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________________ Ci5015015TOSDISOR विधानुशासन 505050505051 बद्धाः जलस्य मप्टोक्षिप्ता या तरति शाकिनी सैवः। न तरति तत्र निमग्रा शृद्धा सा शाकिनी न स्यात् ॥८२॥ जो बांधकर जल में डाली जाने पर तिरकर निकल आये यह शाकिनी होती है और जो उस जल में पडकर नहीं तिरे वह शुद्ध शाकिनी नहीं होती है। सोमाशाश्रित मूलं कपि कच्छोर्गो जलेन संपिष्ट, निज तिलक प्रतिबिंब तत्पश्यति शाकिनी शीर्ष ॥८ ॥ दक्षिण दिशा में उगी हुयी काँच की जड को गोमूत्र में पीसकर तिलक करने से शाकिनी उस तिलक में अपने सिर के तिलक के प्रतिबिम्ब को देखती है। गहणाति क्षणिका जंतु छिद्रं प्राप्य विनेच्छया, विमनस्कं ज्वराक्रांतं दृष्टं भीतं हंत मृतं ॥८४॥ इक्षणिका शाकिनी विना इच्छा के ही छिद्र पाकर अन्य और मन वाले ज्वर से पीडित दिखाई देने वाले डरे हुये मारे हुये अथवा मरे हुए को भी पकड़ लेती है। शाकिनीभिर्गही यस्ताभिः पाप वशानरः, आत्मानं सन जानति पत्कारोति न जल्पति ॥८५॥ जो पुरूष अपने किसी पाप के वश से शाकिनी से पकड़ा गया हो यह अपने आपको नहीं पहचानता है और न बात करता है केवल जोर जोर से चिल्लाया करता है। भक्षितोध हतो वा हमिति तूते सदैव, स पुंसी रूप मिव स्वांगे वेदनास्ति न रोदति १॥८६॥ बाप्पांबु वहतो नेत्रे भीति द्वारं निरीक्ष्यते, नेक्षते मंत्रिणो वकं प्रक्षते गगनं मुंहः ॥८७ ॥ यह सदा यही कहा करता है कि मुझे खा लिया, मैं मरा आदि उसके शरीर में पुरुष अथवा स्त्री रूप के समान भी कष्ट और वेदना रहती है किन्तु उससमय वह नहीं रोता है। उसके मुंह से भाप और आँखो से आँसू बहते रहते हैं। वह डरा हुआ द्वार की तरफ देखता है यह मंत्री के मुख की तरफ नहीं देखता है और बार-बार आकाश की तरफ देखता है। COSEISEISRIDIOS0150151५९६ P151215015015095100505
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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