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________________ C95015123510505125 विद्यानुशासन 150151015TOSISTERS कंठश्रियं अक्ष कलोद्भवाद्याः नूनं दिवृक्षुःस कुत् हलात्मा उपेत्य पश्चात्सहकार शारवा स्कंथं समागच्छति वोलपूंग ॥१६॥ मंदेनमंद स्मित चंद्रिकाया: बिवाधरेण प्रविभक्त कांति: मुरवेन्दुरस्या उपमामुपैति सध्यानुपक्तेन निशा कोण ॥१७॥ देव्या कनत्कांचन कर्णपुर रक्ता प्रभामंडल मध्यवर्ती मुरवेंदु रिदोः परिवेष चक्र मध्यं गतास्यनुकरोति लक्ष्मीं ॥१८॥ पर्याययतः पद्म समान गंध निश्वास गंधं निज मर्पयंती नासा तदीया वदनार विंदं गंधं समायातु मिव प्रवृत्ता ॥१९॥ स्वभाव कात्यां निमिषं मगादयायल्या दशोर्द्धद्रमनिंदितायाः निव्याजमेवा निमिष द्वयस्य विवर्तभम मातनोति ॥२०॥ अपांग सीमांत मतीत्पद्याता महेन्द्र नील दुति चोर कांति भूचाप रेरवा विदधाति मातुः कर्णावतं सोत्पल शोभनीय ॥२१॥ देव्या ललाटे इंदु कला विलासं विलोक्य वैलक्ष्य विसंस्तुलात्या इंदोः कला धूर्जटि मौलि वंधजटाटवी गहरमभ्युपैति ॥ २२ ॥ विभर्ति भक्या सुचिरं स्वमूर्भाः यक्षेश्वरी हेम किरीट मध्ये अरिष्टनेमि भगवंत मुच्चै महेन्द्र नीलोत्पल रत्न मूर्ति ॥२३॥ देव्या पुरो रत्न विनिमितांगो प्रभावतो जंगमतां प्रयत्नौ आ कीडतः कृत्रिम पुत्र कौतौ प्रियंकर श्चाथ श्रभैकरश्च ॥ २४ ॥ भक्तटात्मनापि प्रिय सं विधानां प्रोक्तं पुरोभागितया ममेरं जिनेन्द्र वृंदै रूप लाभ नीयो साक्षात सुतौ तौन- यक्ष देव्या ।। २५ ॥
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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