SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 637
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ CRICISIOSITICT विधानुशासन 985103510551055105555 सद्यो लोहादिभि स्तप्रैज्वलन ज्वालयाथवा, दंश प्रदेशे दृष्टस्यक्षाहो विष विकारजित ॥१३॥ तुरन्त ही अग्नि से तपे हुए लोहे या अग्नि से इसे स्थान को जला देने से विष का विकार जीता जा सकता है। हतस्य फणि नांगंस्य कुवीत छेदनं क्षणात्, अथवा दंशं देशस्य शिरां विंध्यत्समीपगां ॥१४॥ अथवा मारे हुए फणी नाग के अंग को तुरन्त छेद डाले अथवा काटे हुए स्थान के पास की नाड़ी या नस को बींध देवे। दष्टं स मुक्त रक्तं लिंपेतो शीर मलय जाताभ्यांः, शुष्ठी मरिचं कृष्णामपि पिष्टवा पायगेन् मंत्री ॥१५॥ अथवा सर्प से काटे हुए स्थान का रक्त निकाल कर अस जगह खस(मलयज), चंदन का लेप कर देये और मंत्री काटे हुए पुरूष को सोंठ और काली मिरच पीस कर पिलावे । वंद्याभूषण दाह खंडन निज श्लेष्मापि विरमामर्द्धनैः, रन्यै रप्प चिरं कुरू प्रति विद्यं दंश प्रदेशे स्वयं ॥१६॥ किं ग्राम्टोः रथवा त्र निर्विष विधिद्धस्तैर हो मंत्रिणो, यस्याप्येष विषाय हार निरतं काटोपि तत्वं स्थिरं ॥१७॥ काटे हुए स्थान के पास बांधने, गहने से जला देना, खंडित अर्थात् काट डालने और अपने कफ या मल को पिलाना, मालिश करना और इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का भी काटे हुए स्थान पर प्रयोग करे और कोई प्रतिकार की विधि खुद करे। इस विष को दूर करने की विधि में गांव की विधि क्या करेगी ऐसा नहीं करना चाहिये। क्योंकि यह विष दूर करने की विधि जिसके शरीर में भी लग जावेगी वही वास्तविक बन जाती है। रसनाग्रं ताल्वग्रे संस्थाप्या पानमा कुंच्या, आकर्षेत् तत्रात्मा ने मृत पूर्व काल यलात् ॥१८॥ जिव्हा के अग्रभाग को तालू के अग्र भाग में लगाकर अपनी अपान वायु को खींचकर यहाँ अपनी अमृतमयी पहली कला को यत्न पूर्वक आकर्षित करे। SSIOSISTRITICISTRATIO5६३१ PID050505ICTERISTIT
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy