट्टारक का पूजन किया जाता है। उसके पश्चात आम्र कुष्मांडी देवी की पूजन विधि कही जाती है। पूर्वोक्त मंत्रों से भगवीत आम्र कुष्मांजी का आव्हानन स्थापन तथा सत्रिधिकरण करके नीचे नीले मंत्रों से द्रव्यों को चढ़ावे ।
ॐ नमो आम्र कुष्मांडी सर्व्वपाप नाशके स्वाहा स्नानं ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी सुगंध महाभगवती महासुगधिनी स्वाहा गंध ॐ नमो भगवति आम्र कुष्मांडी कुसुमें भगवती महाकुसुम स्वाहा पुष्पं ॐ नमो भगवती आम कुष्मांडी सुगंध वर सुंगधिनी स्वाहा चरुं ॐ नमो भगवति आम्र कुष्मांडी महाज्वल महादीप्ते प्रयच्छकतुनः स्वाहा दीपं ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी महादेवी सर्व्वभूत वशंकर महादेवी सर्वभूतानां वलिं प्रयच्छतु स्वाहा ॥ बलिः काची तयारी ॥ 9595PSPSPSPPA १८८ PAP695959526
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THISSIONSIDDHIDH विद्यासासन 1501501510151235015
ॐ नमो भगवते अरिष्टनेमि भट्टारकाय तीर्थनाथाय त्रेलोक्य प्रकंपनाय ह्रीं शिरवां रक्षिकार हुं फट स्वाहा । ॐ नमो भगवते अरिष्ट नेमि भट्टारकाय तीर्थनाथाय त्रैलोक्य पूजनाय द्रावा द्रावय वजे वज्र कवचाय हन हन दह दह कवचाय हुं फट स्वाहा ॐ नमो भगवते अरिष्ट नेमि भट्टारकाय सर्व तीर्थ कराय सर्व दुष्टग्रह छेदनाय सर्वग्रहान हन हन दह दह हुं फट स्वाहा अस्त्र ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी हदयं रक्षरक्ष हुं फट स्वाहा हृदयं ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी शिरो रक्ष रक्षं हुं फट् स्वाहा शिर ॐ नमो भगवती आम्र कुष्माडी ह्रीं शिरवां रक्ष रक्ष हुं फट स्वाहा शिरवा ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी हर हर ह्रीं वज्र कवचाय हुं फट स्वाहा कवचं ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी सर्वदुष्ट ग्रह निग्राहनिति तवरवटकांहुंफट स्वाहा अखं ॐ नमो भगवती आम्र कुष्मांडी ॐ ज्यंत गिरि शिरवर निवासिनी सांग सुंदरी वामरूपधारिणी पूर्वद्धारं बंधामि अग्निद्वार बंधामि वायव्य द्वार बधामि उत्तर द्वार बधामि ईशान द्वारं बंधामि उद्धर्वद्वारं बंधामि अधोद्वार बंधामि शिर द्वारं बंधामि कुक्षि बंधामि सर्वप्रदेशं बंधामि आत्म रक्षे भूत रक्षे पिशाच रक्षे चोर रक्षेसळ रक्षे काम रक्षे स्वाहा वज़ प्रकार अग्निप्रकार: प्राकारं भूमि बंध आकाश बंध दिगबंध चोर बंध
आत्म रक्षा सर्व रक्षानाम विद्या। इसप्रकार आन कुष्मांडी देवी का पूजन करके अंग न्यार करने में प्रत्येक अंग के नाम के साथ अंग को छूना चाहिये। कवच में मंत्र को बोलकर हाथों को अस्त्र के आकार का बनावे हृदय बोलकर हृदय को छूवे शिखा को छूये चोटी को छूवे कवच का आकार बनावे आदि। मंत्र बोलकर रक्षा के लिये दिशाओं को बांधकर अपने चारों तरफ वजमय कोट का ध्यान करे। इत्यादि मंत्रः ॐ नमो भगवति आम्र कुष्मांडी अंबा अंबोल अंबिके स्वाहा।
अथमूल विद्या ॐ नमो भगवति सर्व पाप भक्षके स्वाहा (आह्वानन मंत्रः) ॐ नमो भगवति आम्र कुष्मांडी विसर्जनाहि स्वाहा (विसर्जन मंत्रः) ॐ नमो भगवति आम्र कुष्मांडी महायक्षिणी ईश्वरी सर्वजन मनोहरी सर्वमुख रंजिनी सर्वराजवंश करिवशमानय वशमानय स्वाहा सर्ववश्य मंत्रः ॐनमो भगवति आम्र कुष्मांडीईश्वरी सर्व स्त्र्याकर्षणी हुं फट स्वाह आकर्षणमंत्रः CASTOISSISTRICISTRI5T075 १८९PISTOISTICISESSIOISTORICESS
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95959595952 विधानुशासन 959595959
ॐ नमो भगवति आम्रकुष्मांडी सर्वमुख रंजिनां सर्व मुख स्तंभिनी हुं फट स्वाहा । मुख वश्या
ॐ नमो भगवति अनंत वासुकि तक्षक कर्कोट पहा महापद्म शंखपाल कुलिक अष्टौ महा नागराज कामनी अनंत काले किलि स्वाहा वासुकि काले किलि स्वाहा तक्षक काले किलि स्वाहा कक्कटक काले किलि स्वाहा पह्न काले किलि स्वाहा महापद्मा काले किलि स्वाहा शंखपाल काले किलि स्वाहा कुलिक काले किलि स्वाहा क्षिप ॐ स्वाहा जयाय स्वाहा विजया स्वाहा । सर्वनिर्विष मंत्र :
अर्थार्द्ध त्रिविधि प्रवक्ष्यामि पूर्व मे लक्षंजपेत् पश्चात त्रिसंध्यवा विशंतिवारं जपेत अपरिमितं कुर्यात् आचाम्लशनः एक भुक्तोवा पक्षीतप फलं भवति ।
1
इस मंत्र को प्रातः दोपहर और और सायंकाल के समय बीस बीस बार अपरिमित दिनों तक जपे उस समय केवल पीने योग्य द्रव्यों का ही भोजन करता रहे। इसप्रकार के भोजन को दिन में एक बार करने से पन्द्रह दिन के तप का फल होता है।
आचाम्ल वृद्धि रत्न प्रयोपयुक्तः यमनियम परायण अभिनव वृत ब्रह्मचारी भूवोश्च (श्रय) विना क्षीर नीराश्रपेण चैत्यालये वा नदी तीरेचा समुद्र तीरेवा पर्वताग्रे वा विविक्त देशे
आम्रकुष्मांडी सुरी देवी सव्वालंकार भूषिता तस्य पुत्र एकैक द्वितीय पार्श्वे स्थितः शीर्ष शुक्ल पक्ष प्रति पद मारभ्य आचाम्लासन एकभुक्तपित: अहंत शौर्ययो पूजां कृत्वा त्रिसंध्यं गंध पुष्प धूपादि पंच बलिं दद्यात्स उतरत्र त्रिरात्रोपेतं पौर्णमास्य महद्भगवतो उत्तर पूजां कृत्वा अष्टोत्तर सहस्त्रं जपेत् पश्चात जाति पुष्प सहस्त्र सं गृहय अर्हत प्रतिमा पाद मूले प्रत्येकं निक्षिपेत् अष्ट सहस्त्रा जपेत् ततः सिद्धि र्भवति दिनं प्रति पूजां कृत्वा अर्ध दद्यात् अतः पश्चात भगवत्याः पूजां करोति च साधु भोजनं दद्यात् पश्चात् आचार्य पूजयेत् ॥ साधक इसप्रकार सम्यकदर्शन- सम्यकज्ञान् और सम्यकचारित्र से युक्त होकर अहिंसा आदि नियमो तथा शौच सन्तोष आदि नियमों से जगा हुआ नवीन व्रत लेकर ब्रह्मचारी होकर आश्रय के बिना ही दूध और जल के सहारे से चैत्यालय, नदी के किनारे समुद्र के किनारे, पर्वत के आगे भाग में या किसी एकान्त प्रदेश में इस मंत्र का साधन करे। सब आभूषणों से भूषित आम कुष्मांडी देवी की ऐसी मूर्ति बनावे कि उसमें दोनों तरफ एक-एक पुत्र खड़ा हुआ हो। इस अनुष्टान को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ करे, दूध और जल का भोजन केवल एक समय करे। भगवान अर्हत
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ORDISCISSISIOS25 विधानुशासन 525251215215DIES देव और देवी का पूजन करे । प्रातः- दोपहर और सांयकाल के समय गंध पुष्प धूप आदि की पांच बलि दें। इसके पश्चात अंत की तीन रात्रियों में प्रयोदशी-चतुर्दशी और पूर्णमासी को भगवान अरहंत की पूर्ण पूजा करके पूर्णमासी को इसका १००८ जप करे। इसके पश्चात ९००० चमेली के फूल इकट्ठे करके भगवान अर्हत की प्रतिमा के चरणों के मूल में एक एक फूल रखते हुए ९००० जाप करे तब सिद्धि होती है। इस विधि में प्रतिदिन पूजन करके अर्ध देवें। इसके पश्चात भगवति का पूजन करके साधुओं को भोजन दें। इसके पश्चात आचार्य का पूजन करें।
।। पद्मावती साधन विद्यानम्॥
तोतलात्वारिता नित्या त्रिपुरा कामसाधिनी देव्या नामानि पद्माया स्तथा त्रिपुर भैरवी
॥१॥ तोतला, त्वारिता, नित्या, त्रिपुरा, काम साधिनी और त्रिपुर भैरवी पद्मावती देवी के नाम है।
पाशवज फलांभोज भत्करे तोतला हया शंख पद्मऽभयवर त्वारितारव्याऽरूण प्रभाव
॥२॥
पाशांकुशं प्रयोजात साक्षमाला करा बरा हंस वाहाणा जित्या जपा वलिवि मंडिता
॥३॥
शूल चक्राकुंशां भोज चाप बाण फलांकुशै राजिताऽष्ट भुजा देवि त्रिपुरा कुंकुम प्रभाव
॥४॥
शंख पर फलांभोज भतकरा काम साधिनी बंधुक पुष्प संकाशा कुर्कटोरग वाहना
॥५॥
शंरव चक्र धनुर्बाण रखेटरवङ्ग फलांबुजैः लस जेन्द्र गोपा भाज्यंती त्रिपुर भैरवी
॥६॥
हाथों में नागपाश, वज़ फल और कमल धारण करने वाली तोतला नाम की देयी कहलाती है। शंख, कमल, अभय तथा वरदान युक्त और रक्त कांति वाली त्वरिता नाम की देवी कहलाती है। नागपाश , अंकुश, कमल और मोतियों की माला युक्त चार भुजाओं याली जप की पंक्तियों से शोभित रक्त प्रभावाली और हंस के वाहन वाली देवी नित्या कहलाती है। CHECISIOISTRITICISIO5CTE १९१PSCERISTICTERISTRICTS
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त्रिंशूल, चक्र अंवंश, कमल, धनुष, बाण, फल और अंकुश युक्त आठ भुजाओं वाली कुंकुम के वर्ण वाली देवी त्रिपुरा कहलाती है।
काम साधनी देवी के चारों हाथों में शंख पद्मफल, और कमल होता है उसकी कांति बंधूक (दोपहतिया) के पुष्प के समान होती है। और कुर्कुट नाग उसका वाहन होता है।
त्रिपर भैरवी देवी के आठों हाथों में शंख, चक्र, धनुष, बाण, आखेट, तलवार, फल और कमल होता है। वह प्रकाशित भुजाओं और इन्दगोप (वीरबहुटी के समान रक्त कांतिवाली और तीन नेवाली होती है।
॥ अथ पद्मावती साधन विधानम् ॥
ब्रह्मादि ह्रीं लोकनाथं हैंकारं व्योम षांत मदनोपेतं पद्मे च पद्म कटिनी नमो तगोमूल विधेयं
उं ह्रीं हैं ह्रक्ली पत्रे पद्म कटिनी नमः ब्रह्मा माया च हैंकारं व्योम क्लीं कार मूर्द्धगं
श्री च पद्म हैं नमोमंत्र प्राहु विद्यां षडक्षरी ॐ ह्रीं हैं ह्स्क्लीं श्री पद्मे नमः वाग्भवं चित्तनाथं च हौकाएं सांत मूर्द्धगं बिंदु द्वय युतं प्राहुर्विबुधा स्त्र्ाक्षरी मिमां
ॐ ऐं क्ली ह्सौं नमः
वर्णात पार्श्व जिनो योरेफ स्तलगतः सधरऐन्द्र
तुर्य स्वर स विंदुः सभवेत पद्मावती संझः
वर्ण का अंतिम अक्षर ह पार्श्वनाथ भगवान का है नीचे लगने वाला र धरणेन्द्र का है और चौथा स्वर ई पद्मावती देवी का है।
त्रिभुवन मोहकरी विधेयं प्रणव पूर्वनमनांता एकाक्षरीति संज्ञा जपतः फलदायिनी नित्यं
ॐ ह्रीं नमः एकादारी मंत्र तीन लोक को मोहित करने वाली और तुरन्त फल देने वाली है।
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SHIRISTRIEDISTRISRTE वियानुशासन HASIRISTOTSICS5215015
प्रणव पूर्व हो मांता इति पाठांतरं ॐ ह्रीं स्वाहा होम मंत्र है।
स्नात्वा पूर्व मंत्री प्रक्षालित रक्त वस्त्र परिधानः
सन्मार्जित प्रदेशे स्थित्वा सकली क्रियां कुर्यात् मंत्री पहले स्नान करके धुले हुए लाल वस्त्र पहन कर लिये हुए शुद्ध स्थान में स्थित होकर सकलीकरण की क्रिया करे।
पटकासन संस्थः समीपतर वर्ति पूजनद्रव्यः
दिग्वानितानां तिलकं स्वस्य च कुर्यात् सुचंदनत: फिर पर्यंकासन से बैठा हुआ अपने समीप पूजन के आठों द्रव्यों को रखे। चंदन से दिशारूपी बहुओं के अपने तिलक करे।
हां वामकरां गुष्टे तर्जन्यां हीं च मध्य मायां हूं
ह्रौं पुनरऽनाभिकायां कनिष्टकायां च हः श्चस्यात्॥ बायें हाथ के अंगूठे में हां तर्जनी में ही मध्यमा में हूं अनामिका में ह्रौं और कनिष्टा में हू: बीजों को स्थापित करें।
पंच नमस्कार पदैः प्रत्येक प्रणव व होमांतै।
पूर्वोक्त शून्य परमेष्ठी पदाग्रे विन्यस्ते पंच नमस्कार मंत्र के पदों से प्रत्येक के आदि में 5 और अंत में स्वाहा लगाकर पूर्वोक्त पांच शून्य बीजों से पंच परमेष्टि के पदों को लगावे।
शीर्ष वदनं हृदयं नाभिं पादौ च रक्ष रक्षेति
कुर्यात् ऐतै मंत्रः प्रति दिवसं स्वांग विन्यासं शिर मुख हृद नाभि और पैर वाचक पदों में रक्ष रक्ष लगाकर प्रतिदिन अंग न्यास करें।
ॐणमो अरहं ताणं हां पद्मावती मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा ॐणमो सिद्धाणं हीं पद्मावती मम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ णमो आहरियाणं हूं पद्मावती मम हृदयं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ णमो उवज्जायाणं ह्रौं पद्मावती मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ णमो लोणं साहुणं हू: पद्मावती मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा
CADRISTRICISTOROSOTE १९३ PASTOTATISTOROTECTICIST
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द्विचतुः षष्टचतुर्दश कलाभिऽत्य स्वरेण बिंदुयुतैः कूटै दिग्वन्य स्तैर्द्दिशासु दिग्बंधनं कुर्यात् ॥
क्ष अक्षर को दूसरा कला आ सहित क्षा के बिन्दु अर्थात अनुस्वार सहित क्षां बीज फिर चौथी कला ईं सहित अर्थात् क्षीं छटी कला सहित क्षं चौदहवीं कला क्षौं और अंत के स्वर सहित अर्थात् क्षः इन सबसे क्षां क्षीं क्षू क्षौं दक्षः से पांच दिशाओं का दिग्बंधन करें।
हेम मयं प्राकारं चतुरस्तं चिंतये त्सुमुतंगं विशंति हस्तं मंत्री सर्व स्वर संयुतै शून्यै
सकल स्वर संपूर्ण कुटैरपि खातिका कृति ध्यायेत् निर्मलजल परिपूर्णः मति भीषण जलचरा कीर्ण
ज्वलदोंकार रकारैः ज्वालादग्धं स्वमग्निपुर संस्थं ध्यात्वा मृत मंत्रेण स्नानं पश्चात्करोत्यमुना
फिर सोने का बना हुआ चौकोर बीस हाथ ऊँचा परकोटे का चिंतयन करे। इस परकोटे की सब स्वरों सहित हुंकार का चिंतवन करे। अर्थात ह हा हि ही हु हु हृ ६ हृह्र हे है हो हो हं हं बीज रूपी देव परकोटे की रक्षा कर रहे हैं।
फिर सब स्वरों सहित क्ष बीज का निर्मल जल से भरी हुई जिसमें भयानक जलचरों से भरी हुई खाई का चितवन करें।
उस खाई में स्थित क्षां क्षीं क्षु क्षं क्ष क्ष क्ष्लृ क्ष्लृ क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष बीज रूपी देव वहां रक्षा कर रहे हैं, और अपने आप को अग्नि पुर में बैठे हुये और रकार रूपी अग्रि तो ज्वाला की शिखा से जलता हुआ ध्यान करे फिर अमृत मंत्र से अभिमंत्रित जल के छींटे देकर स्नान करें।
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणी अमृतं श्रायय श्रावय सं सं क्ली क्लीं हूं हूं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावयद्राथय ठं ठं ह्रीं स्वाहा ||
निजोत्तमामरे भूधराग्रे संस्नापितः पार्श्व जिनेन्द्र चंद्रः क्षीराब्धिदुग्धेन सुरेन्द्र वृंदैः स्वं चिंतये तज्जल पूतजातं
अपने मस्तक रूपी सुमेरू पर्वत पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी को विराजमान ख्याल करें। जिनके देवेन्द्रों द्वारा क्षीर समुद्र जल से अभिषेक हो रहा है। और उस अभिषेक का जल अपने शरीर पर गिर रहा है । यह ध्यान करे कि मेरा शरीर शुद्ध हो गया है।
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विधानुशासन 95959595
भूतोरण शाकिन्यो ध्यानेनानेन नोपसर्पति अपहरति पूर्व संचित मपि दुरितं त्वरित मेवेह |
भूत सर्प शाकिनी वगैरह इस ध्यान करने वाले के पास आकर कोई प्रकार का उपसर्ग नही कर सकती और पूर्व संचित पाप भी सब शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इति सकली करणं
चतुरस्रं विस्तीर्ण रेखा त्रय संयुतं चतुर्द्वारि विलिखेत् सुरभि द्रव्यैर्यत्रमिन्द हेम लेखिन्या
॥ १५
इस यंत्र को सोने की कलम से सुगंधित द्रव्यों से चौकोर विस्तीर्ण तीन रेखा सहित तथा द्वार वाला बनावे 1
धारणेद्रायनमोऽधः उदनाय नमस्तथोर्द्धउदनाय पद्म उदनाय नमो मंत्रान् वेदादि मायाधान,
प्रविलिख्यैतान क्रमशः पूर्वादिद्वार पीठ रक्षार्थ दश दिक्पाल लिखेदिंद्रादीन प्रथम रेखांते
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
ॐ लं इद्राय नमः ॐ आग्नेय नमः ॐ शं यमाय नमः ॐ षं नैॠत्येनमः ॐ वं वरुणाय नमः ॐ पं पथनाय नमः ॐ यं वायकै नमः ॐ सं कुबेराय नमः ॐ हं ईशानाय नमः ॐ ह्रीं अधछ्दनाय नमः ॐ ह्रीं ऊर्ध्वछदनाय नमः
दशादिक्पाल स्थापन मंत्र:
इसको आसन की रक्षा के लिए पूर्व आदि द्वारों पर क्रमशः लिखकर प्रथम रेखावाला के अंत में निम्रप्रकार से दशदिक्पालों को लिखे । उन मंत्रों के पश्चात उससे अगले कोठे में दशों दिशाओं में निम्र मंत्र लिखे ।
लं रंशं षं वं पं सं हं वर्णान स. बिंदु कानष्ट दिक्पति समेतान् प्रणवादि नमोंतगतानो ही मद्य ऊर्ध्व वदन संज्ञे च पूर्व में इन्द्र के वास्ते लं आग्नेय दिशा में अग्निद्र के लिये रं दक्षिण दिशा में (यम के लिये शं) नैऋत्य कोण के लिए षं और वं वरूण कोण के लिए पश्चिम के लिये पं वायू कोण के लिये सं उत्तर दिसा के लिये और हं ईशान के लिये है उ पहले नमः अंत में लगाये तथा पाताल व आकाश के लिये ही लगाये ।
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॥ ४ ॥
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CASTORISTRISEXSIOS विधानुशासन PADOTAOISTRISTORSCIEN
दिक्ष विदिक्ष कमशो जयादि जंभादि देवता चिलिरवेत प्रणव त्रिमूर्ति पूर्वा नमोतंगा मध्य रे रवांते ॥५॥
आया अधाय विजया तथा जिताचा ऽपराजिता देव्याः
जंभा मोहा स्तंभा स्तंभिन्यो देवता ह्येताः ॥६॥ फिर उसके अगले कोष्टक की दिशाओं में आदि में ई ही तथा अंत में नमः लगाकर जया आदि और विदिशाओं में ज़ुभा आदि देवियों को लिखे तथा विजया अजिता अपराजिता Mभा मोहा स्तंभा स्तंभिन्यै देवियों को लिखे ।
तन्मध्ये दलांभोज मनंग कमला भियां विलिरवे च च पद्म गंधा पद्मास्यां पद्यमालिकां
॥७॥
मदनोन्मादिनी पश्चात कामोद्दीपन संलिका आलिवेत् पद्म वरिट्यां त्रैलोक्य क्षोभिनी ततः
॥८॥
ततो ह्रींकार पूर्वोक्ता नमः शब्दावसानगा अकारादि हकारांतान केशरेषु नियोजयेत्
॥९
॥
ॐ ह्रीं क्षा प नमः प्राच्यामों ह्रीं क्षी या नमः क्रमात
ॐ ह्रीं दुं व नमः पश्चादों ही क्षौं ती नमो लिरवेत् ॥१०॥ इसके बीच में एक आठ दल का कामल बनावे जिसकी पखडियों में पूर्वादिक्रम से ॐ ह्रीं अनंग कमलायै नमः ॐ ह्रीं पद्म गंधायै नमः
ॐ हीं पद्मास्यायै नमः ॐहीं पद्मामालायै नमः ॐ ह्रीं मदनोल्मादिन्यै नमः ॐहीं कामोद्दीपनाय नमः ॐ ह्रीं पद्म वर्णाय नमः ॐ ह्रीं त्रैलोक्रा सोभिण्टौ नमः और उस कमल की कर्णिका में अ कार से हकार तक सब अक्षर लिखे फिर उस कमल की चारों दिशाओं में क्रम से
ॐ ह्रीं क्षां प नमः ॐ ह्रीं क्षीं मानमः ॐ ह्रीं सूव नमः ॐ ह्रीं क्षौं तीनमः
॥११॥
एतत्य पद्मावती देव्या भवेद्वक चतुष्टयं
पंचोपराचारतः पूजां नित्यमस्या करोत्विति यह चारों पद्मावती देवी के मुख है। उसका पूजन पाँचो उपचार से नित्य करना चाहिये। CASIORCISIOMSIRIDIPASTOT5 १९६ HTTETSIDESIESTETRIOTES
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SOSIATERISRISIOSSIOS विद्यानुशासन 3505121510050SERIES
ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवांत पद्मावति च त्यनेन मंत्रण कुयाद् ।
ह्वानादीनु पचारान्यं च पद्माया ॥१२॥ आह्वानन स्थापन सन्निधिकरण पूजन और विसर्जन को पंडितों ने पंचोपचार पूजन कहा हैं।
आह्वाननं स्थापनं देव्या सन्निधिकरणं तथा
पूजां विसर्जनं प्राहु: बुंधा:पंचोपचारकं पूजन के समय इस मंत्र से आह्वानन करे।
॥१३॥
ॐ ही नमोस्तु भगवति पद्मावति ऐहि ऐहि अवतरावतर संयोष्ट आह्वाननं
तिष्ट द्वितयं टांत द्वितयं संयोजयेत् स्थितिकरणे सन्निहिता भव शब्दं मम वषट संनिधिकरणे
॥१४॥
ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति पद्मावति ऐहि ऐहि तिष्ट तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं नमोस्तु भगवति पद्मावति ऐहि ऐहि मम सन्निहितो भव भव वषट ॐ ह्रीं नमोस्तु पद्मावति गंधादीन गृह - गृह ॐ हीं नमोस्तु भगवति पद्मावती स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जःजः विसर्जनं ।।
गंधादीन गृह गृहेति नम पूजा विधान के
स्वस्थानं गच्छ गच्छेति जः स्त्रिः स्यात्तद्विसर्जनं । ॥१५॥ पूजन के समय गंधादीन् गृह गृह्ण नम कहे तथा विसर्जन के समय स्वस्थानं गच्छ गच्छ तीन यार जः कहे।
पन्नगाधिप शेखरां विपुलाऽरुणां बुज विष्ट कुकुटोरग वाहनामरुम पभां कमलाननां
॥१६॥ मस्तक पर नागराज वाली अत्यंत लाल कमल के आसन वाली कुर्कुटनाग के वाहन वाली रक्त कांतियाली कमल के समान मुखथाली ।
अंबकां वरदां कुशायत पाश दिव्य फलांकितां
चिंतयेत् कमलावती जपतां सतां फल दायिनी ॥१७॥ वरद अंकुश बंधेहुए नागपाश और दिव्यफल सहित हाथों वाली जपने वालो को सदा फल देने वाली माता पद्मावती का ध्यान करे। SSCI50151050505IDTE १९७ PISTRISTOTSIDASIRISTRITICIES
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SCSTISISISCHARISION मिनुपश्चन्द PATRORISEDICTICIES
तोतलाधरिता नित्या त्रिपुरा काम साधनी देव्यानामानि पद्माया स्तथा त्रिपुर भैरवी
॥१८॥ तोतला त्वरिता नित्या त्रिपुरा काम साधिनी पद्मा पद्मावती और त्रिपुर भैरवी यह देवी का नाम है।
चतुर्भुजा पाश फल प्रदान द्विपेद्र वश्यां कित चारु हस्ता
त्रिलोचना रक्त सरोज पीठा पद्मावती माम बतानमंतं ॥१९॥ पाशफल वरद और अंकुश सहित चार भुजा वाली तीन नेत्रवाली लाल कमल के आसन वाली पद्मावती देवी मेरी रक्षा करे।
हां ह्रींसु बीज प्रमुरवै श्च शून्ये ऐं ह्रीं नमो देव्यं भिधान पूर्वे
शीर्ष च चक्रं हृदयं च नाभिं पादौ च रक्ष द्वयतोथ पद्मे ॥२०॥ ॐ ह्रीं के पश्चात ह्रां ह्रीं आदि शून्य बीजों का लगाकर देवी का नाम लिखकर सिर मुँह हृदय नाभि पादौ पद लगाकर रक्ष रक्ष पद लगाये।
ब्ल पिंड माया क ष वर्ण टांतान विलियं वाहोऽष्टदलाब्ज यंत्रं
दशाक्षरी तेषु च वौषट् इंदु खहेंदु वेष्टयं तब पद्म पद्मे ।। २१ ॥ ब्लें पिंड (झ पिंड च्म्ल्यूं माया ह्रीं कष (आं) टांत (ठ) को लिखकर उसके बाहर आठ दल का कमल बनावे उसमे दशाक्षरी क ख ग घ न च छ ज झ ञ वोषट और इंदुझ्यीं लिखकर पद्मावती के मूलमंत्र से वेधित करें।
नाते तेजो मुरय लोकनाथं हैं व्योम षांत स्थित काम राजं ।
पने पदं कटिन्य थैति देवि त्वदाराधनमूलमंत्र ॥२२॥ अंत में नमः आदि में तेज (1) लोकनाथ हीं) है व्योभ (ह) षात (स) और कामराज (क्ली) का मिला हुआ रूप पद्मे पद्म कटिनी सहित देवी का मूलमंत्र है।
1 हीं हैं इसक्लीं पद्म एम कटिनी नमः यंत्रं लिरियत्यागुरु चंदनायै प्रपूर्व्यदुत्तर दिग्मुश्य स्थ
दशा क्षरं मंत्र पद जपन्यः किं पश्यते तस्य फलंतु पो ॥२३॥ इस यंत्र को अगुरू चंदन आदि से लिखकर उत्तर की ओर मुख करके पूजन करता हुआ पुरूष दशाक्षर मंत्र का जा जाप करता है। उसकी हे पद्मे कोई फल अविशिष्ट नही रहता है। 8510151215TOSDISTRISD55 १९८ PISTORICIST0505CISION
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SSIO15015101501505 दिघानुशासन ASICISCISIOTSICIDESI
नित्यादि मंत्रेण सुजाप यस्यै ददातियो गंध फलं प्रसूनं
सा तस्या वश्या भवतीह पने सौभाग्य यल्ली प्रसवं विचित्रं ॥ २४ ॥ उपरोक्त मंत्र से गंध फल पुष्प आदि जिस किसी को देता है यह उसके वश में हो जाते हैं। हे पने इस सौभाग्य लता की उत्पत्ति बड़े विचित्र ढंग की होती है।
शीषांस्य हन्नभि पदेषु यस्यान्यसेदनं गोद्भव पंच बाणान
संमोहनं द्रावण मेति वस्य पद्मावती त्वंयदि तोषमेति ॥ २५ ॥ हे पद्मावती ! यदि कोई पुरुष आप में संतोष करके किसी स्त्री के सिर मुख नाभि और पैरों में काम के पांचो बाण लगावे तो उसका संमोहन और द्रावण होता है।
यः काम राजस्य तलोद्रभागे मायातरं पार्श्व युगे।
तथा ब्लेंगौनौभ्रमंतं पदद्योः पतंति ध्यायन सदा भावयतीह पछ॥२६॥ हे पद्मे ! जो पुरुष स्त्री की योनि के ऊपर और नीचे के भाग में माया अक्षर (ही) और दोनों पार्श्व में ब्लें का ध्यान करके उसको घूमती है और पैरों में पड़ती हुई ध्यान करता है यह सदा ही उस स्त्री की भावना करता अर्थात् प्राप्त करता है।
नेत्रादि मध्ये परियोजनाया ब्लें कामराज हिविलोकांति
प्यायेत् स सिंदूर समान वर्ण क्षिप्तं च्युतिं कारयती ह प ॥२७॥ हे पद्मे ! जो मंत्री स्त्री के नेत्री की आदि मध्य और अंत में क्रमशः क्रमशः ब्लें कामरज क्लीं और द्विपलोक (क्रो) का सिंदूर के समान लालवर्ण युक्त ध्यान करता है।वह शीघ्र ही स्त्री को द्रवित करता
पद्मावती स्तोत्र मिदं त्रिसंध्यं सन्मंत्रि मुरवै गदितं पठयः
स सिद्ध वाक् सर्वजनानुरागी सर्वार्थ कामांच सदालभते ॥२८॥ जो पुरुष पद्मावती के स्तोत्र को प्रातः दोपहर और सायंकाल के समय उत्तम मंत्रो के सहित पढ़ता है उसकी वाणी सिद्ध हो जाती है। सब पुरुष उससे प्रेम करते हैं। उसका सब अर्थ और काम प्राप्त होते हैं।
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इत्थं मंत्रार्थ गर्भण स्त स्तोत्रेण भक्तितः
तां पनां साधयेन मंत्री समस्तै साधन कमैः॥ इस प्रकार मंत्री इस मंत्रार्य गर्भित स्तोत्र से पद्मावती देवी की भक्ति पूर्वक स्तुत करके उसको पूर्णतया साधन विधि से करे।
सिद्धयति पद्मादेवी त्रिलक्ष जापेन पद्मपुष्पाणां
अथवाऽरूणं करवीरक वृत्तेक पुष्प जापेन पद्मावती देवी लाल कमल के फूलों अथवा लाल कनेर के फूलों पर तीन लाख जप करने से सिद्ध होती हैं।
तत्वा वृतं नाम विलिरव्य पत्रे तन्होम कुंडे निरवने त्रिकोणे।
स्मरेषुभिः पंच भिः रभि वेष्टयं वाह्ये पुनलोंक पति प्रवेष्टयं ॥३१॥ एक ताम्रपत्र पर नाम को ही से वेष्टित करके उसके चारों तरफ द्रां द्रीं क्लीं ब्लू सः को लिखकर बाहर फिर ही लिखकर उसको त्रिकोण कुंड (होमकुंड) में गाड़ दें। CASTD150151015TRASTRIS995 २०१PISIPEDISTRIEDISTRITICIEN
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विधानुशासन
॥ पद्मावती स्तोत्र ॥
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श्री मङ्गीर्वाण चक्र स्फुट मुकुट तटी दिव्य माणिक्य माला
ज्योति ज्याला कराल स्फुरित मकारिका यृष्ट पादार विन्दे
व्यायो रुल्का सहस्त्र ज्वलदनल शिखा लोलपाशां कुशादये
आंहीं मंत्र रूपे क्षपित कलि मलं रक्ष मां देवि पद्ये ॥ १ ॥
हे व्याघ्र वाहिणी ! आं क्रों ह्रीं मंत्र रूपिणी पद्मावती आप मेरी रक्षा कीजिए। भावनासुर नागकुमार आदि देवों के समूह जिनके वश में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा प्राप्ति प्राकाम्य इशत्व वशित्व ऋद्धियाँ है, वे आपके चरणों पर अपना सिर रखकर नमस्कार करते हैं। उसके मुकुटों का अग्रभाग जिनपर लाल माणिक्य की मकरा कृती बनी हुये ये आपके चरणों में देते देते घिस गये हैं। आपके हाथ में नागपाश अंकुश हजार उल्कापात के समय में होने वाले प्रकाश से चमक रहे है और आपने सम्पूर्ण कलियुग का पाप नष्ट कर दिया है।
भित्वा पाताल मूलं चल चल चलिते व्याल लीला कराले । विधुद्दंड प्रचंड प्रहरण सहितै सदुभुजै स्तजयंती दैत्येन्द्र क्रूर दष्ट्रा कट कट घटिते स्पष्ट भीमाट्टहासे मायाजी भूत माला कुहरित गगने रक्षमां देवि पद्मे पाताल को फोड़कर बहुत फूर्ति से ऊपर निकलने वाली, अपने चारों तरफ सर्पों की क्रीड़ा से भंयकर मालूम देने वाली बिजली, के समान भयंकर शस्त्र सहित अपनी भुजाओं से कमठ नामक दैत्य को डराती हुई, जिसके मुँह से दाँत पीसने की भयंकर आवाज निकल रही है, जिसके भयंकर हास्य की आवाज बहुत दूर तक स्पष्ट सुनाई दी जा रही है, अपनी माया से निर्मित मेघों का घटा से जिसने सारा आसमान छालिया है ऐसी है पद्मावती देवी आप मेरी रक्षा कीजिये ।
॥ २ ॥
कूजोत्को दंड कांडोडमरू विधुरिता क्रूर धोरोप सर्गे दिव्यं वज्रात पत्रं प्रगुण मणि रणत किंकिणी कान रम्यं भास्वद्वै दंडं मदन विजयिनो विभ्रती पार्श्व भत्तुः सा देवी पद्महस्ता विराटयतु महा डामरं माम कीनम् ॥ ३ ॥
इस श्लोक में चतुर्भुजादेवी का वर्णन है। एक हाथ में ऐसा धनुष लिया है जिसकी छोरी टंकार कर
रही है। दूसरे हाथ में बाण है। एक हाथ ऊँचा किया हुआ है और उसमें डमरू लिया हुआ है इन तीनों भयंकर दिखने वाली (कामदेव को जीतने वाले श्री पार्श्वनाथ भगवान को ) जय सिंह व्याघ्र इत्यादि भयंकर प्राणियों के आक्रमण से और वज्रपात अग्नि वर्षा इत्यादि नैसर्गिक उत्पातों से やすやすとちた P6950 २०२P/5101
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SASARASTRISTOTHRISIOS विधानुशासन PATRI50150151215105 बचाने के लिये उनपर स्वर्गीय और दे दीप्यमान येडूर्य नामक रत्न से जिसका इंडा बना हुआ है। झालर में लगी हुई मणियों की मधुर संगीत ध्वनि जिसमें सुनाई दे रही है। ऐसे यज़ नाम के हीरे के बने हुए छत्र लेकरखड़ी हुई कमाल हस्ता लक्ष्मी देवी हमारे डर को दूर करें।
भंगी काली कराली परिजन सहिते चंडि चामुंडि नित्ये क्षां क्षीं २ क्षण क्षत्त रिपु निवहे ही महामंत्र वश्टो भ्रां भ्रीं यूं भें भ्रसंगे भृकुटि पुट तटी त्रासितोदाम दैत्ये
झं झीं झुंझें झं: चंडे स्तुति शत मुरवरे रक्षमा देवि पने ॥४॥ भुंगी काली कराली इत्यादि नाम की सहेलियों से युक्त चंड़ी अर्थात् सिर पर बैठी हुई चतुर्भजा क्रोध से लाल और चामुंडा अर्थात् सिंह पर विराजमान आठ भुजा याली पीले रंगयाली क्षां क्षीं झू क्षे क्षः इन बीजों से बंधी हुई शत्रु समुदाय को जिसने घायल कर दिया है ह्रीं मंत्र से साधक के यंश में होने सीलभां भी सवयो अनी त्योगी (भृकुटी) से कमठ नाम के दैत्य को डरानेवाली और झांझी झू झः इन पांच बीजाक्षरों से बहुत भयंकर दिखने वाली भगवान श्री पार्श्वनाथजी की स्तुति हे पद्मे देवी आप मेरी रक्षा कीजिये।
चं चत्कांची कलापे स्तन तट विलुठतार हारावली के प्रोत्फुल्लत्पारिजात द्रुम कुसुम महामंजरी पूज्य पादे द्रां ह्रीं क्लीं ब्लू समेते भुवन वशकरी क्षोभिणी द्राविणी
त्वं आं एँ उ पो हस्ते कुरू कुरू रक्षा मां देवी पये ॥५॥ जिसकी करधनी (कनगती) खूब चमक रही है छाती पर अनेक प्रकार के हार शोभा दे रहे हैं, विकसित कल्प वृक्ष के फूलों की मंजरी से जिसके चरण कमल पूजा योग्य हैं और द्रा द्रीं यानी ब्लूं सः इन बीजों से युक्त सम्पूर्ण जगत को वश करा देने वाली शत्रुओं में अशान्ति फैलानी याली, उनको भगाने वाली, आं ऐं ॐ रूपी कमल हाय में लिये हुवे जिसके मंत्र में कुरू कुरू यह दो पद है ऐसी है पद्मे देवी आप मेरी रक्षा करें।
लीला व्यालोल नीलोत्पल दुलनयन प्रज्वलद्वाडयाऽग्नि घुय्यज्वाला स्फुलिंग स्फुर दर निकरोदा चकाग्र हस्ते हां ह्रीं हूं हः हरंती हर हाह हर ह ह हूंकार भीमक नादे
पने पद्मासनं स्थे व्यपनय दुरितं देवि देवेन्द्र वंधे ॥६॥ अपने आप कुछ कुछ हिलने वाले नीलकमल के पन्ने के समान जिसकी आँखे हैं, वइयानल से निकलने वाली ज्वालाओं की चिनगारियों से जिसके अस्त्रचमक रहे हैं और जिसके हाथ में भयंकर SSIOSRISCISIOSOISTOTE २०३PISTRISTIOTECTECISCIPES
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वज्र है, कमलासन पर बैठी हुयी है। भावनासुर और कल्पवासी सुरेन्द्रों द्वारा पूजनीक है तथा तीर्थंकरों के नैसर्गिक उत्पातों को नाश करने के कारण कल्प वासी देवेन्द्रों की पूज्य है। भयंकर हूंकार शब्द करने वाली और (कार) एक नाद अर्द्ध चन्द्र विन्दु) ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः इस मंत्र भय रूप को धारण करने वाली हे पद्मे देवी आप मेरे पापों को नष्ट करें।
27:
कंपं झं वंस हंसः कुवलय कलितोद्दाम लीला अबंधे झां झीं झं झः पवित्रे शशि कर दवले प्रक्ष रत् क्षीर गौरे वालव्या वद्ध जूटे प्रबल बल महाकाल कूटं हरती हाहा हूंकार नादे कृत कर कमले रक्ष मां देवी पद्मे ॥ ७ ॥
कं पं झं वं स हंसः इन सात अक्षरों से सारे भूखंड में अपनी लीला फैलानी वाली अथवा नीलकमल के यास होने के कारण वहाँ अपनी लीला फैलाने वाले झां झीं झं झः इन चार अक्षरों से पवित्र चन्द्रमा की किरणों जैसी सफेद, बहुते हुये दूध के समान गोरी और जिसके जटा जूट में सांप बंधे हुये हैं, शत्रु में जिसके कमल है ( क+आ+रें क्राँ) हा हा हूं और क्राँ इस मंत्रमय स्वरूप वाली हे पद्मादेवी आप मेरी रक्षा करें।
प्रातर्बालार्क रश्मि छुरित धन महा सांद्र सिंदूर धूली: संध्या रागरूणांगी त्रिदशवर वधू बंध पादार विंदे | चंच च्वंडा सि धारा प्रहत रिपुकुले कुंडलोद घृष्ट गंडे श्रां श्रीं श्रं श्रः स्मरती मद गज गमने रक्षमां देवी पद्म
॥ ८ ॥
प्रातः काल में उदयमान सूर्य की किरणें जिसपर पड़ रही हैं ऐसी घनी सिंदूर की टूल की तरह और उस वल्क के आसमान के समान लाल रंग वाली देवेन्द्रों की इन्द्रायणिया जिसके चरण कमल की। पूजा करती है। चमकने वाली भयंकर तलवार की धार से सारे शत्रु दल को मार डालने वाली, जिसके कान के कुंडल गाल पर घिस रहे है, मस्त हाथीके समान चलने वाली श्रां श्रीं श्रं श्रः इसको स्मरण करने वाली अर्थात् भावनासुर नागदेवादि अपने शत्रु असुरों को मारने के लिये जिसका स्मरण करते हैं- ऐसी पद्मावती देवी मेरी रक्षा कीजिये ।
गर्ज्जनीरद गर्भ निर्गत तडिज्वाला सहस्र स्फुरत् सद्वजोंकुशपाश पंकज कराभक्त्यांऽमरै रचिता सद्यः पुष्पित पारिजात रुचिरं दिव्यं वपुर्विभ्रता समां पातु सदा प्रसन्न वदना पद्मावती देवता जिसके हाथों में क्रम से वज्र, अंकुश, पाश और नागपाश व कमल हैं जो सजल
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॥ ९ ॥
मेघ के भीतर
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विधानुशासन
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से चमकने वाली बिजली की ज्याला से सहश्र गुण अधिक प्रकाश रखने वाली है। देवलोग जिसकी बहुत भक्ति से पूजन करते हैं। तत्काल लिखे हुवे पारिजात पुष्प के सामन जिसका शरीर सुन्दर है और सदा प्रसन्न मुखवाली पद्मावती देवी मेरी रक्षा करे ।
|| 80 ||
विस्तीर्णे पद्म पीठे कमल दल निवासोचिते काम गुप्ते लां तां ग्रां श्री समेते प्रहसित वदने नित्य हस्ते प्रहस्ते रक्त रक्तो ज्वलगि प्रति वहसि सदा वाग्भवेकाम राजे हंसा रूढ़े सुनेत्रे भगवति यरदे रक्षमां देवी पद्म लाल और उज्वल अंगवाली कमल के फूलों में रहने वाली मुस्कराती हुई मुँहयाली हे पद्मे देवी आप मेरी रक्षा करें। एक विशाल चुतष्कोण पीठ पर दस दल कमल बनाया जावे। इसके पहिले दल में कामगुप्ते दूसरे में लां प्रहसित वदने प्रहस्ते आठों में श्री नवमे में रक्ते १० व में रक्तोज्वालंगी लिखे और हरे एक दो पत्तों के बीज में ऐं नीचे और क्लीं ऊपर ऐसी हे पद्मा देवी आप मेरी रक्षा करें ।
षटकोण चक मध्ये प्रणव वरयुत' वाग्भवे काम राजे हंसा रूढे स बिन्दे विकसित कमले कर्णिकाग्रे निधाय नित्ये क्लिन्ने मदाने द्रवइति सततं सां कुशे पाश हस्ते ध्यानात्संक्षोभकारि त्रिभुवन वशकृत रक्षमां देवी पद्मे
॥ ११ ॥
हंस वाहिनी, बिन्दु सहित अंकुश और नागपाश लिये हुये, ध्यान से शत्रुओं में क्षोभ पैदा करने याली, त्रिभुवन को यश करा देने वाली, नित्ये क्लिन्ने मदार्द्रे मद स गीली स्त्री को द्रवित कराती है। ऐसी है पद्मावती देवी मेरी रक्षा करो। छ कोण चक्र में ईं ऐं क्ली हंस वाहनी खिले हुवे कमल पर बैठी हुई कर्णिका में ध्यान करें ।
जिव्हाग्रे नासिकांते हृदि मनसि द्दशोः कर्णयोर्नाभिपद्म
स्कंधे कंठे ललाटे शिरसि च भुजयो पृष्ट पार्श्व प्रदेशे । सगो पांग शुद्धा अतिशयभुवने दिव्य रूपं स्वरूपं
ध्यायामः सर्वकाले प्रणवलय युतं पार्श्वनाथैक शब्द ॥ १२ ॥
सम्पूर्ण अंग और उपांगो में शुद्ध होकर अर्थात अंग न्यास करन्यास करके शुद्ध होकर जीभ की नोंक पर नाक की अणी पर, अपने हृदय में मन में, आंखो में, कानों में नाभि में, दोनों कंधों में, कंठ में ललाट में, सर पर भुजाओं में पीठ पर दोनों बगलों में और सर्वदा दिव्य स्वरूपी समभवशरण में विराजे हुवे पार्श्वनाथ स्वामी का अपने उपरोक्त शरीर के अंगों में ॐ पार्श्वनाथाय नमः का ध्यान करना चाहिये ।
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55 विद्यानुशासन 9650/5069519
आं क्रीं ह्री पंच वर्णे: लिखित षटदले चक्रमध्ये हस्कलीं क्रों कां पत्रांतराले स्वपरि कलिते वायुनावेष्टितांगी ह्रीं वेष्टथेत रक्त पुष्पै जपित दल महाक्षोभिणी द्राविणी त्वं त्रैलोक्य चालयंती सपदिजन हिते रक्षमां देवी पद्मे ॥ १३ ॥ पांच वर्ण (रंगो) से लिखित षटदल वक्र में जिसके दलोंच में आं क्रों ही हरकलीं क्रम से विद्यमान है। और पत्रों के बीच में ऊपर और नीचे क्रों क्रां बीच में विद्यमान है। अ आ इ ई इत्यादि स्वरों से घिरे हुवे और वायु मंडल से घिरे हुये औ ह्रीं से वेष्टित ऐसे कमल में स्थित, संसार का हित करने वाली, त्रैलोक्य को चलाने वाली, और लाल फूलों से जप करने पर क्षोभ पैदा करने वाली और द्रवित करने वाली हे पद्मावती देवी मेरी रक्षा करो।
ब्रह्माणी काल रात्री भगवति वरदे चंडि चामुडिनित्ये । मातर्गाधारि गौरि घृति मति विजये कीर्तिही स्तुत्य प संग्रामे शत्रु मध्ये जय ज्वलन जले वेष्टिते न्यैः स्वरा स्त्रैः क्षां क्षीं क्षं क्षः क्षणा क्षत्तरिपु निवहे रक्षमां देवि पद्म
।। १४ ।।
ब्रह्माणि काल रात्रि भगवती वरदे चंडी चामुंडी नित्ये माता गांधारी गौरी घृती मती विजये कीर्ति ह्रीं स्तुत्य पद्मे इन १६ मातृका स्वरूपिनी स्वर रूपी जो अस्त्र है उनसे घिरी हुई युद्ध में शत्रुओं के बीच में अग्नि में जल में जिसने सब रिपु लोगों को आधे क्षण में नष्ट कर दिया है। ऐसी है पद्मावति देवीक्षां क्षीं क्षं क्षः इस मंत्र से हमारी रक्षा करें।
कोदंडकांडैर्मुशल हल किणैः वंन्टा नाराध चक्र: शक्त्या शल्य त्रिशूलै वरफण सफलै मुद्रार मुष्टिदंडे, पाशैः पाषाण वृक्षैर्वर गिरि सहितै दिव्य शस्त्र रूदस्त्र दुष्टानाम् दारयंती वर भुज ललितै रक्ष मां देवि पद्मे
॥ १५ ॥
तलवार, धनुषबाण, मूशल, हल, खुरपा, लोहे का बाण, चक्र, शक्ति शल्य ( लघुबाण) त्रिशूल गोफण (गोपिया) लकड़ी की मूठमाला, छोटा हत्यार (मुद्राल मूठ दंड नागपाश पहाड़ों से पत्थर बरसाना इन शस्त्रों से दुष्टों के हृदय को चीरती हुई अनेक भुजाओं से युक्त है। पद्मादेवी आप मेरी रक्षा करो।
भू विश्वेक्षण चन्द्र बिंब पृथिवी युग्मेक संख्या क्रमात् चंद्राभो निधि बाण रूप वसु दिक्छक खेचरे शादिषु ऐश्वर्य रिपु मारि विश्वभय हृत क्षोभांतरायान् विषान् लक्ष्मी लक्षण भारती गुरु मुखान्मंत्रानि मान् देविते ॥
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शुरु के १ सेट काव्यों को यदि गुरू मुख से उपदेश लेकर ८ दिन में १ लाख जाप करे तो ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । ५ दिन में ४ लाख जप करे तो शत्रु का पराभव हो २ दिन में ५ लाख जप करे तो दुनिया से अपने को डर रहता हो तो वह नष्ट होता है। १ दिन में ५ लाख जाप करे तो मारण करने वाली का मारण प्रयोग नहीं हो सकता है । १ दिन में ९ लाख जप करने से क्षोभन नष्ट होता है । ८ दिन में १० लाख करने से विघ्न नष्ट होते हैं । २ दिन में २ लाख जप करने से विष का असर नहीं होता है । १ दिन में १२ लाख जप हो तो लक्ष्मी मिलती है। भू- ८ दिन चन्द्र = १ लाख विश्व= ५ अभिनिधि = ४ इक्षण =२ याण = ५ चन्द्र = १ रूप ५ बिंब = १ वसु =८ पृथ्वी = ९ दिक = १० युग्म हक एक खेचरेषु
यस्या देवैनरेन्द्रमर पति गणैः किन्नरे दानवेंद्र : सिद्धैन्नागेषुयक्षैर्नर मुकुट तटी घृष्ट पादार विंदे सौम्ये सौभाग्य लक्ष्मी दलित कलि मले पद्म कल्याण माले अंते काले समाधिं प्रकटय परमं रक्ष मां देवि पद्मे ॥ १७ ॥
देवता लोग राजा लोग, देवताओं के स्वामी इन्द्र आदि किन्नर दैत्यों के स्वामी इन्द्र सिद्ध विद्याधर यक्ष, नाग, मनुष्य आदि मुकुटों अग्रभाग से पद्मावतीजी चरण कमलों में ढोक देते देते घिस गये हैं। ऐसी है पद्मावती देवी अपने सौभाग्य की महिमा से कलिमल को नष्ट कर देने वाली और शुभकर्म की माला पहिनी हुये हे पद्मावती देवी मेरी रक्षा करें और अंत काल में संसार के प्रति मेरे मन में वैराग्य उत्पन्न करो अर्थात् मेरी अंत में समाधि मरण होवे उसके लिये मेरी रक्षा करो।
धूपैश्चचंदन तंदुलैः शुभ महागंधैः सुमंत्रालिकै नानावर्ण फलै विचित्र भरितै दिव्यै मनोहरिभिः दीपैर्वेध वस्त्रे रनु भवन करैभक्ति युक्तं प्रदताः राज्ये हेतु : गृहाण भगवति वरदे रक्षमां देवि पले
॥ १८ ॥
भक्ति के साथ झगट देवी की धूप, चंदन, अक्षत, सुगंधित द्रव्य, अनेक प्रकार के फल और पकाये हुये बहुत सारे नैवैद्य और अच्छे वस्त्र दीप आदि से पूजन की जावे तथा भक्ति पूर्वक अर्पण की जाए
तो राज्य लक्ष्मी प्राप्त हो तथा रक्षा के निमित्त गृहण करो। ऐसा प्रार्थना की जाए
तारात्वं सुगतागमे भगवति गौरीति शैवागमे
वज्रा कौलिक शासने जिनमते पद्मावति विश्रुता
गायत्री श्रुति शालिनी प्रकृति रित्युक्तासि सांख्यायने मात भरिति किं प्रभूत भणितः व्याप्तिं समस्तं त्वयाः
॥ १९ ॥
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हे सरस्वती बोधमत में तुम तारा नाम के प्रसिद्ध हो। शैवमत में गौरी नाम से प्रसिद्ध हो। कौल मत में वजानाम से, जैनमत में पद्मावती के नाम से, वैदिक मत में गायत्री के नाम से और सांख्य मत में प्रकृति के नाम से प्रसिद्ध हो । ज्यादा क्या कहा जाए। तुमने सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है !
संजप्ता कणवीर रक्त कुसुमैः पुष्पै चिरं संचितैः संमिश्रै घृत गुग्लोध मधुभिः कुंडै त्रिकोण कृते होमार्थ कृत षोडशांगुलि समे वन्हौ दशांशं जपेत् तां वाचं वद सिंह वाहि सहसा पद्मावती विश्रुता लाल कनेर के जपकर इकट्ठे किये हुवे सूखे फूलों में घी, गुग्गल और बूरा मिलाकर जाप की हुई संख्या का दशांस सोलह उंगुल वाले त्रिकोण कुंड में होम करे, तब हे सिंहवाहिनी पद्मावती देवी उसको वर देने वाली वाणी बोलो ।
|| 20 ||
पाताले ध्यूषिता विषं विष्षधारा धूर्णति ब्रह्माडंजा : स्वर्भूमी पति देवदानव गणाः सूर्येदुज्योति गणाः कल्पेन्द्रा स्तुति पाद पंकज नता मुक्ता मणि चुंबिता: सा त्रैलोक्य नता नति स्त्रिभुवने स्तुत्या सर्वदा
॥ २१ ॥
पाताल में रहने वाले विष से भरे हुवे नाग तुम्हारे प्रभाव से विष रहित हो जाते हैं। ब्रह्मांड में पैदा होने वाले स्वर्गपति कल्पवासी और भूमि पति दानव और उनके नन्दादि देवगण सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र इत्यादि तुम्हारी स्तुति करके तुम्हारे चरणों में नमस्कार करते हैं। कल्पवासी देवों के इन्द्र तुम्हारी स्तुति करके नमस्कार करते हैं। और उनके मुकुटों के रत्न तुम्हारे चरणों को छूते हैं। और सारे त्रिलोकी तुम्हारी स्तुति करते हैं और तुम्हारे आगे अपना सर झुकाते हैं ।
ह्रींकारे चन्द्र मध्ये पुनरपि वलये षोडशावर्त्त पूर्णे बाह्य कंठेर वेष्टेत कमल दल युते मूलमंत्र प्रयुक्त साक्षात्तत्रैलोक्य वश्यं पुरुष वशकृतं मंत्र राजेन्द्र राजं
॥ २२ ॥
ततत्तत्व स्वरूपं प्रथम पद मिदं पातु मां पार्श्वनाथ: ह्रीकार के अर्द्धचन्द्र में सोलह आवर्त्त से भरे हुए मंडल में जिसके बाहर रकार का बेष्टन है उन कमल दलों में पद्मावति देवी का भूलमंत्र एवं श्री पार्श्वनाथजी का ध्यान त्रैलोक्य को वशीकरण करता है। पुरुष को वश करता है यह यंत्र सब मेरी और यंत्रों का राजा है ऐसे यंत्र में विराजमान श्री पार्श्वनाथजी मेरी रक्षा करें।
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CARDISTRISTOTRIOTSIDE विद्यानुशासन BIDIDISADSEISIOISTRIES
भक्तानां देहि सिद्धिं मम सकल मलं देवि दरी करूत्वं सर्वेषां धार्मिकानां सतत निय मितं वांछितं पूर यस्वं ॥२३॥
संसाराऽब्यौ निमग्नं प्रगुण गुणयुतं जीव राशिं च रक्ष
श्री मज्जैनेन्द्र धर्म प्रकटय विमलं देवि पद्मावति ॥२४ ।। है देवी ! भक्तों को सिद्धि दो मेरे सम्पूर्ण मेले पन को दूर करो स्वधार्मिक लोगों की इच्छा को पूरी करो। संसार रूपी समुद्र में डूबे हुए गुणगान करने वाले प्राणियों की रक्षा करोऔर हे पद्मावती देवी निर्मल जिन धर्म को प्रकट करो।
क्षुद्रोपद्रवरोग शोकहरिणी दारिद्रय विद्राविणी व्याल व्याघ हरा फॉण त्रयघा दहमा मासमा पातालाधिपति प्रिय प्रणाली चिंता मणि प्राणिनां
श्री मत्पाशी जिनेश शासन सुरी पद्मावती देवता अनिष्टकारी देवताओं से पैदा किये गये रोग और शोक को हरने वाली, दारिद्र को हटाने बाली, दुष्ट हाथी व्याघ्र शेर से बचाने वाली , तीन सर्प हाथ में लिये हुए जिसके देह की कांति बहुत दे दीप्यमान है, पाताल के राजा धरणेन्द्र की प्रेम पात्र और प्राणियों के मनोरथ पूरा करने वाली चिंतामणी पार्श्वनाथजी की आज्ञा में रहने वाली हे पद्मावती देवी हमारी रक्षा करो।
मातः पधिनी पद्म राग रूचिरे पद्मप्रसूनने पने पद वन स्थिते पारिल सत्पशिक्षि पद्मासने पद्मा मोदिनी पर राग रूचिरे पद्म प्रसूनाचिंते
पद्मो लासिनी पद्मनाभि निलये 'पद्मालो पाहिमां ॥२५॥ माणिक्य जैसी कांतिवाली कमल पर विराजमान होने वाली, कमल वन में रहने वाली, कमल समान नेत्रयाली, कमल की सुगंध रखने वाली, कमल से पूजित कमल की कर्णिका में रहने वाली पद्म नामक पीठ पर बसने वाली कमल में रहने वाली हे पावती देवी मेरी रक्षा करो।
दिव्य स्तोत्रं पवित्र पटुतर पठितं भक्ति पूर्व त्रिसंध्यं लक्ष्मी सौभाग्य रूपं दलित कलि मलं मंगलं मंगलानां पूज्यं कल्याण मालां जनयतु सततं पाश्वनाथ प्रसादात् देवी पद्मावतीनः पहसित वदनाया स्तुता दानवेन्द्रैः।।२६ ।।
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SSIOISRASIRIDIOTSICS विधानुशासन SRISEXSDISCREEN यह पद्मावती देवी का स्तोत्र दिव्य पवित्र स्वर्ग के देवों को मनोरंजक, पंडित लोगों से पठित, लक्ष्मी का सोमवार,मिल लो काने वाला, मंगलों में मंगल है। तीनों संघ्याओं में पवित्र होकर पाठ करने से पाठक कल्याण परम्परा से युक्त होता है और पार्श्वनाथ भगवान की कृपा से और दानवेन्द्रों से हास्य मुखी देवी पद्मावती हमारी रक्षा करे।
पठितं भणितं गुणितं जय विजय रमानि वधनं परमां
सर्वाधि व्याधि हरं त्रिजगति पद्मावती स्तोत्रं ॥२७॥ यह पद्मावती स्तोत्र १०८ बार ५४ बार पाठ करे ५००-१०००-१०००० मध्यम स्वर व्यंजनों के अर्थ को समझकर शुद्ध पढ़े। सम्यग्दृष्टि पुरुष जो मिय्या दृष्टि से भिन्न हो एक लाख, सवा लाख कलियुग में चतुर्गुण जाप करने कहा है। न्याय से तीन लाख जाप करे। तीनों संध्याओं में दशांश हवन करे। उसका दशांश तर्पण आदि करे तो- स्वदेश में जप, परदेश में विजय अर्थात एक देशव्यापी सर्व देश व्यापी विजयलक्ष्मी निबंधन आदि होता है। सब काम करने याला उत्कृष्ट है सर्वआधि व्याधि हरने वाला शारीरिक पीड़ा हरण होती है।
मधुर त्रिक संमिश्रित गुग्गुलक़त चणकमान वटिकनां
त्रिंश त्सहस्त्र होमात सिद्धयति पद्मावती देवी ॥२८॥ घी, दूध, शक्कर और गुग्गुल की चने के बराबर गोलियाँ का तीस हजार होम करने से पनश्यती देवी सिद्ध होती है।
होमेप्यास्मिन्कमणि साधन विधिनैव लब्ध विधस्य
स्युर्मत्रिणः समस्त प्रेप्सित फल सिद्धयो नियतं ॥२९॥ इस साधन विधि में कुछ कमी रह जाने पर भी यदि मंत्री को मंत्र सिद्ध न हो तो तब भी उसके सब कार्य निश्चय से ही सिद्ध हो जाते हैं।
चतुरस्र मंडलमति रमणीयं पंच वर्ण चूर्णेन प्रविलिरव्य
चतु:कोणे तोय भूतान स्थापयेत कुंभान् ॥३०॥ एक घौकर मंडल को सफेद, लाल ,पीला, हरा और काला इन पांचो प्रकार के रंगों के चूर्ण से बनाकर उसके चारों कोणों में जल से भरे हुवे कलश रखे।
तस्योपरि विपुल तर मंडप मति सुरभि पुष्पमाला कीर्ण
चन्द्रोपद्विज तोरण घंटा वर दर्पणोपेतं ॥३१॥ CICISIOISTRICISISTICK5 २१०PETECISIOTICISCIEOS
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9595295951
विधानुशासन PPPSP59595
उसके ऊपर अत्यंत बड़ा मंडल बनाए जो सुगंधित पुष्प से भरा हुआ हो और चन्द्रमा के समान उज्वल ध्वजा घंटा और सुंदर दर्पणों से युक्त हो ।
पंच परमेष्ट्री मंत्रं प्रत्येकं प्रणव पूर्व होमांतं अष्टदल कमल मध्ये हिम कुंकुम मलयजे विलिखेत
॥ ३२ ॥
यह बीच का मंडल आठ दल कमल के आकार का हो। उसकी कर्णिका में कपूर चंदन और केशर से अर्हदृश्य स्वाहा आदि को लिखे ।
पूर्वाशादिषु दद्यात् जयाति जंभादि का दलेषु ततः तद्दक्षिण दिग्भागे हेममयं पादुकं देव्याः
|| 33 ||
उसके पूर्व आदि आठों दलों में ॐ जयायै स्वाहा आदि मंत्र लिखकर उसकी दक्षिण दिशा में देवी की स्वर्णमयी पादुका बनाये ।
अन्य गय तंदुल कुसुमनिवेद्य प्रदीप धूप फलैः परमेष्टिनां मंत्र भैरव पद्मावती पादौ
॥ ३४ ॥
, धूप,
उस यंत्र की पंच परमेष्ठी के मंत्र से और देवी के धरणों की चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, और फल से पूजा करें।
देवगुरू शास्त्र भक्तं शुद्धधीरं महाज्ञानं कृत वस्त्रालंकारं स्नानं तन्मंडलाभि मुखं
॥ ३५ ॥
संस्थाप्य चतुः कलशैः सहिरण्यैस्तं ततोऽन्य वस्त्रादीन् तस्मै मंत्र निवेदयेदुरु कुलाऽयातं ॥ ३६ ॥
दत्या
फिर एक अन्य शास्त्रों से विमुख जिनेन्द्र देव और जैन गुरू में भक्ति रखने वाले शिष्य को स्नान कराके वस्त्र और अलंकार पहनाकर मंडल के सामने लायें। और पूर्व से ही यंत्र के चारो तरफ कोणों में रखे हुये चारों कलशों से उसको स्नान करावे और उसे अन्य वस्त्र आभूषण आदि पहनाकर गुरू क्रम से चला हुआ मंत्र दे और कहे।
भवेतऽस्माभि र्द्दतो मंत्रोद्यं गुरु परंपरायातः साक्षी कृत्य हुतासन रविराशि तारां वरादि गणान्
॥ ३७ ॥
तुमको मैने यह गुरु परम्परा से चला आया हुआ मंत्र अग्नि सूर्य चंद्र नक्षत्र आकाश की साक्षी पूर्वक दिया है।
95Ps60 PSPSPG २११PPSP5959595
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DISTRI50150151015125 विधानुशासन 955550150150151005
किंतु भवतापि न दातव्यं सम्यग्दृष्टि वर्जिताय पुरुषाय किंतु गुरू देव समो भक्ति मते गुण समेताय ॥३८॥
लाभादथवा स्नेहाद्दास्यसि चन्दन्य समयभक्ताय
बाल स्त्री गो मुनि वद्य पापंय यद्भविष्यतिते ॥३९ ।। । तुम भी इसको सम्यक्त रहित पुरुष को न देना किन्तु देव गुरु और शास्त्र में भक्ति रखने वाले और गुण बाण को ही देना यदि तुम इसको लोभ या प्रेम से अन्य मतावलम्बीयों को दोगे तो तुमको बालक, स्त्री मुनि और गाय की हत्या का पाप लगेगा।
इत्येवं श्रावयित्या तं सन्निधौ गुरू देवयोः मंत्री समर्पयन्मत्रं मंत्र साधन योगतः
॥४४॥ इसप्रकार मंत्री उसको गुरू और देजया के सामने शापय देवर अंगावर के शिया के अनुसार मंत्र दो।
इति
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सुंदरी ॐ परम
ॐ परम
सुंदरी
सुंदरी स्वाहा
।
सुदरी ॐ परम
ॐ
परम
सुंदरी
ॐ परम
ಗಡಿಪಾಯ ??YOಥಳಗಾಟ
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STORIERSIRIDIOSDE विधानुशासन DECISIP505015055
Rabitajneen
मालिनि
'ल
महाया
जंमल
माणिमद्राय
0
॥ गणेश विधान॥
अंत्ययो पांत्ययावथ पूर्वांतः कलयायुतः भक्ति पूर्वोनमोतोयं मंत्रो गणपते स्मतः
॥१॥ अंत के दो बीज और उसके पहले के दो बीज पहिली ही और अंत की कला से युक्त हो तथा आदि में भक्ति () और अंत में नमः होतो यह गणपति का मंत्र कहा जाता है।
ॐ ओं औं अं अः नमः
आदावाऽवाहनं कार्य गंधाचैरऽर्चनं ततः विसर्जनं ततः स्वै स्वै मगणपतये मुदा
॥२॥
ॐ अविघ्न काय एहि एहि भगवते त्रैलोक्य पूजिताय एहि एहि
सर्व कामार्थ साधकाट एहि एहि विन विनाशकाय स्वाहा || आह्वानन मंत्र पहिले आह्वानन करके गंध आदि से अपने अपने मंत्रों से पूजन करें और अंत में प्रसन्नता पूर्वक मंत्र से ही विसर्जन करें।
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9595905955Pg विधानुशासन 51951
गंध
ॐ गंधोल्काय स्वाहा ॐ गंधे कथितोक्लाप स्वाहा धूपं ॐ गुणोक्लाय स्वाहा दीपं
ॐ मोपोक्लाय स्वाहा नैवेद्यं
ॐ कचोक्लाय स्वाहा विसर्जनं
वृहदुदरमरुण वर्ण गज वदनं गज मुखं महायक्षं युक्तं भुजैश्चतुर्भिः पाशांकुश दंत भक्ष धेरै
बड़े पेट वाले, रक्तवर्ण वाले हाथी की सूंड सहित हाथी के से मुखवाले, पाश अंकुश धारण करने वाले चार भुजाओं से युक्त महायक्षं का
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दंत श्वेतार्क शिफा कुचंदन द्विपविभाग्न निवांनां अन्यतमेन कृतं गजवदनं स्पष्टा शशि गृहणे
आत्मकैन ध्यायन षडलक्षं जपतु तस्य मंत्रमऽमुं होमंचास्य दशांशं करोतु सिद्ध ततो मंत्र साध्यस्यो परिपाशांकुशापनीतस्य संस्थितं ध्यायन् नात्मानं मंत्र ममुं जपेत्स सद्योभवं द्वश्यः ध्यान करता हुआ उसके मूल मंत्र का छ लाख जप करे और दसवाँ अंश होम करे तो मंत्र सिद्ध होता है | साध्य के ऊपर पाश अंकुश से युक्त मूर्ति का ध्यान करता हुआ यदि मंत्र जपे तो वह तुरंत ही यश में हो जाता है।
॥५॥
113 11
दंत और भोजन
तज्जप्तमऽमर्क तूलाऽलक्तक वर्ति धृताक्ताया कज्जलम क्ष्णौ वश्यं सरसी रूह सूर वर्तव 959595959PSPSS २१४PSPS
॥ ४ ॥
॥ ६॥
मंत्री कृतोपवाशोपजपेऽयुतं तदनु शिरसि गजवदनः सघृतः कुरुते विजयं वाद व्यवहार स्मरादौ दंत सफेद आक की जटा, क्रुचंदन (लाल चंदन) हाथी से तोड़े हुये नीम उनमें चन्द्रग्रहण में गणेशजी का अनुष्ठान करे।
मंत्री उपवास करके इस मंत्र को घी सहित जपे तो गणेशजी शास्त्रार्थ व्यवहार और युद्ध में विजय करते हैं।
| 19 ||
से किसी से भी
॥ ८ ॥
うたちゃらです
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959695952
विधानुशासन
95959595961
उस मंत्र का जप कर
की रूई और अल(कार) की अथवा आक की रुई और कमल के धागे की बत्ती को घी में भिगोकर काजल पाड़कर आँखों में लगाने से वश्य काजल बनता
है ।
यो भवेदमात्यो होमाज्जतैरनेक कृष्ण तिलैः तंदुल लवणैश्यो मातुल कुसुमै स्तथा कन्या
॥ ९ ॥
मंत्र को जप कर अनेक काले तिलों का होम करने से राजमंत्री वश में होता है। चायल नमक और फूल के हवन से कन्या वश में होती है।
धतुरे के
दधि मधुकृत सिक्ताभि होमिदिभिमंत्रिताभिरतेन धामार्गव समिद्धि वश्यं स्यान्निरियल मपि भुवनं
॥ १० ॥ दही, मधु, और घी में भिगोकर धामरी (धिरचिट्ठा) की समिधाओं से मंत्र पूर्वक होम करने से समस्त लोक यश में ही होता है।
(धा मार्ग वोघोषकः स्यादित्यभर धीयातरोई )
गोरोचनयाष्टोत्तर शत मेकेनाऽभिमंत्र्य कल्कितया न्यस्तस्तिलकस्तिलक स्त्रितभुवन संघनन तिलकानां ॥ ११ ॥
गोरोचनं के कल्क पर एक सौ आठ बार मंत्र पढ़कर उसका तिलक मस्तक पर करने से तीन लोक वश में हो जाते हैं। यह तिलकों में अच्छा तिलक है।
स्थित्वा मध्ये सलिलं जपेदमुं सप्तरात्रं मथ मंत्र यस्मिन देशे तस्मिन् काले वृष्टिर्भवे न्महती
॥ १२ ॥
जिस देश में बारिश नहीं होती हो वहाँ जल के अंदर खड़ा होकर सात रात्रि तक मंत्र जपने से बड़ी
भारी दृष्टि होती है।
ॐ अजादिर्वन्हि जायांतो मेघोल्कायेत्य सावपि मंत्रो लक्ष जपातसिद्ध स्तस्यै वश्या तथा फल
॥ १३ ॥
आदि में अज (उ) अंत में वह्नि जाया (स्वाहा) लगाकर में धोल्काय पद सहित मंत्र एक लाख जपने से सिद्ध होता है इसका फल वर्षा करना होता है।
ॐ मेधोक्लाय स्वाहा
PSPSPSPSSPPS २१५ PSPS9St
5
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5215105015121505 विद्यानुशासन 051015105PISODS
आदितः प्रणवो हस्ती पिशाचीति ततः परं तस्या परेलिरवेत् शब्दः स्यादंते द्वितां ठयो
॥१४॥ आदि में प्रणव (3) और फिर हस्त पिशाची पद लगाकर अंत में ले शब्द सहित ठयोः (ठं) पद को दो तार लगाते!
ॐ हस्ति पिशाची लं ठंठं
अयं मुचिष्ट गजानन मंत्रः पूर्वेण भवति मंत्रेण तुल्योऽस्मिं स्तुजपादीनकुर्याद्ऽशुचि भवेन्मंत्री
॥१५॥
होमो वशयेद हृद्रत स मंत्र स्याऽद्भर्यभिरवान यंत्रायाः
कुटिषा ताया: मोम सित्येकप्रति प्रतिमा कृत्या उपरितेन रवदिराग्नौ ॥१६॥ यह उधिष्ट गजानन मंत्र है इस मंत्र में पूवोक्त गणेश मंत्र के समान ही जप आदि को पवित्र होकर करे साध्य के आकार की प्रतिमा बनाकर उसके हृदय में आधे नाम को मंत्र सहित लिखकर डाल दें। फिर मूर्ति को खेर की अग्नि में डालकर हवन करने से यशीकरण होता है। (सित्येक क्यमोम प्रतिमाया)
साध्याऽरट्यान विदर्भित एष धतोभूदलै समालिस्वतः अथवा तथैव जपो वश्यं विदधाति तं साध्य ॥१७॥
अथवा इस मंत्र के साथ साध्य के नाम को विदर्भित ( दो दो मंत्र) के अक्षरों और एक एक नाम के अक्षरों को (गूंथकर करके) लिखकर पृथ्वी पर रखे और वे से ही विदर्भित मंत्र का जाप करने से तथा होम करने से साध्य वश में हो जाता है।
उकार स्फार रूप इत्यस्य नित्यपाठं प्रकर्तव्य इस स्तोत्र का नित्य ही जाप करना चाहिये।
ॐ त्रिजट वामन दुलंबोदर कटु कटु कथय कथय हुं फट ठः ठः हां ही हूं ह्रौं हः
अंगानि मंत्र जपे त्रिलक्षं वामनऽमत्यर्थ विविध भक्ष्याधैः
सुप्तस्यं तं जपित्वा कर्णेशं सेत्स इष्टार्थ ॥ १८॥ इस वामन मंत्र का अनेक प्रकार के भोजन आदि से युक्त होकर तीन लाख जपे तो जप करके सोने से इसके कान में इच्छित अभिप्राय को कहता है। STERISPISODRISICISIOTS २१६PISTRIE5I052501585
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252525252525 dagenda 25PSY5YS2595
ॐ नमो उमापतये सर्वसिद्धि देहाय देवानु चराटा महायक्ष सेनाधिपतेय इदं मे कार्य कथय कथय कथापय कथापय तद्यथा कथापय कथापय तिष्ठ तिष्ठ
लक्ष जय सिद्ध मेतं राद्रं मंत्र प्राप्ण पुस्कृत धूपदेश स्वन्योनि स्मृत मर्य तत्र कोपि कथेयद्देवः
इस रौद्र मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करने पर देवता धूप इत्यादि से शुद्ध इच्छित अर्थ को कहता है ।
|| 30 |||
किये
प्रणवोथ वद द्वं द्वं माश्रु शुक्षणि वल्लभा अग्नि वल्लभा स्वाहेति अयं कर्ण पिशाचस्य मंत्री मंत्र विदांमतः
ॐ वद वद स्वाहा
हुए स्थान
लक्ष प्रजप सिद्धं गुड मिश्रित पायसेन
तरुमुले व्युदय एक मासं वैश्रवण स्वार्चितस्य पुरतो मंत्रः ॥ २२ ॥
प्रणव (3) दो बार वद आशु शुक्षिणी वल्लभा (स्वाहा ) सहित मंत्र को मंत्र शास्त्रियों ने कर्ण पिशाची मंत्र कहा है।
इस मंत्र को सूर्य उदय के समय वृक्ष के नीचे कुबेर के सामने गुड़ मिली हुई खीर से एक मास तक एक लाख जप करके सिद्ध करें।
अष्टोत्तर सहस्रं प्रजपे घृते न होमं कुर्वित पक्ष मेकं ततोऽवसाने निशा मध्ये
|| 33 ||
और मालकांगनी के घृत से एक पक्ष तक रात्रि के समय होम करता हुआ एक सो आठ बार जपे ।
जुहुयाद अंकोल वृत्तै सहस्रमथकोपि कर्ण मूले यक्षः सिद्धस्यै जपात भूत भवद्भावि वस्तु सं सिद्धत्य विलं
॥ २४ ॥
इसके पश्चात अंकोल (ठे रे ) की टहनी के अग्र भाग से एक हजार हवन करने पर यक्ष सिद्ध होकर साधक के कान में भूत भविष्यत और वर्तमान की सब बाते कहती हैं ।
PSP595959SPAPA २१७PS9596959595
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95951959595 विधानुशासन 959695959न ॥ जभल विधान ॥
माणिभद्र महासेन यक्षाधिपतये ततः जंभलाय ज्वल द्वंद्व मिंद्रानल कामिनी मागि भद्रारा पूर्ण भ्रतारा चेलि मालिने विविध कुंडलिने विकुदलिने नरिंद्राय चरेन्द्राय नमः ॐ माणिभद्र महासेन यक्षाधिपतये जंभलाक्ष ज्वल ज्वर इंद्राय उनल कामिनी मणिभद्राय पूर्ण भद्राय चेलि मालिने विविध कुंडालिने विकुदलिने नरेन्द्राय चरेद्राय नमः
॥ १ ॥
अंगानि कथितो मूल मंत्रोटयंषडभिरंगैः समन्वितः विज्ञातव्यो विपश्चिद्भिरस्मिन जंभल देवता
॥ २ ॥
अंगों का वर्णन पहले ही किया जा चुका है उस मूल मंत्र को छहों अंगों से युक्त पंडितों को जानना चाहिये इसमें जंभल देवता मुख्य है।
न्यस्य कनिष्टावं गुष्ठांतं वर्णान प्रभां मंत्रस्य न्यस्येत्तज्र्जन्यं ते जेष्टाद्यं गानि लोचनां चलवो
फिर इस मंत्र के
न्यास करे ।
मूल
113 11
पदों को क्रम से सिर मुख हृदय गुह्य दोनों पैर और दोनों नेत्रों में क्रम से
विन्यस्य शिरसे वक्रं हृदि गुह्यं पादयोश्च मंत्रस्य मूल मंत्रस्य पदांन्यागान्य थ नेत्रांतं क्रमात्न्यसेत्
॥ ४ ॥
फिर इस मंत्र के मूल पदों को क्रम से सिर मुख हृदय गुह्य दोनों पैर और दोनों नेत्रों में क्रम से व्यास करे।
विन्यस्य त्रिमुख वरणे सितं पकंज रुदे न पिंगल वर्णन शुभपट्टाहार कुंडल केयूराभरण रामेण
॥ ५॥
फिर तीन मुख वाले श्वेत वर्ण युक्त श्वेत वर्ण युक्त कमल पर चढ़े हुये पीले वर्ण वाले अच्छे अच्छे हार कुंडल और बाजूबन्द के आभूषणों से सुंदर
OSPSSPPSP594 २१८P/512/51
シング
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Pae6959 विद्यानुशासन P559
प्रिय रक्त भूषणेन स्वध्याये जंभलेन देवेन सं प्राप्सैकी भावं तदीय मंत्र प्रयोग वियों
हथनाया
॥ ६ ॥
प्रिय तथा लाल वस्त्रों से युक्त जंभल देव का ध्यान करके मंत्र रूपी समुद्र में अनन्य रूप से निमग्न हो जावे ।
अयुतानां त्रयमेत जंभल मंत्र जपेत्प्रसन्नमनाः जुहुयाच्चात्र तदर्द्ध विल्वस्य दलैः समिद्भिर्वा
॥ ७ ॥
इस जंभल मंत्र को प्रसन्न मन से तीस हजार जपे और उसका आधा १५ हजार बेल के पत्तों की समिधाओं से होम करें।
अमुना सादन विधिना सिद्धे स्मिन् जंभलस्य मंत्रेस्मिन तन्मूर्द्धनितेना झिः सी काभि स्तर्पणं दधात्
112 11
इस जंभल मंत्र का इस विधि से सिद्ध हो जाने पर फिर उसके मस्तक पर जल से तर्पण करें।
इत्यं समंत्रममुना सप्र्पण विधिना कृतेन परितुष्टः विश्राणयेत्स देवो महद्धनं मंत्रिणं तस्मै
11811
इसप्रकार मंत्र सहित तर्पण विधि के हो चुकने पर वह देव संतुष्ट होकर उस मंत्री को बड़ा भारी धन देता है।
दूसरी विधि
षट्कोण मंडले तंदेवं संस्थाप्य माणिभद्राद्यैः । परिवृतमभ्यच्यांऽयुतममुंजपेन्मंत्रम स्याग्रे
॥ १० ॥
फिर उस देव को छह कोण वाले मंडल के अन्दर स्थापित करे मणिभद्र इत्यादि मंत्र से वेष्टित करके पूजन कर उसके आगे इस मंत्र का दसहजार बार जपे ।
बिल्वस्य समिद्भिर्वा पत्रैर्वा तत्र होम मपि कुर्यात् पर्ण पंचकं प्रतिदिनं दद्याद्दैव स्तत स्तस्मै
॥ ११ ॥
फिर बेल की समिधा से या पत्तों से होम करें और देव पर प्रतिदिन पांच पत्ते चढ़ाता रहे तथा “ ॐ जंभले जंभलेद्राय जंभलाय" इस मंत्र का जप करता रहे यह मंत्र साधारण साधन आदि में पहले के ही समान है।
ॐ जंभले जंभलेंद्राय जंभलाय पठेत्यऽसौ मंत्र स्तदीय पूर्वेण सद्दश: साधनादिषु
95969596969 २१९P/59595959595
र
॥ १२ ॥
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SXSIOISTRICICISIOISTRIS विधानुशासन ASDISCUSS503510058
भक्ति याचस्पतिः पश्चादऽमते तदनंतर स बृहस्पति मंत्रायं पर मेध्य करीमतः ।
॥१॥ ॐ वाचस्पति अमृते नमः ॐ वास्चपत्यमृते नमः । भक्ति (ॐ) और वाचस्पति के पश्चात अमृत लगाने से यह विद्या मंत्र बन जाता है इसके जाप से बुद्धि अत्यंत बढ़ती है।
अक्षार लवण भोजी वत्सर मेकं जपन्नममंत्रं एतज्जप्तं च विशेत्सलिलं लभते महामेयां
||२|| इस मंत्र का बिना नमक के भोजन करता हुआ एक वर्ष तक जपे। इस मंत्र को जपकर जल में प्रवेश करने से बड़ी भारी बुद्धि की प्राप्ति होती है।
ब्राही स्व रसं चुलुकं कपिला पत संयुतं प्रगेञ्ोष्टं
अभिमंत्र्यानेन पिबेत कथितं त्रि रिये त्सततं ॥३॥ ब्राह्मी के चुल्लूभर स्वरस को काली गाय के घी में मिलाकर प्रातःकाल के समय में २४ बार इस मंत्र से मंत्रित करके पीएं तो तीन बार कहने से ही निरंतर याद हो जाया करे।
॥४
॥
एतज्जप्तान वादन मेधावी पल्लवान भवेद्।
ब्राहभ्याः सौवीरतं जप्तं तत्र रुज प्रशमटौदत्र उस मंत्र को ब्राही के पत्रों पर जपकर खाता हुआ युद्धिमान हो जाता है
अंतः प्रपूर्ण कुंभो मंत्रेणनेन मंत्रितो गमीतः
देशं निधान सहितं प्रकंप मानः स्तवेत्सलिलं सोयीर बेर के ऊपर उसको जपकर भी थाने से रोग शांत हो जाता है। कमल गट्टा की माला से जपे तो रोग व्याधि तुरंत दूर होय इससे मंत्रित जल के घड़े के स्नान करे तो निधि लाभ होता है। एक वर्ष में जल वर्षा होता है। ॐनमो भगवते रूद्राय उमाचेटकमाविर्भविष्यायचेटकनिहतोश्चिष्टभक्षणविषय लाला प्रिट किलिकिलित मातंग मैशान वासिनि हरहसित उमा लब्ध वर प्रसाद स्वांग कर सिरोज्वलित नेत्र सर्प कत कुंडलाभरणभूषित विकटोत्कटं दंष्ट्रा करालयदनलललभूतविद्रावणयक्ष राक्षस कत भूत पिशाच डाकिनीनां भयंकर वज हस्त ऐरावत पराक्रम पाशांकुश गदा मुद्गार प्रहरण भो भो चेटक गगनांनंत चारणाय दिगगताग्रहा पश्चिमायां उत्तर पूर्वा दक्षिणाग्नेया नैऋत्य वायव्यां एशान्यां उर्द्ध मध्य स्ताद रिमन भारत वर्षे यदि तिष्टति शून्य गृहे चतुष्पथे गोष्टे जीर्ण
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OSIRISOTSIDISTRISI015 विधानुशासन 7510050150151050HSS
कूपेष्यायतने नगरे पुरे ग्रामें आराम विहारे नदी कूले प्रेतोल्पदातेष तत्रा स्थानामंगानि भंजय भंजय कड कड वजेण शक्तिना गन्ह गृह दंडेन ताडय ताडय रखनेन छेदय छेदय पाशेन बंधय बंधय गदया चूर्णय चूर्णेय मंडल मध्ये प्रवेशय प्रवेशय यदिगंतोच क्षुधंईक्षुरसे प्रविष्टोवापुरांकाश मुंडक मुंडिके (मुंडकमल कर्णिकं) मूत्रपुरीषो (मूत्र - हरिद्रा जलंच पुरिषं गोमा भवेत) वा गृह गृह्न रूधि मांस भोजनेन भोजनं कुरू कुरू (लाक्षा रसोपि रूधिरः क्षया रसो गुड विमिश्रतो मांसः इतिजैनाम्राय) हुडहुड विदारय विदारय नत्य नृत्य कह कह वेतालं दुष्टम दुष्टं वागृहीत म गृहीतं वा ज्वररित मज्वरितं वा आनय आनय पूरा पूरटमारय मारय आरडतं आरडतं मूलंतंमुरुलंत त्रिविधिकारहंतवामपादमुमानहं गृहत्या भूत्वा लूता गर्दभ करि सप्प उटै वधय वधय पातालं बंधय बंधय दिशां बंधय बंधा अक्षि बंध बंध कुक्षि कुक्षि बंधबंध रूपं पच पच चालय चालय कक काडय काडय हहहहहह य व व व व व वाहिरवाहि आत्म मंत्रं रक्ष रक्ष परमं ऐदा छेदय ॐ रोगन ट्टी चेटक व व व वंस वंस वंस वंस वंस वंस शंहः शंहः कुरू कुरू फट् रूद्राज्ञातयति स्वाहा अमुना उच्छिष्ट मंत्रेण प्रजप्तेन स चेटक सिद्धिं दं वांछितौ स्वैरं मंत्री कर्म नियोजयेत् उच्चिष्ट मंत्र कैणा मुना प्रजतन चेटक सिद्धयत् वा पुस्त: मापुवोटाजयोत्साधक: स्वैरं तस्य प्रयोगकाले पंच नमस्कार मंत्र कृत रक्ष: दिग्बंधनं विदध्यात् ॥ मंत्रै ऐवान कुष्मांडा
इति चेटकमंत्र इस उच्छिष्ट मंत्र का जप करने से वह चेटक सिद्ध होकर इच्छित वस्तु को देता है और मंत्री की इच्छानुसार काम करता है। इस उशिष्ट मंत्र का जाप करने से वह चेटक सिद्ध हो जाता है तब साधक उसको अपने इच्छा किये हुवे कार्यों में लगा सकता है। इस मंत्र के प्रयोग के समय पंच नमस्कार मंत्र से रक्षा करके आस कुष्मांडी के ही मंत्र से दिशा बंधन करना चाहिये।
मत विधवा ब्राह्मण्याः पाद तलालक्तकेन सं लिरिवतं तद्वक्त पिहित वस्त्रे विधवा रूपं निराभरणं प्रणवं विच्चे मोहे स्वाहांत
सप्त लक्ष जाप्पेन एकाकिनी निशायां सिद्धयति सा यक्षिणी रंडा रंडा CSCI51250505115055 २२१P3ST58512151050512151
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SAEROSCADDISODO विधानुशासन 2057075100505RISTOIES मृतक या विधया अह्मणी के पैर के अलक्तक से उसके मुख के ढ़कने के वस्त्र पर बिना आभरण वाली विधवा का रूप बनायें।
ॐ विच्चे मोहे स्वाहा ___ यत्साधका भिलषितं ततस्मै वस्तु सा ददात्येव
क्षोभं पयांति रंहाः सर्वा अपि भुवन वतिन्य : इस मंत्र को रात्रि में अकेले सात लाख जप करने से यह रंडा यक्षिणी सिद्ध होती है यह साधक की इच्छा की हुई सभी यस्तु देती है और उससे लोक में रहने वाली सभी विधावा क्षोभ को प्राप्त होती है।
दर्पण निमित्त की विधि सिद्धयति सहस्र जाप्टौ ईश गुणितैः प्रणव पूर्व होमांतैः
दर्पण निमित मंत्र श्चले तुले प्रभृतिनो धार्ग: मंत्रोद्धारः
ॐघले घुलेचंडे कुमारिकयोरगं प्रविश्य यथा भूतं टाथा भव्यं यथा भवति सत्यं दर्शय दर्शय भगवति मा विलंबरा विलंबय ममाशां पूरय पूरठ स्याहा यह मंत्र दस हजार जाप से सिद्ध होता है।
यत्सप्त बार मंत्रितः दुग्धं तत्पाययेत् कुमारिकयो:
ब्राह्मण कुल प्रसूत्यो स्तयोटो स्सप्रवत्सरयो इस मंत्र से गो दुग्ध को सात बार अभिमंत्रित करके उस ब्राह्मण कुलोत्पन्न सात सात वर्ष से चौदह वर्ष की दो कन्याओं को पिलाएँ।
संस्नाप्य ततः प्रातर्दत्वा ताभ्यामथ प्रसूनादीन
भूम्यामऽपतित गौमटा सन्मार्जित भूतलो स्थित्या तब प्रातःकाल स्नान कराके पृथ्वी पर न गिरे हुवे गोबर से पुते हुये स्थान में खड़ा होकर उन दोनों कुमारियों को पुष्प आदि देकर.पुष्पादि से शुद्ध की हुयी पृथ्वी पर बैठे।
चतुरस्त्र मंडल स्थं कलशं गंधोदकेन परिपूर्ण तस्योपरि आदर्श निवेश्येत पश्चिमाऽभि मुरवं
CLICATICISCISIONSIDE २२२२505CISIONSIDESISAAICTET
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PSPSPSPS विधानुशासन 9595959590595
तदाभि मुखं प्राकथित कुमारिका युगलमथ निवेश्यत ततः ।
संपुटितं
तद् हृदये ब्लूंकारं विचिंत्येत्प्रणव
चौकोर मंडल में रखे हुए सुगंधित द्रव्य और जल से भरे हुए कलश के ऊपर एक दर्पण पश्चिम की ओर मुख करके दोनों कुमारियों के मध्य में रख दें। उस दर्पण के सामने पहिले कही हुई दोनों कन्याओं को स्थापित करके उनके हृदय में ॐ ब्लूं ॐ इस मंत्र का ध्यान करें।
शशि मंडल वत्सौम्यं तन्मंत्रमनुस्मरत् स्वयं तिष्ठेत् आदर्श मीक्ष माणं कुमारिका युगलकं पृच्छेत्
चंद्र मंडल के समान सौम्यरूप वाले वक्ष्य माण मंत्र का ध्यान करता हुआ दर्पण में देखती हुई दोनों कुमारियों से पूछे ।
यद्दष्टं यत् श्रुतं ताभ्यां तत्र तस्य रूपं यचो यथा यत्तत्र द्दष्टं आदर्श मंडल स्वांतस्त त्सल्यंताय्यथा
भवेत् ॥
अंगुष्टे सलिले खङ्गे दीपे च विधिनाऽमुना द्दष्टं रूपं श्रुतं चापि न मिथ्या जातु चिद्भवेत्
वह दोनों उस दर्पण में देखे हुए जिस रूप को या सुने हुए जिस वचन को कहेगी वह अन्यथा नहीं हो सकता । इस विधि से अंगूठे जल तलवार और दीपक में भी देख या सुना हुआ रूप कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता।
दूसरी विधि
ॐ णमो मेरू महामेरू ॐ णमो धरणि महा धराणि ॐ णमो गौरी महा गौरी ॐ णमो कालि महाकालि ॐ णमो इंदे महाइंदे ॐ णमो जये महाजये ॐ णमो विजये महा विजये ॐ णमो पण समणि महापण समाणि पद्म धरेदेवि अवतर अवतर मम चितिंत कार्य सत्यं ब्रूहि सत्यं ब्रूहि स्वाहा ॥
आदर्श दौ पश्ये निमित्तमेतेन पूर्ववन्मंत्री अष्टम सहस्त्रप्रजपन विधान सिद्धेत मंत्रेण
॥ १ ॥
यह मंत्र आठ हजार जाप से पहिले के समान आदर्श (दर्पण) आदि में निमित्त देखने के लिए सिद्ध होता है।
PSPSPGPSPSPSPA २२३ PAPPA
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PSPSP595950 विधानुशासन 9595959556
दत्त्वा दर्भास्तराणं दुग्धाहारं पुरा कुमारिकयोः स्नायाध ततः प्रातर्ध्वलांबर भूषणादीनि
।। २ ॥
रात्रि के पहले पहर में उन दोनों कुमारियों को दर्भ की शय्या और दुग्ध का आहार देकर प्रातः काल उनको स्नान कराकर सफेद वस्त्र आभूषण आदि दें।
कलशादर्श कुमारी स्थानेष्वथ विन्यसेत्
अमू मंत्र विनयं गज वश करणं क्षां क्षीं क्षूंकार होमांतं ॥ ३॥
प्रणवादि पंच शून्यैरभि मंत्र्य कुमारिका कुचस्थानं असितं तयोश्च दधात्त घृतेन सं मिश्रितान पूपान्
॥ ४ ॥
फिर ॐ क्रों क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्षः स्वाहा इस मंत्र से कलश दर्पण को कुमारियों के स्थानों में रखे उन कुमारियों के कुछ स्थान में ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः इस मंत्र से अभिमंत्रित करके उन्हें भोजन के लिये घी के पूर्व दें।
आलक्तकाभि रंजित हस्तांगुष्टे निरीक्षयेत् रूपं कर निर्धार्तित तैलेना गुंष्टं स्नान कारणेन
हाथ से तिलका तेल लगाये हुवे अर्थात् तेल से स्नान कराये हुए अलक्तक से रंगे अपने अंगूठे में अपने अपने रूप को दिखायें।
हुए
प्रणवं पिंगल युगलं पणत्ति द्वितयकं महाविधेयं । टांत द्वयं च होमं दर्पण मंत्रो जिनोद्दिष्ट : ॐ पिंगल पिंगल पणात्ति पणात्ति महाविधे ठः ठः स्वाहा जिन भगवान ने इस मंत्र को दर्पण मंत्र कहा है।
जापं भानु सहस्रैः सति कुसुमैरिंदु किरण संकाशैः सिद्धयति दशांस होमोनादर्श निमित्त मंत्रोयं
॥५॥
चित्त भस्मानेक विशंति बारानभिमंत्र्य दर्पणं पूर्व । शाल्य क्षतोपरिस्थितः नवाम्बु परिपूर्ण नव कुंभे
やすだらだらたちでこち
मंत्री अपने
॥ ७॥
यह मंत्र १२ हजार बार चंद्रमा की किरण के समान श्वेत पुष्पों से जप करने तथा दशांश होम
से आदर्श ( दर्पण) निमित्तज्ञान के लिये सिद्ध होता है।
॥ ६॥
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9595269515 विद्यामुशासन 9595952950525
॥ ९ ॥
तं प्रतिनिधाय तस्मिन्नेक कुलोद्भूत कन्य कायुगलं त्रिषुवर्णे ष्यन्यतम स्नातं धवलां बरोपेतं पूर्वोक्त थाली अक्षत के ऊपर स्थित जल के कलश पर रखे हुये दर्पण को श्मसान की भस्म से इक्कीस बार अभिमंत्रित करके उसे उस कलश के ऊपर रखे, और ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य तीनों वर्ण में से किसी एक वर्ण की दो कन्याओं को स्नान कराकर तथा श्वेत वस्त्र पहनाकर
अभ्या गंध तंदुल कुसुम निवेद्यादिभिः स्ततः कलशं दत्वा तांबूलादीन्नदशं दर्शये ताभ्यां
॥ १० ॥
मंत्री मंत्र पपटं स्तिष्टेत पृच्छेत कुमारिका युगलं द्दष्टं श्रुतं च कथयेत् रूपं वचनं च मुकुरुंदे ॥ ११ ॥
कलश को चंदन, अक्षत, नैवेद्य तथा पुष्प आदि से पूज कर उन कन्याओं को तांबूल, पुष्प, अदात आदि देकर दर्पण दिखायें। उससमय मंत्री मंत्र को पढ़ता हुआ उन दोनों कुमारियों से प्रश्न करे वह उस दर्पण में देखे हुए रूप और सुने हुए वचन को ठीक ठीक कहेगी ।
॥ दीपक निमित्त ॥
ब्रह्म प्रथमतः पश्चात्सुंदरी ध्वनिरन्वितः परमादि वातंः स्यात्प्रिथा कृष्ण वत्र्त्मनः
॥ १ ॥
पहले ब्रह्म (3) सुंदरी शब्द से जुड़ा हुआ फिर परम के साथ भी वही पद (सुंदरी) अंत में लगा हुआ हो तो काले मार्ग को पसंत करने वाली का मंत्र बनता है।
अष्ट सहस्त्र जति पुष्पै श्री वीरनाथ जिनपुरतः जप्तै: सुंदरी देवी सिद्धयति मंत्रेण सद्भक्त्या ॐ सुंदरी परम सुंदरी स्वाहा
॥ २ ॥
श्री महावीर भगवान के सामने आठ हजार मालती के फूलों से भक्तिपूर्वक जप करने से सुंदरी
नाम की देवी सिद्ध होती है।
ब्रह्मादि सुंदरी शब्द होमांत कर्णिकांतरे
अष्ट पत्रेषु सर्वेषु लिखेत् परमसुंदरी
やずですやすや PPSC २२५959596959595951
॥१३॥
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C52525252525 kaugeles Y52525252525
एक अष्टदल कमल की कर्णिका में ॐ सुंदरी स्वाहा लिखकर आठोदलों में ॐ परम सुंदरी स्वाहा लिखे ।
कृष्ण तिल तेल पूर्ण कुंभेः कृतो कुलाल करज मृतिका पात्र आलक्तक वार्तितकृते दीपेन्यग्रोध वह्निभवे ॥ ४ ॥
प्राग विहित्तैत विधिना सायक्षी सन्निधि समासाध्य भूतं भवच्च भावि च निवेदयदपि तथं प्रष्टार्थ
॥ ५ ॥
कुम्हार के हाथ की मिट्टी के बनाये हुये दीपक में काले तिल का तेल भरकर, आलक्तक से लपेटे हुई बत्ती डालकर, वट वृक्ष की लकड़ी की आग से दीपक को जलाये- शेषक्रिया पूर्ववत् है। पूर्वोक्त विधि से ही वह यक्षिणी पास आकर सभी भूत भविष्यत वर्तमान कार्यों को बतलाती है ।
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श्रवण पिशाचिनी चामुंडे स्वांहातः प्रणव पूर्व उचार्य: । सिद्धयति च लक्ष जापा कर्ण पिशाचिन्यं मंत्र:
मंत्र परिजप्त कुष्टं हन्मुख कर्णाह्न युगल मालिप्य सुप्तस्य कर्ण मूले कथयतिया चितितं कार्य
॥ १ ॥
विनयः प्रथमं पश्चात शुलभ सुप्रभे ततः होम कर्ण पिशाचीति मंत्रोयं मंत्रिभिः स्मृतः ॐ शुलभ सुप्रभे स्वाहा
॥ २ ॥
ॐ ह्रीं श्रवण पिशाचिनी चामुण्डै स्वाहा ॥
यह कर्ण पिशाचिनी मंत्र एक लाख जाप से सिद्ध होता है। कुठ को २१ बार इस मंत्र से अभिमंत्रित करके अपने हृदय मुख दोनों कान और दोनों पैरों को इससे पोते तो कर्ण पिशाचिनी सोते हुए में सोचे हुए कार्य को कान में कहती है।
1130
पहले विनय (ॐ) लगाकर फिर सुलभ शुप्रभे लगाने से और अंत में होम (स्वाहा ) लगाने से कर्ण पिशाचिनी का मंत्र का कहा जाता है।
दरी कदंब पुष्पैः स्तिल पिष्ट युतेने माष चरूणां च मूलस्थं धनपति मभ्य यष्टाक्षरी मिमां विद्यां
9595959595 PAPA २२६ PSP5959595955
॥ ४॥
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959595959595 विधानुशासन 969593915195
में
बदरी (बेट) कदंब ( कदम) के पुष्पों से भुने हुये तिलों के चूर्ण उड़द और नैवेद्य से बड़ की जड़ कुबेर का पूजन करके इस आठ अक्षरी मंत्र का ।
लक्ष त्रितयं प्रजपे जुहुयां चां कॉलजेन तैलेन द्वि सहस्रं सन्निहिताक्षी पृष्टं वदेत्कर्ण
कर्माणि या नियानि प्रेप्सित मंत्री नियोजये देनां तां तेषु तेषु देवीं सा सधस्तानि तानि साधयति ॥५॥ ॐ णमो कर्ण पिशाचिनी वद वद कनक पिशाची वज्र वैडर्य मुक्ता भरण निर्मलालंकृतं शरीरे ऐहि ऐहि आगच्छ आगच्छ त्रैलोक्य दर्शिनी मम कर्णे प्रविश्यातीतां नागत वर्तमानं कथय कथय रूद्राज्ञापयति ठः ठः ॥ तीन लाख जप कर और अंकोल (ढ़ेरा) के तेल से दो हजार होम करे। उस समय यक्षिणी पास आकर कान में कहती है, मंत्री उस समय जिस जिस कार्य की इच्छा से यक्षिणी को कार्य में लगाता है वह देवी तुरन्त ही उन कार्यों को सिद्ध करती है।
मंत्र रूद्रस्य पुरतो जपेत् त्रिलक्षं चतेन जुहुया च मंत्राधि देवतार्थं पृष्टं कर्णे वदेत्सत्यं
॥ ४ ॥
॥ ६ ॥
ॐ शुभे भगवति कर्ण पिशाचिनो सत्यं कथय कथय ठः ठः
पहले इस रूद्र कर्ण पिशाचिनी मंत्र के तीन लाख जप कर होम करें । सिद्ध होने पर इस मंत्र की देवी पूछने पर कान में सत्य सत्य कहती है ।
इति कर्ण पिशाचनि मंत्राणां साधनं
कुष्ट निशो द्वर्तित कर चरणं सुधावऽमुं जपन्मंत्र निश्यांते यामेऽस्या शुभा शुभे प्रेक्षते मंत्री
|| 19 ||
कूठ हल्दी से अपने हाथों-पैरों को पोतकर इस मंत्र को जपता हुआ सो जाए रात्रि के अंत के पहर में मंत्री शुभ और
अशुभ
को देखता है।
25252525252525 P/50/50525252525
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252525
विधानुशासम 95959595 ॥ गौरी विधानं ॥
अनल स्त्रि व पुज्वालाप्त सेना साधितः पुरः साक्षी च भवेद्देवी मंत्रस्या स्याधि देवता
॥ १ ॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अस्त्राय नमः
अग्नि के समान स्त्री शरीर की धारक तथा सब और अग्नि का प्रयक्षी देवी इस मंत्र की अधि देवता होती है पहले अंग न्यास पूर्वोक्त क्रम से करे उनमें से अस्त्र का चिन्ह बनाने का यह उपरोक्त मंत्र हैं।
अभ्यक्ताऽह्निपतैलेन मंत्र लक्षं यक्ष्याः संजपेत्सन्निधाने
रात्री स्ति स्त्री विशांतिश्च प्रसिद्ध नित्यं षट्कं सा प्रयच्छेन्मणिनां ॥ २ ॥ एष मंत्रोयं गौरयाः ॐ प्रांजलि अजिते महाऽदिते स्वाहेति पंच
शत संयुक्ताऽयुत द्वय जपात्सिद्धयेत् ॥ १॥
अपने पैरों को दीपक के तेल से पोतकर आधी रात्रि के बाद तेईस रात्रि तक यक्षिणी के मंत्र का एक लाख जपे क्षेत्रपाल की मूर्ति के सामने यह यक्षिणी सिद्ध होने पर प्रसत्र होकर प्रतिदिन छह मणियाँ देती है गौरी देवी का मंत्र है 1
ॐ प्रांजिलि अजिते महाजिते स्वाहा ।
यह मंत्र बीज हजार पांच सौ जपने से सिद्ध होता है।
अमुना त्र्यधिक त्रिंशत संजप्ता रक्त सूत्र कृत रज्जुः वद्धा ज्वरं निहन्यात्सर्वा अपापदः शमयेत् ॥२॥
इस मंत्र को लाल धागे की बनी हुई रस्सी पर जपे तीन सौ तीन बार फिर बांधने से ज्वर नष्ट हो जाता है और सभी आपदायें शांत हो जाती है।
अभ्यर्चितो धृतोर्वाभूर्जे गोरोचना समालिखितः स्मर च्च व्यवहारादिष्येष विद्यते परं विजयं
॥३॥
इस मंत्र को गोरोचन से भोजपत्र लिखकर पूजन करके दोनों भुजा में धारण करने से युद्ध और व्यवहार आदि में अत्यंत विजय करता है और वायु का असर नहीं होता है। वायू का असर नही है ।
सेनः द्विकरजित युक्तौ प्रभं
जनि सुकेशिनि ठः ठेत्य ष मंत्रोयक्ष्यध्विदेवतः
लक्ष जावे त्सिद्धं साध्यः स प्रेक्षीज्जपेदमुं मंत्रं संस्पृश्य 95969596959599 २२८/95969695969
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SSCISIOISOTRICISIO5 विधानुशासन 985101510551065001510651 मानकेशस्तथा वृष्टिर्भवेदाशु
॥४॥ ॐ सेने द्विकरजित युक्तो प्रभंजिनी सुकेशिनि ठः ठः ॥ यह यक्षिणी देवी का मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है। इस मंत्र को जपकर अपने केशों को छूने से तुरंत वर्षा हो जाती है।
साध्य सारख्यात ममुं गोरोचनटा विलिरा भूर्जदले स्येतेन वैष्टियित्वा सूत्रेण स्थापयेदेतत
॥५॥
अश्वत्थ दुम कोटर मप्टो तत्राव तिष्टते यावत्
तत्तावत्साध्य स्थान्महती वृष्टि रविना मंत्री इस मंत्र को नाम सहित भोजपत्र पर गोरोधन से लिखकर तागे से लपेटकर पीपल के वृक्ष की खोखल में रखें। यह मंत्र जब तक यहाँ रखा रहता है तब तक साध्य के यहाँ बिना यिन के बड़ी भारी वर्षा होती है।
मंत्री रामेव तादहक रोहिणी तरु कोदुरो दरे यावत निहित स्तिष्ठति तावत साध्यं वश्यं विदध्यात्तुं
॥७॥ यह मंत्र उसी प्रकार से जब तक रोहिणी वृक्ष की खोखल में रखा रहता है तब तक साध्य भी उसके यश में रहता है।
त्रिभुवनसार मंत्रः आज भ म ह रेफ पिह: पाशांकुश वाण रंजिका युक्तः प्रणवाद्यैः कुसुमं त्रिन षट्कर्मा युदयम वगम्य ॥१॥
ॐबल्यू जल्च्यू म्ल्य्यू मल्टयू हल्ल्यू रमल्टए आं क्रों हीं क्लीं ब्लू ट्रां द्रीं संवौषट् क्षजभ मह और रेफ के पिंडों के पश्चात पाश (आं) अंकुश (क्रों) वाण ह्रीं क्लीं ब्लूं दो द्रीं (कामदेव के पाँय बाण और रंजिका (संयोषट) पल्लय सहित आदि में प्रणय (ॐ) लगाकर जपने से यह फूल रूपी मंत्र छहो कर्मों का उदय करता है।
द्वादश सहस्त्र जा ईशांश होमेन सिद्धिमुपटाति
मंत्रं त्रिभुवन सारो गुरू प्रसादात्स विज्ञेयः ॥२॥ यह मंत्र बारह हजार जप और दशांस होम से सिद्ध होता है। यह तीन भुयन में सार मंत्र गुरू की कृपा से जानना चाहिये। SSIODIDISTRI5051050015 २२९P352521501525015TOS
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CASIRIDIOISTRI5T215105 विधानुशासन ADDITORSE5CISCIEN
स्थाष्णे वारि पुरणौ रौं यक्तःपिंडः प्रकल्पितः सांगो लक्षं जपात्सिद्ध सर्वाभिमत सिद्धिदः
मंत्रोद्धारः झांझी झू झें मैं झौं झः अस्त्राय फट् ।
चंद्रन्द्राग्नि गृहस्थोयं कुलि शाकार मुज्वलत्पीतः रिपूसेना तुरंगादौ प्यातस्तं स्थंभनं कुरुते
॥४॥
चन्द्रदाग्नि गहस्थां स तथा विध एव मूििन प्यातः
रिपूं सर्व गंध वारणामभिलाषा दीनां निषेधाय ॥५॥ स्थाष्णु (ख) अव (ग) अरि (घ) पुराण (फ) के साथ रौं मिलाकर बना हुआ बीज अंग सहित एक लाख जपने से सिद्ध होता है । यह सब इच्छाओं की सिद्धि देता है। इस मंत्र को चन्द्रमा इंद्र और अग्नि अर्थात् चंद्र सूर्य और अग्नि के घरों में रहने वाला बजाकार उज्वल और पीला ध्यान करने से शत्रुओं के सम्पूर्ण घोड़े आदि सेना का स्थंभन करता है। यह मंत्र फिर उसीप्रकार से चंद्रमा इन्द्र और अग्नि के घरों में ठहरा हुआ मस्तक में ध्यान किया जाये तो सब शत्रुओं को उनका गंध और उनके हाथियों और इच्छाओं तक को रोकता है।
सोग्न्याभो रिपु सेन्यैध्यतिः सन स्तत्परान्मुरवी कुरुते
सतथा भूतो प्यातो भेदयति परैः कृतं स्तंभं ॥६॥ उसी का अग्नि के समान शत्रु की सेनाओं में ध्यान किया जाने पर उनको भगा देता है।
अनिलाऽनल पुर युक्तःसाध्यं तत स्तोभयेत गृहादीनां अपयांति तथा विद्यतय्यानानादात नाद्यास्ते धरोचनया ॥७॥
अयं भूर्यादिषु लिरिवतः पूज्येत गहे यत्र विष तस्करभूत ग्रह कृत्यायः परिहरं तेतत्
पिंडात्मकं समंनो मध्ये भूमंडलन द्यः स्याते: स शस्त्रं समुधतं सः स्तं भयति तथा भुजंगाश्च
||८॥
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95959595595 विद्यानुशासन 9595959595951
मंत्री यदि इसी का वायुमंडल और अग्निमंडल सहित ध्यान करे तो उसप्रकार के ध्यान से ग्रहों को स्तोभन होता है। और वह दुःखी होकर वह दब जाते हैं।
इसी ऊपर के लोक में लिखे हुये भोजपत्र पर गोरोचन लिखकर जिस घर में पूजा जाता है वहां से विष और भूत ग्रह और कृत्या (डाकिनी) आदि ग्रह सब ही भाग जाते हैं। यदि इसको पिँडाक्षरों सहित पृथ्वीमंडल के मध्य में रखा जाये तो शस्त्र उठाने वालों व नागों का तुरन्त स्तंभन हो जाता है।
पुराणो ज गणेशाप्त पुराण रस जिष्णु भिः सूक्ष्म बिंदु युतैः कृत्य कृतः सर्वफल प्रदः
॥ ९ ॥
पुराण (फ) अज (ॐ) गणेशा (य) आप्त (न) पुराण (फ) रस () जिष्णु (3) सूक्ष्म बिन्दु वाले मंत्र से पुरुष कृत कृत्य हो जाता है।
क्ष्यां क्ष्यीं यूं क्ष्यों क्ष्यः अस्त्राय फट्
चिंतामण्यभिधानः सांगोयं लक्ष जाप्प सं सिद्धः रक्त स्त्रि कोण गोयं मूर्द्धनि साध्यस्य सिद्धि कृद् ध्यातः
इस चिंता मणि नाम के मंत्र को अंगो सहित सिद्ध करने से इसका साध्य के मस्त में त्रिकोण मंत्र के अंदर रक्त वर्ण का ध्यान करने से कार्य सिद्ध हो जाता है।
आविष्टस्याध्यातो मूर्द्धनिग्रह निग्रहं तथा कुरुते ध्यातोयमधो नाभेः कुरुते जठरांनलं दीप्तं चिंतितं श्रवणयोः कृष्णः यः मरैः करोति वाधाय अक्ष्णांधन नील गेह स्थितस्तु शूल रिपोदरे ।
ग्रह से पीड़ित पुरुष के मस्तक में इसका ध्यान करने से यह ग्रहों का निग्रह करता है । यदि इसका नाभि से नीचा ध्यान किया जाये तो यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है। यदि इसका शत्रु के दोनों कानोभि काला ध्यान किया जावे तो यह उसको बहेरा बना देता है। आँखो में ध्यान किया जाने से अंधा करता हो और इसका पेट में नीला ध्यान किया जाने से यह शत्रु के पेट में दरद करता है।
भू बीजं विन्दु युक्तं गणधर निधनं स्ताद्दशो लांत बीजं ताद्दग्व्याधे श्वमंत्रा भुवि समधिगता येन चत्वार ऐत
95959595PPSP २३१P5951951951959595
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CRORSCISIOMSXCISIO विघाशुपएसन 95015105015015015
जाटते तेन सद्य: सकल मपि विर्ष तेन रोगाश्च सर्वे
विश्वे शूलाश्य कृत्साधिक विष विकृति कंटकेभ्य आ जातां भूबीजं (लं) बिन्दु सहित गणधर बीज () निधन मृत्यु बीज और लांत बीज (व) यह चारों बीज पृथ्वी भर में सब रोगों के मंत्र कहे गये हैं। इनसे सभी विष सभी रोग और सभी प्रकार के कृत्रिम विष विकार और मंदों से पैदा हुई श्री दूर हो पाते हैं।
इत्थं मंत्राराधन विद्य मिह विधिपूर्वकं करोतु बुधः
नित्यमनालस्ट मनाय दिष्टस्य मना सिद्धि समीहेत पंडित पुरूष यदि अपने इच्छित कार्य की तुरंत सिद्धि करना चाहे तो इसप्रकार की आराधना करने की विधि को नित्य ही आलस्य को छोड़कर क्रिया करे।
एते मंत्रादहोक्ता दयित विधिगताः साधिता टोन सम्यक तस्यानुक्तान्यपि प्राक सत्तत जपा वशात् संतिदिधुः फलानि। तस्मोदेतेषु मंत्री कम रचित महामंत्र मेकं जपाय:
नित्यं सं सेव्यमानः सकलमपि फलं प्राप्यालोक पूज्य: जो पुरुष इन प्रायः विधि याले मंत्रों को भली प्रकार सिद्ध करता है उसको यंत्र मंत्र उसके जप के यश से फल देते हैं। इस वास्ते मंत्री इनमें से एक क्रम से बने हुये महामंत्र को नित्य जपता हुआ संसार भर में पूज्य होकर सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है।
इति इति आर्षे विद्यानुशासने सामान्य मंत्र साधन विधानं नाम चतुर्थः समुद्देशे :
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95959595 विद्यानुशासन 9595959
पंचम अध्याय प्रारम्भ
अथातः संप्रवक्ष्यामि येभ्योनेक फलोद्भय तेषां सामान्य यंत्राणां यथा शास्त्रमिमं विधि
॥ ५ ॥
अब अनेक प्रकार के फलों को उत्पन्न करने वाले सामान्य यंत्रों की विधि का वर्णन पूर्व शास्त्रों के अनुसार किया जायेगा ।
सिद्ध चक्र विधानं
व्योमोद्धघोरं युक्तं सिरसि विलसितं नाद बिंदुद्धचंद्रैः स्वाहांतोकार पूर्वैः गुरु भिरभिद्युतं पंच भिस्तु स्वरैश्च वाह्येष्ट स्वब्ज पत्रेषु क च ट त पयोष्मादि वर्णन जादीन् स्वाहांतानांतराले प्रथम गुरु पदं माययात्रिः परीतं
॥ ३ ॥
ऊपर रेफ नीचे रेफ सहित आकाश बीज ह के ऊपर अर्द्ध चन्द्रकार का नाद बिन्दु लगाया जाये फिर पहले ॐकार को आदि में तथा स्वाहा को अंत में लगाकर पांचो गुरु बीजों का "असि आउसा" स्वरों सहित लिखें । उसके बाहर के आठो दलों में क्रमशः कवर्ग, चवर्ग, दवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग, उष्म और अवर्गों को लिखे। उनके आदि में अज (ॐ) अन्त में स्वाहा लगाकर अंतराल में प्रथम गुरूपद णमो अरहंताणं लिखकर मायाबीज हीं का तीन बार वेष्टन करे।
मध्ये पि कर्णिकायाः पत्राने श्वप्पनाहतं समाख्यातं वर्गस्यातं स्यातं मरुतं स्वेनोतमांगेन्
पाठांतरं
उद्धघोरयुतं सबिन्दु सपरं ब्रह्म स्वरा वेष्टितं वर्गपूरितदितां बुजदलं तत्संधि तत्यान्वितं
॥ २ ॥
अंत्रः पत्र तटेष्यबनाहत युतं ह्रींकार संवेष्टितं देवं ध्यायति यस्य मुक्ति सुभगो वेरिभ कंठीर वः
Chesse P5Pg २३३P/5195
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॥ ४ ॥
कर्णिका के मध्य में और पत्तों के अग्रभाग में अनाहत नाम का बीज ॐ ह्रीं और वर्गो के हकार को अपने उत्तम अंग अर्थात् सिर रहित लिखे ।
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॥ २ ॥
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सप ( स से आगे वाला ह अक्षर में अनुस्वार लगे हुवे अर्थात् हं बीज के ऊपर और नीचे रेफ (र) बीज सहित अर्थात् (F) को ब्रह्म (ॐ) और सोलह स्वरों से वेष्टित करे। उसके बाहर आठ दल के कमल में वर्ग सहित अनाहत बीज लिखे तथा पत्रों के अंतराल में तत्व (णमो अरहंताणं) लिखकर ह्रीं कार से वेष्टित कर क्रों से निरोध करें। जो इसका ध्यान करता है। वह कर्म रूपी शत्रुओं रूपी हाथी को जीतने के लिये सिंह के समान है।
चामीकर लेखिन्या हिम मलयज गोरोचनादिभिर्विलिखेत श्वेतवर भूर्जपत्रे फलके वा ताम्र पत्रेवा
गंधाक्षत प्रसूनश्चरुकें दीपश्व धूप फलामलैः निवहैरभ्यर्च्य जपे नित्यं पुष्पैरष्टोत्तर च शतं
॥ ४ ॥
इस यंत्र को अत्यंत सफेद भोजपत्र पर या फलक (तख्ती) या ताम्रपत्र के ऊपर चामीकर (सोने)
|| 3 ||
की कलम से कपूर चंदन गोरोचन आदि से लिखे ।
इस यंत्र को गंध अक्षत पुष्प नैवेद्य दीप धूप और फूलों के समूह से प्रतिदिन पूजन करके फूलों से एक सो आठ प्रमाण यह मंत्र जपें ।
विनयादि नमत पदं भुवनाधिप मूलबीज पंच गुरून उधार्य ततोऽनाहत विद्यायै मूल विद्यायै धेयं ॐ ह्रीं हं असि आउसा अनाहत विद्यायै नमः
पूज्यतो नित्यमिदं भक्त्या श्री सिद्धचक्रमुतमं यंत्र दुष्टग्रह शाकिन्योयां त्युप शांतिं
क्षणात्तस्य
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आदि में विनय (ॐ) और अंत में नमः पद लगाकर भुवनाधिप मूलबीज (हैं) और पांचो गुरू (असि आउसा) को खोलकर अनाहत विद्यायै लगावे यह मूलमंत्र है।
॥ ६ ॥
भगंदरादयोरोगाः शांतिमुपयांति
॥७॥
कुष्ट गल गंडमाला नश्यंति अन्ये प्यराति वर्गाः क्रूरा अपि इस उत्तम सिद्ध चक्र यंत्र का भक्ति पूर्वक प्रतिदिन पूजन करने से दुष्ट ग्रह और शाकिनीया तुरंत ही शांति को प्राप्त हो जाती है। इस मंत्र से कोठ गले की गंड माला और भगंदर आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। इससे दूसरे क्रूर शत्रु वर्ग भी शांति को प्राप्त हो जाती है । 95952959595959 २३४PSP1
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प्रेतवन वस्त्र रखर्पर मध्टगतं तालाकादिभि ल्लिरखतं यंत्रं यः पूजये प्सितं स्थंभयती प्सित कार्य चक्र भूमंडलांस्थं
॥८॥ यह यंत्र पृथ्वी मंडल के अंदर श्मशान के वस्त्र के ऊपर खर्पर के मध्य में हड़ताल आदि से लिखा जाने पर अपने इच्छित कार्य का स्तंभन करता है।
जल मंडल मध्यगतं यंत्रं यः पूजयेत्सितैः
कुसुमैः हिम चंदनं स लिरिवतं शांति पुष्टिं वशं करोत्येवं ॥९॥ यदि इस यंत्र को जल मंडल के बीच में कपूर और चंदन से लिख कर श्वेत पुष्पों से पूजन किया जाये तो यह शांति पुष्टि और वशीकरण को करता है।
तिल तुष सर्षप लवणैः हामं कृत्वात्रिकोण कुंडतले।
सप्त दिनानं मध्टो रामा कृष्टिं करोत्येवं ॥१०॥ यदि इस यंत्र को त्रिकोणकुंड के नीचे रखकर उनमें तिलों के छिलको सरसों और लवण से होम किया जाये तो पता रात दिन के अन्दर सनी आकर्षण काला है।
पवन पुरस्थं यंत्रं वायसपिच्छेन कनक गरलायौः
भूज्ज विलिरव्य निहितं भूमौ विद्वेषणो उच्चाटं ॥११॥ यदि इस यंत्र को यायु मंडल के बीच में कौवे की पूँछ की कलम से तथा कनक (धतूरे) गरल (यत्सनाम विष) आदि से भोजपत्र पर लिखकर भूमि से रख्खे तो यह विद्वेषण और उद्याटन करता है।
आग्नेय पवन मंडल मध्यगतं प्राचटोत् मिदं यंत्रं
आरक्त कुसुम जाप्पै वंशयाति वनितां पुमांसं वा ॥१२॥ यदि इस यंत्र को अग्निमंडल और वायुमंडल के बीच में लिखकर पूजा जाये और लाल फूलों के ऊपर जाप किया जाये तो यह स्त्री या पुरुष दोनों को ही वश में करता है।
वर्षाणि पंच नित्यं यो प्यायति शुद्ध चेतसा यंत्रं
रहितो जप होमायै दुर्द्धर तुर्य व्रतो पेतः ॥१३॥ जो पुरुष इस यंत्र का शुद्ध चित्त से पाँच वर्ष तक ध्यान करता है उसको जप तथा होम आदि से रहित होने पर भी अत्यंत कठिन तुर्यव्रत (चौथा व्रत ब्रह्म चर्य) से युक्त होने के कारण से । SSIOISTRISRIDDISEDI5015 २३५35052I5TOTRICISDISCISI
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95959595955 विद्यानुशासन 959595959526
निष्पन्न सिद्ध चक्रः पलं मेकं प्रत्य हं सवर्णस्थलभ्यते कर्तव्यः स च व्ययो दान पूजा सु
सौ
यदि दधति लोभतोऽर्द्ध दिवसे तस्मिन् व्ययं च नः करोति सिद्धि स्तस्य विनश्यति निश्चितो नात्र संदेहः ॥ १५ ॥
यह सिद्ध चक्र यंत्र प्रतिदिन एक पल (४तोला) सोना देता है। किन्तु उसको उस सब द्रव्य को दान और पूजा आदि में खरच कर देना चाहिये !
यदि साधक उस द्रव्य में से आधे को लोभ से रख लेगा उस दिन खर्च न करेगा तो उसकी सिद्धि निश्चय से नष्ट हो जाती है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
इति लघु सिद्ध चक्र यंत्रोद्धारः
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पद्मस्य
तस्याष्ट दलस्य मध्ये ह्रींकार
प्रणवावृतो है दिग्दत्त मंत्रादिक सप्त वर्णा माया नमोंतं सदा जपंतु ॐ ह्रीं हैं णमो अरिहंताणं ह्रीं स्वाहा विदिग्धमंत्र : ॐ ह्रीं हं णमो अरिहंताणं णमो अर्हन् स्वाहा दिग्मंत्र : ॐ ह्रीं है णमो अरिहंताणं ह्रीं नमः
जपमंत्र:
एक अष्टदल कमल के बीच में हैं को ॐ और ह्रीं से वेष्टित करके उसके आठों पत्तों में दिशाओं में और विदिशाओं में विशा और विदिशा के मंत्र लिखे । इनमें से दिशाओं के मंत्र में के सप्तवर्ण पद ( णमो अरहंताणं) के पश्चात माया (ही) और कर सदा जप करना चाहिये ।
समस्त फलद नाम चक्रमें तत्समर्चितं नष्टादि ज्ञानमारोग्यं मेघां मुक्तिं च यच्छति
इस समस्त फलद नाम के चक्र का पूजन करने से खोई हुई वस्तु आदि का ज्ञान तथा आरोग्य होता है यह बुद्धि मुक्ति को देता है।
प्रणवा वृतं अहं ह्रीं कार वेष्टितं मध्ये यहि ॐ ह्रीं हैं णमो अरहंताण ह्रीं नमः अष्टस्सु पत्रेषु प्रत्येकांलिखेत्
अर्ह ॐ से वेष्टित करके बाहर ॐ ह्रीं हैं णमो अरहंताणं ह्रीं नमः हर एक आठों पत्रों में लिखे । समस्त फलद् चक्रं
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95959595950 विधानुशासन 959595959
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नमः अरिहंताण अहं भमो
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अरिहंताण ही नमः अहं णमो
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कहाँ नमो आई
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अहं णमो अरिहंताण
हीं नमः
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ॐ ह्री अनमो अरिहंताण
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SSCISCISIOASICS5 विधानुशासन PASCHIDI51015015OTES
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अह अरईताण
णमो अह
स्वाहा
ॐ ह्रीं णमो ऽह णमो अरहंताणं णमो अह स्वाहा कर्णिका को इस मंत्र से येष्टित करके बाहर आठों ज्यों में भी यही मंत्र लिखकर हीं से वेष्टित करके क्रों से निरोध करे
पूर्वादि दिन च त सृष्वपि वाग्भव श्री माटा स्मरा
स्तदऽपरा च ऽनलादिवाभु को झौं च ब्लें रयर बीजं पूर्यादि दिसु च सृष्वपि वाग्भवं श्री माया स्मरा स्तद परा स्वनलादि कार्स कौं झोंच ब्लें स्टार बीज चतुष्कमह मध्टोष्ट पत्र (कमलस्य) सहितां बुरूहस्य लेख्यं (विभाव यंतु) पृथ्वी वहि जिनपतिः
कमला च शुभ्रा शेषाक्षराणित जपा कसमठवीनि ह्रीं सर्व कम्माणि निरोध कदंडकुशः स्यात् श्री श्री करि श्रुत करि च ऐ भवत्य वश्यं
आकष्टि कमणि वशीकरणे चे शेषः पिंडा भवंति STSICISEDICTIODICISTRIES २३१PISTRISTRISTOTSTRIERIERIEN
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ee595959 विधानुशासन 959595959595
वचना निस वाग्भवेन अभ्यर्चय निति विधित् क्रमतो जिनेन्द्र प्राप्रोति भव्य तिलको भुवि भुक्ति मुक्ति पूर्व आदि चारों दिशाओं में वाग्भव (ऐं) श्रीं माया (ह्रीं) और स्मर (क्लीं) लिखकर दूसरी वायु इत्यादि कोणों में क्रों झों ब्लें और रयर बीज यूं इन चारों बीजों को लिखे फिर इस अष्ट दल कमल की कर्णिका में अहं लिखे ।
उसके बाहर पृथ्वी मंडल बनावे 1 जिन पति (हैं) और कमला (श्रीं) बीजों को अत्यंत श्वेत लिखकर शेष बीजों को जपा कुसुम गुडहल के फूल के समान लाल लिखे। इनको ह्रीं और सब कर्मों से रोकने में अंकुश के समान क्रों से निरोध करे। श्रीं लक्ष्मी को करता है। ऐं शास्त्र की बुद्धि देता है और क्लीं वशीकरण करता है शेष बीज आकर्षण और वशीकरण करते हैं। तथा ऐं उत्तम बोलने की शक्ति देता है। भव्य पुरुष इस उत्तम चक्र को प्रतिदिन विधि पूर्वक पूजता हुआ मोक्ष के आनन्द को भोग लेता है !
ॐ नमो ऽहं ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं क्रों झौं ब्लें यूं असि आउसा है नमः
पूजा मंत्र
ॐ नमो
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ॐ नमोह
969595959 २४० Pa
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S ODESCIETRIOTEE विधानुशासन PASTOISTORIEISEASCIET
सांतं बिंदुर्च रेफ वहिरऽपि विलिखेदायताटाब्जपत्रं दिस्चै श्रीं ह्रीं स्मरोन्यास्त्रिभ वशकरणं शो गज वशकरणं झौं ब्लें पुनर्मू वाह्ये ह्रीं ॐ नमो है दिशि लिरिवत चतुबीजकं
होमयुक्तं मुक्ति श्री वल्लभो सौ भुतन मपि वशं जायते पूजयद्यः सांत (ह) के ऊपर बिंदु और रेफ लगाकर उसके बाहर अष्टदल कमल बनावे उसकी दिशाओं में ऐं श्रीं ह्रीं और स्मर बीज (क्ली) को लिखें शेष विदिशाओं में भ इ वशकरण क्रों झौं ब्लें और म्यूँ को लिखें, बाहर दिशाओं में ॐ नमो बीज है बीज को क्रों हीं और सहित लिखे-जो पुरुष इस यंत्र का पूजन करता है वह मुक्ति रूपी स्त्री का पति होता है, और तीनों लोक उसके वश में होताहै। ॐ नमो है ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं स्वाहा
॥ पूजा मंत्र।। चिंतामण्याद्वये चक्रे ते इमे संप्रकीर्तिते यह दोनों चिंतामणी यंत्रो का वर्णन किया गया।
नमो भई
नमो मई
Peake
झौं कार सर्व कर्भ निरोध रोकने का बीज है और आं अंकुश बीज अंकुश हाथी कोरो के श्री जो लक्ष्मी श्री करीजो शोभायमान करने वाली है। श्रुतकारी सर्वशास्त्र का ज्ञान देनेवाली है। और ऐं वशीकरण कर्ता हे क्ली आकर्षण करता है। इससे उत्तम दूसरा वशीकरण नहीं है। पिंड रूप जंत्र CTSIDDRISTOTRICTSIDE २४१BIPISISTRISTRICISTRISODE
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विद्यानुशासन
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की पूजन करने वाला भव्य जीवभव्यों में शिरोमणि भुक्ति और मुक्ति दोनों पावें । पूर्व में वाग्भव ऐंकार, दक्षिण दिशा में श्री बीज, पश्चिम में ह्रींकार, उत्तर दिशा में काम बीज क्लीं लिखे । अग्नि कोणों में क्रां, नैऋकोण में झों, वायूकोण में ब्लें ईशान कोण में ग्रूकार लिखें। अर्ह सहित अष्ट पत्रों में लिखो । भगवान और लक्ष्मी को उज्वल वर्ण ध्यावे ।
अथ त्रैलोक्य सारख्या चक्रम पुप दिश्यते
अब मैलोक सार चक्र का वर्णन किया जाता है।
सांतं रेफयुतं लिखे ति ( हैं ) परं (ॐ) मंत्राधिप (ह्रीं) क्लीं ततो वामांशेन परत्रयो वहिरतो दिग्दत्त पत्रेष्वऽथ एक स्मिन प्रणव स्त्रि मूर्ति र परे स्वर्हत्पदं तत्व तोये भक्त्या भुवि पूजयंति सततं ते यांति मुक्ति धवं ॐ ह्रीं णमो अरहंताणं ह्रीं क्लीं नमः ॥ पूजामंत्रः ॥
सांत (ह) को रेफ सहित लिखकर फिर धुति (ॐ) और मंत्राधिप (ह्रीं) को लिखे। उसके ऊपर क्ली लिखकर बायें हाथ पर न और दूसरे स्थान अर्थात् दाहिने हाथ पर माॅ लिखे। उसके पश्चात बाहर आठपत्रों में एक पर प्रणव ॐ दूसरे पर त्रिमूर्ति ह्रीं शेष दलों में अर्ह बीज ( हैं ) लिखे। जो पुरूष इस यंत्र का भक्ति पूर्वक पूजन करता है वह निश्चय से मोक्ष को प्राप्त होता है ।
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SOTRI5DISTRISIOS विधानुशासन 98505051DISTRISOISI
श्री भट्टारक राजकीर्तिजी विरचित ।। श्री पार्श्वनाथ आराधना विधान।।
श्री पार्थनाथमानम्य वांछितार्थ प्रदायक, गुरूपदेशतस्तस्य वक्ष्याम्याराधनाक्रम
॥१॥ अर्थ:- इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने वाले श्री पार्श्वनाथ भगवान को वंदन करके गुरू उपदेश से उनकी आराधना का क्रम कहूँगा।
साधक लक्षणमादौ पूजा जाप्य विधिस्ततः। प्यान मनुक्रमा देवमाधिकार स्वयं भवेत्
॥२॥ अर्थ :- आराधना विधान के अंदर तीन अधिकार हैं प्रथम अधिकार में साधम्के जमण का कान द्वितीय अधिकार में पूजन एवं जाप विधि तृतीय अधिकार में ध्यान का वर्णन किया जायेगा ।।
कुलीनः सुमतो धीरो विदूरी कृत मानसः। सम्टार द्रष्टिः कृपा भाज स्वराधक इतीष्यते
॥३॥ अर्थ :- उच्च कुल में उत्पन्न, यशस्वी, धीरमना, विकारों से मुक्त सम्यग्दृष्टि, कृपा करने याला आराधक (साधक) कहा जाता है।
शूरः संसार भीरू स्वगतः तंट्रो जितेन्द्रियः गंभीझेदार संपन्नार्या आराधक इति स्मृतः
॥४॥ अर्थ :-शूरवीर, संसार से भीरू, निंद्रा विजयी, जितेन्द्रिय, गंभीर और उदार से युक्त आराधक होता
स्वल्प भुक स्वल्प कोपश्च स्वल्प निद्रो महोद्यमी,
निर्भयो निर्मदो रक्ष प्रभु मारूद्ध महति । अर्थ:- अल्प भोजन करने वाला, अल्पक्रोधी, अल्पनिद्राधारी, उद्योगी, आर्जवी, निराकारी चतुर पुरुष आराधक (साधक) हो सकता है।
॥ इति साधक लक्षणाधिकार प्रथमः॥ अर्थः- इसप्रकार साधक लक्षण नामक प्रथम अधिकार पूर्ण हुआ। QFP/
9558523 ಕಾಡದಢಣಾಡಿಸs
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CASIRIDICIDEDISTRICIPE विद्यानुशासन 915RISIOISTRICISTORY
पवित्रे निर्जने रम्टो पर्वता राम वेश्मनि, प्रासादे वासरे सिंधु वाल्मीकोण तटेपिवा
॥२॥ अर्थः- पवित्र, जनशून्य और सुन्दर, पर्वत. बाग, घर, महल, तालाब के किनारे या वापी (कुचे )या (सर्प की बांबी) के किनारे।
स्नातो धौत क्षतश्च तकसाः पुजांगसन्निधिः। आराधो प्रभु मतया त्रिकालं स्थिर मानसः
॥३॥ अर्थः- स्नान कर धुले हुये वस्त्र पहनकर श्वेत अक्षत आदि पूजा के अंगों को पास रखकर भगवान की भक्तिपूर्वक स्थिर चित्त से तीनों समय आराधना करे।
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नित्यं प्रभोः प्रकुर्वतिं स्नपजं च विलेपना।
अथवा पूजन स्तोत्रं मंत्र जाप्यं समाहितः अर्थ:- इस विधि में नित्य ही भगवान का अभिषेक करते हैं उनके लेप करते हैं अधया एकाग्र चित्त होकर पूजन स्तोत्र यंत्र के मंत्र का जाप करते हैं।
श्री मत्पार्थ स्तुतेः पाश्चात जिनेन्द्र स्नपनादि तः।
तत्परोन्यस्त चक्रस्य कुर्वतुं स्नपनादिकम् ॥५॥ अर्थ:- श्री पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति के पश्चात भगवान के अभिषेक आदि के लिए उनके सामने चक्र (यंत्र) रखकर स्नान आदि करना चाहिये।
अग्निमंडल मध्यस्योरेफै ज्याला शताकुलैः।
सर्वांग देशगै ध्यात्वात्मानं दग्ध वपुलं अर्थ:- अग्निमंडल के बीच में बैठा हुआ उसके रेफ की सेंकडों लपटों को अपने अंग के सबानोड़ो में गई हुयी ध्यान करके उनसे अपने शरीर के मल को जला हुआ ध्यान करें।
स्वशीर्षे मेरू अंगे च स्नाप्यमानं सुरासरैः। श्रीमत्पाजिनं ध्यायेत् तज्जलै स्व पवित्रित
॥७॥ अर्थः- इसके पश्चात अपने सिर को सुमेरू पर्वत की चोटी (पाइशिला) की कल्पना करके उस पर देवता और असुरों से स्नान कराये जाते हुए भगवान श्री पार्श्वनाथजी का ध्यान करे और फिर उनके स्नान के बहकर आये हुए जल से अपने को पवित्र किया हुआ ध्यान करें। OTHIDISTRIBIDISTRIDDISTRIS २४४P503525PISCISIOSDIDI
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SIDASIDISTRISTRISADI विधानुशासन 9501501510651015CISI
मंत्र स्नानं ततः कुर्यात त्रिवारकुंभ मुद्रया। आत्मरक्षां ततः शरव मुद्रया सकलीक्रिया
॥८॥ फिर कुंभ मुद्रा से तीन बार मंत्र स्नान करे और इसके पश्चात शंख मुद्रा से अपनी रक्षा करके सकलीकरण करें।
स्नानादि मंत्राश्च अजमते, अमोहदे अपना धार्षिणी मलावट सं सं क्लीं क्लीं ब्लं ब्लं दां ट्री द्रीं दी द्रावय द्रावय हं हं इचों क्ष्वी हंसः स्वाहा॥
स्नान मत्रोयं क्षिप स्वाहा हा स्वाहा पक्षि पंच भूतात्मिकोऽय रक्षा मंत्र। वामकरांगुष्टादिषु विन्यस्यैकैकम क्षर अनुलोभ प्रतिलोभ निवम् भूत बार्ववित्
॥८॥ अर्थ :- इन अक्षरों में से एक एक को बायें हाथ की अगूंटी आदिअंगुलियों के अनुलोम (सीधे) और प्रतिलोम (उलटे) क्रम से भूत और वर्तमान का जानने वाला तीनबार रखे।
भूम्य भोऽग्नि मरूटोम महाभूतात्मका अमीवर्णाः पीतः सितो रक्त कृष्णे नील रूचि क मात
॥९॥ अर्थ :- यह अक्षर क्रम से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच भूतों के हैं हवक और क्रम से पीले, सफेद, लाल काले और नीली कांति वाले हैं।
पादांतन्नाभि हदक मस्तका गेषु पूर्वत् हत्वाक्षि प्रभृतीन वर्णान वाम हस्ते नियोजयेत्
॥१०॥ अर्थ:- फिर इन अक्षरों को पहिले के समान क्रम से पैरों नाभि हृदय, मुख और मस्तक के अग्रभाग में लगाकर बाये हाथ में लगावे ।
अंगुष्टादिषु सून्यानि विन्यसेत् पंच पूर्ववतः। अर्हदादिस नातादि शिरः पादौ नियोजयेत्
॥११॥ अर्थः- फिर पहले के समान अंगूठे आदि से पाँच शून्यों और अर्हत् आदि को सीधे और उल्टे क्रम से लगाकर शिर से लगाकर पैरों तक में भी लगाये।
DISTRI5DISTRIEDI523505 २४५PI5TOSDISTRISTOTSIRISTORS
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501501505505 विधाबुशासन PSISTERSTUDIES तानि चामूलानि हां ह्रीं हुं ह्रौं ह हहो है हीं हां (हाथों में लगाये) ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा (अंगों में लगावे) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं मम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा।। ॐहूं णमो आयरियाणं मम हृदयं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ हौं णमो उव ज्ज्ञसायाणं मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐह: णमो लोए सख्य साहूणं मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा
अष्ट प्रहर की रक्षा क्षुद्रोपद्रव नाशनी पंच भूतात्मिको त्पंच देहस्य सकलीकियां कुर्यात्
॥१२॥ अर्थ:- यह अष्ट प्रहर की रक्षा और पंच भूतात्मिका पाँचों अंगो की रक्षा सब छोटे छोटे उपद्रवों को नष्ट करती है इसके पश्चात सकलीकरण करें।
ॐ णमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय क्षुद्रोपद्रव विनाशनाय शिरवाबंधन सापद्भयो मां रक्ष रक्ष स्वाहा ।
शिखा बंधन मंत्रः ॐ हीं इन्द्र पूर्वदिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐहीं अग्ने आग्नेय दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ ह्रीं यम दक्षिण दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ हीं नैऋते नेत्रति दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ ह्रीं वरुण अपाचि दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐहीं वायो वायव्य दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ ह्रीं कुबेर उत्तर दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ हीं ईशान ईशान दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ ह्रीं धरणेंद्र पाताल दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्वाहा ॐ हीं सोम उर्व दिशां रक्ष रक्ष बंध बंध स्याहा
ॐ श्री पार्श्वनाथाय नमः इतिदिग्बंधनं ॐ स्थिरे सुस्थिरे सर्व सहेमू भूमि देवते महापवित्रते सर्वापद्भ्योमा रक्ष रक्ष स्वाहा ॥
॥दिक्पाल पूजा ॥ (१) ॐ ह्रींपूर्व दिग्वासिन स्यायुधवाहन वधुचिन्ह परिवार सहितंभोइन्द्रं आगच्छ आगच्छ दिव्यासने तिष्ठ तिष्ठ इदं जलायर्चनं गृह-गृह मम सन्निहितो भव भव संवोषट्॥ S5ICISEDICTRICISIONSID5.२४६PSPIRICISTRICISICISCIES
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9501525131512151015 विधानुशासन P15015OSDASDISOTI (२)ॐहीं पूर्व दक्षिण दिग्यासिन स्वायव वाहन यधचिन्ह परिवार सहित भो अग्ने आगच्छ-आगच्छ दिव्यासने तिष्ठ तिष्ठ इदं जलायर्चनं गृह्ण-गृह मम सन्निहितो भव भव संवोषद् ।। (३) ॐ ह्रीं दक्षिण दिग्वासिन स्वायुद्य वाहन वधु चिन्ह परिवार सहित भो राम आगच्छ आगच्छ दिव्यासने तिष्ट तिष्ट इदं जलार्चनं गृह-गृह मम सन्निहितो भव भव संवौषट ॥ (४) ॐ हीं दक्षिण पश्चिम दिग्यासिन स्यायुध वाहन वधु चिन्ह परिवार सहित भो नजरले आ आगल दिव्यासले तिष्ठ तिष्ठ इदं जलावर्चनं गृह गृह मम सनिहतो भव भय संवौषद | (५) ॐ ह्रीं उत्तर दिग्वासिन् स्वायुध वाहन वधु चिन्ह परिवार सहित भोईशान आगल-आगच्छदिव्यासनेतिष्ठ-तिष्ठ इदंजलाधार्चनंगह-गृह मम सन्निहितो भव भव संगोषट् ॥ (६) ॐहीं उत्तर पूर्व दिग्यासिन स्थायुधवाहनयधुचिन्ह परिवार सहित भोईशान आगच्छ-आगच्छ दिव्यासने तिष्ठ-तिष्ठ इदं जलाद्यर्चनं गृह-गृह मम सन्निहितो भव भव संयोषट् (७) ॐहीं आकाश दिग्वासिन स्वायुध वाहन वधु चिन्ह परिवार सहित भो सोम आगच्छ-आगच्छ दिव्यासने तिष्ठ-तिष्ठ इदं जलायचनं गह-गृह मम सन्निहितो भव भव संवौषट् (८) ॐ हीं पाताल दिग्वासिन स्वायुध वाहन वधु चिन्ह परिवार सहित भो धरणेन्द्र आगच्छ आगचा दिव्यासने तिष्ठ तिष्ठ इदं जलायचनं गृह गृह मम सन्निहितो भव भव संयोषट् ॥
इति दिक्पाल पूजा मंत्र
हस्त द्वये कनिष्टादे रंगुलिष्वपि चपंच स मंत्राक्षराणि सन्मंत्री सप्त बारं निवेशयेत्
॥१३॥
॥१४॥
तानि चामूलानि स्वां ला ही सरसुंसः हर हूंहः। चकोपरि महामंत्रं जपमष्टोत्तरं शतं।
श्री खंड कुंकुमै चारू पुष्पैकुत्सुिवासिते । अर्थ:- अच्छा मंत्री दोनों हाथों को कनिष्टा उंगली आदि पाँचो उंगुलियों में कवच मंत्रों के अक्षारों को सात बार स्थापित करे। CARTOIEDIECTROTECTRIOTS २४७PISIOTSICISIOTICISODOIN
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95959595विधानुशासन 9595296959595
यह यह है स्वां लां ह्रीं सरसुंसः हर हूं ह
फिर चक्र के ऊपर श्री खंड और उत्तम गंध वाले पुष्पों से महामंत्र १०८ बार जाप करें।
चक्रोद्धार विधिश्वाय ॥
चक्रोद्धार की विधि यह है
अर्हत्संख्या दलावृतं केशराढयं सुकर्णिकं, स्वर्ण रौप्य ताम्रादौ घी मान्यं कज मालिखेत्
॥ १५ ॥ !
अर्थ:- बुद्धिमान पुरुष सोने चांदी या तांबे ऊपर अर्हत्संख्या चौबीस दलों से घिरे हुये अच्छी केशर और कर्णिका युक्त कमल बनावें ।
देवस्य विश्व नाथ स्य वाचकं परमेष्टिन
कर्णिकायां लिखे दऽर्हन् मंत्र राजं महोदय:
॥ १६ ॥
अर्थ:- कर्णिका के अंदर जगत के स्वामी परमेष्टि का वाचक महान उदय वाले बीजराज अर्हन बीज (हैं) लिखे ।
अर्हन् तद्वहि पार्श्वनाथस्य मंत्र सप्त दशाक्षरं, लिवेदऽचित्यं माहात्म्यं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं ह्रीं लाव्हः पः लक्ष्मीं इवीं क्ष्वीं खुः पार्श्वनाथाय नमः
॥ १७ ॥
(नोट) मूलग्रन्थों में इस मंत्र में इवीं क्ष्वीं के आगे खुः के स्थान पर हुः लिखा हुआ है और पंच नमस्कार कल्प में कुः लिखा हुआ है परन्तु पूजा सार समुच्चय ग्रंथ में तथा तेरह पंथी बड़े मंदिर
बाबा दुलीचंदजी के ग्रंथ भंडार पार्श्वनाथ चक्रोद्धार में तथा यंत्र में कांत बीज (ख) पांचवीं कला सहित अर्थात् उ सहित (खुः) लिखा हुआ है इसलिये यहां पर हु के स्थान पर खु लिखा है। उस अर्ह बीज के बाहर आचिन्तय महात्म्यवाले सांसारिक भोग और मोक्ष के देने वाले भगवान पार्श्वनाथ के इस सत्रह अक्षरी मंत्र को लिखे ।
मूल मंत्रोद्यमाख्यातः सर्व कार्य प्रसाधकः जायं होनादिकं सर्वं कुटादितेन सिद्धयो मंत्रसाधयते कार्य पूर्व साध्यः सण्वहि । सिद्धि र्भवे जाप्य जपात्सजपोराशि गोचर:
॥ १८ ॥
॥ १९ ॥
अर्थ:- इसे सब कार्यों के सिद्ध करने वाला मूलमंत्र कहा है। इसकी सिद्ध के वास्ते जप, होम आदि सभी कुछ करना चाहिए
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P5015 PZPISOSOISE/SPISESPIS
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PPP
59595 विद्यानुशासन 959595959595
अर्थ:- यह मंत्र कार्य को सिद्ध करता है अतएव पहले इस ही को सिद्ध करना चाहिये। इसकी सिद्धि कार्यराशि के अनुसार जप करने से होती है।
द्विषट सहस्त्रे मंत्रोयं शुभाशुभ निवेदकः अर्ह त्संख्या सहस्त्रैस्तु सर्वसारस्वताव हं लौकन च मंत्रोयं चिंतितार्थ प्रसाधक: लक्ष त्रयेण पूर्णेन प्राज्य श्री कारणं भवेत्
॥ २० ॥
॥ २१ ॥
सप्त लक्ष महा मंत्र पूर्णयो राज्य दायक: आ संसार विनुस्तुवि लक्ष्मी प्रदो भवेत्
॥ २२ ॥
अर्थ:- उपर्युक्त मंत्र का बारह हजार जप करने से यह शुभ और अशुभ फल को बतलाता है । चौबीस हजार जप करने से यह सब सरस्वती संबंधी कार्यो को करता है ॥ २० ॥ इस मंत्र को एक लाख जप करने से सोचे हुए सब कार्य सिद्ध होते हैं ।
और तीन लाख के पूर्ण होने से यह बड़ी भारी लक्ष्मी का कारण होता है | ॥ २१ ॥
इस महामंत्र का सात लाख जाप होने पर यह राज्य पद देता है और अंत में मंत्री के इस संसार से छूटने पर समस्त जगत की लक्ष्मी मोक्ष को देना है।
वलये केसर स्थाने चतुविष्स्तं प्रवेष्टयेत् मंत्राक्षरैः । प्रभावाढौरेकै कंच समालिखेत् तेचामि
ॐ ह्रीं लां ह्रीं आं द्रां श्री कलिकुण्ड स्वामिने नमः पार्श्वनाथ स्वामी के मंत्र वाले वलय के पश्चात चार और वलय बनाकरउनमें एक-एक करके बड़े प्रभाव वाले चार मंत्र लिखें
शाकिन्यादि महा दोषा स्तृतीयादि महाज्वराः एतस्य स्मरणात्सर्वे पलायंती दिशो दिशः
PAPSPSPAPSPSP २४९ PSP5PX
|| 23 ||
द्विषट सहस्र जाप्टो न जातिका कुसुमैर्वरः मंत्रेणानेन लूतादि वर्ण सर्व विजश्यति
॥२४ ॥
अर्थ:- इस मंत्र का उत्तम चमेली के फूलों से बारह हजार जाप करने से मकड़ी आदि का सब वर्ण नष्ट हो जाता है।
॥ २५ ॥
55एनएक
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OBIDESOTECISCTSIDE विद्यानुशासन 250015015RISTRISTICISS . एतन्मंत्र मटी रक्षा कटि बाहुशिरः स्थितां धारयेत्पुरुषो नित्यं सापद्रो विमुच्यति
॥२६॥ अर्थ:- शाकिनी आदि बड़े बड़े दोष इकातरा आदि बड़े बड़े ज्वर इसको स्मरण करने से दसों दिशावों में भाग जाते हैं। इस मंत्र की बनाई हुई राखी को कमर भुजा और सिर पर धारण करने से पुरुष सदा ही सब आपत्तियों से पट जाता है !
एतन्मंत्रस्य चक्रादि भिन्न मस्ति सविस्तरं, कलिकुंडस्य माहात्म्यं संक्षेपाद प्रकीर्तितं
॥२७॥ अर्थ :- इस मंत्र के चक्र आदि का विस्तार से कलिकुंड के माहात्म्य में पृथक वर्णन किया जाने से यहाँ संक्षेप में ही कहा गया है।
अथ द्वितीय मंत्र: ॐ नमो भगवते श्री पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय ज्वल ज्यल प्रज्वल प्रज्यल महा अग्नि स्तंभय स्तंभा ठः ठः।।
त्रि सप्ताऽनेन मंत्रेण पानीट अभिमंत्रित् प्रदीप,
नादौ समटो देयं सौवीर मिश्रितं || २८॥ अर्थ:- इस मंत्र से जल को इक्कीस बार मंत्रित करके सौवीर में मिलाकर उद्दीपन आदि के समय देना चाहिये।
अथ तृतीय ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय हंस: हंसः महाहंसःमहा हंसः परम हंसः परम हंसः को हंसः को हंसः शिव हंसः झरे झां हंसः पक्षि महा विषं भविह फुद स्वाहा।
स्थावर जंगम कृत्रिम विषम विष स्थापि संहार सप्तामि मंत्रिम तोयं मंत्रेणानेन नाशोत्
॥२९॥ अर्थः- इस मंत्र से सात बार जपा हुआ जल स्थावर जंगम कृत्रम अथवा कठिन से कठिन विष नष्ट करता है।
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SIRSIOTICISIOTECT
विद्यानुशासन PASIDASICISEKSICIRCISI अथ चतुर्थ मंत्र :
ऐं क्लीं पद्मावती नमः
आराधितो महाभक्त्या मूल मंत्रोदि वानिश मंत्र पद्मावती देव्यो स्तवादेव प्रसिद्धयाति
॥३०॥ अर्थ:- यह पद्मायती देवी का मूल मंत्र अत्यंत भक्ति से रात दिन आराधना किये जाने पर फल देता है।
मूल मंत्रादि मंत्राणां शामनस्य प्रभोज्जत, अधिष्ठात्री महाशक्ति देवी पद्मावती सदा
॥३१॥ अर्थ:- इस मंत्र की अधिष्ठात्री पद्मावती देवी अन्य सब मूलमंत्रों को शांत कर देती है।
विशेष स्तव मंत्र स्मिन भिन्न पूर्व क्रमात्किल, रक्त कणवीर कुसुमै जपेत्कार्यस्य सिद्धये
॥३२॥ अर्थ:- इस मंत्र में अयं मंत्रो से यह विशेषता है कि इसका लाल कनेर के फूलों पर जप करने से कार्य सिद्ध हो जाता है।
तेजः शक्ति महालक्ष्मी रहन्पूर्वा नमों तगाः
मंत्रा वृषभादि जिनानां च लिवेत्पत्रेष्वनु क्रमात् ॥३३॥ अर्थः- इन मंत्रो के पश्चात चौबीस पत्रों में क्रम से तेज (ई) शक्ति (ह्रीं) महालक्ष्मी (श्रीं) और अर्हन (ह) को पहले लगाकर तथा अंत में नमः लगाकर २४ तीर्थंकरों के नामों से मंत्र बनाकर लिखें। वह यह है। ॐ ह्रीं श्रीं है वृषभाय नमः
ॐ ह्रीं श्रीं है अजितनाय नमः ॐहीं श्रीं है संभवाय नमः ॐहीं श्रीं है अभिनंदनाय नमः ॐहीं श्रीं है सुमतये नमः - ॐहीं श्रीं हपापभाय नमः ॐहीं श्रीं है सुमार्थाय नमः . ॐ ह्रीं श्रीं है चंद्रप्रभाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं हं पुष्पदंताय नमः - ॐ ह्रीं श्रीं है शीतलाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं है श्रेयांसाय नमः - ॐ ह्रीं श्रीं है वासु पूज्याय नमः ॐ ह्रीं श्रीं है विमलाय नमः . ॐ ह्रीं श्रीं है अनंताय नमः ॐ ह्रीं श्रीं है धर्मनाथाय नमः - ॐहीं श्रीं है शांतिनाथाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं है कुंथुनाथाय नमः - ॐहीं श्रीं है अरनाथाय नमः
ॐ ह्रीं श्रीं है मल्लिनाथाय नमः - ॐ ह्रीं श्रीं है मुनिसुव्रताय नमः SHORICISIODRISCISIOS २५१PASCISCTRICISDISTRICTS
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PPSP59S
ॐ ह्रीं श्रीं है नेमिनाथाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं हे पार्श्वनाथाय नमः
वह इस प्रकार है । ॐ ह्रीं चक्रेश्वर्ये स्वाहा ॐ ह्रीं दुरितायै स्वाहा
स्वाहा
ॐ ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा ॐ ह्रीं शांतायै ॐ ह्रीं सुतारकायै स्वाहा ॐ ह्रीं मानव्यै स्वाहा
विधानुशासन
ॐ ह्रीं विदितायै स्वाहा
ॐ ह्रीं कंदर्शायै स्वाहा
ॐ ह्रीं बलायै स्वाहा ॐ ह्रीं वैरोटै ॐ ह्रीं गांधायें स्वाहा
स्वाहा
ॐ ह्रीं पक्षायत्यै स्वाहा
25/5258/59595
प्रणव त्रिमूर्ति पूर्वा होमांताश्वदलागतः चक्रेश्वीरी प्रभृतयों लिखेत् शासन देवताः
|| 38 ||
अर्थः- उससे आगे के चौबीस दलों में प्रणव (ॐ) त्रिमूर्ति (ह्रीं ) को पहिले लगाकर तथा अंत में होम (स्वाहा ) लगाकर चक्रेश्वरी आदि शासन देवियो को लिखे ।
॥ तद्यथा ॥
ॐ ह्रीं श्रीं हे नेमीनाथाय नमः
ॐ ह्रीं श्रीं है महावीर वर्द्धमान स्वामिनेनमः
ॐ ह्रीं अजितायै स्वाहा
ॐ ह्रीं काल्यै स्वाहा
ॐ ह्रीं श्यामायै स्वाहा ॐ ह्रीं ज्वालामालिन्यै स्वाहा
ॐ ह्रीं अशोकायै स्वाहा ॐ ह्रीं चंडायै स्वाहा
ॐ ह्रीं अंकुशायै स्वाहा ॐ ह्रीं निर्वाणायै स्वाहा
ॐ ह्रीं धारिण्यै स्वाहा
ॐ ह्रीं नर दत्रायै स्वाहा
ॐ ह्रीं अंबिकायै स्वाहा
ॐ ह्रीं सिद्धार्थकायै स्वाहा
त्रिमूर्त्या वेष्टयेत् लिया निरूद्धयाद्दडकुशिन
वारिभूमि पुरांतस्थं सुधी कुर्यातदंबुजं
(३५)
अर्थ:- फिर इस कमल को त्रिमूर्ति (ह्रीं ) से तीन चार वेष्टित करके क्रों से निरोध करे उसके बाहर जल मंडल और पृथ्वी मंडल बनावे |
आत्मनो वाम भागे च विलिस्खेत्पादुकाद्वयं दक्षिणे भूपुरा तस्या चक्रावस्था गुरोरपि
(३६)
अर्थ:- फिर अपने बांये भाग में दो पादुकायें भगवान को बनाये और दाहिने भाग में गुरू को भी बनाये ये पादुकायें पृथ्वी मंडल के अंदर बनी हुई हों
95959595
२५२PS
951
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विधानुशासन
ततोपदेशित सम्यनि निमितोपकारिणः
त्रिसंध्या पूजनं कुर्यात् देवस्येव गुरोरपि
(३७)
अर्थ:- फिर प्रातः दोपहर और सांयकाल के समय भगवान पार्श्वनाथजी का बिना किसी कारण उपदेश देकर उपकार करने वाले गुरू का भी पूजन करे
एवं चक्रविधिः प्रोक्तो मंत्रगर्भो गुरोडदितं अथ जाप्यविधिं वक्ष्ये वांछितार्थ प्रकाशकं
3959695
(३८)
अर्थ:- इस प्रकार गुरु की कही हुई मंत्र गर्म वाली चक्र की विधि कही गई है अब इच्छा किये हुए अर्थ को देने वाली जाप की विधि कहूँगा ।
दंश शार्दूल सिंहादि बिडालादि विभीषणे निः प्रकंपो भवेन्मंत्री जाप्य ध्यानादि कर्मणि
(३९)
अर्थ:- मंत्री जाप तथा धान आदि कर्म में डास व्याघ्र सिंह और बिलाव आदि के भय से कभी भी कंपायमान नहीं होवे
सद्यो विकसितैः पुष्पैः संवृतैरण्यतैः शुभैः ज्ञान मुद्रा वृतं ज्ञाप्य सर्वत्र कर्मणि
(४०)
हुवा
अर्थ:- सभी कार्यों में तुरंत के खिले हुए तथा ढक कर लाये हुवे फूलों से ज्ञान मुद्रा से घिरा जाप करे ।
गृहीयात्पूरकेणापि कुंभकेन जपेततः । रेचकेन विमुंचेत पुष्प जाप्य विद्यौ सदा
(४९)
अर्थ :- फूलों से जाप की विधि सदा ही पूरक प्राणायाम से फूल लेवे, कुंभक से जपे और रेचक से फूल को रख देवे
नाद बिंदु कला क्रांतं बीजाक्षर विदर्मितं आश्रत्य घटनांतस्थं जपेन्मंत्र मति स्फुटं
(४२)
अर्थ:- बिन्दु और स्वरों से युक्त बीजाक्षरों में मंत्र के एक अक्षर को अपने नाम के एक-एक अक्षर के साथ गूंथ कर मंत्र को इस प्रकार जपे कि इसका उच्चारण मुख में ही रहे और कानों में सुनाई नहीं देवे ।
050505050/50/505 P525252
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पूर्वाशाभि मुखो विद्वान उत्रराभिमुखोथया पूजांश्रेयोथवा जाप्यं सुधी कुय्यादिह निशं
(४३)
अर्थ:- पंडित पुरुष पूजन कल्याण के कार्य अथवा जाप को सदा ही पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख्य करके करे !
रजन्यां मंत्र सिद्धायथं जाप्यं कुर्यात् यथोचितं पंच पंच शतं नित्यं यद्वायावन्मन स्थिरं
(४४)
अर्थ:- मंत्र को सिद्धि के वास्ते रात्री के समय में प्रतिदिन पांच-पांच सो या जब तक मन स्थिर रह सके जाप करे ।
नाम जाप्य विद्यौ होमं कुर्याज्जाप्य दशांशत: जाये कृतेपि होमेन बिना मंत्रो न सिद्धयति
(४५)
अर्थ:- मंत्र के नाम की जाप की विधि में उसका दसवां भाग होम अवश्य करे, क्योंकि जाप्य करने पर भी मंत्र होम के बिना सिद्ध नहीं होता है ।
होम विधि शचा । होम की विधि यह है
महिषाक्ष गुगुलस्य विनिर्मितं चणक मात्र वहिकाभिः होमं लिमधुर युक्तं कर्तव्यं सिद्धि मिच्छद्रिः मधु दुग्धं घृतं चैव कीर्तितं मधुर लयं एतत् वये विमिश्रास्ता होम ये दुलिका कृति
(४६)
(४७)
अर्थ:- सिद्धि के चाहने वालों को भेसा गूगल की चने के बराबर गोलियां बनाकर उनके साथ त्रिमधुर को मिलाकर होम करे ।
दीर्घ विस्तार में तस्य कुंडस्टा कर मात्रतः त्रिकोणं भूमि कुंडस्याधो मार्ग वह्नि संभृतं सराव संपुटे लेख्यं षट् द्यापावक मंडलं कुंडात ः स्थापयेत चतस्यो द्धं खदिशनलं
(४९)
अर्थ:- - इस एक हाथ लम्बे चौडे त्रिकोण कुंड को पृथ्वी के अन्दर इस प्रकार खोदे कि नीचे का भाग अग्रि से ढका रहे ।
अर्थः- दो शरावों का मूह से मूह मिलाकर उनमें छह बार अग्रि मंडल लिखकर रखे फिर उन शराबों को कुंड के अन्दर रख कर उसके उपर खेर की अग्रि रखे। PSPSPSPSP5969 २५४ D510510
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(४८)
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CSCISCIRCISCED विधानुशासन PASCISCISCIRCISCESS
कलि काल प्रभावेन पाप प्राम्भार तोपिया एक स्मिन्मंल सं सिद्धि दंश्यते नैवयद्यपि
(५०) अर्थः- कलि काल के प्रभाव से अथवा पूर्व संचित पाप के बड़े भारी भार के कारण यद्यपि किसी एक मंस में सिद्धि दिखलाई नहीं देती ।
तथापि जाप्य होमायै नौमनः बोभमाप्नुयात् पापं प्रलीयत आप्या दात्मनः पुण्टामवयं
(५१) अर्थ:- तो भी जाप और होम आदि के द्वारा मन को क्षोभ की प्राप्ति होने के कारण जाप से पाप नष्ट होता है और अक्षय पुण्य प्राप्त होता है ।
तपो दानं श्रुतं तीर्थ मित्यादौ धर्म संचयः सं सिद्ध मंल जाप्यस्य कालो मा क्रमतेनतु
(५२) यथा जलद संघातः बीयते पवनाहतः
पुण्या मल जपोद्भत स्तयां पाप समुच्चयः अर्थ:-तप दान शास्त्र और तीर्थ आदि से धर्म संचय किया जाता है किन्तु मंत्र को सिद्ध करके इछाडे किये हुए धर्म पर काल भी आक्रमण नहीं कर सकता है
अर्थः- जिस प्रकार हवा की टवारों से बादलों का समूह नष्ट हो जाता है उसी प्रकार पुण्य मंव के जाप से पाप का समूह भी नष्ट हो जाता है |
(५४)
अनन्त भव लग्रस्य पाप पंकस्ट देहिनां मल जाप्यादिनानान्य द्ररणं विद्यते कचित् देये धमें गुरो मलं तस्मादास्ति क्यमुद्धान पुण्य मंल जपं कुर्यादात्मन: सिद्धि योण्या
(५५) अर्थः- प्राणियों के अनन्त जन्मों से लगी हुई पाप रूपी कीचड़ को मंत्र के जाप के बिना और कोई भी धोने में समर्थ नहीं है । अर्थः- अतएव अपनी सिद्धि की इच्छा करनेवाला देय धर्म गुरू मंत्र में श्रद्धा रखता हुआ पुण्य मंत्र का जाप करे।
तस्मिन् सिद्धे महामंत्रे ततः कार्येच्छाया बुधः
अष्टोतर शतं पंच सहस्त्रं वा जपेनिशि SASRTICISCISEASRISTOTE २५५PISIOTSTORECISIORATOTRICTER
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SSIODISTRICISODE विधानुशासन PASREPISISASTRICT
धम्मार्थमोक्ष विद्या सुकुदेंदु द्युति सादरं
पीतं स्तंनेरूणं वश्ो कृष्ण मुच्चाटने तथा अर्थः- उस महा मंत्र की सिद्धि हो जाने पर पंडित पुरूष उपस्थित कार्य की सिद्धि पर उस मंत्र का रात्रि में १०८ या पांच हजार जप करे। अर्थ:- मंत्री धर्म के वास्ते मोक्ष के विधानो में मंत्र का कंद पुष्प तथा चंद्रमा की कांति के समान श्वेत ध्यान करे स्तंभन में पीला वशीकरण में लाल और उच्चाटन में काला ध्यान करे ।
अंस टंगावर येवं दिंड भामुरं ध्यायेन्मंली सितं शांती दीप्रो कार्ये यथादितं
(५८)
मंडलांतर्गत चकं चक्रांतं मंडलाक्षरं अक्षरांतर्गतं बीजं बीजातः साध्यनायकं
(५९) अर्थ:- मंत्री उस मंत्र यंत्र के अक्षरों और देवता को शांति और दीप्ति के कार्यों में बिजली के दंड के समान चमकने याला श्रेत का ध्यान करे ।
अर्थ:-मंडल के बीच में चक्र चक्र के बीच में मंडल के अक्षर और अक्षरों के बीच में बीजाक्षर और बीजाक्षर के बीच में साध्य और साधक का नाम होता है
चतुरस्तं पार्श्व कोणभ्यंतरेच क्षि ल अक्षर वजाकितं पीत वर्ण विस्तीर्ण भूमी मंडलं
(६०)
ऊर्भाधः पयुतं पार्थे वकारांकित मुज्वलं
सुधा स्टांदि भवेद्वारि मंडलं कलशाकृति अर्थः- पृथ्वी मंडल चौकोर पार्श्व में क्षि अक्षर और कोणों में ल अदार वाला वज़ो से युक्त पीले वर्ण का और विस्तीण होता है
अर्थ:-जल मंडल कलश के जैसे आकार वाला उपर और नीचे प अक्षर सहित पार्थ में वकार सहित उञ्जवल और अमृत बहाने वाला होता है |
लिकोणं मध्य रेफं च सप्त सप्तार्चिषा कुलं कोणाग्रे स्वस्तिको ॐकार मारक्तं वह्नि मंडलं
(६२) CSIRISTRISTRISIPASCISITES २५६PISDISIOTIRISTOISTICSIRISH
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CRIOUSD150151255 विद्यानुशासन PISO505050505 अर्थ:- अग्नि मंडल तीन कोणो वाला बीच में रेफ (रकार) युक्त सात-सात ज्वालाओ से व्याप्त कोणे के अग्न भाग में स्वास्तिक तथा बीच में 3 कार से युक्त लाल वर्ण का होता है |
उर्मि बिंदु वृत्त वृत्तं कृष्ण स्वाक्षर गर्मितं चलं वायु पुरं वृतं वृतं नीलं हां कं नमः पुरं
(६३)
पार्थिव मंडलं स्तंभे धर्मार्था दौचवारिण वायव्यं द्वेषणोचाटे आग्रियं वश्य कर्माणि
(६४) अर्थ:- वायु मंडल (उर्मि विंदु) पं बीज से घिरा हुआ गोल और काले रंग का स्था अक्षर से युक्त होता है ।
अर्थः- (नभ) आकाश मंडल हा अक्षर से युक्त नीला और गोल होता है । पृथ्वी मंडल को स्तंभन कर्म में जलमंडल को धर्म अर्थ आदि में वायु मंडल को विद्वेषण और उच्चाटन में तथा अनि मंडल को वशीकरण में लगाना चाहिये ।
कार्या दिव्यादिके स्तंभे पीतं बीज विमध्यगं द्वेषे साध्य द्वयं कृष्णं परस्वर परांमुवं
रोगादिव्यसने प्राप्ते वध चौर नृप गृहे
संहारणे जपेन्मलं रिपोरू चाटने सितं अर्थः- (अग्रि) दिव्य वस्तु आदि के स्तंभन में मंत्र के बीच में पीले रंग के बीज को रखना चाहिये। अर्थः- विद्वेषण में काले रंग के साध्यों के नाम को एक दूसरे से विपरीत (परामुख) करके रखे रोग आदि कष्ट के आने पर फांसी चोरो राजद्वार मारण या शत्रु का उच्चाटन करने में मंत्र का असित ध्यान करे ।
आत्मीय पाद पतित महदक्षर मध्यगं
उदगच्छद्भास्करा रक्त वश्ये साध्ये विचंतोत् वशीकरण में साध्य को अपने पैरों में पड़े हुए अर्हत अक्षर (हैं ) के बीच में पड़ा हुआ और मंत्र को निकलते हुए सूर्य के समान लाल ध्यान करे।
CHSDISIST50150505125 २५७P/510525050510151215
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CTERISTISTOISO1505 विधानुशासन 315251955I5DISCIE
क्षीर धारोज्वल स्वांतं कर्म मालिन्य वर्जितं स्व महंद्रीज मध्यस्थं धर्मादापी विलोकोत्
(६८) अर्थः-धर्म अर्थकाम आदि में अपने हृद्धयको क्षीर समुद्र की धारावो के समान कर्मो की मलीनता को गडिट और अपने आपको अर्हत (है ) के बीच में बैठा हुआ देखें ।
पूर्वाह्न वश्य कर्माणि मध्याहे प्रीति नाशनं उच्चाटनमपरान्हे संध्यायां मारणं स्मृतं
शांति का रालौ च प्रभाते पौष्टिकं तथा वश्यादन्यानि कार्याणि सत्य हस्ते नियोजयेत्
(७०) अर्थः - वश्य कर्मो के दुपहर के पहिले विद्वेषण कर्म को दुपहर को और उच्चाटन कर्म को दुपहर पीछे और मारण कर्म संध्या के समय करे ।
अर्थ:- शांति कर्म को आधी रात में और पौष्टिक कर्म को प्रातः काल में करे । वशीकरण और आकर्षण के अतिरिक्त अन्य कार्यो को दाहिने हाथ से करे।
वश्य विद्वेषणोचाट स्थंभनाकष्टि शांतिके सोमाय मरूत्पूर्वे दक्षिण पश्चिमादिशः
(७१)
एवं मंडल दिकाल बीज वर्ण विशारदः एकाग मानसः कार्य साधये द्वांछितं बुधः
(७२) वश्य कर्म को उपर दिशा में विद्वेषण को पूर्व दक्षिण के बीच में अग्नि कोण में उघाटन को पश्चिमोत्तर वायव्य कोण में स्तंभन को पूर्व दिशा में आकर्षण को दक्षिण दिशा में और शांति कर्म को पश्चिम दिशा में करे । पंडित पुरुष इस प्रकार मंडल दिशा काल और बीजाक्षरों को जान कर एकाग्रचित्त होकर कार्य को सिद्ध करे ।
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प्रमाण
علقات
अथातः संप्रवक्ष्यामि श्री मपार्थ जिनेशिनः धम्र्म्मार्थकाममोक्षाणं निदानं ध्यानं ध्यान मुक्तमं
(१)
अर्थ:- अब धर्म अर्थ काम और मोक्ष के कारण श्री पार्श्वनाथजी के उत्तम ध्यान का वर्णन करूंगा।
সभই
الدانة
(२)
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959595959
विधानुशासन 9595959595
पूर्णेदुं मंडलाकारं छत्र लय विराजितं मुक्ता कांति दलै द्विव्यै र्वाच्य मानं सुरासुरै
(३)
अर्थ:- चौबीस पत्रों युक्त कमल की कर्णिका के उपर समवशरण के बीच में सोने के सिंहासन पर विराजमान
अर्थ:- पूर्ण चंद्र मंडल के आकार वाले मोतियो की कांति के समान दिव्य कांति वाले तीन छत्रों छों से सुशोभित सुर और असुर से स्तुत किये जाते 烈 I
धरणारंग राजेन पद्मावत्या सनित्यशः
पार्श्वेच दक्षिणे वामे सद्भक्तया कृत सन्निधिः
(४)
अर्थ:- दाहिनी तथा बाई तरफ भक्ति से खड़े हुए नागेंद्राधिपति धरणेंद्र और पद्मावती देवी सहित
अमृत श्राविणोजंतु सर्व संमोहहारिणां
दिष्टवा सेविनां धर्म विश्व लक्ष्मी प्रदायिकं
अर्थ:- सब संसार के प्राणियों के मोह को नष्ट करने वाले अमृत को बरसाते करने वाले समस्त संसार की लक्ष्मी के देने वाले
भवार्णव पतज्जंतुयान पात्रमभंगुरं
व्याधि जन्म जरा मृत्यु वन वन्हि धनाधनं
हुए
मोहध्वांत समाक्रांत वस्तु वचार भास्कर
विश्व लोक चकोराक्षी संपूर्णेक निशा करं
(4)
धर्म को सेवन
(६)
अर्थ:- संसार रूपी समुद्र में गिरते हुए प्राणियों के लिये कभी न टूटने वाले जहाज स्वरूप जन्म जरा मृत्यु के रोगों रूपी वन के लिये महा भयंकर अग्रि स्वरूप
(७)
अर्थ:- मोह रूपी अंधकार से पकड़े हुए वस्तु तत्व के विचार के लिये सूर्य संपूर्ण लोक रूपी चकोर के नेवों के लिये पूर्ण चंद्रमा को
नमन्नराधीश मौलि मालार्चित क्रमं पुण्य पापविनिर्मुक्तमपि पुण्यैककारणं
(4)
अर्थः- नमस्कार करते हुए राजाओं इंद्रों के मुकुटों की माला से पूजित चरण वाले पुण्य और पाप से रहित पुण्य के एक ही कारण
959595959595P २६० P/SPSX
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959595952
विधानुशासन 9APPSSPP
सर्वातिशय संपूर्ण सर्व लोक पितामहं सर्व सिद्धि मयंदेवं सर्व सत्वाभय प्रद
जगत्पूज्यं जगद्वंद्यजगद्देवं जगदरं जगच्चूडामणिं जगन्नाथ जगत्कल्प मही रहूं
पुण्यानुवं पुण्यानां सारे रिव विनिर्मितं तुषार हार कर्पूर गौक्षीरेन्दु सुधोज्वलं
(९)
अर्थ:- सर्व अतिशय से पूर्ण सब लोक के पितामह सर्व सिद्धि रूप देव सब प्राणियों को अभय दान बाले जगत में पूज्य जगत से नमस्कार किये जाने योग्य जगत के देवता जगत के गुरु जगत के स्वामी जगत में सब से उत्तम जगत के कल्प वृक्ष ॥
(१०)
अनंतांनद निस्पदं सुधा सिंधु सुधा करं राग द्वेषोजितं ध्यायेत् श्री मपाश्र्व जिनेश्वरं
(११)
विश्व लयोपकाराय परमात्मानमिव स्वयं सर्वान् सुधाप्ते शिरव रादवतीर्ण महितले
(१२)
अर्थ:- पुण्य के कारण से बंधे हुए को स्वरूप धारी सार रूप बरफ कपूर गो दुग्ध चंद्रमा और अमृत के समान उज्वल
अर्थ:- तीनो लोक के उपकार के लिये स्वयं परमात्मा के समान सब को अमृत का पान कराने के लिये लेक के शिखर से पृथ्वी पर उतरे हुए
(१३)
अर्थ:- अनन्त आनन्दामृत के निश्चल समुद्र मे के चंद्रमा और राग द्वेष रहित श्रीमान पार्श्वनाथजी जिनेश्वर का ध्यान करे
द्वादशामि कुलंकं यत्किंचित दुर्लभं लोके यद्दूरं
चहुष्करं पार्श्वनाथ भवत्पादौ वरंयति स्वंय बरः
(१४)
अर्थ:- लोक में जो कुछ भी दुर्लभ दूर और दुष्कर है यह है भगवान आप के स्वयं वरण करने वाले चरण वही देते हैं।
OSPSPSPSP59595 २६१/SPSPSP5969595
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तीर्थाधिनाथ कमलापि समुत्सु के वितं । वांछितप्रथित निर्मल पुण्य राशि
देवाधिदेव मरिवलारि कंराद्र सिंह यः पार्श्वनाथ मिह सं स्मरति त्रिसंध्यं
(१६)
अर्थ :- हे तीर्थेश्वर लक्ष्मी भी आप से लीन हुई के समान मानो प्रसिद्ध और निर्मल पुण्य की राशि की
इछा करती है
(१५)
अर्थ:- इस प्रकार तीनों संध्यायों के समय देवतावों के देवता समस्त शत्रु रूपी हाथियों के लिये सिंह रूप श्री पार्श्वनाथ जी भगवान का स्मरण करना चाहिये ।
प्रभु ध्यात्वा ततो ध्यायेत के सरेषु दलेषु च मंत्राक्षराणि तीथॆशान ततः शासन देवता
एतद्ध्यानात् पलायंते क्षुद्रोपद्रवव्याधया अविधा प्रलेयं यांति सन्निधौ सति देवता
(१७)
एकैकमक्षर देवं विश्वद्योत करं स्मरेत् संनिध्य कारिणी देवता सर्वाः प्रभा
(१८)
अर्थ:- भगवान का इस प्रकार ध्यान करके फिर केशर और दलों में मंत्र के अक्षरों तीर्थकरो और सब शासन देवियों का ध्यान करे
अर्थ:- एक-एक अक्षर देव और सब देवियों को समस्त जगत को प्रकाशित करते हुए ध्यान करे
(१९)
पारथित्वा ततो ध्यानं साक्षादिति पुरः स्थितः देवाधिदेवं श्री पार्श्व स्तुयं नित्य महोत्सवैः
(२०)
अर्थ:- इस ध्यान से जो भी छोटे-छोटे उपद्रव और रोग होते है यह सब भाग जाते है और देवियों के पास आने पर अविद्याएं पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है
अर्थ:
:- इस प्रकार साक्षात् सामने खड़े हुए के समान ध्यान करके फिर देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथजी का बड़े बड़े स्त्रोतो से स्तुति करे ।
॥ इति ध्यानाधिकारस्तृतीय ॥
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CSP596959
विद्यानुशासन 9595951959नक
एवं श्री पार्श्वनाथस्य मंत्र यंत्र पवित्रत: गुरूपदेशतः प्रोक्तः सम्टागाराधन क्रमः
प्रभोः प्रसाद माहात्म्यक परिज्ञातु मर्हति स्वस्य बुद्धय नु सारेण लेश मात्र मुदिरितं
(२)
के
अर्थ:- इस प्रकार श्री पार्श्वनाथजी भगवान के पवित्र मंत्र यंत्र और अराधना क्रम का गुरू: उपदेश के अनुसार वर्ण किया गया है
(१)
अर्थ:- इस भगवान के प्रसाद से पूर्ण महत्व को तो भला कौन जान सकता है किंतु यहां अपनी बुद्धि के अनुसार थोड़ा सा ही वर्णन किया गया है ।
दाक्षिण्येनो परोधेन लाभालाभ भयादिभिः मिथ्या दृष्टौ दुविदग्धे नैव मंलं नियोजयेत्
॥ दीक्षा विधि ॥
संघ पूजां विधासासी कृत्वा तीर्थप्रभावनां गृहीयादेन माम्रायं महोत्सव पुरस्सर
(३)
लोभाद्यैर्य :
एतद् गुण विहीनेपि प्रयच्छति शिष्ट मात्मानमत्वं संतृतीयं विनाशयेत्
(४)
अर्थ:- इस मंत्र को चतुरता अनुरोध लाभ अलाभ अथवा भय आदि से मूर्ख मिथ्या दृष्टि को कभी नहीं देये जो पुरुष इस मंत्र को इन गुणों से शून्य पुरुष को लोभ आदि से देता है वह अपने शिष्टाचार, आत्मा और वंश तीनों को ही नष्ट कर देता है !
(५)
(६)
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां ग्रहणे दीप पर्वणि चंद्रा तारा वले शिष्यं शुभ लग्ने दीक्षयेदुरु अर्थ:- इस मंत्र को संघ की पूजा और तीर्थ की प्रभावना करके बड़ा भारी उत्सव मना कर लेवे अर्थ:- गुरु शिष्य को अष्टमी चतुर्दशी ग्रहण, दीपमालिका या उत्तम चंद्रमा और नक्षत्रों के होने पर उत्तम लग्न में ही दीक्षा देवे
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Boss
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SASIRISTOT51251215105 विधानुशासन ADIOSDISTRISO15I015
नैवेद्य फल दीपायै एहत्संरटौ मनोरमैः पूजयित्वा प्रभुं चक्रं दधानंमस्सहैमकं
एतदादाय लभिमन राज्यादपि गरीटासा आत्मानं बहु मन्येत् श्रद्धा संवेग तत्पर
(८) अर्थ:-चौबीस उत्तम उत्तम नैवद्य फल दीप, और सोने आदि से भगवान की पूजन करके चक्र को धारण किये हुए
अर्थः- इस विद्या को लेकर श्रद्धा और वैराग्य में लगे हुए राज्य के भी लाभ से इस लाभ को बहुत अधिक समझ कर अपने को अहो भाग्य समझो
ब्रह्म चक्रे चकाधि विधिना पूर्व वासरे आराधयेदि मंतं यावज्जीव मरवंडित ।।
इति दीक्षा विधि:
अर्थ:- इस मंत्र को जन्मभर अखंडित रूप से यंत्र आदि की विधि से ब्रह्म चक्र में आराधना करे
॥ श्री पार्श्वनाथ जिनपति चक्रं मोक्षार्थेनारचितं॥ अर्थ:-यह श्री पार्श्वनाथ जी भगवान का चक्र मोक्ष की इच्छा करने वालों के यास्ते बनाया गया है।
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PSYSPSPSPSS विधानुशासन SP596959595
श्री पार्श्वनाथाय नमः श्री भद् विद्यानंदी स्वामी विरचित ॥ श्री कलिकुण्ड कल्प ॥
कलिकुण्ड नमस्कृत्य पार्श्वनाथाभिवाचकं । कलिकुण्ड प्रभेदानं वक्ष्ये साराधन क्रमं अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ स्वामी के चावक कलिकुण्ड को नमस्कार करके कलिकुण्ड के भेदों को आराधना विधि सहित कहूँगा ।
॥ १ ॥
हूं कारं ब्रह्म रूद्धं स्वर परिकलितं वज्र रेखाष्टभिन्नं । वज्र स्याग्रांतराले प्रणवमनुप मानानाहतं सश्रणिंच तद्विदंते
वातयान संपिडान ह भ म र झ स खान वेष्टये वज्राणां यंत्र मेतत्परकृत पर विद्या विनाशे प्रयुक्तं ॥
अर्थः- ब्रह्म (ॐ) से घिरे हुए हुंकार को स्वरों से घेर कर उसके चारों तरफ आठ वज्र रेखाओं से बँधा हुआ हो और प्रत्येक अतंराल में अनुपम (ॐ) चीज अनाहत् ( उ ह्रीं) तथा ह भ म र घ झ सख पिंडो से युक्त हो इस बच्चों के यंत्र का प्रयोग दूसरों की विद्या को नष्ट करने के लिए किया जाता है।
ॐ ह्रीं श्रीं जैन बीजं तदुपरि कलिकुण्डेति दंडाधिपायं स्फां स्फी स्क्रू स्क्रौंः
स्क्रः ॥
इति चतुरतोपात्मविद्यां च रक्ष रक्षेत्यन्यस्व विद्यां स्फूरतिमनुपमं छिंद भिंद द्वयांते हुं फट स्वाहेति मंत्र जपतु द्रद्रः मना अन्य विद्या विनाशे
अर्थः- ॐ ह्रीं श्रीं जैन बीज (हैं) लिखकर उसके ऊपर कलिकुंड स्वाभित्रतुल चल वीर्य पराक्रम दण्डाधिपति फ्रां क्रीं स्फूं स्फ्रें स्फः आत्म विद्यां रक्ष रक्ष पर विद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद हुं फट्
॥ २ ॥
स्वाहा ।
अर्थ:- इस मंत्र को दूसरे की विद्या के नाश के लिए दृढ़ मना होकर जपना चाहिये । ॐ ह्रीं श्रीं हैं कलिकुंडदंड स्वाभिन्नतुल बल वीर्य पराक्रम स्फ़ां स्फ्रीं स्फः स्फ्रें स् देवदत्तस्य सर्वकार्य सिद्धिं कुरु कुरु आत्म विद्यां रक्ष रक्ष परविद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद हुं फटस्वाह ॥ 959595959599 PSP596959595951
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CASIRISRADIOTSTOTRICT विधानुशासन PASTOTRICISTOTRASES
इति पर विद्या छेदन मंत्रोद्धारः
एते पिंडा समाःक्ष ह भ म यर झोन युक्ताः, प्रकर्तुमत्यांना सर्वदाहज्वर भर हरणं सर्व पीडाविनाशं यंत्र श्री खंडालिप्तेलिरवत सु विशदें कांस्य पात्रे त्रिमुष्टि
प्रोन्नत्पाद राष्ट्रा विविध गुणवतो मंत्रवादी समर्थः॥ अर्थः- उस पर विद्या छेदन मंत्र में उन पिंडों के स्थान म ह भ म य र घ और झ पिंडो को लिमकर यंत्र बनाने से मनुष्यों के सबप्रकार के दाह ज्वरों का बोझ हलका होकर सब पीडायें नष्ट हो ना तो इस यंत्र को चंदन से तीन मुट्टी मुंचे काँसी के बर्तन में डालकर लकड़ी से अनेक प्रकार के गुणों से मंत्री को लिखना चाहिये।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं च बीजं तदुपरि कलिकुंडेति दंडाधिपं च दा हो पेतोग्रौत्य ज्वर तर हरणं सर्व पीडा दिनांश कुर्यादात्मान्य विद्यानिवहमनुदिनं रक्ष छिंद द्वयंति ।
ॐ ऐं ह्रीं श्री बीज (है) कलि कुंड दंड स्वामिनः अर्थः- अतुल बल वीर्य पराक्रम के पश्चात् पंडित का नाम लिखाकर दाह ज्याराद्य उपशांति कुरू कुरू लगावे फिर आत्म विद्यां रक्ष रक्ष परविद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद लिखकर
श्री ह्रीं ऐं द्वेष बीजं तदुपरि विलिरव्योच्चाट बीज च होमं (हुं द्वेष बीजं उच्चाट बीजं फट् बीजं स्वाहा होम) श्री हीं ऐं उच्चाटन यीज हुं फट् और होम (स्याहा) लगाये इस मंत्र को यंत्र में लगाकर जप करने से अत्यंत तीव्र ज्वर से पीड़ित पुरुष को भी सब पीड़ा दूर हो जाती है।
अस्य मंत्रोद्धारः ॐ ऐं ह्रीं श्रीं है कलिकुंड दंड स्वामिन्नतुल बल वीर्य पराक्रम देवदत्तस्य दाह ज्यराद्युपशांतिं कुरू कुरू आत्म विद्यां रक्ष रक्ष पर विद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद श्रीं ह्रीं ऐं हुं फट् स्वाहा।
इति ज्वरोपशमन यंत्रोद्धारः SASTRITICISRASOID00505 २६६PXSTOESIRISTIO150SOTECISI
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CASIRISTRISTICISIOSIOS विघानुशासन 2150ISDIHOTSIC55055
NA
*ही श्री पाश्र्वनाम्माय भरणेद्र पावती सविताय हम मा यी भूमी मः कालकुछ अतुल माल जीर्य माक्रप देवदत्तस्य साकिस्यादि भपीपशमन कुरु २ । मात्म विद्या रक्ष २ घर
विद विदफट् स्वाहा।
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"
सर्वः पि: प्रसिद्धैः क्ष ह भ म य र पै। जातं कांतैश्च टांतै लति विदुर्द्ध रेफैः परिमल वर यूंकार समर्थे : शाकिन्यो टांति नाश पर लक सहजाचैव संवेष्टयेत्तान् ॥
ब्रह्माण्यटौश्व वेष्टया प्रमित भुवनपाी स्तुतैक्षात होमः ಗದಗಣಗಳು R&vಣಣಠಣಪ55
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CISIOSDISTRISTOTSITE विधानुशासन NSP595510351555105 अर्थः- उस पूर्वोक्त पर विद्या छेदन यंत्र को क्ष ह भ म य व र घ जांत (झ) कांत (ख) टांत (ट) और लांत (व) अक्षरों को मलबरम (म्ल्व ) सहित पिंडो तथा व र ल क स ह ज और च बीजों से उनकी आदि में ॐ ह्रीं और मंत्र में होम (स्वाहा) सहित यंत्र येष्टित करें।
ॐ ह्रीं क्षल्वयूँ ह भ म य र यज्ञ व ठ व वरं लं कं सं हं जं मं स्वाहा ।। ॐ ह्रीं श्रीं पार्श्वनाथाय फणिपति मंतस्तद वधु टांत पिंपडं मां मी मूक्ष्मैं:क्ष्मः एतत क्ष्मौ इति च कलि कुंडेति दंडाधिपायां हुं फट् स्वाहात मंत्रो जनयति च भयं
शक्तिनीनां विद्यते भूर्या वध्वा च भव्यो जयतु दृढ़मना सर्व कर्म प्रसिद्धटौ ।। अर्थः- ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथाय के पश्चात फणिपति (धरणेन्द्र) और उसकी स्त्री (पद्मावति) का नाम लगाकर टांत पिंड (ठम्ल्यू) क्षमा क्ष्मी दमूं दमौ दम दमः के पश्चात कलिकुंड दंड आदि लगाकर अन्त में हुं फट स्वाहा लगावे इस यंत्र सहित भोजपत्र पर लिखकर बाँधने और इसमंत्र को दृढ़ चित्त से जपने से सब कार्य सिद्ध होते हैं।
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथाय धरणेद्र पावति सहिताय ठम्ल्बर्दू मां क्ष्मी क्ष्मू क्ष्मौं दमैं क्षमः • कलिकुंड दंड स्वामिन् अतुल बल वीर्य पराक्रम देवदत्तस्य शाकिन्यादि भयो मनं
कुरू कुरू आत्मविद्यां रक्ष-रक्ष परविद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद हुं फट् स्वाहा॥
इति शाकिन्यादि भयोपशांति कत यंत्रोद्धारः यंत्र त्रस्य वजाग्रे विलिरवेत् पूर्ववत् कमात्
ह्रीं कारं शिरसा वेष्टयं को कारण निरोधयेत् ॥ अर्थः- उस पर विद्या छेदन यंत्र के वजों के आगे क्रम से ह्रीं कार से तीन बार वेष्टित करके क्रों से निरोध करें।
पृथ्वी मंडल मध्यस्यं कुर्याद् यंत्रेशमुत्तमं
घकलिकुंड समारख्यातं रंध्र संस्ट.या समन्नुतं ।। अर्थः- फिर इस रंध्र (आठ) संख्या युक्त कलिकुंड नाम के मंत्र को उत्तम यंत्र राज को पृथ्वीमंडल के बीच में करे अर्थात् इसके चारों तरफ पृथ्वी मंडल बनावे।
मंत्रोपि पूर्ववत् ज्ञेयो यंत्र राजस्य तत्क्रमः जयं च पूर्ववत् कुर्यात् मंत्रवादी समाहितः ॥
FORSERISTICISIOISTRISSISRTE २६८21525RISTORICISTRISTRIER
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PS विधानुशासन 959595959595 अर्थ:- इस यंत्र राज का मंत्र पूर्व के समान हो जानना चाहिये मंत्र वादी इसके जप को भी एकांत चित्त से पहले ही के समान करें।
शाकिन्य पस्मारादि ग्रह पीडां विनाशयेत् । भगंदरादि रोगाश्च नाश्येन्नाशंशयः ॥
अर्थ:- यह यंत्र शाकिनी भी अपरमार और ग्रह पीड़ा आदि को और भंगदर आदि रोगों को निस्सन्देह नष्ट करता है।
॥ इति अनेक फल प्रद नव कलिकुंड यंत्रोद्धारः
समाप्त : अथ तेषां यत्राणां फल व्यावर्णान्नमभिधीयते
अर्थः- अब उन यंत्रो के फल आदि का वर्णन किया जाता है। क्ष, ह, भ, म, य, र, घ, झ, ख, ठ, व, बिन्दु उर्ध्व म ल व र रेफ सहित म्ल्वर्यू कार संयुक्त व, र, ल, क, स, ह, ज, म, से वेष्टित कर ब्रह्माणी आदि आठों से वेष्टित करें। प्रमित भुवानाधि को स्तुति करे अंत में होम, मंत्तर स्वाहा लिखे। और पूजन में भी स्वाहा शब्द से होम करें।
अर्थ:- हुंकार ब्रह्म रूद्ध अर्थात् ॐ से वेष्टित बाहर स्वरों से वेष्टित और हकार के बाहर वज्र रेखा, आठ भिन्न-भिन्न अलग-अलग रेखा लिखे अंतराल में उकार, अनुपम, अनाहत लिखे और आठों दिशाओं में आठ पिंड़ाक्षर लिखे हम मरघसख लिखे एक पाखंडी में बीच में तो एक पिडांक्षर और दोनों तरफ अनाहत लिखो और कर्णिका माहिकलि कुंड मंत्र लिखो और आठदल कमल में आं वेष्टित करो। फिर माया हीं से तीनबार वेष्टित करो फिर चौकोर पृथ्वी वलय लिखे, दोनो बीज लिखो आठ दिशा में आठ बीज लिखे यं, र, ल, वं, शं, घं, सं, हं चारों कोण में चार क्षकार लिखें और चारों कोणों में ४ लंकार लिखो फिर मायबीज ह्रीं में वेष्टित करो क्रों से निरोध करो ।
उत्तराभिमुखो मंत्री निर्जने कांश्यभाजने
मुष्टित्रय प्रमितया लेखिन्या दर्भ रुपया ।
अर्थ:- मंत्री एकांत स्थान में उत्तर को मुख करके कांसी के बर्तन में डाम की बनी हुई तीन मुली लम्बी कलम से इन यंत्रों को लिखे ।
श्री पार्श्वनाथ पुरुतः शुभ ध्यान परायणः सुगधैः कुसुमैः श्वेत शतमष्टोत्तर जयेत्
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CSCI5050SRISO15 विधाकुशासन PASCI5DISCSCISSION अर्थः- फिर उत्तम ध्यान में लगा हुआ श्री पार्श्वनाथ स्वामी के सामने सुंगधित श्वेत पुष्पों से एक सो आठ बार जपे।
- -
aanaam
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... है।
*ही श्री आई कतिका दंड म्वामिन तुल अल नीम परामदेवनय दाह
मर पनाति कुल २ पर raat NE२ पिए की ही बारम्बाहा ।।
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CISIOSISTE25252505 २७०PISTRISODRISORRHOISI
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STSICROSOTRICTERIS विद्यानुशासन PSIRISTRISTOISTRISION
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अर्चयित्वा ततो यंत्रं पायचेत् साध्य मंभसा।
इत्येवं कारयेन्मंत्री फलं यावद्दिने दिने दिने दिने। अर्थ:- फिर मंत्री यंत्र का पूजन करके उस यंत्र को जल से धोकर साध्य के पिला दे इसप्रकार करते हुये मंत्री को प्रतिदिन अधिक अधिक फल होता है।
परविद्या प्रणश्यति फल जिष्फादन क्षमा।
शाकिनी भूता वेताल पिशाच ब्रह्म, राक्षसाः॥ अर्थ:- शाकिनी भूत वेताल पिशाच और ब्रह्म राक्षस के फल उत्पन्न करने वाली दूसरे की विद्या नष्ट हो जाती है।
अपमृत्युश्चतं साध्यं न स्पृशांति कदाचनः
शूल विसूचि का जीर्ण लूति विस्फोट कादयः ಜಗಣಸಹಜಡ Ret 59555ರಿಪಡ
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STORISTOISRTSRISE विद्यानुशासन SISTOISRTSDISCISI
अभिचार कता रोगा विष स्थावर जंगमाः
इत्ये वमांदयो रोगाः प्रशमयांति तत तणात् अर्थः-इससे उस साध्य की दर्द, हैजा, पुरानी खाज, और फोड़े आदि से होने वाली की किसी प्रकार की अपमृत्यु नहीं होती है। अर्थ:-अभिचार से होने वाला रोग स्थावर और जंगम विष तथा अन्यप्रकार के रोग भी उसी क्षण शांत हो जाते हैं।
गर्भिण्टापि सुखेनैव प्रसूतै स्तैस्तनु मव्यथा मृतवत्सापि जीवं तं वंध्यासु लभते सुत।
दुर्भागाशुभागां चैव पुष्पिता स्यादपुष्पिता
चंदनेनामुना योगादा लिपसि दिन प्रति। अर्थः- गर्भिणी के बड़े सुख से बद्या होता है बधा मरजाने वाली के पुत्र चिरायु हो जाते है। और बंध्या को भी पुत्र की प्राप्ति होती है बदसूरत स्त्री सुंदर हो जाती है मासिक धर्म से न होनेवाली के मासिक धर्म (प्रातुधर्म) होने लगता है उस चंदन के योग के प्रति उन्नति होती रहती है |
सिद्धंयति कार्य सर्वाश्च स्वयंमेव मर्गादशाः,
न केवलं राज वश्यं जन वश्यं भवत्यदं ॥ अर्थः-मृगनयनी स्त्रियों के सब कार्य स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। इससे केवल राज वशीकरण ही नहीं होता बल्कि सभी लोग वश में हो जाते हैं।
ज्वर मुष्णं शीतले च शीतले वारिणार्पित
उष्णोदके स्थितं यंत्रं ज्वरं नाशय व्यद्धतं ठंडे जल में यंत्र को डालने से गरम बुखार और गरम जल में डालकर देने से शीत ज्वर उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं।
॥ इति फलस्या वर्णनं समाप्तं ।। कुलिकुंड यंत्र के फल वर्णन समाप्त हुआ।
STEPISISTERISISTER1505 २७२P750501505DISCISCISI
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SARKARISTOTRICISIS विद्यामुशासन EPISOISIO505OSS
॥ यंत्र अभिषेक विधि॥ इदा नीम अभिषेक विधी समभिधीयते संसाध्यारिवल कल्याण मालो टेलोटाः श्रियम ॥ कलिकुंड मरवण्डात्मा भीष्ट मारोपयाम्यहम अनेनाह्वानन स्थापनं सन्निधीकर्णनि कुर्यात्॥
ॐ ह्रीं श्री क्लीं ऐं है कलिकुंड दंड स्वामिन् अतुल बल वीर्य पराक्रमअत्रावतर अवतर अत्र आगच्छ आगच्छ अत्रतिष्ट अत्रमम सन्निहितो भव-भव संवौषट् हुं फट् स्वाहा॥ अर्थ:- अब अभिषेक विधि का वर्णन किया जाता है सब प्रकार के कल्याणकारी कार्यों को करने वाले लदमीवान अखंडरूप कलिकुंड यंत्र का साधन करके अब इच्छा किये हुये कार्य को आरंभ किया जाता है (इसे पढ़कर आह्वानन आदि करे) अर्थः- इसके पश्चात एक शोक से कलश की स्थापना करके दूसरे से कलश से स्नान कराये तया तीसरे से आठों प्रकार का द्रव्य चढ़ाकर पूजन करें फिर एक-एक श्लोक बोलकर यंत्र को क्रम से जल केले द्रव्यादि के रस घी दुष्प नदी गंधोदक अर्थात् मुशित जल से स्नान करावें।
सत्पुरुष दान्माप्रविराजितेन पटेन पूणेनिसपल्लवेन, समंगलार्थ कलिकुंड देव पदाग्रभूमि समलङ्करोमि,
कलश स्थापनं शुद्रेन शुद्ध सरोवर हद पल्यल कूप यापी गुग, तटाकादि समातेन। शीतेन तोयेन सुंगधिना हं भक्तयाभिविषञ्चे कलिकुण्ड यंत्रम्। नीरे सुगंधै कलमाक्षतौयैः पुष्पह विभिवर दीप धूपैः।। स्वित फलौधैः कलिकुण्ड यष्पै सम्पूजयामी भीष्ट फलायत्तया।
अष्ठ विद्याचर्नम ये चोच मोचादि स दिक्षुजा ये द्राक्षा रसालादि फलोद्भवाये ऐभि रसैः स्वैरमृतोपमानै भक्त्यामि षिञ्चे कलिकुंड यंत्रम् ॥
ಗದರಿಬರಿಥಣ೯ಣಣತೆ 9986ಥಳಪಡದ
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CSIRIDICISCERISP विधानुशासन 150152I5DISCISION
नीरे सुगंधै रित्यादि.........।
चोचादि रस स्वपनम्। (केलारस) गोरोचनापिङ्गिल पावना युरारोग्य पुष्टयादि कत्तानराणाम् द्रा विष्टया सपत धारयाहं भक्त्यामि षिञ्चे कलिकुंड यंत्रम । नीर सुगंध रित्यादि............।
।। धृत स्नपनम्॥
कुन्दाव दातोत्पल सिन्धवार चंद्राशु मालाद्रव माहसद्भिः गव्यैः पयोभिः किमु माहिषैश्च भक्तयामि षिञ्चेकलिकुंड यंत्रम्॥
॥ दुग्ध स्नपनम ॥ ग्राहिष्ठगंधेन कुठार लोढय काठिन्य भाजाकर युग्मकनभि स्निग्धेन सच्चारुतरेणम् दग्धाभक्त्याभि षिचे कालिकुण्ड यंत्रम्। नीरे सुगंधी रित्यादि.....................।
दधि स्नफ्नम् नीरैमीभिनिर्विादाप गंद्यांनीतै हिमामोदि मृतालि वगैं आपूरितैः कोण घटेश्चुभिभक्तया भिषिञ्चे कलिकुंडयत्रम्। नीरै सुगंधैरित्यादि.....................।
कोणघट स्नपनम भक्त्याभिषिञ्चान्ति भजंति भक्तटा ये विद्ययातैः कलिकुंड यत्रम्। सुताहितज्ञामर कर्तिजस्ते यान्त्यर कर्म क्षयरूप मुक्तिम् ॥
इति कलि कुंडाभिषेकः समाप्तः॥ अथाष्ट विद्यार्चनामभिधास्ये
हूंकारं ब्रह्म रूद्धं स्वर परिवत्तमोमं तराग्राष्ट ब्रजे: स्फूर्जत्पाशां कुशाग्रे हभमर धझ ठ स रवै रया व सानैश्चपिंडैः।
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COPSPAPA
विद्यानुशासन 259595959526
सवेष्टया भीष्ट पुष्टयाह्य विकलि कलिकुंड समाहाने यह सेतुं भीमां स्त्रि माया परिवृत्तम कदौष्टय दुष्टोप सर्गान । ॐ ह्रीं श्री जैन बोज तदुपरि कलिकुंडेति दडांधिपाय स्फां स्फी स् स् स्फ्रौं स्फः इति चतुरस्त्र प्यात्म विद्यां च रक्ष रक्षेत्यं न्यस्य विद्या स्फुरण मनुपमं छिंद भिंद या हूं फट स्वाहेति मंत्र जयतु द्रद्रमना मना अन्य विद्या विनाशे ॥
अर्थ:- हुंकार ॐ रूद्ध १६ स्वरों से वेष्टित आगे ८ यज्ञ अक्षर स्फूर्जित देदीप्यमान हे पाश अंकुश सहित हमरझ स ख सहित हे वेष्टित हे मनोवांचित पुष्टि दायक हे मोहि कलि इति निश्चय करि कलिकुंड समान है माया करि ३ बार वेष्टित है दुष्ट का किया उपसर्ग दूर करता है।
मंत्रोद्धार
ॐ ह्रीं श्रीं अहं कलिकुंड दंड स्वामिन्नतुल बल वीर्य पराक्रम स्फां स्फी स्फू स्पौं, स् स्फः आत्मविद्यां रक्ष रक्ष पर विद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद हुं फट् स्वाहा ।
सं साध्याखिल कल्याण मालो ट्रेलोदयः श्रिद्यम कलिकुंड मखण्डात्माभीष्ट मारोपयाम्यहं । इत्यादिनां अव्हानन स्थापन सन्निधि करणानि कुर्यात् ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं कलिकुंड दांड स्वामिन्नतुल बल वीर्य पराक्रमः अत्रावतरावतर अत्र तिष्ठति अत्र मम सन्निहितो भव भय संयोषद् हुं फट् स्वाहा ॥
पंचत् कांचन रत्न रश्मि रुचिर भृंगारनालोच्छल त्कपूरो । लवणगंध द्यावदलिभि: सतीर्थ वार्भिर्वरं
रमा हमादि भिरंधोरोप सर्गपहं चायेश्री पार्श्व मसमं यामिष्टं सं ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं कलिकुंड पार्श्व प्रभवेजलं निर्वपामीति स्वाहा ।
तेज स्तत्व कलिकुंड सिद्धये ॥
श्री खंड द्रव कुकुमामल मिलत्कर्पूर पूरादिभि सांधै मधु भृन्मुखोच्छ मधुरा रावैर्मनोहारिभिः तेजस्तत्व रामा है मादि मिरिहं घोरोपसर्गापहं ॥
चाये श्री कलिकुंड पार्श्व मसमं चामष्टि सं सिद्धये ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं कलि कुंड पार्श्व प्रभवे गंध निर्वपामिती स्वाहा !
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9595959555 विद्यानुशासन 9969599595
प्रायच्छारख चारचंद्र किरण श्री स्पर्द्धि गंधाक्षतैः शाली रमलै विशाल कमलैः क्रोडो घृतैरक्षतै तेजस्तत्व... ।
................... зa... I
पुष्प चंपक पारिजात कनकां भोजे स्मिलन्याद्यवै मंदाराम मल्लिका प्रविकसत्पुन्नाग पुष्पैरपि । तेजस्तत्व... 1 ॐ ह्रीं श्रीं .....पुष्पं ....!
स्फूर्ज फार सुधा विशुद्ध मधुरान्नाज्येतु निर्यासजै नैवेद्यैः सुसुवर्णपात्र भरणाभ्यासै गुणज्ञोपमैः ॥ ॥ तेजस्तत्व..... । ॐ ह्रीं श्रीं ... चरू....।
ध्वांत ध्वंस समुद्धतो त शिरता व्यामांरालरेलं दीपैर्नव्यं दिवाकर भ्रमकरै: माणिक्यमामासुरै। तेजस्त्व ... । ॐ ह्रीं श्री ... दिपं .... ।
कपूरां गुरूदेवदारू दहनोद्य दिव्य धूपैर्मिल ।
राव वशीकृतामर वर स्त्रैणेर्मनो हरिभिः । तेजस्तत्व.... । ॐ ह्रीं श्रीं ... धूप .... ।
खर्जूरावर (कम्राम्रमल) मातुलिंग कदली सन्नाक्ति किरोद्रवैः । स्निग्ध स्वादु रसातिरेक विलसत्प्राकैः फलै निस्तुलैः । तेजस्तत्व.... । ॐ ह्रीं श्री .... फलं .... ।
इत्याराध्यां सुगंधाक्षत कुसुम निवेद्योल्लस द्वीप धूप प्रेषत् । सन्नालिकेरामल फल निकरौधैरैन धैरैनाध्य
पादौ दिव्यां सुगंधाक्षत कुसुमयुतं प्रोक्षिपाम्यं जलिं श्री पार्श्व स्थाखंड कीर्ते विकल कलिकुंडा कृतेरिष्ट पुष्टैः ॥ ॥ इत्यष्ट विद्यार्चनं निसंकल्प ॥
अथाष्टौपिंडाधिष्टा नृणां कमशः । प्रत्येकाव्हानादिनापि विधान भमि धीयत
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↓
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मात्र विद्यानुशासन 95959595969
। तद्यथा ।
निस्संकल्प विकल्पो धान दधातु जिनेशितुः
कलिकुं डैक भागस्थं हपिंडाराधकं भजेत् ।
ॐ ह्रीं हमल्थ्यू ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं हपिंडाधिष्टित कलिकुंड दंडा धीर्श्व अतुल बल वीर्य पराक्रम श्री मत्पार्श्व भगवतोऽहं तोंग पाला होत्र पूर्वमवतर अवतर तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सन्निहितो भव भव वषट् चोरारी मारि शाकिनी प्रभृति धोरोप । सर्गान पनयापनयममा भिनमनशेषं पूरा पूरा इदमं अर्ध्य पाद्यं गंवं अक्षतं पुष्पं दिपं धूपं चरु बली स्वस्तिकमक्षतं यज्ञ भागं च यजामहे प्रति गृह्यतां गृह्यतां मिति स्वाहा
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इवाह्नानादिकं कम' क्रियते त्रय इच्छया । तत्सर्व पूर्णतामिति शांति कादिभिरोदरात् शुक्ल ध्यान धनोदारारखंड चिपिंड मृद्विभो कलिकुंडक भागस्य भापिंडा राधकं भजे |
ॐ ह्रीं भच्यू ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं भापिडाधिष्टितेत्यादिशेषं पूर्वयत् ।
अर्थ:- उज्वल श्वेत वर्ण घट द्वारा ध्यान करे अखंडचित्त करके पिंड का अक्षर विभव का दायक
है |
मार मार्गेण निर्वेद मीतभव्य विभितिदं कलिकुंडक भागस्थ मपिंडांराधकं भजेत् ॥
अर्थ: जो काम मार्ग का भेदक है भव्य जीवोंको अभय करने वाला म पिंड अक्षर का ध्यान करें। ॐ ह्रीं म्मल्व ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं मपिंडाधिष्टतेत्यादि शेषं पूर्ववत् ॥
ब्रह्माग्नि मासितानंत भव संभव मूरूह | कलिकुंडैक भागस्थं रपिक्षराधकं भजेत् ।
ॐ ह्रीं रम्ल्यू ई ह्रीं ॐ आं कों हीं रपिंडाधिष्टतेत्यादि शेषं पूर्ववत् ।
घनाघनाद्य संघात धातित्वाद्य धन प्रभो
कलिकुंठै क भागस्थ घपिडाराधकं भजेत् ॥ 3 ह्रीं हम्ल्यू ई ह्रीं आं कों ह्रीं घपिंडाधिष्टितेत्यादि शेषं पूर्ववत्
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विद्यानुशासन 95959059519
9595195959
क्षरदक्षर पीयूष पूरा पूरात्म नोजसा कलिकुंडक भागस्य झपिंडारांधकं भजेत् । ॐ ह्रीं इम्ल्यू ॐ ह्रीं ॐ आं को ही दिधत्यादि पोषं पूर्ववत् ॥
दुष्टकर्माष्टि कोद्राममातंग मद भेदिनः । कलिकुंडैक भागस्थं स पिंडाराधक भजेत् ॥
ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं सपिंडाधिष्टते त्यादि शेषं पूर्ववतं ॥
श्री चंडोग्र पार्श्वस्य खसौरव्य विमुख्यस्यवै । कलिकुंडैक भागस्थं खपिंडाराधकं भजेत् ॥
ॐ ह्रीं रम्ल्यू ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं खपिंडाधिष्टतेत्यादि शेषं पूर्ववत् ॥
जलगंद्यामल तदुलपुष्पैन्नैवेद्य दीप धूप फलैः कलिकुंड दंड मंडन पार्श्वशस्यावतार या म्यये ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं कालि कुंड दंड पार्श्व प्रभवे अर्ध्यमवतारयामि स्वाहा
| अर्ध इत्यष्ट पिंडानां प्रत्येक पूजाः ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं कलिकुंड दंड स्वामिन्नतुल बल वीर्य पराक्रम आत्म रक्ष रक्ष पर विद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद स्फां स्फीं स्क्रू स्क्रौं स् स्फः हुं फट् स्वाहा । अनेन मंत्रेण अष्टोत्तरशत जपं कुर्यात् ।
इस मंत्र का १०८ बार जाप करना चाहिये
अथाशीर्वाद :
:
सर्पित्सपेंशदप स्फुट तरल तरोत्तर फूत्कार वेला ॥ संवतत्पत्ति वाताहत शठ कमठोद्भूत जीभूत जातान् ॥ खेलत्स्वर्गापवग्गीतिज्र्ज्जल जनित सल्लोल डिंडीर पिंडं ॥ व्याजात श्री पार्श्वरो ज्वल विजय यशोराज हंसोवताद्वः । ॥ इत्याशीर्वाद: ॥
PSPSPSPSSP २७८P/59595
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CTERISTOTSIRIDICIDE विधानुशासन DVSSIST5RITICISIS
ॐ मोमादि समाराध्य माराध्या राख्यातां ययः
चिवस्त्यमित्य हमिह कलिकुंड श्रिये श्रिटो ॥ अर्थः- कलिकुंड यंत्र कल्याण सुख मंगल का कर्ता है
कलिकुंड चिंदानंद खंड पिंड नमोस्तुते।
पारखंड खडनो दंडवतो कत वृतो॥ अर्य:- कलिकुंड अलंड पिंड को नमस्कार है यह पाखण्ड का खंडन करने वाला, सत्य स्वरूप प्रगट करने वाला है
तत्वांतर्वतिने तत्वा तत्व बोधेद्ध सिद्धये।
तुभ्यमुद्य चिदानंद सपदे संपदे नमः ॥ अर्थः- तत्व की पहली बात से तत्य ज्ञान की सिद्धि करती है। उद्यातकारी चिदानंद को नमस्कार हो जो संपत्ति लक्ष्मी करता है ।
संसाध्या सिद्ध संसिद्धि संसाध्य सिद्धये
श्री मते कलि कुंडाय नमोस्तेश्रुद्ध बुद्धटो। अर्थः- सुखकर साध्य है सिद्ध सुख सिद्ध देती है शोभायमान कलिकुंड को नमस्कार हो जो शुद्ध और बुद्ध है।
कलिकुंड सुधा कुठे निमज्जन्मनि संत्वयि।
चित्पिडा खंड शोभाग्य महोन्जोन्नोप सर्यति ।। अर्थ:-अमृत कुंड से उपज्या है चमत्कारी अखंड सौभाग्य का कर्ता है महान उपसर्ग को नहीं होने देता है। नरअमर के ईश्वर हो प्रसन्न चित्त हो सुलभ को दुर्लभ नहीं है।
नरामराहीश्वर मूतयस्त्वयि मपि प्रसन्ने सुलमान दुर्मभा।
यत्वत्प्रसादादः भवतः सभोग्यपि प्रभोविद्योगीश्वर भोग भोग्यपि ।। अर्थ:- आपके प्रसाद से सब भोज्य सामग्री मिलत है भगवान को भोज्यसामग्री प्रिय है।
विवियक विभूति भूषिणं त्वामुपति विनिवृतं भूषणं ।
कानि कानिकलिकुंड दंडिनं वाधितानि न भजति भक्तिका॥ अर्थः- विघ्न निविघ्र होय कयि की सीमा होती है अशोभनीय भी शोभा पाती है। कोने कोने में कलिकुंड का भक्त मनो वांछित फल पाता है। CRORTOISODEDIC75125 २७९PISIOTSID05120505101505
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C5P525252525 dengunan PSY5Y
पद्मावती पाणी पयोजपूजां प व्योजप्रजांधि पयोज युग्मं । त्वां तोष्ट मीष्टे कलिकुंड दंड स्वामिन्क्यं मादृग लब्ध वोद्याः ॥
अर्थः- पद्मावती के हाथ से कमल लेकर पार्श्वनाथजी के चरण कमल की पूजन से मनोवांछित पाता है ज्ञान की भी प्राप्ति करता है ।
तथापि मम चेतसि स्चुरित पत्र जंधिः प्रभोः पदांबुज यगी ततोमल मतिः ॥
5
अर्थ:- पद्मनंदिजी काचित्त स्फुरायमान होता है प्रभु के चरण युगल की निर्मल बुद्धि से स्तुति से आपका स्तोत्र उत्पन्न होता है। प्रभु के चरण युगल की निर्मल बुद्धि से स्तुति से आपका स्तोत्र उत्पन्न हुआ है। जिससे लक्ष्मी की वृद्धि होय इससे सत्पुरूषों को निर्मल शुद्ध संपदा होती है।
समुन्मीलति तव स्तव समुद्भवो वर्द्धमान श्रिये ततो यम निसं सतां विमल मूल
॥ अथ जयमाला प्रारम्भयते ॥
प्रोद्यत्सन्मणि नाग नायक फटा टोयोल्ल सन्मंडपं सद्भक्त्या नमदि मौलि मणिभिर्भास्वत्पदाभोरुहं प्रोन्मलिनक्तपा नील दालि पटली संकाश मुत्पादकं ध्याये श्री कलिकुंड दंड विलस चंडोग पार्श्व प्रभुः
भवतु । संघेनये ।
॥ १ ॥
सुविद्ध विशुद्ध विवाहैद निधान विकाशित विश्व विवेक विद्यान ॥ पिंडवित काम जगज्जय चंडसदा सदयोदय जय कलिकुंड ॥ २ ॥
पयोधि पयोधर धीर निनाद निराकृत दुर्मत दुर्मद वाद असत्य पथैक पतत्पविदंड सदा सदयोदय जय कलिकुंड ॥ ३ ॥
निराकुल निर्मल शलि निरीहनिगस निरंजन जिन नरसिंह विपाटित दुष्ट मद द्विपगंडसदा सदयोदय जय कलिकुंड ॥४॥
969595951969 २८०PS95959695959
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SOSOR52502525T05 विधानुशासन 57255125505250
कषाय चतुष्टय काट कुठार निरामय नित्य नरामर सार विदार्ण धनाधन विपकरंड सदासदयोदय जटा कलिकुंड ॥५॥
अनल्प विवल्प विहीन विकल्प विशल्प विसूल विसर्प विदर्प विरोग विभोग विरवंड विमुंड सदा सदयो दय जय कलिकुंड ॥६॥
फणीश नरेश महीश दिनेश सुमेश गणेश मुणीश विदर्क विकाशित शतदल तुंड सदा सदयोदय जय कलिकुंड॥७॥
विशोक विशकं विमुक्त कलंक विकाशित विश्व विदूरित पंक कला कुल के बल चिन्मय पिडं सदा सदयोदय जल कलिकुंड ॥ ८॥ निकंदित मोह महीरूह कंद वरप्रद सत्यद सपदं मंदं
त्रिदंड विरवंडित माय विरवंडसदा सदयोदटा जयकलिकुंड ॥९॥ याता:- कलिलमल नदक्ष योगि टोग्योपलक्षादय विकलिकलिकुंडोदंड पार्थ प्रचडं शिवसुरव श्रुम संपदास कल्ली वसंतं प्रतिदिन मह मीडे वर्द्धमान रिटी सिद्धौ निलयलि जल मलया तदुल कुसुमोरू परिमला ममलां॥ कलिकुंडाय समज्ञ ऋद्धयैः ददानि कुसुमांजलिं भक्तया।
॥ इति कलिकुंड जयमाला समाप्तः ॥ इदानीं स्तोत्र द्वारेण कलिकुंड मभिधीयते। देवाधिदेव जिन भायटातं देवाधिपैचंचित पाद पञ
नत्या जिनेन्द्रं शिव सौरव्य सिद्धौस्तोष्टये पत्रि कलिकुंड यंत्र। पूजा प्रकुर्वति नरा सुभक्त्या यंत्रस्थो श्री कलिकुंड नाम तेषां नराणामिद्द सर्वविद्यानस्यत्ययश्यं भुवि तत्पपसात् ।।
चित्ताबुजे ये स्व गुरूप्रदेशोप्याटांति नित्यं कलिकुंड यंत्रं सिहादयो दुष्ट भगा स्तुलोके पीडां न कुर्वतिनणां चतेषां युक्तां स्तुंधति कलिकुंड यंत्रं सर्वेसदोषा पह युक्तमत्तं मोक्षानध श्री पर चारु सौरव्य प्राप्ति स्तुते तेषां भवतीह सत्यं ।
CASTOISODIOSRADICAD215| २८१P3510151259IDIDIHOTSIOISS
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CADRISTOTRIOTECTICE विशनुशासन ASTRIDICTICISCISCESS
यंत्रस्य चिंता हृदोस्ति यस्य सद्धर्मरक्ता यतशील युक्ताः बध्यापि सत्पुलवती भवेत्सालोके क्रमात् स्वर्ग सुख प्रथांति ।।
स्मरंति यंत्रस्य विधानमेनं नसअहिंसादि गुणा प्रयुक्ता। ज्वर ग्रहणादी रूजोत्र तेषां प्रयांतिनाशं कुलिकुंड याता सुरासुरैशैरपि सेटयमानं समस्त दोषोज्झित बीजमालं ॥
यत्रं नराये कलिकुंडमेतेयेतन्नित्यं भजंत्यत्र भयं न तेषां। सर्वाग्नि तोयाहिं विषादि विद्यायांति क्षयंटस्ट वर प्रसादात्। तत् श्री जिनेन्द्रस्य सरोज जातं नित्यं नमः -
अर्थ:- देवाधिदेय भगवान कलिकुंड पार्श्वनाथजी के चरण कमलों को पूजें नमस्कार करें। मुक्ति के सुख की सिद्धि के लिए पवित्र कलिकुंड मंत्र की स्तुति करता हूँ जो नर भली भक्ति से पूजा करें तो सर्व विघ्न नही होय यंत्र के प्रसाद से चित्तकमल में आपका गुरू के उपदेश से निरंतर ध्यान करे तो सिंह आदि दुष्ट मृग उसको पीड़ा नहीं देखें। युक्ति से स्तये तो सर्वदोष हरे और उत्तम पद होय मोक्ष पावे पाप रहित लक्ष्मी श्रेष्ठ मनोहर सुख पावे। अगर इसको प्रतीति सत्य मन में रखे। यंत्र का स्मरण हृदय में रखे सत्य धर्म में लीन रहे शीलव्रत युक्त होय तो बंध्या के पुत्र होय लोक में अनुक्रम में स्वर्ग सुख पाये। यंत्र का स्मरण करे समस्त दोष दूर करे या विधान करे जीवरक्षा गुणयुक्त हो तो ज्वर संग्रहणी दूर होय सुर असुर निष्चय सेवा करे समस्त दोष दूर करे । जो इस यंत्र को धारण करे निरंतर भजे तो भयभीत न हो। सर्व अग्नि जल विष सर्वविष विघ्न दूर होय यंत्र के प्रसाद से मगर जिन चरण कमल को नित्य नमस्कार करे।
॥ इति कलि कुंड कल्प समाप्तः ।।
CSIRISTOTHRAICISARASTRAM २८२PISTRICISIODRISRASIDASI
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9595959595 विधानुशासन 959595959595
श्री पार्श्वनाथाय नमः
उवसग्ग भिवहजिण चरण निणमि सिर सास णाद भक्तीये । कलिकुंड चयेयं कम्म सहस्सा निवारेयि ।
कम्मा समसयलकवणं वा बारं क्रूर दिट्ठि उवसग्गे तंवारयति निग्धं कलिकुंड सुणीविद कथं ।
ररके वा पर विज्ने थंभनपर विद्ये मोहणे वसीयरणं तुठितंमण मारण विद्या विदेश कम्मभियं मोदारवीय मझं णामं यं लिखं वसुदयं पदवे अंगुल वो सुजुता चालण वीरांदले दले नियमा मूयं दलवणों लिक्यं सोह जुंग वाइणिर माहय कलिकुंड देवपूजा असयं कुण हरोपम मुणोहिं कर कंठ वाहु देशे धारई दवरक्क सहाणेणियमा सयल गह मूय शारणि ररटकाअरणं महायोरं
अयं रक्षायत्र
अर्थः- उपसर्ग हरण पार्श्वनाथ जी के चरण मस्तक से नमस्कार कर भक्ति सहित कलिकुंड यंत्र की पूजन करे !
कर्मसहश्र निवारण करें ।
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कर्म सकल नष्ट होये यह कालिकुंड पार्श्वनाथजी ने कहा है राक्षस कृत उपद्रव, पर शत्रुकृत उपद्रव पर विद्या, मोहन, वशीकरण, स्तंभन, मारण, विद्वेषन कृत सब कर्म नष्ट होय भोजपत्र व वस्त्र पर लिखकर कंठ, बाहू में धारे तो तत्काल शाकिनी ग्रहभूत घोर उपसर्ग नष्ट करें।
सिटयवसण कंस लिख्कह अंगुल वीयाणीणाम वेठेद्यं । आभिय करमंत वे ठई मुणिवर कलिकुंड तमंतं । सिटाटयं कय सर पूरक कलजु बत्तीस जोभणी सव्वं । आयकर मतं वेर आमिरांत सत्तणह वलयं पाइयं ॥ इसेय वसूण गंध लेविज्ज रोगि देहपर णासई । सव्वजण परविद्या णासणाई सन्ति परं ।
PPP८ २८३P/5195195
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95952959505015 विद्यानुशासन 1550 25050
शांतिक यंत्र
ॐ अर्हन्मुख कमल वासिनी पापावंक्षयं कारिणी श्रुत ज्ञान ज्वाला सहस्त्र प्रज्वलित सरस्वती अमुकस्य पापं हन हन दहदह क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्षः क्षीर वर धवले अमृत संभवे वं मं हं सं तं पं द्रां द्रीं इवीं क्ष्वीं हंसः स्वाहा ।
अत्रममृतमंत्र:
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः श्रीं ह्रीं कलिकुंड दंड स्वामिन सर्वरक्षाधिपतये देवदत्तस्य रक्षां कुरू कुरू स्वाहा
मूलमंत्राऽयं
॥ अयमेव रक्षा मंत्रीयं वेष्टन मंत्रश्च ॥
हुंकार रेह जुदं (रेफयुतं) अणल निरुद्धं सरेराह परिधिरयं (स्कार रूद्धं स्वरैः परिस्कृतं) वज्र रेहमिणं (वज्ररेरवाष्टभिन्न) वज्जते (वज्रन्ति) तहयतं लिहह (तथा चतत यत्रं लिख)
कंसेसु भायणामिति मुट्ठि माणेण सकुस दब्मेण । विर विद्य विद्या छेां पर विद्याणां ण संदेहो ॥
थाय जरं (स्थावर जंगमं ) वियना समई साहणि भुयाण रख सा जरका तत र र कमेण णासह दिट्ठ कलिकुंड दंडेण ॥ पुयकडणमियं आमिय सुमंतेणभीय अभियास्मि कलिकुण्ड दंड जुत्तं अट्ठसय लूण हतं पावे ।
ॐ ह्रां ह्रीं हुं ह्रीं ह्रः श्रीं ह्रीं कलिकुंड दंड स्वामिन्नतुल बल वीर्य पराक्रम पर विद्या छिंद छिंद भिंदभिंद आत्म विद्या रक्ष रक्ष हुं फट्
अयं यंत्र मंत्र ।
हुंकार रेफ युक्त अनल वायु तत्व कर निद्धकर फिर रेखा भिन्न भिन्न लिखे यह वज्र यंत्र है इसको अष्टगंध से डाम से लिखो तो परविद्या छेदन हो इसमें संदेह नहीं और छाया ऊपर ली नष्ट करे और शाकिनी भूत राक्षस यंत्र कृत उपद्रव नष्ट होते हैं। कार्य संपूर्ण होते हैं, अमृत मंत्र है सो कलिकुंड दंडयुक्त आठ अतिशय सहित रिद्धी संपद्धा पावें ।
9595
SPPA २८४PSI
P529526
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959595959593 विधानुशासन 95959595955
अणं च जतं लिखणव गेह मझां सणायतं वेढ़ । मयण महि जाणीत्थी वय यह अभिणाणि ॥ सरखहिजोईणी रुद्रं जोईणियं जो ईणाय अत्रेण । जोईयां तवदीयवलयं मतं पावहं चवुसट्टिणास परिपारि ।
एवं लरमोह जुय जोईणि पत्तेय दल चउरो । पट्ठमि तिउण माया सिय बसणे लिख सुहगिदे ॥
इय मंतण सुजवियं रत्तय सुणेण छिंदु सुहजुतं कलिकुडं । मंत संलिखजिण दर संसहरसाणी ॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः श्रीं ह्रीं क्लीं ब्लूं यूं स्त्रौं मदन मोहिनी कुरू कुरू त्रिभुवन वश्यं कुरू कुरू वषट ॥
अतर माय सुर्ण अठुतरकभुक दीवाई । अच्चण कालेदेयं पछास मतयाडिज्जं ॥
तर दुसहस्स होमं पूाम हुमहिस रिवसम्मि संरति हुयं वड समिपायसुण जयं वरुण दिसि मंति ॥
अट्ट दिसिंहके कं एकं ममि वसियकं काउ | काय स्सय पुडियं णाम वहिकाम मरोण ज्यां ॥
सोलह कलाउ एके कंवेढ्रं अच्छीगय रुद्धं । कोण कमेण्यलि खं अंतर कोण विचार द्रवणतं
जोणी कामणि रोहं महि वहि पासगाण बलाणंतं । तह अट्ट कोण लिख अंतर कोष्ठास्स आपारं ॥
गयरोहं अग्ग दले एहिम द्वाण वेठियं सग्धं । कालि कुंडाइयाणं कालतय भासियंणाणं ॥
9595959595950 २८५ 25905959595525
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CASTOTSIDDOSTOIED विधानुशासन 95851095DIEOSRESS ॐनमो भगवते मदमुदित मोहे वागीशरी कलिकुंडं मुक्ती प्रसादेन आंको ही बसेंद्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः सर्वजन वश्यं कुरु कुरु वषट्।
वसिययरण काम मोहण मणिया जंतेण कलिय कुसि। सिय वसणे सिय सहोणि खजई जासला काई ॥
जाई पणं रत्त चट कर बीर मल्लियाई इय पसुण। जव इणिच पमाणं अठसयं आठ दिवस कमे॥
अहवा वेढई सिद्धे जंतं काऊणभट पुरोलिरवं। उबलिं पूप विहाणं पुव्व वहिं जाण सुणि णाहो।
भूमितले णिरवी वियं पूपं काउण रक्ष कुसुमेण। एसई कलि कुंडाणं सात दिणे रावपसि टाराणं।
तश्य चक्रं समाप्तं ॥
अर्थः- यह यंत्र लिखकर अंदर नाम जो कार्य लिखे येष्टित यंत्र में करें यंत्र धारण करें तो मनोवांछित कार्य करे। फिर यह यंत्र सर्वजोगिनी से वेष्टित करे ६४ योगीनी से वेष्टित करे यह यंत्र मोहन है ।जोगिनी चारों तरफ लिखे और कलिकुंड मंत्र मुख करता लिखे जिसके सहश्र वर्ष पर्यंत प्रभाव कहा है। १०८ दीपक संध्याकाल देवे समभाव कर ध्यान करें। जिसका २००० होम करे और २० हजार जप करें पार्थदिशा में मुखकर जप करें। आठों दिशामि एकाएक और एक मध्ये यशी करण पल्लव पढ़े व यंत्र में लिखे तो कार्य सिद्ध करता है। १६ कला एक एक वेष्टित करे रोघण करे कोणायां अनुक्रम से लिखे अंतर कोण सहित सो द्रावण संज्ञा है। अंदर और बाहर आठ कोण लिखे अंदर से अंदर आचार्य लिखेगतिरूद्ध अग्रदल में है भांति सर्व स्थान से वेष्टित करें? ऐसा जो कलिकुंड आचार्य उनकी स्तुति पूजा से ज्ञान प्राप्त होता है। ॐ नमो भगवति इत्यादि यंत्र वशीकरण है कलिकुंड स्वामी का यह मंत्र मोहन मंत्र है।जाति पुष्प चमेली लाल कनेर मालती आदि १०८ फूल प्रमाणिक अतिशय कर्मकारी है। यह यंत्र सिद्ध कर्ता इसे कपड़े के संपुट में लिखकर पूर्व लिखित पुष्प से पूर्ववत् समझकर जाप करें। इस यंत्र को पृथ्वी में लिखकर लाल फूलों से सात दिन जप करके गाड़ने से राज्य वशीकरण जानो।
ಗದಡದಡಿ 346 ಪಥದಲೂಗಡಣೆ
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252525252525 Ruganeta PSPK विधानुशासन
आइतियंत मियं णारी पुरूसाणमोति भाईणी । कलिकुंड मुणिदाणं कहियामियं सव्व लोयसा ॥
जोणी कामणि वेयं विलासिणी तहय जोईमाहवई । सोलह कला णवलयं णामं संलिख णायँचा ॥
वाहि गीतं तंवहियं मह्माहर जोण पासवर्णावणीहि । हेय वहि गयरं याणं तेण पुरं तत्थ परि परियं ॥
पावटा पुरु वहि माणं वणाई उं ममदं संजुप्त । तेण वह मिय माया खोणीपुर तस्स परि परियंज्ज ॥
एवल स पिडं जुदं णामं सं विलिख्य वहि खेलयं । तेण पुरु म विहयं वायु गुणं पिंड परि परियं ॥
やめたいです
अणं जो पि पुराणं मेतं वहि णार्म रुद्ध बलयाज्ज ॥ महिणा वटुई अज्झो वाइतयं तस्स परिपरियं ॥
ॐ नमो भगवति हरोहर मोहमांतगिनी कलिकुंडा वरण मदा रक्त प्रिये रांरां मदन मुदिता वागेश्वरी सर्वा कृष्टिं कुरू कुरू आं क्रों ह्रीं क्लीं ब्लूं ऐं द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः नित्ये क्लिन मद्रये मदनातुरे अमुकी आकर्षय आकर्षय ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः श्रीं ह्रीं कलिकुंड स्वामि आज्ञापयति ह्रीं संवौषट् ॥
इयं मंतेणाय वेठई जवईज्जं तालतयेण कपं । पुतलि सुदापवणं वर गुहि णाणिस्वमणसम वहि तावणंणिरामा ॥
इच्छीय पुरुषा इच्छीसत्त दिशोहो तिसा णियमा । जिण वर कलिकुडाणं कहियमाणं मुणेराव्या ||
तिल सरिसव लवण जुयं पसुणं समेत परिणयं । काणिमियमसा फाणई सिकई आईडितिक्काले ||
SPOST PSPAPA २८७PPSPSPSPSP595
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SSOSIASTRISISTS विधानुन 8503 005015
इह विजा गुइ वरेयं जिणवर मटा सामण दाराव्वं।
जिणवर मुणियं एवं माणेयं कलिकुंड मुणिणाहई॥ आकर्षण चक्रमिदं
हूयारं रेह युदं अणलाणिरुद्धं कलिही परिपरियं वज्ज हरेह वढ़े इरको जट्ट चंदस्स।।
वेदई पिंड समतं कम च ट म अणाद समढाणं मणवरयूँ अण जूयं वज्जं तेलिक रव पिंडते ॥
णाव लिध्यांतं गहणं मद्धणामिण मूल मंत बहि । कमलदलसय समद्ध पणवमूह प्तेमणम वापार।
मंतते परिलि कूवं एक्कचण दले णियमा। हंस दल ग्राणं, अमिय सुमंतं वहिछेदां ।
वारि पुरं महिजत्तं वायु पवाहिरे सुचल इज्जो। सिय वसणी सुध गंधे सुह जोगे लिक्सतं जंतं।
कणय मद्य लोहणी ण वरुण दिशी सुद्ध भावे ।
फणि अंगे जिण संति संति णाह भावइ भती जापं पंच मंतण। ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह: श्रीं ह्रीं कलिकुंड स्वामिन् प्रसादेन णमो अरहंताणं श्री शांतिनाथाय अमुकस्य तुष्टिं पुष्टिं कुरू कुरू इची क्ष्वी हंसः स्वाहा।
इयं मंतं जवई कंतं जंतु वरिपमव तुष्टितं हवई णियमिय मणसा पुज्जभुण सहस्सेण सिझंति।।
मिय पसुणे जिणगे हे यंते शुद्ध देस। जवि इज्ज साल जण राम जंतं तुहि पुट्टि सुहप्तेइ ॥
णियमेणवंस्स का लंजवमिई सिद्धति सिद्धाणं
साल जल दाह चोरं इणि कुल णासणं सिग्धं ॥ SSIOISTO5CISIODICA5125 २८८P501525OSDISTRICISI
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SASSISTOTSIRIDICIS05 विधानुशासन ASTRITICISDISCISCISI
देसस राज युद्धि पीडानर पहुईणि घोर उवसग्गां। णासह दसण मित्तं भूप पिसासई सव्वाणी ॥
पौष्टिक चक्र समाप्तः अर्थः- यह मंत्र एकांत में जपे तो जंतु और रिपु सर्व संतुष्ठ होते हैं। नियम कर पूजा करें तो हजारों जीय संतुष्ट होते हैं। पशु जीर्ण होय सोशुद्ध होय सर्वराज जंतु जीय तुष्टि पुष्टि सुख हो। नियमपूर्वकउस वक्त जब सिद्धों को भक्ति करे तो अग्नि जलदाह का नाश होया देश में राज में पुष्ट नरों में पीडा होय और नर पशु द्वारा घोर उपसर्ग नाश होय। राजा का तथा पिशाच के द्वारा सर्व उपसर्ग नाश होय।
अणंच लिवजंतं अट्ठदलं जतणेव विहितं । इमणम समेट जंगल अंबु पार सुद्धतस्स।
कुटं तरिटा गाणं माण समेगु सरोण वेब्जिं । लिकवईन रूठ दलाणं इंदु पुर संपुटे णियमां।
कुट पंच सुक्रोणे अह दिसं तस्स वहि रे कोणे। पिंडे सुज्अह लिवं चदं तयं तस्स परिपरियं
भिण वद्य सुइट्ट पण रसिरे पिंडं रूद्ध महिवे टुई। सिय पसूणकर दीणं अरिआण काले गयेणणि मिजुप्तं इदं दिसी पुणाई पुज्जई सिय पसुण भुविसुणिरिवच्च ॥
उव रिसि लारविइज्जा णिरोहणं दस च पण कोहं मुहं जीहमणं य चकूचं अणामा इदि व्वाणि यमई तकव मेतं कलिकुंड मुणि देत कज्ज।
SECTERISTOTRIOTICISIOTS २८९२V505ICROTEINISTERIES
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9SP5959590
विधानुशासन
अणं चं दिव्व थंमं सेनाथमं कुणेई सिग्येण कुटाणि रुद्धंणाम तरिय सरकी तरा सीलक व ॥
959595955
सं
वेद इचदंणय महिय पुरं मशमे लिकवं यंत मियं ममियं ममियं सिद्यवच्छे कम सुलिकव पूव्व कम्मे
L
उव रिक्वला रवि विज्जं सिय पसुणे पुज्जयंति फालेयंगे । भावई भाणु समाणु इच्छिय कम्मणि थेमेई ॥
ॐ ह्रीं ह्रीं हूं ह्रीं ह्रः श्रीं ह्रीं कलिकुंड दंड स्वामिन अमुकस्य क्रोध मुखाजिव्हा मति गति गर्भ दिव्या सेना स्तंभन कुरु कुरु क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्षः ग्लौं ठःठः स्वाहा अर्थः- यह यंत्र अष्टदल संयुक्त लिख कर बाहर विधि युक्त तीह का नाम समेत जंगल जो यन को अंबुमार कहिये जो जडी तीह को रसिहं लिखे कुंट पंच कुण जो पंच पाखंडी को कमल पांच कुणा लिखे । और आठों दिशा उसके बाहर आठ कोण में अष्ठ पिंडाक्षर लिखे चंदन सेवा सुंगध द्रव्य से ५० अष्ट पिंड अक्षर त्यासू भित्र जो न्यारा सो वंदन कि इष्ट जो पण रसि जो पंदरह पिंडअक्षर सुरोध माही बैठे सिर भुजा हाथ आदि रात को हल्दी से लिख रखे ।
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फिर पूर्व दिशा मुखकर पूजे मस्तक भुजा चरण यह पंचाग नमस्कार शिल पर वा उर्द्ध ऊँचे स्थान पर बैठकर नमस्कार करे तो सर्व दिव्य थंमे तत्काल कलिकुंड मुनि को नमस्कार करने से कार्य सिद्ध होय ।
दिव्य सेना स्तंभन के लिए कुणा रो कणो सो अभिमंत्रित करि चंदन का लेप करना और पृथ्वी पर चौकोर माहियंत्र लिखे यह यंत्र अमृतमयी है। चांदी की कलम, डाम से लिखे ऊपर सूर्य बीजाक्षर लिखे सो सब प्रकार पूजनीक होय यह यंत्र सूर्य समान प्रताप बने हैं । मनोवांछित काम पूर्ण करे।
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अणं मारण विद्या पर गये कुटिलाणि कोडि कम्भाणि मयण मयं पुरु सुखं इच्छिं वा सौकूव रुवाणि हेयसिया वश्य तमियं णाम रूद्ध रूपारं एवल माया जरसुस मंतं तरस बल ईछं ।
ॐ नमो भगवती पर विद्या छेदिनी ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्रः श्रीं ह्रीं कलिकुंड दंड स्वामिन् अमुकस्य झ झै छिंद छिंद भिंद भिंद तस्यां गाणि छेदा छेदय भेदय भेदय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः ग्रां हूं येये ॥
9595959595 २९० PA19595195959
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SSIOISTRIS01501505 विधानुशासन 98510050005TOYSIOT50050
इय मतं वलीयज जवहज्जु शेययति सच्छेण पुच्च से वईमत व सूजीणी सितमुया रवई रंगा रसु मोअट्ठ सहस्साणि सिद्धये मंतं। पच्छाईत्तिय कम्मं करणादं सौरव्यं माणि मंतेण जं जे इच्छई अंगे तं तं मव्वाणि छ यो सिग्ध सु गांव मणिदाणं पुव्य काउण जिणसमये।
परविद्या निवारणं अर्थः- यह मारण विद्या कुटिल कर्म कोडिकर्म मयाण मयं काम देवसमान पुरूष रूप इचवाइसो सौरयारूप हेय। सिर उर्द्ध लिखे यंत्रनाम रुद्ध रूपार नाम लिख रौधे माया बीज से वेष्टित करे। फिर मंत्र से वेष्टित करें, खेट का अंगारा करि यह यंत्र ९००० लिखे तब मंत्र सिद्ध होयपीछे जो कर्म कहती है कि कारण दाता से खमाणि मंत्रण सर्व कार्यकर्ता स्वरूप होय । प्रर्यतै जो जो इच्छा होय सो सर्व सिद्धि देवे सुग्रीव मुनीद्र आदि जो समय समय सिद्धि के दाता हुये हैं।
अर्ण विईय विहणं भूय सुर कवेण रवतं कर्ज ईपर विलिकंबइ जंतअट्ठसंप तस्स पुज्जाई आयास आईय रूद्धं देवश्या विहणं तं सख्या नइ कुडिला सा विद्या णासई स्निग्धजिणं दि? इय पुज्जाउाई धम्मणि मित्तय सिद्ध रायहिम सं यहई धम्म जणाण पच्छाकज वियाणेई।
परविद्या छेदन अर्थ:- यह विद्या परविद्या छेदन है और सुख की कर्ता है या सुख रूप ही कहीं इस यंत्र को लिख अष्ट द्रव्य से पूजन करे है। जिस जिस यंत्र को उसके यंत्र से निरूद्ध करे येष्टित करे। सर्व कुटित विद्या तत्काल नष्ट करे। यह जिनेश्वर देव ने कहा है। इसको पूजा का इस निमित्व कार्य सो सब धर्म निमित्त सिद्ध कहा है। जिससे सुख बधे और भगवान व्यधित धर्म बधं पीधा कार्य विचार तो सिद्ध होय।
विज्जा विज्जेस करं पर विज्जा माइं यणपसेणं अकरवं मूल जुत्तं कलिकुंड विहामं सिट गंधे
॥६५॥
S5052550551035105505 २९१P5251915101501501505
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CASTEROIDPISOISOR विद्यानुशासन IECTRORISCIROIN
अयणं पूजा काउंसेयं पसाणाण व सिरती अठ सयं पुण जावई समायरस मतंज तिपय सिरे रवि इज्जा कलसं जल मिस्सगंधस पढणं। उठरिष्ट विजेहकं सं पूजहू णसंति पर कनं ॥१७॥
दक्षिण दिसिठा विज्जई मुसलं संजुत्ततंदुलो उविरि कंस सिरेण रियवियं दीव पुजंतु भाराणि पीडे
॥६८॥
अत्तर सय दिवं फलाहं पुज्ज ति मुसलअंत दिसि
मंति पलाइ वलाह पदो वंजविाई संमान मुसल दले ॥६९ ॥ ॐ दीये शिरया उवार आवेशय आवेशय सत्यं कथय कथय स्याहा। अस्य यंत्रस्योपरि पुष्प निक्षेपण मंत्र।। ॐहीं सुंदर सुंदरि परम सुंदरिपरम सुंदी अवतर अवतर आगळ्छ आगछ अवतर अवतरतिष्ठ तिष्ठ धनु धनु कंपकंप आयेशय वेग वेग शिव शिव अवतर अवतर प्रज्वल प्रज्यल दह दह रवं गं जं गं। ज्यालामालिनी देवी ॐ ह्रीं - ब्लू अवतर अवतर पंच पंच क्षोभय बोभा ये गेहूं
फट् स्वाहा। अर्थ:- विद्या यह परविद्या छेदन करने वाली है। यह दो मूल कलिकुंड मूलयुक्त कहिये मूल विद्या संयुक्त विहण अर्थात् प्रभात ही या पहिले होई से अष्ट द्रव्य से पूजन करे। अर्चन पूजन सेवा अष्ट प्रकार की पूजा से शत्रु मित्र बनता है। प्रयम ही प्रभात काल कलशाभिषेक सुगंध दूध, घृत, इशु, रस आदि सुगंध द्रव्य से मंत्र पढ़े कलशाभिषेक करना तथा पूजा करे तो पहले का यदि दोष रूप हो तो नष्ट होता है। दाहिनी दिशा बैठ चोखा सालि से त्काल निकाले चायल से पूजन करे और दीपक से पूजन करे ।। अष्टोत्तर दीपक और इतना ही फल से पूजन करे तो अंतर दिशि गमन की व्यथा मष्ट होती है। दीप कमंत्र पढ़े यंत्र पर पुष्प क्षेपन करे। संदरि मंत्र की विद्या विद्वेष कर्ता है और पर विद्या चले नहीं ,और यह यंत्र जब लिखे तो अपने आप ही विद्या नष्ट हो जाती है।
विजा विद्देस करं पर विज्जाया ईस ताप परसेणं लिकेइजत दयाणं रूद्धं सुधरेणसु सिप्याई॥ वापा रूयं लियावं हत्थ तलं मारणं स विरोण इत्थं गेयर भंजय पच्छतले होई आईट्ठी
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5951951959595 विद्यानुशासन 969599695935
संधी सुणं पत्थय सरसहू पारंहरहु संव्वगे । सिर उवरि ससि विव्यिय मालयले होई हूयारं । रेहस रूद्ध बलयं कणुवरि वज्र रूद्ध यरपिंड
निर्द्ध
पिडं झरायू गुल रुद्धं गथरोहं यले हुवीयं भूमक होई पदुवाएं चंचुतले सुण वियंघोणे जरपिंड गलसु हुयारं । हियये ਜਮਹ वीयं अण उवरि तुरिय सरं तार सते होई रथिय सुरुद्धं णेहि तले शरं पिंड तस्सु वरि पंच सुणतं उरहतले हुंयार मारण रुद्धं तहोटा या सुरूद्धं णहितले गयरुद्ध हुयारं जेणि रेहजुंद उच्चाणं गयहत्तणं पंचय माहे पंचय च जाणुचायं च जणं जस्य यूर्य सकमू हर ईय जंघाणि । जंटास उभय परये हूयसेनह जुत्तफडुसंतं तप्यायतले पणव परं तस्सु वरिं होई झरपिंड
ॐ नमो भगवते सुग्रीवाय वानर राजाय कपिल दंष्ट्राय हरिहर ब्रह्माम्य उर्चित पादार विंदाय लंका पुरेशाय निर्द्धम घुमाय कम्ल्यू ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः आं कों ह्रीं रीं युं हम्ल्वर्यू ग्रां ग्रां हुं फट् ॥
इय मतं चल इज्जं वल इज्ज वाणाररायसत्य सुवगां । सौईव्य धुराह युज्ज संताणं होई मंते ॥ रत् पसूणं गंध अट्ठ सहस्साणि जवई ह्यते पच्छा परसेणाण' पच्छय परसेण विद्धसं ॥
इय उवरि वारि इज्जं मूलमंत्र सिद्धेण । सिग्योण पारं हाकारई विदेस परसेणा ।
भयदित्ता परसेण दिट्ठे महबंधलीय लीया जाया । जाई पलाई रता यह मारई पुंड होई पुरसेण ॥ जंअं इच्छई कम्मं तंतं कम्मणि कारयं जाणा सुग्गीवेण सुमंते दिहं कलिकुंड मुणिणोहो ।
सयण उठी गाहा मज्झे यं कम्म दाहणं भणियं आइयं मह विज्ना विज्जण णामणा कलिकुंड ॥ ॥ इतिकलि कुंड कल्पः समाप्तः ॥
やりでおやおや
595pa २९३P/595959595951क
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SADRISTORISTRICT
विद्यानुशासन PARISTRISTOTRICISTRIES
गणधर वलय विधानं
नमस्कृत्य गणाधीशं गौतम मुनि पुंगवं वक्ष्य हं गण भयंत्रं भुक्ति मुक्ति प्रदायकं
॥१॥ गणों के स्वामी मुनियों में उत्तम गौतम गणधर को नमस्कार करके भोग और मोक्ष के देने वाले गणामृत यंत्र का वर्णन करूँगा।
सव्टो तरा प्रादि विचादि युक्त षट्कोण मध्य स्थितं हे है स्मरंतः
आवेष्टितं सौंगणं भगिरते : झौं झौं पर स्यांत गहावसानैः टीका
सव्यमयं दक्षिणामि तरम सन्धम प्रदक्षि- मित्या आविस्या सौ प्रादिः अप्रतिर्य चक्रे फडित्यर्थःविच आदि यस्यासौ विचादिःविचक्राय स्वाहेत्यर्थःसव्ये तरा प्रादि विचादि युक्तं च तत षटकोणं तस्य मध्ये स्थित मिति सव्य तरा प्रादि विचारदि युक्त षट्कोण मध्य स्थितं च तत हं च तत स्मरंतु चिंतातु कथं भूतं आवेष्टित कै सों गण भूद्धिः सह ॐ वर्तते यै स्ते सोमः ते च ते गण भतश्च ते सौं गणभृतः तै कथं भूतै झौं झौं पर स्वांत गहावसानैः अप्रति चक्रे फट् इस सव्य मंत्र और विचक्राय स्वाहा। इस अपसव्य मंत्र से युक्त छ कोण के यंत्र के बीच में अर्ह (ह) को लिये इसके आदि में ॐ सहित तथा अंत में झौं झौं स्वाहा सहित मंत्र से येष्टित करे। इदानीं ध्यानमुच्यते
षट्कोण चक्र विरचय चन्मध्ये हंकारं विन्यस्ता षट्कोण भ्यंतरे सव्येन अप्रति चके फडित्यकैकाक्षरं विन्टनस्ट षट्कोण बाह्ये अपसव्योत विचक्राय स्वाहेति इत्ये कैकं विन्यस्यत द्वाह चंद्र मंडलं स्फुर चंद्रामं विन्यस्य तद्वाह्ये मालामंत्र विन्यस्य ततो बाह्ये चंद्र मंडलं विन्यस्ट भुपुरं च कथं भूतं महायंत्रं हद्धिचिंतयेत् ॥ एक छह कोण चक्र बनाकर उसके बीच में हंकार को रखकर छहों कोणों के बीच में सव्येन अप्रति चक्रे फट के एक एक अदार को रखकर, उसके बाहर प्रकाशित चंद्रमा के समान चंद्रमंडल बनाकर, उसके बाहर माला मंत्र रखकर, उसके बाहर चन्द्रमंडल रखकर पृथ्वी मंडल बनाये । इसप्रकार के महायंत्र का हृदय में ध्यान करें। STERISTRISTRISEX5235075 २९४DI5DIST05510151005215DIS
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95959595DDP विधानुशासन 959595965
श्री खंडागुरूकुंकुम कर्पूर वेणुज गोरोचन सित सर्षय दुवांकुर वगैलादिभि सुसवर्ण लेखन्या दर्भादिनावा
एत यंत्र स्फुटाक्षरं फलके ताम्र पत्रे भूर्जपटेया विलिख्य गंधाक्षत पुष्प दीप रातोमारि चोराद्युपसर्ग न इस यंत्र को श्री खंड (चंदन) अगर कुंकम (केशर) बंस लोचन गोरोचन सफेद सरसों टूब के अंकुर लोंग इलायची आदि से सोने या डाभ आदि की कलम से स्पष्ट अक्षरों में तख्ती ताम्र पत्र या भोजपत्र पर लिखकर, गंध अक्षत पुष्प दीप धूप आदि से पूजा करने वाले को शत्रु महामारी चोर आदि के उपसर्ग नहीं होते ।
धूपादि भवंति ॥
इदमेव चक्रं ते रेव द्रव्यै स्तथा भूत लेखिन्या हंकारस्य मध्ये साध्यनाम स्वनाम मध्ये यस्यादा स्ताद्विलिरव्य विधिना सप्त रात्रमभ्यर्चितं राजादि वश्यं करोति
इस ही चक्र को उन ही द्रव्यों से वैसी ही कलम से हंकार के बीच में साध्य के नाम को अपने नाम के बीच में नीचे लिखकर विधिपूर्वक सात रात्रि तक पूजन किया जावे तो राज वशीकरण आदि करता है।
अथतेनैव विधिनात दिदं यंत्रं विलिख्य हंकार मध्ये ज्वरित नाम लिखित्वा त्रिरात्रं सप्तं रात्रं वा विधिनाऽभ्यर्चितं ज्वरमपहरति । ऐवा सर्व्व व्याधीष्वन्येषुप सग्र्गेशु च यंत्र मिदं यथाविधि योजनीयं इसी ही विधि से इस यंत्र को लिखकर हंकार के बीच में ज्वर से पीड़ित साध्य नाम को रखकर
तीन रात या सात रात तक विधिपूर्वक पूजन करने को सब रोगों और उपसर्गो में लगाना चाहिये ।
ज्वर को दूर करता है। इसीप्रकार इस यंत्र
अथेदं यंत्र पीत वर्णयस्य हृदयाऽभ्यंतरे पूर्व विचिंत्यं पश्चात् तस्य शरीर व्यापी चित्यंत्तस्मिन कोधादि स्तंभनं भवति यथाऽस्मिन् धूम्र वर्णत्तया चिंतिते उच्चाटनं भवति नीलवर्ण तया मोहनं भवति कृष्ण वर्ण तया द्वयोरप्या शक्त चिंतयो हंदि शरीर व्यापि त्वेन चिंतित्ते परस्पर विद्वेषणं भवति वर्ण तया निर्विषकरणं धवल स्यात्
95959595959595 २९५ P/58589/595959619
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विद्यामुशासन 951951
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यदि इसी यंत्र को पृथ्वीमंडल में पीले रंग का पहले किसी के हृदय में ध्यान करके फिर उसके शरीर भर में व्याप्त ध्यान किया जाये तो उसमें क्रोधादि का स्तंभन होता है। (धर्म और अर्थ पर जल मंडल कहा है । उसी में इसको धूम्रवर्ण वायुमंडल का ध्यान करने से उच्चाटन और द्वेष होता है। नीले वर्ण का ध्यान करने से मोहन भी होता है। ( वशीकरण में अग्निमंडल कहा है) काले वर्ण का दोनों असमर्थ चिंतावालों के हृदय तथा शरीर में व्याप्त चिंतवन करने से आपस में विद्वेषण होता है। और श्वेतवर्ण ध्यान से विष नष्ट होता है।
अथ गणधर वलय मंत्र प्रभाव उच्यते अब गणधर वलय मंत्र के प्रभाव का वर्णन किया जाता है
शुक्ल चतुर्द्दश्यां पंचम्यामष्टम्यां वा गुर्वादि प्रामाणिको भव्यः उपोष्य श्रुचि भूया शर्व सर्व भूवनं परिसमाप्य पश्चात परमेष्टिनं गणधर वलय चक्रं च गंधादिभिरभ्यर्च्य पश्चात् चंदन कुष्ट क्षोदेन मंत्री स्व दक्षिणा कर्ण मालिप्य
जीवित मरण लाभालाभादिषु मध्ये
विवक्षितं किमपि कार्य संप्रधार्य तदानीमेव
ॐ णमो जिणणं प्रभृति यावदागास गामीणं तावत् प्रमाणेन झौं झौं स्वाहा ||
तन मंत्रेण तद्दक्षिण हस्तेन स्पृशन अष्टोत्तर शत
भि मंत्रयेत ततो विविक्त स्थानै वाम पार्श्वे सुप्तेन यत्किंचि त्स्वप्रे दश्यते तदऽवितथं भवति
जप काले वा यद्वचन मद्दष्ट प्रणे कं श्रूयते तत्सर्वं सत्यमेव
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी पंचमी या अष्टमी को गुरू आदि की पूजन में तत्पर भव्य पुरूष उपवास करके स्नानादि से पवित्र होकर रात्रि में ही सर्वज्ञ भगवान की पूजन को समाप्त करके इसके पश्चात परमेष्टि गणधर वलय चक्र की चंदनादि से पूजन करें। इसके पश्चात चंदन कूठ के चूर्ण से मंत्री अपने दाहिने कान को लीपकर जीवन-मरण लाभ और अलाभ में से जानने योग्य किसी कार्य का निश्चय करके उसी समय "ॐ णमो जिणाणं से लगाकर ॐ णमो आगास गामीणं" तक तथा झ झ स्वाहा मंत्र से दाहिने कान को हाथ से छूता हुआ एक सौ आठ बार अभिमंत्रित करे, फिर एकांत स्थान में बाईं करवट से सोकर स्वप्न में जो कुछ भी देखता है वह सत्य होता है अथवा जप काल में जो शब्द बिना बोलने वाले को देखे हुए सुनाई दे । वह सब सत्य होता है।
969595959SP २९६ PSP59595959525
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CISCISISISDISTRICT विधाबुरशासन PHOTOSDISCARTOISCIEN
विजय मंत्रः ॐ नमो जिणाणमित्यतः परं णमो उम्गत वाणं प्रभात यावत्यार गुण ब्रह्मचारी पद यावत् प्रमाणेन पूर्ववत् झों झों स्वाहेत्यनेन अष्टोत्तर शत प्रशस्त पुष्पैजपं
कृत्या प्रयातस्य युद्धे तस्कराणं मध्ये वा जयो भवंति ॥ ॐ णमो जिणाणं तथा ॐ णमो उग्यत्तयाणं आदि पद से ॐ णमो घोर गुण ब्रह्मचारीणं पद तक के अंत में झौं झौं स्वाहा वाले मंत्र को प्रशंसा योग्य पुरुषों से १०८ प्रमाण जपकर जाने पर युद्ध या चोरों के बीच में विजय होता है।
ॐणमो जिणाण मित्यः परं ॐणमो आमो साहियताणं प्रभति ॐ णमो सयोसहि पत्ताणंपदं टायतावतामंत्रेणझौं झौं स्वाहंतेनाऽष्टोत्तरशतसुगंधपुष्पैः प्रजपन्मंत्री गुल्मशूलप्लीहा गंडमाला कुष्ट ज्वारातिसारान् व्याधीनन्यानपिशमोत् गोशीर्ष चंदनेन यथोक्यंत्र मुद्धाष्टोत्तर शतेन सित सुगंध कुसमैजप्त्वा पानीयेन तगांधं द्रयीकृत्य पायोत् व्याधिता स्वस्था भवति । ॐणमो जिणाणं तथा ॐ णमो आमो सहि पत्ताणं से लगाकर ॐ णमो सव्योसहिपत्ताणं से झों झौं स्वाहा सहित मंत्र को सुंगधित पुष्पों से एक सो आठ बार जपता हुआ मंत्री गुल्म शूल (वायुगोला) प्लीहा (तिल्ली) गंडमाला कोठ ज्यर और दस्त आदि अन्य व्याधियों को शांत करता है। गोरोचन और चंदन से उपरोक्त यंत्र के लिखकर १०८ बार सुगंधित सफेद फूलों से जपकर जल से उस गंध से लिखे हुए यंत्र को धोकर रोगी को पिलाने से रोग नष्ट होता है।
क्रूर प्राणी वशीकरण यंत्र
ॐ णमो जिणाणं ॐणमो मण बलीणं णमो वचि बलीण ॐ णमो काय बलीणं झौं शौं स्वाहा। इत्येऽनेन मंत्रेण अष्टोत्तर शत मारक्त पुष्पै जप्त्वायास्तिषति तस्य व्याघ्र सिंह शार्दूल साःकूर सत्वा वश्या भयंति। ॐणमो जिणाणं ॐणमो मण बलीणं ॐवचि बलीणं ॐणमो काय बलीणं हां
हीं हूं ह्रौं हू: अप्रति चके फट् विचकाय असि आउसा झौं चौं स्वाहा। इस मंत्र को लाल कनेर के फूलों पर एक सौ आठ बार जपकर जो बैढ़ता है व्याघ्र सिंह, हायी, शार्दूल सिंह, साप और क्रूर प्राणी उसके यश में हो जाते हैं।
CISISISOISODIOISTOISSE २९७२/51STDICISIOISSETOISION
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CASTOTSTRAOISODE
विद्यानुशासन SISTOTSICISIOISTOTSIDESI आकाशगामी मंत्र
ॐ णमो जिणाणं ॐ णमो विउव्वन इट्ठि पत्ताणं ॐ णमो पत्ताणं ॐ णमो विज्जाहाणं ॐ णमो चारणाणं णमो.पणसमणाणं ॐ णमो आगास गामीणं
सौं झौं स्वाहा अनेन बहिरंग कालादि सहितस्य खेचरत्वं सिद्धति। इस मंत्र से बाहर के काल आदि को जानकर सिद्ध करने वाले को आकाश गामिनी विद्या सिद्ध हो जाती है।
स्वम सिद्ध ॐ णमो जिणाणं से ॐ णमो आगास गामीणं हा ही ह्रौं हू: अप्रति चक्रे फट विचकाट असि आउसा झौं झौं स्वाहा अनेनापि स्वप्र सिद्धि इस मंत्र से स्वप्न सिद्धि होती है।
विषापहार ॐ णमो जिणाणं ॐ णमो आसी विषाणं ॐ णमो दिट्ठी विषाणं झौं झौं स्वाहा।
इत्योनेन विषापहार सिद्धि । इस मंत्र से विष को नष्ट करने की सिद्धि होती है ।
ॐ णमोजिणाणंॐणमो उग्गलवाणंॐणमोदित्तत वाणं ॐणमोतन्तत्त्ववाणं ॐणमो.महात याणं ॐ णमो घोर गुणाणं ॐणमो योर परकमाणं ॐ णमो योर गुण ब्रह्मचारिणं झौं झौं स्वाहा ।
अनेन मंत्रेण शत्रुजय इस मंत्र से शत्रु जीते जाते हैं।
ॐणमो जिणाणंॐणमो आमोसहि पत्ताणं ॐणमो खेलो सहि पत्ताणं ॐ णमो जल्लो सहि पत्ताणं ॐ णमो विप्पोसहि पत्ताणं ॐ णमो सव्वोसहि पत्ताणं हां हीं हूं ह: अप्रति चके फट् विचक्राय
असि आउसा झौं झौं स्वाहाइत्येनन सर्वरोग शांति इस मंत्र से सब रोग शांत होते हैं।
ॐणमो जिणाणं ॐ णमो मण बलिणं ॐणमोणमो वचि बलिणं ॐणमो काय
बलिणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः अप्रति चक्रे फट विचकाट असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥ SSCIETRISISTERISTRISODE २९८-15105STRIOTICISIO1510758
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SSCI5015105501585 विद्यानुशासन 95015TOSDISCISCISI
इत्यनेन महाप्राण सिन्द्रि इस मंत्र से महाप्राण की सिद्धि होती है।
ॐ णमोजिणाणं ॐ णमोरवीर सवीणंॐणमो सप्पि सवीणांॐणमोमहूरसवीणं ॐ णमो अमिद्य सवीणं हां ही हूं ह्रौं हू: अप्रति चक्रे फट् विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥
अनेन मंत्रेणा भिमंत्र्य सेवितमौषध ममृतोपतां भजति इस मंत्र से मंत्रित करके वन की हुई औषधि अमृत के समान हो जाती है।
ॐ णमो जिणाणं ॐ णमो अक्षीण महाणसाणं हां ह्रीं हूं ह्रौं हः अप्रति चके फट् विचकाय असि आउसा झौं झौं स्वाहा अनेन भंडार सिद्धि | इस मंत्र से भंडार की सिद्धि होती है।
ॐ णमो जिणाणं ॐ णमो वट्ठमाण बुद्ध रिसीणं हां ही हूं ह्रौं हः अप्रति चक्रे फट विचकाय असि आउसा झौं झौं स्वाहा॥
अनेन सारस्वतं सिद्धयति इस मंत्र सारस्थत सिद्ध होती है।
ॐ णमो जिणाणं ॐणमो से ॐणमो आगास गामीणं नमः हां ह्रीं हूं ह्रौंह: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ।
अनेन च स्वप्र सिद्धि इस मंत्र से स्वप्न सिद्धि होती है।
ॐ णमो जिणाणं ॐणमो योर गुणाणं ॐ णमो योर गुण ब्रह्मचारीणं नमः ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः अप्रचि चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा।
अनेन च पर विजयः इस मंत्र से भी दूसरे पर विजय मिलती है।
ॐणमो जिणाणं ॐ णमो सव्वोसहि पत्ताणं नमः ह्रां ह्रीं हूं हौं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा । अनेनऽचारोग्य सिद्धिः
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5015015015015105 विधानुशासन PSRISDISCORPISOIST इस मंत्र से भी आरोग्य सिद्धि होती है। ॐणमो जिणाणं ॐ णमो अमिय सवीणं नमः हां ह्रीं हूंहौंह: अप्रति पके फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ।
अनेन च दियौषधि सिद्धि : इस मंत्र से भी दिव्य औषधी की सिद्धि होती है।
ॐणमो जिणाणं ॐ णमो वट्ठमाण बुद्ध रिसीणं नमःमम बुद्धि वृद्धि रस्तु हां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: अप्रति चके फट विचकाय असि आउसा शौं जो स्याहा।
अनेन दिव्य वाक सिद्धिः इस मंत्र से वाणी की सिद्धि होती है।
इत्येवं मंत्रा अद्भुत शक्तयः तथा चोक्तं भट्ट हस्ति मल्लेनः इसप्रकार से यह सब मंत्र बड़ी अद्भुत शक्तियाले है जैसे कि भट्ठारक हस्तिमल्लिषेणने कहा है।
दूसरी विधि हिमैला गुरू कपूर रोचना शित सर्षपैः लवंग कुष्ट दुर्या ग्रौशीरादीश्च सुपेषितैः
॥१॥ हिम (लाल चंदन) इलायची अगर कपूर गोरोचन सफेद सरसों लोग कूठ सहित उग्रा (वय) और खस आदि को अच्छी तरह पीस कर उनसे - - - -
रैसूच्या जाति कांडेन वहिषायाधया उपातैः फलकै: भूर्ज भुप्र ताम्र पटे टाथा
॥२॥ लिखे षट्कोण चकस्ट मध्ये बिंदु युतां नमः कोणो दषु सटोना प्रति चक्रे फंड लिरवेत्
॥३॥ सोने की कलम मोर की पूँछ अथवा डाभ की कलम से तखती भोजपत्र या ताम्रपत्र पर षटकोण चक्रे के बीच में विंदु सिहत नभ (ह) लिख कर कोनों में सव्य मंत्र अप्रति चक्रेफट लिखे।
अपसव्यं विचक्राय स्वाहा कोणांतरेषु च बहिरस्मात् स्फुर चंद्र नीकाशं चंद्रमंडलं भूपुरंततः
॥४॥
गण भरलयारन्टोन मंत्रैण तत्प्रवेष्टयेत्
लिखेदऽस्मात् बहिश्चंद्र मंडलं भूपरंततः ಚಡಚಣದ 3೦೦YOYಪಥಸಪ5
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SSCISSISTOISTRIES विधानुशासन 505CISCSCRIOTES
और दूसरे कोणों में अपसव्य मंत्र विचक्राय स्वाहा लिखे। इसके बाहर थन्द्रमा के समान उपायल चंद्र मंडल बनाया जाये। इसके पश्चात उस यंत्र को गणधर वलय नाम के मंत्र से घेर देये। उसके बाहर चंद्रमंडल और फिर पृथ्वीमंडल बनावे।
॥६
॥
मंत्रण प्रादिगमण यश्चक्र प्रार्चाये दिदं।
उपसर्गान तस्यस्य श्चौर मायादिभिः कता । जो पुरूष अप्रादि गर्भ मंत्र से इस यंत्र का पूजन करता है उसको चोर या शत्रु आदि से किये हुये उपसर्ग नहीं हो सकते हैं।
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः अप्रति चक्रे फट् विचक्राय झौं झौं स्वाहा अप्रादि गर्भ मंत्र: वश्य मंत्रः यह अप्रादि गर्भ मंत्र है।
तलोध्याश लसत्साध्य साध्यका तय गर्भितं कंभोदरे जिनाग्रे वा पूजितं वशये दिदं
॥७॥ अप्रदि गर्भ मंत्र के नीचे साध्य और ऊपर साधक के नाम को लिखकर उसे घड़े के पेट में या जैन मंदिर में रखे और इसका पूजन करे तो वशीकरण होता है।
मध्यस्थातुर संज्ञं तच्चकं गंधाक्षतादिभिः त्रिरात्रं सप्त रात्रं या पूजितं सर्वरोगजित्
॥८॥ हकार के मध्य में आतुर (रोगी) का नाम लिखकर इस गंधर्वलय चक्र का गंध अक्षत आदि से तीन रात या सात रात तक पूजन करने से सब रोग जीते जाते हैं।
साध्यास्य हृदयं पूर्व व्यश्रुवानं तत स्तुनु सर्व पीतमिदं प्यातं स्यादति कोधरोध कत्
॥९॥ साध्य के हृदय को पहले सुनता हुआ फिर उसकी कल्पना इस यंत्र में करके इसको पीला ध्यान करने से साध्य के क्रोध का स्तंभन होता है।
कृष्ण वर्ण तथैवेदं ध्यायते स्निग्धयोर्द्वयोः तयोः परस्पर द्वेषः सप्त रात्रात प्रजायते
॥१०॥ यदि स्निग्ध पुरुषों के बीच में इस यंत्र का कृष्ण रूप में ध्यान किया जाये तो उनका सात दिन के अन्दर आपस में विद्वेषण हो जाता है।
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S5DISEASOISRIDOS विधानुशासन 91501501505IOSRISH
प्यातं तथैव साध्ये सित वर्णमिदं करोति निर्विषतां
धूम प्रभ मुच्चाट नील युति मोहनं तस्य ॥११॥ उसी प्रकार साध्य में श्वेत ध्यान किया जाने से यह विष को दूर करता है। धुएँ के जैसा रंग का ध्यान किया जाने से उच्चाटन करता है। नीले वर्ण का ध्यान किया जाने से मोहन करता है।
व्या वर्णित मत्यद्भुत मिति गणधर वलय सामथ्र्य
अथ शक्तिं कथयाम्यहमपि गणधर वलय मंत्रस्य ॥११॥ इसप्रकार गणधर वलय की अत्यंत अद्भुत सामर्थ्य का वर्णन किया गया है। अब गणधर बलय मंत्र की शक्ति का वर्णन किया जाता है।
सिद्धोमंत्रः कुरुते सजपादामुत्रिकार्य संसिद्धिः षटकर्म कर्म वत्वं नष्टादि ज्ञानमपि मेयां
॥१२॥ यह मंत्र सिद्ध होने से इस लोक में तो कार्य सिद्ध करता है छहो कर्मो में कर्मशीलता करता है। नष्ट वस्तु का ज्ञान करता है और अत्यंत बुद्धिदायक है।।
तस्यांतर्वतिनो मंत्रा यंत्रस्थाद्धत शक्तयः विविधाः संति ते गम्या गुरुणामुदेशत्
॥१३॥ उसके अन्दर के और मंत्रो को भी बड़ी अद्भुत अनेक प्रकार की शक्तियाँ है जिनको गुरू के उपदेश से ही जानी जा सकती है।
कय्यंति तन्वतिषु च त्वार स्तेषु संचक्रेस्थादों णमो जिणाणं त्विति तेषामवयवः प्रथमः
॥१४॥ उस मंत्र के मुख्य चार अवयव है या भाग है जिनमें से ॐ णमो जिणाणं पहला अवयव है।
आगास गामिनां घोर गुणादि ब्रह्मचारीणां सर्वोष ऋद्धी प्राप्ता नामऽमतश्रा विणामऽपि झो झौं स्वाहा वसानानि नमस्कार पदानिवै तेषां चतुणां मंत्राःस्युःक्रमतो मध्य वर्तिनां
॥१६॥ आगास गामीणं से घोर गुणादि ब्रह्मचारीणं तक दूसरा अवयव है । सब औषधि की ऋद्धि प्राप्त करने वाले मंत्र तीसरे और अमृत टपकाने वाली ऋद्धि मंत्र चौथा अवयव है । अन्त में झौं झौं स्वाहा और नमस्कार के बाद में उन चारों के बीच में रहने वाली ऋद्धि के मंत्र है।
शुद्धाष्टम्यां चतुर्दश्यां पंच दस्थामऽथापि या
कृतोपवासः शर्वयाँ स्तूत्वाऽहतं समा च SASCISIOTSIDESIRISTRISES ३०२/5105DISTRISTOT5105105
॥१७॥
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959695959विधानुशासन 2595929695
दक्षिण श्रवणं कुष्ट चंदनाभ्यां विलिप्य तत् स्पृशन्नष्टोत्तर शतं तेष्वाद्ये नाभि मंत्रयेत् ॥ १८ ॥ शुद्ध अष्टमी चतुर्दशी अथवा पूर्णमासी को उपवास करके रात्रि में भगवान अर्हत की स्तुति पूर्वक पूजन करके दाहिने कान पर कूठ और चंदन का लेप करके उसको छूता हुआ एक सौ आठ बार अभिमंत्रित करके ।
मृत जीवन भयो कार्य किमपि चिंतयेत् स्वाप्याश्चवाम पार्श्वेन सुप्तो रूपं य दीक्ष्यिते
॥ १९ ॥
श्रृणोति वा यचोयं च तेन विद्यां बुधाः शुभ अशुभं वाऽपि तन्मिथ्यां कदाचन भविष्यति
|| 70 ||
दुग्छ
जीवन मरण लाभ अलाभ आदि किसी कार्य को भी सोचकर बाई करवट से सोता हुआ जो वचन सुनता है। पंडित उसको शुभ अशुभ समझे वह कभी असत्य नहीं होगा।
द्वितीयोऽति बलं कुर्यात् तृतीय शमनं रूजां चतुर्थेन औषधं जसं सिंचितं स्यात्सुधोपमं
॥ २१ ॥
स्वाहां तमो ॐ ह्रीं मुख सप्त वर्ण तत पूर्वका है परतों नमो है विदिग्निशोराधतः क्रमेण मायावृतस्य त्रिगुणं लिषंतु ॥ २२ ॥ इति गणधर वलय मंत्र:
पहले "ॐ नमो जिणाणं से ॐ नमो आगास गामीण" तक जप करने से स्वप्न सिद्धि होती है । दूसरे "ॐ णमो उग्गत्तवानम ॐ णमो घोर गुण ब्रह्मचारीणं” तक जप करने से अत्यंत बल करता है । तीसरे "ॐ णमो आमी सहिपत्ताणं से ॐ णमो सव्वाोसहि पत्ताणं" तक जप करने से रोगों को शांत करता है।
चौथे "ॐ नमो खीर सवीणं सप्पिसविणं मुहर सवीणं अमीय सवीणं" जप करने से और मंत्रित औषधी देने से यह अमृत के समान हो जाती है।
ॐ ह्रीं आदि सात वर्णों के पश्चात हैं और फिर नमो हैं लगाकर अंत में स्वाहा लगाये इस मंत्र को रात्री में विशाओं की तरफ मुख करके आराधना करता हुआ माया (ह्रीं) से तीन बार वेष्टित करके लिखे । ॐ ह्रीं हैं श्रीं झौं नम: है नमो है स्वाहा इति गणधर वलय मंत्र सहस्त्राभ्यऽधिक लक्ष प्रमाणं पूर्व सेवया समाराध्य पश्चात पार्श्वनाथ सन्निधौ
विशंति
959595959595PA ३०३PSPSPS
9/5961951
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959595959
श्री वर्द्धमान जिनेश्वर सन्निधौ द्विसहस्राधिक दश सहस्त्र जाती कुसुमैः साधनीये भव्टाः स सिद्ध विद्यः घट कम्मणि लीलया कुतुं शक्रोतिः
इस मंत्र को पहले सेवा से पार्श्वनाथजी स्वामी के निकट आराधना करके एक लाख बीस हजार जपे फिर श्री वर्द्धमानजी जिनेश्वर के समीप चमेली के फूलों से बारह हजार जपे भव्य पुरुष इसप्रकार साधन से मंत्र के सिद्ध करके छहों कर्मों को खेल से ही कर सकता है ।
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HIROSTATERISTOTSTORE विद्यानुशासन HASIRIDICIRCISIOIDRIS ॐणमो पत्तेय बुद्धिणं ॐ णमो सयं बद्धीणं ॐ णमो बोहिय बुद्धीणं ॐणभो उज्जु मदीणं ॐ णमो विउल मदीणं ॐ णमो दसपुवीणं ॐणमो चउदस पुव्वीणं ॐणमो अटुंग महाणिमित्त कुशलाणं ॐणमो विउव्वण इट्टि पत्ताणं ॐणमो विज्जाहराणं ॐ णमो चारणाणं ॐ णमो पणसमणणं ॐणमो आगास गामीणं ॐ णमो आसी विसाणं ॐणमो दिहि विसाणं ॐणमा उग्मत्त वाणॐणमा दिलवाणॐणमो तत्तत वाणं ॐ णमो महात्त वाम ॐणमो घोरत्त वाणं ॐ णमो योर गुणणं ॐ णमो योर गुण परकमाणं ॐ णमो घोरगुण ब्रह्मचारीणं ॐ णमो आसो सहिपत्ताणं ॐणमो रखे लोसहि पत्ताणंॐणमोजलोसहिपत्ताणं ॐणमो विप्पो सहि पसाणं ॐ णमो सव्वोसहि पत्ताणं ॐणमो मण बलीणं ॐ णमो वचि बलीणं ॐ णमो काय बलीणं ॐ णमो रवीर सवीणं ॐ णमो सप्पि सवीणं ॐ णमो महुर सवीणं ॐणमो अमि सवीणं ॐणमो अक्षीण महाणसणं ॐणमो वट्ठमाणाणं ॐ णमो लोए सव्व सिद्धायदणाणं । ॐणमो भय वदो महदि महावीर वहमाण बुद्धि रिसीणं झौं झौं स्याहा चेदि
इति गणधर वलय मंत्र ॐहीं है झौं नौं नमः ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः अहं असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय स्वाहा । ॐ ह्रां ह्रीं हूँ हौं हः अहन अप्रति चक्रे फट विचक्राय ही अह झौं शौं स्वाहा इमौं गणधर वलय मंत्रैः
अथ गणधर वलय मंत्री निरूप्य तेः ॐ णमो जिणाणं अनेक गहन प्रापन हेतून कर्मा रातीन जयंतीति जिणाः साकल्पेन धाति कर्म क्षयात प्राप्त केवल ज्ञानादि चतुष्टाया अर्हतः तेषां णमो नमस्कारोस्तुतेभ्यो नमः इत्यर्थः अत्रप्राकृते चतुया विद्यानांऽभावात संबंध मात्र विवक्षायां षष्टयेवस्थात् ॐ णमो जिनानाम अनेक जन्मों की गहन प्राप्ति के हेतु कर्म रूपी शत्रुओं को जीतने याले जिन कहलाते हैं, क्योंकि यह घातिया कर्मों को पूर्ण रूप से नष्ट करते हैं । जिन ही केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टय को प्राप्त करने वाले अर्हत हैं, उनको नमस्कार होवे। प्राकृत में चतुर्थी का विधान न होने से यहां संबंध मात्र विविक्षा में षष्टी ही की गई है।
ಉಗುಣಪಡಣಗಳERS B೦BUNSEEN
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やらでおでらでら
XX विधानुशासन 959595959SP
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो उहि जिणाणं ॐ णमो जिणाणं अवधि ज्ञान प्राप्त जिन भगवान को नमस्कार हो ।
देश अवधि जिनानां देश तो याति कर्म क्षय विधानात् प्राप्त देशावधि ज्ञानानां देसोहि जिणाणं मिति पाठ
देश अवधि जिनाना नाम एक देश घाति या कर्मों को क्षय करने का विधान होने से देशावधि ज्ञान के प्राप्त करने के कारण देशावधि जिन कहा है।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो परमोहि जिणाणं परमोहि जिणं तदिधानं देवप्रत परम अवधि नानां परम अवधि ज्ञान प्राप्त करने वाले जिन भगवान को नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो सय्योहि जिणाणं सव्वोहि जिणाणं प्राप्त सकल अवधि ज्ञानानां सकल अवधि ज्ञान धारी जिन भगवान को नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो अणंतोहि जिणाणं अणंतोहि जिणाणं न विद्यते अंते यस्या सायनंतो भवांतरानुगामी सोवधि र्येषां ते च जिनाश्च देशत् कर्म क्षय कारका महर्षयस्तेषां
॥ ४ ॥
॥५॥
अनंतावधि जिनानाम् जिसका अंत नहीं होवे उसको अनंत कहते हैं। दूसरे भव में साथ जाने याले अवधि ज्ञान कहा जाता है । उस ज्ञान के धारक एक कर्मों के नष्ट करने वाले महर्षियों को नमस्कार हो । अनंत अवधि ज्ञान के धारक जिन भगवान को नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो को ट्ठबुद्धिणं कोट्ठ बुद्धिणं बुद्धिनां कोष्टांगार के घृत भूरि धान्या नाम विनष्टाव्यतीकीणीनां यथावस्थानं तथैवा च स्थान मद्य धारित ग्रंथानां यस्यां बुधौ सा कोष्ट बुद्धि तयो माहात्म्याद्विधते येषां ते कोष्ट बुद्धय
कोष्टबुद्धिनां जिसप्रकार बड़े भारी धानों के कोठों में धान बिना नष्ट हुए और बिना बिखरे हुए जैसे
के तैसे रहते हैं। उसी प्रकार उनकी बुद्धि में याद किये हुये ग्रन्थों का उसीप्रकार का माहात्म्य होता है। उनको कोष्ट बुद्धि वाले कहते हैं।
こらこらこらこらでらでらでらでらでらでらでらです
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CASIOISTOTRICISIOTECTET विद्यानुशासन RELICICISCIRCISEAST
ॐ हीं अहंॐ णमो बीज बुद्धिणं विशिष्ट क्षेत्रे कालादि सहाय मेकमप्युप्त बीज अनेक बीज प्रदं यथा भवति तथैक बीज पद ग्रहणांऽदनेक पदार्थ प्रति पतिर्यस्यां बुधौ सा बीज बुद्धिः
सातपः प्रभावाद्विाते रोषांते बीज युद्धटाः उभयत्र तद्योगानच्छष्टयं ॥७॥ जिस तरह से क्षेत्र कालादि की सहायता पाकर एक बीज से अनेक बीजों की उत्पत्ति होती है। उसी तरह एक बीज अक्षार से शेष शास्त्रों को जाने से बीज बुद्धि जिन के तप के प्रभाव से रहती है।
ॐ ह्रीं अह ॐणमो पादाणु सारीणं पादाणु सारीणं आदावंते टात्र तत्र चैकपद ग्रहणत समस्त ग्रंथस्यात् तस्यावधारणं सम्मांगद्धौ सा पादानुसारिणी बुद्धि सा तपो माहात्म्यादि
द्यते येषां ते पदानुसारि बुद्धटाः आपत्वानुद्धिशब्दा प्रयोगः ॥८॥ जिस तरह से किसी ग्रंथ का एक पद के ग्रहण करने से समस्त ग्रंथ उनकी बुद्धि से जाने या याद रहते हैं।
ॐही अह ॐणमो संभिन्न सोदराणं समस्त शब्द प्ररूपक मुनि भिन्न कहने वालों को नमस्कार हो सम्यतं कर व्यति रेकेण भिन्नं विविक्तं शब्दरूपं श्रुणो तीति संभिन्न श्रोत्री बुद्धि द्वादश योजनायाम नव योजन विस्तार चक्रवर्ति स्कंधा वायरोत्पन्न नर करमाद्यक्षरानक्षरात्मक शब्द संदोहस्या न्योन्य विभिन्न स्यागपत प्रतिभासो बुद्धौ सत्यां भवति मा संभिन्न श्रोत्रीत्यर्थ सा तपः प्रभावद्विधेते टोषां ते संभिन्नश्रोतारः ॥९॥ ॐहीं अहं ॐ णमो सयं बुद्धाणं : अपने आप वैराग्य के कारण कुछ न देखकर बिना दूसरे के उपदेश के बैरागी हो वह स्वयं
ये वैराग्य कारणं किंचिद् दृष्ट्वा परोपदेशं
वानपेक्ष स्वयमेव वैराग्य गतास्ते स्वयं बुद्धा। ॐ हीं अर्ह ॐ णमो पत्तेय बुद्धाणं प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि धारी मुनि को नमस्कार हो गुरुह नागादि भाममदद्यादी जिनके प्रताप से शांत होते है ।
प्रत्येकान्त्रिसिता बुद्धा प्रत्येक बुद्धा यथा अंजना
दिलयात् वृषभनाथ ॐ हीं अहं ॐ णमो बोहिय बुद्धाणं योधित हे बुद्ध ज्ञान जिनमें उनको नमस्कार हो। ಗಣಪಥಳಥಣಿತ 8o4Yವಣಣಣಣ
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SSIOSCADRISTORST विद्यानुशासन DISTRISTRISTR52505
ये वैराग्य कारणं भोगाशक्ता शरीरादिष्यशाश्वतादिरूपं
प्रदा वैराग्यं नीता स्ते बोधित बुद्धा यथा सगर चक्रवर्ती ॐ हीं अर्ह णमो उन मदीणं-सूक्ष्म पदार्थ अनेक जानने याले अनुमति माली शांति पुष्टि के करता ऋद्धिधारी मुनि को नमस्कार हो।
प्रजु मतिर्मनः पर्यय ज्ञानिनां मनपर्यय ज्ञान के धारी मुनिराजों को नमस्कार हो।
ॐ हीं अह ॐणमो विउलमदीणं विपुल मति मनः पर्य ज्ञानिनां विपुल मति ज्यौ
॥१४॥ मनः पर्ययः ज्ञान के धारी मुनि सर्यशास्त्र के धारी क्षण क्षण मात्र में हो उनको नमस्कार।
ॐ ह्रीं अह ॐ णमो दश पुरवीणं
अभिन्न दश पूर्व धारिणं दस पूर्व के धारी मुनि राओं को नमस्कार हो।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो चउदश पूथ्वीणं
उत्पातादि चतुर्दश पूर्याणा चौदह पूर्व के धारी मुनिराजों को नमस्कार हो।
ॐ ह्रीं अह ॐ णमो अटुंग महानिमित्त कुशलाणं अष्टांग महानिमित्त कुशलाणं
॥ १७॥ अंतरिक्ष भौम अंग स्वर व्यंजन लक्षण चिन्ह स्वप्न यह आठ महानिमित्त सूर्य यन्द्रग्रह नक्षत्र उदय अस्त के लक्षण जानकर शुभ अशुभ फल कहे सो अंतरिक्ष निमित्त उद्यान वापि का पर्वत नदी सरोवर आदि लक्षण जानकर भूमिगत रत्न सुवर्णादि को जाने यह भौम निमित्तज्ञान तिर्यग अथवा मनुष्यों के लक्षण प्रकृति रस रूधिर प्रमुख्य धातु को देखकर शरीर वर्ण गंध उच्च अवयव को देखकर जो निमित्त ज्ञान उत्पन्न हो वह अंग निमित्त है।
ॐहीं अर्ह ॐ णमो विउदयणं इहि पत्ताणं विविधा किया अणु मह दादि रूप तया काया दे:
कारणं यस्यामद्धौ सा विक्रिया ऋद्धिः तां प्राप्ताणां ॥१८॥ OSSISTOTSIRISTRI50151075 ३०९DI5DIDIOSRISINISTICISIOISS
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959595595 विद्यानुशासन 9595959595051 विक्रया ऋद्धि के द्वारा शरीर छोटा बड़ा बनाया जाता है जैसे विष्णुकुमार मुनि इस विक्रिया ऋद्धि जिनको प्राप्त हुये है उनको नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो
विज्जा हराणं
पूर्व वस्तु प्रास्तादि लक्षण सकल विद्याधर भूतानां ॥ १९ ॥
उपदेश से या बिना उपदेश से भावपूर्वक समस्त वृतांत जाने उन्हें विद्याधर मुनि कहिये, सो विद्याधरों की तरह आकाश में उड़कर चले नारद मुनि व्रत ऐसे मुनि को नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो चारणाणां अष्ट विद्याश्वारणां भवंति जल जंघा तंतु फल फुल्लवीय आयासथि गई कुशला अट्ठ विह चारण गुणा व िक्कम ही सुविहति इत्यभिधानात् ॥ २० ॥
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो पणहसमणाणं विद्या धराहि संतोपि तपो गृन्हं ति तेषां प्रज्ञाऽतिशय स्तथैयो मद्यतई तित्ते प्रज्ञा श्रवण उच्यंते
॥ २१ ॥
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो आगास गामीणंचारण शब्देनोक्तानामऽप्याकाश गामिनां इतर चारणोभ्यो विशिष्टित्यात्पुनः पृथग् उपादानं
॥ २२ ॥
विद्याधर श्रेणी पर्यंत आकाश गमन करे सो आकाश गामी ऋद्धि धारी मुनिराजों को नमस्कार हो । ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो आसी विषाणां आसीरा शंसनं तदेव विषयेषां म्रिय स्वेत्युक्ते नियमेन म्रियते उपलक्षण मेतत् तेनाशीर मृतानामित्यरित्यपि गम्यते शापानुग्रहसमर्थानामित्यर्थः यदि हिते परस्यापकारमाशंस ते तदापकारो भवति यदोपकार माशं शंसंते तदो पकारो भवतीति
तपोबल से मुनि ऋद्धि प्राप्त कर मुख्य से अगर कहे कि तु भरजा तो उसी क्षण मर जाय ऐसी सामर्थ्य
जिनमें हो उनका नाम आसी विष है फल तथा सुमरण से सर्पादि का विष नष्ट होता है।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो दिट्ठि विसाणं
इदं मप्पुलक्षणार्थतेन द्दष्टयमृतानामिति गम्यते यदि हिते अप्रसन्न द्दष्टया परमव लोकं ते तदा तद्भस्म करणे तेषां सामर्थ्य अथ प्रसन्न द्दष्टया तमवलो
だめぐりぐり
95952950519519595 ३१०PASS
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S50150151015015105 विधानुशासन ASSIS1055050500
कंते तदा ऋद्धि वृद्धि नीरोगतादि करणे तेषां सामध्यां तपः प्रभावात् इष्टि विशेष एवहितें ताशोनपुनःपुनरूपकारमपकार तातेकस्य चित कुर्वति
शत्रो मित्रे च तेषां परमोदासीन तो पेतत्वात् तबबल से मुनि क्रोध को प्राप्त कर पंख हो मनुष्य गृत्यु को पाया है।ष्टि मात्र से दूसरे को देख करने की जिनकी सामर्थ्य होती है। अगर प्रसन्न दृष्टि से देखे तो ऋद्धि वृद्धि निरोगता आदि करने की जिनकी सामर्थ्य होती है। तप के प्रभाव से उपकार और अपकार विचारने मात्र से कर सकते है तथा स्थावर जंगम विष दृष्टि दृष्टि मात्र से दूर होवे ऐसी शद्धि के धारी मुनियों को नमस्यार हो।
ॐ ह्रीं अह ॐ णमो उग्गतवाणां २५ से पंचम्यांऽष्टम्यां चतुर्दश्यां च प्रति ज्ञातोपवसा लाभ
दो प्रो या तथैव निर्याह यंति ते ये च प्रकार उग्र तपसः पांच उपवास आठ उपवास बार उपवास पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी को उपवास ग्रहण किया है, जिन्होंने उनको अगर उपवास पारण का अलाभ होय तो फिर उपवास करे। तीन उपवास, चार उपवास, पांच उपवास करके काल का निर्वाह कर गमौव इसे उग्रतप कहते हैं। ऐसे उयतप करने वाले मुनिराजों को नमस्कार हो।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो दित्तत वाणां २६
तपः प्रभावोदभूतया देह दीप्त्या प्रस्तांध काराणां शरीर की दीप्ति कर बारह सूर्य का तेज जिनमें होय उसे दीप्त ऋद्धि कहते हैं। शत्रु सेना बाण में भस्म करने की शक्ति दीप्त ऋद्धि से होती है।
ॐही अह अणमो तत्तत्तयाणं २७ तप प्रभावा देव तप्तायः पिंडयतित जल कणवत
गृहीत अहार शोषणान्नीहार रहिताणां गरम लोह के पिंड में जल की बिन्दु भस्म होय उसीतरह ग्रहण किये हुए आहार का शोषण कर आहार रहित से दिखे उसे तप्त कृद्धि कहते हैं। दावानल अग्नि भी जो शांत करे ऐसे तप्त तप कृद्धि धारी मुनिराजों को नमस्कार हो।
ॐहीं अह ॐणमो महातवाणं २८
पक्ष मासापयासाऽद्यनुष्टान पराणां पक्षमास, षणमास, वर्षोपयास करने वाली मुनि महातप्तय ऋद्धि धारी कहलाते है। वर्ष CTERISTICISRADRISI05275 ३११PISTR525015015050ISI
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252525252505 Raggica 952525252525
96वधानुशासन
उपवास पीछे पारणा करे और केवल ज्ञान उपजे पीछे पारणा नहीं करे इनको स्मरण करने से सर्व शांति होती है।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो धोरत्तवाणं २९
सिंह शार्दूलया कुलेषु गिरि गह्वरादिषु भयानक श्मशानेषु च प्रचुर तर शीतवाला तपदंश मशकादि युक्तेषु गत्वा दुर्द्धरोपसर्ग सहन पराणां सिंह, व्याघ, चीता आदि क्रूर जानवरों का उपसर्ग आवे । भयंकर पर्वत गुफा श्मसान में अत्यधिक | आदि सहकर दुर्द्धर उपसर्ग सहे उसे घोर तप ऋद्धि कहते हैं ।
शीतवान धूप
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो घोर गुणाणं ३०
घोर अद्भुता महांतो गुणा येषां ते घोर गुणांण
घोर वीर गुणा के धारी मुनिराजों की जनस्कार है।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो योर गुण परक्त माणं पराक्रमी दुर्द्धर व्रत धारण सामर्थ्य घोरः अचित्यं पराक्रमो येषां तेषां ॥३१ ॥
भूत वेताल प्रेत राक्षस शाकिनी आदि घोर दुर्द्धर व्रत धारण करने को जिनका पराक्रम सामर्थ्य हो ऐसे मुनिराजों को देखते ही भय को प्राप्त हों तथा क्रूर जीव शांति का प्राप्त हों उन घोर गुण पराक्रम धारी मुनिराजों को नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो घोर गुण ब्रह्म चारीणं ३२
घोर दुर्द्धरोगुणा निरति चारता लक्षणो यस्य तत घोर गुणां दिव्यां गुणां लिंगनादि भिरप्य क्षुभित चितं अथवा घोरा अद्भुताः गुणा यस्मात्प्राणिनां भयंति तत घोर गुणं तच्च तद्ब्रह्मचर्यं तच्चरत्यनु तिष्टं तीत्येवं शीलानां अतिचार रहित घोर दुर्द्धर दिव्य गुणों से भूषित ब्रह्मचर्य शीलधर्मका पालन करने वाले ऐसे मुनिराज जिनके चरण सिंह व्याघ्र आदि से सेवित हैं, जिनके स्मरण मात्र से जन्मान्तर के बैर शांत होय उनको नमस्कार हो ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो आमो सहिपत्ताणं ३३
आम अपक्क आहार: सर्व औषधि तां प्राप्तानां
आम ऋद्धि के संयोग से समस्त रोग व अपक्क आहार के रोग जाते रहे, आम औषधि धारक मुनि को नमस्कार हो ।
959595959 ३१२P959595959
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CROSOTSD15105075 विद्यानुशासन P50151015015055
ॐ ह्रीं अह ॐ णमो रखेलोसहि पत्ताणं ३४
ध्येलो निष्टीवनं सएयोषधिः तां प्राप्ताणां सा या प्राप्ताटोषा स्तषां जिन मुनि के संकार को छूने मात्र से दूसरों के रोग नष्ट हो उन मुनियों को नमस्कार हो।
ॐ ह्रीं अह ॐ णमो जल्लोसहि पत्ताणं ३५
सव्वांग मलो जलः सः एवौषधि तां प्राप्तानां । जिन मुनि के जल ऋद्धि उपजे तिनके सर्या ग मल जल के स्पर्श मात्र से दूसरे रोग नष्ट हो उसे नमस्कार हो।
ॐहीं अहणमो विप्पो सहिपताणं ३६
विपूधो ब्रह्म विदयः शेषं पूर्ववत् जिन मुनि की विधायक रमर्श से मरे के सार होगा को उनको जमस्कार हो।
ॐहीं अह ॐ णमो सयो सहिपत्ताणं ३७
सर्व मूत्र पुरीष नरय केशादिकं शेषं पूर्ववत् जिनमुनि के मूत्र विष्टा केश आदि मलों के स्पर्श से दूसरे के सब रोग नष्ट हो उनको नमस्कार
ॐहीं अह ॐ णमो मण बलिणं ३८ नो इंद्रय श्रुतावरण वीयांतराय क्षयोपशम प्रकर्ष सति स्वेद
मंतरणांत मुहूतें सकल श्रुतार्थ चिंतनम्वधातुम समास्ते मनो बलिस्तेषां अंतर्भुहुत में समस्त शास्त्रों का चितवन करने की सामर्थ्य यान होवे सो मण बलि ऋद्धिधारी मुनिराजों को नमस्कार हो ।
ॐहीं अह ॐणमो वचो बलिणं ३९ वचो जिव्हाभ्रतावरण वीांतराय क्षयोपशम प्रकर्षे सति
अंतमूहुर्त सकलश्रुताच्यारण समर्था स्तेवाग वलिन स्तेषां अंतर्मुहुर्त में समस्त शास्त्र के पाठ करने की जिनकी सामर्थ्य है सो वधनबलि है ।
ॐहीं अह ॐ णमो काय बलिणं ४० । वीयांतराय क्षयोपशमादा विर्भूता साधारण काटा बल त्वादंगुल्यग्रेण
त्रिभुवन क्षोभनादिनि पुंसा स्तेकाय बलिन स्तेषां अंगुली के अग्रभाग से तीन लोक को उठाकर दूसरी जगह स्थापन करने की जिनकी सामर्थ्य है उनको नमस्कार है। SSOCIEDISTRISODE ३१३P150DDIRECTRICISCIRS
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ORDISCIRCISIOTSIC विघानुशासन 98501505DISCISCESS
ॐहीं अह णमो स्वारस थोण वीरस्य प्रायो श्रवणं स्वादो यासोस्तिते क्षीर श्रवणः क्षीरस्यापिनोवा तेषक दशन मापहि पाणौ पतितं तपो माहात्म्यात क्षीरं श्रवति स्वदत्ते या ए व मुत्तर
प्रयोपि मधुर शब्देन तु मधुरो रसो गाते जिन मुनि के हाथ में रस सहित भोजन रखने से यह भोजन खीर समान मधुर हो व खीर श्रवे ये खीर प्रावि अद्धि धारक है उनको नमस्कार हो।
ॐहीं अहं ॐ णमो सप्पि सवीणं ४२ । सर्पिषो पतस्य प्रायः श्रवणं स्वादो या रोषां ते सर्पिश्राविणः सर्पि स्यादिनों
याकदशन मपिहि पाणौ पतितं तपो माहात्यात सर्पिः श्रयति स्वदो या।। जिनके हाथ से लूखा भोजन से घृत झरने लगे अथवा मुनि के वचन घृत की तरह तृप्ति करे सो घृत प्राविणीं ऋद्धि है।
ॐहीं अहं ॐणमो मुहरस वीणं ४३ मधो मधुर सस्य श्रावक श्रवणं स्वादो या येषांते मधुर श्राविणः मधुर स्वादिनोंयाक दशन:मपि हि पाणी पतितं तपो माहात्म्यात् मधुर श्रयति
स्वदत्त वा जिन मुनि के हाथ में रखा हुआ रस रहित भोजन मिष्टान्न हो जाये अथवा जिनके वचन श्रोतागे को मिष्ट गुण को प्राप्त हो सो मधुर श्राविणी धारी मुनियों को नमस्कार हो।
ॐहीं अहणमो अमिय सवीणं ४४ अमृतस्य श्रायः श्रवणं या स्यादो वाटयेषां ते अमृत स्वादिनो वाक दशनमपि
हि पाणौ पतितं तपोमाहात्म्यात् अमृतं श्रवति स्वदतेवा। जिन मुनिराज के हाथ में चाहे जैसा रस रहित आहार आय सो आहार अमृत सामान हो हो जाय या जिनके वचन सुनने से अमृत सामान मालूम हो उनको नमस्कार हो।
ॐहीं अह ॐणमो अक्षीण महा णसाणं ४५ अक्षीणं महानसं रसबती येषां ते यतो भाजना दुद्धतस्य भोजनं तेभ्यो दसतं चळं वर्ति स्कंधा वारेपि भोजिते प्रद्धि विशेष यशातन् सीटते आ
अस्तमयात जिसके घर मुनि भोजन किन्ये सो भोजन उसी दिन कम नहीं होय । चक्रवर्ती की सेना भोजन करे तो भी यदे नहीं या अक्षीण महाणस ऋद्धि है। इस ऋद्धि से कल्पवृक्ष की तरह वांछित फल मिले।
SSCICIACTRICITICISIOTH ३१४/505ICASICISTRISISISISTER
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CSP
विधातास
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो वठ्ठ माणाणं ४६ अवसतां ऋद्धिं व्याप्तं मानं ज्ञानं येषां
6969595955
तपकर परम ऋद्धि से जिनके मान बढे है। निर्मल चारित्र के धारी ऐसे मुनि वर्द्धमान भगवान है उनको नमस्कार है ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो सिद्धाय दणाणं ४७
सिद्धानां मुक्तात्मा नामा यतनानि निर्वाण स्थानानि
लोक के अन्दर सर्व सिद्धायतन चैत्यालय है उनको नमस्कार हो निर्मल भावों से जप करने से राजादि वशि होय ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो च्चारणाष्यो सहि पत्ताणं
जो मुनिराजों के उधारण रूपी औषधि के स्पर्श से मनुष्यों के रोग नष्ट होवे उन मुनियों को नमस्कार होवे ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो भरावदो महदि महावीर वछ्रमाण बुद्धा रेसीणं वेदि
भगवतः सहज विशिष्ट मत्यादि ज्ञान त्रय वतः पूजातिशय वतो या महति महावीरः बुद्धिरिसीणं चेदि बुद्धो यो पादेय विवेक सम्पन्नः ऋद्धिः प्रत्यक्ष वेदी च शब्दादि वीरादिनाम ग्रहणं इति शब्देन प्रकारार्थेन एवं प्रकारे भ्यो महर्षिभ्यो नमो भगवान महत् महावीर वर्द्धमान बुद्धि ऋद्धि के धारी मुनिराजों को नमस्कार होय भगवान के स्मरण मात्र से बलवान वैरी स्मरण करने वालों को नहीं जीत सके।
इति शब्देन प्रकारार्थेन एवं प्रकारेभ्यो महर्षिभ्योनमः इतिप्रत्येय
ॐ नमः सिद्धेभ्योः अथगण भृत्यु पूजा लिख्यते मध्ये ष्टकौंण चक्रं निखिल जिनंपते क्ष्माक्षरं पीठ बद्ध वामे ह्रीं दक्षिणे इवीं श्रियम धरतले तेषु सव्यापसव्यं कोष्टेष्टा प्रति चक्रे फडि विवस विचक्राय होमांत मंत्रां श्री देवीनां च षर्ण यहि रपि विषिषन्मंत्र दुर्गास्य कोणे
प्रादक्षिण्यं स होमं सकल शशि वृतं पूर्ण चंद्रावृतं तच्चिक द्वित्रिन पत्राष्टक वलयादिलें ऐहिया है नमो ग्रै मंत्रैरावेष्टय बाह्रै गणधर वलये ह्रीं श्रीधाक्रौं निरुद्धं यंत्र तत्पंच शून्दौर रियल गुरू पदाद्यक्षरैमूल मंत्र:
959 5951961 ३१५ PSPSC
॥ १ ॥
॥ २ ॥
5959595
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0505RISIOI5015125 विधानुशासन 25005095OSDIEOS
झौं झौं स्वाहांत गर्भभुवन पति जिना झौं नमो होम युक्त स्ता पात्रे पटे वा कनक गणिक्रया लिख्य सौगंध गं?: अभ्य व्याय सदाग्रे परम जिनसंजापन वालमा हस्त प्राप्ता महीनामलक फ मिव स्वेष्ट सिद्धिं प्रयांति ॥३॥
ह्रीं क्वीं श्रीं अर्ह असि आउसा अप्रतिचक्रे फट विचक्राय झौं झौं अत्रावतरावतर संयौषट आहननं
ॐ हीं इवीं श्रीं अर्ह असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचकाय झौं झाँ अप्रतिष्टतिष्ट ठः ठः। स्थापनं
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अर्ह असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचकाय झौं शौं अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। सन्निधिकरणं
कपूरामोदमक्त भ्रमर गण कृत श्लाघद्य तीर्थ वारां। भंगार स्फार नालादिह सुक्त लता वृद्धि मा पादयं त्यागंधाभ:
स्वच्छ धारामिव धवधि मया धारयाता हसंत्या षटकोण व्याप्तमध्यं गणधर वलयं यंत्रमाराधयामि॥जल।।
माघ द्विदंति गंडस्थल जसनदी गद्य लोलत्कालिमाला व्याजनिशौरभै स्तै मलाज धनसारो ध्व काश्मीर मित्रैः गंधिः पूर्णेदु वीर्भवभय परिता पापहि लेपनब्बी : षट्कोण व्याप्त माध्यं गणधर वलयं माराधयामि ॥ गंध लयं ॥ लक्ष्मी लीलाद हासैरिव विसदतया धर्म बीजांकुरा स्तभिः शुक्ल प्यानावदाते विजित सुरस रिद्धि विडिर पिंड:
गुजां भूतिश्च मुक्ताफल निकर नितेरस तैर क्षतांगैः षट् कोण व्याप्त - - - - - - - - - - - - ||अक्षतं ॥ जाती सिति माल वकुल कुवलयां भोज मंदार कुंद
CSCIRCISEDICICISTRICT5 ३१६ PICIPASCISIOTECISIOISSES
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PSP59595
विद्यानुशासन
नाग्नि कैवल्य कांतारिविकसित नयनायांग सौभाग्य भाग्भिः सौरभ्यांशक्त भृंग व्रतति मलि निमां स्मेर व मन्हि: षट् कोण व्याप्त गांगेया मत्र मध्य मापित कलम महविः पायषा मोदहृटयैः निवेद्यै वाष्प पूरा त्परममृत भुजां प्रीति मुत्पादयाद्भिः
- 1 पुष्पं ॥
--
959595959526
कैलासा धंद्यानिः श्रियमति विशदं सारदीसभ्रलीलां त्रैलोक्याकाश मध्ये गणधर महिमां तेजसा दर्शयद्भिः षट्कोण व्याप्त - नेवैद्यः
नीतं पापांधकारं दिसिदिसि निखिलं नाम तानासयद्भिः पै दैदीप्यमानः कनक मनिग्भावे रत्न कपूर कल्पैः षट्टकोण || दीपं ॥
धूपैरंगार संगा तद्ध वित परमले धाण पेौरमीभि दिक्यालानां वद्यातु क्षिति तल विरहां नीलया रावताभेः मुक्ति स्त्री वश्य रूपैरगुरु वन सटी सेवनास्तिं प्रगातैः षट्कोण॥ धूपं ॥
आदो मोदामेदि वासा युवति पन मोहारिभिः सत्पुलौयैः प्रत्यपूजका नामभिमत फलादैः स्वर्ण वर्णं सुपकैः द्राक्षा खर्जूर काम क्रमुक रूचक सं ज वुजे वीरभेदिः षट्कोणं
॥ फलं ॥
इत्थं षकौण चक्रं निखिल गण भृतानाम मंत्रावृतं यस्तोयाद्यै रचनांगै र्यजति जपति चाध्यायति स्तौति भक्त्या सोयं देवेन्द्र लक्ष्मी नरपति महिमां संयमः श्री प्रसन्नां पश्चा जै निंद्र लक्ष्मीं विलय विरहितां मोक्ष लक्ष्मी प्रयाति:
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अहं असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय जलआदि अध्ये
निर्व्वपामीति स्वाहा अनेन विधिना मध्य पूजां विदध्यात् ॥
इस विधि से पूजा करो ।
955
525951971 ३१७P5Psex
559625
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ಉಡುಪಚಡ5' ಔಷYER ಅಳದಂಗಡಣೆ
| स्वप्न सिद्धि
ॐहीं इवी इवीं अहं श्री णमो जिणाणं मित्यादि ॐ ह्रीं अह अटुंग महाणिमित्य कुशलाणं-हां ह्रीं हुं ह्रौंह: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौ स्वाहा ॥
इत्येतत्सप्तदश पदाश्रित मूलविद्या सित सुगंधि कुसुमैरष्टोत्तर शतंजप्त्वा शयना
सनस्ट भविष्य द्विदिक्षित कार्य यथावत प्रतिभाति ॥१॥ उपरोक्त मंत्र सत्रह पदों वाले मूलमंत्र के श्वेत तथा सुगंधित पुष्पों से १०८ जपकर सोये हुवे पुरूष को आगे होने वाले इच्छित कार्य ठीक ठीक विदित हो जाते हैं।
ॐहीं अर्ह णमो विउठवण इट्टि पताणं ऊहीं आई णमो विज्जाहराणं ॐ हीं अहं णमो च्चारणाणं ॐहीं अह णमो पण समणणं ॐहीं अहं णमो आगास गामीणं अयं पंच पद मंत्रः शुद्धाद्वि शिष्टे वट वृक्ष मूले नाना शास्त्राणि निशि तौदग धाराणि सुगंधि पुष्पाक्षिते रभि मंत्र्य तद्विष्टप संबद्ध मष्टोत्तर शत रज्जु शिवयं नमः सिद्धेभ्यः इत्यनुस्मर मारुहा प्रति रज्जु मनं तरोक्त मंत्रं पठन् शिवयं
कमतः छिंद्यात् आकाश गामिनी विद्या सिद्धयति ॥ २॥ यह पांच पद का क्रम मंत्र है। शुद्धि आदि से युक्त बड़ के वृक्ष की जड़ में तेज धार वाले अनेक शस्त्रों को सुगंधित पुष्प तथा अमातों से अभिमंत्रित करके उस वृक्ष में १०८ रस्सी वाला एक छीका लटकाकर, फिर ॐ नमः सिद्धेश्य मंत्र का ध्यान करता हुआ छींके पर घटकर प्रत्येक रस्सी पर मूलमंत्र को पढ़ता हुआ क्रम से छींके को काट डाले। आकाश गामिनी विद्या सिद्ध हो जाती है।
ॐहीं अह णमो आस्सी विषाणं ॐहीं अहं णमो दिहि विषाणं अनेन द्विपद मंत्रेण गोशीर्षचंदनेन यंत्रमुद्धार्य अष्टोतर शतंजप्तवा विष दष्टं पायगेत स्थावर जंगम विषनाशयति
CARCISIRISTO5CSCISC15 ३१८ PISTRICISCIRCTRICISCIEN
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SASICI5015197510051015 विद्यानुशासन BASICI51025105131513155 इस दो पद वाले क्षेत्र से गोरोचन तथा चंदन से यंत्र बनाकर मंत्र को १०८ बार जपे हुए जल को इंसे हुए को पिला दें तो स्थावर जंगम विष नष्ट होता है।
ॐहीं अह णमो उगत्तवाणं ॐहीं अह ॐ णमो दिततवाणं ॐहीं अहं णमो तत्तत वाणं ॐ ह्रीं अहं णमो महातवाणं ॐ हीं अह णमो घोरत्तवाणं ॐ हीं अहँ णमो योर गुणाणं ॐहीं अह नमो घोर गुण परकमाणं ॐ हीं अहं णमो योर गुण ब्रह्मचारीणं हां ह्रीं हूँ हौंह: अप्रति चक्रे फट् विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा।
अष्टपद मंत्र अष्टोत्तर शत पुष्पैं:
जंपन महायुद्ध तस्कारदीन नश्टोत ॥ यह आठ पद का मंत्र है पुष्पों से १०८ बार जपने से महायुद्ध और चौर आदि नष्ट होते हैं।
ॐ ह्रीं अहं णमो आयो सहिपत्ताणं ॐ हीं अह णमो खेलो सही पत्ताणं ॐ ह्रीं अह णमो जलो सहिपत्ताणं
ॐ ह्रीं अह ॐ णमो विपो सहि पत्ताणं ॐ हीं अह ॐ णमो सयो सहि पत्ताणं हां हीं हूं ह्रौंह: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥
अयं पंच मंत्रः गोशीर्ष चंदनेन यंत्र मुद्धार्या अनेन पंचपद मंत्रेण अष्टोत्तर शत सत पुष्पै जपत्वा तद्गांध पानीटोन आतुरं
पाययेत गुल्मशूलप्लीहातीसार तीव्र ज्वर कुष्ट गंडमालाऽदयो नश्यति ॥ गोरोचन और चंदन से यंत्र बनाकर इस पंच पद मंत्र को पुष्पों पर १०८ बाप जप कर उसका गंदोदक रोगी को पिलाये तो बायगोला का दर्द, तिल्ली, दस्त, तेज, बुखार, कोढ़ और गंडमाला आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।
ॐ हीं अहं ॐ णमो मण बलीणं-ॐ ह्रीं अर्ह णमो दचि बलिणं-ॐ हीं अहं णमो काय बलिणंहांहीं हूं हौंह:अप्रतिचक्रे फट विचक्राय असि आउसाझौंझौं स्वाहा॥
इति त्रिपद मंत्र अष्टोत्तर शत पुष्पैज्जात शार्दूलादि पाप सत्वेभ्योभयं न जायते।
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Poose
विधानुशासन 5905959595
इन तीन पद वाले मंत्र को १०८ बार पुष्पों पर जप करने वाले को सिंह आदि पापी जीवों से भय नहीं लगता ।
ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो अमि असवीणं - ॐ ह्रीं अहं ॐ अहं णमो महुर सवीणं ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो सप्पि सवीणं ॐ ह्रीं अहं णमो वीर सवीणं ॐ ह्रीं अहं णमो अक्षीण महाणसाणं ॐ ह्रीं अहं ॐ णमो लोए सव्व सिद्धाय दणाणं ॐ ह्रीं अहं ॐ भयो महदि महावीर यट्टमाण बुद्ध रिसीणं चेदि ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अप्रति चक्रे विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥
अयं मंत्र अष्टोत्तर शतं प्रत्यहं जप्तः कोश वृद्धिर्भवति । इस मंत्र को प्रतिदिन १०८ बार जपने से कोश बढ़ता है।
श्रीमदासाधर पदामृष्टि गणधर वलयऽ मनु शिष्यते अब श्री आशाधरजी के समृद्धि देने वाले गणधर वलय का वर्णन किया जाता है।
पूर्व षट्कोण चक्र मध्ये क्ष्मा पीठाक्षरं लिखेत् तदुपरि अर्ह मिति न्यसेत तस्य दक्षिणतः वीं वाम तश्च ह्रीं इति विन्यसे त पीठाधः श्री न्यसेत ततः असि आउसा स्वाहा इत्यनेन श्रीकारस्यं दक्षिणतः पृमृत्युत्तरतो यावत् प्रादक्षिणेन वेष्टयेत ततः कोणेषु षटस्वपि मध्ये अप्रति चक्रे फड़िति सव्येन स्थापयेत तथा कोणांतरेषु विचक्राय स्वाहेति षट् बीजानि झौंकारों तराण्यं पसेव्येन विन्यसेत् ततः कोणग्रेषु श्रीं ह्रीं वृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी रीति षट् देवता प्रादक्षिणेन विलियेत् तद्वहि लयं दत्वाऽष्टसुत्रिषु णमो जिणाणं णमो ॐ ह्रीं जिणाणं णमो परमोहि जिणाणं णमो सोहि जिणाणं णमो अणंतोहि जिणाणं णमो कुटु बुद्धिणं णमो बीज बुद्धिणं णमो पादारि सारिणं इत्यष्टपदानि ॐ ह्री णमो अहं पूर्वाणि पूर्वादिक क्रमेण लिखेत् ततस्तद्बहिस्त द्वत्बोडस पत्रेषु ॐ ह्रीं अहं णमो संभिण सोदराणं इत्यादिनि ॐ ह्रीं अहं णमो दिट्ठि विसाणं इत्येतदंतानि षोडसपदानि विलिखेत् ॥
तत्तस्तद्वहि स्तद्वत चतुविशांतिं पत्रेषु ॐ ह्रीं अहं णमो उग्रवाणं इत्यादीनि ॐ ह्रीं अहं णमो भयवदो महदि महावीर वट्टमाण बुद्ध रिसीणं चेदि इत्येतऽदतानि 959595959595969696959
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CASTOTRICKETCTRICISCE विद्यानुशासन HEACTRICISIOTICIATION चतुर्विशतिपदान्यालिरवेत् हीं कारमात्रयात्रिगुणं वेष्टियित्वा कोंकारेण निरूद्धय
वहिः पृथ्वी मंडलं विलिरवेत् ॥ पहले छ कोण वाले चक्र के मध्य में मां पीठाक्षर को लिखें, उसके ऊपर अर्ह रखे । उसके दाहिनी तरफ इवीं और बाई तरफ ह्रीं लिखें ।पीठाक्षर के नीचे श्रीं लिखें । श्रीं कार के दक्षिण से शुरू करके उत्तर तक प्रदक्षिण देता हुआ असि आउसा स्वाहा वेष्टित करे। फिर छहों कोणों में सव्य मंत्र अप्रति चक्रे फट लिखे और कोला के अंतरालों में विचलाय स्याहा अपसव्य मंत्र के छहों बीजों को बीच बीच में झौं बीज रखकर बाई ओर से लिखें फिर कोणों के अग्रभाग में में श्री ही घृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी इन छ देवियों को प्रदक्षिणा देते हुये लिखे उसके बाहर एक वलय बनाकर आठों पत्रों में णमो जिणाणं - णमो उहीं जिणाणं णमो परमोहि जिणाणं- णमो सवेहि जिणाणं- णमो अणंतो जिणाणं णमो कुट्ट बुद्धिणं णमो यीज बुद्धिणं णमो पादारि सारिणं इन आठ पदों को हर एक के पहले ॐ हीं अहँ लगाकर पूर्व दिशा की ओर से क्रमपूर्वक लिखें उसके बाहर उसीतरह से सोलह पत्रों में ॐ हीं अर्ह णमो संभिणं सोदराणं से शुरू करके ॐ ह्रीं अर्ह णमो दिहि यिसाणं के अंत तक सोलह पदों को लिखें उसके बाहर उसीतरह से चौबीस पत्रों में ॐ ह्रीं अर्ह णमो उग्गत्तवाणं इस पद से शुरू करके ॐ ही अर्ह णमो भयवदों महदि महावीर वट्ठमाण बुद्ध रिसीणं चेदि तक के चौबीस पदों को लिखे इसके बाहर तीन बार हीं से वेष्टित करके क्रों से निरोध करे |उसके बाहर पृथ्वीमंडल लिखे।
ॐहीं इवीं श्रीं अह असि आउसा अप्रति चक्रे फट
विचकाय झौं झौं स्वाहाअनेन मध्ये पूजां विदध्यात ॥ इस मंत्र से बीच में पूजा करे।
ॐ णमो जिणाणं इत्यादि हां ही हं हौं हः असि आउसा
झौं झौं स्वाहाएते अष्ट चत्वारिंशत्पत्र पूजा मंत्रा ॥ इस मंत्र से ४८ पत्रों की ऋद्धि की पूजा करे।
श्री गणधर वलय यंत्रं समाप्तं
CSIRIDIOISODESOTECTE३२१ SI5DISTRICISIOSRISTRISA
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SSIOSRISTRI501505 विधानुशासन 950RDISTRICISION
.
आधा बाटा
मोशाय स्वाहा
टू अमर
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नित्यं यो गण मन्मंत्रं विशद्ध स्मन्पठत्य ऽमुं आश्रव स्तस्या पुण्यानां निर्जरा पाप कर्मणां नस्यादुपद्रवः कश्चिद व्याधि भूत विषादिभिः
सदसरीक्षणं स्वप्रे समाधिश्च भवेन्मतो जो पुरूष शुद्ध होकर इस गणधर वलय मंत्र को पढ़ता है उसके पुण्य का आसव होता है और पाप कर्मों की निर्जरा होती है। उसके रोग भूत विष आदि से कोई कष्ट नहीं होता । यह स्वप्न CTERISTRISTRISITEST250 ३२२ DISITORSCICISIOIDROSCAN
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SSISTRICTERISRROAT सिमाजुला HIDISTRI501512505 में अच्छे और बुरे को देखता है और मृत्यु के समय उसके परिणाम शुभ रहते हैं अर्थात् उसका समाधि भरण होता है। ॐ हं ह्रीं हूँ ही हस्याहा
इत गणधर वलय मूलमंत्रः
यह गणधर वलय मूल मंत्र है। , ॐ णमो अरहंताणं णमो जिणाणं हां ह्रीं हुं हौं ह्र: अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौ झौं स्वाहा ॐ हीं अहं असि आउसा झौं झौं स्वाहा।
एतत्सर्वत्र योजनीयं । अन्य प्रकाशंतर माहः ॥
ॐहीं इयीं श्रीं अह णमो अरिहंताणं णमो जिणाणं हां ह्रीं हहौ हः अप्रति चके फट विचकाय स्वाहा ॐ हीं अहं असि आउसा झौ झौं स्वाहा ॥१॥
एतत्सर्वत्र योजनीयं विशुचिका शांति भवति इस मंत्र का प्रयोग करने से हैजा रोग की शांति होती है ।
ॐ ह्रीं इवी श्री अह ॐ णमो अरिहंताणं णमो जिणाणं हां ही हं ह्रो हू: अप्रति चके फट विचकाय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥२॥
अष्टोत्तर शत पुष्पैजपेत ज्वर नाशनं इस मंत्र का १०८ बार जप करने से ज्वर नष्ट हो जाता है।
ॐहीं इथी श्री अॐ णमो जिणाणंणमो परमोहि जिणाणं हाहीं हूँ हो हःअप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं शौं स्वाहा ॥३॥ शिरो रोग नाशयति यह मंत्र सिर के रोग को नष्ट कर देता है।
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अह ॐ णमो सव्वोसहि णमो जिणाणं हां ही हहौहःअप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥४॥
अक्षि रोग नाशयति यह मंत्र आँखों के रोगों को नष्ट करता है।
CISIOISROIDRISOTROIRTE ३२३ PISCIETOISTRICIRISODOISS
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S5I0050SIONSIDASI015 विधानुशासन 150151055125TORISTOTRY
ॐ हीं इवीं श्रीं अहं ॐ णमो अणंतोहि णमो जिणणं हां ही हूं ह्रौ हः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं शौं स्वाहा ॥५॥
कर्ण रोग नाशयति यह मंत्र कान के रोगों को नष्ट करता है।
ॐ हींगवीं श्रीं अहं ॐणमोकोहबुद्धिणं हां ह्रीं हूं हो हःअप्रति चके फट विचकाय असि आउसा स्वाहा ॥६॥
शूल गुल्मोदर रोगान्नाशयति यह मंत्र वायु गोल, पेट के रोगों को नष्ट करता है।
महाश्वी श्री मणमांडीज बुझिणं हा ही हौं : अप्रति चके फट असि आउसा झौं झौं विचक्राय स्वाहा ॥७॥ श्यासं हिकादि नाशयति यह मंत्र श्वास और हिचकी आदि रोगों को नष्ट करता है।
ॐ हीं इचीं श्रीं अह ॐ णमो पादाणु सारीणं हांहीं हो: अप्रति चके फट विचक्राय असि आउसा झौं झौ स्वाहा ॥ ८॥
परस्पर विरोधं नाशयति यह मंत्र आपस के बैर नष्ट करता है।
ॐ हीं चीं श्रीं अहं ॐ णमो संभिण सोदराणं हां ही हूं ही हू: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौ स्वाहा ॥ ९॥
श्यास नाशयति यह मंत्र श्वास के रोग को नष्ट करता है।
ॐ ह्रीं श्वी श्री अह ॐणमोपत्ता बुद्धाणं हाहीं हूं ह्रौहःअप्रति चक्रे फट विचकाय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥१०॥ प्रतिवादि विद्या छेदनं यह मंत्र प्रतिवादी की विद्या को नष्ट करता है। OTOSDISTRISTOT5R1505 ३२४ DISTRASIDASCISIOTSRIDESI
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CASIRSIDASTISTOST05 विधानुशासम ISIONSIDISTRISTOTSIDESI
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अहं ॐणमो सयं बुद्धाणं हां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र:अप्रतिचक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा ॥११॥ कवित्वं पांडित्यं भवति यह मंत्र कविता करने शक्ति और विद्वता प्राप्त कराता है।
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अह ॐ णमो चोहिट बुद्धाणं हां ही हूं हो : अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥१२॥
अन्य गृहीत श्रुतं एक संधौ भवेदिति इस मंत्र से दूसरे के ग्रहण किये हुये शास्त्रों को सुनकर उसी के समान याद हो जाता है।
ॐ हीं श्वी श्री अहं ॐणमो उज्जु मदीणं हांहीं हौ हः अप्रति चक्रे फट विचकाटा स्वाहा ॥१३॥
सर्वशांतिकं भवति इस मंत्र से सर्वप्रकार की शांति होती है।
ॐ ह्रींची श्री अह ॐणमो विउमदीणं हां ह्रीं हुं ही हः अप्रति चके फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ।।१४ ॥ बहुश्तवान भयति लवणमल भोजने वर्जनं इस मंत्र से बड़ा भारी पंडित हो जाता है। इस मंत्र के प्रयोग काल में नमकीन व खट्टे नहीं खाना चाहिये।
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अह ॐणमो दशपुटवीणं हा हीं हूं हौं हः अप्रति चक्रे फट विचक्राय अमि आउसा झौ झौ स्वाहा ।।१५॥
सांग वेदी भवति इस मंत्र से दस अंग धारी पंडित हो जाता है।
ॐ हीं वीं श्रीं अर्ह ॐ णमो चउदश पुदीणं हां ही हूं ही हः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौं स्वाहा ॥१६॥
स्व समय पर समय वेदी भवति १०में दिन इस मंत्र से अपने और दूसरे के अंत समय का ज्ञानी हो जाता है। CHRISTRISTOTRICTERISEA5 ३२५ PISTRISTRITIRI525105ORI
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CASICIRCISCTRICISCE विद्यानुशासन ISISPIRRITICISOTRY
ॐ हीं इयी श्रीं अह ॐणमो अटुंग महाणिमित्त कुशलाणं हाही हं होहः अप्रति चके फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्याहा ॥१७॥
जीवित मरणादिकं जानाति इस मंत्र से जीवन मरण आदि को जाना जाता है।
ॐ ह्रीं क्वीं श्रीं अहं ॐणमो विउठवण इट्टि पत्ताणं हां ह्रीं हूं ह्रौ हः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौ स्वाहा ॥१८॥
कामित वस्तुनि प्राप्रोति दिन २८ में इस मंत्र से मनुष्य इच्छा की हुई वस्तु को प्राप्त करता है।
ॐ हीं इवी श्री अह ॐ णमो थिज्जाहराणं हां ह्रीं हूं ही हू: अप्रति चके फट विचक्राय असि आउसा झौ झौं स्वाहा ॥१९॥
उपदेश प्रदेश मात्रं गमयति इस मंत्र से उपदेश के एक प्रदेश का ज्ञान करा देता है।
ॐ हीं इवीं श्रीं अह ॐणमो चारणां हां ह्रीं हूं हौं हू: अप्रति चके फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥२०॥
नष्टचिंता नष्ट पदार्थ स्वयं जानाति इस मंत्र से भूली हुई बात और खोई हुई घीज का स्ययं ज्ञान हो जाता है।
ॐहीं श्वी श्री अह ॐणमोपण समणाणहांहीं ह होहः अप्रतिचक्रे फट विचकाय असि आउसा सौ झी स्वाहा ॥ २१ ॥
आयुष्यावसानं जानाति इस मंत्र से मनुष्य आयु की सामग्री को जानता है।
ॐ ह्रीं क्यी श्रीं अर्ह ॐ णमो आगास गामीणं हां ह्रीं हूं ह्रीं ह्र: अप्रचि चके फट विचकाय असि आउसा झौ झौं स्वाहा ॥ २२॥
अंतरिक्ष गमनं भवति इस मंत्र से आकाश गमन होता है। SECASICISIOSCISIOKARTE ३२६ PISODESIRTERSIOSCII
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PSP59695190
विधानुशासन 959595959sex
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अहं ॐ णमो अरिहंतान आसीय साहसी हूं ही हः अप्रति चक्रे
फट विचक्राय स्वाहा ॥ २३ ॥ विद्वेष प्रतिहतं भवति
इस मंत्र से शत्रुता नष्ट हो जाती है।
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अहं ॐ णमो दिट्टि विसाणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ २४ ॥
स्थावर जंगम कृत्रिम विषं नाशयति
इस मंत्र से स्थावर जंगम और कृत्रिम सभी विष नष्ट होते हैं।
ॐ ह्रीं वीं श्रीं अहं ॐ णमो उग्गत्त वाणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय अनि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ २५ ॥
वच स्थंभणं भवति
इस मंत्र से वाणी का स्थंभन होता है।
ॐ ह्रीं वीं श्रीं अहं ॐ णमो दिदत्तवाणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय अनि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ २६ ॥
सेना स्थंभण भवति आदित्य वारे मध्यान्हे समयति
इस मंत्र को रविवार को दोपहर के समय जपकर सिद्ध करने से सेना का स्तंभन होता है।
ॐ ह्रीं वीं श्रीं अहं ॐ णमो तत्तत्तवाणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झीं स्वाहा ॥ २७ ॥
जल अग्नि स्तभंणं भवति
इस मंत्र से जल और अग्नि का स्तंभन होता है।
ॐ ह्रीं वीं श्रीं अहं ॐ णमो महातवाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ २८ ॥
जलं स्तभंणं भवति ।
इस मंत्र से जल स्तंभन होता है।
959595951969595 ३२७ 95959596959595
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CISIO15125510551015125 विद्यानुशासन 2151015105510SSISTOISS ॐहीं इवी श्री अर्ह णमो घोरवत्तावाणं हाहीं हूं ह्रौंहःअप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झी झौ स्याहा ॥ २९॥ विष मुख दोष रोगादि नाशनं यह मंत्र विष और मुख के रोग आदि को नष्ट करता है।
ॐ ह्रीं इवी श्री अह ॐणमो घोर गुणणं हां ही हूं ह्रौ ह:अप्रतिचक्रे फट विचकाय असि आउसा झौ झौं स्वाहा ॥ ३०॥
दुष्ट मृगादिनां भयं नाशयति यह मंत्र दुष्ट भृगादि के भय को नष्ट करता है।
ॐ ह्रीं श्वी श्री अहं ॐ घोर गुण परकमाणं ह्रां ह्रीं हूं ही हू: अप्रचि चके फट विचकाय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥३१॥
लूतादि गर्भात का वलिं नाशयति यह मंत्र चींटी कान खजूरे के विष और गर्भपात को नष्ट करता है।
ॐ ह्रीं झ्यी श्री अह ॐ णमो घोर गुण ब्रह्मचारीणं हां ह्रीं हूं ह्रीं ह्र: अप्रति चक्र फट विचक्राय असि आउसा झौं झौ स्वाहा ॥ ३२॥ ब्रह्म राक्षसादिग्रहान्नाशयति यह मंत्र ब्रह्म राक्षस और ग्रहों को नष्ट करता है।
ॐ ह्रीं ब्वी श्रीं अह ॐ णमो खेलो सहि पत्ताणं हां ही हं ह्रौं हू: अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥३३॥
सर्वापमृत्युनभवति इस मंत्र से कही भी अपमृत्यु नहीं हो सकती है।
ॐ ह्रींझ्वी श्री अहॐ णमो आमो सहि पत्ताणं हां ही हं हौंहः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झी स्वाहा ॥ ३४ ॥
जन्मांतर वैर पराभवं भवति इस मंत्र से दूसरे जन्म के बैर से होने वाली पराजय नहीं होती है। SECSIRISIRISTRISTOTRIOTE ३२८ PASTOT52152510051STRISH
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959595959
विद्यानुशासन
9595999क
ॐ ह्रीं वीं श्रीं अहं ॐ णमो जल्लो सहि पत्ताणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्रः अप्रति चक्रे फट
विचक्राय अनि आउसा झौ झौं स्वाहा ॥ ३५ ॥ अपस्मार प्रलाप नष्ट चिंता विष्टवं नाशयति
यह मंत्र मृगी प्रलाप चिंता से फंसे रहने को नष्ट करता है ।
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अहं ॐ णमो विप्पो सहि पत्ताणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र : अप्रति चक्रे फट विचकाय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ ३६ ॥
गजमारी शाम्यति
इस मंत्र से हाथियों की बीमारी नष्ट होती है।
ॐ ह्रीं इवी श्रीं अर्ह ॐ णमो सव्वो सहि पत्ताणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय स्वाहा ॥ ३७ ॥
मनुष्योमरोपसंग नाशयति
इस मंत्र से मनुष्यों और देवताओं के उपसर्ग दूर होते हैं ।
ॐ ह्रीं वीं श्रीं ॐ ॐ णमो मण वलिणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः अप्रचि चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ ३८ ॥
अपस्मारीं प्रशाम्यति
इस मंत्र से अपस्मार का रोग शांत होता है।
ॐ ह्रीं इचीं श्रीं अहं ॐ णमो यचि वलीणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झीं नौ स्वाहा ॥ ३९ ॥
अजमारो प्रशाम्यति
इस मंत्र से बकरियों की बीमारी नष्ट होती है।
ॐ ह्रीं इवीं श्रीं अहं ॐ णमो काय वलिणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्रः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झी स्वाहा ॥ ४० ॥
गोमारी शाम्यति
इस मंत्र से गायों की बीमारी नष्ट होती है।
25252525252525E-15PSPSPSPSESMJ
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CISIO15105015015105 विधानुशासन ISIOSISODIDISTRIES
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अहं णमो स्वीर सवीणं हां ही हं ह्रौं हः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झौ स्याहा ॥४१॥ गोक्षीरा जपयसि पिबेत दिन ४१ अष्टादश कुष्ट गंडमाला दिकं नाशयति इस मंत्र से १८ प्रकार ६ गंडमाला आदि को नष्ट करता है इसकी सिद्धि में दिन ४१ तक गाय का दूध जप कर पीएं।
ॐ हीं इवीं श्रीं अर्ह ॐ णमो सप्पिस वीणं हां ही रही हूः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ सौ स्याहा ॥४२॥ एकादिक द्राहिक ज्याहिक चातुर्थिक पाक्षिकमासिक सावंत्सरिकादिक समस्त
शीतज्वरं नाशयति वह मंत्र रोज आनेवाले दूसरे दिन आने वाले तेइया चोथी या पाक्षिक मासिक और वार्षिक आदि सभी शीत ज्वरों को नष्ट करता है।
ॐ हीं झ्वी श्रीं अह ॐणमा महुर सवीणं हा ही हू हौ हःअप्रतिचक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौ झी स्वाहा ॥४३॥ सर्व व्याधिर नाशयति यह मंत्र सब रोगों को नष्ट करता है।
ॐ हीं इवी श्रीं अहं ॐ णमो अमियस विणं हूँ ह्रीं हूं ह्रो हः अप्रति चक्रे फट विचकाय असि आउसा झाँझौ स्वाहा ॥४४॥
समस्तोपसर्ग नाशयति यह मंत्र समस्त प्रकार के उपसर्गों को नष्ट करता है।
ॐ ह्रीं श्ची श्री अहं ॐ णमो अक्षीण महाणसाणं हां ह्रीं हूं ह्रौं हू: अप्रति चके फट विचकाय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ ४५ ॥
स्त्र्याकर्षणं भवति इस मंत्र से स्त्री का आकर्षण होता है।
ॐ ह्रीं श्वी श्रीं अह ॐ णमो वढमाणाणं हां ह्रीं हूँ हाँ हअप्रति चके फट विचकाय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ ४६ ।।
बंधनं विमोचनं कुरू स्वाहा इस मंत्र से बंधन मुक्त होता है।
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CTERISTRISTOTRIOTICE विधानुशाशन ARRESTERIOTSICIATRIES
ॐ ह्रीं इवी श्रीं अहं ॐ णमो लोए सव्व सिद्धाय दणणं हां ही हूँ हाँ हअप्रति चके फट विचकाय असि आउसा झौ झौ स्वाहा ॥ ४७॥ इस मंत्र से राज पुरुषादिक का वशीकरण होता है।
ॐ ह्रींचीं श्रीं अह ॐणमो भयबद्दी महदि महावीर वढ्डमाण बुद्ध ऋषीणं चेदि हां ह्रीं हूं ह्रो हः अप्रति चक्रे फट विचक्राय असि आउसा नौं सौं स्वाहा ॥४८॥
समाधि सुरवं प्राप्नोति इस मंत्र से पुरुष समाधि सुख को पाता है।
इति मंत्रफलं इति गण भृति कल्प मंगलास्तु
अतगण भत्य मंत्रस्य करन्यास अंगन्यास
ॐ हीं अंगुष्टाभ्यां नमः ॐ इवीं तर्जनीभ्यां नमः ॐ श्री मध्यमाभ्यां नमः ॐ अहं अनामिकाभ्यां नमः ॐ णमो अरिहंताणं कनिष्ठाभ्यां नमः ॐ हां करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॐ हीं करपूराय नमः ॐ हं हृदयाय नमः ॐ ह्रौं शिरशे स्वाहा ॐ ह्र: शिखायै वौषद् ॐ अप्रति चके फट विचक्राय कवचाय हुं ॐ असि आउसा नेत्र प्रयाय ॐ इवीं झौं झौं अस्त्राय फट
ॐ हीं इवीं श्री अह ॐ णमो अरिहंताण हा ही हूं हौं हः अप्रतिचक्रे फट विचक्राय असि आउसा झौं झौं स्वाहा।
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CERITICISIOTSIDAIC5 विधानुशासन HASIRISTRISORSCISCESS
अथ संकल्प
ॐअद्य भगवतीमदादि ब्रह्मणोत्रिलोक्य मप्टो मध्यास्तेजंबू वक्षोपलक्षित जंबूदीपे सुमेरुदक्षिण दिग्भागेभरत क्षेत्रे आर्यखंडे अस्मिन् विनय जनिताभिराभीजयनगरे श्री मूल नायक चैत्यालय प्रदेशे एतद् अव सर्पणी काला वशानं प्रवर्तमान कलियुगाभिधान पंचम काले महति महावीर स्वामि धर्मोपदंश व्यति कर श्री गौतम स्वामी प्रतिपादित श्रेणिक महामंडलेश्वर समाचरित महाराज धिराज स्वाहा जित राज्य प्रवर्तमान सबत ......। प्रवर्तमान मासोत्तम मासे ..... |शुभे पक्षे .... तिथौ .....। वाशरे शुभ ग्रह नक्षत्र होरा मुहर्त लग्न युक्तायां मूलसंधा बलात्कार गणे सरस्वती गळे कुंद कुंदाचार्यन्वे गोत्र नाम्नार्थ इष्ट कार्य सिद्धयर्थ सकलारिष्ट निराकरणार्थ इदं गणभृत्यं स्तोत्रं मंत्र.....। संख्या आराधन संकल्प करिष्ये श्री रस्तु ||
अथ पूजा प्रकारो वक्ष्यते
श्रियः सुरवाकर्षणमऽस्ति यावगार्णश चकं तदुपासकानां
तावच्च संसार सुरयोपभोगविद्वान् हरती श्रियमऽर्चयामि ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री देवी आगच्छ आगच्छ अन्न तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सन्निहितो भव भव वषट इदं जल मित्यादि गृहाण गृहाण स्वाहा ॥
गणेश चक्रं निज पूजकानां मुक्ति श्रियो वश्यामलं करोति
- तत्कोणगां ह्रींमपि लोक वश्यं करोत्यततस्तामपि पूजयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं ह्रीं देवी आगच्छ आमच्छ अन तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सन्निहितो भव भव वषट इदं जल मित्यादि गृहाण गृहाण स्वाहा॥
संसार रोगस्य करोति यावदुच्चाटनं चक्रमुपास का नाम
तावद् घतिश्चाप्य पते रमीषां करोति चोच्चाटन मा राजे ताम्र ॥३॥ ॐ ह्रीं घृति देवी आगच्छ आगच्छ अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सन्निहितो भव भव वषट इदंजल मित्यादि गृहाण गृहाण स्वाहा ॥
अज्ञान विद्वेषण मात्मनीनं गणेश चक्र करते बुधानाम् कीर्तिश्च तत्कोणगताह्य कीर्तेः करोति विद्वेष मतो यजेताम्
॥४॥
050512I501525250E३३२ PISTRISTD35121510151052IES
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CASICISIONSISTSIDASTI5 विद्यानुशासन HEIDISTRISTOT510150ISS ॐ ह्रीं कीर्ति देवी आगच्छ आगच्छ अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सन्निहितो भय भव वषट इदं जल मित्यादि गृहाण गृहाण स्याहा ।।
भव्यात्मनां दुर्गति दःरवजालं स्तम्भ विद्यते गणदेव चक्रम
देवी च बुद्धिः कुरुते ह्यबुद्धेः स्तम्भं ततस्तमिह पूज्यामि ॥५॥ ॐ ह्रीं बुद्धि देवि आगच्छ आगच्छ अत्र तिष्ठ तिष्ठ अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं दीपं धूपं फल अर्धं शांतिधारं गृहाण गृहाण स्वाहा ।।
गणेन्द्र चक्र निज पूजकानां कमासुसु हमारण मातनोति
लक्ष्मी स्त्वलक्ष्म्याः कुरुते विनाशं तस्मादऽहं तामिह पूजयामि ॥६॥ ॐ ह्रीं लक्ष्मी देवी अत्र आगच्छ आगच्छ अत्र तिष्ठ तिष्ठ अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट इदं जल गंधं अदातं पुष्पं दीपं धूपं फल अर्थ शांतिधारं गृहाण गृहाण स्याहा ॥
सुवर्ण रक्ताभ सुवर्ण मास श्चर्तुभुजा संपत पूर्ण कुम्भाः
श्री मुख्य देव्यः सकल प्रभावाः कुर्वन्तु शांतिं जिन भक्ति का नाम ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री ही घृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी देव्यं इदं जल गंधं अदातं पुष्पं दीपं धूपं फलं पूर्णार्धं शांतिधारा गृहाण गृहाण स्याहा
इति अष्ट चत्वारिंशद्दलकमले कर्णिकाभ्यऽर्चन विधान
इति श्यादि पूजा षट्गुणाष्ठऋद्धिं संपन्नं गणाधीश समुच्चद्याम्
आहूय स्थापयित्वाऽत्र तयंत्रे सन्निधाटोत् ॥ ॐ हां ह्रीं हूं हौं ह्रः असि आउसा अप्रति चक्रे फट् विचक्राय झौं झौं नमः गणधर समूह आगच्छ संवौषट् ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आउसा अप्रति घने फट् विचक्राय झौं नौं नमः गणधर समूह अत्र तिष्ठ ठः ठः ॐ ह्रां ............. गणधर समूह अत्र मम सन्निहितो भव भय यषट स्वाहा
कपूर चंदन रसान्वय दिव्य गन्धै भकार नाल गलितैः सुरभि कृताशैः स्तीर्थोदकै रयोरजो हरण प्रवीणैः पाद्य ददामि गणिनां वलट गणाय !
CISIO551255125512550151065 ३३३ P15105510521510851065CISI
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ese5e3e39595 fangenaa Y50505050505 ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रीं ह्रः असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौ झौं गणधर समूहेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर कुंकुम हिमाम्बू करवितेन सद्गंध सार तरु कल्पित कर्द्दमेन संसार संज्वर निधारण कारमेल जं चर्चयामि गणिनां चरणाम्बुजानि
॥२॥
ॐ ह्रीं ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौं झौ नमः गणधर समूहेभ्यो गर्ध निर्वपामीति स्वाहा
शाल्य क्षत्तान पतुषान प्रथितानखण्डान् राका शशांक शकल प्रबल प्रकाशान् स्वापवर्ग फल बीज गणाराभान् चक्रे पदेषु गणिनाम धिरोपयामि
॥३॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रः असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौं झौं नमः गणधर समूहेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
पुन्नाग पूरा कुहली करवीर जाती मंदार कुन्द वकुलाब्ज सहादि पुष्पैः सत्के त्कै मरुबकै रsपि हृद्य गन्धै संपूजयामि गण वृन्द ममन्द भक्तया
॥ ४ ॥
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौं झौं नमः गणधर समूहेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
स्थाल स्थितं विधुकलाऽमल शालि भक्तं पकान्न शाक परमान्न सिताज्य युक्तं आराधनाय गणिनां गुणमंडिताना मग्रे करोम्य मृत पिण्डमिवाति रम्यम्
॥ ५॥
ॐ ह्रूं अस आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौं झौं नमः गणधर समूहेभ्यः चरुं (नैवेद्य) निर्वपामीति स्वाहा ।
USPSY52/52/5P505 1× POR5PSI やってらす
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CHRISO1510051815105 विद्यानुशासन ISODOISORSCISCIEN
अन्त स्तमोहपह युरामय दाहिना च स्थांतु भिटोय पुरतोप्यति कंपामानैः कर्पूर तैल जनित रूरूदपिं जालै
रुद्योतयामि गणिनाभरूणां धि पद्मान् ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः असि आउसा अप्रति चक्रे फट् विचक्राय झौं झौं झौं नमः गणघर समुहेभ्यो दीपं निर्वपामिति स्याहा।
संसार संज्वर हुताशन दृष्टि सृष्टी: द्राक कर्तुमा हट्ट मियाभ्रम नूत्पतद्भिः कालागुरु प्रभृति बन्धुर धूप धूमैः
संयूपगामि गणवन्द पदाम्बुजानि ॐ ह्रां ही हूं हौं हः असि आउसा अप्रति धक्ने फट विचक्राय झौं झौं नमः गणधर समूहेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्याहा।
जम्बीर जम्बु पनस त्रिपुटाम्र ताल खजूर माधुरस मन्मथ नालिकेरैः रम्भेक्षु लापरल मम सदाडिमाटी रभ्यर्चयामि गण भच्चरणान फलौटी:
॥८॥ ॐ हां ही हूं ह्रौं हः असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौं झौं नमः गणघर समूहेभ्यः अध्य निर्वपामीति स्याहा।
वारि गंध सदक प्रसवायैः शेत सर्षप मुस्यैश्च शुभारीः
भाजनार्पित मनये गुणाना मर्पयामि गणिनामह मर्यम् ॥९॥ ॐ हाही हं हौं हः असि आउसा अप्रति चक्रे फट विचक्राय झौं झौं नमःगणधर समूहेभ्यः ष अध्य निर्यपामीति स्याहा।
पर्जन्याः फल वृद्धोऽत्र समो वर्षन्तु सस्ये जलं राजन्याः परिपालयन्तु सततं धर्मेण सर्वाः प्रजाः नश्यन्तीति गण भवंतु सुरिवनः सर्वेऽहंती वर्द्रताम्
धर्मोऽग्रे भवतां करोमि पद्यसां धारां जगत् शांतये ॥१०॥ ॐ हीं स्वस्ति भद्रं भवतु जगतां शांतिकृद्भ्यः शांतिधारामभिः पातयामि स्वाहा
इति शांति धारा
CHRISTOTSTOTDCSC05 ३३५ PISIODICISIOISIOTSRIROIN
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CASICISIONERISDISIO015 विधानुशासन 751005015015OISODSI
षदकोण कोष्टं तिधि गंतु मध्ये षडष्ट पत्रं गणभत समंत्रः आवेष्टितं षोडश सत् स्वर श्च तदाहटो श्री गण नाथ यंत्रं ॥१॥
नीरेण गंधेन च तंदुलेन पुष्पेन हयेन च दीपकेन धूपेन रंभादि फलेन चाहं यजामि कोण स्थित वर्ण मात्रान्
॥२॥
जिनानऽशेषान जितकर्मशत्रून् नअवाप्त सद्ज्ञान विशेषभूपान्। निजात्म सिद्धायै प्रणि पत्य सम्यग् आराध्याम्यऽष्ट विद्यार्चनेनः
-
ॐहीं अहं णमो जिणाणं जलं निर्वपामीति स्वाहा ॐ ह्रीं अर्ह णमो जिणाणं गंध निर्वपामीति स्वाहा ॐ ह्रीं अहे णमो जिणाणं अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॐ हीं अह णमो जिणाणं पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॐ हीं अहं णमो जिणाणं च निर्वपामीति स्वाहा ॐ ह्रीं अह णमो जिणाणं दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॐ हीं अह णमो जिणाणं धूपं निर्वधामीति स्वाहा ॐ ह्रीं अह णमो जिणाणं फलं निर्वपामीति स्वाहा ॐ ह्रीं अर्ह णमो जिणाणं अर्ध निर्वपामीति स्वाहा
ॐ ह्रीं अहं णमो जिणाणं शांतिधारा निर्वपामीति स्वाहा अनेन प्रकारेण तत्तन्मंत्रं भेदेन सर्वत्र पूजा कर्तव्योति
-
नमो विद्यायाऽवधिव जिने भ्टास्तां स्तन गुणार्थीगुण भूषितांगानप्रभूत कर्मेन्धन
दाहदक्षान् जलादिमिस्तं परिपूजायामि ॐ ह्रीं अहं णमो उहि जिणाणं जल मित्यादि
॥३॥
प्रसन्न मूत्तीन् प्रहतारिवलात्तीर्न परापर ज्ञान परमाऽवधीशान जिनान निंधानऽरिवलाऽभि
वंद्यानऽमि चंच जलं चंदनाद्यैः ॐ ह्रीं अर्ह णमो परमोहि जिणणां जल मित्यादि CSIOTHEI50150505105 ३३६ PISIOSITICISCI51015051
॥४॥
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CTERISTICISIOTSE5 विद्यानुशासन MISSISCIROIROIN
साऽवधि ज्ञान जुषो जिनेशान विनाशिताऽशेष हषीक दोषान मनोज्ञ वेषान् महिमा युषस्तान्
शुभुषयाम्य हण्याति हर्षात् ॐ ह्रीं अर्ह णमो सय्योहि जिणाणं जल मित्यादि
॥५
॥
नमोऽस्त्वनन्ताधि बोध केभ्या इति प्रणुत्य प्रणिपत्या भक्क्या भजामि तान देश जिनानऽशेषा
ननन्त सद्ज्ञान सुरवादि सिद्भौ ॐ ह्रीं अर्ह णमो अणंतोहि जिणाणं जल मित्यादि
तिष्ठन्ति धान्यानि यथाढय कोष्ठे ण्यह्य संकरा यत्र तथैव रोषां बुधो विविक्ता विविधागमार्था स्तान्
कोष्ठ बुद्धीन महमयामि धीरान् ॐ ह्रीं अर्ह णमो कोष्ठ बुद्धीणं जल मित्यादि
ॐ हीं अहं णमो कोष्ठ बुद्धीणं जल मित्यादि बीजाक्षर ज्ञान कताभि योगात् प्राप्तान समस्त श्रुत याधि पारम्तान बीज बुद्धिन
सुसपहिं भजामि भव्याध विधात् दक्षान् ॐ ह्रीं अर्ह णमो बीज बुद्धीणं जल मित्यादि
॥८॥
अधीत्य चैकं पदमात्र मेवो ते द्वादशांगार्थ विदोभयंतिपदाणु सारि प्रतिभान भंगां
स्तान चयाभ्यम्बु मुरयैमहर्षीन् ॐ हीं अहँ णमो पदाणु सारिणं जल मित्यादि
॥९॥
CASIRIDIOIROIDIOISIOTSITER ३३७ PISOISODEDIOSOTRIOTI
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CSIRISTOTRIOTSICI5105 विधानुशासन MEDISCISIOTECISION
समास मद सदक प्रसधादि सिद्धं सिद्धार्थ कादि वर मंगल वस्तु शस्तं सौवर्ण पात्र निहितं सदना मर्दा
मुद्धारयामि गणि वृन्द पदाम्बुजागे ॐ हीं अर्ह नमो अष्ठदल पूजाया पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा
इत्यष्टदलार्चनम्
॥१०॥
अथ षोडशदल पूजा
चक्रवर्ति कटके द्विषण्णव योजने समुदितारिवल शब्दान्
सं करव्याति करेण विनाद्राक श्रृणवंतो मुनिवरान प्रयजेतान् ॥१॥ ॐ हीं अर्ह णमो संभिन्ने सोदराणां जल मित्यादि
नीलाअंनाया विलयाविरक्तः पुरुर्यथा तददिहेक हे तुम्
प्रतीत्य बुद्धान् विनिवृत्तसङ्गान प्रत्येक बुद्धान् परमानुपासे ॐ हीं अर्ह णमो पत्तेय बुद्धाणं जल मित्यादि
॥२॥
विशिष्ट कर्मो पशमादुपदेशा दिना विना
स्वतो विरज्य निःसङ्गान स्वयं बुद्धान् यजामहे ॐ ह्रीं अर्ह णमो सयं बुद्धाणं जल मित्यादि
प्रति बोधनेन बुद्धान सगराधिपवद् विसृष्टभव सहान्
बोधित बुद्धान् शुद्धानुपामहे तोट गंधायैः ॐ ह्रीं अर्ह णमो योहिय बुद्धाणं जल मित्यादि
॥४॥
व्यक्तं मनःकाट वचः कृतार्थ सुविस्मृतं चिंतित मन्यदन्टीः
जानन्ति येतान् ऋजुमत्यभिरल्यान् मुनीन् मन पर्यविणो भजामि ॥५॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो उजु मदीणं जलमित्यादि
काय मनोवचनकतान् व्यक्ता व्यक्तांश्च विस्मृतानन्यांन
अन्य मनः स्थान मनसाभिजानंतोऽचामि विपुल मतीन् ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउल जल मित्यादि
॥६॥
CSCISTOTRICISISTRI5015 ३३८ PIECISIOSCORDISCISION
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:
ASX विद्यामुपन
とりです उत्पाद पूर्व प्रभृतिन्यीत्य विधानुवादादऽधिकानि सम्यक् पूर्वाण्य भंगा चरितान् सुधीरां स्तान् भक्ति पूर्वान् प्राथितानुपासे ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं अहं णमो दश पूरीणं जल मित्यादि
उत्पाद पूर्वादिक लोकबिन्दु सारावसानानि चतुर्दशापि पूर्वाण्यधीत्य प्रतिमानुभायां स्तान सर्वपूर्वान् सकलानुपास ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो चउदश पुव्वीणं जल मित्यादि
स्वप्न स्वर व्यंजन लक्षणाङ्ग छिन्नाभ्र भौमाष्ट निमित्तवित्तान् महामुनीद्रान महयामि पाथै गन्धाक्षताधष्ट विदायऽचनायैः ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो अड़ंग महानिमित्त कुशलाणं जल मित्यादि
अणिमादि गुण समृद्धि प्रसिद्ध वर विक्रिय ऋद्धि संपन्नान् अष्ट विद्याऽनवाऽहं यजे विषिष्टा मातृकाजुष्टान्
ॐ ह्रीं अर्ह णमो विउयण इष्टि पत्ताणं जल मित्यादि
PSPSP
जलजंघा तन्तु फल प्रसून बीजाम्बर श्रेणी: उद्दिश्याष्ट विधानप्यखिलान्चमि धारणान प्रगुणान् ॐ ह्रीं अर्हं णमो चारणाणं जल मित्यादि
अङ्गादि भासुर चतुर्दश पूर्व विद्या ये दीधितीर विवदात्मनि धारयन्ति विद्याधराय विशेष विराजमानां स्तान्ऽर्चयाम्य ध विधात कृते महर्षीन् ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं अहं णमो विजाहराणं जल मित्यादि
प्राग्ये विधाधर त्वेन परां प्रज्ञामुपागताः पश्चामणतां प्राप्तास्तान् प्रज्ञा श्रमणान् यजे ॐ ह्रीं अहं णमो पण समणाणं जल मित्यादि
॥ १० ॥
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
आलम्ब्य ये चाम्बर मृद्धि शक्त्या स्वैरं चरंतीह मनुष्य लोके अर्चामि तेषां पद युग्मं मनीषिणा मम्बर चारणानाम् ॥ १४ ॥
ॐ ह्रीं अर्ह णमो आगास गामिणं जल मित्यादि
95969595959969595959
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SSIOISO1585512505 विद्यानुशासन V IDIOISTD35ICISTORY
यद्गी विषत्वमतातां च द्यते तपोविधे स्ताइशशक्ति योगात्
तेषामुपासे चरणान् ऋषीणा माशी विषाणा मद्य पेषिकाणाम् ।। १५ ।। ॐ ह्रीं अर्ह णमो आसी विसाणं जल मित्यादि
इष्टि विषं चा मत मत्र येषां भवेन्मुनीनां तपसो महिमा
आराधयाम्यष्टविधेष्टि भिस्तान् भिस्तान् इष्टाप्तये दृष्टि विषान् विशिष्टान्॥१६॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो दिछि विसाणं जल मित्यादि
सद्वारि गन्ध सदक प्रसवादि सिद्धं सिद्धार्थ कादिवरमंगल वस्तु शस्तं
सौवर्ण पात्र निहितं सदनय मी मुद्धारयामि गणिवृन्द पदाम्बु जाग्रे ॥१७॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो षोडश दलार्चनायै पूर्णार्धं निवर्पाभीति स्याहा
अथ चतुर्विशति दल पूजा
. पोप वासान न परित्यजन्ति बहून्तराचैरति कर्शिताश्च
प्राणायधीह तिनो मुनीन्द्रा येतान भजाम्युग तपोभिधानान् ॥१॥ ॐ हीं आ णभो वगग तयाणं जल मित्यादि
ये देह दीप्त्या धुन्वति तपः प्रभवया तमः
ते दीप्त तपसोऽभ्याच्या मयाऽभि रिष्टिभिः ॐहीं अह णमो दित्त तवाणं जल मित्यादि
॥२॥
हे भुक्तमन लयमेति मक्तं तप्तायसा तोय मिय प्रतीतं
नीहार हीनान् मुनि पुंगवांस्ता नाम्यहं तप्त तपः समारब्यान्॥३॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो तत तवाणं जल मित्यादि
॥ ४॥
पक्ष मासाद्यनशनाऽनुष्टानऽधिष्टान मुनीन्
तान् महातपसोऽभ्यर्वान् प्रणम्यऽम्यर्थयामि च ॐ हीं अहं णमो महा तयाणं जल मित्यादि SECRCIDCISCESCO ३४० PASTOTRICISTICISIOTECISI
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भयं करेषु स्थानेषु स्थित्वा घोरोपसर्गतः न ये चलन्ति पूज्यन्ते ते घोर तपसोमया ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर गुणाणं जल मित्यादि
विद्यानुशासन pops9595
घोरा ह्यशक्त्याश्चरितुं परेशां गुणव्रताद्याः प्रभवंत येषां गुणाधिकान् घोर गुणान मुनीन्द्रान् भजामि ताद्दग्गुण लब्धयेतान् ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर गुणाणं जल मित्यादि
घोरो हा चिन्तनीयः पराक्रमो व्रतविधान सामर्थ्यम् मोडास्त मुनीनां येर्षा ते घोर पराक्रमाः समभ्ययः ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर परक्कमाणं जल मित्यादि
यद् ब्रह्मचर्य मऽविलाऽश्चर्य करा नतिशयाऽनलं सूते तान खिलानपि च यजे घोरगुण ब्रह्मचारिणः पूज्यान् ॐ ह्रीं अर्ह णमो घोर गुण ब्रह्मचारिणं जल मित्यादि
बहितं केन च कारणेन यै भुक्तं चान्नं यदऽपक्कमेव तदामयान् हन्त्यऽखिलान् स्व सङ्गाद् आमोषध ऋद्धीन् नऽखिलान् यजेतान्
ॐ ह्रीं अर्ह णमो आमो सहि पत्ताणं जल मित्यादि
लो निष्टीयनं येषां सर्व रोगोध्न मौषधम् भवेत् खेलोषधि प्राप्तां स्तान् महर्षीन् यजामहे ॐ ह्रीं अर्ह णमो खेलोसहि पत्ताणं जल मित्यादि
||41|
जल्लो देह मलं येषां जीवरोगोद्यमौषधम् स्या से जल्लोषधि प्राप्तां स्तेषां पादानहं यजे ॐ ह्रीं अर्ह णमो जल्लो सहि पत्ताणं जल मित्यादि
॥ ७ ॥
॥ ८ ॥
॥ ९ ॥
॥ १० ॥
॥ ११ ॥
स्यु ब्रह्म बिंदवो येषां सर्वजीया मयोषधं ते विण्मूत्रोषधि प्राप्तान् तत्पादाब्जानुपास्महे ॐ ह्रीं अर्ह णमो विप्पो सहिपत्ताणं जल मित्यादि
9595959699 ३४१ /5959595959595
॥ १२ ॥
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2らですですからでたら即売町ちたらたらやらでらで
यद् देहात् शकृदादि यदङ्ग सङ्गि भूत्याहि सर्वमपि रोगहृदौषधं स्यात् तानऽर्थयामि महनीयगुणैय भूषान् सर्वोषध ऋद्धि सहितान् सकलान् महर्षीन् ॐ ह्रीं अहं णमो सव्वोषहि पत्ताणं जल मित्यादि
नो इन्द्रिय त समावृति ययं विध कर्मक्षयोपशमने च सति प्रकर्षे अन्तर्मुहूर्त समये सकले श्रुतार्थे चिन्ता क्षमानिह मनो बलिनो भजामि ॐ ह्रीं अहं णमो मण बलिणं जल मित्यादि
जिव्हा मनः श्रुत समावृत्ति वीर्य वि कर्मक्षयोपशमने च सति प्रकर्षे अन्तर्मुहर्त समये सकल श्रुतानुवाद क्षमा नथव वो बलिनो भजामि ॐ ह्रीं अर्ह णमो यचो बलिणं जल मित्यादि
वीर्यान्तराया पद वाच्य विशेष घाति कर्म क्षयोपशम ल धवलानुभावान् ग्राम लि प्रचलनेन चलन्ति धीराः तेभूत्रयीमऽपि च काय वलीशिनोऽयः ॐ ह्रीं अर्ह णमो काय बलिणं जल मित्यादि
येषां पाणि गतान्नं क्षीर रसं भवति वाक्य मपि च तथा संतर्पयन्ति श्रोतॄन क्षीररस स्त्राविणो हिते ऽभ्यर्च्छा: ॐ ह्रीं अहं णमो खीर सवीणं जल मित्यादि
॥ १३ ॥
॥ १४ ॥
॥ १५ ॥
॥१६॥
॥ १७॥
ये सर्पि स्वाविणो दान्ता मुनयस्तान् यजे सदा विषम ज्वर नाशः स्यात यैः स्मृतैः शुभ राशिभिः ॐ ह्रीं अहं णमो सप्पि सवीणं जल मित्यादि
9596959151959 ४२ 959596959
॥ १८ ॥
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SSIOISTRISIOTHO5105 विधानुशासन P512510851065TSTOIEN
पाणि स्थाहार वद् येषां वाक्यं मधुरसं भवेत् तपः प्रभावान् महतस्तान् मधुर स्राविणो राजे
॥१९॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो महर सवीणं जल मित्यादि
अमृत रसं हि करानं टोषां मिह जायते वचोऽपि तया
तर्पयति श्रोत जनांस्ता नमृत साविणो यजे भक्त्या ॐ ह्रीं अहं णमो अमिय सीणं जल मित्यादि
॥२०॥
येभ्यो यद् पट मिष्टमन ममलं दत्तावशिष्टं भवेत्
भुक्तं तत्वलु चकिणोऽपि करके नक्षीयते तद्दिने तान्ऽक्षीण महानस ऋद्धि सहितान् बन्धानऽनिंधान यजे
स्वानन्दाऽमृत कन्द कन्दल गुणान् वन्दाऽरुनन्दा करान् ॥ २१ ॥ ॐ हीं अर्ह णमो अकवीन् महाणसाणं जल मित्यादि
यै राश्रितापवरके हि चतुः करेऽपि श्री चंञ्च चकि कटकं युगपत् प्रविष्टं लब्धाऽथकाश मुपतिष्ठति संयजे
तानऽ तीण शब्द कलिताढयमहालय ऋद्धिन् ॐ ह्रीं अई णमो अक्वीणं महालय ऋद्धिणं जल मित्यादि
॥ २२ ॥
लोकत्रय व्यापि विशिष्ट बोध प्रवर्द्ध मानाय गुणान् मुनीन्द्रान्
संपूज्य यज्वाऽत्र भवामि तद्वद यायज्मि तानेव सदा महषींन् ॥२३॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो वट्ठमाणाणं जल मित्यादि
सिद्धाटातन पूजाया मऽस्थामवहितोऽस्मि यत्
ययाहि यायकोऽहं भवामि भव हानो ॐ हीं अहं णमो लोए सब सिद्धाय दणाणं जल मित्यादि
॥२४॥
महतोऽपि महावीरान रियलानऽपि वर्द्धमान बुद्ध ऋषीन्
अभ्यर्यता नऽशेषान् यजमान स्तत्पदं प्रभजे ॥२५॥ ॐ हीं अर्ह णमो भय वदो महदि महावीर वठमाण बुद्धि रिषीणं झौं झौं जल मित्यादि SOSDI5DI5015050IDOE ३४३ PIDIOSDISTDSOTRICISTER
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STORISTORICTERISES विधानुशासन PARASIRIDICIRCISIONS
सद्वारि गन्ध सदक प्रसवादि सिद्धं सिद्धार्थ कादि वर माल वस्तु शस्तं सौता मात्र लिहिलयन मध्य मुद्धारयामि गणवन्द पदाम्बुजागे
॥२६॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो चतुर्विशति दल पूजायै पूर्णा निर्यपामिति स्वाहा।
ऋद्धाया बद्धः समद्धां स्तपसि परिणतान विकिय ऋद्धि प्रसिद्धान जलायै रामयज्यान् रस वल सहितान विश्रुताक्षीण बुद्धीन ॥२७॥ सर्वान् एतान् महर्षीनऽधिक गुण निधीन वर्षमानानुभावान प्रत्येकं पूजयित्वा प्रसव विरचित्ः प्रालिवाऽभि वन्दे ।। २८ !
पुष्पांजलि क्षिपेत् कोष्टावधि प्रमुख बोध महासमुद्र पारं गतान् नमयितु च सतः समान श्रेणी दया श्रयण योग्य समाधि निष्ठान बुद्धि ऋद्धि सिद्धि सहितास्तु महे महषींन्
॥१॥ दीप्तोग्र तप्त महदादि तपैः प्रभेदैः सम्यक प्रभावित सु निर्मल मूर्तीन् काटोन सार्द्धमऽति कर्शित कम शक्ति स्तान् ताप सद् ऋद्धि पतीन स्तु,महे महषींन्
॥२॥
तोयाद्युपायदाद द्भुत शक्ति भेद भिन्नाष्ट्या प्रथित चारण योगि वान् नानाणिमादि निपुणांश्च तपः प्रभायां स्तान् विकि य ऋद्धि सहितान् स्तु मह' महर्षीन्
॥३॥
ताप अटौरऽतितरामिह तप्यमाने ष्वेतेषु जीवनिवहेषु दया भावात् उद्भावितैः पृथुगुणैरुपकुर्वतोऽन्यां स्तानी
षध ऋद्धि पतीन् स्तु महे महर्षीन् 52150152750751005055 ३४४ 35107510051251235TRICIOUSI
॥४॥
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505510150155215 विधानुशासन AS1015TORSIDASTISIST
आज्यादि कानपि रसानऽरिवलान विसद्य तीवं तपोमुनिवरास्त्व चरं स्तथापि तानेय ते रवलु रसान न परित्यजन्ति रस ऋद्धि तिशयान् स्तु महे महर्षीन्
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कुर्वन्ति टोक्षपयितुं स्व बलं मुनीन्द्रा मासाद् उपेषित विधिं हि तथाऽपि चित्रम् तेनैव तद्वलमनी द्दशद्धि मन्तस्तां स्तदलद्भर्यऽधि पतीन् स्तुमहे महर्षिन्
॥६॥
त्यागानुकंपनगुण प्रणिधि प्रधान दियानुभाव तपसामति शक्ति योगात् अति अद्भुत क्षय गुण प्रकृति प्रसन्नां स्तान् क्षयाद् ऋद्धि पतीन स्तुमहे महर्षीन्
॥७॥
युष्माकं प्रतिनां स्पहा विरहिणां नैयोपकारोऽस्तयदः पूजादेश्य तथापि पूजन विधिं भक्तव्या सदातन्वताम्
॥८॥
अत्रामुत्र सुरयं भवत्यऽभिमतावाप्ति श्च संपद्यते तद् युष्मानऽमि पूज्य भक्ति निरतां स्तुत्वा प्रयंदामहे
॥९॥
शुष्माकं मह तामऽचित्य माहिमा प्रोद्भासिना सद्गुणा: संख्यामप्यति यतिन स्तदरिवलान् संस्तोतुमिष्टेऽनेक ॥१०॥
तत्सर्व स्तुति यत्फलेन सद्दशीरवल्वैक देश स्तुतिः तद् युष्मद् गुण लेश मात्र मपि च स्तुत्वा कृतार्थोऽस्म्यहम् ॥ ११ ॥
कारुण्याऽमते सिन्धवः परिल सदभव्याब्जिनी बांधवाः स द्विधातति बिंदयः सुमनसा मानंद कारीन्दवः ॥१२॥
CROIDDISTRISTRISTICISIOTS ३४५ PXSIRIDIOTSPIRICISTRI5015
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CARTOISISTERSIT51075 विद्यानुशासन VDIO505125TSTRICISE
लोकांतेऽत्र सुकीर्तिताः स्फुट गुण वाताः शुचि स्फूर्तयः सं शष्टाद्रव वार्द्धयो मुनि वरा नन्दन्तु सप्तद्रयः ॥१३॥ सं स्पर्श मात्र विनिवारित सर्व दोषां सौभाग्य भाग्यजय कार्मण दिव्या भूषाममुक्त्य नागरिमोसन मुस्ता पोषांम भक्त या भजामि निज मूनि प्रसिद्ध शेषाम्
॥१४॥
युष्मानागम भार रूप महतो भक्त्या समाराध्यन सम्टाक्त्वं च त्रिधो पचार विधिना तत्र प्रमादोऽस्ति च
॥१५॥
तत् सोढव्य (मुद्भक्त) (मुषोद्भवत्सल) मुखोत्थ वत्सल तया देवैरलं (रहिं वो गुणान् ध्यायन याम्यधुना गृहं स्वम चिराद् पुनदर्शनं । इत्थं गणाधिपति चक्र महाभिषेकं पूजां पुरानियम वा नितियः करोति ॥
सत्सवर्ग (सर्व स्वर्ग) मनुभूषतैवैनतारी) सौरव्य मनुभय ततोऽवतीर्य प्राप्रोत्यिनन्त सुरखमक्षय मोक्ष लक्ष्म्याः
॥
इति श्री मदिमडि भट्टोपाध्याय प्रणिते गणधर वलय
समाराधना कल्पेयंत्राभिषेक पूजा विधान समाप्तं ।। मध्ये गुरूनष्ट दलेषु देयं गणेन्द्र षट्क क्रमेशो वहिश्च अर्हकला षोडश पत्र पा वर्गान जयाटांश्च दिगंतरेषु लिस्वेत् त्रिमूर्तेरुदरेतु जांततन्मूल मंत्रेण सदाऽचितं च वूते स्व कार्य कुरुते च कर्म यथेप्सितं मोक्ष सुरवं विद्यते।।
एक अष्टदल कमल के बीच में गुरूओं को देकर, एक एक दल में क्रमशः छह छह गणधर वलय मंत्र लिखें कर्णिका में अर्हत बीज और सोलह कलाओं को लिखकर पत्रों के बाहर वर्गों और उनसे भी बाहर की दिशाओं में जया आदि देव्यों को लिखें। इस यंत्र को त्रिमूर्ति ह्रीं के पेट में लिखकर जो पुरूष इसका प्रतिदिन मूलमंत्र से पूजन करता है उसके लिए यह यंत्र अपने कार्य को बतलाता है। हे इच्छानुसार कार्य को करता है और यहां तक कि मोदा के सुख को भी देता है।
इति महद्गणधर वलय चक्र क्रम
CSRISD151255005IONSIDE ३४६ PSRI5015015015015DIES
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esP5250
विधानुशासन
ॐ ह्रीं असि आउसा ह्रीं झीं झौं नमः
ॐ ह्रीं है झ झ णमो अरहंताणं सिद्धाणं आयरियाणं उवज्झायाणं साहूणं स्वाहा ॥ यह दोनों गणधर वलय मंत्र है।
ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: आयं परम गुरू पदाद्यक्षरं होम युक्तं वेदादि कर्णिकायां जिन भुवन पत्तिं पत्रं मध्ये लिरयदौ
हां जैन स्तोत्र होमं तदनुकमलजं ह्रीं च सिद्ध स्तुतिं च होमांत ततदन्येष्वपि गुरु पद युक् हूं तथा ह्रौं ततोह :
ॐ ह्रीं पूर्व स होमं ग वर्गमुमाचार (मसमाचार) मंतचं च वाह्ये
ॐ ह्रीं अहं नमः प्राग्गणधर वलयेनाऽवृतं तत्व वेष्टयं को रुद्धं वारि पृथ्वी पुर वृत मनिशं पूजयेन्मोक्षहेतो (गामी) माला मंत्रेण चांतर्गति पदसहितै झौं नमोह जिनेन्द्रै ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आउसा झौं झौं अर्ह नमः स्वाहा
इति गणधर वलय मंत्र
कर्णिका में आद्य (ॐ) ह्रां ह्रां हूं ह्रीं ह्रः परम गुरु पदाक्षर (असि आउसा) और होम (स्वाहा ) को लिखकर उसके चारों तरफ वेदादि (ॐ) और जिनभवन पति ( ही ) को लिखकर इसके पश्चात आठों पत्रों में क्रम से ॐ ह्रां जैन स्तोत्र (णमो अरहंताणं) होम (स्वाहा ) ॐ ह्रीं सिद्ध स्तुति (णमो सिद्धाणं) होम (स्वाहा ) ॐ हूं आयरियाणं स्वाहा ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ॐ ह्रः णमो लोए सव्व साहूणं स्वाहा ॐ ह्रीं द्दग सम्यग्दर्शणाय स्वाहा ॐ ह्रीं अवगम (सम्यक् ज्ञानाय स्वाहा ) ॐ ह्रीं सदाचार (सम्यञ्चारित्राय स्वाहा लिखे इसके पश्चात ॐ ह्रीं अर्ह नमः को लिखकर उसके बाहर गणधर वलय मंत्र लिखे। फिर तत्व ह्रीं वेष्टित करके क्रों से निरोध कर सबसे बाहर जल मंडल और पृथ्वी मंडल बनायें। जो पुरुष इस यंत्र का ॐ ह्रीं हैं नमः स्वाहा सहित माला मंत्र से पूजन करता है। वहाँ शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आउसा झीं ह्रीं अहं नमः स्वाहा ।
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विद्यानुशासन
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॥ग्रंथांतरे ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्परमेष्ठिन स्तर्पयामि ॐ हीं सिद्ध परमेष्ठिन स्तर्पयामि ॐ हीं आचार्य परमेष्ठिन स्तर्पयामि ॥ ॐ हीं उपाध्याय परमेष्ठिन स्तर्पयामि ॐ ही सर्व साधुपरमेष्ठिन स्तर्पयामि ॐ हीं जिणा स्तर्पयामि ॥
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विधानुशासन 959595955
ॐ ह्रीं अव धिजिनां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं परमावधिजिना स्तर्पयामि ॐ ह्रीं सर्वावधिजिनां स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं अनंतावधि जिनां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं कोष्ठ बुद्धिं स्तर्पयामि ॐ ह्रीं बीजबुद्धि स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं पादानुसारिणस्तर्पयामि ॐ ह्रीं सभिन्नश्रोतुं स्तर्पयामि ॐ ह्रीं प्रत्येक बुद्धां स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं स्वयम्बुद्धा स्तर्पयामि ॐ ह्रीं बोधित बुद्धां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं ऋजुमती स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं विपुलमती स्तर्पयामि ॐ ह्रीं दश पूर्वीण स्तर्पयामि ॐ ह्रीं चतुर्दश पूर्विण स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग महानिमित्त कुशलां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं विक्रिय ऋद्धिं प्राप्तां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं विद्याधरां स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं चारणां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रवणास्त स्तर्पयामि ॐ ह्रीं आकाश गामिन स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं आसां स्वर्प ॐ ह्रीं दृष्टिं विषां स्वयामि ॐ ह्रीं उग्र तपस्विन स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं दीप्ततप स्विन स्तर्पयामि ॐ ह्रीं तप्त तपस्विन स्तर्पयामि ॐ ह्रीं महातपस स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं घोर तपस्त स्तर्पयामि, ॐ ह्रीं घोर गुणां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं घोर पराक्रमां स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं घोर ब्रह्मचारिण स्तर्पयामि ॐ ह्रीं आमर्षोषद्धि प्राप्ता स्तर्पयामि ॐ ह्रीं asौषधिप्राप्तां स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं जल्लोषधि प्राप्ता स्तर्पयामि ॐ ह्रीं विप्रौषधि प्राप्तां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं सर्वोषधिप्राप्तांस्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं मनोबलिन स्तर्पयामि ॐ ह्रीं वाम्बलिन स्तर्पयामि ॐ ह्रीं कायबलिन स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं अमृत श्राविण स्तर्पयामि ॐ ह्रीं मधुश्रविण स्तर्पयामि ॐ ह्रीं सर्पिस्त्राविण स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं क्षीर श्राविण स्तर्पयामि ॐ ह्रीं अक्षीण महानसां स्तर्पयामि ॐ ह्रीं अक्षीण महालयां स्तर्पयामि ॥
ॐ ह्रीं अहं लोके सर्वसिद्धायतनानि तर्पयामिस्वाहा ॐ ह्रीं भगवतो महति महावीरवर्द्धमान बुद्धि ऋषि स्तर्पयामि ॥
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घोर पराक्रम तप
घोर गुण तप
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ॐ ह्रीं अक्षीण महालयाऽक्षीण महान सेती द्विप्रकारीया अक्षीण ऋद्धि सर्वदिभ्योनमः
ॐ ह्रीं दीप्त तप तप्त महातप उग्र तप योर तप योरपराक्रम तप योर गुण तप इति
सप्त प्रकार तपोतिशय ऋद्धि घर सर्व ऋषिभ्यो नमः CERITICISIOTECTRICISIOKE ३५० PISTRIECTERISTICISCISION
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ॐ हीं मनोवपु वांग बल इति त्रिप्रकार बल ऋद्धि घर सर्वकृषिभ्यो नमः
-
ॐ ह्रीं आमर्ष सर्वोषधि आशी विष द्दष्टि विष सरिवल्ल विडजल मलेत्येऽष्टौषधि ऋधिधर सर्वहिस्टो नमः
ॐही आशी दृष्टि क्षीर घृत मधु अमृतेति षटप्रकारस ऋद्धिधर सर्वऋषिभ्यो नमः
ॐहीं अणिमा महिमा लघिमा गरिमा काम रूपित्य यशित्व ऐश्वर्य प्रकाम्य अन्तरधान निप्राप्त्यतियात इत्ये एकादश यिक्रिया ऋद्धिधर सर्व ऋषिभ्यो नमः
ॐहीं केवलमनपर्यय अवधिकोष्टेक बीजसं भिन्न संश्रोत पदानुसारी दूर स्पर्शन दूर श्रवण दूरा स्वेदन दूर धान दूर विलोकन प्रज्ञा श्रवण प्रत्येक बुद्धि दश पूर्वेत्य सर्यपुर्यित्य प्रवादित्याऽष्टाग निमित्थ अष्टादश बुद्रिधर सर्वऋषिभ्यो नमः॥
ॐ ह्रींजंघाचारण श्रेणिचारण फलचारणजलचारणतन्तु चारण पुष्पचारण बीज चारण अंकुर चारण आकाश चारणेति नव प्रकारा क्रिया ऋद्धि घर सर्वऋषिभ्यो नमः ॥
श्री पार्श्वनाथाष्टक गत त्रिोद्धारः क्रियते अब श्री पार्श्वनाथ अष्टक वाले यंत्र का उद्धार किया जाता है।
अष्टदल कमलं लिरिवत्वा तन्मध्ये कर्णिकायां ॐनमो भगवते पाश्र्वनाथाय धरणेन्द्र इत्य क्षराणि लिरिवत्वा अष्ट पत्रेषु पलायति सहिताय इत्टी कैकाक्षरं निधाय पत्रांतरालेषु यथा कमंअट्टे मट्टे क्षुद्र वियट्टे इति लिरियत्या तदनुदलाग्रेषु धुदान स्तंभय स्तंभय स्वाहा पश्चात ही कारण त्रिधा संवेष्ट
कों कारेण निरोधोत्। एक आठ दल का कमल लिखकर उसकी कर्णिका में ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र यह अक्षर लिखकर, आठ पत्रों में पद्मावति सहिताय इसके एक एक अक्षर लिखकर बाहर अंतराल के क्रम से अहे मद्दे शुद्र विघटे लिखकर बीच के अंतराल में शुद्रास्तंभय शुद्रान्स्तंभय स्याहा लिखे पीछे ह्रीं कार से तीन बार वेष्टित करके क्रों से निरोध करे।
SSCI52505OTOS00 ३५१ 151065375851015015015
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95959595951 विधानुशासन 95959595951
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावति सहिताय आहे मट्टे क्षुद्रविट्टे मुद्रास्तंभय क्षुद्रान्स्तंभय स्वाहा ॥ तैरेवा मंत्राक्ष यंत्रोद्धारः
इन्हीं मंत्राक्षरों से यंत्र का उद्धार होता है।
पद्ममष्टदलोपेतं मायाकं जल संस्थितं पद्म मध्यांतरालेषु पत्रोपरियथा क्रम
॥१॥
एक अष्टदल कमल माया बीज ह्रीं और जलमंडल के अंदर बनाया जाये कमल के मध्य में बीज में और ऊपर क्रम से
तथैवाष्टौ तस्यावर सुमंडलं तथाष्ट शत जपेन ज्यरमेकांतरादिर्त
अष्टाय
॥ २ ॥
उपरोक्त मंत्र के आठ आठ और आठ अक्षर लिखने चाहिये इस मंत्र को १०८ बार जपकर एकांतरा
आदि ज्वर
चिपु दोर नेपाल शाकिली भूत संभवः आरण्यादिऽहिजां भीतिं हंति बद्धभुजादिषु
॥३॥
शत्रु राजा चोर शाकिनी भूत पिशाच और जंगल के सर्प आदि का भय इस यंत्र को भुजा आदि में बांदने से दूर हो जाता है ।
पुष्पमालां जपित्वा च मंत्रेणाट शतादिके प्रक्षिप पात्र कंठेषु भूतादीन् स्तंभवेद्भवं
॥૪॥
फूलों की माला पर इस मंत्र को एक सौ आठ बार जपकर यदि उस माला को प्राणी के कंठ में बांधने से भूत आदि का स्तंभन होता है।
गुग्गुल स्य गुटिन च शत महोत्तर हुर्त दुधनुच्चाटयेत्सवः शांति च कुरुते गृहे
॥ ५॥
गूगल की १०८ गोलियो को इस मंत्र से पढ़कर होम करने से यह मंत्र शीघ्र ही घर से दुष्टों का उच्चाटन करके शांति स्थापित करता है ।
देव
दानवस्य सिंहस्य कवचयो
वांछितैः सदा
श्री अश्वसेन कुल पंकज भास्करस्य पद्मावती धरण राजनिसेवितस्य श्री पाश्र्वनाथ जिन संस्तवना लभते भव्या श्रियं शुभ गतामपि वांछितानि
यह यंत्र देव दानव और सिंहों से बचने के लिये सदा ही कवच स्वरूप कहा गया है। इसप्रकार श्री अश्वसेन महाराज के कुल स्वरूपी कमल के लिये सूर्य धरणेन्द्र और पद्मवति से सेवित श्री
9695959525 ३५२ 95959625050se
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CISDISCIECTRIOTICS विधानुरशासन HSCISIOTICISISCISI पार्श्वनाथ भगवान के स्तयन से भव्य लोग अपनी इच्छा की हुई वस्तुओं के साथ मोक्ष लक्ष्मी को
भी प्राप्त करता है।
इति पार्श्वनाथ स्तवनं
इतिपूर्वोत्तमंत्रणाष्टोत्तरशतजाप्पन एकांतरादिज्वर रिपुचोरमहीपाल शाकिनी भूत बाधा अरण्यस्थाऽसर्पजाभीति च नाशयति करी बद्धे सति तेन मंण अष्टोत्तर शत बारान पुष्प मालां जपित्वा यस्य कंठे धार्यते तस्य भूतादयो गछति गुग्गुल होमेन अष्टोत्तर शतढियमाने उच्चाटनं शांतिश्च भवति सप्रकार पूर्वोक्त मंत्र के १०८ बार जप करके यंत्र हाथ में बांधने से एकांतरा आदि ज्वर, शत्रु, चोर, राजा, शाकिनी, भूत बाधा और बन के सर्पो से होने वाला भय नष्ट हो जाता है। इस मंत्र को फूलों की माला पर १०८ बार जपकर जिसके कंठ में यह माला पहनायी जाती है। उसके भूत आदि भाग जाते हैं। गुग्गुल की गोलियों के १०८ बार होम करने से दुष्टो का उच्चाटन करके घर में शांति होती है।
इति
नमो बागवते पाच नावाम
परगड
।
म
CREACIRCICIRCTRICIS ३५३ PISCSCSCIRCISIOTSCIEN
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CREDICTSIRIDDHI विधानुशासन STISIONSCISIONSCISS
॥ ऋषि मंडल स्तोत्र || ॐनमः
आयंताऽसर सं लक्ष्यमक्षरं व्याप्य यस्थितं अग्नि ज्वाला समं नादं विंदु रेवा समन्वितं
॥१॥
अग्निज्वाला समाक्रांतं मनोमल विशोधनं दीदीप्यमानं हृत्पी तत्पदं नैमि निर्मलं
॥२॥ स्वर व्यंजनों के आदि के अक्षर अ और अंत का अदार ह और अंत के अक्षर ह को अग्निज्याला (र) और इसके मस्तक पर बिन्दु और अर्धचन्द्र रेखा सहित करना अर्थात् अह ऐसा बनाना यह अर्ह बीज अग्नि की ज्वाला के समान प्रकाश वाला है। मन के मेल पाप को धोने वाला निर्मल है और अर्हत पद का कहने वाला, प्रकाश मान अर्ह पद को हृदय के कमल अष्टदल वाले में स्थापित करके उसको मन वचन काय से नमस्कार करता हूँ।
ॐ नमोः ऽहंदभ्यः इशेभ्य: ॐ सिद्धेभ्यो नमो नमः ॐ नमः सर्व सूरिभ्य: उपाध्यायेभ्य ॐ नमः ॥३॥ ॐ नमः सर्व साधुभ्यः तत्व दृष्टिभ्या ॐ नमः (ॐ नमस्तत्व दृष्टिभ्यश्चारित्रेभ्यो नमो स्तुवै)
ॐ नमः शुद्धे बोधेभ्य श्चारित्रेम्यो नमो नमः ॥४॥ अहंत भगवान को जो ईश अर्थात तीन लोक के स्वामी है। अठारह दोष रहित हैं। चौत्तीस अतिशय आठ प्रातिहार्य, अनन्त चतुष्टय और छयालीस गुण सहित हैं। उनको नमस्कार हो।सूरि अर्थात आचार्य छत्तीस गुण सहित , सर्वऋद्धि के धारक, तद्भय मुक्तिगामी हैं। उनको नमस्कार हो। उपाध्याय भगवान जो संपूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता पच्चीस गुण सहित तदभव मोदा गामी है। उनको मेरा नमस्कार हो। सर्व साधु भगवान जो अट्ठाइस मूल गुण धारक तद्भव मोक्षगामी हैं तथा आठ अंग सहित सवोत्कृष्टज्ञान के धारक सर्वसाधु भगवान को नमस्कार हो।सम्यकज्ञान तथा तत्वदृष्टि अर्थात सम्यक दर्शन को नमस्कार हो । तेरह प्रकार के चारित्र धारी हैं उनको नमस्कार हो ।
श्रेयासेऽस्तु श्रिये स्त्वेतऽहं दाद्यष्टकं शुभं स्थाने ष्वष्टस संन्यस्तं पृथग बीज समन्वितं
॥५॥ श्रेय से अर्थात कल्याण के कर्ता है, श्रेय लक्ष्मी के कर्ता है अहंत भगवान से आरंभ करके अर्थात अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, सम्यकदर्शन, सम्यकझान, सम्यकचारित्र आठों पद एवं कल्याण स्वरूप ॐ बीजाक्षर सहित अलग अलग आठ दिशाओं में स्थापन किये गये सुख देवे और लक्ष्मी को देवें।
ಇದEEPಥg ೩೬೪ ದಟಣಗಳ
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959529595951 विधानुशासन 2505959595295
आयं पदं शिरो रक्षेत् परं रक्षेतु मस्तकं तृतीयं रक्षेत्रे हे सूर्य तुका
॥ ६ ॥
पंचमं तुमुखं रक्षेत् षडं रक्षे घंटिकां सप्तम् रक्षेन्नभ्टांतं पादांतं चाष्टमं पुनः ॥७॥ अहंतादि आठ पदों में क्रम से पहला अरहंत पद शिर की रक्षा करो। दूसरा सिद्ध पद मस्तक की रक्षा करो। तीसरा आचार्य पद दोनों नक्षत्रों की रक्षा करो। चौथा उपाध्याय पद नासिका (नाक) की रक्षा करो। पाँचचा सर्व साधु पद मुख की रक्षा करो। छटा सम्यकदर्शन पद गले की रक्षा करो सातवाँ सम्यक ज्ञान पद नाभि की रक्षा करो। और आठयाँ सम्यकचारित्र पद पैरों की रक्षा करो।
पूर्व प्रणवतः सांत सरेको द्वित्रि पंचं षान् सप्ताष्टदश सूर्याकान् श्रितो बिन्दु स्वरान् पृथक्
॥ ८ ॥
पूज्यनामाक्षरावस्तु पंच दर्शन बोधन चारित्रेभ्यो नमो मध्ये ह्रीं सांत समलं कृतः
॥ ९ ॥
पहले तो प्रणव अर्थात् ॐ को लिखें, बाद में सकारांत अर्थात् ह में रकार मिलाकर उसमें दूसरी कला आ मिलावे | अर्थात् ह्रां हुया । फिर हकार और रकार में तीसरी कला ह पांचवी कला उ छट्टी कला ऊसांतवीं कला (स्वर) ए आठयी ऐ दसवीं औ की मात्रा बिन्दु अनुस्वार सहित लगाये और बारहवीं अः की मात्रा लगावे अर्थात् ॐ ह्रां हिं हुं हुं हैं हैं ह्रौं ह्रः इसतरह लिखे । इसके बाद पूज्य पंच परमेष्टियों के आदि के पांच अक्षर लेवे अर्थात असि आउसा लिखे, फिर सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रेभ्यो लिखकर अंत के नमः पद से पहले शोभायमान ह्रीं को लिखे तब मंत्र मिलकर
ॐ ह्रां हिं हुं हुं हैं हैं ह्रौं ह्र: असि आउसा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रेभ्यों ह्रीं नमः ऐसा २७ अक्षर का मंत्र है। बीज इति ऋषि मंडल स्तयनं यंत्रस्य मूल मंत्र:
आराधकस्य शुभनव बीजक्षरः अष्टादश शुद्धाक्षरः एव मेकतर सप्तविशत्यक्षर रूपं
इस ऊषि मंडल स्तवन यंत्र का मूल मंत्र सत्ताईस अक्षर का है। जिसमें ९ नो बीज अक्षर है और अठारह शुद्ध अक्षर है यह मंत्र आराधना करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण कर देने के कारण शुभ है। इस मंत्र में जो ॐ अक्षर पहले लगता वह गिनती में नहीं आता है। परन्तु उसके लगने से ही मंत्र शक्ति प्रगट होती है।
9595195905950 1445959595959595
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SSOCISIOSCIRC5 विधानुशासन 151050510050SCIEN
जंबु वव धरो द्वीपः लाहोधिसमावृतः ईदाद्यष्टकैरष्ट काटाधिौरउलंकृतः
॥१०॥
तन्मध्ये संगतोमेरुः कूट लक्ष्यैरऽलंकतः उच्चरुच्चैस्तर स्तारस्तारामंडल मंडितः
॥११॥
तस्यो परि सकारांतं बीजमध्यास्य सर्वगं नमामि बिंबमाहत्य ललाटस्य निरंजनं
॥१२॥ जंबु वृक्ष को धारण करने याला द्वीप जंबू द्वीप है। उसके चारों तरफ से लवण समुद्र ने घेर रखा है। यह द्वीप आठ दिशाओं के स्वामी अर्हत आदि आठ पदों से शोभायमान है। अर्थात् अर्हत सिस आचार्य उपाध्याय सर्व साधु सम्यग्दर्शन सम्यक झान सम्यकचारित्र यह आठ दिशाओं के अधिष्ठाता हैं, तो आठों दिशाओं में स्थापित करें। इन आठों दिशाओं के मध्य में सुमेरू पर्वत है जो निन्यावे हजार योजन ऊँचा है ।एकहजार योजन भूमि में गड़ा हुआ है। चौडाई लम्बाई दस हजार योजम है। गोलमेल है जो सौ कूट शिखरों से शोभायमान एक लाख योजन ऊँचे सुवर्ण का है । ७९० योजन की ऊँचाई पर तारामंडल है।दस योजन पर सूर्य का विमान है। ८० योजन ऊपर चन्द्रमा है इससे ४ योजन ऊपर नमात्र मात्रों से ऊपर ४ योजन ऊपर बुध है इससे ३ योजन ऊपर शुक्र है शुक्र से ३ योजन ऊपर बृहस्तपति है जिससे ३ योजन ऊपर मंगल है इससे ३ योजन ऊपर शनिश्चर का विमान है शेष मात्र चित्राभूमि से ऊपर बुध और शनिश्चर के बीच में स्थित है इसे ज्योतिया कहते हैं। यह सब सुमेरू पर्वत के चारों तरफ परिक्रमा देने से बहुत रमणीक मालूम होते है। ऐसे सुमेरु पर्वत के ऊपर सकारांस बीज ही को विराजमान करके उसमें बैठे हुये धातिकर्म अंजन से रहित अहंत भगवान का अपने ललाट (मस्तक) में स्थापन करके नमस्कार पूर्वक च्यान करें।
अवयं निमलं शांतं बहलं जाइयतोज्झितं निरीहं निरहंकारं सारंसारतरं धनं
॥१३॥
अनुद्धतं शुभं स्फीतं सात्विक राजसं मतं तामसं विरस बुद्धं तैजसं शर्वरी समं
॥१४॥
साकारं च निराकारं सरसं विरसं परं परापरं परातीतं परं पर परात्परं
॥१५॥ CISCTRICISCISCTRICISIOTS ३५६ PISesicrscCISCIEDOIN
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SSCIRCISecrpca विधान
एकवण दियण च त्रिवण तुव्यं वर्णकं पंचवर्ण महावणं सपरं च परापरं
सकल निष्कलं तुहं निर्वत मांति थअिंत निरंजनं निराकांक्ष निलेप वीतसंशयं
॥१७॥
बमाणमीवरं युद्धं शुद्धं सिद्धं भंगुरं ज्योति रूपं महादेवं लोकालोक प्रकाशकं
॥१८॥ अब अर्हत के बिंब के ध्यान का स्वरूप बतलाते हैं। अहत भगवान का बिंब अक्षय शाश्यत जन्म मरण रूप से रहित है। कर्मरूपी मल से रहित है। शांतमूर्ति शांतमुद्रा वाले है। अत्यंत श्रेष्ठ है। अज्ञानता से रहित है। मद से रहित है। अभिलाषा से रहित है। - अंहकार से रहित है। श्रेष्ठ श्रेष्ठों में भी अत्यंत श्रेष्ठ हैं। मदरहित है (उतपने से रहित है) शुभ है, स्वच्छ है, शांत गुण होने से सात्विक है। तीन लोक के मालिक होने से राजस गुणवाले है।मतं अर्यात् कहा है । अष्ट कर्मों के नाश करने के लिये तामस गुण युक्त है। श्रृंगार आदि रसों से रहित है।झानयान से है।ज्योतिरूप सहित है। पूनम की चांदनी रात के सामन उजवल आनन्द कारी है। आहेत की अपेका शरीरसहित होने से साकर अर्थात् आकार सहित है।सिद्ध की अवस्था में शरीर रहित होने से निराकार आकार रहित है। ज्ञानरस से भरे होने के कारण सरस है परन्तु रसादि विषय से रहित हैं। रम अर्थात उत्कृष्ट है। कम से उत्कृष्ट है। परातीतं अर्थात् शत्रुता से रहित है। परंपरं अनुक्रम से अतीत है। परात्परं आदि से भी परे अर्थात अनादि है। सपर अर्थात् स से परे आगे का वर्णहकार अक्षर जो अरहंत का वाचक है यह एक वर्ण का सफेद है, दो वर्ण का श्याम है, तीनवर्ण का लाला है। सूर्यवर्ण अर्थात् ४ चार रंग का अर्थात् नीले वर्ण का है। पांचवर्ण का पीला वर्णवाला भी है। महावर्ण अर्थात् उत्कृष्ट वर्ण का है। उत्कृष्ट से भी उत्कृछ पांच वर्ण का हकार है। सकलं अर्थात कला सहित है।अर्हत की अपेक्षा सकल है सिद्धों की अपेक्षा शरीर रहित है। तुष्ट अर्थात उनको देखने से संतोष उपजाने वाला है निर्वृतं अर्थात भमण रहित होने से कल्याण के हेतु है। भांति भमण रहित है। कर्माजन से रहित है। इच्छा से रहित है. कर्मरूपी लेप से रहित है संशय रहित है। ब्रह्म स्वरूप है सब भव्यजीवों को हित की शिक्षा देने से ईपर तीन लोक के स्वामी है ज्ञानवान है। अठारह दोषों के न होने से शुद्ध है। सिद्ध स्वरूप है। संसार में आवागमन न होगे से क्षणभंगुरता से रहित है। ज्योति स्वरूप है। देवो से पूजन की होने से महादेव है तीन लोक और अलोक्ताकाश को अपने ज्ञान से प्रकाशने वाले हैं। CRCISCSCISCERTREA5 ३५७ PISOTSCISCIRCTERISTI
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CASIOTI5015015015015 विधानुशासन HS615015015101585
अहंदाख्यःसवणांत: सरफो बिंदु मंडितः तूस्विर समायुक्तो बुहध्यानादि मालितः
॥१९॥ अर्हत का आय्य वाचक सवर्णात (स अक्षर के आगे का अवार) हकार है। वह रकार और विन्दु अनुस्वार सहित है रेफ और निन्दु से शोभायादला दौथा स्वार ईकार सहित है। सो सय मिलाकर हीं हुआ यह ह्रीं बीज बहुत प्रकार से ध्यान करने योग्य है।
अस्मिन् बीजे स्थिताःसर्वेऋषमाद्या जिनोत्तमाः
वणे निजै निजै युक्ता प्यातव्या स्तऽत्र संगताः । ॥२०॥ इस ह्रींकार बीजाक्षर में ऋषभनाथ जी लेकर चौबीस जिलेश्वर वर्द्धमानजी पर्यंत विराजमान है उनका अपने अपने रंगो सहित ध्यान करना योग्य है।
नादश्चद्र समाकारो बिन्दुर्नील समप्रभाः कालरुण समासांतः स्वर्णाभ सर्वतोमुरवः
॥२१॥
शिरः संलीन ईरवारों विनीलो वर्णतः स्मृतः यानुसार सं लीनं तीर्थकज्मडलं नमः
॥२२॥ ही बीजाक्षर की नाद कला आधे चन्द्रमा के आकार की है। वह सफेद रंगवाली है। नाद पर जो बिन्दु है यह श्याम रंग का है। और गोल है। मस्तक रूप कला लाला रंग की प्रभावाली है। सांत अर्थात् सकार के आगे अक्षर हकार चारों तरफ से सोने के समान पीले रंग का है। सिर से मिला हुआईकार नीले रंग का है उस ह्रीं में अपने रंग के अनुसार तीर्थकर समूह का स्थापन किया जाये उनको नमस्कार है। अब आगे इन पांचो भागों में जो तीर्थकर स्थित है यह अलग अलग रंग सहित बताते हैं।
॥२३॥
चन्द्रप्रभ पुष्पदंती नाद स्थिति समाश्रितो
बिन्दु मध्या गती नेमि सुव्रतौ जिन सत्तमो चंद्रप्रभजी और पुष्पदंतजी यह दोनों तीर्थकर जो श्वेत वर्ण के हैं अर्ध चन्द्रमा के आकार की जो ही कार की नाद हैं उसमें स्थापन करने चाहिये। हींकार की बिन्दु गोल श्याम वर्ण की है। उसमें नेमिनायजी मुनिसुव्रतनाथ जी जिनका शरीर की कांति श्याम वर्ण है वह दोनों जिनेन्द्र देव बिन्दी में विराजमान महाउत्तम है। CASICISIOTICISIO5051065 ३५८ PICICISIOTSTOISCLASTOTRICIEN
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CHRISTIATRICIDE विद्यानुशासन ISIOTSICASIOTSICISIPISE
पद्मप्रभ वासु पूज्यो कला पन मधिश्रितो शिरः ईस्थिति संलीनौ सुपार्श्व पार्वजिनोत्तमौ शिरः इंस्थिति संलीनौ पार्श्व मल्लि जिनोत्तमौ
॥२४॥
पद्म प्रभ यासुपूज्य जी यह दोनों तीर्थंकर लाल वर्ण के हैं। हींकार की कला भी लाल वर्ण की हैं उसमें तिष्ठित है मस्तक में ईकार की मात्रा जिसका रंग नीला उसमें श्री पार्मनाथजी और मल्लिनाथजी जिनके शरीर की कांति भी नीले वर्ण की है। उसमें तिष्टित है।
शेषा स्तीर्थकराः सर्वैरहः स्थाने नियोजिताः मायाबीजाक्षरं प्राप्ताश्चतुर्विशतिरह तां
॥ २५॥ बाकी शेष रहे सोलह तीर्थकर वह सब हकार और रकार में तिष्ठित है। इस हकार और रकार का रंग सुवर्णजैसा पीला है।इसप्रकार श्री भाषभनाथजी, अजितनाथजी,संभवनाथजी, अभिनंदनजी, सुमतिनाथजी, श्री सुपार्श्वनाथजी, शीतलनाथजी, श्रेयासनाथजी, विमलनाथजी, अनंतनाथजी, धर्मनाथजी, शांतिनाथजी, कुंथुनाथजी, अरनाथजी,नमिनाथजी, महावीर स्वामीजी,यह सोलह तीर्थकर माया बीज अक्षर ह्रींकार के हकार और रकार अक्षर में ही तिष्ठित है। इसप्रकार चौबीस तीर्थकर हीं बीजाक्षर में स्थित हैं।
गतराग देष मोहाः सर्वपाप विवर्जिताः सर्वदा सर्वलोकेषु ते भवंतु जिनोत्तमाः
||२६॥ वह जिनेन्द्रदेव रागद्वेष मोह से रहित है।सब पाप कर्मो से रहित है।सर्वकाल विषय अतीत अनागत वर्तमान तथा सर्वलोक विषय पाताल पृथ्वी आकाश में अर्यात् तीनों काल व तीनों लोक में जिन भगवान उत्तम से उत्तम महाउत्तम है इनके बराबर और कोई नहीं है।
देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रस्ट या विभा तथाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु पन्नगाः ।
॥ २७॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रुपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को सर्प जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे।
देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा तटाच्छादित सर्वागं मां मा हिंसतु नागिनी
॥२८॥ देयों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रुपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को सर्पनी जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
CHOIDIOHRISTICISIOSITE ३५९ PISSISTRISIORSCISIOISTOISE
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CSCISCIRCISCIEOS विद्यापुरशासन MACISCISCISCISCIEI
देवदेवस्थ टाळ्यकं संस्य चकस्य या विभा दाया बादिल लजाग या मा हिंसतु गोहरा
॥२९॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को गोहरा जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे |
देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सांगं मां मा हिंसतु वधिका
॥३०॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को बिछू जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रस्ट या विभा तयाच्छादित सर्वागं मां मा हिंसतु काकिनी
॥३१॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के संब अंगों को कांकमी जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे म सताये ।
देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रम्य या विभा
तयाच्छादित सांगं मां मा हिंसव डाकिनी देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को डाकिनी जाति के जीय पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।।
देवदेवस्थ राख्यकं तस्य धक्रस्य या विभा
तयाच्छादित सांग मां मा हिंसतु याकिनी देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी धन की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को याकिनी जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे म सतावे ।
देवदेवस्य यच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा तथाच्छादित सांगं मां मा हिंसतु राकिनी
॥३४॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को राकिनी जाति के जीव पीड़ा नहीं हैं मुझे न सतावे | CIRCISIOCISIOTSICICIACI[ ३६० PISCESSIFICIASSISCISCESS
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SOSOSC
विधानुशासन 550
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा
तयाच्छादित सवांगं मां मा हिंसतु लाकिनी
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से के सब अंगों को लाकिनी जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु हाकिनी
क
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु शाकिनी
॥ ३६ ॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को शाकिनी जाति के अन्य पीड़ा महीं दें मुझे न सतावे ।
॥ ३५ ॥
के हुए मेरे शरीर
॥ ३७ ॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को हाकिनी जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु राक्षसाः
1132 11
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को राक्षस जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य वा विभा
तयाच्छादित सर्वांगं मां मा
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिसंतु भैरवा
॥ ३९ ॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को भैरव जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे म सतावे ।
हिसंतु भेषसा
॥ ४० ॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को भेषसा जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
959595955
३६१ PA691510
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SASTRISTRISTRI5015015 विधानुशासन ISTRISTOT51015IOTSIOSI
देवदेवस्टा यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सांगं मां मा हिंसतु कीनसा
॥४१॥ देवों के देय श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को कीनसा जाति के जीद पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य टाच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तथाच्छादित सर्वागं मां मा हिंसतु व्यंतरा
॥४०॥ देयों के देय श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को व्यंतरा जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे |
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्व या विभा तयाच्छादित सांगं मां मा हिंसतु तेग्रहाः
॥४१॥ देवों के देय श्री जिनेन्द्र भगयान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को तेग्रह जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे |
देवदेवस्या यच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा तटाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु तस्करा
॥४२॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को तस्करा जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तटाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु वन्हय
॥४३॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को वन्हय जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
॥४४॥
देवदेवस्य याच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा
तयाच्छादित सर्वागं मां मा हिंसतु श्रगिणः देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को दष्ट्रिणः जाति के जीय पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे | CISIOTICISTOISIOSSICATIO35 ३६२ PISTIC5TOISISTICISCISISTER
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SP59505551 विद्यामुशासन 96959SPSS
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु दष्टिणः
॥ ४५ ॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को दष्ट्रिण जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्टा या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु रेलपा
॥४६॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को रेलपा जाति के जांव पीड़ा नहीं दे मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु पक्षिण
॥ ४७ ॥
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को पक्षिण, जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वागं मां मा हिंस्तु भजका
1182 11
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को भजका जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सर्वांगं मां मा हिंस्तु भिका
।। ४९ ।।
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को जूभिका जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा तद्याच्छादित सर्वांगं मां मा हिंसतु तोयदा
|| 40 ||
देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के
सब अंगों को तोयदा जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
कथ
50/6050३६३ P551
ひらひらぐら
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RSSURESHISIS विष्णशासन HSCISCECISCISROIN
देवदेवस्य रायकं तस्या चक्रम्य या विभा
तयाच्छादित सर्वाग मां मा हिंसतु सिंहका देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को सिंहका जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच्चळं तस्य धकस्य या विभा तथाच्छादित सर्वागं मां मा हिंसतु शूकरा
॥५२॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी पक्र की प्रभा से कके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को शूकर जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे |
देवदेवस्थ यच्चकं तम्य धकस्य या विभा
तयाच्छादित मागं मां मा हिंसतु चित्रका देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से पके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को चित्रका जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
देवदेवम्व यव्य तस्य चक्रम्य या विभा तयाछादित सवांगं मां मा हिंसतु हस्तिन
॥५४॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को हस्तिन जाति के जीय पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य यच तस्य चक्रम्या या विभा
तवाच्छादित सांग मां मा हिंमत भूमिपा देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकरों के समूह लपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को भूमिया जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य रायक तस्य चक्रस्य या विभा
तथाच्छादित सयागं मां मा हिंसतु शत्रवः देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थकों के समूह रूपी धन की प्रभा से पके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को शश्व जाति के जीव पीड़ा नहीं दे मुझे न सतावे । CRICSCISIOSCS0505 ३६४PISCIRCISCISCSCRICIAN
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SASCI50150150505 विधानुरासन VSCISCI50505001
देवदेवस्य यच्च तस्य चक्रम्य या विभा
तयायादित मार्ग मां मा रिमत ग्रामिण देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को शामिण जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य याच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा
तयाच्छादित सांगं मां मा हिंसतु दुजना देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगयान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को दुर्जना जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सताये ।
देवदेवस्या यच्चकं तस्य चक्रस्य या विभा तयाच्छादित सागं मां मा हिंसतु व्याधय
॥५ ॥ देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढके हुए मेरे शरीर के सब अंगों को व्याधय जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे ।
देवदेवस्य याच्यळं तस्य चक्रम्य या विभा
तयाच्छादित सांगं मा मा हिंसतु सर्वतः देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान तीर्थंकरों के समूह रूपी चक्र की प्रभा से ढ़के हुए मेरे शरीर के सब अंगों को सर्यतः जाति के जीव पीड़ा नहीं दें मुझे न सतावे |
श्री गौतमस्य या मुद्रा तस्या या भुविलय्याः
तामिरन्यायिक ज्योतिरहःसर्व निधीश्वरः श्री गौतम स्वामी गणघर का स्वरूप जो मुनिराज से वन्दनीय है जिनकी लब्धी ज्योति पृथ्वी पर फैल रही है। उस ज्योति से भी अधिक ज्योति प्रकाश अर्हत भगवान की है। वह भगवान सब विद्याओं का खजाना है।
पातालवासिनी देवा देवा भूपीठ वासिनः
स्व स्वर्गवासिनो देवाः सर्वे रवंतु मामितः पाताल में रहने वाले दस प्रकार के भवनवासी देय पृथ्वी पर रहने वाले व्यंतर ज्योतिवी देव स्यकल्पवासी देव स्वर्गवासी देय यह सब देवी मेरी रक्षा करे। CSCIRICISCISCISCSC05 ३६५ PASCISCSCIRCTSENCE
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SHOTSIRISTRI501505 विधानुशासन ASTRITICISORCISCESS
येऽवधि लब्धर्यो ये तु परमावधि लब्धाः ते सर्वे मुनयो दिव्या मां संरक्षन्तु सर्वत:
॥६२॥ जितने मुनिराज अवधिज्ञान की लबिध्त सहित छटे गुणस्थान के धारी और परम अवधिज्ञान के धारण करने वाले बारहवें गुण स्थान वाले जिनको अन्तर मुहूर्त में केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। सो सब मुनिराज छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के मेरी रक्षा करे।
भावनेन्द्र व्यंतरेन्द्र ज्योतिषकेन्द्र कल्पेन्द्रेभ्यो नमः श्रतावधि देशवधि परमावधि सर्वावधिबुद्धऋद्धि प्राप्तासर्वोषधिश्रद्धि प्राप्ता अनन्त बलऋद्धि प्राप्ततप्तऋद्धि प्राप्त रस ऋद्धि प्राप्त विक्रिया द्धि प्राप्त क्षेत्र शाद्धि प्राप्त अक्षीण महान स ऋद्धि
प्राप्तेभ्योनमः। भवनवासियों के इन्द्र २०, व्यंतरोके इंद्र १६, ज्योतिषों के इन्द्र र, कल्पवासी १२,भवनवासी २०, चमरेन्द्र-वैरोचन-भूतानद-धरणानन्द-वेणु-बेणधारी-पूरण-अवशिष्ट-जलप्रभ-जलकीर्ति-हरिषेणहरिकांत-अग्नि शिखि- अग्निवाहन-अमितगति-अमितवाहन-घोष-महाघोष बेलांजन-प्रभंजन व्यंतरेन्द्र १६ किन्नर-किंपुरुष-सांतपुरुष-महापुरुष-अतिकाय महाकाय-गतिरति-मतिकीर्तिमानभद्र-पूर्णभद्र भीम-महाभीम-सरूप-प्रतिरूप-काल-महाकाल| ज्योतिषेष्केन्द्र सूर्य-चंद्रमा। कल्पवासी१२ सौधर्म-ईशान-सनतकुमार-आहेन्द्र-ग्रह्म-लांतव-शुक्र-सतार-श्रीमत-प्राणत-आरणअच्युत यह भेद देश अवधि के हैं। ६ अनुगामी-भवांतर तक जाय जैसे सूरज के साथ ज्योति जाय अनुनगामी साथ नहीं जाय वर्धमान- असंख्यात लोक बढ़े हीयमान घटता जाय अवस्थित घटे बढ़े नहीं अनवस्थित जितना बढ़े उतना घटे परमावधि-सर्यायधि विशिष्ट संयमधारी मुनिश्वर के होती है। १४ राजू उत्तंग ३४३ राजू धनमाकार में सूक्ष्म स्थूल-रुप अविभागी परमाणु पर्यंत जानते हैं। सर्वावधि ऋद्धिधारी तीनों लोक के पदार्थ जुदा जुदा जानता
बुद्धि ऋद्धि - १९ केवल- अवधि मनपर्याय - बीजबुद्धि - कोष्टबुद्धि पादाणु सारिणी - संभिण श्रोत्र - दूरास्थादान -दूरस्पर्श दूरगंध-दूरदर्शन- दूरश्रवण - दशपूर्व - १४ पूर्व अष्टमहानिमित्त-प्रज्ञाश्रवण प्रत्येकबुद्धि - वादिकत्व ऋद्धि ಅಡಚಣಚಂಡ 34೯ Y5EMBಡ
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SSIOISSI5015255125 विधानुशासन 95105510TCTRICISTORY सर्वोषधि ऋद्धि ९ आमर्श ऋद्धि- खेलोषधि - जल्लोषधि - मल्लोषधि - विडोषधि ऋद्धि औषधि ऋद्धि- आसीविष ऋद्धि - दृष्टिविष ऋद्धि अनन्तबल ऋद्धि ३ मनबल - वचनबल - कायबल ऋद्धि तप्त ऋद्धि - ९ उग्रवाद्धि-दीप्त प्रद्धि - तप्त ऋद्धि महातप प्रद्धि- घोरतर ऋद्धि घोर पराक्रम ऋद्धि - घोर ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि - अघोर ब्रह्मचर्यतप ऋद्धि रसऋद्धि ६ आशी विष ऋद्धि-दृष्टिविष ऋद्धि-क्षीर श्रायिणी ऋद्धि- मधुप्रायिणी - घृतप्राविणी-अमृतश्राविणी ऋद्धि-क्षीरश्राविणी वैक्रियक ऋद्धि ११ अणिमा - महिमा - लधिमा - गरिमा- प्राप्त- प्राकाम्य - ईशत्व वशित्वअमितबल अंतर्धान-कामरूपिणी क्षेत्र ऋद्धिअक्षीस -पोत मला मा चारण ऋद्धि८ पादानुसारिणी - जंघाचारिणी, तन्तु धारणी, फूलचारणी, पानयारणी, वीर्यचारणी,श्रेणी चारणी, अग्निचारणी, आकाश गामिनी,
ॐ श्रीं ह्रीं श्च पति लक्ष्मी गौरी चंडी सरस्वती अयांअंबा विजया विलन्ना जिता नित्या मदद्रवा
॥६३॥
कामांगी काम याणा च सानन्दा नंदमालिनी माया मायाविनी द्रौद्री कला काली कलि प्रिया
॥६४॥
एताः सर्वा महादेव्या वर्तते या जगत त्रटो मासाः प्रयच्छंतु कांति लक्ष्मी पति मतिं
॥६५॥ हिमवत पर्वत पर पा द्रह १००० का योजन का है। उसमें १ योजन का कमल है। एक कोस की कर्णिका है। उस यज मयी कर्णिका में श्री देवी का मंदिर है। महा हिमवत् पर्वत पर महापद्मद्रह २०० योजन का है। र योजन का कमल है।दो कोस की कर्णिकी है। उसमें ही देवी का मंदिर है। निषध पर्वत पर ४००० योजन का तिगिच्छ का द्रह है। चार योजन का कमल है। चार कोस की CISIOISCISIOISSISTR5055 ३६७PXSTOTRICISCISIOTS05015
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959595955 विधानुशासन 959596959595
कर्णिका है। उसमें लक्ष्मी देवी का मंदिर है ।
यह चारों देवियां एक पल्य की आयुवाली है तथा पारिषद जाति के १६०० देव हर एक की सेवा करते हैं।
गौरी - चंडी सरस्वती जय अंबिके विजया क्लिन्ना- अजिता नित्या- मदद्रवा - कामांगाकामबाण - सानन्दा- नन्दमालिनी माया मायाबिनी- रौद्री कला काली- कलिप्रिया यह चौबीस जिनशासन की रक्षा करने वाला महादेवियाँ तीनों लोक पाताल- मध्यलोक- आकाश अथवा स्वर्ग लोक गामिनी है। यह सब महादेवी मुझ को कांति लक्ष्मी धैर्य और बुद्धि देवें ! नील पर्वत पर ४००० योजन का केशरिन नाम का कीर्ति देवी का मंदिर है। रूक्मिन पर्वत पर २००० योजन का महापुंडरिक नाम का हृद है दो योजन का कमल है दो कोश की कर्णिका है महापुंडरीक हृद में बुद्धि देवी का मंदिर है। यह सब मंदिरों के भवन सफेद रंग के बने हुए है।
दुर्जनाभूत वेतालाः पिशाचा मुद्गला स्तथा ते सर्वे उपशाम्यतुं देव देव प्रभावत्ः
॥ ६६ ॥
दुष्टजन भूत वैताल पिशाच मुद्रल दैत्य यह सब मिथ्यात्वी रौद्र परिणामी जीव देवों के देव श्री जिनेन्द्र भगवान के प्रभाव से शांत होवें ।
दिव्यो गौप्यः सुदुष्प्राप्य श्री ऋषिमंडल स्तयः भाषित स्तीर्थनाथेन जगतत्राण कृतोऽनयः
॥ ६७ ॥
यह ऋषि मंडल स्तोत्र बहुत दैदीप्यमान हर एक को दिखलाने योग्य नहीं है। गुप्त रखने योग्य है यह आसानी से मिलने वाला नहीं होने से दुष्प्राप्य है। श्री ऋषि मंडल स्तोत्र को तीन लोक के स्वामी महावीर भगवान ने जगत की रक्षा करने के वास्ते निर्दोष होने के कारण कहा है।
रणे राजकुले वन्हों जले दुर्गे गजे हरौ शमशानै विपिने घोरे स्मृतो रक्षति मानवं
युद्ध संग्राम में राजदरबार, अग्नि ज्वाला में, पानी में, गढ़किले में, हाथी भय में, श्मशान भूमि के भय में, निर्जन उजाड़ यन में, भयंकर विपत्ति में यह स्तोत्र करने पर मनुष्य की रक्षा करता है।
1142 11
में सिंह के भय
1
मंत्र का स्मरण
राज्य भृष्टा निजं राज्यं पदभृष्टा निजं पदं लक्ष्मी भृष्टा निजां लक्ष्मीं प्राप्नुवंति न संशयः 95969595969596 ३८59596959595
P
॥ ६९ ॥
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959695955 विद्यानुशासन 5529505
राज्य से निकले हुए अपने राज्य को मंत्री वगैरह पद से रहित हुये अपने पद को, लक्ष्मी धन से रहित हुये अपने धन को पाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं करना ।
भार्यार्थी लभते भार्या पुत्रार्थी लभते सुतं धनार्थी लभते वितं नरः स्मरण मात्रतः
|| 90 ||
स्त्री के वास्ते स्मरण करने से स्त्री, पुत्र के इच्छुक को पुत्र, धन की इच्छावाले मनुष्य प्राप्ति होती है।
स्वर्ण रूप्येऽथवा कांस्ये लियित्वा यस्तु पूजयेत् तस्यै कुऽष्ट महासिद्धि गृहे वसति शाश्वतीं
॥ ७१ ॥
इस यंत्र को सोने चांदी व काँसे (अथवा तांबे) के ऊपर लिखकर पूजने से उसके घर में वांछित अर्थ की महासिद्धि रहती है।
भूर्जपत्रे लिखित्वेदं गलके मूर्ध्नि वा भुजे धारितः सर्वदा दिव्यं सर्वभीति विनाशनं
को धन की
।। ७२ ।।
इस यंत्र को भोजपत्र पर लिखकर ताबीज में भरकर गले में या मस्तक में या भुजा में पहनने से हमेशा सर्व आरति चिंता भय से रहित हो जाता है।
भूतैः प्रेतै ग्रह यक्षेः पिशाचै मुद्रालै स्तथा वातपित्त कफोद्रेकै मुच्यते नात्र संशयः
॥ ७३ ॥
भूतप्रेत नवग्रह यक्ष पिशाच मुद्राल दैत्य और वातपित्त कफ आदि रोगों के उपद्रव से निस्संदेह छूट जाता है।
भुर्भुव: स्वस्त्री पीठ वर्तिनः शाश्वता जिना: तैः स्तुतै वंदितै द्दष्टैर्यत्फलं तत्फलं स्मृतम्
|| 98 ||
अघो लोक मध्य लोक स्वर्गलोक में जहां अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं जहां हमेशा जिनेन्द्र भगवान के बिम्ब विराजमान हैं। उनके स्तवन वंदना और दर्शन करने से जो फल मिलता है। उतना ही फल इस स्तोत्र वगैरह के स्मरण करने से प्राप्त होता है।
एतद्रोप्यं महास्तोत्रं न देयं यस्य कस्यचित् मिध्यात्व वासिनो देयं बाल हत्या पदे पदे
॥ ७५ ॥
गुप्त
यह महान स्तोत्र 'रखने योग्य है हर किसी को नहीं देना चाहिये। योग्य पात्र ही को बतलाना चाहिये | सम्यक्त रहित पुरुष को देने पर पद पद पर बाल हत्या के समान पाप का बंध होता है।
95252525252525 -4: MSPGESI
Peses
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9595952
विधानुशासनम
आचाम्लादि तपः कृत्वा पूजयित्वा जिनावलिं अष्ट साहस्रिको जाप्य: कार्यस्तत्सिद्धि हेतवे
॥ ७६ ॥
आचाम्ल तप अर्थात मांड सहित चावल के भात को और सब रसों का त्याग करके खाने से यंत्र को सामने रखकर पूर्वोक्त ह्रींकार में विराजमान चौबीस भगवान की पूजन करके, इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए इस स्तोत्र गर्भित मंत्र का ८००० जाप करना चाहिये। (इस कलिकाल में चौगुण ३२००० जाप करें। ॐ ह्रां ह्रीं हुं हुं हैं हैं ह्रौं ह्रः असि आउसा सम्यक्तदर्शन ज्ञानचारित्रेभ्यों ह्रीं नमः यह मंत्र है ।
शतमष्टोत्तरं प्रातर्ये पठति दिने दिने तेषां न व्याधयो देहे प्रभवंति च संपदः
15955
॥ ७७ ॥
जो भव्य जीव शुद्ध योग से प्रतिदिन प्रातः काल उठकर एक सो आठबार की एक माला फेरते हैं। और स्तोत्र का पाठ पढ़ते हैं। उनके शरीर में रोग प्रगट नहीं होते बल्कि संपदायें उनके घर में प्रगट होती है।
अष्ट मासाऽवधिं यावत प्रातः प्रा तस्तु यः पठेत् स्तोत्रमेतेन महातेज स्त्वार्ह टिंबं स पश्यति
।। ७८ ।।
मन वचन काय को शुद्ध करके स्थिर होकर हररोज आठ महिने की अवधि में प्रभात काल में प्रभात ही पहिले कही हुई विधि से यह मंत्र पढ़े। यह स्तोत्र महातेज है सो यह अर्हत भगवान के बिंब का दर्शन अपने ललाट पर कर लेगा ।
द्दष्टे सत्याहते बिंबे भवे सप्तके धुवं पदं प्राप्नोति विश्रस्तं परमानंद संपदां
॥ ७९ ॥
अर्हत भगवान के बिंग के दर्शन होने से सातवें भव (जन्म) में निश्चय से परम अतीन्द्रिय स्वाधीन आनन्द का स्थान मोक्ष पद को पाता है।
विश्व बंधोभवे ध्याता कल्याणाऽन्नापि सोक्ष्णते स्वास्थाने परं सोऽपि भुवस्त्वापि निवर्तते
॥ ८० ॥
इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं स्तवानां मुत्तमं परं पठनात्स्मरणा ज्जापात लभते पदमव्ययं
1168 11
こらこらこらこらこらこらでらでらでらでらですぐり
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S5095015015015105 विधायुशासन 950150151215181510 इस ऋषि मंडल स्तोत्र का जो ध्यान करता है यह संसार का प्यारा होता है। उसका महान कल्याण होता है और संसार से मुक्त होकर अंत में मोदर में जाता है। यह स्तोत्र महान स्तोत्र है सब स्तोत्रों से सर्वश्रेष्ठ है। इसको पढ़ने से याद करने से व इसके मंत्र का जाप करने से प्राणी अविनश्यर पद को पाता है। अथा अस्य लेखन प्रकारः
कांचनीयेथवा रोप्टो कांस्टो याभाजने वरे मध्य लेरख्यासकारांतो द्विगुणे यांते वितः
॥ ८२॥
तूर्यस्वर मनोहरी विंदु राजाधमस्तकः
जिनेशास्तत्प्रभा लेख्या यथा स्थानं तदंतरेयुग्मं ॥८३ ॥ यंत्र सोने चांदी अथया कांसे या तांबे का गोल बनवाना चाहिये उसके बीच में सकार के अंत का अक्षर अर्यात् ह यर्ण में यांत अर्थात् य के आगे क अक्षर रकार मिला हुआ दुहरा लिखना चाहिये। उसमें चौथा स्वर इकार लगाना उसके मस्तक पर आधे चन्द्रमा का आकार चिन्ह को बिन्दु ऊपर रखकर बनाना जैसे ही उस ही में चौबीस तीर्थंकरों का नाम लिस्पना चाहिये।
चंद्रप्रम पुष्पदंती मुनिसुद्यत नेमिकी सुपायपाश्यांपप्रभवासुपूजा तथा कमात् ॥ कलाया तदुपरिष्टा दिकारे मूर्यि च स्फुट लेख्याः शेषा जिनागर्भ नमो द्युताः सुपीतभाः युग्म ||
चंद्रप्रभ पुष्पदंताभ्यां नमः एसा हीं की अर्धचन्द्रमा की कला में लिखना मुनि सुव्रत नमिभ्यां नमः ऐसा उस काला के उपर बिन्दुस्थान में लिखे सु पार्श्वभ्यां नमः कहे हुवे ही वर्ण के ईकार में लिखे। उस पूर्व कथित वर्ण (ही) के मस्सक में पद्मप्रभयासु पूज्या भ्यां नमः ऐसा लिखें और शेष १६ तीर्थंकरों को अर्यात् "ऋषभाजित संभवाभिनंदन सुमति शीतल श्रेयांसो विमलांनंत धर्म शांति कुम्थु अर मल्लि नमि वर्धमानेभ्यो नमः" इसतरह उसके बीच भाग में लिखना चाहिये यह सब हीं के बीच भाग में सोने के समान पीले रंग के प्रभावाले हैं।
ततश्च वलयः कार्यस्तद्वाो कोटाऽष्टकं तत्रेतिलेख्यं विवुधैश्चारु लक्षण लक्षितैः ॥
CASICISISTRIOTICISCITH ३७१ P5125TOTSITICISIONSIOTEN
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CTERISTRISDISTRI525 विद्यानुशासन 95015IDISCSCRISTOTKE उसके बाद ही वर्ण के चारो तरफ आठ कोठों वाला गोला खींचे उन कोठों में सुंदर लक्षणों या विद्वान पुरुषों को यह लिखना चाहिये। ॐ ह्रीं सरिभ्यो नमः कालि मादिगागों आगे देव्यै नहीं लिखना है दिग्पाल भी नहीं लिखना है ॐ ह्रीं ची क्षः चारों दिशाओं पृथ्वी मंडल में है |
ही कुबेराय नमः
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हीबायो नमः
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होणानाय नमः
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दहीवरुणाय नमः
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बीमारसरता
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१ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः ह्मल्यूँ २ क ख ग घ ङ भल्व्यू ३ च छ ज श य म्म्ल्यू ४ ट ठ ड ढ ण रम्ल्यू
५ त थ द ध न प्म्ल्टा ६ पफ ब भ म ल्यू ७ य र ल व स्स्ल्यू श ष स ह रम्ल्दी SSORSCISRISIRISRUSSY ३७२ PISIOISSISDISTRISTRISESSI
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996959595951 विलु
ततश्च वलय: कार्यों लेख्या स्तत्राष्ट कोष्टकाः तत्रेति लेख्यं विवुधैश्चातुर्यान्यित विग्रहैः ॥
इसके बाद फिर उसके चारों तरफ आठ कोठों वाला गोला खंचना उन कोठों में चतुरशरीर धारी बुद्धिमानों को ऐसा लिखना चाहिये।
305
( १ ) ॐ ह्रीं अहं भ्यो नमः (२) ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नमः ( ३ ) ॐ ह्रीं आचार्य भ्यो नमः (४) ॐ ह्रीं पाठकेभ्यो नमः (५) ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्यो नमः (६) ॐ ही तत्व दृष्टिभ्यो नमः (७) ॐ ह्रीं सम्यक ज्ञानभ्यो नमः (८) ॐ ह्रीं सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः
ततश्च वलय: कार्यस्तत्र षोडश कोष्टकाः लेख्या स्तोति लेख्यं च विद्वद्भिश्चतुरैनरैः
उसके बाद सोलह कोठों वाला चतुर पुरुषों को ऐसा लिखना चाहिये ।
(१) ॐ ह्रीं भावनेंद्राय नमः (३) ॐ ह्रीं ज्योतिषष्केन्द्राय नमः (५) ॐ ह्रीं श्रुतावधिभ्यो नमः (७) ॐ परमावधिभ्यो नमः (९) ॐ ह्रीं बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमः (११) ॐ ह्रीं अनंत बल ऋद्धि प्राप्तेभ्यो (१३) ॐ ह्रीं रसऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमः (१५) ॐ ह्रीं क्षेत्रऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमः
FI
(२) ॐ ह्रीं व्यंतरेन्द्राय नमः (४) ॐ ह्रीं कल्पेन्द्राय नमः (६) ॐ ह्रीं देशावधिभ्यो नमः (८) ॐ ह्रीं सर्वावधिभ्यो नमः (१०) ॐ ह्रीं सर्वोषिधि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमः नमः (१२) ॐ ह्रीं तपत्राद्धि प्राप्तेभ्यो नमः
(१४) ॐ ह्रीं विक्रिय ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमः (१६) ॐ ह्रीं अक्षीण महानस ऋद्धि प्राप्तेभ्योनमः
ततश्च वलयः कार्यः चतुर्विशंति कोष्टक: तत्र लेख्याश्च कर्तव्याश्चतुर्विशंति देवताः ||
उसके पीछे चौबीस कोठों वाला गोलाकार बनाये उन कोठों में चौबीस जैन शासन देवताओं को
लिखे यह ऐसे हैं ।
(३) ॐ ह्रीं धृति देव्यै नमः
(१) ॐ ह्रीं श्री देव्यै नमः ( २ ) ॐ ह्रीं ह्री देव्यै नमः (४) ॐ ह्रीं लक्ष्मी देव्यै नमः (५) ॐ ह्रीं गौरी देव्टौ नमः (६) ॐ ह्रीं चंडिका देव्यै नमः (७) ॐ ह्रीं सरस्वती देव्यै नमः (८) ॐ ह्रीं जया देव्यै नमः (९ ) ॐ ह्रीं अंबिका देव्यैनमः (१०) ॐ ह्रीं विजया देव्यै नमः ( ११ ) ॐ ह्रीं क्लिन्नादेव्यै नमः (१२) ॐ ह्रीं अजितारि देव्यै नमः (१३) ॐ ह्रीं नित्या देव्यै नमः (१४) ॐ ह्रीं मदद्रव्या देव्यै नमः (१५) ॐ ह्रीं कामांगादेव्यै नमः
95959595959595 ३७३ 9595959596959
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esP59
551 विधानुशासन
ひらからです
(१६) ॐ ह्रीं कामबाणायै देव्यै नमः (१७) ॐ ह्रीं सानंदायै देव्यै नमः (१८) ॐ ह्रीं नंदमालिन्यै देव्यै नमः (१९) ॐ ह्रीं माया देव्यै नमः (२०) ॐ ह्रीं मायाविन्यै देव्यै नमः (२१) ॐ ह्रीं रौद्री देव्यै नमः (२२) ॐ ह्रीं कला देव्यै नमः (२३) ॐ ह्रीं कालि देव्यै नमः (२४) कालीप्रिया दैव्यै नमः
इसके बाद दश दिक्पालों को दसों दिशाओं में लिखकर ह्रीं कार के तीन आवर्त लगाकर क्रों से निरोध करें।
फिर इस यंत्र की विधिपूर्वक पूजन पंचोपचारी अष्टद्रव्य से करके सर्वदेवाधिक का आदरपूर्वक विसर्जन करें।
श्री पार्श्वनाथाय नमः
॥ अय: धांणा यंत्र साधन विधानं लिख्यते ॥
साध्यस्य नामावृत तत्य बाह्यं ऊष्मादि वर्ण विलिखेत्यै लसांत अष्टाब्ज पत्रं कुरु तस्य वाह्यं क्ष्मादि वृतो घोणस मेकपत्रे
शेषेषु पत्रे च शेष वर्णान लिखेद्वराद्यक्षर बाह्य भागे माया वृत्तं घोणसटा सत्प्रसिद्धं करोतिषट्कर्म विधानं सिद्धिं ॥ १ ॥ तत्व ह्रीं के अंदर साध्य के नाम को लिखकर उसके बाहर उष्मादि वर्ण लस तक लिखे उसके बाहर अष्टदल कमल बनाकर एक पत्र में क्ष्मा आदि से युक्त घोण मंत्र को लिखे और शेष पत्रों में शेष वर्णों को लिखे उसके बाहर वर विहंगम आदि मंत्र के लिखे फिर उसके ह्रींकार से वेष्टित करे। यह घोणादेवी का सब छहो कर्मों के विधान की सिद्धि करता है। अस्य यंत्रोद्धारः क्रियते
इति कर्णिकायां लिखेत तद्वा क्रौंकार
निरुद्ध ह्रीं कोरण त्रिधा वेष्टयेत तद्वहि
ॐ नमो भगवते श्री घोण से हरे हरे बरे बरे तरे तरे वः वः बल बल लां लां रां रांरीं री के रौं रौं रस रस लस लस इत्यादावार्य वहिर ऽष्ट पत्रेषु पूर्वादि पत्रेषु क्ष्मां क्ष्मीं क्ष्क्ष्क्ष्मः ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रीं ह्रः नमः श्री घोणसे घ घ घसससससहहहह चचचचचठठ ठ ठ ठ त त त त त गगगगग इत्या लिख्यते तद्वाह्ये वलये वर विहंगम भुजे क्ष्मां क्ष्मीं क्ष् क्ष्मों क्ष्मः : ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्र: ह्रीं शोषय शोषय शेषटा रोषटा ॐ आं क्रों ह्रीं हः जः जः ठः ठः ॐ ह्रीं श्रीं घोणसे नमः इत्यनेन संवेष्टय ह्रीं कारण वेष्टयेत एतेन षट्कर्म सिद्धिः
PSPSPSP599 ३७४ 959595959595
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95015015ORDISIS विधानुशासन ISI85121595015015
ॐ नमो भगवते श्री घोणसे हरे हरे यो वरे तरे तरे व व यल यल ला ला रा रा रौं रौं 55 रःरः रस रस लस लस मां क्ष्मी झूक्ष्मों मःहां हीं हूं हौंहनमः श्री योणसे ययघपयय स स स स स हहहहह व व व व व ढ ढ ढढतत तत त ग ग ग ग ग वर विंहगम भुजे क्ष्मांक्ष्मी मूक्ष्मौं क्ष्मः हा ही हौं हःहीं शोषरा शोषय रोषय रोषय ॐआं को ह्रीं ह्रःजःजःज: ठ ठॐ ह्रीं श्री योणसे नम देवदत्तस्टा शांति तुष्टिं पुष्टिं ग्रहोप शांति सर्वजन वश्यं च कुरु कुरु स्वाहा। यह मंत्र कर्णिका में लिखे।
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तहा। उसके बाहर हीं से तीन बार थेष्टित करके क्रों कार से निरोध करे। उसके बाहर पूर्वोक्त मंत्र लिखें।
ॐ नमो भगवते श्री योणसे हरे हरे बरे वरं तरे तरे यः वःवल वल ला ला रा रा
रीं क्रू र: रः रस रस लस लस | Q555555 39, 8555555
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DISTRI51035501509 विधानुन HEIDOSSAMISSION इत्याधावार्य उसके बाहर अष्टदल कमल बनाकर एक पत्र में मां दमी क्ष्मू दमौं दमः हां ही हूं हौः हः नमः श्री घोणसे शेष सातों पत्रों में क्रम से घ घ घ घ स स स सस ह ह ह ह ह व व व य य ढ ढ ढ ढ त त त त त ग ग ग ग ग पूर्व आदि दिशाओं के पत्रों में उपरोक्त मंत्र को विभक्त करके लिखे। उसके बाहर के वलय में निम्न मंत्र लिखे।
वर विहंगम भुजे मां क्ष्मी क्ष् क्ष्मौं क्ष्मः हां ह्रीं ह्रौं हःहीं शोषय शोषय रोषय रोषय ॐआंकों ह्रीं श्वी क्ष्वी हः ज ज ज ठः ठः ॐ हीं श्री योणसे नमः देवदत्तस्य
शांति तुष्टिं पुष्टिं ग्रहोप शांतिं सर्वजन वश्यं च कुरु कुरु स्वाहा। इस वलय के पश्चात ह्रींकार से तीन बार वेष्टित करके क्रों से निरूद्ध करें इससे छहों कर्मो की सिद्धि होती है।
ॐ पार्श्वनाथाय नमः
द्वादश पत्रांबु रूहं मलवरयूँकार संयुतं कूट
तन्मध्टो नाम गुतं विलिरवेत क्लींकार सं रूद्धं ॥ बारह दल के कमल की कर्णिका में क्लींकार से संरुद्ध नाम सहित लिखे मलयर यूँकार सहित कूटाक्षर क्षकार वाले एम्प्यूँ में देवदत्त नाम सहित लिख्खे इस अक्षर की पार्श्व में अर्थात दोनों तरफ क्लीं लिख्ने।
विलिरवेत् जयादि देवीः स्वाहांतोकार पूर्विका दिक्षुः
जभमह पिंडोपेता विदिक्षजंभादिका स्तद्वत जयादि चारों देवियों के नाम को ॐ आदि में और स्वाहा अंत में लगाकर चारों दिशाओं में लिखें ॐ जये स्वाहा पूर्व दल में ॐ विजये स्वाहा, दक्षिण दल में ॐ अजिते स्वाहा, पश्चिम दल में ॐ अपराजिते स्वाहा, उत्तर दल में लिखे -ज भ म ह पिंडाक्षरों को विदिशाओं में जंभा आदि चारों देवियों के नाम को पहिले की तरह आदि में ॐ और अंत में स्याहा लगाकर लिखें। ॐ जाल्यूं जंभे स्वाहा अग्नि कोण की दिशा में ॐ भम्ल्यू मोहे स्वाहा नैऋते दल में ॐम्म्ल्यू स्तंभे स्याहा वायव्य दल में ॐ हल्ल्यूं स्तंभिनी स्वाहा ईशान दल में लिखे।
उद्धरित दलेषु ततो मकरध्वज बीजमालिरवेत् चतुर्यु
गज वशकरण निरूद्ध कति त्रिमायया वेष्टयं आठों दलों में लिखने के बाद चारों शेष दलों में मकर ध्वज बीज क्लीं को लिखें, इन बारह दलों के बाहर ह्रींकार के तीन आवर्त बनाकर क्रों से निरूद्ध करें।
CISIODIPISRISIOISTRISTOT5 ३७६ PISIOSISISPRSICISICISCIEN
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CISIOESD1510151055125 विधानुशासन 950505015015015
भूयें सुरभि द्रव्यै चिलिख्य परिवेष्टय रक्त सूत्रेण
निक्षिप्य सिल्ह भांडे मधु पूर्णे मोहयत्यवलां भोजपत्र पर सुगंधित कुंकुम आदि द्रव्यों से इस यंत्र को लिखकर लालरंग के डोरे से लपेटकर मधु से भरे हुए बिना पके हुए मिट्टी के कुम्हार के कच्चे बर्तन में रखा जाने से स्त्री का मोहन करता
इसका मूल मंत्रोद्धार यह है।
ॐ मल्यं क्लीं जये विजये अजिते अपराजिते जमल्दा जंभे माल्टा मोहे म्म्ल्यू स्तंभे हाल्व्यू स्तंभिनी क्रौं क्लीं क्रौं अमुकी मोहय मोहय मम वश्यं कुरु कुरु आं कों ह्रीं क्रों क्लीं क्ष्ल्यू ॐ वषट् ।
मोहन विधिका क्लीं रंजिका यंत्र क्ली रंजिका यंत्रं क्लीं रंजिका यंत्रं भूयें सुरभि द्रव्ये लिरिवत्वा रक्त सूत्रेण वेष्टियित्वा कांच भांडे मधुपूर्णे मध्ये पालनीय मोहयत्यऽबला ।
FIGDhee
संपनी
मालीदेव
स्वाहा
मोहे
विज्ये
ॐ मल्च्यू क्लीं जये विजये अजिते अपराजिते ज्म्ल्यूं जंभे झल्व्यू मोहे म्म्ल्यू स्तंभे हल्यूं स्तंभिनी अमुकी मोहय मोहद्य मम वश्यं कुरु कुरु स्वाहा। CASCISIOTICIDIOSEKSIC75 ३७७ PAHIRISTOTICESSISTORICTS
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CSCIRCISIOETRISTS विशानुशासन LISTRICTADISCIRCISS
स्त्री कपाले लिरयेांनं क्लीं स्थाने भुवनाधिपं
त्रिसंध्यं तापोद्रामा कृष्टिः स्थास्यदिउराग्निना ॥ स्त्री के कपाल पर यदि पूर्वोक्त यंत्र को क्लीं के स्थान में ही रखकर (लिखकर) खदिर (खेर) के कोयले की अग्नि में प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल की तीनों संध्याओं में तपाये तो स्त्री का आकर्षण होता है। ॐवल्च् ह्रीं जये विजये अजिते अपराजिते जमल्ट, जंभे मल्टयू मोहे मल्ब्यूँ स्तंभे हल्ल्यू स्तंभिनी अमुकी आकर्षय आकर्षय संयोषट ॥
16.2 Via
bi
444
मार
विम
स्वाहा
-
स्त्री कपाले सुरभि द्रव्यै लिरिवत्वा खदिराग्नि ता तापयेत् रामाकृष्टि भवति ।।
ॐक्षयू ही जये विजये अजिते अपराजिते उम्स्च्यू जंभे मल्व्यू मोहे मस्च्यू स्तंभे हल्व्यू स्तंभिनी अमुकी मम आकर्षय आकर्षय आं ही कौं ह्रीं क्षयूं ॐ वषट् ॥
SSIOISO151050505125 ३७८ P1515350IDIOTSIDASCISION
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STO5005015015125 विधानुशासन 501505OISSISCISI
माया स्थाने च हूँकार विलिरवेन्नर चमणि तापटोक्ष्वेड
रक्ताभ्यां विष गर्दभ रूधिराभ्यां पक्षाहा त्प्रतिषेध कत ॥ यदि इसी यंत्र को हीं के स्थान में हूं लिखकर मनुष्य चर्म पर विष और गधे के रूधिर से लिखकर एक पक्ष तक तपाये तो प्रतिषध होता है।
ॐब्ल्यू हूं जो विजये अजिते अपराजिते जमल्यटू जंभे मल्यूँ मल्वयू स्तंभे हल्ल्यू स्तंभिनि अमुकं मारय मारय टो घे।
Remake
स्वाहा
अविते
नाम
स्वाहा मोहे
RIOT
एतत्यंत्रं नर चर्मणि विष गर्दभ रूधिरेण लिरिवत्वा स्वादिराग्नि ना तापयेत पक्ष दिन मध्ये प्रतिषध्यकारी भवति ॥
ॐधल्ट हूं जो विजये अजिते अपराजितेज्म्ल्यू जंभे मल्यूं मोहे म्ल्यूस्तंभे हल्ल्यूस्तंभिनी अमुकं मम नाशय नाशय ध्वंसय घ्यंसय आंहीं की हूं हल्ल्यू ॐघेघे॥ CSCIRCTICISIOTECTRICT३७९ PASIRSICISCISCIRCISION
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CISIO5CI501501505 विधानुशासन 05101510150150151065
हुं स्थाने मांत मालिव्य सरेफ नाम संयुतं
विभति फलके यंत्रं द्वयोरपि च मत्ययोः । उपरोक्त यंत्र में ह के स्थान पर विद्वेष कराये जाने वाले दोनों व्यक्तियों के नाम सहित र्य बीज विभिन्न दो बेहड़ा के पत्तों पर लिखा जाना चाहिये।
वाजि माहिष केशैश्च विपरित मुरव स्थयो
आवेष्टय स्थापये झूमौ विद्वेष कुरुते तयो। फिर उन दोनों को घोड़े और भैस के बालों से लपेटकर स्मशान भूमि में परस्पर में पीठ से मिलाकर गाइने से दोनों व्यक्तियों में विद्वेष हो जाता है। ॐधल्यूँ जो विजये अजिते अपराजिते उम्ल्यूँजंभेम्म्ल्यूं मोहे हल्ल्यूँ स्तंभिनि देवदत्त यज्ञ दत्तयों विद्वेषं कुरू कुरू हूं ।।
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विजमे स्वाहा
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ऐतयंत्रं बहेडा फलके विष गर्दभ रूधिरेण लिरिवत्या विपरीत मुखकर भेंस और घोड़े के बालों से लपेट स्मशान में गाड़े । विद्वेषं भवति (होता) है। STSDISTRI5DISTRISROSE ३८० PISTRI50151052150151005
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9851015131505121525 विधानुशासन VSIRI595015015015
ॐ क्षम्ल्यूँ जये विजये अजिते अपराजिते जम्ल्यू जंभे समन्वयू मोहे म्म्ल्यू स्तंभ हल्व्यू स्तंभिनी अमुका अमुकौ परस्पर विद्वेषय विद्वेषय आं ह्रीं क्रौं ये धम्ल्यू ॐ हूं
पूर्वोक्तक्षर संस्थाने लेविन्या काक पक्षयोः मांतं विसर्ग संयुक्तं प्रेतांगारे विषारूणै ॥
धूकारि विष्टा संयुक्त वंजे यंत्रंसनामकं
लिरिवत्वो परिवृक्षाणां वद्ध मुच्चाटनं रिपोः ॥ उपरोक्त यंत्र में कौवे के पंखों की कलम से श्मशान भूमि की राख्न और उल्लू की विष्ठा की स्याही से वृक्षों के ऊपर नाम सहित य बीजों को दो बिन्दु की विसर्ग सहित लिखने से शत्रू का उच्चाटन होता है।
*सगट यः बारे विज्ञा आंगते हाजिते उम्ल्यू जंभे भल्यू मोहे म्ल्यू स्तंभे हल्ल्यू स्तंभिनि अमुक मुच्चाटटा फट ।
- comments
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SSIOTRICISCISISTERISP5 ३८१ 1505RISTRIDICTICISCESS
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SCISCIRCISCSC विधानुशासन HEIDISTRICISCISIONSI एतयंत्रं श्मशान कपट विष काक पंखे से लिखकर धूकारि विष्टा से लिखकर बहेडा वृक्षा पर बांधने से उद्घाटन होता है।
ॐवच्यू य:जये विजये अजिते अपराजिते ज्म्ल्यू जंभेच्यू मोहे मल्व्यस्तंभे छन्थ्यू स्तंभिनी अमुकंमम शत्रु मुच्चाटय मुच्चाटय आं ह्रीं क्रौं यःक्षल्यू ॐफट फट।
श्रृंगी गरल रक्ताभ्यां न कपाल पुटे लियेत् प्रेतास्थि जात लेविन्यायः स्थाने च नत्मोक्षरं स्मशाने निक्षिपं द्रोषात् कत्वा तद्भरम पूरितं
करोति तत्कुलो च्चाटे वेरिणांत्सप्तराप्रितः ॥ उपरोक्त यंत्र में यः के स्थान पर ह बीज श्रृंगी विष और गधे के रक्त से मृतक की हड्डी की कलम से मनुष्य के कपाल पर लिखकर क्रोधपूर्वक भरम से भरकर श्मशान में रखने से यह यंत्र सात दिन में शत्रू के कुल उद्याटन करता है।
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STORISTOTSTORTOISI25 विधानुशासन DISCI501510051SISISE ॐब्ल्यू ह जट विजये अजिते अपराजिते उम्ल्यू जंभे भल्व्यू मोहे म्ल्यू स्तंभिनी अमुकं उच्चाटय उच्चाटद्य फट । ॐधल्व्यु हं जये विजये अजिते अपराजिते ज्म्ल्यूँ जंभे म्ल्यूँ मोहे म्म्ल् स्तंभे हल्ल्यूस्तीभनी मम अमुककारि कुलौ उच्चाटं कुरू कुरू आं ह्रीं क्रों हं दम्ल्यू ॐ फट फट
फऽक्षरं नमः स्थाने शमशान स्थित कपट निंबार्क जरसेन तदिलिखेत काट चेतसा शमशाने निक्षिपेत यंत्रं
यावत्त वितिष्ठति परिभ्राम्यत्य सौ तावद्वेरी काक इव क्षितौ ॥ फट अक्षर को पहिसे के लिखे हुए छहकार के स्थान में श्मशान से लिए कपड़े पर नीम और आकड़े के रस से इस फट अक्षर वाले यंत्र को यदि क्रोधित भाव से लिखा जावे और श्मशान में गाड़ कर रख दिया जाये तो इससे शत्रु पृथ्वी में आकाश में कौवे के समान तब तक घूमता रहता है। तब तक यह यंत्र श्मशान की पृथ्वी में रहेगा।
ॐक्ष्म्ल्यूँ फट जय विजये अजिते अपराजिते जम्ल्यू जंभे म्ल्यू मोहे म्ल्यू स्तंभे हल्दयूँ स्तंभिनी अमुकं मम शत्रु मुच्चाटय मुच्चाटय आं ह्रीं क्रौं फट पल्यूँ ॐ फट् ॥
Reestable
190 pra
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Potat
अजिते
जये
मोहे
जंभे
विजये
स्वाहा
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S5015015015015105 विधानुशासन PISTOISRTSIDHSD1512151
फट स्थान में लिरवेद्भातं भूर्जे तम्माम संयुतं विषोपयुक्त रक्तेन नील सूत्रेन वेष्टियेत् ॥ मृत्यु त्रिकोदरे स्थाप्यं तत श्मशाने निवेशयेत्
सप्ताहा ज्जायते शत्रो: छेद भेदादि निग्रहः पहिले के अर्थात उपरोक्त यंत्र में फट के स्थान में मं अक्षर को नाम सहित भोजपत्र पर श्रृंगी विष
और गधे के रक्त से लिखकर, नीले धागे से लपेटकर, श्मशान में दग्ध राख की पुतली के पेट में रखकर, श्मशान में रखने से सातदिन में सत्रु का छेदन भेदन आदि निग्रह हो जाता है।
ॐम्ल्यूँ मं जय विजये अजिते अपराजिते ज्म्ल्व जंभे भल्व्यू मोहे म्मल्यूं स्तंभिनी हल्व्र्दू स्तंभिनी मम अमुक शत्रु मुच्छेदा मुच्छेदय आं ह्रीं कौं मं मल्ट ॐयेथे
wahte
स्तंभे
स्वाहा
अजिने
स्वाहा
विजये
तूर्य स्वर लिरवेद्विद्वानम् स्थाने नाम संयुतं कुकंमागरु कपूरै : भूयें रोचनयान्वितै, स्वर्ण मठितं कृत्वा वाही वा धारटो द्रले
करोति इदं सदा यंत्रं तरुणी जनमोहनं ॥ SSCIRCISPIRICISTRATOR ३८४ PIECIROIRCISIOTECTORIES
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252525252525 fuggiera VSPSESE/SPSPS.
उपरोक्तं यंत्र में म अक्षर के स्थान में चौथा स्वर अर्थात् ई अक्षर को नाम सहित उसको सोने के जंतर में मंदवाकर भुजा या गले में पहिने तो यह यंत्र सदा तरूणी जवान स्त्री को मोहित करता है।
ॐ क्षम्ल्यू ई जये विजये अजिते अपराजिते जम्ल्यू जंभे भ्म्ल्यू मोहे म्म्ल्यू स्तंभे हम्ल्यू स्तंभिनी अमुकी मोहय मोहय मम वश्यं कुरू कुरू आं ह्रीं क्रों ई क्ष्म्ल्यू ॐ वषट् ।
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वषट वर्ण युतं कूटं लिके दीकार धामनि भूर्जपत्रे सिते त्यंते रोचना कुंकुमादिभिः त्रिलोह वेष्टितं कृत्वा बाहौ वा धारयेत् गले
स्त्री सौभाग्य करं यंत्रं पुंसां चेतोमि रंजनं ॥
उपरोक्त यंत्र में कूटाक्षर क्षकार सहित वषट बीज को अर्थात् क्ष वषट को ई अक्षर के स्थान में अत्यंत श्वेत भोजपत्र पर गोरोचन कुंकुम आदि से लिखे, फिर इस यंत्र को त्रिलोह के जंतर में जिसमें स्वर्ण तीन भाग ताम्र बारह भाग चांदी सोलह भाग हों मंदवाकर, भुजा में या गले मे धारण करने से यह यंत्र स्त्री के सौभाग्य को बढ़ाता है तथा पुरुषों के वा स्त्री के मन को प्रसन्न रखता है । Pho
959595 ३८५ 25/5
एनएनएक
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S50150150505125 विधानुशासन 50550551015015DISH
ॐाल्यू व वषट जटो विजये अजिते अपराजितेज्म्ल्यू जंभे भल्य मोहे म्म्ल्यू स्तंभे झल्यू स्तभिनी मम अमुक स्त्री नाम चेतो रंजय आं ह्रीं क्रौं क्ष वषट् कल्च्यूँ ॐवषट वषट भैरव पद्मावती कल्प के अनुसार त्रिलोह तान द्वादश भाग तार शोडष भाग स्वर्ण त्रि भाग ज सोलह भाग में से बारह भाग तांबा एक भाग लोहा और तीन भाग सोना भी त्रिलोह कहलाता है।
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स्वाहा मोहे
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क्षाधक्षर पदे योज्यं शिलातल संपुटे
विलियो वींपुरं बाह्ये स्तंभनं तालकादिभिः पूर्वोक्त यंत्र में क्ष वषट बीज के स्थान में ले बीज सहित यंत्र को दो पाषाण की शिलाओं के बीच में हड़ताल आदि पीले द्रव्यों से लिखकर रखे जिसके बाहर पृथ्वी मंडल बनाकर उसके बाहर त्रिमूर्ति अर्थात ही कार का वेष्टन करने से क्रोधादि का स्तंभन होता है।
CISISTRICISIOSSIRIDICISCE३८६ PSIRIDIOTSIDERERYSIOTS
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51015121510DOIDIO15 विद्यानुशासन PHOTOISI01513151015IOISS ॐ मल्टयूं लं जये विजये अपराजिते जुम्ल्यू जंभे भल्यू मोहय म्म्ल्यू स्तंभे झाल्ब्यू स्तमिनी (मम अमुकस्ट क्रोधादि स्तंभय स्तंभय आं ह्रीं क्रों लं म्यू ठ: ठः देवदत्तस्य क्रोध गति सैन्य जिव्हां स्तंभय स्तंभय ठः ठः॥
Patna
स्तंचती स्वाहा
अषिते
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विजमे
स्थानेतुमैन श्री निज बीज में द्रं कुंकुमाघे लिरिवतं स भूज त्रिलोह वेष्टयं वियतं स्व
बाहौ करोति रक्षा ग्रह मारिकाभ्टाः ।। उपरोक्त यंत्र में लं के स्थान पर ऐन्द्र बीज श्री को कुंकुमादि से भोजपत्र पर लिखकर त्रिलोह के जंतर में जडवाकर अपनी भुजा में पहिने तो यह यंत्र प्रहमारी और रोगों से रक्षा करता है।
ॐ दम्ल्यूँ श्री जो विजये अजिते अपराजिते उम्ल्यूँ जंभे भल्व्यू मोहे म्म्ल्वयूँ स्तंभे हल्ल्यं स्तंभिनी श्रीं।
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PSPSP5P5595 विद्यानुशासन 9595959595
अतिरे
श्री
स्वाहा
मोहे
भूल्वर्य
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警察带
巡
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नाभ
ales
ग्ल्य
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35
विजये स्वाहा
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क्रौ
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उपर्य ज स्वाहा
मंत्रेषु यंत्रेषु च सम्योगेषु प्रकीर्तितेष्वातनुतेभियोगां यो मंत्र वित्स प्रथित प्रभावो रक्षा मणिः स्यात्प्रथित प्रभावः ॥१॥
बालं गुन्हन्ति जातं निज नियति वशात् पूतना वर्द्धमानो मूढ़ चैडानभीक्षुः स बहु विद्य विषै बांध्यते स्वैर चारी ॥ २ ॥
आतंकानां निदानं कदशनमधिकं श्चापलादश्रुत युततत सातंकाश्च तीव्राः शिशु भवति ततः श्रावयाम्नापऽमृत्यु ॥ ३॥
गर्भ ध्वंसनं पूतना ग्रहचरान व्याधि न्जः कृतिमाः क्षुद्रं च प्रविसृज्य मंत्र्य नुदिनं शांत्यादि कुर्याद्यादि
915959595959595959595959
॥ ४ ॥
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やったらやらせ APP
विद्यानुशासन 9590595959525
आयु : कालमरखंडमेव मनुजा जीवंति तगार्भितः प्रारभ्येव ममु विधिं स विद धन्मातेव रक्षेत्प्रजा
॥५॥
जो मंत्र शास्त्र का पंडित इन कहे हुए मंत्र और यंत्रों में अपने ध्यान को लगाता है। उसका प्रभाव सब जगह प्रसिद्ध हो जाता है। और वह प्रसिद्ध प्रभाव वाला होने के साथ साथ उत्तम रक्षा करने याला भी हो जाता है।
बालक को उत्पन्न होते ही भाग्य के कारण पूतना नाम की ग्रही पकड़ती है वह अपनी कार्य करती हुई बालक को बहुत प्रकार से निरंतर कष्ट देती है।
इच्छानुसार
इन विघ्नों का मूल कारण बुरा भोजन होता है किन्तु जो चंचलता से इनको नहीं सुनते उनके बालक उसके वश में होकर शीघ्र ही अपमृत्यु को प्राप्त होते हैं।
किन्तु पुरुष गर्भपात तथा अनेक बीमारियों को करने वाली पूतना ग्रहियों को छोटा न समझकर आये दिन शांति आदि कराता रहता है। तो उसके बालक गर्भ से ही अखंड आयु वाले होकर जीवित रहते हैं। इस विधि को करने वाला पुरुष संतान की माता के समान रक्षा करता है ।
इत्यार्षे विद्यानुशासने पंचम समुदेशः समाप्तः
सामान्य युक्त यंत्र साधन विधान नामक पंचम अध्याय पूर्ण हुआ
959595959 ३८९ 9595295959SPE
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PoPser SP विधानुशासन 959595
अथ गर्भोत्पत्ति विधान षष्टम समुदेश
वक्ष्ये गर्भस्य संभूतिं यां समारभ्य जन्मतः शात वस्ताद पायेभ्यो दीग्धयु भ॑वति ध्रुवं
॥ १ ॥
के ऐसे उपाकर्म किया जाता है जन्म से आरंभ करने से विघ्र नष्ट होकर
अब पुरुष निश्चय से दीर्घायु वाला होता है ।
दोषान वृष्यं रजो योनि श्रद्धि गर्भस्य रक्षणं सुख प्रसूति कृन्माद्दः संस्कारश्चापि वक्ष्यते
॥ २ ॥
इससे अतिरिक्त दोष पौष्टिक औषधि रज शुद्धि योनि संस्कार गर्भ रक्षा तथा सरलता से पुत्रोत्पत्ति करने वाले संस्कारों को भी कहेंगे ।
अष्टौ दोषास्तु नारीणां नवमं पुरुषस्यतु रक्तं पित्तं तथा वात श्लेष्मं च सन्निपात कं
ग्रह दोष विकारेण देवतानां च कोपतः अभिचार कृतैर्वापि पुरूष प्टय रेनसैः स्त्रीओ के आठ दोष और पुरुषों के नौ दोष होते हैं। स्त्री के आठ दोष यह है १-रक्त, २-पित्त, ३कफ, ४- वात, ५- सन्निपात, ६-ग्रह के दोष के विकार, ७- देवताओं का कोप और ८-अभिचार स्त्रीओं के दोष होते हैं। पुरुष का दोष केवल वीर्य संबंधी है।
पुष्पं तु लभते यस्याः फलं नस्यान्न संशयः तस्या दोष विकारंतु ज्ञात्वा कर्म समारभेत
॥ ३ ॥
चंद्राश्रुमणि नायद्वद्भास्करी कर तापतः नाग्निं जनयते सौवैचिकित्सां तद्वदाम्य हं
॥४॥
11411
जिन स्त्री का रज निकलता रहता है उसमें निसंदेह पुत्र रूपी फल नहीं होता है। अतएव उस स्त्री के दोषों के विकारों को जानकर ही कार्य आरंभ करें।
॥ ६॥
क्योंकि सूर्य के ताप को चंद्रकांत मणि में पहुंचाने पर उसमें से अग्नि नहीं निकलती अतएव में उस चिकित्सा का वर्णन करता हूँ।
CİSP595 105PSPS -·· PS0504
52525
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SSCI50150551035105 विधानुशासन 98510150151015015015
अति सूक्ष्म तमं रक्तं कु सुमोदक सं निम्भ कटि शूलं भवे तस्था योनि शूलं च संज्वरं
॥७॥ यदि रक्त फूलों के जल के समान अत्यंत सूक्ष्म होता है और स्त्री के कमर का दर्द योनि में शूल और ज्वर तक होने लगता है।
मारूत्तस्य विकारोयं ज्ञात्वा कर्म समाचरेत् सहकारस्य मूलं च तथा व्याय पदस्य च
॥८॥
त्रिवृताया भयेन्मूल क्षीरेण लोढयं तं पिवेत् सप्ताहं पंच रात्रं वा यावत् श्रवति शोणितं
॥९॥ तो वायु का विकार समझकर कार्य आरंभ करे उसी समय आम की जड़ कटेली की जड़ और निशोथ की जड़ को दूध में मिलाकर सास या पांच रात तक जब तक रक्त निकलता रहे स्त्री को पिलाये।
ततो यौनौ विशुद्धयामिमां दद्यात्महौषधी, लक्ष्मणां क्षीर संयुत्ता तस्यै पानं प्रदापयेत्
॥१०॥ जिटलोनि के शुद्ध होने पर सनी को दूध के साथ तमण औषधि पीने के लिए देवे।
तेन सा लभते पुत्रं धाणेन दक्षिणेनत वामनायां भवेत कन्या रूपेणां तीथ शोभना
॥११॥ इस औषधि को दाहिने स्वर में सूंघने और पीने से पुत्र तथा यायें स्वर में सूघने तथा पीने से अत्यंत सुंदर रूप वाली कन्या की प्राप्ति होती है।
टास्याश्लेष्म हतं पुष्पं प्राज्ञ स्तमभिलक्षयेत् बहुलं पिच्छिलं चैव नाचिरक्तं भवेद्वधः
॥१२॥
नाभि मंडल भूलेसु शूल भवति दारूणं त्रिकुट त्रिफला चैवं चित्रकं च समभवेत्
॥१३॥ जिस स्त्री का रक्त कफ के विकार से बिगड़ा हुआ हो उसका लक्षण थोड़े थोड़े रक्त का बराबर निकलते रहता है। उस स्त्री के नाभि के नीचे अत्यंत भयंकर दर्द उठता है उसको त्रिकुटा (सोंठ मिरच पीपल) त्रिफला (हरड़े बहेड़ा आमला) और चित्रक को बराबर लेकर।
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CHECI5015015RISO15 विधानुशासन VIODRISIOISTO505
हिंगु दलाष्टमांशेन कृत्वा लोदया च तं पिबेत् निरानं पंच रात्रं वा यावत शवति शोणितं
||१४॥ उसका आठयां भाग हिंग मिलाकर तथा सब को जल में मथकर तीन रात या पांच रात तक स्त्री का रस निकले पिलावें।
ततौ यौनौ विशुद्धायां पश्चात् दद्यान्महोयधि लक्ष्मणां क्षीर संयुक्तं नासे पाने च दापयेत्
॥१५॥ फिर योनि के शुद्ध होने पर दूध के साथ उसी लक्ष्मण औषधि को सुंधावे और पिलायें।
लसा ससले गर्म लाणोक्तं स पंडितां - नाना कला समायुक्तं धीरं जनन रंजका
॥१६॥ उससे स्त्री उस लक्षण याले विद्वान अनेक प्रकार की कलाओं से युक्त धीर और उत्पन्न करने वालों को प्रसन्न करने वाली गर्भ को धारण करती है।
यस्या पित्त हतं पुष्पं फलं तस्या न विद्यते तत्र पित्तं हतं पुष्प प्राज्ञः समुपलक्ष्ोत्
॥१७॥ जिस स्त्री का रज पित्त के विकार से बिगड़ा हुआ हो उसके पुत्र रूपी फल नहीं होता विद्वान उस पित्त से बिगड़े हुए रज को अच्छी तरह पहचाने ।
पक अंबु फलाकारं कृष्णं श्रवति श्रोणितं कदि शूलं भवेत्तस्या उदरं च प्रदह्य च
॥१८॥ ऐसी स्त्री के पकी हुई जामुन की शकल का काला रक्त निकलता ही रहता है। उसकी कमर में दर्द होता है तथा पेट में जलन होती है।
प्रश्रावं करोत्यूष्ण मेणेत त्पित्तस्य लक्षणं तस्योषधं प्रवक्ष्यामि येन गर्भ प्रधार्यते
॥१९॥ पित्त का लक्षण यह है चित्त में भांति और शरीर से गरम श्राव उत्पन्न करता है। उसकी ऐसी औषधि का वर्णन किया जायेगा जिससे गर्भ धारण किया जा सके।
उत्पलं तगरं कुष्टं राष्टी मधु स चंदनं एतानि सम भागानि अजाधीरेण पेषटोत्
॥२०॥ SRIDORRECTRICTARTE ३९२ PISTORSIOTECTERISTICISCES
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959595959
विधानुशासन 9/51751
उत्पल (कमल-नीलोफर ) तगर मीठाकूट मुलेठी और चंदन को बराबर लेकर बकरी के से पीसे ।
दूध
त्रिरात्रं पंच रात्रं वा यावत् श्रवति शोणितं ततो यौनौ विशुद्धाया भिमां दद्यान्महोषधीं
॥ २१ ॥
इस
औषधि को तीन रात या पांच रात जब तक रक्त निकलता रहे तब तक स्त्री को पिलाये फिर योनि के शुद्ध होने पर निम्नलिखित महाऔषधि को दें।
लक्ष्मणां क्षीर संयुक्तां नासे पाने च दापयेत् तेन सा लभते पुत्रं रूप वंतं महाद्युति
॥ २२ ॥
लक्ष्मणा को दूध में मिलाकर स्त्री को सूंघाकर पिलाएं इससे उसको महान कांती वाला रूपवान पुत्र की प्राप्ति होती है ।
सन्निपात हते पुष्पे ज्वर तीव्र प्रजायते
शोणितं तु भवेत्कृष्णामत्युष्णं नालं बहु
|| 23 ||
सन्निपात से स्त्री के रज के बिगड़ जाने से तीव्र ज्वर होता है उसके रक्त का रंग काला अत्यंत उष्ण और अधिक अधिक निकलता है।
कुक्षि देशे तथा योन्यां कटिशूलं प्रजायते गात्रं भंग भवेत्तस्य निद्रानैयो पजायते
॥ २४ ॥
उस समय उस स्त्री की कोख योनि तथा कमर में दर्द होता है। उसका अंग टूटने लगता है। और उसको नींद भी नहीं आती है।
सन्निपात प्रदोषा भवंति बह्य स्तथा उत्पलं तगरं कुष्टं यष्टि मधुक चंदनं
1174 11
अजाक्षीरेण पिष्टांत सप्ताहं पाययेत्ततः ततो यौनी विशुद्धाया मिमां दद्यात्महोषधी ॥ २६ ॥ सन्निपात के दोष भी बहुत होते हैं उस समय कमल अर्थात नीलोफर तगर मीठा कूट मुलहटी और चंदन को सम भाग लेकर बकरी के दूध में पिसवाकर उस स्त्री को सात दिन तक पिलावे तब योनि के शुद्ध हो जाने पर उसको यह महोषधि दें।
9596959SPSPSS ३९३ P/596959595
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SSIO1512155051255125 विद्यानुशासन VEDASIDISTRISTORIES
श्वेतार्क क्षुद्रिणी श्वेतां श्वेताश्च गिरिकर्णिकां
लक्ष्मणं बंप्य ककॉटिवाऽजा क्षीरेण पेषयेत् ॥२७॥ सफेद आक सफेद दूब छोटी कटेली सफेद कोयल बूटी लक्ष्मण और बांझ ककोड़े को समान भाग लेकर बकरी के दूध के साथ पिसवाकर।
+
शताऽभिमंत्रितं कृत्वा तस्य पानं प्रदापयेत् तेन सा लभते गर्भ ज्ञात्येवं च समाचरेत्
॥२८॥ फिर औषधि को एक को एक बार अमृत मंत्र से अभिमंत्रित करके स्त्री को पीने के लिए दें। मन में जान करके कि इससे इसको गर्भ की प्राप्ति होगी कार्य करे।
इति स्त्री दोषाणि
शुक्र क्षयेतु पुरुषे नागिर्भ न धार्यते पुरुषे शुक्र हीने तु उपायं यक्ष्यतेऽधुना
॥१॥ पुरुष का वीर्य क्षीण हो जाने पर स्त्रीयाँ गर्भ नहीं धारण कर सकती अत एक पुरूष के धातु क्षीणता दूर करने के उपाय का वर्णन किया जाता है।
माक्षिकं स्वर्णमाक्षीकं लोह चूर्ण शिलाजितं पारदं स बिडंगानि पथ्याभाग समांशकं
॥ २
॥
पतेन भावयित्वा च पात्रे कत्वा आयसे बिडाल पद मात्रंच भक्षयेत् स्थविरोपियः
॥३॥
तस्य व्याधि जरा मृत्यु वर्षएकेन हन्यते कामये स्त्री सहश्रतुं बहुशुक्रोबहु प्रजः
॥४॥ शहद और सोना मारवी शुद्ध और लोह भरम शिलाजीत पारद बायबिडग और हरड़े के समान भाग लेकर और इन सबको घृत में मिलाकर लोह पात्र में रखकर यदि वृद्ध पुरुष भी दो तोले की मात्रा में खावे तो उसको रोग वृद्धावस्था और अपमृत्यु एक वर्ष के अंदर अंदर नष्ट हो जाती है।उसको एक हजार स्त्रीयों की कामना होती है तथा उसको बहुत अधिक वीर्य होकर बहुत संतति होती है।
वस्तांडं तिल पिष्टं च पतं नैव च पाटाटोत
पिबेत्क्षीरं द्युतं रात्रौ शर्करामन्न मिश्रितं eeeeeeeg ?* ටනලලලසු
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9595259595951 विधानुशासन 9695995
मास द्वय प्रयोगेन निरंतर्य दिनेदिने समान रमते नारीमऽक्षीणचट को यथा
|| & ||
बकरे के कपूरे और तिलों की पिट्टी को घी के साथ मिलाकर रात्रि में अन्न सहित मिश्री या शक्कर को दूध में मिलाकर पीयें प्रतिदिन इस प्रयोग को दो मास तक करने से वह पुरुष बिना स्खलित हुए चटक (चिड़े) पक्षी की तरह स्त्री से रमण करता है।
कपि कच्छोय मूल क्षीर पिष्टं च तं पिबेत अक्षयं जायते शुक्रं कामये स्त्री सहस्त्र कं
पुरुष कोच की जड़ को दूध के साथ पीसकर पीवें तो उसका वीर्य अक्षय होकर वह हजार स्त्रियों 'इच्छा
की
करे ।
धात्री फलानां चूर्णतु वेक्षु रसेन भावितं शर्करा मधु संयुक्तं समभागं च कारयेत्
॥ ८ ॥
आवले के चूर्ण को गन्ने के रस में भावित करके उसमें बराबर शक्कर मिलाकर मधु पिलावे ।
॥ ७ ॥
जीर्ण कायोऽपितं तं लिह्या क्षीरं पीत्वा ततो निशि कामयेत स्त्री सहस्रतुं कामाग्निस्तस्य वर्द्धते
॥ ९॥
वृद्ध पुरूष भी उसको चाटकर रात्री में दूध पीकर सहस्र स्त्रियों की इच्छा करता है तथा उसकी कामाग्नि बढ़ जाती है।
अश्वगंधातला श्चैव मूलं च कपि कच्छजं बिदारी कंद संयुक्ता षष्टिकानां च तंदुला
एतानि पयसा पिष्टवा घृतेन सहितं पिबेत दिनेदिने च तं भक्षेद्याति कामस्य दीपनं
॥ १० ॥
॥ ११ ॥
अश्वगंध तिल कोंच की जड़ बिदारी कंद मुलेठी और साठी चावलों को समान भाग लेकर दूध के साथ पीयें तो इसको प्रतिदिन खाने से कामोद्दीपन होता है।
बिदारी गोक्षुरं चैव पयसा सह भक्षयेत् जीर्ण कोयपि दातव्यं मंदाग्नि द्दीपन प्रद
॥ १२ ॥
बिदारी कंद और गोखरू के चूर्ण को दूध के साथ खाने से जीर्ण कायवाला पुरुष भी मंदाग्नि को नष्ट कर कामोद्दीपन को प्राप्त होता है। 959595259SOJNI E PS050525252525.
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CASICI50151055015105 विद्यानुशासन 95015250STORITIES
भावितं सु बहुब्बारान्नारि केरी फलांबुभिः माष दूर्ण घृतेनाद्याद्योगोयं वृष्य उच्यते
॥१३॥ नारियल के जल में बहुत बार भाषित किये हुए उड़द के चूर्ण को घृत के साथ खायें तो पौष्टिक योग है।
मूलमौटुंबई सापः शानिमितं यः पिबेत्सततं गच्छेत् प्रमदाचट को यथा
॥१४॥ जो पुरुष उदंबर (गूलर) की जड़ को घी शक्कर और दूध के साथ मिलाकर पीता है वह स्त्रीयों के पास निरंतर चिंडे के समान ही मस्त होकर जाता है।
गुप्ता बीज बला नागबला गोक्षुर शर्कराः पिष्टवा क्षीरेण पीतास्युःशुक्रवर्द्धन हेतवे
॥१५॥ कोंच स्परेटी गंगेरन गोखरू को पीसकर उसमें शक्कर मिलाकर दूध के साथ पीने से वीर्य बढ़ता
है।
यव माष स्वयं गुप्ता यष्टि गोक्षुर का स्थिभिः गव्येन पयसा पीतै भवेष्य मनीद्दशं
॥१६॥ जो उड़द कोचं मुलैठी गोखरू के बीच की लकड़ के चूर्ण को गाय के दूध के साथ पीने से अपूर्व पुष्टि होती है।
फल मलदलान्यऽस्व गंधायाः पासा पिबेत
गव्ये नापि जरद गच्छे दक्षीणो टोषितां शतं ॥१७॥ असगंध की के फल जड़ और पत्तों को गाय के दूध के साय पीने से वृद्ध पुरूष भी सौ स्त्रियों के पास जा सकता है।
स्वयं गुप्ता फल रजो गोक्षुरास्थि रजोयुतं गव्येन पयसा पीतं स्याटेलनिय यर्द्धनं
॥१८॥ कोंच के फल का चूर्ण और गोखरू के बीच के भाग के चूर्ण को गाय के दूध के साथ पीने से बलेन्द्रिय बढ़ती है।
तिल माषाऽत्म गुप्तास्थि विदारी शालि तंदुलौ
क्षीरेण कलितैः पीते रस माप्ता भवद्भतिः तिल उड़द कोंच की लकड़ी बिदारी कंद और साठी चावल को दूध के साथ पीने से अपरिमित स्तंभन होता है। C501501505501512151075 ३९६ P1512552152150SISCIES
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959595952
विधानुशासन 9595959595
*
गुप्तोच्चटो विदारी चूर्ण क्षीरेण शर्करोपेतं यः पिबति नरोनित्यं गच्छेत् सः स्त्री शतं सततं
॥ २० ॥
कोंच के बीज (उड़द की दाल) चिरमी के जड़ बिदारी कंद का चूर्ण को जो शक्कर मिलाकर दूध के साथ गीता है हर विल्य लगातार १०० लीयों के पास जा सकता है।
यात्री फल रजो यात्री फल स्वरस भावितं घृत सिक्तं लिहन क्षीरं पिवेत तनु वृषायते
॥ २९ ॥
आंवले चूर्ण को आयले के रस की भावना देकर घी से चिकना करके चाटने और ऊपर से दूध पीने से बेल के समान पुष्ट हो जाता है।
रजोविदारीकंद स्य तद्रसैनैव भावितं
लीठं घृतेन गौदुग्धं पीत्वातु स्त्री भजेब्दहुः
॥ २२ ॥
बिदारी कंद के चूर्ण को उसी के रस में भावित करके घी के साथ चाटने और ऊपर से दूध पीने से बहुत सी स्त्रीयों के साथ भोग कर सकता है ।
सर्पिषा संयुतं लीढं यष्टी मधुकजं रजः क्षीरानुपान बढ़ाकुर्यादपि नपुंसकं
॥ २३ ॥
मुलेही के चूर्ण को घी के साथ मिलाकर चाटने से और ऊपर से दूध पीने से नपुसंक भी घोड़े के सामन पुष्ट हो जाता है ।
व्योष द्राक्षा सिता चूर्ण घृतैः कथित शीतलं युक्तं गव्यं पयः पतिं बल शुक्र वर्द्धनं
॥ २४ ॥
सोंठ मिरच पीपल मूत्राका और मिश्री के चूर्ण के साथ क्काय बनाकर और ठंडा करके घी और गाय के साथ पीने से बल और वीर्य बढ़ता है।
के दूध
उदकं शाल्मली मुद्राद्धाणितां गलितं घटे
शोषितं सलिलं स्वादन केवलं वा वृषायते
॥ २५ ॥
संभल के कांटे के नीचे की लकड़ी की छाल को पानी से घिसकर कपड़े से छानकर घड़े में डालकर
रखे उसका जल सूखने पर खाने से मनुष्य अत्यंत पुष्ट हो जाता है।
PSPORTE: PA2505)
959625
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S5015015015015105 विद्यानुशासन 950150150150150SS
पिपलस्य युतं मूलं फल पल्लव वल्कलैः क्षीरं श्रुतं सितो पीतं पीता रेतो वियर्द्धनं
॥२६॥ पीपल की जड़ फल पत्ते और छील को मिश्री और दूध के साथ पीने से वीर्य बढ़ता है।
गोक्षुरं शतावरी तिल हयगंधा कपिवधुबला चूर्ण:
शुभ शौरभय पटसा पीतो नर वीर्य कद्भवति ॥२७॥ गोखरू सतावरी तिल अश्वगंध कोंच के बीज और खरेटी के चूर्ण को गाय के दूध के साथ पीने से मनुष्य का वीर्य बहुत अधिक बढ़ता है।
शुद्धैमास्तिलैः शालि तंदुलै रक्षजन्मभिः अपिशष्कुलिका सर्पिभूविष्टा मन्मथवर्द्धना
||२८॥ शुद्ध उड़द तिल साठी चावल और रक्ष जन्म (सफेद सरसों के फूलों की कचौड़ी के सुहाली के धी के साथ खाये जाने से अत्यंत काम को बढ़ाता है।
क्षीरेहविषि च पिंडी विघाचितां वितुषमाष विदमलां
कामीभुक्का प्रमद शतमपि भुक्ता न तृप्तोति ॥२९॥ धुली हुई उड़द की दाल की पिट्ठी को दूध और घी के साथ पकाकर खाने से कामी पुरुष को स्त्रियों से भी तृप्त नहीं होता।
हयगंधा खंडाता सिततर तिल माष शालिन:
शदका माहिष पयो विपुका लीठा द्विगुणोत्तरा दृष्या ॥३०॥ असगंध, खांड, सफेद तिल, उड़द, साठी चायल को भैंस के दूध में पकाकर हलवे को चाटने से से दुगुनी पुष्टि होती है।
आरताणा पुरुषाणां नारीणां च तथैवतु योगात्कारये च्चेत्समुचितार्थ कम साधनं
॥३१॥
अंगं च वरं चाऽन्यं नर नारी हितावहं
नस्या पान पतं तैलं तानि नित्यं च सेवयेत् ॥३२॥ मंत्री दुखी पुरुष व स्त्रियों के योगों को जानकर ही योग्य रीति से उसके कार्य को सिद्ध करें। स्त्री और पुरुष की चिकित्सा के हितकारी अन्य भी उत्तम अगं हुल्लास पीने की वस्तु घी व लैल है उनका भी नित्य सेवन करें।
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ලලලලලලෝස් අල වලටයුගලකට
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ಇಡ
ಬಾದಿನ RETRIER 2ಣಸಣಣಸಣಣಪನ नष्ट रज को फिर से उत्पन्न करने की दवायें ट्योषं पलाश बीजं च तिल काधेन पेषितं पीतं पुष्प वतीं नारों विद्यत्ते रक्त गुल्मशूल हत
॥३३॥ यदि सोंठ, काली मिरच, पीपल और पलास के बीजों को पीसकर तिल के लाथ के योग से पिया जाये ते यह गुल्म (प्लीहा अथवा वायू गोला ) के दर्द को दूर करके स्त्री को रजोवती करता है।
विल्व क्षीरीणिका मूलं पिवेदुष्णेन वारिणा अनार्तवा क्रियानारी सातवा भवति धुवं
|॥३४॥ यदि बिना रजवाली स्त्री बील और आक की मूल को गरम जल से पीए तो निश्चय से ऋतुमती हो जाती है।
आम्लिका मूलमाहत्य पिष्टावा क्षीरेण पायोत
नारीणां नष्ट पुष्पाणां सोरक्तं प्रवर्तते । ॥३५॥ इमली की जड़ को पीसकर दूध के साथ पीने से स्त्रियों का रज नष्ट रजो धर्म तुरन्त ही होने लगता
रवारी पिष्टो यष्टी द्राक्षो क्षीरेण योषिता पीतो पुष्पाद्भवाय तस्मा शूत तत्वक स्वरस नस्यं च
||३६॥ खारी नमक और पिसी हुई मुलहटी और मिन्नकादाख को दूध के साथ पीने से तथा आम की छाल के स्वरस की नस्य लेने से तुरंत ही रज प्रकट हो जाता है।
सत्तैलं नीलं निगुडी मूलं समाधितं पिबेत क्राथं सा बनिता द्दष्टेन तस्याः पुष्प संभवः
॥३७॥ आम की छाल आम का रस और नीली निर्गुडी (संभालू की जड़) की जड़ को तेल में पकाकर काय बनाकर पीने से ऐसी कोई स्त्री नहीं है। जो रजोयती न होवे।
दंती किण्व कणा रालं लक्षाक्षि गरुडै: कता सुधी क्षीरातै वर्ति योनिस्था जनयेद्रजं
॥३८॥ दंती अर्थात तिरीफल ७ छोटा जमाल गोटा १ भाग किएव (सोये,के बीज) सोलह भाग राल लंबाक्षि (अर्थात कडवी तुंबी इंद्रायण) और गरुड़ (खिरेटी) को अच्छी स्त्री के दूध से बत्ती बनाकर योनि में रखने से रज उत्पन्न हो जाता है। CASIOTISTORICANDROID05 ३९९PI5DISTRISTRITICISTRISTRIES
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विधानुशासन 9595959599
निंब श्लेष्मांतक कदली भुजंग निर्मोके निम्मितो धूपः यौनौ दत्तौ कुर्यात् कन्याया पुष्प संभूतिं नीम लिसोड़ा केला और सर्प की कांचली की बनाई हुई धूप को योनि में देने से कन्या भी रजोवती हो जाती है।
॥ ३९ ॥
निर्यासमासनं नारी पिबेत् क्षीरेण कल्कितं नष्टावर्त समद्भूतिं पुनरातंव जन्मनः
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विजयसार अथवा पीले रंग के शालि वृक्ष के गोंद के दूध के साथ कल्क बनाकर यदि स्त्री पीवे तो नष्ट रज फिर प्रकट होने लगता है।
गन्धिता
गुड तैरा बुता स्वारीता निपीता दुष्टं योनिनां लोहितां योनि दोषहत
1188 11
गुड़ तेल और खारेक (छुवारे) के काथ में नमक मिलाकार पीने से अशुद्ध योनि वाली स्त्री के योनि दोष दूर हो जाते हैं।
दल मूलानि नलिन्या कुष्टं मुसिरं नतं हिमं कृष्ण एरंड शिफां च पिबेत् गर्भाशयशो धनाय गोपयसां
॥ ४२ ॥
कमल के पत्तों की जड़ कूठ मीठा खस तगर सफेद चंदन अगर और एरंड़ की जड़ को गर्भाशय के दोष दूर करने के वास्ते गाय के दूध के साथ पीवे।
लोय आमलक हरिद्राहरीतिक खदिर सार संभूति काथं शोचन द्रबेवरि स्योयोनि दोष हर
॥ ४३ ॥
पठानी लोध आमला हल्दी हरड़े और कत्थे के क्वाथ से योनि शोधन करकने से उसके दोष दूर
होते हैं ।
कटुकालांब संसिद्ध तैलं सभ्यंजनाद्भवेत् योनि दोष हरं नार्या गर्भ मुत्पादयेंदऽपि
॥ ४४ ॥
कड़वी तूंबी में सिद्ध किये हुये तेल को मलने से स्त्रीयों के योनि दोष दूर होकर गर्भ रह जाता
है ।
कुमुदेन स तालेन स सूक्ष्मैलेन लेपनं पिष्टेन वाराण त्रीन् स्त्रीणां योनि दोष निवहणं
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कमल ताड़ और छोटी इलायची को पीसकर स्त्री की योनि में तीन बार लेप करने से योनि दोष दूर होकर गर्भ स्थित हो जाता है।
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SX विधानुशासन 95952
त्रिफलांजन गुड लोद्र द्राक्षा फल पिप्पली समालेपः गर्भग्रहणं प्रतिधान् योनिगतान् नाशयेद् दोषान्
॥ ४६ ॥
त्रिफला (हरड़े बहेड़ा आंमला) अंजन (सुर्मा) गुड़ पठानी लोघ मुन्नका पीपल को समान भाग लेकर लेप करने योनि के दोष दूर होकर गर्भ स्थित हो जाता है ।
556
लाक्षा लसुन हरिद्राद्वय गुग्गुल रोचना सुकौशीरैः हिंग्वाऽब्धफेन युक्तैर्गुलिकास्युर्योनि दोष हत
॥ ४७ ॥
पीपल की लाख लहसून दोनों हल्दी गुगुल गोरोचन खस हींग और समुद्र झाग की गोली बनाकर योनि में रखने से योनि के दोष दूर होते हैं।
कणा दारु कणा मूल द्राक्षा पुर गुड़ै : कृतं उद्वर्तनं हरेत्सर्वान्योनिद्दोषान् विसुर्णितै
やらかす
॥ ४८ ॥
पीपल देवदारु पीपला मूल मुनक्का गुगल गुड़ समान भाग लेकर पीसकर उबटना अर्थात लेप करने से योनि के सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं।
लोग स्वर्ग महारुहोत्पल तिल श्रीरामा पिप्पली यष्टी दाडिम मज्ज सैद्यवं पुर द्राक्षा प्रियंग्वज्र्जुनैः घातक्या कुसुमैश्च गौघृतद्युतैरु द्वर्त्तनं चूर्णितैः योनि दोष हरं च गर्भ जननं पानश्चतेषां स्त्रियां
1188 11
पठानी लोध कल्पवृक्ष (बहेड़ा) कमल नीलोफर तिल, दूध, बाराहीकिंद, पीपल, मुलहटी, अनारदाना शालि वृक्ष, सैधव नमक, गुगल मुनक्का, चारौली, अर्जुन वृक्ष की छाल, धाय के फूल का चूर्ण करके उसमें घी मिलाकर उबटना करने से योनि दोष दूर होकर स्त्रियों के गर्भ रहता है। इति वृष्यं पुष्टीक योग समाप्त ।
हयगंधो शीराभ्यां सर्वांगो द्वर्तन च कुर्वीत
गर्भायै बंध्या स्नानं च समंत्रकं कुर्यात्
|| 8 ||
गर्भ धारण करने के लिये बंध्या को असगंध उशीर (खस) से सारे शरीर में उबटना (लेप) कराके इस मंत्र से स्नान करावे ।
ॐ नमः पार्श्व जिनेन्द्राय कमठ दर्प विध्वंस नाय सर्वोपसर्ग विनाशनाय धरणेन्द्र फणा मणि सहस्र ज्योति दीप्त दिगंतराल परि मंडिताय पद्मावती श्वेतातपत्रधराय सर्वग्रह मातृका दोषं हनहन अपहर अपहर पुत्रमेजनयजनय शीघ्रं शीयं ऋतु मत्यै नमः स्वाहा ॥
95259595259595 *-: 250525252525295.
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एतदभिमंत्रिताभिः स्नायाद्वंय्या सुतं लभेताद्भिः
॥ २ ॥
स्नान मिदं ग्रह पीडा प्रभृत्यवपि सर्वदोषं हरां इस मंत्र के द्वारा अभिमंत्रित जल से स्नान करने से बंध्या को भी पुत्र प्राप्त हो जाता है। यह स्नान ग्रह पीड़ा इत्यादि सब प्रकार के दोषों को दूर करता है।
बंध्या पुष्करिणीतीरे मृतवत्सां शिवालये कूपे जीर्णे तटाके च काक बध्या शिवालयंत्
नद्योश्च संगमे श्रावि गर्भा दोषातरा श्रितां आरण्ये कमलिन्योश्च स्नापयेद्विधिनामुना
॥ ४ ॥
बंध्या को नदी के किनारे पुत्र मर जाने वाली स्त्री को शिवालय कूप या पुराने तालाब में तथा काक वंध्या को भी शिवालय तथा दोनों नदियों के संगम पर स्नान करावे गर्भ गिर जाने वाली अथवा अन्य दोषों वाली कमलों के बन में इस विधि से स्नान करावे ।
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लक्ष्मणाया उपादाने विधानमिदमुच्यते
मंत्र वन्नान्यत्राऽत्रा सायेत्फलाय प्रकल्पते
॥५॥
लक्ष्मण को लाने में इस मंत्र वाला विधान कहा गया है। अन्यप्रकार लाने से इच्छित फल की प्राप्ति नहीं होती है ।
प्रदोषे
चरु पुष्पाद्यैरभ्यविध्यतंतुना
रक्तेन खदिरान कीलान् दिश्वष्टा सु निखन्य च
॥ ३ ॥
खनन मंत्र
॥ ६ ॥
प्रदोष (सूर्यास्त से दो घड़ी पहिले तक) काल में नैवेद्य और पुष्पादि से पूजन करके बिना टूटे हुए लाल धागे से खैर की आठ कीलों को आठों दिशाओं में गाड़ दें।
कि वस्त्रों मुक्त केशश्च सन पुष्पै सोम दिग्मुखः प्रातः खदिर कीलेन निखने तां समंत्रकं
॥ ७॥
वस्त्र रहित केश खुले हेए सोम दिशा की तरफ मुख करके उसकी अच्छे पुष्पों से पूजन करके उस बूटी को मंत्र पूर्वक खेर की कीलों से खोदें।
ॐ ये नत्वां खनते ब्रह्मायेनें द्रोयेन् केशवः ते नत्वां व नाशिष्या मितिष्ट तिष्ठ महौषधि स्वाहा ।
:- यह खोदने का मंत्र है।
9595959595959 ४०२ 95959595959595
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SSIPISIOSIRIDIOA5125 विद्यानुशासन ASTRI5015101512151055
लक्ष्मणो लक्ष्मणा प्रोक्ता द्विविद्या स्त्री पुमानित भवेद्वहुल पना स्त्री दीर्य पत्रा पुमान भवेत्
॥८॥ लक्ष्मणा का लदमणा ही नाम है वह दो प्रकार की होती है स्त्री भेद पुरुष भेद बहुत पत्तों वाली और बड़े पत्तों वाली पुरुष होती है।
गर्भा बैंशु प्रयोगेषु गृहीया लक्ष्मणां स्त्रिया न घुमांसं घुमास्त्वां स्प गतः सं स्तंभय त्यऽसिं
||९|| गर्भार्थ प्रयोगों में स्त्री लक्ष्मणा को लावे तो पुरुष के वास्ते पुरूष लक्ष्मणा को लावे यह तलवार का स्तंभन करती है।
ॐ नमो बलवती शुक्र यदिनी पुत्र जननी ठः ठः
गौ क्षीरेणैक वर्णायाः कल्कितां लक्ष्मणां पिबेत्
एतेन जप्तांगार्थ कुय्याद्वानावनं तथा ॥१०॥ उस लक्ष्मणा को एक वर्ण याली गाय के दूध में कल्क बनाकर यह मंत्र पढ़कर गर्भ के बारने पीए और उसको सूंघे
लभते दक्षिणे धाणे पुत्र नावन कर्मणा वामे लक्ष्मणा या पुत्री मुभा स्मिन्नपुंसक
॥११॥ दाहिने स्वर में सूंघने से.पुत्र की प्राप्ति होती है बाये स्वर में संपने से पुत्री होती है। तथा सुष्मण (दोनों स्वर मिले हुये) में नपुसंक पुत्र होता है।
ब्राही वासीऽमृता निंब कदम्ब दलजं रजं प्रातन्नि पीयंतैलेन बंध्यापि लभते सुतं
॥१२॥ ग्राही अरडूसा गिलोय नीम कदम्ब के पत्तों की दलू को तेल के साथ पीने से बंध्या को भी पुत्र प्राप्त हो जाता है।
वटदुग्ध सकु गुलिका रखादेति सो पतेन संमिश्राः क्षीरेण पिवे पिष्टा श्री मूलं नवांकुरानऽथवा
॥१३॥ वड़ के दूध में सत्तु की तीन गोलियां धीमे मिलाकर खायें और श्री मूल बेतं की जड़ के नये अंकुरों को पीसकर दूध के साथ पीयें।
SSCISRISTIONSCISIO51035 ४०३ PABISASTERSTISEASO2OS
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055851055125TTET25 विधानुशासन HARISTOISTRISTRISTOTRI
बीजानि मातुलिंगस्य क्षीरे पक्वान्याग्रा पिबेत्
नारी यतेन सहसा सहसा गर्भ पत्यि पिबेत् ॥१४॥ जो स्त्री बिजौरे के बीजों को दूध में अथवा घी के साथ धीरे धीरे पीती है वह तुरन्त ही गर्भ धारण कर लेती है।
श्रिया वटांकुराणं च देयाश्च स्वरसा नपि अर्पितावानि पीता वागर्भ दधतियोषितां
॥१५॥ बड़ के अंकुरों को स्त्री को दने से कांति बढ़ता है तथा उसके रस को पीने से स्त्रियां गर्भ धारण करती है ।
यदि तिलाकं तिक्ता ब्राह्मी वासा मताक जे स्वरसे
पक्तं तुल्टां लवणं गर्भाया व द्दतौ सज्यं ॥१६॥ यदि तिल आक कुटकी अथवा पित पापड ब्राह्मी अरडूसा गिलोय को आक के स्वरस में मिलाकर बराबर नमक डालकर सेवन करने किया जाये तो ऋतुकाल में अवश्य ही गर्भ रह जाता है।
आज्यं शिरीष पुष्पं स्वरसं क्षीरं च युग पदे
च पिबेत माहिषश्च पयोथ वंध्या न व्याऽपामार्ग पुष्पा ।।१७॥ शिरस के फूल को इसके रस घी तथा धूध के साथ पियें अथवा चिरचिता के पुष्पों को भैंस के दूध के साथ पीयें तो बध्या के भी पुत्र होता है।
तुष शिरिव पुट दग्धोऽब्जत पीत दला क्षीर संयुतं
स्वरसं गोमूत्र निशा स्वरसाऽसत कुसुमं वा पिबेवंध्या ॥१८॥ कमल के तिनके और खरेटी को बहेड़ा और चित्रक की पुट देकर भस्म बनाकर उसको दूध और हल्दी के स्वरस के साथ पीएं अथवा वह स्त्री विजयसार के फूल को हल्दी के स्वरस और गौमूत्र के साथ पीये।
न व्याहि केसर रसो गव्याऽज्य सहितं पिबेत अपत्य प्रार्थिनी नारी लीराऽहाराजातु वासरात्
॥१९॥ बिना पति की संतान की इच्छी करने वाली स्त्री को ऋतुकाल में नवीन नाग केसर के रस का गाय के धी के साथ पीवे और दूध का आहार लें।
मयूराग्रंक निंवं वा पिबेत दग्धेन कल्कितं ऋतु स्नाता वधूः सद्यः सुतात्पत्ति समुत्सुका
॥ २०॥
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S5DISTRISTRISTRISARTA विधानुशासन HARIHO505PISODE मयूर शिखा अथवा चिरचिटा कुनिंब (बकायण) को दूध में कल्क बनाकर शीघ्र पुत्र की उत्पत्ति की इच्छुक स्त्री ऋतुस्नान की हुई यह पीवें।
अंडकै रंड कोरडं वंध्यानां मूलमापिबेत् सुतोत्पत्ति उत्सुका नारी क्षीरेण प्रथमाऽत्तवः
॥२१॥ अथवा पुत्र की उत्पत्ति की उत्सुक स्त्री ऋतुकाल के प्रथम दिन दूध के साथ एरंड कोरंटो (कैर) और बांझ ककोड़ा खरेटी की जड़ को पीवें।
शिरवा वल शिरयामूलं गन्दा क्षीरेण कल्कितं
गर्भ दप्येति बंध्यायै सेवितं ऋतु वासरात् ॥२२॥ गाय के दूध में कल्क बनाये हुवे मयूर शिखा तथा गाजर ऋतु के दिनों में सेवन किये जाने से वंध्यों को भी गर्भ धारण करा देती है।
श्रीमूलं लोध धात्र्यस्थि वट श्रंगे हरेणुका प्रतौ दिनं त्रय पीता गर्भायाः पथ्या पयोन्वितां
॥२३॥ श्री मूल (बिल्य) लोध आयंले की मीजी यट वृक्ष के छोटे पौधे मटर धान्य को प्रातुकाल में संतान के लिये तीन दिन पीने से गर्भ रहता है।
द्वितियं बलयों स्तलं सिता क्षीरं पतं च गौः निपीता मार्तये पत्नी मंत्रवत्री वितन्वतैः ।
॥२४॥ अथवा दोनों सरेंटियों के देल शकर दूध और गाय की घी को ऋतुकाल में पीने से आंते फैलती
सहा सहां घि शिरसं पायो त्पयसा वधूः अथवा अश्वत्थ यंदकं गर्भ संभव कांक्षिणी
॥२५॥ अथवा वहु को सहा (भुगवन -सहदेई गंवार पाठा) सहाघ्रि जगली उड़द) और शीरस को दूध के साथ पिलाये अथवा गर्भो तप्तित की इच्छावीली स्त्री पीपल और बड़ के फल दें।
क्षीरेण पुत्र जीवस्य मूलं बीजानऋतौ पिबेत् वंध्याया गर्भ संभूत्यैबीजं केवलमेववा ।
॥ २६॥ वंध्या को गर्भधारण कराने के लिये जीवापूता की जड़ और बीजों को अथवा केवल बीजों को दूध के साय पिलाये। C5T055125510151085105RTE ४०५ PI5015010521508510051
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STORISSISTRISTRISTD35 विद्याबुशासन ISIO5251015105065
भूसली लक्ष्मणा पुत्र जीवों रक्त वटांकुराः वंध्या च पिष्टवा क्षीरेण पीता गर्भ प्रदा ऋतौ
॥२७॥ मूसली लक्ष्मण जीवा पोता और लाल वड़ के भी अंकुर को पीसकर ऋतु काल में दूध के साथ पीने से बंध्या भी गर्भवती हो जाती है।
गृहीत मश्वगंधाया मूलं पुष्ये पिबेत् ऋतौ क्षीरेण क्षीरे भुक् पुत्र संभुतिमभिलात्सुका
॥२८॥ पुत्र उत्पत्ति की इच्छी करती हुई स्त्री ऋतुकाल में असगंध की जड़ को पुष्य नक्षत्र में लाकर दूध के साथ पीयें।
कार्यास शलाहूनां कल्कं क्षीरेण पिबतु सप्तानां
बंध्या पुत्रोत्पत्ति वावंतीं पुण्य दिवसेषु ॥२९॥ पुत्र की इच्छा करती हुई बंध्या ऋतुकाल के दिनों में सात दिन तक दूध के साय कपास बेल के कपास के कल्क को पीवें।
कंकैली सौम्य मूलं न्यग्रोध स्यांकुरांच
कष्ण पशौ क्षीरेण ऋतौ स्नाता पिबेत् स्थिता नाभिमात्र जले॥ ३०॥ कंकेली (अशोक) वृक्ष एरंड की जड़ तथा वड़ के अंकुरों को काली गाय के दूध के साथ नाभि तक के जल में खड़ी होकर पीयें जो ऋतु का स्नान की हुई हो।
लक्ष्मी विशु क्रांता मूलान्य श्वदर्भ दुर्वाणां वंशस्य चांकुरानपि गोपटा पिवतु गर्भार्थ
11३१॥ हल्दी संखा हूली की जड़ पीपल वृक्ष डाभ दूब और बांस के अंकुरों को भी गाय के दूध के साथ गर्भ के वास्ते पीयें। लक्ष्मी ( फल प्रयंगु ऋद्धि वृद्धि)
लक्ष्मी पया मूलाश्लत्योत्तर मूल कल्क मथ पयसा
मूल मज्जा क्षीर युतं षंढारथपिबेद्वंप्या ॥३२॥ बंध्या लक्ष्मी वजा मूल (लजवंती की जड़) पीपल वृक्ष की उत्तर तरफ की जड़ के कल्क को बकरी के दूध में मिलाकर दूध के साथ पीवें। SSDISTRIEDISTRI51250 ४०६ PERSOSIATERISTRISTRIES
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S5I05505DISTRIST015 विधानुशासन 510050STOTHARIDIOS
श्री पर्णा फल चव्य पुत्रक मही कुष्माइनिपर्णिका ब्राह्मी दुर्दर पूर्विका सित वरांहां कोल वंध्यान्वितां पाठा लक्षणि केऽत्यऽनन्य सित गोदुग्धे पिष्टवा पिबेत
वंध्या पुत्र बती स्व भर्तुः सहिता पुत्रं लभेत धुवं ॥ ३३ ॥ बड़ी इलायची फल चव्य पुत्रक (दबना) मही (खंभारी) कुष्मांडीनी (कुम्हडा काशी फल ) ढाकवाही -दुर्दर (बहेडा) सित बराह (सफेद बाराही कंद) अंकोल काली मिरच मुगवन (सहदेई गंयार पाठा) पाठालता और लक्षणी को श्वेत गाय के दूध में पीसकर पीने से वंध्या स्त्री कभी पति संयोग से अवश्य ही निश्चय पूर्वक पुत्र प्राप्ति करती है।
पीत्वा ऋतोषामिदं दिवस चतुष्टयामुभातपि स्थिता
निर्वातात्मकेद्देशे भुंजी यांता मधुरमन्नं ॥३४॥ ऋतुकाल में इस औषधि को पीकर दोनों स्त्री पुरुष चार दिन तक ठहरे फिर वायु रहित स्थान में मधुर अन्न खावे।
स्नात्वा चतुर्थ दिवसे स्वभतु संपर्क माप्टा
निजवनिता पुत्रीं पुत्रं लभते वामे तर शया पार्थ संसुप्ता॥ ३५ ॥ चौथे दिन स्नान करके तथा पति के बगल में सोई हुई अपनी स्त्री से शय्या पर संपर्क करके पुत्र अथवा पुत्री को प्राप्त करें।
उत्पलस्य च कंदानि बहुमूला स्तथैवच फलानि पुत्र जीवस्य लाजानि च तथैव च
॥३६॥
मधुस्य च पुष्पानि सरसी रूह केशरं कसेरू करय कंदानि किंशुक स्य फलानिवा
॥ ३७॥
एतानि समभागानि चूर्णयित्वा भिषग्वरः मधु शर्करया टुक्तं तत् चूर्ण गुलिका कृतं
॥३८॥
त्रीऐयता न्यऽक्षता मात्राणी प्रातःकालेञ्यहं ततः ऋतुकाल दिने देट पुत्रं परम दुर्लभ
॥ ३९॥ 051015105251951015015/४०७ PISIRISIOSISTRI5015015
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9595905951 1 विधानुशासन 9595959995
आहारं पासा युक्तं भर्तार सह भोजयेत् तेन पुत्रं प्रसूयेत बंध्या या द्दष्टमौषधं
नीलोफर की जड़, शतावरी जीवा पूता के फल, धान की खील, महुवे के फूल, कमल की केशर ढांक (पलास) के फल, इन सबको समान भाग लेकर उत्तम वेध इनका चूर्ण बनाये और उसनें मधु और शकर मिलाकर गोली बनावे। इनमें से तीन गोलियां जो तोल में एक वर्ष के बराबर हो. प्रातःकाल तीन दिन तक स्त्री को ऋतुकाल के समय दें। तो अत्यंत दुर्लभ पुत्र रत्न मिलता है। उस समय पति पत्नी दुग्ध युक्त आहार करे। उस औषधि के सेवन से बंध्या स्त्री भी पुत्रोत्पत्ति करती है ।
॥ कल्याण धृत "
मंजिरा नधुकं कुठं त्रिफला शर्करा वचा अजमोद हरिद्रे द्वे सिंही तिक्तक रोहिणी
काकोली क्षीरकाकोली मूलं चैवाऽवां सगंधंजं जीवक ऋषभौकी मेङा रेणुका बृहतीद्वयं
उत्पलं चंदनं द्राक्षा पद्मकं देवदारु च येभिरक्ष समै भागौ घृत प्रस्थं च पाचयेत्
चतु गुणेन पयसा यथार्थ मृदु वन्हिना एतत्सर्पिनर पीत्वा स्त्रीषु नित्यं वृषायते
पुत्रा जनयते वीरौ मेधावी प्रय दर्शनः वंध्या च लभते गर्भ या च कन्या प्रसूयते
या चैव स्थिर गर्भा च मृत वत्सा चया भवेत् एतद्दैव कुमाराणां सर्वागग्रह मोक्षणं
धन्य यशस्यमायुष्यं कांतिं लावण्य पुष्टिदं ये चूर्णकेन प्रोक्ता एतस्यापि गुण स्मृता
|| 80 ||
॥ ४१ ॥
॥ ४२ ॥
॥ ४३ ॥
· ॥ ४४ ॥
॥ ४५ ॥
६। ४६ ।।
॥ ४७ ॥
959595969 ४०८ 95959695959
वजन
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S505121501501525 विधामुशासम PASSIRISTISEASESI
सकल्याण घृत श्चाऽयमऽश्चिन्या परिकीर्तिता
सेवनीयं सदास्त्रीभि रक्षणीयं प्रयत्नः ॥४८॥ मंजीठ, मधुक (महुवा) मीठा कूट त्रिफला, शक्कर, वच, अजमोद, दोनों हल्दी सिंही (छोटी पसर केटली) तिक्त करोहिणी (कटुकी) काकोली, क्षीर, काकोली असगंध की जड़ जीयक ऋषभक शंखपुष्पी संभालू के बीज दोनों कटेली नीलोफर चंदन मुनक्का पद्माख देवदारु इन सबको एक एक कर्ष प्रमाण लेकर चौवन कर्ष प्रमाण घी में पचावें। उस समय उसमें चार गुना दूध डालकर ठीक ठीक हलकी अग्नि दें पुरूष इस घी को पीकर स्त्रियों से सांड के समान आचरण करता है। ऐसा पुरूष पुत्रों को उत्पन्न करता है जो वीर विद्वान और सुंदर होते हैं। उसके संयोग से बंध्या और कन्या भी गर्भपाकर प्रसव करती है। जिसका गर्भ रुक गया हो अथवा जिनके बचे होकर मर जाते हैं वह सब इससे पुत्र प्राप्ति करती है इसी से बालकों के सब अंग ग्रह से छूट जाते हैं। यह धन यश आयु कांति लावण्य और पुष्टी देता है। जो भी कुछ गुण कहे जाते है (या कल्याण ने जो कहा है। वह सब इसके गुण हैं। इस कल्याण कारिधी को अभिनी कुमारों ने कहा है। इसको सदा सेवन करना चाहिये। और सियों की रक्षा करनी चाहिये।
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रक्षा मंत्रं वज़ स्फोटं किंरिवण्यां ख्यां विधाचापि
संजपांत ज्या: कंठे वद्धं सूत्रं गर्भ रक्षेत् निमलिनत रक्षा मंत्र यज्ञ स्फोटमंत्र और किंखिनी विद्या नाम की मंत्रों को भी मौलिके डोरे पर जपकर गर्भणी के गले में बांधने से गर्भ की रक्षा होती है।
ॐ रियलि रिवलि हुं फट ठः ठः रक्षा मंत्रः ॐ वज्र स्फोट ह्रीं स्वः फट स्वाहा वज्र स्फोटमंत्रः ॐ नमो किंरिवनी विद्ये असिता सिते उग्रचंडे महाचंडे भैरव रूपे ग्रहं बंधा बंधय कटिं बंधय बंधव हनु बंधा बंध्य आं नियोति शीयं किंरियनी स्याहा ॥ यह किंखिनी विद्या का मंत्र है।
शुक्रेन्दु श्वी स्वरैनाभि क्रमाद्वेष्टयं बहिईले: हंसःपद समायस्तै रंभोजातस्य चाष्टभिः ॥ यंत्र मे तद्भुतं नार्या भूर्जादि लिरिवतं भवेत्
गर्भ रक्षण कृत यद्वा कुड्यादि लिरिवताद्रिः ।। एक यंत्र में नाम को क्रम से शुक्र (व) इन्दु (इवीं) और १६ स्वरों से वेष्टित करके उसके बाहर चारों .तरफ आठ कमल पत्र बनाकर उसमें हंस पद लिखे । इस यंत्र को भोजपत्र पर लिखकर स्त्री के गले में अथवा हाथ में बांधने से गर्भ की रक्षा होती है। अथवा इस यंत्र को दीवार पर भी लिखने से रक्षा होती है।
ಚಡಚಣೆಗಳಿ? YogGಣದಡದಡಬಡಿದ
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252525252525) fanguine
बच्चा मर जाने वाली स्त्री के लिये रक्षा यंत्र
हंस:
हसः
4
भ
ॐ
H
आ
हंसः
देवदत्त
अ
रक्षायंत्र
就会
ये
37:
हंस:
नाम्र पूज्यो बहि लॅरिख्या स्तस्या धस्तान्नभ स्त्रयां सं सृष्टं दक्षिणे ताद्दागिनो वामे स विदंब :
बहि रष्टं दलं पद्मं किरातो दिग्दलेषु च अन्येषु दंडिनोतं स्था शक्तया त्रिर्वेष्टये द्वहि:
52525252525
एतद यंत्र शुभे स्तंत्रे गोर्मय स्वरसा निवबते सम्यग् विलिख्यतं भूर्जे पत्रे स्वर्ण शलाकया
हसः
॥ १ ॥
॥ २ ॥
113 11
विभ्रयान्मृत वत्सायाः कंठे सा पुत्र माध्नुयात् दीर्घायुषं श्रियं क्षेमं कांति शुभगतामपि
॥ ४ ॥
यंत्र के बीच में नाम लिखकर उसके तीन तरफ तीन तीन बिन्दु सहित व्योम (हं) लिखे अर्थात् हंकारों को दक्षिण और उसीप्रकार पूर्व तथा पश्चिम (उत्तर की तरफ मुँह करने से बायें हाथ की तरफ) में लिखे ।
23525852FL5«°PBಾಸಾದ
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35100513151315015515 विद्यानुशासन 20510051315015015ISI उसके बाहर अष्टदल कमल बनाकर उसकी दिशाओं के पत्रों में किराता हंसः) और दूसरों में दंडि अर्थात अंतस्थ (य र ल ब) लिखकर इस यंत्र के बाहर शक्ति (ही) से तीन बार वेष्टित करके क्रों से निरोध करें। इस यंत्रको अच्छे मुहुर्त में गोबर में उसी का रस मिलाकर उसी से भोजपत्र पर ,सोने की कलम से भली प्रकार लिखे। यदि इस यंत्र को बच्चे मरजाने वाली स्त्री के कंठ में पहनाया जाये तो यह उसको दीर्घायु लक्ष्मी कल्याण कांति और सुंदरता वाले पुत्र देता है।
12
दबदत
हसः
एतद् यंत्र द्वय स्योद्धार गर्भ वृद्धि वा गर्भ रक्षा की औषधि
बीज पुरस्ट बीजानि मूलं वा गर्भ वृद्धो पिबेदाज्टोन मूलं वा लक्ष्मणा हय गंधयो:
॥१॥ गर्भ वृद्धि के लिये बिजोरे के बीजों या जड़ को दूध के साथ पीयें अथवा लक्ष्मणा और असगंध की जड़ को दूध के साथ पीयें। SSIRSIOTSTRISISISTERSTATE ४११ ०352551035RISTRISTORIES
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9596959595151 विधानुशासन 2551
आम्रातक तरोर्मूलं पिष्टं शीतेन वारिणाः पीतं दिने दिने कुर्याद गर्भिन्यां गर्भ वर्द्धनं
॥ २ ॥
अंबाड़े की जड़ को शीतल जल से पीसकर प्रतिदिन पीने से गभिणी का गर्भ बढ़ता है।
गिरिकण्र्याः शिफा श्वेत कुसुमायाः कटि तटः धार्यमाण स्त्रिधा गर्भ स्थापनाय भवेत्प्रभुः
॥ ३ ॥
नीली कोयल और श्वेत फूलों की जटा को कमर में बांधने से स्त्री के गर्भ की रक्षा होती है। ॐ अमृते अमृतोद्भव अमृतवर्षिणि अमृत रूपे इदमौषधमऽमृतं कुरू कुरू भगवति विधे स्वाहा ।
दद्यात् अमृत रूपिण्या विधया सर्वमौषधं अनया मंत्रितं मंत्री गर्भ शूल विनाशनं
॥ ४ ॥
गर्भ विनाशन अर्थात् गर्भपात निवारण के वास्ते निम्नलिखित सभी औषधियाँ अमृतरुपी विद्या मंत्र से अभिमंत्रित करके देवें।
गर्भ शूल विनाशन अर्थात गर्भपात निवारण के वास्ते निम्नलिखित सभी औषधियां अमृतरूपी विद्या मंत्र से अभिमंत्रित करके देवें।
I
अश्व गंध्य शिफा क्वाथः कल्प संसाधितं
पिबेत् हैांग यीनं बनिता गर्भस्य स्थापनं परं
11411
असगंध की जटा के क्वाथ को कल्प के द्वारा सिद्ध करके गर्भिनी को पिलावे अथवा ताजे गाय का मक्खन स्त्री को गर्भ की उत्तम रीति से स्थिर करता है गिरने से बचाता है।
उदुंबर शिफा का निपीतं समशर्करं शालि पिष्टं भवेजं गर्भ विनिपात निवृतये
॥ ६ ॥
गूलर की डाढ़ी के क्वाथ में बराबर शक्कर और साठी धान की पिड्डी डालकर पिलाने से गिरता हुआ गर्भ रुक जाता है ।
क्षीरेण सघृतः पीतः कुलाल कर कर्द्दमः सहसा प्रति वनीयाद् गर्भ ध्वंसनं संशयः
॥७॥
कुम्हार के हाथ की कीचड़ को दूध और घी के साथ पीने से गिरता हुआ गर्भ तुरन्त ही रूक जाता है।
959695959 ४१२ 959595959
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SASARASOISSIRIS015 विद्यानुशासन 95131501501512135015
हिम गोस्तन गोपि भिस लोद्राभिः श्रितं पिबेत क्षीरं स शर्करंगव्यं गर्भ श्राव निवर्तनं
॥८॥ कपूर दाख गोरीसर और पठानी लोध को गाय के दूध और शक्कर के साथ पीने से गर्भ श्राव रूक जाता है।
के साथ पीले २ ॥४॥
तरूणेनालिकेरस्य पुष्प रौदंबरैः फलः अष्टश्च कल्कितः काथोगर्भध्वंस निवत्तये
॥९॥ एरंड नारियल के पुष्प गूलर के फल और अब्द (नागर मोथा) का कल्क बनाकर काथ करके पीने से गर्भ ध्वंस नष्ट हो जाता है।
लोयोत्पल तंदुल राष्टी हिम शारिबा सिता कल्कः
गर्भ ध्वसं शमयति परिपीतो योषितां सहसा ॥१०॥ लोध नीलोफर साठी थायल मुलहटी कपूर गोरीसर (शारिब) के कस्क को पीने से स्त्रियों का गर्भ ध्वंस तुरन्त ही शांत हो जाता है।
कल्किताभि स्तिल शिवाऽमृता नीलोत्पल यष्टिभिः
पीताभिध्वंसते स्त्रीणां गर्भ प्रथ्वसं भीरुतां ॥११॥ तिल काला धतूरा गिलोय नीलोफर मुलहटी के कल्य को पीने से स्त्रियों का गर्भ पात का भय जाता रहता है।
मार्कव स्वरसं गव्यं वीरं च सदशं पिबेत् अंतर्वली भवेतस्या नैव गर्भ परिच्युति
॥१२॥ कौंच का स्यरस और गाय के दूध को बराबर ले कर पीने से गर्भ अन्दर से यली हो जाती है। और गिरता नहीं है।
यष्यत्पल सिता चूर्णपानं गर्भ परिच्यती नियछेद् वेदनां द्रव्यैः परिषेकश्च शीतलैः
॥१३॥ मुलहटी मीलोफर और शकर के चूर्ण को गर्भपात का दर्द होने में दें। और ठंडी चीजों का लेप भी करें।
मागधी घातकी पुष्प प्रियंगु मधुकैः श्रितं क्षीरं सु शीतलं पीतं गर्भा श्रुति रूजापहं
॥१४॥ CASIOTSIDERISTICISTERSTORE ४१३ PADRISTICSSRASTRI52050
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PSPSP595PSPSX विधानुशासन 9595959SPSS
पीपल धाय के फूल फूल प्रयंगु (फूल फेन ) और महुवे को ठंडे दूध के साथ पीने से गर्भ गिरने का रोग देर हो जाता है ।
क्षीरेण कल्कितैः पीतै विष शालूक चंदनैः प्रशाम्यति क्षणादेव गर्भ प्रध्वंस वेदना
॥ १५ ॥
शुद्ध वत्सनाम विष जायफल और चंदन के क्लक को दूध के साथ पीने से गर्भपात का कष्ट तुरन्त ही दूर हो जाता है।
क्षीरेण गर्भ दोष हदा पीतः कनक बीज चूर्णः स्यात् वंध्या चूर्णे गर्भ स्थित्यै दधा सहा
पीतः
॥ १६ ॥
शुद्ध धतूरे के बीजों के चूर्ण को दूध के साथ पीने से गर्भ के दोष दूर हो जाते हैं और उसके साथ ही वांझ ककोड़ा ( वंध्या कर्कोटका ) के चूर्ण को दूध के साथ पीने से गिरता हुआ गर्भ रुक जाता है।
य ऐते विहिता योगा गर्भ व्यापन्निवर्त्तना तेषां प्रयोगः सर्वेषु मास्सु साधारणः स्मृताः
॥ १७ ॥
जो यह गर्भ के कष्टों को दूर करने वाले प्रयोग कहे गये हैं उनका प्रयोग गर्भ के सभी महिनों में साधारण रूप से करना चाहिये ।
पद्मकं चंदनो शीरं तारं सम भागिकं
शालूकं पद्मकं चैव नगरं कुष्टमेवच
॥ १८ ॥
पद्माख चंदन खस और तार (मोती या चांदी की भस्म) बराबर तथा जायफल पद्माख तगर और मीठे
कूट को
पद्मकं हस्त पिपलल्या पलाश बीजकं कंकेली मूल मेरंड कस्य च ( यहां एक पद घटता है। )
पद्माख गज पीपल पलाश के बीज अशोक मूल और एरंड की मूल को
॥ १९ ॥
उत्पलं पद्मकं चैव शर्करा घृत संयुतं अर्द्धश्लोक समाप्ता बुद्दिष्टा दश दश क्रमः
॥ २० ॥
नीलोफर पद्माख को शक्कर और घृत को मिलाकर देना चाहिये यह आधे आधे श्लोक की समाप्ति पर क्रम से दस दस कही गई है।
PSPSPSPPSPSPE ४१४ PSP5959
हाडक
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05015015015015105 विधानुशासन 9505015015015051
टोगामासेष्वं तं चन्नीनां गर्भतोदतुदः पिष्टापि च शीताभि शीरेणा लोडितानि मान्योगान
स्वः स्वः मन्त्र जप्तवानि पायोद गाभणी मंत्री ॥२१॥ यह एक एक मास के योग है जिनको पीसकर दूध में घोलकर नियम से गर्भणी को देना चाहिये। मंत्री इन मंत्रों को अपने अपने मास के मंत्रों जप जप कर गर्भिणी को पिलावें।
ॐ नमो भगवती विद्युत धारिणी गर्भ स्तंभिनी स्वाहा प्रथम मासस्य मंत्र। ॐ नमो भगवती गर्भाव धारिणी गर्भ विपते इमं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा द्वितीय मासस्य ॐ नमो भगवती जंभिके महाजंभिनी अति जंभे इमं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा ततीय मासस्य ॐ नमो भगवती गर्भधारिणी देव गंधर्व पूजिते जंभे इमं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा चतुर्थ मासस्य ॐ नमो भगवती विकट जयि जमिनी सर्वदुष्टनिवारणी ऐहि ऐहि इयं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा पंचम मासस्टा ॐ नमो भगवती आं ह्रीं को धरधारिणी वरदे ऐहि ऐहि इयं रक्ष रक्ष स्वाहा षष्ट मासस्य ॐ नमो भगवती आंहीं क्रों महा महा माये पेरण भणभणइमं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा सप्तम मासस्य ॐ नमो भगवती विछिके आं ह्रीं क्रों विलि विलि जंभे महाजंभे गर्भ श्राविणी ऐहि ऐहि इयं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा अष्टम मासस्य ॐ नमो भगवती जंभे मोहे महा मोहे स्वेत माल्याभरण भूषिते ह्रीं ह्रीं कों को ऐहि ऐहि इमं गर्भ रक्ष रक्ष स्वाहा नवम मासस्य
ॐ नमो भगवती जंभिनी के संमोहिनी हीं ह्रीं क्रों कों पर घर वियते विदारिणी ऐहि ऐहि इमं गर्भ रक्षा रक्ष स्वाहा ॥
CASIOTSEYSICISTRICISCE ४१५ PISO15105075CIRCISION
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S50150150151015105 विधानुशासन 95015015051215105
अतः प्रवक्ष्यामि गर्भ मासे बलिं क्रमात्
टाय दुक्तं भवे चाहं पूर्वशास्त्रे यथाविधि: अब क्रम से गर्भ के एक मास की बलि को पूर्व शास्त्रों के अनुसार विधि पूर्वक कहा जाता है।
॥१॥
गर्भिणी प्रथमे मासे याति विद्युतधारिणी दलं गाराम तैय कुमार सपर्ट हसि
||२||
धूप दीपादि संयुक्तं बलिं पात्रे निधारावै आवर्त गर्भिणी सायं पूर्वस्यां दिशि निक्षिपेत्
॥३॥ गर्भिणी के पास प्रथम मास में विधृतधारिणी नाम की देवी आती है। उसके लिये भात, खीर, कुल्माष (कुलथी) घी, दही, धूप, दीपादि संयुक्तं यलि संध्या समय निम्नलिखित मंत्र को पढ़कर पूर्वदिशा की तरफ रख दें। इस बलि को गर्भिणी पर पहिले उतारा करके मंत्र के साथ फिर रखे।
ॐ नमो भगवती विधतधारिणी गर्भस्तंभिनी ही ह्रीं क्रों को ऐहि ऐहि तिष्ठ तिष्ठ इयं बलिं गन्ह गन्ह स्वाहा।
पश्चातां गर्भणीमेनां पूजयेत्पुष्प वृष्टिभिः एवं पंच दिनं कुर्यात् मंत्री सन्मत्रं पूर्वकां
॥४॥ इसके पश्चात उस गर्भिणी का पूजन फूल बरसा कर करे और इस प्रकार अच्छे मंत्रों से मंत्री पांच दिन तक करें।
स्नातः सन्नव वस्त्राभ्यां परिदानो त्तरीय युक
स्वर्णगुलियं संयुक्तंः सन कुाद विधि मिमं सुधीः फिर वह बुद्धिमान स्नान करके नवीन धोती और दुपट्टे ओढ़कर सोने की अंगूठी पहिने हुए नीचे लिखी हुई विधि को करें।
चतुर्विशद् यतीन् सम्यग् भोजयेद्दिन सप्तकं । ततः शांति भवे तस्याः प्रजाचागुमति भवेत्
॥६॥ चौबीस यतियों को सात दिन तक भलीप्रकार भोजन करावें तब उस मास की विघ्न की शांति होती है। और संतान दीर्घायु होती है।
CTERISTRISTOTSTOTRICISES ४१६PISOISTRI5015255015015
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95959696991 विधानुशासन 959695959
गर्भाऽवधारिणी देवि द्वितीय मासि गर्भिणी गृहीते
ऽथ बलिं तस्या कुर्वीतैवं यथा विधिः
॥७॥
दूसरे मास में गर्भावधारिणीदेवी गर्भिणी के पास आती है उसके लिये नीचे लिखे प्रकार से विधि पूर्वक बलि दें।
माषाउने हमेश व गुई मिश्र तिलं तथा गंध पुष्पं स धूपं च सार्द्धदीपेन मंत्रवित्
॥ ८ ॥
कंसपात्रे समादाद्ये श्रीरावर्त्य बलिं क्रमात् कृत संमाज्जित देशे पुर मध्ये निशि क्षिपेत् ॥ ९ ॥ उड़द के अन्न का श्वेत भोजन गुड़ तिल चंदन पुष्प और धूप को दीपक सहित कांसी के बर्तन में रखकर इस मंत्र से तीन बार गर्भिणी पर उतार करके नगर के बीच में शुद्ध किये हुए रात्री के समय रखे और यह मंत्र बोले ।
'स्थान में
ॐ नमो गर्भावधारिणी ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं ऐहि ऐहि गर्भ रक्ष रक्ष इमं बलिं गृन्ह गुन्ह
स्वाहा ॥
देवपूजां पुरा कृत्वा मुनीनपि च भोजयेत एवं सप्त दिनं कुर्यात् प्रजा चैवं विवर्द्धते
॥ १० ॥
प्रथम देवपूजा करके फिर मुनियों को भोजन करयें इसप्रकार सात दिन तक करने से संतान की वृद्धि होती है।
तृतीये मासि गर्भिण्या गात्रं प्राप्स्यति भिका प्राप्ते तस्येव बलिं देयादेवं सर्वप्रयत्नतः
॥ ११ ॥
गर्भ के तीसरे मास में गर्भिणी के शरीर को जंभिका नाम की देवी ग्रहण करती है तब उसका प्रयत्न करके उस अवसर पर उसके ग्रहण करने पर उसको निम्नलिखित बलि दें।
पंच वर्ण युतं भक्तं पायसं दधिकं तथा कुल्माषं तिल चूर्ण च सघृतं शर्करान्वितं
॥ १२ ॥
धूप दीपादि गंधादा पात्रे हे मे निधीयतां त्रिवत्यं बलिं सूरिर्द्दक्षिणस्यां दिशि क्षिपेत्
25252525252525 ×· 25252525252525
॥ १३ ॥
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ST5RISTRISTOT5215105 विधानुशासन 95015RISIOSCISIONS पांचो रंगों का भोजन खीर दही कुलथी-तिल की पिष्टी का चूर्ण घृत और शकर सहित धूप दीपक सुगंधित चंदन फूलों सहित इस सब सामग्री को सोने के बर्तन में रखकर गर्भिणी पर तीनबार निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुवे उतारा करके पंडित पुरुष दक्षिण दिशा में इस बलि को रख दें।
ॐ नमो भगवती जंभिके महा भिनी अति जंभे गर्भ रक्षिणी ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि इमं बलिं गन्ह गृह स्वाहा
पूर्वोक्तन क्रमेणैव कुर्वतान्यत्समंत्रक एवं कृते तदा तस्या शांति भवतिनिश्चयः
॥१४॥ इसमें पूर्वोक्त क्रम से ही शेष क्रियाओं को भी मंत्र सहित करने से निश्चय से ही शांति हो जाती है।
चतुर्वे गर्भिणी मासे देवता गर्भ धारिणी गन्हीतेय बलिं तस्यै शुद्ध भक्तं घृतं दधिं
॥१५॥
माषान्नं धूप दीपाद्धि संयुक्तं बहु शर्करं पात्रे निधायता येतं त्रिरावर्त्य समंत्रक
॥१६॥
संध्यायामार्जनं कत्वा शांति मंत्र जपेत्सदा साऽयं सप्तदिनं चैव पूर्वस्यांदिशि निक्षिपेत्
॥१७॥ चौथे मास में गर्भधारिणी नाम की देवी आती है। उसकी बलि शुद्ध भोजन घृत दही उड़द के अन्न की मिठाई धूप दीपक आदि सहित बहुत सी शक्कर को एक बर्तन में रखकर, मंत्र पूर्वक गर्भिणी पर तीन बार उतारा करके, सायंकाल के समय स्नान करके सदाशांति मंत्र का भी जाप करता हुआ सातदिन तक प्रत्येक संध्या को उपरोक्त बलि को पूर्व दिशा में रख दें।
ॐ नमो भगवती गर्भ धारिणी देव गंधर्व पूजिते जंभे ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि इमं बलिं गृह गृह स्याहा॥
पूर्वोक्तेन कमणैव पूजयित्वाथ गर्भिणी
मुनीनाऽमपि च पूर्वोक्तान भोजयेन्मंत्रवित्सुधी: ॥१८॥ फिर पूर्वोक्त क्रम से पंडित पुरुष गर्भिणी की पूजा करता हुआ पूर्वोक्त मुनियों को भोजन करायें।
देवि विकट जया सा गन्हीते मासि पंचमे प्रजावतिं तदा तस्या क्लेशोपि बहुद्या भवेत्
॥१९॥
ಆಥ535259ಥg YQd YಚಡಪಡESS
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CHRISIRIDICI501505 विधानुशासन 950150150150350
ऊद पारा पैर या मार्य राया गुई कुल्माष पत संयुक्तं धूप दीपादिमिश्रितं
॥२०॥
पात्रे निधाय सौवर्ण त्रिरावत्य बलिं क्रमात निक्षिपेत्सश्चिमायांतं दिशिं सायं समंत्रक
॥२१॥ पाँचवें मास में विकट जंधा नाम की देवी गर्भिमी को ग्रासित करती है। और उससमय उसको कष्ट भी बहुत अधिक होता है। १९ भात, खीर, पके हुए उड़द, गुड़, कुलथी, घी, धूप, दीपक आदि मिलाकर एक सोने के बर्तन में रखकर गर्भणी पर मंत्र को बोलते हुवे तीनबार उतारा करके पश्चिम दिशा में संध्या समय रख दें।
ॐ नमो भगवति विकट जये जूभिनी सर्वदुष्ट निवारणी ह्रीं ह्रीं क्रों को ऐहि ऐहि इमं बलिं गन्ह गृह स्वाहा ॥
स्नात्वा नूतन वस्त्राभ्यां परिधानोत्तरीय युक मुद्रालंकृत हस्तः सन् कुर्वतयं यथा विधि:
॥२२॥
एवं भूतः स्वयं मंत्री विधीयादिन सप्तक
बलिं शांति भवेत् तस्या मुनीनपि च भोजयेत् . |॥ २३॥ स्नान करके नई धोती और चादर पहनकर हाय में माला लिये हुये इस विधि को पूर्ण करें। मंत्री इस प्रकार बराबर सात दिन तक यह विधि करे तथा बलिं दें। तो विघ्न शांत होते है तथा मुनियों को भी भोजन करायें।
षणमासे गर्भिणी याति देवता दर धारिणी जाटाते विक्रिया तस्याः प्रतिकारं करोत्विते:
॥ २४॥
पंच वर्णयुतं भक्ष कसरं माष चूर्णक पक्काम फलं संयुक्तं धूप दीपादि शोभितं
॥२५॥
मात्ते पात्रे समादाय कदली पत्र शोभितं त्रिरावर्त्य बलिं पक्षात्पचिमायां दिशि क्षिपेत् ।
॥२६॥ गर्भिणी के पास छटे मास में दर धारिणी नाम की देवी आती है वह भी अपने विकार उत्पन्न करती है उसका प्रतिकार इस प्रकार करे । पाँच वर्ण को भोजन कृसर (तल चांवल मिले हुये) उड़द का चूर्ण पका हुआ आम और धूप दीपक सहित शोभित बलि को। मिट्टी के बर्तन में केले का पत्ता बिछाकर रखे और गर्भिणी पर मंत्र बोलते हुए तीन बार उतार कर इस बलि को पश्चिम दिशा में रखे। SASIRI5015ODRI50150 ४१९ DISPRIOTSD150501505
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SSIODDISTOISO15005 विद्यामुशासन 95015015015015015 ॐ नमो भगवती दर धारिणी ही हींकों को एहि एहि वरदे इमं बलिंगन्ह गन्ह स्याहा ।।
पूर्वोक्तेन क्रमेणैव कुर्यादऽन्यत् समंत्रक एवं सप्तदिनं कुन्मुिनीनपि च भोजयेत्
||२७॥ शेष विधि को पूर्वोक्त क्रम से ही मंत्र पूर्वक सात दिन तक करें और मुनियों को भोजन करायें।
जंभिनी देवता याति सप्तमे मासिं गर्भणी ततस्तस्या विकारं च विदधाति न संशयः
॥२८॥ सातवें मास में गर्भिणी के पास जंभिनी नाम की देवी आती है और निसंदेह अधिक विकार पैदा करती है।
ऊदनं दधिकं चैव शद्ध भएं पतान्वितं कुल्माष तिल चूर्ण च सु पक्काम्रफलान्वितं
||२९॥
गंध पुष्पादि धूपादा बलिं पात्रे निधायवै त्रिरावय जपेन्मंत्री आग्नेयं दिशि निक्षिपेत्
॥३०॥ भात, दही, घी, मिला हुआ शुद्ध भोजन, कुलथी तिलों का चूर्ण पके आम फल सहित गंध पुष्प आदि तथा धूप युक्तं बलि को एक बर्तन में रखकर गर्भिणी पर मंत्र बोलते हुये तीन बार उतार कर अग्निकोण दिशा में रख दें।
ॐ नमो भगवतीजंभेनिके महामाये रणरण भणभण हीं हीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि गर्भ रक्ष रक्ष इमं बलिं गृह गृह स्वाहा।
पूर्वोक्तं क्रमतेः सूरिः पूजयेतां प्रजावती मुनिनपि यथा शक्ति भोजये दिन सप्तकं
॥३१॥ मंत्री पूर्वोक्तं क्रम से ही सात दिन तक गर्भिणी का पूजन करे और मुनियों को भी अपनी शक्ति अनुसार सात दिन तक भोजन करावें।
गर्भिणीमष्टमे मासे वितिका याति देवता . पळ माष गुडान्नं च शुद्ध भक्तं वृतान्वित
॥३२॥
कुल्माष कसरं चाथ गंध पुष्पाद्यऽलंकृतं निधाय रजत पात्रे बलिमावा पूर्ववत्
॥३३॥
दिशि दक्षिण पूर्वस्यां सांयकालेऽथ निक्षिपेत् शेषमन्यत् क्रमेणैव कारटोत् सकलं गुरू
॥ ३४॥ CASIRIDICISCESSISTRISTOT5 ४२० PSIOTSIRIDIOSDISEDICTES
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SAKCIDIOISIONSCISCE विधानुशासन HEIODICTIONARISODS आठवें मास में विछिका नाम की देयी गर्भिणी के पास आती है। उसके लिये पके हुये उड़द गुड़ अन्न घृत सहित शुद्ध भोजन कुलथी केसर चन्दन और पुष्प आदि से सजी हुई बली को चांदी के बर्तन में रखकर, पूर्व की तरह दक्षिण पूर्व दिशा में अग्निकोण में सायंकाल के समय गर्भिणी पर मंत्र बोलते हुए तीन बार उतारा करके रख दें। विद्वान मंत्री शेष विधि को क्रम पूर्वक पूर्ण करें।
ॐ नमो भगटाती तिलि विनि तिठिक्त महाजंभे गर्भ पाटिणी ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि गर्भ रक्ष रक्ष इमं बलिं गन्ह गृह स्वाहा ॥
गर्भिणी नवमे मासि जंभा प्रविश्यति धुवं गुड क्षीर समायुक्तं पंच भदं पतान्वितं
॥३५॥
तिल माषस्य चूर्ण च धूप दीपादि संयुतं पात्रे तामे समादाय वलिमावर्त्य पूर्ववत्
॥३६॥
दिश्येवोचोत्तरे पूर्वस्यां क्षिपद वलि मनाकुलः ततः पूर्व कमेणैव च कुर्यादऽन्यशेषक
॥ ३७॥ नवमें मास में जंभा देवी गर्भिणी के पास आती है। उसके लिये गुड़, दूध, घी, सहित पाँचो प्रकार के भोजन, तिल, उड़द का चूर्ण, धूप और दीपक सहित यली को तांबे के बर्तन में रखकर पहिले के सामन गर्भिणी पर तीनबार मंत्र बोलते हुए उतारकर और निश्चित होकर उत्तर पूर्व के अर्थात ईशान कोण में बलि को रख दें। तथा शेष विधि को पूर्वोक्तं क्रम से पूर्ण करें।
ॐ नमो भगवति जंभे मोहे महामोहे श्वेत माल्या भरणभूषिते ह्रीं ह्रीं कौं क्रौं ऐहि ऐहि इमं गर्म रक्ष रक्ष इटा बलि गह गड स्वाहा ।।
गर्भिणी दशमे मासे गन्हीते जमिनी गही शाल्यन्नं च पयोमुगपक माज्यान्वितं तथा
॥३९॥
कदली पनसाभ्राणं फलै रिलं सशर्कर सुगंधदीप धूपादि मिश्रितं बलि मुंत्तम
॥४०॥
हेम पात्रे निधाटयेतं बलि मावा पूर्ववत्
शांति मंत्र जपन् मंत्री पूर्वस्यां दिशि निक्षिपेत् 0505CSIRTSIDISCI525 ४२१ P1501501505DISTRI51015
॥४१॥
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SISTOISSUISIOSED विधानुशासन 751005DITICISEASOISI दसवें मास में गर्भिणी के पास जंभिनी नाम की देवी आती है। उसके लिये शाली चावलों का अन्न, (तुश सहित) दूध पकी हुई मूंग, घृत सहित केला, कटहल और आम के फल शकर सहित दीपक सुगंधित धूप आदि युक्तं उत्तम बलि को सोने के बर्तन में रखकर पहिले के समान गर्भिणी पर तीन बार मंत्र पूर्वक उतारकर शांति मंत्र जपते हुये पूर्वदिशा में रख दें।
ॐ नमो भगवती जंभिनि के संमोहिनी घर घर विदारय विदारय वियते विदारिणी ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि गर्भ रक्ष रक्ष इमं बलि गृह गृह ||
मासेतु पंचमे यागिभिण्या स्नान शुद्धया गर्भ रक्षा करी हैमी संकुला विधिना कृता
॥१॥
सर्वशांति विधानेन स्नानं कृत्या प्रयत्नतः गर्भिण्या धारणीयां तां वक्ष्येऽहं संकुलां कमात्
|२||
अपमृत्युंजय यंत्रं सर्वशांति कर तथा रक्षा यंत्रं च गुलिकां कृत्या तत् त्रिक्रमेवध
॥३॥ पांचवे मास में गर्भिणी स्नान से परिवत्र होकर विधि पूर्वक बनाई हुई गर्भ की रक्षा करने वाली सोने की शंकुला पहिन सर्वशांति विधान के द्वारा प्रयत्नपूर्वक स्नान करके गर्भिणी उस शंकुला को धारण करे। जिसका अब क्रम पूर्वक वर्णन किया जाता है। पहिले अपमृत्यु यंत्र का सब प्रकार शांति करने वाले शांति यंत्र एवं रक्षा यंत्र इन तीनों की चांदी में बनवाकर पास में रखकर धारण करें।
शंख चक धुणु बीण यऽसिशूल परश्वधान हलं चकं च मूशलं स्वस्ति रेवान् हिरन् मयान्
॥४॥ शंख चक्र धनुष बाण व तलवार शूल फरसा हल घा भूशल और सोने के बने हुये स्यस्तिक की रेखाओं को....
नवरत्नानि शार्दूल करजं च तथातिका पक्षियातिन्योदिवा भीत चकोरयो:
अहिं सिवानां मुंडाग्रं नवं शिशि शिरयामपि कृष्णाऽश्च कपि माजार नकुल ग्राम शूकरान्
॥६॥
CABIRKETRISTOTSIRIDICTIOKE ४२२ PIRTOISO505055050
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959695961 विधानुशासन 95959595959
तथा नवरत्न व्याघ्र नख धनुष की कोटि उल्लू और चकोर के स्वयं गिरे हुवे पंख, सर्प और गीदड़ी के मुख के अग्रभाग अर्थात दांत, खरगोस और मोर के नख काला घोड़ा बन्दर बिलाव न्योला और गांव के सूकरी का ।
अहत्वो पात्र अकंटकं कमो टिकेटकं वधका अस्त्रं तथा गर्भ वराटकमपि प्रियं
॥७॥
वर्धकास्त्रं तथा गर्भ वराट कमपि प्रियं आरोहा कर चूडाव्य विषकं दामणिनपि
के
बिना मारे हुये अर्थात् स्वयं गिरे हुए उनकी डाढे मच्छी की हड्डी कोटिक चक्र मालती के फूल कांटे घात करने के अस्त्रों तथा कोड़ों के अन्दर का भाग बहुत अधिक चढ़ने वाला विष और पशुओं के बांधने की रस्सी
ततस्तान्यशुद्धाबुं कुंभे दिनत्रयं मंत्रद्येद्विधिना शांति मंत्रे मंत्री विचक्षणः
|| 2 ||
निबंकांजी रकं कोल बीजास्थीनीत्य मुनुक्रमात सौवर्ण शंकुलाया से बोधयित्वा सुयोजयेत्
॥९॥
नींबू जीरा झाडी बोर की गुठली और हड्डियों के क्रम को लेकर रखे और शंकुला बनवा लें।
1180 11
तब उन सब वस्तुओं को शुद्ध जल से भरे हुये घड़ में रखकर चतुर मंत्री विधिपूर्वक शांति मंत्र तीन दिन तक पढ़े ।
आचाय नव वस्त्राभ्यां परिधानो तरीय भृत मुद्रादिभूषितः प्रीतः सकलीकृत विग्रहः
॥ ११॥
उससमय आचार्य नवीन धोती और चादर पहिन कर अलंकार धारण करके प्रेम से सकली करण क्रिया को करें।
ततः शुद्धां समायाय पुष्पाक्षत सुशोभितो हे पात्रे क्षिपेत्सम्यक सर्व मंगल संयुते
॥ १२ ॥
तब उस समय शुद्ध द्रव्य को लाकर पुष्प अक्षत से सुशोभित सब प्रकार के मंगल से युक्त सुंदर सोने के बर्तन में रखे ।
9596959519 ४२३ PS959695959 Po
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©SP5959595951 विधानुशासन 55
ततो विमल नक्षत्रे शुभे राशीव च स्थिते माहेन्द्र मंडलं चूर्णः कृत्वा कोणेषु निक्षिपेत्
॥ १३ ॥
तब अच्छे नक्षत्र की अच्छी राशी में आने पर चूर्णो से माहेन्द्र मंडल बनाकर उसके कोणों में निम्नलिखित वस्तुएं रखे ।
७
शहरक
पूर्ण कुंभान् सुवर्णादि लोह रत्नादि गर्भितान् नववस्त्र वृत गलान, प्रदीपान् स शालिकान्
॥ १४ ॥
सोने आदि लोह धातुओं और रत्न भरे हुए गले पर नये कपड़े से लिपटे हुवे ऊपर धान और दीपक रखे हुये घड़ों को माहेन्द्रमंडल के कोणों में रखे ।
मध्ये निधाय येत् पीठं शुद्ध वस्त्रयुगावृतं तत्रासये लसत क्षौमां सर्वाभरणभूषितां सर्वमंगल संपन्नप्राग्मुखीं गर्भिणी क्रमात्
॥ १५ ॥
उस मंडल के बीच में शुद्ध वस्त्रों से लिपटे हुवे आसन रखे उसके ऊपर शोभित वस्त्र पहिने हुए सब आभूषणों से ही हुई सबके मंग से युकमी तो बिठायें।
ततः पंच बलिं दद्यात् लाजा पूपादि मिश्रितं चतुर्द्दिक्षु क्रमैणैव पुर मध्ये तथैव च
॥ १६॥
तब क्रम से चारों दिशाओं में और नगर के बीच में धान की खील और पुवें आदि मिलाकर पांच बलि दें।
तत्रं तं रक्तं वर्णाद्वांय त्रिरावत्यं बलिं क्रमात्
पूवस्यां दिशि सूर्यस्य गृहमध्ये निवेशयेत्
11 219 ||
तब लाल रंग की तीन बार गर्भिणी पर उतारकर पूर्व दिशा में सूर्य के गृह में रखे ।
कृष्णवर्ण बलिं तद्वत क्षेत्र पालस्य मंदिरे | दक्षिणस्यां दिशि क्षिप्तं क्षिपेत्सम्यग्यथा विधि
॥ १८ ॥
फिर काले रंग की बलि को उसी प्रकार विधिपूर्वक दक्षिण दिशा में क्षेत्रपाल के मंदिर में रखे ।
प्रतीच्यां तु तथा कुर्यात् परीतं यक्ष धामनि पीतं बलि मुदीच्यांतु निदध्या ध्रुव कूलके
252525252525P: --- P5252525252525
॥ १९ ॥
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CISIOI501501510652015 विधानुशासन 2050550551015123512558 उसीप्रकार पश्चिम दिशा में यक्ष के मंदिर में और उत्तर दिशा में ध्रुव के मंदिर में पीली बलि को विधि पूर्वक रखे।
स्थापयेत् रक्तं चूर्णतं सुसंध्यै पुरमध्यमे एवं बलि विद्यानेन तर्पयित्वा महाग्रहान
॥२०॥ लाल चूर्ण की बलि की शांति के वास्ते नगर के बीच में रखे इसप्रकार बली के विधान से महाग्रहों को संतुष्ट करें।
आचार्यः स्वयमादाय शंकुला सार्वकार्मिकां सन्नंगल बदायु मम गुजयो स्तथा
॥२१॥ आचार्य सब काम करने वाली शंकुला को स्वयं लेकर अच्छे मांगलिक मंगल स्तोत्र पढ़ता हुआ दोनों भुजाओं के बीच के भाग में।
आनाभि लंबयेन्मंत्रमऽपराजितकं जपन जिन गंधोदकं शांति मंत्रै सिंचन यथाविधि
।। २२॥ नाभितक लटकाकर अपराजित मंत्र को जपता हुआ और उसको जिनेन्द्र भगवान के गंधोदक और शांति के मंत्रों से विधि पूर्वक सींचता हुआ।
दादिभिः प्रयंजीत माहिषं सुफलपदं तत्राचार्य सत्कुयात् हेम वस्त्रादिभि धुवं
॥२३॥ दाभ आदि से अच्छे फल को देने वाले भैंस के दूध का प्रयोग करावें तब आचार्य का निश्चय से स्वर्ण वस्त्र आदि से सत्कार करे।
प्रीतहि तरिमन तत्कर्म सर्वच सफलं भवेत्
॥२४॥ क्योंकि उसके प्रसन्न होने पर सब कार्य सफल हो जाते हैं।
एवं पुण्यवती नित्यंबिभर्ति वस शंकुलां सर्व मंत्रोषधापिष्टां सर्वग्रह विनाशिनी
॥२५॥ इसप्रकार पुण्ययाली सब मंत्र और औषधियों से युक्त तथा सब ग्रहों को नष्ट करने वाली सोने की शंकुला को गर्भिणी धारण करती है।
तस्या भूतपिशाचादि देवाच्चोरादि मानुषात् करिशार्दूल सिंहादि मृगान् सनितस्तथा
॥२६॥
CASIO510150150150105) ४२५ P1519551015131512751015015
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CISTRISTOTREYSIS विधानुशासन RECISIORSCIRCISIOTES उसके धारण करने से गर्भिणी को भूत पिशाच आदि देवों चोर आदि मनुष्यों हाथी बाघ सिंह सर्प आदि पशुओं तथा उसमें
जंगमात्स्थायराच्चापि विषादऽग्नि जलादितः
महाभूताद्भयं नास्ति गर्भ व्यापादिका स्तथा जंगम या स्थावर विष से अग्नि या जल से तथा अन्य गर्भ को नष्ट करने वाले महान भूतों से भय नहीं रहता है।
दोषान नश्यति रोगाश्च सर्वे नित्यं न संशयः निराबाधं प्रसूते च प्रजा चायुष्मती भवेत्
॥२८॥ उसके गर्भ तथा गर्भिणी के सब दोष और रोग निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं और यह बिना किसी बाधा के दीर्घायु वाली संतान उत्पन्न करती है।
॥२९॥
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन् विधेयात् शंकुला विधि इस वास्ते सब प्रकार के प्रयत्न से शंकुला की विधि को अवश्य करें।
॥ सूतिका ग्रह रक्षा विधान ॥
कल्पिते सूतिका गेहे मध्ये संमाय गोमौः माहेन्द्र मंडलं कृत्या शालि पूगान् प्रसार्य च
॥१॥ जिस घर को सूतिका ग्रह बनाना हो उस कल्पित सूतिका ग्रह को जमीन पर न गिरे हुवे गोबर से लीपकर तथा माहेन्द्र मंडल बनाकर धान के ढेर को बिखेर कर यहां निम्नप्रकार के घटों की स्थापना करें।
श्वेत सूत्रावृत्तान् शुद्धान् स्वच्छांबु परिपूरितान सप्तलोहाष्ट वक्ष स्थक नव रत्नादि गर्भितान्
॥२॥ श्वेत धागे से लिपटे हुये शुद्ध स्वच्छ जल से भरे हुये सातों धातु लोहा संयुक्त तथा आठों वृक्षों की छाल और नय रत्नों से भरे हुवे।
नववस्त्रावृत गलान् बीज पूरापितान् नान साक्षतान् गंधपुष्पान्न धूप दीपादि पूजितान्
॥३॥ ಇದರಿಂದ ¥R೯ ಗಡಿಬರಿಥಣಿ
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elseRec
Pahi
विधानुशासन
95959595
गले पर नया वस्त्र लपेटे हुए मुख पर विजोरा रखे हुए अक्षत पुष्प नैवेद्य धूप दीपक आदि से पूजे
हुवे ।
दश कुंभान् निधायैतां शांति मंत्रेण मंत्रयेत् एक रात्रं त्रिरात्रं वा दश दिक्षु यथाक्रमं
|| Y ||
दस घड़ों को रखकर उनपर एक रात्रि तीन रात्री या दश रात्री तक क्रम से शांति मंत्र से अभिमंत्रित
किये हुए।
तद्विगात् घटांभोभिः सिंच मंत्रेण मंत्रवित् दिशां वंधं च कुर्वीत रक्षा दिक्षु विनिक्षिपेत्
11411
इन दिशाओं में रखे हुए घड़ों को चतुर मंत्री मंत्रपूर्वक जल से सींचता हुआ सब दिशाओं में रक्षा करने के लिये दशों दिशाओं का बंधन करे ।
एवं रक्षान्वितं गेहं त्यक्त दुष्टाग्रहादिकं गर्भिणीं प्रविशन्मासि दशमें सुख सूतये
॥६॥
इसप्रकार रक्षा किये हुए दुष्ट ग्रह हटाये हुए उस घर में गर्भिणी को सरलता से बच्चा उत्पन्न कराने के लिये दसवें मास में लायें ।
इति सूतिका ग्रह रक्षाविधानं
दिशि विदिशि तद्भयांतर्वर्त्तिन्यादिशतु पृच्छ्रकं मंत्री क्रमेश बालंबाला नपुंसकं पूर्ण गर्भिण्याः
॥ १ ॥
यदि कोई पुरुष गर्भस्थ संतान का फल पूछने आये तो यदि यह पूछने वाला दिशाओं की तरफ मुख करके खड़ा हो तो लड़का होगा । यदि यह विदिशाओं की तरफ मुख किये हुए हो तो लड़की होगी । यदि यह दिशा और विदिशा के बीच में मुख किये हुए हो तो नपुंसक संतान होगी ऐसा बतावे
विलोमोच्चारितो नाभिमंत्रितं तिलजन्मवत् मृत्युंजयेन त्वक सेको मूर्द्धा कृच्छेणासावयेत
॥ २ ॥
सौ से एक तक संख्याओं को उल्टा बोलने से जन्म के समय तिल को अभिमंत्रित मृत्युंजय मंत्र से करके इसके द्वारा शरीर की खाल का सैक करने से गर्भ का कष्ट दूर हो जाता है।
ॐ फणि फणि उत्पदहथ मुंच मुंच ठः ठः
969595959595 ४२७ P1959595959595
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959696959951 विधानुशासन 959590595195
अनेन अयुत जप्तेन यक्षी मंत्रेण मंत्रितं औषधं सफलं वा स्यात् पीतः सद्यः प्रसूयते
॥ ३ ॥
इस यक्षी मंत्र को दस हजार बार जप करके इससे अभिमंत्रित की हुई औषधि को पिलाने से बच्चा हो जाता है।
तुरन्त
सिंचन गर्भ संवैश्म्ये सलिलै स्तेन मंत्रितैः तन्मंत्रेण च नियंति विषमाः शल्य कंटका:
॥ ४ ॥
इस मंत्र से अभिमंत्रित गरम जल से गर्भ को सींचने से विषम कष्ट तुरन्त दूर हो जाता है
क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्ष
एतेन मंत्रितं पीतं जल पूतेन वात्मना सुरख प्रसूतये यद्वा भवेन् मंत्रितौषधं
॥५॥
इस मंत्र से अभिमंत्रित जल अथवा औषधि को पवित्र मनसे पीने से आसानी से बच्चा हो जाता है ।
ॐ एरंड वने काका गंगा तीरे समु स्थितादूतः पिबतु पानीयं विशल्या भवतु गर्भणी स्वाहा
एतन्मंत्रित संभोरुद्धश्वासोद्गमस्य दूतस्य करे संपुटोदरगतं कृत्वा मंत्र जपेन्मंत्री
श्वास निरोध व्याकुल देहो यावत् सत्तज्जलं मुंचेत् सा प्रसवे वेदनात निर्गत शल्या भवे तावत्
॥ ६ ॥
॥ ८ ॥
प्रसव वेदना का समाचार लाने वाले दूत की अंजुली में जल देकर उसे श्वास रोकने की आज्ञा देकर मंत्री उपरोक्त मंत्र को जपना आरंभ कर देवे ।
भस्मना सूतिका नाम तत्व भुपूर मध्यगं लिखितं दर्शितं सद्यः फल कादौ प्रसूतया
॥७॥
श्वास को रोकने से व्याकुल शरीर वाला वह दूत जितनी देर में जल को भूमि में गिरा दे उतनी देर में ही गर्भनी का प्रसव का कष्ट दूर हो जाता है।
VSM505
118 11
भस्म (राख) से गर्भिणी के नाम को लिखकर उसके चारों तरफ ह्रीं और फिर पृथ्वी मंडल लिखकर गर्भिणी को दिखावे तो तुरन्त ही बच्चा हो जाता है ।
959595959PS ४२८ 95959595969
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मंगल हर नयनो दधि नवद्धि सप्त ऋतुरूपं मदनशराः कोष्टेषु नय सु लिखिता घट वदने खटिकया प्रदक्षिणतः ॥ ८ ॥
अभ्यर्थ गंध पुष्पै: प्रसूतिकायाः पुरः स्थाप्य दृष्ट मिदं सूतिका चक्रं तस्या प्रसूत्यैस्यात्
८
विद्यानुशासन 959595295
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७
२
॥९॥
मंगल ८ हरनयन ३ उदधि ४ नय ९द्धि २ सप्त ७ ऋतु ६ रूप १ मदन शरा ५मंगल ८ हरनयन शिवजी के नेत्र ३ समुद्र ४ नव ९ द्वि २ सप्रसात ऋतु ६ रूप १ मदन शरा काम के बाण ५ को खडिया से क्रम पूर्वक मिट्टी के घड़े पर चारों तरफ नौं कोठों में खड़िया से लिखे।
इस मंत्र को गंध पुष्प धूपादि से पूजकर गर्भिनी के प्रसूति ग्रह में स्थापित कर दें । इस यंत्र को देखते ही गर्भिणी के बच्चा हो जाता है।
सप्तांग शशि भृत् पूर्व रूद्र पंच चतुस्तिथीन् ऋतु रंध कला नेत्र विश्वाऽष्ट दश पावकान्
9595951951999 ४२९ 959695959595
112013
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SI5015DISIONSION505 विधानुशासन USD510351315015OTI
लिखे रवटिकया चक्र कलशास्य प्रदक्षिणं द्दष्टं स वज रेस्वागं तवाभिण्याः प्रसूतये
॥११॥
| १३| ८ | १९
सप्त ७ अंग १२ शशि भृत १ पूर्व १४ रुद्र ११ पंच ५ चतु ४ तिथीन १५ ऋतु ६ रंध्र ९ कला १६ नेत्र र विश्व १३ अष्ट ८ दश १० पायकान ३ अग्नि यंत्र के आकार में मिट्टी के कलश के चारों तरफ खडिया से लिखे इस यंत्र को देखते ही (जिसके वज़ रेखा भी हो यंत्र के बाहर ) तुरन्त ही बधा हो जाता है इस यंत्र की धूप दीप अक्षतादि से पूजन करना जरूरी है।
इदमेवावृतं चकं सव्ये घंटादि विद्यया
लिरिवतं स्तंभयेत् सर्वान उपसर्गा न्मसूरिका ||१२॥ या इसी यंत्र के चारों तरफ बायें से घंटाकर्ण विद्या मंत्र लिखने से सबप्रकार के उपसर्ग मसूरिका आदि कष्टों का स्तंभन होता है।
घंटादि विद्या ॐघंटा कर्णमहावीर सर्वभूते हिते रत उपसर्ग भयं घोरं रक्ष रक्ष महाबल स्वाहा
॥ १३ ॥ घंटादि विद्या
योगेश्वराय गोत्रे अमृताय नमः ऐषो अयुत जपात् सिद्धो रोद्र स्वाल दलादिषु विलोम लिरिवतो मूर्दागतः सधः प्रसूति कृत
॥१४॥ यह मंत्र दस हजार जपने से सिद्ध होता है इस मंत्र को रौद्र वाले पत्ते आदि पर उलटा लिखकर गर्भिनी के सिरपर रखने से तुरन्त ही प्रसव हो जाता है। CTERISTOTSIDDRISTRISOTE| ४३० PTSIRIDIOESOTRORISTOTRA
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RSCIRCIRCISTRICT विद्यानुशासन HEIDOSCIRCISESS
करं कतां प्रयत्नेन गो मूर्तिपरिवेशिनः स्थापितेन भवेन्मा गर्भ शल्यं विनिर्गमः।
॥१५॥ हड्डी मात्र बाकी रहे हुए गो के मस्तक को समीप रखने से गर्भशूल तुरंत दूर हो जाता है ।
मूल गृहीतमतवातं प्रपुन्नाट मद्यो मुरवं दर्शितं सध: ऐवस्वादअनायासा
पसूतये ॥१६॥ पंवाड को जड़ से उखाड़ कर नीचे को मुखसानी करके गर्भिनी को दर दिग्याने से दुरन्त ही प्रसव हो जाता है।
महिषी सपिंषा युक्तो यष्टी मला नौ पिबेत् अंगना गूढ गर्भाया सा विशल्या भवेत् ध्रुवं
॥१७॥ भैंस के घी के साथ मिलाकर पिलाये हुए मुलेहेटी और चंदन गूढ गर्भ वाली का भी तुरन्त ही कष्ट दूर कर देती है।
कवोष्णे महिषी क्षीरे साष्टाशाज्ये प्रसूतये यष्टि चंदनयो कल्कं पलार्द्ध मिति पिवेत्
॥१८॥ थोडे गरम भैंस के दूध में आठवां अंशघृत और चार तोले मुलहटी और चंदन के कल्क को मिलाकर पीयें।
पत्रं फलं च पलाशं पीतं दुग्धेन कल्कितं प्रसूति वेदना क्रांतां पाठयेत् वेदना पहं
॥१९॥ पलाश (ढाक) के पत्ते और फल के कल्क को दूध के साथ पीने से गर्भिणी का कष्ट तुरन्त ही दूर हो जाता है।
हिंगु सैधंय योः पीतं रथार्या कथितय रजं स्त्रियः प्रसूतयेत्सद्यः प्रसूतव्यसना तुरं
॥२०॥ हींग सेंधव नमक और खारी के नमक को काय करके पीने से स्त्री के प्रसूति का कष्ट दूर होकर शीघ्र ही प्रसय हो जाता है।
भूर्तेक्षु कांड स्व रसो नालिकेर फलांबुच अकथं जननं पीतं कुर्वते अविलंबतं
॥२१॥ लिसोड़े (ल्हेसवे) गन्ने का रस नारियल के फल का पानी पीने से प्रसूति का कष्ट बिना विलंब किये अर्थात तुरन्त ही दूर हो जाता है। CTSIDISTOIEDDICICIC05215 ४३१ PISIRSIRISTRICISIOSSIOSS
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SSCISSISTORICIS05 विधानुशासन VISIRIDICISIOSDISEKSI
वलेन्द्र वारुण्ये रंड वश्चिकाली महोषधैः
सिद्धा यवागु पीतास्यान्मूढ गर्भ प्रति क्रियां खरेंटी गाडर दूब रंड और विछया धास को सिद्ध करके इनका ययागु पीने से छिपाया हुआ गर्भ भी प्रकट होकर प्रसवं हो जाता है।
॥२२॥
क्षुद्र विदारया कल्कं जग्धं सद्यः सूतिं नार्याः कुर्यात् स्वरसेन इच पुरवायां कृतान्मधु करस्य वा मस्थान्नस्टा वीणां गूढ गर्भ समुद्भवं
॥२३॥ क्षुद्र विदारी कन्द के कल्क को खाने से स्त्री को तुरन्त प्रसव हो जाता है। इक्षु पंखा (सरफोंका) के रस से और मधुकर (अपामार्ग ) के बनाये हुए नस्य को सूंघने से शूट गर्भ का भय तुरन्त दूर हो जाता है।
वासा पत्रांबुना पिष्टावासा मूल त्वगस्थि ना नाभेरधो भवेत स्त्रीणां प्रसूत्री वेदनां बिना
॥२४॥ अरसे के पत्ते के जल से अरडूको उसी जाइ छाल औ. लफटी को पीसकर ली की नाभि के नीचे लगाने से स्त्रियों को बिना कष्ट पाये ही प्रसव हो जाता है।
वारि पिष्ट विशाला मूलभाज्येन संयुतं अधोमुरवमधो नाभिंलिप्तं सद्यः प्रसूतिकृत्
॥२५॥ इंद्रायण की जड़ को पानी में पीसकर इसमें घृत मिलाकर नीघे को मुख किये हुए नाभि के नीचे लेप करने से सरलता से प्रसव हो जाता है।
तुव्यां वा लांगलिक्या च मूलं तोटोन पेषितं अधो नाभेरधो लिप्तं सुरय प्रसव मावहे
॥२६॥ कड़वी तुंबी या लांगलिकी जड़ (कलिहारी की जड़) को पानी से पीसकर नाभि के नीचे लेप करने से सरलता से प्रसव हो जाता है।
पाठा परूष हलिनी का कान का शिफा पृथक पिष्टा नाभेरऽधो लिप्ता गर्भ नि:क्रमणप्रदा
॥२७॥
CSCRIOTSCIECISCE015 ४३२P/505RISIODIOSCRICE
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SASTRISCISSISTA5105 विधानुशासन 35015015015015015 पाठा लता फालसे हलिनी (लांगली) मकोय काकोशिफा (हुलहुल) सूरजमुखी वायस जघा) की जटा को पृथक पृथक पीसकर नाभि के नीचे लेप करने से प्रसव हो जाता है।
पिष्टं गज मल छत्रं पप्यण छद एव था। अयो नाभःसमा लिप्तम दारवेन प्रसावयेत
॥२८॥ हाथी की लीद छात्र (छितोना) पयस्या (क्षीर काकोली) के पत्रों को पीसकर नाभी के नीचे लेप करने से बिना कष्ट के प्रसव हो जाता है।
रुजा फलेन्दु सिद्धार्थ शालिमूले विलेपनं कल्किते राज पत्रेण गर्भ सपदि पातयेत्
॥ २९॥ रूजा फल कपूर सफेद सरसों और चायलों की जड़ राजपत्र राई के साथ कल्क बनाकर लेप करने से शीघ्र ही गर्भ गिर जाता है।
तितं सबसला मूलं लिपत्सलिलं कल्कितं परितो योनिमेतेन सद्यः सूति रुदाहृता
॥३०॥ तिल वसलामूल (पोई की जड़ उपोदिकी) के सहित जल में बनाये हुए कल्क को योनि के चारों तरफ लेप करने से शीघ्र ही प्रसय हो जाता है।
स्वर सगर्भसं संगे विशालाया निवेशयेत् अंतोनि तदेव स्याद् गर्भशल्या विनिर्गमः
॥३१॥ इंद्रायण के स्वरस को योनि के अन्दर डालने से गर्भ का कष्ट तुरन्त ही दूर हो जाता है।
पक तिलोद्भवं ख्या- विशल्या स्वरसेन च हस्ति गो परा संगौ गुह्य नाभि करांधिगं
॥३२॥ कलिहारी के रस तथा तिल के तेल में पके हुए हस्तिकंद (हस्तकंद) और अपरासंग की नाभियोनि हाथ और पांव के लगाने से प्रसर हो जाता है।
रक्तिकायाः शिफाश्वेत गवाक्ष्या वा समर्पिता मुखे गर्भाशय स्याशुगर्भ पाताय जायते
॥३३॥ रक्तिका (गुंजा की जटा) सफेद गवाक्षी (गरडुबे) को गर्भाशय के मुख पर रखने से शीघ्र ही गर्भ गिर जाता है।
SSCADDISCCSIRISTOTO ४३३ PSIDASICTERISTICISIOTSTRIES
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CISIO501512151015TOST विद्यानुशासम ASTRIOTSTO51005015
प्रपुन्नाट शिफां किंचित क्षुणा यौनौयताभवेत् क्षुणा सतैला वर्षाभू शिफा वा सुरव सूतये
॥३४॥ पवांड की जड़ तथा क्षुणक (अरीठा) को योनि में रखने से अथवा शुणास तेल (अरीठा का तेल) को और सांठी के तेल की योनि में रखने स सरलता से प्रसव हो जाता है।
यौनो न्यस्तं च पाठाया मूलं मायूर कस्य वा प्रस्तावरोळ कृष्ण सकृच्छप सवामपि
॥३५॥ पाठ अथवा अजमोद के मूल को योनि में रखने से अत्यंत कष्ट से पीड़ित स्त्री को भी सरलता से प्रसय हो जाता है।
रंभा जंघा तिलोशीरिपामार्ग पारिभद्र तरुणां
हेम्र कारंड स्य च मूलं सूत्यै पृथक कटि बद्धां ॥३६॥ केला काक जंधा (हुल हुल) तिल खस चिरचिटा नीम धतूरे का पौदा अलग अलग कटसरया झिंगी= कुरंड की जड़ को कमर के बांधने से प्रसव हो जाता है।
शीरी हिरण्य पुष्पा सुवर्चला य यांधि पामी तले
संघार्यते प्रसूति स्तस्या स्टा न्निमिष मात्रेण । ॥३७॥ शीरी (मूंज) हिरण्य पुष्पा सुवर्चला (अलसी) को पैर नीचे रखने या लगाने से क्षण भर में ही प्रसव हो जाता है।
करे सिरसि वाऽथ पुरखा गर्भ निर्गमयेद्
पता यद्वा मूर्द्धनी विन्टास्ता द्विश स्तु क्षीर विंदवः ॥३८॥ पुंखा (सरपुंखा ) को हाथ या सिर पर रखने से अथवा गाय के दूध की बूंदों को सिर पर रखने से प्रसय हो जाता है।
पुरु भूर्ज फणि त्वग भियौंनो धूपः प्रसूति कत्
(राजिका भी पाठेहे सर्जिका सर्प निम्मौकाभ्यां भवेत् भगे ।।३९ ।। गूगल भोजपत्र सांप की कांचली की योनि में धूप देने से अथवा सज्जी सांप की कांचली की ही योनि में धूप देने ही प्रसय हो जाता है। SSIRIDDESIRISESSIRIDIOM ४३४ DISTRISTOR51015IOTECISCESS
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CEOIROIDIOSI0505 विधानुशासन P151050150505ICISM
वचोग्राति विषा सर्प निर्मोकि धूपनं भगे। करंज तेल संयुक्त गर्भमाश्वेव पातयेत्
॥४०॥ वच नकनिछकनी अतिविष (अतीस) सर्प की कांचली में करंज के तैल को मिलाकर योनि में धूप देने से शीघ्र ही गर्भ गिर पड़ता है।
पिंडी कर तरोः पुष्पै शोषितै सर्पिराद्रितैः यूपैकतो भगे गर्भपात नाय प्रकल्पते
॥४१॥ पिंडी कर (पिंडी खजूर -मेनफल) वृक्ष के फूलों को सुखाकर फिर घी से गीला करके भग में धूप देने से गर्भ गिर पड़ता है।
सिद्धाधाजन सुध्ध गुनुल क्या लाक्षा मयूरछदैः केशोशीर भुजंग कृति सहित धूपो गृह निर्मितःस्त्रीणां लुपति मूढ गर्भ जनितां वाधा महीन वृच्छिकानारयन्
भूत गणानपिशाचनि करान गेहा निरस्य त्यपि ॥४२॥ सफेद सरसौं पुष्पांजन गूगुल यच पीपल की लास्य मोर के पंख्य बाल खस सर्प की कांचली को मिलाकर दी हुई धूप स्त्रियों के गूढ गर्भ (गर्भ प्रसव के समय बच्चों के टेढे बांके हाथ पैर वगैरह लटके रह जाने को गूढ़ गर्भ कहते है) कष्ट सर्पो विच्छुओं चूहों भूतों और पिशाचों आदि को घर से दूर भगाते है।
पीतं पुष्प लतापत्रं पिष्टं तदुल वारिणा अपरां पातये छीली मूलं मूत्रेन वाधवा
||४३॥ पुष्पलता के पत्तो चांवलों के पानी से पीसकर पीने से अथया शीली की जड़ को गोमूत्र के साथ पीने गर्भ नीचे आ जाता है।
चर्म पूति करंजस्य वायसो दुंबर स्या वा पिष्टं तुषां
अंभसा पीतं सऽपरां पातयेत् क्षणात् ॥४४॥ पूति करंज की छाल मकोय अथवा गूलर की छाल को पीसकर पानी के साथ पीने से तुरन्त गर्भ गिर जाता है।
॥४५॥
लंबास्थि सर्प निर्मोक तेल सिद्धार्थकै :
कृतः पातयेत् अपरां धूपो गर्भाशय मुखेऽपितं । SHRIDASIRIDIHIRIDIDIEOTE ४३५ PISISTORISIRISTOTSOTERIES
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CASISISTRISTD35105505 विधानुशासन ISIOTSICISTRICISION कड़वी तुंबी को लकड़ी सर्प कांचली सरसों का तेल की धूप को गर्भाशय में देने से गर्भ तुरन्त नीचे आ जाता है।
राजी तुंब सर्पत्यक शीरी भू सर्ज निमितौ यौनौ धूपौ लेपणद भापरा पातरोतां राधालाभं
||४६॥ राई तुंबी सर्प कांचली (शीरी (मूंज) रामसर सज (राल) की धूप और लेप को योनि में रखने से गर्भ के गिरने का लाभ होता है।
प्रसूता के योनि कष्ट दूर करने के उपाय
याव सूकः कयोष्णन सर्पिषा सलिलेन या पीतः
सूति काया शूलमुल्कापातव्यना कुलं जवा स्यार को थोड़े गरम घी या गरम पानी के साथ पीने से गर्भ का कष्ट फौरन दूर हो जाता है।
॥४७॥
मार्गस्य वा नवाया या स्वरसः स्मर मंदिरं निवेशित:
प्रसूतानां नाशयेत् योनिवेदनां ॥४८॥ अपामार्ग (लाल चिडचटा) पुनर्नवा (लाल साढी) के स्वरस को योनि में रणने से योनि का दर्द दूर होता है।
कापसि तूलं कार्पास बीजं तैलेन संयुतं
कापसास्थि रजो मिश्रो योनिस्थोयोनि शूल नुत ॥४९॥ कपास की रुई बिनोला (काकड़ा) तिल का तेल और कपास की लकड़ी की चूर्ण मिलाकर योनि में रखने से योनि का कष्ट दूर हो जाता है।
सतरूण तैल स्थूल पिंडी या मंडिनी भवास पता
धृतलिप्त योनिनिहितः सूताया योनि शूल हरः ॥५०॥ एरंड का तेल- इंडोली का तेल छुहारे सहित या मुंडिनी भया (मुंडी) की घी में मिलाकर योनि में लेप करने से योनि का कष्ट दूर होता है।
पुष्पैः कासम- वृक्षस्य कंकेलि वकुलस्य च
मुहरुद्विर्त्तनं नार्या शुष्का संजायते भगा ॥५१॥ Q555 v3 YENUESಘಡ
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052525252595_fangmen Y52525252525
फूल 'अशोक मोलश्री का बार बार लेप करने से योनि तंग होती है। शुष्क हो जाती है।
केशर के
शाल्मली वृक्ष निर्यास धावत्या यंड साधितं प्रक्षालनेन योनिनां धूपादयति गाठतां
॥ ५२ ॥
शेमल का गोंद घातकी (धाय के फूल) के काठे से धोने से और उसी की धूप से देने से योनि गाठी और तंग हो जाती है।
बेगा फल दलैः स्वेदो योनि रंधा न्निर स्वति वंध्या कंद प्रलेपो या गुदभ्रंशेप्पयं विधिः
॥ ५३ ॥
बेगा फल के पत्तों के लेप से योनि का पसीना निकल कर तंग हो जाती है तथा बांझ ककोडी की जड़ का लेप भी संकोचन के योग गुदभ्रंश (गुदा फट जाने) के भी प्रयोग है।
तक्रेन माधवी मूलं पीतं मध्यस्य कर्षणं प्रातः करूकंप या भक्षिता सह सर्पिषा
1| 48 ||
माधवीलता के मूल को छाछ के साथ पीने से अथवा प्रातःकाल घृत के साथ कसेरू कंद को खाने से भी मध्य योनि तथा गुदा जुड़ जाती है।
कुसरं सप्तं क्षीर शर्कराभ्यां समन्वितं स्तन्याभिवृद्धये धाय्या भोजनं परिकल्पयेत्
॥ ५५॥
दूध बढाने के वास्ते बच्चे की माँ को घी दूध और शक्कर से मिली हुई खिचड़ी का भोजन दें!
यष्टि मधुक संयुक्तं गव्य क्षीर सशर्करं
पीत्या धात्री भवेद्भूरि स्तन्य पूर्ण पयोधरा
॥५६॥
मुलहटी तथा शक्कर मिले हुये गाय के दूध को पीने से धाय के स्तन में दूध बहुत अधिक बढ़ जाता है।
दुग्धेन सितया पीतं शालि तंदुलजं रजः बिदारी कंद चूर्णेवा विदध्यात्स्तन्य वर्द्धनं
॥ ५७ ॥
शक्कर मिले हुए दूध में शालि चांवलों के आंटे को अथवा विदारी कंद के चूर्ण को पीने से दूध बढ़ जाता है।
252525252SR50G -- PS252525252525
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CTERISTS1501501505 विधानुशासन 75101505DIDIO51015
शिरवंडिका शिफा कल्कं तांबलेन निसेवितं
साद्ध स्त्रियाः प्रसूताया स्तन्य वृद्धिः क्षणं भवेत् ॥५८॥ शिखंडिका (गुंजा चिरमी) की जड़ के कल्क को ताखूल (पान) के साथ सेवन करने से स्तन का दूध क्षणमात्र में बढ़ जाता है।
आम मूलः साहं वाटी पदने घतः स्तन कीलं विनश्यति स्तन्य वद्धिश्च हीयते
||५९॥ आराम मूल को सात दिन तक मुँह में रखकर चबाते रहने से पक्का थनेला भी दूर हो जाता है।
निशाकुमारी कंदाभ्यां विसाला शिफया
अथवा स्तनदोष समुत्पन्नं हन्या लेप स्तन व्यथा ॥६०॥ हल्दी और घृतकुमारी (गंवार पाठा) के कंद से अथवा इंद्रायण की जड़ के लेप से स्तन की बिमारियाँ दूर होकर कष्ट मिट जाता है।
यो जायते स्वकृत पुण्य विपाक पोत निस्तीर्ण गर्भ विपदांऽबु नियि: कुमारः गृन्हति जन्मदिनतः प्रभृति गृहा स्तं तन् मोचनाय यतनं रची त्सुमंत्री
॥ १॥ जो बालक अपने किये हुए पुण्य के फल से गर्भ के कष्ट से छूट कर जन्म लेता है। दुष्टग्रह उस पर जन्म से ही आक्रमण करते हैं विद्वान मंत्र शास्त्री उन ग्रहों को दूर करने से उपाय करें।
इति गर्भोत्पत्ति विधानं नाम षष्टः समुदेश
අටකටට හලලලන් වගටමකවකටුසු
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C510150150150505 विधानुशासन VSICTI5015555
| बाल ग्रह चिकित्सा |
सातवां समुदेशः ।। श्री पार्श्वनाथाय नमः।
अथातः सं प्रवक्ष्यामि सिद्ध बाल चिकित्सितं यात्राणो न विसामान न पायले
॥१॥ अब बाल ग्रह की सिद्ध चिकित्सा का वर्णन किया जाता है। जिससे रक्षा किये बिना बालकों की रक्षा नहीं हो सकती है।
जातकर्म च रक्षा दंतोत्पत्ति फलानि च
देव्याश्च दिन मासाब्द बलिं चाऽत्र क्रमानेयत् ॥२॥ इसमें जात कर्म (बालक पैदा होने के समय का कार्य) बालक की रक्षा दांत निकलने का फल तथा देवियों के दिन मास और बरसों की बलि का वर्णन क्रम से किया जावेगा।
जाते के पुनमंत्री तैल मेकत्र भाजने जलं चान्यत्र निक्षिप्य सप्तादाय दस क्रमात् ।
॥३॥ मंत्री बालक के पैदा होने पर एक बर्तन में तैल और दूसरे में जल को रख कर सात दिन तक निम्नलिखित क्रिया करे।
ऐकैकं तेल निक्षिप्तां दापयित्या प्रदक्षिणां बालस्योपरि षटकत्वा दशामाययंतजले
॥४॥ एक कपड़े की यत्ती को जो पहले से ही तैल में रखी हुई हो प्रदक्षिणा देकर और उसको बालक के छह बार उतारा करके उस जल में घुमाकर
क्षिपेत्सप्त दशा श्चैदस्ता प्रजायुष्मती भवेत् ततो ग्रहेभ्यो रक्षार्थ मंत्रज्ञः प्रयतेत्स च
॥५॥ दीपक की बत्ती के साथ साथ ही बाहर फेंक दे। इससे संतान अधिक आयुवाली होती है फिर मंत्री बालक को ग्रहों से रक्षा करने के लिये प्रयत्न करें। 851005015015251005105४३९ P15100510150150150151058
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SCRISISTERI50151057 विद्यानुशासन STRESIDISTRASIRISDIEI
पक्षिना यत्तिता धूपः पक्ष वीक्षण.भागज:
जातमा सप्त दिवसात् कुमारमभि रक्षति पक्षियों के दाहिने भाग के पंखो से तुरन्त के बालक को सात दिन तक धूप देने से उनकी रक्षा होती है।
हिंगू ग्राबह निग्गुडिनिंब पत्र पूरैः कृतः शिशो शय्या तलो पाते धूपो बालग्रह्मपहं:
॥७ ॥ हींग बच मोर की पूंछ के चंदया निर्गुडि और नीम के पत्तों की बालक की चारपाई के नीचे धूप देने से बाल ग्रह नष्ट होते हैं।
लाक्षाद्वि हिंगु येणुत्वक मांसि निर्माल्य राजिभिः
न केशनिंब पत्रै श्च धूपौ बालग्रहापहं : ॥८॥ दोनों लाख हिंग बांस की छाल मांस निर्माल्य (देवपूजन का चढ़ा हुआ द्रव्य) राई आदमी के शिर के बाल और नीम के पत्तों की धूप से बालक के ग्रह नष्ट होते हैं।
निंबोग्रेमनरयाऽहि त्वक द्वि हिंगवाज्योनुविजलैः
ससेव्य विहितो धूपः सर्वदुष्ट बालग्रहापहः ॥९॥ नीम उग्र (वच-लहसून) हाथी के लागून सर्प कांचलीोनों हींग और हींगडा घृत और विजलै की सेवा सहित धूप देने से सभी दुष्ट अथया बालग्रह नष्ट होते हैं।
पतार्क दुग्ध कुनटी विश्व मेषज लेपन कृतस्त् भूतग्रह व्याधि विग्रेभ्योस्त्रायते शिशु:
॥१०॥ घृत आक का दूध कुनटी (मेनसिल) और विश्व भेषज (सोंठ) का लेप करने से भी सभी भूत ग्रह ब्याधि विघ्नो से बालक की रक्षा होती है। (विघ्नेभोय विषेभ्यों- विनों , विषों से , जहर से)
गो गजेन्द्र विषाणाग्र यत मत समयेतया पुंडो रोचनया कप्तःशिशो हभयापहः
॥११॥ गाय के सींग हाथी की सूंड के अग्रभाग पर लगी हुई मिट्टी तिलक पुष्प और गोरोचन के लेप करने से सभी बालग्रहों का भय दूर हो जाता है।
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Bಡಣದಡದ
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950505050505_fugated Y52525252525
आतं शिरिव शिखा मूलं भानु स्वर्भानु संगमे कंठे बद्धं कुमारस्य स्यात्सर्वग्रह दोष हृत्
॥ १२ ॥
मथुर
शिखा की मूल (जड़) को सूर्य और राहु के संगम अर्थात् सूर्यग्रहण के अवसर पर लाकर बालक के गले में बांधने से ग्रह के सभी दोष दूर होते हैं।
संधारणं सदा कुष्ट शंखो त्पल वचायसां कुमारस्यं भवेत्भूतग्रहसंभूति भीति हृत्
॥ १३ ॥
कूठ संख नीलोफर वच और लोहे के धारण करने से बालक के सभी दोषों का भय दूर होता है ।
दंता स्तदैव जाता वामा सेवा प्रथर्मोशिशोः भवति तत् कुलस्य व निखिलस्य विनाशिनः
1188 11
यदि बालक दांत निकले हुए पैदा हो और उसके पहले मास में दांत निकल आवे तो बालक सम्पूर्ण कुल को नष्ट कर देता है।
मासे जाता द्वितीये रिमन् कुमारस्याथ वा पितु नाशमा गामिनं दंता सूचयंति सुदुस्तरं
॥ १५ ॥
बालक के दूसरे मास में निकले हुए दांत पिता की अथवा बालक की अत्यंत शीघ्र नाश को प्राप्त होने की सूचित करते हैं।
तृतीय मासि जायंते यदि दंताः शिशों भवेत् पितामहस्य मातु र्यापितु वपिस्यस्य चा मृति
॥ १६॥
यदि बालक के तृतीय मास में दांत निकले तो पितामह (बाबा) माता या पिता या स्वयं अपनी (बालक) की ही मृत्यु हो ।
उत्पद्यते शिशोर्मासे च चतुर्थे रदना यदि
अग्रजस्य भवेन्मृत्यु भगिने यस्य वा तथा
॥ १७ ॥
यदि बालक को चौथे महिने में दांत निकले तो अपने से ऊपर ऊपर के बड़े भाई या भानजे की मृत्यु हो जाती है।
पंचमे मासि संजाता नाशयंति शिशो द्विजाः पित्रा युपार्जितान हस्ति तुरंगकरभादिकान्
959695969
॥ १८ ॥
४४१ 95959596959
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250152350505125 विधानुशासन ASRISTOTSTRISTOISIOISS बालक को पांचवे मास में निकले हुए दांत पिता आदि के कमाये हुए हाथी घोड़े तथा ऊंट आदि का नाश करते हैं।
षष्टे मासि कुमारस्य यदि दंता समुद्रताः उच्छेदं सर्वनाशं च कलहं च वितन्वते
॥१९॥ यदि बालक के छटे महिने में दांत निकले तो उच्छेद तथा सर्वनाश होकर खूब कलह होती है।
सप्तमे मासि द्दश्यते यदि दंताः शिशो स्तदा गोदासि दास संबंधि धन धान्यादि नश्यति
||२०|| यदि बालक के दांत सांतवें महिने में दिखलाई दे तो गौदासी तथा दास संबंधी धनधान्यादि नष्ट करते हैं।
दाँतों से होने वाले अनिष्ट की शांति के उपाय
होमं कुर्यात् पथरमार्ग समिद्भः स धूतौदनै अछिन्न दौः सु दिने पायसेन च मंत्र वित
॥२१॥ इसके वास्ते मंत्री मार्ग (अपामार्ग) की समिधाओं चायल घी बिना टूटे हुवे डाभ और खीर से शुभ दिन में मंत्र सहित होम करता हुआ।
वामि अष्टोत्तर शतं शांतः शांति मंत्रभि मंत्रिते: स्नपनं वानु कुवीत् कुमारस्य पहं पथि
॥२२॥ शांति मंत्र को १०८ बार अभिमंत्रित जल से बालक को तिराह मार्ग में तीन दिन तक स्नान करावें।
दंतं कृत्वा सुवर्णन दत्वा विप्रोत्तमाय तां स्थापटोदऽथवा मंत्री तइंतं देवतालये
॥२३॥ तथा सोने के दांत बनवाकर यातो उसको उत्तम उत्तम ब्राह्मण को दान करदे या उसे किसी देवमंदिर में स्थापित कर दे।
पुनश्च शिशु मष्टम्यां चतुर्दस्थामथापिवा
कतोपवासं संस्थाप्य यावत्षोडश वत्सरं फिर अष्टमी या चतुर्दशी को उपयास करके चालक को सोलहवें वर्ष तक
॥ २४ ॥
SERISTRISRTERSISTERTE ४४२ P751015IRTICISIPTERISTOTRY
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ISSI5015015015105 विधानुशासन 7510050ISTRISSISTS
दैवतायै तपिस्विन्यै ब्राह्मणा तपोभूतै जायतराय वा पुर्व प्रधात् जल पूर्वक
॥२५॥ देवता तपस्वी ब्राह्मण मुनि अथवा किसी दूसरी जाती वाले को जलपूर्वक दें।
कत्वैज्यां जिननाथ स्यपंच वाद्य युतान पुनः दंतान स्वर्ण मयान्टाक्ष्यै प्रदद्यात्त पूजटोच्चतां
॥२६॥ तथा जिनेन्द्र भगवान की पूजन करके पांच आदि लेकर भोजन सामग्री और सोने के बने हुए दांत यक्षिणी को देकर उसका पूजन करें।
भोजयेद्यमिनं शांतिः श्राविकां श्रावकानपि: दोषैः
शाम्येत्सएतस्मिन् विहितै शांति कर्मणी: ॥ २७॥ तथा मुनियों श्राविकाओं आर्यिकाओं व श्रावकों को भोजन करावे इस शांति कर्म के करने से दोष शांत हो जाते हैं।
सितस्य सिंटु वारस्य मूलं प्राग्दिर समुद्भवं कंठे बद्धं कुमारस्य दंतोत्पत्ति रूजापह
|॥२८॥ पूर्व दिशा में उगी हुई सफेद सिंदुवार की जड़ को बालक के कंठ में बांधने से दांतो से पैदा हुये दोष शांति को प्राप्त होते हैं।
शंखपुष्पी यचा निंबाक्षिरिणी नां शिफा:पथक
दंत जन्म रूंजा हन्युः शिशुनां कलितागले ॥ २९॥ शंखा हूली वच नीम अक्षीरणी (खिरणी) की जटाओं को पृथक पृथक लेकर बालकों के गले में बांधने से दांतो को रोग नष्ट हो जाते हैं।
॥ बुद्धि वर्धक दवायें। लिहन क्षीरेण तैलेन सर्पिषा वारजी कृतं षयान्निरिवल ग्रंथान धारयेच न विस्मरेत्
॥३०॥ दिन के समय दूध तेल या घी के साथ चूर्ण की हुई षड्या( सफेद वच) को सेवन करने से सम्पूर्ण मंथों का स्मरण कर सकता है और कभी नहीं भूल सकता?
यष्ट पतेन षङ्गयां हिरण्यं च समं लिहन
बालः सुरासुर गुरुं पूजो द्विधया धिया CHHOTISIOTSIOISTOTRIOTSTATE ४४३ P5105IDISTRISTRISIOTSOTES
॥३१॥
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SASRISTRASIRIDIOTECT विद्यानुशामद RSCIECTRICISCIECTOR बालक घिसे हुवे सोने के साथ बराबर लिये हुंदक्य को पीछे वाले डरे उमाम मुसिको वृद्धापी और शुक्र का पूजन करे।
पीत्वा क्षीरमनंतरं सित रुजाया शंरव पुष्पी रजो यो लिह्या द्विधिना शिशप्रतिदिनं हैटांग बीनान्वितं तस्यास्यात्कवितादि कादि महती बुद्धि गंभीर स्वरो
वीय दुर्जय मायुर प्रतिहतं सौगंध्या हवं वपुः ॥३२॥ जो बालक शंख पुष्पी के चूर्ण को एक रात के रखे हुये दही के मक्खन के साथ प्रतिदिन चाटकर ऊपर से दूध पीता है उसकी बुद्धि कविता आदि के करने से प्रवीण होकर गंभीर स्वर दुर्जय शक्ति खंडित नहीं होने वाली आयु और शरीर से सुंदर सुंगध हो जाती है।
धात्री सुवर्ण योश्चूर्ण यो लिह्यात पृत मिश्रितं कुमारो धिषिणांत्तस्य धिषणस्टो च वर्धत
॥३३॥ जो बालक आवंले के फल और सुवर्ण (धतूरा) अथवा सुवर्ण भस्म के चूर्ण घी के साथ मिलाकर चाटता है । उसकी बुद्धि वृहस्पति के समान बढ़ जाती है।
यष्टिवा शंख पुष्पी वा पीत्वाक्षीरेण कल्किता
बालानां महतीं मेयां कुर्यात् याचच शोधयेत् दूध में कल्क की हुई मुलहटी या शस्त्र पुष्पी को पीने से बालकों की बुद्धि खूब बढ़ती है और वाणी शुद्ध होती है।
पतेन ताम्र कांडायाश्चूर्ण ब्राहयाः प्रगे लिहन बाही वा के वलं खादन्नतिशते बहस्पति
॥३५॥ ताम्र कांडी (लालचंदन) तथा ब्राह्मी के चूर्ण को घी के साथ चाटकर या केवल ग्राही को ही खाने से बालक की बुद्धि बृहस्पति से भी बढ़ जाती है।
बाह्मया रसेन दुर्गंध फल चूर्ण समं शिशोः भावितः सपिषा लीठो मेघा कृत दुग्ध भोजनः
॥ ३६॥ दुर्गंध फल चूर्ण (कांदा) को ब्राह्मी के रस की भावना देकर घी के साथ बालक को खिलाकर दूध का भोजन कराने से बुद्धि बहुत बढ़ती है।
CROPISTORICKERKARIDIOK४४४ P25T0505CISIONSCIENCER
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P505295
15951 विधानुशासन 259595955
ब्राह्मी तुरंग गंधा षथा विश्व कुष्टकणा चूर्णाः लीढा प्रातः सघृतो ख्यातो मेघाभि वृद्धि कर
॥ ३७ ॥
ब्राह्मी असगंध सफेद वच सोंठ मीठा कूठ पीपल के चूर्ण को प्रातः काल घी के साथ चाटने से बुद्धि का बहुत विकाश होता है ।
ब्राह्मी श्वेत वचा सितराजी स्वामार्क विल्व पुष्पाणां चूर्ण स पंचगव्यं प्रातः लीट्वा भवेत श्रुतंद्रकं सफेद सरसों (राई) काला आक और बिल्व के फूलों के चूर्ण को गोबर मूत्र) के साथ चाटने से बड़ा भारी पंडित हो जाती है।
ब्राह्मी श्वेत व के दूध घी दही
त्रिवृतो कृमि हृद्र व्योषोग्रा वरा पटु निशा सिता पिष्टवा ब्राह्मी रसे सर्पिषा धिकं विवर्द्धयेत् धियं
शूंठी द्विनिशा दीपक जीरक रूक यष्टि मधु कणो ग्राणां चूर्ण सघृतं लिहतः सरस्वति वसति रसनाया ॥ ३९ ॥
सोंठ दोनो हल्दी अजमोर जीरा कुछ मुलहटी शहद पीपल अजवाइन के चूर्ण को घी के साथ चाटने से जिल्हा में सरस्वति वास करती है।
॥
|| YO ||
त्रिवृतो (निसोथ ) कृमिद्र (वाय विडंग) व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) उग्रा (यच) वरा (त्रिफला हरड़ा, वहेडा आँवला) पटु (खारी नमक) निशा (हल्दी) सिता (मिश्री) को ब्राह्मी के रस में भावना देकर घी से साथ सेवन से वृद्धि होती है।
कुष्टाश्वगंध सैंधव पिपली मिरचं द्विजीरकं शूंठी पाठा जमोद सहिता समभाग विचूर्णति बचया
३८ ॥
पंच गव्य (गाय
शिगु व्योष वचा पाठा विजया लवणौः । पलै अजाक्षीर घृतं प्रस्थं सिद्धं सारस्वतं घृतं
॥ ४१ ॥
त्रिकृतो (सहेजना) व्योष (सोंठ मिरच पिपल) यच पाठा लता विजया (भांग) नमक चार तोले बकरी के दूध में सिद्ध किया हुआ एक प्रस्थ घृत डाला हुआ सारस्वत घृत है ।
प्रातः सित सर्पिभ्या विभीतक फल मात्र लेह्य सप्ताहं पथ्यासी किश्वर मधुर स्वरो भवति
959596959595
॥ ४२ ॥
॥ ४३ ॥
४४५ 1519519519595959
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95959595
विषानुशासन 95959595
द्विगुणी कृतेतु तस्मिन्मेधावी वाक्यटुश्चेव त्रिगुणी कृतेतु तस्मिन ग्रंथं सहस्रं पठत्यांशु
मीठाकूट, असंगध, सैंधव, पिपली, काली मिरच दोनो जीरे, सूंठ, पाठालता अजमोद के साथ बराबर श्वेत वच का चूर्ण मिलाकर प्रातः काल मिश्री और घृत मिलाकर एक बहेड़े के फल के बराबर की मात्रा में मिलाकर चाटकर सात दिन तक पथ्य आहार का भोजन करने वाला किन्नर के समान मीठे स्वर वाला हो जाता है। उसी को चौदह दिन करने से महाबुद्धिमान बोलने में चतुर होता है। तथा इक्कीस दिन तक सेवन करने से एक हजार ग्रंथों को भी शीघ्र ही पढ़ लेता है।
कष्ट देने वाली देवियों का वर्णन
॥ ४४ ॥ ।
आरभ्य जन्म दिवस द्दिन मासाब्दपूतनाः गृहंत्या द्वादशाब्दान्नारी राषोडशान्नरान्
॥ १ ॥
जन्म के दिन से लगाकर दिन महिने और वर्ष पर्यंत आरंभ करके पूतना स्त्री बालक को बारह वर्ष तक और पुरुष बालक को सोलह वर्ष तक कष्ट देती है।
तासां नामं च कृत्यं च बलि मंत्र तथा परं मंत्र च विधिवत्प्रोक्तं मातशुनु तत पृथक
॥ २ ॥
उनके नाम क्रियायें और बलि मंत्र तथा दूसरे मंत्रों का अब विधिपूर्वक वर्णन किया जाता है । उनको पृथक पृथक सुनो।
मंदना सा च भद्रा च घंटाली वाहिसी तथा शामी च ममंण चैव साहटा मधशासना
शास्त्री दशानना चैव महात्म्या काक नासिका साहिकाऽप्यऽथ चामुंडा कुमारी च महेश्वरी
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
वारुणी प्रथवी चैव वापणी व कपोतिनी डाकिनी च जटाधारी महानंदी तथांबिनी
95959525252525 *** P5252525252525
॥५॥
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CSCISIOTSTI5015125 विधानुशासन VIDI5015250SIDESI
निधना समसेना च जन्यसारी जटाधरी शक्तिशा निर्जटा चेति त्रिंशद्दिन पिशाचिका
॥६॥ मंदनासा १ भद्रा २ घंटाली ३ वाहिसी ४ शामी ५ मर्मण ६ सुभटा ७ मद्य शास्ना ८ शास्त्री ९ दशानना १० महात्मया ११ काकनाशिका १२ साहिका १३ चामुंडा १४ कुमारी १५ महेवरी १६ यारूणी १७ पृथ्वी १८ वापणी १९ कपोतिनी २० डाकिनी २१ जटाधारी २२ महानंदी २३ अंबिनी २४ निघना २५सभसेना २६ जन्यसारी २७ जटाधारी २८ शक्तिशा २९ निजटा ३० तीस दिन तक कष्ट देने वाली पिशाचिनी कहलाती है।
प्रथम वर्ष के बारह महिन में कष्ट देने वाली १२ पिशाचिनों के नाम
रेवती यामिनी चैव परामुख्यऽझुंजानना दीनास्टार घोषा वनवासी समुद्रिका
॥७॥
सकला बंधु मुख्या च चपला च तथा ग्रही एता मासेषु बालानां ग्राहिकास्त पिशाचिका ।
॥८॥ रेवती १ यामनी र पराङ्मुखी ३ अंबजानना ४ दीनास्या ५ घोषिणी ६ वनवासिका ७ सामुद्रिका ८सुकुला ९ बंधमुख्या १० चपला ११ ग्रही १२ यह बालकों को बारह महिनों में दुख देने वाली १२ पिशाचिनी है।
प्रथमा रक्त कंठी च सौमीस्या च चंचला तथा दोहेष्टी रोहिणी चैव उग्र चामुंड नासिका
॥९॥
राक्षसी सरसाला च चंडा च भूण कोकिला निर्द्धना कामुका चैव भैरवी यायिनी तथा
रोरवी चेति निर्दिष्टा वर्षे शासन देवता गृहत्ये तानिज काले बाला स्तांनटाते बलात्
॥११॥ पहिली रक्त कंठी १ सौमी २ चंचला ३ दाहेष्टी ४ रोहिणी (स्वेनिका) ५ उम्र चामुडा (कुष्मांडी राक्षसी ७शरसाला ८ चंडी ९ कोकिला १० निर्धना १२ कामुका १३ भैरवी १४ वाधिनी१५ रोकी १६ यह सोलह वर्ष की शासन देवियां कही गई है। यह देवियां अपने अपने वर्ष में (दूसरे से सोलहवें) तक बालकों को बलपूर्वक पकड़कर कर दुःख देती है।
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9595905951 विधानुशासन 959595266
प्रथम दिन की रक्षा
सद्यो जातां प्रजां काले मंदजना सा भिधा ग्रही गृहाति चे द्विका रास्ते भवत्ये तत्तदाधुयं
॥ १२ ॥
तुरन्त के उत्पन्न हुए बालक को मंदनासा नाम की देवी पकड़ती है। यदि यह देवी पकड़ तो निश्चय से नीचे लिखे हुए 'विकार उत्पन्न होती है।
ग्रीवायाः पृष्टतो भंगो लालाश्रावो मुखादपि भंजनं चोद्ध गात्राणं स्तनाभि ग्रहणेनवै
॥ १३ ॥
गर्दन के पीछे का भाग टूट जाता है मुँह से लार बहती है नाभि तक के ऊपर का अंग टूटने लगता है और बच्चा स्तन भी नहीं लेता है ।
तस्या प्रभूत गंधादि पंच वर्णान्न शोभितं क्षेत्रपालाग्रह तो दद्या द्वलिं मंत्रेण मंत्रवित्
॥ १४ ॥
मंत्री देवी को के बहुत सी गंध आदि पाँचो रंग के अन्न से शोभित बलि को नीचे लिखे मंत्र से अभिमंत्रित करके दें।
ॐ नमो मंदना से रावण पूजित दीर्घ केशि पिंगलाक्षि लंब स्तनि शुष्क गाये ह्रीं ह्रीं
क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि इमं बलिं गृन्ह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ॥ मंजिष्टां तगरं लोद्र हरितालं स चंदनं
जलेन पिष्टवा लिंपेतां ततो मुंचति साग्रही
॥ १५ ॥
मंजीठ तगर लोघ हरताल चंदन को जल से पीसकर बालक के अंग पर लेप करने से वह सही बालक को छोड़ देती है ।
दूसरे दिन की रक्षा
यह जातां प्रजां भद्रा गृन्हीते यदि सा ग्रही रोदन' स्यान्मुहुः क्षीर वमनं ज्वर रोगतां
॥ १६ ॥
माषानं लाज धान्ये च पक्क शाकं जलाशये निद्यादऽपरान्हे तु बलिं मंत्रेण मंत्र वित्
959595959595595195959595
॥ १७ ॥
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CSIRSSCRIOTSID505 विधानुशासन ISIOISODSIOTSCISION
पिपली जीरकं वन्हि मपामार्ग तथैव च गौमूत्रेणैव सं पेष्य तेन बालं प्रलेपयेत्
नरव केशेन: गौश्रंगे डूपये च यथा विधि: ततो भद्रा विमुंचेत्तं भद्रं भवति ततक्षणात्
॥१८॥ यदि बालक को दूसरे दिन भद्रा पकड़ कर कष्ट देती है तो वह बालक बार बार रोता है। दूध की वमन करता है, उसको बुखार आ जाता है। उसके लिए मंत्री उड़द का अन्न औक धान्य (चायल) की खील
और पके हुवे शाक की बलि को दोपहर ढलने पर तालाब में मंत्र पूर्वक देये। पीपल जीरा यन्हि (चित्रक भिलावा) चिडचिटा को गोमूत्र में पीसकर बालक के शरीर पर लेप करे। तथा व्याघ्र नख बाल गाय के सीगों की धूप विधिपूर्वक दें। तब छोड़ देती है और बालक तुरन्त ही अच्छा हो जाता
तीसरे दिन की रक्षा ॐनमो भगवते भने रावण पूजिते दीर्घ केशि पिंगलामी लंब स्तनि शुष्क गात्रे ही ह्रीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि आवेश आयेश इमं बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
त्रिरात्रिका प्रजा तावत घंटाली नामिका ग्रही गुन्हाति चेद्भवे तस्या जंभनं हसनं तथा ॥२०॥
बढ़ इग्मीलनं रोदं स्तनाऽग्रहण मे वच पंच वर्ण चकं माष भक्त मत्पात्र वेशितं
॥२१॥
बलिं न्येसत श्मशाने च मंत्री तन्मंत्र पूर्वकं दंति दंतं च गोदंत महि निमॉक मेवच
॥२२॥
श्वत सर्षय संयुक्त मज्जा वीरेण लेपटोत् नरव सवंट संयक्तं निबं पत्रेण धपोत एवं कृते प्रयत्नेन प्रजा मुंचति संग्रही
॥२३॥ बालक को तीसरी शत घंटाली नामकी देवी (ग्रही) कष्ट देती है। उसके पकड़ने पर बया जंभाईलेता है। और हंसता रहता है। मजबूती से आंखे बंद कर लेता है। और स्तन नहीं लेता है। इसके लिये पांच रंगों की मिठाई और उड़द का भोजन को मिट्टी के बर्तन में रखकर मंत्री मंत्रपूर्वक बलि को श्मशान में रखे हाथी के दाँत , गाय के दांत, साँप की काँचली, वेत सरसों को बकरी के दूध
CSCIECISIOTICISIOTSIDE ४४९ PSDISTRISTOTSIRIDICISISTS
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SADISDISTRIDICASEA5 विधानुशासन HEIDISTRISIOSISISTOIES में पीसकर बालक के शरीर पर लेप करे तथा नख सफेद सरसों और नीम के पत्तों को मिलाकर धूप दें। ऐसा करने गे सहाही बालक को गोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति घंटाली सर्व विरोध स्तंभिनी सर्वराक्षस पूजिते दीर्य केशि पिंगलाक्षी उन्नत दष्ट्रे लंब स्तनिशुष्क गात्रे क्लीं क्लीं क्रौं क्रौं ऐहि ऐहि आवेश इमं बलिं गृह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
चौथे दिन के बालक की रक्षा
चतुरात्रि भवं बालं बाहिसी नामि का ग्रही महीन्ते यदि तस्यास्यात् फेन स्टो द्वमनं तथा
॥ २४॥
दिशा निरीक्षणं रोधों गात्र स्योद्वेजनं पुनः पंचधा पूप भेदां च कुलमाष कृसरैः सहा
॥२५॥
दुग्धान्नं गंध पुष्पादि बलि दद्यात्समंत्रक रात्रोऽपित वने धीरः पटा लोकेन वर्जितः
॥२६॥
गज दंताऽहि निर्मोक श्वेत सर्षपमादरात् अजा मूत्रेण संपेष्ट लेपोत्मतिमान् प्रजा
॥ २७॥
कपि रोम गज नरव निंब पत्रैः सुधूपयेत् एवं प्रति विधानेन बालं मुंचति सा ग्रही
॥२८॥ बालक को चौथे दिन बाहिसी नामकी गृही पकड़ती है। यदि उस दिन कष्ट होतो बालक झागवाली वमन करता है । दिशाओं की तरफ देखता है। उसका अंग रुक कर सारा शरीर काँपने लगता है। उसके लिये पाँच प्रकार के पूर्व कुलथी कृसर (खिचड़ी) दुगधान्न (खीर) चंदन पुष्पादि की बलि मंत्र सहित रात्रि के समय श्मशान में लोगों से बगैर टोके हुये दे।फिर वह बुद्धिमान बचे के शरीर पर हाथी दांत सर्प बंदर के बाल हाथी का नाखून नीम के पत्ते की धूनी दें। इसप्रकार कार्य करने से यह गृही बालक को छोड़ देती है। ॐनमो भगवतीवाहिसीरावण पूजित दीर्य केशी पिंगलाक्षी लंब स्तनिशुष्क गात्रे ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं क्रौं कौं आवेशय आवेशय इमं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।। CSSIOASTISEASESSIO5055 ४५० PISOTICISTORICISCISISTER
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STORISO1505510351015 विद्यानुशासन X5IDISTRISRASTRISTOTRI
पाँचवें दिन की रक्षा
पंचाऽहजातं गन्हीयात् शामी नाम गही यदि मुष्टि बंघो निश्वासौ चलप्रेक्षा च जायते
॥२९॥
li३०॥
उदनं पयसा युक्तं दधिकं बह शर गृत कुल्माष संपूर्ण पंच वर्णन शोभितं फन साम्रफलं चै एव माष भक्तं रक्त प्रसूनकं बलिं दद्यात्तश्मशाने च प्रत्यूषे च समंत्रकं
॥३१॥
मेश श्रंग यचा निंब निगुडी पत्र में वच समं गृहीत्या संचूर्ण प्रजामाशु पलेपयेत्
॥३२॥
गुग्गुलं सर्षपं चापि चूर्ण यित्वातुधूपयेत् एवं कृते प्रतिकार मुक्ता गच्छति सा ग्रही
॥३३॥ यदि बालक को पांचये दिन शामी नाम की गृही पकड़े तो बालक की मुट्टी बंध जाती है तथा ऊर्द्ध (ऊँचा) श्वास चलने लगता है। तथा हिलता हुआ दिखता है। उस समय भात दूध दही बहुत शक्कर घृत कुल्थी पाँचों रंगों के भोजन कटहल आम का फल उड़द का भोजन और लाल फूलों की बलि प्रातः काल श्मशान में मंत्र सहित दे। फिर भेड़ के सींग वच नीम के पत्ते और निर्गुडी के पत्रों को बराबर लेकर उसके चूर्ण से बालक पर लेप करे। गूगल तथा सफेद सरसों के चूर्ण की धूप दे। इसप्रकार प्रतिकार करने पर वह सही बालक को छोड़कर चली जाती है।
ॐ नमो भगवति शामि देवते रावण पूजिते दीर्य केशी पिंगलाक्षी लंब स्तानि शुष्क गाने ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं आवेशय आयेशा इमं गृह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ॥
छठे दिन की रक्षा
षडाहजातां गन्हाति मम॑णारख्या प्रजां ग्रही आकुंचनं तदा हस्त पादयोरति मूत्रता
॥३४॥
CSTOTRIOTSIRIDICISIOTICE ४५१ PISTRIDIOHRISTOTHRISTRIES
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CHRISTRISTRIPASICS विधानुशासन HORSCIEDISCIEDIA
ऊर्ध्वचासोऽसकृद्रोध स्तमाभोजन मेवच भवेद्विकारः शुद्धानं पंच भक्ष समन्वित
॥ ३५॥
मन्मय प्रतिमा रक्त चरु पुष्पगंधा दिशोभिमतां बलिं दद्यात् पृप्रशाने च सायान मंशपर्वत
॥ ३६॥
॥३७॥
श्वेत सर्षप संयुक्तं वाजि दंतं स गुग्गुलं साऽमयं पत संयुक्तं पेषयित्वा प्रलेपयेत् गौरोम सर्षपान पिधान यतेन सह धूपयेत् पत्र भंगेन च स्नायात ततो मुंचति साग्रही
॥३८॥
वेणारऽश्वत्य निर्गुडो पाठे रंड योरिप पत्रेण पक्क सलिलं पत्रं भंगं प्रयक्षते
॥३९॥ यदि बालक को छठे दिन मर्मणा नाम की ग्रही पकहती है तो हाथ पैरों का खिंघना, अतिमूत्र होना, ऊपर को श्वास चलना कभी कभी रूक भी जाता है और स्तन के दूध का भोजन करना आदि विकृत हो जाता है। इसके लिए शुद्ध अन्न पाँचो प्रकार के भोजनमिट्टी की प्रतिमा लाल नैवेद्य पुष्प
और चंदन आदि गंध से शोभित बलि को सायंकाल के समय श्मसान में मंत्रपूर्वक दे। फिर सफेद सरसों सहित घोड़े के दांत गुगल घृत को समान लेकर पीसकर लेप करे। गाय के बाल तथा सरसों को पीसकर घी मिलाकर धूप दे। फिर पत्र भंग जल से स्नान करे। ऐसा करने से वह ग्रही बालक को छोड़ जाती है। बांस पीपल निर्गुड़ी पाठालता और एरंड के पत्तो को जल में पकारने पर वह जल पत्र भंग कहलाता है।
ॐ नमो भगवतीमर्मणे रावण पूजिते दीर्घकेशी पिंगलाक्षी लंब स्तनि शुष्क गात्रे ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं आवेशय आवेशय इयं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्याहा॥
सातवें दिन की रक्षा
सप्ताह जातं गन्हाति सासभटा नामिका ग्रही रोदनं काक वतश्येन गंध शरीरकं
॥ ४०॥ Nಣಡಡಣಪಡಣg Y4R9NNNNN
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SERISO150150155 विधाबुशासन DIDRESIDEOSIOTISIOIST
स्यनरवै गप्रिलेपश्च स्तनाभोजन मेवच भवेतदानीं तस्या श्रुमाषणां कदली फलं
॥४१॥
शुद्धानं च सुगंधादि बलिं दद्यात्पयत्नतः पूर्वस्यां दिशि सायान्हे वलि मंत्रेण्यमंत्र वित्
॥४२॥
यचा सिद्धार्थकं कष्टं गोमत्रेणाऽनलेपटोत
धूपये ध्याय करजै स्ततो मुंचति सा ग्रही ॥४३॥ गदि रात दिन कामको सुराक तार की जड़े तो बालक कौये के शब्द के समान रोता है। उसके शरीर में श्येन (बाज पक्षी) के समान गंध आती है। बच्चा नखों से अपने शरीर को टटोलता है और दूध का भोजन नहीं लेता है। उस समय उड़द केले की फली शुद्ध भोजन और सुगंध आदि की बलि को मंत्री मंत्रपूर्वक सायंकाल के समय पूर्व दिशा में दें।उससमय वद्य सफेद सरसों कूठ की गोमूत्र से पीसकर लेप करे। और व्याघ्र करज नस की धूप दे। तब यह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवती सुभटे रावण पूजिते दीर्य केशी पिंगलाक्षी लंब स्तनि शुष्कगात्रे ऐहि एहि ह्रीं ह्रीं क्रौं कौं आवेशय आवेशय इमं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
आठवें दिन की रक्षा
अष्टाह जातं बालंतु गन्हाते मद्य शासना तदा भवे ज्यरःश्योशो हासउ द्विग्र रोदनं
॥४४॥
माषोदनं पंच भक्षे ग्रामस्योदेशत् : बलिं निदद्या त्सांयान्हे मंत्र पूर्व विचक्षणः
॥४५॥
हिगूगगंधा लसुन सिद्धार्थे : श्व प्रलेपयेत् नस्य के शेस्व लसुनै धूपोद्वालकं द्भुतं
॥४६॥
स्नापटोत्पत्र भंगेन पूजोत्कणवीरजै:
पुष्पै गधा दिभि ईवीं मुचंद्रालं ततो गही OTECISIOIDOESRIRISOTE ४५३ PASSIS5I0RECTRICISIONSIDER
॥४७॥
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MED/ಸENEGE AQAR 2 55 यदि बालक को आठवें दिन मधशासना नाम की ग्रह पकड़े तो बालक को ज्वर हो जाता है। सांस चलने लगती है हंसी आती है और वह जोर से रोता है। इसके उड़द धान और पाँचों प्रकार के भोजन को गांव के उत्तर की तरफ सांयकाल के समय मंत्रपूर्वक बलि दें हींग अजमोद लहसून सफेद सरसों का लेप करे तथा नख केश तथा लहसून से बालक को धूप दे। यंत्र भंग जल से स्नान करावे और देवी की कनेर के लाल फूल और अजमोद से पूजन करें तब वह ग्रही उस बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवती मधशासने गवण पूजितेही केसी चिंगलाक्षी लंबस्तानि शुष्क गात्रे ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं कौं करें आवेशय आवेशय इमं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।।
नवमें दिन की रक्षा
नवाह जातं गन्हाति शास्त्री नाम ग्रही प्रजा ततोड़ श्वसनं मुष्टि बंध श्चोद्विग्नता कति
॥४८॥
पायसं माष भक्ष्यं च कसरं च बलिं तथा पूर्वस्यां दिशि साटान्हेन्यसेत् मंत्री स मंत्रक
॥४९॥
आमयतिऽति विषा वेत सर्षपं लसनं तथा लवंग त्वगऽजा मूत्रै पिष्टवा वालं प्रलेपयेत्
॥५०॥
केशे गोरोमतगर कुष्टै श्चाऽपि प्रधूपोत्
एवं कृतः प्रतिकार बालं मुंचति सा ग्रही यदि गलक को नवे दिन शास्त्री नाम की सही पकड़े तो यह ऊँचा श्यास लेता है उसकी मुट्ठी गंध जाती है सूरत घबराई हुयी सी हो जाती है उसके लिये खीर उड़द का भोजन और खिचड़ी की बलि को पूर्व दिशा में सायंकाल के समय मंत्र पूर्वक दें आमय (कूठ) अतिविष (अतीस सफेद सरसो लहसून और लौंग की छाल को बकरी के मूत्र से पीसकर बालक के शरीर पर लेप करे।बाल और गाय के रोम तगर कूठ की धूप दें इसप्रकार करने से वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐनमो भगवतीशास्त्री रावण पूजिते दीर्य केशी पिंगलाक्षी लंब स्तनिशुष्कगात्रे ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं आवेशय आवेशय इयं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच
स्वाहा।। SSETSID5103STRISTOTSIDE ४५४PISRISRISODRISTRISORI
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CAREERASICSITE विद्यानुशासन ISISTORICISCISIOES
दसवें दिन की रक्षा
दशाह जातं गन्हाति देवता सा दशानना तदा स्यात्नील देहत्त्वं रोदनं च दिवानिशं
॥५२॥
मदिरा गंधितास्थ स्यात् संकोश्च विशेषतः दाहिकं कोद्रवान्नं च संयुक्तं गोरसाटानं
॥५३॥
कृष्ण पुष्पादि धूपादि श्मशाने चापरान्हे के मंत्र जप्तं बलिं न्यस्य पत्रं भंगेन सिंचटोत्
॥५४॥
वनां सर्ज रसं कुष्टं सितसर्षप मेवच । शीत लोयेन संपेष्य तेन बालं प्रलेपर्यत्
॥५५॥
सर्षप लसुनं निबपत्रं सर्प त्वचा सहा धूपयेत् तैल संमिश्रं ततो मुंचे द्रही प्रजा
॥५६॥ बालक को दसवें दिन दशानना नाम की सही पकड़े तो यालक का शरीर नीला पड़ जाता है। बालक रात दिन रोता है। उसके मुँह से शराब की गंध आती है। और उसके शरीर में ज्यादातर खिंचाय या जलन होने लगती है। काले पुष्प और धूप आदि की बलि को दोपहर ढलने पर श्मशान में मंत्र जपता हुआ रखकर पत्र भंग जल से उसको सींचे (छीटें) दें मंत्री वचराल कूद सफेद सरसों को ठंडे जल से पीसकर ग्रहीत बालक के शरीर पर लेप करें। सरसों लहसून नीम पत्र सर्प कांचली में तेल मिलाकर धूप दें। तब वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवती दशानने वज़ धारिणी वैतालक प्रिय ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं क्रौं कौं आवेशय आवेशय इमं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ॥
ग्यारहवें दिन की रक्षा
एकादशाह जातं तां प्रजां देवी महात्मिका ग्रहीन्ते यदि वैस्वर्य कासवास ज्वरस्तथा ।
॥ ५७॥ C51815101510510505505 ४५५ PADDISTRISISSIODODRIST
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959596959
विधानुशासन 959595959
याच थदा चूर्णंतु कसरं तथा बलिं निर्दयात् सायान्हे श्मशाने मंत्रपूर्वके
॥ ५८ ॥
पस्तगर मंजिष्टां कुष्टा सिद्धार्थ पिठकै : कार्पास्थी च धूपः स्यात् ततो मुंचति साग्रही ॥ ५९ ॥ यदि ग्यारवें दिन बालक को महात्मिका नामक की देवी पकड़े तो श्वास खांसी ज्वर हो जाता है। उसके लिए उड़द का भोजन दही उड़द के चून की खिचड़ी की बलि सायंकाल में श्मशान में मंत्र पूर्वक दें । तगर मंजिठ कूठ सफेद सरसों पिच्छ मोचरस सैभंल का गोंद का लेप करें। तथा कपास के काकड़े की धूप दे तो वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति महात्मिकायै मा निर्द्दयायै पितृ वन्माल्यानुलेप नायै बहुशस्त्र धराौरूधिर मांस प्रियायै प्रभूत वैताल परिवृतायै मुक्ताट्ट हासायै एहि एहि आवेश्य आवेषटय ह्रीं ह्रीं क्रोंकों भगवति स्वशासन प्रिये इमं बालं मुंच मुंच बलिं गृह गृह स्वाहा ।
बारहवें दिव की रक्षा
द्वादशाहिक बालं तंगृहीते काकिनासिका ज्वरः पयस उद्गार आनाहश्च तदा भवेत्
पंच, वर्ण चरुं लाजां माषान्नं लाज चूर्णक मत्स्याक्षि शाकं सायन्हे न्यसेद्वाप्यां समंत्रकं
॥ ६० ॥
॥ ६१ ॥
चंदनोशीर कष्टैस्तु लेपवेद धूपनं तथा निर्माल्य वृहती भ्यां तु बालं मुंचेत् ततो ग्रही ॥६२॥ यदि बारहवें दिन काक नाशिका नाम की ग्रही बालक को पकड़े तो बालक के ज्वर होता है । दूध डालने लगता है। उसका मलमूत्र गिरना बन्द हो जाता है। उसके लिये पाँचो रंगों को नैवेद्य धान की खील उड़द का अन्न चावलों का चूर्ण मछली की आँख और शाक की बलि को सायंकाल के समय पश्चिमोत्तर कोण में (वायव्य कोण में) वापिका में मंत्रपूर्वक रख दें। चंदन खस कूठ का और निर्माल्य (पुजापा) तथा बड़ी कटेली से धूप दें तो ग्रही तुरन्त बालक को ठोड़ देती है। ॐ नमो भगवति काकनामि के महाभीषणी ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं इमं बलिं गृह गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ।
こらこらからどちらからおらでらでらでらでらでらでら
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95059595/5 विधानुशासन 55195 तेरहवें दिन की रक्षा
त्रयोदशाह जातं तं ग्रही गृन्हाति साहिका चक्षु निर्मलनं क्षीरा भोजनं च तथा भवेत्
कुलत्थ कुमाषानं शाकं माषं च यत्क्रिमं नारिकेर फलं न्यसे ज्जलने तीर्थ बलिं क्रमात्
धूपैस्तु धूपयेत् मुंचेत ततो ग्रही
॥ ६३ ॥
वचोशीरामयैर्लेपः यक्ष एवं कृते प्रतिकारे बालं ॥ ६५ ॥ यदि तेरहवें दिन बालको को साहिका नाम की सही पकड़े तो बालक आंखे बंद करता है और दूध नहीं पीता है। उससमय कुलथी उड़द का अन्न शाक पके हुये उड़द और नारियल की बलि को क्रम से तीर्थ के जल में डाले। वच खस और अमय (कूठ) से लेप करे यक्ष धूप राल की धूप देने से सही बालक को को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति साहिके त्रिदंड़ाऽसि धारिणी रक्त केशि पिंगलानि ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं इमं बलिं गृन्ह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ।
चौदहवें दिन की रक्षा
चतुर्दशाह जातां तां चामुंडा श्रयते ग्रही रोदनं चा सकृद्ज्ञाननं वमनं पयस स्तथा
पंच वर्ण चरुं मार्त सराव स्थं समंत्रकं सायं काले श्मशाने च बलिन्य सेद्विचक्षणः
॥ ६४ ॥
॥ ६६ ॥
॥ ६७ ॥
".
गजदंताति विषाभ्यां लेपयेद्धूपनं भय त अहि त्यक निंब पत्राभ्यां ततो मुंचही प्रजा ॥ ६८ ॥ यदि चौदहवें दिन बालक को चामुंडा नाम की ग्रही पकड़े तो वह रोता है। उसको सुंगध करने का ज्ञान होता है और दूध की उल्टी करने लगता है। उसके लिये पांच रंग की नैवेद्य को मिट्टी के सकोरे
9595951
159505 ४५७ 9595959696951
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959595955 विद्यानुशासन 959596965959
में रखकर सायंकाल के समय श्मशान में मंत्रपूर्वक बलि दें। हाथीदांत लेप से तथा सर्प की कांचली और नीम पत्री की धूप देने से यह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति चामुंडे महादेवी काल रूपिणी ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ह्रीं ह्रीं क्रौं इमं बलिं गृह गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
पन्द्रहवें दिन की बलि रक्षा
पंचदश रात्रि जाततं कुमारी नामिका ग्रही मुष्टि वंधोर्द्धनिस्थासो चलित प्रेक्षणं भवेत्
पंच वर्ण चरुं माषभक्षं चो षसि निक्षिपेत् श्मशाने गंध पुष्पादि युक्तं मंत्री समंत्रकं
निगुंडी निंब पत्राणि मेष श्रृंग समं पुनः पेषयित्वा थ चूर्ण च लेपयेद्वाल मातुरं
॥ ६९ ॥
सोलहवें दिन की रक्षा
षोडशाह वयस्कं तमा ददाति महे आरि क्षीरारुचि ज्वरः छर्द्दिनिमील नमक्षोऽ भवेत
25252595950595 144 P/5PSP
॥ ७० ॥
|| 198 ||
धूपनं हिंगु सर्पत्वक नरः मिश्र कृतं भवेत एवं सति प्रजां मुंचेत् कुमारी देवता ततः ॥ ७२ ॥ यदि पंद्रहवें दिन बालक को कुमारी नाम की सही पकड़े तो मुट्ठी बंध जाती है। श्वास ऊंचा चलने लगता है। और आंखे चली हुई सो हो जाती है। इसके लिये पांच रंग की नैवेद्य उड़द चूसने योग्य भोजन गंध पुष्प आदि की बलि को मंत्री मंत्र सहित श्मशान में देवें। निर्गुडी नीम के पत्ते भेड के सींग सब बराबर लेकर तथा सबको पीसकर उस चूर्ण का लेप उसी दुःखी बालक के शरीर पर करे। हींग सरसौं सर्प की कांचली नाखून मिलाकर धूप देने से वह ग्रही कुमारी देवता बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति कुमारिके रक्ते माल्य विभूषिते ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रीं क्रौं इमं बलिं गृन्ह गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ॥
॥ ७३ ॥
52950596
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CASIRISTRI52525255 विधानुशासन PSPSCISIODSOTROSI
पकाम्नं शाक माषाऽम्नं कोलस्थं च बलिं तथा नालिकेर पयोन्यस्ये द्वारि तीर्थे समंत्रकाः
॥ ७४॥
पोज किमार्थ गुग्गुल तथा तेनं मष्टोधूप स्तुगोधेगेन भवेत् सुरवी
॥७५॥ बालक को सोलहवे दिनं महेश्वरी नाम की यही को पकड़ने से दूध से अरूचि ज्वर और वमन होने लगती है। और वह आँखे बंद करने लगता है | उसके लिये पका हुआ अन्न शाक उड़द का अन्न नारियल के दूध और कुलथी का बना हुआ भोजन की बली को तीर्थ के जल में मंत्र पूर्वक देवें। हाथीदांत सफेद सरसौं और गुग्गल का लेप करे धृत की मालिश करे और गाय के सींग की धूप दे। तो बालक सुखी होगा।
ॐ नमो भगवति माहेश्वरी विकट दष्ट्रां कराले सर्व भूत प्रिये ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं क्रौं इमं बलिं गृह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
सत्रहवें दिन की रक्षा
सप्त दशाहवयस्कं च ग्रहीते यारूणी ग्रही तदास्य शोषगंधो च गात्रे स्फोटश्च जायते
॥७६॥
माषान्नं लाजकं धान्यं प्रातरुत्तर तो बलिं न्यास्टो त्समंत्रकं हिंगु यचाभ्यां लेपयेत्प्रजा
॥७७||
गुग्गुलं सर्षपं चैव मिश्री कृत्य प्रधूपयेत् एव मात्त प्रतिकारां बालं मुंचति साग्रही
॥ ७८॥ सत्रहवें दिन बालक को वारुणी ग्रही के पकड़ने से खुसकी शरीर में दुर्गध और हड़ फूटन होने लगती है। उसके लिये उड़द का अत्र धान्य की खील और चावल की बलि को मंत्र पूर्वक प्रातःकाल के समय उत्तर की तरफ दें। और हींग और वच का लेप करें। गुग्गुल और सरसों को मिलाकर धूप देने । इस प्रतिकार को ग्रहण करने से बालक को वह नाही छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति वारुणिके श्वेतांबर धरे श्वेताभरण भूषिते ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं कौं इमं बलिं गन्ह गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। ASSISTICTRICISIRESIDEORE ४५१ PINIONSIDERCIEOSRIES
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CSCISIONSCISIO505 विधानुशासन 9501505ICISORSCISI
अठारहें दिन की रक्षा
अष्टादशाह जाततं गन्हीते प्रवरी ग्रही तदा वाक्र नुवणं जंभा जिव्हाया वारि सेवनं
॥७९॥
दीरानं माष भक्ष्यं च नव पात्रेस गोजितं उत्तरस्यां दिशि प्रात थलि दद्यामाका
iii
.
तगरं घेत सिद्धार्थ जल पिष्टसु लेपयेत् लसुनं सर्प निर्माल्यं धूपयेतु सुरवी भवेत्
॥८१॥ अठारहवें दिन बालक को प्रवरी नाम की ग्रही पकड़ने पर बोली में भारी फर्क हो जाता है। जंभाई आती है जीभ से पानी निकलता है। उसके लिये दूध चावल की खीर उड़द का भोजन की बलि को नये बर्तन में रखकर उत्तर दिशा में प्रातःकाल के समय मंत्रपूर्वक रखे। तगर सफेद सरसों को जल से पीसकर लेप करे तथा लहसून सर्प कांचली की धूप देने से बालक स्वस्थ हो जाता है।
ॐ नमो भगवति प्रवरिकारी जटा मुकुट धारण्यै निम्मासाथै ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं कौं इमं बलिं गृह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।।
उन्नीसवें दिन की रक्षा
एकोन विशति दिने बालं गन्हाति योषिणी तदास्या त्मोह यमने विवेपः पाद हस्तयोः
॥ ८२॥
प्रतिमा युगलं कत्था मृदा पिष्टेन चोदरे तिल दुग्धान्न मादाय न्यसेत्संध्या तृतीयके
॥८३॥ चंदनाऽति विषा कुष्टै लेपयेत् धूपनादपि । येणु त्वकपिच्छं नालाभ्यां पत्रं भंगा च्च सिद्याति
॥८४॥ उन्नीसवें दिन बालक को घोषिणी नाम की ग्रही के पकड़ने से मोह वमन हाथ पैरों में बैचेन ही हो जाती है। पिसी हुई मिट्टी की प्रतिमायें दो बनवाकर उसके पेट में तिल दुग्ध चावल की खीर रखकर सायंकाल के समय तीसरी संध्या में बलि दें। चंदन अतीस कूठ का लेप करने से बांस की छाल और सेंभल वृक्ष की देडी की धूप दें। और पत्र भंग से जल से स्नान करावे।
CSCICISIOISTORICISCE ४६० PIECISIOTECISIOTSRISCIEN
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SODOI5015015105 विधानुशासन SSOSID512150SCAN ॐ नमो भगवति योषणिकायै मेष वाहनायै वहु माष प्रियायै ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं कौं इमं बलिं गन्ह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
बीसवें दिन की रक्षा
विंशत्य हो वयस्वतं गन्हीतेऽथ कपोतिनी रूक पाद हस्तयोर्मूत्रं भवेद्युबहु विक्रियाः
॥८५॥
पारामं तिल मुगाम्यां केवलं च त्रिविधो दनं मृत्सृष्ट प्रतिमा कुस्योः पृथक पात्रे च वेशितः
॥८६॥
प्रातरुत्तर तो न्यसेब्दलिंगंधा दिशाशोभितं लेपयेदाभयो षीर पौर्बिलं विचक्षणः
1।८७॥
काप्पासा स्थाऽहि निम्मोक निंब पौस्तु धूपटीत
पत्र भंगेन च स्नायात्त ततो मुंधति साग्रही ॥८८॥ बीसवें दिन कपोतिनी नाम की ग्रही से बालक को पकड़ने से पर हाथ पैरें में रोग अधिक मूत्र तया बहुत प्रकार के विकार हो जाते हैं। उसके के लिए खीर, तिल, मूंग तथा तीन प्रकार के भात को मिट्टी की बनाई हुई प्रतिमा को कोष में अलग बर्तन में रख्खे। बलि को प्रातःकाल के समय गंध आदि से सजाकर उत्तर की तरफ रखे और चतुर पुरुष कूठ तथा खस के पत्तों से बलि पर लेप करे। कपास की लकड़ी सर्प कांचली और नीम के पत्ते को धूप दें और बालक को पत्र अंग जल से स्नान कराके तो यह ग्रही उस बालक को छोड़ देती है। - ॐनमो भगवति कपोतिनी बाल पीडा प्रिये सर्वाभरणभूषिते ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं क्रौं इमं बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंव स्याहा।
इक्कीसवें दिन की रक्षा
॥८९॥
एकविंशत्यहोरात्रं डाकिन्याश्रयते ग्रही
स्फोटोपांगे मुरवे च स्यात् तदा तस्यां प्रतिक्रिया CASIOTSIONSCISIOISIOTECTS ४६१ PASRIDICISIOTSCI5050
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SHARETRIERATIOTICE रिधानुशासन ASSISTORICISIOSOSI
माषाम्नं लाज धान्ये च बलि मा पूर्षिकं तथा न्यसेत् उत्तरीय संगौ च सायान्हे मंत्र वित्तमः
॥९०॥
निगुडी ग्राहदंताभ्यां लेपोनरव केशयुक
धूपनं पत्रं भंगेन स्नाद्यान्मुंचति साग्रही ॥ ९१॥ इयकीसवें दिन बालक को डाकिनी नाम की ग्रही के पकड़ने पर हड़ फूटन मुख का फटना इत्यादि होने लगता है। उसके प्रतिकार के लिये।उड़द का अन्न धान (चावल) और खील तथा उसकी पुरियों की बलि को सायंकाल के समय उत्तम मंत्री उत्तर दिशा में दें। निगुंडी मकर के दांत का लेप करने से तथा नाखून और बालों की धूप देने से तया पत्र भग जल से बालक को स्नान कराने से वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति डाकिनी एहि एहि इमं बालं ब्रह्मा विष्णुश्च रूद्र स्कंधो वेश्रण स्तथा रक्षतु ज्वलितं इदं बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।।
बाइसवें दिन की रक्षा
द्वाविशंति दिने बालं गृहीते साजटाधारी तदाभवेदऽतिसारो रोदनं बहुविक्रिया
॥ ९२॥
माषोधन मापूपं च कसरं च सगंधका बलिं दद्यात् पित् वने प्रातमंत्री स मंत्रक
॥९३॥
पिपली चित्र मूलंतु मूत्रेणा जेन लेपयेत् धूपः केश वताभ्यां स्यात् पश्चात्मचति साग्रही
॥९४॥ बाइसवें दिन बालक को जटाधरी के पकड़ने पर दस्त होना रोना और बहुत प्रकार के विकार होने लगते हैं। उसके लिये उइद भात पुरी कचौरी और गंध की बलि को मंत्री मंत्र पूर्वक प्रातःकाल श्मशान में दे। पीपल चित्रक (चीते की जड़) को बकरे के मूत्र में पीसकर बालक के लेप करे और बाल तथा यच की बालक को धूनी दे। तो इसके बाद वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐनमोभगवतिजटाधारिणी ऐहि ऐहि ब्रह्मा विष्णु महेश्वराक्षंतुज्वालितमिमंबालं मुंच मुंच बलिं गन्ह गृह स्वाहा ॥ ලගහැටටටටටg ¥;% වටයුතුවලට
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SP5
50125 विद्यानुशासन 95959529595
तेवीसवें दिन की रक्षा
यो विशंथ्यहोजातं महानद्या श्रयेत ग्रही तीव्रेक्षणम् मुक्ति च तदास्युर्वह्नविक्रिया
पंच वर्ण चरुं माष पूपं धान्यं च संक्रम सायान्हे थवान्यसेत श्मशाने मंत्रपूर्वकं
चौबीसें दिन की रक्षा
चतुर्विशति दिने बालमऽविन्याश्रयते ग्रही नेत्राभ्यामास्य तचापि जल श्रावि तदा भवेत्
॥ ९५ ॥
श्वेत सर्षप संयुक्त गज दंतैः प्रलेपयेत्
धूपः कुवा फलेन स्यात् ततो बालः सुरवी भवेत् ॥ ९७ ॥ तेवीसवें दिन बालक को महानंदी ग्रही के पकड़ने पर तेज निगाह दूध पीना और बहुत प्रकार के विकार हो जाते हैं। उसके लिये पांचों रंगो नैवेद्य उड़द के पूए और अनाज की बलि को क्रोधपूर्वक सायंकाल के समय मंत्रपूर्वक श्मशान में दे। सफेद सरसों हाथी दांत का लेप करे और कुआ फल (सदा गुलाब) की धूप दे तब बालक सुखी हो जाता है।
ॐ नमो भगवति महानंदिनी ऐहि ऐहि द्वादशादित्यादि सवं देवता रक्षित बालं मुंच मुंच बलिं गृह गृह स्वाहा ।
घृत सिक्तऽमतो भुक्तं सरावे नूतने स्थितं सिद्धयै न्यसेद्वलिं मंत्री सायन्हे मंत्रपूर्वक
॥९६॥
॥ ९८ ॥
॥ ९९ ॥
वृक हस्ति नरवं पिष्टमऽजा मूत्रेण लेपयेत् कपि लोम्रा च निंबेज धूपरोच्च सुखी भवेत् ॥ १०० ॥ चौबीसवें दिन बालक को अंबिनी के पकड़ने पर उसकी आँखो और मुँह से पानी निकलने लगता है। घृत में सिके हुये भोजन को नवीन सकोरे में रखकर मंत्री सायंकाल के समय मंत्रपूर्वक सिद्धि के लिये बलि दें। भेडिये और हाथी के नाखूनों को पीसकर बकरी के मूत्र के साथ पीसकर उसका बालक के शरीर पर लेप करे और बंदर के बास तथा नीम पत्र की बालक के धूनी देने से बालक सुखी होगा।
25252525252525 × 25952525252595.
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SASTD3505055101505 विधानुशासन 350150151215100DOIES
ॐनमो भगवति अंबिनी सर्व देवता प्रिये सर्व भक्ष प्रिये क्षेत्रपाल देवता रक्षिते बालं मुंच मुंच बलिं गृह गृह स्वाहा
पच्चीसवें दिन की रक्षा
पंच विशऽत्यहर्जात गन्हीते निधना ग्रही मुष्टि बंधः सवेपथुः तदोद्धस्वसनं भवेत्
॥१०१॥
कसरं दधि पलानं च श्मशाने त्वऽपरान्हके न्यसेत बलिं सुवर्णेन युक्तं मंत्री समंत्रक
॥१०२॥
वचा च श्रंगी निगुंडी पत्र चूर्णेन लेपटत् मात् पातुनरवं हिंगु धूपयेत्साप्रशाम्यति
॥१०३॥ पच्चीसवें दिन बालक को निधना नाम की सही के पकड़ने पर मुट्टी बंध जाती है। शरीर में कंप और ऊंचा श्वास आने लगता है। उसके लिये खिचड़ी दही पका हुआ अन्न और सोने की बलि को दोपहर ढलने पर मंत्री श्मशान में मंत्र सहित दे। यच श्रृंगी (अतीस काकड़ा सिंगी) निगुंडी के पत्तों का चूर्ण से लेप करे तथा बालक की माता और पिता के लासूनों और जगली पाक को देने से तब वह यही शांत हो जाती है।
ॐ नमो भगवति निधने इंद्रादि देवता रक्ष्यं बाल मुंच मुंच बलिं ग्रन्ह ग्रन्ह स्वाहा ॥
छब्बीसवें दिन की रक्षा
षड्विशति दिनं बालं समसे नाश्रयत्यम तदास्याद्वेपथु स्ताप आंकुचः पादहस्तयो:
॥१०४॥
कृत्वा पिष्टमट काकं रक्त चंदन सेवितं भक्तं पितृवने न्यसेत्सायान्हे मंत्रपूर्वकं
॥ १०५॥ छब्बीसवें दिन बालक को समसेना नाम की ग्रही के पकड़ने पर बालक कांपने लगता है। उसको ज्यर आ जाता है हाथ और पैर खींचते हुए मालूम होते हैं। उसके लिये पिट्टी का कौआ बनाकर उसपर लाल चंदन का लेप करें उसको कुछ भोजन के साथ श्मशान में सायंकाल के समय मंत्र पूर्वक रखे। CISIONSCIEDISCIET51555 ४६४ /5TORSCISSISTS5501505
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5050150151215105 विधानुशासन HSTRI5DISTTISTICISIOASS ॐ नमो भगवति समसेन के सर्व देवप्रिय ऐहि ऐहि हीं हीं क्रौं क्रौं इयं बलिं गन्ह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ।
सत्ताइसवें दिन की बालक की रक्षा विधान
सप्त विंशत्य हो जातं गन्हीते जन्य शारीका तदा भवेत् अतीसारो ज्वरश्च बहु विक्रिया
स तिलं क्षीर भक्तं च माषाऽनं कसरं तथा बलिं सूर्य दिशं उनमंत्रण स्वपाउरूणोदयेः
॥१०७॥
वचा लसून गोमूत्रै लॅपये पटो दऽपि
निर्माल्य सर्प निर्मोकैः पत्र भंगा च्च सिंचयेत् ॥१०८॥ सत्ताइसवें दिन बालक को जन्य सारिका ग्रही के पकड़ने पर बालक के दस्त बुखार और बहुत प्रकार के विकार हो जाते हैं। इसके लिये तिल दूध का भोजन उड़द का अन्न खिचड़ी की बलि को मंत्र पूर्वक पूर्व दिशा में सूर्य के उदय होने के समय अर्थात् प्रातःकाल दें। यच लहसून को गोमूत्र से पीसकर बालक के लेप करे तथा निर्माल्य (पुजापा) और सर्प कांधली की दूप दे। तथा पत्र भंग जल से बालक को स्नान करायें।
ॐ नमो भगवति जन्य सारिके बाल घात मेणहिनि ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं कौं क्रौं इथं बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
अट्ठाइसवें दिन की रक्षा
अष्ट विशंत्य होजातं गन्हीते नडाधरा तदा तस्या सदा हासश्चो द्विग्नत्वं च जायते
॥१०९॥
तिल चूर्ण माष भक्तं कोद्रवं सूप मेवच न्यसेलिं च सायान्हे श्मशाने मंत्रपूर्वकं
॥११०॥
सित सर्षप गो भंग गोमूत्रेण प्रलेपयेत् गुगलं पिच्छ नालं च धूपना शाम्यति ग्रही
॥१११॥ 0521510505TOISEXSTRE४६५ PISTOISTRISIOSIST5015015
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SSIONSIDEOISO150 विधानुशासन 75050510653150155 अठाइसवें दिन बालक को यदि नडाधारि नाम की देवी (मही) पकड़े तो बालक सदा ही हंसता रहता है। और बहुत घबड़ाहट पैदा होती है। उसके लिये तिलों का चूर्ण उड़द का भोजन और कोदों की दाल की बलि को सायंकाल के समय श्मशान में मंत्रपूर्वक रखे। सफेद सरसों गाय को सींग और गोमूत्र का बालक के लेप करे तथा गूगल और पिच्छ नाली (बेल के पूछ के व्यालों) की धूप दें। तो वह सही शांत हो जाता है।
ॐनमो भगवति नड़धरि देवी ऐहि ऐहि ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं ईश्वर नत्य प्रिटो ईश्चराय ईश्वर इमं बालं मुंच मुंच बलिं गृह गन्ह स्याहा।
उन्तीसवें दिन की रक्षा
नव विंशत्यऽहोजातं गन्हीते शक्ति शाकिनी उर्द्धधासोज्वर श्वाऽथातदा स्याद्वहु विक्रिया
॥११२॥
माष पिष्टमय मेषं पत लिप्तं सपुष्पकं तऽचान्नं शाक संयुक्तं प्रात रुत्तरतःक्षिपेत
॥११३॥
कत्व गांमध सिद्धार्थ उपयंत गुज दंत युक
वचा केशौ च धूपः स्यात् ततौ बालः सुरवी भवेत ॥ ११४ ।। उन्तीसवें दिन बालक को शक्ति शाकिनी नाम की ग्राही पकड़े तो बालक उर्द्धश्वास ज्यर और बहुत प्रकार के विकार हो जाते हैं। उसके लिये उड़द के आटे का भेड़ को घृत से लेप करके पूष्प के साथ अन्न और शाक सहित प्रातःकाल के समय इस बलि को उत्तर दिशा में रखे । गाय के गोबर और सरसों का लेप करे और हाथी दात वच और बालों सहित बालक को चूर्ण दे तो बालक सुखी हो जायेगा।
ॐ नमो भगवित शक्तिशाकिनी महादेवी नीलग्रीवे जटाधरे ऐहि ऐहि ग्रहैसु शततं रक्ष्यमिमं बालं मुंच मुंच बलिं गृह गृह स्वाहा ||
.. तीसवें दिन की रक्षा
त्रिशाद्दिन यय स्यंतं गन्हीते शाजला ग्रही पटाकुंच न मुद्रेगो विकारा श्चाऽपर तथा
॥११५॥
Qಥಳಥಪಥಳಗಳಗgg Y೯೯
ಐ
ಪರಿಗಣಿ
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SSIOSS5DISTRI5T05 विधानुशासन 190505125ICISCES
पिष्टऽजौमेष महिषौ रक्त चंदन पुष्पितौ माषान्नं लाजकं शाकं न्यसेत संग्रौ तृतीयके
॥ ११६॥ वां सज रसः पिष्टा लेपयेत् धूपनं वचा
सर्प त्वक निंब पत्राणि ततो मुंचति सा ग्रही। ॥ ११७॥ तीसवें दिन बालक को सजला नाम की यही के बालक को पकड़ने पर बालक की पीठ खिंचने सी लगती है उसमें घबराहट तथा दूसरे बहुत से विकार पैदा हो जाते हैं। उसके लिये पिसे हुवे जो का भेड़ और भैंसालाल चंदन पुष्प उडद धान की खील और बलि को तीसरीसंध्या में अर्थात् सायंकाल के समय में दे। यच और राल को पीसकर बालक के लपे करे तथा वच सर्प कांचली नीम के पत्तों की धूप दे। तब ग्रही बालक को छोड़ देती है।
ॐ नमो भगवति जलाग्रही स्कंध सहिते भगवति सूर्याऽग्नि संप्रकाश प्रभे वरद महारते पूर्व देव देवेन संपाये शिरिय ध्वज सहिते रुने रौद्र कर्मकारिणी शिवे शिय तमे एव तमे एहि एहि बालकं रक्षनार्थ मिमं बलिं प्रति गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
गुडेन अन्नेन सिद्धार्थं पूपै स्तंदुलै स्तिलैः क्षीरेण सर्पिषा दधा समिद्भिः क्षीर शारिवनां स्नान क्रियादिभिः शद्भौ मंत्री मंत्र जपऽनंगें
अप मृत्यु जयं होम विदधीत यथा विधिः ॥११९॥ गुड़ अन्न सफेद सरसों पुवे चावल तिल दूध घृत दही और दूधवलो वृक्षो की समिधा (होम की लकड़ी को लाकर ) रखे । फिर मंत्री स्नान आदि की क्रियाओं से शुद्ध होकर इस मंत्र को जपता हुआ विधि पूर्वक अपमृत्युंजय होम को करें।
ॐ नमो देयाधि देवाय सर्वोपद्रव विनाशनाय सर्वाप मृत्युजय कारणाय सर्वसिद्धिं कराय ह्रीं ह्रीं क्रौं कौं ठः ठः देवदत्तस्याय मृत्यु धातय धातय आयुष्यं वर्द्रय वर्द्रय स्वाहा।
ॐ नमो भगवते विश्व विधाधिपतये विश्व लोकनाथाय ॐ स्याहाभूस्वाहा भुवः स्वाहा, स्व स्वाहा ॐ ॐर हं हं क्षां वां क्षीक्षी स्वर्वाप मृत्युन घातय घातय देवदत्तस्यायुषं वृद्धिं कुरू कुरू स्वाहा।
SSCI5DISTRISTOTRICIDE ४६७ PISIRIDIOSRIRIDICTRICIES
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SIRISEASOISTRIED विधानुशासन A50505TOTECTIONS
होम मंत्रः कृत्वाऽमुं होममाचार्यो ऽविरुद्ध ग्रह शांतिकं पंच पल्लय सेकं च मासे कुर्यात्प्रयत्नतः
॥१२०॥
जंयु दाडिम विल्वाम्र कपित्थानाम् सुपल्लवैःपक्क तोरोन च स्नानं पंच पल्लव सेवनं
॥१२१॥
जिननामऽमिषे कादि पूजां कुर्यात् यथा विधि: मुनीनऽपि यथा शक्ति भोजयेत् सम्यगादरात्
॥१२२॥
एवं त्रिंश दिने कुर्यात् सर्वमेव यथा विधि: एवं कृते प्रयत्नेन सा प्रजायुष्मती भवेत्
॥१२३॥ आचार्य इस होम को जो विरोधी ग्रहों की शांति करने वाली है होम को करके मास के अंत में इन पाँचो पल्लयों के सेवन को यत्नपूर्व करें। जामुन अनार बिल्य आम कैथ (काथोड़ी) के पत्तों के पके जल से स्नान करने को पंच पल्लव सेवन कहते हैं। फिर जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक और पूजा आदि को विधिपूर्वक करे और शक्ति पूर्वक मुनिराजों को भी भलीप्रकार आदर से भोजन करावें। इसप्रकार यत्नपूर्वक के तीसों दिन सर्वकार्य को विधि पूर्वक करें इसप्रकार यत्नपूर्वक कार्य करने से संतान दीर्घ आयुवाली होती है।
इत्यो एते वलयः प्रोक्ता दिनानां त्रिशंतःक्रमात्
शिष्टै एकादश मासाना मुच्यते अथः वलि कमात् ॥१२४॥ इसप्रकार महिने के तीसों दिन का क्रमशः वर्णन किया गया है अब शेष ग्यारह मासों की बलि का वर्णन क्रमशः किया जायेगा।
इति दिन बलि विधानं
द्वितीय मास
द्विमास जातं गृन्हीति रेवति नामिका ग्रही तदा भवेत् स्वर्णमाशीत त्व हस्त पादयोः
॥१२५॥
ग्रीवायाः पुष्टतो भंगो मुख शोषश्च जायते बालस्य पसयां पानंत्ततो मुंचति साग्रही
॥१२६॥
Q5FESSINGS Y೯೭
ಗಣಪಥಳ//g
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PSPSPSP5951 विधानुशासन 9595959596
ॐ नमो भगवती रेवंतिरूपे ऐहि ऐहि इमं बलिं गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा दूसरे मास बालक को रेवती नामकी ग्रही के पकड़ने पर बालक का रंग सोने की जैसी आभा वाला अर्थात् पीला पड़ जाता है। हाथ और पैर ठंड़े हो जाते है। गर्दन के पीछे की भाग टूट जाता है। मुख सूख जाता है और बालक दूध भी नहीं पीता है। यह चिन्ह दिखाई देते हैं तब खीर गन्ने का रस चंदनो और फूलों सहित बलि को सात रात तक दिशा की तरफ रखे, और नीम के पत्ते और नीम के फूल लरसन की धूप दे तथा तिलों के तेल का दीपक जलावे तब मंत्रपूर्वक बलि देने पर ही वह ग्रही बालक को छोड़ती है।
तृतीय मास
मुदमासित तदैवच पायसं चेक्षु दंडं च गंधं पुष्पादिकं बलिं सप्तरात्रं क्षिपेत् साथमुत्तर स्यादिशि ध्रुवं कुसुम निबं पत्राभ्यां लशुनेन च धूपयेत् दीपयेत् तिलतिर्लन त्रिमासं जातं गृहीते यामिनी नामि का ग्रही तदा स्यात् निष्टरो दः स्त्रावोमूत्रपुरीषयो
लाजा चूर्ण च भाषाऽन्नं कदली फल मेवच रक्त चंदन से सिक्तं मृत्सरा येनिवेशितां
अपरान्ह बलिं दद्यात् श्मशाने मंत्रपूर्वकं गुग्गुलं सर्वपं पचाऽपि नीरेण लोड्या लेपयेत्
॥ १२७ ॥
॥ १२८ ॥
॥ १२९ ॥
॥ १३० ॥
सर्प निम्मोंक शार्दूल नरवाभ्यां धूपनं शिशोः एवं सप्तदिनं कुर्यात् ततो मुंचति सा गृही ॐ नमो भगवति यामिनी वज्रपाणी पीत भूषण प्रिय एहि एहि ह्रीं ह्रीं कौं क्रौं इमं बालं मुंध मुंच बलिं गृन्ह गृह स्वाहा ।
तीसरे महिने में बालक को यामिनी नाम की ग्रही पकड़ती है तब बालक बहुत निष्ठरता से रोता है। दस्त आते हैं और पेशाब भी बहुत होता है। उसके लिये धान की खील की चूर्ण उड़द का अन्न केले का फल और लाल चंदन की बलि मट्टे के सराये में रखकर दोपहर ढ़लने पर श्मशान में मंत्रपूर्वक बलि दें। और गूगल सफेद सरसों को पानी में मथकर बालक के लेप करें। सर्प की कांचली और सिंह के नाखूनों की बालक को दें इसप्रकार सात दिन करने से वह ग्रही चालक को छोड़ देती है ।
25252525252525 -- P/50525Y5252525
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5051215015121505 विधानुशासन 20550512505RISH
चतुर्थ मास
चतुर्मास वयस्य तं गन्हीते सा परान्मुरवी तया गृहीत मात्रेण कं पते दक्षिणे करे:
॥१३१।।
सीरं पिवति विश्रश्च तत्तक्षणात् वमति ध्रुवं दारूणं रोदिति श्वेत वर्ण स्यात् शरीरक
॥१३॥
पूति गंधं भवेत्तस्य मुखं च परिशुष्यति न मंत्रं नौषधं तस्य बलिं चापि न कारयेत्
|१३३॥
तथाऽप्टोकां बलिं कुर्यात् मंत्र वादी प्रयत्नतः पत पकऽम पूपं च माषाम्नं माहिषं दधिः
॥१३४॥
पंच वर्ण च गव्यं पयो न्यसेत श्मशान के सप्त रात्रि तथा कुर्यात् देवपूजां च कारयेत्
॥१३५॥
भोजयेत् च मुनीन् सम्यक चतुर्विशति संमितान
आगमाय च वस्त्रादि दद्यात् एवं प्रशाम्यति ॥१३६ ॥ ॐ नमो भगवति परान्मुखी देवते सर्वजन विद्वेषणी कशगात्रे दुनिरीक्षणे सर्वभूत पिशाच पूजिते विकट दंष्ट्रोत्रिनेत्रे ईश्वर प्रिटो एहि एहि ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं इमं बालं रक्ष रक्ष बलिं गृह गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। चौथे मास में बालक को परान्मुखी देवी के पकड़ने पर बालक का दाहिना हाय बहुत काँपने लगता है। बालक दूध भी कठिनता से पीता है उसीसमय वमन करता है बहुत जोर से रोता है। उसके शरीर का रंग सफेद हो जाता है। उसमे गंध आने लगती है उसका मुख सुख जाता है। उसके लिये कोई मंत्र नहीं है उसके लिये कोई औषधि नहीं है। उसके लिये कोई भी बलि नहीं करनी चाहिये। तो भी मंत्र यादि उसके लिये एक बलि यत्नपूर्वक करे घी में पके हुए पूर्व उड़द का अन्न और भैंस का दही, पाँचों रंगों की नैवेद्य और गाय के दूध की बलि को श्मशान में रखे सात रात्री तक इसप्रकार करे और जिनेन्द्र देव का पूजन करावें । चौबीस एकत्रित मुनिराजों को भोजन करायें और शास्त्रों के लिये कपड़ा दे इसप्रकार वह ग्रही शांत हो जाती है।
ಗಣದ xbo Vಥವಾಡಗಳನಿರಿದ
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STERISODEISEX505 विद्यानुशासन 150152SDISTRISOTES
पंचम मास
पंच मास वयस्टांत मा ददात्यंबुजानना तया गृहीत मात्रेण शरीरं कनक प्रभं
||१३७ !!
सीदंति सर्व गात्राणि मुखं च परिशुष्यिति क्षीरं पिबति विश्रष्चरोदित्याऽपि मुहमहः
॥१३८॥
उदनं पायसं चैव दधिकं कसरं तथा पूरिकां धारिकां वैव कुल्माषं सतं तथा
॥१३९।।
दक्षिणां दिशमासृत्या सप्त रात्रं बलि न्यसेत
एवं कुयात्प्रयत्नेन मंत्र वादी समंत्रकं । ||१४०॥ ॐ नमो भगवति अबुजानने देवि सर्वरोग कारिणी सर्व भक्त प्रिये मुंच मुंच दह दह एहि एहि ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं इमं बालं रक्ष रक्ष बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। पाँचवें मास में बालक को अंधुजानना नाम की गृही के पकड़ने पर उसका शरीर सोने जैसा रंग का पीला पड़ जाता है। बालक के सब अंग दुखने लगते है; उसका मुख्य सूख जाता है। वह बहुत कठिनता से दूध पीता है और बार बार रोता है। उसके लिये भात खीर दही लियडी पूरियाँ कचोरी कुलथी और घी की बलि को दक्षिण दिशा की तरफ सात रात्री तक दे। इसप्रकार मंत्र वादी यत्नपूर्वक मंत्र जपता हुआ करें।
छोटे मास
षणमास जातं गन्हीते दीनास्था नामिका ग्रही तया गृहीत मात्रंस्तु तु रोदति स्फुट मेवत
॥१४१॥
मुरखे शोषश्च विश्रचं क्षीरपानं च जायते कुक्षि शूल स्तु तस्या श्चबलिं मैंव निधापयेत्
।।१४२॥
॥१४३॥
सगंध गंध माल्यं च पंच वर्ण चर तथा
तिलस्य पक चूर्णं च माष कुल्माषमेयच STSORRISORTERSIOTE ४७१ DISTRICISIOISTOTSICISCASH
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STERIODESIRETRIES विद्यानुशासन ASPIRCTRICISTRIETIES
रसमिक्षच मृद्धीका धूप स्तैलेन लिपनं पिटेन प्रतिमा कृत्वा सर्वमुत्तर तो दिशि सायंकाले क्षिपे दै सप्त रात्रिं बलिं बुधः
॥१४४॥ ॐनमोभगवतिदीनास्ट देविरावण पूजिते दीर्घ केशिपिंगलाक्षी लंबस्तनिशुष्क गाने एहि एहि आवेशय आवेशय ह्रीं ह्रीं क्रौं क्रौं इमं बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा! छट्टे मास में बालक को दीनास्या नाक की ग्रही के पकड़ने पर वह साफ साफ रोता है। मुख सुख जाता है, दूध कठिनता से पीता है और कोख में दर्द होने लगता है। उसके लिये यह बलि दें।सुगंध (इत्र) गंधमाला (फूलमाला) पांच रंग की नैवेद्य, तिल का पकाया हुआ चूर्ण, उड़द और कुलथी गन्ने का रस, मुनक्का धूप इन सब पदार्थों के साथ साथ एक मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उसको तेल से लेप करे और इस बलि को उत्तर दिशा में सायंकाल के समय दें। पंडित इसीप्रकार सात रात्रि तक करें।
सातवाँ पास
सप्तं मासं धद्योबालं गन्हीते योषिणी ग्रही जंभनं गात्र ताप श्च दंत पीडा स्तना ग्रहः
॥१४६॥
उच्छुस च तथा जाति पुष्प गंधश्च जायते उदनं पाटसं चाऽथ गुडभक्षं तथैव च
॥ १४७॥
कुल्माषं तिल चूर्ण च गंध पुष्पाटऽलंकृतं पूर्वस्यां दिशि सायान्हे सप्त रात्रं बलिं दिशेत
॥१४८॥
बलि मंत्र समायुक्त सर्वमंत्र विशारदः अनालस्टोन कुर्वीत् ततो मुंचति साग्रही
|| १४९॥ ॐ नमो भगवति योषिणी देवते संग्राम प्रिये त्रिशूल धरे विरूपाक्षि जटामुकुट धारिणी कशांगि विकट दष्टे ऐहि ऐहि हीं ह्रीं क्रौं क्रौं आवेशय आवेशय इमं बलिं गृन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ॥
CASIOTICESDISED5015215 ४७२ P151055852751015TOISTRIES
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S5I050510151055105 विधानुशासन PARADISIOSITISSISTRIES
आठवें मास
अष्टमास वयस्यं तं गृहीते वन यासिका मोहश्च सर्षपा काराः स्फोटा मात्रे भवंति च
॥१५॥
॥१५१||
कंपनं याम हस्तस्य मुरव शोषश्च जायते प्राथाशो जीवनं तस्य तद्याप्टोऽवं बलिं हरेत् चरुक स्तिल चूर्णं च सा पूपं स पतं सं ईक्षोशूर्ण मादाय शीघ्र मुत्तर तो दिशि
॥१५२॥
सप्तं रात्रं बलिं दद्यान्मत्रे णैव सधूपत: एवं पात प्रकरणेज मतो यति साग्रह
||१५३॥ ॐ नमो भगवति वनवासिके एहि एहि ही ह्रीं कौं क्रौं आवेशय आवेशय इमं बाल रक्ष रक्षा त्वदलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। आठवें मास में बालक को यनवासिका देवी के पकड़ने पर शरीर में सरसों के बारबर दाने से फूट आते हैं। बायाँ हाथ काँपने लगता है, मुख्य सूखने लगता है, उसका जीवन संकट में पड़ जाता है उसके लिये यह बलि दे। नैवेद्य तिलों का चूर्ण पूए घृत ईख का रस और चूर्ण को लेकर उत्तर दिशा में मंत्र पूर्वक धूप सहित बलि दे। इसप्रकार सात रात करने पर यह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
नवें मास
नव मास वयस्थं तं गन्हीते ऽथ समुद्रिका तदा निष्टर रोदश पाटली गंध संभवः
॥१५४॥
क्षीर पानांतंरा छदिज्वर रोगो विवर्णता प्रश्रावश्च भवे तस्य तदा दधाति इयं बलिं
॥१५५॥
चरुकं पायसाउन्नं च कुलमापं धान शक्तु मत् माष पूपं च स दधि पश्चिमायां दिशि कमात्
॥१५६॥
STORISEASICS505510551065४७३ PASCISTOSTSSIOTECISION
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959595951
विधानुशासन 95959595
गंध पुष्पादि संयुक्तं बलिं मंत्रेण मंत्रवित् न्यसेत्सप्तदिनं सायं ततो मुंचाति साग्रही
॥ १५७ ॥
ॐ नमो भगवीत समुद्रिके वज्रधारिणी पीत वर्ण भूषण प्रिये एहि एहि आवेशय आवेशय ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रौं इमं बालं रक्ष रक्ष त्वद्वलिं गृह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। नवे मास में बालक को सामुद्रिका गृही के पकड़ने पर बालक निष्टरता से रोती है। उसके शरीर में पाटली (पांटूफली) की जैसी गंध आती है। वह दूध नहीं पीता उसको उलटी और ज्वर होने लगता है, रंग फीका हो जाता है, उसको बार बार पेशाब होने लगता है तब उसको यह बलि दे । नैवेद्य खीर का भोजन कुलथी धान का सत्तू, उड़द के पूर्व और दही को क्रम से लेकर पश्चिम दिशा गंध और फूल आदि सहित मंत्रपूर्वक बलि दें। इसप्रकार सायंकाल के समय सात दिन तक बलि रखने से वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
दसवें मास की रक्षा
बालकं दशमे मासे गृन्हीते सुकला ग्रही ततोद्वेजनमायं च स्तन द्वेषश्च जायते उदनं पायसं दधिशक्तु समन्वितं पंच भक्षं तथा पक्क माष मिक्षुरसं तथा
पिष्टस्य विकृतान् मेरी माणि चक्र ध्वजानऽपि तैल दीपं पंच गंधादि चोत्तरस्यां दिशि क्रमात्
॥ १५८ ॥
॥ १५९ ॥
॥ १६० ॥
सप्तरात्रं तु देशा तन्मंत्रवादी समंत्रकं एवं कृते प्रयत्नेन ततो मुंचति साग्रही
॥ १६१ ॥
ॐ नमो भगवति सुकलेगदायुध धारिणी मुक्ता भूषण प्रिये एहि एहि आवेशय आवेशय ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रौं इमं बालं रक्ष रक्ष त्वद्वलिं गृह गृन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा । दसवें मास में बालक को सुकला नाम की यही के पकड़ने पर घबराहट आदि हो जाती है और स्तन का दूध लेने से द्वेष करता है। उससमय भात, खीर, दही और सत्तू पाँचों प्रकार के भोजन और पके हुए उड़द गन्ने का रस तथा इसको पीसकर मेरी मणि चक्र ध्वजादि तेल का दीपक और पाँचों तरह की सुगंध आदि सहित उत्तर दिशा की तरफ सात रात तक बराबर मंत्रपूर्वक मंत्रवादी
बलि दें इसप्रकार प्रयत्न करने से यह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
やすでにおか
95950६ ४७४ SSP
ってちゃらです
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SSIOISIOTHRISTRATI25 विद्यानुशासन 1501512152510151215
ग्यारहवें मास की रक्षा
बालमेका दस मासे वंधु मुख्या विशेत तदा मोहो ज्वराति साहश्च रोदनं च भवेन्मुहः
॥१६२ ॥
भक्तं गंध समायुक्तं दधि पायस परिकां गंधं पुष्पादि प्रदीपादि सोभितं स हिरण्यकं
॥१६३॥
पूर्व द्वारे बलिं न्यसेत् मध्यान्हे दिन सप्तकं शुद्धो ध्यान परोमंतकी ततो मुंचति साग्रही
॥१६४॥ ॐनमोभगवति वंधुमुरव्ये वज्रधारिणी पीतभूषण प्रिये एहि एहि आवेशय आवेशय
ह्रीं ह्रीं क्रौं कौं इमं बालं रक्ष रक्ष त्वदलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। ग्यारवें दिन मास में बालकको बंधु मुक्या ग्रही के पकड़ने से पर मोह ज्वर और दस्त होते हैं, और वह बार बार रोता है। उसके लिए गंध सहित भोजन दही खीर पुरू धूप दीपक आदि से शोभित सोने सहित बलि को दोपरहर के समय पूर्व दरवाजे पर शुद्ध ध्यान में लगा हुआ मंत्री सात दिन तक मंत्र को जपते हुए तब वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
बारहवें मास
बालकं द्वादशे मासे गृहीते चपला ग्रही प्रस्थति स्पश्यति प्रायो वालो मुंचति च धुवं
।।१६५॥
स्वेतानं दधि कुल्माष तिल चूर्ण समंत्रकं पूर्वस्यां दिशि मध्यान्हे बलिं सप्तं दिनं न्यसेत्
॥१६६॥
पंच पल्लव पक्कांबु स्नपनं स्वेत सर्षपं गुग्गुलं लसुनं चाऽपि धूपटो त्साऽमपि मुंचति
॥१६७॥ ॐ नमो भगवति चपले इटि मिटि पुल्लिंदिजिएहि एहि आवेशय आवेशय हीं हीं क्रौं
कौं इमं बालं रक्ष रक्ष त्वदलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। बारहवें मास में बालक को चपला नाम की ग्रही के पकड़ने पर वह अत्यंत दुख पाता है प्राय चिपटने लगता है फिर छोड़ देती है। उसके लिये श्वेत अन्न (चावल) दही कुलथी तिल के चूर्ण की बलि को मंत्र सगित पूर्व दिशा में दोपहर में सात दिन तक रखे पांचो पत्तों के पके हाए जल में स्नान करायें और सफेद सरसों गुगल और लहसून की धूप दें। तब वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
STRICIDISASTRISTRISIOSOTE ४७५ PISTRI5015050SRIDIOIST
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SSTRICISCISIOI505 विधानुशासन HERISTOTRICISCISION
अर्थ शोडष वर्ष रक्षा
दिने दिने बलिं कुर्वते मंगल स्नानवा त्रिंक दत्वा बलिं ततो होमं विदधीत यथा विधि:
॥१६८॥ इसप्रकार प्रतिदिन बलि देता हुआ मंगल स्नान करके (नित्य घर में स्नान करने की गृह स्नान कहते है) ग्रहण श्रावणी आदि स्नान को नैमितिक स्नान तथा विधानादि वियाहादि संस्कारों के समय स्नान को मंगल स्नान तथा अन्य पापों से शुद्ध होने के समय स्नान को प्रायश्चेति स्नान कहते हैं) अथवा मुँह हाथ धोकर बलिं देकर विधि पूर्वत होम करें।
बलिं होम विधाननांते देवपूजा यथा विधि कारयित्वा यथा सम्यगाचार्य मऽमपि पूजयेत् ॥ १६९ ॥
अनुमानं च तांबूल क्षोमादिवसनेन च चंदनाद्यऽर्चनागेन तत्तन्मासे हिकारटोत्
॥१७०॥
।।१७१ ॥
विधिना भोजये न्नित्यं पूर्वोक्तां श्च तपस्विनः मासे मासे कृते येषु सर्वशांति भविष्यति पंच पल्लव नीरेन स्नपनं च तत्तः शिशो बामणेऽप्य बिकाद्याश्च पूजा पूर्वातित्क्रमात
॥१७२॥
आचार्य पूजयेत्पश्चात् यस्त्रायैः सर्ववस्तुभिः अनेन बलिनात् तुष्टा शिशुत्यजति चापला
॥ १७३ ।।
इत्यं निगदिताः सर्व बलयो मास गोचराः अथोच्यते द्वितीयादि संबत्सर बलि कमः
॥१७४॥ बलि और होम के विधान के अंत में विधि पूर्वक देवपूजा करके भलीप्रकार आचार्य का भी पूजन करें। उसका पान और रेशमी वस्त्रों से सत्कार करके चंदन आदि से प्रत्येक मास में पूजन करे विधिपूर्वक नित्य मुनिराजों व तपस्वियों को भोजन करावें इसप्रकार प्रतिमास करने से सर्वशांति हो जायेगी। फिर बालक को पांच पत्तों के पकाये हुये जल से स्नान करावे तथा पूर्योक्रम से देव देवियों का पूजन करें। इसके पश्यात वस्त्र आदि सब यस्तुओं से आचार्य की पूजा करे तथा बलि से संतुष्ट हुई चपला ग्रही बालक को छोड़ देती है। इसप्रकार सब महिनों की बलि का विधान कहा है तथा आगे दूसरे वर्ष से शुरु करके वर्षों की बलि विधान को क्रम पूर्वक कहा जायेगा।
SARIRISTOTRIOTECISIOSOTE ४७६ PISTICISIONSCISCIRCTRICIST
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050151275015015125 विद्यानुशासन 510550150ISTRIES
इति बारह मास बलि विधानं
द्विवर्ष जातं गृहीते रक्त कंठी ग्रही धुवं तदा रक्तऽतिसारं श्च ज्वरोऽप्यरूण मूर्तिका
॥१७५॥
रक्तता नेत्रयो हासो सत्कद गात्रस्य पूतना पायसं शुद्ध भक्तं च कुल्माषं शर्करा दधि
॥१७६॥
का पकं गाय भूप दीगो स मन्तितं पिष्ट वकं च पूर्वस्यां दिशि सप्तं दिनं हरेत्
॥१७७॥
लसुनं सर्प निम्मोंक सिंदूरैश्च प्रधूपनं निंब विल्वज पनांबु स्नानं चंदन लेपन स्नपनं शांतिनाथस्ट विधि पूर्वेण कारयेत्
॥१७८॥ ॐ नमो भगवति रक्त कंठी कुमार वेगिनी भिंद भिंद मुरव मंहिते कह कह हन हन वर्ष तुंदरसे विरल दंतिनि आकाश देवते भज भज स्वाहा। दूसरे वर्ष में बालक को रक्तकंठी नाम की ग्रही पकड़ने पर खून के दस्त बुखार शरीर में लाली, दोनों आंखो में ललाई (लाल रंग) हंसी और कभी कभी शरीर में सफेद हो जाती है। उसके लिये नीर शुद्ध भोजन कुलती शकर और दही खिचड़ी पके हुए उड़द, धूप, दीपक और पिसे हुए पापड़ की बलि को पूर्व दिशा में सात दिन तक मंत्र पूर्वक दें। लहसून सर्प कांबली और सिंदूर से धूप दें। नीम और बील के पत्तों से पकाये हुये जल से स्नान करावें. और चंदन का लेप करें। भगवान शांतिजी का विधिपूर्वक अभिषेक करे।
त्रिवर्ष जातं गन्हीते सोमीनाम ग्रही धुर्व तया ग्रहीतमात्रस्तु चक्षुभ्यांतु न पश्याति
॥१७९॥
सीदति सर्व गात्राणि ज्यराति सारवान् भवेत् कंपेत् वाम हस्तश्च भोजनं च न रोचति
॥१८॥
पूर्वस्यां दिशि सायान्हे सप्त रात्रं बलिं हरेत् वचा लसुन सर्पत्वग जा केशैश्च धूपयेत्
॥१८१॥
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विद्याभुशासन 55
पंच एवं कृते प्रयत्नेन ततो मुंचति साग्रही पल्लव पक्वांबु स्नानं चापि प्रयोजयेत् स्नपनं शांतिनाथस्य विधि पूर्वेण कारयेत्
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॥ १८२ ॥
ॐ नमो भगवति शोभी नाम देशिनी भिंद भिंद मुख मंडित कह कह हन हन घट शीशे विरल दंतिनी आकाश देविते भज भज स्वाहा ।
तीसरे वर्ष में बालक को सांमी नाम की ग्रहां के पकड़ने पर बालक को आंखो से दिखलाई नहीं देता है। इसके सब अंग दुखने लगते हैं। उसको बुखार और दस्त होने लगते हैं । उसका बाँया हाय कांपने लगता है । उसको भोजन भी अच्छा नहीं लगता है। उसके लिये भात, खीर, दही, खिचड़ी कुलथी, उड़द का चूर्ण, गंध फूल और दीपक की बलि को पूर्व दिशा में सायंकाल के समय में सात रात तक दें और यच, लहसून, सर्प-कांचली, बकरी के बालों की धूप दें। पाँचों पत्तों के पके हुवे जल से स्नान करावे और भगवान शांतिनाथजी का विधिपूर्वक अभिषेक करावे । चतुवत्सरिकं बालं गृहीते चंचला ग्रही तया गृहीत मात्रस्तु ज्वरेण परिपीडयतेः
आमोटयति गात्राणि त्रसते च पुनः पुनः पंच वर्ण चरुं तद्वत गंधमाल्य प्रदीपकान्
॥ १८३ ॥
॥ ९८४ ॥
सप्तरात्रं बलि दद्यात्त सायं पूर्व दिशि क्रमात् धूपयेन्मेषचंगन गोदंतेन नखेन वा स्नापयेत्पंचगव्येन ततो मुंचति साग्रही ॐ नमो भगवति चंचले मोहसिन कह कह हन हन घट शीशे विरल दंतिनि आकाश रेवति भज भज स्वाहा ॥
॥ १८५ ॥
चौथे वर्ष में बालक को चंचला नाम की ग्रही के पकड़ने पर बालक को बुखार आ जाता है। उसका शरीर सूज जाता है। बालक बार बार कष्ट पाने लगता है। उसके लिये पाँचो रंगो का भोजन नैवेद्य और उसी तरह की फूल माला और दीपक की बलि को सायंकाल के समय पूर्व दिशा में सात रात तक दें। और भेंड के सींग गाय के दांत या नाखूनों की धूप दें और गाय, घी, दूध, दही, गोबर तथआ मूत्र (पंच गव्य) से बालक को स्नान करायें। तब यह ग्रही उसे छोड़ देती है।
पंचवत्सरं बालं च दाहेष्याश्रयते गृही तया गृहीत मात्रेण चक्षु यि नैव पश्यति
◎すすめですらたちでらでらでらでらでらでら
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CHOIDESIRSCIROIDOS विधाकुशासन HSCSIDISTRISADISCESS
सौदंति सर्व गात्राणि मुरयं च परिसुष्यति ज्वर स्तथाऽतिसार श्च तदानीं भवति धुवं
॥१८७॥
उदनं पायसं चैव कसरं च गुंडोदनं कुल्माषं च दधिज्माज्यं पंच भक्ष समन्वितं
।।१८८॥
सप्त रात्रं बलिं दद्यात् उत्तरस्यां दिशि क्रमात् लसुनं सित सिद्धार्थ नर केशेन धूपयेत् एवं कते प्रयत्नेन ततो मुंचति साग्रही
॥१८९॥ ॐ नमो भगवति दाहेष्टि कुमारि दाशिनि छिंद छिंद मुख मंहिते कह कह हन हन
घट शीसे विरल दंतिनि आकाश रेवति भज भज स्वाहा। पाँचवें वर्ष में बालक को दाहेष्टी नाम की ग्रही पकड़ती है उसके पकड़ने मात्र से बालक को आँखो से नहीं दिखता है। उसके सब अंग दुखने लगते हैं । मुख सूख जाता है। और उसको ज्वर और दस्त निश्चयपूर्वक आने लगते हैं। उसके लिये भात खीर खिचड़ी तथा गुड़ का भोजन कुलयी दही, घृत और पाँचों प्रकार के भोजन को सात रात तक उत्तर दिशा में बलि मंल पूर्वक दें तथा लहसून सफेद सरसों और आदमी के बालों की धूप दें, इसप्रकार प्रयत्न करने पर वह यही बालक को छोड़ देता है।
षद सांवत्सरिकं बाल गन्हीते स्वैनिका ग्रही तया गहीत मात्रस्तु दारुणं रोदिति धुवं
॥१९
॥
आकाशं च निरीक्ष्यते यामि यामीकि भाषसे ज्वर रोगाति सारश्च जायते नात्र संशयः
॥१९
॥
उदनं पायसं चैवं दया कसर मे एव च पूरिका धारिका चैव तथा गंधादि संयुतं
॥१९२॥
सप्त रात्रं बलिं दद्यात उत्तर स्यां दिशि क्रमात् धूपटोत्मेष अंगेन गोदंतेन नरवेनवा स्नापटोन्त्र भंगेन ततो मुंचति साग्रही
॥१९३॥
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CBIDI501501501525 विधानुशासन 505051015105505
ॐनमो भगवति स्वेनिकायै बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंचकुमारिकायै स्वाहा। छठे वर्ष में बालक को स्वैनिका ग्रही पकड़ती है उसके पकड़ने मात्र से बालक भयंकर रूप से रोता है। वह आकाश की तरफ बार बार देखता है और मिन मिन करके बोलता है उसको ज्वर और अतिसार निस्सन्देह हो जाता है। उसके लिये भात, खीर, दही, खिचड़ी, पुरी, कचौरी और सुगंधित धूप दीपादि सहित सात रात तक उत्तर दिशा में क्रम पूर्व मंत्र पढ़ते हुये बलि दे। तथा भेड के सींग गाय के दांत अथवा गाय के नाखूनों की बालक के धूप दें। बालक को पत्र भंग जल से स्नान कराये ऐसा प्रयत्न करने पर वह ग्रही छोड़ देती है।
... -
सप्त वार्षिक माधत्ते उग चामुंडी नामिका निस्वासोपि च दिवारानं भूमौ पातो ज्वरोऽरूचि
॥१९४॥
पायसं पूरिका पूपं कुल्माष कसरं दधिः चतुः संध्यादु दीच्यां तं दर्भेषु बलिमा हरेत्
॥ १९५॥
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धूपये ज्जतुका पूप फल पत्र समायुतं
एवं सप्त दिनं कुर्यात् ततो मुंचति साग्रही ॐनमो भगवति कुष्मांडी देवि उग्रचामुंडी जुहुयं मुंचमुंचदह दह पच पच उसर उसर
बलिं गृह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। सातवें वर्ष में बालक को कुष्मांडी ग्रही के पकड़ने पर बालक रात दिन जोर से श्वाष लेता रहता है वह जमीन पर लोटता है तथा उसको बुखार और अरूचि हो जाती है। उसके लिये खीर, पुरी, पुये कुलथी और दही की बलि को चारों संध्याओं में उत्तर दिशा में डाभ के ऊपर दें। और लाख पूवे फल और पत्तों की धूप दे इसप्रकार सात दिन करने से वह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
अष्ट वर्ष वयो बालं गृहीते राक्षसी ग्रही रोदनं गर्जनं चाऽपि त्रसनं च भवेत् तदा
॥१९६॥
पायसं कसरं पंच भेदभक्षयतं तथा कुल्माषं माष चूर्ण धूपं गंधादि संयुतं
॥१९७॥
तद्दद्यार्थऽर्द्ध रात्री सप्त रात्रं बलिं हरेत् सर्प निम्मोक निगंडी पिछला लसुन धूपयेत्
॥ १९८॥
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पंचपल्लव पंकांबु स्नानं चापि प्रयोजयेत्
॥ १९९ ॥
एवं कृत प्रयत्नेन स्वस्थो भवति बालकः ॐ नमो भगवति राक्षसी कुमारी वेशिनी छिंद छिंद भिंद भिंद मुख मंडिते कह कह हन हन पुश्चलि विरल दंति आकाश रेवति भज भज स्वाहा ।
आठवें वर्ष में बालक को राक्षसी नाम की ग्रही पकड़ने पर बालक रोता है, गरजता है और बहुत इरता है। उसके लिये खीर- खिचड़ी पाँचों प्रकार के भोजन, घी, कुलथी, उड़द का चूर्ण, धूप और गंध आदि सहित मंत्र जपते हुए । बलि को अर्द्धरात्री में सात दिन तक दें, सर्प कांचली निगंडी (सेंभल) पिच्छला ( मोर पंखा ) और लहसून की धूप दें। पाँचों पत्तों के पके हुये जल से स्नान करावे इसप्रकार प्रयत्न करने पर बालक स्वस्थ हो जाता है।
गुड संयुक्त पयसा तिल सिद्धार्थ मिश्रितैः क्षीर वृक्ष समिद्धिश्च मंजेज होग
ॐ मुंच मुंच एहि एहि जय जय आगच्छ आगच्छ बालिके स्वाहा ।
गुड में मिले हुए जल दूध तिल और सफेद सरसों को उपरोक्त मंत्र से मंत्रित करके दूध वाले वृक्षों की समिधाओं से होम करें।
नव संवत्सरे जातं शरसाला नामिका ग्रही तदा ज्वरोऽतिसारश्च काइयं चारिप भवेन्महत् चतुर्विद्य चरु भाषा पूपं दधि समन्वितं गंध पुष्पादि संयुक्तं सप्तं रात्रं समंत्रकं
॥ २०० ॥
सायमुत्तर काष्टायां बलिं दद्यात् विचक्षणः बिल्वाऽरिष्टक पत्राभ्यां पक्कांबु स्नान में एवच
॥ २०१ ॥
॥ २०२ ॥
॥ २०३ ॥
वचा सिद्धार्थ लसुनै कल्कैनापि प्रलेपयेत् गजदंत न केशं मेष श्रृंग च धूपयेत् ॐ नमो भगवति रुधिर वेशिनि शरशाला विशालिनि छिंद छिंद मुख मंडिते कह कह हन हन घट शीशे विरल दतिनि आकाश रेवति भज भज स्वाहा ।
वर्ष में बालक को शरशाला नाम की ग्रही के पकड़ने पर ज्वर अतिसार और बड़ी श्वास खांसी का कष्ट होता है। उसके लिये चार प्रकार की नैवेद्य उड़द के पुवे दही के साथ गंध पुष्पमाला आदिग की बलि को मंत्र पूर्वक सात रात तक बुद्धिमान सायंकाल के समय उत्तर दिशा में बलि दें। तथा बिल्व और अरीठे के पत्तों के पके हुवे चल से स्नान करें । वच और सफेद सरसों लहसून के कल्क
का लेप करें तथा बालकके हाथी दांत मनुष्य के बाल और भेड़ के सींग की धूप दें।
ちこちとらたちに554 Pちこちにちにちたらたらす
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CISIOSSIPISIOX5125555 विद्यानुशासन USD55055OTSITORS
दश वर्ष जातं बालं चंडी गन्हान्ति देवता तदानीं वहु सो मूत्रं क्रोधः कंपो ज्वर स्तदा
||२०४॥
अक्षिरोग स्तथा भ्रांति भोजन स्याऽल्पता महत् पानं च धावनं नित्यं गानं निष्टर भाषणं
||२०५॥
याभि यामीति वतनं हसनं च भवेत् तदा पायसं गव्यं सपिश्चदधि लज्जे समान्वितम
॥२०६॥
आपूपं धान्यकं चापि कुमुंदं करवीर कं गंधादि संयुतं सायं न्यसेत् उत्तरतो बलिं
॥२०७॥
ससाधा कुर्यात् जिज पूजाश्च भक्तितः ऋषीणां भोजनं चापिदु श्चिकित्साहि सा पुतः It२०८॥ गुग्गुलं तगरं कुठं नरवं चाऽपि प्रधूपयेत्
स्नापटोत्पत्र भंगेन ततो मुंचति साग्रही। ॥२०९॥ ॐ नमो भगवित चंडी रावण पूजिते दीर्य केशि पिंगलाक्षि लंबस्तनि शुष्क गात्रे प्रजा पीडन परे एहि एहि आवेशय आवेशय ही ही क्रौं क्रौं इमं बलिं गन्ह ग्रन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। दसवें वर्ष यालक को चंडी ग्रही के पकड़ने पर बालक के बहुत मूत्र क्रोध कंप ज्वर आंखों का रोग भम भोजन का क्रम खाना पानी बहुत पीना दौड़ना सदा गाते रहना और निष्ठरता से बात करना आदि रोग हो जाते हैं। मिन-मिन करके बोलना कभी-कभी हंसती भी है। तब उसके लिए खीर गाय का घृत दही, और लाजा (धान की खील) पूर्व चावल का अनाज, सफेद कमल और कनेर के फूल धूप फूल माला सहित सायंकाल के समय उत्तरादि शामे बलि मंत्र सहित दें। और इसीप्रकार सात रात तक करता हुआ भक्ति सहित जिनेन्द्र देयपूजा और मुनियों को भोजन कराता हुआ चिकित्सा करें। गूगल तगर कूढ़ और व्याघ्र के नाखूनों को धूप दे। और पत्र भंग जल से स्नान कराये तब यह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
एकादश समाजातं गन्हीत श्रुण कोकिला तदा का साक्षि रोगश्च काक रावश्च जायते
॥ २१२॥
CASIOIDIOTICISIOISIO5CTE ४८२ PISTRISTRISTRIESSETTES
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CSRISP5950015015 विधानुशासन 350015015015251315
पायसं त्रिविध' भक्ति यथिका मधुमेवच बलिंऽभिक्षु रसं दद्यात्संध्यायां सप्तरात्रिकं
॥२१३॥
वचालशन सिद्धार्थ तगरै धुपये च्च
तत पत्र भंगेन से स्नायात् ततो मुंचति साग्रही ॥२१४॥ ॐनमो भगवति श्रुणुकोकिलायै बालक वाधन प्रिटाटौ सर्व प्राणी प्रमोहनारी इमं
बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंच स्वाहा। ग्यारहवें वर्ष में बालक को श्रुण कोकिला नाम की ग्रही के पकड़ने पर खांसी आंख का रोग हो जाता है और बालक कौवे के समान शब्द करने लगता है। इसके लिये खीर तीन प्रकार का भोजन थिका जूही और महुये और ईख के रस की बलिं को सायंकाल के समय सात रात तक दें। फिर बालक को वघ, लहसून सफेद सरसों तगर की धूप दें।और पत्र भंग जल से स्नान करावे। तय यही उस बालक को छोड़ देती है।
द्वादशाब्द ययस्थं तं गन्हीते निर्द्धना ग्रही दंत संघट्टन काश्य मुरव शोषं मूर्द्ध कंपनं
॥२१५॥
रक्त पुष्पं सितऽक्षिं च तदा तस्य भवंतिहि उदनं पयसा युक्तं गुडेन चंदुनं तथा
॥२१६॥
कुल्माषं तिल चूर्ण च गंध पुष्प समन्वितं सायमुत्तरतो न्यसेत बलिं सप्त दिन कमात्
१२१७॥
अश्वत्येन समायुक्त पत्र भंगेन सिंचयेत् धूपये निंब सिद्धार्थ तगरैः सापि मुंचति
॥२१८॥ ॐ नमो भगवति निर्द्धनि वाम रूप धारिणी धम धम धामय धामय एहि एहि इस
बालकं मुंच मुंच बलिं गन्ह गृह स्वाहा। बारहवें वर्ष में बालक को निर्द्धना नाम की नहीं के पकड़ने पर बालक दांत पीसता है, दुबला हो जाता है। उसका मुख सूखने लगता है और सिर हिलाने लगता है। उसकी आँखे पहिले लाल होकर पुष्प (फूल) पड़ जाता है, फिर आंखे सफेद हो जाती हैं। उसके लिये दूध गुड़ चंदन कुलथी तिलो का चूर्ण गंध और पुष्प की बलिं को सायंकाल के समय उत्तर दिशा में क्रम से सात दिन तक दें। फिर बालक को पीपल सहित पत्रं भंग जल से स्नान करावे और नीम सफेद सरसों तथा तगर से धूप दें। तब यह गाही बालक को छोड़ देती है।
85015015105PISIO751015 ४८३ PISTO15015015015015TOSS
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CHSRISO151015015105 विधानुशासन V50505IOSITISIOS
त्रियो दशाऽब्द संजातं गन्हीते कामुका ग्रही तदा ज्वरोति शूलश्च रोदनं दारूणं भवेत् ||२१९॥
पतेनाभ्यंजनं सर्पि पानं चापि प्रयोजयेत् पायसं तिल चूर्ण च दधि कुल्माष मिश्रितं
॥२२०॥
शालि भक्त च गंधादि संयुतं मंत्रपूर्वकं मध्यान्हे तु बलिं दद्यात्त श्मशाने सप्त रात्रक
॥२२१ ।।.
गुड सिद्धार्थ लसून धूपनं च प्रयोजयेत्
एवं कृते प्रयत्नेन बालं मुचिंति साग्रही ||२२२॥ ॐ नमो भगवति कामुकाये काम व्यासनि विसौम्य विलासिनी छिंद छिंद मुख मंडिते कह कह हन हन यट शीशे विरल विरल दंतिनि आकाश रेवति भज भज
स्वाहा। तेरहवें वर्ष में बालक को कामुका नाम की ग्राही के पकड़ने पर बुखार और बहुत दर्द होता है। तथा बालक भयंकर रूप से रोता है उस समय घी से मालिश करे तथा घी पिलावे तथा खीर तिलों का चूर्ण दही कुलथी मिलाकर चावल का भोजन और गंध आदि की बलि को मंत्रपूर्वक दोपहर के समय श्मशान में सात रात तक दें। तथा बालक को गुड़ सफेद सरसों लहसून की धूप भी दें इसप्रकार प्रयत्न करने पर बह ग्रही बालक को छोड़ देती है।
चतुर्दशाब्दजातं तं गन्हीते भैरवी तथा ज्वरश्च पूति वळत्यं भूमौ च परिवर्तनं
॥ २२३॥
उर्द्ध वासः प्रकंप श्री द्विग्न त्वं रूधिराभंव सर्वमेव यदि भवेद साध्यं त्वं ऽन्यथा क्रिया
॥२२४॥
कसरं क्षीरमऽन्नं च गंध पुष्प बलिं क्रमात पूर्वस्यां दिशि मध्यान्हें सप्त रात्रे निधापयेत्
॥ २२५॥
पंचकेन्पल्लवैः स्नाया तगरं येणु चर्म च गज दंतं च संहत्य धूपनेन तत् प्रशाम्यति
॥२२६ ।। CHODISCISIODICISESSIPAHI ४८४ PASTOTRICTARTICISIRIDICIES
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C52525252595_ kengeneza 952525252525
ॐ नमो नमश्चचामुंडे भैरवी देवी हूं फट ह्रीं ह्रीं अप सरतु दुष्ट ग्रहान हुं तत्र गच्छतु गृहान्तु तत्र स्व स्थानं हरेणाज्ञा पयति स्वाहा ।
चौदहवें वर्ष में बालक को भैरवी के पकड़ने पर बुखार दुर्गंध शरीर में ठंडा पन भूमि में लोटना ऊँचा श्वास कंप घबराहट हो जाती है तथा खून बहने लगता है यदि यह सब लक्षण हो तों बालक अच्छा नहीं हो सकता अन्यथा उपाय करना चाहिये। खिचड़ी दूध अन्न (खीर) धूप फूल माला की बलि को क्रम से पूर्व दिशा में पूर्व दिशा में दोपहर के समय सात दिन तक देवे। पांचो पत्तों के पके हुवे जल से स्नान करावे और तगर बांस के छिलके तथा हाथीदांत को मिलाकर धूप दें। इससे ग्रही शांत होकर बालक को छोड़ देती है ।
पंचदश वर्ष जातं गृहीते चंडिनी ग्रही भूमौ पातो ज्वरार्दिनिंद्रा च बहुला भवेत
चंदनं पायसं चैवं कसरं दधि भोजनं कुल्माषं तिल चूर्ण च चूत रंभादिसत्फलं
उत्तरस्यां दिशिन्यसेत् सायं सत दिलं क्रमा अश्वगंधा मधूकाभ्यांषणांबु स्नानमाचरेत्
॥ २२७ ॥
॥ २२८ ॥
॥ २२९ ॥
॥ २३० ॥
सिद्धार्थ लसुनं मेष श्रृंगं चादाय धूपयेत् एवं कृते प्रजारोगान् निवत्यैत् धुवं ततः ॐ नमो भगवति चंडिनिकाये श्येत माल्य विभूषितायै कर्पूर क्ष्यौद दंतुरायै ऐहि ऐहि इमं बालं गृह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ।
पन्द्रहवें वर्ष में बालक को चंडिनी नाम की ग्रही पकड़ती है तब यह पृथ्वी में लौटता है। ज्वर वमन तथा उसे बहुत नींद आती है। उसके लिये चंदन खीर खिचड़ी दही भोजन कुलथी तिल का चूर्ण आम और केला आदि अच्छे फलों की बलि को उत्तर दिशा में सायंकाल के समय सात दिन तक दें । असंगध और महुवे के पकाये हुवे जल स्नान करावे सफेद सरसों लसुन भेड का सींग लाकर उसकी धूप दें इसप्रकार प्रयत्न करने पर निश्चय से संतान के रोग से छुटकारा मिल जाता है ।
ग्रही
शोडषाब्द समाजातं गृहीते रौरवी ज्वरश्चाद्विग्नाता शोषोत्पादश्च स्यु बहु विक्रियाः
959595959PP ४८ PAPP9695959
॥ २३१ ॥
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でらでらでらでらたん faengkata Y5たらどらどらですぐり
पायसान्नं च कुल्माषं दया कृशमे वच गुडं घृतं गंधादि कदल्यादि फलैर्युतैः
पूर्वस्यां दिशि मध्यान्हे निंदध्य त्सप्तरात्रकं धूपरोन्मेष श्रृंगेण स्नापये त्पंच पल्लवैः
॥ २३४ ॥
गंधोदकैः समंत्रण सर्वरोगान् विनाशयेत् एवं कृते प्रयत्नेन सर्वशांति भवेत्यलं ॐ नमो भगवति रौरवी इम बलि गृह गृह बालकं मुंच मुंच कुमारिकायै स्वाहा । सोलहवें वर्ष में बालक को रौखी नाम की ग्रही के पकड़ने पर बुखार घबराहट शोध (सुकने का रोग) और बहुत प्रकार के विकार होते हैं। खीर का अन्न, कुलथी, खिचड़ी, गुड़, घी, दही, चंदन, केले आदि फलों से युक्त बलि को पूर्व दिशा में दोपहर में सात दिन रखे भेड़ के सींग को दूप दें । और पाँचों पत्तों के पकाये हुए जल से स्नान करायें। और गंधोदक को अभिमंत्रित करके लगाने से सर्वरोग नष्ट होते है तथा ऐसे प्रयत्न करने पर सब प्रकार की शांति होती है।
॥ २३२ ॥
एवं बाल ग्रहावेशे दिन मासाऽब्द गोचरे यानि यान्युदिताऽन्यत्र चिन्हा वन्येषामऽशेषतः
॥ २३५ ॥
इसप्रकार बाल को पर ग्रह का प्रकोप आने पर दिन महिने और वर्षो में जो जो चिन्ह होते है वह सब यहाँ पर कह दिया है।
स्नातः प्रसन्न वस्त्राभ्यां परिधानोत्तरीय युक मांगुलीय शुद्ध स्सन सकली कृत विग्रहः
॥ २३३ ॥
अभावेऽप्यऽन्यथा भावे यथा कालं यथोदितं बलिं कर्म तथा कुर्यात् दुर्ज्ञानं हिग्रहेहितं
॥ २३६ ॥
यदि वह चिन्ह नहीं हो या अन्य प्रकार से होवे तो भी काल के अनुसार बलि कर्म को करे क्योंकि ग्रहों का ज्ञान अत्यंत कठिन है।
बलिदान प्रशस्तांगो व्रत शील विभूषणः अलुब्धो वत्सल धीरः सम्यग्दृष्टि दयार्द्र घीः
॥ २३७॥
स्नान करके उज्जवल धोत्ति और दुपट्टा पहिन कर सोने की अंगूठी धारण किये हुए सकली करण क्रिया को करें।
PSP/SPSS
॥ २३८ ॥
52525 --- P5252525050505.
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959595952
विधानुशासन
9595969595195
बलिदान के लिये प्रशंसनीय ब्रह्मचर्य और व्रतों को आभूषणों से विभूषित लोभ रहित सह धर्मियों से प्रेम करने वाला धीर दयावान सम्यग्दृष्टि पुरुष ।
प्राग मुखस्य समासीन स्योत्तराश मुरवस्थच बालस्योपरिमंत्रेण सराव बलिं ततः
॥ २३९ ॥
पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ मुख करके बैठे हुवे बालक के ऊपर मंत्र से बलि की तीन बार उतारा
करे ।
दास्यामि त्वद्वलिं हे देवि मुंचे नं चे ति तद्भुति निद्दिष्टयां ग्रहामे एति संबोध्याति प्रयत्नधी
सन्मार्जिते च भू भागे सर्वमंगल भूषिते नय वस्त्र परिने बलिं पात्रे निवेशेयेत्
॥ २४० ॥
॥ २४१ ॥
हे देवी मैं तुझको बलि दूँगा तु उस बालक को छोड़ दे बुद्धिमान मंत्री इसप्रकार देवी को संबोधन करके कहे और निश्चित की हुई पृथ्वी पर जो शुद्ध और साफ की हुई हो सब मंगलीक द्रव्यों से सजी हुयी है वहां पर उस बलि को जो नये कपड़े से ढ़की हुई हो रख दें।
तत्रादाय बलिं द्रव्यं गंधाधैरच्चयत् क्रमात् प्रच्छाद्य नव वस्त्रेण तं बलिं गमयेद्बहिः
।। २४२ ॥
पहिले वहां पर बलि के द्रव्य को लाकर गंध आदि से क्रमपूर्वक पूजा कर और फिर उस बलि को नये कपड़े से ढ़ककर बाहर चले जायें।
पश्चादाचम्य शुद्ध सन पृथक पात्रके निवेशितं सौवीरं च जलं हस्ते मंत्रयित्वा पृथक पृथक
॥ २४३ ॥
तैः प्रजावय वा स्पृष्टाया रक्षां कुर्याद् विचक्षणः होमं मृत्युंजयं चाऽत्र पूर्व भोक्तं यथा विधिं ॥ २४४ ॥ मंत्री फिर आचरण से शुद्ध होकर अलग अलग बर्तन में रखे हुवे सौ वीर (कांजी बेर) और जल को हाथ में लेकर उनपर अलग अलग मंत्र पढ़े, फिर उनसे बालक के अंगों के छुआकर
एक ४८७ 95959595955
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SHS0150150150151015 विद्यानुशासन VS100501512151015015 (स्पर्शकराकर) पूर्व कथित क्रम से विधिपूर्वक मृत्युजय मंत्र से होम करके बालक को रक्षा करे।
दक्षिण क्रम
आचार्य बलि होमांते विदध्या लब्ध दक्षिणं दक्षिणा रहिता होमा वलय च न सिद्धिदा
॥२४५॥
फलेन बलि होमानां जनं यस्मात्फलार्थिनां यो
कुर्यादक्षिणादति स्तस्मात्तां दक्षिणां विदु ॥२४६ ।। फिर होम के पश्चात आचार्य बलि पर दक्षिणा ले लेये क्योंकि बिना दक्षिणा के होम और बलि कोई सिद्धि नहीं देते। पुरुष बलि और होम के फल से मुख्य फल के वास्ते जो दक्षिण अर्थात् देने की क्रिया करता है अतएव उसको दक्षिण कहते हैं।
उत्तमा दक्षिणा निष्क तदऽद्धा मध्यमा मता तद् अर्द्धम ऽधमा प्रोक्ता तथा तासां फलान्यऽपि
षोडश पलानां एक निष्क सुवर्ण दद्यात् ॥२४७ ॥ एक निष्क (एक कर्ष या दो तोले) सोने की मोहर को निष्क कहते हैं एक दीनार की दक्षिणा उत्तम उसकी आधी मध्यम और उसकी आधी अधम दक्षिण कहलाती है।तथा उनके फल भी वैसे ही उत्तम मध्यम और अधम होते हैं।
स्नपनं शांतिनाथस्य बलौ होमं च कार्येत् ततो देविं कुष्मांडी रक्त वस्त्रादिभि र्यजेत्
॥ २४८॥
चतुर्विशत् ऋषीणां च दद्याता हार मादरात सांतीनां श्रावकानां च श्राविकानां च शक्ति :
||२४९ ॥ इसके पश्चात शांतिनाथ स्वामी का अभिषेक होम करें पश्चात कुष्मांडी देवी का लाल वस्त्रादि से पूजन करें। फिर चौबीस ऋषियों आर्यिकाओं श्रावक और श्रावकाओं को आदर से आहार अपनी शक्ति के अनुसार दें।
एवं यः कुरुते धीमान् बलि होम विधि नरः स रक्षति शिशु यत्नाद् ग्रह रोगाद् उपद्रवान्
॥ २५०।। CASTOTSIDASTISTICSIRIDIOSE ४८८ 150150SIRIDIOSISTERIES
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CASIOTISISTRIC2505 विधानुशासन VSTOISSISTSI501510 जो बुद्धिमान पुरुष इसप्रकार बलि और होम की विधि को करता है वह बालक की सह के रोगों और उपद्रयों से रक्षा करता है।
अरोगमंऽग्रहाविष्टं स्वस्थ मप्यथ बालकं अमनैव विधानेन रक्षेदरक्षा पराटाणः
॥ २५१॥ रक्षा करने में पारंगत पुरुष बिना रोग और ग्रह से पीड़ित स्वस्थ बालक की भी विधान से रक्षा करें।
संवत्सर बलिं दत्वा वक्ष्यमाण क्रमेण
च मातृकाणां बलिं कुयान्मासे मासे विशेषताः ॥ २५२॥ आगे कहे हुए विधान से संवत्सर बलि देकर प्रत्येक मास में भी देवियों की भी बलि पृथक पृथक दें।
तत्राऽपि दक्षिणादीनि देवपूजां च कारयेत्
मुनींदानार्य का मुरख्या प्रतिकाऽपि भोजयेत् ॥२५३॥ और उनमें भी दक्षिण आदि दे और देवपूजा कराये तथा मुनिराजों आर्यिकाओं और प्रतियों श्रावक और श्रायिकाओं को भी भोजन कराये।
संवत्सरे वले रंऽते होम तद् ग्रह निग्रहं सर्वशांति विधानेन सप्त रात्रं कियाद बुधः
॥ २५४ ॥ बुद्धिमान पुरुष संवत्दार बलि में अंतर्गहों का निग्रह सर्वशांति विधान रात तक करें।
एवं कत बलिं बालं दूरात्परि हत्यमः शाकिन्यश्च ग्रहाश्चैव रोगाबहु विधि अपि
॥ २५५॥ जिस बालक के लिये इसप्रकार बलि दी जाती है उसको शाकिनी ग्रह और बहुत प्रकार के रोग दूर से ही छोड़ देते हैं।
इति विद्यानुवादब्धि पुरादऽस्माभिरूद्धा ता
श्लाघ्या बाल चिकित्सेऽयमऽबंध्य फलदर्शिनी ॥२५६॥ इसप्रकार विद्यानुयाद रूपी समुद्र से हमने यह आवश्यक फल को देने वाली यह बाल चिकित्सा विधान उद्धत की है। (नकल की है)
STORISO1525105255 ४८९ PSPIRRISORTOISTORICIST
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DISSET5RASICIS015 विधानुशासन HSDISTRI50150DRIST
दिनेषु मासेषु च वत्सरेषु च श्रांति बालान् नियमन पूतनाः विधाय मंत्री कथितं बलि क्रम विमोचये ताः स दयोऽति नियाः
||२५७॥ यह पूतना ग्रही बालकों को दिन मास और वर्षों में नियम से पकड़ती है मंत्री को चाहिये कि इस क्रम से बलि देकर दयायान होकर उन निर्दयी पूतना से यालक को छुड़ाये।
चैत्यालये ब्रह्म देवमंबिकां च यथा विधि संपूज्य शांतिं सर्वेषां ग्रहाणं लभते नरः
|२५८॥ चैत्यालय में परम ब्रह्म सर्वदेव और अंबिका की विधि पुर्य पजन का सब नहों से शांति प्राप्ति करें।
मांत्रिकैःस्वर्ण वस्त्राधेरऽर्चयद्भक्ति पूर्वक न सिद्धयति विधानेन कुत्रापि ग्रह मोक्षणं
|२५९॥ फिर मांत्रिक (मंत्री) की सोने और यस्तादि से भक्ति पूर्वक पूजन करे अन्यथा किसी भी विधान से भी सिद्धि नहीं मिल सकती ग्रह से छुटकारा पाना तो नामुमकिन (असंभव) है
इति विद्यानुवादोक्त बालग्रह चिकित्सा समाप्त:
इति प्रथम खंड
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SECORDISTORTOISCI51065 ४९० PADICATESTOSTS2575555
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SSIOT5215255015015 विधानुशासन DISO9525050HIOS
अथाऽपि ग्रंथाऽतरा द्वाल ग्रह चिकित्सा कटाते अब दूसरे ग्रंथों के अनुसार बाल मह चिकित्सा के विधान का वर्णन किया दाता है।
नमस्कत्य जिनस्य चरणं भोरुह द्वयं ग्रहणं
विकृतेः शांति वक्ष्ये बाल निरोधिनां श्री जिनेन्द्र भगयान के दोनों चरण कमलों को नमस्कार करके बालकों को हानि पहुंचाने वाले ग्रहों के विकार और उनकी शांति के उपायों का वर्णन करूंगा।
आरभ्य जन्म दिवसान् शिशो ईश दिनाऽयधिं ततो द्वादश मासांतमऽथ षोडशबत्सरात्
॥२॥
वर्ग त्रो भवे देवं दिन मासाऽब्द संख्यया दिन वर्ग प्रतिदिनं पथगेव वहि देवता
||३||
मास वग्गोंपि मासानां प्रत्येकं देवतोच्यते वगं संबत्सराणां च प्रत्यब्दे देवताऽभिधा
॥४॥ बालक के जन्म दिन से शुरू करके दसवें दिन तक फिर बारहवें मास के अंत तक और फिर सोलहवें वर्ष के अंत तक के दिम मास और बरसों की संख्या से तीन वर्ग होते है। इनमें दिन वर्ग में प्रत्येक दिन की देवी अलग अलग होती है, मास वर्ग में प्रत्येक मास की अलग अलग देवी होती है। और वर्ष में प्रत्येक वर्ष की अलग अलग देवी होती है।
देवता नामऽधेयानि ग्रस्तस्य विकतिःशिशोः
बलि कर्म विधिलंपो धूपो मंत्रश्च कथ्यते । उन देवियों के नाम पकड़े हुए बालक के विकार बलि कर्म की विधि लेप धूपो और उनके मंत्रों का वर्णन किया जायेगा।
जातस्य जन्म दियेसे कुमारं धनदेति तं ग्रसते नेच्छति स्तन्यं विधुन्वन्याद वर्षस:
शिशोरऽस्य विकारस्य कथ्यते च प्रतिक्रिया
माक्षिकं पुंमाजिष्टा हरिताल वहामपि SISTRISTRI5015235903525 ४९१ DISEDISEASEDDI505001
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CHOICISTRADICTIOTS विद्यानुशासन HSTADISSIO5CISION
एतानि समभागानि पिष्टवा लिंपे द्वपुः शिशोः बलि अर्थ ताप कसरं सर्पि रिक्षुर च संपयः
॥८॥
मन्मये रखपर न व्ये निधाय विधिवत् शूचिः सौवणीं राजती चापि प्रतिमां ग्रह रूपिणी
॥९॥
रक्त वस्त्र युगं छिन्ना बलेरू परिनिक्षिपेत् गंध वद्भिस्ततो गंधैरऽक्षतैः कुसुमेरऽपि
॥१०॥
दीपै धूपैः समऽभ्य च॑ तांबूलं तत्र विन्यस्येत् ग्रहस्टा पूर्व दिग्भागे मंत्र एत मुदीरयन् रात्रि
नयेत निवारं च तेन नारी जपेति शिश ॐ नमो घनदे एहि एहि बाल गन्ह गन्ह नच मुंध बालक स्वाहा
॥११॥
इति बलि विसर्जन मंत्र यालक के उत्पन्न होते ही जन्म दिवस को ही घनदे देयी बालक को पकड़ती है उसके पकड़ने पर बालक स्तन का दूध नहीं पीता है। और पेट पटकता है। बालक के इसयिकार के प्रतिकार कहा जाता है। शहद-अपु (सीसा) मंजीठ हरताल और यहां (नस्त्रीर) इन सबको बराबर लेकर पीसकर बालक के शरीर पर लेप करे। और बलि के वास्ते ताप (तेज पात) खिचड़ी , घृत, गन्ना का रस
और दूध को मिट्टी के बने हुये बर्तन में विधि पूर्वक शुद्धता पूर्वक रखकर सोने अथवा चांदी की ग्रही के आकार की प्रतिमा को लाल कपड़ो से ढ़ककर बलि के ऊपर रखकर गंध, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप आदि से पूजकर उसपर पान का बीड़ा रखकर फिर यह मंत्र बोलता हुआ घर के पूर्व बाग में मंत्र को बालक के वारते तीन बार तीन रात तक जपे।
आदाट च बलिः पात्रं विनिदध्यात् त्रिपथाऽतरे एवं बलि विद्यानेन धनदापऽष्टति भवेत्
॥१३॥ फिर यलि के बर्तन को लेकर तिराहे पर रख दें इसप्रकार बलि देने से धनदा देवी चली जाती है।
दद्यात्त तंदुल पिष्टस्य मुष्टिकां चैत्य वासिने ब्रह्मणे वांडितानां च तिलानां पिष्टमाप्सितां
॥१४॥
CISISTERISTOISO150151045 ४९२ PASCISCISIOTECTRICISCIES
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CASICTERISODOISS विधानुशासन XSTORETORISTOTRIES
यक्षिणीनां च दातव्यं गंध पुष्पाक्ष तानपि यूपं दीपं च तांबूलमऽप्पयेत् पुष्टि कारक मंत्रेणाऽनेन यक्षिण्या ब्रह्म देवस्य पूजनं पूजायेतो विशषेण ग्रहस्य बलिं कर्मणि
|॥१५॥
॥१६॥
एवं सं पूजिता वेतो मुंचेत् तं बालकं तथा बलि प्रदान स्थानेषु ब्रह्म देयं च यक्षिणी
॥१७॥
॥१८॥
न विस्मरेत् शिशु मपि न मुंचऽत्यऽन्यथा ग्रहा: एतदा स्टयानमस्टोव पुरा विद्भिरुदीरितं देवल्दारा मुनीन्द्राव मंज़ानाभ्यस्य यत तत: तत्र स्थितान्समभ्यच्यंमत्रान्स्व वशमानयत्
॥१९॥
भवेत् अनेन विधिना सर्व ग्रह निवारणं पूजयेत् वलि कतरि वसनै दक्षिणादभिः
॥२०॥ इति प्रथम दिवसः फिर चैत्यों में रहने वाले को पिसे हुए चावलों के ला तथा ब्राह्मणों को खांड व पिसे हुये तिलों के लड़ इच्छानुकूल दें। यक्षिणी को चंदन पुष्प चायल धूप दीपक पान तथा पुष्टि करने वाले द्रव्य भेट में दे।यक्षिणी के उपरोक्त मंत्र से ही ब्रह्म देव का भी पूजन करें। क्योंकि ग्रहों के बलि कर्म में विशेष रूप से पूज्यहोता है। इसप्रकार उन दोनों को पूजने के पश्चात उस बालक को ब्रह्म देव और यक्षिणी को बलि प्रदान करने के स्थानों में छोड़ दें। इन सब क्रियाओं में बालक को कदापि न भूले अन्यथा उसकी ग्रही नहीं छोड़ती है। इस व्याख्यान का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने किया है। देवेन्द्रों और मुनीन्द्रों को मंत्रो का अभ्यास करके वहीं रगड़े हुओं की पूजा करके मंत्र से अपने वश में ले आयें। बलि के कार्य में भूल कभी नहीं करे और बालक को पाँचों पत्तों के पकाये हुए जल से स्नान करायें। इस विधि से सब ग्रहों का निवारण हो जाता है अंत में बलि कराने वासे आचार्य की वस्त्र दक्षिण आदि से पूजा करे।
दूसरा दिन
कुमारी भीषणीनाम द्वितीय दिवसे शिशु गृन्हाति शोपि न द्दशा उन्मीलयति पीडितः
॥१॥
ಇಡಗಣಣpಥಳದ ೪೪ ಚದಗಜ
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CSCISIO5015015105 विधानुशासन A5215RISTOISOISOISS
अत्यंत मुच्छल वासस्सन स्तनी चाचमत्यऽपि संकुच्या बाहुपादौ च तिष्टत्सं प्रेक्षते दिशः
॥२॥
॥३॥
प्रतिक्रिया विधानेना विधि रेवाऽस्य कटाते चित्रमूलऽपा मार्गः पिप्पलीसम भागतः पिष्टाग्रस्तस्य बालस्य कुदिप विलेपनं पंच वर्णाऽन्वितं मध्ये बलि मादाय खप्परे
॥४॥
धूम वस्त्र द्वयोपेता प्रतिमामुपारिन्येत् गंध पुष्पाक्षतं धूपं दीपं तांबूलऽमप्यऽर्चेत
त्रिरात्रं पात्र मुधत्य त्रिवार मंत्र वित् शुचिः
नीरांजन विधेः पश्चात् त्रिपधेतं निधापयेत् ॐ नमो भीषणी ऐहि ऐहि बलिं गन्ह गन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा
इति बलि विसर्जन मंत्र: दूसरे दिन बालक को भीषणी नाम की कुमारी कष्ट देती है तब यह उसे कष्ट से ऊपर देखने में असमर्थ हो जाता है। डांया डोल हो जाता है। उर्द्ध श्वास लेने लगता है, दूध नहीं पीता है, हाथ पैरों को सिकोड़कर चारों तरफ देखता है। अब उसके प्रतिकार का उपाय कहा जाता है--- चित्रक की जड़, आंधी झाड़ा और पिप्पली के बराबर लेकर उस बालक के सामने ही पीसकर उसके शरीर पर लेप करे तथा पाँचों रंगों की मिठाई को। इस बीच में) लाकर नये खप्पर पर रखकरउसके ऊपर धुंये के रंग के दो वस्त्रों से ढकी हुई प्रतिमा उस सही की रखे और गंध, पुष्प, घावल, धूप, दीपक, पान, नागवेल से उसकी पूजा करें । रात्री के तीसरे भाग में उस बलि के बर्तन को उठाकर तीन बार मंत्र बोलता हुआ आस्ता करके उसको तिराहे पर रख देवें।
पूज्य चैत्यालये ब्रह्मा यक्षिणी चापि पूजोत् फिर पूज्य चैत्यालय में ब्रह्मा और यक्षिणी की पूजा करें।
पीडाकुमारी कारिण्या स्त्रतीय दिवसे शिशोः ऊर्दा क्षेपणऽमंगेषु लाला श्रावो मुरवे शिशो:
॥१॥
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SAHIDI512551015015125 विधानुशासन 205051215105051015
देहस्तपित संकोचः करयोः पादयोऽपि स्तब्ध नेत्रः स्वसित्यूद्ध स्तन पानं न इच्छति
॥ २॥
॥३॥
-
प्रतिकारों विकारस्य कथ्यतेऽस्यौषधादिभिः गजदंतं सिरसिजान करपादनरवानऽपि सष्षपान् हरितालं च यवां च समभागतः अजामूत्रेण संपंष्य लिपेत्तन वपुःशिशो
॥४
॥
-
स पायस स गुडाम्नाऽज्य पंच स्वायैःच स्वप्परैः नील वस्त्र युग छन्नं सौवर्ण प्रतिमाऽन्वितं
सुगंधि गंधैः कुसमैरऽक्षतै धूप दीपकै: तांबूले नाऽपि सहित प्रदोषे दिवसं त्रयं
प्राच्यां दिशि निशाऽतेऽस्य निद्भद्यात मंत्र विद्वलिं
चैत्ये ब्रह्मा च यक्षी च पूज्यौ पूर्वोदित् कमात: ॥७॥ ॐ नमः कुमारिकारिणी ऐहि ऐहि बलिं गन्ह गृह मुंच मुंच बालकं स्वाहा
।। ८॥
पंच पल्लव तोयेन स्नापयेद्वालकं तथा कुमारि कारिणी नाम ग्रस्तं मुंचतितं शिशु
इति तृतीय दिवस: तीसरे दिन कुमारी कारिणी बालक को पीड़ा देती है। यह अंगों को ऊपर की तरफ फेंकता है और बालक के मुँह से राल बहती है। अंग का तपना अर्थात बुखार तेज होना, हाय पैरों को सिकोड़ना, आँखो ठहरी रह जाना, ऊँचा श्वास लेना और स्तन से दूध पीने की इच्छा नहीं रहना, इन विकारों का प्रतिकार औषध आदि से कहा जाता है। हाथी के दांत, सिर के बाल हाथ पांवो के नाखून, सरसों, हडताल और जो को समान भाग लेकर बकरी के मूत्र में पीसकर बालक के शरीर के लेप करें खीर गुड़ अन्न घृत और पाँचो प्रकार के भोजन को खप्पर में रखकर ऊपर दो नीले कपड़ों से ढकी हुई यक्षिणी की सोने की प्रतिमा रखे। फिर सुंगधित चंदन इन पुष्प माला अक्षत धूप दीपक और पान सहित प्रदोष (सूर्य निकलने से पहिले) काल में तीन दिन तक पूर्व दिशा में रात के खतम हो जाने पर मंत्र सहित बलि को रखे। पूर्वोक्त प्रकार से चैत्यालय में ब्रह्मा यक्षिणी की
150150151065TOISIOTSIDT5| ४९५ P15102510151055105051ST
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पूजा करे। पाँचों पत्तों के पकाये हुवे जल से बालक को स्नान करावें । तब कुमारी कारिणी उस पकड़े हुए बालक को छोड़ देती है।
दिने चतुर्थे ग्रस्ते कुमारी कामरूपिणी आस्या लालाश्रवत्यश्रु मुहुरंगेषु बेल्लनं क्षणं विलव्यं निससोहिक्काऽपि च पदे पदे विकारस्याऽस्य महतः कथ्यते च प्रतिक्रियाः
गजं दंताऽहि निम्मोंक सर्षपाः समभागातः गोमूत्रेण विनिपेष्टय कृत्वा वपुषि लेपनं
सिद्धार्थे र्हरितालेन वानरांग रूहैरऽपि समाऽशेन कृतो धूपो निधातव्याः शिशोः पुरः
भाषाणां स भृष्ट तिल पिष्टाज्य लड्डूकाणां पीतवस्त्र युग छनां खप्परे च प्रतिमां न्यसेत्
धूपोऽक्षतादभि युक्तं तांबूलेनाऽन्वितं बलिं त्रिरात्रं मेक रात्रं च प्राग्भागे सयनः क्षिपेत्
118 11
॥ २ ॥
॥३॥
॥ ४ ॥
॥५॥
॥ ६ ॥
पूज्यो पूर्व क्रमेणैव चैत्ये ब्रह्मा च यक्षिणी मांत्रिक पूजयेत्पश्चात् वस्त्रालं करणादिभिः
1119 11
ॐ नमः कामरूपिणी ऐहि ऐहि बलिं गृन्ह गृह मुंच मुंच बालकं स्वाहा
पंचानां पल्लवानां च नीरेण स्नापितं ततः सद्य: सः त्यजितं बालं तं कुमारी कामरूपिणी इति चतुर्थ दिवस:
चौथे दिन बालक को कामरूपिणी नाम की कुमारी के पकड़ने पर मुँह से लार बहती है बराबर आँसू बहते हैं । और शरीर कांपता है। बालक जरा सी देर देर बाद सांस लेता है पद पद पर हिचकी आती है अब इस बड़े भारी विकार का प्रतिकार कहा जाता है। हाथीदांत सर्प कांचली और सरसों समान भाग लेकर गोमूत्र के साथ पीसकर बालक के शरीर पर लेप करे । सफेद सरसों पडताल बंदर 96969595969595 ४९६
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CASICIARIEIRISTRATIS विद्यानुशासन ISIONSOREDIOKSTRESS के बालों को बराबर अंश में लेकर धूप बनाकर बालक के सामने रखे । उड़द की खिचड़ी भुने हुए तिलों की पिष्टि में घृत डालकर लहु बनाकर दो पीले कपड़ों से ढकी हुई यक्षिणी की मूर्ति सहित खर्पर में रखे । उस धूप अक्षत आदि और पान से सहित बलि को रात्रि के तीसरे पहर में घर के सामने के भाग में मंत्रपूर्वक रखे। फिर पूर्वोक्त क्रम से चैत्यालय में परम ब्रह्म सर्वज्ञ देव और यक्षिणी की पूजन करें और अंत में मंत्री की वस्त्र और अलंकार आदि से पूजन करें। पाँचो पत्तों के पकाये हुए जल से बालक को स्नान करावें तब बालक को कुमारी कामरूपिणी निश्चयपूर्वक छोड़ देती
दिने अंगीरिणी नाम पंचमे देवता शिशु बाधते चालरात्रोदय शरीरं चरणवऽपि
॥९॥
मूच्र्छत्याऽनेक वारं समूत्रय न स्तन्यतिस्पह विलोचने च विकृती रोदनं काकशब्द यत्
॥१०॥
पूति गंधाऽति देहोऽपि प्रतिकारोऽस्य कथ्यते सिद्धार्थ लोद्रोद्भवं वंत्तत्रपु गुग्गुल रामठं
॥११॥
वचा चाऽपि समी कृत्य धूपो देवः शिशोः पुरः माषाणां कसरं भृष्टं तिल पिष्टाज्य प्रतिमामपि
॥१२॥
बलेरूपरिविन्य स्य गंधादिभिरऽथार्चयेत् प्राचीभागे गृहस्य मंस तांबूलं विनिक्षिपेत्
॥१३॥
ब्रह्मा च यक्षिणी चैव पूज्यौ पूर्वोदित कमात् एवं बाल विधानेन अंगारिणा विमोचनं अटोत् बलि कतारं वसनै दक्षिणा दिभिः
॥१४॥ ॐ नमः श्रृंगारिणी ऐहि ऐहि बलि गन्ह गन्ह मुंच मंच बालकं स्वाहा।
इति पंचम दिवसः ।। पांचवें दिन बालक को अंगारिणी नाम की देवी के पकड़ने पर बालक का शरीर और उसके पाँव चले जाते हैं। वह बार बार मूर्छित होता है। पेशाब करता रहता है दूध पीने की इच्छा नहीं करता है।और आंखो में विकार होजाता है और वह कौवे के शब्द के समान रोता है। उसके शरीर में दर्गध आने लगती है अब उसका प्रतिकार कहा जाता है। सफेद सरसों, पठानी लोघ, रांग गुगल, रामठ C512510050DDEDISI215| ४९७ PISISTRICISIOI51055050
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95959595951 विधानुशासन 2159/5x
Pa
(अंकोल ) वच को समान भाग लेकर बालक के सामने धूप दें। उड़द की खिचड़ी भुने हुए तिलों की पट्टी में घी डालकर बनाये हुवे लड्डूओं को सीसें के बर्तन में रखे दें। दो हरे कपड़ों से लिपटी हुई मूर्ति को बलिद्रव्य पर रखकर गंध आदि से पूजकर फिर उसको पान सहित घर के पूर्व भाग मंत्रपूर्वक रख दें। तथा पूर्वोक्त प्रकार ब्रह्मा और यक्षिणी का पूजन करे । इसप्रकार के बलि विधान से बालक का श्रृंगारिणी देवी से छूटकारा मिल जाता है। तब बलि कराने वाले आचार्य का वस्त्रो "और दक्षिणा आदि से पूजा करें।
कुमारी हसती नाम दिने षष्टे तु बालकां गृहाति सोऽपि व्याधितो चाल्ल यत्यऽसकृद्वपु
नभः सं प्रेक्ष्यते वामं करें मुष्टिं करोति चा रसनां भ्रामयेत्यूर्द्ध श्वासि त्युच्चै स्वरो रोदति
मूत्रेण लपत: अजामूत्रण वा पिष्टवा संपर्क तथा भेष श्रंगाSहि निम्मोंक पशुदंतान्स सर्षपान्
विकारस्याऽपसणां कथ्यते स्वौषधा दिभिः हरितालं भेष अंगमपि लोद्रं मनः शिलाः वचा च समभागानि कृत्वा ॥३॥
समानि पिष्टवा हविषा तत् द्वितीयं विलेपनं सिद्धार्थ निंब पत्रैश्च पशुदंतैः शिरोरुहै:
समानि कारितो धूपो निधातव्यः पुरः शिशोः आचारसमिक्षूणं ताम्र पात्रेऽति विस्तृते
|| 2 ||
गंधाक्षतादिभिर्युक्तां तांबूले नोऽपि शोभितं रक्त वस्त्र द्वयोपेता रक्त माला भिरावृतां
॥ २ ॥
॥ ४ ॥
॥ ५॥
॥ ६ ॥
॥ ७ ॥
रक्तं चंदनं लिप्तांगो सौवर्णी प्रतिमां न्यसेत् गृहस्य पूर्व दिग्भागे ग्राम मध्येदिन त्रयं
959591595959595 ४९८ 95959595959
॥ ८॥
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STERIOTECTRICISE विधानुशासन ISIOTICIRRIDORIES
मंत्रयित्वा त्रिरात्रं तं बलिं मंत्रेण निक्षिप्त पूजयेत् ब्रह्मा देवं च यक्षिणीमपि पूर्ववत्
॥९
॥
एवं कृते विधाने स्मिन मुंचते साग्रही तदा मांत्रिके पूज्यते स्वर्ण वस्त्राये भक्ति पूर्वक न सिद्धयति विद्यानेन कुत्रापि ग्रहमोक्षणं
॥१०॥ ॐ नमो हसनि ऐहि ऐहि बलिं गन्ह गन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा ।
इति षष्टोदिवसः छठे दिन बालक हसती नाम की कुमारी के पकड़ने पर बालक दुःख पाकर बराबर अंगडाई लेता है।आकाश की तरफ देखता है। बायें हाथ की मुट्ठी बंध जाती है।जीभ घुमाता है। ऊँचा श्वास लेता है और जोर जोर से रोता है। इस विकार को शांत करने याली औषधि आदि का वर्णन कियाजायेगा। हडताल,भेंडकामी, लोध मेलसिला और ना समान भाग लेकर सबसे पीसकर लेपकरें, अथवा बकरी के दूध से पीसकर दाभ मिलाकर लेप करें।भेड का सींग, सर्प की कांचली पशु के दाँत और सरसो के बराबर लेकर घी के साथ लेप करे, यह दूसरा लेप कहा है । सफेद सरसों, नीम पत्र पशु के दाँत और सर के बालों को समान भाग लेकर बालक के सामने धूप देवे । आचार्य एक बड़े ताँबे के बर्तन में ईस का रस को गंध, अक्षत आदि पान ,हित रखकर दो लाल वस्त्रो से ढ़की हुई लाल फूल माला से घिरी हुई लाल चंदन से पुती हुई यदिणे की सीरे की प्रतीमा को रखे । उसको घर के पूर्व दिशा में गाँव के बीच में तीन दिन तक आभि मंक्षित करके तीन रात तक बलि को रने । चैत्यालय में परम ब्रह्म सर्वक देव और यक्षिणी की पूर्व क्रमानुसार पूजन करे इस प्रकार बलि विधान करने पर वह सही बालक को छोड़ देती है |फिर स्वर्ण वस्त्र आदि से मंत्री की पूजन करे ऐसा भलि पूर्वक न करने पर कार्य की सिद्धि नही होती है ग्रह से छूटना तो असंभव बात है
ग्रह्णा मुक्त के शीभि सप्रेम देवता दिनः गृहीतः काक वान्देन रोदि तोषः तदा शिशु
॥१॥
दधि गंधोवस्टा पुषिदेह स्तपति सततं प्रति दाणं करोत्तोष शरीरस्य विमोटनं
॥२॥
प्रति कारोपि विकृते औषद्यादभिः साध्यते निशा द्वयं वचा कुष्टं सिद्धार्थान समभागवत्
॥३॥
CICIRSCIEDEORIC ४९९ PASTRITICISIOTICIENTSIDASS
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OROSISTERIETRIES विद्यानुशासन ISTRICISTRISTRITICISI
गोम् त्रेण विनि पेष्य कुादंग विलेपनं पुनर्नवा नक्त माल छदान कुषा व गंधि च
॥४॥
चूर्ण कृत्य समांशेन द्वितीयं लेपनं शिशोः पंच वर्णधिनं सांश्यपातं न्यस्तं सु पूजितं
गंद्यादतायै स्तांबूल दाने नापि पुरस्कृतं धूम्र वस्त्र द्वो पेतं सौवर्ण प्रतिमान् वितं
॥६॥
मंत्र मेतं समुच्चार्या ग्रहा निस्सारटो द्वलिं
ब्राभाण मंबिकां चापि पूजयतेत्पूर्व वस्तुभि ॐ नमो मुक्त केशी एहि २ बलिं गृहर मुचंर बालकं स्वाहा
॥७॥
पचपल्लव नीरंण कारयेत नपनं शिशो: अनेन बलिना मुक्त केशी बालं विमुंचति
॥ ८॥ इति सप्तमो दिवसः सातवें दिन मुक्त केशी नाम की यही के पकड़ने पर बालक कौवे के जैसे स्वर से रोता है । उसके शरीर में दही की जैसी गंध आती है-उसका शरीर निरतंर तपता है वह प्रत्येक समय आपने शरीर को तोड़ता रहता है । इस विकार का प्रतिकार औषधि आदि से किया जा सकता है दोनों हलदी वच कूट सरसो को बराबर लेकर गोमूत्र से पीसकर चालक के शरीर पर लेप करे इसके अतिरिक्त साठी (नक्तमाल ) करंज के पत्ते कठ असगंध को बराबर लेकर चूर्ण करके बालक के दूसरा लेप करे और पांचो रंग के भी जज को कांसी के वर्तन में रखकर उसका गंध आछत आदि और पान से सत्कार करके, दो धूम के रंग के कपड़े से ठकी हुई यछिणी की सोने की मूर्ति को इस बलि के ऊपर रखकर, इस मंत्र को बोलकर बलि को बालक पर तीन बार उतार करके घर से बाहर निकाले तथा पूर्वोक्त क्रम से बभि और यक्षिणी की चैत्यालय में सब द्रव्यों से पूजन करे। पाँचों पत्तो के जलसे बालको स्नान करावे ऐसा करने से बालक को मुक्त केशी ग्रही छोड़ देती है ।
हो शसिनी नाम शिशं देवता वासरेष्टमे
वाद्यते सविकाराणं बाहूनां स्पंदनं भवेत् ಅಣಣಠಣಠಣಸಣಣ +oc P5555995ರಣೆ
॥१॥
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CASICISIO50505105 विधानुशारदा 505050052150ISH
निद्रायमाणो हसति रो दत्युद्धरणे पिच दिशो विलोकयन् जिह्वांचा मटात्यात्मन स्तदा
|॥२॥
प्रति क्रिया प्रकारोस्य विकारस्य निगद्यते समी कृवचा हिगुंचणलिंपत् वपुः शिशोः
॥३॥
उदनं माष कृसरं सर्पि रितु रसान्वितं पंच स्वाद्यानि विन्यस्य पाले कांश्यमर्यादि के
॥४॥
निधाय प्रतिमा तल वस्त्र युग्म समिन्विता गंद्याकृतादिभिर्युक्तं तांबलेनान्वितं बलिं
छिन्नाग्रे बंधने येणु पाले पातं निद्याय ततः नीरांजन वियिं कुख्यात तिवारं तेन मंलवित्
निशांत पूर्व दिग्भागे स्थित मंडप सन्निधौ वासरलितोमानो रुदय प्रछिये द् बलिं
ब्रह्माणमंबिकां चैव पूजयेत् पूर्व यत् शुचि
अर्धयेत् बलि कतार बसनै दक्षिणादिभिः ॐ नमो भगवति ह्री हासिनि एहि बलिं गृहर मुंच २ बालकं स्वाहा
॥८॥
पंच पल्लव तो टोन स्त्रानं कुर्यात् शिशो स्ततः एवं हो हासिनि देवि त्यजत्याराधिता शिशुः
॥९॥ इति अष्टमादिवसे आठवें दिन बालक को हो हासिनि नाम की देवी के पकड़ने पर बहुत से विकार हो जाते हैं उसकी भुजायें फड़कती रहती हैं । उस समय बालक रोता रोता ही हंसता है - नीदं मे गाफिल भी रहता है, बंद भी हो जाता है, चारों तरफ देखता हुआ अपनी जीभ घुमाता है |अब इस विकार की प्रति क्रिया का उपाय कहते हैं - बच और हींग को बराबर लेकर चूर्ण कर के बालक के शरीर के लेप करे | भात, उडद की खिचड़ी, घृत, गन्ने का रस और पांचो प्रकार के भोजन को कासी के बने हुए बरतन मे रखकर, उसके उपर दो कपड़ो से ढकी हुई यक्षिणी की मूर्ति को रखकर, गंध, अक्षत SSIONSIOSISTERISTISTS५०१ P5015015T0STOISIOTION
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-
ISIOSPISIONSISTSTO15 विधानुशासन SHOTSIDIS1050SOISS आदि पान से युक्त बलि को टूटे हुये बंधन याले बांस के वर्तन में (टोकरी) में इस बलि के बरतन को रखकर मंत्र पूर्वक तीन बार बालक का आरती करके, मंडप के पास सूर्योदय से पहिले घर के पूर्व दिशा के भाग में तीन बार, तीन दिन बलि रखे-पवित्र होकर ब्रह्मा और यक्षिणी की पूर्वोक्त विधि से पूजन करे और बलि कराने वाले आचार्यकी वस्त्र और दक्षिणा आदि से सत्कार करे । पांचो पत्तो के पकाये हुए जल से बालक को स्नान करावे इस प्रकार आराधना की हुई हासिनि देवी बालक को छोड़ देती है ।
नवमे दिवसे बालंगन्हाति हटा के शिनी सुगंध्यस्यात वपुहं ग्रही हतुंन ददाति च
॥१॥
क्षणे क्षणे स्ववलत्येष निश्वि सव्यधिका शिशः बेल्लितो विदद्यात्येष करा वामे मुहुर्मुहु
॥२॥
उद्भतो रोदति का वामं मष्टिं करोति च कथ्यतेस्य प्रतिकारो विकारा स्यौषधादिभिः
॥४॥
वचा सिद्धार्थ कुष्टामन पिष्टाभो भिः समाहातः तैरस्यै वपुषो लेपंकुयाद् गालस्य सर्वतः
वानरांग रुहा मेष श्रंग:कर रूहानपिवहान्याद नरवान केशान वंशांच सम भागतः चूर्णी कृत्य वपुलेंपो द्वितीय परिकीर्तितः अन्जे दप्याज्य सहिते कांस्य पत्रांतर स्थिते
॥६॥
सौवर्णी प्रतिमां तत्र निधाय धवलांश्रुको गंद्यांसह तांब्ल समितं मंत्र मुळारन्
॥७॥
बलिमुत्य शिशवे कुर्वत् नीराजना त्रा श्मशान पूर्वदिग्मागे मध्यान्हे त्रिपथे क्षिपेत्
॥८॥
ब्रह्मणो प्यं विकायाश्च काया पूर्ववत्अर्चना
मांत्रि कं पूजयेत् पश्चात् वस्त्रालं करणादि भिः ॥९॥ SSIO1510150150150151215| ५०२ P1510550505100505215
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CASS5DISTRI5DIST05 विधानुशासन 505131581510SCISI ॐ नमो हय के शिनि एहि एहि बलिं गृह गृन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा ।।
इति बलि विसर्जनमंत्र:
पंच पल्लव नीरेण पश्चात् स्नान विधि: शिशोः अनेन बलिना मुंचेत् बालकं हटके शिनि ॥१०॥
इति नवम दिवस: नवें दिन बालक को हय केशिनी नामकी देवी के पकड़ने पर बालक के शरीर में सुगंध आने लगती है वह ग्रही बहुत हानि पहुंचाती है | बालक जरा जरासी देर में फिसल पड़ता है उसके अधिक आँसू बहते हैं तथा शरीर और बायाँ हाय बारबार कांपता है । वह उठाने से रोता है बायें हाथ को मलता है इसका प्रतिकार औषधि आदि कही जाती है |वच और सर्फर सरसो और कूट को बराबर लेकर, पीसकर, जलके साथ सारे शरीर परलेप करे- अयवा बंदर के दाल भेड, के सींग, हाथी के बाल, मोर के पाव के नाखून बाल और बांस को समान भाग लेकर चूर्ण कर के बालक के शरीर पर लेप करे यह दूसरा लेप है । अन्न दही धृत को कांसी के बरतन में रखकर सोने की प्रतिमा यक्षिणी की बनवाकर, उसको दो सफेद कपड़ो से ढककर गंध आदि पान सहित मंत्र बोलते हुए उसको बलि पर रखकर बालक का तीन बार साक्षी फर ये साराशन विता के मात्र से दोपहर के समय तिराहे पर रखे । और पूर्वोक्त क्रम से ब्रह्मा और यक्षिणी का चैत्यालय में पूजन करे। तथा आचार्य को भी वस्त्र आदि अलंकार से सत्कार करे | इसके पश्चात बालक को पांचो पत्तो के पकाये हुये जलसे स्नान करावे इस प्रकार प्रयत्न करने से हेय केशिनी ग्रही बालक को छोड़ देती है ।
दशमे दिवसे बालं रोदिनी नाम देवताग्रस्ते विकृति स्तस्य गस्तस्रा बहुधा भवेत्
॥१॥
दिवां निशं दुनिना रोदनं कुरुते शिशुः स्वर्ण वर्ण भवेदंगं सुगंध्या स्यांचवक्र च
॥२॥
प्रतिकारो विकारस्य कथयेतस्यौषद्यादिभिः बचां सज रसं कुष्टं सर्षपात् सम भागतः गोमूत्रेण विनिष्पेष्टां कुर्याद् वपु विलेपनं निंब पत्राणि लाक्षा च सर्षपात् समभागतः
॥३॥
पिशवपुषि ले पोयं द्वितीयं कथितः शिशोः
को द्रवाम्नं मुद्र पूपं सर्पिः कांस्यादि भाजनेः ಇಪಠಣಠಿಣioಟg yoಾ ಪರಿಣಣಚಣಪನ
॥४॥
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0505TOT501501505 विधामुशासन 35015DISTD35355OISI
आदाय हेम प्रतिमां पीतांशुक युगान्वितां बलैरुपरिगंद्यायै स्तांबूलेना चित्सन्यसेत्
॥६॥
उदीरयन्त्रिमं मंलं बलिं सकलं मोदकं कृत्वा नीरांजनं तेन लिवारं कार्येत् शिशोः गृहस्य पूर्वदिग्मागे दनि तामिमं बलिं सूर्योदयायेस्य बेलायां प्रक्षिपेद र्चित तत्: ब्रह्माणं टाक्षिणी चैव पूजयेत्पूर्ववत् शुचिः
मांलि कंपूजोत पश्चात् वस्त्रालंकाराणदि भिः ॐ नमो रोदिनी एहि बलिं गृन्ह मुंच बालकं स्वाहा
॥७॥
॥८॥
एंच पल्लव तो येन विद्येयं स्त्रपनं शिशो: एवं बाल विद्याजेन बालं मंचति रोदिनी
॥९॥ दसवे दिन बालक को रोदिनी नाम की ग्रही के पकड़ने पर बालक में बहुत प्रकार के विकार हो जाते हैं | रात दिन बालक बड़ी बुरी आवाज से रोता है । उसका शरीर सोने से समान पीले रंग का हो जाता है और उसके मुख से सुगंध आने लगती है । इस विकार का प्रतिकार औषधि आदि से कहा जाता है वच साल का रस (साखू राल) कूठ सरसो समान भाग लेकर गाय के मूव के साथ सब को पीसवा कर बालक के शरीर पर लेप करे और नीम के पत्ते लाख और सरसों समान भाग पिसयाकर शरीर पर लेप करे यह दूसरा लेप है कोदो का अन्न मूंग के पूर्व घृत कासी आदि के बर्तन में रखकर यक्षिणी की सोने की मूर्ति लाकर दो पीले कपड़ो से ढ़क कर, गंध आदि पान से पूजा करके बलि पर रखे, फिर सब को प्रसन्न करने वाले इस बलि मंत्र को बोलके हुए उससे बालक पर तीन बार आरती करके, इस बलि की पूजा करके, घर के पूर्व दिशा के भाग में सूर्योदय के समय तीन दिन तक रखे, फिर पहिले के समान पवित्र होकर ब्रह्मा और यक्षिणी की चैत्यालय में पूजा करे तथा आचार्य को भी वस्त्र अलंकार आदि भेट देकर सत्कारकरे, फिर बालक को पांचो पत्तो के पकाये हुवे जल से स्नान करावे। इस प्रकार प्रयत्न करने से रोदिनी नाम की ग्रही बालक को छोड़ देती है।
इति दशमोदिवसः उक्ता दिन ग्रह स्टौवं शांति ईश दिनावधि अथाचं मास मारभ्य द्वादशांत जिगवते
॥१॥
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CASDISTRISTOTSTOISIO5 विधानुशासन ADRISTOTRIOTSID50158
• पीडटोत्प्रथमे मासि शकुनि नाम देवता
पीडित: काक शब्देन रोदतोष दिवानिशं इस प्रकार दशदिन तक के ग्रहो की शांति का वर्णन किया है अब पहिले महिने से लगा कर बारहवें महिने तक का वर्णन किया जावेगा ।पहिले मास में शकुनि नाम की देवी के पकड़ने पर बालक कौवे के शब्द का समान रात दिन रोता है |
॥२॥
निरवनत्यूर्द्धम स्तक पानझंट यद्वपु रक्त मूलं स्तब्धनेलः प्रति कारोस्य कथ्यते
क्षीरेण गोमहिष्याच पाचितं पायसं अयं आन्नं चतुर्विध माषे येप तू रस मुद्रत
॥४॥
सर्पिषा सहकांस्यादि भाजनस्थं विद्याय तत् चिल वस्त्र द्वयो पेत सुवर्ण प्रतिमा बलिं
अभ्यध्य रक्त पुष्पायैः सतांबूलं समंतकं नीरांजयित्या सदन वाम भाग स्थ पिपले
॥६॥
चिरि विल्वे पि वा सात दिन मध्ये दिने क्षिपेत मेषभंगा हि निर्मोक पशुदंत शिरोरुहान
॥७॥
वहीं गुग्गुल वयि नरयात् समांशे नाद चूर्णितान बालं विलिप्या मिर्षि चेत् पंच पल्लव वारिणा
ब्रह्माणेप्यं विकायाश्च पूजा पूर्वोदितः कमात् ॥७॥ ॐ नमो शकुनि ऐहि बलिं गृह गृह मुंच मुंच बालकं स्वाहा । बलि विसर्जन मल:
॥८॥
वसनाद्यैरथाचार्य पूजयेद् भक्ति पूर्वकं अनेन शकुनि मुंचे देवतां बलिना शिशु
इति प्रथमो मासः पहिले मास में शकुनीनाम की ही के पकड़ने पर बालक कौवे के शब्द के समान रात दिन रोता है । मस्तक उपर को करके बार बार उपर की तरफ देखता है - उसके शरीर मे गंध आने लगती CASESOTSIDAST2510151015 ५०५ PRISTRISIRIDISTRISTR351015
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FEBEL REFERENCE है उसका पेशाब लाल होता है । आँखें देहरी हुई रहती हैं । इसका प्रतिकार कहा जाता है- गाय भैंस आदि के दूध से पकाई हुई तीन तरह की खीर चार, प्रकार के अन्न का भोजन, उड़द की दाल का पूये, गन्ने का रस, मूंग और घृत के सहित कांसी आदि के बर्तन में रखकर दोरंग विरंगे कपड़े सहित सोने की प्रतिमा ढकी हुई बली को लाल फूल माला पान के साथ मंत्र से पूजी हुई बालक पर आरती करके घर के बाये भाग में पीपल के पेड़ में अथवा तोते याले बिल्व के पेड़ में सात दिन तक दोपहर के समय बलि देवो और भेड़ के सींग, सर्प-कांचली, पशु के दांत और मस्तक के बल और मोर की पूंछ, गूगल, आध्रि( पाव) के नाखून सब समान भाग लेकर चूर्ण करके बालक को लेप करके, उसको पांचो पत्तो के पकाये हए जलसे स्नान कराये और पूर्वोक्त क्रमसे ब्रह्मा और अंबिका ( आम्रक्झांडी नेमनाथ जी की शासनदेवी) की पूजा करे ।( ब्रह्मा शीतल नाथ स्वामी का शासन यक्ष का भी नाम है ) इसके पश्चात आचार्य की वस्त्रादि से भलि पूर्वक पूजा करे इस बलि के देने के पश्चात शकुनि ग्रही बालक को छोड़ देती है ।
द्वितीये देवता मासि बालं भूमालिनि स्पृशेत मतः या मोदिति शिशु निश्चेष्टो मूच्छितो भवेत्
॥१॥
नम स्यामि वती ग्रीवा पृष्टयो भ्रमणं भवेत मुख्यदास्यः श्रेमा पेतो न दी रिच्छु र्वमत्यपि
॥२॥
प्रति कारोट मेतस्य भिषजांदि भिरुच्यते स पूप माष कृसरं स सर्पिः कृष्ण पायस
॥३॥
लिपुरुषाहारमितं कृष्णांन्नं कांस्य भाजने पलस्य चा सुवर्णस्य परिमाणेन कारितां
॥४॥
सौवर्ण प्रतिमां चापि पीत वासौ गां न्यसेत अभ्यर्च्य गंध पुष्पायै स्ताबूलां तैश्च मलवित्
ततो स सर्पिषान्नेन पायसेनाथवा हुतिः
ಥಣಪಡWS 40g PERSONGS
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CSCISTRISTOTSIDIO विद्यानुशासन DISPI501512350ISIOSY
अष्टोत्तर शतिरष्टौ वा जुहुयाजात वेदसि नीरांजयित्वा संध्यायाबलि ना तेन तं शिशु
॥७॥
गृहीत्वा सयनः पूर्व भागे तं प्रतिपदालिं ब्रह्मणोप्यंबिकायाश्च कार्या पूर्ववदर्चना
॥८॥ ॐ नमो भूमालिनी ऐहि ऐहि बलिं ग्रन्ह ग्रन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा । इति बलि विसर्जनमंलः
पंच पल्लव नीरेण स्नातं भूमालिनी त्यजेत् वसनाविद्यातव्या पूजा बलि विधायिनः गृहं शांति दुार समे मासि यतः शिशोः
॥९॥ इति द्वितीयो मासः दूसरे महिने में बालक को भूमालिनी नाम की देवी पकड़ती है । उसके पकड़ने पर बालक रोता है निश्चेष्ट होकर मूर्छित हो जाता है। तथा उसकी गर्दन और पीठ नमस्कार करने के समान घूमने लगती है । उसका मुँह परिश्रम किये हुये के जैसा लगता है । उसको दूध की भी इच्छा नहीं होती है और वमन भी करता है । इसका उपाय औषधि आदि से कहा जाता है । तीन पूर्व और उडद की खिचडी, घृत, काली खीर और तीन पुरुषो के खाने लायक अन्न का काला भोजन को कांसी के बरतन में रखकर, यार तोले परिमाण की बनवाई हुयी यक्षिणी की प्रतिमा को जो पीलेरंग के यस्तों से ढक कर उस पर रखे । फिर मंत्री उसको गंध पुष्प माला आदि तथा पान से पूजा करे फिर घृत सहित अन्न अथया स्थीर की १०८ आहुति या केवल आठ आहुति देवे अग्नि में आहुति देकर बालक पर बलि को आरती उतार कर संध्या काल में बालक को लेकर उस बलि को मकान के पूर्व भाग में मंत्र सहित रख देवे, फिर ब्रह्म और अंबिका देयि की पहिले के समान पूजा करे। फिर पांचो पत्तो के उबाले हुवे जल से बालक को स्नान करानेपर भूमालिनी देवी छोड़ देती है । फिर बलि कराने वाले आचार्य की वस्त्र आदि देकर सत्कार करे क्योंकि सम संख्या वाले ( जैसे दो-चारछ) इत्यादि महिनो की ग्रह की शांति बहुत कठिनता से होती है ।
तृतीये मासि गहूति गौतमी नाम देवता गृहीतो रोदति शिशु ध्वनिनोच्चतरण सः
॥१॥
अति गर्गमान्नल स्यापि कतो भवेत
अमेध्य गंद्यो देहस्य प्रतिकारोस्य कथ्यते ಇದರಥದಾಡಠ vos ಗಳಗಂಡದಂಥ
॥ २॥
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CISIOA5TOSDEOSIS विधानुशासन SCISISIOSIONSION
वीहीअन्नं पायसं सर्पि मुद्रोक्ष रसादि वान पिष्टं भ्रष्ट तिलानां च पाले कांस्य विनिर्मितं
स्दल चितां रेल प्रतिमा पर दासा अभ्यर्च्य गंद्य पुष्पाद्यै स्तांबूलेनान्वितं बलिं
॥४॥
प्राग्भागे बलिं गेहस्या मध्यान्हें प्रक्षिोत् शुचिः पंच पल्लव नीरेण स्नानंकुर्यात् तदा अर्भक
पलाहु सर्षपं चैव निर्माल्यं पिपली तथा चूर्णी कृत्य विद्यातव्यो विलेपन विधिः शिशो
॥६॥
ब्रह्माणो प्यं बिका या श्च पूजा पूर्वोदितः क्रमात्
त अनेन बलिनां मंचद्र हीतं गौतमी शिशः ॐ नमो गोतमी ऐहि ऐहि बलिं गृन्ह गन्ह मुंच मुंचे बालकं स्वाहा
॥७
॥
आचार्यमथ वासोभि इक्षिणाभिश्च तोषयेत् यत् स्तदशगाः सर्वाभवंति ग्रह देवता
॥ ८॥ इति तृतीयो मास तीसरे महीने में गौतमी नाम की देवी बालक को पकड़ती है-उसके पकड़ने पर बालक बहुत उंची आवाज से रोता है । यह बहुत टट्टी करता है उसके शरीर में दुर्गंध आने लगती है उसका प्रतिकार उपाय कहा जाता है |धान के अन्न की खीर घृत मूंग गन्ने का रस और पिसे हुए काले ( पके हुवे) तिलो को कांसी के बने हुये वर्तन में सोने की बनी हुई यक्षिणी की प्रतिमा को दो वस्त्रों से ढ़क कर गंध फूल माला आदि और तांबूल सहित वलि को घर के पूर्व के भाग में दोपहर के समय पवित्र होकर मंत्रपूर्वक रख्खे , तथा पाँचो पत्तों के पकाये हुवे जलसे बालक को खान करावे - प्याज सरसों चढ़ाया हुवा निर्माल्य अन्न और पीपल के चूर्ण का बालक के शरीर पर विधिपूर्वक लेप करे। तथा पहिले बताई हुई विधि से ब्रह्मा और अंबिका देवी की पूजा करे। इस प्रकार विधि करने पर गोतमी ग्रही पकड़े हुवे बालक को छोड़ देती है । दक्षिणा और घस्त्रादि आदि से सत्कार करके आचार्य को संतुष्ट करे जिस के वश में सब ग्रह देवता होते हैं । SSICI51315015101510151015 ५०८ P1.510151215015015015015
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SSIOTSEXSTORISE5 विधानुशासन LISTO5051255105505
चतुर्थे मासि गहाति पिंगली नाम देवता हस्तीवालासतिग्रस्तो नारच्छास्य विद्यते
॥१॥
मुख्यादास्टाः पूर्तिगंधि न्निश्च॑ष्टः कांश्य भाजन समाधासं च निर्जीवो भवतीच्छं विकारवान्
॥२॥
ऐवं विद्याश्चेष्टाया गहीतस्य तदाशिशो न मंत तत्रं वलिभिः प्रतिकारो विधीयते तं विधे वशंग विद्याय एवं विकत्ति शिशः
॥३॥
चौथे महिने में पिगंली नाम की देवी के पकड़ने पर बालक दोनों हाथों को चलाता है, उसकी दूध पीने की इच्छा नहीं होती है । उसका मुँह सूखने लगता है उसके शरीर से पवित्र गंध आने लगती है। यह कांसी के बरतन की तरह थेष्टा रहित होजाता है |उसको श्वास खूब आते हैं, वह निर्जीव और बिगड़ी हुई इच्छा वाला हो जाता है । जिस बालक में इस प्रकार के लक्षण पाये जाये उसका इलाज न मंत्र न तंव और न बलि से ही हो सकता है । यदि यालक में इस प्रकार के विकार पैदा हो जाये तो उसे उसके भाग्य केही वश का जानना चाहिये ।
गृहाती पंचमे मासि गोकर्णी नाम देवता हेम वर्ण भवेत, सद्यो गृहीतस्य ययुः शिशो :
॥१॥
ज्वरेण महता तप्तः श्रुष्यदास्यो निशरूदन उच्याते तस्य प्रतिकारो विद्यानं बलि कर्मण
॥२॥
बीही अनं माष पूपाज्या पायसे सुरसान्यितं क्षीरेण पाचिताः पूपा पंच रखाद्यानि शल्लवः
||३||
कांस्टो पाले विद्यातव्या शुद्धे गुरुणि विस्तृते प्रतिमां चापि सौवर्णी पीत वस्ल द्वयान्विता
॥४॥
बलिमम्य_ गंद्यायै स्तांबलं च समर्पोत बलिमादाय गेहस्य पूर्वभागे लिवासरं
05015015TOASTOISO15105 ५०९350151235100505PISOISS
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PSPSP595
विद्यानुशासन
न्ही मध्य दिने भानौ निद ध्यान्मंत्र पूर्वेकं पूज्य श्चैत्यालये ब्रह्मायक्षिणी चापि पूर्ववत्
959595951595
पंचपल्लव युक्तेन स्त्रापयेत् शिशु मंभसा बले विधायकस्यापि पूजादेयाथ पूर्ववत्
॥७॥
ॐ नमो गोकर्णी ऐहि ऐहि बलिं गृन्ह गृन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा । इति बलि विसर्जनमंत्र
इति पंचमी मासे
देवी के
पाँच लड़ने में पर बालक के शरीर का रंग सोने के समान पीला पड़ जाता है । वह बुखार से अधिक गरम हो जाता है। उसका मुँह सूख जाता है। रात दिन रोता रहता है। उसकी चिकित्सा का वर्णन बलि कर्म आदि से किया जाता है । धान के अन्न उडद के पूये घृत खीर और गन्ने का रस दूध में पकाये हुवे पूवे पांचो प्रकार के भोजन सत्तू लेकर दो पीले वस्त्रों से ढकी हुई यक्षिणी की सोने की बनी हुई प्रतीमा को शुद्ध भारी और बड़े कांसी के बरतन में रखकर और बलि की धूप फूलमाला आदि से पूजा करके, पान का बीड़ा देकर, घर के पूर्व भाग में तीन दिन तक सायकाल में रविवार को मंत्र पूर्वक बालक पर उतारा करके रख देवे और पूर्वक सम्मान चैत्यालय में ब्रह्मा और अंबिका की पूजन करे। पांचो पत्तों के पकाये हुवे जल से बालक को स्नान करावे तथा पूर्व के समान बलि करने वाले आचार्य की वास्त्रादि देकर सत्कार करेषष्टे मासिनि गृहाति पंकजनामाग्र ही शिशु निगृहीतो रुदेत् तीव्रं तथा देव्या दिवानि
ज्वरेण महता तप्तः श्वसित्यूर्द्धपुनः पुनः उदरे शूलवांश्चापि प्रतिकारोंपि कथ्यते
॥ ६ ॥
पल षष्टया कृते कांस्य भाजने ति विस्तृते उदनं माष पूपं च पायसं सह सर्पिषा
मंडकान् विविधानि इक्षुरसांश्च सह शक्तुभिः ध्वजात् पलांबु रुहै मद्धिं पिष्ट कृतं बलौं
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
॥ ४॥
निघायै तानि वस्तुनि रस वंति महांति च पलेन कृत सौवर्ण प्रतिमां वस्त्रे वेष्टितां
M5252525PSRSRS 470 P5R52525252525
॥५॥
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ಉಪಚEX @agHERE
बलेरुपरि संधार्य सतांबूलानिद्यायतां आहुतिरष्ट विंशत्या हुत्वानौ वलि वस्तुभिः
नीरांज यित्या वलिना तेन बालक मातुरं गृहस्य पूर्वदिग् भागे मध्यान्हे ग्राम मध्यमें
॥७॥
शुचिं विद्याय भूमेश्च मंल वत्तं बलिं क्षिपेत् पंच पल्लव युक्तेन् सिंचेब्दा लक मंभसा
॥८॥
ब्रह्म नोपि अंबिकाया श्च पूजा पूर्वोदिता क्रमात् अर्चीत् बलि कत्तारं वसनै दक्षिणादिभिः
॥९॥
सर्वत्रैवं सर्म मासि ग्रह पीडा वलीयासी अतेस्तरमा प्रतिकारो भोगाइल नर्ममा
॥१०॥
ॐ नमः पंकजे एहि एहि बलिं गन्ह गन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा । इति बलि विसर्जन मंत्र
इति षष्टमो मास छठे महिने में बालक को पंकजा नाम की ग्रही पकड़ती है। उस देवी से पकड़े हुया बालक रात दिन जोर से रोता है, बड़े भारी बुखार से तपने लगता है | बारबार उंचा श्वास लेता है । उसके पेट में दर्द भी होता है। उसका प्रतिकार कहा जाता है | साठ पल अर्थात तीन सेर के बनवाये हुवे कांसी के एक भारी बर्तन में भात उडद के पूर्वे खीर घृत मंडया, (ज्वार) आनेक प्रकार के गन्ने का रस, जौ का सत्तू, ध्वजा, छत्र और कमल को मलकर पीस कर बनाई हुई बली द्रव्यों को इन सब बड़े भारी रस वाली वस्तुओं को रखकर, एक चार तोले सोने की बनवाई हुई यक्षिणी की प्रतिमा को दो कपड़ोसेढ़ककर, बली की थाली पर रखकर ताबूत धूप फूल मालाआदि सहित बलि की वस्तुओं से आमि में मंत्र सहित आठ इस आहुतियाँ देकर उसनलि की थाली से दुखी बालक पर आरती उतार कर गांव के बीच में घर के पूर्व की तरफ दोपहर के समय स्थान को शुद्ध करके मंत्र सहित उस बलि को रक्खे और पांचो पत्तो से पकाय हुवे जल से यालक को स्नान करावे । फिर पूर्वोक्त क्रम से चैत्यालय मे ब्रह्मा और अंबिका की पूजा करे तथा बलि कराने वाले आचार्य का वरच और दक्षिणा आदि से सत्कार करे।सम गिन्नी वाले (२-४-६ आदि) महिनों में ग्रहो से बड़ा भारी कष्ट होता है अतएव इसका प्रतिकार बड़ी बलि से ही हो सकता है । SISTOISTRISTOTRISIRIDDIS५११ PISTRISTOTSIRSIO5950
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252525252525_ftengeneza YSY5YSY5Y3Y5
सात मासि गन्हात त्रिमुरखीनाम देवता निश्चसत् उर्द्धमंत्यंतं तं भेदयति वपुषः
सुगंधत्यस्य देहोति मालती पुष्प गंधवत् वदनोद्घाटनं चापि कुरुते सौ प्रतिक्षणं
प्रतिकार प्रकारोपि विकारस्यास्यकथ्यते बीही अन्नं माष पूपं च रसाल रस सर्पिषा
रसाल फल वस्तुनि पिष्टेन रचितान्यपि आदाय विमलेकांश्य माजने रोचने वरे
ॐ नमः
प्रतिमां चादि सौवणी चित्र वस्त्र ध्वजान्वितां बलेरुपरि विनस्य गंधाद्यैस्तांसमर्चयेत्
मध्यान्हे तमुपदाय मंत्र में तदुदीरयन् पूर्वस्यां दिशि विनस्य ग्राम मध्ये क्षिपेत बलिं
ब्रह्ममंबिका चापि कुर्यात्पूर्ववदचितौ पंचपल्लव नीरेण कार्येत् स्त्रपनं शिशोः आचार्य पूजिते पश्चात स्वस्थो भवति बालकं : लीमुरखी ऐहि ऐहि बलिं गृन्ह गृन्ह मुंच बालकं स्वाहा ।
॥ १ ॥
॥ २ ॥
|| 3 ||
॥ ४ ॥
॥५॥
॥ ६ ॥
॥७॥
इति बलि विसर्जन मंत्र:
इति सप्तमो मासः
सात महिने में त्रिमुखी नाम की देवी बालक को पकड़ती है उस समय बालक उंचा श्वास लेता है और अपने शरीर को भी तोड़ता है । उसके शरीर में मालती के फूलो के समान सुगंध आती है और वह जरा जरा सी देर में अपने शरीर को खोलता है । उसका उपाय इस विकार का कहा जाता है । व्रीही अन्न का भोजन, उड़द के पूवे, आम का रस, घृत, आम के फल तथा यही चीजें पिट्टी की बनी हुई लेकर, उनको सुंदर कांसी के बरतन में रखकर, श्रेष्ट लाल कमल सहित सोने की बनवाई हुई यक्षिणी की प्रतिमा जो रंग विरंगे कपड़ों और ध्वजा से युक्त हो बलि के उपर रखकर, 52975 ५१२ P5959595959595
69595
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SASRISOSIASTD35015 विधानुशासन 95015015ICISIOISON
और उसको धूप फूलमाला आदि से पूजा करे । उसको दोपहर के समय लेकर मंत्र बोलते हुये पूर्य दिशा में गाय के मध्य में बलि रखे । फिर पहिले के समान ब्रह्मा और अंबिका की चैत्यालय में पूजन कर पाँचों पत्तो के पकाये हुवे जल से बालक को मान करावे । फिर आचार्य का वस्वादि से सत्कार करे तो बालक स्वस्थ हो जाता है |
अष्टमे मासी महाति जैनी लामेति देवला: श्रयदास्याः करो वासचलत्यस्य सदाशिशो:
निष्टो मूर्छित स्तन्यन कदाचित पियत्या सौ अनु का साया कारा दृश्यं ते स्फोटका स्तनौ
॥ २॥
तस्य मलादिभिः को पि प्रतिकारो न विद्यते
विद्ये वशं गते जंतो नान्यः शक्यं चिकित्सितु ॥३॥ आठवें महिने मे जैनी नाम की देवी बालक को पकड़ती है। उसके मुँह में युशकी और बायाँ हाथ में बालक के चंचलता करती है । बालक निश्चेष्ट और मूर्छित होता है और यह स्तन से दूध नहीं पीता है। उसके शरीर में सरसों के आकार के दाने फूट पड़ते हैं । उसका इलाज मंवआदि से भी नहीं हो सकता है । उस प्राणी को भाग्य ही बचा सकता है और कोई प्राणी चिकित्सा से उसकी रक्षा नही कर सकता है।
इति अष्टमो मासः गन्हीते नयमें मासि कुभं कर्णति देवता प्रतिक्षणं भवेत गालस्या स्य भूयान्नपि ज्वरः
चाल यत्रोष मूनि राई यत्यात्मन नरवान् दिवानिशं रुदन्तेषापियंत् तीरं न किं चनः
॥२॥
गंधं कुवलय स्टोव तस्य वमणिसर्वतः शरीर सर्वदाप्यस्य स्तंभी भूयायति तिष्ठति
॥३॥
महतो स्य विकारस्य महात्येव प्रतिक्रिया उद लावणापिनाक माष पूयान्वितो दनं
॥४॥
CASSISTRICISTORTOI5T05५१३ 0505555555555CASCIEN
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eSPSPSC/
विधानुशासन 25PPSSP59a
सर्पि क्षीरं गुड भृष्ट तिलापिष्टंच पायसं चतिलानपि विन्यस्य पाले श्रद्धे गरासि
प्रतिमापि सौवर्णि रक्त वस्त्र द्वयान्वितां निय गंध पुष्पाद्यैस्तांबूलेन पुरस्कृतां
तेन नीरांजनं कृत्वा वलिना शिशव पुरः सोन पूर्वदिग्भागे मध्यान्हे वासरलयं
पांडु सर्षपा न्मेषश्रृंगं पाद नखानपि वसा मध्य विमांसेन पिष्ट्रा शिशुं विलेपनं
॥ ५ ॥
अभिषिचेत्तदा बालं पंच पल्लव वारिणा बलिं प्रदा वस्त्रादिदत्वा तंपरि तोषयेत् परितोष बिना तस्या नस्याद्राह विमोक्षणं
॥ ६॥
112 11
बलिं समंत्र कं दद्यात्त कृत्वाश्रुद्धिंजनः श्रुचिः ब्रह्मणोप्यं बिकायाश्च कुर्यात् पूर्व वदर्चन ॐ नमः कुंभ कर्णि ऐहि ऐहि बलिं गृन्ह गृन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा इति वलि तिसर्जनमंत्र:
|| 19 ||
॥९॥
॥ १० ॥
इति नवम मास
नव महीने में कुभं कर्णीनाम की देवी के पकड़ने पर प्रत्येक समय बालक का शरीर टूटता ही रहता है। बहुत बुखार होजाता है। वह अपने शरीर को हिलाता है। अपने नाखूनो को तोड़ता है । रातदिन रोता हुआ बिलकुल भी दूध नहीं पीता है । उसके शरीर में कमल की सी गंध आती है। उसका सारा शरीर हर वक्त निश्चेष्ट हुआ ठहरा रहता है। इस भारी विकार का भारी है प्रतिक्रिया है - नमकीन पानी में भिगोयी हुई खल उड़द के पूर्व चावल, (भात) घृत, दूध, गुड़, सिके हुवे तिलों की पिष्टी, खीर और तिलों को शुद्ध भारी बरतन में रखकर दो लाल कपड़ों से ठकी हुई यक्षिणी को सोने की प्रतिमा सहित रखकर उसकी धूप फूल माला आदि से और तांबूल से पूजा करके उस बली से बालक के सामने मंत्र पढ़कर, बालक के मकान के पूर्व की तरफ दोपहर के समय तीन दिन तक पवित्र होकर, मंत्र सहित रख देवे । पहिले के समान ब्रह्म और अंबिका देवी की पूजन
95969695959595 ५१४PSPS959595959
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esP55
विधानुशासन
696959695
करे, प्याज, सरसों, भेड़ के सींग और उसके पैरों के नाखून को पीसकर उससे बालक के शरीर पर लेप करे । फिर बालक को पांचो पत्तो के पकाये हुवे जलसे स्नान करावे तथा बलि देने वाले को वस्त्र आदि की दक्षिणा देकर उसको संतुष्ट करे क्योंकि उसको संतुष्ट किये बिनाग्रह बालक को नहीं छोड़ते ।
दशमें मासि गृह्णाति कापिशी नाम देवता निगृहीतस्तया सोपि कृशो भवति बालक :
नाहारं समु पादते नोन्मीलयति चक्षुषी स विकारं च रुदत्येष सवलत्येव मुहुर्मुहुः
एतस्याः विकृतेरे वं प्रति कारोपि कथ्यते उदनं माष पूपं च धृत पिंड खलं गुडं
उदनं रक्त वर्ण च कांश्य पात्रे निघाय च ध्वज घंटात पत्राणि पिष्टेन रचितानि च
निक्षिपेत्पात्र मध्य स्थयले रूपरिसर्वतः पलेनैकेन रचितां सौवर्ण प्रति मा मपि
कौशयक युगछन कुर्यात् शिरसितांबलैः लिवासरं शुचिर्भूत्वा कृत्वा नीरांजनाविधिः
गृहस्य पूर्व दिग्मार्ग प्रक्षिपेन्मलं विद्वलिं गां निर्मोक सर्षपांडंधि नरवान्वितां
पांडवर्ह निर्माल्य गज दतत्समांशिन: चूर्णी कृत्य शिशोर्वपुलेपं धूपंतै नैव कारयेत्
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥३॥
॥ ४ ॥
॥ ६॥
॥७॥
11211
॥ ९॥
पंचपल्लव नीरेण स्नानं कार्य शिशोस्ततः ब्रह्मणोप्यं बिकायाश्च कार्या पूर्ववदर्चना
C5252525250505 424 15252525252525
॥ १० ॥
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CARDSCIERSE5125 विधानुशासन 50150158050505
वस्तादि भिरधा चामिर्चटो द्वालि दायिनं इत्थं बलि विद्यानेन कापिशी तंविमुच्यति
॥११॥ उनमः कापिशी एहि बलिं गन्ह गृह मुंच मुंच बालकं स्वाहा
बलि विसर्जन मंत्रः इति दशमो मासः
-
-
गुन्हाये कादर्श मासि देवता काल राक्षसी निष्टो मूच्छित भूत्वानिर्जीव स शिशु भवेत् विधिन हित स्थास्य प्रतिकारो निरर्थक:
इति बलि विसर्जन मंत्र
॥१२॥
इद्धि एकादाणो मासः द्वादशे मासि गन्हाति चंचला नाम देवता मुह्यतेति विकारेण स शिशु शोषवान् भवेत्
॥१॥
शुष्यदा स्टो जनेनापि प्रियमाणःसरोदति स्तब्ध नेलो दिशः पश्य देवेष्टामुपायुषः
॥२॥
प्रतिकारो विधानेन कथ्यते भेषजादि भिः अन्नं सपि दधि क्षीर राज माषाश्चपाचितान्
॥३॥
पिष्टं भष्ट तिलानां च रसाल रस मुज्वलो काश्य पाले विनि हितं पल षष्टि समन्विते
॥४॥
रक्ताशंक युगो पेतरसुवर्ण प्रतिमानवितां गंधादिभिःसमभ्यर्च्य तांबूले नान्वितं बलिं
सयनः पूर्वदिग्भागे मध्यान्हे ग्राम मध्ये गं त्रि यासरं बलिं कुर्यात् विधिना मंत्रपूर्वकं
॥६॥
CS050SCISEDICICISIOS ५१६P3501525CISIOTECISIOISI
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05051215195905 विद्यानुशासन 051065121515051015IDASI
पंच पल्लवनीरेण स्नपनं च तनः शिशः ब्रह्मणोऽप्यं ऽबिकायाश्च पूजो पूर्वोदित क्रमात
॥७॥
आचार्य पूजटो त्पश्चात् वस्त्राद्यैत्र सर्व वस्तुभिः अनेन बलिना तुष्टा शिशुं त्यजति चंचला
॥८॥ ॐ नमश्चंचले एहि एहि बलिं गन्ह गन्ह मुंच मुचं बालकं स्वाहा ॥
इति बलि विसर्जन मंत्र: दसवें महिने में कापिसी नाम की देवी से बालक को पकड़ने पर बालक दुबला हो जाता है। वह न कुछ आहार लेता है और न आँखें खोलता है । बार बार रोता है और फिसल कर गिर पड़ता है।इस विकार की चिकित्सा कही जाती है। भात, उड़द के पुदे, घृत, खल, गुड़, लाल रंग का भात. और पिट्ठी के बने हुये ध्यजा, घंटा और छत्र को कांसी के बर्तन में रखकर बर्तन के मध्य में बलि के ऊपर एक चार तोले सोने की बनवाई हुई यक्षिणी की प्रतिमा को भी रखे फिरउस बलि को दो पवित्र रेशमी वस्त्रों से ढ़ककर पवित्र होकर, तीन दिन तक बालक का मंत्रपूर्वक आरती करके मंत्री घर के पूर्व दिशा के भाग में बलि को रखे और भेड़ के सीग सर्प की कांचली सरसों और भेड़ के पाँव के नाखून, प्याज मोर के पंख , निर्माल्य द्रव्य और हाथी दांत को बराबर लेकर चूर्ण बनाकर फिर बालक को पांचो पत्तों के पकाये हुए जल से स्नान करायें तथा शासनदेवी अंबिका (कुष्मांडी) देवी का पूजन करें। इसके पश्चात बलि कराने वाले आचार्य को वसा आदि देकर सत्कार करे इस प्रकार बलि देने पर कापिसी देयी इस बालक को छोड़ देती है।
इति दशमो मास: ग्यारह मास में बालक को राक्षसी नाम की देवी पकड़ती है तब बालक निश्चेष्ट और मूर्छित होकर निर्जीय हो जाता है। उसे अच्छा करने में केवल भाग्य ही समर्थ है अन्यथा उसका प्रतिकार करना व्यर्थ है।
इति एकादश मास; बारहवें महिने में चंचला नाम की देवी बालक को पकड़ती है उसके विकार से बालक मोह और सुशकी हो जाती है। उसका मुँह सूखने लगता है बार बार लोगों द्वारा गोदी में लेने से भी रोता है। नेत्र ठहर जाते हैं और चारों दिशाओं को देखता हुआ अनेकप्रकार की चेष्टायें करता है। उसके प्रतिकार का विधान औषधि आदि से कहा जाता है - अन्न, घृत, दही, दूध , लोभिया, (चोले) उड़द पकाये हुये भुने हुये तिलों की पिट्टि और आमों के रस को उज्वल तीन सेर कांसी के बर्तन में रखकर दो लाल वस्त्रों से लपेटी हुई यक्षिणी की सोने की प्रतिमा को धूप माला आदि से पूजकर, पान से मुक्त करके उस बलि को घर के पूर्व दिशा में गांव के बीच में तीन दिन तक मंत्र सहित विधि CARTOISTRICTSPSCISIOTS५१७ DISTRICISTRISTRISRISODE
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SSISTSDISTRI5T0585 विधानुशासन ISO150150150150155 पूर्वक बालक का उतारा करके बलि दें। इसके पश्चात बालक को पाँचों पत्तों के पकाये हुये जल से स्नान करायें तथा क्रम पूर्वक ब्रह्मा और अंबिका का चैत्यालय में पूजन करें अंत में वस्त्र आदि सब वस्तुओं से आचार्य का पूजन करें इसप्रकार बलि देने से संतुष्ट होकर चंचला ग्रही बालक को छोड़ देती है।
इति द्वादश मासः
आदिमं मासमा रभ्य मासानां द्वादशाऽवधि ग्रहोपशांति कथिता बालारोग्य विवर्द्धनी
॥१॥ प्रथम मास से बारहवें मास के अंत तक के ग्रहों की शांति का वर्णन किया गया है जो बालकों की निरोगता को बढ़ाने लगता है।
आवं वत्सरमारभ्य शोडषाब्दाऽवधि कमात् ग्रहाणां विकृते वक्ष्ये शांति सिद्धैनिरूपितां
॥२॥ पहिले वर्ष से लगाकर सोलह वर्ष तक के ग्रहों के विकारों की शांति के सिद्धि का वर्णन किया जाता है।
देवता नंदिनी नाम गन्हात्यादिम् वत्सरे पतत्याऽभिमुरची भूत्वा ग्रस्तः सोऽपि शिशुस्तथा
॥२॥
स्तब्ध नेत्र करोत्येष रोदनं च दिवा निशं वेल्लयित्वामऽमरिवलांगं ततश्च मूर्छितो भवेत्
॥३॥
आदत्ते चाऽपिनाहारं वैघृतेऽपिन किंचनं उच्यतेऽस्या प्रतिकारो विकृते भैषजादिभिः
॥४॥
अपूप मास पूपाज्य दधि क्षीरान्न मंडकान् राजमाषान्ब्रीहि लाजान पिष्टं भृष्ट तिलोद्भवं
बहुन्येतानि विन्यस्यकांस्य पात्रेऽतिविस्तृते पलामानां कुर्वीत प्रतिमां प्रति वत्सरं
S5IDSDTAARTSAPTSIDAS125/५१८ PISTRI5T0151050SIDISTRISH
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ಇದರಿಂದಲಪಡE REFERE 2NDOFFEE
ता हेम प्रतिमां तत्र पीत वस्त्र युगां न्यसेत् अर्चिते गंध पुष्पादौ स्तां बूलेनाऽन्विते वली
तद्रह प्रीतये पश्चात् अवशिष्टां दशांवधिः तत मंत्रैणक विशंत्याज्जुहुया जातवेदसि
॥७॥
अभ्युदयेत सलिलं तत्र प्यात्वा तद्देवतां शुचिः नीरांजयित्वा मध्यान्हे सोदकुंभं बलिं होत्
|॥८
॥
पशुदंताऽहि निर्मोक वहाँधिनरव सर्षपान् केशान् सश्चशान् संचूण्यं धूपं दद्यात्त नौशिशो
॥९॥
पंच पल्लव नीरेण स्नपनं ब्रह्मणोऽर्चनां अंबिकायाश्च पूजादिकार्या पूर्वोदित क्रमात्
१०॥
आचार्य पूजयेत्पश्चात् वस्त्राऽलंकरणादिभिः बलिना महताऽनेन बालं मंचति नंदिनि
॥११॥ ॐनमो नंदिनि एहि एहि बलिं गन्ह गन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा।
इति प्रथमो वत्सरं प्रथम वर्ष में नंदिनि नाम की देवी बालक को पकड़ती है उसको पकड़ते ही बालक के सामने को मुँह किये ही गिर पड़ता है। उसके नेत्र ठहर जाते हैं वह रात दिन रोता है और सब अंगों को बड़े जोर से हिला कर मूर्छित हो जाता है। वह कुछ भी भोजन नहीं करता है और वह कुछ भी वस्तु नहीं लेता है। उस विकार की चिकित्सा औषधि आदि से कही जाती है। पुड़ी, उड़द के पूर्व, घृत दहीमंडया (ज्वार) राज, माष (राई उड़द या चौला) ब्रीही, धान चावल की खील, भुने हुवे तिलों का चूर्ण इन सब वस्तुओं को कांसी के बड़े भारी बर्तन में रखकर, प्रतिवर्ष आधे पल अर्थात दो तोले की सोने की यक्षिणी की प्रतिमा बनावायें। इस सोने की प्रतिमा को धूप फूल माला आदि से पूजकर पान का बीड़ा देकर दो पीले कपड़ों से लेपटकर बलि के ऊपर रख दें। इसके पश्चात उस ग्रह को प्रसन्न करने के लिये शेष बची हुई अवस्था (दिशा) में अग्नि में मंत्र पढ़कर इक्कीस बार आहुति दें। साथ ही पवित्र होकर तथा देवी का ध्यान करके वहां एक जल के बर्तन से या झारी से की बूंद बूंद डालता जावे तथा दोपहर में बालक का आरती मंत्र सहित उतारकर उस दल के घड़े सहित बलि दें। पशु के दांत, सर्प, कांचली मोर के पंख ,पाँव के नाखून, सरसों, बाल को बराबर
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PoPSPSPSPSS विधानुशासन PPPSP59595
बराबर लेकर बालक के शरीर में उसकी धूप देखर बालको पत्तों के उबाले हुये पानी से स्नान करायें। फिर शीतलनाथ स्वामी के यक्ष ब्रह्मा तथा नेमिनाथजी शासना देवी अंबिका (कुष्माडिनी) की पहिले के समान पूजा करें। अंत में वस्त्र और आभूषण आदि देकर आचार्य का सत्कार करें इस महान बलि से संतुष्ट होकर नंदिनी ग्रही बालक को छोड़ देती है ।
गृन्हाति रोहिणी नाम द्वितीये वत्सरे शिशुं तया देवतया ग्रस्तो विकारान कुरुते बहुन्
सह रक्तेन वमति मूत्रे चापि अतरिक्तिमा । वामश्चलति हस्तोऽस्य पतेत् पर वशोभुविः
देहः कुवलयाभोस्य स विकारं च रोदिति भवतश्चक्षुषी रक्ते कथ्यतेऽस्य प्रतिक्रिया
पायसं गुडम न्नाज्य राज माष दधीनि च मा पूपं ससूपं च पिष्टं भृष्ट तिलोद्भवं
ऊद लावण पिण्याक्रमण स्थाप्याति विस्तरे पल षष्टया परिमिति कांश्य पात्रेनिवेश्य च
माष पिष्टेन रचितं पद्म कुवलयद्वयं शिशुवद्वर्तन संजातमिदं च बलि मूर्द्धनि
रक्त वस्त्र युग छन्न रक्त माल्यानुलेपनं सौवणी' प्रतिमामेक पलेन रचितामऽपि
अर्चिते गंध पुष्पाद्यै स्तांबूलेनाऽन्विते वलौ ततो वाऽवशिष्टाऽन्नैराहुतिनां विभावसौ
अष्टा विशंति में तैन मंत्रेण जुहूयात् शुचिः तत तांबूलमुपादाय मोदकुंभ ततो बलिं
2/52/52525252525 47. 152523
॥ १ ॥
॥ २ ॥
113 11
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
॥ ६॥
|| 61 ||
|| 2 ||
॥ ९ ॥
एनड
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0505051052505 विधानुशासन PAHIDISTRISTOISTRISTRIES
भानोरुदय बलायां प्राच्यां दिशिं विनिक्षेपत् मेषदंताऽहिनिम्नॊक वहांऽपिनरव सर्षपान
|॥१०॥
पलांडु कुटजं चैव अवचूर्ये समांशतः तेन धूपायितं कुर्यात् तत शरीरं च सर्वतः
॥११॥
--
श्री यक्षमूलैरऽश्वत्थ पलाश त्वरिभरऽन्वितं जलं संतापप्यते नैव कुर्यात्स्वानं ततः शिशो:
-
॥१२॥
-
-
-
गंध सारेण यालस्य लिंपे देहं समं ततः सप्त वासरमेतेन विधिना मंत्रपूर्वकं
॥१३॥
गृहस्य पूर्व दिग्भागेशुचि भूत्वा बलिं क्षिपेत् बयाणं यक्षिणी चैव पूजयेत्पूर्व वस्तुभिः
॥१४॥
||१५॥
आचार्याय ततः पूजा विद्यातव्या यथापुरा
एवं : समर्चिता देवि रोहिणी तं विमुंचति ॐनमो रोहिणी एहि एहि बलि गृह गृन्ह मुंच बालकं स्वाहा
इति बलिं विसर्जन मंत्रः
इति द्वितीयो वत्सरः दूसरे वर्ष में बालक को रोहिणी नाम की देयी पकड़ती है उस देवी के पकड़े जाने पर बालक बहुत प्रकार के विकार दिखलाता है। वह रक्त मिला हुआ वमन करता है मूत्र भी लाल होता है उसका दायाँ हाथ चलता है पराये वश में होकर जमीन पर गिर पड़ता है शरीर में कमल के फूल की सी गंध आती है। विकार के कारण खूप रोता है। उसके दोनों नेत्र लाल हो जाते हैं । इसका प्रतिकार कहा जाता है-खीर, गुड़,जन, घृत, राज माष लोभिया (चौले) (राई, उड़द) दही, उड़द, के पुवे दाल भुने हुए तिलों की पिष्टी, तिलों की खल जो नमकीन जल में भीगी हुई हो, इन सबको एक बड़े भारी तीन सेर के कांसी के बर्तन में रखकर उड़द की पिट्टी से बने हुवे दो कमल के फूल और बालक के शरीर पर से उतरे हुवे उबटना को बलि के ऊपर रखकर दो लाल वस्त्रों से लपेटी हुई एक पल (४ तोले) के बनी हुई सोने की यक्षिणी की प्रतिमा, जो लाल माला और लेप से
CASIO51015125512151055555| ५२१ PISSISTRISTORTOISTOISEDIES
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CSCI5015015105105 विधानुशासन P1501501501510151075 शोभित हो, उसको धूप और फूल माला आदि से पूजकर पान का बीड़ा देकर सबके ऊपर रखें
और बलि के सब शेष बाकी बचे हुवे अन्नों से अग्नि में इस मंत्र से अहाईस २८ आहूतियां पवित्र होकर दें। फिर पान देकर और जल के घड़े सहित बलि को मंत्रपूर्वक सूर्योदय के समय पूर्व दिशा में रखे, और भेड़ के दांत, सर्प, कांचली मोर के पाँवो के नाखून, सरसों ,प्याज और कुड़ा (कुरज) को बराबर लेकर उससे बालक के सारे शरीर पर धूप दें। बिल्य के पेड़ की जड़, पीपल और छीला की छाल को डालकर पकाये हुये जन से बालत को स्नान करायें । फिर बालक के शरीर पर चारों तरफ चंदन का लेप करें। इस विधि से सात दिन तक मंत्रपूर्वक घर के पूर्व दिशा के भाग में पवित्र लेकर बलि दे। तथा पहिले के समान ब्रह्मा और अंबिका की चैत्यालय में पूजन करें। इसके पश्चात पहिले के समान वस्त्र और आभूषणों से आचार्य की पूजा करें। इसप्रकार पूजा करने पर रोहिणी देवी उस बालक को छोड़ देती है।
तृतीये धन दत्तेति वत्सरे क्षुद्र देवता, गृह्णाति बालकं सोपि न पश्ये देव किंचन
॥१॥ चलतैस्ट करो वामो ज्वरोश्च सश्रमो महान, आदत्ते चापि नाहार कृशो भवति सर्वथा
॥२॥
प्रतिक्रिया विकारस्य कथ्यते चौषद्यादिभिः, दलावण्य पिणयाक मोचनं क्षीर सपिंषी
राज माषं मुगा पूप मंडके क्षु रसानऽपि पूरिका बीही लाजांश्च कांस्य पात्रेति विस्तृते
४
॥
परिपूर्य ततो हेम प्रतिमा पल संमिता कौशैयां श्रुक युग्मां शांत द्रव्योपरि विन्यसेत्
अर्चरोत गन्धं पुष्पायै स्तांबूलं च सर्मपोत, अबोन माष पूपेन सर्पिषोऽपि समाहितः
आहूति भिरऽ थाष्टाभि होंमं कुर्या द्विभाव सौ, गृहस्य पूर्व दिग्भागे रविस्तं गते सति
॥७
॥
CSSISTRISISTRISTOTS051५२२ PERISTOTSTOTRTOISEXSTOTEN
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CASS15101510150151215 विधानुशासन 950152519751015IOISS
त्रिवासरं बलिं दद्यात् संस्मरन् धनदाउमपि, पंच पल्लव नीरेण शिशोः कत्वाऽभिषेचनं
॥८॥
ब्राह्मणमंऽ बिकांचैव पूज्येत् पूर्व वस्तुभिः वस्त्रासनाचे प्रमुदितं कुर्यात् बलि विधायकं
||९||
एवं बलि विधानेन धन दत्ता विमुंचति ॐ नमो धन दत्ते एहि-एहि बलिं ग्रन्ह- ग्रन्ह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ॥
॥ इति तृतीयो वत्सरः ॥ तीसरे वर्ष में धन दत्ता नाम की देवी बालक को पकड़ती है तब बालक कुछ भी नहीं देखता। उसका बायाँ हाथ चलता है, बुखार हो जाता है - यह बहुत परिश्रम किया हुआ मालूम पड़ता है, भोजन नहीं करता है और बहुत दुर्बल हो जाता है। इस विकार की प्रतिक्रिया औषध आदि से करने का उपाय कहा जाता अमकीला पानी भीगी हुई तिलों की जाउ, केला, दूध, घृत, लोबिया, मूंग के, पुवे मंडवा गन्ने का रस पूरी ब्रीहिधान और चावल की खील को अत्यंत बड़े कांसी के बरतन में रखकर, उसके ऊपर रेशमी कपड़ों से ढंकी हुई एक चार तोले सोने की प्रतिमा को रखे । उस प्रतिमा का धूप पुष्पादि से पूजा करके पान देवे फिर अन्न उडद के पूर्व घृत से एकांत चित्त होकर दिन की समाप्ति पर सूर्य के छिप जाने पर, घर के पूर्व दिशा के भाग में अग्नि में आठ आहुति मंत्रपूर्वक देकर होम करें। इसप्रकार धनदत्ता देवी को स्मरण करता हुआ तीन दिन तक बलि देवे, तथा पाँचों पत्तों के पकाये हुवे जल से बालक को स्नान करावे ब्रह्मा और अंबिका देवी के चैत्यालय में सब चीजों से पूजन करे तथा बलि कराने वाले आचार्य को वस्त्र, आसन आदि देकर प्रसन्न करे। इसप्रकार के बलि विधान करने से धनदत्ता उस बालक को छोड़ देती है।
चतुर्थे शाकिनी नाम वत्सरे देवता मकै, पीडियेत् सोऽपि महता ज्वरेण परितप्यते
प्रतिक्षणं सबलत्येष भवे । होस्य पांडुरः, सविकारं हसत्येव कथ्यतेऽस्ट प्रतिक्रिया
॥२॥
॥३॥
ऊदलावण्य पिवद्याकमोदनं सूप सर्पिषी निधायै,
तानि वस्तूनि कांस्य पात्रेऽति निर्मले 050521501501525105/५२३ PSIRISTRI501501585213
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POPP PPS विधानुशासन 95969695955
पल प्रमाण प्रतिमाणशात् कुंभेन कारिताः, रक्ताश्रुक् तां तत्र गंधायै स्तांप्रपूजयेत्
अथाष्टाऽचाहती हुत्वा साज्योनांऽन्नेन वार्हषिः त्रिपुरषाहार मितं संध्या काले त्रिवासरं
गृहस्य पूर्व दिग्भागे प्रतिमंत्र वद्वलिं मेषदताऽहि निर्माकौ दसांस समभागतः
सं तेन सर्वांगं कुर्य्याद धूपायितं शिशोः पंचपल्लव नीरोण स्नपमं ब्रह्माणोऽर्चना
॥ ४ ॥
॥५॥
॥ ६ ॥
अंबिकायाश्च पूजाऽपि पूर्ववत् समुदीरिता आचार्य पूजा वस्त्राद्यैः कार्या पूर्वादित क्रमात् शाकिनी बलिदानेन तुष्टा बालं विमुंचति
ॐ नमो शाकिनी एहि एहि बलिं गृह-गृह मुंच मुंच बालके स्वाहा ॥
॥ इति चतुर्थ वत्सरः ॥
चौथे वर्ष में शाकिनी नाम की देवी बालक को पकड़ती है तब यह बड़े भारी ज्वर से तपने लगता है। वह प्रतिक्षण फिसलने लगता है, उसके शरीर का रंग पीला पड़ जाता है और वह विकार से हँसता है। उसका प्रतिकार कहा जाता है- नमकीन पानी में भीगी तिलों की खल, भात, दाल, घृत इम वस्तुओं को अत्यंत निर्मल कांसी के बर्तन में रखकर, उसके ऊपर एक पल ४ तोले प्रमाण सोने की बनाई हुई प्रतिमा को दो लाल वस्त्रों से ढंककर उसका गंध पुष्पादि से पूजन करे। इसके पश्चात् अग्नि में मंत्रपूर्वक घृत की आठ आहुति देवे, तथा मंत्री संध्या के समय घर के पूर्व दिशा में तीन दिन तक घृत, अन्न और पंख तथा तीन मनुष्यों के आहार लायक भोजन समेत बलि देवे । भेइ के दांत, सर्प कांची अवस्था के अनुसार समान भाग लेकर, उसके चूर्ण की धूप बालक के शरीर पर देवे । पाँचों पत्तों के पकाये हुए जल से बालक को स्नान कराये और पहले के समान चैत्यालय ब्रह्मा और अंबिका देवी का पूजन करे। अंत में पहले समान वस्त्र आदि देकर आचार्य की पूजा करे । इसप्रकार बलि देने से संतुष्ट होकर शाकिनी ग्रही बालक को छोड़ देती है।
95P5251
951५१४ P52595
कल
॥ ७ ॥
|| 2 11
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95Pse5e59
विद्यानुशासन 9595959595
पंचमेऽब्दे स्पृशेद्वालं नंदिनी नाम देवता साच रुष्टा किमपि हिदुष्टं शक्तिन्न विद्यत
वपु कृशीता भवति दुर्गंध्यति च सर्वदा आस्य श्रुष्यत्यहोनो रात्रं प्रलपत्येष बालकः
स्वलन्नित्यं हसत्येय बहुधा मूत्र निःसृति भवेत् श्वाश निरोधेन कुक्षाऽवुयून्सता शिशोः
करिष्यते विकारस्य भेष जाथेः प्रतिक्रिया, पायसं सपिरन्न च दधीऽक्षुरस संयुतं
उदलावेण पिण्याकं पिष्टं भृष्ट तिलोद्भवं, निधाये मानि वस्तुनि कांस्य पात्रेऽति विस्तृते
प्रतिमाऽपि सौवर्ण पलेन परिमापितां. वस्त्र युग्मा परिवृतां न्यसेन्मादाय मूर्धनि
अभ्यर्च्य गंध पुष्पाद्यै स्तांबूले नान्वितं बलिं अन्नादशिष्टेन जुहुयात् षोडशाहूति
तस्य वह्नि सलिलैः कुर्यात् त्रि परिषेचनं, ग्रामस्य पूर्व दिग्भागे सप्त रात्रं बलिं क्षिपेत्
पंचपल्लव नीरेण स्नानाऽनन्तर मर्ज्जकं, पलांडुमहि निर्मोकं वहिं केशांश्च सर्षपान्
अवचूर्ण्य समांशेन विदधातेन धूपितं, एवं बलि विधानेन देवी बालं विमुंचति
595
1595/५२५ 759551
॥१ ॥
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॥ ५ ॥
॥ ६॥
॥ ७ ॥
112 11
॥९॥
॥ १० ॥
PSPSPS
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PSP595952 विधानुशासन 959595959595
ब्रह्मणोत्यंऽबिकायाश्च पूजाकार्या यथा पुरा, आचार्यमपि वस्त्राद्यै ईक्षिणभिश्च पूजयेत्
ॐ नमो नंदिनी एहि एहि बलिं गृह्ण गृह मुंच- मुंच बालकं स्वाहा ॥ ॥ इति पंचमो वत्सरः ॥
पाँचवे वर्ष में बालक को नंदिनी नाम की देवी पकड़ती है । वह रूठ जाता है तथा रूठ करके अपना अहित करता है तथा उसमें शक्ति जरा भी नहीं रहती है। उससमय बालक का शरीर दुर्बल हो जाता है, उसके शरीर से हर समय दुर्गंध आने लगती है, वह सूखने लगता है, वह बालक रात दिन रोता रहता है। प्रायः वह फिसलता हुआ हँसता है, बहुत पेशाब करता है, और श्वास के रुक जाने से बालक की कोख फूलने लगती है। इस विकार का प्रतीकार औषधि आदि से की जाती है-खीर, घृत, अन्न, दही, गन्ने का रस मिलाकर नमकीन पानी में भिगोई हुई तिलों की खल, भुने हुए तिलों की पिष्टों को एक बड़े भारी कांसी के बरतन में रखकर, चार तोले सोने की बनी हुयी प्रतिमा को दो वस्त्रों से ढंककर सबके ऊपर रखे। फिर उस बलि की धूप, फूल-माला आदि तथा पान से पूजा करने के पश्चात् मंत्रपूर्वक अनाज, घृत आदि मुख्य होम द्रव्यों से सोलह आहुतियाँ अग्नि में देवें। अग्नि में सात रात्रि तक बलि देवें। इसके पश्चात् पाँचो पत्तों से पकाये हुवे जल से बालक को स्नान करावे । प्याज, सर्प, कांचली, मोर के बाल और सरसों को बराबर लेकर चूर्ण से धूप देवें । इसप्रकार बलि विधान करने पर वह नंदिनी देवी बालक को छोड़ देती है। फिर पहले के समान ब्रह्मा और अंबिका देवी का चैत्यालय में पूजन करे तथा वस्त्र, दक्षिणा आदि देकर आचार्य का सत्कार करे।
षष्टे अब्दे ग्रशते बालं कामिनी नाम देवता, ग्रस्तश्च स तथा बालः क्रंदनुच्चतरः स्वरः,
द्रूत स्ततोऽपि पतति बहुबारं निशा सुच ज्वरेण महता तप्तः प्रेक्ष्यते गगनं स्थलं
नाहार माददात्येष स विकारं श्वासित्यऽपि प्रतिक्रियाऽस्य महतो विकारस्य विधीयते
॥ ११ ॥
पायसेक्षु रस क्षीर माष पूपाज्य मोदनं, उदलावण पिण्याकं धान्याम्लं वा समऽन्वितां
95959595959595 पर६ PSPSP/
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
|| 8 ||
959595
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9596296959595 विधानुशासन 969695959595
अयं शीत च बलिं चैव निदध्या ताम्रभाजने, प्रतिमामऽपि सौधर्ण पलेन् परिमापितां
चित्रवस्त्र द्वयो येतां बलि मूर्द्धन्या स्थितां गंधाक्षता स्तांबूल दाने नापि सहाऽर्चयेत्
षोडशाहुति भिमिऽमन्ने नाज्येन तर्पयेत्, गृहस्य पूर्व दिग्भागे भी मार्गों त्रिवासरं बलिं दद्यांत् शुचिमंत्री मंत्र मे तदुदीरयन्, पशोद्धतेन श्रंगेन क्षुरेण सह चर्म्मणा
धूपि तस्यत्ततः स्नानं पंच पल्लव वारिणा इत्थं बलि विधानेन कामिनी तं विमुंचति
ब्रह्माणमंबिकांश्चैव कुर्य्यात् पूर्व यदचिंती, मंत्रिणं पूजेत्पश्चाद्वस्त्रालंकार वस्तुभि प्राण प्रदायिणं लोके का वास्यात्प्रति उपक्रिया ॐ नमो कामिना एहि एहि बलिं गृह-गृह मुंच - मुंच बालकं स्वाहा ॥
11411
॥ ६॥
॥७॥
112 11
॥ ९ ॥
॥ १० ॥
॥ इति षष्टम् वत्सरः ॥
छठे वर्ष में बालक को कामिनी नाम की देवी पकड़ती है। उसके पकड़ने पर बालक ऊँचे स्वर से रोता है। रात में हुआ कई बार जल्दी जल्दी गिरता है, बुखार से वह बहुत तेज तप जाता है। और आकाश को देखता है। उसे बड़ा भारी विकार का प्रतिकार कहा जाता है। खीर, गन्ने का रस,
दूध, उड़द के पूवे, घृत, भात नमकीन पानी से भीगी हुयी तिलों की खल, धान्य, आंवला सब मिलाकर उत्तम तथा शीतल बलि को तांबे के बर्तन में रखकर, एक पल (४ तोले) सोने की बनवाई हुयी प्रतिमा को दो अनेक रंगों के वस्त्रों से ढँक कर धूप, गंध, अक्षत, फूल माला आदि और पान से पूजन करके फिर सोलह आहुतियाँ अन्न की और घृत की मंत्रपूर्वक देवे और इतनी बार तर्पण करे। मंत्र के अन्त में नमः के स्थान पर स्वाहा लगाकर होमद्रव्य तथा घी की हवनकुंड की अग्नि में डालने को होम कहते हैं, और एक रकाबी में अनाज और जल भरकर मंत्र में स्वाहा के स्थान पर तर्पयामि लगाकर हथेली को आसमान की तरफ करके जल या अनाज को रकाबी में ही ऊपर
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9503959519595
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T5015015015505 विद्यानुशासन RSDISCIEDS015RASI ऊछालने को तर्पण कहते हैं। फिर पूर्व दिशा की तरफ तिराहे पर तीन दिन तक मंत्री पवित्र होकर मंत्र बोलते हुए बलि देये, पशु (भेड़) के दांत, सींग अथवा खुर अथवा चमड़े से धूप देकर पाँचों पत्तों के जल से बालक को स्नान कराये। इसप्रकार बलि विधान करने से कामिनी देवी बालक को छोड़ देती है। फिर पहले के समान ब्रह्मा और अंबिका का पूजन करे और अन्त में वस्त्रों और अलंकारों आदि वस्तुओं से मंत्री का पूजन करे क्योंकि लोक में प्राण देने वाले का बदला नहीं चुकाया जा सकता।
॥१॥
गृहणं देविनी देव्याः सप्तमे वत्सरे शिशोः, वेल्लयित्वात्मनो ग्रीवां निश्चः सेऽत्पीडित स्तया अस्य प्रति क्रयापेवं भेषजादिभि रूच्यते, बल्यर्थ पायसं समिक्षान्यष्ट विधानि च
॥२॥
ताम्र पत्रे स कंक्कोलं निधारी तानि विस्तृती, प्रतिमामऽपि पूर्वोक्ति परिमाणेन कारिता
॥३॥
रक्ताभुक युगो पेतां रक्त माल्यानुलेपनं, सौवीं तत्र गंधामंत्र वेतां समयेत्
॥४॥
अनेन विधिना भक्षरऽष्टभिः पायसेन वा, आहुति जुह्यादाऽग्नावष्टा विशंति संरख्यया
मध्यान्हे त्रिपथे द्रुमैरा स्वच्छ श्रुद्धि संयुते,
सोद कुंभं बलिं शुद्धो विदधाति समंत्रक ॐ नमः कुष्मांडि कांशिक रक्तमंडिकाऽम्बिके जुहोमि इमं मुंच-मुंच बालक
स्वाहा।
मंत्रेणा नेन विधि वद्धोमं कुर्वीत मांत्रिकः, निंब पत्राऽहि निर्मोक सिद्धार्थ हरिताल कै
॥७॥
समानशूर्णितै धूप द्दद्याद्वपुषि तत् शिशौः, पंच पल्लव नीरेण स्नपनं ब्रह्मणार्चनं
॥८॥ CTERISEDICTERISRTERS५२८PSCIEDSCIRCISCISCISI
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अंबिका याक्ष पूजाऽपि कुर्यात्पूर्यो दित्त कमात्, मानिक पूजत्पाश्रवस्त्राल करणादिभिः
॥९॥
एवं बलि विधानेन देविनी तं विमुंचति, तस्मात् तदेव कर्तव्यं निरालस्येन मंत्रिणा
॥१०।। ॐ नमः देविनी एहि एहि बलिं गृह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ।।
॥ इति सप्तमो वत्सरः॥ सातवें वर्ष में देयिनी नाम की देवी बालक को पकड़ती है तब बालक स्वयं ही अपनी गर्दन को मरोड़कर बड़े कष्ट से सांस लेता है। इसका इलाज, औषधि आदि से कहा जाता है। बलि के वास्ते खीर, पृत आठ प्रकार खाने योग्य पदार्थ और शीतल चीनी को एक बड़े भारी तांबे के बरतन में रखकर और पहले के समान पूर्वोक्त परिमाण की अर्थात् चार तोले सोने की बनवायी हुई प्रतिमा को दो लाल वस्त्रों से ढंककर लाल माला और अनुलेप लगाकर बलि के ऊपर रखे और प्रतिमा का गंध, धूप, फूल माला आदि से पूजन करे। इसप्रकार आठों प्रकार ते भोजन से अथवा खीर, घृत आदि से अग्नि में अठाईस आहुतियाँ देकर दोपहर के समय स्वच्छ द्रुम पीपल वृक्ष के तिराहे पर शुद्धि पूर्वक जल के धड़े सहित मंत्रपूर्वक बलि देवें।
ॐ नमो कुष्माडिकांशिके रक्त मंडि काम्बिके जुहोमि इमं मुंच-मुंच बालक स्थाहा ॥
मंत्री इस समय इस मंत्र से विधिपूर्वक होम करे और नीम के पत्ते, सर्प, कांचली, सफेद सरसों और हडताल को बराबर-बराबर लेकर फूटकर उसकी बालक के शरीर में धूप देवे। फिर पांचो पत्तों के उबाले हुए जल से बालक को स्नान कराये तथा ब्रह्मा और अंबिका का पूजन पहले के समान करे। अन्त में वस्त्र और आभूषणों से मंत्री का पूजन करे। इसप्रकार के बलि विधान करने से वेनी उस बालक को छोड़ देती है। इस वास्ते मंत्री को आलस्य छोडकर यह क्रिया करनी चाहिये।
अष्टमेऽब्दे निगृह्णाति नलिनी नाम देवता गहीतः, मोऽपि निर्गत्य गृह देवाधि को भवेत् ।
॥१
॥
मात्य तंद्रमुत्थाय भुजमास्फायत्यापि, हास्याल्पं पुनरायाति रिवद्यत्तै च मुहुर्मुहुः
॥२॥
SSCIROERISRASIC15015५२९ PHOTOSORRISOISOD
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SARITRAKOOTSPSC वियानुशासन ARCISESSIRIDIPARICS
भेषजादिभिरस्टौवं प्रतिकारो विधीयते, उदलायण पिण्याक पायसाज्य दधीनि च
॥३॥
राजमाषान्त्रीहि लाजान पिष्टभष्टं तिलोद्भवां, मयूपं माष सूपं च कांस्य पात्रं निवेशयेत्
॥४
॥
प्रतिमा तत्र विन्यस्य सौवीं पल निर्मिता, रक्त वस्त्र द्वयो पेतां गंधावैरर्चनान्वितां, शिष्टैः पूर्वोदित द्रव्टो: होमं कुर्यात् विभाव सौ, आहुति भिस्तथासाभिमा स्त्रत महतले
गहस्य पश्चिमे भागे निशीथे सप्त वासर, बलिं दत्वा शुचिभूत्वा निःशंको मंत्र मुच्चरन्
॥
७॥
निंब पत्राहि निर्माक सिद्धार्थ लसुनैः समैः, कार्पास बीजेन समं चूर्णीत् तद धूपरोशिशौ
Ik
Il
पंच पल्लव नीरेण स्नपनं बाणेचनं, अधिकायाश्रव पूजादि कार्या पूर्वोदित कमात्
॥९॥
आचार्यस्यार्चना पूर्व विधानेन विधीयते, एवं कृतेन नलिनी बलिना तं विमुंचति
॥१०॥
ॐ नमो नलिनी एहि-एहि बलिं गृह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ॥
॥ इति अष्टमो वत्सरः ।। आठवें वर्ष में बालक को नलिनी नाम की देवी पकड़ती है। उसका पकड़ा हुआ बालक घर से निकलकर आयारा हो जाता है। वह बार-बार मूर्छित हो जाता है। तंद्रा में उठकर हाथों को ठोंकता है फिर थोड़ा हंसता है। फिर बारम्बार आकर खेद करता है। इसका प्रतिकार औषधि आदि से कहा जाता है। नमकीन जल में भिगोयी हुई तिलों की पिष्टी, पूवे, उडद की दाल को कांसी के बर्तन में रखकर, चार तोले सोने यक्षिनी की प्रतिमा बनवाकर, दो लाल कपडों से उसे ढंककर- धूप,
5315015051205051065५३० PISODSASOISSISCISO957
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OSDISORDOISOS विधानुशासन 505501505 फूलमाला आदि से पूजकर उस बलि पर रखे। पहले कहे हुये द्रव्यों से एक हवन कुण्ड की रचना करके अग्नि में आहुतियाँ नूमी को आठ द्रव से शुद्ध करके देवे- अर्थात होम मंत्रपूर्वक करे। फिर घर से पश्चिम भाग की तरफ रात में सात दिन तक पवित्र होकर मंत्र बोलता हुआ निर्भय होकर बालक पर उतारकर बलि देवे। नीम के पत्ते,सर्प, कांचली, सफेद सरसौ, लहसुन और कपास के बीज (विनोले) को बराबर लेकर चूर्ण करके इससे बालक को धूप देवे। फिर पांचों पत्तों के पकाये हुए जलसे बालक को स्नान कराये और पूर्वोक्त क्रम से चैत्यालय में ब्रह्मा और अंयिका देवी का पूजन करे । अन्त में पूर्व विधान के अनुसार आचार्य का वस्त्र और आभूषणों से सत्कार करे। इस प्रकार बलि विधान के करने से नलिली नाम की देवी बालक को छोड़कर चली जाती है।
नवमं यत्सरे बालं गन्हाति कल हंसनी, गहीतः सोपि महता ज्यरेण परिपीडयते
॥१॥
दाहोपि देहे सुमहान दुःसहोति च वर्तते. बले विधानं तस्टीय कथ्यते मंत्र पूर्वकां
॥२॥
प्रियंगु श्यामकं ब्रीहियवा नाल्चंदनं हविः, दध्योदनं बीही लाजा क्षीरं लोहविनिर्मिते
||३||
भाजने प्रतिमां चापि सौवर्णी पल निर्मितां, रक्तवासो युगछन्नां गंधायैर चिंतांश्रुचिः
॥४॥
विन्यस्य होमं कुर्वीत दध्यान्मे नाहुती देश, परिषिंचेत् ततो दहि द्विवारं सलिलेन च :
गृहस्य पूर्व दिग्भागे संध्यायां पंच यासरं, विदधीत बलिं मंत्री श्रुचि मंत्र पुरस्सरं
॥६॥
पंच पल्लव नीरेण कुर्यादलाभिषेचनं, सिद्धार्थ रंजनी व्याधि वसा गुंजन मंभसा
॥७॥
समांशेन यिनिष्य कुदिपुषि लेपनं,
गजदंतं पशोईतं नरवान् केशान समाशिनः, CSCSRIDICISCISIO5051५३१ PISTRISTOTRISADRASIDISCIEI
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SIRIDIOSSISTRISTRIS विधानुशासन DECISCISIOTSIDEOS
अवचूर्ण्य शिशो द्रूपं दद्यात् वपुषि सर्वतः,
एवं कृते तु सा देवी कल हंसी विमुंचयति ॐ नमो कल हंसिनी एहि-एहि बलिं गृह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्याहा।।
॥८॥
॥ इति नवमी वत्सरः॥ नवमें वर्ष में बालक को कल हंसिनी नाम की देवी पकड़ती है। उससे पकड़े हुए बालक को बहुत बुखार आने लगता है। उसका शरीर बहुत अधिक बर्दास्त न होने योग्य दाह और जलन मालूम होती है उसकी शांति के वास्ते बलि विधान मंत्रपूर्वक कहा जाता है। फूल, प्रयंगु, श्यामक(सामा)ब्रीहीधान जो नलिका (नलि सुगंध द्रव्य) चंदन और होम करने योग्यहवि द्रव्य-दही भात ब्रीही, स्त्रील, खीर को लोहे के बरतन में रखकर , एक चार तोले सोने की बनायी हुई यक्षिणी की प्रतिमा को दो लाल कपडों से ढंककर और शुद्ध होकर धूप, फूल माला, तांबूल आदि से पूजकर बलि रखकर दही और अन्न से अग्नि में दस आहुति के साथ होम करे। इसके पश्चात् अग्निको दो बार जल से शांत करे (सींचे)। घर के पूर्व दिशा के भाग में संध्या के सम पांच दिन तक मंत्री उस बलि को पवित्र होकर मंत्र बोलता हुआ बालक पर उतारा करके बलि देवे (रखे)। पाँचो पत्तों के पकाये जल से बालक को स्नान करावे। सफेद सरसों हल्दी. व्याधि (कट). वसा (चरबी), गजन (गाजर) को जल से बराबर लेकर पीसकर बालक के शरीर पर लेप करे। हाथीदांत और नाखून
और बाल बराबर लेकर चूर्ण करके बालक के तमाम शरीर पर धूप देवे। ऐसा बलि विधान करने से यह कल हंसिनी देवी बालक छोड़ देती है।
दशमे वत्सरे देव दूती गृहाति बालकं गहीतः, सतया देव्या कुरुते देह मोटनं
॥१॥
अस-कृन्मूत्र यत्टोष नीलेक्षण युगो भर्वत्, बहुऽन्नं बहु पानीयं भुक्त्वा पीत्या न तृप्यति
॥२॥
वादयेदऽपि वाद्यानि गायत्यपि पतन भुवि, धावत्युत्थाय विद्वजप्लुतां क्षार वचो वदेत्
___॥३॥
वदत्तोषदुक्तानि दृष्टवा जनमुपागतं, ग्राम्याला पैरधिक्षेप स्तस्यैवं सर्वदा शिशोः
॥४॥
SISTAHICISTOTSIRISTOTTO5/५३२ DISTORICKSRASOISTORICIES
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95IONSCISIOISION51015 विधानुशासन HSD15TOTHRISIOS015
उच्यतेऽस्या प्रतिकारो बलिना भेषजादिना, अपूर्प माष चूर्ण च पायसं सह सर्पिषा
राजमाषान् बीहि लाजान पात्रे कांस्य मरान्टासेतु, प्रतिमापि सौवर्ण पलेन परिमापितां
॥६॥
रक्त वस्त्र युग छन्नमादाय बलि मूर्धिनि, करवीरस्य कुसुमैः चैतैः रक्त सितेरपि
॥७॥
अचिंते गंध पुष्पायै स्तांबलेनान्विते, बलौ आज्येन पासा वन्ही जुहुयात्षोडशाहुती
॥८
॥
पूर्वस्यां दिशि गेहस्य दर्भान्वित मही तले, सूर्यस्योदय बेलायां त्रिदिनं प्रक्षिपेलिं
॥९॥
मेष कस्य विषाणं च गुग्गुलाऽधि नरवान समान, संचूण्यतेन धूपं च दधारालस्य वपुर्षाण
॥१०॥
पंच पल्लव नीरेण सापिते बालके ततः, पूज्यश्चैत्यालये ब्रह्मा यक्षिणी चापि पूर्ववत्
॥११॥
अचिंतेऽपि तथा चार्घ्य सा देवीं तं विमुंचति, तस्मात् तदेव कर्तव्यं निरालस्टोन मंत्रिणा
॥१२॥ ॐ नमो देवदूती एहि-एहि बलिं गह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ॥
॥ इति दशमो वत्सरः ।। दसवें वर्ष में देवदूती नाम की देवी बालक को पकड़ती है। उसे पकड़ा जाने पर बालक का शरीर टूटने लगता है। उसको पेशाब बार-बार आता है। दोनों आँखें नीली हो जाती हैं। बहुत अन्न खाकर, बहुत जल पीकर भी तृप्त नहीं होता है। बाजों को बजाता है।जमीन पर पड़ा-पड़ा भी गीत गाता है। फिर आदमी को आया हुआ देखकर उससे शिकायत की बात कहता है तथा वह बालक
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OSRIDIOSDISTRIS05 विधानुशासन 505RISRASIRSION गाँव वालों की बोली में आक्षेप (झिड़का) करता है। उसकी यह दशा सदा बनी रहती है। इन विकारों का प्रतिकार औषधि और बलि आदि से करने का उपाय कहा जाता है-पूर्व, उड़द का चूर्ण, खीर तथा घृत, लोभिये, ब्रीहीधान, चावलों की खील को कांसी के बने हुये बर्तन में रखकर एक चार तोले सोने की बनवायी हुई प्रतिमा को दो लाल कपड़ों से ढंककर, बलि द्रव्यों पर रखकर, फिर सफेद और लाल कनेर के फूलों से तथा गंध धूप, फूलमाला और पान से पूजन करके और घृत
और दूध की अग्नि में सोलह आहुतियाँ मंत्र पूर्वक देकर, घर के पूर्वभाग की दिशा में दाभ (दर्भ) बिछी हुई भूमि पर सूर्योदय के समय मंत्रपूर्वक बालक पर उतार काके, नील दिर तल उलि देवे। भेंडे के सींग, गुग्गल और पैर के नाखूनों को बराबर लेकर उसके चूर्ण की धूप बालक के शरीर में देवे । पाँचो पत्तों के पकाये हुए जल से बालक को स्नान करावे तथा चैत्यालय में पूर्ववत् ब्रह्मा
और अंबिका देवी का पूजन करके आचार्य का भी वस्त्र अलंकार आदि से सत्कार करे । इस प्रकार बलि विधान करने पर देवदूती देवी उस बालक को छोड़ देती है। इस वास्ते मंत्री को आलस्य छोड़कर यही कार्य करना चाहिये।
॥ इति दशमो वत्सरः। एकादशे अब्दे गृहणाति मालिवी नामिका ग्रही, तस्य शिशो स्तस्य महत्कुक्षीय॑थाभवेत्
॥१॥
रूदन काक स्वरेणेष शुष्यदास्टा: कशत्कभाक, चल बुढ्या वदत्येवं प्रतिकारश्च कथ्यते
॥२॥
पाटासं सर्पिलसुन गुड लडुक शष्कुली कसरं, राज माषान्नं माषाण पिष्ट कानिच
॥३॥
समाषं पूप मेतानि कांस्य पात्रे विनिक्षिपेत्, प्रतिमां शात कुंभस्य पलेन परिमापितां
॥४॥
पीतांशुक युगां तत्र गंधारिऽचिंता न्यसेत्, तद्रव्येणैव जुहुयाऽजात वेदस्यष्टाहति:
एकविंशति संख्यानं मंत्री को भटा वर्जितः, पूर्वस्यां दिशि गेहस्य मध्यान्हे वासरत्रयं
CHERSIOTSIRIDIOTISTOR525५३४ PSIRIDIOISTRISODCHODI
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CHODI501512152155 विधानुशासन PHOTOISOINDIDOS
बलि मध्य पयो दद्यान्मांत्रिको च, पुनः शुचिः, यौ : ससर्षपे धूपं दातव्यस्तन्य वपुषाणि
॥७॥
पंच पल्लव नीरेण स्नपनं ब्रह्माणेचनं, अंबिकाटाच पूजाऽपि काटा पूर्यादित क्रमात्
॥८॥
मंत्रिणः सत्कृते पश्चा देवता तां विमुंचति, तस्मात् तदेय कर्तव्य मन्यथा तं न मुंचति
11९॥ ॐ नमो मालिनी एहि-एहि यलिंगहन-गृहह्न मुंच-मुंच बालकं स्वाहा।।
ग्यारहवें वर्ष में बालक को मालिनी नाम की देवी पकड़ती है। उसके पकड़ने पर बालक की कोष में बही व्यथा हो जाती है। यह कौये के जैसे स्वर से रोता है। उसका मुँह सूख जाता है, कम भोजन करता है, यह चंचल बुद्धि से बात करता है। इन विकारों का प्रतिकार कहा जाता है- खीर, घृत, लहसून, गुड़, लङ्क, कधारी, खिचड़ी, लोकिती, अन और पद की लिष्टि, उड़द के पुवे इन सबको कांसी के बनाये हुए बर्तन में रखकर और एक बार तोले परिमाण सोने की बनायी हुई प्रतिमा को दो पीले कपड़ों से ढंककर, उसको चंदन, धूप, फूलमाला आदि से पूजकर बलि पर रखे, और उसी द्रव्य से अग्नि में आठ आहुतियाँ देये । हकीस बार इस प्रकार आहुति देने से मंत्र बालक को भय रहित कर देता है। फिर घर के पूर्व दिशा के भाग में दोपहर को मंत्र पूर्वक तीन दिन तक बलि देये। मंत्री बलि के मध्य में दूध भी देवे तथा पवित्र होकर जौ और सरसों की धूप बालक के शरीर में देवे। फिर पाँधो पत्तों के पकाये फल से बालक को स्नान कराये और पहले कही हुई विधि से चैत्यालय में ब्रह्मा और अंबिका देवी का पूजन करें। मंत्री सत्कार किये जाने पर देवी बालक को छोड़ देती है अतएव यह कार्य अवश्य करना चाहिये। ऐसा नहीं करने पर देवी बालक को नहीं छोड़ती है।
॥ इति एकादशो वर्षः ॥ द्वादशाब्दे स्पर्शदा लं वाहिनी नाम देवता, पीडितस्थ शिशो स्तस्य मुखं शुष्यति सर्वतः
॥१॥
शांतः कृशश्चमुनिं पाती दुभयत्रयः, यमत्यऽस्या प्रतिकारः कथ्यते भेष जादिभिः
॥२॥ S650150150550505(५३५ P50150150150550505
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9695959595951 विधानुशासन 959595959591
पंच वर्ण दनं सूप राज माषं कृतां हविः, निम्न पात्रे लोह मये निधायैतानि विस्तृते
प्रतिमां द्यापि पलतः कृतां स्वर्णमयी मऽपि, नील वस्त्र युगच्यामऽवस्थाप्याऽर्चिताऽपि गंधादिभिः सुगंधन कंकोले नापि लेपितां, आहुतिभिस्तथा ताभिर्जात वेदसि सं यतः
जुहुयान्मंत्र विन्मंत्री पूर्वोक्तर्वस्तुभिः सदा अर्थादये रये गृहत् पूर्व दिक त्रिपथांतरे
त्रिवारं बलिं देयात्कृत्वा भू शुद्धि मंभसा, सिद्धार्थ निंब पत्रैश्च धूपोदेय : शिशोस्ततः
अभिषिंचेत् तरों पंच पल्लवोदक धारया, बले विधानेना नेन वाहिनी तं विमुंचति
चैत्यालये ब्रह्मादेव मंबिकां च पुरोहितै:, यशुभिः पूजयेत्सर्वान्ं नान्यथा नहि मोचनं
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
॥५॥
॥ ६ ॥
॥७॥
॥ ८ ॥
1130
मंत्रिकांचापि विविधैः परिष्कुर्वीत वस्तुभिः प्राण प्रदायिनां लोके का वा स्यात्प्रत्युप क्रिया ॐ नमो वाहिनी एहि एहि बलिं गृह गृह मुंच मुंध बालकं स्वाहा ॥
बारहवें वर्ष में बालक को वाहिनी नाम की देवी पकड़ती है। उसे पकड़े जाने पर बालक का मुख सब तरफ से सूख जाता है। वह थका हुआ और उल्टी भी करता है। उसकी औषधि आदि से सिर को दोनों तरफ गिराता है और उल्टी भी करता है। उसकी औषधि आदि से चिकित्सा कही जाती है- पाँच रंग के भात, दाल, लोभिये से बनाया होम द्रव्य को लोहे के एक बड़े तथा गहरे बर्तन में रखकर उस पर धार तोले सोने की बनवायी हुई प्रतिमा को दो नीले वस्त्रों से ढँककर चंदन, धूप, फूलमाला, पान आदि से पूजन करे, तथा शीतल चीनी से लेप की हुयी प्रतिमा को रखकर अग्नि में आहुतियाँ देकर मंत्र को जानने याला मंत्री पहले कही हुयी वस्तुओं से होम करके, सूर्योदय के समय घर से पूर्व दिशा के भाग में तिराहे पर पृथ्वी को जल से शुद्ध करके तीन दिन तक बलि QSP5b ५३६ PPSC
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うどちらでおぐり
॥ १० ॥
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CI501505CISISTERIS विधानुशासन 950505RISRISTION देवे। इसके पश्चात् सफेद सरसों और नीम के सूखे पत्तों की धूप बालक को देवे। फिर बालक को पाँचों पेड़ों के पत्तों के पकाये हुए जल की धारा से स्नान कराये। इसप्रकार बलि विधान करने से वाहिनी देवी बालक को छोड़ देती है। इसके पश्चात चैत्यालय में पहले के समान ब्रह्मा देय और अंबिका देवी का पूजन सम्पूर्ण द्रव्यों से करे अन्यथा देवी नहीं छोड़ती। अंत में मंत्री का भी अनेक प्रकार की वस्तुओं से सम्मान करके संतुष्ट करे क्योंकि प्राण दान करने यालों का लोक में बदला तो चुकाया नहीं जा सकता।
॥ इति द्वादशो वत्सरः॥ गृह्णाति टाक्षिणी नाम वत्सरे तं त्रयोदशे, विगृहित स्तया सोपि ज्वरेण परितप्यते
॥१॥
शूली भवति वातेन रहित्यु भय तोलुवनं, विकार स्थास्य महतः शिशोः प्रति विधीयते
॥२॥
बालकस्थ तनुं स लिंपेदाज्येन भूयसा, बीहि अन्नं पायसं सपि राजमाषाच लटकान्
॥३॥
उदलावण पिण्याक सहित ताम्र निर्मितो, आदाय भाजने सयंबलिं वस्तु विधानेत :
॥४॥
पलेन रचितां हम प्रतिमां युग्म वाससा, संपूजस्य गंध पुष्पायै बलेरू परि परि भक्तित:
॥५॥
दधि भक्तन लाजैश्व पायसेन च सर्पिषा अग्राऽवनेन मंत्रेण जुहयाद्याहुतिर्दशः
॥६॥
सद्मनो दिशि पूर्वस्यां मध्यान्हें पि चतुष्पथे, बलिं दद्यात् ततो मंत्री मंत्रेणाऽनेन भविततः
मेष दंता हि निमोंक सर्षपे धीही गुंजकै. धूपि तस्य शिशो स्नानं पंच पल्लव वारिणा
॥८॥
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SSCISSISDIST95015 विधानुशासन 950150155ASIDAOISI
बमाणमंबिकां चाऽपि कुर्यात पूर्व वदाऽचिती,
मांत्रिकं पूजयेत् पश्यावस्त्राल करणादिभिः ॥९॥ ॐ नमो यक्षिणी एहि-एहि बलिं गह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा।
॥ इति त्रयोदशो वत्सरः ॥ तेरहवें वर्ष में बालक को यक्षिणी के द्वारा पकड़े जाने पर बालक को बुखार आ जाता है। वायु से दर्द भी इतने जोर का होता है कि बालक दोनों तरफ तेजी से लोटने लगता है। इस बड़े भारी विकार का प्रतिकार कहा जाता है- बालक के सारे शरीर पर बहुत से घृत का लेप कर दो। बीही धान का अन्न, खीर, पत, लोभिये और लड्डू, नमकीन पानी में भिगोई हुयी तिलों की खल इन सब वस्तुओं की बलि को एक तांबे के बनाये हुए बर्तन में रखकर एक चार लोले की सोने की बनायी हुयी यक्षिणी की प्रतिमा को दो वस्त्रों से लपेटकर, जिसकी भक्ति से चंदन, धूप, फूलमाला आदि से पूजा कर दही. भोजन, धान की खील और घृत से अग्नि में इस मंत्र से भक्तिपूर्वक घर की पूरब की दिशा में दोपहर में चौराहे पर बलि देवे। भेड़ें के दांत, सर्प, कांचली. सरसों, ब्रीहि धान, घोंटली, मोर के पंख से बालक को धूप देकर उसको पाँचों पत्तों के जल से स्नान करावे । ब्रह्मा और अंयिका का पहले के समान पूजन करे, वस्त्र और अलंकारों से आचार्य का पूजन करे।
चतुरंशेऽब्दै गृहणाति सौंदरी नाम बालकं, गृहीतश्च तथा बालः सहसा निपदभुविते
॥१॥
ज्यरितश्च दिवारानं निद्रामयोपगच्छति, विकारस्यास्य महत: प्रतिकारो विधियते
॥२॥
लड्डूकान पायसं सपिपिण्याकं चौद लावणं, अपूप माष सूपेक्ष रसान् पिष्टं च पाचित
निधारीतानि वस्तूनि ताम्र पात्रेति विस्तृते. पल प्रमाणेन निर्मितां सौवणी प्रतिमामाप
||४||
चित्र वस्त्र द्वयो पेतां गंधावेश समर्चिता,
बले रूपरि विन्यस्य पश्चात् शुद्धे महीतले SSCIRCISCISCISCIRC5५३८PSCISIODEOSRASRASCIEN
Page #545
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CSCISCISESSIRIDIOS वियानुशासन 250ISEASEDICISCES
जुहुयाद् दधि भक्तन ज्वलेन च दशाहुतीः, पूर्वस्यां दिशि गेहस्य त्रिदिनं चौदो रवी
जपेन्मंत्र मिमं मंत्री ग्राम मटो क्षिपेलिं, निंब सपंप निर्माल्य येणु रवंडेश्च चूणिते :
धूपं वपुषि सर्वत्र निदध्यादर्भ कस्य तं, पंच पल्लव नीरेण नपर्न बहाणेचनं
॥८॥
अंबिकायाश्च पूजाऽपि विधेया पूर्व वस्तुभिः मंत्रिणं पूजयेत् पश्चात् वस्त्राधै भक्ति पूर्वक
सौंदरी बलिदानेन तुष्टा बालं विमुचति ॐ नमो सौंदरी एहि-एहि बलिं गृह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ।।
॥९॥
चौदहवें वर्ष में सौंदरी नाम की देयी बालक को पकड़ती है। इसके पकड़ने से वह बालक पृथ्वी पर यकायक ही गिर जाता है। उसको रात दिन बुखार रहता है और नींद भी बहुत आती है। उस भारी विकार का प्रतिकार कहा जाता है- लाडू, खीर, यत, नमकीन पानी में भिगायी हुई तिलों की खल, पूर्व, उड़द की दाल, गन्ने के रस को पकाकर और पीसकर इन सब वस्तुओं को एक बड़े सांबे के बर्तन में रखे। इसके बाद शुद्ध की हुयी पृथ्वी पर दही, भोजन आदि से अग्नि में मंत्र पढ़ते हुए दस आहुतियाँ देये। फिर घर के पूर्व भाग की दिशा में सूर्योदय के समय तीन दिन तक मंत्री मंत्र को जपता हुआ गाँव के बीच में बलि को बालक पर उतारकर रखे। फिर नीम, सरसों, निर्माल्य और वेणु (बांस के टुकड़ों के चूर्ण से, अर्मक (पुत्र) के बालक के सारे शरीर में धूप देवे
और पाँचों पत्तों के पकाये हुए जल से स्नान कराये, तथा ब्रह्मा और अंबिका देयी की भी पहले बतायी हुयी वस्तुओं से पूजा करे। चैत्यालय में पूजन करे फिर भक्ति पूर्वक मंत्री का भी वस्त्रालंकारों से पूजन करे तब सौंदरी देवी संतुष्ट होने पर बलि देने से यालक को छोड़ देती है।
॥ इति चर्तुदशो वत्सरः ॥
धनदेति निगन्हाति वर्ष पंचदशे अर्यकः, पीडितस्य तया देव्या वसित्यूदयमहिनिशं
STERISTICISIOTECISTRISIOS५३९ 9350105015015015015
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0505125505CI505 विध्यामुशासन 950905DISCISION
गात्रस्य मोटनं कुयात् पष्टे निपततेऽक्षिती, प्रतिक्षणं च हिदका तस्य प्रति विधीयते
॥२॥
उर्द लावण पिण्याक पायसं सर्पिषान्वितं, पिष्टं भृष्ट तिलानां च ब्राहीलाजा सहभिसा
माष सूर्पन सहितं ताम्र पात्रेपये दिनां, प्रतिमाऽमपि सौवणी रक्त वासो युगावतां
॥४
॥
अभ्यच्य गंध पुष्पाबै स्तांबूलेनान्विते, वलो होम माहुतिभिः कुटा दशभिः सर्पिषांभसा
॥५॥
गृहम्य पूर्व दिग्भागे मध्यान्हे वासर त्रयं, मंत्रेणानेन विधि वदलिं दद्यात् शुचि स्ततः
॥६॥
मेष अगं वदंताधिनस्य केशान् समांशतः, अवचूण्यातनोलेपं प्रकुर्वीत् समंत्रतः
॥८
॥
पंच पल्लव नीरेण बालकस्य भिषेचनं, ब्रह्माणोप्टांबिकायाच पूजा पूर्ववदा चरेत्
बले विधायिकं चापि तोषयेद सनादिह ॐ नमो धनदेवी पहि-एहि बलिं गृह-गह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ।।
॥ इति पंच दशो वत्सरः ॥ पन्द्रहवें वर्ष में बालक को धनदा नाम की देवी पकड़ती है। उस देवी से दुखी किये जाने पर बालक रात-दिन ऊँधी श्यास लेता है। उसका शरीर टूटता रहता है। यह पृथ्वी पर पीठ के बल गिर पड़ता है। और उसको प्रतिक्षण हिचकियाँ आती रहती हैं। उसका उपाय कहा जाता है- नमकीन पानी में भिगोई हुयी तिलों की खल, खीर, घृत, भुने हुये तिलों की पिष्टी ब्रीहिधान , चावल की खील जल के साथ उड़द की दाल के साथ तांबे के बर्तन में रखकर |ऊपर से दो लाल कपड़ों से लपेटी हुयी CSCISCIRCISIONSCIRCIS५४० DISCISIOSDISPIRCISCIEN
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95969695952 विधानुशासन 95959
らんらん
सोने की प्रतिमा को रखकर चंदन, धूप, फूलमाला और पानी आदि से पूजकर उसकी मंत्र सहित घृत और अमंसा (जल), अंधसा (भात) की दस आहुतियाँ देवे। भेड़ के सींग, दांत, पांव के नाखून और बाल बराबर-बराबर लेकर उसके चूर्ण से बालक के शरीर पर मंत्रपूर्वक लेप करें। पाँचों पत्तों के पकाये हुए जल से बालक को स्नान करावे तयां पहले के समान ब्रह्मा और अंबिका का पूजन करे | बलि कराने वाले को भी वस्त्र आदि से संतुष्ट करे ।
स्पृशेत् कुटिलिनी नाम षोडशेवत्सरेऽर्भकं, सचक्षुर श्रवत्सोऽपिन पश्यति पुरस्थितं
कृशोभूत्वा श्वसित्यूद्ध निश्वसित्यपि सर्वदा, वमन्नाहार मादत्ते निश्चेष्टो मूर्च्छितो भवेत्
विकारस्यास्य महतः प्रतिकारो न विद्यते, अस्त्वीति यदि सं विश्व मनस्तहिंगद्यते
त्रिवर्ण मोदनं माष सूपं सर्पिश्च पाटयसं पिष्टं भृष्ट तिलानां च राजमाष समन्वितं
एतद्बहु विधिं सर्व त्रिकोणे पात्र भाजने, विन्यस्य विमले शुभे रक्त वस्त्र युगाऽन्वितां
प्रतिमामऽपि सौ वर्णी पलेन परिमापितां, पूर्वोक्त गये पुष्पा स्तांबूलेनान्विते बलौ
जुहुयात्सर्पिषा यन्हाचष्टोतर शताहुति, निशांत पूर्व दिग्भागे त्रिपथे ग्राम मध्यगे
॥ १ ॥
॥२॥
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
॥५॥
|| ||
|| 19 ||
सूर्यस्योदये बेलायां बलिं दक्षात्समंत्रकं, पत्राणि पिष्टाततं लिंपेद श्वगंधिमधु कयो
CROSSPSP59595 ५४१ 25969596959595
॥ ८ ॥
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CTRICISCECTRICT विद्यासुशासन ASIOTICISCIRCISCIEN
शिरोरुहान पाद नरयान कलगिंक निशा समं, निंब पत्राणि दंताश्च दंतिनः सर्ष पैः सह
॥९॥
अव चूण्य समांशेन दद्भात् धूपं शिशो स्तदा, विल्व निंबी पलाशश्च कपित्थः पिप्पल स्तथा
॥१०॥
एतेषां पल्लवैः सिद्धैः क्याधितै रुष्ण सज्जलैः, पंच पल्लव नीरेण कुांबाला भिषेचनं
॥११॥
अनेन बलिना तुष्टा सा दयीतं विमुंचति, चैत्यालये ब्रह्म देवमंबिकां च यथा विधि
॥१२॥
संपूज्य शांतिं सर्वेषां ग्रहाणां लभते नरः मांत्रिकं वस्त्र दानारिर्चरो भक्ति पूर्वक
॥१३॥
न सिद्धयति बिनानेन कुत्रापि गृह मोक्षणं,
प्राण प्रदायिनी लोके का वा स्यात् प्रत्युपकिया ॐ नमो कुटिलिनी एहि-एहि बलिं गह-गह मुंघ-मुंघ बालकं स्वाहा ||
॥१४॥
॥ इति बलि विसर्जन मन्त्रः ॥ सोलहवें वर्ष में बालक को कुटलिनी नाम की देवी पकड़ती है। उस समय बालक नेत्र सहित होने पर भी सामने खडे हुए पुरुष को नहीं देख सकता है। उसकी आँखे बहती रहती हैं, वह दुबला होकर सर्वदा लंबे लंबे ऊँचे श्वास लेता रहता है, उसको भोजन करते-करते ही यमन हो जाती है। फिर यह निश्चेष्ट होकर मूर्छित हो जाता है। इस भारी विकार का प्रतिकार ही नहीं है तब भी यदि मन में विश्वास हो तो उपाय कहा जाता है- तीन रंग के भात, उड़द की दाल, पत, खीर, भुने हुये तिलों की पिष्टी और लोभिये सहित एक सब तरफ से अच्छा तिकोने बर्तन में पवित्र सफेद व लाल दो कपड़ों सहित एक धार तोले सोने की यक्षिणी की प्रतिमा को जो चंदन, फूलमाला, तांबूल आदि से पूजित हो बलि पर रखकर अग्नि में घृत की एक सौ आठ आहुतियाँ देकर, घर को पूर्व दिशा के भाग में रात के अन्त होने पर, तिराहे पर गाँव के मध्य भाग में सूर्योदय के समय मंत्र पूर्वक यालक पर उतारा करके रथ्य देवे ,और असगंध और महुवे के पत्तों को पीसकर बालक के शरीर
SASSISCIRCISISTERIS05/५४२ PISTORS2015TOISIOSDISIOISS
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015015015251015125 विधानुशासन PHOT505250STRIES पर लेप करे। सर के बाल, पांवो के नाखून, कलिंगक (इन्द्रजो), निशा(हल्दी), दंतिनः (हाथी) के दांत सरसों सहित सबको बराबर लेकर चूर्ण बनाकर बालक के शरीर को धूप देवे, तथा बिल्व नीम के पत्ते , पल्शा, कैथ, पीपल अर्थात् पांचो पत्तों के पकाये हुए जल से अर्थात् इन पत्तों के क्वाथ किये हुए गरम जल से बालक को स्नान करावे । इस बलिसे संतुष्ट होकर वह कुटिलिनी देवी बालक को छोड़ देती है और चैत्यालय में ब्रह्मा देव और अंबिका देवी का विधि पूर्वक पूजन बारे, इस पूजन शुरू से TEE Silaदिको प्राप्त होता है फिर भक्ति पूर्वक मंत्री की भी वस्त्र व दानादि से पूजा करे। क्योंकि बिना मंत्री को संतुष्ट किये ग्रह बालक को नहीं छोड़ते हैं। वह कार्य सिद्ध नहीं होता, ग्रह से छुटकारा पाने का प्रश्न नहीं उठता भला प्राण देने वाले का क्या बदला दिया जा सकता है।
॥ इति षोडशो वत्सरः ॥
पूज्य पाद मिदं लिख्य शिशोर्बलि विधानकं,
शांतिकं पौष्टिकं चैव कुर्यात् कम समन्वितं || यह बालक की बलि का विधान पूज्यपाद स्वामी के अनुसार लिखा गया है। इसप्रकार क्रम से शांतिक और पौष्टिक कर्म करता है।
इति प्रकारांतर बाल गृह चिकित्सिकं समाप्त इसप्रकार दूसरे प्रकार के अनुसार बाल गृह चिकित्सा समाप्त हुई।
अथ रावण मत बाल गृह चिकित्सा अथास्य प्रथमे दिवसे मासे वर्षे च बालकं, गृह्णाति नंदना नाम माता तया गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ॥
काकरवं करोति-गलं शुष्यति-स्नन्यं न गन्हाति, दुर्बलो भवति हदयति अतिसारयति ।।
हस्त पादौ संकोचयति उद्धवं निरीक्ष्यते,
एवमादि चिन्हानि भवन्ति | बालक को पहले दिन, मास और वर्ष में नंदा नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर बालक को पहले बुखार होता है। वह कौवे के समान शब्द करता है, उसका गला सूख जाता है, दूध नहीं पीता है, दुबला हो जाता है, उल्टी करता है। उसको दस्त होने लगता है, वह हाथ पैरों को सिकोड़ता है, ऊपर की तरफ देखता है इत्यादि इसप्रकार के चिन्ह होते हैं।
CISIOSSETTOSCISSIST05/५४३ PIROIDIOTSIDROISTRIOTI
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STSIRIDRISTOTSTOISODE विद्यानुशासन DISTRI5T0510525TOS
अथास्य बलिः नाभय तट मतिकया पुत्तलिकां करोतु, श्वेत वस्त्र परिधानं पूर्णप्रस्थ तंदुलोदनं ।।
दधि गुड़ संमिश्र कत्वा गुलिका दश तिल चूर्ण, पंच खायं दीप द्वयं एवज त्रयं ।।
गंध पुष्पादि पर पड़े पुलिस लिस अनेन विधानेन पूर्व दिशं समाश्रित्य अपरान्हे पंच रात्रं बलिं हरेत् ॥
ॐ नमो रावणाय मातानंदे बलिं गृह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ॥
धूपनं विजय धूपेन स्नानं शांत्युदकेन च
नदी के किनारों की मिट्टी से एक पुतली बनाकर उसे श्वेत वस्त्र पहनावे पिर दो सेर चावल, दही, गुड़ को मिलाकर उसकी दस गोलियाँ बनावे। फिर तिल का चूर्ण पाँचों प्रकार के भोजन, दो दीपक, तीन ध्वजा, गंध और पुष्प आदि को लेकर पुतली को बड़ के पत्ते पर रखकर इस विधान से पूर्व दिशा में जाकर दोपहर ढ़लने पर पाँच रात तक बलि देवे। इसके पश्चात् विजय धूप से देवे और शान्ति उदक से स्नान कराये।
अथास्या द्वितीय दिवसे मासे वर्षे च बालकं गन्हाति, सुनंदा नाम माता तया गृहीतस्य प्रथमं जाटते ज्वरः॥
अक्षि रोगो भवति छर्दयति हस्त पादौ संकोचयति अतिसारयति,उद्देवं निरीक्ष्यते माजार स्वरं
करोति दुर्बलो भवति एवमादि चिन्हानि भवंति॥ यालक को दूसरे दिन, मास, और वर्ष में सुनंदा की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले बुखार होता है, आँख का रोग होता है, बालक वमन करता है, हाथ पैरों को समेटता है, पहले दस्त होते हैं, ऊपर देखता है।, बिल्ली के जैसे शब्द करता है। और दुर्बल हो जाता है। उस समय इसप्रकार के अन्य चिन्ह भी होते हैं। CREDIETORSCISIOISTO505(५४४ PISTRISTOTHRIROIDRISIPTES
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CTERIST055015015015 विद्यानुशासन 98510150150150150158
अथास्य बलिः नभय तट मृतकया पुत्तलिकां करोतु, कुलाल भांडे निधाय पीतयाज परिणनं |
पूर्ण प्रस्थ तंदलो दनं दधि गुड संमिश्र, स्वस्तिक त्रयोदश सप्त वाद्यां दीप त्रयं ॥ नाना यर्ण ध्वज चतुष्कं जल गंध पुष्पादि अनेन विद्यानेन धूपनं विजय यूपेन स्नानं पूर्वोक्त भाजने ॥
पश्चिम दिशं समाश्रित्य अपरान्हे पंच रात्रं बलिं हरेत् ॐ नमो रावणाट माता सुनंदे बलिं गन्ह-गन्ह बालकं मुंच-मुंच स्वाहा॥
धूपनं विजय धूपेन स्नानं शात्यूंदकेन च ॥
नदी के किनारों की मिट्टी से एक पुतली बनाकर उसको पीले वस्त्र पहनाकर कुम्हार के बरतन में रखे। फिर दो सेर चायल, भात, दही, गड़ को मिलाकर, तेरह प्रकार का स्वस्तिक बनाकर सात प्रकार का भोजन, तीन दीपक, अनेक रंग की चार घ्यजायें,जल गंध और पुष्प आदि को लेकर इस विधान से अर्थात मंत्र पूर्वक विजय धूप से बालक को धूप देकर पहले कहे हुये बर्तन में रखकर पश्चिम दिशा में दोपहर पीछे पाणघ सन्त्रि तक बलि देवे और बालक शांत्युदेक से स्नान करावे ।
अथास्य तृतीय दिवसे मासे वर्षे बालकं गन्हाति, पूतना नाम माता तया गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः।।
अंग भंग करोति गलः श्रयति धतिनं भवति, उद्धवं निरीक्ष्यते अतिसारयते दुर्बलो भवति ।। एवमादि चिन्हानि भवति ||
अथा तस्य बलि: नद्यभा तट मृतिकाया पुत्तलिकां करोतु, लोहित वस्त्र परिधानं अग्र भक्तं दधि गुड संमिश्रं ॥
पोलिका दश पंच रखाद्य दीप द्वयं ध्वज चतुष्टयं,
गंध पुष्प धूप तांबूलादि सुजाजने निधाय ॥ ಇUBEFFSG¥4
Vಣಗಣಜ
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SISIOISSIST0505105 विद्यानुशासन 9501510450TCTOIES
अनेन विधानेन उत्तर दिशं समाश्चित्य पंच रात्रिं बलिं हरेत्॥ ॐ नमो रावणाय पूतने बलिं गृह-गह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा ||
बालक को तीसरे दिन, मास और वर्ष में पूतना नाम की माता पकड़ती है उसके पकड़ने पर पहले ज्वर होता है, शरीर टूटने लगता है, गला सूख जाता है,धैर्य नहीं होता है, ऊपर देखता है, दस्त होते हैं। वह दुर्बल हो जाता है। उससमय इसीप्रकार के अन्य भी चिन्ह होते हैं।
नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से एक पुतली बनाकर उसे लाला वस्त्र पहनावे | बहुत भोजन दही गुड़ को मिलाकर, दस कचोरी, पांच प्रकार के भोजन, दो दीपक, चार घ्यजायें, गंध पुष्प, धूप और पान आदि को उत्तम बरतन में रखकर इस विधि से उत्तर दिशा में पांच रात तक बलि देवे ।
अथास्य चतुर्थे दिवसे मासे वर्षे बालकं गहणाति, मुख मंडिता नाम माता तथा गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ||
गात्र भंगं करोति स्तनं न गहान्ति मुष्टि वंद्यं करोति अतिसाराति, अक्षिरोगो भवति हस्त पादौ संकोचयति दुर्बलो भवति || एवमादि चिन्हानि भवन्ति।।
अथास्य बलिः
नाभय कूल मृतिकया पुत्तलिकां करोतु, नील वस्त्र परिधानं अग्रभक्तं गुडदधि संमिश्रं || स्वस्तिक प्रयोदशां सत्ः स्वायं तिल चूर्ण दीप द्वयं ध्वज चतुष्कं, गंध पुष्प धूपादि अनेन विधानेन सुभाजने निधाय ।।
वायव्यां दिशिं समाश्रित्य अपरान्हे पंच रात्रं बलिं हरेत्॥ ॐ नमो रावणाय मुरव मंडित एहि-रहि बलिं गृह-गृह बालकं मुंद-मुंच स्याहा ।
चौथे दिन, मास और वर्ष में मुख मंडिता नाम की माता बालक को पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले ज्वर होता है, अंग टूटने लगता है, दूध नहीं पीता है, मुट्ठी बांधे रहता है, दस्त होते हैं, आँख का रोग होता है, हाथ पैरों को सिकोड़ता है, दुर्बल हो जाता है। उस समय इसी प्रकार के अन्य चिन्ह भी होते हैं। नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से एक पुतली बनाकर उसे नीले कपड़े पहना दे,
CHOICESCRIOTSCRIODIO15(५४६ PIROICISIOTECIRCROIN
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CISCI50150DDIDIO15 विधानुशासन PASTOT51015125505505 बहुत भोजन दही गुड़ को मिलाकर तेरह स्वस्तिक बनाकर श्रेष्ठ भोजन तिल का चूर्ण, दो दीपक, चार ध्वजायें, गंध,पुष्प, धूपादि सहित इस विधान से उत्तम बर्तन में रखकर उत्तर और पश्चिम के कोने में दोपहर ढलने पर पांच रात तक बलि देवे।
अथास्य पंचमे दिवसे मासे वर्षे बालकं गहणाति, गिरालिका नाम माता तया गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः॥ अक्षिरोगो भवति गलःशुष्यति गात्र संकोचद्यति स्तन्यंन गृन्हाति, दुर्बलो भवति छर्दयति अतिसारयति एवमादि चिन्हानि भवंति ॥
अथास्य बालः नाभा कूल मृतिकाया पुत्तलिकां करोतु, कौशेरा वस्त्र परिधानं अग्रभक्तं गुड संमिश्रा
चक सप्तकं पोलिका सप्तकं वाद्य त्रयं दीप नटां तेल पुरिका सप्तकंप्वज चतुष्कं गंध पुष्प ||
. धूपादि अनेन विधानेन सुभाजने निधारा
पश्चिम दिशं समाश्रित्य अपरान्हे पंच रात्रं बलिं हरेत् ॥ ॐ नमो रावणाय गिरालिके एहि-एहि बलिं गह-गृह बालकं मुंच-मुंच बालकं स्वाहा।
पांचवे दिन, मास और वर्ष में बालक को गिरालिका नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले ज्वर आता है, आँख का रोग होता है, गला सूख जाता है, बालक अंगो को सिकोडता है, दूध नहीं पीता है, दुबला हो जाता है, वमन करता है, दस्त होते हैं। उस समय इसी प्रकार के अन्य चिन्ह भी होते हैं।
नदी के किनारों की मिट्टी से एक पुतली बनाकर उसको रेशमी वस्त्र पहनाये, बहुत भोजन गुड़ मिलाकर, सात चक्र, सात कपोलिका, तीन तरह के भोजन, तीन दीपक, सात तेल की पूरियाँ, चार ध्वजायें, गंध पुष्प और धूप आदि को इस विधान से मंत्र पूर्वक उत्तम बर्तन में रखकर पश्चिम दिशा में दोपहर ढलने पर पाँच रात तक बलि देये।
වලට හsys වලකටමකට
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ST505050SOISI015 विधानुशासन 950150ISIOISCISIOISS
अथास्य षष्टे दिवसे मासे वर्षे बालकं गन्हाति, शकुनि नाम माता तथा गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ॥
अक्षिरोगोभवति अतिसारयति छर्दयति हस्तपादौ संकोचयति, श्वास स्वासं करोति उर्द्ववं निरीक्ष्यते एवमादि चिन्हानि भवन्ति।
अथास्य बलिः नाभटाकूल मृतिकाया पुत्तलिकां करोतु, कृष्ण का परिचालय संधुटो दनं दधि गुड़ संमिश्र ||
पोलिकां संप्रकं वायं त्रयं दीप द्वयं ध्वज चतुर्थकं गंध पुष्प धूपादि,
अनेन विधानेन नैरुत्य दिशं समाश्रित्य अपरान्हे पंचरात्रं बलिं हरेत्।। ॐ नमो रावणाय शुकनिके एहि-एहि बलिं गह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्याहा ॥
छठे दिन, मास और वर्ष में बालक को शकुनि नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले ज्यर होता है, आंखों का रोग होता है, दस्त होते हैं, वमन करता है,हाथ पैरों को सिकोड़ता है, श्वास और खांसी हो जाती है, ऊपर की तरफ देखता है। उस समय इसीप्रकार के और भी चिन्ह होते हैं। नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से पुतली बनाकर उसे काले वस्त्र पहनाये। फिर दो सेर चावल, भात, दही, गुड़, मिरसात कधोरी, तीन भाँति के भोजन, दो दीपक और चार ध्वजायें लेकर गंध, पुष्प, माला धूप आदि से पूजकर इस विधान से प्रात्य अर्थात् दक्षिण और पश्चिम कोण में दोपहर ढलने पर मंत्र सहित पांच दिन बलि देवे।
अथास्य सप्तमे दिवसे मासे वर्षे बालकं गन्हाति, शुष्का नाम माता तथा गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ॥
छर्द्धयति गलः शुष्यति स्तनं न गहान्ति स्थासं करोति, दुर्बलो भवति एवमादि चिन्हानि भवन्ति ॥
अथास्य बलि: नाभा तट मृतिकाटा पुत्तलिंका करोतु,
मंजिष्ट वस्त्र परिधानं अग्र भक्त दधि गुड संमिश्र ।। CASIONSISTARTICICISIS५४८ PASTORISTORICISCIETOISS
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SSIOTSIDDRISTRIST015 विधानुशासन ISIONSIDISTRI52151955
पोलिकां सप्तकं पंच स्वावं दीप द्वय ध्वज चतुष्कं गंध पुष्पादि,
अनेन विधानेन दक्षिण दिशं समाश्रित्य अपरान्हे पंच रात्रं बलि होत्॥ ॐ नमो रावणाय शुष्के रहि-एहि बलिं गन्ह-गृह बालकं मुंच-मुंच बालकं स्वाहा॥
सातवें दिन, मास और वर्ष में बालक को शुष्का नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले ज्वर होता है, वमन करता है। उसका गला सूख जाता है, दूध नहीं पीता है, खांसी हो जाती है, दुबला हो जाता है। उस समय इसी प्रकार के और भी चिन्ह होते हैं। नदी के दोनों किनारे की मिट्टी से एक मूर्ति बनाकर उसे मंजठिजे से रंग के कपडे पहनावे। फिर बहुत भोजन, दही, गुड मिलाकर सात कचोरियाँ, पांच प्रकार के भोजन, दो दीपक, चार ध्वजाओं की बलि को गंध, पुष्प आदि से पूजकर इस विधान से मंत्रपूर्वक दक्षिण दिशा में दोपहर ढलने पर पांच रात तक बलि देवे।
अथास्य अष्टमे दिवसे मासे वर्षे बालकं गन्हाति, जंभिका नाम माता तया गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ।।
यात गल.शुष्यति तिर्ममवति स्तनं न गन्हाति, अक्षिरोगो भवति एवमादि चिन्हानि भवन्ति ।
अथास्य बलि: नाभव कूल मृतिकाया पुत्तलिंका करोतु, नील वस्त्र परिधानं अग्र भक्तं दधि गुड संमिश्रं ॥
तं उदंबर सप्तकं पूरिका सप्त गंध पुष्प धूपादि दीप द्वयं ध्वज चतुष्कं अनेन विधानेन
अग्रि कोणे अपरान्हे पंच रात्रं बलिं हरेत् ।। ॐ नमो रावणाय जुभिको एहि-एहि बलिं गन्ह -गन्ह बालकं मुंच-मुंच बालकं स्वाहा॥
आठवें दिन, मासऔर वर्ष में बालक को जूंभिका नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले बुखार होता है, वमन करता है, उसका गला सूख जाता है, धीरज उसे नहीं रहता है। दूध नहीं पीता है, आंखों का रोग हो जाता है। उस समय इसप्रकार के और रोगों के चिन्ह होते
ಅ
ಥಣಣಠಣಠಣqY YWOpಥಾಪಥ
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SHORSRTSIDISTRICT विद्यानुशासन 95015051015015015
नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से बनायी हुई मूर्ति को नीले रंग के कपड़े पहनावे।बहुत भोजन दही गुड़ मिलाकर और सात गूलर के फल, सात पूरियाँ आदि बलि को गंध पुष्पादि से पूजकर धूप और दो दीपक, चार ध्वजाओं वाली बलि को इस विधि से मंत्रपूर्वक पूर्व दक्षिण के कोने में दोपहर ढलने पर पांच रात तक बलि देवे।
अथास्य नयमे दिवसे मासे वर्षे बालकं गन्हाति, आर्यका नाम माता तया गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ।।
अक्षिरोगो भवति धतिनास्ति गात्रं संकोचयति, कंपते शोकं करोति छर्द्धयाति अतिसारटति
कुक्षि शुलादि कुर्वते उर्द्धचं निरीक्ष्यते दुर्बलोभवति, एवमादि चिन्हानि भवन्ति ।।
अथ तस्य बलिः नाभय कूल मृतिकाया पुत्तलिकां करोतु, जूतन वस्त्रोपाधानं सूत्रेण अग्र भक्तं ॥
दधि गुड संमिश्रं तिल चूर्ण पोलिका नव करंजका, नव वेहवे नव सिक्का खंड नवदीप द्रां ध्वज त्रयं गंध पुष्पादि |
अनेन विधानेन वट पर्ण पत्तालिकां निधारा,
तदं दक्षिण दिर्श समाश्रित्य अपरान्हे पंच रात्रं बलिं हरेत्। ॐ नमो रावणाय आर्यके एहि-एहि बलिं गृह-गह बालकं मुंच-मुंच स्वाहा ।।
नवें दिन, मासऔर वर्ष में बालक को आर्यका नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले ज्वर होता है, आँखों की बिमारी होती है, धीरज नहीं बंधता है. अंगों को सिकोड़ता हैकांपता है, शोक करता है, वमन करता है, दस्त होते हैं, कोख में दरद आदि होते हैं। वह ऊपर को देखता है, दुबला हो जाता है। उससमय इसीप्रकार के और रोगों के चिन्ह होते हैं। __नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से एक पुतली बनाकर उसे नये कपड़े पहनाये और उसके चारों तरफ कथा सूत लपेट देवे । फिर बहुत सा भोजन दही गुड़ मिलावे, तिल का चूर्ण, नौ कचोरी, नौ
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OR50150151215015105 विधानुशासन PAS051015TOSDISTRIES करंज वृक्ष के फल नौ प्रकार के हवन करने योग्य द्रव्य, नौ कांच के टुकड़े, दो दीपक, तीन घ्यजाओं वाली बली को गंध, पुष्प आदि पूजकर विधिपूर्वक मंत्र से पूर्वोक्त पुतली को बड़ के पत्तों की पत्तल पर रखकर दक्षिण दिशा में दोपहर ढलने पर पांच रात तक बलि देवें ।
अथास्य दशमे दिवसे मासे वर्षे बाल गन्हाति, रेवती नाम माता तया गृहीतस्य प्रथम जायते ज्वरः।
आक्रंदतो छद्रयति अतिसारयति श्रेष्मा जायते गलः शोषणं भवति दुर्बलो एवमादि चिन्हानि भवन्ति ॥
अथ तस्य बलि: नाभय कुल मतिकाया पुतिलकां करोतु, पीतवस्त्र सादनं अग्रभां दधि गुड संमिश्र ||
तिल चूर्ण पोलिका दसा सेव लड़का दशपूरिका दश ध्वज चतुष्कं दीप द्वयं ॥
गंध पुष्प धूपादि अनेन विधानेन सुभाजने निधाय
पश्चिमां दिशि समाश्रित्य अपरान्हे पंचरात्रं बलिं हरेत् ॥ ॐ नमो रावणाय रेवती एहि-एहि बलिं गह-गह बालकं मुंच-मुंच स्याहा ॥
दसवें दिन,मास और वर्ष में बालक को रेवती नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर बालक को पहले बुखार होता है, रोते हुये उसे उल्टी होती है, दस्त होते हैं। और खांसी होती है, गला सूख जाता है, दुबला हो जाता है । उस समय उसके अनेक रोगों के चिन्ह होते हैं।
नदी के दोनों किनारों की मिट्टी की पुतली बनाकर उसे पीले कपडे पहना देये। फिर बहुत सा भोजन, दही और गुड को मिलाकर और तिलों का चूर्ण दस कचौरी, नमकीन,सेय, दस, ला, दस पूरियाँ, चार ध्वजायें, दो दीपक की बलि को गंध पुष्पादि से पूजकर इस विधान से मंत्र पूर्वक अच्छे बर्तन में रखकर पश्चिम दिशा में दोपहर के पश्चात् पांच रात तक बलि देवे। GpದಂಥE/
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SSD501512150505 विधानुशासन P15851015IDISORDIST
अथास्य एकादशे दिवसे मासे वर्षे बालकं गन्हाति, पिछलिका नाम माता तथा गृहीतस्य प्रथम जायते ज्वरः ।।
गात्रं संकोचयति मुखं शुष्यति छर्द्धयति शोकं करोति, अतिसारयति स्तनं न गन्हाति उद्धवं निरीक्षते दुर्बलो भवति ॥ एवमादि चिन्हानि भवन्ति ।।
अथ तस्य बलिः नाभय कूल मृतिकाया पुत्तलिकां करोतु, श्वेत वस्त्र परिधनं अग्रभक्तं दधि गुड संमिश्र ॥
टावानिका मुष्टिका त्रयोदशं सप्त रवायं दीपं द्वयं ध्वज त्रयं, अनेन विधानानेन सुभाजने निधाय उत्तर दिशं समश्रित्य
आपन्हे गात्रं बलि हरेत्॥ ॐनमो रावणारा पिछलिके एहि-एहि बलिं बालकं गृह-गृह मुंच-मुंच स्वाहा ।। ___ ग्यारहवें दिन, मास और वर्ष में बालक को पिछलिका नाम की माता पकड़ती हैं। उसके पकड़ने पर बालक को पहले ज्वर हो जाता है, अंग सिकोड़ता है। उसका मुख सूख जाता, वमन करता है- रंज करता है, दस्त होते हैं, दूध नहीं पीता है, ऊपर की तरफ देखता है। कमजोर हो जाता है। उससमय उसके और भी चिन्ह होते हैं। उसकी बलि इस तरह देवे
नदी के दोनों किनारों की मिट्टी से एक मूर्ति बनाकर उसे सफेद वस्त्र पहनावे। फिर बहुत सा भोजन, दही, गुड़ को मिलाकर, तेरह मुट्ठी अजवाइन (एक मुट्ठी में ४ तोला कुल ५२ तोला), सात रंग की मिठाई का भोजन, दो दीपक,तीन ध्वज की बलि को एक बर्तन में रखकर गंध आदि से मंत्रपूर्वक पूजकर उत्तर दिशा में विधिपूर्वक दोपहर ढलने पर पांच रात तक बलि देये।
अथास्य द्वादशे दिवसे मासे बालकं गन्हाति, स्कन्धा नाम माता गृहीतस्य प्रथमं जायते ज्वरः ॥
निद्रा आहारं न गन्हाति अंगभंगं करोति जुभते, दुर्बलो भवति एवमादि चिन्हानि भवन्ति ।।
अथ तस्य बलिः नाभय कूल मृतिकया पुत्तलितां करोतु,
मेयवर्ण वस्त्र परिधानं अग्रभक्त दधि गुड संमिश्रं ॥ CTERISEKSRISTRISTIADIOD[५५२ PHOTOASTOTRICISTORTOISTORY
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CERSIOSITI5T07551015 विधानुशासन 05I0RSIDEOS12505
पायसं लड़काष्टादश दीप द्वयं ध्वज चतुष्कं, गंद पुष्प धूपादि सहितं वट पत्र पत्तलिकायां निघाटा ।
अनेन विधानेन अदिदिशं समाशिय अपशक संश सबल हो॥ ॐ नमो रावणाय स्कंधे एहि-एहि बलिं गृह-गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा ॥
इति बलि विसर्जन मंत्रः बारहवें दिन, मास और वर्ष में बालक को स्कंधा नाम की माता पकड़ती है। उसके पकड़ने पर पहले बुखार आता है, नींद नहीं आती है, भोजन नहीं करता है, शरीर टूटने लगता है, जभाह लेता है। कमजोर हो जाता है इत्यादि अनेक चिन्ह उस समय होते हैं।
नदी के दोनों किनारों की मिट्टी ती एक पुतली बनाकर उसे बादलों के रंग के कपड़े पहनावे। फिर बहुत सा भोजन दही, और गुड़ को मिलाकर और खीर, अठारह लड्डू, दो दीपक. चार ध्वजाओं की बलि को गंध पुष्प धूप सहित यट पत्र की पत्तल पर रखकर इस विधि से मंत्रपूर्वक अनि कोण अर्थात् पूर्व दक्षिण दिशा के कोने में दोपहर ढलने पर पांच रात तक बलि देवे।
धूपनं विजया धूपेन स्नानं शांत्युदकेन च सर्वत्र कार्यद्रीमान आम्र अंबूदंबर पिपलं दुर्गा एतै पंच पल्लवैरभिषेकं शिशोरति शांत्युदकेन स्नानं सिद्धार्थ केश मयुर पिच्छ सर्प त्वचा गांपुच्छ केशं ईश्वर निर्माल्यं हरिद्रा विजयं धूपनं
इति रावणोक्त बाल चिकित्सा समाप्त : पंडित पुरुष सभी प्रयोगों में विजय धूप से धूप देवे और शांति जल से स्नान कराये। आम, जामुन, गूलर, पीपल और दूब इन पांचों वृक्षों के पत्तों को जल में पकाकर जो जल छानकर तैयार किया जाता है उसे शांत्युदक कहते हैं। सफेद सरसों, बाल, मोर की पूँछ का चंदवा, सर्प काचली, गाय की पूंछ के बाल शिवजी के चठाये का द्रव्य और हल्दी की धूप को विजय धूप कहते हैं।
इति रावण की कही हुई बाल चिकित्सा समाप्त हुई
इति सप्तम समुदेश समाप्त
CHECISIO5950150505(५५३ BASIRTHIDISTRISEXSIRIDIOES
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SHIRIDIOTSIDEODISS विद्यानुशासन 9851015TOISTOTRICISCIEN
अथ अष्टम समुदेश
।। श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥
अथ ग्रहाणं लक्ष्माणि मंत्र मंडलमौषधं
शाकिन्य परमारोन्माद प्रतिकारं च वक्ष्याम्यहं अब ग्रहों के भेद, लक्षण, मंत्र,मंडल, औषधि, शाकिनी, अपस्मार और उन्माद को दूर करने का उपाय कहूंगा।
अति हष्टमति विषाणं भवांतर मेह बैर संबधं, भीतं चान्य मनस्कं ग्रहाः प्रगृन्हति भुवि मनुज
॥२॥
रति कामाबलि कामानितुं कामा ग्रहाः प्रगृन्हति
वैरेण हंतु कामा गन्हन्यवशेष कारणे शेषाः । ॥३॥ अत्यन्त प्रसन्न मन वाले दुखी मनवाले अथवा अन्य प्रतापी या डरपोक संसारी पुरुष को पूर्वजन्म के प्रेम अथाव बैर के संबंध से ग्रह पकड़ लेते हैं।
तेपि ग्रहा द्विधास्यु ईिव्या दिव्य ग्रहप्रभाः देन, दिव्यावापि द्वेधा पुरुष सी गृह विभेदेन
॥४॥ वे ग्रह भी दो प्रकार के होते हैं- और दिव्य अदिव्य। उनमें से दिव्य ग्रहों के भी दो भेद होते हैं-पुरुष ग्रह और स्त्री ग्रह ।
देवो नागो यक्षो गंधवों ब्रह्मा राक्षसश्चैव, भूतोव्यंतरं नामेति सप्त पुरुष ग्रहाः प्रोक्ताः
देवः सर्वत्र शुचिनागःशेते भनक्ति सर्वागंक्षीरं,
पिवति च नित्यं यक्षो रोदिति हसति बहुधा देव,नाग,यक्ष,गंधर्य,ब्रह्मा राक्षस,भूत,व्यंतर यह सात पुरुष यह होते हैं। देव सदा पवित्र रहता है, नाग सोता है, सब अंगों को तोड़ डालता है और नित्य दूध पीता है, यक्ष रोता है और बहुत प्रकार से हंसता है। STORISTORICTDICTIRI5015५५४ PASTOTSPIRRIDICISCIRCISE
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こちとらどらですで
विधानुशासन
गंधर्वो गायति सुस्वरेण स ब्रहमा राक्षसः संध्यायां, जपति चे वेदान् पठति स्त्रीष्वनुरक्तः स गर्वश्व
गंधर्व अच्छे स्वर से गाता है, ब्रह्मा राक्षस संध्या के समय जाप करता है और वेदों को पढता तथा स्त्रियों में अनुरक्त रहता है और बड़ा घमण्डी होता है।
रोदिति हाहाकारै विर्दधात्यति रौद्रमैव कर्म सदा, तनुते स्फुटाह बासं हसति पुनः कहकह ध्वनि ना
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|| 61 ||
कोसा वास्ते मंत्रीयो मोचयति स्व मंत्र शक्तयामां, कृति सातयं स विकार विजृंभनं कुरुते
11811
अब यह कभी तो हाहा करके रोता है, कभी रौद्र कर्म भी करता है। सदा शरीर से अट्टाहास करके हंसती है। फिर कहकह की ध्वनि करती है। कभीकभी वह कर से कहता है कि ऐसा कौन मंत्र शास्त्री है जो मुझे अपने मंत्र की शक्ति से बलि देकर छुड़ावे फिर विकार से जंभाई लेता है।
॥८॥
नेत्रे विस्फारयति च गाति जंभति घुनोभि हसति च भूतः, मूर्छति रोदति धावति बहु भोजी व्यंतर स्तथा भुवि पतति
॥ १० ॥ .
भूत नेत्र फाड़ फाड़ कर देखता है और गाता है, जंभाई लेता है, ध्वनि के साथ हंसता है तथा व्यंतर मूर्च्छित होता है, रोता है, दौड़ता है, बहुत भोजन करता है और जमीन पर गिर पड़ता है ।
कृच्छ भवेत् शरीरं करतल हृदये क्षणानि दह्यन्ते, काल्या प्रपीडितस्य तु करालिकातन मुंक्तेऽन्नं
दिव्य पुरुष गृहाणां लक्षण मेवं मया समुदिष्टं, दिव्य स्त्री गृह लक्षणम युना व्यावर्णयते श्रणुत
॥ ११ ॥
इसप्रकार दिव्य पुरुष ग्रहों के लक्षण कहे गये हैं । अब दिव्य स्त्री ग्रहों के लक्षण कहे जाते हैं वह सुनो।
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काली तथा कराली कंकाली काल राक्षसी जंधी, प्रेताशिनी च यक्षी वैताली क्षेत्रवासिनी ति नव
।। १२ ॥
काली, कराली, कंकाली, काल राक्षसी जंघी, प्रेताशिनी यक्षी, वैताली और क्षेत्रवासिनी यह नौ स्त्री ग्रह है।
॥ १३ ॥
PPP 1444 らららららですです
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SODOISTRICISITE विधानुशEVE CISCERTISEMESTER
काली ग्रह से पकड़े हुए प्राणी का शरीर दुखी अर्थात् दुबला हो जाता है, हृदय और नेत्रों में जलन हो जाती है-कराली माह से पीड़ित प्राणी अन्न नहीं खाता है।
मुखमा पांडुरमगं कशं च कंकालिका गृहीतस्य भ्रमति,
निशि वदति कौलिक मयाद्व हासं करोति काल राक्ष स्यातः ॥१४ ।। कंकाली से पकडे हुए का मुख तथा अंग पीला पड़ जाता है। कंकाली ग्रह से पकडा हुआ रात्रि में घूमता है और काल राक्षसी दुखी प्राणी ऊंची ऊंची बातें करता है और अट्टाहास करके हंसता
जंघी गृहीत मनुजो मूच्छिति रोदति कृशं शरीरं स्यात्,
प्रेताशिनी ग्रहीताश्चकितौ वा भीकर प्वनि ना ॥१५॥ जंघी से ग्रहण किया हुआ प्राणी मूर्छित होता है, रोता है और उसका शरीर दुबला हो जाता है- प्रेताशिनी से वाहण किया हुआ भयंकर ध्वनि से शब्द करता हुआ चकित हो जाता है।
उत्तिष्ठति दष्टोष्टः स एव वीर ग्रहो बुधैःप्रोक्तः मास,
द्वितयात्परतः तस्य चिकित्सा न लोके स्ति ॥१६॥ ऐसा व्यक्ति होंठ चबा-चबा कर उठता है- पंडितों ने इसको वीर ग्रह कहा है। इसकी चिकित्सा दो महिने पीछे संसार में नहीं हो सकती है।
भोक्तुं न ददाति न च पियांगणा संगम तथा
कतु स्वयमेवं प्रच्छन्नां जीयति सहतेन वट यक्षी ॥१७॥ वट यक्षी से पीड़ित पुरुष न तो खाता है और न अपनी प्रिय स्त्री से संगम ही करता है- यक्षी गुप्त रूप से उसके साथ रहती है।
शुष्यति मुरवं कशं स्थात् गात्रं वैतालिका गृहीतस्था,
संक्षेत्र वासिनी पीडितो नरी नत्ति जागति ॥१८॥ वैतालिका से पकड़े हुए का मुख सूख जाता है और उसका शरीर कृश हो जाता है। क्षेत्रवासिनी यह से पीड़ित प्राणी नाचता है और जागता रहता है।
CASIRISTICISIOTICISIO5051५५६ PISIOTISPASCISISISCTERIA
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5015100500RIODOS विधानुशासन 9595DISEXSTD1510155
विधुन्निभमावेशं गन्हाति च बदति कौलिकी
भाषां धावति बेगेनेति च स्त्री ग्रहस्य लक्षणं प्रोक्तं ॥१९॥ ऐसा व्यक्ति बिजली के समान आवेश को ग्रहण करता है, ऊंची ऊंची बातें करता है और वेग से दौड़ता है। यह दिव्य स्त्री ग्रह के लक्षण कहे गये हैं।
पाप कल्मष नामानौ विद्यते जगति ग्रहो, मांषाभिलाषिणे नित्यं कुत्सितांबरधारिणौ
॥२०॥ संसार में दो ग्रह पाप और कल्मष नाम वाले हैं - यह सदा ही मांस की इच्छा किया करते हैं और बहुत ही बुरे वस्त्र पहने रहते हैं।
मिथ्या ग्रहा स्तथान्टोपिविद्यते तानपिह विद्वांसः,
सत्य ग्रहान् प्रकुर्वन्ति शेमुषी विभव बलेन ॥ २१ ॥ विद्वान लोग मिथ्या ग्रहों को (अदिव्य ग्रहों को) तथा कोई अन्य ग्रह हो उनको भी सत्य ग्रहों में (अदिव्य ग्रहों को) तथा अपने बुद्धि के बल से बदल देते हैं।
अक व ग घ ड़ा श्च ट त पाह शर पल सल क्ष बहर श्चान्योन्यं परिवर्तिते । ण नामानि दृष्टि देव भूत कोलिक मेतत्
॥ २२॥ इन ग्रहों का निवारण अ क ख ग घ ड. ट त प य श र ल स क्ष व ब ह र ल से एक दूसरे को न ण न से युक्त करके भूत और देयों का कीलन होता है।
आकार में प्रयोगेन भाषा स्याद्देव कीलिका, रकारेण समं विद्याना भाषां भूत कीलिका
॥२३॥ आकार के प्रयोग वाली भाषा को देव कीलिका और रकार के साथ प्रयोग की जाने वाली भाषा को पूरुष भूत कीलिका जाने।
पुरुष ग्रहोऽथ पुरुषं स्त्रियं तथा स्त्री ग्रहो न गन्हाति,
गन्हाति स्त्री ग्रहोपि पुरुषं ग्रहणाति स्त्री ग्रहं पुरुषं ॥२४॥ साधारणतः पुरुष ग्रह पुरुष को और स्त्री ग्रह स्त्री को ग्रहण नहीं करते किन्तु पुरुष ग्रह स्त्री को और स्त्री ग्रह पुरुष को ग्रहण करते हैं।
ಆಥ5449 YEFಭಾಷಣ
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CSRISTOTRICISTRISADS विद्यानुशासन ISIO505OTSOISOIST
रतिकाम ग्रह नियमः प्रोक्तोयंने तर त्र नियमोस्ति,
पुरुष ग्रहोपि पुरुषं गृहाति गन्हाति स्त्री गृहोपि वनितां ॥२४॥ यह नियम ग्रहों के रति कामना से पकड़ने के हैं, अन्यत्र नहीं है क्योंकि अन्य इच्छाओं में पुरुष ग्रह पुरुष को और स्त्री ग्रह स्त्री को ग्रहण करते हैं।
दष्ट्रां भैरवल नामा धणुर्ग्रहः शारिवलश्च शश नागः
ग्रीवा भंगो चलितोषड परमार ग्रहाः प्रोक्ताः ॥२५॥ दष्ट्रां श्रृंखल घणु शाखिल शशनाग और फीयाभंग उच्चलित यह छ; अपस्मार ग्रह या अदिव्य ग्रह कह जाते हैं।
ध्वस्त पाद कर ग्रीव: फेनं मुंचति मुह्यति अपस्मारी पुनः स्वस्थ पतित्वोत्तिष्टति धुवं इति गृह लक्षणं
॥२६॥
ऐते ग्रहा अदिव्या मुंचंति न जीवितं बिना पुण्यात,
साध्या स्तंत्रणेषां मंत्रं प्याने पुनर्नस्तः ॥२७॥ अपस्मार से पीडित अपने पैरों, हाथ और गर्दन को नचाता है और फेन डालता है, मूर्छित हो जाता है और फिर अच्छा होकर बार-बार गिरता है और उठता है । बहाल हैं; अविष्य ग्रह बिना विशेष पुण्य के जीता नहीं छोड़ते हैं, मंत्रशास्त्र से इसका निवारण सीखकर कष्ट दूर करना चाहिये।
ॐनम श्चंडासि धाराटा चंड मंडले कुले भूतलेन से तिष्ठ तिष्ठ हुं फट ठाठः ॥
मंत्र स्टौ तस्य जपं कुर्वाणो मंत्र वित शिरिवना वंयं,
कुादाविष्टस्य ग्रहः स तस्मिन स्थिरो भवति ॥२८॥ मंत्री इस मंत्र का जप करता हुआ ग्रह से पकडे हुए की चोटी बांध दे तो वह यह उस प्राणी में स्थिर हो जाता है ।
मलवयूकार चतुर्दश कलान्वितं कूट बीजमा लिखेत्, शिरिद वायुमंडल स्थं स नाम स्वर ताल पत्र गतां
॥२९॥
मातई स्नुहि दुग्ध त्रि कटुक हट गंध सर्षपैः मैः आलिख्य ललाटस्थं ग्रहिणां कुरुते ग्रहावेशं
॥३०॥
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PSPPSPSSPX विधानुशासन PSPSPPS9595
भोजपत्र या ताडपत्र पर ग्रह से पीड़ित प्राणी का नाम लिखे । उसको दक्ष म ल व र य को चौदहवीं कला अर्थात् औ सहित लिखे ( म ल व र य इन पांचों अक्षरों को मिलाकर कूट बीजक्षकार सहित और चौदहवी कला चौदहवें स्वर और सहित लिखे, यह बीज छ्ल्वर्यू बीज के नाम के बाहर लिखे इसके बाहर अग्नि मंडल लिखे । उसके बाहर वायुमण्डल लिखे। यह यंत्र आक, थोहर का दूध (सौंठ, मिरच, पीपल) त्रिकटुक और अस गंध और सरसों और घर का घूमसा को मिलाकर लिखे। इस यंत्र को लिखकर ग्रह से पीड़ित प्राणी केमस्तक पर या ललाट पर रखने से उसके ग्रह का आह्वान होता हैं ।
रररर्र रं
नाम
*रररर
ܐ ܐ ܃ ܃
ܐ ܐ ܐ ܐ
+1 755
ॐ नमश्चामुंडे हसंगे वर्मणे दमनो हुं हन हन हुं फट ठः ठः ॥
चामुंडा मंत्री सहस्र रूप प्रजाप संसिद्धः,
आवेशने प्रधानं भूतादिनां विदुगुरवः ||
यह चामुंडा देवी का मंत्र एक हजार जपने से सिद्ध होता है। इस मंत्र को पंडितो ने के आवेश करने का प्रधान मंत्र कहा है।
5
5950
15954415PSP5959595
भूत आदि
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SSIOS9151015015015 विद्यास्यासन 95015015050SDIST
ॐ नमश्चंडालि चामुंडे चंडा भाषाश चलि-चलि गच्छ-गच्छ धूप फलेन शेषु नमो महाकालाटा ठः ठः ॥
अभिमंत्रितः प्रलिप्तो मंत्रेणा नेन सपदि तिलक कल्कः,
स च जनयति ग्रहाणां सर्वेषामपि हन प्रसनां ॥३२॥ उपरोक्त मंत्र से तिलक पुष्प के कल्क को अभिमंत्रित करके लेप करने से सभी ग्रहों को महान कष्ट होता है।
आदीवरः स बिन्दु : द्वा वपि पूर्वोक्त मान्म स्वे शब्दो,
पश्चात् द्वय मडन्तेतस्नि सहश्र जपेन सं सिद्ध ॥३३॥ आदि में बिन्दु सहित ॐ कार और इसके पश्चात् मान (अमल) और मरव (विमल) शब्द तथा अन्त में दो ठः ठः लिखकर तीन हजार जाप करके सिद्ध करे।
ॐ अमले विमले ठः ठः ।
अयं मा विष्ट:श्रवणे प्रजाप माणो भवान ग्रहान,
मंत्रः निः शेषान् निर्मूलं विनि गृहान्तिक्षणे नैव ॥३४॥ इस मंत्र का जाप करने अथवा कान में पढने से सब ग्रह एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैं।
मंत्रयमो विदारी कुरू कुरू हुं फट श्रुती विहित जापः,
विरचय धूल मुद्रामा विष्टस्य ग्रहं हरति ॥३५॥ ॐ विदारी कुरु-कुरु हुं फट आदि शास्त्रीय मंत्र का शूल मुद्रा बनाकर जपने से आवेश हुए यह नष्ट हो जाता है।
ॐ रखडगै रावणाय विद्मये चंडेश्वर भाशश धीमहे तन्नो देवः प्रचोदयात्॥
सलिलस्य खडग रावण मंत्रोऽतर्लक्ष जाप सिद्धोट,
आविष्टानां जप्तः सर्व ग्रह मोक्षणं कुरुते ॥३६॥ यह जल का खडगै रावण मंत्र है इसकी सिद्धि एक लाख जप करने से होती है। इस मंत्र को जपने से सभी आवेश हुए यह छूट जाते हैं।
ॐ नमः चडासि भाषाशं नम श्चंडालंकृत जटाय गहान-गृहान मोहय मोहय
आवेशय - आवेशय संक्रामय-संक्रामय लघु रूद्रा ज्ञापयति हुं फट ठः ठः ॥ S5DISTRICISTRISTOTSIRIS५६० P15015TOISRISISTRISRAEN
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CASIOSSESIRIDIO15 विधानुशासन ASSISTRISORTERSTOISS
अविष्टस्यो परितन्मंत्र: सिद्धार्थ ताऽनेनाश्रु संक्रामो दग्रहमभिमंत्र मन्यं मंत्रीनरः तस्मात्
॥३७॥ मंत्री इस मंत्र से अभिमंत्रित सफेद सरसों के दानों को यदि उत्तेजित ग्रह से पीड़ित प्राणी को मारे 'तो ग्रह तुरन्तही भाग जाते हैं।
षट्कोण भवन मध्येशून्य पिंड समंत्र, कंलिरियत्या कोष्ट मध्ये तुरं लं बूज तदन्तरे
॥३८॥
क्रोंकार विलिरवे चाग्रे वायु नाच त्रिः प्रवेष्टोत्, पृथ्वीमंडल मप्यायों दद्यात्तत् पुरतः सुधी:
॥३९॥
तस्याने स्थापोन्मंत्री गहितं ताडोत् पुनः, माला मंत्रेण संयति ग्रह शक्योपि शीयतः
॥४०॥
मूलमंत्रं प्रसाध्यैतं सहश्र भानु संख्याक: सिद्धिमेति संतुष्ट स्सन् सदश्य प्रदोभवेत्
॥४१॥
__ मूल मंत्रोद्धारः ॐणमोमाणिभद्राय रोमहर्षाणाय पहि-एहि शीघं-शीघ्र आवेशया आवेशयरांआं कों ही गगन गमनाय स्वाहा॥
मूल मंत्रोयं एक छ कोणे याले भवन के अंदर मंत्र सहित हम्ल्यूं बीज लिखकर कोष्ठ के कोणों में रं बीज और अंतराल में लं बीज लिखे। कोणों के किनारे पर क्रों लिखकर तीन बार यः बीज वाले वायुमण्डल से वेष्टित करे तथा अन्त में पृथ्वी मण्डल बनावे । ___ मंत्री इसके आगे ग्रह से पकडे हुए प्राणी को खड़ा करे और नीचे लिखे माला मंत्र का भी जाप करे और यही को ताड़ना करे। इस मंत्र यन्त्र से ग्रह को भगाने में मंत्री शीघ्र ही समर्थ होता है।इस मूलमंत्र का बारह हजार जप कर सिद्ध करे ।देवता के संतुष्ट होने पर यह मंत्र सब आवश्यक वस्तुओं को देता है।
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5183501521STRISI25 विधानुशासन P500501501525TORY
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मणिप्रहावरोष
तरणाय राहर
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को जागर
अथ: माला मंत्र ॐ नमो माणि भद्राय जिन शासन वत्सलाय भव्य जन हितंकराय दुष्ट जन प्रमर्दनाय हिलि हिलि किलि-कि लि चालय-चालय जल गंधाक्षत पुष्पै नैवेद्य दीप धूप फलं गन्ह-गन्ह मुंच-मुंच भयंकर रूपेण धुन-धुन आं क्रों ही अजपाल देव पराज्ञया नाग पाशेन बंधद्य-बंधा हाल्टयूं हां ह्रीं हूं हौं हः सर्व ग्रहाना कर्षटा-कर्षय स्तोभय-स्तोभद्य मारय्-मारय हूं फट स्वाहा ॥
SISTRISTOISSISTRIS015251५६२ PASSISTRISTRISISTERIEDS
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CASIOISTRI51015015125 विद्यानुशासन 95015DISTRISTOT51015
अन्यत्प्रकारेणापि लामो पालो जमा हो ही ई हौं हः माणिभद्र देवाट भैरवाट कृष्णवर्णाट रत्तोष्ट्राय उग्र दंष्ट्राय त्रिनेत्राय चतुर्भुजाय पाशांकुश फल वरद हस्ताय नाग कर्ण कुंडलाय शिरवां यज्ञोपवीत मंडिताय ॐ ह्रीं-ही झां-झां कुरु-कुरु ह्रीं आवेशया आवेशय ह्रौं स्तोभय स्तोभय हर-हर शीयं-शीघं आगच्छ-आगच्छ खुलु-खुलु अवतर-अवतर व्यूँ हम्ल्यू झल्यूँ चन्द्रनाथ ज्वालामालिनी चंडोग्र पाव तीर्थकर धरणेद्र पद्मावती आज्ञा देव नाग यक्ष गंधर्व ब्रह्म राक्षस रण भूतादीन रतिकाम बलि काम हंतुकाम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र भवांतर स्नेह बैर संबंध सर्वग्रहाना-वैशय नागग्रहाना वैशटा-वैशय गंधव ग्रहानाकर्षय-आकर्षय व्यांतर ग्रहानाकर्षय-आकर्षटा ब्रह्मा राक्षसग्रहानाकर्षट-आकर्षय सहस्त्र कोटि ग्रहाना कर्षट-आकर्षय पिशाच ग्रहानाकर्षय-आकर्षय सहस्त्र कोटि पिशाच राजानाकर्षय-आकर्षय किन्नर किम पुरूष गरूड़, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच आकर्षा-आकर्षय अवतर अवतर शीघ्र-शीघ्रं धुण-धुण कंपय-कंपय कंपावा-कंपायय लीलय-लीलय-लालय लालय लोलय-लोलया नेत्रं चालयचालया गांत्र चालय चालय बाहुं चालय चालय आं को हीं गगन गमनाय स्वाहा।। यह ग्रहों को आकर्षित करने का मन्त्रा है।
ग्रहों को जगाने का मंत्र १. ॐनमो भगवते ब्रह्मोद्राय एहि-एहि अवतर-अवतर शीघ्र-शीघं आवेशयआवेशय आकर्षय-आकर्षय कंपटा-कंपय कंपावट कंपावट आकंपठआकंपय एल्यूँ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र:अमुक आकर्षय आर्कषय कुरु-कुरू संवोषट् । २. ॐ नमो माणिभदाय दिव्य रूपाय महर्षय-महर्षय एहि-एहि शीघं-शीघं आवेशय-आवेशय र र र र र र रां रों आं को हीं गगन मंडलाय स्वाहा ।।
३. ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाथ धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय उपसर्गाधीराय हाँ हीं ह्रौं हूँ: हूँ स्वस्थावेशाय नमः स्वाहा ||
४. ॐजलदेवता स्थल देवता पाताल देवता आकाश देवता वन देवता चतुष्टि योगिनी क्षेत्रपालिनी शीघं-शीघं आवेशय आवेशटा अवतर-अवतर गन्ह-गुन्ह हल्ल्यू हाँ ही हूं ह्रौं ह: स्वस्थावेशं कुरूकुरू आकर्षय-आकर्षय हूँ फट घेधे॥
CISIOSRISIORTOISSIOS५६३ PISTERIOSRISTOTSIDISTRIES
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SISO150150151065TOTS विद्यानुशासन 9851015015015101510051 ५. ॐ अंबे अंबाले अंबिके उजयंत गिरि निवाशिनि सर्व विघ्न विनाशिनि सर्वकामार्थ साधिनी यक्षी-टाक्षी महाराक्षी महाटाक्षी हम्ल्यूँ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हू: दिव्य अहाज माट आकर्षन भावेशय आवेशय हूँ फट ये ये ।।
(ग्रहों को बांधने का ब्रह्मा ग्रंथि मन्त्र)
ॐ नमो भगवते श्री चंडोग्र पार्वतीर्थकंराय धरणेंद्र पद्मावती सहिताय रुद्र बंधं काल बंधं योग बंधंगलौक्ष्मं ठं स्वाहा ॥ ॐ नमो भगवते चंडोग्र पार्शनाथाय धरणेंद्र पद्मावती सहिताय सर्व दिग्बंधनं कुरु-कुरू द्रावय-द्रावटा यक्ष राक्षस भूतप्रेत पिशाचन छिंद-छिंद भिंद-भिंद हनहन दह-दह बंध-बंध क़ों क्रां क्लीं स्वाहा । यह दिशाओं को बांधकर गहों से रक्षा करने का मन्त्र है।
ॐ हिलि-हिलि मिलि-मिलि कुमुलंद पार्श्व यक्षाय क्षयू खां क्षीं दूं क्षौं क्षः शिरवा बंध-बंध रक्ष-रक्ष स्वाहा।।
यह शिखा बंधन मन्त्र है।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ऊँवज्रशूलिनिवजशूलधारिणिज्यालिनी दुष्टग्रह नयनं छेदद्य-छेदय भेदय भेदय स्वाहा॥
। अयं नयन नाराच मंत्रः ।
ॐ हाल्च्यू ॐ ह्रीं वज़ मालिनी वज्रशूल धारिणि ज्वाला मालिनी दुष्ट ग्रह हृदा नाशय-नाशय छिंद-छिंद भिंद-भिंद ये ये हूं फट स्वाहा।
अयं हृदय नाराच मंत्रः। यह हृदय छेदने का मन्त्र है।
सह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असिआउसा धरणेंद्र पद्मावती आज्ञा पाशेन सर्व ग्रहाणां दिग्बंधनं कुरु-कुरु स्वाहा ।।
दिग्बंधन मंत्र
यह दिशाओं की रक्षा करने का मंत्र है। SRISTRI50152508505५६४९1505250SARIDDISODY
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SSIOISTRISCISSISIOTS विधानुशासन ISISTSISISISISTRISODE
ॐनमो भगवते चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय शंशाक शंरव गोक्षीर हार निहार धवल गात्राय धाति कर्म निर्मूलो छेदन कराता जाति जस मरण विलाशलारा संसार मांतो रोन्मूलन कराय अचिंत्य बल पराक्रमाय अप्रतिहतशासनाय त्रैलोक्य वंशकराय सर्व सत्यहितकराय भव्य लोकवंश कराय सुरासुर उपगेन्द्र मणि मुकुट कोटि धष्टित पाद पीठाठ त्रैलोक्य नाथाय देवादि देवाय अष्टादश दोष रहिताय, धर्मचकाधीश्वराय, सर्व विद्या परमेश्वराय त्वत्पाद, पंकाजाश्रय निवेशिनी देवी शाशनदेवते, त्रिभुवन संक्षोभणि, लोक्य संहार कारिणि स्थावर जंगम कत्रिम विषम विष संहार कारिणी, साभिचार का पहारिणी, पर विद्या छेदिनी, पर मंत्र प्रनाशिनी,अष्टमहानागकुलोचाटनि,कालदष्टमृतकोच्छापिनि सर्वरोगापनोदिनि, ब्रह्मा विष्णुरूद्रचंद्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकोत्पात्मरणभयपीडाप्रमर्दिनि,त्रिलोक्य महिते भव्य लोकहितंकरे विश्व लोक वशं करि महा भैरवि भैरव रूप धारिणि, भीमे भीम रूप धारिणि सिद्धे प्रसिद्ध विद्याधर यक्ष राक्षस गरूड़ गंधर्व किन्नर किं पुरूष देत्योरगें द्रामर पूजिते ज्याला माला करालित दिगंतराले महा महिषवाहने, त्रिशूलचक कष पाष शरासन फलवर प्रदान विराजमान षोडशार्द्ध भुजे रवेटक कृपाण हस्ते देवी ज्वाला मालिनी एहि-एहि संसार प्रमर्दनि,एहि-एहि महा महिष वाहने, एहि-एहि कटक कटिसूत्र कुंडला भरण भूषिते, एहि-एहि धन स्तनि, किंकिनी नुपुर नादे एहि एहि महा महिष मेखला कटि सूत्रे, एहि-एहि गरूड गंधर्व देवासुर समिति पूजितपादपंकजे,एहि-एहि भव्य जन संक्षिणी, एहि-एहिमहादुष्ट प्रमादिनी, एहि-एहि मम गृहा कर्षिणि, एहि-एहि महानुबंधिनि एहि-एहि ग्रहानुछेदिनि, एहि-एहि ग्रह काल मुरिव एहि-एहि ग्रहों चाटिनी एहि-एहि ग्रह मारिणि, एहि-एहि मोहिनी स्तंभिनी समुद्रधारिणि, एहि-एहि धुन-धुन कंप-कंप कंपावरा मंडल मध्ये प्रवेशय प्रवेशव स्तंभय-स्तंभय हां ह्रीं हूँ हौं है: आह्याननं जलंगन्ह-गृह गंधंगह-गृह , अक्षतं गृह-गृह, पुष्पं गन्ह-गृह , चरु गन्ह गृह , दीपं गन्ह-गृह, धूपं गन्ह-गृह, फलं गृह-गुन्ह, महा अर्ध गृह-गन्ह. आवेशं गृह-गृन्ह महादेवी ज्यालामालिनी पर्वत वासिनी पाताल वासिनी शुभस्थान निवासिनी नगर निवासिनी आगच्छ-आगच्छ। ब्रह्मा विष्णु रूद्रद्रादित्य ग्रहान् आकर्षय आकर्षय देवग्रहान आकर्षय-आकर्षय,नागगृहान् आकर्षयआकर्षय, यक्ष ग्रहान् आकर्षा-आकर्षय गंधर्व ग्रहान् आकर्षय-आकर्षय, ब्रह्मा राक्षस ग्रहान् आकर्षय-आकर्षटा, भूत ग्रहान् आकर्षय-आकर्षय, व्यंतर ग्रहान् आकर्षय-आकर्षय, शतकोटि देव ग्रहान् आकर्षय-आकर्षय, सहस्त्र
कोटि पिशाच राजान आकर्षय-आकर्षया,कंपा-कंपटा मृत्यो रक्षा-रक्षय ज्वरं CATIOTECTEDISCICIACID५६५ PACKADISCISCAPISODE
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05051255105512505 विद्यानुशासन DISTRI5015RISTOIDESI भक्षय-भक्षय अनलं विषं हर कुमारी रक्ष-रक्ष द्योगिनी, भक्षय-भक्षय शाकिनी, मर्द्धय-मर्द्धय डाकिनी, मय-मय पूतिनी, कंपय-कंपय राक्षसी छिंद-छिंद कौलिक मुद्रां दर्शय-दर्शय,सर्व कार्यकारिणी, सर्वज्वर मर्द्धिनी, सर्व सिद्धांजन प्रति पादिनि एहि एहि भगवती ज्वालामालिनी एकाहिकं, दयाहकि, त्रयाहिकं, चातर्थिकं,वात्रिक पैतिक थैष्मिकं सान्नि पातिकंबलां ज्वारादिकं पात्रे प्रवेशय. प्रवेशय, ज्वल-ज्वल ज्वालावय-ज्वालावट, मुंच-मुंच मुचावय-मुचावय, शिरं मुंच-मुंच मुरवं मुंच-मुंच ललाट, मुंच-मुंच कंठ मुंच-मुंच बाहु, मुंच-मुंच ह्रदटां, मुंचमुंच उदरं, मुंच-मुंच कटिं मुंच-मुंच जानुं मुंच-मुंच पादं.मुंच-मुंच आंछेदय-छेदय, क्रौं भेदाभेदा ही मद्धंट-मद्वंय क्षीं बोधय-बोधय हूं घूर्मय-घूर्मटा र र र र र रारा संद्यं पातय-पातय पर मंत्रान् छेदय छेदय परमंत्रान् स्फोटय-स्फोटा ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: घे घे फट स्वाहा ॥
॥ इति ज्वालिन्या देव्या मंत्रः॥ यह सब ग्रहों से बचाकर l८ करने जाग्यालाआमिनी मंत्र है।
॥ चितिंत कार्य साधक पार्श्वनाथ स्वामी का श्रेष्ठ मंत्र ।।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय ॐ णमो अरहंताणं हम्ल्यूँ हां ह्रीं हूं ह्रौं हूं: असि आउसा मम चितिंत कार्य सिद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा ।।
जप्तेग्युत सहस्रेण मंत्रोयं पार्श्वनाथकंः, सिद्धिमेति प्रयंजाति माला मंत्रं तदं तिकं
॥४१।। यह पाश्नाथ स्वामी का मंत्र १००० सहस्त्र अथवा दस लाख जपने से सिद्ध होता है। इसके पश्चात माला मंत्र का प्रयोग करे जो आगे लिखा है।
तद्यथा ॐ नमो भगवते पाश्र्वनाधाटा धरणेन्द्र पदमावती सहिताय ॐ नमो भगवती पातालवासिनी धरणेन्द्र नागराज ह्रदटा प्रिये सांग सोंदरे काम रूपधारिणि स्वर्ग मृत्युपातालगामिनी एहि-एहि आगच्छ आगच्छ अज्रपात्रे अवतर-अवतरतिष्ठतिष्ठ स्वस्थो भव-भव मदान स्फोटा-स्फोटा रररररमम चिंतित कार्य सिद्धि करूकुरु अतीत अनागत वर्तमान वार्ता सत्यं कथय-कथय ।। CISIOSDISTRISTRI50151235५६६ PISTOISTRISIOISTRICISTRIES
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CSP525252595 faengelena VSP5P5252525
ॐ नमो भगवते माणिभद्र देवाय भैरवाय कृष्णवर्णाय रक्तोष्ट्राय त्रिनेत्राय चतुर्भुजाय पाशा कुंश फल वरद हस्ताय नाग कर्ण कुंडल शिवाय यज्ञोपवीत मंडिताय ॐ ही झं कुरू कुरू ह्रीं आवेशय आवेशाय ह्रौं स्तोभय स्तोभय हर-हर शीघ्रं स्रुत्यस्रुत्य (सत्य- सत्य) ठः ठः अवतर अवतर क्षम् हमल्यं ल्यूं चन्द्रनाथ ज्वाला मालिनी चंडोग्र पार्श्वतीर्थकर धरणेन्द्र पद्मावती आज्ञादेव नाग यक्ष गंधर्व ब्रह्मराक्षस मरण भूतान भूत रति काम बलि काम हंतु काम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शुद्र भवांतर ग्रहाना वेशय वेशय आकर्षय आकर्षय सहस्त्र कोटि पिशाच राजान् आकर्षय आकर्षय धुन-धुन कंप कंप कंपावय-कंपावर लीलय - लीलय लोलय लोला सर्वांग चालय-चालय हुं फट स्वाहा ॥
पद्मावती माला मंत्र आवेशस्य
पदमावती देवी को उत्तेजित करने का मंत्र है ।
ॐ नमो दस्य पुष्पे रुद्राय शूल पाणये रौद्ररूपाय बंध-बंध स्तंभय स्तंभय गतिं छेदय छेदय हूं फटे ठः ठः ॥
रुद्राधि देवताय मंत्र सिद्धयेत पंच सहस्त्र रूप जपात् रक्षयै तन्मंत्रित या स्तंभे वृक्षेऽथ वेष्टयेत् भूतं
॥ ४२ ॥
बद्धं निगृहीतं च स्यादुक्त करं झटिति जप्तया, भूतं भव च भावि च सर्वं कथयेत् च परिपृष्टं ॥ ४३॥ यह रुद्राधि देवता का मंत्र पांच हजार जप करने से सिद्ध होता है। मंत्री इस मंत्र से रक्षा करके भूत को किसी खम्भे या वृक्ष से बांध लेवे । इस मंत्र से उसको पकड़कर बांधते हैं। वह भूत तेजस्वी मंत्री के कहे हुये सभी कार्यों को करता है तथा पूछने पर भूत वर्तमान और आगे होने वाले सभी कार्यों को बतलाता है ।
कुर्वीतं च सकलं तं यं मंत्री प्रार्थयेत् भुवनेच्छं स्यात् चास्य मुक्त रज्जोर्मुक्ति स्त जप्त जल सेकान
।। ४४ ।।
मंत्री लोक में जो भी इच्छा करता है। यह इन सबको पूर्ण करता है। यदि उसको छुड़ाने की इच्छा हो तो बांधी हुयी रस्सी पर उसी मंत्र को पढ़कर जल छिड़कने से वह छूट जाता है। PSP59595959595 ५६७ 5969
SPSPSS
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SSIOTSTOTSD5215105 विद्यानुशासन VS1015105IOUS00510151
प्रणवोहि द्वितयं हेतु रिनो सौ लक्ष जाए संहितः
मंत्रो भवेदग्रहादेश वेशाद्यारिवल कर्मकर: ॐ नमो दस्व पुष्पे रुद्राय हर हर रक्ष मां हुं फट ठः ठः ॥ निम्नलिखित प्रणयादि मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है। यह यभी ग्रहों को जगाकर सब कार्य करता है।
॥४५॥
आविष्ट शिरोनीते तजतेरकं तुरगरिपु कुसुमे,
आयाति मंत्रिणो वशमभिमतभि स ग्रहे: कुरुते " ||४६॥ इस मंत्र को तुरंग रिपु (कनेर) के पुष्यों पर जप कर जगाये हुये ग्रह वाले पुरुष के सिर पर डालने से वह ग्रह मंत्री के वश में हो जाता है और उसकी इच्छानुसार सभी संग्रह करने के कार्य को करता
इत्थं ग्रह निग्रहणे मंत्रा: कथिताः प्रसिद्ध शक्तिः
कथ्यते स्तंभदौ मंत्राः पिंड प्रधानाश्च युक्ताः ॥४७॥ इसप्रकार यह ग्रहों के निग्रह करने वाले मंत्र प्रसिद्ध-प्रसिद्ध योगों सहित योगी द्वारा कहे गये हैं। अब ग्रहों के स्तंभन आदि में पिंड प्रधान मंत्र कहे जाते हैं।
सकली करणेन बिना मंत्री स्तंभादिनिग्रह विधाने,
असमर्थै स्तनादौ सकली करणं प्रवक्ष्यामि ॥७॥ मंत्री भूतानि स्तंभन आदि ग्रहों के निग्रह के विधान में सकली करण अर्थात् आत्मरक्षा किये बिना सफल नहीं हो सकता है अतःएव पहले मैं सकली करण क्रिया के विधान को कहूँगा
यद्वन पंजर युतं सकली करणं पुरा समुद्दिष्ट, तेनात्रापि विदध्यादुधः सन्नात्मना रक्षा।
॥४८॥ जो पीछे तीसरे समुच्छेद में यजमयी परकोटे युक्त सकलीकरण की क्रिया कही गयी है। पंडित पुरुष उसी से यहाँ भी अपनी रक्षा करे।
मंत्री बली भिमत्वा पात्रं मुक्ता ग्रहः प्रायाति यदि,
तत्राप्य दिशा बंयं कुयात् इच्छं सनापैति ॥४९॥ यदि मंको बलि जानकर कोई ग्रह उस ग्रह से पीडित प्राणी से छूटकर आवे तो दिशा बंधन करने से यह दूर हो जाता है।
CSRIDIOISIOISTOTRIOSIS५६८ PISCESSIODICICICICISI
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959595952
विधानुशासन PPP 9595
॥ ५० ॥
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं हः ज्वालिनी पादौ च जघन मुदरं वदनं शीर्ष रक्ष द्वय होमांत पर गात्र पंच के स्थाप्या इत्यादि ऊपर के श्लोक के अनुसार इस मंत्र का अपने पांचों अंगों में अर्थात् पांव, जांघें, पेट, मुँह, सर में ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः बीजों का ज्वालामालिनी शब्द को पांचो अंगो में लगाकर रक्ष रक्ष स्वाहा के साथ स्थापित करे।
ॐ हां ज्वालामालिनी पात्रस्य पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ ह्रीं ज्वालामालिनी पात्रस्य जघनं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ हूं ज्वालामालिनी पात्रस्य उदरं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ ह्रीं ज्वालामालिनी पात्रस्य वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ ह्रः ज्वालामालिनी पात्रस्य शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा
क्ष ह भ म य र झकांत ठकार पूर्णेदुयक्त निर्विष बीजे:, विदुर्द्ध रेफ सहितैर्मल वायूं (कार) संयुक्ते द्विषद्बध बीजैः ॥ ५१ ॥
स्तंभ स्तोभ स्तानमध्य प्रेषण सुदहन भेदन बंद्यं, ग्रीवा भंग गात्र छेदन हनन माप्यायनं ग्रहणां कुर्यात् ॥ ५२ ॥ भरघझख ठ कार पूर्ण चंद्र औरह निर्विष बीज को अनुस्वार और उर्द्ध रेफ सहित बीजों को मलवरयू से मिलाकर हु फट और घे घे पल्लवों से युक्त करके ग्रहों के स्थंभन (स्थिर करना) डराना, अंधा करना, जलाना, भेदना, बांधना, गर्दन भंग करना, अंग छेदन करना, मारना तथा दूरी करन करे ।
हाः स्यान्निरोधं शून्यं स्वरो द्वितीय श्चतुर्थ षष्टौच, औंकारों बिन्दु युतो विसर्जनीयश्च पंच कला
॥ ५३ ॥
ॐ कूट पिंड पंच स्वर युत कूटं पंचकं सं निरोध, दुष्ट ग्रहां स्तथा दिव स्तंभटा च स्तंभमंत्र इति फट घे घे ॥ ५४ ॥
हां के बाद के आं क्रों क्षीं हकार को दूसरी, चौथी, छड्डी, चौदहवीं और सोलहवी को बिन्दु सहित अर्थात् ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः से विसर्जन करे। ॐ के बाद कूट पिंड (दम्यू) कूटाक्षर (क्षकार) को पांचो स्वरों सहित अर्थात् क्षां क्षीं क्षं क्ष क्ष और ज्वालामालिनी देवी के पांच बाण (ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं) के पीछे दुष्ट ग्रह के बाद दो बार स्तंभय स्तंभय लगाकर दो स्तंभ मंत्र अर्थात् ठ: ठ: लगाये फिर फट् फट् घे घे लगावे ।
@ちたらどちから
५६९ PoK
595959
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CRICTSIDISTRISISTEITE विद्यानुशासन P51015EISTRICISCESS
ॐक्ष्म्ल्यू ज्वालामालिनी हीं क्लीं ब्लू ट्रां द्रीं क्षांक्षी तूं क्षौं क्षः हाः दुष्ट ग्रहां स्तंभय स्तंभय ठः ठः हां आं कोंक्षी ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुं फट् घे घे ॥
श्रृंखला मुद्रा स्तंभन मंत्र: यह ग्रहों का स्तंभन मन्त्र हैं। इसमें श्रृंखला मुद्रा होती है।
ॐ शुन्यपिंड पंच स्वर युक्तं ह पंचकं च स निरोध, स्तोभन मंत्रः सर्वग्रहान्था आकर्षा द्वयं संवौषट्
॥५५॥
ॐ मयू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू द्रांनी सांहीं हः सर्वदुष्ट ग्रहान स्तौभया आकर्षय आकर्षय हां आं
क्रों क्षी ज्वालामालिन्या ज्ञापयति संवोषट् यह स्तोभनं मंत्र शिखि मुद्रा में जपे।
भक्ति भपिंडौ भ्रां भ्रीं भं भ्रौं भ्रः सन्निरोध सहितानि दुष्ट ग्रहमथ ताडय हुं फट येथे
॥५७॥ ताडन मंत्र ॐल्य ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूंद्रां द्रीं भ्रां भी भौं भ्रःहाः,दुष्ट ग्रहान ताडय ताइय हां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुं फट घे घे ॥
ताडय मंत्र गदा मुद्रा विनयादिमपिंडो मां मी म मौं म: स्तथैव सं निरोध: हुं फट हो हो, सर्वेषां ग्रह नामां वजमा शूच्या अक्षिणी द्वि स्फोटटान् दर्शटा द्विस्तथैव हुं फट ये हो अक्षि स्फोटन मंत्री मुद्राप्यस्याक्षि भंजनि नाम्रा
॥५८ ।
ॐ म्म्ल्वा ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू दा द्रीं मां नी , नौं नः हाः दुष्ट ग्रहान हुं फट सर्वेषा दुष्ट ग्रहाणां वजमय शूच्या अक्षीणी स्फोटयन दर्शय-दर्शय हां आंक्रौं
ती ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुं फट ये घे॥ CRIODESIRIDDISTRISTOR५७० PISODIOSRISPECIPES
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अक्षि स्फोटन मंत्रः शूची मुद्रां यह ग्रहों का अक्षि स्फोटन मंत्र है। इसकी शूची मुद्रा है।
भक्तयादि वायु पिंडो य य य य याः याः ग्रहानथ
समस्तान द्विप्रेषय घेघे हुं जः जः जः प्रेषण सु मंत्र ५९॥ ॐ एल्यू ज्वालमालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं ट्रां द्रीं य य य य याः याः सर्व दुष्ट ग्रहान प्रेषय-प्रेषय घेघे हां आंकों क्षी ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ ज: जः जः।। यह प्रेषण मंत्र है। छुटिका मुद्रा है।
नामादिरग्निपिंड: शिरिव मद्देवि ज्वल द्वयं र र र र र रां रां प्रज्वल हुं ज्वल ज्वल धग युग धूं धूं धूमांध कारिणि ज्वलन शिरवे
देवान् नागान राक्षान गंधर्वान ब्रह्मा राक्षसान भूतानशत कोटि देवतास्ता: सहस्त्र कोटि पिशाच राजानां ॥६१ ॥
दह दह पदं प्रति पदं ये स्फोटय मारयेति युगलं च दहनाक्षि प्रलय धग दयित मुरित ज्वालिनी ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः ॥६२ ॥
सर्वग्रह हृदयं हुं पच छिंद छिंद भिंद दह दहेति मंत्र पदं
ह ह ह ह ह ह : हाः हाः फट घे घे ये होम मंत्रोयम् ॥६३ ।। ॐरम्ल्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं ट्रां द्रीं ज्वल-ज्यल र रररररांरां प्रज्वल प्रज्वल हुंज्वल-ज्वलधग-धगधूंधू धूमांध-धूमांधकारिजिज्वलन शिरवे देवान् दह-दह नागानदह-दह यक्षान दह-दह गंधर्वानदह-दह ब्रह्मराक्षसान्दह-दह भूत ग्रहान दह-दह ब्दांतर ग्रहान दह-दह सर्वदुष्ट ग्रहान दह-दह शतकोटि देवतान दह-दह सहस्त्र कोटि पिशाच राजानां ग्रहान दह-दह लक्ष कोटि अपस्मार ग्रहान दह-दह धे घे स्फोटय-स्फोटय मारय-मारय दहनाक्षि प्रलय धग गद्धगित मुरिव ज्वालामालिनी ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः सर्व दुष्ट ग्रह हृदयं हुं दह-दह पच-पच छिंद-छिंद भिंद-भिंद दह-दह ह ह ह ह ह हाः हाःआंकों क्षीं ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुं फट
घे थे।
CHEDISTOTSIC521525105५७१ PISTRISIRIDICISTRISRISIONSI
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CASTOTRIOTSTRISTD3525 विद्यानुशासन P521501505215015
दहन मंत्रो होम मंत्रोश्च जुहयात त्रिकोण कुंडे मधुरत्रय सर्यधान्य सर्षपलवणैः,
राजपलाशार्क शमाप धुमंद करा स्वादिर काष्टोत्थानौ ॥६४॥ त्रिकोण होम कुंड में घृत दुग्ध मधु सब धान्य सफेद सरसों लेकर पलाश आकड़ा खेजड़ा नीम करंज खेर की लकड़ियों को अग्नि में इन समिधाओं से होम करे।
ॐ वक्रतुडाय धीमही एक दंष्टाय धीमही अमत वाक्यस्य संभवे तन्नो दंत: प्रचोदयात् अग्नि प्रज्वलितं वन्हिना वायं कुर्वन्ति साधका :
॥६५॥
भूतारख्यां गायत्री मुचार्य त्रिः सकृद्धमेदग्निं,
प्रीन्वारान नित्यगे रादौ संधूक्षणं कुर्यात् अग्जि संधूक्षण मंत्रः भूताख्य नाम के गायत्री मंत्र का तीन बार उधारण करके अग्नि जलाये फिर संधूक्षण मंत्र से अग्नि का तीन बार संधूक्षण करे।
प्रणवन धपिंड पंच कला युत तले रेफ युतं प्रकार निरोध, धं धं खं खं वडगै रावण सद्विधयाथ घातय युगलं ॥६७॥
स चन्द्रहास खड़गेन छेदय भेदय द्विस्तथैव, झं झं वं खं हं हां हुं फट घेघे मंत्रोयं जठर भेदिस्थात्
॥६८॥
अल्ट्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूंद्रां द्रीं यांनी पूंछौं पाहाःघंघरखरखं खड्गै रावण सद्विधया धातय-धातय सचंद्रहास रवड्गेन छेदय-छेदय भेद-भेदय झं-झं रखं हं हां आं क्रों क्षी ज्वाला मालिन्याज्ञापयति हुं फट धेघे ॥६९ ॥
वडगै रावण विद्या उदर भेदी मुद्रा यह जठर भेदो मंत्र है। इसकी खड्गे रावण मुद्रा है।
प्रणवेन रहित झं पिंडो गुप्तो चारितः स्ववायु निर्गमनः, हाः पूर्णेदं समेत: स्थान मुष्टि ग्राहो मंत्रोचं
॥७० ॥
CSTOISSISTERSIRISTOTS५७२ PISTRISTOTRIOS015CTSTORI
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SSCIRRIORISEASO5 विधानुशासन PARISTOTRIO5015555
ॐझल्यू ज्यालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू ट्रां द्रीं ह्रां आंकों क्षीं ह्रीं ब्लू क्लीं ट्रां द्रीं
ज्यालामालिन्याज्ञापादित हा ट: ठ: । यह ॐ से रहित मुष्टि ग्रहन मंत्र मन में अपनी श्यास रेधक के समय बोले।
पिंडन बिना हाः फट घे फट स मंत्रेण तत्रत्रवान्य
स्मिन चा कुर्याद्गृह संक्रामं मुष्टि विमोक्षण सन्मंत्री ॥७१॥ ॐज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं ट्रां द्री ज्वालामालिन्याज्ञापयति हाः फट घे घे।।
मुष्टि विमोक्षण मंत्रः मुष्टि विमोक्षण मुद्राः यह मुष्टि विमोक्षण मंत्र है इससे भी ग्रह दूर हो जाते हैं।
पिंड स एव विनयादि का स्व पंच तत्वान्वितो निरोध युतः, सर्वेषां ग्रह नानां कुरू सर्व निग्रहां स्तथा हाः हुं फट ये ये ॥ ७२ ।।
ॐक्षय्य ज्यालामालिनी ह्रीं क्लीं बलूंद्रां दी ज्ञाझी झंझौझा हाः सर्वदुष्ट ग्रहान
स्तंभय-स्तंभय ताइय-ताइय दह-दह पच-पच भेदय-भेदय हाः हां आं को क्षीं .. ज्यालामालिन्याज्ञापयति हुं फट घेघे॥ .
इष्ट निग्रह कर्म मंत्रः इप्सित कर्म मंत्रः तर्जनी मुद्राः । यह दुष्ट निग्रह कर्म मंत्र होने पर दुष्ट मुद्रायाला तथा ईप्सित कर्म मंत्र होने पर तर्जनी मुद्रायाला मंत्र होता है।
ॐ कांत पिंड पंच स्वर युत तल रेफ सहित कपरश्च हाः फट सो टो सर्वग्रह गल मंगं कूरू युगं घे घे ॥
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ॐ रम्ल्यू ज्वालमालिनी ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं वां रवीं रखू रखौं राः हाः फट घे ये सर्वेषां ग्रह नाम्रा गल भंगं कुरू-कूरू हां आं क्रों क्षी ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुँ
फट ये ये॥ यह गल भंग मंत्र है। इसकी गल भंग मुद्रा खलिन मुद्रा है। SSIOTHRASOISRASTRI5T05[५७३ PISTRITICISIOISSISESSIST
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विधानुशासन भक्त्यादि छांत पिंड : पंच कला अथो रफ युक्तं चांत निरोधः सर्वेषा ग्रह नाम्रा मंत्राणि छिंद हुं फट ये ये
॥ ७२ ॥
ॐ एम्ल्वर्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं प्रां प्रीं हूं छ्राँ छ्रः हा सर्वेषां ग्रह नाम्रा मंत्राणि छिंद-छिंद हां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुं फट घे घे ॥ यह अंत्र छेदन मंत्र है। इसकी अंत्र छेदन मुद्रा है ।
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भक्ति रहितेन्दु पिंडं ठ्रीं हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् तडित्पाषाणै वाइय-ताडय भूम्याद्विः पातय हुं युगं च फट फट येये ॥ ७३ ॥ ॐ हम्ल्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं तडीत्पाषाणैः स्ताइय स्ताडय हा सर्व दुष्ट ग्रहान् तडिष्टपाषाण ताडा ताडय पातय पातय हां आं कों क्षीं ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुं हुं फट फट घे ये ॥
विद्युत्मंत्र:
यह ग्रहों का हनन मंत्र है। इसकी विद्युत्मुद्रा है ।
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विनयः स एव पिंड स्तदीय मथ तत्व पंचकं सः निरोधः,
सर्वेषा ग्रहणाम्रा कुरू सर्वान्नि ग्रहां स्तथा फट घे घे || ७४ || ॐ कम्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं वां यूं वीं द्रौं वः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान स्तंभय स्तंभय स्तोभय स्तोभय ताइय-ताडय अक्षिणी स्फोटय-स्फोटय प्रेषटाप्रेषय दह दह भेदय-भेदय बंधय बंधय ग्रीवा भंगा-भंगा अंत्राणि छेदय-छंदा हन हन हां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुं फट घे घे ॥
सर्वकार्मिक मंत्र: तर्जनी मुद्रां
यह सर्वकार्मिक मंत्र है। इसकी तर्जनी मुद्रा है।
विनयो निर्विष पिंड : स्व पंच तत्वं निरोध सहितं, च सर्व ग्रहान समुद्रे निम्मंज हुं तथैव फट् ये ये
।। ७५ ।।
ॐ इम्ल्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ब्रां ब्रीं बूं ब्रौं ब्रः हा सर्व दुष्ट ग्रहान समुद्रे मज्जय-मज्जयहां आं कों क्षी ज्वालामालिन्या ज्ञापयति हुं फट् घे घे ॥ यह मज्जन मंत्र है इसकी मज्जन मुद्रा है।
निर्विष पिंडं सं तं वं मं हं सं ग्रहानथ समस्तान्, उत्थापय द्वयं नट नृत्य द्वितियं तथा स्वाहा
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॥ ७६ ॥ P59050s
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S5DISTRISTORSDISTD विधानुशासन PASS151055815CTSIDESI ॐझाल्दा ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं द्रां द्रीं संतं वं मंहं संसर्व दुष्ट ग्रहान् उत्थापाउत्थापय नट-नट नत्य-नृत्य हां आं क्रों की ज्वालामालिन्या ज्ञापयति स्वाहा ॥
आप्यायन मंत्रः आप्यायन मुद्रा यह आप्यायन मंत्र है। इसकी आप्यायन मुद्रा है।
सर्व निरोधे चाप्यायन मंत्रेणानेन साक्षतं सलिलं,
अभिमंत्र्ट ताडयतक्षालयेत च विकृत निग्रहोपशमनं स्यात्।। ७७ ॥ इस सर्य निरोध आप्यायन मंत्र के द्वारा अक्षत और जल को अभिमंत्रित करने और अक्षत को मारने और जल से धोने से सब ग्रहों का नाश होता है।
आत्मनिचान्यास्मिन वा प्रतिबिंबे वाथ निग्रह विहिते,
ग्रह निग्रहो भवेदिति शिस्विम देवी मतं तथ्यं ॥७८॥ इस या अन्य किसी निग्रह मंत्र का प्रयोग करने से पाहों का निग्रह हो जाता है। ऐसा ज्वालामालिनी देवी का सिद्धान्त है।
शब्द कशां कुशं चरणैः हय नागमोदिता टाथा यांति बुधैः,
दिव्या दिव्या सर्वेनुत्यंति तथैव मंत्र संबोधनतः ॥७९॥ जिसप्रकार घोई और हार्थी शब्द कोडे अंकुश और कशा कोरड़े अथवा ऐडी से आगे चलते हैं उसी प्रकार पंडितो के शब्द पर दिव्य और अदिव्य ग्रह सभी नाचते हैं।
व्यक्ताक्षर वर मंत्रे भित्या दुष्ट ग्रहस्य हत्कर्णन,
ययचिन्तयति बुधः स्तत्त चोपं करोति भुवि। ॥८०॥ पंडित पुरुष के कहे हुये उत्तम मंत्री के अक्षरों से दुष्ट ग्रहों के हृदय और कानों के छेदने से मंत्री जो जो सोचता है | संसार में वही वही होता है।
तत्कर्मनात्र कथित कथितं यद यद शास्त्र ष गारूडे
सकलं तदभेदमाप्य मंत्री यदक्ति पदं तेदव मंत्र स्यात ॥८॥ जिस भेद को पाकर मंत्री जो कुछ भी कहता है वहीं मंत्र बन जाता है । वह कर्म यहाँ नहीं बतलाया गया है। बल्कि उसका कथन पूर्ण रूप से गारूडी शास्त्र में किया गया है । OTIRISRIDDISTRISTRI505/५७५ PISTRISPEPISRASTRASTRIES
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दहन छेदन प्रेषण ताडन भेदन सु वंद्य मन्याद्वा पाश्र्व जिनाय, तदुक्ता यद्भक्ति पदं तदेव मंत्र: स्यात् ॥ ८२ ॥
वह पुरुष छेदना जलाना भेदना, काटना, मारना और बाँधना तथा अन्य कर्म की भी श्री पार्श्वनाथ भगवान के लिये हैं। यह कहकर जो पद कहता है वही मंत्र बन जाता है ।
दिव्यमदिव्यं साध्यम साध्यं संबोध्य बीजम बीजं, ज्ञात्वा यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात्
|| 23 ||
वह दिव्य अदिव्य साध्य असाध्य कहने योग्य और न कहने योग्य तथा बीज और अबीज को बिना जाने हुए भी जो पद कहता है वही मंत्र बन जाता है।
भुकुटि पुट रक्त लोचना द्भयं कराद्ध प्रहास हा हा शब्दैः,
मंत्र पदं प्रपठन सन् यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात् ॥ ८४ ॥ यह भौं चढाकर, लाल नेत्र किये हुए, भंयकर अट्टाहास करते हुये हा-हा शब्द करता हुवा अथवा मंत्र पद को पढ़ता हुआ भी जो कुछ कहता है वह मंत्र बन जाते हैं ।
यद्धा चोद्यं वांछित तत् तत् कुरुते द्विषद्विधं बीजं. ध्यात्वा यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रो भवेत्सधोः
॥ ८५ ॥
मंत्री जिस जिस कार्य को करना चाहता है शत्रु को जानने वाला बीज वही वही कर देता है । इस वास्ते बीज का ध्यान करके द्वेष करने का या बंध करने का जो पद कहा जाता है वही मंत्र होता
है ।
अति वहला ज्ञान महांधकार मध्ये परिभ्रमन् मंत्री, लब्धपदेश दीपं यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रः स्यात्
॥ ८६ ॥
मंत्री पुरुष अत्यंत गहन अज्ञान रूपी महांधकार के बीच में घूमता हुआ जो उपदेश रूपी दीपक को पाकर जो भी कहता है वही मंत्र होता है।
नपठतु माला मंत्र देवी साधयतु नैव विधिना च,
श्री ज्वालिनी मंत ज्ञो यद्वरिक्त पदं तदेव मंत्र: स्यात्
|| 612 ||
नो माला मंत्र के ही मंत्र का पाठ करे और न यहाँ देवी की ही विधिपूर्वक साधना करे किन्तु श्री ज्वालामालिनी देवी के मत को जानने वाला जो भी कहता है वही मंत्र हो जाता है।
95959595959595 ५७६ P595969595
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95959595952 विधानुशासन 95959595591
देव्य चन जप नियम ध्यानानुष्ठान होम रहितोपि,
श्री ज्वालिनी मतज्ञो यद्वक्तिं पदं तदेव मंत्रः स्यात्
॥ ८८ ॥
देवी की
पूजा जप ध्यान अनुष्ठान और होम से रहित होने पर भी श्री ज्वालामालिनी देवी के सिद्धान्त को जानने याला जो पद कहता है वही मंत्र हो जाता है।
विनयं पिंडं देवीं स्व पंच तत्व निरोध बीजं च, ज्ञात्वोपदेश गर्भ यद्वक्ति पदं तदेव मंत्रस्यात्
।। ८९ ।।
विनय पिंड देवी के स्व पंच तत्व को निरोध सहित जानकर मंत्री जो पद कहता है वही मंत्र हो जाता है अर्थात् निम्नलिखित मंत्र सब काम देता है।
ॐ दम्ल्यू ज्वालामालिनी क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्षः हा दुष्ट ग्रहान स्तंभय स्तंभा ठः ठः हां आं कों क्षीं ज्वालामालिन्य ज्ञापयति हुं फट घे घे ॥ सर्वत्र योजनीयं
अजपिंड देवता पंच बाण निजतत्व पंचक निरोधः, स्वेष्ट निरोध पदैः सह जयति समस्त ग्रहान मंत्री
॥ ९० ॥
ॐ पिंड देयता के पांच बाण स्वपंच तत्व निरोध पदों और इष्ट निरोध पदों से युक्त मंत्र से मंत्री सभी ग्रहों को जीत लेता है ।
ॐ क्ष्ल्यू ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान स्तंभय - स्तंभय ठः ठः हां आं क्रों क्षीं ज्वालामालिन्या झापयति हुं फट घे घे ॥ इत्यादि सर्वत्र ज्ञात
उपदेशान्मंत्र गतिः मंत्रैः रूपदेश वर्जितैः किं क्रियते मंत्री, ज्वालामालिन्यऽधिकृत कल्पोदितः सत्यः ॥ ९१ ॥
मंत्र बिना उपदेश के नहीं रह सकते और बिना उपदेश पाये कुछ किया भी नहीं जा सकता किन्तु ज्वालामालिनी कल्प के बताये हुये मंत्र पूर्णरूप से सत्य है ।
विनयादि देवता पिंड तत्व नवकं विरोध शून्य युतं, वया कृष्टोच्चाटन मारण बीजानि मणि विद्या
॥ ९२ ॥
ॐ ज्वालमालिनी क्ष्म्ल्यू हल्यूं भ्म् म्म म्यूँ रम्ल्यू छल्यूँ इम्यू खल्व यूं छल्वयूँ ठ्रम्ल्वर्यू क्ल्यूं ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं हां आं कों क्षीं हाः वषट् संवौषट् हुं फट ये थे ।
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SSIOSDISORDOISI05 विधानुशासन PASSOSDI5015ICISI विनयादि देवता पिंड नय तत्य निरोध और शून्य सहित वषट (यशीकरण) संयोषट (आकर्षण) उच्चाटन (हुं फट) मारण के बीजों की उत्तम मणि विद्या होती है।
भूर्जेलिरिवतै कैक स्वबीज सहितैः समंत्रोद्यः, इषान्मंत्रा नलिकांत्रितोहमयी र्वेष्टो द्विधितत्
॥२२॥
तैरेते: सप्तोत्तर विंशति संरव्यैजपत्सुधी मणिभिः,
मंत्री तमैव मंत्र प्रतिदिवस त्रि सुं संध्या सु : ॥९३॥ इस मंत्र को भोजपत्र के ऊपर वश्य आदि के अपने-अपने बीज मंत्र सहित लिखकर, त्रिलोह की नली में रखकर, विधिवत मंत्री एक सत्ताईस मणियों की माला बनाकर उसपर उसी मंत्र को प्रतिदिन दोपहर और सार्यकाल के समय जपे तो इच्छित कार्य सिद्ध होते हैं।
विषम फणि विषम शाकिनी विषम ग्रह विषम मानुषाः, सर्वे निविषत्व गत्या भूत्वा वश्याः स्युक्षो भमेति जगतः ॥९४ ॥
मणि विद्याया प्रभावः भयंकर सर्प, भयंकर शाकिनी, विषम ग्रह और सब विषम मनुष्य निर्विष होकर वश में हो जाते हैं और सम्पूर्ण जगत क्षोभ को प्राप्त होता है।
सामान्य मंडल एक तरौप्रेत गहे चतुष्पधे ग्राम मध्टो देशे वा, नगर बहि भूभागें मंडल मावर्तयेत् प्राज्ञ :
॥१॥
ईशान दिशि अभिमुख प्रपतित जले शल्य रहित सम भूमौ, हस्ताष्टक प्रमाणं नवरखंड मंडलं प्रवर
॥२॥
वर पंच वर्ण चूर्णं द्वार चतुष्कान्वितं लिखेत्,
विपुलं नाना केतु पताका दर्पण घंटा समन्वितं रम्यं ॥३॥ बुद्धिमान एक वृक्ष के नीचे प्रेत के घर में (श्मशान में ) चौराहे पर गांव के ठीक बीच में या नगर के बाहर एक मंडल बनावे । SISIOISTRARISTOTSISASTES५७८ PISTRISTORICSIRISTRISTRIES
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उसका मुख ईशान कोण की तरफ हो और वह मंडल गड्ढ़े जल तथा कंटकरहित समभूमि में आठ हाथ की भूमि में नय खण्ड का बनाया जावे । उसमें पांचों रंगों के श्रेष्ठ चूर्णो से चार दिशाओं में चार दरवाजे बनावे और उनको अनेक प्रकार की ध्वजा पताका दर्पण और घंटिकाओं से सजाकर सुंदर बनाये ।
अश्वत्थ पत्र विरचित तोरण सत्पुष्प मंडपोपेतं सकल दिक्षु निवेशित मुसलाग्रन्यस्त पूर्ण घट
|| ४ ||
तस्मिन् प्राच्याधष्ट सुकोष्टे सु इंद्राग्रि मृत्यु नै ति वरुणान् मारूंत धनद ईशान लक्षण युक्तान लिखत् मतिमान्
॥ ५ ॥
उसके द्वार पुरुष के प्रवेश करने योग्य बनाकर, उसको पीपल पत्तों की बादरवाल बनाकर, तोरण लगावे और अच्छे फूलों से उस मंडप को सजावे। उसकी सम्पूर्ण आठों दिशाओं में मूसल के आगे जल से भरे हुये आठ घड़े रख देवे । बुद्धिमान पुरुष उसके पूर्व आदि आठ कोनों में इन्द्र, अग्रि, यम, नैऋति, वरूण वायु कुबेर और ईशान देवों सब लक्षणों सहित करके लिखे ।
शुक्रं पीतं वह्नि वन्हिं निभं मृत्यु राजमति कृष्णं हरितं, नैऋतिम परं शशिप्रभं वायु मसितांगं
॥ ६ ॥
घनदं समस्तं वर्णं सितमीशं मनुक्रमेण सर्वान् विलिखेत, गज मेष महिष नर मकरोधन भृग तुरंग वृष वाहानान ॥ ७ ॥
इंद्र को पीला, अग्नि को अग्नि के समान, यम को अत्यंत काला, नैऋति को हरा, वरुण को चन्द्रभा के समान, वायु को मटियाला जो असित हो सफेद नहीं हो, कुबेर को सब रंगों का और ईशान देव को सफेद रंग का बनाये। यह सब इस अनुक्रम सबको लिखे। इनके वाहन क्रम से ऐरावत हाथी मेंठा भैंस जर मगर दौड़ता हुआ मृग घोड़ा और बैल बनावे।
वज्राग्नि दंड़ शतायसि पाश महातरूंगदात्रि शूलकरान, परिलिव्य लोक पालान मध्ये भूतादि कृतिं विलिख्येत्
॥ ८ ॥
इनके हाथ में क्रम से वज्र, अग्नि, दंड, शक्ति, तलवार, नागपाश, बड़ा वृक्ष, गदा, त्रिशूल देकर इन लोक पालों के बीच में भूतादि की आकृति बनावे |
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RISIS5DISTRISTRICT विद्यानुशासन 51005015TI503585
गंधाक्षत कुसुमाद्यैः स्वकीय मंत्रैः प्रपूजयेत्सर्वान,
सामान्य मंडल मित भूत समुचाटलं प्रोक्तं ॥९॥ फिर सबंको गंध, अदात. पुष्प आदि से अपने-अपने मंत्रों से सबका पूजन करे। यह भूतों का उच्चाटन करने वाला सामान्य मंडल कहा है।
दटौक द्वौक द्वयैक वटोकान पूर्वादि दिक्षु विनि युक्तान, कमसस्तान द्वादश विद्या मंत्रान हे लोक पालानात्म द्वारं ॥१०॥
रक्ष रक्ष दिव्य गंधं पुष्पं दीप धूपाक्षतं बलिंचस्कं,
गन्ह द्वय होमांतान स्वकीय मंत्रान् बुध प्राहु : ॥११॥ दो एक दो एक दो एक दो एक इन पूर्व आदि दिशाओं के क्रमश लगाये हुए बारह प्रकार के मंत्रों से हे लोकपालों स्वीकार करोइन दिव्य गंध पुष्प दीप धूप अक्षत बलि नैवेद्य आदि के होम को दो बार गृन्ह गृन्ह कहकर दो बार रक्ष रक्ष कह कर ग्रहण कहे ऐसा पंडित ने कहा।
ॐ हीं कौ क्षम्ल्यू झाल्यूँ स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे इंद्र एहि-एहि संवौषट आह्वाननं ॥
ॐ ह्रीं क्रौ धम्ल्यू हाल्वर्य स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपरिवार हे इंद्र अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ।।
ॐ हीं क्रौं क्षम्ल्यूँ हाल्ट स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे इंद्रम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा सन्निधिकरणं॥
ॐ ह्रीं क्रौ मल्ल्यू हम्ल्यू स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे इंदआत्म द्वारं रक्ष रक्ष इदं अटो पाद्यं गंधमक्षतं पुष्प दीपं धूपं चरुं बलिं फलं स्वस्तिकं यज्ञ भागं च गन्ह-गन्ह स्वाहा अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं भल्व्यू हाल्ल्यू स्वर्ण वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे इंद्र स्वास्थानं गच्छ-गच्छ जः जः जः विसर्जनं॥
ॐ ह्रीं क्रौ मल्च्यू रक्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे अग्ने तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥
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ॐ ह्रीं क्रीं ल्यूं रक्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे अग्रे मम सन्निहितो भव-भव वषट सन्निधिकरणं ॥
ॐ ह्रीं कौम्ल्यू रक्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे अग्रे आत्म द्वारं रक्ष रक्ष इदं मध्ये पाद्यं गंधं मक्षतं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं गृन्हगृह स्वाहा अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं क्रीं ल्यू रक्त वर्ण सर्व लक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे अग्रे स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः विसर्जनं ॥
ॐ ह्रीं क्रो म्म्ल्यू ल्च्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे यम एहि एहि संवोषट आह्वाननं ॥
ॐ ह्रीं क्रीं म्मम्ल्यू एल्ब्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार 43x fag-fag 3:3:3: Fanusi ||
ॐ ह्रीं क्रीं म्म्ल्यू एल्ब्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे यम मम सन्निहितो भव-भव वषट स्वाहा संनिधिकरणं ॥
ॐ ह्रीं क्रौ म्म्ल्यू ल्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे यम आत्म द्वारं रक्ष रक्ष इद मयं पाद्यं गंद्यं मंक्षतं दीपं धूपं चरूं बलिं फलं गृह-गृह स्वाहा अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं क्रीं ल्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे राम स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः विसर्जनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं राम्ल्यू हरितवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार नैऋते एहि एहि संवोषट आह्वाननं ॥
ॐ ह्रीं क्रीं रम्ल्यू हरितवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे नैऋते एहि - एहि संघोषट आह्वाननं ॥
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S5I050505865105 विधानुशासन VSTRASIRIDICTOISTD355
ॐ ह्रीं क्रौं रम्ल्व्य हरितवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे नैऋते अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठःठः स्थापनं ।।
ॐहीं क्रौं रम्ल्यू हरितवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे नैऋते मम सन्निहितो भव-भव वषट स्वाहा सन्निधि करणं ।।
ॐ ह्रीं क्रौं रम्ल्यू हरित वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे नैऋते आत्म द्वारं रक्ष-रक्ष इदं मर्दा पायं गंां अक्षतं दीपं यूपंचकं बलिंफलं गन्हगृह स्वाहा अर्चनं ।।
ॐ ह्रीं क्रौं रम्ल्यू हरित वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे नैऋते स्वस्थानं गच्छ-गच्छ जः जः जः विसर्जनं ।।
ॐ ह्रीं क्रौं एम्ल्यूँ इम्ल्यूँ श्वेत वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण प्लायव वान शझुचिन्ह सपिरवार हे वरुण एहि-एहि संवोषट आहवाननं ।।
ॐ ह्रीं क्रौं एम्ल्यूँ इम्ल्यू श्वेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वरुण तिष्ठ-तिष्ठठाठः स्थापनं ॥
ॐ ह्रीं कौं एम्ल्यूँ इम्ल्यूँ श्वेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वरूण सन्निहितो भव-भव वषट स्वाहा सन्निधि करणं ।।
ॐ हीं क्रौं एम्ल्यू झाल्यूँ श्वेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वरूण आत्म द्वारं रक्ष-रक्ष इदं मध्यं पाद्यं गंटां मक्षतं दीपं धूपं चरूं बलिं फलं गन्ह- गन्ह स्वाहा अर्चनं ।।
ॐ ह्रीं क्रौं म्ल्यू भल्यूं घेत वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वरूण स्वस्थानं गच्छ-गच्छ जःजःजः विसर्जनं ।। ॐह्रीं क्रौं रब्ल्यू कृष्णवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुधवाहनवधुचिन्ह सपिरवार हे वायो एहि एहि संवोषट आहवाननं ॥ SHOTTESTRASTRISCIEDIE5/५८२ PISIOTICISTRICKSTPISCES
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PSP59ST
55 विद्यानुशासन 9595
P5PSPS
ॐ ह्रीं क्रों रम्यूं कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वायो तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वायो सन्निहितो भव भव वषट स्वाहा सन्निधि करणं ॥
ॐ ह्रीं क्रीं रम्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वायो आत्म द्वारं रक्ष रक्ष इद मध्ये पाद्यं गंद्यं अक्षतं दीपं धूपं चरू बलिं फलं गृन्हगृह स्वाहा अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं मल्यू कृष्ण वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे वायो स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः विसर्जनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं ह्य् म्ल्यू इम्ल्यं समस्त वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे धनद एहि एहि संवोषट आह्वाननं ॥
ॐ ह्रीं कों उम्ल्यू ठुम्ल्यूं समस्तवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे धनद तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥
ॐ ह्रीं क्रीं छम्ल्यू व्ल्यूं समस्तवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे धनद मम् सन्निहितो भव भव यषट स्वाहा सन्निधिकरणं ।।
ॐ ह्रीं क्रौ छम्ल्यू ठुम्ल्यू समस्त वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे धनद आत्म द्वारं रक्ष रक्ष इद मध्ये पाद्यं गंधं अक्षतं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं गृन्ह - गृह स्वाहा अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौ छम्ल्यू ठुम्लयूं समस्तवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे धनद स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः विसर्जनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं कल्यू वेत वर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे ईशान एहि एहि संघोषट आह्वाननं ॥
Pちこちから559525443 P5555555
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CASIOI50151215101505 विधानुशासन PASICISIOI5015125IONS
ॐ हीं को म्ल्यू श्वेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह मपिरवार हे ईशान तिष्ठ-तिष्ठ ठाठः स्थापनं ॥
ॐ ह्रीं क्रौं म्ल्यू शेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे ईशान सन्निहितो भव-भव वषट स्वाहा सन्निधि करणं ।।
ॐ ह्रीं क्रौं ठल्च्यू श्वेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायुध वाहन वधु चिन्ह सपिरवार हे ईशान आत्मद्वारं रक्ष-रक्षइद मध्ये पाद्यंगंध अक्षतं दीपंधूपंच बलिंफलंगृहगन्ह स्वाहा अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं कौं व्ल्यू श्वेतवर्ण सर्वलक्षण संपूर्ण स्वायध वाहन ता तिल्ल सपिरवार हे ईशान स्वस्थानं गच्छ-गच्छ ज जजः विसजनं ।।
इति सामान्य मंडलं
॥अथ सर्वतोभद्र मंडल कथ्टाते।। रेवां चिंतयेन नटोन परस्पराग्र विरेन पंच वर्णेन,
चतुरस्त्रमष्ट हस्तं सविस्तरं मंडलं लिरवेत् ॥१२॥ एक आठ हाथ के चौकोर विस्तृत मंडल को पांच वर्ण की तीन रेखाओं से जिनका अग्र भाग आपस में बिंधा हुआ हो बनाये।
चतुसृषु दिक्षु द्वे द्वे रेवे दद्यात् त दद्ध परिमाणे, एवं सतिषट्स्रष्टा दिक्षु विदिक्ष्वपि च चत्वारः
[॥१३॥ चारों दिशाओं में दो दो रेखा आधे परिमाण में बनावे । इस प्रकार दिशाओं में छ: कोठे और विदिशाओं में चार कोठे हो जायेंगे।
आभ्यंतराष्ट दिग्गत कोष्टेष्वध मातृका गणं विलिरवेत्,
सनिजा सनया स्वायुध स रहिताः प्रतिहार्यः शेष कोष्टेषु ॥१४॥ विदिशाओं के अन्दर के आठ कोठों में मातृका गण उनके आसन सहित लिखें और शेष कोठों में उनके प्रतिहार्यों को लिखे।
0510151015195510550525५८४ DISEASTRISHIRIDICTI5DIST
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0501510652I5DIST25 विधानुशासन 95DISTOTHRISTOISTRIES
ब्राह्मणी माहेश्वरी कौमारी वैष्णवी चैव वाराही, ऐंद्री चामुंडा च महालक्ष्मी मातृकाश्चेताः
॥१५॥ ब्राह्मणी माहेश्वरी कौमारी, वैष्णवी, वाराही ऐंद्री, चामुंडा और महालक्ष्मी यह आठ मातृका है।
वर पद्म राग शशिधर विद्वम नीलोत्पलेटुनील, महाकुलशैल राजवातार्क हंस वर्ण क्रमेणेताः
॥१६॥ इनके रंग क्रम से सुंदर पदम राग (लाल),चन्द्रमा मूंगा, नीलकमल ,इन्द्र नील मणि सुमेरु पर्दत बाल सूर्य और हंस जैसा है अर्थात् प्रत्येक देवी को क्रम से इनके समान रंगाली बनावे।
नीरज वृषभ मयूरा गरूडवराहौ गजस्तथा,
प्रेतः मूषक इत्येते सांप्तोकतानि सुबाहनानि बुधः ॥१७॥ पंडितो ने इनके वाहन क्रम से कमल, बेल, मोर, गरुड, वराह, ऐरावत, हस्ती प्रेत और चूहा बतलाया है।
कमल कलशौ त्रिशूलं फल वरद करौ च क्रमथ,
शक्ति पाशौ वजं च कपाल कार्तिक परशु शस्त्राणि ॥१८॥ इनमें से ब्राह्मणी के कमल और,कलश, माहेश्वरी के त्रिशूल, कौमरी केफल और वरद हाय (वर को देने वाला), वैष्णवी का चक्र, याराही का शक्ति और पाश, ऐंद्री का वज़, चामुंडा के कपाल और बत्ती (दीपक) और महालक्ष्मी का परशु अस्त्र है।
तत् प्रातिहार्योथ जया विजयाप्यजिता पराजिता,
गौरी गंधारी राक्षस्यथ मनोहरी चेति दंडकाराः ॥१९॥ इनके पीछे चलने वाली क्रम से जया,विजया,अजिता,अपराजिता, गौरी, गांधारी, राक्षसी और मनोहरी यह आठ प्रतिहारी दंड करनेयाली देवियाँ हैं।
वाह्ये अष्ट दिग्गतैष्यथ कोष्टेष्विद्रादि लोकपालास्तान,
निजवाहनादिरूठान स्वायुधवर्णादि युतान विलिश्वेत ॥२०॥ अब दिशाओं के बाहर के आठ कोठों में इन्द्रादि लोकपालों को अपने -अपने वाहन पर चढे हुये शस्त्र और वर्ण सहित लिखें।
तदुभव पाश्वाधिष्टित कोष्टेष्यिद्रांदि लोक पालानां,
मेश महामेट ज्याल लोल कालास्तथ्या नीलः ॥२१॥ SODEOSDISISTERISTRISTOT5/५८५ PIRRISTRISTRISTOTHRISRIES
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SHIOISTICISIST51250 विद्यानुशासन ADICTICISTRISTOISCIEN
रौतातिौट सकालांजलाहिमकामाचल स्तथा ललितः
द्रौ द्वौ च महाकाली नंदीति लिखेत् प्रतिहारौ ॥२२॥ उन इन्द्र आदि लोकपालों के पास के कोटो में ही उनके दोनों तरफ दो-दो प्रतिहारों को बनाये जो . क्रम से इसप्रकार है। सोलह प्रतिहार मेघ-१, महामेघ-२, ज्वाल-३, लोल-४, काल-५, स्थिति-६, आनिल-७. रौद्र-८, महारौद्र (अतिरोद्र)-९, सजर १३,लुलित-१४ महाकाल-१५ और नन्दी-१६ । इन प्रतिहारों को लिखे।
वहिरप्यु दथि चतुष्कं पुनरूपरसु सु पुष्प मंडपं लिखेत, तोरण माला दर्पण घंटा प्वज विरचतां कुयात् ॥२३॥
वर बीजपूर वंदनान मलयज कुसुमाक्षतार्चितान धवल वर्णन,
कोणस्थ मूसल मूर्द्ध सुपूर्ण पाटान स्थापटोद् विधिना ।। २४ ॥ बाहर चारों समुद्र फिर ऊपर फूलों का मंडप बनावे और उसको तोरण, माला, दर्पण , घंटा और ध्वजाओं से सजाये। फिर सुंदर विजोरे चंदन, लाल चंदन और अक्षत फूलों से पूजे हुये धवल वर्ण के मुख तक भरे हुये घडों को उनके ऊपर मूशल रखकर, कोणों में रखकर उनकी विधिपूर्वक स्थापना करे।
मंडल मध्ये भूतं विलिरव्य संस्थाप्य मन्मयं चान्यात, मंडल वाहोप्य आग्रेयादिषु कोणेष्वनु कमशः ॥२५॥
कुर्यात् तिकोण कुंड क फलिका कटह वृत्त कुंडानि,
रवदिरा गारक तैल सु पानीयां गार पूर्णानि ॥२६॥ मंडल के मध्य में दूसरे मिट्टी के बने हुये भूत को लिखकर, मंडल के बीच में आग्नेय आदि कोणों में क्रम से तीन कोणे वाले कुंड बनावे। इन कुंडों के चारों तरफ कफलिका और कढ़ाही रखी हो और वह खैर के अंगोरा तेल, जल और अंगारों से पूर्ण हो।
ग्रह जाम वृतं रेफैः पत्रै प्रविलिरव्य निक्षिपेत हदटो,
पिष्ट पटितस्ट सि कवकमयस्य वा भूत रूपस्य ॥२७॥ फिर पत्ते पर ग्रह का नाम लिखकर या भूत का रूप लिखकर और उसके चारों तरफरकार लिखकर जो पिसे हुये मोम से लिखा हुवा हो उसे बनाये हुये वाह के या भूत के हृदय में रखें।
अन्य च ग्रह रूपं पत्रे च पटे पथक समालिव्य रूप, रूपस्य तस्टा संधिषु रकार पिंडं लिखेन्मति मान ॥२८॥
COSTRADIOKARISTRIDIOX505/५८६ PISCIDIOSCIRIDISCREDIEN
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PSP595959
विद्यानुशासन 259597 めですです
फिर ग्रह के दूसरे रूप को पत्ते और वस्य पर पृथक-पृथक लिखकर बुद्धिमान पुरुष उसकी संधियों रकार पिंड़ लिखे ।
नाभौ क्लीं हृदये चहीं सिरसि च द्रीं पादयोः
श्रीं गुदे द्रां क्रौं मूर्द्धन्ज रुद्रं म कुशम घोट चो परि ब्लूं शब्द गले हेर्य जानुन्यति निरुद्धम मलं पाशरचनं कर्णयोः रु दश शब्द को स्तनौ च परं भूता कृतौ विन्यसत् सम्पूर्ण प्राणी की आकृति को कानों, जंघओ, शब्द समूह और शरीर में निम्नलिखित क्रम से बीजों को रखे।
॥२९॥
॥ २९ ॥
नाभि में क्लीं, हृदय में ह्रीं, सिर पर द्रीं, दोनों पाँचो में क्षीं, गुदा स्थान में द्रां मूर्द्धन अर्थात् मस्तक में क्रौं आं, अधो स्थान में खूं, ऊपर ब्लूं, गले में र्यं, घुटनों में अं और टं, दोनों कानों में टं 'तथा आं, दोनों जांघों में भूत का आकृति में र सर्वत्र लगाये ।
कुंडे प्रपूर्येता कफलिकायां पचेच पुतलिका, पत्र कपठहि परि घट्टयेत्पटं तापयेत्कुंडो
11 30 11
सततमथ होम मंत्र प्रपठन्तिति निग्रहेषु विहितेषु, दग्धोस्मि मारितोहं हंतोऽहं मिति रोदिति कठोरं ॥ ३१ ॥ फिर कुंड में कफलिका डालकर उस पुतली को पकावे और पत्ते को कढाही में घोटे तथा वस्त्र को कुंड में गरम करे | इसके पश्चात् निरंतर होम करके मंत्र पढता हुआ इसप्रकार निग्रह किये जाने पर ग्रह पुकारता है कि जला, खूब चोट लगती है, मैं मरा कहकर खूब रोता है।
प्रागेव सप्त दिवसान त्रिन्वा लोक प्रसिद्धि लाभांर्थ, प्रविवृर्त्तये गृहं मंडलाद्विना स्वेच्छाया मंत्री पश्चात् सप्तम दिवसे तृतीयेऽथवा महत्यस्मिन, विधिनैव सर्वतोभद्र मंडले सौ विसुर्जः स्यात पहले सात दिन या ठीक तीन दिन लोक में प्रसिद्धि पाने के लिये मंत्री पुरुष ग्रह को खूब नचावे । फिर सातवें दिन या तीसरे दिन उसको सर्वतोभद्र मंडल में विधिपूर्वक नचाकर मंडल का विसर्जन करे ।
॥ ३३ ॥
P5PS
259595५८७ PSP59695959595
॥ ३२ ॥
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0505121SOTRIOTIST015 विधानुशासन 50ISDISTRI521525
कृष्णाष्टम्या मथ तदभूत तिथौ कुजांशाभ्युदटो,
दुष्टगृहम शुभ ग्रह लगे प्रविसर्जोज्ज्ञ |॥३४॥ कृष्ण पक्ष की अष्टमी को या उस भूत की तिथि को अथवा मंगल के निकलने पर उस दुष्ट ग्रह को अशुभ ग्रह और अशुभ लग्न में छोड़े।
इति सर्वतो भद्र मंडलं
अथ समय मंडलं विपुलाष्ट दलं पद्म विलिरव्य बाटस्य पंचवर्णेन,
चूर्णन चतुष्कोणं दिलीप मंडलं चिलिरवेश आठ दल वाले बड़े कमल को लिखकर उन पांचों रंगों के चूर्ण से चौकोर बड़ा मंडल बनाये।
हरिन वराह तुरंगम गज गोवषभ महिष करभ मारि मुरवं,
फल वरद हस्त युक्तं सालंकार सलक्षणं नारीणां ॥३६॥ फिर हिरण, वराह, घोडा, हाथी, गाय, भैंस बैल, करभ (ऊँट) और बिल्ली के मुख तथा फल और वर को देने वाले हाथ सहित अलंकार सहित स्त्रियों के सुलक्षण है।
पूर्वाधष्ट सुपत्रेषु अनुक्रमात् सुदंर लिरवे दूपं, तन्मध्ये षट्कोणं शिरिवं भवनं ससिरव भालि
॥३७ ।। पूर्व आदि आठों दलों पर सुंदर रूप से लिखे। उसके बीच में एकस्य छ: कोण वाला मोर का भवन बनाकर उसमें मोर बनावे।
उर्दाधो रेफ युक्तं यां यी यू यों तथैव यं याः सहितं,
पूर्वादि कोष्ट मध्ये विलित्य वामे तदगेषु ॥३८॥ ऊपर और नीचे रकार सहित यां यी यूं यों यः बीजों को उनको दिशा से आरंभ करके बाईं तरफ को लिखे।
. षट्कोण भवन मध्ये गुंतत्काष्टां तरेष्वपि लिखे च, समयं ग्राहि तव्यो ग्रहः स्फुटं समय मडलारव्येस्मिन् ॥३९॥
षट्कोण भवन के भीतर और उस कोटे के भीतर भी यू लिखे। यह से पकडा हुआ समय मंडल में प्रकट हो जाता है, अतःएव यह समय मंडल है।
CHRISTOTSTOTRIOTSTORTO51५८८ PSIOSSIPTSDISTRI52525
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95959595PSPS विधानुशासन 259595296959
अति समय मंडलं
रेखा त्रयेपासम्यक चतुरस्तं पंचवर्ण चूणेन, प्राग विद्विलिरा मंडल मध्ये शिवं विलिख्येत्
तीन रेखाओं से पहले के समान पांच वर्ण के चोकोर मंडल बनाकर उसके बीच में शिव में लिखे ।
तत्राभ्यंतर दिग्गता कोष्टेषु जयादि देवता विलिख्येत्, गौर्यादि देवता स्ताश्चै शानाद्येषु कोष्टषु
आया जयाथ विजया तथा जिता पराजिता गौरी गांधारी राक्ष्स्यथ मनोहरी चेति देव्यास्ता
|| 80 ||
॥ ४१ ॥
उसके अन्दर के आठों कोठों में जया आदि देवियों के नाम लिखे और ईशान आदि कोठो में गौरी
आदि देवियों के नाम लिखे । इनमें पहले जया, , फिर विजया, फिर अजिता, फिर अपराजिता, दिशाओं में लिखे फिर विदिशाओं में गौरी, गांधारी, राक्षसी और अंत में मनोहरी देवी का नाम लिखे ।
अथ तद्वाह्यावरण स्थितेषु कोष्टेषु तान विलिखेत, कादीन मांतान क्रमाचतुर्विंश तीन वर्णान सत्यारव्ये मंडलेऽस्मिन् ग्रहावेश यितव्यो सत्यं
॥ ४२ ॥
फिर उस सत्य
मंडल के बाहर के भाग के कोठो में क आदि ३४ वर्णों की मंत्रिकाओं को क्रमशः लिखे इस सत्य नाम वाले मंडल में ग्रह अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं।
इति सत्यं मंडलं
मान स्तंभा सरांसि इति सूत्र क्रमेण समव सृमति,
मंडलं पश्चात् ऐवं नवग्रह देवता विलिखेत्
॥ ४३ ॥
मान स्तंभ तालाब इत्यादि सहित समवशरण मंडल को शास्त्र के अनुसार लिखे। इसके पश्चात नव ग्रह देवताओं को लिखे।
इंद्रादि लोकपालान् मंडल पूर्वादिक्षु संलिख्टा, मध्ये चाऽर्हत्प्रतिमा मन्योन्यारी न मृगान्परितः
9595250 251/52514 P5252525252525
॥ ४४ ॥
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05015251525125 विधानुशासन 8505051215201551ST इन्द्र आदि लोकपालों को मंडल के पूर्व आदि दिशाओं में लिखे, मध्य में श्री भगवान अरहन्त देव की प्रतिमा लिखी हो जिसके चारों तरफ मृग, शेर आदि विरोधी पशु हो।
एतत क्रियावसाने प्रदर्शयेत समवशरण मंडलं मतुलं नत्वा वीरं प्र विहाय वैरं सटाति द्दष्टवे
॥४५॥ इस क्रिया के पश्चात् अतुलनीय समवशरण मंडल को बनाकर दिखावे । वह ग्रह महावीर भगवान को व इस समवशरण मंडल को देखकर नमस्कार तथा स्तुति करके बैर को छोड़कर चला जाता
॥ इति समवशरण मंडलं।
भूतानुकंपनतेल पूर्तिक शुकतुंडिका खलु शुक तुंडिकाक तुंडिकाचैव, सित किणि हि काश्व गंधा भूकूष्मांडिद वारूणिका ॥४६ ।।
पूति दमनोग्र गंधा श्री पर्ण्य जगधं कुटज कुकरंजा,
गो अंगी श्रृंगी नागं सर्प विर्ष मुष्टिं का जीरा ॥४७॥ पूतिक, शुक, तुंडिका काक तुंडिका, सफेद किणि, हिका, असंगध ,भूमि का कोहला, इन्द्र वारूणि पूति दमन उय गंधा ,श्री पर्णी, असंगध, कूडा ,कडवा करड, गो श्रृगी, काकड़ा, सींगी नाग दोन सर्प विष मुष्टिक, अंजीर, इलायची ,वचा ,भद्र ,पर्णी, वरवरी, कुटकरंजा ,काकडा श्रृंगी ,कुचिला इत्यर्थ
नीली सद्चकांकित रखरकर्णी गोक्षुरश्च विष वकुली,
कनक वराहं कोला चा स्थि प्रसूनश्च लज्जरिका ॥४८|| नीली रूत चक्रांकी स्वरकी गोखरू विष वकुली (मालश्री की छाल) कनक (धतूरा) बराही कंद अंकोल की गुठली और फूल लजालू
गर्वाकं मदन तरू बिभति तरूरपि च काक जंया च,
वंध्य च देव दारू च वहती द्वितीयं च सहदेवी ॥४९ ॥ पाटली मदन का पेड़, बहेड़ा, काक, जंघा (सूरजमुखी) बांझ, ककोडा, देवदारू, दोनों कटेली सहदेवी
गिरी कर्णिका नदी मल्ली काक शिला कंक हस्ति।
की च स्नूही निंब महा निंब शिरीष लोकेश्वरी धान्यो ॥५०॥ SSIOISTOTSITE5I0510525/५९० PTSDISTPISIRISTOT5125IOSI
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PAPSPSPA 55X विधानुशासन 25P/59
おどろどろ कोयल बूटी, नदी, मल्लिका, अर्कशैल, हस्ती कर्ण थोहर नीम बकायण सिरस लोकेश्वरी धान्य
पारीत महावृक्षौ कटुका हारोपयोगी मूलानि, सित रक्त जया दंडी ब्राह्मीन्यथ कोकिलाख्यश्च
1148 11
हारसिंगार, महावृक्ष, कटुक हार, • उपयोगी जड़ सफेद और लाल जया दंडी ब्राह्मी और ताल मखाना
भृंगश्च देवदाली कटु तुंबी सिंह केशरी योषालिका, अर्क भक्तो यति मन्यति मुक्तक लताश्च
॥ ५२ ॥
भांगरा, देवदाली, कड़वी तुंबी, सिंह, केशर, द्योषालिका, अर्कभक्ति (सूरजमुखी) यति लता मुनि लता अति मुक्तिकलता
भंग पुष्प नागकेशर शार्दू लनरवीश्च पुत्र जीवीश्च, सिगुश्च तथेरं स्तुलसी संध्या अपा मार्गश्च
॥ ५३ ॥
करिकर्भ रवि चूर्णत वृषणोष्ट छाग मुत्र मिश्रेण, तच्चम्मं कार कुंडां बुनौषध पेषयत् सर्व
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भंग पुष्पी, नागकेशर, शेर के नाखून, जीधिपूता, सहजना, ऐरड, तुलसी, संध्या, आधी, गजमद, अर्कपुष्पी इन सबका चूर्णकर बैल ऊँट बकरी का मूत्र मिलाकर इन सब औषधियों को चमार की कुंडी के पानी से पीसे ।
कृत्वा द्विभाग में कांन्यस्य काथं प्रगूह्यतैः मूत्र :, अर्धावर्तः कार्थ द्वितीय मालोढयेत् भागं
॥५५॥
उसके दो भाग करके एक भाग क्वाथ मूत्र के साथ तैयार करे और आधे भाग में दूसरे भाग को डुबो देवे ।
कंगु करंज एरंडाकोल विमद्विनिंब तिलतैलं, समभागेन गृहीतं काथेन समंक्षिपेत कोथ
॥ ५६ ॥
मालकंगनी, करंज, इरंड को पीसकर अंकोला, नीम और बकायण व तिल के तेल को बराबर लेकर क्वात के साथ काथ में ही डाल दे ।
नोट :- ( लोक में विमर्द्धि के साथ पर विभीत द्वि शब्द भी हो सकते हैं तब इसका अर्थ मिलावे और दोनों नीम अर्थात् नीम और बकायण होंगे । )
959595959
[५९१ P/59595959SPSP5
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eSPS
विधानुकर
भूत ग्रह भूत दिने भूत महिजात मंडप स्याऽधः, कुजवारे भौमांशाभ्युदये प्रारभ्यते पक्तुं
।। ५७ ॥
भूत के ' घर में भूत के दिन 'भूत' की पृथ्वी पर अर्थात् श्मशान में मंडप के नीचे मंगलवार को मंगल ग्रह के उदय होने पर पकाना प्रारम्भ करे ।
कर्पास कंस गोमयरविकर विनिपतित वह्निना सम्यक,
खदिर कंरजार्क शमी निंब समिद्भिः पंचेदेमिः
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उस क्वाथ को सूर्य की किरणों से और कपास कांस गोवर करंज आक खेजडा नीम की लकड़ी की अग्रि से अच्छी तरह पकावे ।
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क्षिप ॐ स्वाहा बीजैः सकलीकरणं विधाय
निज देहे तैरेव बीज मंत्र: पक्तुः सकली क्रियां कुर्यात् ॥ ५९ ॥
क्षिप स्वाहा इन बीजों से अपने शरीर की सकली करण क्रिया करके उन्हीं बीज मंत्रों से पकाने की क्रिया करे ।
तत्सर्व धान्य सर्षप लवण धृतैः रिधनान्वितैश्रूल्यां
आपां कांता-मंत्री होमं कुर्यात्सु होम मंत्रेण ॥ ६० ॥
मंत्री पुरुष उस तेल के पकने तक होम के मंत्रो से सब धान्य सरसौं नमक धृत को होम कुंड में डालकर होम करता रहे।
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हिंगुर्मनः शिलैला हरिताल फल त्रिकं कटु त्रितयं रजनी द्वितीयं सर्षप लसुनं द्राक्षाद्रि धान्य वचा
निरस भावं गत्वा छाथोथा स्तंगतो यदा, भवति भूताकंपन तैलंमृदुपाक गतं तदासिद्धिं
॥ ६१॥
जब यह क्वाथ नीरस होकर तेल मात्र रहकर जमीन पर रखने जैसा हो जावे तो यह मृदुपाक से बनाया हुआ भूता कंप तेल तैयार होकर सिद्ध हो जाता है।
॥ ६२ ॥
अजमोद लवण पंचकमरिष्ट फल मुदधि फलम् त्रिवृता एतानि प्रति पाके दधादुत्तारित तैले
॥ ६३ ॥
हींग, मैन, शिल, इलायची, हडताल, हरड़े, बहेड़ा, आँवला (फलत्रिक) सोंठ, मिरच, पीपल, ( कटु त्रितयं) दोनों हल्दी (हल्दी और दारु हल्दी) सरसों, लहसुन, मुनक्का आदि (रुद्राक्षादि शब्द होने 9595953 487 V5252525259595
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15015015015DISIOS विद्यानुशासन 9851015IODSIONSDISIOS पर रुद्राक्ष) सर्व धान्य वच ,अजमोद , नमक, पांचो और अरीठा का फल समुद्र फल (निवृता) निसोथ इन सब वस्तुओं को प्रत्येक को पाक के साथ तेल मिलावे।
पश्चात् सद रावण विद्या मंत्रेण मंत्रोत् मंत्री, दश शत वारानैवं विधिना तैलं सुसिद्ध स्यात्
॥६४॥ फिर मंत्री उस तेल को खड़गै रावण विद्या मंत्र से एक हजार बार विधि पूर्वक अभिमंत्रित करे। अब यह तेल पूर्ण रुप से सिद्ध हो गया है।
शाकिन्यो पस्माराःपिशाच भूत महापचनशांति.
निर्विषतां याति विष तैलस्या भ्यंग नस्येन् ॥६५॥ इस तेल की नस्य की सुगंध से ही शाकिनी अपस्मार पिशाच भूत और अन्य ग्रह नष्ट हो जाते हैं और निर्विष हो जाते हैं।
विशालाटाः फलं पक्ष मेकं गोमूत्र भावितं. नसि दात हरेदब्रह्म राक्षसादि महा ग्रहान्
॥६६॥ इंद्रायण के फल को पंद्रह दिन तक गोमूत्र की भावना दे उसकी नस्य देने से ब्रह्म राक्षस आदि बड़े बड़े शह नष्ट हो जाते हैं।
सितांग कर्णिका मूलं तांबूलोदक कल्पितं,
सतंन सिन्यस्त स्याद् भूत ग्रह विनाशनं ॥६७॥ सफेद रोहिडा में ठासिंगी की जड़ को पान के रस में बनाये हुये कल्क में घृत सिद्ध करके सूंघने से भूत और ग्रहों नष्ट हो जाते हैं।
व्योषा जमोद भूतध्वस्ति मूत्रेण कल्पितैः, कृत मुच्चाटयेदाशुना वनं निस्रिवल ग्रहान
॥ ६८॥ व्योष (सोंठ मिरच पीपल) अजमोद लहसुन को वस्ति के मूत्र में पकाये हुये कल्क को सूंघने से जंगल के सभी ग्रहों का उच्चाटन होता है।
कष्णा मरीच गोपित्त सैंधव रंजनं दशोः, भवेत् भूत ग्रह ब्रह्म राक्षसादि निवर्हणं
॥६९॥
CHECISISTORICEICIDC5५९३PISOTECISIOTICISCERIES
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050150151015015055 विद्यानुशासन 650150150151055015 काली मिरच, गोपित (गोरोचन) सेंधा नमक का, आंखो में अंजन करने से भूत ग्रह ब्रह्म राक्षस आदि नष्ट हो जाते हैं।
पुष्पैः पुष्प फला लाबुभिव्या कल्पितया कता,
कालिका लोचनां का स्याद भूत ग्रह विनाशिनी ॥७० ।। पुष्प सार (सहद) पुष्प फला (कैथ) अलाबु तुम्बी के कल्क की बनाई हुयी गोली को पानी से घिसकर आंखो में लगाने से भूत ग्रह नष्ट हो जाते हैं।
मरीच कृष्णा पुष्पाभ्यां स्तेनेयोर जनादथ, पुनर्नवा समूलन स्यात्सर्व ग्रह निग्रहं
॥७९॥ मिरच (कृष्णपुष्प) कालाधतुरा का आंखो में अंजन करने से तथआपुनर्नवा (सांठी) (विसख्खपरा) की जड़ सहित आंखो में लगाने से सहजष्ट हो आते हैं।
धूपो द्वि हिंगुर्मगधा वीर्हः द्विप नरवै ग्रंहान, हन्याद गवलं मार्जार गोसर्प मल संयुतै
॥७२॥ धूप, दोनों हींग, मगधा (पीपल) मोर तथा बधेरे के नख ,गबल जंगली भैंस का सींग ,बिलाय गाय तथा सांप के मल को मिलाकर इस धूप को देने से ग्रह नष्ट हो जाते हैं।
अज गव्य जल स्नेहात् कुनटी विश्व भेषजैः, धूपो कृतो हरत्याश वलिनोपि महा ग्रहान्
॥७३॥ बकरी का मूत्र, गव्य जल (गाय का मूत्र) स्नेह (बकरी और गाय का धृत) कुनटी (मेनसिल) विश्व । भेषज (सोंट) की धूप महा बलवान ग्रहों को भी शीघ्र नष्ट कर देती है।
निर्माल्य शिला गुगल निंबाविदुं दले हिंगु राजि धृतः,
अज पशु रोम युतैः सद्भूपैः संध्यात्रये गृह जित् ||७४ ॥ शिवजी का घढ़ावा शिला (मेनसिल) गुगल नीम आय (सुंगधवाला) इन्दु दल (चंदन) हींग राजि (राईया सफेद सरसों) द्यूत और बकरी और गाय के पूँछ के बालों की धूप प्रातः दोपहर तथा सांयकाल के समय देने से ग्रह जीते जाते हैं।
मंजिष्टा द्विनिशा कु चंदन वचा हिंगु प्रियंगु द्रुमाः,
व्योषाररावध राजिका रविवरा स्मांडी कषाय काजास्थि भिः॥७५ ॥ SSCISIOTSIDHIDISTRI5T035/५९४ P150525105ICISCISCESS
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पिष्टैराज जलेन हंति रचितावर्तिः समस्तान ग्रहान, स्नानोद्वर्त्तन पानलेपन विधौधूपे च संयोजितं
॥ ७६ ॥
मंजीठ दोनों हल्दी, कुचंदन (लाल चंदन) वच, हींग, प्रयंगु (फूळ प्रियंगु का वृक्ष) व्योष (सोंठ मिरच पीपल) आरग्वध (अमलतास) सफेद सरसों, रवि (आक) वरा (त्रिफला) अस्म (शिलाजीत ) अंड (एरंड की इडोली) करंज की गुठली, अजजल (बकरी का मूत्र) के साथ पीसकर बनायी हुयी बत्ति सब ग्रहों को नष्ट कर देती है । इसको त्रान उबटना पीने तथा लेप औप धूप के द्रव्यों में भी मिलाना चाहिये ।
सहज कुलजो पदेशिका भेदास्त्रि विद्या भवंति शाकिन्याः,
सहजाः स्वभाव जाताः कुल संतत्वा गतः कुलजाः ॥७७॥
शाकिनी तीन प्रकार की होती है- सहजा, कुलजा उपदेशिका स्वभाव से ही होने वाली को सहजा कुल संतति आती हुयी को कुलजा कहते हैं।
सिद्धोपदेशिका इति तथैव मंत्रोपदेशिका प्रतिताः, द्विविधा स्तत्रेक्षणिका प्रथमाया वचनतः सिद्धिः
।। ७८ ।। ।
उपदेशिका शाकिनी सिद्धोपदेशिका और मंत्रोपदेशिका के भेद से दो प्रकार की होती हैं। इनमें से पहली को इक्षणिका भी कहते हैं। उसकी केवल वचन ही से सिद्धि हो जाती है।
साधन विधिना सम्यक् तर मूले मातृकार्चनं कृत्वा, कृष्ण चतुर्दस्य निशि कथयत्युपदेशितं मंत्र
॥ ७९ ॥
वृक्ष की जड़ में अच्छी विधि से मातृका देवी की साधन विधि से पूजन करने से कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात को उपदेश दिये हुए मंत्र को कहती है।
दूर श्रवणं दूरालोवकनं दूर भूमियानमपि सहज, कुलजे क्षणिका नां सद्भावो जायते तांसां
॥ ८० ॥
दूर से सुनने दूर से देख ने और दूर के स्थान पर चलने को भी सहजा, कुलजा और इक्षणिका समान रूप से जानती है। इसी से इनकी परस्पर सद्भाव रूप समानता है। असृग्यांसमेदः प्रियाक्षुद्रबोधाः सदा मातृका पूजनारंभः चित्ताः ललाट त्रिशूलानो नेत्राः स्वरूपं भवेत् इद्धशां शाकिनीनां
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शाकिनी का स्वरूप यह है कि वह रक्त मांस और चरबी को पसंद करने वाली, कम ज्ञान वाली, सदा देवी के पूजन आरंभ में चित्त रखने वाली और मस्तक पर त्रिशूल वाले शिवजी के अग्रि रूप वाले नेत्र के समान नेत्र वाली होती हैं।
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बद्धाः जलस्य मप्टोक्षिप्ता या तरति शाकिनी सैवः।
न तरति तत्र निमग्रा शृद्धा सा शाकिनी न स्यात् ॥८२॥ जो बांधकर जल में डाली जाने पर तिरकर निकल आये यह शाकिनी होती है और जो उस जल में पडकर नहीं तिरे वह शुद्ध शाकिनी नहीं होती है।
सोमाशाश्रित मूलं कपि कच्छोर्गो जलेन संपिष्ट,
निज तिलक प्रतिबिंब तत्पश्यति शाकिनी शीर्ष ॥८ ॥ दक्षिण दिशा में उगी हुयी काँच की जड को गोमूत्र में पीसकर तिलक करने से शाकिनी उस तिलक में अपने सिर के तिलक के प्रतिबिम्ब को देखती है।
गहणाति क्षणिका जंतु छिद्रं प्राप्य विनेच्छया, विमनस्कं ज्वराक्रांतं दृष्टं भीतं हंत मृतं
॥८४॥ इक्षणिका शाकिनी विना इच्छा के ही छिद्र पाकर अन्य और मन वाले ज्वर से पीडित दिखाई देने वाले डरे हुये मारे हुये अथवा मरे हुए को भी पकड़ लेती है।
शाकिनीभिर्गही यस्ताभिः पाप वशानरः, आत्मानं सन जानति पत्कारोति न जल्पति
॥८५॥ जो पुरूष अपने किसी पाप के वश से शाकिनी से पकड़ा गया हो यह अपने आपको नहीं पहचानता है और न बात करता है केवल जोर जोर से चिल्लाया करता है।
भक्षितोध हतो वा हमिति तूते सदैव, स पुंसी रूप मिव स्वांगे वेदनास्ति न रोदति
१॥८६॥
बाप्पांबु वहतो नेत्रे भीति द्वारं निरीक्ष्यते, नेक्षते मंत्रिणो वकं प्रक्षते गगनं मुंहः
॥८७ ॥ यह सदा यही कहा करता है कि मुझे खा लिया, मैं मरा आदि उसके शरीर में पुरुष अथवा स्त्री रूप के समान भी कष्ट और वेदना रहती है किन्तु उससमय वह नहीं रोता है। उसके मुंह से भाप और आँखो से आँसू बहते रहते हैं। वह डरा हुआ द्वार की तरफ देखता है यह मंत्री के मुख की तरफ नहीं देखता है और बार-बार आकाश की तरफ देखता है। COSEISEISRIDIOS0150151५९६ P151215015015095100505
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जप मणिरूद्ध खांतोरेफांतो रेफ कारण विंदुना सांतः, प्रणवादि फट् विरामो विज्ञयो मूल मंत्रों सौ
॥ ८८ ॥
जप की मणि पर आदि से प्रणव (3) फिर सांत रेफ कारेण बिन्दुना (हां) फिर खांतो बीज (ग्रां) फिर सांत (हं) उकार और बिन्दु सहित अर्थात् हुं और अंत में फट् को विराम वाला मूल मंत्र जाना जाता है ।
ॐ ह्रां ग्रां हुं फट्
प्रेतदीनेप्रेत गृहे जप्ते नायुत मनेन निशि पूर्व, शाकिन्योदनिग्रह वश्याकष्टं बुधः कुर्यात्
॥ ८९ ॥
रात में भूत के दिन (मंगलवार) को भूत के घर में ( श्मशान में ) दस हजार जप करे, पंडित पुरुष इस मंत्र से शाकिनी आदि ग्रहों का निग्रह वशीकरण और आकर्षण करता है।
अत्राटिते च मुशले रोदति रक्षा कृतेपि संघर्षः, मुंचति पात्रं क्षिप्रं मालाया मूल मंत्रेण
॥ ९० ॥
फिर यह ग्रह रक्षा करने पर भी मशूल के मारने जैसा रोता है और माला मंत्र के जपने से शीघ्र छोड़ देता है।
ॐ ह्रां ग्रां हुं फटिति प्रजप्त राव बीज वाजिगंधांभ्यां अत्राटित मति दुष्ट जहती क्षणिकाः क्षणात् साध्यं
॥९१॥
. इस मंत्र से जपे हुए जो और असगंध को पात्र के ऊपर फेंकने से अत्यंत दुष्ट इक्षणिका तुरन्त ही साध्य को छोड़ देती है।
ॐ णमो भय वदो अरिणमिस्सामिस्स अरिद्वेण बंधेण बंधामि रक्षसाणं भूताणं वाराणं चोराणं डायाणीणां शायिणीणं महोर गाणं बध्धाणं सिहाणं गहाणं अणे विजे दुट्ठाः संभवति तेसिं सव्वेसिं मणं मुहं गई दिट्ठि सुवोहं जिह्वां बंधेण बंधामि धणु धणु महाधणु महाधणु जः जः जः ठः ठः ठः ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्नः ठः ठः ठः ठः ठः ल लललल हुं फट् ॥
तान मुंचति चेन्मंत्री मंत्र और था मुना, अरिष्टणेमि मंत्रेण तद्विधां छेदयेद्बुधः
॥ ९१ ॥
पंडित मंत्री मंत्र और यंत्र से उस ग्रहों को छुडाना चाहे तो इस अरिष्ट मंत्र से उस विद्या को नष्ट
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विधानुशासन
चंडिका मंत्रित श्वेत सर्षपै भाग ताडिता,
प्लवतेया जले क्रूरा साध्वी तत्र निमज्जति
॥ ९२ ॥
निम्नलिखित चंडिका मंत्र से पढ़े हुए सफेद सरसों के दानों को मारने पर जल में तैरने वाली निर्दय शाकिनी जल में ही डूब जाती है। ॐ फैं चामुंडै हिलि हिलि विच्चे स्वाहा ॥
इति चंडिका मंत्र:
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अपयात्यरिष्टणेमि मंत्रेण प्रतिकृति कृते छंदे, अभिजप्तया खटिकया ग्रह भूत पिशाच शाकिन्यः
॥ ९३ ॥
अरिष्टणेमि मंत्र को खडिया पर जपकर तस्वीर में या पुतले में छेद करने से ग्रह भूत पिशाच शाकिनीया दूर हो जाते |
अष्टौलघु पाषाणान दिशा सुपरिजप्प निक्षेपेतेन, चौरारि रौद्र जीवानन भयं सं जायते नान्यस्मिन
॥ ९४ ॥
और
इस मंत्र को आठ छोटे पत्थक के कंकरों पर पढ़कर आठों दिशाओं में फेंकने से चोर शत्रु भयंकर जीव तथा दूसरों से भी भय नहीं होता है ।
भय समाकुला डाकिनी सा प्रलापर्यंत तं मुक्ता कृत रोदना
तब भय से व्याकुल यह शाकिनी जोर से रोती हुई उसको छोड़कर बडबडा कर
॥ ९५ ॥
रोती है।
अद्यः पिछेड यंत्रस्तयो दरबलस्य समर्पितं,
मध्ये मुशल युक्तेन मूल मंत्रोण चार्पयेत्
॥ ९६ ॥
निम्नलिखित अद्यः पिछेड़ यंत्र को अपने पास रखकर उसके बीच में मूशल युक्त नाम को मूल मंत्र में लगा देवे !
भस्त जप्तैः कचै रज्वा कृतायतं प्रताडयेत्, वधीयादथवा दिश्य शाकिनी भूरि रोदिती
॥ ९७ ॥
फिर यंत्र को मरी हुयी खाल पर मंत्र को जपकर उस खाल के बालों की रस्सी बनावे। उस रस्सी से पीटने या बांधने से शाकिनी बहुत रोती है।
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SARICISTOTRIPATIDIOS विद्यानुशासन BASIRISTOTROPIEDIDIOIST
अद्यः पिछेड यंत्र नाम झौंकार मध्ये वहि रपि वलयं षोडश स्वस्तिकानां, आग्रेयं गेह मुद्यन्न व शिरिवमय तद्वेष्टितं त्रिकालाभिः ॥९८ ।।
दद्याद्वाह्ये चत्वार्य अमरपुर पुराण्यं अतरालस्थ मंत्राण्ये,
एतयंत्रं सुतंत्रे लिरियता प हरेतशाकिनीभ्टा सुभीति ॥९९ ॥ झौं के बीच में नाम को लिखकर, उसके बाहर चारों तरफ सोलह स्वस्तिक बीज लिखे ।उसके बाहर अनि मंडल बनाकर तीन बार १६ कलाओं (स्वरों) से वेष्टित करे उसके बाहर पृथ्वी मंडल में चार अमरपुर में अतंराल निमलिखित मंत्र लिखे। इस यंत्र को विधिपूर्वक लिखा जाने से शाकिनी से भय नहीं होने देता है।
मंत्रोद्वार ॐवज धरे बंध-बंध वज्र पाशेन सर्वदुष्ट विन विनाशकानां ॐ हूं तूं योगिनी देव दत्तं रक्ष रक्ष स्थाहा || पूर्व दिशा में ॐ अमृत धरे घर-घर विशुद्ध ॐ हूँ तूं योगिनी देवदत्तं रक्ष-रक्ष स्वाहा ।। दक्षिण दिशा में ॐ अमृत धरे डाकिनी गर्भ संरक्षणी आकर्षणी ॐ हूं धूं फट् योगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा।। पश्चिमस्यां दिशि ॐरूरू यले ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं : क्षांक्षी शं क्षौ क्ष: सर्व योगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा ।। उत्तरस्यां दिशि
(इसका यंत्र शांति विधान में ४५ पृष्ठ पर है।)
नस्यान्नश्यति शाकिन्यो हिंग्वरिष्ट फल त्वचोः,
पिपल युक्तयोः क्षिप्रं रूदंत्यो भय विह्व ला : ॥१००॥ हिंगु वरिष्ट (हींग रीटा) के फल और छाल तथा पीपल की बनाई हुयी नस्य को सूंघने से शाकिन्या क्षण मात्र में ही भय से विहवल होकर रोती हुई भागती है।
भूमि कदम्ब मूले हिंगु युत नाशिकांतर निविष्टे, आतरवं कुंवत्यः शाकिन्यो यांति तं मुक्ताः
॥१०१॥ भूमि कदम्ब वृक्ष की जड़ और हींग को मिलाकर नाक के अंदर रखने से शाकिन्या दुख के शब्द बोलती हुयी उसको छोड़कर चली जाती है।
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1551 विधानुशासन 51PX ちわわでわず
やらたちにち कृष्ण शुनकस्य खुरं कृष्ण तिलं देटा मसित गोदधा,
तत धृत तैलेन नस्यात् ग्रहाः प्रणस्वंति दिव्यादिव्याः ॥ १०२ ॥
काले कुत्ते के नाखून और काले तिल को काली गाय के दही घी और तेल में मिलाकर सूँघने से दिव्य और अदिव्य ग्रह नष्ट हो जाते हैं।
करि करभ तुरंग नर वर गव्यज मूत्रेन सप्त दिनं भाव्यं, मधु वृक्ष मूल नश्यं करोति राक्षस पिशाच भूतावेशं
॥ १०३ ॥
करि (हाथी) करभ (ऊंट) तुरंग (घोड़ा) मनुष्य गधा गाय और अज (बकरी) के मूत्र की मधुवृत्त (महुवे ) के मूल जड़ को भावित करके सुँघाने से राक्षस, पिशाच और भूत ग्रहों का आवेश होता है, जगाये जाते हैं।
शूकडी वर कर्णिका मधु भराः भारं हि निंव त्वचा, चक्रांकी गिरिकर्णिका त्रिकटुकं कर्कोटिका तुंबिका ॥ १०४ ॥ दंडी यारुणिका जया द्वितीयकं घोषेश्वरी मुष्टिकाद्यैः, पिष्टा सम भाग तश्च मिलिता विघ्नंति सर्व ग्रहान्
॥ १०५ ॥
शुकतुंडी (पीले रंग का हिंगलू), खर कर्णिका (गंगेरन की जड़ी खरेटी), खर (देवता), कर्णिका (अरणी), महया, सर्प कांचली, नीम की छाल, चक्रांकी (हंसपदी - कंधी), गिरिकर्णिका (कोयलबेल), त्रिकटुक (सोंठ मिरच पीपल), कर्कोटिका (बांककडा), तुंबिका (तुंबी), दंडी (दबना बूटी दौना), वारुणिका (मदिरा), जया द्वितीयक (दोनों जया जया विजया दोनों हरडे), घोषेश्वरी (काकड़ासिंगी) मुष्टिका, (मोख ) इन सबको बराबर बराबर मिलाकर पिसवाकर नस्य पान लेप आदि सेवन करने से सब ग्रह नष्ट होते हैं।
वर तुरंगोष्ट्रा जद्विप गोनर मूत्रं तथा ढक प्रमितं, तत्पान मौषधानां चर्णतुर्या ठकां बु स्यात्
करवीराष्टक तैल प्रस्थं क्षिप्त्वात्र प्राच्चयेत्. तस्य नश्यंति नश्यतो ग्रह भूता परमार शाकिन्यः
॥ १०६ ॥
॥ १०७ ॥
गधा, घोड़ा, ऊँट, अज (बकरा ), द्विप (हाथी), गाय, मनुष्य के मूत्र को एक आठक (८ सेर) के बरतन में भरकर औषधियों के चूर्ण को उस आठक में मिलाकर तैयार करें। फिर उसमें एक प्रस्थ (दो सेर) के बराबर माल कांगनी आदि ८ औषधि के तेल को डालकर तेल सिद्ध करें । उसकी नस्य लेने से सूँघने से भूत अपस्मार ग्रह शाकिनी आदि नष्ट होजाते हैं।
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STERIODSDISTRI5T015 विधानुशासन P5101510STRIERI5015
राज्यग्र फणि निर्मोक हिंगु निंब छदैः कृतः स्यात,
सिद्धोऽयं महाधूपः शाकिन्याः सा प्रतिक्रिया ॥१०८॥ राई, सरसौं, सर्प कांचली, हींग, नीम की छाल या पत्तों की बनायी हुयी सिद्ध महाधूप शाकिनी को भगा देती है।
मूलेन हय गंधाया हिंगु युक्तेन कल्पिते लेपने,
ग्रस्त गानेषु शाकिनी तं विमुंचति असगंध की जड़ और हींग के कल्क का शरीर पर लेप करने से शाकिनी उसको छोड़ देती है।
पिचुमार निंब पत्रारिष्टेंगुफल समुत्य निर्यासः, तेन प्रलिप्त पुरुषं क्षिप्रं मुंचंति शाकिन्याः
॥११०॥ पिचु (कपास), मार , धतूरा, नीम के पत्ते, अरिष्ट (अरीन), इंगुफल (हिंगोट), गोंद (निर्यास) का पुरुष को लेप करने से शाकिनी उसको शीघ्र छोड़ देती है।
नागारि मातड फल द्विकन्या हिंगुन गंधा हरिताल कृष्टः,
बृषाज मूत्रेण विमर्द्वि तांग भतादास्तं परिहापटांति ॥११॥ नाग (नाग केशर), अरि (कत्थे का पत्ता), नागारि (हरि भेद-दुर्गंध खैर), मार्तंड फल (आक केबीज), दोनों कन्या घृतकुमारी और बड़ी इलायची), हींग, उग्र गंधा (वच या लहसुन) हरताल कंठ वृषाज मूत्र (बेल और बकरी का मूत्र) को मिलाकर शरीर पर लेप करने से भूत आदि उसको छोड़ देते हैं।
इति शाकिनी निग्रह अथ अपस्मारनाशक योग
व्योष त्रिगंधक वचा मार्क वाब्द रजः प्रगे:, उपयुक्तपस्मारं हरे च्च रसायणं
॥११२।। व्योष (प्रकटुक, सोंठ, मिरच, पीपल), तीनों गंध (वच भांगराऔर अब्द) अर्थात् नागर मोया के
चूर्ण का प्रयोग प्रातःकाल के समय करने से अपरमार को दूर करता है तथा यह रसायण है।
ब्रायाः स्वरसै सिद्धं कुष्ट वचाः शरव पुष्पिलका, गर्भे आज्यं गव्यं पीतं सर्वापस्मार दोष हरं
॥११३॥
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ब्राह्मी के स्वरस में सिद्ध की हुयी कूट, वच और संखा होली के गर्भ में गाय के घी के साथ पीने से अपस्मार के सब दोष दूर हो जाते हैं।
शिला द्यवानि शिग्वास्थि हिंगु प्रदुषणा मयैः, स्यादपस्मति न स्यात शैलं वस्तु जले स्तं
।। ११४ ।।
शिला (कपूर या मेनसिल) यवानि (अजवाइन ), सैजना के बीज या सोभाजन के नीज, हींग, सोंठ, मिरच, पीपल, आमय (कूट) को मिलाकर सूँघने से जल में चलने वाला पहाड़ के समान अपरमार भी नष्ट हो जाता है ।
कुष्टाजाजी साग्रि व्योष शिला रामठ द्वौ सिद्धं, वस्तु शिवां भसितैलं, नस्याद्वन्यादय परमारान
॥ ११५ ॥
कुष्ट (कुठ) अजाजी (जीरा), अग्नि (चित्रक), व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल), शिला कपूर, रामठ द्वय ( हींग और अंकोल), शिवा (हरडे या आँवला) या नीली दोष अडूसा के साथ जल में सिद्ध किया हुआ तेल जंगली अपस्मार तक को नष्ट करता है।
अपहरति वृश्चिकालि मागधिका कुष्ट लवण भागनां, चूर्णेन कृतं नस्यं क्षणेन सर्वान्न पस्मारान्
॥ ११६ ॥
वृश्वकालि (विछवा घास), मागधीका (पीपल), कूट नमक भारंगी के चूर्ण से सब प्रकार के अपरमार नष्ट हो जाते है।
श्री वासा गरुड: प्रियंगु वंश त्ववगोतुविट जुष्टं, साम्यं पिष्टमजामय मूत्रे छायया शुष्कं
॥ ११७ ॥
कमल (श्री वासा) गरुड़, प्रियंगु फूल, वांस की छाल, ओतु विट बन बिलाव की भिष्टा, जुष्टं को बराबर लेकर बकरी के मूत्र में पीसकर छाया में सुखावे ।
तै कृत धूपं सिंहो नाम्रा पस्मार राक्षस पिशाचान भूत्, ग्रहांश्च सर्वान ज्वरं च चातुर्थि के हन्यात्
॥ ११८ ॥
यह सिंह नामी धूप है। इसकी धूनी देने से अपस्मार राक्षस, पिशाच, भूतग्रह आदि सब तरह के बुखार तथा चौथे दिन आने वाला चौथिया ज्वर नाश को प्राप्त होता है ।
सौभाग्यविहीना या पुष्प विहिनाच्चया भवेन्नारी, भूतार्ता विष्टा या तासां वा यं हिते हितो धूपः
V/5050/50/50505PSE P5252525252525
॥ ११९ ॥
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CATIOTECTERISEAST विद्यानुशासन PIRODIPIERSPIROTES जो स्त्री सौभाग्य से रहित हो या जिसको मासिक धर्म नहीं होता हो अथवा जो भूतों से पीड़ित हो उन सबको ही यह धूप अत्यंत लाभकारी होती है।
॥१२०॥
एतत धूप विधान मंत्री मंत्रं जपन्निमं कुर्यात्,
मंत्रोत्तरं वितर वितरये स्वाहेइति प्रणवयूँ पूर्वाः मंत्री इस धूप के विधान को इस मंत्र को जपता हुआ करेॐ वितरये स्वाहा।।
" इति पस्मार विधानं "
अथ उन्माद लक्षणं यहि कृतं प्रलापश्च विस्मृतं सर्ववस्तुषु, हंति प्रधावति सोन्माद वातस्य लक्षणं
॥१२१॥ बाहर व्यर्थ ही बकवाद करना सब बातों को भूल जाना, मारना, दौडना यह सब उन्माद वात(वायु से होने वाले पागलयान के लक्षण है।
मधुक युत मागधीकत खजूर सतावरी,
कसेरूणां स विदारीनां कल्कः सर्वमुन्मादमपहरति ॥१२२ ॥ मधुक (मुलहटीया महुआ) सहित मागधी (पीपल), खजूर (छुवारा), सतावरी, कसेरू और विदारी कंद के कल्क सब प्रकार के उन्माद को दूर करता है।
पुंड्रेक्षकांड जो रेणुः स राष्ट स्तल्य शर्करः, न्यस्तो धाण पुटे सद्यः सर्योन्माद विनाशनः
॥१२३।। बराबर की शझर पौंड्रक (काला गन्ना, इक्षु = गन्ना) को कोल्हू में पेलकर निकली हुई भूसी में यष्टि (मुलहटी) और बराबर की शक्कर मिलाकर नाक में रखने से अर्थात् सूंघने से सब प्रकार के उन्माद नष्ट होते है।
रेणुः क्षीरेण संयुक्त कर्णिकार प्रसूनजः, उन्माद वाधितैनस्ट क्रिययाभि हितोहितः
॥१२४॥ कर्णिकार (कनेर) के फूलों की रेणुः (धूल) को दूध में मिलाकर उन्माद से पीडित प्राणी को सुंघाने से लाभ ही लाभ होता है।
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* विधानुशासन 95951951959
नाशयति चक्र तैलं हेम शिफा कल्क चूर्ण संमिश्र, भूमध्ये विनिखातं समस्त मुन्मादमालेपातः
।। १२५ ।।
चक्र ( तगर) के तेल को हेम (नाग केशर) की जटा के कल्क और चूर्ण में मिलाकर पृथ्वी में गाड़ दे पीछे उस का लेप करने से सब उन्माद नष्ट हो जाता है ।
साधितं षोडशगुणे कुष्मांड स्वरसे घृतं पष्टी, कल्पं प्रगे पीत मुन्मादापस्मृती जयेत्
॥ १२६ ॥
सोलह गुण (कुष्मांड) के पेठा के स्वरस में सिद्ध करके रखी हुयी मुलहटी के कल्क को प्रगे ( प्रातः काल ) पीने से उन्माद और विस्मृति (भूलजाना) दोनों दूर हो होते हैं।
रूस्यों पणत शिग्रोग्रा लोद्रभागाद्विहिंगुभिः, उन्मादाय स्मृति हरे स्यातामंजने नावने
॥ १२७ ॥
रूस्य, उपणत, शियो ( सहजना), उग्रा (सरसो - अजवाइन ), लौंग, भांरगी और दोनों हींग के अंजन करने और सूप से उन्लाई विस्मृति(जपान) दोनों दूर होते हैं।
यष्टि शिरष कुष्टोग्रा रसोन कुटिलै र्हितः, आज पिष्टैरुन्मादापस्मृत्यौनावलां जने
॥ १२८ ॥
यष्टि (मुलहटी), सिरस कूट, उग्रा (अजवाइन ), लहसुन और कुटिल (तगर) को बकरी के मूत्र में पीसकर अंजन करने और सूँघने से उन्माद विस्मृति दूर होती है।
आज्ञासी द्रह निग्रहैक विषयां यो मंत्र वित् प्रक्रियां, मुक्तां मंत्र वरौषध प्रगटिनी मेनां यथा मंत्रिणां
तत् दृष्टे एव भयांकुलो ग्रहगण स्तिष्टेने चेत्कोपिकिं, शक्यः स्तोतुमयं विधि विराचितः सर्वक्रमान्मंत्रिणां
॥ १२९ ॥
॥ १३० ॥
ग्रहों को नष्ट करने वाली जिस प्रक्रिया का वर्णन मंत्र शास्त्र के विद्वानों ने किया है उसको मैने मंत्रो को छोड़कर केवल औषधि रूप में ही वर्णन किया है। इसको जाननेवाले मंत्री को देखते ही ग्रह भय से व्याकुल होकर कोई भी नहीं ठहरता है ऐसी यह विधि सब प्रकार से मंत्रियों से प्रशंसा की जाने योग्य है।
इतिग्रह विधानं अष्टं समुदेशं
でらでらでらでたらこらでらでらでらでらでらです
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55 विद्यानुशासन 2/51 नव समुदेश
55
॥ ॐ नमः श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥ अथ तद्गारूडं वक्ष्ये प्राणत्राणाय देहिनां यद्विजानन्नलं हेतुं सद्यः प्राण हरं गरं
॥ ९ ॥
अब उस गरुडी विद्या का वर्णन किया जायेगा जिसको जानने से तुरन्त प्राणान्त करने वाला विष भी नष्ट जा सकता है।
प्रागेलक्षिणानि नागानां निगद्याथ यथाक्रम, संग्रह फणि दष्टांनामु पायैर्द्दशभिर्बुवे
॥ २ ॥
पहले नागों के लक्षणों का वर्णन करके फिर क्रम से सर्प से इसे हुये संग्रह के दस उपायों का वर्णन करूँगा ।
शेषो वासुकि तक्षकः कक्कट सरोज महापद्माः, अथ शंख पाल कुलिका वष्टावेते महानागाः
॥ ३ ॥
अनंत वासुकि तक्षक कक्कोटक सरोज (पद्म) महा पद्म शंखपाल कुलिक यह नागों के आठ भेद होते हैं।
क्षत्रिय कुल संभूतौ वासुकि शंखधरा विषौ रक्तौ, प्रसवा मोदि शरीरौ ज्ञेयौ मध्यान्हे संचरणौ
॥ ४ ॥
वासुकि और शंखपाल क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने वाले पृथ्वी विषवाले तथा लाल रंग के होते हैं। यह उत्पन्न होते ही सुगंधित शरीर वाले तथा दोपहर में चलने वाले होते हैं ।
॥ ५ ॥
कक्कटक पद्मावपि शुद्रो कृष्णो च वारुणिा गरौ, फल गुड तनौ गंधो निशि संचरणौ प्रकुर्यतो कर्कोटक और पद्मनाग शुद्र काले तथा जलविष वाले होते हैं। कर्कोटक के शरीर में फल तथा पदमनाग के शरीर में गुड की जैसी सुगंध आती है। यह रात्रि में निकल कर चलते हैं।
विप्रावनंत कुलिकौ वह्नि गरौ चंद्रकांत शंकाशी, चरू गंध सुगंधौ तौ वैद्यौ पूर्वान्ह संचरणौ
969695959595956049699696959
॥ ६ ॥
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CROSTERSTRISODE विद्यानुशासन PASSISTRICTDICTION अनंत और कुलिक नाग ब्राह्मण वंश वाले अग्नि विषवाले होते हैं और चंद्रमा की कान्ति के समान श्वेत होते हैं। उनके शरीर में नैवेद्य की सुगंध आती है और यह दिन चढ़े पर दोपहर से पहले पहल तक ही गमन करते हैं।
तक्षक महासरोजौ वेश्यो पीतौ मरूद गरलो, हिंग समदेह गंधौ जानिह्य परान्हे संचरणौ
॥७॥ तक्षक और महासरोज (महापद्म) नाग वैश्यकुल वाले पीले रंग वाले और वायु विष वाले होते हैं। उनके शरीर में हींग की जैसी गंध आती है और यह दोपहर ढलने पर सायंकाल के पहले पहले तक ही चलते हैं।
दृग्मस्तक स्थ विंदुः स्त ध्वाक्षः शेषवंश संभूतः
वासुकि कुलजः स्वस्तिक युक्त शिरावाम पार्कुक्षी ॥८॥ शेषवंश में पैदा हुए नाग के नेत्र और मस्तक पर बिंदु होती है और उसके नेत्र जलते हुए से लाल होते हैं। वासुकि के कुल में उत्पन्न हुए नाग की आंख के बाईं तरफ सिर के ऊपर स्वस्तिक का चिन्ह होगा।
तक्षस्य बिंदु पंचक संयुत मूर्द्धाति शीय परिटयटनः,
वंशोभवो वगम्य स्वदक्षिण्य यांग विप्रेक्षी ॥२॥ तक्षक सर्प के सिर पर पांच बिन्दु होती है- वह बड़ी जल्दी-जल्दी अपना सिर हिलाया करता है। इसप्रकार सर्प के वंश की उत्पत्ति पृथ्वी पर जानो यह अपने दाहिने अंग की तरफ गमन करता
योभुजग एक रेवा लांछित कंठं त्रिशूलयुत मूर्दा,
ककोट वंश जो द्वेकित वृक्षाः सदा प्यटतः ॥१०॥ जिस जाग के कंठ पर एक रेखा तथा मस्तक पर त्रिशूल हो और टेढ़े मेढ़े वृक्षों पर घूमने वाला हो उसे कर्कोट वंश का नाग समझना चाहिये।
आत्मीयं उत्तमांगं चिन्हतमं भो रूहेण यो भुजगः,
विभाणः सचल यत्पुच्छं सो भोज वंश भवः ॥११॥ जो नाग अपने सिर पर कमल का चिन्ह लिये हुए अपनी पूँछ उठाते हुए चलता है वह अंभोज वंश में पैदा हुआ होता है। CSCISIOTRIOTICISTRICT05६०६ DISTRICKSTOISTORRISODE
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ASTRI5015OISIOSIT5 विधानुशासन PISTOISDISEX510521SS
सततं निमिष ट्रैषा मय युतः कंठो महाब्ज कुल जातः, इंदिवर कृत हसत स्व मस्त को मंत्रीभि प्रोक्तः ॥१२॥
महाअब्ज (महापद्म) कुल में उत्पन्न हुए नाग का कंठ निरंतर क्षण-क्षण में बदलने वाली रेखाओं से युक्त होता है और उसका मस्तक कमल के बनाये हुवे हाथ के समान मंत्र शास्त्रियों द्वारा कहा गया है।
शंखस्य शंख लांछित मूर्दा पश्यन्मुहमहुवश्य:,
कुलिका स्यान्वय जातः कं प्रशिराः सर्वभुजग चेष्टावान ।।१३।। शंख नाग अपने शंख के बिना वाले सिर में बार-बार देखता है। कलिक वंश वाले नाग के सिर हिलता है और वह सब सो से अधिक सावधान चेष्टायाला होता है।
सर्पाः फणि भन्मंडलि राजिल भेदां स्त्रियामता,
स्तेमी क्रम शो मारूत पितश्लेष्मात्मानो चिनिष्ट ॥१४॥ सर्प फिर भी तीन प्रकार के होते हैं फणि भृत मंडली और राजिल। इनमें फणिभृतवायु प्रधान मंडली पित्त प्रधान और राजिल कफ प्रधान होता है।
छत्र स्वस्तिक लांगल चक्रांकुश धारिणः फणवंतः,
शीय गतयो भुजंगा एते दीकरा: प्रोक्ताः ॥१५॥ जो नाग छत्र स्वस्तिक लांगल (हल) चक्र और अंकुश को धारण करने वाले बड़े फण वाले और शीघ्र चलने वाले हो यह दर्वीकर अर्थात् फणि भृत सर्प कहे जाते हैं।
दीर्घा अशिय गमनाः साये मंडलैश्चिता विविधैःतै,
गरूड शास्त्रज्ञैः मंजडिन इति प्रकीत्ययते ॥१६॥ जो नाग बहुत बड़े धीरे-धीरे चलने वाले और अनेक प्रकार के मंडलो से चिते हुए हो उनको गारूड शास्त्र के विद्वानो ने मंडली नाग कहा है।
वपुषि तिरश्वीरूद्धा अपि राजी भिन्नाति चित्रा सु.
स्निग्धां गाये स्यु स्ते विवुयै राजिला ज्ञेयाः ॥१७॥ जिन नागों के शरीर में टेढ़ी और ऊँची रेखाएँ (लाइन) पड़ी होती हों, जो बहुत अधिक चित्र विचित्र रंगवाले हो और बहुत चिकने होते हैं उनको पंड़ितों ने राजिल कहा है। ಆದಾರ್ಥಗಳಥಳಥ&oe Yಣಬಣಣಸಣಣಠಣ
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959695959595 विधानुशासन 9595951969
दोषश्चांकचोक्तोयो यो दर्वीकरादि भुजगानां,
मिश्रेण तेनतेन व्यंतरमुरगं विजानीयात्
॥ १८ ॥
इसप्रकार दर्दीकर आदि नागों के दोष और चिन्ह हैं। जिनमें यह लक्षण मिले हुए हों उनको व्यंतर नाग जानना चाहिये।
सर्पा गर्भ मासेष्वाषाढा येषु त्रिषु क्रमाल्लब्ध्वा जनयंत्यंडानि बुहन्यथा त्रिमासेषु कार्तिका यें
॥ १९ ॥
सर्पिनियों के आषाढ़ आदि के महीनों में गर्भ हुआ करता है। इसके पश्चात् वह कार्तिक आदि तीन महीनों में बहुत से अंडे देती है।
स्फुटितानि तानि सत्यं थ तेषु स्त्रीपुंनपुंसकांडानि, शिष्टानिवर्जयित्वा त्रीण्यथं जीवंति तान्येव
|| 20 ||
उन अंडों के फूटने पर उनमें से स्त्री-पुरूष तथा नपुंसक बच्चे होते हैं किन्तु उनमें से बाकियों को छोड़कर केवल तीन ही जिन्दा रहते हैं।
सप्ताहवसितोहिः स्यादुन्मीलित विलोचनः, आत्म प्रबोधनं तस्य द्वा दशा हात प्रजायते
1138 11
नाग के बच्चे की सात दिन पड़े रहने पर आंखें खुलती हैं और उनको अपने आपका ज्ञान बारहवें दिन होता है ।
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विशंतौ वासरे स्व स्थातीतेषु रदना अहे :, प्रादुर्भवंति द्वात्रिंशत्संख्याः सूर्यावलोकनात्
नाग के बच्चे की बीस दिन में सूर्य को देखने से बत्तीस दांत निकलते हैं।
॥ २२ ॥
दंतेषु द्वात्रिंशत्स विषा दष्ट्रांश्चतुस्त्र आख्यातो, द्वे भुजगंस्य कराली मकरी च दक्षिणे पार्श्वे
|| 23 ||
नाग के उन बत्तीस दांतो में विष वाले चार ही दांत होते हैं- दाहिनी तरफ के दो दांत कराली और मकरी नाम से पुकारे जाते हैं।
अन्यत्र काल रात्रि यम दूती चा व्याया पार्श्वे, अध उर्द्ध मध इति तासां विद्यात् क्रमशः
6959995 ६०८ PSP59659595959
॥ २४ ॥
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CHOICICISISTOHIRE विद्यानुशासन ASIDASIOTICISIOISTORY
बाईं ओर के दांतो के नाम काल रात्रि और यम दूती है। यह दांत क्रम से ऊपर और नीचे होते हैं।
तामसो नधमश्च स्यात् कार्तिक मासि जातवान, बलवान मार्गशीर्ष स्यात पोषे दीर्णे विषोल्वणः
॥ २५॥ कार्तिक में पैदा हुआ नाग तमोगुण वाला और सुस्त होता है मार्गशीर्ष मास में पैदा हुआ नाग बलयान होता है और पोष में पैदा हुआ नाग बड़ा तथा तेज विषवाला होता है।
पुरूषस्य भुजंगस्य वासरे स्यान्महाबलः,
स्त्रियो निशायां संध्यायां बलियामस्या नपुंसक: ॥ २६॥ पुरुष नागों की बलि का समय दिन है स्त्री की बलि का समय रात तथा नपुंसक नाग की बलि का समय सायंकाल होता है।
बलं बालस्टा पूर्वान्हे मध्यान्हे मध्टा मस्यतु, अपरान्हे तु वृद्धं स्यात्य वनाशिनां
॥२७॥ बालक जाग की बलि का समय दोपहर से पहले युता की मध्यान्ह में और वृद्धनाग की बलि दोपहर ढलने पर दी जाती है। वृद्ध नाग बहुत हानि करने वाला होता है।
संग्रह के दस उपाय दूताहि स्थान तारादि नागेशोदय सूचकां, विषाणि दंशे ममाणि वेगो वयव वेष्टितं
॥२८॥ दूत-सर्प के स्थान-तारा आदि नागों के निकलने का समय-सूचक-शकुन-नाग के विष काटने के स्थान-मर्म-सर्प विष का वेग और अवस्था
दशैते संग्रहोपायास्ते स्तत्र कमशोमताः, परोक्ष सत्या विषयां पंचपंच प्रत्यक्ष गोचरा:
॥२९॥ इस संग्रह के दस उपाय हैं इनमें से पांच परोक्ष को जानने वाले और पांच प्रत्यक्ष को जानने वाले होते हैं।
अशुभ दूत मुक्तक च रिक्त करः भिन्न कुले षंठा दंड धनु रस्त्र घर मुंडित शिर स्काः ,
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व्याधि युतीत गत कर्ण कर नासा
11 30 11
स्तस्युर हिभक्षित नृणाम शुभ इताः खुले हुये बाल खाली हाथ वाले दूसरे कुलवाले नपुंसक दंड धनुष या अस्त्र धारण करने वालेमुंडे हुवे सिरवाले रोगी डरे हुए-बूचे (जिसके कान कट गये हो) लूले वन कटे आदमी सर्प से काटे हुए के अशुभ दूत होते हैं।
शुभ दूत शुभ तर वस्त्र कृतकाय परिशोभा दर्भा सित पुष्प फल पत्र धृत हस्ताः, एक कुलरूप परिपूर्ण तर यात्रा भोगि गरलार्द्वितस्य शुभदूताः ॥ ३१ ॥ अत्यंत उज्जवल वस्त्रों से अपने शरीर को सजाये हुए दाभ वाले फूल फल या पत्र (पत्तों) को हाथ में धारण करने वाले जिनका कुल और शरीर का रूप सर्प से काटे हुये प्राणी से अत्यंत मिलता हुआ हो ऐसे पुरूष सर्प विष से पीड़ित प्राणी के शुभ दूत होते है ।
सम विषमाक्षर भाषिणि दूते शशि दिनकरे च वहमाने, दष्टस्य जीवितव्यं तद्विपरीते मृतिं विंधात्
॥ ३२ ॥
'समझना'
यदि सर्प से काटे जाने की खबर लाने वाला दूत चन्द्र स्वर में सम अक्षर कहे तो चाहिये कि सर्प काटा हुआ प्राणी जीवित आएगा। यदि दूत सूर्य स्वर में विषम अक्षर कहे तो मृत्यु समझनी चाहिये ।
दूत मुखो स्थित वर्णान द्विगुणी कृत्य त्रिभिर्हरेद्भांग, एक द्विकेन जिवति दष्टो मियतेय शून्येन
॥ ३३ ॥
बुद्धिमान पुरुष दूत के मुख से निकले हुए अक्षरों को गिनकर और फिर दुगुना करके तीन भाग का दे । यदि एक या दो शेष बचे तो जीवित तथा शून्य बचने पर मृत्यु को प्राप्त होने वाला समझे ।
चत्वारो वर्गानां मरुदग्रीं द्रां बुयो तथा वर्णाः, अनुनाशि काननस्या स्वरा स्तुशक्रां बु संभूताः
॥ ३४ ॥
चारो वर्गो में से वायु, अग्नि, इन्द्र और जल यानि वाले वर्ण होते हैं। अनुनासिक इन्द्र योनि बाले और स्वर जल योनि वाले होते हैं।
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CSDISEASIRISTRI5125 विधानुशासन PSIRIDIO205050ISIOTES
प्रष्टुर्वाक्य स्यादौ वरुणःशस्तः शतकृतुमध्यः, वाटवानी दुष्टातती दृष्टानि नपुंसकानि स्युः
॥ ३५॥
चंद्रामार्ग यतो वायुः इतं स्तन्मुख मागतः, तदा जानीहि दष्टस्य जीवितं मतिरन्यथा
॥३६॥ पूछने वाले के वाक्य के आदि में जल अक्षर मध्य में इन्द्र अदार अच्छे होते हैं।वायु अक्षर औरअग्नि अक्षर तथा नपुंसक अक्षर अत्यंत ही दोष युक्त होते हैं। यदि वायु चन्द्र मार्ग में चलते रहते दूत आया हो तो काटे हुए को बच जाने वाला जाने यदि इसके विपरीत हो तो उसको मरा हुआ जाने।
अग्र गते यदि दूते नाडी वामात्मनो वहति त्राणं,
प्रष्ट गते दक्षिणिका दष्टो जीवि दितिज्ञेयः ॥३७॥ यदि दूत के आगे आने पर अपना बायाँ स्वर अर्थात् चन्द्र स्वर चलता हो तो उसकी रक्षा हो जायेगी या दूत के पीछे से आने पर भी बाई नाडी(स्वर) चलता हो तो भी उसको व्यच जाने वाला जाने ।
पूर्णाध्वस्ते दूते फणि दष्टो निश्चयेन संग्राहः,
रिक्त पथि प्रति वर्तिनि मुच्यते नात्र संदेह : ॥३८॥ दूत के आने के समय पूर्णा के खतम होने पर साँप से इसे हुए की अवश्य चिकित्सा करनी चाहिये
और यदि दूत रिक्त अर्थात् ख्याली नाड़ी में हो तो पुरूष अवश्य ही बच जाता है। इसमें कोई भी संदेह नहीं है।
पूरिते वक्ति च दूतो यचो ते वा सुसंवृत्तिः स्यात्,
संग्रहोन्यथान्ये तेवं सर्व कार्य सु योजयेत् । ॥३९॥ यदि दूत पूरित में अच्छी तरह ढ़के हुए शब्द कहे तो सर्प से इसा हुआ पुरुष बच जाएगा अन्यथा नहीं बचेगा ऐसा सब कामों में भी लगा लेये।
कथयति दूते यातां श्वासोतं मंत्रिणश्च संविशति,
जीविति तदा अहि दष्टो मरणं स्यादन्यथा भावे ॥४०॥ मंत्री के श्यास के अतं में यदि दूत बात कहे तो काटा हुआ पुरूष जी जाता है अन्यथा मर जाता
अग्नि यमनैशति वति पच्छति दूते भुजंग दष्टस्ट,
अंत क नि वास वा सः प्रेत्यासन्नो भवेत् तस्यः CTERISTOISTRISRISE505[६११DISTERSIOSDISCISIOISS
॥४१॥
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PSPPSP59595 विद्यानुशासन 9/595905969695
यदि दूत अग्नि (पूर्व दक्षिण कोण) यम (दक्षिण) नैऋति (दक्षिण पश्चिम) वायु कोण में हो तो उस सर्प से काटे हुए पुरुष का शीघ्र ही यमपुरी में वास होये अर्थात् मर जाएगा।
विधि महादिशि दूते स्थित वति दवकरेण दष्ट इति, विदिशि तु मंडलिना दिग् विदिशोर्मध्ये राजिमता
।। ४२ ।।
यदि
दूत विधि (उत्तर) महादिशा में खड़ा हो तो दर्विकर सर्प से काटा हुआ है। अगर विदिशा में खडा हुआ हो तो मंडली सर्प से इसा हुआ है और अगर दिशा और विदिशाओं के बीच में खड़ा हुआ होवे तोराजिल सर्प से काटा हुआ है, ऐसा बतलावे
पृष्टायदि वामांधी स्थितं स्त्रिया दष्टकं त म व गच्छेत, अन्यत्र तु पुंसा त द्वितीयेतु नपुसंकेन सर्पेण
॥ ४३ ॥
यदि पूछने वाला बाएँ पैर से खड़ा हो तो सर्प से इसे हुए पुरुष को नागिन से काटा हुआ बतलावे, यदि दाहिने पैर से खड़ा हुआ हो तो उसे पुरुषनाग से काटा हुआ जाने, और यदि दूत दोनों पर समान बल देकर खड़ा हुआ हो तो उसे नपुंसक सर्प से काटा हुआ जाने !
दूतस्य मंत्रिणो वा वहेदिला पिंगला द्वयं वा चेत्, स्त्री पुं नपुंसकैस्तं क्रमेणं दष्टं विजानीयात्
।। ४४ ।।
अथवा दूत या मंत्री की इडा नाडी (चन्द्र स्वर) चलता हो तो स्त्रीनाग और पिंगला नाडी (सूर्य स्वर ) चलता हो तो पुरुष नाग अथवा यदि दोनों नाडियाँ चलती हो तो उसको नपुंसक नाग से काटा हुआ जाने !
यदि दूत जाने ।
वामो चरणात पुरतोहि दक्षिणचरणं निधाय यदि दूतः, कथयति वातों दष्टं पुरुषं विद्यात्स जीवति च बाँये चरण के आगे दाहिना पैर रखकर बात कहे तो काटे हुए को पुरुष
अथ दक्षिणस्य पूरतो वामं चरणं निधाय यदि दूतः, कथयति वार्ता दष्टा स्त्री स्याज्जीवे च साबनिता
॥ ४५ ॥
और जीता हुआ
॥ ४६ ॥
यदि दूत दाहिने पैर के आगे बाँया पैर को रखकर बात कहे तो काटी हुयी को स्त्री और जीती हुयी
जाने ।
दूता गति बेलायां तस्मिन् पार्श्वेनभ स्वतो बाहूः, तस्मात पार्श्वेस्मिन दंशं मंत्री विजानीयात्
959591595959595 १२ 9969599
॥ ४७ ॥
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95905959051
विधानुशासन
95959595195
दूत
आने के समय यदि उसके हाथ ऊपर को होकर अपनी कोष को छू रहे हों तो उससे मंत्री उसकी कोख में काटा हुआ जाने ।
स्पर्शधि कम्पण दूतः स्वांगो देह करेण च पक्षाणः, तत्रो देशे दंशो हि ज्ञातव्यः परोक्ष दष्टस्टा
॥ ४८ ॥
दूत अपने हाथ से अपने जिस किसी अंग को छूता है उसी अंग में उस परोक्ष के काटे हुए को सर्प से काटा हुवा जाने ।
आगत्य तूर्ण पादं विपरितं चेत स्पृशन्तथा गानि दूतः, कथयति वार्ता वदतत्ते नाहि दृष्टं तं
।। ४९ ।।
यदि त शीघ्रता से आकर उलटे तौर से और अपने अंगों को छूता हुआ बात कहे तो उसे सर्प से इसा हुआ जाने ।
इति दूत लक्षणं
नाग के स्थान
जीर्ण देव कुल वृक्ष कोटरे वंश मूल मृतकालये हयः. ये वसंति विविधा द्रि गह्वरे ते भवंति जन मृत्यु कारणं
॥ ५० ॥
जो नाग पुराने देव मंदिर वृक्ष की खोखल, बांस के पेड़ की जड़ और श्मशान में रहते हैं उनके काटने से पुरुष मर जाता है।
सिंधु संगतिषु चैत्य पादपे द्वीप कूप कलि शेलु शिग्रु षु वैत्रि पथ गहने चतुष्पथेः व्यापदे भवति पन्नगो दशत्
॥ ५१ ॥
नदियों के संगम पर मंदिर के वृक्ष में द्वीप में कुवे में कलि अर्थात् बहेड़े के पेड़ में शेलु ( लिसोडे, के पेड़) में शिशु सहजने के पेड़ में बेंत के पेड़ में गहन मार्ग में ( तिराहे में) चौराहे में रहने वाले इन दश स्थानों में रहने वाले नागों से काटा हुआ पुरुष भर जाता है।
इति आहि स्थानं
नक्षत्र आदि से जीवन मरण जानना
कृतिका र्द्रा विशारया सु त्रिपूर्वा भरणिषु च दश्यते यो हिनां जंतु मृत्युं तस्य समादिशेत्
0505050505050SE PS252525252525
॥५२॥
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CASIRISTRISTOTRIODOI5 विधानुशासन PASS1513152215015015 कृतिका आर्द्रा विशाखा पूर्वाषाढ़ा पूर्वाभाद्रा पद पूर्वा फाल्गुनी और भरणी इन नक्षत्रों में जिस प्राणी को सर्प ने काटा है उसकी निश्चय से मृत्यु होती है।
भूताऽहि पंचमी षष्टी पक्षांते नवमी तिथी, दष्टस्ट मरणं प्राहु वैनतेय मंतै विदै:
॥५३॥ भूता (कृष्ण चर्तुदशी) अहि(अष्टमी) पंचमी षष्टी पक्षांत (अमावस्या पूर्णिमा) और नवमी तिथि में डसे हुए का मरण गारूडी विद्या का पंडित अवश्य कहे।
भानु मंगलं मंदानां नरं वारांश कादिषु, दष्टं सर्पण जानीयात् यमालय निवाशिनं
॥५४॥ भानु (सूर्य) मंगल मंद(शनिश्चर) और इन दिनो के अंश में सर्प से डसे हुए पुरुष को अवश्य ही यमपुरी का निवासी समझे।
नक्षत्र दिन वाराणां संटगोलोहि नाहिलां,
रक्षितुंतं न शक्रोति वैनतेयोपि किं परः । ॥५५॥ जिस पुरूष को इन ऊपर लिखे हुये नक्षत्रों में तिथि और वारों के संयोग में यदि सर्प किसी को इस लेवे तो उसकी साक्षात् गरूडजी भी रक्षा नहीं कर सकते ओर की तो क्या बात है।
शंक्रांत्यां दश्यते दतैः कादवोस्ट योनरः,
यदो: पदमवंद्योवा ग्रहणेन स जीविति जो पुरूष नाग के दांतों से संक्रांति चन्द्रमा की दशा और सूर्य की दशा में हसा जाता है वह बच जाता है।
चतुसषु संध्या स्वऽहिना दग्धाभिधान योगे च, उदो च मंद कुजयोः परित्यजेत् सर्वथा मंत्री
॥५७॥ जिस पुरुष को नाग ने चारों संध्याओं में (प्रातः दोपहर सायंकाल और अर्द्ध रात्रि) दग्ध नाम वाले योगों, तथा शनैश्वर और मंगल के उदय के समय में डसा हो तो मंत्री उसको सब तरह से छोड़
देवे।
नागाः सूयादिनां वाराणां स्वामिनो विनिर्दिष्टाः, तदऽहनिश भागानापि सप्तानांतर्य वेशाः
।।५८॥
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050151985705510151015 विधानुशासन 95015052150SOTES सूर्य आदि चलने वालों के स्वामी नागों का वर्णन किया गया अब प्रतिदिन रात्रि और दिन में के भाग वाले सातों मारक नागों का वर्णन किया जाता है।
नागों के निकलने का समय तद्-तद् घोर शास्त्रे प्रारयोदयति तेषु भागेषु,
कुलिक स्तुभाग संधिष्वनि भुंते नाड़ी कामेकां ॥ ५९॥ यह सातों नाग उस उस घोर शास्त्र से प्रारंभ करके उन उन भागों में उदय होते हैं। किन्तु आठवाँ नाग कुलिक इन योगों की संधि में (मिलने के वक्त में ) एक घड़ी भर के लिये भोग करता है।
अथवा रवि सोदयेश महतामभेण सह कुलिको, ज्ञेयोऽहिना मुदयः क्रमादयं बार भागेषु
॥६ ॥ इसके पश्चात् दिन के विष के उदय होने पर चलने के भागों में बिना आम किये हुए कुलिक और उससे कम दरजे के नागों के उदय को क्रम से जाने।
कुलिक स्योदयकाले यो यो वारेषु मंत्रीभिः कथिताः,
तस्मिन फणि दष्टस्यप्रतिकार विधिन्न जातुभवेत् ॥६१ ।। कुलिक के उदय के होने के दिनों मे जो जो समय मंत्रियों ने बतलाया है उस समय में इसे हुए की चिकित्सा किसी प्रकार से भी नहीं हो सकती है।
गारूड शेन विज्ञेयः प्रत्यहं कुलिको दद्यः तन्न, जानाति चेत् सम्टाक न क्षमो विशनाशनः
॥६२॥ गारूडी को प्रतिदिन कुलिक के उदय होने के समय जो जानना चाहिये। यदि पुरुष उसको अच्छी तरह नहीं जानेगा तो यह विष को नष्ट नहीं कर सकता है।
पंचादश दद्ध युक्त द्विशतं संस्थाप्य सप्त भि गुणोत्,
धुवांक हीन क्रमशः सर्वत्र च षष्टि भि भाज्या ॥६३ ॥ पचास में सूर्य की तत्कालीन राशि आदि को जोड़कर अलग रखें। फिर दो सौ को एन स्थान पर रखकर सात से गुणाकर उस गुणनफल में पहले धुवा(पचास तथा सूर्य राशि आदि) को जोड़कर इस योगफल में साठ का भाग देवे तव सूर्योदय से घड़ी आदि में कुलिक नाग के निकलने का समय आ जाएगा। SYSICS0501501503525६१५ PISODEDISTD35050STOTRY
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Sesex
विधानुशासन 595959595
शकुन
कुलिकोदयः प्रस्थाने दक्षिण भागोदित भुजलतयो श्रुत सिद्धैः, सफल तरौ का कुरूतं शुभ वचनं गीत मपि वाद्यं ॥ ६४ ॥ कुलिक नाग के उदय में चलते समय यदि मंत्री दाहिने हाथ की तरफ कौवे का शब्द अच्छे ययन गायन या बाजे आवे तो समझना चाहिये कि जाने का उद्देश्य सिद्ध होगा।
मंत्रिणी निगठिति सत्या क्रंदों बुंजलादि विहंगानां, रोदनम मंगल वचः श्रवणश्चन कार्य सं सिद्धयैः
॥ ६५ ॥
यदि मंत्री के जाते समय वंजुल आदि पक्षियों के चिल्लाने रोने अथवा अन्य अमंगल शब्द सुनाई देवे तो समझना चाहिये कि कार्य निश्चय से सिद्ध नहीं होगा।
॥ ६६ ॥
विर्णिकाष्ट मंगला गो गज कन्याज्य दुग्ध दधि शंखाः, शत पत्र लोह फल जल सुराः शुभा अभिमुखा द्रष्टाः तीनों वर्णों के मनुष्य आठों मंगल द्रव्य गाय, हाथी, कन्या, घृत दूध दही शंख शत पत्र (कमलमोर) लोहा फल जल और देवता आदि जाते हुए मार्ग में मिले तो अच्छे होते हैं ।
गृद्धोलूक कपि द्विप श्रृंगाल माहिषाहि पिशित भसित शवेः, कार्पास कपाल तिलौयैश्च न सिद्धये पुरौ दष्टौ
॥ ६७ ॥
किन्तु गिद्ध उल्लू बंदर द्विप (हाथी) गीदड़ भैंस, सर्प मांस खाया हुआ शव अर्थात् अस्थिपिंजर कपास कपाल और तिलों को सामने देखे जाने से कार्य सिद्ध नहीं होगा।
धव फणिनो हन मार्जनं निषेधनं सर्वजातिति कलहश्च, नाशा दंशश्रागे दृष्टानिन शोभनानि स्युः
॥ ६८ ॥
धव (पुरुष) सांप का मारना कमाना निषेध करना सब जाति वालों की लड़ाई और नाशादंश (नाक में हँसा हुआ) का जाते हुए मार्ग में मिलना अच्छा नहीं होता है ।
निजकर निहित कुठारो विभक्तोष्टं पावकं च पुरः, मलिनाबर भर नारी रजको दृष्टो न सिद्धयै स्यात्
॥ ६९ ॥
हाथ में कुल्हाडी वाला कटे हुए होंठ्याला अग्रि गांव मलिन वस्त्रों वाली स्त्री और धोबी को मार्ग में देखने से कार्य सिद्ध नहीं होता है।
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परोक्ष संग्रहः
पृथ्वी विष के लक्षण पार्थिव विषेण गुरुता जडता देहस्य सन्निपातत्वं, .
वाधीय गंभीरं वचः सुप्ताहक च दंशःस्यात् ॥७०॥ पृथ्वी विष से शरीर भारी जड़ता (निश्चेष्टता) हो जाती है, सत्रिपात हो जाने पर भी पुरुष से गंभीर वचन निकलते हैं काटा हुआ सोया हुआ सोया हुआ जैसा हो जाता है।
लाल कंठ निरोधो गलनं दंशस्य भवति तोय विषात्
वर्वरावरवः स्व वक्रात गाने रोमांच नियमश्चः ॥७१ ॥ जल विष से मुंह से राल बहती है, कंठ रुक जाता है, काटे हुए पुरुष का शरीर गलने लगता है,मुँह से गंवारों जैसे गंवार शब्द निकलते हैं और शरीर में नियम से रोमांच हो जाता है-बाल खड़े हो जाते हैं।
गंधोदामश्च दृष्टे रपाटवं भवति यहि विष दोषात्,
स्फोटा कुलिता गत्वं प्रस्विद्यदगात्रता च सदा । ॥७२॥ अगि विष से शरीर में गंध आती है, निगाह नहीं जमती, शरीर के टूटने से व्याकुलता होती है और शरीर पसीने से भीगा रहता है।
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विच्छायता स्य शोषण मपि मारूत गरल दोषेण,
दष्टस्य कंपमानं वप रपि मदुनाभि भंगुरं भवति ॥७३॥ वायु विष के दोष से नींद नहीं आती है, शरीर सूखने लगता है, शरीर का मल पड़ कर कांपने लगता है और काटे हुए की नाभि चटकने लगती है।
अनिश्चित विष को निश्चित करना ॐ ह्रीं क्षीं अमृतरूपिणी स्वाहा ।।
न ज्ञायतेंधकारे दष्टः केनेति जंतुना रात्रौ, तस्याऽशितुं प्रदेयाः मृत जप्ताऽनेन मंत्रेण
॥ ७४ ॥ कभी-कभी अंधकार में यह नहीं मालूम होता है कि रात्रि में किस जंतुने काट लिया है- ऐसे अवसर पर उसको उपरोक्त मंत्र से अभिमंत्रित मिट्टी खाने को देवे।।
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व्यंतर घोणस फणिना दष्टश्त्यचेष्टां कितोऽथवा मृत्यु, कटुतिक्ताम्लैः सहजोमृत्स्नाया स्वादथ स्वादः पुरुष में व्यतर घोणास या सर्प से काटे जाने की चेष्टा या लक्षण मालूम हो अथवा उसे मिट्टी कड़वा तिक्त या खट्टी होने का स्वाद आवे ।
यदि
·
हायक
अष्टाभिरन्ना शतमभि जप्तावियतिना मृदं स्वादें, तद्रष्टुः साचेतिक्ता तदर्भवति भजंगजं गरलं
॥ ७६ ॥
उपरोक्त मंत्र को मिट्टी पर एक सौ आठ बार जप कर खाने को देवे। यदि वह मिट्टी खाने तिक्त (कड़वी) लगे तो वह विष अवश्य हो सर्प का विष है।
बाले प्रावृषि च ऋतौ फणा भृतामुल्वणं विषं मणितं, मंडलिनस्तद गच्छत्यंऽभिवृद्धि यौवनेन च शशिरेच
आम्ला चेद्रयं तरजं गोनासजभिक्षु रस समानं चेत्, गुड सदृश रसा यदि सा भवति तदा मूषिका प्रभवति
|| 99 ||
यदि उस मिट्टी का स्वाद खट्टा हो तो विष व्यंतर नाग का है, यदि मिट्टी का स्वाद गन्ने के रस जैसा मीठा हो तो विष (गोनास) सर्प विष है अथवा यदि उस मिट्टी का स्वाद गुड़ जैसा हो तो विष चूहे का समझना चाहिये ।
॥ ७८ ॥
बालकपन और वर्षाऋतु में फणामृत सर्प का विष तेज हो जाता है। मंडली सर्प का विष युवा अवस्था और शरदऋतु में अधिक हो जाता है।
वाक्येति प्रबलं राजिमनामा तपेच भवति विषं, वर्द्धत व स्त्रितये विषमृति संधौ च मिश्राणां
॥ ७९ ॥
राजिमान सर्पों का विष ग्रीष्मऋतु और वृद्धावस्था में बहुत प्रबल होता है। मिले हुये लक्षण वाले सर्पो का विष तीनों अवस्थाओं में ऋतु परिवर्तन के समय बढ़ता है ।
पूर्वास्मिन दक्षिणेवामे पृष्टे च वपुषः क्रमात् भागे दर्शतिभुजंगा द्विन्माययन्वयो मेवा
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ब्राह्मण नाग शरीर के सामने क्षत्रिय दाहिने भाग में वैश्य बायें भाग में शूद्र शरीर के पीठ के भाग में काटता है ।
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बालेन दंशे दंशाना मध्य में कागुल मतं, मध्येन द्वयं गुलं प्रोक्तं वृद्देन त्र्यंगुल मतं
।।८१॥ बालक नाग के काटे हुए का एक उंगल गहरा जखम होता है, युवा नाग के काटे हुए का दो उंगल और वृद्ध नाग के काटे हुए का जख्म तीन उंगल का होता है।
दंशो ग्रथितः रूजो दाहोतः पिपीलीक स्पत्किंडूतो,
दंशमेतः सविषः स्यानिर्विष तत्त्व परः ॥८२ ॥ सर्प इसने से जिस रोगीके दाह में चींटी के काटने जैसा दर्द का अनुभव होता हो, वह स्थान पीला पड़ जाये और खाज आने लगे, उस काटे हुए को विष सहित और शेष को बिना विष का समझना चाहिये।
दंशस्य तस्य भेदाच त्वारो मंतीभि समदिष्टाः, दष्टं विद्वं खडितम वलुप्तं चेति तत्संज्ञाः
||८३॥ मंत्रियों ने सर्प काटने के चार भेद कहे हैं-दष्ट (डसा हुआ) विद्वं(बींधा हुआ) खंडित(टुकड़े किये हुए) और अवलुतं (घाटाहुआ)
ऐकेन दंता दंशो दष्टं द्वाभ्यां कतो भवेद्विद्धं बहुभिः,
खंडितमत्यं दशनं विनौषतालु सं स्पर्श ॥८४ ॥ एक दांत के डसने को दष्ट कहते हैं-ऊपर नीचे के दो दांतो से काटे हुए आर से पार करने को बिद्ध, बहुत से दांतो से काटे हुए टुकड़े कर देने को खंडित, और बिना दांत के होंठ तालू से छूने को अवलुप्त कहते हैं।
तदंश हेतवोष्टी भीति वभुक्षा पुत्रातंतोन्मादा, आक्रमणं दप स्वस्थान प्राणं तथा बैरं
॥ ८५॥ सर्प के काटने को आठ कारण है- भय, भूख, पुत्र का दुःख, उन्माद, आक्रमण, अभिमान अपने स्थान की रक्षा करना और शत्रुता।
भीत्या क्षत मदु वस्त्रं बिद्धं विष वर्जितं स्मृतं.
तेषुधि हतो लाला खंडितमतिकच्छ साप्यं स्यात् ॥८६॥ नाग के भय से डसने पर केवल वस्त्र बिं जाता है और विष नहीं चढ़ता है, भूखे के इसने पर मांस खंडित हो जाता है और मुँह से लार बहने लगती है. इसकी चिकित्सा बडे कष्ट से होती है। eeeeeeelter වලටeකක්
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विधानुशासन 959590596
पुत्रार्त्ततया तादृक सविसं मांसस्य मध्यमा विषं उम्मोदन तु बिद्धं मृदु लाला कलितमल्प विषं
॥ ८७ ॥
पुत्र से दुःखी नाग का इसना भी खंडित ही होता है और दांत मांस के बीच में जा गड़ते हैं उन्माद से डसना बिद्ध होता है, यह कोमलता युक्त होने से बहुत थोड़े विष याला तथा मुँह से लार बहाने वाला होता है।
चक्रं सुवह व्रणमां क्रमाणेत प्रायो भवत्य विषं, बहु वंशम सृग लाला श्रवा विषं प्रायशो दर्पात्
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आक्रमण के कारण से इसे हुए के बहुत से गोल गोल जखम हो जाते हैं और इसमें प्रायः विष नहीं होता है, अभिमान से काटे हुऐ के बहुत अधिक डसा जाता है, उसमें खून बहता है और लार गिरती है और विष भी अधिक होता है।
स्थान प्राणत साध्यं तादृक्षं मांसस्य मध्य गतं ऋजु बिद्धं, दष्टं वा चक्रं वैराद् भवत्य साध्य समं मता
॥ ८९ ॥
स्थान की रक्षा करने में कभी दृष्ट और कभी कभी मांस के बीच में दो दांतो से सीधा बींधा जाता है, उसकी चिकित्सा सरल होती है और बैर से काटने पर गोल गोल कटता है, इस प्रकार से काटे हुए का बचाव प्रायः असाध्य होता है।
रुक्षः सूक्ष्मः कृष्णो दंशो दर्वीकरस्य विज्ञेय:, मंडलिनः पृथुरुषणः कृष्ण स्फीतः प्रभा शून:
॥ ९० ॥
दर्वीकर का डसना रुखा, सूक्ष्म और काला जानना चाहिये, मंडली सर्पका इसना भारी, गरम, काला स्फीत (बढ़ा हुआ) और कांति रहित होता है।
श्वेतः स्निग्धः शूनः साद्राऽसृक पिच्छलाश्च राजिमतः, व्यंतर संज्ञेयाऽहे र्द्दशा व्यामिश्र चिन्हः स्यात्
॥ ९१ ॥
राजिमान का इसना सफेद चिकना खाली खून से भरा हुआ और लथपथ होता है तथा व्यंतर नाम के नाग के इसने में अनेक चिन्ह मिले हुए होते हैं।
एकोऽथवा त्रयो वा दंशा बहु वेदना: शवा रुधिरः, काकाहि चक्र कूर्मा काराश्च नयंति यम सदर्ज
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॥ ९२ ॥
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जो डसने के स्थान एक या तीन रुधिर बहाने वाले तथा बड़ा कष्ट देने वाले होते हैं और उनके चिन्ह कौवे के पैर चक्र तथा कछुवे के आकार के होते हैं। वह पुरुष शीघ्र ही यमपुरी को चला जाता है।
दशं पदं यदि काक पदांकं शोणित वाहिमिता तमनंतं, कृष्णतरं सरसं बहुशोषं दत् यम गेह निरुपण दक्षं
॥ ९३ ॥
यदि काटा हुआ स्थान कौवे के पैर के जैसे आकार का रक्त बहाने वाला अनंत पीड़ा देने वाला अत्यंत काला रसीला बहुत खुश्क हो तो अवश्य ही यह यमालय का निवासी होगा।
हनुमध्ये ग्रंथ यक्षः स्तनौष्ट तल हृदये नाभि लिंग गले,
शस्त्र युग चिबुक कुक्षि स्कंध शिर स्तालु भाल गुदे ॥ ९४ ॥ कक्षे संधिषु च नृणां स्याद् यदि दंशो भुजंग दशन कृतः
यदि पुरुष के टोठी के बीच इंद्रिय, छाती, स्तन, होंठ, तल (थप्पड़ का स्थान गाल) हृदय, नाभि, लिंग, गले के दो शंख, चिवुक (टोठी) कांखा, कंधे, सिर, तालू, ललाट, गुदा, बाहु, मूल या जोड़ो में नाग ने डस लिया हो
तम साध्यं विषं प्राहुः मंत्रध्यानौषधांदीनां, धातोद्धत्यं तर संप्राप्ति वेगं विषस्य जानाति
॥ ९५ ॥
तो उस विष की मंत्र ध्यान तथा औषधि आदिसे भी चिकित्सा नहीं हो सकती है क्योंकि इन स्थानों में काटने से विष तुरन्त ही एक धातु से दूसरी तीसरी इत्यादि सब धातुओं में पहुँच जाता है ऐसा जानना चाहिये ।
सप्ता विवं च विदुस्तं संप्राप्य प्रकृति भेदेन, द्वा पंचाशन्मात्रां स्थित्वा दृष्ट प्रदेश एव विषं
॥९६॥
वह प्रकृति के भेद से सात प्रकार का विष पुरुष के शरीर के प्रदेश से ठहरा हुआ बायन प्रकार के विकार उत्पन्न कर देता है।
प्रथम शिरस मुं पयांति पश्चा ललाटमनु लोचनं याति तत आस्थं यांत्या स्याद्, धमनी स्ताभ्यां क्रमादव्रजेदगात्रं प्राप्ते विष रसं स्याद् अधोवेगः परान परो
|| 3699 ||
विष का रस पहुँचने पर पहले सिर में, फिर मस्तक में, फिर आंखोमें, हड्डी में, धमनी में और
मुख में वेग आता है, फिर वमन होने लगती है, फिर शरीर जरायु जैसा निश्चल हो जाता है।
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रोमांचो मुख शोष धर्म सलिलैः वैवणर्यमाकंपनं, ग्रीव भंग युता दृशो विवशता से सिक्त हि कादयो
॥९९॥
युक्तो निश्चसि ते नचेतसि महान्मोहो मृतिश्च, क्रमात्प्रादुर्भवंति विषे रसाद्युपगते दष्टस्य चेष्टाः स्फुटं फिर क्रम रोमांच हो जाता है, मुख सूख जाता है, पसीना निकलने लगता है, मुँह का रंग फीका पड़ जाता है, शरीर कांपने लगता है, गरदन गिर जाती है (टूट जाती है), आंखे एकटक स्थिर हो जाती है, हिचकियाँ चलने लगती हैं, श्वास रहित हो जाता है, चित में बड़ा भारी मोह होकर बुद्धि काम नहीं करती है, शरीर मे विष का रस पहुँच जाने पर डसे हुए प्राणी की क्रम से यह प्रत्यक्ष चेष्टाएं हो जाती हैं।
इति वेग: अस्कंदः पक्ष्मणां कुक्षि शोषणं शीतलोनीलः, प्रविष्टा निर्गता चापि जिह्वायस्य म्रियेतसः
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|| 200 ||
जिसकी पलकें नहीं हिलती, कोंख सूख जावे, जिसको ठण्डे पानी में डाल दिया जैसा हो, नीला हो गया हो और जीभ निकली हुई हो वह मर जाता है।
श्रांति मक्षिका यत्र प्रायो दुर्गंध सत्वरः, वंश मध्यालिशब्दा भो दुष्टः पोत समोपिवा
॥ १०१ ॥
जिस पर मक्खी बहुत बैठती हो, दुर्गंध आने लग जावे, जिसका शब्द बांस के बीच में बैठे हुये भोरे के अथवा नाराज बालक के समान हो जावे ।
श्यामे शुल्के स्फुटे रक्त इषद्वा स्फुटिते गते, इदृशी चा क्षिणी यस्य भंगुरैः कै न्निमिलिते
॥ १०२ ॥
जिसके नेत्र काले सफेद, कुछ लाल और कुछ फटे हुए हों ऐसी आंखों से भला कौन देख सकता है अर्थात् इस प्रकार के लक्षण वाला मर जाता है।
नवं दंता धरे हस्त तल योरपिनीलिमा,
दृश्यते यस्य तं मंत्री मृत में वाह्यवश्यतु
॥ १०३ ॥
जिसके नाखून, दांत होंठ और हथेली नीली पड़ जाये उसको मंत्री मरा हुआ ही समझे ।
यस्य सुराद्रिश्चलितो हिक्का महती महुर्मुहुर्भवति, मुखमपि विमुक्त पवनं सगतो समवर्तिनो हम्टां
11 208 ||
जिसका (सुर देवता, अद्रि सूर्य ७ सूर्य देवता) अर्थात् मस्तक हिल गया हो, भारी हिचकियाँ 9595Ps 1595ASE?? P/5952525252525
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CRICKETERACTRIOTISTS विष्यानुशासन EASTERSTIONSCISCESS बारबार आती हो, मुँह में भी वायु नहीं आती हो वह हर्म्य (महल) की बत्ती के समान समाप्त हो
जाता है।
यस्यौषध जल पानं पीतं नियति तत्क्षा कंठात्,
भीतस्तु सानु नाशिक शब्दोयः सोप्य संग्राह्य ॥१०५॥ जिसको पिलाने से औषधि जल या कोई अन्य पिलाने की वस्तु तुरन्त ही कंठ से निकल जावे और जो डरा हुआ नाक में बोले सो वह भी बचने वाला नहीं है अर्थात् उसकी चिकित्सा नहीं करें।
गुद वदनस्य विकासैः सैत्यं देहस्य शुक्र निर्गमनं,
हत तालुनोक्त भेदो विट भेदो मेहनं स्तब्धं ॥१०६ ॥ जिसकी गुदा और मुँह खुले हुये हो, देह में शीत आरहा हो अर्थात् ठिठुर रहा रहो, वीर्य निकल रहा हो हृदय और तालु खुले हुये हो, भिष्टा निकल रह हो और लिंग खड़ा हुआ हो।
दाह : कंप: चूलः कृष्णे दंशश्च सर्प दशांते,
प्रलपन मंगोद्वेगः लाला श्च वता जल स्या स्यात् ॥१०७॥ शरीर में जलन, कंपन और दर्द तथा सर्प के काटने के पीछे काटा हुआ स्थान काला हो गया हो, जो उद्वेग से बकता हो, जिसके मुँह से जल की तरह लार बहती हो।
हृदय स्या विघटेन कृष्णा सक श्याम दंतत्वं,
रक्तस्य च प्रवृत्ति दग्नाशा रोम रुप गुह्यादौ ॥१०८।। जिसके हृदय के खुलने से काला अस्त (रक्त) निकले, दांत काले पड़ जावे, जिसकी आंख, नाक, बाल, मुँह और गुप्त अंग आदि से रक्त निकलता हो।
एतानि लक्षणानि प्रेक्षते यस्य सर्प दष्टस्य, तस्या वश्व मरणं विषतंत्र विचक्षणांः प्राहु:
॥१०९।। ऐसे लक्षण जिस सर्प के काटे हुए प्राणी के देखे जावे उसकी मृत्यु निश्चय से होगी। यह विष शास्त्र के पंडितों ने कहा है
कृष्णेन साधन स्पर्श कृतेष्टांग न कंपते, यस्य जीवयितुं तन्न प्रभवेदपिपक्षिराट्
||११०॥ जिसको जोर से छूने पर भी उसका अंग जरा भी नहीं कांपे उसको साक्षात् गरुड़ जी और कृष्णजी भी नहीं बचा सकते हैं।
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PSPSPSPSPSS विधानुशासन 152
रूप व्यक्तिं न चानाति ध्वांतवा यस्तु पश्यति, नाभि ग्रंथो विनष्टोग्निर्यस्य स म्रियते नरः
5
॥ १११ ॥
जो किसी व्यक्तिको नहीं पहचाने, कुछ न सुने, जो अंधकार को नहीं देखे, जिसकी नाभि की गांठ अग्नि से नष्ट हो जावे वह पुरुष मर जाता है ।
शस्त्र क्षतेषु गात्रेषु क्षतजैर्नैव दृश्यते, यदायुष्मान गछेत् सोति कांति कमातुरः
॥ ११२ ॥
यदि शरीर में शस्त्र लगने पर जखमी पुरुष को क्षितिज दिखलायी नहीं देवे तो वह प्राणी मृत्युपाने के लिये बहुत आतुर हो जाता है।
भाल नासाग्र विन्यस्त प्रकोष्टे : प्रतिभासते, निज स्कन्दीया न्यस्य स्यान्न तस्याशु परिक्षय:
॥ ११३ ॥
जो अपने भाल और नाक पर रखी हुयी अपने स्कन्द (शरीर) की और दूसरे की कलाई तथा उंगली को पहचान ले वह शीघ्र नहीं मरता ।
ह्रदये
किनारा कुनै कल कलस्ट
ध्वने यदि जो वास्ति श्रुति स्तस्य मृतिं विदुः
॥ ११४ ॥
यदि भील के हृदय में और कोख मे कलकल (शोर) का शब्द नहीं पहुँचे तो शास्त्रों ने उसकी मृत्यु कही है।
नाभि जाल श्रव पृष्टः कंक्षे यस्य प्रमार्जितः, भूत्वा दंष्टा प्रजायेत तेन द्राक लभते मृतिः
॥ ११५ ॥
जिसकी नाभि की नाल, कान पीठ और बाहु मूल में शुद्ध अवस्थामें दांत लगे हो वह द्राक (तत्काल) मृत्यु को पाता है ।
रोमोमो रस स्तावत सेके कृते सु शीतलैः सलिलैः, यस्या हतेषु गात्रेषु हंति पद वीक्षणो भवः
॥ ११६ ॥
जिसके ठण्डे पानी में तर करने से बाल खड़े हो जावे, जिसके शरीर में लाठी मारने के निशान
हो जाये ।
प्रभृतस्य करतल स्या कुंचन माकुं चितस्य वातस्य, विहिते प्रसारण सति यथा पुरं च व्यव स्थानं
॥ ११७ ॥
जो मुट्ठी को खोलने और बंद करने को अथवा हथेली को फैलाने को पहले के समान जान लेवे ।
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विद्यानुशासन 959595959
चिन्हान्य मूनि यस्मिन स्फुटं प्रदृष्टानि भोगिना, दष्टेन समवर्ति सद्यनिवर्तिन मेवाशंक स्वमवगच्छेत ॥ ११८ ॥
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इस प्रकार के चिन्ह वाले भोगिनी (स) से इसे हुए को शीघ्र ही अपने सदमनि (घर) में रहता हुआ निशंक रुप से जाने ।
प्रतिमां स्वस्यादर्श सलिले वाना वलोकेत्, घाणास्याग्रं भ्रुवमथ दष्टोयः सः क्षणात् म्रियते
॥ ११९ ॥
जो इंसा हुआ पुरुष दर्पण या जल में अपने सिर या भौं के भाग के प्रतिबिम्ब को नहीं देखे वह शीघ्र ही मर जाता है।
नवाग्रभागेननवांतराले निपीडनं वेत्ति नयोऽहि दष्टः,
यो हस्त रुद्धं शुति युग्म संधोन तं निनादं शृणु यान्महांतं ॥ १२० ॥ जो सर्प से डसा हुआ पुरुष नाखूनो से, अपने नाखूनों को दबाये जाने पर उसके स्पर्श को नहीं जानता अथवा जो अपने कानों पर हाथ रखे जाने से उसके भारी शब्द को नहीं सुनता है।
ज्वलन दीपक चंद्र दिवाकरान् यदिन पश्यति भोगि विषार्द्धितः, स्व कर मूर्द्धन संचय लुठनः सच यमालय माविशति ध्रुवं
॥ १२१ ॥
यदि कोई भोगि (सर्प) के विष से पीड़ित (इसा हुआ) आदमी, अग्नि, दीपक, चंद्र, सूर्य को नहीं देखे और अपने हाथों से सर के बालों के लौटने को नहीं जाने तो वह निश्चय से यमराज के घर में प्रवेश करता है।
धावति चे निहितं सलिले स्क् धावति द्रष्ट शरीर मरालः, सत्य चले चल एव चलः स्यात् त्याग परिग्रहः मुत्तम मेतत्
॥ १२२ ॥
जिस पुरुष का रक्त जल में रखे जाने से खूब दौड़े, जो हंस के शरीर को देखकर दौड़े, जो किसी के सत्य से चलायमान होने पर व्याकुलता से चंचल हो उठे वह उत्तम परिग्रह त्याग करनेवाला है।
जिव्हाया नाशाया नेत्र रुचोश्च भ्रवो क्रमशः, अप्रेक्षायां जीवत्येक पंच सप्त नव दिवसात्
॥ १२३ ॥
यदि कोई सर्प से इसा हुआ पुरुष अपनी जीभ को नहीं देखे तो वह एक दिन जीता है, जो अपनी
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S5I01512150151065105 विधानुशासन 352150151015015IN नाक को नहीं देखे वह पांच दिन जीता है, जिसको नेत्रों की कांति नहीं दिखलाई नहीं दे वह सात दिन और जीता है तथा जिसको अपनी भौहें दिखलाई देवे वह नौ दिन ही और जीता है।
संग्रह तथा त्याग के मंत्र बिंदुना परम स्तेन यदबुंकत मंत्रणं तत्से, कानेत्र सुन्मीतेद्यदि दष्टः स जीवति
॥१२४॥ यदि सर्प से काटा हुआ प्राणी परम (र) में बिंदु अर्थात् रं से मंत्रित जल से सींचा जाने पर अपनी आंखें खोल दे तो वह बच जाता है।
स्वरैः षोडशभिजप्तः वापतो यस्यगच्छति, वितीर्ण मास्टो तस्य स्था जीवितं मतिरन्टाथा
॥१२५॥ यदि सोलह स्वरों से जपे हुए जल के मुँह में जाने से मुँह खुल जाये तो यह बच चाता है अन्यया मर जाता है।
शून्टोन सर्व स्वर संयुतेन जलं प्रदधादभि मंत्र्य पानं, तस्य स्थितत्वसति सःस्थितः स्यात् निर्गमे निर्गत एव जीव:
॥१२६॥ यदि हकार में मिलाये हुए सब सोलह स्वरों से अभिमंत्रित जल को पीने से खड़ा रह सके तो उसका जीवन रहेगा अन्यथा यदि वह खड़ा न रह सके तो उसका जीवन भी नहीं रह सकेगा।
ॐ वंक्षः इत्टोनेनाभि मंत्रि तै वारिभिर्मुरवे सं सिक्तो, दष्टस्य स्पंदः स्याचे जीवेदितरथे तिरथा
॥१२७॥ ॐ यक्षः मंत्र से जपे हुए जल से, मुख भिगोने से, मुख में जल बहने लगे तो जीयेगा अन्यया मर जावेगा।
महि जल समीरिणांबर मंत्रित सलिलेन सिक्त वदनोयः, प्रकट यति श्वासम सौ जवति खलुने तिरो द्रष्ट:
॥१२८॥ यदि क्षिप स्वाहा मंत्र से मंत्रित जल से सींचा जाने पर जिसके शरीर में श्वास प्रकट होतो वह बच जाएगा अन्यथा नहीं बचेगा।
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CHEIOSCHECISIONSIDE विधानुशासन VSRISTICISIO505125
हां वंक्षं मंत्र संचित तोरोना त्रसति यस्या गात्रेतु
सच जीवत्यथवा क्षि स्पंदन तो नान्यथा दष्टः ॥१२९॥ यदि हां वंक्षं मंत्र से मंत्रित जल से मुख सींचा जाने से जिसके शरीर में कष्ट होतो वह बच जायेगा अयवा आँख फड़कने लगे तो बचेगा अन्यथा नहीं बचेगा।
स्थभंन बीजं लांतं बिंदु युतं सृष्टि युक्त कष वर्णः
तन्मंत्र पुलिकितांगो जीवति यदि पल्मन्सं चलनो ॥१३० ।। स्थंभन बीज और व को बिंदु सहित कष से मंत्रित जल से जिसके शरीर में रोमांच हो जावे और पलके चलने लगे तो यह बच जाएगा।
ॐहां वं क्षवः स्वाहा सप्तासरभि मंत्रित दृष्टि दृष्टो रवि शशांकंगु यदि पश्यति सनपश्यति कृतांत मिति गारु गतातं
॥ १३१॥ यदिॐ ह्रां यं क्षयः स्याहा इन सात अक्षर के यंत्र से मंत्र से आंखे मंत्रित करने पर सूर्य और चन्द्रमा को देखने लगे तो यह काल को नहीं देखता ऐसा गारुड शास्त्र में कहा है।
अनल कुवलय नमो जिन मंत्रं ध्यायनथ क्रमान्मंत्री वामे तिरो.उभद्याक्षि स्फुरणात् शुभम शुभ विष मादिशतु
॥१३२॥ ॐ अनल कुवलय नमो जिन स्वाहा इस मंत्र का ध्यान करते हुए यदि मंत्री की बॉई आँख फड़के तो शुभ, दाहिनी से अशुभ और दोनों से विष दूर होता है।
तन्मंत्रा मनु स्मरणां स्फुरणं यत्रास्ति तत्र दंशो द्वेगः,
अंग स्फुरणा भायेज्ञातव्यः स्याद् विषा भावः ॥१३३ ।। यदि मंत्र को स्मरण करने पर मंत्री का अंग फड़कने लगे, जो अंग फड़के बही विष का जोर होता है- यदि अंग नही फड़के तो विष का अभाव होना चाहिये।
ॐ अनल कुयलय नमो जिन स्वाहा।
• तत्वे समिते काल स्तत्वे सतिनैव विद्यते कालः,
इति तत्व विभागज्ञः स एव विनता सुतो लोको ।।१३४॥ स्वर (तत्य) के न रहने पर काल तथा स्वर (तत्व) के रहने पर काल नहीं होता है, जो पुरुष इस CSCISIOTSICSIRIDIOS25६२७PSRISTRISTOISONSTRISTRIES
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STSOSIDEOSRIDE विधानुUM TEADIRTISIO555I0RSS प्रकार स्वर (तत्व) के विभाग को जानता है वही लोक में गारुड़ होता है।
ॐकार पूर्व प्रविलिरव्य तत्वं लाहःपः लक्ष्मी सित होमवर्ण, मार्तंड संख्यं प्रजपेत्सहस्त्रं
मंत्री भवेत् त्याग परिग्रहज्ञः ॐ ह्रीं ला व्ह: पः लक्ष्मी हंसः स्वाहा ||
॥१३५।।
प्रत्यक्ष संग्रहः जो मंत्री ॐ ह्रीं ला व्ह: पः लक्ष्मी हंसः स्वाहा इस मंत्र का बारह हजार जप करता है वही त्याग परिग्रह का ज्ञानी होता है।
दष्टो दिनो यदि न पश्यसि बद्ध दृष्टि मूच्छा प्रयाति न च जल्पति कंपते च, मंत्राभिषेक करणेन न निर्विषांगः श्वासाधिको भवति चेद मराकरः स्यात्
॥१३६॥ यदि सर्प का काटा हुआ प्राणी निगाह बांधकर दिन नहीं देख सके, मूर्छित हो जाये उसकी बोली नहीं निकले, कांपने लगे और यह उपरोक्त मंत्र के अभिमंत्रित जल के स्नान से विषरहित नहीं होकर अधिक श्वास ही लेने लगे, तो वह नहीं बचेगा।
एक द्वित्रि चतुर्धायाम्यै रवि सोमकुज बुधाश्चा स्यात्,
द्वि चतु षट दिवसे रवि गुरु शुक्र शनीश्चरायांति ॥१३७ ॥ इससे सूर्य के ग्रह की दशा एक पहर में चंद्रमा की दोपहर में, मंगल की तीन पहर में बुध की चार पहर में बृहस्पति की दो दिन में, शुक्र की चार दिन में और शनि की छ दिन में समाप्त हो जाती है।
त्याग ग्रहै स्वेड. विनाशनार्थः ज्ञेयानि सारणी सुगुरुड़ स्य स्तोभानि, कर्माणि य कौतुकांर्थ शUषया । तानि गुरौः सकाशात्
॥१३८।। त्याग, ग्रह और विष को नष्ट करने कौतुक और विष को स्तोभन करने को लिये गुरु से गारुड़ी विद्या के सार को जाने।
इति नवम परिच्छेदः
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SHRIRIDICTIOTRIOTSITE विद्यानुशासन VSDIDIOISRASISADICASS
दशम समुदेशः
अधः परं प्रवक्ष्यामि निर्विषी करणं पर, टोन प्राणास्त्रायंते प्रणिनां विषवेगतः
॥१॥ अब उत्तम निर्विषीकरण का वर्णन किया जाएगा जिसके द्वारा विष के वेग से प्राणियो के जीवन की रक्षा की जाती है।
निर्विषीकरणं कार्य संग्रहे सति मंत्रिणाः ततः, स्तोभादिकर्माणि योजनी याति यत्न तः ।
॥२॥ मंत्री को संग्रह के पश्चात निर्विषीकरण करना चाहिये और उसी समय स्तोभ आदि कर्मों को भी प्रयत्न से करे।
सद्यः चिकित्सितान्टाथा सकलीकरणं च तार्क्ष्य
हसाव विन लामो शालि स्नो स्तंभ स्तथा वेशः ॥३॥ इसमें तुरन्त चिकित्सा सकलीकरण, तार्क्ष्य, हस्त, विषनाश, स्तोभ, स्तंभ और नागवेशन का वर्णन किया जाएगा।
संक्रामो भुजंगा हानं स्वहि करहि विषादनं, पर विद्या छिदायंत्रं रक्षा चानोपदिश्यते
||४|| विष संक्रमण, सर्प को बुलाना, सर्प को हाथ में लेना, सर्प विष को भक्षण करना और दुसरे की विद्या को नष्ट करना इनके यंत्र और रक्षा का वर्णन किया जाएगा।
दशं स्योपरि सहसा बंधश्च तुरंगुले प्रयुजति,
नरव कंटकादिभि द्राक् कुर्यात् दंशात सक श्रावं ॥५॥ जिस स्थान पर सर्प ने काट लिया हो उसके चार उंगल ऊपर एक बंद लगाकर काटे हुये स्थान से तुरन्त ही नाखून या कांटे आदि से खून निकाल देवें।
दंतोप्राणादक्षणे जियिां दंश देशमाद तेन हिं,
पत मलेन ततो नाति कामेद्विषं दंशं । ॥६॥ इसके दांत, नाक, आँख और जीभ के स्थानों में सर्प का विष नहीं फैल सकेगा।
SAMRIDDISORTOISODRIS[६२९ P15215050STRISTRISTRIES
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252525252525 Regencast 259545959595
आस्यां समुपेतेन मलेन श्रोत्र जन्मना,
सद्यो लेपाद्विषं दंशं जाति काम्यति जातु चित्
॥७॥
मुख के पानी के साथ कान के मैल को मिलाकर काटे हुए स्थान पर तुरन्त ही लेप करने से विष कभी नहीं बढ़ता।
कृतवृणे नखाग्रेण दंशे कफमलादिभिः, मर्द्दनं विहितं सर्व विषघ्नमभि भाषितं
॥ ८ ॥
सर्प के काटे हुये स्थान पर नाखून के अगले भाग को कफ मलादि में मिलाकर लेप करने से तुरन्त ही विष नष्ट हो जाता है ।
दृष्टव्या विष शांत्यै प्रत्यासन्ना स्मलोष्टकादि, दष्टेन सलिलमथवा शीतल माशु प्रवेष्टेयं
॥ ९ ॥
अथवा काटे हुए के विष को शांत करने के वास्ते देखते ही पास के पत्थर, ढेले, लकड़ी आदि से तुरन्त ही उसमें ठंडा जल भर देवे ।
अन्य पार्श्वस्थया पूर्ख नासा वत्या पार्श्व संस्थाया, रेचयेद मुना दंशं नाति क्रामत्य हे र्विषं
॥ १० ॥
सर्प के काटने के समय यदि बाम पार्श्व में काटा हो तो दाहिने स्वर से अथवा दाहिनी तरफ काटा हो तो बाँये स्वर से विष निकाल दे इससे सर्प का विष नहीं चढता है।
के
हो जाता है।
निपीऽनेन नाशाग्र मध्य दंशस्य निग्रहः,
विषाणां स्याद शेषाणामथवा वायु रोधतः
॥ ११ ॥
भाग के मध्य में मलने से या वायु को रोकने से सांप के काटे हुए के विष का निग्रह
जिव्हाग्रेण स्पृष्टवा ताल वग्रं कुंभकं समातन्वत रूं ध्यान्नाशास्य हृदयं दृष्ट क्ष्वेलाद्विमुच्यते क्षिप्रं
॥ १२ ॥
जिह्वा के अग्रभाग से तालू छूकर कुंभकं के द्वारा नाक, मुख और हृदय को रोकने वाला सर्प दष्ट पुरुष तुरन्त ही विष से छूट जाता है।
95959596995 ६३० P5959595959
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CRICISIOSITICT विधानुशासन 985103510551055105555
सद्यो लोहादिभि स्तप्रैज्वलन ज्वालयाथवा, दंश प्रदेशे दृष्टस्यक्षाहो विष विकारजित
॥१३॥ तुरन्त ही अग्नि से तपे हुए लोहे या अग्नि से इसे स्थान को जला देने से विष का विकार जीता जा सकता है।
हतस्य फणि नांगंस्य कुवीत छेदनं क्षणात्, अथवा दंशं देशस्य शिरां विंध्यत्समीपगां
॥१४॥ अथवा मारे हुए फणी नाग के अंग को तुरन्त छेद डाले अथवा काटे हुए स्थान के पास की नाड़ी या नस को बींध देवे।
दष्टं स मुक्त रक्तं लिंपेतो शीर मलय जाताभ्यांः, शुष्ठी मरिचं कृष्णामपि पिष्टवा पायगेन् मंत्री
॥१५॥ अथवा सर्प से काटे हुए स्थान का रक्त निकाल कर अस जगह खस(मलयज), चंदन का लेप कर देये और मंत्री काटे हुए पुरूष को सोंठ और काली मिरच पीस कर पिलावे ।
वंद्याभूषण दाह खंडन निज श्लेष्मापि विरमामर्द्धनैः, रन्यै रप्प चिरं कुरू प्रति विद्यं दंश प्रदेशे स्वयं
॥१६॥
किं ग्राम्टोः रथवा त्र निर्विष विधिद्धस्तैर हो मंत्रिणो,
यस्याप्येष विषाय हार निरतं काटोपि तत्वं स्थिरं ॥१७॥ काटे हुए स्थान के पास बांधने, गहने से जला देना, खंडित अर्थात् काट डालने और अपने कफ या मल को पिलाना, मालिश करना और इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का भी काटे हुए स्थान पर प्रयोग करे और कोई प्रतिकार की विधि खुद करे। इस विष को दूर करने की विधि में गांव की विधि क्या करेगी ऐसा नहीं करना चाहिये। क्योंकि यह विष दूर करने की विधि जिसके शरीर में भी लग जावेगी वही वास्तविक बन जाती है।
रसनाग्रं ताल्वग्रे संस्थाप्या पानमा कुंच्या, आकर्षेत् तत्रात्मा ने मृत पूर्व काल यलात्
॥१८॥ जिव्हा के अग्रभाग को तालू के अग्र भाग में लगाकर अपनी अपान वायु को खींचकर यहाँ अपनी अमृतमयी पहली कला को यत्न पूर्वक आकर्षित करे।
SSIOSISTRITICISTRATIO5६३१ PID050505ICTERISTIT
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05051015015015015 विधानुशासन ASADSOISITTERISTORI
अंगुष्टयो पष्टे मूर्द्धनावथ जानू गुह्य नाभि हदि स्तन,
गलाशा मान अवण भू मध्य शंख मूद्धनिवा ॥१९॥ अंगूठे में, पांव में, पीठ में, मस्तक, जांघ, गुह्य, नाभि, हृदय, स्तन, गला, नासिका, आंख, कान, भों के बीच में शंख (सिर) और मस्तक में
पुंसः पार्क दक्षिण आरोहणे वच रति सित पक्षी, अमृत कला प्रथमाया आरंभ्या रा कमनु पूर्व
॥२०॥ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अंगूठे से आरंभ करके क्रम से पुरुष के सब दाहिने अंगो में चन्द्रमा की एक एक कला के बराबर विष चढ़ता है।
पुरूष स्यासित पक्षे तिथि क्रमादुक्त क्रमेण मूर्दादि,
अगुष्टां तं वाम पार्क सौ धि कला चरति ॥२१॥ और कृष्ण पक्ष में पुरुष के तिथि के क्रम से सिर से लेकर अंगूठे तक वाम भाग में चन्द्रमा की कला के बराबर विष उतरता है।
स्त्री के शरीर में विष की चंद्रकला नावस्तु सिते पक्षे वामे पाई शधाकलां चरति, आरोहणान्य स्मिन दक्षिण पावरोहण
॥ २२|| स्त्री के शुक्ल पक्ष में बायें शरीर के भाग में चन्द्रमा की एक कला चढती है और कृष्ण पक्ष में दाहिने भाग में एक एक कला उतरती है।
प्रोक्तं सुधा कलायाः स्थानं यद्वपुषि सत्तवमेतस्थ,
क्ष्वेड़कला चरति तथा तिथि क्रमात् तत्र तत्रागं ॥२३॥ इस प्रकार के स्त्री और पुरुषों के शरीर में अमृत और विष की कला तिथि के क्रम से उसी उसी अंग में रहती है।
यात्रामृत मप्या स्ते कला शरीरैक देशेवा, तन्मईनात्प्रशाम्यति विषंक्षणाद्ध्यात देहमपि
॥२४॥ शरीर के जिस भाग में इस प्रकार से विष की चन्द्रकला होवे उसी अंग को मलने से क्षण मात्र में ही सर्प विष शान्त हो जाता है ।
CTERISTOTHRISTOISO15855६३२ DISTRICTSICISTRICISCESS
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95969595
विधानुशासन 95959595595
सतिष्टंति यत्रांगे तत्र भुजंगेश्वरेण कुलिकेन, अपि दष्टस्य विषार्त्तिः प्रादुर्भवति प्रभुनं भवेत्तः ॥ २५ ॥ इसीप्रकार से यदि किसी भाग में नागराज कुलिक के भी काटने से विष पीड़ा हो तो वह फिर पैदा नहीं होती ।
स्मर मंदिर स्थितायां सुधा कलायां रतिः स्त्रियाः, प्रथमा रचिता करोति यावज्जीवं स्नेहातुरां नारीं
॥ २६ ॥
यदि चन्द्रमा स्त्री योनि में हो तो और उस समय कोई पुरुष इससे से पहले से संबंध करके संभोग करे तो स्त्री जन्मभर उसके प्रेम से व्याकुल रहती है।
युत मंग मंगनाया यदमृत कलया रतोत्सवं, तंत्र संस्पर्श चुंबनाद्यं वश्याय द्रावण यापि
॥ २७ ॥
स्त्री के जिस अंग में चंद्र कला अमृतमयी हो उसी अंग का स्पर्श और चुंबन आदि करने से स्त्री वश में होकर तुरन्त ही द्रावित हो जाती है।
यस्मिंस्तु विषमयी सा कला शरीरे स्थित्वाऽहि,
दष्टस्य तस्यांगस्य विमर्द्धकृते क्षणात्स्याद विष स्तौभः ॥ २८ ॥ किन्तु जिस समय वह चंद्रकला विषमयी हो तो उसी अंग का मर्दन करने से उसी क्षण में विष नष्ट हो जाता है।
कलया युतांगे यदि दंश: साध्य लक्षण युतोपि, सहसै वनयति मनुजं कृतांत धन मदिरा वासं यदि विष की कला से युक्त किसी अंग में सर्प ने काटा हो तो साध्य के लक्षण होने विष काबू में आ सकता है) किन्तु इससे वह पुरुष को शीघ्र ही (क्रतांत ) यम के बना देती है ।
॥ २९ ॥
पर भी ( अर्थात् मंदिर का अतिथि
शत्रोः प्रतिकूल पुतल्यां विष कलाश्रितेऽवयये, वेद्यादिकं विदयाद यथा वद्धुधार काद्यर्थ
|| 30 ||
प्रतिकूल नक्षत्र में शत्रु की पुतली बनाकर उसके विषकला सहित अंग में वैध (बींधना या कील गाड़ना) आदि की क्रिया करे तथा छुड़ाने के वास्ते भी किया करे।
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9595PS ६३३ PSPSPS
PSPSPS
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25252525
विधानुशासन
स विष कले भवति गले तत्रामृत वर्णममृत सम वर्ण, अशितुं ध्यात्वा दद्यात्त अन्नंनो चंदऽजीर्ण स्यात्
॥ ३१ ॥
यदि गले में विष की कला हो तो यहाँ पर अमृत के वर्ण के समान ध्यान करके खाने के लिये अन्न देवे अन्यथा अजीर्ण हो जावेगा।
ध्यात्वे वै तन् नित्यं भुंजानो भोजनं भवेन्मनुजः,
. आरोग्येनवलेन च दीप्त्या पुष्टया च संपन्नः
॥ ३२ ॥
•
यदि कोई पुरुष यह ध्यान करके नित्य भोजन करे तो यह सदा ही आरोग्य बल कांति और पुष्टी
से
हो ।
'युक्त
9956959
मंत्र ध्यानादिना प्राप्यं सर्वे : सर्वत्र सर्वथा, इत्युपयोग विषघ्नोऽयंश्लाप्यते विश्व गोचर:
॥ ३३ ॥
और मंत्र के ध्यान के दिन इस उपयोग को सबको सब कही सभी प्रकार से करना चाहिये यह उपयोग संसार भर में विष को नष्ट करके प्रशंसित हो रहा है।
परमश्च विविक्त विदुना सहितौ पृथक्, बीजं तुषारमह सौ द्वितीयं वद्ध शब्देया
हं वं मंसं तं
॥ ३४ ॥
दष्ट हत्पदम कोशेषु मंत्र तन्नाम वेष्टितं, चंद्रां शतं स्मरे देष दष्टं रक्षती मृत्युतां ॥ ३५ ॥ परम (र) और विविक्त (भ) को बिन्दु सहित पृथक-पृथक लेकर तुषार (चंद्र बीज) और महस (अभि बीज बीजों को बंधे हुए दोनो शब्दों से मिलावे। सांप से काटे हुए पुरूष के हृदय कमल में उसके नाम को मंत्र से वेष्टित करके उस डंसे हुए के नाम के ऊपर एक सौ बार चंद्रमा का ध्यान करे, तो उसकी 'मृत्यु से रक्षा हो सकती है ॥
मंत्रोद्धारः
कवेर्मध्ये ककारारद्यांश्चत्वारश्चतुरः क्रमात् विन्यस्टो द्वामतो वर्णान परमाख्या क्षरावलीन इत्थं वर्ण चतुष्कैस्तैरष्टभिः कवि मध्यगैः पिंड़ा, स्युरष्टौ कुलिक पदेन कृत वंष्टनै:
959595959 ६३४ 9595959519
॥ ३६ ॥
|| 3160 ||
•
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ಇದಾವಣಗಣದE RIಿಘEQF Bಥಳಥಥಳಗಾದಳದ
तानष्ट पिंडाना रम्य पदमटामा जानुतः कमात्, आनाभि नाभेरा कंठ कंठादा मस्तकं कमात् ॥ ३८॥
वाम पार्थदिकं न्यस्य स्चेतन मध्य स्थितं स्मरेत्,
दष्टयैनं मंत्रिणां जागा ग्रहाश्च विभियुः परं ॥३९॥ कधि (ऋ) के मध्य में ककार आदि चार बीजों को क्रम से रखे। उत्तमोत्तम नाम वाले अक्षरों की पंक्ति को वर्णों के बाईं तरफ रखे। इसप्रकार धारों वर्गों के बाहर आठ पिंड़ों को कवि के मध्य में के बीजों से जो आठ कुलिक पदों से घिरे हुए हैं। पिंड बनता है। उन आठों कुलिक पदों के पिंडों से वेष्टन करके, उन आठ पिंडो से पैर से घुटनों तक और नाभि से क्रमशः कंठ तक, और कंठ से क्रमपूर्वक मस्तक तक, बायें अंगो की तरफ रखाकर अपने को उसके बीत में खड़ा हुआ ध्यान करे। इस मंत्री से इरकर नाग और सब ग्रह भाग जाते हैं।
गरूड़ हस्त विधान क्षिप स्याहा बीजानि न्यसेत्पाद नाभि हन्मुख शीर्षषु.
पीतसित कांचनासित सरचाप निभानि परिणायः ॥ ४०॥ क्षिप ॐ स्थाहा इन पांचो बीजों को क्रम से निम्न प्रकार से अपने अंगो में स्थापित करे। क्षि बीज को पीले रंग का दोनों पैरों में, प बीज को सफेद रंग का वाभि में, ॐ बीज को कांचन वर्ण का हृदय में, स्वा बीज को काले रंग का मुख में, हा बीज को इन्द्र धनुष के वर्ण का सिर में स्थापित करे।
भूजला जल मरूनभोक्षरं पाद नाभि हृदयास्य मस्तके,
न्यस्य मंत्र्यऽभिहित द्युतिःक्रमात् पक्षिराजमनु चिंतरोन् निजं ॥४१॥ पृथ्वी जल(प), अनल (अग्मिों ), मरून (वायु स्या), नभ (आकाश हा) अक्षरों को अपने पैर, नाभि, हृदय, मुख और सिर से स्थापित कर मंत्री अपने को पक्षीराज (गरूड) से प्राप्त किये हुए महान तेज युक्त ध्यान करे ।
आजानुतः सुवर्ण छवि:मा नाभः सुधी: प्रभा धवल, आकंठा द्रक्तद्युतिमा के शांतात्तमो वर्णा
॥४२॥ पांव से धुटनों तक सोने के समान पीले रंग का, घुटनो से नाभि तक सफेद कांति का, नाभि से कंठ तक लाल रंग का औरकंठ से केशों के अंत तक तम (अंधकार) के समान काले रंग का
आरक्ताक्षं निरिवलं त्रैलोक्य व्यापिनं गरून्मतं आनील,
नाशिकाग्र भूषितामुरगाधिपै यायेत् ॥४३॥ SSCISCTRICISTRICISTR5६३५ PISTOISTRISSISTRIECTECISI
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CSCISCI501501505 विद्यानुशासन 95ODRISTRISTD351565 फिर उस तीन लोक में व्याप्त गरूड़ के नेत्रों का लाल रंग और उसकी नासिका को नीले रंग का ध्यान करे।
उद्धाधो रेफाभ्या मों कारेणापि संयुतं कूट, व्योमं चरणमोपेतं भेदित मितरऽत्र कर्णिका कथिता
॥४४॥
स्युः कैशराः स्वरा काद्याः वर्गाः सप्त चापि यश वर्गों,
अपि पत्राणराऽष्टौ विष रोग रिपो मातकाः बजश ॥४५॥ औंकार को उपर और नीचे रेफ सहित कूटादार (क्ष) और व्योम अर्थात् अनुस्वार या आकाश (हा) चर को नमः युक्त करके अर्थात् ॐई हा चर नमः मंत्र को कर्णिका में लिखे केशर रूप से कहा है। क आदि कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग,यवर्ग, शवर्ग और सोलह मातृका (स्वरों) सहित आठ पत्तों के कमल में लिखे। यह आठों तरह के विष,रिपु, रोग का शुत्र मातृका नाम का कमल होता है।
拆任。常
*
आ
अ
CSCISSISTRISIOTI5T055105[६३६ PISO1015015050ISTOISI
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05215015055015 विधानुशासन 150150150151050SI
पश्चिम दलाट भेदित भेदित पीताक्षराणि चत्वारि न्यस्य, क्रमात् स्वकीये हस्ते ह्रदये च तं प्याटोत्
॥४६॥ पश्चिम की तरफ के दल में सम्पूर्ण और आधे चार पीले अक्षरों को रखकर उसका ध्यानक्रम से अपने हाथों और हृदय में करे।
अंगुष्टाद्यं गुलि मध्यम पर्व सु मंडलानि विन्यसेत्,
ता या क्षरान सवर्ण द्वि जिव्ह बीजै रूपेतानि ॥४७॥ अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्टा आदि अंगुलियों के शखो मे पाचो मंडल गरुड के अक्षरों के सुवर्ण द्वि जिव्ह बीजों सहित रखें।
भूतात्मीया हिनां नामाद्यानक्षरान् गुणांश्च, मंडलपंचक मध्ये कुन्मिंत्र च विन्यसेत्
॥४८॥ उन पांचों मंडलों में भूत आत्मीक अथवा सर्प के नाम के अक्षरों सहित मंत्र को रखे।
अंगुष्टाद्य मुंलि पर्व सु विपरीते भेदितो न्यसेत्, स्वरपूर्वकम क्षरं पंचक मपि मंत्रि क्रमेणैव
॥४९॥ मंत्री अंगूठे आदि पांचों उंगलियों के पोखों में उलटे आधे स्वर सहित पांचों अक्षरों को रखे।
इत्थं प्यातो विनता नंदन हस्ता विधान एष करः,
वामः कुर्यात् स्पर्शात्स्थावर जंगम विषाक्षेपान इसप्रकार (विनत नंदन) गरूड हस्त विधान से ध्यान पूर्वक उसे बायें हाथ से छूने से सब प्रकार के स्थावर जंगम विष नष्ट हो जाते हैं।
आजान्विता धुक्त स्थान विभागस्थ निजवपूर्वण,
गरूड स्वं मनु प्यायन् दष्टं तेन स्पृशेन मंत्री ॥५१ ।। घुटनों से लगाकर पूर्वोक्त स्थानों में अपने शरीर के वर्ण का ध्यान करता हुआ औरअपने को गरूड जानता हुआ मंत्री उससे काटे हुए पुरुष को छुवे |
अथवात्र ताक्ष्य हस्ते क्षिप्तं प्रभृतीनां निवेशयत्, स्थाने वर्णाश्चतुरो वर्णानां लवरयान मंत्री
॥५२॥ अयवा इस गरूड के हाथ में शीघ्र तब ल य र य इन चार वर्णो को मंत्री स्थापित करे।
इति गरूड हस्त विधानं समाप्त ಆಗುಣಪಡಣಪಥSI &39 Yಣಣಬಣಣಬಣಣ63
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95015105250505 विधानुशासन 2050550510351015015
पंवार
पृथ्वी महल
-
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Area
Ham
MI
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.
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घायू मंडल
श्रीन परन
भाकाशे मरत
जलभूमि वह्नि मारूत गगणैःसं प्लावयोपतैः, भवति च विषापहार स्तर्जन्याशालनाद चिरात्
||५३॥ जल (प) भूमि (क्षि) वलि(ॐ) मारूत (स्वा) गगणै (हा) च पक्षि ॐ स्वाहा सं प्लावय इस मंत्र को बायें हाथ की तर्जनी से चलाने से शीघ्र ही विष दूर हो जाता है। पक्षिॐ क्षि स्वाहा संप्लावय-संप्लावय मंत्र है।
॥ ५४॥
वहि जल भूमि पवन व्योमाग्रं दह पत्वं दयं योज्यं,
स्तोभा युगलं स्तोभो मध्यमिका चालनाद् भवति ॐ पक्षि स्वाहा दह-दह पच-पच स्तोभय-स्तोभय ॥ इस मंत्र का मध्यमा उंगली से अपने से दष्ट पुरुष को कुछ आवेश होता है।
CISIOSDISIOSDISTRI5015[६३८ PISTRISDISTRI501505OIN
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CASIO1505RIDDISTRIS विधानुशासन NSCISIODICISITORSCIEN
आध्यंते भू बीजं मध्ये जल वह्नि मारूतं योज्य,
स्तंभय युगलं स्तंभो वाम करों गुष्ट चालनंत: ॥५५॥ क्षिपॐ स्वा स्तंभय स्तंभय क्षि इस मंत्र का बायें हाथ के अंगूठे से जपने से विष का स्तंभन होता है।
व्योम जल वह्नि पवन क्षिति युत मंत्राद् भवत्य यावेशः,
स क्षि पहा पक्षि पहः पवनेन कनिष्ट का चालनात ॥५६॥ हा पॐ स्वा क्षि संक्षि पहा हा पक्षि पहः ॥ हा पॐ स्वाक्षि संक्षिप हा पक्षि पहः इस मंत्र को बायें हाथ की कनिष्टा उंगली से जपकर चलाने से पुरुष के शरीर में नाग आयेश करता है।
मुरदग्नि वारिधात्री व्योम पदं संक्रम व्रज द्वितयं, चालितयोऽनाभिकथा नितरां विष संक्रमोभवति
॥५७॥ स्वा ॐ पक्षि हां संक्रम-संक्रम वा गज्वल उतार-बारमिजद-विजय अनंत ॐठ::॥ इस मंत्र को अनामिका से जपकर चलाने से विष का संक्रमण होता है।
शोषा दीना मयं यंत्रो नियत त्रय जापतः सिद्भेदे,
तेन शेषादीनाम युक्तेन मंत्र वित् ॥५८॥ शेषादि नामवाला मंत्र तीन नियुत (तीस लाख) जाप से सिद्ध होता है। उसे मंत्री का नाम सहित सिद्ध करे.
पाद जंघा मेठर नाभि हत् कंठ मुख मस्तकं,
क्रमेणयोजितं तेषां स्पष्टवा तत् तद् विषं हरेत् ॥५९॥ इस मंत्र को युक्त करके पैर,जांघ, इंद्रिय, नाभि, हृदय का मुँह और मस्तक को छूने से उस उस स्थान का विष नष्ट हो जाता है।
अजितेन यतं कटः पूज्यस्तारोऽग्नि वल्लभा, ताा पंचाक्षराणयेष नेत्रा तांगो मनुःस्मतः
॥६०॥ क्षिपऊ स्वाहा ज्वल-ज्यल महा मति ठः ठः हृत गरूड़ चूड़ानन ठाठः शिरवा॥
SOCICI5DISTRI501501505[६३९ PISO5CTRICISI5015015
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(अजित (इ) से युक्त कूट (क्ष) पूज्य (प) तार (ॐ) अनि (स्वा) वल्लभा (हा) अर्थात् क्षिपॐ स्वाहा यह पांच गरूड के अक्षर है । और इनके अंग नेत्र आदि है। यह मनुः द्वारा कहा गया है। क्षिपॐ स्वाहा ज्वल-ज्वल महा मति ठः ठः हृत गरूड़ जनन ठः ठः हत गरूड चूडानन ठः ठः ॥
इस मंत्र को पढ़कर शिखा को छूवे ।
गरूड प्रभंजन-प्रभंजन वित्राशय-वित्राशय विमूर्द्धयर ठः ठः कवचं ॥ यह कहकर कवच की क्रिया करे ।
ॐ अप्रतिहत वला प्रतिहत शावर हुं फट ठः ठः । अस्त्रं
यह पढ़कर अस्त्र दिखाने की क्रिया करे ।
उग्र रूप धारक सर्प भयंकर भीषटा भीषटा सर्पान दह दह भस्मी कुरू भस्मी कुरूकुरूं ठः ठः नेत्रं ॥
इस मंत्र को पढ़कर नेत्र को छूवे ।
पुरश्वरेण मेतस्य मनोर्लक्ष जपोमतः स्थावरं, जंगमं चैव कृत्रिमं च विषं हरेत
॥ ६१ ॥
यह पुश्चरणमंत्र है। इसको मन लगाकर एक लाख जप करने से स्थावर, जंगम और बनावटी सबप्रकार के विष नष्ट हो जाते हैं।
नेत्रय मंत्रस्य धूपाद्यं वितार स्यास्य संजपात् आविष्टश्च भवेदृष्टं स्य वृतं च निवेदयेत्
॥ ६२ ॥
नेत्र मंत्र को पढ़कर धूप देने से और इस वितार मंत्र का जप करने से नाग आवेशित होकर अपना सब हाल कह देता है।
ॐ पक्षिराज राजपक्षि ॐ ठः ठः ठीं ठीं यरलव ॐ पक्षि ठःठः ॥
एतेन सहस्त्र त्रय जापात् सिर्द्धन गरूड मंत्रेण,
यष्टिता भुवि प्रहरणं सर्वे विषापहरणं भवति
॥ ६३ ॥
इस गरूड मंत्र को तीन हजार जप से सिद्ध करके पृथ्वी में यष्टि (लाठी) मारने से सब विष नष्ट हो जाता है।
959695959665 ६४० 969695969595
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PSPSPSPSPSS विधानुशासन
तारस्तारेण संयुक्तः प्रज्योति बिंदु संयुतौ, आर्य रेफा सुधात्सूते मंडलं कलयान्वितं
॥ ६४ ॥
तार (ॐ) को ॐ से युक्त करके उसमें ज्योति (ई) और बिन्दु (अनुस्वार) लगाकर फिर आर्य (ई) में लगा हुआ रेफ (रकार) और कलाओं (स्वरों) से युक्त मंडल अमृत उत्पन्न करता है।
हर हर ह्रदयाय ठः ठः कुर्द्धिते ठः ठः नील कंठाय ठः ठः काल कूट विष भक्षणाय हुं फट अंगानि ||
मंत्रस्या नील कंठाख्यो लक्ष त्रय जपाद्वयं सांगः, सं सिद्धि मयाति विष वेग निषुदनं:
॥ ६५ ॥
उपरोक्त नील कंठ मंत्र का तीन लाख जप करके सिद्ध करे तो विष के वेग को नष्ट करने वाली सिद्धि अंगो सहित प्राप्त होती है।
ॐ नमो भगवते नील कंठाय ठःठः ॥
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लक्ष्य प्रजाप्य सिद्धेन प्रयुक्त मंजुना मुना चराचर विषं विश्वे प्रणश्येदौषधादिभिः
॥ ६६ ॥
उपरोक्त मंत्र का एक लाख जापकरके सिद्ध करे तो वह मनुष्य प्रयोग करके यह औषध आदि सब प्रकार के चर और अचर विष को नष्ट कर सकता है।
ॐ नमो भगवती नीलकंठी जमल कंठी सर्मल कंठी क्षिप ॐ स्वाहा ठः ठः ॥ लक्ष जपात् सिद्धो जापाद्यैरेष भवति निर्विष मरिवलं, प्रशमयति नेत्र रोगं विष सर्पकं दंत शूल मपि
॥ ६७ ॥
उपरोक्त मंत्र को एक लाख जप करके सिद्ध करके प्रयोग करने पर सब प्रकार के विष, सर्प, नेत्र, रोग और दांतो के रोग दूर होते हैं ।
ठःठः ॥
ॐ नमो भगवते नील कंठी निर्मलाक्षी रूपिणि शीघ्रं हर हर पर पर परि परि हुं फट
द्विगुणीतषड्लक्ष जपाौद्रौ मंत्रोयं भागतेः सिद्धिं, अभिमंत्रणा द्विषातिं प्रशमयितुम् लक्षणात्सकलां
॥ ६८ ॥
इस रौद्र नीलकंठ मंत्र की सिद्धि बारह लाख जप से होती है। इस मंत्र से अभिमंत्रित करने से
क्षण मात्र में सब प्रकार के विष का कष्ट निश्चय पूर्वक दूर हो जाता है।
やちこちにちゃ
195६४१ PSPS
5959595
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SSCISIOISODOISO15 विद्याधुशासन HSCISIOSDISTRIEOS
तूर्य स्तृतीय वर्गस्थ ह्यद्वर्गः शून्य शेरवरः, हंसातो मंत्रिभिः प्रोक्त समस्त विष नाशनः
॥६९॥ तीसरा वर्ग {च वर्ग) का चौथा अक्षर(झ)में उद्वर्गव और मस्तक (शिकर पर) शून्य बिन्दी अनुस्वार लगाकर अंत में हंस पद अर्थात् इवीं हंसः यह मंत्र सब प्रकार के विष को नष्ट करता है।
शून्यं वकार युक्तं स विसग पुंडरीक संकाशं,
याम करै विन्यस्तं तक्षक दष्टमपि निर्विषं कुरुते ॥७ ॥ शून्य हकार में वकार और विसर्ग लगाकर अर्थात् व्हः इस एकाक्षरी मंत्र को यायें हाथ में लगाने से तक्षक और पुंडरीक सर्प के डसे विष की शंका(भय) को भी निर्विष करके दूर करता है।
शादेवग्गास्यात्ये पष्टे दष्टस्य यष्टि संयुक्तं,
विन्य स्यांगुष्टेन तदा क्रम्य जपेत् तद विषाय । ॥७१॥ यदि सादि यह सवर्ग के अंतिम अक्षर(ह) को पृष्ट अर्थात् आगे यष्टि (अनुस्वार) सहित करके हं बीज को अंगूठे से जपे तो विष के आक्रमण को दूर करता है।
स्वरांभव स्तरैशर्कतं लास्य माग संधिष, चन्द्र स्थितं तदनु हंसः पदं मंत्रि विषं हरित
॥७२॥ स्वयंभू(ल) में यदि मंत्री चं स्यर सहित और हंस से युक्त करके अंग के सब जोड़ों में में लगावे तो सब प्रकार के विष को दूर करता है। ॐ लं वं हसः ॥
ॐवं पूर्व कटूः सविशग्गोंवदन मध्य विन्यस्तः, त्रिविध विषमपि हन्धु चारितोप्यर्थ दुष्ट दुश्वानिः ॥७३||
ॐ वं क्षः उपरोक्त मंत्र के पश्चात विसर्ग सहित कूटाक्षर ॐ वं हंस क्षः इस मंत्र को मुख में कमल में लगाने से बोलते हीं । तीनों प्रकार के विष (स्थावर, जंगम और कृतम) और दुष्ट दुःखों को नष्ट करताहै।
ॐ यं क्षः
ॐ एहि एहि माटो भेरुंडे विज्जाभरिय करडे तंतु मंतु औयोषई हंकारेण, विषणासई स्थावर जंगम किट्टिम जंगम किहिम जंॐहीं देवदत्त विष हरहुं फट्।
ಆಚರಿತ್ರಣದಂಥ & VEERESH
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CSCISODESRISO15 विधानुशासन ISIRISTOTHRIKRISODE
सं सिद्धो यस्य भेरुंडा मंत्रोटयं श्रवणां तरे, जप्तोर्दष्ट सन्यसतं निविषी कुरुतः नर
||७४।। जिसको उपरोक्त भेरुंडा मंत्र से सिद्ध होता है यह इस मंत्र को इंसे हुए के कान में सुनाकर पुरुष को विष रहित कर देता है।
धात्री समरिणां वर बीजाक्षर जापित सलिलि विन्यासः, अंगुलि चलनेन नरं निश्चल मपि घलयति स्वैडं ॥५॥
क्षिप स्वाहा धात्री (पृथ्वी) क्षि में समिरणा (वायु, अक्षर स्या) और अंबर (आकाश अक्षर) हा के बीजाक्षारों अर्यात क्षि स्वाहा इस मंत्र को जल पर पढकर उसमें अपनी उंगली चलाकर अंग न्यास करने से सर्प विष से निश्रेष्ट पुरुष भी अपनी इच्छानुसार गमन करता है।
भूजल मरुन्नमोक्षर मंत्रेण घटेंयु मंत्रितं कृत्या, पादादि विहित धारा निपादनाद भवति विष नाशः ॥७६॥
क्षिप स्वाहा भू पृथ्वी अक्षर क्षि और जल अक्षर प और नभ (आकाश) अक्षर स्वाहा इस मंत्र से घड़े के जल को मंत्रित करके उसकी धारा को सिर से लगाकर पैर तक डालने से विष का नाश होता है।
महीजल समीरणां वर मंत्रित सलिलेन सिक्त वदनोयः,
प्रगटयति वास मसौ जीयति खलु ने तरो दष्ट ||७७ ॥ मही (पृथ्वी) क्षर क्षि,जल (प) समीरणा (यायु) स्वा, अंबर (आखाश) हा ,अर्थात् 'क्षिप रवाहा मंत्र से मंत्रित जल से जिसका मुँह सींचा या धोया जाता है यह सांप के विष से मरा हुआ मूर्छित पुरुष भी तुरंत श्वास लेने लगता है ,और जी जाता है।
अभिमंत्रितं यद उदकं मणितैः फणिनां पुरा फण मणिभिः,
दष्ट स्यांगे से स्तैन कृतः सकल गरल हरः ॥ ७८ ॥ इस प्रकार उत्तम सो के प्राचीन मंत्रों से अभिमंत्रित जल से सोँ के डसे हुए पुरुष का मुख आदि धोने से सींचने से सबप्रकार के विष नष्ट हो जाते है।
फणि राजांष्टक मारूत गणनाक्षर जपित तोय धाराभिः, सितत हृदयः स दक्षो तिष्ठति तत्क्षण देव ॥७९ ॥
M99UNESS{Y} YENERGREE
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959595959विधानुशासन
おやす
み
उत्तम सर्पों के अंक (अर्थात् आठ प्रकार के सर्प कुल) ९ के बीजों कं खं गं घं चों छों जीं झीं में वायु अक्षर (स्वा) (मारुत अक्षर) और गगन (अक्षर (हा) बीज लगाकर उस मंत्र से अभिमंत्रित जल की धारा से हृदय को धोने से इसा हुवा पुरुष उसी क्षण उठ जाता है ।
कं वं गं घं चों छीं जीं इवीं स्वाहा ॥
चचतुर्य कूट सांतानि प्रणवमुखानि बिन्दु युक्तानि, दीर्घ ल पर स्थितानि च मारुत गगना व सानानि चवर्ग का चौथा अक्षर झ और कूटाक्षर (स) और सात अक्षर में दीर्घ लपर लगाकर आदि में प्रणव (ॐ) और अंत में वायु (स्वा) तथा आकाश (हा) में क्ष्यां व्हां स्वाहा ॥
धत्येतानि अभिमंत्रित जल सिस्य देहिना, गरला न्युक्त ध्यानत्सकलं परोक्षमपि मंत्र बीजानि
|| 28 ||
इन बीजों से अभिमंत्रित जल से सर्प के काटे हुए शरीर को भिगोने से सब प्रकार से परोक्ष होते हुए भी सब विष को नष्ट कर देता है।
सोद्धाधोर मकारे कूटं बिन्दुवान्वितै स्वरै युक्तः, वामं ज्योति जिंष्णाक योग रजोभि महामंत्र
॥ ८० ॥
अक्षर (व) में बिन्दु बीज लगावे ॐ इवां
॥ ८२ ॥
ऊपर और नीचे रेफ युक्त मकार विन्दु और स्वरों सहित कूटाक्षर (क्ष) और वाम अक्षर (ॐ) ज्योति (ई) जिष्णा (ऊ) के योग का रजो महामंत्र बनता है।
वाम करे गुष्टाद्यं गुलि मध्य पर्व सु क्रमांदेवं, न्यस्यंत लेपिन्यस्यात् संस्यांत कला युतं व्योमां
|| 23 ||
बाँये हाथ की अंगुलियों के पोखों और जोड़ा और हथेली में उपरोक्त मंत्र को अंत की कल (अ:) तथा आकाश (ह) सहित लगावे ।
मंत्रेण तेन जसं वारि घृतं तेन वारि हस्तेन, दष्टस्य मुखे विकरेत्सहसैव सयातिच निद्विषतां
॥ ८४ ॥
इस मंत्र को हाथ में लेकर जपे और फिर हाथ के पानी को इसे हुए के मुख में पानी डाले तो वह तुरन्त ही विष रहित हो जाता है।
95959595959595 ६४४ 25957 あちこちとら
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CRescRCISCISDER विद्यानुशासन H50512505CCIEN क्षांक्षी खू खे मैं क्षों क्षौं क्ष क्ष:
सं जप्तैवारि भिमुखे से कात दष्टस्य, मानुषस्व स्थान्नि विषताक्षणाहे व
॥८५॥ यदि क्षा क्षीं ढूंदों मैं क्षों क्षौं क्ष क्षः मंत्र से जल को अभिमंत्रित करके इंसे हुए के मुख में पाणी डाले तो वह उसी क्षण विष रहित हो जाता है।
कूटस्थ स्वर युक्ता झ भ म य व स ह इमे पथक सप्तवर्णा
स्तथा प्रयुक्ताः वेडं निरिवलं निरस्यिंति ।। ८६ ।। कूट अक्षर(क्षकार) में स्थित स्वर सहित कमलबीज झ भ म य व सह यह सात वर्ण पृथक-पृथक प्रयोग किये जाने से संपूर्ण विष को नष्ट कर देता है|
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय लिप स्वाहा इवीं क्ष्वी हंसः ।।
दष्टस्य वदने सिंचेज्जल मेतेणा मंत्रितं ततो, विषस्य सर्वस्य विष मोक्षः क्षणादभवेत्
||८७॥ इस मंत्र को पढ़कर इसे हुए के मुख्य में जल डालने से क्षण मात्र में ही सम्पूर्ण विष नष्ट हो जाताहै।
ॐ सुवर्ण रेखें कुर्कट विग्रह रूप धारिणी स्वाहा ।।
विद्या सुवर्ण रेखा मेतज्जप्तेन वारिणा दष्ट स्यांगे,
समा सेकः कृतः स्याद्विष वेग जित 11८८॥ इस सुवर्ण रेखा मंत्र से अभिमंत्रित जल से इसे हुये पुरुष के अंगो को भिगोने से विष का येग नष्ट हो जाता है।
वाम हस्ते स्वरश्चंद्र मंडलेन च वेष्टितं, ध्यायेत इवींकारममृतं श्रयतं ममत प्रभां
||८९॥
तेन हस्तेन सं स्पृष्टं भस्म वार्योषधादिकं, वितीण द्रागपा कुर्यात विषरोग ग्रहादिकान्
||९०॥
बायें हाथ में स्वर और चन्द्र मंडल से वेष्टित अमृत के समान ज्योति वाले इवीं बीज को अमृत बरसाते हुए ध्यान करे। उस हाथ से छूकर दी हुयी भस्मी जल या औषधि आदि विष रोग और ग्रह आदि को तुरन्त ही नष्ट कर देते हैं। 15052150352519051315/६४५ P15251975993595DEOS
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SSCIROISTRISDESI05 विद्यानुशासन 950ISORDISCIRCISI
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न्यस्य वकारं शीर्षे यंषत स्वेत ममत धाराभिः,
समपर्यतं सकल तनुं भवति सः संपूर्ण शशधरं हृदयो ॥११॥ सिर में श्वेत अमृत धाराओं को बरसाते हुए वकार का ध्यान करे। फिर उस अमृत धारा से स्नान किया जाता हुआ ध्यान करने से पूर्ण चंद्रमा के हृदय याला हो जाता है।
चितं यंतु तर्ण मेवं विषाणि सर्वाणि नाश मुपटांति,
क्षण मात्रादपिलोके भूतगगह शाकिनी दोषाः ।।९२॥ इसप्रकार ध्यान करने से लोक में सर्व विष भूतग्रह और शाकिनी के दोष क्षण मात्र में ही नष्ट हो जाते हैं।
व हि म करौ गिरि राज मस्तक स्थौक्षणमिह चिंतय सुत्सुधां प्रयाहौ,
रजनीकर समान पांडूरांगौ विषम फणीदं विषापहार दक्षौ ।। ९३॥ य और चंद्रबीज ठं को हिमालयपहाड़ के मस्तक पर उत्तम अमृत को बरसाते हुए चंद्रमा के समान अत्यंत श्वेत ध्यान करने से विषम सर्प का विष भी नष्ट हो जाता है।
कोपं झं हंसः संवं हं हं हंस: झं हंसः इति च
वं झं हंसः झं हं हंसो हंसः सो विनता सुत तोषितो मंत्रः,
को पं यं झं हंसः वं हं शं हंसः शं हं हंसः ।। ९४ ॥ यह गरुड तोषित मंत्र है (विनता सुत अर्थात् गरुड)
शून्यं शून्य शिर स्थं शून्य द्रय संद्यतुं शिरोहीनं, शून्य पदे विन्यस्तं सितवणं सर्व गरल हां
|९५॥
QಥಗಣಪGS &Y೯/
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CASIOSDIDIO1510151015 विधानुशासन 985101510150150505 शून्यं शून्य अर्थात् बिन्दु सहित शून्य ७ हकार फिर दो बिन्दु सहित सिर रहित हकार लगाकर श्वेतवर्ण के शूज्य पद में रखने से संपूर्ण विष नष्ट हो जाता है। हं हः ह
एकादशाक्षरोपेतं मंत्र मंत्री प्रसाधयेत्,
पूर्व विद्वान प्रयलनेन कुर्यात् कर्म ततोऽग्रिमं ।।९६ ॥ यह ग्यारह अक्षरी मंत्र है। मंत्री इसकी पहले ही साधना करके सिद्ध करे। विद्वान मंत्री प्रयत्न करके इसको आगे काम में लाये।
वं हं हं इवीं हंसः पक्षि जः जःज:
कुंभेषु रंगमध्ये अमृत मयं तोय मंडल समान,
सं चित्य सकल लोकं सिंचे त्रत जप्तेन तोटोना ||९७॥ घड़ों में रंग भरकर उसमें अमृतमय जल मंडल का ध्यान करके जल का जप करने से सब लोक को इस जल सींचता हुआ चिंतयन करे।
सं तुर्य सप्त स्वरंगे दष्ट कर युग्म आत्मनं स्तेन,
इति रंग विधिं कृत्वा विष हरणं तदजु कुर्वीत ॥९८॥ चौथे और सांतवे रंग के घड़ों में सर्प से इसे हुए के दोनों हाथों को रखकर रंग विधि करने से शीघ्र ही विष नष्ट हो जाता है।
आत्मानं ताऱ्या रपैण तमादायाहि भक्षितं, क्षीरां बुनीर पूर्णदुं गेहे क्षिप्तं विचिंतयेत्
||९९॥ अपने आप को सर्प भक्षण किया हुआ गरुड रूप धारी ध्यान करे फिर घर को दूध, अमृत तथा जल से भरे हुए चंद्रमा से पूर्ण ध्यान करे।
मज्जनोन्मज्जने घ्यायेद् यायदभवति निर्विषः,
नील नीलागिम क्ष्वेडं चिंतयेत्सततं च तत् ॥१०॥ उस चन्द्रमा में तडा तक ध्यान करने तथा फिर निकल आने का ध्यान करता रहे जब तक पूरा विष उतर न जावे और उस विष को निरन्तर अत्यंत नीला घ्यान करे।
दष्टां शतस्य तस्याभि चिंतटो द्विष निर्गम, द्यावदन्निशेषं सर्पोग्र विष छेदो भवे दिहि
||१०१॥ CASTOTRIOTICIROICIDES६४७ PISIONSIOSCRIOTECISIOTES
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SSIPI5015121501505 विद्यानुशासन ISO150151015015015 सर्प की डाढ़ से जख्मी उस डसे हुए की तब तब विष निकालने के लिये स्नान करता हुआ ध्यान करे जब तक विष पूर्ण रूप से नष्ट न हो जाय।
वांछेदवावं यस्य निर्विषीकर्तुं मंजसा, तद्वाराशि माध्यायेन्मानंवा तत्सुधा दे
॥१०२॥ जिस पुरुष को शीघ्र ही विष रहित करना चाहा जाय उसको ही उस अमृत रूप तालाब में डूबा हुया ध्यान करे।
शशधरकर निकर समाधाराः सर्वांग रोम कूपेषु,
प्रति विषं प्रविशंत्यो ध्यानाद गगनाकलं विन्ये: ॥१०॥ तब चन्द्रमा की किरणों के समान वह अमृत की धारायें उसके राब रोम रोम के स्थानों में प्रवेश करती हुयी विष को नष्ट कर देती है।
वाम भागे चित्य नीरं कत्वा वा वायु निरोधनं
मातंई क्षेत्र मीक्षिण कुर्यात् क्ष्वेड विनाशनं. ॥१०४ ॥ अथवा श्वास को रोककर बायें भाग में जल का ध्यान करके सूर्य के स्थान को देखे तो विष नष्ट हो जाता है।
स्वांड खंडोच्छित टाक्ष पिंत्या भिन्नति भेधः परकीय कंदः,
स्वर्णान वितो न भयादि दूरः कदां दि ह्यानिर्विष मातनोति ॥ १०५॥ सोने के अंडे के टुकड़े से उठा हुआ तेज दूसरे के विष की कन्द(मूल) को छेद डालता है उसी सोने से युक्त होकर मनुष्य सर्वभय से छूट जाता है और उसी से विष जड़ से नष्ट हो जाता है।
आत्म प्रमाण विधुते वासे दष्टस्य मुर्छना सहसा, सं मुक्त च विनाशो विषस्य सर्वस्य संभवति
॥१०६॥ उस सोने के अंडे को अपने बराबर वडा उस सर्प से काटे हुए पुरूष के श्वास में ध्यान करे ऐसा करने से वह यकायक मूर्छा से जग जाता है और उसका संपूर्ण विष नष्ट हो जाता है।
अमृतं श्रवता वारूण बीजैना वष्टितस्य दष्टस्य, विन्यस्येत्पट मृज्वा उच्छन्नाया स्तनोपरि
॥१०७॥
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PSP59
धनु
Poe
152525
उस सर्प से काटे हुए पुरुष को अमृत बरसाते हुए वारुणी बीज (घ) से घिरा हुआ ध्यान करे फिर उसके स्तनों के ऊपर ढ़के हुए वस्त्र को हल्के से उठा देवे ।
न्यस्येच पटस्योपऽमृत श्रवदिंदुबिंब मध्य गतं, जातं सभ्य मुरखेषु च निर्गलदऽमृतं विद्यो बिंबं
॥ १०८ ॥
फिर कपड़े के ऊपर अमृत चुआते हुए चंद्रमा के मंडल का ध्यान करे उस चंद्रमा का निकलता हुआ अमृत उस पुरुष के मुँह में भी टपकता रहे।
द्विष्टेत्यऽन्यतमं सभ्यानां पाठयन् पठन मंत्री, आकई दुस्तिष्टेऽदृष्टो विष वेग निमुक्त :
॥ १०९ ॥
फिर मंत्री द्विमुष्टि आदि आगे लिखे हुए मंत्र को पढ़ता हुआ इसे हुए पुरुष के विष के वेग को नष्ट कर देता है ।
ॐ नमो भगवते पक्षि रूद्राय विष सुरप्तमुत्था पय दष्टं कंपय-कपंटय जल्पाजल्पय काल दष्ट मुत्थापय-मुत्थापय चल-चल मोचटा-मोटा पातय- पातय वर रूद्र-रूद्र गच्छ गच्छ वंद्य वंद्य चट-चट उडु उड्डु तोलय-तोलय मुष्टिना संहर विषे ठःठः ।।
शिरिव मुद्रेण स्मरता मंत्रम मुं ग्राम नगर दाहाद्या:, बता कथा स्तदाच्छादन पटमाकृष्य दष्ट उत्थाप्यः
॥ ११० ॥
शिखमुद्र से ध्यान करता हुआ मंत्र पढ़ता हुआ ग्राम नगर आदि के जलाने की कथा कहता हुआ रहे फिर ओढ़ने के कपड़े को उठाने से इसा हुवा पुरूष उठ जाता है।
तारंवरूण धरित्रीपुर मध्यगतं विचिंतये द्वदने, दष्टस्य पुनः कथयेत्कथा वृताब्ज स्त्रगऽमरेद्र
॥ १११ ॥
पुरुष श्रेष्ठ मंत्री कमल की माला पहने हुए उस सर्प से काटे हुए के मुँह में ॐ कार जल मंडल और पृथ्वी मंडल का ध्यान करता हुआ फिर कथा कहने लगे ।
दुर्मनस विमना भोजैः क्षीरां बुधिं तरति तद ध्वज गतः सित वपुर्निरीक्षतः केन शाक इति, अनयागत विष वेगः कथया दृष्टो मया संश्रितभंगिन दष्टः कथयन सत्व मुत्तिष्टेन्नेत्र कर्णेन
2525250
11883 11
595 ६४९ P15959595959595
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15251 विधानुशास 9595910955
परेशान मन से, बेमन की इच्छा से भोजन करने वाला, इसे हुए पुरुष की मलिन बुद्धि कमलों की सुगंध से तथा क्षीर सागर के दूध से ध्वजा के समान उज्जवल होने लगती है। उसका शरीर निर्मल होने लगता है । इस प्रकार कथाओं से उसके विष का वेग कम होने लगता है उसको देखकर उसकी आंखो और कान में यह कहकर उठावे कि मेरी रक्षा करने से तुम्हारा विष दूर हो गया है।
ॐ ह्रीं रुद्राय किरात रूपिणे विष वंद्योसि मुदितो सि कीलितोसि तिष्ठ तिष्ठ माचल माचल सभी समी समीर समीर समाणा समाणा ठः ठः ॥
शबर निहितोसि करिणो मरणं कथयन्न नेन मंत्रेणा,
विष वेग मपा कुर्त्या कुलिक स्वाप्या श्रु मंत्रज्ञैः ॥ ११३ ॥ तुमको भील ने उठा रखा है इस प्रकार कान में उसके मरण को कहता हुआ इस मंत्र से कुलिंग नाग के विष को नष्ट करे ऐसा इस मंत्र के जानने वालों ने कहा है।
ज्वरबाल ग्रह शांति स्तोभन सं स्तंभ संक्रमा दीनि, आ क्रीडनादि मंत्र: किरात रूद्रीय मावहति
॥ ११४ ॥
यह रूद्र किरात् मंत्र ज्वर और बालकों के ग्रहों को शांत करता हुआ विष का स्तोभन और स्तंभन करके नाग को खिलाता है।
सिद्धीनियुत जपेन धूतादि क्रीडटौष हरति विषं,
आचमन या चनाद्वा पायस भुक्तवाथवा मंत्रः
॥ ११५ ॥
यह मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है। इसकी सिद्धि के समय में खीर का भोजन करना चाहिये। यह आचमन करके पढ़ने और जुआँ खेलने के काम आता है तथा विष को नष्ट करता है।
तन्मांस रूधिर मज्जास्थि धातु प्राणागतं निवर्त्तय, विषमनेक क्रीडनकरः सर्वकर्म कर
॥ ११६ ॥
उसके मंस, खून, चरबी, हड्डियों और धातुओं तथा प्राणों में गया हुआ विष भी नष्ट हो जाता है । तथा वह कई प्रकार की क्रीडा करता है। तथा सब काम करता है।
ॐ रुद्र तिष्ट-तिष्ठ चिटि- चिटि ठःठः ॥
अनमंत्रित वारिभिः कृत्वा सत्सेचन क्रियां, औषधैर्या प्रलेयादि विसर्धक विसर्पनुत्
॥ ११७ ॥
इस मंत्र से अभिमंत्रित जल डालने या सींचने की क्रिया से या औषधि आदि का मंत्र लेप करने से सर्प का विष नष्ट हो जाता है।
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SSCI50150150151275 विद्यानुशासन VS01510050SOISODE
कूर दना सहितं दत्वोत्तम जातटोषु नरंगे न्यस्य,
पकारं धवलं उकारं मरि वेष्टितं करे वामे ॥१९८॥ उत्तम अंग अर्थात सिर पर पकाये हुवे चावल और दही रखकर बायें हाथ में ठकार से वेष्टित श्वेतवर्ण के पकार की स्थापना करे।
इंकार युतं शून्यं सप्तम वर्गा द्वितीय के उपरि, अमृतेन भूषित शिरों मया बीजं तथा भणितं
॥११९॥ फिर ईकार सहित शून्य अर्थात् हकार के आगे सातवें वर्ग का दूसरा अक्षार रकार लगाकर अमृत बिन्दु से शोभित माया बीज ही को बनावे।
ही तत्व स्यपुनर्जल्पतु दष्टो तिष्टेति देहि पानीटां,
श्वत्वेति सलिल भांडं प्रगृह्यदते स तस्यां वमनं ॥१२०॥ फिर बार-बार इस ह्रीं का उच्चारण करके इसे हुए को बैठने को कहे तब वह इसा हुआ पुरूष जल मांगता है। यह सुनकर उसको पानी के बर्तन में लेकर जल दे देवे इससे उसको तुरन्त यमन हो जाएगी।
अष्टम वग्गांत्यांक्षर दशम स्वर योजितं पवन बीजं,
षष्टम स्वरोद्यर्तिभ्राम्यत् तूर्णं परि न्यस्य ॥१२१॥ फिर आंठवे वर्ग के अंतिम अक्षर हकार में दसवाँ स्वरल लगाकर ह्ल बनावे फिर पवन बीज यकार में छठा स्वर ॐ को मिलाकर यूँ बनावे। इन ह और यूँ बीजों को आधी बत्ती की तरह जल्दी-जल्दी घुमाता हुआ रख देये।
झौविस्फुरदेतत्संथिषु विन्यस्यति यत्र यत्र दष्टस्टा, तत् तम्तयति तरां करतल हत चाप शब्देन
॥१२२॥ प्रकाशित होते हुए झौं बीज का डसे हुए के जिस जिस अंगो के जोड़ में लगाता है। यही वही अंग तबले के शब्द के समान खूब नायता है।
चिंतयतैत दपि पुनः भ्राम्यन्यति तस्य शिरसि दष्टस्य,
हस्त स्वानं च वदैत त श्रुत्वा तिष्ठाति क्षिपं ॥१२३॥ फिर इस झौं बीज को डसे हुए के सिर में भी ध्यान करे इससे वह सिर गिराकर भी हिलाने लगताहै। फिर उससे कहे कि हाथ का स्यान (शब्द) बतलाओ वह यह सुनकर शीघ्र ही बैठ जाता है फिर उससे कहे।
SPORTOIDOSTORSCITES६५१ PISTRITICISTORORSCISSION
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95959595905915 विधानुशासन 95959595525
विध्याटव्यांमध्ये पतितः किं स्वपिषि पथिक निश्चिंतः,
सर्जाऽर्जुनादि पश्यन भंजन करि राज एति विन्यस्य ॥ १२४ ॥ हे मुसाफिर तू विंध्याचल के वन में निश्चिंत होकर पड़ा हुआ क्यों सो रहा है यहाँ एक बड़ा भारी हाथी शाल, अरजुन आदि वृक्षों को देखता हुआ तथा तोड़कर फेकता हुआ आ रहा है। I
वाम हस्ते सरसुंसः मंत्र निद्विद मे तेन, परिमृशति तदृष्ट हस्ता व्यानं समारव्य च
॥ १२५ ॥
को
फिर अपने बायें हाथ में सरसुंसः मंत्र को पढ़ता हुआ स्थापित करके उससे इसे हुए पुरुष उपरोक्त कहकर स्पर्श को इसे काख्यान कहते हैं ॥
सरसुंसः चिंतयितव्यं वाम हस्ते करतल सितं च रूपेण, कूटेन भूषित दलंकर कर्णिक मग्रि सहा मध्य स्थं
॥ १२६ ॥
बायें हाथ से अग्रि मंडल के बीच में क्षकार रखकर उसके चारों तरफ अत्यंत श्वेत सरसुंसः बीजों का ध्यान करे।
छिन्नं यदि नयन युगं गुरु विष दोषेण भवति, दष्टस्य दर्शयति ततस्तूंर्ण प्रसिद्ध मे तत्पुरा चक्रं
॥ १२७ ॥
यदि बड़े भारी विष के दोष से उस सर्प के काटे हुए पुरुष के दोनों नेत्र खराब हो गये हो तो उसे शीघ्र ही पहले से लिखा हुआ यह चक्र दिखलाये ।
सप्तम वरिव्यस्य द्वितीय कला प्रथम वर्ण संयुक्तं, षष्ट स्वर विनि विष्टं दशम स्वर योजितं गगन बीजं
॥ १२८ ॥
सातवें वर्ग का दूसरा अक्षर रकार प्रथम स्वर (वर्ण) अकार और छठा स्वर ऊकार और दसवाँ स्वर लृकार सहित आकाश बीज हं अर्थात् र अ अ अह्न या हु,
कर हृदय चरण युगलै दत्वैत चिंतितोदहन मध्ये, निपातर्ति चिरदष्टः खलु व सुधायां जीव रहित इव
॥ १२९ ॥
फिर हौं को क्रमशः दोनों हाथ, ह्रदय और दोनों पैरों में लगाकर पृथ्वी में जीव रहित के समान पड़े हुवे दष्ट पुरुष को अनि मंडल के बीच में पड़ा हुआ ध्यान करे।
95६५२P5PPSP5959595
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SXSIDDIDISISTICIST विधानुशासन DISTRISTRIEDISORDER
नतथापि कर्म कार्य यथोचित क्षिप्र दष्टस्य,
सं स्तंभनं विष हरणं चापि भणित मगं मीह || १३०॥ इससे इसे हुए पुरुष के निर्विष कर्म को शीघ्र नहीं करना चाहिये क्योंकि इसके यहाँ पर स्तंभन और विष हरण के भी अंग कहे गये हैं। नोटः मूल ग्रन्थ में १२९ श्लोक से २१६ तक के श्लोक नहीं हैं।९३ पत्र से १०० पत्र तक और १४५ पत्र पर दूसरे ग्रन्थ से लिखा है। नोट:- ग्रथांतरे ९३ से १०० और १४५ पत्र पर लिखा है।
संग्रह मंगज्य रक्षा सलोभ व ताजमहं. स्तंभ, विष नासनं स चोचं फटिका फणि दशंनद वानं च
॥१३१ ॥
संग्रह दष्ट पुरुषस्य जीवनमस्ति नवेत्ति वा यत्परिज्ञानं संग्रहः अंगन्यास, दृष्ट्यस्य पुरुषस्य शरीरावर विन्यास रक्षा दष्टस्य रक्ष करणं स्तोभं च दष्टावेश कर च समुच्चये ॥१३२॥
वच्मि कथयामि स्तंभं दष्टस्य शरीरे विष प्रसारित रोटा स्तंभ विष नाशनं, विष निर्विषीकरणं सचौद्यं चोद्येन रह वर्तनी स्याद्य स्तंभं चौद्यं
||१३३॥
दष्टं पटादिच्छादनादि कौतुकं फटिका फणि दशन दशनं च लिरिवत,
सर्प दंत दशनस्राष्टांग गारुड़ महं वक्ष्येति संबंध ॥१३४॥ सर्प से काटे हुए पुरुष जीवेगा या नहीं इस ज्ञान को संग्रह कहते हैं। सर्प से काटे हुआ पुरुष के शरीर में बीजाक्षरों को स्थापित करें - यह अंग न्यास है। काटे हुये की यांचना यह रक्षा करना हैकाटे हुए के शरीर में विष का फैलना या चढ़ना को रोकना स्तंभ है। विष को नष्ट करना निर्विषीकरण है। सर्प से क्रीड़ा करने को चोद्य और खारिका के नाग में काटने की शक्ति भरने को दर्शन कहते है।
सम विषमाक्षर भाषिणि दूते शशि दिनकरो च वहमानौ,
दष्टस्य जीवितव्यं तदविपरीत मति दद्यान ॥१३५ ।। ಅಫಘಟಡ[೬೬3 YEDಚಣಪಡಿಸಲು
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CHOOTSIOTICISITS दियालुशासन AICTERISTIATICKERIES
सम विषमाक्षर भाषिणि दूतो समाक्षर भाषिणि, दूते विषमाक्षर भाषिणि दूतो शशि
॥१३६॥
दिन करौ च वहमानौ चंद्र दिवाकरौ प्रवर्त, मानौ दष्टस्य जीवितव्यं समाक्षर भाषिणि
॥१३७॥
दूतौ चंद्र वहमाने दष्ट पुरुषस्य संग्रहमस्तीति विधात विषमाक्षर भाषिणि दूते
॥१३८॥
सूर्यो वहमान पुरुषस्य संग्रहमस्तीति विधात तद्विपरीते मतिं विधात् समाक्षर
॥१३९॥
भाषिणि दूते सूरों वहमानौ विषमाक्षर भाषिणि दूते चंद्र यहमाने इति स्वर वर्ण
॥१४०॥
वैपीरीत्य दष्ट पुरुष संग्रह
न विधते. इति विद्यात जानीयात् यदि सर्प के काटने की खबर लानेयाला दूत चंद्र स्वर में सम अक्षर कहे तो समझना चाहिये कि सर्प से दष्ट पुरुष यद्य जाएगा, अथया दूत सूर्य स्वर में यदि विषम अक्षर कहे तो उसकी मृत्यु समझनी चाहिये।
दूत मुखोस्थित वर्णन द्विगुणी कृत्वा त्रिभिहरेगा गं सून्योनो द्वरितेन म ति जीवित मारोत्पाज्ञः
॥१४२॥
दूत मुरवोत्थित वर्णन दूतस्यो द्वात प्रसन्नाक्षरान् दिगुणी कत्य तदद्वगुणित राशि त्रिमि गं होत
॥१४३॥
तत्रा भागा वशेष जीवितमादिशेत् सून्येन दष्टस्टा संग्रहाधान मादिशेत एक द्विरुद्धरितेन ।
॥१४४॥
॥१४५॥
दष्टस्य संग्रहमस्तीस्या दिशेत सून्य समच्छेदनैक
द्विरवशिष्टेन च कः प्राज्ञः बुद्धिमान् CISIOADDIACIDIOTECTED६५४ PASTORICISCIECISIONSCIES
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9595
विद्यामुशासन
95959595959A
बुद्धिमान पुरुष दूत के मुख से विकले हुये अक्षरो को गिनकर उनको दुगुना करके तीन का भाग दे। यदि शेष शून्य हो तो मृत्यु अन्यथा जीवित समझना चाहिये। ह्रां वं क्षं मंत्रःमंत्रित तोयेनोद्ध सति यस्य गात्रं चेत्, स च जीवित्यथ वाक्षि स्पंदन तो नान्यथा दष्टः
हां वं क्षं मंत्र: हां वंक्ष मिति मंत्र: मंत्रित तोयेन अनेन मंत्रिणाभिमंत्रितोदकेन
त्राटितेना उद्धषिति यस्य गात्रं चेत यस्य द ष्ट पुरुषस्य शरीरं कंपते चेत् स च जीविति
गात्रोद्धषन मात्र पुरुषों जीवति च अथवा क्षि स्पंदन तः अनेन प्रकारेन
अक्षिरुन्मलिनेन संदष्टो जीवति नान्यथा दष्टायस्य दष्टस्य तदुदकासिंधनेन गात्रो
दुषणं तदक्षि स्पंदनं च न विद्यते तस्य दष्टस्य जीवंति न विद्यत इति ज्ञातव्यां इति संग्रह परिच्छेदः
क्षिप ॐ स्वाहा बीजानि क्षिप ॐ स्वाति
पंच बीजानि विशेषेण स्थापयेत् केषु
॥ १४६ ॥
259/5950
॥ १४७ ॥
595915 ६५५ Poser
॥ १४८ ॥
॥ १४९ ॥
हें वंशं इस मंत्र से अभिमंत्रित जल दुष्ट पुरुष के ऊपर डालने से यदि वह कांपने लगे अथवा नेत्र हिलाने लगे तो उसको जीवित अन्यथा मृतक समझना चाहिये।
अतः परं मं ग न्यास अभिधीयते
॥ १५० ॥
क्षिप ॐ स्वाहा बीजानि विन्यसेत्पदेनाभि हन्मुख शीर्ष,
पीतसित कांचना सित सुरचाप निभानि परिपाद्या ॥ १५२ ॥
॥ १५१ ॥
॥ १५३ ॥
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पाद द्वयो नाभौ हृदि आस्ये मस्तके इत्येतेषु पंच सु स्थानेषु कथं भुतानि
पीतं हरिद्रानि भासित क्षेत वर्ण कांचना सुवर्ण वर्णयो असिता कृष्ण वर्ण
सुरचाप इंद्र धनुर्वर्ण शदृश निभानि एवं पंच वर्ण सदृश पंच बिजानि परिपाया
क्षि बीजं पीत वर्ण पद द्वयो प बीजं श्वेत वर्ण नाभौ
ॐ मिति बीजं कांचन वर्ण हृदि स्या
बीजं कृष्ण वर्ण मास्य हा बोज इंद्र
पद्मं चतुर्द्दलोपेतं भूतांतं नाम संयुतं दलेषुशेष भूतानिमायसा परिवेष्टितं
पद्मं कमलं कथं भूतं चतुर्दलोपितं चतुः पत्र युक्तं भूतांतं भूतानि पूश्चेतजू प तेजो वाखा
॥ १५४ ॥
काश संज्ञानि तेषामंतेः आकाश स
हकारः तं हकारं कर्णिका मध्ये कथं भूतं
25252525252525 44 PSM
॥ १५५ ॥
॥ १५६ ॥
चाप स्वरूप वर्ण मूर्द्धि एवं क्रमेण पंच सु स्थानेषु परिपाद्या विन्यसेत इत्यंग नास
क्रमः
॥ १५९ ॥
क्षिप ॐ स्वाहा इन पांच बीजों को क्रम से निम्न प्रकार से अंगों में स्थापन करे । क्षि बीज को पीत वर्ण का दोनों पैरों में, प बीज को श्वेत वर्ण का नाभि में, ॐ बीज को कांचन वर्ण का हृदय में, स्वा बीज को कृष्ण वर्ण का मुख में, हा बीर्ज को इन्द्र धनुष के रंग का सिर में ।
रक्षा विधानं
॥ १५७ ॥
॥ १५८ ॥
॥ १६० ॥
॥ १६१ ॥
॥ १६२ ॥
こちら
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CHEDEOHDRASOID विधानुशासन BASIC5555755ICISISIST
नाम संयुतं दष्ट नाम गर्मी कृतं दलेषु वहि स्थित चतुईलेषु शेष भूतानि इतर
॥१६३॥
क्षि पॐ स्वेति चतुर्वी जानि त द्वलेषु मायसा परि रक्षितां तत्पयो परि ही कार
॥ १६४ ॥
त्रिधा वेष्टितं लिरिवत्वा दष्टस्य गले वधीयात् अथ चंदनेन दष्ट वक्ष स्थले देत यंत्रं लिरवेत
॥१६५ ।।
इति रक्षा विधानं इदानी स्तोभ करण मारभ्यते रक्षाः
वहि जल भूमि पवन व्योंभारे दह दह पच दयं योज्यं स्लोभय गुगल तो माटाका माललाद्भवति
॥१६६ ।।
वह्नि ॐकार जला पकारः भूमिक्षिकार: पवन स्वाकारः व्योम हकारः अग्रे ऐतषां
॥१६७॥
पंच बीजाक्षराणांमग्रे दह दह दह दहेति पदं द्वयं पच द्रयं टोज्यं तदग्रे पच पचेति
॥१६८॥
पद द्वयं योजनीयं स्तोभय युगलं तदग्रे स्तोभय स्तोभयेति पद द्वयं स्तोभं
॥१६९॥
अनेन कथित मंत्रोच्चारणा चाटिनेन दष्टावेश कथं मध्यमिका चलनात मध्यमांगुल्या चालनात भवति जायते ॥ १७० ॥
मंत्रोद्धारः ॐपक्षि स्वाहा दह दह पच पच स्तोभय स्तोभय इति स्तोभन मंत्रः
CASIO15101510501510551075[६५७ PISO15015131510750851015
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959529595952 विधानुशासन 5
इति दष्ट स्तोभ विधानं
इस मंत्र को मध्यमा उंगली पर जपने से दष्ट पुरुष कुछ जागने लगता है।
आते भू बीजं मध्य जल वह्नि मारुतं योज्यं स्तंभय युगलं स्तंभे धारा गुष्टदानन्दः आद्यं ते भू बीजं मंत्रा दौ मंत्रांते पृथ्वी बीजं क्षि इति मध्ये जल वह्नि मारुतं योज्यं
मंत्र मध्ये प ॐ स्वेति बीजानि योजनीयं स्तंभन युगलं तद अग्रे स्तंभयेति पद द्वयं स्थंभय स्तंभय
अनेन कथित मंत्रोच्चारणेन विष पसरे स्तंभो भवति कथं वाम करांगुष्ट चालनेन विष प्रसर स्तंभो भवति विष स्तंभो भवति
मंत्रोद्धारः
क्षिप ॐ स्वाहा स्तंभय स्तंभय क्षि
इति विष स्तंभन मंत्र: इस मंत्र को बाँये हाथ के अंगूठे पर जपने से विष का स्तंभन होता है ।
जल भूमि वह्नि मारुत गगनै संप्लायां द्वयो पेतैः भवति च विषापहारः स्तर्जन्यां चालनाद् चिरातः
जला पकार: भूमि विकारः वह्नि ॐकारः मारुतः स्वाकारः गगनी हाकार:
इति पंच बीजाक्षरै कथं भूतै संप्लावटा द्वयोपेतैः संप्लावयेति पद द्वयान्वितैः
भवति रस्या देवः कः विषापहारः विष निर्विषीकरणं कस्मात तज॑न्यश्चाल
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195 ६५८ P55
ですやすやり
!! 100 !!
॥ १७२ ॥
॥ १७३ ॥
॥ १७४ ॥
॥ १७५ ॥
॥ १७६ ॥
॥ १७७ ॥
॥ १७८ ॥
でらでらです
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S5I05015015015015 विधानुशासन 1501510150150ISSIST
नया स्य वाम कर तर्जन्या चालन तः कथं अविरात् शीघतः
॥१७९॥
संयोमारः पक्षि ॐ स्वाहा संप्लावध संप्लावय इति विषापहारः इस मंत्र को बाँयें हाथ की तर्जना द्वारा चलाने से विष शीघ्र ही दूर हो जाता है।
इति विषनाशन विधानं
मरुदग्नि यारि धात्री व्योम पदं संक्रम व्रज द्वितीयं, चालनया नाभिकयानितरां विष संक्रमो भवति
॥१८०॥
मरुन स्याकार अग्रि ॐकारः वारिपकारः धात्री क्षकार: व्योम पदं हकार: स्य वाम करा नामिकां गुल्यां चालनेन नितरां
॥१८॥
अतिशयेन विष संकमो भवति पर मन्यं प्रति विषं संक्रमो भवति
॥१८२॥
मंत्रोद्धारः स्या ॐ पक्षि ह संक्रम संक्रम ग्राज ाज
इति विष संक्रम मंत्रः इस मंत्र को बाँये हाथ की अनामिका अंगुली द्वारा चलाने से विष संक्रमण हो जाता है।
व्योम जल वन्हि पवन क्षिति युतःमंत्रो दभवति अथावेश संक्षि पहःप क्षि पह पठनेन कनिष्टिका चालनतः ॥ १८३॥
व्योम हकारःजला पकारः वन्हि ॐकारः पवनः स्थाकार: तिति युतःक्षिकार युक्तः मंत्रोदभवति
॥१८४॥
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QಥಐಪNS ARRERS CENSE
एतत्कथित मंत्रा जायत अथ पश्चात आ पुरुष शरीर नागावेश संक्षि प हे ति पदं पक्षि प हां पक्षि पहेति पठं पठनेन
॥१८५॥
एतन्मंत्र पठनेन कस्मात कनिष्टिका चालनतः वाम कर कनिष्टिका चालनात
||१८६॥
मंत्रोद्धारः हा पॐ स्वाक्षि संक्षि पह:पक्षि पहन।
इति नागावेशन मंत्रः इस मंत्र को बाँये हाथ की कनिष्टा अंगुली द्वारा जपने से पुरुष के शरीर में नाग आदेश करता
कर्ण जापेन भेरुंडा निर्विषं कुरुते नरं विद्या सुवर्ण रेषापि दटतो या भिषे कतः
॥१८७॥
कर्ण जापेन दष्ट पुरुषस्य कर्ण जापेन भेडा भेरुंड देव्या विद्या निर्विषं कुरुत निर्विषी करणं करोति कं नरं
॥१८८॥
दष्ट पुरुषं विद्या सुवर्ण रेस्वापि अपि पण सुवर्ण रेषा विद्या दष्टं दष्ट पुरुषं तो याभिषेक्तः सुवर्ण रेषानाम विद्याभि
1॥१८९॥
मंत्रितोदकेन अभिषेको निर्विष करोति आवेशा दष्ट नर निर्विषी करणे दष्टकरणे जाप्य
॥१९०॥
भेरुंडा देव्या मंत्रोद्धार ॐ पक्षि एहि भेमाय भेड़े विजा भरिट करंडे तंतु मंतु आयो सह हुंकारे विषु नाशई स्थावर जंगमं कृत्रम अंगजु ह्रीं देवदत्तस्य विषं हर हर हु फट ||
इदं कर्ण जाप्येन भेडा विद्या
SSD5215035CISEXSEIS६६० DIDRESORRIERSIOSDISSIST
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959595959595 विद्यानुशासन 95952950555
ॐ सुवर्ण रेषे कुकुट विग्रह रुपिणी स्वाहा ॥ इयं तोयाभिषेक करणे सुवर्ण रेखा विद्या
उपरोक्त लिखित भेरुंडा देवी के मंत्र को दष्ट पुरुष के कान में जपने और उसको उपरोक्त सुवर्ण रेखा मंत्र के अभिमंत्रित जल से स्नान कराने से दष्ट पुरुष का विष उतर जाता है।
भूजल मरुन्न मोक्षर मंत्रेण घटाम्बु मंत्रितं कृत्वा पादादि विहितः धारा निपात नाद भवति विष नाश
॥ १९१ ॥
भूक्षि जल प मरून स्वा नभोक्षरा हा मंत्रेण क्षिप स्वाहेति अक्षर चतुष्टयं मंत्रेण घटाम्बु मंत्रितं कृत्वा ॥ ११२ ॥
कलशोद कमनेन मंत्रेणाभिमंत्रितं कृत्वा पदादि विहित धारा निपात नात
अपादमस्तकाधिकृत जल धारा निपात नात भवति स्यात विषनाशन
मंत्रोद्धारः
क्षिप स्वाहे निर्विषीकरण मंत्रः
॥ १९३॥
॥ १९४ ॥
इस मंत्र से घड़े के जल को मंत्रित करके सिर से पैर तक डालने से विष नष्ट होता है । ॐ नमो भगवत्यादि मंत्र अष्टोतरशतं पठित्वा क्रोश पटहं त्राटय दष्ट संनिधो ।
ॐ नमो भगवत्यादि मंत्र दक्ष माण मंत्र अष्टोतरशत
अष्टाधिक शतं पठित्वा पाठनं कृत्वा क्रोश पटहं
क्रोश डमरू कं त्रायेत त्राटनं कुर्यात क्क दष्ट संनिधौ दष्ट पार्श्वे ॥ १९५ ॥
ॐ नमो भगवती वृद्ध गरुड़ाय सर्व विष नाशिनि सर्व विषं छिंद छिंद भिंद भिंद गृन्ह गृन्ह एहि एहि भगवती विधे हर हर हु फट् स्वाहा ॥
६६१
दष्ट श्रुतौ कोश पटह घाटन मंत्र:
विष को दूर करने के लिये उपरोक्त मंत्र को एक सौ आठ बार पढ़कर दष्ट पुरुष के सामने खूब बाजे बजायें।
252525252595951 15959595259595
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9596959 M52/5 fangeneno Y50505252525
धृवद्धि चंद्र मुद्रा दक्षिण भागोऽहि दंशिन स्थित्वा वदति तय गौ दान कर लोकल नीतेति
धृत्वा धारयित्वा कं अर्द्ध चंद्र मुद्रां अर्द्धचंद्राकारा वाम करांगुष्ट तर्जनीभ्यां
धृतमुद्रां क्र दक्षिण भागे दक्षिण दिग्भावो कस्या अहि दंशिनः सर्प दष्ट पुरुषस्य तवादियागौ स्थित्वा वदतु भाषतु
इदानीं सांप्रतं तस्कर लोकेन दस्य जनेन नीतेति गृहीत्या नतिति वदतु
इसके पश्चात् मंत्री सर्प दष्ट पुरुष के दाहिनी तरफ बैठकर बांये हाथ के से अर्द्धचन्द्राकार मुद्रा बनाकर कहे तब गौरी दानी तस्कर लोकेन नीता अभी अभी चोर ले गये हैं ।
तं समान्य पादेन या ही त्युक्ते स धावति उच्छापयति तं शीघ्रं मंत्र सामर्थ्य मीद्धशाम
तं समान्य पादेन तं दष्ट पुरुषं मंत्रिणा स्व पादेना हन्यात् याहीत्युक्तेन
गच्छ गच्छे त्युक्ते स धावति सदष्ट पुरुष धावनं करोति उच्छापद्यति तं शीघ्रं तं दष्ट पुरुषं तित्यु स्थापयति मंत्र सामर्थ्य मीद्धशां
भगवत्या मंत्र माहात्म्य मेव विधं क्रोश पट हा त्रानेन दष्टो स्थापन विधान
॥ १९६ ॥
॥ १९७ ॥
॥ १९८ ॥
॥ १९९ ॥
अंगूठे और तर्जनी अंगुली अर्थात् तेरी गौर को
॥ २०० ॥
॥ २०१ ॥
॥ २०२ ॥
॥ २०३ ॥
फिर उस दष्ट पुरुष को पेट से मार कर कहे जा भाग जा इस मंत्र की सामर्थ्य एसी है कि वह सुनते ही भागने लगता है।
96969595969595 ६६२ 95959595959
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SASOI50150150151215 विधानुशासन 50151215215105585I
नियत जपात स सिद्धयति दशांश होमेन फणि समा कृष्टिः प्रणवादि स्वाहांतधित विरि शत्दादि को मंगः !' २०४!!
नियुत जपात लक्ष जप्पात सं सिद्धयति सम्यक सिद्धिं प्राणोति कथं भूतेन दशांश होमेन
॥ २०५।।
दश सहस्व हवनेन का फणि समाकष्टिः नागाकष्टि प्रणवादि स्वाहातः
। २०६॥
ॐ कारमादि स्वाहा शब्दं अंतं चिरि चिर विधिर शब्दादि को मंत्रः चिरि चिरि रिठि शब्द माद्यो मंत्रः
॥२०७॥
ॐ चिरि रीनं वारुणी एहि-एहि कह-कह स्वाहा॥ यह नाग आकर्षण मंत्र एक लाख जप और दशांश हवन से सिद्ध होता है।
चिरि चिरि इन्द्र वारुणी एहि-एहि कह कह स्वाहा॥
नाग प्रेषणा मंत्राशीति दश सहश्र दशांश होमेन सिद्धयति जाप्पेन पुनः शोणित कणवीर पुष्पाणां ॥२०८।।
नाग प्रेषण मंत्रः नागानं क्षुद्र कर्म करण स्थापन मंत्र अशीति सहश्र अशीति सहश्र प्रमाण जाप्पेन कथं भूतेना दशांश होमेन ॥ २०९॥
अष्ट सहश्र हवनेन सिद्धयति सिद्धिं प्रायोति पुनःजपेन युतः केषं शोणित कणवीर पुष्पाणां रक्त कणवीर पुष्पाणां नाग प्रेषण मंत्रः
॥२१०॥
ॐनमो नागपिशाची रक्ताक्षी भकुटिमुरवी उच्चिष्ट दीप्ति तेज से एहि-एहि भगवती हुं फट स्वाहा ॥
वाल्मांक निकटे होमं कुर्यात् त्रि मधुरान्वितं मंत्र सिद्धैत मा जप्प प्रेषये दुरगेश्वरं
॥ २११ ॥
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वाल्मीक निकटे वामलूर समीपे होम हवन कुत्ि करोतु कथं त्रि मधुरान्वितं क्षी राज्य शर्करा मिश्रित प्राग् जप कृत प्रसूनान्वितं मंत्र सिद्धै
॥२१२ ॥
एतद् विधान मंत्र सिधिं प्राप्तयां तमाज्ञा तं, नागेश्वर माज्ञा कृत्वा प्रेषये त उरगेश्वरा नागेश्वरं क्षुद्र कर्म करणे प्रस्थापयेत्
|| २१३ ॥ वह नाग छोटे-छोटे कार्यों में लगाने का मंत्र, अस्सी सहजप और लाल कनेर के फूलों के दशांश होम से सिद्ध होता है। इस अनुष्टान को घृत, दूध और शक्कर मिलाकर वाल्मीक सर्प की बांबी के पास करे। जब मंत्र होने पर नाग आवे तो उसे इच्छित स्थान पर भेजे।
प्रेषितो हवनेनेति मा कस्यापि गुरो वदेत अन्य मंत्रेण मागच्छ मानवं भक्षया मुकं
||२१४॥
प्रेषितः प्रस्थापितः कः अहं नाग के अनेन मंत्र वादिना एवं मा कस्यापि पुरोवदेत कस्यापि पुरुष स्थापगे मात्र देशे मा भाषय
॥२१५॥
अन्य मंत्रेण मागच्छ एतन्मंत्रं विहायान्य मंत्रेण त्यमा
गच्छा मानवं भक्षया मुकं अमुक पुरुष भक्षय ॥२१६॥ और उससे कहे तू इसके अतिरिक्त दूसरे मंत्र से मत जा और अमुक व्यक्ति को भक्षण कर किन्तु इस प्रकार उसको हवन के द्वारा भेजने का वृतांत किसी से नहीं कहे।
फणि दष्टस्यशरीरान्त स्वाहा मंत्र तो विषं हत्या सोम श्रवललाटात मंत्रं पातयेत् फणि दष्टस्य शरीरात् सर्प दष्टस्य पुरुषस्य देहात् ॐ स्वाहा मंत्रतः
॥२१८॥
ॐ स्वाहेत्यादि वक्ष माण मंत्रात विषं दष्ट पुरुष देह स्थ विषं हत्वा कथं सोम श्रवण अमृतं श्रवण
॥२१९॥
CASTOTRICT512505R15915६६४ PEPISOISTRIDDISCTRICISI
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SERISTRISTOTRICITOS विधानुशासन ABIRTICISEDICTION
माण कस्मात ललाटान भल स्थलात दूतं प्रेषकं मंत्रेण पातयेत पातयितव्यं
।।२२०॥ ॐ नमो भगवत वज तुंडाय स्वाहा रक्ताक्षी कुनरवी दूतं पातय पातय मर मर घर धर हु फट घेघे॥
इति दूत पातन मंत्र: इस मंत्र से दष्ट पुरुष के शरीर से विष को खींचकर मस्तक से अमृत चुवाता हुआ उपरोक्त दूत मंत्र से दूत को गिरावे।
इंलाभो फट मंत्रो चारणातः पतति भोगिना दष्टाः ॐहोमादि फंडतो दष्ट पटाछादनो मंत्रः ॥ २२१॥
इंलामो फट मंत्रो चारणात: ईलांॐ फट इत्यनेन मंत्रो चारणात पतति भूमौ पतित कः भोगिना दष्टः सर्पणा दष्ट पुरुषः
||२२२॥
ॐ होमादि फट
अंतःॐ स्वाहा शब्दमादि कत्या फट शब्दं मंत्यं वक्षमाणा मंत्रः पतित दष्ट पुरुष शररोिपरि वस्त्र प्रच्छादन मंत्र:
मंत्रोद्धारः
॥२२३॥
ॐलां ठं फडिति दष्ट पालन मंत्रः ॐ स्वाहारुरुरुरुरुरु हा ब्ले ह सर्व संहारय संहारय ॐ दूं गरुड़ा क्षीं तुं फट्
इति दष्ट पटाछादन मंत्र; ई ला उँ फट इस मंत्र के उच्चारण से सर्प दष्ट पुरुष पृथ्वी पर गिर जाता है।
ॐ स्वाहा रूरू रूरू हा ब्लें ह सर्व संहारय संहारय गुंगरूडाक्षी ९ फट। इस मंत्र से उस गिरे हुये सर्प से दष्ट पुरुष को वस्त्र उठाना चाहिये।
पवन नभोक्षर मंत्रणा कष्य च धावने त तो वस्त्रं अनु धावति तत् पृष्टं यत्र पटः पतति तत्रासौ
॥२२४॥
CASIO15121512152151005215६६५ PISADISIOSDISTRISTOTSOISI
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ちゃちゃちゃ
विधानुशासन 15951 ちゃちゃ
पवन नभोक्षर मंत्रेण स्वाहेत्यक्षर मंत्रेण आकृष्यात् तदप्यु छादन पट माकर्षयित्वा धावति तत्पृष्टं तद्वस्त्र माकर्ण्य यः पुरुषो धावति तत्पृष्टांत्सः दष्ट अनुधावति यत्र पटः पतित तत्रासी यस्मिन स्थले तद गृहीत पटः पतति तत्रैवसौ दष्ट पुरुषः पतति
स्वाहेति दृष्ट प्रछादितां पट आकर्षण मंत्रः ॥ २२५ ॥
फिर यह सर्प से दष्ट पुरुष स्वाहा इस मंत्र से वस्त्र उठाकर भागनेवाले पुरुष के पीछे भागता है और जहाँ कही वस्त्र गिरता है वहीं यह सर्प दष्ट पुरुष भी गिर जाता है।
निर्विषीकरण मंत्र: मंत्रेणेनान फणि विष मुक्तो भवति जल्पितेन शनैः अपहरति निज स्थानात् दर्शितोपि विषं न संक्रमते
॥ २२६ ॥
मंत्रेणनिन अनेन वक्ष माण मंत्रणः फणि विष मुक्तो भवति सर्प विष निर्मुक्तो भवति केन जल्पितेन वक्षमाण मंत्र पठनेना कथं शनैरिति अपहरति निज स्थानात स्वकीय स्थानात् दष्टस्य विषापहो भवति असितेपि विषं न संक्रमति सर्पेन भक्षितेपि सति तस्य पुरुषस्यापि वि संक्रमो न भवति ति निर्विषीकरण ॥ २२७ ॥
मंत्रोद्धारः
ॐ नमो भगवते पार्श्वतीर्थंकराय हंसः महा हंसः पदम हंसः शिव हंसः को हंसः सहश्र हंसः घरे यय हंसः पक्षि महा विषं भक्षी हुं फट ॥
इति निर्विषीकरण मंत्र:
इस मंत्र को धीरे धीरे बोलने से सर्पका विष अपने स्थान से इस प्रकार से दूर हो जाता है कि फिर सर्पके काट लेने पर भी विष नहीं चढ़ता ।
तेजो नमः सहश्रादि मंत्रः प्रपठतः फणि अनुयातिततः पृष्टं ही त्युक्ते नियतते तेजो नमः सहश्रादि मंत्रं प्रपठन उं नमः सहश्र जिवेत्यादि मंत्र पठतः पुरुषस्यां फणि सर्पः अनुयाति ततः पृष्टं तन्मंत्र पठित पुरुषस्य पृष्ट मनुगच्छति याहित्युक्ते निवर्त्ततै सवै सर्प पुनरपि याहि याहि त्युक्ते व्याधुये गच्छति ॥ २२८ ॥ तन्मंत्रोद्धारः ॐ नमः सहश्र जिह्वे कुमुद भोजिनि दीर्घ केशिनी उच्छिष्ट भक्षिणी स्वाहा || やすやすやすやおでこちゃちゃちゃち
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ಪರಿಚಯ ನೀFIRE Fಥಣಿ
इति नाग सहा गमन मंत्रः इस मंत्र से सर्प पीछे पीछे चलता है और वाहि जायो कहने से चला जाता है।
ॐ ह्रीं श्रीं ग्लौं हूं झुं टांतं द्वितीयंन फाण मुख स्तंभः हूं तुं ठठेति गमनं दृष्टि हां क्षां ठठेति वनाति
॥ २२९॥
ॐहीं श्रींग्लैं हूंढुंटांत द्वितीयेन उह्रीं श्रींग्लौं हूंखू ठठति मंत्रणा फणि मुरव स्तंभः मुख कीला जाता है अनेन मंत्रेण सर्प मुख स्तंभो भवति हूं खू ठठति गमनं हुं हुं ठठ इत्यनेन मंप्रेण सर्पस्य गति स्तंभो भवति दृष्टिं हां ठठति वनाति सर्प दृष्टिं हां क्षां ठ ठ इति मंत्रेण वधाति ॥ २३०॥
इति फणि मुख गति दृष्टि स्तंभन विधि:
वामं सुवर्ण रेखाया गरुहाज्ञा पदत्यतः स्वाहाँ त मंत्र मुच्चार्य कुंडली करणं कुरु
॥२३१॥
वामं सुवर्ण रेखाया सुवर्णरेरदायां इति पदां गरुडाज्ञापयेत्यतःसुवर्ण रेवाय दातं रंगरुडाज्ञा पायतीति ति पदं स्वाहांत मंत्र मुच्चार्य स्वाहा शब्द मंत्यं कत्वा तन्मंत्र पठित्या कुंडली करणं कुरु कुंडली करणं कुर्वीति पदं ।। २३२ ॥ तन्मंत्रोद्धार: ॐ सुवर्ण रेरवाया गरुड़ाज्ञापयति कुंडली करणं कुरु-कुरु स्वाहा ॥
नाग कुंडली करण मंत्र: यह सर्प का कुंडली कारक मंत्र है
सप्रणवः स्वाहांतो लल लल ललति संयुक्त करोत्येष: मंत्रो यट प्रदेशं क्षणेन नागेश्वर स्थापि
॥२३३ ।।
सप्रणय:स्वाहांतःकार सहित स्वाहा शब्द मंत्र्य लल ललललएते संयुक्तइत्यक्षरे षटभि युक्ताः करोति कुरुते एष मंत्रः एतथित मंत्रः किं करोति घट प्रवेशां कलश प्रवेशं करोति कथं क्षणेन क्षणमात्रेण कस्य नागेश्वर्यापि नागाधि पत्य स्थापि लक्षणेन घट प्रवेशं करोति ।। २३४ ॥
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PSP59SPSS विधानुशासन P551
तन्मंत्रोद्धारः
उ ल ल ल ल ल ल स्वाहा !!
इति फणि पट प्रवेशन मंत्र ॐ ह्रां ह्रीं गरुड़ाज्ञापयेति ठ ठ इत्यनेन तन्मुद्रया गरुड़मुद्रा कृतां रेषां मंत्रिणा भूमौ रेखा कृतां भुजंगो मरणावस्था प्राप्तः न लंयतो लंचनं च न शक्रोति कदाचिदपि कस्मिश्चितत्त्कालेपि उं ह्रां ह्रीं गरुड़ाज्ञा ठ ठ इति रेखा मंत्रः ॥ २३५ ॥
हरहर
ॐ ह्रां ह्रीं गरुडाज्ञा टठति तन्मुद्रया कृतां रेखां भुजंगो मरणावस्थां म लंघते तां कदा चिदेपि
ॐ ल ल ल ल ल ल स्वाह यह मंत्र नागों के राजा को भी घड़े में घुसा देता है।
ॐ ह्रां ह्रीं गरुड़ाज्ञा ठटः इस मंत्र से बनायी रेखा को सांप मरण अवस्था होने पर भी उल्लंघन नहीं करता है ।
कपिकच्छुक रस भावित खटिका प्रणवादि नील परिजता रेषा स्तेयापदेशा तवाटिका सर्प शनैर्वारो
||
॥ २३६ ॥
कपि कच्छुक रस भावित खटिका कंडु कंडी रसेन सप्तवारो भावित खटिका प्रणवादि नील परिजप्ता सा खटिका उंकरादि नील मंत्रेण समंतात जप्ता लेख्य स्तयों तया खटिया लेखनीयः कथं उपदेशात उपदेश पूर्वेणाः कः खटिका सर्पाः कस्मिन शनैवार शनि दिने ॥ २३७ ॥
यो हन्यात् वद् वक्रं तं भोगी दशाति नात्र संदेह दृष्ट्वा करतल दंशं मूर्च्छिति विष वेदना कुलितः
ॐ नील विष महा विष सर्प विष संक्रामणी स्वाहेति विष संक्रामण मंत्रः ॥ खडिया मिट्टी को कांच के रस में सात बार भावना देकर उसका उपरोक्त मंत्र से मंत्रित करके उससे शनिवार को शास्त्र के उपदेश के अनुसार एक खड़िया का सर्प बनाये |
॥ २३८ ॥
यो हन्यात् वद् वक्रं खटिका सर्पवदनं यः पुमाना हंति तं भोगी दशति तं हिसंक पुरुषं खटिका सर्पों दशति नात्र संदेह अत्र खटिका सर्प विधाने त देहो न कार्यः दृष्टवा करतल दंशं तत्सर्प दशन दंश करतले दृष्ट्वा मूर्छति स पुरुषो मू प्राप्नोति कथं भूतं विष वेदना कुलितः विष जनित वेदना निराकुलितं स्यात् ॥ २३९ ॥ P/50505PSPSPSPSE PS252525252525
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S501501501501505 विधानुशासन P50352551015121511
गरलं पूरक योगादमतं रेचकतो भवति विषमविषं पूरक के योग से बना हुआ रेचक से अमृत होकर नष्ट हो जाता है।
||२४०।।
ॐकों झौं श्री कंठ मंत्रेण तिर्ष हुंकार मा गां
जप्तत्वा सूर्या दृश्योलोक्यं भक्षयेत्पूरकात् तक्षः ॥२४१ ।। ॐ क्रों झौ इस श्री कंठ मंत्र से हुंकार के मध्य में विष को जपकर तथा सूर्य की दशा को देखकर पूरक से विष को खा जावे।
प्रति पक्षाय दातव्यं ध्यात्वा नीलनिभं विषं, मंत्रयित्वा ततोऽनेन हौं ये मंत्रेण मंत्रिणा
॥ २४२॥ ॐ क्रों ह्रीं श्रीं ठठः इस मंत्र से अपनी हथेली पर हु इस बीज के अंदर रखे हुए विष को पूरक योग से खा सकता है। ग्लौं ह्रौं घे घे इस मंत्र से विष को नील वर्ण का ध्यान करके शत्रु को विष भक्षण करने के लिये देये।
सं चित्य साक्ष्य हस्ते स्थ मिंदु संपुटित मनिल बीजेन,
शोषित व्यंभो दग्धं विषम मृतमिवा श्रु भुंजीत ॥२४३ ॥ गरूड़ के रूप में हाय अग्नि बीज रं के संपुट में चन्द्रमा को करके उससे जले हुए और जल से भुजे हुए विष को अमृत के समान तुरंत ही खा लेवे।
गुलिकाः श्रुनके न कृताः शकता वत्सस्य जात,
मात्रस्य जग्धाःशार्व इवांतु विष प्रभुः काल कूट मपि ॥ २४४ ॥ तुरन्त के पैदा हुए कुत्ते की विष्टा की गोली को खाकर शिव के समान कालकूट विष को भी खा सकता है।
अथ वासं भक्ष्य विषं मूलं भक्ष्यंत वंध्य कन्याटाः,
रजनी विषेण सहिता इंति विषं नात्र संदेहः !॥२४५॥ अथवा विष को खाकर वंध्या कर्कोटि (बांझ कंकोड़े) की जड़ को खा लेवे अथवा वंध्य कन्या विष के साथ हल्दी को मिलाकर खाने से विष स्वयं ही मर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
भक्षयतु तुरंग गंधा पश्चात् भक्ष्यंतु दुष्ट गरलानि, अथ विपरीतां भक्षय विष हरणं त्रिभुवने सारं
॥२४६ ॥ असगंध को खाकर पीछे चाहे जैसे दुष्ट गरलों को खाये तो भी कुछ भी प्रभाव नहीं होये अथवा विष खाकर पीछे असगंध को खावे यह विष को नष्ट करने वाला तीन लोक में सार रूप है।
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CTETRICISIODOI5015 विद्यानुशासन 9851055015DSCISION
अश्व गंधा शिफा क्लकं निपीय यदि माटोत, स्थावरं गरलं तस्य न भवेद् विष विक्रिया
॥२४७॥ अश्वगंधा की शिफा (जड़) के कल्क को पीकर स्थावर या जंगम कैसे ही विष पीने वाले पुरुषको विष का विकार नहीं हो सकता है।
क्षीरेण कल्कितां पीत्वा निशां कुष्ट वचामपि, स्थावरं गरलमऽभून्नो वाध्यते विष विकृतैः
॥२४८॥ हल्दी कूठ और यच के दूध में बने हुए कल्क को पीकर स्थावर तथा जंगम कैसा भी विष हो उसका विकार नहीं हो सकेगा।
आरक्तं नान युगं शुष्टाति यस्या ननं भुजः स्फुरतिः,
स्वेद:कंपो हिका विष दानं तस्य मा कुरूत ॥२४९।। ॐअसिपंजराय वंद्य-वंद्य स्वादका स्तद्योर्जिनस्तभकारानरेद्राणांमंत्रंछिदं सुरश्च तयथा तिरिटिंधातय धाता छिंद छिंद स्फोटट स्फोटटा सहश्र खंडं कुरू कुरू पर मंत्रान छिंद छिंद छिन्नो सिर र र ठः ठः ।। जिसके दोनों नेत्र लाल हो गये हों, मुख सूख रहा हो, हाथ फड़क रहा हो, शरीर में खेद और हिचकियाँ आ रहा हो उनको विष नहीं देना चाहिये।
तिरिट रूद्र नामाऽयं मंत्र शत्रु विनाशनः, एतस्य जप होमादि पुरः सिद्धिकरो मतः
॥ २५०॥ यह शत्रुओं को नष्ट करने याला तिरिट रुद्र नाम का मंत्र है। इसको पहले जप और होम से सिद्ध करना चाहिये। ॐ नमो पार्थनाथाय झंवीक्ष्वी हंसं यः पक्षि जःजः ।।
मंत्रेणानेन सिंचेत सलिलैरभि मंत्रितैः, सभ्यानाम परिशात स्यात् प्रतिवरशकता।
॥२५१॥ इस मंत्र को पढ़कर जल छिड़कने से सजनों पर शत्रु का आक्रमण नहीं हो सकता है।
नामामृतांशु मध्य स्थं विधं वजै रिहाष्टाभिः, छिन्नं गरूड मंत्रेण पर विद्या छिदां बिंदु:
॥२५२॥ नाम को चंद्रमा के बीच में लिखकर आठ व्रजों में बींध देवे और गरूड़ मंत्र से घेर दे तो यह दूसरे की विद्या को नष्ट करता है।
ॐ क्षिप स्याहा जः जाजःठाठठः हुं फट । गरूड़ मंत्र
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CASIRISTOISTRISIOISITORS विद्यानुशासन RSD5513152515015
पदम चतुर्द्धलो पेतं भूतांत नाम संयुतं, दलेषु शेष भू तानि त्रिर्मायायेष्टितं श्रुभं
||२५३|| एक चार दल वाले कमल की कर्णिका में नाम सहित आकाश बीज हा को लिखकर शेष दलो में बाकी भूताधार हा बीज लिखे और तीन बार माया हीं से वेष्टित करके क्रों से निरोध करे।
ह्रींकार सं वेष्टित नाम वाह्ये हंसः पदं संविलिरव्येत्समतात, यंत्रेऽब्जपत्राणि भवंति चाऽष्टी मध्ये च तेषां सकल स्वरास्तु ॥ २५४ ॥
त्रियिया वेष्टयं ततों कुशेन सं रूप्य भूर्जे हिम कुंकुमाौः ,
वधातु हस्ते फणि दर जंतो विलिरव्य रक्षा भय रोग हारी ॥२५५ ॥ कर्णिका में हीकार से वेष्टित नाम के बाहर चारों तरफ हंस पद को लिखकर, आठ दल का कमल बनावे, जिसमें सब स्वर लिखे हुए हों। उसको तीन बार माया बीज से वेष्टित करके, क्रों से निरोध करे। यह मंत्र भोजपत्र पर चंदन और कुंकुम से लिखे और सर्प से उँसे हुये के हाथ पर बाँधने से रक्षा करता है, तथा भय और रोग दूर करता है।
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ದಾರ್ಥಗಳು ೯೪೪ Vಣಸಣಣದಾದ
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विधानुशासन 9595295959
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दवी हंस:
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वेष्टयेन्नाम हंसेन हंकारेण स्वरैः क्रमात् पत्राणि षोडशवहि विलिखेदिग्दलेष्यथ
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हं वक्ष्वीं हंसः इत्येतदन्येषुम्ल्यू क्ष इत्यादा वहि मंडल कुर्यात् शक्तत्यात्रि वेष्टयेत् क्रमात,
भूदले स्वर्ण लेखिद्यन्यी लिखितं घृतं इदं विषाणि सर्वाणि निर्मूलयति तत्क्षणात्
यक्ष राक्षस भूतादि सं भूतात्रायते भयात् सौभाग्य मात्मजोत्पत्तिं वश्यं च विदध्यात्यलं
॥ २५६ ॥
॥ २५७ ॥
।। २५८ ।।
॥ २५९ ॥
15 ६७३ PSP59595295055
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SBIOTECI5DISTO5125 विद्यानुशासन PISSISTRISISTRICISION नाम को हंस हं और स्वरों से क्रमशः वेष्टित करके उसके बाहर सोलह दल का कमल बनाकर, दिशाओं में हं झ्वी क्ष्ची हंसः हिवारत, शेष लोंबटुंभः लिखकर यंत्र जन्नाते! फिर बाहर तीन बार ह्रीं से वेष्टित करके क्रों से निरोध करे। इस यंत्र को भोज पत्र पर सोने के कलश से लिखकर धारण करने से सबप्रकार के विषक्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। यह यंत्र यक्ष राक्षस भूतादि से पैदा हुए भय को दूर करके रक्षा करता है। अपने लिये सौभाग्य उत्पन्न करके वशीकरण करने में समर्थ होता है।
कर्णिकायां लिखेन्मध्ये झौं हकारी च नाम च क्षा दीनवर्णन पटोधींदु टामेंद्रासा सुसं लिरवेत्, रक्षो हरानि मारूतं लादीन दिक्षु स बिंदुकान् ॥२६०॥
तदष्ट दल मंऽभोजं मादया वेष्टटोत् निधा, कुंकुमायैः शुभै द्रव्यैः कल्कितै गोमयां बुना
॥२६१॥
भूर्जे विलिरिक्तं यंत्र मे तत् स्यात् सार्वकार्मिकं, सुवर्ण वेष्टितं यंत्रं धारिते तं धरादिषु
||२६२॥
त्रिःप्रकारात् विषान्मयान परित्रायेत् सर्वदा, मृत्युं जयाभिधानस्य यं त्रैस्यैवारिवलं फलं
||२६३॥ एक अष्ठ दल कमल की कर्णिका में झौं और ह के बीच में नाम को लिखकर, बाहर आठों दलों में क्षि-स्था-स्व-र-ई-व-प-य-बीजों को लिखें। फिर इस आठ दल कमल को तीन बार हीं से वेष्टित करके क्रौं से निरोध करे। इस यंत्र को कुंकुम आदि शुभ द्रव्यों से गौ मूत्र से बने कल्क से लिखे। इस यंत्र को भोजपत्र लिखकर सोने में मंढ़वा कर गले में पहनने से सब कार्य सिद्ध होते हैं। यह मृत्युंजय यंत्र मनुष्यों को तीनों प्रकार के विषों से सदा ही रक्षा करता है यह इसका पूरा फल
है।
अनुक्तमन्यदप्या हुटर्यत्र स्टौमुनि पुंगवाः, लिरिवतंमरूदुदभूते भूम्याम पतिते दले
॥२६४॥ श्रेष्ठ मुनियों ने बिना कहे भी इसे तथा दूसरे यंत्रों को वायु से उड़कर पृथ्वी पर न गिरे हुये पत्ते पर श्मशान में लिखकर बनाने का विधान कहा है। यह शत्रु का उद्घाटन करता है।
द्विकच्छदैः श्मशान स्था मिद मुच्चाटनं रियोः ।।। द्विक (कौवे) छद (पंख) कौवे के पंख से लिखकर शमशान में रखने से शत्रु का उच्चाटन होता है।
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151 विधानुशासन 7595959595
म्यू पिंड़ गतं हंसस्थ मथ स्वरावृतं विलिखेत्, सविसग्ग कूट पत्रष्टकाब्ज परिवेष्टितं नाम
॥ २६५ ॥
पिंड़ाक्षर को हंस के बीच में सोलह स्वरों से वेष्टित के बीच में नाम को लिखे उसमें चारों तरफ आठ दल के कमल में विसर्ग रहित कूटाक्षर (क्ष) लिखा हुआ हो ।
इति रक्षाब्ज मेतत् शुचि प्रदेशेषु खटिकया लिखितं, मजसि धृतं वा दष्टं रक्षति च तथा ग्रह ग्रस्तं
॥ २६६ ॥
मंत्री इस रक्षा कमल को पवित्र स्थान में खड़िया से लिखकर मन में धारण करने से डँसे हुये पुरुष की रक्षा करता है ।
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षटकोण भवन मध्ये करूकुल्यां यो लिरवेविद्या,
तस्य गृहे न च तिष्ठति नागो नागारि बंधन ॥२६७॥ ॐ कुरू कुल्ये स्वाहा ।।
न्यस्यते यस्य चकांकां दलि तातरे , अपहाय पलायंते तद ग्रहं फणिनः क्षणत् ।
॥२६८॥ जो षटकोण भवन के बीच में ॐ कुरूकुल्ये स्वाहा मंत्र को लिखता है उसके घर में सांप नहीं ठहरता है। यह सौ के शत्रु गरूड़ द्वारा बांधा है। जिसके घर में इस चक्र को बनाकर रखा जाता है उसके घर में सर्प क्षण मात्र में भाग जाता है।
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कुरु कुल्पे स्वाहा
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SASTOTKOISTOISTRISIO5 विधानुशासन 20505CISIO550158IN
प्रतिमां विनतो सुनो रूक्ष व विनिमितां, कादिषु दयनेच भुजगेन्नानि भूपते
॥ २६९ ॥
रूक्ष वृक्ष (वृक्षा भेद) की बनी हुयी विनत सुत(गरूढ़) की मूर्ति को कंठ में धारण करने से सर्प आक्रमण नहीं करते हैं।
पुष्य रूक्ष सित वर्षा भूमलं मुदगांबुनापिर्वत, तस्य पार्थे भुजंगाद्याः संचरतिन वत्सरं
|| २७०॥ पुष्य नदान में लायी हुयी श्वेत वर्षा भूमूल (सफेद पुनर्नवा सखयरा साठी) की जड़ को मूंग के पानी के साथ पीने से नाग एक वर्ष तक उसके पास नहीं आ सकते हैं।
पुनर्नवस्टयो मूलं रक्त पुष्पस्य कल्पितं,
पिवेत् पुष्पेन षणमासा स्तं दशंत्य हि यश्चिकाः ॥२७२।। जो पुष्य नक्षत्र में लाई हुयी लाल फूल वाली पुनर्नवा (साठी) की जड़ के कल्क को पीता है उसको छह महीने तक सर्प और बिच्छु नहीं काटते हैं।
विधिमिममुंप दिष्टं यो यथा वद्विजान्न विरत जप हो माम्टार्चनासिद्ध मंत्र:भुजंग विष विकारोन्मूलने
व्याप्तः स्यात् स गरूड़ व दष्टं निर्विषी कर्तुमीष्टे ॥२३॥ जो इस उपदेश की हुयी विधि को ठीक ठीक जानता हुआ निरंतर जप होम और पूजन से मंत्र सिद्ध करता है यह इँसे हुये के सर्प के विकार को गरूड़ के समान निर्दिष करने में समर्थ होता है।
इति निर्विषीकरण नाम दशमः समुच्छेदः
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CHOROSCORRES विद्यानुशासन NSTRIEPISPRISESIRSS
ग्यारहवां समुदेश ॐ नमः सिद्धेभ्यः
अथांतः सं प्रवक्ष्यामि फणिदष्ट चिकित्सितं, औषधेरैव विद्यौः सिद्धै रदभुत शक्तिभिः ।
॥१॥ इसके पश्चात् अनेक प्रकार की अद्भुत शक्तिवाली औषधियों से सर्प के काटे हुये की चिकित्सा का वर्णन किया जाएगा।
इह पान भक्ष्यनस्यां जन धूपा लेप सर्वकर्मकरं, क्ष्वेडोपद्रव हरणं दष्टा चरणं च वक्ष्यामि
॥२॥ इस संबंध में ऐसी पीने और खाने की औषधियों अंजन, धूप और लेपों का वर्णन किया जाएगा जो सब कार्य करने वाले और विष के उपद्रव को नष्ट करने वाले हैं। और सर्प से इँसे हुवे के आचरणों का भी वर्णन किया जाएगा।
सर्पिषं क्षुद्र व द्वद्धं सह तीक्ष्ण फल द्वट, पीतं भुजंग दष्टस्य ह्रदयावरणं मतं
॥३॥ धृत में दोनों प्रकार के वांदा और दोनों तीक्ष्ण फल (तीक्ष्ण= विष) को पानी से इंसे हुए को पिलाने से हृदय हल्का हो जाता है।
अहि दशानामादौ जीव त्राणाय गोमय सरसः, यत युक्तः पातव्यं कटु मरिचो पेत माज्यं च
॥४॥ सर्प के इंसे हुए के शुरू में उसका जीवन बचाने के वास्ते गोबर का रस घी मिला हुआ पिलावे तथा काली मिरच मिला हुआ धृत पिलाना चाहिये।
गुड लवण कांजिकानां पानाद भुजंगेन दष्ट गात्रस्या,
उपशममुपद्यति विषंक्षण मात्रादकण स्याथ गुड़ नमक और कांजी को बराबर बराबर लेकर पिलाने से सर्प के काटे हुए के शरीर का विष क्षण मात्र में सुहागे के साथ देने से नष्ट हो जाता है।
पारवंडिफल तोयं तुंबी सं स्थितं क्षण निहितं, पत युत मेतत् पाना द्विष हरणं सपदि दष्टाना
॥६॥ S5DISCISIOISTRISTOTSIT51६७८ PISTRISADISISTSTOISSISTS
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तुंबी में जरा देर रखी हुयी पाखंडी फल के जल को घृत के साथ पीने से तुरन्त ही विष नष्ट हो जाता है।
अर्क मूल त्वचा चूर्ण पीतः शीतेनं वारिणा, सर्प घोणस धतुर करवीर विषापह
आक की जड़ के छाल के चूर्ण को ठंडे जल के साथ पीने से सर्प गोहरा धतुरा और कनेर का विष नष्ट हो जाता है।
वंध्या निर्गुडिका द्वंद्ववेग सूर्येषु पुंविकाः, निहंतुत्सर्पिषा पीताः फणि कटिजं विषं
॥ ७ ॥
॥८॥
हँसा हुआ पुरुष मृत के साथ संध्या (बांस ककोड़े । निर्गुडी (संभालू) साधारण तथी नीली दोनों वेग (महाकाल का फल) (मालकांगनी) सूर्ये (आक के पत्ते) पुंखिका (सरफोका) को पीने से सर्प और कीड़ो का विष नष्ट होता है।
आज्या निर्गुडीका श्वेत वचया चार विषो पिबेत्, मूलं वा सिदुंवारस्य तस्य पत्रं स्व भावितं
॥ ९ ॥
घृत और निर्गुडी श्वेत वचचार (चिंरोजी ) को विष में पीचे अथवा (सिंदुवार) निंगुडी को निर्गुडी के पत्तों के स्वरस की भावना दी हुयी जड़ को पीवे ।
तदुलीय अर्क मूलं रूक गृहधूमो निशाद्वयं, पीतेघृतेन दना च पीतैर्नस्याद्विषादभयं
॥ १० ॥
तंदुली (शंखनि-वाय विडग ) आक की जड़ की रूक () गृह धूम (घर का धूमसा ) दोनों हल्दी ७ हल्दी और दारू हल्दी को घृत तथा दही के साथ पीने से विष का भय नष्ट होता है।
रजनी द्वयं गृह धूमं समूल पत्रं तु तंदुलीयं वा, दधि गुड सहितं सर्वं व्यंतर विषनाशन भणितं
॥ ११॥
दोनों हल्दी घर का धूमसा और बाय विडंग को जड़ और पत्तों सहित लेकर दही और गुड़ मिलाकर लेने से सब प्रकार के व्यंतर नागों का विष नष्ट करने वाला कहा गया है।
लवणार्द्ध पलोपेतश्चिचां पल्लवजो रसः, कुडव प्रमितः पीतो विषं हंति फणामृतां
eSP59695969595 ६७९ P596969695969
॥ १२ ॥
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S5E5I015RISTOT500 विद्यानुशासन 15015TOSSONSIONSOTES आधा पल (दो तोले) नमक इमली के पत्तों का रस एक कुइय (आधा सेर) प्रमाण पीने से लागों का विष नष्ट होता है।
पिष्टया सितांबुना पुंसः पिवतो लयु, दुग्धिकांनेश्वरो मारणे सोपि मातरिश्वा शनैश्चरः
!!१३॥ छोटी दूधी को पुरुष के सफेद जल (मूत्र ) के साथ पीने वाले को ईश्वर= महादेव, मातरिश्चन (वायु) और शनीश्वर भी नहीं मार सकते हैं।
कपित्थ कदलि कंदो वा स्फोटा तूल मेवच अलं सर्प विषं जेतुं पानेन ग्रसनेन वा
॥१४॥ कैथ (काथोड़ी) कदलिं कंद (केले की जड़) आस्फोता (शारिबा अनंतमूल) तूल (कपास काकड़े) अलं (बिच्छू का डंक-समर्थ) और सर्प विष को नष्ट करता है, पिलाने से या निगलने से विषों को जीतता है।
मूलं द्वयं कुमार्गोभिन्नगिरेर्वाण दालिका युक्तं दष्टानां पान मिदं पुनरन्य केपि भाषिते
॥१५॥ दोनों तरह की धृतकुमारी (भिन्नगिरी) (मुर्वा) की दोनों जड़ें और बाण (अम्लता) और बड़ी इन्द्रायण को इसे हुए के पीने के लिये बतलाया है यह किन्ही आचार्यों ने कहा है।
कुष्टं तगरं योषा कटुतुंबिकुटज जालिनी रजनी मूलम अगस्ते मूलं बीजं च समस्त तंदुलीयं च
॥१६॥
फणि घोणस लूतों दर वृश्चिक माजार श्रुनक कीटानां,
यः पिबति तस्य नस्यति विषमेषां जंतुकानांच ॥१७॥ कूटतगर घोषा(देवदाली) कड़वी तूंबी कुटज (कूड़े की छाल)जालिनी (राज तोरई) हल्दी की जड़, अगस्तया की जड़ , बाय विडंग के बीजों को पीने से उसका सर्प गोनास लूता (चींटी मकड़ी) चूहा बिच्छु बिलाब कुत्ता कीड़ो और गीदड़ों जानवरों का विष नष्ट हो जाता है।
नत मुत्पलं विषाणं मूलं कुटजस्य देवदाल्याच,
मुनि योषा कटु तुंबी धन नादानां च रजनी च ॥१८॥ CRORISTICKSTRISTRIES६८० VISIPTEICKSTORIESRIDESI
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SSTRISESIRIDIOIST25 विधानुशासन XS1015121510050SSIOTS
अहि वृश्चिक लूतोंदुर योणास मार्जर शुनक हरिणीनां,
मग धूर्तस्यापि विषं शमयेयुः पान लेपाभ्यां ॥१९॥ नत (तगर) उत्पल (कमल) या नीलोपर विषमूल (वत्सनाभ) कूड़े की जड़, देवदाली, अगस्तय, घधर बेल, कड़वी तुबी, धननाद (नागर माथी ) या (गाज) हल्दी के पाने तथा लेप करने से सर्प, बिच्छू, चींटी, मकोड़ी, चूहा, घोणस, बिलाव, कुत्ता, हिरण और गीदड़ धतूरे के विष शान्त हो जातेहैं।
मंजिष्टा गहधूमंत पिबेत् संपेष्य सर्पिषा दष्टो जलेन मूलं या गवाक्षी सिंदु वारयोः
॥ २०॥ इँसा हुआ पुरुष मंजठि घर काधूमसा को घी के सात पीसकर पीवें। नेत्र बाला की जड़ गवाक्षी (कोरोचन) निगुंडी भी पीवे 1
सर्पिषा निंबा सिंधुत्व निंब बीजानि पाययेत विषदष्ट नरः सः स्यात् क्षण मात्रेण निर्विषः
॥ २१॥ धृत, नीम,सेंधा नमक नीम की निमोली को सर्प से काटे हुए को पिलाने से क्षण मात्र में निर्विष हो जाता है।
अध्यात्मरीचिका मूलं कुबेराशा समुद्भवं दष्टोश्वगंधा मूलं वा नस्येत्फणि भृतां विषं
॥ २२॥ इँसा हुआ पुरुष मरिचिका मूलं (काली मिरच की जड़) जो उत्तर दिशा में उगी हुयी हो या असगंध की जड़ पिलावे या नस्य देवे तो फणीभृत सर्प का विष मष्ट होगा।
देवी सेहंदवल्ली तुलसी द्रोणग्नि कच्छद स्वरसैः
भावितमसकृत् त्रिकटुक सूक्ष्मरजः फणि विषे नस्यां ॥२३॥ सहदेवी (हंदुबल्ली सोमवल्ली), तुलसी, द्रोण (गूमा) अनि, कच्छद (चित्रक की जड़ की छाल) के स्वरस की असकृत (बारबार) भावना दी हुई त्रिकुटक (त्रिकुट= सोंठ, मिरच, पीपल) बारीक पीसकर फणीभृत सर्प के विष को नष्ट करने के लिये नस्य सुंधावे ।
पटु टंकणारपि दुग्धव्योषेष्वे के न रचित संलेपाया तर्जनीतया काल स्पष्ट भवत्य विषं:
॥ २४॥ परवल, सुहागा, आक का दूध, व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) में से एक एक से उंगली (तर्जनी उंगली) से लेप करने से विष नष्ट हो जाता है।
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959595951955 विद्यानुशासन 2595
अरिष्ट वलककोदभूतः रस रसोनसियोजितः अपि वासुकिना मुत्थापयति मानवं
॥ २५ ॥
नीम की छाल के रस में लहसून मिलाकर सेवन करने से वासुकि नाग से हँसा हुआ पुरुष भी उठ जाता है।
पींत वासर कृत्पत्र स्वरसेन सहिं गुजा नानात्सद्य उत्तिष्टे दृष्टोप्टा हि भिरष्टभिः
॥ २६ ॥
वासा (अडूसा) के पत्तों का रस पीने और हींग के साथ सूंघने से आठ प्रकार के सर्पों से काटा हुआ पुरुष भी उठ जाता है।
नस्यं कुष्टो गंधाभ्यां दष्टानां सर्पिषाकृतं विषं हरति य द्वातौ निपीतौ मूत्र पेषितौ
159595
11 219 11
कूठ उग्रगंधा (वच या अजवाइयन या न कछिकनी या लहसुन) को घी के साथ मिलाकर सूंघने से विष नष्ट हो जाता है अथवा मूत्र में पीसकर पीने से भी विष नष्ट होता है ।
लवणोपेतनाग्रिक पत्रस्य रसेन भावनं दत्तं जयति विष भुजंगानां लसुनो पेतेन वातेन
॥ २८ ॥
चित्रक के पत्तों के रस की भावना नमक में देकर पीने से अथवा उसको लहसून के साथ मिलाकर सूंघने से भी सर्पों का विष नष्ट होता है।
मंदार दलस्य रसौ नसि कर्णे चार्पितौ पिनिहंति विषं, द्विरसन शतपद वृश्चिक जनितं द्विज मूर्द्धवाश्चरजः
॥ २९ ॥
मंदार (आक) के पत्तों के रस को नाक और कान में डालने से द्वि रसना (दो जीभ वाला) सर्प कनछला बिच्छू का विष नष्ट होता है ।
मधुसारं शैरीषं कुष्ट युतं वर्त्तित धृतेनालं दंष्टानाम, उद्धिष्टं नस्य मिदं निर्विशेष विष हरणं
॥ ३० ॥
मधुसार (महुवे का रस ) शैरीषं (सिरस) कूट सहित घृत में मिलाकर बनायी हुयी बत्ती को सुंघाने से सभी विष नष्ट हो जाते है।
25252525PSPSPSE« PSP/SP/SP/SP/SE/SYS
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959595959595 विद्यानुशासन 9595959529/525
दष्टे नस्यं तंदुल पाटल मूलेन विष मपा कुरुते,
अथवा तुंबी घोषा मूलाभ्या माज्य भृष्टाभ्यां
॥ ३१ ॥
बाय विडंग (तंदुल) और पाटली की जड़ को सुंघाने से अथवा कड़वी तुंबी घोषा (देवदाली) की जड़ो घृत में पीस कर सूंघने से भी विष दूर होता है।
को
परिभाव्य सप्त कृत्वो गर्दभ करभाश्च हस्तिवृष मूत्र: सारं माधुकंका शैरीष वा नसेधात्
॥ ३२ ॥
महुआ का रस अथवा सिरस में गधे, ऊँट, हाथी, बैल के मूत्रों को सात सात भावना देकर सुंधावे ।
पिर सुत मविलेत् क्ष्वेड़ परमार विकार उन्मादे,
भूते गृहे ज्वरे च द्वितीय कादौ विशेषेण
|| 33 ||
जियो अफसार मृगी के विकार उन्माद भूत ग्रह ज्वर और इकातर आदि
अथवा उसी को भी
में विशेष रूप से पीवे ।
मुनि हयगंधाघोषा वंध्या कटुतुंबिका कुमारी च, त्रिकटुक कुष्टेंद्र वा पंति विषं नस्य पानेन
1138 11
मुनि (अगस्ता ) असगंध-घोषा (देवदाली) वंध्या (बांत्र ककोड़ा कड़वी तुंबी, गंवार पाठा, त्रिकटुक
( सोंठ, मिरच, पीपल) कूठ इन्द्रजो को पिलाने से सुंघाने से सब विष नष्ट होते है ।
3
तगरेन कृते नस्ट नश्यति गरलं महाहिजं नृणां, अथवा कटु तुंबी फल मूलाभ्यां नाश्येत् गरलं
।। ३५ ।।
तर को सूंघने से बड़े बड़े नागों का विष नष्ट हो जाता है। अथवा कड़वी तुंबी के फल या जड़ की नश्य देने से भी विष नष्ट हो जाता है।
वंध्यार्क मूलयुक्ता रजनी निवर्त्तिता सूक्ष्मा अपहरति विषं नस्यात् कुलिकेनापि अहिदष्टस्य
॥ ३६ ॥
वांझ ककोड़ा, आक की जड़ और हल्दी को बारीक पीसकर बनाई हुयी बत्ती को सूंघने से कुलिक नाग के हँसने का भी विष नष्ट हो जाता है ।
श्वेत गिरिकर्णिकाया मूलं तोयेन वर्त्तितं सूक्ष्मं दातव्यं नस्य मिदं दष्टानां चेड हरणाय
॥ ३७ ॥
PSPSPSSPPSPS ६८३ PPSSPP9595
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SISO151015105015015 विधानुशासन ISIOIST051015DECISI सफेदगिरि कर्णिका (सफेद कोयल) की जड़ को पानी से पीसकर बनाई हुयी बत्ती को सूंघने से इसे हुये का विष नष्ट हो जाता है।
व्योषेण टंकेणेनाथ लिप्तां वर्ति निवेशयत नुद्दक्षिणे स्त्रिया वामे घाणे भवति निर्विषः
॥३८॥ टंकण (सुहागा) और व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) की बनाई हुयी बत्ती को पुरुष के दाहिने और त्रियों के नाक के बारे में स्वर में रखने से विष दूर हो जाता है।
व्योष रसोनलं बाजीमूत सवर्णकारवेल्व रसे:, समारंभ सापिता सौपी: केशरास्थि हिंगु वचाः
॥३९॥
द्विगुणी भूतं यावदभवयतावत् पुनः पुस्तेषां, तचूर्ण विष हननं नालस्यं गंध मात्रेण
॥४०॥ व्योष, (सोंठ. मिरच, पीपल) के रस की अनल (चित्रक) बाजीभूत (घोड़े का मूत) सुवर्ण (धतूरा) कारवेल्व (करेला) का रस कारंज (करंज) सर्पगंधा, सिरस, केसर की लकड़ी, हिंग बचको तब तक भावना देता रहे जब तक यह दुगुनी न हो जाय। उसके चूर्ण की नाक में गंध भी जाने से विष नष्ट हो जाता है।
अति तरूण कनक फल जल चिर भावित जलवेत रसकल संकलितं तैलं करतल मृदितं न सि दत्तं सकल गरल हां
॥४१॥ अत्यंत पके हुये धतूरे के फल के जल की येत वृक्ष को बहुत दिनों तक भावना देकर सबको इकट्ठा करके हाथों से मलकर तेल निकाले। इस तेल को हाथों पर मलकर सुंघाने से सब प्रकार के विष नष्ट होते हैं।
नस्यं सिरिषापामार्ग बीजा सिधुदभवैः कृतं अथवा यव पाठाभ्यां विष सुप्त प्रबोधनं
॥४२॥ सिरस,सैंधा नमक, अपामार्ग (चिरचिटा) के बीजों को सूंघने अथवा जौ और पाठालता को सूंघने से विष से सोया हुआ जग जाता है।
॥४३॥
माधूक शतसः सारो द्रोण पुष्पी दलांबुभिः
भावितो नसि विन्यस्तो विष सुप्तान् प्रबोधयेत् CASIOTICISIRISRISTOTEIOD[६८४ PISOR512550150TSIDISION
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ORDI5015015015015 विधानुशासन ISIODRISOISOISSI माधुक (महुवा) शतसः सार (रेवती का रस) द्रोण पुष्पी (गोमा) के पत्तों को जल की भावना देकर सुंघाने से विष के वेग से सोया हुआ भी जग जाता है।
छागांभो बहुभावित वंध्या कोट मूलजः कल्कः,
घेत्वेंबु युतो दत्तो नसि विष सुप्त प्रबोधयति ॥४४॥ बांझ ककोड़े की जड़ के कल्क में छाग (बकरे) के मूत्र की बहुत भावना देकर उस कल्क में धेनु (गाय) गोमूत्र मिलाकर नस्य देकर सुंघाने से विष विकार से सोया हुआ भी जग जाता है।
मांसि सिंधुज मलयज चपलोत्पलं राष्टि मधुक मरिच युजा मूत्रेणां जनम क्षणोविष सुप्तं प्रबोधयेत् सहसा
॥४५॥ जटामांसि सिंधुज(सेंधा नमक) चंदन चपल (पारा) उत्पल (जीलोफर) मुलहटी महुवा काली मिरच को बकरी के मूत्र से आंखों में अंजन की तरह लगाने से विष से सोया हुआ अचानक जग जाताहै।
व्योष निशा द्रया सुरसा कुसुम करंजास्थि विल्वतरू भूलैः,
अंजनम जलं पिष्टौर्विष सुपं योदयस्य चिरात् ॥४६ ।। व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) दोनों हल्दी (हल्दी और दारू हल्दी) सुरसा कुसुम (निर्गुडी का फूल) करंज की गुठली बिल्व पेड़ की जड़ इनको बिना पानी के पीसकर बनाया हुआ अंजन आंख में लगाने से विष से सोया हुआ शीघ्र ही जग जाता है।
वेगायाः कनकस्य च बीजेच पुनर्नवस्या शिफाया च,
तत् तुल्टोन च शीटया मूलेन विषे हितो धूपः ॥४७॥ वेगा (माल कागनी या महाकाल का फल) के बीज, कनक (धतूरे)के बीज और पुनर्नवा (साठी) की जड़ और उनके बराबर शी- (गजपीपल) की जड़ की धूप विष में लाभ करती है।
दंशे प्रलेपलेपयोत्पिष्टया व्योषं क्षीरेण भास्वतः
कुलिकेनापि दष्टस्य निर्विषीकरणं पर। ॥४८॥ व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) को आक (भास्वतः) के दूध में पीसकर कुलिक आदि नागों से इंसे हुए स्थान पर लेप करने से निर्विष हो जाता है।
वैश्म गोधार्क शलभ कृत तालेन पथ्य या
शिलया च कृतो दंशे लेपः सर्व विषापह SORRISTRISTRICISIOTICS६८५ PISTRISTRITICISIOSDISTRIES
॥४९॥
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510151005181510151215 विद्यानुशासन 501512150510651215)
शैरीषं पंचागं पागल मूत्रेण भावयेद बहुधा त्रिविधं,
विषमति विषमं लेप स्तस्य प्रनाशयति ॥५०॥ सिरस के फल फूल के पत्ते छाल और जड़ को बहुत बार बकरी के मूत में भावना देकर लेप करने से तीनों प्रकार के अत्यंत कठिन विष नष्ट हो जाते हैं।
त्रिकटुक पलाश बीजै दिनकर दुग्धेन भावितेकत्वा,
ताभ्यां विहितो लेपो जंगम विषामाश नाशयति ॥५१॥ त्रिकटुक (सोंठ, मिरच, पीपल) और पलाश के बीजों को आक के दूध में भावना देकर लेप करने से जंगम विष भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
तत शिशिर नाग केशर कष्ट तत्वोन्मत्त बीतानां,
तदुल जल पिष्टानां लेपः स्याद्विष विसर्पकजित् ॥५२॥ मत(तगर) शिशिर (हिमकदम्ब) नाग केशर कुष्टयच और उन्मत्त (धतूरा) के बीजों को चावलों के पानी में पीसकर लेप करने से सर्प के विष का विकार जीता जाता है।
पानांस्यांजन लैपेजयेत् पुनर्नवा शिफ उपयुक्तां भुजंगानां गरलं सकलां क्षणात्
॥५३॥ पुनर्नवा (साठी) की जड़ को पीने, सूंघने, अंजन करने और लेप करने से सर्यों के सम्पूर्ण विषों को क्षण मात्र में नष्ट करने के लिए समर्थ है ।
तुंबी घोषा जटे पिष्टे यतेन सलिलेनवा प्यात लिप्ते नसिकृते दृगाक्तवा हतौ विषं
॥५४॥ कड़वी तुंबी की जड़ देवदाली की जड़ पीस कर घृत से या यानी से पीने लेप करने नस्य लेने और अंजन करने से विषों को नष्ट करती है।
रूक चक्र रजनी द्वंद्व वत्स का जल कल्किताः
पानादिभि विषं हन्युरथवा व्योष सैंधवैः रूक (कूठ) चक्र (तगर) दोनों हल्दी, वत्सका (कूड़ा) के जल में बने हुये कल्क को पीने से विष नष्ट हो जाता है, अथवा व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल ) और सेंधा नमक ලලලලලලලකින් 4% වටයටeeeeS
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CRICISCEIPTIPTSIDE विद्यानुशासन 50555101512151065
कल्कितै हिंगुना बीजैश्चिंचाया वकुलस्य च शिगुत्वक स्वरसौ पेतैर्विष जिन्नांवेनादिकं ।
॥५६॥ हिंगुणा (घमासा के बीज) चिंचा (इमली के चिया) वकुल (मोलश्री) के बीज का कल्क सहजना की छाल के स्वरस से बनाकर पीने सूंघने आदि से विष नष्ट हो जाता है।
विषं हांति निश्शेषं नावनांजन लैपनैः विश्वोषण रसौनाऽर्तपटाः सुरस रामठे।
॥५७॥ विश्वोषण (सोंट) का रस रसोन (लहसुन) आक का दूध रामट (अंकोला ढेरा) का रस सूंघने अंजन करने से लेप करने से सब विषों को निश्शेष नष्ट कर देता है।
मास्या चां गुलिका हति नश्यति या जनै विषं, अलांबु जारिणी बीजैः लांगल्या च समैक-तं
गुलिकानि रिवलत् क्ष्वेल ग्रह कन्नावना दिभिः ॥५८॥ अलाबुजालिनी (घी या तोरई - कड़वी तोरई) लागलि (कलिहारी) मास्या (जरामांसी) की अंगुली के बराबर बनायी हुयी sihir अंजE कामे से विष नष्ट हो जाता है।
॥५९॥
कष्णा शिरीष बीजानां त्रिरकी क्षीर भावित
चूर्णोहि लूतिका कीट मूषिकालि विषांतक: काले सिरस के बीजों के चूर्ण को तीन बार आक के दूध की भावना देवे । यह चूर्ण सर्प,चीटी मकड़ी चूहे और भौरें के विष को दूर करता है।
एक विंशत्य हो भिर्वा यावत तावत समानत : पान नस्यांजनालेपै विष जिन्मरिच सिंत
॥६०॥
व्योष वंध्यास्थि पुष्पार्क पुष्प बीजानियोजयेत् फणिदष्टेषु पिष्टं वा खाया भव्यास्य वलकलां
॥६
॥
शिरिष वेगनक्ताह निंब कोशातकी फला गोमूत्र पिष्टैन्न स्वाद विष वेग निवारणः
||६२॥ सफेद मिरच, व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) बांझ ककोड़े की गुटली और फूल, आक के फूल और आक के बीज, खारी नमक तथा भव्य (कमरख) की छाल, सिरस वेग (मालकांगनी) ಇದಡದಡದಡE &Bಥಗಣಂಗಣ
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CHODRISTIBIOTICE विद्यानुशासन ISODIDISTRICISTORY नक्त(गुलेअब्बास) नीम और कड़वी तोरई के फल को गोमूत्र में पीसकर इक्कीस बार भावना देकर पीने नस्य लेने लेप करने से विष वेग दूर होता है।
चक्र चंदन राजास्थि नाग केशर पुष्करे: सज्येष्टवारि भिरगद सकलक्ष्वेल सूरनः
॥६३॥ चक्र (तगर) चंदन राजास्थि (आँवले की गुठली) भाग केशर पुष्कर (कमल) पानी से तैयार की हुयी दचा सबप्रकार के विष को नष्ट करती है।
हिंगु त्र्युषण गंधालसुनगुलिका कृता,
धान्यांबुकिल्कितैः सर्व विषकन्नाव नादिभिः ॥ ६४ ॥ हींग त्र्यूषण (सोंठ, मिरच, पीपल) गंधा (उग्रगंधा अजवाइन) लहसुन की चावलों के पानी से बनाये हुये कल्क को सूंघने आदि से सब प्रकार के विष नष्ट होते हैं।
निवास्थि तीक्ष्ण सिंधूत्थैरेकैक दयंशकैः क्रमात
साधितं साधयेत्साघु सपि सर्प विषोद्धति ॥६५॥ नीम की निमोली एक भाग तीक्ष्ण विष सिन्धूत्य नमक दो भाग सेंधा नमक को क्रमशः घृत में सिद्ध करने से सर्प का विष दूर होता है।
दलितं शिरीष बीजं दुग्धि दुग्धेन भावितं भूरि
पिप्पलिका चूर्ण युतं फणि योणस वृश्चिकादि विष हरणं ॥६६॥ सिरस के बीजों को दल कर (पीसकर) दूधी के दूध या आक के दूध की भावना देकर उसमें पीपल का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से सर्प, बिच्छू आदि का विष दूर होता है।
अर्क रंभा सुतां गुंडी नागीशुलिं सुदर्शनां ईश्वरी मज्जकां सर्प रेखां वा हुः पथग्विषे
||६७॥ आक का दूध रंभा (केला) सुता (पितोजिया (गुंडी (निगुंडी) नागी (बाजास) शूलिं (शूली तृण) सुदर्शना (सुर्दशन) ईश्वरी (शियलिंगी)अर्जका (सफेद पलाश) का प्रयोग सर्प विष को नष्ट करने के लिये करे।
व्योष हय मार पीठा नीली मूलैस्तिलोत्ध संद्रावैः
भव्यस्य चर्मणा वा स कांजिकेनाहि विषनाश: ॥ ६८॥ SSIRISTOSTERSITE:512551275६८८ BISIOTSIOISO950150500
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OSSISTRISTOTSIDDIO विधानुशासन 150151215105ODOIN व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) हयमार (कनेर) पीठा (चित्रक) नीली की जड़ और तिलों का तेल भव्य(करमन) की चर्मणा (छाल) को कांजी के साथ प्रयोग करने से सर्प का विष नष्ट हो जाता
शुक तरू रंगा गंधा कटुत्रिकै भांवितै कृतो
बहुशः रंभाभो निर्विषजित पानादि प्रक्रमः प्रोक्तः ॥६९॥ शुकतरू (सिरस) रंगा (गुड़हल) गंधा (गंधक) कटुनिकः (सोठ, मिरच, पीपल) को रंभा (केले) के रस में बहुत बारभावना देकर पिलाने सुंघाने नस्य और लेपादि करने से विष नष्ट हो जाता है।
शौरीषं पंचांग विनासा कष्ण पक्ष पंचम्या
आतमपि मूत्र पिष्टं गुलिको कृत मरिवल गरल हरं ॥७॥ सिरस वृक्ष की पंचाग फल फूल पत्ते छाल और जड़ को कृष्ण पक्ष की पंचमी को लाकर अपने मूत्र में पीसकर बनाई हुयी गोली रखकर खाने आदि प्रयोग में लाने से सम्पूर्ण विष नष्ट करती है।
करवेल्ली निगुंडी वे कुंठा माकुलो दल स्वरसै व्योष वचा हिंगुयुतैन्नस्यादिनिरिवल विष ताक्ष्य
|७१॥ कारवल्ली (करेला) निर्गुडी (संभाल) वेकुंठा (यांसा )को उनके पत्तो के स्वररस में भावना देकर व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) वच, हींग मिलाकर सूंघने से विष को गरूड़ के समान नष्ट करता है।
अंगैहि गुपेतैः सुरदाल्याचूर्णितै सकलः दत्तो नस्टादिः स्यात्सर्प विष प्वांत धर्माशः
॥७२॥ अपने अंगों सहित हींग और सुरदाली देवदाली का चूर्ण बनाकर सूंघने आदि से यह प्रयोग विष रूपी अंधकार के लिये सूर्य है।
अपनयति मात् धातक हस्तः परिभावितो वहुन्बारान
भुजवल्ली दल सहितै: सकल गरलं हरंन संदेहः ॥७३॥ भुजवल्ली (नागरवेल का पान) के पत्तो सहित मातृ (शषभक) घातकी (धाय ते फूल) के पत्तों के रस में बहुत बार भावना देने से समस्त विष को निस्संदेह नष्ट करता है।
नत मधुक दारू शक तरू मरिच हरि द्राज्य हारनकतका हाः चपलाः मनःशिला च प्रति वर्ष फणी भृतां निरिवलं
॥७४॥
SASISTERSTATISTORICA51225६८९ PASISTERTISTSISTRICISTIT
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QS252595955 विद्यानुशासन 959595959595
नत (तगर) मधुक (महवा या मुलहटी) दारू (देवदार) शुकतरू (सिरस) काली मिरव हल्दी घृत हार () कतक (he) चपला (पारा) मैनसिल सब सर्प के सम्पूर्ण विष को नष्ट करता है।
द्विनिषा रामठ राजी पटु मातुल विश्व लसुन
लाक्षभि: मूत्रेण कल्किताभिः पानादि विष हरः प्रोक्तः ॥ ७५ ॥
दोनों हल्दी रामठ (अंकोल) राजी (राई) पटु (कड़वे परवल) मातुल (धतूरा) विश्व (सौंठ) लहसुन को लाख के पानी आदि के साथ पीने से विष को नष्ट करने वाला कहा गया है। इन सारी दवाओं को मूत्र से पीसकर कल्क बनाकर पीवे या लेपादि करे।
धननाद वाजि गंधा महिषाक्षगार घूमतगराणां
पशु सलिल कल्कितानां पानादिः सकल विष हरणं ॥ ७६ ॥ नागर मोथा असगंध भैसा गूगल अगर घूमसा तगर के गाय के मूत्र से कल्क बनाकर पीने से सब प्रकार के विषों को नष्ट करता' |
तवही बस शकृता वनरेण च विप्रवर्त्तिता वर्त्ती, पशुमूत्रे कल्किाताभ्यां विष हन्नस्यादिषु वितीर्ण
|| 99 ||
तुरन्त के उत्पन्न हुये बच्चे की शकृत (भिष्टा) में तगर मिलाकर बनायी हुयी बत्ती जो गाय के मूत्र से पीसकर कल्क करके सूंघने आदि से विष नष्ट हो जाता है।
अर्क पुष्प पुनर्नव भूल वचा मरिच मूत्रषद्धरणैः हेमाति मुक्तं शुक तरू गुंजा बीजैश्च जीयते गरलं
|| 92 ||
आकत्र पुष्प पुनर्नवा मूल (साठी की जड़) वच मिरच छहो मूत्र में रखकर हेम (धतूरा) अति मुक्त क्षरू (सिरस ) शुकतरू (सिरस) गुंजी (चिरमी) से विष नष्ट होता है ।
व्योष नवनति दधि घृत सिंधुद्भव मधुक वृक्ष साराणां, उपयोगाद्वासुकीना दष्टोपि भवत् क्षणात् ऽविषः
॥ ७९ ॥
व्योष (सोंठ मिरच, पीपल) नवनीत (मक्खन) दधि (दही) घृत सिंधद्भाव मधुक (समुद्री महवा) के वृक्ष के सार के उपयोग से वासुकी सर्प से हँसा हुआ पुरुष क्षण भर में विष रहित हो जाता है।
मूलं मालत्या च नंद्यावर्तस्याश्व गंधायाव शुंठी सहितं हन्यात्पानायैः कर्म निर्विषं भुजंगानां
25252525252525E-- P/50
॥ ८० ॥
950516
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CASTOISODIOSI9152015 विद्यानुशासन PASSISTOTSIDASTISIPIES मालती (चमेली) की जड़ नंदवर्द्ध (तगर) असगंध और सोंठ सहित पीने से सर्प के विष को नष्ट करता है।
वंध्या कुमारी इंद्रयवोग गंधा ब्रह्मायादि घोषेश्वरी का हरिद्रा,
वाग्देवदाली पिचु बीज कुष्ट सादिकानां विषनाश दक्षं ।। ८१ ।। गंगा मांझककोड़ा कुमारी तारी) इंद्रया (इन्द्रजो) उग्रगंधा(लहसुन) ब्राह्मी घोषा (तोरई) ईश्वरी (नागदमन) हल्दी सरफोका( देवदाली) पिच बीज (काकडा) (निमोली) कुष्ट(कुठ) यह सर्प आदि के विष को नष्ट करने में अत्यंत समर्थ है।
नत कुष्ट मलयज सिंधुज धतुर बीज शतक जलैः,
आलेपनं प्रयुक्तं स्यात् सद्यो विष विसर्प हरां ॥८२॥ नत (तगर) कुष्ठ (कूट) मलयज (चंदन) सिंधुज (सेंधा नमक) शतक (सेयती) के जल से लेप करने से सर्प का विष तुरन्त नष्ट हो जाता है।
मंत्रितानां गोयत सिता यष्टीनां गारूडादिभिः मंत्रै पानं च भुक्तिश्च दुग्धंतस्य विषं हरेत्
॥८३॥ गरूड़ादि मंत्र के द्वारा गाय के घृत को शक्कर और मुलैठी को मंत्रो से मंत्रित करके खिलाने से और ऊपर से दूध पिलाने से उसका विष नष्ट हो जाता है।
तिल मध दिया स्वापव्यायामां तपः मेथुनं कोपं तैलं कुलत्यां विषदष्टो विवर्जयेत्
11८४॥ विष से डंसा हुआ पुरूष तिल मद्य दिन को सोना व्यायाम गर्मी मैथुन क्रोध तेल कुलथी को छोड़ देवे।
इह विनिग दिताना गौषधानां प्रयोगो भवति निपण वीर्य : सुप्रसिद्धा गमानां, यम सदन गतानामप सून दष्ट कानां पुनरपि निज देहात स्यात्स आने तुमीश:
॥८५॥ जो पुरुष यहाण पर वर्णन किये हुए अच्छे अच्छे प्रसिद्ध शास्त्रों के औषध के प्रयोगों में चतुर होता है। वह सर्प आदि के इंसने से अपने शरीर से प्राणों को लेकर यम के स्थान में गये हुए को वापस ला सकता है।
इति एकादश समुदेश CISISISTERDISTSISISTOTS1615[६९१ PSISTDISASTOTSIDEDICIDIOSE
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CHOT5101510505125 विधानुशासन P501519551015IDOS
बारहवाँ समुदेश
ॐ नमः सिद्धेभ्यः
अथातः संप्रवक्ष्यामि मंडल्यादि विषं प्रतिचिकित्सितं समुदिष्टं मंत्र तंत्र विशारदः
॥ १ ॥
मंडलि राजिल वृश्चिक मूषिक लूताश्च गर्द्धभादि भवं ।
नरव दंत क्षत जातं कृत्रिम स्थावर चरोत्थितं विषं विषम ॥२॥ अब मंडलिक आदि के विष की चिकित्सा मंत्र तंत्रों के पंडितो के मतानुसार कही जाएगी। मंडली (कुंडली से बैठनेवाला) राजिल (रखवाला सर्प) बिच्छु चूहा लूता घोड़ा और गधे केनाखून की चोट या काटने से उत्पन्न हुये स्वाभाविक और कृत्रम स्थावर और जंगम विषम विष को
कपूर कांजिकादिक विरुद्ध समभेदनोद्भवं च विष
यत्तस्य चिकित्सित मिदमिह वक्ष्येहं मंत्र तंत्राभ्यां ॥३॥ अथवा कपूर और कांजी के परस्पर विरूद्ध मेल से उत्पन्न हुये सबप्रकार के विषों की चिकित्सा का वर्णन मंत्र और तंत्रों से किया जाएगा।
कूटः सहाजितः पूज्य नित्यौ युक्तौ स विंदुना विभुना संयुतो भूतं तुरीयं विंदु संयुतं
॥४॥ कूटक्ष के सहित अजित इ को सदा विंदु अनुस्वार सहितायुक्त) करके विंदु सहित चौथे भूत स्वा को विभु (हा) से युक्त करके पूज्य त नित्य प विभु ए
गारूडोयं महामंत्रः सर्वमंडली ना विषं हो
जपायैरित्या हं परमः श्रुत केवली । क्षि स्वाहा यह गरूड़ महामंत्र है इसका जप करने से सब मंडलियों का विष नष्ट हो जाता है ऐसा परम श्रुत केवली भगवान ने कहा है।
ॐहां ही अल्प पक्षि देह अमर विमर विमन पां क ठाठः ।।
अमु मंत्र जपन्मंत्री कुर्व स्तांबूल भक्षणं मंडली क्ष्वेवमरिवलमलं शमयितुं क्षणात्
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CASIRIDICTIOISS1505 विद्यानुशासन PHOTOS10155551015TIN मंत्री इस मंत्र को जपकर पान खाकर मंडलि के सम्पूर्ण विष को क्षणमात्र में नष्ट कर सकता है।
शुभनाभ्यां शेत तुरंगाभ्यां भुक्तं संचितयुद्धपुः
मूदि मंडलिक्ष्वेल पीडितस्या विषं भवेत् शरीर के मस्तक से लगाकर नाभि तक भूखवाले तथा सफेज घोड़े से खाया हुआ ध्यान करे तो मंडली का विष नष्ट हो जाता है।
विषं मंडलिना मंत्री मंत्रं तंत्रंच योजयेत् आभूषणादिकं कर्मन कुर्वीत कदाचन
॥८॥ मंत्री मंडली के विष में केवल मंत्रो और तंत्रो का ही प्रयोग करे, आभूषण (काटे हुये स्थान पर कपड़ा बांधना) आदि कर्म कभी नहीं करे।
नील्या लज्जारिका पीता कल्कि कृता शिफा तदुलक्षालने नाशु मंडलि चेल नाशिनी
॥९॥
निपतिः सेंधवो पेतः कुवराक्षी दलाद्रस: विषं गोमूत्र सहितो रक्त मंडलिनां हरेत्
॥१०॥ नील्या(नील) लज्जारिका (छुईमुई) यावा (लाख लाही) की जड़ के कल्क को पीने और चावलों द्वारा धोने से मंडली का विष नष्ट हो जाता है। (यावा चावलों की एक किस्म का नाम है।) कुवेराक्षी (सफेद पाटल) के पत्तों के रस में सेंधा और गोमूत्र को मिलाकर पीने से लाल मंडली का विष नष्ट होता है।
भक्षितं सर्पिषा कल्क: कदंब दुम कल्कलात्
जयेन्मडलिनो रक्तान कृष्णान श्वतोनऽहिनऽपि ॥११॥ कदंब वृक्ष के वल्कल के क्लक को घी के साथ खाने से मंडली सर्प रक्त सर्प काला सर्प और श्वेत सो का विष नष्ट होता है।
कां कादम्यां शिफां हंति पानेना लेपने वा विषं मंडलि संभूतं रक्तिकाया: शिफाथवा
॥१२॥ कदम्ब की जड़ या लाल चिरमी की जड़ का लेप अरने अथवा पिलाने से मंडली सर्प का विष नष्ट होता है।
CSIRISOTEIOSOTE21555751६९३ PISIPISODRISTRISTRADIOSS
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525DISCISIO505 विधानुशासन PISO15015105009015
स्नूहीक्षीरेगव्येषु च रूबु चंदन कल्क संयुतं
सिद्धं सर्पि पीतं शमयति मंडलि विष विकियामाशु ॥१३॥ स्नूही (योहर) का दूध पंच गव्य रुयु (इरंड) और लाल चन्दन के क्लक में सिद्ध किया हुआ धृत को पीने से शीघ्र मंडली सर्प के विष का विकार नष्ट होता है।
अस्थि वकुलस्य पिष्टं अंड्वलक दुग्धेन नाशयते दत्तं
प्रशमयति मंतु मोहं मंडलि विष वेग संजातं ॥१४॥ मोलश्री की गुठली को खूब बारीक पीसकर श्रृखलक (ऊंटनी) के दूध के साथ मंड्खु (शीघ्र) देने से मंडली के विष के वेग से उत्पन्न हुआ मोह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
आदी मंडलि विष जित् रजनी नवनीत लोद्र चूर्णानां
आलेपनमाथ पान लवणास्थ लेभल पाय९५॥ आदि में विष को जीतने वाली हल्दी(रजनी)और नवनीत (मक्खन) और लौंग के चूर्ण कालेप करके फिर नमक पिलाना चाहिये और फिर लेप करना चाहिये।
नालिकेरोद्भव तैलं सिंधुद्भवसमायुतं मंडलिक्ष्वेल हप्रोक्तं दत्तं लेपन कर्मणि
॥१६॥ लेप के कर्म में नारियल का तेल और सिंधुद्भव(सेंधा नमक) को मंडली के विष को नष्ट करने वाला कहा है।
मंडलिना दष्टस्य स्याद्य यदि विण मूत्र संस्तंभः
नाभेरटा: स तंदुल अज जल्या वष विष्टया लिंपेत् ॥१७॥ मंडली आदि के इंसे हुए पुरूष की जो विष्टा और मूत्र बन्द हो जाता है उसके लिये नाभि के नीचे तंदुल (चावल) आज जल (बकरी का पेशाब) वृष (वृषभक) बैल को विष्ठा का लेप करे।
पिंडार पत्रिकायाः शीतांभः कल्कितेन कंदेन
कुक्षि लिंपेत मंडलि विषेण विण मूत्र सं स्तंभ: ॥१८॥ अथवा मंडली के विष से मल और मूत्र बन्द होने पर चिरचिटा और जावित्री के कंद का टण्डे जल से बनाये हुए कल्क का कोख में लेप करे।
सुरदारू स महिषी सकदा लिप्तं सोफंदंश
मप हरति मंडलि विष संजातं महिषी मूत्रेण संपिष्टः ॥१९॥ . SOSORR5RISTRISRTSARIS[६९४ PECISIOSCISIOTSIDDRIST
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CTERIST05250TARI5 विधानुशासन DISTRISTRISPIRISTI सुरदारू (देवदारू) व महिषी (शूलीतृण) को महिषी (भैंस) के मूत्र में पीसकर एक बार लेप करने से मंडली सर्प के विष से पैदा हुई सौंफ (सूजन) का कष्ट दूर होता है।
अजमूत्र सुसकृत्कोलेक पुरीषेर्लेपनं कृतं समये दर्बुद मखुमंडलि श्वेल संभवं
॥२०॥ बकरी का मूत्र सुअर व कुत्ते (कौलेयक) की पुरीष (विष्टा) का एक बार लेप कर देने से मंडली के विष से उत्पन्न हुयी अर्बुद (मांस) की गांठ को मखु (तुरन्त) ही शान्त कर देता है।
इति मंडलि विष चिकित्सा
झौं ह्रीं क्ष्मीं हुं फट स्वाहेत्य स्य मनो:कृत प्रजाप्यत्
अचिरेणैव विलुपति विषमरिवलं राजिलादीनां ॥२१॥ इस मंत्र का मन में जाप करने से राजिल आदि का सम्पूर्ण विष शीध्र ही लुप्त हो जाता है।
झौं ह्रीं क्ष्मी हुं फट स्वाहा
राजिल दष्टः राजिल सर्प की औषधि
कृष्णा सिंधुत्थौसाज्य गोमय स्वरसैः पिवतु सितबाणा पुंस्वा मूलं वा तद्दलाऽभोभिः
॥२२॥ राजिल सर्प के काटे हुए को कृष्णा(काली मिरच) और सिंधुत्य (सेंधा नमक) को गोबर के स्यरस से पिलावे या श्वेत सरपुंखा की जड़ को सरपुंखा के पत्तों के रस से पिलावे।
वकुलास्थि युतं पीतं त्रिकटुकमपहरतिराजिल श्वेलं
नंद्यावर्त शिफा वा पीताक्षीरेण नसि च कृता ॥२३॥ वकुल (मोली)की गुठली के साथ सोंट मिरच पीपल को पीने से राजिल का विष नष्ट होता है। या नंद्यावर्त (तगर) की जड़ को दूध के साथ पीवे तया नस्य भी देवे।
भजन भस्मी भूतौ गुलिंकृतौ विश्वभव्य वंदारी
आयौ घृत सहितौ लेह्यौ वा राजिल श्वेले ॥ २४ ॥ अथवा विश्व यंदार (सोंठ) भव्य वंदार (कमरख) को कूटकर उसकी भरम बनाये और फिर उस भस्म की गोलियों को धृत में मिलाकर सूंघने या चाटने से राजिल का विष नष्ट होता है।
CSCDCASTOTSTOTHRISTOTS(६९५ PISCESSISTRISROTECISCISH
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SSIOTSIDISTRICISIOTE विधानुशासन 051015ISASTRIECISIOISE
गलिका रचिता दावी सैंधव गोरोचनाभि रूपयुक्ता
आयाणो पानेवा राजिल विष भीतिमप हरति ॥२५॥ दार्वी या दर्वी (गोजिया जंगली गोभी) सेंधा नमक गोरोचन की बनाई हुई गोली को सूंघने या पीने से राजिल सर्प के विष का भय नष्ट होता है।
त्रिकदुक सहित मर्षि रंजनमा लेपनं च राजिल जित
चंगनं गोपय युक्तै: अपि पाना स्तद्विषं हरति ॥२६॥ त्रिकटुक (सोंठ, मिरच, पीपल) और उड़द का अंजन या लेप करने से राजिल का विष जीता जाता है तथा चंदन और गाय के दूध सहित पीने से भी उसका विष नष्ट होता है।
राजिला सर्प विषस्य चिकित्सा समाप्त
विष गर्भाधैर्मत्रैः प्रति कुर्यात् व्यंतरो रगस्टा विषं गोनास चिकित्सायां प्रोक्तःसाधारणौ रगदैः
॥२७॥ व्यंतरनाग के विष को विष गर्भ आदि मंत्रों से दूर करना चाहिये और गोनास के विष की चिकित्सा साधारण औषधियों से होती है। गोनस एक बड़े भारी सर्प का नाम है।
गोमट रस महिषी पतपानं पानं स्यात् व्यंतरस्य
गरल हरं वृहती दारू हरिद्रे: कांजिकया घोणस स्याहे ॥२८॥ गोबर का रस और भैंस का धृत पिलाने से व्यंतर सर्प का विष नष्ट हो जाता है। कटेली दारू हल्दी को कांजी के साय पिलाने से घोण सर्प का विष दूर होता है।
इति घोणस विष चिकित्सा
तारादिः प्रथमस्तस्य मध्यमः साजित
पुमानः स विसों भवेदेषे मंञोऽलि विष सूदने ॥ २९॥ मंत्र के आदि में तार(ॐ) लगाकर उसके मध्य में अजिल (इ) पुमान (थ) विसर्ग सहित लगाये। यह मंत्र भौरे के विष को नष्ट करता है। ॐ हथः
वामहस्तस्समुदकं हुं पक्षीत्याभि मंत्रितं सिंचेद्विषस्य सामस्त्य गरलं दंशतः स्मरन
॥३०॥
MESCORNER SEEDS
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SHRIDORICISTRISTOTS विधानुशासन ASSISTOTSIDASCITICISS
ॐ देवदत्त बायें हाथ में जल लेकर उसे हुं पक्षि इस मंत्र से अभिमंत्रित करके उससे इंसे हुए को पानी से सींचने से समस्त विष नष्ट हो जाता है।
इति भ्रमर विष चिकित्सा
बिच्छु के मंत्र विद्धप्रदेशे तेनाश्च शिकस्टा महानपि विष वेगं शामयंतीत्यभ्यधायि मुनीश्वरै
॥३१॥
ॐ नमो भगवति एहि एहि करि करि पुरिम्सुरि पुरिस्सुरि स्वाहा या ॐ नमो भगवति एहि एहि करि करि पुरि पुरि मुरि मुरि चुरि चुरि स्वाहा ||
अममंत्र जपेन्मंत्री स्वहस्त स्पर्शनादिना वृश्चिका नाम शेषाणां निश्शेषं नाशये द्विषं
॥३२॥ इस मंत्र से बड़े भारी बिच्छु के काटे हुये भी विष के वेग को शांत कर देता है ऐसा उत्तम मुनियों ने कहा है। मंत्री इस मंत्र का जप कर यदि अपने हाथ से स्पर्श आदि करे तो बिच्छु के समस्त विष को नष्ट कर देता है।
अलि गरलस्य हदं गुष्टा नाभिकयो सद्भपर्वसंधीनां अथवा गुष्ट युगस्य स्टा दथवा गुष्ट मध्यम यो
॥३३॥
अनामिकाग्र स्वस्या गट भागेन सं स्पशन प्रादक्षिणयेन सन्मंत्री विहन्याद लिजं विष
॥३४॥ अंगूठे और अनामिका (कनिष्ठा के पास की अंगुली) के ऊपर के पोर वे अथवा दोनों अंगूठे अथवा अंगूठे ओर बीच में उंगली के छूने से भौरे का विष शांत हो जाता है। अनामिका के अग्रभाग और अंगूठे से दाहिनी ओर घुमाकर छुवा हुवा मंत्री भौरे का विष नष्ट कर सकता है।
बिच्छु के विष का ध्यान नं. १
श्री वर्ण सित वर्ण स्वांगस्थं मंत्रिणो विचिंतनयः नस्येत्प्रदक्षिण विद्यः वृश्चिक विष वेदना झटिति
॥ ३५॥
CSDISTRI5251315251215[६९७ PDPISRISTOT52150151057
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CH51015ICISIOTSRI505 विधानुशासन 25TOISTOISTRISTORIES जो मंत्री अपने शरीर के अन्दर ठहरा हुआ ध्यान करके सफेद वर्ण के श्री वर्ण(श्री) को दाहिनी ओर से सूंघता है उसके बिन्दु के विष का कष्ट तुरन्त दूर हो जाता है।
दष्टस्य नयनभ्यक्तं सद्य: पाश्र्थातरा श्रिते
स्टाद वृश्चिक विष क्षेपे भेषजं विष्व भेषजं विश्व भेषज (सोंट) को दूसरी कटकी आंख में लगाने से बिच्छु का विष दूर जाता है।
विद्ध प्रदेशे तत्पार्थ गतायां वा श्रुतौ धमेत पटु त्र्यषणमप्यै को दधानोऽलि विष छिदे
॥३७॥ पदु और त्र्यषण (सोंठ, मिरच पीपल) मेंसे एक को भी काटे हुए स्थान की तरफ के कान में फूंकने से औरे का विष दूर हो जाता है।
चिंचोपितं समरिचं कवलं वा मुरचे दात लवणं श्रवणे दंश स्थानेवालि विषे धमेत्
॥३८॥ चिंचा (इमली) और काली मिरच के ग्रास को मुख में रखता हुआ अथवा कान या इँसने को स्थान में नमक को रखने से भौरे का विष नष्ट हो जाता है।
पुर्नवस्य मूलं वा संचवननि कस्य वा विद् प्रदेशे फूत्कुर्यातलि क्ष्वेल वाद्या जित्
॥ ३९॥ पुर्नवा (साठी) जड़ अथवा अमिक (चित्रक) की जड़ चबाते हुए इंसे हुवे स्थान पर फूंक मारे तो भौरे का विष नष्ट हो जाता है।
भूत रिपु जलधि संभव मद्देन तो वृश्चिकात्तिं मप हरति
उष्ण जल से वनाा वा बंधन तो भानुपत्रस्य ॥४०॥ भूतरिपु (हींग) जलोदप्पिसंभयासेंधानमक) को मलने से बिच्छु के विष का कष्ट नष्ट होता है।अथवा यह उष्ण जल के सेवन तथाआक ( भानु ) के पत्ते बांधने से भी दूर होता है।
॥४१॥
कोष्णं सेंधवो पेतं पीत मात्रं यतं हरेत
वेदनां वृश्चिक श्वेलं लमुदभूतां सु दुस्सहां कयोष्ण (गुनगुना कम गरम) घृत के साथ सेंधा नमक को पीने से बिच्छु के विष से उत्पन्न हुयी अत्यन्त दुस्सह वेदना भी नष्ट हो जाती है। SHERECIRCTRIOTECISIOD[६९८ VIDISTRISTOTTOTRICISCIEN
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0505125T015IDIST05 विद्यानुशासन 20501501501501505
हरिताल शिला पथ्या शकत गोधाळ कदियोः
टोषामलिं विषौद्भूत्य मालेपन विलप्यते ॥४२॥ हड़ताल मैनसिल पथ्या (हरड़े) छिपकली आक कीड़ो भौरे के विष को एक बार (सकृत) सेप करने से नष्ट करता है। (उद्धृत= फेंकना)(विलुप्त नष्ट करना)
हिंगु विश्वशिलाजाति कुसुमं गोमयां बुच एतैरा लेपनं कृत मलिनो गरलं हरेत्
॥४३॥ हिंग विश्व शिला (मेनसिल) जाति कुसुमं (चमेली के फूल) गोबर के पानी का लेप भौरे के विष को नष्ट करता है।
जयेदबीज तरोबींजंक्षीरेणर्केण भावितं आलिप्तमलिनो विरेत्तदुत्वां विष वेगतां
॥४४॥ आक के दूध में भावना दिये हुए बीज तरू (भिलावा) का लेप भौरे के विष की वेदना शीघ्र ही नष्ट करता है और उत्पन्न हुए विष के वेग को जीतता है।
पिष्ट : रवदिर नियासस्तत्पन्न स्वरसेनय: सक्षुद्र सिकत्थ स्तस्या शनस्येन्नलि विषं व्यथा
॥४५॥ जो कोई खदिर निर्यास (कत्थे) को उसके पत्तों के रस तथा सहद की मकूर्वी के छत्ते के मोम के साथ पीसकर लेप करता है उसकी भौरे के विष की वेदना शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। (क्षुद्र- सहद की मकूवी) (सिकत्थ:- मकूवी का मोम)
नागपना बुना हिंगु साहितेन विलेपनं
अलिक्ष्वेल जित् इक्ष्वाकु दलां जनोत्था बुना ॥४६॥ नागपत्र (नागरवेल का पान) के जल के साथ हींग का लेप अथवा गन्ने (इक्ष्याकु) केरस के पानी का अंजन करने से भौरे का विष जीता जाता है।
त्रिवर्ष जात कप्पास मूलं वश्विक जे विषेलिपेतं
कंटक पुरख्या वा मूलं सलिल कल्कितं ॥४७॥ तीन वर्ष की पैदा हुयी पुरानी कपास की जड़ अथा वकंटक पुरखी (श्वेत सरफों का) के जल में बनाये हुए कल्क का बिच्छु के विष में लेप करे। OTSPIRISRTISIOTISISISTES६९९ PTSD525505250ISCII
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C501520551055055125 विधानुशासन ISIOTSION505125513455
वृश्चिक विषापहारो भवति सु सौ वीर पिष्टयो
चिहिता चक्रांकि पुनर्नवयो लेपार्द अकं नाग द्युतद्यो ॥४८॥ अर्क (आक) नाग (नाग केशर) चक्रांकी (काकड़ा सिंगी) पुनर्नवा (साठी) और सौवीर (बेर) को पीस कर लेप करे तो बिच्छु का विष तुरन्त ही नष्ट हो जाता है।
वृश्चिक रकस्य च वन्हे दीपस्टवा शुभिः पिष्टं लेपादिना हन्यात् सद्यो वृश्चिक जं विषं
॥४९॥ बिच्छु घास वन्हि (चित्रक) द्वीपसल चीनी आयुष... जो नीक ले करने से बिच्छु का विष नष्ट करता है।
मालत्या नूतनं पत्रं सैधवं रामठं शिला छगन स्वरस स्तेषां गुलिकालि विषं हरेत
॥५०॥ मालती (चमेली) के नये पत्ते सेंधा नमक रामठ (हींग) शिला(मेनसिल) छगुणा (गोबर) के रस में बनाई हुयी गोली भौरे के विष को दूर करती है।
कौमुद शैरीषाभ्यां पुष्पाभ्यां लेपकादिरलि विषजित
षदगंथिकाथ चंगन मंजिष्टा शारिबाभिवा ॥५१॥ कुमुद (श्वेत कमल) और सिरस के फूलों का लेप अथवा पदग्रंथा(यच) चंदन मंजठि शारिबा (गोरोसर) का लेप भौरे के विष को जीत लेता है।
धूपो विरचितो दंशे यताक्त बहिणः छदै वृश्चिकोथ विषं हन्यात् सुदुस्सहमपि क्षणात्
॥५२॥ घृत में तर किये गये हुए मोर के पंखों की धूप से बिच्छु का अत्यंत दुस्सह विष भी क्षण मात्र में नष्ट हो जाता है।
॥५३॥
शिरीष नक्त मालास्थि कुनटि कुष्ट कुंकुमैः
गुलिकाक्षिक श्वेलं हरेत् संक्रामोदपि सिरस करंज (नक्तमाल) की गुठली कुनटी (मेनसिल) कूष्ट (कूट) कुंकुम (केशर) की गोली बिच्छु के विष को नष्ट करती है और बदलती भी है। 50150155550551015[७०० PSICSIRISEDICISIONSIDASI
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959529595
विद्यानुशासन 959595955
अकोल तिलक दाडिम तिल जंबू मूल तुल्य भागाभ्यां
गुलिकां सिता मधुभ्यां कृताऽलि विष संक्रमं कुरुते ॥५४॥
अंकोल (ठेरा) तिलक दाडिम (अनार) तिल जामुन की जड़ सब बराबर लेकर शक्कर और मधु (शहद) मिलाकर बनाई हुयी गोली भरे के विष को बदलती है।
गोली रवि शलभ कृत कुली रसलभान दुग्ध रक्तानां कुंसुभाल शिला नामऽलि विष संक्रामकद गुलिका ॥ ५५ ॥ गोली बनायी हुयी आक (रवि) शलभ (तीडी) कृतक (रसोत) कुली रवि सलभान ( काकड़ा सिंगी) दुग्ध (दूध) रक्ता (चिरमठी) कुसुभा (केसूला) अल (हरताल ) शिला (मेनसिल) की गोली भौर के विष का संक्रामन करती है।
श्लेष्मांतक फलांकडबु छत्रं द्विप मलोद्भवं करोति विष संक्रामं वृश्चिक स्टान शंसय
॥५६॥
श्लेष्मांतक ( लिसोडे) के फल और आक का दूध छत्र (छितोना) द्विप (हाथी) की लीद का रस बिच्छू का निस्संदेह संक्रमन कर ती है ।
द्विप मल भूतं रवि दुग्धं श्लेष्म तरु फलोपेतं वृश्चिक ष संक्रमणं वदरीं तरु दंड संयोगात्
॥ ५७ ॥
द्विपल (हाथी की लीद) का रस भूतं (नागरमोथा) छत्र (छितोना) रवि दुग्ध (आक का दूध) श्लेष्म तरू फल ( लिसोड़े के पेड़ का फल) वदरी तरूं दंड (बेर के वृक्ष के दंड) के संयोग से बिच्छू के विष का संक्रमन होता है ।
दंशस्याऽयोनीता वृश्चिकजं विष मरणं सुरस शिफा शमयत्यु परिनुनीता सा सहसा तत् व्यर्थी कुरुते
114211
सुरस शिफा (निगुंडी की जड़) को काटे हुए स्थान से नीचे रखने से बिच्छु का विष शांत होता है किन्तु उसको ऊपर ले जाने से वह विष नाशन व्यर्थ हो जाता है अर्थात् विष ऊपर चढने लगता है ।
इति वृश्चिक विषं
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250305/७०१P/59/5251 でらでらです
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959595959
विद्यानुशासन Asse
ॐ नमः सर्वमूषिकेभ्यो विश्वामित्र आज्ञापयति शीघ्रं गच्छंतु मूषिकाः स्वाहा ||
सहश्रतितय सं जाप सिद्धेन मनुना मुना कृतो जपादिनिःशेषं मूषिकानां विषं हरेत
॥ ५९ ॥
इस मंत्र को तीन हजार जाप से सिद्ध करके पढ़ने आदि से वह चूहे आदि के विष को पूर्ण रूप से नष्ट करता है.
रेरे श्वेत मूषिकः फु: कपिले फु: कपिले जट रुद्र पिंगल फु: हर हर विशं हर संहर फु: ॥
पुरश्चरण में तस्य लक्ष मान जगः स्मृतः मंत्रस्य गुरुभिः पूर्वे भवत् रूद्रोपि देवता
एतेन द्वात्रिंशद्वारान् जप्तं नीलेन्द्र यवैः पुष्पंमौनीभूत्वा घो मुखमभुक्तवान्
नूतमाखु विषेतु
॥ ६१ ॥
पहले इस मंत्र का एक लाख जप कर पुरश्चरण करके रूद्र देवता को प्रसन्न करे। फिर इस मंत्र से नीलेंद्र व पुष्पं (नीले इन्द्रजो के फूल) का भोजन करता हुआ नीचे को मुख करके चूहे के विष में बत्तीस बार जपे । इस वक्त मौन व्रत रखना जरूरी है।
हांतं विष्णु युतं चरमं युतं संलिख्य सष्ट वर्गस्य नाग दले सारगाते जग्धं वृष गरल विकृति हरं
॥ ६० ॥
॥ ६२ ॥
ष्ट वर्ग के अंतिम बीज को विष्णु सहित अंत में स्वाहा लगाकर अर्थात् श्रेष्ट मं नाग दल (नागरबेल का पान) पर लिखने से मृग के तेज और बैल के विष का विकार नष्ट हो जाता है।
ॐ मं विष्णु स्वाहा ॥
अथवा खुदष्ट गात्रस्य देशं कांडादिना दहेत् प्रादुष्यादन्यथा तीव्र वेदना तत कर्णतः
दध्वा च दंशाद्रुधिरं वृश्चिकादव संचयेत् पान नस्यादिकं पश्चात् विधा तव्यं चिकित्सितं
9595965595७०२ 95950
॥ ६३ ॥
।। ६४ ।।
59595
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SASTRISTOSTERROTE विद्यानुशासन PTSDISTRISTOTSIDASTI अथवा चूहे के इंसे हुए व्यक्ति के काटे हुये स्थान को पेड़ की जलती लकड़ी आदि से जलाकर उसके कान में से तीव्र वेदना निकाले । जले हुए जनम से रक्त निकाल कर फिर उस पर बिछया धासस लगावे और इसके पश्चात् उसको पिलाने और सुंघाने की औषधियों से चिकित्सा करे।
अंगानि कटुकाऽलांबु समस्तान्टोक मे वच निपीतानिमलं हंति सहसा मौषिकं विषं
॥६५॥ कुटुका अलांबु (कड़वी तुंबी) के सब अंगों को एक साथ पीने से चूहे के विष की जड़ भी नष्ट हो जाती है।
नालिकरां बुना गुंजा तंदुलं कल्कितं पिबेत्
विर्ष वृषस्य तके ण बरसी मूल में वचः ॥६६॥ नारियल के पानी में बने हुए गुंजा(चिरमी) और चावलों के कल्क को पीने से अथवा बरसी या तुरसी की मूल कोमटे के साथ बेल के विष में पीये।सुरसी होने पर तुलसी की जड़ अर्थ हो सकताहै।
आलंक स्वरसंवा प्रागे सतैलं पिवेत् वृक्ष्वेले तिलकस्य मंजरी या सूक्ष्मा गोक्षीर परिपिष्टां
॥ ६७॥ आलछ (पागल कुत्ते) और वृष (बैल) के विष में अथवा आलर्क के स्वरस को तेल सहित पीने से अथवा तिलक वृक्ष की मंजरी (कली) और सूक्ष्मा (सतावरी) को गाय के दूध के साथ पीस कर बैल के विष में पीवे। .
रजनी निष्पावक त्वक तूर्ण फलिनी लतांत संयक्त
पीतो धान्यात्तत क्षपत्या खो विषं विषमम् ॥६८॥ रजनी निष्पावक (शिम्बीधान) की छाल का चूर्ण निष्पावक(शिम्बीधान्य) का छिलका निकला हुआ का चूर्ण फलवाली लता सहित पीने से वह चूहे के अत्यंत कठिन विष को भी नष्ट करता है।
घोषाद्वय नक्तारख्या राम दूत कंवंध्यास्थिभिहरिद्राभ्यां
निर्गुडीमूलेन च गव्याज स्त्रवण परि पिष्टै : ॥६९॥ काकडासिंगी और घोषा (देवदाली) दोनों नक्ता (करंज) यमदूतक (कौवा) वघ्या(यांञ ककोड़े) की गुठली हल्दी निगडी की जड़ दूसरी हल्दी (दारुहल्दी) गाय के मूत्र और बकरे के स्त्रवण(मूत्र) में पीसकर
ಇಡಚಣಣಠಣ ಅ೦ತ ಥಳಥಳದ
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CASIOSRIDDISTRISTRIS विद्यानुशासन PASSIODISTRISIRIDICISM
गुलिका रचिता रवायां पीता मषिक विषं हरत्य
चिरात् आरवून उच्चाटयति च ग्रहे क देशे विनिक्षिप्ता ॥७॥ बनाई हुई गोली को खारे नमक के साथ पीने से चूहों का विष नष्ट हो जाता है और यदि इसको घर के एक कोने में रख दिया जावे तो चूहों का उच्चाटन घर से करता है।
कांता शरीष कुसुमं कुस्तुंबरू निशाद्वयैः समूत्रै गरलं मूषिकानां नि वार्यते
॥७१॥ कांता (सफेद दोब) सिरस का फूल कुस्तुंबरू (धनिया) और दोनों हल्दी मूत्र के साथ पीसकर सेवन करने से चूहों के विष को दूर करता है।
तिल तिलकांकालांशफा कपित्य मध्यंच पशु जलेन
पीवेत आरवु विर्षे विलिंपेदप्य नां जाबूना कोल मूलं वा ॥ ७२ ॥ तिलतिलक अंकोल की जड़ कापित्य (कैथ काथोड़ी मधु (शहद) को गाय के मूत्र से पीवे अथवा चूहे के विष में अंकोल की जड़ को पीस कर लेप करे जांबूना पाठ होने पर जामुन की जड़ भी लेप में लेवें।
क्षीरेण पीत माज्येन मूल मामलकी तरोः मूषिकानां विषं हन्यारन्मत्तानां श्रुनामपि
॥७३॥ आमले के वृक्ष की जड़ को घी और दूध के साथ पीने से पागल चूहों का विष निस्संदेह नष्ट हो जाता है।
आमलकी दूम मूलं पीतम जाक्षीर पिष्टमथ कृत्वा उन्मत्त मूषिकानां गरलं हरं नात्र संदेहः
॥७४।। आमले के वृक्ष की जड़ को बकरी के दूध में पीसकर दूध के साथ पीने से पागल चूहों का विष निस्संदेह नष्ट हो जाता है।
पीतैः क्षीरेण भवेद् वन मालायाः प्रतीच्या दलौ हंसाधि पिष्ट वलकल सहितै मूषिक विषाक्षेपः
॥७५॥ वनमाला (सेवत्ती या बड़ी लम्बी माला) के पश्चिम की तरफ के सात पत्तों के साथ हंसानि (हंस पदी) की वक्कल को पीसकर दूध के साथ पीने से चूहों का विष नष्ट हो जाता है।
C505051215121SRISTRI5७०४ PISTRISERSIOUSIC5215015
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959595951
विधानुशासन 959595905
खंड सिता कदलि फल मागधी का चूर्ण संयुतं पीतं क्षीरे सुरभिः शमयति भूषक विष भवांवाद्यां खांड शक्कर केले की फली और मागधी (पीपल) के चूर्ण को दूध के साथ पीने से चूहों से होने वाला
|| 14 ||
कष्ट दूर हो जाता है।
बीजानि शर पुरवाया: कल्की कृतानियाः तक्रेण भवेत् तस्य विषं मूषिक जोद्भवं
|| 1949 ||
जो पुरुष मट्टे के साथ कल्क बनाये हुए सरफोंका के बीजों को पीता है उसको चूहों का विष नहीं चढता है।
बिंबीत्रपुषभूतं महिषी तक्रेण तंदुलं पीत्वा
पुन्नाग तंदुलं वाखाय तैलाक्त आताप विषै तिष्टेत् || 196 11 बिंबी (कन्दूरी) त्रपुष (ककडी या फूट ककड़ी) भूत (नागरमोथा) और चावलों को भैंस की तक्र के सात पीवे अथवा पुन्नाग (सफेद कमल) और चावलों को खारे नमक और तेल में भी गीला करके भरे के विष में ।
अचिरादिवो दर गतां . वोशिशशवं पुरातने स्तेन मूषिक दष्टस्य मुखार्द्वि निग्रामं कुर्वते सर्वे
।। ७९ ।।
पेट में जाने पर चूहों के सब प्रकार के विषों को नष्ट करता है। चूहों का पुराना मुख से काटा हुआ सब प्रकार का विष निकल जाता है।
आखु गरलं विनश्येत् सद्यः पीतै धृतशर्करा मूलैस्तिलस्य तिलकस्यांकोल स्यांग कन्याश्च
॥ ८० ॥
तिलतिलक अंकोल और घी कुमारी के मूलों को घी और शक्कर के साथ पीने से चूहों का विष शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
कुष्ट ताल शिलां भूयो भावितां सुरसां बुना दत्तां पातुं चिकित्सति निःशेषं मौषिकं विषं
050505152525956. 152/50: あらたらどう
॥ ८१ ॥
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OOPSer 15905915 विद्यानुशासन 595959595295
कूट हरताल मेनसिल को सुरसांबु (लाल तुलसी) के रस के साथ पीने को देने से यह चूहों के सम्पूर्णविष को अच्छा कर देता है।
कपित्थ पल्लवोद्भूतः स्वरसो मधुनायुतः निपीतो मूषिकानां च लूतानां च विषं जयेत
॥ ८२ ॥
कपित्थ ) कैथ) के पत्तों के रस में शहद मिलाकर पीने से चूहों और लूतो ( मकडियों) का विष जीता ताता है।
गोमय कपित्थ पत्र स्वरसैः कटु दुग्धिकरांबुना पीतं वृष विष जित्तिफलावा सगुडा सप्तमा लीठा
॥ ८३ ॥
गोबर और कैथ के पत्तों के स्वरस को कड़वी दूधी के रस के साथ पीने से अथवा त्रिफला (हरड़े बहेड़ा आमला) और गुड को घृत के साथ चाटने से बैल का विष जीता जाता है । तैलापेतः पीतः काप्पांसि दलोद्भवः प्रागे स्वरसः
विष ह्रत वाय वाता पिच्छ शिफाथ च व्य शिफा
॥ ८४ ॥
कपास के पत्तों के स्वरस को प्रातः काल में तेल के साथ पीने से अथवा खारे नमक के साथ ता पिच्छ (तमाल वृक्ष) और चव्य की शिफा (जड़) को सेवन करने से बैल का विष नष्ट हो जाता है।
तुंव्या बुक्षुणया रात्रिमेकामध्युषितं पिबेत् प्रातः शितं भवेदे तत परमाखु विषापहं
॥ ८५ ॥
तुंबी के एक रातभर रखे हुए जल को प्रातःकाल पीने से चूहों का विष नष्ट हो जाता है।
पीतं हरति मंजर्या: कुडल्याश्च शिफाद्वयं जलेन कथितं रक्षेदावु दंश विषातुरं
॥ ८६ ॥
मंजरी (गंध तुलसी) और कुंडली (अमलतास) की दोनों जड़ो को जल में बने हुए क्काथ को पीते ही चूहों के विष से पीड़ित की रक्षा होती है ।
काथां कुकुंभवल्कोत्थः प्रातः पीतो विषं हरेत् वार्ष घाणेपित स्तैलेनाग्रि के स्वरसेऽथवा
॥ ८७ ॥
कुकुम अर्जुन वृक्ष की वक्कल को प्रातः काल में पीने से अथवा अग्रिक (चित्रक) पेड़ के स्वरस वर्ष (भाप) को तेल के साथ नाक में डालने से विष नष्ट हो जाता है ।
PSPSPSPSPSS95. ७०६ PSPSPSSPPSPa
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CASIO518151005075XDE विद्यानुशासन PIS05215015ISTRISH
आमलक वल्कल श्रुतस्त्वामलकी मूल कलिक्त :
क्रायः मूष्णाति मौरिवकं विषमशेषं मचिरेण दुर्विषम् ॥८८॥ आमले की वल्कल श्रुतस्तव (रुद्रवती) आमले की जड़ के क्लक का काय अत्यंत कठिन चूहों के विष को तुरन्त ही नष्ट करता है।
बिल्व पुनर्नव गोक्षुरजी मूतक सिंधुवार शिगुणं
मूलैन्नतेन वचयाऽव्यंबु श्रुतं वष विषेपेयं 1८९॥ बैल के विष में बील साठी गोयल जीमूतक सिंधुवार (निर्गुडी) शिगुणां (सहजना) की मूल को (जत) सगर वच को अव्यं के जल और श्रुत के साथ पीये।
पत मा स्फोता शिफया नरव शिफया कपित्थ पचांगैः
अथवा सिद्ध पीत मूषिक विष विकृतीम वहन्यात ॥९०॥ आस्फीता (गोरीसर) की जड जरी की जड़ कपित्य (कैथ कायोड़ी) का पंचाग में सिद्ध किये हुए घृत को पीने से चूहों के विष का विकार नष्ट होता है।
क्षीरे श्रुतं दश गुणं तैलं पंचाब्जकंद कल्क द्युतं
असम विषम ज्वरानपि वष विष विकृती निरा कुरुते ॥११॥ पंचाजकंद (पांच कमलों की जड़) के कल्क में दूध सहित सिद्ध किया हुआ दस गुणा तेल असम और विषम ज्वरों तथा बैल के विष के विकारों को दूर करता है।
दलामुत्तम कन्यायाः जीवंत्या अपि भुक्तयेत् उन्मूलयितुमा कांडक्षुन्नरवुक्ष्वेल विजंभितं
॥१२॥ उत्तम कन्या (घृतकुमारी) और जीवन्ती के दलों (पत्तों) को खाने से चूहों के विष का विकार शीघ्र ही समूल नष्ट हो जाता है।
श्रूटविंप्येभ कर्णानां कन् दैश्चूणी कृतः समैः
जग्पैः समसिते प्रातनश्यत्मूषकं जं विषं ॥१३॥ सूर्या बंध और द्वभ कर्ण(गजपीपल) के कंद को बराबर बराबर लेकर बनाये हुये चूर्ण को बराबर की शक्कर के साथ प्रातःकाल के समय नश्य लेने से चूहों का विष नष्ट हो जाता है। SER15195521525195525७०७ 1501512150152150151905
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959695952
विधानुशासन 9595959595r
रजः कोरंट मूलस्य जयेज्जग्धं गुडान्वितं चूर्ण न तिल मूल्य सप्तं मुशिकं विषं
॥ ९४ ॥
कोरंट (कटसरया-पियाबासा) की जड़ को (जग्धं) खाने से और घी सहित तिल की जड़ का चूर्ण चूहे के विष को जीत लेता है।
गुडै नैरंड बीजैश्च तिलैश्च गुलिकाकृता प्रातर्भुक्ता हरेदात्तिं सद्यो विष वृषोद्भवां
॥ ९५ ॥
गुड़ और एरंड के बीजों को (इंडोली को) और तिलमिलाकर बनाई हुयी गोली को प्रातःकाल के समय खाने से बैल के विष का कष्ट तुरन्त ही दूर कर देता है।
मूत्र पिष्टैर्वचा कुष्ट राठ जीमूत कास्थिभिः
वमनं मूषिक क्ष्वेलं निहंति दधि मिश्रितैः
॥ ९६ ॥
मूत्र में पिसे हुए वच कूठ राठ (मदन वृक्ष) और जीमूतक ( नागर मोथा) की गुठली को दही मिलाकर सेवन करने से यमन द्वारा चूहों का विष नष्ट होता है ।
जीमूत कौशातक मदन श्रुकारख्यांऽस्थि चूर्ण संयुक्तं पीतं यांत दधि वृष विष दोषं भक्षु निर्हर ति
॥ ९७ ॥
जीमूत (नागरमोथा) कोशातकी (कड़ची तोरई) मदन (मैनफल) और श्रुका (सिरस) की गुठली का चूर्ण दही के साथ पिलाकर या खिलाकर बैल के विष को तुरन्त ही नष्ट करता है ।
कौशातकी निशा द्वय दुग्धी मातुल शिफा स्तुषां
भोभिः पीतां वांतां वृष विष विकारमचिरादपा कुः ॥ ९८ ॥ कौशातकी (कड़वी तोरई) दोनों हल्दी दूधी मातुल (धतूरा) की जड़ को तुषा (भिलाव) के रस के साथ पीने से बैल के विष का विकार तुरन्त ही दूर हो जाता है।
नीली त्रिफला त्रिकटुक कल्केन विरेचनं वृष विषयं शीते तराभिरग्रिः पीतेन भवेद्दिनारभे
॥ ९९ ॥
नीली त्रिफला (हरड़े बहेडा आमला) त्रिकटुक (सोंठ मिरच, पीपल) या त्रिवृता (निसोथ ) अमि (चित्रक) के कल्क को गरम गरम प्रातःकाल के समय पीने से विरेचन द्वारा बैल का विष नष्ट होता
है ।
95969595959595 ७०८ 95959595959595
५.
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SDOISSISTOISTRISTO विद्यानुशासन VSDESIRISTOTSDISTRIES
टोषां शिरीष शाकका सिद्धं निपीय वृष गरले
कुद्रिक विमल स्वांगी रूचि कुष्ट शोफ युते ॥१०॥ जो सिरस और शाक (सागवान) के क्वाथ में () स्वांगरूचि अपनी रूचि के अनुसार कूट को और शोफयुत (भिलावे सहित, हो सिद्ध करके तीमार रेचकापलाटालेते हैं। उनको बैल के विष का कष्ट नहीं होता है।
द्रवंति कंद सहिताया विलेपी विषान्विता सा भुक्ता मूषिक क्येलाद्रक्षितुं प्रभवेन्नरः
॥१०१॥ द्रवंति कंद को विलेपी(दाल चावल जल पकाकर गाढ़ा करके पीने को कहते हैं) और विष सहित खाकर पुरुष चूहे के विष से रक्षा कर सकता है।
मूषिक विष हर मंत्रं सिद्धं तुंडी शिफा भवेत्
का अशितं कौशातक फल जल संयुक्तोथ धान्याष्टौ ॥१०२ ॥ सुंडी की जटा के हाथ को कौशातक फल (कड़वी तोरई) को जल सहित आठों धान्यों को खाना चूहे के विष को नष्ट करने याला मंत्र है।
स्नुक दुग्ध त्रिफला समवार्ताक शिफा रजः कृता ।
गुलिका क्षुणामुक्ता माज्येजाय ग्रासेन वृष विषजित् ॥१०३!! कुत्ते का दूध त्रिफला और इनके बराबर वार्ता की (वरंहटा ७ कटेली) की जड़ के चूर्ण की बनी हुयी गोली को भोजन के समय पहले ग्रास में घी के सात खाने से बैल का विष जीता जाता है।
लवणोदकेन सिक्तौ विंगत तुषैश्चपितै गुडोमिश्रः
जग्धैःस्तिरलैर रोचक सहितं मूषिक विषं न स्येत् ॥१०४॥ नमकीन जल से भीगे हुए बिना छिलके के गुड़ मिले हुए तिल और अरोचक चूर्ण को खाने से चूहों का विष नष्ट हो जाता है।
मुस्ता चूर्णपतोपेतलीठ माखु विषापहं नस्यतेऽय सहव्योषैः कपित्थ दल वारिभिः
॥१०५॥ मुस्ता (नागरमोथा) के चूर्ण को घृत में मिलाकर चाटने से चूहों का विष नष्ट होता है तथा व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) में कपित्थ (कैथ काथौड़ी) के पत्तों के रस का नस्य लेने से भी विष नष्ट हो जाता है।
भावनं श्रुक वृक्षस्य सारेण च फलेन च पिष्टाभ्यां वारिणा सर्व वृष क्ष्वेल निसूदन
॥१०६॥ S5I050SIRIDIO152151075[७०९ PISXE5125DISTRISTOT5125
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CASTORTOISCIERTAIRTE विद्यानुशासन PASTOTTESTORIOTSIDE
श्रुक वृक्ष (सिरस) के सार (गूदे) और फल को पीसकर पानी में भावना देकर खाने से बैल का सब विष नष्ट हो जाता है।
विन्यस्तोनासि समठ सहितो निर्गुडिका दल स्वरसैः
अपनुदति मूषिकाणां विषमप्यहि वृश्चिकाठानां ॥१०७॥ रामठ (हींग) सहित निर्गुड़ी के पत्तों का स्वरस का नाक में डालकर नस्य लेने से वह चूहे, सर्प और बिच्छू आदि के विष को नष्ट करता है।
कुर्वीत योष चर्णेन गोशकृत स्तरसेल त्त अंजनं नेत्रयोराखु विष पीडा कदर्थितः
॥ १०८॥ व्योष (सोंठ, मिरच, पीपल) और गोसकृत (गोबर) के स्वरस से आंखो में अंजन करने से चूहों का विष व्यर्थ हो जाता है।
लिंपेदुदरूदंशे चक्र शरीषामता विशाला स्तृभि
विष कर्णिका हृदय पटुमंजिष्टा रजनी गृह धूमै ॥१०९ ।। चक्र तरगर पादिका सिरस अमृता (गिलोय) विशाला (इंद्रवारुिणी) विष(वत्सनाभ) कर्णिका (अग्नि मन्मथ वृक्ष) पटु (परवल शाक आसाक सोंफ या नमक) मंजीठ हल्दी घर का घूमसा से चूहे के काटे स्थान पर लेप करे।
तिल जन्य हो लिप्तं भूषिकानां विषं क्षणात् वर्तुलेन च गो जिह्वा मूलेन च सु सारितं
॥११०॥ तिल जन्य (तिल का तेल) को वर्तुल (गाजर) और गोजिव्हा, (गोभी) की जड़ में सिदध करके लेप करने से चूहे का विष क्षण मात्र में नष्ट हो जाता है।
धूपो जयति धतूर बीजै हुडंभ चर्मणा शकता च विडाल स्थ स ज्वरं मूषिकं विषं
॥११
॥
धूपोति वहलो दंशे दत्तः क्षमयतिक्षणात माजार रोमभिः कृतोनिःशेय वृषजं विषं
॥११२॥ बिलाव के बालों को कतर कर उसकी दी हुयी धूप बैल के काटने से उत्पन्न हुए विष को नष्ट करता है। ಆದಿಪಡಿಸಲEಆ೩೦ ದಿನದಿಂದಲೂ
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ORDSTISIOSISTER विद्यानुशासन P15101512151015193510155
अशरणे फु: अशरण विशरणे फुः
मंत्रेणानेन विकरेत सर्षपान्जभिमंत्रितान उच्चाटन विदप्युः स्ते मूषिकाणां क्षणादिव
॥११३॥ इस मंत्र से अभिमंत्रित सरसों को बखेरने से चूहों का उचाटन क्षण मात्र में हो जाता है।
सुवर्ण दंष्ट्र वज़ दंष्ट्र मत्त वराह कुंजरे चु थ सिंह वराहं त्यस्थितवैवं सप्त कृत्वः सप्ताहं पठतुति
सृषु संख्या सुमंत्रं ममुं गह मध्ये यद्यारवुच्चाटनं वांछेत् ॥११४ ॥ इस मंत्र को घर में खड़ा होकर तीनों संध्याओं में सात दिन तक सात सात बार पढ़ने से चूहों का उच्चाटन होता है।
ध्यायेत ग्रहांगमरिवलं सर्पमयं जपतु हरति सन्मंत्री
स्तंभश्च मूषिकाणां दूरं च गति स्तंभो भवति ॥११५ ॥ उस जपने के समय में उत्तम मंत्री सम्पूर्ण घर के आंगन को सर्पो से भरा हुवा ध्यान करे तो भागते हुए चूहों की गति का स्तंभन होता है।
ॐ नमो भगवते वज्र शय मूर्षिक मग वराह कंटके रस चर भक्षय संतुफो वंद्य वंद्य वराह आज्ञापयति हुं फट ||
एतेन सहश्र त्रय जप सं सिद्धेन वेष्टितं पत्रे
सर्पग्रस्तात्म मुख मूषिकामभिलिरिवतु मंत्रज्ञः ॥११६ ॥ इस मंत्र का तीन हजार बार जप करके पत्र पर करन से सिद्ध करने से अपने मुख में चूहे को खाये हुए सर्प का ध्यान करे।
तत्पाने विन्यस्टोत् मध्ये गेहस्यवस्टा वद्वारवौ अचिरेण मूषिकाणां गण स्ततो दूर मुपद्याति
॥११७॥ उस पत्र को यगि बहुत चूहों वाले घर के बीच में डालकर बांध देवे तो तुरन्त चूहों का समूह घर से दूर भाग जाता है॥
सर्पशक्षस्थै चंद्रधनुरूदो वृष बिलस्य यस्य रवयेनेत् सप्तांगुलकार स्करकीलमद्यौ वेद्यमुपरिष्टान् ॥११८॥
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CARCISIOTECISIOTICE विधानुशासन PADOSTOTRICISTRESS जिसके बिलको सर्प नक्षत्र और धनुष तथा वृष राशि के चंद्रमा में सात अंगुल की मुरष्कर (भिलावा) कील से खोदकर उसमें ऊपर नीचे कीलों को गाड़ा जाता है।
व्याधात शंकुमथवा सतारक व्युपकर स्थिते शशिनि
निरवने दाखुभ्योभीन्नजातु जायते तत्स्थेभ्यः ॥११९ ॥ ऐसे नक्षत्रों और चंद्रमा में बिल के खोदने वालों को और वहाँ रहने वालों को चूहों से कभी भय नहीं रहताहै।
यहागमूत्रभावितजत्योतु पुरीष लिप्ततमुरारः
सगृहस्थानन्या नप्यारखुन्नुच्चाटोद चिरात् ॥१२०॥ यदि एक चूहे को पकड़कर व्यकरी के मूत्र में भावना दिये हुए उग्र बिलाय के भिष्टे में लपेटकर छोड़ दिया जाये तो यह चूहा और चूहों को भी घर से भगा देता है।
अर्क दल्सथं यनत्वं स्नूही क्षीरभाषकूलमाष युतं
जग्धां मदेन सुप्ताः प्रबुध्य दूरं गृहाद्वि नियाति दषातः ॥ १२१ ॥ आक के पत्ते पर तेल स्नुही(थोहर) के दूध उड़त और कुलथी को अपने घर रख्ने दे बैल उसको खाकर मद से सो जायेंगे और जागने पर फिर से भाग जायेंगे।
सज्जश्री सुरभिः पुरंकमि रिपुः श्वेतांग का शिफा भल्लांतास्थि वसुंधरा कुहगदः पुष्पं फलं चार्जुनं
॥१२२ ॥
एतैरद्भूत शक्तिभिः विरचितो धूपो गृहे मूषिकान
लूता वृश्चिक मलकुणाहि मशकांचोच्चाटो देश्मनः ॥१२३॥ सर्ज (सर्जरक) श्री (बैल) सुरभि(राल) पुर(दाहागुरु) कृमिरिपु (बायविडग) श्वेताग कर्ण (सफेद कोयल की जड़) भिलावे की गुठली वसुंधसाखजूर) कूहगद (नीलकमल) के फूल फल और अर्जुन इन अद्भुत शक्तिशाली औषधियों से बनाई हुयी धूप घर में से चूहे मकड़ी बिच्छु खटमल सांप और मच्छरों को भगा देती है। मूषक विषादः प्रतिकार
हां ह्रींहूं कारेन्य पठतः पंचाक्षरी रवे मंत्रैः।
अयंम रिवलं लूतानां हरति विषं विषम मपि सद्यः ॥१२४॥ ह्रां ही हूँ हौं हः इस पंचाक्षरी सर्प मंत्र को पढ़ने से यह सब प्रकार के विषम विष को तुरन्त दूर कर देता है।
STSOTECISIODOT5055105[७१२ PISTOISTO505051255015
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SORI5015015125505 विधानुशासन PAS01501501505OST
हरिद्रा द्वय वातागः मंजिष्टा नाग कैशरे:
फणिज्जगेण चा लेपो निहन्या लूतिका विषं ॥१२५॥ दोनों हल्दी यातार्क (वेगण) मंजठि नाग केशर और फणि जग(सांप काटे हुए के लेपलूती (मकड़ी) के विष को नष्ट करता है।
सर्जत्स शुक्लका चूर्णे गंध सिता सर्ष पा
अर्क दुग्धाच लूताया मूत्र विषाप हेमेषां लेप प्रभांपते ॥१२६ ।। सर्जरक (राल) के रस श्रुक्लका (क्षीरिणी) के चूर्ण गंध शकर और आक के दूध को मूत्र के सात लेप करने से मकड़ी का विष दूर होता है।
देवी निर्दिग्धीका दलताल नवा केकि पिच्छनत
मरिचैः राजिवचा हिंगुभिरपि धूपो लूता विकार हरः ॥१२७।। देवी(मूर्वा) विदिग्धिका (कटांकारि केपत्ते) हड़ताल पुनर्नवा साठी) मोर की पूंछ नत (तगर पादिका) मिरच राई यच हींग की धूप से मकड़ी का विकार नष्ट होता है।
विश्च द्वि निशा गंजा निगुंडांकोल दल करंज फलैः
स कथितेन जलन कतः से का निरूणद्वि लूतानि ॥ १८ ॥ विश्व (सोंठ)दोनों हल्दी गुंजा निर्गुडी अंकोल के पत्ते और करंज का फल के जल में बनाये हुए काय का सेवन करने से मकड़ी का कष्ट दूर होता है।
श्रृंगाधैरिसरटा वा कुटालूताया विषेष्व सृग मोक्षं
श्लेष्मांतक सज गुम विभीतकस्सेक लेपाक्ष ॥१२९॥ यह (श्रृंग) आदि की जटा से मकड़ी के काटे हुए स्थान से विष का खून निकाल देवे और श्लेष्मांतक (लिसोहे) सर्ज(राल) के वृक्ष तथा विभतिक (यहेडा) से सेके और लेप करे।
रजनि लसुनोग्र गंधा सदशो हिंगुस्तर्दिका सूंठी
मूपितैरनुले पादिलूतिका विषजित ॥१३०॥ हल्दी लसुण उग्रगंधा (अजमोद) इनके बराबर हींग और आंधी सोंठ को भूत्र में मिलाकर लेप आदि करने से मकड़ी का विष जीता जाता है।
घेतार्क द्वय वर्षाभूदय सेलू कपित्थ पाटल शिरीषैः
दत्त प्रलेपनादिलता विषमप हरत्य रिवलां ॥१३१ ।। SSCISIONSISISIOTSTOISO95७१३ VIDE5I050SRKETICARRIES
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CASIRIDIOSSIONSISTS विधानुशासन HDPSRISTOT50510155 सफेद आक दोनों वर्षा भूमूलं (दोनों पुनर्नवा) दोनों सेलू( लिसोठे) कैथ पाटल (पुन्नाग) वृक्ष और सिरस का लेप आदि करने से मकड़ी का सम्पूर्ण विष नष्ट हो जाता है।
कणा निर्गुडी चंदन पद्माक तांबूल पाटली कुष्टाः
नताकाश शारिबा अपि लूता विष हुतागणो भाणितः ॥१३२॥ कणा(पीपल) लिगुंडी (सम्हालू) चंदन पद्माख ताम्बूल (पान) पाटली कूट नत तिगर पादिका) काश (दुर्बा) शारिबा) गोरोसर भी मकड़ी के विष को हरन वाला गण कहा गया है।
नत कुष्ट शिशिर पाटल निगुंडी शारिबा द्वयोशीरा
काश द्वितीयं पर कमबुज लुतो हरो वर्गः ॥१३३ ।। नत (तगर पादिका) कूट शिशिर (कपूर) पाटल पुन्नाग निगुंडी गोरोसर दोनों खस काश (डाभ) दोनों पद्मान और अंबुज (कमल) मकड़ी के विष को नष्ट करने वाले वर्ग (द्रव्य) है।
कंदेन लेपः कमैयां काकिन्याच कल्कितः
शीताभिः कल्कितेनाभिलताशीफ हरोमतः ॥१३४॥ कर्कोटि (काकड़ी) के कन्द काकिन्या के कल्क को ठण्डा करेक(ठण्डे पानी से कल्क बनाकर) लेप करने से मकडी के विष को और सूजन को नष्ट करने वाला माना गया है।
पिष्टं निपिवै चिंचा मंदा मंदाकं लूतिकां
शूनी पासा लूताव्रणां नितान्यातैलं तनैव सं सिद्धां ॥१३५ ॥ (चिंचा) इमली मंदा() मंदाकं लूतिका() को पीसकर कुत्ती के दूध के साथ पीसकर पीने से अथवा इन औषधियों के कल्क से सिद्ध किया हुआ तेल से लेप करने पर मकड़ी का जखम जो काटने से ही मिट जाता है।
अंकोलस्याथ गंजायाःशिफालता विषापहृतः पान लेपनस्टोषु वितीर्ण कल्कितार्णा सा
[१३६॥ अंकोला और गुजा की जड़ के अर्णसु (जल) में बनाये हुए कल्क को पीने से या लेप करने से तथा सूंघने से मकड़ी का विष दूर होता है।
लूता विषस्य
सिद्धायुत प्रजाप्पेन क्षेत्रपालाधि देवतांश्च शिंवादी विषं हन्यान्मातृकांबुज कर्णिकाः
॥१३७॥
SSIOISTOSTS5DISIOAD5[७१४ PISITORISIO15101510151055
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SSDISIOTSIDEOSE विधाजुशासन IS9501510150158ISS क्षेत्रपाल की अधिष्यत्री देवी को मातृका अंबुज किर्गिक शतकात अगिल) मन्मय पर दस हजार जप करके सिद्ध करने से मकड़ी कुत्ता और गीदड़ का विष दूर होता है। इससे अभिमंत्रित जल से जखम को सिंचन करे ।
मंत्रोद्धार
अलकांदिय पतेाक्ष सारमेय गणाधिपा अलकादि दष्टोमेतज्मे निर्विषं कुरू माचराय ठठः ॥ मत्ताऽलकशिवा स्वरतुरंगादि हरेत् गरलं
सिद्धोऽद्युतपजप्पान्मंत्रोऽयं यक्ष क्षेत्रपालस्य ॥१३८॥ यह क्षेत्रपाल का मंत्र दसहजार जप से सिद्ध होने पर पागल कुत्ते गीदडी गधे और घोड़े आदि के विष को नष्ट करता है।
पीतैराज्य गुड़ क्षीर दुर्दुर स्वरसैर्भवेत् पृथगांधफलोन्मात्रां पक्तः श्वा विष निग्रह :
|१३९ ॥ घी, गुड़, दूध, दुर्दुर(पुनर्नवा) के स्वरस और पृथगांध फल (विजयसार) सप्तपर्ण के फल को पकाकर पीने से पागल कुत्ते का विष नष्ट होता है।
काकोंदुबरि का मूलं नि:पिवेत्तंदुलांबुजा त्रिफलाशन मूलं वा मत्तश्वः गरलापहः
॥१४०॥ काक (काकजंघा) और उदंबर (गूलर) की जड़ों अथवा त्रिफला और अशन (त्रितक) की मूल को चावलो के पानी के साथ पीने से बावले कुत्ते का विष नष्ट होता है।
भवेत्स सित वर्षाभूमूल माज्टोन कल्कितं दुदुंरस्य फलं पीतम लकविष शांतये
||१४१।। सफेद वर्षा भूमूलं (सफेद पुनर्नवा साठी) की जड़ को पुनर्नया के फल को घी में बनाये हुये कल्क को पीने से बावले कुत्ते का विष शांत होता है।
गुडतैलार्क क्षीरे क्षीरं गद्यां विमिश्रितं पीतं गुड मधुक व्योषैर्वा मत्तस्य श्रुनो विषं हरति
॥१४२॥ गुड़तेल और आक के दूध को गाय के दूध के साथ पीने से बावले कुत्ते का विष नष्ट हो जाता है।
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CRICISTOIEDISTRISTRICT विद्यानुशासन BASICSTOISTRICICISTRISH
क्षीरेणालक विर्षहेमंनां कोलस्य वा पिवेन्मूलं
तिल गुड काकोदुंबर सहितं वा रविदल स्वरसं ॥१४३ ।। बावलं कुत्ते के विष में दूध के साथ हेम (धतूरा) की जड़ या दूध के साथ अंकोल की जड़ अथवा तिल गुड़ को काकोदुंबर (अंजीर) और आक के पत्तों के स्वरस को पीये।
सांकोल मूलं शिफं द्वाथथत्रिफलहविष: फलं अलक गरले पेटांक्षीरे वा गुड मिश्रितं
॥१४४॥ अंकोल की जड़ तथा जटा त्रिफला और हविष फल को अग्निमंथ वृक्ष के फल के काय को अथवा गुड़ सहित दूध को बावले कुत्ते के विष में पीवे।।
अर्क दुग्धं गुड़ तैलं पललं च समसजतः न जातु जायते मंत्र सारमेय गराभयं
॥१४५॥ समान भाग आक का दूध, गुड़,तेल औप पलल (तिलकूटे) के खाने वाले को पागल कुत्ते के विष से कभी भय नहीं होता।
धान्याम्लेन स्नातः क्रथितेन कंरजवृक्ष पंचागैः,
तिष्टनात पतप्त स्सरमातमयस्यहरति विष करंज वृक्ष के पंचाग और धान्य और अम्ल(अमल बेल) के हाथ के जल से स्नान करके धूप में बैठने से पागल कुत्ते के काटे का विष नष्ट हो जाता है।
सित पक्षाक दिनो धूत पिप्पल ककॉटिका लेता मूलं
उन्मत्त श्रुनक विष हरमभिनव गोक्षीर पानेन ॥१४७ ॥ शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (इतवार) के दिन रखे हुये पापल की जड़ तथा कर्कोटिका (कुम्हड़े) की जड़ को ताजे गाय के दूध के साथ पीने से कुत्ते का विष नष्ट हो जाता है।
धूपश्च मयुर रोमोत्थ सांदी दंशै समर्पितः हरेन्मतःश्वगरलं त चेष्टा काटोपि द्रुतं
॥१४८॥ मोर के बालों की धूप काटे हुए स्थान पर देने से पागल कुत्ते के विष और उसकी चेष्टायें सब दूर हो जाती हैं। श्वान( कुत्ता)
पिष्टवा नाल्युष मूलेन लिप्ताः शर्करयाथवा मत्तश्च दंत दशन संजातो रोहित वण :
॥१४९॥
CHOICISTO55105TOIDEOS[७१६ PASTOIEOSOTRIOTSETICIAN
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CISIOISTOISEASIRISTOT5 विधानुशासन 98510151235105505OISS नाली() की जड़ को पीसकर उसके अथवा शक्कर के साथ लेप से पागल कुत्ते के दांत से उत्पन्न जख्म भर जाता है।
मत श्रुनकस्य गधे के विष का मंत्र पुरपुर चरचरविरिविरि छिंद छिंदवडगेनछेदटा छेदय श्रुलेनभिंद भिंद चक्रेण दारया दारय हुं फट ठाठः॥
मंत्रज्ञेन प्रवक्ताय मभि मंत्रयस्य कर्मणा, गर्दभ प्रभतीनां यद्रिषं तदरिवलं हरेत् ।
॥१५०॥ मंत्र शास्त्री द्वारा इस मंत्र से मंत्रित किये जाने पर गधे आदि का सब विष नष्ट हो जाता है।
अब्दाब्ज मलयज वरामांसी रण पदमकैरजा पयसा,
समुपेतै हरति कृतः पानादि गर्दभादि विष ॥१५१॥ कमल चंदन वराह मांसी (जटामांसी) रण (खस) पदमाक को बकरी के दूध के साथ पीने से गधे आदि का सब विष नष्ट हो जाता है।
गर्द्धभ विष्स्य ततैया के विष की औषधि फणिर्जकांबुना दंशं पिंधत कंटा, घर्षे लोहित्रवा सद्यः प्रणश्येदरटी विर्ष ।
॥१५२॥ ततैया के विष की शांति के वास्ते फणिजंक (गंध तुलसी) के रस से काटे हुए स्थान पर इंक निकालकर इस प्रकार घिसघिस कर लेप करे कि रक्त निकल आवे। इससे वरटि(ततैया) का विष नष्ट हो जाता है। ततैया के विष की औषधि
सकेशरै विलेपन वक्रोषण महोषी: पत सिंधुद्भवाभ्यां या विनश्योन्मक्षिका विषं
॥१५३॥ नवक्रोषण() औषधियों में केशर मिलाकर लेप करने से अथवा घृत और सेंधा नमक का लेप करने से मक्खी का विष नष्ट हो जाता है।
मक्षिका विषस्य
हैटोगबीन यतयोः स्त्री भेदी तंदली पटो:, निपानं विहितं कीट विषजं नाशयेदभयं
॥१५४॥ हैयंग बीम(मक्खन) सहित स्त्री भेदी (सहजना) तंदुल पयो (चावलों के पानी) के साथ पीने से कीड़े के विष से उत्पन्न हुआ भय नष्ट हो जाता है।
CASEASOISRDISTRI525[७१७ 235050525TOSCISTORY
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959595969595 विद्यानुशासन 9595959595
ज्येष्टेन वारिणा पीतं सुरसस्य जटा जपेत, पान लेपन योगेन विषं कीट समुदभयं
॥ १५५ ॥
सुरस (तुलसी) की जड़ को चावलों के पानी के साथ पीने से या लेप करने से कीड़े का विष नष्ट होता है।
कल्की कृतानां लेपेन क्षीर भूरूह चर्मणां. जयेत्प्रवृद्धा मप्पा कीटोद्भूत विष व्यथां
॥ १५६ ॥
क्षीर भूरू (दूधवाले वृक्ष) और चर्म के कल्क का लेप कीड़ों के विष की बढ़ी हुयी व्यथा को जीत लेता है ।
पिष्टास्तुषांना तुंबी जलिनी लांगली शिफाः लिप्ताः कीट विष स्फोटान्मूलोत्पाटयितुं क्षमाः
॥ १५७ ॥
तुंबी जालिनी ( पटोललता) लांगली (कलिहारी) की जड़ को तुषा (भिलावे) को जल में पीसकर लेप करने से कीड़ो का विष नष्ट हो जाता है।
तंव्या जाल्या हलिन्या वा मूल बीज प्रकल्पितः, लियाः प्रशमयंत्कोट विषाणि विलान्यपि
।। १५८ ॥
तुंबी जालि (पटोललता) अथवा हलिनी (लांगली) की जड़ और बीज के कल्क का लेप सब कीड़ो के विष को नष्ट करता है।
कुष्टां वष्टाति विषा व्योषोग्रा वक्र हिंगु सिंधुत्यैः, क्षार विलंगोपेतैः कीट विषे स्यात्प्रलेपादिः
॥ १५९ ॥
कूट अम्बाष्टा (पाट) अतिविषा (अतीस) व्योष (सौंठ, मिरच पीपल) उग्रा (लहसुन) वक्र (नगर) हींग और सेंधा नमक क्षार (खारी) बाय विडंग के लेप आदि से कीड़े का विष नष्ट हो जाता है।
स्यांदशे रक्त कीटस्य प्रस्विन्ने पुरुधूपनात्, वंधनं विषहत क्षुणैराज्यैराजाक पल्लवैः
॥ १६० ॥
घृत सफेद सरसों आक के पत्ते और पुरू (गूगल) की धूप देने से लाल कीड़ो के काटने का विष दूर हो जाता है।
यामद्वयं निरवनन्दशं भावि कांड चिंचायाः, पश्चादश्चेलिपेदपि धान्यामृता घृत युतया
©SP59SPP
॥ १६१ ॥
७१८ 59556
59
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505ICSIRIDIO1505 विद्यानुशासन 98510551051815101510151 दोनों यामनि (हल्दी) और (दाल हल्दी) अधिकांड (स्वर्णक्षीरी= सत्यानाशी बड़ी कटेली) चिंचा (इमली) से घाव को खोदकर उसके पश्चात् धान्य और अमृता (गिलोय ) में घृत का लेप करे।
द्रोण द्वय स्वरसं किंचि चूर्ण स्तैलेन संयुतः,
पीतो लुप्तो वानसि विषं हरति सितेहा शिफैकाया ॥१६२॥ दोनों द्रोण (द्रोण पुष्पी) और उस बेल के स्यरस में उसके चूर्ण और तेल को मिलाकर पीने से या लेप करने से और सूंघने से विष नष्ट हो जाता है। द्रोण पुष्पी को गोमा या दइगल कहते हैं।
द्वयें दंयासा यव पुरख्या विषया चानास्थिका,
विषेलेपं विदधीत पीत वर्णे:पर्णेर्वा पनस वृक्षस्य ॥१६३ ॥ दोनों ऐंद्री(इलायची) यय( जौ) इंद्रजो (कुड़े के बीज) पुखी (सरफोंका ) विषा (अतीस) और धानास्थिका (सोमराज) का बि में लेप कर अथया पनस (कटहल) वृक्ष के पीले रंग के पत्तों का लेप करे।
हंति भूलम हिनायाः पिष्टं मूष्णेन वारिणा, जावन क्रियया सर्वगोधा विष समुद्धति
॥१६४॥ अहिस्सा(नागबेल) की जड़ को गरम पानी से पीसकर सुंघाने से छिपकली की सब विष दूर हो जाता
द्वि हरिद्रा द्विकंरज व्योष कपित्थ पिप्पल रविबीजैः,
पानाध्यप युक्तैनशयेद गृह गोधिका गरलं ॥१६५॥ दोनों हल्दी दोनों करंज व्योष (सोंठ मिरच पीपल) कपित्थ (कैथ) पीपल के पेड़ के बीज और आक के बीजों को पीने से नस्य लेने या या लेप करने आदि से छिपकली का विष नष्ट हो जाता है।
गृह गोधा विषस्य
दीपवर्ते रथोवक्रं गृहीताया विनिद्भतैः दाहै:, सतपदी दंशे विषहत् तैल बिंदुभिः
॥१६६॥ मीठे तेल की दीपक की बत्ती का मुख नीचे को करके उससे जख्म में तेल की बूंद चुआकर जलाने से शतपदी (कानखजूरे कानछला) का विष नष्ट हो जाता है।
ಹಡಪದಥ5939 Bಣಪ595
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S5I01519651015101505 विद्यानुशासन HSTERSIOTECISITORIES
पान लेपनयो ईतं शिरीषं त्र्यूषणं युतः, पंचागं पायटोत् सद्यो जेतुं शतपदी विषं
॥१६७॥ सिरस और त्र्यूषण (सोंठ मिरच पीपल) के पंचाग को पिलाने और लेप करने से कानखजूरे का विष तुरन्त ही जीता जाता है। इति शतपदी विषस्य
स्जुकक्षीर कल्कितैः वीजैः शिरीषस्य विलेपनं,
अलं शमयितुं तीनां दर्दुरवेल वेदनां । ||१६८॥ स्नूही (थूहर) के दूध में कल्क किये हुए सिरस के बीजों का लेप मेंढक क विष की वेदना को शांत करता है। दुर्दर विषस्य
महावक्षपयं पिष्टीः शिरीष स्यास्थिभिः,
कतानिराकरिणा मंडूक विषमा लेपनादिकः ॥१६९ ॥ सिरस की लकड़ी और महावृक्ष () को दूध की पिट्टी का लेप आदि करने से मेंढक का विष नष्ट होता
लिप्ते है टांग हरिद्रा शारिबा शिफेघोरं, विषम पास्टोति स विषाणां जलौक सां
॥१७०॥ हेयंग बीन (मक्खन) हल्दी शारिबा (गोरोसर) की जड़ के लेप से विषवाली जोंको का घोर विष भी नष्ट हो जाता है।
जल्का विषस्य
पिंडे न यव सक्तूनां सघतेन धतं वणे, सं स्वेदनं भवेत् सटा: अंगी मत्स्य विषापहं
॥१७१।। जौ के सत्तू में घृत मिलाकर उसके पिंड को जख्म पर लगाने से पसीना आकर शीघ्र ही श्रृंगी मत्स्य का विष नष्ट होता है।
पंडितं मूल सयुक्त माज्यो पेतं कटु त्रयं, पान लेपादिभिहाति विगं मत्स्य समुदभवं
॥१७२॥ पंडित() की जड़ और त्रिकटु (सोंठ, मिरच, पीपल) को घृत के साथ पिलाने और लेप आदि करने से मछली से उत्पन्न हुआ विष नष्ट होता है।
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PSPSP5959515 विधानुशासन 2595959595951
नव दंत विषापहः
जलेन गो जिव्हिया पिष्टया घृत मिश्रयालेपः, स्यादखिलप्राणि गोजिहिका (गोभी) को जल में पीसकर घृत के साथ लेप करने से सब प्राणियों के नखों और दांतों का विष नष्ट होता है ।
॥ १७३ ॥
द्विनिशा गेरिकै लॅपोनखं दंत विषेहितः, से कोऽथवा वटारिष्ट शमीत्वक कथितै ज्जलैः
॥ ९७४ ॥
दोनों हल्दी और गेरिक (गेल) का लेप नखो और दांतो के विष में हितरूप है। वड़ और अरीठे और शमी (केज) के वृक्ष की छालों के साथ क्वाथ के जल का सेक भी हितरूप है।
घनानाद शिफा पीता पिष्टा तंदुल वारिणा, प्रणाशयेत धृतो पेता निखिलं कृत्रम विषं
।। १७५ ॥
घननाद (नागरमोथा) की जड़ को चावलों के पानी से पीसकर पीने से अत्यन्त कठिन कृत्रिम विष भी नष्ट होता है !
चूर्णः सूक्ष्म कषायो वा कष्णां कोल समुद्भवः सेवितः स्यात् क्षणादेव कृत्रिम वेल वेग जित
॥ १७६ ॥
कृष्ण (काली मिरच) और अंकोल से निकले हुए या उसके चूर्ण का सेवन करने से क्षण मात्र में ही कृत्रिम विष का वेग जीता जाता है।
धान्य पकौभद्रमुस्तैला मांसि गोलि सुवर्चला, बालकं पिप्पली लोद्रं गणो द्वषि विषापहे
।। १७७ ।।
धान्य पको () भद्रमुस्ता (नागर मोथा) एला (इलायची) मांसि (जटामांसि) गोलि (गोभी) सुवर्चला (कालानमक) बालक (काली मिरच या नेत्रबाला) पीपल पठानी लोद्य बनावटी विष को नष्ट करने वाला गण है।
कांचना रेणु मुडियां कंटकार्य्या च कल्किता खातो हंति विषं स्त्रीभिर्वश्याथषधि साधितं
॥ १७८ ॥
कांचना (नागकेशर) रेणु (रेणुका) मुंडिनी और कंटकारि के कल्क को खाते ही कृत्रिम विष नष्ट
होता है। यह स्त्रियों को वश्य करने वाले औषधि के रूप में भू प्रयोग किया जाता है। PPP ७२१ Pa
950
でらでらでら
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STRICISTOISISTERISTOT5 विद्यानुशासन NSDISTRISTOTSDISORI
कृत्रिम विषस्य
श्री नीलकंठ मंत्रण मंत्रवाद विशारदः, अंते निरोध युक्तेन स्थावरं गरलं होत
॥१७९॥
ॐ नमो भगवते गरुडाट महेन्द्र रूपाय पर्वत शिरवाराकार स्वरूपाय संहर संहर मोच सोचा चालनालग पाता पातय निर्विष निर्विष विष ममत महारय सदृश मिमं भक्षयामि मधुर लल लल वव व वक्षि पहः हः ठाठः ॥
स्थावर विषं निहन्यादमुनालक्ष प्रजाप्प सिद्धेन,
तत् स्वयमद्यादन्यांशि भौजे निर्विकारः स्यात ॥१८०॥ इस मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके स्थावर विष को नष्ट करे। इस मंत्रसे स्वयं विष खाने और दूसरे को खिलाने से कोई भी विकार नहीं होता है।
रजन्या हयगंधाया पन व शिफा जयेत, अंज गमं विषं सर्व पीत्वा वार वादिता थवा
॥१८॥ हल्दी असगंध और पुनर्नवा (साठी) या (वंध्याया बांत्र ककोड़े) की जड़ को पीने या खाने से सब प्रकार के स्थावर (अंजगम) विष नष्ट होते हैं।
निशा सैंधवयोश्चूर्ण सूक्ष्मं धृतं विमिश्रितं, लिपीतो नाशयेत् सर्वं विषं स्थावर संभव
॥१८२॥ हल्दी और सेंधा नमक के चूर्ण में थोड़ा घी मिलाकर पीने से सबप्रकार के स्थावर विष नष्ट हो जाते
है।
लीठः सिताज्य संयुक्तर्ण स्तम्रा सुवर्णयोः,
स्यात् स्थावर विष प्वांत संतानैक दिवाकरः |१८३॥ ताम (तांबा) और सुवर्ण (सोना) के चूर्ण (भरम) को घी और शक्कर सहित चाटना स्थावर विष रूपी अंधकार की संतान को नष्ट करने के लिए एक ही सूर्य है।
लंदगस्य हरीतस्या अपि चूणों निपायित:, कर्पूर कांजिक विषं हत्य शीतेन वारिणा
॥१८४॥ लौंग और हरडे के चूर्ण को कपूर और कांजी और ठण्डे जल के साथ पीने से विष नष्ट हो जाता
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सामेंद्रयव हृद्वारिकाये वाक्षीरभूत, निशामस्याम भृंगरोचन योरथ
॥ १८५ ॥
साम ( सोंठ ) इंद्रयय (इंद्रजो) भूत (नागरमोथा) निशा (हल्दी) श्याम (काली मिरच) भृंग (भांगरा) रोचन (ओरोचन) का पानी या दूध में बना हुआ क्वाथ विष नष्ट करता है।
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सामकर्पूर विकृतो गव्येन पयसा ऋतां. विश्रयवागु शीतेश्च कषायं सिद्ध मौषधैः
॥ १८६ ॥
साम ( सोंठ) कपूर गाय का दूध में ऋतां (पकाकर ) यवागु शीत कषाय विष की सिद्ध औषधि है ।
अवंती सोम संयुक्त शालि मूल विषहितं, पथ्या यष्टिकणं जम्बू फलं सैंधव मेव च
॥ १८७ ॥
अवंती सोम (कांजी) सहित तायल की जड़ तथा हरड़े मुलेठी पीपल जामुन का फल सेंधा नमक विष में हितकारी है ।
पथ्या कल्कीकृता वारिणा त्रिपुष जन्मना, गुडाज्य क्षीर पानं वा करवीर विषापहं
॥ १८८ ॥
हरड़ त्रिपुष (खीरा काकड़ी) में से निकले हुए पानी में कल्क बना हुआ अथवा कनेर घी दूध को पीने से भी विष नष्ट होता है।
गुड़ और
हरीतक्या हरिद्रायाः पथ्याया रजनि रपि, प्रशाम्युंत्यु पयोगेन तुरंगम रिपोर्विषं
॥ १८९ ॥
हरीतकी (हरड़े) हल्दी और हरड़े भी उपयोग से तुरंगम रिपु (सफेद कनेर की जड़) के विष को नष्ट करता है।
युक्तं चूर्णितया पीतंनव्यं गव्यं हरिद्राया, करवीर गरोद्रेकं द्रागेन विनिवर्तिते
सार्द्धयग बीनेन पाययेत् द्वितीयं निशोः, करवीरवार्भिः कल्कितां वा हरीतकीं
॥ १९० ॥
आधे मक्खन के साथ दोनों हल्दी अथवा पानी में कल्क बनायी हुयी हरड़े तलवीर के विष में पिलावे ।
॥ १९१ ॥
हल्दी के चूर्ण को गाय के नये (ताजे) घृत के साथ पीने से भी तलवार के विष की तेजी तुरंत ही नष्ट हो जाती है।
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CHRISTISTORTOISO विधानुशासन PASCISIRISTRICISIOS
करवीरो द्भताया विकृतेः क्षीरं च यष्टि मधुकं च,
सौ वीरेण च युक्ताम भयां विद्धि प्रतिकार ॥१९२॥ यष्टि मधुकं(मुलैठी) सौवीर(बेर) और दूध को तलवार के घाव के विकार का बिना भय के प्रतिकार करमालजाने.
क्षीरेण संयुत भूरि सित कंदे निषेवितो, लांगली विष भैषज्यं ग्रंथि को वा हितं मतं
||१९३॥ लांगली (कलिहारी) अतवा ग्रंथिका (पीपलामूल) को सितकंद (मोटे जीरे के कन्द) और दूध के साथ विष में सेवन करे।
करवीर विषे हिंगु रंभा पुष्पं प्रशस्यते , कपित्थस्य जंवाश्च रसःशाल्मलिरेव च
॥१९४ ।। तलवार के विष में हींग रंभा (केला) के फूल कैथ का रस जामुन का और रस सेमल की अत्यन्त प्रशंसा की जाती है।
शीतमंबु कुलत्यानं मषी या मधु सपिषोः, समटोपीतयोः श्वेल विक्रियायां प्रयोजयेत्
॥१९५॥ ठण्डा जल कुलथी का अन्न मासी (जटामांसी) शहद और घी को पीकर विष के विकार में प्रयोग करे।
तांबूल विषं हंति शर्करा लवणं गुर्ड, चिंचाम्लं यष्टि मधुक बीजानं मधुरं फलं
॥१९६॥ पान का रस शक्कर नमक गुड़ इमली की खटाई मुलेठी और महुवा के फल के बीज विष को नष्ट करते है।
तांबूल दल संभूता मुर: कुंठं व धनी, वाधा कटित्य पा कुर्यानावनं शीत वारिणा
||१९७॥ पान के रस और ठंडे पानी को सूंघकर और हृदय और कंठ को रोकने वाले कष्ट को दूर करे ।
अलं मलयजो जेतुं मदं पूगी फलोद्भावां, पष्टचूर्णेन संयुक्तो भक्षमाणः क्षणादिवः
॥१९८॥ ಇದರಿಥ59ಥಳದ ಆRY YEFF9FF9E
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SADIVASICATI501585 विधानुशासब PASSISTOREYSISTTISION घिसे हुए चंदन और उसके चूर्ण को खाता हुआ क्षणमात्र में सुपारी में पैदा हुए भद को जीतता है।
गुडं खंड सितां क्षीर मपि धतूर जे विषे, पिवेत्समस्तं वा पदममथवा तदंलीय की
॥१९९॥ (चोलाई) गुड़ खांड (शक्कर) और दूध अथवा सम्पूर्ण पदम (कमल) अथवा तंदुलीयक बाय विडंग को धतूरे के विष में पीये।
भागैर कोलस्य त्रिभिद्युतो भाग एक आजस्य,
विजयामे रंडोद्भव तेल युता जयति धतूरं ॥२०॥ तीन भाग अंकोल एक भाग मयखन और एरंड के तेल का प्रयोग धतूरे के विष को जीतता है तथा विजया (भाग) के विकार को भी जीतता है।
यः को द्रवस्य मूले निपीतेन समुद्भवत, विकार स्तस्य विजया विजयाय प्रकल्पते
|२०१॥ जो कोई कोंद्रय कोंदो की जड़ को पीता है वह विजया (भांग) के विकार पर विजय पाता है।
दुष्ट कोद्रव संभूतां व्यापत्तिम वलुपति, अभया मधुकं जंबु फलं सैंधव मे वच
॥ २०२॥ अभया (हरडे) मधुकं (महुया) अंयुफल (जामुन } सैंधव नमक दुष्ट कोद्रव (पुराने कोंदो) से उत्पन्न हुए विकार को दूर करते है।
मूच्छावरक संभूतां विध्वंसयति यिक्रियां, चिंचाम्लं सेव्यं वा गव्यं पयो पामार्ग एव या
॥ २०३॥ इमली की खटाई अथवा अपामार्ग (चिरचिटा) का गाय के दूध के साथ किया हुआ प्रयोग वरक (भौंरा) से उत्पन्न हुयी मूर्छा के विकार को नष्ट करती है।
पीतो गुडेन कूष्मांड रसः कोद्रवानजं, अपा कर्तुमलं यद्वा पुष्पं शुक तरुद्भवं
॥२०४।। गुड के साथ पिया हुआ पेठा का रस अथया शुक तरू (सिरस) का फूल कोंदो के अन्न से उत्पन्न हुए विकार को नष्ट करता है। ಪರಿಸ934
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959595959595 विद्याभुशासन 959595959595
आरुष्कर विकारेषुनावा बिप्त धृतिं दुका,
॥ २०५ ॥
शारिवा व हिता पाने से चने लेपने पिचः विप्त धृतिं (द्विज प्रिया) सोमलता तथा इंदुका (सोमलता ) को सुंघाने अथवा शारिबा (गोरीसर) व अनन्त मूल को पीने से लेप करने से भिलावे का विष शान्त होता है ।
शालिपिष्टेन दातव्यं: धान्यांभः सहितेन प्रलेपनं, आरुष्का विकारचंसे को मूर्वा रसेन वा
॥ २०६ ॥
शालि (चावल) की पिट्टी धान्यांभ (धान्य का पानी) को देने या साथ लेप करने से अथवा मूर्वा के रस का सेक करने से आरूष्कर (भिलावे) का विकार नष्ट होता है।
सिंचेत नालिकेरस्य क्षीरेणा रुष्करोद्भवे, श्रयथो निपीवेद्वारि साधितं पप्पटेन वा
॥ २०७ ॥
भिलावे से उत्पन्न श्वयथु (सूजन) को नारियल के दूध से सींचे अथवा पर्पट (पापड़ा) में सिद्ध किये जल को पीवे ।
पुनर्नवेन यष्टवा वा नवनीतेन वा युतैः, तिलैर्भलात शौफग्रो लिंपेत् तिलज या थवा
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पुनर्नवा ( साठी) यष्ठी (मुलहटी) को नवनीत (मक्खन) के साथ तिलों का लेप अथवा तिल और अजया (भांग) का लेप भिलावे की सूजन को नष्ट करता है !
मेगनादं पलाशस्य बीजं च घृत कल्कितैः,
लिप्ते शोफं क्षणेनैव विहितो रूष्करा कृतं
॥ २०९ ॥
मेघनाद (चोताई और पलाश (छीले) के बीजों का घृत में बनाया हुवा कल्क का लेप करने से भिलावे की हुयी सूजन क्षण मात्र में अच्छा कर देती है ।
तांबूलं शंख चूर्ण च क्रमुक स्य फलं तथा, पिष्टवा लिप्तान्य पा कुर्युः भलातः श्रयथु व्यथा
॥ २१० ॥
तांबूल (पान) शंख का चूर्ण क्रमुक फल (सुपारी) को पीसकर लेप करने से भिलावे की स्वयथु (सूजन) नष्ट होती है।
कल्की कृतेन रचितं पर्पटेन विलेपनं, भातक समुद्भवं कुंड शोफादिकं हरेत्
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॥ २११ ॥
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STOTRASIRISTOTRADI5 विधामुशासन ISIOSDI505505505 पर्पट (हवन पापडे) के क्लक के लेप से मिलाये से उतान दुरी खान और मुजन्न जात होती है।
प्रवालक्षीर वृक्षोत्यैः कुसुमैः कुकुंमस्य च , अंजनेन यष्टया च लेपो रूष्क विसर्पजित
।। २१२॥ प्रयाल (मूंगे) दीर वृक्षर (दूध के वृक्ष) के फूल कुंकुम और मुलहटी के अंजन और लेप करने से भिलावे का विष दूर होता है।
रंभामधुकत क्षीरी प्रवालप्रार्थवाजुनेः,
स गोक्षीरः आलेपनं शमयेत भलातक संभवं शोफंः ॥२१३॥ रंभा( केले) मधुकृत)महुये के फल) का दूध मूंगा प्रार्थवा और अर्जुन का गाय के दूध के साथ लेप करने से भिलावे से पैदा हुई सूजन शांत हो जाती है।
कल्कि कताणि सलिला सलिलै रवलंपति,
क्षणादेवेशति तेरे: परिपीता सकलं सणा बीज चूर्णे विषं ॥२१४॥ जल में कल्क बनाई हुई सलिला अत्यंत ठण्डे जल के साथ पी जाने से सणा के बीजों के चूर्ण के विष को क्षण मात्र में नष्ट करती है।
कटुका लावोः शुंठी पुनर्नवा याचपहति विक्रितं,
कोशातक्यो स्तवब्दः सुमनो दाल्या स्तुशशि वल्ली ॥२१५॥ सोंठ पुर्ननवा अब्द (नागरमोथा) सुमना (पूति करज) दाल्या (देवदाली बेल) और शशी यल्ली (सोमलता) कड़वी तुंबी और कड़वी तोरु के यकार को नष्ट करती है।
जीमूत स्टक्ष्याकोः सुरदाल्यावापि वदिर.
स्वारी नवभूत कपालमथवा सहजबुवल्कलं पथ्यं ॥२१६॥ जीमूत (नागरमोथा) ईक्ष्याकु (तुम्बी) सुरदाली (देवदाली) भी और विकारों में वदिर (बोर) खारी नमक नयभूत कपाल अथवा जामुन का वल्कल पथ्य है।
दंति द्रवंति संभूतैः वैकते विहिताहिता, जंबु यष्टा रिमेदाश्च रंभायाः कुसुमं तथा
||२१७॥
||२१८॥
दंतिनि स् सूत्रयोः पानाधौ विकारः प्रजायते,
तस्या रिमेदत्वक सेव्या सट:शांति विधायिनी ಎದುರಲು ಆgg Bಥಣಬಣಣಗಾಗದೆ
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CSIRISTRISTOSTEST25 विधानुशासन 051015521510151015) दंतितिरिफल) को पीने से उत्पन्न हुये विकार में जामुन मुलहटी धान्य अरिमेद (दुग्धिखेर) तथा केले का फूल हितकारी है। दंति (तिरिफल) के धानों को पीने से जो विकार उत्पन्न होता है। उसकी तुरन्त शांत करने वाली अरिमेद की छाल जिसका सेवन करना चाहिये।
अंकोल मूल जनितां श्रेयसी हंति वेदनां, तक्रमंऽच पटुना युक्तं ताल शिफा रुजं ।
॥२१९॥ अंकोल की जड़ से उत्पन्न हुयी वेदना को श्रेयसी तक्र माड और पटु सहित ताड़ की जड़ नष्ट करती
गालांत्रो द्भवो वाद्यां निरस्थति सुवर्चला, विश्वोषधं तरूं हंति कुंभ संभव संभवा ।
॥२२०॥ गरलानोभया (शहद की मख्खी) से हुयी वाधा को सोवर्चल (काला नमक) विश्वोषध (सोंठ) का पेड़ और कुंभ संभव संभवा वृक्ष का रस दूर करता है।
अंगी विषे हिंगु मालती मल्लिका कणा, राष्टी ताल शिफा लर्कश्शूल पुष्पं च सैंधवं
॥२२१॥
ऋगी विष समुद्भता स्वयं शमयति सर्पिषा पुन्नाग वर कुष्टाध गंधा मूल निषेचनात्
॥२२२॥ सींगीमोरा (वत्सनाभ) में हींग मालती मल्लिका मोगरे का फूल कणा(पीपल) यष्टि (मुलेठी) ताइवृक्ष की जटा अलक(मदार) चूल का फूल सेंधा नमक उपयोगी है। अंगी (सींगीमोरा) से उत्पन्न हुआ विष धृत पुन्नाग वर (केशर) कूट और असगंध की जड़ का सेवन करने से स्वयं शांत हो जाता है।
वन सूरण कंदेन य द्विषं जायते नृणां सा आरग्वधस्य पुप्पेण तमाले न च नश्यति
॥ २२३॥ वन सूरण कंद के खाने से जो विष मनुष्यों को होता है। वह आरग्वध(अमलतास) के फूल और तमाल पत्र से नष्ट होता है।
कवादिकं हरदजवल्ली संस्पर्शनोद्भवं, वाण पुरवं प्रमेहारि रूपानत पाद एव वा
||२२४॥ यज़यल्ली(हडसंहारी) के छूने आदि से उत्पन्न हुए कड़वे विष प्रमेहहारि (प्रमेह के जख्म) और उपनतपाद (जूते के काटे हुए पैर को ) वाणपुंख्या (सरफोका) ठीक कर देता है। SISTRISIRSIOSITORSPIRIT5७२८ PISODESIRSTPOSSIDDEI
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विक्रियां लसुनोद्वतों तंदुलं प्रशमयेत्तरां,
फलेदुं विकृत्तिं हंति तैल युक्ता हरीत की
॥ २२५ ॥
लहसून से उत्पन्न हुए विकार को चावल ठीक कर देता है। तथा फलेन्दु (राज जामुन ) के विकार को तेल सहित हरीत की (हरड़े) दूर कर देती '
हिंगु विपती दुग्धं सैंधव मूष्णांबुबीज पूरं रुक, जंबु रंग चूत द्रुम कुसुमं माधवी क्ला चहि
॥ २२६ ॥
हींग के विकार में दूध सेंधा नमक गरम जल बिजोरा रूक (कूठ) जामुन ऋग ( काकड़ा ) सिंगी या यत्सनाभ) चूत (आम) हुम कुसुम (आम के वृक्ष के फूल) माधवी (मधु सहत) बला (खरेंटी) हितकारी है।
महावृक्ष विषं हंति पदमन्या मल की फलं, काथे: सायक पुंस्वस्य क्राथो वा मोह विद्विषः
॥ २२७ ॥
महावृक्ष ( थूहर ) के विष को पद्मनी (कमलिनी) आम्ल की (आँवला) का फल सायक पुंखा (सरफोंका) का वाथ या मोह विष दूर करता है।
॥ २२८ ॥
स्नुक संभवानां व्यापतौनीली पर्णा, वटांकुर : विषं च पादुका पाद समुदपेतं परं हितं स्नुक (थूहर ) से उत्पन्न विकारों में नीली के पत्ते और वड़ के अंकुर हितरूप है और यह पैर को जूते द्वारा काटने में भी हितरूप है।
अर्क क्षीरारुणिक्षीर चोचांलु फलजं जलं, तिल मागधिकां गौलिमौषधानि प्रयोजयेत्
॥ २२९ ॥
आक का दूध अरुणिक्षीर (लाल आक का दूध) चोचालू के फल का जल तिल मागधि (पीपल) गौली (चिकनी सुपारी) को औषध रूप काम में लावे |
वैवस्वतेन क्षीरेण दूषिताया हितं द्दशः,
तिलोद्भवेन तैलेन प्राहु: संसेचनादिकं
॥ २३० ॥
विविस्वन (आक) का दूध से विकार होने पर उसको तिलों से उत्पन्न होने वाले तिली के तेल से सींचना हित रूप कहा गया है।
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CS0505510151215215 विधानुशासन 15015TOSDIS95ODI
विषं तिलक संभूतंधूक पणां गुल स्तिलाः, कोलं तकं महं वाशुशंति संमेलनानि
॥२३१॥ तिलक वृक्ष से उत्पन्न हुए विष को चूकपर्णा (चूके के पत्ते) गुल (गुड़) तिल कोल (बेर) तक्र (छाछ) घृत से सींचना चाहिये जो शीघ्र ही विष को नष्ट करता है।
अत्यर्थ सेवनाज्य स्यजायते विकति र्यदि, तदादीनि पचेत् तकं भक्षयेद्रा महोषधं
॥२३२॥ यदि बहुत घृत के खाने से विकार हुआ हो तो उसी समय से इसकी महान औषधि मढे (छाछ) को खाने से यह घृत पच जाता है या सोंठ को खावे ।
तिल तैलोद्भभवां वाधां शमयेत् कृष्ण मृतिका,
टाया गया तिलोत्थेन पिन्या के न प्रशाधिता ॥२३३॥ तिली के तेल से उत्पन्न हुयी बाधा को काली मट्टी और तिलों की खल से सिद्ध की हुयी यवागु शांत करती है।
साधस्कंतं मैरंड़ तैलब्यापदि योजयेत, अंकोल स्याथवा चूर्ण मथवा सुरभे पतं
१२३४॥ एरंड का तेल (इंडोली का तेल) से उत्पन्न हुये विकार को अंकोल (ठेरे) का चूर्ण या गाय के घृत को क्रम पूर्वक लेने से जीत लेता है।
स्वरसं स्त्वेक राजस्य संयुक्त स्तिल जन्मना,
परिपालयितुं शक्तश्शूर्ण पान विकारत ||२३५॥ एक राज (भांगरा) का स्वरस में तिलों का चूर्ण मिलाकर लेने से पान के विकार से रक्षा करने में समर्थ है।
जलं तंदुलिका तीक्ष्णं वदिरःशंख चूर्णजं, विकारं च निरा कुर्वन केवलं वा तिलोद्भवं
||२३६॥ जल तंदुलिका (जल चोलाई) खदिर (कत्थे) के तीक्ष्ण (तेज) विकार को शंख के चूर्ण के साथ लेने पर नष्ट करती है या तिलों का तेल केवल लेवें।
तिल नारंगी क्षणदा चिंचाम्ल भंग पूग मषी, प्रतिकारं पथगेव च प्राहु पीतस्य चूर्णस्य
||२३७॥
CHRISTRASICISCISIO7505७३० PISRIDDISEASOISODOIES
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CTSICSIRISTOT585505 विद्यानुशासन PATRISTOTECISIOTICISH तिल नारंगी हल्दी (क्षणदा) चिंचा(इमली) की खटाई भांगरा के चूर्ण को पीने से या अलग अलग पीने से पूग (सुपारी) के विकार का प्रतिकार कहा गया है।
लावा स्वागद हंति केतकी मूल जं जलं, स यष्टि मधु गंडूषंतु देयुक्तं च चोचकं
||२३८॥ केतकी के मूल से निकले हुये जल और मुलैठी (मघु यष्टि) को मुँह में गंडूष गरारे करने से या चोचक को नाभिमें लगाने से नमक का विकार नष्ट होता है।
सित मद्धी क्रियां सघः प्रतिषेाति टंकणः, जिरा करोति मरिचं वाद्यां विद्रुम संभवां
॥२३९॥ काली मिरच विद्म (मूंगा) से उत्पन्न हुयी बाधा को सुहागा नष्ट करता है जल्दी ही या वेत मृद्धिका (दास) ठीक करती है।
शेत मद्धि लताया यदि तुंग टुमस्य वा क्षीरं,
तिल भव संयुक्ती वा द्वौ प्रशस्यते शिंशया वृक्षः ॥२४०॥ तुंग दुम (नारियल का पेड़) तथा शिंशया वृक्ष (शीशम का वृक्ष) यह दोनों तिली के तेल सहित सफेद मृद्धिका लला (दाख की बेल) के विकार को नष्ट करती है।
वर कीट विषोद्भूत विक्रिया यां शतावरी, मरिय तुंडलीय द्वा चिकित्सित मुदीरितं
|| २४१॥ घरकीट के विष से उत्पन्न हुये विकार को सतावरी काली मिरच और तंदुलीय (चोलाई) चिकित्सा कही गयी है।
नियंति कंकुलोदंबर मूलानि सधत सौवीरी,
रवर भंग विषं कंदोमेह द्विदूक्ष गंधा च ||२४२॥ कंकु (कंगुकांगनी) कोल (बेर) उदंबर मूल (गूलर की जड़) घृत के साथ सौवीर (बेर) की जड़ गदहा
और भौंरा के विष को (कंकोल-शीतल मिरच) उदंबर (गूलर की जड़) सौवीर (बोर की जड़) मेह (अंजीर) और दोनों दूक्ष गंधा गधे और भौरे के विष को नष्ट करता है। (काकोदुंबर अंजीर को कहते
रखरकीट विषोद्भूत वल्सनाभस्य कीटस्ट विकते स्त्रि
फलौषधं षड बिंदु विषं संभूत विक्रित्या यां च सा मता ॥२४३ ।। ಇಡಗುಣಗಳ ಆ38 Vಡಚಣಣಣಣಣಗಳ
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खर कीट के विष से उत्पन्न हुए विकार को तथा वल्सनाभ के विकार को भी त्रिफल (हरड़े बहेड़ा आमला) औषधि है तथा षडबिंदु विष से उत्पन्न विकार की भी औषधि यही कही गयी है।
विषे चराचरेवाश्वगंधा नीली त्रिशूली ना, मेघनादश्व पातल्या प्रत्येकमभिभाषिता
॥ २४४ ॥
स्थावर औ जंगम विष में असगंध नीली त्रिशूलिनी ( सोंठ गिलोय जवासा) यह त्रिकटक है और मेघनाद (चोलाई) के पत्ते प्रत्येक पृथक पृथक रक्षा करने वाली कही गई है।
मूलेत्यक पुष्प पत्राणि शुक पुष्पस्य भक्षयेत, चराचर विषं विष्टा स गोमूत्राणि वा पिबेत
॥ २४५ ॥
शुक पुष्प (सिरस) की छाल पुष्प (फूल) पत्ते मूल (जड़) को खाये अथवा गोबर के रस को गौमूत्र के साथ स्थावर और जंगम विष में खावे ।
गरले चराचरे वा शुद्धं खर्जूर साधितं, दुग्ध नाली फल मध्ये रंड़ लोद्रं मेघ स्वनं च पिबेत्
॥ २४६ ॥
स्थावर और जंगम विष में खिजू दूध नाली फल में सिद्ध किये हुए एरंड पठानी लोध औ मेघनाद (चोलाई) को पीवे । नाली फल (मेनसिल) को कहते हैं।
तदत्रापि यदन्यत्र गारुड़े: कथितं बुधैः,
बाहुल्येन यदचोक्तं तदन्यन्न च विद्यते
॥ २४७ ॥
पंडितों ने गारुड़ी शास्त्र में जिन विषयों का वर्णन किया है उन सबका यहाँ भी वर्णन है और जिस विषय का यहाँ विस्तार से वर्णन किया गया है उसका और कहीं वर्णन नहीं है।
इत्थं चराचर विष प्रभवान्विकारानु दिश्य यः प्रतिविधिं कथितो मोहं,
तं सं विदन गुरु वायु जन प्रभवात् प्रशादान्मंत्री यशः स्थिर तरं भुवने लभेत्
।। २४८ ॥
इस प्रकार जो मैनें स्थावर और जंगम विष से उत्पन्न होने वाले विकारों के प्रतिकारों का वर्णन किया है उसको गुरुजन और बड़ी आयु वालों के प्रभाव और उनकी कृपा से जानता हुआ मंत्री लोक में अधिक स्थिर यश को प्राप्त करता है।
इति मंड़ल्यादि चिकित्सितं विधानं नाम द्वादश समुदेशः
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CARRIERSIOTSIRSARI5 विधानुशासन 950151052151315015 जो कोई पुरुष उस मटिका सर्प के मुख पर मारता है वह खटिका सर्प उसी को डंस लेता है तब दष्ट पुरुष हाथ में इँसने के चिन्ह को देखकर विष की वेदना से पीडित होकर मूर्छित हो जाता है। फिर बुद्धिमान पुरुषउस खटिका सर्प के द्वारा इंसे हुये पुरूष के हृदय कंठ मस्तक और सिर को क्रमशः देखे कि स्तंभन ही है या आँखो को धोखा है। स्तंभन का निश्चय हो जाने पर खटिका में उतारे हुए सर्प पर ॐ क्षां क्षीं इस मंत्र को पढने से वह दष्ट पुरुष विष को छोड़कर भोजन कर सकता है, अथात् निर्दिष हो जाता है।
ॐकों प्रोत्रीं ठः मंत्रण विषं हुंकार मध्येगं जप्त्वा सूर्य दिशांदि लोक्य भक्ष्येत्पूर कांततः ॥ ॐकोंपों त्रीं ठःमंत्रण अलेन मंत्रेण विषं स्थावर विषं कथ भूतं स्थावर विषं कथं भूतोहुंकारःमध्यगं करतलहुंकार मप्टो स्थित विर्ष जप्त्वा कथेतमंत्रेण अभिमंत्र्य सूर्य रविं दिशां अवलोक्य निरीक्षां भक्षोत विष भक्षणं कुयात् पूरक द्योगान || तन्मंत्रोद्वार को प्रोत्रीं ठ इति विषभक्षणा मंत्रः हथेली पर हुं लिखकर उसके अन्दर स्थावर विष को रखे फिर उस विष को ॐ क्रों प्रों त्रीं ठः इस मंत्र से मंत्रित करके सूर्य की तरफ देखकर पूरक योग से विष को खाये।
प्रतिपक्षाय दातव्यंध्यात्वा नील निभं विषंग्लौम्लौंमंत्रयित्वातु ततोघेघेति मंत्रिणा
प्रतिपक्षाय शत्रु लोकाय दातव्यं देयं कि कृत्या प्यात्वा ध्यानं कृत्वा कथं नील निभं नील वर्ण स्वरूपं कं विषां मूल विषं ग्लौ म्लौं ह्रौं ये इति प्रति
पक्षाय नील ध्यानेन युक्त विष दानं मंत्र । मंत्री ग्लौं म्लौं ह्रौं घे घे इस मंत्र से विष को मंत्रित करके उसको नील वर्ण का ध्यान करके शत्रु को देवे।
मुनि हय गंधा घोषा वंध्या कटु तुंविका कुमारी च त्रिकटुक कुष्टंद्रय वा घंति विषं नस्ट पानेन ।।
मुनि अगस्ति हय गंधा अश्वगंधा घोषां देवजाली बंध्या वंध्या ककौटि कटु तुंबिका कटु कालाबुका कुमारी धतकुमारी च समुच्चो त्रिकटुका त्र्यूषण (साँठ मिरच पीपल) कुष्ठत्वकां इन्द्रयवा कुटज बीज पीडा प्रति नाशयति विर्ष स्थावर जंगम विषां नश्यं पानेन एतद औषधानां नश्येन पानेन सर्व विषं नश्यति॥ अगथ्या असगंध देवदाली वाझ ककोड़ा कड़वी तुंबी गवार पाठा सोठ मिरच पीपल कूठ इंद्रजों को सुंघाने या पिलाने से सभी विष नष्ट हो जाते हैं।
SSIOISOISIOTERS/525{७३३ PIDERERISTOTICISIOISOIN
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959695952
विधानुशासन 2596959059695
ॐ नमो भगवती वृद्ध गरूडाय सर्व विष विनाशिनि भिंद भिंद छिंद छिंद गृह गृह एहि एहि भगवती विधे हर हर हुं फट स्वाहा ॥
ॐ नमो भगवत्यादि मंत्रमष्टोत्र शतं पठित्वा क्रोश पटह ताडयेद्दष्ट सभियौ उपरोक्त ॐ नमो भगवती आदि मंत्र को एक सौ आठ बार पढ़कर पटहं (ढोल) को सर्प के काटे हुए के पास बजावे |
धृत्वार्द्ध चंद्र मुद्रां दक्षिण भागेहि दंशिनः स्थित्वा, वदतु तव गौरिं दानीत्तस्कर लोकेन नीतेति ॥
फिर सर्प से काटे हुये के दाहिनी तरफ ठहरकर गौरी अर्द्ध चंद्र की मुद्रा बनाकर कहे कि तुम्हारी गाय को चोर ले गये हैं ।
तं समाहत्य पादेनयाहि त्युक्ते स धावति, उत्थापयति तं शीघ्रं मंत्र सामर्थ्य मीद्धशं ॥
ऐसा कहने पर वह पाचों को समेटकर भागता है, अच्छी जल्दी उठता है। इससे मंत्र की शक्ति दिखाई
देती है।
फणि दष्टस्य शरीरादौ स्वाहा मंत्र तो विषं हत्वा, सो मस्तक ललाटाव द्रुतं मंत्रेण पातयेत् ॥
सर्प से काटे हुए के शरीर से स्वाहा युक्त मंत्र के द्वारा विष को नष्ट कर देने से वह अपने मस्तक ललाट आदि को जल्दी जल्दी गिराता है।
ॐ नमो भगवते वज्र तुंडाय स्वाहा ॥
यह विष नष्ट करने वाला मंत्र है।
विष हरण मंत्र
रक्त नरव द्रुतं पातय पाता ना नर नर नर नर हुं फट घे घे स्वाहा ॥ इति पातन मंत्रः यह गिराने का मंत्र है।
इमामो फट मंत्रेणो उच्चारणात पतति भोगिना दष्टः,
ॐ हामादि फंडतो दष्ट पटाछादनो मंत्र : ॥
ईं आं ॐ फट मंत्र के उधारण करने से (भोजिना) सर्प से काटा हुआ प्राणी गिरता है। ॐ हां फट अंत वाले मंत्र कपडा ढकने का मंत्र है।
७३४
Pse
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PSPSPSPSPSS विद्यानुशासन 9595959595
अथ वक्ष्यामि केषां चिदामयानां चिकित्सितं. सिद्धैर्मत्रैश्च यंत्रैश्च प्रयोगश्च यथा श्रुति
॥ १ ॥
अब शास्त्र के अनुसार सिद्ध मंत्र यंत्र और प्रयोगों से कुछ रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया जायेगा ।
दरोगा द्विविधाः स्युः कृषिमा दोषाः, वातादि दोष विहिताः कृतका विद्वेषि जन जनिता:
॥ २ ॥
वह रोग दो प्रकार के होते हैं एकतो दोषज दूसरे कृत्रिम वात, पित्त, कफ के प्रकोप से होनेवाले रोगों को दोषज और द्वेष करने वाले पुरुषों से उत्पन्न हुए रोगों को कृत्रिम या बनावटी कहते हैं ।
दोषोत्थान प्रति संप्रति विधीयते प्रति विधिर्म्महावेगान्,
कृत्रिम रोगाणां तु प्रवक्ष्यते प्रतिविधिः पश्चात्
॥ ३ ॥
अब प्रथम बड़े वेग वाले दोषज रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया जाता है कृत्रिम, रोगों की चिकित्सा का वर्णन पीछे किया जाएगा।
ॐ नमो भगवते रत्नत्रयाय ज्वर हृदटा मावर्त्तयिष्यामि भो भो ज्वरं शृणु श्रृणु हन हन भद्दे मद्द गर्ज गर्ज पर्दछदं मुंच मुंच सर्व ज्वर आपत आपत वज्र पाणि राज्ञापयति मम शिरो मुंच मुंच कंठं मुंच मुंच उरो मुंच मुंच ह्रदयं मुंच मुंच उदरं मुंच मुंच कटिं मुंच मुंच उरुं मुंच मुंच जंघे मुंच मुंच पादौ मुंच मुंच वज्रपाणिराज्ञापयति हुं फट ठः ठः ॥
,
कृत्वा गुग्गुलना धूपं मंत्रमेतं शुचि जपेत् त्रिसप्त कृत्वा शाम्यति ज्वराः सर्वेऽपि तत्क्षणात्
"
॥ ४ ॥
गूगल की धूप देकर इस मंत्र को पवित्र होकर इक्कीस बार जपे तो सर्व ज्वर उसी क्षण शांत हो जाता
है ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय उग्र चंडी महा चंडी छिंद छिंद भिंद भिंद स्तोभय स्तोभय उच्चाटय उच्चाटय आकर्षय आकर्षय धग धग दिव्य योगिनि ललाटं मुंच मुंच मुखं मुंच मुंच ग्रीवां मुंच मुंच बाहुं मुंच मुंच उपबाहुं मुंच मुंच ह्रदयं मुंच मुंच उदरं मुंच मुंच कटिं मुंच मुंच पृष्टिं मुंच मुंच जंघ मुंच मुंच जानु मुंच च पादौ नवं मुंच मुंच भूमिं गच्छ गच्छ महा ज्वरं हुं फट ॥
एड
59595 ७३५P/596959P5PSPSS
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0501512150151015015 विधानुशासन 850550550552I5DIST
यव कृष्णा चणक सर्षप मारा ताड़ितो ज्वरः क्षिप्त,
उत्तरति मस्त कादिह वृश्चिक पीड़े व चित्रमिदं इस मंत्र को पढ़कर जो सरसौं उड़द को अभिमंत्रित करके मारने से ज्वर उसी वक्त मस्तक से उतर जाता है और बिच्छू के काटे की पीड़ा भी उतरती है यह भी आश्चर्य है ।
ॐभस्मायुधाय विद्महे एक दंष्ट्राय धीमहे तन्नो ज्वरः प्रचोदयात् ॥
गायत्री मंत्र सहस्त्र जाप सिद्धेन मंत्रेणानेन मंत्रिता,
भूतिज्वरित विकीर्णा हरति ज्वरं इस मंत्र को एक हजार जना से सिद्ध करके अभिमंत्रित राख्न ज्वर गले के शरीर पर डालने से ज्वर नष्ट हो जाता है।
मंत्रोयं लिरिवतः पत्रे ज्वरितास्या विदर्भितं, आमुक्तो ज्वरित स्यांगे ज्वरान् नान प्रणाशयेत्
॥७॥ यदि इस मंत्र में ज्वर के नाम को विदर्भित (गूंथकर) पत्र पर लिख कर बांधे तो यह ज्वर वाले के सब प्रकार के ज्वरों को नष्ट करता है।
उष्ण ज्वर भूताना मा वेशो भवति चरण हत,
शीर्षेन्यस्तेः क्रमशो ह्रां ह्रीं हूं वर्णैःरुदय रवि सदृशैः ॥८॥ चरण हृदय और सिर में क्रम से हां ही हू का उदय कालीन सूर्य के समान वर्ण याला ध्यान करके लगाने से उष्ण (गरम) ज्वर के भूतों का आवेशन होता है।
शिरिख भवन स्थाकारं शीत ज्वर दारकं, .
हृदि न्यस्तं केवलमूष्ण ज्वर हरमित्युदितं मंत्रिभिमरव्यैः ॥९॥ अग्नि मंडल के बीच में स्थित आं बीज का हृदय में न्यास करने से शीत ज्यर नष्ट हो जाता है। बिना अग्निमंडल के केवल आकार का मुख्य मंत्र शास्त्रियों ने उष्ण ज्यर को नष्ट करने वाला कहा है।
ॐनमो भगवते गज गज भस्म भस्म ज्वल ज्वल महा भैरव सर्व ज्वर ज्वर विनाशनं कुरु कुरु सिद्ध विसिद्ध हुं फट ठः ठः ॥
अभ्यर्च्य सितैः कसमैः शिव मारष्टमी चतुर्दश्यां,
लक्षं प्रजप्पनं मंत्र नायान्मंत्री ज्वरानश्येत ॥१०॥ CTECISIOSCRISISTRITICIS७३६ 250ISORDCRETARITICIST
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CASRASICISTORTOISODE विद्यानुशासन 1525105505CISION इस मंत्र कोएक लाख जप से सिद्ध करना चाहिये अष्टमी चर्तुदशी को शिवजी का आक के सफेद फूलों से पूजन करके खान करावे तो ज्वर नष्ट होगा।
ॐ नमो भगवते रुद्राय वंद्य वंद्य ज्वर हुं फट ठः ठः ॥
सहस्त्रबार जाप्पेन सिद्धं रौद्र मिदं रह: स्था, शिरवा वंद्यनेनाच ज्वर वंद्य विधायिकां
॥११॥ इस रौद्र मंत्र का एक हजार जप से सिद्ध करके घोटी बांध देने से ज्वर भी बंद हो जाता है।
हंसा वृताऽभिधानं मलवरट षष्ट स्वरान्वित कूट बिंदु युतं स्वर परिवृत मष्ट दलां भोज मध्य गतं
॥१२॥
तेजोऽहं सोम सुधा हंसः स्वाहेति दिग् दलेषु लिरवेत् , आग्रेयादि दलेष्यपि पिंडयत् कर्णिका लिस्थित
॥१३॥
भूजें सुरभि द्रव्यविलिस्ट तत् सिंचयेत् परिवेष्टा, नूतन टाटांबुपूणे तद् यंत्रं स्थापयेत् धीमान्
॥१४॥
तंदुल पूर्ण मन मय भाजनमप्यु परितव्य विन्यिसेत्, तत्पाश्वस्थ जिनाग्नस्थं करोति दाह ज्वरोपशम
॥१५॥
श्री खंडेन तदा लिख्य पायरोत् कांश्या भाजने,
महादाह ज्वर ग्रस्त तत्क्षणादुपशाम्यति ॥१६॥ देवदत्त नाम को हंस पद से वेष्टित करके, उसके बाहर म ल व र य ॐ कार सहित कूट (क्षकार) अक्षर को अनुस्वार सहित लिखे - अर्थात् नाम के बाहर हंस लिखकर उसको दम्ल्यूं लिखे उसके बाहर १६ स्यर लिखे। उसके बाहर आठ दल का कमल बनाये। तेज (ॐ) अर्ह सोम (इवीं) सुधा (क्ष्वी) हंसः स्वाहा इस मंत्र को पूर्व आदि चारों दिशाओं में लिखे, तथा अग्नि आदि विदिशाओं दम्ल्यूं पिंड को जिसे बीच की कर्णिका में लिखा है लिखे। भोजपत्र पर सुगन्धित द्रव्यों से इस यंत्र को लिखकर, मोमिया कपड़े से लपेट कर, उसको मिट्टी के नये घड़े में स्थापित करके, पानी से भर देवे। यंत्र को पानी से सींच देवे उसके ऊपर मिट्टी के बर्तन में चावल भरके रख देवे उसको पार्श्वनाथजी जिनेन्द्र देव के सामने रखने से दाह ज्वर को शांत करता है। अगर इस यंत्र को कांसी की थाली मे चंदन से लिखकर पिलावे तो बहुत ही तेज चढ़ा हुआ ज्वर उसी क्षण शांत हो जाता
है।
SISTRISTRISRTISIRIDIOSITI७३७P8510505CITIERRISOTES
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C5250
統
विधानुशासन ぐらでたらめぐりで
रं रं रं
tttt
ररं रं रं
साध्या रख्या सुत पुंच्छं झौं संयुतं मूर्द्ध पंच कोपेतं, चत्वा रिशंत्पुट मय तनु महिमा लिख्य कोष्टेषु
लिख वज्र श्रृंखलाया वर्णानवरोहेणेन पंच तथा, आरोहणेन यंत्रं ज्वर ग्रहादीन् जयेत् सर्व
॥ १७ ॥
11 82 11
ॐ नमोरत्नत्रयाय वज्र श्रृंखलाय अग्रि प्रकार दर्शनाय तिष्ठ तिष्ठ बंटा बंध महा बंद्य महा बंध ठः ठः ॥
वज्र श्रंखला मंत्रोयं
टांत वकार प्रणमन जांताऽर्द्ध शशि प्रवेष्टितं, नाम शीतोष्ण ज्वर हरणं स्यात्ष्ण हिमांबु निक्षिप्तं
यह वज्र श्रंखला मंत्र है।
सर्प की पूंछ में साध्य के नाम को लिखकर पांच घुमाव देकर सिर में झौं बीज लिखकर फिर उसके कोठों में चालीस पुछमय महिमा को लिखे। उनके कोठों में वज्र श्रंखला मंत्र को पांच पांच वर्णों की चढ़ाव च उतार के क्रम से यह मंत्र सब ज्वरों और यह आदि को जीतता है। (यंत्र१ यहाँ पर है)
॥ १९ ॥
टांत (ठ) वकार (व) प्रणमन (ॐ) जांता (झ) के बाहर आधे चन्द्रमा से वेष्टित करे। यह नाम सहित शीतल जल में रखने से उष्ण ज्वर को नष्ट करता है और गरम जल में रखने से शीत ज्वर नष्ट करता
है।
PSPSP59 959595/ ७३८P58959695959595
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4501501505DISTRICT विधानुशासन 950505505051955
नाम
नाम समेत सभेदं टातेना वेष्ट्रा षोडश कलाभिः, लांतं भतया तं च प्रवेष्टोत् व्योम बीजेन
॥ २०॥
तत्वाट केन वेष्टा तस्य वाहिश्चंद्र मंडलं विलिरटोत्, एतन् मलयज लिप्तं यंत्र पूर्ण राटे स्थाप्यं
॥२१॥
शीतं ज्वरं निहन्यात् शीते घारिणि विधाय कृत पूज्यं,
एतद् यंत्रं शीते वारिण युष्णा ज्वरं हरति ॥२२॥ नाम सहित रोग के भेद को टांत (ठ) से येष्टित करके फिर सोलह कलाओं (स्वरों) से वेष्टित करे फिर उसको क्रम से लांत (व) और भक्तया (ॐ) से घेर दे तथा आकाश बीज (ह) से वेष्टित करे फिर आठों तत्वों द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः आंक्षा क्रों से नाम को येष्टित करके उसके बाहर चंद्र मंडल लिखे। इस यंत्र को चंदन से लपेटकर जल से भरे हुए घड़े में स्थापित कर देवे । इस यंत्र को गरम जाल में रख कर पूजन करने से यह शीतल ज्वर को नष्ट करता है तथा इसको शीतल जल में रखने से उष्ण ज्वर को नष्ट करता है। CHOTSCIRCISIODICI5015७३९PI501505CISISTERISTORY
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SASICISIOTICISIOISTRICT विद्यामुशासन HSDISCISIOTICISIONSI
1 ॐ
ज । श्रृं। दार्श
। बं ।
५।
ठ । न
नरख ।
ना 1 घाय। घ। मो। य
ल1 का। चावा हा।।
-
1 प्ता। ति । ष्ट्र 1 वाहा ।। अनि
। ष्ट । नि । थ । म। देवदत।
लांतं टांत वहि: स्वर प्रणमणं जांतं विद्योमंडलं, मध्ये नाम विलिरव्य तज्वर जलेसंक्षिप गंधांन्वितै ॥२३॥ शीते चोष्ण जलेसचोष्णामपि तत् शीते जलेन
क्षिपेद हद्भाष्यमिदं महा ज्वर हरं यंत्रं सुरेंद्रार्चित ॥२४॥ बीज में नाम लिखकर लांत (व) टांत (ठ) से फिर बाहर स्यरों फिर प्रणमण (ॐ) फिर जांतं (झ)
और चंद्र मंडल से वेष्ठित करे। यह यंत्र चंदन युक्त शीतल जल में रखने से यह उष्ण ज्वर को नष्ट करता है तथा उष्ण जल में रखने से शीतल ज्वर को नष्ट करता है। अरहंत भगवान के समान भावना पूर्वक कहा हुआ यह ज्वर हर यंत्र देवेन्द्र से भी पूजा जाता है।
*
*
7ए
१ ओऔर
ලසකලකල ලලල ලා කටටමකට ලක්
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CHRISIOSISTERISTR5 विधानुशासन V5050150151015OTES
वानरस्य मुखं घोरमा दित्य सम तेजसं,
ज्वर में कांत मुष्णं स्यात् नामांतरितमालिरयेत ॥२५॥ सूर्य के समान तेज याले यानर के घोर मुरम को नाम के अक्षरों से घिरा हुआ लिखने से यह इकांतरा बुखार उष्ण ज्वर पूर्ण रुप से हो जाता है।
क्षि
मास
पथ्वी मंडल मध्ये यंत्र प्रचिलिरख्या दर्शयेत,
तस्या नाशयति ज्वरमथवा रक्षा मणि वंयनात् शीघं ॥२६॥ पृथ्वी मंडल में यंत्र को लिखकर दिखाने से तथा रक्षा मणि (कलाई) पर बांधने से ज्वर शीघ्र नष्ट हो जाता है।
ब्रह्मा वृतं नाम हिरण्या रेतःपुरं तथा संपुटितं विलिरव्य,
कोष्टां तराग्रेग्नि गजेंद्र वश्यं त्रिवायुवेष्ट्रां ज्यर नाशकारि ॥२७॥ ब्रह्मा (ॐ) से घिरे हुए नाम को अमि मंडल के संपुट में लिखकर उन मंडलों के अन्दर अग्नि (ॐ) और बाहर गंजयशकरण बीज (क्रौं) लिखकर सबके बाहर तीन यायुमंडल बनाये तो यह ज्वर नष्ट करने वाला है।
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STRICISIOSI2I505055015७४१VERSIODSEISIRTERSION
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CAPSPSPX
विधानुशासन /59595959595
वन्हि मंडल मध्यस्थं नाम प्रणव संपुट कृत्वाभ वशकृर्द्वर्णान्नष्ट दिक्षु नियोजयेत् बाह्ये वह्नि पुरं दत्था लिखित्वा रोचनादिभिः, वेष्टियित्वाऽथ सूत्रेण वधीयात ज्वर वैरिणां अफ्रि मंडल के बीच में ॐ के संपुट में नाम लिखकर आठों दिशाओं में गजवशकरण (क्रौं) वर्ण को लिखे। फिर बाहर अग्रि मंडल को गोरोचन आदि से लिखकर इस यंत्र को धागे से लपेट कर बांधने से यह ज्वर के शत्रु का काम करता है ।
॥ २९ ॥
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॥ २८ ॥
पंचम वर्गा चतुर्थं तू स्वर बिंदु संयुक्तं, बीजं एकांतरमुग्र ज्वरमपहरति करे निबद्धं चेत् पंचम वर्ग (त वर्ग) के चौथे अक्षर (घ) को चौथे स्वर (ई) और बिंदु सहित लिखकर हाथ में बांधने से यह एक दिन के अंतर से आने वाला उग्र ज्वर को नष्ट करता है ।
113011
शिव भवने स्वीकार शीत ज्वर धारकस्य हृदि न्यस्तं, केवल भूषण ज्वरित मित्युदितं ज्वालनी कल्पे शीत ज्यर वाले पुरुष के हृदय में अग्रि मंडल के अन्दर स्थित इवीं को लिखने से वह गरमी से जलने लगता है ऐसा ज्वालामालिनी कल्प में कहा गया है।
1132 11
चूर्णेन पत्रे किल नागवल्या स्तेजोंकुश त्र्यंग धराक्षराणि, विलिरव्य पुंगैस्सह भक्षणेन सर्व ज्वरो नश्यति पश्य चित्रं ॥ ३२ ॥ नागर बेल के पान के पत्ते पर चूर्णे से तेज (ॐ) अंकुश (क्रौं) और त्र्यंगधर (ह्रीं) को लिखकर सुपारी के साथ खाने से सब प्रकार के ज्यरो को नष्ट करता है इसके आश्चर्य को देखो।
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P15 ७४२ ららららゆったり
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CTERISTOTRIOTECISIO5 विद्यानुशासन BASICISTRIEDISSISTRISH
वंदा को विल्व भवस्त क्रेण पतेन या प्रगे पीतः,
विषम ज्वर विकृति शमयति निश्शेषमपि विषमं ॥३३॥ बेल के पेड़ के बांदा को (या गोंद) को मढे या घृत के साथ प्रातःकाल के समय पीने से वह सब प्रकार के विषम ज्वरों के विकारों को शान्त कर देता है।
मूल भुजादौ वघ्नीयाळगया:सुरतस्य चं, तेनोपद्रव युक्तोपि हन्यते द्वयाहिको ज्वरः
॥३४॥ वड्ठा (कपास या बेगण) तथा तुलसी की जड़ को भुजा आदि में बांधने से दूसरे दिन आने वाला उपद्रवी बुखार को भी नष्ट कर देता है।
हय गंधा शुंठया भया गृह धूम धाव निर्मितो धूपः,
चातुर्थिक हरे ज्वरमातुर शटानीय निकट गतः ॥३५॥ असगंध सोंठ हरड़े गृह धूम और बच की बनी हुयी धूप थारपाई के निकट देने से घोच्या बुखार नष्ट होता है।
पुरु पूंगच्छदौ वहिणाशीतेन शशिनौ हतः,
प्रधूपं तत्क्षणा देएव नस्या चातुर्थ ज्वरं पुरु (गूगल) पूंग (सुपारी) छद (पत्ते) वर्हि शीलेन (मोरके पंख्य) शशि (कपूर) की धूप देने से चोथिया ज्वर उसी क्षण नष्ट हो जाता है।
हिंगु ग्रालि कणा राजि रसोनोषणा बालकः, रात्रया च गुलिका सर्व ज्वर भूत हदं जनात्
||३७॥ हींग उना (वच) अलि (भंग) कणा (पीपल) राजी (राई) सरोन (लहसुन) उष्णा (काली मिरच) बालक (नेत्रबाला) और रात्र्या (हल्दी) इनकी गोली बनाकर आँख में अंजन लगाने से सब ज्वर और भूत नष्ट हो जाते हैं।
सहदेवी शिफा बद्धा श्वेत सूत्रेण कन्यया, निहंति दक्षिणे पाणौ ज्वर भूत ग्रहादिकं
॥३८॥ सहदेवी की जड़ को सफेद धागे से जो कन्या के द्वारा काटा गया हो दाहिने हाथ में बांधने से ज्यर भूत और ग्रह आदि नष्ट होते हैं।
OT501512151PISTOT512151015७४३ 157005215IOTSTORISION
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959695959PS विधानुशासन 9595959526
मंदार मूलं पुष्पार्क गृहतिं सांतये ज्वरान्, कर्णे बहरत्या श्रु दुस्सहोपद्रवानपि
113811
मंदार (आक) की जड़ को पुष्प नक्षत्र और इतवार के योग में लाकर कान पर बांधने से वह बड़े भारी उपद्रवी ज्यरों को भी नष्ट कर देता है।
हस्तापाताकरे वद्धा पामार्गस्य शिफा ज्वरान्,
रकक्त स्वत्रवृता हंति दुर्बायावा शिफा स्तथा
1180 !!
अपामार्ग (चिड़चिटा - आंधीगडा) की जड़ तथा दुर्बाया ( दूब) की जड़ को हाथ से उखाड़कर लाल धागे से लपेट कर हाथ में बांधने से सब ज्वर नष्ट होते हैं ।
ज्वरस्य एरंड विल्वयोर्मूलं वचा रामठ सैंधवं. शुंठी च कविता पीता शीतकार्ति विनाशिनि
॥ ४१ ॥
एरंड़ और बेल की जड़ वच रामठ (हींग) सेंधा नमक सोंठ के काथ बनाकर पीने से शीत (जाड़े) का कष्ट नष्ट हो जाता है।
स्था स्न्वाद्यमंतरालं द्वं द्वे पार्श्वे च मध्ये च, विभ्राणमग्रि गेहे त्रितयं न्यस्यैक परिपाटग्रा
स्थापणु (ख) आदि बीज को अंतराल दोनों ओर मध्य में लिखकर एक परिपाटी से तीन अग्नि मंडल लिखे ।
पिंड़स्य वाम पार्श्वे तस्याधोधः क्रमेण पूं युच. मध्य गतस्य तद्वत भक्ति स्तारोथ योगिनः पंच
॥ ४२ ॥
उर्द्ध वकार मं कं प्रविलिख्ा ततो वहि स्तेषां उपरि प्रणवा वामं पुराणमपि बंधु समुपेतं
॥ ४३ ॥
|| 88 ||
तारो विमल विविक्तौबिंदु युतौ त्रीणि चापि, तेजांसि विलिद यंत्रं धृत मिदमपहरति मसूरिकादि रुजः
।। ४५ ।।
पिंड की बाई ओर नीचे और बीच में पूं युं से प्रशंसित भक्ति (ॐ) तार (ॐ) और पाँचों योगिनियों को लिखे । ऊपर वकार के चिन्ह (अक्षर) को लिखकर उसके बाहर की तरफ ऊपर ॐ (प्रणव) याम (आ) पुराण (फ) और बंधु ( प्राणिधि-स) को लिखे । तार (ॐ) विमल (ब) विविक्त (भ) बिंदु やったらどうやらこちらに
ちにちにちにちどちらにす
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2595195951957 विद्याभुशासन 9595952959595
(अनुस्वार) सहित तथा तीन तेजांसि रोज ॐ ॐ ॐ को लिखे। इस यंत्र को धारण करने से मसूरिका ( मसुरी - माता की बीमारी का रोग दूर होता है। रुजः (बीमारी)
उत्तर हरिति जटार्क पिष्टी ज्येष्टां बुना, पीता हरति मसूरी मथवापान पर्णेद के पीते
॥ ४६ ॥
जटा (जटामासी बालछड़) अर्क (आक) की पिट्टी को ज्येष्टा (राजेष्टा केला) के अंबु जल में पीने अथवा पाठा लता के उदक (जल) को पीने से मसूरिका उतर जाती है ।
क्षीरी श्रृंग रुजो शीर यष्टि गोपी हिमोत्पलैः,
स्यादूर्वा स्वरसे सिद्धं सर्पिः सर्व विसप्प नुत
॥ ४७ ॥
क्षीरी ( ) श्रुंग (काकड़ासिंगी) रुज (बीमारी) को उशीर (खस) यष्टि (मुलहटी) गोपी (श्यामलता) हिम (चंदन) उत्पल (नीलोफर) दब के रस में सिद्ध किया हुआ घृत सब विषों को नष्ट कर देता है ।
साध्या साध्यं परिज्ञायत द्रूपं च विशेषतः, मंत्र तंत्र प्रयोगेन नये ज्याला खर क्षयं
॥ ४८ ॥
साध्य और असाध्य तथा विशेष रूप से उसके रूप को जानकर मंत्र और तंत्र के प्रयोग से ज्वाला गर्दभ रोग को नष्ट करे ।
प्रथमं कपिलो नाम द्वितीयो गौर उच्यते, तृतीयो मृत्यु कालश्च चतुर्थः पिंगलो भवेत्
विजय : पंचमो ज्ञेयः षष्टस्तु कलहो प्रियः, सप्तमः कुंभकर्णः स्यादष्टमपि विभीक्षण:
॥ ४९ ॥
25 ७४५
॥ ५० ॥
॥५१॥
नद्यमश्चंद्र हासः स्यादश्मोपि च दुर्द्धरः, एतेः दश विधा लोके ज्वाला गर्दभ संज्ञिनः पहला कपिल, दूसरा गोर, तीसरा मृत्यु काल, चौथा पिंगल होता है पांचवाँ विजय, छठा कलह प्रिया, सातवाँ कुम्भकर्ण, आठवां विभीषण होता है, नवाँ चंद्रहास, दसवाँ दुर्द्धर होता है। लोक में ज्वाला गर्दभ के दस प्रकार के नाम है ।
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252525252595 Dungqueta YSUSESYSES95.
कपिलो जायते कुक्षौ पृष्टे गौरति तीव्रकः, मृत्यु कालो भवेत्संधौ शीर्ष पिंगल संज्ञिकः
विजयो जायते नेत्रे जंधादौ कलह प्रियाः, कुंभकर्णी भवदुह्ये वृषणे च विभीषणः
पीत मंडल सादृश्या सशोष दाह विधायिनः, वर्धते प्रत्यहं ते च मुख तेषानं दृश्यते
ह्रदये चंद्रहासः स्यादपुर्द्धरो बदने भवेत्, उत्पत्तिस्थानकं प्रोक्तं ज्वाला गर्दभ संज्ञिनां ॥ ५४ ॥ कपिल कोख में और अत्यन्त तीव्र, गौर पीठ में मृत्यु, काल जोड़ में और सिर में पिंगल होता है। विजय आंख में, कलह प्रिया जंघा आदि में कुम्भकर्ण गुप्त अंग में और विभीषण अंडकोष में होता है। चंद्रहास ह्रदय में और दुर्धर मुख में होता है यह ज्वाला गर्दभ रोग के निकलने के स्थान कहे गये हैं ।
रांड चर्म्म रक्तेन कुर्यात् कर्पूर संयुजा, छिंद्यादगर्दभमालेख्य मंत्रेणानेन भूतले
॥ ५२ ॥
॥ ५३ ॥
पृष्ठे जातस्य गौरस्य तीव्र दुख विधायिनः, नास्ति तस्य प्रतिकारी मंत्र तंत्र समुद्भवः
॥ ५५ ॥
ॐ नमो भगवते पार्श्व चंद्राय छिंद छिंद चंद्रहास खडगेन जिन वचनमनुस्मरामि || पूर्वाभिमुख मालिख्या खरं खटिकया, पुनः कृते तस्य शिरच्छेदे ज्वाला गर्दभनाशनं
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॥५६॥
॥ ५७ ॥
वह पीले मंडल के समान गोल और शोष (सूजन) और जलन करने वाले प्रतिदिन बढ़ते रहते हैं । उनका मुख भी दिखलाई नहीं देता है। गधे के अंडकोष चमड़े और रक्त में कपूर मिलाकर निम्नलिखित मंत्र के द्वारा गर्दभ को देखकर पृथ्वी में लिखकर उसके सिर को छेदे ।
ॐ नमो भगवते पार्श्व चंद्राय छिंद छिंद चंद्रहास खड्गेन् जिन वचनमनुस्मरामि ।। गधे की आकृति खड़िया से पूर्व की तरफ मुह किया हुआ लिखकर उसके सिर को छेदने से ज्याला गर्दभ रोग नष्ट होता है।
॥ ५८ ॥
59595 ७४६ PSP5969595955
६
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PSPSPAPSPSS विधानुशासन 151
तीव्र
'दुख देने वाले गौर के पीट में निकलने पर उसकी मंत्र और तंत्रों से कोई भी चिकित्सा नहीं हो सकती है।
सर्वांग संधि जातस्य मृत्यु कालस्य भेषजं, न किंचिद्विद्यते योग्यं नास्ति मंत्रस्य कश्चन :
।। ५९ ।।
अंग के सब जोड़ों में उत्पन्न होने वाले मृत्युकाल की न तो कोई औषधि ही है और न कोई मंत्र है ।
पिंगल स्पौषधं देयं शीर्ष देशा व लंविनः, अर्क मूलं प्रियंगुश्च नाग केशर कुंकुमः
पिष्टवा तंदुल तोयेन पाने लेपे प्रयोजयेत्, छिंद्याद्रर्दभमालिख्य मंत्रेणोत्तर दिग्मुखं
॥ ६१ ॥
ॐ नमः पार्श्वनाथाय घर घर विध्वंशय विध्वंशय छिंद्र छिंद तीक्ष्ण हस्त स्थगेन् रेन् ॥
सिर में निकलने वाले पिंगल की औषधि न बिना विलम्ब के दें। आक की जड़ फूल प्रियंगु और नागकेशर और कुंकुंम (केशर) देनी चाहिये। इन औषधियों को चावलों के पानी के साथ पीसकर पिलावे । इन्हीं का लेप भी करे और मंत्र को पढ़ते हुए उत्तर की तरफ मुख वाले गर्दभ को लिखकर उसके सिर को छेद डाले ।
नेत्रस्थ विजय स्येदं देयं तंत्र प्रलेपनं, करवीर सन्मूलं पिष्ट्वा तंदुल तोयतः
॥ ६० ॥
कुर्यादनेन मंत्रेण पश्चिमाभि मुखं खरं, लिखित्वा शिरश्छेदं ततः खटिकया भुवि
॥ ६२ ॥
॥ ६३ ॥
ॐ नमो भगवते पार्श्व रुद्रया ज्वल ज्वल छिंद छिंद सुदर्शन ज्वाला माला सहस्ताया ॥
नेत्र में होने वाले विजय के ऊपर निम्नलिखित तंत्र का लेपन करे। कनीर की जड़ को चावलों के पानी में पीसकर लेप भी करे। इस मंत्र से पश्चिम की तरफ मुख वाले गधे की आकृति खड़िया से बनाकर उसके सिर को छेदे ।
जंयादि स्थान जातस्य कलह प्रिय संज्ञिनः, उदंबर समुद्भूत प्ररोहश्चंदनं तथा
PAPSPSPSPSPPS ७४७ PSP595959595
।। ६४ ।।
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95590595151 विधानुशासन DPSPS
धूप लेपन पानेन कुर्य्यात् तद् दाह वारणां, मंत्रेणानेन तं विद्याद्दक्षिणाभिमुखं वरं
॥ ६५ ॥
ॐ नमो भगवते जिन रुद्रया जिन वसुदेवाय शंख चक्र मुद्गर हस्ताय वन माला घर देहाय सुदर्शन चक्रेण छिंद छिंद नमः स्वाहा ||
आदि स्थानों में निकलने वाले कलह प्रिया का गूलर में उत्पन्न हुए अंकुर और चंदन की धूप देने लेप करने और पिलाने से कष्ट कूर करे और इस मंत्र से दक्षिण की तरफ मुँह वाले खर का सिर छेद डाले।
गुह्यस्थ कुंभकर्ण स्टो मंत्रं तस्य नियोजयेत्, लवग तगरं कुष्ट पिष्ट्वा गोमूत्रतस्ततः
पान लेपन दानेन सुखं भवति तत्क्षणात्, खटिका छेदनं कुर्य्यात् याम्यानि च गर्दभं
देयं विभीषणस्येदं मंत्र तंत्र समुद्भवं, हरामूत्रेण संघिष्टं मृग विष्टा प्रलेपनं
॥ ६६ ॥
ॐ नमो भगवते जिनेन्द्राय छिंद छिंद चंद्रहास खड्गेन स्वाहा ॥ गुप्त स्थान में होने वाले कुंभकर्ण पर मंत्र का प्रयोग करे, तथा लौंग तगर और को गौमूत्र कूठ में पीसकर पिलाने और लेपन से करने उसी समय शांति हो जाती है मंत्र से दक्षिण की तरफ मुख वाले खड़िया से लिखे हुए गर्दभ का छेदन करे ।
लिखित्वा गर्दभं पश्चात् पूर्वाभिमुख संस्थितं, कुर्यान्मंत्रेण शीर्षस्य छेदनं तस्य मंत्रवित्
।। ६७ ।।
॥ ६८ ॥
॥ ६९ ॥
ॐ नमो जिनरुद्राय महाकालाय कडु कडु छिंद छिंद चंद्रहास खड्गेन स्वाहा ॥ अंडकोष के विभीषण के लिये मंत्र और तंत्र से उत्पन्न हुए हिरण की विष्टा को घोड़े के मूत्र में पीसकर लेप के वास्ते देवे। फिर मंत्र को जानने वाला पूर्व की तरफ मुख वाले गर्दभ को लिखकर मंत्र से उसका सिर छेदन करे ।
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9595 ७४८ PSP5959695905
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CASTOTRICISTORICISIS विधानुशासन VSTOROTECTRICISE
चंद्राहासस्य दातव्यमौषधं हदि दारिणः, कूष्मांड बीजमापेमछाग क्षीरेण लंपात्
॥७०॥
तत्क्षणात् प्रसरस्तस्य दाह शोषश्च नश्यति, लिरिवत्वा गर्दभ तस्य यायव्यां छेदयेत् शिरः
॥ ७१॥
इति वापाठ
ॐ नमो जिन रुद्राय हन हन छिंद छिंद चंद्रहास रखगेन स्वाहा।। हृदय में निकलने वाले चंद्रहास के लिये कूष्मांड (कोल्ह) के बीजों को बकरी के दूध मे पीसकर लेप करने के वास्ते देवें। इससे उसका निकलना जलन और सूजन उसी समय नष्ट हो जाती है। वायव्य (पश्चिमोत्तर) कोण की तरफ मुख्य किये हुए गधे की आकृति को भूमि पर यड़िया से लिखकर उसके सिर को मंत्र पढ़ता हुआ छेद डाले।
दुद्धरस्टास्ट जातस्य दातव्यं तंत्रमुत्तम, मातुलिंगस्य बीजानि प्रियंगु रजनी द्वयं
॥७२॥
मंजिष्टा कुंकुमो शीरं कौ_भं केशरं तथा, पिटवा क्षतां भसालेपेनोपशाम्यति दुर्द्धरः
॥७३॥
मंत्रेणानेन छिया लिरियत्वाधो मुरवं रखरं, जप्तत्या त्रिसप्त वारांश्च दद्यान्मधुर भोजन
॥७४॥
ॐनमो भगवते रुद्राय दिलिंद चंद्रहास स्वइगेन ये ये समन्विताय हुं फट ठः ठः
ठः ठः ॥ मुख में दुर्धर के निकलने पर उत्तम तंत्र देये (मातुलिंग)। विजोरा के बीज फूल, प्रियंगु, दोनों हल्दी (हल्दी और दारु हल्दी) मंजीठ, कुंकुम, उशीर (खस) कुसुभा केशर, तथा चावलों को (अभंसा) जल में पीसकर लेप करने से दुर्घर उसी क्षण शांत हो जाता है। नीचे को मुख किये हुए खर को लिखकर छेदे और इस मंत्र को २१ बार जप करके पीछे मधुर भोजन देवे ।
ॐनमो भगवते रुद्राय छिंद छिंदचंद्रहास वनर्यये समन्विताय हुं फट ठः ठः॥
ST5101512152518151315105[७४९ P15101501505055015105
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9595959595151 विधानुशासन P55
जलधारा प्रदातव्या मंत्रयित्वा जलं पुरा, मंत्रणानेन सर्वेषां ज्वाला गर्दभ संज्ञिनां
॥ ७५ ॥
इस मंत्र से जल को अभिमंत्रित करके सभी ज्याला गर्दभो को जल धारा देनी चाहिये ।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय कमठ दर्प विध्वंसनाय धरणेंद्र फणा मणि ज्वाला प्रभावनाय अस्य गर्दभस्य शिरः छिंद छिंद गतिं छिंद छिंद मतिं छिंद छिंद हस्तौ छिंद छिंद दिश: छिंद छिंद विदिशः छिंद छिंद संकीर्तनाय स्वाहा ॥ मूल मंत्र:
विधाय गंध पुष्पा मंत्रणानेन पूजनं, खटिकोत्कीर्ण रूपस्य पश्चात् छेदनमारभेत
एक
॥ ७६ ॥
इस मंत्र के द्वारा गंध पुष्प आदि से पूजन करके फिर खड़िया से उसका रुप बनाकर उसका छेदन का कार्य प्रारंभ करे ।
ॐ नमो भगवते जिन पार्श्व रुद्राय गंध पुष्प दीपं धूपं गृन्ह गृह मुंच मुंच मानुषं
स्वाहा ॥
अथवा तेन मंत्रेण गर्दभस्या शिरः पुनः मंत्रमुच्चाटय ऐदये द्विधि नासदा
|| 199 ||
अथवा मंत्री उस मंत्र से इस मंत्र को बोलकर गर्दभ के सिर को फिर मंत्र बोलकर विधि के द्वारा हमेशा छेदे ।
ॐ नमो भगवते जिन पार्श्वनाथाय रुद्राय जित हरि हर हर पितामह प्रभावेण हंता लंका रामेण रावणस्य शिरो यथा छिन्नं तथा गर्दभस्य शिरषु छिंद छिंद ठः ठः गर्दभ शिर छेदन मंत्र:
सप्त वारान् जलं जप्तत्वा देयं घोणस विधया, प्रत्यहं रोगिणां पांतु मंत्रिणा शुद्ध चेतसा
|| 192 ||
घोणस मंत्र के द्वारा जल को सात बार अभिमंत्रित करके प्रतिदिन शुद्ध चित्त से रोगी को पीने के
लिये देये । CSPPA
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こちらこ
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I
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51 विधानुशासन 9595959519xse ॐ नमो भगवते श्री घोणस हरे हरे चरे चरे तरे तरे वः वः बल बल लां लां रां रांरीं रीं के के रौं रौं रः रः रस रस लस लस क्ष्मां क्ष्मीं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः नमः श्री घोणसे घय घय स स स स स ह ह हह ह व व व व व 555 5 5 द द द द द ठः ठः ठः ठः ठः गगगगग वर विहंग भुजे क्ष्मां क्ष्र्मी क्ष् क्ष्मों क्ष्मः ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्र: ह्रीं शोषय शोषय रोषटा रोषय ॐ आं क्रौं ह्रीं इवीं क्ष्वीं हः जः जः जः ठः ठः ठः श्री घोणसे नमः ॥ इदं वा
ॐ नमः श्री घोणसे रस रसक्षां क्षीं क्षं यं सः यं सः
क्षं
हरे हरे वरे वरे वः वः वः वल वल वल लां लां रांगंरींरींरों रों वीं क्ष्वं हं हां भगवती श्री घोणसे घघवघवघवयंसः यं सः घंसः यं सः यं सः सहः सहः सहः सहः सहः सहः सहः सहः हः वः स्व क हः यः स्व क हः वः स्वक हः वः स्व क हः वः स्व क हः वः स्व क हः वः स्व क हः वः स्व क हः वः स्व क क ड क
सः
ङकङकङ कङ कङ कङ क ङ ङ ङ ङ ङ ङ ङ ङ ङ वगः वेगः वगः वगः वगः
वर्ग: वर्गः वर्गः वर वर वर वर वर वर वर वर स्वविहंगम भुजे क्ष्मां क्ष्मीं मूं क्ष्म क्ष्मः वैरि स्तोभद्य स्तोभय ॐ ठः ठः ग ग श्री घोणसे स्वाहा ॥
ज्वाला गर्दभ विस्फोट लूता स्फोडट भगंदराः, शाकिनी विष रोगाश्च नश्यत्यस्य प्रभावतः
॥ ७९ ॥
इस मंत्र के प्रभाव से ज्याला गर्दभ फोड़ कान खजूरे का फोड़ा भगंदर शाकिन्या और विष के रोग नष्ट होते हैं।
निग्रहं भूत शाकिन्योः कुर्यात् घोणस विधया, अभिमंत्रित गृहे क्षिप्तै सिद्धार्थैरहि चालनं
॥ ८० ॥
घोणस मंत्र के द्वारा भूत और शाकिन्या नष्ट हो जाती है तथा इस मंत्र को सफे द सरसों पर पढ़कर उनको घर में डालने से सांप घर से भाग जाते है।
अनि दग्धे वृणे लिंपेत् कुंभि सारं सुपेषितं, क्षीरेण तत्क्षणादेव हानि हस्य जायते
॥ ८१ ॥
कुंभ सार (गूगल) को दूध में पीसकर अग्रि से जले हुए जख्म पर लेप करने से उसकी जलन उसी समय नष्ट होजाती है ।
सुप्रकाशु मना पुत्र का विश्व लेपिका ठः ठः ॥
0505050/50/50505L1505PSP
25PSPS
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51015RISTOTRIOSIO5 विधानुशासन VIDIST525CSCIEN
दुर्गा मंत्रश्चायं ग्रंथ्यादि हरेत् सहस्त्र जप सिद्धं आबद्धं तज्जत हस्तेऽपमार्ग मूलं च
||८२|| यह दुर्गा मंत्र एक हजार जप से सिद्ध होता है। इस मंत्र से चिट चिटे की जड़ को अभिमंत्रित करके हाथ में बांधने से गांठ आदि दूर होती है।
हरीतकी शिगु करंज भास्वत पुनर्नवा सैंधवमश्च मूत्रैःपिष्टै:,प्रशस्तैः पिटिकाः सुलेपो ग्रंथ्या व पच्या माप विद्रुतौ च
।।८३॥ हरीत की (हरड़े) शियु (सहजना) करंज भास्वत (आक) पुनर्नवा (साठी) सैंधव नमक को घोड़े के मूत्र में पीसकर पिटिका (मसरिका) पर लेप करने से न पकने वाली गांठ को भी शीघ्र ही गला देती है।
लाक्षा त नप भूरुह रजनि रजो मिश्च वसन,
सकल कृता वर्ति वणेषु दत्ता शोधन रोपण परा भवति ।। ८४ ॥ लाख घृत नृप ( ) भूरुह (पेड़) रजनि (हल्दी) के चूर्ण को मिलाकर बनाई हुयी कपड़े की बत्ती को घाव पर रखने से.उसका कष्ट दूर होता है तथा घाव को शोधन और भर देती है।
निगुड़ी पत्र रसे लांगलिका कल्क संयुते सिद्ध,
तैलं हन्यादाश गल गंड गंड़ मालां च ॥८५॥ निर्गुडी (संभालू) के पत्तों का रस में लांगली (कलिहारी) के कल्क को मिलाकर तेल सिद्ध करने से गलगंड और गंडमाला को शीघ्र ही नष्ट कर देता है।
दुर्वायाः स्वर मंजरयाः सोम राज्याश्च पल्लवैः, वयाति वंध्नां क्षुणैःवणे शोणित निस्ति
॥८६॥ दूब खर मंजरी (चिरचिटा) सोमराजी (बावची) के पत्तों को पीसकर बांधने से घाव से बहता हुआ रक्त तुरन्त ही बन्द हो जाता है।
तिल भल्लातक पथ्या चूर्णो गुड़ मिश्रितो जयेल्लीठः
कुष्टं शशिरेरवा वा सह कृष्णा शिलाष्टमुपयुक्ता ॥८७॥ तिल भिलावे हरड़े के चूर्ण में गुड़ मिलाकर चाटने से अथवा शशिरेखा (गिलोप) कृष्ण (कालीमिरच) शिला (मेनसिल) से कुष्ट रोग कोढ़ जीता जाता है। SSIOISTORSRISTRISTRIDESI ७५२DISTRIERSPECISTRIDICTET
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SRISTRISTRISADSOS विधानुशासन 5THSTORISROI512555
स्नहि जाति पूतिका श्यामा कथितेनेश पल्लवै
जयेत्यु दर्श नमष्टा दश कुष्टान गोमूत्र सं पिष्टौ 11८८॥ थूहर चमेली पूतिका (बावची) श्यामा ( ) के पत्तों को गौमूत्र में पीसकर काथ बनाकर लेप करने से १९ प्रकार के कुष्ट (कोढ़) को जीतता है।
लोह रजो रजनि शिला तालार्क क्षीर सी रिभिः पर्क,
तैलं किलासरिवलं निर्मूल लुंपते विपुलं ॥८९॥ लोह चूर्ण हल्दी मेनसिल हरताल आक का दूध और सीरी (मोर्टी डाभ) में पकाया हुआ तेल सम्पूर्ण किलास (छोटे कोढ़) को जड़ से नष्ट करता है।
ॐकामले ब्रह्मणे सत्यवादिनि भविष्यसिदधितके विरुपेअंतर कामं कामिले फुः ठः ठः॥
सिद्धेन सहस्त्र जपात् कामिल मंत्रेण मंत्रितैर मुना,
शलिलैः शशिर विहितः पानादिः कामलां हरति ॥९०॥ एक हजार जप से सिद्धगिये हुए इस कानका मंत्र से अभिमंत्रित जल को शिशिर (गिलोय) के द्वारा पीने से कामला (पीलिया) रोग नष्ट हो जाता है।
चूर्णने निशा धायाः क्षीरेणा च विमिश्रिते प्रगे पीतः,
स्वाच्च गुड़ ची स्व रस सुपानिनां हित करो नणां ॥११॥ हल्दी और आमले के चूर्ण को दूध में मिलाकर प्रातःकाल के समय पीने से तथा गिलोय के स्वरस को पीने से मनुष्यों को कामला रोग में हित होता है।
छायोपि निष्क श्रृंठया द्विनिष्क ताड़ जटायाश्च,
पीतौ हरति दिनादौ सकलान्नपि कामला रोगान् ॥९२॥ सोंठ एक निष्क (४मासे) ताड़ की जटा दो निष्क (९ मासे) के काथ को प्रातःकाल के समय पीने से सब प्रकार के कामला रोग नष्ट हो जाते है।
अजटाया सदा यातः कल्को जयति कामला, रसो वा भंगराजस्य निशिक्तो भूरि मूधिनि
॥९३॥ अजटा (भूई आंवला) को सूघने से भी कमला रोग जीता जाता है अथवा भृगराज (भांगरा) के रस को बार बार सिर पर डालने से भी लाभ होता है।
CISIO512505251525७५३ PISIRSI21525135510551015
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3959595952 विधानुशासन 9595959595
त्रिफला शतावरी हा गंधा गोक्षुर विड़ालिका मूलैः,
1198 11
शिवया चूर्णितै धृते मिश्रः लीठैः क्षयो नश्येत् त्रिफला (हरड़े बहेड़ा आँवला) शतावरी हयगंधा (असगंध) कोखरु विड़ालीका (भूमि कुम्हड़ा विदारीकन्द) शिवा (छोटी हरड़े) के चूर्ण को घृत में मिलाकर चाटने से क्षय रोग नष्ट होता है ॥
अमृता विडंग रास्ना दारु वरा व्योष चूर्ण सम तुलितं, सहसा कासान सर्वानसिता रजः परि हरे लीठ
॥ ९५ ॥
अमृता ( गीलोय) बाय विड्ग रास्त्रा दारु (देवदारु) वरा (पाठ) वरा (त्रिफला हरड़े बहेड़ा आँमला) व्योष (सोंठ मिरच पीपल) के चूर्ण को शक्कर के साथ चाटने से सब प्रकार की खांसी को बराबर मात्रा में लेने से नष्ट करता है।
कुनटी कटु याभ्यां तुल्याभ्यां मक्र्क दुग्धपिष्टाभ्यां, रचितां गुलिका कासानहि नस्ति धूमोपयोगेने
॥ ९६ ॥
मेनसिल कटुत्रय (सोंठ मिरच पीपल) को बराबर लेकर आक के दूध में पीसकर गोली बनावे | इसकी धुंआ पीने से खाँसी दूर होती है।
बदरी दल हरिताल व्योष शिलास्ते करंज रस, पिष्ट: गुलकीकृतानि हन्युःकास रूंज धूम पानेन
बेर के पत्ते हड़ताल व्योष (सोंठ मिरच पीपल) शिला (मेनसिल) को करंज के बनाई हुयी गोली के धुंये से खांसी दूर होती है।
गोपी कणा शिलाभिः पिष्टाभिः वर्तये कृताः, का हन्युधूम निपाना द्विश्व शिलाभ्यां तथा रचितं
॥ ९८ ॥
गोपी (श्यामलता) कणा (पीपल) शिला (मेनसिल) को पीसकर तथा मेनसिल और सोंठ की गोली की बनाई हुयी बत्ती के धुंए को पीने से खांसी दूर होती है।
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ॐ किन्नर किं पुरुष गरुड़ गंधर्व यक्ष राक्षस निश्वासोपद्रवं हर पितृ पिशाचाय ठः
॥ ९७ ॥
रस में पीसकर
रौद्रेण सहस्त्र जपात्सिद्धेनानेन वेष्टितं सहसा, वज्रं सारख्यं भूपुर मध्य स्थं स्वाशद्भवति
॥ ९९ ॥
एक हजार जप से सिद्ध किये हुए रौद्र मंत्र से पृथ्वी मंडल के बीच में वज्र को घेरने से श्वास दूर हो जाता है !
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OPIOISTRISTOTRIOSIS :JAATE DISPIRITOTECISIRIDDIES
भक्तं स्वभक्त शिष्टं मंत्रेणानेन मंत्रितं,
मंत्री दद्याद्धक्तानं तत् श्वासी श्वासात् प्रमुच्येत ॥१००॥ मंत्री अपने भोजन से शेष रहे हुए भोजन को इस मंत्र से अभिमंत्रित करके खिला देवे तो रोगी श्वास रोग से छूट जाता है।
रवि दलतांतारगत गर्भपत्रे शांत मंत्र मंडमा कंठं,
पीत्वा धम्म देशेष भासा विश्ॉविनश्यति ॥१०१॥ आक के पत्ते पर इस मंत्र को उपरोक्त प्रकार से लिखकर धूप में कंठ तक पीवे तो श्वास के सब रोग नष्ट होते हैं।
रंभा कुंद शिरीषाणां कुसुमानि कणामपि,
पिवे ज्येष्टा बुना पिष्ट्वा स्वशनाया शितोजनः ॥१०॥ श्वास रोग से पीड़ित पुरुष केले की जड़ और सिरस के फूलों को और पीपल को ज्येष्टांबु (तंदुलोदक) के साथ पीसकर पीये।
श्वास काश विनाशार्थमऽशोत्कदली फलं, स्तुतं मूत्रे मता कांडमधवांगारपचितं
॥१०३॥ श्वास कास रोग के परिश्रम को नष्ट करने के लिये केले के फल और अमृता (गिलोय) को मूत्र में भिगोकर अथवा अंगारों पर पकाकर खावे।
कणोष्णा निशा रास्ता मंडगोस्तनजं रजः, लीळं तैलेन कासानां श्वासानां च निवर्हणं
॥१०४॥ कणा (पीपल) उष्ण (सोंठ) निशा (हल्दी) रास्मा का मंड (सार) और गोस्तनी (मुना) के चूर्ण को तेल के साथ चाटने से श्वास और खांसी नष्ट होती है।
हे हे तिष्ठ तिष्ठ बंधय वंधय वारय वारय निरुद्धं निरुद्धं पूर्ण माणि स्वाहा ।
वमिं विनाशयेदेष साक्षार्जाप्यादिना मनुः, यथा च सुंदरी धाम गल मध्ये विचिंतितं
॥१०५॥ इस सुंदरी धाम मंत्र का जप आदि चिंतवन से गले के बीज में ध्यान करने से यह वमन (उल्टी) रोग का नाश करता है।
SSIRISTOISTRISTRI50505७५५ PASTRISTOTSPERISTORSCISS
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एला
लवंग
वल्कल तमाल दलजं रजो,
धृतोन्मिश्रं लीठंवमिं निहन्याद्विश्व वरा लाज चूर्ण वा ॥ १०६ ॥ इलायची लोंग दालचीनी तमाल पत्र के चूर्ण को घृत में मिलाकर चाटने से अथवा सोंठ (विश्व) वरा त्रिक) और ला पूल डी खील) को घृत के साथ चाटने से यमन बंद होती है।
दग्धं वराटिका गेहंमंगाराभं तदं मंसि निर्वापयेत्कृतं पीतं तज्जलं नाशयेद्वमि
॥ १०७ ॥
जली हुयी वराटिका (कौड़ी) को घर के अंगारे के समान लाल करके और उसको पानी में बुझाकर उस जल को पीने से वमन नष्ट होती है।
यंत्रां वातरुजा तत्र ध्यातोऽग्रि धाम मध्यस्थः अचलो ज्वलन स बिंदु प्रभं जनातिजयत्याशु
॥ १०८ ॥
शरीर के जिस अंग में वात (वायु) की बीमारी हो उस अंग में अभि मंडल के तेज के बीच में अचल (क) ज्वलंन (ॐ) और बिंदु (अं) का ध्यान करने से शीघ्र ही वायु का किया हुआ कष्ट दूर होता है ।
नाभौ स च वा ध्यातः कास श्वासादिकान्,
जयेद्रोगान कंठे श्लेष्म विकारानुदरे माद्यं हरे दग्नेः ॥ १०९ ॥
उसी का नाभि में ध्यान करने से खांसी और श्वास आदि रोग नष्ट होते हैं। कंद में ध्यान करने से कफ के विकार दूर होते हैं और उसका पेट में ध्यान करने से वह अग्नि की मंदता (भूख न लगना और अन्न न पचने की शिकायत) दूर होती है।
"विक्रतालीस मधुक राजिकाभिः विलेपनात्, शामेदुत्पिटिका यष्टिं तिल माषीत्पलैरथः
॥ ११० ॥
चक्र या चक्र (नगर) तालीसपत्र महवा राजिका (राइ) का लेप अथवा यष्टि (मुलहटी) तिल माष (उड़द) उत्पल (कमल) का लेप उत्पटिका रोग (मसूरिका) को शांत करता है।
तैलेन कुर्नाटिकायां भार्गीगो शलिलेन वा, अति मुक्त त्वगा लिप्ता हन्यादुत्पिटिका रुजः
॥ १११ ॥
कुनटी (मेनसिल) कार्य्या (कारी) भारंगी का तेल अथवा गौमूत्र अथवा अति मुक्तक की छाल की लेप उत्पटिका रोग नष्ट करती है।
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PSPSPSPSPSS विधानुशासन
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श्येदपिटिका तैल पटुग्रा वाजि विद्रुमैः, इंद्र लुप्तो यथा लुप्तो लांगलि शिफया महुः ॥ ११२ ॥ पटु (पटोल लता) उद्या (वच) वाजि (असगंध) विद्रुम (मूंगा) से उत्पटिका रोग नष्ट होता है और लांगली (कलिहारी) की जड़ के लेप से इंद्र लुप्त रोग नष्ट होता है । (इंद्र लुप्त रोग में रोम बाल नहीं उगते हैं)
मधुकोत्पल तृण गोपी वृहती मूलाहि केशरैः पिष्टैः पासा जेन विलेपः केशानां स्थापनो जननः
॥ ११३ ॥
मधुक (महवा) उत्पल (नीलोफर) तृण (डाभ) गोपी (गोपी चंदन) वृहती ( केटली) की जड़ अहिकेशर (नाग केशर) को बकरी के दूध में पीसकर लेप करने से गंज रोग मिटता है और बाल निकल आते हैं।
ॐ वज्र राज कामेश्वरी राज अमुकंशाधि हुं फट ठः ठः ॥
मदीरीत्र भिदं सिद्धं शिरो रोग हरं रहः, त्रिसहस्तस्त्र प्रजापात् स्यात् सिद्धिदां मंत्र वादिनां
॥
११४ ॥
यह मंत्र मंत्रवादियों को सिद्ध होता है, तीन हजार बार जप करने से सिर के रोग नष्ट होते हैं।
चतुश्शूल समाक्रातं विलिरखेदिंदु मंडलं. तेन्मध्ये तारमन्येषु कोष्टेष्वाप्तमथाष्टसु
दृश्य मानमिदं चक्रं चिंत्य मानमिवा मृतं, शिरो रोगविशेषाणामशेषाणां निवर्हणं
॥ ११६ ॥
चार शूलों से घिरे हुए चंद्र मंडल को लिखे उसके बीच में तार (ॐ) और शेष आठों कोठों में हैं लिखे। इस यंत्र को देखकर इसका अमृत के समान ध्यान करने से सब सिर के रोग नष्ट होते हैं।
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॥ ११५ ॥
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विधानुशासन SP59696969
सर्पिषा नसि विन्यस्ते सर्पि भृष्टेसिता सृजि:, सांतः शिरोति स्वेदेवाः पाय स्नानेन मूर्द्धनि
॥ ११७ ॥
भृष्टे सिता (बाबची) को भ्रष्टे (गिराकर पीसकर) सूंघने से सिर के रोग नष्ट होते हैं और खीर और अन्न का सिर पर स्वेदन करने से शिरोति शांत होती है। (११६ श्लोक का यंत्र यहाँ है)
मस्ति स कस्ट हरिद्रायाः सूंठया वा रेणुभिः कृता, गुलिका तैलाक्ता जयति तरां शिरो रुजं धूम पानेन
॥ ११८ ॥
मस्तिष्क (दिमाग) के वास्ते हल्दी सोंठ या रेणुका (संभालू के बीज) के चूर्ण को तिल के तेल में गीली करके बनायी हुयी गोली के धुंए को पीने से सिर के रोग को पूरी तरह से जीत लेता है ।
नाम कूट शशांकाद्भिर्वेष्टितं भूपुरस्थितं, हस्ते चूर्णेन सं लिख्य दर्शयेऽक्षिरोगजित्
॥ ११९ ॥
रोगी के नाम को कूट (क्ष) शशांक (चंद्रमा व) चंद्र मंडल और पृथ्वी मंडल से वेष्टित करके हाथ पर चूने से लिखकर रोगी को दिखलावे तो आंख के रोग जीत जाते है ।
स्तंभयति नेत्र पीड़ां कुलिश हतो लांत युक्त कष चूर्णः, वर कुरुते वश्यं न्यस्तं चित्स्थापये नयने
॥ १२० ॥
वज्र से घिरा हुआ लांत (च) को कष अक्षरों से घेरने से नेत्र की पीड़ा का स्तंभन करता है तथा इसका क्षेत्र में स्थापन करने से श्रेष्ठ वशीकरण करता है ।
धृत पिष्टाभ्यां कांजिक पिष्टाभ्यां वस्त्र शकल यद्धाभ्यां अश्वोत नमक्षि रुजं जयति तरां पहुतिरीटाभ्यां
॥ १२१ ॥
तिरित (लोग) को एक साबुत कपड़े से बांधकर पहले घृत फिर काजी से पीसकर अपनी आंखों में अंजन करने से आंखों के रोगों को जीतता है।
वयकितूल कृतया शशांक चूर्ण प्रपूरितो दरया, दीपा दीप्तादाशाश्रूषणाति मषिद्मशो रोगं ता
॥ १२२ ॥
आक की रुई के बीच में शशांक (कपूर) के चूर्ण को भर बनाई हुयी बत्ती को जलाने पर काजल उपाड़कर नेत्रों में लगाने से आंख के रोग दूर होते हैं।
यत्रागतासि चंद्रतेत विद्यं गच्छ सुवृते ठः ठः ॥
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त्रि सहस्त्र जपात्सिद्धो मंत्रो दुग्गादि दैवतः,
असौ ध्यानादिना कुन्नेित्र कील विलोपनं ॥१२३॥ यह दुर्गा देवता का मंत्र तीन हजार जप से सिद्ध होता है। इसका ध्यान आदि करने से यह आंखों की कील (फला) को खो देता है।
अप हरति नयन पुष्पं करंज बीजेन निर्मिता यटिका,
द्विज वृक्ष कुसुम निर्यासमिता सप्त रात्रिका ॥१२४ ।। करंज के बीजों को पीसकर द्विज वृक्ष के फूलों के रस (द्विज वृक्ष - ब्रह्म वृक्ष पलाश) (द्विज वृक्ष:स्परःकी देक बाई सत्ती को आंखों में रस को लगाने से आंख का फूला सात रोज में नष्ट होता है।
नक्तांध्याप्नो दृगाक्तः स्टात् स कृष्णारगो सकृद्रसोः,
द्रोण पुष्पी दलांभो वा मिश्रितं तिल वंयुभिः ॥१२५॥ कृष्णा (काली मिरच) गोसकृत (गोबर) के रस को आंख में लगावे अथवा द्रोणपुष्पी (गोमा) के पत्तों के रस को तिल यधु ( ) के साथ मिलाकर आंखो में लगाने से रतौंधी मिटती है।
हरितालं वचा कुष्टं चूर्ण पीत वटच्छदं अपि पिटवा,
मुरवेलिंपेदयंग लापन लोलुपः ॥१२६ ॥ हरताल वच कूठ और बड़ के पीले पत्तों को पीसकर मुख पर लेप करने से व्यंग (मुहासे) दूर होतेहैं।
इंट्न वल्ली दलैर्लेपः संपूर्ण व्यांग नाशनः स्यान्मनः,
शिलया द्वा मातुलिंगांबु पिष्टया ॥१२७॥ इन्द्र वल्ली (इंद्रायण) के पत्तो का पूरा लेप अथवा मातुलिंम (बिजोरा) के रस में पिसी हुयी मेनसिल के लेप से व्यंग नष्ट होता है।
लेपात् कृष्ण तिल श्वेत राजिक्षीर द्विजीरकैः, सक्षीरया विशालाया स्त्वचा वा व्यंग नाशिनी
॥१२८॥ काले तिल सफेद सरसौं दूध दोनाजी रे क्षीरया (काकोली) विशाला(इंद्रायण) त्वचा (तज दालचीनी) के लेप से व्यंग नष्ट होता है।
ಆಡಳNಥಗಣಣ ಆks Fಳದಥಣಿ
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SBIOSSDISTRI505 विधानुशासन VSTOISTRISTOTRICTSOTES
आजेन पासा पिष्टामारणयां तुलसी शिफां,
आलिप्पोद्वतोदकें व्यंगला सुमनाजनः ॥१२९॥ आरणयां तुलसी (वन तुलसी = नगद बावची) की जड़ को बकरी के दूध में पीसकर मुख पर लेप करने से व्यंग दूर हो जाता है।
पूतीकवल्काक्ष मनः शिलाभिर्मनः शिला ताल वटण्दैवा, शिलाज्य लुंगी पशु विट जलैः व्यंगं विनश्येत पिटिकाश्च लेपात्
॥१३०॥ पूतिक (करंज) यलका (असगंध) मेनसिला अथवा मेनसिल ताल (हड़ताल) वड़ के पत्ते अथवा मेनसिल धृत लंगी (मातु लिंगी बिजोरा) पशुटि (गोबर) पशुजल (गोमूत्र) के लेप से व्यंग और पिटिका (मसूरिका चेचक ) नष्ट होती है।
मूलगं कदली गुंजन युगलाश्कल सुन कंद संभूतं,
अंबु निहं ति कटूष्णां कर्ण रुजां कर्ण पूर्णतः ॥१३१ ।। मूलकं (मूली) कदली (केला) गुंजन युगला (दोनों चिरमटी) श्कलसुन्कंद (श्कपोत्या) लसन का रस कान में डालने से कान के रोग दूर होते है।
अभिनव दाड़िम कुसुम स्वरसो वा चूर्ण बीज सलिले वा,
दुवांभो वा नस्यान्ना सा रक्तं निहत्याशु ॥ १३२ ।। दाहिम (अनार) के नये फूलों का रस या चूर्ण या बीजों का पानी या दुर्या (दूब) के जल को सूंघने से या नासा रक्त (नाक से बहने वाली नकसीर) को शीघ्र ही नष्ट कर देती है।
सह संठी पंग फलैः रवारी गोमत्र नालिकेर जलैः,
क्रथितैरधि जिह्वादीन कवलो विहितः प्रणाशयति ॥१३३॥ सोंठ के साथ सुपारी, खारी नमक, गाय का मूत्र, नारियल के जल के क्वाथ को जीभ के ऊपर मुँह में भरने से जिह्वा आदि के रोग नष्ट होते है।
पथ्या कल्को लेपः शरपुंरखी मूल साधिते काथो, पकं तैल हज्या दशन रुजांमा शु शूलाद्या
॥१३४ ॥
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OISTRICISTORTOISED विधानुशासन VSTORISTRATORIES
पथ्या (हरड़े) के कल्क और सरफोका की जड़ के हाथ में पकाये हुए तेल के लेप से दांतों के रोग और दर्द आदि को शीघ्र ही दूर कर देता है।
दग्धार्क पत्र भूति महीषी नवनीत मिश्रिता लिप्ता,
दशन छद जाताना रोगानां नाशयेन्निकरं १९३५ ।। जले हुए आक के पत्तों की भरमी को भैंस के मक्खन से मिलाकर लेप करने से होंठों के सभी रोग नष्ट होते हैं।
हिमानी विनिपातेन संजातमधरे वणं. निशि प्रशमयेन्नाभि तैलेन परि पूरिता
॥१३६॥ बर्फ के गिरने से उत्पन्न हुये नीचे के होंठ के घाव रात्रि में नाभि में तेल भर लेने से अच्छे हो जाते
रुग वक्रो शीर कांतोग्रा गोतीरोत्पल चंदनैः. कुच रोगावले पानां विलेपाटां विलोपकः ।
॥ १३७॥ रुकाकूठ) चक्रा(काकड़ासींगी) उशीर (खस) कांता (सफेद धूप) उना (अजमोद) गोक्षीर (गाय का दूध) उत्पल (नीलोफर) चंदन के लेप से कुचों (स्तन) (बोबे) के सब रोग दूर हो जाते हैं।
रवरा तपे यहुन्वारान स्नूही क्षीरेण भाविता, महोदर महारोगं कृष्णाभ्य वहरेत्तरी
॥१३८॥ काली मिरच को थूहर के दूध में बहुत बार भावना देकर तेज आंच पर करने से और सेवन करने से पेट के महोदर नाम का महा रोग नष्ट हो जाता है।
बिल्व दीपकयोः प्रातः पीता स्तकेण रेणवः, गुल्मं सं हरति क्षीरः शिफा पोनर्नवा तथा
॥१३९॥ बिल्व दीपक (अजमोद) के रेणु(धूलि) को प्रातःकाल मड़े के साथ अथवा पुनर्नवा (साठी) की जड़ को दूध के साथ लेने से गुल्म (तिल्ली) नष्ट होती है।
सं चूर्णयः पिबेत् प्रातःश्चित्रकं हिंगु दीप्पकं, सुवचिकां च तक्रेण तस्य गुल्मः प्रणश्यति
॥१४०॥ जो चित्रक (चीता बूंटी) हींग दीपक (अजमोद) सुर्चिका (काला नमक) के चूर्ण को प्रातःकाल महे के साथ पीता है उसकी गुल्म (तिल्ली) नष्ट हो जाती है।
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SUSICISTOTSIDASIRIDI05 विधानुशासन ASTRISTORSCISIONSIDIY
प्लव: व्योमल मेयाया न्यूक्तं साजित स्तत:. पूज्ये आर्यः स विभुश्चंद्रो मंत्री लक्ष प्रजाप्रोवतः ॥१४१ ।।
सिद्धौ सौ स्यात् सप्पिः कपिलाया स्तेन मंत्रितं,
त्रिशतां पीतं निष्टह गुल्म रुचि हद्रोग जरा गृहणिकादि हरं ॥ ९४२॥ प्लव व्योम (ह) मेधा सहित इमजित (इ) पूज्य (त) आर्य (ग) विभु(ए) चंद्रो (लों) यह मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है। इस मंत्र के सिद्ध हो जाने पर इस मंत्र से कपिल गाय के घृत को तीन सौ बार मंत्रित करके पीने से वह गुल्म (तिल्ली) अरुचि हृदय के रोग बुढ़ापा संग्रहणी आदि रोगों को नर करता है ।
तज्जप्तं चुलुकांभः पातः पीतं समस्त रोग हरं, तेनाभिमंत्र्य दद्यादौषधमपि सर्व रोगेषु
॥१४३॥ एक चुल्ल भर पानी को इस मंत्र ने अभिमंत्रित करके प्रातःकाल के समय पीने से सब रोग नष्ट हो जाते हैं। इस मंत्र से मंत्रित करके देने से यह सभी रोगों की औषधि है।
सैंधव स्वही मध्यस्थं दग्धमंगार वन्हिना, सलिलेन कवोष्णेन पिबेत् शूलाभि पीड़ितं
॥१४४॥ सैंधय नमक को थूहर के दूध में भावना देकर खूब तेज आंचयाले अंगारों की आग पर पकाकर थोड़े गरम पानी के साथ पीने से पेट का दर्द दूर हो जाता है।
पटु हिंगु कणा पथ्या रूपकै दुर्ग्रहोन्मिता, उन्मीलयंति शूलार्ति पीता कोषणेन वारिणा
||१४५ ॥ पटु (पटोल लता) हींग कणा (पीपल) पय्या (हरड़े) रुपक ( ) दुर्ग्रह (चिड़चिटा) को समान भाग पर पकाकर थोड़े गरम पानी के साथ पीने से दर्द दूर हो जाता है।
ॐभिंद भिंदघमघम कंपय कंपय हुं फट ठः ठः ॥ ॐवरं करे करे वरं विष करे ठः ठः॥
त्रि सहस्त्र जाप्प सिद्धौ मंत्रों वैश्वानरस्य पथगती,
कथितौ प्रथमो जीणं हरति पर्रा दीपते महदानं ।।१४६॥ यह दोनों वैश्वानर मंत्र पृथक पृथक तीन हजार जाप करने से सिद्ध होते हैं। इनमें पहला बदहजमी दूर करता है तथा दूसरा बड़ी भारी मंद अमि दूर करता है । CASTOREICTERISRIDIO525७६२P STOTHERDOSRISTOIES
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STRICISIOSISTSTOISIOS विधानुशासन ASIRIDIOSRIDICINESS ॐ बष्टिं लि ठः ठः॥
मंत्रो हव्याशस्यायं त्रिलक्ष जप साधितः, अपानो पान मुद्राभ्यां छर्दितीसार हृद्भवेत
||१४७॥ इस हव्यासन मंत्र को अपान और उपान मुद्रा से तीन लाख जप कर सिद्ध करने से यह वमन और अतिसार को दूर करता है।
चिंचा बीज त्वचा विश्वं दीप्पकं सैंधवं च,
यः पिबेत् तक्रेण पिष्टानि सोतीसारं जयेत् क्षणात् ॥१४८॥ जो पुरुष इमली के बीज दालचीनी सोंठ दीप्पक (अजवाइन) और सेधे नमक को पीसकर मढे के साथ पीता है वह अतिसार को क्षणमात्र में जीत लेता है।
आम्रातक रसे पक्कं पूराणैः शालि तंदुलैः, उदनं सेवितं प्रातः सर्वातिसान नाशनं
॥१४९॥ आम्रातक (अंबोड़) के पार पकाये हुदो दरले सामान की भरजरे प्रातःकाल के समय खाने से दस्त (अतिसार) बंद हो जाते हैं।
विश्व कृष्ण कवोष्णेन कल्किते वारिणा पिबेत्,
विशुचि कांतः कुर्यात् वा नश्यं भंगदलांबुना ॥१५० ॥ विश्व (सोंठ) कृष्ण (काली मिरच) के कल्क को थोड़ा गरम पानी के साथ पीने से अथवा भंग (अंगराज भांगरा) के पत्तों के रस का नस्य लेने से विशूचिका नष्ट हो जाती है।
तंदुलोदक पिष्टेन ताल मूलेन लेपनं, नाभौ प्रकल्पितं सदो निरसेत विशूचिकां
||१५१॥ तंदुलोदक (चावलों के पानी) में पिसी हुयी ताड़ की जड़ का नाभि में लेप करने से विभूचिका तुरन्त नष्ट हो जाती है।
ॐ चले चल चित्ते चपले चपल चित्तेः रेतः स्तंभा स्तंभा ठः ठः॥ सिद्धेय त्रिसहस्त्र जपात् मंत्रोऽयं तेन शर्कराः,
सप्त जप्त्वा श्रीरांतस्था योनि स्थां कंधते प्रदरं ॥१५२ ।। यह मंत्र तीन हजार जप करने से सिद्ध होता है । इस मंत्र से शक्कर की ७ कंकरियों को सात बार जपकर अभिमंत्रित करके योनि में रखने से प्रदर रुक जाता है। OISTRI5DISEASPI525105७६३/510STDISTD35125055075
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S5DISTRISTICIST01525 विद्यानुशासन POTOISSIST205052559
धात्र्यास्थि तंदुल जलैः पीतं हन्या सृग्दरं, पीतां सिताबुना पिष्टा धात्री वा सग्दरं पिबेत्
॥१५३ ।। आंवले की बीजों को चावलों के पानी के साथ पीने से अथवा आंवलों को पीसकर ठण्डे जल के साथ पीने से भी अस्टग्दर (प्रदर) रोग नष्ट होता है। (अस्ट-रक्त)
मूत्र कच्छ हरेत् पीता क्षीरेण शबरी शिफा, अजा क्षीरेण सं पिष्टा पीता नीली जटाथवा
॥ १५४॥ अथवा नीली जटा को बकरी के दूध से पीसकर पीने से अथवा शवरी जटा [ (शर्वरी = हल्दी) (शावर = लोंग) (शावरी = कोंच की फली) 1 को पीसकर पीने से भी मूत्र कृच्छ नष्ट होता है।
काथो वर्ण मूलस्य तत्कल्केन समन्वितः, पीतोनिपातयेत्सद्यःशर्करामस्मरीमपि
॥१५५ ।। वर्णमूल (केसर की जड़) के क्वाथ उसके कल्क के साथ पीने से वह पथरी (पथर की शकरी) को तुरन्त निकालकर गिरा देती है।
लिप्तं साज्यं वरा भरम लिंग लति विनाशनं, करवीरस्य मूलं वा लिप्त प्रभाज्ोन कल्कितं
॥१५६॥ वरा (पाठ) की भस्म को घृत के साथ लेप करने से लिंग की पूति (खुजली) मिटती है अथवा कनेर की जड़ के कल्क को घृत के साथ लेप करने से भी खुजली मिटती है।
काप्पासस्यास्थिनिः पिष्टे साधितं तिल संभवं,
लिंग लूति विकाराणां प्रतिकारो विलेपनात् ॥१५७॥ कपास के विनोले की मीजी को तिल के तेल में पीसकर लेप करने से लिंग की लूति (खाज) का विकार नष्ट होता है।
यक्ष , शमी इंद्र वल्लि पटुं च तक्रेण वारिभिर्वोषणैः,
पिष्टवा पिवेद्धिनादौ वृद्धया मुष्कस्य बाधितो मनुजः ॥१५८ ।। यक्ष द्रुम (वड़) शमी (खेजड़ा) इंद्र वल्ली (इंद्रायण) पटुं (परवल) को मढे या गरम जल से पीसकर प्रातःकाल के समय पीने से अंडकोषकी वृद्धि और मुष्क रोग से पीड़ित मनुष्य पीवे।
ग्रंथिक शिफा कणनि कमि रिपु ලගලගeo s68 ටටගත්
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959MPSP595951 विधानुशासन 959595959
कल्काक्तेशीषितोदर कुंभी तर्क, द्वि पक्ष मुषितं गृहणीहत नाम पांडू रोगापहरं
॥ १५९ ॥
ग्रंथिक (पूपलामूल) शिफा (जड़ पीपल की) कणा (पीपल) नि (चित्रक) कृमिरिपु (बायविडंग) के कल्क को एक घड़े में मट्टे के साथ तो पक्ष तक रखकर सुखाकर सेवन करने से गृहणी और पांडुरोग नष्ट होता है।
ताक्ष्यं द्विनिशातिक्ष्णा श्वेता ज्योतिष्मतिररिष्ट, दलं मंजिष्टां वा लिपेंद भंगदरे मूत्र पिष्टानि
॥ १६० ॥
तार्क्ष्य (रसोत) हिनिशा (दोनों हल्दी और दारु हल्दी) तीक्ष्णा (वच) श्वेता (सफेद दोब) ज्योतिष्मति (मालकांगनी) रिष्ट दल (अरीठे के पत्ते) मंजीठ को मूत्र में पीसकर भंगदर में लेप करे ।
क्षीरं कुरूं ठोरा स्फोतादर्क ध्वान स्वरं घृगं, पूतिधायं वृणं हंति लेपनादथवा भया
॥ १६१ ॥
क्षरि (दूध) कुरु (कटेली) ठोरा (ठोल समुद्रवृक्ष) स्फोता (अनंत मूल) अर्क (आक) ध्यान स्वरं (कौवे के शब्द) को रखने अथवा हरड़े का लेप घाव को पूर्णतया भर देता है।
ही गजार्क पय: सिक्थ स्तैल सैंधव लेपनात्, सोहे सहश्रधाभिन्नमपि पाद तलं क्षणात्
॥ १६२ ॥
खुही ( थूहर ) गज (राजपीपल) आक का दूध सिक्थ (मोम) तेल सेंधा नमक के लेप से हजार प्रकार से फटा हुआ पाँव उसी क्षण ठीक हो जाता है।
विषादि भूज्जरं बुष्कं केतकी दल भस्मना, चूर्णाज्य पटु युक्तेन कंस पृष्टेन लेपनं
॥ १६३ ॥
केतकी के पत्तों की राख कस माक्षिक में घिसे हुए घृत सहित पटु (पटोल लता) के चूर्ण के लेप से विपादिका (पैरों के कोढ़) को लाभ होता है।
पटुतिक्ताम्र निर्यास नुगाक्क जं पयो युतं, विपादिकाम लांबुत्थं माहिषं हंति तक्रजं
॥ १६४ ॥
पटु (पटोल लता) तिक्ताम्र (खट्टा आम) का निर्यास (रस या गोंद) सुगाक पय (चोहर और आक का दूध) और तुंबी में रखा हुआ भैंस की छाछ विपादिका (पैरों के कोढ़) से उत्पन्न हुए कष्ट को दूर करता है ।
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CCTOISSERI501525 विधानुशासन VSIST585DISCIRCISI
हंतो विपादिं कटत्वगत्व क्यत्र सारं संयते, सज्ज माहिष तकोत्थ लेपादा तप तापिते
॥१६५॥ कटुक (कुड़ा) की छाल और पत्ते नमक सहित सज्जी और भैंस के मद्धे का लेप करके आग से सेंकने से पैरों का कोढ़ ठीक होता है।
आलु दल कल्क भसितं माहिषं नवनीतमामनियासः,
तुंबी फल निहितै स्तै लैंपो यदाधिकां हति ॥१६६।। अरलु के पत्तों का कल्क में मिलाये हुए भैंस के मक्खन और आम के गोंद को तुंबी में रखकर लेप करने से पैरों का कोढ़ दूर होता है।
मूलेन स्व रसेन च पुष्प लताया विपाचितं तैलं,
आलिप्त पत तलयो धिपधिकां प्रशमोत् चिरात् ॥१६७।। पुष्पलता की जड़ और उसके स्वरस में पकाये हुए तेल को पाँच के तलवों पर लेप करने से विपादिका शांत होती है।
नस्यं सैंधव यष्टयाऽष्ट व्याधी फल रसैःकृतं, प्रागेवनिद्रा मुद्रिक्तामप्य या कर्तुनीश्वरा
॥ १६८॥ . सैंधा नमक मुलहटी से आठ गुने व्याधी (कटेली छोटी) के फल के रस से सिद्ध किया हुआ नस्य प्रातः की निद्रा को दूर करता है।
मरिचेन तुरंगस्य लालया मक्षिकेन च, स्याद्वर्तनं नेत्रयो निद्रोक्त भंजन मंजन
॥१६९॥ काली मिरच और घोड़े की लार और शहद का आंखों में अंजन लगाने से नींद दूर हो जाती है।
शिफां वायस जंयायाः शिर साधारटोन्नरः, प्रनष्ट निद्रोय स्तस्य भवे निद्रागमः क्षणात
॥ १७०॥ यदि कोई पुरुष काक जंघा की जड़ को सिर पर रख लेवे तो उचटी हुई निंद्रा तुरन्त आ जाती है।
ॐहां क्लीं हुं क्लीं हां हुं क्लीं क्लीं क्लां ठः ठः॥
अष्ट चत्वारिंश दिनानि संध्या सु नित्यमषेमनुः, सिद्धस्त्रि सहस्त्र जपादिना भवेत् सर्व रोग हरे:
॥ १७१॥
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CRICTORISTORICISIS विधानुETE PRECIATEISITORISOIN
अभिमंत्रितमेतेन वितेरद्विक्षमौषधं, मंत्री विश्वेषु रोगेषु वांछन्नातुर रक्षणं
॥१७२॥ इस मंत्र का अड़तालीस दिन तक प्रतिदिन संध्या के समय तीन हजार जप करके सिद्ध करने से यह सब रोगों को नष्ट करता है। मंत्री इस मंत्र से अभिमंत्रित की हुई सब औषधियों को (सोंठ को) देये तो यह मंत्र सभी रोगों से दुखी पुरुष की रक्षा करता है।
सहस्त्र रश्मिरादित्योऽग्रिभूः स्वाहेति असौ मनुः सहस्र त्रय जाप्पेन सं सिद्धिमुपगच्छति
॥ १७३॥
एक पत्रे विलिरियतः कंठे बद्धोमि रक्षति गाः, सर्वेभ्यो पिरोगेभ्यो मारिभ्यश्चोतर तो पिच
॥१७४॥ ॐसहश्र रश्मि आदित्यऽनि भूः स्वाहा ॥ यह मंत्र तीन हजार जप से सिद्ध होता है। इस मंत्र को अथवा सूर्य लिखकर या उसके बाहर अग्नि मंडल और पृथ्वी मंडल लिय्यकर) एक पत्ते पर लिखकर गाय के गले में बांधने से यह सब रोगों बीमारी और अन्य कष्टों से रक्षा करता है।
वामाष्ट मात परिपालयति ठः ठः त्येष मातृका मंत्रः,
त्रि सहस्त्र रुप जाप्पान्मंत्र विदां सिद्धिमुपयाति यह मतृका मंत्र तीन हजार जप से मंत्रियों को सिद्ध होता है।
॥१७५ ॥
कार स्कर मठ घंटोदर लिरियतो मंत्र एष गो कंठ,
बद्धो उधीते रज्वा गोमारि भीति मपहरति ॥१७६ ॥ इस मंत्र को कारस्कर ( ) वृक्ष के घंटी में लिखकर गाय के कंठ में रस्सी से बांधने से यह गायों के सब प्राकार के भयों से रक्षा करता है।
ॐनमो भगवते वज़ हुंकार दर्शनाय चुल चुलु मिलि मिलि मेलि मेलि सेलि सेलि गोमारि वज़ हुं फट अस्मिन् ग्रामे गोकुलस्ट रक्षां कुरु कुरु ठः ठः।।
सहस्र जप सिद्धोयं रोट्रो विलिरिवतो मनुः,
पत्रादौ गोले बद्धस्तां मा पदम्योऽभि रक्षति SSIOTSIRSRISESSIODOS७६७PIRICISTORSCIRCISIOISISTER
॥१७७॥
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9595959595951 विधानुशासन 959595951
एक हजार जप से सिद्ध किया हुआ यह मंत्र एक पत्ते पर लिखकर गाय के गले में बांधने से यह उनकी आपदाओं से रक्षा करता है।
समूल पल्लवा तिक्ता लांबुर्वद्धवा गले गवां, अचिरेणैव कालेन हन्यात्सकल मामयं
॥ १७८ ॥
जड़ और पत्तों सहित तिक्त (कड़वी) तूंबी को गाय के गले में बांधने से यह थोड़े ही समय में सब रोगों को नष्ट कर देती है।
गजस्य मूत्रं पीतं वा सिक्तं वा नाशयेदगवां, उपसर्ग समरकं गोष्ट स्थापितमस्थि वा
॥ १७९ ॥
हाथी के मूत्र को पीने से अथवा उसमें भिगोये जाने से अथवा उसकी हड्डी को बांधने से वह गायों की सब उपसर्गों से रक्ष करता I
मार्ग मांरसी पुरो शीर नृपराज घृतः कृतः धूपः, सगोमेोगष्टे सुरभीणां ज्वरं हरेत्
॥ १८० ॥
मार्ग (चिड़चिटा ) मांसी (जटामांसी) पुरा (गूगल) उशीर (खस) नृपराज (ऊषभक) सफेद सरसों घी और गोबर से की हुई धूप गायों के समूह में गायों के ज्वर को दूर करती है।
इति विनिक्षितानयान् दोष जातंक भेदान्, प्रति विविधि चिकित्सां तां विजानन् नरेंद्र:
स्वस्त्वम परमपि रक्षेदामयोपद्रवेभ्य त्रिभुवन महनीयं सास्वतं याति सौरां
॥ १८२ ॥
इस प्रकार कहे हुए दोषों से उत्पन्न होनेवाले रोगों की अनेक प्रकार की चिकित्सा को जानता हुआ उत्तम पुरुष अपनी और दूसरो की रोगों से और रोगों के उपद्रवों से रक्षा करता हुआ लोक में कीर्ति को पाकर अनन्त सुख को पाता है ।
इति
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॥ १८१ ॥
९७६८Po
5959595
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SSIOSDISTRISIONSID5 विधानुशासन 9501501501501505
अथ कृत्रिम रोगानां प्रतिकारः प्रवक्ष्यते, बुध्वामरण देशीयान् पापानुपदिशतियान,
॥१॥ अब पाप रूप मरण धर्मवाले बनावटी रोगों को जानकर अब उनकी चिकित्सा का वर्णन किया जाता
ज्वरोलाटि गोगा महंती तामथा पदां, सपांगणिकृतीनां च यस्तो मोक्षामिह क्रमात
॥२॥ ज्वर उन्माद आदि रोगों वाली सब अंगों में विकार करने वाली आपदा के मोक्ष का वर्णन अब क्रम से किया जाएगा।
चंडेश्वर चंड कुठारेण ही गृह मारय मारय हुं फट् ये थे।
चंडेवराय हो मांतं संजपेद्विनयोदिकं, सहस्त्र दशकं मंत्री पूर्व मारुण पुष्पकैः
॥३॥ पहले मंत्री उपरोक्त मंत्र चंडेश्वरी की आदि में ॐ और अंत में स्वाहा लगाकर इसका लाल फूलों से दस हजार जाप करे।
ब्राह्मण मस्तक केशैः कृत्वा रज्जं तयानर कपालं, आयेष्टय साध्य देहो द्वर्तन मल केशः पाद रज्जा
॥४
॥
मनुजास्थि चूर्ण मिश्रं कृत्या प्रेतालटो विनिक्षिप्तं,
ज्वरयति मंत्र स्मरणात्सप्ताहादस्थि मथनेन ब्राह्मण के सिर के बालों से रस्सी बनाकर उससे एक मनुष्य की खोपड़ी को लपेटकर साध्य पुरुष के उयटन मल केश और पांवों के नीचे की धूल और मनुष्य की हड्डी के चूर्ण को मिलाकर इन सबके चूर्ण को मिलाकर श्मशान में रखकर (गाड़कर) और सात दिन तक मंत्र का स्मरण करते हुए हड्डी को मलने से शत्रु को ज्यर हो जाता है।
ॐनमो भगवते रुद्राय श्मशान यासिने रयड्वांगडमरुक हस्ताय नत्या प्रियाय ह हह अदहासाय मुरुप्रवेशाय युनु पुनु कंपय कंपट ज्वरेणा वेशय आवेशय फट ये ये ॥
आलिप्यते सग पस्तस्य भीमोर्वस्ना कुजं बुधः, कृष्णाष्टमी चतुदेश्यां न मृतस्य धितें धनात्
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SSIOSD5050525 विधानुशासन 1505250150SOCIET मंगलवार बुधवार कृष्ण अष्टमी अथवा चतुर्दशी को मरे हुए पुरुष का यिता में से खून रुपी जल लेवे और असृज (खून) से लीपकर कपड़ों को भयानक बनाये।
याम्टदिक ज्वालिता दत्तान्निर्वाप्या सृजि निक्षिपेत्. अभ्यर्य तेज गंधायथतेन यथाविधि
॥७॥ दक्षिण दिशा की जलती हुई चित्ता को बुझाकर उससे रक्त निकाले फिर विधिपूर्वक संघ आदि से पूजन करे।
भूत द फलके नाम शत्रो स्तिथ्यो स्तयो लिरवेत्,
आश्रित्य दक्षिणा मूर्ति वलिदान पुरस्सरं ॥८॥ भूतदु (ल्हसेव) (वहेड़ा) के तख्ती पर दक्षिणा मूर्ति का बलिदान करके शत्रु का नाम तिथियों सहित लिखे।
उपेक्ष्याम जपेन्मंत्रं शत्रोः स्याहुस्सहो ज्वरः, माजनानाम वर्णानां स्वस्थ: स्यात्स दिने दिने
॥९॥ फिर उस तख्ती की उपेक्षा करके मंत्री उपरोक्त मंत्र को जपे तो शत्रु को अत्यन्त कठिन ज्वर हो जाएगा उस तस्ती पर से नाम के अक्षरों को मिटा देने से शत्रु दिन प्रतिदिन स्वस्थ होता जाएगा।
आलिरव्य वृश्चिके नोपोषित कक वाकु पक्षि दहनेन,
अंगुष्टंागुल प्रमाणं भूत वपुहं निबं काष्ट कृतं ॥१०॥ नीम की लकड़ी पर वृश्चिक (विछवा घास) से उपोषित (उपवास किये हुए) कृकयाकु (मोर) के पंखों को जला करके राख से आठ अंगुल लम्बा भूत का शरीर लिखकर उसमें साध्या का नाम लिखे।
तस्मिन साध्यस्य लिरवेदमिधानं सज्वरेण सहसैव,
पीडा स्तस्य नु शमनं नामाक्षरमार्जनं जनयेत् ॥११॥ तो उसको उसी समय ज्यर की पीड़ा हो जाए और उसके नाम के अक्षरों को मिटा देने से यह पीड़ा शांत हो जाती है।
यूकारि पिच्छेन कला तृतीयश्मशान वस्त्रे लिरिवतो नरेण, शवालयां गारक कानकाभ्यां ज्वरो करोत्टोव शवालयस्थः ॥१२॥
ರಥ5, 990 ಗಂಥದಿಂದ
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विद्यानुशासन /5xe
259/506
यदि कोई पुरुष घूकारि (कौए की पूँछ से श्मशान के कपड़े पर अंगोर (कोयले) और कनक (धतूरे) के रस से तीसरी कला (इ) को लिखकर श्मशान में गाड़ दे (रख देवे) तो जब तक वह यहाँ गड़ी रहे तब तक ज्वर रहता है।
कला चतुर्थकस्यांतनमिः प्रेत पढ़े लिखेत श्मशानांगर धत्तूर रसेला शुभ वेतसा
प्रेतालये निधातव्यं लेखिन्या काक पक्षया, प्रेत ज्यरेण गृह्णाति मोक्षः स्यादु धृते सति
|| 98 ||
श्मशान के कपड़े पर श्मशान के अंगारे (कोयले) और धतूरे के रस से अशुभ बेला से चौथी कला (ई) के अन्दर नाम लिखे उसको कौए की पूंछ की कलम से लिखकर श्मशान में गाढ़ देये तो शत्रु को ज्वर होगा यदि उसको उखाड़ लिया जाए तो शत्रु अच्छा हो जाता है।
ॐ ह्रीं ष्ट्रीं विकृतानन हूं शत्रु न्नाशय नाशय स्तंभय स्तंभय हुं फट ठः ठः ॥
त्रिसहस्र आप सिद्धं काशी मंत्र जपेद्रिपु देशात्, धातुर्थितो ज्वरः स्यात् शूलार्तियां रिपौः सद्यः
॥ १५ ॥
इस काली मंत्र का यदि तीन हजार जप से सिद्ध करके शत्रु के उद्देश्य से जपे तो शत्रु को तुरन्त ही चोथिया बुखार या दर्द का कष्ट होगा।
नाम प्रयोजन दुतं वनं तु गैरिक प्रतिमां, अस्थी कृत्या विद्वाम सुग्धरो भवति दुस्साध्यः
॥ १६॥
यदि साध्या का नाम और प्रयोजन सहित गैरिक (गेरु) की प्रतिमा बनाकर उसको मिलाकर बींध दें तो उसको भयंकर रक्त बहने लगता है।
अमुकाभंगमित्या सीत वद्धामित्यपि च सार्द्धमेतेन, मंत्रेण जपन प्रतिमां साध्याया विरचिता भूत्या
इस मंत्र को जपता हुआ साध्य स्त्री की मूर्ति राख से बनाए।
विदधीत मंत्र वादी वृद्ध भगां रक्तवर्णसूत्रेण, सहसैव भवेद्वद्ध छिद्र स्मर मंदिरं तस्याः
॥ १३ ॥
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॥ १७ ॥
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विधानुशासन 959595959595
फिर मंत्रवादी उस मूर्ति की योनि प्रदेश को लाल रंग के धागे से बांध देवे तो तुरन्त ही उस स्त्री की योनि से भी रक्त निकलने लगे।
गरिक मर्याः शत्रोः प्रतिकृत्यायत्र तेन मंत्रेण, अंगे कीलं निखनेत् तत्स्यात्स व्याधि हीनां वा
॥ १९ ॥
गरिक (गेस) की बनी हुई शत्रु की मूर्ति के अंग में उपरोक्त मंत्र से जहाँ भी कील ठोके वही उसके रोग लग जाता है अथवा वह अंग ही कट पड़ता है।
पिचुमदं लवणा राजी गृह धूमैः प्रेत स्वप्परे लिखितं, नामौंकारोदरगं द्वारस्थं शत्रु ताप करं
॥ २० ॥
नीम (पीचुमर्द) लवणा राजी (राई) घर का घुमसा से स्मशान के खप्पर पर ॐकार के बीच में शत्रु का नाम लिखकर दरवाजे पर रखे तो शत्रु को ज्वर होगा।
देवदत्त
रेफस्य वज्र मध्ये साध्यं तद्वन्हि वायु पुरस्थं, उन्मत्त विष विलेख्यं पत्रे संताप कृत तप्तं
॥ २१ ॥
रेफ (रकार) के अन्दर यज्ञ के बीच में साध्य का नाम लिखे और उसके चारों तरफ अग्रि मंडल
और वायु मंडल उन्मत्त (धतूरे) के विष से (रस से) पत्र के ऊपर लिख कर अग्रि पर तपावे तो शत्रु को संताप होगा ।
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らでららわらわらやりですです
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CISIODOSCISCIDED विद्यानुशासन MSCISISTEIDISCIEOS
नाम षष्टम स्वर स्यांत लिरवेत् प्रेतस्थ रवप्परैः, कांजिरा रुण निंबेन द्वारे संताप कद भवेत्
॥२२॥ नाम को छठे स्थर ॐ के मध्य में श्मशान के खप्पर पर लाल रंग की कांजी और नीम के रस से लिखकर दरवाजे पर रखने से संताप करनेवाला है।
ॐग्रह गृह याहि सुभगे ठः ठः॥
या पोरापत शकदै हुरिंद्रावग्रह, आवेशयति तज्जप्तो धूप आशात मात्रतः
॥२३॥ इस मंत्र को जपते हुएजो पारापत (कबूतर) की शकृद (बींट) और बाहुज (स्याचं उत्पन्म हुए तिल) इंद्रयव (इंद्रजो) की धूप को सूंघने मात्र से ही ग्रह आवेशित हो जाते हैं जग जाते हैं।
हेमास्थि मक्षिका चूर्ण पुणा चूर्ण वदो दनं,
पानं या ग्रह कत्यवस्थं गुह स्वारी निसेवनात् ॥२४॥ धतूरे की लकड़ी माक्षिक (सोनामारयी) का चूर्ण और पुणघूर्ण के स्याने य पीने तथा ग्रह का विकार गुड़ और खारी के सेयन करने से स्वस्थ कर देता है। SSIOSISTERISTOR5101512275७७३PISOKSIPISIOTI50151055815)
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विधानुशासन YOPSPS
ॐ उन्मत्त कारिणि पिशाची पिछे ठः ठः ॥
तालं रैबीजयोश्चूर्णा धुणा चूर्ण मूदृन्टर, अनेन मंत्रितं दद्यात्स पिशाची भवेत् ध्रुवं
॥ २५ ॥
इस मंत्र से हड़ताल और रै बीज के चूर्ण को शत्रु के सिर पर रख दे तो वह पिशाच निश्चय पूर्वक हो जाता है।
प्रत्यानयन मे तस्य प्राहु विद्या विशारदा, क्षीरं शर्करां युक्तं भक्षे पाने च योजितं
॥ २६ ॥
मंत्र विद्या के पंडितो ने शक्कर मिले हुए दूध के खाने और पीने को इन कृत्रिम रोगों को दूर करने का उपाय बताया है ।
विष मुष्टि कनक मूलं रालाक्षत वारिणा,
ततः पिष्टं तद्रसभावित पत्रं पिशाचयत्युदरं मध्यगत
॥ २७ ॥
विषमुष्टिक (कुचला ) कनक मूल (धतूरे की जड़) और राल के और अक्षत (चावल) के पानी से तथा उसके पत्तो के रस की भावना देकर खिलाने से यह पेट में जाते ही मनुष्य को पिशाच जैसा बना देता है।
शिरिव दक्ष कपोतानां तालोन्मत्त सकृद्रसः, मूर्द्धन्यप्पित मुन्मांद दद्यान्मोक्षस्तु मुंडितः
॥ २८ ॥
(शिखिदक्ष) मुरगा कपोतानां (कबूतर) की बींट ताल (हड़ताल) उन्मत्त (धतूरा) को सर पर रखने से उन्माद हो जाता है तथा मुंडी (गोरख मुंडी) को देने से पैदा हुए उन्माद से मोक्ष (छूटकारा) हो
जाता है।
करंजोन्मत्त बीजाणा धुण चूर्ण गुडान्वितं रजः, कलेवरे दत्तं द्विषामुन्याद मावहेत्
॥ २९ ॥
करंज उन्मत्त (धतूरा) के बीज धुण का चूर्ण और गुड़ को कलेवर (मृत शरीर) की रज में देने से शत्रु को उन्माद हो जाता है।
सर्पिषः शत पुष्पायां पतंग पयसोपि च, पानं स्यात् कारिकस्यै तस्योन्मादस्य प्रशांतये
|| 30 ||
सर्पि (घृत) शत पुष्पा (सोया) पतंग (जल मधुक वृक्ष) और दूध को पिलाने से उस उन्माद की शांति होती है।
25959595955 ७७४
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SADRISTOTRAISIOTICISC विद्यानुशासन VDO5CARCIRCRITI
अर्क मूलं स दुईर दल मूलं समाक्षिकं, सार्द्धमन्नादिभिर्दत्तं करोत्युन्मादिनं द्विषं
॥३१॥ आक की जड़ दुडूर (पुनर्नवा) का पत्ता और जड़ तथा माक्षिक (सहत सोनामारवी) को अन्न आदि के साथ देने से शत्रु को उन्माद होता है।
रखंड शर्करया युक्तं निपीतं सुरभः पयः वदरी,
पत्रसिद्धायायवागु स्तत्प्रतिक्रिया ॥३२॥ खांड़ और शकर मिला हुआ गाय का दूध अथया बेर के पत्तों में सिद्ध की हुई यवागु उसके प्रतिकार की औषधि है।
अरेः अंगाल लांगूलं काक दक्षिण पक्ष युक, शयनीय विनिक्षिप्तन्न पस्मार करं भवेत्
॥३३॥ श्रृंगाल (गीदड़) की लांगूल (पूंछ) कौए के दाहिने पंख्य को अरि (शत्रु) के बिस्तर पर डालने से उसको अपरमार (मृगी) आने लगती है।
धत्तूर पुष्प संभूत मिश्रितं मधु कैसरैः,
आयात मोहोत् पुष्पमाश्रोतांजननावनात् धतूरे के फूल के रस में मधु और केसर मिलाकर सूंघने से तथा यह फूल और श्रोतांजन(सूरमा) भी सूंघने से पुरुष मोहित होता है।
कर्क विद्विष घातूर सीरीभिम्महिषा सृजा, सिक्तैनक्तं कतो धूपः स्पष्ट संभोहोज्जनं
॥ ३५॥ कर्क (केकड़े)की भिष्टा विष धत्तूर और सीरि (कलिहारी) को भैंस के खून में भिगोकर नक्तं (रात) को उसकी धूप देने से पुरुष को मोहित करती है।
कृतं सण जलूकाभिः सकृतोऽजगरस्य या, आसूर्य दर्शनार्थी यो रंजनोंजन मोह कृत
॥३६॥ सृण (लाल यूक) और जलूका जोंक की भिष्टा या अजगर की भिष्टा काआंखो में जागते हुए अंजन करके सूर्य को दिखाई देने तक धूप देने से या अंजन करने से दूसरों को मोहित करता है।
उन्मत्तक कांजिऽरक पत्र त्वम् मूल पुष्प फल कतश्चूर्णः,
शतपदी चूर्ण तेलटया मिश्रम्मोह कृत् धूपः ॥३७॥ CASOISORRHOI5015015[७७५ 0510150150151050500
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SSCISCISSI50155 विधानुशासन VD015015015101505 उन्मत्तक (धतूरा) और कांजि और आक के पत्ते छाल जड़ फूल और फल का तथा शतपद (कनछला) के चूर्ण को तेल में मिलाकर मोहित करने वाली धूप बनती है।
सहपोशांश मरम्महिषात जनजका पंचागैः,
रचित स्सपुरै धूपो रंजनोजन मोहनं अनोत् ॥३८॥ सोलहवें भाग गरद (विष) महिषाक्ष गुगल (पुर-गूगल) और धतूरे के पंचाग से बनाई हुई धूप और अंजन मोहम करता है।
हुंडुभ वसादया वक रक्तांवर वर्ति रुज्वत्व द्वीपः, निशि निज तेजस्याष्टांजन तां सुचिरं विमोहयति
॥३९॥
धर्मिणी पुच्छ मा लूनं नृत्य ता कृत संग्रह, हेम पंचांग संयुक्तं धूपितं नतोन्नरान्
॥४०॥
लून मंडूक पुच्छ नग्ने रास्पंदना नरैः कत नत्यैराप्तं, प्रदीपवत्या निहितं नर्तयति दीप्ति कांजने तां
॥४१॥
प्रारंभ सुरत रासभ वाल कृतो नग्न मेहनोत्थानं,
कुरुते जसना मध्ये भुजे समोरोपित; कटकः ॥४२॥ मैथुन करते हुए गधे के बालों को गूंथकर उसके कहे को पुरुषों के बीच में पहनने से सबके लिंग खड़े हो जाते हैं।
क्रियमाण सुरत गर्द्धभ वाल ग्रंथितैः श्रृगाल मल वदरैः,
रचितः स्त्री वस्त्र हर:कटकः प्रति सारणेन करे ॥४३॥ मैथुन करते हुए गधे के बाल और गीदड़ की भिष्टा को बेर के बने हुए कड़े को प्रतिसारण (अंगुली) से दांतो पर मलने से स्त्री नंगी हो जाती है।
जलौक चूर्ण गर्भण लाक्षा रक्तेन वाससा,
कता प्रज्वालिता कुर्यात् गत वस्त्रा स्त्रियो दशा ॥४४॥ जलौक (जोंक) के चूर्ण लाख और खून सहित चर्बी को जलाने से दस स्त्रियाँ भी नंगी हो जाती
CASIOTICISIODETECISIOS[ ७७६ PISTORTOISTETRIORSCIRICIST
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500505105015015 विधानुशासन 9505055055
अभ्यक्त नेत्र युग्मस्य वसयो भेक जन्मना, नरस्य प्रतिभासंते वेणुवो भुजगा इव
॥४५॥ मेंढ़क की चर्बी को दोनों आंखो में लगाने से पुरुष को बांस सर्प के समान दिखलाई देते हैं।
सिक्ता सरह तैलेन रू हन परिषिम, कुरुते ज्वालिता वेणुष्वनिला साधियं निशि
॥४६॥ बत्ती को ऐरंड़ के तेल में और सर्प की यी से भिगोकर बांसों में रात्रि के समय जलाने से साँप ही साँप दिखलाई देते हैं।
दशा सर्प यसा सिक्ता ज्यालिता कुरुते रहे, कृताखेतार्क मूलेन वंश दंडानऽहिनि य
॥४७॥ सफे द आक की रुई की बत्ती को सर्प की चर्बी में भिगोकर घर में जलाने से बांस के दंड सर्प के समान दिखलाई देते हैं।
अहि त्यग् गर्भया वया वत्तिता दीपिका निशि, येणवायेषु ग्रहांगेषु सप्पं वा मोहमावहे त्
॥४८॥ सर्प की खाल की बत्ती को रात्रि के समय दीपक में जलाने से घर के आंगन के बांस आदि सर्प का ही घोखा देते हैं।
सुरगोप कलरव शकत गर्भा वातादि तैल संसित्ता,
निशि वंशादि गृहां गेष्यहि वुद्धिं दीपिका जनयेत् ॥४९॥ सुरगोप (इंद्रगोप = वीरवहूटी) कलरव (कबूतर = मुरगी) की बीट के तेल में भीगी हुई बत्ती को दीपक में रात्रि के समय जलाने से घर के आंगन के बांस आदि में सर्प का भ्रम होता है।
कायानितिवर्तिना धूपानां च क्रिया, गृह प्रयातो रक्षेद् गव्यं नसि यतं पतं
॥५०॥ कार्य होने पर बत्तियों के बुझ जाने पर घर में धूप देने और गाय के घृत की नस्य लेने से रक्षा होती
॥५१॥
सप्ताहं गृह गोधायाः फणिनो वा मुरवेपिंता,
गुंजा कुष्टाय भुक्तास्यान्तारंभस्तत् प्रतिक्रिया 05051215DISTRIC5215७७७PISTOISOTERASICISCISCIEN
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S5050510505125 विद्यानुशासन VS05051205051255
ककला शालि भंगना गात्र चूर्णी विलेपनात. स्टात् कुष्टो विद्विषां गात्रे कंहुतो दशमान्वितां
भल्लातक रसै गौलि गुंजा मंडल कारिकान,
तच्चूर्णा अंगेषु कीर्णः स्यात सप्ता हा न कुष्ट दो रिपौ ॥५३॥ भिलावे के रस में बनाई हुई गोली गुंजा (चिरमी) और मंडलकारिका (कुत्ते की भिष्टा) के चूर्ण को शत्रु के शरीर पर डालने से शत्रु के सात दिन में कुष्ट हो जाता है।
निंब शर्करयोः पानात् मुहू यूषेण भोजनात्,
निशा सैंधव मूत्राणां लेपाच्च स विनश्यति यह कुष्ट नीम और शकर के खाने से तथा मूंग का यूष (मूंग की दाल धुली हुई १ भाग जल १८भाग औटा कर चौथाया जल रहने पर छानकर पीना) के भोजन और हल्दो सेंधा नमक तथा मूत्र के लेप से नष्ट हो जाता है।
पंका लिप्ताहि वस्था सिद्धा वदनानले,
पक्ता शय्या तले क्षिप्तत्वा स्फोटं दधति विद्विषां सर्प के मुँह में रखी हुई सफेद सरसों वदर (बेर) और अनल (भिलावे के बीज) पकाकर तथा कीचड़ में लपेट कर शत्रु के बिस्तर के नीचे रख्नने से शत्रुओं के फोड़े निकल आते हैं।
रजनी रजनी सप्त मध्या मध्या सिताश हो. कंडु मुत्पादोत्सद्यो लिप्ता वपुषि विद्विषः
॥५६॥ सर्प के मुँह में सात दिन रात रखी हुई हल्दी को शत्रु के शरीर में लेप करने से खाज पैदा हो जाती
गुंजा विषानि भालातक कपि कच्छ रजोप्ति, सिष्यात स्वं गेषु लूता कृत शत्रोः काले खरा तपे
|५७॥ गुंजा (चोटली) विष (अतसि वत्सनाभ)अनि (केसर) भिलावे कपि कच्छ (कांच की फली की रज) को तेज अनि में भूनकर शत्रु के शरीर में लेप करने से बड़ी भारी लूता (याज) पैदा होती है।
ॐनमो भगवते उद्दाम रेश्वराय कुंभ कुंभी स्वाहा।।
हरेदंद्रदम सग्वक्र कष्टो शीर प्रियंगभिः, लूता विकार जिल्लेपो मंत्रेणानेन मंत्रितैः
॥ ५८॥ COISOISSEDICISEASOKSI ७७८ PSIODOISTRISIOISSION
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SSCISIOS5I0505125 विधानुशासन 5051015015ICISOTES
इस मंत्र से अभिमंत्रित करके दोनों रुद्ध असृक ( ) वक्र (तगर) कूठ उषीर (खस) और प्रयंग का लेप करने से खुजली का विकार जीता जाता है, ना होता है।
नस्या रुष्कर बीज तल सहितान् सिद्धार्थकाना वते,
कृष्णैस्तंतुभिरानने फणि भृतःप्रेतालयानौ दहेत ॥५९॥ अरुस्कर (भिलाये) के बीज के तेल सहित सफेद सरसों को काले धागे में लपेट कर तथा सर्प के मुख में रखकर चित्ता को अग्नि से जलावे।
गंजा रोभ युतैर्विचूर्ण निहितै र्ता भयेते दिषां, गात्रै गैष्म शरद्वसंत तपन प्रौदातपे स्वेदिनिः
॥६०॥ फिर उसमें गुंजा (चिरमी) और बाल मिलाकर उसके चूर्ण को शत्रु के ऊपर डालने से उसके शरीर में ग्रीष्म शरद और बसंत ऋतु के भी सूर्य की गरमी से पसीने बहाने वाली लूता (खाज) होती
श्यामाजाक्षीर रुनाभी कर्णिकारक्त केसरैः, उद्वर्तनं शिता निंब सेवा चास्याः प्रतिक्रिया
॥६१॥ काली बकरी के दूध रुक (कूठ) नाभी (कस्तूरी) कर्णिका रक्त (मध्यमा अंगुली का रक्त ) केसर का लेप तथा शक्कर और नीम के खाने से इसकी थिकित्सा होती है।
कदली तुरंगं सितसर करवीर जटा च विल्व मज्जा, च दत्तान्यान्नेन समं शत्रो:कुर्यति सपदि वमिं
॥ २॥ कदली (केला) तरंग (असगंध) सितसर (सफे द सरकंड़ा) कनेर की जड़ और देल के गूदे को अन्न के बराबर लेकर शत्रु को देने से शत्रु को तुरन्त ही वमन होने लगती है।
अर्क बीजैः स्नूहीक्षीर भावितै गुंड मिश्रितः, वितीणैरन्न पानादौ रक्तातिसार रुग्भवेत्
॥ ६३॥ स्तूही (यूहर) के दूध में भावना दिये हुए आक के बीजों को गुड़ में मिलाकर खाने पीने आदि में देने से खून के दस्त आने लगते हैं।
गोमूत्र पिष्ट वाक्यायु शक लिप्त शराबयोः, शकृन्निधियते यस्य विद्रोद्य स्तस्य जायते
SIDDRISTOTRICISIOS5I05[७७९ PERSIOTECTEDISCISCESS
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85015015015015015 विधानुशासन 28501510050SOISCIEN जिसके पास गोमूत्र में पीसे हुए याययायु ( ) को दो सिकोरे में लेप करकेरखा जाता है उसका विष्टा रुक जाता है।
तरुदेव कुलायासवाग्गुदा मल लेपितः, मल्ल द्वये रुद्ध मलः स्यादर्द्ध मारुतः
॥६५॥ देवत: (देवदारु) कुलायास (गुल्माष) कांजी और यागुदा (जिहवा का मल) खकार को मिलाकर लेप करने से तथा वायु को ऊपर को रोक देने से विष्टा रुक जाता है।
कुर्यात् छदरा भस्त्रा स्त्रि पुरोष प्रधरिता कंपितं, त्रि पिवेद्वा स्या तस्या मल निरोधनं
॥६६॥
ॐ सप्त मातृके द्वारं स्तभय स्तंभय तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः॥
सहस्त्र जप सिद्धेन वानरा स्थयाभि मंत्रितं, मूत्र भुवम मुना स्थ मूत्रं स्तंभयति द्विषं
॥६७॥ इस मंत्र को एक हजार जप से सिद्ध करके बंदर की हड्डी को अभिमंत्रित करके शत्रु के मूत्र करने के स्थान में गाढ़ देने से उसका मूत्र रुक जाता है।
नारीणां मूत्र भूपंको वन मूषिक चर्मणा, वेष्टितो निहितः कुर्यात् चिरं मूत्र निरोधनं
॥६८॥ स्त्रियों के मूत्र की गीली मिट्टी को जंगली चूहे के चमड़े में भरकर रखने से उनका मूत्र चिरकाल तक रुक जाता है।
शत्रो स्तेन्मूत्र भूपंके सप्पास्य मिसितैः सितं,
मूत्रैमूत्र निरोधाय विमुक्तं तु विमुक्तय ||६९॥ शत्रु के मूत्र की मिट्टी कि कीचड़ को सर्प के मुँह में रखने से मूत्र बंद हो जाता है और हटा लेने पर खुल जाता है।
अस्त्रजा ककलासस्य यत मूत्रं कृत सेवनं, तदऋतु स्नातया ना या लिंपितं प्रदर प्रदं
॥७०॥
।।७१ ॥
सूत्रं यदा सृजा सिक्त महेवा हुंहुभस्य वा,
तदुलयित मात्रं स्थात्महा रुधिरकारणां CHECISIOTICISIOTICISIS ७८0 PREDISTORICHEICTIODICIES
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ಗಣಪಥದತಿ ಇZIRRIಡ ಪಂಥವರಣ
कृत्रिमं प्रदर द्वंद्वं सद्यः प्रशम माप्तु यात्, जल धोते पुनः शूते लेघिते रिमन् तया स्त्रिया
॥७२॥
कल्कितं किंशुकस्या स्थि क्षीरेण क्षौद्र मिश्रितं, नाशयेदातवोद्भति मृतौ पीतं दिन त्रयं
॥७३॥ किंशुक (ढाक के फूल) की अस्थि (वल्कल) के कल्क को दूध और शहद के साथ प्रातु काल में तीन दिन पीने से प्रदर दूर होता है।
गृहीतः पौष्प तारायामृतौ वद्धः करे स्त्रियाः, संध्यादचत्य वंदाकः संभूतिं पुष्पगर्भयोः
॥७४।1 अश्वत्थ (पीपल) के वंदाक (बादा पेड़ में उगा हुआ दूसरा वृक्ष) को पुष्य नक्षत्र में लेकर ऋतुकाल में स्त्री के हाथ में बांधने से रुद्ध (रुका हुआ) गर्भ का पुष्य (स्त्री का रज) उत्पन्न होता है।
पलाश बीज मधुना रखर मत्रेण वा पिबेत वारिणा वा बधु स्त स्याद् धारणं गर्भ पुष्पयोः
॥७५॥ यदि कोई यह शहद या गधे के सूत्र के साथ बलातफाक) केबीज (पलाश पापड़ा) को पी ले तो उसके गर्भ उत्पन्न करने वाला रज उत्पन्न होता है।
शीतेन वारिणा कल्क मंजनामल कोद्भवं, पुष्पे पीत मृगाक्षीणामृतौ गर्भ च नाशयेत,
॥ ७६॥ अंजन और आमले के पुष्य के कल्क को ठंडे पानी के साथ ऋतु काल में पीने से मृगाक्षी (स्त्रियों) का गर्भ व ऋतु दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।
चूर्णस्सित मरिचानां पीतः सलिले: गुडान्वितो नाया,
आर्तव समो त्रिदिनं विनाशयेत् पुष्पमपि गर्भ ॥७७ ।।। सफेद काली मिरचों के चूर्ण को गूड़ में मिलाकर जल के साथ पीने से ऋतु काल के समय पीने से स्त्रियों के ऋतु धर्म नहीं होता और गर्भ भी नहीं रहता है।
पिबति.प्रसूत समये जपा प्रसूनं विमर्च कांजिकया, न भवति सा प्रसूनं तेऽपि तस्या न गर्भ: स्यात्
॥७८ ॥
SISO15015555DISTO55105७८१PISOTSIDISTRISRTICISOTRY
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959595951
विधानुशासन 9590595959595
ऋतुकाल के समय जपा प्रनून (कुड़हल के फूल) कांजि के साथ पीसकर पीने से गर्भ नहीं रहता है और न ऋतु धर्म ही होता है।
गैरिकं क्रिमिजित कृष्णा सम भागान् पिवेत् ऋतौ इंद्र वल्ली स मिरिचा यद्वा गर्भोन जायते
॥ ७९ ॥
गैरिक (गेरु) क्रिमिजित (बाय विडंग) और कृष्णा (काली मिरच) को बराबर लेकर ऋतु के समय पीने अथया इंद्रवल्ली (इंद्रायण) काली मिरच को भी पीने से गर्भ नहीं रहता है।
चूर्ण सिद्धार्थ तैलानि पीताऋतु वासरे, निरुद्धति स्त्रिया गर्भ ध्वसंयति च तद् ऋतुं
॥ ८० ॥
सफेद सरसों का चूर्ण और तेल को ऋतु के दिनों में पीने से स्त्री का ऋतु धर्म बंद हो जाता है ।
सोहि वासा छदजः सम तिक्त रस रामठः, गर्भ निपातयेत्पीतः काथो वाश्री रसोनयो
॥ ८१ ॥
यासा (अरहूसा) के पत्तो (छदज) का रस के साथ तिक्त (कड़वी पितपापडा-कुटकी) रामत (हींग) को पीयें अथवा श्री रसं (सरल का गोंद बरेजा) और रसोन (लहसुन) के क्वाथ को पीने से गर्भ गिर जाता है।
ऋतौ दिने दिने खादेत पुंसयोग विवर्जिता, गुडपलोम्मितं प्रश्नं नस्यात् प्रजनआमृति
॥ ८२ ॥
यदि ऋतुकाल में पुरुष से न मिलती हुई स्त्री चार तोले ( पल भर ) गुड़ को प्रतिदिन खाये तो उसे जन्म भर संतान नहीं होवे ।
पलाश बीज चूर्णेन मध्वाज्य रहितेन था,
गुह्यं लिंपेद ऋतौ तस्या न स्याद् गर्भ समुद्भवः
॥ ८३ ॥
ऋतुकाल में पलाश के बीजों के चूर्ण को शहद और घी से अपनी योनि में लेप करती है उसके गर्भ नही रहता है।
वर्त्ते लवण खंड या त्यंते तैल संयुतं, गर्भाशये मुखो गर्भन दद्यात् सा कदाचनः
॥ ८४ ॥
जो नमक के टुकड़े को तेल के साथ चोपड़कर रति के अन्त में गर्भाशय के मुख में रखती है उसके कभी भी गर्भ नहीं रहता है।
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पुष्पोन्मूलितमुन्मत्त मूलं धार्यं कटि तटे, प्रभवेत्प्रतिवद्धं तद्योषितां गर्भ संग्रहं
॥ ८५ ॥
ऋतुकाल के समय उन्मत्त (धतूरे) की जड़ को कमर में बांधने से स्त्री को गर्भ नहीं रहता है।
आखुकर्णी शिखा सौम्यापिष्टा ज्येष्टांबुना, भगे घृता व गार्भ समद्भिः पिष्टातु नान्यथा
॥ ८६ ॥
आशु करणी (मूषाकर्णी) सोम्य (गूलर) को ज्येष्टा ( ) के पानी (रस) से पीसकर योनि में रखने से गर्भ नही रहता है।
सुर गोप रजो नीरें केवलं शश लोहिती, क्षीरं वा शाल्मली पुष्पं पिवती
गर्भ
मधु पिष्ट पलाशास्थि कृत लेप ध्वजः पुमान यां. गच्छेदार्त्तये नारी तस्या गर्भो न जायते
पलाश (ढ़ाक) की लकड़ी को पीसकर मधु में पिलाकर लिंग पर लेप करके पास ऋतुकाल में जाता है उसको गर्भ नहीं रहता है।
गुड़ च देव काष्टं तिलोत्थं च खरां भसा, शू पुष्पाणि वा स्वाय पिवेद् गर्भ निवृत्तये
9
|| 22 || पुरुष यदि स्त्री के
॥ ८९ ॥
गुड़ देव काष्ट (देवदास) तिलों की खल को गधे के मूत्र में पीसकर अथवा सूर्य्या (आक) के फूलों को खारी नमक के साथ गर्भ को रोकने के लिए पीवे ।
पिचुमंदध्दोद्भूतो धूपो मन्मथ मंदिरे,
ऋतौ प्रदत्त कुरुते गर्भानुपत्पादनं स्त्रियः
॥ ९० ॥
पिंचुमद (नीम के पत्तों की धूप को ऋतुकाल के समय योनि में देने से स्त्री को गर्भ नहीं रहता
है ।
ऋतौ तलं च राजीवं शंख चूर्णं च योषिता, पीता निरुद्यते गर्भ ध्वंसयति च तद् ऋतु
॥ ९९ ॥
ऋतुकाल में तल (ताइवृक्ष) राजीव (कमल) शंख के चूर्ण को पीने वाली स्त्री के गर्भ नहीं रहता है और ऋतु धर्म को भी नष्ट करता है अर्थात् ऋतु धर्म नहीं होता है।
9525
595७८३ P5951975
PPSPA
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SAS1015122152510151215 विधानुशासन ISIO15181510150SOTI
मंत्रो हु सुचि रीत्येष गर्भणयाव्य विदर्भितः, मल्ल के लिरिवतः कुर्यात् प्रशवे गर्भ रोधनं
॥ १२॥ गर्भणी के नाम को 'हुसुचिरी' इस मंत्र के साथ विदर्भित करके अर्थात् गूंथकर मल्लक (मल्लिका मीतिया- मोगरा) लालटेन या नारयली के छोड़े के बने हुए प्याले पर लिखने से गर्भ रुक जाता है।
लांगलि हस्त ताराभे गर्भिणी चाम्रि रोपिसा, तावत् सं स्तंभरोद्गगर्भ यावन्नो स्वन्यते ततः
॥१३॥ लांगली (कलिहारी) को हस्त नक्षत्र में लाकर गर्भिणी के घर में गाइने से उसका गर्भ तब तक रुका रहता है जब तक उसका निकाला नहीं जाता है।
सिद्धार्थ तैल संयुक्तं महिष महा शकुन पाशोत्पुष्पं, या पिबति गर्भिणी सा जात्यंधमपत्यमाप्रोति
॥९४॥ सिद्धार्थ (सफेद सरसों) तिल का तेल महिषि (भैंस का दूध) महाशकुन ( ) माष (उड़द) यूष (घुली हुई दाल १ भाग पानी १८ भाग डालकर औटाकर शेष चौथा भाग रहने पर छना हुआ पानी को यूष कहते हैं) इनको जो स्त्री पीती है उसके जन्म से अंधी संतान होती है।
ऋतौ पुष्पं च शाल्मल्या: पलाशशतपत्रयोः, बीजानि च निपीतानि नारी वंध्यां वितन्वते
॥९५॥ ऋतुकाल में सेमर (शाल्मली) के फूल पिलाश (दाक) के बीज और शतपत्र (सतावरी) के बीजों को जो स्त्री पीती है वह वंध्या हो जाती है।
करवीरस्य बीजानि नवनीतयुतानिया, रजश्वलाभि हत्प्रष्टवा सा वंध्या भवति ध्रुवं
॥१६॥ जो रजस्वला स्त्री कनेर के बीजों को पीसकर मक्खन के साथ खाती है वह निश्चय से वंध्या हो जाती है।
यम विद्या
ॐ काल दष्ट्रं भयं करि दर दर मई मई संहर संहर हफट ठः ठः।।
अंगानि धाम विद्यां लक्ष जपात् सिद्धामेना जपननि रिपो विध्यत्, प्रतिमाया नूतन चिता मन्मयाः स्वांऽधि रेणुरेणु सिक्तायाः ॥९७ ।।
SHRISTOTRICISIOISODSRISI७८४PISTOISTRISTRISDISEDICTION
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959595951 विद्यामुशासन 959595969595
इस यम मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके चित्ता की नयी मिट्टी में अपने पैर की धूल मिलाकर उससे शत्रु की मूर्ति बनाये |
रक्त कुसुमार्चिताया पत्रा वरुणमलयजात लिजाप्ताया:, अंगे कंटकैः स्यात् तेषु द्विषतो महान्व्याधिः
॥ ९८ ॥
उसका लाल फूलों से पूजन करके तथा लाल चंदन आदि से लेप करके उसके जितने अंगो में कांटे से छद किया जाए तो शत्रु के उसी अंग में महान रोग हो जाए।
ॐ नमो भगवते रुद्राया भ्रमः भ्रमः भ्रामय भ्रामय अमुकं विभ्रामय विभामय उदभामय उदभ्रामय रुद्र रौद्र रूपेण हुं फट ठः ठः ॥
उन्मक्ष रुद्र मंत्र जपन् त्रिलक्ष प्रजाप्प सिद्धममुं, धत्तूर रस समिद्धि जुहुयात् चितिकाऽनलैः भ्रमये मंत्र दो तीन लाख जप से हिल्
इस उन्नत
की अग्रि में शत्रु को भ्रम करने के लिए होम करे।
॥ ९९ ॥
के रस की समिधाओं में से चित्ता
मंत्र जपन्न मुं यद्याव च्चेहेमगैरिक प्रतिमायाः, अंगारे लिखिन्या सद्यो हीयेत विद्विष स्तत्र
॥ १०० ॥
इस मंत्र को जप करते हुए जब तक सोने या गेरु की प्रतिमा नष्ट हो जाती है तब तक शत्रु भी नष्ट हो जाता है।
हकार बिंदु संयुक्तं षट्कोणाभ्यंतरे लिखेत् तत्क्षेप्यं चक्र चक्राद्याः सच भ्रमति काकवत्
॥ १०१ ॥
बिन्दु सहित हकार को एक छ कोण वाले यंत्र में लिखकर कुम्हार के चाक पर डालने से शत्रु कौए की तरह घूमता रहे।
ॐ नमो भगवते महाकालाय दह दह पच पच भंजय भंजय उत्सारय उत्सारय स्तंभय स्तंभय मोहय मोहय उन्मादय उन्मादद्य एवं रूद्राज्ञापयति ॥ अथ शवरि महा महिम वंतौ स्मरति रव रख हुं फट ठः ठः ॥
गोमय चत्वर मृद्भू प्रति रूपं ग्राम स्वैट नगराद्ये, कृत्वा मध्ये बूल्यां न्यस्य ततः कणा तुषैः कुर्यात्
OSPPS
॥ १०२ ॥
150695७८५P58959595959sex
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OMSONAIRKARISRAARIS विद्यानुशासन 95050512551079OIN
आहुति सहस्त्रमऽमुना मंत्रेण हविः कृतं दद्यन्महती, तद्भस्म सप्त कृत्वः कृत जाप्पं नाभि मात्र जलैः ॥१०३।।
स्थित्वा ग्रामाचऽभिमुख मैतन्मंत्रं जपन् क्षिपेत् तस्मिन,
उदके स्यु मादे स्तस्य विपद् व्याधि वंद्यभियः ॥१०४ ॥ ग्राम (गोल रेखा से घिरे हुए) खेट (छोटी पहाड़ियों से घिरे हुए को) नगर (चारों ओर परकोटे से घिरे हुए) को कहते हैं। ग्राम गेट था नगर की समान मिट्टी का चबूतरा बनाकर उसको गोबर से लीपकर उसके मध्य में हवन कुंड बनाकर उसमें कणा (पीपल) के तुषों से एक हजार आहुति उपरोक्त मंत्र से और घृत से इस मंत्र के द्वारा एक हजार आहुतियाँ देवे| भस्म पर सात बार इस मंत्र को पढ़कर नाभि तक जल में गाँव आदि की तरफ मुँह किये हुए खड़ा होकर इस मंत्र को जपता हुआ यदि जल में उस भस्म को फेंक दे तो उस गांव को रोग तथा वंद्य आदि भय की विपत्ति होवे।
ॐवर वज्र पाणि पातरा वजं सुरपति राज्ञापयति हुं फट ठः ठः॥
क्षेत्र क्षेत्रंद्र दिग्भाग मृक्षतं कुलिशं क्षिपेत,
मंत्रणा प्राङमुरखो यत्र तत्र स्यात् सस्य संक्षयः ||१०५॥ इस मंत्र से पूर्व की तरफ मुख करके जिस खेत या किसान के खेत के भाग में मृक्षत वज फेंका जाता है वहाँ के धान्य नष्ट हो जाते है।
पणया गारे क्षिपेद् यत्र वजं दत्तं तेन मंत्रितं,
तत्र पणय क्षय: स्यात तदऽपनीति प्रतिक्रिया: ।।१०६॥ इस मंत्र से मंत्रित करके जिस पणयागार (दुकान) में वज फैंका जाता है वह दुकान भी नष्ट हो जाती है उसका प्रतिकार उस वन की बुरी नीति है।
काकांडरस संलिप्त मल्लकस्थ सकृत् नरः,
रवायते वायसैश्चचच्चां कंता दिन रवरैः रवरैः ॥१०७॥ जिस पुरुष के सिर पर कौए के अंडे के रस का लेपएक बार कर दिया जाए तो उसको कौए नाखूनों से फाड़ फाड़कर चोंच से खा जाते हैं।
॥१०८॥
कृष्णा काका सृजा यस्य नाम भूत दलैपिते,
निवेश्यते सकत्मप्ये सः काकैः रवायते मुहुः STERDISSIOTSTOISE525७८६PIDIOTECISIOTSIRISTRITICISE
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CISIOSIRIDIDISTRI5105 विधानुशासन 05125050151955105
द्विः परिकवच. होम जपनामुलट ज्ञाप्प रिद्धिं निन्दजेल,
सदमन्याऽरिष्ट कालंत्र्यशमरे: कामोत् यदि बहुविपदः ॥१०९।। दो बार कवच हुं हुं अस्त्र (फट) होम (स्वाहा) अर्थात् हुं हुं फट स्वाहा इस मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके शत्रु के घर पर यदि उसको बहुत कष्ट देना होतो इस मंत्र से अभिमंत्रित करके काठ की तीन कील गाड़ देवे।
टोशे कारस्कर मय कीलेंदु शब्द मालिरव्य,
मंत्री रखनेदऽचिरात् दुःरवानि व्यातनोति रिपो ॥११०॥ जिस समय मंत्री उन कारस्कर (कुचला) की कीलो को चंद्र शब्द लिखकर गाड़ने के लिए खोदता है उसी समय शत्रु को दुःख धेर लेते हैं।
मर्मणो द्वितयं दम स्त्रयोश्चंद्रयो दयं, सिद्धेन्नगेंद्र मंत्रोयं लक्ष जाप्पात् फलार्थिनां
॥१११॥ दो मर्म (जं जं) दो अस्त्र (फट फट) और दो चंद्र (ठं ठं) अर्थात् जं जं फट फट ठं ठं नागेंद्र मंत्र चाहनेवोलों को एक लाख जप से सिद्ध होता है।
सप्परिटयै कांगुलं यत्र सप्पक्षिा निरखनेद ग्रहे, जप्तमे तेन तद्वेशमस्यात् सप्पानां निकेतनं
॥११२॥
मंत्रो मुरु मुरु चुरु चुरु ठठेति लक्ष्य प्रजाप्पतः सिद्धं,
स्तं वरम वदनस्य प्रयातऽसौ प्रथित निज शक्तिः ॥११३।। मुरु मुरु चुरु धुरु ठः ठः यह मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है। यह मंत्र अपनी शक्ति से विश्यास कराने में बड़ा प्रसिद्ध है।
वेशमन्य नेन जप्तं प्राच्यां दिशि रखनतु वैरिणो मंत्रि,
गोदंतं गृह मेतत् मूषिक कुलं भवति ॥११४ ॥ मंत्री यदि इस मंत्र से गौ के दांत को अभिमंत्रित करके उसको शत्रु के घर की पूर्व की दिशा में गाड़ दे तो यह घर चूहों से भर जाता है।
सप्तां गुलं रिपो मेंहं पैप्पलं कीलमश्वने,
चिता काष्ट मयं याम्ये निरवनेत् स विनश्यति ॥११५॥ SSIOTSPIRIDISTRISTS15015७८७ 75105IRISTRISPIRISEXSI
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PSPPSPOPPY विधानुशासन 959595959
यदि शत्रु के घर में चिता की लकड़ी में पीपल की सात अंगुल लम्बी कील गाड़ी जाए अश्वनी नक्षत्र दक्षिण दिशा में तो वह घर नष्ट हो जाता है।
कृतिका सु खनेत् कैल्व क्षेत्रे धान्य क्षयो भवेत्, रोहिण्यां रोहिणी वृक्ष कीलं कोष्ट गृहे खनेत्
॥ ११६ ॥
कृतिका नक्षत्र में बिल्व की कील धान्य के खेत में गाड़ने से धान्य नष्ट हो जाता है और रोहिणी नक्षत्र में रोहिणी (मांस रोहिणी) वृक्ष की कील को कोठे के घर में गाड़े ।
सौम्य मृगास्थि शय्यायां न्यसेत् स स्यात् मृगोपमः, व्याघातकाल माद्रायं रिपोर्गह ज्वरायसः
॥ ११७ ॥
सौम्य (मृगसिर नक्षत्र) में मृग की हड्डी की कील शत्रु के बिस्तर में रखने से वह मारने के समय मृग के समान हो जाता है और आद्रा नक्षत्र में रिपु के घर में रखने से उसे ज्वर हो जाता है ।
मयुरास्थि मयं कीलं सिकत्थक प्रतिमा हृदि, आधितो निखनेत् शत्रो महारोग करोमतः
॥ ११८ ॥
मोर की हड्डी की कील को शत्रु की प्रतिमा के हृदय में गाड़ने से अत्यंत रोग करने वाली मानी
गई है।
पुष्टी अस्थि प्रतिकृतेः पादे पंगुत्व मावहेत्. करे सप्पास्थि सप्पक्ष सर्प दृष्टो भविष्यति
॥ ११९ ॥
पुष्प नक्षत्र में शत्रु की प्रतिमा के पैर में हड्डी गाड़ने से वह लंगड़ा हो जाता है और हाथ में सर्प की आंख की हड्डी गाड़ने से शत्रु सर्प की सी आंख वाला हो जाता है।
मघा सु उष्ट्रा स्थिजं कीलं सिखनेत् प्रतिमालके, द्विषः सशीर्ण रोगाय सयोऽनलाय कल्पते
॥ १२० ॥
मघा नक्षत्र में शत्रु की मूर्ति के भाल (पेशानी-ललाब) में अथवा बालों में ऊंट की हड्डी की कील गाड़ने से शत्रु के सिर का अग्रि जैसा रोग शीघ्र ही हो जाता है।
कोष्टागारे खनेद्भगो मूषिकास्थिमयं रिपो क्षेत्रेवा तदगृहे धान्यं मूषिकैरैव च भक्षिते
॥ १२१ ॥
शत्रु के कोठे या खेत में चूहे की हड्डी की कील गाड़े तो उसके धान्य को चूहे खा जाते हैं।
050505050SP/SNS/SPS
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959595959SPX विधानुशासन 259595959हए
॥ १२२ ॥
खरादुत्तर फाल्गुन्या मुन्मादो द्वारि सदमनः, गजारव्यं तदगृहं हस्ते स्वाद परमार पीडनं उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में गधे और चूहे की हड्डी की कील को शत्रु के घर के द्वार में गाड़ देवे तो शत्रु को उन्माद हो जाता है या हस्त नक्षत्र में ही की हड्डी की कील गाड़े तो शत्रु को उन्माद की पीड़ा होगी।
चित्र रूक्षऽजायजा स्थाने तदजानभिवृद्धयो, भवने कुकलास्थि स्वातौ स ककलाल वत
॥ १२३ ॥
चित्रा नक्षत्र में बकरी की हड्डी की कील को बकरियों के स्थान में गाड़ने से बकरियाँ बढ़ती है और स्वाती नक्षत्र में शत्रु के भवन में कृकलास (शरद छिपकली) की हड्डी गाड़ने से वह शरठ की तरह हो जाता है ।
शार्द्धलास्थि विशाखासु शय्यायां जनयद्रजं, भीतिकं वंध्यां विदध्यात् शयने स्त्रियं
॥ १२४ ॥
विशाखा नक्षत्र में शार्दूल सिंह की हड्डी की रज को बिस्तर पर रखने से स्त्री भयभीत और चंध्या हो जाती है।
नक्तमाल मां की लं ज्येष्ठयां रिपु मंदिरे, निखनेत्तस्य सद्य: स्थादलक्षी दुःखदायिनी
॥ १२५ ॥
ज्येष्ठा नक्षत्र में नक्तमाल (करंज) की कील को शत्रु के घर में गाड़ने से उसको दरिद्रता (अलक्ष्मी) दुःख देने लगती है।
मूले चिता प्रतिकृतेः कीलः श्लेष्मांतकोदभवेः, गुह्ये शिरासि चन्यस्तो दूर मुच्चाटये द्रिपुं
मूल नक्षत्र में शत्रु की मूर्ति के गुह्य (गुप्त अंग) में तथा सिर में चिता में ( लिसोठे) की कील को गाड़ने से शत्रु का दूर से ही उच्घाटन हो जाता है।
।। १२६ ।।
से ली हुयी श्लेष्मांतक
न्यस्ता रूयायाश्चिता भूत्या मध्ये प्रतिकृतेः खनेत, चिता स्थाप्येत दग्नौ तां क्षिपेत् शून्यो भवेदरिः
॥ १२७ ॥
चिता की राख से शत्रु का नाम लिखकर उसको शत्रु की प्रतिमा में गाड़े फिर उसको चिता की अग्नि में रख दे तो शत्रु आग के अन्दर छिप जाता है।
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७८९PGP58
59595एक
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PSPSPSPSS विधानुशासन 25
तापयेदुत्ताषाढे नृ कपालेकृतं रिपो प्रतिरूपं चितावह्नौ महारोगः प्रजायेत
95PSP595
॥ १२८ ॥
उत्तराषाढ़ नक्षत्र में मनुष्य के कपाल पर शत्रु का रूप बनाकर उसको चिता की अग्नि में डाल देने से शत्रु को महान रोग हो जाता है।
चंडासास्थि पुरोगेटे खातं स्तंभात द्विषांश्च, पिष्टाया मुल्लुकास्थि विद्वेषोच्चाटन प्रदं
॥ १९९ ॥
शत्रु के घर में चांडाल की हड्डी को गाड़ने से शत्रु को स्तंभित करती है तथा उल्लू को हड्डी को पीसकर रखने से विद्वेषन और उच्चाटन करने वाली है।
वारुणे काक पक्षेण प्रतिमा नृ कपाल के विषा, सग् भाविता भूति छञोत्साधयतदगता
॥ १३० ॥
पश्चिम दिशा में कौवे के पंख से मनुष्य के कपाल पर विष और खून से भावना दी हुयी राख से शत्रु की प्रतिमा बनाने से शत्रु का उच्चाटन होता है।
द्विज चंडाल माजरि वृको लूक द्विजास्थिभिः, भ्रांति गृह चिता न्यस्तैः स्यात्पूत्तर भाद्रयोः
॥ १३१ ॥
पूर्वा भाद्रपद और उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में ब्राह्मण चांडाल बिलाव वृक (भेड़िया - कौवे गीदड़ ) उल्लू की हड्डी को तथा पलाश की लकड़ी की चिता पर रखने से शत्रु का घर से उच्चाटन करती है।
साध्यस्य जन्म नक्षत्रे यः कीलः परिभाषितः, पौष्णोपि स्वतंतं प्राहु: संत स्ततत्फल प्रद
॥ १३२ ॥
साध्य के नक्षत्र के पेड़ की जो कील गाड़ी जाती है विद्वानों ने उसको विशेष फल देने वाली कही है अगर उसको जन्म नक्षत्र में ही गाड़ी जाये।
स्नूक क्षीर भावितेभ्यो यत् तिलेभ्यस्तैल माहतं. तस्याऽभ्यंगेन केशाः स्युः काशनी काश रोचिषः
॥ १३३ ॥
थूहर के दूध में भावना दिये हुये तिलों के तेल को मलने से बाल काशनी के समान कांतिवाले अर्थात् सफेद हो जाते हैं ।
252525252525251P5050505252525
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SIOSRIDIDI5015155 विद्यानुशासन 851035RITICISTOISTOISS
स्नुक काको उदंबराकाणां क्षीरैः पिष्टं सितार्कजं,
मूलमालेपनात केशान कुर्यात् स्वेत यावां कुरान ॥१३४ ।। थूहर काकोंदुबर (गूलर) आक के दूध से पिसी हुर्थी सफेद आक की जड़ के लेप से बाल जौ अंकुरों के सामन सफेद हो जाते हैं।
सिद्धार्था मलक रजः स्नगर्क पासा सुभावितं लिप्त,
पलितानि करोति कचानऽमधित सेको भवेद् द्यावत् ॥१३५ ।। सफेद सरसों आमला के चूर्ण को स्नूकाथोहर) और आक के दूध से भावना देकर लेप करने से बाल तब तक सफेद रहते हैं जब तक अमथित सेक (बराबर भिगोना) नहीं होता ।
गुंजा भूले शिला शरव चूर्णः कृत विलेपनं,
धात्र्याम्लपिष्टे रचितान केशानां नाशनं भवेत् ॥१३६ ॥ गुंजा (चोटली) की जड़ मनशिल शंख चूर्ण को धात्री (धाय के फूल) और आमले के चूर्ण के लेप से बाल नष्ट हो जाते हैं।
नाशयेत्मागधी चूर्णः स्नूकक्षीर बहुभावितः, स्नामा मलक संयुक्ते द्विषतं कच संचयः
||१३७॥ स्नूक (थूहर) के दूध में बहुत बार भावना दिया हुआ मागधी(पीपल) के चूर्ण बालों को नष्ट करता है उसमें आमला मिलाकर स्नान करने से बाल इकट्ठे हो जाते हैं।
ब्राहाणी पुच्छ चूर्णेन राजी तैल विमिश्रितां, सप्ताहं गुप्त सं लिप्त मुक्त केश विनाशतः
॥१३८॥ ब्राह्मणी (ब्रामणी सप) के पूँछ के चूर्ण को सफेद सरसों के तेल में मिलाकर सात दिन तक गुप्त अंग पर लेप करने से बाल सफा हो जाते हैं।
॥१३९॥
सप्ताह हेम तैलस्ट मध्येषु विहितं हरेत्,
लिप्तं भुजंग लांगुलं कचान रोमाणि च स्फुट सात दिन तक हेम (धतूरे) के बीजों के तेल को मलने से और सर्प की पूँछ का लेप करने से बाल और रोम सभी साफ हो जाते हैं। SIRISTRISTRISTOTRESI७९१P/585DISTRIEDISTRISION
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252525252525 faengauean Y52525252525.
साष्टांशक कला स्नुक कलकं सहितं कथितं, जलं आदौ विलेपमालितं कचरोम निवर्हणां
11880 11
आठवें भाग थूहर के कल्क का जल में क्वाथ बनाकर उसका लेप करने से बाल और रोम सभी उड़ जाते हैं।
शिरीष सुमनश्चूर्णो धतूर स्व रसान्वितः निहितो शन पानादों कोति वधिरं नरं
॥ १४२ ॥
सिरस के फूलों के चूर्ण को धतूरे के स्वरस में मिलाकर खाने तथा पीने आदि से पुरूष बहरा हो जाता है।
शाल्मली तरू निर्थ्यासो हेमस्वरस भावितः, द्विषतं विदध्यात्वाधमन्नदिषु विमिश्रितः
॥ १४२ ॥
सेमर के गोंद को अथवा रस को धतूरे के रस में भावना देकर अन्न आदि में मिलाकर खाने से शत्रु अंधा हो जाता है ।
कनक फल शाल्मली तरु निर्यास शिरीष बीज चूर्ण युतं,
ਮਨ करोति भुक्तं मोहं वा धियं मांध्यं च ॥ १४३ ॥
धतूरे के फल सेमर का गोंद या रस और सिरस के बीजों के चूर्ण को खाने से पुरुष में मोह, बहरापन और अंधापन हो जाता है।
वाधिय्य मोहमांटां च द्विषामौषधयो गजं, ससिते माहिषी क्षीरे पीते सप्त दिनश्यति
॥ १४४ ॥
शत्रुओं की औषधियों के योग से हुआ बहरापन, मोह और अंधापन आदि शक्कर सहित भैंस का दूध पीने से तुरन्त ही दूर हो जाते हैं।
गुंजा फलानां स्नुकक्षीर भावितां तामुपेयूषी, चूर्ण ज्वालिता वर्त्ति रांध्यं कुय्याद्विपोनिशि
॥ १४५ ॥
रात्रि
थूहर के दूध में भावना दिये हुए गुंजा (चोटली) के फल के चूर्ण की बत्ती को जलाने से शत्रु में अंधा हो जाता है।
धूपो विदध्याद रात्र्यांध्यां गुंजा फल मूले हेमकुसुमकृतः, तत्प्रतिकार विधि: स्यान्धु पयः क्षीर पानं वा
eMPSP59599 ९२PS
॥ १४६ ॥
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OGSPOSDISTRISTOT5 विधानुशासन 9501510052015DISTRIES गुंजा (चोटली) फल और धतूरे के फल की धूप से रात्रि में पुरुष अंधा हो जाता है शहद या दूध पीने से वह सब दूर हो जाता है।
चर्म शकुनी गतांते निधाय करवीर काऽअग्नि पुट दग्ध पटु,
गंधा कप भुक्तः कपि तरूतैलोष्णां जनान्मोक्ष: स्यात् ॥१४७ ।। मरे हुए शकुनि (गिद्ध) की चर्म रखने और कनेर की अग्नि की पुट में भस्म किये हुए पटु (पटोल लता-परवल साग-सोआ या सौंफ-जमक) और गंधा (असगंध) को खाने तथा कपितरू ) के तेल को आँखो में लगाने से पुरुष रोग से छूट जाता है।
ज्वलिता वत्या दीपोनिवज वंदाक रेणुक गर्भयां,
__ भवने रजनौ जनयति काण वदनिमेषनां द्विषतां ॥१४८ ॥ नीम की वंदा (अमरवेल) के चूर्ण याली दीपक की बत्ती को घर में रात के समय जलाने से शत्रु काने हो जाते हैं।
गुंजाफल जल भावित मधुक मधु च्चिष्ट मातुलंग फलैः,
संयुक्तायां वत्या दीपो विदद्याति काणत्वं ॥१४९ ।। गंजा (चोटली ) के फल के जल (रस) में भावना दिये हुए मधुक (महुवे) औ शहद (मधु उच्चिष्ट) मातुलुंग (बिजोरा) के फल सहित बत्ती का दीपक काणत्व काना बनाता है।
आयास प्रस्विद्यत सित तुरंग मुस्योत्थ धर्मजल कलितः,
लेपाद लक्तकरसः सित तरमधरं रिपोः कुरुते ॥१५० ॥ अत्यंत परिश्रम के कारण सफेद घोड़े के मुख्य से बहते हुए पसीने के जल से युक्त अलक्तक (महायर) के रस के लेप से शत्र के नीचे का होंठ सफेद हो जाता है
यत तेन श्वेत भावेन कारितेन विमुच्यते, उष्टस्तान तुरंगास्य प्रस्वेदजल लेपनात्
॥१५१॥ वह सफेद बना हुआ होंठ लाल घोड़े के पसीने के जल के से ठीक हो जाता है यह उपरोक्त रोग के निवारण का उपाय है।
ककला त्वचोदगीणं तांबूलं यस्य बद्धते, मुस्वरोगो भवेत् तस्य यावन्नाऽस्ट विभोक्षणं
||१५२॥ CASIOTICISISTERTOISOD७९३ 0755RIOSITICISTORY
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CSRI5101510851015XD75 विद्यानुशासन ISIRISTOTSTOISTORICISS कृकलास (सरठ) की छाल सहित पान जिसके बाँधे जाते हैं उसके तब तक मुख रोग रहता है। जन तक वह नहीं खोला जाता है।
भक्षितं दतं पतनं महर्वा गुग्गुलयस्य ला, वक्रेऽपितं भवे दतं रूजो द्यावन्न मुच्यते
॥१५३॥ अहि (सर्प-भिलावा ) या गुगुल के भावित दंत पतन (दत्तोण या मंजन) को मुख में रखने से दांत में दर्द रहता है जब तक वह मुँह में रहता है।
आरुष्कर मुदगेवा सप्पस्टिा वा निधियते, यस्य तांबूल मुच्चिष्टं मुख रोगो स जायते
॥१५४॥ अनाकर (कुचल या भिलावा) या मूंग सर्प के मुख में हुआ का पान जिसके मुख में जाता है उसके मुख रोग हो जाता है।
हेमाग्नि दग्ध मधुकत धूमा पूरित घटोदरे विहितं,
पीत करोति सहसा मूकत्वं वारि शत्रूणां ॥१५५॥ धतूरे की आग में जले हुए मधुकृत (महुवे के फल ) के धुए को घड़े में भरकर उसमें जल भरकर पिलाने से शत्रु गूंगा हो जाता है।
सप्ताहं सलिलं पीत जाति कुसुम वा सितं, मूकतां कारि मासेता मासु नाशयति प्रभुः
|१५६॥ जाति (चमेली) के फूलों में सात दिन तक बसाये हुए पानी को पीने से गूंगापन दूर हो जाता है।
ताल तकोत्थ भुक्तायाः सित गौल्या मलेन यः, आलिप्त स करोभ्युमुष्टा हरेनारि पयोधरं
||१५७॥ यदि पुरुष ताल ( हड़ताल) और मढे की आई हुई सफेद गोली (सुपारी) को मलने से अपने हाथों को पोतकर स्त्री के स्तनों को छूवे तो स्त्री के स्तन गिर जाते हैं ।
तैलेनं गोप कच्छप मस्तक चरणानि मसूण पिष्टानि,
स्तन युगलं प्रमदानां प्रनाशयति प्रलेपेन ॥१५८॥ इंद्र गोप (वीर बहूंटी) के तेल कछुवे की खोपड़ी तथा पैर मसृण (अलसी) के लेप से स्त्रियों के कुच गिर जाते हैं।
कूर्म शिरोऽनि कतांजलि सहस्त्र पदमानवाह मूरजोभिः,
छुरितश्चकी करणातकरः करोत्यंगना स्तनांतर्दानं ॥१५९॥ CSCI5015015TOSDIDIO5[७९४ PASCIETSIDISHEIRIDIOINDEY
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STORIS0521STDISTRICT विधानुशासन 9851235TOISORDI5015 कछुवे की खोपड़ी और पैर कृतांजलि (अजिलि कारिका- लजालू) सहस्त्र पदमा (कमल) मनुष्य के सर के बाल तथा कौये के पैरों का चूर्ण का लेप स्त्रियों के स्तन को छुपा देता है।
गलातैलेन संयुक्ता वृश्चिकालि वचान्विता,
निहिता मूत्र भूपंके जनयेत् योनि वेदनां । ॥१६०॥ तेल सहित गला() वृश्चिकालि (बरहटा कटेली) और वच को योनि में रखने से अत्यंत दुस्सह योनि कष्ट होता है।
शकृत वृश्चिक पुच्छाग्र कंटेकेन युतं स्त्रियाः, करोति क्षितिग्रस्थ स्थ दुस्सहां भग वेदनां
॥१६१।। बिच्छु के पूँछ के अन्य भाग के कांटे से युक्त करके शकृत (उसके गिलाजत टट्टी को) योनि में रखने से अत्यंत दुःरसह योनि कष्ट होता है।
शकद द्रक संयुक्तं साद्ध भूरंप सं वृतं,
वृश्चिकालेन सं सिद्धं कुर्याद् योनि रूज स्त्रियाः । ॥१६२ ॥ अद्रक और वृच्छिका (सफेद पुनर्नया) के लेप से योनि का कष्ट दूर होता है।
लेपः शुकैर भिन्नाटा नारीणां स्तंभये द्भगां, यावत् तावन्न तके ण सुरभेरभि सेवनं
॥१६३॥ शुक्र, अभिन्ना(के लेप से स्त्रियों की योनि का तब तक स्तंभन रहता है जब तक उसको गौ के मढे से नहीं धोया जाता है या सींचा जाता है।
वरटी ग्रह चूर्णेन मिश्रितक्षालितैर्जलैः, योनीध्वजौ न प्रविशेन्न यावत् तक्र सेचनं
॥१६४॥ यरटी( टांटया) ग्रह के चूर्ण मिले हुए जल के धोने से योनि में तब तक लिंग प्रवेश नहीं कर सकता जब तक उसको महे से नहीं धोया जाता है।
विषाणाग्रेण सुरभरद्यो वक्रण टोषितः, लिप्तंभगं न गम्यं स्यात् गम्यमूर्द्ध मुरवेनतु
॥१६५॥ नीचे मुख्य किये हुए गाय के सींग के लेप करने से योनि में लिंग नहीं जा सकता केवल ऊपर के मुँह किये हुए सींग के लेप से जा सकता है।
नाभौ लिप्तं स्त्रीणामद्योमुरवं वृष विषाणा मचिरेणा, रेचनयोनेवंद्य मोक्षा ट भवेत तद उद्धं मुखं
॥१६६॥ C505125T01501501525७९५ PIST215101505505211
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CASIOTECISIOSSIRISTRICT विधानुशासन 150151DISTRISTRISTOIES बैल के सींग को नीचे की तरफ मुख करके घिसकर स्त्रियों की नाभि पर लेप करने से योनि बंधन होता है तथा ऊपर को मुखबाले सींग को घिसकर लेप करने से खुल जाता है।
व्योमात्त चर्म शकुनि शकृत् लिप्त प्वजो नर: टां गच्छेत्,
स्त्रिय मन्य स्य सा गम्या स्यान्न कस्य चित् ॥१६७।। यदि पुरुष व्योम (पानी) से चर्म शकुनि (गिद्ध) की विष्टा को पीसकर अपने लिंग पर लेप करके किसी स्त्री से भोग करे तो उस स्त्री से और कोई भोग नहीं ला है!
चूर्णं क्षिपति या यौनौ भूलता शक गोपयो:, सुरतं तत्र तस्यैव ध्वजभंगः परस्यतु
।।१६८ जो योनिमें भूलता (केंच) और इंद्र गोप (वीर बहूटी) के चूर्ण को डालता है उस योनि में वही भोग कर सकता है दूसरे पुरुष का उस योनि में लिंग खड़ा न होगा।
आम पत्र पटे दग्धं स्वच्छ सौवीर पेषितं, तदेव लेपनात अन्यात् योनि स्तंभनत भ्रवां
॥१६९॥ आम के पत्तों को सुखाकर घड़े में रखकर जलाकर उसको साफ सौवीर (कांजी) से पीसकर लेप करने से स्त्रियों का योनि स्तंभन दूर होता है।
यामारी करवीयेणा सु पिष्टे नाग केशरै, सेविता लिप्त लिंगेनतां नालं सेवितुं परैः
॥१७०॥ जो नारी(स्त्री) करवीर्य (हाथी के वीर्य) को नाग केशर में पीसकर उससे लेप किये हुए लिंग से भोग करती है उस स्त्री को दूसरा पुरुष सेवन नहीं कर सकता।
अंगा ग्रेण लिप्तं वषस्य गोनिमेहनं निपतेत्, विनतोना विनतेनतुतेन विलिप्तं समु तिष्ठेत्
॥१७॥ गाय या बैल के सींग के आग्रभाग से लेप किया हुआ पुरुष का लिंग गिर जाता है। फिर उसको सींग के नीचे के भाग की ओर से घिसकर लेप करने से खड़ा हो जाता है |
आलक्तक पटे वद्धं शुक्र सेलुतलं स्थितं, रवद्रा पादतल स्थंवा षठंत्वं कुरुते नणां
|| १७२।। आलक्तक (महावर-लाख) के कपड़े में बंधे हुए शुक्र (चित्रक) को सेलु (लिसोठ) के पेड़ के नीचे अथवा खाट की दायणा की तरफ रखने से पुरुष नपुसंक हो जाता है।
सौवर्णे राजते चापि भाजने धौत मौक्तिकं, निपीतं. कुरुते वानि पुनर्व्यज समुस्थितं
॥१७३॥
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95969595P
विधानुशासन
9595959595951
सोने या चांदी के बर्तन में बचे हुए बोशी के कान से लिंग खड़ा हो जाता है।
भावितं वस्त मूत्रेणषद्विन्दु रजनी रज:, पानेनान्नेन वा दत्तं शठभावानु जायते
।। १७४ ।।
बकरे के मूत्रमें भावना दी हुई षडबिन्दु () और हल्दी के चूर्ण को खाने या पीने से नपुंसकता हो जाती है।
तिल गोक्षुर यो चूर्णः छागक्षीरेण साधितः, ससितो मधुनायुक्तः षठं तां तां विखंडयेत्
॥ १७५ ॥
. बकीर के दूध के साथ तिल और गोखरू के चूर्ण को शक्कर और शहद मिलाकर खाने से नपुंसकता नष्ट हो जाती है।
मूत्र स्थाने शत्रौ स्वन्यते यस्य लांगली कंदः, षढत्वं तस्य भवेत प्रत्यानयनं तदुत रखननां
॥ १७६ ॥
शत्रु के मूत्र स्थान में यदि लांगली केद को गाड़ दिया जावे तो वह नपुंसक हो जाता है। उसको उखाड़ लेने पर वह ठीक हो जाता है यह उसकी प्रतिक्रिया है ।
भतुः साचैन्नारी सरेत उत्पत्ति काधि कल्क युतांभ:, दद्यात् स स्यात् षंठ स्तत्परि हतये पिवेदजाक्षीरं
॥ १७७ ॥
यदि स्त्री पति को सरेत (रेत) और उत्पत्ति कांधि () कल्क सहित पिला दे तो वह नंपुसक हो जाए उसको दूर करने के वास्ते बकरी का दूध पीयें।
नृपशूकास्थि वध्नीया दुष्ट्रास्थि विवर स्थितं, शय्या शिरस्थं दंपत्यों गुहया वयवो रिती
॥ १७८ ॥
रतिकाल में नृप ऋषभक, शूक (डुडुभ) की हड्डी को ऊंट की हड्डी में छेद करके बांधकर सिरहाने की तरफ शय्या पर रखने से दंपत्ति के गुप्त अंग और अवयव बंधे रहते है। वयस्य शकृत्कीट पिंडीतः कुरुते रतौ, वज्रं शय्या शिरोभाग स्थितं मिथुन गुह्ययो
॥ १७९ ॥
रतिकाल में गयय ( रोशपशु) के गोबर के कीड़े के पिंड को शय्या पर सिरहाने की तरफ रखने से स्त्री पुरुष के गुप्त अंग परस्पर बंध जाते हैं ।
सुगंध मूषिकाचूर्णे रालानं कृत लेपनं, तत् चूर्ण गर्भ हस्तंवान प्रप्रोति मदीद्वपः
959595P55959 ७९७ PSP
11860 11 5959595
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SXSTOI501510550150150 विद्यानुशासन ASIRESIDI5DISDISEASE सुगंध मूषक (छडूंदरी) के चूर्ण को हाथी के सूंटे पर लेपकर देने से उस चूर्ण के प्रभाव से हाथी मस्त नहीं होता है।
क्षिति शतनया चूर्णः कीर्णोनसि निपातयत्, तुरंगं तत्प्रतिकारं पान तस्य वचादनं
||१८१॥ क्षिति शतनया चूर्ण (असगंध) के चूर्ण को सूंघने से घोड़ा पृथ्वी पर गिर पड़ता है चच को खाने से वह फिर खड़ा हो जाता है।
कृष्ण जीरक जैशूणे सक्ष्मै पणिस्य रंगः,
आय स्वाद् वाजिन स्तक जाताक्षः सोनू वीक्ष्यते ॥१८२॥ काले जीरे के बारीक चूर्ण को नाक में जाने से शुरु में घोड़ा आंख से नहीं देख सकता है किंतु मढे के आंख में जाने से वह देखने लगता है।
एवं कतंक रोगाभ्यां पथक निगदिता,
अत्र मोक्षविधिः सामान्य विमोक्षःस्यान्मारण कर्म प्रतिकारः ॥ १८३॥ इस प्रकार पुरुष कृत रोगों को छुड़ाने की विधि का पृथक वर्णन किया गया है। मारण कर्म का प्रतिकार 'इन रोगों को छुड़ाने का सामान्य उपाय है।
कत्यै एतेषामांतंकानां प्रोक्तान्मंत्री साक्षान्मधुरं,
क्षन्यतां नणां प्राणान् स्वों तिष्ठं दीर्घकालं ॥१८४ ।। इन प्राण घातक रोगों के उपाय को साक्षात जानकर मंत्री पुरुषों के प्राणों की रक्षा करता हुआ दीर्घकाल तक स्वर्ग में रहे।
इत्थं प्रोक्ताः कृतिमास्ते च रोगास्ते चा ना मारणे क्षुद्र कल्पाः,
दिकालादि प्रक्रिया कल्पतेषु ज्ञातव्या सा मारणे या प्रयोज्या॥१८५॥ इस प्रकार कृत्रिम रोग अनर्थ और मारण के छोटे छोटे उपायों का वर्णन किया गया है जिनको मारण कर्म में प्रयोग करना हो तो उनको दिशाकाल आदि की प्रक्रिया ही को जानकर काम में लाएं।
इति कृत्रिम रोग प्रक्रिया विधानं ॥१४ ।।
CASTOTSCRICKSTAR551255[७९८ 25THICISTORICISCERIES
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SXSRISTM5RISTORIE5 विद्यानुशासन 50ISTRISIOSDISTRISH
|| ॐ नमः ॥
अथातः सं प्रवक्ष्यामि क्षुद्रं तं मारणाह्वयं, यस्मात्प्राणि भूतां प्राणा रक्षणीया विशेषतः
॥१॥ अब कुछ मारण कर्म नाम के उपाय कहे जाएंगे जिनसे विशेषकर प्राणियों के प्राणों की रक्षा नहीं हो सकती है।
अमोद्यो जिष्णुना मुक्त स्त्री राप्तो वाम संयुतः, पुराणा स्साधितः श्रेयान्मंत्रो धूमावतीत्यसो
॥२॥ अमोद्य (घ) जिष्णु (ऊ) आगे नाम कहे पुराणा (फ) वाम (आ) आप्त (ज) श्रेयान (ट) अद्य (ठ) इनको मिलाकर मंत्र धूमावती देवी का होता है।
मनारैतेस्य पायस्सा काली स्यादधि देवता, लक्ष मेकम मुं मंत्रं जपेत्पश्चात्स सिद्धयति
॥३॥ इस मंत्र का मन में एक लाख जप करने से सिद्ध होता है खीर और दही से काली देवी को भेंट देवे।
अमुना राज्याज्यप्पिंत साध्यारव्या रव्या युक्त निबंदल,
हो मात गुलिका दिषु सप्ताहान्मरणं तद्वेषिणो भवति ॥४॥ राई और घृत से अर्चना कर साध्य अर्थात् शत्रु का नाम सहित नीम के पत्तों की गोली का होम करने से सात दिन में शत्रु का मरण होता है।
कुंडस्यांतब्भूत तरु प्रतिमां शुलोग्र सुनिहितां,
कृत्वा असुनो हेम समिद्भि होमात् शोभवेन्मरणं कुंड़ के आगे वहेड़ा के पेड़ की लकड़ी को शत्रु की प्रतिमा बनाकर उसमें कीले चुभोकर धतूरे की समिधा से होम करने से शत्रु का मरण होगा।
अरिनाम चिता माप्यामंत्रिकरे लिरियतमनल संतप्तं,
अस्या द्युत पजाप्पा ज्वर यति मारयति वारि ॥६॥ शत्रु के नाम को हाथ पर लिखकर चिता की अग्नि पर तपाते हुए इस मंत्र का दस हजार जप करने से शत्रु को ज्वर होता है तथा वह मरण को प्राप्त होता है। SASTERIOTSPIRRISTD35005७९९3505555RISIOSRIDESI
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0519350150150150150 विद्यानुशासन VIODISIO51015105510451
भूत तह प्रतिमाममुना व्योषापामार्ण बीज संलिप्तां भ्रमयेत,
क्वाथ उदकोदर निहित मटो मुरवां स्थाद रिज्वरि कणर्युः ॥७॥ बहेड़ा के वृक्ष की लकड़ी को शत्रु की प्रतिमा बनाकर उस पर व्योष (सोंठ मिरच पीपल) और अपामार्ग के बीजों का लेप करने से वह भ्रम में पड़ता है और इनके काय के जल का पेट पर लेपकर औंधा लटकाएं तो उसको ज्यर होता है।
निर्मूलरधो वदनां कीलरायस व्याप्तां प्रतिमा, कृत्वा मंत्रोच्चारण पूर्वकं शिरो गृहीत
||८|| मंत्र पढ़ते हुए शत्रु को निर्मूल करने के लिए नीचे मुख की हुई प्रतिमा में अयस (लोहे) की कीलें गाइ कर उसके सिर को पकड़े।
!! ॐनमो काली मार स्वाहा॥
अनेन शत्रो परितस्य पादरजः पतनं,
तेनैव सो भमन्सतुं मरणं पानोति न संशयः इस मंत्र से शत्रु के पांवों की मिट्टी मंत्रकर शव डालने से उसाटा या उसका सर होता है इसमे सन्देह नहीं है।
॥९॥
तस्यो दरे शूल चलनम नेन होति नशंसयः, स्त्रियाः स्यात्प्रियायाश्च मारणां न च संशयः
॥१०॥ उसके पेट में बराबर दर्द होता है स्त्री का तथा उसके प्रियजनो का निश्चय से मरण होता है इसमें सन्देह नहीं है।
होमेनाशाधर कतकेन कृतना हत पल्लव संयुक्तन,
शनोभवति च मरणं न संशयो त्रैव वा चार्य: ॥११॥ आसाधरजी के होम विधान को मारण पल्लव (अर्थात् घे घे पल्लव) सहित करने से शत्रु का निश्चय से मरण होता है ऐसा आचार्यों ने कहा है।
श्री पूज्य पाद मुनिभिः प्रणीत मार्गेणा होमेन,
शत्रो भवति च मरणं न संशयो त्रैव नाचार्यः ॥१२॥ श्री पूज्य पाव भुनिराज के बनाये हुए होम विधान को करने से भी शत्रु का मरण निःसंदेह होता है इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिए। SABIT5RISTRISTOTR5051200050STORISTSPIRIOTSIDESI
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9595PSPSS विधानुशासन 2595959 POPS
प्रकाशितं येन जिनेन्द्र केनां शुभं च लोकेत्र विचारणीयं,
अतोयं मुक्तो न समासतो धुवं कुर्य्यान्न भव्यो न च सिद्धि मेति ॥ १३ ॥ श्री जिनेन्द्र देव ने प्रकट रूप से कहा है कि संसार में अशुभ कर्म करने का विचार भी नहीं करना चाहिए इसलिये यह सारांश में निश्चित है कि भव्य प्राणियों को मारण कर्म नहीं करना चाहिए इससे कोई सिद्धि नहीं होती है।
श्री जिनेन्द्रीयथादिष्टं भव्याः कुर्वतु धर्मकं, दशधा भिन्न को चैव कुर्वतु सदा हितंः
॥ १४ ॥
श्री जिनेन्द्र देव का यही आदेश है कि भव्य प्राणियों को सदा धर्म कार्य करना चाहिए तथा दश धर्म से भिन्न कोई काम नहीं करना चाहिए और सदा हितकारी काम करना चाहिए। धर्म पर आपत्ति आने पर ग्रंथांतर से उद्धत किए जाते हैं।
ब्रह्माणी काल रात्रि भगवती वरदे चंडि चामुंड़ नित्ये, मातगांधारी गौरी धृति मति विजये कीर्ति ही स्तुत्य पद्मे ॥ १५ ॥
संग्रामे शत्रु मध्ये जय ज्वलन जले वेष्टितं न्यैः स्वरास्त्रैः, क्षां क्षीं क्षं क्षः क्षणा क्षत रिपु निवहे रक्ष मां देवि पचने ॥ २६ ॥ ब्राह्माणी काल रात्रि भगवती वरदे चंडी चामुंड़ि नित्ये माता गांधारी गौरीधृति मति विजये कीर्ति ही स्तुत्य पझे इन १६ मातृका स्वरुपिनी स्वर रूपी जो अस्त्र है उनसे घिरी हुई युद्ध में शत्रुओं के बीज में अग्रि में जल में जिसने सब रिपु लोगों को आधे क्षण में नष्ट कर दिया है ऐसी है पद्मावती देवी क्षां क्षीं क्षं क्षः इस मंत्र से हमारी रक्षा करो।
ॐ ह्रीं श्रीं प्रां प्रीं क्लीं क्लौं पदमावती धरणेंद्र सहिताय क्षां क्षीं क्षं क्षः नमः स्वाहा ॥ इस मंत्र को हस्तार्क मूलार्क पुष्पार्क दिने पंच विंशति सहस्त्रेण २५००० दक्षिण दिशायां साधनं करके कृष्ण पुष्पों से काली माला से काले आसन पर बैठकर काले कपड़े पहनकर जाप करे तथा होम करे उसको शत्रु से भय नहीं होवे संग्राम में जय होवे अष्ट द्रव्य से पद्मावती जी का पूजन करे यंत्र पास में रखे ।
तस्य शत्रु भयं न करोति मृतिं गलति वा गृथिलो भवति
सोलह दल के कमल में १६ मातृका मंत्र लिखे मध्य में दम्यूँ लिखे चारों दिशाओं में क्षां क्षीं क्षूं क्षः लिखे ।
SP596959APPS ८०१ PSP/St
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SASTOISTRICT595555 दिद्यानुशासन VDIETITICISISTORY
Pak REAL
ॐद्रीगांधाय नमः
ही गोय नमः
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ही धृत्यै नमः
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चामुंडा
ही मत्यै नमः
ही पत्यै नमः
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यस विजयायै
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गभगवायैकाहारात
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* ही देव्यै नमः
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बह्मास्य।
पापा
पपाय
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ॐ नमो भगवती महामाये अजिते अपराजिते त्रैलेक्य माते विो से सर्व भूत भयावहे माणे माणे महामाणे अजिते वस्य करिणी भ्रम भ्रमणि शोषिणि ध्रुव करणी प्राण हरणी जटो विजये मुंभणि खरे रखगे प्राक्षे हर हर प्राण रिवं वणी वणी विद्युत वज हस्ते शोषय शोषय निस्त॒शिनि दुष्टान हर हर प्राणानि मपि छेदिनि सहस्त्र शीर्षे सहस्त्र वाहवे सहस्र नेत्रे ज्वाला मुस्खी महामाणे इलमित तिलमिते हे हुं हुं हे हे ष षगग धुत धुत व वजी जी हौं ह्रौं त्रिर त्रिर रख रख हसनि त्रैलोक्य वासिनि वासिनि त्रैलोक्योदर समुद्रेषे मेले ले सि हुं रक्ष रक्ष फुट दे दे हे हे हु हु हन हन माणे माणे
भूत प्रसवोपरे सिद्ध विधे हुं फट स्वाहा ।। इत्य जिता तमहा विद्या जैन धर्म द्रोह नाशिनी दशमतो ब्रह्म चय तश्च यह अजिता नाम की महा विद्या जैन धर्म के शत्रुओं को नाश करती है।
ॐणट्ठठमाठाणे पणठ कम्मठ्ठण? संसारे परमहिणिठ्ठ अठे अठगुणाधी सरं वंदे श्मशानांतारतः कृष्णी कृतौ लवण निवम धूम क्षारक सतैल गुग्गुलै होमलेपि
चदिन प्रतिद्वि सहस्त्रैः पुष्प जाप्पादरिक्षयः॥ CASTORIOTISTSICIDIOX5035[८०२PISIOTICTICISTOSTOSTONEY
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COSIOTECTERSISTETSID5 विधानुशासन ISISIST9T53015251975 श्मशान के कोयले से काले किये हुए नमक को नाम के पत्र धूमस के साथ सरसों का तेल और गुगुल का होम करने से शत्रु मरण को प्राप्त होगा इस गाथा का रोज दो हजार फूलों से जाप करे।
ॐ कोपोद्र कात्त वीर्य कुटिल परि करं तारद्यारि प्रभूतं ज्वाला मालाग्नि दग्द स्मरतनु सकलं त्वामहं शालुवेश ॥ सात्वतयारदम प्रगति मजस देहिनंद्यः क्रिटाभि स्तस्य प्राणा वसानं पर शिव भवतः शूल भिन्नस्य तूर्णम् ॥१॥
श्रीः हे शालुवेश शरभेश्वर त्वत्पद कमल निवेशित चित्ते नत्वा महं याचे किंतदाह अरि प्रभूतं मां तारय प्रभूताः प्रचुरा अरयो यस्टो द्दशं मां तारयोति एवमरि वृंदे-टोमां रक्ष प्रभूत शब्द स्यात्रपर निपात आषेः उक्त मेवार्थ प्रपंचयति हे पर शिवयो ममाभिचार क्रियाभिष्टि द्वेषेण ममोपरि मारणादि क्रियां करोति तस्य भवच्छूल भिन्न स्य प्राणा वसानं प्राण नाशस्तूर्णत्वरितं भयतुत्यामित्यस्यविशेषणमाहकोपोद्रेकात मिति कोपोटेकेनकोपोदगर्मन आर्तगहीतं प्रकटीकृतं दीर्य बलं स्वभावो वायेन तादश मित्यवःवीर्य बले स्वभावेचत्यमरः वीर्य स्वभावे बले कौटिल्येपिच नपुंसक मिति हाराबलिः कुटिल परिकरं कुटिला: दुरधि गम्याः परिकराः प्रवारका: वीर भद्रादयो गणायस्य तादृशम ज्याला मालेति ज्वालानां माला माला वत्पंक्तिर्य स्मिन् ताशेन तृतीय नेत्रोद्भूताग्निनादग्धाभरमी कतासकला स्मर तनुःकंदर्प गारोन तथा भूत मित्यर्थः सकल शब्द स्यात्र पर निपात आर्ष:वस्तु तस्तु
सकल तनु मिति सुपाठः हे शालुभेश्वर तुम्हारे पद कमल में अपना चित्त लगाकर तुमसे यह याचना करता हूँ कि तुम मेरी शत्रुओं से रक्षा करो क्योंकि मेरे बहुत शत्रु है और वे अभिचार वगैरह क्रियाओं द्वारा मुझ पर मारणादि क्रियाओं का प्रयोग करते हैं इसलिए आपके त्रिशूल के द्वारा उनके प्राणों का नाश तत्काल हो, आपके वीर भद्रादिगण बड़ी कठिनता से जानने के योग्य हैं अपनी ज्वालाओं के समूह के द्वारा तीसरे नेत्र से कामदेव को नष्ट किया है और क्रोध के समय आपकी शक्ति और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
शंभो त्वद्धस्त कुंतं क्षत रिपु हृदयानि सूवल लोहि तौद्यं, पीत्वा पीत्वाति दो दिशि दिशि सततं त्वद गणाश्चंड मुख्याः गजति क्षिप्रवेगा निरिवल भय हरा भीकराः खेल लोला:
सं त्रस्त ब्रह्म देवाः शरम रखगपते पाहिन श्शालुवेश ॥२॥ OSSISTRASTRISIOSIT5055[८०३PISTRISITISTOSTERISTRIES
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STSIDIO21505505 विधानुशासन 2050515DISSEDIES
शंभोत्वद्ध स्तंति हे शंभो हे शालुवेश हे शरभ है खगपते हे पक्षिराज इंदशाश्चंड़ मुख्या:चंडेश्वर प्रवभूतयस्त्वदगणाः यस्य तगणास्संति सत्वं सततं नस्वाहि निरंतरं मां पाहीत्यर्थः यद्वा चंड़ स्त्वत्यंत कोपन इति कोशा चंडेषु अत्यंत कोपनेषु मुख्या: प्रधानाः वीर भद्रादयो यस्य तव गणा इत्यर्थः कीदृशाः त्वद्धस्त कुंतेन भवत्कर पल्लव वर्त्तिना कुंतेन भल्लेन प्रसिद्धेना युधेन क्षतं विदीर्णं यदिपु हृदो तत सवलंतं निर्गच्छंतं लोहि तौयं रक्त संग्रातं पीत्वा पीत्वापुनः पीत्वा अतएवातिदप्पद्धिलादति गति क्षिप्रवेगा अति त्वरित वेगा संतो दिशि दिशि सर्व दिक्षु गज्जति प्रणिनदंति पुनश्च कीदृशाः निरिवल भय हराः भीकराः साध्व साधुनामिति विवेकः भीतिभी साध्व संभय मित्यमरःखेला लीला:केलिचपला: स्वेला शब्द स्यात्र स्वत्वमार्ष संत्रस्त ब्रह्मदेवाः क्रीड़ा लौल्या बलोकनेन सं त्रस्ताः चकिता ब्रह्मादयो देव गणाटम्टा स्तादृशा इत्यर्थःस्तो भीतश्चकितोदारितश्च शम प्रभ इति कोशः अनेक संवोध्य पदो पादानेन स्वस्या त्यंत मातत्वम शूचयत ॥२॥ हे शालुवेश ! हे संभव ! हे शरभ : हे सानि ! हे पक्षिर जा तुम जीवितरक्षा कसे तुम्हारे चंडादि गण साधुओं के सम्पूर्ण भय को हरण करनेवाले हैं और दुर्जनों के लिए बड़े भारी भयंकर हैं। वे तुम्हारे हाथ में रहनेवाले भाले के द्वारा मारे हुए दुश्मन के हृदय से निकले हुए रक्त को पीकर अत्यंत अभिमान के साथ प्रत्येक दिशा में गर्जना करते रहते हैं। वे अत्यंत वेग वाले है और क्रीड़ा करने के लिए यह चपल रहते हैं तथा यह ब्रह्मादिक देवो को तंग करनेवाले हैं। इस तरह के गणों के मालिक हे शारभेश्वर तुम मेरी रक्षा करो।
सर्वाय सर्व देष्टं सकल भय हरं तत्व रुपं शरण्यं, या च हत्वा नमोद्यं परिकर सहितं द्वेष्टियोंत: स्थितं माम् श्री शंभो त्वत्कारब्ज स्थित मुसल हता स्तस्य वक्षःस्थल स्थ प्राणा प्रेतेश दूत ग्रहण परि रवा कोश पूर्व प्रयान्तु ॥३॥
अमुकं दंडय २ सवाद्यमिति हे श्री शंभो सुभगांग शंभो इति त्वामहं याचे प्रार्थी किंतदाह टोमामंत स्थितं मनसि स्थित मपि दष्टि किमुत बहि:स्थितं तस्य वक्षःस्थ प्राणा हृदगत प्राणा स्त्वकर कमल तल वर्ति मुसल हता संतः रामदूत सं परि गृहीता उच्चैःशब्दं प्रकुर्वाणा:प्रयांतु यम पुरं व्रजंतु इत्यन्वयः सद्यमित्यादि त्वा मित्य स्ट विशेषणं सर्वाचं समस्त प्रपंच स्यादि भूतं सर्वदेष्ट सर्वकाम प्रपूरकं ईग्लक्षणं द्वष्टं वरो टास्ट तादशं यद्वा सर्वदा सर्वकालं वरो यस्य तादृशम् निरन्तर
वरदानोटम शीलमित्यर्थः सकल भय हरं सर्व भूतेभ्यो रक्षितारं तत्वं स्वतत्वं वेद ලහටගටගහවටය උox එයටයුතුවලටවලය
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SASOISONSTRISTIS95 विद्यानुशासन ISIOISSISTRISADSRIES विग्रह मित्यर्थः यद्वा तत्त्वं ब्रह्म तद्रूपम सगुण निर्गुणात्मक ब्रह्म मय मित्यर्थः वेद स्तत्वं तपोब्रह्मब्रह्मा विप्रःप्रजापति रिति कोशःशरणया:शरणेसायुःशरणय स्तम तत्र साधुरितियत शरणार्ह मित्यर्थः अमोघं अव्यर्थ वरनं मोद्यं निरर्थकं स्पष्टं स्फुट प्रव्यक्तमुज्वल मितिकोशः परिकर सहितं परिकराः प्रचारक गणास्तै समेतं
युक्तम |॥ ३॥ हे शंभु ! मैं तुमसे यह प्रार्थना करता हूँ कि जो मुझसे बाहर से क्या किन्तु मन से भी द्वेष कर रहा है उसके प्राण तुम अपने हाथ में रहने वाले मुशल के द्वारा आघात कर, इस तरह यमदूतों को पकड़वाओ कि जिससे वे (प्राण) चिल्लाते हुए यमपुर को पहुँच जाए। तुम सारे देवताओं के आदि हो सबको इष्ट पदार्थ के देनेवाले, हो सम्पूर्ण भय को हरण करने वाले हो, तुम वेद स्वरुप हो, और सारे जीवों को शरण देने वाले भी तुम ही हो। इसलिए तुम मेरी इस प्रार्थना को पूरा करो अमुक व्यक्ति को दंड दो।
द्विष्मः क्षोणयां वयं यं तव पद कमल ध्यान निद्भूतपापा: कत्या कृत्यै विमुक्ता विहग कुल पते रखेल या वद्ध मूर्ते तूणं त्वत्पाणि प दम प्रयत परशुना रवंड खंडी कतांगः
सद्वेषी यातु थाम्यं पुरमति कलुषं काल पाशाव वद्धः ॥४॥ द्विष्म इति भो विहग कुलपते पक्षिवंशावतंस क्षोणयाम वनितलेयं द्वेषिणं वयं द्विष्मो द्वेष विषयी कुर्मः स द्वेषी रिपुःतूर्णम चिरात त्वत्पाणि पदम प्रयत परशुना तव कर कम लाग्र यतिना कुठारेण खंड खंडी कतांग: छिन्न भिन्न तनु रथो काल पाशाव वद्धःछांद सत्वा चतुर्थी तथाय काल पाशेन मृत्यु पाशेन वद्धो विवशी कृतो याम्टां पुरं रामस्य संयमनी पुरी यम लोकं यातु गच्छतु काल पाशाय वद्ध इदि पाठे अप गत्या नाना विद्यया तनया वद्ध इति अति कलुषमिति याम्य पुर विशेषणाम निरयातिश मिति तस्यार्थः नन्वयं विहग पति रेवतहि किमस्य स्तुत्या भविष्यतीत्याशंक्याह रवेलया वद्ध मर्ते रिति खेलया कीडया वट मर्ते स्वीकता नेक विगह कीड़ा वेला च कुर्दन मित्यमरःएवंच नान्या शकुनि नामिव स्वकर्म सूत्रानु सारेणापक्षि जन्मवानयं किंतु भक्तानुग्रह कारणात्स्वीकृता नेक वेश वाने वेति भावःवय मितस्य विशेषणा माह तव पद कमल ध्यानेति तव पद कमल ध्यानेन नष्ट पापा इति तथा कृत्या कृत्यै विमुक्ताः प्यान स्यात्र प्रक्रमः तव पद कमल ध्यानेन पदम पत्रमियां भसा कार्याकार्य कर्मज पुन्य पापान व लिप्ता इत्यर्थ:एतेनमारणोत्थापनष्टोप्टो तद्भध्यानमत्र प्रायश्चित मुक्तध्यानं जपस्या प्पुप लक्षणम तदुक्तं मंत्र महोदद्यो कालरात्रि प्रयोगे मारणांतु प्रकुर्वीत ब्राह्मणे तर विद्विषि तद् शुद्धार्थ जपेन्ल मंत्र मष्टोत्तरं रातमिति ॥ ४ ॥ OFFENNEL Colಣಗಣಣಣಠಣದ
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DISTOISIONERISTS15015 विधानुशासन 20505581521595 हे पक्षिराज ! इस पृथ्वी पर जिससे हम द्वेष करें वह बहुत जल्दी तुम्हारे हाथ में रहने वाले कुठार के द्वारा छिन्न भिन्न शरीर होकर, कालपाश द्वारा बांधा हुआ, अत्यंत कलुषित यमराज के नगर में पहुंच जाए । हे भगवान! यह बात नहीं है कि तुम पदी हो और पक्षी की क्या स्तुति की जाए क्योंकि तुमने पक्षी का शरीर क्रीड़ा से धारण किया है । तुम उन अन्य पक्षियों की तरह नहीं हो जो कर्माधीन होकर पक्षियों का जन्म धारण करते हैं तुम तो भक्तों पर कृपा करने के लिए अनेक वेशों को धारण करने वाले हो। हम तुम्हारे चरण कमल का ध्यान सदा करते रहते हैं। इसलिए बुरे काम करने से भी पापों से लिप्त नहीं होते अर्थात् मारण क्रिया से उत्पन्न होने वाले पाप के लिए तुम्हारा ध्यान एक प्रकार का प्रायश्चित है । मंत्र महोदधि के ग्रंथ में काल रात्रि के प्रयोग में लिखा है कि ब्राह्मण के सिवाय बाकी शत्रुओं पर मारण क्रिया जरुर करनी चाहिए और मारण क्रिया के प्रायश्चित के लिये मूल मल्ल के १४ जा कर लेने चाहिए।
भीम श्री शालुवेश प्रणत भय हर प्राण जिहुर्मदानां या चे पंचास्य गर्व प्रशमन विहितं स्वेच्छ या वद्ध मूर्ते त्वामेवाशु त्वदंध्याष्टक नष विलुठद् ग्रीव जंयोदर स्थ
प्राणोत्क्राम प्रमादात्प्रकटित हृदय स्टायु रल्पाये तेरम ॥५॥ भीमति श्रीशालुयेश लक्ष्मीसरस्वतीयात्रीवर्गसंपदविभूति शोभा सुउपकरण विशेष च नाना विद्या सुच श्री रित्यत्र शोभा एवं च हे सौम्टा विग्रह है शालुवेश इत्यर्थः तत्र साधूनां सौम्य विग्रह असाधूनां कूर विग्रह इति विवेकः प्रणत भय हरप्रणता नामात्मनि प्रहवी भीतानां भीति हारिन प्राण जिदुर्मदानां दुष्ट सत्वानां प्राण जित प्राण हत पंचास्य गर्व प्रशमनः पंचास्ट सिंहो भगेन्द्रः पंचायोऽर्यक्षः केशरी हरिरित्यरःसिंहो नसिंह: नामैदेशे नाम ग्रहणेन तस्यैवात्रौ वित्यात तद्गर्वध्वंसक स्वेच्छया वद्ध मूर्त स्वेच्छाधृत कलेवर अत्रस्व कर्म सूत्रानुसार तोऽन्य पक्षि वन्नाटा पक्षि जन्मवानि त्युक्तं ईद्दक शालुवेश विहितं विशेषेणात्म हितं त्वामेव आशु शीयं या चे प्रार्थये इति संबंधः एव कारोवधारणे तेन निश्चित्य या चे इत्यर्थः वाचनीय मात्महित मेवाह तदं घटाष्टकेति तव पादाष्ट कस्य नरवै विलुठविलुंठनम वाप्नु वद्यद्ग्रीवा जंबोदरं मूदियादांत मगं तत्र स्थिताना प्राणानाय दुत् कमःउत्क्रमणां वहि निर्गमनं तस्य प्रमादात् प्रवेगात्प्रकटितं विकशितं विदीर्ण हृदयं यस्य इंद्दशास्यारिष्ट दस्यायुर रक्षि प्रमल्पायतां क्षिणोतु इत्यर्थः मूले अल्पायते इति ल आर्षः जवोथ शीग्रं त्वरितं लक्षिप्र मरं दुत मित्यमरः ग्रीवा शब्दस्यात्र हस्वत्वमाष यतु चंयेत्यत्रजिह्वेति पठटते तद सतजिहादीनां ग्रीवाश्रितत्वेन तयैव तत लाभसिद्धे रिति ॥५॥ SRISISISTRI5015251015 ८०६PISODR5E5IRISTISTES
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CSCISIOISTRICT विद्यानुशासन ASTRISISTETS5ISISISTER हे साधुओं! के लिए अच्छे शरीर और असाधुओं के लिए कूर शरीर को धारण करने वाले है। नम्रीभूत लोगों के भय को हरनेवाले हे दुष्टों के प्राणों का नाश करने वाले ! मैं तुमसे शीघ्र यह याचना करता हूँ कि तुम अपने आठों पैरों के नखों से. ग्रीवा, (गरदन) जंघा और उदर अर्थात् पेट से लेकर मस्तक तक रहनेवाले मेरे शत्रु के प्राणों को तुम नाश करो अर्थात् उनकी आयु को कम कर दो।
श्री शालोते कराग्र स्थित मुसल गदा वर्त वाता भिटात, मात पातारि यूथं त्रि शिरव विद्यटनोद्भूत रक्तच्छाटाम सं दृष्ट्वा यो घनेज्या निरिवल सुरगणाश्चाशु नदंतु भूता
नाना वेताल पूगा : पिवतु तद रिवलं प्रीत चित्त प्रमत्ताः ॥६॥ श्री शालो इति उदाहृत व्यादि कोशात श्री स्त्रि वर्गसंपदुच्यते अथ च श्रीयते सेव्यते मुमुक्षु भिर सौ वित्ति व्यत्यत्या श्री मुक्तिः वाहुल कात्कचित्कृिवितिक्री प्रदीर्योतयो रेकक शेषेश्रियौतयोः प्रदः शालुः तत्संवद्रो तथा एतेन धर्मार्थ काम लक्षण त्रिवर्ग संपत्प्रदत्वं मुक्ति प्रदत्वंचा स्टोक्त एवं च हे चतुर्वर्गप्रद श्रीशालो ते तवकर पल्लव वर्तिमुसलगदयोर्यदायत आवर्तनंभ्रामणां तज्जनि तस्य वातस्याभियातेन तथा तज्जनित ध्यातेन शब्देन च आपातो भूमि पतनं यस्य तादृशं अथ च त्रिशिरव विघटनेन करान वर्ति त्रिशूल परिघट्टनेनोद्भूतानिः सताया रक्त छटा शोणित प्रवाह स्तेनाद्रविभक्तंचारि यूथं रिपुवंद सं दृष्टवा सम्यग्दृष्टया अति प्रसन्नं चित्तेन दृष्टवेति यावत आयोयने ज्याः आयोधनं युद्धं तत्रेज्याःपूज्याः युद्ध प्रशस्याःशूरा इति यावतमायोधनं जन्य प्रयनं प्रविदारणा मित्यमरः तथा निरिवल सुरगणाक्ष आशु शीय नदंतु तुष्यंतु तथा भूता नाना विद्यास्तव भूत गणा स्तथा वेताल पुगा वेताल वृंदानि च प्रीत चित्त प्रमत्ताः चित प्रसाद भारेणोन्मत्ताः संत अरिवलं तत त्रिशूल भेदोद्भूतं रक्त वृंदं पिवंतु इत्यर्थःमूलेपि वत्वित्येक वचनमाषपूगःक्रमुक वृंदटो रित्यमरः ॥६॥
अत्र सर्वत्रामुकं दण्डयेति द्विर्योज्यम
हे त्रिवर्ग सम्पत्ति और मुक्ति के देनेवाले तुम्हारे हाथ में रहनेवाले मुशल और गदा के अमन से उत्पन्न हुई वायु के अविद्यात से- जो मेरे शत्रुओं का समूह जमीन पर गिर गया है, और त्रिशूल के विघट्टन से उत्पन्न हुआ रक्त की छटा से जोगीली हो गई है- ऐसा शत्रु समूह को युद्ध में देखकर सारे शूरवीर शत्रुगण और नाना प्रकार के वेतालों का समूह उन्मत्त को प्राप्त हो, तया वे प्रसन्नचित्त होकर मेरे शत्रु के रक्त को पीएं। SETOISTOISTRISESIDD51 ८०७PISISTERIST51005RISES
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95959595955 विद्यानुशासन 59596
त्वद्दोदंडाग्र मुंड प्रघटित विनदचंड कोदंड मुक्तै, बाणे दिव्यैरनेकैः शिधिलित वपुषः क्षीण कोलाहलस्य, तस्य प्राणावासानं पर शिवभवतो हन्तु माज्ञा प्रभावै
55
स्तूर्ण पश्यामि योमा परि हसति सदा ह्यादि मध्यांत हेतोः त्वद्दडेति हे परशिवयो रिपुमां परिहसति ममोपहासं करोति हेतु इच्छतिइति शेषस्तस्य रिपुर्तवदाज्ञा प्रभावैः तूर्ण शीघ्रं प्राणावशानां प्राणानाशमहं सदाहि निश्चयेन पश्यामीत्यन्वयः तस्य कथं भूतस्येत्य त्राहत्वदोदडे ति त्वदोदंडाग्रेणभुजदंडाग्रेण कर पल्लेन मुंडस्य मध्य भागस्य सत्प्रघटितं प्रकर्षेण यटकदृढमुष्टिना पौडनं तेन विनदन विशिष्टनादं घोर शब्दं कुर्वन्नास्ते चंडोऽत्यंत कोपनीय: कोदंड पिनाकः तन्मुक्त स्तन्निर्गततरैनेक संख्ये दिव्या हत गतैरीदृशैर्वाणैः शिथिलितं शिथिलीकृतं वपुर्गात्रं यस्य तादृशस्येत्यर्थ पुनः कीदृशस्य क्षीणा कोलाहलस्य कोलाहलः शब्द संघातः स नष्टो यस्य तथा भूतस्य कोलनं कोल: एकीभाव स्तभा हलतिभिनत्तीति व्युत्पतेः कुल संख्यानेभावे धज हल विलेखनेऽस्मात् वाद्य च शर जनित क्षत्तेना चेच नत्वा क्षितिभावः पुनश्च । कीदृशस्य आदि मध्यांत हेतोः प्रातर्मध्यान्ह संध्या हेतवः प्राणा व सानस्य तादृशस्य त्रिष्वेतेषु कालेषु नष्ट प्राणास्येत्यर्थः एतेना त्रेति सदा शब्दो व्यारव्यातः एवं चायं मुख्य कृत्याकालो ज्ञेयः एतावता प्रधट्टनेन शत्रोः प्राणावसानं कृतं प्रपंचनम् ॥ ७ ॥ शरभेश्वर पाहि
॥ ७ ॥
हे परशिव ! जो शत्रु मेरी हँसी करता है जो मुझे मारना चाहता है, उस दुश्मन के प्राणों का नाशमैं तुम्हारी आज्ञा से जल्दी ही देख तुम्हारे बाहुदंड से शब्द करते हुए प्रचण्ड धनुषों के द्वारा छोड़े गये अनेक दिव्य बाणों के द्वारा मेरे शत्रु का शरीर शिथिल हो गया है, और उसका कोलाहल भी क्षीण हो गया है। ऐसे शत्रु को जल्दी ही नाश कर दो ।
|| 2 11
इति निशि प्रयतस्तु निरामिषो यममुख शिशव भाव मनु स्मरन्, प्रतिदिनं दशधाहि दिन त्रयं जपतु निग्रहदारूण सप्तकं इति गुह्यं महामंत्रं परमं रिपु नाशनं "भानुवार समारभ्य मंगलान्त जपेत्सुधीः ॥
समाप्तिभंगमिदिम् ।
इदानीमस्य स्तोत्रस्य शत्रु निग्रहाय प्रयोगमाहः इतीति सुधीः प्राज्ञः प्रयत जितंद्रियो निरामिषो मांसाशन वर्जितो निशि संध्यायां यम मुखो यमाशो वदनः शिवभाव मनुस्मरन् शिवरूप त्वमात्मनि भावयन दिन त्रयं भानुवासन 959595959519595 ८०८ P5969596959526
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SCSTOISTRISRISTR5R15 विद्यानुशासन P15015050851015015
मारभ्य मंगलांतं प्रतिदिनं निग्रह दारूणा सप्तकं शन्न निग्रह कारकं दारूणा सप्तकानि धेयम शरभ देवताभिधेयं दशद्या दशबारं शत्रु निग्रहार्थ जपेदित्ययं ॥८॥
अधेदस्तोत्र स्तुवन्नुपसंहति इतीति इतिदं स्तोत्रं गुह्य गोप्पं महामंत्रं माला । मंत्र स्वरूपं यद्वा सर्व मंत्रेषु पूज्यो महामंत्र स्तद्रूपं महींद्र पूजायामिति धातुनिः यन्नत्वात श्री शालु वेशीय महास्तवोवै जणां समस्तार्थ करः परोयः टीका कृता तत्र मुदेजनाना मालोक्य तां कार्य मुपा चरंतु आलोक्येति अर्थ ज्ञानायेति भावः यदा हे भरद्वाजः फलं विश्वास भक्तिभ्यां जपादीनं महत्तरं अर्थ ज्ञानं तथा मूलं तस्मादर्थ विधितयेदिति ।। ९॥
इति श्री शरभेश्वर दैवत स्तुति विषयक दारूण सप्तक विवरणा समाप्तम्
अब इस स्तोत्रं का शत्रु के निग्रह करने का प्रयोग बतलाते हैं- बुद्धिमान जितेन्द्रिय मांस को नहीं खाने वाली आदमी संध्या के समय दक्षिण दिशा में मुख करके, अपने आप में शिव रूपत्य का अर्थात् मैं शिव हूँ ऐसा विचार करता हुआ, इतवार से लेकर तीन दिन तक अर्थात् मंगलवार तक प्रतिदिन इस शालुभेश्वर के स्तोत्र को शत्रु के निग्रह के लिये दस बार जपे । अब इस स्तोत्र की तारीफ करते हैं। यह महामंत्र है और छुपाने लायक है। परन्तु उत्कृष्ट है और रिपुओं का नाश करने वाला है इसलिये इतवार से मंगलवार तक तीन दिन तक जपना चाहिये।
ॐ नमोरि हनन रजो हनन रहस्य हनन जिनार्हद्भयो नमः
मंत्रमेकं धर्म रक्षाटां मतं योर दुःरवके, मलेच्छादिभिरूपद्रव समय जाप्प मे वचः
॥१०॥ इस मंत्र का धर्म की रक्षा के वास्ते धोर दुःख के समय या म्लेच्छ लोगों के द्वारा उपद्रव किये जाने के वक्त जाप करे।
अथतोवच्मि भो भव्याः श्रृणुत यूटो प्रतिकार मारणां, त्व शुभं लोके अतो वद्य प्रतिषेद्य विधि
॥१॥ लोक में मारणा कर्म बहुत बुरा होता है अतएव हे भव्यो तुम मारणा के प्रतिषध करने की विधि को सुनो
CASTOTRIOTOSDISTRISTRISI CORPISTRI5DISTRISTRICTSIDE
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SAS1015105501555 विद्यानुशासन 95015185TOISIOTECISI
श्री जिन सेनेम मुनिना यत्कृत मुपायं धर्म रक्षार्थ,
संतम संतं तं प्रति सारेणा बुबे अणुभो भव्याः ॥२॥ हे भव्यो धर्म की रक्षा करने के वास्ते श्री जिनसन मुनिराज ने जो उपाय कहा है उस उपलब्ध (मिलते हुए) और अनुपलब्ध (न मिलते हुए) को भी मैं अब विस्तार (प्रतिसार) से कहूँगा ।
धान्यैश्च राजभिलॊके चोपायो होम कस्यतु. प्रोक्तोनानोपधान्टौ श्च होमेन कत उत्तमः
॥३॥ लोक में धान्य और सफेद सरसों (राजि= राई) से हवन करना उत्तम उपाय कहा गया है। अनेक प्रकार के छोटे-छोटे उपधान्यों से किए हुए हवन को उत्तम नहीं कहा गया है।
जयन्टौरपिन प्रोक्तो होमः सर्व सुरवाकरः,
तस्मात् क्रियेत् यलेन विदुषाज्ञानिना धुवं जघन्य द्रव्यों से किये हुए होम को भी सब सुखों को करने वाला नहीं कहा गया है- उस वास्ते यह होम विद्वान ज्ञानी के द्वारा यत्न से ही निश्चयपूर्वक किया जाना चाहिए।
ज्यालिनी पदमावत्यं बिकाश्च चक्रेश्वरी,
समेता स्ता सां कल्पेऽथ पंचांगे उनका वर्णन ज्वालामालिनी पद्मावती अंबिका और चक्रेश्वरी देवियों के कल्प तथा पंचांग में किया गया है।
दष्टव्यो होम विधि मारणनाशस्तुचा न्यैश्च, आशाधरादि कृत अपि होमः पल्लव शांति युक्तः
॥६॥ दूसरे लोगों के किये गये मारणा कर्म को नष्ट करने के वास्ते होम विधि को आशाधर आदि के किये हुए शांति के पल्लव सहित होम की विधि को देखना चाहिये।
मारणामपि करोति होभाश्च स्व स्व पल्लव संयुक्ताः.
तेषां विचार एवहि करोति होमच सिद्धिमेति भृशं ॥७॥ अपने अपने पल्लवों से युक्त होने से होम मारण भी करते हैं उनको विचार पूर्वक करने से ही सिद्धि हो जाती है।
ॐ वृषाभाजित संभवाभिनंदन सुमति पद्मप्रभु सुपार्श्व चंद्रप्रभ पुष्पदंत शीतल श्रेयांस वासुपूज्य विमलानंत धर्मशांति कुंथ्वर मलि मुनि सुव्रत नमि नेमि पार्थवीराः परमेष्टिनोपि देवाः सर्वेपि शांति कुरुत कुरूत स्वाहा ।।
SECRETOISTRISD505051 ८१० PMSTICISIOTARISTORIES
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S5DISIONSIDISADISIS विद्यानुशासन 985105585TIDIOISTORY
मंत्रो द्वादश लक्ष प्रजाप्पतः सिद्धिवशमे पति, पश्चोदेतेन च हि स्नानं मारणास्य नाशं करोति
॥८॥ यह मंत्र बारह लाख जप से सिद्ध होता है फिर मंत्र से अभिमंत्रित जल स्नान कर देने से यह मारण कर्म को नष्ट करता है।
ॐ हाल पदिशाः सर्वक्षा स्वयंभुवे शिवाय परत्मात्मने परम सुरवाटा त्रिभुवन महिताट अनंत संसार चक प्रमईनाय अनंत ज्ञानाय नमः अनंत दर्शनाय अनंत वीर्याय अनंत सुरवाय सिद्धाय बुद्धाय त्रैलोक्य वंशकराय सत्य ज्ञानाय सत्य ब्राह्मणे धरणेन्द्र फणा मंडल मंडिताय उपसर्ग विनाश कराय धाति कर्मक्षयं कराय अजराय अमयाय अमयाय अमवाटा अस्माकं मृत्यु छिंद छिंद भिंद भिंदहंतु कामंछिंद छिंदभिंद भिंद रति कामं छिंद छिंद भिंद भिंद बलि कामं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व कोधं छिंद छिंद भिंद सर्व बैर छिंद छिंदभिंदभिंद वायु धारणं छिंद छिंद भिंद भिंद अग्नि मंत्राणि छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व शन्न छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वोपसर्ग छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व विघ्नं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व भयं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व चोर भयं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व राज्य भयं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व दुष्ट भयंछिंद छिंद भिंद भिंद सर्व व्याय भयं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व ग्रहभयं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वविषं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वव्याधि छिंद छिंद भिंदभिंद डामरं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व परमन्त्रं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व परकृतं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वरोग छिंद छिंद भिंद भिंट सर्वशूलरोग छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वअक्षि रोगं छिंद लिंद भिंद भिंद सर्व शिरोरोगं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व ज्वरोरोग छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वनरमारि छिंदादिभिंद भिंद सर्वगजमारि छिंददिभिंदाभिंद सर्याश्चमारी छिंदछिंद भिंद भिंद सर्वगो मारौं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व माहिष मारि दिछिंद भिंद भिंद सर्व अज मारि छिंद छिंद भिंद भिंद सर्वापरमारि दि छिंद भिंद भिंद सर्व विषम कूर रोग वेताल डाकिनी शाकिनी भयं छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व वेदनीय छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व मोहनीयं छिंद छिंद भिंद भिंद सुदर्शन महाबलचक्र विक्रम बल सत्व तेजोजय शौर्यवीर्याय शांति कुरू कुरू भगवते धाति कर्म छिंद छिंद भिंद भिंद सर्व लोक सर्व देश सर्व सत्वं वशं कुरू कुरू सर्व पापं हन हन दह दह पच पच गन्ह गन्ह पृष्ट पृष्ट शीघ्र शीय सर्ववश मानय मानय हुं फट्
स्वाहा। SERI501501501501512151 ८११PISSISTERSIO5275105DIES
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1551 विधानुशासन 25/
धाति कर्म क्षयो नाम माला मंत्रोयं मत्तमं. श्री पार्श्वनाथ भगवानस्य स्यादधि देवता
ग्रहका
118 11
जपो द्वादश लक्षोऽस्य पुरश्चरणामच्यते, तलधतुः सहण संघ पेपै
॥ १०॥
यह धाति कर्मक्षय नाम का उत्तम माला मंत्र है इसके अधिष्ठाता देवता श्री पार्श्वनाथ भगवान है । बारह लाख जप का इसका पुरश्चरण कहा गया है फिर उसको सुगंधित पुष्पों के द्वारा चार हजार जपना चाहिए।
सन्निध पार्श्वनाथस्य ततो सौ सिद्धि मृच्छति, इत्थं संसाधितेः सर्व शुभाशुभं फलावहः छेदनः परमंत्राणां सर्वक्षुद्र निशुदनः, भेरूंड शरभ व्याघ्र हरि वारणा वारणः इसप्रकार श्री पार्श्वनाथ भगवान के सामने बैठकर सिद्ध किया जाने पर यह सिद्ध होकर सब शुभ और अशुभ फलों को कहता है यह दूसरों के मंत्रो का छेदन करता है भेरूंड पक्षिराज शरभ (अष्टापद) व्याघ्र (यघेरे) हरि (सिंह) चारण (हाथी) को दूर करता है ।
॥ १२ ॥
॥ ११ ॥
प्रति मंत्रि कृतं रुधेत् शिलाग्न्यादि नितापनं, अंशा अप्पस्य वहवो मंत्रा वहु फल प्रदा
॥ १३ ॥
इस मंत्र से अभिमंत्रित करने से शिला में से अग्नि आदि का ताप भी दूर होता है, इस मंत्र के बहुत 'से फल देने वाले बहुत से अंश भी हैं।
एतज्जप्ता द्दषद पामेन्टयस्य प्रपूरिते गव्यैः, मेष मृगादि राजं चापं वा ध्यासिते भागे
॥ १४ ॥
दश (ष) द (पत्थर) के बरतन में गोदूध को रखकर इस मंत्र को जपने से मैदा मृगराज (सिंह) आदि इस भागमें रहना छोड़ देते हैं।
अभिजित नाम्नि मुहूर्त शुक्लाष्टम्यां समाहितो, निखने ते मध्ये क्षेत्र मंत्रिक्षेत्रं द्रोह स्ततो नश्येत्
॥ १५ ॥
यदि मंत्री इस मंत्र को अभिजित नाम के नक्षत्र में शुक्ल अष्टमी के दिन एकान्त चित्त होकर खेत के बीच में समाहित (रखकर) या गाड़ देवे तो खेत के उपद्रव और न्यूनताएँ सब नष्ट हो जाती है । CSPAPSPSP52525-P5252525252525
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CASTRISTRISIRIDIO505 विधानुशक्षन ASTRISIODOISSISTOTS
मुद्रशालि राव गोधूमां बुज बिल्व गव्य तिल माषान, विनस्य ताम रचिते पात्रे तत् तंतु वा बद्धा
॥१६॥
अट्टे मावस्टायाः पर्व स्मिन् मत्रितंतता निरवत् ।
गृहलस्य क्षेत्र शस्यादौ तत्तदोगाः प्रणश्यति ॥१७॥ मुदग (मूंग) इक्षु (ईख) शालि (चावल) यव (जौ) गोधूम (गेहूँ) अंबुज (कमल) बिल्व (बेल) गव्य (गाय का दूध) तिल माषान (उड़द) को ताँबे के बर्तन में रखकर उसको धागे से बाँधकर अमावस के पहले आधे भाग में इस मंत्र से इन सबको अभिमंत्रित करके घर में नृत्यशाला में और खेत की फसल आदि में गाड़ दे तो उसके सब रोग नष्ट हो जाते हैं।
लक्ष्मी रूक कर गय्य तुलसी वार्क दारवी वा निशा बिल्वां, भोज दलानि भंग सुरसा भद्रंद्र वल्लि कुशाः राजी रक्त ॥१८॥
तिलोपामार्गा तुहिन क्षीर दुमत्वगटल क्रांत्यु, ग्रामशुरोचना मुशलिका अन्याश दिव्यौषधि:
॥१९॥
भस्मी कृत्य घटोदरे विनिहिताः पश्चादु पादाय तद्भस्मानेन, सहस्त्रबार जपितं मूर्दादिकेष्वर्पयेत् तत्तत्क्षुद्रग्रह रोग कृतस्तु वितरस्यायुः ॥२०॥
श्रियं संपदं सौभाग्यं विजयं च रक्षति, शिशून् गां गर्भिणीश्च स्त्रियः
॥२१॥ लक्ष्मी (ऋद्धि वृद्धि) रूक () करष () गव्य (गाय का दूध ) तुलसी याक (रस) दारवी () निशा (हल्दी) बिल्व (बेल) अंभोजदलानि (कमल के पत्ते) भंग (भागंरा) सुरसा (लाल तुलसी) भद्रा
अनंत मूल = कायफल) इंद्रवल्ली (इंद्रायण) अशा () राजी (राई) रक्ततिला (लाल तिल) अपामार्ग (आधी ञडा चिरचिटा) तुहिन (कपूर) क्षीरदूम (दूध वाले वृक्षों के पत्ते )क्रांति ()उया (अजमोद) मश्रु (मसूर) रोचना (गोरोचन) मुशलिका (मूसली) और दूसरी भी दिव्य औषधियों को घड़े में रखकर भरम करके उपाय पूर्वक भस्म को निकाल कर उस भस्म को एक हजार बार जप कर मस्तक आदि पर रखे तो छोटे मोटे रोग नष्ट हो जाते हैं। यह आयु लक्ष्मी संपदा सौभाग्य विजय मिलती है तथा बच्चों गाय और गर्भिणी स्त्रियों की रक्षा करती है।
CHICKETERSIOTSTRISTISTSID८१३ DISTOTRICISCEITTERRIES
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SRISTOISTRI5015105 विधाबुशासन NEXDISTRISTRISTOTATOES ॐणमो भयवदोवट्ठमणा रिसरस जस्सचकंचलतं गच्छई आयासंपायालंलोयाणां सं भूटाणां जये वा विवादेवा रणं गणेवार्थभणेवा मोहनेवा सव्व जीव सत्ताणं अपराजिदो होटु मम रक्ष रक्ष असि आउसा है ह्रीं स्वाहा ।।
श्री वर्द्धमानमंत्रोयं सिद्धयत्य युत जाप्पतः, महावीर जिनेन्द्रोधि दैवत सार्वकार्मिकः
॥२२॥
मंत्रस्यास्य भवेज्जप्त्य श्यायु विद्या वशी कतिः. समृद्धिधन धान्यानां सौभाग्यं स्तंभनं कृतः
॥२३॥
संग्राम व्यवहारादौ विजयः पथि रक्षणं, शांति गृहाणामारोग्यमन्य च फल मुत्तमं :
॥२४॥
तज्जप्तांबुकत स्नानंभजो गर्भ प्रदं स्त्रियः, एतन्नित्य जप; सात संपादाति संपदः
॥२५॥ यह श्री वर्द्धमान स्यामी का मंत्र दस हजार जप से सिद्ध होता है इसके सब कार्यों में श्री महावीर भगवान ही अधिष्ठाता देता है। इस मंत्र को जपने से लदमी आयु विद्या वशीकरण धनधान्य की समृद्धि सौभाग्य और स्तंभन होता है। इस मंत्र से युद्ध और मुकदमे में विजय मिलती है, मार्ग में रक्षा होती है, ग्रहों की शांति होती है, आरोग्य मिलता है तथा और भी उत्तम फलों की प्राप्ति होती है। इस मंत्र से अभिमंत्रित किये हुए जल के स्नान से स्त्रियों से भोग करने से गर्भ रहता है। तथा इसका नित्य जप करने से सब संपत्तियाँ आती हैं।
मंत्रत्रय मिदम निशं सं संवित मादरेण लोकस्य,
रत्न प्रय मिव कुरुते शुभं सदा नाशयत्य शुभं ॥२६॥ इन उपरोक्त तीनों मंत्रों का आदरपूर्वक प्रतिदिन जाप करने से यह सदा रत्नत्रय के समान हित करते हैं और अशुभ का नाश करते हैं।
स्वत्यनुकूले काले साध्यस्य शुभोडुकरण हौरादौ,
वाहे चामृत लाडया स्सति सति न सति प्रसीदति च ॥२७॥ CHECISISISTRICISTCASIO51 ८१४ 351875ICISISITORSCIETOISI
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SASOISTOIST215055
विद्यानुशासन
50STO55015101512151
साध्य के अथवा अपने अनुकूल उत्तम नक्षत्र उडु (तारा) करण होरा आदि में अमृत नाड़ी (चंद्रस्वर) के चलते हा कार्य काले पा नहीं होले गग कार्य भी दलला उत्तम होता है कि मन प्रसन्न हो जाता
है।
सर्वे: सुरभि द्रव्यैनंव रत्न युतैन्नैवैर गर्वाः , कपिला गोक्षीर युतैः शुद्ध द्विज कन्याया पिष्टैः
॥ २८॥
नवहेमपात्र निहितैः कनक शलाग्रकभाग समुपात्तः,
विलिरव्येत्साध्यास्या रय्याभूर्ज दल वि निर्मिते मंत्री ॥२९॥ सब सुगन्धित द्रव्य नौ रत्ल और नये अंगुर आदि को काली गौ के दूध से शुद्ध की हुई द्विज की कन्या से पिसवावे । नये सोने के बर्तन में सबको रखकर सोने की बनी हुई कलम के अग्रभाग से भोजपत्र पर मंत्री साध्य के नाम को लिखे ।
झं वह: पः क्षः शशिर्भिवॆष्टय स्वरैश्च षोडशाभिः,
तद्वार्थी प्रविलिरख्यं द्वादशदल संयुतं कमलं ॥३०॥ फिर उसके बाहर झं वं व्हः पः : और शशि (चन्द्रमा) से वेष्टित करके नाम को सोलह स्वरों से भी येष्टित करे उसके बाहर बारह दल वाले कमल को बनाये (लिने)
तेषु दलेषु विलेख्य द्वादशभिः संयुतै स्वरैः,
शून्यांतभंभसा संपुटितं प्रवेष्टामपमृत्युंजयममुना ॥३१॥ उन दलों में बारह स्वरों से युक्त शून्य बीज (हकार) को लिखे उसके बाहर दो जल मंडलों का सम्पुट बनाएँ इस यंत्र से अपमृत्यु जीती जाती है।
ॐनमोभगवते देवाधिदेवारा सोपद्वविनाशनाय सर्वापमृत्युंजय कारणाद्य सर्व सिद्धिं कराय ही ह्रीं श्रीं श्रीं ॐॐकौं क्रौं ॐ ॐ ठाठः देवदत्तस्यापमत्यु घातय घातय आयुष्यं वृद्धव वृद्धय स्वाहा || अप मृत्युंजय मंत्रः
बाह्ये वलयं कृत्वा जल मंडल संपुटं ततो दद्यात, लोह त्रितयेन ततो यंत्रं त द्वेष्ट टोद्विधिना ना
॥३२॥
CSIRISOISTOTSTRADITISTA5८१५ 7507557555575TON
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S5IRISEXSTORIESO विधानुशासन X5I0RRIEDISCISSIST फिर उस यंत्र के बाहर गोल वलय बनाकर जल मंडल का संपुट बनाए फिर यंत्र को त्रिलोह (ताम्र १२ तार १६ सुवर्ण ३ भाग ) के अन्दर विधिपूर्वक जड़वा लें।
गंधारिर्चितमिदम अपमत्यु जया हयं महायंत्रं, सप्ताभि मंत्रयोदथवा रानप मृत्युंजयमुना
॥ ३३॥
कृत्वा जैनी मिज्यां दत्वा च चतुर्विधाय संधाय, योग्यं दानं साध्य स्तद टांत्रं धारयेन्मूनि
॥३४॥ इस अपमृत्युंजय महायंत्र को गंध आदि से पूजकर सात बार इस मंत्र से अभिमंत्रित करे तो इससे अपमृत्यु जीती जाती है। जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके चारों प्रकार के संघों को उनके योग्य दान देकर साध्य इस यंत्र को सिर पर धारण करे।
हंत्यपमृत्यु दत्तमवन विशेषतः क्षुद्रकर्म, सर्वमर्पितनुते शांति सर्मदंवांच्छितांश्चान्
॥३५॥ यह यंत्र अपमृत्यु और सभी छोटे छोटे उपद्रवों को नष्ट करता है और अयन (संरक्षता) देता है और विशेष करके शांति और पुष्टि करता है तथा सुख और इच्छा किये हुए सब पदार्थो को देता है।
गर्भध्वंसकराणां ग्रहोत्कराणां क्षणान्निराकरणं,
विदधात्यंतर्वनाः क्रियमान मिदं शुभं यंत्रं ॥३६॥ यदि इस शुभ यंत्र को वन्नो (घर रहने के स्थान) में रखे तो यह गर्भपात करने वाले सभी ग्रहों को क्षण मात्र में नष्ट करता है।
सिकत्यकवेष्टितमेतयत्रं शीतांबुधारी घट निहितं,
कुरूते दाहोपशमं वारयति गृहकताः पीडा: ॥३७॥ यदि इस यंत्र को सिकथक (मधुमक्खी के मोम) में मढ़कर शीतल जल की धारा वाले घड़े में रखा जाए तो यह यंत्र शरीर की दाह (जलन) को शांत करता है और ग्रहों की पीडा का निवारण करता
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SSIOSIOTSTRASTRIST05 विद्यानुशासन 52152501585OISS
रक्षा यंत्र
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श्री २२
पाय सापभयब
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अथ शुद्धे पटे भूर्जे पत्रे वा कुंकुमादिभिः द्रव्टीः,
सुगंधिभिनाम साध्यस्य प्रथमं लियेत् |॥३८॥ शुद्ध वस्त्र या भोज पत्र पर कुंकुम आदि सुगंधित द्रव्यों से पहले साध्य का नाम लिखे।
सु मुहूर्ते सु नक्षत्रे योग्टौ स्वर्ण शलाकया, तन्ना मजित पिंडेन वेष्टटोत्सिद्ध विधटा:
||३९॥ अच्छे मुहूर्त अच्छे नक्षत्र में सोने की अच्छी कलम से इस नाम को अजित पिंडवाले सिद्ध विद्या के मंत्र से वेष्टित करे।
ॐ सिद्ध चारणा विद्याधर महारगादि देवगणाः हूं हूं क्षांक्षां झू झू क्ष क्षं हुं हुं देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा ।
सिद्ध विद्यया वहि षोडश पत्रेणा कमले नाभिवेष्टोत्. तद्दलोष्वाउँकला पूर्वम पराजित देवते
॥४०॥
CHRISIOSITICTERTAIO15[८१७ 350SEISEASOISTOISTI
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DSPSP/SE
* विधानुशासन 959525255 उसके बाहर सोलह दल वाला कमल बनाकर ॐ कला (हम्र्च्यू) पूर्वक दोनों अपराजित देवियों
को लिखे ।
ॐ हम्ल्यू द्विरमुकं रक्ष द्वि स्वाहेति मध्ये लिखेत्, ततस्तस्य दलाग्रेषु गांधारी बीजमा लिखेत्
॥ ४१ ॥
ॐ हयू द्विरमुकं रक्ष रक्ष स्वाहा इसको बीच में लिखे और इसके पत्तों के अग्र भाग में गांधारी बीज मंत्र को लिखे ।
दलानामंतर्राष्वस्य गौरी मंत्रं ततो लिखेत्, समंतात्सह वज्रं तन्माला नत्रेणा वेष्टयेत्
॥ ४२ ॥
इन दलों के अंदर गौरी मंत्र को लिखे और इसके चारों तरफ वज्र सहित माला मंत्र ( को लिखे) से वेष्टित कर देवे ।
॥ ॐ गौरी महागौरी स्वाहा ॥
गौरी मंत्र:
ॐ नमो भगवते परमेश्वराय परमलोकनाथाय परम विद्या स्वरूपाय, सर्वार्थसिद्धिं कराय, स्थित्युत्पत्ति संहार करणाय, त्रैलोक्य वंशकराय सर्व शत्रु जय करणाय, सव्वापमृत्यु विनाशन करणाय, सर्व विष संहार करणाय सर्व रोगा पनोदनाय तत्पाद पर्याज सेवनि श्री मति विजयदेवी सुवर्ण वर्णे पाशचक्र वज्र खड्ग त्रिशूल शक्ति परशु रिकाद्य मंडिताष्ट भुजे सर्वालंकार भूषिते वैनतेय वाहने षोडश देव ता परिवेष्टिते सर्व विद्याधिष्ठा भूते सकल मंत्रेश्वरी सर्व शत्रु विजयदायिनी सर्व लोकेष्ट सिद्धि कारिणी सर्वग्रह भय हारिणि सर्व दुष्ट विघ्न विनाशिनी दश नाग त्रास कारिणि स्थावर जंगम कृत्रिम विषम विष संहार कारिणि जरामरण रोग पीडापमृत्यु विद्यातिनि किन्नरं किं पुरुष गरुड़ गांधर्व महोरग भूत यक्ष राक्षस पिशाचापस्मार जन्म विनाशिनी शाकिनी योगिनी डाकिनी प्रेतकोटि व्यंतर कृतोपद्रव द्राविण हे देवि त्वमात्म परिवार सहिते देवदत्तस्य सर्वापमृत्यु सर्वशत्रु सर्व विघ्न सर्व व्याधि नवग्रहोपद्रवान पीडां सर्वोपद्रवं नाशय नाशय श्री ही पति बुद्धि कीर्ति कांति पुष्टि तुष्टि सौभाग्यारोग्य आयुष्य वृद्धि बलैश्वर्य विजय सिद्धि वृद्धि सानिधि भूपं कुरू कुरू ॐ ब्रह्माणि एहि एहि माहेश्वरी एहि एहि कौमारि एहि एहि वैष्णवि एहि एहि वाराहि एहि एहि रौद्र एहि एहि चामुंडि एहि एहि महालक्ष्मी एहि एहि कम्ल्यू क्षां क्षीं क्ष्वं क्षां क्षं क्षीं क्षः क्षि अं कं चं टं तं पं शं क्षं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः द्रां द्रीं दूं द्रौं द्रः पं रं यं ठं जं धं यं झं तं क्षं ह्रीं ह्रीं इवीं इवीं पुषष द्रीं द्रीं क्रपं पं वं वं टं टं हं हं मां मां ददं रं हं हं थं थं चं चं यं यं सं सं तं तं वं वं चं चं पं पं रूम्ल्यू यक्षेश्वरी एहि एहि जय एहि एहि, विजये एहि एहि, अजित एहि एहि, अपराजितो एहि एहि, गौरी एहि एहि गांधारी एहि एहि राक्षसी एहि एहि मनोहरि एहि
PSPSPSPSPSPSS ८१८ PSP5951 こらこらわす
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0/50/5052/50/505 fanguinia V505959/50/52/5.
विद्यानुशासन
एहि महालक्ष्मी एहि यह साधन छिंददि भिंद भिंद हर हर दह दह मम पच पच धुन धुन कंप कंप शीघ्र शीघ्र आवेषय आवेषय हुं हुं हर फट फट घे घेरं रं रं रूं पंरंरं ठं ठं ठं ठं ही क्लीं श्रीं ग्लौं मिस मिस हंस हंसं क्षिप ॐ स्वाहा हुं हुं ॐ ॐ बुं हुं हुं फट ॐ श्री मद विजय देवी आज्ञापयति स्वाहा माला मंत्र:
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què en inte bej pray Zjk bakit na MeetAAAAAAAAAAA
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'fare strore wfa संहार कारणाय सदन
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महा मेरी
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महोद
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SHIRIDIEOSE5155 विद्यानुशासन VSTOTRAOISSISCISION
लिखेद भू मंडलं बाह्ये रक्षा यंत्रमिदं स्मृतं, शुद्ध गोमट संमृष्टे देशे भू ग्रह पंकज
!॥४३॥
चूर्णेन पंच वर्णेन विनिर्माय समच्य च , तन्मध्ये विलिरब्येत् पद्म पत्रैः सहित मष्टभिः
माध्य को बिटलाने का यंत्र
॥४४॥
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331.
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इस रक्षा यंत्र को शुद्ध गोबर से साफ किये हुए स्थान (प्रदश) में पृथ्वी पर कमलाकर में बाहर पृथ्वी मंडल लिखकर बनायें। इस पाँच वर्ण के चूर्ण से बनाकर और पूजन करके उसके बीच में आठ दलों सहित कमल लिखे।
तत्कर्णिकाटयां श्री वर्ण कले द्वे द्वे दलेषु च, पीठं तस्योपरिन्यस्य उम्नं श्वेतेन वाससा
॥४५॥ उनकी कर्णिका में श्री वर्ण और पत्तों में दो दो कला (स्वर) लिखकर उसको श्वेत वस्त्र से ढक देवे
तस्मिन साध्यं प्रतिष्ठाप्य पंच चूर्णेरथोषधैः,
तन्निवटेंन मंत्रस्य प्रजप्त्वा त्रिनिंवर्द्धयेत् उस पर साध्य को बैठाकर पाँ! वर्ण और औषधियों से निवर्द्धन मंत्र के द्वारा मंत्र को जपकर तीन बार निवर्द्धन करे।
निवर्द्धन मंत्र ॐक्षां वां ह्रीं ह्रीं पर पर ॐ काली काली महाकालि महाकालि चंडेश्वर कालि चडेश्वर कालि ब्रह्मकालि ब्रह्मकालिइन्द्रकाली इन्द्रकालीवज कालिवजकालि भद्रकालि ॐॐॐॐ ॐ क्षी क्षी क्षी क्षीं सीहुं फट स्वाहा ॥ निवर्द्धन मंत्र CSIRISTRISTRATORSEASTRI5[८२०PIRISTOTSIRSIDASIRECISI
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CASRISOISSISTED55 विधानुशासन HSDISTRISODDISTRISI
प्राच्या भानो गहीत दद्यात रक्तानं बलिं मंत्रवित, याम्यायां क्षेत्रपालस्य कृष्णोदन बलिं दिशि
॥ ४७ ॥ मंत्री पुरुष पूर्व दिशा में सूर्य ग्रहण को लाल अन्न की बलि देवे और दक्षिण दिशा में क्षेत्रपाल को काले भात की बलि देये।
ॐ ब्रह्माणि देविस्थामा पनिया अहिले इसलिं गहा ह देवदत्तं रक्ष रक्ष शीधं वर दे ह्रीं हीं हुं फट स्वाहा || दिग्बलि मंत्रः
हरित पश्चिममाशायां दद्यात यक्ष गृहे बलिं, पीत दद्या चळं कूपे रजन्युत्तर दिग्गी
॥४८॥
धेत यणां वळं पुटीमध्ये दद्या चतुष्पथे, ततो मरिचं तांबुली दल सादन नोदको
॥४९ ॥
सनिबं पत्र लवण रक्षा मंत्रस्य सं जपात् ,
साध्यं निवर्द्रयं संध्यायां निक्षिपेत् तानि पावके। ॥५०॥ पश्चिम दिशा में यक्ष के घर में हरी बलि देये- रात्रि को उत्तर दिशा में पीत नैवेद्य की बलि कुएँ में दे।शेतवर्ण की बलि नगर के बीच में चौराहे पर दें, फिर काली मिरच पान का पत्तासादन (फदनभात-सादन= कटु रोहिनी) उदक (जल) नीम के पत्ते नमक की रक्षा मंत्र जपता हुआ संध्या के समय साध्य पुरुष को नियर्द्धन करके इन वस्तुओं की बलि पायक (अनि) में देवे।
यंत्र देने की विधि ॐ अपराजिते देवते देवदतं रक्ष रक्ष स्याहा ॥ अपराजित रक्षा मंत्रः
मयुर पिच्छ गो भंग वंश त्यक वहती दलैः, दंति दंता हि निमोक निर्माल्योतु पुरीषकैः
॥५१॥
नंया वर्तस्य पुष्पैश्च वचया च विचूर्णितः, स्थदिरा दिवरागारैःधूप तस्मै प्रदापोत
॥५२॥ मोर की पूँछ (पंख) गाय के सींग बांस की छाल वृहती (कटेली) के पत्ते दंति (हाथी ) के दांत अहि (सर्प) निर्मोक (कांचाली) निर्माल्य (पूजा हुआ द्रव्य ) ओतु (बिलाव) की भिष्ठा नद्यावर्त (तगर) के फूल यथ इन सबको चूर्णकर खदिर आदि की श्रेष्ठ अंगारों पर डालकर धूप दें।
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STRICTSEISIOISO15105 विधानुशासन ISIODOSTOTRICISION
सहिर एो यटे सूत्र वेष्टिते सिद्ध मृतिका. क्षीर गुम शमी बिल्व शिरीषासन बल्कलं
||५३॥
पदमा लक्ष्मी सहा पाठाकांता गोबंधिनी दत्तां,
रत्नान्यायः स्वयं शुद्धाः शुद्धि मंत्रेणा निक्षिपेत् ||५४॥ धागा लपेटे हुए सोने के घड़े में, शुद्ध मिट्टी, क्षीर दुम (दूधवाले वृक्ष) शमी (खेजडा) बील सिरस असन (विजयसार) वल्कल (वृक्ष की छाल मोलश्री) पद्मा (भारंगी) लक्ष्मी (तुलसी) सहा (गवार पाठा) पाठा (पाठ) क्रांता (कटेरी) गोवबंधनी (गौवल्ली) के पत्ते दंतां (दंति तिरिफल) और रत्नों को शुद्धि मंत्र के द्वारा जल में शुद्ध करके डाल दें।
ॐ नमो भगवते विश्व जन हिताय त्रिलोक शिरवर शेरवराय विशुद्ध चतुर्मुखारा शुद्धाय शुद्धि करणाय ॐ बं बं यं यं पम्ल्वयूँ स्वाहा ||शुद्धि मंत्र
रत्न दिव्यौषधो पेतं तदभं कुभं सं भत,
अष्टोत्तरशतं मंत्री शुद्ध मंत्रेण मंत्रोत् फिर रत्न और दिव्य औषधियों सहित घड़े के जल को मंत्री शुद्धि मंत्र से एक सौ आठ बार अभिमंत्रित करे।
ॐ अमृतधारिणी इची क्ष्वी अमृतदायिनी स्थावर जंगम कृत्रिम विष संहरिणी देवदत्तस्य अमृताय स्वाहा
अमृत मंत्र:
वार नियमावर्य धारा कारां प्रदक्षिणां , अभिषिं चेत्सुधा मंत्रं प्रजप्त्वा स्तै स्तंभ बुभिः
॥५६॥ फिर तीन बार धारा के आकार की प्रदक्षिणा देकर अमृत मंत्र को जप करके उस जल से स्नान कराएं।
कत संस्नपन स्यास्य साध्यस्य विधिनामुना, अनंतरं च कुवींत सामान्य सकली कियां
॥ ५७॥ फिर उस साध्य को इस विधि से स्नान कर चुकने पर साधारण सकली क्रिया से रक्षा करे।
आचार्येभ्यः तपोभद्रेयो दीनानाथ जनाय च, देयाद्दानं यथा शक्तिः साध्य श्रद्धा समन्वितः
||५८॥ फिर साध्य आचार्यों तपस्वियों और दीन अनाथजनों को यथाशक्ति श्रद्धा सहित दान दे।
SRDISTRIDDISTRISTOTRS८२२ DISTORSD52150505125
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STEPISROISTOISTORIES विधानुशासन VIDEOSDISCI5015
ततस्तं यंत्रमाचार्यः सप्रसन्न चेत सा,
तस्मै दद्यात्स चा दद्यादगुरौ भक्ति परां दधात् फिर आचार्य उस यंत्र को अत्यंत प्रसन्न मन से साध्य को दे देवे और वह भी अत्यंत गुरु भक्ति रखता हुआ उसको ग्रहण करे।
कटयां बाहौ गले वस्त्र कूर्चिकायामथापिवा, एव मारचितं यंत्रं धारयेत्प्रतियासरं
॥६०॥ इस प्रकार बनाये हुए यंत्र को प्रतिदिन साध्य अपनी कमर, भुजा, गले, कपड़े अयवा कूर्चिका (सर) पर धारण करे।
मारणानि प्रणाश्यंति व्याधिगे रिपवो ग्रहाः, श्री सौभाग्यायुरारोग्य जश्चिणियं वान्पुयात्
।।६१॥ इस यंत्र की शक्ति से मारण कर्म व्याधियाँ शत्रु और ग्रह नष्ट हो जाते हैं तथा लक्ष्मी सौभाग्य आयु आरोग्य जय और ऐश्वर्य की प्राति होती है।
यक्ष राक्षस गंधर्व शाकिनीभूतपन्नगः, अन्यैरपि दशैन्नाटामभिसूटोत जातुचित्
।। ६२॥ फिर साध्य को या राक्षस गंधर्वे शाकिनी भूत पन्नग (सर्प) तथा और भी ऐसे यह कभी नहीं दबा सकते हैं।
सततं धारयेदेत द्रक्षा यंत्रम नुतमं, यांतर्वर्तनीन तस्यास्यु गर्भ व्यापत्तयो रिवलाः
॥६३॥ इस उत्तम महारक्षा यंत्र को निरंतर धारण करने से पेट के अंदर की सब व्याधियाँ एवं रोग नष्ट होकर गर्भ की सब व्याधियाँ दूर हो जाती हैं।
अथ साथ्यानुरूलेषु शुभतारो दयादिषु, उपादधीत कास्याणि स मंत्रं यक्ष सं जपन्
॥ ६४॥ साध्य के अनुकूल नक्षत्र आदि के उदय होने पर यक्षा मंत्र को जपता हुआ कार्यों को करे।
ॐ यक्षाय अतुल बल पराक्रमाय सर्व सिद्धिं कराय, यक्षाय यं यं यं यं ह्रीं स्वाहा
॥ द्यक्ष मंत्र : SASTRISTRISTRISES5015251८२३PISTRISTRISIPISE5I0505
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SSIOISODIO15255125 विधानुशासन 215251055050501
ततो विजय मंत्रण कायां समभि मंत्रितं,
निदध्यात कुत्र चिदगुप्त भूसं स्पर्श विवर्जितं फिर विजय मंत्र से अभिमंत्रित करके किसी गुप्त स्थान पर पृथ्वी को बिना छुये हुए रख दें।
ॐ विजय देवते त्रेलोक्य रक्षा क्षमे रख रख ल्व, घां ग्रीं घूयौं यः फट ये ये धूंधू ववये घे रक्ष रक्ष स्वाहा। विजय मंत्र:
वार कुजारव्य स्वात्यक्ष शुक्लाष्टमयां प्रकल्पसूत्, सिंहोदयेत्त द्दीयांशे कट हस्ताष्टट प्रमं
॥६६॥ मंगलवार स्वाति नक्षत्र शुक्ल अष्टमी सिंह के उदय होने पर उसी के अंश में आठ हाथ प्रमाण एक कुट बनावे।
तघ्राथ शोधिते कूटे चतुरश्च मनोहरे, याम्यात् सिद्रे चतुद्धार चतुस्तो रण संयुते
॥६७॥ तब उस शुद्ध किये हुए मनोहर दक्षिण दिशा में सिद्ध किये हुए चार द्वार याले चार तोरण युक्त
महादिग्धार विन्यस्त सहस्त्रनयना युधे, दिगंतराल भूभाग विनिक्षिप्त रथांगके
।।६८।। महान दिशा (पूर्व दिशा) में सहस्त्र नयन (आँख) वाले इंद्र के आयुध वज से युक्त विदिशाओं के भाग के स्थान में रथांगक (चकवे पक्षी) युक्त
दर्भमालापरिक्षिप्ते पुष्प दामोपशोभिते, सुगंध द्रव्य सं स्पृष्टे गायल्मगल पाठके
॥६९॥ दर्भ की माला रखे हुए पुष्पों (फूलों) की माला से शोभित सुगंधित द्रव्यों से स्पर्श किये हुए गायन और मंगल पाठ से युक्त
फलकं स्थापटोन्मंत्री शुभ दुम विनिम्मितं, तत्र प्रसन्न हृदटो स्तं काप्पसिं समर्पयेत्
॥ ७०॥ उस कूठ पर मंत्री शुद्ध वृक्ष की बनी हुई तख्ती की स्थापना करके प्रसन्न मन से कपास दे।
अपराजित पिंडेन कृत मध्या सिता सनं,
विभ्राण पाणि युगलं जय मंत्राभि मंत्रितं SSIOTICISTERDISTRISTS८२४PISODRISIOISTRICISION
॥ ७१ ॥
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CHOTSIRIDIDISEXSTO5 विधानुशासन 950150150505ICISI अपराजित पिंड कम्ल्ययूँ से बनाये हुए कपास के आसन पर बैठी हुई जय मंत्र से मंत्रित दोनों हाथों को धारण की हुयी।
ॐ जये महाजटो विश्वजये त्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं विघ्न विनाशनं कुरू कुरू स्वाहा || जय मंत्र
कन्यका प्राङ्मुरयी स्वर्ण धनुषा सप्त वत्सरा,
तं काप्पांसं सुसंस्कृत्य सूत्रं कुर्यात् यथा विधिः ॥७२॥ पूर्व की तरफ मुख किये हुई सोने के धनुष के समान सात वर्ष की कन्या को वह कपास दे। यह कन्या उस कपास को साफ करके उसकी विधिपूर्वक सूत बनाए।
स्नातः सुभूषित वपुः: कुमारो स्पृश्य वंशजः, असंस्पष्ट मही पृष्टी दैत्याशाभि मुरवः स्थितः
॥७३॥ फिर स्नान किया हुआ सजे हुएशरीर याला स्पृश्य वंश में पैदा हुआ पृथ्वी को बिना छुये हुए दक्षिण की तरफ मुग किया हुआ।
अपराजित मंत्रेण रचितात्माभि रक्षणः, तन्मत्रित शलाकादि साधनःशुभ लक्षण:
॥७४ ॥ अपराजित मंत्र से अपनी रक्षा किया हुआ उस मंत्र से मंत्रित शलाका (दंड) आदि साधन याला अच्छे लक्षणों याला कुमार
जय मंत्राभि जप्तेन तेन सूत्रेण कल्पयेत् वस्त्रं तन्मंत्र संजतः पवित्रीत कर द्वया:
।।७५॥ अपने हाथों को उस मंत्र के जपने से पवित्र करके जय मंत्र से जपे हुये धागे से वस्त्र बनाए।
प्रमाणं तस्य विस्तारे साद हस्तं करत्रयं, दीर्घभागे तु हस्ताना पंचकं प्रतति भवेत्
॥७६॥ वह वस्त्र चौड़ाई में प्रतीत (फैला हुआ) साढ़े तीन हाय और लंबाई में पाँच हाथ हो।
तावद्विय टाक्ष मंत्राभ्यां जप्तैरष्टोत्तर शतं, प्रसिद्ध सरिदुद्भूतैः शुचिभिः क्षालयेज्जलैः
॥७७॥
SASIRISTOTATERIOTICIPS८२५ PXSTOTHRISTORICKSRTICLES
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STORISTORISTRI51005 विधानुशासन 205015RISTRISTRITICISM फिर उस वस्त्र को दो बार यक्ष मंत्र से एक सौ आठ बार मंत्रित किये हुए प्रसिद्ध नदी के उधूत (फें हुए) पवित्र जल से धोयें।
पध्यादुर्वा रवटिका शाल्योदन नालिकर दल पुष्पैः चंदन कुष्टीशीर कप्परग्रंथि पर्णायै :
॥७८॥ मंगल सुरभिः द्रव्यैरपि पूर्ववदेव कन्यया विधिना,
अस्पृष्ट भुवने वारे स कृतिके कल्पितै प्यानी ॥७९॥ पथ्या (हरड़) दुर्या (दोब) टाटिका (अड़िया) साठी लावलों का भात नारियल के पत्ते तथा फूल चंदन कूठ खस कपूर ग्रंथि (नागरमोथा) पर्णा (नागरोल के पान )आदि मंगल तथा सुगंधित द्रव्यों से पहले के समान ही विधिपूर्वक अस्पृष्ट (अंधेरी-कृष्णपक्ष) की भुवने (चतुर्दशी) को कृतिका नक्षत्र के दिन कन्या के द्वारा बनवाएँ।
सापु कत लेपनं तद्वस्त्रं रचितेषणाक्रियं,
पश्चात ववदतर वरकर किरण पकरे संशोषयदे हिनि ॥८०।। वह कन्या उन वस्तुओं का लेप उस कपडे पर करके जो नाप से बनाया हुआ है फिर उसको अहनि (दिनमें) खारकर (गर्मी करने वाला सूर्य) प्रकर (तेज बहुत से) किरणों संशोषय (सुखाये)
एवं कमैच बुहभि विधि बत पटस्ट, विहितस्य मध्ये कुष्ट युगा गरू केशर कर्पूर धनसारैः
॥८१॥
त्वक पत्रो शीरा सृग्मोर शिरवा केतक द्वय परागै:, लक्ष्मी श्वेताब्ज शमी कांता सूर्योषु पुंरवानां
॥८२॥
रक्तोत्पल सरसिजो जाती पुट मल्लिका प्रियं गुना, रंभायाः पद्मायाः पुन्नाग कमुक वकुलाना
॥८३॥
काकोलै रपि पुष्पैः पयसा गो: कपिल वर्ण देहायाः, भूम्या पतित तदगो मा रसेन महिषाक्षं गुग्गुलानां
॥८४ ॥
निसिन च शाल ब्रह्म कपित्थ कर्णिकराौः,
हिम पितारै पात्रै रत्नैः सह विनिहितैननियभि : ॥८५॥ CS0505125505051८२६ PASTRI50151235CTECISISTRI
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CHRISCREESOME विशानुशाश्मन ASIADIOHDDESISCIEN
स्वंशलाको पात्तैः हष्ट मनाः स्वस्तिसना सीनः,
उत्तरदिरिम मुरवैः कृत सकली कृति रक्षा भिधानः ॥८६॥ इस प्रकार बहुतप्रकार की विधि से बने हुये उस कपड़े के बीच में कुष्ट (कूट) यूगा गरू (दोनों अगर और तगर) केशर कपूर घनसार (कपूर) त्वक पत्र (तीलोसपत्र) उषीर (खस) असृक (केशर) मयुरशिखा केतकी दोनों प्रकार की और पराग फूलों की रजड़ (मिट्टी) लदमी (तुलसी) स्वेताब्ज (सफेद कमल शमी (खेजडा) कांता (सफेददूब)सूर्या (इंद्रायण)'खाना (सरफोका) रक्तोत्पल(लाल कमल) सरसिज (सफेद कमल) जाति (चमेली)पुट मल्लिका मोतिया मोगरा फूल प्रियंगु रंभा (केला) पदमा (मंजीठ)पुन्नाग क्रमुक (सुपारी) वकुल (मोलश्री) काकोली के फूल काली गाय का दूध, पृथ्वी पर बिना गिरे हुए गोबर का रस, महिषाक्ष गूगल (भैंसा गूगल) के निर्यास (काठे या रस) शाल वृक्ष ब्रह्म (छीला पलाश) कपित्य (कैथ काथोड़ी) और कणिकार (कनेर) आदि को हिम (टण्डा चन्दन) पीससकर नवरत्नों क साथ बर्तन में रखकर सुवर्ण (सोने) की शलाका (कलम) लेकर प्रसन्न मन होकर स्वस्तिक के आसन में बैठकर उत्तर दिशा की तरफ मुख करके रक्षा करने थाली सकली करण क्रिया करके।
संधार्य शंख मुद्रां वहमाने शशिनि भूषणोदमासि, अपराजित मंत्राष्टत्तर शतज्जप्त स्व भीमकरः
॥८७॥ शंख मुद्रा को धारण करके चंद्र स्वर के बहने पर आभूषणों से भूषित होकर अपराजित मंत्र को अपने दाहिने हाथ से एक सौ आठ बार जपे।
• पात्रानुकूलकाले पूजित मंत्रादि देवता चार्यः, मंत्रा रभेत लिरिवतु यंत्रंकत मंगल विधानं
॥८८॥ पात्र (साध्य) के अनुकूल समय में मंत्र आदि के देवताओं का पूजन करके आचार्य मंत्र के प्रारंभ में मंगल विधान करके यंत्र को लिखे
साप्यस्य नामधेयं वारूणा पिंडे विलिरख्या वम्लय दिक्षु लिखेत,
चत सृषुभयनाधिपति वकार पिंडे विलिरव्यं विदिक्षु वहिः॥८९।। साध्य को नाम वारा पिंड (कम्यूँ) के बीच में लिखे उसकी तारों दिशाओं में भुवनाधि पति (ह्रीं) लिखे और बाहर विदिशाओं में वकार पिण्ड (बल्यू) बीज को लिखे।
कत्वादष्टदलं पद्म न्यस्टोत्पत्रेषु तस्य जय मंत्रं,
पत्राणामग्रेषु ह्रीं विलिरवेदं तरेषु क्लीं ॥१०॥ SYSTOISEDIOTSEXSEXSTO5८२७BASIRISTOISTRISPECISION
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959526952 विधानुशासन 9595895959595
उसके बाहर आठ दल का कमल बनाकर उनमें जय मंत्र को लिखे पतों के अग्र भाग में ह्रीं और अतंराल में क्लीं लिखे।
द्वादश पत्रेषु वहिलिखित स्यांभोरुहस्य पत्रेषु, न्यस्यहपिंड विलिखेत बं कारं तद्दलागेषु
॥ ९१ ॥
फिर उसके बाहर बारह दल का कमल बनाकर उसके पत्तों में हपिंड (ह्मचर्यू) लिखकर उसके पत्तों के अग्रभाग में वः लिखे ।
पत्रांतर भागेषु स्त्रीं रे तो द्रावकं लिखेत् बीजं, लिखितस्य वहिः षोडश दलस्य पद्मस्य पत्रेषु
॥ ९२ ॥
पत्र के अंतर के भाग में स्त्री के वीर्य को द्रायन करने वाला (पिघलाने वाला) बीज द्रां को लिखकर उसके बाहर सोलह दल का कमल बनावे ।
षोडश विद्या विन्यस्येत सानुसारेण कांतबीजेन, द्रींकारं पत्राग्रे तदंतर लिखित क्लीं च पदं
॥ ९३ ॥
उसके पत्तों में कान्त बीज ख के साथ सोलह विद्या देवियों के नाम लिखे उसके पत्तों के अग्रभाग में द्रीं और अंतराल में क्लीं पद को लिखे ।
रोहिणी प्रथमा देवी प्रज्ञपति वज्र श्रंखला, वज्रांकुशा प्रतिचका समं पुरुष दत्तया
काली तथा महाकाली गौरी गांधार्य्यथा परा, ज्वालामालिनी मानवी वै रोटी चा च्युतामता
मानसी च महामान स्यपि विद्याधि देवताः, षोडशैता विनिर्दिष्टा विद्यासागर पारगैः
॥ ९४ ॥
॥ ९५ ॥
॥ ९६ ॥
पहली देवी रोहिणी प्रज्ञप्ती वज्र श्रृंखला वज्रांकुशा अप्रतिचक्रा पुरूषदत्ता काल महाकाली गौरी गंधारी ज्वालामालिनी मानवी वैरोटि और अच्युता मानसी महामानसी इन सोलह विद्या देवियों को विद्यारूपी 'समुद्र के पार जाने वालों ने विद्या की अधिष्ठात्री देवता कहा है।
पदमस्य तस्य बाह्ये मंत्रज्ञो वरूण मंडलं विलिखेत्, बाह्ये वकार पिंडं दद्यान्नामा क्षरांतरित :
9595959595915195 ८२८P/595959595195951
॥ ९७ ॥
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51005IOSDISTRI505 विधानुशासन VDIOISSETOISIOSOSI मंत्री उस कमल के बाहर वरूण मंडल लिखे और उसके बाहर बम्ल्वयूँ बीज को उसके गर्भ में नाम रखकर लिखे
वलय विलिरवे बाह्ये तस्ट विलेख्या वहिः कलाः सकला:, कोणात् कूट पिंडं तदनु विलेख्यं महिवलयं ॥९८॥
बाह्ये तस्य ककार प्रभतीन वर्णान् हकार पटांतान,
पशम या प्रणय रहिरण्य: रेतः प्रियायाश्च ॥९९ ॥ उसके बाहर यलय बनाकर उसके बाहर सब कलाओं सोलह स्वरों को लिखे उसके पश्चात पृथ्वी मंडल बनाकर उसके कोणों में कूटपिंड क्ष्ल्यूं लिखे। उसके बाहर क से लगाकर ह तक के सब अक्षरों को लिखे जिनके आदि में ॐ और अंत में स्वाहा लगाकर लिखे।
हंसा रूदान विलिवेत् सार्द्ध मंत्रेण पूर्वमुक्तेन्,
रक्षा यंत्रे मंत्री माला मंत्राभिधानेन ॥१०॥ फिर पहले कहे हुए मालामंत्र के साथ हंसारूढ़ को लिखकर मंत्री रक्षा यंत्र बनावे ।यह रक्षा यंत्रहै।
पायगं स्थित सरतरु हारि चतार युक्तम व जि पुरं,
कृत्या तथास्थ बा हो नवनिधि पिंडाः समालख्याः ॥१०१॥ उसके दोनों तरफ कल्प वृक्ष बनाकर चार द्वार वाले पृथ्वी मंडल को बनावे फिर उसके बाहर जौ निधियों के पिंडाक्षरों को लिखे।
रक्त सित हरित पीतैः संपूर्णा लक्षणैः शुभैः सर्वैः,
फल वरदकरा विलिरयेत् दिक्षु श्री कीर्ति पती कांती ॥१०२ ॥ फिर लाल सफेद हरे और पीले सब शुभ लक्षणों से पूर्व हाथ में फल और वरदान लिये हुए श्री कीर्ति धृती और कांति देवियों को दिशाओं में लिखे।
अब्ज स्वस्तिकं शनिर्नयां वर्तस्य कुसुममपि,
तासां विदुरासनान्यमूनि क्रमेण चत्वारि मंत्र विदः ॥१०३ ॥ उन देवियों के क्रमशः कमल स्वस्तिक वज और नंद्यावर्त के फूल इन चारों को उन देवियों के आसन कहा है । CISIOISTRISTRISTI501525 ८२९PSIRISTOTSEXSTORIES
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9595296959595 विद्यानुशासन 59 प्रादक्षि एयेन वहि गौरी मंत्र समालिवेदस्य तदनुच, ठकार वलयं त्रितयं सं स्थापयेन्मंत्री
11 208 11
उसके पश्चात मंत्री दाहिनी तरफ से गोलाकार में गौरी मंत्र को लिखकर फिर तीन ठः के वलय को बनाये ।
स्वर्णमयं रजतमयं ताम्रमयं चाष्ट पत्रम भोजं, विरच कर्णिकायां भुवनाधिपतिं लिखेत् तस्य
॥ १०५ ॥
फिर सोने चांदी और तांबे के अष्ट दल कमल बनाकर उनकी कर्णिका में भुवनाधिपति (ह्रीं) लिखे
अपराजित पिंडनुतं नमः पदांतु दलेषु विदधीत, तेषु ब्राह्मायादीनां देवीनां नामकं नाम्राः
॥ १०६॥
उसके दलों में अपराजित पिंडाक्षर (यू) सहित अंत मे नमः और आदि में ॐ लगाकर ब्राह्मी आदि देवियों को लिखे।
ちらり
सं शुद्ध निहित फलके शोधित धवलां बरेणा सं छिन्नो, निहितस्य तस्य पद्मस्योपरि संस्थापयेद यंत्र ॥ १०७ ॥ शुद्धि से रखी हुयी तख्ती के ऊपर शुद्ध सफेद वस्त्र बिछाकर उसपर कमल रखकर उसके ऊपर यंत्र रखे।
वहिरष्टोत्तर शतकः कलश जलैस्तद भिषिंच्या, पटयंत्रं सलिलजमलयोदगंधैः सर्चयेदर्चना द्रव्यैः
॥ १०८ ॥
फिर उस पट के यंत्र को बाहर से एक सौ आठ कलशों के जल से अभिषेक कराकर उसकी जल चंदन आदि पूजन के आठ द्रव्यों से पूजन करे ।
शंख पटह प्रतिध्वनिभिवद्यिनृत्यैश्च विविध गीतैश्च, अन्यै चैवं स्तदर्चयेन्मंगल द्रव्यैः
भूतै
॥ १०९ ॥
शंख पटह (नकारों) के शब्दों बाजे नृत्य और अनेक प्रकार के गायन और अनेक प्रकार के ऐसे ही मंगल द्रव्यों से उसका पूजन करे।
रचयेच्च पौष्प मंडपमु परिष्टान्मूल मंत्र परिजत्या, अधि देवतां प्रतिष्ठा मंत्रेण स्थापयेच्च पटे
॥ ११० ॥
फिर मूल मंत्र को जप कर उस यंत्र के ऊपर फूलों का मंडप बनावे और वस्त्र के ऊपर प्रतिष्ठा मंत्र से अधिष्ठाता देवता की स्थापना करे ।
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PSPSSPPSS विधानुशासन 2595959529505
स्नापितस्य पूर्व विधिना लिप्तस्य सुगंधिभि शुभै द्रव्यैः, कृत भूषणा वपुः संदद्यतः सर्वैरलंकारैः ॥ १११ ॥
फिर पूर्व विधि से स्नान करके सुगंधित द्रव्य अंग में लगाकर शरीर में आभूषण धारण हुआ सब अलंकारों को धारण करे ।
सकली कृतस्य पूर्वेहनि रक्षामंत्रविहितरक्षस्य,
स्त्री सेवात्यक्त वत: परेन्हि कृत दंत धवनस्टा
॥ ११२ ॥ पहले दिन सकलीकरण करके रक्षा मंत्र से अपनी रक्षा करके स्त्री के संसर्ग से दूर रहकर अर्थात् ब्रह्मचर्य रखता हुआ दूसरे दिन दंत धावन करके
स्त्रापितास्या मृत मंत्रेणांतः स्थित शुद्धि मंत्र कलश जलैः, पुष्पांजलिं कृत वतः पठतो विजयान्वं मंत्र
॥ ११३ ॥
फिर कलश के अंदर के जल को अमृत आदि मंत्रों से शुद्ध करके तथा अमृत मंत्र से स्नान करके विजयादेवी के आह्वानन के मंत्रों को पढ़कर पुष्पांजलि देवें ।
सत्पात्रेभ्यो दानं दत्त वत सादरं यथा शक्ति, 'यंत्राधि देवतां त्रिः प्रदक्षिणां कृत वतो भक्तया
॥ ११४ ॥
अपनी शक्ति अनुसार फिर आदर सहित उत्तम पात्रों को दान देता हुआ मंत्र और यंत्र की अधि देवी की भक्ति से तीन प्रदक्षिणा करे।
अर्चित गुरोर्विदध्यात्साध्यस्य गुरुः प्रसन्नचेता. स्सन आज्ञामेतयंत्रं समाहितं प्रार्थयत्यमिति
।। ११५ ।।
फिर साध्य गुरु का पूजन करके उनको प्रसन्न करे यदि वह प्रसन्न हो जावे तो उनकी आज्ञा लेकर यंत्र का पूजन व अर्चना समाप्त करे ।
नीत्वा ततो विशुद्धे देशे साष्टाधिकं शतं वारान्, अभिमंत्रितं प्रतिष्ठा मंत्रेणा स्थापयेद यंत्र
॥ ११६ ॥
फिर शुद्ध स्थान में (नीत्वा) ले जाकर प्रतिष्ठा मंत्र से एक सौ आठ बार मंत्रित करके उस यंत्र की स्थापना करे।
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P59595 ८३१ PSPSPOP PSPAPE
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CSIRIDIOISTRISTRI5015 विद्यानुशासन ADIDIEOSRISDISEASE
प्रातः शुद्धोभूत्वा समर्चोदयंत्रं देवता नित्यं, परिजप्प मूल मंत्रं वारान सप्ताथ तत्पश्येत्
॥११७॥ प्रातःकाल के समय शुद्ध होकर प्रतिदिन यंत्र के देवता के मूल मंत्र को सात बार जप करके पूजन करके उसे देखे।
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क्षुद्राव्य वचोच्चाटन विद्वेष स्तंभ बैरि रीति कतैः,
बहु विध चरा चरोद्भव गरल नवग्रह पिशाचायैः ॥११८॥ SERISTOTSTRASOIDIOSE0951 ८३२ PMIDIOSRIDICTICTIONARIES
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PSPPSPSS विधानुशासन 25PSPSP55
क्षुद्र नाम वाले मंत्र उच्चाटन विद्वेषण स्तंभन शत्रुता आदि बहुत प्रकार से चलने वाले तथा स्थित स्थावर और जंगम विष नवग्रह और पिशाच आदि
अन्यैरपिद्वशैर्य नृणां कृत्वा उपद्रवाजाताः, यंत्रमिदमर्चमाने तेषां परमः प्रतिकारः
॥ ११९ ॥
तथा अन्य दूसरे भी जिनसे पुरुषो को उपद्रव होते हैं। उन सबका सबसे उत्कृष्ट प्रतिकार इस यंत्र का पूजन करने से होता है।
हंत्यपमृत्युं विजयं कुरुते लक्ष्मीं परां समातनुते आरोग्यं सौभाग्यं शांतिं पुष्टिं च विदधाति
॥ १२० ॥
यह यंत्र अपमृत्यु को नष्ट करता है विजय कराता है उत्तम लक्ष्मी को देता है तथा आरोग्य और सौभाग्य शांति और पुष्टि को करता है ।
क्षुद्र ग्रहाधुपद्रव हरमभिमत साधनं च पटु यंत्र, अनुपममेतज्जानन भवति नरेंद्रो नरेंद्राह:
॥ १२१ ॥
यह यंत्र छोटे मोटे ग्रहों के उपद्रवों को नष्ट करता है और इच्छा किये हुए कार्य को सिद्ध करने में चतुर है। इस यंत्र को इस प्रकार अनुपम जानता हुआ पुरुष राजा और उत्तम मनुष्यों में पूज्य हो जाता है ।
इति अपमृत्युंजय यंत्र विधि समाप्तम् ।
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SSCRISTRISTOTSED विधानुशासन 15055050SSIPISODY
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देवदत्तस्य सर्व ज्वरं नाशं कुर २
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त्रैलोक्य सार चिंतामणि गणधरवलय सिद्ध चक्राणि,
चकं समस्तंफलदं च पूजयेत् क्षुद्र शांत्यर्थ ॥१२२॥ क्षुद्र शांति के वास्ते त्रैलोक्य सार यंत्र चिंतामणि यंत्र गणधरवलय यंत्र सिद्ध चक्र यंत्र और समस्त फलद यंत्र का पूजन करे।
अथ शांति समुदेशे सर्व शांतिः प्रवक्ष्यते, यासां सुविहिता सर्वासान वति मारणात
॥१२३॥ इसके पश्चात शांति समुदेश में उन सर्वशांति कार्यों का वर्णन किया जाएगा जिनको करने से सभी को मारण कर्म से बचाया जा सकता है।
शांतौ प्रवक्ष्यमाणानि यंत्र नीरांजनानि च, वद्य प्रति विद्यानाय प्रयोज्यान्यत्र मंत्रिणा
॥१२४॥ मंत्री को चाहिये कि शांति समुदेश में कहे जाने वाले यंत्र और नीरांजनो का मारण के प्रतिकार में प्रयोग करे। मारण प्रतिकार की आवश्यक क्रियाएँ CISIOTECISIOTICISISAST015 ८३४ V50AOISTRISRASTRASIDASI
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eSPSPSPSPSS विद्यानुशासन 9595905959595
साध्य श्री शांतिनाथस्य विदधीत महामहान्, महा विभूतिभिः सर्वानष्टाहिक पुरस्सरान्
॥ १२५ ॥
साध्य श्री शांतिनाथ स्वामी के विधान को बड़ी बड़ी विभूतियों के साथ अष्टान्हिक पर्व के दिनों में आठ दिन तक करे ।
पूजयेत् जल गंधाद्यै प्रभूतैः शुत देवतां. हृदये बहु विद्यैर्वस्यै द्रव्यैरन्यैश्च मंगलैः
॥ १२६ ॥
वह जल और गंध आदि बहुत से सुन्दर बहुत प्रकार के वस्त्रों और दूसरे मंगलिक द्रव्यों से शुत देवता का पूजन करे ।
चैत्य चैत्यालय स्तूपमान स्तंभान सवृक्तिकान्, कुर्यात् साध्य: स्वयं तेषां जीर्णानां च न वीक्रीतः
॥ १२७ ॥
साध्य चैत्य और चैत्यालय स्तूप और मान स्तंभो का वृलिक (पूज्य स्थानों) सहित स्वयं जीर्णोद्धार करे तथा नये चैत्यालय बनावे |
कुर्य्यात् कूष्माइयक्षीश्व स्नपनानि महाचरू,
भूषणान्यपि वस्त्राणि दद्याधात्रां च कारयेत्
॥ १२८ ॥
आस कूष्मांडी देवी का अभिषेक पूजन महान नैवेद्य भूषण और वस्त्रादिक देकर करे तथा तीर्थ यात्रा करावे ।
साध्य स्तपोधनानक्षांती: श्रायकान् श्राविकामपि,
दत्वा हारादिकं योग्यमनुवर्त्तेत भक्तितः ॥ १२९ ॥
साध्य मुनि आर्थिकाओं श्रावकों और श्राविकाओं को आहारादि देकर उनसे भक्ति पूर्वक व्यवहार करे ।
एवं पुन्यानु वंधीनि पुन्यान्यर्जयतां नृणां आयुः खंडयितुं नालं सा पापा मारण क्रिया
॥ १३० ॥
इस प्रकार पुण्य के कारण वाले कार्यों से पुण्य को कमाने वाले मनुष्यों की आयु को कोई पापिनी मारण क्रिया खंडित नहीं कर सकती है।
उक्तं च महामह विधानं त्रिवर्णाचारे, महासेन कृतैः जिनमभिनम्य वच्मियहं महामह
PSPSPSP5959595 ८३५ PSPSx
॥ १३१ ॥
59529/525
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SSORRISTRISTRICT विद्यानुशासन 500501525TRISTS
महामंडल मध्य मंडल पंचकं संयुक्ते, प्रतीके जिनं स्थापयेत तत्समीप
॥१३२॥
जल संयुत महामंडल वस्त्र श्री फल संयुतं,
घटमेंक विधाय पुण्याह वाचनां संकल्पं च कुर्यात् ॥१३३ ॥ महासेज के बनाये हए त्रिवर्णाचार में महामह विधान का वर्णन किया गया है। जिनेन्द्र भगवान को नमस्कारकरके मैं महामह का वर्णन करता हूँ । एक बड़े भारी मंडल के मध्य में पांच मंडजलो से सहित जिनेन्द्र भगवान के पास प्रतीक की स्थापना करे।जल सहित महामंडल अत्यंत शोभित वस्त्र नारियल सहित एक घड़े को रखकर संकल्प करके पुण्याह वाचन पढ़े ।
यटोपरि जलेन सेवते पश्चात् तस्मिन्मडले कोष्टानि कुर्यात्, अष्टाधिकैकसहस्त्राणि तेषामुपरि घटानि तावत्प्रमानि स्थापयेत् ॥ १३४॥
संठि बिल्व पिप्पल मरिचानां सटानि पंच दश सर्वोषधि युतराटो बिल्व नालिकेर, पंच गव्य बादाम संयुत जलानि पंच दश घटानि दुग्ध दधि पत संयुत घटानि
॥१३५॥
पंचदश सर्वोषधियुतयटानि स्थापटोयुः, सप्त सर्व रवाय घटानि स्थापयेयुः
सप्त पेय घाटानि सप्ताचम्य पटानि, पंचामृतयटानि पंच सर्वोषधि पटानि भेदौषधिनां
1१३७॥
सहदेवी कुमारिका दीनां पंचदश घटानि,
पूर्ण जल भृतानि गंधोदकानि पूर्ण आभिषेकस्य सप्त ॥१३८॥ घड़ों के ऊपर जल को डालने के पश्चात उस मंडल में एक हजार आठ कोठे बनावे|उन कोठों में उतने ही घड़ों की स्थापना करे फिर सोंठ बेल पीपल काली मिरचों के घडे पन्द्रह सर्वोषधि सहित घड़े बिल्व नारियल पंच गव्य बादाम सहित जल के पंद्रह घडे दूध दही पत सहित पन्द्रह घडे सर्वोषधि सात घडों की स्थापना करे,सर्व खाने के पदार्थो के सात घड़ों की स्थापना करे, पीने योग्य पदार्थो के सात घडे, आचमन करने योग्य घड़े, पंचामृत के पांच घड़े, सर्वोषधि के घडे, दूसरी औषधियों
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SSIODISTRISTOTSIRST विधानुशासन 50150150155ODI के सहदेवी कुमारिका आदि के पन्द्रह घड़े, सब मुँह तक सुगंधित जल से भरके हुए और अभिषेक के वास्ते गंधोदक के लिये सात घडे रखे।
प्रथम दश दिक्पाल रूपर पूजनं यथा विधि . चैत्य ब्रह्म प्रतिमा पूजनं , यक्ष दक्षिणी पूजनं प्रतिमानां तीर्थकराणां पूजनं
॥१३९ ।।
पश्चात् तेषां स्वपमं पूजनं पूजनं संकल्प युक्तं यता विधि पूर्वमान्ह्वा,
पश्चात् विजर्सन कर्तव्यं योगै रेचक पूरकादिभिः ॥१४०॥ पहले दस दिक्पालों का पूजन करके, विधिपूर्वक चैत्यालय में ब्रह्मा की प्रतिमा का पूजन करे, फिर यक्ष और यक्षिणी का पूजन करे, फिर तीर्थंकरों का प्रतिमाओं का पूजन करे- उनका अभिषेक
और पूजन करने से पहले विधिपूर्वक संकल्प करे, फिर पहले आह्वान न पूरक से करके रेचक के योगों से विसर्जन करे।
पश्चात यथा विधि अंकुरा रोपण वृहत शांतिक पूजन पुण्याह वा चनानि शांति ग्रह होम पूजनानि शांति धाराधतानि सर्वाणि कर्तव्यानि यथा विधि:
एतद विधानं महामहस्य समाप्त
॥१४१॥
इसके पश्चात विधिपूर्वक अंकुरारोपण विधान बृहत शांतिक पूजन विधान पुण्याह याचन ग्रहों की शांति विधान आदि हवन और पूजन आदि को शांतिधारा के अंत तक सब विधान विधिपूर्वक करे। इस तरह से महामह का विधान समाप्त हुआ।
अत्रतु संकोटन कथितं त्रिवर्णाचारस्य दंडकोयं वृहदवर्णनं, विस्तारेण पूजा सार नाम्रि जिन संहितायां जिन सेन कथिते ।। १४२ ।।
महामह वर्णनं महद दृष्टव्यं यहाँ पर संक्षेप से इसका वर्णन किया गया है इसका विस्तृत विवरण त्रिवर्णाचार के दंडक और जिनसेन स्थामी की बनाई हुयी पूजा सार समुच्चय नाम की जिन संहिता के महामह के वर्णन में देखना चाहिये।
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CASIOISTRISTRIBRI505 विधानुशासन ISRIDDISTRISIRIDIN
मारण प्रतिकार की सामान्य विधि
यदगेहे हननाय वैरि निहितं मंत्रादितं कौशलात्, भात्वाद् धत्य विसा पंडभिरयो गव्यै हिं मार्जयेत् ॥१४३॥
सिंचेत् स्नान जलै जिनस्य समिन स्तत्रानोत्पावनान,
कुर्यात् शांतिभिधान होममपि तत व्यर्थं भवेन्मारणं ॥१४४ ।। शत्रु ने मारने के लिये घर में जो कुछ मंत्र आदि धरा हो उनको चतुरता से उखाड़कर टुकड़े टुकड़े करके, गोवर आदि से घर को घोवे लीपे । तथा घर को जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के गंधोदक से सींचे घर में पवित्र मुनिराजों को लावे तथा शांति विधान और होम भी करे ऐसा करने से मारण कर्म व्यर्थ हो जाता है।
मृति प्रतिकार विधानमेतत् जनान् जनं द्यो वति मृत्यु वकतात,
सो वा प्यान्जिर्जित जन्म प्रमानिया सर्वसुगकाशाम !! १४ !! इसप्रकार जो पुरुष इस मारण प्रतिकार विधान को जानता हुआ पुरुष को मृत्यु के मुख से बचाता है वह जन्म और मृत्यु को जीतकर सब सुखों के एक मात्र धाम मोक्ष को प्राप्त करता है।
वद्य प्रतिकार विधि प्रपंचो निरूपितो संयुते सतियोत्रमेव.
कृत्वा क्षुद्रेषु शेषेशु च मंत्रि मुख्यो रक्षेन्नरा स्तत्प्रभावादनात् ||१४६ ।। इस प्रकार यहाँ पर मारण के प्रतिकार की विधि का वर्णन एक स्थान में किया गया है । उत्तम मंत्री को चाहिये कि वह शेष छोटे मोटे उसी से होने वाले अनर्थों से भी पुरुषों की रक्षा करे।
इति मारण प्रतिकार विधानं षोडशमो समुदेशः
अथोच्चाटन संज्ञस्व विधानं क्षर कर्मणः, व्यावर्णाते यथाचार्यो रूपदिष्टं पुरातनैः
॥१॥ अब उच्चाटन नाम वाले क्षुद्र कर्म के विधान का वर्णन प्राचीन आचार्यों के उपदेश के अनुसार किया जाता है। काकी काकरूते काक पिंडा पहारिणी किलि-किलि अमुकस्टा हृदयं वंद्य वंद्य गृह्य गच्छ ठःठः ॥ ಥಳಥಳಥಳST (3429ಥಳಥಳಥಳ
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अनेन मृत्यु मंत्रेण लक्ष रूप प्रजाप्पतः, सिद्धेन मंत्रितैर्दद्यात् साध्य पादरजीयुतैः
॥२॥
इस मृत्यु मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके मंत्री साध्य के पैर के नीचे की धूल को मंत्रित
किये हुए
बलिं द्रव्यैवलिं वाम पार्श्वेवामेन पाणिना,
सप्ताहः तस्य साध्यस्य स्वयं उच्चाटनं भवेत्
॥ ३ ॥
बलि के द्रव्यों से बायें हाथ में बाई तरफ को सात दिन तक बलि देवे तो उस साध्य का स्वयं ही उच्चाटन हो जावे ।
उर्द्ध कर्णे विरूपाक्ष लंब स्तनि महोदरि हन शत्रून त्रिशूलेन क्रूद्धस्यापि च शोणितं शोणितं शोणितं शोणितं शोणितं दह दह पच-पच मरा-मथ मारा-मास्य शोषय शोषय आसादय आसादय नाशय नाशय हुं फट ठः ठः ॥
सिद्धेदसौ महाकाली मंत्री लक्ष जपादंमु, अंतः कपाल मालिख्य तस्मिन् विरचिताशनः
॥ ४ ॥
यह महाकाली मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है इसको कपाल के अन्दर लिखकर भोजन बनाकर
जपेच्तं मंत्रं तन्मूर्ते दक्षिणास्याः पुरो, भवशमासादुच्चाटनादीनि कुर्य्यात् कर्माणि विद्विषां
॥ ५॥
मूर्ति को दक्षिण की तरफ मंत्र जपे इससे यह मंत्र एक मास के शत्रु का उच्चाटन आदि करता है।
निंब पत्रांबु पिष्टैः स्तद्वी जैरूपवत्यं विग्रहं, तज्जत्या स्निग्धयो मध्ये गच्छेत द्वेषस्तयो भवत्
॥ ६ ॥
नीम के पत्तों को पानी में पीसकर उससे और उसके बीजों से शरीर पर लेप करके इस मंत्र को जपकर यदि दो प्रेमियों के बीच में चला जावे तो उन दोनों में द्वेष हो जाता है।
सहस्त्र किरणस्याभिमुखो भूत्वा जपेदमुं, उद्धर्व वाहु दिने रपैरुत्सादो भवति द्विषः
॥७॥
यदि इस मंत्र को सूर्य की तरफ मुख करके और ऊपर की तरफ हाथ करके जपे तो शत्रु का थोड़े दिनों में ही उत्सादन (उधाटन ) हो जाता है।
M5050505050/505441P/SPSPJESESPSVS
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eMPSPSPSPSPSX विधानुशासन 9595952959
वायव्य मंडलस्थं प्रेतमशि कणक सहित निव्यासः, धरकारांत: साध्यं विलिख्ये दुच्चाटनी कुरुते
11211
यदि वायुमंडल के बीच में श्मशान की राख की स्याही और धतूरे के रस को प्रकार के अदंर साध्य का नाम लिखे तो यह मंत्र उसका उच्चाटन करता है।
सांतं श्मशान वस्त्रे वह्नि अनिल पुरस्थं मालिरवेन्नाम्ना, वद्धं तत् वृक्षाग्रे स्व स्थानावच्च यात्य सौ शीघ्रं
॥९॥
श्मशान के कपड़े पर नाम के बाहर सान्त (है) और उसके बाहर अग्नि मंडल और वायु मंडल बनावे और उसको वृक्ष के अग्रभाग में बांधने से वह शीघ्र ही साध्य का उच्चाटन करता है।
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दिग्गत सृष्टि यमांतः स्थित फलय विदर्भितं, नाम वायु ग्रहं वैभीतकैः खटिकया फलके संलिख्य
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SSIPSCI5015DIDIO विधानुशासन 250ISTRIECISIOSSIOTES दिग्गत (घ) सृष्टि (स) यमांत (व) स्थित (यः) फलय () के बीच में नाम को लिखकर उसके चारों तरफ बहेड़ा की तख्ती पर खड़िया से बायु मंडल लिखे।
उन्मज्य तं गृहीत्वा चूर्ण मरातेर्विनिक्षेपेन्मूद्रनि, स विदध्यादुच्चाटं तस्टायमेव काले
१ फिर उस यंत्र को मिटाकर उसके चूर्ण को लेकर शत्रु के सिर पर डाले तो उसका शीघ्र ही उधाचन होता है।
तद्भूर्ज पटे लिरिवत्या यंत्रं धतुर रस समेतेन, अंगारेण पुन स्तप्तः कृष्णेन वेष्टय सूत्रेण
॥१२॥ इस यंत्र को धतूर के रस से भोजपत्र पर लिखकर अग्नि पर तपाने से पहले काले धागे से लपेटे
काकस्या स्थैन्यस्टा प्रछन्नं तं विसर्जयेत् शिवरे शत्रों:,
स सदाया सेनाप्रति गच्छेत सद्यः एवभयात् ॥१३॥ फिर उसे बिना किसी जाने हुए गुप्त भय रूप से यदि शत्रु के शिबिर में डाल दे वह शीघ्र ही भय से डरकर सेना को लेकर चला जाता है।
यस्य नाम्ना गहे प्रेतन राघया कर्षण रह:,
रज्जु निधीयते गेहे मध्ये निरवाता: मासादुच्चाटनं रिपौ ॥ १४ ॥ जिसके नाम को घर में मरे हुए मनुष्य की टांग में बांधकर एकांत में खींची हुई रस्सी उसके घर में गाड़कर रखी जाती है, उस शत्रु का एक मास में उच्चाटन हो जाता है।
हेम प्रकत सरावे गोपिताक्ताय भागारौक स्मिन्,
द्विज पक्षणा न्यत्रामपियताग्रेण तद्वयं निपनयेत् ॥१५॥ दो सकोरे लेकर गुप्त रूप से उनमें से एक में धतूरे का भाग रखकर और दूसरे में पक्षी का पंख रखकर शत्रु के लिये गाड़ देते।
नद्यास्तीरे द्वितटो विद्वेषः स्निग्धयोर्महान भवति,
ततीर स्व गता वपि नतयोः स्यात संग तिर्जतु ||१६॥ यदि उन दोनों को नदी के दोनों किनारों पर गाड़े तो अत्यंत प्रेमी मित्रों में भी महान विद्वेष हो जाता है। उन सरावों को उन किनारों से निकाल लेने पर भी उनमें कभी मेल नहीं होता है। DECISIOIROIDRISTRITIS८४१0/5050505ISTRISEXSI
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SSIRIDIOSIS5I0505 विद्यानुशासन 2050HRISIRIDIOSDIST
भूर्मुटिके मुर्मुटिके घोरे विद्वेषणी विद्वेष कारिणी घोरा धोरयो रमुकयोः काकोल कादि वत्परस्पर द्वेषं कूरू॥
उक्तं च न्यस्याऽहित्वक चिता भूति प्वांक्ष पक्षा,
शिते पटे पक्त तंतु वृता शो फाटा गहेपिता ।१७। यह मंत्र पढ़कर सर्प की कांचली, चिता की भस्म और कृष्ण पक्ष में पहने हुए दो वस्त्रों को और कौवे के पंखों को लाल धागे से लपेट कर शत्रु के घर में रखने से उसका उच्चाटन होता है।
चिता भस्म मनुष्यास्थि ब्रह्म डंडी च कुर्वते, गेह मध्ये निरवातानि मासादुच्चाटनं रिपो
॥१८॥ चिता की भरम मनुष्य की हल्ली और ब्रह्म इंडी() को घर में गाड़ देने से शत्रु का एक मास में उच्चाटन हो जाता है।
नरास्थि शंकुना द्वारि निहितेन भवेद गहं, शून्या मूर्दाभुजंगस्य सराशभररेण वा
॥१९॥ मनुष्य की हड्डी की कील अथया गधे के खुर द्वार में गाड़ देने से घर में से सर्पो का उच्चाटन हो जाता है अर्थात् घर सर्पो से खाली हो जाता है।
नरास्थि सर्षप ध्वांक्ष पत्तत्राणि गहे रिपोः, जिरवातान्य चिरेणैव द्वरोच्चाटं वितन्वेत
॥२०॥ मनुष्य की हड्डी सरसौं कौवे के पंख को शत्रु के घर में गाड़ने से अचिरेण ( जल्दी ही) उद्याटन होता है।
उष्ट्रास्थि क्रोडविट सीरी शव केशैर्ष विद्रिपो:, गह द्वार निहितै स्सप्त दिनादुच्चाटनं पर
॥२१॥ ऊंट की हड्डी क्रोड विट (सूअर की विष्टा) सीरी() शव केशे (मृतक शरीर के बाल) शत्रु के घर के द्वार में रख देने से उसका सात दिन में उच्चाटन हो जाता है।
द्विषोश्च खुर रंधस्थौश्व जिव्हा सर्प मस्तकौ, उच्चाटनारा सप्ताहां निरवातो द्वारि वेश्मन :
॥ २२॥
कीलो निरवातः पद पंक्ति मध्ये कारस्करा नो कुह काष्ट जन्मा,
उच्चाटनं दाग्विद धात्यरातव्याधिंच घोराम चिराद्भिद्यते ॥ २३ ॥ SSIRISEXSTD359505051८४२P/5050505125T0STORY
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DISTRITICISISISTEROID विद्यानुशासन ASIRIDEIDOSSESS
शत्रु के पैरों के निशान के बीच में कारस्कर नोकूह (खैर की लकड़ी की कील गाड़ देवे तो उसका उचाटन होकर उसको महान रोग शीघ्र हो जाता है।
एकां गुलं चित्रकस्य कीलं ग्राह्य पुनर्वस्यौ सप्तानि,
मंत्रितं मोहान्निभिन्नो चाटनं भवेत् ॥२४॥ मंत्र ॐ लोजिते मुखे स्वाहा ॥ पुर्नवसु नक्षत्र में चित्रक की एक अंगुल की कील लेकर इस मंत्र से सात बार मंत्रित करके रखने से उच्चाटन होता है।
स्वात्य योदंबरं बीजं मंत्रितं चतुरंगुलतं, यस्टा निरखनेद गेहे तस्यो च्चाटनं भवेत्
॥२५॥ मंत्र-ॐ शिलि शिलि स्वाहा || स्वाति नक्षत्र में चार अंगुल लम्बी उग्रा (लहसुन) और उदंबर (गूलर) के बीज और कील को इस मंत्र से मंत्रित करके जिसके घर के द्वार में गाड़े उसका उच्चाटन होता है।
भरणयां मगुलहंतु उलूकास्थ कीलकं, सप्ताभिमंत्रितो यस्य निरिवन्योच्चाटनं गहात्
॥२६॥ मंत्र-ॐह हह ह ह स्वाहा ॥ भरणी नक्षत्र में मारे हुए उल्लू की हड्डी की कील इस मंत्र से मंत्रित करके सात बार जिस घर में गाडी जाती है उसका उद्घाटन हो जाता है।
काकोलूकस्य पक्षां मुहुलाह्यष्टाधिकं शतं, सनाम्ना मंत्र योगे च समस्तो उच्चाटनं भवेत्
॥२७॥ मंत्र-ॐ नमो भगवते रूद्राय दंष्ट्रा करालाय कपिलरूपायकपि अमुकं सपुत्र वांद्य
वैस्सह हन हन पच पच शीग्रं शीयं उच्चाटय उच्चाटय हुं फट स्वाहा || कौवे और उल्लू के पंख (एक भाग) को नाम सहित इस मंत्र से एक सौ आठ बार मंत्रित करने से उसका पूर्ण रूप से उच्चाटन होता है।
इति
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विद्वेषण
अथ विद्वेषणारव्यस्य विधि कुचस्य कर्म्मणः, प्रवक्ष्ये मंत्र यंत्राद्यैरावै रूक्तं मुनीश्वरै:
॥ १ ॥
अब कुछ कर्म विद्वेषण को मुनिराजों द्वारा कहे हुए को मंत्र यंत्र आदि का वर्णन किया जावेगा ।
काल्या सहस्त्र जाप्पात सिद्धि ह्रीं ह्रः इत्यमुं मंत्रं स निधनायो, विदर्भित मन्य तरेणाभि लिख्य लेखिन्या
ह्रीं ह्रः काली देवी के इस मंत्र को एक हजार जप से सिद्ध करके इन दोनों अक्षरों के अन्दर नाम को विदर्भित करके ( गूंथकर ) किसी भी कलम से लिखो ।
हेम कृतया शरावे गोपिताक्ताय भागवैक स्मिन, द्विकपक्षे नान्यत्र तु माहिषी युता ग्रेण तद्वयं निखनेत्
॥३॥
सोने के बने हुए एक सकोरे में गोपिताक्त (गोरोचन) को एक भाग लेकर द्विक (कौवे ) पक्षी के पंख और भैंस के सींग के अग्र भाग से दोनों (नदी के किनारो ) को खोदें ।
नद्यास्तीरे द्वितीये विद्वेषः स्निग्धयोर्म्महान भवति, तत्तीर संगतावपि नत्तयोः स्यात्संग तिंर्जतुः
॥ २ ॥
118 11
उसको नदी के दोनों किनारों पर गाइने से दो घनिष्ट प्रेमियों में भी विद्वेष हो जाता है और उन भागों को नदी के किनारे पर लाने से भी फिर उन दोनों में मेल नहीं होता ।
चतुर्मुष्टिकै मर्कटिक घोरे विद्वषिणि विद्वेष कारिणी घोराघोरयोमुकयोः काकोलका दिवत्परस्पर द्वेष कुरु कुरु ॥
काकोलूकच्छद युत पाणिभ्यं तर्पयेदमुं मंत्र, काल्या जपं ततः स्यात् विद्वेषः स्निग्धयोस्सुमहान ॐ विद्वेषिणि अति वीर्टो उत्सादय उत्सादय स्वाहा ॥
॥५॥
कौवे और उल्लू के पंख युक्त अपने दोनों हाथों से इस मंत्र का पानी से तर्पण जप करने से बाद
में अत्यंत घनिष्ट मित्रों में भी विद्वेष हो जाता है।
कुर्यात् चितानि दग्धो रिष्टा लये मुना जप्तः, मूर्ध्नि क्षिप्तो द्वेषच्चाटै गेहे तु तन्नाशं
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॥ ६ ॥
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* विधानुशासन
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इस मंत्र से जप करके अरीठों को चिता की अग्नि में श्मशान में जलावे और इस भस्म को सिर डालने से उच्चाटन विद्वेषण और नाश तक होता है।
आग्नेय मंडले साध्यमोंकार द्वय वेष्टितं, अधोमुखं कृतं भूमौ सद्यो विद्वेष कारणां
अग्नि मंडल के अन्दर साध्य के नाम को दो ॐ से वेष्टित करके पृथ्वी में उल्टा करके रख देने तुरन्त ही विद्वेषण हो जाता है।
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प्रेतमर्षी कनक रसैर्विलिख्य साध्यं जकार मध्य गते, अग्निं पुरं प्रेत वने निहितं विद्वेष कर्म्म कर चिता के कोयले की या राख की स्याही और धतूरे के रस से जकार के बीच में साध्य का नाम लिखकर चारों तरफ अग्नि मंडल बनाकर श्मशान में गाड़ देवे तो विद्वेषण कर्म करता है।
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अंगारोन्मत्त रसैर्धकार मध्ये विलिख्य यन्नाम,
प्रेत वने निक्षिप्तं सप्त सुरात्रेण विपरितः
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॥ ९ ॥
अंगारे (कोयले) औ उन्मत्त (धतूरे) के रस से घकार के बीच में नाम में नाम लिखकर श्मशान
में गाड़ने से सात रात के अंदर विद्वेषण हो जाता है।
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नाम
उभयोः प्रतिकति हृदये भूज्जें संलिख्य तुय वग्गति, क्षिप्ते स्थाद् विद्वेषः प्रेतालये भूमि मध्यगते
॥१०॥ दोनों की मूर्तियों को भोजपत्र पर लिखकर उनके हृदय में चौथे वर्ग के अंतिम अक्षर (न) के अन्दर नाम को लिखकर श्मशान में गाडने से विद्वेषण होता है।
यमराज सदोमेय यमेदो रणयोदय, यदयोनि सुरक्षेय राक्षे रक्ष निरामय
मृत मुख निहित पट्टेवा प्रसूत चांडालिकां बरे. चापि भूत द्रुम पत्राभो निंब दलाभश्चितां गारैः
॥१२॥ मृतक के मुख पर रखे हुए वस्त्र अथवा प्रसव की हुई चांडाली के वस्त्र पर भूत द्रुम (लिसोडे या बहेडा) के पत्ते और नीम के पत्तों के रस से और चिता के अंगारों (कोयले) से
चक्रे तुरंगम अरो महिष शिरश्नांतरा कते मंत्रि विधिना,
ऽनुष्टप चक्रे श्लोके यदुक्तं मनुं विलिरवेत् ॥१३॥ घोड़े और भैंस के सिर-मुँह के बाल से ऊपर लिने हुए अक्षरों से मंत्री विधिपूर्वक चक्र में अक्षर लिखे।
त चक्र मध्ये कोष्ठ स्थित मांते साध्ययो लिस्वेत,
आरव्ये यमराज चक्रमे तदयंत्र मनर्थक हेतुः स्यात् ||१४ ॥ उसको चक्र के बीच के कोठे में लिखकर अंत में दोनों साध्यों के नाम लिखे यह यमराज चक्र यंत्र अनर्थ को करने याला कारण होता है।
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5751 विधानुशासन 9595959595
तत् शराव संपुट निहितः सु स्निग्धयो योन्नति, मध्ये प्रेत वजे तन्निरात तां मा पादये च द्वेषं
॥ १५॥
उसको दो सरावों के संपुटों के सम्पुट के अन्दर रखकर श्मशान में गौड़ने से दो घनिष्ट मित्रों में भी शत्रुता हो जाती है।
विलिखितमिदं शिलायां ताल शिलायैम्महा शिलाद्यः,
क्रांतां यंत्र पीतैः पुष्पैः प्रपूजितं स्वेष्ट रोध करं ॥ १६ ॥
इस यंत्र को हड़ताल मेनसिल आदि से शिला के ऊपर लिखे हुए को रखकर दूसरी महाशिला के नीचे दबाकर पीले पुष्पों से पूजन करने से भी विद्वेषण होता है।
लिरिख्यतेप्यति वराणां रुधिरेणाभिधानयोः, स्निग्धयोन्निब पत्रैतौ पठन द्वेष्टि परस्परं
॥ १७ ॥
आपस में अत्यंत बैर करने वालों के रुधिर से नीम के पत्ते पर दो घनिष्ट मित्रों का नाम लिखने से उसको पढ़ने से उनकी परस्पर में शत्रुता हो जाती है।
मंत्री नासुरीत्येष नाम्जा ताल दले रिपोः, लिख्यते यस्य काकानां निवहेतु स खादयते
॥ १८ ॥
इस आसुरी नाम वाले मंत्र को ताड़ के पत्ते पर जिस शत्रु का नाम लिखा जावे (अथवा कौवे के अंडे के रस से ) उसे कौवों का समूह खा जाता है ।
काकोलूत पतत्राणियन्नामो देश पूर्वकं हूयंते, स्निग्धयो: प्रीति विघटेत् तयोः क्षणात्
॥ १९ ॥
कौवे और उ पक्षियों को जिनका नाम लेकर पुकारते हैं उन दोनों की मित्रता उसी क्षण टूट जाती
है ।
अश्वत केतक रजः समुद्र फल मज्ज चूर्ण समुपेतं, उपरिविकीर्ण स्वपतोंद पत्योर्ज्जनयति द्वेषं
॥ २० ॥
काली केतकी के चूर्ण और समुद्रफल की मीगी के चूर्ण को जिस दम्पत्ति के ऊपर सोते हुए पर डाला जाता है उन दोनों में द्वेष हो जाता है
दुर्भगायाः भगे सप्तदिनं सरजसि स्थितैः, पिष्टै सिद्धार्थक द्वेषो जनन्या अपि जायते
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॥ २१ ॥
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CASTO15251015015125 विद्याबुशासन XSTOSTERSIRISTOT5205 बदसूरत स्त्री की भग में सरजस (ऋतु दिनों ) में सात दिन तक रखी हुयी सरसों पिसी हुई से द्वेष हो जाता है।
काकोलूक गरूत सप्र्पत्वक सम्पारि छदैः कत:,
चूर्णो विद्वेषमाधत्ते शत्रोमूनि समर्पितः ॥२२॥ कौवे और रलू के परख सर्प की कांबली और सरिषद मोर पंख) के बने हुए चूर्ण को शत्रु के सिर पर डालने से द्वेष होता है।
दीग्र्यकं धर दंतेन निंबेन राजिभिः भूतैः संभूतैः,
मिश्रितश्चूर्णः स्यात् द्वेषाय शिरोप्तिः ॥२३॥ दीर्घ कंघा दंत (बड़े हाथी दांत ) नीम राई और भूत (लिसोड़ेया बहेड़ा) को मिलाकर बनाये हुए चूर्ण को सिर पर डालने से द्वेष हो जाता है।
वशया ज्वलिता दीपात् द्विपस्य महिषस्य च, आत्त संजनमसूतं द्वि द्वेषाय प्रजायते
॥२४॥ हयस्य (घोड़े) या द्विप (हाथी) और भैंस की चर्बी (वसा) से जले हुए दीपक के बने हुए अंजन को आंजने से द्वेष हो जाता है।
हरा महिष मूत्रत्सिका लक्तक वह बार भाविता बत्तिः,
ज्वलिता महिषी वसया विद्वेष कृदजनं जनयेत् ॥२५॥ घोड़े और भैंसके मूत्रसे अलक्तक (म्हावर लाख) की बहुत बार भावना दी हुई (भीगी हुई) बत्ती को भैंस की वसा (चर्ची) में दीपक जलाने से और अंजन (काजल) बनाकर लगाने से विद्वेषण करताहै।
भुजंगत्वक भुजंगारि पतत्राभ्यां प्रवर्तितः, धूपः सं स्पर्शमात्रेण विद्वेषं जनयेत् भंशं
।। २६॥ सर्प की कांचली और भुजंग का शत्रु (भोर) के पंखों की दी हुई धूप को छूनेसे ही विद्वेष हो जाताहै।
चूडाभ्यां समुपाताभ्यां मयूरात् कुकुंटादपि, प्रवचनेन यूपेन स्पृष्टो द्वेष्टयालि लोलनः
॥ २७॥ मोर और मुर्गे की चोटी की धूप को छूने से ही विद्वेष हो जाता है।
काकोलूक छदोद्भूतो धूपः सम्यक प्रयोजितः, यस्यांश संस्पर्शत सद्य स्तं द्वेष्टि निरिवलो जनः ॥ २८॥
CHITECISTSI5TOISTRISTOTS८४८ DISTRISTOTESTOSTERY
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STSIDIEODRISPIRIP विधानुशासन 1STOISTORICIST05505 कौवे और उल्लू के पंखो की अच्छी तरह दी हुई धूप जिप्स पुरुष के शरीर को छू देती है उससे सब पुरुष द्वेष करते हैं।
खरेण रेणून सं स्पृष्टान् मध्यान्हे लुठता क्षिपेत्,
युधाय वाम हस्तात्तान विद्वषि जन वेश्मान ||२९|| दोपहर में लोटे हुए गधे की धूल को बांये हाथ से उठाकर जिसके घर में डाल देवे उससे सब द्वेष करते हैं।
द्विक द्विकारों: शिरसी निरवाते द्विष गह द्वार महा प्रदेश,
तुरंग रक्त महिषे क्षणायोः खुरो वातद्वेष मंगाना कलहं विद्यते॥३०॥ दुगुना कार्य करने के वास्ते सिर पर डाली हुई तथा शत्रु के घर के द्वार के भाग मे डाले हुए घोडे केरक्त य खुर और भैंस के खुर इस घर में रहने वालों में लड़ाई करा देते हैं।
इति विद्वेषण विधानो नामाष्टादश
समुदेश
है
देवदास
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PSPSPSPSPSPSY विधानुशासन 9595959519695
लिखे
चक्रं व्रत त्रय
विभूषितं
उष्ट्री मंत्र लिवेदवाह्ये यम श्लोको च मध्यतः ॐ ह्रीं उष्ट्री दष्ट्रानन हुं फट उष्ट्री मंत्र मिमं जाप्प दस सहस्त्र सरव्ययो मध्वाज्युक्तै रक्त पुष्पै सहस्त्रं होमयेत्ततः तत सिद्धो भवेन्मंत्रो यथेप्सित फल प्रद यस्य प्रभाव मात्रेण शत्रवो याति संक्षयं इमं यम श्लोकं ३२००० सहस्त्राणि जपेत घृत मधु रक्तपुष्पै सहस्त्र मेकं होमयेत् ततः सिद्धो भवति मनसेप्स्तिानि कार्याणि करोति
अथ स्तंभं प्रवक्ष्यामि मंत्र यंत्रादि कम्र्म्मभिः, चोर सेना स्त्र शत्रु के जिव्हाादि व्याधि गोचरः
॥ १ ॥
अब चोर, सेना, शस्त्र, जिव्हा तथा व्याधियाँ तथा ग्रहों आदि को स्तंभन करने के लिए दिव्य औषधियाँ मंत्र और यंत्र आदि का वर्णन किया जावेगा।
प्रणवादि धनु द्वितयं महाधणुः स्वर्ण वर्ण गगनांतः, मंत्र कुरुते वर्त्मनि सं जपतश्चोर दृग्वंध
॥ २ ॥
मंत्रोद्धार - ॐ धणु धणु महा धणु धणु स्वाहा ॥
आदि में प्रणव ॐ फिर दो बार धणु धणु फिर महाधणु धणु फिर स्वर्ण वर्ण गगनं (स्वाहा ) सहित मंत्र को वर्त्मन अर्थात् मार्ग में जपने से चोर की आँखे बंध हो जाती हैं।
दश शत सिद्धेनाभि मंत्रिता,
दुर्गा मनुना अमुना क्षिप्ता मध्ये दिक्षु च नव रूंध्युः शर्कराश्रोरान्
॥ ३ ॥
मंत्रोद्वार गोथि मोथि मोटि मेव उक्के मट्टे चट्टे घोर घरट्टे घेले मेलेये पथि माटाले जंभे स्तंभिर्य मोहे स्वाहा ॥
इस दुर्गा मंत्र को एक हजार जप से सिद्ध करके इससे मंत्रित की हुई शक्कर को दिशाओं में फेंकने
से वह चोरों को रोकता है।
तारात फलक युगे मंत्रममुं न्यस्य साधकयोः,
अग्रे निरखन्ये सी मस्तदैव यस्यात् कुछ स्तंभैः
やちもちですたちにちにちにちにちにちらです
॥ ४ ॥
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CHOISO15105510851015 विधानुशासन 25TOTSTRASTRISTRIST95 इसी मंत्र को तारा वृक्ष (चीड़) की दो तरितयों पर लिख और उसे दो साधकों के आगे गाड कर रखे तो कुन (पहाड) की तरह स्तंभन होता है। ॐहीं पाश्वाधिक यक्ष दिव्य रूप रोम हर्षण एहि एहि आं क्रों नमः ॥
पार्श्व यक्षाराधन विधान मंत्रोयं
दश लक्ष जाटप्प होमात् प्रत्यक्षो भयति पार्थ यक्षोसी,
न्यग्रोध मूल वाशी श्यामांगः त्रिनयनो नूनं संस्कृत टीका -असौ पार्श्वनामधेय यक्षः न्यग्रोध मूलवासी वट वृक्ष मूल निवासी किं विशिष्ट स्यामांग: श्यामवर्णं पुनः कथं भूत: त्रिनयन: त्रिनेत्र नूनं निश्चितं ॥
निज स्टोन्याया मटा समुस्थितैः वैरि लोकमग्रस्थं, विमुखी करोति राक्षः संग्रामे निमिष मात्रेण
॥६॥
संस्कृत टीका-निज सैन्यै स्वकीय सैन्यैः कथं भूतैः मायामय समुस्थितैः ह्रीं कार मय कृत प्राकार सम्यगु स्थितैः वैरि लोकं शत्रु सेना समूहं कथं भूतं अग्रस्थं स्वकीय सैन्य पुरस्थितं विमुखी करोति परान्मुखी करोति कोसौ यक्षः पार्श्वयक्षः क्व संग्रामे रणरंग भूमौ कथं निमिष मात्रेण क्षण मात्रेण ।। यह पार्श्व यक्ष मंत्र कहा जाता है | यह बड़ की जड़ में रहने वाला पार्श्वयक्षा दस लाख जप से प्रत्यक्ष होता है । श्याम शरीर वाला और तीन नेत्र याला है। यह यक्ष अपनी माया से बनाई हुई सेना से आगे खड़ी हुई शत्रुओं की सेना को युद्ध में पल मात्र में भगा देता है।
एषोस्थितो हुल हुलु उद्धरीमा भयंकरः तमहं समयिष्यामि संकना सलिलेन च. यत्रो स्थितोहुलहुल स्तव प्रतिगच्छता हुलुहल स्ताम नेत्राय ठ::
॥७॥
रूद्राधि देवता मंत्र एष लक्ष प्रजाप्पतः आस्कंदति,
नरेंद्राणां सिद्धिं बहुफल प्रदः हुल हुल ताम्र नेत्राय ठठः ॥८॥ यह रूद्राधि देवता का मंत्र है एक लाख जप से सिद्ध होकर नरेन्द्रों को अर्थात् उत्तम मनुष्यों को बहुत फल देने वाली सिद्धि होती है। C505051015555PISIS ८५१PIRICISTRISTRISTD35103505
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95969593PSPX विद्यानुशासन
こちらに
एतेन बाणा लोष्ठ प्रभृतिभिरंभि मंत्रितै रिपोः सेनां दिध्येत, पताकिनी सांगः सहसैव निवारिता भवति
॥ ९ ॥
इस मंत्र से मंत्रित किये हुए बाण तथा ढ़ेला आदि को शत्रु की सेना पर छोडने से वह सेना अचानक ही भाग जाती है।
ध्यात्वा ज्वाला रूपं सलिले वितरेदनेन वार स्त्रीन्, माग्गों रिपुवाहिन्या आयातिन सा यथा तेन्
॥ १० ॥
मार्ग में अग्नि के रूप का ध्यान करके इस मंत्र से जल को तीन बार अभिमंत्रित करके बिखेर दे तो शत्रु की सेना इसप्रकार नहीं आ सकती ।
व्योषापामार्ग रजसा समुपेतं जप्तमुष्णा जलम्, अमुना युद्धे त्रिगे प्रदर्व्या विकरेन्नरेद्रयोः सेनां
॥ ११ ॥
व्योष (सोंठ मिरच पीपल) और अपामार्ग (चिरचिटा ) के चूर्ण से युक्त गरम पानी को इसमंत्र से युद्ध में मंत्रित करके तिराहे पर राजा की सेना के मार्ग में बिखेर दे।
श्वेतेन किसलया दीन्यं गान्ये कांश्वर भू रूहस्य,
जपित्वा साध्यांग धियां जुहुया देह मरे स्तत्र तत्र भवति रूजांगे ॥ १२ ॥ एक वृक्ष के कोंपल आदि एक अंगो पर साध्य के अंग का बुद्धि से श्वेत ध्यान करता हुआ यदि हवन करे तो शत्रु के उसी अंग में रोग उत्पन्न हो जाता है।
सीमानं ग्रामादे देशषस्यो दिश्य वृष्टि रिहमा भूत, इत्येतत संजप्तां लेखां कुय्यांन्न तंत्र वृष्टिः स्यात्
॥ १३ ॥
ग्राम देश आदि की सीमा का उद्देश्य करके यदि यह विचार कर मंत्र जपे कि यहाँ तक वृष्टि न होवे तो वहाँ तक दृष्टि नहीं होती है।
मंत्रो वासह यक्षाय ठेठेत्येष प्रसिद्धयति, लक्ष प्रजाप्पाद वशोस्य यक्षः स्यादधि देवता
॥ १४ ॥
वासह यक्षाय ठः ठः यह मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है इसका वासह यक्ष अधिष्ठाता देवता है।
अष्ट सुदलेषु मंत्री भूमंडल मध्यगस्य, प्रागद्या लिखितोयं द्विषतः सं स्तंभयेत् ध्वजिनी
॥ १५ ॥
'शत्रु
यदि इस मंत्र को आठ दलों के अन्दर पृथ्वी मंडल में प्रातःकाल के समय लिखे तो का स्तंभन होता है ।
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ली युतेन्दु दर्भितमभिधानं लिखितं पचे ख्यातं, द्विषतो वाहिन्यो पोषितस्य सं स्तंभनं कुरुते
॥ १६ ॥
इन्दु (ठ) सहित ले और ली के अंदर का नाम को एक वस्त्र पर लिखने से यह मंत्र शत्रु की सेना का स्तंभन करता है ।
रिपु नामान्वितं मतं मलवर यंकार संयुतं ठांतं, तद्वाह्यं भूमि पुरं त्रिशूलं भूतोग्र मृगवेष्टयं
॥ १७ ॥
रिपु नामान्वितं शोनमान्वितं कं भांत यकारं मलवरयूंकार संयुतं मश्च लव वश्व रक्ष यूंकार व मलवरयूंकाराः तैः संयुतं संयुक्तं कं टांत ठकारो एवं उम्लवयूँ मिति बीजं वकार वहिः तद्वाह्ये भूमि पुरं तत ठ पिडं बाह्ये पृथ्वी मंडलं त्रिशूल भूतोग मृग वेष्टयां तत् पृथ्वी मंडल बाह्ये त्रिशूलानेक भूतक्रूर मृग जात्यैः परीतं ॥
प्रतिरूप हस्त खडगै निहन्य मानारि रूप परिवेष्टयं, शत्रोर्मामांतरितं समंततो चैष्टियेत्पिंडे :
॥ १८ ॥
6P/15443P/596959595959
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CASTOISTRISTD35055015 विद्यानुशासन MSD50585ASCISS
प्रतिरूप हस्त रवडगैः प्रति शत्रु रुप हस्त कृपाणैः निहन्य मानं निःशेषण हन्य मानं किं अरि रूपं शत्रु रूपेतेन परिवेष्टया एवं विधिरूपैः परिवेष्टयां शत्रो मामामांतरितं बेरिनामांतरितं समंततःशत्रु प्रति शत्रु रूप बाह्ये परितःवेष्टटोत् वेष्टनं कुयात् कै : पिं. नामांतरित ठकार पिंडै: ठकारादि पिंडै ठम्ल्वयूँ |
प्रतिरिपु वाजि महा गजानां नामां तरितं समं ततो मंत्रं,
विलिवेद ॐ हूं ह्रीं फें ग्लौं स्वाहा टांत सम्मतिं ॥१९॥ ॐ हीं भैरव रूपिणि चांडालिनी प्रतिपक्ष सैन्यं चूर्णय यूर्णा यूर्णव भेदय भेदया स्यादा रवादय ग्रस ग्रस व ख मारय हुं फट ।
प्रति रिपुः प्रति शत्रु वाजि महागज नामांरितं पटाश्च पट गज नामांतरितं समं ततः मंत्रं नामांतरितं ठ पिंड बाह्ये परिसमं ततः मंत्र मंत्र वलयं लिखेत् ॥
मंत्रोद्धार ॐ हं ह्रीं फें ग्लौं स्वाहा ठःठ: देवदत्तस्य पटावं ॐ हूं ह्रीं फें ग्लौं स्वाहा ठः ठः देवदत्तस्य पटगज ॐ हूं ह्रीं मित्यादि मंत्रेण समताद्वेष्टोत वेष्टन मंत्रोद्धार कथ्यते ॥ ॐ ह्रीं भैरव रूपिणी चंडशूलिनी प्रतिपक्ष सैन्यं चूर्णय चूर्णय धूर्णट धूर्णय भेदा भेदय ग्रस ग्रस रख रख षादद्य षादय मारय हुं फट ||
मंत्रेण वेष्टियित्वातेन ततो राति विग्रहं लेख्यं,
अष्ट सुदिक्षु वहि रपि विलिरवेन् माहेंद्र मंडलं दद्यात् ॥२०॥ मंत्रेणा वेष्टयित्वा नेन अनेन कथितं मंत्रेण वेष्टनं कृत्वा ततः तन्मंत्र वेष्टनारहि अराति विग्रहं लेरव्यं शत्रु रूप लेरख्यं क्र अष्टासु दिक्षु प्राच्या दाष्ट दिशा सु वहि रपि विग्रह वाहि प्रदेशे माहेंद्र मंडलं इन्द्रमंडलं दद्यात् देवात्॥
प्रेतवनात्संचलित मृतक मुरवोत्थित पटेवा लिरवेत.
कृष्णाष्टम्यां युद्धात्यक्त प्राणस्स संग्रामे ॥२१॥ प्रेतवनात् सं चलित श्मशान भूमौ सकासान सम्यग् चलितः मृतक मुखे स्थित पटेऽथवा लिरवेत् प्रेतस्य प्रच्छादित वस्त्रे अथवा लिरवेत् कष्णा अष्टम्यां कष्ण
चर्तुदश्यां रणांगणे युद्धात प्राण परित्याग पुरुषस्य वस्त्रे वालि वेत् ॥ SISTOISSISTRASTRISTD35005 ८५४PISTOISTRISTRISTOTSTRISTRIES
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CHEDISTRITISEDICIST विद्यानुशासन ISISISTRICISTORICIES
कन्या कर्तित सूत्रं दिवसेनैकेन तत पुनीतं
तस्मिन् हरितालायैः कौरंटक लेवनी लिरिवतं कन्या कर्तित सूत्रं कुमार्या कर्तित सूत्रंदिवर्सनैकेन तत्पुनीतं तं तन कुमार्ग कर्तित सूत्रं पुनरप्पे केन दिवसेन विणितां तरिमन हरितालाौ तस्मिन वस्त्रे हरितालादि पीत द्रव्यैः कौरंटक लेखनी लिरिवतं कोरंटक लेखन्या लिरिवतं ।।
॥२२॥
पदमावत्यात्पुरतः पीतैः पुष्पैः पुराः समभ्यर्थ्य यंत्रं,
पटे वधीयात्परयाते चोन्नत स्तंभो ॥२३॥ पदमावत्यात्पुरतो पदमावत्या देय्या मानः पीतैः पुष्पैःपरा समभ्यर्च्य पीतवर्ण प्रसूनैः पूर्व सम्यम् पूजयित्या यंत्र पटं एतत लिखित यत्रं पटं बनीयात् नि यध्रीयात प्रख्याते विख्याते च समुद्यये उन्नते स्तंभे अभ्यन्तर स्तंभे ॥
तंदृष्टांत दूरतराम्नशयंति भयेन विहलीभूताः, विरचित सेना व्यूहा संग्रामे शेष रिपु वर्गा:
॥२४॥ तं दृष्टया स्तंभे नियध्य मानं यंत्र पटं दृष्ट्वा दूरतरान्नशयंति अतीव दूरदर्शनिशांति भोन विहलीभूताभीत्या विहली चेाभूत्वा पलायंति करमातविरचित सेना व्यूहात विशेषेण रचितो विरचितःविरचित चासौ सेना व्यूहश्च विरचित सेना व्यूहस्तस्याद्विर चित सेना व्यूहात संग्रामे संग्रामा भूमौ शेषगण वग्गा:दुःत शत्रु समूहाःनश्यातीति
संबंधः।। टीकाः शत्रु के नाम के बाहर मांत (यकार ) लिखकर बाहर ठांत (ठकार) सहितमलवरयूकार बीज अर्थात् दम्ल्यूं लिखे उसके बाहर पृथ्वी मंडल लिखे उसके बाहर त्रिशूल उग्र भूत और मृगों से घिरे हुए हाथ में शस्त्र के लिए हुए शत्रु की मूर्ति को लिखे जो अपने सामने लिखे हुए शत्रु के नाम को मार रहा हो प्रति शत्रु की मूर्ति ठम्ल्यूँ पिंडाक्षर से घिरी हुई हो।
ॐ ह्रीं फेंग्लौं स्वाहा ठ-ठ: देवदत्तस्य पटाच ॐ हूं ह्रीं फें ग्लौं स्वाहा ठ:ठः देवदत्तस्य पट गज ॐ हं ही फें ग्लौं स्वाहा ठः ठः ॥ इस मंत्र में देवदत्त की जगह शत्रु का नाम रखना चाहिये इस मंत्र को पूवोक्त चित्रों से लिखे फिर निम्नलिखित मंत्र से उस प्रति शत्रु की मूर्ति को घेर कर लिख्खे उसके चारों तरफ माहेन्द्र मंडल इंद्र मंडल बनाये! QಥಳಥಳಥಳS 444559ಥದಣಿ
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COPEDISEASIRIDIO विधाबुशासन XSRIDIOINDISTORIES
ॐ ह्रीं भैरव रूपिणी चंडशूलिनी प्रतिपक्ष सैन्यं चूर्णय चूर्णय घूर्णय घूर्णटा भेदय भेदय ग्रस ग्रस रव व स्वादय स्वादय मारय मारय हुं फट ॥ यह मंत्र आठों दिशाओं के आठों कमलों में लिखे। इस यंत्र को श्मशान में लाये हुए मृतक के मुख पर के वस्त्र पर या कृष्ण अष्टमी या कृष्ण चर्तुदशी को युद्ध में संग्राम में मरे हुए कपड़े पर हडताल आदि पीले द्रव्यों से कौरंटक की कलम से लिखे। फिर इस यंत्र को पदमावती देवी के सामने रककर पीले सुगंधित पुष्पों से पूजा करके एक अत्यंत उच्च स्तंभ से बांध देये। इस यंत्र से बंधे हुए स्तंभ को देखकर अत्यन्त दूर से देखकर भय से व्याकुल होकर विशेषता से व्यनाये युद्ध के सेना के व्यूह से शेष बचे हुए शत्रु भाग जाते हैं।
अबानि पट जारो संसा: मालिकमः, अनुसत्य तमेवैकं पटं मंत्री प्रकल्पयेत्
॥२५॥ पहले जसि अबादि (अयाध बिना बाधा किया हुआ) पट यंत्र नाम के यंत्र का वर्णन किया गया है उसी अनुसार मंत्री एक कपडा बनवावे ।
व्यास स्तत्र त्रयो हस्ता स्ततो मध्यस्टा वाससः, सुवर्ण वाहनंभा स्वत्सुवर्ण सदृशाति
॥२६॥ उस वस्त्र का व्यास तीन हाथ हो उस कपड़े के बीच में सोने के याहनवाली चमकते हुए सोने के समान कांतिवाली हो।
पाशं चक्रं च वजं च स्वडगं च क्रमतो दधत, त्रिशूल शक्ति परशुच्छुरिकाश्चाष्टभिर्भुजैः
॥२७॥ अपनी आठों भुजाओं में नागपास चक्र वज खडग त्रिशूल शक्ति परशु छुरी को धारण करने वाली
हो।
लिरवेद्विजय देव्याः स्सद्रूपमाभरणोज्वलं, अलिखतामुभयतो भीषणौभैरवावुभौ
॥२८॥ विजयदेवी को सुंदर रूप याली आभरणों से युक्त उज्जवल अंगवाली लिखे उसके दोनों तरफ दो भयंकर भैरय लिखे।
रक्ताक्षौ मुदगर करौ दष्टोष्टाग बूर्द्ध मूर्द्ध चौ, वक दंष्टौ द्विषत्सेना भंगदान समुंद्यतो
।।२९।। SADRISTRI51050512151055 ८५६P/5RISTORISTRI505OSS
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वह भैरव लाल नेत्र वाले हाथ में मुदगर वाले होंठ इसते हुए और कच (बाल) ऊपर को उठे हुए वक्र (डोटी) दष्टौ (डाढ़वाले) और द्वेष करने वाले शत्रु की सेना को भगाने में उद्धत हो ।
तस्या अद्यस्ताद्वेतालं मातृशा समंततः, विलिखेत्समुदिताः स्व स्व वर्णायुध वाहनैः
॥ ३० ॥
उनके नीचे वेताल और चारों तरफ आठ मातृकाओं को अपने अपने वर्ण और आयुध (अस्त्र) और वाहन सहित लिखे ।
ब्राह्मयांतरालेषु विलिखेच्च जयादिकाः, अष्ट दंड करा देवार्याणा झन समन्विताः
11 32 11
ब्राह्मणी आदि के अंतराल में जया आदि आठ दंडकारी देवियों को बाण और अशन (धनुष) सहित लिखे ।
सितो रक्तोय. हरित: कृष्ण श्रेतोऽसित स्तथा, सर्व पीतश्च वर्णाः स्युर्ज्जयादीनां क्रमादमी
॥ ३२ ॥
जया आदि आठों देवियों के रंग क्रमशः सफेद लाल हरा काला सफेद काला और सब पीले होतें हैं । चक्राणि भिंडि पालांश्च वहिर्दिक्षु तथा धनु, चतुस्तदं तरालेषु कुंतमा रोपितं शुभं
॥ ३३ ॥
उनके बाहर की दिशाओं में क्रम से चक्र भिंडपाल धनुष हो तथा उनके अंतराल में कुन्त (भाला) धारण किये हुवे हो ।
अपराजित मंत्रेण तत्सर्वं वेष्टयेतत्कमात्, मंडलानि लिखे द्वाये क्षोणयं भोधिनभ स्तथा
॥ ३४ ॥
उन सबको क्रम से अपराजित मंत्र से वेष्टित करके उनके बाहर पृथ्वी जल तथा वायुमंडल बनावे
एतोषामंतरालेषु मंडलानां ततो लिखेत्, जयादीनां चतसृणां मंत्रान मंत्र विधानवित्
॥ ३५ ॥
उन मंडलो के अंतराल में मंत्रों के विधान को जानने वाले चारों जया आदि के मंत्रों को लिखे ।
ततः शुभ मुहूर्त्तेतं सर्वतोभद्र मंडले, प्रतिष्ठापन मंत्रेण प्रतिष्ठांप्प समर्चयेत्
॥ ३६ ॥
फिर अच्छे मुहूर्त में उसका प्रतिष्ठापन मंत्र से सर्वतोभद्र मंडल में प्रतिष्ठा करके पूजा करे । PPSPSPSPSP5954 PSPSP596959
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9595959APPS विधानुशासन 959595959695
ॐ ठल्चर्यू ठः ठः ठः ठः अवतरत अवतरत तिष्ठ तिष्ठ सन्निहितो भव भव निज पूजां गृह्ण गृह हुं हुं रवीं स्वाहा ॥
प्रतिष्ठापन मंत्र:
दिग्पालैः सहितास्य स्वयंत्र मंत्रैः पताकिका, ध्वज स्याष्ट सु वनीया दिक्षु घंटा समायुता
॥ ३७ ॥
ॐ ठ्ल्यू इंद्र देवते बलिं गृह गृह ॐ ह्रीं श्रीं लीं ह्रीं स्वाहा ॥ अष्ट दिक्पाल मंत्र: फिर अपने अपने यंत्र और मंत्रो सहित पताका और ध्वजों को घंटो सहित आठो दिशाओं में बांध देये ।
कलरव हवयमभ वर्णान क्रमेण जानंति लोकपालानां, इंद्रादिनांमपिंडानमलवरयूंकार
संयुक्तान् ॥ ३८ ॥
उन इंद्रादि आठ लोकपालों के मलवर्यूकार सहित क ल ख ह व य म और भ वर्ण हैं।
क पिंडस्य महादिक्षु पार्थिवं बीजमालिखेत्, स्वकार पिंड कोणेषु तदयंत्रं स्यात् छत्र क्रतोः
|| 33 ||
कल्चर्य बीज की चारों दिशाओं में पृथ्वी बीज लं लिखे और इसके कोणों में खकार पिंड को लिखे
महादिक्षु लिवेदयातं विदिक्षु कपराक्षरं, द्वितय कस्य पिंडस्य वह्नि यंत्र मिदं मतं
1180 1!
दूसरे पिंड की महादिशाओं में यांत (रं) और विदिशाओं में के आगे के अक्षर अर्थात् ख अक्षर को लिखे यह अग्नि (यान्हे) यंत्र है
व पिंडस्य लिखेत् दिक्षु पार्थिवं कांत पिंडं, विदिक्षुयमकार बिंदु संयुक्तं तदयंत्रं मातृकं मृतं
॥ ४१ ॥
ख पिंड ( म्ल्व) को दिशाओं में लिखकर पृथ्वीमंडल बनावे और कांत पिंड (कल्चर्यू) की विदिशाओं में मकार को बिंदु (अनुस्वार) सहित लिखे इस यंत्र को मातृका यंत्र जाने ।
असिकादि समायुक्तं यमांत पिंडस्य कोणगं. मपिंडाधि स्थितो यंत्रं निऋतेरिदमीरितं
॥ ४२ ॥
यमांतं (यम दिशा दक्षिण दिशा के अन्त में) नैऋते दिशा में असिआउसा सहित मपिंड (म्म्ल्यू) स्थित हो ऐसे यंत्र को नैऋति दिशा का यंत्र (ईरित) कहा गया है।
95959595595954 PSP/59/
9506951
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CISIOISTOISISTERSIO5 विधानुशासन 0525IDISTRICICISION
इनमेदो रजो युक्तं भांतं कोणे लिरवेद्दिशि, पिंडस्ट पिंडमाग्नेयं तदयंत्रं स्यात् पयोनिधेः
॥४३॥ मेद (व) पिंड (म्ल्यू) की दिशाओं में आग्नेय पिंड (रम्ल्यू) और कोणों में अर्थात् विदिशाओं में भान्त (म्म्ल्व!) पिंड लिखे यह वरूण ! योनिधि) का मंत्र है!
वायु वामज रैर्युक्तं कोणे पिंडस्य सं लिरवेत. दांत भ पिडं कष्टासु यंत्रं मारूत मी रीतं
॥४४॥ मत्वयूँ वायु पिंड के कोनों में वाम (ॐ) सहित (दांत) न लिखे और दिशाओं में भ पिंड (मल्ट्र) लिखें यह मारूत (वायु) का यंत्र कहा गया है।
आशा सुनिज बीजस्य ध्वांतं पिंडं समर्पयेत्, विदिक्षु सकली कूटामिदं यंत्रं धनेशिनः
॥४५॥ कुबेर के पिंड (म्म्ल्व) की दिशा में ध्यांत पिंड (ल्यू) लिखे तथा विदिशाओं में पूर्ण कूट (क्षा) को रखे यह धनेश का (कूबेर) का यंत्र है।।
रोयांत ईलि जिदयुक्तो विदिक्ष्या शा सुलिरव्यता,
श पिंडो निज पिंडस्य तदयंत्रं शांभव भवेत् ॥४६।। रो रो इलि (मंगल) के स्वामी म्ल के दिशाओं में श पिंड (श्म् ) लिखकर विदिशाओं में अपना ही पिंड लिने यह ईशान का यंत्र है।
इंद्रादि मंडलैः स्व स्वायुध युक्तटौः क्रमेण वेष्ट्रयानि,
आकाश मंडलेन च ततो वहि स्तानि यंत्राणि ॥७॥ इंद्रादि आठ लोकपालों के मंडल अपने अपने शस्त्र आदि से सहित है तथा इन यंत्रों के बाहर आकाश मंडल से वेष्टित है।
वैश्रवणस्यतु यंन्यसनीय व्योम मंडल स्थाने, वैवस्वतस्य मंडल मंडलमलि भीषणांड संयुक्तं
॥४८॥ कुबेर के यंत्र में आकाश मंडल के स्थान में भमरों के भयंकर अंडों सहित यमका मंडल बनाना चाहिये। इति अष्ट दिक्पाल यंत्राणि मंडलानि
सर्वलक्षण संयुक्तं गज मुत्तममेवच,
चेतं सं बुद्ध योग्यं समुत्तगं मध्यम वयासि स्थितं CASIRISTRISTOTSIDASIRAIPS८५९PISTRISTOTRIOTECTERISPTET
॥४९॥
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ちら
सर्व लक्षणों सहित उत्तम हाथी जो श्वेत समझने योग्य ऊँचा बीच की वयस (अवस्था उमर) का स्थित होवे ।
राजितै: कलशैरतः शुद्धि यंत्रयुतं जलं. जलभृद्भिचंदने क्षौद संपर्क सुरभि कृतं
॥ ५० ॥
फिर वह शुद्धि यंत्र ऐसे कलशों से युक्त हो जिनमें चंदन के चूर्ण के संपर्क से सुगंधित किया हुआ जल हो ।
अष्टाभिरूधि रूठेने शानेन प्रमितैः शुभैः प्रजतैः, स्नान मंत्रेण स्नपयेत भूषयेदनु
॥ ५१ ॥
फिर आठों लोकपालों से अधिवेष्टित (घिरे हुए) इशानेंद्र को जाने हुए उत्तम और स्नान मंत्र को जप किये हुए जल से स्नान करावे और सजाये ।
शुद्धि मंत्र
अंत लिखित साध्यरव्यं जांत पिंडं लिखेत क्रमात्, तं स्वरैरिधना लांत संपुटेन च वेष्टयेत्
॥ ५२ ॥
अन्दर साध्य के नाम को लिखकर उसके चारों तरफ क्रमशः जांत पिंड इम्ल्वर्यू १६ स्वर इद्ध (प्रकाशित ) लांत (घ) के संपुट से उसको वेष्टित करे ।
ततश्चामृत मंत्रेण मंडलेन च वारिटो:, एतदेव विलिखितं शुद्धी यंत्र मुदा हृतं
॥ ५३ ॥
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षाणि अमृत श्रावणे ॐ इवीं क्ष्वीं वं मं सर्वांग शुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा |
स्नान मंत्र
फिर उसके चारों तरफ अमृत मंत्र लिखे और जल मंडल बनावे इसी यंत्र का नाम शुद्धि यंत्र है ।
सुरभि द्रव्य संमृष्ट प्रकीर्ण नव शालिके, देशे पद्य वरोपेते जलं मंगल दीपिकैः
1148 11
सुगंधित द्रव्यों से साफ किये हुए अनेक प्रकार की नयी वस्तुओं से, तथा पैर धोने के जल से युक्त जल और मंगल दीपक वाले स्थान में
सर्वतः स्थापितैर्युक्त रत्न गर्भे शुभैर्घटैः, बीजपूर मुखै गंध सलिला पूरिता शो:
PSP5PSPSSPP ८६. P/5959595959595
॥ ५५ ॥
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SSCISCISISI501505 विधानुशासन HAIRTERSIOISTRISIOSS
चंद्रोपक यंत्र
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सब प्रकार से उत्तम रत्नों से जो अन्दर रखे हुए हों, मुख तक सुगंधित जल से भरे हुए हों तथा ऊपर विजोरे रख्ने हुए हों ऐसे घड़ों की स्थापना करे।
चंद्रोपकेन शुभेण मुक्ता दामावलि भूता, स चंद्रोपक यंत्रेण भूषिते सन्निवेशयेत्
||५६॥ फिर चन्द्रमा के समान उज्जवल मोतियों की माला की पंक्ति सहित चंद्रोपक यंत्र से भूषित उसे रखे। Qಭಣಭಣಧದಂಥ d{{
Bಥಳಥ5
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95959595951 विधानुशासन 2695959595
नाम साध्येन पिंडेन पयो बीजेन च क्रमात, अष्ट पत्रेण चाब्जे न वलिखत्परिवेष्टितं
॥५७॥
साध्य के नाम को पय (जल) बीज के पिंडाक्षर से वेष्टित करके उसको कमल के आठ पत्रों में लिखकर वेष्टित करे ।
तत्पत्रे चाष्टदिक्पालान् स्व बीज सहितान वहि:, तत्पृथ्वी मंडलं कृत्वा तद्वाचे व्योम मंडले
॥ ५८ ॥
उसके बाहर आठों पत्तों में अपने अपने बीज सहित आठों दिक्पालों को लिखकर, पृथ्वी मंडल बनाकर उसके बाहर आकाश मंडल बनावे।
जया धैश्चाष्टम्मिंत्रैर्वेष्टित्वा ततो वहिः, माहेन्द्र मंडले देयात्ततो वारिधि मंडलं
॥ ५९ ॥
उसके बाहर आठ पत्रों में आठों जयादि देवियों के मंत्र को वेष्टित करके, उसके बाहर पहले माहेन्द्र मंडल और फिर जल मंडल बनावे |
तर तरंग संगीत चलत्तिमितिमिंगिलं,
यह रत्न युतं फुल पद्मरक्तोत्पलादिकं
॥ ६० ॥
वह जल बहुत से रत्नों तथा फूले हुए पद्म (सफेद कमल) लाल कमल और नीले कमलों वाली चंचल संगीत जैसी तरंगों से गिलं (खाया हुआ) अर्थात् शोभित हो रहा हो।
विलिखेत् जलधि स्तस्य बाह्ये विश्वंभरा पुरं, एवं चंद्रोपकं नाम्ना यंत्रमुत्तंमुत्तमं
॥ ६१ ॥
उस जल मंडल के बाहर (विश्वभंरा) पृथ्वी मंडल बनाये इसप्रकार यह चंद्रोपक यंत्र उत्तमों में उत्तम
यंत्र है।
प्राचयतुं गज मंत्रेण जप्तान्यष्टोत्तरं शतं, पुष्पाणि निक्षिपेत्तस्य मस्तकें स्यात् क्षतादिकं
॥ ६२ ॥
ॐ नमो भगवते महागजाधि पतये ग्रां ग्रीं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः ग्रं श्लौं श्लौं ह्य (प्लः) सर्व
गजान रक्ष रक्ष स्वाहा ॥
कडक
5195 ८६२ Po
P5PSPS
1
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STSDISTRISTOTSID5105 विधानुशरमन HSRISTRIDDITICISCES
गजमंत्रः प्रयोग सौ डर जप कर पुष्प अक्षातादि उसके मस्तक पर डाले।
पूर्वदिशा में
स्तंभन यंत्र सहितं ललाटे तस्य तत्पट, वधीयात कृत गीताद्यमप्पस्याग्रे प्रवर्तयेत
॥६३॥ फिर स्तंभन यंत्र सहित उसके मस्तक पर वह वस्त्र बांध दे तथा उसके सामने गायन आदि भी करावे,
टांत पिंड लिरिवत्वाव्यामिंद्र बीजेन वेष्टटोत भवनाधिपीतं बाह्ये लिखेत पृथव्याश्य मंडलं
॥६४॥ टांतपिंड (ठम्लव) लिखकर नाम को इन्द्र बीज (ल) से वेष्टित करे फिर उसके बाहर भुवनाधिपति हीं और पृथ्वी मंडल बनावे।
ततो वहिःस्व मंत्रेण वेष्टयित्वा निवेदन,
मारूतं वलयं मंत्रैः पंचभिक्ष दयादिभिः फिर बाहर अपने मंत्र से येष्टित करके पाँचों मंत्रों से वायु मंडल बनावे।
॥६५॥
समंताद्वेष्टितं कृत्वा दिन वष्टा सुनिवेशयेत्, होमाताजादिकं पिंड स्तंभनि विजयाभिधं
॥६६॥ फिर उसके आठों दिशाओं में आदि में अज (ॐ) और अंत में होम (स्वाहा) लगाकर विजया और स्तभिनि आदि देवियों को लिख्ने ।
पश्चाद् तस्य सहेष्वां जलं विलिवेद्वहिः स्तंभनि,
यंत्रमित्येतत् मंत्रिभिः परि कीर्तितं ॥६७॥ फिर इसके साथ बाहर माहेन्द्र और जल (वाज) मंडल बनावे इसको मंत्रवादियों ने स्तंभनि यंत्र कहा है।
CಥEFFEEL{{STS
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OTOXSTOTRICISTERI5 विधानुशासन MHRISTRISTORIES
स्तंभन यंत्र
ETRA chadai.24
COM
ॐ
HAMARIN
NRNAL
विजयाये
TE
-
Sणे.
स्विजया
ठम्लाम
meas
न्न
विजया
बादा
उम्प
ततः प्रभृति समभ्यर्च्य दीनानाथ जनायच, दत्वा स्यादिकं धत्वा रक्षायंत्रमनुत्तम
॥६८॥ उसके पीछे दीन अनाथ लोगों की यथायोग्य दान देकर सोना आदि देकर के उत्तम रक्षा यंत्र को धारण करे।
यंत्रादि देवतां भतया नत्वा यत्र स्थितो रिपुः. तदिशाभि मुरवं पश्चात् तं पटं वाहटोन्नपः
॥६९॥
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0521505PTERISTRICT विधाबुरशासन 25TTERSICISIONSISTS भक्ति से यंत्र के अधिष्ठाता देवता को नमस्कार करक सत्रु जिस दिशा में होता उसी दिसा में उस वस्त्र तो उड़ावे ।
सर्वलक्षणसंपूर्ण प्रातं मध्य वयः स्थितं, स्वामि भक्त कुले जातमुत्तमं सौर्य संयुतं
॥७०॥ फिर प्रातःकाल के समय सब लक्षणों से युक्त मध्यम अवस्था याले स्वामीभक्त उत्तम कुल व जात में उत्पन्न हुए उत्तम वीरता युक्त,
नापितं स्नान मंत्रेण सर्वाभरण भूषितं, सकली क्रिययोपेत्तं रक्षाद यंत्रं च विभ्रतं ।
॥ ७१॥ स्नान मंत्र से स्नान किये हुए सब आभूषणों से सजे हुए सकली करण क्रिया किया हुआ और रक्षा यंत्र को धारण किये हुए,
अकन्यं वा पुरुष कंचिदारोप्य परिहस्तिनः,
नियोजयेत् पुमांसं तं ध्याज दंडावलं वनो तथा बिना कन्यावाले किसी पुरूष को हाथी पर चढ़ाकर उस पुरुष को ध्यजा के दंड के थामने के लिये नियुक्त करे।
रक्षा मंत्रेण बरनीया च्या मराणां चतुष्टयं, तस्यां कोणेषु वितरेद्राज चिन्हानि चाग्रतः
॥७३॥ उसके कोनो में रक्षा मंत्र से चार चमर बांध देवे उसके आगे राज के चिन्हों को रखे।
अस्या जय पताकाया दर्शनादे व जायते भंगः, पर पताकिन्याः सुमहत्या अपिणात
॥७४।। इस जय पताका के दर्शन से ही दूसरे प्रतिवादी की बड़ी भारी सेना भी क्षण मात्र में ही भाग जाती
वश्चिकालि जटायेन धियते युधि मूद्धिनि, जैव गच्छति वाणानां सहस्त्रस्यापि लक्षतां
॥७५ ॥ जो पुरूष युद्ध में अपने मस्तक पर वृश्चिकालि (बिछवा घास) की जड़ को धारण करता है उसके हजारों बाणों का भी निशाना नहीं लगा सकता है।
पीताव शिष्टं गो दुग्धं वच्छेन वृश्चिकेनवा, तदुत्तमांगे निक्षिप्तं भवेदस्त्र निवारणाः
॥ ७६॥ Mರ್ಥಥಬಥS Cé« SPEWS
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SSISISTOR5125555555 विधानुशासन 751005101501505IOTISE गाय के बच्चे या बिच्छू के पीने से बचे हुए दूध को सिर पर रखने से अस्त्रों का निवारण होता है।
शकवल्याः शिफा अंगे पीत्वा क्षीरेण कल्किते, ते वंदधतं मूर्दानां स्त्राणि प्रष्टमी हते
॥७७॥ शक्रवल्ली (इन्द्रायण) की जड तथा अंगी (वत्सनाभ ) के दूध में बने हुए कल्क को पीने से तथा सिर पर रखने से अस्त्रों का निवारण होता है।
सितेषु रिवका मूल मास्ये शिरसिवाधतं, स्तंभांति च संग्रामें सहश्रमपि सायकान
॥७८॥ सफेद सरफोंके की जड़ को मुह या सिर पर धारण करने से हजार बाणों काभी स्तंभन होता है।
पीत्वा सितायाः क्षीरेण सुरभेड़वलं विषं, अजौ संचरतो स्त्रेभ्यो भयंजातुन जायते
॥७९॥ सफेद गाय के साथ सफेद विष को पीकर युद्ध में घूमने यालों को अस्त्रों का भय नहीं होता है।
अहिस्ता मूलमाहत्या पुष्पार्क सोम दिग्गतं, निदध्यादानेन योद्धा तत् शस्त्राणि निवारयेत
॥८ ॥ अहिस्ता() की जड़ को पुष्प नदात्र और इतवार के दिन जो उत्तर की दिशा में उगी हुई हो उसको लाकर सेवन करे तो योद्धा के अस्त्रों को दूर से ही रोकता है।
उपयुक्तमिद योद्धा पिष्टं तंदुल वारिणा तया, जीर्णति तदगाने शस्त्रे स्तावन्नभिद्यते
।।८१॥ जो योद्धा चावलों के पानी के साथ पीस कर उपयोग करता है उसका शरीर अत्यंत जीर्ण होने पर भी शस्त्रों से नहीं भेदा जा सकता है।
माघे मासे त्रयोदश्यां तिथौ उद्यति भास्वति, वाजि गंधा शिफा पीता वारिणा शस्त्र वारिणी
॥८ ॥ माघ मास की त्रयोदशी तिथि को सूर्योदय के समय वाजि गंधा (असगंध) की जड़ को पानी के शाथ पीने से वह शस्त्रों का निवारण करती है।
॥८३॥
माहेन्द्र मंडलं स्टांते क्षीं बीजं न्यस्य तत्रतु,
नाम संलिरव्य साध्यस्य ह्रीं बीजैर्वेष्टोत त्रिभिः SASIRISTOTSISTRICTS5I015 ८६६ VEDIORITICISTRIDICTSCIES
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DISTRISTRISTRISTOTSITEST विद्यानुशासन 195ISISTRICISOTES
जयाद्या दिक्षु कोणेषु विजयाद्या लिरवेद्वाहि, चकं पतमिदं शक्त मस्त्र शस्त्रादि रक्षणे
॥८४॥ माहेंद्र मंडल के अंदर क्षीं बीज को लिखे उस क्षों बीज में साध्य का नाम लिख्खे उसको तीन बार ह्रीं बीज से वेष्टित करे। उसके बाहर दिशाओं में जया आदिग देवियों को और कोण में अर्थात् विदिशा में विजया आदि को लिखे उस चक्र को लिखकर धारण करने से पुरूष युद्ध में अपनी अस्त्र और शस्त्रों से रक्षा कर सकता है।
जयंति संग्रामेरिणां सहस्त्रमपि सायकान्, पीतं या लक्षणो सुरभेद्भवलं विषं
||८५॥ गाय के दूध के साथ सफेद विष का पीने से पुरुष युद्ध में हजार शत्रुओं के बाणों को भी जीत लेता है।
अजां संधरतो स्त्रेषुभयं जातुन जायते, अहिंसा मूलमाहत्य पुष्पार्क सोम दिग्वनं
॥८६॥ पुष्प नक्षत्र में सोम (उत्तर दिशा के वन में से अहिंसा () की मूल को लाकर सेवन करने से युद्ध में घूमने वालों को अस्त्रों से कभी भय नहीं होता।
निदध्यादानेन योद्धा तत् शस्त्राणि निवारयेत्,
उपयुक्तमिदं योद्धा पियंतं तंदुलं वारिणा ||८७॥ योद्धा इसको चावलों के पानी से पीसकर यदि मुँह में रखे तो शस्त्रों का निवारण हो उस समय जो शस्त्र आते भी हों उसके शरीर को नहीं भेद सकते।
टावर्जयति तं गात्रं शस्त्रे स्ता वन्नाभिद्यते। उसका शरीर जीर्ण होने पर अस्त्रों से भेदा जा सकता ।
शक्राशा स्थितं मन्नं श्री पणी मूलमतलभे विधिवत्,
वद्रं करेथ मूर्द्धनि शस्त्राणि रणो निरूद्धितः ॥८८॥ शक्र (इन्द्र) की पूर्व दिशा में सिथत श्री पर्णी () की जड़ को यदि विधिपूर्वक लेकर हाथ में बांध लेवे तो युद्ध में शस्त्र भी रूक जाये।
भूततिथौ कुज वारे व्युददो तेन निर्मितं वलयं,
शस्त्राणि वारयेद्यो युद्धिष्टिराद्यो नरं हतवान् ॥८९ ।। कृष्ण चतुर्दशी तथा कुजवार (मंगलवार) को सूर्योदय के समय उससे कड़ा बनाकर पहनने से युद्ध में बहुत से योद्धाओं को मारने वाले शस्त्र भी रुक जाते हैं।
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STORIEOSDISTRISTRI5 विधाबुशासन 275TODIPINIOSRIDESI
४६
ही अजिना
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ही मोहामै
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ही विजया
पत्तं जारी विदारी रुग्जपेंद्रा गुरु चंदनाः पिष्टा, हिम जलेनांग लिप्ताः शस्त्राणि वारणा
९०॥ पतंजारी () विदारी रुक (कूट) जवे का फूल इंद्रायण अगर चंदन को हिम चंदन को हिम (बर्फ) के पानी से पीसकर शरीर में लेप करने से हथियार रुक जाते हैं।
भूमि गदम्बकविभीतक नंद्या वत्तांगकर्णिका,
पत्या शस्त्राणि युद्धरंगे लिप्ता वस्तांभिसा पिष्टा: ॥९१॥ भूमि कदम्ब (कदंभ) विभीतक (भिलावे) नंद्यावर्त (तगर) अंग कर्णिका पत्या को बकरे के भूत्र में पीसकर लेप करने से शत्रु रुक जाते हैं।
कटु तुंबी जटा पाभा भारायां सुर मंत्रिणाः,
कोक्षेटाकं निधीत मुरवे वा मुन्दिन वा धृताः CISIOTICKETERTAIPTETEKSIKS८६८ V IDEISTRICTORSDTATOIES
॥ ९२॥
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कड़वी तुंबी की जड़ को पाभा का बोझ और सुर मंत्री (देवदास) को मुख या शरीर पर रखने से कौशेयक ( शस्त्र) रुक जाते हैं।
भौतेऽह्नि रवि पुष्पेवा ग्रहणे अर्कस्य वा हृतां, रुणद्धि पाटली मूलमसिमास्यां तर स्थितं
॥ ९३ ॥
भूत (आसोज माह की कृष्ण चर्तुदशी के दिन भूत दिन) रविवार और पुष्प नक्षत्र के योग के दिन अथवा सूर्य ग्रहण के दिन लाई हुई पाटली मूल (पांडूर फली की जड़) को मुँह में रखने से तलवार (असि) रुक चाती है।
.
यस्यास्याभ्यंतरे क्षिप्ता पुष्पे पाठा जटा हता, असिः स्थितापि निर्हेतु तदं गानिन पातयेत्
॥ ९४ ॥
पुष्प नक्षत्र में लाई हुई पाठा (पाठ) की जड़ जिसके मुँह में रखी जाती है यह असि (तलवार) के नीचे आ जाने पर भी तलवार गिरकर उसके अंगों को नहीं काट सकती।
गृहीत्वां विधि वद्ध निक्षिप्ता लक्ष्मणा जटा, असः सिता न तस्यापि कुर्वीत स्तभनं युधि
॥ ९५ ॥
लक्ष्मणा की जड़ को विधिपूर्वक लाकर मुख में रखने से युद्ध में सिर पर झुकी हुई तेज तलवार का भी स्तंभन होता है।
नीली मूलं च सुठिं च भूयः सं च खादतः, नरस्य युद्धिनां गानि छिन्नति निशितोष्पसिः
॥ ९६ ॥
नील (नील निगुंड़ी) की जड़ और सोंठ को चाबकर खाने से पुरुष के अंगों को युद्ध में तेज तलवार भी नहीं काट सकती ।
भूताहे मूशली मूलं गृहीतं पुष्प संयुते. निरुणधि धृतं मूर्ध्ना शांखड़ग ग्रहानपि
॥ ९७ ॥
भूत दिन (कृष्ण चर्तुदशी के दिन) में पुष्प सहित मूसली की जड़ को लाकर सिर पर रखने से वह बाण खड़ग और गृहों को भी रोकती है।
यथा विधि वेवर देवदालि जटाक्षता, संस्तं भवेद शीनवाणा नरातीश्च मुखे धृता
PSPSPPSPSPSSPPSP595959595
॥ ९८ ॥
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CSIRIDICISIO9501505 विद्यानुशासन ASTRISIOSOTHO5015 विधि पूर्वक इतवार के दिन लाकर मुंह में रखी हुई देवदाली (घमरबेल) की जड़ और क्षता (आक) तलयार बाण और शत्रुओं का स्तंभन करती है। अराति (शत्रु)
धत सुरचाप युगे सतिनभसि गृहीता शिफेंद्र वारुणयाः,
अस्त्राणि च शस्त्राणि च निरूणिद्धि पता निजांगेन ॥९९ ॥ आकाश में सुरचाप (इंद्रधनुष) के निकलने पर ली हुई इंद्र वारूणि की शिफा (इंद्रायण की जड़) अपने अगं पर धारण करने से अस्त्र और शस्त्र रूक जाते हैं।
शरपुरवा हरिदयिता भुजंगाक्षी लक्ष्मणा मयूर शिरवा, अंकोल शंरव पुष्पी मूशल्यपि विधिवत आदाया
॥१००॥
वक्रे वा वाही वा मूदिन वा विभ्रतः सदा पुंसः,
चौरारि दहन हेति ज्वर नपतिभ्यो भयं न भवेत् 1॥१०१॥ सरपुंखा, हरिदयिता (तुलसी) भुजंगाक्षी (सर्प की आंख) लक्ष्मणा, मयूर शिया, अकोल, संखपुष्पी भूसली को विधिपूर्वक लाकर के मुँह पर भुजा पर या सिर पर विधि पूर्वक रखने वाले पुरुष को चोर शत्रु आगहेति (हथियार) ज्यर और राजाओं से भय नहीं होता।
शत मूल मूलयुक्ता सित सरपुंरवी शिफास्टगा छिंद्यात,
शस्त्रं रिपु हस्तस्थ पतमपि युधिनाग मध्टारथं ॥१०२॥ शतमूल (सतावरी) को जड सहित सफेद सरफोंके की जड़ (शिफा) को आस्य (मुख) में रखने से युद्ध में शत्रु के हाथ में रहनेवाले शस्त्र (छिंदात) टूट जाते हैं।
अटेंदु रेवाग्र गतं त्रिशूलं मध्ये च सम्यक प्रविलिरव्य धीमान, रुक्षे च कृष्ण प्रतिपदिनेतु यस्मिन् मृगांको व्यव तिष्ठतेसौ॥१०३॥
कृत्वा तदादि विगणारय युद्धे विद्यात् त्रिशूलाग्र गतेषु मृत्यु,
मातड़ संरव्येषु जयं च तेषु पराजयं षट सु वहि: स्थितेषु ॥१०४ ॥ संस्कृत टीका- अर्द्वन्दु रेखाग्र गतं अर्द्ध चंद्राकार रेखाग्र स्थितं किंतत् त्रिशूलं त्रिशूला आकारं न केवुलमर्द्ध चंद्राकाराग्र तत त्रिशूलं मध्ये च तदद्धं चंद्राकार रेषा मध्येपि च त्रिशूलं सम्यक् प्रविलिख्य शोभन कृत्वा प्रकर्षेण लिखित्वा कः धीमान बुद्धिमान रूक्षे
CSCRIRISTOTRADIODIOS८७० PASTOTHRADRISTOTSITERIES
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0505250SSISTRICT विद्यानुशासन VSDISE51015015015 नक्षत्रे अमवासी प्रातपदिनेषु अमावस्या निवृत मास प्रतिपदिने यस्मिन रूक्षे नक्षत्रे सं तिष्ठति॥
कत्वा तदादि प्रतिपदिने यस्मिन् नक्षत्रे मृगांकस्तिष्ठति तन्नक्षत्रंततत्रिशूल प्रथम रेवाग्ने स्थाप्पा तन्नक्षत्रादि कृत्वा विगणय्यक युद्धे यस्मिन् दिने युद्धे यस्य युद्धमान पुरुषस्य जन्म रूक्ष यत्र लभ्यते तत्पर्यत गणोत् विद्यात्
यानीयात् त्रिशूलाग्र गतेषु मृत्युः तज्जन्म नक्षत्र त्रिशूलाग्र गतं यदा भवति तदा मृत्यु स्यात् मातंड संख्येषु जयं च तेषु अर्द्ध चंद्राकार रेवाभ्यंतर गत तद् द्वादश रूक्षेषु तेषु जयं स्यात् पराजयं षट्भु वहि:स्थितेषु अर्द्धचंद्राकार रेवा वहि: स्थितेषुः षड् अक्षरेषु पराजयं स्यात् इति युद्धप्रकरणे अर्द्वन्दु त्रिशूल चक्र ।। एक अर्द्ध चंद्राकार के ऊपर रेखा बनाकर त्रिशूल बनाए, और उसके ऊपर मध्य में और नीचे सताइसों नक्षत्रों को इस क्रम से लिखे, कृष्ण पक्ष की अमावस के पीछे की पड़या के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में हो उस नक्षत्र से शुरू करके, उसको त्रिशूल की प्रथम रेखा के आगे स्थापित करे। क्रमवार लिने युद्ध में जानेयाले मनुष्य का जन्म नक्षत्र इनमें से जिस स्थान पर हो तो उससे यह फल जानना चाहिए। यदि त्रिशूलों के ऊपर जन्म नक्षत्र पड़े तो मृत्यु हो, यदि वह जन्म नक्षत्र मध्य के बारह नक्षत्रों में से कोई हो तो विजय करे और यदि वह बाहर अर्थात् अर्ध चंद्राकार रेखा से बाहर पड़े तो पराजय हो।
प्रयोर्वीश नदी नयगृह नगव्याधि प्रसूनाक्षराणो की कृत्य नरवान्वितं त्रिगुणितं तिच्या पुनर्भाजितं ब्रूयादुधरितां शुभाशुभ फलं वैशाम्य शाम्ये सुधीरे तत्तथ्य मिहोदितं मुनि बरे व्याब्ज धर्माशुभिः ॥१०५ ॥ प्रायः वाल युधाम वनेति त्रिविद्य प्राय मध्ये नाममेकं उर्वीशः सार्वभौमानां राज्ञां मध्ये नाममेकं नदी गंगादि महानदीनां मध्टो नाममेकं नवग्रह आदित्यादि नव ग्राहाणां मध्ये नाममेकं नग मंदिरादि पर्वता नां मध्ये नाममेकं व्याधि वात पित्त श्रूष्मोद्भवानां व्याधिना मध्टो नाममेकं प्रसून मालिका जाति सतपन्नादि पुष्पाणां मध्ये नाममेकं अक्षराणि प्रायः आदि पूनांत्य प्रश्राया कथिताक्षर संस्वअद्यानि एकीकृत्य तानि सर्वाणयेकं कृत्वा नरवान्वितं तदकं रासि मध्ये विशत्यें कां द्योजित्वा त्रिगुणितं तत्समस्त रासिं त्रिभि गुणितं कृत्वा तिथ्या पुनर्भाजितं पुनः पश्चात् तत्तिगुणितं राशि पंचदश तिथि संरटौभग्धां ब्रूयात् कथयत् कस्मात् उद्धरितान भागावशेषां कानकं शुभाशुभं फलं शुभफलं चा कष्मिनैषम्टा शाम्ये विषमांके
शुभं ब्रूयात् सामं के विरुद्ध फलं ब्रूयात् कः सुधी: धीमान एतान्भव्यं एतत्पश्रे 19512550558510150351 ८७१ P505015159595055
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* विद्यानुशासन 259595959595
निमित्तं निश्चितं इहेत्यादि अस्मिन्कल्पे प्रतिपादितं कः मुनिवरैः मुनि वृषभै : कथं भूतैः भव्याब्ज धर्माशुभिः भव्याः एताब्जानि तेषां धर्माशुरादित्य स्तद्वत्यै मुनिभि भर्खाकु धम्र्म्मा शुभिः ॥
प्रायः (बालक युवा वृद्ध) उर्वीश (चक्रवर्ती भरत, सगर, मधवा, सनत कुमार, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ, सुभौम, सुपद्म, रूचि, जयसेण, हरिषेण, ब्रह्मेश) महानदियाँ (गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकांता, सीता सीतोदा, नारी, नरकांता, सुवर्णकूला, रशकूला, रक्ता, रक्तोदा) नवग्रह (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु) नग (पर्वतादि, हिमवत, महाहिमवत, निषद्य, नील, रूक्मि, शिखरिन) व्याधि (बीमारियों में से नाम) प्रसून (फूलों में से नाम) में से एक नाम के अक्षरों को गिनकर उनको जोड़कर उस जोड़ी हुई गिनती में बीस को जोड़ कर उसको तिगुना करके और गुणनफल में पन्द्रह (तिथि) का भाग दे, यदि शेष में सम अक्षर हो तो विरुद्ध फल विषम अंक हो तो शुभ फल कहना चाहिए। यह प्रयोग भव्य रूपी कमलों को सूर्य के समान खिलाने वाले श्रेष्ठ मुनिराजों ने कहा है ।
ॐ नमो भगवते ज्वाला मालिनी गृद्ध गणां परिवृते ठः ठः ॥ लक्ष प्रजाप्प सिद्धिं युद्धाय गतो जपन्न मुं मंत्र, संग्रामं विजय लक्ष्म्याः स्वयं वृतो वल्लभो भवति
॥ १०६ ॥
इस मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके युद्ध के लिए उस मंत्र को जपता हुआ यात्रा करनेवाला स्वयं ही विजय लक्ष्मी का स्वामी होता है ।
दुर्गा मंत्र: प्रणवोचि दुग्र्गा रक्षिणी ठठेति अद्यम, अष्ट लक्ष जाप्पात् सांगः सं सिद्धमुपयाति
॥ १०७ ॥
ॐ दुर्गे नमः १ दुर्गे ठः ठः २ दुर्गायै वषट ३ भूताक्षिणी हुं ४ दुर्गा रक्षिणी ठः ठः ५ अंगानि ॥
युद्ध व्यवहारादिष्वेत जप्ता जय श्रीयं लभते, नित्यमनेन जयार्थी खडगं क्षुरकां च पूजयतु प्रणय (3) अर्चि दुर्ग रक्षण ठः ठः
॥ १०८ ॥
यह मंत्र अंग सहित आठ लाख जप से सिद्ध होता है। युद्ध मुकदमें आदि में इन अंगों सहित मंत्र को जपकर पुरुष कल्याण को प्राप्त करता है। विजय की इच्छा रखनेवाले पुरुष को इस मंत्र से खड़ग और छूरी का पूजन करना चाहिए
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ॐनमो भगवती पिशाची देवी पिशाच वाहिनी केरिकि हुंडकेशिशीग्रंकोलुकोलु मुज मुज घग घग दुष्ट भैरवी ह्रीं स्वाहा ।।
पिशाच देवीमरूणां पिशाच सराहनां साध्य मंत्रतस्त्वं, सन्मातु लुंगाऽभयदान हस्ता कुठार पाशात्त करां सुभत्तया ॥ १०९॥ द्विषट सहस्तैः करवीर पुष्प दंशांस होमेन च सिद्धि मेति,
सानालिकेरानऽभिमंत्र्य मुत्तया नभों गणास्था रिपुकं भिन्नति ।।११०॥ हे पिशाच देवी ! तुम मरुत (वायु) देवताओं के याहन याली हो । तुम अपनी चारों भुजाओं में मातुलुंग (बिजोरा) के फल अभयदान, कुल्हाड़ी, नागपाश को धारण करती हो। आप इस मंत्र को सिद्ध कर दें। यह भक्ति से कहे। यह प्रार्थना मंत्र को जपने से पहले करें। यह मंत्र कनेर के फूलों से बारह हजार जपे तब तदशांश होम करने से सिद्ध होता है इस मंत्र से नारियल को अभिमंत्रित करके आकाश में फेंकने से यह शत्रु को भगा देता है।
तिस्तो भुवः समालिव्य मध्ये यूं यूं तथैव च, चतुर्दले लिरवत्पदम चंडे च ले नियोजयेत्
॥१११॥ पत्रेषु च लिरवेन्मंत्री चर्तुमंत्रं बहि स्थितं, नामांतरितं सपिंडं रक्षण मंत्र तत्वतः
॥११२॥ तीन पृथ्वी मंडल बनाकर उनमें यूं यूं लिखे। उसके अन्दर चार दल का कमल बनाकर उसमें चंडे चूले लगाए। उन पत्तो में आगे लिख्खे चार मंत्रो को लिखकर उसके अन्दर नाम सहित सपिंड (स्मल्यू) पिंडाक्षर लिखे। यह मंत्र रक्षा करता है।
ॐधरणेद्र आज्ञापयति स्याहा॥ ॐ सर्व सत्व वंशकराय स्वाहा ॥ ॐपद्मावती परमार्थ साधिनि स्वाहा।। ॐ पार्थ तीर्थकराय स्वाहा ।।
वाम वृत्ति समालेरख्य क्षुरिकाषुहं सं स्थितो, युद्धार्णव गतो योद्धा विजयं लभते सदा
॥११३॥ इस यंत्र को वाम वृत्ति (बाई तरफ) की विधि से लिखकर छुरी त्रिशूल के ऊपर रखकर युद्ध रूपी समुद्र में गया हुआ योद्धा सदा विजय को ही प्राप्त होता है।
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SPPY विधानुशासन 959595959595
दिग्विन्यस्त क्षि बीजांतर लिखित लकारं ठकारा वृत्तांगं, द्विद्धात्रि मंडलातंन्निहि त मुपहत ब्रह्म लींकार कोष्टं ॥ ११४ ॥
टंकर बेटं क्षिति तल महिलाचंवेनाम गर्भ,
हम्ल्यू कारं भूर्ज पत्रे लिखितमरि कुलं तस्य सं स्तंभमेति ॥ ११५ ॥ ॐ हम्ल्यू ग्लौंदमं ठं अमुकस्य जिह्वां स्तंभय स्तंभय ठः ठः ॥ पूजा मंत्रः दिशाओं में रखे हुए खिं बीज के अन्दर ठकार से आवृत (घिरा हुआ) ल लिखकर दो पृथ्वी मंडल और एक वायु मंडल इस प्रकार तीनों मंडलों के कोणों में ब्रह्म (ॐ) और लीं हो । और फिर ग्लौंदमं हम्ल्य के बीच में नाम लिखकर पृथ्वी मंडल वाले सि यंत्र को भोजपत्र पर जो लिखता है उसका शत्रु कुल स्तंभन को प्राप्त होता है।
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लांगाल्यां लिप्त सुर्वांगो हस्त तारा गृहीतया, मलं जेतु मलं मल्लः शतमे कोपि निर्भयः
॥ ११६ ॥
हस्त नक्षत्र में ली हुई लांगली (कलिहारी) का लेप करके कुश्ती लड़ने वाला पहलवान एक सौ पहलवानों से भी निर्भय रहता है अर्थात् उनको जीत लेता है ।
मूलं श्वेत अपामार्गस्य कुबेर दिशि संस्थित, उत्तरा त्रितये ग्राह्यं शीर्षस्थं द्यूत वाद जित्
12
॥ ११७ ॥
उत्तरा आषाढ़ा उत्तरा भाद्रपद और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रों में सफेद चिड़चिटे (अपामार्ग) की जड़
को जो उत्तर दिशा में उगी हुई हो, उसको विधिपूर्वक उखाड़कर सिर पर रखने से पुरुष जुए और
शास्त्रार्थ में जीतता है।
आट रुषक संभूतौ वंदाक: पाणि संस्थिते:,
अलं जनयितुं द्यूते प्रतिपक्ष पराजयं
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॥ ११८ ॥
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CHORDPADDISTRICT विद्यानुशासन VDOASSIPASTRISTIAN
आट रूख (अड़सा) के बंदाक (लांटा अमरनेल) को लाकर दाश में रखकर निश्चय पूर्वक जुए में विजय प्राप्त होती है और प्रतिपक्ष (दूसरा पक्ष) हार जाता है।
स्वमंदा तादृशो युद्धे कलभस्य निरीक्षणात्,
बिभत्लायते हस्तीगत घटौँ महानपि सोमा (सोमलता) वाले हाथी के बच्चे को देखते ही युद्ध से बड़ा भारी हाथी भी डरकर भाग जाताहै।
जग्धेद्र वारुणी मूल गुलिकां भक्ष मिश्रिता, दक्षो जेतु मंडलं दक्ष मन्य मप्पति पोषितं
॥१२०॥ इंद्र वारूणी (इंद्रायण) की जड़ की गोली को भोजन के साथ मिलाकर भोजन खाने में चतुर पुरूष दूसरे अत्यंत पुष्ट को भी जीत लेता है।
ॐ पद्म प्रभे पद्म सुंदरि धर्मर्षे ठः ठः॥
सिद्धं त्रिलक्षं जाप्पाद मुंजपन स्वामिनः पुर स्तिईतत्,
कुपितस्य सः प्रसीदे दद्याच्चा भीप्सितं सकलं ॥१२१ ।। यह मंत्र तीन लाख जप करने से सिद्ध होता है इस मंत्र को जपता हुआ यदि क्रोधित स्वामी के सामने खड़ा हो तो वह प्रसन्न होकर सब इच्छित वस्तु देता है।
तेजः पुटे लिरवेन्नाम ग्लौं क्ष्मं पूर्णेद वेष्टितं, वजाष्टकपरिछिन्नम यांत बह्म लाक्षारं
॥१२२।।
तद्वाह्ये भूपरं लेख्यं शिलायां ताल कादिना,
कोपस्टा स्तंभनं कुत्पिीतैः पुष्पैः प्रपूजितः ॥१२३॥ ॐलों मं ठंलं स्वाहा ॥ पूजा मंत्र: तेज (ॐ) की पुट में क्रमशः नाम ग्लौं और क्ष्म लिखकर उसको पूर्ण चंद्र (८) से वेष्टित करे फिर उसको आठ वजों से ढककर उनके आगे और अन्दर ब्रह्म (3) और (ल) अक्षर लिखे। उसके बाहर शिला पर हड़ताल आदि से लिखने और पृथ्वी मंडल बनाने तथा पीले पुष्पों से पूजन करने से यह यंत्र क्रोध का स्तंभन करता है।
यकारस्याष्टमं बीज मूाधो रेफ संयुतं, यकारं बिंदमुपकारं तन्मध्यं नाम से लिखेत्
॥१२४॥
तवाद्ये सांतमालेख्य टांतेनापि बहिष्कतं, उद्धधिो वज़ मालेव्यं क्रोध स्तंभन मा लिरवेत्
॥१२५ ॥
S505DISEASIRIST05051 ८७६ PERISTOTSIR5E5RISTRIES
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DIST05051255015 विद्यानुशासन 950351815DISCI51015 यकार के आगे के आठवे बीजाक्षर के ऊपर और नीचे रे (र, हि अति औः य बिन्दु (अनुस्वार) और उकार अर्थात् (गुं) यूंको लिखकर उसके बीज में नाम को लिखे उसके बाहर सांत (ह) को लिखकर उसके बाहर टांत (8) लिखकर ऊपर और नीचे वज़ लगाए। यह क्रोध स्तंभन यंत्र लिखे।
CASIOTSPIRISEXSTR5E5I८७७PISRASTRITICISTRISTORIES
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STERIOTSETTETSPSC विद्यालुशास्भन VDOISSISTRICISTOIES
नाम्रः कोणेषु दत्वा लमय परिवृतं वाट्रिना बिन्दुनावालं, बीजै र्वेथितं तत कुलिश वलयितं वेष्टितं ठत्रयेण ॥१२६ ।। भूले गोरोचना कुंकुमं लिरिवत्त मंतः कुंभ काराग्र हस्तान्मत, स्नानमादाय कृत्वा प्रति कृतिमथ तद यंत्र मास्टये निधाय ।। १२७॥ तहकं परपुष्ट कंटक चटौन्नित्वा शराव द्वय स्यांते स्तां, प्राणिधाय सम्यगथ जंभे मोहिनी संयुजा स्वाहा मंत्र पदेन॥१२८ ॥ पीत कसमैरभ्यच्चर्य यातःपमान प्रत्यर्थि, व्यवहारिणो विजयते तज्जिति का स्तंभोत्,
||१२९॥ नाम के कोणो में लंलिखकर, उसको बिंदु सहित ठसे वेष्टित करे। फिर उसके चारों तरफ दो कुलिश (चज) मंडल बनाकर पहले को लं बीज से और दूसरे को तीन ठ से वेष्टित करे। इस यंत्र को भोज पत्र पर मोरोचन और कुकुम से लिखाभिर कुम्हार के हाथ की मिट्टी लाकर उसे अपने प्रत्यार्थी की छोटी सी मूर्ति बनाकर उसके मुख पर यह यंत्र रख दे। उस मूर्ति का मुँह मजबूत कांटों से चीरककर उसको दो मिट्टी के शराबे में रखकर इस मंत्र से पीले फूलों से पूजन करे तो उसके . विरोधी व्यापारी की जिह्वा का स्तंभन होता है।
ॐजंभे मोहे अमुकस्य जिव्हां स्तंभय स्तंभा लंठः ठः स्वाहा ।।
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25
विधानुशासन
क्षिप्त्वा वदरी पत्रं मृत्स्नायां चक्रीहस्तलग्रायां, तत्प्रति कृति रथ कायत्ति द्वदनं पूरयेन्माबै:
तद् ह्रदये निक्षिप्तं मंत्रं प्रविलिख्य भूर्जे पत्र गतं, आलक्तक कृक जिव्हा विद्ध्वा मदनस्य कंटकतः
अंधे अंधिनि च पदं मोहे मोहिनि तथा भुकं, शीघ्रं अंधय मोहय युगलं मंत्र प्रणवादि होमांत:
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॥ १३० ॥
॥ १३१ ॥
॥ १३२ ॥
मंत्रोद्धार :- ॐ अंधे अधिनि मोहे मोहिनि अमुकं शीघ्रं अंधय अंधयमोहय मोहय स्वाहा ॥
कुम्हार के हाथ की लगी हुई मिट्टी में बेर के पत्तों को फेंक कर (पीसकर इसकी मूर्ति बनाए उसके मुँह में माय से भर दे। उसके हृदय में भोजपत्र पर मंत्र लिखकर तथा इसे उस शत्रु की प्रतिकृति (प्रतिमा) के हृदय में रखकर तथा इसके कृक (गले) में अलक्तक (महावर) की जीभ के ऊपर मदन (मेनफल) के कंटक (कांटे) से लिखे आदि में प्रणव (उ) और अंत में होम (स्वाहा ) लगाकर अंधे अंधिनि मोहे मोहिनि अमुकं शीघ्रं अंधय अंधय मोहय मोहय सहित मंत्र बनता है ।
सर्व शास्त्र विदो वक्त्रं वटनात्यं न्यस्य का कथा, शराव संपुटं क्षिप्त्वा करोति यदि पूजनं
॥ १३३ ॥
यदि दो शराव ( सराइ ) के संपुट में रखकर इसका पूजन किया जाए तो यह सब शास्त्रों के विद्वानों के मुँह को स्तंभन करता है (बंद करता है) औरों की तो क्या बात है।
कृत्वा कुलाल कृतमृतिकयारि रूपं मंत्र
च तद् हृदि गतं वदनं, तमाप्यं जिव्हामलक्तक
धृतां स्मर कंटकात कुर्य्यात् शराव पुट संस्थित मास्टा रोधिः ॥ १३४ ॥ कुलाल (कुम्हार) के हाथ की मिट्टी से शत्रु का रूप (मूर्ति) बनाकर उसके ह्रदय में मंत्र लिखे तथा उसके मुँह और अलक्तक (महावर लाख) की बनी हुई जिव्हा को स्मरकंटक (मेनफल) के कांटे से छेदे यदि उसके दो शरावों के संपुट में रखे तो प्रतिवादी का मुंह बंद होगा।
त्रकारं चिंतयेद्वको विवादे प्रतिवा दिन:, क्रों वा रेफं ज्वलंतं वा त्रां कारमथवो ज्वलं
CSMSYSY5252525(-1/5252525252525
॥ १३५ ॥
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OISIOUSCIISERRORARYArt
525TOSDISCIEN
एते ध्यात्वा स्तथा तस्य जिव्हा स्तंभं वितन्वते, जकारो क्षणोर्यथा ध्यातो विदद्यते दृष्टि बंधनं
॥१३६॥ शास्त्रार्य करने में प्रतिवादी के मुख में त्रीं क्रों तथा जलता हुआ रेफ (रकार) अथवा श्रां का ध्यान करे। इसका ध्यान करने से उसकी नजर बंध जाती है तथा आंखों में ज का ध्यान करने सेउसकी नजर बंध हो जाती है।
लिरवेन्नाम जिलंकार मध्ये पृथ्वी पुरान्वितं, शिलायां तद वष्ट व्यं स्टाद्वचो बुद्धि रोधनं
॥१३७॥ पृथ्वी मंडल के बीज में जि और लं के अन्दर नाम को लिखकर दो शिलाओं मे रखने से बाणी और बुद्धि का स्तंभन होता है।
तथ मध्ये गतं साध्यं तोय मंडल मध्यगंलेरां, सुगंधिभिद्रव्यै भूर्जेवाक सिद्धि दायकं
॥१३८॥ त और य के बीज में साध्य के नाम को लिखकर उसके चारों तरफ जल मंडल बनाकर सुगन्धित द्रज्यों से भोजपत्र पर लिखे तो बाणी सिद्ध होगी।
लभते विजयं वादे पुन्नागस्य जटां मुखे,
शिफां शिरिव शिरवाया वा पुष्य रूक्षे स्वीकका दद्यत ॥१३९ ।। पुष्य नक्षत्र में लाकर रखी हुई पुन्नाग (कमल) की जड़ या मयूर शिखा की जड़ को (कृक) मुख में धारण करने से शास्त्रार्य में विजय मिलती है। SADRASIRISTRIDIOSRIDIOSIL८० HDDISTTERISPISCESCIES
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C505MSVS25PSI Pengunena Y5YSY5YSY/SES
ॐ नमो भगवते वरुणाय वरुणाय स्तंभय स्तंभय ठः ठः ॥
एष लक्ष जपात्सिद्धः पाश पाणयधि देवताः, मंत्र दीपार्चिषं रूंधे सप्त वार जपादिभिः
11280 11
यह पाश पाणि देवता का मंत्र है एक लाख जप से सिद्ध होता है। इसका सात बार जप करने से दीपक की (अचिराषु) लौ का स्तंभन होता है।
दिक्षु ग्लौं
मलवरयूं संयुतं कूटं
विदिक्षु, नव कोष्टेषु लिखितं सुरभि द्रव्यैः तत्पीतं स्तंभनं वन्हेः ॥ १४१ ॥ दिशाओं में ग्लौं और विदिशा में कूट सहित मलवरयूं को (दम्यू) को नौ कोठों में सुगंधित द्रव्यों से लिखकर पीने से अग्रि का स्तंभन होता है ।
नाम
खांत पिंडं वसुदल सहितं भोज मध्ये विलिख्य,
तत् पिंडानेषु योज्यं वहिरपि वलयं दिव्य मंत्रेण कुर्य्यात् ॥ १४२ ॥
॥ १४३ ॥
टांतं भूमंडलातं विपुल तर शिला संपुर्ट कुंकुमाद्येद्धार्य, श्री वीरनाथ क्रम युग पुरतो वन्हि दिव्यो प शांतयै ॐ शंभेई अमुकस्य जलं जलणं चिंतये मेतेणा पंचणमो आरो आरो मारि चौर राउल घोरू वसग्गं विणासे स्वाहा ॥ दिव्य मंत्र :
संस्कृत टीका - नाम देवदत्त नामा ग्लौं देवदत्त नामोपरि ग्लौंकारं खांत पिंड़ं खकार स्यांत गकारः स चासौ पिंडः खांत पिंड़ गल्वर्यू मिति पिंड: वसुदल सहितं भोजपत्र विलिक्यं अष्टदलान्वितं पद्म पत्रे विशेषण लिखित्वा तत्पिंड़ं तत् कर्णिकाग्रां लिखेत्
वयूँ मिति विंडं तेषु अष्टदल पत्रेषु योज्यं योजनीयं वहिरपि तदष्ट दल कमल वहिः प्रदेशेपि वलयं केन दिव्य मंत्रेण विशिष्ट मंत्रेण कुर्यात् दांत ठकारं कथं भूतं भूमंडलांतं पृथ्वी मंडलांतं स्थितं दिव्य मंत्र वलय वहिः प्रदेशे ठकारेण वेष्टय तद्वाहि: पृथ्वी मंडलं लेखनीय मित्यभि प्रायः- व विपुलतर शिला संपुटं विस्तीर्ण तर पाषाण पट्ट संपुटे कैः कुंकुमाद्यैः कास्मीरादि पीतद्रव्यैः धार्य धारणीयं क्व श्री वीरनाथ क्रम युगपुरतः श्री वीर वर्द्धमान स्वामी चरणं युगलाग्रतः किमर्थं वन्हि देव्योपशांतयैः अनल दिव्योप शांत्यर्थं ॥
ॐ भई अमुक अमुकस्य जलं जलणं चिंतय मत्तेण पंच णमो आरो अरि मारि चोर राउल घोरुवसग्गं विणासेई स्वाहा || अनि स्तंभन यंत्र
050/50/51
50505 ‹‹‹ VGV50525252525
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देवदत्त नाम को ग्लौं में लिखकर यांत पिंड (गम्ल्यू) उसके बाहर कर्णिका में लिखकर बाहर आठ दल का कमल बनाए ।उस कमल के आठों पत्तों में भी ग्म्ल्यूं पिंडाक्षर लिखे। इसके बाहर उपरोक्त दिव्य मंत्र का बलय दे । इसको टांत (ठकार) और पृथ्वी मंडल बनाए इसको बड़ी भारी शिला की संपुट में रखकर दिव्य अग्नि की शांति के लिए श्री वीर भगवान के सामने रखे।
दिव्येषु जल तुला फणिरयगेषु प व ह क्ष पिंड मा विलिरव्येत्, पूर्वोक्ताष्ट दलेष्वपि पूर्व वदन्यत् पुनः सा ॥१४४ ।।
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दंबरम
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दिव्येषु चतुर्दिव्येषु कथं भूतेषु जल तुला फणि खगेषु जल दिव्य तुला दिव्य घट सर्प दिव्य पक्षि दिव्य एतेषु चर्तुष व प ह क्ष पिंडं जल दिव्ये क्ल्व मिति पिंड तुला दिव्ये पल्व मिति पिंडं फणि दिव्ये हम्यूँ मिति पिंडं खग दिव्ये मल्वयूँ मिति पिंडं आविलिखेत् समंताद्विलि खेत् केषु पूर्वोक्ताष्ट दलेषु प्राग्विलिखिताष्ट दलेषुकथित चतुर्दिव्येषु व प ह क्ष पिंडान क्रमेण लेखनीयं अपि शब्दान मध्येपि च पूर्व वदत्यं पुनः सर्वं अन्यत्युनः यंत्रोद्धार प्रग्विलिखितं यथा तथैव सर्वं ।। पूर्लोक्त आठ दलों के मध्य में जल दिव्य में बल्यूं तूला दिव्य में पल्यू फणि दिव्य में हम्ल्यूं और खम दिव्य में ल्यूँ बीज को लिखे और शेष को उसी प्रकार रहने दे अर्थात इस अग्नि स्तंभन यंत्र के समान चार यंत्र और बनाए किन्तु उसकी कर्णिका के मध्य में लिखित बीज को बदल दे और बाकी सब वैसा ही रहने दे कि जिसकी कर्णिका में टयूँ बीजाक्षर हो वह जल दिव्य का स्तंभन करता है और पल्ल्यू बीज से तुला दिव्य का स्तंभन होगा और जिसकी कर्णिका में दम्ल्वयूँ बीजाक्षर हो वह दिव्य पक्षी का स्तंभन करता है। STORISTCASTOTSTOIDESICS ८८२ P15PISTRISTRISTRISTRISTOIEN
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SASTISEASESOTISIS विद्यानुशासन VSRISTOTTOSPIRISE
जलरदिव्य स्थमक यंत्र
शिं
अग्नि स्तमक
loan
ANSWER
Beb.lakh
ममी आरो आर
अमुक अमकस्य,
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थपई अपक्ष
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मागविणार
मक स्वाहा
आग्ने संभक यन्त्र
क्षिं
AL
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मरि
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पर रात
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SERIERISTRISTRISTRIES८८३P35105251951005051215
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ORSONSISTOTSTS
विधानुशासन VSRISR50505OTES
शिं
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3.8: ठः ठः ठः
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जटया काक जंघायाः पुष्ये स्वीकृतया तर्नु,
कत्या लिप्तां सदोषोपि वन्हि दिव्यं जो यूपं । ||१४५॥ काक जंघा की जड़ को पुष्य नक्षत्र में लेकर उससे शरीर का लेप करके दोषयुक्त पुरुष भी दिव्य अग्नि को निश्चय से जीत लेता है।
दर तैलांबुजन्मेंदु पाटली मूल लेपनं कृत्वा, धि तलयोस्ताभ्यां संचरेदसिंचये
॥१४६॥ दर () तेल अंबुजन्य (कमल) इन्दु (कपूर) पाटली मूल (पांडुरफली) की जड़ का पावो के नीचे अर्थात् तलयों पर लेप करके उनसे अग्नि के समूह पर चले।
क्षेत केकक्षताद्भूते तचूर्ण विमिश्रिते वन्हि हिम, सम स्पर्शः स्यात्स्व स्यांतगगते सति
॥१४७॥ श्वेत केकक्षत (सफेद मोर के पंख्य) के चूर्ण को भूत (बहेड़ा) में मिलाकर लेप करने से अंदर गई हुई अग्नि का स्पर्श बर्फ के समान शीतल हो जाता है।
501510151215151015151 ८८४PISTRISTD35DISTRADITISDESI
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पिष्टेन दर तैलेन लिप्त हस्तौंबुजन्मना, यं स्पृशेत्पावकं सःस्याहिमशीकरशीतलः
॥ १४८ ॥
जो अंबुजन्म (कमल) को दर और तेल में पीसकर आग को छूता है तो आग का स्पर्श चंद्रमा समान शीतल लगता है।
लवणाहि दल सरसां करतल मनलो ज्वलं नदग्धुमलं, लक्ष्मी कुमारिकांभः सिक्तान्केशान् यथा दीपं
॥ १४९ ॥
लक्ष्मी (तुलसी) और कुमारिका (धृत कुमारी गंवार पाठा) के जल तथा लवण और अहि (वजी वक्ष) के पतों के रस से हाथों को पोतने से अग्रि नहीं जला सकती है जैसे दीपक से बालों को सेकते हैं।
दरतैलेन क्वथदपि सपिं सेतैलं स्पृशेन्निरारेकः, सिद्धेनाभ्यक्त कर: स्वर मूत्रैः सकदली कुसुमैः
॥ १५० ॥
केले के फूल गधे का मूत्र और दर और तेल को हाथो पर छूकर मलने से गरम तेल और घृत को छू सकता है।
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सुचिरं चर्विता दंतैः पावकाद भया भयं. नरस्टा रसनां रक्षेदास्याभ्यंतर संस्थिता
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ॐ यमई अमूक समय जल
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ट. ठः
लज्जरिकाभेक पलं कर लिप्तं स्तंभनं करोत्यग्रेः, कप्पर दिव्य स्तभयेदि सूंठी भक्षयेद्धीमान्
॥ १५१ ॥
लञ्जारिका (लजवंती) भेकपलं (मेंढक की चर्बी) को हाथों पर पोतने से अनि का स्तंभन होता है और यदि पुरुष सूंठ खाए तो दिव्य कर्पूर (हथियार) का स्तंभन होता है ।
॥ १५२ ॥
यदि पुरुष कपूर और सोंठ को खाता हुआ दांतों से बहुत देर तक चबाकर आग को मुँह में ले तो मुँह में रखी हुई उस औषधि के प्रभाव से उसका मुँह नहीं जले।
भक्षितः पिप्पली कामो मरिचेन समायुतः, अलं विधातुं स्तंभनादित्या क्षत दिव्ययोः
॥ १५३ ॥
पीपल काम (मेनफल ) काली मिरच को समान भाग खाने से सूर्य की किरणों की दिव्य तेजी का बिना हानि पहुँचाये स्तंभन करने में अलम (समर्थ) है । esPPSSPPSPS८६ PSPSP59SP59595
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SARASSISEDIS55 विधानुशासन PARISO150150501
ॐ नमो भगवते वारावे मर्दय मर्दय प्रमर्दय प्रमर्दय स्तंभा-स्तंभट हिरि-हिरि संहर-संहर ठाठः॥
साधितो लक्ष जाप्पेन मंत्रोट मातरिश्चनः,
अपां सं स्तंभनः सर्वे: मंत्रिमुरख्यैः प्रकीयते ||१५४ ।। यह यायुमंत्र एक लाख जप से सिद्ध होकर मारिश्वन (वायु) का स्तंभन करता है ऐसा मुख्य मंत्रियों ने कहा है।
मंत्रि तुलादि सं स्तंभ विधातुं यादि वांछति, भासस्यसुचिरं भूरि विदधीत निरोधनं
॥१५५॥ यदि कोई मंत्री तुला आदि का स्तंभन करना चाहता है तो उसे अपना वास सुचिर (बहुत लम्ब्ये समय) तक रोकना चाहिये।
जल मंडल मध्यगतो नित्याष्टकवेष्टितच नित्योयः,
आरव्या तन्मय गता तुला स्थितं दुष्टमग्निलंघो। ||१५६ ॥ जो जल मंडल केमध्य में नित्य (प) आट अक्षरों से वेष्टित (घिरा हुआ) हो उसके बीच में नाम वाला पुरुष तुला और दुष्ट अग्नि को लांघ जाता है।
अष्टदलावृतस्य कुलिश स्यांतः स्थितं ट्रैवेष्टितं नाम,
शुद्धस्यापि विद्यते गुरूत्वमभ्यासंग तुला स्थस्या ॥१५७ ॥ आठ दलों से घिरे हुए कुलिश (वज) के अंदर स्थित हैं से येष्टित नाम याले गुरुत्य (भारी) पुरुष भी तुला में बैठकर उसका स्तंभन करता है।
पिष्टेना कोल मूलेन विलिप्त स्व करो नरः, घटादि दिव्या मादध्या जुवजन विस्मितं
॥१५८॥ अंकोल की जड़ को पीसकर अपने हाथों पर लेप करने वाला पुरूष दिव्य घट आदि को रस्सी के समान अपने हाथों पर पुरुषों को आश्चर्य में डालता हुआ उठा लेता है।
गुलिकासस न तेन कृता शकृता वत्सस्य जात मात्रस्य,
जाध्या सर्व द्रवाटा द्विष दिव्टोकाले कालकूटमपि ॥१५९॥ तुरन्त के पैदा हुए गाय के बच्चे की शकृत (विष्टा) और नत (तगर) से बनाई हुई गोली को जग्ध्या (खानेसे) पुरुष कालकूट विष को भी खा सकता है। SSTRETRESIDISTRISTRI5T05[८८७PSTRISISTRICISTRIDDESI
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CASTOTRICISIOHDIRISTOTS विष्टानुशासन ISIOSISTRIOSISTOIES
नाम ग्लौमुवीपुर वं पं ग्लौं कार वेष्टितं कत्वा, ही का घपला विजाम युक्तं ततो लेरख्या
॥१६॥
ॐ मुचिष्ट पद स्याग्रे स्वछंद पटमा लिरवेत्, ततश्चांडालिनी स्वाहा टांत युग्मक वेष्टितं
॥१६१॥
पथ्वी वलयं दत्वा पुरोक्त मंत्रेण वेष्टितं कत्वा, रजनि हरितालाौ भूनें विधिनान्वितं विलिरवेत्
॥१६२॥
तत्कुलालकर मृतिकावते तोय पूरित पटे विनिक्षिपेत्,
पार्श्वनाथ मुपरिस्थमचर्य दिव्य रोधन विधान मुत्तमं ॥१६३ ।। संस्कृत टीका :नाम देवदत्त नामा तन्नामोपरि ग्लौंकारं उद्मपुरं तदुपरि पृथ्वी मंडलं वं पं ग्लौंकारं वेष्टितं कृत्वा उवींपुर वहि प्रदेशे वं वकारं पं पकारो परिग्लौंकारं एतैरवस्त्रयैर्वेटनं कारयित्वा ह्रीकार चर्तुवलयतं दक्षर त्रयाणां वहि ह्रींकार वेष्टने चर्तुवलयं कथं भूर्त स्वनाम युक्तं तत ह्रींकारं स्वकीय नामान्वितं ततः स्तस्मिन ह्रींकारा न लेख्यं लेखनीयं॥
ॐॐ मित्यक्षरं उच्चिष्ट उच्चिष्टेतिपदं अग्रे उचिष्ट पदस्याग्रेस्वछंदपदं स्वच्छंदेति पदं आलिरवेत् समंतांलिरवेत्ततधांडालिनीस्वाहा-ततःस्वच्छंद पदानचांडालिनी स्वाहेतिपदंएवं मंत्रोद्धार:उच्चिष्टं स्वच्छंदचाडालिनी स्वाहेतिमंत्रविन्यासःटांत युग्मक वेष्टितं ई उच्चिष्टेत्यादि मंत्र वलयानंतरं ठकार द्वितयेन वेष्टितं॥ पृथ्वी वलयं दत्या पुरोक्तमंत्रेण वेष्टोत्बाह्ये रजनी हरितालाटी:भूर्यविधिनान्विता विलिरवेत् पथ्वी वलयं दत्या टांत युग्मक बाहो पृथ्वी मंडलं दत्वा पुरोक्त मंत्रेण पूर्वोक्ता उं उच्चिष्टत्यादि मंत्रेण वेष्टोत् वेष्टनं कुर्यात् बाह्ये पय्वी मंडल वहि: प्रदेशे रजनी हरितालाौः हरिद्रा गोदंतादि पीत द्रव्यैः क भूखें भूर्ये पत्रे विधिना यथा विधानेन अन्वितः युक्तं विलिवेत् विशेषण लिरवेत् । तत् तद् यंत्रं कुलालकर मृतिका वृतां कुंभकार कराग्र मृतस्त्रा आवेष्टितं तोयंपूरितपटे जल परिपूर्ण नव कुंभे विनिक्षिपेत् निक्षिपेत् पार्श्वनाथं श्री पार्श्वभट्टारकं कथं भूतं उपरिस्थं तत कुंभ स्टो परिस्थितं अचयेत् पूजयेत् दिव्योधन विधानं अनल दिव्य स्तंभन विधानं
उत्तमं श्रेष्ठं दिव्य स्तंभन यंत्रं ॥ CASEASTRI51055015TOTERSIZ८८PISTRI5015015TOTSTRISADSH
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STORTOISTRISTISIT5 विधानुशासन 950152STROPERTS
हिन्दी टीकाःएक मंडल बनाकर उसके बीच में देवदत्त अर्थात् अपना नाम लिखकर बाहर ग्लौं। लिखें इसके बाहर पृथ्वी मंडल बनावे इनको वं पं ग्लों से वेष्टित करे इनके बाहर अपने नाम सहित ह्रींकार चार वलय वाला बनावे। इसके बाहर ॐ उच्चिष्ट स्वछंद चांडालिनी स्वाहा मंत्र का वेष्टन करे इसके बाद दो बार 7 अक्षर का वेष्टन करे। इसके बाहर पृथ्वी मंडल बनावे तथा उपरोक्त मंत्र से वेष्टित मंत्र से वेष्टित करें। यह यंत्र कुंकम हल्दी हरताल आदि पीले द्रव्यों से विधिपूर्वक भोजपत्र पर लिखे।उस यंत्र को कुम्हार के हाथ की मिट्टी से लपेटे और जल से भरे हुए नये घड़ में यंत्र रखकर उसके ऊपर पार्श्वनाथजी भगवान को दिर:जमान करने की पता को यह दिव्य अग्नि को स्तंभन करने वाला यंत्र
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नामालिख्य प्रतीतं कपर पुट गतं टांत वेष्टयं चतुर्भिः, बजे विद्धं कुतं कुलिशं विबरंग वाम बीजं तदग्रे
1 विधानुशासन 2596959955
॥ १६५ ॥
वज्रेश्चान्योन्य विद्धं ह्य परिलिख वहि जिष्णुनात्रिः परीतं, सज्योतिश्चंद्र बिन्दु हरि कमल जयो स्तंभ बिंदुर्लकारे नाम को प्रतीत (प्रकाशित) कपर (ख) की पुट में लिखकर टांत (टकार) से वेष्टित करें। इसको चारों तरफ से बजाकार रेखाओं से बींधकर वज्र (कुलिश) के विवर (छेद) के आगे वाम बीज (ॐ) उसके आगे परस्पर बिंधे हुए वज्र लिखे और जिष्णु (ॐ) के वहि (बाहर) ज्योति (ई) को चन्द्रबिन्दु (अनुस्वार) सहित तीन बार मंडल परीत (घिरी हुई) बनाये जो हरिकमल जयो (खां) बीज स्तंभ बीज (ग्लौं ) और बिन्दु लकार सहित हो
तालेन शिला संपुट लिखितं परिवेष्टां पीत सूत्रेण, दिव्य गति सैन्य जिव्हा क्रोधं स्तंभयति कृत पूजां
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॥ १६६ ॥
इस यंत्र को हरताल से दो शिलाओं के संपुट में लिखकर दोनों यंत्रों का मुख मिलाकर पीले धागे से लपेटे और पूजा करने से दिव्य गति सेना जिव्हा और क्रोध का स्तंभन करता है।
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॥ १६४ ॥
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S5I05PISRTERTS875 विधानुशासन ASDISTRISTRISTRASICS
कल्किततैदर तैलने समंगोपोदका जटेभवे, तां हस्त संलिप्ते सर्वदिव्य जयावहे
॥१६७॥ उपोद (पोई) की जड़ के कल्क को बराबर दर() तेल को हाथों पर पोत लेने से सब दिव्य वस्तु जीती जाती हैं।
ॐ सोम सुधा पुरतो दत्वा मृत वाहिनी पदं स्वाहा,
गृह दाहस्टोपशमः सौवीरै एरंड पत्रे स्यात् ॥१६८॥ ॐ सोम (वीं) सुधा (दवीं) के आगे अमृतवाहिनी पद देकर स्वाहा सहित मंत्र को सौवीर (बेर) और एरंड के पत्र पर लिखने से जलता हुआ घर ठण्डा हो जाता है।
कुमारी कृष्णा धत्तूर मूल पत्रं निशां तथा, समभाग हतै दिव्य स्तंभ स्यादुपदेशतः
॥१६९॥ कुमारी (गंयार पाटा) काले धतूरे की जड़ और पत्तों तथा निशा (हल्दी) को बराबर लेने से दिव्य स्तंभन होता है ऐसा उपदेश है।
केनापिकते स्तंभ तद्विच्छेदनं करोत्वमुना, मंत्रेण मंत्र वादी हस्वाक्षीमांत बीज युजा
॥ १७०॥ यदि किसी दूसरे ने स्तंभन कर दिया हो तो मंत्री इस मंत्र से उसका छेदन करे । हस्व क्षीमांत बीज()
ब्रह्म ग्लौंकारं पुटं टांत वृतमष्ट वन संरुद्धं, वामं यजागृ गतं तदंतरे रांत बीजं च
॥ १७१।।
उबीं पुरमथवाह्ये दिक्षु क्रौं ह्रीं विदिक्षु संविलिरवेत्,
रजनी हरितालाटो: कुरुते मनुजेप्सित स्तंभं ॥१७२ ।। ॐग्लौं कौं ह्रीं सर्वदुष्ट प्रदुष्टानां कोधादि स्तंभनं कुरूकुरू ठाठः॥ मंत्रः नाम के चारों तरफ ब्रह्म (ॐ) और ग्लौं का संपुट लिखकर उसे टांत (ठकार) से येष्टित (धेर) करके उसे आठ वजों से घेर, वजों के आगे भाग पर (वाम) 3 और अंतराल में रांत (ल) बीज लिखें। उसकी दिशाओं में क्रौं और विदिशाओं में ह्रीं लिखकर बाहर उर्वी (पृथ्वी) पुर (मंडल) बनावे । इसको हल्दी रजनी और हरताल आदि से लिखने से यह मनुष्य का इच्छित स्तंभन करता है। CADRISTOISIRIDIDISTRI5T015 ८९१ PDSRPISSISTD505
Page #898
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CRICKETSHAKRISHISHEK PAarनुशासन 351STERSTORTOISEASE
क्षिं
ही
माहेन्द्र मंडले साध्यमोंकार द्वितटो दरे, लिरवेद्रोचनया भूज़ भूमिस्थं स्वेष्ट रोधनं
॥१७३।। माहेन्द्र मंडल के अंदर साध्य के नाम को दो ॐ के अंदर गोरोचन से भोजपत्र लिखकर उसे भूमि में गाड़ने से अपने इष्ट को रोके।
क्ष मठ स ह पल्लव वर्णान मलवरयूंकार संयुतान् विलिरखेत अष्ट दलेषु क्रमशो नाम ग्लौंकर्णिका मध्ये ॥१७४ ।।
मंत्रभ्यामा वेष्टयं वाह्यं भूमंडलेन सं वेष्टयं, कंकम हरितालायै विलिवेदात्मप्सित स्तंभ
॥१७५॥ ॐ नमो भैरवी अग्नि स्तंभनि पंच दिव्यो तारिणी श्रेटास्करी ज्वल- ज्वल प्रज्वल- प्रज्वल सर्व कामार्थ साधिनी स्वाहा।
ॐ अनल पिंगलोर्ट ॐ केशिनि दिव्याधि पतये स्वाहा ॥ आवेष्टन मंत्री ಇಂಡಡಡಡ (336ಥವಾಡದ
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2/52/525959595! Rungyiza Y505PS25ESEA
क्षमसह पल व वर्णों में मलवरयूँ मिलाकर आठ कमल के दलों में लिख कर्णिका में ग्लौं के अन्दर नाम लिखे। फिर दोनों मंत्रो से वेष्टित करे इसको बाहर पृथ्वी मंडल से वेष्टित करें, कुंकुम हरताल आदि से लिखे तो अपनी इच्छा किये हुए का स्थभन होवे ।
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पतये अग्नि
स्तंपनि
स्वाहा ।
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प्रज्वल
पिंगलाद
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श्रेयस्करी ज्वल
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ॐ
ब्रह्म ग्लौंकार पुटं टांता वृतमष्ट वज्र सं रूद्रं. वामं वज्राय गतं तदंतरे रांत बीजं च
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॥ १७६ ॥
वात्ताली मंत्र वृत्तं वाह्येष्टौ विन्यसेत् क्रमशः, मलवरयूंकार समेता न क्ष ष मठ स हरांत लांता स्तान् ॥ ९७७ ॥ ॐ वार्ताली वाराही वराह मुखी जंभे जंभिनि स्थंभ स्थभिनि अंधे अंधिनि रुंधे धनि सर्वदुष्ट प्रदुष्टानां क्रोधं लिलिमितिं लिलि गतिं लिलि जिव्हां लिलि ठठठ ॥
अर्थ वार्तालि मंत्र ब्रह्म ग्लौंकारपुटं उंकारं पुटग्लॉकारं पुटमिति द्वयं कथं भूतं टांता वृतं ठकारारा वृतं पुनः कथं भूतं अष्ट वज्र संरुद्धं वज्राष्टकै सम्यग् रुद्धं वामं वज्राग्र गतं उकारं वज्राणामग्र स्थितं तदंतरे तद्वज्रांतराले रांत बीदं च रकार स्यांत: संत:
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लकार: स एव बीजं रांत बीजं लमिति च समुच्चये वार्ताली मंत्र वृतं वज्राणां वहिः प्रदेशे वार्ताली मंत्रेणा वेष्टितं वाह्ये मंत्र वेष्टन वहिः प्रदेशे अष्टो दिक्षु अष्टा सु दिशासु विन्यसेत् विशिषेण स्थापयेत् कथं क्रमशः क्रम परिपाद्या मलवरयूंकार समेतान मश्च लश्च वश्च रश्च यूंकारश्चान मलवयूंकार समेतान कान क्ष म ठ स ह परो रांत लांता तान क्षश्च मश्च ठश्च सश्च हश्व पराः पकारात्परः फकार फश्च रांत स्कारस्यातः लकारः लच लांत लगयतः वकारः सह परांत लांतास्तान क्ष मठ सह परी रांत लांता तान एवं क्षम्ल्वर्यू म्मल्वर्यू स्मत्वर्यू हल्चयूं फम्ल्वयूं मल्च ग्ल्वर्यू एतान अष्ट पिंडान वार्ताली मंत्र वाह्ये प्राच्यादि अष्ट सु दिशासु क्रमेण न्यसेत् ॥
इस यंत्र में देवदत्त के नाम लिखकर ॐ का संपुट बनाये, फिर ग्लौं का संपुट बनाये फिर ठकार से वेष्टित करके मिले हुए अक्षर लिखे । इसके पीछे आठ दिशाओं में आठ वज्रों से वेष्टित करें। वज्र के आगे अर्थात् यंत्र के बीच में ॐ बीज वज्र के आगे अंतराल में ल बीज रखे। वज्रों के बाहर आठ दिशाओं वार्ताली मंत्र को लिखे और बाहर आठों दिशाओं में निम्न लिखित आठ पिडांक्षरों को लिखें क्ष्म् म्म्र्यू ठुम्र्यू क्यूँ हम्र्यू फर्च्यू म्र्यू क्र्यू ।
वाह्ये मरपुर परिवृतमंकुश रुद्धं करोतु, तद्वाद्ये उक्षेश मंत्रवेष्टयं पृथ्वीपुर संपुट वाह्ये
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वाह्ये तत्पिंडाष्टक वहिः प्रदेशे अमरपुर परिवृतं इन्द्रपुरेण समंतादहतं अकुंश रुद्धं करोतु तत् तदिन्द्रपुर चतुर्द्वारोभय पार्श्वेक्रौंकार रूद्धं उक्षेश मंत्र वेष्टयं उक्षां वृषभः तस्य दृशः स्वामी श्री वृषभनाथः तस्य मंत्र उक्षेश मंत्रः तेन वेष्टयं उक्षेश मंत्र वेष्टयां तद अमरपुर वहिः प्रदेशे उ क्षेश मंत्रेणा वेष्टयं पृथ्वीपुर संपुटे वाह्यं तदुक्षेश मंत्र वलय वाह्ये पृथ्वी मंडल संपुटं कुर्यात् ॥
उक्षेश मंत्रोद्धार
ॐ नमो भयवदोरसि हरस तस्स फडिणि मितेण चरण पणत्त इंदेण भणामई टामेण उपाडिया जहि कंठोठ मुह तालुय स्वीलियाणमई भसई मई हसई दुट्ठ दिट्ठीण वज्ज संवलाण देवदत्तस्स मण हिययं कोहं जिव्हा रवीलिया मेल खीलयाये ल ल ल ल
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उक्षेस मंत्रीयं कोणेष्वष्टसु विलिरवेद्वात्ताली मंत्र भणित जंभादिन ठ द्वितीटा,
धरणपुर मीदृशा मिदमा लिरवेत् प्राज्ञः ॥ १७९ ।। कोणेष्वष्टम् उक्षेश मंत्र वलय वहिरष्ट दिशासु विलिरवेत् विलिरवत् विशेषेण लिरवेत् कान वार्ताली मंत्र भणित जभादनि वार्ताली मंत्राटांतरे कथित जंभावष्ट देवतान ।।
ॐजंभे स्वाहा ॐ जंभिणि स्वाह ॐ स्तंभेस्वाहा ॐ स्तंभिनिस्वाहाॐ अंधेस्वाहा ॐ अंधिनि स्वाहा ॐ रुये स्वाहा ॐ रूधिनी स्वाहा || इत्यष्ट देवताः
प्राच्यादिष्वष्टंसु दिशासुक्रमेणस्थाप्पा:ठद्वितीयं जंभादि देवता वहि:प्रदेशे ठकार द्वितीटां धरणीपुरं ठकार वहि: प्रदेशे पृथ्वी मंडलं इंदशं यंत्रं अनेन कथित प्रकारेण इद एतद्वातालीभिधानं यंत्रं प्रालिरवेत् समंता लिरवेत् कः प्राज्ञः बुद्धिमानः॥
फलके शिलातले वा हरिताल मनः शिलादिभि लिरिवतं,
कोप गति सैन्य जिव्हा स्तंभं विदधाति विधियुक्तं ॥१८० ।। फलके काष्ट कृत फलके शिला तले वा अथवा पाषाण पट्टे वा हरिताल मनः शिलादिभि हरिताल मनः शिलादि पीत द्रव्यै लिरिवतं अलिरिवतं कोप गति सैन्य जिव्हा स्तंभ कोप स्तंभं गति स्तंभं सैन्य स्तंभ जिल्हा स्तंभं विदधाति विशेषण करोति कथं विधियुक्तं यथा विधान युक्ते सति ।।
वार्ताली यंत्रोद्धार समाप्तः बाहर उन आठों पिंडादारों के अमरपुरी इंद्रपुरी से वेष्टित करे। उनके द्वार को अंकुश बीज (क्रौं) निरोध कर देना चाहिये। फिर उसके चारों तरफ उक्षेश मंत्र ऋषभनाथ जी के मंत्र से वेष्टित करके पृथ्वी मंडल का संपुट बनाये |ऋषभनाथजी के मंत्र के बाहर आठों कोणों में वार्ताली मंत्र में बतलाई हुई जंभादि आठ देवियों को लिखें ।उससे अमले कोछक को ठकार से भरककर पृथ्वी मंडल बनाकर यंत्र समाप्त करे। बुद्धिमान के द्वारा यह यंत्र काठ की तख्ती पर पत्थर की शिला पर हरताल मेनसिल आदि पीले द्रव्यों से विधिपूर्वक लिखा जाने पर शत्रु की क्रोध गति सैन्य और जिव्हा का स्तंभन करता है। OSTEISEXSTOISEXSTO50351८९५PISTORISEXSTORSRISTORY
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कारो बिंदु संयुक्तः स्तंभकृत्पृथ्वी पुरो, अंभपुर गतः शांति कुरुते कुंकुमादिना
॥ १८९ ॥
बिंदु सहित क्षकार को पृथ्वी मंडल में लिखने से स्तंभन करता है तथा जल मंडल में कुंकुम आदि से लिखने से शांति करता है।
माहेन्द्र मंडले साध्यमकार द्वितीय दरे, लिखेद्रोचनयाभूर्जे भूमिकथं स्वष्टं रोधनं
॥ १८२ ॥
महेंद्र मंडल में साध्य को दो कारों में गोरोचन से भोजपत्र पर लिखकर पृथ्वी में गाड़ने से इच्छित
का स्तंभन करता है।
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वाह्ये बिन्दु त्रिदेहं तदनुलिखित दंतश्च लिंतस्य ॥ १८३ ॥
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भांतःग्लौंदद्यान्नाम गर्भ कुलिश युगल विद्धं ततस्त द्वि दिक्षु रांतं, वजांतराले वलयितमथे तत् स्वेन मंत्रेण वाद्ये ॥१८४ ॥
ॐवज क्रोधायज्वल ज्वल ज्वालामालिनी हीं क्लीं ब्लूंद्रां द्रीं हां ही हूं हौं हाहन हन दह दह पच पच विध्वंसय विध्वंसय उत्कृष्ट क्रोधाय स्वाहा ॥ आवेष्टन मंत्र
यंत्र मिदं भुवि फलके कुंज्ये भूज विलिरव्य तालेन,
मंत्रेण पूजितं सत् कुस्यात् हृदयेप्सितं स्तंभं ॥१८५।। नौ बजाकार रेखा बनाकर प्रत्येक में आठ आठ कोठे बनाकर कुल चौसठ कोठे बनाये। उनमें से प्रथम कोठे में चारों तरफ ॐ लिखे, फिर हीं , और फिर ली, और फिर भांत (म) लिखें। बीच के स्थान में दो वजों से भिंधे हुये नाम को ग्लौं को बीच में लिखे, उसकी विदिशा में रात बीज (ल) को लिख देवे। अतंराल में वन लिखें। इसके बाहर चारों तरफ निम्न लिखित मंत्र लिखें। "ॐ बज क्रोधाय ज्वल ज्वल ज्वालामालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः हन हन दह दह पच पच यिध्यंसय विध्वंसय उत्कृष्ट क्रोधाय स्वाहा ।" इस यंत्र को पृथ्वी पर कुज्य (घड़े पर अथवा भोजपत्र पर हरताल से लिखकर और उपरोक्त मंत्र से पूजन करने से इच्छानुसार स्तंभन करताहै।
मर्त्य वकरोत्थि नाम वेष्टय रोद्रांत सांततः लांतेन, ग्लौं क्षि बीजेन क्षीं लीं दिशि विदिश्यपि
॥१८६॥
लिरवेत् उवीं पुरं वाह्य तदग्रे कुलिशा हतं ई, जिव्हा स्तंभिनि स्वाहा मंत्रेणाचन मारभेत
॥१८७॥
जिव्हा क्रोध गति स्तंभ मातनोत्य विकल्पतः, स्वटिकान्न निशा: पिष्टा तालिरिवतं पटे
॥१८८॥ मनुष्य के मुख से मिकले हुए नाम को रांत (ल) सांत (ह) लांत (व) ग्लौं और क्षि बीज से वेष्टन करें, फिर उसकी दिशाओं में क्षीं और विदिशाओं में लीं लिखें । फिर बाहर बन सहित पृथ्वी मंडल लिखें। इस मंत्र का ईजिव्हा स्तंभिनी मंत्र से पूजन करें। यह मंत्र सामान्य रूप से जिव्हा क्रोधऔर गति का स्तभन करता है इस मंत्र को यडिया अन्न और हल्दी को पीसकर उसकी बत्ती बनाकर वस्त्र पर लिखें। C OISTORICHIDISTRICTETD ८९८PASTERSTIOTSIDASIRISEASICISI
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नामालिख्य मनुष्टा वक्त्र विवरं तद्रांत सांतावतं, लांत नौं त्रिशीर तेषितम तःकोणस्थ लं बीजकं ॥१८९॥
दिकस्थंक्षी धरणी तलं च विनयं जिव्हा स्थभिनी,
होम सन्मंत्रेणार्चित मातनोति गति जिव्हा क्रोधक स्तंभनं ॥१९०|| मन व्य के कपड़े (वका ) पर नाम को क्रम से रांत (ल) सांत (ह) से वृत (घेर) कर फिर लांत (व) ग्लौं और त्रिशरीर (ही) और गोल (विवर) रेखा से वेष्टित करें। फिर धरणीतल (पृथ्वी मंडल) बनाकर कोणों में लं बीज तथा दिशाओं में शिं लिखें । फिर विनय ई जिव्हा स्तंभिनि क्षि स्वाहा इस मंत्र से पूजने से गति और क्रोध का स्तंभन होता है।
उदन रजनी वटिका सं पिष्प तदीय वर्तिका लिरिवतं,
रांत्र मिदं पाषाणे तत्पिहितं स्वेष्ट सिद्धकरं ॥१९१ ॥ उदन (चावल) रजनी (हल्दी) खटिका (खडिया) को पीसकर उसकी बत्ती से इस यंत्र को लिखकर पाषाण (पत्थर) से पिहित ( ढ़ककर) रखने से अपनी इच्छानुसार सिधि होती है।
दिनेन वारेण च नाम रूद्धं लूंचं पुटं ठ स्वर ठांत वेष्टना, उर्वी पुरं वज चतुष्कभिन्नं कोपादि रोट विदधाति यंत्रं ॥१९२।।
ॐलूं झं ठंलं स्वाहा ।। उसी दिन तथा बारव तिथि से नाम को वेष्टित करके, उसके पश्चात उसे लूं और झं के संपुट से घेर कर, फिर ठकार (ठ) से वेष्टित करके, सोलह स्वरों से वेष्टित करे, फिर टांत (ड) से वेष्टित करे, फिर चार यज़ो से बिंधे हुये पृथ्वीमंडल को बनाये तो यह यंत्र क्रोध आदि का स्तंभन करता है।
आक्रांत तिलक मध्या जयति निजा वाम तर्जन्वी,
क्षवथु हिक्कां भास निरोधं स्वागत वाचं हरेनाहता ॥१९३॥ इस यंत्र को तिल वृक्षा की लकड़ी पर अपनी बायें हाथ की तर्जनी अंगुली से लिखे तो क्ष व (जुखाम कम्प) हिला (हिचकी) तथा श्वास रोगों को रोकता है तथा बड़े लोगों से स्वागत के वचन कहलाता है तथा मारण को हरता है।
शाल्याक्षत सितपंकज बीजैरंध: सुसाधितं दुग्धं सपतं,
भुक्त क्षपोत द्वादश दिवसान वुभुक्षार्ति ॥१९४ ॥ शालि द्यायल और सफेद कमल के बीजों के अन्धस (भोजन) को घी सहित दूध का साधन व सेवन करने से बारह दिन तक रतक भूख का कष्ट नहीं होता है।
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जंबु शमी शिरीषोदंबर तरू बीज पूरजः पूरः, असितं घृतेन सहितं विनाशयेत् पक्षमशनायां
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समुद्रशोख बीजानि पलैकं संग्रहद्बुधः, द्विपलं कोकिलाख्यस्टा बीजं च पररिकीर्तितं
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जंबु (जामुन ) सिरस उदम्बर गूलर) और बिजौरे के बीजों के पूर (खाने) को घृत के साथ आशित (खाने) से एक पक्ष तक अशनाया (भूख) को नाश करती है।
परिभावितानि बहुशः पशु मूत्रे बीज पूर बीजानि पीतान्युष्णां भोभि: स्तंभ रागस्य कुर्यति
॥ १९६ ॥
पशु के मूत्र में बहुत बार भावना दिये हुए बिजोरे के बीजों को गरम जल से पीने से यह स्तंभन का कार्य करता है।
॥ १ ॥
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त्रिपल मर्कटी बीजं माष चूर्ण चतुष्पलं, त्रिजातकं च यष्टिं च फलं जात्यास्तकीर्तितं
॥२॥
प्रत्यकमष्ट निष्कं च सर्व संचूर्णोततः, वस्त्रेण गालितं कृत्वां चूर्णं सर्व समाहरेत्
॥३॥
॥४॥
तचूर्ण नाभि पक्के च नालिकेर फले क्षिपेत्, तन्मुखं तत्फलेनैव पिद्याय च विचक्षणं तत्फलं डोलिका यंत्रे वदध्वाक्षीराठके पचेत्, क्षीरशोषं यदा प्राप्तं तदा पाकः प्रजायते
स्वांग सीते च संजाते फलांतेः पिष्टिकां हरेत्, तत्समां शर्करा क्षित्वा क्षीरे संमेल्टा मर्द्धयेत्
॥६॥
कृत्वा चाक्ष प्रमाणेन वटिकान् शोषये ततः, शकरांत: प्रपूर्याध छायाटां गोपयेत् सुधी
॥७॥
वटिकां चैक मादाय क्षीर संलोडय पायोत्, कत्वा सुपाने पक्षातमुहूर्तों परि पारभेत्
॥८॥
सततं प्रौढ़ कामिन्यां वीर्य वृद्धिः कमाद्भवेत्, रवलितेपि दृढ़ा कारो जायते नात्र संशय
॥९॥ पंडित एक पल (चार तोले) समुद्र सोख के बीज दो पल कोकिज्यस्य बीज (तालमखाने) परिकीर्तत कहे गये हैं और तीन पल मर्कटी वीज (बानटी= कोंच के बीज) और माष (उड़द का चून) चार पल लेवे निजातकादालचीनी तेजपात इलायची) यष्टि(मुलैठी) और जातीफल (जायफल) कीर्तितं (कहे गये हैं। यह एक आठ निष्क (बत्तीस मासा) लेकर इन सबको चूर्ण करके उन सबको कपड़े से छानकर आहर (लेकर) रखे। इस सारे चूर्ण को नारियल के खोपरे केगोलों में छेद करके रखे। चतुराई से खोपरे के गोलों को खोपरे के टुकड़ों से उन छेदों को बन्द करे। उन गोलों को हिंडोला यंत्र के द्वारा आठ सेर दूध में पकाये । जब दूध गाढ़ा होकर सूखने जैसा होवे तब उन गोलों में से उस चूर्ण के पिंड को निकाल ले | उसके बराबर की शक्कर डालकर थोड़ा दूध में मिलाकर अच्छी तरह मथे। उसकी बहेड़ा के फल के बराबर गोलियाँ बनाकर छाया सूक करे, फिर उन पर शक्कर CHODRISTRISTOTSIRIDIOS९०२PISISRISEXSTO50351015
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SSIRISTRISRADRISTRIBY विद्यानुशासन 50ISTERISTRI5DIST की चासनी चढ़ाकर सुखालेवे इसमें से एक गोली लेकर दूध से पिलावे। उसको पीने से एक मूहुर्त (४८ मिनट) पीछे रति कार्य प्रारंभ करे। इसे निरन्तर प्रोढ़ा कामिनी का भोग करते हुये भी उसकी क्रम से वीर्य की वृद्धि होती है। वीर्य स्खलित होने पर भी दृढ़ा आकर रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं है।
दग्धमं कोल मूलं तु कप्पूर कुंकुमं निशा, रोचनं सहदेवी च समं सर्व प्रलेपयेत्
॥१॥
विषमुष्टिक तैलेन लिप्त लिंगो ह्येनेन, वैनरो नारी सहस्बैकं गच्छन वीर्य न मुंचति ।
॥२॥ जली हुयी अंकोल की जड़, कपूर, कुंकुम, हल्दी, गोरोचन, सहदेवी इन सबको बराबर लेकर विषमुष्टिक (कुचले) के तेल के साथ लिंग पर लेप करे तो पुरूष इस लेप से हजार स्त्रियों के पास जाने पर भी वीर्य नहीं छोड़ता है।
षड बिन्दुद्भय चूर्णेः रवर मंजराः शिफा समायुतौ,
दियेस कराल सत्य हो मीयः शुकः नवनवति (षड् बिन्दु) की जड का चूर्ण खर मंजरी (आंधी त्राड़ा) की जड़ समान भाग लार दिवस कर (आकड़ा) तूल (रुई) की बनाई हुई बत्ती का दीपक जलाने से वीर्य का स्तंभन करता है।
तुंडी मूसली निगुडी त्रिभुवन विजद्या हस्तिनी, घत मधुशर्कराभिगुटिकाभिः स्तंभन कुरुते
॥४॥ तुंडी() मूसली निर्गुडी त्रिभुवन विजया (भांग) हस्तिनी (इंद्रायण) घृत शहद शकर मिलाकर बनाई हुई गोली स्तंभन करती है।
कजली कृत सगंध सूतकं तुल्य भाग कनकस्य च बीजं , मईयेत् कनक तैल युतः स्यात् कामिनी जन विधुनन सूतः।।५।।
अस्य वल्ल युगलं स सितंवा सेवितं हरति मेह गदीये.
वीर्य पुषिटकरणं कमनीयं द्रावणे निधुबने वनितानां ॥६॥ शुद्ध गंधक और शुद्धपारद को बराबर लेकर कजली बनाकर इसके बराबर शुद्ध धतूरे के बीजों के चूर्ण को मिलाकर धतूरे के तेल के साथ घोटकर बनाई हुई दो गोली को शकर सहित सेवन करने से यह कामिनियों के मद को भंजन करता है यह लिंग के सब रोगों को नष्ट करता है वीर्य की अच्छी पुष्टि करताहै तथा स्त्रियों को (निधुवन ) संभोग में द्रावण करता है। CHECISIOSRIDESIRAISIS९०३PSESSISTRISTRESSIRIDESI
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सूत हेम भुजंगाभ्रयंगकाः कांत तार विपलाः समाक्षिकाः, भागवृद्धि मिलितां विमर्द्दिता धूर्त पत्र विजया सलिलेन
॥ २ ॥
सप्त सप्त चपलामृतवल्ली शाल्मली सुरसजालजतोयैः, वारिवाहा मधुयष्टिका वरी वानरी भुजंग यष्टयुदकेन अर्द्धभागमहिफेनक न्यासन् मासान्मर्द्दयेच्च सुर पुष्प रसेल, चंदनार्क करहाट पिप्पली श्रावणी कटुरसैः पृथगेव ॥३॥
कुंकुमैन च ततो विभावयेन्नाभि जाद्रवयुतो विमर्द्दयेत्, सिद्धिमेति रस राडयं शुभः कामिनी भदविधूनन दक्षः
॥ १॥
॥ ४ ॥
शर्करा मधुयुतो द्विभाषक: स्तंभ कृन्निधुवने वनितानां, संसेव्यः सूतेननु रात्रि भोज्यं कुर्वीत पेयं लघुमेव केवलं ॥५॥
तृतीय यामे रस सेवनं च कृत्वा निशायां प्रहरं व्यतीत्य, सेवेत कांता कमणीय गात्रां धन स्तनीमुज्वल चारू वस्त्रां ॥ ६ ॥
रतिस्तकां कतर लोल नेत्रा विशद विलोल हारावलिमादधाना, किं कामेन तु कामिनी मलयजेना वश्यकेना शुकिं किं चंद्रेण परेण ॥७ ॥
सहश्र सः संति यदा तरूणयो महालसा पीन पयोधरा ठताः, तदा रसेन्द्रः परिसेवनीयो विकारकारी भवती है नान्यथा
परोपलाएज हिना पुंस कोकिलेनाशुकिं किंचान्यै मधुभि वसंत, समये किं दीपनैः सूत राडित्येवं यदि सेव्यते किम परैः कोमापल विद्य प्रदैः
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॥ ९ ॥
सूत ( शुद्ध पारा ) हेम (सोना भस्म ) भुजंग (शीसा भस्म ) अभ्र (अभ्रक भस्म ) वंग ( राग की भस्म) तार (चांदी की भस्म) विपला (चादीमाक्षिक भस्म) माक्षिक ( सोना माटवी भस्म) को एक एक भाग बढ़ाकर लेवे। इनको मिलाकर धतूरे के पत्तों के रस में विजया (भांग) के सलिलेन (रसमें) सात सात भावना देकर घोटे । चपला (पीपल) अमृत वल्लि (गिलोय) शाल्मली (सेंमर की जड़ के रस में ) सुरसी (तुलसी के रस में) जलज तोय (कमल के फूल के रस में ) वारि याहा
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PSP59SPSPSS विधानुशासन 959595959595
(नागरमोथा के रस में ) मधुयष्टि (मुलेठी के रस में ) वरी (सतावरी के रस में ) बाजरी ( कोंच के बीजों के रस में ) भुजंगयष्टि (सर्पाक्षि) के उदक (जल) में भी सात सात भावना देवें इसके आधे भाग के बराबर अहि फेन (अमल) डालकर एक माह तक सुरपुष्प (लौंग) के रस में चंदन के कोठे
अकरकरा, पीपल, श्रावणी (मुंडी) कटुरसे (कायफल) के रस में अलग अलग भावना देकर घोटे | फिर कुंकुम (केशर के रस में ) और नाभिज (कस्तूरी) को द्रव करके (पानी से पीसकर ) घोटे | इस तरह तैयार किया हुआ यह रसराज श्रेष्ठ है। यह कामिनी के मद को विधुनन नष्ट करने में दक्ष (समर्थ) है। इस रसराज में से दो मासा भर शक्कर और शहद के साथ मिलाकर चाटने से संभोग में स्त्री रमण करने में स्तंभन करता है। इस रस का सेवन पर रात्रि में थोड़ा सा ही दूध का भोजन करे । रस सेवन करने के पीछे तीसरे पहर के खतम होने पर कांता (स्त्री) का सेवन करे, जो सुंदर वस्त्रों वाली हो मोटे स्तनों वाली हो, सुंदर (कमनीय) गात्र (शरीर) वाली हो और रति को उत्सुक हो, जिसकी आँखें व वाणी दोनों से उत्सुकता (विलोल) प्रगट हो विशद (बहुत सफेद) हार पहने हुए हो ऐसी स्त्री का सेवन करे। यदि इसप्रकार की स्त्री को सेवा मिल जावे तो फिर काम से क्या, स्त्री के चंद्रमा से क्या, अन्य आवश्यकताओं से क्या, ठंड देने वाले चंद्रमा से क्या, पुरूष कोयल से क्या, तथा मधुरूप वसंतऋतु से क्या, अथवा काम को उद्दीपन करने वाले और सेवन कराने वाले साधनों से क्या प्रयोजन है। यदि महान मद के आलस्य से भरी हुई तथा मोटे मोटे स्तनों से व्याप्त सहस्र तरुणी स्त्रियाँ हो तभी रसेंद्र का सेवन करना चाहिये अन्यथा यह विकार करने वाला रस होगा।
जाती फलार्क करहाट लवंग सुंठी कंकाल केसर कणा हरि चंदनं च, एतत्समान महिफेन समहिचाभ्रमत्युग्र काम जननं नहि बिंदु पातः
॥ १० ॥
जायफल अकरकरहा लोंग सूंठ कंकोल (शीतल मिरच) केशर कणा (पीपल) चंदन सब समान भाग इन सबके बराबर अफीम और सबके बराबर अभ्रक भस्म यह अत्यन्त काम को तेजी से उत्पन्न करता है और वीर्य क्षय नहीं होता है।
वरी विदारी वाराही गोक्षुरी क्षुरीक्षुर यष्टिका, अश्वगंधाक्षिति सुता माष मो चरसा ह्वया
प्रियालमज्जा खर्जूर नालिकेरफलानि च, वानरी बीज कदली द्राक्षा धात्री तिला समाः 05252525252505E-PS050
॥ १ ॥
॥ २ ॥
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95959595959SX विधानुशासन 9595959595
एभिः समांशा विजयातैः समांशा च शर्करा, कर्ष त्रयमिदं प्रातां तन्मधुना सह
दचैव रात्री सत रात्री पिवेन्नरः, क्लीयोपि वृषतो मेति किमेभिर्वहुभिर्गुणैः कंद शेखरोप नाम पूज्य पादेन भाषितः, योग्योयं परम पुंसा वाजीकरण मुत्तमं
गंधका भ्रक धतूर गरलानां चतुष्टये. तैलेनिः शेषमापाच्यमज गोक्षुर वाजिना मूत्रैश्चं पूर्ववत पद्यामातुलिंग फले क्षिपेत्, तद्वाधनं कृत्वा पुटयेत् स्वल्प मात्रकं
|| 3 ||
पश्चात् उद्धृत्यतद्भस्म समतैलेन योजयेत्, सूची मुख प्रमाणेन नागवेल्या समन्वितं
॥ ४ ॥
इति कंदर्फ शेखर पाकः
वरी (सतावरी) विदारी कंद वाराहीकंद गोखरू इक्षुर ( तालमखाना) क्षुर (गोखरू) यष्टि (मुलैठी) असगंध क्षितिसुता (पीपल) भाष (उड़द का चून) मोचरस अह्वय (नाम की औषधियाँ) प्रयाल (चारोली ) मजा() खर्जूर (छुवारा) नालिकेर (खोपरा) के फल वानरी कौंच के बीज बीजवंद कदली (कच्चा केला सुखाया हुआ) द्राक्षा (मुनक्का) धात्री (आँवला) तिल यह सब समान भाग और इनके बराबर विजया (भांग) और इन सबके बराबर शकर लेवे तीन तोला इसमें से प्रातः काल के समय शहद के साथ चाटे उसीप्रकार इसको रात के समय पय (दू)) के साथ सात रात तक पीवे तो नपुंसक भी वृषभ (बैल) के समान पुष्ट हो जाता है भला इसके बहुत से गुणों का क्या कहना है पूज्य पाद स्वामी ने इसका नाम कंदर्प शेखर पाक कहा है वह पुरुषों के योग्य अत्यंत उत्तम बाजीकरण है ।
॥५॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
इदं योज्यं सदा सेव्यं ततशैत्योपचारतः, वरस्य दडवद्भूता स्वदंडम निवारितं शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, धतूरे के बीज और गरल (वत्सनाभ विष शुद्ध किया हुआ) इन घारों को समान भाग में लेकर, तेल में पकाकर, बकरी गाय के खुर व घोड़े के मूत्र में पहले की तरह 95959/595959595९०६595959595959
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01505IDIEOSEX505 विधानुशासन V/5052501505OTI पकाकर, मातुलिंग (विजोर) के फल में पंखे विजौरे का मुख उसी से बंद करके, थोड़े से उपलों की अग्नि में पुट देकर, उस भस्म को उसमें से निकाल कर, बराबर के तेल में मिलावे । इसमें से सुई के मुख पर आने लायक थोड़ी मात्रा में नागर बेल के पान में खावे इस योग को सदा सेवन करे । तथा ऊपर शीतल चीजों का प्रयोग करे तो पुरूष का मेहन गधे के समान बड़ा य दंड के समान निवारण होने वाला बन जाता है।
विज्ञातो चोर सेनादिकानां संस्तंभार्थः संविधान प्रपंचः,
रो नाशेषो मंत्रिणा तस्य लोके किं किंचिन्नैवा साधनीयं समास्ति ॥५॥ इसप्रकार जो पुरुष चोर सेना आदि के स्तंभन को विधिपूर्वक जानता है उसके लिये लोक में कुछ भी असाध्य नहीं है।
एतत् क्षुद्र त्रितयम शुभ मंत्रिणोच्चाटनोद्यं, प्रोक्तं कार्य त्रिभुवनमिदं रक्षतः सर्वदुःश्यात्
॥६॥
धर्मस्योपद् वमतितरां कोपि जैनस्य, कुर्वन्नधित् शक्यो दिमिरिया गिग्रहीतुं
॥ ७॥ यदि मंत्री के द्वारा किये हुवे इस उद्याटन आदि तीन कर्मक्षुद्र और अशुभ को करते हुए तीन लोक के सय दुःखों से रक्षा करते हुए जैन देवता का तथा धर्म के ऊपर उपद्रव होने से क्रोध बढ़ जाये तो उसको कोई नहीं दबा सकता है।
अथ प्रशांते सतितत् क्षण कर्तस्मिन् उपद्रवे तत्क्षणमेव मेव मंत्री,
तत्पाप शांत्यै विविधानि कुर्यात् पुन्यानि कम्माणि बहूनि भूयः॥ ८॥ मंत्री इस उपद्रव के शांत होने पर उसी क्षण उसकी शांति के लिए अनेक प्रकार के पुण्य कर्मों को बार बार करे।
इति एकोनविंश समुद्देश:
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CTERISTRITICISTRATION विद्यानुशासन PADRISTOTSTRISTRISTRASI
| श्री पार्श्वनाथाय नमः |
अथः शांतिं प्रवक्ष्यामि यद्विधानाम्नपस्य च
प्रजादीनां प्रशाम्यति रोग भारिरिपु ग्रहाः अब उस शांति विधान का वर्णन किया जाता है जिसके प्रभाव से राजा और प्रजा के रोग भारी शत्रु और ग्रह की शांति होती है।
वोऽत्र सर्व शांत्यर्थ सप्तनीरांजनानि च, ग्रह शांतिं च बंधेन वद्रस्य च विमोक्षणं
॥२॥ इस संबंध में यहाँ सब कार्यों की शांति के वास्ते सात नीरांजन (आरती) ग्रहों की शांति और बंधन से छुड़ाए जाने वाले उपायों का वर्णन किया जाएगा!
अधारमेत साध्यस्य शुभ तारोदयादिषु, अनुकुलेषु सर्वेषु सर्वशांति क्रियां गुरुः
॥३॥ गुरु साध्य के उत्तम नक्षत्र आदि के उदय तथा सब ग्रहो के अनुकुल होने पर सर्व शांति की क्रिया को आरंभ करें।
शांति भट्टारक मानबलिदान पुरस्सरः, होम संपन्नं टांत्र धारणं चेति सा मता
॥४॥ शांतिनाथ भट्टारक (भगवान) का अभिषेक बलिदान होम स्नान कराना और यंत्र धारण करने की क्रिया शांति क्रिया है।
आदौ शांति जिनेन्द्रस्य कारयेन्मंगलोत्तम,
महाऽभिषेकमाचार्य: महा चरुकं संयुतं आचार्य आदि में महान नैवेद्य लिए हुए शांतिनाथ भगवान के उत्तम मंगल वाले महान अभिषेक को कराए।
कल्पटो द्विधि बद्भूमौ शद्धायां शुम दारुभिः, अष्ट हस्त प्रमायाम विस्तारं होम मंडपं
॥६॥ फिर श्रुद्ध भूमि में उत्तम लकड़ियों से आठ हाथ लम्बा चौड़ा होम का मंडप विधिपूर्वक बनावाएं।
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SOROSPINIORAIPAST विधानुशासन 1501505IDISEAS1815
तस्या द्वाराणि चत्वारि कारयन्मकरांकितैः, तोरणै जमाना निवद्ध चंदन मालिकैः
॥७॥ उनके मकर के चिन्ह वाले चार द्वार बनाकर उनके ऊपर शोभा देनेवाले चंदन की मालाओं की तोरण बांधे।
सुरभे नाति वृद्धायाः सवत्साया: सुलक्षणं, दद्यत्या कपिल छायं निरोगं निव्रणं वपुः
॥८॥
पावनैः पंचमि गव्टीजिये द्विजकन्यया, जडयां स्नात या श्वेत वस्त्रालंकारादी प्रया
॥९॥ बच्चे वाली अच्छे लक्षणों से युक्त (सुरभि) गाय,जो ज्यादा बूढ़ी नहीं हो, बिना धाव के शरीर वाली हो, निरोगी हो, जो कपिल रंग की हो उस गाय के पवित्र पंच गव्य (घी, दूध, गोबर, और गोमूत्र दही) से उस भूमि को स्नान की हुई सफेद वस्त्रों और अलंकारों से सजी हुई पवित्र द्विज की कन्या से साफ कराए।
ततः सता सरि तीर द्वितखो पातया मदा, माजयेद्वामलराणां सतानां मत्स्न तत
॥१०॥ फिर उस मंड़प को नदी के किनारे की मिट्टी और (वामलूरी) चींटियों द्वारा बनाई हुई पहाड़ी को मिट्टी से भी साफ कराएं।
दर्भ पूलाग्र संलग्र ज्वल ज्वालावलीभता, परितो हय वाहन मंत्र वित्तद्वि शोधयेत
॥११॥ मंत्री फिर उसको भी दर्भ (कुश) के तिनके के अग्र भाग में लगी हुई अग्नि की लपटों के द्वारा (परितो) चारों तरफ से दुबारा (हय वाहन) घोड़ों का हाँकने की जगह को मिट्टी से शुद्ध करे।
षष्टे षष्टि सहस्त्राणां नागानां चरितां भुवि, तद्दाह शांतये सिंचेत्तेनात्र ममताजलिं
॥१२॥ फिर पृथ्वी में चलने वाले छियासठ हजार नागों के दाह को शांत करने के वास्ते अमृतांजली से सिंचन करे।
सुप्रसिद्धसरित तीर्था सुदुपातैवारिभिः शुभैः, कपिला गोमये नापि विदध्यात्तस्टा मार्जनं
॥१३॥ CHRISIOSS10150151955005९०९PSDISTOISIOSDIHIDISTRISI
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SPSPS93
विधानुशासन
PPP एड
फिर उसको बड़ी प्रसिद्ध तीर्थ रूप नदी से लाए हुए उत्तम जल और कपिल गाय के गोबर से भी शुद्ध करें।
ततो गंधोदकैः सांद्र चंदना क्षोद में दुरै:, विद्यतं मंडपं सिंचेत् शुद्धि मंत्राभि मंत्रितैः
॥ १४ ॥
फिर उस मंड़प को शुद्ध मंत्रो से अभिमंत्रित चंदन कूट में दूर (काकोली) आदि सहित गंधोदक से सिंचन करके धोए ।
परिभाषा समुदेशे समुदिष्टेन लक्षणात्, तन्मध्ये कारयेत् कुंडं शांति होमं क्रियोचिंत
।। १५ ।।
उसके पश्चात् उसके बीच में परिभाषा परिच्छेद में कहे हुए लक्षणों के अनुसार शांति के होम की क्रिया के योग्य होम कुंड को बनाए ।
मंडपे तत्रतं कुंड़ मपरेण प्रकल्पयेत् उपर्युपरि पीठानि वृत्तानि त्रीणि मंत्रवित्
मंडप में उस कुंड से थोड़ी दूर गोल गोल तीन पीठ मंत्री बनवाए।
॥ १६ ॥
एक हस्तोर्द्ध हस्तश्च द्वि पादश्च तदुच्छ्रितिः द्विहस्त सार्द्ध हस्तक हस्तास्ति द्विस्तृतिः क्रमात्
॥ १७ ॥
उन पीठों की ऊँचाई क्रम से पहले की एक हाथ दूसरे की आधा हाथ और तीसरे की (दोपाद) चौथाई हाथ की हो, उन पीठों की चौड़ाई दो हाथ डेढ़ हाथ और एक हाथ हो ।
दधानस्योतमांगेन धर्म चक्रं स्फुरद्युतिः,
अर्चा सर्वान्ह राक्षस्य च तस्त्र कारयेत् सुधीः
॥ १८ ॥
पंडित पुरुष अपने उत्तम अंग अर्थात सिर पर प्रकाशित कांति के धर्म चक्र को धारण करने वाले सर्वान्ह यक्ष का पूजन कराए।
तेषा माद्यस्य पीठस्य महादिक्षु यथा विधिः, ताः शुभा स्थापयेन्मंत्री समंतादर्चयेत्ततः
॥ १९ ॥
फिर मंत्री उन पीठों में से पहले पीठ की चारों ओर की दिशाओं में उन उत्तम की स्थापना करके उनका पूजन करे।
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OADIERSICKETORSTOISTORC विधानुशासन SHOIDSSIASTERTICISION
सक सिंहे भे वषां भोज व्योम हंस गरुत्मतां,
आकारैलिरिवतैः स्थाप्याः समुपेताः पताकिकाः ॥२०॥ फिर वहाँ पर (क) माला सिंह (इभ) हाथी (वृष) बैल (अंभोज) कमल (व्योम) आकाश हंस गुरुवात कराड़ के ED *क साकको रा.पि:: का।
सूरिदितय पीठस्य महादिक्षु पथक पटक, बानी यादष्ट तत्पीठ प्राचये च्य समंततः
॥ २१ ॥ आचार्य इस पताकों को दूसरे पीठ की आठों दिशाओं में पृथक पृथक बांध कर फिर उसका पूजन करे।
अंत्यस्थी परि पीठस्य कल्पो लोचन प्रियां, श्रीमद्रंध कुटी चित्रां सर्व लोकै कमंगला
॥२२॥ आखिरी ऊपर के पीठ के ऊपर नेत्रों को प्रिय लगने वाले चित्रों से चित्रित सर्वलोक के मंगल स्यरूप श्री गंध कुटी को बनाए।
तस्याः प्रपंचो द्रष्टव्यः सर्वोप्य स्थाटिकविधी, अनत्यति महे त्वेन नास्यामिरभिधीयते
॥२३॥
अंतस्तस्यां : शुभं मुक्ता मंडपं पुष्प मंडपं, चंद्रोपकं वा वधीयात् नेत्रैः कांत विलोभनं
॥२४॥ उसका वर्णन सर्योप स्थायिका की विधि में देखना चाहिए , यहां विस्तार के भय से नहीं कहा गया है, उसके अंदर चंद्रमा के समान सुन्दर नेत्रो को लुभाने वाले मोतियों के मंडम और फूलों के उत्तम मंडप को बांधे।
पारायं तस्य पीठस्य मूदिन केशरिविष्टरं, स्थापये च्चामरैः दौर शोक नाभिशोभितं
॥२५॥ उस पीट के ऊपर (केशरि) सिंह के आकार वाले आसन तथा अत्यंत शोभित, चमर, छत्र और अशोक की बादरवार की स्थापना करे।
घंटिका सुमनो दाम मुक्कामालाफलोत्करैः, अन्यैश्च मंगल द्रव्य मंडप तदविभूषोत
॥ २६॥ फिर उस मंडप को घंटियों फूलों की मालाओं और मोतियों की मालाओं फूलों के समूह और दूसरे भी मंगल द्रव्यों से सज़ाएं।
CSRISIOISTOISTOSTS5ES९११ PISTRISRISTDISTRICISCIEI
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PHPPS 1595951 विधानुशासन 95959595955
प्रलंब मान लंबूष भूषितं क्षौमनिर्मितं, नवं वितानं वनीयात होम कुंडस्य चोपरि
॥ २८ ॥
तस्मिश्च योजयेन्मंत्री सहे पिपलपल्लवान् समग्राग्रैः शुभैर्दर्भे द्वारि चंदन मालिकां फिर होम कुंड और उसके ऊपर लटकते हुए लबुंष (वन्दनचार) से शोभित रेशम के बने हुए नए चंदोए बांधे। मंत्री उसके द्वार में पीपल के पत्तों और उत्तम दर्भ और चंदन की मालाओं को लगाए ।
सिंह भाब्जांक चक्र स्रक तार्क्ष्य हंसोक्ष केकितान्, विभ्राणान प्रति रूपाणि लिखितानि विधान वित्
॥ २७ ॥
॥ २९ ॥
पूर्वादिशु महादिक्षु ध्वजान दश पृथक् पृथक्, होम कुंडस्य वधीयान्नव वीणादि कल्पितान्
11 30 11
फिर विधान को जानने वाला उसको सिंह हाथी (अब्ज) कमल चक्र एक (बाण) तादर्य (गरुड़) हंस बैल मयूर और औरों के चित्र लिखे।
होमकुंड के पूर्व आदि दसों दिशाओं में नये बांस आदि से बनी हुई पृथक पृथक दस ध्वजाओं को
बनाए ।
हुतस्य होम कुंड़स्य पूर्वस्यां दिशि पूर्ववत्, संपादयतु भर्तृक्षैराचायै: स्नान मंडपं
|| 32 ||
स्वामी की रक्षा करने वाला आचार्य हवन कुंड के पूर्व की तरफ पहले के समान स्नान करने का मंडप बनवाए ।
मंडपस्यास्य चत्वारि द्वाराणि परिकल्पयेत्, तासु संस्थापयेद्वाषु श्रमान मकर तोरणान्
॥३२॥
उत्तम मंड़प के चार दरवाजे बनाए उन चारों द्वारों में मकर की आकृति वाले उत्तम तोरण लगाए ।
तन्मध्य मंदराकारं चतुरखलमुज्वलं, वृतं निर्मापयेत्पीठं विशुद्धं मृतिकादिभिः
11 33 11
उसके बीच में मंदराचल पर्वत के आकार वाले चार मेखला युक्त गोल पीठ को शुद्ध मिट्टी से बनाए।
C505P50
उत्सेो मेखलानां स्यात वद्वयोकार्द्धाधि करपौक्रमात्, व्याससार्द्ध करौ हस्तौ सार्द्ध हस्तः करौ भवेत् ॥ ३४ ॥
9595९१२P/5959595959595
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PoesP5959PPS विधानुशासन 25P695959595
मेखलाओं की ऊचाई क्रम से दो एक आधी अंध्रि और एक हाथ हो उसका व्यास भी क्रम से अढ़ाई हाथ दो हाथ और डेढ़ हाथ हो ।
तस्योपरिष्टाद बनीयात् चंद्रोपकमनीदर्श, चित्रैरनध्यैः क्षमायैः व्यानसैरुपकल्पितं
|| 34 ||
उसके ऊपर चंद्रमा के समान निरुपम विचित्र प्रकार के रेशम आदि के बने हुए चंदोव हो ।
बध्नीया तत्र दिक्पाल प्रतिबिबकरं वितान केतून, वजांश्च पूर्वोक्ताण् तथा सिंहादि लांछितान्
॥ ३६ ॥
वहां दिक्पालों के प्रतिबिंब से युक्त केतुओं और ध्वजाओं को पूर्वोक्त सिंह आदि के चिन्हों से युक्त करके बंधाएं ।
वस्त्र विचित्रैर म्लानैः मृणालै श्रामरैः सितैः विविधै धन्यक शिफैर्दुर्वा दाना पवित्रया
विचित्राभिः पुष्प मालाभिः मुक्ता दाम भिरुज्वलैः, रम्याकारैः फलैः कमैराम्रात कोशादिभिः
॥ ३७ ॥
1132 11
फिर उज्वल और विचित्र वस्त्रों, कमलों, सफेद चमरों और अनेक प्रकार की धान्यों की जटाओं और डाभ की मालाओं से पवित्र विचित्र पुष्प मालाओं उज्ज्वल मोती की मालाओं दाम (मालाओं) रम्याकार (दिल लुभाने वाले) फलों (का) सुंदर (आम्रात) कही हुई हो (कोशादिभि) कविताओं में -
एवं प्रकारैरन्यैश्च वस्तुभिः शुभ मंगलैः मंडपं मंडयेन्मंत्री नेत्रानंदन पंडितै :
॥ ३९ ॥
और इस प्रकार की अन्य नेत्रो को आनंद देने वाली उत्तम मंगल की वस्तुओं से मंत्री मंडप को सजाए।
अभिषेक विधि
प्रातमंत्री विद्या शुद्धं विद्याय सकली क्रियां, स्नानोपकरणोपेतं प्रतिशेत्स्नान मंड़ पं
95959595959595 ११३ 5969695961951
॥ ४० ॥
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CHRISTRI501501505 विद्यानुशासन HS615121STONSIDISTRIES
मंत्री प्रातःकाल के समय तीन प्रकार की शुद्धि तथा सकली करण क्रिया करके स्नान की आवश्यक वस्तुओं सहित स्नान मंडप में प्रवेश करे।
स्थित्या मंदर पीठाग्रे पश्चिमाभिमुरवो भवेत्. सिद्धभक्तिं तत: कुयादिद्ध श्रद्धा विशुद्ध धी:
॥४१॥ फिर वह मंदर की पीठ के आगे पश्चिम की तरफ मुँह किए हुए खड़ा होकर पूर्ण श्रद्धा से पवित्र बुद्धि वाला बनकर सिद्ध भगवान की भक्ति करे।
अभिषेकक्रियोक्तेन विधाने नैव देशिकः, भूमि सल्टौ धमादीनि कुर्यात् त्रीणि विशेषतः
॥४२॥ फिर अभिषेक क्रिया के विधान से भूमि संशोधन आदि तीनों क्रियाओं को विशेष रुप से करे।
तस्य मंदर पीठस्य मूद्धि सं स्थापयेत् ततः, श्री शांतिनाथमहतं सर्व शांति विधाविधायक
॥४३॥ फिर उस मंदर को पीठ पर सब शांति को करनेवाले अर्हत भगवान श्री शांतिनाथजी की स्थापना करे।
तस्याग्ने स्थापटोत् वाणी यक्ष दक्षिण भागतः, टाक्षी च वामतो देव्यं सरसीरुह विष्टरे
॥४४॥ उसके आगे वाणी (शास्त्र) दाहिनी तरफ यक्ष को और बाँई तरफ कमल के आसन पर यक्षी की स्थापना करे।
नदी कूप तटाकादि शुद्ध देश मुवांमसा, नालिकेरोद केन सुरसेनाम रसेन वा
॥४५॥ नदी, कूएँ, तालाब आदि शुद्ध स्थान का जल नारियल का जल, गन्ने का रस अथवा आम का रस।
सर्पिषा पयसा दनाक्षीर वृक्ष त्वगंबुना, गंधाकष्टा लिना गंध सलिलेन च पूरितैः
॥४६॥ घृत दूध, दही, क्षीर वृक्ष के जल सुगंध से खिंचे हुए भौरे याले सुगंधित जल से भरे हुए।
अंतन्निहित रत्न गंध चूर्ण प्रसूनकै:
मुरवभाग विनिक्षिप्त बीजपूरफलादिभिः CSIRIDIOISTRISTOTRISTRIS९१४ PISTRIESERSIRIDIOIRTERSN
|॥४७॥
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STERISTIRISTOT585 विद्यानुशासन RSSRISRISTSISIOS
सूत्रेण स्वेत वर्णेन विश्रद्धेनाभि वेष्टितैः, शाल्यक्षत परिष्कक्त सांद्र चंदन चर्चि तै:
॥४८॥ अंदर रत्न तथा पुष्पों के सुगंधित चूर्ण से भरे हुए मुख के भाग पर रखे हुए बीजपूर (विजोरे) आदि से युक्त सफेद रंग के शुद्ध धागे से वेष्टित शालि चावलों से सने हुए चंदन से पुते हुए।
गंधाकृष्ट भ्रमझंग पुष्प मालाविभूषितैः, गंधैन नूतन सशस्त्र वि हिताच्छादनकिटौ:
॥४९॥ शद्धायां प्रविकीर्णेषु वसधायां यथा विधिः,
शालिषु स्थापितैः सम्यक न्टास्त स्तस्तिक शालिष ५०॥ सुगंध से जिससे भोरे खिंच रहे हैं ऐसी भौंरों वाली पुष्प मालाओं से सजे हुए सुगंधित तथा नये उत्तम वस्त्रों से ढके हुए शुद्ध पृथ्वी पर रखे हुए शालि में विधि पूर्वक बने हुए स्वस्तिक के ऊपर अच्छी तरह रखे हुए।
सौवर्ण राजतै स्तामैः मन्मयैर्वा सलक्षणैः, अष्टोत्तरेण कलशैः सहस्त्रेण शतेन वा
शांति भट्टारकं टाक्ष टाक्षी वाग्दे वता मषि, पूर्वयद् यजनिःशेष जगत शांति विधायिनं:
॥५२॥ सोना, चांदी, तांबे या मिट्टी के सब लक्षणों वाले एक हजार आठ या एक सो आठ कलशों से शांति के करने वाले भगवान शांतिनाथ जी और यक्ष यक्षी या देवी सरस्वती (जिनवाणी) और ऋषि (मुनिराज) का पूर्व के समान अभिषेक करे।
तेतागंध कुटी मध्य स्थापित सिंह विष्टरे, तत्र शाल्यक्षत न्यस्त श्री वर्ण स्थापटोजिनं
॥५३॥ फिर गंध कुटि के बीच में सिंहासन के ऊपर श्री अक्षर शालि अक्षत के पुंज (ढेर) सख्ख कर जिनेन्द्र देव की स्थापना करें।
स्ता संस्थापटोद्भत्तया यक्ष यक्षीं सरस्वती, विधिना पूर्वयुक्तेन मंत्री भगवतो तिके
॥५४॥ इसके पश्चात मंत्री अगवान के समीप पूर्वोक्त विधि से भक्ति पूर्वक यक्ष यक्षी और सरस्वती की स्थापना करे।
SSIOTEIPEDIODISTRISD5(९१५PISTOIERSIDEOIRASISTER
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CASIOISSISTRISTOSTED विधानुशासन PSIRISTRISTOT5R5E5I
सलिलैः कलिल ध्वंसैश्चंदनै धाण नंदनैः,
अखंडैस्तंदुलैः शनैः सुमनोभिः सुगंधिभिः फिर पापो को करने वाले जल भार को प्रसन्न करने वाली गंध (चंदन) उज्ज्वल बिना टूटे हुए चावल और सुगंधित पुष्यों।
उद्गांधिभिर्वरायोभि दीपिकाभिः सुदीप्तिभिः,.
धूपै निधूपिता होभि फलैः सन्मार्ग संफलैः ॥५६॥ ऊपर की गंध निकालते हुए नैवेद्य भली प्रकार जलाए हुए दीपक पापों को जलाने वाली धूप और अच्छे भार्ग रुप सफल करने वाले फूलों
भंगार मुकुट छत्र पालिका प्वज वासरै:घंटा, पंच महा शब्द कलश व्यंजनांचलै:
॥ ५७॥ झारी (भुंगार) दर्पण (मुकुट) छत्र पालकी (पालिका) ध्वजा वस्त्र (वासर) बड़ा शब्द करने वाले पांच घंटों व्यंजनों से भरे हुए कलशों (अंचल)
सद्यं चूर्णमणिभिः स्वर्ण भौक्तिकदामभिः, बेणूबेणादि वादितै गीतैनत्यैश्च मंगलैः
॥५८॥ अच्छी गंध याले चूर्ण, मणियों, सोने और मोतियों की मालाओं, बांसुरी बीणा तथा बाजों तथा नृत्य गीत आदि मंगलों से।
भगवंतं समभ्यचर्य शांति भट्टारकं ततः, तत्यादाबू रुहो पाते शांति धारां निपातयेत्
॥५९॥ भगवान श्री शांतिनाथजी भट्टारक का पूजन करे फिर उनके चरण कमलों में शांति धारा देवे।
ततः शांति जिनेन्द्रं तं मूर्धन्यस्तकरः स्तुयात् :
मंत्री शांत्याष्टाकाररस्टोन मंत्रेणानंद निर्भरः ॥६०॥ इसके पश्चात् मंत्री मस्तक पर हाथों को रखकर आनंद से भरा हुआ होकर शांत्यष्टक नाम के स्तोत्र से उन भगवान शांतिनाथजी की स्तुति करे।
शांति जिन शशि निर्मल वर्क शील गुणव्रत संयम पात्रं अष्ट शतार्चित लक्षण गात्रं नौमि जिनोत्तम मंबुज नेत्रं ॥६१॥
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959595959S विधानुशासन 9595959555
श्री शांतिनाथ जी जिनेश्वर का मुख कमल चन्द्रमा के समान निर्मल है, वे प्रभु शील गुण प्रत तथा संयम के पात्र हैं अर्थात् उनमें गुण पूर्णतया निवास करते हैं। प्रभु की देह में एक सो आठ शुभ लक्षण है; प्रभु के नेत्र कमल समान सुंदर है- ऐसे श्री शांतिनाथ जी की मैं स्तुति करता हूँ ।
पंचमप्सित चक्र धराणां पूजितमिदं नरेन्द्र गणेश्च शांति करंगण शांतिभीप्सु षोडश तीर्थकरं प्रणमामि :
॥ ६२ ॥
भगवान शांतिनाथ पाँचवें चक्र व्रती में उनकी इन्द्र समूह और बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा पूजन करते थे, चतुर्बिध गणों की शांति चाहने वाला मैं शांति करने वाले सोलहवें शांति जिनेश्वर की वंदना करता हूँ ।
दिव्य तरुः सुरपुष्प वृष्टि दुभिरासन योजनयोषी. आतपतारण चार युग्मे यस्य विभाति च मंडल तेजः
॥ ६३ ॥
तं जगदर्चित शांति जिनेद्र शांतिकरं शिरसा प्रणामामि सर्व गणय तु यच्छतु शांति मह्य मरं पठते परमां च ॥ ६४ ॥
अशोक वृक्ष देव कृत पुष्प वर्षा दुन्दुभि आदि बाजों की ध्वनि सिंहासन एक योजन तक दिव्य ध्वनि का फैलना तीन छत्र दो चामरेद्रों से प्रभु पर ठुरे जाने वाले दो चामर तथा मामंडल ऐसे आठ प्रतिहार्य जिनके विशेषरूप से शोभायमान हो रहे हैं- उन त्रैलोक्य पूजित शांतिनाथ जिनेश्वर को मैं मस्तक नम्र करके नमस्कार करता हूँ। शांति नाथ जी संघ को तथा स्तुति करने वाले मुझे भी मोदारूपी शांति प्रदान करे
संपूज्यकानां प्रति पालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां.
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवान जिनेन्द्रः ॥ ६५ ॥
पूजा करने वाले और पूजन करन वाले सेवा भक्ति करने वाले आचार्यादि गणधर सामान्य मुनि मनुष्य आदि सभी के तथा देश राष्ट्र नगर वासी आदि सभी जीवों के राजा के सभी उपद्रवों से शांति करो हे जिनेन्द्र देवशांति करो।
येभ्यर्चिता मुकुट कुंडल हार रत्नै शक्रादिभिः सुरवरैः स्तुत पादपद्मा,
ते जनाः प्रवर वंश जगत्प्रदीपास्तीर्थं करास्सत शांतिकराः भवंतु ॥ ६६ ॥ जो तीर्थकर पूजने योग्य है और जिनकी इंद्र मुकुट कुंडल हार और अनेक रत्नजड़ित सोलह आभरण सहित हैं अर्थात् यह तीर्थंकर इद्रांदि व देव समूह से स्तुतियंत है वे समस्त तीर्थंकर मेरे भगवान जो श्रेष्ठ वंश में उत्पन्न हुए है और जो समस्त पदार्थों को दिखाने वाले चिराग के समान है; यह चौबीसों तीर्थंकर हमारे शाश्वत कल्याण करने वाले हों।
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525R PSPS2525252525
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SASIRIDIOSDISTRICT विधानुशासन RISTOTRIOTSPSISTSIDESI
श्री सौभाग्यं पर परोदय परं पुण्यं पवित्रं पर, यामानंतरु जाजरा पहरणं भव्य प्रजानां सदा ||६७॥
त्रैलोकेद्रं तिरीट कोटि विल स द्रत्न प्रभा पाटलं, शांतीशश्चरण द्वय दिशतु नः सन्मगलं मंगलं
॥६८॥
राज्ञश्चामुष्य वृद्धिं रणभुवि विजय शत्रु नाशं च कुर्यात्, यद्भद्रपाल नाभ्यं वहु विद्यम सकृचिंतित चेष्टितं वा, ॥ ६९ ॥
तत्तत्वं वः समस्तं मुनि गण जप होमार्चना पाम योग स्वाध्यायादि विघ्न्या क्षमयति च महा व्याधिभितिं च सर्वाः ॥७॥
श्री शांतिनाथ स्वामी लक्ष्मी सौभाग्य के देने वाले हैं श्रेष्ठ हैं दूसरों का श्रेष्ठ उपकार करने वाले हैं पुण्य को बढाने वाले हैं बहुत ही श्रेष्ठ हैं पवित्र स्थान है भव्य प्रजाजनों की सर्वदा अनंत रोग वृद्धावस्था आदि को हरण करने वाले हैं, तीनों लोक के स्वामी हैं और करोड़ों सूर्य और रत्नों जैसी गुलाबी प्रभा वाले हैं शांतिनाथ स्वामी के चरम युगल सत्य मंगल है पापी को गलाने वाले और मंगल को लाने वाले हैं। राजा की आयु बढाने वाले है युद्ध में विजय दिलाने वाले है और शत्रुता को नष्ट करने वाले है जो जो भूपाल स्वामी बहुत तरह की चिन्ता करते हैं व इच्छा करते हैं वह देते हैं समस्त मुनि गण, प्रायक गण, जाप पूजन व इच्छा होम आदि के योग्य तथा स्वाध्याय आदि करते रहे उनकी महा व्याधिया सर्वप्रकार के भय नष्ट होते रहेंगे तथा पाप नष्ट होते रहेंगे।
ग्रथान्तरे क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक वर्षतु च मद्यवान्त्याधयो यान्तु नाशम् ॥७१॥
दार्भिक्ष चौर मारी क्षणमपि जगतां मारम भजीव लोके,
जैनेन्द्रं धर्म चक्रं प्रभयतु सततं सर्व सौरव्य प्रदाभि ॥७२ ।। सर्व प्रजा का कल्याण हो राजा शक्ति शाली और धार्मिक हो समय समय पर वृष्टि हो सब रोगों का विनाश विश्व में दुर्भिक्ष न पड़े चोर और भारी रोग का दर्शन भी किसी को न होवे त्रैलोक्य में अनन्त सुख को देने वाले जिनेन्द्र प्रति पादित उत्तम ामादि दश धर्मों का समूह अखण्ड रीति से सर्वत्र प्रसार को प्राप्त हो।
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CASSISOISTRISTRISTR5 विधानुशाशन 25THRISTD3535TOISS
प्रध्वस्त धाति कर्माण केवल ज्ञान भास्कराः, कुर्वन्तु जगतः शांति वृषमाद्याजिनेश्वराः
|| ७३॥ जिन्होंने ज्ञाना वरणादि चार धाति कर्मों का नाश किया है अज्ञान और संशय हटाने के लिये केवल ज्ञान सूर्य के समान तेजस्वी है ऐसे वृषभादि जिनेश्वर तीन लोक को शांति प्रदान करे।
शांत्यष्टकेन सं स्तुत्य शांतिभट्टारकं जिनं, अनंतरं च पुण्याह मंत्रं शांति करं पठेत
||७४॥ इस प्रकार श्री शांतिनाथ जी भट्टारक की शांत्यष्टक से स्तुति करके इसके पश्चात शांति करने वाले पुण्याह मंत्र को पढ़े।
ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रयंताम प्रयंताम भगवंतो हतः सर्वज्ञा: सर्व दर्शिनः स्त्रिलोकेशास्त्रिलोक प्रद्योतन करा:-ॐ वृषभा जित संभवाभि नंदन सुमति पद्म प्रभुसुपार्श्वचंद्रप्रभुपुष्पदंतशीलश्रेयांसवासुपूज्य विमलानंतधर्मशांतिकुंखुवर मल्लि मुनि सुव्रत नमि नेमि पार्थ श्री वर्द्धमानाः शांति करा सकल कर्म रिपु विजय कांतार दुर्गाविष में रक्षन्तु नो जिनेन्द्राः सर्व विदक्ष श्री ही पति युति कीर्ति बुद्धि सरस्वती शांति श्रांति मेया विन्य श्वाघ लेख्य मंत्र साधन चूर्णप्रयोग प्रस्थान गमनसिद्धि साधनाय अप्रतिहत कीर्तयो भवंतु विद्या देवता नित्यमर्ह सिद्धाचार्यो पाध्याय साधवश्चातुर्वर्णाः संघ सहिता आदित्य सोमांगारक बुध वृहस्पति शुक्र शनि राहु केतु नवग्रहाश्चनः प्रीयंतां प्रीयतां तिधिकरण मुहूर्त लग्र देवता वास्तु देवता इह चान्ये च ग्राम नगरादि देवता स्ते सर्वेगुरूभक्ता अक्षीण कोश कोष्टागारा भवेयु द्दनि तपो नित्य मेवमातृ पितृ भ्रातृ स्वसूदुहित पुत्र पौत्र मित्र स्वजन संबंधी बंधु वर्ग सहितस्य धन धान्यैश्वर्य द्युति वलयश स्कीर्ति वर्द्धनाय सामोद प्रमोदोत्स ततः शांति भवतु पुष्टि भवतु काम मंगल्योत्सवा संतु शाम्टातुं पापानि शाम्टांतु धोराणि पुण्यं वदतां धर्मों वदतां श्यायुर्वद्धतां कुलं गात्रं चाभि वर्द्धतां स्वस्ति भद्रं चास्तुनःहतास्ते परिपंथिनःशात्रवो नियनं यांतुनिःप्रतिधमस्तुनःशिवमतुलमस्तु सिद्धाः सिद्धि प्रयच्छंतु न स्वाहाः ।।
पुण्याह मंत्र: जिन स्नानाभि सर्व शांति मंत्राभि मंत्रितैः सिंचेदु परिसाटास्य प्रसन्न हृदयो गुरूः
।।७४ ॥
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CSIRTHRISTRISTRI5T5 विधानुशासन VSCIERISTOTSTRADISE
अन्त में गुरू हृदय से प्रसन्न होकर जिनेन्द्र भगवान के स्नान के जल को अर्थात् गंधोदक को सर्व शांति मंत्रो से अभिमंत्रित करके उसे साध्य के ऊपर डाले।
सिंचेच्चोपरि तैरेव पुर ग्राम निवासिना नणां, गजानामश्वानां महिषाणां गवामपि
|| ७५ ॥ फिर उस गंधोदक को नगर और गाँव के निवासियों राजाओं. हाथियों भैसों और गायों के ऊपर भी छिड़के।
अजोष्ट्रा विरवरादीना मन्येषां प्राणिनामपि, उपरिष्टाजिन स्नान जलस्तै सेक माचरेत्
॥ ७६॥ बकरे ऊँट आवि (भेड़) गधे आदि तथा अन्य प्राणियों के ऊपर भी जिनेन्द्र भगवान के समान के जल को डाले।
पश्चात् सितेन वस्त्रेण सितया पुष्पमालटा, सितेन चोत्त रीयेण भूषितं दद्यतो वपुः
॥७७॥ इसके पश्चात् सफेद वस्त्र और सफेद फलों की माला तथा सफेद चादर से शोभित शरीर को धारण करते हुए।
बलि की विधि चर्चित स्याक्षतो पेते मलयोद्भव कदमैः ब्रह्म सूत्रं दद्यानस्य मुक्ता फलमटां शुभं
|७८॥
विचित्र रत्न निर्माण सर्वाभरण शारिणः, सर्वलक्षण युक्तस्य सम्यग्दृष्टे भवपुसः
॥७९॥ घिसे हुए चंदन की कर्द (कीचड) से पुते हुए अक्षत लिये हुए और उत्तम मोतियों से युक्त ब्रह्म सूत्र (यज्ञोपवीत) को धारण किये हुए और विचित्र रत्नों के बने हुए सब आभूषणों को धारण किये हुए और सब लक्षमों से युक्त उत्तम रूप वाले अच्छे शरीर वाले किसी भारी सम्यगदृष्टि युक्त
कस्य चिच्चाट रूपस्टा पंसः सदगात्र धारिणः
सर्वान्ह यक्ष सोशीर्ष मूर्द्धन्या रोपवेत्ततः पुरूष के सिर पर सर्वान्ह यक्ष को आरोपित कर देवे (स्थापित करे)
॥८
॥
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विधानुशासन 259595295955
तत्सनार्थावि निर्गच्छे बदलि दानाय मंत्रवित् छत्र चामर सत्केतु शंख भेयादि संपदां
॥ ८१ ॥
फिर मंत्री सनाथ हुवे के समान बलि देने के लिए निकले छत्र चमर ध्वजा शंख और भेरी (नगाड़े) आदि की संपदा के सहित
चतुष्पथेषु ग्रामस्य यतनस्य पुरस्य च राजद्वारे महाद्वार्षु देवता यतनेषु च
॥ ८२ ॥
गाँव वतन (मुख्य गाँव ) और नगर के चौराहे राजद्वार बड़े द्वारों और देवताओं के मंदिर में
स्थंवर माणां स्थानेषु तुरंगाणां च धामसु, बहु सेवेषु तीर्थेषु वरतां सरसामपि
चरूणां पंच वर्णेन गंध पुष्पाक्षतैरपि, यथा विधिवलिं दद्यात् जल धारा पुरस
|| 23 ||
॥ ८४ ॥
घूमने वालों के स्थानों में घोड़ों के घरों में बहुत पुरुषों से सेवित तीर्थों में चलने वाली तालाबों में पांच वर्ण के नैवेद्य गंध (चंदन) पुष्प और अक्षत से विधि पूर्वक जल धारा सहित बलि देवे।
अनुष्ठितो विधियों यं पूर्वान्ह भिष वादिकः मध्यान्हे च प्रदोषे च तं तथैव समाचरेत्
॥ ८५ ॥
जो यह अभिषेक आदि की विधि प्रातःकाल में की है उसको दोपहर और प्रदोष (रात्री) के समय में भी उसी प्रकार करे ।
अथार्द्ध रात्रे संप्राप्तं मंत्रि शांति क्रियोचितैः
प्रारभेत शुभो दर्क शांति होम क्रियांमिमां
॥ ८६ ॥
इसके पश्चात् मंत्री आधी रात के आने पर शांति की क्रियायों के होम की योग्य उस उत्तम जल वाली शांति हों की क्रियाओं को आरंभ करे ।
संमृष्टं शुद्ध गंधाभ: सेकेन सुरभि कृतं, आवि सुमनो दाम शोर भा कृष्ट षट्पदं
॥ ८७ ॥
साफ किये हुए शुद्ध सुगंधित जल के छिड़कने से सुगंधित बनाये हुए लटकने वाली फूलों वाली फूलों की मालाओं की सुगंधि से खिंचे हुए भ्रमरों से युक्त (अलि) भ्रमर घटपद (अमर) को कहते हैं ।
195 ९२१5959595969595
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S5D150595952150 विद्यानुशासन PSIDDISTRISTPISODE
ज्वलत् प्रदापको देशं दूरापास्त तमस्तति, गुरूणा गुरु धुपेन वासिता तरं दिग् मुरवं
।।८८॥ जलते हुवे दीपक से दूर हुए अंधकार के समूह वाले भारी अगर की धूप से सुगंधित दिशाओं वाले।
भव्यैः पठद्भिः सूत्राणिध्यायदि रधि देवताः, शांति कृति मंत्राणि प्रजपद्भिः रधिष्ठित
।।८९॥
अर्चना द्रव्य संपूर्ण भगवत्पीठि कांतिकां, होम कुंड समीपस्थ होम साधन संपदं
॥९०॥ सूत्रों को पढ़ाने वाले, देवताओं का गान करते भाले और हानिकारक मंत्रों कोजपने वाले भव्य, पुरुषों से युक्त भगवान की पीठ के समीप सव पूजन के द्रव्यों से युक्त तथा होम कुंड के समीप होम के साधनों से युक्त
प्रविशेद होम गेहं ते साध्टोन सह देशिकः, स्नातेन स्र्वत वस्त्र स्त्रक भूषा लेपन शोभितं
॥९ ॥ हयन शाला में स्नान किये हुए श्वेत वस्त्र माला आभूषण और लेप से शोभित साध्य के सहित (देशिक) गुरू प्रवेश करे
तत्र गंध कुटी मध्ये यक्ष यक्षादिभिः सह, सूरिः प्रदक्षिणी कृत्य स्तुत्वां च प्रणमेजिनं
॥९१॥ सूरि (आचार्य) वहाँ पर गंध कुटी के बीच में प्रदक्षिणा तथा स्तुति करके यक्ष यक्षिणियों सहित भगवान को नमस्कार करे।
अग्रे च भगवतः स्थित्वा प्रसन्ने नां तरात्मनः विदधीत क्रियास्सर्वा सकली करणादिका
॥९२॥
उपांतं भातं विंदुभ्यां बीजाक्षर मुदत्ततः आसनं मंत्रं विन्मत्रैः देवतायाः प्रकल्पयेत्
॥९३॥ फिर भगवान के सामने प्रसन्न मन से बैठकर सब सकली करण आदि क्रियाओं को करे मंत्री समीप में ही देवता के (भान्त) म और विन्दु (ह) मकार अनुस्वार सहित ७ मं ) बीजाक्षरों रूपी मंत्रो से आसन देवे (उपान्त =पास में ) OSD510151015015106535९२२ PHIRISTOISTORISD15959ISS
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DISTRISIRISTOT505 विधानुशासन म50505DISTRISTOISS
न्यस्येत स्व स्था सनं ताभ्यां समुपेत गुरुर्जनः
सादयस्य त्चा सनं कुर्यात् ताभ्यां युक्तं जलाक्षरं ॥९४ ॥ गुरू पुरुष उन दोनों घीजों से अपने आसन को रखे और उन्हीं बीजों से जल छिड़क कर साध्य का आसन बनाये |
पूरकेन जिनेन्द्रस्य कांदाहवाननं गुरुः पंचा नामु पचाराणां विधि ज्ञानान्विशेषतः
॥९५॥ गुरु पूरक (सांस भरकर) से जिनेन्द्र भगवान का आह्वान करे और पाँचों उपचारों की विधि (आव्हान-स्थापन सन्निधिकरण पूजन और विसर्जन) को पूर्ण रूप से विशेष ध्यान के द्वारा करे।
सुप्रतिष्ठापनं साक्षात् करणं प्रार्चनं तथा विभोः
कुभंक भोगेन विधातव्याः निमंत्रिण ॥९६॥ मंत्री भगवान का स्थापन सन्नधिकरण और पूजन को कुंभक (सांस रोककर) के योग से करे।
वारिभि हारिभि कांतैः श्राससंतापहारिभिः क्षौदैः प्रोत्सर्पदा मोदैश्चंद नै यणि नंदणैः
॥९७॥
शालिगैः सदकैःशालिन्पंच द्विशकैरपि, सुमनोभिः सुमनोभिः सुमनोभिः सुगंधिभिः
॥९८॥ लाये हुए सुंदर और श्रास के कष्ट को दूर करने वाले जलों उठती हुई मालाओं वाले चंदन से घ्राण (नाक) को आनन्द देने वाले क्षोद (चूर्ण) शालि (अक्षत) सदक(फलः और पचीस प्रकार के सुन्दर सुगंधित पुष्पों से अच्छे मन से अच्छी विधायों से सुगंधित से
चरुभिश्वारूभिश्चित्र व्यंजनैश्वित रंजन : दीधिकाभि स्तमो हुत्या व्यापिकाभिर्दिशो दिशः ॥९९॥
धूप भैदै दि रेफांत रवेदच्छेदैः प्रमोददैः फलै, समुज्वलै: सद्य प्रोद्यत्सौरभ्यहारिभिः
॥१०॥ अनेक प्रकार से चित्त को प्रसन्न करने वाले नैवैद्य (चरू: और चारू (प्यारे) व्यंजनों से अंधकार को नष्ट करने वाले और दशों दिशाओं में प्रकाश दिलाने वाले दीपकों से भौंरों के अन्दर के खेद को (छेद) नष्ट करने वाले और धूप के भेदों से निकलती हुई सुगंध युक्त उज्जवल फलों से
ಇದರಥS[833
Bಣದಾರ್ಥಗಳಿಗೆ
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CISIONSOISSISODE विद्यानुशासन ASSISTORICISTRISTOTES
आदर्श: कलशैः छत्रैर्वस्त्रैश्रामरजैय्वजैः पुंडैक्षु दंडैZटाभिर्माणि भिगांधि रेणुभिः
।।१०१॥
अन्येश्चैवं विधैव्यैः शुभैः भुवन मंगलैः शांति भट्टारकं देवं प्रार्चयेत्परं मुदा
||१०२॥ आदर्श (दर्पणों) कलशों छत्रों, वस्त्रों चमरो ध्वजाओं ईख के पोंछों गन्णो घंटों मणियों सुगंधित गंध के चूणे और इसी प्रकार अन्य भी लोक में मंगल करने वाले उत्तम द्रव्यों से श्री शांतिनाथ जी भट्टारक का अत्यंत प्रसन्नता से पूजन करे।
मुरव विन्यस्त नीरेजान पूरितान वारिभिः शुभैः
भंगारा तस्य पादांते शांति धारो निपातयेत् ॥१०३ ॥ फिर मुख में भेरी सहित कमलों से युक्त जल से भरे हुवे कलशों से भगवान शांतिनाथजी के चरणों में शांति धारा देये।
ततः परम मंत्राधि देवतान् विमुखो भवेत् होमकुंडस्य पूर्यस्यामासीत दिशि देशिकः
||१०४|| फिर परम (श्रेष्ठ) मंत्र के स्वामी देवताओं की तरफ मुख करके होम कुंड के पूर्व दिशा में रास्ता बताने वाले गुरू बैठे
ततः साध्यश्च तत्पार्श्व स्वासने प्रश्रया ततः आसीत परमांभक्तिं दधे देवो गुरावपि
॥१०५॥ इसके पश्चात साध्य भी देवता और गुरू में परम भक्ति को धारण करता हुआ गुरू के पास अपने आसन पर बैठे ।
हुतासनस्थ मंत्रज्ञः क्रियां संधुक्षणादिकां,
विदध्यात्परि भाषायां प्रोक्तेन विधिना कमात् ॥१०२॥ फिर मंत्री अग्नि को प्रज्वलित करने की क्रिया को परिभाषा परिच्छेद में बतलाई हुई विधि के अनुसार विधि पूर्वक करे। .
पश्चिमाभि मुरवो भूत्या प्रयुक्त कमलासनः,
उपविश्य निजे पीठे संयुक्तो ज्ञान मुद्रया SASO151095TOSDISTRISTOT5[९२४ PIERISPIRICISTRATRISTD35
॥१०५॥
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CP
51 विधानुशासन 59695296PPS
पश्चिम की तरफ मुख करके कमलासन का प्रयोग करके ज्ञान मुद्रा से युक्त होकर अपने आसन पर बैठे
देवतां मंत्रमात्मानं साध्यं लोकं तथाखिलं, शुद्धांत करणी ध्यायन् शित वर्ण सुधामयं
॥ १०६ ॥
उस समय वह देवता को मंत्र को, अपने को साध्य को तथा सम्पूर्ण लोक को शुद्ध अन्तःकरण (मन) से श्वते वर्ण का अमृत बरसाते हुए अमृत मंत्रध्यान करे
अष्टाभिरधि टूटेन शतेन क्षीर भूरुहां,
नवांगुल प्रमाणाभिः समिद्धिः कृत शुद्धिभिः
॥ १०७ ॥
क्षीर वृक्षों (दूध के वृक्षों) की नौ अंगुल लम्बी शुद्ध एक सौ आठ समिधाओं से
गुड सर्पितिल क्षीर दुर्वाधैश्च यथा विधिः जुहुयात्सर्व शांत्या ख्यामंत्रेणा दूत शक्तिना
!! १०८ !!
गुड, घृत, दूध, दूब आदि से अद्भुत शक्ति वाले सर्वशांति नाम के मंत्र के द्वारा विधि पूर्वक होम करे।
ततः श्री शांति महतं स्तुत्वा शांत्यष्ट केन च, ततो विसर्जनमाचार्य रेच केन समाचरेत्
॥ १०९ ॥
फिर शांत्यष्टक स्तोत्र से श्री शांतिनाथ भगवान की स्तुति करके आचार्य रेचक प्राणायाम के द्वारा विसर्जन करें।
एवं संध्या त्रये चार्द्ध रात्रे च दिवसस्य यः जिन स्नानादि होमांतो विधिः सम्यग्नुसृतं
॥ १०८ ॥
इस प्रकार इस दिन की तीनों संध्याओं और अर्द्धरात्रि को भगवान की स्नान आदि से लेकर होम तक की विधि को भली प्रकार करे।
तं कृत्सनं मपिसोत्साहो मंत्रि सप्त दिनानि वा, यद्रेक विशंति कुर्याद्यावदिष्ट प्रसिद्धि वा
॥ १०९ ॥
मंत्री उस पूर्ण विधि को उत्साह पूर्वक सात दिन या इक्कीस दिन तक जब तक अपना इष्ट कार्य पूर्ण हो करे ।
साध्यः सप्तगुणोपेतः समस्त गुण शालिमः, शांति होम दिनेष्वेषुः सर्वेष्वप्य तिथि नयतीन्
25252525252595EE4M5PSY5PSY5P5D5
॥ ११० ॥
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050/50/5050515 kagenda VS050SESYSVS
सर्व सात गुणों से युक्त साध्य इन सब शांति और होम के दिनों में सब गुण युक्त अतिथियों और यतियों को
-
क्षीरेण सर्पिषा दद्यानिसूप खंड सितागुडैः व्यंजनैर्विविधैर्भक्षै लड्डुका पूरिकादिभिः
॥ १११ ॥
दूध, घृत, दही आदि दाल खांड, शक्कर, गुड़, लहू और पूरी आदि अनेक प्रकार खाने योग्य व्यंजनो
स्वादुभिश्चंच मोचाम्रफनसादि फलैरपि,
उपेतं भोजयेन्मृष्टं शुद्ध शाल्यन्न मादरात
॥ ११२ ॥
स्वादिष्ट चंचु (इलायची) मोचो (सुपारी) आम फनस (कटहल) आदि फलों, साफ और शुद्ध चावल और अत्र का बना हुआ और भृष्ट (काली मिर्च आदि) भोजन आये हुए को आदर पूर्वक खिलावे !
क्षांतिभ्यः श्रावकेभ्यश्च श्राविकाभ्यश्च सादरा, वितरे दोदनं योग्यं विदध्याश्वावरादिकं
॥ ११३ ॥
उस शांति के समय आर्यिकाओं श्रावकों और श्राविकाओं को भी आदर पूर्वक भात और योग्य वस्त्र आदि देवे।
कुमारांश्च कुमारीश्च चतुर्विंशति समितान् भोजयेदनु व्रत्तेतदीनानाथ जनानपि
॥ ११४ ॥
तथा प्रतिदिन चोबीस कुमार और कुमारियों तथा दीन और अनाथ लोगों को तथा अनुव्रत धारियों को भोजन करावे
होमः कृतो जिनस्नान बलिदान पुरस्सरः, अप मृत्युन रिपुन व्याधीन प्रजानां शामवेदयं
॥ ११५ ॥
जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक और बलिदान युक्त य होम अपमृत्यु शत्रुओं और प्रजा के रोगों को शान्त करता है।
नरमार्यश्च मार्याश्च अजमारि तथैवच, गोमा महिष मारि च खरोष्ट्राजाति पारिका:
॥ ११६ ॥
यह होम नर नारी की बिमारी घोड़ों की बीमारी, बकरों की बीमारी, और गायों की बीमारी, भैंस, गधे, ऊँट और बकरियों को
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PSPSPSS 1651 विधानुशासन 259595959595
पिशाच शाकिनी भूतान, बालग्रह नवग्रहान् निहन्यादि तरे वायुरारोग्यैश्वर्य संपदः
॥ ११७ ॥
पिशाच शाकिनी भूत बालकों के पूतना आदि ग्रह और नवग्रह नष्ट करके आयु आरोग्य और ऐश्वर्य की संपत्तियों को देता है।
उत्पातै भूमि कं पाद्यैस्तथा दुःस्वप्न दर्शनैः संसूचितं फलं तत्स्यात्प्रति बघ्नात्ययां विधिः
॥ ११८ ॥
यह भूकम्प आदि उत्पातों को बुरे स्वप्न आदि दिखाने पर उसका फल बतलाता है उस बुरे फल को रोकता है।
उल्लू कादिभिराकांत निंदितं यस्य मंदिरं तस्यां यं विहितः शांति शांति होमो विधास्याति
॥ ११९ ॥
जिसके निंदित घर पर उल्लू आदि आकर उसको खराब करते हों तो यह शांति विधान और शांति होम उसकी शांति करता है।
यो यो भूदझापको हेतुरशुभस्य भविष्यतः शांति होमं मुंकु यांत्तत्त तत्र यथा विधिः
॥ १२० ॥
जो जो होने वाले अशुभ का कारण होता है उन सबके लिये इस शांति होम को उस अवसर पर विधि पूर्वक करे ।
राष्ट्र देश 'पुर ग्राम खेटं कर्वटं पत्तनं, मटंबं घोष संवाह देला द्रोण मुखानि च
॥ १२१ ॥
राष्ट्र देश नगर गाँव खेटक-कर्वट-पत्तन मटंब घोष (अहीरों के गाँव) संवाह और द्रोण मुख ।
इत्यादि द्वीपां ग्रहाणां च सभानां देव वेश्मनां यापिकूपतडाकानां नदीनां च तथैव च
॥ १२२ ॥
इत्यादि द्वीपों घरों सभाओं देव मंदिरों बावड़ी, कुएँ, तालाबों और नदियों के ग्रहों को
शांति होमं पुरस्कृत्य स्थापयेद्दर्भमुत्तमं आचंद्र स्थायित तत्सर्व भवत्येव कृते सति
॥ १२३ ॥
आदि में शांति होम पूर्वक दर्भ की स्थापना करके बनवाने से वह सब चंद्रमा के समय तक स्थायी रहते हैं ।
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ग्रामो वृत्या वृतः स्यान्नगर मुरूच तर्गों पुरोद्भासिः शालं खेटं नद्यादि वेष्टतं परिवृत्तम भितः कर्वट पर्वतेन ग्रामैयुंक्त मंटब दलित दशशतैः पतनं रत्न योनि द्रोणाख्यं सिंधुबेला, जलधि वलयितं वाहम द्रिस्थ माहु:
॥ १२४ ॥
एक गोल रेखा से घिरे हुए को गाँव चारों तरफ पर कोट वाले को नगर -छोटी पहाड़ी से घिरे हुए को खेट चारों तरफ पर्वतों से घिरे हुए को कर्बट एक हजार ग्राभ वाले को मटंब रत्नों के स्थान को पत्तन समुद्र के किनारों से घिरे हुए को द्रोणमुख और पर्वत के ऊपर बसे हुये को संवाह या बाह कहते हैं ।
अथ साध्यस्यानु गुणो तारांशक वार तिथि, मुहूर्त दौ लिखितुं समारभे त प्रीते मनाः मंत्र विद्यत्र
॥ १२५ ॥
अब साध्य के गुणों के अनुसार नक्षत्र वाले अंशक वार तिथि और मूहुर्त आदि बतलाने वाले यंत्र का मंत्री के वास्ते प्रेम से आरंभ किया जाता है।
नव गोमयेन शुद्धि देशे कृत्वा कचि च्चतु ष्कृणं, मंडलमभि नव शाली स्तन्मध्ये विकरे द्बहुलं
॥ १२६ ॥
किसी स्थान में नये गोबर से भूमि शुद्धि करके उसमें चोकोर मंडल बनाकर यहाँ बहुत से नये शालि (चावलों) के दानों को बिखेर देये ।
तेषामुपरि निदध्यात् धौतं पटांवरं नूनं ज्वलितान् धृतेन दीपान् परितः संस्थापयेतंच
॥ १२७ ॥
उनके ऊपर एक वस्त्र रखकर उसके चारों तरफ घृत के जले हुए दीप को रखकर देवे
कोणेषु तस्य मलयज कम संसक्त शरक्त कृत चर्चान, अंतस्थ रत्न कनकैः संशुद्धैः पूरितान् सलिलैः ॥ १२८ ॥
उसकी कोणों में चंदन की कीचड़ से बने हुए शहाक (जल) के संग से पुते हुए अंदर शुद्ध किये हुए रत्नों और सुवर्ण से शुद्ध किये हुए पानी से भरे हुए।
नववस्त्रावृत कंठान प्रवेष्टितान् सित तरेण सूत्रेण, व बीज़ पूर फल त वजनान संस्थाप येत्कुंभान
॥ १२९ ॥
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CASICISEASOISTOSTOT5 विद्यानुशासन PASISTERISTRISTRISPES उनक (कंठान) महू पर नया वस्त्र लिपटे हुए काले से युक्त तथा मुख पर बिजौरे के फल से ढ़के हुए घड़ों को स्थापित करे।
मुद्रादी राभरण विभूषितः श्वेत वस्त्र परिधानः, आसीत सोत्तरीय स्तस्योपरि पाद दत्तस्था
॥१३०॥
करागर कुंकुम चंदन गोरोचनादि श्रुम तंत्रैः,
स्वर्ण नव रत्न युक्तै: पिष्टै क्षीरेण कपिलाया |१३१॥ मुद्रा आदि आभरणों से सजकर सफेद वस्त्र धारण किये हुए (उत्तरी) चादर आदि औढ़े हुए उसके ऊपर रखकर बैठ जावे। फिर कपूर अगर कुंकुम चंदन गोरोचन आदि उत्तम तंत्रों को स्वर्ण और नवरत्नों युक्त कपिला गाय के दूध में पीस कर
सौवणं पात्र निहितःशलाकया कनक रचितया पेतैः भूर्ज साध्य स्टस वर्णे: रांनं मृत्यु जयं चिलिरवेत
॥१३२॥
भूर्जे निचितः स्वेतैः सविंदुभि ब्राह्मणो मत स्तझैः
रक्त भूपः पीते वैश्यः कृष्णः स्मृतः शुद्धः ॥१३३॥ सोने के बर्तन में रखकर सोने की कलम (शलाका) से भोजपत्र के ऊपर साध्य के अपने अक्षरों में मृत्युंजय यंत्र को लिखे। यदि भोजपत्र पर सफेद बिन्दुओं से व्याप्त हो जावे तो ब्राह्मण लाल से क्षत्रिय पीले से वैश्य काले बिन्दुओं से व्याप्त हो तो शुद्र जानना चाहिए।
___ मृत्युंजय मंत्र अद्युत हकार कूट सकल स्वर वेष्टितं, सत्प्रणवं भूमंडल वेष्टितं समाभिलिरव्य निजेप्सितं नाम तद्वहि:।। षोडश सत्कलान्वित वकारं वृतं शशि मंडलावृतं,
स्वर युक्तंमातं वेष्ट्रा मिन बिबं वृत्त स्वर युक्त या वृतं ।।१३३ ।। असहित हः कूट(क्ष) को सब स्वरों से वेष्टित करके उसके बाहर प्रणव (ॐ) से फिर उसको पृथ्वी मंडल से वेष्टित करे उसके बाहर अपने इच्छा किये हुए नाम को लिखकर फिर उसके बाहर चारों तरफ सोलह कलाओं (स्वरों) से युक्त व को लिखे फिर चंद्र मंडल बनावे फिर उसको स्वर युक्त यान्त (र) लिखकर फिर चन्द्रमंडल बनाये फिर उसको स्वरयुक्त य से वेष्टित करें। DISTORICISIONSIRISEXSIDE९२९ PSISTERISTRISTOTHRISTOT5
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51050150DOTO5 विधानुशासन ISO1505TOISTORIES
अष्ट दलां बुजं प्रतिदलं द्विकलाद्यज मातृका नमः, पाश गजेन्द्र वस्य वर होम परांत मंत्रमालिरवेत् , वारिधि सतकं वहि रपि स्वर युक्त यकार वेष्टित ।
पार्थिव मंडलेन पिहितं पवन त्रितयेन वेष्टितं ॥१३४ ॥ उसके बाहर आठ दलदाला कमा लिटाकर प्रत्येक दल में आदि में दो कला अज (ॐ) लिखकर अष्ट मातृका देवियों में से एक एक को लिखकर नमः पाश (आंगजेन्द्र वश्य क्रों पर होम स्वाहा) पद याले मंत्र को लिखे फिर सात जल मंडल बनाकर बाहर स्वर युक्त ष से वेष्टित कर दे फिर पृथ्वीमंडल बनाकर तीन वायु मंडलों से वेष्टित करे।
भूर्जे नैवं लिरिवतं पत्रेण वेष्टेन तेन कनक वृतां इषन्मा त्रांनलिकां प्रवेष्टोत्तं च सूत्रेण
||१३५॥ इस यंत्र को इस प्रकार भोज पत्र पर लिखकर धागे से लपेट कर एक छोटी सोने की नाली में जड़वा लेवें।
यंत्र लाक्षा सहितं तत्कनकेनापि वेष्टत विन्यसेत.
शांति जिन पाद निकट प्रपूजितं गंध कुसुमायः ॥१३६ ॥ इस यंत्र को लाख सहित सोने में मढ़वाकर श्री शांतिनाथजी भगवान के चरण के समीप रख करके इसका गंध (चंदन) और पुष्पों से पूजन करे।
अथ सर्व शांति होमे समापिते शांति होमंच कुन्मिह
न्निरंतरं दिने प्रातः करुणा युतं मतामहाभिषेकं स्यात् ॥१३७ ।। इस प्रकार सर्वशांति होम के समाप्त होने पर प्रतिदिन प्रातःकाल के समय दया से भरकर शांति होम करते हुए महा अभिषेक
जिनस्य चैकं चतुःसंघ रचर्यन्मंडल कोणेषु
पूर्ण कुंभवें जिनस्याग्रे दीपाश्च ॥१३८॥ जिनेन्द्र भगयान का एक चौकोर मंडल बनावे उसके कोणों में जल से भरे हुए कलश रखे और जिनेन्द्र भगवान के आगे दीपक रखें।
भानु तस्य न्यस्य त्प्राग भागे तस्या भि नवं प्रवि कार्य मध्य भोग्ये, तस्याभि नवानि कलम बीजानि तेषामुपरि विशुद्धं श्वेत पट्टांवरं दद्यात्
॥१३९॥ उसके पूर्व भाग में भानु(सूर्य) के रहते समय उसके बीच भाग में नये धान के बीजों को बिखेर कर उनके ऊपर शुद्ध सफेद वस्त्र बिछा देवे।
चौतकला चौत रचितं पात्रं कलभाक्षतैः समापूर्ण पटां वरस्य तस्य न्यस्ते न्मध्ये गुरू सम्यक
॥१४०॥ S5ICISIOTERISPIRICISCISI९३० PADOSTORIEODESIDASI
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959695959595 विधानुशासन 269596959595
गुरु धान के चावलों से भरे हुवे अत्यंत उज्वल वर्तन को जौघौत (चांदी और सोने का बना हुआ हो उस वस्त्र के बीच में अच्छी तरह से रख देवें ।
तन्मृत्युजंय यंत्र जिनपति पादा बुंजाति के न्यस्तं, संस्थाप तत्र पात्रे गंधाद्यै: प्रार्चयेन्मंत्री
॥ १४१ ॥
उस समय मंत्री वहाँ जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में रखे हुए उस मृत्युंजय मंत्र की स्थापना करके उसका गंध (चंदन) आदि से पूजन 'करे |
॥ १४२ ॥
एवं समभ्यर्च्य यंत्रं पश्चात्साध्यस्य तस्य विधि नैव, वसुधारास्नान विधिं शांति करें कर्तुं मीहेत् इस प्रकार पहले इस मंत्र का पूजन करके फिर उस साध्य की शांति करने वाली वसुधारा खान की विधि करे।
वसुधारा स्नान विधि : ईशारामि सुखांडं पातं संयुक्त रम्यभूदेशे संमार्जिते च कपिला गोमय दधि दुग्ध यते मूत्रैः
॥ १४३ ॥
करके
ईशान कोण की दिशा की तरफ मुख करके एक पवित्र रमणीक स्थान को पहले जल से शुद्ध फिर कपिला गाय के अपतित गोबर दूध, दही, घृत और मूत्र से साफ करे ।
नाम कला पूर्णेदु समेतं मध्ये विलिख्य तस्य वहि: कोकनद कुमुद वलय रक्तोत्पल मुकुल कुसुम युर्त
॥ १४४ ॥
इसके पश्चात उस स्थान के मध्य में नाम को आं इं ॐ ऐं बीजों के बीच में लिखे और उसके चारों तरफ रक्त कमल (कोकनद) और श्वेत कमल (कुमुद) और रक्तोत्पल (लाल कमल) मुकुल (नीलकमल) अपने अपने पुष्पों सहित ।
चक्रावक वलाका सार सकल हंस मिथुन संयुक्तं,
कर्कट कूर्म दुर्दुर झष मकर तर तरगं युतं ॥ १४५ ॥
चक्र (चकवा) आह्न (नामका) वक (बगुला ) यलाका (सरसो की कतार) सारस और कल हंस (हंस) के मिथुन ) युगल) समेत केकडा (कर्केट) कछुआ (कूर्म) की दर्दुर (मेढ़क) मछली मकर हंस को चंचल जल की तरंगों लहरों सहित
चूर्णेन पंच वर्णेन परिलिये द्विपुल पद्मनी रखंड, तस्य वहि चतुरस्त्रंमंडल मालिख्य विधि नैव
।। १४६ ॥
और बड़े बड़े कमल (पद्मनी) समूहों से युक्त पंच वर्ण चूर्ण से बनावे और उसके बाहर चारों तरफ विधि पूर्वक एक चौकोर मंडल बनाये ।
कोणेष्वस्य चतुर्ष प्र विकीर्य नवानि शालि बीजानि, प्रसार्य धोतं सित मंवरं तत्
तेषु
॥ १४७ ॥
उस मंडल के कोणों में चंदन कुंकुम और पुष्पों से पूजा किये हुए श्वेत वर्ण वाले सुवर्ण और सुंदर शालि धान्य के बीजों से मुख तक भरे हुए घड़ों को चारों कोणों में रखे । 95e5P5PPSP59P6९३१ 6959/
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POSIOSDISTRISTRISIS विद्यानुशासन 35015XDIST91505251
नव वस्त्रा वृत कंठान मलयज कुसुमाचि तान् मलान्,
स हिरण्यमयं निधाय वर वीजपुर मुरथान् ॥१४८ ॥ नवीन वस्त्रों से ढके हुए चंदन और पुष्प आदि से पूजा किये हुए निर्मल जल से भरे हुए सोने (हिरण्य) के बने हुए मुख पर विजोरे (बीजपुर) फल वाले कलशों को रखकर।
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CASTOTRADITOISO105 विद्यानुशासन PASSISTRI501510555555
तस्योपरिपुष्पाणां विधाय सन्मंडपं च तन्मध्ये,
चक्र कृत रंध नवकं प्रलंब मानं घटवष्वा ॥१४९॥ इतना कार्य करने के पश्चात उस मंडल के ऊपर सुंदर भंडप (चन्दवा) तान देवे और उसके बीच में एक सा घड़ा लटका देवे जिसमें गोलाकार बराबर बराबर नौ छिद्र (रंध्र) हो।
मृत्युजयारव्य यंत्रनाम समेत विलिख्य भूज्जेदले,
आवेष्टय सिक्थेन च कनकेन च तत् क्षिपेत् कुंभे ॥१५० ॥ फिर भोज पत्र पर मृत्युंजय नाम के यंत्र को नाम सहित लिखकर और मोम या कपड़े में लपेट कर सोने में मढ़वाकर उस घड़े में डाल देवे
मृत सहदेवी सौम्या क्षीर तरू त्वक सवर्ण हरिकांताः पिंज्वो शीर हरिद्राः दूर्वा : काश्मीर कुसुमे च ॥१५१ ॥
मलय कहा . गरू चंदन मिन्टो तान्टौषधानि,
पंच दश मंत्री मंत्रं प्रपठन पृथक प्रमात्प्रेषटोत स्वं स्वं ॥१५२ ॥ फिर मिट्टी सहदेवी दूधवाले वृक्षों की छाल सुवर्ण हरिकांता पिज्ज (पिंज- कपूर) उशीर (खस) हल्दी दूर्वा (दूब) और काश्मीर (केशर) के फूल मलय (लाल चंदन) और सफेद चंदन अगर रूह (डाभ) आदि औषधियों को जल से पीसकर पन्द्रह मंत्रों में से प्रत्येक से पृथक पृथक पढ़कर अभिमंत्रित करे।
सं स्नातया विभूषित वस्त्राभणैः सुवर्ण मुद्राये,
दिज कन्या सुलक्षण युत या पट्टां बरे स्थितया ॥१५३ ॥ इनको स्नान की हुई वस्त्र और सुवर्ण मुद्रा आदि आभूषणों से सजी हुई अच्छे लछणों वाली तथा पट्ट और यस्त्र पर बैठी हुई द्विज कन्या से पिसवाये ।
अह निग्रह पुरा में स्तंभादौ पिंड संयुक्ताः,
पंच दशोक्ता क्रमशस्तर तान्मंत्र येत्कलकान् ॥१५४॥ इन पन्द्रहो को (अह) सर्पो को निग्रह करने और पहले स्तंभन आदि में लगाये हुए पिंडाक्षर सहित मंत्रों से अभिमंत्रित करे कलकान (पिसे हुए कलक अर्थात पिष्टी को ) अभिमंत्रित करे।
ॐ हा आंकों क्षीं ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं ज्वालामालिनी पंच दशौ षदायिनी प्रत्येक मुद्रतट उद्वर्तय हाँ ह्री हूँ हौं हःस्वाहाः॥
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0505101501505125 विधानुशासन PATRISTRISIOTECISCES
उद्वर्तन मंत्रः एकैकोनो द्वर्तन रस शेचनमुद्रर्त्य देवदत्तं,
तं भूम्या पतितै मलातैः पुत्तलिकां कारोदकां ॥१५५ ॥ और फिर एक एक करके प्रत्येक औषधि के कलक से उस साधक देवदत्त का उबटना करे और करने से जो मल नीचे पृथ्वी पर गिरे उससे एक मूर्ति बनावे ।
प्रवराष्ट दिक्पाल पुत्तलिका स्व स्व वर्ण संयुक्ता
लक्षण युक्तां दित्यांश्च कारटोत सिद्ध मत्तिकया ॥१५६ ॥ फिर सिद्ध मिट्टी से अपने अपने वर्ण के अनुसार सब लक्षणों से युक्त आठों दिक्पालों की दिव्य मूर्तियाँ बनावाये।
सिद्धमिट्टी की परिभाषा राज द्वार चतुः पथ कुलाल करधाम भ्रमर सरि दुभय,
तटद्विरद वृषभ श्रंग क्षेत्र गता मृतिका सिद्धा ॥१५७॥ राज द्वार चोरा-हा-कुम्हार के हाथ की उत्तम नदी के दोनों किनारों की मिट्टी भौरे के द्वारा लाई हुयी मिट्टी द्विरद (हाथी) वृषभ के सींगों के पड़े हुये स्थान की मिट्टी सिद्ध मिट्टी कहलाती है।
असितं पीतं लोहितमसितं हरित शशि प्रभं, कृष्णं बहु वर्ण चरूकं गंधादिभिर्युक्तं
||१५८॥ काली पीली लाल काली हरी शशि प्रभं (सफेद) काली बहुत रंग याली नैवेद्य चन्दनादि से मिली हुयी
नव पटलिका सुदत्वा प्रथमायां स्थापयेत् क्रमशः
शेष्विद्रा दीनां प्रतिमा संस्थापर्यत कमशः ॥१५९ ॥ नौ पटड़ियों को लेकर पहिली पर उस मल से बनी हुई प्रतिमा को और शेष आठों पर क्रमशः इंद्रादि आट लोक पालों की प्रतिमाओं को स्थापति करे।
बहिरपेको देशे मंडल मन्य द्वि लिरयते, च प्राश्वत तत्रोष्ण वारिणा पुरा स्नाप ये देवदत्तं
॥१६०॥
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SSIOSIS55105101505 विद्यानुशासन DIDIOSDISTRISTRISTRISE बाहर भी पूर्व के समान एक और मंडल बनाकर वहाँ पहले साधक देवदत्त को गर्म जल से खान करावे।
विनय ज्वाला मालिन्य पेता भ हुं युगं ततः,सर्वान अप मत्यु द्वितिय सं वं मं देवदत्तमम रक्ष युगं शांति कुरु कुरु सदरुण दधत निज बलिं गृह स्वाहा।।
मल चरू निवर्द्धन मंत्र: विनय ॐ ज्वालामालिनी संवं महुंडे सर्वान अपमृत्यन धातय धातय देव दत्तंरक्ष रक्ष शांतिं कुरु कुरु हे वरुण देवते निज बलिं गृह गृह स्वाहा ||
एवं निवर्द्ध मंत्री चरूकं मंत्रेण निक्षिपेन्नयां,
दिक्पाल कांच चरूकै रपि निर्वद्धटोत्स्वेन मंत्रेण ॥१६१ ॥ साधारण पूजन फिर निम्नलिखित मंत्र को पढ़ता हुआ मल से बनी हुयी मूर्ति चरू को भेंट करे और नदी में डाल देये विसर्जित कर दे और आठों के चरु को भी इस मंत्र से अभिमंत्रित करके सुंदर जल में विसर्जित कर देये।
ॐ कूट पिंड शिरिवनी सं वं मं हुं च देवदत्तस्रा शांतिं तुष्टिं तुष्टिं कुरू युगलं रक्ष युगलं च
दिग्देवते बलि गृहण मंत्र:
॥१६२॥
स एष होमांतः एवं निवर्द्ध विधिना बलिं क्षिपेत्स दिशि जल मध्ये
॥१६३॥ ॐ भल्यू ज्वालामालिनी संवंम हुं देवदत्तस्य शांति तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु रक्ष रक्ष हे निज बलिं गहण गृहण स्वाहा । चरू जिवर्द्धन मंलः इसप्रकार उस चरु को देकर नदी में विसर्जित कर दे और आठों दिक्पालों के चरू को भी मंत्र से देकर विधिपूर्वक सुन्दर जल में विसर्जित कर दें।
ॐक्ष्ल्यू ज्वालामालिनी सं वं में हुं हुं देवत्तस्य शांति तुष्टिं पुष्टिं कुरू कुरू रक्ष रक्ष हे इन्द्र अग्नि राम ने प्रति वरूण वायु कुबेर ईशान देवते निज बलिं गृहण ग्रहण स्वाहा॥
SISTRISTRISTRISTORISES९३५ PISTRI5DISTERIDICTS18ISS
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ಇಡಗಣಣಠಣಡ Rag೯ ಜಗಳಗಂಗಪಡಿಗಳ
दिव्यांबर भूषा कुसुम मल भजां लंकृतो व्रजेदा
उत्थाय तत्पदेशात् सत् मंडलं पादका रुठः ॥१६४ ॥ फिर दिव्य वस्त्र आभूषण पुष्प और सुगंध आदि से अपने शरीर को शोभित करके वहाँ से उटकर खडाऊँ पर छढकर चले।
कुसुमाक्षतांजलि घटो ललाटहस्त प्रदक्षिणी कत्य,
तन्मंडलं ततो सा वभि मुख मुपविशतु तन्मध्ये ॥१६५ ॥ फिर पुष्प और अक्षात दोनों हाथों में लेकर मस्तक पर हाथ रखे हुये उस मंडल की प्रदक्षिण देकर सामने मुख करके उसके मध्य में बैठ जावे।
ॐवसुधारा देवते ज्वालामालिनी प्रज्वल-प्रज्वल विजल-विजलसजल-सजल हिम-हिम शीतल-शीतल देवि कोटि प्रभानले चंद्रादुकुरु कुरु त्रिभुवन संक्षोभिनी क्षा क्षी खू खौं क्षः देवि त्वमात्म परिवार देवता सहिते देवदत्तस्य तुष्टिं तुष्टिं शीयं शीयं वरं देहि देहि सद्धर्म श्री वलायरा रोग्टौश्वर्यामि वद्धिं कुरू कुरू सर्वोपद्रव महाभयं नाशय नाशय सवपिमृत्युन घातय घातय रक्ष रक्ष नवग्रहा एकादश स्थाः सर्वे फलदा भवंतु ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हू: हाः सर्व वश्यं कुरु कुरु झों वं मं हं संतं पं स्वाहा ।।
वसुधारा मंत्रमिमं पठन तीर्योदकं च गोमूत्रं गव्यानि पंच तक्रं दधि त्रिमधुरं तथा तीरं
॥१७॥ इस वसुधारा मंत्र को पढता हुआ तीर्थों के जल गोमूत्र और गाय के पाँचो (गव्य अर्थात् दूध दही घृत मूत्र गोबर को ) तक्र दही त्रिमधुर (घी दूध बूरा) से तथा खीर से
पल्लयो दंकमपि च प्रक्षिप लंब मान घटे सं स्नाधायः स्थं तसचा द्गंधोदकं दद्यात्
||१७१।। पाँचों उत्तम पत्ते और जल को उस लटकते हुए घड़े में डाल कर फिर उसको नीचे रखकर गंधोदक देवें।
पिष्ट सयानि नवग्रह रूपाणि स्वस्ववर्ण युक्तानि
तान्यात्मवर्ण चरु कस्यो परि संस्थापयेत्प्राग्वत् ॥ १७२॥ फिर पिसे हुए द्रव्य के अपने अपने रंग के अनुसार नवग्रहों के रूप (मूर्ति) बनायाकर उनको पहले के मुताविक अपने अपने चरू द्रव्य (बलि) के साथ स्थापित करे।
15155105P3SSISTOT51035९३६ PHOT50151950150151015
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SASOISDISPIERSP विधानुशासन P5RISSISTRIOSITY
रक्तौभास्कर भौमो पीतौ बुध सुर गुरू शशांक
शितौ श्वेतो च शनिश्चरं राहु केतवः कृष्ण वर्ण स्युः ॥१७३ ॥ सूर्य और मंगल को रक्त वर्ण बुध और बृहस्पति को पीत वर्ण और शुक्र और चन्द्रमा को श्वेत वर्ण तथा शनिश्चर राहु और केतु के रूप को कृष्ण वर्ण का बनावें।
सुरभितर मलयजाक्षत कुसुमोज्वल दीप धूप संयुक्तै:
चरूकैनिंबद्धंयते: क्रमेण तं स्वेन मंत्रेण ॥१७४ ॥ फिर अत्यंत सुगंधित चंदन अक्षत्त पुष्प प्रज्वलित दीपक धूप फल सहित चरु (बलि) को लेकर उसको निका लिखित मंत्र से आरती करे।
ॐ ज्वालामालिनी सर्वाभरणभूषिते ग्लौं ग्लौं हाक्लीं क्लीं क्ली क्लीं ललल ल सर्वापमृत्यून हन हन त्रासय त्रासय हुं हुंदुं हूंजूंस:जूंस:फट फट घघे सर्व रोगान दह दह हन हन शीघं देवदत्तं रक्ष रक्ष नवग्रह देवते निज बलिं गृहण गृहण स्वाहा ॥
नवग्रह चरू निवर्द्धन मंत्र: एवं निवर्द्धन सम्यक चरूकं तं निक्षिपनंदी मध्य ,
स्नानोद्भवमलचरूकेण सह स्वादिश स्व मंत्रेण ॥१७५ ॥ इस प्रकार स्नान के मल से बनी हुई चरू (बलि) को अपनी अपनी दिशा में अपने अपने मंत्र से नदी के मध्य में विसर्जित कर देवे।
स्नानांतरमथ तद्वस्त्रालंकार रन कुलशाद्यांना
न्टरमै न देयं स्वयं गृहीतत्यमात्म योग्यमिति ||१७६॥ स्नान के पश्चात यसा अलंकार और रत्न कुलिश(बज़) आदि (कलशघड़े) को दूसरे के लिए नहीं क्योंकि वह अपने अर्थात् आचार्य के योग्य होते हैं, उनको स्वयं ग्रहण करें।उनको स्वयं ग्रहण करे।
परिधानु मलंकतं दत्वां वर भूषणादि तस्यान्यत,
पश्चादन्यत्र शुचौ देशे सन्मार्जिते चतुष्क युते ॥१७७॥ किन्तु अपने दूसरे वस्त्र आभूषण आदि दे सकता है उसके पश्चात दूसरे पवित्र किये हुए (चौक पूरे हुए) स्थान में (चतुष्क) आंगन या ऐसा कमरा जो चार खम्भों पर बना हुआ हो।
वघ्नातु ततः पश्चाद ग्रीवाया अस्य देवदत्तस्य,
रोगाय मृत्यु हीनं विद्या मृत्युंजयां सद्य ।।१७८॥ फिर उस देवदत्त की गर्दन में रोग अपमृत्यु को नष्ट करने वाले मृत्युंजय नाम के यंत्र को बाँधे ।
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SSIR51215105055 विधानुशासन PARTSPIDERSION
धौत सित वस्त्र पिहिते पट्टक पीठे निवेश्य विधिनैव ,
अति सुरभि कुसुम वृष्टि स्नानेन स्नापयेत् मंत्री ॥१७९ ।। मंत्री इस प्रकार उसको श्वेत वस्त्र से ढके हुए पीले पाटे पर विधिपूर्वक बैठाकर अत्यंत सुगंधित जल से निमलिखित मंत्र से उस पर फूल बरसाते हुये स्नान करावे।। ॐको ज्वालामालिनी ही क्ली ब्लूं द्रां दी हां आंको क्षीं देवदत्तं सुगंध पुष्प जानेन सर्व शांति कुरु कुरु वषट् ॥
पुष्प वृष्टि स्नान मंत्र: एवं विधिना मजस्य तस्य प्रशिनिय नाति
देवी श्री सौभाग्य रोग्यं तुष्टिं पुष्टिं ददाति सदा ॥१८९।। ज्वालामालिनी देवी इसप्रकार स्नान किये हुए देवदत्त को सौभाग्य आरोग्य तुष्टि और पुष्टि निरंतर देती है।
आयुर्वर्द्धयति ग्रह पीडामपहरति हतुं शत्रु भयं,
नाशयति वित्त कोटिं प्रशमयति च बहु विधान रोगान् ॥१९०॥ आयु को बढ़ाती है ग्रह पीड़ा को नष्ट करती है शत्रु के भय को नाश करती है और विन समूह को नाश करती है। नाशयति चित्त कोटिं चित्त-मृत्यु के देयों के समूह को नाश करती है , और बहुत प्रकार के रोगों को नष्ट करती है।
एतत ज्वालामालिन्योक्तं सर्वापमत्यु नाशकरं
वसुधोरारख्यं स्नान करोति शांति विनियुक्तं ॥१९१ ॥ इस ज्वालामालिनी देवी के कहे हुए सब प्रकार की अपमृत्यु को नाश करने वाले वसुधारा नाम के स्नान को शांति के वास्ते विधिपूर्वक करना चाहिए
मृत्युंजय गुरू स्तनधाधैमहतिममत मंत्रण अभि मंस सप्त कत्वः प्रजपेद पराजित मंत्र
॥१९२॥ इस मृत्युंजय मंत्र को गुरू गंध आदि से पूजकर उसको अमृतमंत्र से अभिमंत्रित करके अपराजित मंत्र को भी सात बार जप कर अभिमंत्रित करे।
अथ साध्यः शांति जिनं प्रदक्षिणी कृत्य गंध पुष्पायैः, प्राच्यनिम्य जिन सानोदक सिक्तो ग्रतस्तिष्टेत ॥१९३ ।।
5215015015015105051९३८ PISTORI5015215215055
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इसके पश्चात साध्य. शांतिनाथ भगवान की प्रदक्षिणा देकर उनका गंध और पुष्पादि से पूज कर जिनेन्द्र भगवान के खान के जल (गंधोदक) से गीला होकर सामने बैठे।
तद्यत्रमुपादाय प्रातः साध्यस्य व वघ्रीयात्, बाहौ कंठो वस्त्रे निस्त्रिंशको सेवा
॥ १९४ ॥
फिर गुरू प्रातः काल के समय उस मंत्र को लेकर साध्य की भुजा कमर वस्त्र या गले में बाँधे । अथ मृत्युंजय यंत्र का फल
शांतिं तुष्टिं पुष्टिं भद्र जयंमैश्वर्यमायुरारोग्यं, सौभाग्यमिष्ट सिद्धिं श्रियं च वितनोति यंत्रमिदं
॥ १९५ ॥ यह मंत्र शांति तुष्टि पुष्टि कल्याण विजय ऐश्वर्य आयु आरोग्य सौभाग्य इष्ट सिद्धि और लक्ष्मी को देता है।
अल्प मृत्यु यक्ष राक्षस भूत पिशाचास्तु शस्त्र शाकिन्यः,
शक्तैतं स्य महत्या सद्यो वैकल्प मायाति ॥ १९६ ।।
इस मंत्र की महान शक्ति से अल्प मृत्यु यक्ष, राक्षस भूत पिशाच शस्त्र और शाकिन्या सभी व्यर्थ हो जाती हैं अर्थात् साध्य को कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकती हैं और साध्य की सभी कमियाँ दूर हो जाती हैं।
जयति दश नाग राजान वृषलूता शालि कीट भेदांश्च, स्थावर जंगम कृत्रिम विषं च यंत्रं निहंत्येतत्
॥ १९७ ॥
यह यंत्र राज दस प्रकार के नागेन्द्रों बेल कान खजूरों और शालि कीड़ों के भद तथा स्थावर जंगम और कृत्रिम विष को नष्ट कर देता है।
भेरुंडाधान प्रबलान व्योम चर प्राणिनो न यांति, नरं यंत्र मिदं वित्राणं शरभाः सिंहाः करींद्राश्च
॥ १९८ ॥
इस यंत्र को धारण करने वाले पुरुष के पास भैरुड़ आदि आकाश चारी प्राणि शर्म (पक्षिराजअष्टापद) सिंह और हाथी आदि नहीं आ सकते हैं। (वित्रस्त डरे हुए) अर्थात् निर्भय रहते हैं।
क्रूर ग्रह निकरेभ्यो नव ग्रहे भ्योरि चोरमारिभ्यः, व्याघ्र वृक क्रोड़ कश्या आदिभ्यश्चैतदभिरक्षेत्
959595951999 १३९ 959595959
॥ १९९ ॥
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SASRISTRISTOTRIOTSIDE विधानुशासन PSDISTRISR50505 यह यंत्र क्रूर ग्रहों के समूह (निकट समूह) नव ग्रह शत्रु चोर महामारी वृक (भेड़िया-कांग-गीदड़) क्रोड़ (सूअर) करय (भैंस) कक्ष्य (हाथी) आदि से रक्षा करता है।
शवयास्था अविनश्यति शक्ति भंश माश्रुशुक्षणैज्वलत:
न च भवति जातु भीतिर्वजा शनि पतन वाधायाः ॥२००॥ इस यंत्र की शक्ति से अग्नि की उष्णता नष्ट हो जाती है और न उसके धारण करने से कभी बिजली के गिरने का भय रहता है।
रक्षति नदी प्रवाहान्मकरा कर सलिल संकटाचैतत्,
तिमि मकरोदः रात् वारि चर प्राणिनिकराच्च ॥२०१॥ यह नदी के प्रवाह समुद्र के जल के संकट तथा तिमि (व्हेल मछली) और मकर (मगरमच्छ) आदि क्रूर जलचरों के समूह से भी रक्षा करता है।
जनरोद्भिन्न कुचांस्तन हीना मत मती रजो रहितां,
उत्पन्न वद पत्यां बंग्या मेतद् पतं यंत्रं ॥२०२॥ इस यंत्र को धारण करने से बिना स्तनो वाली ऊंचे ऊंचे स्तनों से युक्त, बिना रजोधर्म वाली अमृत से युक्त और बंध्या बहुत सी संतानों से युक्त हो जाती है।
अन्यानपि शांति कारकानि यंत्राणि
संति तान्य पि धारयेत् तेषामुद्धारः ।। इसके अलावा और भी शांति करने वाले यंत्र है उनको भी धारण करना चाहिए वह कहे जाते हैं।
साध्यानामापि प्रेतार्थ प्रार्थना सहितं,
ॐकारादि कुरु द्वय स्वाहांतर्मध्ये लिरवेत् वहिः ॥ साध्य के नाम तथा इच्छा की हुई प्रार्थना के आदि में ॐ और अंत में कुरु कुरु स्वाहा मध्य में लिखे इसके बाहर- ॐ अहँ ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं स्वाहा।
इत्येनन मंत्रेणा चाटा तद्वहि सबिंदु टांत कूटाभ्यां संवेष्टय तदहि स्वरेरा चार्य वहि भिया क्षरेण। वलयं विधाय तदही भूमंडलं दत्वा तदनु स्वर
व्यवहीतं हंस जैन संवेष्टय ठकारेण वलयी कृत्य। SSC5555105075513151९४० PASTRISTOTSIDIDISISTOISSASS
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0505PSP/SMSPS dugniaia Y50/505050595
तदनु सकल स्वर सहित यांत वेष्टितं कृत्वा पुनः श्वकारेणाचार्याः पुनः सकल कलान्विर्तनान्त । बीजेन वलयी कृत्य तदुन आधार वलयं दत्वा अष्ट दलांबुजे पूर्वादि पत्रेषु प्रादक्षिण्येन । ॐ अ आ बाह्यै नमः आं क्रौं स्वाहा ॐ इ ई माहेश्वर्ये नमः आं क्रौं स्वाहा ॐ उ ऊ कौमार्यै नमः आं क्रौं स्वाहा ॐ ऋ ॠ वैष्णये नमः आं क्रौं स्वाहा ॐ ल ल वाराहयै नमः ॐ क्रौं स्वाहा ॐ ए ऐं ऐन्द्रय नम: आं क्रौं स्वाहा ॐ ओ औ चामुंडयै नमः आं क्रौं स्वाहा ॐ अं अः महालक्ष्म्यै नमः आ क्रौं स्वाहा
इति लिखित्वा
तदनु वारि बीज सहित सप्त समुद्रान विलिखत्वा तद्बहिः स्वरांतरित हुं फट इत्यनेन वलया कारेण वेष्टियित्वा तद्बहिर्वायु मंडलं वन्हि मंडलं त्रयं च दत्वा बाहये ।
ॐ देवाधिदेवाय सर्वोपद्रव विनाशनाय सर्वापमृत्युंजय कारणय सर्व सिद्धिं कराय ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं ॐ ॐ क्रौं क्रौं ठ ठ देवदत्तस्या पमृत्युं धाता धातय आयुष्यं वर्द्धय वर्द्धय स्वाहा
इति मृत्युंजय मंत्रेणावेष्टय भूमंडले नालं कुर्यात् . मृत्युं जिदा व्हयं यंत्र धारयेत् पूजयेत् सदा हितश्रिया युष्यो नित्यं पीड़ा दुःखादि वर्जितं ग्रहान् जयति निःशेषान् शाकिन्यो यांति दुःखतां दुष्ट मृगाश्च नश्यति यंत्रस्यास्य प्रभावतः साध्य का नाम तथा इच्छा की हुई प्रार्थना के आदि मे ॐ और अन्त में कुरु कुरु स्वाहा लिखे यह मध्य मे लिखकर इसके बाहर
॥ २०४ ॥
11 203 11
ॐ अहं ऐ श्रीं ह्रीं क्लीं स्वाहा
इस मंत्र से वेष्टित करके आचार्य उसके बाहर बिन्दु सहित टांत (ढ) कूटाभ्यां (क्ष) से वेष्टित करे
95PSPA PSR505]‹‹‹ PSV505PSR50595.
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SSIOSTOSTEDRISTOT5 विद्यानुशासन SISTRISTRISTOTS8585S उसके बाहर १६ स्वरों से वेष्टित करके उसके बाहर ब्राह्मी आदि आठ आदि देवियों के अक्षरों को ॐ का वलय देकर, उसके बाहर पृथ्वी मंडल बनाकर उसके पश्चात स्वरों को बीच में लिए हुए हंस बीज से घेर कर ठकार का वलय देकर उसके पश्चात सब १६ स्वरों सहित यांत बीच (र) से वेष्टित करके फिर आचार्य सब स्वरों(कला) सहित नांत बीज (प) से घेर कर उसके पश्चात बलय बनाकर अष्ट दल कमल के अन्दर पूर्वादि पत्तों में दाहिनी ओर से
ॐ अ आ ब्राझे नमः आं क्रौं स्वाहा ऊइई माहेश्वर्यै नमः आंकों स्वाहा ॐ उऊ कौमाय नमः आंको स्वाहा ॐ ऋऋ वैष्णटी नमः आं क्रों स्वाहा ॐ ललवाराहयै नमः आंकों स्वाहा ॐएऐ एन्ट्रैय नमःआं क्रों स्वाहा ॐओ औ चामुन्डै नमः आं क्रों स्वाहा
ॐ अं अःमहालक्ष्मये आंकों स्वाहा ॐ यह लिखकर उसके पश्चात जल बीज सहित सात समुद्रों को लिखकर, उसके पश्चात स्वरों के बीज में हुं फट को गोलाकार में लिखे उसके बाहर वायु मंडल उसके बाहर तीन अग्नि मंडल देकर उसके बाहर मृत्युंजय मंत्र को लिखे जो निम्नलिखित है।
ॐ देवाधि देवाय सर्वोपद्रव विनाशनाय सर्वापमृत्युंजयकारणाय सर्व सिद्धिं कराय ही हीं श्रीं श्रीं ॐ ॐ क्रों को ठः ठः देवदत्तस्याप मृत्यु यातय घातय आयुष्ट्यं वय वर्द्रय स्वाहा इस मृत्युंजय मंत्र से वेष्टित करके पृथ्वी मंडल से अंलकृत करे। इस मृत्युंजय नाम के यंत्र को सदा धारण करने से और पूजने से सदा हित होता है, लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और दीर्घायु की प्राप्ति होती है तथा पीड़ा और दुःखों से रहित रहता है। यह यंत्र सब ग्रहों को जीतता है, इससे शाकिन्यों को बहुत दुख होता है और इस यंत्र के प्रभाव से दुष्ट मृगादि जन्तु भी नष्ट हो जाते हैं।
ग्रंथान्तरे अन्य मृत्युंजय यंत्र यह है सबिन्दु जांतोदरजं वरंपदं स होममह लपरंह: पश्चहःक्षि बीज पूर्व स्वर टांत वेष्टितं स्वरा वृतं द्वादश पद्म पत्रतः सांतं द्वादश सत्कलान्वित पदं पीयुष पंचाक्षरं क्षी ची ची सपरं च बिन्दु सहितं सहोमम ग्रे लिरवेत् याहने जल संपुटं परिवृत्तं मृत्युंजयारव्यैः पदैस्तद्वाह्ये जलसंपुटं क्षिति मृतं मृत्युंजयेनाच्वयेत्।
SHOTSIDEOSITISTRISTS९४२ 510151015101510151055105
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Ci5015121521521STS विधानुशासन P50351DISEASIRSARIES
इति मृत्यंजय चक्रं ॐनमोर्हतेभगवते देवाधिदेवाय सर्वोपद्रवविनाशनाय सर्वाप मत्युंजय कारणाय सर्व सिद्धिं कराय ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं ॐॐकों को ठ:झं वं व्ह प:क्षि वीं ध्वी हंस असि आउसा अह अमुकस्टा अपमृत्यु धातय धातय आयुष्य वर्द्धय वटा स्वाहा। (ईत्येनेनन वेष्टय पुनर्नकः पः हः एभि प्रत्येक वेश्येत पुनः पूभिर्वेष्टयेत ठ ठा ठिठीठु ठूठे है ठो ठो ठंठः पुनः स्थरै वेष्टयेत इति कर्णिका। हहा हि ही हु हु हे है हो हो हंह: इत्यं प्रत्येकं पत्रेषु लिरवेत्।एकेकं एकेक झंवं व्हःपःहामृत्युंजय
इति । चतुर्भिरक्षर वेष्टेटोत पूर्वादि दिक्षु चतुर्रिक्षु। बिंदु (अनुस्वार) सहित जांत बीज (झ) के उदर (चीज) में होम (स्वाहा) सहित वरं पदं लिखे अर्थात वरं कुरु कुरु स्वाहा लिखकर इसको (झ) से घेर कर बाहर अर्ह लिखे बाहर लपर धीज (वः) फिर हः फिर प बीज फिर ह बीज फिर क्षि बीज से वेष्टित करे बाहर टांत बीज (ट) को सब स्वरो सहित लिङ फिर सब स्वरों को लिखे फिर बारह दल के कमल में सांत बीज (ह) को चारह स्वरों सहित लिखे फिर पांच पीयूष (अमृत) अक्षरों को अर्थात् झं यं रह पः हः लिखे इनके आगे क्षी झ्वी ची लिखे फिर सपरं (ह) बीज को बिन्दू (अनुस्वार) सहित अर्थात् (ह) लिखे फिर सः लिखकर होम (स्थाहा) बाहर सांत (हं) को स सहित संपुट से हंस के येष्टित करे फिर मृत्युजय पद लिने इसके बाहर जलमंडल फिर पृथ्वी मंडल लिखे यह मृत्युंजय यंत्र है इसकी अष्ट द्रव्य से पूजन धारण करे।
हंस स्वाहा
पलव्यू
ॐईस्वी वी हंस स्वाहा
CTERSISTERSITERSITICISIOISI९४३ ASTA5TTISISTETRIOSIKSI
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CASIOX51065T015IDIST015 विधानुशासन SXSAXSRISTRISTOTRIOSI
संरक्षणी आकर्षणी ॐ हूँ हूँ फट् योगिनी ॐ अमृत घरे डाकिनी गर्भ| संरक्षणी आकर्षणी ॐ हूँ हूँ फट् । देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा
अमृत घरे डाकिनी गर्भ आकर्षणी ॐ हूँ यागिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा * अमृत घरे डाकिनी गर्भ संरक्षणी फट् योगिनी देवदत्त रक्ष रक्ष स्वाहा
ॐ
ॐ रुरु बले हा ही
रवले हा ही हूँ ही ह
घर भर विशुद्धे हूँ हूँ योगिनी
|देवदत्तं रक्ष रक स्वाहा । | ॐक्ष योगिनी । देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा ।
देवदत्त रक्ष रक्ष स्वाहा । त्रिशुद्धे ॐ हूँ हूँ योगिनी
। अमृत घरे घर घर ॐ अमृत घरे धर धर विशुद्धे अमृत घो
* रु रु वल हां हा हूँ हाँ ह. पाश्मी ट्यूहमा मःसर्व
नाम
IMIMIN
या क्ष्मी मूं श्मौ क्ष्मः सधं योगिनी
औ
हूँ हों ह क्ष्यां क्ष्मी क्ष्म मों म. सर्व योगिनी
ए
रं
रं रं रं
रं २ र रं रं
योगिनी दवदत्तं रक्ष रक्ष स्वागत
M
आ
वदत्त रक्ष रक्ष स्वादा।
देवदत्तं र
क
13 | ॐ यज घरे बंध र बजगाशेन
योगिनी देवदत्त रक्ष रक्ष स्वाहा ॐ वज धरे बंध २ वज
योगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा * बज धरे बंध २ वर्ज सर्व दुष्ट विन्ध विनाशकानां ॐ
दवदच रक्ष रक्ष स्वाहा सर्व दुष्ट विन्ध विनाशकाना हूँ शू
पाशेन
योगिनी
SASRISTRISTOTRICISIO5251९४४ PET95015015123051205
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esebesP555 विद्यानुशासन PSPSP595te
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देवदत्तवश्य करूर स्याह
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देवाभि
मत्यजय
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नाम झौंकार मध्ये वहिरपि वलयं षोडश स्वस्तिकाना माग्नेयं गेह मुवन्नव शिरिव मथ तद्वेष्टितंत्रि कलाभि दद्याद्वाह्येस्य चत्वार्यं मर पुर पुराण्यं अंतरालस्थ मंत्राण्ये तत्र तत्र लिखित में पहरेत् शाकिनीभ्य सुभीतिं ।
के बीच में नाम को लिखकर उसके चारों तरफ १६ स्वस्तीक बीज लिखे फिर अग्निमंडल बनावे उसको तीनबार १६ कलाओं से वेष्टित करे। उसके बाहर पृथ्वीमंडल में चार अमरपुर में अंतराल से निम्नलिखित मंत्र लिखे इस मंत्र को विधिपूर्वक लिखा जानेसे शाकिनी भय नहीं होता है । मंत्रोद्धार :
959595959595954 POPS
SPSPS
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CSPSP5952
विधानुशासन 959595959526
ॐ वज्रधरे बंध बंध वज्रपाशेन सर्वदुष्ट विघ्न विनाशकानां ॐ हूं हूं योगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा । एर्वास्यांदिशि !!
ॐ अमृत घरं घर घर विशुद्धे ॐ हूं क्षं योगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा ।
॥ दक्षिणस्यां दिशि ॥
ॐ अमृतद्धरे डाकनी गर्भ संरक्षणी आकर्षणी ॐ हूं सूं फटे योगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा | पश्चिमीस्यां दिशि ।।
ॐ रूरू वले ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः क्ष्मां क्ष्म क्ष् क्ष्मः सर्वयोगिनी देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहा ॥ उत्तरदिशि ॥
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Page #953
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SSIONSRISTRISADISADIS विधानुशासन BASTISTRISRASTRI5105
इत्थं होम विधिश्च स्वपन विधानं यंत्र धारण च,
कथितानि सर्व शांति क्रिया विधानानि कार्तस्न्टोन ॥२१६ ।। इस प्रकार होम विधि स्नान विधि और यंत्र को धारण करने की विधि का वर्णन करके सर्व शांति विधान की क्रिया को कार्तरन्य (सम्पूर्ण रुप) से कह दिया
एकैक मप मीषां दातुमलं सर्व शांति कर्म फलं
किमुच समवाय एषाम नुक्ता नां विधानौ ॥२१७।। इनमे से एक एक को देने से ही सति कर्म का क्या मिला है फिर अला विधान को जानने वाले यदि इन सब को दे तो कहना ही क्या है।
सर्व शांति रिति प्रोक्ता प्रपंचित वहु किया इति मत्युजय विधानं,
अथ नीरांजना दीनि वक्ष्याम्याधि कृतान्यहं ॥ २१८॥ इसप्रकार बहुत क्रिया के विस्तार वाली सर्वशांति का वर्णन किया गया है। मृत्युंजय विधान सम्पूर्ण हुआ , अब अधिकार में आए हुए नीरांजन (उतारा) आदि की विधि का वर्णन किया जाएगा।
नीरांजन विधि परि महितेन पिष्टेन कारयेत्स्वस्थवर्ण युक्तानि
प्रवराष्ट मातकानां मुरखान्यालंकार सहितानि ॥२१९ ॥ मल कर पिसी हुई सिद्ध मट्टी से अपने अपने वर्ण के अनुसार सहित मुख्य अष्ट मातृका देवियो के मुख अलंकार सहित बनाए । .
बहु चरक मलराज कुसुमाक्षत दीप धूप सहितेन
एकैकेन मुखेन तु निवर्द्रीत्प्रति दिन विधिना ॥२२०॥ और बहुत प्रकार के चरु नैवेद्य चंदन पुष्प अक्षत दीप और धूप से प्रति दिन एक एक के मुख का भोग लगाए।
कूटय झंकांत चांत ठकारा वुधि सांत पिंडसंभूतैः __ मंत्रं निवर्द्धोन्मातृके बलिं गृह ग्रह होमांतैः ॥२२१॥ ॐल्यूं म्ल्ब्यूँ इम्ल्यूँ बम्ल्यूँ छम्ल्ट' ठम्ल्यू हल्यूँ बीजों में से उस मातृका का पूर्वोक्त क्रम से नाम लगाकर मातृका के बलिं गृहण गृहण स्वाहा मंत्र से बलि दे।
ॐ ह्रीं क्रों क्ष सर्वलक्षण सम्पूर्ण स्वायुध वाहन चिन्ह सहिते हे ब्राह्मी बलिं गह
गृह देवदत्तं रक्ष रक्ष स्वाहेत्यादि ॐ ह्रीं क्रौं हम्ल्यू इत्यादि मंनिवर्द्धनं कुर्यात् ॥ SSESSIOSDIHIRORISTRPIRICISTRICT58130TRIES
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SEDI5015106510S015 विधानुशासन HS61585DISTOTSIDIN
एकैकमपि निवईनमनेक दोषापहारि भवति जणां
एवं निवऱ्या धीमान जल मध्टो तं बलिं दद्यात् ॥ २२२ ॥ एक एक की ही बलि देने से पुरुषों के अनेक दोष दूर हो जाते हैं इस प्रकार कार्य करने से सब बलि को जल में विसर्जित कर दे।
ब्राह्यादिमुरव नीरांजनं व्राह्मी आदि आठों मातृका देवियों के मुख की आरती करे
नवग्रहों की शांति का विधान
नाग विधि जलं गंधाद्र कृतया परिमदितया प्रशस्त मृतकया
पिष्टेन वा सुशालै र थवा गोधूम पिष्टेन ॥२२४ ॥ जल और गंध (चंदन) मे गीली की हुई मिली हुई उत्तम सिद्ध मिट्टी अथवा उत्तम चावलों या गेहूँ के आटेसे
कथित निज फणसमेता: सलक्षणः स्वग्रह प्रभाः,
कार्याः नागास्ते हस्त मिता एक वृतास्त्रि प्रमाणा वा ॥२२५ ।। पूर्वोक्त कहे हुए अपने फण सहित अपने अपने लक्षणो सहित अपने घर की सी कांति याले नागों की आकृति बनाए वह नाग एक हाथ ऊँचे एक या तीज कुंडल वाले हो।
इति नाग विधि: गुडोदनं रवेरिंदो नागस्य तपायसं, गुड पाटास मारस्य चांद्रस्साज्यो हरिन्चकः
॥ २२६॥ (रवि) सूर्य के नाग का गुड़ और भात इन्दु (चन्द्रमा) के नाग का घृत और खीर, मंडल का गुड़ और खीर, बुध के नाग का घृत ।
जीवस्याहेगुड़ स्यान्नं शुक्रस्य तु यतौदनं, सौरेश्वरुपतो पेतस्तिल चूर्ण विमिश्रितः
॥२२७॥ वृहस्पति के नाग का गुड़ का अन्न शुक्र का घृत और भात और शनिश्चर के नाग का घृत युक्त नैवेद्य तिलों के चूर्ण से मिला हुआ हो।
प्रियं माषोदनं राहौः शरवश्वक्त्यांर्पितांबु वा,
नाग राजस्व के तोरपे तदेव प्रियं स्मृतं CASDISTRISTRISTRISI05051९४८ PISTA505251005051035
|| २२८॥
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CISIOTSSISTRISTRICT विधानुशासन PERHOSDISORDS राहु के नाग का उड़द और भात शंख और सीप युक्त जल प्रिय होता है। तथा केतु के नागराज को भी यही प्रिय होता है।
स्याहों के मंत्र सूर्य का मंत्र
ॐ वंधूक रक्तोत्पल सद्दश मूर्ति लोक नाथ महा देवादित्यः शांतिः प्रयच्छतु स्वाहा चंद्रमा का मंत्र
ॐ विमहार शंरव काश समप्रभ रोहिणी पतिश्चन्द्रः शांतिं वः प्रयच्छतु स्वाहा ॥ मंगल का मंत्र
ॐ भूमिपुत्र रक्त चंदनाभ कुमारांगारकःशांतिं वः प्रयच्छतु स्वाहा बुध मंत्र ___ॐ शिरीष पुष्प तुल्य सोम पुत्र बुधः शांतिं वः प्रयच्छतु स्वाहा वृहस्पति मंत्र:
ॐ स्वर्ण युति महा मह पूर्ण शशांकस्य वृहस्पतिः शांतिं वः प्रच्छतु स्वाहा शुक्र मंत्र:
ॐ भृगु पुत्र कुंदेन्दु वर्ण विशाल कीर्ति विग्रह कारि शुक्रःशांति वःप्रयच्छतु स्वाहा शनैश्चर मंत्र:
ॐ अंजन नीलोत्पल निभाय तिलोचन शनैश्चराय नमः शांति वःप्रयच्छतु स्वाहा राहु मंत्र:
ॐ मुंड राहु स्वर्भानु चंद्र ग्रास क शांति व प्रयच्छतु स्वाहा केतु मंत्र:
ॐ केतु घर केतु सुकेतु सूर्य ग्रासक शांतिं वः प्रयच्छतु स्वाहा
सूर्याधुरगफणा सु स्थाप्या मणयः क्रमेण
माणिक्या मुक्ता प्रवाल मरकत पुष्प स्फटिकेन्द्र नीलाश्च ॥ सूर्य आदि के नागों के फणों में क्रमशः निम्नलिखित मणियों की स्थापना करें। सूर्य = की माणिक्य चंद्र = मुक्ता मोती मंगल = प्रवाल मूंगा बुध - मरकत पन्ना
SISTRI58525105505DISI९४९ DISTRISDISTRISEX522551065
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________________
9595
बृहस्पति
शुक्र
शनैश्वर
दहन
अभिव
= पुष्प पुखराज स्फटिक
w
राक्षस
हरित
=
रविवाराद्या क्रमतो वाराः स्यु कथित जटिल केशावे: वारा मंदस्य पुनर्विदद्यादाशी विषस्यापि
॥ २६० ॥
इन ऊपर कहे छुए सूर्य आदि ग्रहों के वार रविवार आदि है केतु व आशि विष सर्प और शनिश्वर दोनों का ही शनिवार होता है
58/595 विधानुशासन 9595PSPSS
उन सूर्य आदि ग्रहों की दिशाएं क्रम से निम्नलिखित हैं।
सूर्य
=
पूर्व
अनिल
यम
यक्ष
त्रिनयन =
=
=
इंद्रनील (नीलम)
=
इंद्रा निल राम यक्ष त्रिनयन दहनाध्वि राक्षसां
हरितः इह कथित जटिल केश प्रभृती नास्युः क्रमेण दिशः ॥ २६१ ॥
इन्द्र
अनि
दक्षिण
नैऋत्य
पश्चिम
वायु
उत्तर
ईशान
=
ऊपर आस्मान
इह कथिता शादि युतैः स्वच्छां बुभि गंध पुष्प उल भक्षै:, सप्तैकाविशांति र्वादिवां दिनानि नामान्ये यं जिज्ञाशायां ॥ २६२ ॥
इति नाग पूजा विधि
इस प्रकार कही हुई दिशाओं आदि से युक्त इन नागों की स्वच्छ जल चंदन पुष्प फल और भक्ष द्रव्य नैवेद्य से इक्कीस आदि दिनों तक पूजा करें
नवग्रहों की बलिदान विधिः
अथ पूजां प्रत्यहं भोमध्ये बलिं स्वदिश्ये वं दद्यान्न व गृहेभ्यः सन्मंत्री वक्ष्य माणममु
॥ २६३ ॥
959595959595954. P959595959नक
PSY5P5PSY5PGP5
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CHEDRISTOTRAS I C SISTRISTOISIOSSISTOISE पूजा के समाप्त होने पर प्रतिदिन जल में नवग्रहो की अपनी अपनी दिशा में नवग्रहों के लिए निम्नलिखित प्रकार से उत्तम मंत्री बलि दे।
भर पूप शकुलिका शोक वति काशि,
अन्यैश्च विचित्रास्टौ भन्नव पटलि का निहितैः ॥२६४ ॥ पूर्व लष्टु कचोरी अशोक की बत्ती आदि तथा अन्य भी विचित्र प्रकार के भोजनों को नई तस्तरी मे रखकर
नातं मलयज लिप्तं यूत सित कुसुमं सु भूषितं,
विधिना ग्रह पीड़ित विषणं निवर्द्ध येत्स्वं जपन मंत्री ॥२६५ ॥ स्नान किए हुए शरीर में चंदन का लेप लगाए हुए सफेद पुष्यों से भूषित (धारण किए हुए) और विधि पूर्वक सजे हुए ग्रह से पीड़ित दुखी साध्य को मंत्री मंत्र जपता हुआ निवर्द्धन करे।
आदाय पटलिका नामभि नव गंधाक्षत प्रसून युता,
नव यौवन स्व पुंसः सो स्मीपे मूर्द्ध निनस्येत् ॥२६६ ।। फिर उस तस्तरी को लाकर नए चंदन अक्षत फूलों से युक्त करके नए यौवन वाले पुरुष के सिर पर रखे।
दीपात पत्र चामर वाहन मान ध्वजादि शोभितटा,
गत्वा महाविभूत्या तिष्टे साँमसि कटि द्वयसे ॥२६७ ।। दीपक छत्र चमर सवारी गाड़ी ध्वजा आदि से शोभित बड़ी भारी विभूति सहित अम्भस (जल) के किनारे बैठे।
अस्यानुचरस्य शांत्यै बलिं कृत्वा रमा भिरेष युष्माकं,
ग्रह देवताः प्रसन्ना यूयं भूयास्तंस्ते पठेत् ॥२६८ ॥ तब मंत्री यह कहे कि हे ग्रह के देवताओं इस अनुचर की शांति के वास्ते हम तुम्हारे लिए बलि देते हैं। अव प्रसन्न हो जाएं।
अस्य अनुचरस्टा शांत्यै बलिं कत्वा अस्माभिरे षयुष्माकं ग्रह देवताः प्रसन्ना यूयं भूयास्तव ॥
अथा तः मुक्तान्ती राम पटलिकया सह निमग्र,
तत्त जले तां प्रोजझित्त वलोकिक स्तेन्षा तत्तो गच्छेत् ॥ २६९ ।। CSIRSTOSTERSTISTORIES९५१ ISTRISTRISTRISTRATRISTRIES
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PSPSPPSP595 विधानुशासन DPSPPSP596
इसके पश्चात बलि वाली उस तस्तरी को बलि द्रव्य सहित ही उस जल में डुबा कर उसे वहीं छोड़ कर पीछे बिना देखे हुए वहां से चला आए ।
(तीर - किनारा-निमग्र डुबोकर प्रोजझित छोड़कर)
=
बलिदान विधि
देवी दिव्यानां चेत्यंबा अंबालिका च कूष्मांड़ी काली च महाकाली नागी कल्पा तथेव कंकाली सत्काल राक्षसी वरंजंधी श्री ज्वाला मालिनी चैव विकराली वैताली चैतासां दिव्य देवतानां तु फिर दिव्य देवियों अंबा अंबाविका कुष्मांडी काली महाकाली नग्ग लोक दाली कल्प वासनी कंकाली कालराक्षसी वरंजघी ज्वाला मालिनी किकराली वैताली इन दिव्य देवियों के लक्षण सहित मुख सिद्ध मिट्टी से बनाए ।
॥ २७० ॥
कृत्वा मुखानि लक्षण युतानि सिद्ध मृतकया,
तीक्ष्णो नत दंष्टा ग्राणि छत नयनानि लुठित जिह्वानि ॥ २७१ ॥ इसके तीक्ष्ण आगे निकले हुए दांत और डाढ गोल नेत्र और जीभ बाहर निकली हुई हो।
कुसुमाक्षत मलयज दीप धूप वहु भक्ष युक्तानि एकैकेन मुखेन प्रति दिवस कार्येत् निवर्द्धक प्रारभ्ये चतुर्दश्यां नव दिवस सप्तमी यावत
॥ २७२ ॥
पुष्प अक्षत चंदन दीप धूप बहुत प्रकार के भक्ष व्यंजनो से इन देवियों के प्रत्येक के मुख में प्रतिदिन बलि दे, यह प्रयोग चतुर्दशी से आरंभ करके नव दिन तक अर्थात् सप्तमी तक किया जाता है । ॐ णमो भय वद्द अरिट्ठ णेमि णहाय अट्ठ महानिमित्त कुशलाय परभट्ट साहणटा ऐं ह्रीं अंबे अंबाले आम कुष्मांडी ऊर्ज्जयंत गिरि सिहरणि वासिणी सर्व विय विनाशिनी यक्षी महालक्षी ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः वज्र हस्ता अरिद्वेण बंधेण बंधामि रस्काणं जस्काणं भैरवाणं भूयाणं चोराणे शाईणीणं डाईणीणं विज्जास णाणं मुसआणं महोरगाणं आणं सत्तूर्ण आर्गणं आदि वरस्कादि बाल मित्ताणं मारीणं जरादि
गाणा विवाहाणं थावर जंगम कट्टिमा कट्टिम विसाणं अणे जे के विटु ठ्ठासंभवंति तेसिं मणं मुहं दिट्ठी गींद मोसादुं कोहं च वंधामि ॐ धणु ॐ धाणु महा धणु धणु ठः ठः म्म्ल्यू ठः क्ष्मां क्ष्मीं दमूं दमों क्ष्मः क्षां क्षीं क्षं क्षौं क्षं क्षः क्षिप ॐ स्वाहा हास्वा ॐ पक्षि ॐ क्रों प्रों त्रीं ठः ठः ठः ठः ठः ठः
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PSPSPSPSS विधानुशासन 95959595SP59
शत मुखरिपु मंत्र वृद्धि कर मम नाश कृत्वा नीनांजनं श्रुचिः मंत्री शतमुखरिपु मंत्रेण तु जल मध्ये तं बलिं दद्यात् ॥
पवित्र मंत्री वृद्धि के करने वाले अशुभ नाश करने वाले नीरांजन को करके शात मुख रिपु मंत्र से जल में बलि दे ।
वीरेश्वरश्व वटुकः पंच शरो विघ्नविनायकश्च महाकाल श्चैते स्वं मुखानि पिष्टेन कार्याणि
॥ १ ॥
वीरेश्वर बटुक पंच शर (तीर पांच) और विघ्र विनायक और महाकाल के मुखों को भी पिसी हुई सिद्ध मिट्टी से बनाए ।
उग्राणि लोचनत्रय युतानि मूर्द्धस्थ दीत दीपानि, बहुभक्ष चरकव लयाज्य सुगंध धूपादि सहितानि
इनके उस तीन नेत्र सिर पर प्रज्वलित दीपक और बहुत प्रकार के भक्ष्य द्रव्य पुष्प
सुगंधित धूप है।
तेनैकैकेन निचर्द्ध येन्मुखे द्रवैर मंत्रेण, ग्रह रोग महा पीड़ामप हरति बलिं जले क्षिप्तः
॥ २ ॥ चंदन घृत
और
॥ ३ ॥
इन हर एक के मुखों को मंत्र पूर्वक इस बलि दव्यों से गीला करके जल में इस बलि को फेंकने से ग्रह रोग मारी पीड़ा नष्ट होती है।
ज्वलित द्विद्विर्वर्ति मूर्ध्नि दीप समुज्वलं दद्यात् जिह्वाष्टक मक्षणामपष्टशतं कारयेच्चान्यत्
दधि घृतमिश्रेण सुमर्दितेन
शाल्योदनेन, तत्कृत्वा दुर्द्दशनं सित दंष्टं सुसिद्ध वाणीश्वरी रुपं
॥ ४ ॥
फिर पिसी हुई सिद्ध मिट्टी में दही घृत चावलों के जल को मिलाकर उससे तीक्ष्ण नख दांत और वाली सिद्ध वागेश्वरी के रुप को बनाएं ।
डाढ़
11411
इनके संमुख सिद्ध दो दो बत्ती के दीपक जले हुए हों भरतक पर उज्वल दीपक रखा हुआ हो और आठ जीभ तथा १०८ आँखें हों ।
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CHRISTD3501555 विद्याजुशासन BASIDDIDISTRISTOIDRIST
कशरादे चोदनं गंध वलि भक्ष सहितेन,
रुपेण तेन कुर्या न्विव र्द्धनं निशि समस्त दोष हां ॥६॥ चावलों की खिचड़ी जल चंदन और भक्ष्य योग्य व्यंजनों की बलि देने से और उनका पूर्वोक्त रूप बनाने से रात्री के समस्त दोष नष्ट होकर वृद्धि होती है।
क्षयोलसति संष्टं विलित जिह्वा त्रिनेत्रमपनाशं
पीठेन कारर्यद्विकरालं वागीश्वरी रूपं ॥७॥ फिर तीदण उन्नत और श्वेत डाढ़ों वाली निकलती हुई जिह्वा वाली तीन नेत्र याली वागेश्वरी देवी का विकराल रुप पिसी हुई सिद्ध मिट्टी से बनाएं।
रुपेण तेन बहु बलि भक्ष चरु कर दीप धूप सहितेन,
कुयाग्निवर्द्धनं सकल दोष हृत वज मंत्रेण ॥८॥ इन बागेश्वरी देवि के रुप को बनाकर चरु दीप और धूप की बलि से आरत्या खड्ग मंत्र से देने से सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते है।
योगिनी का दिव्य महा योगिनी का सिद्ध योगिनी चैव
अन्या जित्वरी प्रता शिन्य च शाकिनी देवी ॥९॥ दिव्य योगिनी-महा योगिनी-सिद्ध योगिनी और अन्य जिनेश्वरि प्रेताशिनी और शाकिनी देवी
रूपाण्यासांपिष्टेन कार्यदक्ष बलि समेतानि
जिह्वाष्टक मष्ट शतेनेत्राणां कात्प्रागवत के रुपों को पिसी हुई सिद्ध मिट्टी से तथा भक्ष द्रव्य और बलि सहित आठ जिह्वा और एक सो आठ नेत्रों वाला पहले की तरह बनाएं।
घंटा पताकिका माल्या दीप यक्तेन तेन मंत्रण,
रूपेणेकैकेन प्रति दिवसं कुरु निवर्द्धनकंबलि विधिः ॥११॥ इनके सन्मुख घंटा पताका औरमाला दीपक धूप सहित आदि रखकर सिद्ध मंत्र से चरु की यलि प्रतिदिन पृथक पृथक दे।
इति बलि विधि:
CSCIETDISTRISTICISTRITIS९५४ 1STRITICISTRISTS15055055
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CSIRISTOTSTD3505125 विधानुशासन PASTOISEDICTIO51058
तेषां नवग्रहाणां पश्चाल्लिरिवतेन पथक पृथक
श्रद्धेन तेषां रूर्पणैव प्रतिमायां भौम युक्तायां ॥१२॥ इसके पश्चात पृथक पृथक लिने हुए उन नवग्रहों के शुद्ध रुप से भौम युक्त प्रतिमाएं
पुरुषातीतायुर्वर्ष संरव्य या तंदुलाजलिनादाटा. तत्पिष्टं न तु कुर्याद ग्रहरूपं लक्षण समेतं
॥१३॥ नवग्रह से पीड़ित पुरुष की बीती हुई आयु के वर्षों की संख्या प्रमाण चावलों की अंजुलियों को लेकर और उसको पीसकर लक्षण सहित ग्रह का रुप बनाए।
तद्रूपं वह वलि भक्ष गंध सन्माल्य दीप धूप युतं, अग्रे निया व तस्य तुरस्य नव पटलिकांतस्थं
॥१४॥ उन ग्रहों के रुपों को बहुत प्रकार की बलि भक्ष योग्य व्यंजनों को गंध पुष्प माला दीप और धूप सहित बलि दे और उनके सन्मुख नए पाटे पर ग्रह से पीड़ित पुरुष को बैठाएँ।
खड्गै रावण विद्या मंत्रै चार यन्म हा मंत्री,
पुष्पै निवर्य पूर्व सतंदुलै यह मुरवं हन्यात् । ॥१५॥ फिर मंत्री खंगै रावण विद्या का जोर से उच्चारण करता हुआ पहले पुष्पों की बलि देकर फिर उनके मुख पर चावल मारे।
खगैरावण मंत्रः ॐरवड्गै रावणाय विद्या है चंड़ेश्वर भाश श धीमहे तन्नो देवः प्रचोदयात्
रूपेण तेन पश्चान्निा विधिना जलस्टा मध्ये,
तंद्याब्द लिं निशायां समस्त दोषान् हरत्याशु ॥१६॥ फिर उस रूप को रात्री मे विधि पूर्वक बलि देकर जल में स्थापित कर दे तो समस्त दोष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
सप्त विद्यो नीरांजन विधिरैष ज्वालिनी समदिष्टः
ग्रह भूत रोग शाकिन्यापमृत्यु भयापहत्सद्मः ॥१६॥ यह ज्वाला मालिनी देवी समुद्देश में सात प्रकार की नीरांजन विधि ग्रह भूत रोग शाकिनी अप मृत्यु के भय को शीघ्र ही नष्ट करती है।
तेषां नव गृहाणां तत शांति विधि कियां,
सदा तेपि कुर्वति महादुःश्व प्रतिकला स्तनु भृतां ज्ञेया ॥१७॥ CTETRIOTISISTSISTIONSIS९५५ PASTOTSIRIDIOISIOTSTORITES
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PSPSPSPSS
विद्यानुशासन
959595555
उन नवग्रहों की शांति की विधि की क्रिया को अज्ञान से महा दुःख से पीड़ित प्राणी सदा प्रतिकूल रूप से करते हैं।
नवग्रहों का विशेष वर्णन
रविचंद्र कुजः सौभ्यो गुरुः शुक्रः शनैश्वर, राहु श्चेति ग्रहाः केतु नव भिन्नोतराहुतः
सूर्य चंद्र मंगल बुध बृहस्पति शुक्र शनि राहु और केतु ये नो ग्रह होते हैं ।
स्व स्थानानि शिरो मुख ह्रदय करि पार्श्व, पृष्ट जंधान्हि अष्टौ रव्यादीनाम राव्हंता नां ग्रहाणां स्युः
॥ १९ ॥
उन राहु तक के ग्रहो के अपने अपने स्थान क्रमशः सिर मुख हृदय कमर पार्श्व (कोख) पीठ जंघा और पैर के ग्रह यह आठ कहे गये है ।
विकृति महतिर्वायोः पित्तस्य कफस्य च, रोगाचा ग्रंथ कुष्टादीन महोपद्रदं संयुतान्
॥ २० ॥
यह ग्रह अपने अपने स्थानो में क्रमशः वात पित्त कफ के महान विकार गाठ कोढ़ आदि के महान उपद्रव सहित रोग ।
पीठाश्चग्निशिल शस्त्र विष शून्यादि संभवाः, स्व स्थानेषु ग्रहा कुर्युश्रूद्धयेषु क्रमेणतु
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॥ २१ ॥
अनि की शिला शस्त्र और विष के देने से हुए पीठ आदि में रोगो को यह ग्रह सिर आदि के क्रम से अपने अपने स्थानो में कहते हैं ।
निज नागानां विधिना रचिता नां स्वातं मंत्र मणि र्फणिभिः निज वारे निज हरिति च मंत्री वरेणे ज्यया कृतया
॥ २२ ॥
मंत्री के द्वारा विधिपूर्वक बनाए हुए फणों को मणियों सहित नागों को अपने अपने बार तथा अपनी अपनी दिशा में पूजन किये जाने से ।
नव ग्रहास्ते
तृप्पंति ग्रहार्त्ताश्चानु गृह्णते, समयंति च रोगां स्तान स्वस्थान स्वात्मनाकृतान
।। २४ ।।
वह नवग्रह तृप्त हो जाते है और ग्रहो से पीड़ित पुरुष पर कृपा होती है तथा उनके अन्दर हुए रोग शांत होकर वह स्वस्थ हो जाता है।
OSPSP59
1595९५६ P/59/59695969593
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ಆಡಳSENESK Raggu Dಣಣಚಟಣ
रवे जडिल केशः स्या नाग्गो गंधोरहिं विधोः, अभ्यहि तवह विद्यां दनं तोत्पलिकं परं
॥२५॥ सूर्य का नाग जटिल केश आकाश में रहता है विधु (चंद्रमा) का गंध नाम अभय (मंगल) का हित वह नाग बुद्ध का अर्णतो उत्पलिका नाग है।
केशोत्पलिक मार्यस्य गज कुंड कवेर्विदुः, मंदस्य कालिका नाग राहो राशि विषं तथा
॥ २६॥ वृहस्पति का केशोत्पलिका शुक्र का गज कुड़ा शनिश्चर का कालिका नाग और राहु का आशि विष नाग है।
क्रमत श्चत्वारी द्वौ सप्त दश द्वादश- त्रयोदश च
द्वौ च प्रयच तेषां संति फणा नाग राजानां उन्न नागों के क्रम से चार दो सात दश बाहह तेरह दो और तीन फण है।
॥२७॥
राज ग्रहस्य नागेंद्रः परित्यक्त शिरः फणः, पुछ मात्र स्वदेह श्च तथा केतोश्च नागराट्
॥२८॥ नाग राज बिना सिर रूप फण वाला केवल पुछ मात्र शरीर ही धारण किए हुए है।
इति ग्रह पूजा विधि
दिवसे ष्वरिवलेष्वपि कारयेन्महा भिषवं, साध्य स्तीर्थ करस्य प्रीत्या ग्रह तुल्य वर्णस्टा ।
॥ २९॥ उन ग्रहों की पूजा की विधि के दिन ग्रहों के रंग वाले तीर्थकरों का भी महा अभिषेक व पूजन करना चाहिए।
नित्यं रोगी स्नायान्मजन पीठ प्रणाल निर्गलतैः
निपतनं द्भिनिर्ज मूर्द्धनि जिनाभिषेकाबुभिः पूणे: ॥३०॥ जो पुरुष रोगी रहता है वह भगवान के अभिषेक के सिंहासन की नाली से निकल कर गिरे हुए जल को अपने सिर पर डाल कर स्नान करे।
ग्रह वर्णे गंवाधै: छत्रैववै प्वजै महा चरुणा, अपि नया गीतर्वार्यजे जिनेन्द्रं यथा विधिना ।
॥३१॥
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STORISTORIERSPICTE विद्यानुशासन LISODETASTICISESEX
फिर उन भगवान की ग्रह के रंग के गंध आदि छत्र वस्त्र ध्वजा और महा नैवेद्य तथा नृत्य गीत और बाजे से विधि पूर्वक पूजा करे।
इति जिन अभिषेक विधि:
अथः दान विधि दद्यादा हारादीन पूजा दिवसे ष्वमीषु
सर्वेषु ग्रह पीड़ित मुनि क्षांत्युपाशक श्राविका भ्यश्च ॥३२॥ पूजा के दिनो से सभी ग्रह से पीड़ित पुरुष शांति उपासक (मुनि) आर्यिका श्रावक और श्राविकाओं को आहार आदि दे।
द्रव्येण येन दत्तेनाचार्य: सुप्रसन्न ह्रदयः, स्थात् ग्रह शांत्यंते दद्यात्त तस्मै श्रद्धया साध्यः
॥३३॥
ग्रह शांति के अंत में आचार्य जिस द्रव्य को पाने (देने) पर प्रसन्न चित्त हो जाए साध्य उनको वही द्रव्य श्रद्धा से दे। .
इति दान विधि
रोग शांति विधि रोगा मूर्द्धनि चेद्योक्त विधिना भानोर हीं ट्रं यजेत्, वक्रे चंद्रमसः कुजस्य ह्रदये कठो बुधस्य र्द्वयोः पाई शुक गुरोस्तु दानव गुरोः पृष्ट शने आँघयोः
पीडा चेत्य दयोरनेन विधिना राहोरहि: पूज्यतां ॥३४॥ यदि सिर में रोग हो तो कही हुई विधि के अनुसार सूर्य नाग की पूजा करे । मुँह में रोग हो तो बुध के नाग की पूजा करे। दोनों पार्थ (कोख) में कष्ट होतो वृहस्पति के नाग की, पीठ में रोग होतो शुक्र की, जंघा में पीड़ा हो तो शनि के नाग की और यदि दोनों पैरों में रोग हो तो इस विधि से राहु के नाग की पूजा करनी चाहिए।
स्वस्थान रुजासु सनीष्वेवं पूज्यो ग्रहोनुकूलोपि
असतीष्वथा नु गुणाना तासमुना संयजे द्विधिना इस प्रकार इन स्थानों में रोग होने पर भी ग्रह के अनुकूल होने पर भी उसकी गुण के अनुसार विधि पूर्वक शांति के लिए पूजा करे।
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इति नवग्रह समाप्ता:
देवयंत्र शं वं व्ह : जल भू बीजै मिटांत स्वरैः वतं बाहो द्विषद दलों भोज पत्रे षुसकलं नभः
॥ २७७॥
सांत संपुटमालेख्य हंसः वलया कतं
अंब पुर पुटोपेतं सद्भूज चंदनादिभिः ॥२७८॥ नाम को झं वं व्हः जल बीज प भू (पृथ्वी) बीज (क्षि) टांत (ठ) और सब स्वरों से वेष्टित करके उसके बाहर दल का कमल बनाकर सब में नभः (ह) लिखे।। फिर सांत (ह) के संपुट को लिखकर इवीं हंसः को गोलाकार में लिखकर बाहर उसके अंबे पुर (जलमंडल) का संपुट बनाए इसको श्रेष्ठ भोजपत्र पर चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से लिखे।
सियते वाच्यते देवं यंत्रं टोन मुदा वहं,
तस्य स्यान्मंगलं लक्ष्मी: शांति स्यं शिवायसः ॥२७९ ॥ इस देव यंत्र का जो पूजन करता है तथा धारण करता है और प्रसन्न होता है उसका मंगल होकर उसको लक्ष्मी की प्रप्ति होती है तथा शांति होकर उसका कल्याण होता है।
सित्यकेनै तदा जलपूर्णघटे क्षिपेत्, दहोस्यो पशम कुर्यात ग्रह पीडां निवारयेत्
॥ २८०॥ इस यंत्र को रस्सी से बने हुए छीके में रखकर जल से भरे हुए घड़े में रखे तो यह यंत्र शरीर के दाह को शांत करके ग्रह की पीड़ा को दूर करता है।
सर्व शांतिक सत्सरखास्यस्य धारणं, यंत्रं साम्यर्चनं भक्तया भवेन्मारण वारणं
॥ २८१॥ सर्व शांति करने वाले तथा श्रेष्ठ सुख को देने वाले इस यंत्र का भक्ति पूर्वक पूजन करने से मारण कर्म भी रुक जाता है।
ॐ शं वं व्ह: पक्षि इची हंसः देवदत्त स्य शांति कुरु कुरु
द्वयं स्वाहे त्या यम स्याना मंत्रः ॥ २८२ ।। ॐ झं वं व्हः पक्षि इवीं हंसः देवदत्तस्य शांति कुरु दोबार बोलकर अर्थात् कुरु कुरु कहकर फिर स्वाहा बोलने से इसके पूजन करने का मंत्र है।
ॐ शं वं व्हः पक्षि इवीं हंस देवदत्त स्य शांति कुरु कुरु स्वाहा CHSDISCISISTRICKSTOTOS९५९ 1510TSTOISSISTRIDIOSOTEN
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PSPSPSPSS विद्यानुशासन
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संजीवन यंत्र परमं वेष्टयेत्पूर्व साध्य नाम विदर्भितं, विवक्तेन पुनः पत्रैरष्टभिः परमान्वितैः
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४
॥ २८९ ॥
कांदि सांत युतैः स्त्रिशता वेष्टयेत्ततः, वहिरेतस्य सर्वस्य लिवेद्वरुण मंडलं एतत्त संजीवनं यंत्र भूर्जांदी लिखितं घृतं
9595959 950595)‹‹• P505050 59595951
॥ २९० ॥
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9595959555 विद्यानुशासन 9595959SPPS
मार्चितं वानिशेष ज्वर भूत विषादि जित
।। २९१ ।। पहले साध्य के नाम को लिखकर परम (२) को बाहर लिखे फिर विविक्त (भ) आठ पत्तो में लिखकर परम से परम (र) से वेष्टित करे।
फिर क से लगाकर ह तक के तेतीस अक्षरों को वेष्टित करके इसके बाहर वरुण मंडल (जल मंडल) लिखे। इस संजीवन यंत्र को भोजपत्र पर लिखकर भुजा में धारण करने से तथा पूजन करने से सपूर्ण ज्वर भूत और विष आदि जीत जाते है।
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नामा वेष्टय सकारं सांत लपरं ग्लौं युग्मं पूर्णेदुभिः दिक्षुक्ष्माक्षर मस्तकै परिवृतं कोणस्थ रांत वृत वाह्ये षोड़श पद्म पत्र म थ तत्पत्रेषु देयाः स्वराः कोण क्ष्माक्षर दिग्गेतंद्र सहितं वाह्ये च भू मंडलं एतत्सुसर्वरक्षा यंत्र लिखितं सुगंधिभि र्द्रव्यै: अपहरति रोग पीडा मपमृत्यु ग्रह पिशाच भूत मां
25252525252525| |S252525252525
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S510150158525105 विधानुशासम SASICISESSIO5255015 देवदत्त नाम को स ह व और ग्लौं के संपुट में लिखकर चंद्रमंडल बनाए उसके बाहर दिशाओं में मातया विदिशा कोणे में रांत (ल) अदार से वेष्टित करे, बाहर सोलह दल का कमल बनाकर उनमें स्वरों को लिखे।उसके बाहर विदिशा में क्ष्मा और दिशाओं में ललिख्ने, उसके बाहर भूमंडल (पृथ्वी मंडल) लिखे। यह सर्व रक्षा यंत्र है इसको सुगंधित द्रव्यो से लिखकर धारण करने से रोग पीड़ा अपमृत्यु ग्रह पिशाच और भूत के डर को नष्ट करता है।
क्मा
शांति पुष्टि दायक यंत्र
साध्यं म भः पुरस्थांत वं कारस्योदरेलिरवेत
रोचना कुंकमै भूर्जे शांतिः पुष्टि श जायते ॥ साध्य के नाम को अंमपुर (जल मंडल) के बीच में यकार के अन्दर गोरोचन कुंकुम आदि से भोजपत्र पर लिखकर धारण करने से शांति और पुष्टि होती है। ಇದNಂಥMಡG, R&R Bಳಬಣಣಠಣದ
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95959519519115 विधानुशासन 9696959595
नाम सकारांतर्गत मंबुधिटांता वृतं वहिश्च कला:, वलयितमनिलाद्यष्टमा वेष्ट्रय कों प्रों त्रों वसु बीज वलयं च मंतिन तु संपुटितं तद्वलयितम मृत मंत्रेण ॥
नाम को स के बीच में लिखकर उसके चारो तरफ अंबुधि (आय) और टांत (ठ) से वेष्टित करके उसके बाहर कला (सोलह स्वर) लिखकर उसको आठ दिशाओं में वायुमंडल में य अनिल (हंस) सेवेष्टित करके क्रों प्रों त्रों और यसु बीज (ठ) के वलय से घेरे फिर भांत (म) का संपुट बनाकर अमृत मंत्र से वेष्टित करे।
ॐ पक्षि स्वः पक्षि स्वः वीं श्वः व्हः वं क्षः हर हंसः ज जलं पक्षि स्वाहा सर सुंस हर हु हः । अमृत मंत्र
वहिरष्ट दलांबुज युत मुख वनामृत घंट विलिखेत् तस्य वंकारं मुखे पत्रेषु थवप्नु दलेषु लकारं कूटस्थ नाल मूलं यट यंत्र मिदं विलिख्या भूर्ज दले काश्मीर रोचनां गुरु हिमया व कमलराज नीरैः सुत्रेण वहि वैष्टयं सिक्थक परिवेष्टितं वहि कृत्वा गंधाक्षत कुसुमाद्यै स्तयंयंत्र प्रार्च्य विन्यसेत् ॥ उसके बाहर आठ दल वाले कमल सहित मुखवाले अमृत घट को बनाए उसके मुख में वकार और पत्तो में लकार को लिखे। उस कमल की नाल की मूल में कूटाक्षर (क्ष) लिखे इस घट यंत्र को भोजपत्र पर केशर गोरोचन अगर कपूर वक (गूमा औषधि) और मलयज (चंदन) के जल से लिखकर
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PSPSPSPSV9595. fuiquiera 2595M5252525
सूत्रेण वहि वैष्टियं सिक्थक परिवेष्टितं वहि:, कृत्वा गंधाक्षत कुसुमाद्यैः प्रार्च्य विन्यसेत् ॥
इस यंत्र को सिक्थक (मोम) में लपेट कर बाहर ध आगे से लपेट कर फिर इसको चंदन पुष्प आदि से पूजित नए घड़े में छींके से घड़े मे रख दें।
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הגן:
की प्रांनो ठ
फ्री फ्री उ
स्वर गर्भ टांत संपुट मध्य गतं नाम खंड राशि वेष्टयं. टांतेन च भांतेन च वेष्टयं हंसः पदं वलयं
॥ ३०१ ॥
नाम को क्रम से १६ स्वरों टांत (ठ) के संपुट और अर्द्ध चंद्र से वेष्टित करके टांत (ठ) और भांत (म) से वेष्टित करके बाहर चारों तरफ हंस पद का वलय बनाए । CSPJPJPJESR505|‹‹‹ PS0S05E
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CASEASISASIDASICISIT विद्यानुशासन 95015TSAPTOICICISION
वहिरमतमंत्रं वलयं दद्यात्स्वर युक्त षोड़श दलाब्जं,
यंत्रमिदं घटनु बुडो खटिका हिम मलयजै विलिरियेत ॥ ३०२॥ उसके बाहर अमृत मंत्र का वलय देकर सोलह दल के कमल में स्वरों को लिखे इस यंत्र को घड़े के अन्दर खड़िया कपूर और चंदन से लिखे ।
ॐअमृते अमृतोजो अमत ती अमृतावस शायराम लीं क्लीं ब्लू ब्लूंद्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय स्वाहा ||
अमृत मंत्र
सन्मार्जित भूमितले कृत्वोपरि पुष्प मंडल
तस्य मध्ये विकीर्य शालि स्तेषु निदध्या ज्जूतन वस्त्रं ॥३०३ ।। एक साफ की हुई (अपतित गोमय विलिप्र भूमौ = जमीन पर नहीं गिरे हुए गोबर से लिपी हुई जमीन पर) एक फूलों का मंडल बनाकर उसमें धान (शवल) बिखेर कर उस पर एक नया कपड़ा रख दे।
प्रतसित वस्त्रे येष्टित मंणः पूर्ण सुवर्ण वृत कंठं,
संस्थाप्येद् घटं तं लोह मयत्ति पदिका निहितं ||३०४॥ उस पर नए सफेद वस्त्र में लपेटे हुए अर्ण (जल) से भरे हुए कंठ (गले) पर सुवर्ण (सोने ) से घिरे हुए घट को स्थापित करे उसको लोहे की बनी हुई तीन पाये याली तिपाई पर रखे।
घट यंत्रं नव रन त्रिलोह पुष्पैः सह क्षिपेत्कुंभे,
तन्मंत्री कुंभ मुखं कास वृतेन चापिधेयं ॥३०५।। फिर उस यंत्र को नवरत्न त्रिलोह (ताम्र-१२ चांदी १६ सुवर्ण =३ भाग) और पुष्पों के साथ घड़े में रख दे तथा उस घड़े का मुख.कांसी के ढकने से ढक दे। (कांस - इाभ से ढक दे)
क्षीर गुम मुख कां ची द्वय युतं वुध्यत हिम लिप्तं,
सुरभितकुसुम वेष्टयं तद तकं मस्तके स्थाप्यं ॥३०६ ॥ उस घट के मस्तक पर एक दो मेखलाओं से युक्त चंदन कपूर से पुते हुए सुगंधित पुष्पों से घिरे हुए गोल क्षीर वृक्ष (पीपल) के भूसल की स्थापना करे।
मूसलस्योपरि दीपं निधाय कांस्यमय भाजनं,
कलश तलेवहिरचोत्समंतात् गंधाक्षत कुसुम चरुकायै ॥ ३०७॥ 05015015121535255005९६५ PISODOSDISTRI5015015
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CASTRISTRIODICISTD35 विधानुशासन P5215255015015TOS
भूसल के ऊपर दीपक और कलश के नीचे कांसी के पात्र को रखकर उसकी चंदन अक्षत पुष्प और नैवेद्य आदि से पूजन करे।
कूरारिमारि शाकिन्युरेग नवग्रह पिशाच भूत भटान्,
अपहरति कृतस्तेकस्ता थबुधस्तुतैः सलिलैः ॥ ३०८ ॥ इस घड़े के जल को छिड़कने से क्रूर शत्रु मारि शाकिनी सर्प नवग्रह पिशाच और भूतों का भय उसी दाण दूर हो जाता है।
फलके वा चर्मणी वा विनस्यतं भाषस्य वद्वारिव्या,
तन्मोक्षरोत बहादततिचिरे एत कालेन ॥३०९॥ तख्ती पर या चमड़े पर रखे हुए उड़द को बांधने वाले पुरुष का बंधन से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है।
करण कलितं मूलं निर्गुन्डया स्सोम दिग्गतां, बद्धस्स कुरुते पुंसः क्षणेनैव विमोक्षणं
॥३१०॥ सोम (उत्तर) की दिशा में की निगुंड़ी को हाथ से लेकर बांधने वाले पुरुष को बंधन से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है।
शिरिव कव वा पदाम्यां कृतलेपं नंद्यांते स्वयं निगलं,
पित् वन भूमे रंत रिवन्य सप्ताहमताभ्यां ॥३११॥ मोर के गले और पैरों को श्मसान में सातदिन तक गाड़कर उसका लेप करने से स्वयं ही बंधन खुल जाते हैं।
प्रोक्तंऽत्र चैक विधि शांति विद्या वधीति, श्री शांति नाय. चरणा बुज युग्म भक्त: इत्यायु पल्लव विकल्प परं पराणां
शांति प्रशांत हदयो विदधीत मंत्री ||३१२॥ इस प्रकार यहाँ पर शांति के विधान का वर्णन किया गया श्री शांतिनाथ भगवान के चरण कमलों का भक्त मंत्री शांतचित होकर इन उपद्रव के भेदों में पड़े हाए पुरुषों की शांति करे।
इति शांति विधानं नाम विशंति समुद्देशः
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देवदत
अमनो दवे
हसः
अर्थात पौष्टिकं कर्म प्रवक्ष्यामि यथागम, शांत्यादौ पयिकं ज्ञान यत्प्रारंभ प्रयोजनं
॥१॥ अब शास्त्र के अनुसार पौष्टिक कर्म का वर्णन किया जाएगा उसके प्रारंभिकप्रयोजन के लिए शांति आदि का ज्ञान बड़ा उपयोगी होता है |
इह लक्ष्मीनावासो भोजन भूकन्यकादि लाभाश्च, अवयव संस्कार रसायनोडु वृष्याश्च निर्दिश्या: ॥२॥
E 3೯೪ ಸಣಣರಿಗಳಿಂದ
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252525252505_fangenena PSPSESESEKES
पृष्टि कर्म में लक्ष्मी धन का स्थान भोजन पृथ्वी और कन्या आदि के लाभ तथा अवयव संस्कार रसायण वस्त्र और पुष्टि का उद्देश्य रखना चाहिए।
लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र
उष्मणां प्रथमः पूर्वं पुराणं ज्योति रप्य नुक्रमादि बिंदु मंत्रो सांगो लक्ष्म्यै प्रकीर्तितः
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पहले उष्मी के प्रथम (श) पुराण (फ) ज्योति (ई) यह लक्ष्मी के वास्ते अंग सहित विन्दु मान्न कहा गया है।
ॐ श्रिये ठः ठः श्रिये फट· श्रीं नमः श्रियः प्रसाद नमः ठः ठः श्री फट अंगणि
पद्माक्षमालयो दन्मुख स्त्रि लक्षं जपेञ्जलस्थोमुं. अमुना बिल्व स्यतले विष्णु गृहेवार्च्चये लक्ष्मीं
इस मंत्र को ऊपर की तरफ मुँह करकेकमल गट्टे की माला से तीन लाख जाप करे तथा इसी मंत्र से बिल्व (बेल) के पेड़ के नीचे या विष्णु के मंदिर में लक्ष्मी का पूजन करे।
॥ ४ ॥
नंद्यावर्तलतांत लक्ष्मी धन धान्य कृद्भवेत होमात् नियुतं सदकै हौमा दक्कायैः पट्टवंद्यः स्यात्
•
॥५॥
फिर नंधावर्त (नगर) की लता सदके और आक की टहनियों से दस हजार होम करने से लक्ष्मी धनधान्य को देती है।
मधुर
त्रितयाम्यलैः पिंड़ यात्री तंदुलैत्,
भवेत् होमात् लक्षं नृपाधि पत्यं खदिरा ग्नौ वाज्य संयुक्तैः ॥ ६॥ त्रिमधुर (घृत बूरा शहद) पिंड़ी चावल सहित खदिर (खेर) की अग्रि में एक लाख होम करने से नृपाधि पति होता है।
उत्तिष श्रीकर ठ ठ सांगं मंत्र ममुं जपेन्शयां, नाभि द्वासे पटासि स्थित्वोर्द्ध करो रविं पश्यन
॥७॥
उतिष्ट श्री कर ठः ठः
इस मंत्र का अंग सहित नदी के नाभि तक के जल में ऊपर की तरफ हाथ किए हुए खड़ा होकर सूर्य की तरफ देखता हुआ जाप करे।
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१९६८ PP/59595959595
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25T03525T05RISTS विधानुशासन HASIRSISTERDISTRI51015 भिषय भिषय हुं त्रासय प्रासय हुं प्रमईद्य प्रमईया हुं रक्ष रक्ष हुं प्रध्वंसय प्रध्वंसटा हुं फट अस्त्राय नम अंगानि
इति साधित मतुना यः साज्यै र बजै स्त्रि लक्षम
थजुह्यात् तद्रोहं च तदन्वय जातांश्व मजेत सदैव श्री: ॥८॥ इस को इस प्रकार सिद्ध करके जो घृत सहित कमल के फूलों से एक लाख हवन करता है उसके घर और बंश में सदा ही लक्ष्मी रहती है।
बिल्वस्य दलैरमुना होमात संपद्यते पृथु संपत्,
लक्ष त्रितयं त्रिमधुर शिलै वा पुष्पपुग फल सदकैः ॥९॥ इसी मंत्र से बेल के पत्तों त्रिमधुर पुष्प और सुपारी और शदक से तीन लाख हवन करने से बड़ी भारी संपत्ति की प्राप्ति होती है।
अपमृत्यु विनाशः स्यात होमात् दुर्वा म राज्य शिक्ताभिः,
लक्षं पतेन होमायुाोविजश्च शांतिश्च: ॥१०॥ दूब के बोझ (बंडल) को घृत में भिगोकर एक लाख हवन करने से अपमृत्यु का विनाश होता है तथा घृत से एक लाख जप करके होम करने से युद्ध में विजय और शांति मिलती है।
जप्ते सरसिज सूत्रं भुज घत मतेन सर्वरक्षा कत, पुष्पंती प्सित मुना जप्त पूजा स्नान कम्माणि
॥११॥ इस मंत्र से कमल के धागे को अभिभांत्रित करके हाथ में बांधने से सब प्रकार की रक्षा होती है। इस से जप करने से पूजन करने से और खान के कार्य से इच्छित कार्य सफल होते है।
पद्मोद्भव श्रिो नमः इति मंत्रे नित्य जाप्प योगेन रेखा नामायं सपदमभिपटोत्सांगं
॥१२॥ पद्मोद्भव श्रिये नमः इस मंत्र का अंग सहित नित्य जाप करने से यह संपत्ति को बढ़ाता है।
अंग :- पद्मोद्भवे नमः ॐ पद्मोद्भवे स्वाहा
पद्मोदवे नमः पद्मोद्भव ठः ठः श्री नमः SADOISSETISTSISEDICI5[९६९ PASTOTSTOTSEASOIDIOSITION
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विधानुशासन 26696969595
रोग नाश मंत्र
ॐ श्रिये श्री करि धन करि धान्य करि पुष्टि करि वृद्धि करि अविघ्न करि सर्व
करि ठः ठः
ですからやら
लक्ष जपात्सिद्धो यं जयाभिषेकादि भि हरे दुःखं मंत्री वसुधाराया दरिद्रं रोगमपि सकलं
॥ १३ ॥
यह मंत्र एक लाख जप करने से सिद्ध होता है जप और सुधार खान आदि से दुख और सब दरिद्र रोग को दूर करता है।
सर्व सिद्धि मंत्र मंत्रयमो वद्योतत काय ठः ठः त्येषः प्रसिद्धपति षट लक्ष जापतः सांगः सूर्य द्दग सर्वसिद्धिदः
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ॐ खद्योत तकाय ठः ठः इस मंत्र का अंग सहित सूर्य की तरफ देखते हुए छह लाख जपने से यह सब सिद्धियों को देता है।
श्रूष्म रूपाय श्रूष्म तेज से श्रूष्मकराय श्रुष्म वलाय शुष्म हुं फट अंगानि
तेन चतुः पंचाशत वारान जतै सुगंध कुंभ जलैः
स्यादभिषे को रविवारे पुष्टि करो हस्त सप्तमी संयुक्त ॥ १५ ॥
इस मंत्र से चव्वन बार जपे हुए सुगंधित घड़ों के जल से रविवार के दिन हस्त नक्षत्र और सप्तमी तिथि को अभिषेक करे तो पुष्टि करता है।
सर्व संपदा प्राप्ति मंत्र उत्तिष्ट पुरि हिरि पिंगल देहि देहि द दापय ठः ठः दशांश होम संयुक्ता लक्ष रूप प्रजापतः स्वाहा प्रियतम स्यैष मंत्रः संसिद्ध मृच्छति यह अग्रि मंत्र एक लाख जप और दशांश होम से सिद्ध होता है।
॥ १६ ॥
सकृति कायां
शालिभिरेतैन,
प्रति पदि धन करो होम नित्यं शमी समिद्धि दधि संयुक्तेन धान्येन ॥ १७ ॥
कृतिका नक्षत्र वाली प्रतिपदा में शमी (खेजड़ा) वृक्ष की समिधाओं और दही और धान्य से धन को देने वाला होम करना चाहिए।
P5P
125252510. 1595951 ってらてらてら
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SADRISIRIDICISIOISO15 विरानुशासन PASTERSIC151055050ASI
इष्ट ग्राम लभते पद्मन घृतेन यामुना होमात्, पर राज्य जये राज्ञो होमात ज्योतिष्मति तैलैन्
॥१८॥ इस मंत्र के द्वारा कमल के होम से इच्छा किया हुआ गाँव मिल जाता है। यदि राजा ज्योतिष्मति (मालकागना) के तेल से हवन करे तो वह दूसरों के राज्य को जीत ले।
अश्वत्थस्य समिनि महिषी पत संयुता,
भिरेतेन एक मासं होम्स इष्ट कामयापति इस मंत्र से भैंस के घृत में डुबोकर पीपल की लकड़ियों की समिधा से होम करने से इच्छा की हुई कन्या को एक मास में प्राप्त करता है।
पात यक्तौदन होमात धनधान्य जप श्रियो.
ऽमुना लयते पानीय मजीर्ण धुराग कदशनं च तत् जप्तं ॥२०॥ घृत औप भात केहोम से धनधान्य और विजय की लक्ष्मी को पाता है इस से जप कर पिया हुआ जल अजीर्ण को दूर करता है। तथा इससे अभिमंत्रित किया जाकर खाया हुआ भोजन प्रेम को उत्पन्न करता है।
वड़वा मुरवाग्रि मनिं ध्यात्वा जुहूयात् पतेन पायसपिई
तत्र पy संतुष्ट : संन्निहितोमि दरिद्र भावं हन्यात् ॥२१॥ वडवानि (समुद्र की अग्रि) के मुख के समान ध्यान करके घृत और खीर सहित हवन करे तो अग्नि अत्यंत संतुष्ट होकर दरिद्र भाव को नष्ट करती है।
पुराणोयोगि युक पूर्व विविक्तो नुततः,
परं/ौयान विनि युतोते स्यात्तमः शास्तुमसौ मनुः ॥२२॥ पुराण (फ) योगि (ऐ) विविक्त (म) परम (र) सहित मंत्र को जपने से शांति होती है।
स्थित माध्याय शास्तार मघस्तान कल्प भरुहः,
लक्षं जपेदमुं मंत्रं महत्स्वर्ण मवाप्नुयात् ॥२३॥ यदि कल्प वृक्ष (मेहडा) के पेड़ के नीचे बैठकर एक लाख जप करे तो बहुत सा सोना पाए।
।
॥२४॥
मंत्र: शास्तु सौरव्यं भूताधिपतये नमः
इति प्रसिद्धि मायाति लक्षरूप प्रजाप्यतः इस मंत्र को एक लाख जपने से प्रसिद्धि मिलती है। SSCIETORIEDOISSISTA5[९७१ PETOTSIDISTOISTRI5DKOSH
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9595PS959595 विद्यानुशासन 5
मंत्रेणनेन विधिवत् कृतैर्भुविजपादिभिः, अखिला निष्फला वाप्तिर्भवे ध्रुवं
॥ २५ ॥
इस मंत्र से पृथ्वी में विधिपूर्वक जप आदि करने से शीघ्र ही सम्पूर्ण अभिलाषाओं की प्राप्ति होती है ।
ॐ ह्रीं ह्रौं धनपतये नमः
इति वैश्रवणस्य पुष्टि कृन्मंत्रः अष्टपरिवार यक्षास्तस्यो उक्ताजंभल
प्रमुखाः
॥ २६ ॥
यह कुबेर का पुष्टिकारक मंत्र है कुबेर के परिवार में जंभल आदि आठ यक्ष हैं।
ह्रां ह्रीं हूँ ह्रीं ह्रः अस्त्राय फट अंगानि
अध्याय पति वर्णै: पूवाशा स्थितैः पररितं:, नव रल भरित रैमटा करंडकाध्या स्यमानमुं
॥ २७ ॥
पीले वर्ण के पूर्व आदि दिशाओं में स्थित उन राजहंस पक्षियों का ध्यान करके नौ रत्नों से युक्त रैभय (घास) के पिटारे में नीचे को मुँह किए हुए बैठे।
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वैश्रवणं पीताश्रुकं भूषणम मुनाजु होतु मंत्रैण द्रव्यै, स्तिल प्रभृति भिर्धन धान्यादेर्विवर्द्धिः स्यात्
॥ २८ ॥
इस मंत्र के द्वारा तिल आदि द्रव्यो से पीले वस्त्र वाले कुबेर का हवन करने से धन धान्यादि बढ़ते
हैं ।
ॐ जंभलाय लूं माणी भद्रय ब्लूं पूर्ण भद्राय क्लूं विधि कुंड़िने क्लूं कपि मालिने ब्ली चमरेंद्राय म्लीं मुखेंद्राय क्लीं नलकूबराय नमः
अमीभिरभित्रै भलाधान क्रमादमून्.
गंधपुष्पादिभिमंत्री तत्तद्दीश्वभि पूजयेत
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मंत्री इन आठ मंत्रों से इन जंभल आदि आठों का गंध पुष्प आदि से उस दिशा में पूजन करे । ॐ नमो ब्रह्माणिप्रपूजिते नमोस्तुस्तेभ्य स्त्र्यशीति कपाल लिनि मयि स्वाहा
श्वेतार्क तूल वर्त्तिदीपे नरतेल वोधितारात्री, व्यक्ति करोतिभूमी संस्थं निधानं जपेनास्य
595/९७२ P595P
95959529
11:30 11 Po9595
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C651052151015TOTSITE विद्यानुशासन BASIRISTOTRIOSISTRICKS इस मंत्र से सफेद आक की रूई की बत्तीवाले दीपक में रात्री के समय मनुष्य को तेल जलाकर देखने से पृथ्वी से महा हुआ धन दिखता है।
संयुक्ता हरयाजिष्णुः सूक्ष्म बिंदु युतः स्थितः,
मंत्रो रींकार युतयो मध्ये चंद्रमसोरसौ ॥३१॥ हरय में आजिष्णु (ऊ) में सूक्ष्म बिंदु (अनुस्वार) और ईकार लगाकर उसे बीच में चंद्र बिंदु सहित औकार लगाए।
सिद्धं लक्ष जपात्तेन सलाजै मधुरै स्त्रिभिः सहस्रं जहूयात्सद्यः सुरवेन निधि मुद्धरेत
॥३२॥ ह्या ह्यी मु ह्यौं हौं हः अंगाणि इस मंत्र को एक लाख जाप से सिद्ध करके धान की खोल और त्रिमधुर से एक हजार हवन करे तो सुख से खजाने को खोद ले।
यस्यामेकेन यदा स्थित्वा प्यायंतियक्षिणो,
नियतं निधिर्गर्भासा भूमिा वा पादा हता ध्वनंति ॥३३॥ यहाँ एक पाँव से ठहरकर यक्षिणी का ध्यान करे और यदि वहाँ पैर मारने से शब्द निकलने लगे तो जानना चाहिये कि वहाँ पृथ्वी में धन है।
प्ररोहस्या प्ररोहोना रोहोना कदा दर्शनात्,
तस्याधस्ता द्विजानीया निधि स मंतः स्थितं भूम्यां ॥३४॥ जहाँ पर बोया हुआ बीज न उगे और बिना बोया हुआ पौधा उग जाए तो उस पृथ्वी में धन जानना चाहिए।
गुजंक मंदार शिफा सिताक्र्क सूत्रे भिदान, गज मलक वक मृत चीर वसा कुकुंट चूडादि भिईर्शयन्निधि भूविर्ति
॥३५॥ गुंजा (चोटली) मंदार (आक) की शिफा जड़ और सफेद आक के धागे. (इमदान) हाथी का मद गज मलक (हाथी का मैल) वक (काक पक्षी) मृतचोर (मरे हुए पुरुष) का कपड़ा )वसा) चर्बी (कुर्कुट चूड़ादि) मुरगे की चोटी आदि की पृथ्वी में खजाना दिखाने वाली बत्ती बनाकर पृथ्वी का धन देखे। SSIODIOTSPIDEREST2151365९७३ DISTRIDDISTRISTOISODDESS
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CHECISRISIO505125 विधानुशासन 9850150501501505
कुनटी गंधक तालक चूर्णः कता सितार्क तूलेन संवेष्ट्रानं, पद्मनालक सूत्रेण चर्ति रिह कार्या ॥३६॥
साकंगु तैल भाव्या तया प्रदीपं प्रवोधटोन्मत्री,
यत्रायो मुरवगम दिपंतत्रास्ति वसु राशि: ||३७॥ कुनटि (मेनसिल ) गंधक तालक (हडताल) का चूर्ण करके सफेद आक की रूई से लपेट कर और कमल की नाल के धागे को लपेट कर बत्ती बनावे। उसको कमाल कांगणी) या तेल में भावना देकर मंत्री उसका दीपक बनावे उस दीपक की बत्ती को लो (मुख) जहाँ नीचे की तरफ हो जावे वहाँ धन का ढेर समझना चाहिये।
विनयादि प्रज्वलित घोति दिशायामरून्नमोतपदं,
पठन्मनसामंत्रं प्रदीप हस्तौ विलोक युतः ॥३८॥ ॐ ह्रीं प्रज्वलित ज्योति दिशायां स्वाहा मंत्री आदि में ॐ (विनय) को लगाकर प्रज्वलित ज्योति दिशायां मरुत (स्वा) और नमः (हा) पद के मंत्र को पढ़ता हुआ हाथ में दीपक लेकर देख्ने।
संदिग्धं भूमि भागे कार्योटा विशतिश्च खंडः, द्वागदि कृत्तिकाद्या यंत्रे दुस्तत्र निक्षेपः
॥ ३९॥ संदिग्ध पृथ्वी के भाग में आठाइस द्वारआदि के खंड बनवाकर और कृतिका आदि के नक्षत्रयुक्त यंत्र को वहाँ रखे।
निगुडि का च सिद्धार्थ गह वढे पुष्पार्क संयोगो जायते क्रिय विक्रियः
॥४०॥ निर्गुडी (संभालू) और सिद्धार्थ (सफेद सरसों) को घर में या दुकान के द्वार पर पुष्य नक्षत्र और रविवार को संयोग होने पर बाँधने से क्रय और विक्रय करने से लाभ होता है।
ॐ नमो रत्नत्रयाय: अनले कुजले गन्हपिंड पिशाचिनी ठाठः
त्रिसहश्र जपाद्यक्ष्या मंत्रेणानेन सप्तकत्वो जप्तां,
सिद्धेन बलिं दद्यात् सो मिष्टान्नं लभेद वस्त्रद्वौ ॥४१॥ इस यक्षिणी के मंत्र को तीन हजार जप से सिद्ध करके यदि सात बार पढ़कर मृष्ट (शुद्ध अन्न) को बलि दें तो मिठाई वस्त्र आदि पाता है। CHIRISIRIDIOISTO505051९७४ PISTRISTRISTRISTOISTOISEISI
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5015015RISTRISIO50 विद्यानुशासन P5055051255015RIES ॐ नमो यक्ष सेनाधि पतटो माणिभद्र किन्नर एहि एहि ठठः॥
यक्षस्य पंच विंशति सहश्र रूप प्रजाप्यतः, सिद्धेतत् सर्वै स्तुतो नरे ट्रैमंत्रोय माणि भद्रस्य
॥४२॥ यह उत्तम मनुष्यों से वंदनीय मणि भद्रयक्ष का मंत्र पचीस हजार जप से सिद्ध होता है।
संजप्तमे क विशंति वारान् यद्दतं धवन मेतेन,
तेन च दंता धौता स्यात संसिद्धिः कामितान्तस्टा ॥४३॥ इस मंत्र से इक्कीस बार मंत्रित दत्तोन के द्वारा दांत धोने से इच्छित व्यक्ति की प्राप्ति होती है।
ॐ नमो भगवत्टी धरण्यै धरणी धरे ठाठः॥
सिद्धि भूभद यारण्यो लक्षत्रयरूप प्रजापतो मंत्रः
यांत्ययंमनेन यत चरु होमाद्भूमि समाप्नोति ॥४४॥ इस पृथ्वी मंत्र का तीन लाख जप करके घृत और नैवेद्य से हवन करने से पृथ्वी की प्राप्ति होती
होमादेतेन भवते महती लक्ष्मीः शुभैः कुसुमैः,
मधुरत्रयेन होमात् स्यात् पुष्टी: सर्पिवोदनं सिदेत् ॥४५॥ उत्तम फूलों के हवन से बड़ी भारी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। त्रिमधुर के होम से पुष्टि होती है, और धृत तथा भात के होम से सिद्धि होती है।
सितवारे होमाद्धि प्रतिपन्नक्षत्र मधुषितेन,
सहस्त्रं क्षरेणवाय चरूणातत्स्वीयं स्यादली प्रदानात् क्षेत्रं ॥ ४६॥ सितवार (शुक्रवार) को झगड़ेवाले खेत में दूध या नैवेद्य से एक हजार बार हवन करके बलि देने वह से खेत अपना हो जाता है।
एकां शकं सं स्थितो बुंध चंद्रमसौः कृतश्चनक्षत्रं,
लब्य स्वागवत्यां युगमरिवलैर हितं दोषैः ।। ॥४७॥ चन्द्रमा और बुध के एक अंश पर आने से कोई सा नक्षत्र पाकर यह कार्य करने से बिना विघ्न के पूर्ण होता है।
उच्चस्थे सति सूर्ये तदभिमुस्योद्रों दोचि तरूकीलं,
मध्ये क्षेत्रं निरिवनेत तदपद्रोहं भवेत्श्वत्: ॥४८॥ CASDDRISTICISIOSSISTR७५ PISTRICISTRISTOTTERSCITY
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6521510350SIOTSAP15 विधानुशासन 9851065375215ICASCII सूर्य उच्च का होने पर उसकी तरफ मुख करके आधा उदय होने पर अश्व (पीपल) वृक्ष की कील को यदि खेत के बीच में गाड़ देवे तो तुरन्त शत्रुता होती है।
अनुराधायुक्तो पुष्पोत्तर भाद्रपदात्यांशक विधी, मिथुने चोद्यति मध्य क्षेत्रं कील द्रयं निस्वनेत्
॥४९॥ चंद्रमा के अनुराधा पुष्प उत्तरा भाद्रपद या मिथुन राशि में उदय होने पर खेत के बीच में दो कील गाड़ देवे।
क्षेत्रदौ गन्हीया द्योगे त्र ततः फलानि च मदां च, तत क्षेत्रमपद्रोहं नित्यं संपन्न सस्यं स्यात्
॥५०॥ इस योग से खेत फल और उसकी मिट्टी सभी की प्राप्ति होती है तथा इससे खेत बिन शत्रुता के फल फूल कर खूब धान देता है।
पवर्गा प्रथमो रांत स्वरः पष्टः सविंदुकः अथबहस्पतै लक्ष जपान्मंत्रः प्रसिद्धयति
॥५१॥ पवर्ग का प्रथम अक्षर प और रांत (ल) उसमें छठा स्वर (ऊ) बिन्दु (अनुस्वार) सहित मंत्र प्लूं (प्लू) का वृहस्पति मंत्र का एक लाख जप से सिद्ध होता है।
बीजन्धितेन जपानि जपेन्मत्रम् मुजंपन, अचिरादेव शस्यानां संपत्तिः स्यादनी द्दशी
॥५२॥ इन बीजों को जपने से शीघ्र ही धान्य बहुत अधिक इसप्रकार बढ़ते हैं कि जैसे नदी बढ़ती है।
ॐ नमो भगवति रक्त चामुंडै, अपिच अपिच सुपिच सुपिच भिंद भिंद हंस हंस काली काली उच्चाटय उच्चाटय हुं फट् ।
अमुना द्विसहस्त्र जप्ताजप्तं सिद्धेन भस्म ,
प्रस्यांते प्रदक्षिण्टोन विनिक्षिप्तं त्राटोत् मूषिकादेः क्षेत्रं ॥५३।। इस मंत्र को दो हजार जप से सिद्ध करके इससे भस्म को अभिमंत्रित करके यदि दाहिनी तरफ से खेत में डाले तो चूहों आदि के भय से खेत की रक्षा होती होती है।
योगे सितवार मधा प्रथमानां सर्वधान्य संग्रहणं, कुर्यात् मंत्रीन भवेत् धान्यानाम् संक्षय स्तेषां
॥५४॥
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P5PSPSP5951915 विद्यानुशासन 959595959595
मंत्री सितवार (शुक्रवार) और मघा नक्षत्र के योग में पहले के सभी धान्यों का संग्रह करे तो वह धान्य नहीं बींधता है।
प्रणवस्य मुखं मेघा नित्यं से नश्च मध्यम विविक्तः, स विभुः स्वौ चहूं जीयो न्य ॥ ५५ ॥ (ई)(ए) खेन मध्य (ल) विविक्त (म) विभु (ऐ) खौं (हुं) जीव
फलायुत :
आदि में प्रणव (ॐ)
(सौ) और अन्यत कला (ह्रीं) युक्त
एतेन जपं पंच विशंति सहश्र जप साधितेन मंत्रेण, जप्तान वायव्येन बीहि नारवुन्न भक्षयति
॥ ५६ ॥
इस मंत्र को पचीस हजार जप करने से और वायव्य कोण की तरफ जप करने से चूहे धान को कभी नहीं खाते हैं।
वद्धस्य नालिकेर प्रभृते स्तजप्त रक्त सूत्रेण, वृक्षस्य मूषिकाद्याः फल पुष्पादिन्न वादंति
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नारियल पर इस मंत्र को पढ़कर सिद्ध करके लाल धागे में लपेटकर पेड़ में बांध देने से चूहे आदि उसके फल और फूलों को नहीं खाते हैं।
मंत्रितमेतेन धृतं कपिलायागो सवर्ण वत्सायाः, चरणम्यक्तं गमयेदति दूरं मंक्ष्वनायासात्
॥ ५८ ॥
इस मंत्र से मंत्रित उसी की बछड़े वाली कपिला गाय के घृत को पैरों में लगाकर बिना परिश्रम के चाहे जितनी दूर चला जावे ॥
ॐ रक्ष रक्ष गज कर्णि विधे विधामारिणी चंद्रिणी चंद्र मुवि ठःठः ॥ द्विसहस्र जाप्य सिद्धं ज्येष्ठा मंत्रं वरस्य कन्याया,
अपि नामांतरितम् मुं ज्येष्ठाया स्तार के पत्रे
॥ ५९ ॥
वर वा ज्येष्टा तथा कन्या के नाम को बीच में डाल कर तारक इंद्रायण के पत्ते पर बैठकर इस ज्येष्ठा मंत्र को दो हजार जप से सिद्ध करे ।
स्वासीन तस्मिन् ज्येष्ठा माराध्य जपतु मंत्र तं द्वादश सहश्र मेकेनान्हायं लभते तां कन्यां
959595951999 ९७७ 59596596959595
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STSDISDISTRIES5I05 विद्यानुशासन BASIRI5DISEASOISOIST ज्येष्टा की आराधना करके इस मंत्र को एक पैर से बारह हजार जपे तो उस कन्या को प्राप्त करे।
ॐ कमले भद्रहासे रोहिणी मोचनि कन्येयं मे भार्या भवतु ठाठः॥
यक्षी मंत्रणात जाप्यादेतेन साधु सिद्धेन, कन्यां लभते होमान्मधुसिक्त सहस्त्रकरवीरैः
॥ ६१॥ इस यक्षी मंत्र को दस हजार जप से सिद्ध करके मधु में ही किये हुये कनेर के फूलों के एक हजार हवन करने से कन्या की प्राप्ति होती है।
ॐ चामुंडे कालि कालि कुमारि भयवन्मे प्रयच्छय ठाठःठः॥
गौरी मंग्रेण युत जप सिद्धेनैक विशंति वाराणं,
सव्यंजनान्न पिंड कन्या लाभाय मासमेकं वितरेत् ॥२॥ इस गौरी मंत्र को दस हजार जाप से सिद्ध करके इक्कीस बार जाप कर भोजन तथा अन्न का पिंड कन्या के लाभ के लिए एक मास तकते।
जपद हरिद्रा घात्री दूर्वा सिद्धार्थ पद्म केशरैः,
कुशरैः बिल्व तुल्य स्थोदश दलैः सं पिष्टैस्तंदुलोपेतैः ॥६३ ।। हल्दी आँवला, दूध सफेद सरसो कमल केशल कुश (दाभ) बिल्व के दस पत्ते और चायलों को पीसकर इस मंत्र से अभिमंत्रित करके
अहि अहि सप्त कृत्याः चत्वारिंश दिनानि कन्या द्या,
उदत्य मान मूर्तिवरम चिरादेव सालभते ॥५४॥ उससे प्रतिदिन सात बार चालीस दिन तक इच्छित कन्या की मूर्ति बनाकर उसके उबटन करने से उसकी शीघ्र प्राप्ति होती है।
संमार्जुनं मंगाना मेरैवो षधैः श्रुमै विहित
लक्ष्मीं करोति महती सर्वानप्या मयान जयति उन्हीं उत्तम औषधियों से अपने अंगो में उबटना करने से बड़ी भारी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और सब प्रकार के रोग नष्ट होते हैं।
वर्ण मात्रा श्वदंपत्यो रैकी कत्य त्रिभाजिता, शून्यकेन मृति पुंसो नार्या द्वयंकेन निद्दिशत
॥६६॥
CHOISTOIDASTICISISTEPS९७८ PASEXSTOTRICISRTICISODE
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959595952
विधानुशासन 95957
SP595
दंपत्ति ( स्त्री-पुरूष) के नाम के वर्ण मात्राओं को एक करके तीन का भाग देवे शून्य तथा एक के अंक बचने पर पुरुष मृत्यु तथा दो के अंक के शेष रहने से स्त्री की मृत्यु कहे।
दंतो बिंदु युतो देवी भेद: पूर्विमलः पुरः, पृथु विभुं युती हूं द्वौ व मंत्रोयं विवश्वतः
॥ ६७ ॥
बिन्दु सहित दंत (घं) देवी (च) मेद (य) पूर्ति () () गुरू (अं) पृथु ऐ हूं और यह सूर्य का मंत्र है।
श्री वसुले लेखा ठः ठः यह इसके अंग हैं।
सूर्याभिमुखो भूत्याजपश्नमुं को विदो मंत्र, पुरुषं स्त्रियं परं वनष्टं द्रव्यं प्रति लभेत
श्री वसुरेरये भूस्वाहेतित्येषा विद्या तथा भवेत् जप्ता, इष्टा कर्षणं कृत्यन्नित्य जप पौष्टिकं कुरुते
॥ ६९ ॥
इस मंत्र को सूर्य की तरफ मुँह करके जपता हुआ मंत्री खोये हुए पुरुष स्त्री या द्रव्य को फिर पा लेता है।
श्री वसुरेखे भूस्वाहा इस मंत्र का जप इष्ट पुरुष आदि का आकर्षण तथा पुष्टि करता है ।
यष्टि इंदीवर गोक्षीर द्वयभंग तिलैः कृत लेषी, सित धन स्निग्ध कुटिलान कुरुते कचान
॥ ६८ ॥
॥ ७० ॥
यष्टि (मुलैठी) इंदीवर (कमल) गोक्षीर (गाय का दूध) दूब भांगरा और तिलों का लेप बालों को काला घने चिकने और घूंघरवाले करता है।
यष्टि तिलोत्पलो शीर शारि व नाग कैशरै:, लेपः साजापयोभिः स्यात केशानां शीर्य तांहितः
॥ ७१ ॥
यष्टि (मुलेठी) तिल उत्पल (कमल) उशीर (खस) शारिबा नागकेशर का लेप बकरी के दूध से करने से टूटते हुए बालों के लिए हितरूप है।
चूर्णे महिषी स्तन भव भावित हिंताल बाल कुसुम कानां, जंबु वंदराज र जनी रजोयुल स्तैलपितः केशभा:
॥ ७२ ॥
हिंताल (हिंतालु) बाल कुसुम (नारियल के फूल का गुच्छा) जामुन बंदारज (बंदा की चूर्ण) रजनी (हल्दी) के चूर्ण को भैस के दूध में भावना देकर तेल में मिलाकर लेप करने से केश अधिक होते हैं ।
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S50505125501505 विधानुशासन 7581521STRISTOISION
तैलं भंग रसे गुंजा बीज फल्केन साधितं, केश्यं पुष्कर सूक्ष्मैला रूजा मांसी रजोद्युतः
॥७४|| भांगरे के रस में सिद्ध किये हुए गुजा (चोटली) के बीज में कल्क में सिद्ध किये हुए तेल में पुष्कर (दसाल छोटी इनानदी
सीनिला सेप करने से बाल बढ़ते हैं।
तैलं गुंजा फला तुल्य तिल चूर्णेद्रजी कृतान,
आत्तं दत्तं जसोः कुर्यात् केशान स्निग्ध धनासितान् ॥७५ ।।। गुजा (चोटली) के फल के बराबर चूर्ण किये हुए तिलों से निकाले हुए तैल को लगाने से और सूंघने से बाल चिकने घने और काले होते हैं।
सिद्धकेकी शिरवा कल्के तैलं मधु कदंबुनि, सप्ताहं नाशयो ईतं नाशयेत्पलितोदा
॥ ७६॥ मयूर शिखा (मोरपंखी बूटी) का कल्क मधु कृत अबु (अनार दाना का रस) में सिद्ध किया हुआ तेल को सूंघने और लगाने से बालों की सफेदी सात दिन में नष्ट जाती है।
करंजास्थि रजो मिश्र कृष्ण दुग्धात्तत क्रजं: भामु तप्तन्नशो ईतंकाल पलित हरेत
॥७६॥ करंज की गुठली के चूर्ण को काली गाय के दूध की छाछ (मट्टे) को सूरज की धूप में तपकर सूंघने और लगाने से बालों की सफेदी नष्ट हो जाती है।
गुजा हरीत की पेशा निवांक्षा स्थि समुद्भवं तैलं,
पृथक पृथक नस्यात पलितयं पयोमुजः ॥७७॥ गुंजा (चोटली) हरीतकी (हरडे) पेशा (जटामांसी ) निवांक्षी (निंबोली की गुठली) के तेल को अलग अलग नस्य लेने से पयोभुज (कुचो का बढ़ना बन्द हो जाता है) अर्थात् सरक्त हो जाते हैं, तशा सफेद बाल नष्ट हो जाते हैं।
स्वारि कल्कित कांश्य लिप्त जठरं बुधा तपो तापितान, बीजान् सेल तरोबिनर्गत वतास्नेहेन नस्यात् नणां ॥७८॥
अभ्यंगा च्चभवेत् समस्तम् पलित प्रध्वसनं गलिक,
ग्राण श्रोत शिरो मुरव द्विज भवान स्टारन्या रुजः ॥७॥ SHETOISSISTRICTSCIECE९८० PASCIETRISTRISTRICISCISS
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やりですですわ 505051 विधानुशासन SPSPSP59595
खारी नमक और कल्क किये हुए सेल तरु (ल्हेसप) की गुठली की भींगी का लेप कांसी के बने हुये घड़े पर करके, धूप में तपाकर, तेल निकाल कर सूँघने से और मालिश करने से सब पलित दूर होकर आँख कान नाक सिर मुख और दांतों के रोग नष्ट होते हैं।
लोग लोह वरा भंगी लिंते त्सौवीर कल्कितैः, पालितान्य चिरेण स्यात् छवि स्तेषां जिताजनां
।। ७९ ।।
लोध लोह (अगर) वरा (त्रिफला) भृंग (भांगरा) और सौवीर (अंजन) के क्लक को आँखों में आंजने से शरीर का सिकुड़ना दूर हो जाता है।
. शरवस्था चिर दग्धस्य सीसं चूर्णेन मिश्रितं, पृष्टं कृष्टिं करोत्याशु पलितानी विलेपनात्
॥ ८० ॥
बहुत दिनों के जले हुए शंख को सीस (सोषक) के चूर्ण में मिलाकर घिसने से और लेप करने से शरीर की खाल की सिकुड़न दूर होती है तथा बाल स्याह होते हैं।
पिष्टै भंग वरा लोह करवीरा सनैर्महुः, गुडेन धूपितै मू िलेपः पलितरं जनं
॥ ८१ ॥
भृंग (भांगरा) वरा (त्रिफला) लोह (अगर) कनेर और आसन ( जीबापोता) और गुड़ को पीसकर धूप देने से तथा सिर पर मलने से बालों का पकना दूर होता है, अर्थात बाल रंग जाते हैं।
वरा चूता स्थि नलिनी पंकनीली मधुव्रतैः वारी पिष्टै विलेपन कृष्ण स्यु पलितान्यलं
॥ ८२ ॥
वरा (त्रिफला ) धूतारिथ (आम की गुठली ) नलिनी पंक (कमल की पराग) मधुव्रतै (अनार) और खारी नमक को पीस कर लेप करने से पके हुए बाल काले हो जाते हैं।
क्षारे वा दाँता प्रातः वार्या सतीक्ष्ण या लिप्ता: सायंवरा काथ क्षलिता यांति नीलतां
॥ ८३ ॥
प्रातः काल खारी नमक से धोने तथा खारी और तीक्ष्ण काली मिरच का लेप करने से तथा सांयकाल के समय वरा (त्रिफला) के क्वाथ से धोने से बाल काले हो जाते हैं।
पुष्पै सायोमलैः पिष्टै जष्ना वा ककुमस्य वा, पलितानां तनिर्लिप्तो भवेद्भमर विभ्रमः
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S5I050510THISIS5 विद्यानुशासन HASTR50505101510 अयोमल (बकरी की भींगनी) जंघा (काकजंघा) कुंकम (अर्जुन वृक्ष) के पुष्पों को पीसकर पके बालों पर लेप करने से भौरें को भ्रम होता है।
आभमास्थि पद्मनि पंक लोह चूर्णं स्त्रिाभिः समः,
पलितानिं सकलेपादाहूयं ते मधुवतान 1॥८५॥ आम की गुठली पनि पंक (कमल की पराग) और लोहे का चूर्ण इन तीनों को बराबर लेकर एक बार बालों पर लेप करने से भौरों को आह्वाहन करते हैं।
आद्यासासन साराम्यां पिष्टै हँ पो दिनोषिते:,
धात्री भंगं तिलाआयोभिः पालितान्या श्रुरंजयेत् ॥८६॥ आयासासन (लोहसार) और आसन (जीरे के सार) को पीस कर लेप करने से तथा आँवला (धात्री: और भांगरा तिल और अगर लेप के पके बाल शीघ्र ही रंग जाते हैं।
वरालोद्र नृपाआयोभिः रवारी पिष्टै विलेपनात,
तापिच्छ सच्छ वीन केशान कुर्यादपि शतायुषः ॥८७, बरा (पाठ) लोध नृप (ऋषभक) अचो (अगर) और खारी को पीस कर लेप करने से सौ बरस की आयु वाले के बाल भी मोर की पूँछ के समान सुंदर हो जाते हैं।
वराय चूर्ण राष्टिना भंग वारिणा, तन्वंति भ्रमर भ्रांति पलितानि विलेपनात्
॥८८॥ यरा (त्रिफला) का चूर्ण और यष्टि (मुलेठी) और भुंग (भांगरा) के रस के साथ लेप करने से पके हुए केश भौरे का भम करते हैं।
आटास भाजन निहितं शुष्कजपा कसम रेणुसभिन्नं , कुरुते तैलं लेपात् पलिते ष्विंदी वरा शंकां
॥८९॥ लोहे के बरतन में रखे हुए सूखे हुए जपाकुसुम (गुडहल) के फूलों का रेणु सं भिन्न) जो मिट्टी रहित हो उससे तेल सिद्ध करके पके बालों पर लेप करने से नील कमल का भ्रम करते हैं।
मज्जाविल्वस्य पक्वस्टा संजलेन गुडेनवा, केशाः प्रक्षालिता यांति जटा बंध विमोक्षणं
॥९ ॥ पके हुए बिल्वफल के गुदे और जल अथवा गुड से बालों को धोने से बालों का जटावध (जूडा) छूट जाता है। 950151065TOASDDDDESI९८२ P2519552510151015015TOS
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95959559595 विद्यानुशासन P5596959595
॥ ९१ ॥
यष्टि लांद्र रजस्तुल्य यवचूर्ण विलेपनात्, मुखं भवति निष्टप्त सुवर्ण रूचि भासुरं मुलहठी लोध के चूर्ण के बराबर जौ का चूर्ण लेकर इसके लेप से मुख सोने के समान कांतिवाला हो जाता है।
वदरास्थि हिमस्यामा कालेवकज्जलैः कृतः, प्रलपे कुरुते वक्रं शतपत्र समप्रभं
॥ ९२ ॥
बेर की गुठली हिम (कपूर) श्यामा (प्रयंगु) कालेयक (केशर) जल में पीसकर अर्थात् पानी जैसा करके लेप करने से मुख कमल के समान कांतिवाला हो जाता है।
वट पांडु छद श्यामा लोद्रकालेय रुक हिमै:, मुखं मुहुर्मुह मृष्टं स्व कांत्यां शशिनं जयेत्
॥ ९३ ॥
वट (बड़) पांडु (पटोल) छद (पत्ते) श्यामा (प्रयंगु) और लोध (का लेप) केशर (रूक ) कूट और हिम (कपूर) को मुख पर बार बार लेप करने से वह अपनी कांति से चंद्रमा को भी जीत लेता है ।
उद्वर्तित हिमोशी रुजा कुवलच्छदैः, वक्रः सद्वक्षतां गच्छेत शरद शश धर छवि
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हिम (कपूर) उशीर (खस) रूजा (मेथी) कुवलय (कमल) के पत्तों के लेप से मुख शरदकालीन चंद्रमा के समान कांति वाला हो जाता है ।
हिमोदीच्यां गनाकोल मंदं कालेयकैर्मुखं, लिंपेत् कांयै तथा ताम्र भयः शाल्मलि कंटकैः
॥ ९५ ॥
हिम (कपूर) कोलमद (बेर के वृक्ष का गोंद) कालेयक (केशर) और शाल्मली कंटकै (सेंमल के वृक्ष के कांटे का लेप करने से उदीच्या (उत्तर दिशा की ) अंगना कुमारी कन्या का मुख तांबे के समान कांतिवाला हो जाता है।
लिप्तं मसुर विदलै निस्तुषे राज्य मज्जितैः, क्षीर पिष्टैर्मुखं दूरमति सैतोविधोः कृतिं
॥९६॥
मसूर की दाल का छिलका उतारकर घी में मिलाकर दूधमें पीसकर लेप करने से मुख दूर से चंद्रमा की कांति को जीत लेता है।
2525252525P505|4 |5P50/525252525
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SSCISIOISTOISTRIST05 विद्यानुशासन SRISTRISTRISRISSIST
रक्त चंदन काश्मीर यष्टि लोहित याष्टिभिः, अजाक्षरै श्रुतं तैलं भपेद्वरन वर्णकृत
॥९७॥ लाल चंदन केशर मुलहठी लोहित यष्टि (लाल मुलेटी) को बकरी के दूध में सिद्ध किया हुआ तेल सोने अथवा केशर के समान रंग मुख का बना देता है ।
यष्टि कुचंदन लाता मंजिष्टा चंदनै श्रुतंकषैः,
द्विगुणं क्षीरं तिल भव कुडवं मुख कांतिकल्लेपात् ॥९८॥ यष्टि (मुलहठी) कुचंदन (लालचंदन) लाक्षा (लाख) मंजीष्ठ सफेद चंदन को एक कर्ष (सोलह मासा) लेकर इनसे दुगुना तैल दूध तथा एक कुडव (३२ तोले) तिलों के तेल को सिद्ध करके लेप करने से मुख की कांति बढ़ती है।
पीत्वा सधि रधो वका क्षणं सुद्वा वमेत् पुनः,
वनिता वंदनां भोजमत्यर्थ पीतम हति ॥९९॥ घृत को पिलाकर जरा देर नीचे को मुख किये हुए सोकर वमन कर दें इससे स्त्री का मुख रूपी कमल बहुत अधिक पान करने योग्य बनता है।
वक ब्ले हरतो विश्वा पथ्या चव्य फलत्वचो, मदनास्थिनि त ण सहितान्यथवा तथा
॥१०॥ विश्वा (सोठ) पय्या (हरड़े) चव्य फल (गजपीपल) की त्वचा (छाल) और भदन (मैनफल)की गुठली को मट्टे के साथ अथवा अकेले ही सेवन करने से मुँह की दुर्गंध दूर हो जाती है।
आस्य दौगंध्य हत् चिंचा फल वल्कल चर्वणं, प्रयुक्तमंथवा निंब शलाका चूर्ण पार्षण
||१०१॥ इमली के फल की वल्कल को चयाने से अथवा जीम और मेनफल के चूर्ण को घिसने से मुँह की दुर्गंध दूर होती है।
शरुगेला द्वंद्वजलद यष्टि धान्यक कल्कितं कवलं मुख विन्यस्तं मुखदौगंध नाशनं
॥१०२॥ रुग दोनों इलायची जलद (जागरमोथा) मुलेठी धान्यक के कल्क के ग्रास को मुँह में रखने से मुख्य की दुर्गध नष्ट होती है।
S5DIDIOIDDISTORISIO151९८४ P15052150550155105
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SHORRIDICISIST585 विधानुशासन MOSISTOISTORTOI5015
एला कुष्ट कणा यष्टि मुस्तोग्रा गुलिकाः कृताः,
. पूति गंधमपास्यंति वजनाभ्टांतरे तां ॥१०३|| इलायर्थी कूढ़ पीपल पुलहटी नागर मोथा उग्रा (लहसुन) की गोली बनाकर मुँह में रखने से यह दुर्गंध दूर करती है।
जाती जल कुसुमपाढा द्विरजनी जंवीर सुरस जंबु पुष्पैः,
सिद्धं तैलं कुर्यात् केसर समान गंध वदनं ॥१०४ ।। जाती (चमेली) का जल (रस) कुसुम (फूल) पाढा (पाद) दोनों रजनी (हल्दी) जंबीरी निम्बू का रस और जामुन के फूलों में सिद्ध किया हुआ तेल मुँह में केशर के समान सुगंध उत्पन्न करता
चूर्ण सिंदूर विजयातितिणी फल सत्वचा, निहति दंत दौगंध्य मुखे दिन मुरवे प्रतः
॥१०५॥ सिंदूर विजया (भंग) तितिणी फल (इमली) और उसके वल्कल के चूर्ण को मुँह में रखने से मुख की दुर्गध दूर होती है।
गंध हन्यांलसुन प्रति निसेवण समुद्भवं गंध,
नागलता दल मृष्ट कुष्टं वकुल प्रसून वा |१०६॥ नागर वेलपान का पत्ता नागारमोथा कूट और वकुल (मोलश्री) के फूल लहसुन आदि नहीं खाने योग्य वस्तु के सेवन से पैदा हुई मुँह की दुर्गंध दूर होती है।
लेपो माहिषतकोत्थ वाराही कंद रेणुभिः,
सप्ताहं धान्य राशि स्थैःकर्ण पालि विवयेत् ॥ १०७॥ भैस के मट्टे से निकाले हुए वाराही कंद के टुकड़ों को एक सप्ताह तक अन्न के ढेर में रखकर उसका लेप कर्णपाली बढ़ाता है।
स्टालिप्तं माहिषी क्षीशत गुंजा बीज रजो युतात,
तकोत्थ दधि साम्दतात कर्ण पालि विद्धनं ॥१०८|| मुंजा (चोटली) के बीज के चूर्ण को भैस के मढे में डाल कर दही के समान बनने पर निकालकर उसमें भैस का दूध मिलाकर लेप करने से कर्णपाली बढ़ती है।
विष कल्क युते लंबा तैलं स्वरशियां भसि, सिद्धमष्ट गुणे कर्ण पालिं कुर्यात वीटासी
॥ १०९॥ COIRISTRISIPASTRISINISTRIS९८५PISIRISTRISPERISPERISM
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CERISTRADIESIDISP5 विधानुशासन DX5I05250SIDERIN (विष) वत्सनाम के क्लक सहित लंबा (तिल तुंबी) के तेल को उसके आठ गुण स्वरस या जल में सिद्ध के लेप करने से कर्ण पाली बढ़ती है।
इयरिपु ह्यगंधोग्र रुग्राजी यष्टि मधुलिका सीसैः,
तैलं कर्ण विवौँ सिद्धं वहती फलं स्वरस ॥११०॥ हरिपु (कनेर) हयगंधा (असगंध) उग्रा (वच) रुक (कूट) राजी (राई) यष्टि (मुलेठी) मधु (गिलोय) कासीसै (कसीस) इनको वृहती फल (छोटी पसट कटेली के फल) के रस में सिद्ध किया हुआ तेल कर्णपाली को बढ़ाता है।
जल नाग वलातिबला महिषी तक्रोत्थितो उग्रगंधाभिः
पिष्टाभिः लिप्ताभिः श्रवण पयोधर विवृद्धिः स्यात् ॥१११॥ जल (नेत्रबाला) नागबला (गंगेरेकी छाल) अति बला ( कघोडावीडवला ) और भैंस के मटे से निकली हुई उग्रगंधा (लहसून) को पीसकर लेप करने से कान और स्तन बढ़ते हैं।
लोद्राचगंधा भालात तरु बीज विटाचितं तैलं, प्रवर्द्धटो लिप्तं मुज कार्ग स्तनातिकाज
|!११२॥ लोध असंगध भल्लात तरू बीज (भिलावे के बीज ) में पकाये हुए तेल के लेप से भुजा कान और स्तन आदि बढ़ते हैं।
राक्तिका बीज वाराही कंद चूर्ण विमिश्रितात्, तक माहिषात् क्षीरात् लिप्तं दो कर्म वर्द्धनं
॥११३॥ रालिका बीज (चिरमी के बीज) बाराही कंद को, भैंस के दूध अथवा छाछ आदि में मिलाकर लेप करने से कान को बढ़ाता है।
विषाग्रि मार्ग कुटज दोबारायंड लेपनं, सतैलं दोस्तन श्रोत्र भगलिंग विनं
॥११४॥
वचनागवाला कुष्ठ महिषी नवनीतकै:, लिप्तं स्तन युगं नाट्याः कुंभाकंभनिभं भवेत्
॥११५॥
व्याधी मार्ग कणभांडी राजीनता मषैः लेपः साजापयाः स्त्रीणां स्तन द्वंद्व विवर्धनं
॥११६॥
ಅಡಚಣNS¢£ 5555
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CASTRISTOTRICISTRISTO5 विधानुशासन P150505051015015
लेपः क्षीर बला नाग बलारु कतक संभवैः स्यासलाक्षाज्या सेको वा वामारो:स्तनवर्द्धन
॥११७॥
स्रोतोंजनेन ज्येश भः पिष्टेन कृत भावना, स्यादंगनाः समुत्तुंग कुच कुम्भरातुरा
॥११८॥
तैल कषाये माडिन्या स्तत्कल्क साधितं मसि, दत्तं कल्क तु तन्निपीतं कुचयोपतनं निवर्तयति
॥११९॥
सिद्धं गो महिषी सर्पिः समं तैलंकतं नसि, तिक्तानी सोननति कृत कांता मिचिद्धियेत्कुची
॥१२०॥
सिद्धेन तिलजेनाक्त स्यरसे जाति लंबटो, घता योनिमुस्टो वतिनांबु त्पादयेत्कुचै
॥ १२१॥
विष्टं मूल मुपोदक्यां प्रलिंपेत तैलमिश्रितं, या कन्यां तत् ममता स्थाःपुंजो निपुर्वमोचिता
१२२॥
वज वल्ली अश्वगंधोग्रा शैवाल पटुभिः, पुटे ग्धौ विलिपेन्नात्मेद्रं यादित्यं विर्वद्धये
॥१२३॥
वाजि गंधा तुरंगारि वचो दिच्येत पिपली, महिषी नवनीतोला लि पेल्लिंगं विवर्द्धये
॥ १२४॥
वचाश्वगंधा सैवाल व्रजवल्ली रजोन्वितं, व्याघी फलांबुलेपेन भवेन मेहन वृद्धटो
1९२५॥
वजि कायंड शैवालैः विष्टैव्याधी फलांबुजा, प्रदेहो मेहनो नस्यायं वहणाय प्रजायते
॥१२६॥
एहती फलतोटयेन पटना शैवलेन च , स्मारब्ध क्रमाल्लिंग मुशलेन समं भवेत्
॥१२७॥
Qಥದಗಣಪಥ5849 ಥಡಣದರಗಳ
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CASIRIDISTRISTERSTD35 विद्यानुशासन BIODISEASTDISTRICTER
ससप्तपर्ण भसितैः पुटु सधि स्तिलै कृतः लैपः, सूयाच संतप्तैः स्थंभरोमहं नणं ॥१२८॥ .
चूर्णस्तिल राजिकयोः सप्तछद भसिमत थपजलशूकः, लिप्तै कमादमीभिमूसूल समानं भवेलिं र
॥१२९॥
सिद्धार्थ चक्र बहती फल वाजि गंधा कृष्णा तिलोषण रुजांमधु भाषमार्गः, उद्वर्तनं स यवानालज सिंधुजात्तै, लिंगस्तन श्रवण बाहु विवर्द्धनं स्यात्
॥१३०॥
स्वरसे भूकदम्बस्य सिद्धं दाडिम काल्किभिः, तैलं तिलोत्यमाक्षं वा लेपालिंगा भिवृद्धिकृत
॥१३१॥
वर्द्धये द्राजिका तैलं साधितं दाडिम त्वचां, दाथा विधि समाभ्यक्तं मेवं कर्णे स्तनावापि
भल्लातक वृहतीफल जाडिम फल चर्म कल्कमति सिद्धंसलिलै : राजि तैलं विलेपानान्मेहनो
॥१३३॥
पूर्वो महिषी सकतो द्वयं मुह लिंग मतिहि मैः, सलिलैः प्रदल्य वाय कार्या: कथितः सर्वेप्पमीयोगाः ॥१३४॥
पार्थ ब्रह्म गाश्मच्या त्वक पुष्प फल कल्कितैः, कर्म भिर्योनिः स्वल्पः स्यायोषितः क्रमात्
॥१३५॥
लोद्रार्जुन वा कांताजंब्बाम् वदरी दलैः, कामधाम भवदादं स्त्रीणमुद्धातितं महः
|१३६॥
अंगैवर्धवस्य सिद्धेन पंचभिः क्षलितं भगं,
कषायेण चिरादेव गाढी भवति योषितां CERITORIPTIONSIRIDIOS९८८ ASIASISTRICTRICISTOTROIN
॥१३७||
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SODERSIODIO505 विधानुशासन 95015055055059ISS
गुडतेल शालि तंदुल सेंधव यव माष वदर मज्जातः, योनिं धतो जरत्या अपि सितुरा पादये द्गा ||१३८॥
यदभः सधितं साधु शिफया वेत सोत्यया काष्णेन क्षालयेत्तेन योनिः संश्रुष्कतां व्रजेत
॥१३९॥
निंब कल्क कषायेन मालितं बहुसो भगं. तत्त्व चा धूपितं पश्चाद भवत्यंत्यत सुदर
॥१४०॥
स्वारीकवोष्णंजलं मीषटुष्णं तीर त्वगंभः स्त्रीफला कषायाः गंधाबुना सौच विधि प्रयुक्तं सुयोनिता संजनयति नाटया ।। १४१॥
सेवाब्दे दीवरा भोजफल विश्वोषौः, श्रुतं तैलं योनि हरेतां स्तान दोषानं कामुकगहितान
॥१४२ ।।
जाति प्रियंगु पुष्पैः सिद्धं तैलं स्मरालयं लंपित, तेन विनिर्वत्त दुग्गंधो दोषे सुभगं भगं भवति
॥१४३॥
यष्टि सुमनः सुमनः पल्लव पंचम रंजो युतं सार्थः, आतप तप्तं लिप्तं भग दौग्गंध्यं निरा कुरुते ।
|| १४४ ॥
रोमाण्यत्पाट तैलेन कोशातक्यस्थि जन्मना लिप्त वरांगं नारीणं स्याद्रोम रहितं सदा
॥१४५ ।।
पथगेकेन भागेन ताल पालास भस्मनो: संचूण्ा पंच भागेन लेपो रोम विनाशनः
॥ १४६॥
लंबा स्वरस पिशाभ्यां स्नुक तालाभ्यां विलेपनं रक्तोग्रालाशिला तेललेपनं रोमानाशने
॥१४७॥
CHOTERECTROTECISEAS९८९ PISODEDICISCESS
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95905PSP595915 विद्यानुशासन 26595952605
सिंधूत्व हरिताला स्नुकः पतः क्षारैः सुपेषितैः आलिप्पोद्वर्त्तव्येद्रात्रं शेम नाशोयमुत्तमं
11 882 11
गुंजा रुष्करयोः सप्तदिनं गोमूत्र भावितं चूर्णोर्क शीर संयुक्तो लेपोद्रोमविनाशनः
॥ १४९ ॥ गुंजा (चोटली) अरुष्कर (भिलावे) के चूर्ण को सात दिन गोमूत्र में भावना देकर आक के मिलाकर लेप करने से बाल उड़ जाते हैं।
दूध से
गुंजा मनः शिाल शंख चूर्णे कल्की कृतैः कृतं अंगेषु लेपनं रोम्नां सर्वेषां स्याद्विलेपनं
॥ १५० ॥
गुंजा (चोटली ) मेनखिल शंख के चूर्ण के कल्क का अंगो में लेप करने से सब स्थानों के बाल उड़ जाते हैं।
लसुने नापि तालेनाप्यपामार्ग फलैरपि, नल क्षारयुतै रोम्रां प्रनाशेस्याद्विलेपनं
॥ १५१ ॥
लहसुन हरताल अपामार्ग (चिरचिटे) के फल और नल क्षार (नमक) के लेप से बाल साफ हो जाते हैं।
निष्क प्रमाण मेर्तन मंजिष्टा शंख भस्म कुनटीताल:, चूर्णः पुनरष्ट गुणेनिल्लोंमी
करणमुद्दिष्ट
॥ १५२ ॥
निष्क (४ मासे) के बराबर मंजिष्टा (मंजीट) शंख की भस्म कुन्टी (में नीसल) हरताल का चूर्ण बालों को साफ करने में आठ गुनी शक्ति रखता है।
आरनालेन हयपुष्पी चूर्णः पीतोथवा कृतः 'जंबु चर्मत्व वार्षेण स्नातं दौगंध्य हत्तनोः
॥ १५३ ॥
आरनाल और ह्यपुष्पी के चूर्ण को पीने और जामून की छाल तथा आर्ष (कोच) के साथ स्नान करने से शरीर की दुर्गंध दूर हो जाती है।
कांतोशीर शिरीष त्वक लौद्र चूर्णेर्भव द्वपुः, उद्वर्तितं गत स्वेद मलं लुप्तं त्वगामय
।। १५४ ।।
कांता (सफेद) दोब) उशीर (खस) सिरस की छाल और लोध के चूर्ण का शरीर में लेप करने से पसीना तथा रोग दूर होकर शरीर सुंगधित हो जाता है।
වටවටටවට මං වටවට වවගවත්
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CUSTOISTRISTRISTISTICS विद्यानुशासन 935015DISPISCERTS
द्विनिशा तिल रुग्राजी कत्वोर्तित विग्रहः
दशः स्नादि दादा देस मा सुगंध नार हविः ॥१५५ ॥ दोनों हल्दी तिल उग्र (लहसून) राजी (राई) को मिलाकर जो स्नान करता है उसका शरीर सुंगधित और कांति युक्त हो जाता है।
पथ्यामालूरमूलाभ्यां निशावोशीर युक्तया, उद्वर्ततेन दिष्टाभ्याम दुग्गंध वपुर्भयेत्
॥१५६॥ पथ्या (हरडे) मालूर (बिल्च( जड़ ) हल्दी उझीर (खस) के उबटन से शरीर सुगंधित हो जाता है।
रोदारग्वध दाडिम निंब शिरीष त्वग ब्दरजनी
श्यांमः उद्वर्तने प्रयुक्ता शरीर दौरगंध्य मय नयंति वधूनां ॥१५७॥ रोद्र (लोध) आरग्यध (अमलतास) दाहिम नीम सिरस की छाल अब्द (नागरमोथा) रजनी (हल्दी) श्याम (काली हल्दी) के लेप से यधु (स्त्री) के शरीर की दुर्गध दूर होती है।
लोधजंबु दलोपेतं रजुनस्ट प्रसनकैः
उद्वर्तनं कृतं धर्म जल गंध निरस्थति लोध जामुन के पत्ते अरजुन के फूल के लेप से दुर्गंध नष्ट हो जाती है।
॥१५८॥
सायं तेन लीठो दल पूर्ण मातुलंगस्य, फल कृतिवं त्रिधा वकं रुप्याद धो वायु
॥१५९॥ मातुलुंग (बिजोर के पत्ते के तूर्ण को सायंकाल के समय घृत में मिलाकर चाटने से तथा फल के समान मुँह में रखने से अधो वायु नहीं निकलती है।
निशा कल्कोरिन सेतामा महिषी छगण वत्तोः,
तनुते तनु मालिप्तः स्वर्ण समयुतिः ॥१६०॥ हल्दी के कल्क को आग पर तपाकर भैंस के छगण (सूखे गोबर) में मिलाकर लेप करने से शरीर सोने के समान कांतिवाला हो जाता है।
गोमहिष्याश्चमूत्रेण करिषेण च भृक्षणं अभीक्ष्णं विहितं कुच्चिर्मण स्तुल्य वर्णतां
॥१६१॥
CASTHACIDIOISTOTLEDIS९९१ PISTOTRASOISONIPATIOTES
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OMICSSISODE विधानुशासन ISR550150951645 गाय और भैंस के मूत्र और करिषा (सूखा गोबर) को निरंतर मालिश से चमड़े का रंग बराबर हो जाता है।
जननी वाहकस्य स्यात पिछलेनास्य वारिण
मुक्ष्णवर्ण किं न गृथैभ्यालस्य विनीलतां ||१६२॥ जननी (मंजोठ) वाहक और पिछल (मोचरस) के जल के लेप से घाव के चिन्ह और गांठ के चिन्ह लोप हो जाते हैं।
सिद्धार्थ कोल बीजेभ्य स्तैल मात्रं यथा विधि,
दत्तं नंशोन्नरं कुर्यात् पुरुषायष्क जीवितं ॥१६३ ।। सफेद सरसों और कोल (बोर) की गुठली के बीजों के तेल को सूंघने से पुरुष आयुभर जिन्दा रहता है।
षषमासान शाल्मली तरो रंधे संस्थाप्य जीवतः
आदाय भक्षयेत्पथ्या क्षराशी विजलोभवेत् |१६४॥ छह महीने तक हरे सेमल के वृक्ष के खोखल में पथ्या हरडे को रखकर दूध के साथ खाने से पुष्ट होता है।
आमल की फल चूर्ण सलिलेन पतेनवा
निशारंभे लीठोनासाश्रती दग्योवन बुद्धिअनि संजननं ॥ १६५ ॥ आमले केफल के चूर्ण को रात्री के आरंभ में जल या घृत के साथ चाटने से नाक, आँख्य योवन बुद्धि और अमि को तेज करता है।
तिल धात्री फल चूर्णे घृत लुप्तिः प्रतिदिनं प्रेग लीठः,
जनयेन्मासेनमतिं महंती हन्यज्जरां च परां ॥१६६।। तिल और आँवले के फल के चूर्ण को प्रतिदिन प्रातःकाल के समय घृत के साथ चाटने से एक मास में बड़ी भारी बुद्धि को उत्पन्न करती है बुढापापन नष्ट हो जाता है।
भगं भगरसे सिद्धं तैलं वा शीलयेन्नरः धात्री फल रसं वानु जरा रोग जयोद्यत
॥१६७॥ भंग (भांगरा ) या भांगरे के रस में सिद्ध किये हुए तेल अथवा आंवले के फल के रस का सेवन बुढापे के रोगों को जीतने में तत्पर रहता है। OSTOISSISTRI501501512151९९२ WESTO150150150150155
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CSDSRIDDIDIVISI015 विधानुशासन PADDISTRISSISTOISTOISI
पथ्या छात्री पित्रक विडग लोहासिनः कमात्ः
वृद्धा चूर्णः भूता लीढां स्तैलने जरा नणं हन्यः ॥१६८॥ पथ्या (हरडे) छात्री (आँवला) चित्रक बाय विंडग लोह (अगर) असन विजय सार) के चूर्ण को क्रम से बढाकर तेल के साथ चाटने से पुरुषों की वृद्धावस्था नष्ट हो जाती है।
यष्टि त्वकांडवबुरिवता विडंग सर्पिवंचा मागधीका तिरीटै:
व्यस्तै स्समस्तैरथवोपयुक्ता वराजरारोग विनासनीस्यात ॥ १६९ ॥ यष्टि (मुलहठी) की त्वक (छाल) का स्वरस सिता (मिस्त्री) वायविडग सर्धि (घृत) वचा मागधीका पीपल और तिरोट को पृथक या एक साथ उपयोग करने से वृद्धावस्था नष्ट हो जाती है।
प्रातर्धात्री भुक्ता पथ्यां रात्रोचाक्षं नित्यं स्वादन, सर्वान् व्याधीन जीत्वा जीवेदायुय्यवित्
||१७०।। प्रातःकाल में आमला खाने तथा रात में एक बहेड़े के फल के बराबर हरड़े रोज प्रतिदिन खाए तो सह रोगों को जीतकर पूरी आयु को निरोग रहता है।
स्वस्योत्कृष्टं हेमंताता शिफा मासमेकं,
क्षीरेण य: पीवेत चित्रकस्य भेवत्षे वली पलित दुरगः ॥ १७१।। अपने हाथ से हेमन्त ऋतु के अन्त में चित्रक जड़ को उखाड़कर एक मास तक दूध के साथ जो पीता है उसकी वृद्धावस्था दूर होती है।
भावितानां तिलानां च स्वादत्जा तस्य कर्मच भंगाच सा जरां हंति क्षीरेण मित मिश्रुना
॥१७२॥ भुंग (भांगरा) के स्वरस में भावना दिये हुए तिलों को दूध के साथ खाने से बुढ़ापापन नष्ट हो जाताहै।
मुस्ताहय पुंसयो श्चूर्णे तेकण सहयः पिबेत् सहयतं तस्य देहः स्यात् रूप भाव मनोहर
॥१७३॥ मुस्ता (नागरमोथा) हयपुंसयो (असगंध) के चूर्ण को जो मद्दे में भिगोकर घृत के साथ पीता है उसके शरीर का रूप और भाव मनोहर हो जाता है। DECISIOTSTOTSIDASTISEA९९३ P15035CIDIOTSETOOTERIES
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COSISTA5IDISCI505 विद्यानुशासन A5051015015CKSON
पलाश तरु बीज चूर्ण पलसंयुतां गोमयाच कुकटंव तो गृहीतम बलिहव तक्रोत्थितं त्रिसप्त दिवसानि.यस्टापट
एव जीर्ण पिवन जयेत् मृति जरा रूजा अपि लेभेत मेधामति॥१७४ ॥ पलाश (छोला) वृक्ष के बीज के एक पल मात्र चूर्ण को गोमय (गोबर) के रस में अथवा गाय की तक्र में तीन दिन या सात दिन तक चाटे और दूध पीवे तो उसका शरीर जीर्ण होने पर भी यह बुढापा के रोगों को जीतकर बहुत बुद्धि को प्राप्त करता है।
अधामलको उदंबर जंबु वदिशसितार्जुनः, वंशः पिप्पल मदन वर द्विज वृक्ष:प्लाक्षास्तथा मंजिष्टा ॥१७५ ॥ विल्वार्जुनटोः चैकं वकुलपि काश वंजुलाः पनसं अकं शमी कंदवस्वतो निंबो मधुकक्ष १७६॥
वृक्षानक्षत्राणम् स्वादि नामपि क्रमादुक्ता आयुद्दीयं वांछन सदा स्वतारा तकं रक्षत
||१७७॥
यस्य तारा तरो कर्म पुष्टा धुच्चाटनादिया, यथा विधि विधीयेत् स तत्फल मवाप्नुयात
॥१७८॥ अश्वी (असंगध) आमलक, (आँवला) उदंबर, (गूलर) जंबु, (जामुन) खदिर, (खेर) असित, (अगर) अर्जुन वंश, (बांस) पीपल, मदन वृक्ष, वट (वह) द्विज पलाश, प्लक्षा (पीलवानी) मंजिष्ठा (मजीष्ठा) विल्व, (बेलफल) अर्जुन में से एक बकुल (मोलश्री) कोकिलाक्ष, सर्जवृक्षा-चंजुल-पनस (कटहल) एक शमी (खजेड़ा) कदंब चूत (आम) नीम और मुधक (महवा) यह अश्वणी आदि नक्षत्रों के वृक्षों का वर्णन क्रम से किया गया है दीर्घ आयु के चाहने वाले को सदा अपने नक्षत्र के वक्ष की रक्षा करे जिसके नक्षत्र के वृक्ष की पुष्टि अथवा उच्चाटन आदि कर्म विधि पूर्वक किये जाते हैं। वह उसके फल को पाता है।
पुष्टि किया विधिमिमं सकलं विजानत, मंत्रायनेन यदि वांछति पुष्टि कृत्यै, हस्तस्थ एव तिरिवलोपि समी हितार्थ:
स्वात्ततस्य संशय वतोत्र कदापि माभूत यदि मंत्री पुष्टि कर्म की इच्छा करता है तो इस पुष्टि क्रिया को जानते हुए इसके हाथ में सब इछित वस्तुयें रहती हैं इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
इति
SHREST501510505051९९४ X5DISCISIOSCIRCISION
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CHRI51005215RISIS विधानुशासन PSIODIOSRISTOTSIDISS
ग्रथांतर नक्षत्र वृक्षा अथ वक्ष्यामि नक्षत्र वक्षानागमलक्षितान्, पूज्यानायुष्य दां चैवव वर्द्धनात् पालनादपि विषदधात्री तरु हेम दुग्धाजम्बू स्तथा रखदिर कृष्ण वंशा अश्वत्थ नागौच वटः पलाशाल्पक्षस्तथा भ्वष्ट तरु क्रमेण बिल्याजुनी चैव विककतोथ संकेसराः शम्बर सर्ज वजुला सपनसाकवि शमी कदम्बास्तथाम निम्बोमधुकद्रुमः क्रमात अमी नक्षत्र देवत्या पक्षास्यु सप्त विशंति अश्चिन्यादि क्रमादेषामेषा नक्षत्र पद्धति यस्त्वेषा मामजन्म ऋक्षा भाजा भर्त्य: कुटदिफजादीन्मदांध:
तस्यायुष्यं शअरी कलत्र च पुत्रं नश्यत्येषां वर्द्धते वदनायैः अब नक्षत्रों के वृक्षों के नाम और लक्षण कहते हैं जो अपने जन्म के नक्षत्र के वृक्षों को पूजता है, सोचता है और पालता है उसकी आयु की वृद्धि होती है। अश्वनी = कुचला
भरणी = आमला कृतिका गूलर = सत्यानाशी रोहिणी = जामुन मृगसिर = खेद
आद्रा
अगर पुनर्वसु = बांस
पुष्प
पीपल अश्लेषा =नागकेशर
मघा
घड़ पूर्या = ढाक
उत्तरा
पाखर हस्त =पाढ़
चित्रा
चेल वाती = अर्जुन
विशारवा -
रामवयूर अनुराधा = पुत्राग
ज्येष्श = लोघ = साल
पर्याषाढ़ा = जलवेत उत्तराषाढ़ा = पनस
श्रवण = आक धनिष्टा = खेजड़ा
शतभिषा = कदम्ब पूर्वाभाद्र पद = आम
उत्तराभाद्रपद- नीम रेवती
= महुया जो मनुष्य मदांध होकर अपने जन्म नक्षत्र को औषधि आदि के काम में लाता है उसकी आयु लक्ष्मी स्त्री पुत्रादि नष्ट हो जाते हैं और जन्म नदात्र वृक्ष को जल आदि के द्वारा बढ़ाने से आयु आदि की दृद्धि होती है।
___ इति पुष्टि विधानम् CSIRIDICTUDISCISIOTECISI९९५ APRISTOTSTORIRISTRISATES
भूल
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CASIOTHOISSISCIETE विद्यानुशासन VISITIOTICISIODESI
||ॐ नमः॥
अथ सवननं वक्ष्ये यंत्र मंत्रौषधै कमात् पुंसां वंधुनां लोकस्य कुंजराणां गवामपि
॥१॥ ॐ चामुंडेश्वरि एहि एहि लिलि आस्वादिनि आकर्षणी पंच पिशाचिनि अमुकं वश्यमानय वश्यमानय ठः ठः॥ अब पुरुष, स्त्रियों, लोक, हाथियों और गायों केभी वशीकरण यंत्र मंत्र और औषधियों का क्रम से वर्णन किया जाएगा।
चामंडा मंत्रेणायत जप सिद्धेन मंत्रितोनेन भूस्टः प्रथमो ग्रासः साध्यं वश्यं समातनुते
॥२॥ उपरोक्त चामुंडा मंत्र को दस हजार जप से सिद्ध करके उससे पहले ग्रास को मंत्रित करके पृथ्वी पर रखने से साध्य यश में हो जाता है।
ॐ चामुंडे अमुकं हन हन पच पच वशमानय ठः ठः
संध्यात्रा त्रयो विंशति दिन मेतेनपूर्व तुल्येन विशति संरव्यं लवणहाँमात् साध्यो वशी भवति
॥३॥ इस मंत्र को प्रातः दोपहर और सांयकाल के समय तेईस दिन तक पहले के समान जप करके बीस संख्या प्रमाण अभिमंत्रित किये हुए नमक के होम से साध्य वश में होजाता है।
ॐ चामुंडि निरिति चंडालि अमुकं दह दह पच पच शीघ्र वशमानय वशमानया ठ: ठः॥
दसगुण दश शत रुप्य प्रजाप्यतःप्राप्नयादयं सिद्धिं
मंत्रो दशांश होमाद्विहि ताच्य विष्णु यक्षिण्याः ॥४॥ यह विष्णु यक्षिणी का मंत्र दस हजार जप और दशांश होम से सिद्ध होता है।
तुष साध्य दंत काष्टां प्रिया सुकार्य सवीज लवणे
स्यात् वश्यः साध्यो होमाद्रिहिता देतेन मंत्रेण मंत्र से तुष साध्यं के दंत काठ प्रिय वस्त्र और कपास बीजों (काकड़ो) सहित होम करने से साध्य वश में होता है।
ब्ले तत्व कूटदु वतं स्वनाम दद्वाह्ये भगेऽष्टदलाब्ज यंत्रं पत्रेषु पद्मा वरमूल मंत्रं वेष्टयं तदाकर्षण पल्लवेन
॥६॥
STSRIDRISTOTHRISTISISTS९९६ BASICSIRISROSCHORSRIES
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CSCIRCISIOTSIRIDIO5 विधानुशासन 2/505TOISTRICISES
टांतं तत वार्द्ध शशि प्रवेष्टां विलिरट्य यंत्रं फल के वटस्य गोरोचना संयुत कुंकुमायैः साध्यस्य नामारुण चंदनस्य ॥७॥
कत्या ततश्चोभा संपुटं च श्री पार्श्वनाथस्य पुरो निवेश्य
संध्यास नित्यं करवीर पुष्पैभवेदऽवश्य जपतः सुसाध्यं ॥८॥ रलें तत्त्य ही).कट (क्षा और बंद (चंद्रमासे घिरे हाए अपने नाम के बाहर केभाग में अष्ट दल का कमल बनाकर, उसके पत्रों में पद्मावती देवी के मूल मंत्र को लिखकर, उसको आकर्षण पल्लव (संवोषट) से युक्त करके टांत (ठ) और अर्द्ध चंद्रमा से घेरकर इस यंत्र को वड़ वृक्ष की तख्ती पर गोरोधम और कुंकुम आदि से लिये फिर एक दूसरी तख्ती पर साध्य के नाम को लाल चंदन से लिखे तब दोनों का मुख मिलाकर श्री पार्श्वनाथ भगवान के सामने रखे, तीनों संध्याओ में नित्य कनेर के लाल फूलों से जपने से अयश्य सफलता मिलती है।
2
संवीषद
माय पण
RUML HRA
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मेवौषट
4
शन पथ
निगम
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संवीषद
संवीषद
ॐ हीं हैं हस्यानी पद्मे पद्म कटिनि अमुकं मम वश्याकष्टीं कुरु कुरु संवौषट्
भूर्जे सुगंधिना लेख्य यन्नाम च छकरायोः
मध्ये मधु आज्ययोः क्षिप्तं वश्यो भूत्वा स तिष्ठति ॥९॥ CSRIDOROSCIETORIS९९७ PISTRISTRICISTRISTRISES
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ゆらゆらゆらゆらSP5 Raagyle
たらこちらですです
भोजपत्र पर च और छ के बीच में साध्य के नाम को सुंगंधित वस्तुओं से लिखकर मधु और घृत
से भरे बर्तन में रखे तो साध्य वश में होकर बैठे।
ॐ चांडालिनी हिली हिली अमुकं वशमानय ठः ठः लक्षजपसिद्धमेनं मंत्रं भूर्जे विलिख्य तन्निक्षिप्ता कटु चेतसि कुक प्रतिभाया हृदये निस्वन्यैतत्
गुह्ये च ताम्र सूचिं सप्त दिनं तापयेदिम मग्रौं संध्या तिसृषु वशः सभवेत्साध्यो न संदेह
॥ ११ ॥
इस मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके भोजपत्र पर लिखे । उसको कटु चेतस (क्रोध के भावसे) कुक की बनी हुई प्रतिमा को ह्रदय में खोदकर रख दे, इसको ताँबे की बनी हुई से गूंधकर सात दिन तक तीनों संध्या काल में अग्नि में तपाये तो साध्य यश में हो जाता है । इसमें संदेह नहीं है।
1180 11
कूंमध्ये लिख नाम तत्कानीक्षवै विद्वान्वितै र्वेष्टितं (कवी क्ष वै) बाह्ये प्टष्ट दलां बुजे प्रति दलं स्वाहांत वामादिका
गौरी देष्टा पराजितो च विजयां जंभा च मोहां जयां वाराहिम जितां क्रमाल्लिख वहिर्यामादि जूसः पदा
स्त्री पुरुष सुरत समये दोन्यों विनि पतित मिंद्रयं यात्कार्याशन गृहीत्वा भूमिमप याप्यं
काश्मीर रोचनादि भिरेत यंत्र विलिख्य भूर्ज पावक विहितं तदुपरि विकीर्य सित कोकि लाक्षबीज रजः
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
।। १४ ।।
जल मिश्रं रेत सातन्नि सिंच्य सूत्रावृतं कटौविध्तं पुरुषं निजानुरक्लं करोति षंढं पर स्त्रीषु
|| 84 ||
एक अष्टदल कमल की कर्णिका में क्रू क वी क्ष और वै को बिन्दु (अनुस्वार) सहित लिखे इनके बीच में नाम को लिखकर उसके आठों पत्तों में पूर्वादि क्रम से ।
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CHODRISTRIORSEE विधानुशासन PHARISSISTR5RIES
ॐ गौर्यै स्वाहा ॐ अपराजितायै स्वाहा ॐ विजयायै स्वाहा ॐ जंभायै स्वाहा मोहायै स्वाहा
ॐ जयायै स्वाहा ॐ वारायै स्वाहा ॐ अजितायै स्वाहा मंत्र लिखे।
और उसके बाहर मंडल में ॐ जूंस: बीजो को लिखे। स्त्री पुरुष के रति के समय योनि में इन्द्रिय से मिरी हुई को कपास से पकड़कर पृथ्वी के अतिरिक्त स्थान में स्थापित कर दे। इस यंत्र को भोजपत्र पर केशर गोरोचन आदि से लिख कर अग्रि से ढंक दे और उसके ऊपर श्वेन कोकिलादा (मखाने) के बीजों के चूर्ण को डाले इस यंत्र को जल में मिलाये हुए उस वीर्य से सींचकर तागे से लपेटकर यादे स्त्री अपनी कमर में बांध लो उस स्त्री में अनुरक्त पुरुष दूसरी स्त्रियों के लिए नपुंसक हो जाए।
पुरुष वश्य यंत्र
Laikatha
७ जमाये स्वाहा।
विजयाये स्वाहा
नाम
3 बाराझे स्वाहा ।
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अजितायै स्वाहा
SHOROSESIRESIDEOS९९९ P6518570150100505TOISTRICT
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S5I05015015251975 विधानुशासन 3506520505IDARDIST स्तंभन और नपुंसक कारक यंत्र
वकारे लिरवेन्नाम माहै दाभ्यंतरे स्थितं पीत द्रव्येण सद्भूर्जे स्तंभः षंढी कर स्मृतः
एतयंत्रं द्वितीयं निर्गत्य वहि:सयाति यदि गेहात
वरनातु सात्म कट्रवांमायातेन्यत्र निक्षिपतु ॥१७॥ व और ठ के बीच में नाम को लिखकर माहेन्द्र मंडल के अन्दर पीले द्रव्य से भोजपत्र के ऊपर लिखने से यह स्तंभन और नपुंसक करता है, यदि घर के बाहर निकले तो इस दूसरे यंत्र को कमर में बाँध कर निकले और साध्य के आजाने पर उसे दूसरी जगह पर रख दे।
भाम
संविरव्य नामाष्ट दलाब्ज मध्ये माद्यावृतं षोडश सत्कलाभिः क्लीं ब्लू तया दांमथ योजयेत द्रीं दिकात्धेषु पत्रेषु यथा क्रमेण ॥१८॥ हामां लिखेदं कुश बीजभुच्चैः क्षीं चान्य पत्रेषु वहि स्त्रिमूर्ति
भज्जें हिमाची वियतं स्व वाही सौभाग्य वद्धिं कुरुतेगनानां ।।१९॥ नाम को आठ दलवाले कमल के अन्दर पहले माया (हीं) और फिर सोलह कलाओं (स्वरों) से येष्टित करे। दिशाओं के पत्रों में क्रमश: क्लीं ब्लू दां और द्रीं क्रम से लिखे तथा अन्य पत्रो में क्रम से हां आं अंकुश बीज (क्रों) और कं लिखकर बाहर त्रिमूर्ति (ही) से वेष्टित करे इसको भोजपत्र पर कपूर चंदनादि से लिखकर यदि अपनी भुजा में धारण करे तो यह स्त्रियों के सौभाग्य की वृद्धि करता
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SOCIEPISISTERISTO5 विद्यानुशासन 98510THRISTR3505RSS
स्त्री मौभाग्य वद्धि कारक यंत्र
आं
नाम
आ।
अंग
क्ली
स्त्री का पुरुष को मोहित करनेवाला तिलक गौरोचनां वशी कुयाच्चिारमातव भाविना
नार्या ललाटे विन्यस्ता पुंसः सर्वान विलोकितान् |॥२०॥ स्त्री के ऋतु धर्म में निकले हुए आर्तव में भावना बहुत दिनो तक दिया हुआ गोरोचन का स्त्री के मस्तक में तिलक करने से सब पुरुष उस स्त्री को देखकर मोहित हो जाते हैं।
॥पुरूष वशीकरण तैल ।।। वंच दश नप चतु षगान विकतिनक्ताल मोहिनिका लज्जारिकानां लात्वामावस्यायां शनेवार ॥ २१॥
सं पिष्ट्वाजा पासा कलकार्द्रमजायद्यो यतं प्रपचेत अविर्ते काथे द्वितीयं भागं क्षिपेत ततः
॥२२॥
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STORIEDIOMOS206 विधानुशासन 05101510551015IDEOS
मधु तो द्विगुणं तेलं काथं संमिश्रितं पचेद्विधिना
वनिता वदन्योभ्यं ग्रन तैलमिदं त्रिजगती वशीकृत ॥२३॥ विकृतिन (आक) पाँच भाग, नक्ता (कलिहारी) दस भाग, नमक नौ भाग, मोहिनीका (गोभी) चार भाग और लजरिका (छूई मूई) छ भाग को शनिवार के दिन जब अमावस्या आए तब लेकर आए; उसको बकरी के दूध में पीसकर आधे का बकरी के दूध में क्वाथ बनाए अर्थात् पकाए। क्वाथ का आधा भाग रहने पर उसमें दूसरा आधा भाग भी डाल दे। फिर उसमें बराबर मधु और दुगुना तेल डालकर सबको विधि पूर्वक पकाकर तेल सिद्ध करे। यह तेल स्त्री अपने शरीर के अंग में लगाने पर तीन लोक को वश में कर लेती है।
॥२४॥
ब्रह्मडंडी दलैः वैद्र सहितैः स्मर मंदिरं लिप्तमात्यंतिकं पत्युः स्नेह्या वहते रतौ
पति वश्य प्रयोग भूमि कंदंबक स्वरसः स क्षौद्रः शर्करा समायुल: यौनौ नार्यालिप्त प्रियमचिरा दाशयत्कुरुते
॥२५॥
तैलं तिलोद्भवं पक्वंमाक्षिके योनि लेपनात् अति शक्तं पति कुयादति संशलमामृति
॥२६॥
मालती पुष्प संसिद्ध तैलाभ्यलं परागंया किंकरी क्रियते नाया संभोग समटो पतिः
॥२७॥
सिद्धं सिद्धार्थ तैलं पंचागै दाडिमोद्भवैः वरांगंमगंना लिंपेत् तेन कुर्यात् पति वश
॥२८॥
पिष्टैः सागस्य मूत्रेण दारु लिंब रसांजनैः वरांगं धूपयेद् या स्त्रीत दासो भवेत्प्रियः
॥२९॥
रोचना लक्ष्मणा मूल कल्क लिप्ततनु वधूः रुतौ प्राप्नोति सौभाग्यं दपितं प्रियदामिति:
॥३०॥ ಗಡFಥಳಥಳgoogYNESSESSES
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सितार्क मूल रुग यष्टि निजास्नुग्रवीर्य मिश्रितं मुलाग्रसादिनायः स्यात् सध्यो साध्यो न संशयः
मंदार मूलं मंजिष्टा रुजा घटक मस्तकै : स्वशोणितै वंश्यः स्यात् ब्रह्माप्य नादि मिश्रितैः
रुगधतो प्रेत वदने भौते ह्नि विनिवोशिती असितौ वशिया व कर्तुमीश्वारी
नोट:- गुरु आज्ञा न होने कारण इन लोकों का हिंदी अर्थ नहीं किया गया है। कुष्टं स यष्टि मधुकं निक्षिप रजस्वला योन्यां मूत्रेण पेशयित्वा पुंसः खाने प्रयोक्तव्यं
॥ ३१ ॥
॥ ३२ ॥
॥ ३३ ॥
।। ३४ ।।
कनकांपामार्ग बीजैः सित कुष्टैरक्षिका दुग्धैः कृत वटिका चूर्ण मिदं शंकर मघानयैद्वश्यां
॥ ३५ ॥
कनक (धतूरा ) अपामार्ग (आंधी झाड़ा) के बीज सफेद कुष्ट (कूठ ) आक यक्षिका के दूध की गोली बनाकर खिलाने से यह शिवजी को भी वश में करके लाता है।
अंजन सैंधव माक्षिक ताल गुडं स्वैद्रिये युतं भोज्यं पानं वा मिश्रराणितमाशु वश्ये वर्तयेत्साध्यं
॥ ३६ ॥
अंजन सेंधानमक माक्षिक (शहद) ताल (हड़ताल ) गुड़ और अपनी इंद्रिय के वीर्य्य को मिलाकर खिलानेसे या पिलाने से साध्य वश में हो जाता है।
गौरभां चूर्ण युक्तेन युल पाद तलो नरः नवेन जयनीतेन नीयते सहसा वशं
|| 39 ||
नवीन (नये) नवनीत (मक्खन) में मिलाकर गोरंभा (गोभी) के चूर्ण का यदि मनुष्य अपने पाँव के तलवों में लेप करे तो वशीकरण करता है अर्थात् (संभोग काल में स्थंभन होने से स्त्री वश में होती है।
पुष्पद्वयं तत् प्रणवादि युक्तं विलाशिनि नाम पदं
तद्न्ते करोतु नारी मदनावतारं ज्ञात्वो पदेशं विधिवदगुरुणं ॥ ३८ ॥
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दो फूलों के आदि में प्रणव (ॐ) लगाकर उसमें बिलाशिनी स्त्री का नाम लगाकर देने से पुरुष स्त्रियों में कामदेव का अवतार बन जाता है इसका उपदेश गुरु से विधि पूर्वक लेना चाहिए।
ॐ द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः संक्ली ऐनित्येक्लिन्ते मद द्रवे मदनातुरे मम सर्वजन वश्यं कुरु कुरु वषट् ॥
दात तांबूल गंधादीन् मंत्रेणनेन मंत्रवित्
क्षालयेत आत्मनो वक्रं सः स्त्रीणां मन्मयो भवेत्
॥ ३९ ॥
इस मंत्र से अभिमंत्रित किये हुए पान गंध आदि खाने को दे तथा इस मंत्र से अभिमंत्रित किये हुए जल में अपना मुँह धोए तो यह स्त्रियों में कामदेव हो जाता है ।
लोक कामाधिपावग्रे ब्लूं द्रां द्रीं क्रम सो लिखेत् मंत्र तट विदो एण्डु लिनी पंच रोपणात् ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं
लोक (हीं) कामाधिप (क्लीं) के आगे ब्लूं द्रां और द्रीं क्रम से लिखे इस मंत्र को मंत्र शास्त्र के विद्वानों ने ज्वाला मालिनी देवी के पाँच बाण कहे हैं।
नतत्त्व हामाद्विपेंद्र कारसमन्वितं चतुबींज पूर्वोक्त पंच वाणैर्भव तत्त्वं प्राहुराचार्याः
वश्यं क्षीं
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हां आंद्विप (हाथी) को वश में करने वाला क्रौं और क्षं सहित यह चारों बीजाक्षर को पूर्वोक्त पाँचों बाणों में मिलाकर के इसको मंत्र शास्त्र के विद्वानों ने नौ तत्त्व कहा है अर्थात्
॥ नव तत्त्व ॥
ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां ह्रीं हां आं क्रों क्षीं यह नौ तत्त्व हैं।
प्रत्याहं प्रातरुत्थाय तोये विनस्य तेन यः क्षालये दात्मनो वक्रं सः स्त्रीणामकरध्वजः
|| 80 ||
॥ ४२ ॥
जो पुरुष प्रातः काल उठकर इस मंत्र से अभिमंत्रित किये हुए जल से अपने मुख को धोता है यह पुरुष स्त्रियों का कामदेव हो जाता है।
कार्मेंद्रोद्धतले त्रिमूर्तिमथ तत पार्श्व द्वयेब्लेन्यसेत् बाणान्पंच तदंतरे वहिरपिश्री भारती बीजकां
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अक्रों तत्परितं ततोष्टदल भृतपद्मं दलेषु क्रमात् श्रीं ह्रीं तद्दल कोटराग्रनिहितं मां ॐ / वहीं ह्रीं त्रिधा
॥ ४३ ॥
ॐ द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः ऐं श्रीं ह्रीं ब्लें आं क्रों यूं सर्व जन मम वश्य कुरु कुरु वषट् ॥
अष्टोत्तर शतरूप मंत्रेणनेन योजपेन्नित्यं
वश्या कृष्टिक्षम द्रावण संमोहनं भवति
।। ४४ ।।
कामेद्र (क्रीं) के ऊपर और नीचे त्रिमूर्ति (ह्रीं) लिखकर उसके दोनो तरफ ब्लें बीज लिखे उसके बाहर पाँच बाण लगाकर और उसके अंतराल में भारती बीज (ऐ) और आं क्रों लिखे । उसके बाहर आठ दल का कमल बनाकर प्रत्येक दल में क्रम से बाहर श्रीं और ह्रीं लिखे और प्रत्येक दल के बाहर र्यू और ॐ लिखकर बाहर तीन बार ह्रीं का वेष्टन करे जो पुरुष इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करता है वह वशीकरण आकर्षण क्षोभ द्रावण और संमोहन करता है।
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मंत्रं सिद्धं लक्ष प्रजाप्यतः स्व नाम संयुक्तम,
युवेतेर्युनो स्युद्धक फलक द्वंद्वे विलिरवेत् ॥४५॥ इस मंत्र को एक लाख जप करके सिद्ध करके युवति और युवक के नाम को बहेडुक (वेहड़ा) की दो तख्तियों पर लिखे।
भूमंडलस्य फलके पुंसो न्यस्यो परिन्यस्य संस्थापोद्गुहादै गुप्ते सातस्या वश्या स्यात्
॥४६॥ पृथ्वी मंडल के अंदर ऊपर की तस्ती पर पुरुष का नाम लिखकर उसे दूसरी तरती के ऊपर रखकर गुफा आदि गुप्त स्थान में रखे तो वह उसके वश में हो जाती है।
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पन्नगाधिप शेरवरां विपुलारुणांबुज पिष्टरां कुर्कुटोग वाहनामरुण प्रभां कमलानना
॥४७॥
अंबकां वरदां कुशायत पाश दिव्य फलांकिता चिंतयेत् कमला वती जपतां सतां फलदायिनी
॥४८॥ मस्तक पर नागराज वाली, बड़े भारी लाल कमल के आसन वाली, कुर्कुट नाग के वाहनवाली, लाल कांतिवाली, कमल के समान मुख बाली, तीन नेत्र वाली वरद अंकुश बड़ा पाश और दिव्य फल वाली, तथा ध्यान करने वाले को सदा फल लेने वाली पद्मावती देवी का ध्यान करे।
शिलां हिक्का सर श्यामा लोचना रजतःक्षण: वशयेत् तरुणीः सर्वाः स्वामिनं चानु जयेत्
॥४७॥ इस शिला के कारण से श्याम तथा सफेद क्षेत्र वाली सभी स्त्रियाँ वश में होकर अपने स्वामी को प्रसन्न करती हैं। eeeeeíoot වලටees
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चूर्णे नांजन मलयज सरसिज दलजेन ना प्रियंगुनां, अंजित दृष्टि स्तरुणी या पश्येत्सा भवेद्वश्या
पारा पतस्य सकृता मधुना सैधैवेन च आलिप्तः साधनः कांतां स्व वश्यां कुरुते रते
गंधात कुनटी लिप्त शोषिता या रसः वह सक्षौद्रं मेहने लिप्तमंगनां कुरुते वशे मधु कर मल्लक शुल्क संलिप्त साधनः भजे निधुवने कांतां सा तस्य वशगा भवेत्
कृष्ण रस रुक क्षेत्र सोबीरांजन सैधवै पारापत मलोपेतैर्ध्वजे लेपो वशीकर
यैः कैश्चिद्रक्त कुसुमैः पंचभिसप्रियगुंभिःर्लिप्तः लिंगो वशीकुर्य्यात् नारीं सौभाग्य गर्वितां
तुरंग लाला मंजिष्टा पत्र जाती प्रसूनकै: मकरध्वज पादः स्यात् समालव्धनिजध्वजः
रोचना रस काश्मीर हिमहेमरसेन्दुभिः हरे मेहन लोपोयं कामिनीजन मानसं
रुक् पारापत विट् विश्व मधुग्रा रोचनां जनैः भवे लिप्त ध्वजः कामी कामिनी मीन केतनः
निशा यष्टि मधु क्षौद्र पिपली वृहती फलैः वस्त मूत्रेण वा लिप्तं साधनं वशयेत् स्त्रियः
यष्टि कुष्ट कण क्षैद्र वस्त मूत्रै विलेपनं कल्पिते कल्पयेत् लिंगे सर्व स्त्रीजनमोहनं
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॥ ४८ ॥
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॥ ५० ॥
॥५१॥
॥ ५२ ॥
॥ ५३ ॥
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॥५५॥
॥ ५६॥
॥ ५७ ॥
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SSIOISTRI51035255125 विधानुशासन BASCISSISTRISEASOISI
मईयेत् पिपली कामं सूतकेन कुरंटिका क्षीरेण मधुना सांड़ लिंगे लेपो वला स्मरः
||५९॥
मधु कपूर सौभाग्य पिटाली काम संयुतां द्रावटोत अंगना दंl लिंगलेपन मात्रतः
॥६०॥
कर्पूर कुकुम क्षौद्र कंकोल कणेकर्वजः
लिप्तः पिष्टे रतारंभे संमोहयति कामिनी नोट:- गुरु आज्ञा न होने से श्लोकों का अर्थ नहीं किया गया है।
||६१॥
कपित्थ स्वरस क्षौद्र कृष्णा मरिच तंदुला क्षौद्र यष्टिकणमूल कपित्थ रस सैधवा
॥६२॥ कैथ का स्वरस शहद काली मिरच चावल और शहद मुलैठी पीपलामूल कैय का स्वास और सेंधा नमक।
मधु दोवरि निर्यास सकष्णां दश सैधवाः कपोत विट पटु क्षेत्र विश्वा लोधाना मया
॥६३॥ शहद दो बार निर्यास (नीली वृक्ष का काठा) दस काली मिरच सेंधा नमक कबूतर की बीट पटु (पटोललता) सोंठ लोघ अंजन और आमय ( कूट)
सूठया वृश्चिक पुच्छाग्र रुजा मधुका भयाः दावोग्रागोशीर मजिष्टाः लोयमाक्षिक राजिका
॥६४॥ सूठ विच्छू का ईक स्ना (कूठ) मधुका (महवा) अभया (हरड़े) यव (जौ) उग्रा (लहसुन) गाय का दूघ मंजीठलोघ माक्षिक (शहद) राजिका (राई)।
कृष्णा च ब्रह्म इंडीच मरिचानि च मस्तु च पिकाक्ष पुष्प वैदेही व्यायी फल जलं तथा
॥६५॥ कृष्ण (काली मिरच) ब्रह्म डंडी सफेद मिरच और मुस्ता (नागर मोथा) पिकाक्ष (कोकिला - तालमखाना) काकूल वेदेही (पीपल) व्याधी फल (पसर कटेली के डोडे) और जल।
कपि कच्छक रोमाणां सैंधवं शर्करा मध माक्षिकं सेंधवं क्षौद्रं पारापत विंडजंन
॥६६॥ QಡಣಣಬಣಣದER೦೦೦Yಣಪಡಣಣದಣಥಂದ
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15 विद्यानुशासन
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कोंच की फली के रोम सेंधा नमक सक्कर और मधु (शहद) शहद सेंधा नमक क्षौद्र मोम कबूतर
की बीट और अंजन |
मक्षिक यष्टि मधुकं वैदेही पाटली रसः प्रियंगुष्टि मधुकं नतिकृन्माक्षिकं रुजा
॥ ६७ ॥
माक्षिकं (शहद) यष्टि (मुलेठी) मधुकं (महवा) वैदेही (पीपल) पाटली रस । फूल प्रियंगु मुलेटी महवा नतिकृत (तगर) माक्षिक (शहद) रुजा (कूठ )
सूक्ष्मा कदंब निर्यास पूर्णे माक्षिक संयुतः सुमनः सार संयुतं स सिंधुद्भव मंजनं
।। ६८ ।।
सूक्ष्मा (छोटी ईलायची) कदंब का गोंद पूर्ण (जल) माक्षिक (शहद) सहित सुमनसार (पुष्प सारअगय्या का फूल का रस) सहित और सेंधा नमक और अंजन
पित्तं मत्स्य संपिष्ट पुष्पसार समन्विते केतकी सुमनो रेणु सुमनः सार संयुतं
॥ ६९ ॥
पित्तं मत्सस्य (मछली का पिक्ता) में पुष्प सार अगय्या के फूल का स्वरस मिला हुआ केतकी के फूलों के रस का पूर्ण और मुनि पुष्प सार अगत्था फूल का रस
यंग बीण सहितं सिद्धार्थे दुत्पलेन च यातांक फलसंभूतौ लवणेन युतो रसः
|| 190 ||
हेयंग बीण (घृत) के साथ उत्पल (कमल) वार्ताक फल (बेगण के फल) में रखे हुए नमक का रस सहित
प्लवंग लिंग मसृण सूत कर्पूर सारया हैयंग बीन संभिन्नः पिष्टः साक्षान्मृगै ध्वजैः
प्लवंग (बंदर) के लिंग मसृण (लाली) सूत पारद कपूर सारा (निसाथ)
अर्द्ध लोकावसानायै योगा एते प्रकीर्तिताः एतैविलिप्त लिंगस्य वश्यास्युयषितोरियला
॥ ७१ ॥
॥ ७२ ॥
जो यह आधे आधे लोकों के योग कहे गये हैं इनमे से किसी एक का लिंग पर लेप करने से सब स्त्रियां वश में होती हैं।
मधु पिष्टै र्ध्वज लेपोरु अरीचक पित्थ निर्यासैः रंभा फलांबु कलितेर्वश्ये च्च द्रावेयच्च स्त्रीं
959595975969599१००९P5959595959595
॥ ७३ ॥
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050505127501505 विधानुशासन 75075251015015
रुक (कूठ) काली मिरच कपित्य निर्या स (कैथ का गोंद) रंभा फलांबु (केले के फल का रस) को शहद में पीसकर ध्वज (लिंग) पर लेप करने से स्त्री वश में होती है तथा उनका द्रावण होता है।
मधुकत्मलाज पारदजातिफल रेणवःअगस्त्य कुसुम जलैः
कतकास्ति युतो लेपोथ्वजस्य नारी वशी कुर्यात् ॥७४ ।। मधुकृत (शहद) मलयज (चंदन) पारा जायफल का रेणु (चूर्ण) अगस्त के फूल का रस कतकास्थि (निर्मली की गुठली) सहित लेप लिंग पर करने से स्त्रियाँ वश में होती है।
सरण टंकण शशि रस मधरैबीज मनिदल स्वरसैः
भवति प्वजो विलिप्तः कांता हूदटौ कसंवननं ॥७५ ॥ सूरण (जमीकंद) टंकण (सुहागा) शशि कपूर) का रस मधुर बीज (महवा का बीज) मुनि (अगस्त्य) के पत्तों का स्वरस का ध्वज पर लेप करने से स्त्री का हदय वश में होता है।
वृहती फल कण तंदुल मरिच फलैचंद्रव सुकृति
पत्र/कायेन लिप्त लिंग कामन्यां कामद्रव कामी ||७६॥ वृहती फल (कटेली के डोडे) कण (पीपल) तंदुल (चावल) मिरच फल चंद्र (कपूर) वसृकृति (वासा अडूसा) के पत्र का लेप करने से स्त्री कामदेव के समान प्रेम करती है।
मागधि का मधुकै रसतुषार कपित्य पल्लवस्व रसैः
करुतै वरांग लेप सृष्टि मिथुनस्य रति सम ॥७७।। मागची का (पीपल) मधुक (महवा) का रस तुषार (ओंस का जल) कैथ के पत्तों का रखरस का उत्तम अंग पर लेप करने से रति के समय में स्त्री पुरुष से संतुष्ट होती है।
सुरते कुरुते पारद रवंड़ सिता तुहिन केतक रजोभिः
गुह्ये विहितो लेपो दंपत्योः काम रस मधिकं ॥७८ ॥ पारा खांड शक्कर तुहिन (कपूर) और केतकी का चूर्ण से गुप्त अंग पर लेप करने से दंपत्ति को कामदेव का अधिक रस मिलता है।
पिष्टै : कुसुम सारेण सरसी रूह के सरैः सद्यो प्वजोत्थित कुर्यात् नाभिमूले विलेपनं
॥ ७९||
9501501521525215105१०१०/521501501512152ISODS
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PSPSPSP595 विद्यानुशासन 2595 おちころころ
दृप्ता जमूत्र संपिष्ट विशाला मूल कल्कितं उद्वर्तनं रतौ लिंग नृणं मुक्तं भवेत्सदा
सप्ताहमज मूत्रस्या संपिष्टा बाजरी शिफा प्रयुलोद्वर्तनं कुर्यान्महनो थंभनं नृणं
क्षीराद्यंड शिफा राजि कुष्टांग्रा वृहती फलैः लिप्त पादतलस्य स्यात् क्षणलिंग समुत्थिति
जल पिष्टैर्हय गंधो त्रिफला करवीर मूल निर्यासः मागधिकां संयुलै लिप्तिं लिंग दृढं भवति
टकल पिय लिकानां हलिनी भिः क्रम विवृद्ध पिष्टाभिः लिप्तं धोतं पुंसो रतौ वरांगं चिरं नपतेत
11 20 11
॥ ८१ ॥
पारद सितेषु पुर्खा मूलाभ्यां नल मालफलगाभ्यां ਹੀ भवति नृणां लिप्तं स्तंभनं दीर्घ
॥ ८२ ॥
11| 23 ||||
॥ ८४ ॥
सितेषु पुंवि का मूल केवलं वदने घृतं तुषांबु पिष्ट लिप्तं च वीर्य संस्तंभयेद् ऋतौ
॥ ८५ ॥
सफेद सरफौका की जड़ को केवल मुँह में रखने और तुम (वहेड़ा) के जल में पीसकर लिंग पर लेप करने से रतिकाल में वीर्य का स्तंभन होता है।
सित सर पुंखी मूलं हत्वा सित कोकिलाक्ष बीजं च वन वसला रस पिष्टं वीर्य स्तंभ मुखे संस्थं
॥ ८६ ॥
सफेद रस फोंके की जड़ और सफेद कोकिलाक्ष (ताल मखाना) के बीजों को वनवसला (उपोद
की पोई) के रस में पीसकर मुख में रखने से वीर्य का स्थंभन होता है ।
॥ ८७ ॥
पारद (पारा) सफेद सरफोंके की जड़ और नक्त माल (करंज) के फल के लेप से पुरुषों के वीर्य का बड़ा भारी स्तंभन होता है।
नील्या: सौर्येन पत्रेण चक्रगेन निरुध्यते रेतः स्वतेन मूत्रेण नाभि लेपेन पाचिरं
2525252525PSPG|--‹‹ PSP52525252595.
॥ ८८ ॥
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SECTORATIOIRIDIHITS विधानुशासन PARTOISPIRICIRCADEISE नीली सौयेन पत्रेण (आक के पत्ते) चक्र (तगर) का अपने मूत्र में पीसकर नाभि पर लेप करने से वीर्य का बहुत स्तंभन होता है।
सितासिताब्ज नीलाब्ज केसरैः क्षौद्रकल्कितैः नाभौ विनिहितैः शुक्रं स्तंभ नीयात चिरं तनो
॥८९॥ सफेद कमल काला कमल और नीले कमल की केसर के कल्क का शहत के साथ नाभि पर लगाने से बहुत समय के लिए वीर्य का स्तंभन होता है।
नाभि मूले रजी भूता लिप्ता मंज्दुले करिका नक्षमेत सह क्षौद्रा रेतः पात कथामपि
॥९ ॥ मंडल करिका (गंध तुलसी) के चूर्ण का शहद के साथ नाभि पर लेप करने से पुरुष स्खलित होने की बात भी नहीं सुनसा है।
सित वायस जंघायाः मलं मध्वज केसरातै पिष्ट्वानि नाभौ न्यास्तानि रेत स्तंभ वितन्वते
||९१॥ सफेद (काक जंघा) सफेद चिरमा की जड़ शहत घृत और कमल की केसर को पीसकर नाभि पर लेप करने से वीर्य का स्तंभन होता है।
दुस्पशोषण कुर जीरकवला दग्धा पुट वारिण
पिष्टय कंदल केद जेन गुलिकां कत्वा तथा शोषयेत दुस्पर्शो (लता करंज) उष्ण (सोंठ) कूठ जीरों बला (खरेंटी) को पुट में जलाकर पानी से पीसकर कंदल कंद (केले की जड़) के रस से गोली बनाकर सुखा ले।
सानाभौ मधु कल्किता विनिहिता दत्युत्सवा
दुवंर प्रारंभेष्ववसान काल विकलं कर्तु रतं वारयेत् ॥१२॥ उसका शहद में कल्क बनाकर नाभि पर लेप करने से रति के उत्सव में रतिकाल की समाप्ति नही होती है।
कष्ण वषदंश तक्षिण जंयायाः शल्य खंड़ मादाय
वद्धं कटि प्रदेशे वीर्य स्तंभं कुरुते ॥९३ ॥ काले बिलाय की दाहिनी जंघा की हड़ी के टुकड़े को कमर में बाँधने से पुरुष का वीर्य स्थंभित होता है।
बीजानां बीज पुरस्य तैलं शशि समन्वितं सितं सिताब्ज सूत्रेण रुंध्याद्वीरांध्ययास्यगं
॥९४॥
SSCISSI5015015015105१०१२85106STOI59505015105
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950150505505125 विधानुशासम 1501510051015101510SS बिजोरे के बीजों का तेल और कपूर सहित मिलाकर काले और सफेद कमल के धागे से बांधने से ध्यज के आगे तक आया हुआ वीर्य रुक जाता है।
स्लुगगतक्षीर संपिष्ट समंगा मूललेपनं,
विहितं पाद तलेया स्तंभयेत धातुमतिमं स्नुगगत (कूठ) और अंगा मूल (करटंक की जड़) को दूध के साथ पीसकर पैरों के तलवों पर लगाने से वीर्य का स्तंभन्न होता है।
कपोत सकृता लेपमजा क्षीरेण मार्ग,
स्तंभोत्पादतलयो रसंगाटं महीतलः कबूतर की बींट को और अपामार्ग (आंधे झाड़े) के बीजों को बकरी के दूध में पीसकर पृथ्वी को बिना छुये हुए पायों के तलवों पर लेप करने से वीर्य का स्तंभन होता है।
स्नुहायागोरजायाश्च सप्तकत्वः पृथक पृथक,
क्षीरं पादलताभ्यायतं शुक स्तंभाय जायते ॥९७॥ स्नुही (थोर) गाय और अजा (बकरी)के दूध का सात बार अलग अलग पैर के तलवों पर लेप करने से वीर्य का स्तंभन होता है।
मंदार तूल रचिता ज्यलिता कोड मेयस्या, वीणिर्तयेद रात्रोचकस्था स्तंभनं नृणं
||९८॥ आक की रूई की क्रोडमेधस (बाराही कंद) से यत्ती बनाकर रात में जलाने से वीर्य का स्तंभन होता
अलयर्क मेहन रजो गर्भा प्रज्वलिता गहे, अलक्तकदर्शा दीग्ध स्तंभयेभृगु संभवं
||९९ ॥ अलर्क (पागल कुत्ता) के लिंग के चूर्ण की अलक्तक (लाख) की बनी बत्ती को घर में जलाने से वीर्य का स्थान होता है।
कपिला यतेन वोधित दीपः सुरगोपचूर्ण संभिलितः, स्तंभयति पुरुष वीर्य रत्यारंभे निशा समये
॥१०० ।।
S50550551015015505१०१३/5STRISTRISTOTRPISODS
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CSIRIDID5050585 विधानुशासन BASIRSIDASIDDCDDIN रात्री में रति के समय सुरगोप (इंद्रगोप ) के चूर्ण सहित कपिल गाय के घृत में जला हुआ दीपक पुरुष के वीर्य का स्तंभन्न करता है।
निशेगुदोशीर सितासक टंकण हिम वारण,
पिष्टै ल्लिप्त तनुः स्वागम जंगम न्वते मनः । ॥१०१॥ निशा (हल्दी)इंगुदी ( हिंगोट) उशीर (रक्स) सिता (मिश्रो) सूक (कूट) टंकण (सुहागा) हिम (कपूर) वारिण (जल) से पीस कर शरीर पर लेप करने से मन कामदेव के समान हो जाता है।
दिवसेंदुमनु समुद्रं प्रमाण मादायमोदनीं पिंडी,
पंकज सिताक्क मूलं तैल्लेंपो वश कट्बलानां ॥१०२॥ दिवसेंदु (दिन का चन्द्रमा सूरज) समुद्र तक जाने पर अर्थात् रात होने पर प्रसन्नता से हर्ष देने वाली पिंडी कमल सफेद आक की जड़ को लेकर लेप से अबला (स्त्रियां) वश में होती है।
जात मात्रस्य वत्सस्य मृष्टता ना रयादितस्य यः तुल्यस्तद्युल रजनी लेप: स्त्री वश्यमुत्तमं
॥ १०३॥ तुरन्त के पैदा हुई बछड़ी की बिना ची हुई गृष्टि (जरायु) और हल्दी का लेप उत्तम वशीकरण है।
रुजा चटका मूर्दाग्रा काक जिन्होंद्रियाणि च, वितरे द् रसनादौतं मन्वते मन्मथं स्त्रियः
॥१०४॥
उत्तम कन्या मूलं मत्त शुनो जिहिकां गजस्य मलं, सिच्छात्वात्ममलैः सह दद्यात्स्त्री वशष्यितं वातं
॥१०५ ॥
चूर्ण गोरंभाया वहिशि रवायां च प्लल्स गुंजाया: रविदल कीट मलस्य च निजमलं स्त्री विमोहयति
॥१०६॥
करवीर भुजंगाक्षि जारी दंडी इंद्रवारुणी,
गोवंधनी लज्जारिका विधाय वटिकावट COPIECTRICISTOSTERISTOTR०१४ PISTERIOTSIDERESIDEICTER
॥१०७॥
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95PSPSPSS
विधानुशासन
वटि काभिः समं क्षिप्त्वा लवणं शुभ भाजने पास्वमूत्रतो दद्यालवाद्यं स्त्रीजन मोहनं
ちゃちゃらちゃ
॥ १०८ ॥
कनेर भुजंगाक्षी (सरपाक्षि) जदा दंडी इन्द्रावारुणी (इन्द्रायण) गोवंधनी गोवल्ली) लजीरका (लजालू) की गोली बनावे। इन गोलियों के बारबर णषक मिलाकर अच्छे बर्तन में रखकर अपने मूत्र में पकाये फिर खिलाने से स्त्रियाँ वश में होती हैं।
फलं सुरेन्द्र वारूण्यां स्व शुक्रं कनकस्य वादतं । भोज्यादिसंमिश्रं वशयेत् वनितां जनं
॥ ११० ॥
सुरेन्द्र वारुणी (इन्द्रायण) के फल को अपने वीर्य, अथवा धतूरे के फल को भोजन आदि में मिलाकर देने से स्त्रियाँ वश में होती है।
शंखपुष्पी शमीपुष्पं वचा मंजलि कारिका, शुक्रं च दद्यादतादौ वांछन वशयितुं स्त्रियां
॥ १११ ॥
शंखपुष्पी (सखाहोली) और शमी (विजडे) के फूल क्च मंजल कारिका (गंध तुलसी) और वीर्य को भोजन आदि में देने से स्त्रियाँ वश में होती है।
सचित्रगुरू हष्त चित्रा मूले ष्वादाय जीर्ण कनकस्य दल, कुशम धर्म कीकस शिफाः पृथक पेषयेत्कमशः क्षत भव लालाश्रम जल भृगु सुत मूत्रै स्तातश्च तत्सर्व, संयुक्तम स्कमिश्र भोजन निहितं स्त्रियो वशयेत् हत चित्र और मूल नक्षत्र में तीनों दिन गुरुवार होने पर पुराने धतूरे के पत्ते फूल छाल ला करके और कीकस की छाल लेकर के अलग अलग पीसे और जखम में से बहने वाली लार पसीने की बूंदे भृगुसुत के मूत वीर्य और मूत्र को उसमें मिलाकर भोजन आदि में देने से स्त्रियाँ वश में होती है।
॥ ११२ ॥
वर्हिशिरखा सितगुंजा गोरंभा भानु कीट कष्य मलानि,
निज पंच मलीपेत चूर्ण वनितां वशि कुरु ते ॥ ११३ ॥
मयुरशिखा सफेद चिरमी गोरंभा, आक के वृक्ष पर रहने वाले कीड़े की विष्टा और अपने पांच जगहों के मलों सहित चूर्ण स्त्री को वश में करता है।
शिवांबु पिष्ट दुर्दुर तैल क्षोदुया रतैः, मलैश्च पंचमि मिश्र पूजं पशयते स्त्रिया:
25252525252525; -‹‹ PSP52525252525
॥ ११४ ॥
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SASTRISTOISTRISTOTRICT विद्यानुशासन VECITICISTORICISIONS
दुर्दुर (ऋषमक) के तैल क्षोद्र (शहद) इंदु (कपूर) को शियांबु (बलिपत्र के रस में पीसकर अपने अंग के पांचो मलों को मिलाकर बना हुआ पूआ स्त्रियों को दे तो वश में हो जाती है।
नेत्र श्रोत्र मलं शुक्र मूत्र जिह्वा मलास्तथा, वश्य कर्माणि मंत्रज्ञे पंचाग मलमुच्यते
॥११५॥ आंख, कान और जीभ का मैल वीर्य और मूत्र को मंत्र शास्त्र के विद्वानों ने वश्य कर्म का पंचाग मल कहा है।
मंग श्रुति हके याण जिह्वा रक्ष द्वियोनि मेद्र मलाः,
स्वे दाव मूत्र लालष्टक श्रृकार्तवविशापि वश्या मलां ॥११६ ।। कान, आँख, नाक, जिह्वा दोनों कछा (कोख) योनि मेढ (लिंग) के मल पसीना, मांस मूत्र लाल (लार) खून भी धर्म काज का पानी विष) यह सब वशीकरण के मंत्र है।
कमुकंफणि मुस्वनिहितं तस्मादि वश त्रेयण, संगृहटा कनक विषं मुष्टि हिलि नो चूर्ण प्रत्येकतः दिप्त्वा ॥ ११७॥
रवर तुरंग श्रुती क्षीरैः क्रमशः परिभाव्य योजयेत्,
अबला जन वश क रण मदनक्रमुकं समुदिष्टं ॥११८॥ सर्प के मुँह में तीन दिन तक रनी हुई क्रमुक फल सुपारी धतूरा विषमुष्टि (कचला) हलिना (कलिहारी) प्रत्येक को क्रमशः गधी घोड़ी कुत्ती के दूध में भावना देकर अपने पाँव के तलवों में लगाये तो इसको स्त्रियों को वश में करने वाला मदन क्रमुक कहा है।
द्रावण मंत्र ॐ चले चले चुले चुले चित्त रेतो विमुंच विमुंच स्वाहा
विनयं चेल चुले द्विचितो रेतो विमुच युग।
होमं च द्रावयति लछ जाप्यान्मत्रो वनिता समूहमिह ॥११९ ।। विनयं चले चले चुले चुले चित्त रेतो विमुच विमुच स्याहा,ॐ चले चले चुले चुले चित्त रेतो यिमुंघ विमुंच स्वाहा। विजय (ॐ) दो बार चले चुले चित्त रेतो विमुच और होम (स्थाहा) सहित मंत्र को एख लाख जप करने से सब स्त्रियाँ द्रवित हो जाती है। SSISTERISTISTOTRIOTICE१०१६ PISTORICISTRICISTRIEOS
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OESORTOISISTEROTEI05 विद्यानुशासन ASTRISTRIERIERSIOIDS गौरी मंत्र
ॐ नमः कृष्ण शवराणं विरि विरि चले चले चुले चुले चित्ते रेतो मुंच मुंच ठठः।।
लाल प्रजाटन मंगो गौशाम देवतः, एष संसिद्ध मा याति तद्दशांश च होमतः
॥१२०॥ यह गौरी देवता का मंत्र एक लाख जप और उसके दशांश होम से सिद्ध होता है।
रक्त करवीर कुसुमै, संजप्त सप्त वारमेतेन, भ्रमितं नार्या त्रिग्रे रेती द्रावयति वशयति च
॥ १२१॥ इस मंत्र से सात बार अभिमंत्रित लाल कनेर के फूल को स्त्री के सामने तीन बार घुमाने से स्त्री द्रवित होती है और वश में होती है।
जाप्यं सहश्र दशकं श्रुभगा योन्या मल लकंधत्वा
विद्यान वाक्षरीयां तयापशव्येन हस्तेन ॥१२२॥ स्त्री की योनि में मललक (लाख) रखकर इस नो अक्षरी मंत्र को बायें हाथ से दस हजार जप करना चाहिये।
ॐ कामिनी रंजट होम मंत्र ॐ कामिनी रंजय स्वाहा
यस्या लिरिव त्वात्म करे पसव्ये संदर्शयेत्सा स्मर बाण विद्धा ध्रुवं द्रवत्यत्र किमस्ति चित्रं
॥ १२३॥ इस मंत्र को अपने बायें हाथ पर लिखकर जिसको दिखलाया जाए यदि वह कामदेव के बाण से बिंध जाए तो इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं है।
अष्टोर चक्र लिरिवतो विभक्ति मंत्रो धृती सौ भुवनैक वश्यः,
त्रिलोक्य भित्रिस्थमिदं जपं स्तं सोन्यामना कर्षणमातनेति ॥ १२४ ॥ यदि इस मंत्र को अष्ट दल कमल के अंदर लिखकर बाहर के पत्तों में ॐ लिखे तो यह तीन लोक की दीवार पर से भी दूसरी स्त्री को खींच लाता है।
DGETಣಗಣJogspಥಗಣದ
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CASISTRICTSTOTSETTES विद्यान्नुशासन PHOTOISTOISSISTSITES
मंत्रितं योनि संस्थंष्तं त कात्थित्तम नेजयत, कज्जलं कल्पितं तेन वशीकरण मक्षिणं
॥१२५ ॥ इस मंत्र को योनि में रखकर मट्टे में से निकाल कर जो इसका काजल बनाया जाता है उसको
नेत्र में लगाये जाने से वशीकरण करना है।
विचिंत येदेवल विंदु पिंडारक्तं भ्रमंतं वनिता वरांगे,
तद्रावणं दृष्टिं निपात मात्रात् सप्ताहतस्त्री नयनं करोति ॥१२६ ॥ स्त्री के उत्तम अंग (योनि) में एवल पिंड (ब्लें) को लाल रंग का घूमता हुआ यदि ध्यान किया जाए तो उसकी दृष्टि पड़ते ही वह स्त्री द्रवित हो जाती है, और एक सप्ताह में उस स्त्री का आकर्षण होता है।
एवल पिंडयोन्यां माया बीजं च चितरोत हृदये,
स्मर बीजं लोचनयो: वनितानां दावणं कुरुते ॥१२७॥ एवलपिंड (ब्ले) का योनि में और ह्रीं का हृदय में तथा रमर बीज (क्ली) का दोनों नेत्रों में ध्यान करने से स्त्री द्वावित होती है।
तत्व मन्मथ बीजस्य तलप्प परि चिंतयेत् पार्श्व योरेवल पिंड भ्रमंचमरूण प्रभं
॥१२८॥ मन्मथ बीज (क्लीं) के ऊपर और नीचे तत्व (ह्रीं) और दोनों पार्थ में यदि घूमते हुए, और लाल कांतिबाले एवलपिंड (ब्लें) का ध्यान किया जाये तो।
योने क्षोभं मूर्धिन विमोहनं पाननं ललाटस्थं, लोचन युगले द्रावं ध्यानेन करोति वनितानां
॥१२९॥ यह ध्यान स्त्री की योनि में किये जाने से क्षोभ सिर में मोहन ललाट में पानन और दोनों नेत्रों में किए जाने से स्त्री का द्रावण होता है।
देवी की पूरी प्रो याद मापक्षि ममावता अमक नप पशमानय गन.
दिन
Wa
SETOISTRIDDTDOISPORTER०१८PI5T0SIDDRISTRISTOTSIDEY
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9595295059593 विधानुशासन 959595959595
शीर्षास्य हृदये नाभौ पादे वानंगवाणमपि योज्यं, संमोहमानु लाम्यै विपरीतौ द्रावणं कुरुते
॥ १३० ॥
सिर मुख हृदय नाभि और पैरों में काम बाणों को भी लगाना चाहिये। इसको सीधे क्रम से लगाने से संमोहन और उलटे क्रम से लगाकर ध्यान करने से द्रावण होता है।
द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः स्मरबाण
यह काम के पाँच बाण हैं।
अंतः स्थित जपापुष्पं सुपक्कं भूरि सौरभं जंवीर फल माघांत नार्या विद्रावणं मतं
तं ॥ १३१ ॥
अंदर स्थित किया हुआ जपा पुष्प (गुडहल का फूल) तथा मर्च्छा तरह पके हुए और बहुत सुंगध वाले जंवीरी नींबू को सूंघने से स्त्री द्रवित हो जाती है।
लिप्त भ्रार्क कीटयां नाग वल्ली दलं स्त्रियः, यदवा किंशुक पत्राबुं संलिप्तो द्रावयेत् ध्वजः
टंकण पिछलिकामा सूरणं कर्पूर मातुलिंग रसैः, कृत्वात्मांगुलि लेपं कुर्याति स्त्रीणां भग द्रावं
॥ १३२ ॥
॥ १३३ ॥
टंकण (सुहागा ) पीपल कामा (मेनफल) सूरण (जमीकंद) कपूर मातुलिंग (बिजौरा ) के रस से अपनी उगुली (ध्वज) पर लेप करने से स्त्री द्रवित होती है।
हर वीर्य लांग लिका कपि मूलं काकमाची रसमिपं कन्या रस संयुक्तं करलेपो द्रावयेत् अबलां
॥ १३४ ॥
हर वीर्य (पारा), लांगलिको (कलिहारी), कपि मूल, कोंच, कीचड़ का कमाची (मकोय) का रस मिलाकर और गंवार पाठा का रस सहित लेप करके स्त्री को द्रवित करे।
उपातु पत्र सलिलं मगस्त्य दलजो रजः ।
सपदि वाध्वजे लिप्त सुरते द्रावयते स्त्रियः
॥ १३५ ॥
लिंग के ऊपर उपानुपत्र का जल और अगस्त के पत्रों का चूर्ण का लेप करने से रति काल में स्त्री द्रवित हो जाती है ।
द्विरदमद कुष्ट मृगमद कर्पूरोन्मत्त पिपली कामं । रुद्रजय बुज सैंधव नागर मुप्ता सुयष्टीकं
25252525259595;-‹‹ |5952525252525
॥ १३६ ॥
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P59595PS5/5 विद्यानुशासन 959505 सूरण टंकण शरपुंखी पिपली मातुलिंग चणकांयतः, सहकारांब समेतं भग निर्झर कारणं लिप्तं ॥ १३७ ॥
द्विरदमद (हाथी का मद), कुष्ट (कूढ़), मृग मद (कस्तूरी), कपूर उन्मत्र (धतूरा), पीपली कामं ( मेनफल ), ( जरामासी) अंबुज (कमल), सेंधा नमक, नागरमोथा, मुलहटी, सुरण (जमीकंद ) टंकण (सुहागा ) सरफोका पीपल मातुलिंग (हिजो)() (आम का रस ) से योनि को द्रावित करने के लिए लेप करे ।
स्त्री जन गृहय द्रावी वनिता सुरतों ध्व दर्प विद्रावी, हिम मधु टंकण पारद लेपः सहकार रस मिलितः
॥ १३९ ॥
हिम (कपूर) मधु (शहद) टंकण (सुहागा ) पारद (पारा) सहकार रस (आम का रस ) का लेप स्त्रियों की योनि को द्रवित करके उनके उठे हुये अभिमान को नष्ट करता है।
कर्पूर एलो माक्षिक लज्जारिका युक्त पिपली कामः, मग निर्झर प्रकुर्यात् कुरुंरिका छोर संयुल 11 880 || कपूर एलो (इलायची) माक्षिक (शहद) लजालूसा पीपल मेनफल और कुरांरिका (करसरया) के दूध में पीसकर लेप करने से योनि द्वावित हो जाती है।
वरकन्या पय पिष्टौ लांगली हेम पारदैः लेपो नार्या कृतो यौनौ तां द्रुतं द्रावयेद् ऋतौ
॥ १४१ ॥
वर (केसर) कन्या (धृतकुमारी) को दूध में पीस कर लांगला (कलिहारी) हेम (धतूरा) पारा का लेप नारी की योनि को रतिकाल में शीघ्र द्रावित करता है ।
अग्न्या वर्त्तित नागे हर वीर्य निक्षिपेत् ततो द्विगुणं, मुनि कनक नाग सर्प ज्योतिष्मत्यत सोभ्यां चतन्मध
॥ १४२ ॥
केन मर्द्दयित्वा गणे कार्याया मदनवलयं के कृत्वा, रति समय वनितानां रति गर्व विनाशनं कुर्यात् ॥ १४३ ॥
अग्नि में पिघलाये हुये नाग (सीसे) में उससे दुगुना हरवीर्य (पारद) डाले, फिर मुनि अगस्त काला धतूरा नाग सर्प (मदन कंद - नाग दमनं) ज्योतिष्मतो (मालकांगनी) शीभ्यां समुच्चये सामिल करके उससे पहले कहे हुए सीसे को इन रसों से अच्छी तरह मर्दन करे । डीकेन गणिकार्या ( कनेर के रस से ) मदन वलयं (स्मर वलयं लिंगे) को मर्दन करे, रति काल में स्त्री के गर्त को नष्ट करता है।
9595296959PP १०२० 959595959595
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SHRISTRISTICISIOTSE75 विधानुशासन DX5ISTRISTRISADISTRIES
व्याधी वहतिफल रस सूरण कंडुति चणक पताम्लां, कपि कच्छु वज्र वल्लि पिघलीका माम्लिका चूर्ण ॥१४४ ॥
आल्या वर्तित लाग जत वागन भावयेत् क्रमादितैः
स्मर सुबलं कृत्वैवं वनिताया दावेण कुटात् ॥१४५ ।। बड़ी करेली छोटी पसर करेली के फल का रस सूरण (जमीकंद) कंडुति (अग्निक) चणे के पत्तों का जल कीच यजयल्ली कांडवल्ली पीपल, आम्लिका (चोगरी धूर्ण) को अग्नि से पिघ लाये हुए से में नौ बार भावना देकर लिंग पर लेप करे तो स्त्रियों को दायित करे।
भानु स्वर जिन संख्या प्रमाण सूतक गृहित, दीना रात अंकोल राज वृक्ष कुमारी रस शोधनं कुर्यात् ।।
राशि रेरया वर चूर्ण कोकिल नयना पामार्ग कनकानां चूर्णं सहक विशंति दिनानि परिमर्दयेत् सर्वा || निशायां कांजिका धूपं दत्वा योनौ प्रवेशयेत्, काल मध्यगत प्रायां वेषां विज्ञायतां क्रमात् ॥
नीरता विभाणां येषां रति संगमे,
मदोन्मतां द्रावटति तादशो मप्टोष जलका प्रयोगस्तु॥ भानु (१२) स्वर(१६) जिन संख्या प्रमाण (२४) पारा लेकर उसको मंकोल (ढेरा). राजवृक्ष (छोला) कुमारी रस, (गंवारभाटा) इन रसों को १२-१६-२४ दीनार या गद्यानक के बराबर रसो को लेकर उस पारद का शोधन करें, फिर शशिरेसा (याकुची वीज) खरचूर्ण (गर्दभ चूर्ण-कत्तगिरी कोकिल नयना (कोकिलाक्ष) बीजं (रालमखाना) मपा भार्ज (प्रत्यक पुष्पी- चिरचिरा ) कनक चूर्ण (काला धूतरा) का चूर्ण इनलन से इक्कीस दिन तक खरल में मर्दन करे, उसे शोधित पारद मर्दन करें। रात को कांजी (आरनाल) से मर्दन करके धूती देकर हल्दी के चूर्ण से जो पारद से सोलह गदयान प्रमाण से मदित धूनी देकर योनि में प्रवेश करावे, बाला स्त्री के लिये १२ गद्याण प्रमाण और मध्य आयु वाली स्त्री के लिये १६ गद्यान प्रमाण तथा वृद्ध स्त्री के लिये २४ गद्यान प्रमाण जल का क्रम पूर्वक जाने निंद्रा के अभाय वाली स्त्री को यह जलका प्रयोग रति के संगम में उत्तम करके द्रवित करता है।
करेणदाय वामेन निजरेतो रतौ नरः,
वाम स्त्रिायाः यद लिपेत तेनाष्टा स्याता चिरं प्रियः ॥१४९।। ಅಥಣಿಥpಡ{o{{VEMರ್ಥದ
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STERISTRI51255015125 विधानुशासन 9575RADRASIDOES पुरूष रति काल में अपने वीर्य को हाथ में लेकर स्त्री के बायें पैर पर पोत दें तो उसका चिरकाल के लिये प्रेमी हो जाता है।
एरंड तैलं फणि कन्नि युक्तं स न्मातुलिंग स्य च बीज मिश्रं
धूपं प्रदद्याद्गति ही मध्ये स्त्री मोहनं ज्ञानविदोवदंति ॥१५०॥ यदि एरंड का तैल सर्प की कांचली और विजारो (मातुलिंग) के बीज को मिलाकर रति काल में धूप देवे तो स्त्री को याचना के शब्दों से उसके मोहित होने का ज्ञान मालूम होता है।
मंत्रि वंड सिखंड मास्य विन्याष्टा भक्ष यन्दनेति,
स्वस्थ रक्षार्थमस्मिन् धूप कमणि ॥ १५१॥ मी इस धूप का देते समय अपनी रक्षा करने के वास्ते अपने आरय (मुख) में मिश्री का टुकड़ा रख लेवे।
नमःकामदेवाय सर्वजनविजयाय सर्वजन संमोहनाय प्रज्वलिताय सर्वजन हृदय ममात्मगते कुरू कुरू ठाठः।।
त्रिसहश्र रूप्य जाप्पात् संसिद्धः कामदेव मंत्रोयं,
जाप्पादिभिः प्रयोगैः कुप्या दृश्यं जगन्निरिबलं ॥१५२॥ । यह स्त्री वश्य कामदेव मंत्र तीन हजार जप आदि करने से संपूर्ण जगत को वश में करता है।
स्त्री वश्य कामदेव मंत्र: ॐनमो भगवति मातंगेश्वरि सर्व जन मनोहरि सर्व मुख वशंकर सर्व राज वशंकर अमुकं में वश्य मानय मानय ठः ठः।।
वीणा वादन निरतां निः शेषा भरण भूषितां श्यामां, शंखकृत कुंडला का देवी मातंगिकां नामीं ॥१५३॥
अवरमसितं दधती प्यात्वा में संध्टायो पो मंत्र
नित्यं जपत स्त्री ण्यपि भुवनानानि वशे वे तिष्ठन्ति ॥१५४ ।। वीणा बजाने में लगी हुयी सब आभूषणों से सजी हुयी श्यामा शंख के कुडल के चिन्ह वाली मातंगी नाम की देवी काले वस्त्र पहनने वाली देवी का ध्यान करके, प्रातःकाल और सांयकाल इस मंत्र को प्रतिदिन जपने वालों के वश में तीन लोक की स्त्रियाँ रहती हैं।
ಇಡಗಳಥಳಗge{
Vಥpಡಗೂಡದಾದ
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CISCESDASICISCI505 विद्यानुशासन VSTORSCISSISTRI5015 ॐ नमः शिवार चांडाल सादगी सर्व मम वसीयः कुरु कुरु ठाः।।
मंत्रो मातंगी काया, अय मयुतं जपात् सिद्धति, व्योमांगां तांध्यात्वा स्वोच्चिष्ट मंत्रं वलिमुपहरतो
॥१५५॥
नेन मंत्रेण तष्टीव प्राप्तस्यै क्यं तयाष्टा प्रतिदिनं, रियलो यश्टोतो याति लोके इष्टादश्यश्च या वा
व्रजति परमदः पूज्यत सौ तथापि ॥१५६ ॥ यह मातंगी का मंत्र दस हजार जप से सिद्ध होता है आकाश रूपी शरीर वाले अर्थात् नग्न उस देव का ध्यान करके उसके लिये उपरोक्त उशिष्ट मंत्र से बलि दे। उसको सिद्ध हो जाने पर मंत्री के यश में संपूर्ण लोक की स्त्रियाँ होजाती हैं। इन मंत्रो की बड़ी घमंडी स्त्रियाँ भी पूजा करती हैं। ॐ रूद्र दयिते योगेश्वररि हूं फट ठाठः।।
मंत्री गोयां एष: स्यात् पंचा शत्सहस्त्र जापेन सिद्धः साध्या संज्ञा मूरी प्रतिलिस्य वामायां ॥१५६॥
नाम पिधायच वामेन पाणिना साधको जपेन्मत्रं,
सा तत्क्षणेन साध्या वनिता वश्यत्वमायाति ॥१५७ ।। यह गौरी देवी का मंत्र पचास हजार जप से सिद्ध होता है। साध्य स्त्री केनाम को अपनी याई उरू (जंघा) पर लिखकर मंत्र को जपे और उस नाम को यायें हाथ से ढककर जपे तो वह स्त्री उसी क्षण उसके यश में हो जाती है।
पुंस साध्या स्थारख्या स्यदक्षिणों रौ विलिरस्टा,
हस्तेन यामे तर णपि दधे जपेद पुस्यादि सौ वश्य ॥१५८॥ पुरूष साध्य के नाम को अपनी दाहिनी जांघ पर लिखकर उसे बायें हाथ से ढ़ककर जाप करे तो वह पुरुष उसके वश में हो जाता है।
असमे कुसुमे स्वाहित्योष प्रमाण पूर्वकः, मंत्रो लक्ष प्रजााप्टोत सिटी दुद्राधि दैवतः
॥१५९॥
फल पुष्पदिकममुना वारान सप्ताभि मंत्रितं जप्त
अनु भूतं सवननं प्राहुर साधारणं जगतः ॥१६० ।। CSCIEDISCTRICISIST5121१०२३PSCISIOTECISIO51015CARS
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PSPSPSP555 विद्यानुशासन 959590595055
अमें कुसुमें स्वाहा यह रुद्र मंत्र एक लाख प्रमाण जपने से सिद्ध होता है. फल पुष्पादि को इस मंत्र से सात बार अभिमंत्रित करके देने से स्त्री वश में आ जाती है, यह साधारण मंत्रियों का अनुभव
है ।
ॐ नमो मातंगानां नमो मांतगिनीनां नमो मातंगी कुमारिकानां तद्यथा चरू चरूअस अस कुरू कुरू ठःठः ।।
वल्मीकं मृत्प्रतिकृतिं साध्याख्यानां कितां शिरो दधति, अपि धायधीवक दक्षिण चरणेन चाक्रभ्य
सप्ताह मंत्रममुं जपेत् त्रिसंध्यं भवेदयं वश्यः नाय्यांतु, तत्प्रति कृतिं साध्यायां याम चरणेन ॥ १६२ ॥
॥ १६१ ॥
सर्प की वामी को मिट्टी से साध्य पुरुष की प्रतिमा बनाकर उसके नीचे किये हुए मुख को अपने दाहिने पैर से दबाकर इस मंत्र को एक सप्ताह तक प्रातः, दोपहर और सायंकाल के समय जपने से यह अवश्य वश में होकर आ जाता है- स्त्री साध्य की प्रतिमा को अपने बायें पैर से दबायें।
ॐ वश्य मुवि राज मुवि राज वश्य मुखि तःतः ॥ एष: लक्ष जपात्सिद्धौ
लक्ष्मी मंत्रः प्रशस्त मुरख प्रक्षालनं कुर्वते एतेन वशये जगत्
॥ १६३ ॥
इस लक्ष्मी मंत्र को एक लाख जप आदि से सिद्ध करके उससे अपना मुख धोने से सम्पूर्ण जगत को वश में करे ।
हृदयोपहृदयमंत्रं कनिष्टि काद्यगुलिषु विनष्टा, तस्यो पर्यो ज्वालिनि जन वश्य कुरु वषट् मंत्र
॥ १६४ ॥
संजय सप्तवारा निन्निजेन तेनैव वाम हस्तेन अभिमंत्रितः स्ववदनो वश्येत दृष्टं जनं सर्व हृदयोप हृदय मंत्र का कनिष्टिकादि उंगुलियों से न्यास करके उसके ऊपर
ॐ ज्यालिनी जन वश्यां कुरू कुरू वषट् मंत्र को अपने उसी बायें हाथ से सात बार जाप कर अभिमंत्रित अपने मुख को दिखाने से सब लोग वश में हो जाते हैं।
॥ १६५॥
गौरी मंत्र नयन मनोहरि हर-हर जान मनोहरि ठःठः
252525252595952-er P/5952525252525
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95952959595/5 विधानुशासन 95959PSPSPSPS
सिद्धै लक्ष जपादयमनेन सहदेव्याः भस्मताया लिप्त गात्रे वशये जगत् निखिलं
॥ १६६ ॥
इस मंत्र को एक लाख जपादि से सिद्ध करके उससे हवन किये हुए सहदेवी को भस्म को अपने शरीर पर लेप करने से संपूर्ण जगत को वश में कर लेवे।
ॐ ही ऐं क्लीं नित्ये क्लिन्ने मद द्र्वे ऐं ह्रीं स्वाहा ।
ॐ ह्रीं नित्यं क्लिन्ने मद द्रवे ही स्वाहा । ॐ ह्रीं क्लीं नित्ये क्लिन्ने मद द्रवे ह्रीं स्वाहा, अस्त्राय फट्
अंगानि मंत्र ममुं नित्यायाः स्मृत्वा लक्ष त्रयं जप्तवेत्सांग जुहुयादपि माधुकैः कुसुमैः सिद्धैदसौ मंत्रः,
एतेनां जन भक्ष्णे वंदन प्रक्षालनं च तिलकं च स्नानं च समा चरतः सर्वोपि वशों भवे लोकः
या तलगो नित्यं स्मरण करस्या गुंलीषु वामस्य, विन्यस्य मंत्र वणानि पाद तले नामस्य ध्यायाः
ध्यात्वा क्षोभि भ्यां व्यां विधि वदव् धान्तु मंत्र विन्मुद्रां स्मर र परवता हृदया सहसा कृषे तसा साध्या
॥ १६७ ॥
॥ १६८ ॥
॥ १६९ ॥
॥ १७० ॥
ॐ ह्रीं ऐं से लेकर अस्त्राय फट् इसके अंग हैं।
इस मंत्र का अंग सहित ध्यान करके इसका तीन लाख जप तथा माधुक (महुवे ) के फूलों के होम से सिद्ध करें। इस मंत्र से आँखों में अंजन करने से मुँह धोने तिलक करने और अभिमंत्रित जल से स्नान करने से सब लोक वश में हो जाता है।
प्रतिदिन बिस्तर पर जाकर बायें हाथ की उंगुलियों में मंत्र के अक्षर और पैर के नीचे साध्य स्त्री का नाम का ध्यान करके मंत्री विधि पूर्वक क्षोभिणी मुद्रा को धारण करे तो कामदेव के बाणों से बिंधी हुई परवल जैसे कठोर हृदयवाली स्त्री अचानक आकर्षित होकर वश में हो जाती है। भूज्जे शुभे दिव्यं सुगंधि सारै विलिख्य मध्ये डढ्योः
स्व नाम गृहांतरे ग्राम पुरांतरे वा संस्थाप्यते यस्य वशस्तु लोकः ॥ १७१ ॥
यदि उत्तम भोज पत्र पर सुगंधित द्रव्यों से ड और ढ़के अन्दर अपने नाम को लिखकर घर ग्राम और नगर में रख दें तो लोक उसके वश में हो जाता है ।
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SERI50150505125 विधानशासन AADMARATRAICTERIES
A
) नाम
निच खुर कोकिले चढालिने
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सकार मध्यगं साध्यं शशि गोरोचनादभिः। महिन्द्र मंडले लिरख्यं भूजें भवति मोहनं
॥१७२॥ सकार के बीच में साध्य का नाम शशि (कपूर) और गोरोचन आदि से भोजपत्र पर लिख कर बाहर महिन्द्र मंडल बनाने से मोहन होता है।
लिरवेत तोटापुर नाम गकारे बिन्दु संयुते,
गोरोचना कुंकुमै भुर्जे मधु मध्ये च वश्य कृत ॥१७३॥ जल मंडल में गं के अंदर गोरोचन और केसर से भोजपत्र पर साध्य के नाम को लिखकर शहद में रख देने से वह वश में हो जाता है।
नाम
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ಇಜಣಠಟಠ595೦೯
559ಥಳದಳದ
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505050512185 विधामुशासन 75050SESSISION
रवकारो दरगं नाम तोय मंडल मध्यगं, रोचमामि शुभ द्रौलिरदेखि कोष हत
||१७४॥ जल मंडल के बीच में ख के अन्दर भोजपत्र पर गोरोचन केशर आदि से नाम को लिखने से उसका विद्वेषण और क्रोध नष्ट होता है।
वारूणे मंडले नाम रखकार स्योदरे लिवेत् कंकुमादि शुभैद्रव्यैः सभूर्जः वश्य कर्मसु
॥१७५॥ वारुण मंडल (जलमंडल) में साध्य के नाम को ख के अन्दर केशर आदि से भोजपत्र पर लिखे, तो वशीकरण करता है।
नाम
वायव्य मंडले साध्या सकारस्योदरे लिरवेत्
कु कुमागरू कपूरै वश्याकष्टि प्रदर्शनी ॥१७६।। वायु मंडल में साध्य का नाम स के उदर (अंदर) केशर अगर कपूर आदि द्रव्यों से भोजनपत्र पर लिखे तो वशीकरण और उसका आकर्षण होता है।
अकार संपुटे नाम लिरिवद्विन्दु समन्वितं, अंभेपुरे श्रुभे दौ: वश्याकर्षण मोहनं
॥१७७॥ जल मंडल के बीच में बिन्दु सहित नाम को अकार के सम्पुट में उत्तम द्रव्यों में लिखने से वशीकरण आकर्षण और मोहन होता है।
0521501505125055105९०२७ 9527505RISTRISTIONSIOSI
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052525252595_Pengetica 252525252525
नाम
Bak
निचर को किस पंडालिनी ठः जः
षोडशभिर्युक्तं लिख भुर्जे कुंकुमादिना चक्रं ॥ लिखितं तेषां मध्ये मंत्रोद्यं धारितो वशकृत चक्रतो
चक्र मिदमेव लिखितं कुड़ा दौ पूजितं विलोक्य जपेत मौनी भूत्वा मंत्र स्यादाकर्षण
भोजपत्र पर केशर आदि से सीलहरै संयुल एक चक्र लिखकर उसके बीच में उपरोक्त मंत्र लिखे तो वशीकरण होता है। इसी मंत्र को दीवार आदि पर लिखकर पूजन करके मौनधारण करके यदि मंत्र जपे, तो इच्छित स्त्री-पुरुष का आकर्षण करता है।
।। १७८ ॥
वर्णतं मदन युतं वाग्भव परिवेष्टितं वसुदलाब्जं, दिक्षु विदिक्षु च माया वाग्भव बीजं ततो लेख्यं
त्रैलोक्य क्षोभनं यंत्रं सर्वदा पूज्येदिदं, हस्ते वद्धं करोत्येव त्रैलोक्य जन मोहनं
मर्भात्यो । १७९ ॥
11820 11
11868 11
अंत के वर्ण (ह) को मदन (क्ली) से युक्त करके लिखे । उसे वाग्भव (ऐं) से वेष्टित करें उसके बाहर एक आठ दल का कमल बनावें, उसकी दिशाओं में ह्रीं (माया) तथा विदिशाओं में वाग्भव (ऐं) बीजों को लिखे इस तीन लोक को क्षोभण करने वाले यंत्र को सदा पूजने से तथा हाथ में बांधने से तीन लोक के लोगो को मोहन करता है।
PoP5Pese
PPE१०२८. PSP596296959595
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CASESSISTRIDIODIO
विधान
THIOI5050SRIRAMES
नाम
नाम त्रिमूर्ति मध्ठास्थंकों यली दिसु विदिसु चबहि, वन्हियुतं कोष्टे जंभे होमांत मा लिप्येत्
॥१८२ ॥
मोहापि तथा ग्रांतं ब्रह्म ढलेकार मास्थितं ॐ ब्लें धात्रे वषट् वेष्टयं तद्वाह्ये क्षिति मंडलं
॥१८३॥
फलके भूज्ज ताम्र पत्रे या लिरियत्या कुंकुमादिभिः
पूजये यः सदा यंत्रं तस्य सर्व जगवश ।।१८४ ॥ नाम को त्रिमूर्ति (ही) के बीच में लिराकर उसकी दिशाओं में क्रों और विदिशाओं में क्लीं लिखे, बाहर अग्नि मंडल सहित आठ कोठों में ॐ और स्वाहा सहित जंभा आदि देवियों के नाम लिखे फिर ब्रह्म (ॐ) और ब्लू सहित मोह आदि को लिखे बाहर (ॐ) ब्लें धाने वषट् लिखे और उसके बाहर पृथ्वी मंडल बनाये। इस यंत्र को केशर आदि से तख्ती या तास पत्र या भोजपत्र पर लिखकर जो सदा पूजन करता है सम्पूर्ण जगत उसके वश में रहता है |
CASOI50151015015015105१०२९P51015315015105701595
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ॐ श्रीं मोहायै
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बीजं तदेव सकलेष्वपि पत्रेकषु याणवृतं तदखिलं भुवनेश वेष्ट्रा अष्टोत्तरं प्रतिदिनं सततं जपेद्य पुष्पै स्तथा संवृत्तः
मोहाने
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मोहा
पात्रे वषट्र
ですからぐりぐり
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ॐ ह्रीं क्रों क्लीं जंभे मोहे अमुकस्य अमुकं वशं कुरु कुरु वषट् । पूजा मंत्र कामाधिपेन सहितं लिख शून्य बीजं बाह्ये तथा षट्ल पंकजमाविलेख्य
1182411
॥ १८६ ॥
॥ १८७ ॥
तवश्य मेति मनुजा धरणी श्वराश्च तिष्ठति, तत्पद सरोज मदालिश्याम्या ॐ ज्वालामालिनी क्लीं ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं सर्व जन वश्यं कुरू कुरू वषट, 9595959595959.१.३. P/5959596959619
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95959526
विधानुशासन 96999क कामाधिप (क्ली) सहित शून्य बीजं (ह) लिखकर बाहर आठ दल के कमल के सब पत्रों में भी वहीं बीजाक्षर (क्ली) लिखे। उसके बाहर काम बाण के अन्दर (ह्रीं क्लीं क्यूं द्रां द्रीं) लिखकर उसे भुवेनश (ह्रीं) से वेष्टित करे।
जो पुरुष इस मंत्र को लाल कनेर के फूलों से प्रतिदिन १०८ बार जप करता है, मनुष्य और राजा लोग उसके वश में होकर उसके चरण कमलों में काले भौरे के समान बैठे रहते हैं। ॐ ज्वाला मालिनी हवलीं ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं सर्वजनं वश्यं कुरू कुरू वषट् ।
पूजा मंत्र
क्ली
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क्ली
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कुरा काश भपिंड मध्येनिलये नाम स्वकीयं पृथक्, दत्वा तत्पारिवेष्टितं भपरसत पिंडेन गृहये नथ
या द्वयष्ट दलाब्ज मष्टम दले ष्यन्यच पिंडाष्टक पत्राणां तरितं लिखे रस्यर युगं शेषे च पत्राष्टके
स्वर युगल स्या धस्तात् शब्द पाश तथा कुश क्षीच तेषांचाधः ह्रीं क्लीं ग्लूं द्रां द्रीं क्रमाद्योत
५
॥ १८८ ॥
॥ १८९ ॥
॥ १९० ॥
59596१०३१950% ちゃちゃらです
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SPPSPSS विधानुशासन क
बाणान पद्म दलातरेषु विलिखेत् शब्दं पाशं चाकुशं क्षीं पत्रां ग्रगर्त लिखे दयनमः पर्यन्त यामादिना ॥ ९९९ ॥
पत्राग्र सिटत बीज बाण शिखिनी शीघ्रतं आकर्षय, तिष्ट द्विद्वर्मम सत्य वादी वरदे मंत्रेण वेष्ट्यं वहिं ॥ १९२ ॥
वाह्ये ह्रीं शिरसावृत्तं रथं तद्रेखाग्योन्या कृत्येमंध्ये क्लीं मुपरिस्थ कोण युगले द्रां द्रीं मधोब्लं लिखेत्
बाह्ये दिक्षु विदिक्षु संतधरणी बीजान्विते दुपुरं, तदवाह्य लिखदि दिग्वाटिंग दल कार्य ताज्यित वा ॥ ९९९ ॥
देव्या ज्वालामालिन्योक्तमिदं परम देवगृह यंत्र, पुष्याष्य शुभ तंत्रै विलिख्य भूर्जे पटे चापि
॥ १९३ ॥
शिखिम देती हृदयोपहृदय मंत्रेण पूजितं सततं. जपितं हुतं च सकलं स्त्री नृप रिपु भवन वश्य करे
65
॥। १९२ ।।
॥ १९३ ॥
॥ ९९४ ॥
मधुरयेण गुग्गुलु दशांग पंचांग धूप मिश्रेण जुहुयात् सहश्र दशकं वशं करोती द्र मपि का कथान्येषु एक ऐसा कमल बनावे जिसकी कर्णिका में कूट (क्ष) आकाश (ह) और भपिंड (भ) पिंडाक्षरों के मध्य में (निलय) अर्थात् घर का ज्वालामालिनी देवी का और अपना नाम पृथक पृथक देकर उसको भवर पिंड (ल्वर्यू) से वेष्टित करें। उसके बाहर (द्वयष्ट) सोलह दल का कमल बनाये। जिनके आठों दलों के पत्रों में अंतराल से आठ पिंडासीर को (य र घ झष छठव) लिखे और दूसरे आठ पत्रों में दो दो स्वरों के साथ उनके नीचे शब्द निम्नलिखित लिखे पाश (आं) अंकुश (क्रौं) और क्षीं तथा इनके नीचे ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं क्रम से लिखे। इसके पश्चात इस कमल रूपी यंत्र के बाहर हां पाशं (आं) अंकुश (क्रों) क्षीं के आगे काम बाण (ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं) शिखिनी ज्वालामालिनी देवी शीघ्र (अमुक) आकर्षय और तिष्ट (ठ) दो दो दफा बोल कर फिर मम सत्यवादी वर दे नम तक वामादि क्रम से लिखे इसमंत्र से अर्थात्
ॐ हां आं को क्षीं ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ज्वालामालिनी देवी शीघ्र अमुकं आकर्षय आकर्षय तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सत्य वादि वर दे नमः ॥
इस मंत्र से यंत्र को बाहर से वेष्टित करे। बाहर ह्रीं की तीन रेखाओं से घेरकर मध्य में क्लीं को लिखें, क्लीं के ऊपर दो कोनों में द्रां ह्रीं और नीचे ब्लें बीज को लिखे। इसके बाहर दिशाओं में धरणी बीज (क्ष) और विदिशाओं में रांत बीज (लं) लिखे। बाहर इन्द्रपुर चंद्रमंडल बनाये । उसके
9695959595959१०३२9695969695
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959595958/595 विद्यानुशासन 95595959595
बाहर दिशाओं में और विदिशाओं के पत्रों में लकार के साथ वारिधि बीज (च) अर्थात् ब्लें को लिखे । देवी ज्वालामालिनी के कहे हुये इस परम देव गृह यंत्र को पुष्य नक्षत्र में रविवार के दिन भोज पत्र पर सुंगधित और पवित्र वस्तुओं से लिखे । ज्याला मालिनी देवी के इस हृदय और उपहृदय मंत्रो के द्वारा लगातार पूजन जप और हवन करने से स्त्री राजा शत्रु और भवनवासी देवी भूतादि वश हैं । (घृत दूध बूरा, गूंगाल और दशांग) और पंचांग धूप को मिलाकर उसको दस हजार हवन कुंड में आहुति देने से इन्द्र भी वश में हो जाता है। औरों की तो क्या बात है।
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ब्रह्मां तर्गतं नाम मायया परि वेष्टितं काम राजेन सर्वष्टयं बाहो षोडश पत्रक पंच वाणान न्ठसे तेषु स्याहांतो कारपूर्वकान, माययात् त्रिधा येष्टयं कों कारेन निरोधोत्
॥१९५॥
भजपत्रे परे वाघि विलिख्य च हिमादिभिः
द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सकारांत मंत्रं क्षोभ करं जपेत् ॥१९६॥ एक षोडश दल कमल को कर्णिका के बीच में नाम लिखकर उसको क्रम से ब्रह्म (ॐ) मायया (ही) काम राज (क्ली) से वेष्टित करे। उसके याहर सोलह पत्रों में ॐ द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः स्याहा मंत्र को लिखे उसके बाहर ह्रीं के तीन वलयों से वेष्टित करके क्रों से निरोधकरे तो क्षोभ करे।
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स्मर बीजयुतं श्रन्यं तत्वैने कार वेष्टित तद्वाह्येष्टदलां भोजें नित्यं क्लीं मदन्नं द्रवे ॥
मदना तुरेय वषाडिति विलियेत स्वाहा विनय पूर्वेण त्रिभुवन वश्य मवश्यं प्रति दिवसं भवति संजपतः ॥
ॐ क्लीं ह्रीं ऐं नित्थे क्लीन्ते मदन द्रये मदनातुरे मम सर्व जन वश्यं कुरु कुरु यषट् ॥
एक अष्ट दल कमल की कर्णिका में नाम सहित हकार क्लीं को मिलाकर लिखें जिसे ह्रीं और ऐं से वेष्टित करके उसके बाहर आठ दल कमल के पत्तों में निम्नलिखित मंत्र लिखे और उसको प्रतिदिन जपने से अवश्य ही तीन लोक यश में हो जाता है।
ॐ ह्क्लीं ह्रीं ऐं नित्ये क्लिन्ते मदन द्रवे मदनातुरे मम सर्व जनं वश्यं करू कुरू वषट स्वाहा।
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वय कुरु कुरु सर्व नवे मदनातुरे
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कुरु कुरु वाद स्वाहा ।
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SSCR5RISTOSTEDOS विद्यानुशासन P52525E5IRSOTE
अष्ट दल कमल मध्ये स्वनाम तत्वं दलेषु चित्त भवं, पुनरप्टाअष्ट दलाबुजमिभ वशकरण दलेषु लिरवेत्॥ षोडश दलगत पदमं क्लौंकारं तदलेषु सुरभि द्रव्यैः क्लां क्लीं क्लूं क्लौं कारस्तंटानं वेषये त्यारित : तद्वाहये अर्क शशि भ्यां जपतः शून्यैश्च पंचभि
नित्यं नाग नरामर लोकः क्षुभ्यति वश्यत्वमायाति ॥ एक अष्ट दल कमल की कणिका में तत्व (हीं ) के भीतर अपना नाम लिखकर आटों दलों में चित्र भवं (क्लीं) लिखे, फिर आठ दल के कमल के पत्तों में (इभ यशकरण) क्रौं लिखें, फिर सोलह दल वाले कमल के पत्रों में क्लौं सुगंधित द्रव्यों से लिख्ने, फिर उस यंत्र के चारों तरफ क्लां क्लीं क्लूं क्लौं से वेष्टिच करे। उसके बाहर सूर्य और चंद्रमा से वेष्टित करके नित्य ही पांच शून्य बीज (हां ह्रीं हूं ह्रौं हः) का जप करने से नाग नरलोक लोक और अमर (देव) लोक वश में हो जाते हैं।
ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह: नाग नरामर लोके मम वश्यो भवतु भवतु वषट् स्वाहा ॥ जपमंत्र:
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क्ली क्ला
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SSIOISTORSCISSISTRADIOKAR०३६ NSCTIONARISTOTICISCIES
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S5I055050505TOS हिमानुशासन REACTIONARAICHETRIES
अष्ट दल कमल मध्ये स्वनाम तत्वं दलेषु चित्त भवं वहिरप्यष्ट दलांबुजंमिभ वश करण दलेषु लिवेत्
|॥२०२॥
दगारी इदं यंत्रं त्रेलोक्य जन मोहनं लिरिवत्वा ,
शोभने दो कंटे वन्यातु बुद्धिमानः ॥२०३ ॥ एक आठ दल के कमल की कर्णिका में ही के भीतर अपना नाम लिखे और आठों दल में (चित्रभव) क्ली लिखे फिर बाहर आठ दल के कमल के पत्तों में इभ यशकरण क्रों लिखें। यह दुर्गादेवी का यंत्र तीन लोक के लोगों को मोहित करने वाला है। इस सुगंधित द्रव्यों से लिखर बुद्धिमान लोगों को अपने गले में धारण करना चाहिये ।
क्ली
नाम
क्ली
क्ली
संलिरव्याष्ट दलाब्ज मध्य गगनं कामाधिपे नान्वितं तत्पत्रेषु तदक्षरं प्रविलिावे त्पत्राग्र गर्ताग्न्य क्षरं तो स्वाक्षरं ब्लें पत्रांतरं पूरितवलटितं मंत्रेण वेदादिना
द्रां द्रीं ब्लूं स्मर बीज होम सहितो रेत जगत दोभनं ॥२०४ ।। एक आठ दल कमल को कर्णिका के बीच में गगन (ह) को कामाधिप (क्ली) से युक्त करके लिखे CO5CISTRISITORSCI5015१०३७P/510152525505TOSDIST
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こらこらこらでらって5 Regexa らでらでらで
らくら उसके पत्रों में भी उसी अक्षर को लिखकर उन पत्रों के आगे अग्नि, अक्षर (रं) लिखे पत्रों के अंतराल में ब्लें लिखकर उसको आदि में वेद (ॐ) द्रां द्रीं ब्लूं और स्मर बीज (क्लीं) और होम (स्वाहा ) सहित मंत्र से वेष्टित करे तो यह जगत को शोभित करता है।
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敬
ॐ
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ॐ
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क्ली
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हूँ क्ली
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ॐ
ॐ
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तेषु षोडश सत्कलाः शिरसी श्रून्यो वृत्तं हिमांययापरि विष्टितं प्रणवादिकादिभिरावृते
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अंत्य वर्ण तृतीय तुर्य वकार तत्ववृता व्हय, हंस वर्ण संवृत्तं तेता द्विगुणी कृताष्ट दलांम्बुजं :
यंत्र मा विलियेदिदं हिम कुकुंमागरू चंदनैः, भूर्ज के फल केथवा धरणी तले श्रुचि धामिनी
ब्ल
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सः
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॥ २०५ ॥
॥ २०६ ॥
॥ २०७ ॥
प्रत्यहं विधिना समं जपतो रूणं प्रसवै भ्रंशं तस्य पाद सरोज षटपद सन्निभं भुवनत्रये
969695959519595 १०३८69595951959
॥ २०८ ॥
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SSE1501501512505 विधानुशासन PSISTSRIDDEDISTORY
ॐ ह्रीं ह्यलीं ब्लें अह असि आउसा अनाहत विद्यायै नमः ॥ मंत्र का वर्ग (शवी का तीसरा अक्षर सो और तर्य चौथा अक्षर (ह) व और तत्व (हीं) से घिरा हुआ अर्थात् देवदत्त नाम को स ह व ह्रीं से येष्टित करके हंस अक्षर से वेष्टित करे, इस आट दल के कमल को दुगुना करके अर्थात् सोलह दल का कमल बनाकर उनमें सोलह स्वरों को लिखे। इसके बाहर सिर सहित हकार से वेष्टित करे। इसको माया (ही) से वेष्टित करके क्रों से निरोध करके बाहर ॐ सहित क से ह तक के अक्षरों से वेष्टित करें। इस यंत्र को हिम (कपूर) कुंकुम (केशर( अगर) चंदन आदि से भोज पत्र पर बड वृक्ष की तख्ती पर ऐसी पृथ्यी पर जो अपतित गोमय विलिप्त भूमि पर, जो बिना गिरे हुए गोबर से लिपी हुई शुद्ध भूमि पर प्रति दिन यंत्र के विधान से लाल कनेर के फूलों से जप करने वाले पुरुष के चरण कमलों में तीनों जगत् काल भौरें की तरह वश में रहते हैं।
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१२.
Jॐ।
हरि गर्भ स्थित नाम तत्परिवृत्तं रूद्र त्रि मूत्या हतैः
पुटितं सेन वकार संपुट गत वेष्टां च दातं स्वरै: CRORSCISIOISODIPTISTE१०३९ PARTOISTRSSIRIDDISTRISTRIES
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SETOISTRISSISTRISRTE विद्यानुशासन 1551525IOTSTOISTD35
वहिरष्टाबुज पत्र कष्टोजया जमादि संबोधनं विलिवेन्मोहय मोहयामुक नरं वश्यं कुरू द्विर्वषट ॥२०६।।
कौं पत्राग्र गतं तदेतंगत हीं ह्रीं च बाह्ये लिवेच्च स्वा स्त्री स्त्रू पुनरूक्ता मंत्र वलयं स्त्रों स्त्रः प्रकुटा द्वहि यंत्रं मोहन वश्य मिदं भूजे विलिरव्याचोत
धतूरस्य रसेन मिश्र सुरभि द्रव्टौ भवेन्मोहनं ॥२०७॥ एक आठ दल कमल की कर्णिका में नाम को है ही हैं स स वव और ठ से घेर कर उस के चारों तरफ गोलाकार में सोलह स्वर लिखे फिर बाहर आठों पत्रों में पूर्व आदि क्रम से नीचे आठ मंत्र लिखे।
अये जटो मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट्। अये जंभे मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट्। अये विजय मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट् । अये मोहे मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषद। अर्य अजिते मोहय माहव अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट् । अये स्तंभे मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट् । अये अपराजिते मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट्।
अये स्तंभिनि मोहय मोहय अमुकनरं वश्यं कुरु कुरु वषट्। पत्र के कोने में अंदर की तरफ क्रों और बाहर दोनों तरफ हीं ह्रीं लिखकर गोल मंडल बनाकर उसमें श्रां श्रीं धूं श्रौं श्रः बीजों को लिख्खे और पूजन करे। इस मोहन वश्य नाम के यंत्र को भोजपत्र पर घतूरे के रस और सुगंधित द्रव्यों से लिख्खे तो मोहन होता है।
ही मध्ये नाम युग्मं शिरिव पुर घटितं तस्य कोष्टेषु वामं हीं जंभे होम मन्यत पुनरूपि विनयं हीं च मोहे व होम ह्रीं तत्कोशंतरालेष्वध गज वशंकत बीज मन्यत तदने बाह्ये ही स्वस्य नाम्नां तरितमथ वहि: धूलिरवेत् साध्यनाम्ना ॥ २०८ ॥
कुंकुम मधु हिम मलयज यावक गोक्षीर रोचनागरुभिः मग मद सहितैः चिलिरवेत कनय मुयंत्रं जगदश कत् ॥२०९॥
SISTRISTRISADIESISTER5R०४०PISIOS5I0RSISTERISIO505
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CASEISO15121525T05 विद्यानुशासन ISISIOTSEXSTOISTRIES
Ikshetnamasther
अनुकभर
/अये विजय मोहय २ अमुक पर वाय
अये भावते मोहय
* श्रौं ड्रा
मलमपट्टीको असे सांपति मोहर अशुभ ना
मोहए RAyकर समय
2. श्री श्री
अये जो मोस? अभूक न
अ.
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श्री
*.श्री
श्य
ये म मोहय ५ अकरमय
श्री
श्रा
मधुर त्रोण गुग्गुक्त दशांग पंचांग धूपमिश्रेण जुहुयात्
सहश्र दशकं वशं करोती मपि का कथाऽन्येषु ॥२१० ॥ अग्नि मंडल की पुट के अंदर ह्रीं उसमें अपना और साध्य दोनों का नाम लिये उसके बाहर अग्नि मंडल का संपुट अर्थात् छह त्रिकोण कोठे बनाकर एक एक को छोड़कर ॐ ह्रीं जंभे स्वाहा ॐ ह्रीं मोहे स्वाहा मंत्र लिखे । कोठो के अंतराल में ह्रीं और काणे में क्रों लिखे। उसके बाहर मंडल में अपने नाम सहित हीं और उसके बाहर दूसरे मंडल में साध्य के नाम सहित छू लिखे। इस जगत को वश में करने वाले कषय नाम के यंत्र कुंकुम हिम (कपूर) मधु मलयज (चंदन) गौ के दूध गोरोचन अगर और मृग मद (कस्तूरी) से लिखे । त्रि मधुर (घृत बूरा दूध) गुग्गुल दशांग धूप और पचांग धूप से दस हजार को हवन कुंड में आहुतियाँ देने से इंद्र भी वश में हो जाता है। औरों की तो क्या बात है।
ලලලකටගහලත්සිං oxy කට හසු
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PSPSPSPSPSPS विधानुशासन 95959595PSS
* ee
*
ही देव
ही देवदत
को
स्वाहा ॐ ही जैसे
ॐ ही मो
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ही देवदस
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देवदत्त
यज्ञदत्त
डीजे
स्पष्ठा
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स्पर
स्वाहा
डीमो
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हो देवदस
यूँ यज्ञदत
श्री देवदस
संकोच पञ्च वाक पुष्पी शंखपुष्पीप्रकल्पितं चूर्ण योगमिमं प्राहुः प्रधान वश्य कर्माणि
रशदत
ही देवदत
* पदस
पित्तंजारी साहा लाक्षा सहदेवी कृतांजलिः
आसां चूर्णे घृतो मूर्द्धित वश्यं वितनुते जगत
॥ २११ ॥
पितंजारी ( त्रायमान = अमीरन) सहा (घृत कुमारी) लाक्षा ( लाख) सहदेवी कृतांजलि (लजालू) के चरण को सिर पर डालने से जगत वश में हो जाता है।
॥ २१२ ॥
संकोच पत्र (लज्जावती के पत्र) बाकपुष्पी (औंधा हूली) शंख पुष्पी (सखाहुली) के चूर्ण को वश्य क र्म के प्रयोगों में प्रधान कहा है।
अल शशि हिम मंजिष्टा लक्ष्मी गो चंदना शिफाः कुष्टा सश्रीवृक्ष पलाग्ने वशी कृतां मंगला न्यष्टौं
95959596969599 १०४२P59595959595951
॥ २१३ ॥
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9SPSP595PM
विधानुशासन PPPSPSPSS
अं (हरताल ) शशि (चंदन) हिम (कपूर) मंजठि लक्ष्मी (तुलसी) गो चंदन की जड़ कूटा ( कूठ ) श्री वृक्ष (बेल) के पत्तों के अग्र भाग वशीकरण के आठ मंगल कहे गये हैं।
देव सहां मार्कवमिदं वल्ली भद्रां सलज्जां कनक प्रसूतां
सर्वास्तु कांतां श्रियमप्य शेष वश्याय मूध्यां विभ्रयाद्दिनादौ ॥ २१४ ॥
देवी (मूर्वा सहा (घृतकुमारी) मार्कव (भांगरा) इंद्र यल्ली (इंद्रायण) भद्रा (जीवंती) लना (लजालू) कनक प्रसूता (धतूरे के फूल ) यह सब स्त्रि (कांता) को मंगलकारी वशीकरण के लिए प्रातः काल के समय अपने सिर पर डाले ।
गतहत नगर हदि लिहता लिंग पाचितं विधिवत्
निशि पुष्टयै शिवभवने तैलं मदनां कुरो नाम्रा ॥ २१५ ॥
एतद् वदनांभ्यक्तं भवति सदा विश्व लोक वश्य करं पुष्पेतु स्वयं च मलं भक्ष विमिश्रं स्त्रियं वशयेत्
श्रीतांजना जलि करि मृतमूद्धन माल्य निर्माल्य कल्क सहितं नृकपाल चूल्यां तैलं महत्थित् वनेन्ट कपाल पात्रे सिद्ध नरांश्च वनितांश्व वशीकरोति
शिशो रजात दंतस्य जिह्वा गोरोचना शिवा भृंगस्टा पुष्पैः पिष्टा भिरा भिर्वश्याय पुंड्रक :
॥ २१६ ॥
सिता पराजिता देवी मार्कवः पशु रोचना एतैः श्वेत वचो पेतैस्तिलको वशये ज्जनं
॥ २१७ ॥
॥ २१८ ॥
॥ २१९ ॥
शिला गोरोचना पत्र कुंकुम स्तिलकः कृतः गले लेपोयं वशये लोकं हन्याच्च सकलं विषं शिला (मेनसिल) गोरोचन पत्र (तेजपाक्ष ) कुंकुंम (केशर) का तिलक करने और गले पर लेप करने से यह लोक को वश में करता है तथा सम्पूर्ण विषों को नष्ट करता है ।
॥ २२० ॥
सिता (शक्कर) मयराजिता (पारिजात-हार श्रृंगार) देवी (मूर्वा) मार्कय (भांगरा) गोरोचन और श्वेत वच के तिलक से वशीकरण होता है।
erse
525252525{or: PSPSPSRSPSP525
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RSIOSDISTRIFICISTOT5 विद्यानुशासन PADDISTRISIOIDDISCISS
गोरभां वहि शिरवा रोचना मोहिनी वश
पिष्टाभिः कन्यायै ताभि वंशी कुर्यात् विशेषतः ॥२२१॥ गोरभा गर्हिशिखा (मयूर शिखा) गोरोचना मोहिनी (पोदीना) वश (पोपल) को पीसकर कन्याओं को विशेष रुप से वशीकरण करता है।
रक्ता तगर मंदार मूलै स्तुल्येन कल्कितं पुडाकं चंदन नाश्रु वशी कुर्यात जगत् त्रो
॥२२२॥ रक्ता (चोटली) तगर मंदार मूल (आक की जड़) और चंदन से तीनों लोकों को शीघ्र वशीकरण करता
मंदार मूल मंजिष्टा कुष्टचकै सरसमैः समं पिष्टं तं ललाटादौ वशटोत् रक्त चंदनं
॥ २२३॥ आक की जड़ मंजीठ कूठ चक्र (तगर) को बराबर लेकर लाल चंदन के साथ पीसकर मस्तक आदि पर लगाने से वशीकरण होताहै।
भंगनील गजांश्वत्थ वर्षा भून्मत्त चंदनैः जलेननालिकेरस्य पिष्टैश्यो विशेषतः
|२२४॥ भांगरा नील गज (विष्णु क्रांता), अश्वत्थ (पीपल) वर्षांभू (साठी) उन्मत (धतूरा) और चंदन को नारियल के जल से पीसने पर विशेष रुप से वशीकरण करता है।
पद्यो भुवाल लाला गोरीचना मधुपैगुरोः भारायणं कन्याया पिटैलालाम रवल मोहनं
॥ २२५ ॥ गाय के बच्चे की लार गोरोचन मधुप (महवा) अगर (भातयां) तुलसी को कन्या के मुख की लार से पीसने से सब मोहित हो जाते हैं।
तिलको वशयेन्मीन पीत्र गोरोचना कतः
वाम हस्त कनिष्टांग भागेन विनि वेशितः मछली के पित्ते और गोरोचन को बायें हाथ को कनिष्ठा उंगली सेल
॥२२६॥ तिलकवशीकरण करता
गामासापायापचया
एला लंवग मलयज तगरोत्पल कुष्ट कुंकुमोशीरे
गोरोचनादि केसर मनः शिला राजि का कुष्टंज ॥२२७॥ SETOSDISTRISTOTSICISTR०४४ PARTOISTRICISIOISTRISTRIES
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PSPSP5PS/75 विद्यानुशासन PPPSSPPS
हिक्का पद्मक तुलसी मिति सम भागं तुषार सलिलेन पुष्पे चंद्रा भ्युदये च कन्यया पेषयेत्सर्व
तिलकं कुर्यात अमुना विदधात्वयवांजनं तथाऽन्यो तिलक स्त्रिभुवन तिलको गजमद कुनटी शमीपुष्पैः
॥ २२९ ॥
इलायची लोंग चंदन नगर कमल केसर कूठ केशर खस गोरोचन नागकेसर में नसितराई कूहिक्का (जरामांसी) पद्माख तुलसी को बराबर लेकर पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा के उदय होने पर ओस के जल से सब को कन्या से पिसवाए, इनका तिलक या अंजन बनाकर लगाए, इससे तीनों लोक जीते जाते हैं । हाथी का मद कुन्टी (मेनसिल) खोजड़े के फूल इनका तिलक तथा अंजन दोनो ही तीन लोक को जीतते हैं।
पावक वर्जित लक्ष्मी सहदेवी कृष्ण वल्लिका तुलसी हरिकांतावर कंदे विश्व सितो शीर पिक्काश्च
जाती शमी पुष्प युगं दम नक गोरीचनाया मार्गः श्च काश्मीरा मृगमद बुरक मारि पत्राि
॥ २२८ ॥
शंरपुंखी सहदेवी तुलसी कस्तूरिका च कर्पूर गोरोचना गज मदो मनः शिला दमनक चैवं
॥ २३० ॥
॥ २३९ ॥
शरपुंखी कन्येति च सम भाग गृहीतश्शुभ तंत्रैः पुष्पाकर्के संयुक्ते मुखं वासौ वा भवेत तिलकः ॥ २३२ ॥ पावक (अनि या धूप से बची हुई लक्ष्मी तुलसी) सहदेवी काली तुलसी, और हरिकांता (विष्णुकांता) वर कंद (नील वृक्ष) विश्व (सोंठ) सिता (शक्कर) उषीर (खस) पिष्क (कोकिल) जाती पुष्प (चमेली) शमी (खेजड़ा) दोनों के फल दमनक गोरोचन, आदि झाड़ा केशर / कस्तूरी दुर्दुर (पुनर्नर्वा) मिरच के पत्ते सरफोंका और घृतकुमारी को उत्तम उपाय से बराबर बराबर लेकर पुष्य नदात्र और रविवार के संयुल योग में तिलक करने से वशीकरण होता है।
॥ २३३ ॥
जाती शमी कुसुम युग हरिकांता चेति दिव्य तंत्र मिदं सम भागेन गृहितं तिलकं कुरु भुवन वश्य मिदं ॥ २३४ ॥
95959595959595१.४५ 95959595955
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PSPSPS PP
विद्यानुशासन 9595952PA
D
सरफोंका सहदेवी तुलसी / कस्तूरी कपूर गोरोचन हाथी का मद में नशिल दमनक चमेली और खेजड़े के फूलों और हरिकांता (तुलसी) को बराबर बराबर लेकर श्रम उपाय से तिलक किया हुआ सम्पूर्ण लोक को वश में करता है।
मार्कव विष्णुक्रांता देवी श्वेताग कर्णिका मूलैः गोरोजनांबु पिष्टैः पुष्पै तिलको जगद् वशक्त
॥ २३५ ॥
मार्क (भांगरा) विष्णुक्रांता (शंख पुष्पी) देवी (सहदेवी) श्वेताग कर्णिक मूल (सफेद कोयल की जड़) गोरोचन को पानी से पीसकर तिलक करने से जगत वश में होता है।
सित गिरि कर्णी मूलंशित वात विरोधो मूलमपि तैलं मदगज मद समुपेतं तिलकं त्रिलोक्य वश्यक
॥ २३६ ॥
सित गिरि कर्णी मूल (सफेद कोयल की जड़) सित वात विरोधी मूल (सफेद ऐरंड़ की जड़) तिली का तेल हाथी का मद और मद (धतूरा) का तिलक तीन लोक को वश में करता है।
जरिली शिखा सहदेवी मोहिनी हरि वल्लभा च गोरंभा,
सिद्ध दिने कृत तिलकः शंकर मपिवश्यतां नयति
॥ २३७ ॥
जरिली (पिलखन) शिखा ( मयूरशिखा ) सहदेवी मोहिनी (पोदीना) हरिवल्लभा (तुलसी) और गोरभा का सिद्ध दिन में तिलक करने से शिवजी भी वश में हो जाते हैं।
वरकंद पत्र कन्या हिम पद्मोत्पल सुकेशरं
कुष्टं हरिकांता मला भवं विकृति स्तिलकां जगद्वश कृत ॥ २३८ ॥ वरकंद के पत्ते घृत कुमारी कपूर कमल और नीला कमल की केशर कूठ (सखा हूली) हरिकांता, और चंदन का तिलक जगत को वश में करता है।
कनकसहजात पुष्पी मलयज नृपरोचना गज मदैश्च
सम भागेन गृहित स्तिलक स्त्रैलोक्य जन वश कृत् ॥ २३९ ॥ कनक (धतूरा ) सहा (गंवार पाठा) जाति पुष्पी (चमेली के पत्ते ) मलयज (चंदन) नृप (ऋषभक) गोरोचन हाथी का मद सब बराबर लेकर तिलक करने से तीन लोक के प्राणी वश में होते हैं।
श्वेत जपासित सर्षप सहदेवी देवी भृंगराज कृततिलकः युक्तः समरोचनया त्रिभुवन जन वश्य कृत प्रीक्तः
95959595959१०४६5959695959
॥ २४० ॥
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CHORCETRISISTER विद्यानुशासन PARTODDROIDIOS सफेद जपा (गुड़हल) सफेद सरसों सहदेवी देवी (मूर्या) भांगरा और गोरोचन का तिलक करने से तीन लोक वश में होते हैं ऐसा कहा गया है।
नारी गोरचना ब्रह्म इंडी भुजग केशरैः सिद्धनेत्रां जनं सद्योजनयेज्जन रंजनं
॥२४१॥ नारी (अश्वला) गोरोचन ब्रह्म डंडी (उंटकरेला) नागकेशर का सिद्ध किया हुआ अंजन वशीकरण करता है।
कुष्टैला लसा वळंदु सिंधुनाग हिमा गुरु: अंजनेन समं वश्यमं समं नानाजनं
॥२४२॥ कूठ इलायची अलक्तक (महानर) वक्र (तगर) इंदु (कपूर) सिंधु (सेंधा नमक) नाग केशर हिम (कपूर) अगर का अंजन आँस्त्रों में लगाने से सब वश में होते है ।
अहे गंज मदो पेतै सिद्धार्थ सहितं मुखं पट पयं रजन्युत्थ मंजनं जन रंजन
॥ २४३॥
दग्धं भुजंगमस्यास्ट चतुशंशाण स्वीधनाग्निना सौवीर अंजनं लोक रंचन स्याद्दगं जनात्
||२४४॥
कोड़ रधिरादया चैक व शटोज्जगत मपीस्था भृगांज नागर्भाया क्रोड वशासेक दीप्ता
॥२४५ ॥
कज्जलं मंबुजंसूत्रा द्वयकोदर सन विनात्सवत्सायाः कपिलायाः प्रज्वलितं पतेन ट्रष्याजनं वश्यं ॥२४६ ।।
द्विक हन महीषी तक्रज युत नकपालस्थया मर्षी दातां भ्राताम्र सूत्र वत्या नकपाल धुतां जगद्वश कृत
॥२४७॥
मद तगर केशरा बुज रजो उंग जन धतेंदु हिम युग पत्रैः गोपित क्षीर दुक्षीरै रपि भूरिता मंलके वर्ति
॥२४८॥
साग्र शिलां कपिलाया प्रज्याल्या ज्येत् कज्जलं निर्गलितं तस्या आदेय दशो रभ्यंजना त्रिजग्ती वशी कर्तुं मनाः ॥२४९॥
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959595955 विधानुशासन 9595959595
मद (धतूरा) नगर केशर अंबुज (कमल) को पराग (कीचड़ ) रुक (कुठ) इन्दु (कपूर) के पत्ते और हिम (चंदन) के पत्तों की क्षीर वृक्ष दूधवाले वृक्षों के दूध में डुबाकर महावर के हाथ में बत्ती भिगोकर घृत में बनाया हुआ अंजन वशीकरण करता है ।
तगर शिखा हरिकांता रजनी सर्षय मनाशिला चूर्णः नीरजवद्धारित कज्जलका लोकवश्यकरं
॥ २५० ॥
नगर मयुरशिखा हरिकांता (तुलसी) रजनी (हलदी) सरसों मेनशिल नीरज (कमल) को बत्ती से बनाया काजल लोक को वशीकरण करता है।
दुरक पंचाणैः कारुक दुग्धैश्च कुंकुमाद्यैश्च
भावित सूत्र विधारितमंजन मिह वश्य कृत जगत:
॥ २५१ ॥ दुर्दुरक (पुनर्नवा) के पंचांग में कारुक का दूध और कुंकुम आदि में भावना दी हुई बत्ती से तैयार किया हुआ अंजन संसार को वश में करता है।
युक्तं जारी कुंकुम शरपुंखी मोहिनी शमीकुष्टं गोरोचना हिकेशर नागर रुदंतीं च कर्पूरं
कृत्येतेषां चूर्ण पावकमध्येततः परिक्षिप्य पंकज भवतंतु वृतावर्तिः कार्या पुनस्तेषां
कारुक कुच भव पयसां त्रिवर्ण योषि जनस्तन क्षीरै: परिभाव्य ततः कपिला घृतेन परि वोधयेदीपं
उभय ग्रहणे दीपोत्सवे थवा वयर जनं धाय गोमय विलिप्त भूम्यां स्थित्या मंत्राभिषिलायां
ॐ भूमि देवते तिष्टः तिष्टः ठः ठः भूमि सन्मार्जनं मंत्रः ॐ इंद्र देवते कजलं गृहण स्वाहा कर्पूराभि मंत्रण मंत्र:
॥ २५२ ॥
॥ २५३ ॥
॥ २५४ ॥
॥ २५५ ॥
ॐ नमो भगवते चंद्र प्रभाय चंद्रद महिताय नयन मनोहराय हरि हरि हिरिणि हिरिणि सर्व जनं मम वशं कुरु कुरु स्वाहा
96959595915/१०४८P/5595959595
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SHIDI50512151015105 विधानुशासन् 1510151255015051015
हजलोद्धार मंत्र: ॐ भूतग्रहाय समाहिताय कामाय रामाय ॐ चुलु चुलु गुलु गुलुनील भ्रमरि भ्रमरि नान मनोहरि मनोहरि नमः ।
नयनांजन मंत्र: कज्जल रंजित नयनां द्रष्ट्या तां वांछतीह मदनोपि
रंजित नयनं भूपाद्या यांति तस्य वश्यं ॥२५६ ॥ पुत्तंजारी (त्रायमात= अमीरन), कुंकुम, सरफोका मोहिनी (पणेदीना) शमी, कूठ, गोरोचन, नाग केशर, नागरमोथा, रुदंती और कपूर चूर्ण को पावक (अग्नि) में डालकर उसको कमल के धागे से लपेट कर उसकी बत्ती बनाए । फिर कारुकं के स्तनो के दूध और तीनो वर्णो की स्त्रियों के दूध में भावित करे | कपिला गाय के घृत से दीपक जलाएं।इस अंजन को दोनो ग्रहण और दीवाली की रात्रि में गोबर से लिपी हुई तथा मंत्र से धुली हुई पृथ्वी पर ठहर कर खप्पर में काजल पाड़कर नेत्र में यह काजल लगाई हुई सी कामदेव को भी वश में कर लेती है। पुरुष भी उस काजल को लगाकर राजा आदि को वश में कर लेता है।
लोहरजःशरपुंरवी सहदेवी मोहिनी मयूर शिरवा काश्मीर शिरवाकाश्मीर कुष्ट मलयज कर्पूरशमी प्रसून च
॥२५७॥
राजावर्तकं भ्रामक दिवस करावर्त मदजरा मांसी नप पूति केशर चंदन वाला गिरि कर्णिका स्वेता
॥२५८॥
गोरोचनाश चंदनं हरिकांता तुषमित्योषां चूर्ण मलक्तक पटले विकीर्य पिरवेष्टय कुरू वत्ति
॥ २६०॥
श्रोतोजनं नीलंजन सौ वीरांजन रसांजनान्यपि च पाहि सिंह के शर शार्दूल नर वश्च विकृतिश्च
॥२५९ ।।
सूण पंचपर्णेन परिवृतां भावयेत् तरु क्षीरैः कारुक कुच भवपासा पुनरपि तां भावोत्सम्यक
॥२६१ ॥
ಆಣಣಣಣಣಲಿಜುಥಡRoxsyಥಐಐಟಣFOಥ
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DASIRIDICISIRIDIDIEO विद्यानुशासन DECISIOTSSISTOTSIDE
वत्या तटा प्रदीपं प्रबोध्य कपिलायतेन सिद्ध स्थाने दुर्दुर भंग रस संमार्जित नव खप्पर जनं धियेत ॥२६२ ।।
ॐहिरिणि हिरिणि स्वाहा
मंत्रं पठतां जनं धार्य प्रपठस्तमेव मंत्रं करोतु नयनां चनं चापि
॥२६३॥
सकल जगत् एक रंजने मंजनमिदमातनोतु
सु भगत्यं स्त्री पुरुष राज वश्यं करोति नयन द्वयाभ्क्तम् ॥ २६४ ।। लोह चूर्ण, सरफोका, सहदेवी, मोहिनी (पोदीना) मयूरशिखा, काश्मरि शिखा (केशर), कुठ, चंदन कपूर शमी के फूल, राजावर्त, भ्रामक (भमरछल्ली) दिवसकरा, आवर्त मद जरामासी नृप (अमलतास) पूति करंज, केशर, चंदन वाला (नेत्रवाला) और श्वेत गिरि कर्णिका (सफेद कोयल बूंटी) श्रोतांजन (काला सुरमा) नीलांजन (नीला सुरमा) सौ वीरांजन और रसांजन इस के अतिरिक्त और भी पद्मा (तुलसी) अहि (नाग केसर) सिंह केसर (शेर की अयाल) शार्दूल सिंह केनख और विकृति (बिगड़े हुए) गोरोचन चंदन हरिकांता (तुलसी) भांगरा तुष (बहेड़ा) के चूर्ण को अक्तक (लास्य) के पटल पर पियोतकर उसेट कबी खजाहफिर उसको पांच रंग के धागे से लपेट कर वृक्षों के दूध में भावना । दे फिर उसको कारु की के स्तनों के दूध से, भी अच्छी तरह भावना दें, उस बत्ती से सिद्ध स्थान में कपिला गाय के घृत से दपिक जलाकर दुर्दुर धतूर {धतुरा) भांगरा के रस से साफ किये हुए नव खर्पर पर अंजन बनाए ।
ॐहिरिणि हिरिणि स्वाहा इस मंत्र को पढ़ते हुए अंजन बनाए और इसी मंत्र को पढ़ते हुए आंखों में अंजन लगाएं। सम्पूर्ण जगत को प्रसन्न करने वाले इस अंजन को आँखों में लगाने से सुंदरता बढ़ने के साथ साथ स्त्री पुरुष और राजा भी वश में हो जाते हैं।
भ्रामक हिम नीलांजनं वालालक्ष्मी सुमोहिनी रक्ता व्याय नरवीहरि कांता वर कंदो रोचना युक्तः
॥२६५ ॥
कोकि शिरवे त्येषा मललक पटले विकीय संचूर्ण प्रगुक्त विधि समेतं जन रजनंमजननं तदिदं
॥२६६ ।।
STERISTOTSIRIDIOSDIDISTRIER०५०PISISTERISTRISTRISTOTTEST
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959595959595 विधानुशासन 959595p
कल
(अमर राठी) हिम (पू) नीलांजन बना (नेत्रवाला) लक्ष्मी (तुलसी) मोहिनी (पोदीना) रक्ता (गुंजा) व्याघ्र नखी हरि कांता (विष्णु क्रांता )वर कंदा गोरोचन सहित केकिशिखा ( मयूरशिखा ) के चूर्ण को अलक्त पटल पर बिखेर कर पहले कही हुई विधि से अंजन बनाएं तो यह संसार को प्रसन्न करता है।
हीर कांता केकिशिरखा शरपुंखी पूर्ति केशि सहदेव्यः हिम मद राजावत विकृतिं कन्या पुरुष कंदं
॥ २६८ ॥
वर पद्म केशरं मोहिनीति सम भागतः कृतं चूर्ण प्राग विधि युत अंजनमिद मरिवल जगदंजनं तथ्यां हरिकांता (तुलसी), मयूर शिखा, सरफोका - पूतिकरंज केशि (कसेरु) सहदेवी हिम (कपूर) मद (धतूरा ) राजावर्त विकृत कन्या (घृत कुमारी) पुरुष कंद (नीलवृक्ष) श्रेष्ठ कमल का केशर मोहिनी ( पोदीना) को बराबर बराबर लेकर उसके चूर्ण को पहले कही हुई विधि के अनुसार बनाया हुआ अंजन सब जगत को वश में कर लेता है।
सार्दूल नरव भ्रामक नीलांजन मोहिनी सुकर्पूर गोरोचनान्वितं विधिवदं जनं लोक रंजन कृत्
॥ २६७ ॥
॥ २६९ ॥
व्याघ्रनखी भ्रामक (भ्रमर छल्ली) नीला सुरमा मोहिनी (पोदीना) कपूर और गोरोचन के चूर्ण का विधि के अनुसार बनाया हुआ अंजन लोक को वश में करता है।
काश्मीरकुष्ट मलयज कमलोत्पल केशर च सहदेवी भ्रामक कन्या नृप हरिकांता विकृतिश्च मधुर नवां ॥ २७० ॥
कप्ररोचनामोहिनी सुनीलांजनं च सम भागं
पूर्व विधियुक्तमंजन मिद मरिवल जग वशीकरणं
॥ २७१ ॥
केशर, कूट, चंदन, कमल नीलीफर की केशर, सहदेवी, भ्रामक (भ्रमर छल्ली) कन्या, (घृत कुमारी) नृप (ऋषभक) हरिकांता (तुलसी) विकृति (सुधारे हुए) मोर के नाखून कपूर गोरोचन मोहिनी (पोदीना) और नीला सुरमा यह सबबराबर लेकर विधि के अनुसार बनाया हुआ अंजन सम्पूर्ण जगत को वश में कर लेता है।
नवसा कपाल मृत चीर सकल कृतवर्ति कल्पिता
विश्वमपि नयन वशा वशये च्वल पत्र शारिव विटपि मपि निशि ॥ २७२ ॥
95959595959१०५१ 95959595959596
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969695969595 शिधानुशासन 9595959595
चतुद्रुम त्वककुमदोत्प्लानां पुन्नाग कांतादिमजाति बिल्वैः गोपित काश्मीर युतै दशास्यै वश्याय सिद्ध सदय्तै मंषी स्यात् ॥ २७३ ॥
कुमुद श्री देवी स्वल्प क्रांता कपोत मल युक्ता, मलयज कलिता लिप्सा गात्रे वशये ज्जगत सकलं
॥ २७४ ॥ कुमुद (सफेद कमल) श्री (सरल कागोद गंदा विरोजा) देवि (सहदेवी) स्वल्पं क्रांता (कसेरु) कपोल अल (कत्ता हीदी)चंदन झीर पर लेप करने से सम्पूर्ण जगत वश में होते हैं ।
क्षीर वरा लिन्यर्जुन कनकांजलि कशे हरिणं मधु गुड़ खारी पुष्पक पक्कानां वश्य लेप
॥ २७५ ॥
क्षीर (दूध) वरा (त्रिफला) अलिन (शहद), अरजुन धतुरा अंजलि (लजालू) सफेद दिखने वाला शहद गुड़ खारी पुष्पक (सुपारी) को पकाकर लेप करने से वशीकरण होता है।
कार्य प्रमितेवारा शिशिरयो सालेश्वरैः भृंगयोः
प्रस्थार्द्धं प्रमिते पृथक् सचुलुक क्षोद्रे विधिश्येः पचेत् ॥ २७६ ॥
रात्रीष्ट पलोन्मितास्तदनुता छाया विश्रुष्को तनौ लिप्ताः सर्व जनानुराग जननं कर्तुं समर्थ परं
॥ २७७ ॥
श्रेष्ट साल और भांगरा को जाड़े के मौसम के दिन में प्रस्थ (६४ तोले) के आधे प्रमाण से थोड़ सा शहद डाल कर क्वाथ विधि पूर्वक पकाए और आठ दल (३२ कर्ष) करने पर हल्दी को छाया में सुखाकर शरीर पर लेप करने से सम्पूर्ण पुरुषों से प्रेम उत्पन्न करने में समर्थ होता है।
रुक सिंदूर बचा नाग के शरै: चंद्रा कुसुमैः ससिद्धार्थे कृतो धूपः स्यात्सर्वजनवश्य कृत
॥ २७८ ॥
रुक ( कूठ ) सिंदूर वच नाग केशर चंद्र कुसुम (सफेद निसोथ ) सफेद सरसों के बनी हुई धूप सब को वश में कर लेती है।
धूप मद्ध स्तग्वर्त्तम नाग चंदन गैः समैः सिद्धैः क्रमावृतैः राज दर्शाने पुण्य विक्रय
॥ २७९ ॥
पंच पय स्तर पयषा पोत
कांडक रसेन
परि भाव्याः तिल तैल दीप वर्तिः त्रिभुवन जन मोह कृद्दीपः ॥ २८० ॥
やらにすらにすで
にちにちにちにちにすぐり
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SSOTECISIRSTOR5105 विधानुशासन ASSISTOISTOISSISTOISS
पितं मत्सस्य विष्टा च कपोतस्य वि चूर्णित मूर्द्धिन स्त्रीटाः पदं पुंसां यत्रे रंजयेत् परं
॥ २८१॥
स्व पच मल संयुक्तं रर्प मस्तक धूपितं वस्त्र माल्य विलेपादि वित्तीर्ण वश्टो ज्जनं
॥ २८२॥
कपि सेफ रजो रेतो भवितं कुसुमेर्धितं
आयातं सुरभौ यद्वा भोज्यमित्रं वशीकरं ॐ नमो मोहनीये सुभगे लिलि ठः ठः
॥ २८३॥
जमानेन कुरंटक शसिरै हिम कांत भुजग केशर वक्रात
निज पंचमलोपंतान दद्यादन्नादि मिश्रितं वश्यार्थ ॥२८३।। इस मंत्र से अभिमंत्रित किये हुए कुरटंक (पिथावासा) हिम कांत (कपूर) भुजवा केशर (नाग केशर) वक्र (तगर) और अपने पांचों मलों सहित अन्त आदि में मिलाकर देने से वशीकरण होता
तगर मेह मूनिं गोप कन्यां रुजामपि दद्यादात्में दियो पेतान् स्याद वश्यं वशीकृती:
॥ २८४॥ तगर अहि मूनिद (सर्प का सर) कोप कन्या (गोप चंदन) रुजा (कूठ) और अपनी इंद्रिय का उपेत (आया हुआ) वीर्य, को देने से अवश्य यशीकरण होता है।
स्वाश्रु वीर्य मला स्त्ररिम भविता रसना श्रुभ:
उन्मत्त स्थान पानादिव्या मिश्रं जन वश्या कृत ||२८५॥ उन्मत्त (धतूरा) की रखा (रसमें) अपने आंसू वीर्य मल और रल को भावित करके अन्न पानादि में मिलाकर देने से वशीकरण होता है।
स्वस्टा मलेंद्रिय युक्तो मेहन चूर्णः श्रुमः कफो थवा
दत्तः साध्यं वशटोदाजीवित मंत्र संभिन्नः ॥२८६ ॥ अपने मल वीर्य अथवा कफ का चूर्ण देने से साध्य जन्म भर तक मंत्र से वशीभूत की तरह यश में रहता है।
करिमद कुकुट रसना निज नयनजसलिल पंचमल मिश्र
अशनादि वशी कुर्यात् पदत्तम चिरेण साध्य जजे ॥२८७ ॥ CRECTORISEASIPTSDISER०५३P/58755RISTRISTRISION
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STERSICISTRISTRISTO75 विधानुशासन VIRECISIOTECISION
स्व वीर्य विजमूत्र मलोदर कमिश्र जिकिका हरित मदे विमिश्रि प्रदीटाभानैः रसनादिषु क्षणादनिहशा विश्व वशीकृतिं भवेत् ॥ २८८॥
हन सित कुष्ट माहिषं मांसोदर जन्म कीट वर तैलैः भक्ष वितीर्णैरभिमत जन संवननं बुधाः प्राहुः ॥२८९॥
गोरमां मोहिनी जारी केकि चूड़ा कतांजलिः दत्ता स्वन्धत भान्न पानादि वशयेन्मल संयुता
॥२९ ॥ गोरमां मोहिनी (पोदीना) जारी (पुतंजारी = आयमान ममीरन) के कि चूड़ा (मटूरशिखा) कृति (भोजपत्र) अंजलि (लजालू) और अपने मल को मिलाकर देने से वशीकरण करता है।
स्मशान भंगरजिन मदं पंच मलैर्युतः प्रदत मन्त पानादि सर्व संवननं मतं
॥२९ ॥ श्मशान में उगा हुआ शृंगराज मद (धतूरा) अपने पांचों मलों, अन्न पान आदि में मिलाकर देने से सबका वशीकरण होता है।
स्वकीय क्षतज श्रोत मलाभ्यामशनादिकं मिश्रं विश्राणितं नारी नरा नप्या नोदवशं
॥ २९२।।
नाशय जंया सितसूर्य विल्व सहकार मूल
कत चूर्ण जगतां वश कन्निजां मल पंचको पेतः ॥२९॥ नाशय जंधा (काक जंपा) सित (सफेद) सूर्य (आक) बिल्व सहकार (आम) की जड़ का किया हुआ चूर्ण अपने पांचों मलों सहित जगत को वश में करता है।
रक्त कपिला रेसा क्षित करवीर रसाद कृष्ण तिल चूर्णः
भौमोदयेंदु युलो निज मल मिश्री वशी कुरुते ॥२९४ ॥ मंगल के उदय होने पर, चंद्रमा के युक्त होने पर, रक्त (लाल) कपिला गाय का दूध और सित (सफेद) केनर के रस में गोले किये हुए काले तिलों के चूर्ण में अपने पांचो मल मिलाकर खिलाने से वशीकरण होता है।
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CISIOI5015015015125 विधानुशासन 20505PISOTICISIOS
एरंड कनक भक्तक रसेन दिवस त्रट पथक कष्ण तिलः
प्रेष्यो शूनी पोनिज मूत्रेणानंग जय बाणः ॥२९५ ।। एरंड़ धतूरा भक्तक (पकाए हुए चावलों का मांड) में अलग अलग काले तिलों में श्रूनी (कुत्ती) का पय (दूध) और अपना मूत्र कामदेव को जीतने के लिए बाण होते हैं।
उन्मत पंच पत्रक त्रिकणंगर सैंघवेन संमिश्र
मातंग वारि युक्तं तैलं जिमूत्र तो वश्य ॥२९६॥ उन्मत्त (धतूरा) पंच पत्र (पाँचों पत्ते) त्रिक (त्रिफल) णागर (नागर मोथा) सेंधा नमक को मातंग (हाथी) का वारि (जल) मूत्र सहित तेल और अपने मूत्र का सेवन वशीकरण करता है।
कर मनु दिग क्षि भागाजारी गोराज मोहिनी देव्यः
पिष्ट गलाज्य नियक्ता निर्दिष्टा वश कतो जगतः ॥२९७॥ करमनु (करंज) दिगदि भाग जारी (त्रायमाणममीरन) गोराज (गोरोचन) मोहनी (पोदीना) देव्या (सहदेवी) को पीसकर गुड़ और घी में मिलकार सेवन कराने से संसार को वश करने वाला बताया
रुद्र जटा सितगुंजा लज्जारिका सन्निधाय सांस्टये दिवसै नि भिरादाट प्रचूर्णय पेयाः स्व पंच मलैः ।
॥२९८॥
गो मय विलिप्त हिलिनी कंदेः परि भाव्य पाचर्य
द्विधिना चूर्ण मिदं सकले जगदवश्य करं काम वाणारख्यं ॥ २९९ ॥ रुद्रजटा (जटामासी बाल छड़), सफेदचि, हमी. लजालू को तीन दिन तक सस्ये (सर्प के मुख में) रखकर उसके चूर्ण में अपने पांचों मल मिलाकर रखे । फिर उसको गोबर लिपटे हुए हिलिनी कद (लांगली कंद) में विधि पूर्वक पकाए तो यह काम बाण नाम का चूर्ण संसार को वश में करता
रक्तकर वीर विकृति द्विज इंडी वारुणी भुजांक्षी लजरिका गो बंध्यान्येत वटिका प्रकृति वहु ॥३०॥ कटिका भिः सहलवणं प्रक्षिप्य सुभाजने स्व मूत्रेण परिभाव्यः
पंचेत् पश्चातल्लवणमिदं भवन वश कारि ॥३०१।। लाल केनर शुद्ध की हुई (ब्रह्म इंड़ी = उटकराला)वारुणी (मदिरा) भुजं गाक्षी (सर्पाक्षी) लजाल गो वंध्या (गोभी) को बहुत सी गोलियां बनाए, इन गोलियों को एक उत्तम बर्तन में नमक और अपने मूत्र सहित डालकर विधिपूर्वक भावना दिया हुआ यह नमक जगत को वश करने वाला है।
SAHIOID051255DDIOHDD१०५५ PXSXSIOTSIDISIOSOTRESS
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CASTO5CISIOSCTRICT विद्यानुशासर BASIRIDICTSICISCIRCISI
गोरमा सहदेवी सुगंधिका नाग केशरै र्युक्तं लवणं
निजमल मिश्रं वश्य करं भोजनं देयं ॥३०२ ।। गोरमा सहदेवी सुगंधिका (नगद याबची) नाग केशर सहित नमक में अपने मल मिलाकर भोजन में देने से वशीकरण करता है।
विकति कृतांजलि लज्जा रवि मूल विलिप्र भाजने
क्षिप्रा कपिला गोदधि वश्यं ग्रहणे ष्वां जन्म विदधाति ॥३०३॥ विकृति (शुद्ध किया हुआ) कृता (भोजपत्र) अंजलि (लजालु) लजयंती अर्क की जड़ को साफ बर्तन में कपिला गाय के दूध में मिलाकर ग्रहण में खिलाने से जन्म भर के लिए यशीकरण होता है।
पित्वोद्रीण क्षीरं पुष्प फलाभ्यंतरे दधि कर्यात
तद् घृत तत्र फलानि स्युर्वश्यायान्नमिश्राणि ॥३०४ ॥ दूध फूल और फल को और दही को पीकर उदीर्ण (उलटी) किये हुए को एक बर्तन में रख दे उसमें रखे हुए फल को खिलाने से वशीकरण होता है।
तकेत्थिन्न समूल तूल कनक क्रोध श्रितान् वीरतः संजातेन विलिप्टा गोत्र मरिवलं मास्तर्दुद्वा
॥३०४ ॥
तत क्षिपा हेम फले मलं क्षिति गतं मूत्रेण संभावितं
भक्तादोत् वितरे दिदं निगदितं स्त्री पुंस वश्य बुधः ॥३०५।। मड्ढे से निकली हुई धतूरे की जड़ और फल के क्वाथ को दूध में मिलाकर अपने शरीर में मले। फिर उसको उड़द की पिष्टी से उतार कर उसमें धतूरे काफल अपना उतरा हुआ मल और मूत्र मिलाकर भोजन आदि में दे तो वह स्त्री और पुरुष दोनो को ही वश में करता है।
भावोत्क्रमुक हाथं शून्यो दुंबर दुग्धतः खुनी दुग्धं
स्व मूत्रेण जन्मांतं वश्य कारीतत् ॥३०६ ॥ क्रमुक (सुपारी) के काथ को निर्जन स्थान के उदम्बर (गूलर) के दूध में भावना देकर उसमें कुत्ती का दूध और अपना मूत्र मिलाकर पिलावें तो जन्म भर वश में करता है।
पूगं कपित्थ नियास भावितं दिवस त्रयं श्रूनो
क्षीरात्म मूत्रेण जन्मान्तं वश्य कद भवेत् CASCIETOISTRISTOISTORIER०५६PISSISIOSCIEDIEPISCEN
॥३०७॥
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S
2
たらたらわすためにhe's faengelled
ちにちやらゆらち
पूग (सुपारी) को कैथ के रस में तीन दिन तक भावना देकर उसमें कुत्ती का दूध और अपना मूत्र मिलाकर दे तो जन्म भर वशीकरण करता है।
विष मुष्टिक कनक हलिनि पिशाचिका चूर्णमंबु देह भवं
उन्मत्तक भांग गतं क्रमुक फलं तद्ववशी कुरुते ॥ ३०८ ॥
विष मुष्टि (कुचला ) कनक (धतूरा ) हलिनां (कलिहारी) पिशाचिका के चूर्ण और अंबु देह भव (कमल का रस ) को उन्मत्त (धतूरे) के बर्तन में रखी हुई सुपारी वर्गीकरण करती है।
मनुमती नृप जारी देव्यः शरपक्ष सप्तषड्भगा हत्या तच्चूर्ण पुन रुक्मत्तक भाजने क्षिप्त:
॥ ३०९ ॥
अश्रुमती (क्षेत्र जल) पांच भाग नृप (ऋषंभक) दो भाग जारी (पुतंजारी = त्रायमाण) सात भाग देवी (सहदेवी) छह भाग को लेकर उनके चूर्ण को उन्मत्त (धतूरे) के बर्तन में डालें।
पूग फलान्यथ तस्मिन् भाव्यानि निधाय मूत्रतः स्वस्थ उत्तानि जगति भवेति माह शास्त्राणि
॥ ३१० ॥
उसमें अपना मूत मिलाकर पूग फल (सुपारी) को भावना दे। इसको देने से यह संसार में काम के अस्त्र और शस्त्र होते हैं ।
कृष्ण भुजंग भवक्रे क्रमुक फलानि श्रुम दिने निक्षिप्य ततः गोमटा लिप्तं संस्थाी एकांत शुभ दिना ॥ ३११ ॥
नान्यादाय दिने स्त्रिभि रथ कनकज फल पूटे समा स्थाप्य गिरि कर्ण केन्द्र वारुण्य नल हलिन्यागता चूर्णे ॥ ३१२ ॥
मंदार श्रुनी क्षीरैः स्व मूत्र सहितै विभावयेत्सदृशः, कुलिको दा शनिश्चर वारे कनके धनी छाग्नी
॥ ३१३ ॥
गुंजा सुंगधि का कनक बीज चूर्ण हि कृति तिल तैले:, उध्दु षितानि भाजनविवरेण नंग शस्त्राणि ॥ ३१४ ॥
किसी अच्छे दिन स्वयं मृता अपने आप मरे हुए अहि मुख सर्प के मुंह में क्रमुक फल (सुपारी)
डालकर, उसको किसी गोबर से लिपी हुयी एकांत और उत्तम स्थान में रखे | उसको तीन दिन बाद こちとらわすね १०५७/5/
Pa
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S5DISTRISTOISTR505 विधानुशासन 9851015015251955015 निकाल कर उसको धतूरे के फल की पुट में रख कर गिरि कर्णिका (कोयल) इंद्रवारुणी (इंद्रायण) अनल (अग्निक) हलिनी (लांगली) के अंगों के चूर्ण में आक का दूध और कुत्ती का दूध और अपना मूत्र की भावना दें।फिर कुलिक के उदय होने पर शनिश्चर वार को धतूरे की और छाणे की आग में गुंजा (चिरमी) सुंगधिका) (नगदबावत्री) धतूरे के बीज का चूर्ण सर्प की कांचली को तिली के तेल में मिलाकर उत्तम बर्तन में रखें तो यह सब काम देव के शस्त्र हैं।
गो वंधिनीनं वारुण्यनी धर कर्णिका सुंगिधिनी, रवर कर्णन्टो तेषां चूर्णः सह पूग सकलानि ॥३१५॥
उन्मत्तक मांड गतान्यात्म स्व मूत्रेण रक्त करवीर, द्रवरास भिक्षुनी कुच पासा भाव्यानि तानि पृथक
॥३१६ ॥
उन्मत्र बीज गंजा सुगंधिका का सर्पकतितिलतैल,
कनके धनानि संधूपितानि कुसुमास्त्र शस्त्राणि ॥३१७॥ गो वंदिनी (फूल प्रियंगु) इंद्र वारूणी (इंद्रायण, अवनिधर पर्यत फूल छाइछडीला पर्वतफल) कर्णिका (कनेर) सुंगधिनी (नगद लाननी) खर कर्ण के पूर्ण और सुपारी के टुकड़ो को उन्मत्तक धतूरे) के बर्तन में रखकर, अलग अलग अपने मूत्र में लाल कनेर के रस गधी का दूध और कुत्ती के दूध की भावना देकर, धतूरे के बीज गुंजा सुगंधी का सर्प कांचली तिल का तेल और धतूरे की ईंधन (अग्नि) में डालकर घूप देने से काम देव के अस्त्र शस्त्र के समान काम करती है।
कनकेंद्र वारुणी नाग सर्पि पाताल गरुडि रूद्र जटा, चूर्णा तानि क्रमुक फलान्यात्म मलौ विपुल कनक फलैः॥३१८॥
संभाव्य शनी दुग्ध युतानि तद धूप धूपतानि,
पुनः जैञा स्त्राणि मनोजस्येत्युक्त मंत्र विदो बरै: ॥३१९॥ धतूरा इंद्रायण नाग केशर घृत पाताल गारूड़े (संपाक्षि) गंधाना कुली) रूद्र जटा (जरामासी) और क्रमुक फल (सुपारी) के चूर्ण में अपने पांचो मल मिलाकर उनको धतूरे की तख्ती पर रखे फिर उसके कुत्ती के दूध में भावना देकर उसकी धूप करने से यह कामदेव के विजयी बाण बनते हैं। ऐसा मंत्र शास्त्र बेत्ताओं ने कहा है।
कनकेंद्र वारुणी स्वर कर्णि गिरि कर्णिका त्रि संध्यानां, स्फोटन लज्जारिकाणां द्विज दंडीनां बहुवटिका ||३२० ॥
माडे निधाय तस्मिन पथक पृथक लवण सर्षप श्रृंठी, धान्या-जमोद चूर्णे हरीतकी क्रमुक पिघलाः भाव्या ॥३२१ ॥
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SSORSTPISODRISO150 विरानुशासन BASICSIRISTRIERSIOTE
स्वमलैः सम्टाक तद् धूपैद्धिपितानि पथक,
दशकारिकाभिधाना सकल जगहश्यकारिण्टा: ॥३२२ ।। धतूरा इंद्रायण स्वर कर्णिका का कोयल त्रिसंध्यं (त्रिसंधि पुष्प) स्फोटन (भिलावा) लजालु द्विजदंडी (ब्रह्म इंडी की बहुत सी गोलियां बनाये। इसको बर्तन में रखकर उसमें पृथक पृथक नमक सरसों , सूंठ (धान्य अजमोद का चूर्ण हरड़े क्रमुक सुपारी और पीपल डालकर भावना देवे। फिर इनको पृथक पृथक अपने मलो की भावना देकर इसको जगत को वश में करने वाली दस कारिका नाम की धूप बनती है।
॥३२३॥
ॐ नमो भगवते सूर्य कर्णायः ॥
त्रिगुणित सहश्र रूप प्रजाप्यतो गज मुरवस्य मंत्रोयं, होम च दशांशांत विहितात् सिद्धि मुपयाति । निज चरणां गुण्टाभ्यां विमर्द्धनं श्रवण मूलयो, कुटति करिणः प्रजपन्नेनं ततो भवेत् कुंजर्रा वश्या
॥३२४ ।।
यह गणेश का मंत्र तीन हजार जपने से और दशांश हवन से सिद्ध होता हैं। इस मंत्र को जपते हुये अपने पैर के अंगूठे से हाथी के कानों की जड़ को मलने से हाथी वश में आ जाता है।
ॐ गया मयेन यज्ञेन येन राष्ट कृतुःपुराआनंत्यो देव देवस्य वचनानि पशोः स्मरः स्वाहा
एतेन सप्त वरान्मंत्रेण कृताभि मंत्रणत स्वाहा।
भुक्त्वा भवति तणादीन वश्या गौ गतिनिः निषूदनः ॥३२५ ॥ इस मंत्र से सात बार मंत्रित तिनके आदि के खाने से अत्यंत मारने वाली गाय भी वश में होती
ॐ नमो भगवते विष्णव पशूनां पतये ठाठः
त्रिसहश्र जप्यासिद्धं जपन्नमुंघाणपुट मुपादाय अंगष्ट तर्जनीभ्यां गोन्मोत्सा भवेद्वश्या
॥३२६॥
एवं विषं विधानं विदधीत जपादम मंत्रस्य अश्वादिष्वापि शिक्षा विमुरवेषु भवंति ते वश्याः
॥३२७॥ इस मंत्र की तीन हजार जप से सिद्ध करके इसको जपने से अंगूठे और तर्जनी से नाक की पुट को पकड़ने से गोनमी भूत होकर वश में हो जाती है। इस मंत्र के जप से यदि विधान अशिक्षित घोड़ों आदि को भी वश में करे, तो वे वश में हो जाते हैं।
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DICTDPISIRISTOTSIS विद्यानुशासन PSIRISTORSCISIOISSIS
यो मंत्रयति गोर्यस्याऽनासिका विवरांतरे यावज्जीवं भवत्येवसा तस्य वश वर्तिनी
॥३२९॥ इस मंत्र से जो कोई भी गाय की नाक के छेद में मंत्र जपता है। वह गौ जन्मभर तक उसके वश में रहती है।
बचा सिद्धार्थ मरिच कुष्ट क्रमिजिद्दज़ुकैः छाग मूत्रेण संपिष्टै गौवन्याक्त द्रग्भवेत्
॥३३०॥ बच सफेद सरसों काली मिर्च कठ कृमिजित (अगर) और अर्जु क (बावची) को बकरी के मूत्र में पीसकर आंखो में लगाने से गौ वश में हो जाती है।
विशेष प्रयोगश्च लिस्टयते इति कथिते वश्य विधौ सवों, मंत्रश्च सर्वयंत्रश्च स्थावर जीवांग कृतं तंत्रं चाहु शुभानि बुधाः॥
यद शुचिभिश्च जीवांगौ वाच्यां मिश्रमन्न भक्षाद्यां तंत्रं कथितं गुरवास्तदा मनत्य शभु देशीयं, मंत्री श्रुभ प्रयुज्यादि हो क्तया वश्यायाः।।
शुभा शुभटो नैवा शुभं प्रयुज्यगत् कुर्याद् अभंनदिग्मात्रं, विन्मूत्रार्तव कुक्षिजंतु मधुभिः श्वादिष्ट रवणादिक प्राणय गैरिवी मिश्रती उषध गमाद ।।।
दुर्वण्य तंत्रेषु सज्जनः स्वव्रत शील शौच करूणा मेधा जुगुप्सा च्युतविभ्याः कुत्सित वश्यं तंत्र निरतं वश्याजनं न स्पृशेत् ॥
इति वश्य विधानं द्वाविंश समुहे. इस प्रकार वश्य विधान में सब मंत्र यंत्र में स्थावर जीवों के अंग से बने हुये तंत्रों का वर्णन किया गया है उनको पंडित ने अच्छा कहा है। किन्तु जो चर जीवों के अंगों से मिलाकर खाने आदि तंत्रों का वर्णन किया गया है, उसको गुरूओं ने अशुभ कहा है। मंत्री को चाहिये कि यह इनमें से केवल शुभ तंत्रों ही का प्रयोग करे अशुभ का कभी भी प्रयोग नहीं करे। व्रत, शील, शौच दया और बुद्धि से युक्त जैन पुरुषों को चाहिये कि वह घृणा सहित विष्टा मूत्र ऋतुधर्म के रज को खंजतु शहद कुत्ते सर्प वंगर (रगधातु) और प्राणियों के अंगो से मिली जुली औषध वाले निंदित वश्य तंत्रों और वश्य अंजेनों को धर्म से डरता हुआ कभी न करे ।
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SSOCISTRICICIDIOE विद्यानुशासन LISTORICKSTORICKISIST
| आकर्षण विधान
अथातो वक्ष्यते सिद्भर्मत्रयंत्रैश्च योषितां, आकर्षणं यथा चाों रूपदिष्टं पुरातनैः
॥१॥ अब सिद्ध मंत्र और यंत्रों से (योषितां) स्त्रियों के आकर्षण का वर्णन प्राचीन आचार्यो के उपदेश के अनुसार किया जाएगा।
देवादिरादौतदनु श्री बीजं त्रिशरीरकं स्मरबीजैः, उभे माया श्री भेवदष्ट में कूशे:
॥२॥ ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ह्रीं श्रीं क्रों अयमष्टाक्षर कामदेव मंत्रः प्रसिद्धयति एष लक्ष प्रजायाधैराकर्षयति योषितः ॥ आदि में देय (5) फिर श्री (दीज) फिर त्रिशारीरकं (ही) स्मर बीज (क्ली) माया (ह्रीं) श्री और आठवां अकुंश बीज (क्रो)- यह आठ अक्षरों वाला कामदेव मंत्र एक लाख जप आदि से सिद्ध होकर स्त्रियों को विशेष रूप से आकर्षित करता है।
नर: स बिंदु प्रथमं यामस्तुदतु स्तादशः, ततो बीजं त्रिमूरिव्यं स्तं वेर मवशी कतिः सांगो लक्ष जपात्सिद्धो मंत्रो गौर्याधि देवतः सर्व सिद्रिं ददात्येष: स्त्री नराकर्षणादिकं
॥४॥ बिन्दु सहित यर (ह) वाम (ॐ) फिर यह त्रिमूर्ति (ही) नाम का बीज यह वर्ण करण करते हैं। यह गौरी देवी का मंत्र अंग सहित एक लाख जपने से सिद्ध होता है तथा स्त्रियों के आकर्षण आदि की सब सिद्धियाँ देता है।
ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हं: अस्त्राय फट अंगाणि, षद्कोणेषुच विनयं मध्टो यूं नाम संयुतं, लेख्यं वाह्य स्वर हंकारं तदान वयाक्षरै वेष्टयं कुकुंम गोरोचनया तांबूल रसेन ताम्रमय पत्रो, परिलिरव्य दीप दहनादीप्सित नारी समानयति
॥६॥ षटकोण घर के छहों कोणों में विनय () लिखकर उसके बीच में नाम सहित यूं लिखे । उसके बाहर स्वर और हकार लिखकर उसको गजवश करण अक्षर क्रों से वेष्टित करे। इस यंत्र को तांबे के पत्रपर केसर गोरोचन और तांबल केरस से लिखकर दीपक पर तपाने से डच्छित स्त्री का आकर्षण करता है। CROSEXSTOSTERIOSISTER०६१PISIRIDIOSSIPISEXSTRETCIEN
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SAMRIDDISTRIOTRIOTE विधानुशासन P505CTRICISISTERIES
यूँ बीजं लिरव वह्नि संपुट पुरेषट्कोण मध्ये तथा नाम्ना सांतरित विलिरव्यं यपरं पिंड समंतादहि: कृत्वा मृतिकया चतुष्पथ प द्वारादि संभूतया स्त्री रुपं पर भूजक विलिस्तितं यंत्रं हदि स्थाटत
॥७॥
त्रिकोण कुंडोपरितां विवर्तयेत तिलाज्य धान्यैः, लवणाज्य दुग्धौः खदिराग्नि मध्येजुहुयात् त्रिरात्रं स्व वांछिता मानयतीह नारी।
॥८॥ अग्नि मंडल के संपुट के छहों कोण में यूं बीज लिखकर, मध्य में भी इसी बीज को नाम सहित लिखे। फिर चारों तरफ यपर पिंड यूं से वेष्टित करे। फिर वांछित स्त्री के रूप को (मूर्ति) को चतुष्पथ (चौराहे) या नृप द्वारा (राज द्वार) की मिट्टी से बनाकर और इस यंत्र को भोजपत्र पर लिखकर उस मूर्ति के हृदय में रख दे। फिर तीन रात तक त्रिकोण होम कुंड में तिल आज्य (घृत) धान्य नमक और दूध की खादिर (खेर) वृक्ष की अग्नि में आहूतियाँ देकर होम करे , और उस कुंड पर उस मूर्ति को घुमावे तो अपनी इच्छित स्त्री का आकर्षण होता है।
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करोतु नाम ग्रहणेन होमं संध्यासु तद्रोह मुखोपविष्टः
॥ ९ ॥
ह्रीं ह्रूं ह इन पांच बीजों को आदि में हैं और अंत में संवौषट् लगाकर स्त्री का नाम लगाकर संध्या के समय उसके घर की तरफ मुख किये हुये बैठकर होम करे ।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः अमुकं आकर्षय आकर्षय संवोषट् मीतं नाम तं द्विरेफ सहितं बाये कला वेष्टितं, तद्वाह्येऽग्नि मुरत्पुरं विलिखितं तांबूल पत्रोदरे,
॥ १० ॥
लेखिन्या पर पुष्ट कंटकतु चार्क क्षीर राजी प्लुत तप्तदीप शिखाग्नि त्रिदिवसेरंभा मपिहानयेत्
॥ ११ ॥
नाम सहित मांत (य) को दो रेफ (र) सहित करके उसके बाहर कला (१६) स्वर वेष्टित करे उसके बाहर अग्निमंडल और मुरत्पुर (वायुमंडल) बनावे, इसे तांबूल पत्र पर आक के दूध और राई के तैल से, पुष्टि असंगध के कांटे (कलम) से लिखकर यदि तीन दिन तर क्षपक की शिखा की अग्नि पर तपावेतो रंभा (अप्सरा ) को भी खींच लावे |
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॥१२॥
पुरहिरण्य रेतसा विलिव्य तद्वहिः पुनः करोतु. मंत्र वेष्टितं ततो अग्निवायुमंडलं
॥ १२॥
SERIDIODIOSPISOISISTER०६४ PASRIDESOSDISTORIES
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9595952952575 विद्यानुशासन 9595959/SPSPS
ॐ आं कों ह्रीं अंबे अंबाले अंबिके यक्ष देवि यूं ब्लूं ह्स्क्ली ब्लूं ह्सौ रः रः रः रः रां रां नित्यक्लिन्ये मद द्रवे मदनातुरे ह्रीं क्रों अमुकीं मम वश्या कृष्टिं कुरू कुरू संवोषट् ।
तत्तांबूल रसेन कनक रस ब्रह्मादिभि, संयुक्त प्रेता वासा खप्परप्रति मापत्रे अथवा अंगारैः खदिरोद्रवेः प्रतिदिनं संध्यासु. संतापद्येत्सप्तो वनितां मनोभिलषिता मंत्रा छटाद्दानयेत् ॥ १३ ॥
दो रेफ सहित दो मांत (य) को छटे स्वर (ॐ) और चौदहवें स्वर (औ) और विन्दु (अनुस्वार) सहित लिखकर उसके बाहर तीन अग्नि मंडल लिखे, उसके अंदर पाश (आं) त्रिमूर्ति) ह्रीं) और गजवश कर अक्षर (क्रौं) से वेष्टित करे। अग्निमंडल) (हिरण्यरेतस) के पश्चात् मंत्र से वेष्टित करे फिर अग्निमंडल और वायुमंडल बनावे | इस यंत्र को तांबूल (पान) के रस से धतूरे के रस से ब्रह्म (पलाश) के रस से श्मशान के या खपर ताम्रपत्र पर लिखकर प्रतिदिन संध्या के समय खदिर (खेर) के अंगारो (कोयले) पर तपाने से इच्छित स्त्री का एक सप्ताह के अंदर आकर्षण होता है ।
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C5215015251525 विद्यानुशासन ASTRISTRISIODOISSIST
मातं रेफ वटा षट् चतुर्दश कलान्वितं विंदु वह्नि । पुरस्यांतरं चिलिरवेत् पाशांकुश माये
गज वृषभदंत सरिटुभय नीर वल्मीक चकी कर मत्सना । कृत्वा वनितांग मलैः स्त्री रूपं सिक्ये क्तेन समं ॥४॥
सुरभि द्रव्यै भूज्ज विलिरब्यं तानिक्षेपे चतत हृदये। शिरिव कुंडाज्य स्त्वेक तस्योपरि वंध्टोदेक
सिद्धालयस्थ रखर्पर युग्मे प्रविलिव्य नाम युत यंत्रं कुडस्थ रूपपार्क स्थितये संस्थापये त्पश्चात्
बहुभि धान्यः राय लवण तापजाम पुतैः । पात्रै ष्टिाकृष्टिंक्षी मंत्रेण वाद्वन्यात्
॥७॥
ॐआं क्रों ही अंबालिके यक्ष देवी यूँ ब्लें ही ब्लें ही ब्लें ररररां रां नित्यों दिलने मद द्रवे मनातुरे अमुकी माकर्षट माकर्षय ह्रीं संयौषट् ।
दो रेफ (र) संहित छठी और चौदहवी कला(ॐ) औ तथा बिन्दु (अनुस्वार) सहित दो मांत (दो य) लिखकर अग्नि मंडल के पश्चात पाश (आं) अंकुश (क्रो) माया (ह्रीं) को लिखे हायी दांत, बेल के दांत, नदी के दोनों किनारे की मिट्टी वल्मीकि (सर्प की बांबी) चक्रकर (कुम्हार) के हाथ की मृत्सना (मिट्टी) और स्त्री के अंग के मलों औकर स्किथक (भोम) से स्त्री का रूप सब बराबर लेकर बनावे । इस यंत्र को सुगंधित द्रव्यों से भोजपत्र पर लिखकर एक यंत्र उसके हृदय एक अग्नि कुंड के नीचे और एक उस मूर्ति के ऊपर बांध दें। सिद्धालय (श्मशान) में पड़े हुए खपरों जाम सहित यंत्रों को लिखकर होमकुंड के दोनों पार्श्व (बगल ) तरफ में इनकी स्थापना कर देवे। बहुत से धान्य सरसों नमक और घत का अपने नाम सहित यक्षी मंत्र से होम करे तो अपनी स्त्री इच्छित का आकर्षण होता है।
SEISTRISTRISTOTSTRISTOR०६६ PISTRISTOTHRASIC505051
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॥ १४ ॥
इष्टांगनाकर्षण माहुरार्ध्या धत्तूर तांबूल विषादि लेख्यं
यंत्र पेट खर ताम्र पत्रेदिनत्रये दीपशिखाग्नितप्तं आकृष्टिमिष्ट प्रमादाजनानां करोति यंत्रं खदिराग्नि तप्तं । एक मंडल के बीच में ग्रौं बीज नाम सहित लिखकर, उसके बाहर सोलह स्वर लिखे। फिर उसके Sest 1955६१०६७
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चारों तरफ एक के ऊपर एक इस क्रम से त्रिभुज के रूप में पांच अग्निमंडल बनावे। जिनमें बीज (रं) लिखा हुआ हो। उसमें से प्रथम मंडल के तीनों कोणों में क्रों दूसरे तीनों कोणों में ह्रीं बीज लिखें । तीसरे तीनों कोणों में फिर चौथे कोणों में ह्रक्लीं और पाँचवें तीनों कोनों में ब्लू बीज लिखे और ह्सौं बीज भी लिखे। इसके बाहर अंबिका मंत्र लिखे। इसके बाहर अग्नि मंडल और मरुत (वायु) मंडल लिखे। इस यंत्र को ताम्र पत्र पर कपड़े पर या खर्पर पर धतुर पात्र के रस और अंगों विष आदि से लिखे तथा में अमुकी के स्थान में उस स्त्री का नाम लिखे। इसे सार दिन तक दीपक की शिखा की अग्नि पर तपाये जाने से इच्छित स्त्री का आकर्षण करता है ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है।
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ह्रीं वदने टोन्यां डले ह्रीं हस्की कंठ स्मराक्षरं नाभौ हृदो द्विरेफ सहितं ह्रौंकार नाम संयुक्त नाभि तले ब्लंकारं वेदादि मस्तकेच संविलिरिवत् ॥२४॥
मस्तके च स्कंध मणिबंध कपर धवेषु तत्वं प्रयोक्ताया हस्ते तले कारं च संधिषुशारवाषु रोषुक्तरिफं त्रिपुटित वहि पुर त्रयं मथ तद्वाह्य प्रेदसस्थं कोष्टेषुभुवननाथ कोष्टा ग्रांतर निर्विष्टमंऽकुशं बीजं थालयं पदमावत्या मंत्रेण करोतुद्वाद्ये ॥२५॥
ॐ हीं है हकली पदम पदम काटिनी अमुकीमार्कषय माकर्षय मम वश्या कृष्टिं कुरू कुरू संयोषट्।
अंकुश रूद्ध कुति तहाइट माराया निधा दोशनं । यावक मलयज चंदन काशमीराधे रीहे विलिरिवत् ॥२६॥
वस्त्रं रजस्वलायाः वादिरांगारेण तापयेत्,
धीमान् कुरुतेभिलिरिवत वनिताकृष्टिं सप्ताह मध्येन ॥२७॥ एक चित्र अपनी इच्छित स्त्री बनाकर उसके मुख में ही योनि में ब्लें कंठ में ह्स्क्लीं नाभि में क्लीं हृदय में ही और स्त्री का नाम लिखें। नाभि के नीचे ब्लू मस्तक और सिर में ॐ लिखे , कंधे कलाई कोहनी कनपटी और पैरों में ह्रीं बीज लिखे।हथेली में यूँ हाथ, पांवो के जोड़ अंगुलियों और शेष अंगों में रं लिखे । उसके चारों तरफ तीन वाह्नि पुर (अग्नि मंडल) उस पुतली के बाह्य प्रदेश में बनाये।अग्निमंजल के बाहर ही कार का मंडल बनाकर क्रों से निरोध करें। इसके बाहर पद्मावती मंत्र से वेष्टित करे । यात्रक (अलक्तक) धंदन लाल चंदन केसर इत्यादि सुगंधित द्रव्यों से रजस्वला स्त्री के वस्त्र पर लिखकर पैर के कोयलों पर बुद्धिमान तपावे तो इच्छित स्त्री सात दिन में आकर्षित होवे।
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95015015TOISTRI5215 विधाबुशासन 52505PISOIDESI
रविदुग्धादि विलिते युवति कपालेथवा लिरवेयंत्रं
पुरुषो कृष्टौ च पुनन्नकपाले यंत्र में बंद ॥२८॥ अथवा इस यंत्र को आक के दूध आदि से लिपे हुए किसी स्त्री के कापल पर अथवा पुरुष आकर्षण के लिए इस यंत्र को पुरुष कपाल पर लिख्ने ।
चिंतोद्भवनाधिपं मदनाऽधिपस्य तेरारूपरि पार्श्वयो रूभयोस्तव थैवला पिंड मारूण सन्निभं वभ्रमीति कुलाल चक व दपराति सु मंदिरेक्षिप्त मेति सुरांगनापि सुरेन्द्र पत्तन मध्यमात
॥२९॥ मदनाधिप (क्ली) के तुर (वृक्ष) पर भुवनाधिपं (हीं ) दोनों पार्श्व में लाल कांति वाले तथा शुत्रुओं के मंदिर में कुमार के चक्र के समान समते हुवे एवलपिंड (न्ने का ध्यान करने में इन्द्र के नगर में से देवांगना भी शीघ्र से आ जाती है।
ॐ हीं हत्कमले गजेन्द्र वशगं संवार्ग संधि ष्वपि माया मा विलिख्यते कुच द्वितय के योनि देशे तथा क्रों कारैः परिवेष्टय मंत्र वलयं ।।
दद्यात् ततो अग्नेः पुरस्ताद्वाहस्टो जिलमूपुरं त्रिदिवसा दीपारिनना कर्षण
॥ २९॥
ॐ नमो भगवति कष्ण मातंगिनी शिला वल्कल कुशम धारिणी किरात् शवरी
सर्वजनमनोहरी सर्वजन वंशकरी ह्रां ह्रीं हू हौं ह: अमुकीं माकर्षय
माकर्षय मम वश्या कृष्टि कुरू कुरू संवोषट्। एक ताम्र पत्र पर अपनी इष्ट स्त्री का चित्र ऊपर को पैर और नीचे को सिर करके बनाये। उसके हृदय कमल में ॐ ह्रीं, एंग के सब जोड़ो में क्रों, दोनों कुचों में हीं, और योनि प्रदेष में यूं लिखकर उसके चारों तरफ क्रों बीज लिखकर, त्रिभुजयावर्त (अग्नि मंडल) बनावे। उसमें उपरोक्त मंत्र लिखकर फिर एक अनिल (वायु मंडलः और एक भूमंडल बनाये जिनमें से प्रथम रं बीज वाला वायु मंडल और तीसरा लं बीजवाला पृथ्वी मंडल होगा तीन दिन तक दीपक की शिखा को अग्नि पर तपावे तो इच्छित स्त्री का आकर्षण होता है।
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यंत्रे स्त्री रूप मालिव्य मूर्द्धपाद मधः
शिर ब्रह्मादि राजिका पभान दग्धनं लेषयेत् इस यंत्र को ऊपर पैर नीचे सिर वाली स्त्री का चित्र पलाश (ब्रह्मा ) और राजिका (राई) का घर का घूमसा और आकड़े के दूध से लिखें।
वशीकरण यंत्र अग्निपुर कोष्ट मध्ये कलावृत्तं भुवननाथ मुकशरुद्धं, कोष्टेषु प्रणयमं कुश रुद्रं माया रति नाथ रर र पश्च ॥३०॥
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OSDISTO51015015105 विधानुशासन 9851015015015015050
कृष्णश्चनकस्य जंया शल्टो प्रविलिरव्य चूर्ण रक्तेन।। रखदिरागारे तप्तं सप्ताहादानयत्यं बलां ॥३१॥ अथवा रजस्वलायाः वस्त्रे संलिख्यं जलज नागन्याः
पुच्छं विधाय वर्ति तहापाजानयत्य बला ॥३२॥ ॐको ही क्ली र रः अमुकी माकर्षय आकर्षय घे घे मम वश्या कृष्टिं कूरू कुरू संवोषट् ॥
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ह्रीं कार मध्ये प्रविलिख्य नाम षटकोण चक्रम, वहिरात्ति लेस्टयं कोणेषु तत्वं त्रिषु चोळू कोण द्वये पुनः टू मघरे लिखे च्च । पाशा कुंशो कोण शिरवां तरस्ती मंत्रोवृती
वायु पुरंच वाद्ये । आकृष्टिमिष्ट प्रमदाजनानां करोतियंत्र रवदिरानि तप्तं ॥३३ ।। ॐ ह्रीं हस्क्लीं हंसो आंकों नित्ये क्लिन्ने मद दवे मदनातुरे अमुकीमाकर्षय मम वश्या कृष्टिं कुरू कुरू संवौषट् ।
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तलवे ताम्रपत्रे वा श्मशानो द्रवखंपरे, तदंग मल धत्तूर विषांगाराय लेपयेत्
॥ ३४ ॥ । ह्रीं के बीच में स्त्री का नाम लिखकर उसके बाहर षटकोण बनावे उसके ऊपर त्रिभुज के कोणों में ही ऊपर के दो कोण में खूं और नीचे ॐ लिखे। उसके प्रत्येक कोण के ऊपर आं क्रों लिखे और इन सबको उपरोक्त मंत्र से घेर दें। उसके बाहर वायुमंडल बनावे यह यंत्र खेर की अग्नि से तपाया जाने पर स्त्रियों का आकर्षण करता है ।
ॐ ह्रीं हसली सौ आं क्रों यूं नित्ये क्लिन्ने मद द्रवे मदनातुरे अमुकी माकर्षय आकर्षय मम वश्या कृष्टिं कुरू कुरू संवोष्ट - ॥
यह यंत्र ताम्रपत्र पर या श्मशान के खर्पर पर स्त्री के अंग के मल धतूरा ऋगी विष और अंगार से लिया जाना चाहिए।
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नाम तत्त्व विगर्भितं वहिरालिरखेतत्
शिविमंंडले रेफ मंत्र वृतंश्मशान जखर्परे विलिखेदिदं तापयेत् 959595959१०७४ 5959596959
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PSPSPSPSS विद्यानुशासन
खदिराग्निना हिम कुकुमादिभिरादरादनवत्य बलां चलात् दिन मद विवा
सप्तके
ॐ नमो भगवत चंड काव्यनि सुभगे युवति जनानामाकर्षय आक्रों ह्रीं ह्युं फट् देवदत्ताया हृदयं घे देव के पति लिखकर उसके बाहर आग्नि मंडल बनाये फिर उसको रेकार और मंत्र से वेष्टित करे। इस मंत्र को श्मसान के खर्पर पर कपूर केशर आदि सुगंधित द्रव्यों से लिखकर यदि खादिर (रेवर) की आग पर तपाये तो वह सात दिन के भीतर बहुत आदर से मद से विह्वल होकर स्त्री खींची आती है।
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भानुपत्रे कृता साध्य रूपा कृति वह्नि बीज द्वयेनावृतं, संपुटं वाम दिग दक्षिणे कूटजं सुंदरं पंचभिः
कोण देश स्थिरं सुंदरं कामराजेन गात्रे हृदि ग्रंथित मंधि युग्म स्थितं मारुतं चोचते सन्ति तं वोरू हृत कंठे देश स्थितं वारि बीजं सरे जीव रक्षा कर: खदिरांगार तप्तं कृतं भूतले वश्य माकर्षण भाषितं बुधजनैः ॥ ३६ ॥
एक भानु (आक के पत्ते) पर साध्य का सुंदर रूप बनावे उसके बाईं तरफ दो अग्नि बीज (रं ₹) और दाहिनी तरफ सुंदर पांच कूठाक्षर (क्षां क्षीं क्षं क्षौ दक्षः) कौने में बनावे उसके हृदय और शरीर के जोड़ों में काम राज (क्लीं) लिखकर दोनों पैरों में वायु बीज यं लिखे उसकी जांघो हृदय और
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O5PSPSPS
विद्यानुशासन 975969595951915
कंठ में वारि बीज (वं) लिखे उसको रेवर के अंगारो में तपाये जाने से पृथ्वी में हृदय और आकर्षण
होता है।
ह्री मध्ये स्थित नाम दिक्षु विलिवंत कों तद्वि दिश्वाप्यज बाहय्ये स्वास्तिक लांछितं शिरिख पुर रैफै वहिश्चावृतं तद्वा ग्रिपुरं त्रिमूर्ति वलयं वहे पुरं पावनै पिंडै: वैष्टित मग्नि मंडल मंत स्ते द्वेष्टितं चाकुं शैः ॥ ३७ ॥
वाह्य पावक (अग्रि मंडल) वलयितं मंत्रेण देव्या स्ततो वायुना त्रितयेन वेष्टितमिदं यंत्रं जगत्युत्तमं । श्री खंडागुरु कुकुमाद महिषी कपूर गोरोचना कस्तूरादिभिः रूंध भूर्ज लिखितं कुर्यात् सदाकर्षणं
॥ ३८ ॥
ॐ ह्रीं रेफ चतुष्टयं शिविमति वाणननक्तः पिडं संभूतं, तद् बमु पंचंक ज्वलयुगं तत्प्रज्वल प्रज्वल हूं युग्मंधण युग्मधूं युगलकं धूमांध कारिण्यतः शिघ्रद्वेहरा मुकं वशं कुरु वषट् ॥ देव्या सु मंत्र स्फूट
ॐ ह्री र र र ज्वालाममालिनी ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं ह्ल्यू ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः ज्वल प्रज्वलं प्रज्वल हूं हूँ धन धन यूं धूं धूमांद कारिणी शीघ्र एहि एहि अमुकं वश्यं कूर करू वषट् ॥ देव्या मंत्र संपुट उदीची मंत्र
ह्रीं के बीच में स्थित नाम की दिशावों में क्रों और विदिशाओं में अज (ॐ) लिखे। बाहर स्वास्तिक के चिन्ह याला अनि कामंडल बनाकर रेफ (र) से वेष्टित करे, फिर एक दूसरे अग्निमंडल के बार (त्रिमूर्ति) ही का वलय देकर अग्निमंडल बनावे, फिर उसके बाहर वायु (पवन मंडल के पिड़ो से वेष्टित करके अग्नि मंडल बनावे और उसको अंकुश क्रों से वेष्टित करे ।
उसके बाहर गोलाकार में अग्रि मंडल बनाकर उसको देवि के मंत्र से वेष्टित करे । इस यंत्र को श्रा खंड अगर कपूर केशर महिषी (औषध) गोरोचन और कस्तूरी आदि से भोजपत्र पर लिखने से यह सदा ही आकर्षण करता है। ॐ ह्रीं चार रेफ (२) (शिखिमति (ज्याला मालिनी) उसके पास पांच बाण ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रांद्री और अनल पिंड़ (अग्निपिंड़ हम्ल्यू) उसके पांच बीजाक्षर हाँ ह्रीं हूं ह्रौं हः ज्वल प्रज्वल हूं हूं धग धग धूं धूं घूमांध कारिणी फिर शीघ्र दो बार एहि एहि अमुकं वशं कुरू
कुरू वषट् ।
यह देविका मंत्र सम्पुट करने का मंत्र है।
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लाक्षायाश्रुं सुसिद्द मृप्तति कुंति कृत्वा हृदि तयो यंत्र स्थापयनाम वर्ण सहितं लाक्षां प्रपूर्यो दरे भीत्वा योनि ललाटद्दत्सपुर पुष्टारव्य सत्कंटकैः
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॥ ३९ ॥
रै कां बुश तलै पूर्वस्य न्यस्य च पशं वन्हाग्रि कुंड़ो परि लाक्षा गुग्गुल राज का तिल घृतै पत्रस्थ नामान्वितैः संयुक्तैः लवणेन तत्समृति युतः संध्या सुसाष्टं शतं ॥ ३८ ॥ 25252525252525; -0.45952525252525
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CASTOTOSHDOORD5 विद्यानुशासन PSPIRIORSRISIRISE
मंत्रणानल दैवतस्य जुहुया द्रा सप्त रात्रावध
रिंद्राणी मपि चानयेत् क्षिति गत स्त्रिया कर्षणे का कथा लाख और सिद्ध मिट्टी से स्त्री की द्रौप्रति कृति (पुतली) बनाकर, उसके हृदय में नाम के अक्षरों सहित यंत्र की स्थापना करे। उसके उदर (पेट) में लाख भर देवे- फिर उस मूर्ति की योनि,मस्तक और हृदय को पुर पुष्ट के कांटे से बींधकर एक को अम्बु (जल) में रख देवें और दूसरी को अग्नि के होम कुंड में रख देवें । फिर सायंकाल के समय लाख , गूगल, राई काले तिल, घृत और नाम लिखे हुये पत्ते तथा नमक की उस स्त्री के नाम को याद करते हुए अनिल देवता (ज्वालामालिनी) देवी के मंत्र से एक सौ आठ आहूतियां देवे । यदि अनिल (ज्वालामालिनी) देवी के मंत्र में सात रात्रि की अवधि तक होम करे तो इद्राणी को भी पृथ्वी पर खींच कर ला सकता है। फिर भला भूमि पर रहने वाली स्त्री के आकर्षण की क्या बात है।
आलक्यं सट भागा स्तन्या कां गारमर्पितं
नामानौ पथते यस्याः साकर्षे ताम गना क्षणात्॥ जिस नाम के अलर्य (सफेद आक) के दूध से बायें हाथ से लिखकर (स्तन्यक)दूध सहित अंगारों पर तपाया जाता है यह स्त्री उसी क्षण खींची चली जाती है।
गुरू प्रसादादधिगम्य सर्वमाकृष्टि तंत्रं बहुशोप्युपाया एतद विद्यातुं इहो उद्यतः
स्यात् तस्यांगना कर्षेण कर्मठत्वं || गुरु की कृपा से जाने हुवे बहुत से उपाय वाले आकर्षण यंत्र जान कर जो इससे बतलाये हुए उपायों को करने के लिए उद्यत होता है वह स्त्रियों के आकर्षण में (चतुर) कर्मठ होता है।
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CISIODRISTOTRICISTRICIPIER०७८PISTOTRICIRCISTRISTRITESH
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STRIS5I0505015 विद्यानुशासन READISSISTRIDICISION
ॐ नमः श्री पार्श्वनाथाय: नमः |
अतः परं प्रवक्ष्यामि विधानं नार्म कर्मणः, यत्प्रयोगस्य लोकस्य विस्मयो जायते महान्ः
॥१॥ अब नर्मन (हंसी खेल) के कर्म के उस विधान का वर्णन किया जावेगा जिसका प्रयोग करने से लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है।
आदौ बलि शब्द युगं महाबली त्यनु ततोरिन जायाते त्रि सहस्त्र जपात् सिद्भेत मंत्रोयं क्षेत्रपालस्ट
॥२॥ ॐ बलि चलि महाबलि महाबलि स्वाहा आदि में दो बार बली फिर महाबली और अंत में अनि जाया (स्वाहा) रूप क्षेत्रपाल का मंत्र तीन हजार बार जप से सिद्ध होता है।
मत्तस्य सारमेटास्यां ख्यानात्कृत जपं गहादीनां,,
द्वार्देश संवेशित मा शुभवेत ताल विवरण कृत ॥३॥ इस मंत्र को पागल कुत्ते के नाम से जपकर के घर आदि के द्वार में संवेश (सोने) से शीघ्र ही (ताल) विविरणकिसी के आने पर शब्द होता है।
भ्रमि युगलं केशि भूमि माते भ्रमिवि भमं
चमुह्य पदं मोहय पूर्व स्वाहा मंत्र्यो प्रणवपूर्व गतः ॥४॥ ॐ भ्रमि भ्रमि केशि भ्रमि माते भ्रमि विभ्रमं मुहह्य मोहय स्वाहा दो बार भमि केशि भमि माते विभम मोहय मोहय स्वाहा। दो बार धमि केशि भ्रमिममाते विभमं मुहय पद मोहय और स्वाहा यदि आदि में प्रणव ॐ युक्त मंत्र है।
एतेने लक्षमेकं भूमिमऽसं प्राप्तं सर्ष पै जप्त्वा
क्षिप्ते ग्रह दहल्या मऽकाल निंद्रा जनः कुरुते इस मंत्र को पृथ्वी पर नहीं गिरी हुई सरसों से एक लाख जप करके, उस सरकों को घर की दहली में डाल देने से घर के आदमी बेखबर सोते रहते हैं।
ॐ शुद्धे श्रुद्ध रूपे योगिनी महा निद्रे ठाठः JERSEWಡRoss5/
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05101510SICISTOR5015 विद्यानुशासन BASADASDISTRISTOTOS
सिद्धटोत् लक्ष जाप्यात् दुर्गा मंत्रेण मंत्रिता : क्षिप्ताः
श्वेत तिला रात्र गृहे स्वीपति जन स्तद्गातः संतत इस दुर्गा मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके इससे अभिमंत्रित सफेद तिलों को जिसके घर में डाले जाते हैं। उसके घर वाले निरकर सोते रहते हैं। ॐ काल दडी रखोई ॐ काल दंडी फट ठाठः
सहश्राष्ठ जाप्टोन मंत्र एषः प्रसिद्धयति। कृष्णाष्टभ्या:प्रभृत्टोन प्रजेपन्मत्रं मा कूहे
॥७॥ यह मंत्र आठ हजार जप से सिद्ध होता है। इसको कृष्ण अष्टमी से अमावास तक डपे।
यंत्र ऽमानस्टायां मंत्रस्य जपः प्रयाति निशानां।। तस्यां वर्तुलमंडलं मध्टोन्यस्यार्चित चषक
॥८॥ अमावस्या को मंत्र का जप समाप्त होने पर एक गोल मंडल के बीच में रखकर चषक (शराब के बर्तन की पूजा करें।
नियोति मंडला तत् यावत् तावत् जपेष्यतः मंत्रं, इच्छं सिद्रेत ततः कुर्यात् चषक क्रियां मंत्री
॥९॥ जब तक इस मंत्र को जपता रहे तब तक मंडल में से नहीं निकले इस प्रकार मंत्र को सिद्ध होने पर मंत्री चषक क्रिया करे।
चोर पकड़ने का मंत्र ॐ नील कंठ श्री कंठ अमर भ्रमर छत्र धर पिंगलाक्षि काम रूपी आमरण्य वासी निरोवर ठाठः ॥
काली मंत्राट दश सहस्त्र रूप प्रजाप्यतः सिद्धैत,
चोर पर ज्ञानादि षनेनं चषक क्रियां कुर्यतिष्व यह काली मंत्र दस हजार जप से सिद्ध होता है। चोर इत्यादि को पहचानने में इससे चषक क्रिया करे
संदिग्ध नाम वर्णन विलिव्य पत्रे विदर्भितानमुना
अग्नौ प्रदेहत्पत्रं तचोराख्यान दह्यते ॥११॥ संदेह वाले नाम के वर्ण अक्षरों को इस मंत्र से विदर्भ करके पत्ते पर लिगकर उसे अग्नि में तपाये तो चोर का नाम नहीं जलेगा।
SSCI5DSIRIDIODESISTER०८०PISRTICISDISTRISESSIOTSI
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DEDISTRISTD353557275 विद्यानुशासन 5050525E5IRST
पिश्रुनयति नाम चौरं क्षीर तरू क्षीर विलिरिवतं
पाणि तले परिमईनेन मलिनं साशंकित नाम दग्ध भूर्जमयः ॥ १२॥ संदिग्ध (संदेहवाले) नाम को भोजपत्र पर लिखकर हाथ पर रखकर क्षीर वृक्ष (आक ) के दूध से लिस्ने यदि वह गाणी हाथो से मलने पर मैला हो जाये तो चोर निश्चचय से छूटा है।
आलिरव्य वैपरित्येन मला भूर्जदले तनौ, वाचोन्नाम चोरस्थ निगूठमपिष्टतः
॥१३॥ नये भोज पत्र पर उल्टा लिखा हुआ चोर का नाम (निगूठ) छुपा होने पर भी जल में अथवा दर्पण में पढ़ा जा सकता है।
लिरिवतं नाम चोरस्य भूर्जकेवैपरित्यातः, संक्रांति प्रीति में तोटो वाचोन्मु करे: थवा
॥१४॥ भोजपत्र पर उल्टा लिया हुआ चोर का नाम संक्राति समान तोय (जल) में अथवा मुकर (दर्पण)में पढ़ा जा सकता है।
दुग्ध नाशक योग स बिन्धु वीप्सिता वृदिध जायांता पंचमी कला
सिधै लक्ष जपात एष मंत्रोरुयाधिदेवतः । ॥१५॥ बिन्दु सहित ढवी (पृथ्वी अक्षर) ईप्सत (इच्छित) वन्हि जायांता (स्याहा) पांचवी कला (३) सहित यह रुद्र देवता का मंत्र एक लाख जाप से सिद्ध होता है।
रोहिण्यां निरवान गोष्ट स्थाने गोरस्थि मंत्रितं।
मंत्रेण अनेन तत्रस्यादवां क्षीरपरिक्षयः ॥१६॥ यदि गाय की हड्डी को इस मंत्र से मंत्रित करके रोहिणी नक्षत्र में गायों के स्थान में गाड़ दी जाये तो गायों का दूध सूख जाता है।
मंत्रश्च भावेयति स्वाहांतो वह्नि देवतः। पुरश्चरणमेतस्य जपो लक्षं प्रकीर्तितं
॥१७॥ भावय स्वाहा यह अग्नि देवता का मंत्र एक लाख जप के पुरश्चरण करने से सिद्ध होता है।
निरषन द्वादरं किलं स्वाती मंत्रेण मंत्रित, अनेन चक्रिणे हे भवेत् तैलपरिक्षय:
॥१८॥
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SASIRISTRISTOTRIOTICS विधानुशासन DX510151050STOTSIDESI स्वाति नक्षत्र में इस मंत्र से मंत्रित यांदर (कपास के पेड़) कील (लकड़ी) को चक्रिए तिली) के घर में गाड़े तो तैल नष्ट हो जाता है।
सर युगलं वेश्वानर वल्लभा मनु सोयं, वैश्वानास्य सिद्धं प्रयाति लक्ष प्रजाप्येन
॥१९॥ दो बार सर फिर वैश्वानर वल्लभा (स्वाहा) यह वैश्ववानर मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है।
(सर सर वैश्वानर स्वाहा)
हस्तः पंचागुलमभिमंत्रयै तेन सर्जतरू कोलं,
निरवनेत् कुलाल वेश्मनि भांडानां नाशनं भवति ॥२०॥ यदि हस्त नक्षत्र में सर्ज तरू (शाल वृक्ष) की कील को इस मंत्र (सर सर वैश्वानर स्वाहा) से मंत्रित करके कुलल (कुम्हार) के वेशमन(घर) में गाड़े तो उसके बर्तन फूट जाते हैं।
बलि निष्परिपूर्णहु द्वंद्वं वरूण दैवतः मंत्रोयं सिद्धं मायाति लक्ष्य रूप्ट प्रजाप्यतः
॥२१॥ बलि के आगे पूर्णेदु (ठ) और वरूण देवतः यह मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है।
अष्टांगलं भगु दिने मंत्रेणनेन वदर संकीलं
निरवेनेत् ज्जालिक वेश्मनि मत्स्यास्तेन्नैर्भ लभ्यते ॥२२॥ भृगु वार (शुक्रवार) के दिन आठ अंगुल लम्बे चंदर (बोर) की लकड़ी को कोल को इस मंत्र से अभिमंत्रित करके यदि ( जालिक) मछुवे के घर में गाड़ दे तो उसतो मछली नहीं मिलती है।
लिंगे द्वंद्वं ततो बहिन वल्लभा लक्ष जापतः मंत्रोयं सिद्धिमायाति महाकालाधि दैवतः
|॥२३॥ दो बार लिंगे और वन्हि वल्लभा (स्वाहा) यह महाकाधि देवता का मंत्र है एक लाख जाप से यह मंत्र सिद्ध होता है। लिंगे लिंगे स्वाहा।
श्मशान कील सचितं कीलमेतेन मंत्रितं। '. सुरापणे रखनेद्यस्य तत्सुरायाः क्षयो भवेत्
||२४॥ जिस शराब की दुकान में इस मंत्र से मंत्रित श्मशान की कील (हसी) गाड़ी जाती है उसकी शराब नष्ट हो जाती है। SASRISD501512ISIOMD55१०८२P351315252525PISIS
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PSPSPSPSP5915 विद्यानुशासन PPPSP/5PS
॥ २५ ॥
मद्ये वकुल चंदाक फलके मद्ये वेश्मनि न जायेत हता शेष वर्ण गंध रसादिकं चकुल (मोलश्री) के चंदाक (बांदा) फल को शराब की दुकान में रखने से शराब की बू नहीं रहती है अगर उसको मद्या नक्षत्र में वहाँ रखा जाए अर्थात् मालश्री के फल या बांदा से शराब की बदबू नष्ट होती है।
सप्ताहं या शिला क्षिप्ता तिक्त को शातिकी फलै, ईष्टं तल्लिस पुंड्रेण भोज्यं तिक्त रसं भवेत् ॥ २६ ॥ तिक्त कोशात्की (कड़ती तो के फूल से लीए करो शिला (सेसिल पत्थर) एक सप्ताह तक रखी जाती है पुंड्रण (गन्ना) और भोजन का द्रव्य का स्वाद देखते ही कड़वा हो जाता है।
अधो पुष्पी लजाल तथा श्वेत च गिरिकर्णिका मधुकर्पूर संयुंक्तं छिद्रं पश्यति मेदिनी
अधो पुष्पी लजालू और श्वेत गिरिकर्णिका (सफेद कोयल) शहद और कपूर से उसे पृथ्वी में छेद दिखते हैं अर्थात् भूमि का धन दिखता है।
॥ २७ ॥ मिलाकर अंजन करने
वल्मीकमऽधो पुष्पमूलं स्त्री स्तन दुग्धतः पिष्टवा, जनस्य सामथ्र्यति निधानं पश्यति स्फुटं
11| 22 ||
वल्मीक (सर्प के बिल की मट्टी) और अधो पुष्पी को जड़ को स्त्री के स्तनों दे दूध से पीसकर आंखों
में अंजन करने से पृथ्वी का खजाना दिखता है।
पाद जातस्यांजनं कुर्यातः पाँव पहले निकले हुए को इसका अंजन कराए।
मद द्वं द्वं तनुत्राणामऽस्त्रं ज्वलनवल्लभा । लक्ष जाप्या गजास्य मंत्रौ सौ सिद्धिमच्छति, एमं दंत मिश्र स्थाने विश्वेद ब्रह्म दिने खनेत् जप्तं मेतेन मंत्रेण स माद्ये द्वारणः क्षणात्
॥ २९ ॥
|| 30 ||
मद दो बार तनुत्राणामस्त्रं (कवच हुं) अस्त्र (फट) और ज्वलन वल्लभा (स्वाहा ) यह गजस्य मंत्र एक लाख जप से सिद्ध होता है। मंत्र इस प्रकार है।
॥ मद मद हुं फट् स्वाहा ॥
ब्रह्म दिन ( शनैश्चर वार) को हाथी के स्थान में इस मंत्र से मंत्रित हाथी दांत को गाड़ने से वह हाथी उसी क्षण मस्त हो जाता है ।
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9595959595 विद्यानुशासन 2159595959595
चिक्रण के ईष्सितरूपा पिशाचिकां सांद्र चितामषि मथिते नृपाले मातृ ग्रहे कानन कार्यास कृत वृर्त्या
॥ ३१ ॥
॥ ३२ ॥
धाय कृष्णाषृभ्यामंजनं मेष्तन्मट्टा धृतोऽद्भूतं तेन त्रिमूलं मंजनंऽमपि कुर्यादिक भीत्यऽर्थ चिक्कणिक (चिकती सुपारी) इप्सित रुपा (बहूरुपा = शरर विट) किरकाय की विष्टा, पिशाचि का ( कोच का रस ) से गीली (आंद्र) चिता मषि (चिता की स्याही अर्थात् कोयले को आदमी के कपाल में मथकर, (मात्र ग्रहे), सात मालाओं के घर में (कानन) बन जंगल के कपास की बत्ती बनाकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी को या चतर्दुशी को अंजन (काजल) धारण करके महावृत (आदमी) की वसा (चरबी) से काजल बनाकर आंखों में अंजन लगाए तथा मस्तक पर उससे त्रिशूल बनाए जिससे प्रतिपक्ष भयभीत हो जाता है।
ॐ नमो भगवति हिडिंव वासिनी अल्लल्ल मांस प्रियेन हयल मंडल पंईट्ठण नुहरणं मंतेप हरण हो आयास मंड़ि पायाल मंड़ि सिद्ध मंड़ि योगिणि मंडिसव्व मूह मंड़ि काजल पड़उ स्वाहा ॥
कज्जल पालन मंत्र: ईशान्याभिमुख कर्तव्यं । यह काजल उपाड़ने का मंत्र ईशान दिशा को तरफ मुंह करके कार्य करे।
अंगारः शाल्मली भूतः वर मूत्रेण भावितः न्यस्तग्नौ यत्र स पचेदोऽदनं नचिरादऽपि
॥ ३३ ॥
जिस अग्रि में गधे के मूत्र से भावना दिये हुए शाल्मली (सैभल) के अंगारे रखे जाते हैं। उस पर ओदनं (भात) उसी समय पक जाता है ।
मूल मौषधकं भेक वसा तिक्तं हुताशने,
यत्र निक्षियते सोऽन्नं पक्तुं शक्तो न जातु चित्
॥ ३४ ॥
जिस अनि में औषधक मूल (सोंठ) भेक वसा (मेंड़क की ) चर्बी और तिक्त (पितपापड़ा) डाला जाता है उस पर कभी भी अन्न नहीं पकता है ।
रंभाकदेन पिष्टेन मिश्रितं गंधकेन वा । नवनीते द्रवेनैव सुदीर्यमपि पाचितं
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रंभा (केला) के कंद को पीसकर उसमें गंधक मिलाकर और मक्खन से गीला करके रखने से बहुत आंच देने पर भी अन्न नहीं पकता है ।
9596915959.८४ 959595959
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CSIRISTRICISTOISIS विधानुशासन SHEIRECSIRISROSCISI
घत मिक्त सूत्र वेष्टित स्पष्टाया: पचति कंसमय पाया,
अंतःस्थितान हुताशः सद्काद्या नतु दहे त्सूत्रं ॥३६ ।। घृत में सिके हुए धागे से लपेटे हुए स्पृही (कटेरी) स्पृष्ट (छूना) (पृष्टी-पृष्टाणी) को कांसी के बर्तन में रखकर पकाए हुए शदकं (अन्नादिक) को आग नहीं जला सकती है और न धागे को ही जला सकती है।
लाक्षिक तंतु पुटेऽनि पषाक्त तिलोद्रेव पचेत्कारये
- पात्रे पायसमऽन्नं सूत्रं तु वहिर्गनंनदहेत ॥३७॥ लाख के धागे से पुट दिए हुए और तिल के तेल से पुते हुए कांसी के बर्तन में पकाई हुई खीर अग्नि से नहीं पकती है और न ही धागा जलता है।
दले विशाले भूजस्य ज्वलज्वालेनवन्हिना, लोह मांड दया पूपान साधयेत तैलपूरित
॥३८॥ (विशाला=इंद्रायण) भोजपत्र के बड़े भारी पत्तों में लोह के कठारी की तरह तेल भरकर अग्नि से गरम करके पूर्व उतारे।
तैलेनऽषणेन वासित यायत् सूत्रेण वेष्टितं, याांक स्यफलं वन्हि ईहेत् सूत्रनभस्मयेत्
॥३९॥ उस गरम तेल में भिगोये हुए धागे से वार्ताक (केटली के फल को लपेट कर अमि पर रखने से फल तथा धागा नहीं जलता)
कंस पात्रे कठोरस्य तप्यमाने रवः करैः, क्षिप्तं तूलं ज्वलेपारा श्रुक गोमयजं रजः
॥४०॥ सूर्य की किरणों से बहुत जोर से तपते रहने पर कांसी के बर्तन में रखी हुई तूल (रुई) को शुक्र (सिरस) और गोमय (गाय को गोबर) के चूर्ण से लेप करके
स्नक क्षीर भावितैः सार्द्ध विशदैःशालि तंदलैः
कंस पात्रे स्थितं दुग्ध काचेत् तप्तमि नांशुक्षिः ॥४१॥ सुक क्षीर (थोहर का दूध) में भावना दिये हुए बहुत से विशद (सफेद) साठी चावलों को कांसी के बर्तन में रखकर सूर्य की किरणों से तपाकर क्वाथ बनाए।
॥४२॥
सर्याऽक्षरात्य मूर्द्ध प्रोतान भूत वाम हस्त तले,
सुर चापामि न्यसेत् प्रोगेव सुसंधितं विधिवत् SSCISODEISCIEPISIPATROL PROICTICISIOISTRIEPISCESS
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ASUNDOWNon läengatura YOPASNILIPS इन सब को पहले से ही विधिपूर्वक अक्षर (आकाश) ऊपर से ढ़कर मलकर सुर चापामि (इन्द्रधनुष) अर्थात् प्रातःकाल के समय बांये हाथ पर रख्खे ।
वष पलाशन्यांदी स्तदऽकाले पाश्र पातयति. विनिवारयितु स्तोत्पित्त मधो भूत वदनत्वं
॥४३॥ वृष (ऋषभक) पलाश (ठाक) आदर्दा के पत्तों को असमय में ही गिरा देता है (विनिवारित) पूरी तरह से रोक देता है। उत्पत्तिक को और (अधोवदनत्य) उनके अग्रभाग नीचे झुका देता है।
नरहं पुष्प बीजानां चूर्णं भूत विमिश्रते:, न सिंचे दिग्ध सर्वाग पटोधारां क्षर नपि
॥४४॥ हपुष के बीजों के चूर्ण में भूत (नागरमोथा) मिलाकर (पयोधारा) दूध को धारा से सींचते हुए भी सब अंगों से जले हुए पुरुष को ठीक कर देता है।
निर्मित सीतिः पुष्पेगहीतया वजतरु भत्या, भ्रमतो न पतेत् वृष्टिमहतीऽह हिमाननानीता
॥४५॥ पुष्य नक्षत्र में ली हुई वज़ तरु (वजयल्ली-थोहर) की भूति (भरम) की शीति (गोली) बनाकर मुख में रखने से वृष्टि नहीं होती है।
नवनीतेन लिप्तांऽधिः श्रून्या कृष्ण रचेश्वरत, उपटापि समारुह्य काभाऽजिन पादुके
॥४६॥ अंघ्रि (पावों) को नवनीत (मकूवन) से पोतकर कृष्ण रंग की (शून्य) नली द्रव्य का लेप करभ (उंट) और अजिन (काले रंग के तेंदुए की खाल) की पादुका (खड़ाउ) पर चढ़कर बिना थके हुए चले।
स्टोनाक बीज संचूर्ण स्वगर्मापादुक द्वयं, आरुह्य विचरत् दूरं महातल श्वांमऽसि
॥४७॥ स्योनाक (सोनापाढ़ा-अरलू) के बीजों के चूर्ण का लेप स्वर्गभा की दो पादुका (खड़ाऊँ) पर करके उस पर चढ़कर जल में भी पृथ्वी के समान बहुत दूर तक गमन कर सकता है।
घ्यायनिज कम्मुर गेविट गात्र मदः कृतं,
रुद्धं शश्वाभ्यासतः स्वासं प्लवते प्लवनं जले 5051251015015TRASIRTER०८६PISTOR501512350151235205
॥४८॥
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PSPSPSPSPSS विधानुशासन 97595905959595
अपने इष्ट कार्य का ध्यान करते हुए शरीर पर गाय के गोबर का लेप करके श्वास को रोक कर अभ्यास करते हुए जल में भी गोता लगा सकता है।
निधायाऽभ्यांतरे दंष्ट्रा डुंडु भस्याऽतरा निधे, अगाधे पिजले तिष्टे निमज्य सुचिरं नरः
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मुँह में डाढ़ के नीचे दर की मणि को दबाकर समुन्द्र के अगाध जल में भी चिरकाल तक गोता लगा कर बैठे।
लिप्तं यस्य द्दगाद्यं कपिला ज्येन क्षुरास्थिर जसा, चासौब्धौ निमज्यं संवौषट् रुपाधर्थानुया दद्यात्
॥ ५० ॥
जो कपिला गाय के और क्षुरारिथ (गोखरू) के चूर्ण का नेत्र आदि पर लेप करके संवौषट् बोलता हुआ कैसे ही समुंद्र में जा सकता है।
गोबर मिले
गोमय विमिश्रिताभिर्विधूर्वितानि प्रपूरितादद्भिः वरंध्रादपि कुयाद्भीतः स्तोकमऽपि गलति
॥ ५१ ॥
हुए विधूर्णित जल से भरे हुए बहुत छेदों वाले घड़े से जरा सा भी जल नहीं गिरता है । सधूमें प्रज्वलत्यग्नौ घट स्वोदर यंत्रिते, अद्यः स्थापित वक्रोपि सध्वनिः सलिलं पिवेत्
॥ ५२ ॥
धुंए सहित जलती हुई अनि के उपर घड़े को रखकर जल के ऊपर उल्टा रखने से घड़ा शब्द करता हुआ जल को पी जाता है।
श्मशान वासिनि प्रेत मालिनि सामां पश्यंतु मनष्याः ठः ठः सिद्धेन लक्ष जाप्यात् कालि मंत्रेण यच्चिता भसितं, जप्तं तत कृत तिलकः पुमान् द्दश्यत्व मा याति
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इस काली मंत्र को एक लाख जप से सिद्ध करके इससे अभिमंत्रित की हुई चिता की भस्म का तिलक लगाने से पुरुष अदृश्य हो जाता है।
प्रथमं रजस्वालायः कन्यायाः पितृ बनाएनौ, रजसा पिष्टा गृहपति नरं ललाट तट मध्यगा कुनटी
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दीपात कट तैलाक़ात् सित सरसिज सूत्र नित्र निकर कृत वर्तेः, आर्तेना ताक्षि युगोन दृश्यते कज्जलेन नरः ॥ ५५ ॥
9696969599१०८७P/5959596959
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0505
51 विधानुशासन 9/59/59595259
पहले पहल हुई रजस्वला के रज से श्मशान की अग्रि में गृहपति (घर के स्वामी) मनुष्य के मस्तक के किनारे पर लगी हुई कुनटी (मंनसिल) को पीसकर, उस सफेद कमल के तन्तु से लपेट कर उसको बत्ती को कटु तेल (कड़वे तेल) के दीप में जलाकर, उससे बनाए हुए काजल को आंख में लगाने से मनुष्य अदृश्य हो जाता है।
यध्वाक्षस्य सित तरस्य महिषि तकोत्थ मुक्ते सकृत. तेनाभ्यक्त सिताऽर्कतूल दशया युक्तेन सुस्निग्धाया क्लप्तं प्रेतरं कपालयुगले प्रेताल कज्जलं. नो शक्तं वितनोत्यदृश्य तनुक्ता मर्तस्य देवैरपि
॥५६॥
मरे हुए असित ध्वांक्ष (काले कौए) को भैंस की मठ्ठे से निकले घृत में भिगोकर उसको सितार्क ( सफेद आक ) की तूल (रुई) में लपेट कर दशा ( दीपक की बत्ती) बनाकर सुरिमग्धया (चिकनाई = घृत सहित ) ( प्रेतनर कपाल युगले) मरे हुए दो आदमियों के कपालों में (प्रेतालय) श्मशान में (क्लतं) बनाए हुए कञ्चल को आंजने वाले पुरुष को (मर्त) (आदमी) और देवता भी नहीं देख सकते हैं ।
नने दो हणे तगर जटात्ता कुबेर दिशि संभूता,
लोह प्रयमध्यगता वितरति तृणामद्रश्यतां मुख निहिताः ॥ ५७ ॥
(इन्दो ग्रहण) चंद्रग्रहण के समय उत्तर दिशा में (संभूता) () पैदा हुई) उगी हुई तगर वृक्ष की (जटा) जड़ को नग्न होकर लाए फिर यदि उसको त्रिलोह (तास १२ तार चांदी = १६ सुवर्ण = ३ भाग) के जंतर में जड़वाकर मुख में रखे तो अदृश्य हो जाए।
चित्तविन्ह दग्धभूत द्रुम यम शाखा मर्षां समाहृत्य अंकोल तैल सूतक कृष्ण विज्ञाला जरायुश्च
॥ ५८ ॥
धूक नयनांबू मर्द्दित गुटिकां कृत्वा त्रिलोह संमठितां धृत्वा तां मात्म मुरये पुरुषोऽदृष्यत्वमायाति
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चिता की अग्रि में जले हुए (भूत द्रम) नागरमोथा और (यम द्रुम शाखा) संभल की पेड़ की शाखा की भस्म (समाहृत्य) इक्कठी करके उसको (अंकोल) ढेरे के तेल (सूतक) पारा और काले बिलाव की जरायु और उल्लु की आंख का पानी से घोटकर उसकी गोली बनाकर त्रिलोह (तांबा १२, चांदी १६, सोना ३ भाग) को जंतर में मढ़वाकर मुँह में रखने से पुरुष अदृश्य हो जाता है।
252525252SRSRIS: -‹‹ PISKO
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CHRISTI50158505 विद्यानुशासन 985105505IODOSDESI
शिरिवनःशकता लिप्तैः ताल शिला भोजनस्य,
सप्ताहं हस्तु तले निहितं यत द्रव्यं द्रश्यते न जनैः ॥६०|| मोर को एक सप्ताह तक हड़ताल और मेनसिल खिला कर उसकी विष्टा का हाथों पर लेप करने से हाथ में रखे हुए द्रव्य को लोग नहीं देख सकते हैं।
ॐ नमो भगवते रुद्राय मनोवायु वेग गरुड़ वेगिनी च ठः ठः
जप्तं तैलं त्रिशत् योजन गति हेतु रंध्नगं सिद्धां वायस जंघा शिफया तुंब्याः पुष्प स्य च स्वरसेन
॥ ६१॥
कोष्ट्र नेत्ररजो ताक्ष: पश्येद्भूतगणं निशि, सिद्धं द्रव्यं ददात्यऽस्मै गुलिका पादुकादिसं
॥६२॥ तेल को इस मंत्र से अभिमंत्रित करके (अध्रि) पांवों पर लगाने से पुरुष तीस योजन तक बिना थके जा सकता है। काक जंधा (वायस जंघा) की (शिफा) जड़ और तुंबी के फूलों का स्वरस से सिद्ध किए हुए (क्रोष्ट्र) गीदड़ के नेत्र के चूर्ण को आंखों में लगाने से रात में भूतगण दिखाई देकर उसको सिद्ध द्रव्य गुटका तथा खड़ाउ आदि दिखाई देते हैं।
सप्ताहं पुष्पिता योन्यां सौवीरांजन माहितं, वन्हि मध्ये हुतं तत्र दरुर्यित् पुरुषा कति
॥६३॥ ऋतु धाली स्त्री की योनि में एक सप्ताह तक सौ वीरांजन (काला सुरमा) को रखकर अगर उसे अमि में जलाए तो पुरुष की आकृति दिखाई दे।
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दहने सज्योत्स्नाया क्षणदायां हपुष बीज होमेन,
द्रश्यतं शूलधारा स्तन हरा: पीत तनु वर्ण: ॥ ६४॥ (क्षणदा) रात्रि में (ज्योतिण) चांदनी रात में (दहन) अग्नि में (हपुष बीज) हाड बोर के होम करने से शरीर के पीले वर्ण वाले त्रिशुल धारी शिवजी दिखाई देते हैं।
अभ्रक पटले लिरिवतं यद्रूपं नीलकंठ पित्तेन, तन्नयस्तं तत्पुरतोऽग्ने स्तस्य ज्वाला सु लक्ष्येत्
॥६५॥ यदि नील कंठ के पित्त से अभ्रक के पटल पर जसि का रुप लिखकर अग्नि के सामने रखा जाए तो वह अग्नि की ज्वाला में दिखाई देता है | SSSSRI5251015035255R०८९PISODISTD351055105570150155
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SSCI5DISISISTRI5015 विधानुशासन A505015121510151015
अन्यचाभक लिरिवतं गह मध्यार्ग तैल भरित घट मुख निहितं,
रूपं गर्ह रंधागत तपनांच स्पष्ट मीक्षिते नमसिचिरं मुकरे ॥६६॥ यदि अभक के ऊपर रुप को लिखकर उसको घर में मुख तक तेल से भरे हुए घड़े के ऊपर रखा जाए तो उसके ऊपर घर के छेद में से सूर्य की किरण के आने पर वही रुप आकाश में दर्पण के समान दिखलाई देता है।
शिरिव शिरिव लिप्त सघन सलिल भरित कुंड़े पतितः,
गृह विवरेणार्ककरैः छुरितं रुपं विलोकयते गगन तले ॥६७॥ (शिखि शिखा) म.पू शिला से
लियास जस से मरे हुड़ में घर के (विविर) (सूराख) से आई हुई सूर्य की किरणों को (हुरित) सजाने से वह रुप आकाश में भी दिखलाई देता है।
यः शिरिवपित्त विलिप्तो रवः पुरः स्थापित रुप मुकरस्याद:,
धर्मे स भाति भानोः स्वर्भानु गृहीत इव समीप स्थानां ॥६८॥ जो मोर के पित्त से अपने को लीप कर सूर्य के सामने रखकर आधी धूप मैं बैठता है वह पास वालों को सूर्य का ग्रहण किये हुए के समान दिखलाई देता है।
कपि चर्मा वत वंदना चंद्र ग्रहणं जलांतर निमग्ना,
पात्री कुरुते तत्स्थित करंज तैलाक्त दश दीपाः ॥६९ ॥ यदि कोई स्त्री अपने मुख को बंदर के चमड़े से ढक कर जल के अंदर घुसकर अपने पास करंज के तेल के दस दीपक रखे तो वह चंद्र ग्रहण का सा द्रश्य दिखलाई देता है
भेयाः प्रदीप कर्भायाः छन्न माज कपि त्वचा, गृह मध्योर्पित कुर्यात् लीलामिदोर्द्धवं निशिः
॥७०॥ यदि किसी (नकाश) के भीतर दीपक रखकर (अज) बकरा (कपि) बंदर की खाल से ढककर घर में रखा जावे तो वह रात में चंद्रमा की लिला करता है।
पुष्पार्क मुनि पुष्पांबु पिष्ट श्रोतोजनेन यः, आक्त नेत्रः सः वीक्ष्येत नक्षत्राणि दिवा स्फुट
॥७१।। जो पुरुष रविवार सहित पुष्य नक्षत्र में (मुनि पुष्पांबु) अगस्ता के फूलों के रस से पिसे हुए श्रोतांजन (सुरमे) को आंखों में लगाता है वह दिन में भी तारे देख सकता है।
SHRIDDISTRICTORISISTE१०९०%501STRISADISTRISTOIEDIES
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PSPSPSPSPSS विधानुशासन
बीजानां वीजपूरस्य ताम्र भाजनसंस्थिते तैलें, दिवा विलोक्ये रण सः सूक्ष्मा अपि तारका
॥ ७२ ॥
जो
पुरुष (बीजपूर) बिजोरे के बीजों के तेल को ताम्र के बर्तन में रखकर उसमें तेल डाले तो वह दिन में तारों को तथा सूक्ष्म वस्तु को भी देख सकता है।
राजी तैल शिला ताल भूलता लिप्त विग्रहः, निशऽधकार पूर्णयां द्रश्यते प्रज्वलद्वपुः
SSPA
॥ ७३ ॥
(राजी) राई तेल मेनशिला हरताल और (भूलता) का शरीर (विग्रह) पर लेप करने से रात के पूर्ण अंधकार में भी शरीर प्रज्वलित जलता हुआ सा दिखाई देता है ।
॥ ७४ ॥
आलक्तक शिला ताल कुची तरु सर्ज सैंधवः, लिखिता एयऽक्षरा एयुच्वः प्रकाशते नमस्यपि (महार) से (कुरी) (शाल) सेधवा नमक से लिखे हुए अक्षर आकाश (नभ) में भी बहुत प्रकाशित होते हैं । वृतिः सम्यग्मंत्रितं पारद गर्भैक भाग पर्यंता, प्रज्वलदधः कृते तर भागे व्योमनापत्ते दूरं, प्रज्वलयति दशामधस्थां शशि विद्भार्भा प्रशांत दीप शिखां, उपरि स्थित प्रदीपोवरयूधूमेन बहलेन
।। ७५ ।।
एक भाग पारा सहित अच्छी तरह मंत्रित की हुई बत्ती को जला कर नीचे करने से वह आकाश के दूसरे भाग में दूर गिरती है। दीपक की लौ को बंद होने की हालत में यह चंद्रमा की तरह नीचे की तरफ झुकी हुई भी जलती है और ऊपर ठहरी हुई धुँआ बहुत ज्यादा रोशनी हो जाती है।
दीप दशा मूर्द्धस्थां शामित ज्वाला म धस्थिता, दशा शमल गर्भा ज्वालिता ज्वलयत्या रक्ष्यो रुधूमेन
॥ ७६ ॥
दीपक की बत्ती की आग बुझाकर उसमें (शमल) गोबर मिला कर ऊपर रखकर जलाने से वह भारी धुआं निकालती हुई जलती हैं।
दीपः प्रशांत ज्वार्लेपि समुज्वलति तुतक्षणत, गंधकां शम परागेन करें वित दशोऽनलः
॥ ७७ ॥
बुझा हुआ दीपक भी गंधक और अशम () के पराग (राख) से बत्ती को लपेटने से उसी क्षण जल जाती है।
PSPSPAP
50/१०९१ PPP 95955X
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ORIDIOSDISTRISTR5 विधानुशासन PATIDASISIPEDISTRIES
वत्ती दीप्तान्त तैलोक्तान रासग्माविता, षद्दनं लोह भांजनां विदधाति पस्परं
।। ७८॥ यदि मनुष्य के तेल की बत्ती को मनुष्य के खून में भावना देकर घर में जलावे तो बर्तन आपस में लड़ने लगते हैं।
समुन्द्र फेन सहितैः सज सिक्थक गंधकैः, पक्कं वर्ति गतं तैलं प्रदीप ज्वलेय जले
॥७९॥ समुंद्र झाग (सर्ज) साल सिक्थक (मोम) और गंधक से पकाए हुए तेल में बत्ती डाल कर भी जल में दीपक जलता है।
श्लेष्मांतक तरुत्वेन नियासेन विनिर्मिता,
विनाऽपि स्नेह सिक्थेन ज्वलत्यंभ सि दीपिकाः ॥८ ॥ श्लेष्मांतक तरु (लिसोड़े) के पेड़ को निर्यास (काठे) से बनी हुई बत्ती बिना तेल के भी जल जाती है।
तरुणां क्षीरिणां क्षीसै वतयोः परिभाविता, शराबे पूरिते णोभिन्निहितः प्रज्वलत्यलं
||८१।। बत्तीको दो शरोबों में रख कर जलाने से जल में जलती
वर्ति मदन गर्भण वस्त्र खंडेन निर्मिता, प्रज्वले जल मटोपि स्नेह से काइते चिरं
||८२॥ मदन (मेनफल) युक्त यस्त्र के टुकड़े से बनी हुई बत्ती बिना तेल के भी जल में जलती है।
शिरवा कोशाम तैलाक्त वत्तें दीपस्य.
भास्वरा शक्यते मरुतां कातैन कंपातु मुल्वणे ॥८३॥ शिखा (मयूर शिखा) कोश (अंडा) आम के तेल में भीगी हुई बत्ती के दीपक को बड़ी बड़ी आँधी भी नहीं बुझा सकती है
वर्ति के हेम तैलाद्र लांगलि चूर्ण गर्भिणा,
जनटो ज्वालिता नीला कंकेली स्तवकं श्रियः CSDESISTOISIST ER०९२PIRIDISTRISTRISTRISTOTSIDS
।।८४॥
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SASTRISTR50158505 विधानुशासन PASCISSISTOTSDISTRIES (हेम) धतूरा के तेल से भीगा हुआ (लांगली) कलिहारी के चूर्ण बड़े लोगों से स्तूती की जानेवाली तथा लीला करने वालों अनि उत्पन्न करती है।
ज्वालिता च लता भस्त्रा सिंदूर द्दढ़ पूरिता, वस्तु स्वकांति व्यालीढं प्रापयेत्कनकछविं
॥८५॥ लता की धोंकनी मे खूब सिंदूर भरकर जलाने से वह अपनी शोभा से सोने की जैसी मालूम होती
वन कापस सुमनः कृष्ण भाग विनिर्मितान , चिंचा किशलयादबु पीड़िताद्रक्त वस्त्रवत्
॥८६॥ वन कपास के काले भाग से बनी हुई और इमली के नए पत्तों के रस में भावना दी हुई वस्त्र बहते हुए खून के समान दिखाई देती है।
शस्त्रैण जपाकुसुमै भूरि कृतोद्वर्तनेन दर दलितान,
म्दु पीड़ित भूर्जस्थ जंबीर फलाज्दलंत्यबु ॥८७॥ (जपाकुसुम) कुड़हल के फूल से लेप किए हुए शस्त्र से थोड़े काटे हुए भोजपत्र पर स्थित जंबीरी नीबू से पानी निकलने लगता है।।
इक्षुर बीज परागै लाक्षारस भावितैः क तां,
गुलिकादंधःदाननेन लोके लोहित भास्याऽबुनिष्टीवत् ॥८८।। इक्षुर (ताल मखाने) के बीज के चूर्ण को लाख के रस में भावना देकर उसकी गोली को मुँह में रखने से मुख का पानी लाल होकर पुरुष का थुक रक्तक की तरह का लाल हो जाता है।
चूणे रीक्षुर बीजानां लाक्षारस सुभावितैः, लोहित स्यापि लोहित्यं तुलये निसृतं जलं
॥८९|| इक्षुर (ताल मखाना) के बीजों के चूर्ण को लाख के रस में भावना देकर उसमें से निकला हुआ जल लाल से लाल वस्तु के सद्दश होता है।
चक्रांकी दलजेन स्वरसेने क्षुरक बीज चूर्णः, वायुक्तं धानु रजो युक्त मम पेशी समं भवेत्
॥९०॥ (चक्रांगी) कुटकी के पत्तों के स्वरस अथवा इक्षपुरक के बीजों के चूर्ण से भावना दिया हुआ धान पहाड़ी मट्टी के चूर्ण सहित जल पेशी (मांस) के समान दिखता है।
985101510151215105PTSPAR०९३PISTSD512150150150155
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596
चूर्णेन इक्षुर बीजानां चक्रांक्या स्वसेन वा, संमिश्रितं क्षणदेव सलिलं पिड़ितो व्रजेत
15 विद्यानुशासन SPE
वश्या
॥ ९१ ॥
( ईक्षुर) ताल मखाने के बीजों का चूर्ण अथवा (चक्रांकीट) कुकी के रस में मिला हुआ जल उसी क्षण जम जाता है
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हस्त्का
सर्धाविव सितं पुष्यं ता पिच्छस्यांजन द्युति, स्पष्टां धूमेन जायते जपा पुष्प समप्रभं
॥ ९२ ॥
अंजन के समान कांति वाले तुरंत का निकला हुआ (तापिच्छ) तमाल का फूल धुंए के लगने से ( जपापुष्प) गुड़हल के फूल के समान लाल हो जाता है।
रक्तस्य करवीरस्य पुष्पं गंधक धूपितं,
श्वेतं स्यात् चूर्ण पृष्टंतुभजेत श्यामतामऽपि
॥ ९३ ॥
लाल कनेर का फूल गंधक के चूर्ण से घिसा जाने से काला हो जाता है। तथा धूप देने से श्वेत हो जाता है।
95959595959१०९४P/5959595959595
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S5DISIOSISISEXSTO15 विधानुशासन PASTRISTOTSTRISDISCIEN
अति रक्ता भवेत् पिष्टा निशा चूर्ण लेवान्वित्ता,
पुनः पीता भवेत् स्यैवं चिंचाप्रसून विमिश्रिता (लंबा) कड़वी तुम्बी सहित हल्दी का चूर्ण को पीसने से वह बहुत लाल हो जाता है वह फिर (चिंचा प्रसून) इमली के फूल मिलाने से पीला हो जाता है।
॥९४||
कृष्णारिमेय पत्राणि चूर्ण नाग दलं तथा, हस्तौ मृदित मात्राणि कुर्वते जित विद्रुमौ
॥९५॥ (कृष्ण आद) () के पत्तों के चूर्ण और (नागइल) नागर बेल के पान चंपा नाग केशर (नागर मोतो) केपत्रों को हाथ से मलने से हाथ मूंगे के समान हो जाते है
नाग लता दल मिश्रं जरत शिरीषस्य चर्वितं,
कुसुमं चामी चूर्ण समेतं कुरुते पदरित विद्रुमछाया ॥९६॥ पुराने सिरस के फूल को चबाकर उसमें नामलता (नागर बेल के पान) और चर्मी (भोजपत्र) के चूर्ण को मिलाने से मूंगे के समान लाल रंग हो जाता है।
नाना वर्ण युतैः साज्येशूर्णरुपरि वारिणः, स्थिरस्य निरिवलं चित्रं तन्मस्टो ननि मज्झति
॥२७॥ जल के अंदर अनेक रंग सहित चूर्णे को घी सहित डालने से संपूर्ण चित्र उसके अंदर नहीं डूबते हैं।
श्रूष्मांतक फलोद्भूत सूक्ष्म चूर्ण विमिश्रतैः, वैर्ण चर्षितं चित्रं न निमज्जाति वारिणी
॥९८॥ (शेष्मांतक) लिसोड़े के बनाए हुए सूक्ष्म चूर्ण को मिलाकर डालने से चित्र पानी में नहीं डूबते हैं।
ककुम फल भूति लुलिने कपितया विद्रुतया,
यल्लाक्षाया विलिरिवतं चित्रं तत क्षालिनै न जलैः ॥९९॥ ककुम (अर्जुन) के फल की भरम में घोलकर विद्रुत (पिघलाया हुआ) मिला हुआ लाख से लिखा हुआ चित्र पानी में नहीं घुलता है।
यदुपोषितेन भुक्तं जीणं कूर्मेण नव भुवा,
तालं लिप्तस्य तेन यष्टिः करस्य नट मंडनं दराति ॥१०॥ OTSPISDISTRISIPISODE१०९५ PISCESD15195500505125
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CASIOSISTRISTOISTERSC विधानुशासन PADOSTEDISSISION एक दिन के भूलो कछुए से खाया हुआ नव ध्रुव ताल से लेप की हुई लाठी नाचने की शोभा को करती है।
ताले भावित मौष्ट्र कफ मूत्र कपालधर्म सलिले युत,
तल्लिप्त/प्रहस्तं मुष्टि चित्राण्या मोक्ष मा वषयात् ॥१०१॥ ऊंट के कफ मूत्र और सिर के पसीने के जलों से भावना दिये हुए हरताल से लिए हुए हाय की मुट्ठी खोलने तक चित्रों को तोड़ डालती है।
शुनी जसायुणा पिच्छ पूपितं वेष्टितं च यत् , सटोन तत भ्रमं स्वित्रं हरेन्मोक्षोपसव्यतः
॥१०२॥ कुत्ती की जरायु (गर्भ की झिल्ली) और पिच्छ (मोचरस) से धूप दी हुई मुट्ठी दाहिने हाथ से घुमाती है और बांये से उसको नष्ट करती है.
मार्जारजानुधूपेन स्पृष्टं चित्रं न द्रश्यते, तदैवदेव धूपेन धूपितं याति चित्रता
॥१०३॥
चित्र सोसपदा सूप बार जैवनियेत, सं स्पृष्ट क्षौद्र धूपैन न द्रश्यते यथा पुरा
||१०४॥ अपरा घूप से किया हुआ चिन्न दिखलाई नहीं देता है और क्षोद्र की धूप से धूपित होने पर दिखाई देने लगता है (पहले की तरह)
चित्रं नाध्याऽपरा धूप स्पष्टरोदिति भितिगं, पूरा धूपेन तु स्पृष्टं तज्जहाति परोदनं
||१०५॥ दीवाल में लगा हुआ चित्र नार्थ्यपरा की धूप से रोने लगता है वहां पूरा धूप (दाहगरु) की धूप से रोना छोड़ देता है।
मुंचति प्रतिमा आणि मदनेनां जनेन च, पूरिता क्षि युगा स्पृष्टा पुरुधूपेन भूयसा
॥१०६॥ मदन (नेनफल) और अंजन को आंखों में लगाने से मूर्ति की आंखों से आंसू निकलने लगते हैं और पुरु (दाहागुरु) की धूप से वही फिर साफ हो जाते हैं।
लघु काष्टमयी राष्टि भ्रमरा पूरितोदरा, निरालवाचरे तिष्ठत कुर्वति विस्मयं जगत्
||१०७॥ SSIOSRI5015251DISPER०९६P/525105572758ISTRISTRIES
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SSSSCISIOISSISTA5 विधानुशासन BASICSDISTRISTOTRICKS काठ की छोटी लकड़ी में भ्रमार (भमछल्ली लता) को भर देने से वह आकाश में संसार को आश्चर्य में डालती हुई बिना आलम्बन (सहारे) के साकाली है।
वजाहत तरोः शंकु स्तिष्टेत व्याम्नि जिरापहं, कृताऽनुलेपनःशून्या सव्योषेण जरायुना ।
॥१०८॥ वज्र से नष्ट हुए वृदा की कील पर शून्या (नली द्रव्य) व्योष (सोंठ मिर्च पीपल) और जरायु (गर्भ की झिल्ली) का लेप करने से वह आकाश में बिना सहारे के ही ठहरती है
मध्टोंबर निराधारं धारयेत सरसिरुह अंगुली मुद्रिकां धृत्वा सारमेयजरायुनां
|१०९॥ सारमेंय (कुत्ते) की जरायु (गर्भ की भिल्ली) की उंगुली में अंगूठी धारण करके अंबर (आकाश) में निराधार बिना सहारे ही सरसी रुह को लटका सकता है
मह्यां सुस्थापिते वारा शराबे परि पूरिते शमनकैः स्थापितो नैव निपतेन मुशलश्चिरं
॥११०॥ महि (पृथ्वी) में शमनक () से भरे हुए शराबों को रखने से ही मूसल बहुत देर तक नहीं गिरते
निजोदर समा शक्त प्रज्वल ज्वलनो घटः सं शक्त वदनः कुक्षौ नसस्य नपते (वि
॥१११ ॥ अग्नि में प्रज्वलित घड़े के पेट में अग्नि से युक्त होने के कारण घड़ा पृथ्वी में नहीं गिरती है।
पूर्णं घाटेऽद्भिः प्रस्थे वा गुवाव्य क्षिपेत्, शिला उद्धत्ते गोमया लिप्त संधी उपरि संस्थिते
॥११२॥ भरे हुए घड़े या पृथ्वी में जल के द्वारा बहुत सी मेनसिल (शिला) फेंककर उसको उठाकर गोमय (गोवर) से लिपि हुई संधि के ऊपर रखकर |
शराबः पूरितो वारिभि न्नदलेन सुस्थितः क्षिती
उपरिया रोषिता विभ्र दुर्वीम विषमा शिलाः फिर उसके ऊपर भारी मेनसिल को धारण करते हुए शराबे को रखकर ।
॥११३।।
SSIPTSDISTRISEASE525१०९७/50RRISTRIESIRIDIOTSTRIES
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C55015015015125 विद्यानुशासन MSDI5DISTRI5103510050
कल्केन गंजा बीजानां लिप्ते शष्के लयद्दजे,
आकम्य गच्छेदाद्रांधिस्थन्ने अपि सुपादुके ॥११४ ।। गुजा (चिरमी) के बीजों के कल्क से लेप की हुई पादुका को पांथों में पहनकर थोड़ी सूखाकर आनन्द से पानी पर चल सकता है।
निर्गसेन कपित्योद्भवेन लिप्तं विश्रुष्के मारा नरः,
आर्ट पद पासुन तुम उमपि बसंधुदुम संधतं ॥११५॥ लघु द्रुम से बनी हुई दोनों पादुका पर कपित्य किय) के काढ़े का लेप कर उसको दोनों पावों में पहनकर सूखने पर उसके ऊपर आनन्द से चलें।
पूर्वोक्त लेप कल्पितं श्रुष्ठ रजः सिक्तमानं फलाकाद्यां,
लघु द्वादशजनाकातं नं विमुंचेतापहास्यजन जंघ्य नांतं ॥ ११६ ।। पहले कहे हुए लेप से युक्त सूखे हुए चूर्ण से आसन तखती आदि को भिगोने से या उससे लगा हुआ अंग अलग नहीं होता है।
विनयादि नमो भगवत्ये हि द्वयमां गजेन्द्र कश कृवाणाः,
शून्यानि पंच कुरु फल पुष्पाया कर्षणं होमं ॥११७॥ ॐ नमो भगवति ऐहि ऐहि आंकों द्रां द्रीं क्लीं ब्लूं सः हां ही हूं ह्रौं हः फल पुष्पा
कृष्टिं कुरु कुरु स्वाहा। आदि में ॐ नमो भगवति एहि दो बार आं और गजेन्द्र वश करण (क्रो) काम के पांच बाण (ट्रां द्रीं क्लीं ब्लू सः) पंच शून्य बीज हां ह्रीं हूं ह्रौ हः फिर फल पुष्पा कृष्टि कुरु कुरु स्वाहा मंत्र है |
ब्राह्मण कुमारिकाया दहनागारं प्रगृह्य सूर्य दिने,
तेनैव पटेविलिवेदष्टभुजां भगवती सम्यक ॥११८॥ इतवार (सूर्य दिने) के दिन ब्राह्मण की कुमारी के दहनांगार को लेकर उसी वस्त्र पर अच्छी तरह आठ भुजा वाली भगवती का रुप लिखें।
तत्पुरतः करवीर प्रसव सह जिन प्रमाण युतैः,
जप्त्या करोतु मंत्री पुष्प फलानां समाकृष्टिं ॥११९॥ उत्तम मंत्री उसके सामने जिनेन्द्र देव संख्या प्रमाण अर्थात् चौबीस हजार जप कनेर के लाल फूलों पर करने वाला पेड़ों के फल और फूलों का आकर्षण कर सकता है। CHRISRISTRISTRICISTO5१०९८२/STRASTRISTRISTORISEASE
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विद्यानुशासन 9552959529595 न्यस्तेन चर्मणों मध्ये रामठेन विमुंचति, शाल्मली सकलान्या श्रु फलानि कुसुमानि च ॥ १२० ॥ (रामठ) हींग को संभल वृक्ष की (च) (छाल) में रखने से सेंभल के सब फल और फूल झड़ जाते हैं।
पुष्प युते भूत दिने श्रन्यां योन्यांरतेऽर्पिता भुवि पतिता, आंत गुलिका मुद्रा तटो: फलाद्यान्निपातयेत्
॥ १२१ ॥
पुष्य नक्षत्र वाले भूतदिन (इतवार कृष्ण चतुर्दशी) को शून्य (नली) द्रव्य को लाकर रति वाली योनि में रखें। फिर पृथ्वी पर गिरने पर उंगली में अंगूठी पहनकर वृक्षों के फल फूलों को पृथ्वी में गिरा देता है।
व्योषवर्य परां कल्क लिप्तयां मांघ्रि ताड़ितः, तरु मुंचति पुष्पाणि सकलानि फलानि च
॥ १२२ ॥
व्योष (सोंठ मिरच पीपल) वर्य (श्रेष्ठ) अपरा धूप के कल्क से लिए हुए हाथों द्वारा वृक्षों को छूने से वृक्षों के सम्पूर्ण फल पुष्पादि को गिरा देता है
मोर के पिते हो जाते है ।
भुष्टता क्षणं निरुद्वानि शिरिव पित विलिप्तया, क्षिप्तानि निंब पत्राणि भवंति भुवि वृश्चिकाः
से लेप की हुई मुट्ठी में जरा देर रोककर पृथ्वी में फेंके
हुए
॥ १२३ ॥ नीम के पत्ते बिच्छू
अंकोल तेल लिप्ते करतल मुष्टौक्षणं निरुद्धाणि, पत्राणि भूत केश्याः स्युः क्षोण्यां वृश्चिका क्षिप्ताः
॥ १२४ ॥
अंकोल के तेल से लेप की हुई मुट्ठी मैं जरा देर तक रोककर पृथ्वी पर डाले हुए भूत केशी () के पत्ते बिच्छू बन जाते हैं
यज्जग्धा प्रवलाकिंका त्रिदिवसंत्यक्ताशना कौमुकं रक्ता कुसुमं हर्हेति विधिवते तेनप्रलिप्येक्षु ॥ मुष्टौ तस्य द्दढ़ें निरुद्भूयन चिरः क्षिप्रानि तारा पथे जायंते च पत्रच्छदा वरतिका श्चिचंचा फलानि स्फुटं ॥ १२५ ॥
वलाका (सारस) के द्वारा जो दिन दिन से भूखा हो उससे खाकर छोड़े हुए कौमुक () को जलाकर उसमें विधिवत् लाल रंग वाले फुल और इक्षुर (लाल मखाने) से लेप की हुई मुट्टी में मजबूती से बांधकर आकाश में फैले हुए इमली के फल और पत्ते बरटिका बन जाते हैं। 9596969599१०९९P969695969595
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विद्यानुशासन
॥ १२६ ॥
क. सूचित भूकंद दल बद्धा पिपलिका म्रियते, जीवति शारया वा चिंचा पावादलै वैद्धा हाथ से मले हुए भूकंदब के पत्तों में बंधी हुई चींटी मर जाती है और वही इमली के पत्तों में बांधी जाने से जीवित हो जाती है।
त्यक्त प्राणो मीनः स्नेहना रुष्करास्थि जातेन लिप्तः, सलिले क्षिप्तः प्रत्यागत जीवन स्ररति
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॥ १२७ ॥
मरी हुई मछली पर अरुष्कर की अस्थि (मिलाए को गुठली के तेल का लेप करके उसे पानी में डालने से वह जीवित हो जाती है
आंजल बीजैरभोवा मिश्रितं घूर्वितं करेण ततः, आलक्ष्येत चलद्धि कृमिभिः परितः परालमिय
॥ १२८ ॥
आंजक बीज को (अंज) जल के साथ हाथों पर लेप करेके उसे देखने से चलते हुए बहुत से गीड़े दिखाई देने लगते हैं ।
क्षीरेण भावितैः शुष्कैः कपित्थफलरेणुभिः, करं वित्तेर्पितं तकं कुंभ गर्भे भवेद्बहिः
॥ १२९ ॥
दूध की भावना दिये हुए कैथ (कपित्थ) के फल के चूर्ण से पुते हुए घड़े में जाला हुआ मट्टा फौरन बाहर निकल आता है
कर्णिकार प्रसूनानां चूर्णेन कृत मिश्रणं, कथितं दुग्धमाज्यस्य तुलां वर्णेन गछति
॥ १३० ॥
कर्णिकार ( कनेर के फूलों के चूर्ण को बकरी के साथ बना हुआ क्वाथ तुला (उसी) के वर्ण का हो जाता है ।
भद्रा धूक्योर्मूलमास्ये संस्थाप्य चर्वितं पांशुभिः, पूरी नेत्र भक्षयेच्च शिलां
सितां
॥ १३१ ॥
भद्रा (रायसण- पीपल - अनंत मूल कायफल- पसरन - कंभारी- गूलर) और वंधूक (दुपहरया पुष्प - पीले साल का वृक्ष की जड़ों को मुँह में चबाकर उसकी धूल को आंखों में आंजकर मेनसिल और शक्कर को खा सकता है।
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Papses
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PSPSPSPSPSPS विधानुशासन 2695959
वालायाः शक्र वल्या वा रसेन रसनां चिरं कृक्तांस्तारणा द्याम मद्यात कंडुर्भजायते
॥ १३२ ॥
(बाला) नारियल नेत्र बाला या शक्करवली के रस के साध जीभ को भिगोकर तरण आदि को खाने से खुजली नहीं होती है।
चिरं कोरंड़ पत्राणि जग्ध्वास्तत्या शिताग्रया, विध्देत्कपोल मोष्टं चनास्त्रश्रावन चव्यथा ||
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१३३॥
कोरंड़ (कटसरया) के पत्तों को खाकर यदि तेज छूरी से अपने गाल होंठ या नाक आदि को काटे तो न तो रुधिर ही निकलता है और न कर मालूम होता है।
स्थित्वानि कनकास्थिनि याम मामलकांऽबुभिः, नवनीत मया नीवं जायते मृदुतागुणात्
॥ १३४ ॥
खड़े हुए धतुरे की गुठलियों (बीजों) को एक पहर आंवले के पानी में भिगोने से वह मधुवन के समान मुलायम हो जाती है।
पुष्यार्थे ष्तुर क्षुरत् छद पत्रित युक्तं श्शरोऽपि, वालेन मुक्तो रोहित कंटक गर्भ लक्ष्यं ध्रुवं विद्येत्
॥ १३५ ॥
पुष्य नक्षत्र में क्षुर (गोखर) से लेप किया हुआ कांटे • युक्त बाण छोड़ा जाने पर निश्चय से अपने निशाने का भेदन करता है।
उदीरितं नर्म विधान मेतद्यथादेशं निखिलं विजानन्,
ततं प्रोयगं विरचय गूढ़ लोकस्य कौतूहल मात नातु ॥ १३६ ॥
यह नर्म विधान का वर्णन किया गया है उसके उपदेश को ठीक ठाक जानकर उस प्रयोग को करके मंत्र लोक को आश्चयान्वित करे ।
शास्त्रं येन घृतं हृदी दम खिलं ज्ञात्वो पदेशा द्गुरो:, षट् कर्मण्यि वचोदयवसुबहुभिः समंत्र यंत्रो षयेः ॥ अर्थात् सोर्थि जिनाय नित्य मरिवलं विश्रायन् भूमौ कल्पतरु पते बुध जन स्तुतयः स्व शक्तयाद्भूतः ॥ १३७ ॥
9595959695959.११०१59695952969595
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________________ S5I015125510505125 विधानुशासन POSTSIDISTRISTD35015 जो पुरुष गुरु के उपदेश से इस शास्त्र को पूर्ण रुप से हृदय में धारण करके बहुत प्रकार के श्रेष्ठ मंत्र यंत्र और औषधियों से छहो कर्मों को जानता है वह पंडित श्रेष्ट मांगने वालों के सब प्रयोजनों को पृथ्वी में कल्पवृक्ष के समान पूर्ण करता है। यावत् जैन पद द्वयं भवभूताः मुच्चाटयत्यापदां, यावल्दव्य जनस्तनोति निपुणः सिद्धीवंगना कर्षणं तावत सुदचि शारगं ममलं शेयाविटं पटियागं गंभीरे मति सागरे पृथुत्तरे विद्या सरित्संगते // 138 // जब तक जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल संसारी जीवों की आपत्तियों का उच्चाटन करते हैं तब तक भव्य पुरुष मुक्ति रुपी स्त्री का आकर्षण करते हैं तब तक यह अच्छे रुचियों का शास्त्र रुपी रत्र जो मति सागर जी आचार्य द्वारा रचा गया है वह मंत्रियों के गंभीर (मति) बुद्धि रुपी सागर (समुंद्र) अथया उसकी महान विद्या रुपी नदी में स्थित रहे। "इति" | इस ग्रन्धको युवाचार्य श्री 108 मुनि गुणधरनंदीजीने अहमदाबाद के 1996 के वर्षायोग के समय पूर्ण करके प्रकाशित कराया। इस ग्रन्थ का विमोचन 15 फरवरी 1997 को श्री पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर पूज्य 108 गणधराचार्य कुन्धुसागरजी एवं आचार्य कनकनन्दीजी के संघ एवं सकल समाज की उपस्थिति में किया गया। MಳದNESS{{e}ಣದಂಥದಧಾಥ