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व्यंतर घोणस फणिना दष्टश्त्यचेष्टां कितोऽथवा मृत्यु, कटुतिक्ताम्लैः सहजोमृत्स्नाया स्वादथ स्वादः पुरुष में व्यतर घोणास या सर्प से काटे जाने की चेष्टा या लक्षण मालूम हो अथवा उसे मिट्टी कड़वा तिक्त या खट्टी होने का स्वाद आवे ।
यदि
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हायक
अष्टाभिरन्ना शतमभि जप्तावियतिना मृदं स्वादें, तद्रष्टुः साचेतिक्ता तदर्भवति भजंगजं गरलं
॥ ७६ ॥
उपरोक्त मंत्र को मिट्टी पर एक सौ आठ बार जप कर खाने को देवे। यदि वह मिट्टी खाने तिक्त (कड़वी) लगे तो वह विष अवश्य हो सर्प का विष है।
बाले प्रावृषि च ऋतौ फणा भृतामुल्वणं विषं मणितं, मंडलिनस्तद गच्छत्यंऽभिवृद्धि यौवनेन च शशिरेच
आम्ला चेद्रयं तरजं गोनासजभिक्षु रस समानं चेत्, गुड सदृश रसा यदि सा भवति तदा मूषिका प्रभवति
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यदि उस मिट्टी का स्वाद खट्टा हो तो विष व्यंतर नाग का है, यदि मिट्टी का स्वाद गन्ने के रस जैसा मीठा हो तो विष (गोनास) सर्प विष है अथवा यदि उस मिट्टी का स्वाद गुड़ जैसा हो तो विष चूहे का समझना चाहिये ।
॥ ७८ ॥
बालकपन और वर्षाऋतु में फणामृत सर्प का विष तेज हो जाता है। मंडली सर्प का विष युवा अवस्था और शरदऋतु में अधिक हो जाता है।
वाक्येति प्रबलं राजिमनामा तपेच भवति विषं, वर्द्धत व स्त्रितये विषमृति संधौ च मिश्राणां
॥ ७९ ॥
राजिमान सर्पों का विष ग्रीष्मऋतु और वृद्धावस्था में बहुत प्रबल होता है। मिले हुये लक्षण वाले सर्पो का विष तीनों अवस्थाओं में ऋतु परिवर्तन के समय बढ़ता है ।
पूर्वास्मिन दक्षिणेवामे पृष्टे च वपुषः क्रमात् भागे दर्शतिभुजंगा द्विन्माययन्वयो मेवा
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ब्राह्मण नाग शरीर के सामने क्षत्रिय दाहिने भाग में वैश्य बायें भाग में शूद्र शरीर के पीठ के भाग में काटता है ।
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