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तीर्थाधिनाथ कमलापि समुत्सु के वितं । वांछितप्रथित निर्मल पुण्य राशि
देवाधिदेव मरिवलारि कंराद्र सिंह यः पार्श्वनाथ मिह सं स्मरति त्रिसंध्यं
(१६)
अर्थ :- हे तीर्थेश्वर लक्ष्मी भी आप से लीन हुई के समान मानो प्रसिद्ध और निर्मल पुण्य की राशि की
इछा करती है
(१५)
अर्थ:- इस प्रकार तीनों संध्यायों के समय देवतावों के देवता समस्त शत्रु रूपी हाथियों के लिये सिंह रूप श्री पार्श्वनाथ जी भगवान का स्मरण करना चाहिये ।
प्रभु ध्यात्वा ततो ध्यायेत के सरेषु दलेषु च मंत्राक्षराणि तीथॆशान ततः शासन देवता
एतद्ध्यानात् पलायंते क्षुद्रोपद्रवव्याधया अविधा प्रलेयं यांति सन्निधौ सति देवता
(१७)
एकैकमक्षर देवं विश्वद्योत करं स्मरेत् संनिध्य कारिणी देवता सर्वाः प्रभा
(१८)
अर्थ:- भगवान का इस प्रकार ध्यान करके फिर केशर और दलों में मंत्र के अक्षरों तीर्थकरो और सब शासन देवियों का ध्यान करे
अर्थ:- एक-एक अक्षर देव और सब देवियों को समस्त जगत को प्रकाशित करते हुए ध्यान करे
(१९)
पारथित्वा ततो ध्यानं साक्षादिति पुरः स्थितः देवाधिदेवं श्री पार्श्व स्तुयं नित्य महोत्सवैः
(२०)
अर्थ:- इस ध्यान से जो भी छोटे-छोटे उपद्रव और रोग होते है यह सब भाग जाते है और देवियों के पास आने पर अविद्याएं पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है
अर्थ:
:- इस प्रकार साक्षात् सामने खड़े हुए के समान ध्यान करके फिर देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथजी का बड़े बड़े स्त्रोतो से स्तुति करे ।
॥ इति ध्यानाधिकारस्तृतीय ॥
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