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________________ 252525252525 Regencast 259545959595 आस्यां समुपेतेन मलेन श्रोत्र जन्मना, सद्यो लेपाद्विषं दंशं जाति काम्यति जातु चित् ॥७॥ मुख के पानी के साथ कान के मैल को मिलाकर काटे हुए स्थान पर तुरन्त ही लेप करने से विष कभी नहीं बढ़ता। कृतवृणे नखाग्रेण दंशे कफमलादिभिः, मर्द्दनं विहितं सर्व विषघ्नमभि भाषितं ॥ ८ ॥ सर्प के काटे हुये स्थान पर नाखून के अगले भाग को कफ मलादि में मिलाकर लेप करने से तुरन्त ही विष नष्ट हो जाता है । दृष्टव्या विष शांत्यै प्रत्यासन्ना स्मलोष्टकादि, दष्टेन सलिलमथवा शीतल माशु प्रवेष्टेयं ॥ ९ ॥ अथवा काटे हुए के विष को शांत करने के वास्ते देखते ही पास के पत्थर, ढेले, लकड़ी आदि से तुरन्त ही उसमें ठंडा जल भर देवे । अन्य पार्श्वस्थया पूर्ख नासा वत्या पार्श्व संस्थाया, रेचयेद मुना दंशं नाति क्रामत्य हे र्विषं ॥ १० ॥ सर्प के काटने के समय यदि बाम पार्श्व में काटा हो तो दाहिने स्वर से अथवा दाहिनी तरफ काटा हो तो बाँये स्वर से विष निकाल दे इससे सर्प का विष नहीं चढता है। के हो जाता है। निपीऽनेन नाशाग्र मध्य दंशस्य निग्रहः, विषाणां स्याद शेषाणामथवा वायु रोधतः ॥ ११ ॥ भाग के मध्य में मलने से या वायु को रोकने से सांप के काटे हुए के विष का निग्रह जिव्हाग्रेण स्पृष्टवा ताल वग्रं कुंभकं समातन्वत रूं ध्यान्नाशास्य हृदयं दृष्ट क्ष्वेलाद्विमुच्यते क्षिप्रं ॥ १२ ॥ जिह्वा के अग्रभाग से तालू छूकर कुंभकं के द्वारा नाक, मुख और हृदय को रोकने वाला सर्प दष्ट पुरुष तुरन्त ही विष से छूट जाता है। 95959596995 ६३० P5959595959
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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