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________________ STRICIDIRKSRIDESIRE विधानुशासन BADRASIDASTOTRICISCRI पृथक पृथक् गिनकर उनको दो से गुणा दें, फिर उनमें पृथक-पृथक् गिने हुए मंत्र में नाम के अक्षरों की संख्या जोड़ दें। इसको आठ का भाग पर शेष अंक वा राशि कहलाता है। इसमें भी ऊपर के अनुसार अधिक शेष वाले को ऋणी और कम शेष वाले को धनी समझना चाहिये। १०. मंत्रों के ऋणी होने के कारण - (मंत्र -। सा. सा. वि.) एक नियम की बात है कि हमारे वर्तमान जन्म की सब प्रेरणाएं हमारे पिछले जन्मों के संस्कारों के कारण हआ करती हैं। मंत्र सिद्धि में भी यही नियम काम करता है। हमारे इस जन्म में मंत्र शास्त्र में प्रबल प्रेम का कारण भी अवश्य ही हमारे पूर्व जन्म के प्रबल संस्कार हैं। पूर्व जन्म का संस्कार इतना प्रबल होता है कि इस जन्म में भी प्रायः उन्हीं या उन्हीं विषयों से सम्बन्ध रखने वाली मंत्रों या विधा आदि अन्य विषयों को देखते हैं, जिनका हमसे पिछले जन्म में संबंध था।मंत्र सिद्ध करने बालों को प्राय असफलताओं का भी सामना करना पड़ता है। किन्तु उस असफलता का कारण उस जन्म के पाप की अधिकता होने से मंत्र की शक्ति याप के दूर करने में ही लग जाती है। पूर्व जन्म में भी साधकों को ऐसा अनेक बार हुआ है। अतएव जो मंत्र पूर्व उन्म में उपासना के समय पापकी अधिकता से पाप का क्षय करते हुए अन्य फल नदे सके और पाप का क्षय होने के पश्चात् फला समय आने पर साधक को मृत्यु हो जाने के कारण उसको फल न दे सके वह मंत्र पिछले जन्म में फल न देने से दूसरे जन्म में ऋणी होते हैं। अतएव ऋणी मंत्र साधक को प्राप्त होते ही सिद्धि होते हैं। बराबर अंकवाले मंत्र भली प्रकार साधन करने से सिद्ध होते हैं। और धनी मंत्र बहुत अधिक सेवा से फल देते हैं। न मंत्रं साधटोत् यत्र द्दष्ट मा कर्णिन बलात् यद्दच्छया वाचनेन यतो सोनर्थ कद्भवेत् ॥२९॥ मंत्रों को कभी देखकर या सुनकर ही अपनी इच्छा से कभी आरंभ नहीं करे अन्यथा उससे अनर्थ हो सकता है। अतो गुरू मुरदादेव मंत्र मादाय साधक: साधटोद् विनयानम्रोभूत्वा अभिमत सिद्धटो ॥३०॥ अतएव साधक गुरू के मुख से ही मंत्र लेकर सिद्धि के लिए विनयपूर्वक नम होकर जाप प्रारंभ करे। कलिंग फल वृतांक मत्स्याक्षी लसुनादिकं नाद्यात् शिष्यो भवे जीर्णानिमपि क्षीर धतादिक ॥३१॥ शिष्य कलिंग फल मछली लहसन पुराना अनाज दूध और घृत कभी न खायें। SERISTRISTRIEIDISTRICT ५२ PECIDICIDEADRISTOTRICISS
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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