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ಇಡಗಣಣಠಣಡ Rag೯ ಜಗಳಗಂಗಪಡಿಗಳ
दिव्यांबर भूषा कुसुम मल भजां लंकृतो व्रजेदा
उत्थाय तत्पदेशात् सत् मंडलं पादका रुठः ॥१६४ ॥ फिर दिव्य वस्त्र आभूषण पुष्प और सुगंध आदि से अपने शरीर को शोभित करके वहाँ से उटकर खडाऊँ पर छढकर चले।
कुसुमाक्षतांजलि घटो ललाटहस्त प्रदक्षिणी कत्य,
तन्मंडलं ततो सा वभि मुख मुपविशतु तन्मध्ये ॥१६५ ॥ फिर पुष्प और अक्षात दोनों हाथों में लेकर मस्तक पर हाथ रखे हुये उस मंडल की प्रदक्षिण देकर सामने मुख करके उसके मध्य में बैठ जावे।
ॐवसुधारा देवते ज्वालामालिनी प्रज्वल-प्रज्वल विजल-विजलसजल-सजल हिम-हिम शीतल-शीतल देवि कोटि प्रभानले चंद्रादुकुरु कुरु त्रिभुवन संक्षोभिनी क्षा क्षी खू खौं क्षः देवि त्वमात्म परिवार देवता सहिते देवदत्तस्य तुष्टिं तुष्टिं शीयं शीयं वरं देहि देहि सद्धर्म श्री वलायरा रोग्टौश्वर्यामि वद्धिं कुरू कुरू सर्वोपद्रव महाभयं नाशय नाशय सवपिमृत्युन घातय घातय रक्ष रक्ष नवग्रहा एकादश स्थाः सर्वे फलदा भवंतु ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हू: हाः सर्व वश्यं कुरु कुरु झों वं मं हं संतं पं स्वाहा ।।
वसुधारा मंत्रमिमं पठन तीर्योदकं च गोमूत्रं गव्यानि पंच तक्रं दधि त्रिमधुरं तथा तीरं
॥१७॥ इस वसुधारा मंत्र को पढता हुआ तीर्थों के जल गोमूत्र और गाय के पाँचो (गव्य अर्थात् दूध दही घृत मूत्र गोबर को ) तक्र दही त्रिमधुर (घी दूध बूरा) से तथा खीर से
पल्लयो दंकमपि च प्रक्षिप लंब मान घटे सं स्नाधायः स्थं तसचा द्गंधोदकं दद्यात्
||१७१।। पाँचों उत्तम पत्ते और जल को उस लटकते हुए घड़े में डाल कर फिर उसको नीचे रखकर गंधोदक देवें।
पिष्ट सयानि नवग्रह रूपाणि स्वस्ववर्ण युक्तानि
तान्यात्मवर्ण चरु कस्यो परि संस्थापयेत्प्राग्वत् ॥ १७२॥ फिर पिसे हुए द्रव्य के अपने अपने रंग के अनुसार नवग्रहों के रूप (मूर्ति) बनायाकर उनको पहले के मुताविक अपने अपने चरू द्रव्य (बलि) के साथ स्थापित करे।
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