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विधानुशासन SP59696969
सर्पिषा नसि विन्यस्ते सर्पि भृष्टेसिता सृजि:, सांतः शिरोति स्वेदेवाः पाय स्नानेन मूर्द्धनि
॥ ११७ ॥
भृष्टे सिता (बाबची) को भ्रष्टे (गिराकर पीसकर) सूंघने से सिर के रोग नष्ट होते हैं और खीर और अन्न का सिर पर स्वेदन करने से शिरोति शांत होती है। (११६ श्लोक का यंत्र यहाँ है)
मस्ति स कस्ट हरिद्रायाः सूंठया वा रेणुभिः कृता, गुलिका तैलाक्ता जयति तरां शिरो रुजं धूम पानेन
॥ ११८ ॥
मस्तिष्क (दिमाग) के वास्ते हल्दी सोंठ या रेणुका (संभालू के बीज) के चूर्ण को तिल के तेल में गीली करके बनायी हुयी गोली के धुंए को पीने से सिर के रोग को पूरी तरह से जीत लेता है ।
नाम कूट शशांकाद्भिर्वेष्टितं भूपुरस्थितं, हस्ते चूर्णेन सं लिख्य दर्शयेऽक्षिरोगजित्
॥ ११९ ॥
रोगी के नाम को कूट (क्ष) शशांक (चंद्रमा व) चंद्र मंडल और पृथ्वी मंडल से वेष्टित करके हाथ पर चूने से लिखकर रोगी को दिखलावे तो आंख के रोग जीत जाते है ।
स्तंभयति नेत्र पीड़ां कुलिश हतो लांत युक्त कष चूर्णः, वर कुरुते वश्यं न्यस्तं चित्स्थापये नयने
॥ १२० ॥
वज्र से घिरा हुआ लांत (च) को कष अक्षरों से घेरने से नेत्र की पीड़ा का स्तंभन करता है तथा इसका क्षेत्र में स्थापन करने से श्रेष्ठ वशीकरण करता है ।
धृत पिष्टाभ्यां कांजिक पिष्टाभ्यां वस्त्र शकल यद्धाभ्यां अश्वोत नमक्षि रुजं जयति तरां पहुतिरीटाभ्यां
॥ १२१ ॥
तिरित (लोग) को एक साबुत कपड़े से बांधकर पहले घृत फिर काजी से पीसकर अपनी आंखों में अंजन करने से आंखों के रोगों को जीतता है।
वयकितूल कृतया शशांक चूर्ण प्रपूरितो दरया, दीपा दीप्तादाशाश्रूषणाति मषिद्मशो रोगं ता
॥ १२२ ॥
आक की रुई के बीच में शशांक (कपूर) के चूर्ण को भर बनाई हुयी बत्ती को जलाने पर काजल उपाड़कर नेत्रों में लगाने से आंख के रोग दूर होते हैं।
यत्रागतासि चंद्रतेत विद्यं गच्छ सुवृते ठः ठः ॥
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