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S5DISTRISTOISTR505 विधानुशासन 9851015015251955015 निकाल कर उसको धतूरे के फल की पुट में रख कर गिरि कर्णिका (कोयल) इंद्रवारुणी (इंद्रायण) अनल (अग्निक) हलिनी (लांगली) के अंगों के चूर्ण में आक का दूध और कुत्ती का दूध और अपना मूत्र की भावना दें।फिर कुलिक के उदय होने पर शनिश्चर वार को धतूरे की और छाणे की आग में गुंजा (चिरमी) सुंगधिका) (नगदबावत्री) धतूरे के बीज का चूर्ण सर्प की कांचली को तिली के तेल में मिलाकर उत्तम बर्तन में रखें तो यह सब काम देव के शस्त्र हैं।
गो वंधिनीनं वारुण्यनी धर कर्णिका सुंगिधिनी, रवर कर्णन्टो तेषां चूर्णः सह पूग सकलानि ॥३१५॥
उन्मत्तक मांड गतान्यात्म स्व मूत्रेण रक्त करवीर, द्रवरास भिक्षुनी कुच पासा भाव्यानि तानि पृथक
॥३१६ ॥
उन्मत्र बीज गंजा सुगंधिका का सर्पकतितिलतैल,
कनके धनानि संधूपितानि कुसुमास्त्र शस्त्राणि ॥३१७॥ गो वंदिनी (फूल प्रियंगु) इंद्र वारूणी (इंद्रायण, अवनिधर पर्यत फूल छाइछडीला पर्वतफल) कर्णिका (कनेर) सुंगधिनी (नगद लाननी) खर कर्ण के पूर्ण और सुपारी के टुकड़ो को उन्मत्तक धतूरे) के बर्तन में रखकर, अलग अलग अपने मूत्र में लाल कनेर के रस गधी का दूध और कुत्ती के दूध की भावना देकर, धतूरे के बीज गुंजा सुगंधी का सर्प कांचली तिल का तेल और धतूरे की ईंधन (अग्नि) में डालकर घूप देने से काम देव के अस्त्र शस्त्र के समान काम करती है।
कनकेंद्र वारुणी नाग सर्पि पाताल गरुडि रूद्र जटा, चूर्णा तानि क्रमुक फलान्यात्म मलौ विपुल कनक फलैः॥३१८॥
संभाव्य शनी दुग्ध युतानि तद धूप धूपतानि,
पुनः जैञा स्त्राणि मनोजस्येत्युक्त मंत्र विदो बरै: ॥३१९॥ धतूरा इंद्रायण नाग केशर घृत पाताल गारूड़े (संपाक्षि) गंधाना कुली) रूद्र जटा (जरामासी) और क्रमुक फल (सुपारी) के चूर्ण में अपने पांचो मल मिलाकर उनको धतूरे की तख्ती पर रखे फिर उसके कुत्ती के दूध में भावना देकर उसकी धूप करने से यह कामदेव के विजयी बाण बनते हैं। ऐसा मंत्र शास्त्र बेत्ताओं ने कहा है।
कनकेंद्र वारुणी स्वर कर्णि गिरि कर्णिका त्रि संध्यानां, स्फोटन लज्जारिकाणां द्विज दंडीनां बहुवटिका ||३२० ॥
माडे निधाय तस्मिन पथक पृथक लवण सर्षप श्रृंठी, धान्या-जमोद चूर्णे हरीतकी क्रमुक पिघलाः भाव्या ॥३२१ ॥