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STORISSISTRI501505 विधानुशासन 95015015015100SRISH
गुरु ददानो विगुणाय मंत्रं शिष्याय शिष्या स आददानः
अनर्थ माप्नोत्यधिदेवतायाः फलंच मंत्रस्य न किंचन स्यात्।।३२।। मंत्र गुरू के द्वारा दिये जाने और शिष्य के द्वारा लिया जाने पर विशेष गुणकारी होता है। अन्यथा मंत्र के अधिष्टता देवता से अनर्य की प्राप्ति होती है। और मंत्र का फल भी कुछ नहीं होता।
षटकणे र्भिद्यते मंत्रोयेन तेन रहस्य सौ शिष्याय गुरूणा दे यो न चान्य संनिधौ
|॥३३॥ मंत्र कानों में जाने से छिन्न भिन्न हो जाता है इसलिये गुरू एकान्त में ही शिष्य को मंत्र प्रदान करे।
उपदिशत यथा तत्वं परोपदेश प्रवीण गुरू मुख्यः शिष्येण तथा देयं नहिं कर्तव्यो विचारांत्र
॥३४॥ जिस प्रकार परोपदेश में चुतर गुरु उपदेश देते हैं। उसी प्रकार योग्य शिष्य भी उपदेश देये । और कुछ विचार नहीं करे।
मंत्रो गुरुपदिष्टः स्यात सफल स्तदिह पुस्तके प्रकटं लिरिवतोपि गुरोरेव ग्राह्यं नैवस्वयं मंत्रः
॥३५॥ इस ग्रन्थ में लिखे हुये सभी मंत्रो को गुरू से ही ग्रहण करे यद्यपि वह प्रकट रूप में लिखें है। किन्तु उनको स्वयं न लेयें।
शिष्याय यमुपादीक्षम् मंत्र साधितमात्मना सूरिः सहस्र भटोपि तं जपेत् स्वस्य सिद्धये
॥३६॥ मुनि जिस मंत्र को शिष्य को बतला देवें उसको अपनी सिद्धि के लिए एक हजार फिर जपे।
अथापवादः अब इस नियम के अपवाद बतलाये जाते हैं।
प्रणवस्तु हरिर्माया व्योमव्यापी षडक्ष्यः प्रासादोबहुररूपी च सप्त साधारणः स्मृताः
॥१॥ हरिमाया व्योमव्यापी षडक्षम प्रासाद बहुरूपी और साधारण यह सात प्रणव होते हैं।
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