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________________ 959695969 विद्यानुशासन 959595969 सब उपसर्गों को शांत करने वाला, सब सौभाग्यों को करने वाला तथा देवताओं को भी अमृत देने वाला है। जिसमें आदि में मंत्र और फिर नाम और फिर मंत्र इसप्रकार तीन-तीन बार किया गया हो उसे विदर्भ कहते हैं। यह सब व्याथियों को नष्ट करने वाला तथा भूत, और मृगी के रोग को दूर करता है । जिसमें साध्य के नाम एक-एक अक्षर को विदर्भ रूप में करके पहले के समान आदि और अन्त में प्रयोग किया जावे उसे विदर्भ ग्रसित कहते हैं। यह सब कार्यों को करने वाला और सभी ऐश्वर्यो के फलों को देनेवाला है। , केके आदि माद और बना में मंत्र रखने को रोधन कहते हैं। मंत्र के अन्त में नाम रखने को पल्लव कहते हैं। मंत्रों के ४९ दोष व उनके फल (मंत्र. सा. सा. वि. ) छिन्नता आदि दोषों से युक्त मंत्र साधक की रक्षा नहीं कर सकते। वे दोष निम्न प्रकार हैं। - ९ छिन्न, २ रूद्ध, ३ शक्तिहीन, ४ पराङ्मुख, ५ कर्णहीन, ६ नेत्रहीन, ७ कीनित, ८ स्तम्भित, ९ दग्ध, १० त्रस्त, ११ भीत, १२ मलिन, १३ तिरस्कृत, १४ भेदित, १५ सुषुप्त, १६ मदोन्मत्त, १७ पूर्छित, १८ हतवीर्य्य, १९ भ्रान्त, २० प्रध्वस्त, २९, तालक, २२ कुमार, २३ युवा, २४ प्रौढ़, २५ वृद्ध, २६ निस्त्रिंशक, २७ निर्बीज, २८ सिद्धिहीन, २९ मन्द, ३० कूट, ३१ निरंशक, ३२ सत्त्वहीन, ३३ केकर, ३४ बीजहीन, ३५ धूमित, ३६ अलिंगित, ३७ मोहित, ३८ क्षुधार्त्त, ३९ अदिदीप्त, ४० अंगहीन, ४१ अकिक्रुद्ध, ४२ अतिक्रूर, ४३ वीड़ित ( लज्जित ), ४४ प्रशान्त मानस, ४५ स्थान भ्रष्ट, ४६ विकल, ४७ अतिवृद्ध, ४८ अति निःस्नेह, ४९ पीड़ित । ये मंत्रों के ४९ दोष बताये गए हैं। अब इनका भिन्न भिन्न स्वरूप व फल बताते हैं। १. जिस मंत्र के आदि, मध्य और अन्त में संयुक्त वियुक्त या स्वर रहित तीन, चार या पांच बार अग्निबीज (रं) का प्रयोग हो वह मंत्र छित्र कहलाता है। फल २. जिस मंत्र के आदि, मध्य और अन्त में दो बार भूमि बीज (लं) का उच्चारण होता है उसको रूद्ध जानना चाहिये। फल- बड़े क्लेश से सिद्धि दायक होता है। ३. प्रणत और कवच (हुँ ) ये तीन बार जिस मंत्र में आये हों वह लक्ष्मी युक्त होता है। ऐसी लक्ष्मी से हीन मंत्र को शक्तिहीन जानना चाहिए फल- यह दीर्घकाल के बाद फल देता है। " ४. जहाँ आदि में काम बीज (क्लीं ) मध्य में मायाबीज ( ह्रीं ) और अन्त में अंकुश बीज ( क्रौं) वह मंत्र पराङ्मुख जानना चाहिये। फल- यह साधकों को चिरकाल से सिद्ध देने वाला होता है। ५. कर्ण हीन मंत्र को बधिर कहते हैं । 959595959595 ५८ P159595 959595 H I
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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