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________________ 05051015015015015 विधानुशासन ASADSOISITTERISTORI अंगुष्टयो पष्टे मूर्द्धनावथ जानू गुह्य नाभि हदि स्तन, गलाशा मान अवण भू मध्य शंख मूद्धनिवा ॥१९॥ अंगूठे में, पांव में, पीठ में, मस्तक, जांघ, गुह्य, नाभि, हृदय, स्तन, गला, नासिका, आंख, कान, भों के बीच में शंख (सिर) और मस्तक में पुंसः पार्क दक्षिण आरोहणे वच रति सित पक्षी, अमृत कला प्रथमाया आरंभ्या रा कमनु पूर्व ॥२०॥ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अंगूठे से आरंभ करके क्रम से पुरुष के सब दाहिने अंगो में चन्द्रमा की एक एक कला के बराबर विष चढ़ता है। पुरूष स्यासित पक्षे तिथि क्रमादुक्त क्रमेण मूर्दादि, अगुष्टां तं वाम पार्क सौ धि कला चरति ॥२१॥ और कृष्ण पक्ष में पुरुष के तिथि के क्रम से सिर से लेकर अंगूठे तक वाम भाग में चन्द्रमा की कला के बराबर विष उतरता है। स्त्री के शरीर में विष की चंद्रकला नावस्तु सिते पक्षे वामे पाई शधाकलां चरति, आरोहणान्य स्मिन दक्षिण पावरोहण ॥ २२|| स्त्री के शुक्ल पक्ष में बायें शरीर के भाग में चन्द्रमा की एक कला चढती है और कृष्ण पक्ष में दाहिने भाग में एक एक कला उतरती है। प्रोक्तं सुधा कलायाः स्थानं यद्वपुषि सत्तवमेतस्थ, क्ष्वेड़कला चरति तथा तिथि क्रमात् तत्र तत्रागं ॥२३॥ इस प्रकार के स्त्री और पुरुषों के शरीर में अमृत और विष की कला तिथि के क्रम से उसी उसी अंग में रहती है। यात्रामृत मप्या स्ते कला शरीरैक देशेवा, तन्मईनात्प्रशाम्यति विषंक्षणाद्ध्यात देहमपि ॥२४॥ शरीर के जिस भाग में इस प्रकार से विष की चन्द्रकला होवे उसी अंग को मलने से क्षण मात्र में ही सर्प विष शान्त हो जाता है । CTERISTOTHRISTOISO15855६३२ DISTRICTSICISTRICISCESS
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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