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________________ 95969595 विधानुशासन 95959595595 सतिष्टंति यत्रांगे तत्र भुजंगेश्वरेण कुलिकेन, अपि दष्टस्य विषार्त्तिः प्रादुर्भवति प्रभुनं भवेत्तः ॥ २५ ॥ इसीप्रकार से यदि किसी भाग में नागराज कुलिक के भी काटने से विष पीड़ा हो तो वह फिर पैदा नहीं होती । स्मर मंदिर स्थितायां सुधा कलायां रतिः स्त्रियाः, प्रथमा रचिता करोति यावज्जीवं स्नेहातुरां नारीं ॥ २६ ॥ यदि चन्द्रमा स्त्री योनि में हो तो और उस समय कोई पुरुष इससे से पहले से संबंध करके संभोग करे तो स्त्री जन्मभर उसके प्रेम से व्याकुल रहती है। युत मंग मंगनाया यदमृत कलया रतोत्सवं, तंत्र संस्पर्श चुंबनाद्यं वश्याय द्रावण यापि ॥ २७ ॥ स्त्री के जिस अंग में चंद्र कला अमृतमयी हो उसी अंग का स्पर्श और चुंबन आदि करने से स्त्री वश में होकर तुरन्त ही द्रावित हो जाती है। यस्मिंस्तु विषमयी सा कला शरीरे स्थित्वाऽहि, दष्टस्य तस्यांगस्य विमर्द्धकृते क्षणात्स्याद विष स्तौभः ॥ २८ ॥ किन्तु जिस समय वह चंद्रकला विषमयी हो तो उसी अंग का मर्दन करने से उसी क्षण में विष नष्ट हो जाता है। कलया युतांगे यदि दंश: साध्य लक्षण युतोपि, सहसै वनयति मनुजं कृतांत धन मदिरा वासं यदि विष की कला से युक्त किसी अंग में सर्प ने काटा हो तो साध्य के लक्षण होने विष काबू में आ सकता है) किन्तु इससे वह पुरुष को शीघ्र ही (क्रतांत ) यम के बना देती है । ॥ २९ ॥ पर भी ( अर्थात् मंदिर का अतिथि शत्रोः प्रतिकूल पुतल्यां विष कलाश्रितेऽवयये, वेद्यादिकं विदयाद यथा वद्धुधार काद्यर्थ || 30 || प्रतिकूल नक्षत्र में शत्रु की पुतली बनाकर उसके विषकला सहित अंग में वैध (बींधना या कील गाड़ना) आदि की क्रिया करे तथा छुड़ाने के वास्ते भी किया करे। Pop 9595PS ६३३ PSPSPS PSPSPS
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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