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________________ 252525252593 angeurea 950525252525 तेषा मुभे अवस्थे स्वापो बोध इति तैज सस्य स्वापौ वामवहनं प्रबोधोदक्षिण वहनं परस्यतौ विपरीतौ ॥ ३७ ॥ उनकी दो अवस्थायें होती हैं। स्वाप (सोया हुवा) और बोध (जागृत) तेजस आग्नेय अर्थात स्वाप बाम वायु बहे और प्रबोध या बोध अर्थात जागृत अवस्था में दाहिने स्वर से वायु बहती है यह एक दूसरे के विपरीत अवस्था होती है। मंत्रस्योग्य हे बोधः स्यादुभयत्र भेदानां मंत्र: मात्रः सिद्धैयैन भवेत्प्रसुप्तश्च प्रबुद्ध 1132 11 यदि मंत्र दोनों में बह रहा हो तो दोनों ही भेदों को समझना चाहिये केवल प्रबुद्ध जागृत और केवल प्रसुप्त सोयी हुवी अवस्था में अर्थात केवल दाहिना स्वर या केवल बायाँ स्वर बहे तब मंत्र सिद्ध नहीं होता है । हृन्मस्तक शिखा वर्ष्म नेत्रास्त्रिषु क्रमाब्दुधः. नमः स्वाहा वषट हुं संवौषट फट् इति योजयेत् ॥ ३९ ॥ पंडित हृदय में नमः मस्तक में स्वाहा चोटी अर्थात् शिखा में वषट् कवच में हुं और नेत्रों में संवोषट् और फट् लगावे । अंग मंत्रान् विद्यते यस्य मंत्रस्य वितस्योपद्देश कल्पेयेदात्मनैवतान् ਮਿਜ਼ स्यात् 1180 11 जिस मंत्र में पृथक अंग भेदों का वर्णन नहीं होवे बुद्धिमान उनमें अपनी बुद्धि से ही उनकी कल्पना कर लें । एक स्य मंत्रस्य षडंग मंत्रा ते न्यस्य पंचोपि दिशं तितज्ञाः पंचागं मंत्रस्य तु पंचमेन मंत्रेण नेत्रसहितं विलिपेत् ॥ ४१ ॥ जिस मंत्र का षडंगन्यास होता है उस न्यास में पांच अंगों का उपदेश भी किया जाता है। पंचाग मंत्र का नेत्र सहित न्यास करके अनुष्ठान करे। अरहंता अशरीरा आईरिया उवज्झाया तहा मुणिणो पढमक्षराणिप्पणो उंकारी पंच परमेट्ठी । उकार पंच परमेष्ठी का द्योतक है यह अरहंत का अ, सिद्ध अशरीर का, आचार्य का आ, उपाध्याय काउ और सर्व साधु अर्थात् मुनि का अनुस्वार प्रथम अक्षर अ अ आ उ अं को सम्मिलित करके बताया गया है। 9595959695969 १4 P5969596969595
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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