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विधानुशासन 95999
जयति श्रुत भगवतो मुखांबुजा दुदितं जिनस्य सकलार्थवेदिनः गणनायकै स्त्रिभुवनानि रक्षितु करुणाधने विरचितं महात्तम मभिः
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सम्पूर्ण पदार्थ के जानने वाले श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख रूपी कमल से प्रकट हुआ तथा तीनों लोक की रक्षा करने के लिए करुणानिधि महात्मा गणधर भगवान के द्वारा रचना किया हुआ याणी रूपी श्रुत जयवंत हो ।
पर्वत ।
एकदाऽति महावीरं दैवं वैभार अप्राक्षी तं मुनि मान्यः सभायां गौत्तमो गणी
॥ ४ ॥
एक बार विपुलाच ( वैभार राजगाह ) पर्वत के ऊपर माननीय मुनि गौतम गणधर ने सत्ता में सर्वज्ञ देव भगवान महावीर से प्रश्न किया।
आत्त प्रश्ने गणाधीशैः पश्चिम तीर्थ नायकः । व्यावहारार्थ रूपेण समस्तागम विस्तरं
॥५॥
गणधरों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन अंतिम तीर्थंकर ने समस्त आगम के विस्तार का अर्थ रूप से वर्णन किया ।
सार्वः सर्वज्ञदेशीयः परम श्रुत केवली । इंद्र भूतिः स चं ग्रन्थान निखिलानं परमागमान्
॥ ६ ॥
उन सब परमागम रूप ग्रन्थों की सर्वज्ञ के समान सब लोक में प्रसिद्ध परम श्रुत केवली इन्द्र भूति गणधर ने
व्याचरव्ये च मुनीद्रेभ्यः सन्मतिभ्यः सतां मतान् । हितोपदेशयुक्तेभ्यो रक्षितुं सकलं जगत्
अच्छी बुद्धि वाले सज्जनों के द्वारा अति मित हित के उपदेश से युक्त होकर उत्तम मुनियों के समस्त जगत की रक्षा करने के लिए विस्तार से व्याख्याा पूर्वक पढ़ाया ।
॥७॥
ततः प्रभृत्य विछिन्न संप्रदाय परंपरा । हितोपदेशावर्तते सर्वे परमागमाः
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तब से ही लगातार यह हितोपदेश रूप सब परमागम अविछिन्न रूप से संप्रदाय की परंपरा से चला आ रहा है।
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