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________________ मात्र विद्यानुशासन 95959595969 । तद्यथा । निस्संकल्प विकल्पो धान दधातु जिनेशितुः कलिकुं डैक भागस्थं हपिंडाराधकं भजेत् । ॐ ह्रीं हमल्थ्यू ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं हपिंडाधिष्टित कलिकुंड दंडा धीर्श्व अतुल बल वीर्य पराक्रम श्री मत्पार्श्व भगवतोऽहं तोंग पाला होत्र पूर्वमवतर अवतर तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः मम सन्निहितो भव भव वषट् चोरारी मारि शाकिनी प्रभृति धोरोप । सर्गान पनयापनयममा भिनमनशेषं पूरा पूरा इदमं अर्ध्य पाद्यं गंवं अक्षतं पुष्पं दिपं धूपं चरु बली स्वस्तिकमक्षतं यज्ञ भागं च यजामहे प्रति गृह्यतां गृह्यतां मिति स्वाहा 6959‍5 इवाह्नानादिकं कम' क्रियते त्रय इच्छया । तत्सर्व पूर्णतामिति शांति कादिभिरोदरात् शुक्ल ध्यान धनोदारारखंड चिपिंड मृद्विभो कलिकुंडक भागस्य भापिंडा राधकं भजे | ॐ ह्रीं भच्यू ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं भापिडाधिष्टितेत्यादिशेषं पूर्वयत् । अर्थ:- उज्वल श्वेत वर्ण घट द्वारा ध्यान करे अखंडचित्त करके पिंड का अक्षर विभव का दायक है | मार मार्गेण निर्वेद मीतभव्य विभितिदं कलिकुंडक भागस्थ मपिंडांराधकं भजेत् ॥ अर्थ: जो काम मार्ग का भेदक है भव्य जीवोंको अभय करने वाला म पिंड अक्षर का ध्यान करें। ॐ ह्रीं म्मल्व ॐ ह्रीं ॐ आं कों ह्रीं मपिंडाधिष्टतेत्यादि शेषं पूर्ववत् ॥ ब्रह्माग्नि मासितानंत भव संभव मूरूह | कलिकुंडैक भागस्थं रपिक्षराधकं भजेत् । ॐ ह्रीं रम्ल्यू ई ह्रीं ॐ आं कों हीं रपिंडाधिष्टतेत्यादि शेषं पूर्ववत् । घनाघनाद्य संघात धातित्वाद्य धन प्रभो कलिकुंठै क भागस्थ घपिडाराधकं भजेत् ॥ 3 ह्रीं हम्ल्यू ई ह्रीं आं कों ह्रीं घपिंडाधिष्टितेत्यादि शेषं पूर्ववत् 95961095106 159595 २७७P/596969599
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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