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1551 विधानुशासन 51PX ちわわでわず
やらたちにち कृष्ण शुनकस्य खुरं कृष्ण तिलं देटा मसित गोदधा,
तत धृत तैलेन नस्यात् ग्रहाः प्रणस्वंति दिव्यादिव्याः ॥ १०२ ॥
काले कुत्ते के नाखून और काले तिल को काली गाय के दही घी और तेल में मिलाकर सूँघने से दिव्य और अदिव्य ग्रह नष्ट हो जाते हैं।
करि करभ तुरंग नर वर गव्यज मूत्रेन सप्त दिनं भाव्यं, मधु वृक्ष मूल नश्यं करोति राक्षस पिशाच भूतावेशं
॥ १०३ ॥
करि (हाथी) करभ (ऊंट) तुरंग (घोड़ा) मनुष्य गधा गाय और अज (बकरी) के मूत्र की मधुवृत्त (महुवे ) के मूल जड़ को भावित करके सुँघाने से राक्षस, पिशाच और भूत ग्रहों का आवेश होता है, जगाये जाते हैं।
शूकडी वर कर्णिका मधु भराः भारं हि निंव त्वचा, चक्रांकी गिरिकर्णिका त्रिकटुकं कर्कोटिका तुंबिका ॥ १०४ ॥ दंडी यारुणिका जया द्वितीयकं घोषेश्वरी मुष्टिकाद्यैः, पिष्टा सम भाग तश्च मिलिता विघ्नंति सर्व ग्रहान्
॥ १०५ ॥
शुकतुंडी (पीले रंग का हिंगलू), खर कर्णिका (गंगेरन की जड़ी खरेटी), खर (देवता), कर्णिका (अरणी), महया, सर्प कांचली, नीम की छाल, चक्रांकी (हंसपदी - कंधी), गिरिकर्णिका (कोयलबेल), त्रिकटुक (सोंठ मिरच पीपल), कर्कोटिका (बांककडा), तुंबिका (तुंबी), दंडी (दबना बूटी दौना), वारुणिका (मदिरा), जया द्वितीयक (दोनों जया जया विजया दोनों हरडे), घोषेश्वरी (काकड़ासिंगी) मुष्टिका, (मोख ) इन सबको बराबर बराबर मिलाकर पिसवाकर नस्य पान लेप आदि सेवन करने से सब ग्रह नष्ट होते हैं।
वर तुरंगोष्ट्रा जद्विप गोनर मूत्रं तथा ढक प्रमितं, तत्पान मौषधानां चर्णतुर्या ठकां बु स्यात्
करवीराष्टक तैल प्रस्थं क्षिप्त्वात्र प्राच्चयेत्. तस्य नश्यंति नश्यतो ग्रह भूता परमार शाकिन्यः
॥ १०६ ॥
॥ १०७ ॥
गधा, घोड़ा, ऊँट, अज (बकरा ), द्विप (हाथी), गाय, मनुष्य के मूत्र को एक आठक (८ सेर) के बरतन में भरकर औषधियों के चूर्ण को उस आठक में मिलाकर तैयार करें। फिर उसमें एक प्रस्थ (दो सेर) के बराबर माल कांगनी आदि ८ औषधि के तेल को डालकर तेल सिद्ध करें । उसकी नस्य लेने से सूँघने से भूत अपस्मार ग्रह शाकिनी आदि नष्ट होजाते हैं।
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