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________________ SSP विधानुशासन 959590596 पुत्रार्त्ततया तादृक सविसं मांसस्य मध्यमा विषं उम्मोदन तु बिद्धं मृदु लाला कलितमल्प विषं ॥ ८७ ॥ पुत्र से दुःखी नाग का इसना भी खंडित ही होता है और दांत मांस के बीच में जा गड़ते हैं उन्माद से डसना बिद्ध होता है, यह कोमलता युक्त होने से बहुत थोड़े विष याला तथा मुँह से लार बहाने वाला होता है। चक्रं सुवह व्रणमां क्रमाणेत प्रायो भवत्य विषं, बहु वंशम सृग लाला श्रवा विषं प्रायशो दर्पात् 112611 आक्रमण के कारण से इसे हुए के बहुत से गोल गोल जखम हो जाते हैं और इसमें प्रायः विष नहीं होता है, अभिमान से काटे हुऐ के बहुत अधिक डसा जाता है, उसमें खून बहता है और लार गिरती है और विष भी अधिक होता है। स्थान प्राणत साध्यं तादृक्षं मांसस्य मध्य गतं ऋजु बिद्धं, दष्टं वा चक्रं वैराद् भवत्य साध्य समं मता ॥ ८९ ॥ स्थान की रक्षा करने में कभी दृष्ट और कभी कभी मांस के बीच में दो दांतो से सीधा बींधा जाता है, उसकी चिकित्सा सरल होती है और बैर से काटने पर गोल गोल कटता है, इस प्रकार से काटे हुए का बचाव प्रायः असाध्य होता है। रुक्षः सूक्ष्मः कृष्णो दंशो दर्वीकरस्य विज्ञेय:, मंडलिनः पृथुरुषणः कृष्ण स्फीतः प्रभा शून: ॥ ९० ॥ दर्वीकर का डसना रुखा, सूक्ष्म और काला जानना चाहिये, मंडली सर्पका इसना भारी, गरम, काला स्फीत (बढ़ा हुआ) और कांति रहित होता है। श्वेतः स्निग्धः शूनः साद्राऽसृक पिच्छलाश्च राजिमतः, व्यंतर संज्ञेयाऽहे र्द्दशा व्यामिश्र चिन्हः स्यात् ॥ ९१ ॥ राजिमान का इसना सफेद चिकना खाली खून से भरा हुआ और लथपथ होता है तथा व्यंतर नाम के नाग के इसने में अनेक चिन्ह मिले हुए होते हैं। एकोऽथवा त्रयो वा दंशा बहु वेदना: शवा रुधिरः, काकाहि चक्र कूर्मा काराश्च नयंति यम सदर्ज 95959595959595 ६२० P959595959 ॥ ९२ ॥
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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