________________
CSIRIDICISIO9501505 विद्यानुशासन ASTRISIOSOTHO5015 विधि पूर्वक इतवार के दिन लाकर मुंह में रखी हुई देवदाली (घमरबेल) की जड़ और क्षता (आक) तलयार बाण और शत्रुओं का स्तंभन करती है। अराति (शत्रु)
धत सुरचाप युगे सतिनभसि गृहीता शिफेंद्र वारुणयाः,
अस्त्राणि च शस्त्राणि च निरूणिद्धि पता निजांगेन ॥९९ ॥ आकाश में सुरचाप (इंद्रधनुष) के निकलने पर ली हुई इंद्र वारूणि की शिफा (इंद्रायण की जड़) अपने अगं पर धारण करने से अस्त्र और शस्त्र रूक जाते हैं।
शरपुरवा हरिदयिता भुजंगाक्षी लक्ष्मणा मयूर शिरवा, अंकोल शंरव पुष्पी मूशल्यपि विधिवत आदाया
॥१००॥
वक्रे वा वाही वा मूदिन वा विभ्रतः सदा पुंसः,
चौरारि दहन हेति ज्वर नपतिभ्यो भयं न भवेत् 1॥१०१॥ सरपुंखा, हरिदयिता (तुलसी) भुजंगाक्षी (सर्प की आंख) लक्ष्मणा, मयूर शिया, अकोल, संखपुष्पी भूसली को विधिपूर्वक लाकर के मुँह पर भुजा पर या सिर पर विधि पूर्वक रखने वाले पुरुष को चोर शत्रु आगहेति (हथियार) ज्यर और राजाओं से भय नहीं होता।
शत मूल मूलयुक्ता सित सरपुंरवी शिफास्टगा छिंद्यात,
शस्त्रं रिपु हस्तस्थ पतमपि युधिनाग मध्टारथं ॥१०२॥ शतमूल (सतावरी) को जड सहित सफेद सरफोंके की जड़ (शिफा) को आस्य (मुख) में रखने से युद्ध में शत्रु के हाथ में रहनेवाले शस्त्र (छिंदात) टूट जाते हैं।
अटेंदु रेवाग्र गतं त्रिशूलं मध्ये च सम्यक प्रविलिरव्य धीमान, रुक्षे च कृष्ण प्रतिपदिनेतु यस्मिन् मृगांको व्यव तिष्ठतेसौ॥१०३॥
कृत्वा तदादि विगणारय युद्धे विद्यात् त्रिशूलाग्र गतेषु मृत्यु,
मातड़ संरव्येषु जयं च तेषु पराजयं षट सु वहि: स्थितेषु ॥१०४ ॥ संस्कृत टीका- अर्द्वन्दु रेखाग्र गतं अर्द्ध चंद्राकार रेखाग्र स्थितं किंतत् त्रिशूलं त्रिशूला आकारं न केवुलमर्द्ध चंद्राकाराग्र तत त्रिशूलं मध्ये च तदद्धं चंद्राकार रेषा मध्येपि च त्रिशूलं सम्यक् प्रविलिख्य शोभन कृत्वा प्रकर्षेण लिखित्वा कः धीमान बुद्धिमान रूक्षे
CSCRIRISTOTRADIODIOS८७० PASTOTHRADRISTOTSITERIES