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SODOI5015015105 विधानुशासन SSOSID512150SCAN ॐ नमो भगवति योषणिकायै मेष वाहनायै वहु माष प्रियायै ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं कौं इमं बलिं गन्ह गृह बालकं मुंच मुंच स्वाहा।
बीसवें दिन की रक्षा
विंशत्य हो वयस्वतं गन्हीतेऽथ कपोतिनी रूक पाद हस्तयोर्मूत्रं भवेद्युबहु विक्रियाः
॥८५॥
पारामं तिल मुगाम्यां केवलं च त्रिविधो दनं मृत्सृष्ट प्रतिमा कुस्योः पृथक पात्रे च वेशितः
॥८६॥
प्रातरुत्तर तो न्यसेब्दलिंगंधा दिशाशोभितं लेपयेदाभयो षीर पौर्बिलं विचक्षणः
1।८७॥
काप्पासा स्थाऽहि निम्मोक निंब पौस्तु धूपटीत
पत्र भंगेन च स्नायात्त ततो मुंधति साग्रही ॥८८॥ बीसवें दिन कपोतिनी नाम की ग्रही से बालक को पकड़ने से पर हाथ पैरें में रोग अधिक मूत्र तया बहुत प्रकार के विकार हो जाते हैं। उसके के लिए खीर, तिल, मूंग तथा तीन प्रकार के भात को मिट्टी की बनाई हुई प्रतिमा को कोष में अलग बर्तन में रख्खे। बलि को प्रातःकाल के समय गंध आदि से सजाकर उत्तर की तरफ रखे और चतुर पुरुष कूठ तथा खस के पत्तों से बलि पर लेप करे। कपास की लकड़ी सर्प कांचली और नीम के पत्ते को धूप दें और बालक को पत्र अंग जल से स्नान कराके तो यह ग्रही उस बालक को छोड़ देती है। - ॐनमो भगवति कपोतिनी बाल पीडा प्रिये सर्वाभरणभूषिते ऐहि ऐहि आवेशय आवेशय ही ह्रीं क्रौं क्रौं इमं बलिं गन्ह गन्ह बालकं मुंच मुंव स्याहा।
इक्कीसवें दिन की रक्षा
॥८९॥
एकविंशत्यहोरात्रं डाकिन्याश्रयते ग्रही
स्फोटोपांगे मुरवे च स्यात् तदा तस्यां प्रतिक्रिया CASIOTSIONSCISIOISIOTECTS ४६१ PASRIDICISIOTSCI5050