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________________ CISIS5015050505 विधानुशासन 95015015015CISSIST परोक्ष संग्रहः पृथ्वी विष के लक्षण पार्थिव विषेण गुरुता जडता देहस्य सन्निपातत्वं, . वाधीय गंभीरं वचः सुप्ताहक च दंशःस्यात् ॥७०॥ पृथ्वी विष से शरीर भारी जड़ता (निश्चेष्टता) हो जाती है, सत्रिपात हो जाने पर भी पुरुष से गंभीर वचन निकलते हैं काटा हुआ सोया हुआ सोया हुआ जैसा हो जाता है। लाल कंठ निरोधो गलनं दंशस्य भवति तोय विषात् वर्वरावरवः स्व वक्रात गाने रोमांच नियमश्चः ॥७१ ॥ जल विष से मुंह से राल बहती है, कंठ रुक जाता है, काटे हुए पुरुष का शरीर गलने लगता है,मुँह से गंवारों जैसे गंवार शब्द निकलते हैं और शरीर में नियम से रोमांच हो जाता है-बाल खड़े हो जाते हैं। गंधोदामश्च दृष्टे रपाटवं भवति यहि विष दोषात्, स्फोटा कुलिता गत्वं प्रस्विद्यदगात्रता च सदा । ॥७२॥ अगि विष से शरीर में गंध आती है, निगाह नहीं जमती, शरीर के टूटने से व्याकुलता होती है और शरीर पसीने से भीगा रहता है। दः विच्छायता स्य शोषण मपि मारूत गरल दोषेण, दष्टस्य कंपमानं वप रपि मदुनाभि भंगुरं भवति ॥७३॥ वायु विष के दोष से नींद नहीं आती है, शरीर सूखने लगता है, शरीर का मल पड़ कर कांपने लगता है और काटे हुए की नाभि चटकने लगती है। अनिश्चित विष को निश्चित करना ॐ ह्रीं क्षीं अमृतरूपिणी स्वाहा ।। न ज्ञायतेंधकारे दष्टः केनेति जंतुना रात्रौ, तस्याऽशितुं प्रदेयाः मृत जप्ताऽनेन मंत्रेण ॥ ७४ ॥ कभी-कभी अंधकार में यह नहीं मालूम होता है कि रात्रि में किस जंतुने काट लिया है- ऐसे अवसर पर उसको उपरोक्त मंत्र से अभिमंत्रित मिट्टी खाने को देवे।।
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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