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द्विचतुः षष्टचतुर्दश कलाभिऽत्य स्वरेण बिंदुयुतैः कूटै दिग्वन्य स्तैर्द्दिशासु दिग्बंधनं कुर्यात् ॥
क्ष अक्षर को दूसरा कला आ सहित क्षा के बिन्दु अर्थात अनुस्वार सहित क्षां बीज फिर चौथी कला ईं सहित अर्थात् क्षीं छटी कला सहित क्षं चौदहवीं कला क्षौं और अंत के स्वर सहित अर्थात् क्षः इन सबसे क्षां क्षीं क्षू क्षौं दक्षः से पांच दिशाओं का दिग्बंधन करें।
हेम मयं प्राकारं चतुरस्तं चिंतये त्सुमुतंगं विशंति हस्तं मंत्री सर्व स्वर संयुतै शून्यै
सकल स्वर संपूर्ण कुटैरपि खातिका कृति ध्यायेत् निर्मलजल परिपूर्णः मति भीषण जलचरा कीर्ण
ज्वलदोंकार रकारैः ज्वालादग्धं स्वमग्निपुर संस्थं ध्यात्वा मृत मंत्रेण स्नानं पश्चात्करोत्यमुना
फिर सोने का बना हुआ चौकोर बीस हाथ ऊँचा परकोटे का चिंतयन करे। इस परकोटे की सब स्वरों सहित हुंकार का चिंतवन करे। अर्थात ह हा हि ही हु हु हृ ६ हृह्र हे है हो हो हं हं बीज रूपी देव परकोटे की रक्षा कर रहे हैं।
फिर सब स्वरों सहित क्ष बीज का निर्मल जल से भरी हुई जिसमें भयानक जलचरों से भरी हुई खाई का चितवन करें।
उस खाई में स्थित क्षां क्षीं क्षु क्षं क्ष क्ष क्ष्लृ क्ष्लृ क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष बीज रूपी देव वहां रक्षा कर रहे हैं, और अपने आप को अग्नि पुर में बैठे हुये और रकार रूपी अग्रि तो ज्वाला की शिखा से जलता हुआ ध्यान करे फिर अमृत मंत्र से अभिमंत्रित जल के छींटे देकर स्नान करें।
ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणी अमृतं श्रायय श्रावय सं सं क्ली क्लीं हूं हूं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावयद्राथय ठं ठं ह्रीं स्वाहा ||
निजोत्तमामरे भूधराग्रे संस्नापितः पार्श्व जिनेन्द्र चंद्रः क्षीराब्धिदुग्धेन सुरेन्द्र वृंदैः स्वं चिंतये तज्जल पूतजातं
अपने मस्तक रूपी सुमेरू पर्वत पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी को विराजमान ख्याल करें। जिनके देवेन्द्रों द्वारा क्षीर समुद्र जल से अभिषेक हो रहा है। और उस अभिषेक का जल अपने शरीर पर गिर रहा है । यह ध्यान करे कि मेरा शरीर शुद्ध हो गया है।
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