SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SXSIOISTRICICISIOISTRIS विधानुशासन ASDISCUSS503510058 भक्ति याचस्पतिः पश्चादऽमते तदनंतर स बृहस्पति मंत्रायं पर मेध्य करीमतः । ॥१॥ ॐ वाचस्पति अमृते नमः ॐ वास्चपत्यमृते नमः । भक्ति (ॐ) और वाचस्पति के पश्चात अमृत लगाने से यह विद्या मंत्र बन जाता है इसके जाप से बुद्धि अत्यंत बढ़ती है। अक्षार लवण भोजी वत्सर मेकं जपन्नममंत्रं एतज्जप्तं च विशेत्सलिलं लभते महामेयां ||२|| इस मंत्र का बिना नमक के भोजन करता हुआ एक वर्ष तक जपे। इस मंत्र को जपकर जल में प्रवेश करने से बड़ी भारी बुद्धि की प्राप्ति होती है। ब्राही स्व रसं चुलुकं कपिला पत संयुतं प्रगेञ्ोष्टं अभिमंत्र्यानेन पिबेत कथितं त्रि रिये त्सततं ॥३॥ ब्राह्मी के चुल्लूभर स्वरस को काली गाय के घी में मिलाकर प्रातःकाल के समय में २४ बार इस मंत्र से मंत्रित करके पीएं तो तीन बार कहने से ही निरंतर याद हो जाया करे। ॥४ ॥ एतज्जप्तान वादन मेधावी पल्लवान भवेद्। ब्राहभ्याः सौवीरतं जप्तं तत्र रुज प्रशमटौदत्र उस मंत्र को ब्राही के पत्रों पर जपकर खाता हुआ युद्धिमान हो जाता है अंतः प्रपूर्ण कुंभो मंत्रेणनेन मंत्रितो गमीतः देशं निधान सहितं प्रकंप मानः स्तवेत्सलिलं सोयीर बेर के ऊपर उसको जपकर भी थाने से रोग शांत हो जाता है। कमल गट्टा की माला से जपे तो रोग व्याधि तुरंत दूर होय इससे मंत्रित जल के घड़े के स्नान करे तो निधि लाभ होता है। एक वर्ष में जल वर्षा होता है। ॐनमो भगवते रूद्राय उमाचेटकमाविर्भविष्यायचेटकनिहतोश्चिष्टभक्षणविषय लाला प्रिट किलिकिलित मातंग मैशान वासिनि हरहसित उमा लब्ध वर प्रसाद स्वांग कर सिरोज्वलित नेत्र सर्प कत कुंडलाभरणभूषित विकटोत्कटं दंष्ट्रा करालयदनलललभूतविद्रावणयक्ष राक्षस कत भूत पिशाच डाकिनीनां भयंकर वज हस्त ऐरावत पराक्रम पाशांकुश गदा मुद्गार प्रहरण भो भो चेटक गगनांनंत चारणाय दिगगताग्रहा पश्चिमायां उत्तर पूर्वा दक्षिणाग्नेया नैऋत्य वायव्यां एशान्यां उर्द्ध मध्य स्ताद रिमन भारत वर्षे यदि तिष्टति शून्य गृहे चतुष्पथे गोष्टे जीर्ण
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy