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________________ CSCISCIRCISCED विधानुशासन PASCISCISCIRCISCESS कलि काल प्रभावेन पाप प्राम्भार तोपिया एक स्मिन्मंल सं सिद्धि दंश्यते नैवयद्यपि (५०) अर्थः- कलि काल के प्रभाव से अथवा पूर्व संचित पाप के बड़े भारी भार के कारण यद्यपि किसी एक मंस में सिद्धि दिखलाई नहीं देती । तथापि जाप्य होमायै नौमनः बोभमाप्नुयात् पापं प्रलीयत आप्या दात्मनः पुण्टामवयं (५१) अर्थ:- तो भी जाप और होम आदि के द्वारा मन को क्षोभ की प्राप्ति होने के कारण जाप से पाप नष्ट होता है और अक्षय पुण्य प्राप्त होता है । तपो दानं श्रुतं तीर्थ मित्यादौ धर्म संचयः सं सिद्ध मंल जाप्यस्य कालो मा क्रमतेनतु (५२) यथा जलद संघातः बीयते पवनाहतः पुण्या मल जपोद्भत स्तयां पाप समुच्चयः अर्थ:-तप दान शास्त्र और तीर्थ आदि से धर्म संचय किया जाता है किन्तु मंत्र को सिद्ध करके इछाडे किये हुए धर्म पर काल भी आक्रमण नहीं कर सकता है अर्थः- जिस प्रकार हवा की टवारों से बादलों का समूह नष्ट हो जाता है उसी प्रकार पुण्य मंव के जाप से पाप का समूह भी नष्ट हो जाता है | (५४) अनन्त भव लग्रस्य पाप पंकस्ट देहिनां मल जाप्यादिनानान्य द्ररणं विद्यते कचित् देये धमें गुरो मलं तस्मादास्ति क्यमुद्धान पुण्य मंल जपं कुर्यादात्मन: सिद्धि योण्या (५५) अर्थः- प्राणियों के अनन्त जन्मों से लगी हुई पाप रूपी कीचड़ को मंत्र के जाप के बिना और कोई भी धोने में समर्थ नहीं है । अर्थः- अतएव अपनी सिद्धि की इच्छा करनेवाला देय धर्म गुरू मंत्र में श्रद्धा रखता हुआ पुण्य मंत्र का जाप करे। तस्मिन् सिद्धे महामंत्रे ततः कार्येच्छाया बुधः अष्टोतर शतं पंच सहस्त्रं वा जपेनिशि SASRTICISCISEASRISTOTE २५५PISIOTSTORECISIORATOTRICTER
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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