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विद्यानुशासन
95959595एनएक
जो नीच कुलोत्पन्न अत्यंत बालक, वृद्ध, शील रहित, कुत्ता, मृग के चर्म आदि सींग अथवा केशजटाधारी अधर्म और पाप से प्रेम करने वाला हो।
ब्रह्महत्यादि दोषाढ्यो विरूपो व्याधि पीडितः ईद्दशोन भवेद् योग्यो मंत्र वादेषु सर्वदा
॥ १५ ॥
अथवा जो ब्रह्मा हत्या आदि दोषों से युक्त हो, बिगड़े हुवे रूप याला अथवा रोगी हो ऐसा व्यक्ति मंत्र वादी कभी नहीं हो सकता अर्थात् मंत्र आराधना के योग्य नहीं हो सकता।
॥ गुरू का महत्त्व ॥
गुरुरेव भवेद्देवो गुरुरेव भवेत्पिता गुरुरेव भवेन्माता गुरूरे धर्भवदहितं । गुरु: स्वामी गुरुर्भर्तागुरू विधा गुरू:गुर गुरुस्वर्गी गुरूमक्ष गुरुबंधु गुरुःसरवा
॥ १७ ॥
गुरु ही देव है, गुरू ही पिता है गुरू ही माता और गुरु ही हितकारी होता है। गुरू ही स्वामी, गुरू ही भाई और विद्या है गुरू ही बड़ा होता है, गुरू ही स्वर्ग और मोक्ष है, गुरु ही बंधु और गुरू ही मित्र होता है।
गुरुपदेशादिह मंत्र बोधः प्रजायते शिष्य जनस्य सम्यक् । तस्माद् गुरुपासनमेव कार्यमंत्रां न्बुभुत्सोर्विनयेन नित्यं
॥ १९ ॥
गुरु के उपदेश से ही शिष्यों को भली प्रकार मंत्र का ज्ञान होता है। अतएव ज्ञान की इच्छा रखने वाले शिष्य को सदा ही नियम पूर्वक गुरु की उपासन करनी चाहिये।
इत्यार्षे विद्यानुशासने मंत्रि लक्षणं नाम प्रथमः परिच्छेद समाप्तः इस प्रकार विधानुशासन में मंत्री का लक्षण नामक प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।
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